Quantcast
Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
Viewing all 1170 articles
Browse latest View live

महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–25)

$
0
0

महावीर: मेरी दृष्टि में—(प्रवचन—पच्‍चीसवां)

 हावीर पर इतने दिनों तक बात करनी अत्यंत आनंदपूर्ण थी। यह ऐसे ही था, जैसे मैं अपने संबंध में ही बात कर रहा हूं। पराए के संबंध में बात की भी नहीं जा सकती। दूसरे के संबंध में कुछ कहा भी कैसे जा सकता है? अपने संबंध में ही सत्य हुआ जा सकता है।

और महावीर पर इस भांति मैंने बात नहीं की, जैसे वे कोई दूसरे और पराए हैं। जैसे हम अपने आंतरिक जीवन के संबंध में ही बात कर रहे हों, ऐसी ही उन पर बात की है। उन्हें केवल निमित्त माना है, और उनके चारों ओर उन सारे प्रश्नों पर चर्चा की है, जो प्रत्येक साधक के मार्ग पर अनिवार्य रूप से खड़े हो जाते हैं। महत्वपूर्ण भी यही है।

महावीर एक दार्शनिक की भांति नहीं हैं, एक सिद्ध, एक महायोगी हैं। दार्शनिक तो बैठ कर विचार करता है जीवन के संबंध में, योगी जीता है जीवन को। दार्शनिक पहुंचता है सिद्धांतों पर, योगी पहुंच जाता है सिद्धावस्था पर। सिद्धांत बातचीत हैं, सिद्धावस्था उपलब्धि है। महावीर पर ऐसे ही बात की है, जैसे वे कोई मात्र कोरे विचारक नहीं हैं। और इसलिए भी बात की है कि जो इस बात को सुनेंगे, समझेंगे, वे भी जीवन में कोरे विचारक न रह जाएं। विचार अदभुत है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। विचार कीमती है लेकिन कहीं पहुंचाता नहीं। विचार से ऊपर उठे बिना कोई व्यक्ति आत्म-उपलब्धि तक नहीं पहुंचता है।

महावीर कैसे विचार से ऊपर उठे, कैसे ध्यान से, कैसी समाधि से–ये सब बातें हमने कीं। कैसे महावीर को परम जीवन उपलब्ध हुआ और कैसे परम जीवन की उपलब्धि के बाद भी वे अपनी उपलब्धि की खबर देने वापस लौट आए, उस करुणा की भी हमने बात की। जैसे कोई नदी सागर में गिरने के पहले पीछे लौट कर देखे एक क्षण को, ऐसे ही महावीर ने अपने अनंत जीवन की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पीछे लौट कर देखा है।

लेकिन उनके पीछे लौट कर देखने को केवल वे ही लोग समझ सकते हैं, जो अपने जीवन की अंतिम यात्रा की तरफ आगे देख रहे हों। महावीर पीछे लौट कर देखें, लेकिन हम उन्हें तभी समझ सकते हैं, जब हम भी अपने जीवन के आगे के पड़ाव की तरफ देख रहे हों। अन्यथा महावीर को नहीं समझा जा सकता है।

साधारणतः महावीर को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए। वे अतीत की घटना हैं। इतिहास यही कहेगा। मैं यह नहीं कहूंगा। साधक के लिए महावीर भविष्य की घटना हैं। उसकी अपनी दृष्टि से वह महावीर के होने तक आगे कभी पहुंचेगा। इतिहास की दृष्टि से अतीत की घटना हैं, पीछे बीते हुए समय की। साधक की दृष्टि से आगे की घटना हैं। उसके जीवन में आने वाले किसी क्षण में वह वहां पहुंचेगा, जहां महावीर पहुंचे हैं। और जब तक हम उस जगह न पहुंच जाएं, तब तक महावीर को समझा नहीं जा सकता है। क्योंकि हम उस अनुभूति को कैसे समझेंगे जो अनुभूति हमें नहीं हुई है? अंधा कैसे समझेगा प्रकाश के संबंध में? और जिसने कभी प्रेम नहीं किया और प्रेम नहीं दिया, वह कैसे समझेगा प्रेम के संबंध में? हम उतना ही समझ सकते हैं, जितने हम हैं, जहां हम हैं। हमारे होने की स्थिति से हमारी समझ ज्यादा नहीं होती।

इसलिए महापुरुष के प्रति अनिवार्य होता है कि हम नासमझी में हों। महापुरुष को समझना अत्यंत कठिन है, बिना स्वयं महापुरुष हो जाए। जब तक कि कोई व्यक्ति उस स्थिति में खड़ा न हो जाए, जहां कृष्ण हैं, जहां क्राइस्ट हैं, जहां मोहम्मद हैं, जहां महावीर हैं, तब तक हम समझ नहीं पाते। और जो हम समझते हैं, वह अनिवार्यरूपेण भूल भरा होता है।

इसलिए एक बात ध्यान में रखनी चाहिए, महावीर को समझना हो तो सीधे ही महावीर को समझ लेना संभव नहीं है, महावीर को समझना हो तो बहुत गहरे में स्वयं को समझना और रूपांतरित करना ज्यादा जरूरी है। लेकिन हम तो शास्त्र से समझने जाते हैं, और तब भूल हो जाती है! शब्द से, सिद्धांत से, परंपरा से समझने जाते हैं, तभी भूल हो जाती है! हम तो स्वयं के भीतर उतरेंगे, तो उस जगह पहुंचेंगे, जहां महावीर कभी पहुंचे हों, तभी हम समझ पाएंगे।

मैंने जो बातें कीं इन दिनों में, उन बातों का शास्त्रों से कोई संबंध नहीं है। इसलिए हो सकता है बहुतों को वे बातें कठिन भी मालूम पड़ें, स्वीकार योग्य भी न मालूम पड़ें, जिनकी शास्त्रीय बुद्धि है, उन्हें अत्यंत अजनबी मालूम पड़ें। वे शायद पूछें भी कि शास्त्रों में यह सब कहां है?

तो उनसे मैं पूर्व ही कह देना चाहता हूं कि शास्त्रों में हो या न हो, जो स्वयं में खोजेगा, वह सब इसको पा लेता है। और स्वयं से बड़ा न कोई शास्त्र है और न कोई दूसरी आप्तता, कोई और अथारिटी है।

वे मुझसे यह भी पूछ सकते हैं कि मैं किस अधिकार से कह रहा हूं यह? तो उनसे पूर्व से यह भी कह देना उचित है कि मेरा कोई शास्त्रीय अधिकार नहीं है, न मैं शास्त्रों का विश्वासी हूं। बल्कि जो शास्त्र में लिखा है, वह मुझे इसीलिए संदिग्ध हो जाता है कि शास्त्र में लिखा है। क्योंकि वह लिखने वाले के चित्त की खबर देता है, जिसके संबंध में लिखा गया है उसके चित्त की नहीं। फिर हजारों वर्ष की गर्द उस पर जम जाती है। और शास्त्रों पर जितनी धूल जम गई है, उतनी किसी और चीज पर नहीं जमी है।

एक मुझे स्मरण आता है कि एक आदमी एक घर में शब्दकोश बेचने के लिए गया है, डिक्शनरी बेच रहा है। घर की गृहिणी ने उसे टालने को कहा है कि शब्दकोश हमारे घर में है, वह सामने टेबल पर रखा है। हमें कोई और जरूरत नहीं है। लेकिन उस आदमी ने कहा कि देवी जी, क्षमा करें! वह शब्दकोश नहीं है, वह कोई धर्मग्रंथ मालूम होता है।

स्त्री तो बहुत परेशान हुई। वह धर्मग्रंथ था! पर दूर से टेबल पर रखी किताब को कैसे वह व्यक्ति पहचान गया? तो उस गृहिणी ने पूछा, कैसे आप जाने कि वह धर्मग्रंथ है? उसने कहा, उस पर जमी हुई धूल बता रही है। शब्दकोश पर धूल नहीं जमती। रोज उसे कोई खोलता है, देखता है, पढ़ता है। उसका उपयोग होता है। उस पर इतनी धूल जमी है कि निश्चित कहा जा सकता है कि वह धर्मग्रंथ है!

सब धर्मग्रंथों पर बड़ी धूल जम जाती है। क्योंकि न तो हम उसे जीते हैं, न उसे जानते हैं। फिर धूल इकट्ठी होती चली जाती है। सदियों की धूल इकट्ठी हो जाती है। उस धूल में से पहचानना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या क्या है।

इसलिए मैंने महावीर और अपने बीच शास्त्र को नहीं लिया है, उसे अलग ही रखा है। महावीर को सीधे ही देखने की कोशिश की है। और सीधे हम सिर्फ उसे ही देख सकते हैं, जिससे हमारा प्रेम हो। जिससे हमारा प्रेम न हो, उसे हम कभी भी सीधा नहीं देख सकते। और वही हमारे सामने पूरी तरह प्रकट होता है, जिससे हमारा प्रेम हो।

जैसे सूरज के निकलने पर कली खिल जाती है और फूल बन जाती है, ऐसा ही जिससे भी हम आत्यंतिक रूप से प्रेम कर सकें, उसका जीवन बंद कली से खुले फूल का जीवन हो जाता है। जरूरत है कि हम प्रेम कर पाएं। जरूरत ज्ञान की कम है। ज्ञान तो दूर ही कर देता है। और ज्ञान से शायद ही कोई कभी किसी को जान पाता हो। इनफर्मेशन, सूचनाएं बाधा डाल देती हैं। सूचनाओं से शायद ही कोई कभी किसी से परिचित हो पाता हो। वे बीच में खड़ी हो जाती हैं, वे पूर्वाग्रह बन जाती हैं, पक्षपात बन जाती हैं। हम पहले से ही जानते हुए होते हैं। जो हम जानते हुए होते हैं, वही हम देख भी लेते हैं।

जो महावीर को भगवान मान कर जाएगा, उसे महावीर में भगवान भी मिल जाएंगे, लेकिन वे उसके अपने आरोपित भगवान होंगे। जो महावीर को नास्तिक, महा नास्तिक मान कर जाएगा, उसे नास्तिक, महा नास्तिक भी मिल जाएगा। वह नास्तिकता उसकी अपनी रोपी हुई होगी। जो महावीर को जो मान कर जाएगा, वही पा लेगा। क्योंकि गहरे में अंततः हम अपनी ही मान्यता को निर्मित कर लेते और खोज लेते हैं। और व्यक्ति इतनी बड़ी घटना है कि उसमें सब मिल सकता है। फिर हम चुनाव कर लेते हैं। जो हम मानते जाते हैं, वह हम चुन लेते हैं। और तब जो हम जानते हुए लौटते हैं, वह जानता हुआ लौटना नहीं है, वह हमारी ही मान्यता की प्रतिध्वनि है।

प्रेम के जानने का रास्ता दूसरा है, ज्ञान के जानने का रास्ता दूसरा है। ज्ञान पहले जान लेता है, फिर खोज पर निकलता है। प्रेम जानता नहीं, खोज पर निकल जाता है–अज्ञात में, अननोन में, अपरिचित में। प्रेम सिर्फ अपने हृदय को खोल लेता है। प्रेम सिर्फ दर्पण बन जाता है, कि जो भी उसके सामने आएगा–जो भी; जो है, वही उस में प्रतिफलित हो जाएगा। इसलिए प्रेम के अतिरिक्त कोई कभी किसी को नहीं जान सका है। और हम सब ज्ञान के मार्ग से ही जानने जाते हैं, इसलिए नहीं जान पाते हैं।

महावीर को प्रेम करेंगे तो पहचान पाएंगे। कृष्ण को प्रेम करेंगे तो पहचान पाएंगे। और भी एक मजे की बात है कि जो महावीर को प्रेम करेगा, वह कृष्ण को, क्राइस्ट को, मोहम्मद को प्रेम करने से बच नहीं सकता। अगर महावीर को प्रेम करने वाला ऐसा कहता हो कि महावीर से मेरा प्रेम है, इसलिए मैं मोहम्मद को कैसे प्रेम करूं? तो जानना चाहिए कि प्रेम उसके पास नहीं है। क्योंकि अगर महावीर से प्रेम होगा तो जो महावीर में उसे दिखाई पड़ेगा, वही बहुत गहरे में मोहम्मद में, कृष्ण में, क्राइस्ट में, कन्फ्यूशियस में भी दिखाई पड़ जाएगा, जरथुस्त्र में भी दिखाई पड़ जाएगा।

प्रेम प्रत्येक कली को खोल लेता है। जैसे सूरज प्रत्येक कली को खोल लेता है, पंखुड़ियां खुल जाती हैं। और तब अंत में तो सिर्फ फ्लावरिंग रह जाती है। पंखुड़ियां गैर अर्थ की हो जाती हैं, सुगंध बेमानी हो जाती है, रंग भूल जाते हैं। अंततः तो प्रत्येक फूल में जो घटना गहरी रह जाती है, वह है फ्लावरिंग, वह है उसका खिल जाना।

महावीर खिलते हैं एक ढंग से, कृष्ण खिलते हैं दूसरे ढंग से। लेकिन जिसने फूल के खिलने को पहचान लिया, वह इस खिलने को सारे जगत में सब जगह पहचान लेगा। इन व्यक्तियों में से एक से भी कोई प्रेम कर सके तो वह सबके प्रेम में उतर जाएगा।

लेकिन दिखाई उलटा पड़ता है। मोहम्मद को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करना तो दूर, घृणा करता है! बुद्ध को प्रेम करने वाला क्राइस्ट को प्रेम नहीं कर सकता है! तब हमारा प्रेम संदिग्ध हो जाता है। इसका अर्थ है कि यह प्रेम प्रेम ही नहीं है, शायद यह भी गहरे में कोई स्वार्थ है, कोई सौदा है। शायद हम अपने प्रेम के द्वारा भी महावीर से कुछ पाना चाहते हैं! शायद हमारा प्रेम भी एक गहरे सौदे का निर्णय है, हम कुछ बार्गेनिंग कर रहे हैं। हम यह कह रहे हैं कि हम इतना प्रेम तुम्हें देंगे, तुम हमें क्या दोगे?

और तब हम अपने प्रेम में संकीर्ण होते चले जाते हैं। और प्रेम धीरे-धीरे इतना सीमित हो जाता है कि घृणा में और प्रेम में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्योंकि जो प्रेम एक पर प्रेम बनता हो और शेष पर घृणा बन जाता हो, वह एक पर भी कितने दिन तक प्रेम रहेगा? क्योंकि घृणा हो जाएगी बहुत। महावीर को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करेगा और शेष सबको अप्रेम करेगा। अप्रेम इतना ज्यादा हो जाएगा कि यह प्रेम का बिंदु कब विलीन हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा।

मैंने सुना है, एक महिला थी बर्मा में, वह बुद्ध की प्रेमी थी। और उसने बुद्ध की एक स्फटिक प्रतिमा बना ली थी–छोटी, अति सुंदर। वह निरंतर उसे अपने साथ रखती। हो सकता है किसी दिन सुबह पूजा में, गांव में मंदिर न हो बुद्ध का, तो वह मूर्ति को साथ ही रखती–वह निरंतर साथ रखती।

फिर वह एक गांव में आई, जहां हजार बुद्धों का मंदिर था, जहां एक ही मंदिर में बुद्ध की हजार प्रतिमाएं थीं। वह उस मंदिर में ठहरी। सुबह जब वह पूजा के लिए अपनी मूर्ति रखी और जब उसने धूप जलाई, तो उसे खयाल आया कि यह धूप मेरे बुद्ध को तो मिलेगी ही मिलेगी, लेकिन दूसरे बुद्धों की जो प्रतिमाएं बैठी हैं, उनको भी यह धूप मिल जाएगी! क्योंकि धूप को कोई बांधा तो नहीं जा सकता। और ऐसा भी हो सकता है कि मेरे बुद्ध को धूप मिले ही न, क्योंकि हवाओं का क्या भरोसा! और धूप उड़ कर दूसरे बुद्धों को मिल जाए! यह तो उसके प्रेम के लिए संभव न था। संकीर्ण था प्रेम।

तो संकीर्ण प्रेम बुद्ध को प्रेम करे, महावीर को घृणा करे, ऐसा ही नहीं, बुद्ध की भी प्रतिमा को, एक प्रतिमा को प्रेम करने लगता है–वह भी खास प्रतिमा को!

अब जैनों में दिगंबर हैं, श्वेतांबर हैं। महावीर की एक ही प्रतिमा को दिगंबर नंगा करके पूजा करेंगे, श्वेतांबर आंखें लगाएंगे, शृंगार करेंगे, फिर पूजा करेंगे! इस पर भी झगड़ा हो जाएगा। दिगंबर वाली प्रतिमा की श्वेतांबर पूजा नहीं कर सकते, श्वेतांबर वाली प्रतिमा की दिगंबर पूजा नहीं कर सकते! और प्रतिमा एक है! लेकिन अपना आरोपण कर लेंगे, तब वह अपनी होगी! महावीर की प्रतिमा का उतना सवाल नहीं है।

तो उस स्त्री को भी बड़ी बेचैनी हुई कि यह कैसे हो? तो उसने धूप नहीं जलाई, उसने पहले टीन की एक पोंगरी बनाई और उस पोंगरी को धूप के ऊपर रखा, और फिर धुएं को पोंगरी से अपने बुद्ध की नाक तक पहुंचाया! लेकिन तब उसके बुद्ध का मुंह काला हो गया! और तब वह बहुत पछताई, बहुत रोई; क्योंकि बुद्ध का मुंह काला हो गया। और वह उस मंदिर के बड़े पुजारी से मिलने गई और उसने कहा कि मेरे बुद्ध का मुंह खराब हो गया! तो उस पुजारी ने कहा, संकीर्ण प्रेम सदा ही उसका मुंह खराब कर देता है, जिससे प्रेम करता है। इतना संकीर्ण प्रेम होगा तो जिससे तुम प्रेम करती हो, उसका चेहरा भी काला हो जाएगा।

संकीर्ण लोगों ने महावीर की प्रतिमा भी काली कर दी है, मोहम्मद की भी, बुद्ध की भी, कृष्ण की भी–सबकी प्रतिमाएं काली कर दी हैं! क्योंकि संकीर्ण प्रेम घृणा का ही एक रूप है। जितना प्रेम संकीर्ण होगा, उतना ही घृणा से भर जाता है। और जब चारों तरफ घृणा होगी तो यह असंभव है, घृणा के बड़े सागर में प्रेम की छोटी सी बूंद को कैसे बचाया जा सकता है? वह तो प्रेम के बड़े सागर में ही प्रेम की बूंद बच सकती है।

यह हमें ध्यान होना चाहिए कि प्रेम के बड़े सागर में ही प्रेम की बूंद बच सकती है। घृणा के बड़े सागर में प्रेम की बूंद नहीं बचाई जा सकती है। लेकिन हम चाहते यह हैं कि हमारी प्रेम की बूंद बच जाए और शेष घृणा का सागर हो!

एक मुसलमान फकीर औरत हुई राबिया। कुरान में एक जगह वचन आता है कि शैतान को घृणा करो, तो उसने वह वचन काट दिया, उस पर स्याही फेर दी! लेकिन कुरान में कोई सुधार करे, यह तो उचित नहीं है। हसन नाम का एक फकीर उसके घर मेहमान था। सुबह उसने कुरान पढ़ने को उठाई तो देखा कि उसमें सुधार किया गया है। तो उसने कहा, यह कौन नासमझ है जिसने कुरान में सुधार किया? कुरान में तो सुधार नहीं किया जा सकता। राबिया ने कहा, मुझको ही सुधार करना पड़ा है। तो हसन ने कहा, तू तो नास्तिक मालूम होती है! कुरान में और सुधार करने की तेरी हिम्मत? यह तो बड़ा पाप है।

राबिया ने कहा कि पाप हो या पुण्य, मुझे पता नहीं। उसमें एक वाक्य था, लिखा है कि शैतान को घृणा करो! लेकिन मेरे मन से तो घृणा चली गई, अब तो शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाए तो मैं घृणा करने में असमर्थ हूं। अब तो मैं शैतान को भी प्रेम ही कर सकती हूं। यह अब अनिवार्यता हो गई, क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त मेरे हृदय में कुछ है ही नहीं। शैतान के लिए भी घृणा कहां से लाऊंगी?

और राबिया ने कहा, और एक नई बात तुम्हें बताऊं कि जब तक मेरे मन में घृणा थी, तब तक परमात्मा के लिए भी प्रेम को लाने का उपाय न था। क्योंकि हृदय में घृणा हो तो परमात्मा के लिए प्रेम कैसे लाओगे? प्रेम आएगा कहां से? आसमान से तो नहीं, हृदय से आएगा।

और एक ही हृदय में दोनों का अस्तित्व साथ-साथ नहीं होता। जिस हृदय में घृणा है, वहां प्रेम का निवास नहीं; और जिस हृदय में प्रेम है, वहां घृणा का निवास नहीं। यह ऐसे ही है कि जिस कमरे में उजाला है, वहां अंधकार नहीं; जिस कमरे में अंधेरा है, वहां उजाला नहीं।

तो राबिया ने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। अगर शैतान को घृणा करनी है तो मैं चाहे मानूं या न मानूं, परमात्मा को भी घृणा करती रहूंगी। नाम प्रेम के दूंगी, लेकिन वे झूठे होंगे, क्योंकि घृणा करने वाले चित्त में प्रेम कहां? और अगर मुझे परमात्मा को प्रेम करना है तो मुझे शैतान को भी प्रेम ही करना पड़ेगा, क्योंकि प्रेम करने वाले हृदय में घृणा की संभावना कहां? इसलिए मुझे यह लकीर काट देनी पड़ी। भले ही इसके लिए कितना ही पाप लगे, लेकिन अब कोई उपाय नहीं है।

यह राबिया ने ठीक कहा, या तो हमारा हृदय प्रेमपूर्ण होगा या घृणापूर्ण होगा।

यह असंभव है कि एक व्यक्ति महावीर को प्रेम करता हो और बुद्ध को प्रेम न करे। बुद्ध और महावीर की तो बात दूसरी, सच तो यह है कि एक व्यक्ति प्रेम करता हो तो वह प्रेम ही कर सकता है। बुद्ध-महावीर का भी सवाल नहीं, साधारणजनों को भी प्रेम ही कर सकता है। यह प्रेम करना अब कोई सौदा नहीं है, अब यह उसका स्वभाव है। अब कोई उपाय ही नहीं है, वह प्रेम ही करेगा।

जैसे कि रास्ते के किनारे एक फूल खिला हो, फूल से सुगंध गिरती हो। रास्ते से कौन निकलता है, यह फूल थोड़े ही पूछता है! अच्छा कि बुरा, अपना कि पराया, मित्र कि शत्रु, फूल यह नहीं पूछता। फूल की सुगंध रास्ते पर फैलती रहती है; और जो भी रास्ते से गुजरता है, उसे सुगंध मिलती है। ऐसा भी नहीं है कि फूल जब चाहे तब सुगंध को रोक ले, कि जब चाहे तब छोड़ दे। ऐसा भी नहीं है कि रास्ता खाली हो जाए तो फूल अपनी सुगंध को रोक ले। खाली रास्ते पर भी फूल की सुगंध गिरती रहती है, क्योंकि सुगंध फूल का स्वभाव है।

जिस दिन प्रेम स्वभाव हो जाता है, उस दिन हम प्रेम ही कर सकते हैं।

और इसलिए यह मैं कहना चाहता हूं कि अगर प्रेम सीमित और संकीर्ण हो तो जानना कि वह प्रेम नहीं है, वह घृणा का ही एक रूप है। और इसलिए अनुयायी कभी भी प्रेमपूर्ण नहीं होता। वह जो फालोअर है, वह कभी प्रेमपूर्ण नहीं होता। क्योंकि जो प्रेमपूर्ण है, वह कैसे अनुयायी बनेगा? या तो वह सबका ही अनुयायी हो जाएगा या किसी का भी अनुयायी नहीं होगा। उसका प्रेम इतना विस्तीर्ण है कि किसके पीछे जाएगा? क्योंकि एक के पीछे जाने में दूसरे को छोड़ना पड़ता है। और एक के पीछे जाने में हजार को छोड़ना पड़ता है। और जिसका प्रेम इतना बड़ा है कि वह किसी को भी नहीं छोड़ सकता, वह किसी के भी पीछे नहीं जाता, वह अनुयायी नहीं रह जाता।

इसलिए मैंने कहा कि मैं महावीर का अनुयायी नहीं हूं, न बुद्ध का, न कृष्ण का। क्योंकि किसी भी एक के पीछे जाने में शेष सबको छोड़े बिना कोई रास्ता नहीं है। इसलिए मैं किसी के भी पीछे नहीं गया हूं, और न कहता हूं कि कोई किसी के पीछे जाए।

और भी एक मजे की बात है कि जो किसी के पीछे जाएगा, वह अपने भीतर नहीं जा सकता। क्योंकि पीछे जाने की दिशा होती है बाहर, और भीतर जाने की दिशा होती है भीतर। तो जो किसी का भी अनुयायी है, वह आत्म-अनुभव को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि उसे जाना पड़ता है किसी के पीछे, और आत्म-अनुभव में सबको छोड़ कर जाना है उसे स्वयं के भीतर।

इसलिए मैं कहता हूं कि जो सबको प्रेम करता है, उसे किसी को पकड़ने का उपाय नहीं रहता। सब छूट जाते हैं और वह अपने भीतर जा सकता है।

यह भी समझ लेने की बात है कि प्रेम अकेला मुक्त करता है, घृणा बांधती है। और जो प्रेम भी बांधता हो, मैं कहता हूं, वह भी घृणा का ही रूप है। क्योंकि प्रेम बांधता ही नहीं, प्रेम एकदम मुक्त कर देता है। प्रेम का कोई बंधन नहीं है। प्रेम न किसी पर ठहरता, न किसी पर रुकता; न किसी को रोकता, न किसी को ठहराता।

प्रेम की न कोई शर्त है, न कोई सौदा है। प्रेम है, तो परम मुक्ति है। एक को भी अगर हम प्रेम कर लें तो हम पाएंगे कि एक जो था, वह द्वार बन गया अनेक का। और कब एक मिट गया और प्रेम अनेक पर पहुंच गया, कहना कठिन है।

पर हम एक को भी प्रेम नहीं कर पाते! असल में हम प्रेम ही नहीं कर पाते हैं। क्योंकि हम प्रेमपूर्ण ही नहीं हैं। हम ज्ञानपूर्ण बहुत हैं, लेकिन प्रेमपूर्ण बहुत कम हैं।

और कारण हैं। ज्ञान संग्रह करना पड़ता है और प्रेम बांटना पड़ता है। तो जो चीज संग्रह करनी पड़ती है, वह तो हम कर लेते हैं; क्योंकि उससे हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। तो धन इकट्ठा कर लेते हैं, ज्ञान इकट्ठा कर लेते हैं, त्याग इकट्ठा कर लेते हैं! जो चीज भी इकट्ठी हम कर सकते हैं, वह कर लेते हैं।

लेकिन प्रेम का मामला उलटा है। प्रेम अकेली घटना है, जिसे हम इकट्ठा नहीं कर सकते, जिसको बांटना पड़ता है। प्रेम को आप इकट्ठा नहीं कर सकते। एक आदमी धन को इकट्ठा करके धनी हो जाएगा, लेकिन ऐसे ही कोई आदमी प्रेम को इकट्ठा करके प्रेमी नहीं हो सकता। प्रेम की धारा ठीक उलटी है। जितना बांटो उतना प्रेम, जितना इकट्ठा करो उतना कम। जिसकी इकट्ठा करने की वृत्ति है, वह प्रेमी नहीं हो सकता।

पंडित की प्रवृत्ति इकट्ठे करने की होती है, वह ज्ञान इकट्ठा कर लेता है। ज्ञान बहुत इकट्ठा किया जा सकता है। और तभी फिर वह महावीर को या बुद्ध को या कृष्ण को जानने में असमर्थ हो जाता है। सच बात यह है कि फिर वह कृष्ण या बुद्ध या महावीर को जानता नहीं, बल्कि अपने ज्ञान के आधार पर पुनः निर्मित करता है, रि-कंस्ट्रक्ट करता है। वह फिर एक नया आदमी खड़ा कर लेता है, जो कि कभी था ही नहीं। वह उसके ज्ञान के अनुकूल व्यक्ति बना लेता है। इसलिए सभी महापुरुषों का चित्र झूठा हो जाता है। उन सबकी जो पीछे स्मृति बनती है, वह झूठी हो जाती है, वह हमारे द्वारा बनाई हुई होती है।

ज्ञान से कोई द्वार नहीं है किसी को समझने का, प्रेम से द्वार है। क्योंकि प्रेम यह नहीं कहता कि तुम ऐसे होओ तो ही मैं मानूंगा। प्रेम यह कहता है, तुम जैसे हो, उसको मैं प्रेम करने के लिए तैयार हूं। प्रेम यह कहता ही नहीं कि तुम ऐसे हो तो!

अगर मैं महावीर को प्रेम करता हूं तो वे मुझे कपड़े पहने मिल जाएं तो भी मैं प्रेम करूंगा और वे नंगे मिल जाएं तो भी प्रेम करूंगा। लेकिन एक अनुयायी है, वह कहता है कि महावीर नग्न हैं, तो ही मैं प्रेम करूंगा! अगर वे नग्न नहीं हैं तो अज्ञानी हैं!

एक घटना घटी, मेरी एक मित्र, एक महिला हालैंड गई थी। वहां कृष्णमूर्ति का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन था, कोई छह-सात हजार लोग सारी दुनिया से इकट्ठे थे कृष्णमूर्ति को सुनने। वह मेरी परिचित महिला एक दुकान पर सांझ को गई है, उसके साथ दो और यूरोपियन महिलाएं थीं। वे तीनों एक छोटी सी दुकान पर कुछ खरीदने गई हैं।

वहां देख कर वे हैरान रह गई हैं, क्योंकि कृष्णमूर्ति वहां टाई खरीद रहे हैं! और न केवल टाई–एक तो यही बात बड़ी गलत मालूम पड़ी कि कृष्णमूर्ति जैसा ज्ञानी एक साधारण दुकान पर टाई खरीदता हो! तो ज्ञानी तो खतम ही हो गया उसी क्षण। और फिर न केवल टाई खरीद रहे हैं, बल्कि यह टाई लगा कर देखते हैं, वह टाई लगा कर देखते हैं; यह भी पसंद नहीं पड़ती, वह भी पसंद नहीं पड़ती! सारी दुकान की टाई फैला रखी हैं।

तो वे तीनों महिलाओं के मन में बड़ा संदेह भर गया कि हम किस व्यक्ति को सुनने इतनी दूर से आए हैं! और वह व्यक्ति एक साधारण सी दुकान पर टाई खरीद रहा है! और वह भी टाई में भी रंग मिला रहा है कि कौन सा मेल खाता है, कौन सा नहीं मेल खाता है!

उन दो यूरोपियन महिलाओं ने मेरी उस मित्र को कहा कि हम तो अब सुनने नहीं आएंगे। बात खतम हो गई है। एक साधारण आदमी को सुनने हम इतने दूर से व्यर्थ परेशान हुए। जिसको अभी कपड़ों का भी खयाल है इतना ज्यादा, उसको क्या ज्ञान मिला होगा! वे दोनों महिलाएं सम्मेलन में सम्मिलित हुए बिना वापस लौट गईं।

उस मेरी मित्र ने कृष्णमूर्ति को जाकर कहा कि आपको पता नहीं है कि आपके टाई खरीदने से कितना नुकसान हुआ! दो महिलाएं सम्मेलन छोड़ कर चली गई हैं, क्योंकि वे यह नहीं मान सकतीं कि एक ज्ञानी व्यक्ति और टाई खरीदता हो। तो कृष्णमूर्ति ने कहा कि चलो, दो का मुझसे छुटकारा हुआ, यह भी क्या कम है! दो मुझसे मुक्त हो गईं, यह भी क्या कम है! दो का भ्रम टूटा, यह भी क्या कम है! कृष्णमूर्ति ने कहा, क्या मैं टाई न खरीदूं तो ज्ञानी हो जाऊंगा? अगर ज्ञानी होने की इतनी सस्ती शर्त है तो कोई भी नासमझ इसे पूरी कर सकता है। अगर इतनी सस्ती शर्त से कोई ज्ञानी हो जाता है तो कोई भी नासमझ इसे पूरी कर सकता है। लेकिन इतनी सस्ती शर्त पर मैं ज्ञानी नहीं होना चाहता। और इतनी सस्ती शर्त पर जो मुझे ज्ञानी मानने को तैयार हैं, वे न मानें, यही अच्छा है, यही शुभ है।

लेकिन हम सबकी ऐसी शर्तें होती हैं। और शर्तें इसीलिए होती हैं कि हमारा कोई प्रेम नहीं है। हमारी अपनी धारणाएं हैं, उन धारणाओं पर हम कसने की कोशिश करते हैं एक आदमी को! और ध्यान रहे, जितना अदभुत व्यक्ति होगा, उतनी ही सारी धारणाओं को तोड़ देता है; किसी धारणा पर कसा नहीं जा सकता। असल में अदभुत व्यक्ति का अर्थ ही यह है कि पुरानी कसौटियां उस पर काम नहीं करतीं। अदभुत व्यक्ति, प्रतिभाशाली व्यक्ति न केवल खुद को निर्मित करता है बल्कि खुद को मापे जाने की कसौटियां भी फिर से निर्मित करता है।

और इसीलिए ऐसा हो जाता है कि महावीर जब पैदा होते हैं तो पुराने महापुरुषों के अनुयायी महावीर को नहीं पहचान पाते। क्योंकि उनकी कसौटियां जो रहती हैं, वे महावीर पर लागू नहीं पड़तीं। पुराना जो अनुयायी है, पुराने महापुरुषों का; वह पुरानी उन महापुरुषों के हिसाब से उसने धारणाएं बना कर रखी हैं, वह महावीर पर कसने की कोशिश करता है! महावीर उस पर नहीं उतर पाते, इसलिए व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन महावीर का अनुयायी वही बातें बुद्ध पर कसने की कोशिश करता है, और तब फिर मुश्किल हो जाती है।

हमारा चित्त अगर पूर्वाग्रह से भरा है तो महापुरुष तो दूर, एक छोटे से व्यक्ति को भी हम प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाते। एक पत्नी पति को प्रेम नहीं कर पाती, क्योंकि पति कैसा होना चाहिए, इसकी धारणा पक्की मजबूत है! एक पति पत्नी को प्रेम नहीं कर पाता, क्योंकि पत्नी कैसी होनी चाहिए, शास्त्रों से सब उसने सीख कर तैयार कर लिया है, वही अपेक्षा कर रहा है! वह इस व्यक्ति को जो सामने पत्नी या पति की तरह मौजूद है, देख ही नहीं रहा है। और ऐसा व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं है। यह बिलकुल नया व्यक्ति है।

मैंने जो बातें महावीर के संबंध में कहीं, उन पर मेरा कोई पूर्व आग्रह नहीं है। कोई सूचनाओं के, किन्हीं धारणाओं के, किन्हीं मापदंडों के आधार पर मैंने उन्हें नहीं कसा है। मेरे प्रेम में वे जैसे दिखाई पड़ते हैं, वैसी मैंने बात की है। और जरूरी नहीं है कि मेरे प्रेम में वे जैसे दिखाई पड़ते हैं वैसे आपके प्रेम में भी दिखाई पड़ने चाहिए। अगर वैसा भी मैं आग्रह करूं, तो फिर मैं आपसे धारणाओं की अपेक्षा कर रहा हूं। मैंने अपनी बात कही, जैसा वे मुझे दिखाई पड़ते हैं, जैसा मैं उन्हें देख पाता हूं।

और इसलिए एक बात निरंतर ध्यान में रखनी जरूरी होगी–यह बात निरंतर ध्यान में रखनी जरूरी होगी कि महावीर के संबंध में जो भी मैंने कहा है, वह मैंने कहा है और मैं उसमें अनिवार्यरूप से उतना ही मौजूद हूं, जितने महावीर मौजूद हैं। वह मेरे और महावीर के बीच हुआ लेन-देन है। उसमें अकेले महावीर नहीं हैं, उसमें अकेला मैं भी नहीं हूं, उसमें हम दोनों हैं। और इसलिए यह बिलकुल ही असंभव है कि जो मैंने कहा है, ठीक बिलकुल वैसा ही किसी दूसरे को भी दिखाई पड़े। यह बिलकुल असंभव है। मैं किसी आब्जेक्टिव महावीर की, किसी दूर वस्तु की तरह खड़े हुए व्यक्ति की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो उस महावीर की बात कर रहा हूं, जिसमें मैं भी सम्मिलित हो गया हूं, जो मेरे लिए एक सब्जेक्टिव अनुभव है, एक आत्मगत अनुभूति बन गया है। इसलिए बहुत सी कठिनाइयां होंगी।

जो भी मेरी बात को पढ़ेंगे, उन्हें समझने में बहुत कठिनाई और मुश्किल हो सकती है। सबसे बड़ी मुश्किल तो यह होगी कि वे उस जगह खड़े नहीं हो सकते, जहां खड़े होकर मैं देख रहा हूं। लेकिन इतनी ही उनकी कृपा काफी होगी कि वे इसकी चिंता ही न करें। एक व्यक्ति ने एक जगह खड़े होकर कैसे महावीर को देखा है, इसको समझ भर लें। और फिर अपनी जगह से खड़े होकर देखने की कोशिश करें। जरूरी नहीं है कि उनका जो खयाल होगा, वह मुझसे मेल खाए। मेल खाने की कोई जरूरत भी नहीं है।

लेकिन अगर इतने निष्पक्ष भाव से मेरी बातों को समझा गया तो जो भी व्यक्ति उतने निष्पक्ष भाव से समझेगा, उसे महावीर को समझने की बड़ी अदभुत कुशलता उपलब्ध हो जाएगी। और न केवल महावीर को, अगर उसने बहुत गौर से समझा तो वह महावीर को ही नहीं, बुद्ध को भी, मोहम्मद को भी, कृष्ण को भी समझने में इतना ही समर्थ हो जाएगा।

इतिहास तो जो बाहर से दिखाई पड़ता है, उसे लिख जाता है। और जो बाहर से दिखाई पड़ता है, वह एक अत्यंत छोटा पहलू होता है। और इसलिए इतिहास बड़ी सच्ची बातें लिखते हुए भी बहुत बार असत्य हो जाता है।

बर्क नाम का एक बहुत बड़ा इतिहासज्ञ विश्व-इतिहास लिख रहा था। और कोई पंद्रह वर्षों से लिख रहा था निरंतर। पंद्रह वर्षों का सारा जीवन उसने विश्व-इतिहास के लिखने में लगाया हुआ था। एक दिन दोपहर की बात है, वह इतिहास लिखने में लगा हुआ है और पीछे शोरगुल हुआ है। दरवाजा खोल कर वह पीछे गया।

उसके मकान के बगल से गुजरने वाली सड़क पर झगड़ा हो गया है। एक आदमी की हत्या कर दी गई है। बड़ी भीड़ है। सैकड़ों लोग इकट्ठे हैं, आंखों देखे गवाह मौजूद हैं। और वह एक-एक आदमी से पूछता है कि क्या हुआ? तो एक आदमी कुछ कहता है! दूसरे से पूछता है, वह कुछ कहता है! तीसरे से पूछता है, वह कुछ कहता है! आंखों देखे गवाह मौजूद हैं, लाश सामने पड़ी है, खून सड़क पर पड़ा हुआ है, अभी पुलिस के आने में देर है, हत्यारा पकड़ लिया गया है, लेकिन हर आदमी अलग-अलग बात कहता है! किन्हीं दो आदमियों की बातों में कोई तालमेल नहीं कि हुआ क्या! झगड़ा कैसे शुरू हुआ? कोई हत्यारे को जिम्मेवार ठहरा रहा है, कोई जिसकी हत्या की गई, उसको जिम्मेवार ठहरा रहा है! कोई कुछ कह रहा है, कोई कुछ कह रहा है! वे सब आंखों देखे गवाह हैं!

बर्क खूब हंसने लगा। लोगों ने पूछा, आप किसलिए हंस रहे हैं? आदमी की हत्या हो गई!

उसने कहा, मैं किसी और कारण से हंस रहा हूं। अंदर आया और वह पंद्रह वर्षों की जो मेहनत थी, उसमें आग लगा दी–वह जो विश्व-इतिहास लिख रहा था। और अपनी डायरी में लिखा कि मैं हजारों साल पहले की घटनाओं पर इतिहास लिख रहा हूं, मेरे घर के पीछे एक घटना घटती है, जिसमें चश्मदीद गवाह मौजूद हैं, फिर भी किसी का वक्तव्य मेल नहीं खाता, तो हजार-हजार साल पहले जो घटनाएं घटी हैं, उनके लिए किस हिसाब से हम मानें कि क्या हुआ, क्या नहीं हुआ? किसको मानें? कौन गवाही है? कौन ठीक है, कौन गलत है, कहना मुश्किल है। बर्क ने लिखा कि इतिहास भी एक कल्पना मालूम पड़ती है, तथ्य नहीं।

इतिहास भी एक कल्पना हो सकती है, अगर हमने बहुत ऊपर से पकड़ने की कोशिश की, और कल्पना भी सत्य हो सकती है, अगर हमने बहुत भीतर से पकड़ने की कोशिश की। सवाल आब्जेक्टिव, वस्तुगत नहीं है, सवाल सदा सब्जेक्टिव है।

तो महत्वपूर्ण महावीर उतने ही हैं, जितना महावीर को देखने वाला है। और वह वही देख पाएगा, जो वह देख सकता है। क्या हम महावीर को अपने भीतर लेकर जी सकते हैं? जैसे एक मां अपने पेट में एक बच्चे को लेकर जीती है। क्या हम–और जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे हम अपने भीतर लेकर जीने लगते हैं। उस जीने से जो निखार आता है, उसमें हमारा भी हाथ होता है। उसमें महावीर भी होते हैं, और हम भी होते हैं। यह एक गहरा इन्वाल्वमेंट है।

यह उतना ही गहरा है, जैसे कि जब आप रास्ते के किनारे लगे हुए फूल को देख कर कहते हैं, बहुत सुंदर! तो आप सिर्फ फूल के बाबत ही नहीं कह रहे हैं, आप अपने बाबत भी कह रहे हैं! क्योंकि पड़ोस से, हो सकता है, एक आदमी निकले और कहे, क्या सुंदर है इसमें? इसमें कुछ भी तो सुंदर नहीं है। साधारण सा फूल है, घास का फूल है। वह आदमी भी जो कह रहा है, वह भी उसी फूल के संबंध में कह रहा है। रात एक भूखा आदमी है, आकाश की तरफ देखता है, चांद उसे रोटी की तरह मालूम पड़ता है, जैसे रोटी तैर रही हो आकाश में!

हेनरिक हेन एक जर्मन कवि था, वह तीन दिन तक भूखा भटक गया है जंगल में। पूर्णिमा का चांद निकला तो उसने कहा, आश्चर्य! अब तक मुझे सदा चांद में स्त्रियों के चेहरे दिखाई पड़े थे, और पहली दफे मुझे रोटी दिखाई पड़ी। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि चांद भी रोटी जैसा दिखाई पड़ सकता है। लेकिन भूखे आदमी को दिखाई पड़ सकता है। तीन दिन के भूखे आदमी को चांद ऐसा लगा, जैसे रोटी आकाश में तैर रही है!

आकाश में रोटी तैर रही है, इसमें चांद तो है ही, इसमें एक भूखे आदमी की नजर भी है। एक फूल सुंदर है, इसमें फूल तो है ही, एक एस्थेटिक, एक सौंदर्य-बोध वाले व्यक्ति की नजर भी सम्मिलित है। कोई फूल इतना सुंदर नहीं है अकेले में, जितना आंख उसे सुंदर बना देती है और प्रेम करने वाला उसे सुंदर बना देता है; और ऐसी चीजें खोल देता है उसमें, जो शायद साधारण किनारे से गुजरने वाले को कभी भी दिखाई न पड़ी हों।

तो मैंने जो भी कहा है, वह महावीर के संबंध में ही है, लेकिन मैं उसमें मौजूद हूं। और जो हम दोनों को समझने की कोशिश करेगा, वही मेरी बात को समझ पा सकता है। जो सिर्फ मुझे समझता है, वह भी नहीं समझ पाएगा; जो सिर्फ महावीर को शास्त्र से समझता है, वह भी नहीं समझ पाएगा। यहां दो व्यक्ति, जैसे दो नदियां संगम पर आकर घुल-मिल जाएं और तय करना मुश्किल हो जाए कि कौन सा पानी किसका है, ऐसा ही मिलना हुआ है। और मैं मानता हूं कि ऐसा मिलना हो, तो ही एक नदी दूसरी नदी को पहचान पाती है, नहीं तो पहचान भी नहीं पाती।

और इसलिए इस निवेदन के साथ कि महावीर की जड़ प्रतिमा को, मृत प्रतिमा को, शब्दों से निर्मित रूप-रेखा को मैंने बिलकुल ही अलग छोड़ दिया है। मैंने तो एक जीवित महावीर को पकड़ने की कोशिश की है। और यह कोशिश तभी संभव है, जब हम इतने गहरे में प्रेम दे सकें कि हमारा प्राण और उनके प्राण से एक हो जाए तो ही वे पुनरुज्जीवित हो सकते हैं। और प्रत्येक बार जब भी कोई व्यक्ति कृष्ण, बुद्ध, महावीर के निकट पहुंचेगा, तब उसे ऐसे ही पहुंचना पड़ेगा। उसे फिर से प्राण डाल देने पड़ेंगे। अपने ही प्राण उंडेल देगा तो ही उसे दिखाई पड़ सकेगा कि क्या है।

लेकिन फिर भी इस बात को निरंतर ध्यान में रखने की जरूरत है कि यह एक व्यक्ति के द्वारा देखे गए महावीर की बात है। एक व्यक्ति के द्वारा देखे गए महावीर की बात है, दूसरे व्यक्ति को इतनी ही परम स्वतंत्रता है कि और तरह से देख सके। और इन दोनों में न कोई विरोध की बात है, न कोई संघर्ष की बात है, न किसी विवाद की कोई जरूरत है।

आप पूछते हैं कि जो मैंने कहा, उसके लिए शास्त्रों के सिवाय आधार भी क्या हो सकता है? और मैं शास्त्रों के आधार को पूर्णतया निषेध करता हूं।

फकीर था एक बोकोजू। बुद्ध के संबंध में बहुत सी बातें उसने कही हैं, जो शास्त्रों में नहीं हैं! और बहुत से ऐसे वक्तव्य भी दिए हैं, जिनका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है! पंडित उसके पास आए शास्त्र लेकर और कहा कि कहां हैं बुद्ध की ये बातें? शास्त्रों में नहीं हैं। तो बोकोजू ने कहा, जोड़ लेना! पर उन्होंने कहा, बुद्ध ने यह कहा ही नहीं है। तो बोकोजू ने कहा, बुद्ध मिलें तो उनसे कह देना कि बोकोजू ऐसा कहता था कि कहा है! और न कहा हो तो कह देंगे!

यह बोकोजू अदभुत आदमी रहा होगा। और बुद्ध से कहलवाने की हिम्मत किसी बड़े गहरे प्रेम से ही आ सकती है। यह कोई साधारण हिम्मत नहीं है! यह उतने गहरे प्रेम से आ सकती है कि बुद्ध को ही सुधार करना पड़े।

एक और घटना मुझे स्मरण आती है। एक संत रामकथा लिखते थे। और वे इतनी अदभुत रामकथा लिख रहे थे–और रोज सांझ रामकथा पढ़ कर सुनाते थे–कि कहानी यह है कि हनुमान तक उत्सुक हो गए उस कथा को सुनने आने के लिए! अब हनुमान का तो सब देखा हुआ था, लेकिन कथा इतनी रसपूर्ण हो रही थी कि हनुमान भी छुप कर उस सभा में सुनते थे!

वह जगह आई, जहां हनुमान अशोक-वाटिका में गए सीता से मिलने। तो उस संत ने कहा कि हनुमान गए अशोक-वाटिका में, वहां सफेद ही सफेद फूल खिले थे। हनुमान के बरदाश्त के बाहर हो गया, क्योंकि फूल सब लाल थे। हनुमान ने खुद देखा था। और यह आदमी तो देखा भी नहीं था, हजारों साल बाद कहानी कह रहा है।

तो हनुमान ने खड़े होकर कहा कि माफ करिए, उसमें जरा सुधार कर लें। फूल सफेद नहीं, लाल थे। उस आदमी ने कहा कि फूल सफेद ही थे। तब हनुमान ने कहा कि फिर मुझे स्पष्ट करना पड़ेगा, मैं खुद हनुमान हूं! हनुमान अपने रूप में प्रकट हुए। मैं खुद हनुमान हूं और मैं गया था! अब तो सुधार कर लीजिए। उसने कहा कि नहीं, तुम्हीं सुधार कर लेना, फूल सफेद ही थे। हनुमान ने कहा, यह तो हद हो गई! हजारों साल बाद तुम कथा कह रहे हो और मैं मौजूद था, मैं खुद गया था! मेरी तुम कथा कहते हो और मुझे इनकार करते हो! उस आदमी ने कहा, लेकिन फूल सफेद ही थे, तुम सुधार कर लेना अपनी स्मृति में।

हनुमान तो बहुत नाराज हुए! कथा कहती है कि उस संत को लेकर वे राम के पास गए। राम से उन्होंने कहा कि हद हो गई! यह आदमी की जिद देखो! यह मुझमें सुधार करवाता है, मेरी स्मृति में! फूल बिलकुल सुर्ख लाल थे, बगिया में जो खिले थे।

राम ने कहा कि वे संत ही ठीक कहते हैं। फूल सफेद ही थे, तुम सुधार कर लेना। तो हनुमान ने कहा, हद हो गई! तो राम ने कहा, तुम इतने क्रोध में थे कि आंखें तुम्हारी खून से भरी थीं। फूल लाल दिखाई पड़े होंगे! लेकिन फूल सफेद थे। वे ठीक कहते हैं।

बहुत बार, देखा हो तो भी जरूरी नहीं कि सच हो। और बहुत बार, न देखा हो तो भी हो सकता है सच हो! सच बड़ी रहस्यपूर्ण बात है।

अभी मैं एक नगरी में था, एक बौद्ध भिक्षु मुझे मिलने आए। कुछ बात चलती थी तो मैंने कहा कि बुद्ध के सामने एक व्यक्ति बैठा हुआ था, वह पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध बोल रहे थे। तो बुद्ध ने उससे कहा कि मित्र, तेरे पैर का अंगूठा क्यों हिलता है? तो उस आदमी ने पैर का अंगूठा रोक लिया। और उसने कहा कि आप अपनी, अपनी आप बात जारी रखिए, फिजूल की बातों से क्या मतलब? पर बुद्ध ने कहा कि नहीं, मैं पीछे बात शुरू करूंगा। पहले पता चल जाए कि पैर का अंगूठा क्यों हिलता है? तो उस आदमी ने कहा, मुझे पता ही नहीं था, मैं क्या बताऊं? क्यों हिलता था, यह मुझे भी पता नहीं है! तो बुद्ध ने कहा, तू बड़ा पागल आदमी है। तेरा अंगूठा है, हिलता है, और तुझे पता नहीं! अपने अंगूठे का होश रख। और जब शरीर का होश नहीं रखेगा तो आत्मा का होश तो बहुत दूर की बात है।

तो उस बौद्ध भिक्षु ने कहा, लेकिन यह किस ग्रंथ में लिखा हुआ है? मैंने कहा, मुझे पता नहीं। मुझे पता नहीं, कहां लिखा हुआ है। और भी एक फकीर हुआ है चीन में, वह यह बात कहता था।

लेकिन उन्होंने कहा, लेकिन कहीं लिखा हुआ नहीं है किसी ग्रंथ में! मैं तो सारे ग्रंथों का पाठी हूं, उनमें कहीं यह उल्लेख नहीं है।

हो सकता है, न हो। लेकिन जिस फकीर ने कहा है, वह उतना ही अधिकार रखता है जितना बुद्ध। और न भी घटी हो घटना यह, तो घटनी चाहिए थी! मैंने उससे कहा कि न भी घटी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन घटनी चाहिए थी। उस बौद्ध भिक्षु ने कहा, यह बात मैं मान सकता हूं। घटनी चाहिए थी। बात तो ऐसी है कि घटनी चाहिए थी।

इससे क्या फर्क पड़ता है कि घटी कि नहीं घटी? यह भी बहुत मूल्य का नहीं है कि कौन सी घटना घटती है कि नहीं घटती है। बहुत मूल्य का यह है कि वह घटना क्या कहती है! बुद्ध ने बहुत मौकों पर लोगों को यह बात कही होगी कि जो शरीर के प्रति नहीं जागा हुआ है, वह आत्मा के प्रति कैसे जागेगा? और बहुत बार उन्होंने लोगों को टोका होगा उनकी मूर्च्छा में।

अब यह दूसरी बात है कि घटना कैसी घटी होगी। यह बहुत गौण बात है। महत्वपूर्ण यह है कि बुद्ध जागरण के लिए निरंतर आग्रह करते हैं। और जो शरीर के प्रति सोया हुआ है, वह आत्मा के प्रति कैसे जगेगा, यह भी कहते हैं। और बहुत बार लोगों की मूर्च्छा में उनको पकड़ लेते हैं कि देखो, तुम बिलकुल सोए थे। और सोए हुए आदमी को बताना पड़ता है कि यह रही नींद! तभी टूट सकती है।

तो घटना बिलकुल सच है, ऐतिहासिक न हो तो भी। और ऐतिहासिक होने से भी क्या होता है? इतिहास भी क्या है? इतिहास भी क्या है, जहां घटनाएं पर्दे पर साकार हो जाती हैं, इतिहास बन जाता है। और घटनाएं अगर पर्दे के पीछे ही रह जाएं तो इतिहास नहीं बनता है।

इसलिए इस देश में और सारी दुनिया में जो लोग जानते हैं, वे बड़े अदभुत हैं। कहानी है कि वाल्मीकि ने राम की कथा राम के होने के पहले लिखी। यह बड़ी मधुर बात है, और बड़ी अदभुत। राम हुए नहीं तब वाल्मीकि ने कथा लिखी और फिर राम को कथा के हिसाब से होना पड़ा। वह जो कथा थी, फिर कोई उपाय न था, क्योंकि वाल्मीकि ने लिख दी थी, तो फिर राम को वैसा होना पड़ा! वह सब करना पड़ा, जो वाल्मीकि ने लिख दिया था!

अब यह बड़ी अदभुत बात है। यानी यह इतनी अदभुत बात है कि इसे सोचना भी हैरान करने वाला है। राम हो जाएं, फिर कथा लिखी जाए, यह समझ में आता है। लेकिन वाल्मीकि कथा लिख दें, फिर राम को होना पड़े! और सब वैसा ही करना पड़े, जो वाल्मीकि ने लिख दिया! क्योंकि मुश्किल है, वाल्मीकि ने लिख दिया तो अब वैसा करना ही पड़ेगा!

तो वह जो उस बोकोजू ने कहा कि कह देना बुद्ध को कि फिर वे यह कह दें, अगर न कहा हो तो कह दें! तो वह उसी अधिकार से कह रहा है, जिस अधिकार से वाल्मीकि कथा लिखते हैं।

इतिहास पीछे लिखा जाता है, सत्य पहले भी लिखा जा सकता है। क्योंकि सत्य का मतलब है, जिससे अन्यथा हो ही नहीं सकता। इतिहास का मतलब है, जैसा हुआ; लेकिन इससे अन्यथा हो सकता था। इन सारी बातों पर खयाल करने की जरूरत है! इतिहास का मतलब है, जैसा हुआ, लेकिन अन्यथा हो सकता था, कोई बाधा नहीं है इसमें। सत्य का मतलब है, जैसा हो सकता है, जैसा हो सकता था, जिससे अन्यथा कोई उपाय नहीं है।

महावीर, बुद्ध, जीसस, इन जैसे लोगों के प्रति इतिहास की फिक्र नहीं करनी चाहिए। इतिहास इतनी, इतनी मोटी बुद्धि की बात है कि हो सकता है ये बारीक लोग उससे निकल ही जाएं, पकड़ में ही न आएं। उन्हें तो किसी और आंख से देखने की जरूरत है–सत्य की आंख से। और उस आंख से देखने पर बहुत सी बातें उदघाटित होंगी, जो शायद इतिहास नहीं पकड़ पाया है।

और इसलिए मैंने जो कहा है, और आगे भी कृष्ण, बुद्ध, कन्फ्यूशियस, लाओत्से और क्राइस्ट के संबंध में जो कहूंगा, उसका ऐतिहासिक होने से कोई संबंध नहीं है। इसलिए जिनकी ऐतिहासिक बुद्धि हो, उनसे कोई झगड़ा ही नहीं है, उनसे कोई विवाद नहीं है।

जगत को एक कवि की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। और तब जगत इतने रहस्य खोल देता है, जितने इतिहास की दृष्टि से देखने वालों के सामने उसने कभी भी नहीं खोले। काव्य का अपना विजन है, अपना दर्शन है। और चूंकि वह ज्यादा प्रेम से भरा है, इसलिए ज्यादा सत्य के निकट है। शास्त्र उसके मेल में भी पड़ सकते हैं, बेमेल भी हो सकते हैं। और चूंकि हमें यह खयाल में नहीं रहा है, इसलिए जिन लोगों ने अतीत में इन सारे महापुरुषों की गाथाएं लिखी हैं, उनको भी समझना मुश्किल हो गया। क्योंकि उन गाथाओं को लिखते वक्त भी सत्य पर दृष्टि ज्यादा थी, तथ्य पर बहुत कम। तथ्य तो रोज बदल जाते हैं, सत्य कभी नहीं बदलता है। इतिहास तथ्यों का लेखा-जोखा रखता है। सत्य का लेखा-जोखा कौन रखेगा?

इसलिए जिनकी सत्य की बहुत फिक्र थी, उन्होंने इतिहास लिखा तक नहीं। जिनकी सत्य की बहुत फिक्र थी, उन्होंने इतिहास भी नहीं लिखा। यह बात बेमानी थी कि कौन आदमी कब पैदा हुआ, किस तारीख में, किस तिथि में। यह बात बेमानी थी, कौन आदमी कब मरा। यह बात भी अर्थहीन थी कि कौन आदमी कब उठा, कब चला, कब क्या किया। महत्वपूर्ण तो वह अंतर-घटना थी, जिसने उसे सत्य के निकट और सूर्य के निकट पहुंचा दिया। उस घटना को प्रकट कर सके, ऐसी पूरी की पूरी व्यवस्था की। वह व्यवस्था हो सकती है बिलकुल ही काल्पनिक है, तो भी कठिनाई नहीं है। और हो सकता है कि इतिहास बिलकुल ही वास्तविक है, तो भी व्यर्थ हो सकता है।

इतिहास तो यह है कि जीसस एक बढ़ई के बेटे थे। और सत्य जिन्होंने देखा, उन्होंने कहा कि वे ईश्वर के पुत्र हैं! तथ्य तो यह है कि एक बढ़ई के बेटे हैं। तथ्य यही है। इतिहास खोजने जाएगा तो बढ़ई के बेटे से ज्यादा क्या खोज पाएगा! लेकिन जिन्होंने जीसस को देखा, उन्होंने जाना कि वे परमात्मा के बेटे हैं। यह किसी और आंख से देखी गई बात है। और इन दोनों में तालमेल नहीं भी हो सकता है। क्योंकि बढ़ई का बेटा और ईश्वर के बेटे में कितना फर्क है! इससे ज्यादा फर्क और क्या हो सकता है?

लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि जिन्होंने बढ़ई का बेटा ही देखा, वे पहचान नहीं पाए उस आदमी को, जो बढ़ई के बेटे से आया था, लेकिन बढ़ई का बेटा नहीं था। जिसका आना और बड़े जगत से था।

और वह नहीं पहचान पाया कोई भी! क्योंकि जब जीसस ने कहा कि सारा राज्य मेरा है, और जो मेरे साथ चलते हैं, वे साम्राज्य के मालिक हो जाएंगे, तो जो तथ्यों को जानते थे, वे चिंतित हो गए। उन्होंने कहा, मालूम होता है जीसस कोई क्रांति, कोई बगावत करना चाहता है! और जो सच में राजा है, उस पर हावी होना चाहता है। और जब जीसस को पकड़ा गया और उनको कांटे का ताज पहनाया गया और उनसे पूछा गया कि क्या तुम राजा हो? तो उसने कहा, हां! हम साम्राज्य जीते हैं, इन सबको साम्राज्य जिताने के लिए ले जा रहे हैं–किंगडम ऑफ गॉड, ईश्वर का राज्य! लेकिन फिर भी समझ में नहीं पड़ सका कि वह आदमी क्या कह रहा है! क्या तुम सम्राट होने का दावा करते हो? तो उसने कहा, हां, क्योंकि मैं सम्राट हूं!

लेकिन यह बात बिलकुल सरासर असत्य थी। क्योंकि सम्राट तो जीसस नहीं थे–गरीब आदमी का बेटा था। पागल हो गया था, ऐसा मालूम होता है। उस लाख आदमियों की भीड़ में जो सूली देने इकट्ठे हुए थे, दस-पांच ही थे, जो पहचान पाए कि हां, वह सम्राट है! बाकी ने तो कहा कि खतम करो इस आदमी को, यह कैसी झूठी बातें बोल रहा है!

मरते वक्त पायलट ने–जो गवर्नर था, वाइसराय था वहां का, जिसके सामने सूली की आज्ञा दी गई, जिसकी आज्ञा से सूली लगी–पायलट ने मरते वक्त जीसस के पास खड़े होकर पूछा, व्हाट इज़ ट्रुथ? सत्य क्या है?

जीसस चुप रह गए। कुछ उत्तर नहीं दिया।

सूली हो गई। प्रश्न वहीं खड़ा रह गया पायलट का: सत्य क्या है?

जीसस ने उत्तर क्यों नहीं दिया?

उत्तर इसलिए नहीं दिया कि सत्य दिखाई पड़ता है या नहीं दिखाई पड़ता–पूछा नहीं जा सकता है।

तथ्य पूछे जा सकते हैं। तथ्य क्या है, व्हाट इज़ दि फैक्ट? बताया जा सकता है कि यह तथ्य है।

जब कोई पूछे, सत्य क्या है? तो बताया नहीं जा सकता, देखा जा सकता है।

तो जीसस चुपचाप खड़ा रह गया कि देख लो, अगर दिखाई पड़ जाए तो तुम्हें पता चल जाएगा कि सत्य क्या है–यह आदमी सम्राट है या नहीं! और अगर तथ्य की बात ही पूछते हो तो फिर ठीक है, यह आदमी बढ़ई का लड़का है और सूली पर लटका देने योग्य है; क्योंकि इसका दिमाग खराब हो गया है और अपने को सम्राट घोषित कर रहा है!

इधर मैं निरंतर इस संबंध में चिंतन करता रहा हूं कि तथ्य को पकड़ने वाली बुद्धि सत्य को पकड़ सकती है या नहीं? और मुझे लगता है कि नहीं पकड़ सकती। सत्य को पकड़ने के लिए और गहरी आंख चाहिए, जो तथ्यों के भीतर उतर जाती है। और तब ऐसे सत्य हाथ लगते हैं, जिनकी कि तथ्य कोई खबर नहीं दे पाता।

 

इसी दृष्टि से यह सारी बात की है।

 


Filed under: महावीर मेरी दृष्‍टी में--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–27)

$
0
0

मैं मृत्यु सिखाता हूं—(प्रवचन—सत्‍ताईसवा)

‘मै कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

मैं प्रकाश की बात नहीं करता है वह कोई प्रश्‍न ही नहीं है। प्रश्‍न वस्तुत: आंख का है। वह है, तो प्रकाश है। वह नहीं है, तो प्रकाश नहीं है। क्या है वह, हम नहीं जानते हैं। जो हम जान सकते है, वही हम जानते हैं। इसलिए विचारणीय सत्ता नहीं, विचारणीय ज्ञान की क्षमता है। सत्ता उतनी ही ज्ञात होती है, जितना ज्ञान जागृत होता है।

कोई पूछता था— आत्मा है या नहीं है? मैने कहा—आपके पास उसे देखने की आंख है, तो है, अन्यथा नहीं ही है। साधारणत: हम केवल पदार्थ को ही देखते है। इन्द्रियों से केवल वही ग्रहण होता है। देह के माध्यम से जो भी जाना जाता है वह देह से अन्य हो भी कैसे सकता है। देह, देह को ही देखती है और देख सकती है। अदेही उससे अस्पर्शित रह जाता है। आत्मा उसकी ग्रहण—सीमा में नहीं आती है। वह पदार्थ से अन्य है। इसलिए उसे जानने का मार्ग भी पदार्थ से अन्य ही हो सकता है।

आत्मा को जानने का मार्ग धर्म है। धर्म उपदेश नहीं, वह उपचार है। वह उस आन्तरिक चक्षु की चिकित्सा है जिससे जो पदार्थ के अतिरेक है और पदार्थ का अतिक्रमण करता है, उसे जाना जाता है।

वह कोई विचारणा नहीं, साधना है। विचारणा ऐन्द्रिक है। क्योंकि सब विचार इन्द्रियों से ही ग्रहण होते हैं और इसलिए विचारणा कभी ऐन्द्रिक का अतिक्रमण नहीं कर पाती है। विचार अलस में जागते नहीं, बाहर से आते हैं। वे अन्तस नहीं, अतिथि है। वे स्वयं नहीं, पर है।

इसलिए विचार अपनी चरम परिणति में विज्ञान बनकर अनिवार्यत: पदार्थ—केन्द्रित हो जाता है और जो विचार का उसके तार्किक अन्त तक अनुगमन करेगा वह पाएगा कि पदार्थ के अतिरिक्त जगत में और कुछ भी नहीं है। विचार स्वरूपत: आत्मा के निषेध के लिए आबद्ध है, क्योंकि उसका जन्म और ग्रहण इन्द्रियों से होता है और जो इन्द्रियों के अतीत है, वह उसकी सीमा नहीं। इसलिए आत्मा को प्रकट करनेवाले सब विचार असंगत और तर्कशून्य मालूम होते हैं। यह स्वाभाविक ही है।

धर्म अतर्क्य है, क्योंकि धर्म कोई विचार नहीं है। वह असंगत भी है। क्योंकि इन्द्रिय—ज्ञान से उसकी कोई संगति सम्भव नहीं है, और वह इन्द्रियों से नहीं वरन किसी बहुत ही अन्य और भिन्न मार्ग से उपलब्ध होता है।

धर्म विचार की अनुभूति नहीं, निर्विचार चैतन्य में हुआ बोध है। विचार इन्द्रियजन्य है। निर्विचार चैतन्य अतीन्द्रिय है। विचार की चरम निष्पत्ति पदार्थ है।

निर्विचार चैतन्य का चरम साक्षात आत्मा है। इसलिए जो विचारणा आत्मा के संबंध में है, वह व्यर्थ है। वह साधना सार्थक है जो निर्विचारणा की ओर है।

विचार के पीछे भी कोई है, वही बोध है, विवेक है, बुद्धि है। विचार में मस्त और व्यस्त उसे नहीं जान पाता है। विचार धुएं की भांति उस अग्रि को डांके रहते हैं। उनमें होकर सारा जीवन ही धुआ हो जाता है और व्यक्ति उस ज्ञानाग्नि से अपरिचित ही रह जाता है जो उसका वास्तविक होना है।

विचार पराए हैं। वह अग्रि ही अपनी है। विचार ज्ञान नहीं है। वही चक्षु है, जिससे सत्य जाना जाता है। वह नहीं है, तो हम अंधे हैं, और अंधेपन में प्रकाश तो क्या, अंधेरा भी नहीं जाना जा सकता।

एक बार एक साधु के पास कुछ लोग अपने अंधे मित्र को लाए थे। उन्होंने उसे बहुत समझाया था कि प्रकाश है, पर वह मानने को राजी नहीं हुआ था। उसका न मानना ठीक भी था। मानना ही गलत हुआ होता, यही विचार—संगत था।

जो नहीं दीख रहा था, वह नहीं था। हममें से अधिक का तर्क भी यही है। वह अंधा भी विचारक था और विचार के नियमों के अनुकूल ही उसका वह व्यवहार था। उसके मित्र ही गलत थे। साधु ने यही कहा था। उसने कहा था—मेरे पास क्यों लाए हो? किसी वैद्य के पास ले जाओ। तुम्हारे मित्र को प्रकाश समझाने की नहीं, चिकित्सा की आवश्यकता है। मैं भी यही कहता हूं आंख है तो प्रकाश है और जो प्रकाश के लिए सच है वही आत्मा के लिए भी सच है।

सत्य वही है जो प्रत्यक्ष हो। यद्यपि जो प्रत्यक्ष है, केवल वही सत्य नहीं है। सत्य अनंत है। अनंत प्रत्यक्ष भी हो सकता है। विचार हमारी सीमा है, इन्द्रियां हमारी सीमा है। इसलिए उनसे जो जाना जाता है, वह वही है जिसकी सीमा है।

असीम को, अनन्त को, उनसे ऊपर उठकर जाना होता है। इंद्रियों के पीछे विचार—शून्य चित्त की स्थिति में जिसका साक्षात होता है, वही अनन्त, असीम, अनादि आत्मा है।

आत्मा को जानने की आंख शून्य है। उसे ही समाधि कहा है। यह योग है। चित्त की वृत्तियों के विसर्जन से बन्द आंखें खुलती हैं और सारा जीवन अमृत—प्रकाश से आलोकित और रूपांतरित हो जाता है। वहां पुन: पूछना नहीं होता कि आत्मा है या नहीं है। वहां जाना जाता है। वहां दर्शन है। विचार, वृत्तियां, चित्त जहां नहीं हैं—वहां दर्शन है।

शून्य से पूर्ण का दर्शन होता है और शून्य आता है विचार—प्रक्रिया के तटस्थ चुनाव रहित साक्षीभाव से। विचार में शुभाशुभ का निर्णय नहीं करना है। वह निर्णय रण या विराग लाता है।

किसी को रोक रखना और किसी को परित्याग करने का भाव उससे पैदा होता है। वह भाव ही विचार—बन्धन है। वह भाव ही चित्त का जीवन और प्राण है। उस भाव के आधार पर ही विचार की शृंखला अनवरत चलती चली जाती है। विचार के प्रति कोई भी भाव हमें विचार से बांध देता है।

उसके तटस्थ साक्षी का अर्थ है निर्भाव। विचार को निर्भाव के बिन्दु से देखना ध्यान है। बस देखना है, और चुनाव नहीं करना है, और निर्णय नहीं लेना है। यह देखना बहुत श्रमसाध्य है।

यद्यपि कुछ करना नहीं है, पर कुछ न कुछ करते रहने की हमारी इतनी आदत बनी है कि कुछ न करने जैसा सरल और सहज कार्य भी बहुत कठिन हो गया है।

बस, देखने मात्र के बिन्दु पर थिर होने से क्रमश: विचार विलीन होने लगते हैं, वैसे ही जैसे प्रभात में सूर्य के उत्ताप में दूब पर जमे ओसकण वाष्पीभूत हो जाते हैं। बस, देखने का उत्ताप विचारों के वाष्पीभूत हो जाने के लिए पर्याप्त है। वह राह है जहां से शून्य उदघाटित होता है और मनुष्य को आंख मिलती है और आत्मा मिलती है।

मैं एक अंधेरी रात में अकेला बैठा था। बाहर भी अकेला था, भीतर भी अकेला था। बाहर किसी की उपस्थिति नहीं थी और भीतर किसी का विचार नहीं था। कोई क्रिया भी नहीं थी। वह देखता था—कुछ देखता था, ऐसा नहीं, बस देखता ही था! उस देखने का कोई विषय नहीं था। वह देखना निर्विषय और आधार—शून्य था। वह किसी का देखना नहीं, बस मात्र देखना ही था। किसी ने आकर पूछा था कि क्या कर रहे है—अब मैं क्या कहता? कुछ कर तो रहा ही नहीं था। मैंने कहा—मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। मैं बस हूं—यह मात्र होना ही शून्य है! यही वह बिन्दु है जहां पदार्थ का अतिक्रमण और परमात्‍मा का आरम्भ होता है।

मैं शून्य सिखाता हूं। मै यह मिटना ही सिखाता हूं। मैं यह मृत्यु ही सिखाता हूं और यह इसलिए सिखाता हूं कि तुम पूर्ण हो सको, तुम अमृत हो सको! कैसा आश्चर्य है कि मिटकर जीवन मिलता है और जो जीवन से

चिपटते है वे उसे खोदेते हैं। पूर्ण होने को जो चिन्ता में है, वह रिक्त और शून्य हो जाता है और जो शून्य होकर निश्रित है, वह पूर्ण को पा लेता है।

बूंद, बूंद रहकर सागर नहीं हो सकती। वह अहंकार निष्फल है। उस दिशा से बूंद तो मिट सकती है, पर सागर नहीं हो सकती है। बूंद बने रहने का आग्रह ही तो सागर होने में बाधा है। वही तो आडम्बर और रुकावट

सागर की ओर से द्वार कभी भी बन्द नहीं है, क्योंकि जिसके द्वार पर बूंद अपने ही हाथों अपने में बन्द होती है—उसकी दीवारें और सीमाएं उसकी अपनी ही हैं। सागर तो वह होना चाहती है पर अपने बूंद होने को नहीं तोड़ना चाहती है। यही उसकी दुविधा है। यही दुविधा मनुष्य की है। यह असम्भव है कि बूंद, बूंद भी रहे, और सागर हो जाए और व्यक्ति, व्यक्ति भी रहे और ब्रह्म को जान ले, ब्रह्म हो जाए! ‘मैं’ की बूंद मिटती है तो आत्मा का सागर उपलब्ध होता है।

आत्मा का सागर बहुत निकट है और हम व्यर्थ ही बूंद को पकड़कर रुके हुए हैं। आत्मा का अमृत निकट है और हम व्यर्थ ही मृत्यु को ओढ़ कर बैठे हुए है। बूंद को मिटाना पड़ेगा और हमें अपने ही हाथों से ओढ़े हुए वस्‍त्रों को दूर करना पड़ेगा और अपनी सीमाएं छोड़नी ही होगी। तभी हम अनन्त और असीम सत्य के अंग हो सकते है।

यह साहस जिनमें नहीं है वे धार्मिक नहीं हो सकते हैं। धर्म मनुष्य—जीवन का चरम साहस है, क्योंकि वह स्वयं को शून्य करने और विसर्जित करने का मार्ग है। धर्म भयभीतों की दिशा नहीं है। स्वर्ग के लोभ से पीडित और नर्क के भय से कंम्पितों के लिए वह पुरुषार्थ नहीं है। वे सारे प्रलोभन और भय बूंद के है।

उन भयों और प्रलोभनों से ही तो बूंद ने अपने को बनाया और बांधा है। बूंद को मिटाना है और व्यक्ति को मृत्यु देना है। जिसमे इतना अभय और साहस है वही सागर के निमंत्रण को स्वीकार कर सकता है। सागर का निमंत्रण ही सत्य का निमंत्रण है!

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मन ही पूजा मन ही धूप–(संत–रैदास)

$
0
0

मन ही पूजा मन ही धूप—(संत—रैदास)

ओशो

(रैदास वाणी पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित पुणे में ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत प्रवचनो का अनुपन संकलन)

आमुख:

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है?

मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी। और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना। जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की। एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं!

और जो अपने से अजनबी है, वह सबसे अजनबी हो जाता है। अपने को जिसने पहचान लिया, उसकी सबसे पहचान हो जाती है। उसके लिए अजनबी भी अजनबी नहीं रह जाते, क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है भीतर एक ही तरंग, एक ही चैतन्य, एक ही ज्योति! दीये होंगे अलग, दीयों के ढंग होंगे अलग, आकृति-रंग होंगे अलग; मगर ज्योति तो एक है! लेकिन जिसने अपनी ही ज्योति नहीं देखी, वह किसके भीतर ज्योति को देखेगा! उसे तो चलती-फिरती लाशें दिखाई पड़ती हैं। वह खुद भी मुर्दा है और दूसरे भी उसे मुर्दा ही मालूम होते हैं। वह मुर्दों की बस्ती में जीता है।

एक दुर्घटना घटी है और उस दुर्घटना के प्रति सचेत हो जाना जरूरी है, अन्यथा अपनी खोज न हो सकेगी। और जिसने स्वयं को न जाना उसने कुछ भी न जाना। वह जीया भी और जीया भी नहीं। वह जीया नहीं, बस मरा ही। उसके जन्म और मृत्यु के बीच में कुछ भी न घटा। अगर जन्म और मृत्यु के बीच में परमात्मा न घटे तो जानना कि कुछ भी न घटा, खाली आए, खाली गए। शायद कुछ गंवा कर गए, कमा कर नहीं।

एक दुर्घटना हुई है और वह दुर्घटना है मनुष्य की चेतना बहिर्मुखी हो गई है। सदियों में धीरे- धीरे यह हुआ, शनैः-शनै:, क्रमशः-क्रमश:। मनुष्य की आखें बस बाहर थिर हो गई हैं, भीतर मुड़ना भूल गई हैं। तो कभी अगर धन से ऊब भी जाता है- और ऊबेगा ही कभी, कभी पद से भी आदमी ऊब जाता है- ऊबना ही पड़ेगा, सब थोथा है! कब तक भरमाओगे अपने को? भ्रम हैं तो टूटेंगे। छाया को कब तक सत्य मानोगे? माया का मोह कब तक धोखा देगा? सपनों में कब तक अटके रहोगे? एक न एक दिन पता चलता है सब व्यर्थ है।

लेकिन तब भी एक मुसीबत खड़ी हो जाती है। वे जो आखें बाहर ठहर गई हैं, वे आखें अब भी बाहर खोजती हैं। धन नहीं खोजती, भगवान खोजती हैं- मगर बाहर ही। पद नहीं खोजती, मोक्ष खोजती हैं- लेकिन बाहर ही। विषय बदल जाता है, लेकिन तुम्हारी जीवन-दिशा नहीं बदलती।

और परमात्मा भीतर है; वह अंतर्यात्रा है। जिसकी भक्ति उसे बाहर के भगवान से जोड़े हुए है उसकी भक्ति भी धोखा है।

मन ही पूजा मन ही धूप।

चलना है भीतर! मन है मंदिर! उसी मन के अंतरगृह में छिपा हुआ बैठा है मालिक।

आदमी ने अपनी तरफ पीठ कर ली, यही उसका दुर्भाग्य है। रैदास याद दिलाते हैं : मुड़ो, अपनी ओर मुड़ो। मन ही पूजा मन ही धूप! छोड़ो मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे। वे सब तो आदमी के बनाए हुए हैं। खोजो अपने भीतर के चैतन्य में, क्योंकि वही परमात्मा से आया है। वही एक किरण है प्रकाश की, जो उस परम सूर्य तक ले जा सकती है, क्योंकि वह उस परम सूर्य से आती है। वही है सेतु।

ओशो


Filed under: मन ही पूजा मन ही धूप--(संत--रैदास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मै कहता आंखन देखी–(प्रवचन–28)

$
0
0

यह मन क्‍या है?—(प्रवचन—अट्ठाईसवां)

‘अमृत वाणी’

से संकलित सुधा—बिन्दु 1970—71

क आकाश, एक स्पेस बाहर है, जिसमें हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं—जहां भवन निर्मित होते हैं और खंडहर हो जाते हैं। जहां पक्षी उड़ते, शून्य जन्मते और पृथ्‍वीयां विलुप्त होती है—यह आकाश हमारे बाहर है। किंतु यह आकाश जो बाहर फैला है, यही अकेला आकाश नहीं है— ‘दिस स्पेस इज नाट द ओनली स्पेस’ —एक और भी आकाश है, वह हमारे भीतर है। जो आकाश हमारे बाहर है वह असीम है।

वैज्ञानिक कहते हैं, उसकी सीमा का कोई पता नहीं लगता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है, बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। कहें कि वह असीम से भी ज्यादा असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है— ‘मल्टी डायमेंशनल इनफिनिटी’ है। बाहर के आकाश में चलना, उठना होता है, भीतर के आकाश में जीवन है। बाहर के आकाश में क्रियाएं होती है, भीतर के आकाश में चैतन्य है।

जो बाहर के ही आकाश में खोजता रहेगा वह कभी भी जीवन से मुलाकात न कर पाएगा। उसकी चेतना से कभी भेंट न होगी। उसका परमात्मा से कभी मिलन न होगा। ज्यादा से ज्यादा पदार्थ मिल सकता है बाहर, परमात्मा का स्थान तो भीतर का आकाश है, अंतराकाश है, इनर स्पेस है।

जीवन के सत्य को पाना हो तो अंतर आकाश में उसकी खोज करनी पड़ती है। लेकिन हमें अंतर आकाश का कोई भी अनुभव नहीं है। हमने कभी भीतर के आकाश में कोई उड़ान नहीं भरी है। हमने भीतर के आकाश में एक चरण भी नहीं रखा है, हम भीतर की तरफ गए ही नहीं। हमारा सब जाना बाहर की तरफ है। हम जब भी जाते है बाहर ही जाते है।

मित्र का प्रश्‍न इससे संबंधित है।

 

उन्होने पूछा है कि जब भीतर की स्वरूप की स्थिति परम आनंद है तो यह मन कहां से आ जाता है? जब भीतर नित्य आनंद का वास है तो ये मन के विचार कैसे जन्म जाते है? ये कहां से अंकुरित हो जाते है?

इस अंतर आकाश के संबंध में उसे भी समझ लेना उपयोगी है। यह प्रश्‍न सदा ही साधक के मन में उठता है कि जब मेरा स्वभाव ही शुद्ध है तो यह अशुद्धि कहां से आ जाती है? और जब मैं स्वभाव से अमृत हूं तो यह मृत्यु कैसे घटित होती है? और जब भीतर कोई विकार ही नहीं है, निर्विकार, निराकार का आवास है सदा से, सदैव से, तो ये विकार के बादल कैसे घिर जाते हैं, कहां से इनका जन्म होता है, कहां इनका उदगम है? इसे समझने के लिए थोड़ी—सी गहराई में जाना पड़ेगा।

पहली बात तो यह समझनी पड़ेगी कि जहां भी चेतना है वहां चेतना की स्वतंत्रताओं में एक स्वतंत्रता यह भी है कि वह अचेतन हो सकेगी। ध्यान रखें, अचेतन का अर्थ जड़ नहीं होता। अचेतन का अर्थ होता है : चेतन, जो कि सो गया—चेतन, कि छिप गया! यह चेतना की ही क्षमता है कि वह अचेतन हो सकती है। जड़ की यह क्षमता नहीं है। आप पत्थर से यह नहीं कह सकते कि तू अचेतन है। जो चेतन नहीं हो सकता वह अचेतन भी नहीं हो सकता। जो जाग नहीं सकता, वह सो भी नहीं सकता।

और ध्यान रखें, जो सो नहीं सकता वह जागेगा कैसे? चेतना की ही क्षमता है अचेतन हो जाना। अचेतन का अर्थ चेतना का नाश नहीं है। अचेतन का अर्थ है : चेतना का प्रसुप्त हो जाना, छिप जाना, अप्रगट हो जाना। चेतना की मालकियत है यह, कि चाहे तो प्रगट हो, चाहे तो अप्रगट हो जाए। यही चेतना का स्वामित्व है—या कहें, यही चेतना की स्वतंत्रता है। अगर चेतना अचेतन होने को स्वतंत्र न हो तो चेतना परतंत्र हो जाएगी। फिर आत्मा की कोई स्वतंत्रता न होगी।

इसे ऐसे समझें कि अगर आपको बुरे होने की स्वतंत्रता ही न हो तो आपके भले होने का अर्थ क्या होगा? अगर आपको बेईमान होने की स्वतंत्रता ही न हो तो आपके ईमानदार होने का कोई अर्थ होता है? जब भी हम किसी व्यक्ति को कहते है कि वह ईमानदार है तो इसमें निहित है, ‘इम्‍प्‍लाइड’ है—कि वह चाहता तो बेईमान हो सकता था, पर नहीं हुआ। अगर हो ही न सकता हो बेईमान, तो ईमानदारी दो कौडी की हो जाती है। ईमानदारी का मूल्य बेईमान होने की क्षमता और संभावना में छिपा है।

जीवन के शिखर छूने का मूल्य जीवन की अंधेरी घाटियों में उतरने की क्षमता में छिपा है। स्वर्ग पहुंच जाना इसीलिए संभव है कि नर्क की सीडी भी हम पार कर सकते है। प्रकाश इसीलिए पाने की क्षमता है कि हम अंधेरे में भी हो सकते हैं। ध्यान रहे, अगर आत्मा के लिए बुरा होने का उपाय ही न हो तो आत्मा के भले होने में बिलकुल ही नपुंसकता इम्पोटेंसी हो जायेगी। विपरीत की शुविधा होनी चाहिए। और अगर चेतना को भी विपरीत की सुविधा नहीं है तो चेतना गुलाम है। और गुलाम चेतना का क्या अर्थ होता है? उससे तो अचेतन होना, जड़ होना बेहतर है।

यह जो हमारे भीतर छिपा हुआ परमात्मा है, यह परम स्वतंत्र है, ‘एब्सत्थूटफ्रीडम’ है। इसलिए शैतान होने का उपाय है, और परमात्मा होने की भी सुविधा है। एक छोर से दूसरे छोर तक हम कहीं भी हो सकते है। और जहां भी हम हैं वहां होना हमारी मजबूरी नहीं, हमारा निर्णय है—’अवर ओन डिसीजन’! अगर मजबूरी है तो बात खल हो गयी।

अगर मैं पापी हूं और पापी होना मेरी मजबूरी है—पापी मुझे परमात्मा ने बनाया है, या मैं पुण्यात्मा हूं और पुण्या आ मुझे परमात्मा ने बनाया है तो मैं पत्थर की तरह हो गया, मुझमें चेतना न रही। मैं एक बनायी हुई चीज हो गया, फिर मेरे कृत्य का कोई दायित्व मेरे ऊपर नहीं है।

एक मुसलमान मित्र मुझे मिलने आये थे, कुछ दिन हुए। बहुत समझदार व्यक्ति है। वह मुझसे कहने लगे कि मै बहुत लोगों से मिला हूं बहुत साधु संन्यासियों के पास गया हूं लेकिन कोई हिंदू मुझे यह नहीं समझा सका कि आदमी पाप में क्यों गिरा?—हिंदू जैन या बौद्ध, इस भूमि पर पैदा हुए तीनों धर्म, यह मानते हैं कि अपने कर्मों के कारण! उस मुसलमान मित्र का पूछना बिलकुल ठीक था। वह कहने लगे, अगर अपने कर्मों के कारण गिरा तो पहले जन्म में जब उसकी शुरुआत ही हुई होगी तब तो उसके पहले कोई कर्म नहीं थे। ठीक है, जब पहला ही जन्म हुआ होगा चेतना का तब तो वह निष्कपट, शुद्ध हुई होगी। उसके पहले तो कोई कर्म नहीं थे। इस जन्म में हम कहते हैं कि फलां आदमी बुरा है क्योंकि पिछले जन्म में बुरे कर्म किए। पिछले जन्म में बुरे कर्म किए क्योंकि और पिछले जन्म में बुरे कर्म किए। लेकिन कोई प्रथम जन्म तो मानना ही पड़ेगा। उस प्रथम जन्म के पहले तो कोई बुरे कर्म नहीं हुए, तो बुरे कर्म आ कैसे गए?

मैंने उन मुसलमान मित्र से कहा—कि यह बात बिलकुल तर्कयुक्त है। लेकिन क्या इस्लाम और ईसाइयत जो उत्तर देते हैं उन पर आपने विचार किया? उन्होंने कहा, वह ज्यादा ठीक मालूम पड़ता है कि ईश्वर ने आदमी को बनाया, जैसा चाहा वैसा बनाया। तो मैंने कहा—यही थोड़ी—सी बात समझनी है। इस देश में पैदा हुआ कोई भी धर्म जिम्मेदारी ईश्वर पर नहीं डालना चाहता, मनुष्य पर डालना चाहता है। यह मनुष्य की गरिमा की स्वीकृति है। ‘रिस्पासिबिलिटी इज ऑन मैन, नाट ऑन गॉड।’

ध्यान रहे, गरिमा तभी है जब दायित्व हो। अगर दायित्व भी नहीं है—अगर मैं बुरा हूं तो परमात्मा ने बनाया, भला हूं तो परमात्मा ने बनाया—जैसा हूं परमात्मा ने बनाया तो सारी जिम्मेवारी परमात्मा की हो जाती है। और तब और भी उलझन खड़ी होगी कि परमात्मा को बुरा आदमी बनाने में क्या रस हो सकता है? और परमात्मा ही अगर बुरा बनाता है तो हमारी अच्छे बनने की कोशिश परमात्मा के खिलाफ पड़ती है।

इसका अर्थ यह हुआ कि परमात्मा तो आदमी बुरा बनाता है, और तथाकथित साधु संन्यासी आदमी को अच्छा बनाते हैं—यह तो बड़ी मुश्किल है! गुरजिएफ कहा करता था कि दुनियां के सब महात्मा परमात्मा के खिलाफ मालूम पड़ते है, दुश्मन मालूम पड़ते हैं। वह आदमी को बुरा बनाता है या जैसा भी बनाता है, फिर आप कौन है सुधारने वाले? कर्म का सिद्धात कहता है, व्यक्ति पर जिम्मेदारी है लेकिन व्यक्ति पर जिम्मेवारी तभी हो सकती है जब व्यक्ति स्वतंत्र हो।

स्वतंत्रता के साथ दायित्व है—’फ्रीडम इम्‍प्‍लाइज द रिस्पासिबिलिटी।’ अगर स्वतंत्रता नहीं है तो दायित्व बिलकुल नहीं है। अगर स्वतंत्रता है तो दायित्व है। लेकिन स्वतंत्रता सब द्वयमुखी है। दोनों तरफ की स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता होती है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने बेटे से कहा है—जब बेटा बड़ा हो गया, कि तिजोरी तेरी है, चाभी भर मेरे पास रहेगी। ऐसे तू जितना भी खर्च करना चाहे, खर्च कर सकता है लेकिन ताला भर मत खोलना! स्वतंत्रता पूरी दी जा रही मालूम पड़ती है, और जरा भी नहीं दी जाती।

मैने एक मजाक सुना है कि जब पहली दफा फोर्ड ने कारें बनायी अमरीका में तो एक ही रंग की बनायी, काले रंग की। और फोर्ड ने, अपनी फैक्ट्री के दरवाजे पर एक वचन लिख छोड़ा था—’यू कैन द्य ऐनी कलर प्रोवाइडेड इट इज ब्रैक’—आप कोई भी रंग चुन सकते है, अगर वह काला है तो! काले रंग की कुल गाड़ियां ही थीं, कोई दूसरे रंग की तो गाड़ियां थीं नहीं। लेकिन स्वतंत्रता पूरी थी, आप कोई भी रंग चुन लें, बस काला होरा![ चाहिए—इतनी शर्त थी पीछे।

”अगर आदमी से परमात्मा यह कहे कि ‘यू आर फ्री प्रोवाइडेड यू आर गुड’—आप स्वतंत्र हैं, अगर आप अच्छे होना चाहते है—तो ही, तो स्वतंत्रता दो कोड़ी की हो गयी! स्वतंत्रता का अर्थ ही यही होता है कि हम बुरे होने के लिए भी स्वतंत्र है। और जब स्वतंत्रता हो तभी दायित्व है। तब फिर जिम्मा मेरा है, अगर मैं बुरा हूं तो मैं जिम्मेवार हूं। और अगर भला हूं तो मैं जिम्मेवार हो जाता हूं। जिम्मेवारी मुझ पर पड़ जाती है।

फिर भारत यह भी कहता है कि परमात्मा हमसे बाहर नहीं है। वह हमारे भीतर छिपा है। इसलिए हमारी स्वतंत्रता अंततः उसकी ही स्वतंत्रता! इसे और समझ लेना चाहिए। क्योंकि परमात्मा अगर बाहर बैठा हो हमसे, और हमसे कहे कि ‘आई गिव यू फ्रीडम’, मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूं तो भी वह परतंत्रता हो जायेगी। क्योंकि वह किसी भी दिन ‘कैंसिल’ कर सकता है। वह किसी भी दिन कह देगा, अच्छा, बस—अब बंद! इरादा बदल दिया, अब स्वतंत्रता नहीं देते!

तो हम क्या करेंगे?—नहीं, स्वतंत्रता आत्यंतिक है, अल्टीमेट है, क्योंकि देनेवाला और लेनेवाला दो नहीं है। हमारे ही भीतर बैठी हुई चेतना परम स्वतंत्र है क्योंकि वही परमात्मा है। वह जो अंतरस्थ आकाश है वही परमात्मा है। और परमात्मा को भी अगर बुरे होने की शुविधा न हो तो वह परमात्मा की परतंत्रता के अतिरिक्त और क्या घोषणा होगी? इसलिए मन पैदा हो सकता है। वह हमारा पैदा किया हुआ है। वह परमात्मा का पैदा किया हुआ है।

एक और बात खयाल में ले लेनी जरूरी है कि जीवन के प्रगाढ़ अनुभव के लिये विपरीत में उतर जाना अनिवार्य हो जाता है। प्रौढ़ता के लिए, मेच्‍योरिटी के लिए विपरीत में उतर जाना अनिवार्य हो जाता है। जिसने दुख नहीं जाना वह सुख कभी जान नहीं पाता। जिसने अशांति नहीं जानी वह शांति भी कभी नहीं जान पाता, और जिसने संसार नहीं जाना वह स्वयं परमात्मा होते हुए भी परमात्मा को नहीं जान पाता।

परमात्मा की पहचान के लिए संसार की यात्रा पर जाना अनिवार्य है। उससे कोई बचाव नहीं है। और जो जितना गहरा संसार में उतर जाता है उतना ही गहन परमात्मा के स्वरूप को अनुभव कर पाता है। उस उतरने का भी प्रयोजन है। कोई चीज जो हमारे पास सदा से हो, उसका हमें तब तक पता नहीं चलता, जब रुक वह खो न जाए। खोने पर ही पता चलता है कि मेरे पास कुछ था, इसका अनुभव भी खोने पर होता है। खोना भी पाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। खोना भी, ठीक से पाने का उपाय है। खोना भी पाने की क्रिया का अनिवार्य अंग है।

हमारे बीच छिपा है, उसे अगर हमें ठीक—ठीक अनुभव करना हो तो हमें उसे खोने की ही यात्रा पर जाना पड़ता है। कहते हैं लोग कि जब तक कोई परदेस नहीं जाता तब तक अपने देश को नहीं पहचान पाता। वे ठीक कहते है। और कहते हैं लोग कि जब तक कोई दूसरों से परिचित नहीं होता तब तक अपने से परिचित नहीं हो पाता।

‘ईवन द वे टु वनसेल्फ पासेस थ्रू द अदर।’ सार्त्र का बहुत प्रसिद्ध वचन है कि दूसरे को जाने बिना स्वयं को जानने का कोई उपाय नहीं। दूसरे से गुजरना पड़ता है स्वयं की पहचान के लिए—क्यों? क्योंकि जब तक विपरीत का अनुभव न हो तब तक अनुभव ही नहीं है।

जैसे शिक्षक काले ब्‍लैक बोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है, वैसे वह दीवार पर भी लिख सकता है, लिखने में कोई अड़चन नहीं है। लेकिन तब दिखायी नहीं पड़ेगा। लिखा भी जाएगा और दिखायी भी नहीं पड़ेगा। लिखा तो जाएगा, पढ़ा नहीं जा सकेगा। और ऐसे लिखने का क्या प्रयोजन, जो पढ़ा न जा सके?

सुना है मैंने, एक आदमी सुबह—सुबह मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर आया। गांव में अकेला ही पढ़ा—लिखा आदमी था नसरुद्दीन, और जहां एक ही आदमी पढ़ा—लिखा हो तो समझ लेना चाहिए, पढा—लिखा कितना होगा! उस आदमी ने कहा, जरा एक चिट्ठी लिख दो, मुल्ला! मुल्ला ने कहा, मेरे पैर में बहुत दर्द है, मैं न लिख सकूंगा। उस आदमी ने कहा, हद हो गई! कभी हमने सुना नहीं कि लोग पैर से चिट्ठी लिखते है। हाथ से लिखो चिट्ठी, पैर में दर्द है तो पैर से क्या वास्ता? हाथ में क्या अड़चन है? नसरुद्दीन ने कहा, यह जरा रहस्य की बात है, यह न पूछो तो अच्छा! चिट्ठी हम न लिखेंगे, पैर में बहुत तकलीफ है।

उस आदमी ने कहा, जरा रहस्य ही बता दें। बात क्या है, मेरी समझ में नहीं आती? नसरुद्दीन ने कहा, बात यह है कि हमारी लिखी चिट्ठी हमारे सिवाय और कोई नहीं पढ़ पाता। फिर दूसरे गांव की यात्रा करने की अभी हमारी हैसियत नहीं, पैर में तकलीफ बहुत है, नसरुद्दीन ने कहा! जो पढ़ा ही न जा सके उसके लिखने का क्या फायदा?

इसलिए काले ब्लैक बोर्ड पर लिखना पड़ता है। उस पर दिखायी पड़ता है। आकाश पर जब काले बादल होते हैं तो दिखायी पड़ती है बिजली कौंधती हुई। भीतर जो छिपा है परमात्मा उसके अनुभव के लिए पदार्थ की गहनता में उतरना अनिवार्य है। संन्यास को भी जानने के लिए गृहस्थ हुए बिना कोई मार्ग नहीं।

सत्य को भी जानने के लिए असत्य के रास्तों से गुजरना पड़ता है। और इसकी जब कोई अनिवार्यता समझता है और इस रहस्य को समझ जाता है तो फिर जिस असत्य से गुजरा, उसके प्रति भी धन्यवाद मन में उठता है। क्योंकि उसके बिना सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता था।

जिस पाप से गुजरकर पुण्य तक पहुंचे उस पाप की भी अनुकंपा ही मालूम होती है, क्योंकि उसके बिना पुण्य तक नहीं पहुंचा जा सकता था।

बोधिधर्म ने कहा है, और बोधिधर्म इस पृथ्वी पर दस पांच लोगों में एक है जिसने गहनतम सत्य के अनुभव को जाना। बोधिधर्म ने कहा है मरने के क्षण में, कि संसार, तेरा धन्यवाद! क्योंकि तेरे बिना निर्वाण को जानने का कोई उपाय नहीं। शरीर, तुझे धन्यवाद! क्योंकि तेरे बिना आत्मा को पहचानने की शुविधा भी नहीं। सब पापो, तुम्हारी अनुकंपा मुझ पर! क्योंकि तुमसे गुजरकर मैं पुण्य के शिखर तक पहुंचा, तुम सीढ़ियां थे।

तब जीवन विपरीत रहकर भी विपरीत नहीं रह जाता। तब जीवन विपरीत होकर भी एक रस हो जाता है। और विपरीत में भी एक हार्मनी और एक संगीत उत्‍पन्‍न हो जाता है। संगीत पैदा होता है विभिन्न स्वरों से। और अगर संगीत के किसी स्वर को बहुत उभारना हो तो उसके पहले भी बहुत धीमे स्वर पैदा करने पड़ते हैं—तब उभरता है संगीत!

सब अभिव्यक्ति विपरीत के साथ है। इसलिए चेतना मन को पैदा करती है। यह चेतना का ही काम है। चेतना ही बाहर जाती है। और बाहर ही भटक—भटककर उसे पता चलता है कि बाहर कुछ नहीं है। तब चेतना भीतर वापस आती है। ध्यान रहे, जो चेतना कभी बाहर नहीं गयी उस चेतना में, और जो चेतना बाहर भटककर भीतर आती है उस चेतना में, रिचनेस का, समृद्धि का बहुत फर्क है।

इसलिए जब पापी कभी पुण्यात्मा होता है तो उसके पुण्य की जो गहराई होती है वह साधारण आदमी के पुण्य की गहराई नहीं होती, जो कभी पापी नहीं हुआ। क्योंकि पापी बहुत जानकर पुण्य तक पहुंचता है। मनोवैज्ञानिक कहते है, अच्छे आदमी की कोई जिंदगी नहीं होती। अगर आप नाटककारों से पूछें उपन्यासकारों से पूछें, फिल्म कथा लिखने—वालों से पूछें तो वे कहेंगे कि अच्छे आदमी पर तो कोई कथा ही नहीं लिखी जा सकती। अगर आदमी बिलकुल अच्छा हो तो कोरा सपाट होता है।

रामायण में से राम को छोड़ने में बहुत अशुविधा नहीं, रावण को छोडने में सब कथा गड़बड़ हो जाती है। क्योंकि राम के बिना चल सकता है, रावण के बिना नहीं चल सकता। कोई कितना ही कहे कि राम नायक है—जो कथा लिखना जानते हैं वे कहेंगे, रावण नायक है, क्योंकि सारी कथा उसके इर्द—गिर्द घूमती है। और अगर राम भी प्रखर होकर प्रगट होते हैं तो रावण के सहारे, रावण के कंधे पर। रावण के बिना राम भी सफेद दीवार पर खींची गयी सफेद रेखा हो जायेंगे, काला लैक बोर्ड तो रावण है।

स्कूल में शिक्षक जब काले बोर्ड पर लिखता है तो बच्चे ब्रैक बोर्ड का विरोध नहीं करते। वे जानते हैं कि सफेद रेखा उसी पर उभरती है। लेकिन जब रावण के ब्रैक बोर्ड पर राम उभरते हैं तो हम नासमझ विरोध करते हैं कि रावण नहीं होना चाहिए। रावण दुनियां से मिटा दो। जिस दिन आप रावण को दुनियां से मिटा देंगे उस दिन राम भी तिरोहित हो जाएंगे—वह कहीं खोजे से नहीं मिलेंगे।

जीवन विपरीत स्वरों के बीच एक सामंजस्य है। चेतना ही पैदा करती है मन को। चेतना ही विचार को पैदा करती है, ताकि निर्विचार को जान सके। परमात्मा ही संसार को बनाता है, ताकि स्वयं को अनुभव कर सके। यह आत्म—अन्वेषण की यात्रा है, इसमें भटकना जरूरी है।

एक कहानी मैं निरंतर कहता रहा हूं। एक गांव के बाहर उतरा, एक आदमी अपने घोडे से। झाडू के पास बैठे नसरुद्दीन के सामने उसने झोली पटकी और कहा कि करोड़ों के हीरे जवाहरात इस झोली में है। इसे मैं लेकर घूम रहा हूं गांव—गांव। मुझे कोई रत्तीभर भी सुख दे दे तो मैं यह सब हीरे उसे सौंप दूं लेकिन अब तक मुझे कोई रत्तीभर सुख नहीं दे पाया।

नसरुद्दीन ने पूछा, तुम बहुत दुखी हो? उसने कहा, मुझसे ज्यादा दुखी कोई नहीं हो सकता। तभी तो मैं रत्तीभर सुख के लिए करोड़ों के हीरे देने को तैयार हूं। नसरुद्दीन ने कहा, तुम ठीक जगह आ गए हो—बैठो! वह जब तक बैठा तब तक नसरुद्दीन उसकी थैली लेकर भाग खड़ा हुआ। वह आदमी स्वभावत: नसरुद्दीन के पीछे भागा कि मैं मर गया, मैं मर गया! यह आदमी डाकू है, यह लुटेरा है! गांव के गली कूचे नसरुद्दीन के परिचित थे। उसने काफी चक्कर खिलाए। पूरा गांव जग गया। सारा गांव दौड़ने लगा।

करोड़ों का मामला था। नसरुद्दीन आगे और वह धनपति पीछे छाती पीटता हुआ जोर—जोर से चिल्ला रहा है कि मेरी जिंदगीभर की कमाई वही है। मैं सुख खोजने निकला हूं और यह दुष्ट मुझे और दुख दिए दे रहा है। भागकर नसरुद्दीन उसी झाडू के पास पहुंच गया जहां उसका घोड़ा खड़ा था। उसने झोला घोड़े के पास रख दिया और झाड़ के पीछे खड़ा हो गया। दो क्षण बाद अमीर भी भागा हुआ पहुंचा, अमीर ने झोला पड़ा हुआ देखा, उठाकर छाती से लगा लिया और कहा, हे परमात्मा! तेरा बड़ा धन्यवाद!

नसरुद्दीन ने झाडू के पीछे से पूछा, कुछ सुख मिला? —पाने के लिए खोना जरूरी है! उस आदमी ने कहा, कुछ? कुछ नहीं, बहुत मिला! इतना सुख मैंने जीवन में जाना ही नहीं। नसरुद्दीन ने कहा, अब तू जा, नहीं तो इससे ज्यादा अगर मैं सुख दूंगा तो तू मुसीबत में पड सकता है।

बहुत बार खोना बहुत जरूरी है। सवाल यह नहीं है कि हमने क्यों अपने को खोया? असली सवाल यह है कि या तो हमने पूरा अपने को नहीं खोया, या हम खोने के इतने अभ्यासी हो गए कि लौटने के सब रास्ते टूट गए मालूम पड़ते हैं। खोना अनिवार्य है। पर सवाल यह है कि कब तक हम खोये रहेंगे?

इसलिए बुद्ध से अगर कोई पूछता था कि यह आदमी अंधकार में क्यों गिरा? तो बुद्ध कहते, व्यर्थ की बातें मत करो। अगर पूछना हो तो यह पूछो कि अंधकार के बाहर कैसे जाया जा सकता है? यह सवाल संगत है, दूसरा असंगत है। बेकार की बातचीत में मुझे मत खींचो कि यह आदमी अंधकार में क्यों गिरा? वह तुम बाद में खोज लेना। अभी तुम मुझसे यह पूछ लो कि प्रकाश कैसे मिल सकता है।

बुद्ध कहते कि तुम उस आदमी जैसे हो जिसकी छाती में जहरीला तीर घुसा हो। मैं उसकी छाती से तीर खींचने लग तो वह आदमी कहे कि रुको, पहले यह बताओ कि यह तीर किसने मारा? पहले यह बताओ कि यह तीर पूरब से आया कि पश्‍चिम से? पहले यह बताओ कि यह तीर जहर बुझा है या साधारण है?

बुद्ध कहते, मैं उस आदमी से कहता कि यह सब तुम पीछे पता लगा लेना, अभी मै तीर को खींचकर बाहर निकाल दे रहा हूं। लेकिन वह आदमी कहता है कि जब तक जानकारी पूरी न हो, तब तक कुछ भी करना क्या उचित है?

यह फिक्र मत करें कि मन कैसे पैदा हुआ? यह फिक्र करें कि मन कैसे विसर्जित हो सकता है। और ध्यान रहे, बिना विसर्जन किए आपको कभी पता न चलेगा कि कैसे इसका सर्जन किया। उसके कारण हैं। क्योंकि सर्जन किए अनंत काल बीत गया। इस स्मृति को खोजना आज आपके लिए आसान नहीं होगा। उसका भी रास्ता है।

अगर आप लौटें अपने पिछले जन्मों में—लौटते जाएं—लौटते जाएं… आदमी के जन्म चुक जाएंगे। पशुओं के जन्म होंगे, पशुओं के जन्म चुक जाएंगे। कीड़े—मकोड़ों के जन्म होंगे, कीड़े—मकोड़ों के जन्म चुक जाएंगे। पौधों के जन्म होंगे, पौधों के जन्म चुक जाएंगे। पत्थरों के जन्म होंगे—लौटते जाएं उस जगह, जहां पहले दिन आपकी चेतना सक्रिय हुई और मन का निर्माण शुरू हुआ!

लेकिन वह बड़ी लंबी यात्रा है। उसमें मत पड़े कि यह मन कैसे बना? हां, लेकिन एक सरल उपाय है कि इस मन को विसर्जित करें। और विसर्जन को आप अभी देख सकते है। जब आप विसर्जन को देख लेंगे तो आप जान जायेंगे कि विसर्जन की जो प्रक्रिया है उसमें उल्टी प्रक्रिया सर्जन की है।

बुद्ध एक दिन अपने भिक्षुओं के बीच सुबह जब बोलने गए तो उनके हाथ में एक रेशम का रूमाल था। बैठकर उन्होंने उस पर पांच गांठें लगायीं! भिक्षु बड़े चिंतित हुए क्योंकि बुद्ध कभी कुछ लेकर हाथ में आते न थे। रेशम का रूमाल क्यों ले आए और फिर बोलने की जगह बैठकर उस पर गांठें लगाने लगे। बड़ी उत्सुकता, बड़ी आतुरता हो गई! क्या कोई जादू दिखाने का खयाल है? क्योंकि जादूगर रूमाल वगैरह लेकर आते है। लेकिन बुद्ध ने शांति से, सन्नाटे में रूमाल में पांच गांठें लगा लीं!

और फिर बोले—भिक्षुओ, इस रूमाल में गांठें लग गयीं। मै तुमसे दो सवाल पूछना चाहता हूं। एक तो यह कि जब रूमाल में गांठें नहीं लगी थीं तब के रूमाल में, और जब रूमाल में गांठें लग गई हैं, अब के रूमाल में क्या कोई फर्क है, स्वरूपगत?

एक भिक्षु ने कहा, स्वरूपगत तो फर्क बिलकुल नहीं है, रूमाल वही है। जरा भी, इंचभर भी रूमाल के स्वरूप में फर्क नहीं है लेकिन आप हमें फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। फर्क हो गया, क्योंकि तब रूमाल में गांठें न थीं और अब गांठें हैं। लेकिन यह फर्क बहुत ऊपरी है, क्योंकि गांठें रूमाल के स्वभाव पर नहीं लगती, केवल शरीर पर लगती हैं।

संसार और निर्वाण में इतना ही फर्क है। निर्वाण में भी वही स्वरूप होता है जो संसार में है। सिर्फ संसार में रूमाल पर पांच गांठें हैं। बुद्ध ने कहा कि भिक्षुओं, यह जो रूमाल है गांठ लगा हुआ, ऐसे ही तुम हो। तुममें और मुझमें बहुत फर्क नहीं—स्वरूप एक जैसा है, सिर्फ तुम पर कुछ गांठें लगी है।

बुद्ध ने कहा, इन गांठों को मै खोलना चाहता हूं। और उस रूमाल को पक्क्कर बुद्ध ने खींचा। स्वभावत: खींचने से गांठें और मजबूत हो गयीं। एक भिक्षु ने कहा, आप जो कर रहे है, इससे गांठें खुलेंगी नहीं, खुलना मुश्किल हो जाएगा।

बुद्ध ने कहा, तो इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक गांठों को ठीक से न समझ लिया जाए तब तक खींचना खतरनाक है। हम सब गांठों को खींच रहे हैं बिना समझे, कि गांठ कैसे लगी है? एक भिक्षु से बुद्ध ने पूछा, तो मै क्या करूं? उस भिक्षु ने कहा, जानना जरूरी है कि गांठ कैसे लगी? गांठ खोली जा सकती है, क्योंकि लगने का जो ढंग है उससे विपरीत खुलने का ढंग होगा।

बुद्ध ने कहा, गांठें अभी लगी हैं इसलिए तुम्हारे खयाल में है कि कैसे लगीं, लेकिन गांठें अगर बहुत काल पहले लगी होतीं तो तुम कैसे पता लगाते कि गांठें कैसे लगीं? उस भिक्षु ने कहा, तब तो हम खोलकर ही पता लगाते। खोलने से पता लग जाएगा। क्योंकि खोलने का जो ढंग है उसका उल्टा ढंग लगने का होगा। तो आप इस फिक्र में न पड़े कि यह मन कैसे पैदा हुआ? आप इस फिक्र में पड़े कि यह मन कैसे चला जाए? और जिस क्षण चला जाएगा उस दिन आप जानेंगे, उसी क्षण कि कैसे पैदा हुआ था? जो विसर्जन करता है वही सर्जन करनेवाला है और जो विसर्जन कर सकता है वह सर्जन भी कर सकता था। विसर्जन की जो प्रक्रिया है, उससे उल्टी प्रक्रिया सर्जन की है।

भीतर का जो आकाश है वह बादल रहित, मेघ रहित, विचार रहित, मन रहित है। बाहर के आकाश का तभी पता चलता है जब आकाश में बादल घिर जाते हैं, पर तब बादलों का पता चलता है, आकाश का पता नहीं चलता—हालांकि आकाश मिट नहीं गया होता, सदा बादलों के पीछे खड़ा रहता है। और बादल भी आकाश में ही होते हैं, आकाश के बिना नहीं हो सकते। इसी भांति विचारों से, मन से घिरे हुए भीतर के आकाश का भी पता नहीं चलता।

ह्यूम ने कहा है, ये बातें सुनकर कि भीतर भी कोई है, मैं बहुत बार खोजने गया; लेकिन जब भी भीतर गया तो मुझे कोई आला न मिली, कोई परमात्मा न मिला। या तो कभी कोई विचार मिला, कोई वासना मिली, कोई वृत्ति मिली, या कोई राग मिला; लेकिन आत्मा कभी भी न मिली। वह ठीक कहता है।

अगर आप अपने हवाई जहाज को उड़ाए या अपने को फैलाएं आकाश की तरफ—बदलियां आपको मिलें और बदलियों को ही खोज करके आप वापस लौट आएं बदलियों को पार न करें, तो लौटकर आप भी कहेंगे—कोई आकाश भी न मिला! बदलियां ही बदलियां थीं, धुआं ही धुआं था, बादल ही बादल थे, कहीं कोई आकाश न था! अपने भीतर भी हम सिर्फ बदलियों तक जाकर लौट आते हैं। उनके पार प्रवेश नहीं हो पाता। पार जाने की उडान ऐसी ही है—जैसे आप कभी हवाई जहाज पर उड़े हों, बादलों के पार और ऊपर, और जब बादल नीचे छूट जाते हैं!

वैसे ही ध्यान में भी एक उड़ान होती है जब विचार नीचे छूट जाते हैं और आप ऊपर हो जाते हैं। तब खुला आकाश मिलता है! तब अंतर—आकाश से परिचय होता है!! तब सर्जन—विसर्जन के सारे भेद को आप जान पाते है!!!

‘अमृत वाणी’ से संकलित सुधा—बिंदु 1970—71


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मैं कहता अांखन देखी–(प्रवचन–29)

$
0
0

जो बोएंगे बीज वही काटेंगे फसल—(प्रवचन—उन्नतीसवां)

‘अमृत वाणी’ से संकलित

सुधा—बिंदु 1970—71

किसे हम कहें कि अपना मित्र है और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है। एक छोटी—सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं

कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोनेवाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुख का बीज बोते हैं। निश्‍चित ही बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है, इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अकसर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य—कि फल जहर के और विष के उपलब्ध हुए हैं!

लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है। हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते है, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते है जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंचते जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो।

रास्ते को कोई इससे प्रयोजन नहीं है। मैं नदी की तरफ नहीं जा रहा हूं। मन में सोचता हूं कि नदी की तरफ जा रहा हूं लेकिन बाजार की तरफ जानेवाले रास्ते पर चलूंगा तो मैं कितना ही सोचूं कि मैं नदी की तरफ जा मैं ही सोचने से नहीं है आदमी। किन रास्तों पर चलता है उनसे है। रहा हूं पहुंचूंगा बाजार। पहुंचता पहुंचता

मंजिलें मन में तय नहीं होतीं, रास्ते पर तय होती हैं।

आप कोई भी सपना देखते रहें, अगर बीज आपने नीम के बो दिए हैं तो सपने आप शायद ले रहे हों कि कोई स्वादिष्ट मधुर फल लगेंगे—आपके सपनों से फल नहीं निकलते! फल आपके बोए बीजों से निकलते हैं। इसलिए आखिर में जब नीम के कड़वे फल हाथ में आते हैं तो शायद आप दुखी होते हैं, पछताते हैं और सोचते हैं कि मैंने तो बीज बोए थे अमृत के, फल कड़वे कैसे आए?

ध्यान रहे, फल ही कसौटी है और परीक्षा है बीज की। फल ही बताता है कि बीज आपने कैसे बोए थे? आपने कल्पना क्या की थी, उससे बीजों को कोई प्रयोजन नहीं है।

हम सभी आनन्द लाना चाहते हैं जीवन में, लेकिन आता कहां है आनन्द? हम सभी शांति चाहते हैं जीवन में, लेकिन मिलती कहां है शान्ति! हम सभी चाहते हैं कि सुख, महासुख ही बरसे, पर बरसता कभी नहीं। तो इस संबंध में एक बात इस सूत्र से समझ लेनी जरूरी है कि हमारी चाह से नहीं आते फल। हम जो बोते हैं उससे आते हैं। हम चाहते कुछ हैं, बोते कुछ हैं। हम बोते जहर हैं और चाहते अमृत हैं। इसलिए जब फल आते हैं तो जहर के ही आते हैं, दुख और पीड़ा के ही आते हैं—नर्क ही फलित होता है।

हम सब अपने जीवन को देखें तो खयाल में आ सकता है। जीवनभर चलकर हम सिवाय दुख के गड्डों के और कहीं भी पहुंचते नहीं मालूम पड़ते हैं। रोज दुख घना होता चला जाता है। रोज रात कटती नहीं, और बड़ी होती चली जाती है। रोज मन पर संताप के कांटे फैलते चले जाते हैं और फूल आनन्द के कहीं खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। पैरों में पत्थर बंध जाते हैं दुख के।

पैर नृत्य नहीं कर पाते हैं उस खुशी में, जिस खुशी की हम तलाश में हैं। क्योंकि कहीं न कहीं हम, हम ही—क्योंकि और कोई नहीं है—कुछ गलत बो लेते हैं। उस गलत बोने में ही हम अपने शत्रु सिद्ध होते हैं। बहुत हैरानी की बात है, एक आदमी क्रोध के बीज बोए और शांति पाना चाहे! एक आदमी घृणा के बीज बोए और प्रेम की फसल काटना चाहे! आदमी चारों तरफ शत्रुता फैलाए और चाहे कि सारे लोग उसके मित्र हो जाएं! एक आदमी सबकी तरफ गालियां फेंके और चाहे— कि शुभाशीष सारे आकाश से उसके ऊपर बरसने लगे! यह असम्भव है। पर आदमी ऐसी ही असम्भव चाह करता है।

‘द इम्पोसिबल डिज़ायर’ —मैं गाली दूं और दूसरा मुझे आदर दे जाए, ऐसी असम्भव कामना—हमारे मन में चलती है। मैं दूसरे को घृणा करूं और दूसरे मुझे प्रेम कर जाएं। मैं किसी पर भरोसा न करूं और सब मुझ पर भरोसा कर लें। मैं सबको धोखा दूं और मुझे कोई धोखा न दे। मैं सबको दुख पहुंचाऊं, लेकिन मुझे कोई दुख न पहुंचाए।

जो हम बोएंगे, वही हम पर लौटने लगेगा। जीवन का सूत्र ही यह है कि जो हम फेंकते हैं वही हम पर वापस लौट आता है।

चारों ओर हमारी ही फेंकी हुई ध्वनियां प्रतिध्वनित होकर हमें मिल जाती है। थोड़ी देर अवश्य लगती है। ध्वनि टकराती है बाहर की दिशाओं से, और लौट आती है। जब तक लौटती है तब तक हमें खयाल भी नहीं रह जाता कि हमने जो गाली फेंकी थी वही वापस लौट रही है।

बुद्ध का एक शिष्य एक रास्ते से गुजर रहा है। उसके साथ दस पन्द्रह संन्यासी हैं। जोर से पैर में उसके पत्थर लग जाता है रास्ते पर, खून बहने लगता है। शिष्य आकाश की तरफ हाथ जोड़कर किसी आनन्द भाव में लीन हो जाता है। उसके साथी वे पन्द्रह भिक्षु हैरानी में खड़े रह जाते हैं! शिष्य जब अपने ध्यान से वापस लौटता है तब उससे पूछते हैं कि आप क्या कर रहे थे! पैर में चोट लगी, पत्थर लगा, खून और आप कुछ इस प्रकार हाथ जोड़े हुए थे जैसे किसी को धन्यवाद दे रहे हों।

शिष्य ने कहा, बस यह एक मेरा विष को बीज और बाकी रह गया था। मारा था किसी को पत्थर कभी, आज उससे छुटकारा हो गया। आज नमस्कार करके धन्यवाद दे दिया है प्रभु को, कि अब मेरे बोये हुए बीज कुछ भी न बचे। यह आखिरी फसल समाप्त हो गयी।

लेकिन और आपको रास्ते पर चलते वक्त पत्थर पैर में लग जाए तो इसकी बहुत कम सम्भावना है कि आप ऐसा सोचें किं किसी बोए हुए बीज का फल हो सकता है। ऐसा नहीं सोच पाएंगे। सम्भावना यही है कि रास्ते पर पड़े हुए पत्थर को भी आप एक गाली जरूर देंगे। पत्थर को भी गाली, और कभी खयाल भी न करेंगे कि पत्थर को दी गयी गाली, फिर बीज बो रहे हैं आप! पत्थर को दी हुई गाली भी बीज बनेगी। सवाल यह नहीं है कि किसको गाली दी। सवाल यह है कि आपने गाली दी, वह वापस लौटेगी।

सुना है मैंने कि गांव का साधारण ग्रामीण किसान बैलों को गाली देने में बहुत ही कुशल है, अपनी बैलगाडी में जोत कर। जीसस निकलते हैं गांव के रास्ते से। वह आदमी अपने बैलों को बेहूदी गालियां दे रहा है। बड़े आंतरिक संबंध बना रहा है गालियों से। जीसस उसे रोकते हैं और कहते हैं, पागल, तू यह क्या कर रहा है? वह आदमी कहता है कि कोई बैल मुझे गाली वापस तो नहीं लौटा देंगे, मेरा क्या बिगड़गा! वह आदमी ठीक कहता है। हमारा गणित बिलकुल ऐसा ही है।

जो आदमी गाली वापस नहीं लौटा सकता उसे गाली देने में हर्ज क्या है। इसलिए अपने से कमजोर को देखकर हम सब गाली देते हैं। हम बेवक्त गाली देते हैं, जब कोई जरूरत भी न हो। कमजोर दिखा कि हमारा दिल मचलता है कि थोड़ा इसको सता लो।

जीसस ने कहा, बैलों को गाली तू दे रहा है, अगर वे गाली लौटा सकते तो कम खतरा था, क्योंकि निपटारा अभी हो जाता। लेकिन चूंकि वे गाली नहीं लौटा सकते, लेकिन गाली तो लौटेगी। तू मंहगे सौदे में पड़ेगा।

यह गाली देना छोड़! जीसस की तरफ उस आदमी ने देखा, जीसस की आंखों को देखा, उसके आनन्द को, उनकी शांति को देखा। उसने उनके पैर छुए और कहा कि मैं कसम लेता हूं इन बैलों को गाली नहीं दूंगा।

जीसस दूसरे गांव चले गए। दो चार दिन आदमी ने बड़ी मेहनत से अपने को रोका, लेकिन कसमों से दुनियां में कोई रुकावटें नहीं होतीं। रुकावट होती है, समझ से! दो चार दिन में प्रभाव क्षीण हुआ। वह आदमी अपनी जगह वापस लौट आया। उसने कहा, छोड़ो भी, ऐसे तो हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। बैलगाडी से आना मुश्किल हो गया। हिसाब बैलगाड़ी चलाने का रखें कि गाली न देने का रखें। बैलों को जोते कि अपने को जोते रहें। बैलों को सम्हाले कि खुद को सम्हाले। यह तो एक मुसीबत हो गयी।

गाली उसने वापस देनी शुरू कर दी। चार दिन जितनी रोकी थी उतनी एक दिन में निकाल ली। रफा—दफा हुआ, मामला हल्का हुआ, मन उसका शांत हुआ। कोई तीन चार महीने बाद जीसस उस गांव से वापस निकल रहे थे। उसको पता भी नहीं था कि यह आदमी फिर मिल जाएगा रास्ते में। वह धुंआधार गालियां दे रहा है बैलों को। जीसस ने खड़े होकर कहा—यह क्या है मेरे भाई? उसने देखा जीसस को और फौरन बात बदली। उसने कहा बैलों से—देखो बैल, यह मैंने तुम्हें गालियां दीं, ऐसी मैं तुम्हें पहले दिया करता था। अब मेरे प्यारे बेटो, जरा तेजी से चलो।

जीसस ने कहा—तू बैलों को ही धोखा नहीं दे रहा है; तू मुझे भी धोखा दे रहा है। और तू मुझे धोखा दे इससे बहुत हर्जा नहीं है, तू अपने को धोखा दे रहा है। अंतिम धोखा तो खुद पर गिर जाता है। जीसस ने कहा—हो सकता है, मैं दुबारा इस गांव फिर कभी न आऊं। मैं मान ही ले रहा हूं कि तू बैलों को गालियां नहीं दे रहा था, सिर्फ पुरानी गालियां बैलों को याद दिला रहा था। लेकिन किसलिए याद दिला रेहा था? तू मुझे धोखा दे कि तू बैलों को धोखा दे—इसका बहुत अर्थ नहीं है, लेकिन तू अपने को ही धोखा दे रहा है।

जीवन में जब भी हम कुछ बुरा कर रहे है तो हम किसी दूसरे के साथ कर रहे है, यह भांति है आपकी। प्राथमिक रूप से हम अपने ही साथ कर रहे है। क्योंकि अंतिम फल हमें भोगने हैं। वह जो भी हम बो रहे हैं, उसकी फसल हमें काटनी है। इंच—इंच का हिसाब है। इस जगत में कुछ भी बेहिसाब नहीं जाता है। हम अपने शत्रु हो जाते है। हम कुछ ऐसा करते है जिससे हम अपने को ही दुख में डालते हैं, अपने ही दुख में उतरने की सीढ़ियां निर्मित करते हैं।

तो ठीक से देख लेना, जो आदमी अपना शत्रु है, वही आदमी अधार्मिक है। और जो अपना शत्रु है वह किसी का मित्र तो कैसे हो सकेगा? जो अपना भी मित्र नहीं, जो अपने लिए ही दुख के आधार बना रहा है वह सबके लिए दुख के आधार बना देगा।

पहला पाप अपने साथ शत्रुता है। फिर उसका फैलाव होता है। फिर अपने निकटतम लोगों के साथ शत्रुता बनती है, फिर दूरतम लोगों के साथ। फिर जहर फैलता चला जाता है, हमें पता भी नहीं चलता—जैसे कि झील में, कोई शांत झील में पत्थर फेंक दे! चोट पड़ते ही पत्थर तो नीचे बैठ जाता है क्षणभर में, लेकिन झील की सतह पर उठी हुई लहरें दूर—दूर तक यात्रा पर निकल जाती है। लहरें चलती चली जाती हैं अनन्त तक।

ऐसे ही हम जो करते हैं.. .हम तो करके चुक भी जाते हैं—आपने गाली दे दी, बात खत्म हो गयी—फिर आप गीता पढ़ने लगे या कुछ भी करने लगे, लेकिन उस गाली की जो ‘रिपिल्‍स’, जो तरंगें पैदा हुईं वह चल पड़ी। वह न मालूम कितने दूर के छोरों को छुएंगी! और जितना अहित उस गाली से होगा उतने सारे अहित के लिए आप जिम्मेवार हो गए! आप कहेंगे, कितना अहित हो सकता है एक गाली से? मैं कहता हूं अकल्पनीय अहित हो सकता है। और जितना अहित हो जाएगा इस विश्व के तंत्र में, उतने के लिए आप जिम्मेदार हो जाएंगे। और कौन जिम्मेदार होगा? आपने उठायी वे लहरें। आपने ही बोया वह बीज। अब वह चल पडा। अब वह दूर—दूर तक फैल जाएगा।

एक छोटी—सी दी हुई गाली से क्या—क्या हो सकता है! अगर आपने अकेले में गाली दी हो और किसी ने न सुनी हो तब तो शायद आप सोचेंगे कि कुछ भी नहीं होगा इसका परिणाम। लेकिन इस जगत में कोई भी घटना निष्‍पारिणामी नहीं है। उसके परिणाम होंगे ही। आप बहुत सूक्ष्म तरंग पैदा करते हैं अपने चारों ओर। वे तरंगें फैलती हैं। उन तरंगों के प्रभाव में जो लोग भी आएंगे वे गलत रास्ते पर धक्का खाएंगे।

अभी बहुत काम चलता है सूक्ष्मतम तरंगों पर और खयाल में आता है कि अगर गलत लोग एक जगह इकट्ठे हों, सिर्फ चुपचाप बैठे हों, कुछ भी नहीं कर रहे हों, सिर्फ गलत हों और आप उनके पास से गुजर जाएं तो आपके भीतर जो गलत हिस्सा है वह ऊपर आ जाता है। और जो ठीक हिस्सा है वह नीचे दब जाता है। दोनों हिस्से आपके भीतर हैं।

अगर कुछ अच्छे लोग बैठे हों एक जगह, प्रभु का स्मरण करते हों, कि प्रभु का गीत गाते हों, कि किसी सदभावों के फूलों की सुगन्ध में जीते हों, कि सिर्फ मौन ही बैठे हों—जब आप इन लोगों के पास से गुजरते है तो दूसरी घटना घटती है। आपका गलत हिस्सा नीचे दब जाता है, आपका श्रेष्ठ हिस्सा ऊपर आ जाता है।

आपकी सम्भावनाओं में इतने सूक्ष्मतम अन्तर होते हैं कि हिसाब लगाना मुश्किल है। और हम चौबीस घंटे कुछ न कुछ कर रहे हैं। एक छोटा—सा गलत बोला गया शब्द कितनी दूर तक कांटों को बो जाएगा, हमें कुछ पता नहीं है।

बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि तुम चौबीस घण्टे, राह पर कोई दिखे उसकी मंगल की कामना करना। वृक्ष भी मिल जाए तो उसकी मंगल की कामना करके उसके पास से गुजरना। पहाड़ भी दिख जाए तो मंगल की कामना करके उसके निकट से गुजरना। राहगीर दिख जाए अनजान, तो उसके पास से मंगल की कामना करके राह से गुजरना।

एक भिक्षु ने पूछा, इससे क्या फायदा? बुद्ध ने कहा, इसके दो फायदे हैं। पहला तो यह कि तुम्हें गाली देने का अवसर न मिलेगा। तुम्हें बुरा खयाल करने का अवसर न मिलेगा। तुम्हारी शक्ति नियोजित हो जाएगी मंगल की दिशा में। और दूसरा फायदा यह कि जब तुम किसी के लिये मंगल की कामना करते हो तो तुम उसके भीतर भी रिजोनेंस, प्रतिध्वनि पैदा करते हो। वह भी तुम्हारे लिए मंगल की कामना से भर जाता है।

इसलिए इस मुल्क में राह पर चलते हुए अनजान आदमी को भी ‘राम—राम’ कहने की प्रक्रिया बनायी थी, जो शायद दुनियां में कहीं नहीं बनायी जा सकी।

उस आदमी को देखकर हमने प्रभु का स्मरण किया। जो ठीक से नमस्कार करना जानते हैं, वह सिर्फ उच्चारण नहीं करेंगे, वह उस आदमी में राम की प्रतिमा को भी देखकर गुजर जाएंगे। उन्होंने उस आदमी को देखकर प्रभु का स्मरण किया। उस आदमी की मौजूदगी प्रभु के स्मरण की घटना बन गयी। इस मौके को छोडा नहीं, इस मौके पर एक शुभ—कामना पैदा की गयी। प्रभु के स्मरण की घड़ी पैदा की गयी। और हो सकता है, वह आदमी शायद राम को मानता भी न हो और जानता भी न हो लेकिन उत्तर में वह भी कहेगा— ‘राम—राम’। उसके भीतर भी कुछ ऊपर आयेगा। और अगर पुराने गांव की राह से गुजरें तो राह में पच्चीस दफा राम राम कर लेना पड़ता है।

जीवन बहुत छोटी—छोटी घटनाओं से निर्मित होता है। मंगल की कामना या प्रभु का स्मरण आपके भीतर जो श्रेष्ठ है उसको ऊपर लाता है। और दूसरे के भीतर जो श्रेष्ठ है उसे भी ऊपर लाता है। जब आप किसी के सामने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुका देते हैं तो आप उसको भी झुकने का एक अवसर देते हैं। और झुकने से बड़ा अवसर इस जगत में दूसरा नहीं है क्योंकि झुका हुआ सिर कुछ बुरा नहीं सोच पाता। झुका हुआ सिर गाली नहीं दे पाता। गाली देने के लिए अक्खा हुआ सिर चाहिए।

और कभी आपने खयाल किया हो या ना किया हो, लेकिन अब आप खयाल करना कि जब किसी को हृदयपूर्वक नमस्कार करके सिर झुकायें, और अगर कल्पना भी कर सकें कि परमात्मा दूसरी तरफ है तो आप अपने में भी फर्क पायेंगे और उस आदमी में भी फर्क पाएंगें। वह आदमी आपके पास से गुजरा तो आपने उसके लिए पारस का काम किया, उसके भीतर कुछ आपने सोना बना दिया। और जब आप किसी के लिए पारस का काम करते है तो दूसरा भी आपके लिए पारस बन जाता है।

जीवन संबंध है, रिलेशनशिप है। हम संबंधों में जीते हैं। हम अपने चारों तरफ अगर पारस का काम करते है तो यह असंभव है कि बाकी लोग हमारे लिए पारस न हो जाएं। वे भी हो जाते हैं।

अपना मित्र वही है जो अपने चारों ओर मंगल का फैलाव करता है, अपने चारों ओर शुभ की कामना करता है। जो अपने चारों ओर नमन से भरा हुआ है, अपने चारों ओर कृतज्ञता का ज्ञापन करता चलता है। और जो व्यक्ति दूसरों के लिए मंगल से भरा हो वह अपने लिए अमंगल से कैसे .भर सकता है? जो दूसरों के लिए भी सुख की कामना से भरा हो वह अपने लिए दुख की कामना से नहीं भर सकता। वह अपना मित्र हो जाता है। और अपना मित्र हो जाना बहुत बड़ी घटना है। जो अपना मित्र हो गया वह धार्मिक हो गया। अब वह ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता जिससे स्वयं को दुख मिले।

तो अपना हिसाब रख लेना चाहिए कि मैं ऐसे कौन—कौन से काम करता हूं जिससे मैं ही दुख पाता हूं। दिन में हम हजार काम कर रहे हैं, जिनसे हम दुख पाते हैं। हजार बार पा चुके हैं। लेकिन कभी हम ठीक से तर्क नहीं समझ पाते है जीवन का, कि हम इन कामों को करके दुख पाते हैं। वही बात जो आपको हजार बार मुश्किल में डाल चुकी है, आप फिर कह देते हैं। वही व्यवहार जो आपको हजार बार पीड़ा में धक्के दे चुका है, आप फिर कर गुजरते हैं। वही सब दोहराये चले जाते हैं यंत्र की भांति!

जिन्दगी एक पुनरुक्ति से ज्यादा नहीं मालूम पड़ता, जैसी हम जीते हैं—एक ‘मेकेनिकल रिपीटीशन’ —वही भूलें, वही चूके! नयी भूलें करनेवाले आविष्कारी आदमी भी बहुत कम हैं, बस पुरानी भूलें ही हम किए चले जाते हैं। इतनी बुद्धि भी नहीं कि एकाध नयी भूल करें। पुराना—कल किया था वही, परसों भी किया था वही! आज फिर वही करेंगे, कल फिर वही करेंगे।

मैं चाहूंगा कि आप इसके प्रति सजग होंगे। अपनी शत्रुता के प्रति सजग होंगे तो अपनी मित्रता का आधार बनना शुरू होगा। कृष्ण या बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट जैसे लोग अपने लिए, अपने लिए ही, इतने आनन्द का रास्ता बनाते है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। ऊपर से हमें लगेगा कि ये लोग बिलकुल त्यागी है, लेकिन मैं आपसे कहता हूं इनसे ज्यादा परम स्वार्थी और कोई भी नहीं है! हम त्यागी कहे जा सकते हैं क्योंकि हमसे ज्यादा मूढ़ कोई भी नहीं है। हम जो भी महत्वपूर्ण है, उसका त्याग कर देते हैं और जो व्यर्थ है उस कचरे को इकट्ठा कर लेते हैं, किन्तु ये बहुत होशियार लोग हैं। यह जो व्यर्थ है उस सबको छोड़ देते हैं, जो सार्थक है उसको बचा लेते हैं।

जीसस की पूरी नयी बाइबिल का सार एक ही वचन है, ‘दूसरों के साथ वह मत करें, जो आप नहीं चाहते कि दूसरे आपके साथ करें।’ और अगर इस वाक्य को ठीक से समझ लें तो धर्म का सूत्र समझ में आ जाए। कई बार ऐसा मजेदार होता है कि कृष्ण के किसी वाक्य की व्याख्या बाइबिल में होती है और बाइबिल के किसी वाक्य की व्याख्या गीता में होती है। कभी कुरान के किसी सूत्र की व्याख्या वेद में होती है, कभी वेद के किसी सूत्र की व्याख्या कोई यहूदी फकीर करता है। कभी बुद्ध का वचन चीन में समझा जाता है और कभी चीन में लाओत्से का कहा गया वचन हिन्दुस्तान का कोई कबीर समझाता है।

लेकिन तथाकथित धर्मों ने ऐसी दीवारें खड़ी कर दी हैं इन सबके बीच कि इनमें बीच के जो बहुत आंतरिक संबंध के सूत्र दौड़ते हैं उनका हमें कोई स्मरण नहीं रहा। नहीं तो हर मन्दिर और मस्जिद के नीचे सुरंग होनी चाहिए, जिनसे कोई भी मंदिर से मस्जिद में जा सके। और हर गुरुद्वारे के नीचे से मन्दिर को जोड़नेवाली सुरंग होनी चाहिए कि कभी भी किसी की मौत आ जाए तो तत्काल गुरुद्वारे से मन्दिर, या मस्जिद से चर्च में जा सके। लेकिन सुरंगों की बात तो दूर, ऊपर के रास्ते भी बन्द हैं—स्ब रास्ते बन्द हैं जो हमने अपने हाथों कर रखे हैं!

‘अमृत—वाणी’ से संकलित

सुधा—बिंदु 1970—1971


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मन ही पूजा मन ही धूप–(प्रवचन–1)

$
0
0

आग के फूल—(पहला प्रवचन)

सूत्र:

बिनु देखे उपजै नहि आसा। जो दीसै सो होई बिनासा।।

बरन सहित जो जापै नामु। सो जोगी केवस निहकामु।।

परचै राम रवै जो कोई। पारसु परसै ना दुबिधा होई।।

सो मुनि मन की दुबिधा खाइ। बिनु द्वारे त्रैलोक समाई।।

मन का सुभाव सब कोई करै। करता होई सु अनभे रहै।।

फल कारण फूली बनराइ। फलु लागा तब फूल बिलाई।।

ग्‍यानै कारन कर अभ्‍यासू। ग्‍यान भया तहं करमैं नासू।।

घृत कारन दधि मथै सयान जीवन मुकत सदा निरवान।।

कहि रविदास परम बैराग। रिदै राम को न जपसि अभाग।।

 

सह की सार सुहागिनि जानै। तजि अभिमान सुख रलिया मानै।।

तनु मनु न सुनै अंतर राखै। अबरा देखि न सुनै न माखै।।

सो कत जाने पीर पराई। जाकै अंतर दरद न पाई।।

दुःखी दुहागिन दुइ पखहीनी। जिनि नाह निरंतरि भगति न कीनी।।

राम—प्रीति का पंथ दुहेला। संगि न साथी गवन अकेला।।

दुखिया दरदमंद दरि आया। बहुतै प्‍यास जबाब न पाया।।

कहि रविदास सरनि प्रभु तेरी। ज्‍यूं जानहु त्‍यूं करू गति मेरी।।

 

भारत का आकाश संतों के सितारों से भरा है। अनंत—अनंत सितारे हैं, यद्यपि ज्योति सबकी एक है। संत रैदास उन सब सितारों में ध्रुवतारा हैं— इसलिए कि शूद्र के घर में पैदा होकर भी काशी के पंडितों को भी मजबूर कर दिया स्वीकार करने को। महावीर का उल्लेख नहीं किया ब्राह्मणों ने अपने शास्त्रों में। बुद्ध की जड़ें काट डालीं, बुद्ध के विचार को उखाड़ फेंका। लेकिन रैदास में कुछ बात है कि रैदास को नहीं उखाड़ सके और रैदास को स्वीकार भी करना पड़ा।

ब्राह्मणों के द्वारा लिखी गई संतों की स्मृतियों में रैदास सदा स्मरण किए गए। चमार के घर में पैदा होकर भी ब्राह्मणों ने स्वीकार किया— —वह भी काशी के ब्राह्मणों ने! बात कुछ अनेरी है, अनूठी है।

महावीर को स्वीकार करने में अड़चन है, बुद्ध को स्वीकार करने में अड़चन है। दोनों राजपुत्र थे जिन्हें स्वीकार करना ज्यादा आसान होता। दोनों श्रेष्ठ वर्ण के थे, दोनों क्षत्रिय थे। लेकिन उन्हें स्वीकार करना मुश्किल पड़ा।

रैदास में कुछ रस है, कुछ सुगंध है— जो मदहोश कर दे। रैदास से बहती है कोई शराब, कि जिसने पी वही डोला। और रैदास अड्डा जमा कर बैठ गए थे काशी में, जहां कि सबसे कम संभावना है जहां का पंडित पाषाण हो चुका है। सदियों का पांडित्य व्यक्तियों के हृदयों को मार डालता है, उनकी आत्मा को जड़ कर देता है। रैदास वहां खिले, फूले। रैदास ने वहां हजारों भक्तों को इकट्ठा कर लिया। और छोटे—मोटे भक्त नहीं, मीरा जैसी अनुभूति को उपलब्ध महिला ने भी रैदास को गुरु माना! मीरा ने कहा है. गुरु मिल्या रैदास जी! कि मुझे गुरु मिल गए रैदास। भटकती फिरती थी, बहुतों में तलाशा था लेकिन रैदास को देखा कि झुक गई। चमार के सामने राजरानी झुके तो बात कुछ रही होगी। यह कमल कुछ अनूठा रहा होगा! बिना झुके न रहा जा सका होगा।

रैदास कबीर के गुरुभाई हैं। रैदास और कबीर दोनों एक ही संत रामानंद के शिष्य हैं! रामानंद गंगोत्री हैं जिनसे कबीर और रैदास की धाराएं बही हैं। रैदास के गुरु हैं रामानंद जैसे अदभुत व्यक्ति; और रैदास की शिष्या है मीरा जैसी अदभुत नारी! इन दोनों के बीच में रैदास की चमक अनूठी है।

रामानंद को लोग भूल ही गए होते अगर रैदास और कबीर न होते। रैदास और कबीर के कारण रामानंद याद किए जाते हैं।

जैसे फल से वृक्ष पहचाने जाते हैं वैसे शिष्यों से गुरु पहचाने जाते हैं। रैदास का अगर एक भी वचन न बचता और सिर्फ मीरा का यह कथन बचता, गुरु मिल्या रैदास जी, तो काफी था। क्योंकि जिसको मीरा गुरु कहे, वह कुछ ऐसे—वैसे को गुरु न कह देगी। जब तक परमात्मा बिलकुल साकार न हुआ हो तब तक मीरा किसी को गुरु न कह देगी। कबीर को भी मीरा ने गुरु नहीं कहा है, रैदास को गुरु कहा।

इसलिए रैदास को मैं कहता हूं, वे भारत के संतों से भरे आकाश में ध्रुवतारा हैं। उनके वचनों को समझने की कोशिश करना।

रैदास इसलिए भी स्मरणीय हैं कि रैदास ने वही कहा है जो बुद्ध ने कहा है। लेकिन बुद्ध की भाषा ज्ञानी की भाषा है, रैदास की भाषा भक्त की भाषा है, प्रेम की भाषा है। शायद इसीलिए बुद्ध को तो उखाड़ा जा सका, रैदास को नहीं उखाड़ा जा सका। जिसकी जड़ों को प्रेम से सींचा गया हो उसे उखाड़ना असंभव है। बुद्ध के साथ तर्क किया जा सका, बुद्ध के साथ विवाद किया जा सका, रैदास के साथ तर्क नहीं हो सकता, विवाद नहीं हो सकता। रैदास को तो देखोगे तो या तो दिखाई पड़ेगा तो झुक जाओगे, नहीं दिखाई पड़ेगा तो लौट जाओगे। प्रेम के सामने झुकने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि प्रेम परमात्मा का प्रकटीकरण है, अवतरण है।

बुद्ध की भाषा बहुत मंजी हुई है राजपुत्र की भाषा है। शब्द नपे—तुले हैं। शायद कभी कोई मनुष्य इतने नपे—तुले शब्दों में नहीं बोला जैसा बुद्ध बोले हैं। लेकिन बुद्ध को भी तर्क का तूफान सहना पड़ा और बुद्ध की भी जड़ें उखड़ गईं। भारत से बुद्ध धर्म विलीन हो गया। रैदास ने फिर बुद्ध की बातें ही कही हैं पुन:, लेकिन भाषा बदल दी, नया रंग डाला। पात्र वही था, बात वही थी, शराब वही थी—नई बोतल दी। और रैदास को नहीं उखाड़ा जा सका।

यह जान कर तुम हैरान होओगे कि चमार मूलत: बौद्ध हैं! जब भारत से बौद्ध धर्म उखाड़ डाला गया और बौद्ध भिक्षुओं को जिंदा जलाया गया और बौद्ध दार्शनिकों को खदेड़ कर देश के बाहर कर दिया गया, तो एक लिहाज से तो यह अच्छा हुआ। क्योंकि इसी कारण पूरा एशिया बौद्ध हुआ। कभी—कभी दुर्भाग्य में भी सौभाग्य छिपा होता है।

जैन नहीं फैल सके क्योंकि जैनों ने समझौते कर लिए। बच गए, लेकिन क्या बचना! आज कुल तीस—पैंतीस लाख की संख्या है। पांच हजार साल के इतिहास में तीस—पैंतीस लाख की संख्या कोई संख्या होती है! बच तो गए, किसी तरह अपने को बचा लिया, मगर बचाने में सब गंवा दिया।

बौद्धों ने समझौता नहीं किया, उखड़ गए। टूट गए, मगर झुके नहीं। और उसका फायदा हुआ। फायदा यह हुआ कि सारा एशिया बौद्ध हो गया। क्योंकि जहां भी बौद्ध—दार्शनिक और मनीषी गए, वहीं उनकी प्रकाश—किरणें फैलीं, वहीं उनका रस बहा, वहीं लोग तृप्त हुए। चीन, कोरिया…… दूर—दूर तक बौद्ध धर्म फैलता चला गया। इसका श्रेय हिंदू पंडितों को है।

जो भाग सकते थे भाग गए। भागने के लिए सुविधा चाहिए, धन चाहिए। जो नहीं भाग सकते

थे— इतने दीन थे, इतने दरिद्र थे— वे हिंदू जमात में सम्मिलित हो गए। लेकिन हिंदू जमात में अगर सम्मिलित होओ तो सिर्फ शूद्रों में ही सम्मिलित हो सकते हो। ब्राह्मण तो जन्म से ब्राह्मण होता है, और क्षत्रिय भी जन्म से क्षत्रिय होता है, और वैश्य भी। सिर्फ अगर किसी को हिंदू धर्म में सम्मिलित होना है तो एक ही जगह रह जाती है— शूद्र, अछूत। वह असल में हिंदू धर्म के बाहर ही है, मंदिर के बाहर ही है। हो जाओ शूद्र अगर बचना है तो।

तो जो बौद्ध बच गए और नहीं भाग सके और मजबूरी में सम्मिलित होना पड़ा हिंदू धर्म में, वे ही बौद्ध चमार हैं, वे ही बौद्ध चमार हो गए। और क्यों चमार हो गए? एक कारण। कभी किसी ने सोचा भी न होगा बुद्ध के समय में कि यह कारण इतना बड़ा परिणाम लाएगा। जिंदगी बड़ी रहस्यपूर्ण है।

महावीर ने कहा है मांसाहार हिंसा है, पाप है। और ठीक कहा है। दूसरे को दुख देना, हत्या करना— भोजन के लिए— इससे बड़ा पाप और क्या होगा! और फिर यह बात कहां रुकेगी? अगर पशु—पक्षियों को खाओगे तो मनुष्य को खाने में क्या हर्ज है?

कल अखबार में मैंने देखा, मध्य अफ्रीका का सम्राट बोकासो पदच्युत हो गया है, बगावत हो गई है। उसके घर उसके चौके में, उसके फ्रिज में आदमी का मांस पाया गया।

फिर बातें रुकती नहीं। जब पशु का मांस खा सकते हो तो आदमी का मांस खाने में क्या हर्जा है! और आदमी का मांस स्वभावत सबसे ज्यादा स्वादिष्ट है और सुपाच्‍य है; मेल भी तुमसे उसका बहुत खाएगा। और छोटे—छोटे बच्चों का मांस तो बहुत स्वादिष्ट है। बात कहां रुकेगी फिर, फिर आदमी अगर मांसाहारी है तो उसका अंतिम तार्किक निष्कर्ष होगा कि वह आदमखोर हो जाएगा।

और आदमखोर हो जाने से बड़ा पतन नहीं है, क्योंकि इस दुनिया में कोई पशु अपनी जाति के पशुओं को नहीं खाता। कुत्ता कुत्ते का मांस नहीं खाएगा, कुत्ता कुत्ते को मार भी नहीं डालता। सिंह भी सिंह को नहीं मारता है और उसका मांस नहीं खाता है। सिर्फ आदमी…। आदमी गिरे तो इतना गिर सकता है, उठे तो इतना उठ सकता है! आदमी एक सीढ़ी है, जिसका एक छोर नरक में लगा है, दूसरा छोर स्वर्ग में।

महावीर ने कहा था मांसाहार पाप है और ठीक कहा था। लेकिन बुद्ध हमेशा चीजों को बहुत तौल कर कहते थे। इस संबंध में भी उन्होंने तौल कर वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा मांसाहार पाप है। लेकिन अगर कोई जानवर मर ही गया हो तो उसके मांसाहार में क्या पाप हो सकता है!

यह तार्किक दृष्टि से बात बिलकुल सही है। मारने में पाप है। किसी को मार कर मत खाओ। लेकिन अपने आप मर गया कोई पशु, उसके मांस के खाने में क्या हर्जा है! तुम मार तो नहीं रहे, तुम हिंसा तो नहीं कर रहे, तुम हत्या तो नहीं कर रहे। यह बात तर्कयुक्त तो है, लेकिन तर्क से कहीं जीवन चला है? आज सारे बौद्ध देशों में हर होटल पर यह तख्ती लगी होती है कि यहां मरे हुए पशु के मांस को ही बेचा जाता है, केवल मरे हुए पशुओं का मांस ही बेचा जाता है। करोड़ों—करोड़ों लोगों के लिए रोज—रोज इतने पशु मरते कहां हैं? अपने आप! और अगर पशु अपने आप मरते हैं तो इतने—इतने बड़े बूचड़खाने कौन चलाता है? और किसलिए चलाता है? जैसे भारतीय होटलों में लिखा रहता है. यहां शुद्ध घी का उपयोग किया जाता है; ऐसे चीन और जापान में लिखा होता है यहां केवल अपने आप मरे हुए जानवर का मांस ही बिकता है।

रास्ता मिल गया। बुद्ध ने तो बड़ी तर्कयुक्त बात कही थी, महावीर से ज्यादा तर्कयुक्त बात कही थी। बात तर्कयुक्त थी, लेकिन महावीर जीवन के जाल को ज्यादा समझते हुए मालूम पड़ते हैं। उनकी बात उतनी तर्कयुक्त नहीं है, लेकिन वे जानते हैं आदमी को सुविधा दो तो उस सुविधा में से और सुविधाएं निकाल लेगा। अच्छा है दरवाजा बिलकुल बंद कर दो। बुद्ध ने दरवाजा खुला रखा। बुद्ध सोचते हैं. जितनी बुद्धि से मैं जीता हूं, उतनी ही बुद्धि से लोग भी जीएंगे। यह अपेक्षा मत करो, यह अपेक्षा गलत है।

चमार भारत में अकेली जाति है जो मरे हुए जानवर का मांस खाती है। और यही प्रमाण है उनका कि वे बौद्ध थे कभी। और दूसरे प्रमाण भी हैं, लेकिन यह बहुत बड़ा प्रमाण है कि वे बौद्ध थे। क्योंकि भारत में कोई दूसरी जाति मरे हुए जानवर का मांस नहीं खाती।

इसी आधार पर डॉक्टर अंबेदकर ने यह निर्णय किया कि चमारों को, कम से कम, और संभव हो तो सभी शूद्रों को पुन: बौद्ध हो जाना चाहिए, क्योंकि मूलत: हम बौद्ध थे।

रैदास चमार हैं। जैसे किसी गहन अंतस्तल में बुद्ध अब भी गंज रहे हैं! वही आग। लेकिन रैदास ने उस आग को आग नहीं बनने दिया, उस आग को रोशनी बना लिया। आग जला भी सकती है और प्रकाश भी दे सकती है। बुद्ध के वचन अंगारों जैसे हैं। बड़ा साहस चाहिए उन्हें पचाने का। अंगारे पचाओगे तो साहस तो चाहिए ही चाहिए। रैदास के वचन फूलों जैसे हैं। पचा जाओगे तब पता चलेगा कि आग लगा गए। आग के फूल हैं! आग की फुलझड़ियां हैं! देखने में फूल लगते हैं।

इसलिए बुद्ध तो स्वीकार नहीं हो सके लेकिन रैदास को हिंदुओं ने भक्त—शिरोमणि कहा है। भक्तमाल में रैदास को और भक्तों के साथ गिना गया है।

लेकिन हिंदू पंडित स्वीकार भी करे तो भी अपने पांडित्य से कुछ न कुछ बेईमानिया निकाल लेता है। उसने बेइमानियां निकाल लीं। जैसे बुद्ध के संबंध में उसने कथा गढ़ ली, क्योंकि बुद्ध की इतनी प्रतिभा थी कि एकदम इनकार करो तो भी नुकसान होता है। क्योंकि अगर बुद्ध को इनकार कर दो तो भारत की प्रतिभा क्षीण हो जाती है। आखिर भारत ने बुद्ध से बड़ा बेटा तो पैदा किया नहीं! जैसे यहूदियों ने जीसस से बड़ा बेटा पैदा नहीं किया, ऐसे हिंदुओं ने कभी बुद्ध से बड़ा बेटा पैदा नहीं किया। बुद्ध को इनकार करना, पूरी तरह इनकार करना, तो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेने जैसा है।

आज दुनिया में अगर भारत की कोई प्रतिष्ठा है तो उस प्रतिष्ठा में पचास प्रतिशत हाथ तो बुद्ध का है। अगर लोग भारत को याद करते हैं तो बुद्ध के कारण याद करते हैं। अगर सारा एशिया भारत के प्रति सम्मान से देखता है और भारत को तीर्थ मानता है तो बुद्ध के कारण। जैसे सारे मुसलमान मक्का की यात्रा करते हैं, ऐसे सारे बौद्धों के मन में, करोड़ों—करोड़ों बौद्धों के मन में एक ही अभीप्सा होती है कि कभी बुद्धगया, कभी भारत की भूमि पर पैर पड़ जाएं! भारत ने इतना बड़ा दूसरा बेटा पैदा नहीं किया।

इसलिए ब्राह्मणों ने बुद्ध के विचार को तो इनकार किया, लेकिन बुद्ध से जो लाभ हो सकता है उसको बचाने के लिए तरकीब खोज ली। उन्होंने एक कहानी गढ़ी। कहानी गढ़ी कि जब भगवान ने स्वर्ग और नरक बनाए तो हजारों—हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी नरक में कोई प्रवेश नहीं किया। क्योंकि कोई पाप करता ही नहीं था— सतयुग। कोई पाप करे तो नरक जाए। शैतान और उसके शिष्य

बैठे—बैठे थक गए, ऊब गए। अपनी—अपनी फाइलें खोले बैठे हैं दफ्तरों में, लेकिन न कोई आता न कोई जाता और नरक खाली पड़ा है।

आखिर शैतान ने परमात्मा से प्रार्थना की कि क्यों यह व्यर्थ खोल रखा है? जब ग्राहक ही नहीं हैं तो यह दुकान चलाने से फायदा क्या है? बंद करो! हम थक गए हैं, हम ऊब गए। तो भगवान ने कहा. घबड़ाओ मत। क्योंकि भगवान तो करुणावान हैं! उन्होंने कहा. घबड़ाओ मत। मैं जल्दी ही बुद्ध के रूप में अवतार लंगूा और लोगों के मस्तिष्कों को भ्रष्ट करूंगा। एक बार उनके मस्तिष्क भ्रष्ट हुए, वे पाप करने लगेंगे, नरक भर जाएगा, घबड़ाओ मत।

और तब भगवान ने शैतान पर करुणा करके बुद्धावतार लिया। इसलिए बुद्ध को हिंदुओं ने दसवां अवतार मान लिया। बुद्ध का अवतार लिया और लोगों के मन को विक्षिप्त किया, गलत—सलत बातें समझाई, भ्रांत किया, भटकाया, उलझाया। और लोग धीरे— धीरे पाप करने लगे।

अब तो हालत यह है कि नरक में भी पहले से बुकिंग करवानी होती है। एकदम से आज ही मर जाओ तो तुम यह आशा मत करना कि नरक में जगह मिल जाएगी। बाहर ही पड़े रहोगे महीनों, कतार लगी हुई है। यह सब बुद्ध की कृपा!

तो देखते हो तुम हिंदू बेईमानी! बुद्ध को इनकार करें तो उन्हें लगा कि यह तो भारी नुकसान हो जाएगा—बिलकुल इनकार करना। और बुद्ध को इनकार तो करना ही होगा, क्योंकि बुद्ध को इनकार न करें तो पांडित्य कैसे चले, पुरोहित कैसे चले, यज्ञ—हवन कैसे चलें, यह धोखाधड़ी और यह धंधा जो धर्म के नाम पर चलता है, यह कैसे चले?

तो दोहरी दिक्कत थी, बुद्ध के विचार तो इनकार करने पड़ेंगे, बुद्ध को स्वीकार कर लो। बड़ी कुशलता से यह काम किया। वही कुशलता उन्होंने फिर रैदास के साथ भी की।

रैदास को भक्तमाल में स्वीकार कर लिया परम भक्त, भक्त—शिरोमणि, लेकिन दो कहानियां गढ़ी। और जैसी कहानी ब्राह्मण गढ़ सकते हैं, दुनिया में कोई भी नहीं गढ़ सकता। क्योंकि इतना पुराना अभ्यास है उनका कहानियां गढ़ने का, पुराण लिखने का…।

अगर यहूदियों को पता होता कि कहानियां गढ़ी जा सकती हैं तो जीसस को सूली न दी होती, सिर्फ एक कहानी गढ़ ली होती। सूली देनी पड़ी, क्योंकि कहानी नहीं गढ़ सके।

हिंदू कुशल हैं, इन्होंने कभी सूली नहीं दी किसी को— कहानियां गढ़ने में कुशल हैं। जब कहानी से ही काम चल जाए तो कटारे क्यों निकालो! कहानियां ही कटारें बन जाती हैं।

रैदास के संबंध में दो कहानियां गढ़ी। एक कि रैदास अपने पूर्वजन्म में भी रामानंद के शिष्य थे। एक दिन रैदास भिक्षा मांग कर आए—पूर्वजन्म की बात है, जब वे रामानंद के ब्रह्मचारी शिष्य थे, ब्राह्मण थे— भिक्षा मांग कर लाए। रामानंद ने पूजा का थाल सजाया और अपने ठाकुरजी को, भगवान की प्रतिमा को प्रसाद चढ़ाया। लेकिन पहली बार रामानंद के जीवन में ठाकुरजी ने प्रसाद लेने से इनकार कर दिया।

अब पहली तो बात यह कि मूर्तियां न तो प्रसाद स्वीकार करतीं, न इनकार करतीं। तुम जाकर किसी भी मूर्ति पर कुछ भी चढ़ा कर देख लो। कोई मूर्ति न तो प्रसाद लेती है, न अस्वीकार करती है। मूर्ति मूर्ति है, मुर्दा है।

लेकिन कहानी गढ़ी कि ठाकुरजी ने प्रसाद लेने से इनकार कर दिया। रामानंद तो बहुत दुखी हुए जीवन में ऐसा कभी न हुआ था। उन्होंने पूछा ठाकुर से कि आप क्यों इनकार कर रहे हैं? तो उन्होंने कहा कि यह प्रसाद ऐसे घर से लाया गया है, एक ऐसे बनिए के घर से यह ब्रह्मचारी भिक्षा मांग लाया है जिसका सीधा कारोबार एक चमार से है। इसलिए यह प्रसाद स्वीकार नहीं हो सकता।

यह चमार के घर का भी प्रसाद नहीं है, खयाल रखना! किसी बनिए का कारोबार चमार से है! अब बनिया तो बेचारा सबको बेचेगा— चमार को भी बेचेगा, भंगी को भी बेचेगा, जो भी आएगा उसको बेचेगा। दुकानदार तो दुकान चलाने को है। और वह पूछता थोड़े ही बैठा रहेगा कि कौन चमार है, कौन भंगी है, कौन क्या है? उसको चीजे बेचनी हैं।

लेकिन तुम देखते हो कि कैसा ब्राह्मणों ने एक जाल इस देश में खड़ा किया! चमार तो अछूत है ही, अस्पृश्य है ही; चमार के साथ जो सीधा कारोबार करता है वह बनिया भी अछूत हो गया। और वह भी ठाकुरजी के लिए अछूत हो गया। और ठाकुरजी ने ही शूद्र बनाए, और ठाकुरजी ने ही बनिया बनाए और ठाकुरजी ने ही ब्राह्मण बनाए। सब उन्हीं के खिलौने, क्योंकि वही स्रष्टा।

अब मजा यह है कि ठाकुरजी ने शूद्र बनाए और ठाकुरजी शूद्र नहीं हुए! और बनिए ने केवल शूद्र से व्यापार किया, व्यवसाय किया, कुछ लेन—देन होगा, कुछ खरीद—फरोख्त की होगी, वह शूद्र हो गया और ठाकुरजी शूद्र नहीं हुए! अगर इस दुनिया में कोई परम शूद्र है तो भगवान, क्योंकि उसने बनाया शूद्रों को!

लेकिन ठाकुरजी ने भोजन इनकार कर दिया। रामानंद तो क्रोध से बबूला हो गए।

यह बात भी झूठ है। क्योंकि रामानंद जैसा व्यक्ति, जो रैदास और कबीर जैसे व्यक्तियों को अपने चरणों में झुकाने में समर्थ हो सका, वह क्रोधित हो जाए, यह असंभव है! क्रोध तो कहां बहुत पीछे छूट चुका। ध्यान की ज्योति जगी होगी, तभी तो कबीर और रैदास जैसे लोग रामानंद के चरणों में झुके। नहीं तो कबीर का झुकना कुछ आसान है? रैदास का झुकना कुछ आसान है? वह क्रोधित हो जाए— ऐसी छोटी बात पर!

और मैं जानता हूं कि अगर रामानंद क्रोधित भी होते तो ठाकुरजी पर होते। उठा कर फेंक दिया होता ठाकुरजी को। कम से कम मैं यही करता, कि रस्ता लगो, कि बाहर रिक्यो खड़े हैं, रिक्यग़ पकड़ो और भागो, लौट कर यहां मत आना।

क्या बेहूदगी की बात कि किसी शूद्र का व्यापार है किसी बनिए से, इसलिए बनिए के घर से लाया गया सीधा प्रसाद नहीं बन सकता! रामानंद जैसे हिम्मत के आदमी से ठाकुरजी ऐसी बातें करेंगे! ऐसी धौल जमाई होती ठाकुरजी को कि छठी का दूध याद आ जाता। अगर मारना ही था, अगर क्रोध ही करना था, तो फिर कभी मुंह नहीं किया होता ठाकुरजी की तरफ। ठाकुरजी मनाते फिरते।

लेकिन यह तो मैं मान ही नहीं सकता कि रामानंद उस गरीब ब्रह्मचारी पर नाराज हो गए और उन्होंने अभिशाप दे दिया कि जा, मर जा इसी क्षण! और शूद्र के घर में, चमार के घर में तेरा जन्म होगा! अरे, यह अभिशाप ही देना था तो ठाकुरजी को देना था कि जा, मर जा इसी क्षण और तेरा जन्म हो चमार के घर में। तो ठाकुरजी को भी कुछ पता चलता कि कभी—कभी ऐसे लोगों से भी मिलना हो जाता है—ऐसे लोग, जिनमें तलवार की धार होती है! इस गरीब ब्रह्मचारी को, जो कि बिलकुल अनजान है जिससे अगर कोई पाप भी हुआ हो, अगर इसे कोई पाप भी समझे, तो भी अनजान हुआ है। गया था भिक्षा मांगने, उस भिक्षा में इस वैश्य के घर से भिक्षा मांग ली। अब क्या यह पता लगाए कि इसकी दुकान पर कौन—कौन खरीदने आते हैं— शूद्र, चमार, भंगी— यह कैसे पता लगाए? क्या यह इसके सारे के सारे खाते—बही देखे, तब यह भिक्षा मां के?

मगर कहानी गढ़ने में ब्राह्मण सच में कुशल हैं। और कहानियां प्रचलित कर देते हैं। और लोक—मानस में कहानियां बैठ जाती हैं। गरीब ब्रह्मचारी उसी क्षण मर गया, और एक शूद्र के घर में एक चमार के घर में जन्म लिया। फिर कहानी और मजेदार बात कहती है कि था तो आखिर वह भी ब्राह्मण, ब्रह्मचारी। चमारिन के गर्भ से पैदा हुआ तो उसने चमारिन का दूध पीने से इनकार कर दिया। एक दफा हो गई भूल बहुत। जब ठाकुरजी तक प्रसाद नहीं लेते तो यह छोटा सा बच्चा जो पैदा हुआ पहले दिन का बच्चा, इसने दूध लेने से इनकार कर दिया, यह मां का दूध न पीए। कोई और रास्ता न देख कर, गांव में रामानंद की ख्याति थी, वह चमारिन रामानंद के चरणों में पहुंची और कहा कि कुछ करें। देखा इसको तो उन्हें याद आया कि अपना ही ब्रह्मचारी है। दया आई, सोचा होगा कि बच्चू काफी दुख भोग चुके। कान फूंका। अभी— अभी यह पैदा हुआ बच्चा, इसका कान फूंका और राम—नाम दिया। जब राम—नाम दिया तब उसने दूध पीआ।

यह एक कहानी उन्होंने गढ़ी। इसीलिए चूंकि रैदास पूर्वजन्म के ब्राह्मण हैं, उनको भक्तमाल में स्वीकार किया, नहीं तो उनको भक्तमाल में स्वीकार नहीं कर सकते थे। उनको भक्तों में इसलिए स्वीकार किया! उनकी भक्ति के कारण नहीं, समझ लेना तर्क। उनके परमात्मा के प्रति समर्पण के कारण नहीं उनके प्रार्थना की अदभुतता के कारण नहीं, उनके ध्यान की गरिमा के कारण नहीं, उनके समाधि के अनुभव के कारण नहीं, ईश्वर—साक्षात के कारण नहीं। ये सब बातें गौण हैं। असली बात यह है कि वे पूर्वजन्म के ब्राह्मण हैं, इसलिए उनको भक्त स्वीकार किया।

कहानी चल पड़ी। लेकिन लोगों को कैसे भरोसा आए कि यह कहानी सच है? अब पूर्वजन्म किसी ने देखा तो नहीं। रामानंद कहते हैं, पंडित कहते हैं, मगर क्या पता! तो दूसरी कहानी भी गढ़ी कि लोगों ने एक बार बहुत आग्रह किया रैदास को कि आप कुछ प्रमाण दें कि आप पिछले जन्म के ब्राह्मण हैं।

अब मैं यह मान ही नहीं सकता कि रैदास और प्रमाण देंगे इस बात का। अगर रहे भी हों ब्राह्मण तो भी प्रमाण नहीं देंगे, क्योंकि यह प्रमाण देना गलत होगा। अगर रहे भी हों ब्राह्मण तो भी प्रमाण देंगे कि मैं पिछले जन्म में क्या, जन्मों—जन्मों से चमार हूं र शूद्र हूं। रैदास— और प्रमाण देंगे पिछले जन्म के ब्राह्मण का! रैदास इतने नीचे उतरेंगे! लेकिन कहानियां तुम्हें जैसी गढनी हों तुम गढ़ सकते हो।

तो कहते हैं रैदास ने प्रमाण दिया। उन्होंने अपनी चमड़ी उधेड़ दी, और चमड़ी जब उधेड़ी तो स्वर्ण यज्ञोपवीत, जनेऊ सोने का, चमड़ी के भीतर छिपा हुआ निकला। तब लोगों ने माना। इसलिए उनका भक्तमाल में स्मरण किया गया है महान भक्तों की तरह।

ये सड़ी—गली कहानियां, ये झूठी कहानियां, सिर्फ एक छोटे से तथ्य को झुठलाने के लिए हैं कि वे चमार थे। और चमार को कैसे अंगीकार करें।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं ये कहानियां झूठी हैं। वे चमार थे और चमार होने में कोई पाप नहीं है। सभी जन्म से शूद्र पैदा होते हैं— सभी! ब्राह्मण तो श्रम से कोई होता है, साधना से कोई होता है। ब्राह्मणत्व तो उपलब्धि है, जन्मजात नहीं है। ब्राह्मण कोई वर्ण नहीं है, अनुभूति है। जो ब्रह्म को जाने सो ब्राह्मण। जो हरि से एकरूप हो जाए सो हरिजन।

इसलिए मैं शूद्रों को हरिजन नहीं कहता और ब्राह्मणों को ब्राह्मण नहीं कहता। क्योंकि ब्राह्मण जन्मजात हैं, जन्मजात ब्राह्मणत्व होता ही नहीं। बुद्ध ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं। महावीर ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं। जीसस ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं, शायद ब्राह्मण शब्द भी उन्होंने कभी न सुना हो। मोहम्मद ब्राह्मण हैं, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण नहीं। क्यों? क्योंकि उन्होंने ब्रह्म को जाना। ‘ ब्राह्मण ‘ शब्द का उतना ही अर्थ है ब्रह्म को जाना और ब्रह्म से एकाकार हो गए। न केवल ब्रह्म को जाना, बल्कि जाना कि मैं भी ब्रह्म हूं अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक। जिसके भीतर ऐसा उदघोष उठा कि मैं ब्रह्म हूं वह ब्राह्मण है। इस उदघोष के जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। जिसने ऐसा जाना कि मैं हरि का हूं कि मैं परमात्मा का हूं कि मेरा मुझमें कुछ नहीं, सब उसका है, वह हरिजन है।

इसलिए मैं शूद्र को हरिजन नहीं कहता। मैं महात्मा गांधी से बिलकुल ही सहमत नहीं हूं। ‘हरिजन’ जैसे अदभुत शब्द को खराब कर रहे हो? पहले ‘ ब्राह्मण ‘ जैसे अच्छे शब्द को खराब करवा डाला, उसको जन्म से जोड़ दिया। अब हरिजन को भी खराब करवा डाला। इतने अदभुत शब्दों को उनकी महिमा से मत उतारो, उनके सिंहासनों से मत उतारो। उन्हें आकाश से उतार कर जमीन की धूल में मत गिराओ।

हरिजन तो वह है जिसने यह जाना कि मेरे में मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ परमात्मा का है। ब्राह्मण या हरिजन समानार्थी शब्द हैं, पर्यायवाची हैं। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति शूद्र की तरह पैदा होता है। शूद्र अर्थात जो शरीर से बंधा है। शूद्र अर्थात जो जानता है कि मैं शरीर ही हूं। शूद्र अर्थात जिसे अपने भीतर चैतन्य का अभी कोई अनुभव नहीं हुआ है, जिसने अपने भीतर अमृत के दर्शन नहीं किए हैं। और ब्राह्मण वह जिसने जाना कि मैं शरीर नहीं हूं, मन भी नहीं हूं— मन और शरीर से पार चैतन्य हूं। जिसे साक्षी का अनुभव हुआ है वह ब्राह्मण है।

लेकिन रैदास के संबंध में ये कहानियां झूठी हैं, ऐसा मैं स्पष्ट कहना चाहता हूं। अब तक किसी ने ऐसा कहा नहीं कि ये कहानियां झूठी हैं। ये झूठी होनी ही चाहिए। इनके सब अंग झूठे हैं। पहले तो वे ठाकुरजी झूठे जो चमार से संबंधित होने के कारण किसी बनिए का सीधा स्वीकार न करें। वे ठाकुरजी शूद्रों से भी गए—बीते। वे ठाकुरजी नहीं, चमार।

फिर रामानंद क्रोधित हों… और क्रोधित हों तो ठाकुरजी पर हों, गरीब ब्रह्मचारी का क्या कसूर? रामानंद क्रोधित हो ही नहीं सकते। और रामानंद जैसा व्यक्ति अभिशाप दे— असंभव, बिलकुल असंभव!

फिर रैदास जैसा बच्चा मां का दूध इसलिए न पीए क्योंकि वह चमार है। दूध भी कहीं चमार और ब्राह्मण हुआ है! मां भी कहीं चमार और ब्राह्मण हुई है! मां सिर्फ मां होती है, दूध सिर्फ दूध होता है। अगर तुम्हें भरोसा न हो तो एक चमार स्त्री का दूध और एक ब्राह्मण स्त्री का दूध लेकर चले जाना डाक्टर के पास और कहना कि बता दो, कौन चमार का है और कौन ब्राह्मण का। करवा लेना विश्लेषण, निदान।

दुनिया की कोई ताकत सिद्ध नहीं कर सकेगी कि यह ब्राह्मण का दूध है और यह चमार का दूध है। दूध भी कहीं ब्राह्मण और चमार का होता है! हड्डी—मांस—मज्जा कहीं ब्राह्मण और चमार की होती है! और जब हड्डी—मांस—मज्जा चमार की नहीं होती तो आत्मा कैसे चमार की हो जाएगी?

और बड़े आश्चर्य की बात है। तुम दूध पी लेते हो भैंस का और कभी नहीं सोचते कि भैंस का दूध पी रहे हैं, कहीं भैंस न हो जाएं!

मुल्ला नसरुद्दीन का छोटा बेटा एकदम भागा हुआ बैठकखाने में आया और बोला मम्मी—मम्मी— और मोहल्ले की दस—पांच स्त्रियां बैठी गपशप कर रही थीं— कि पप्पा ने अभी— अभी मेरी आया की किस्सी ली। और आया घबड़ा रही थी। तो बोले, घबड़ा मत, मेरी मोटी भैंस तो बैठक खाने में बैठी है। यह मोटी भैंस कहां है?

छोटे बच्चों जैसी बातें! छोटे बच्चे इस तरह की भ्रांतियों में पड़ जाएं तो पड़ सकते हैं।

भैंस का दूध पीने से तुम भैंस नहीं हो जाओगे। मगर मूढ़ों की कोई गिनती नहीं है!

एक बड़े राजनेता मेरे मित्र थे, मेरे साथ एक बार सफर को गए। बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। वे सिर्फ सफेद गाय का ही दूध पीए। मैंने उनसे पूछा कि काली गाय में क्या खराबी है? क्या आप सोचते हैं काली गाय का दूध काला हो जाता है? अरे दूध तो सफेद ही है, चाहे काली गाय का हो चाहे सफेद गाय का हो।

उन्होंने कहा कि नहीं, काला रंग तमस का प्रतीक है।

होगा तमस का प्रतीक, लेकिन दूध थोड़े ही काला हो जाएगा। मैंने उनसे कहा फिर भैंस के बाबत क्या खयाल है?

भैंस का दूध तो मैं देख ही नहीं सकता।

क्यों? उन्होंने कहा भैंस का दूध पीने से आदमी की भैंस जैसी बुद्धि हो जाती है।

तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। गोभी खाओगे, खोपड़ी गोभी जैसी हो जाएगी। बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। करेला खा लिया कि आत्मा कड्वी हो गई। कुछ खाओगे, कुछ पीओगे, जीओगे कि मरना है?

मैं नहीं मान सकता कि बच्चे ने चमारिन का दूध पीने से इनकार किया हो। बच्चे इतने मूढ़ नहीं होते। इतनी मूढ़ताएं तो बहुत बाद में आती हैं। इतनी मूढ़ताओं के लिए तो काफी अनुभव चाहिए। बच्चे इतने बुद्ध नहीं होते। इतने बुद्ध होने के लिए तो काफी शिक्षा, संस्कार, सभ्यता…। इतनी मूढ़ता के लिए तो काफी धार्मिक होना आवश्यक है। इसलिए कहानी तो बिलकुल झूठ है। कहानी में कोई सार नहीं है। मगर कहानियां इस बात की खबर दे रही हैं कि भारत का मन कितना कलुषित हो गया है कि हम अपने श्रेष्ठतम लोगों को भी सीधा—सीधा स्वीकार नहीं कर सकते; जैसे हैं वैसा स्वीकार नहीं कर सकते।

लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि रैदास भारत के आकाश में ध्रुवतारे की भांति हैं। ब्राह्मण होकर ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो जाना कठिन नहीं है, क्योंकि सारी सुविधा वहां है। राजपुत्र होकर बुद्ध हो जाना कठिन नहीं है, क्योंकि सारी सुविधा वहां है। जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही राजाओं के बेटे हैं— सुविधाएं हैं, सुख है, वैभव है। और जब सुख हो, वैभव हो तो सुख—वैभव से मुक्त हो जाने में अड़चन नहीं होती, क्योंकि साफ दिखाई पड़ जाता है कि कुछ सार नहीं है। जिसके पास धन है उसे धन में असारता दिखाई पड़ जाती है।

अब बुद्ध को सारी सुंदर स्त्रियां उपलब्ध थीं। इसलिए जल्दी ही स्त्रियों से ऊब गए— ऊब ही जाएंगे। जो चीज तुम्हारे पास है तुम उससे ऊब जाते हो, तुम भी जानते हो। तुम्हारे पास जो है उससे तुम ऊब जाते हो। तुम्हारे पास जो नहीं है उससे ऊबने के लिए बहुत प्रतिभा चाहिए, बहुत प्रतिभा चाहिए। तुम्हारे पास जो है उससे ऊबने के लिए तो कोई प्रतिभा की जरूरत नहीं है। धनी धन से ऊब जाता है, भोगी भोग से ऊब जाता है। जिसको संसार में सब तरह की सफलताएं मिलती हैं वह सफलताओं से ऊब जाता है। यह तो विफल आदमी है जो सफलता से नहीं ऊबता; उसे मिली ही नहीं तो कैसे ऊबे! यह तो निर्धन है जो धन में आशा टिकाए रखता है। यह तो अविवाहित है जो विवाहित होने का विचार करता है। विवाहित से तो पूछो! वह आत्महत्या के विचार कर रहा है, चाहे मर न सके, क्योंकि मरना भी कोई आसान काम नहीं।

मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तो मेरे पड़ोस में एक बंगाली प्रोफेसर थे— भट्टाचार्या। मैं पहले ही दिन उस मकान में पहुंचा था, मुझे कुछ भट्टाचार्या के परिवार के रहस्य पता नहीं थे। दीवाल पतली थी, आवाज यहां से वहां आती—जाती थी। रात कोई बारह बजे उनमें और उनकी पत्नी में झगड़ा हो गया। मेरी भी नींद खुल गई। कोई उपाय ही न था, सुनना ही पड़े जो हो रहा था। बात जब बहुत बढ़ गई तो मैं भी थोड़ा चिंतित हुआ, क्योंकि भट्टाचार्या ने अपना छाता उठा लिया और कहा कि मैं चला मरने। मैं जाकर ट्रेन के नीचे सो जाऊंगा। पत्नी ने कहा : जा—जा!

तब तो मैंने कहा यह तो बड़ा मुश्किल है, अब मुझे बीच में आना ही पड़ेगा। यह कहीं रात बारह बजे— और टेरन ज्यादा दूर नहीं थी, कोई मुश्किल से चार—छह फर्लांग का फासला था— यह पटरी पर जाकर लेट जाए, मर जाए, अच्छा आदमी। और पत्नी को फिकर ही नहीं, वह कहती है जा—जा! मुझे बोलना चाहिए या नहीं, क्योंकि मेरा अभी परिचय भी किसी ने उनसे नहीं करवाया है। लेकिन यह मौका कोई औपचारिकता का है!

मैं दरवाजा खोल कर बाहर आया, भट्टाचार्या एकदम तेजी में — मगर बंगाली तो बंगाली, मरते वक्त भी छाता अपने बगल में— छाता लेकर एकदम निकल ही गए घर से। मैंने उनकी पत्नी को कहा क्षमा करो, मुझे बोलना तो नहीं चाहिए, आपका पारिवारिक मामला है, पता नहीं आप लोगों के क्या खेल हैं, कैसा हिसाब है! मगर यह जरा बात ज्यादा हुई जा रही है। मैं कुछ करूं, भट्टाचार्या को लौटा कर लाऊं?

उसने कहा आप बिलकुल फिकर न करें। आप नये—नये हैं। मैं इन्हें बीस साल से जानती हूं। ये तो कई दफे जा चुके हैं। अभी आप देखोगे थोड़ी देर में लौट आते हैं। उसने कहा कि अब आपने पूछ ही लिया है तो आपको कह दूं कि एक दफे तो ये टिफिन लेकर गए थे मरने। आपको छाता देख कर हैरानी हो रही होगी, टिफिन लेकर लेटे थे पटरी पर जाकर। किसी किसान ने पूछा कि यह आप क्या कर रहे हैं? पटरी पर भी ऐसी लेटे थे जिस पर शायद ही कभी गाड़ियां आती हैं, सिर्फ मालगाडियां शंटिंग करती हैं। किसी किसान ने पूछा आप यह क्या कर रहे हैं? तो इन्होंने कहा मरने आया हूं। तो उसने कहा. मरने आए हो, वह तो मेरी समझ में आता है, लेकिन टिफिन किसलिए? उन्होंने कहा कि इधर कोई गाड़ियों का भरोसा है इस देश में? कितनी लेट हो जाएं, क्या भूखे मरना है? और फिर जब गाड़ी बहुत देर तक नहीं आई तो अपना खा—पी कर टिफिन, पिकनिक करके घर लौट आए।

और हमारी बात ही हो रही थी कि भट्टाचार्या वापस आ गए। मैंने पूछा कि आप लौट आए? उन्होंने कहा कि देखते नहीं, पानी गिरने लगा!

आप तो छाता ले गए थे?

वह छाता खराब है। पहले तो खुलता ही नहीं और खुल जाए तो छेद ही छेद हैं।

लोग मरने भी जाएं तो भी कहां! और मरें भी तो किस भरोसे पर कि मरने के बाद क्या होगा! हालत इससे बेहतर होगी कि खराब होगी, यह भी तो पक्का नहीं है। फिर यहां जैसी भी है हालत, कम से कम अभ्यस्त तो हो गए हैं उसके। किसी तरह जिंदगी चली जा रही है।

अविवाहित विवाह की सोचता है, विवाहित लोगों को देखता है तो सोचता है, कितने आनंद में न जी रहे होंगे। दांपत्य का सुख भोग रहे हैं! और दंपति भी ऐसा दिखाने की कोशिश तो कम से कम करते हैं जब सड़क पर निकलते हैं कि बड़े सुखी हैं। लेकिन कहां का दांपत्य का सुख! सुख इस जगत में मिलता कहां! सिर्फ दिखावे हैं, झूठी मुस्कुराहटें हैं— चिपकाई हुई! ऊपर से लगाए गए रंग हैं, जरा सी बरसा हो जाए, बह जाएं। इस धोखाधड़ी से भरी दुनिया में सिर्फ उन्हीं चीजों का धोखा बना रहता है जो तुम्हें नहीं मिलीं, क्योंकि दूर के ढोल सुहावने मालूम पड़ते हैं।

कहावत है न कि पड़ोसी के बगीचे की घास ज्यादा हरी मालूम पड़ती है! अपनी घास सूखी—सूखी लगती है, क्योंकि तुम्हें अपनी घास निकट से देखने का मौका मिलता है। पड़ोसी की घास तुम्हें दूर से दिखाई पड़ती है। दूर से दुर्गुण नहीं दिखाई पड़ते हैं। जब व्यक्ति दूर होते हैं एक—दूसरे से तो दुर्गुण नहीं दिखाई पड़ते; जब पास होते हैं तब दिखाई पड़ते हैं। दुर्गुण देखने के लिए पास होना जरूरी है, निकट जीना जरूरी है।

तो अगर जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र थे और इसलिए एक दिन उन्होंने सारा संसार छोड़ दिया तो कुछ आश्चर्य नहीं है, छोड़ना ही चाहिए। मेरी तो सम्राट की परिभाषा ही यही है कि जो एक दिन सब छोड़—छाड़ दे। उसका अर्थ है कि उसने जान लिया। उसका अर्थ है कि वह सम्राट था। जो पकड़े ही रहे, समझो कि अभी गरीब है, दीन है, दरिद्र है।

लेकिन रैदास अनूठे हैं। गरीब चमार के घर में पैदा हुए, जहां न धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है— और फिर भी पद—प्रतिष्ठा और धन के पार उठ गए! इसलिए कहता हूं वे ध्रुवतारा हैं।

पहला सूत्र—

बिनु देखे उपजै नहि आसा। जो दीसै सो होई बिनासा।।

बरन सहित जो जापै नामु। सो जोगी केवस निहकामु।।

ब तक तुम्हें परमात्मा की थोड़ी झलक न मिले, तब तक तुम्हें न तो आशा जगेगी, न आश्वासन पैदा होगा, न आस्था का जन्म होगा। लाख दूसरे लोग कहते रहें कि ईश्वर है, तुम सुन भी लोगे, शायद मान भी लो, मगर भीतर संदेह बना है सो बना ही रहेगा। कितना ही विश्वास ऊपर से ओढ़ लो, पर्त—दर—पर्त, लेकिन भीतर संदेह है, मरेगा नहीं; ढंक जाए भला, छिप जाए भला, विनष्ट नहीं होगा। उसका विनाश तो सिर्फ एक ही ढंग से होता है— बिनु देखै उपजै नहिं आसा— कुछ दिखाई पड़े!

अब मंदिरों—मस्जिदों में तो कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा, क्योंकि वहां जो पुजारी—पंडित बैठे हैं उन्हीं को दिखाई नहीं पड़ा है। यज्ञ—हवन में तो दिखाई नहीं पड़ेगा। जो मूढ़ वहां चावल और गेहूं और घी फेंक रहे हैं अग्नि में, उन मूढ़ों को ही नहीं दिखाई पड़ा, वे तुम्हें कैसे दिखला देंगे? अंधों से पूछ रहे हो प्रकाश की परिभाषा! आख वालों को भी परिभाषा करनी कठिन है। अंधे परिभाषा कर रहे हैं और दूसरे अंधे परिभाषा मान रहे हैं। तुम्हारी जितनी मान्यताएं हैं, सब उधार हैं। इसीलिए तो तुम्हारी जिंदगी एक रेगिस्तान है, जिसमें मरूद्यान नहीं।

चंदूलाल किसी नौकरी के लिए परीक्षा देने गए थे। परीक्षा शुरू हुई। परीक्षक ने चंदूलाल से कहा कि चंदूलाल, तुम बार—बार पीछे मुड़ कर क्यों देख रहे हो?

चंदूलाल बोले मैं क्या करूं हुजूर, इसी प्रश्न—पत्र में तो लिखा है— कृपया पीछे देखिए।

शास्त्र पढ़ोगे, किताबें पढ़ोगे। जो नहीं जानते, उनसे उधार लोगे। क्या अर्थ निकालोगे तुम? आस्था नहीं जन्मेगी। तुम्हारा जीवन रूपांतरित नहीं होगा। इतना आसान नहीं है जीवन का रूपांतरित हो जाना। लाख शास्त्र एक बात कहते रहें, तुम्हारा अंधकार में डूबा हुआ मन अपनी जिद पर डटा रहेगा। ढब्यू जी ने सड़क पर जाते हुए व्यक्ति को एक चांटा मारा और कहा क्यों मटकानाथ के बच्चे! कहां रहा इतने दिन? और हद हो गई, कौन सी विपत्ति आ गई तुझ पर? पिछती बार तू जब मिला था तो ठिगना था, मोटा था और अचानक एकदम से लंबा और दुबला हो गया! चेहरा भी बिलकुल बदल डाला! और यह दाढ़ी—मूंछ कब बढ़ा लीं, चांद भी निकाल ली।

उस आदमी ने कहा : माफ करें महोदय, मैं किसी मटकानाथ को नहीं जानता। और मैं मटकानाथ नहीं, रामनाथ हूं।

ढब्यू जी ने पुन. उसे एक धौल जमाते हुए कहा अबे साले, तो नाम भी बदल डाला!

मन अपनी जिद पर डटा रहेगा। ऐसे तुम मन को न समझा सकोगे। कंठस्थ कर लो वेद, दोहराने लगो कुरान, मगर जरा भीतर झांकोगे तो पाओगे वही पुराना मन, और वही पुराने सवाल, और वही पुराने संदेह।

संदेह मिटते हैं अनुभव से। झलक भी मिल जाए, दूर से सही, गौरीशंकर को तुम हजारों मील दूर से झलकता हुआ देख लो — उसके ऊपर जमी हुई कुंआरी बर्फ, उस पर चमकती हुई सूरज की किरणें, उसका अपूर्व रूप, सौंदर्य — हजारों मील दूर से तुम्हें दिखाई पड़ जाए तो भी आशा जग जाएगी। निमंत्रण आ गया! पुकार आ गई! और अब यह पुकार निज की है, यह तुम्हारी अंतरात्मा का अनुभव है। अब तुम यात्रा पर निकल सकते हो, अब तुम्हारा जीवन एक तीर्थयात्रा बन सकता है। अब तुम खोजना चाहोगे।

विश्वासों ने लोगों को धर्म से वंचित किया है, विश्वासों ने लोगों का धर्म मार डाला है।

रैदास ठीक कहते हैं: बितु देखे उपजे नहिं आसा।

झलक भी मिल जाए, जरा सी झलक, दूर की झलक, और आशा जगी और आशा अंकुरित हुई। और आशा में ही आस्था का फल लगेगा।

जो दिखे सो होई विनासा।

और भी एक अदभुत बात है कि जिसने उसकी झलक भी देख ली वह विनष्ट हो गया, उसका अहंकार मिट गया। दो नहीं रह सकते, तुम और परमात्मा दोनों साथ—साथ नहीं रह सकते।

कबीर ने कहा न— रैदास के गुरुभाई— प्रेमगली अति सांकरी, तामें दो न समाय! बड़ी संकरी गली है प्यार की, प्रीति की, उसमें दो नहीं समा सकते। या तो तुम या परमात्मा। वह दिख गया तो तुम गए। तुम अंधकार जैसे हो, रोशनी हो गई कि तुम गए।

वफा के पर्दे में क्या—क्या जफाएं देखी हैं

निगाहे—लुक पर अब मुझको एतमाद नहीं

मुझे यकीं है मगर दिल को क्या करूं कि उसे

किसी के वादा—ए—फर्दा पे एतमाद नहीं

और पंडितों ने तुम्हें इतना नुकसान पहुंचाया है कि उनकी बातें सुनते—सुनते अगर कभी तुम किसी सदगुरु के पास भी पहुंच जाओ तो उसकी बातों पर भी तुम्हें भरोसा नहीं आएगा। तुमने इतनी बातों पर भरोसा किया और धोखा खाया है। तुम्हें इतने धोखे दिए गए हैं। सौ में से निन्यानबे मौकों पर तुम्हें धोखे दिए गए हैं, तो सौवें मौके पर अगर सच्चा हीरा भी हाथ में आ जाए, तुम उसे भी फेंक दोगे। तुम्हारी आंखें ही अब आस्था करने में जैसे असमर्थ हो गई हैं।

यह बड़ा दुर्भाग्य है। इसलिए बुद्ध आते हैं, महावीर आते हैं, कृष्‍ण आते हैं, कबीर आते हैं, रैदास आते हैं; थोड़े से ही लोग उनका लाभ ले पाते हैं। अधिक लोग उनको भी समझते हैं कि ये भी शायद शास्त्र को ही दोहरा रहे हैं। अधिक लोग सोचते हैं, शायद ये भी शास्त्र की ही व्याख्या कर रहे हैं।

नहीं, संत शास्त्र की व्याख्या नहीं करते, शास्त्र संतों की व्याख्या करते हैं। शास्त्र संतों के लिए प्रमाण बन जाते हैं। शास्त्र साक्षी देते हैं कि संत जो कहते हैं, ठीक कह रहे हैं। संत शास्त्रों पर निर्भर नहीं होते।

अगर संतों को देखना हो तो सत्संग जरूरी है। सत्संग का अर्थ है उठो, बैठो, उनके पास रमो, ताकि धीरे— धीरे तुम्हें यह दिखाई पड़ने लगे कि यहां एक व्यक्ति है जिसके भीतर कोई अहंकार नहीं, जिसके भीतर शून्य व्याप्त है। पहले तो तुम्हें संत के शून्य से परिचय बनाना होगा। और जब शून्य से परिचय बन जाएगा तो पूर्ण से परिचय बनने में देर न लगेगी।

दिल को बना हरम—नशीं, तौफे—हरम नहीं, न हो

मानीए—बदगी समझ, सूरते—बदगी न देख

दिल को बना हरम—नशीं…….

दिल को ही मंदिर बनाओ, दिल को ही काबा बनाओ।

……तौफे—हरम नहीं, न हो

किसी मंदिर की प्रदक्षिणा, काबे की प्रदक्षिणा हो या न हो, हज हो या न हो, फिकर छोड़ो।

दिल को बना हरम—नशीं

दिल को ही लीन करो परमात्मा में, ताकि यह मंदिर बन जाए।

दिल को बना हरम—नशीं, तौफे—हरम नहीं, न हो

मानीए—बंदगी समझ, सूरते—बंदगी न देख

उपासना का तात्पर्य समझो, प्रार्थना का अर्थ समझो। कहां समझोगे प्रार्थना का अर्थ? जहां प्रार्थना जीवित हो, जहां प्रार्थना का फूल खिला हो।

नहीं तो सब बाह्य उपचार है। मंदिरों में घंटियां बज रही हैं और हृदय बिलकुल उन घंटियों के साथ नहीं बज रहे हैं। मंदिरों में प्रार्थनाएं दोहराई जा रही हैं, लेकिन बस कंठों तक उनकी पहुंच है, हृदय में उनका आविर्भाव नहीं हो रहा है। मंदिरों में लोग औपचारिकता निभा रहे हैं। परमात्मा के साथ भी शिष्टाचार चल रहा है, व्यवहार चल रहा है।

दिल को बना हरम—नशीं, तौफे—हरम नहीं, न हो

मानीए—बंदगी समझ, सूरते—बदगी न देख

प्रार्थना के उपचारों को मत देखो, किसी प्रार्थनापूर्ण हृदय को देखने की क्षमता जुटाओ।

कोई रिंदी की इस जफें—नजर की वुसअतें देखे

हर इक टूटे हुए सागर को जामे—जम समझते हैं

निसारे—शमअ होकर बज्य में कहते हैं परवाने—

कोई समझे न समझे, हम मआले—गम समझते हैं

यह तो परवानों से पूछोगे मिटने का राज, तो समझ में आएगा। यह तो दीवानों से पूछोगे तो रास्ता मिलेगा। यह तो पागलों से पूछोगे— प्रेम के पागल जो हैं— तो प्रार्थना का तात्पर्य समझ में आएगा। जब तुम मिटने को तैयार हो जाते हो तभी प्रभु को देखने की क्षमता आती है।

नजअ में बहुत धीमी जुंबिशें नफस की हैं

है करीब मंजिल के आज कारवां अपना

और जब समझो कि अब श्वास इतनी धीमी चल रही है तुम्हारी— अहंकार की, तुम्हारी निजता की, तुम्हारे भेद की— जब समझो कि श्वास टूटी—टूटी हो रही है, अब गई, तब गई, तब जानना कि मंजिल करीब है।

है करीब मंजिल के आज कारवां अपना

बितु देखै उपजै नहीं आसा। जो दीसै सो होई विनासा।।

बनता सहित तो जापै नामु।

ओंठ से नहीं, जबान से नहीं, कंठ से नहीं— समग्रता से जो प्रभु का स्मरण करता है! रोएं—रोएं से! जिसका कण—कण नाच उठता है! जिसकी श्वास—श्वास स्मरण करती है! जिसकी धड़कन— धड़कन उसकी प्रदक्षिणा करती है।

बरन सहित जो जापै नामु। सो जोगी केवस निहकामु।।

वैसा व्यक्ति ही योगी है। जो खुद मिटता है वही परमात्मा के साथ एक हो पाता है। योग यानी एक हो जाना, जुड़ जाना। जब तक तुम हो, टूटे रहोगे। तुम मिटे कि जुड़े। और जो जुड़ गया वह निष्काम हो जाता है। फिर कामना ही क्या रही! जिसको परमात्मा मिल गया, वह और क्या चाहेगा! हीरे—जवाहरात मिल गए, वह कंकड़—पत्थर बीनेगा? कोहिनूर पा लिया, वह कंकड़—पत्थर इकट्ठे करेगा? असंभव।

परचै राम रवै जो कोई।

राम से जो परिचित हो जाए, राम में जो रम जाए।

पारसु परसै ना दुबिधा होई।।

वह ऐसे ही बदल जाता है जैसे पारस के छूने से लोहा बदल जाता है। पारस जब लोहे को छूता है तो ऐसा थोड़े ही सोचता है. पता नहीं बदलेगा कि नहीं बदलेगा! ऐसी कोई दुविधा थोड़े ही होती है, ऐसा कोई द्वंद्व थोड़े ही होता है, ऐसा कोई संदेह थोड़े ही होता है। पारस तो नि:सदिग्ध छू देता है लोहे को और लोहा सोना हो जाता है।

जिस दिन सदगुरु और शिष्य के बीच ऐसा संदेहरहित संबंध निर्मित होता है, उस दिन पारस से लोहा छू गया। उस दिन शिष्य शिष्य नहीं रह जाता, शिष्य भी गुरु हो जाता है, गुरु के साथ एक हो जाता है।

सो मुनि मन की दुबिधा खाइ। बिनु द्वारे त्रैलोक समाई।।

वही है मुनि, जिसने मन की दुविधा छोड़ दी। मन हमेशा दुविधा में है— यह करूं वह करूं! क्या करूं क्या न करूं! जो मन की दुविधा छोड़ देता है वही मुनि है। जो मन से मुक्त हो जाता है वही मुनि है।

बिनु द्वारे त्रैलोक समाई।।

और जिसने अपने मन को छोड़ दिया, दुविधा छोड़ दी, जो एकातभाव से परमात्मा में लीन होने को तत्पर हो गया, जो अपने को मिटाने के लिए राजी है लेकिन परमात्मा को पाकर रहेगा ऐसा जिसके भीतर संकल्प उठा, ऐसी अहर्निश पुकार उठने लगी, वह बिना किसी द्वार के तीनों लोक में समा जाता है, बिना किसी द्वार के परमात्मा में प्रवेश कर जाता है।

शबो—रोज मोहब्बत सीने में पोशीदा अगर्चो है, फिर भी

आहों में लरजते रहते हैं, अश्कों से नुमायां होते हैं

रुकते हैं कहीं दीवारों से, थमते हैं कहीं जंजीरों से

इजहारे—जुनू पर आमादा जब कैदिए—जिदा होते हैं

जी भर के तड़प लेने दे उन्हें, रह—रह के जरा जलने दे उन्हें

ऐ शमअ की लौ! ये परवाने इक रात के मेहमा होते हैं

रुकते हैं कहीं दीवारों से, थमते हैं कहीं जंजीरों से

इजहारे—जुनू पर आमादा जब कैदिए—जिदा होते हैं

तुम्हें कोई रोक नहीं सकता कारागृह में। अगर तुम आमादा ही हो गए तो न कोई दीवाल रोक सकती है, न कोई जंजीरें रोक सकती हैं। तुम परमात्मा को पा ही लोगे। अगर कोई रोकता है तो तुम्हारा मन, तुम्हारे मन की दुविधा। और कोई तुम्हें नहीं रोकने वाला है।

मन का सुभाव सब कोई करै।

और मन का स्वभाव है दुविधा, संदेह।

मन का सुभाव सब कोई करै। करता होई सु अनभे रहै।।

रैदास कहते हैं : सब मन की मान कर चल रहे हैं इसलिए दुखी हैं। मन की मत मानो, मन से ऊपर उठो, मन के साक्षी बनो। देखो मन का द्वंद्व, देखो मन का उपद्रव। मन का देखो नरक और जागो मन से! मन निद्रा है, तुम साक्षी हो। तुम मन नहीं हो। ऐसा अगर तुम कर पाओ, जाग पाओ।

करता होई सु अनभे रहै।।

जैसे ही तुम मन से जागे, तुम परमात्मा के साथ एक हो जाओगे। तुम एक हो ही। मन के कारण एक नहीं हो, ऐसी भांति पैदा हो गई है। परमात्मा है स्रष्टा, कर्ता, तुम उसके साथ हो गए तो तुम भी स्रष्टा हो गए, तुम भी कर्ता हो गए। और जो स्रष्टा हो गया, कर्ता हो गया, उसके जीवन में भय कहां! वह अनभय हो जाता है। उसके जीवन से सारे भय समाप्त हो जाते हैं।

खुशी खुशी में न गम में कोई मलाल मुझे

बना दिया है मोहब्बत ने बे—मिसाल मुझे

फिर न तो दुख में दुख दिखाई पड़ता, न सुख में सुख दिखाई पड़ता। एक बेजोड़ अनुभव पैदा होता है। प्रेम परवानों को वहां ले आता है, उस मंजिल पर, उस मुकाम पर, जहां से सब द्वंद्व पीछे छूट जाते हैं— सुख के दुख के, दिन के रात के, जीवन के मृत्यु के, वसंत के पतझड़ के।

फल कारण फूली बनराइ। फलु लागा तब फूल बिलाई।।

रैदास कहते हैं फल के लिए फूल खिलते हैं। जब फूल खिलता है तो यह मत सोचना कि अपने लिए खिलता है। फल के लिए खिलता है। जैसे ही फल लग जाता है, फूल गिर जाता है। हम सब यहां परमात्मा के लिए हैं कि परमात्मा हम में लग सके, वही फल है। और जिस ने उसे पा लिया, वही सफल है, शेष सब असफल हैं। और जैसे ही फल लग जाएगा, तुम बिला जाओगे। तुम तो फूल हो। काम पूरा हो गया। फूल का काम इतना था कि फल के लिए राह बना दे। जैसे ही फूल का काम पूरा हो गया, फूल बिला जाता है।

फल कारण फूली बनराइ। फलु लागा तब फूल बिलाई।।

अपने को पकड़ कर मत बैठे रहो। तुम मंजिल नहीं हो, तुम मुकाम नहीं हो। ज्यादा से ज्यादा सराय हो, घर नहीं हो। चल पड़ना है सुबह होते ही। एक पड़ाव हो। इसी पर रुक नहीं जाना है। मनुष्य एक साधन है, मनुष्य साध्य नहीं है। मनुष्य का अतिक्रमण करना है।

फ्रेड्रिक नीत्शे का प्रसिद्ध वचन है : वह दिन सबसे अभागा दिन होगा मनुष्य के इतिहास में— नीत्शे ने कहा है— जिस दिन आदमी अपने से ऊपर उठने की कोशिश छोड़ देगा। जिस दिन आदमी अपना अतिक्रमण करना छोड़ देगा वह दिन सबसे अभागा दिन होगा।

मैं नीत्शे से इस संबंध में राजी हूं। मनुष्य की गरिमा यही, गौरव यही, कि वह अपने से ऊपर उठने का प्रयास करता है। कुत्ते कुत्ते ही रहते हैं। सिंह सिंह ही रहते हैं। कबूतर कबूतर ही रहते हैं। गुलाब गुलाब ही रहते हैं। कोई अपने से ऊपर नहीं उठता। सिर्फ मनुष्य है एक जो अपना अतिक्रमण कर सकता है! इसमें कभी कोई बुद्ध, कभी कोई नानक, कभी कोई रैदास पैदा हो जाता है। तुम्हारी भी यह क्षमता है। लेकिन एक हिम्मत तुम्हें समझ लेनी चाहिए। फूल को विलीन हो जाना होगा फल के प्रकट होते ही।

असल में फूल का विलीन होना और फल का प्रकट होना एक साथ ही घटते हैं। लेकिन कुछ लोग बस आदमी होने में ही लगे रहते हैं।

कहीं मश्गले—असबाबे—सफर पीछे न रह जाए

शरीके—कारवा हो, इतिजामे—कारवा कब तक

यह यात्री—दल चल पड़ा है। यह कतार तीर्थंकरों की, अवतारों की, बुद्धों की, संतों की, पैगंबरों की, मसीहाओं की—यह यात्री—दल चल पड़ा है। तुम सम्मिलित हो जाओ इस दल में। इसलिए मैं पुकार रहा हूं कि हो जाओ संन्यासी। संन्यासी होने का अर्थ है, यात्री—दल में सम्मिलित हो जाओ। कब तक इंतजाम ही करते रहोगे? कुछ लोग कहते हैं होंगे, जरूर होंगे, अभी हम इंतजाम कर रहे हैं।

कहीं मश्गले— असबाबे—सफर पीछे न रह जाए

कहीं ऐसा न हो कि तुम अपना बोरिया—बिस्तर बांधते—बांधते पीछे ही रह जाओ और यात्री—दल बहुत दूर निकल जाए।

शरीके—कारवा हो, इतिजामे—कारवा कब तक

तैयारी ही करते रहोगे? कुछ लोग ऐसे ही हैं जो तैयारी ही करते रहते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा रेलवे का टाइम—टेबल पढ़ता रहता है। मैंने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, दुनिया में और भी पढ़ने की चीजें हैं, तू भी खूब, रेलवे का टाइम—टेबल पढ़ता है! वह कहता है कि यात्रा का इंतजाम करता हूं। अगले वर्ष मसूरी जा रहा हूं। मैंने पूछा कि पिछले वर्ष तू कह रहा था कि अगले वर्ष शिमला जा रहे हैं। उसने कहा, वह इरादा बदल दिया।

और उसके पहले तू कह रहा था कि आबू जा रहे हैं। वह भी इरादा बदल दिया। मैंने कहा मसूरी का पक्का है? उसने कहा अभी तो पक्का है। अब अगला साल आए तब देखेंगे।

तैयारियां ही कर रहा है। ऐसे ही लोग हैं जो तैयारियां ही कर रहे हैं। जब तुम गीता पढ़ते हो, कुरान पढ़ते हो, बाइबिल पढ़ते हो, तो क्या पढ़ रहे हो? टाइम—टेबल, रेलवे की समय—सारिणी— कि कहां जाएं? स्वर्ग जाएं कि नरक जाएं? कि सातवां स्वर्ग ठीक रहेगा कि छठवां जंचता है? सामान ही बांधते रहोगे कि कभी यात्रा पर भी निकलोगे? बहुत देर वैसे ही हो चुकी है।

शरीके—कारवा हो, इंतिजामे—कारवा कब तक

ग्‍यानै कारन कर अभ्‍यासू। ग्‍यान भया तहं करमैं नासू।।

सारा अभ्यास—योग, ध्यान, तप— सारा अभ्यास, परमात्मा का जान हो जाए, अनुभव हो जाए, इसलिए है। इन्हीं में मत उलझ जाना। नहीं तो कुछ लोग जिंदगी इसी में लगा देते हैं कि वे आसन ही साध रहे हैं। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो जिंदगी भर से आसन ही साध रहे हैं। भूल ही गए कि आसन अपने आप में व्यर्थ है। ध्यान कब साधोगे? और ध्यान भी अपने आप में काफी नहीं है समाधि कब साधोगे? और समाधि भी अपने आप में काफी नहीं है। ये सब साधन ही साधन हैं, सीढ़ियां हैं। सीढ़ियों पर मत अटक जाना। सीढ़ियां बहुत प्यारी भी हो सकती हैं, स्वर्ण—मंडित भी हो सकती हैं, उनका भी अपना सुख हो सकता है। लेकिन ध्यान रखना कि सीढ़ियां मंदिर की हैं, प्रवेश मंदिर में करना है। मंदिर का राजा, मंदिर का मालिक भीतर विराजमान है।

सब अभ्यास करो, लेकिन एक ध्यान रहे सब अभ्यास साधन मात्र हैं। ध्यान हो, पूजा हो, आराधना हो, सब अभ्यास हैं और साधन हैं। एक न एक दिन इन्हें छोड़ देना है। कहीं ऐसा न हो कि अभ्यास करते—करते अभ्यास में ही जकड़ जाओ!

ऐसी ही अड़चन हो जाती है। लोग पकड़ लेते हैं फिर अभ्यास को। फिर वे कहते हैं, तीस वर्षों से साधा है, ऐसे कैसे छोड़ दें? तो फिर साधन ही साध्य हो गया। फिर तुम अंधे हो गए। फिर तुम रेलगाड़ी में बैठ गए और यह भूल ही गए कि कहां उतरना है।

मुल्ला नसरुद्दीन सफर कर रहा था। टिकट कलेक्टर ने उससे टिकट पूछा। यह जेब देखी उसने वह जेब देखी, बिस्तर खोला, सूटकेस खोला, सारी चीजें फैला दीं। कलेक्टर भी चिंतित हो गया। उसने कहा रहने दीजिए आप, भले आदमी मालूम होते हैं। जरूर होगी टिकट।

उसने कहा कि ऐसी की तैसी टिकट की। तुम्हारे लिए कौन टिकट खोज रहा है!

उसने कहा फिर तुम किसके लिए खोज रहे हो?

उसने कहा मैं इसलिए खोज रहा हूं कि मुझे जाना कहां है!

जाना कहां है, यह याद रखना। कहीं ऐसा न हो कि ट्रेन में ही बैठे रहो, याद भी भूल जाए कि कहां जाना है।

एक शराबी एक टैक्सी में बैठा और उसने कहा. जल्दी करो, मुझे ओबेराय होटल पहुंचना है। और तेजी से। एक सेकेंड बाद, गाड़ी तो चली ही नहीं, टैक्सी ड्राइवर ने कहा कि आ गया ओबेराय होटल, उतरिए। शराबी उतरा, बोला. कितना पैसा? पैसे दिए पांच रुपये और चलते वक्त ड्राइवर से बोला कि इतनी तेजी से मत चलाया कर।

वह असल में ओबेराय होटल के सामने ही खड़ी थी टैक्सी, चलाने की जरूरत ही न पड़ी थी। इतनी तेजी से चलाना खतरनाक है! एक सेकेंड न लगा, ओबेराय होटल पहुंचा दिया! मुझे तो पता ही नहीं चला, कब चले कब पहुंचे!

एक और शराबी के संबंध में मैंने सुना है। बैठा टैक्सी में और उसने कहा एकदम तेजी से चलो! और टैक्सी वाला भी पीए था। यहां दुनिया बड़ी अजीब है। यहां तुम ही थोड़े पीए हो, तुम्हारे नेता भी पीए हैं। टैक्सी वाला भी एकदम भागा, बे—तहाशा भागा। कोई आधा घंटा तेजी से चक्कर लगाने के बाद आखिर टैक्सी वाले को थोड़ा होश आया, उसने कहा भई जाना कहां है? उस शराबी ने कहा अगर हमको यही मालूम होता तो हम पैदल ही न चले गए होते। जाना कहां है, यही तो हमें मालूम नहीं है, इसलिए तुम्हारी टैक्सी में बैठे हैं। मगर अब यह आने—जाने की फिकर छोड़ो, व्यर्थ समय खराब न करो, तेजी से चलो। पहुंचना जरूर है और जल्दी पहुंचना है।

लोग जल्दी में हैं, पहुंचना भी चाहते हैं; मगर कहां, कुछ साफ नहीं है। तुम कहां जा रहे हो? अगर तुम से कोई पकड़ कर झकझोर कर पूछे कि तुम सच में कहां जो रहे हो, तो तुम भी कंधे बिचकाओगे। तुम कहोगे, भाई ऐसी बातें न पूछो। ऐसी बातें नहीं पूछा करते। और बीच बाजार में तो नहीं पूछते किसी से। किसी की भद्द करवानी है? किसको पता है कि कौन कहां जा रहा है! कहां से कौन आ रहा है, कहां कौन जा रहा है— कुछ पता नहीं है। चलना ही गंतव्य हो गया है। साधन ही साध्य हो गए हैं।

और लोग ऐसे कठिन सवाल नहीं उठाना चाहते हैं, क्योंकि कठिन सवालों से बेचैनी पैदा होती है। पूछना ही नहीं चाहते कि कहां जा रहे हैं। जब भी पूछने के लिए सुविधा मिलती है, तेजी से चलने लगते हैं, ताकि सारी शक्ति चलने में लग जाए और यह सवाल से बचना हो जाए। लोग जिंदगी की समस्याओं को टालते हैं, स्थगित करते हैं।

ग्‍यानै कारन कर अभ्‍यासू।

रैदास ठीक कहते हैं : अभ्यास तो करना— ध्यान का करो, प्रेम का करो, भक्ति का करो— लेकिन स्मरण रहे, परमात्म—शान लक्ष्य है। इसी में मत अटक जाना!

ग्‍यान भया तहं करमैं नासू।।

और जैसे ही शान हो जाएगा वैसे ही सारा अभ्यास, सारे साधन, सारे कर्म खो जाएंगे। फिर क्या जरूरत रह जाएगी।

घृत कारन दधि मथै सयान।

घी निकालना है तो दही को मथते हैं, जब घी निकल आया तो दही को मथना बंद कर देते हैं। फिर दही को जो मथे वह पागल है।

इसलिए बुद्ध ने कहा है ध्यान करना और एक दिन ध्यान छोड़ भी देना। जिस दिन समाधि की झलक आने लगे, ध्यान छोड़ देना। कहीं ऐसा न हो कि तुम ध्यान के चक्कर में ऐसे पड़ जाओ कि जब समाधि की भी झलक आने लगे तो आंखें मींच कर अपने ध्यान में ही लगे रहो कि यह समाधि कहीं बाधा न डाले और। और यह क्या होने लगा! मेरे ध्यान में एक नई बाधा आने लगी। मैं तो ध्यानी हूं मैं तो ध्यान में ही रहूंगा!

घृत कारन दधि मथै सयान। जीवन मुकत सदा निरबान।।

अगर इतना तुम कर सको तो जीते—जी मुक्ति है और जीते—जी निर्वाण है। नहीं मरने के बाद, अभी और यहीं!

देखिए अब कौन—सा द्या जगाता है हमें

मुंह छुपा के सो रहे हैं दामने—साहिल से हम

सामने मंजिल है और आहिस्ता उठते हैं कदम

पास आकर हो रहे हैं दूर फिर मंजिल से हम

कामयाबी में भी है नाकामयाबे—जिदगी

ऐन मंजिल पर नहीं हैं आश्ना मंजिल से हम

और मंजिल दूर नहीं है।

ऐन मंजिल पर नहीं हैं आश्ना मंजिल से हम

कठिनाई हमारी यह है कि हम मंजिल से परिचित नहीं हैं; अन्यथा हम मंजिल पर ही हैं।

सामने मंजिल है और आहिस्ता उठते हैं कदम

पास आकर हो रहे हैं दूर फिर मंजिल से हम

और बहुत बार तुम बहुत करीब आ जाते हो होश के, मगर फिर छिटक जाते हो, फिर भटक जाते हो, फिर कोई नया भटकाव पकड़ लेते हो। मन बहुत बेईमान है। मन बहुत चालबाज है। मन तुम्हें निरंतर नये—नये दुखों में ले जाता है; क्योंकि मन जी ही सकता है दुख में। मन आनंद में मर जाता है। आनंद मन की मृत्यु है। इसलिए तैयार हो जाओ।

जो दीसै सो होई बिनासा।।

मिटने के लिए तैयार हो जाओ। अगर पाना है परमात्मा की ज्योति को तो परवाने बनने के लिए तैयार हो जाओ। और—

बिनु देखे उपजै नहि आसा।

परवाने को भी जलने का, मिटने का भाव नहीं उठता, जब तक शमा दिखाई न पड़े। शमा कहां दिखाई पड़ेगी? शास्त्र में? शमा देखनी हो तो किसी जीवित गुरु में ही देखनी होगी; जहां दीया जल रहा हो वहां देखनी होगी।

कहि रविदास परम बैराग। रिदै राम को न जपसि अभाग।।

अभागे हैं वे जिन्होंने राम से परिचय नहीं बनाया, जिन्होंने राम को नहीं जपा। राम को जपने से परम वैराग्य पैदा होता है।

वैराग्य करना नहीं पड़ता। छोड़ना नहीं पड़ता संसार। भागना नहीं पड़ता कहीं। रैदास कभी नहीं भागे, गृहस्थ रहे, घर में ही रहे। जैसे तुम रहते हो ऐसे ही रहे। जिंदगी भर जूते सीते रहे। जूते सीते—सीते ही, जूते बेचते—बेचते ही परम वैराग्य को उपलब्ध हुए। जैसे कबीर बुनते रहे कपड़े, जुलाहे थे, वैसे रैदास सीते रहे जूते, चमार थे। घर था, गृहस्थी थी, पत्नी—बच्चे थे। नहीं कुछ छोड़ा, नहीं कुछ छोड़ने की जरूरत है। परम वैराग्य स्वयं तुम पर उतर आता है— तुम सिर्फ राम के साथ रमने लगो; तुम सिर्फ अपने भीतर की सीढ़ियां उतरने लगो। और मंजिल कहीं दूर नहीं है। जिस धन की तुम तलाश कर रहे हो, वह तुम्हारे भीतर है। तलाश तुम बाहर कर रहे हो। जिस राज्य को तुम खोजते हो, वह तुम्हारे भीतर है। और तुम दुनिया को जीतने चल पड़े।

देख ऐ मुन्इम! यही था मुझमें—तुझमें इप्तियाज

तेरा कब्जा था जहां पर, मेरा कब्जा दिल पे था

ऐ धनिक, ऐ धन वाले देख, मुझमें और तुझमें इतना ही अंतर था। थोड़ा ही अंतर, पर बहुत बड़ा फिर भी, बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा।

देख ऐ मुन्इम! यही था मुझमें—तुझमें इस्तियाज

ऐ धनिक, इतना—सा ही भेद था मुझमें और तुझमें

तेरा कब्जा था जहां पर, मेरा कब्जा दिल पे था

सह की सार सुहागिनि जानै। तजि अभिमान सुख रलिया मानै।।

सुहागिन ही जानती है प्रेम का रस, प्रेम का स्वाद, सुहाग का आनंद।

सह की सार सुहागिनि जानै।

मिलन का उसे ही पता है।

तजि अभिमान सुख रलिया मानै।।

क्योंकि मिलन में ही वह अपने अभिमान को छोड देती है। और अभिमान को छोड़ने में ही उसके जीवन में रंग उतरता, रस उतरता है।

तनु मनु न सुनै अंतर राखै।

तन भी दे देती है, मन भी दे देती है। कुछ भेद नहीं रखती, कुछ छिपाती नहीं, अपने अंतर में कुछ नहीं छिपाती।

अबरा देखि न सुनै न माखै।।

न तो अन्य को देखती है, न अन्य को सुनती है। जिसने किसी को प्रेम किया है, उसे बस अपना प्रेमी ही दिखाई पड़ता है, उसे कोई और दिखाई नहीं पड़ता। और जिसने राम को प्रेम किया है उसे राम ही दिखाई पड़ता है, कोई और दिखाई नहीं पड़ता। यह सारा जगत राममय हो जाता है।

लेकिन यहां प्रेम कहां! प्रेम के नाम से तो न मालूम क्या—क्या चल रहा है!

फौज में नये रंगरूटों की भर्ती चल रही थी। कप्तान ने चंदूलाल का चुनाव करते हुए कहा, चंदूलाल, और सब बातें तो तुम्हारे बारे में ठीक हैं। तुम्हारा चरित्र बिलकुल चांद की तरह उज्ज्वल, तुम्हारा स्वास्थ्य भी ठीक है। लेकिन क्या तुमने कोई वीरता का काम भी कभी किया है?

चंदूलाल बोले, हां हुजूर, किया है। मैं तीन साल तक शादीशुदा रह चुका हूं।

यहां प्रेम के नाम पर क्या—क्या चल रहा है, कहना बहुत कठिन है। प्रेम जैसे एक युद्धक्षेत्र है! नसरुद्दीन कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जा रहा था। जाते—जाते अपनी पत्नी गुलजान से बोला सुनो गुलजान, वैसे तो मैं अगले सप्ताह तक लौट आऊंगा और यदि किसी कारणवश न लौट सका तो पत्र लिख दूंगा कि मैं क्यों नहीं आ सका।

गुलजान बोली : पत्र लिखने की जरूरत नहीं है, वह मैंने पहले ही तुम्हारी कोट की जेब से निकाल कर पढ़ लिया है।

यहां किसको किस पर विश्वास है! यहां पति भी धोखा दे रहा है, पत्नी भी धोखा दे रही है। वह पहले से ही चिट्ठी रखे हैं लिखे हुए कि किन कारणों से नहीं आ रहा हूं। मगर वही कोई होशियार है ऐसा नहीं है, पत्नी भी पहले ही पढ़ चुकी है।

पत्नियों से कुछ भी छिपाना मुश्किल है। उनकी आंखें गहरी होती हैं। पति जितना छिपाने की कोशिश करता है उतने ही मुश्किल में पड़ जाता है।

एक रात मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने सुना कि मुल्ला जोर—जोर से कह रहा है, कमला— कमला—नींद में। पत्नियां नींद में भी नहीं छोड़ती पीछा। नींद में भी सुनती हैं कि पति क्या कह रहा है। उसी वक्त हिला कर उठाया, कहा कि यह क्या कमला—कमला कर रखा है? यह कमला कौन है?

एक क्षण तो मुल्ला झिझका, एकदम नींद से उठा था, कुछ समझ में भी नहीं आया, फिर होश आया। उसने कहा, कमला कोई नहीं है, यह एक घोड़ी का नाम है। और तू तो जानती है कि मुझे रेसकोर्स में रस है। और इस घोड़ी पर मैंने दांव लगाया हुआ है।

बात, मुल्ला ने सोचा आई—गई हो गई। लेकिन दूसरे दिन सुबह जब वह अपनी दाढ़ी बना रहा था, उसकी पत्नी ने दरवाजे पर दस्तक दी बाथरूम के और कहा कि दरवाजा खोलो।

दरवाजा खोला, उसने कहा कि फोन आया है तुम्हारे नाम।

किसका फोन? तो उसने कहा, उसी घोड़ी का।

पत्नियों से बचा नहीं सकते।

वह घोड़ी कह रही है कि प्लाजा टाकीज में शाम को छह बजे मिलना।

इस जिंदगी में प्रेम के नाम पर जो चल रहा है, उसकी बात नहीं कर रहे हैं रैदास। लेकिन इस जिंदगी में भी कभी—कभी, कहीं—कहीं वैसे अनुभव भी लोगों को हो जाते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि बहुत लोगों को नहीं ऐसा अनुभव हो पाता जिसको प्रेम कहें। होना चाहिए सभी को। हम समाज ऐसा बेहूदा बनाए हैं कि नहीं हो पाता। हमने प्रेम के ऊपर इतनी शर्तें लाद दी हैं कि प्रेम मर गया है। हमने प्रेम को इतना बोझ दे दिया है कि प्रेम नहीं सह पाता और टूट गया।

प्रेम बहुत नाजुक है, फूल जैसा नाजुक है! और हमने इतने पत्थर उसके ऊपर रख दिए हैं कि फूल तो कभी का दब गया, कभी का सड़ गया। लेकिन कभी—कभी इस जीवन में भी प्रेम के दर्शन होते हैं। कभी दो व्यक्तियों के बीच ऐसा प्रेम घटता है— जिस प्रेम में आकाश की सुगंध होती है, जिस प्रेम में तारों की रोशनी होती है; जिस प्रेम में दूर की ध्वनि होती है, जिस प्रेम में हृदय का संगीत होता है! ये वचन उन्हीं के लिए सार्थक हो सकते हैं, वे ही समझ सकेंगे।

सह की सार सुहागिनि जानै। तजि अभिमान सुख रलिया मानै।।

तनु मनु न सुनै अंतर राखै। अबरा देखि न सुनै न माखै।।

उसे दूसरा दिखाई ही नहीं पड़ता।

सो कत जाने पीर पराई। जाकै अंतर दरद न पाई।।

और वही जान सकता है दूसरे की पीर को, दूसरे की पीड़ा को, जिसने दर्द को जाना हो। जिसने प्रेम को जाना हो, वही प्रेम के इन शब्दों को समझ सकेगा। प्रेम करो— पत्नी से, बच्चे से, मित्र से। जहां कहीं अवसर मिल सकता हो प्रेम का, वहीं प्रेम के पौधे को सींचो। क्योंकि प्रेम का पौधा ही एक दिन तुम्हें प्रार्थना तक ले जाएगा। और कोई उपाय नहीं है।

दुःखी दुहागिन दुइ पखहीनी। जिनि नाह निरंतरि भगति न कीनी।।

अभागे हैं वे जिन्होंने भक्ति को नहीं जाना। लेकिन भक्ति को जानोगे कैसे? प्रेम का ही अंतिम आत्यंतिक रूप है भक्ति। प्रेम ही नहीं जाना।

दुःखी दुहागिन दुइ पखहीनी।

तुम्हारी अवस्था तो ऐसी है कि जैसे किसी पक्षी के दोनों पंख काट दिए गए हों और फिर उससे कहा जाए, आकाश में उड़ो।

मेरा प्रयास यहां यही है कि तुम्हें पहले प्रेम सिखाऊं। इसलिए परमात्मा की क्या तुमसे बात करूं, कैसे बात करूं? पहले तुम्हें प्रेम सिखाऊं, फिर तुम प्रार्थना में उतर सकोगे। और प्रार्थना में उतरोगे तो एक दिन परमात्मा को पा सकोगे। अ ब स से शुरू करना पड़ रहा है।

और सदियों—सदियों का कचरा जम गया है तुम्हारे दर्पण पर। और न मालूम किस—किस चीज को तुमने प्रेम समझ रखा है, और न मालूम किन औपचारिकताओं को तुमने प्रार्थना मान लिया है, और मंदिर में पत्थर की मूर्तियां रख ली हैं और उनको तुमने भगवान मान लिया है। तुमने सब झूठा कर डाला। तुम्हारे दोनों पंख कट गए हैं। अब तुम आकाश में उड़ नहीं पाते। और उड़ न सको तो कैसे आकाश का भरोसा आए! उड़ न सको तो कैसे मानो कि आकाश है!

राम—प्रीति का पंथ दुहेला।

कठिन है रास्ता राम—प्रीति का! साधारण प्रीति का रास्ता भी कुछ कम कठिन नहीं है। सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि अपने को मिटाना पड़ता है, अपने को डुबाना पड़ता है। और तुम तो प्रेम में भी एक—दूसरे पर कब्जा करने की कोशिश करते हो। पति पत्नी पर कब्जा करने की कोशिश कर रहा है, पत्नी पति पर कब्जा करने की कोशिश कर रही है। वहां भी पूरा संघर्ष चल रहा है, राजनीति चल रही है, खींचातान चल रही है, प्रतियोगिता चल रही है, संघर्ष चल रहा है। मीठी—मीठी बातों के पीछे छिपी कटारें चल रही हैं।

साधारण प्रीति का रास्ता भी कठिन है। कठिनाई क्या है? कठिनाई यही है कि अपने को मिटाना पड़ता है, झुकना पड़ता है। तो परमात्मा की प्रीति का रास्ता तो निश्चित दुहेला है, बहुत कठिन है, दुर्गम है।

संगि न साथी गवन अकेला।।

और इसलिए भी कठिन है कि वहां न कोई संगी है न साथी है, अकेले जाना है। एकांत की उड़ान है।

दुखिया दरदमंद दरि आया। बहुतै प्‍यास जबाब न पाया।।

बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है।

कहि रविदास सरनि प्रभु तेरी। ज्‍यूं जानहु त्‍यूं करू गति मेरी।।

रैदास कहते हैं कि जो भी परमात्मा के दरवाजे पर दुखी की तरह गया, दरदमंद की तरह गया, कुछ मांगने गया, भिखमंगे की तरह गया, उसे कोई उत्तर नहीं मिला। उसकी प्रार्थना व्यर्थ चली गई।

बहुतै प्‍यास जबाब न पाया।।

चाहे कितनी ही उसकी प्यास हो, उसको जवाबनहीं मिलेगा। क्योंकि अभी भी वह परमात्मा से अपना ही काम लेना चाहता है। अभी अहंकार मिटा नहीं। अहंकार परमात्मा का भी शोषण करना चाहता है। वह कहता है, ऐसा करो मेरे लिए; मैं कहता हूं, ऐसा करो! वह अभी भी परमात्मा पर समर्पित नहीं है। वह यह नहीं कहता कि जो तेरी मर्जी।

कहि रविदास सरनि प्रभु तेरी।

रैदास ने कहा. हमने तो ऐसे पाया। हमने कैसे पाया वह हम बताए देते हैं। हमने ऐसे पाया कि हमने कहा, सरनि प्रभु तेरी, हम तेरी शरण हैं! ज्यू जानहु—तुम जैसा जानते हो— त्युं करु गति मेरी। तुम्हारी जो मर्जी हो वैसी मेरी गति करो। तुम मुझे नरक भेज दो तो भी मैं आनंदित, नाचता हुआ जाऊंगा, क्योंकि तुमने भेजा जो। मैं स्वर्ग नहीं मांग्ता। नरक की अग्नि मेरे लिए शीतल हो जाएगी, क्योंकि तुमने भेजा जो। मांगा स्वर्ग मेरे काम का नहीं। बिन मांगे तुम जो दे दोगे, वही मेरा स्वर्ग है।

रैदास कहते हैं उसके द्वार पर कोई मांग लेकर मत जाना। और तुम सब मांग लेकर ही जाते हो। तुम्हारी जब कोई मांग होती है तभी तुम प्रार्थना करते हो। प्रार्थना शब्द का अर्थ ही मांग हो गया है। इसलिए मांगने वाले को प्रार्थी कहते हैं—कुछ मांगने आया।

प्रार्थना का अर्थ मांग नहीं है। प्रार्थना का अर्थ दान है। प्रार्थना का अर्थ समर्पण है। प्रार्थना का अर्थ है : मैं तुम्हारी शरण आया। जैसा बुरा— भला हूं स्वीकार कर लो। और जो तुम्हारी मर्जी हो, क्योंकि तुम जानते हो, मैं क्या जानता हूं! जहां चलाओ, चलूंगा। जहां उठाओ, उठूंगा। जहां बिठाओ, बैठूंगा।

रैदास जूते सीते और बेचते। और उनके पास मीरा जैसी शिष्या! और भी बहुत शिष्य, हजारों शिष्य थे रैदास के, वे उनसे कहते कि अच्छा नहीं लगता कि आप जूते सीएं। वे जूता सीते रहते और ज्ञानचर्चा भी चलाते रहते, ब्रह्मचर्चा भी चलाते। वे कहते, जंचता नहीं, अच्छा नहीं लगता। आप और जूता सीएं! और हम सबके रहते! हम सब करने को राजी हैं।

रैदास उनसे कहते जब तक उसकी मर्जी जूता सिलाने की है, मैं क्या करूं? वह तो कहता ही नहीं कि रैदास, जूता सीना बंद कर। वह तो जब भी कहता है, यही कहता है कि तेरे जूते मुझे बहुत पसंद आते हैं। जो भी मेरे जूते पहनता है वह राम ही तो है! कितने राम आकर मुझसे नहीं कह गए कि तुम्हारे जूते हमें बहुत पसंद आते हैं— ऐसे सुंदर जूते कोई नहीं बनाता।… कैसे बंद कर दूं! उसकी मर्जी होगी तो बंद हो जाएगा। उसकी मर्जी है तो जारी रहेगा। अगर जन्मों—जन्मों तक भी वह भेज कर मुझसे जूते सिलवाता रहे तो भी मैं आनंद से सीता रहूंगा।

गाते गीत, सीते जूते। गुनगुनाते राम को, सीते जूते।

ऐसे जो आता है प्रभु के द्वार पर वही स्वीकार होता है, वही प्रवेश कर पाता है।

प्रार्थना का सार सूत्र है : जो तेरी मर्जी है वह पूरी हो।

आज इतना ही।


Filed under: मन ही पूजा मन ही धूप--(संत--रैदास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–30)

$
0
0

मृत्यु और परलोक—(प्रवचन—तीसवां)

‘अमृत—वाणी’ से संकलित

सुधा—बिंदु 1970—1971

स जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है, ‘इग्रोरेन्स इज़ डेथ’। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है? अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कही है ही नही। हम नहीं जानते इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असम्भव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असम्भव घटना है जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं, लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है।

हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम यह जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है और अमृत ही, अमृत्व ही शेष रह जाता है— ‘इम्मारलिटी’ ही शेष रह जाती है।

कभी आपने खयाल किया कि आपने किसी आदमी को मरते देखा? आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा। पर मै कहता हूं कि नहीं देखा! आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहीं देखा। मरने की प्रक्रिया आज तक देखी नहीं गयी। जो हम देखते हैं वह केवल जीवन के विदा हो जाने की प्रक्रिया है, मरने की नहीं।

जैसे बटन दबाया हमने, बिजली का बल्व बुझ गया। जो नहीं जानता, वह कहेगा बिजली मर गयी। जो जानता है, वह कहेगा बिजली अभिव्यक्त थी, अब अनभिव्यक्त हो गयी। प्रकट थी, अब अप्रकट हो गयी। मर नहीं गयी। फिर बटन दबेगा, बिजली फिर वापस लौट आएगी। फिर बटन दबाके, बिजली फिर भीतर तिरोहित हो जाएगी।

जीवन समाप्त नहीं होता। केवल शरीर से विदा होता है। लेकिन विदायी हमें मृत्यु मालूम पड़ती है। क्यों मालूम पड़ती है? क्योंकि हमने कभी अपने भीतर के शरीर से अलग किसी अस्तित्व का अनुभव नहीं किया। हमारा अनुभव यही है कि मैं शरीर हूं। इसलिए जब शरीर समाप्त होगा, जलाने के योग्य हो जाएगा, तब स्वभावत: निष्कर्ष होगा कि मर गए। शरीर से अलग अपने भीतर जिसने किसी तत्व को नहीं जाना, वह अज्ञानी

अज्ञानी का मतलब यह नहीं कि जिसे यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं मिली है। विश्वविद्यालय का कोई सर्टिफिकेट नहीं है। सच तो यह है, विश्वविद्यालय ने जितने सर्टिफिकेट दिये, अज्ञान उतना बढ़ा है, कम नहीं हुआ। कारण हैं इसके। कारण यह है कि विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट को लोग ज्ञान समझने लगे इसलिए असली ज्ञान की खोज की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती।

अज्ञानी आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं होता, वह ज्ञान की खोज करता है। तथाकथित ज्ञानी के पास सर्टिफिकेट होता है, वह मान लेता है कि मैं ज्ञानी हूं। मेरे पास यूनिवर्सिटी की डिग्री है, और क्या चाहिए?

ज्ञान तो सिर्फ एक है—स्वयं का ज्ञान, बाकी सब सूचनाएं हैं— ‘इकमेंशन’ हैं, ‘नालेज’ नहीं! बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं। रसल ने जान के दो हिस्से किये हैं, नालेज और अकेन्टेंस—ज्ञान और परिचय। ज्ञान तो सिर्फ एक ही चीज का हो सकता है, वह मैं हूं बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं। अपने से पृथक जिसे भी मैं जानता हूं वह सिर्फ अकेन्टेंस, परिचय है।.. .जान तो सिर्फ अपने को सकता हूं क्योंकि अपने से जो भिन्न है उसके भीतर मेरा प्रवेश नहीं हो सकता, सिर्फ बाहर घूम सकता हूं—परिचय ही कर सकता हूं। ऊपर —ऊपर से जान सकता हूं भीतर तो नहीं जा सकता, भीतर तो सिर्फ एक ही जगह जा सकता हूं—जहां ‘मैं हूं,।

यह बहुत मजे की बात है कि अपना परिचय नहीं होता, और दूसरे का ज्ञान नहीं होता। दूसरे का परिचय होता है, अपना जान होता है। अपना परिचय इसलिए नहीं होता क्योंकि अपने बाहर घूमने का उपाय नहीं। दूसरे का ज्ञान इसलिए नहीं होता क्योंकि दूसरे के भीतर प्रवेश नहीं है।

लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं। हम अपना परिचय कर लेते हैं जो कि हो नहीं सकता, और हम दूसरे के ज्ञान को जान समझ लेते हैं जो हो नहीं सकता। यह अज्ञान की स्थिति है। अज्ञान में मृत्यु है—जब आप एक व्यक्ति को बुझते देखते हैं! बुझते—मरते नहीं! इसलिए बुद्ध ने ठीक शब्द का उपयोग किया है, वह शब्द है—निर्वाण।

निर्वाण का अर्थ है, दीये का बुझना। बस, दीया बुझ जाता है—कोई मरता नहीं। दिखाई पड़ती थी ज्योति, अब नहीं दिखाई पड़ती। देखने के क्षेत्र से विदा हो जाती है, अदृश्य में लीन हो जाती है। फिर प्रगट हो सकती है, फिर लीन हो सकती है। यह प्रगट—अप्रगट होने का क्रम अनंत चल सकता है, जब तक कि ज्योति पहचान न ले कि प्रगट में भी मैं वही हूं अप्रगट में भी मैं वही हूं। न मैं प्रगट होती, न मैं अप्रगट होती, सिर्फ रूप प्रगट होता और अप्रगट होता है।

वह जो रूप के भीतर छिपा हुआ सत्य है वह न प्रगट में प्रगट होता, न अप्रगट में अप्रगट होता है—न जीवन में जीवित होता, न मृत्यु में मरता है। तब अमृत का अनुभव है। हम दूसरों को मरते देखकर, बुझते देखकर हिसाब लगा लेते हैं कि सब मरते हैं तो मैं भी मरूंगा। लेकिन कभी किसी मरनेवाले से पूछा, कि मर गए? लेकिन वह उत्तर नहीं देता। इसलिए मान लेते हैं कि ‘हां’ में उत्तर देता होगा!

मौन को सम्मति का लक्षण समझने की बात सभी जगह ठीक नहीं है। मरे हुए आदमी से पूछो, मर गए? अगर वह उत्तर दे तो समझना मरा नहीं और अगर मौन रह जाए तो हम समझ लेते हैं कि मर गया, लेकिन मौन सम्मति का लक्षण नहीं! नहीं बोल पा रहा है, इसलिए मर गया, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं।

दक्षिण में ब्रह्मयोगी, एक साधु ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, कलकत्ता और सन यूनिवर्सिटी में मरने के प्रयोग करके दिखाए थे। वह दस, मिनट के लिए मर जाते थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में दस डाक्टर मौजूद थे। जिन्होंने सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर गया, क्योंकि मृत्यु के जो भी लक्षण हैं, चिकित्सा शास्त्र के पास, पूरे हो गए थे। श्वास नहीं, बोल नहीं सकता, खून में गति नहीं रही, ताप गिर गया, नाड़ी बंद हो गयी, हृदय की धड़कन नहीं है, सब सूक्ष्मतम यंत्रों ने कह दिया कि आदमी मर गया! उन दस ने लिखा, दस्तखत किए कि ब्रह्मयोगी कह गए थे कि दस्तखत करके ‘डेथ सर्टिफिकेट’ दे देना कि मैं मर गया!

फिर दस मिनट बाद सब वापस लौट आया। श्वास फिर चली, धड़कन फिर चली, खून फिर बहा, उस आदमी ने आंख भी खोली, वह बोलने भी लगा, उठकर बैठ गया! उसने कहा, अब मैं आपके सर्टिफिकेट के संबंध में क्या मानूं? आप बड़े जालसाज हैं, जिंदा आदमी को मरने का सर्टिफिकेट देते हैं। उन्होंने कहा, जहां तक हम जानते थे, मौत घट गयी थी। उसके आगे हम नहीं जानते।

लेकिन, उनमें से एक डाक्टर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस दिन मैं फिर मृत्यु का सर्टिफिकेट नहीं दे सका किसी को भी। क्योंकि उस दिन जो मैंने देखा, उससे साफ हो गया कि मृत्यु के लक्षण, सिर्फ विदा होने के लक्षण हैं। और चूंकि आदमी लौटना नहीं जानता, इसलिए हमारे सर्टिफिकेट सही हैं, वरना सब गलत हो जाते।

वह ब्रह्मयोगी लौटना जानता है। तीन बार, लंदन, कलकत्ता और सन विश्वविद्यालय में उन्होंने मरकर दिखाया और तीनों जगह पृथ्वी पर पहला आदमी है, जिसने तीन दफा मृत्यु का सर्टिफिकेट लिया।

यह हुआ क्या? जब ब्रह्मयोगी से चिकित्सक पूछते कि हुआ क्या, किया क्या? तो वह कहते कि मैं सिर्फ सिकोड़ लेता हूं अपने जीवन को—जैसे कि सूरज अपनी किरणों को सिकोड़ ले, जैसे कि फूल अपनी पंखुड़ियों को बंद कर ले, जैसे पक्षी अपने पंखों को सिकोड़कर और अपने घोंसले में बैठ जाए—ऐसे!

मैं सिकोड़ लेता हूं जीवन को—भीतर—भीतर, वहां जहां तुम्हारे यंत्र नहीं पकड़ पाते। होता तो मैं हूं ही इसलिए वापस लौट आता हूं। फिर खोल देता हूं पंखों को, फिर जीवन के आकाश में उड़ आता हूं घोंसले के बाहर। हम सब के भीतर वह गुह्य स्थान है जहां आत्मा सिकुड़ जाए तो फिर यंत्र पता नहीं लगा पाते, इंद्रियां पता नहीं लगा पातीं। असल में यंत्र इंद्रियों के एक्सटेंशन से ज्यादा नहीं हैं।

यंत्र हमारी ही इंद्रियों का विस्तार है। आंख है, तो हमने दूरबीन और खुर्दबीन बनाई। वह आंख का विस्तार है जो आंख को मेग्रीफाई कर देती है। कान है, तो टेलिफोन बनाया, वह कान का विस्तार है। मेरा हाथ है यहां से बैठकर मैं आपको छू नहीं सकता। मै एक डंडा हाथ में पकड़ लूं और उससे आपको श्य तो डंडा मेरे हाथ का विस्तार हो गया। सारे यंत्र हमारी इंद्रियों के विस्तार हैं। अब तक एक भी यंत्र नहीं बना जो हमारी इंद्रियों से अन्य हों, विस्तार न हो। सब एक्सटेंशंस है।

इंद्रियां जिसे नहीं पकड़ पातीं, यंत्र कभी—कभी उसे पकड़ लेता है, सूक्ष्म होता है तो! लेकिन जो अतीद्रिय है उसे यंत्र भी नहीं पकड़ पाता। सूक्ष्म हो, इंद्रिय की पकड़ के बाहर हो, तो यंत्र पकड़ लेता है। लेकिन जो अतींद्रिय है,—सूक्ष्म नहीं, अतींद्रिय, यानी इंद्रियों के पार—पैरासाइकिक, उसको फिर यंत्र भी नहीं पकड़ पाता। जीवन ऊर्जा पैरासाइकिक है—अतीद्रिय है। इसलिए कोई यंत्र उसकी गवाही नहीं दे सकता।

इस जीवन ऊर्जा को जानने का एक ही उपाय है, वह इंद्रियों के द्वारा नहीं, इंद्रियों के पीछे सरककर—इंद्रियों के माध्यम से नहीं, इंद्रियों के माध्यम को छोड्कर! ज्ञानी इंद्रियों के माध्यम को छोड्कर स्वयं को जानता है और एक क्षण भी यह झलक मिल जाए स्वयं की तो वह अमृत उपलब्ध हो जाता है। जिसकी कोई मृत्यु नहीं वह सत्य दिखाई पड़ जाता है—जिसका कोई प्रारंभ नहीं, कोई अंत नहीं। तानी अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं।

अलकेमिस्ट कहते हैं कि हम खोज रहे हैं वह तत्व, जिससे आदमी अमर हो जाएगा। वे कभी न खोज पाएंगे! आदमी अमर है ही, किसी चीज से अमर करने की जरूरत नहीं है। चेतना अमर है ही। और ऐसा मत सोचना कि पदार्थ मरता है और चेतना अमर है। पदार्थ भी अमर है और चेतना भी अमर है।

पदार्थ इसलिए अमर है कि वह जीवित ही नहीं है। जो जीवित हो वही मर सकता है। पदार्थ कैसे मरेगा जब जीवित ही नहीं है। इसलिए पदार्थ अमर है, उसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं है।

आत्मा इसलिए अमर है कि वह जीवित है। जो जीवित है वह मर कैसे सकता है? जीवन की कोई मृत्यु नहीं हो सकती, मृत्यु का कोई जीवन नहीं हो सकता। पदार्थ का सिर्फ अस्तित्व है, जीवन नहीं। आत्मा का जीवन भी है और अस्तित्व भी।

इस बात को खयाल में रख लें—’एक्जिस्टेंस एस्ट्र लाइफ बोथ’—आत्मा की; पदार्थ की—’एक्जिस्टेंस ओनली’! पदार्थ सिर्फ ‘है’, लेकिन पदार्थ को अपने होने का पता नहीं है। आत्मा ‘है’ भी और उसे ‘अपने होने’ का भी पता है। बस यह होने का पता उसे जीवन बना देता है।

हम आत्मा हैं, क्योंकि हम है और हमें अपने होने का भी पता है, हम जीवित भी हैं; लेकिन हम क्या हैं, इसका हमें कोई भी पता नहीं। होने का पता हो और यह पता न हो कि क्या हैं, तो अज्ञान की स्थिति है। होने का पता हो और यह भी पता हो कि क्या हैं, तो ज्ञान की स्थिति है।

अज्ञानी में उतनी ही आत्मा है जितनी ज्ञानी में—रत्तीभर कम नहीं है। लेकिन अज्ञानी अपने प्रति बेहोश है, ज्ञानी अपने प्रति होश से भरा हुआ है। ऐसे व्यक्ति जो ज्ञान, अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में परम परात्‍पर ब्रह्म को पाते हैं।

परलोक का क्या अर्थ है? क्या मरने के बाद? आमतौर से हमें यही खयाल है कि परलोक का अर्थ मरने के बाद है। लेकिन जब आत्मा मरती ही नहीं तो मरने के बाद परलोक का अर्थ ठीक नहीं है। परलोक कहीं मरने के बाद और नहीं है, परलोक अभी और यहीं मौजूद है— ‘जस्ट बाइ द कार्नर’ —पर हमें उसका कोई पता नहीं।

जिसे अपना पता नहीं, उसे परलोक का पता नहीं हो सकता। क्योंकि परलोक में जाने का द्वार स्वयं का अस्तित्व है—स्वयं का ही होना है। जिसे अपना पता है, वह एक ही साथ परलोक और लोक की देहरी पर खड़ा हो जाता है। इस तरफ झांकता है तो लोक, उस तरफ झांकता है तो परलोक। बाहर सिर करता है तो लोक, भीतर सिर करता है तो परलोक।

परलोक अभी और यहीं है। ब्रह्म कहीं दूर नहीं है, आपके बिलकुल पड़ोस में है, आपके पड़ोसी से भी ज्यादा पड़ोस में है। आपके बगल में जो बैठा है आदमी, उसमें और आप में भी फासला है। लेकिन उससे भी पास ब्रह्म है। आपमें और उसमें फासला भी नहीं है।

‘जब जरा गर्दन झुकायी, देख ली, दिल के आइने में है तस्वीरे यार’ —बस इतना ही फासला है, गर्दन झुकाने का। यह भी कोई फासला हुआ? बाहर लोक हैं और भीतर परलोक है।

तो ध्यान रखें, लोक और परलोक का विभाजन समय में नहीं, स्थान में है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लें। लोक और परलोक का विभाजन ‘टाइम डिवीजन ‘ नहीं है कि मैं मरूंगा, मरने की घटना या विदा होने की घटना समय में घटेगी, और फिर उस मरने के बाद जो होगा वह परलोक होगा। हमने अब तक परलोक को टेम्पोरल समझा है, टाइम में बांटा है। परलोक भी स्पेसियल है, स्पेस में बंटा है, टाइम में नहीं। अभी यहीं, लोक भी मौजूद है, परलोक भी मौजूद है; पदार्थ भी मौजूद है, परमात्मा भी मौजूद है। फासला समय का नहीं, फासला सिर्फ स्थान का है और स्थान का भी फासला हमारी दृष्टि का फासला, अटेंशन का फासला है।

अगर हम बाहर की तरफ ध्यान दे रहे हैं तो परलोक खो जाता है, अगर हम परलोक की तरफ ध्यान दें तो लोक खो जाता है। रात आप सो जाते हैं तब लोक खो जाता है। मैं पूछता हूं क्या आपको तब याद रहता है कि बाजार में आपकी एक दुकान है? आपका एक बेटा है? कि आपकी एक पत्नी है? कि आपका बैंक बैलेंस इतना है? कि आप कर्जदार हैं? कि लेनदार हैं? यानी जब आप सोते हैं तो लोक खो जाता है। लेकिन परलोक शुरू नहीं होता।

निद्रा, लोक और परलोक के बीच में है। निद्रा मूर्च्छा है—लोक भी खो जाता है, परलोक भी शुरू नहीं होता। ध्यान की अवस्था लोक और परलोक के बीच में है। लोक खोता है, परलोक शुरू हो जाता है। जैसे एक आदमी अपने मकान के दरवाजे की दहलीज पर बैठ जाए आंख बंद करके तो न घर दिखाई पड़े, न बाहर दिखाई पड़े। फिर वह आदमी बाहर की तरफ देखे तो भीतर का दिखाई न पड़े, फिर वह मुड़कर खड़ा हो जाए, तो भीतर का दिखाई पड़े बाहर का दिखाई न पड़े।

ऐसी तीन स्थितियां हुई। लोक की—जब हम बाहर देख रहे हैं और ‘कांशसनेस’, चेतना बाहर की तरफ जाती हुई हो। परलोक की—जब चेतना भीतर की तरफ जाती हुई हो। निद्रा की—जब चेतना किसी तरफ जाती हुई नहीं, सो गई हो।

जब कहा जाता है कि परलोक में व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है, तो क्या इसका यह मतलब है कि जिस व्यक्ति ने ब्रह्म को जाना, आत्मा की अमरता को जाना वह मरने के बाद आनंद को उपलब्ध होगा, और अभी नहीं होगा? नहीं, अभी हो जायेगा, यहीं हो जायेगा। लेकिन जो व्यक्ति इस अमृत्व को नहीं जानता वह उस परलोक में, उस भीतर के लोक में, उस पार के परलोक में, कैसे आनंद को उपलब्ध होगा? वह संसार में भी दुख पाता है, यानी बाहर भी दुख पाता है और भीतर भी दुख पाता है। इसे ठीक से समझ लें।

बाहर इसलिए दुख पाता है कि जिसको यह खयाल है कि मृत्यु है, वह बाहर कभी सुख नहीं पा सकता। मृत्यु का खयाल बाहर के सब सुखों को विषाक्त कर जाता है, ‘पायजनस’ कर जाता है। बाहर अगर सुख लेना है थोड़ा बहुत तो मृत्यु को बिलकुल भूलना पड़ता है। इसलिए हम मृत्यु को भुलाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ध्यान रहे, जिसे भी हम भुलाते हैं उसकी और याद आती है। स्मृति का नियम है. भुलाए! —याद आएगी!

अर्थी निकलती है द्वार से तो लोग घर का दरवाजा बंद करके बच्चों को भीतर कर लेते हैं। मौत याद न आ जाए, क्योंकि जिसे मौत याद आ गयी उसके जीवन में संन्यास को ज्यादा देर नहीं है। जो मौत को भुला ले वही संसार में हो सकता है। इसलिए मौत को छिपाते हैं, हजार ढंग से छिपाते हैं।

गांव के बाहर बनाते हैं मरघट। मरा नहीं आदमी कि ले जाने की इतनी जल्दी पड़ती है जिसका हिसाब नहीं। रहने दें थोड़ी देर, लोगों को देख लेने दें, स्मरण कर लेने दें कि यही घटना उनकी भी घटने वाली है। जिस आदमी को वर्षों चाहा और प्रेम किया, उसको विदा करने की इतनी शीघ्रता क्यों है? शीघ्रता का आंतरिक कारण है—जो मनोवैज्ञानिक है!

मरे हुए की मौजूदगी हमें अपने मरे होने की खबर लाती है। मृत्यु का निशान न रह जाए जीवन के पर्दे पर कहीं, उसे फौरन अलग कर दो। और मजे की बात यह है कि जन्म के बाद अगर कोई चीज की ‘सरटेंटी’ है, कोई चीज निश्चित है तो वह मृत्यु ही है। जन्म के बाद अगर कोई चीज प्रिडिक्टेबल है, किसी चीज की भविष्यवाणी की जा सकती है तो वह मृत्यु है, बाकी किसी चीज की भी भविष्यवाणी की नहीं जा सकती।

भविष्यवाणी का यह मतलब नहीं कि तारीख और दिन बताया जा सकता है, भविष्यवाणी का यह मतलब कि मृत्यु होगी ही, इतना तय है—बाकी सब चीजें, हों भी, न भी हों। विवाह हो भी सकता है, न भी हो। स्वास्थ्य रहे भी, न भी रहे। बीमारी आए भी, न भी आए। धन मिले भी, न भी मिले। लेकिन मृत्यु के बाबत ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हो भी, न भी हो।

जो इतनी निश्‍चित है घटना उसे हम बाहर रखते हैं और कई चीजों से भुलाते हैं। लेकिन हर जगह उसकी खबर मिल जाती है। फूल सुबह खिलता और सांझ मुर्झा जाता है और कह जाता है कि मौत है! प्रेम घडीभर खिलता और सूख जाता है और खबर दे जाता है कि मौत है! जवानी आती और चली जाती है और खबर दे जाती है कि मौत है! हरे पत्ते लगते और पतझड़ में झड़ जाते हैं पर खबर दे जाते हैं, मौत है! सुबह सूरज उगता और सांझ डूबने लगता है और खबर दे जाता है कि मौत है!

जिसकी जिंदगी में अभी अमृत का पता नहीं चला, उसका सब विषाक्त हो जाता है—सब प्यायजंड हो जाता है। कोई सुख हो नहीं सकता। जब तक मृत्यु की कालिमा पीछे खड़ी है, सब सुख अंधेरे हो जाते हैं। सच तो यह है कि मृत्यु की कालिमा दुख के क्षण में उतनी गहन नहीं होती, सुख के क्षण में बहुत गहन होकर दिखाई पड़ती है।

किकेंगार्ड ने लिखा है, कि प्रेम के क्षण में मृत्यु जितनी प्रगाढ़ मालूम होती है उतनी कभी नहीं मालूम होती। अगर कृष्णमूर्ति को सुनें—अगर वह डेथ पर बोलना शुरू करें तो लव पर जरूर बोलेंगे, अगर लव पर बोलना शुरू करें तो फिर डेथ पर जरूर बोलेंगे—उसी भाषण में, बाहर नहीं जा सकते। यह बात क्या है? प्रेम की, जहां सुख की झलक आयी वहां तत्काल पता लगता है कि जिसे हम प्रेम कर रहे हैं वह मरेगा, जो प्रेम कर रहा है वह भी मर जाएगा, बीच में जो प्रेम बह रहा है वह भी मर जाएगा।

प्रेम के सघन क्षण में मृत्यु बहुत प्रगाढ होकर दिखाई पड़ती है। प्रेम सुख लाता है, पीछे से मृत्यु का स्मरण ले आता है। जहां—जहां सुख है वहां मौत पीछे खड़ी हो जाती है। इसीलिए तो सुख क्षणभंगुर है। हम ले भी नहीं पाते और मौत उसे हड़प जाती है। जिसको भीतर के अमृत का पता नहीं वह परलोक में तो आनंद पा ही नहीं सकता, इस लोक में भी सिर्फ दुख पाता है।

दूसरी बात भी कह देने जैसी है कि जो परलोक में आनंद पाता है वह इस लोक में भी आनंद पाता है। ये जुड़े हुए हैं। जिसे भीतर आनंद मिला उसे बाहर भी आनंद ही आनंद हो जाता है। ध्यान रहे, उसकी सारी दृष्टि बदल जाती है। जिसे भीतर आनंद नहीं मिला उसे बसंत में भी मृत्यु नजर आती है, पतझड़ दिखायी पड़ता है। उसे बच्चे के पीछे भी बूढ़े का जीर्ण—जर्जर शरीर दिखायी पड़ता है। उसे जवानी की तरंगों में भी मौत का गिर जाना और मिट जाना दिखाई पड़ता है। उसे सुख के क्षण में भी पीछे खड़े दुख की प्रतीति होती है। अज्ञान में सब सुख, दुख हो जाते है। ज्ञान में सब दुख भी सुख हो जाते हैं।

उस तरह के व्यक्ति को पतझड़ में भी आनेवाले बसंत की पदचाप सुनायी पड़ती है। वृक्ष से सूखे गिरते पत्ते में भी नए पत्तों के अंकुरित होने की ध्वनि का बोध होता है। सांझ डूबते हुए सूरज में भी सुबह के उगनेवाले सूरज की तैयारी का पता चलता है। विदा होते बूढ़े में भी पैदा होनेवाले बच्चों के जन्म की खबर मिलती है। मृत्यु का द्वार भी उसे जन्म का द्वार बन जाता है। अंधेरा भी उसे प्रकाश की पूर्व भूमिका मालूम पड़ती है। सुबह अंधेरा जब गहन हो जाता है तभी वह जानता है कि आनेवाली भोर निकट है। दृष्टि बदल जाती है, सब उल्टा हो जाता है।

एक युवक ने कल संन्यास लिया—मां को, पिता को, वरदान मालूम पडना चाहिए! लेकिन मां मेरे पास आई—छाती पीटकर रोती है, कहती है कि मैं जहर खाकर मर जाऊंगी। ये कपड़े उतरवा दो! मां कहती है, मेरे तीन बच्चे पहले मर चुके! मेरा मन उससे पूछने का होता है, लेकिन पूछता नहीं कि तीन बच्चे मर गए तब तूने जहर नहीं खाया।

इसने कुछ भी नहीं किया, सिर्फ गेरुआ वस्त्र ऊपर डाले और तू जहर खाकर मर जाएगी? यह तेरा लडका चोर हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती? यह लड़का बेईमान हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती? यह लड़का पोलिटीशियन हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती?—नहीं, तब अभिशाप भी वरदान मालूम होते। अभी वरदान उतरा है इस लड़के के ऊपर! मां को नाचना चाहिए, पिता को आनंद मनाना चाहिए। फिर यह कहीं जा नहीं रहा है छोड़कर, घर ही रहेगा। लेकिन नही, अज्ञान में वरदान भी अभिशाप मालूम पड़ते हैं। वह छाती पीटती है और रोती है। नहीं, इसमें कुछ आकस्मिक नहीं है, बड़ी स्वाभाविक बात है। अज्ञान बडा स्वाभाविक है, आकस्मिक नहीं है।

बुद्ध जैसे व्यक्ति ने संन्यास लिया और जब बारह वर्ष के बाद ज्ञान के सूर्य को जगा कर घर वापस लौटे, तब भी बाप को दिखाई नहीं पड़ा कि बेटे का जीवन रूपांतरित हुआ। उन्हे दिखाई न पड़ा कि लाखों लोगो के जीवन में बुद्ध से रोशनी पहुंची। दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ पीछे खड़े हैं। उनके पीत वस्त्रों में उनके भीतर का प्रकाश झलकता है।

लेकिन बाप ने गांव के दरवाजे पर यही कहा कि मैं तुझे अभी भी माफ कर सकता हूं। तू वापस लौट आ। यह भूल छोड़, बहुत हो चुका, नासमझी बंद कर। मुझ बूढ़े को इस बुढ़ापे में मृत्यु के निकट होने में दुख मत दे। बाप को नहीं दिखाई पड़ सका कि किससे वह कह रहे हैं। बुद्ध हंसने लगे। बुद्ध ने कहा, गौर से तो देख लें। बारह वर्ष पहले जो घर से गया था, वही वापस नहीं लौटा, वह तो कभी का जा चुका। यह कोई और है, जरा गौर से तो देखें।

लेकिन बाप ने कहा, तू मुझे सिखाएगा? मैं तुझे जानता नही? मेरा खून बहता है तेरी नसों मे। मैं तुझे जितना जानता हूं उतना कौन तुझे जान सकता है? बुद्ध ने कहा, आप अपने को ही जान लें तो काफी है। मुझे जानने के भ्रम में मत पड़े। क्योंकि दूसरे के जानने के झम में वही पड़ता है जो स्वयं को नहीं जानता है।

बाप की तो आग भड़क गई, क्रोध भारी हो गया। उन्होंने कहा, यह मैने सोचा भी न था कि तू अपने ही बाप से इस तरह बातें बोलेगा। बुद्ध जैसा बेटा भी घर में हो तो बाप के लिए अभिशाप मालूम पड़ता है। अज्ञान सब वरदानों को अभिशाप कर लेता है। सब फूलों को कांटा बना लेता है। ज्ञान कांटों को भी फूल बना लेता

जिसे अंत: लोक में आनंद है उसे बाहर के जगत में दुख की कोई रेखा भी शेष नहीं रह जाती, और जिसे बाहर के लोक में दुःख है उसे भीतर के लोक का कोई पता ही नहीं होता, आनंद की तो बात ही मुश्किल है।

‘अमृत—वाणी’ से संकलित

सुधा—बिंदु 1970—1971



Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मन ही पूजा मन ही धूप–(प्रवचन–2)

$
0
0

जीवन एक रहस्‍य है—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्न—सार:

1— ओशो,

मैंने उन्‍हें देखा था खिले फूल की तरह

अस्‍तित्‍व की हवा के संग डोलत हुए

आनंद की सुगंध लुटाते हुए सदा

सब के दिलों में प्रेम का रस घोलत हुए

लवलीन हो गए थे वे परमात्‍मा—भाव में

था उनमें वही ज्‍योति—रूप व्‍यक्‍त हो उठा

सारल्‍य में समा गया बुद्धत्‍व दौड़ कर

ऐसा लगा भगवान स्‍वयं भक्‍त हो उठा

लेकिन वे भक्‍ति में निमग्‍न एक नृत्‍य–गीत थे

यो मोद भरे छलकते हुए हसीन मौन थे

वे जोड़ ही गए है महोत्‍सव में बहुत कुछ

मैं कैसे कहूं स्‍वामी देवतीर्थ भारती कौन थे।

2—ओशो,

      दशहरे के दिन मेरी बेटी की शादी तय हुई थी। सब तैयारियां हो चुकी थी। कार्ड बांट दिए गए थे और लड़के ने तीन दिन पहले दूसरी लड़की से शादी कर ली। मैंने तो इस दुर्भाग्‍य के पीछे सौभाग्‍य ही देखा। मगर मेरी बेटी के लिए इसमें कौन सा रहस्‍य छिपा है?

3—ओशो,

आप जो कहते है वह न मो मैं समझता ही हूं और न सुनता ही हूं। मैं क्‍या करू?

 

पहला प्रश्न:

ओशो,

मैंने उन्‍हें देखा था खिले फूल की तरह

अस्‍तित्‍व की हवा के संग डोलत हुए

आनंद की सुगंध लुटाते हुए सदा

सब के दिलों में प्रेम का रस घोलत हुए

लवलीन हो गए थे वे परमात्‍मा—भाव में

था उनमें वही ज्‍योति—रूप व्‍यक्‍त हो उठा

सारल्‍य में समा गया बुद्धत्‍व दौड़ कर

ऐसा लगा भगवान स्‍वयं भक्‍त हो उठा

लेकिन वे भक्‍ति में निमग्‍न एक नृत्‍य–गीत थे

यो मोद भरे छलकते हुए हसीन मौन थे

वे जोड़ ही गए है महोत्‍सव में बहुत कुछ

मैं कैसे कहूं स्‍वामी देवतीर्थ भारती कौन थे।

योग प्रीतम, जीवन एक रहस्य है जिसका कोई उत्तर नहीं है। जीवन प्रश्न नहीं है कि उसका उत्तर हो सके। प्रश्न तो सब बचकाने हैं— और उत्तर भी। प्रश्न और उत्तर तो बच्चों के खेल हैं। जीवन न तो प्रश्न है न उत्तर है, दोनों के पार, दोनों के अतीत— बस है।

दर्शन और धर्म का यही भेद है। दर्शनशास्त्र इस भांति में जीता है कि जीवन एक प्रश्न है जिसका उत्तर खोजा जा सकता है; और धर्म इस अनुभव में कि जीवन एक रहस्य है, उसे जीया तो जा सकता है लेकिन उसका उत्तर नहीं खोजा जा सकता।

मैं कौन हूं इसका कोई भी उत्तर नहीं है। यद्यपि मैं कौन हूं एक अत्यंत प्राचीन ध्यान की विधि है।

महर्षि रमण ने उसे पुनरुज्जीवित किया था। और महत्वपूर्ण विधि है। लेकिन इस भ्रांति में मत रहना कि मैं कौन हूं मैं कौन हूं मैं कौन हूं— ऐसा पूछते—पूछते एक दिन उत्तर उपलब्ध हो जाएगा। नहीं, ऐसा पूछते— पूछते एक दिन प्रश्न खो जाएगा। ऐसा पूछते—पूछते एक दिन पूछना बंद हो जाएगा। एक सन्नाटा उतर आएगा। एक शून्य घेर लेगा बाहर और भीतर, न पूछना बचेगा न पूछने वाला बचेगा, तब जो है— वही है। तत्वमसि! वही तू है! वही मैं हूं! वही सब हैं! उस वही को ही परमात्मा कहा है।

परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा इस अस्तित्व के रहस्य का नाम है। परमात्मा इस बात को ही कहने का एक ढंग है कि जीवन एक अनिर्वचनीय रहस्य है। एक फूल है जिसका सौंदर्य तो जी सकते हो, एक गीत है जिसे गुनगुना तो सकते हो— मगर जिसका अर्थ कभी न जान पाओगे। फूल का सौंदर्य तो अनुभव कर सकते हो, लेकिन अगर कोई पूछे कि सौंदर्य क्या है तो निरुत्तर हो जाओगे। जितना ही पूछेगा कोई जोर से उतनी ही मुश्किल में पड़ जाओगे। धीरे— धीरे शक ही होने लगेगा कि सौंदर्य है भी या नहीं! क्योंकि जब उत्तर नहीं मिलता तो संदेह पैदा होता है। अगर उत्तर मिल जाए तो संदेह शांत हो जाए। जितना ही उत्तर नहीं मिलता उतना ही संदेह सघन होता है, उतनी ही बेचैनी बढ़ती है। एक प्रश्न हजार प्रश्नों में टूट जाता है; जैसे दर्पण कोई गिरा दे पत्थर पर और चटक जाए हजार टुकड़ों में। प्रश्न में से प्रश्न निकलते आते हैं। इसलिए दर्शनशास्त्र फैलता जाता है, फैलता जाता है; उसका कोई अंत नहीं, कोई ओर—छोर नहीं। और समाधान मिलता नहीं।

समाधान तो उन्हें मिलता है जो इस सत्य को पहचान लेते हैं कि हम जीवन को जान कैसे सकेंगे— हम स्वयं जीवन हैं! जानने वाले में और जो जाना जाता है उसमें कुछ फासला तो चाहिए। फासला हो तो शान घट सकता है। ज्ञाता और ज्ञेय में फासला हो तो ज्ञान घट सकता है। नहीं तो शान घटेगा कहा? अंतराल ही नहीं है। ज्ञाता ही ज्ञेय है। हम ही हैं जानने वाले और हम ही हैं जिनको जाना जाना है, इंच भर का अंतर नहीं है। अंतर ही नहीं है तो ज्ञान कहां घटेगा?

इसलिए परम ज्ञान की पहली सीढ़ी है इस बात को जानना कि मैं नहीं जानता हूं। और ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है इस बात को जानना कि जाना ही नहीं जा सकता है—जीया जा सकता है, हुआ जा सकता है। इसलिए तो निरंतर तुमसे कहता हूं : मस्तिष्क से नहीं, हृदय से संबंध जोड़ो अस्तित्व का। मस्तिष्क सदा प्रश्न पूछता है; हृदय प्रश्न नहीं पूछता, हृदय छलांग लगा लेता है। मस्तिष्क पूछता है, प्रेम क्या है? मस्तिष्क पूछता ही रहता है, प्रेम क्या है? और हृदय तो प्रेम की पगडंडी पर गीत गाता हुआ चल पड़ता है। मस्तिष्क बैठा ही रहेगा, सोचता ही रहेगा। और हृदय ने तो यात्रा भी शुरू कर दी और यात्रा पूरी भी कर लेगा।

जो लोग मस्तिष्क के ही साथ बैठे रहेंगे, उनके जीवन में यात्रा नहीं होती, गति नहीं होती, प्रवाह नहीं होता, उनके प्राण गत्यात्मक नहीं होते। वे मुर्दा हैं।

योग प्रीतम, तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। तुम पूछते हो. ‘ मैं कैसे कहूं स्वामी देवतीर्थ भारती कौन थे!’

कोई नहीं कह सकता। देवतीर्थ भारती कौन थे, यह तो बात और हुई; योग प्रीतम कौन है, यह भी तुम नहीं कह सकते। स्वयं के संबंध में भी कुछ नहीं कहा जा सकता तो अन्य के संबंध में क्या कहा जा सकेगा।

ऐसा भी कुछ है जो कहने के पार है। और उसी में जीवन की गरिमा है, गौरव है। ऐसा भी कुछ है जो शब्दातीत है। ऐसा भी कुछ है जिसका अनुवाद नहीं हो सकता— भाषा में। वह भाव ही है और भाव ही रहता है। सुगंध ही है, उस पर मुट्ठी बाधोगे, चूक जाओगे। भरने दो नासापुटों को। डोलो उसके साथ, मदमस्त होकर डोलो।

बुद्धत्व ऐसी ही घटना है। इस जगत में सबसे बड़ा फूल है वह— चैतन्य का फूल है; सहस्रदल कमल है। उससे जो सुगंध उठती है उसे कोई अपनी मुट्ठियों में नहीं भर सकता, न तिजोडियो में बंद कर सकता है। ये खजाने ऐसे नहीं जो तिजोडियों में बंद किए जाते हैं। तिजोडियों में जो बंद किए जाते हैं, खजाने ही नहीं हैं— ठीकरे हैं। तिजोडियों में जो बंद नहीं किए जा सकते वे ही खजाने हैं।

सुबह की ताजी हवा को तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? सुबह की नई—नई उतरती हुई सूरज की किरणों को तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? पक्षियों के गीतों को तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? कि फूलों की गंध को? कि तारों की रोशनी को? यह अस्तित्व का जो महोत्सव चल रहा है, इसमें से क्या बंद कर सकोगे तिजोड़ी में? कुछ भी बंद न कर सकोगे। ठीकरे!

शब्द तो तिजोडियों की तरह हैं, उनमें जो व्यर्थ है वही समा सकता है। जो अर्थहीन है वही शब्दों में अर्थवत्ता का नाटक करने लगता है। जो सार्थक है, शब्द उससे हजारों—हजारों मील दूर हैं। न शब्द सार्थक तक कभी पहुंचे हैं, न सार्थक कभी शब्द तक आया है। न यह हुआ है पहले, न यह आज हो सकता है, न यह कभी आगे होगा। कारण साफ है अनुभव घटता है हृदय में और शब्द हैं संपदा मस्तिष्क की। जो भी उस अनुभव को शब्दों में लाने की कोशिश करता है, हार जाता है, असफल हो जाता है।

एक भाषा से दूसरी भाषा में शब्दों को ले जाना मुश्किल हो जाता है। जितने भावपूर्ण, जितने संवेदनशील, जितने काव्यपूर्ण, सौंदर्यपूर्ण शब्द हों, उतने ही एक भाषा से दूसरी भाषा में ले जाना मुश्किल हो जाता है। गद्य का तो अनुवाद हो भी जाए, पद्य का अनुवाद नहीं हो पाता। रुबाइयात उमर खय्याम के लाख अनुवाद किए गए हैं, मगर कुछ बात चूक ही जाती है। अनुवाद हो जाता है, हाथ में पिंजड़ा रह जाता है, पक्षी उड़ जाता है। पक्षी पकड़ में आता नहीं।

रवींद्रनाथ की गीतांजलि के अनुवाद हुए हैं, मगर मूल खो जाता है। और ऐसा ही नहीं है कि विदेशी भाषाओं में मूल खो जाता हो, भारतीय भाषाओं में भी मूल खो जाता है। बंगाली से हिंदी में भी लाना मुश्किल है, जो कि बहनें हैं, एक ही भाषा—स्रोत से निकली हैं—संस्कृत से। इतने करीब हैं। लेकिन फिर भी जैसे ही अनुवाद करो, कुछ मर जाता है।

भाषा भाषा में भी अनुवाद नहीं हो पाता, तो यह अनुवाद तो असंभव है। यह तो भाव से भाषा में अनुवाद है। यह तो शून्य को शब्द में लाना है। सिर्फ मूढ़ ही सोचते हैं कि सफल हुए। सिर्फ मूढ़! ज्ञानी तो सभी जानते हैं कि जो कहना था, नहीं कहा जा सका, अनकहा रह गया। मूढ़ जरूर सोचते हैं कि हमने कह दिया जो कहना था। उनके पास वस्तुत: कहने को ही कुछ नहीं।

एक कवि के प्रेम में एक स्त्री थी—बहुत सुंदर स्त्री, बहुत सुशिक्षित, सुसंस्कृत। आखिर कवि ने विवाह का निवेदन किया। उस स्त्री ने निवेदन तो स्वीकार किया, लेकिन कहा कि एक प्रार्थना पहले ही कर लूं; फिर पीछे कहीं इस कारण तुम्हें पछतावा या दुख या पीड़ा न हो। भोजन बनाना मुझे नहीं आता। कवि ने कहा. तुम फिकर छोड़ो। भोजन बनाने को अपने पास है ही क्या! मैं नहीं पछताऊंगा पछताओगी तो तुम पछताओगी। भोजन इत्यादि… अपने पास कुछ है ही नहीं। क्या डर?

जिनके पास कुछ नहीं है वे कहने में समर्थ हो जाते हैं। है ही नहीं कुछ तो कहने में अड़चन क्या है! हां, कुछ हो तो मुसीबत होती है। मूढ़ इस जगत में बहुत कुछ कह पाते हैं, समझदार चूक जाते हैं समझदार नहीं कह पाते।

मैंने सुना है, सरदार हजारा सिंह पहली दफा लंदन गए। अंग्रेजी उन्होंने मैट्रिक तक ही पढ़ी थी मगर बोलते वे धड़ल्ले से थे। जितना कम पढ़े होओ उतना धड़ल्ले से बोल सकते हो; डर ही क्या, भय ही क्या! एक शाम वे एक होटल में पहुंचे। उस होटल की खासियत यह थी कि वहां हर देश के फल उपलब्ध रहते थे। हजारा सिंह को जब पता चला तो उन्हें आलूबुखारा खाने का मन हुआ। वेटर को बुला कर उन्होंने कहा आई वांट पोटैटो—फीवरा। आलूबुखारा का अनुवाद कर दिया!

आलूबुखारे का ऐसा सुंदर अनुवाद करके इधर वे प्रसन्न हो रहे थे, उधर बेचारा वेटर भारत के फलों की सूचियां देखते—देखते पसीना—पसीना हुआ जा रहा था। आखिर वह मैनेजर के पास गया। मैनेजर भी जब नाम ढूंढने में असफल रहा तो उसने भारतीय दूतावास का नंबर घुमाया। उधर सरदार विचित्तर सिंह ने फोन उठाया। मैनेजर ने उन्हें सारा हाल सुनाया।

विचित्तर सिंह जी ने हजारा सिंह को फोन पर बुला कर पूछा तुआडा नाम?

थाउजेंडा सिंह, उत्तर दिया हजार? सिंह ने।

किथों आए हो? विचित्तर सिंह ने पूछा।

क्लेवरपुर यानी होशियारपुर तो, हजारा सिंह ने स्पष्ट किया।

अब विचित्तर सिंह को सारा मामला समझ में आ गया। और उन्हें समझ आ गया कि यह पोटैटो—फीवरा क्या बला है। उन्होंने मैनेजर को कहा कि सरदारजी को आलूबुखारा चाहिए!

मूढ़ता सफल हो जाती है, ज्ञानी सदा असफल रहे हैं कहने में। कहना बड़ा कठिन काम है। कहने योग्य को कहना कठिन काम है। वह कुछ बात इतने भीतर की है कि बाहर लाए—लाए छूट जाती है हाथ से। बाहर लाओ, कुछ का कुछ हो जाती है। वह संपदा भीतर की है और सदा भीतर उपलब्ध है। डुबकी मारो।

योग प्रीतम, इस चिंता में पड़ो मत कि स्वामी देवतीर्थ कौन थे। इस चिंता में पड़ो कि मैं कौन हूं। जिस दिन तुम अपने को जान लोगे, समस्त बुद्धों को जान लोगे। जिस दिन अपने को जान लोगे, उस दिन सब जानने योग्य जान लोगे। यद्यपि मैं तुम्हें पुन: कह दूं कि यह जानना और जानने जैसा नहीं है। यह जानना बड़ा अनूठा है, क्योंकि इसमें जानने वाला और जाना जाने वाला एक ही होते हैं; इसे दो में नहीं तोड़ा जा सकता, इसे दो में तोड़ना असंभव है।

योग प्रीतम कवि हैं, इसलिए उनको बात समझ में आ सकेगी। ठीक कहते हो तुम ‘ मैंने उन्हें देखा था खिले फूल की तरह।’

साधारणत: सभी लोग खिलने को आए हैं, लेकिन कलियां ही रह जाते हैं। और जिम्मेवार कोई

और नहीं है सिवाय तुम्हारे। और दुर्भाग्य है कि फूल, फूल न बन पाए, कली रह जाए। दुर्भाग्य है कि कली खुले न और अपनी सुगंध को न लुटा पाए। हरेक व्यक्ति एक गीत लेकर जन्मता है। और जब तक उसे गा न ले तब तक तृप्ति नहीं मिलती। हरेक व्यक्ति एक नृत्य लेकर आता है। और जब तक वह नृत्य घुंघरुओं में प्रकट न हो जाए तब तक कुछ कमी मालूम होती रहती है।

तुम सभी को कमी मालूम होती है। सब हो तुम्हारे पास तो भी कमी मालूम होती है। धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, फिर भी लगता है कुछ—कुछ अज्ञात—नाम, कुछ जो समझ में भी नहीं आता कि क्या है— लेकिन कोई कोना भीतर खाली है जो भरता नहीं और वह खाली कोना काटता है। मूढ़ों को वह नहीं दिखाई पड़ता। उसे देखने के लिए भी थोड़ी समझ चाहिए, थोड़ी संवेदनशीलता चाहिए। मूढ़ तो भीतर देखते नहीं, बाहर ही भागे चले जाते हैं। वे तो जमीन पर देखते ही नहीं। उनकी आंखें तो दूर—दूर इच्छाओं में, वासनाओं में, आकाश के तारों में अटकी होती हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते से जा रहा था। तारों भरी रात। एक फिल्मी धुन गुनगुनाता हुआ, तारे देखता हुआ चला जा रहा था। और पीछे ही उसके कोई कार वाला हॉर्न बजा रहा है, बजाए जा रहा है, लेकिन न उसे हार्न सुनाई पड़ रहा है, न वह हट रहा है। वहां सुनने को है ही नहीं, वह तो बहुत दूर निकल गया है, तारों में भटक रहा है। आखिर कार वाले ने कार रोकी, उतर कर नीचे आया और कहा बड़े मियां! अगर जहां चल रहे हो वहां नहीं देखा तो जहां देख रहे हो वहीं चले जाओगे। आखिर हार्न भी कोई कब तक बजाएगा!

लोग अटके हैं दूर; उनको नहीं दिखाई पड़ता, कुछ भीतर खालीपन है। भीतर देखते ही कहां, फुर्सत ही कहां, समय कहां! धन गिन रहे हैं, सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। चुनाव पर चुनाव चले आते हैं। गणित बिठालने हैं हजार तरह के। शतरंजें बिठाई हैं जीवन में, लकड़ी के हाथी—घोड़े चला रहे हैं। लकड़ी के हाथी—घोड़ों के लिए तलवारें खिंच जाती हैं।

इस तरह के मूढ़ों को तुम छोड़ दो, तो जिनके पास थोड़ा भी बोध है, थोड़ा सा भी होश है— एक किरण भी सही— उन्हें यह बात चुभती है, यह बात रह—रह कर चुभती है, रह—रह कर याद आती है। जब तक उलझे रहते हैं काम में, ठीक, लेकिन जैसे ही काम से छूटते हैं, खयाल आता है कि जीवन में कुछ अधूरापन है। कुछ होना था, जो मैं नहीं हो पाया। कुछ होने की क्षमता लेकर आया था, जो अधूरी पड़ी है। मैं कब कली से फूल बन सकूंगा? यह खजाना मेरे भीतर ही न पड़ा रह जाए। इस खजाने को कब लुटा सकूंगा? क्योंकि लुटाओ, तभी तुम जान पाओगे। मगर लुटाए तो वह जो खोदे भीतर।

लोगों को तो खयाल है उनके पास कुछ है ही नहीं। इसलिए दूसरों से मांग रहे हैं, भीख मांग रहे हैं। सभी यहां भिखारी हैं। यहां गरीब भिखारी हैं, अमीर भिखारी हैं। भिखारी भिखारी हैं और बादशाह भिखारी हैं। यहां भिखारियों की जमात है। और कुछ भी इकट्ठा कर लेते हैं कूड़ा—करकट, जो सब यहीं पड़ा रह जाएगा। जो यहां पड़ा रह जाता है उसी को कूड़ा—करकट कहते हैं। जिसे तुम अपने साथ न ले जा सकोगे उसी का नाम कूड़ा—करकट है।

जीसस का बहुत प्रसिद्ध वचन है जो तुम बांट दोगे वह बच गया और जो तुमने नहीं बांटा वह खो जाएगा।

लोग यहां इकट्ठा करते हैं, बांटते कहां! बांटे तो वह जो मालिक हो, सम्राट हो। इकट्ठा तो वह करता है जो भिखारी है। वह सब कुछ इकट्ठा करता रहता है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कुछ पेंटिंग तैयार की। मुझे दिखाने ले गया। सब ऊलजलूल, न कोई तुक न कोई अर्थ; बस किसी तरह उठा कर बुश कोई भी रंग पोत दिया! मैंने पूछा कि नसरुद्दीन, यह तुमने क्या किया? उसने कहा : आप समझे नहीं, यह मॉडर्न आर्ट है, यह आधुनिक कला है। यह इसी तरह की होती है। मैंने पिकासो की भी पेंटिंग देखी हैं और डाली की भी। उन्हीं को देख कर तो मुझे प्रेरणा उठी। पिकासो और डाली को भी मात कर दिया है।

कभी बापदादे भी… सीधी रेखा खींचना आया नहीं और आधुनिक कला की कृतियां बना दीं! मैंने यूं ही मजाक में पूछा कि अब क्या करोगे?

कहा कि चाहूं तो लाख—लाख, दो—दो लाख में बिकेंगी।

मैंने कहा : मुझे दिखता नहीं कि इतना कोई समझदार आधुनिक कला का तुम्हें भारत में मिल जाए— यूं ही मजाक कर रहा था—जो इन पर लाख—लाख, दो—दो लाख दे दे।

मुल्ला ने कहा : फिकर क्या, अरे तो घर की संपत्ति घर में रहेगी!

संपत्ति है ही नहीं और घर की संपत्ति घर में रहेगी!

तुम कहते हो ‘ मैंने उन्हें देखा था खिले फूल की तरह।’

ऐसे ही तुम भी हो जाओ! खिले फूल को देखो तो और करने को बचता क्या है? खिले फूल की प्रशंसा में इतना ही किया जा सकता है कि तुम भी खिल जाओ। इससे बड़ी और कोई प्रशस्ति नहीं।

तुम कहते हो. ‘अस्तित्व की हवा के संग डोलते हुए।’

तो डोलो तुम भी, खिलो तुम भी।

तुम कहते हो ‘ आनंद की सुगंध लुटाते हुए सदा

सबके दिलों में प्रेम का रस घोलते हुए।’

वही तुम भी करो। यही संन्यासी का ढंग होना चाहिए। घोलो प्रेम जितना घोल सको जीवन में। दिन तो चार दिन मिले हैं, आज हो कल नहीं हो जाओगे। जितना मीठा कर सको अस्तित्व को, कर जाओ। जितना माधुर्य भर सको, भर जाओ। यहां से कुछ ले जा तो नहीं सकते, इसलिए ले जाने की, इकट्ठा करने की फिकर मत करो। हां, कुछ दे जा सकते हो! और दे जाओ तो एक विरोधाभास अगर दे जाओ तो कुछ ले जाने में समर्थ हो गए। तुम जो दे जाओगे, वही ले जा सकोगे।

यह उनका सदा का रूप था। अभी— अभी तो खूब खिल गया था, निखार आ गया था। लेकिन मुझे बचपन से याद है। जब उनके पास बहुत सुविधा भी नहीं थी तब भी लुटाने में उन्हें रस था। उनकी जो मेरे मन में यादें हैं पुरानी—पुरानी से पुरानी यादें— लुटाने की हैं। वे कोई बहुत धनी व्यक्ति नहीं थे। अति गरीबी से उठे थे। लेकिन लुटाने में उनका कोई मुकाबला न था। ऐसा कोई दिन न जाता जिस दिन मेहमानों को वे इकट्ठे न करते रहते हों। गांव भर उनकी प्रतीक्षा करता था। जो वहां से निकलता, वह जानता था कि वे बुलाएंगे भोजन के लिए। महीने, पंद्रह दिन में एकाध भोज—कि जिसमें सारे मित्रों को इकट्ठा कर लेना है। नहीं थी सुविधा। चाहे उधार भी लेना पड़े तो भी बांटना तो था। बांटने में उन्हें रस था।

एक बार उन्हें बहुत नुकसान लग गया। मैंने उनसे पूछा कि इतना नुकसान झेल पाएंगे? उन्होंने कहा कि नुकसान मुझे लग ही नहीं सकता, क्योंकि मेरे पिताजी मुझे केवल सात सौ रुपया दे गए। जब तक सात सौ मेरे पास हैं तब तक तो मुझे डर ही नहीं। तब तक बाकी लेने—देने में मुझे कुछ हर्ज नहीं, क्योंकि अगर कहीं पिताजी से मिलना हो गया— पिताजी तो जा चुके थे—तो सात सौ रुपये, कह दूंगा कि तुमने जितने दिए थे उतने मैंने बचाए हैं, उससे ज्यादा का सवाल भी नहीं है। इसलिए जब तक सात सौ हैं तब तक मुझे चिंता नहीं है। बाकी सब खो जाएं तो कोई फिकर नहीं— आए और गए! न अपने थे, न रोक रखने का कोई सवाल था।

और वे कहने लगे इतना पक्का है कि सात सौ नहीं जाएंगे। इतने तो बच ही जाएंगे। उस हालत में भी जब बहुत नुकसान था, मैं सोचता था कि शायद अब यह भोज और लोगों को बुलाना और लोगों को खीर खिलाना और मिठाइयां बुलवाना, यह बंद हो जाएगा। मगर वह बंद नहीं हुआ। मैंने उनसे कहा कि अब थोड़ा हाथ सिकोड़े। उन्होंने कहा कि छोटे—मोटे नुकसान के लिए कोई बड़ा नुकसान उठाऊं? ये छोटे—मोटे नुकसान हैं, लगते रहते हैं। लेकिन बांटने की जो प्रक्रिया है वह चलती रहे। जो है वह हम बांटते रहें।

फिर इधर तो निखार बहुत आया था, क्योंकि इधर दस वर्षों से निरंतर वे ध्यान में गहरे से गहरे उतर रहे थे।

कुछ बातों में उनका रस प्रथम से था। मुझे जो उनकी पहली याद आती है, वह यही कि वे मुझे सुबह तीन बजे उठा लेते थे। जब मैं बहुत छोटा था, जब तीन बजे सोने का वक्त, जब आंखें बिलकुल नींद से भरी होतीं, उठने का बिलकुल सवाल न उठता, जो उठाता वह दुश्मन मालूम पड़ता, वे मुझे तीन बजे उठा लेते और ले चले मुझे घुमाने। वह उनकी मुझे पहली भेंट थी—ब्रह्ममुहूर्त। पहले—पहले तो बहुत परेशानी होती थी। जबरदस्ती घिसटता हुआ मैं जाता था, क्योंकि आंखों में नींद का खुमार। मगर धीरे— धीरे सुबह के सौंदर्य से संबंध जुड़ा। धीरे— धीरे समझ में आया कि वे सुबह की घड़ियां खोने जैसी नहीं हैं। उन सुबह की घड़ियों में परमात्मा जितना निकट होता है पृथ्वी के, शायद फिर कभी और नहीं होता। सुबह जब सारी प्रकृति जागती है, पौधे जागते हैं, पक्षी जागते हैं, पशु जागते हैं, सूरज जागता है— वह जागरण की वेला है। उस घड़ी को खो देना ठीक नहीं। उसी घड़ी तुम भी जाग सकते हो। जब सारा अस्तित्व जाग रहा है, तो जागने की उस बाढ़ में तुम्हारे भीतर का अंत: जागरण हो सकता है।

उनकी भेंट भूल नहीं सकूंगा, यद्यपि कठिन थी बहुत। जो भी इस जीवन में सुंदरतर है, श्रेष्ठतर है, शिवतर है, सत्यतर है, वह पहले—पहले कड़वा होता है, पीछे—पीछे मिठास होती है। और जो भी असत्य है, अशिव है, असुंदर है, ऊपर—ऊपर मीठा होता है, अंततः जहर। इस सूत्र को याद रखना। नहीं तो पहली मिठास में ही लोग भटक जाते हैं। और एक बार उस मिठास में तुम गटक गए जहर को तो फिर जहर धीरे— धीरे तुम्हारे सारे शरीर को, तुम्हारे मन—प्राण को विनष्ट करने लगता है। सत्य कडुवा भी हो तो भी डरना मत, जल्दी ही मीठा हो जाएगा।

मैं छोटा था तो अपने ननिहाल रहा बहुत दिनों तक। मेरे पिता और ननिहाल के बीच कोई बत्तीस मील का फासला था। न ट्रेन, न बस, न टैक्सी, उन दिनों वहां कुछ भी न था, रास्ता भी न था। वे बत्तीस मील साइकिल चला कर मुझे देखने आते थे, मिलने आते थे। वर्षा के दिनों में तो बड़ी मुश्किल हो जाती, क्योंकि आधी दूर साइकिल को उन्हें कंधे पर खींचना पड़ता। जहां—जहां कीचड़ होती वहां साइकिल चलाना तो असंभव है, जहां कीचड़ न होती वहां साइकिल चला लेते, जहां कीचड़ होती वहां उलटे साइकिल को खुद पर ढोना पड़ता! मगर मुझे मिलने वे बत्तीस मील साइकिल से तय करके आते।

मैंने उनसे कहा भी इतना कष्ट न करें। मगर वह उनकी अंतर्भावना थी। प्रेम उनका स्वभाव था; उसके लिए कुछ भी सहना पड़े, कितना भी कष्ट सहना पड़े। उन्हें प्रेम में रस था। प्रेम के लिए कोई भी कीमत चुकाने को वे राजी थे। उसी प्रेम के पकते—पकते ही यह बुद्धत्व बन सका। यह कुछ एक दिन में नहीं घट जाता है। धीरे— धीरे, शनै: —शनै: तुम्हारे भीतर तैयारी होती है, बीज टूटता है, अंकुर निकलते हैं, पत्ते आते हैं, फूल लगते हैं, फिर फल आते हैं। बुद्धत्व तो फल है।

तुमने जैसा उन्हें पाया उससे कुछ सीखो।

‘लवलीन हो गए थे वे परमात्म— भाव में

या उनमें वही ज्योति—रूप व्यक्त हो उठा।’

एक ही बात है, चाहे कहो बूंद सागर में गिर गई और चाहे कहो सागर बूंद में गिर गया।

कबीर कहते हैं

हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।

बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाइ।।

और फिर कहते हैं

हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।

समुंद समान! बुंद में, सो कत हेरी जाइ।।

बूंद समुद्र में समाए कि समुद्र बूंद में समाए, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तुम परमात्मा में लीन हो जाओ कि परमात्मा को अपने में लीन हो जाने दो, एक ही बात है। लेकिन सोचते ही मत रहो, विचारते ही मत रहो। कदम उठाओ।

‘सारल्य में समा गया बुद्धत्व दौड़ कर

ऐसा लगा भगवान स्वयं भक्त हो उठा।’

निश्चित ही वे सरल व्यक्ति थे। लगभग आधी सदी मैं उनके साथ रहा। सिर्फ एक बार मुझे चांटा मारा उन्होंने। बहुत मुश्किल है ऐसा पिता खोजना। उन्होंने सिर्फ एक बार मुझे चांटा मारा; वह भी कुछ खास चांटा नहीं था, एक चपत। फिर कभी नहीं मुझे मारा, क्योंकि वे बात समझ गए। और उन्हें बड़ा पछतावा हुआ, मुझसे क्षमा मांगी। कौन पिता अपने बच्चे से क्षमा मांगता है! वे समझ गए कि मैं उन घोड़ों में से नहीं हूं जिनको पीटना पड़ता है, कोड़े की छाया काफी है।

मैं छोटा था तो मुझे बाल बड़े रखने का शौक था—इतने बड़े बाल कि मेरे पिता को अक्सर झंझट होती थी, क्योंकि उनके ग्राहक उनसे पूछते कि लड़का है कि लड़की? और उन्हें बड़ी झंझट होती बार—बार यह बताने में कि भई लड़का है। मुझे तो कोई चिंता नहीं होती थी। लड़की होने में क्या बुराई थी! मुझसे तो कभी उनका ग्राहक कह देता कि बाई जरा पानी ले आ, तो मैं ले आता। मगर उनको बहुत कष्ट होता, वे कहते कि बाई नहीं है। मेरे लड़के को तुम लड़की समझ रहे हो। तो लोग कहते, लेकिन इतने बड़े—बड़े बाल! तो उन्होंने मुझसे एक दिन कहा कि ये बाल काटो, कि दिन भर की झंझट है, और या फिर तुम दुकान पर आया मत करो।

घर—दुकान एक थे, तो जाने का कहीं कोई उपाय भी न था। और छुट्टी के दिन तो उनको बहुत मुश्किल हो जाती, वे कहते कि सुबह से सांझ तक मैं यह समझाऊं कि दूसरा काम करूं? क्योंकि लोग पूछते हैं कि फिर इतने बड़े बाल क्यों? तो आप कटवा क्यों नहीं देते? तो तुम बाल कटवा डालो। मैंने उनसे कहा बाल तो नहीं कटेंगे। तो उन्होंने मुझे चपत मार दी। बस उस दिन मेरे उनके बीच एक बात निर्णीत हो गई, फैसला हो गया। मैं गया और मैंने सिर घुटवा डाला। जब मैं लौट कर आया, बिलकुल घुटमुंडा, चोटी भी नहीं। उन्होंने कहा यह तूने क्या किया? मैंने कहा. मैंने बात जड़ से ही मिटा दी, अब दुबारा बाल नहीं बढ़ाऊंगा। उन्होंने कहा लेकिन इस तरह सिर घुटाया तब जाता है जब पिता मर जाते हैं। मैंने कहा जब आप मरेंगे तो मैं नहीं घुटाऊंगा। बात खत्म हो गई।

सो तुम देख रहे हो, वे मर गए, मैंने नहीं घुटाया। एक वायदा था वह निभाना पड़ा। वे भी समझ गए कि मुझसे सोच—समझ कर बात करनी चाहिए। ऐसा चांटा मारना आसान नहीं है!

अब लोग उनसे पूछने लगे कि यह क्या हुआ? क्योंकि गांव, छोटा गांव, वहां सिर घुटाया ही तब जाता है जब पिता मर जाए। लोग कहने लगे, आप जिंदा हैं और यह आपके लड़के को क्या हुआ? अब मैं और वहीं बैठने लगा दुकान पर जाकर। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं हाथ जोड़ता हूं। इससे तो बाल ही बेहतर थे, कम से कम मैं जिंदा तो था, अब ये मुझसे पूछते हैं कि आप क्या मर गए! यह लड़के ने बाल क्यों घुटाए?

मगर उस दिन बात निर्णय हो गई, मेरे और उनके बीच हिसाब साफ हो गया। एक बात पक्की हो गई कि मेरे साथ और बच्चों जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। या तो इधर या उधर, या तो इस पार या उस पार। मैंने उनसे कहा, या तो बाल बड़े रहेंगे या बिलकुल नहीं रहेंगे। आप चुन लो उन्होंने कहा, जो तेरी मर्जी। अब यह मैं बात ही नहीं उठाऊंगा। मैंने कहा यही बात नहीं, आप और बातों के संबंध में भी साफ कर लो।

जब मैं विश्वविद्यालय से वापस लौटा तो मित्र उनसे पूछने लगे कि बेटे का विवाह कब करोगे? तो उन्होंने कहा मैं नहीं पूछ सकता। क्योंकि अगर उसने एक दफे नहीं कह दिया तो बात खत्म हो गई, फिर हां का कोई उपाय न रह जाएगा। तो वे अपने मित्रों से पुछवाते थे। अपने मित्रों से कहते कि तुम पूछो, वह एक दफे हां भरे, कुछ हां की थोड़ी झलक भी मिले उसकी बात में, तो फिर मैं पूछूं। क्योंकि मेरा उससे निपटारा एक दफे अगर हो गया, नहीं अगर हो गई तो बात खत्म हो गई।

सो आप देखते हैं. न उन्होंने मुझसे पूछा, तो परिणाम यह हुआ कि अविवाहित रहना पड़ा। उन्होंने पूछा ही नहीं। मित्र उनके पूछते थे, मैं उनसे कहता कि उनको खुद कहो कि पूछें। यह बात मेरे और उनके बीच तय होनी है, तुम्हारा इसमें कुछ लेना—देना नहीं है, तुम बीच में मत पड़ो। सो न उन्होंने कभी पूछा, न झंझट उठी।

सरल थे, बहुत सरल थे। और सरलता चीजों को समग्रता से ले लेती है। एक ही छोटी सी घटना ने, वह चांटा मारने ने एक बात उन्हें साफ कर दी कि मेरे साथ साधारण बच्चों जैसा व्यवहार नहीं

किया जा सकता। मुझे डांटना—डपटना भी हो तो सोच लेना पड़ेगा। मुझसे यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा करो वैसा करो। तो फिर वे अगर मुझसे कभी कुछ कहते भी तो कहते, ऐसा मेरा सुझाव है, कर सको तो करना, नहीं कर सको तो मत करना। मैं कोई आशा नहीं दे रहा हूं। फिर उन्होंने मुझे कोई आज्ञा नहीं दी।

मेरे उनके बीच जो संबंध बनता चला गया, वह साधारण पिता और बेटे का संबंध नहीं रहा। वह बहुत जल्दी खत्म हो गया— साधारण बेटे और पिता का संबंध। शरीर का संबंध बहुत जल्दी समाप्त हो गया, आत्मा का संबंध निर्मित होता चला गया।

सरल थे बहुत। लोग उनसे कहते थे कि इतने लोग संन्यास ले लिए— मेरी मां ने भी संन्यास ले लिया— आप क्यों संन्यास नहीं लेते? वे कहते, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। जिस दिन यह सहज भाव उठेगा उसी क्षण ले लूंगा। और सुबह छह बजे एक दिन लक्ष्मी भागी हुई आई। वे यहीं ठहरे थे, लक्ष्मी के कमरे में ही रुके थे, पीछे जो कमरा है मुझसे उसमें ही रुके हुए थे। छह बजे लक्ष्मी भागी आई, उसने कहा कि वे कहते हैं— संन्यास, इसी क्षण, अभी! क्योंकि वे तीन बजे से रोज ध्यान करने बैठ जाते थे। और उस दिन अंतर्भाव उठा। तो सुबह ठीक छह बजे संन्यास लिया। बहुत मैंने उन्हें रोका कि मेरे पैर मत छुए। कुछ भी हो, मैं आखिर बेटा हूं। पर उन्होंने कहा, वह बात ही मत उठाओ। जब मैं संन्यस्त हो गया तो मैं शिष्य हो गया। अब बेटे और बाप की बात खत्म हो गई।

फिर उन्होंने मुझे पैर नहीं छूने दिए उस दिन के बाद। वे मेरे पैर छूते थे। शायद ही किसी पिता ने इतनी हिम्मत की हो— इतनी सरलता, इतनी सहजता! फिर वे मुझसे पूछ कर जीते थे छोटी—छोटी बात में भी— ऐसा करूं या न करूं? और जो मैंने उनसे कह दिया वैसा ही उन्होंने किया, उससे अन्यथा नहीं। और इसीलिए यह अपूर्व घटना घट सकी, अन्यथा जन्मों—जन्म लग जाते हैं। मैंने अगर उनको कहा कि ध्यान करना है, ऐसा करना है, तो बस फिर उन्होंने दुबारा नहीं पूछा। फिर वैसा ही करते रहे। फिर यह भी मुझसे नहीं पूछा कि अभी तक कुछ हुआ नहीं, कब होगा कब नहीं होगा, ऐसा ही करता रहूं जिंदगी भर? दस साल तक उन्होंने ध्यान किया लेकिन एक बार मुझसे यह नहीं कहा कि अभी तक कुछ हुआ क्यों नहीं! ऐसी उनकी श्रद्धा और आस्था थी। एक बार मुझे नहीं कहा कि इसमें कुछ अड़चन हो रही है, कुछ और विधि तो नहीं है, इसमें कुछ सुधार तो नहीं करने हैं, कुछ अन्यथा प्रकार का ध्यान तो नहीं करना है! इसको कहते हैं, छोड़ देना— समर्पण! इसलिए एक महत घटना घट सकी।

मैं चिंतित था कि कहीं वे बिना बुद्धत्व को प्राप्त हुए विदा न हो जाएं। क्योंकि उन जैसा व्यक्ति अगर बिना बुद्धत्व को प्राप्त किए विदा हो जाए तो फिर तुम्हारे संबंध में मुझे बहुत आशा कम हो जाती। लेकिन वे तुम सबके लिए आशा का दीप बन गए।

पूछा तुमने योग प्रीतम

‘ऐसा लगा भगवान स्वयं भक्त हो उठा

वे भक्ति में निमग्न एक नृत्य—गीत थे।’

और भी मित्रों ने पूछा है कि वे किस मार्ग से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए— ध्यान से या भक्ति से? क्योंकि करते तो वे ध्यान थे लेकिन रस उन्हें कीर्तन में था। तो ध्यान से या कीर्तन से?

उनके लिए कीर्तन मार्ग नहीं था, सिर्फ अभिव्यक्ति थी। वह जो उन्हें ध्यान में मिलता था उसे कीर्तन में लुटाते थे। कीर्तन से वे बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुए। बुद्धत्व को उपलब्ध तो वे ध्यान से ही हुए। लेकिन ध्यान में जो मिले, उसे बाटो कैसे? ध्यान ग्तौ है, बोल नहीं सकता, भक्ति बोल सकती है, डोल सकती है। इसलिए ज्ञानी को भी, ध्यानी को भी एक दिन अगर प्रकट करना हो तो भक्ति के सिवाय और कोई उपाय नहीं रह जाता। भक्ति की वह गरिमा है। ध्यान तो रेगिस्तान जैसा है। भक्ति उपवन है। उसमें खूब फूल खिलते हैं और कोयल कूक देती है और पपीहा पी—कहा, पी—कहा पुकारता है।

मार्ग तो उनका ध्यान था, उपलब्ध तो वे ध्यान से ही हुए। लेकिन जैसे—जैसे ध्यान की गहराई बढ़ी, उनकी अड़चन बढ़ी कि वह जो भीतर इकट्ठा होने लगा, अब उसे क्या करें क्या न करें? मुझसे उन्होंने पूछा, क्या करूं? अब भीतर इतना इकट्ठा होता है, इसे कैसे बांटू?

तो मैंने उन्हें कहा कि कीर्तन करें। उन्होंने यह भी सवाल न उठाया कि कीर्तन और ध्यान तो दो अलग मार्ग हैं। श्रद्धा सवाल उठाती ही नहीं। उन्होंने यह भी नहीं पूछा कि पहले ध्यान कहा, अब कीर्तन? उन्होंने कभी मुझसे पूछा नहीं। मैंने कहा कि अब इसको कीर्तन में लुटाएं, तो उन्होंने कीर्तन शुरू कर दिया। कीर्तन उनकी अभिव्यक्ति थी। ध्यान से जो पा रहे थे वे, ध्यान में जो फूल खिल रहे थे, कीर्तन में उनकी सुगंध उठ रही थी।

तुम ठीक कहते हो

‘वे भक्ति में निमग्न एक नृत्य—गीत थे

या मोद भरे छलकते हसीन मौन थे।’

उनके गीत उनके मौन से जन्म रहे थे। मौन भीतर घना हो रहा था, गीत बाहर प्रकट हो रहे थे। जब वृक्ष पर फूल आते हैं तो ऊपर फूल दिखाई पड़ते हैं, जड़ें नीचे जमीन में गहरी गई होती हैं। ऐसे ही ध्यान में गहरे जाओ तो तुम्हारे जीवन में भी बहुत फूल खिलेंगे— रंग—रंग के, अलग— अलग ढंग के, अलग—अलग गंध के!

‘वे जोड़ ही गए हैं महोत्सव में बहुत कुछ

मैं कैसे कहूं स्वामी देवतीर्थ भारती कौन थे!’

तुम नहीं कह सकोगे, मैं भी नहीं कह सकता हूं, कोई भी नहीं कह सकता है। कहने का कोई उपाय नहीं है। श्रद्धा थे! आस्था थे! ध्यान थे! भक्ति थे! और इन सबके जोड़ का नाम भगवान है।

दूसरा प्रश्न:

 

ओशो,

दशहरे के दिन मेरी बेटी की शादी तय हुई थी। सब तैयारियां हो चुकि थी, कॉर्ड बांट दिए गए थे, और लड़के ने तीन दिन पहले दूसरी लड़की से शादी कर ली। मैंने तो इस दुर्भाग्‍य करे ही देखा, मगर मेरी बेटी के लिए इसमें कौन सा रहस्‍य छिपा है? संन्‍यास लेने में उसको अपने पिता का बहुत सामना पड़ेगा। हिना के लिए आपका क्या संदेश है?

 

या, अच्छा ही हुआ। दुर्भाग्य में सौभाग्य छिपा है, ऐसा नहीं; दुर्भाग्य कहीं है ही नहीं, सौभाग्य ही सौभाग्य है। जो शादी के पहले भाग गया, वह शादी के बाद भागता, वह भागता ही। जो शादी के पहले ही भाग गया, वह शादी के बाद कितनी देर टिकता? और टिकता भी तो उसके टिकने में क्या अर्थ होता?

अच्छा हुआ, एकदम अच्छा हुआ। उत्सव मनाओ। उसको भी निमंत्रण कर लेना उत्सव में, क्योंकि उसके बिना यह सौभाग्य हिना का नहीं हो सकता था। जरा भी दुख न लेना। दुख की बात ही नहीं है। दुख की बातें होती ही नहीं हैं दुनिया में। हम ले लेते हैं दुख, यह दूसरी बात है। यहां जो भी होता है, सब सुख है। जरा देखने की आख चाहिए, जरा पैनी आख चाहिए।

और जया, तेरे पास आख है। और मैंने हिना को भी देखा, उसके पास भी बड़ी संभावना है। शायद संन्यास के बीच जो एक बाधा बन सकती थी वह हट गई। शायद यह संन्यास के लिए अवसर बना। अब हिना को चिंता नहीं करनी चाहिए कि पिताजी को क्या होगा। जब पिताजी को, कॉर्ड बांट दिए, विवाह का इंतजाम कर लिया, ताजमहल होटल बुक कर ली और लड़का भाग गया और कुछ न हुआ, तो हिना के संन्यास से क्या हो जाएगा? यहां कहीं कुछ होता ही नहीं, हम नाहक ही परेशान होते हैं कि कहीं पिता दुखी न हों, कहीं पिता चिंतित न हों! यह तो अच्छा अवसर है, इस अवसर पर पिता भी कुछ कह न सकेंगे। इससे सुंदर अवसर और क्या होगा? हिना के संन्यास की घड़ी आ गई। आती है घड़ी कुछ लोगों के लिए—विवाह की लंबी यातनाएं सहने के बाद। सौभाग्यशाली है, इसको बिना यातना सहे आ गई। और जो किसी दूसरी लड़की के साथ भाग गया, उसके प्रेम का कोई भरोसा था? कोई अर्थ था?

चंदूलाल का आखिरी समय निकट था। उनके मित्र श्री ढ़ब्‍बू जी उन्हें अंतिम विदा देने आए हुए थे। पता नहीं कब उनका बचपन का साथी सदा के लिए छोड़ कर चला जाए। ढ़ब्‍बू जी को देख चंदूलाल बोले, भाई ढब्‍बू तुम अच्छे वक्त पर आए, जरा मेरी पत्नी गुलाबो के नाम एक पत्र लिख दो। लिखना कि तुम्हारा चंदूलाल मृत्यु की इन अंतिम घड़ियों में भी तुम्हारे दिए गए प्रेम को भूला नहीं है। तुम्हारे साथ बिताए वे सुहाने दिन, वे मधुर यादें मैं कभी नहीं भुला सकता। हमारा प्यार अमर है और अमर रहेगा। तुम्हारा चंदूलाल! और इसी पत्र की एक—एक कॉपी शीला, नीला, कमला, विमला और आशा को भी भेज देना।

अच्छा हुआ हिना, नहीं तो न मालूम कितनी शीलाए, कमलाएं, विमलाए और न मालूम किस—किस झंझट में तू पड़ती! जो युवक तुझे छोड़ कर भाग गया है, बड़ा दयालु था। मिलता क्या है, चारों तरफ जरा गौर से तो देखो! क्या मिल गया है लोगों को? हिना, जरा जया से पूछ, उसे क्या मिल गया है विवाह से— अपनी मां से पूछ! सिवाय उपद्रव के और क्या मिला है! जरा अपनी मां की जिंदगी देख। संन्यासिनी है, इसलिए मस्त है सारे उपद्रवों के बीच; नाचती है, गाती है; मगर उपद्रव तो हैं ही मौजूद। तुझे क्या मिल जाता? किसको क्या मिला है?

विवाह उनके लिए है जिनके पास बुद्धि की प्रखरता नहीं है। जैसे जिस छुरी में धार न हो, उसको पत्थर पर घिसना पड़ता है धार देने के लिए। जिस बुद्धि में धार नहीं होती उसको विवाह के पत्थर पर घिस कर धार देना पड़ता है। मगर कई तो ऐसे बुद्ध हैं कि विवाहों में घिस—घिस कर भी उन पर धार नहीं आती। पत्थरों में धार आ जाती है घिसते—घिसते, लेकिन उनमें धार नहीं आती!

ढ़ब्‍बू जी एक बस में यात्रा कर रहे थे। बस में बड़ी भीड़ थी, बहुत भीड़ थी। अत: उन्हें बैठने के लिए जगह नहीं मिली थी। बस खड़े—खड़े ही यात्रा कर रहे थे। उनके आगे ही एक सुंदर, आकर्षक और कोमलागी युवती खड़ी हुई थी। अभी— अभी घर से पत्नी से पिट कर आए थे। मगर लोग सीखते कहां! बस की भीड़ के कारण ढ़ब्‍बू बार—बार उस नवयौवना से टकरा रहे थे, जान—बूझ कर, और उन्हें कुछ आनंद भी आ रहा था उस महिला के संस्पर्श में।

अंत में जब उस युवती ने देखा कि यह व्यक्ति तो उसे जान—बूझ कर धक्के मार रहा है, तो उसे बड़ा क्रोध आया वह क्रोधित होकर बोली, इस तरह महिलाओं को धक्के मारते हुए शर्म नहीं आती? तुम इनसान हो या जानवर?

इस पर ढ़ब्‍बू जी बोले जी, मैं इंसान और जानवर दोनों ही हूं। युवती तो बड़ी चौंकी, उसने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा, इनसान हो यह तो समझ में आता है, मगर जानवर कैसे?

ढ़ब्‍बू जी मुस्कुराते हुए बोले. तू मेरी जान, मैं तेरा वर!

अभी घर से पिट कर आ रहे हैं! लेकिन कुछ लोगों में बुद्धि आती ही नहीं। अच्छा हुआ हिना, संन्यास का मार्ग प्रशस्त हुआ। और ज्यादा देर मत कर संन्यास लेने में, अन्यथा पिताजी तेरे कोई दूसरा जानवर खोजेंगे। एक जानवर भाग गया, पिताजी इतने से तेरे हताश नहीं हो जाएंगे, वे कोई दूसरा खोजेंगे। तू तो समझ कि झंझट मिटी। हो गया विवाह और हो गई बात खत्म।

विवाह ही करना हो तो परमात्मा से करो। जुड़ना ही है तो उससे जुडो। फेरे ही लेने हैं तो उसके साथ, गांठ ही बांधनी है तो उससे! यहां पागलों से गांठ बांध कर भी क्या होगा? इन पागलों के साथ और मुसीबत होगी।

खुश हो! लेकिन बहुत खुश भी न हो जाना, क्योंकि कभी—कभी खुशी भी बरदाश्त करना मुश्किल हो जाता है।

नसरुद्दीन ने तीसरी शादी की। नई दुल्हन के हाथ का बना खाना जब पहले दिन खाया तो सारा मुंह, जीभ, ओंठ, गाल—गला और यहां तक कि दांत भी कड़वे हो उठे। किसी तरह उस सब्जी के कौर को वह निगल गया, सोचा कोई बात नहीं। दूसरा कौर दाल का लिया तो मुंह भनभना गया, मिर्च ही मिर्च थी, दाल का तो नामोनिशान नहीं। पेट में जलन होने लगी और आंखो में आंसू आने लगे। वह अपनी इस नई बीवी को नाराज करना नहीं चाहता था, इसलिए बोला, खाना तो बहुत अदभुत बना है डार्लिंग।

नई दुल्हन ने पूछा फिर आंखों में ये आंसू कैसे?

कुछ न पूछो प्रिये—मुल्ला ने बात सम्हाल ली—ये तो खुशी के आंसू हैं।

अच्छा तो और सब्जी दूं? या थोड़ी दाल और ले लो।

नहीं डार्लिग— नसरुद्दीन ने रूमाल से आंखें पोंछते हुए कहा— मैं दिल का मरीज हूं। इतनी ज्यादा खुशी एक साथ बरदाश्त न कर पाऊंगा!

अच्छा हुआ हिना। लोग आएंगे संवेदना प्रकट करने— हंसना और तू उनसे संवेदना प्रकट करना कि दुखी होओ तुम कि तुम्हारा जानवर न भागा। मेरा भाग गया, इसमें दुख का क्या कारण है?

जरूर लोग आ रहे होंगे। लोग बड़े अजीब हैं, ऐसे मौके नहीं छोड़ते। लोग आएंगे, संवेदना प्रकट

करेंगे कि बेटी, घबड़ा मत, दूसरा वर खोजेंगे, इससे भी अच्छा जानवर खोजेंगे! यह तो कुछ भी न था। वे सोचेंगे कि बहुत बड़ी दुर्घटना घट गई तेरे ऊपर। तू हंसना और उनसे कहना कि कोई चिंता न करें। मैं नहीं छूट पाती शायद…।

तेरे थोड़े लगाव थे उस युवक से, इसलिए तू छूट नहीं पाती उससे। वह युवक खुद ही भाग गया। उसका धन्यवाद कर।

अपनी झगड़ालू बीवी से तंग आकर मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन कहा तुमसे विवाह करके मुसलमान होते हुए भी मुझे हिंदुओं के धर्मग्रंथों में श्रद्धा उत्पन्न होने लगी है। श्री रामचरितमानस में बाबा तुलसीदास ने सच ही कहा है. ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड्न के अधिकारी।

रामायण की इस चौपाई में मेरी भी पूरी श्रद्धा है— गुलजान बोली— क्योंकि पांच चीजों में से मैं तो सिर्फ नारी ही हूं बाकी चार तो आप हैं।

हिना, हंस और आनंदित हो। जान बची और लाखों पाए, लौट के बुद्ध घर को आए! वह ताजमहल और ताजमहल होटल की रंगीनियां और बाराती और मेहमान और फुलझड़ियां और फटाके— उन सब में तू भटक जाती।

इतना हमें विवाह के लिए आयोजन क्यों करना पड़ता है? इतना शोर—शराबा क्यों मचाना पड़ता है? वह जो विवाह की बेहूदगी है उसको छिपाने के लिए। वह जो विवाह ला रहा है कष्टों का एक लंबा सिलसिला, उसको भुलाने के लिए। दूल्हा को बिठा देते हैं घोड़े पर, जो कभी घोड़े पर नहीं बैठा। उसको कहते हैं— दूल्हा राजा! पहना देते हैं मोरमुकुट। कपड़े पहना देते है सम्राटों जैसे, फूलमालाओं से लाद देते हैं। घोड़े पर बैठ कर अकड़ कर वह सोचता है— अहा, क्या जिंदगी शुरू हो रही है! अरे घोड़े से पूछ कि ऐसे कितने बुद्धओं को पहले भी पार करा चुका है।

इसलिए तुमने देखा कि भारतीय फिल्में, शहनाई बजी, घोड़ा चला, बारात निकली, बैंड—बाजे बजे, पंडित—पुरोहित ने मालाएं पहनाई, और एकदम से दि एण्ड हो जाता है। क्यों एकदम शहनाई बजती है और फिर दि एंड, अंत आ जाता है? उसका कारण है कि उसके बाद की कथा कहने योग्य नहीं है। उसके बाद जो होता है उससे भगवान ही बचाए।

जया, तू तो चिंतित नहीं है, यह मुझे पता है; लेकिन तेरी चिंता बेटी के लिए स्वाभाविक है। तू तो जीवन के अनुभव से सीखी है, परिपक्व हुई है। तुझे तो एक प्रौढ़ता मिली है। वही प्रौढ़ता तो तुझे मेरे पास ले आई है। उसी प्रौढ़ता ने तुझे संन्यास के जगत में प्रवेश दिलवाया।

और दूसरों का संन्यास इतना कठिन नहीं है जितना जया का है, क्योंकि जया के पति संन्यास के दुश्मन हैं। दुश्मन हैं, इसका मतलब ही है कि कभी न कभी संन्यासी होंगे। दुश्मन हैं, इसका मतलब मुझसे नाता जुड़ गया है। सोचते हैं मेरी, विचार करते हैं मेरी। गालियां देते हैं मुझे। चलो गाली के बहाने ही, लेकिन मेरा नाम तो लेते हैं। उस नाम में खतरा है। ऐसे सोचते रहे, सोचते रहे, तो वह नाम घर कर जाएगा। होंगे संन्यासी एक दिन। मगर जया को जितना कष्ट दिया जा सकता है… एक बार तो घर से ही निकाल दिया तो कोई महीने, पंद्रह दिन जया आश्रम में रही। बिना कुछ लिए—दिए घर से बाहर फेंक दिया, कि अगर संन्यासी रहना है तो इस घर में नहीं रह सकती।

तो जया जानती है कष्ट, लेकिन जया उसके लिए भी राजी थी। तो तू सोच सकती है हिना कि पति को छोड़ने को राजी थी तेरी मां, बच्चों को छोड़ने को राजी थी तेरी मां, जिनसे उसका बहुत प्रेम है— तुझे छोड़ने को राजी थी, और तेरे लिए उसका बहुत लगाव है— लेकिन संन्यास छोड़ने को राजी नहीं थी। तो जो जिंदगी ने नहीं दिया है वह संन्यास ने दिया होगा।

अच्छा हुआ। तू संन्यासी बन। और जब जया को तेरे पिता नहीं हरा पाए तो तुझे क्या हराके! थोड़े परेशान होंगे, शायद न भी हों, शायद तेरा संन्यास उनके जीवन में भी रूपांतरण का कारण बन जाए। निमित्त क्या बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। कौन सी छोटी सी बात निमित्त बन जाएगी! एक तिनका, कहते हैं, ऊंट को बिठा देता है। मनों बोझ था और ऊंट नहीं बैठा, और एक तिनका और ऊंट बैठ गया। बस उतने ही तिनके की कमी थी। हो सकता है, तेरा संन्यास उनके जीवन में भी एक नया द्वार खोल दे। इसलिए भयभीत न हो।

और ध्यान रखना कि मेरा संन्यास प्रेम के विरोध में नहीं हैं। मेरा संन्यास जीवन के विरोध में नहीं हैं। संन्यास के बाद भी तेरे जीवन में अभी प्रेम उठे तो प्रेम को जीना, कोई मनाही नहीं है। संन्यासी हो गई तो कभी तू प्रेम को न जी सकेगी, ऐसा नहीं; संन्यासी होने का अर्थ ही है कि अब हम पूरे प्रेम को जीएंगे, समग्रता से जीएंगें। लेकिन विवाह की भाषा में सोचो ही मत। अगर प्रेम की छाया की तरह विवाह घट जाए तो एक बात है, लेकिन यह आशा छोड़ दो कि विवाह के पीछे प्रेम चलेगा। विवाह के पीछे प्रेम नहीं चलता। विवाह से प्रेम का क्या संबंध है? प्रेम के पीछे विवाह चल सकता है। लेकिन इससे उलटा नहीं होता। और हम इससे उलटा ही करने में लगे हैं। हम पहले विवाह करते है, हम सोचते हैं कि विवाह होगा, फिर प्रेम होगा। बस हमने गाड़ी के पीछे बैल जोत दिए! अब न गाड़ी चलेगी, न बैल चलेंगे। बैल नहीं चल सकते गाड़ी की वजह से, क्योंकि गाड़ी आगे जुती है। और गाड़ी कैसे चले, क्योंकि उसके आगे बैल नहीं है। अब एक कलह शुरू हुई। बैल गाड़ी के आगे होने चाहिए, तो गाड़ी चल सकती है।

प्रेम सूत्र है। अगर उसके पीछे विवाह आ जाए तो ठीक, अनिवार्य भी नहीं है। प्रेम बिना विवाह के भी जीआ जा सकता है। सच तो यह है, विवाह कुछ न कुछ प्रेम में अड़चनें डाल देता है, क्योंकि विवाह के साथ आती हैं — अपेक्षाएं। विवाह के साथ आता है— आग्रह। विवाह के साथ आता है— एक—दूसरे पर दावेदारी का रुख। विवाह के साथ आती है— राजनीति, कि कौन मालिक, कौन प्रमुख? पुरुष समझता है कि वह खास है, स्त्री में क्या रखा है! स्त्री तो नरक का द्वार है! और पुरुष समझता है कि वह बलशाली है, इसलिए स्त्री को दबाने की हर चेष्टा करता है, मालकियत जमाने की पूरी कोशिश करता है।

उसी मालकियत जमाने में प्रेम मर जाता है। प्रेम तो फूल जैसी नाजुक चीज है, इस पर जोर से मुट्ठी बाधोगे, मर जाएगा।

और स्त्री भी पीछे नहीं है कुछ पुरुष से। वे उसकी अलग तरकीबें हैं। उसके अपने सूक्ष्म रास्ते हैं पुरुष को झुकाने के। पुरुष के रास्ते थोड़े फूहड़ हैं, थोड़े स्थूल हैं, साफ दिखाई पड़ते हैं। स्त्री के रास्ते सूक्ष्म हैं, स्थूल नहीं हैं, दिखाई भी नहीं पड़ते। और इसीलिए अंततः स्त्रियां जीत जाती हैं और पुरुष हार जाते हैं। देर लगती है स्त्री को जीतने में, लेकिन वह जीत जाती है। जीत जाती है इसलिए कि उसके सूक्ष्म रास्तों के सामने पुरुष धीरे— धीरे हारा हो जाता है, उसकी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं, क्या न करूं!

पुरुष को गुस्सा आए तो स्त्री को मारता है, स्त्री को गुस्सा आए तो वह खुद का सिर दीवाल से पीट लेती है। अब जब स्त्री दीवाल से सिर पीट ले तो पुरुष को पछतावा होता है कि यह मैंने झंझट क्यों खड़ी की! नाहक उसको इतना कष्ट दिया! पुरुष को गुस्सा आए तो स्त्री को रोने को मजबूर कर दे, स्त्री को गुस्सा आए तो खुद रो लेती है। ये सूक्ष्म प्रकार हैं कब्जा करने के। धीरे— धीरे यह संघर्ष दोनों को नष्ट करता है। दोनों जिंदगी भर इसी कोशिश में लगे रहते हैं।

जिंदगी और बड़े कामों के लिए है। कुछ और गीत गाने हैं या नहीं? कुछ और संगीत छेड़ना है या नहीं? कोई और महोत्सव खोजना है या नहीं? या बस इसी कलह में गुजार देना है? एक स्त्री और एक पुरुष लड़ते—लड़ते जिंदगी गुजार देते हैं। नब्बे प्रतिशत जीवन उनका इसी कलह में बीतता है। और परिणाम क्या है? हाथ में क्या लगता है? कभी मुश्किल से ही कोई जोड़ा दिखाई पड़ता है जो इस मूढ़ता से बचता हो। बहुत मुश्किल से।

मैं हजारों घरों में ठहरा हूं हजारों परिवारों का मुझे अनुभव है। कभी हजार में एक जोड़ा ऐसा दिखाई पड़ता है, जिसमें प्रेम है; नहीं तो बस कलह है, संघर्ष है, उपद्रव है।

संन्यास प्रेम—विरोधी नहीं है। इसलिए हिना, संन्यासी बन। और फिर तेरे जीवन में प्रेम उठे… और प्रेम उठ ही तब सकता है जब ध्यान गहरा हो। नहीं तो जिसे तुम प्रेम कहते हो वह सिवाय कामवासना के और कुछ भी नहीं। वह तो सिर्फ एक जैविक जबरदस्ती है। तुम्हारे भीतर प्रकृति का दबाव है, तुम्हारी मालकियत नहीं है। वह कोई प्रेम है? सिर्फ वासना की पूर्ति है। प्रेम कैसे हो सकता है? और जहां वासना की पूर्ति है वहां कलह होगी ही, क्योंकि जिससे हम वासना की पूर्ति करते हैं उस पर हम निर्भर हो जाते हैं।

और इस दुनिया में कोई भी किसी पर निर्भर नहीं होना चाहता। जिस पर हम निर्भर होते हैं, उसे हम कभी क्षमा नहीं कर पाते। क्योंकि जिस पर हम निर्भर होते हैं उसके हम गुलाम हो गए। पति पत्नी से बदला लेता है इस गुलामी का। पत्नी पति से बदला लेती है इस गुलामी का। जहां वासना है वहां बदला होगा। और जहां वासना है वहां पश्चात्ताप भी होगा, क्योंकि वासना हीन तल की बात है। जीवन का सबसे निम्नतम जो तल है वही वासना का है।

तो जब पुरुष किसी स्त्री. की वासना में पड़ता है तो उसे ऐसा लगता है इसी दुष्ट ने मुझे इस हीन तल पर उतार दिया! तो जब उसे पश्चाताप होता है, उसकी सारी जिम्मेवारी वह स्त्री पर थोपता है। इसीलिए तो तुम्हारे ऋषि—मुनि लिख गए कि स्त्री नरक का द्वार है।

स्त्री नरक का द्वार नहीं है, न पुरुष नरक का द्वार है। कोई दूसरा तुम्हारे लिए नरक का द्वार है ही नहीं; तुम ही अपने लिए नरक का द्वार बन सकते हो या स्वर्ग का द्वार बन सकते हो।

और जब स्त्री देखती है कि पति के कारण उसे वासना में उतरना पड़ता है.. और स्त्रियां ज्यादा देखती हैं, क्योंकि स्त्री की वासना निष्‍क्रिय वासना है, पुरुष की वासना सक्रिय वासना है। इसलिए तो पुरुष बलात्कार कर सकता है, स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती। उसकी वासना निष्‍क्रिय वासना है। चूंकि उसकी वासना निष्‍क्रिय है, इसलिए पुरुष जब तक उसको उकसाए न, भड़काए न, तब तक उसकी

वासना सोई रहती है। तो स्वभावत: स्त्री को ज्यादा लगता है कि इस पुरुष के कारण ही मुझे वासना में उतरना पड़ता है।

मुझे कितनी स्त्रियों ने नहीं कहा है कि हम कब छूटेंगे इस क्षुद्रता से! इस देह की दौड़ कब बंद होगी, क्योंकि पति को तो तृप्ति ही नहीं है! और पति की मांग मिटती ही नहीं है! और पति के कारण हमें बार—बार इस गर्त में उतरना पड़ता है। कब छुटकारा होगा?

स्त्री को कठिनाई ज्यादा होती है और पश्चात्ताप भी ज्यादा होता है। इसलिए कोई स्त्री अपने पति को आदर नहीं कर सकती। किसी ऐरे—गैरे—नत्थू—खैरे को आदर कर सकती है। आ जाएं कोई मुनि महाराज गांव में, उनको आदर कर सकती है। कोई महात्मा, कोई बाबा, कोई भी, किसी को भी आदर कर सकती है, मगर अपने पति को नहीं कर सकती। हांलाकि कहती है औपचारिक रूप से कि पति परमात्मा है, मगर वे कहने की बातें हैं। जानती तो यह है कि यह पति के कारण ही मैं बार—बार नीचे उतारी जा रही हूं। अगर यह पति से छुटकारा हो जाता, अगर यह पति की वासना मिट जाती, तो मैं भी ऊपर उड़ सकती, मेरे भी पंख लग सकते!

स्त्री बहुत पछताती है। और पछताएगी तो जिम्मेवार पति को ठहराएगी। इसलिए फिर अनजाना क्रोध भड़केगा, चौबीस घंटे परेशानी रहेगी। और यह सब अचेतन होगा। यह चेतन में हो तो तुम समझ भी जाओ। यह अचेतन तल पर हो रहा है। इसलिए इसकी साफ—साफ तुम्हें पकड़ भी नहीं आती; धुंधला— धुंधला सा समझ में आता है, स्पष्ट कभी नहीं हो पाता कि यह खेल क्या है, यह गणित क्या है!

और जब स्त्री बचना चाहती है पति से, इसकी वासना से, तो स्वभावत: पति की वासना सक्रिय है, वह आस—पास की स्त्रियों में उत्सुक होने लगता है। फिर एक दूसरा उपद्रव शुरू होता है। फिर ईर्ष्या का और जलन का और वैमनस्य का उपद्रव शुरू होता है। फिर पत्नी अगर पति की वासना में सहयोगी भी होती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं वह किसी और स्त्री में उत्सुक न हो जाए।

मगर यह कोई प्रेम है? यह तो व्यवसाय हुआ, वेश्यागिरी हुई। यह तो यह ग्राहक कहीं किसी और दुकान पर न चला जाए, इस ग्राहक को बचाने का उपाय हुआ। और जहां प्रेम नहीं है वहां यह ग्राहक कितने दिन टिकेगा? यह ग्राहक अगर केवल शरीर के कारण टिका है तो शरीर से जल्दी ऊब जाएगा, क्योंकि एक ही शरीर बार—बार, एक ही ढंग, एक ही रंग, एक ही रूप— कौन नहीं ऊब जाता! तुम भी रोज एक ही भोजन करोगे तो ऊब जाओगे और एक ही कपड़ा पहनोगे तो परेशान हो जाओगे। थोड़ी बदलाहट चाहिए। एक ही फिल्म को रोज—रोज देखने जाओ तो ऊब जाओगे। चाहे मुफ्त ही क्यों न दिखाई जा रही हो तो भी घबड़ा जाओगे। वही फिल्म रोज—रोज देखना, वही स्त्री रोज—रोज!

पुरुष की वासना सक्रिय है, इसलिए वह जल्दी ऊब जाता है। वह इधर—उधर तलाश करने लगता है। और जब वह तलाश करता है तो उसकी स्त्री ईर्ष्या से जलती है। और वह ईर्ष्या का बदला लेगी, वह हजार तरह से पुरुष को कष्ट देगी। और जितना ही ईर्ष्या से जलेगी वह स्त्री और पुरुष को कष्ट देगी, उतना ही धक्का दे रही है कि वह किसी और दूसरी स्त्री के चक्कर में पड़ जाए। यह एक बड़ा उपद्रव का जाल है। और इस सब जाल के पीछे एक बात है कि हमारा प्रेम सच्चा प्रेम नहीं है। हमारा सच्चा प्रेम तो तभी हो सकता है जब प्रेम ध्यान से आविर्भूत हो।

मैं पहले ध्यान सिखाना चाहता हूं फिर ध्यान के पीछे आना चाहिए प्रेम। आता है, निश्चित आता है। और तब एक और ही लोक का प्रेम आता है, एक और ही जगत का प्रेम आता है। एक ऐसा प्रेम आता है, जो परमात्मा की गंध जैसा है! उस प्रेम में न पीड़ा है, न दंश है, न कांटे हैं, न जहर है। उस प्रेम में कोई राजनीति नहीं है, ईष्या नहीं, जलन नहीं। उस प्रेम में कोई पछतावा नहीं, दूसरे पर दावेदारी और मालकियत नहीं है।

हिना, बन सन्यासिन! सीख ध्यान और फिर उठने दे प्रेम को।

तीसरा प्रश्न:

 

ओशो,

आप जो कहते हैं वह न तो मैं समझता ही हूं, और ता सुनता ही हूं। मैं क्या करूं?

यानंद, तुम समझते भी हो, सुनते भी हो, मगर करने से बचना चाहते हो। और करने से बचने की सबसे सुगम तरकीब यह है कि समझ में ही नहीं आता तो करें कैसे? अरे समझना तो दूर, सुन भी नहीं पाते, तो करें कैसे?

मेरी बातें तो सीधी—साफ हैं। मैं कोई बहुत कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं कर रहा हूं बोलचाल! यह कोई प्रवचन थोड़े ही है, बातचीत है। जैसे दो मित्र गुफ्तगू करें, गपशप करें। मेरा बोलना कोई शास्त्रीय तो नहीं है। मेरा बोलना तो बिलकुल लोकभाषा में है। शास्त्र का मुझे ज्यादा शान भी नहीं है। तुम्हारी भाषा बोल रहा हूं; अगर यह भी न समझ सकोगे तो और क्या समझोगे?

समझते तो तुम हो, समझना नहीं चाहते हो! सुनते भी तुम हो, लेकिन सुनना नहीं चाहते, क्योंकि सुनने में खतरा मालूम पड़ता है। सुना तो फिर बचना मुश्किल हो जाएगा। यह सवाल तुम्हारे कान के बहरेपन का नहीं है; यह तुम्हारी तरकीब है, यह तुम्हारी होशियारी है, यह तुम्हारा बचाव है, सुरक्षा है।

पूछो कि मैं क्यों आपकी बात नहीं सुनना चाहता? तुम पूछते हो, क्यों नहीं सुनता? वह मैं राजी नहीं होऊंगा। बात तुम्हें बिलकुल सुनाई पड़ रही है। बात तुम्हें ठीक—ठीक सुनाई पड़ रही है। लेकिन मेरी बात सुनने के लिए हिम्मत चाहिए, क्योंकि सुनी अगर तो समझ आएगी ही आएगी। मेरी बात सीधी और सरल है कि सुन लो तो समझ में आएगी ही। और समझ लो तो करनी भी पड़ेगी।

मैं कह रहा हूं यह रहा दरवाजा और तुम हमेशा दीवाल में से निकलने की कोशिश करते रहे हो। तुम्हें सुनाई भी पड़ता है कि मैं चिल्ला रहा हूं कि यह रहा दरवाजा, मगर दीवाल से निकलने में तुम्हें मजा आने लगा है, रस आने लगा है। दीवाल से सिर टकराना तुम्हारी जिंदगी की शैली हो गई है। तुम कैसे सुनो कि यह रहा दरवाजा! तुम तो दीवाल से ही निकलते रहोगे। और फिर तुमने दीवाल पर खूब सोना मढ़ लिया है— दरवाजा समझ कर, हीरे—जवाहरात से सजा लिया है, बंदनवार बना लिया है, स्वागत लिख दिया है। जीवन भर मेहनत करते रहे दीवाल पर, अब अगर एकदम से मेरी बात सुनो कि वहां दीवाल है, दरवाजा यहां है, तो तुम्हारी जीवन भर की मेहनत का क्या होगा! वह सब पानी में गई, अकारथ!

इतनी तुम्हारी हिम्मत नहीं है जयानंद। इसलिए सुनते हो, निश्चित सुनते हो। मैं राजी नहीं होऊंगा कि तुम सुनते नहीं। ये बातें तो ऐसी है कि बहरे भी सुन लें। ये बातें तो ऐसी हैं कि अंधे भी देख लें। लेकिन तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ हैं, वे अड़चन डाल रहे हैं।

चंदूलाल के पिता लाला बसेसर नाथ जसलोक हास्पिटल में भर्ती थे। उनकी किडनी का ऑपरेशन होना था। चंदूलाल ने अपने लंगोटिया यार ढ़ब्‍बू को पूना फोन किया। हाल—चाल पूछने के बाद चंदूलाल बोले, यार ढस्कू पिताजी के ऑपरेशन के लिए एक हजार रुपये की जरूरत है। अच्छा हो यदि तुम भेज दो।

ढ़ब्‍बू जी : क्या कह रहे हो चंदू? जरा जोर से बोलो, कुछ सुनाई नहीं दे रहा है।

चंदूलाल पिताजी के ऑपरेशन के लिए एक हजार रुपये की जरूरत है। यदि हो सके तो भेज दो। ढ़ब्‍बू जी पता नहीं यार, तुम क्या कह रहे हो! कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। आखिर तुम क्या कह रहे हो?

टेलीफोन ऑपरेटर जो कि दोनों की बातें सुन रहा था, ढ़ब्‍बू जी से बोला आपको क्या समझ में नहीं आ रहा है? आपके मित्र चंदूलाल कह रहे हैं कि पिताजी के ऑपरेशन के लिए एक हजार रुपये का इंतजाम कर दो। क्या सुनाई नहीं दे रहा?

ढ़ब्‍बू जी बोले : तुझे अगर सुनाई दे रहा है तो तू ही क्यों नहीं भेज देता!

सुनना नहीं चाहते, क्योंकि सुनो तो वे हजार रुपये भेजने पड़ेंगे! अब अभी—अभी मैंने हिना से कहा, सब सुन लिया होगा उसने। अब अगर संन्यास से बचना हो तो समझेगी सुना ही नहीं। क्या कह रहे हो, कुछ समझ में नहीं आ रहा!

सुन भी लो तो फिर कहते हो, समझ में नहीं आ रहा।

ये कोई उलझी—उलझी बातें नहीं हैं, सीधी सुलझी बातें हैं।

तुम कुछ और कारणों से आते हो। कोई आता है यहां, वह कहता है बेटा नहीं होता। अब उसे मेरी बातें क्या खाक सुनाई पड़ेगी! वह बैठा है इस इशारे में कि कब मैं मौका दूं कि वह अपनी असली बात जाहिर कर दे। लक्ष्मी परेशान है, दफ्तर में इतने लोगों को लौटाना पड़ता है रोज! क्योंकि कोई आता है बीमारी है; कोई कहता है बेटा नहीं है, कोई कहता है नौकरी नहीं है। लोग आकर पूछते हैं कि क्या संन्यास लेने से बेटा हो जाएगा?

यह तो खूब रही! बेटों के होने के कारण लोग संन्यास ले लेते थे, मगर संन्यास के कारण बेटा! यह तो तुम बिलकुल ही उलटी नाव चलाने की कोशिश कर रहे हो! नदी को नाव में चलाने की कोशिश कर रहे हो!

कोई कहता है, नौकरी नहीं लगती, क्या संन्यास लेने से नौकरी लग जाएगी?

अरे नौकरी नहीं लगने से संन्यास लोग लेते हैं। दीवाला निकल जाए, नौकरी न लगे, पत्नी मर जाए, बेटा न हो, तो लोग कहते हैं कि चलो संन्यास ही ले लें। इसी तरह अब तक संन्यास लेते रहे हैं। उनको समझा—बुझा कर भेजना पड़ता है। अब वे नाराज होते हैं बहुत कि हम संन्यास लेने आए हैं, हमें संन्यास क्यों नहीं दिया जा रहा है? मगर उनके कारण गलत हैं।

तुम कुछ और सुनने आते हो, मैं कुछ और कह रहा हूं। तुम आते हो कि मैं तुम्हारे संसार को और थोड़ा प्यारा सपना दूं; तुम्हारी जहर हो गई जिंदगी पर थोड़ी मिठास की पर्त चढ़ा दूं। और मैं सारी पर्तें उतार रहा हूं। मेरा बस चले तो तुम्हारी चमड़ी उखाड़ कर तुम्हें भीतर के अस्थिपंजर का दर्शन कराऊं! तुम आते हो कि जिंदगी थोड़ी और सफल हो जाए।

लोग चुनाव में खड़े होते हैं, वे आ जाते हैं कि आशीर्वाद चाहिए।

अब जो चुनाव के लिए आशीर्वाद लेने आ गया है, उसको कैसे मेरी बातें सुनाई पड़ेगी? सुनाई तो पड़ेगी, मगर वह समझेगा कैसे? और समझ लेगा तो फिर चुनाव कैसे लड़ेगा? वह तो कान में अंगुली डाल कर बैठा रहेगा, इधर—उधर देखता रहेगा कि मेरे मतलब की कुछ बात हो। या कुछ लोग यह भी अफवाह उड़ा देते हैं कि वहां सिर्फ बैठने से ही लाभ हो जाएगा।

अभी कई अखबारों में एक सज्जन ने पत्र लिखने शुरू किए हैं। पहले एक में निकला तो मैंने कहा चलो ठीक, अब दूसरे—तीसरे में भी निकल आया वही पत्र कि वह बीमार था, भर्ती होने गया था जहांगीर नर्सिग होम में। और मैं वहां दद्दा जी को देखने गया था। बाहर निकला तो उसने नमस्कार किया। मैंने उसे आशीर्वाद दिया। उसकी बीमारी रफा—दफा हो गई। फिर वह भर्ती ही नहीं हुआ जहांगीर अस्पताल में। जरूरत ही क्या रही, बीमारी खत्म हो गई! वर्षों से जो बीमारी पीछा नहीं छोड़ रही थी, वह आशीर्वाद से पीछा छोड़ दिया उसने। उसने अपना कमरा क्काखल करवाया और वापस लौट आया घर। अब वह ठीक है बिलकुल। अब वह अखबारों में खबरें छाप रहा है। अब जरूर अनेक लोग आना शुरू हो जाएंगे। वे इस नजर से आ रहे हैं कि जहांगीर अस्पताल से बचें। वे मेरी बातें सुनेंगे? वे मेरी बातें समझेंगे?

यह हो सकता है उसको हो गया हो। उसको अगर कुछ हो गया हो ऐसा, तो उससे सिर्फ एक ही बात सिद्ध होती है कि उसकी बीमारी झूठी रही होगी। उस पागल को यह तो सोचना चाहिए कि अगर मेरे आशीर्वाद से वह अच्छा होता तो अपने पिता को अच्छा नहीं कर लेता! इतना भी नहीं देख रहा है कि मेरे पिता जहांगीर अस्पताल में बंद हैं, मैं उनको देखने आया हूं उनको अच्छा नहीं कर लेता! और यही नहीं कि उनको अच्छा नहीं कर पाया, वे चले भी गए, रोक भी नहीं पाया— यह भी नहीं देख रहा है! मगर उसकी बीमारी ठीक हो गई।

बीमारी झूठी रही होगी, काल्पनिक रही होगी, मानसिक रही होगी। सौ में से सत्तर बीमारियां मानसिक हैं। और मानसिक बीमारियां ठीक हो जाती हैं, सिर्फ भरोसा चाहिए—सिर्फ भरोसा। श्रद्धालु किस्म का आदमी रहा होगा। थक चुका होगा डॉक्टरों से। पता नहीं कितने साल से बीमारी परेशान कर रही थी। बड़ी श्रद्धा से हाथ जोड़े होंगे।

और मुझे तो यह भी शक है कि उसने मुझे हाथ जोड़े, क्योंकि जो समय उसने दिया है उस समय मैं गया ही नहीं था जहांगीर अस्पताल। उसने समय दिया है रात साढ़े आठ बजे। मैं गया था दिन साढ़े तीन बजे। साढ़े आठ बजे तो वहां स्वभाव थे और बहुत संभावना यह है कि उसने स्वभाव को ही समझा कि मैं हूं। अब स्वभाव स्वभाव, दे दिया होगा आशीर्वाद! आशीर्वाद देनें में क्या लगता है! अब कोई हाथ ही जोड़ रहा है तो दे ही देना चाहिए, आशीर्वाद देनें में क्या हर्जा है! और किसी का लाभ हो जाए, अपना कुछ जाए नहीं। और स्वभाव का क्या गया, उसका लाभ हो गया!

मगर अगर ये सज्जन तुम्हें कहीं मिल जाएं तो बताना मत कि मैंने क्या कहा, नहीं तो बीमारी वापस लौट सकती है। अगर उनको पक्का हो जाए कि वे स्वभाव थे, अरे यह तो भूल हो गई! कलण बीमारी वापस आ जाएगी, क्योंकि बीमारी मन की है, खयाल है। खयाल से परेशान है।

ऐसा हुआ, एक युवक एक रात— मैं जबलपुर रहता था— मेरे पास आकर बैठ गया। कोई दस बजे थे। मैंने उससे कहा कि भाई, तू ज्यादा से ज्यादा म्यारह बजे तक बैठ सकता है, ग्यारह बजे मैं सोने चला जाता हूं। उसने कहा. मैं यहां से हटूगा नहीं पूरी रात, जब तक आप मुझे अपने हाथ से एक गिलास पानी नहीं देंगे। मैंने कहा, किसलिए लेकिन? उसने कहा कि मेरे पेट में दर्द रहता है और मैं सब डॉक्टरों से हार चुका हूं। बड़े—छोटे सब डॉक्टर मुझसे भी हार चुके हैं! अब तो मैं किसी डॉक्टर के पास कहता हूं तो वह कहता है कि भैया, तू किसी और डॉक्टर के पास जा, क्योंकि यह तेरी बीमारी हमसे ठीक होने वाली नहीं। एक गांव में नये डॉक्टर आए हैं, आज दो महीने से उनका इलाज कर रहा हूं अब वे भी मुझसे थक गए हैं। उन्होंने मुझे आपके पास भेजा है कि भैया, तेरी बीमारी तो कोई पहुंचा हुआ फकीर ही ठीक कर सकता है। तो मैं तो नहीं छोडूंगा। आपको एक गिलास पानी देना पड़ेगा।

मैंने कहा कि मैं यह धंधा करता नहीं, क्योंकि यह धंधा खतरनाक है। खतरा यह नहीं है.. .तेरी बीमारी ठीक न हो तो मुझे कोई खतरा नहीं, मगर कहीं ठीक हो जाए तो फिर मेरी मुसीबत। फिर मेरी बीमारी कौन ठीक करेगा? तू ठेका लेता है? फिर और जितने बीमार हैं गांव में, वे यहां आने लगें, तो मैं एक झंझट में पडूगा। इसलिए मैं पानी तुझे देने वाला नहीं।

स्यारह बज गए, वह भी अपनी जिद पर, मैं भी अपनी जिद पर। बारह बज गए। जिनके घर मैं मेहमान था, उन गृहिणी ने आकर कहा कि अब इसको दो भी एक गिलास पानी। आखिर कब तक यह चलेगा? क्या रात भर जगना है? और यह भी हटने वाला नहीं है।

और जितना मैं मना करूं उतनी उसकी श्रद्धा बलवती होती जा रही है। वह कहे कि आप इतना मना क्यों करते हैं? अरे आपकी कोई फीस हो तो मैं देने को तैयार हूं।

मैंने कहा मेरी कोई फीस नहीं है।

तो फिर एक गिलास पानी देने में आपका क्या बिगड़ा जा रहा है?

वह गृहिणी तो एक गिलास पानी ही ले आई। नहीं मानी, उसने मेरे हाथ में छुला कर गिलास और उसको दे दिया। वह गटागट पी गया और एकदम पीकर एकदम आदमी दूसरा हो गया। उसने कहा अरे, मेरा दर्द कहां! उसके पेट में दर्द रहता था निरंतर। इधर देखा उधर पेट टटोला एकदम मेरे पैरों पर गिर पड़ा साष्टांग।

अब मैंने कहा. खतरा शुरू हुआ। अब खा कसम कि किसी को नहीं कहेगा।

उसने कहा कि यह मैं नहीं कसम खा सकता। अरे आप यहां मौजूद हैं और हजारों लोग तडूफ रहे हैं! मेरी मां को भी यह तकलीफ है। उसने जल्दी से एक बोतल निकाली अपने झोले में से कि इस बोतल में पानी भर दें। मैं आपको नहीं सताऊंगा, मैं ही बांट दूंगा।

मैंने कहा यह बात जंचती है, तू ही बांट देना, यहां किसी को मत भेजना। उसकी बोतल भर दी मैंनें। वह हर सातवें दिन आकर बोतल भरवाने लगा। कई लोग उसकी बोतल के पानी से ठीक हुए! लोग भी खूब है, लोग भी गजब के हैं! इसी तरह के लोग तो साधु—महात्माओं के पास इकट्ठे हो जाते हैं। इनकी बीमारी झूठी, इनके लिए झूठे इलाज चाहिए, झूठे उपचार चाहिए।

अब अगर तुम इसलिए यहां आ गए हो तो मेरी बातें तुम्हें लगेंगी, मैं कहां की बातें कर रहा हूं। सुनोगे ही नहीं। सुन भी लोगे तो समझोगे नहीं। समझ भी लोगे तो कभी करोगे नहीं।

कंजूसी में मारवाड़ियों को भी मात कर देने वाले चंदूलाल परेशान सूरत लिए एक दिन मटकानाथ ब्रह्मचारी के पास पहुंचे और बोले, मेरी मदद कीजिए। पिछले दो सप्ताहों से लगातार मुझे एक सपना आ रहा है कि सौ—सौ रुपये के नोट आसमान से बरस रहे हैं, साथ में कुछ दस—दस और पांच—पांच के नोट भी हैं। लेकिन हवा इतनी जोर से चलती है कि सारे रुपये उड़ जाते हैं, जमीन पर गिर ही नहीं पाते। मैं तो इस सपने से बहुत ही परेशान हो गया हूं। रोज—रोज वही का वही बेहूदा सपना। आखिर हर चीज की एक सीमा होती है। मैं तंग आ गया हूं कृपा कर मेरी समस्या को सुलझाइए!

ब्रह्मचारी मटकानाथ ने अपने घड़े जैसी तोंद पर हाथ फेरते हुए कहा, धैर्य रखो भाई चंदूलाल। यह कोई विकट समस्या नहीं है। मैंने कई लोगों के एक से एक बेहूदे और भयानक दुख—स्वप्न तक समाप्त कर दिए हैं। इस तरह के रोगों की एक ही रामबाण दवा है— हनुमान—चालीसा। जैसे ही स्वप्न आए, बस हनुमान जी की जय बोलो और चालीसा पढ़ो। और फिर देखना चमत्कारिक प्रभाव बजरंग बली का! एक पल में नोट बरसने बंद हो जाएंगे।

क्या कहा— चंदूलाल ने गुस्से में कहा— अबे, मेरे तो प्राय ही निकल जाएंगे। अबे साले, नोटों का बरसना बंद नहीं करवाना, तेज हवा का चलना बंद करवाना है।

लोगों के प्रयोजन अलग—अलग हैं। तुम सच में जीवन बदलना चाहते हो? तुम सच में अपने को बदलना चाहते हो न:

नहीं; लेकिन लोग इसलिए आते हैं कि और लोग बदल जाएं, सारी दुनिया बदल जाए। मैं जैसा हूं वैसा ही रहूं; दुनिया बदल जाए और मेरे योग्य हो जाए। मैं जैसा हूं वैसा ही रहूं; दुनिया मुझसे समायोजित हो जाए, मेरे अनुकूल हो जाए। तो फिर मेरी बात नहीं सुनाई पड़ेगी। दुनिया तुम्हारे अनुकूल नहीं होगी, नहीं हो सकती है। तुम्हें ही जागना होगा।

कुछ चीजें हैं जिनके अनुकूल तुम्हें होना पड़ेगा। कुछ चीजें हैं जो प्रतिकूल हैं और प्रतिकूल ही रहेंगी, उनकी प्रतिकूलता स्वीकार करनी होगी। और अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों छोटी बातें हैं। इन दोनों के पार एक और जगत है, मैं उसी तरफ इशारा कर रहा हूं। तुम्हें अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों के पार उठना सीखना होगा, दोनों का अतिक्रमण करना होगा।

वह अतिक्रमण ही ध्यान है। वह द्वंद्वातीत अवस्था— जहां सुख और दुख के आदमी ऊपर उठ जाता है, बीमारी और स्वास्थ्य के ऊपर उठ जाता है, शरीर और मन के ऊपर उठ जाता है—वह द्वंद्वातीत अवस्था ही मेरा संदेश है। उसे ध्यान कहो— अंतरंग में ध्यान है वह, बहिरंग में वही संन्यास है। ध्यान आत्मा है उसकी और संन्यास उसकी देह है।

बातें सीधी—साफ हैं जयानंद, तुम्हारें प्रयोजन कुछ गड़बड़ होंगे, इसलिए अड़चन आ रही है। तुम मुझे अपने प्रयोजन छोड़ कर सुनो। ऐसे सुनो जैसे कोई सुबह पक्षियों के गीत सुनता है। ऐसे सुनो जैसे कोई बांसुरी की धुन सुनता है—प्रयोजनरहित, बेशर्त। तुम अपनी धारणाएं अलग रखो, पक्षपात अलग रखो। तुम यहां कुछ मांगने मत आओ। मेरे पास देने को सिर्फ परमात्मा है, और कुछ भी नहीं। अगर तुम परमात्मा ही पाने को आए हो तो मेरी बात भी सुनाई पड़ेगी, समझ में भी आएगी और तुम भूल कर न पूछोगे कि अब मैं क्या करूं। क्योंकि जिसको समझ में आ गया, दृष्टि मिल गई, वही दृष्टि उसे बताएगी कि क्या करना उचित है।

आज इतना ही।


Filed under: मन ही पूजा मन ही धूप--(संत--रैदास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

गीता दर्शन–(भाग–7)

$
0
0

गीता—दर्शन—(भाग सात)

ओशो

(ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय चौदह ‘गुणत्रय—विभाग—योग’, अध्याय पंद्रह ‘पुरुषोत्तम—योग’ एवं अध्याय सोलह ‘दैव— असुर—संपद—विभाग—योग’ पर दिए गए पच्चीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

 भूमिका: (मणि—कांचन संयोग)

णि—काचन संयोग शायद इसे ही कहते होंगे। ग्रंथों में ग्रंथ गीता और व्याख्याताओं में व्याख्याता ओशो। व्याख्या भी सिर्फ एक विद्वान की नहीं, सिद्ध की! इसलिए गीता—दर्शन के इन अध्यायों को. पढ़ना जैसे समुद्र और उसके भीतर बहती गंगा की धारा में एक साथ दोहरा अवगाहन करना है। इस अवगाहन में सिर्फ गीता के उपदेश—रत्न नहीं मिलते, न सिर्फ ओशो का प्रसिद्ध उक्ति—सौंदर्य, गीता के माध्यम से ओशो की उद्भट प्रतिभा और प्रज्ञा संसार के लगभग हर प्रमुख धर्म और उसकी विभूतियों को जोड्ने वाले सूत्र को आपके हाथ में थमा देती है। वह सूत्र आध्यात्मिक अनुभूति का है, साधना का है, साक्षित्व का है, वहां आप चाहे जिस राह से पहुंचें।

इन अध्यायों के श्लोकों —सूत्रों की एक—एक किरण ओशो की प्रज्ञा के प्रिज्‍म से गुजर कर विचार, अनुभूति और कर्म के ऐसे इंद्रधनुष बनाती है कि कोई न कोई रंग आपको बांध ही लेता है। एक ही सार को वे इतने विभिन्न सुगम और सरस तरीकों से कहते हैं कि कोई न कोई रंग—रश्मि आपके भीतर उतर ही जाती है। एक और विलक्षणता है इस प्रिव्यू से निकली सप्तरंगी रश्मियों की। गीता में भले ही तर्क और शान की सीढ़ियां हैं, विचार का क्रमिक विकास है, ओशो की व्याख्या ऐसी सीधी, रेखीय नहीं, वर्तुलाकार है। आप कहीं से पढ़ना शुरू कर दें, ऐसा नहीं लगेगा कि पिछला पढ़े बिना यह समझ में नहीं आएगा। गीता में विचार की सुतर्कित धाराएं—उपधाराएं ओशो की व्याख्या की विराटता में असीम, और इसीलिए तार्किक विकास से मुक्त, तर्कातीत, सुगम और सहज हो जाती हैं।

ओशो चाहे एक ग्रंथ, एक दर्शन की बात कर रहे हों या एक अध्याय, एक श्लोक या केवल एक शब्द की, उनकी व्याख्या में हर समय अंशी और अंश एक साथ वर्तमान रहते हैं। इसलिए ओशो को पढ़ने—समझने के लिए संदर्भ —प्रसंग की जरूरत नहीं, पूर्व—तैयारी की जरूरत नहीं। उनकी व्याख्या ने क्षेत्र— क्षेत्रज्ञ—विभाग—योग के पहले और दैव—असुर—संपद—विभाग—योग के अंतिम श्लोकों को अर्थ की ऐसी व्यापक तात्कालिकता प्रदान कर दी है कि बीच का आप कुछ न पढ़ें तो भी न कुछ खोएंगे, न कहीं सूत्र छूटेगा। यह बात हर श्लोक पर लागू है, चाहे आप उसे अलग लें या किसी भी दूसरे श्लोक के साथ।

यह तो शैली की विलक्षणता थी। और कथ्य? कथ्य ”विंटेज ” ओशो है। विचार, भावना और कर्म—तीनों को एक अखंड और रसमय संगति में साधे हर समय। पांडित्य जो आतंकित नहीं करता, अर्थ के करीब ले जाता है अपने पन के साथ। प्रज्ञा जो हर छोटी—से—छोटी चीज में बड़े अर्थ खोज लेती है, जो विरोधाभासों के पीछे की समानता और अंतर्संबंधों को उदघाटित करती है। जो गीता के शास्त्रीय अर्थ को घटाए बिना उसे हमारे लिए बोधगम्य बना देती है।

गीता के एक श्लोक, एक विचार की जितनी अर्थछटाएं ओशो हमें दिखाते हैं, शायद कोई अन्य नहीं। और सिद्धात के साथ—साथ अभ्यास योग्य जितने क्रिया—सूत्र ओशो हमें देते हैं, शायद कोई अन्य नहीं। लगभग हर पन्ने पर घूम—फिर कर वह लौट आते हैं मूल मंत्र पर—करो। भक्ति, ज्ञान, कर्म, योग—जो रुचे उस विधि से, लेकिन कुछ—न—कुछ करो। तुम साक्षित्व को प्राप्त हो सकते हो। आज! अभी! बशर्ते सुनना भी ध्यान बन जाए। पढ़ना भी ध्यान बन जाए।

इन अध्यायों को पढ़ते, गुनते समय बूंद—बूंद ही सही लेकिन साक्षित्व उभरे, या झरे, इस कामना के साथ।

राहुल देव

संपादक जनसत्ता,

संझा जनसत्ता, बंबई


Filed under: गीता दर्शन--भाग--7(ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–31)

$
0
0

भगवत—प्रेम—(प्रवचन—इक्कतीसवां)

‘अमृत—वाणी’ से संकलित

सुधा—बिंदु 1970—1971

गत में तीन प्रकार के प्रेम हैं—एक : वस्तुओं का प्रेम, जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा : व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं सिर्फ इसलिए कि आपको अपने बचाने की सुविधा रहे कि मैं तो लाख में एक हूं ही। नहीं, इस तरह बचाना मत!

एक फ्रेंच चित्रकार सींजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। यह पूरी पहाड़ी अंदभुत है। सींजां ने पूछा, इसके अदभुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण? उस मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तुम रहोगे यहां तो पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर रोज एक आदमी से ज्यादा नहीं मरता। सींजां ने जल्दी से पूछा, आज मरनेवाला आदमी मर गया या नहीं? नहीं, तो मैं भाग।

आदमी अपने को बचाने के लिए बहुत आतुर है। अगर मैं हूं लाख में एक, तो आप कहेंगे बिलकुल ठीक—छोड़ा अपने को! आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं खयाल रखना। लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलब्ध होता है। शेष आदमी वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे—हम व्यक्तियों को प्रेम करते हैं, लेकिन मैं आपसे कहूंगा—वस्तुओं की भांति, व्यक्तियों की भांति नहीं!

आज एक मित्र आए संन्यास लेने, पत्नी को साथ लेकर आए। पत्नी को समझाया कि वे घर छोड्कर नहीं जाएंगे, पति ही रहेंगे—पिता ही रहेंगे। संन्यास उनकी आंतरिक घटना है, चिंतित होओ मत, घबराओ मत! लेकिन उस पली ने कहा, नहीं, मैं संन्यास नहीं लेने दूंगी।

मैने कहा, कैसा प्रेम है यह? अगर प्रेम गुलामी बन जाए तो प्रेम है? प्रेम अगर स्वतंत्रता न दे तो प्रेम है? प्रेम अगर जंजीरें बन जाए तो प्रेम है? फिर यह पति व्यक्ति न रहा, वस्तु हो गया—युटीलिटेरियन, यह व्यक्ति नहीं रहा! पली कहती है, मैं आशा नहीं दूंगी तो नहीं लेंगे संन्यास! व्यक्ति का सम्मान न रहा, उसकी स्वतंत्रता का सम्मान न रहा, उसका कोई अर्थ न रहा, वह वस्तु हो गया।

हम व्यक्तियों को प्रेम भी करते हैं तो ‘पजेस’ करते हैं, मालिक हो जाते हैं। मालिक व्यक्तियों का कोई नहीं हो सकता, सिर्फ वस्तुओं की मालकियत होती है। पत्नी, पति को पजेस करती है और कहती है मालकियत है। कोई पति कहता है पत्नी को कि मेरी हो, तो फर्नीचर में और पत्नी में कोई भेद नहीं रह जाता। यह उपयोग हो गया, व्यक्ति का सम्मान न हुआ। दूसरे व्यक्ति की निजता का, आत्मा का कोई आदर न हुआ! इसलिए मैं कहता हूं वस्तुओं को ही हम प्रेम करते हैं। यदि व्यक्तियों को भी प्रेम करते हैं तो उनको भी वस्तु बना लेते हैं। व्यक्तियों का प्रेम, मैंने कहा—लाख में एक आदमी को उपलब्ध होता है।

व्यक्ति के प्रेम का अर्थ है दूसरे का अपना मूल्य है। मेरी उपयोगिता भर ही मूल्य नहीं है उसका—’युटलिटेरियन’—इतना ही उसका मूल्य नहीं है, उसका अपना निजी मूल्य है। वह मेरा साधन नहीं है, वह स्वयं अपना साध्य है।

एमेनुअल कांट ने कहा है, नीति के परम सूत्रों में एक सूत्र : कि अनीति का एक ही अर्थ है, दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग करना अनैतिक है। और दूसरे व्यक्ति को साध्य मानना नैतिक है। गहरे से गहरा सूत्र है यह कि दूसरा व्यक्ति अपना साध्य है स्वयं। मैं उससे प्रेम करता हूं एक व्यक्ति की भांति—स्व वस्तु की भांति नहीं। इसलिए मैं उसका मालिक कभी नहीं हो सकता हूं। इसलिए व्यक्ति के प्रेम को ही हम उपलब्ध नहीं होते।

फिर तीसरा प्रेम है : भगवत—प्रेम—वह अस्तित्व का प्रेम है! यों तीन प्रकार के प्रेम हुए—’लव टुवर्ड्स द एक्लिस्टेंस’, ‘लव टुवर्ड्स दी पर्सन’ एष्ठ ‘लव टुवर्ड्स दी आब्जेक्ट्स’। वस्तुओं के प्रति प्रेम—जैसे मकान, धन—दौलत, पद, पदवी! व्यक्तियों के प्रति प्रेम—मनुष्य! अस्तित्व के प्रति प्रेम—भगवत—प्रेम, समग्र अस्तित्व को प्रेम!

इसको थोड़ा ठीक से देख लेना जरूरी है। जब हम वस्तुओं को प्रेम करते है तब हमें सारे जगत में वस्तुएं ही दिखायी पड़ती हैं, कोई परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता है। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते है उसे ही हम जानते है। प्रेम जानने की आंख है। प्रेम के अपने ढंग है जानने के। सच तो यह है कि प्रेम ही ‘इंटीमेट नोइंग’ है—आंतरिक! आत्मीय जानना ही प्रेम है!

इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते है तभी हम जानते है। क्योंकि जब हम प्रेम करते है तभी वह व्यक्ति हमारी तरफ खुलता है। जब हम प्रेम करते है तब हम उसमें प्रवेश करते हैं। जब हम प्रेम करते है तब वह निर्भय होता है। जब हम प्रेम करते है तब वह छिपाता नहीं। जब हम प्रेम करते है तब वह उघड़ता है, खुलता है, भीतर बुलाता है—आओ, अतिथि बनी! ठहराता है हृदय के घर में! जब कोई व्यक्ति प्रेम करता है किसी को, तभी जान पाता है।

अगर अस्तित्व को कोई प्रेम करता है, तभी जान पाता है परमात्मा को। भगवत—प्रेम का अर्थ है : जो भी है उसके होने के कारण प्रेम है। कुर्सी को हम प्रेम करते है क्योंकि उस पर हम बैठते है, आराम करते हैं। टूट जाएगी टांग उसकी, कचरे घर में फेंक देंगे। उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है, उसे हटा देंगे। जो लोग मनुष्यों को भी इसी भांति प्रेम करते हैं उनका भी यही हाल है। पति को कोढ़ हो जाएगा तो पली डायवोर्स दे देगी, अदालत में तलाक कर देगी—टूट गयी टन कुर्सी की, हटाओ! पत्नी कुरूप हो जाएगी, रुग्ण हो जाएगी, अस्वस्थ हो जाएगी, अंधी हो जाएगी, पति तलाक कर देगा— हटाओ! —तब तो वस्तु हो गए लोग!

जो व्यक्ति सिर्फ वस्तुओं को प्रेम करता है उसके लिए सारा जगत मैटीरियल हो जाता है—वस्तु मात्र हो जाता है! व्यक्ति में भी वस्तु दिखायी पड़ती है, फिर भागवत—चैतन्य तो कहीं दिखायी नहीं पड़ सकता।

भागवत—चैतन्य को अनुभव करने के लिए पहले वस्तुओं के प्रेम से व्यक्तियों के प्रेम तक उठना पड़ता है, फिर व्यक्तियों के प्रेम से अस्तित्व के प्रेम तक उठना पड़ता है। जो व्यक्ति व्यक्तियों को प्रेम करता है वह मध्य में आ जाता है। एक तरफ वस्तुओं का जगत होता है, दूसरी तरफ भगवान का अस्तित्व होता है। इन दोनों के बीच खड़ा हो जाता है। उसे दोनों तरफ दिखायी पड़ने लगता है—वस्तुओं का संसार और अस्तित्व का लोक! फिर वह आगे बढ़ सकता है।

सुना है मैंने, रामानुज एक गांव से गुजरते है। एक आदमी आया और उसने कहा कि मुझे भगवान से मिला दें। मुझे भगवान से प्रेम करा दें। मैं भगवत प्रेम का प्यासा हूं। रामानुज ने कहा, ठहरो, इतनी जल्दी मत करो। तुमसे मै कुछ पूछूं? तुमने कभी किसी को प्रेम किया है? उसने कहा, कभी नहीं, कभी नहीं! मुझे तो सिर्फ भगवान से प्रेम है।

रामानुज ने कहा, कभी किसी को किया हो भूल—चूक से? उस आदमी ने कहा, बेकार की बातों में समय क्यों जाया करवा रहे हैं? प्रेम इत्यादि से मैं सदा दूर रहा हूं। मैने कभी किसी को प्रेम किया ही नहीं। रामानुज ने कहा, फिर तुमसे कहता हूं एकबार सोचो, किसी को किया हो, किसी पौधे को किया हो, किसी आदमी को किया हो, किसी ही को किया हो, किसी बच्चे को किया हो, किसी को भी किया हो?

स्वभावत: उस आदमी ने सोचा कि अगर मैं कहूं कि मैंने किसी को प्रेम किया है तो रामानुज कहेंगे कि अयोग्य है तू। इसलिए उसने कहा, मैने किया ही नही। उसने कहा कि मैं साफ कहता हूं प्रेम से मैं सदा दूर रहा, मुझे तो भगवत—प्रेम की आकांक्षा है। रामानुज ने कहा, फिर मैं बड़ी मुश्‍किल में हूं। फिर मैं कुछ भी न कर पाऊंगा क्योंकि अगर तूने किसी को थोड़ा भी प्रेम किया होता, तो उसी प्रेम की किरण के सहारे मैं तुझे भगवत—प्रेम के सूरज तक पहुंचा देता। थोड़ा—सा भी तूने किसी में झांका होता प्रेम से तो मैं तुझे पूरे अस्तित्व के द्वार में धक्का दे देता।

लेकिन तू कहता है कि तूने प्रेम किया ही नहीं, यह तो ऐसे हुआ कि मैं किसी आदमी से पूछूं कि तूने कभी रोशनी देखी? मिट्टी का दीया जलता हुआ देखा? वह कहे—नहीं, मुझे तो सूरज दिखा दें, दीया मैंने कभी देखा ही नहीं! पूछता हूं कि कभी तुझे एकाध किरण छप्पर में से फूटती हुई दिखायी पड़ी होगी! वह कहे—कहां की बातें कर रहे हैं? किरण वगैरह से अपना कोई संबंध ही नहीं, हम तो सूरज के प्रेमी है।

तो रामानुज ने कहा, जैसे उस आदमी से मुझे कहना पडे कि क्षमा कर, तू किरण भी नहीं खोज पाया, सूरज अब तुझे कैसे समझाऊं? क्योंकि हर किरण सूरज का रास्ता है। व्यक्ति का प्रेम भी भगवत—प्रेम की शुरुआत है। व्यक्ति का प्रेम एक छोटी—सी खिड़की है, झरोखा है, जिसमें से हम किसी एक व्यक्ति में से परमात्‍मा को देखते हैं। वह खिड़की है। तो, रामानुज ने कहा, तू एक में भी झांक सका हो तो मैं तुझे सब में झांकने की कला बता दूं। लेकिन तू कहता है, तूने कभी झांका ही नहीं।

हम वस्तुओं में जीते हैं, हम व्यक्तियों में झांकते नहीं। क्यों? क्या बात है? वस्तुओं के साथ बड़ी सुविधा है, व्यक्तियों के साथ झंझट है! छोटे से व्यक्ति के साथ भी… घर में एक बच्चा पैदा हो जाए, अभी दो साल का बच्चा है, लेकिन वह भी उपद्रव है। व्यक्ति है, वह भी स्वतंत्रता मांगता है। उससे कहो, इस कोने में बैठो तो फिर उस कोने में बिलकुल नहीं बैठता है। उससे कहो, बाहर मत जाओ तो बाहर जाता है। उससे कहो, फलां चीज मत छुओ तो छूकर दिखलाता है। मेरी भी आत्मा है, मैं भी हूं आप ही नहीं हैं!

इसलिए आज अमरीका या फ्रांस या इंग्लैड में लोग कहते हैं, एक बच्चे की बजाय एक टेलीविजन सेट खरीद लेना बेहतर है। टेलीविजन सेट का जब चाहो, बटन दबाओ कि चले—बंद करो, बंद हो जाए—’आन—आफ’ होता है। व्यक्ति ‘आन—आफ’ नहीं होता। उसको आप नहीं कर सकते ‘आन—आफ’!

एक छोटे—से बच्चे को मां दबा—दबाकर सुला रही है, ‘आफ’ करना चाह रही है, वह ‘आन’ हो—हो जा रहा है। वह कह रहा है नहीं, अभी नहीं सोना है। छोटा—सा बच्चा है। इनकार करता है कि उसके साथ वस्तु जैसा व्यवहार न किया जाए। उसके भीतर परमात्मा है। व्यक्ति से करने में डर लगता है, क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता मांगेगा।

वस्तुओं से प्रेम करना बडा सुविधापूर्ण है, वे स्वतंत्रता नहीं मांगती—तिजोरी में बंद किया, ताला डाला, आराम से सो रहे हैं। रुपए तिजोरी में बंद है—न भागते, न निकलते, न विद्रोह करते, न बगावत करते, न कहते कि आज इरादा नहीं है चलने का हमारा। आज नहीं चलेंगे! नहीं, जब चाहो तब हाजिर होते हैं, जैसे चाहा वैसे हाजिर होते हैं। वस्तुएं गुलाम हो जाती हैं इसलिए हम वस्तुओं को चाहते हैं।

जो आदमी भी दूसरे की स्वतंत्रता नहीं चाहता वह आदमी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा। और जो व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा वह भगवत—प्रेम के झरोखे पर ही नहीं पहुंचा, तो भगवत—प्रेम के आकाश में तो उतरने का उपाय नहीं है।

भगवत—प्रेम का अर्थ है. सारा जगत एक व्यक्तित्व है— ‘द होल इख्क्वस्टेंस इज पर्सनल’। भगवत—प्रेम का अर्थ है. जगत नहीं है, भगवान है! इसका मतलब समझते हैं? अस्तित्व नहीं है, भगवान है! क्या मतलब हुआ? इसका मतलब हुआ कि हम पूरे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे रहे हैं। हम पूएर अस्तित्व को कह रहे हैं कि तू भी है। हम तुझसे बात भी कर सकते हैं।

इसलिए— भक्त.. भक्त का अर्थ है : जगत को जिसने व्यक्तित्व दिया! भक्त का अर्थ है : जगत को जिसने भगवान कहा! भक्त का अर्थ है : ऐसा प्रेम से भरा हुआ हृदय जो इस पूरे अस्तित्व से एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है। सुबह उठता है तो सूरज को हाथ जोड़कर नमस्कार करता है—सूरज को! ना समझ नहीं कर रहे हैं हालांकि……. बहुत से नासमझ नमस्कार कर रहे हैं! लेकिन जिन्होंने शुरू किया था वे नासमझ नहीं थे। सूरज को नमस्कार उस आदमी ने किया था जिसने सारे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे दिया था। फिर सूरज का भी व्यक्तित्व था।

तो हमने कहा, सूर्य देवता है—रथ पर सवार है, घोड़ों पर जुता हुआ है, दौड़ता आकाश में है। सुबह होती जागता, सांझ होती अस्त होता है। ये बातें वैज्ञानिक नहीं है। ये बातें धार्मिक हैं। ये बातें पदार्थगत नहीं है, ये बातें आत्मगत है। नदियों को नमस्कार किया, व्यक्तित्व दे दिया! वृक्षों को नमस्कार किया, व्यक्तित्व दे दिया! सारे जगत को व्यक्तित्व दे दिया, कहा कि तुममें भी व्यक्तित्व है।

आज भी आप कभी किसी पीपल के पास नमस्कार करके गुजर जाते हैं, लेकिन आपने खयाल नहीं किया होगा कि जो आदमी आदमियों से वस्तु जैसा व्यवहार करता है उसका पीपल को नमस्कार करना एकदम सरासर झूठ है। पीपल को तो वही नमस्कार कर सकता है जो जानता है कि पीपल भी व्यक्ति है। वह भी परमात्मा का हिस्सा है। उसके पत्ते—पत्ते में भी उसी की छाप है। कंकड़—कंकड़ में भी उसी की पहचान है। जगह—जगह वही है, अनेक—अनेक रूपों में—चेहरे होगे भिन्न! वह जो भीतर छिपा है वह भिन्न नहीं है। आंखें होंगी अनेक, लेकिन जो झांकता है उससे वह एक है। हाथ होंगे अनंत, लेकिन जो स्पर्श करता है उनसे, वह वही है। गदर के समय, अठारह सौ सत्तावन में एक संन्यासी, जो पंद्रह वर्ष से मौन था, नग्‍न रात में गुजर रहा था। चांदनी रात थी, चांद था आकाश मेंह वह नाच रहा था, गीत गा रहा था। धन्यवाद दे रहा था चांद को। उसे पता नहीं था कि उसकी मौत करीब है। नाचते हुए वह निकल गया नदी की तरफ। बीच में अंग्रेज फौज का पड़ाव था। फौजियों ने समझा कि यह कोई जासूस मालूम पड़ता है। तरकीब निकाली है इसने कि नग्‍न होकर फौजी पड़ाव से गुजर रहा है। उन्होंने पकड़ लिया।

और जब उससे पूछताछ की और वह नहीं बोला तब शक और भी पका हो गया कि वह जासूस है। बोलता क्यों नहीं? हंसता है, मुस्‍कुराता है, नाचता है—बोलता नहीं? मैने इसलिए कहा गीत गाता हुआ कि वाणी से नहीं, ऐसे भी गीत हैं जो प्राणों से गाये जाते हैं—ऐसे भी गीत हैं जो शून्य में उठते और शून्य में ही खो जाते हैं। वह तो मौन था, शब्द से तो चुप था, पर गीत गाता हुआ, नाचता हुआ, अपने समग्र अस्तित्व से, पूर्णिमा के चांद को धन्यवाद दे रहा था।

सिपाहियों ने कहा, बोलता क्यों नहीं? मुस्‍कुराता है, बेईमान है, जासूस है। उन्होंने भाला उसकी छाती में भोंक दिया। उस संन्यासी ने संकल्प लिया था कि एक ही शब्द बोलूंगा, आखिरी, अंतिम और मृत्यु के द्वार पर। इस जगत से पार होते हुए धन्यवाद का एक शब्द बोलूंगा इस पार—बोलकर विदा हो जाऊंगा। कठिन पड़ा होगा उसको कि क्या शब्द बोले!

छाती में घुस गया भाला, खून के फव्वारे बरसने लगे। वह जो नाचता था, मरने के करीब पहुंच गया। उस संन्यासी ने कहा ‘तत्वमसि श्वेतकेतु’! —उपनिषद का महावाक्य! उसने कहा, श्वेतकेतु तू भी वही है— ‘दैट आर्ट दाऊ’ —तू भी वही है! नहीं समझे होंगे वे अंग्रेज सिपाही, लेकिन उस अंग्रेज सिपाही से जिसने उसकी छाती में भाला भोंका, उसने कहा, तू भी वही है!

इस खिड़की में से भी वह उसी को देख पाया। इस भाला भोंकती हुई खिड़की में से भी उसी का दर्शन हुआ। भगवत—प्रेम को उपलब्ध हुआ होगा तभी ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता।

भगवत—प्रेम का अर्थ है : सारा जगत व्यक्ति है। व्यक्तित्व है जगत के पास अपना, उससे बात की जा सकती है। इसलिए भक्त बोल लेता है उससे। मीरा पागल मालूम पड़ती है दूसरों को, क्योंकि वह बातें कर रही है कृष्ण से। हमें पागल मालूम पड़ेगी क्योंकि हमारे लिए तो वस्तुओं के अतिरिक्त जगत में और कुछ भी नहीं है। व्यक्ति भी नहीं है तो परम व्यक्ति कैसे होगा? लेकिन मीरा बातें कर रही है उससे। सूरदास उसका हाथ पकड़कर चल रहे हैं— आदान—प्रदान हो रहा है, ‘डायलॉग’ है, चर्चा होती है, प्रश्‍न—उत्तर हो जाते हैं। पूछा जाता है और प्रतिसवाद हो जाता है।

जब जीसस सूली पर लटके और उन्होंने ऊपर आंख उठाकर कहा— ‘हे प्रभु माफ कर देना इन सबको क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे है!’ तब यह आकाश से नहीं कहा होगा। आकाश से कोई बोलता है? यह आकाश में उड़ते पक्षियों से नहीं कहा होगा! पक्षियों से कोई बोलता है? भीड़ खडी थी नीचे, उसने भी आकाश की तरफ देखा होगा लेकिन आकाश में चलती हुई सफेद बदलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा होगा। नीला आकाश खाली और शून्य—लोग हंसे होंगे मन में कि पागल है! लेकिन जीसस के लिए सारा जगत प्रभु है। कह दिया कि क्षमा कर देना इन्हें क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। भगवत—प्रेम हो तो व्यक्ति और परम व्यक्ति के बीच चर्चा हो पाती है, संवाद हो पाता है। आदान—प्रदान हो पाता है और उससे मधुर संवाद, उससे मीठा लेन—देन, उससे प्रेमपूर्ण व्यवहार और कोई भी नहीं है—प्रार्थना उसका नाम है, भगवत—प्रेम में वह घटित होती है।

भगवत—प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति इस लोक में भी आनन्द को उपलब्ध होता है, उस लोक में भी। लेकिन संशय से भरा हुआ, भगवत—प्रेम से रिक्त, इस लोक में भी दुख पाता है, उस लोक में भी। दुख हमारा अपना अर्जन है—हमारी अपनी ‘अर्निंग’ है। दुख पाना हमारी नियति नहीं, हमारी भूल है।

दुख पाने के लिए हमारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं, और कोई रिस्पोसिबल नहीं है। दुखी हैं तो कारण है कि संशय को जगह दे दी, दुख हैं तो कारण है कि व्यक्ति को खोजा नहीं, परम व्यक्ति की तरफ गए नहीं। आनंदित जो होता है उसके ऊपर परमात्मा कोई विशेष कृपा नहीं करता है, वह केवल उपयोग कर लेता है जीवन के अवसर का, और प्रभु के प्रसाद से भर जाता है।

गड्डे है, वर्षा होती है तो गड्डों में पानी भर जाता है और झीलें बन जाती हैं। पर्वत शिखरों पर भी वर्षा होती है लेकिन पर्वत के शिखरों पर झील नहीं बनती, पानी नीचे बहकर गड्डों में पहुंचकर झील बन जाता है। पर्वत शिखरों पर वर्षा होती है, लेकिन वे पहले से ही भरे हुए हैं। उनमें जगह नहीं है कि पानी भर जाए। झीलें खाली हैं इसलिए पानी भर जाता है।

जो व्यक्ति संशय से भरा है, भगवत—प्रेम से खाली है, उसके पास संशय का पहाड़ होता है। ध्यान रखें, बीमारियां अकेली नहीं आती, बीमारियां सदा समूह में आती हैं। बीमारियां भीड़ में आती हैं। ऐसा नहीं होता है कि किसी आदमी में एक संशय मिल जाए, जब संशय होता है तो अनेक संशय होते हैं।

संशय भीड़ में आते हैं। स्वास्थ्य अकेला आता है, बीमारियां भीड़ में आती हैं। श्रद्धा अकेली आती है, संशय बहुवचन में आते हैं। संशय से भरा हुआ आदमी पहाड़ बन जाता है। उस पर भी प्रभु का प्रसाद बरसता है लेकिन भर नहीं पाता। संशय—मुक्त झील बन जाता है—गड्डा, खाली, शून्य! प्रभु के प्रसाद को ग्रहण करने के लिए गर्भ बन जाता है, स्वीकार कर लेता है।

इसलिए ध्यान रखें, निरंतर भक्तों ने अगर भगवान को प्रेमी की तरह माना तो उसका कारण है। अगर भक्त इस सीमा तक चले गए कि अपने को स्त्रैण भी मान लिया और प्रभु को पति भी मान लिया तो उसका भी कारण है। और वह कारण है, गड्डा बनना है, गाहक बनना है, रिसेप्‍टिव बनना है। सी ग्राहक है, रिसेप्टिव है, गर्भ बनती है, स्वीकार करती है। नये को अपने भीतर जन्म देती है, बढाती है।

अगर भक्तों को ऐसा लगा कि वह प्रेमिकाएं बन जाएं प्रभु की तो उसका कारण है कि वे गड्डे बन जाएं प्रभु उनमें भर जाए! जो अहंकार के शिखर हैं वे खाली रह जाते हैं और जो विनम्रता के गड्डे हैं वे भर जाते हैं। प्रभु का प्रसाद प्रतिपल बरस रहा है। उसके प्रसाद की उपलब्धि आनन्द है! उसके प्रसाद से वंचित रह जाना संताप है, दुख है!

‘अमृत—वाणी’

से संकलित सुधा—बिंदु 1970—71


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मैं कहता अांखन देखी–(प्रवचन–32)

$
0
0

जागते—जागते…..(प्रवचन—बत्‍तीसवां)

‘अमृत—वाणी’

से संकलित सुधा—बिंदु 1970—71

 1—परमात्मा की चाह नहीं हो सकती

न मांगता रहता है संसार को, वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ, शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए, आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए। हमारा जीवन आग की लपट है, वासनाएं जलती हैं उन लपटों में— आकांक्षाएं इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं— धुआं हो जाता है। इन लपटों में जलते हुए कभी—कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी होता है।

हताशा में, बेचैनी में कभी—कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते—दौड़ते इच्छाओं के साथ कभी—कभी प्रार्थना करने का मन भी हो आता है। दौड़ते—दौड़ते वासनाओं के साथ कभी—कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंदकर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है। बाजार की भीड़— भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में डूब जाने का खयाल भी उठता है।

लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुन: वासनाओं की मांग शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर में बैठकर पुन: बाजार का विचार शुरू कर देता है। क्योंकि बाजार से वह थका है, जागा नहीं; वासना से थका है, जागा नहीं। इच्छाओं से मुक्त नहीं हुआ, रिक्त नहीं हुआ, केवल इच्छाओं से विश्राम के लिए मंदिर चला आया। उस विश्राम में फिर इच्छाएं ताजी हो जाती हैं।

प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं। यज्ञ की वेदी के आस—पास घूमता हुआ साधक, या याचक भी पली मांगता है, पुत्र मांगता है, गौएं मांगता है, धन मांगता है, यश, राज्य, साम्राज्य मांगता है।

असल में जिसके चित्त में संसार है उसकी प्रार्थना में संसार ही होगा। जिसके चित्त में वासनाओं का जाल है उसके प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुएं को पकड़कर कुरूप हो जाते हैं। यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि जब कहते हैं, सांसारिक मांग नहीं, तो अनेक बार मन में खयाल उठता है तो गैर—सांसारिक मांग तो हो सकती है न! जब कहते हैं, संसार की वस्तुओं की कोई चाह नहीं, तो खयाल उठ सकता है कि मोक्ष की वस्तुओं की चाह तो हो सकती है न! नहीं मांगते संसार को, नहीं मांगते धन को, नहीं मांगते वस्तुओं को—मांगते हैं शान्ति को, आंनद को। छोड़े, इन्हें भी नहीं मांगते—मांगते हैं प्रभु के दर्शन को, मुक्ति को, ज्ञान को।

यहीं वह बात समझ लेनी जरूरी है कि सांसारिक मांग तो सांसारिक होती है, मांग—मात्र सांसारिक होती है। वासनाएं सांसारिक हैं यह तो ठीक है, लेकिन वासना—मात्र सांसारिक है, यह भी स्मरण रख लें! शान्ति की कोई मांग नहीं होती, अशान्ति से मुक्ति होती है। और शान्ति परिणाम होती है। शालि को मांगा नहीं जा सकता, सिर्फ अशांति को छोड़ा जा सकता है और शांति मिलती है। और जो शान्ति को मांगता है वह कभी शांत नहीं होता है क्योंकि उसकी शान्ति की मांग, सिर्फ एक और अशांति का जन्म होता है।

इसलिए साधारणतया अशांत आदमी इतना अशांत नहीं होता जितना शांति की चेष्टा में लगा हुआ आदमी अशांत हो जाता है। अशांत तो होता ही है, यह शांति की चेष्टा और अशान्त करती है। यह भी मांग है, यह भी इच्छा है, यह भी वासना है। मोक्ष मांगा नहीं जा सकता। क्योंकि जब तक मोक्ष की मांग है, जब तक मांग है, तब तक बंधन है। फिर बंधन और मोक्ष का मिलन कैसा? हां, बन्धन न रहे तो जो रह जाता है, वह मोक्ष है।

हम परमात्मा को चाह नहीं सकते, क्योंकि चाह ही तो परमात्मा और हमारे बीच बाधा है। ऐसा नहीं कि धन की चाह बाधा है, चाह ही— ‘डिजायर एज सच’ बाधा है। ऐसा नहीं कि इस चीज की चाह बाधा है और इस चीज की चाह बाधा नहीं है—न, चाह ही बाधा है। क्योंकि चाह ही तनाव है, चाह ही असन्तोष है। चाह ही, जो नहीं है उसकी कामना है—जो है उसमें तृप्ति नहीं। अगर ठीक से कहें तो सांसारिक चाह कहना ठीक नहीं, चाह का नाम संसार है। वासना ही संसार है, सांसारिक वासना कहना ठीक नहीं।

लेकिन हम भाषा में भूलें करते हैं। सामान्य करते हैं तब तो कठिनाई नहीं आती, चल जाता है लेकिन जब इतने सूक्ष्म और नाजुक मसलों में भूलें होती हैं, तो कठिनाई हो जाती है।

भूलें भाषा में हैं, क्योंकि अज्ञानी भाषा निर्मित करता है। और ज्ञानी की अब तक कोई भाषा नहीं है। उसको भी अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना पड़ता है। ज्ञानी की भाषा हो भी नहीं सकती क्योंकि ज्ञान मौन है, मुखर नहीं—मूक है! ज्ञान के पास जबान नहीं, जान ‘साइलेंस’ है—शन्य है! ज्ञान के पास शब्द नहीं। शब्द उठने तक की भी अशांति जान में नहीं है।

इसलिए अज्ञानी की भाषा ही ज्ञानी को उपयोग करनी पड़ती है। फिर भूलें होती हैं, जैसे यह भूल निरंत्तर हो जाती है। हम कहते है, संसार की चीजों को मत चाहो—कहना चाहिए, चाहो ही मत, क्योंकि चाह का नाम ही संसार है। हम कहते हैं, मन को शांत करो—ठीक नहीं है यह कहना। क्योंकि शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं।

अशांति का नाम ही मन है। जब तक अशांति है तब तक मन है; नहीं तो मन भी नहीं। जहां शांति हुई वहां मन तिरोहित हुआ। ऐसा समझें—तूफान आया है, लहरों में सागर की। फिर हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया। जब तूफान शांत हो जाता है तो क्या सागर तट पर खोजने से शांत तूफान मिल सकेगा? हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया तो पूछा जा सकता है, शांत तूफान कहां है? शांत तूफान होता ही नहीं। तूफान का नाम ही अशांति है।

शांत तूफान—मतलब तूफान मर गया, अब तूफान नहीं है। शांत मन का अर्थ, मन मर गया, अब मन नहीं है। चाह के छूटने का अर्थ, संसार गया, अब नहीं है। जहां चाह नहीं, वहां परमात्मा है। जहां चाह है, वहां संसार है। इसलिए परमात्मा की चाह नहीं हो सकती और अनचाहा संसार नहीं हो सकता। यह दो बातें नहीं हो सकतीं।

अज्ञान से ऊबे, थके, घबराए हुए लोग विश्राम के लिए, विराम के लिए, धर्म, पूजा, प्रार्थना, ध्यान, उपासना में आते हैं। लेकिन मांगें उनकी साथ चली आती हैं। चित्त उनका साथ चला आता है। एक आदमी दुकान से उठा और मंदिर में गया, जूते बाहर छोड़ देता, मन को भीतर ले जाता है। जूते भीतर ले जाए तो बहुत हर्जा नहीं है, मन को बाहर छोड़ जाए। जूते से मंदिर अपवित्र नहीं होगा। जूते में ऐसा कुछ भी अपवित्र नहीं है, मगर मन भीतर ले जाता है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जूते भीतर ले जाना। घर से चलता है तो स्रान कर लेता है, शरीर धो लेता है। मगर मन? मन वैसा का वैसा बासा, पसीने की बदबू से भरा, दिन भर की वासनाओं की गंध से पूरी तरह लबालब, दिन भर के धूल कणों से बुरी तरह आच्छादित! उसी गंदे मन को लेकर वह मंदिर में प्रवेश कर जाता है। फिर जब हाथ जोड़ता है तो हाथ धुले होते है लेकिन जुडे हुए हाथों के पीछे मन गैर—धुला होता है। आंखें तो परमात्मा को देखने के लिए उठती हैं लेकिन भीतर से मन परमात्मा को देखने के लिए नहीं उठता। वहाँ फिर वस्तुओं की कामना और वासना लौट आती है।

हाथ जुड़ते परमात्मा से कुछ मांगने के लिए! और जब भी हाथ कुछ मांगने के लिए जुड़ते हैं तभी प्रार्थना का अन्त हो जाता है। मांग और प्रार्थना का कोई मेल नहीं। फिर प्रार्थना क्या है? प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद है, मांग नहीं—’डिमाण्ड’ नहीं, ‘थैक्सगिविंग’ —सिर्फ धन्यवाद। जो मिला है वह इतना काफी है कि उसके लिए मंदिर धन्यवाद देने जाना चाहिए।

धार्मिक आदमी वही है जो मंदिर धन्यवाद देने जाता है। अधार्मिक वह नहीं जो मंदिर नहीं जाता—न हो जाता, वह तो अधार्मिक है ही— अधार्मिक असली वह है जो मंदिर मांगने जाता है।

छोड़े वासनाओं को, छोड़े भविष्य को, छोड़े सपनों को, छोड़े अन्तत: अपने को—ऐसे जिएं जैसे प्रभु ही आपके भीतर से जीता है। ऐसे जिएं जैसे चारों ओर प्रभु ही जीता है, ऐसे करें कृत्य, जैसे प्रभु ही करवाता है। जैसे प्रत्येक करने के पीछे प्रभु ही फल को लेने, हाथ फैलाकर खड़ा है। तब ज्ञान घटित होता है। ज्ञान परम मुक्ति है, ‘द अल्टीमेट फ्रीडम’! अज्ञान बन्धन है, ज्ञान मुक्‍ति है! अज्ञान रुग्णता है, ज्ञान स्वास्थ्य है!

यह स्वास्थ्य शब्द बहुत अदभुत है। दुनियां की किसी भाषा में उसका ठीक—ठीक अनुवाद नहीं है। अंग्रेजी में हेल्थ है, और पश्चिम की सभी भाषाओं में हेल्थ से मिलते—जुलते शब्द हैं। हेल्थ का मतलब होता है हीलिंग, घाव का भरना—शारीरिक शब्द है, गहरे नहीं जाता। स्वास्थ्य बहुत गहरा शब्द है। उसका अर्थ हेल्थ ही नहीं होता, हेल्थ तो होता ही है, घाव का भरना तो होता ही है, स्वास्थ्य का अर्थ है. स्वयं में स्थित हो जाना— ‘टू बी इन वनसेल्फ’। आध्यात्मिक बीमारी से संबंधित है स्वास्थ्य। स्वास्थ्य का अर्थ है : स्वयं में ठहर जाना—इंचभर भी न हिलना, पलभर भी न कंपना। जरा—सा भी कंपन न रह जाए भीतर, वैवरींग जरा भी न रह जाए, बस तब स्वास्थ्य फलित होता है।

वैवरींग क्यों? कंपन क्यों है, कभी आपने खयाल किया? जितनी तेज इच्छा होगी उतना ही कंपन हो जाता है भीतर। इच्छा नहीं होती, कंपन खो जाता है। इच्छा ही कंपन है। आप कंपते कब हैं? दीया जल रहा है, कंपन कब है? जब हवा का झोंका लगता है। हवा का झोंका न लगे तो दीया निष्कंप हो जाता है, ठहर जाता है, स्वस्थ हो जाता है, अपनी जगह हो जाता है। जहां होना चाहिए वहां हो जाता है। हवा के धक्के लगते हैं तो ज्योति वहां हट जाती है जहां नहीं होनी चाहिए। जगह से छूत हो जाती है, रुग्‍ण हो जाती है, कंपित हो जाती है। और जब कंपित होती है तब बुझने का, मौत का डर पैदा हो जाता है। जोर की हवा आती है तो ज्योति बुझने—बुझने को, मरने—मरने को होने लगती है।

ठीक ऐसे ही इच्छाओं की तीव्र हवाओं में, वासना के तीव्र ज्वर में कंपती है चेतना! इसलिए यह भी खयाल में ले लें—जो वासना से मुक्त हुआ, वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। दीये की ली हवा के धक्कों से मुक्त हुई, फिर उसे क्या मौत का डर? मौत का डर खो गया। लेकिन जब तूफान की हवा बहती है तो दीया कंपता और डरता है कि मरा… अब मरा! ठीक हमारी अज्ञान की अवस्था में ऐसे ही चित्त होता है। एक कंपन छूटता है तो दूसरा कंपन शुरू होता है। एक वासना हटती है तो दूसरा झोंका वासना का आता है—कहीं कोई विराम नहीं, कहीं कोई विश्राम नहीं।

वासना का कंपन ही ‘स्पिन्यूअल डिसीज’, आध्यात्मिक रुग्णता है! कंपन का अर्थ ही है कि स्थिति में नहीं। इसलिए कहा जाता है कि ज्ञान परम मुक्ति है क्योंकि ज्ञान परम स्वास्थ्य है। वह कैसे होगा उपलब्ध? वासना से जो मुक्त हो जाता है—मांग से, चाह से, जो मुक्त हो जाता है वही जान में प्रतिष्ठित हो जाता है!

2  भागे हिरण और भटके राम—

 

मारा अनुभव यह है कि हमने जहां—जहां कामना के फूल तोड़ना चाहा वहीं दुख का कांटा हाथ में लगा। जहां—जहां कामना के फूल के लिए हाथ बढाया, फूल दिखायी पड़ा, जब तक हाथ में न आया—जब हाथ में आया तो रह गया सिर्फ लहू? खून! कांटा चुभा, फूल तिरोहित हो गया। लेकिन मनुष्य अदभुत है। उसका सबसे अदभुत होना इस बात में है कि वह अनुभव से सीखता नहीं। शायद ऐसा कहना भी ठीक नहीं। कहना चाहिए, मनुष्य अनुभव से सदा गलत सीखता है। उसने हाथ बढ़ाया और फूल हाथ में न आया, कांटा हाथ में आया तो वह यही सीखता है कि मैंने गलत फूल की तरफ ही हाथ बढ़ा दिया। अब मैं ठीक फूल की तरफ हाथ बढ़ाऊंगा। यह नहीं सीखता कि फूल की तरफ हाथ बढ़ाना ही गलत है।

साधारण आदमियों की बात हम छोड़ दें। स्वयं राम अपनी कुटिया के बाहर बैठे है और एक स्वर्ण मृग दिखाई पड़ जाता है—स्वर्ण—मृग! सोने का हिरण होता नहीं, पर जो नहीं होता वह दिखाई पड़ सकता है। जिन्दगी में बहुत कुछ दिखाई पड़ता है, जो है ही नहीं। परन्तु जो है वह दिखाई नहीं पड़ता है। स्वर्ण—मृग दिखाई पड़ता है, राम उठा लेते हैं धनुष—बाण। सीता कहती है, जाओ, ले आओ इसका चर्म। राम निकल पड़ते हैं स्वर्ण मृग को मारने।

यह कथा बडी मीठी है। सोने का मृग भी कहीं होता है? लेकिन आपको कहीं दिखाई पड़ जाए तो रुकना मुश्किल हो जाए। असली मृग हो तो रुका भी जाए, सोने का मृग दिखाई पड़ जाए तो रुकना मुश्किल हो जाएगा। हम सभी सोने के मृग के पीछे ही भटकते हैं। एक अर्थ में हम सबके भीतर का राम सोने के मृग के लिए ही तो भटकता है, और हम सबके भीतर की सीता भी उकसाती है, जाओ, सोने के मृग को ले आओ!

हम सब के भीतर की कामना, हम सब के भीतर की वासना, हम सबके भीतर की ‘डिजायरिग’ कहती है भीतर की शक्ति को, उस ऊर्जा को, उस राम को, कि जाओ तुम— ‘इच्छा है सीता, शक्ति है राम’! कहती है, जाओ, स्वर्ण मृग को ले आओ! राम दौड़ते—फिरते हैं। स्वर्ण—मृग हाथ में न आए तो लगता है कि अपनी कोशिश में कुछ कमी रह गयी… और तेजी से दौड़ो! स्वर्ण मृग को तीर मारो ताकि वह गिर जाए, न ठीक निशाना लगे तो लगता है कि विषधर तीर बनाओ; लेकिन यह खयाल में नहीं आता कि स्वर्ण—मृग होता ही नहीं!

कामना के फूल आकाश कुसुम हैं, होते नहीं। जैसे धरती पर तारे नहीं होते वैसे आकाश में फूल नहीं होते। कामना के कुसुम या तो धरती के तारे है या आकाश के फूल। सकाम हमारी दौड़ है। बार—बार थककर गिर—गिरकर भी, बार—बार कांटों से उलझकर भी फूल की आकांक्षा नहीं जाती—दुख हाथ लगता है। लेकिन कभी हम दूसरा प्रयोग करने को नहीं सोचते। वह दूसरा प्रयोग है निष्काम भाव का।

बड़ा मजा है, निष्काम भाव से कांटा भी पकड़ा जाए तो पकडने पर पता चलता है कि फूल हो गया। ऐसा ही ‘पेराडोक्स है, ऐसा ही जिन्दगी का नियम है। ऐसा होता है। आपने एक अनुभव तो करके देख लिया। फूल को पकड़ा और कांटा हाथ में आया, यह आप देख चुके। और अगर ऐसा हो सकता है कि फूल पकड़े और काटा हाथ में आए तो उल्टा क्यों नहीं हो सकता है कि कांटा पकड़े और फूल हाथ में आ जाए? क्यों नहीं हो सकता ऐसा? अगर यह हो सकता है तो इससे उल्टा होने में कौन—सी कठिनाई है? हां, जो जानते है वे तो कहते हैं, होता है!

एक प्रयोग करके देखें। चौबीस घण्टे में एकाध काम निष्काम करके देखें, सब तो करने मुश्किल हैं—सिर्फ एकाध काम! चौबीस घण्टे में एक काम सिर्फ निष्काम करके देखें। छोटा—सा ही काम, ऐसा कि जिसका कोई बहुत अर्थ नहीं होता। रास्ते पर किसी को बिलकुल निष्काम नमस्कार करके देखें। उसमें तो कुछ खर्च नहीं होता! लेकिन लोग निष्काम नमस्कार तक नहीं कर सकते। नमस्कार तक में कामना होती है। मिनिस्टर है, तो नमस्कार हो जाता है। पता नहीं कब काम पड़ जाए? मिनिस्टर नहीं रहा अब, ‘एक्स’ हो गया, तो कोई उसकी तरफ देखता ही नहीं। स्वयं मिनिस्टर ही अब नमस्कार करता है। वह इसलिए नमस्कार करता है कि फिर कभी काम पड़ सकता है। कामना के बिना नमस्कार तक नहीं रहा। कम से कम नमस्कार तो बिना कामना के करके देखें।

आप हैरान हो जाएंगे, अगर साधारण से जन को भी, राहगीर को भी, अपरिचित को भी हाथ जोड़कर नमस्कार कर लें, बिना कामना के, तो भीतर तत्काल पाएंगे कि आनन्द की एक झलक आ गयी—सिर्फ नमस्कार ही कोई बड़ा कृत्य नहीं, कोई बड़ी ‘डीड’ नहीं। कुछ नहीं, सिर्फ हाथ जोड़े निष्काम और पाएंगे कि एक लहर शान्ति की दौड़ गयी। एक अनुग्रह, एक ईश्वर की कृपा भीतर दौड़ गयी। और अगर अनुभव आने लगे तो फिर बड़े काम में भी निष्काम होने की भावना जगने लगेगी।

जब इतने छोटे काम में इतनी आनन्द की पुलक पैदा होती है, तो जितना बड़ा काम होगा उतनी बड़ी आनन्द की पुलक पैदा होगी। फिर तो धीरे— धीरे पूरा जीवन निष्काम होता चला जायेगा।

3—पाप कभी पुण्य से नहीं कटता

ह प्रश्‍न सनातन है, सदा ही पूछा जाता रहा है। बहुत हैं पाप आदमी के, अनन्त हैं, अनन्त जन्मों के हैं। गहन है, लम्बी है शृंखला पाप की। इस लम्बी पाप की शृंखला को क्या ज्ञान का एक अनुभव तोड़ पायेगा? इतने बड़े विराट पाप को क्या ज्ञान की एक किरण नष्ट कर पायेगी? जो नीतिशास्त्री हैं, नीतिशास्त्री अर्थात जिन्हें धर्म का कोई भी पता नहीं, जिनका चिन्तन पाप और पुण्य के ऊपर कभी गया नहीं, वे कहेंगे, जितना किया पाप उतना ही पुण्य करना पड़ा है। एक—एक पाप को एक—एक पुण्य से काटना पड़ेगा, तब बैलेंस, तब ऋण— धन बराबर होगा, तब हानि—लाभ बराबर होगा और व्यक्ति होगा।

जो नीतिशास्त्री हैं ‘मोरलिस्ट’ हैं, जिन्हें आत्म—अनुभव का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें ‘बीइंग’ का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं, जो सिर्फ ‘डीड’ का, कर्म का हिसाब—किताब रखते हैं—वे यही कहेंगे एक—एक पाप के लिए एक—एक पुण्य साधना पड़ेगा। अगर अनन्त पाप हैं तो अनन्त पुण्यों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। लेकिन मैं कहता हूं तब मुक्ति असम्भव है।

दो कारण से असम्भव है—एक तो इसलिए असम्भव है कि अनन्त शृंखला है पाप की और अनन्त पुण्यों की शृंखला करनी पड़ेगी। इसलिए भी असम्भव है कि कितने ही कोई पुण्य करे, पुण्य करने के लिए भी पाप करने पड़ते हैं।

एक आदमी धर्मशाला बनाए, तो पहले ब्रैक माकेंट करे। ब्रैक माकेंट के बिना धर्मशाला नहीं बन सकती। एक आदमी मन्दिर बनाए तो पहले लोगों की गर्दनें काटे। गर्दनें काटे बिना मन्दिर की नींव का पत्थर नहीं पड़ता। एक आदमी पुण्य करने के लिए कम से कम जियेगा तो सही, और जीने में ही हजार पाप हो जाते हैं—चलेगा तो, हिंसा होगी—उठेगा तो, हिंसा होगी—बैठेगा तो, हिंसा होगी। आस भी लेगा तो…

वैज्ञानिक कहते हैं, एक श्वास में कोई एक लाख छोटे जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। बोलेगा तो… एक बार ओंठ ओंठ से मिला और खुला, करीब एक लाख सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। किसी का चुम्बन आप लेते हैं, लाखों जीवाणुओं का आदान—प्रदान हो जाता है। कई मर जाते हैं बेचारे। जीने में ही पाप हो जाएगा। पुण्य करने के लिए ही पाप हो जाएगा।

तब तो यह अनन्त वर्तुल है, ‘विशियस सर्किल’ है, दुष्ट चक्र है, इसके बाहर आप जा नहीं सकते। अगर पुण्य से पाप को काटने की कोशिश की तो पुण्य करने में पाप हो जायेगा। फिर उस पाप को काटने की पुण्य से कोशिश की, फिर उस पुण्य करने में पाप हो जायेगा। हर बार पाप को काटना पड़ेगा, हर बार पुण्य से काटेंगे, और पुण्य नये पाप करवा जाएगा। इस वर्तुल का कभी अन्त नहीं होगा। इसलिए नैतिक व्यक्ति कभी मुक्त नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि कभी मुक्‍ति तक नहीं जा सकती। नैतिक दृष्टि तो चक्कर में ही पड़ी रह जाती है।

एक बहुत ही और दृष्टि की बात—गहरी दृष्टि की बात जो भी जानते हैं, वह करेंगे। वे कहेंगे अगर आप सब पापियों में भी सबसे बड़े पापी हैं, ‘द ग्रेटेस्ट सिनर’ — अस्तित्व में जितने पापी हैं, उनमें सबसे बडे पापी हैं, तो भी ज्ञान की एक घटना आपके सब पापों को क्षीण कर देगी। क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब यही हुआ कि पाप की कोई सघनता नहीं होती, पाप की कोई ‘डेंसिटी’ नहीं होती। पाप है अंधेरे की तरह।

एक घर में अंधेरा है हजार साल से, दरवाजे बन्द और ताले बन्द! हजार साल पुराना अंधेरा है और आप दीया जलाएंगे, तो अंधेरा कहेगा क्या, कि इतने से काम नहीं चलेगा? आप हजार साल तक दीये जलाए तब मैं कटूगा। नहीं, आपने दीया जलाया कि हजार साल पुराना अंधेरा गया। वह यह नहीं कह सकता है कि मैं हजार साल पुराना हूं। वह यह भी नहीं कह सकता कि हजार सालों से मैं बहुत सघन, ‘क्लेस्ट’ हो गया हूं इसलिए दीये की इतनी छोटी—सी ज्योति मुझे नहीं तोड़ सकती।

हजार साल पुराना अंधेरा और एक रात का पुराना अंधेरा एक ही ‘डेंसिटी’ के होते हैं या कहना चाहिए कि ‘नो डेंसिटी’ के होते हैं, उनमें कोई सघनता नहीं होती। अंधेरे की पर्तें नहीं होतीं, क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस इधर आपने जलायी तीली, अंधेरा गया—अभी और यहीं!

हां, अगर कोई अंधेरे को पोटलियों में बांधकर फेंकना चाहे तो फिर मोरलिस्ट का काम कर रहा है, नैतिकवादी का। वह कहता है जितना अंधेरा है, बांधों पोटली में, बाहर फेंककर आओ। फेंकते रहो टोकरी बाहर और भीतर, अंधेरा अपनी जगह रहेगा। आप चुक जाओगे, अंधेरा नहीं चुकेगा।

ध्यान रहे, पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता। क्योंकि पुण्य भी सूक्ष्म पाप के बिना नहीं हो सकता। पाप को तो सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है।

ज्ञान कोई कृत्य नहीं है कि जिसमें पाप करना पड़े, जान अनुभव है। कर्म बाहर है, ज्ञान भीतर है। ज्ञान तो ज्योति के जलने जैसा है—जला कि सब अंधेरा गया। फिर तो ऐसा भी पता नहीं चलता कि मैंने कभी पाप किये थे; क्योंकि जब ‘मैं’ ही चला जाए तो सब खाते—बही भी उसी के साथ चले जाते हैं, फिर आदमी अपने अतीत से ऐसे ही मुक्त हो जाता है जैसे सुबह सपने से मुक्त हो जाती है।

कभी आपने ऐसा सवाल नहीं उठाया कि जब सुबह हम उठते हैं, रातभर का सपना देखकर और जरा—सा किसी ने हिलाकर उठा दिया, तो इतने से हिलाने से रातभर का सपना कैसे टूट सकता है? जरा—सा किसी ने हिलाया, पलक खुली, सपना गया! फिर आप यह नहीं कहते कि रातभर इतना सपना देखा, अब सपने के विरोध में इतना ही यथार्थ देखूंगा तब सपना मिटेगा। बस सपना टूट जाता है! पाप सपने की भांति है।

ज्ञान की जो सर्वोच्च घोषणा है वह यह है कि पाप स्‍वप्‍न की भांति है, पुण्य भी स्‍वप्‍न की भांति है। और सपने सपने से नहीं काटे जाते। सपने सपने से काटेंगे तो भी सपना देखना जारी रखना पड़ेगा। सपने सपने से नहीं कटते क्योंकि सपनों को सपने से काटने में सपने बढ़ते हैं। और सपने यथार्थ से भी नहीं काटे जा सकते। क्योंकि झूठ है, वह सच से काटा नहीं जा सकता। जो असत्य है वह सत्य से काटा नहीं जा सकता। वह इतना भी तो नहीं है कि काटा जा सके। वह सत्य की मौजूदगी पर नहीं पाया जाता है, काटने को भी नहीं पाया जाता है।

इसलिए कृष्ण भी कहते हैं कि कितना ही बड़ा पापी हो तू सबसे बड़ा पापी हो तू तो भी मैं कहता हूं अर्जुन, कि जान की एक किरण तेरे सारे पापों को सपनों की भांति बहा ले जाएगी। सुबह जैसे कोई जाग जाता है वैसे ही रात समाप्त, सपने समाप्त, सब समाप्त! जागे हुए आदमी को सपनों से कुछ लेना—देना नहीं रह जाता।

इसलिए जब पहली बार भारत के ग्रंथ पश्‍चिम में अनुवादित हुए तो उन्होंने कहा, यह ग्रंथ तो ‘इम्मारल’ मालूम होता है, अनैतिक मालूम होता है। खुद शोपेनहार को चिन्ता हुई—मनीषि था, चिन्तक था गहरा, उसको खुद चिन्ता हुई कि ये किस तरह की बातें है। ये कहते हैं, एक क्षण में कट जायेंगे पाप।

क्रिश्रियनिटी कभी भी नहीं समझ पायी इस बात को, ईसाइयत कभी नहीं समझ पायी इस बात को कि एक क्षण में पाप कैसे तिरोहित होंगे? क्योंकि ईसाइयत ने पाप को बहुत भारी मूल्य दे दिया, बहुत गम्भीरता से ले लिया। सपने की तरह नहीं, असलियत की तरह ले लिया। ईसाइयत के ऊपर पाप का भार बहुत गहरा है, ‘बर्डन’ बहुत गहरा है।’ ओरिजिनल सिन’, एक—एक आदमी का पाप तो है ही, पर उससे पहले आदमी ने जो पाप किया था वह भी सब आदमियों की छाती पर है। उसको काटना बहुत मुश्किल है।

इसलिए क्रिश्रियनिटी ‘गिल—रिडन’ हो गयी, अपराध का भाव भारी हो गया। और पाप का कोई छुटकारा दिखायी नहीं पड़ता। कितना ही पुण्य करो उससे छुटकारा नहीं दिखायी पड़ता। इसलिए ईसाइयत गहरे में जाकर रुग्ण हो गयी। जीसस को नहीं था यह खयाल, लेकिन ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पायी, जैसा कि सदा होता है।

हिंदू कृष्ण को नहीं समझ पाए, जैन महावीर को नहीं समझ पाए, न समझने वाले। समझने का जब दावा करते हैं तो उपद्रव शुरू हो जाता है। जीसस ने कहा— ‘सीक यी फर्स्ट द किंगडम आफ गाड एण्‍ड आल एल्‍स शैल बी एडेड अन टू यू। जीसस ने कहा, सिर्फ प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब तुम्हें मिल जाएगा। वही जो कृष्ण कह रहे हैं कि सिर्फ प्रकाश की किरण को खोज लो और शेष सब, जो तुम छोड़ना चाहते हो छूट जाएगा, जो तुम पाना चाहते हो मिल जाएगा।

भारतीय चिन्तन ‘इम्मारल’ नहीं है, ‘ए मारल’ है—अनैतिक नहीं है, अतिनैतिक है, ‘सुपर मारल’ है—नीति के पार जाता है, पुण्य—पाप के पार चला जाता है!

4—धर्म संस्थापनार्थाय:

र्म नष्ट कभी नहीं होता, कुछ भी नष्ट नहीं होता। धर्म तो नष्ट होगा ही नहीं, लेकिन लुप्त होता है। लुप्त होने के अर्थों में नष्ट होता है। इसलिए उसकी पुनर्स्थापना की निरंत्तर जरूरत पड़ जाती है। उसकी पुनर्प्रतिष्ठा की निरंत्तर जरूरत पड़ जाती है। जैसे धर्म कभी अस्तित्वहीन नहीं होता वैसे ही अधर्म कभी अस्तित्ववान नहीं होता। लेकिन बार—बार फिर भी उस अस्तित्वहीन अधर्म को हटाने की जरूरत पड़ जाती है। इसे थोड़ा समझें—क्योंकि बड़ी उल्टी बात मालूम पड़ेगी। जो धर्म कभी नष्ट नहीं होता उसकी संस्थापना की क्या जरूरत है? और जो अधर्म कभी होता नहीं, उसके मिटाने की भी क्या जरूरत है। लेकिन ऐसा है!

अंधेरा है— अंधेरा है नहीं, रोज मिटाना पड़ता है, और है बिलकुल नहीं! अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा ‘एक्‍जिस्टेंशियल’ नहीं है, अंधेरा कोई चीज नहीं है—फिर भी है। यह मजा है, यह पैराडाक्स है जिन्दगी का कि अंधेरा है नहीं, फिर भी है! काफी है, घना होता है, डरा देता है, प्राण कंपा देता है और है नहीं! अंधेरा सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है—सिर्फ ‘एब्सेंस’ है।

जैसे कमरे में आप थे और बाहर चले गए तो हम कहते हैं, अब आप कमरे में नहीं हैं। अंधेरा इसी तरह है। अंधेरे का मतलब इतना ही है कि प्रकाश नहीं है। इसलिए अंधेरे को तलवार से काट नहीं सकते, अंधेरे को गठरी में बांधकर फेंक नहीं सकते। दुश्मन के घर में जाकर अंधेरा डाल नहीं सकते। अंधेरा घर के बाहर निकालना हो तो धक्का देकर निकाल नहीं सकते।’सब्सटेंशियल’ नहीं है, अंधेरे में कोई ‘सब्सटेंस’ नहीं है। कण्टेंट नहीं है, अंधेरे में कोई वस्तु नहीं है। अंधेरा अवस्तु है— ‘नो थिंग, नथिंग’! अंधेरे में कुछ है नहीं, लेकिन फिर भी है। इतना तो है कि डरा दे, इतना तो है कि कंपा दे! इतना तो है कि गड्डे में गिरा दे, इतना तो है, हाथ—पैर टूट जाएं!

यह बड़ी मुश्किल की बात है कि जो नहीं है उसके होने से आदमी गड्डे में गिर जाता है। यह कहना नहीं चाहिए क्योंकि एब्सर्ड है। जो नहीं है उसके होने से आदमी गड्डे में गिर जाता है। जो नहीं है उसके होने से हाथ—पैर टूट जाते हैं, जो नहीं है उसके होने से चोर चोरी कर ले जाते हैं, जो नहीं है उसके होने से हत्यारा हत्या कर लेता है। नहीं तो है बिलकुल, वैज्ञानिक भी कहते हैं, नहीं है! उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

अस्तित्व है प्रकाश का। जिसका अस्तित्व हो उसको रोज जाना पड़ रहा है। रोज सांझ दीया जलाओ, न जलाओ तो अंधेरा खड़ा है। तो कृष्ण कहते हैं, संस्थापनार्थ— धर्म की संस्थापना के लिए, दीये को जलाने के लिए, अधर्म के अंधेरे को हटाने के लिए— अधर्म जो नहीं है, धर्म जो सदा है..!

सूरज स्रोत है प्रकाश का। अंधेरे का स्रोत पता है, कहां है? कहीं भी नहीं है। सूरज से आ जाती है रोशनी। अंधेरा कहां से आता है? — ‘फ्रोम नो हेयर’, कोई ‘सोर्स’ नहीं है। कभी आपने पूछा, अंधेरा कहां से आता है? कौन डाल देता है इस पृथ्वी पर अंधेरे की चादर? कौन आपके घर को अंधेरे से भर देता है। स्रोत नहीं है उसका, क्योंकि है ही नहीं अंधेरा।

जब सुबह सूरज आ जाता है तो अंधेरा कहां चला जाता है? कहीं सिकुड़कर छिप जाता है? कहीं नहीं सिङ़ता, कहीं नहीं जाता। है ही नहीं, कभी था नहीं! अंधेरा कभी नहीं है, फिर भी रोज उतर आता है। प्रकाश सदा है, फिर भी रोज सांझ जलाना पड़ता है और खोजना पड़ता है।

ऐसे ही धर्म और अधर्म है। अंधेरे की भांति है अधर्म, प्रकाश की भांति है धर्म। प्रतिदिन खोजना पड़ता है। युग—युग में, कृष्ण कहते हैं, लौटना पड़ता है। मूल स्रोत से धर्म को फिर वापस पृथ्वी पर लौटना पड़ता है। सूर्य से फिर प्रकाश को वापस लेना पड़ता है। यद्यपि जब प्रकाश नहीं रह जाता सूर्य का तो हम मिट्टी के दीये जला लेते है। कैरोसिन की कंदील जला लेते है। उससे काम चलाते हैं, लेकिन काम नहीं चलता है। कहां सूरज, कहां कंदील? बस काम चलता है!

तो जब कृष्ण जैसे व्यक्तित्व नहीं होते पृथ्वी पर तब छोटे—मोटे दीये, कंदीलें कैरोसिन की, जिनसे धुआं काफी निकलता है, रोशनी कम ही निकलती है, उनसे भी काम चलाना पड़ता है। तथाकथित साधु—सन्तों की भीड़ ऐसी ही है—कैरोसिन आइल, मिट्टी का तेल—मगर रात में बड़ी कृपा उनकी। थोड़ी—सी तथा धीमी, दो चार दस फीट पर रोशनी पड़ती रहती है उनकी। लेकिन बार—बार अंधेरा सघन हो जाता है और बार—बार करुणावान चेतनाओं को लौट आना पड़ता है, जो आकर फिर सूरज से भर देती हैं।

कई बार ऐसा भी होता है कि सूरज जैसी चेतनाओं को आमने—सामने नहीं देखा जा सकता। आपने कभी खयाल किया कि सूरज को कभी आप आमने—सामने नहीं देखते। दीये को मजे से देखते हैं। इसलिए साधु—संतों से सत्संग चलता है। कृष्ण जैसे लोगों के आमने—सामने मुश्किल हो जाती है।’एन्काउण्टर ‘ हो जाता है, तो झंझट हो जाती है। कई दफा तो आंखें चौंधिया जाती है। सूरज की तरफ देखें तो रोशनी कम मिलेगी, आंखें बन्द हो जायेंगी, अंधेरा हो जाएगा।

सूरज को आदमी तभी देखता है जब ग्रहण लगता है, अन्यथा नहीं देखता कोई। यह बड़े मजे की बात है, ग्रहण लगे सूरज को लोग देखते हैं। पागल हो गये हैं? सूरज बिना ग्रहण के रोज अपनी पूरी ताकत से मौजूद है, कोई नहीं देखता। क्या बात है? ग्रहण लगने से थोड़ा भरोसा आता है कि हम भी देख सकते हैं, थोड़ा सूरज कम है, अधूरा है। शायद अब जोर से हमला नहीं करेगा।

इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्तियों को कभी भी समझा नहीं जाता; हमेशा ‘मिस—अष्ठरस्टैड’ किया जाता है। और जिनको आप समझ लेते हैं—समझ लेना, वे कैरोसिन की कन्दील हैं। अपने घर में जलायी—बुझायी, अपने हाथ से बत्ती नीची—ऊंची की। जब जैसी चाही, वैसी की। जिनको आप समझ पाते हैं, समझ लेना कि घर के मिट्टी के दीये हैं। जिनको आप कभी नहीं समझ पाते, आंखें चौंधिया जाती है, हजार सवाल उठ जाते हैं, मुश्किल पड़ जाती है, तो समझना कि सूरज उतरा है।

इसलिए कृष्ण को हम अभी तक नहीं समझ पाए, न क्राइस्ट को समझ पाए, न बुद्ध को, न महावीर को, न मुहम्मद को। इनमें से हम किसी को नहीं समझ पाते। इस तरह के व्यक्ति जब भी पृथ्वी पर आते हैं, हमारी आंखें चौंधिया जाती हैं, जब वह हट जाते है—जब आंख के सामने नहीं रहते तब हम अपने—अपने मिट्टी के दीये जलाकर समझने की कोशिश करते हैं।

पुन: संस्थापना के लिए नष्ट नहीं होता धर्म कभी, खो जरूर जाता है। अधर्म कभी स्थापित नहीं होता, छा जरूर जाता है। ऐसा समझ में आ सके तो ठीक है!

‘अमृत— वाणी’

से संकलित सुधा— बिंदु 1971—71

 


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मन ही पूजा मन ही धूप–(प्रवचन–3)

$
0
0

क्‍या तू सोया जाग अयाना—(प्रवचन—तीसरा)

सूत्र:

जो दिन आवहि सो दिन जाही। करना कूच रहन थिरू नाही।।

संगु चलत है हम भी चलना। दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना।।

क्‍या तू सोया जाब अयाना। तै जीवन जगि सचु करि जाना।।

जिनि दिया सु रिजकु अंबराबै। सब घट भीतरि हाटु चलावै।।

करि बंदिगी छांडि मैं मेरा। हिरदे नामु सम्‍हारि सबेरा।।

जनमु सिरानो पंथु न संवारा। सांझ परी दह दिसि अंधियारा।

कह रविदास नदान दिवाने। चेतसि नाही दुनिया फनखाने।।

 

ऊंचे मंदिर, सालि रसोई।एक घरी पुनि रहन न होई।।

इह तनु ऐसा जैसे घास की टाटी। जलि गयो घास रलि गयो माटी।

भाई बंधरू कुटंब सहेरा। ओई भी लागे काढ़ सबेरा।।

घर की नारि उरहि तन लागी।उह तौ भूत भूत करि भागी।।

कहि रविदास सबै जग लूटया। हम तौ एक राम कहि छूटया।।

 

हरि—सा हीरा छांडिकै, करै आन की आस।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सम भाषै रैदास।

अंतरगति रांचै नहीं, बाहर कथै उदास।।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रैदास।।

फ्ता—रफ्ता यह जमाने का सितम होता है

एक दिन रोज मेरी उम्र से कम होता है

बाग रोता है असीराने—कफस को शायद

दामने—सज्जा—ओ—गुल सुबह को नम होता है

मनुष्य सोचता है कि जी रहा है, सच्चाई कुछ और है; हम रोज मर रहे हैं। यह प्रक्रिया, जिसे हम जीवन कहते हैं, मृत्यु की प्रक्रिया है। जिस दिन हम जन्मे उसी दिन से मरना शुरु हो गया है। रोज एक—एक दिन चुकता जाता, प्रतिपल जीवन क्षीण होता। घट खाली हो रहा है, भर नहीं रहा है। और बूंद—बूंद खाली हो तो सागर भी खाली हो जाता है। और हम तो केवल गागर हैं।

रफ्ता—रफ्ता यह जमाने का सितम होता है

लेकिन इतने धीरे— धीरे होती है यह बात कि पता नही चलती। इतने आहिस्ता— आहिस्ता होती है यह बात कि जो बहुत सचेत हैं, जो बहुत जागरूक हैं, बहुत सावधान हैं, उन्हीं के अनुभव में आती है, बाकी तो धोखा खा जाते हैं।

रफ्ता—रफ्ता यह जमाने का सितम होता है

एक दिन रोज मेरी उम्र से कम होता है

बाग रोता है असीराने—कफस को शायद

दामने—सज्जा—ओ—गुल सुबह को नम होता है

सुबह जाकर बगीचे में देखा है— फूलों की पंखुड़ियां, घास की पत्तियां, पत्तियों के किनारे गीले होते है। शायद बगीचा रो रहा है, बगीचे की आंखों में आंसू हैं— जान कर यह बात कि ये फूल अभी हैं, अभी नहीं हो जाएंगे, जान कर यह बात कि यहां सभी कुछ पिंजड़े में बंद कैदियों जैसे हैं।

पिंजड़ों में बंद पक्षी ही नहीं हैं— आदमी भी, जो पिंजड़ों में बंद दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि उसके पिंजड़े सूक्ष्म हैं, अदृश्य हैं। वह भी बंद है। वह भी कैदी है। कोई हिंदू पिंजड़े में बंद है, कोई मुसलमान

पिंजड़े में बंद है, कोई जैन पिंजड़े में बंद है। ये सब पिंजड़े हैं। पक्षपात अर्थात पिंजड़ा। बिना जाने किसी बात को मान लेना अर्थात पिंजड़ा। बिना अनुभव किए आस्था बना लेना अर्थात अंधापन।

शायद बगीचा भी हमारे लिए रोता है, रोज सुबह फूलों के, पत्तियों के कोर—किनारे गीले होते हैं। लेकिन हमें होश नहीं, हम दौड़े चले जाते हैं अपनी बेहोशी में। हम वही किए चले जाते हैं जो हमने कल किया था, परसों किया था, जो हमने पिछले जन्मों में अनंत बार किया है।

हजार तरह तखथ्युल ने करवटें बदलीं

कफस—कफस ही रहा, फिर भी आशिया न हुआ

कैद तो कैद ही रहेगी, घर नहीं बन सकती। तुम्हारी कल्पनाएं कितनी ही करवटें बदलें— और यही हमने किया है जन्मों—जन्मों में। कल्पनाओं ने करवटें बदलीं। कभी यह थे तो वह होना चाहा, कभी वह थे तो यह होना चाहा— ऐसे हमने चौरासी करोड़ योनियों में यात्रा की है। कल्पनाओं की करवटें हैं, और कुछ भी नहीं।

गरीब अमीर होना चाहता है और अमीर सोचता है, गरीबी में बड़ा अध्यात्म है। अमीर सोचता है, गरीबी में बड़ी स्वतंत्रता है। अमीर सोचता है, गरीब जानता है कैसे घोड़े बेच कर सोना, मैं तो सो ही नहीं पाता। शथ्या है सुंदर तो क्या होगा, भवन है सुंदर तो क्या हो गया— नींद तो खो गई है! भोजन है स्वादिष्ट तो क्या करूं, भूख तो खो गई है! भूख तो है गरीब के पास, भोजन है अमीर के पास। गरीब तडूफता है कि भोजन हो अमीर जैसा; और अमीर तडूफता है कि भूख हो गरीब जैसी। जो जहां है वहीं अतृप्त है। जिनके पास धन है उनकी चिंता का अंत नहीं। और जिनके पास धन नहीं है उनकी एक ही चिंता है कि धन कैसे हो। जिनके पास है वे डरे हैं कि कहीं खो न जाए, जिनके पास नहीं है वे पीड़ित हैं कि कब होगा। जिनके पास है वे चाहते हैं कि और हो। तृप्ति कहीं भी नहीं है। आपा— धापी है, असंतोष है, अतृप्ति है।

ये सब हमारे पिंजड़े हैं जिनमें हम बंद हैं। ये अदृश्य हैं पिंजड़े। इसलिए हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं; फिर भी हम पिंजड़ों में बंद हैं। ठीक से समझो तो शरीर भी पिंजड़ा है, मन भी पिंजड़ा है। शरीर है हड्डी—मांस—मज्जा से बना पिंजड़ा; मन है विचार, धारणाएं, पक्षपात, इनसे बना पिंजड़ा। मन और शरीर से जो मुक्त है, वही मुक्त है, वही जानता है जीवन के परम सौंदर्य को, जीवन के अर्थ को— अर्थवत्ता को, जीवन की भगवत्ता को! वही जानता है जीवन की शाश्वतता को। वही परिचित होता है— वह जो रहस्यों का रहस्य है, परमात्मा—उससे। उससे परिचित होते ही मृत्यु मिट जाती है, दुख मिट जाते है, पीड़ाएं मिट जाती हैं। आनद की अहर्निश वर्षा होने लगती है, अमृत की झड़ी लग जाती है। फिर सावन ही सावन है, फिर कोई दूसरी ऋतु ही नहीं है।

आग थे इकिदाए—इश्क में हम

हो गए खाक, इन्तिहा है यह

शुरू—शुरू में तो सभी को लगता है आग हैं, अंगारे हैं। यह तो बहुत देर में पता चलता है कि सब अंगारे राख हो जाते हैं। जिसको अंगारा रहते हुए यह पता चल जाए कि मैं राख हो जाऊंगा, उसके जीवन में संन्यास का पदार्पण होता है; उसके जीवन में ध्यान की किरण उतरती है, समाधि की तलाश शुरू होती है।

अंगारे तो सभी राख हो जाएंगे। जब तक अंगारे हो तब तक उस गरमी का कुछ उपयोग कर लो, तब तक उस जीवन की उष्मा का कोई सदुपयोग कर लो, कोई सृजन कर लो। उससे बना लो कुछ ऐसा जो मिटेगा नहीं। मत गंवाओ उसे उसमें जो कि मिट ही जाने वाला है। रेत के भवन मत बनाओ, कागज की नावें मत चलाओ।

एक नाव ऐसी भी है जो पार ले जाती है, लेकिन वह नाव ध्यान की है। एक ऐसा भी भवन है जो परमात्मा का मंदिर बन जाता है, लेकिन वह भवन चैतन्य का है, बोध का है, बुद्धत्व का है। उसे जिसने नहीं पाया उसने जीवन को गंवाया—व्यर्थ गंवाया!

रंगे—निशात देख मगर मुत्मइन न हो

शायद कि यह भी हो कोई सूरत मलाल की

गुलशन बहार पर है, हंसो ऐं गुलो हंसों

जब तक खबर न हो तुम्हे अपने मआल की

अहसास अब नही है मगर इतना याद है

शक्लें जुदा—जुदा थीं उरूजो—जवाल की

रंगे—निशात देख……..

देखो चारों तरफ लोग हंस रहे, मुस्करा रहे, जीवन को जीने की चेष्टा कर रहे। हारे आखिर में भला, मगर चेष्टा में कोई कमी नहीं है। मुस्कुराहटें चाहे झूठी हों, ऊपर से चिपकाई गई हों, मगर हैं तो बहुत।

रंगे—निशात देख……..

देखो ये रंगीनियां! देखो यह उल्लास! यह ऊपर—ऊपर का उल्लास, ये ऊपर—ऊपर की रंगीनियां, यह ऊपर—ऊपर की बहार, यह झूठी बहार, ये झूठे वसंत!

रंगे—निशात देख मगर मुत्मइन न हो

लेकिन खयाल रखना, धोखा मत खा जाना, आश्वस्त मत हो जाना। लोगों को हंसते देख कर यह मत समझ लेना कि उनकी जिंदगी में हंसी है। हंसी तो कभी कुछ थोड़े से लोगों की जिंदगी में होती है— कोई बुद्व, कोई जीसस, कोई कबीर, कोई नानक, कोई रैदास। इस जगत में बहुत थोड़े से लोग हंस सके हैं। हंस सके हैं वे ही जिन्होंने अपने को जाना है। उनके भीतर फव्वारे फूटे हैं— आनद के, उल्लास के, उत्सव के। बाकी सब हंसिया झूठी हैं, थोथी हैं— भीतर के खालीपन को छिपाने के उपाय हैं, भीतर की रिक्तता को भुलाने की व्यवस्थाएं हैं।

आंसू हैं भीतर, और आंसू किसको दिखाओ! आसुओ को छिपाना पड़ता है, कोई क्या कहेगा? क्यों अपनी भद्द कराओ! अंहकार कहता है, छिपा लो आसुओ को, हंसो, मुस्कुराओ। नहीं भीतर मुस्कुरा सकते, कम से कम बाहर मुस्कुराओ। नहीं हो सत्य तुम्हारे पास, कोई फिकर नहीं, कम से कम सत्य का पाखंड तो करो! फूल असली न मिलें न सही, प्लास्टिक के भी फूल तो उपलब्ध हैं! कम से कम पड़ोसी तो धोखा खा जांएगे!

रंगे—निशात देख मगर मुत्मइन न हो

देखो चारों तरफ लोगों की हंसिया, मुस्कुराहटें, उल्लास, उत्सव, तमाशे—शहनाइयां बज रही हैं, बांसुरिया बज रही हैं, गीत गाए जा रहे हैं, नाच हो रहे हैं। देखो सब, मगर आश्वस्त मत हो जाना, मान मत लेना कि यह सच है!

रंगे—निशात देख मगर मुत्मइन न हो

शायद कि यह भी हो कोई सूरत मलाल की

खयाल रहे कि शायद यह भी दुख को प्रकट करने का एक ढंग है।

फ्रेड्रिक नीत्शे से किसी ने पूछा तुम सदा हंसते रहते हो, तुम्हारी हंसी का राज?

नीत्शे ने कहा अगर सच पूछो तो मैं इसीलिए हंसता हूं कि कहीं रोने न लगू। अगर न हसूंगा तो रो पडूगा। वह जो ऊर्जा आंसू बनने को तत्पर खड़ी है, उसे किसी तरह मुस्कुराहट बनाता हूं। ऐसे औरों को धोखा देता हूं और औरों की आंखों में देखता हूं कि वे धोखा खा गए, तो उनके धोखे से खुद धोखा खाता हूं। जिंदगी बड़ी बेबूझ है! यहां तुम दूसरे को धोखा देते—देते अपने को धोखा देने लगते हो।

मुल्ला नसरुद्दीन सांझ को टहलने निकला था। अंधेरी संध्या होने लगी। राजमहल के करीब ही था कि कुछ बदमाश छोकरे उसे परेशान करने लगे। कोई उसका कोट खींचने लगा, कोई उसके कोट के खीसे में हाथ डालने लगा। किसी ने उसकी छड़ी छीनने की कोशिश की। छोकरों की भीड़ थी। मुल्ला बूढ़ा आदमी। उसने कहा इनसे बचना मुश्किल है। लेकिन उसने कुछ धूप में बाल नहीं पकाए, अनुभव से बाल पकाए हैं। पूछा कि तुम्हें पता है, मैं कहां जा रहा हूं? राजमहल जा रहा हूं। आज भोज है राजमहल में, तुम यहां क्या कर रहे हो भू: सारा गांव निमंत्रित है, तुम्हें पता नहीं?

जैसे ही लड़कों ने यह सुना वे भागे मुल्ला को छोड़ कर राजमहल की तरफ। जब सारे लड़के भागे तो मुल्ला भी उनके पीछे भागने लगा। उसने सोचा, हो न हो बात सच ही हो। मैंने तो झूठ कहा था, मगर कौन जाने भूल से झूठ सच ही हो! किसको पता, आज राजमहल में निमंत्रण हो ही! इतने लोग धोखा खा गए तो चल कर देख ही लेना ठीक है।

तुमने खुद भी पाया होगा कि तुम अगर झूठ बोलते रहो तो धीरे— धीरे अपने ही झूठ पर तुम्हें विश्वास आ जाता है। फिर तय करना मुश्किल हो जाता है कि जो मैं बोला था वह झूठ था या सच था? अगर लोग मान लें तो उनके मानने के कारण तुम भी उसे सच मान लेते हो।

रंगे—निशात देख मगर मुत्मइन न हो

शायद कि यह भी हो कोई सूरत मलाल की

यह भी शायद दुख का एक आवरण हो, एक ढंग हो, एक सूरत हो।

गुलशन बहार पर है, हंसों ऐं गुलो हंसों

वसंत आ गया है, तो फूलो, हंसो!

जब तक खबर न हो तुम्हें अपने मआल की

तब तक तुम्हें अपने भविष्य का कुछ पता नहीं है, हंस लो। देर नहीं है पतझड़ के आने में। सुबह खिला फूल सांझ गिर जाएगा। जो पत्ता अभी हरा है, जल्दी ही पीला पड़ जाएगा। जो अभी ऐसा गरूर से भरा था, जो अभी ऐसा मगरूर था, हवाओं से जूझता था, कि सूरज की किरणों से टक्कर लेने की सामर्थ्य समझता था, कि पक्षियों के गीत के साथ नाच रहा था— उसे पता भी नहीं कि सूरज ढल भी न पाएगा और जिंदगी ढल जाएगी! सुबह जो खिला था वह सांझ मुरझा जाएगा।

गुलशन बहार पर है, हंसों ऐं गुलो हंसो

जब तक खबर न हो तुम्हे अपने मआल की

अहसास अब नहीं है मगर इतना याद है

शक्लें जुदा—जुदा थीं उरूजो—जवाल की

आखिर में तुम पाओगे कि जिसको तुमने उत्थान कहा और जिसको तुमने पतन कहा, वह एक ही चीज थी, शक्लें अलग— अलग थीं। जिसको तुमने दुख कहा और जिसको तुमने सुख कहा, वह एक ही चीज थी, शक्लें अलग— अलग थीं। मगर यह पता इतनी देर से चलता है कि फिर कुछ किया नहीं जा सकता। सांझ आ गई, और पंखुड़ियां झरने लगीं, और पत्ते पीले पड़ गए; फिर कुछ करना भी चाहोगे तो न कर सकोगे।

इस देश की परंपरा थी सदियों तक कि संन्यास लिया जाए पचहत्तर साल के बाद। महावीर और बुद्ध ने वह परंपरा तोड़ दी और उन्होंने बड़ी अनुकंपा की कि उस परंपरा को तोड़ दिया। वह परंपरा चालबाज थी। उस परंपरा में होशियारी थी। वह परंपरा बेईमानों की ईजाद थी, पंडित—पुरोहितों का तर्क था कि अंतिम चरण में, जब संध्या आ जाएगी और सूरज डूबने लगेगा और जब पंखुड़ियां बिखरने को हो जाएंगी और पत्ते पीले पड़ने लगेंगे, जब पतझड़ द्वार पर दस्तक देने लगेगी— तब संन्यास ले लेना।

लेकिन उस संन्यास का क्या मूल्य? अर्थहीन होगा वह संन्यास, व्यर्थ होगा वह संन्यास!

हुआ अहसास पैदा मेरे दिल में तकें—दुनिया का

मगर कब, जब कि दुनिया को जरूरत ही न थी मेरी

तब दुनिया छोड़ने का खयाल पैदा हुआ— कब! जब दुनिया को मेरी जरूरत ही न थी! यह कोई छोड़ना हुआ, यह कोई त्याग हुआ, यह कोई संन्यास हुआ! बुद्ध और महावीर ने मनुष्य—जाति को जो दान दिया वह था युवा—संन्यास— बड़े से बड़ा दान! लोग कहते हैं, उन्होंने बड़े से बड़ा दान— अंहिसा। वह कुछ भी नहीं है। उनका बड़े से बड़ा दान है— इस बात का बोध कि जितने जल्दी हो सके उतने जल्दी अपनी तरफ मुड़ आओ। देर नहीं है सांझ के होने में, कब हो जाएगी पता नहीं, सूरज कब ढल जाएगा पता नहीं। यह घड़ी हाथ में है, अगली घड़ी हाथ मे होगी पता नहीं। कल पर भरोसा न करो।

महावीर और बुद्ध को हिंदू समाज माफ नहीं कर सका। माफ न करने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने युवकों को संन्यास दिया! उन्होंने बच्चों को भी संन्यास दिया। बच्चे और युवक संन्यासी हो जाएं तो जो समाज का ढांचा है बना—बनाया, सदियों पुराना, वह बिखर जाए। ब्राह्मण—पुरोहित का क्या हो? वह चाहता है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक तुम्हारा सारा क्रियाकांड करे। वह चाहता है कि जन्म के दिन से लेकर मरने तक तुम्हारा शोषण करे। उसने इस तरह का जाल फैलाया है कि पैदा हो तो उसकी जरूरत, नामकरण हो तो उसकी जरूरत, यज्ञोपवीत हो तो उसकी जरूरत, विवाह हो तो उसकी जरूरत, फिर तुम्हारे बच्चे पैदा हों तो उसकी जरूरत, फिर तुम के होओ तो उसकी जरूरत, तुम मरो तो उसकी जरूरत।

उसने तुम्हारी पूरी जिंदगी को कस लिया है, एक कोने से दूसरे कोने तक उसने कुछ छोड़ा नहीं है। मर जाने के बाद भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ता। तीसरा करवाएगा, तेरहवीं करवाएगा, इतने से ही काम नहीं है, हर साल पितृ—पक्ष में तुम्हारा शोषण करेगा। मर गए, उनको भी नहीं छोड़ता। जिंदा हैं उनको तो कैसे छोड़ सकता है!

बुद्ध और महावीर ने उसकी ये चार आश्रमों की व्यवस्था तोड़ दी। संन्यासी का अर्थ ही होता है कि जो ब्राह्मण, पंडित, पुरोहित से मुक्त हो गया। और संन्यासी वर्णातीत है। ब्राह्मणों की व्यवस्था वर्ण पर खड़ी है— चार वर्ण—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। लेकिन संन्यासी का कोई वर्ण नहीं होता। जैसे ही कोई व्यक्ति संन्यासी हुआ कि वह वर्ण के अतीत हो जाता है, वह वर्ण के बाहर हो जाता है। उस पर फिर कोई मर्यादा और नियम लागू नहीं होते। वह अतिक्रमण है।

तो आश्रम की व्यवस्था तोड़ दी, क्योंकि युवकों को संन्यास दिया, और वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी, क्योंकि संन्यासी किसी वर्ण का नहीं होता। संन्यासी होते ही उसका एक वर्ण रह जाता है— संन्यास। फिर वह ब्राह्मण रहा हो पहले, कि शूद्र रहा हो, कि क्षत्रिय रहा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। दोनों तरह से हिंदुओं की जड़ व्यवस्था थी उसको तोड़ दिया बुद्ध और महावीर ने। क्षमा नहीं कर सकते हिंदू उन्हें।

लेकिन उन्होंने बात तो बड़ी क्रांतिकारी की। जब जीवन हाथ में है, ऊर्जा है, उमंग है, कुछ कर गुजरने का सामर्थ्य है, चुनौतियां लेने का साहस है। जब तुम पर्वत चढ़ सकते हो तब चढ़ो। जब सागर तैर सकते हो तब तैसे। जब अस्थिपंजर हो जाओगे तब संन्यास लोगे? तो संन्यास तो फिर मुर्दों का हुआ। उस मुर्दा संन्यास में फूल नहीं लग सकते। जिसमें पाप करने की क्षमता नहीं रह जाती उसमें पुण्य करने की क्षमता भी नहीं रह जाती, इस गणित को याद रखना। क्षमता तो एक ही है, चाहे पाप कर लो चाहे पुण्य। क्षमता तो एक ही है, चाहे संसार बसा लो चाहे संन्यास। क्षमता तो एक ही है, चाहे धन कमा लो चाहे ध्यान। उर्जा तो एक ही है, चाहे शाश्वत को खोज लो चाहे क्षणभंगुर में गंवा दो, चाहे मरुस्थल में भटक जाओ या सागर पर पहुंच जाओ।

रैदास के सूत्र—

जो दिन आवहि सो दिन जाही।

जो दिन आया है, जाएगा। जो जीवन मिला है, छिन जाएगा। अवसर है यह। यह सदा के लिए नहीं मिल गया है। इसकी सीमा है। इसकी सीमा के भीतर कुछ कर लो—कुछ ऐसा जो कि शाश्वत से जोड़ दे, तो तुम असीम हो जाओ। जीवन की सीमा है लेकिन एक और जीवन है, परम जीवन, जिसकी कोई सीमा नहीं। देह में जो जीवन है वह तो आज है, कल नहीं हो जाएगा। इसकी मृत्यु तो सुनिश्चित है। मृत्यु से बचा नहीं जा सकता। आश्चर्यजनक है मगर सत्य है कि इस जगत में इस जीवन में एक ही बात सुनिश्चित है, और वह है मृत्यु। जन्म के बाद अगर कोई चीज बिलकुल सुनिश्चित है, सौ प्रतिशत, तो वह मृत्यु।

करना कूच रहन थिरू नाही।।

कूच तो करना पड़ेगा। यह काफिला तो उठेगा। यह सब ठाठ पड़ा रह जाएगा। यह सराय है, रात ठहर गए ठीक, सुबह तो बोरिया—बिस्तर बांध ही लेना होगा। इस सराय को घर न समझ लो।

करना कूच रहन थिरू नाही।।

कूच तो करना ही है। रहना घिर नहीं है। तो इस सराय की दीवालों को रंगते रहोगे रात भर? दीवालों पर तस्वीरें टांगते रहोगे रात भर? इस सराय की सफाई करते रहोगे रात भर? इस सराय के इंतजाम में ही गवां दोगे सारा समय? और सुबह आएगी और सराय छिन जाएगी!

नहीं; सराय का उपयोग कर लो। सराय में ही सब समय मत गंवा दो। इस शरीर में ही मत उलझे रहो। थोड़े सुलझो। इस शरीर से थोड़े जागो। इस शरीर से थोड़े ऊपर उठो। माना कि सत्तर—अस्सी साल इस शरीर में रहना है, मगर अनंतकाल की तुलना में सत्तर— अस्सी साल का क्या मूल्य है! एक रात से भी कम। और दिन जाते देर कहां लगती है— दिन यूं जाते हैं! पकड़ में तो समय आता नहीं, मुट्ठी में तो समय आता नहीं। सुबह हुई कि सांझ हो जाती है। सुबह होती शाम होती, उम्र यूं ही तमाम होती!

कल भी वही किया था, आज भी वही कर लोगे, परसों भी वही कर लोगे, कल भी वही करोगे। एक दिन मौत द्वार पर खड़ी हो जाएगी, क्या उत्तर दोगे! सिर झुका कर खड़ा होना पड़ेगा, हाथ खाली होंगे। भीख मांगोगे कि थोड़ा समय और, थोड़ा जीवन और, क्योंकि यह तो बेकार गया। और उस भीख का परिणाम है कि फिर तुम्हें जन्म मिलेगा। तुम जो मांगोगे सो मिलेगा। तुम अगर फिर जन्म मांगते हो, फिर जन्म मिलेगा, फिर किसी गर्भ में पैदा हो जाओगे। मगर तुम दोहराओगे वहीं भूलें जो तुमने पहले दोहराई थीं, शायद और भी आश्वस्त होकर दोहराओगे कि कोई फिकर नहीं, जन्म तो फिर—फिर मिल जाता है, जल्दी क्या है!

इसीलिए तो भारत में इतना आलस्य है। जन्म ही जन्म तो हैं, जल्दी क्या है! फिर मिलेगा जन्म, फिर मिलेगा जन्म, कर लेंगें आगे। मगर तुम तुम ही हो, आज नहीं करोगे, कल भी तो तुम तुम ही रहोगे। सच तो यह है कि अगर आज नहीं किया तो कल तो तुम और थोड़े ज्यादा तुम हो जाओगे, क्योंकि एक दिन और तुमने जी लिया, आदतें और मजबूत हो गईं।

मैंने सुना है, महामहिम मटकानाथ ब्रह्मचारी, मुल्ला नसरुद्दीन, ढ़ब्‍बू जी और चंदूलाल एक बार चारों जुआ खेलते पकड़े गए। छापा मारने वाला पुलिस अफसर खुशी से फूला न समाया। चारों से उसने कहा कि चलो थाने, आज तुम्हें मजा चखाएं! वे चारों मजे से साथ हो लिए।

एक चौराहे पर पहुंच कर मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा माई—बाप, आधी फर्लांग की दूरी पर ही बढ़िया चाय—पान की दुकान है। कल हमें सजा हो जाएगी, फिर पता नहीं वह बढ़िया चाय पीने को हमें मिले या न मिले! और वे मीठे और जायकेदार पान फिर खाने को मिलें या न मिलें! यदि आप आज्ञा दें तो हम चारों जाकर आखिरी बार चाय—पान कर आएं, साथ में आपके लिए भी लेते आएंगे।

विचार तो बढ़िया है—पुलिस अफसर बोला—जाओ, जल्दी से वापस आना और मेरे लिए पान जरा बढ़िया लगवा कर लाना।

वे चारों गए सो गए। बेचारा पुलिस अफसर दों—तीन घंटे तक उनके लौटने की राह देखता रहा। एक वर्ष बाद दीवाली के दिन फिर वही घटना घटी। चारों के चार फिर जुआ खेलते पकड़े गए। पुलिस अफसर बोला बच्चू अब न छोडूंगा। बुरे फंसे हो इस बार। पिछली बार तो धोखा देकर निकल गए थे, अब चलो थाने, तुम्हें अच्छा मजा चखाता हूं।

चारों फिल्मी गाने की धुन गुनगुनाते हुए फिर साथ हो लिए। फिर रास्ते में वही चौराहा पड़ा। और नसरुद्दीन ने फिर वही पुरानी बात दोहराई. माई—बाप, जैसा कि आपको पता ही है, पास ही चाय—पान की दुकान है, यदि आज्ञा दें तो हम लोग जाते—जाते एक बार चाय—पान कर आएं और आपके लिए भी श्रेष्ठतम पान लगवा लाएंगे।

पुलिस अफसर तो क्रोध से लाल होकर बोला, चालबाजो, मैं तुम्हारी एक—एक चालबाजी से अच्छी तरह परिचित हूं। मुझसे फिर वही चालाकी करने की कोशिश! बदमाशो, क्या तुम सोचते हो कि मैं निरा मूर्ख हूं? अरे लोमड़ी की औलादो, मैंने भी घाट—घाट का पानी पीया है। बाल धूप में नहीं पकाए। तुम सब यहीं रुको, मैं खुद जाता हूं तुम्हारे लिए पान लेकर आता हूं।

तुम तो तुम्हीं हो! इधर से नहीं उधर से, भूल तुम वही करोगे। इस जन्म में जो की है वही अगले जन्म में करोगे, वही और अगले जन्म में करोगे।

ऐसे नहीं चलेगा। इस बात को तीर की तरह भीतर चुभ जाने दो—

जो दिन आवहि सो दिन जाही। करना कूच रहन थिरू नाही।।

संगु चलत है हम भी चलना।

खयाल रखना, जब भी किसी अरथी को निकलते देखो तो स्मरण रखना— संगु चलत है हम भी चलना। अरथी को तो पहुंचाने जाते हो मरघट तक, उतनी दूर तक संग जाते हो वह तो ठीक; यह भी याद रखना कि हमें भी चलना है देर— अबेर?

एक भ्रांति है मनुष्य के मन में कि सदा दूसरे लोग मरते हैं। और एक तरह से बात जंचती भी है क्योंकि तुम तो अभी तक मरे नहीं। तुम दूसरों को मरघट पहुंचा आते हो, फिर घर आ जाते हो। तुम सोचते हो कि मैं तो सिर्फ काम लोगों को मरघट पहुंचाने का करता हूं मैं थोड़े ही मरता हूं। मगर जिनको तुम पहुंचा आते हो वे भी ऐसा ही सोचते रहे। वे भी पहुंचाते रहे। एक दिन दूसरे लोग तुम्हें पहुंचा आएंगे और यही सोचते हुए घर लौट जाएंगे कि बेचारा मर गया! यह खयाल ही नहीं आता कि मैं भी बेचारा हूं मुझे भी मरना है!

अंग्रेजी में प्रसिद्ध कहावत है कि जब चर्च की घंटियां बजे— क्योंकि गांव में जब कोई मर जाता है यूरोप में तो चर्च की घंटियां बजती हैं ताकि गांव भर को खबर हो जाए— कि जब चर्च की घंटियां बजे तो यह पूछने मत भेजना कि कौन मर गया है, जानना कि तुम्हीं मर गए।

यह कहावत प्रीतिपूर्ण है, अर्थपूर्ण है, गहन है, गहरी है, इसमें डुबकी मारो। जब चर्च की घंटियां बजे तो यह पूछने मत भेजना कि कौन मर गया। जब रास्ते से अरथी निकले तो यह पूछने मत भेजना कि कौन मर गया। जानना कि तुम्हीं मरे। ये सब तुम्हारी ही शक्लें हैं। मगर लोग तो अदभुत हैं।

एक सुबह—सुबह अरथी निकली। सर्दी के दिन। मुल्ला नसरुद्दीन अपने आगन में सूरज की तरफ मुंह किए धूप ले रहा है। उसकी पत्नी ने कहा नसरुद्दीन, कोई मर गया। और जो मर गया है, मालूम होता है कुछ खास आदमी रहा होगा, क्योंकि अरथी में बहुत लोग हैं। रास्ते से अरथी गुजर रही है।

नसरुद्दीन ने कहा बड़े बेवक्त मरा और बड़े बेवक्त अरथी गुजर रही है। अभी मैं उस तरफ मुंह नहीं किए हूं अभी मैं धूप ले रहा हूं। तू ही देख ले और हाल—चाल मुझे बता देना।

आदमी पीठ तक बदलने को राजी नहीं है कि लौट कर देख ले, तो क्या खाक स्मरण करेगा कि यह मृत्यु मेरी मृत्यु है! हर मृत्यु तुम्हारी मृत्यु है! मनुष्यों की ही नहीं, पीला पत्ता जब वृक्ष से गिरता है तो याद करना कि तुम गिरे। फूल जब सांझ को कुम्हला जाए और झर जाए, उसकी पंखुड़ियां धूल में पड़ जाएं, तो जानना कि तुम धूल में पड़े हो। जब पैरों के नीचे उसकी पंखुड़ियां दब जाएं, कुचल जाएं, तो जानना कि तुम कुचले गए हो।

ऐसा जब तुम समझने लगोगे, ऐसा जब तुम्हारे भीतर प्रगाढ़ भाव हो जाएगा, तो धर्म की क्रांति होती है, अन्यथा नहीं। मंदिर—मस्जिदों में जाने से नहीं। ये सब खेल—खिलौने हैं।

संगु चलत है हम भी चलना।

पहुंचा आना अरथी को मरघट तक, मगर कह आना कि हम भी आते हैं। देर— अबेर आना ही है।

दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना।।

थोड़ी देर सही। थोड़ा और चलेंगे जिंदगी में, मगर सिर पर मौत लटकी हुई है, उससे बचा नहीं जा सकता। कितने ही तेजी से भागों, मौत से बचने का कोई उपाय नहीं है।

एक सूफी फकीर के शिष्य ने सपना देखा कि रात मौत ने उसके कंधे पर हाथ रखा। नींद में भी घबड़ा गया। पूछा कि क्या बात है, किसलिए मेरे कंधे पर हाथ रख रही हो? तो मौत ने कहा कि मैं तुझे बताने आई हूं कि आज संध्या सूरज के डूबने के साथ मैं आ रही हूं। चूंकि तू इस बड़े फकीर का शिष्य है, तेरे लिए यह विशेष छूट कि तुझे मैंने पहले से खबर दे दी। नियम नहीं है यह खबर देने का, अचानक आना ही नियम है, अनायास पकड़ लेना ही नियम है। क्योंकि खबर दे दो तो लोग बचें, भागें, इंतजाम करें। मगर तू इस बड़े फकीर का शिष्य है, तुझ पर दया करके मैं कह देती हूं कुछ करना हो तो कर ले। ज्यादा देर नहीं बची है।

आधी रात ही उसकी नींद खुल गई, घबड़ा गया बहुत। फकीर से पूछा कि मैं क्या करूं? फकीर ने कहा अब करने को और क्या है! अब तो एक ही उपाय है कि ले मेरा घोड़ा और जितने दूर निकल जा सके निकल जा। इस जगह रुकना अब एक क्षण ठीक नहीं।

फकीर मजाक कर रहा था। मगर शिष्य मजाक को समझ न सका। उसने तो ले लिया घोड़ा और भागा। जी—जान छोड़ कर भागा। रास्ते में पानी पीने तक को नहीं रुका। भागता ही गया, भागता ही गया। मीलों भागने के बाद सांझ होते—होते दमिश्क शहर के बाहर जाकर एक आम की बगिया में ठहरा। बड़ा प्रसन्न था कि इतने दूर निकल आया, अब मौत वहां खोजती फिरेगी! अपनी ही पीठ ठोंकी। अपनी ही नहीं ठोकी, फिर घोड़े की भी पीठ ठोकी। और घोड़े से कहा कि तू भी दमदार है, क्योंकि उसको भी न दिन भर चारा मिला न पानी मिला। और कहा तेरी चाल भी तेज है। हो भी क्यों न, है मेरे गुरु का घोड़ा! तूने मुझे बचा लिया। सूरज ढल रहा है, हम इतने दूर निकल आए। अब कहां मौत पता लगाएगी!

यह बात ही वह घोड़े से कर रहा था, और तो कोई था भी नहीं वहां। मगर बात करनी ही थी तो घोड़े से ही कर रहा था। तभी वह हाथ, जो रात सपने में उसके कंधे पर पड़ा था, फिर उसके कंधे पर पड़ा। घबड़ा कर देखा, पीछे मौत खड़ी है। मौत खिलखिला कर हंस रही है। उसने कहा : धन्यवाद तो घोड़े को मैं भी दूंगी कि ठीक वक्त पर ठीक जगह ले आया। यही वह वृक्ष है जिसके नीचे तुम्हें मरना है। असल में रात मुझे इसीलिए आना पड़ा, मैं बहुत चिंतित थी कि तुम इस वृक्ष तक बारह घंटे में कैसे पहुंचोगे? इसलिए तुम्हें पूर्व से सूचना देनी पड़ी। क्योंकि जब तक तुम यहां न पहुंच जाओ तब तक मैं नहीं आ सकती। घोड़ा दमदार है और तुम भी आदमी हिम्मत के हो। मैं तक चिंतित थी, कि शक था मुझे कि तुम पहुंच पाओगे सांझ होते—होते, मगर तुम पहुंच गए और मैं आ गई। यही जगह है जहां तुम्हें मरना है। कहां भागोगे? कितने ही तेज घोड़ों को ले लो, हवाई जहाज पर सवार हो जाओ, कहां भागोगे? मौत से नहीं भाग पाओगे।

दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना।।

कितनी ही दूर निकल जाओ, मगर ध्यान रखना कि मौत सदा सिर पर है। जहां भी होओगे वहीं मरोगे। मृत्यु तो होनी ही है।

क्‍या तू सोया जाब अयाना।

मृत्यु जैसी घटना घेरे हुए है और फिर भी तुम कैसे अज्ञानी हो कि सो रहे हो! जागो!

यह सूफी फकीर का शिष्य नहीं पूछा गुरु से कि अभी बारह घंटे बचे हैं, अमृत का स्वाद चखा दो। जिंदगी तो गई ही गई, सांझ मौत आएगी सो आएगी, बड़ी कृपा है कि पहले खबर दे दी उसने। अब तक तो ध्यान नहीं हुआ, अब सारी शक्ति लगा देता हूं बारह घंटों में, क्योंकि अब बचाने को भी क्या है! अब दांव पर सब लगा देता हूं।

यह नहीं पूछा। यह पूछा कि अब क्या करूं, मौत से कैसे बचूं? गुरु ने तो मजाक किया था कि तू घोड़ा ले ले और निकल भाग। लेकिन अगर शिष्य में थोड़ी भी समझ होती तो वह कहता, घोड़ा मुझे कहां ले जाएगा? मौत का जाल बड़ा है, सारे जगत को घेरे हुए है, वह कहीं भी मुझे पकड़ लेगी। आप मुझे इस तरह धोखा न दें। घोड़ा क्या खाक मुझे बचाएगा, घोड़े की भी मौत होने वाली है। यह देह तो गई अब तो मुझे कुछ शाश्वत को पाने का रास्ता दें।

ध्यान के लिए पूछा होता, परमात्मा के लिए पूछा होता! लेकिन लोग वह नहीं पूछते।

चार आदमी बात कर रहे थे। एक ने कहा कि अगर पता चल जाए, डाक्टर तुम्हारा कह दे कि बस अब तीन महीने से ज्यादा नहीं बचोगे तो तुम क्या करोगे? जहां तक मेरी बात है— उसने कहा— कि अगर मुझे डाक्टर कह दे कि तीन महीने से ज्यादा मैं नहीं बचूँगा तो मैं सब धंधा—वंदा बेच कर दुनिया के चक्कर पर निकल जाऊंगा; वह मेरी दिली आकांक्षा है कि सारी दुनिया देख डालूं— ताजमहल, और खजुराहो और कोणार्क, और बोरोबूदर। दुनिया पड़ी है! हिमालय, और आल्फ, और स्विटजरलैंड, और कश्मीर। देखा नहीं, जिंदगी भर धंधे में ही पड़ा रहा, यह दुकान पर ही बैठा रहा। अगर मेरा डाक्टर मुझसे कह दे कि तीन महीने बचे हैं, सब दुकान बेच कर बाल—बच्चों को नमस्कार करके मैं तो दुनिया के चक्कर पर निकल जाऊंगा।

दूसरे ने कहा कि अगर मुझे पता चल जाए कि तीन महीने ही बचूंगा तो पहला काम तो मैं यह करूंगा कि पत्नी को तलाक दूंगा, जो कि मैं जिंदगी भर से सोच रहा हूं। और फिर जितनी स्त्रियां मिल सकती हैं भोग ही लूंगा। फिर जो भी खर्चा हो जाए, फिर हर रात एक नई स्त्री को ले आऊंगा। जब तीन ही महीने बचे तो अब क्या लोक—लज्जा, अब क्या नीति—अनीति! अब मौत ही आ रही है तो कौन फिकर करे!

तीसरे ने कहा, अगर मेरा डाक्टर मुझसे कह दे कि तीन महीने ही बचे हैं तो मैं सब बेच—बाच कर बस शराब पीकर पड़ा रहूंगा। मस्ती। तीन महीने ही बचे तो फिर कमी नहीं करूंगा, फिर फिकर नहीं करूंगा कि शराब से बीमारी होती है, शराब से यह होता है वह होता है। फिर ये बेवकूफी की बातें छोड़ दूंगा। मौत ही आ रही है, तो फिर तो पीए ही पड़ा रहूंगा; जैसे ही होश आएगा फिर पी लूंगा; जैसे ही होश आएगा फिर पी लूंगा।

चौथा था एक यहूदी; या समझो कि मारवाड़ी। उसने कहा. अगर मेरा डॉक्टर मुझसे कहे कि तीन महीने ही बचे हैं तो मैं दूसरे डॉक्टर के पास जाकर सलाह लूंगा। इतनी आसानी से मरने वाला नहीं हूं। मगर चारों में से एक ने भी मतलब की बात न कही, बेमतलब बातें। चलो तीन महीने नहीं छह महीने जी लोगे, तब भी क्या फर्क पड़ता है? समय की मात्रा बढ़ जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता, तुम्हारी चेतना का गुण बदलना चाहिए।

इसलिए कहते हैं रैदास

तै जीवन जगि सचु करि जाना।।

तुम्हारी चेतना का गुण बदलना चाहिए—सोने से जागने की तरफ यात्रा होनी चाहिए।

अपनी हालत का खुद अहसास नहीं है मुझको

मैंने औरों से सुना है कि परेशान हूं मैं

ऐसी हमारी बेहोशी है! हमें अपनी हालत का खुद ही पता नहीं हैं। औरों से सुना है कि परेशान हूं मैं! लोग कहते हैं कि तुम सोए हो। तुम्हें पता नहीं कि तुम सोए हो। आते हैं बुद्ध और चिल्लाते हैं तुम्हारे कानों में कि तुम सोए हो, लेकिन तुम नींद में भी जागने का सपना देख रहे हो। तुम हर तरह से बचने की कोशिश में संलग्न हो— नींद न टूटे, नींद बनी रहे। तुमने नींद में इतने न्यस्त स्वार्थ जोड़ दिए हैं, तुमने इतने मीठे—मधुर सपने सजा लिए हैं कि तुम्हें डर लगता है कि कहीं सच में ही यह नींद न हो। नहीं तो इस महल का क्या होगा— सोने का महल जो मैंने बनाया! ये जो अप्सराएं उतरी हैं, इनका क्या होगा!

क्‍या तू सोया जाब अयाना। तै जीवन जगि सचु करि जाना।।

क्योंकि जो जागे हैं उन्होंने ही जीवन के सत्य को जाना है। उन्होंने ही जीवन को सत्य कर लिया है। बाकी सब का जीवन तो असत्य है।

मुझे अहसास कम था वरना दौरे—जिंदगानी में

मेरी हर सांस के हमराह मुझमें इंकलाब आया

होश कम था, नहीं तो हर श्वास के साथ क्रांति आ रही थी, जा रही थी।

मुझे अहसास कम था…….

चेतना कम थी, चैतन्य कम था, जागृति कम थी।

मुझे अहसास कम था वरना दौरे—जिंदगानी में

मेरी हर सांस के हमराह मुझमें इंकलाब आया

हर श्वास के साथ क्रांति घट सकती थी। इसलिए बुद्ध ने तो श्वास के ऊपर निरीक्षण करने पर बहुत जोर दिया है, विपस्सना उसी विधि का नाम है। आती श्वास को देखो, जाती श्वास को देखो। देखते—देखते आती—जाती श्वास को, तुम जाग जाओगे। क्योंकि श्वास तुम्हें जोड़े है शरीर से। जब तुम श्वास को देखोगे तो तुम अचानक पाओगे, तुम श्वास से भिन्न हो, तुम द्रष्टा हो। और जिसने जान लिया कि मैं श्वास से भिन्न हूं उसने जान लिया कि मैं शरीर से भिन्न हूं। क्योंकि शरीर से जोड्ने वाली गांठ श्वास है। अगर मैं श्वास से ही भिन्न हूं तो श्वास ने जिस शरीर से जोड़ दिया है उससे तो मैं भिन्न हूं ही। इसमें फिर कोई संदेह नहीं रह जाता।

मुझे अहसास कम था वरना दौरे—जिंदगानी में

मेरी हर सांस के हमराह मुझमें इंकलाब आया

प्रतिपल क्रांति तुम्हारी श्वास के साथ आ रही है, जा रही है— जरा अहसास बढ़ाओ, जरा चैतन्य जगाओ, जरा जागो।

ध्यान की सारी विधियां जागरण की विधियां हैं। कैसे भी हो, जागना है। कोई अलार्म लगा कर जाग जाता है, कोई पड़ोसी से कह देता है द्वार पर दस्तक दे देना। कोई अपनी पत्नी से कह देता है कि आख पर ठंडे पानी के छींटे मार देना। और कोई जिसे पता है, समझ है थोड़ी, अपने से ही कह कर सो जाता है; अगर नाम उसका राम है तो कहता है— राम, मुझे ठीक पांच बजे उठा देना! और तुम चकित होओगे कि ठीक पांच बजे नींद खुल जाएगी। अगर तुम समग्र भाव से यह विचार करके सो गए हो कि पांच बजे मुझे उठा देना, तो ठीक पांच बजे तुम्हारी नींद खुल जाएगी, क्योंकि तुम्हारे शरीर के भीतर भी एक घड़ी है जो काम कर रही है।

अब तो वैज्ञानिक शरीर की इस घड़ी से राजी हो गए हैं। तभी तो तुम्हें ठीक वक्त पर भूख लग आती है, और ठीक समय पर नींद आ जाती है, और ठीक समय पर नींद खुल जाती है। अगर जरा देर हो जाए तो पेट कुडबुडाने लगता है, वह शरीर की घड़ी कहने लगती है कि अब बहुत देर हुई जा रही है। अगर जरा देर हो जाए तो आंखों में झपकी आने लगती है। शरीर कहता है, समय हो गया, अब बिस्तर लो। ज्यादा देर बिस्तर पर पड़े रहो, नींद खुलने का समय हो गया हो, तो सिर भारी हो जाता है। फिर दिन भर सुस्ती पकड़े रहती है।

शरीर की एक घड़ी है। चौबीस घंटे शरीर की घड़ी काम कर रही है। अगर थोड़ा होश हो तो तुम अपने से ही कह कर सो जा सकते हो, वही जागरण हो जाएगा।

लेकिन अगर इतना होश न हो तो किसी गुरु को खोजो कि तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे दे। किसी ऐसे गुरु को खोजो कि दस्तक देकर ही न लौट जाए; अगर न उठो तो सिर पर डंडा भी मारे। अगर छीना— झपटी भी करना पड़े तो करे, मगर खींच कर बिस्तर के बाहर निकाल ले। लेकिन जागना तो होगा, अन्यथा जीवन व्यर्थ जा रहा है। प्रतिपल हाथ से तुम गंवा रहे हो एक परम संपदा।

और कैसे—कैसे धोखे आदमी अपने को दे लेता है! पहला तो सबसे बड़ा धोखा यह है कि आदमी सोचता है, मैं जागा ही हुआ हूं। यह सबसे बड़ा धोखा है। अब और क्या जागना है! आख खुली है, दुनिया को देख रहा हूं। चलता हूं उठता हूं बैठता हूं सड़क से गुजरता हूं घर आता हूं दफ्तर जाता हूं हर किसी से टकरा नहीं जाता— तो जागा ही हुआ हूं। यह सबसे बड़ा धोखा है, क्योंकि जिसने मान लिया मैं जागा ही हुआ हूं अब वह जागने का कोई उपाय न करेगा।

गुरजिएफ कहता था एक कहानी बार—बार कि एक जादूगर के पास बहुत सी भेड़ें थीं। और उसने पाल रखा था भेड़ों को भोजन के लिए। रोज एक भेड़ काटी जाती थी, बाकी भेड़ें देखती थीं, उनकी छाती थर्रा जाती थी। उनको खयाल आता था कि आज नहीं कल हम भी काटे जाएंगे। उनमें जो कुछ होशियार थीं, वे भागने की कोशिश भी करती थीं। जंगल में दूर निकल जाती। जादूगर को उनको खोज—खोज कर लाना पड़ता। यह रोज की झंझट हो गई थी। और न वे केवल खुद भाग जातीं, और भेड़ों को भी समझातीं कि भागो, अपनी नौबत भी आने की है। कब हमारी बारी आ जाएगी पता नहीं! यह आदमी नहीं है, यह मौत है! इसका छुरा देखते हो, एक ही झटके में गर्दन अलग कर देता है!

आखिर जादूगर ने एक तरकीब खोजी, उसने सारी भेड़ों को बेहोश कर दिया और उनसे कहा, पहली तो बात यह कि तुम भेड़ हो ही नहीं। जो कटती हैं वह भेड़ है, तुम भेड़ नहीं हो। तुममें से कुछ सिंह हैं, कुछ शेर हैं, कुछ चीते हैं, कुछ भेड़िए हैं। तुममें से कुछ तो मनुष्य भी हैं। यही नहीं, तुममें से कुछ तो जादूगर भी हैं।

सम्मोहित भेड़ों को यह भरोसा आ गया। उस दिन से बड़ा आराम हो गया जादूगर को। वह जिस भेड़ को काटता, बाकी भेड़ें हंसती कि बेचारी भेड़! क्योंकि कोई भेड़ समझती कि मैं मनुष्य हूं! और कोई भेड़ समझती कि मैं तो खुद ही जादूगर हूं मुझको कौन काटने वाला है! कोई भेड़ समझती मैं सिंह हूं ऐसा झपट्टा मारूंगी काटने वाले पर कि छठी का दूध याद आ जाएगा। मुझे कौन काट सकता है? यह बेचारी भेड़ है, रें—रें करके काटी जा रही है! और यह भेड़ भी कल तक यही सोचती रही थी जब दूसरी भेड़ें कट रही थीं कि मैं सिंह हूं कि मैं मनुष्य हूं कि मैं जादूगर हूं, कि मैं यह हूं कि मैं वह हूं। उस दिन से भेड़ों ने भागना बंद कर दिया।

गुरजिएफ कहता था आदमी करीब—करीब ऐसी हालत में है। तुम सोए हो, गहन निद्रा में सोए हो।

आध्यात्मिक अर्थों में सोने का अर्थ समझ लेना। सोने का अर्थ यह नहीं होता कि जब तुम रात को बिस्तर पर आख बंद करके सोते हो तभी सोते हो। वह शारीरिक निद्रा है। आध्यात्मिक निद्रा का अर्थ होता है, जिसको स्वयं का पता नहीं हैं वह सोया है।

महावीर से किसी ने पूछा है मुनि की क्या परिभाषा? तो मुनि की परिभाषा में महावीर ने कहा असुत्ता मुनि। जो सोया नहीं है वह मुनि। और फिर उसने पूछा कि अमुनि की क्या परिभाषा? तो महावीर ने कहा सुत्ता अमुनि। जो सोया है वह अमुनि।

प्यारी परिभाषा की। इसमें जैन धर्म कहीं आया ही नहीं। असल में महावीर जैसे व्यक्तियों के पास जैन, बौद्ध, ईसाई जैसी बातें नहीं आतीं, होती ही नहीं।

किसी जैन मुनि से पूछो कि मुनि यानी कौन? तो अगर वह मुंह—पट्टी वाला है तो पहले तो कहेगा— जो मुंह पर पट्टी बांधता हो। अगर वह दिगंबर है तो कहेगा— जो नग्न हो, जो एकाहारी हो, जो भिक्षा मांग कर लाता हो, जो तीन वस्त्रों से ज्यादा पास न रखता हो। श्वेतांबर है तो— जो सफेद कपड़े पहनता हो। इस तरह की परिभाषाएं करेंगे ये लोग। महावीर की परिभाषा इनसे न हो सकेगी। ये खुद ही जागे नहीं हैं, ये क्या खाक कहेंगे— असुत्ता मुनि— कि जिसकी नींद टूट गई है वह मुनि; और जो अभी भी सो रहा है वह अमुनि। फिर चाहे तुम नंगे ही क्यों न सो रहे हो, इससे क्या फर्क पड़ता है! इसका मतलब हुआ कि दिगंबर सो रहे हो।

बहुत से लोग सोते हैं नंगे। पश्चिम में तो सारे लोग नंगे ही सोते हैं। इधर शायद भारत को छोड़ कर दुनिया में कोई कौम नहीं है जो नंगी न सोती हो। क्योंकि कपड़े पहने सोना, यह भी कोई सोना है! पजामा बंधा है जोर से, धोती बंधी है। वह तो तुम बड़ी कृपा करते हो कि टोपी और जूते उतार देते हो। और स्त्रियां बांधे हुए हैं कपड़ों पर कपड़े और सो रही हैं। शरीर को विश्राम तक नहीं लेने देते।

तो कोई दिगंबर हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। नंगा सो रहा है। कोई कपड़ों में सो रहा है। कोई सफेद कपड़ों में सो रहा है— श्वेतांबर। कोई मुंह पर पट्टी बांध कर सो रहा है। पता नहीं किसको धोखा दिया जा रहा है! इतने सस्ते अगर कोई मुनि हो सकते होते तो दुनिया मुनियों से भर गई होती। इतनी आसानी से कोई मुनि नहीं होता।

मुनि की परिभाषा महावीर की ठीक है जागो! फिर जागने का क्या अर्थ लें? तुम्हें और सब तो दिखाई पड़ता है, सिर्फ तुम ही नहीं दिखाई पड़ते। देखने वाला भर दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए जागने की परिभाषा है देखने वाले को जो देख ले; जो स्वयं को पहचान ले, जो अंतर्मुखी हो जाए।

दूसरों को देख रहे हो और सोच रहे हो कि तुम जागे हो। वे तुम्हें देख रहे हैं और सोच रहे हैं कि जागे हैं। न उन्हें उनका पता है, न तुम्हें अपना पता है। कोई अगर पूछता है, आप कौन? तो जल्दी से नाम बता दिया, जाति बता दी, देश बता दिया, पासपोर्ट निकाल कर बता दिया, आइडेंटिटी कॉर्ड बता दिया। ये तुम कोई भी नहीं हो। ये सब सांयोगिक बातें हैं कि तुम भारत में पैदा हुए। पाकिस्तान में हो सकते थे, चीन में हो सकते थे। यह सांयोगिक बात है कि तुम्हारे मां—बाप ने तुम्हारा नाम राम रख दिया; तुम्हारा नाम कृष्ण हो सकता था।

एक हिंदू को मैं जानता हूं उनका नाम है रामप्रसाद, था कहना चाहिए। फिर वे मुसलमान हो गए, उनका नाम हो गया— खुदाबख्या। वे मुझसे मिलने आए। मैंने पूछा : कहो रामप्रसाद कैसे हो? उन्होंने कहा. रामप्रसाद अब मेरा नाम नहीं मैं मुसलमान हो गया। बहुत दिन रह लिया शूद्र हिंदुओं में, बरदाश्त के बाहर हो गया। बहुत अत्याचार हुआ मेरे ऊपर।

तो मैंने कहा अब तुम्हारा नाम? उन्होंने कहा खुदाबख्या। मैंने कहा : बड़ी हैरानी की बात है। खुदाबख्या का वही मतलब होता है जो रामप्रसाद का। राम का प्रसाद कहो या खुदा की बख्याशि कहो, एक ही बात है। क्या खाक बदले तुम भी— रामप्रसाद से बदले तो खुदाबख्या हो गए! कुएं से निकले तो खाई में गिर गए।

नाम बदलने से क्या होगा? नाम तुम हो ही नहीं, तो कितना ही बदल लो। न तुम नाम हो, न तुम जाति हो, न तुम वर्ण हो, न तुम धर्म हो। मंदिर जाओ कि मस्जिद, अगर सोए हो तो सोए—सोए मंदिर जाओगे, सोए—सोए मस्जिद जाओगे। सवाल जागने का है। तुम्हें पता ही नहीं कि तुम कौन हो। लेकिन धोखा दे दिया गया है। नाम पकड़ा दिया तो तुम सोचते हो कि यही नाम मैं हूं। उसी नाम को लेकर जिंदगी भर गुजार लोगे। कभी सोचोगे भी कि नहीं, नाम मैं कैसे हो सकता हूं?

अनाम पैदा होते हैं सभी बच्चे। किसी बच्चे से तो पूछो पैदा होते से ही कि भई तेरा नाम? कहां से आ रहे हो? कौन हो? जाति? वह चुप ही रहेगा। उसको नाम, जाति, धर्म इत्यादि सीखने में दों—चार साल लग जाएंगे।

तुमने एक मजे की बात देखी—छोटे—छोटे बच्चे शुरू—शुरू में एक बड़े महत्व की बात कहते हैं। जैसे तुमने बच्चे का नाम मुन्ना रख दिया, तो जब बच्चे को भूख लगती है तो वह कहता है, मुन्ना को भूख लगी है। यही बड़ी महत्वपूर्ण बात है। अभी उसका तादात्म्य नहीं हुआ है मुन्ना से। अभी वह मुन्ना को अलग मानता है। वह कहता है, मुन्ना को भूख लगी है। वह यह नहीं कहता, मुझे भूख लगी है। अभी मैं और मुन्ना में भेद है। धीरे— धीरे भेद मिट जाएगा। जब भी मुन्ना को भूख लगेगी बाद में, तब तक वह मुन्नालाल हो जाएगा, तो वह कहेगा, मुझे भूख लगी है। लेकिन सच यह है कि बच्चा ज्यादा ठीक कह रहा था कि मुन्ना को भूख लगी। मैं तो देखने वाला हूं कि मुन्ना को भूख लगी।

स्वामी राम ऐसे ही बोलने लगे थे। वे यह नहीं कहते थे, मुझे प्यास लगी है, वे कहते थे, राम को प्यास लगी है, राम को भूख लगी है। एक जगह अमरीका में कुछ लोगों ने उन्हें बहुत गालियां दीं, अपमान किया। वे खड़े हंसते रहे। एक आदमी ने पूछा कि आप हंस क्यों रहे हैं? आपकी समझ में नहीं आ रहा, हम गाली दे रहे हैं?

उन्होंने कहा राम को तुम जितनी चाहो गाली दो, मेरा क्या लेना—देना? मेरा कोई नाम ही नहीं है। अनाम पैदा हुआ, अनाम हूं अनाम जाऊंगा। राम से अपना लेना—देना क्या है? तुम दे रहे हो गाली, मैं मस्त हो रहा हूं। मैं देख रहा हूं कि अजीब हैं ये लोग भी, किसको गाली दे रहे हैं जो है ही नहीं! किस राम की बात चल रही है? तुम मुझे गाली दे ही नहीं सकते, क्योंकि तुम्हें मेरा नाम ही पता नहीं है। तुम मेरा अपमान नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हें मेरा नाम ही पता नहीं है। तुम मेरे मुंह पर भी अगर कालिख पोत दो तो वह मुझ पर नहीं लगेगी, क्योंकि मैं शरीर नहीं हूं। मेरा अंतर्तम तो वैसा ही उज्जवल रहेगा, वैसा ही स्वच्छ। तुम्हारे हाथ ही खराब होंगे। अब तुम अपनी जबान ही खराब कर रहे हो गालियां देकर। मैं देख रहा हूं कि बेचारे कितनी मेहनत कर रहे हैं, किसको गाली दे रहे हैं—जो है ही नहीं, जो केवल एक कल्पनामात्र है!

नाम सब कल्पित हैं। मगर हम कल्पनाओं को अपना मान लेते हैं। हमारा जागना कल्पित है। और इस कल्पना में ही हम भटक लेते हैं और इसी कल्पना में जीते जी मर जाते हैं।

क्‍या तू सोया जाब अयाना। तै जीवन जगि सचु करि जाना।।

जो जागा उसने ही जीवन के सत्य को जाना है।

जिनि दिया सु रिजकु अंबराबै।

जीवन मिला है और तुम केवल जीविका ही जुटा रहे हो! जीवन बस जीविका जुटाने में बिता दोगे? रोटी—रोजी—कपड़ा—मकान.. और मैं नहीं कहता कि यह जरूरी नहीं है। रोटी भी जरूरी है, कपड़ा भी जरूरी है, मकान भी जरूरी है; मगर और भी जरूरतें हैं, इससे भी बड़ी जरूरतें हैं। ये सीढ़ियां हैं, इनका उपयोग कर लो, लेकिन मंदिर को मत भूल जाना! जीविका कमा लेना जीवन नहीं है। जीविका तो शरीर के लिए जरूरी है और जीवन तो आत्मा का होता है।

सब घट भीतरि हाटु चलावै।।

जरा उसको तो देखो जो सबके घटों के भीतर श्वास को चला रहा है, जीवन को चला रहा है। उस चलाने वाले को पहचानो, कि बाहर ही उलझे रहोगे?

युद्ध के समय सेना में जबरदस्ती लोगों को भर्ती किया जा रहा था। उन्हीं लोगों में मुल्ला नसरुद्दीन को भी पकड़ लाया गया था। मुल्ला को सभी परीक्षणों से गुजारा गया और उसने सभी परीक्षणों से बचने की कोशिश की। गलत—सही जवाब दिए, उलटे—सीधे उत्तर लिखे, मगर फिर भी उसे खरा साबित कर दिया गया। उन्हें तो भर्ती करना ही था। मुल्ला परेशान था, क्योंकि वह सेना में भर्ती नहीं होना चाहता था। अंतिम परीक्षण नेत्र—परीक्षण था। मुल्ला को एक बड़े बोर्ड के समक्ष ले जाया गया, जिस पर वर्णमाला के अनेक अक्षर, अनेक चिह्न, अनेक प्रकार के निशान बने हुए थे।

अच्छा यह तो बताओ जरा नसरुद्दीन कि यह कौन सा अक्षर है? चुनाव अधिकारी ने एक अक्षर की ओर इशारा करते हुए नसरुद्दीन से पूछा। मुल्ला ने इनकार में सिर हिलाते हुए कहा महोदय, मुझे कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा कि वह क्या है। अधिकारी ने पूछा कि तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है अक्षर? मुल्ला ने कहा अक्षर! मुझे बोर्ड नहीं दिखाई पड़ रहा। अधिकारी ने बड़े बोर्ड बुलवाए। बड़े— बड़े अक्षरों वाले बोर्ड। मगर वह हमेशा यही कहे, मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा— कहां बोर्ड है? कहां अक्षर है?

हार कर अधिकारियों ने… कुछ सूझा नहीं तो अंततः एक थाली बुलवाई और चिढ़ कर मुल्ला से पूछा, नसरुद्दीन! हाथ में रखो, देखो इसको, अब तो बता दो कि यह क्या है? या कि इसे भी नहीं पहचानते? नसरुद्दीन ने गौर से देखा थाली को और कहा. अरे, यह मेरी अठन्नी कहां मिली आपको! इसे मैं तीन दिन से खोज रहा हूं।

सिर ठोक लिया अधिकारियों ने— कहा, ठीक है। छुट्टी पाई वहां से। नसरुद्दीन बाहर निकला प्रसन्नता में, पास ही जाकर एक मेटिनी शो में बैठ गया। जब इंटरवल हुआ और प्रकाश हुआ तो वह देख कर चकित हुआ कि बगल में वही अधिकारी बैठा हुआ है। उसके तो प्राण निकल गए! इसके पहले कि अधिकारी कुछ कहे— कि तुम्हें थाली अठन्नी दिखाई पड़ती थी और इतने दूर बैठ कर तुम्हें फिल्म मजे से दिखाई पड़ रही है; और बोर्ड तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता था, अक्षर की तो बात ही क्या थी— इसके पहले कि अधिकारी कुछ कहे, अधिकारी कहने ही कहने को था कि नसरुद्दीन ने कहा कि महोदय, यह बस कहां जा रही है?

धोखा ही देने पर तुले हो तो बात दूसरी है। और दूसरों को दे रहे होते धोखा तो भी ठीक था अपने को ही दे रहे हो, और दिए चले जाते हो। रोज—रोज नये—नये धोखे ईजाद करने पड़ते हैं, क्योंकि पुराने धोखे बासी पड़ जाते हैं। एक पत्नी से ऊब गए तो दूसरी स्त्री में रस लेने लगते हो। एक पति से ऊब गए तो दूसरे पुरुष में रस लेने लगते हो। एक भोजन से ऊब गए तो दूसरा भोजन, एक मकान से ऊब गए तो दूसरा खरीदने का सोचने लगते हो।

एक धोखा टूट नहीं पाता कि तुम नये धोखे खड़े कर लेते हो। अगर धोखा देना ही तय कर रखा है, तब तो बात और है। मगर तब खयाल रखना, यह धोखे की आदत जन्मों—जन्मों तक भटकाएगी सडाएगी, गलाकी।

जिनि दिया सु रिजकु अंबराबै। सब घट भीतरि हाटु चलावै।।

उस मालिक को पहचानो, जो सब घटों के घट में विराजमान है।

करि बंदिगी छांडि मैं मेरा।

रैदास कहते हैं मैंने तो एक ही प्रार्थना जानी— जिस दिन मैंने ‘मैं’ और ‘मेरा’ छोड़ दिया। वही बदगी है।

करि बंदिगी छांडि मैं मेरा। हिरदे नामु सम्‍हारि सबेरा।।

यह बड़ा प्यारा वचन है। कहते हैं जिस दिन मैंने मैं और मेरा छोड़ दिया। क्योंकि मैं भी धोखा है और मेरा भी धोखा है। जब मैं भी नहीं रहता और कुछ मेरा भी नहीं रहता, तब जो शेष रह जाता है तुम्हारे भीतर, वही तुम हो, वही तुम्हारी ज्योति है— शाश्वत, अंनत, असीम। तत्वमसि! वही परमात्मा है। बंदगी की यह परिभाषा कि मैं और मेरा छूट जाए, तो सच्ची बंदगी।

हिरदे नामु सम्‍हारि सबेरा।।

इसलिए जल्दी करो। हृदय में सम्हालना ही हो तो परमात्मा के नाम को सम्हालों, अपने नाम को छोड़ो। अपने को छोड़ो और परमात्मा को सम्हालो। अंहकार छोड़ो, परमात्मा को विराजमान करो।

इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं। सबेरा का अर्थ जल्दी भी होता है कि जल्दी करो। और सबेरा का अर्थ सबेरा भी होता है— सुबह।

हिरदे नामु सम्‍हारि सबेरा।।

जिस दिन तुमने अपने भीतर प्रभु को सम्हाल लिया उसी दिन सुबह हो गई; उसके पहले तुम रात में ही रहे— रात ही रात थी, लंबी रात थी, जन्मों—जन्मों की रात थी। यह जो रोज सूरज ऊगता है, इससे सुबह नहीं होती।

जब तक तुम्हारे भीतर प्रभु का पर्दापण न हो तब तक सुबह के धोखे में मत पड़ना। बाहर की सुबह सुबह नहीं है, बाहर का सबेरा सबेरा नहीं है। बाहर का सबेरा तुम्हारा अंधेरा नहीं काट सकेगा। भीतर का सबेरा चाहिए।

बंदगी में तुम क्या करते हो लेकिन? मैं और मेरा तो छोड़ते ही नहीं, मैं और मेरा बढ़ाने के लिए प्रार्थना करते हो। तुम्हारी बंदगी भी अजीब है। तुमने उलटी बंदगी कर ली। खोपड़ी ही जैसे लोगों की उलटी है। प्रार्थना करने जाते हैं तो मांगते हैं कि और धन दे, और दौलत दे, यश मिले, सम्मान मिले, चुनाव जीत जाऊं, लाटरी का नंबर खुल जाए। लोग प्रार्थना में भी प्रार्थना नहीं करते— वही पुरानी मूढ़ता, उसी की पुनरुक्ति। जिसने बदगी जानी है वह कुछ और ही तरह की बात जान लेता है।

अपने ही हाथ से दे—दे जो तुझे देना है

मेरी तशहीर न फर्मा मुझे साइल न बना

जिसने बंदगी जानी वह कहता है. जो तुझे देना हो अपने ही हाथ से दे देना, न देना हो न देना। अपने ही हाथ से दे—दे तुझे जो देना है

मेरी तशहीर न फर्मा…….

नाहक मुझसे ढिंढोरा न पिटवा।

……. मुझे साइल न बना

और मुझे भिक्षु न बना, मुझे भिखारी न बना, मुझे मांगने को मजबूर मत कर। हो तेरी मर्जी तो दे दे, जो देना हो दे दे। तू जो दे दे मैं उसमें राजी हूं क्योंकि जो तू देगा वही शुभ है। और जो मैं मांग्ता— अंधेरे में, अंधेपन में, बेहोशी में—वह अशुभ होगा। मेरे मांगे का क्या! मेरे मांगे में तो गलतियां ही होने वाली हैं।

जनमु सिरानो पंथु न संवारा।

मैं क्या मांग तुझसे! जन्म बीत गया, अभी तक अपना पथ भी नहीं खोज सका, अभी तक पंथ भी न संवार सका।

सांझ परी दह दिसि अंधियारा।

और सांझ होने के करीब आने लगी, जल्दी ही दसों दिशाओं में अंधेरा छा जाएगा। क्या मांग तुझसे? मैं जो मांगूंगा, क्षुद्र ही होगा, व्यर्थ ही होगा। इसी क्षुद्र में डूबा—डूबा तो समाप्त हुआ हूं।

थोड़ी तंबाकू और डालिए, ढ़ब्‍बू जी बोले। पनवाड़ी ने पान में कहे अनुसार तंबाकू डाल दी। यार जरा लौंग और पिपरमेंट भी थोड़ा तेज। पान वाले ने वैसा ही किया। ढ़ब्‍बू जी बोले अरे गुलकंद लगाना तो भूल ही गए भाई! पान वाले ने अनमने भाव से गुलकंद लगा दिया। अब ऐसा करो एक इलायची और डालो, कुछ स्वाद तो आए कम से कम— ढ़ब्‍बू जी बोले। इलायची डाले जाने पर उन्होंने पुन: प्रार्थना की, अरे पनवाड़ी जी, यदि पान—बहार मसाला हो तो थोड़ा वह भी डालिए न और जरा चमन—बहार तेज! दुकानदार से अब रहा न गया। गुस्से में किड़किड़ाते हुए बोला और जनाब यदि आप आदेश दें तो आपका यह पच्चीस पैसे का सिक्का भी इसी में डाल दूं!

मांगोगे क्या? मांगने योग्य तुम्हारे पास समझ कहां? तुम जो मांगोगे गलत होगा। तुम्हारी सब मांगें गलत हैं। और जो तुम पाओगे वह भी बस यही होगा जो तुम मांगोगे। पच्चीस पैसे का सिक्का आखिर में हाथ लगेगा।

लोग यही मांग रहे हैं। मंदिरों में जाकर लोगों की प्रार्थनाएं सुनो, मस्जिदों में उनके उठे हुए हाथ देखो। झोली फैलाए हुए हैं, भिखारी बने हैं।

नहीं, परमात्मा से कुछ भी मांगना नहीं है। उससे तो कहना. जो तेरी मर्जी हो वह कर! तेरी मर्जी पूरी हो! तो मेरा पंथ संवर जाए!

सांझ परी दह दिसि अंधियारा।

अंधियारा घिरने लगा है, सांझ होने लगी है। कुछ सम्हाल नहीं पाया। नहीं कि शास्त्र नहीं पढ़े — पढ़े। नहीं कि गुरुओं के वचन नहीं सुने— सुने। मगर शास्त्र हों कि गुरु हों, अर्थ तो तुम अपने निकाल लेते हो। और तुम्हारे अर्थ बस तुम्हारे अर्थ हैं। न उसका कृष्ण से कोई संबंध है, न बुद्ध से, न जीसस से, न मोहम्मद से।

एक दिन मटकानाथ ब्रह्मचारी अपने मित्र भोंदूमल को शान—दान कर रहे थे। भोंदूमल की जीवनचर्या की बहुत आलोचना कर रहे थे। उसने उसे अनेक उपदेश दिए, धर्मोपदेश दिए। अंत में उन्होंने जीवन में ब्रह्मचर्य का महत्व और ब्रह्ममुहूर्त में जागने के आध्यात्मिक लाभों पर प्रकाश डालने के बाद पूछा : सच—सच कहो भोंदूमल, तुम सोकर कब उठते हो?

उपदेश और सलाह—मशवरे सुन—सुन कर थक चुके भोंदूमल ने रोती सी आवाज में जवाब

दिया, आप मानेंगे नहीं, लेकिन सच कहता हूं जैसे ही सूरज की किरणें मेरे कमरे में प्रवेश करती हैं मैं फौरन जाग जाता हूं।

फिर झूठ बोले—मटकानाथ ब्रह्मचारी का क्रोध भड़क उठा—सरासर झूठ बोलते हुए तुझे शर्म नही आती? वाह रे निशाचर, सारा गांव जानता है कि तुम दिन भर सोते हो और शाम को चार बजे सोकर उठते हो। अरे कुंभकरण, कुछ तो लाज करो!

ईश्वर की सौगंध खाकर कहता हूं मैं झूठ नहीं बोलता— भोंदूमल ने सफाई दी। मेरे कमरे के दरवाजे—खिड़कियों का मुंह पश्चिम दिशा की ओर है, मैं क्या करूं! उठता हूं तभी जब सूरज की किरणें मेरे मुंह पर पड़ती हैं। अब मकान ही गलत बना है तो उसमें मेरा क्या कसूर है?

अर्थ तो तुम निकालोगे अपने! ब्रह्ममुहूर्त शब्द में क्या अर्थ होगा? तुम अपना अर्थ डालोगे। ब्रह्मचर्य में तुम अपना अर्थ डालोगे। प्रार्थना तुम अपनी गढ़ लोगे। पूजा तुम अपनी बना लोगे। भगवान गढ़ लिए हैं तुमने। मिट्टी—पत्थर के खिलौनों की तुम पूजा कर रहे हो। और तुम्हें कभी समझ भी नहीं आती, सोच भी नहीं आता कि हम क्या करने में लगे हैं। संसार में धोखा खा रहे हो, धोखा दे रहे हो; धर्म के नाम पर भी धोखा दे रहे हो और धोखा खा रहे हो।

अब जागो! कहीं ऐसा न हो कि सांझ आ जाए और दसों दिशाओं से अंधेरा घिर जाए। सांझ आ ही रही है और अंधेरा भी घिरेगा ही।

कह रविदास नदान दिवाने।

ऐ पागल, ऐं नादान!

चेतसि नाही दुनिया फनखाने।।

यह दुनिया तो नाशवान है, तू चेतता नहीं!

तुम टालते हो। तुम कहते हो, चेतेंगे, जरूर चेतेंगे! तो पहला तो धोखा यह कि कुछ लोग मानते हैं कि वे चेत ही गए हैं। यही नहीं, वे दूसरों को चेताने में लगे हैं। खुद तो चेत ही गए हैं, अब दूसरों को चेताना है। दूसरा धोखा यह कि अगर आज नहीं चेते हैं तो कल चेत जाएंगे, अभी जल्दी क्या है? अभी कोई सांझ हुई नहीं जाती। और ऐसे ही तुम कल भी कह रहे थे; ऐसे ही तुम आज भी कह रहे हो, और ऐसे ही तुम कल भी कहोगे। चेताने वाले हार—हार जाएं तो भी तुम अपनी आदतों में जड़ हो गए हो।

इलाहाबाद के पंडित बड़े ही प्रसिद्ध हैं। एक इलाहाबादी पंडित अपने जजमान के यहां भोजन करने पहुंचे। वह जजमान उन्हें बुला कर तो बड़ी परेशानी में पड़ गया, क्योंकि पंडित जी धीरे— धीरे पूरी रसोई साफ कर गए। घर के सारे भोज्य पदार्थ खत्म होने लगे। अब जजमान बड़ी मुसीबत में, यह बात कैसे छिपाए कि अब घर में भोजन खत्म होने को है! तो उसने पंडित जी से कहा : पंडित जी, पानी—वानी भी तो पीजिए। पानी तो आपने अभी तक पीआ ही नहीं!

पंडित जी हंसते हुए बोले : हें—हें—हें! जजमान, पानी तो मैं आधा भोजन करने के बाद ही पीता हूं।

तुम भी टाले जाते हो। अभी आधा भोजन ही नहीं हुआ है, अभी जागने का सवाल क्या! अभी तो तुम्हारा मन कहता है, अभी तो मैं जवान हूं! अभी जागने की बात! ये तो बुढ़ापे की बातें हैं, ये तो वृद्धावस्था की बातें हैं। जब जिंदगी हाथ से छूटने लगती है तब जाग लेंगे; अभी तो भोग लें। दो घड़ी की जिंदगी है— खा लें, पी लें, मौज कर लें। अभी कहां जागना है! अभी यह कहां जागने की झंझट! कहीं जाग गए तो फिर कैसे खाएंगे—पीएंगे, मौज कैसे करेंगे?

ऐसे ही खाते—पीते, मौज करते तुम कितनी बार जीए और कितनी बार मरे! और मौज भी क्या कर रहे हो? खाने—पीने में भी तुम्हारी क्या मौज हो सकती है? मौज तो सिर्फ एक है जो भीतर जगती है और भीतर जगे मौज तो खाने में भी होती है फिर, पीने में भी होती है फिर, उठने—बैठने में भी होती है। श्वास—श्वास लेना आनंद का एक अदभुत अनुभव हो जाता है। लेकिन मौज तो भीतर नहीं है।

अब यह जो पंडित जी हैं, जो आधा भोजन करने के बाद पानी पीएंगे, यह कुछ मौज कर रहे हैं? एक ऐसी कहानी मैंने और सुनी है। एक युवती विवाहित होकर आई। जिससे विवाह हुआ था वह भी पहुंचे हुए पंडित थे। लेने आए अपनी पत्नी को ससुराल, तो वे एक पूरी का एक ही कौर करते थे। इधर पूरी परसी नहीं गई कि उधर खत्म। वह परसने वाली जब तक लौट कर देखे, पूरी नदारद! पत्नी छुप कर देख रही थी, बेचारी को शर्म आने लगी कि लोग क्या कहेंगे कि ऐसा पति मिला। तो उसने वहीं कोने से इशारा किया दो अंगुली का, कि कम से कम दो टुकड़े तो करो! पंडित जी समझे कि वह यह कह रही है कि यह रिवाज ठीक नहीं है, हमारे यहां तो दो पूरी एक साथ…। सो वे दो पूरी का एक कौर करने लगे।

उनकी पत्नी ने तो सिर ठोक लिया। रात जब पत्नी मिली तो उसने कहा तुमने तो हद कर दी! पहले ही ठीक थे। कम से कम एक कौर तो कर रहे थे एक पूरी का। मैंने कहा था कि दो कौर करो और तुमने दो शइरयों का एक कौर करना शुरू कर दिया!

पति ने कहा तुझे पता नहीं कि हम किस परिवार से हैं। रघुकुल रीति सदा चलि आई! मैं तो कुछ भी नहीं हूं मेरे स्वर्गवासी पिता थे कि जब भी कहीं किसी के यहां भोजन करने जाते थे तो उनको बैलगाड़ी में डाल कर वापस घर लाना पड़ता था। एक बार तो उनकी हालत इतनी खराब हो गई थी कि जब बैलगाड़ी में उनको किसी तरह डाल कर घर लाया गया तो वैद्य बुलाना पड़ा। वैद्य ने गोली दी तो उन्होंने आख खोल कर कहा कि वैद्यराज, अगर गोली ही खाने की जगह होती तो एक लड्ड और न खा लेते! अब जगह कहां!

इस तरह के लोग तुम सोचते हो भोग रहे हैं? सड़ रहे हैं भोग के नाम पर! इनके चेहरों पर कोई आनंद तो दिखाई नहीं पड़ता। इनकी आंखों में कोई रस तो नहीं बहता मालूम होता। इनके आस—पास कोई तरंग तो नहीं है उल्लास की, उत्सव की। खाए जा रहे हैं, क्योंकि भीतर खालीपन लगता है, उसको किसी तरह भरना है। और कितना ही खाओ, भीतर का खालीपन भरेगा नहीं, क्योंकि खालीपन तुम्हारी आत्मा में है, वह केवल परमात्मा के उतरने से भरेगा और किसी तरह नहीं भर सकता। कोई अपनी तिजोड़ी में धन इकट्ठा कर रहा है और सोच रहा है इस तरह भर जाएगा। कोई बड़े मकान बनाता जा रहा है और सोच रहा है इस तरह जीवन में अर्थ आ जाएगा।

नहीं; अर्थ तो सिर्फ एक ही तरह से आता है— सिर्फ एक ही तरह से और केवल एक ही तरह से— कि तुम किसी तरह परमात्मा से संयुक्त हो जाओ! और संयुक्त होने का एक ही उपाय है: चेतो।

चेतसि नाही दुनिया फनखाने।।

यहां तो अंधेरा ही अंधेरा है, सपने ही सपने हैं। सब नाशवान है, सब झूठ है। इस परिभाषा को खयाल में रखना। मनीषियों ने सत्य उसे कहा है जो सदा रहे और असत्य उसे कहा है जो क्षणभंगुर हो।

बुझा दे ऐ हवाए—तुद मदफन के चिरागों को

सियह—बस्ती में ये एक बदनुमा धब्बा लगाते हैं

मुरत्तब कर गया इक इश्क का कानून दुनिया में

वो दीवाने हैं जो मजनू को दीवाना बताते हैं

उसी महफिल से मैं रोता हुआ आया हूं ऐ ‘आसी’

इशारों में जहां लाखों मुकद्दर बदले जाते हैं

बुझा दे ऐ हवाए—तुद..

ऐ तेज हवा, बुझा दे।

मदफन के चिरागों को

ये समाधि पर जो चिराग जलाए हैं, ऐं तेज हवा, इनको बुझा दे।

सियह—बस्ती में ये एक बदनुमा धब्बा लगाते हैं

इस अंधेरे की दुनिया में इन चिरणों से धब्बा लगता है। ये चिराग अच्छे नहीं लगते इस अंधेरी दुनिया में।

और लोग भी अजीब हैं, समाधि पर चिराग जलाते हैं! जब आदमी मर गया तब उसकी समाधि पर चिराग जलाते हैं। अरे चिराग जलाओ अपने भीतर— जब जिंदा हो तब! जिंदगी का चिराग बनाओ।

बुझा दे ऐं हवाए—तुंद मदफन के चिरागों को

सियह—बस्ती में ये एक बदनुमा धब्बा लगाते हैं

मुरत्तब कर गया इक इश्क का कानून दुनिया में

वो दीवाने हैं जो मजनू को दीवाना बताते हैं

और जिन्होंने मजनू को दीवाना बताया है, वे दीवाने हैं; उन्हें पता ही नहीं जीवन के सत्य का। मजनू नहीं है दीवाना—उसे प्रेम का राज पता चल गया है।

स्मरण रखना, लैला और मजनू की कहानी एक सूफी कहानी है। गलत लोगों के हाथ में पड़ कर बदनाम हो गई। लैला प्रतीक है परमात्मा का और मजनू प्रतीक है साधक का, खोजी का। यह एक सूफी कहानी है, लेकिन बरबाद हो गई।

गलत लोगों के हाथ में श्रेष्ठतम चीजें पड़ जाएं तो बरबाद हो जाती हैं। गंदे हाथों में सुगंधित फूल भी दुर्गंध से भर जाते हैं। अब तो लैला—मजनू की कहानी साधारण प्रेम की कहानी हो गई है। यह असाधारण प्रार्थना की कहानी है।

उसी महफिल से मैं रोता हुआ आया हूं ऐ ‘आसी’

इशारों में जहां लाखों मुकद्दर बदले जाते हैं

रोते हुए मत जाना इस महफिल से। जाग सको तो मुकद्दर बदल जाए, चेत सको तो भाग्य बदल जाए।

ऊंचे मंदिर, सालि रसोई।

बनाओ बड़े—बड़े मंदिर, चढ़ाओ बड़े—बड़े पकवान— सब झूठ! जब तक चेतना का मंदिर न हो, जब तक ध्यान का भोजन न हो, तब तक तुम्हारी मंदिर से कोई पहचान ही नहीं है, तीर्थ से तुम्हारा कोई संबंध ही नहीं है।

एक घरी पुनि रहन न होई।।

ये मंदिर गिर जाएंगे। ये मंदिर भी मिट्टी—रेत के बने हैं। ये मूर्तियां भी बिखर जाएंगी।

इह ततु स्टेका जैके ताक की टाठी।

यह शरीर तो घास—पात है।

लील गयी ताक मील ठावो माठी।।

जल्दी ही घास जल जाएगा और मिट्टी में मिल जाएगा।

भाई बंधरू कुटंब सहेरा।

भाई बंधु, परिवार के लोग, संगी—साथी, सखा……

ओई भी लागे काढ़ सबेरा।।

जैसे ही श्वास उड़ी, पंछी उड़ा, पिंजड़ा पड़ा रह गया कि वे भी सब कटने लगेंगे, भागने लगेंगे। इतना ही नहीं…

घर की नारि उरहि तन लागी।

तुम्हारी प्रेयसी, तुम्हारी पत्नी, जो तुम्हारे अंग लगने को पागल होती थी, तुम्हारे आलिंगन के लिए दीवानी होती थी, अगर उसके पास आओगे जब शरीर मिट्टी में मिल जाएगा…

उह तौ भूत भूत करि भागी।।

वह भी भूत— भूत कह कर चिल्ला कर भागेगी।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरने के करीब थी। दोनों बैठे बात कर रहे थे। नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा कि तुम्हें आत्मा में विश्वास नहीं, लेकिन मुझे है। और अब मैं मर रही हूं तो मैं वायदा करती हूं कि मरने के बाद तुम्हें दर्शन दूंगी।

पत्नी तो जब मरेगी, मरेगी, मुल्ला के प्राण—पखेरू आधे उसी वक्त उड़ गए। उसने कहा कि फिर दो बात का खयाल रखना. एक— रात कभी दर्शन मत देना; और तू दे भी दर्शन तो रात को घर में मैं रहूंगा भी नहीं। तेरी ही वजह से लौटता हूं। फिर घर लौटने की जरूरत भी क्या है मुझे! और रात तो तू दर्शन देना ही नहीं, दर्शन देना हो तो दिन में देना। और तब देना जब दस—पांच आदमी मेरे साथ हों, अकेले में मत देना। क्योंकि तू जानती है कि मैं हृदय—दुर्बलता से पीड़ित हूं। और अच्छा तो यह हो कि दर्शन देना ही मत, मैं बिलकुल मान लेता हूं कि आत्मा होती है, कोई मुझे झगड़ा नहीं है।

तुम जिनको प्रेम करते हो वे भी अगर शरीर—रहित तुम्हारे सामने आकर खड़े हो जाएं तो तुम्हारे प्राण कैंप जाएंगे, तुम घबड़ा उठोगे। तुम्हारा प्रेम तो देह से था। तुमने तो देह के भीतर जो छिपा है उसे कभी पहचाना भी नहीं था, उससे जान—पहचान भी नहीं थी; वह तो अपरिचित है, अनजान है, अजनबी है। ये सब संगी—साथी छूट जाएंगे, साथ छोड़ देंगे, कन्नी काट जाएंगे।

कहि रविदास सबै जग लूटया। हम तौ एक राम कहि छूटया।।

रैदास कहते हैं: धोखे— धड़ी ने, माया ने, मृत्यु ने सारे जगत को लूटा है। तो हम पर राम की कृपा हो गई है।

हम तौ एक राम कहि छूटया।।

हमने तो राम को स्मरण किया, इसलिए छूट सके। हमने तो प्रभु पर सब समर्पित किया, इसलिए छूट सके। नहीं तो यहां सिर्फ लुटना ही होता है और कुछ हाथ लगता नहीं।

यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है— लुट कर जाओगे कि कुछ लेकर जाओगे? भिखारी की तरह मरोगे कि सम्राट की तरह? संन्यासी वही है जो सम्राट की तरह मरे। संसारी तो भिखारी की तरह ही मरता है।

हरि—सा हीरा छांडिकै, करै आन की आस।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सम भाषै रैदास।

भीतर हीरे भरे हैं और तुम बाहर कंकड़—पत्थर बीन रहे हो— औरों से आशा लगाए बैठे हो!

हरि—सा हीरा छांडिकै, करै आन की आस।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सम भाषै रैदास।

रैदास कहते हैं सच कहता हूं तुमसे। अनुभव से कहता हूं तुमसे। साक्षात्कार करके कहता हूं तुमसे। साक्षी हूं जो मैं कह रहा हूं उसका। इसे यूं ही उपदेश मत समझ लेना। तुम मृत्यु के चंगुल में फंसे हो, नरकों में भटकोगे, नरकों में भटक ही रहे हो।

अंतरगति रांचै नहीं, बाहर कथै उदास।।

और जब तक तुम्हारा अंतर्तम प्रेम से न भीग जाए परमात्मा के, तब तक बाहर से कितने ही उदास बने बैठे रहो, उदासीन बने बैठे रहो, विरागी बने बैठे रहो—कुछ काम नहीं आएगा।

ते ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रैदास।।

रैदास फिर—फिर कहता हैं कि मृत्यु तुम्हें लूटेगी, मृत्यु तुम्हारे सब धोखे तोड़ देगी— अगर तुमने उदासी ऊपर—ऊपर थोप रखी है; अगर तुम्हारा प्रेम प्रभु—रस में नहीं पगा है; अगर तुम्हारे प्राण प्रभु—रस में नहीं डूबे हैं।

हजारों तरह अपना दर्द हम उनको सुनाते हैं

मगर तस्वीर को हर हाल में तस्वीर पाते हैं

मंदिर—मस्जिदों में क्या है? तस्वीरें हैं, सुनाओ अपने हाल! तस्वीरों से क्या पाओगे? भीतर पुकारो उसे! भीतर सोया है वह, भीतर जगाओ उसे! हीरा भीतर पड़ा है, खोदो वहां!

उम्मीदे—अम्न क्या हो याराने—गुलिस्ता से

दीवाने खेलते हैं अपने ही आशिया से

बिजली कहा किसी ने, कोई शरार समझा

इक लौ निकल गई थी, दागे—गमे—निहा से

नाकूस बनके मैंने चौंका दिया हरम को

पत्थर सनमकदे के जागे मेरी अजां से

मदारे—हर—अमले—नेको—बद है नीयत पर

अगर गुनाह की नीयत न हो गुनाह नहीं

नकाब उलट दिया मूसा ने तूर पर उनका

अगर गुनाह सलीके से हो, गुनाह नहीं

सच्चा परमात्मा मिल सकता है, उसका घूंघट भी उठाया जा सकता है— उठाने की तरकीब आनी चाहिए।

नाकूस बनके मैंने चौंका दिया हरम को

शंख का नाद कर दिया मैंने काबा में। काबा में शंखनाद नही किया जाता।

नाकूस बनके मैंने चौंका दिया हरम को

काबे में जाकर मैंने शंख बजा दिया और काबे के पत्थर को चौंका दिया।

पत्थर सनमकदे के जागे मेरी अजां से

और मैंने मंदिरों में जहां पत्थरों की मूर्तियां थीं, अजान पढ़ी, नमाज पढ़ी और मुर्दा मूर्तियों में प्राण डाल दिए।

असल में तुम्हारे भीतर प्राण हों तो तुम जहां हो वहीं तीर्थ है। तुम काबे में बैठ जाओ तो काबा तीर्थ है। और तुम कहीं और बैठ जाओ तो वहीं काबा आ जाए। काबा वहां है जहां प्रेम से भरा हुआ हृदय है, परमात्मा के प्रति समर्पित है।

अदब— आमोज है मैखाने का जर्रा—जरी

सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा करना

इश्क पाबंदे—वफा है, न कि पाबंदे—रसूम

सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिब्दा करना

सिर झुकाने मात्र को सिब्दा करना नहीं कहते, प्रार्थना करना नहीं कहते।

इश्क पाबंदे—वफा है……..

इश्क में एक श्रद्धा तो है।

…….न कि पाबंदे—रसूम

लेकिन किसी परंपरा और लीक में नहीं बंधा है प्रेम। प्रेम तो लीक से मुक्त है, परंपरा से मुक्त है। प्रेम तो स्वतंत्रता है, परतंत्रता नहीं।

अदब—आमोज है मैखाने का जरी—जर्रा

पीना आता हो, पियक्कड़ होना आता हो— तो फिर मैखाने का जर्रा—जर्रा भी अदब सिखाने वाला है, विनय सिखाने वाला है।

अदब—आमोज है मैखाने का जर्रा—जर्रा

सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा करना

जरा प्रेम की मदिरा पीओ! किसी सदगुरु के मदिरालय में बैठो! हृदय को खोलो! उसकी शराब में डूबो! और सिब्दा करना आ जाएगा।

सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा करना

इसकी कोई बंधी—बधाई व्यवस्थाएं नहीं है। प्रार्थना कोई बंधा—बंधाया सूत्र नहीं है। मुक्ति किन्हीं

बंधे—बंधाए सूत्रों से मिल भी नहीं सकती।

अदब— आमोज है मैखाने का जर्रा—जर्रा

सैकड़ों तरह से आ जाता है सिब्दा करना

इश्क पाबंदे—वफा है, न कि पाबंदे—रसूम

सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिब्दा करना

आज इतना ही।


Filed under: मन ही पूजा मन ही धूप--(संत--रैदास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

गीता दर्शन–(भाग-7) प्रवचन–163

$
0
0

चाह है संसार और अचाह हे परम सिद्धि—(प्रवचन—पहला)

अध्‍याय—14

सूत्र:

श्रीमद्भगवद्गली अथ चतर्दशोऽध्याय —

श्रीभगवानवाच:

परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता।। 1।।

हदं ज्ञानमुपाश्‍चित्‍य मम साधर्म्यमागता:।

सगेंऽपि नोयजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।। 2।।

मम योनिर्महद्रब्रह्म तीस्मनार्भं दधाथ्यहम्।

संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। 3।।

इसके उपरांत श्रीकृष्ण बोले हे अर्जुन, ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिए कहूंगा? कि जानकर जानकर सब मुनिजन हम संसार से मुक्‍ति होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।

हे अर्जुन, हम ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुन: उत्पन्‍न नहीं होते हैं और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं। है अर्जुन, मेरी महत ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतनरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस जड़—चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।

यूनान में एक विचारक हुआ, पिरहो। विचारक को जैसा होना चाहिए, जितने संदेह से भरा हुआ, उतने संदेह—से भरा हुआ विचारक पिरहो था।

एक दिन सांझ पिरहो निकला है अपने घर के बाहर। वर्षा के दिन हैं। रास्ते के किनारे एक गड्डे में उसका का गुरु गिर पड़ा है और फंस गया है। गले तक कीचड़ में डूबा हुआ गुरु; पिरहो किनारे खड़ा होकर सोचता है, निकालूं या न निकालूं! क्योंकि पिरहो का खयाल है, तब तक कोई कर्म करना उचित नहीं, जब तक कि उसके परिणाम पूरी तरह सुनिश्चित रूप से शात न हो जाएं। और परिणाम शुभ होंगे या अशुभ, जब तक यह साफ न हो, तब तक कर्म में उतरना भ्रांति है।

गुरु को बचाने से शुभ होगा या अशुभ; गुरु बचकर जो भी करेंगे जीवन में, वह शुभ होगा या अशुभ, जब तक यह साफ न हो जाए, तब तक पिरहो गुरु को कीचड़ से निकालने को तैयार नहीं है। क्योंकि कोई भी कृत्य तभी किया जा सकता है, जब उसके अंतिम फल स्पष्ट हो जाएं।

भला हुआ कि और लोग आ गए और उन्होंने डूबते हुए गुरु को बचा लिया। लेकिन पिरहो किनारे पर ही खड़ा रहा। और जानकर आप आश्चर्यचकित होंगे कि जिन दूसरे शिष्यों ने गुरु को बचाया, गुरु ने कहा कि वे ठीक—ठीक विचारक नहीं हैं, ठीक विचारक पिरहो ही है। इसलिए मेरी गद्दी का अधिकारी वही है। क्योंकि जिस कर्म का फल तुम्हें साफ नहीं, तुम उसे कर कैसे सकते हो?

पिरहो पश्चिम में संदेहवाद का जन्मदाता है। लेकिन अगर कर्म का फल स्पष्ट न हो, तो कोई भी कर्म किया नहीं जा सकता। क्योंकि किसी कर्म का फल स्पष्ट नहीं है, और स्पष्ट नहीं हो सकता है। क्योंकि कर्म है अभी, और फल है भविष्य में। और प्रत्येक कर्म अनेक फलों में ले जा सकता है, वैकल्पिक फल हैं। इसलिए अगर कोई यही तय कर ले कि जब तक फल निर्णायक रूप से निश्चित न हो, तब तक मैं कर्म में हाथ न डालूंगा, तो वैसा व्यक्ति कोई भी कर्म नहीं कर सकता है।

पिरहो खडा है—इसे फिर से सोचें। अगर मुझे वह मिल जाए तो उससे मैं कहूंगा कि खड़े रहने का फल ठीक होगा या बचाने का, यह भी सोचना जरूरी है। क्योंकि खड़ा होना कृत्य है। तुम कुछ निर्णय ले रहे हो। गुरु को बचाना ही अकेला निर्णय नहीं है। मैं खड़ा रहूं या बचाने में उतरूं, यह भी निर्णय है। मैं इस समय सोचूं या कर्म करूं, यह भी निर्णय है।

निर्णय से बचने का कोई उपाय नहीं है। चाहे मैं कुछ करूं और चाहे न करूं, निर्णय तो लेना ही होगा। और करने का भी फल होता है, न करने का भी फल होता है। न करने से गुरु मर भी सकता था। तो न करने का फल नहीं होता, ऐसा मत सोचना। फल तो न करने का भी होता है। कर्म का भी फल होता है, आलस्य का भी फल होता है।

हम कुछ करें या न करें, निर्णय तो लेना ही होगा। निर्णय मजबूरी है। इसलिए जो सोचता हो कि मैं निर्णय से बच रहा हूं वह बेईमान है। क्योंकि बचना भी अंततः निर्णय है और उसके भी फल होंगे। अर्जुन भी ऐसी ही दुविधा में है। वह कर्म में उतरे, न उतरे? युद्ध में प्रवेश करे, न करे? क्या होगा फल? शुभ होगा कि अशुभ होगा? इसके पहले कि वह कदम उठाए, भविष्य को देख लेना चाहता है। जो कि संभव नहीं है, जो कभी भी संभव नहीं हुआ और कभी भी संभव नहीं होगा। क्योंकि भविष्य का अर्थ ही यह, जो न देखा जा सके, जो अभी नहीं है, जो अभी गर्भ में है; होगा।

वर्तमान देखा जा सकता है। निर्णय वर्तमान के संबंध में लिए जा सकते हैं। भविष्य अंधेरे में है, छिपा है अज्ञात में। अर्जुन चाहता है, उसका भी निर्णय ले ले, तो ही युद्ध में उतरे।

और ध्यान रहे, पिरहो और अर्जुन की हालत में बहुत फर्क नहीं है। अर्जुन की हालत और भी बुरी है। वहा तो एक आदमी डूबता और मरता था, यहां लाखों लोगों के मरने और बचने का सवाल है। युद्ध की आखिरी घड़ी में उसके मन को संदेह ने पकड़ लिया है।

वस्तुत: जब भी आपको कोई कर्म करने का निर्णय लेना होता है, तब आप सभी अर्जुन की अवस्था में पहुंच जाते हैं। इसलिए अधिक लोग निर्णय लेने से बचते हैं। कोई और उनके लिए निर्णय ले ले। पिता बेटे से कह दे, ऐसा करो। गुरु शिष्य से कह दे, ऐसा करो। आप इसीलिए आशा मानते हैं। आज्ञा मानने की मौलिक आधारशिला खुद निर्णय से बचना है।

दुनिया में लोग कहते हैं कि लोगों को स्वतंत्र होना चाहिए। लेकिन लोग स्वतंत्र नहीं हो सकते। लोग आज्ञा मानेंगे ही। क्योंकि आज्ञा मानने में एक तरकीब है, उसमें निर्णय कोई और लेता है, आप निर्णय की जो दुविधा है, निर्णय का जो कष्ट है, जो कठिनाई है, उससे बच जाते हैं। इसलिए लोग गुरु को खोजते हैं, नेताओं को खोजते हैं। किसी के पीछे चलना चाहते हैं।

पीछे चलने में एक सुविधा है, जो आगे चल रहा है, वह निर्णय लेगा। पीछे चलने वाले को निर्णय लेने की जरूरत नहीं है। यद्यपि यह भी भ्रांति है। क्योंकि किसी के पीछे चलने का निर्णय लेना, सारे निर्णयों की जिम्मेवारी आपके ऊपर आ गई। चुन तो आपने लिया है, लेकिन अपने को धोखा देने की सुविधा है।

अर्जुन जैसी कठिनाई प्रत्येक व्यक्ति को अनुभव होगी। इसलिए गीता का संदेश बहुत शाश्वत है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के जीवन में वही कठिनाई है। हर कदम पर, प्रतिपल, एक पैर भी उठाना है, तो निर्णय लेना है। क्योंकि हर पैर उठाने का परिणाम होगा और जीवन भिन्न होगा। एक कदम भी बदल देने से जीवन भिन्न हो जाएगा।

आज आप यहां मुझे सुनने आ गए हैं। आपका जीवन वही नहीं हो सकता अब, जो आप मुझे सुनने न आए होते तो होता। वही हो ही नहीं सकता। अब कोई उपाय नहीं है। यह बड़ा निर्णय है। क्योंकि इस समय में आप कुछ करते। किसी के प्रेम में पड़ सकते थे, विवाह कर सकते थे। किसी से झगड़ सकते थे, दुश्मनी पैदा कर सकते थे। इस समय में कुछ न कुछ आप करते, जो जिंदगी को कहीं ले जाता।

इस समय मुझे सुन रहे हैं। यह भी कुछ कर रहे हैं। यह भी जिंदगी को कहीं ले जाएगा। क्योंकि एक—एक शब्द आपको भिन्न करेगा। आप वही नहीं हो सकते। चाहे आप मैं जो कहूं उसे मानें या न मानें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। न मानें, तो भी आप वही नहीं होंगे। क्योंकि न मानने का निर्णय आपको भिन्न जगह ले जाएगा। मानें तो भी, न मानें तो भी!

एक पलक भी झपकी, तो हम बदल रहे हैं। और एक पलक का फासला बड़ा फासला हो सकता है। मंजिल में हजारों मील का फर्क हो सकता है।

इस अर्जुन की मनःस्थिति को ठीक से समझ लें, तो फिर कृष्ण का प्रयास समझ में आ सकता है कि कृष्ण क्या कर रहे हैं।

अर्जुन उस दुविधा में खड़ा है, जो प्रत्येक मन की दुविधा है। और जब तक मन रहेगा, दुविधा रहेगी। क्योंकि मन कहता है, तुम कुछ करने जा रहे हो, इसका परिणाम तुम्हें ज्ञात नहीं। और जब तक परिणाम ज्ञात न हो, तुम कैसे करने में उतर रहे हो? मन प्रश्न उठाता है और उत्तर नहीं है।

अर्जुन प्रश्न—चिह्न बनकर खड़ा है। उत्तर की तलाश है। यह उत्तर उधार भी मिल सकता है। कोई कह दे और जिम्मेवारी अपने ऊपर ले ले। कोई कह दे कि भविष्य ऐसा है। भविष्य के संबंध में कोई निर्णायक मंतव्य दे दे और सारा जिम्मा अपने ऊपर ले ले, तो अर्जुन युद्ध में कूद जाए या युद्ध से रुक जाए। कोई भी निष्कर्ष अर्जुन ले सकता है। लेकिन तब निर्णय उधार होगा, किसी और पर निर्भर होगा।

कृष्ण कोई उधार वक्तव्य अर्जुन को नहीं देना चाहते। इसलिए गीता एक बड़ा गहन मनो—मंथन है। एक शब्द में भी कृष्ण कह सकते थे कि मुझे पता है भविष्य। तू युद्ध कर। पर कृष्ण की अनुकंपा यही है कि उत्तर न देकर, अर्जुन के मन को गिराने की वे चेष्टा कर रहे हैं। जहां से संदेह उठते हैं, उस स्रोत को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं; न कि संदेह के ऊपर आस्था और श्रद्धा का एक पत्थर रखकर उसको दबाने की।

अर्जुन को किसी तरह समझा—बुझा देने की कोशिश नहीं है। अर्जुन को रूपांतरित करने की चेष्टा है। अर्जुन नया हो जाए, वह उस जगह पहुंच जाए जहां मन गिर जाता है। जहां मन गिरता है, वहां संदेह गिर जाता है। क्योंकि कौन करेगा संदेह? जहां मन गिरता है, वहा भविष्य गिर जाता है, क्योंकि कौन सोचेगा भविष्य? मन के गिरते ही वर्तमान के अतिरिक्त और कोई अस्तित्व नहीं है। मन के गिरते ही व्यक्ति कर्म करता है, लेकिन कर्ता नहीं होता है। क्योंकि वहां कोई अहंकार नहीं बचता पीछे, जो कहे, मैं। मन ही कहता है, मैं।

फिर कर्म सहज और सरल हो जाता है। फिर वह कर्म चाहे युद्ध में जाना हो, चाहे युद्ध से हट जाना हो, लेकिन उस कर्म के पीछे कर्ता नहीं होगा। सोच—विचारकर, गणित, तर्क से लिया गया निष्कर्ष नहीं होगा। सहज होगा कर्म। अस्तित्व जो चाहेगा उस क्षण में, वही अर्जुन से हो जाएगा। कृष्ण की भाषा में, परमात्मा जो चाहेगा अर्जुन से वही हो जाएगा। अर्जुन निमित्त हो जाएगा।

अभी अर्जुन कर्ता होने की कोशिश कर रहा है। अभी वह चाहता है, मैं जो करूं, उसकी जिम्मेवारी मेरी है। उसका दायित्व मेरा है। मेरे ऊपर होगा, शुभ या अशुभ। मैं कर रहा हूं।

और अगर आप कर रहे हैं, तो बड़ी चिंता पकड़ेगी। इसलिए जितना ज्यादा मैं का भाव होगा, उतनी ज्यादा जीवन में चिंता होगी। जितना मैं का भाव कम होगा, उतनी चिंता क्षीण हो जाएगी। और जिस व्यक्ति को चिंता से बिलकुल मुक्त होना है, उसे मैं से मुका हो जाना पड़ेगा। मैं ही चिंता है।

लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, हम कैसे निश्चित हो जाएं? मैं उनसे कहता हूं जब तक तुम हो, तब तक निश्चित न हो सकोगे। क्योंकि तुम चिंता के स्रोत हो। जैसे बीज से अंकुर निकलते हैं, ऐसे तुमसे चिंताओं के अंकुर निकलते हैं। तुम चिंताओं को पोषण कर रहे हो। तुम आधार हो। फिर तुम परेशान हो कि मैं कैसे निश्चित हो जाऊं! तब निश्चित होना और एक नई चिंता बन जाती है। तब शात होने की चेष्टा एक नई अशांति बन जाती है।

इसलिए साधारण आदमी उतना चिंतित नहीं है, जितना धार्मिक, असाधारण आदमी चिंतित होता है। अपराधी उतना चिंतित नहीं है, जितना साधु चिंतित दिखाई पड़ता है।

जितना ज्यादा चिंता से हम छूटना चाहते हैं, उतनी नई चिंता हमें पकड़ती है। एक तो यह नई चिंता पकड़ लेती है कि चिंता से कैसे छूटें! और कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता छूटने का, तो मन बड़े भयंकर बोझ से दब जाता है। जैसे कोई छुटकारा नहीं, कोई मार्ग नहीं। इस कारागृह के बाहर जाने के लिए कोई द्वार खुला नहीं दिखता, कोई स्रोत नहीं दिखता, कोई सूत्र नहीं समझ में आता कि कैसे बाहर जाएं। एक प्रकाश की किरण भी दिखाई नहीं पड़ती।

जो उस अंधेरे में मजे से रह रहा है, उसकी चिंताएं कारागृह के भीतर की हैं। जो कारागृह के बाहर जाना चाहता है, उसकी तो नई चिंताएं आ गईं, कि कारागृह से बाहर कैसे निकलें? इसलिए धार्मिक आदमी गहन चिंता में डूब जाता है। यह स्वाभाविक है। मैं चूंकि चिंता का केंद्र है।

कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि अर्जुन कैसे मिट जाए। गुरु का सारा उपाय सदा ही यही रहा है कि शिष्य कैसे मिट जाए।

यहां जरा जटिलता है। क्योंकि शिष्य मिटने नहीं आता। शिष्य होने आता है। शिष्य बनने आता है, कुछ पाने आता है। सफलता, शाति, सिद्धि, मोक्ष, समृद्धि, स्वास्थ्य—कुछ पाने आता है। इसलिए गुरु और शिष्य के बीच एक आंतरिक संघर्ष है। दोनों की आकांक्षाएं बिलकुल विपरीत हैं। शिष्य कुछ पाने आया है और गुरु कुछ छीनने की कोशिश करेगा। शिष्य कुछ होने आया है, गुरु मिटाने की कोशिश करेगा। शिष्य कहीं पहुंचने के लिए उत्सुक है, गुरु उसे यहीं ठहराने के लिए उत्सुक है।

पूरी गीता इसी संघर्ष की कथा है। अर्जुन घूम—घूमकर वही चाहता है, जो प्रत्येक शिष्य चाहता है। कृष्ण घूम—घूमकर वही करना चाह रहे हैं, जो प्रत्येक गुरु करना चाहता है। एक दरवाजे से कृष्ण हार जाते लगते हैं, क्योंकि अज्ञान गहन है, तो दूसरे दरवाजे से कृष्ण प्रवेश की कोशिश करते हैं। वहां भी हारते दिखाई पड़ते हैं, तो तीसरे दरवाजे से प्रवेश करते हैं।

ध्यान रहे, शिष्य बहुत बार जीतता है। गुरु सिर्फ एक बार जीतता है। गुरु बहुत बार हारता है शिष्य के साथ। लेकिन उसकी कोई हार अंतिम नहीं है। और शिष्य की कोई जीत अंतिम नहीं है। बहुत बार जीतकर भी शिष्य अंततः हारेगा। क्योंकि उसकी जीत उसे कहीं नहीं ले जा सकती। उसकी जीत उसके दुख के डबरे में ही उसे डाले रखेगी। और जब तक गुरु न जीत जाए, तब तक वह दुख के डबरे के बाहर नहीं आ सकता है। लेकिन संघर्ष होगा। बड़ा प्रीतिकर संघर्ष है। बड़ी मधुर लड़ाई है।

शिष्य की अड़चन यही है कि वह कुछ और चाह रहा है। और इन दोनों में कहीं मेल सीधा नहीं बैठता। इसलिए गीता इतनी लंबी होती जाती है। एक दरवाजे से कृष्ण कोशिश करते हैं, अर्जुन वहा जीत जाता है। जीत जाता है मतलब, वहा नहीं टूटता। जीत जाता है मतलब, वहा नहीं मिटता। चूक जाता है उस अवसर को। उसकी जीत उसकी हार है। क्योंकि अंततः जिस दिन वह हारेगा, उसी दिन जीतेगा। उसकी हार उसका समर्पण बनेगी।

तो कृष्ण दूसरे दरवाजे पर हट जाते हैं; दूसरे मोर्चे से संघर्ष शुरू हो जाता है। ये प्रत्येक अध्याय अलग— अलग मोर्चे हैं। और इन अलग— अलग अध्यायों में वे सब द्वार आ गए हैं, जिनसे कभी भी किसी गुरु ने शिष्य को मिटाने की कोशिश की है। अर्जुन मिटे तो ही हल हो सकता है। बिना मिटे कोई हल नहीं है।

शिष्य की मृत्यु में ही समाधान है। क्योंकि वहीं उसकी बीमारियां गिरेंगी। वहीं उसकी समस्याएं गिरेंगी। वहीं उसके प्रश्न गिरेंगे। वहीं से उसके भीतर उसका उदय होगा, जिसके लिए कोई समस्याएं नहीं हैं। वह चेतना भीतर छिपी है और उसे मुक्त करना है। और जब तक यह साधारण मन न मर जाए, तब तक कारागृह नहीं टूटता, जंजीरें नहीं गिरतीं, भीतर छिपा हुआ प्रकाश मुक्त नहीं होता।

प्रकाश बंद है आप में, उसे मुक्त करना है। और आपके अतिरिक्त कोई बाधा नहीं डाल रहा है। आप सब तरह से कोशिश करेंगे, क्योंकि आप समझ रहे हैं जिसे अपना स्वरूप, जिस अहंकार को, आप उसको बचाने की कोशिश करेंगे। आप सोचते हैं, आत्म—रक्षा कर रहे हैं। अर्जुन भी आत्म—रक्षा में संलग्न है। लेकिन गुरु अंततः जीतता है। उसके हारने का कोई उपाय नहीं है। बहुत बार हारता है। उसकी सब हार झूठी है। शिष्य बहुत बार जीतता है। उसकी सब जीत झूठी है। अंततः उसे हार जाना होगा। अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।

कृष्ण बोले, हे अर्जुन, ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिए कहूंगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।

ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान मैं फिर तेरे लिए कहूंगा। बहुत बार पहले भी उन्होंने कहा है। कहते हैं, फिर तेरे लिए कहूंगा। गुरु थकता ही नहीं। जब तक तुम सुन ही न लोगे, तब तक वह कहे ही चला जाएगा।

पश्चिम में बुद्ध के वचनों पर बड़ी खोज हुई है। वे बड़े हैरान हुए। हैरानी की बात है। क्योंकि बुद्ध अस्सी साल जीए। कोई चालीस साल की उम्र में ज्ञान हुआ। वे चालीस साल तुम अलग कर दो। फिर चालीस साल बचते हैं। इन चालीस साल में एक तिहाई हिस्सा तो नींद में चला गया होगा। कुछ घंटे भोजन—भिक्षा में चले गए होंगे रोज। कुछ घंटे रोज यात्रा में चले गए होंगे। अगर आठ घंटे नींद के गिन लें, चार घंटे रोज यात्रा के गिन लें, दो घंटे स्नान— भोजन—भिक्षा के गिन लें, तो चालीस साल में से करीब तीस साल ऐसे व्यय हो जाते हैं। दस साल बचते हैं।

लेकिन पश्चिम की खोज कहती है कि बुद्ध के इतने वचन उपलब्ध हैं कि अगर बुद्ध पैदा होने के दिन से पूरे सौ वर्ष अहर्निश बोले हों, सुबह से दूसरी सुबह तक, न सोए हों, न उठे, न बैठे हों, तो भी शास्त्र ज्यादा मालूम पड़ते हैं। एक व्यक्ति सौ वर्ष निरंतर बोलता रहे, बिना रुके, अविच्छिन्न, जन्म के दिन से मरने के क्षण तक, न सोए, न कुछ और करे, तो इतना बोल पाएगा जितना बुद्ध के वचन उपलब्ध हैं।

स्वभावत:, खोज करने वाले कहते हैं कि ये प्रक्षिप्त हैं। दूसरे लोगों के वचन इसमें मिल गए हैं। एक आदमी इतना बोल नहीं सकता। दस साल में इतना नहीं बोला जा सकता, जितना कि सौ साल निरंतर कोई बोले! इसका मतलब यह हुआ कि अगर बुद्ध दस गुना जीते, तो इतना बोल सकते थे। या दस बुद्ध होते, तो इतना बोल सकते थे।

मैं इसका कुछ और ही अर्थ लेता हूं। मैं इसका इतना ही अर्थ लेता हूं कि जो बात इतनी लंबी मालूम पडती है, उसके लंबे होने का कारण शिष्यों के साथ. अर्जुन के साथ तो कृष्ण का अकेला संघर्ष है, एक शिष्य है। बुद्ध के पास दस हजार शिष्य थे। यह संघर्ष बड़ा है, विराट है। इतने वचन इसीलिए हैं, जैसे बुद्ध दस मुंह से एक साथ बोले हों। ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी है, जहां से शिष्य के ऊपर हमला न किया हो, आक्रमण न किया हो।

गुरु थकता नहीं।

फिर से तेरे लिए कहूंगा! ज्ञानों में भी अति उत्तम ज्ञान को, परम ज्ञान को मैं फिर से तेरे लिए कहूंगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। अज्ञान गैर—जानकारी का नाम नहीं है। अज्ञान गलत जानकारी का नाम है। गैर—जानकारी भोलापन भी हो सकती है। अज्ञान जटिल है, भोलापन नहीं है। अज्ञानी कुशल होते हैं, चालाक होते हैं, कुटिल होते हैं। अज्ञानी नहीं जानता, ऐसा नहीं है, गलत जानता है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।

न जानने से हम उलझन में नहीं पड़े हैं। हमारी उलझन गलत जानने की उलझन है। न जानने से कोई कैसे उलझेगा? गलत जानने से कोई उलझ सकता है। उलझने के लिए भी कुछ जानना जरूरी है।

थोड़ी देर को समझें, अर्जुन की जगह अगर कोई सच में ही भोला— भाला आदमी होता, जो कुछ नहीं जानता, तो वह युद्ध में उतर जाता। क्या अड़चन थी? अर्जुन के सिवाय किसी ने सवाल नहीं उठाया।

भीम है, उसे कोई अड़चन नहीं है। वह अपनी गदा उठाए तैयार खड़ा है। जब भी युद्ध शुरू हो जाएगा, वह कूद पड़ेगा। वह भी अज्ञानी है। लेकिन अर्जुन से भिन्न तरह का अज्ञान है। उसका अज्ञान सिर्फ जानकारी का अभाव है। उसे ये सवाल भी नहीं उठते कि क्या शुभ है, क्या अशुभ है। मारूंगा, तो पाप लगेगा कि पुण्य होगा, ये सब सवाल भी नहीं उठते। वह बच्चे की तरह है।

अर्जुन पंडित है। अर्जुन जानता है। अर्जुन जानता है कि यह बुरा है, यह भला है, ऐसा करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए। धर्म — अधर्म का उसे खयाल है। उसकी जानकारी ही उसकी उलझन है।

अज्ञान अगर सिर्फ गैर—जानकारी हो, तो मनुष्य सरल होता है, निर्दोष होता है, बच्चों की भांति होता है। उलझन नहीं होती। मुक्त नहीं हो जाता उतने से, कारागृह के बाहर भी नहीं निकल जाता, लेकिन कारागृह में ही प्रसन्न होता है। उसे कारागृह का पता ही नहीं होता। जानकारी हो, अड़चन शुरू हो जाती है।

अर्जुन की कठिनाई यह है कि उसे पता है कि गलत क्या है। लेकिन इतना भर पता होने से कि गलत क्या है, वासना नहीं मिट जाती। वासनाएं तो अपने ही मार्ग पर चलती हैं। और बुद्धि अलग मार्ग पर चलने लगती है, दुविधा खड़ी होती है। पूरी प्रकृति शरीर की कुछ कहती है करने को, और बुद्धि ऊपर से खड़े होकर सोचने लगती है। व्यक्ति दो हिस्सों में बंट जाता है। यह बंटाव, यह खंडित हो जाना व्यक्ति का, यह स्‍पिलट पर्सनैलिटी, दो स्वर का पैदा हो जाना, इससे दुविधा खड़ी होती है। फिर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता।

अर्जुन युद्ध तो करना ही चाहता है। सच तो यह है कि वही युद्ध की इस स्थिति को ले आया है। कौन कहता था युद्ध करो? युद्ध की इस घड़ी तक आने की भी कोई जरूरत न थी। वासनाएं तो युद्ध के क्षण तक ले आई हैं। इस सारे युद्ध की जड़ में अर्जुन छिपा है। इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए, क्योंकि उससे ही गीता का अर्थ भी स्पष्ट होगा।

यह सारा युद्ध शुरू होता है द्रौपदी के साथ। द्रौपदी को अर्जुन ले आया। दुर्योधन भी लाना चाहता था। वह सुंदरतम स्त्री रही होगी। न केवल सुंदरतम, बल्कि तीखी से तीखी स्त्रियों में एक। सौंदर्य जब तीखा होता है, तो और भी प्रलोभित हो जाता है। द्रौपदी तेज, अति तीव्र धार वाली स्त्री है। उसने सभी को आकर्षित किया होगा। दुर्योधन भी उसे अपनी पत्नी बनाकर ले आना चाहता था।

वासनाओं का संघर्ष था। अर्जुन उसे ले आया।

संघर्ष भारी रहा होगा। क्योंकि अर्जुन के भी चार भाई उसे लाना चाहते थे। और स्त्री ऐसी कुछ रही होगी कि पांचों भाई उसके कारण टूट सकते थे और मिट सकते थे। इसलिए पांचों ने बांट लिया है। कहानी तो सिर्फ ढांकने का उपाय है।

कहानी है कि मां ने कहा कि तुम पांचों बांट लो, क्योंकि मां को कुछ पता नहीं। अर्जुन’ ने बाहर से इतना ही कहा कि मां, देखो, क्या ले आया हूं! उसने भीतर से कहा कि तुम पांचों बांट लो। यह कहानी तो सिर्फ ढांकने का उपाय है। असली बात यह है कि द्रौपदी पर पांचों भाइयों की नजर है। और अगर द्रौपदी नहीं बंटती, तो ये पांचों कट जाएंगे, ये पांचों बंट जाएंगे। कु

इस द्रौपदी से सारा का सारा—अगर ठीक से समझें, तो काम से, वासना से, इच्छा से सारा सूत्रपात है। फिर उपद्रव बढ़ते चले जाते हैं। लेकिन मूल में द्रौपदी को पाने की आकांक्षा है। फिर धीरे— धीरे एक—एक बात जुड़ते—जुड़ते यह युद्ध आ गया।

आज तक अर्जुन को खयाल नहीं उठा; आखिरी चरण में ही स्मरण आया। अब तक इतनी सीढ़ियां चढ़कर जहां पहुंचा है, हर सीढ़ी से इस बात की सूचना मिल सकती थी।

जब भी आप कुछ चाहते हैं, आप युद्ध में उतर रहे हैं। क्योंकि आप अकेले चाहने वाले नहीं हैं, और करोड़ों लोग भी चाह रहे हैं। चाह का मतलब प्रतियोगिता है, चाह का मतलब युद्ध है। जैसे ही मैंने चाहा, कि मैं संघर्ष में उतर गया।

इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि संघर्ष के बाहर केवल वही हो सकता है, जिसकी कोई चाह नहीं। उसकी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वह किसी की दुश्मनी में नहीं खड़ा है।

पर अर्जुन को यह खयाल कभी नहीं आया। अब तक वह ठीक शरीर के एक हिस्से को मानकर चलता रहा। आज सारी चीज अपनी विकराल स्थिति में खड़ी हो गई है।

यह थोड़ा समझने जैसा है।

कामवासना जन्म की पर्यायवाची है और युद्ध मृत्यु का पर्यायवाची है। और सभी कामवासना अंत में मृत्यु पर ले आती है। ऐसा होगा ही। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, जो मृत्यु के पार जाना चाहता हो, उसे कामवासना के पार जाना होगा। काम में हमारा जन्म है और काम में ही हमारी मृत्यु है।

यह युद्ध तो आखिरी क्षण है, जब मृत्यु प्रकट हो गई। लेकिन इसका बीज तो बो दिया गया उस दिन, जिस दिन द्रौपदी पर कामवासना फेंकी गई। उस दिन इसका बीज बो दिया गया।

दुर्योधन भी चाहता था। अर्जुन के खुद दूसरे भाई भी चाहते थे। और चाह सभी की एक—सी है। गलत और सही चाह में कुछ भी नहीं होता। अर्जुन द्रौपदी को पा सका है, क्योंकि धनुर्विद्या में कुशल है। तो द्रौपदी को पाना किसी कुशलता पर निर्भर है, तो फिर दुर्योधन ने जुए में कुशलता दिखाने की कोशिश किया है और द्रौपदी को छीन लेना चाहा है। वह भी एक कुशलता है। कुशलता का संघर्ष है।

और महाभारत के एक—एक पात्र में उतरने जैसा है, क्योंकि वे जीवन के प्रतीक हैं।

द्रौपदी की शादी के बाद पांडवों ने एक महल बनाया, वह उत्सव के लिए था। और दुर्योधन और उसके भाइयों को निमंत्रित किया। महल ऐसा बनाया था, उस दिन की श्रेष्ठतम इंजीनियरिंग की व्यवस्था की थी, कि जहां दरवाजे नहीं थे, वहा दरवाजे दिखाई पड़ते थे, इस भांति कांचों का, दर्पणों का जमाव किया। जहां दीवार थी, वहा दरवाजा दिखाई पड़ता था, भ्रामक था। जहां दरवाजा था, वहा दीवार मालूम होती थी। दर्पणों के आयोजन से ऐसा किया जा सकता है।

और जब दुर्योधन उन झूठे दरवाजों में टकरा गया जहां दीवार थी, तो द्रौपदी हंसी और उसने कहा कि अंधे के लड़के हैं! यह व्यंग्य भारी पड़ गया। पांडव हंसे। उन्होंने मजा लिया। अंधे के बेटे तो जरूर कौरव थे। लेकिन कोई भी अपने बाप को अंधा नहीं सुनना चाहता, अंधा हो तो भी। कोई भी अपने को बुरा नहीं देखना चाहता। और ध्यान रहे, गाली एक बार क्षमा कर दी जाए, व्यंग्य क्षमा नहीं किया जा सकता। गाली उतनी चोट नहीं करती, व्यंग्य सूक्ष्मतम गाली है। किसी पर हंसना गहन से गहन चोट है। इसलिए ध्यान रखना, आप गाली देकर दूसरों को इतनी चोट नहीं पहुंचाते; जब कभी आप मजाक करते हैं, तब जैसी आप चोट पहुंचाते हैं, वैसी कोई गाली नहीं पहुंचा सकती।

महावीर ने अपने वचनों में कहा है कि साधु किसी का व्यंग्य न करे। इसको हिंसा कहा है, बड़ी से बड़ी हिंसा।

लेकिन अर्जुन ने उस दिन सवाल नहीं उठाया कि हम एक बड़ी हिंसा कर रहे हैं। न, यह सब वासना का खेल चलता रहा। अब यह उसकी अंतिम परिणति है। यह युद्ध उस सब का जाल है। यहां आकर उसे पता चला। यहां उसकी बुद्धि ने जब देखा चारों तरफ नजर डालकर कि क्या हमने कर डाला है! और हम कहां आकर खड़े हो गए हैं!

ध्यान रहे, जब भी आप किसी भ्रांति में कदम उठाते हैं, तो पहले कदम पर किसी को पता नहीं चलता। पहले कदम पर पता चल जाए, तो इस दुनिया में भ्रांतियां ही न हों। बस, अंतिम कदम पर पता चलता है, जब पीछे लौटना मुश्किल होता है।

जब आप में पहली दफा क्रोध उठता है, पहली लहर, तब आपको पता नहीं चलता। जब आप छुरा लेकर किसी की छाती में भोंकने को ही हो जाते हैं, जब कि अपने ही हाथ को रोकना असंभव हो जाता है, जब कि हाथ इतना आगे जा चुका कि अब लौटाया नहीं जा सकता, कि आप लौटाना भी चाहें, तो अब मोमेंटम हाथ का ऐसा है कि अब लौट नहीं सकता। हाथ को जो गति मिल गई है, वह छुरा छाती में घुसकर रहेगा। अब एक ही उपाय है, इतना आप कर सकते हैं कि चाहें तो छुरे की धार अपनी छाती की तरफ कर लें या दूसरे की तरफ कर दें। लेकिन हाथ चल पडा। या तो हत्या होगी या आत्महत्या होगी।

जीवन में पहले कदम पर ही कुछ किया जा सकता है। इस संबंध में भी मनुष्य के अंतस्तल की एक यांत्रिक व्यवस्था को समझ लेना जरूरी है।

मनुष्य के व्यक्तित्व में दो तरह के यंत्र हैं। एक, जो स्वेच्छा से चालित है। हम इच्छा करते हैं, तो चलते हैं। दूसरे यंत्र हैं, जो स्वेच्छाचालित नहीं हैं, जो स्वचालित हैं। जिनमें हमारी इच्छा कुछ नहीं कर सकती। और जब पहले यंत्र से हम काम लेते हैं, तो एक सीमा आती है, जहां से काम पहले यंत्र के हाथ से दूसरे यंत्र के हाथ में चला जाता है।

समझें कि आप कामवासना से भर गए हैं। एक सीमा है, जब तक आप चाहें, तो रुक सकते हैं। लेकिन एक सीमा आएगी, जहां कि शरीर का स्वचालित यंत्र कामवासना को पकड़ लेगा। फिर आप रुकना भी चाहें, तो नहीं रुक सकते। फिर रुकना असंभव है। सभी वासनाएं दोहरे ढंग से काम करती हैं। पहले हम उन्हें इच्छा से चलाते हैं। फिर इच्छा उन्हें आग की तरह उत्तप्त करती है, सौ डिग्री पर लाती है, फिर वे भाप बन जाती हैं। फिर इच्छा के हाथ के बाहर हो जाती हैं। फिर आपके भीतर यंत्रवत घटना घटती है।

इसलिए बुद्ध ने कहा है, क्रोध पैदा हो, उसके पहले तुम जग जाना। वासना उठे, उसके पहले तुम उठ जाना और होश से भर जाना। क्योंकि पहला कदम अगर उठ गया, तो तुम्हें अंतिम कदम उठाने की भी मजबूरी हो जाएगी। मध्य में रुकना असंभव है। चीजें चल पड़ती हैं।

महावीर का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है कि जो आधा चल पड़ा, वह मंजिल पर पहुंच ही गया। क्योंकि बीच से लौटना मुश्किल है। इसका कारण यही है कि हमारे भीतर दोहरे यंत्र हैं। आप अपनी किसी भी वृत्ति में इसका निरीक्षण करें, तो आपको पता चल जाएगा कि एक सीमा तक आप चाहें, तो वापस लौट सकते हैं, हाथ के भीतर है। आप खुद ही वह सीमा—रेखा पहचान लेंगे। और अगर अपने भीतर आपने उस सीमा को पकड़ लिया, जहां से इच्छाएं हाथ के बाहर हो जाती हैं, तो आप अपने मालिक हो सकते हैं।

अर्जुन आखिरी घड़ी में, जब कि सब हो चुका, बस आखिरी परिणाम होने को है, वहां आकर डांवाडोल हो गया है।

और ध्यान रहे, सभी लोग वहीं आकर डांवाडोल होते हैं। क्योंकि जब पूरी चीजें प्रकट होती हैं, तभी हमें होश आता है। पहले तो चीजें छिपी—छिपी चलती हैं। बहुत धाराओं में चलती हैं। छोटे—छोटे झरने बहते हैं। फिर सब झरने मिलकर जब बड़ा विराट नद बन जाता है, तब हमें दिखाई पड़ता है। फिर हमें लगता है, यह हमने क्या कर लिया! फिर हम भागना चाहते हैं। लेकिन अब घटना हम से बड़ी हो गई। और अब भागने का कोई उपाय नहीं है। अब पीछे हटने का कोई उपाय नहीं है।

अर्जुन उस घड़ी में बात कर रहा है, जहां कि चीजें स्वचालित हो गई हैं, जहां कि युद्ध अस्तित्व की घटना बन गई है। इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। जहां युद्ध से अब लौटने का कोई उपाय नहीं, जहां युद्ध होगा। पानी सौ डिग्री तक गरम हो चुका। अगर हम नीचे से अंगारे भी निकाल लें, तो भी भाप बनेगी। यह भाप का बनना अब एक नैसर्गिक कृत्य हो गया है। और इसी घड़ी में आदमी घबड़ाता है। लेकिन उसकी घबड़ाहट व्यर्थ है। रुकना था, पहले रुक जाना था।

यह जो अर्जुन आखिरी क्षण में डांवाडोल हो रहा है। सभी का मन होता है। नियम यह है कि या तो पहले क्षण में सजग हो जाएं और वासना की यात्रा पर न निकलें। और अगर कोई वासना अंतिम क्षण में पहुंच गई हो, तो घबडाएं मत। अब निमित्त होकर उसे पूरा हो जाने दें। निमित्त होकर पूरा हो जाने दें!

पहले क्षण में आप मालिक हो सकते हैं, निमित्त होने की जरूरत न थी। यहीं कृष्ण, महावीर की साधनाओं का भेद है। और इसलिए लोगों को लगता है कि ये तो बड़ी विपरीत बातें हैं।

जैन गीता को कोई आदर नहीं दे सकते, क्योंकि पूरे पहलू अलग हैं। गीता है वासना के आखिरी क्षण में साधना। महावीर की साधना के सारे सूत्र पहले क्षण में हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, अपने मालिक बनो। क्योंकि अगर पहले क्षण में कोई निमित्त बन गया, तो व्यर्थ बह जाएगा वासना में। पहले क्षण में मालिक बन सकता है। ‘ जब तक इच्छा के अंतर्गत है सब, तब तक हम उसका त्याग कर सकते हैं। पहले क्षण में निमित्त बनने की कोई भी जरूरत नहीं है। और जो पहले क्षण में मालिक बन जाता है, उसे निमित्त बनने की कभी भी जरूरत नहीं पड़ेगी। अंतिम क्षण आएगा नहीं।

इसलिए महावीर की और कृष्ण की साधनाएं बिलकुल विपरीत मालूम पड़ेगी। और जो नहीं समझ सकते हैं, सिर्फ शास्त्र पढ़ते हैं, उनको लगेगा कि वे विरोधी हैं। वे विरोधी नहीं हैं।

जैसे कि कोई आदमी पानी गरम कर रहा है, और अभी उसने आग जलाई ही है। हम कहते हैं, अंगार बाहर खींच लो। अभी रुक सकती है बात। अभी पानी गरम भी नहीं हुआ था। अभी कुनकुना भी नहीं हुआ था। अभी भाप बनना बहुत दूर था। अभी आंच पकड़ी ही नहीं थी पानी को। अभी पानी अपनी जगह था, आपने चूल्हा जलाया ही था। अभी अंगारे, ईंधन वापस खींचा जा सकता है। महावीर कहते हैं, पहले क्षण में रुक जाओ, आधे के बाद रुकना मुश्किल हो जाएगा, चीजें तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर हो जाएंगी। और निश्चित ही, जो पहले क्षण में नहीं रुक सकता, वह आधे में कैसे रुकेगा? क्योंकि पहले में चीजें बहुत कमजोर थीं, तब तुम न रुक सके! आधी में तो बहुत मजबूत हो गईं, तब तुम कैसे रुकोगे? और जब अंतिम, निन्यानबे डिग्री पर पानी पहुंच गया, तब तो तुम कैसे रुकोगे!

अगर महावीर से अर्जुन पूछता, तो वे कहते, जिस दिन तू द्रौपदी को स्वयंवर करने चला गया था, उसी दिन लौट आना था। वह पहला क्षण था। लेकिन कोई सोच भी नहीं सकता कि महाभारत का यह महायुद्ध द्रौपदी के स्वयंवर से शुरू होगा!

बीज में वृक्ष नहीं देखे जा सकते। जो देख ले, वह धन्यभागी है। वह वहीं रुक जाएगा। वह बीज को बोएगा नहीं। वृक्ष के फलों का कोई सवाल नहीं उठेगा।

लेकिन कृष्ण के सामने सवाल बिलकुल अन्यथा है। अंतिम क्षण है। घटना घटकर रहेगी। चीजें उस जगह पहुंच गई हैं, जहां से लौटाई नहीं जा सकतीं। चीजों ने अपनी गति ले ली है। स्वचालित हो गई हैं। अब युद्ध अवश्यंभावी है, भाग्य है, अब वह नियति है। इस क्षण में क्या करना?

इस क्षण में कृष्ण कहते हैं, तू निमित्त बन जा। अब तू कर्ता की तरह सोच ही मत। अब तू यह निर्णय ही मत ले। अब निर्णय अस्तित्व के हाथ छोड़ दे। तू सिर्फ एक उपकरण की तरह, जो हो रहा है उसे हो जाने दे। तू सिर्फ साक्षी रह और उपकरण बन।

जो व्यक्ति पहले क्षण में रुक जाए, उसे निमित्त बनने की कभी जरूरत न पड़ेगी। इसलिए महावीर की साधना में निमित्त शब्द का उपाय ही नहीं है, उपकरण बनने की बात ही फिजूल है। जो व्यक्ति किसी वासना के अंतिम चरण में साक्षी और निमित्त बन जाए, वह दूसरी वासना के प्रथम क्षण में कभी कदम नहीं उठाएगा। जो पहले कदम पर रुक जाए, उसे अंतिम तक पहुंचने का कोई कारण नहीं है। जो अंतिम पर निमित्त बन जाए, उस साक्षी भाव में वह चीजों को इतनी प्रगाढ़ता में देख लेगा कि दूसरी कोई भी वासना बीज की तरह उसको धोखा नहीं दे पाएगी।

अगर अर्जुन इस युद्ध में निमित्त बनकर गुजर जाए, तो कोई दूसरी द्रौपदी उसे कभी नहीं लुभाएगी। फिर कोई वासना का बीज, जहां से उपद्रव शुरू होता है, उसे पकड़ेगा नहीं। वह आर—पार देखने में समर्थ हो जाएगा, उसकी दृष्टि पारदर्शी हो जाएगी।

अंतिम क्षण में निमित्त और पहले क्षण में मालिक, ये साधना के सूत्र हैं। और दो में से एक काफी है। क्योंकि दूसरे की जरूरत नहीं पड़ेगी।

गानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर तेरे लिए कहूंगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं।

इस संसार से मुक्त होकर…।

संसार को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। संसार वह नहीं है, जो आपके चारों तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ता है। संसार वह है, जो आपके मन के चारों तरफ आपने बो रखा है। और अगर इस बाहर के संसार से आपका कोई भी संबंध है, तो इस भीतर के मन की बुनावट के कारण है।

इस बाहर के संसार को मिटाने, छोड़ने, भागने का कोई अर्थ नहीं है। इस भीतर मन की जड़ों को, इस मन के जाल को, जिससे आप देखते हैं चारों तरफ, जिससे परमात्मा आपको संसार जैसा दिखाई पड़ता है, इन वासनाओं के परदों को या चश्मों को अलग कर लेने की बात है।

नहीं तो परम ज्ञान संसार से कैसे मुक्त करेगा! संसार तो रहेगा ज्ञानी के लिए भी। कृष्ण के लिए भी संसार है। बुद्ध के लिए भी संसार है। आपके लिए भी संसार है। संसार तो ज्ञानी के लिए भी है। लेकिन ज्ञानी के पास मन नहीं है, इसलिए इसी संसार को वह किसी और ढंग से देखने में समर्थ हो जाता है। यह संसार तब उसे ब्रह्म—स्वरूप दिखाई पड़ता है। इस संसार में तब उसे वह सारा उपद्रव, वह सारा युद्ध, वह सारा विग्रह नहीं दिखाई पड़ता, जो हमें दिखाई पड़ता है। यह सारा जो प्रपंच का जाल हमें दिखाई पड़ता है। यह हमारे मन का विभाजन है।

ऐसा समझें कि एक प्रिज्‍म में से कोई सूरज की किरण को निकालता है। जैसे ही सूरज की किरण प्रिज्‍म को पार करती है कि सात हिस्सों में टूट जाती है, सात रंगों में टूट जाती है, इंद्रधनुष पैदा हो जाता है। इंद्रधनुष इसी तरह बनता है। हवा में अटके हुए पानी के कण प्रिज्‍म का काम करते हैं। उन पानी के कणों से जैसे ही सूरज की किरण गुजरती है, वह सात हिस्सों में टूट जाती है। इंद्रधनुष निर्मित हो जाता है। सूरज की किरण में कोई भी रंग नहीं है, टूटकर सात रंग हो जाते हैं। सूरज की किरण रंगहीन है, टूटकर इंद्रधनुष बन जाती है।

जगत में कोई भेद नहीं, कोई प्रकार नहीं, कोई रंग नहीं। लेकिन मन के प्रिज्‍म से दिखाई पड़ने पर बहुत रंगीन हो जाता है, इंद्रधनुष की तरह हो जाता है। जगत हमारे मन से देखा गया ब्रह्म है। और जब मन से जगत देखा जाता है, अस्तित्व देखा जाता है, तो संसार निर्मित हो जाता है। संसार टूटा हुआ इंद्रधनुष है। किसी भी भाति प्रिज्‍म बीच से हट जाए तो इंद्रधनुष खो जाएगा और बिना रंग की शुद्ध किरण शेष रह जाएगी, रूप—रंगहीन। अदृश्य किरण शेष रह जाएगी।

संसार अर्थात मन। इस शब्द के कारण बड़ी भांति हुई। क्योंकि निरंतर ज्ञानीजन कहते रहे, संसार से ऊपर उठो। और अज्ञानीजन समझते रहे कि बाहर जो संसार फैला है, इससे भागो। इससे ऊपर उठो, मतलब हिमालय चले जाओ। कोई ऊंची जगह खोज लो, जहां संसार से ऊपर उठ गए। दूर हट जाओ इससे।

और इंद्रधनुष से जो भागता है, उससे ज्यादा पागल और कौन है! इंद्रधनुष न दिखाई पड़े, ऐसी दृष्टि चाहिए। यह दृष्टि भीतरी घटना है।

इसलिए कृष्ण कह सकते हैं, ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान मैं तुझसे फिर से कहूंगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।

संसार से मुक्त होना अर्थात मन से मुक्त होना। और मन से जो मुक्त हुआ, वह परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि वह भीतर छिपी है सिद्धि। वह स्वभाव, वह परम निर्वाण या मोक्ष भीतर छिपा है।

जैसे ही मन नहीं, कि हमें अपने होने का पता चल जाता है कि हम कौन हैं। इस मन के कारण न तो हमें अस्तित्व की वास्तविकता दिखाई पड़ती है और न अपनी। यह प्रिज्म दोहरा है। यह संसार को तोड़ता है, बाहर अस्तित्व को तोड़ता है और भीतर स्वयं को तोडता है। तो भीतर हमें सिवाय विचारों के, वासनाओं के और कुछ भी दिखाई नहीं पडता।

धम ने कहा है कि जब भी मैं अपने भीतर जाता हूं, तो मुझे सिवाय वासनाओं के, विचारों के, कामनाओं के, कल्पनाओं के, स्वभों के और कुछ भी नहीं मिलता। और लोग कहते हैं, भीतर जाओ तो आत्मा मिलेगी। झूम ने कहा है कि अनुभव से मैं कहता हूं कि भीतर बहुत बार जाकर देखा, आत्मा कभी नहीं मिलती। और हजार चीजें मिलती हैं।

आप भी प्रयोग करेंगे, तो झुम से राजी होंगे। प्रयोग नहीं करते, इसलिए आप सोचते हैं, भीतर आत्मा छिपी है। भीतर जाते ही नहीं, इसलिए कभी मौका ही नहीं आता कि आप समझ सकें कि भीतर आपको क्या मिलेगा। आप भी भीतर जाएंगे तो अम से राजी होंगे। क्योंकि जब तक मन से छुटकारा न हो, तब तक भीतर भी इंद्रधनुष मिलेगा, सात रंग मिलेंगे, वास्तविक किरण नहीं मिलेगी, मौलिक किरण नहीं मिलेगी।

यह प्रिज्‍म दोहरा है। बाहर तोड़ता है, अस्तित्व संसार हो जाता है। भीतर तोड़ता है, अस्तित्व विचारों में बंट जाता है। भीतर प्रतिपल विचार चल रहे हैं।

यह संसार शब्द और भी सोचने जैसा है। संसार शब्द का मतलब होता है, चाक, दि व्हील। संसार का मतलब होता है, जो घूमता रहता है गाड़ी के चाक की तरह।

कभी आपने अपने मन के संबंध में सोचा कि मन बिलकुल गाड़ी के चाक की तरह घूमता है। वही—वही विचार बार—बार घूमते रहते हैं। आप एक दिन की डायरी बनाकर देखें। सुबह से उठकर लिखना शुरू करें शाम तक। आप बडे चकित हो जाएंगे कि आपके पास बड़ी दरिद्रता है, विचार की भी दरिद्रता है। वही विचार फिर घड़ी, आधा घड़ी बाद आ जाता है।

और अगर आप एक दो—चार महीने की डायरी ईमानदारी से रखें, तो आप पाएंगे कि इन विचारों के बीच वैसी ही श्रृंखला है, जैसी गाड़ी में लगे हुए आरों की होती है। वही स्पोक फिर आ जाता है, फिर आ जाता है, फिर आ जाता है। रिकरेंस, पुनरावृत्ति भीतर होती रहती है।

एक बहुत बडा वैज्ञानिक इस संबंध में अध्ययन कर रहा था, तो बहुत हैरान हुआ। क्योंकि अगर हम सोच लें कि एक विचार एक सेकेंड लेता हो, क्योंकि विचार ज्यादा वक्त नहीं लेता, एक सेकेंड में झलक आ जाती है, तो आप एक मिनट में कम से कम साठ विचार करते हैं। फिर इस साठ में आप और साठ का गुणा करें, तो एक घंटे में इतने विचार। फिर इसमें आप चौबीस का गुणा करें, तो एक दिन में इतने विचार। कई लाख विचार! बड़े से बड़ा विचारक भी कई लाख विचार एक दिन में दावा नहीं कर सकता।

तो आप भीतर बड़ी दरिद्रता पाएंगे। वे ही विचार! फिर तो आपको खुद भी हंसी आएगी कि मैं कर क्या रहा हूं! जिस बात को मैं हजार दफा सोच चुका हूं उसको फिर सोच रहा हूं। वे ही शब्द हैं, वे ही भीतर भाव हैं, वे ही मुद्राएं हैं। फिर वही दोहर रहा है यंत्रवत।

बाहर संसार भी दौड़ रहा है। वर्षा आएगी, सर्दी आएगी, गरमी आएगी, मौसम घूम रहे हैं। सूरज निकलेगा, डूबेगा; चांद बडा होगा, छोटा होगा। वर्तुल है। सारी चीजें वर्तुल में घूम रही हैं, बाहर भी और भीतर भी। व्हील्स विदिन व्हील्स, चाको के भीतर छोटे चाक घूम रहे हैं। उनके भीतर और छोटे चाक घूम रहे हैं।

अपनी घड़ी खोलकर भीतर देखें, उसमें जैसी हालत है, वैसी आपके मन की है। चाक हैं। बहुत—से चाक हैं। और एक चाक दूसरे को घुमा रहा है, दूसरा तीसरे को घुमा रहा है, सब घूम रहे हैं। लेकिन कुछ बंधे हुए विचार हैं, वे ही दौड रहे हैं बार—बार। इसलिए भारत कहता रहा है कि बाहर भी संसार है, भीतर भी संसार है। क्योंकि वर्तुलाकार गति है। और जब तक इन चाको से आप मुक्त न हो जाएं, तब तक सिद्ध न होंगे।

सिद्ध का अर्थ है, जो घूमने के बाहर हो गया।

प्रदर्शनियां लगती हैं, मेले भरते हैं, तो बच्चों के लिए घूमने के झूले होते है। घोडे है, हाथी है, शेर है—झूलों में। बच्‍चे उन पर बैठे हैं और झूले चक्कर’ काट रहे, हैं। और बच्चे बड़ा आनंद लेते हैं, जितने जोर से चक्कर चलता है। और बच्चों को ऐसा लगता है, कहीं पहुंच रहे हैं। यात्रा बहुत होती है, पहुंचते कहीं भी नहीं हैं। वह अपनी जगह पर घूम रहा है। शेर, हाथी, घोड़े, उन पर बैठने का मजा; फिर इतनी तेज गति; कहीं पहुंचने का खयाल बड़ा रस देता है।

करीब—करीब हम सब वैसी ही बच्चों की हालत मे हैं। थोड़ा हमारा झूला बड़ा है और वहां भी हाथी, घोड़े हैं।

अभी आप देखते हैं, पेट्रोल की कमी है, तो इंदिरा तांगे पर बैठकर..। इस मुल्क में अकल कभी आ नहीं सकती। अटल ‘ बिहारी बाजपेयी बैलगाड़ी पर बैठे हैं। पीलू मोदी ने कहा कि वे हाथी पर पहुंचेंगे। और मैं सोचता रहा कि गधे पर किसी को जरूर। क्योंकि वह राष्ट्रीय पशु है। वह चरित्र का प्रतीक है।

हमारी सब जीवन की व्यवस्था ऐसी ही है, बचकानी है। छोटे पद हैं, बड़े पद हैं, धन है, महल है, प्रतिष्ठाएं हैं; पद्य— भूषण हैं, भारतरत्न हैं, सब बैठे हैं, कोई अपने घोडे पर, कोई हाथी पर; चक्कर चल रहे हैं। जब तक कि कोई आपको उतार ही न दे! बच्चे भी बड़ी दिक्कत देते हैं झूले से उतरने में। जब तक कि मां —बाप उनको उतार ही न दें। रोते —चीखते वे बैठे हैं। जब तक इनको भी कोई उतार ही न ले इन घोड़ों पर से, तब तक वे अपनी तरफ से नहीं उतरते।

यह सारा का सारा। और पहुंचना कहीं भी नहीं है। यात्रा बहुत है। तेज गति है। भाव जरूर है कि कहीं पहुंच जाएंगे।

सिद्धि का अर्थ है ऐसी जगह, जहां से कहीं और जाने का भाव न उठे। जब तक कहीं जाने का भाव उठता है, तब तक संसार। सिद्धि का अर्थ है, जहां आप हैं, वही परम स्थान। उसके अतिरिक्त कहीं जाने का कोई भाव नहीं है। कोई मोक्ष भी सामने लाकर रख दे, तो आप आख बंद कर लें कि अपन पहले ही मोक्ष में बैठे हैं।

नान—इन के संबंध में कथा है—एक झेन फकीर। एक पहाड की तलहटी पर, जहां पहाड़ पर ऊपर एक तीर्थ था और हजारों यात्री वर्ष में यात्रा करते थे पैदल पहाड़ पर, नान—इन पहाड़ की तलहटी में एक झाड़ के नीचे लेटा रहता था। अनेक साधु—भिक्षु भी यात्रा पर जाते थे। अज्ञानियों का कोई गृहस्थों से संबंध नहीं है। साधु —संन्यासी भी वैसे ही अज्ञान में हैं। भिक्षु भी, संन्यासी भी, वे भी पहाड़ पर यात्रा करने जाते हैं। जैसे वहा कुछ हो! नान—इन झाडू के नीचे पडा रहता था।

एक दिन कुछ भिक्षुओं ने उसे देखा। वे भी विश्राम करने उसके वृक्ष के पास रुके थे। उन्होंने कहा, नान—इन, हम हर वर्ष यात्रा पर। आते हैं। तुम इस झाडू के नीचे कब तक पड़े रहोगे? यात्रा नहीं करनी है? हमने तुम्हें कभी तीर्थ के उस मंदिर में नहीं देखा, पहाड़ की चोटी पर नहीं देखा!

नान—इन ने कहा कि तुम जाओ। हम वहीं हैं, जहां तीर्थ है। हम उस जगह बहुत पहले पहुंच गए हैं। जहां तुम पहाड़ पर खोज रहे हो जिस जगह को, उस जगह तो हम बहुत पहले पहुंच गए हैं। हम तीर्थ में हैं। और नान—इन जहां होता है, वहीं तीर्थ होता है।

समझा उन्होंने कि यह आदमी पक्का नास्तिक मालूम होता है, अहंकारी मालूम होता है। क्योंकि नान—इन ने कहा, नान—इन जहां होता है, वहीं तीर्थ है। तीर्थ हमारे साथ चलता है। तीर्थ हमारी हवा है। हम तीर्थ में नहीं जाते।

लेकिन यह नान—इन ठीक कह रहा है। एक सिद्ध पुरुष के वचन हैं।

जिस दिन कहीं जाने को कुछ शेष न रह जाए! कब होगा ऐसा? ऐसा तभी होगा, जब कोई वासना न रह जाएगी। जब तक कोई वासना है, तब तक कहीं जाने का मन बना ही रहेगा।

वासनाग्रस्त आदमी कहीं न कहीं जा रहा है, जाने की सोच रहा है; योजना बना रहा है, मगर जा रहा है। वस्तुत: न जा रहा हो, तो कल्पना में जा रहा है। लेकिन वासनाग्रस्त आदमी कहीं न कहीं जा रहा है। एक बात पक्की है, वासनाग्रस्त आदमी वहां नहीं मिलेगा, जहां वह है। वहा आप उसको नहीं खोज सकते। अपने घर में वह कभी नहीं ठहरता। वह हमेशा कहीं और अतिथि है।

सिद्ध पुरुष का अर्थ है, जो अपने घर में आ गया, जो अब वहीं है, जहां है। उससे अन्यथा जाने का कोई भाव नहीं। उससे अन्यथा जाने की कहीं कोई वृत्ति नहीं। उससे अन्यथा होने की कोई कामना नहीं। जो है, जहां है, जैसा है, राजी है। और यह राजीपन पूरा है। इस संसार से मुक्त होकर ज्ञानीजन जिस ज्ञान को पाकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं, वह मैं फिर से तेरे लिए कहूंगा। हे अर्जुन, इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं।

इस ज्ञान को आश्रय करके, धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त ! हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में व्याकुल नहीं होते।

जो व्यक्ति अपने स्वभाव में ठहर गया, ज्ञान में ठहर गया, जिसे। कुछ जानने को शेष न रहा और जिसे पहुंचने को कोई जगह न रही, जो विश्राम को उपलब्ध हो गया, जो सिद्ध हो गया, कृष्ण कह रहे हैं, ऐसा पुरुष फिर न तो पैदा होता है और न वस्तुत: मरता है। सृष्टियां पैदा होती रहेंगी, लेकिन सृष्टि का जाल फिर उसे अपने चक्र में न खींच पाएगा। चक्र घूमते रहेंगे सृष्टि के, लेकिन सृष्टि का कोई भी आरा फिर उस पुरुष को अपनी ओर आकर्षित न कर पाएगा। क्योंकि जिसको जाने की कहीं वासना न रही, वह सृष्टि में भी नहीं जाएगा।

सृष्टि में हम जाते इसीलिए हैं, पैदा हम इसीलिए होते हैं, कि हमें कहीं पहुंचना है। यह हमारा पैदा होना भी वाहन है। यह शरीर भी हमारी यात्रा का वाहन है। इसे हमने चुना है किन्हीं वासनाओं के ‘ कारण। कुछ हम करना चाहते हैं, बिना शरीर के वह न हो सकेगा। जो लोग प्रेतात्माओं का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि प्रेतात्माओं की एक ही पीड़ा है कि उनके पास वासनाएं तो वही हैं, जो आपके पास हैं, लेकिन वासनाओं को पूरा करवा सके, ऐसा कोई उपकरण नहीं है। क्रोध उनको भी आता है, लेकिन चांटा मारना मुश्किल है, क्योंकि हाथ नहीं हैं। कामवासना उनको भी जगती है, लेकिन कामवासना का कोई यंत्र उनके पास नहीं है कि संभोग कर सकें।

इसलिए प्रेतात्मविद कहते हैं कि ऐसी आत्माएं निरंतर कोशिश में होती हैं कि किसी घर में मेहमान हो जाएं, किसी व्यक्ति के शरीर में मेहमान हो जाएं। और अगर आप थोड़े कमजोर हैं, संकल्प से थोड़े हीन हैं…….।

संकल्पहीन आदमी का मतलब होता है, जो सिकुड़ा हुआ है, जिसके भीतर खाली जगह है। संकल्पवान आदमी का अर्थ होता है, जो फैला हुआ है, जिसके भीतर कोई जगह नहीं है। सच में जो अपने शरीर से बाहर भी जी रहा है। भीतर की तो बात ही अलग। जो फैलकर जी रहा है। ऐसे व्यक्ति में प्रेतात्माएं प्रवेश नहीं कर पाती हैं।

लेकिन जो सिकुड़कर जी रहा है, डरा हुआ। डरे हुए का मतलब, सिकुड़ा हुआ। जो अपने ही घर में एक कोने में छिपा है, बाकी घर जिसने खाली छोड़ रखा है। जिसका शरीर भी बहुत—सा खाली पड़ा है। उसमें कोई प्रेतात्मा प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि प्रेतात्मा कोशिश में है, शरीर मिल जाए तो वासनाएं पूरी हो सकें।

आप भी शरीर में इसीलिए प्रविष्ट हुए हैं, गर्भ में इसीलिए प्रविष्ट हुए हैं कि कुछ वासनाएं हैं, जो अधूरी रह गई हैं। पिछले मरते क्षण में कुछ वासनाएं थीं, जो आपके मन में अधूरी रह गई हैं, वे आपको खींच लाई हैं। मरते क्षण में आदमी की जो वासना होती है, वही वासना उसके नए जन्म का कारण बनती है। या मरते क्षण में उसके जीवनभर का जो सार—निचोड़ होता है उसकी आकांक्षाओं का, वही उसे धक्का देता है नए गर्भ में प्रविष्ट हो जाने का।

कृष्ण कहते हैं, जो सिद्ध पुरुष है। वह साधारण जन्म—मरण में तो फंसेगा ही नहीं, साधारण गर्भ में तो प्रवेश ही नहीं करेगा।

क्योंकि जिसको कहीं जाना नहीं, वह ट्रेन में किसलिए सवार हो! वह किसलिए टिकट खरीदेगा जाकर क्यू में खड़े होकर! किसलिए धक्के खाएगा! कोई कारण नहीं है। उसे कहीं जाना नहीं है।

शरीर एक यात्रा—वाहन है। और गर्भ के द्वार पर वैसा ही क्यू है, ! जैसा किसी भी यात्रा—वाहन पर लगा हो ‘ वहां भी उतनी ही ! धक्का—मुक्की है। वहां भी गर्भ में प्रवेश करने के लिए उतना ही संघर्ष है।

क्या आपको पता है, एक संभोग में कोई एक करोड़ जीव—कोष गर्भ में प्रवेश करते हैं! उनमें से एक, वह भी कभी—कभी, शरीर ग्रहण कर पाता है। बायोलाजिस्ट कहते हैं कि दौड़ संघर्ष की वहीं शुरू हो जाती है, संभोग के क्षण में। जैसे ही पुरुष का वीर्य प्रवेश करता है स्त्री में, एक करोड़ कम से कम, ज्यादा से ज्यादा दस करोड़, एक संभोग के क्षण में इतने जीव—कण स्त्री में छिपे हुए अंडे की तरफ दौड़ना शुरू करते हैं।

यह दौड़ बड़ी लंबी है; उनके हिसाब से बहुत लंबी है। क्योंकि जीव—क्या बहुत छोटा है; खाली आख से दिखाई नहीं पड़ सकता। उतने छोटे जीव—क्या के लिए कोई थोड़े से इंचों की दौड़ उतनी ही है कि अगर जीव को आपके बराबर कर दिया जाए अनुपात में, तो दो मील का फासला है। उस अनुपात में वीर्य—कण को करीब—करीब दो मील का फासला पार करना पड़ रहा है, स्त्री के अंडे तक पहुंचने में। अगर वीर्य—कण आपके बराबर हों, तो फासला दो मील के बराबर होगा।

छ: घंटे के बीच उस छोटे—से जीवाणु को.। और भयंकर संघर्ष है, क्योंकि एक करोड़ जीवाणु भी भाग रहे हैं। आपकी सड़क पर ट्रैफिक में वैसा जाम नहीं है। वे सभी एक करोड़ जीव—कोष उतनी ही कोशिश कर रहे हैं कि अंडे तक पहुंच जाएं। क्योंकि उस अंडे में छिपा है शरीर, जहां से व्यक्ति पैदा होगा और यंत्र उपलब्ध हो जाएगा।

बायोलाजिस्ट कहते हैं कि इस दुनिया में जो प्रतियोगिता दिखाई पड़ रही है, वह कुछ भी नहीं है। जिसको बाजार में गलाघोंट प्रतियोगिता कहते हैं, थोट कट कांपिटीशन, वह कुछ भी नहीं है। क्योंकि एक करोड़ में से एक पहुंच पाएगा अंडे तक। जो पहले पहुंच जाएगा, वह प्रवेश कर लेगा। और अंडा कुछ इस भांति का है कि जैसे ही एक जीव—कोष प्रवेश करता है, अंडे के द्वार बंद हो जाते हैं। फिर दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता।

इसीलिए कभी—कभी दो बच्चे एक साथ पैदा हो जाते हैं, अगर दो जीव—कोष बिलकुल एक साथ पहुंच जाएं अंडे के द्वार पर, तो दोनों प्रवेश कर जाते हैं। लेकिन ऐसा मुश्किल से होता है। दोनों बिलकुल एक साथ, युगपत—स्व क्षण के हजारवें हिस्से का भी फासला न हो—तो दो; या तीन भी कभी हो जाते हैं, चार भी कभी हो जाते हैं।

एक व्यक्ति जीवन में कोई चार हजार संभोग करता है। चार हजार संभोग में, कोई अगर पुराने ढंग का भारतीय हो, तो ज्यादा से ज्यादा बीस बच्चे पैदा कर सकता है। चार हजार संभोग में बीस मौके हैं कुल, और प्रत्येक संभोग में कोई एक करोड़ से दस करोड़ तक जीवाणु यात्रा करेंगे।

जितने लोग इस समय पृथ्वी पर हैं, कोई चार अरब, एक—एक व्यक्ति के भीतर चार अरब जीव—कोष हैं। एक व्यक्ति इतनी पूरी पृथ्वी को पैदा कर सकता है। लेकिन पैदा होंगे दस बच्चे, बीस बच्चे ज्यादा से ज्यादा। दो—चार बच्चे सामान्यतया।

इतना भयंकर संघर्ष है। इतना भयंकर युद्ध है। वहा भी क्यू है! इतनी आत्माएं दौड़ती हैं, एक शरीर को पकड़ने को। बड़ी वासना होगी।

बायोलाजिस्ट चकित हैं कि छोटा—सा जीव—क्या इतनी स्पर्धा से दौड़ता है, इतनी त्वरा से दौडता है, इतनी तेजी से दौड़ता है। सब तरह से कोशिश करता है कि दूसरों को पीछे छोड़ दे और आगे निकल जाए। उससे पता लगता है कि आत्माएं कितने जोर से शरीर को पकड़ने की चेष्टाएं कर रही होंगी। कितनी विराट वासना भीतर धक्के नहीं दे रही होगी!

साधारणत: सिद्ध पुरुष इस गर्भ में पैदा होना, जन्म को लेना और मृत्यु से तो छूट ही जाता है।

लेकिन जब पूरी सृष्टि भी इसी भांति विलीन होती है, जैसे हर व्यक्ति मरता है..। हर वस्तु मरती है, ऐसा पूरी सृष्टि भी मरती है। क्योंकि पूरी सृष्टि का प्रारंभ होता है, तो अंत भी होता है। पूरी सृष्टि के प्रारंभ में और अंत के क्षण में भी, जब सब जन्मता है फिर से, सब ताजा होता है फिर से, तब भी सिद्ध पुरुष डांवाडोल नहीं होता। क्योंकि यहा भी कुछ पाने को नहीं है।

पूरी सृष्टि फिर से बन रही है, फिर से जीवन जग रहा है, फिर सूरज और चांद—तारे पैदा हो रहे हैं; फिर पृथ्वियां बसेंगी, फिर सारे खेल का विस्तार होगा। इस विराट सृष्टि के कम में भी वह दूर खड़ा रह जाता है, अपनी जगह तृप्त। यह विराट आयोजन भी उसे बुला नहीं सकता, इसका भी कोई निमंत्रण कारगर नहीं है। उसे अब कोई नहीं हिला सकता।

और जब पूरी सृष्टि भी नष्ट होगी, प्रलय होगा और भयंकर पीड़ा होगी…। क्योंकि एक—एक व्यक्ति के मरने पर हम समझते हैं, कितनी पीड़ा और कितना दुख और कितना संताप है। जब पूरी सृष्टि अंतिम क्षण में प्रलय में लीन होती है, भयंकर हाहाकार; उससे बड़े हाहाकार की हम कोई कल्पना नहीं कर सकते। दुख अपनी चरम अवस्था पर होगा। उस क्षण में भी, कृष्ण कहते हैं, प्रलयकाल में भी सिद्ध पुरुष व्याकुल नहीं होता है।

जिसकी कोई वासना नहीं है, उसकी कोई पीड़ा भी नहीं है। जिसकी कोई वासना नहीं है, दूसरे की भी पीड़ा देखकर उसको दया आ सकती है, व्याकुलता नहीं होती। इस फर्क को समझ लेना चाहिए।

अगर बुद्ध के सामने आप मर रहे हों, तो बुद्ध व्याकुल नहीं होते। दया आ सकती है। दया आपकी मूढ़ता पर आती है। क्योंकि दुख आपका सृजित किया हुआ है। ऐसे जैसे एक बच्चा रो रहा है, क्योंकि उसकी गुडिया की टांग टूट गई है। रोने में कोई भेद नहीं है। रोना वास्तविक है। टांग चाहे गुड़िया की हो, चाहे पत्नी की हो। टल असली हो कि नकली हो, यह दूसरी बात है, लेकिन बच्चे के आसुरों में तो कोई झूठ नहीं है।

एक बच्चे की गुड़िया की टल टूट गई है, बच्चा रो रहा है आपके सामने। आप दुखी होते हैं या दया से भरते हैं? आप व्याकुल होते हैं या करुणा से भरते हैं? या आपको बच्चे पर दया आती है कि बेचारा! इसे कुछ पता नहीं है कि यह गुड़िया मरी ही हुई है। इसमें कुछ टूटने का मामला नहीं है। यह टल टूटी ही हुई थी।

इस बच्चे को आप खिलाते हैं, हंसाते हैं; डुलाते हैं, दूसरी गुड़िया पकड़ाते हैं। लेकिन आप गंभीर नहीं हैं। यह एक खेल था, जिसको बच्चे ने ज्यादा गंभीरता से ले लिया, इसलिए दुखी हो रहा है। बच्चा गुड़िया के कारण दुखी नहीं हो रहा है, अपनी गंभीरता और मूढूता के कारण दुखी हो रहा है।

बुद्ध जब आपको पीड़ा में देखते हैं, तब वे जानते हैं कि आपकी पीड़ा भी बचकानी है।

किसी का घर जल गया है, जो उसका था ही नहीं। किसी की पत्नी मर गई है। कौन किसका हो सकता है? किसी का पति खो गया है। जो कभी अपना नहीं था, वह खो कैसे सकता है? किसी का धन चोरी चला गया है। इस जगत में कोई मालकियत सच नहीं है, चोरी कैसे हो सकती है? यहां मालिक झूठे हैं, चोर झूठे हैं। चोर इसलिए हैं कि मालिक हैं। एक झूठ दूसरे झूठ को पैदा करता है। तो बुद्ध दया कर सकते हैं। और अगर आप बहुत ही रोएं—गाएं, तो वे आपको समझा—बुझा भी सकते हैं। लेकिन वह समझाना—बुझाना सिर्फ दयावश है। इसमें कोई व्याकुलता नहीं है। ‘ जिस दिन पूरी सृष्टि भी विनष्ट हो रही हो, उस दिन भी सिद्ध पुरुष, कृष्ण कहते हैं, व्याकुल नहीं होता। और अर्जुन व्याकुल हो रहा है, जरा—सा युद्ध खड़ा है उससे। पूरी सृष्टि के हिसाब से वह युद्ध ना—कुछ है। गुड़ियों का खेल है। बड़ा व्याकुल हो रहा है।

कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे वह ज्ञान कहूंगा, फिर से कहूंगा, जिससे प्रलयकाल में भी सिद्ध पुरुष व्याकुल नहीं होते। यह युद्ध तो बिलकुल खेल है।

हे अर्जुन, मेरी महत ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है। और मैं उस योनि में चैतन्यरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस जडु—चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।

त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है।

कृष्ण कहते हैं कि सारा जगत एक गहन स्वप्न से पैदा होता है। जिस जगत को हम देखते हैं, वह वास्तविक कम, स्वप्नमय ज्यादा है। वह पदार्थ से कम बना है और वासना से ज्यादा बना है। उसका निर्माण इच्छाओं के सघनभूत रूप से हुआ है।

इसलिए भारत ने एक शब्द चुना है, जो है माया। यह माया शब्द बहुत अदभुत है। और ऐसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में खोजना आसान नहीं है। क्योंकि ऐसी दृष्टि, ऐसे तत्व के संबंध में खोज किसी और संस्कृति में पैदा नहीं हुई। पश्चिम में जो शब्द है मैटर, पदार्थ, वह माया का ही एक विकृत रूप है। मूल धातु संस्कृत की ‘ वही है मैटर की भी, मात्र, जो माया की है।

लेकिन पश्चिम का विज्ञान कहता है कि जगत मैटर से, पदार्थ से बना है। लेकिन अब पदार्थ की खोज जैसे—जैसे गहरी हुई, वैसे—वैसे उनको पता चला, पदार्थ तो है ही नहीं, बिलकुल माया है पदार्थ। जैसे ही खोज करके वे इलेक्ट्रास पर पहुंचे, वैसे उनको पता चला कि वहां तो पदार्थ है ही नहीं। सिर्फ दिखता था, है नहीं। मौलिक जो आधारभूत तत्व है विद्युत, वह तो अदृश्य है। उसे अब तक किसी ने देखा नहीं। उसे कोई कभी देख भी नहीं सकेगा। वह है भी या नहीं, इसको हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते। पदार्थ दिखाई पड़ता है। और पदार्थ नहीं है, उसका आण्विक रूप, अदृश्य, वही है।

पश्चिम में मैटर का भी अर्थ अब माया ही करना चाहिए। अब कोई फर्क नहीं रहा। मूल धातु वही है। लेकिन अब तो मैटर शब्द का अर्थ भी माया ही हो गया है। माया का अर्थ है, जो दिखाई पड़ती है और है नहीं। जो सब भांति प्रतीत होती है कि है, और है नहीं। तो ध्यान रहे, भारतीय मनीषा की खोज तीन हैं।

एक, सत्य—जो है और दिखाई नहीं पड़ता। उसे हम ब्रह्म कहें, ईश्वर कहें, परमात्मा कहें, जो भी नाम देना चाहें। परम सत्य, जो है और दिखाई नहीं पड़ता।

दूसरा, परम असत्य—जो नहीं है। और नहीं है इसलिए दिखाई पड़ने का कोई कारण ही नहीं है।

और दोनों के मध्य में, माया—जो दिखाई पड़ती है और नहीं है। , ये तीन तल हैं। माया मध्यवर्ती तल है। माया दिखाई पड़ती है ऐसे, जैसे ब्रह्म दिखाई पड़ना चाहिए, जो है, वास्तविक। और माया नहीं है वैसे, जैसे कि असत्य, जो कि है ही नहीं। माया मध्यवर्ती तत्‍व है। भास, एपियरेंस, सिर्फ प्रतीति।

आपकी वासनाएं प्रतीतिया हैं। हैं नहीं; सिर्फ भाव हैं; सिर्फ स्वप्न हैं। और जब तक आप उनको सत्य मानते हैं, तब तक बड़े सत्य मालूम होते हैं। जैसे ही आप जागते हैं, सब असत्य हो जाते हैं।

जिब्रान की एक छोटी—सी कहानी है। एक आदमी एक अजनबी देश में आया। वह उस देश की भाषा नहीं जानता है। एक बड़े महल में उसने लोगों को आते—जाते देखा, तो वह भी भीतर प्रविष्ट हो गया। द्वारपालों ने झुक—झुककर नमस्कार किया, तो उसने समझा कि कोई महाभोज है।

वह एक बहुत बड़ी होटल थी। लोग खा रहे थे। आ रहे थे, जा रहे थे, पी रहे थे। टेबलें भरी थीं। वह भी एक खाली टेबल पर जाकर बैठ गया। एक बैरा आया, सामने उसने भोजन रखा। वह बहुत चकित हुआ। उसने सोचा कि कोई महाभोज है। वह बहुत खुश भी हुआ। उसने सोचा कि यह गांव बड़ा अतिथियों का प्रेमी है। मैं अजनबी, अनजान आदमी, भाषा नहीं जानता, मेरा इतना स्वागत किया जा रहा है!

फिर बैरा ने उसको, जब भोजन पूरा हो गया, तो उसका बिल लाकर दिया। तो वह सोचा कि गजब के लोग हैं! न केवल भोजन देते हैं, बल्कि लिखित धन्यवाद भी देते हैं। तब अडूचन शुरू हुई, क्योंकि बैरा उससे कहने लगा कि वह पैसे चुकाए और वह झुक—झुककर धन्यवाद करने लगा। वे दोनों एक—दूसरे की भाषा समझने में असमर्थ हैं।

आखिर बैरा उसे मैनेजर के पास ले आया। उसने कहा, धन्य मेरे भाग। न केवल महल के नौकर—चाकर सेवा करते हैं, मालिक खुद! वह झुक—झुककर नमस्कार करता, बहुत—बहुत धन्यवाद देता। और मैनेजर ने कहा कि या तो आदमी पागल है और या हद दर्जे का धूर्त है। इसे अदालत ले जाओ।

उसे एक गाड़ी में बैठाकर अदालत ले जाने लगे। उसने सोचा कि ऐसा लगता है कि ये सब इतने प्रसन्न हो गए हैं कि मुझे नगर का जो सम्राट है, उसके पास ले जा रहे हैं। और अदालत बड़ा भवन था, और मजिस्ट्रेट सजा— धजा बैठा हुआ था। बड़ी शानदार रौनक थी। तो वह जाकर झुक—झुककर नमस्कार किया। उसने बहुत धन्यवाद दिए।

मजिस्ट्रेट ने कहा कि यह आदमी कुछ समझ में नहीं आता। इसको कुछ भी कहो, सुनता भी नहीं। वह अपनी ही लगाए हुए है। क्या कह रहा है, इसका भी कुछ पता नहीं चलता। लेकिन इस तरह की घटना दुबारा नहीं घटनी चाहिए। तो उस गांव का रिवाज था, तो उस आदमी को दंड दिया गया कि उसे गधे पर उलटा बैठा दिया जाए और उसकी छाती पर एक तख्ती लटका दी जाए कि यह आदमी धूर्त है। इससे सावधान! नगर में कोई इसका भरोसा न करे।

जब वह गधे पर बैठाया गया उलटा और उसके गले में तख्ती टांगी गई, तब तो उसकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। उसने कहा, न केवल वे प्रसन्न हैं, बल्कि पूरे गांव में घुमाकर लोगों को दिखाना चाहते हैं कि देखो, कैसा अतिथि हमारे गाव में आया है। अभी तक पता भी नहीं था।

वह बड़ा प्रसन्न था। वह बिलकुल अकड़कर बैठा हुआ था। उसकी अकडू, उसकी प्रसन्नता में जरा भी असत्य नहीं है। जो हो रहा है, उसका उसे कुछ पता नहीं है। लेकिन जो वह सोच रहा है, उसका उसे पक्का भरोसा है। वह बहुत खुश है। और उसकी खुशी का कोई अंत नहीं था।

लेकिन एक ही पीड़ा थी कि काश, उसके गांव के लोग भी उसकी यह शान—शौकत—एक भी आदमी देख लेता, उसके घर तक खबर पहुंच जाती कि किस तरह.। जिसके गाव के लोगों ने कभी चिंता न की जिसकी, आज उसका कैसा विराट भव्य स्वागत—समारंभ हो रहा है!

तभी उसे भीड़ में..। बच्चे दौड़ रहे हैं, लोग चल रहे हैं; आस—पास भीड़ इकट्ठी हो गई है, लोग मजा ले रहे हैं। लोग खुश हैं। वह भी बड़ा खुश है और बड़ा प्रसन्न है। तभी उसे एक आदमी दिखाई पड़ा, जो उसके गांव का रहने वाला है, जिसने बहुत साल पहले गांव को छोड़ दिया था। उसे देखकर उसकी छाती फूल गई। उसने कहा, देखो, मेरे भाई.।

लेकिन वह आदमी नीचे सिर झुकाकर भीड़ में सरक गया। क्योंकि वह भाषा समझता था। वह अनेक दिन से वहां था। उसने देखा कि यह कैसा अपमान हो रहा है। लेकिन गधे पर बैठे हुए आदमी ने सोचा, आश्चर्य; ईर्ष्या की भी सीमा होती है! ईर्ष्यावश, कि उसका स्वागत नहीं हुआ और मेरा स्वागत हुआ। तो यह सिर झुकाकर भीड़ में नदारद हो गया।

वह आदमी आनंदित ही घर लौटा। उसने यह कहानी अपने गांव में सब लोगों को कही। जहां तक इसके भीतर के सोचने का संबंध है, सभी कुछ सही जैसा है। लेकिन जहां तक सत्य से संबंध है, कोई भी संबंध नहीं है।

आप जिस जगत में रह रहे हैं, कृष्ण उसको माया कहते हैं। और वे कहते हैं, सारा जन्म इस माया से होता है। माया को वे कहते हैं कि प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है, समस्त भूतों का गर्भस्थल है। वहा से सब पैदा होते हैं। उसी स्वप्न में, उसी वासना में, उसी इच्छा में, कुछ होने, कुछ पाने की दौड में एक विराट स्वप्न का जन्म होता है।

मैं उस योनि में चेतनरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस जड—चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।

माया तो जड़ है, वासना का जगत तो जड़ है। वह पदार्थ है। मेरा अंश उसमें चेतन रूप से प्रविष्ट होता है और जीवन की उत्पत्ति होती है।

इसे हम विस्तार से धीरे— धीरे समझेंगे।

इसमें दो बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। हमारा शरीर दो तत्वों का जोड़ है। एक माया, जिसको हम पदार्थ कहें। और एक चेतन, जिसको हम परमात्मा कहें। मनुष्य दो चीजों का जोड़ है। मनुष्य एक संयोग है, पदार्थ का और परमात्मा का।

मृत्यु में पदार्थ और परमात्मा अलग होते हैं। न तो कोई मरता, न कोई विनष्ट होता। क्योंकि पदार्थ मरा ही हुआ है, उसके मरने का कोई उपाय नहीं। परमात्मा अमृत है, उसके मरने का कोई उपाय नहीं। सिर्फ संयोग टूटता है।

कृष्ण यह कह रहे हैं, वासना के माध्यम से पदार्थ और चेतना में संयोग जुड़ता है—माया के माध्यम से। और ज्ञान के माध्यम से संयोग स्पष्ट हो जाता है कि संयोग है। मृत्यु में संयोग टूटता है।

जन्म में जुड़ता है, मृत्यु में टूटता है। अज्ञान में लगता है कि मैं शरीर हूं; ज्ञान में लगता है, मैं पृथक हूं।

जैसे ही यह बोध किसी व्यक्ति को हो जाता है कि मैं पृथक हूं और शरीर पृथक है; चैतन्य और जड़ अलग—अलग हैं, माया और ब्रह्म अलग—अलग हैं, जैसे ही यह बोध साफ हो जाता है, इस सारे जगत का खेल सिर्फ आभास रह जाता है। युद्धों का होना, लोगों का पैदा होना या मरना, महामारियां, जीवन या मृत्यु, सब एक बड़े नाटक के हिस्से हो जाते हैं। क्योंकि मृत्यु असंभव है। केवल संयोग टूटते हैं, कुछ मरता नहीं। कुछ मर सकता नहीं।

कृष्ण अर्जुन को एक ही बात का बोध दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। वह मृत्यु को देखकर भयभीत है। वह सोच रहा है, मृत्यु होगी। कृष्ण कहते हैं, मृत्यु एक असत्य है, वह माया का एक आभास है। जन्म भी एक असत्य है; वह भी सिर्फ माया का आभास है।

लेकिन जब तक हम माया में होते हैं, तब तक हमें सत्य मालूम होता है। ठीक जैसे रात सपना देखते हैं। सपने के क्षण में तो सपना बिलकुल ही सच मालूम होता है—।

यह जगत एक विराटतर सपना है। कहें कि यह ईश्वर के चित्त में चल रहा सपना है। हमारे सपने निजी होते हैं, यह सपना विराट है। जैसे हम अपने सपने से सुबह जागते हैं और सपना फिजूल हो जाता है, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष इस सपने से जाग जाता है, इस विराट सपने से, और यह सपना व्यर्थ हो जाता है।

सुबह जागकर आप रोते नहीं हैं कि रात मैंने एक आदमी की हत्या कर दी। न सुबह जागकर आप गाव में ढिढोरी पीटते हैं कि रात मैंने एक भूखे आदमी को सपने में रोटी खिला दी। सुबह आप जानते हैं कि सपना सपना था। न तो सपने की हत्या सच थी, और न सपने की सेवा सच थी। न तो पाप का भाव पैदा होता है सुबह, न पुण्य का। सपने को जानते ही कि सपना है, सब भाव खो जाते हैं।

ज्ञानी पुरुष इस विराट सपने से भी जाग जाता है। एक और जागरण है। उस जागरण का नाम ही ध्यान है, समाधि है। उस जागरण में ज्ञानी पुरुष जानता है कि वह जो उसने देखा था—युद्ध थे, शांतिया थीं; प्रेम था, घृणा थी; मित्र थे, शत्रु थे—वे सब स्वभवत खो गए।

कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान मैं तुझे फिर से कहूंगा, वह परम ज्ञान, जिसे जानकर व्यक्ति परम सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है।

आज इतना ही।



Filed under: गीता दर्शन--भाग--7(ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–2) प्रवचन–1

$
0
0

अष्‍टावक्र महागीता—(भाग—2)

ओशो

इन सूत्रों पर खूब मनन करना—बार—बार; जैसे कोई जूगाली करता है। फिर—फिर,

      क्‍योंकि इनमें बहुतरस है। जितना तुम चबाओगे, उतना ही अमृत झरेगा।

      वे कुछ सूत्र ऐसे नहीं है कि जैसे उपन्‍यास, एक दफे पढ़ लिया, समझ गए,

बात खत्‍म हो गई, फिर कचरे में फेंका। यह कोई एक बार पढ़ लेने वाली बात नहीं है, यह तो किसी शुभमुहूर्त में,किसी शांत क्षण में किसी आनंद की अहो—दशा में, तुम

इनका अर्थ पकड़ पाओगे। यह तो रोज—रोज, घड़ी भर बैठ कर, इन परम सूत्रों को फिर

से पढ़ लेने की जरूरत है। अनिवार्य है।

 

——ओशो

धर्म है जीवन का गौरी शंकर—प्रवचन—एक

दिनांक: 26 सितंबर, 1976,

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न:

 

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ए. एच. मैसलो ने मनुष्य की जीवन आवश्यकताओं के
क्रम में आत्मज्ञान (Self—actualization) को अंतिम स्थान दिया है। क्या आपके जाने आत्मज्ञान मनुष्य—जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है, और धर्म, अध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़ दिए गए हैं? कृपा करके समझाएं।

 

हली बात, कि आत्मज्ञान न तो अनिवार्य है और न आवश्यकता है।

वैसी भाषा आत्मज्ञान के संबंध में मूलभूत रूप से गलत है। भूख है तो रोटी की आवश्यकता

है। देह है तो श्वास की आवश्यकता है!

इनके बिना तुम जी न सकोगे। लेकिन आत्मज्ञान के बिना तो आदमी मजे से जीता है। पानी चाहिए
रोटी चाहिए, मकान चाहिए। इनकी तो आवश्यकता है। इनके बिना तुम एक क्षण न जी सकोगे।
आत्मज्ञान के बिना तो अधिक लोग जीते ही हैं।

तो पहली तो बात आत्मज्ञान आवश्यकता नहीं। और अनिवार्य तो बिलकुल ही नहीं है। कभी
कोई बुद्ध, कभी कोई अष्टावक्र, कोई क्राइस्ट, मुहम्मद उस दशा को उपलब्ध होते हैं। यह इतना
अद्वितीय है इस घटना का घटना, कि इसको अनिवार्य तो कहा ही नहीं जा सकता, नहीं तो सबको
घटती, प्रत्येक को घटती।

अध्यात्म एक अर्थ में प्रयोजन—शून्य है, अर्थहीन है। इसलिए तो हम इस देश में उसे सच्चिदानंद
कहते हैं।

आनंद का क्या अर्थ? आनंद की क्या आवश्यकता? आनंद की क्या अनिवार्यता? परमात्मा के
बिना जगत बड़े मजे से चल रहा है। इसलिए तो परमात्मा कहीं दिखाई नहीं देता। उसकी मौजूदगी
आवश्यक नहीं मालूम होती—न दूकान पर जरूरत है, न दफ्तर में जरूरत है, न घर में जरूरत है।
आत्मज्ञान तो आत्यंतिक आभिजात्य, आत्यंतिक ऐरिस्टोक्रेसी है।

रोटी की जरूरत है; लेकिन माइकल ऐंजिलो की मूर्तियों की थोड़े ही जरूरत है! उनके बिना
आदमी मजे से रह लेगा। छप्पर की जरूरत है, लेकिन कालिदास की क्या जरूरत है? न हों कालिदास
के ग्रंथ, कौन—सी अड़चन आ जाएगी? क्षुद्र की जरूरत है, विराट की कहां जरूरत है? और अगर
विराट तुम्हारी जरूरत हो तो वह भी क्षुद्र हो जाएगा। विराट तो आनंद है, अहोभाव है। विराट को तुम
आवश्यकता की भाषा में मत खींचना। परमात्मा को अर्थशास्त्र मत बनाना, ईकनॉमिक्स मत बनाना।
इसलिए तो समाजवादी कहते हैं : रोटी, रोजी और मकान। उसमें कहीं परमात्मा को जगह नहीं।
इसलिए कम्यूनिज्य में परमात्मा को कोई जगह नहीं। थोड़ा सोचो, मार्क्स जैसा अर्थशास्त्री… अगर

परमात्मा की कोई आवश्यकता होती, आत्मज्ञान की आवश्यकता होती तो कम्यूनिज्म में कुछ जगह रखता। बिलकुल जगह नहीं रखी। शुद्ध अर्थशास्त्र में कोई जरूरत ही नहीं।

सच तो यह है कि तुम्हारे जीवन में परमात्मा की किरण उतरेगी तो बहुत अड़चनें खड़ी होंगी।
इसलिए तो बहुत से लोग हिम्मत नहीं करते। परमात्मा की किरण उतरेगी तो तुम जैसे चलते थे फिर
वैसे न चल पाओगे। अड़चनें आनी शुरू हो जाएंगी। तुम्हारे जीवन का ढांचा बदलने लगेगा। तुम्हारी
शैली बदलेगी। तुम्हारा होने का रूप बदलेगा। तुम्हारी दिशा बदलेगी। तुम बुरी तरह अस्त—व्यस्त हो
जाओगे। तुम्हारा जो जमा—जमाया रूप था सब उखडेगा। तुम्हारी जड़ें उखड़ जाएंगी। तुम्हें नई भूमि
खोजनी पड़ेगी; पुरानी भूमि काम न आएगी। तुम पृथ्वी पर न टिक सकोगे, तुम्हें आकाश का सहारा
लेना होगा।

इस बात को तुम जितनी गहराई से समझ लो उतना उपयोगी होगा।

परमात्मा बिलकुल गैर—जरूरी है। इसलिए तो उन थोड़े—से लोगों के ही मन में परमात्मा की प्यास पैदा होती है, जिन्हें यह बात समझ में आ गई कि जरूरी में आनंद नहीं हो सकता। जरूरी में ज्यादा से ज्यादा जरूरत पूरी होती है।

तुम्हें भूख लगी, तुमने भोजन कर लिया। भूखे रहो तो तकलीफ होती है, भोजन करके कौन—सा सुख मिल जाता है? धूप पड़ती थी, पसीना आता था, तुम परेशान और बेचैन थे। छप्पर के नीचे आ गए, बेचैनी मिट गई। लेकिन छप्पर के नीचे आ जाने से कोई सुख थोड़े ही मिल जाता है।

आवश्यकता के जगत में दुख है और दुख से छुटकारा है; आनंद बिलकुल नहीं। यही तो
तकलीफ है कि एक गरीब आदमी, जिसके पास धन नहीं है, सोचता है धन मिल जाएगा तो आनंद
मिल जाएगा। जब धन मिल जाता है, तब पता चलता है : गरीबी तो मिट गई, धन भी मिल गया,
आनंद नहीं मिला।

आवश्यकताओं की तृप्ति में आनंद कहां? आवश्यकताओं की तृप्ति से दुख कम होता जाएगा।
और, एक और अनूठी घटना घटती है कि जैसे—जैसे दुख कम होता जाएगा, वैसे—वैसे तुम्हें लगेगा
कि सब दुख भी समाप्त हो जाए और आनंद न मिले तो सार क्या है? एक आदमी है जिसे न कोई
बीमारी है, न कोई कष्ट है, न कोई आर्थिक परेशानी है, सब सुख—सुविधा है—मकान है, कार है,
प्रतिष्ठा है—अब और क्या चाहिए? सब आवश्यकताएं पूरी हो गईं, अब और क्या चाहिए? लेकिन
वह आदमी भी कहता है कुछ खाली—खाली है, कुछ लगता है खो रहा है, कुछ मिला नहीं!

जब तक तुम प्रयोजन—शून्य से संबंध न बांधो, जब तक तुम आवश्यकता के ऊपर उठकर न देखो, जब तक तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा न घटे जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी—तब तक आनंद न घटेगा। आवश्यकता के मिटने से, पूरे होने से दुख नहीं होता, सुविधा हो जाती है; आनंद भी नहीं होता। आनंद तो घटता है तब जब तुम आवश्यकता के पार उठते हो—अर्थ —शून्य में, फूलों में, संगीत में, काव्य में। कोई जरूरत नहीं है। वैजनर हो या न हो, शेक्सपियर हो या न हो, रवींद्रनाथ हों या न हों—क्या सार है? खाओगे कविताओं को, पीयोगे, ओढोगे? लेकिन यह तो मैं इसलिए नाम ले रहा हूं कि तुम्हें समझ में आ जाएं। इनमें भी थोड़ा—बहुत अर्थ हो सकता है। परमात्मा में उतना भी अर्थ नहीं है। आत्मज्ञान तो बिलकुल ही निरर्थक है। उसका होने का रस तो है, अर्थ बिलकुल नहीं। उसे तुम ‘कमोडिटी’, बाजार में बिकने वाली वस्तु न बना सकोगे।

जिस दिन कोई व्यक्ति इस सत्य को समझने में समर्थ हो जाता है कि जब तक मैं आवश्यकता की पूर्ति खोजता रहूंगा, तब तक मैं एक वर्तुल में घूमूंगा। रोज भूख लगेगी, रोज खाना कमा लूंगा, रोज खाना खा लूंगा, फिर भूख मिट जाएगी, कल फिर भूख लगेगी। फिर भोजन, फिर भूख, फिर भोजन। भोजन से कुछ सुख न मिलेगा; सिर्फ भूख से जो दुख मिलता था, वह न होगा।

सांसारिक आदमी की परिभाषा यही है—जो केवल सुविधा खोज रहा है, असुविधा न हो।
आध्यात्मिक आदमी का अर्थ यही है कि जो इस सत्य को समझ गया कि सुविधा सब भी मिल जाए
तो जीवन में फूल नहीं खिलते, न सुगंध उठती, न गीत बजते। नहीं, जीवन की वीणा खाली ही पड़ी
रह जाती है।

इसलिए मैं धर्म को आभिजात्य कहता हूं। आभिजात्य का अर्थ है. इसका कोई प्रयोजन नहीं है। यह प्रयोजन—हीन, प्रयोजन—शून्य या कहो प्रयोजन— अतीत। और तुम्हारे जीवन में जब भी कभी कोई प्रयोजन— अतीत उतरता है, वहीं थोड़ी—सी झलक आनंद की मिलती है; जैसे प्रेम में। प्रेम का क्या अर्थ है, क्या सार है? खाओगे? पीयोगे? ओढोगे? क्या करोगे प्रेम का न अगर कोई तुमसे पूछने लगे कि क्या पागल हो रहे हो, प्रेम से फायदा क्या है? बैंक—बैलेंस तो बढ़ेगा नहीं। मकान बड़ा बनेगा नहीं। प्रेम से फायदा क्या है? क्यों समय गंवाते हो?

इसलिए तो राजनीतिज्ञ प्रेम—व्रेम के चक्कर में नहीं पड़ता; वह सारी शक्ति पद पर लगाता, प्रेम पर नहीं। धन का दीवाना, धन का आकांक्षी, सारी शक्ति धन को कमाने में लगाता है। प्रेम, वह कहता है, अभी नहीं! अभी फुर्सत कहां?

फिर प्रेम का प्रयोजन भी कुछ नहीं दिखाई देता—स्व तरह का पागलपन मालूम होता है।

तुम व्यावहारिक लोगों से पूछो, वे कहेंगे, प्रेम यानी पागलपन। लेकिन प्रेम में थोड़ी—सी झलक
मिलती है उसकी, जो प्रयोजन—हीन है, जिसका कोई अर्थ नहीं; फिर भी परम रसमय है, फिर भी परम विभामय है; फिर भी सच्चिदानंद है।

कोई आदमी बैठकर अपनी सितार बजा रहा है। तुम उससे पूछो कि ‘क्या मिलेगा इससे?’ वह
उत्तर न दे पाएगा। ‘क्या सार है इस तार को ठोकने, खींचने, पीटने से? बंद करो। कुछ काम करो
कुछ काम की बात करो। कुछ उपजाओ, कुछ पैदा करो! फैक्टरी बनाओ, खेत में जाओ! ये तार छेड़ने
से क्या सार है?’ लेकिन जिसको तार छेड़ने में रस आ गया, वह कभी—कभी भूखा भी रह जाना पसंद
करता है और तार नहीं छोड़ता।

विन्सेंट वानगॉग भूखा— भूखा मरा। उसके पास इतने ही पैसे थे… उसका भाई उसे इतने ही पैसे देता था कि सात दिन की रोटी खरीद सकता था। तो वह तीन दिन खाना खाता, चार दिन भूखा रहता। और जो पैसे बचते, उनसे खरीदता रंग, कैनवस, और चित्र बनाता। चित्र उसके एक भी बिकते नहीं। क्योंकि उसने जो चित्र बनाए, वे कम—से—कम अपने समय के सौ साल पहले थे। दुनिया की सारी प्रतिभा समय के पहले होती है। वस्तुत: प्रतिभा का अर्थ ही यही है, जो समय के पहले हो। कोई
खरीददार न था उन चित्रों का। अब तो उसका एक—एक चित्र लाखों में बिकता है, दस—दस लाख

रुपये में एक—एक चित्र बिकता है। तब कोई दस पैसे में भी खरीदने को तैयार न था। वह भूखा ही जीया, भूखा ही मरा। घर के लोग हैरान थे कि तू पागल है!

आदमी की भूख पहली जरूरत है, लेकिन कुछ मिल रहा होगा वानगॉग को, जो किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा था। कोई रसधार बह रही होगी! नहीं तो क्यों, क्या प्रयोजन? न प्रतिष्ठा मिल रही है, न नाम मिल रहा है, न धन मिल रहा है; भूख मिल रही, पीड़ा मिल रही, दरिद्रता मिल रही—लेकिन वह है कि अपने चित्र बनाए जा रहा है। जब वह चित्र बनाने लगता तो न भूख रह जाती, न देह रह जाती—वह देहातीत हो जाता। जब उसके सारे चित्र बन गए, जो उसे बनाने थे, तो उसने आत्महत्या कर ली। और वह जो पत्र लिखकर छोड़ गया, उसमें लिख गया कि अब जीने में कुछ अर्थ नहीं रहा।

अब यह बड़े मजे की बात है। वह लिख गया कि जो मुझे बनाना था, बना लिया; जो मुझे
गुनगुनाना था, गुनगुना लिया, जो मुझे रंगों में ढालना था, ढाल दिया; जो मुझे कहनी थी बात, कह
दी; जो मेरे भीतर छिपा था, वह प्रगट हो गया; अब कुछ अर्थ नहीं है रहने का।

वह जो अर्थहीन चित्र बना रहा था, वही उसका अर्थ था; जब उसका काम चुक गया, वह विदा
हो गया। जीवन में जैसे कोई और अर्थ था नहीं!

क्या फायदा रोटी रोज खा लो, फिर भूख लगा लो; फिर रोटी रोज खा लो, फिर भूख लगा लो?
हर रोटी नई भूख ले आती है, हर भूख नई रोटी की मांग ले आती है। यह तो एक वर्तुल हुआ, जिसमें
हम घूमते चले जाते हैं। इससे सार क्या है, तुमने कभी सोचा?

एक आदमी अगर अस्सी साल जीए तो अस्सी साल में उसने किया क्या? जिसको तुम अर्थपूर्ण प्रक्रियाएं कहते हो—रोटी, रोजी, मकान—उसने किया क्या? जरा तुम गौर करो। न मालूम कितने हजारों मन भोजन उसने मल—मूत्र बना दिया। इतना ही काम किया। जरा सोचो, अस्सी साल में उसने कितने मल—मूत्र के ढेर, अगर वह लगाता ही चला जाता तो कितने ढेर लग जाते, पहाड़ खड़े कर देता। बस इतना ही उसका काम है। पीछे तुम मल—मूत्र का एक पहाड़ छोड़ कर विदा हो जाओगे। इसको तुम अर्थ कहते हो? लेकिन यही अर्थ जैसा मालूम पड़ता है। इसका ही अर्थशास्त्र है।

मैं इसीलिए परमात्मा को अर्थ नहीं कहता, क्योंकि अर्थ देने से ही तो वह अर्थशास्त्र का हिस्सा हो जाएगा। मैं उसे कहता हूं ‘अर्थातीत’। वह कोई आवश्यकता नहीं है। और जब तक तुम
आवश्यकताओं में उलझे हो, तब तक तुम उस तरफ आंख न उठा सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं जब
कोई समाज बहुत समृद्ध होता है, तभी धर्म में गति होती है, अन्यथा नहीं होती।

यह मेरी बात बड़ी मुश्किल में डालती है लोगों को। क्योंकि लोग पूछने लगते हैं. ‘तो फिर क्या
गरीब धार्मिक नहीं हो सकता?’ मैं यह नहीं कहता। गरीब भी धार्मिक हो सकता है, लेकिन गरीब
समाज कभी धार्मिक समाज नहीं हो सकता। व्यक्तिगत रूप से गरीब भी इतना प्रतिभावान हो सकता
है कि धार्मिक हो जाए, जीवन की व्यर्थता को समझ ले; जिसको हम अर्थ कहते हैं, उसकी व्यर्थता
समझ ले। तो फिर जो अर्थोतीत है, वही अर्थ हो जाता है। लेकिन वह बड़ी रूपांतरण की, बड़ी क्रांति
की बात है। लेकिन समृद्ध समाज निश्चित रूप से धार्मिक हो जाता है।

मेरे देखे तो वही समृद्ध समाज है जो धार्मिक हो जाए। भारत जब अपने स्वर्ण —शिखर पर था, जब जरूरतें पूरी थीं, खलिहान भरे थे, खेतो में फसलें थीं, लोग भूखे न थे, पीड़ित न थे, परेशान न थे, तब धर्म ने ऊंचे शिखर छुए, तब भगवदगीता उतरी, तब अष्टावक्र की महागीता उतरी, तब
उपनिषद गंजे, तब बुद्ध और महावीरों ने इस देश को जगाया। वह स्वर्ण—शिखर था।

अब वैसा स्वर्ण —शिखर पश्चिम जा चुका है। अब अगर धर्म की कोई भी संभावना है तो पश्चिम में है, पूरब में नहीं है। पूरब के साथ धर्म का अतीत है, पश्चिम के साथ धर्म का भविष्य है। तुमने अपने हाथ गंवाया। तुमने यह सोचकर गंवाया कि क्या रखा है धन में, संपदा में! कुछ भी नहीं रखा है, यह भी सच है। लेकिन जब धन—संपदा होती है तभी पता चलता है कि कुछ भी नहीं रखा है। इतनी सार्थकता उसमें है—यह दिखाने की। और जब तुम्हारे जीवन में सब होता है और तुम पाते हो कुछ भी नहीं हुआ, तो पहली दफा एक हूक उठती है कि अब खोजें उसे, जो आवश्यकता नहीं है।

और अनिवार्य तो बिलकुल ही नहीं है परमात्मा। अनिवार्य का तो अर्थ यह होता कि तुम चाहे
करो चाहे न करो, हो कर रहेगा। अनिवार्य मौत है, समाधि नहीं। अनिवार्य तो मृत्यु है, ध्यान नहीं।
अनिवार्य बुढ़ापा है, धर्म नहीं। अनिवार्य इतना ही है कि यह जो क्षणभंगुर है, बह जाएगा। शाश्वत
आएगा कि नहीं, यह अनिवार्य नहीं है। शाश्वत तो तुम खोजोगे तो आएगा। खोजोगे, भटकोगे,
बार—बार पा लोगे और खो जाएगा, बड़ी मुश्किल से आएगा। अनिवार्य तो कतई नहीं है। अनिवार्य
का तो यह मतलब है कि तुम बैठे रहो, कुछ न करो, होने वाला है, होकर रहेगा। मौत जैसा होगा
परमात्मा फिर, जैसे सभी आदमी मरते हैं, ऐसे सभी आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे। नहीं,
न तो अनिवार्य है और न आवश्यकता है। आत्मज्ञान खोजने से होगा, गहन साधना से होगा, बड़ी
त्वरा से होगा, दाव पर लगाओगे अपने को, तो होगा। आत्मज्ञान भाग्य नहीं है कि हो जाएगा, लिखा
है विधि में। विधि में जो लिखा है, वह तो क्षुद्र है, वह होता रहेगा।

चौदह साल के हो जाओगे तो कामवासना पैदा होगी। अस्सी साल के हो जाओगे तो मौत आ
जाएगी। पचास के पार होने लगोगे तो बुढ़ापा आ जाएगा। कामवासना अनिवार्य है; चौदह साल के
हुए कि हर बच्चे में हो जाती है। अगर किसी बच्चे में न हो तो कुछ गड़बड़ है, तो चिकित्सा की जरूरत
है। होनी ही चाहिए; अनिवार्य है; प्राकृतिक है। लेकिन अध्यात्म अनिवार्य नहीं है और न प्राकृतिक
है। हो जाए तो चमत्कार है। जब हो जाए किसी को तो आश्चर्य है : जो नहीं घटना चाहिए, वह घटा।
इसलिए तो हम सदियों तक याद रखते हैं बुद्ध को, कि जो नहीं घटना था वह घटा, जिसकी कोई
अपेक्षा न थी, वह घटा; जिसकी कोई संभावना न थी, वह घटा। हजारों साल बीत जाते हैं, बुद्धों को
हम नहीं भूल पाते। उनकी याद हमें सताती है। कोई तार हमारे हृदय में बजता रहता है। असंभव भी
हुआ है।

इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा असंभव घटना आत्मज्ञान है। जब मैं कहता हूं असंभव, तो मैं यह
नहीं कह रहा हूं कि नहीं घटने वाली, घटती है, घट सकती है, लेकिन अनिवार्यता नहीं है। ऐसा नहीं
है कि तुम कुछ न करोगे और अपने से घट जाएगी। प्राकृतिक नहीं है, अति—प्राकृतिक है।

पूछा है कि ‘क्या आपके जाने आत्मज्ञान मनुष्य—जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है?’
दोनों बात नहीं है। अनिवार्य हो तो फिर तुम्हें कुछ करने की जरूरत न रही। तुम्हें बहुत कुछ करना
पड़ेगा, तब भी घट जाए तो चमत्कार है। तब भी पक्का नहीं है, आश्वासन नहीं है कि घट ही जाएगी,
कोई गारंटी नहीं है। बड़ी अभूतपूर्व घटना है उतार कर लाना है सीमा में असीम को, उतार कर लाना

है देह में परमात्मा को; उतार कर लाना है शून्य को मन में, महाशून्य के लिए जगह बनानी है। अनिवार्य तो बिलकुल नहीं है। अनिवार्य तो वही है जो हो गया है। वासना हो गई है, घर बस गया है, धन की दौड़ चल रही है, पद की दौड़ चल रही है। राजनीति अनिवार्य है, धर्म अनिवार्य नहीं है।

इसलिए तो हमने इस देश में धार्मिक व्यक्ति को समादर दिया। हमने सम्राटों को आदर नहीं दिया, क्योंकि इसमें क्या है पर सभी सम्राट होना चाहते हैं। नहीं हो पाते, यह दूसरी बात है; लेकिन सभी होना चाहते हैं, सभी की आकांक्षा है। यह होना कुछ विशेष नहीं। यह बड़ी साधारण बात है। पद पर हो जाना कुछ विशेष बात नहीं।

एक गांव में बुद्ध का आगमन हुआ था। तो उस गाव के वजीर ने अपने राजा को कहा कि बुद्ध आते हैं, हम स्वागत के लिए गाव के बाहर चलें। राजा अकड़ीला था। उसने कहा, ‘जाने की हमें क्या जरूरत है? और बुद्ध हैं क्या? भिखारी ही हैं। आ जाएंगे अपने — आप! हमारे जाने न जाने की क्या जरूरत है?

वह बूढ़ा वजीर तो यह सुन कर रोने लगा। उसने अपना इस्तीफा लिख दिया। उसने कहा, ‘यह मेरा इस्तीफा ले लें, यह त्यागपत्र! मुझे क्षमा करें, मैं चला! अब तुम्हारी छाया में भी बैठना उचित नहीं।

उस राजा ने कहा, ‘मामला क्या है? इसमें इतने नाराज होने की बात क्या है? मैंने कुछ बुरी बात तो कही नहीं। मैं सम्राट हूं, वे भिखारी हैं। उनके लिए मुझे लेने जाने की जरूरत क्या है?’

उस वजीर ने कहा, ‘बस बात खत्म हो गई। अब मैं तुम्हारे पास न बैठ सकूंगा। तुम अपने लिए वजीर खोज लो। क्योंकि ऐसे आदमी के पास क्या बैठना, जिसे इतनी भी समझ न हो कि राजनीति तो साधारण है, राजा होना तो साधारण है। लेकिन यह बुद्ध का भिखारी हो जाना असाधारण है, अपूर्व है, अद्वितीय है। यहां कुछ घटा है। जाओ, उनके चरणों में गिरो! यह सौभाग्य तुम्हारा कि वे इस गांव में आते हैं। और मैं तो चला! तुम्हारे पास बैठना कुसंग है। ‘

यह ठीक कह रहा है वजीर। इस बूढ़े के पास आंखें हैं। इसके पास कुछ समझ है, कुछ परख है।

धन का हमने समादर नहीं किया है। हमने समादर कुछ और ही बात का किया है—बोध का,
संन्यास का, त्याग का। उन्होंने जिन्होंने छोड़ा, उन्होंने जिन्होंने ऊपर आंखें उठाई और आकाश की
तरफ देखा, उनका हमने सम्मान किया है।

पश्चिम में इतिहास लिखा गया, पूरब में इतिहास नहीं लिखा गया, हमने पुराण लिखे। पश्चिम के विचारक बड़े हैरान होते हैं कि भारत में इतिहास क्यों नहीं लिखा गया! वे समझते हैं, पुराण तो कथा, कल्पना!

लेकिन हमने इतिहास जान कर नहीं लिखा, क्योंकि इतिहास तो होता है साधारण घटनाओं का; पुराण होता है असाधारण घटनाओं का। इसलिए तो कल्पना जैसा मालूम होता है पुराण, क्योंकि उस पर भरोसा नहीं आता कि यह घटा भी होगा। पुराण का अर्थ होता है जो कभी—कभी घटता है। इतिहास का अर्थ होता है जो रोज घटता है, जो पुनरुक्ति है। नेपोलियन हो, कि नादिरशाह हो, कि तैमूरलंग हो, कि चंगेज हो, कि हिटलर हो, कि स्टेलिन हो, कि माओ हो—यह रोज की घटना है; इससे
इतिहास बनता है। ये तो अखबार की कतरनें हैं, जिनसे इतिहास बनता है।

बुद्ध का घटना अनहोना है। नहीं घटना था और घटा। जैसे अचानक आधी रात में सूरज ज्या

आए, कि अंधेरे में किरण उतर आए और हम पकड़ भी न पाएं और खो जाए, और हमारे हाथ भी न लगे और खो जाए। हम ठगे और अवाक रह जाएं, आए और चली जाए। गंजे एक गीत, हम ठीक
से सुन भी न पाएं, क्योंकि हम अपने शोरगुल से भरे हैं, और गीत विदा हो जाए। एक स्मृति भर रह जाए, और हमें खुद ही शक होने लगे कि यह गीत सुना था? ऐसा आदमी देखा था? हमें खुद ही भरोसा न आए। हम खुद संदेह में पड़ने लगें। जैसे—जैसे स्मृति फीकी होने लगे और दूर होने लगे,
वैसे —वैसे हमीं को भरोसा न आए. ऐसा हुआ था?

पुराण का अर्थ होता है. जो कभी—कभी होता है, हजारों साल में कभी—कभी होता है। वैसी
अद्वितीय घटनाओं के संग्रह का नाम पुराण है। पुराण पर भरोसा आता ही नहीं। इतिहास तो रही है, इतिहास तो कूड़ा—कर्कट है, कचरे का ढेर है, जो रोज होता है।

पुराने दिनों में लोग सुबह उठ कर गीता पढ़ते थे या धम्मपद पढ़ते थे या कुरान पढ़ते थे, अब उठ कर अखबार पढ़ते हैं। जो रोज होता है.।

तुमने अखबार में कभी खयाल किया, तुम जो पढ़ते हो वह रोज होता है! फिर भी तुम रोज उसी को पढ़ते हो। तुमने अखबार में कुछ नया होते देखा? किसी ने कभी अखबार में नया होते देखा?
अखबार से ज्यादा पुरानी चीज तुमने देखी? कहते हो, नया अखबार है! दो दिन का पुराना हो जाए
तो फिर तुम नहीं पढ़ते।

मैं एक जगह रहता था, तो मेरे पास एक पागल आदमी रहता था। उसको अखबारों का बड़ा
शौक था। वह सब मोहल्ले के अखबार इकट्ठे कर लेता। शायद अखबारों के कारण पागल हो गया
हो, कुछ पता नहीं। लेकिन जब मैं गया वह पागल ही था। वह मुझसे भी आकर जो भी अखबार
वगैरह होते, सब उठा कर ले जाता। कभी मैंने कहा उसको कि तू सात—सात आठ—आठ दिन पुराने
अखबार उठा कर ले जाता है, इनका तू करेगा क्या? वह बोला, अखबार क्या पुराने, क्या नए! अरे
जब पढ़ो—तभी नए! जब हमने पढे ही नहीं, तो हमारे लिए तो नए।

उस पागल आदमी ने बड़ी बुद्धिमानी की बात कही। कहा कि क्या नए और क्या पुराने!

तुम अखबार पढ़ते हो, तुमने कभी इस पर खयाल किया कि यही तुम रोज—रोज पढ़ते हो। कुछ नया घटता है कभी? नया तो कुरान में घटा है, धम्मपद में घटा है, अष्टावक्र में घटा है। पुराने लोग ज्यादा होशियार थे। वे वही पढ़ते थे जो अघट है, अनिर्वचनीय है, पकड़ में नहीं आता। नहीं होना
था, फिर भी हो जाता है। वे दुर्लभ फूल खोजते थे, तुम कूड़ा—कर्कट खोजते हो। दुर्लभ फूलों की खोज
में वे भी धीरे— धीरे दुर्लभ हो जाते थे। अघट की खोज में धीरे — धीरे अघट की घटने की संभावना उनके भीतर भी बन जाती थी।

इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं : न तो अनिवार्य और न आवश्यक। धर्म इस जगत में सबसे गैर— अनिवार्य बात है और सबसे अनावश्यक। इसलिए तो रूस है, बीस करोड़ लोग बिना धर्म के जी रहे हैं, कौन—सी अड़चन है? सच तो यह है, बहुत मजे से जी रहे हैं। चिंता—फिक्र मिटी। सब
सुख—सुविधा से जी रहे हैं। शायर्द कुछ थोड़े —से लोगों को अड़चन है, मगर सौ में निन्यानबे आदमियों
को कोई अड़चन नहीं है। कोई एकाध है सौ में, कोई सोल्वेनित्सिन या कोई और, कोई एकाध है
जिसको अड़चन है। मगर उस एकाध की क्या गणना? लोकतंत्र तो भीड़ के लिए जीता है। निन्यानबे

को तो कोई मतलब नहीं है। उन्हें शराब मिल जाए, सुंदर पत्नी मिल जाए, मकान मिल जाए, कार मिल जाए, खाने —पीने की जगह मिल जाए—पर्याप्त है। तुम कितने क्षुद्र से राजी हो जाते हो! तुम ना—कुछ से राजी हो जाते हो। तुम्हारी दीनता तो देखो! अष्टावक्र कहते हैं, यह तुम्हारा मालिन्य तो देखो! कैसे मलिन हो तुम, कितने क्षुद्र से राजी हो जाते हो!

दुनिया में धर्म अगर बिलकुल विदा हो जाए तो बहुत थोड़े लोगों को अड़चन होगी। कोई गौतम
बुद्ध पैदा होगा तो उसे अड़चन होगी। लेकिन बाकी को तो कोई अड़चन न होगी। अपूर्व है धर्म।
कभी—कभी खिलने वाला फूल है, रोज नहीं खिलता। कभी—कभी खिलने वाला फूल है!

मेरे पास कुछ दिनों तक एक माली था। वह एक पौधा ले आया। वह मुझसे कहने लगा, इसके
पांच सौ रुपए देने हैं, जिससे खरीदा। मैंने कहा, ‘पागल इस एक पौधे के पाच सौ रुपये, इसका इतना
मूल्य? मामला क्या है, इस पौधे की खूबी क्या है?’

उसने कहा, ‘इसमें फूल खिलता है, लेकिन वह बारह साल में एक बार खिलता है। ‘

तो मैंने कहा, ‘फिर देने लायक है। फिर तू पांच सौ नहीं हजार भी दे। तू ले जा। क्योंकि जब
बारह साल में फूल खिलता है तो अद्वितीय है। ऐसे मौसमी फूल हैं, दो सप्ताह चार सप्ताह में खिल
जाते हैं। बारह साल, तो थोड़ा धर्म जैसा फूल है। इसे तू जरूर लगा। इसे मेरे बगीचे में होना ही
चाहिए। हम प्रतीक्षा करेंगे इसकी, जब खिलेगा। ‘

और जब फूल खिला—वह रात को ही खिलता—पूर्णिमा की रात को वह खिला, तो सारा पड़ोस,
दूर—दूर से लोग उसे देखने आने लगे। वह कभी—कभी खिलता, उसके दर्शन रोज—रोज नहीं होते।
बुद्ध—पुरुष कभी—कभी खिलते हैं। वह सहस्रार का कमल कभी—कभी खिलता है। उसकी
आकांक्षा मत करो जो रोज खिलता है, जो रोज मिलता है। उस क्षुद्र में कुछ भी नहीं है। उसकी आकांक्षा
करो जो अपूर्व है, अद्वितीय है, अनिर्वचनीय, पकड़ के बाहर है। उसे चाहो जो असंभव है। जिस दिन
तुमने असंभव को चाहा, उसी दिन तुम धार्मिक हुए। असंभव की वासना— धर्म की मेरी परिभाषा है।
तरतूलियन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है, कि मैं ईश्वर में भरोसा करता हूं क्योंकि ईश्वर असंभव
है। असंभव है! इसलिए भरोसा करता हूं। संभव में क्या भरोसा करना! संभव में भरोसा करने के
लिए कोई बुद्धिमानी चाहिए, कोई बड़ी प्रतिभा चाहिए? संभव में भरोसा तो बुद्ध से बुद्ध को आ जाता
है। असंभव में भरोसे के लिए तुम्हारे भीतर श्रद्धा के पहाड़ उठें, गौरीशंकर निर्मित हो, तो असंभव
की श्रद्धा होती है। असंभव की चाह है धर्म। ‘पैशनफॉर द इंपॉसिबल!’

और तुमने पूछा है कि ‘ धर्म, अध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़
दिए गए हैं?’

नहीं, जरा भी नहीं। वे संबोधन बडे सार्थक हैं। धर्म का अर्थ होता है. स्वभाव। वह बड़ा
सांकेतिक शब्द है। धर्म का अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं होता। रिलिजन या मजहब को तो हम
संप्रदाय कहते हैं। धर्म का अर्थ तो बड़ा गहरा है। जिसके कारण इस्लाम, धर्म है; और जिसके कारण
ईसाइयत, धर्म है, और जिसके कारण जैन, धर्म है; और जिसके कारण हिंदू धर्म है; जिसके कारण
ये सारे धर्म, धर्म कहे जाते है—वह जो सबका सारभूत है, उसका नाम धर्म है। ये सब उस धर्म तक
पहुंचने के मार्ग हैं, इसलिए संप्रदाय हैं।

ईसाइयत एक संप्रदाय हुई, हिंदू एक संप्रदाय है, जैन एक संप्रदाय है, बौद्ध एक संप्रदाय है, इस्लाम एक संप्रदाय है। धर्म तो वह है जहां तक ये सभी संप्रदाय पहुंचा देते हैं। इसलिए इस्लाम को धर्म कहना उचित नहीं, हिंदू को धर्म कहना उचित नहीं—संप्रदाय! ‘संप्रदाय’ शब्द अच्छा है। इसका अर्थ होता है मार्ग, जिससे हम पहुंचें। जिस पर पहुंचें, वह धर्म है।

‘धर्म’ बड़ा अनूठा शब्द है। उसका गहरा अर्थ होता है. स्वभाव; हमारा जो आत्यंतिक स्वभाव है; हमारे भीतर के आखिरी केंद्र पर जो छिपा है बीज की तरह, उसका प्रगट हो जाना।

हम परमात्मा को बीज की तरह लिए घूम रहे हैं। हम जन्मों —जन्मों तक घूमते रहे हैं परमात्मा को बीज की तरह लिए। जब तक हम उस बीज को भूमि न देंगे —ध्यान की—तब तक धर्म का वृक्ष खड़ा न होगा। अगर धर्म से परिचित होना है तो ध्यान में गहरे उतरना पड़े। क्योंकि ध्यान भूमि बनता है, और धर्म का बीज ध्यान की भूमि में अंकुरित होता है।

दुनिया में धर्म नहीं हैं। ही, कभी—कभी धार्मिक व्यक्ति होते हैं। जो हैं, वे सब संप्रदाय हैं। तो धर्म शब्द व्यर्थ नहीं है। ऐसे जबर्दस्ती आत्मज्ञान के ऊपर नहीं थोप दिया गया है।

और अध्यात्म भी बड़ा बहुमूल्य शब्द है। उसका भी वही मतलब होता है. वह, जो तुम्हारी निजता है। समझने की कोशिश करो।

तुम्हारे पास दो तरह की चीजें हैं। एक तो जो तुम्हें दूसरों ने दी हैं, जो तुम्हारी निजी नहीं हैं जैसे भाषा। जब तुम पैदा हुए थे तो तुम कोई भाषा ले कर न आए थे। भाषा तुम्हें दी गई। मौन तुम ले कर आए थे। भाषा तुम्हें दी गई। मौन अध्यात्म है, भाषा सामाजिक है। जो तुम ले कर आए थे, जो तुम्हारा है, निजी है—वह अध्यात्म है। जो उधार है, बासा है, वह अध्यात्म नहीं है। जो भी तुम्हें दूसरों ने दे दिया है, वह अध्यात्म नहीं है।

तुम्हारे पास बहुत ज्ञान हो सकता है जो तुमने विश्वविद्यालय से सीखा, शास्त्रों से सीखा, गुरुओं से सीखा—वह अध्यात्म नहीं है। जिस दिन तुम्हारा अंतश्चेतन जागेगा, तुम्हारी आंख खुलेगी, तुम्हारे अपने ज्ञान का प्रादुर्भाव होगा—उसका नाम अध्यात्म है।

अध्यात्म का कोई शास्त्र नहीं होता और अध्यात्म की कोई किताब नहीं होती और अध्यात्म को उधार पाने का कोई उपाय नहीं है। अध्यात्म कोई वस्तु नहीं जो हस्तांतरित हो सके। अध्यात्म है तुम्हारा आत्यंतिक निज रूप, तुम्हारी निजता। जिस दिन तुम सब उधार को छाटकर अलग कर दोगे; कहते जाओगे यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं, नेति, नेति; तुम इंकार करते जाओगे और वैसी घड़ी बचेगी जब तुम इंकार न कर सकोगे; जिसे तुम्हें कहना पड़ेगा, यही मैं हूं—उस दिन अध्यात्म! तो साक्षी— भाव ही अध्यात्म है; बाकी तो सब गैर— अध्यात्म है।

ये शब्द बड़े प्यारे हैं। इन शब्दों का अर्थ समझोगे तो तुम्हारे भीतर शब्दों का अर्थ सुनते—सुनते, समझते—समझते ही कुछ घटना घटनी शुरू हो जाएगी। एक छोटी—सी चिनगारी महावन को जला देती है। ये छोटे —छोटे शब्द नहीं हैं, ये छोटी—छोटी चिनगारियां हैं।

दूसरा प्रश्न :

 

गुरु शिष्य को सीधे भी देखता है लेकिन फिर भी उसे विभिन्न परीक्षाओं से जान—बूझ कर गुजारता है। क्या इससे शिष्य का आत्मज्ञान तीव्र और शुद्धतर होता है? कृपा करके समझाएं।

 

गुरु देखता है तुम्हारे तीन रूप—तुम जो थे, तुम जो हो, तुम जो हो सकते हो। तुम जो थे, उससे तुम्हें छुटकारा दिलाना है। तुम्हारे अतीत से तुम्हें मुक्ति दिलानी है। तुम्हारे अतीत को पोंछ डालना है, साफ कर देना है; वह कचरा है जो तुम्हारे दर्पण पर इकट्ठा हो गया। तुम्हें अतीत से विच्छिन्न करना है, यह पहला काम।

फिर तुम जो हो, उसके प्रति तुम्हें जगाना है। क्योंकि तुम्हें उसका बिलकुल पता नहीं कि तुम कौन हो। तुम जो रहे हो अब तक, तुम्हारा अतीत इतना बोझिल हो गया है, उससे तुम इस भांति दब गए हो कि तुम्हारा वर्तमान तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। और वर्तमान बड़ा छोटा—सा क्षण है, बड़ा आणविक—इतना छोटा क्षण है कि तुम उसे पकड़ भी नहीं सकते। तुमने देखा कि यह रहा वर्तमान कि वह गया। इतना कहने में कि यह रहा वर्तमान, वर्तमान अतीत हो जाता है। इतने समय में तो वर्तमान गया। वर्तमान को कहने के लिए शब्द भी जुटाओ, उतनी देर में वर्तमान जा चुका होता है। वर्तमान तो बड़ी पतली धार है, बड़ी सूक्ष्म! वहां तो तुम शांत साक्षी रहोगे तो ही पकड़ पाओगे।

तो तुम्हें अतीत से छुटकारा दिलाना है; तुम्हें वर्तमान में जगाना है; और भविष्य..। अगर लुग अतीत में जकड़े रहे तो अतीत ही तुम्हारे भविष्य का निर्णायक होता है, अतीत ही तुम्हारे भविष्य को बनाता है। मुर्दा तुम्हारे भविष्य को भी नष्ट करता चला जाता है। क्योंकि तुम भविष्य की जो योजना बनाओगे, वह कहां से लाओगे? तुम्हारे अतीत से लाओगे। अतीत के अनुभव के आधार पर ही तुम भविष्य के भवन खड़े करोगे। वे पुनरुक्तिया होंगी। वह फिर—फिर वही दोहराना होगा। थोड़े—बहुत हेर—फेर कर लोगे, रंग बदल लोगे, थोड़ा रूप बदल लोगे; लेकिन होगा वह अतीत ही सजाया हुआ, संवारा हुआ। लाश ही होगी—अच्छे वस्त्रों में श्रृंगारित। भविष्य की तुम योजना जो भी बनाओगे, अतीत से आएगी, वह अतीत का प्रोजेक्यान है, प्रक्षेपण होगा।

तो गुरु की चेष्टा होगी कि वह तुम्हें अतीत को भविष्य में प्रक्षेपित न होने दे। नहीं तो तुम्हारा अतीत तो नष्ट हुआ, तुम्हारा भविष्य भी नष्ट हो जाएगा। गुरु की चेष्टा होगी कि तुम्हें अतीत से मुक्त करवा दे और गुरु की चेष्टा होगी कि तुम्हें भविष्य की चिंता और विचारणा से भी मुक्त करवा दे। क्योंकि भविष्य का सारा विचार भविष्य को नष्ट करना है। भविष्य का विचार कैसे हो सकता है? भविष्य तो वही है जो अभी आया नहीं। भविष्य तो वही है जिसका तुम्हें कोई पता नहीं। भविष्य तो अभी कोरी स्लेट है, कोरा कागज है, जिस पर कुछ लिखा नहीं गया।

अभी तुम भविष्य पर अगर कुछ लिखना शुरू कर दोगे तो तुम भविष्य को खराब कर लोगे। उसका कोरापन घर आने के पहले ही खराब हो जाएगा।

तो वर्तमान में तुम्हें जगाना है; अतीत से तुम्हें छुटकारा दिलाना है; भविष्य के सपनों को अवरुद्ध करना है। इन तीन कामों के लिए गुरु सारी की सारी चेष्टा करता है। तुम्हें जगाता, फिर परीक्षाएं भी खड़ी करता है कि तुम जागे या नहीं। क्योंकि तुम्हारी नींद इतनी गहरी है कि कई बार तुम नींद में ही सपना देख लेते हो कि जाग गए। तुम्हें ऐसे सपने याद होंगे जिनमें तुमने नींद में, सपने में समझ लिया कि जाग गए। सुबह उठकर पता चला कि सपना तो झूठा था ही; सपने में जागे, वह भी झूठा था। बहुत डर है इस बात का कि जागने की बातें सुन—सुन कर कहीं तुम जागने का सपना न देखने लगो! वह यथार्थ नहीं होगा।

इसलिए अष्टावक्र जनक की खूब कस कर कसौटी करने लगते हैं। मुझे भी देखना पड़ता है कि कहीं तुम किसी नए सपने में न पड़ जाओ! कहीं अध्यात्म का सपना न देखने लगो! सपने सब सपने हैं—संसार के हों कि अध्यात्म के। सपने से मुक्त हो जाना है—तो अध्यात्म। और तुम्हें जल्दी बातें पकड़ जाती हैं। क्योंकि जिस—जिस बात से अहंकार की तृप्ति हो, वह तत्‍क्षण पकड़ जाती है। जैसे किसी ने कहा कि तुम तो ब्रह्मस्वरूप हो—पकड़ी! कि इसमें तो कोई अडूचन होती नहीं। इसलिए तो इतने करोड़ों लोग इस बात को मान लेते हैं कि हम ब्रह्मस्वरूप हैं। इसको पकड़ने में देर नहीं लगती। पापी से पापी आदमी भी जब सुनता है उदघोष उपनिषदों का, अष्टावक्र का—सिंह गर्जना—कि तुम परमेश्वर हो, तो वह भी सोचता है कि बिलकुल ठीक है, यह तो हम पहले से जानते थे। कहते नहीं थे कि कोई मानेगा नहीं, लेकिन जानते तो हम पहले से थे ही। पाप इत्यादि तो सब सपना है!

हालांकि तुम किए जाते हो पाप। अब तुम एक नई तरकीब खोज लेते हो कि यह तो सब माया है। चोरी तुम किए चले जाते हो, बेईमानी तुम किए चले जाते हो—अब तुम कहते हो, यह सब माया है। तुम अक्सर पाओगे, जहां इस तरह के शुद्ध वेदांत की बातें होती हैं, वहा तुम महापापियो को बैठे देखोगे और प्रसन्न पाओगे! वहीं उनको प्रसन्नता मिलती है, और कहीं तो मिल नहीं सकती। और तो जहां भी वे जाते हैं, कोई कहता है, यह ब्लैकमाकेंट करने वाला जा रहा है, कोई कहता, यह चोर है, कोई कहता, यह बेईमान है, यह महापापी है। वह जहां शुद्ध अध्यात्म बह रहा है, वहीं उनको थोड़ी शांति मिलती है। वहां उनको लगता है कि बिलकुल ठीक बात हो रही है। पाप इत्यादि सब झूठे हैं! तुम साधु—संतो के पास पापियों को इकट्ठा देखोगे। उनके वचन उनके अहंकार को बड़ी तृप्ति देते हैं चलो, कोई तो जगह है जहां हम प्रफुल्लित हो कर बैठ सकते हैं कि कोई पाप इत्यादि नहीं है, यह सब माया है। न कुछ किया, न कुछ किया जा सकता है। कर्ता हम हैं ही नहीं, न हम भोक्ता हैं—हम तो साक्षी हैं!

तो गुरु को देखना पड़ता है कि कहीं यह साक्षी की धारणा तुम्हारे लिए आत्मघाती तो न हो जाएगी। जल्दी से यह घोषणा हो जाती है। अभी जनक और अष्टावक्र की बातें सुन कर अनेक लोगों ने मुझे पत्र लिख दिए कि ‘ आपने खूब जगा दिया! और हमको ज्ञान हो गया!’ एक मित्र ने लिखा कि अब तो मैं जाग कर जा रहा हूं कि मैं स्वयं परमब्रह्म हूं। वे गए भी! वे पत्र लिख कर गए, वे चले ही गए पत्र लिख कर! परीक्षा देने तक का मौका उन्होंने नहीं दिया। वे तो सिर्फ घोषणा करके गए!

‘स्वभाव’ ने पत्र लिख दिया कि ‘मैं जाग गया! धन्यवाद प्रभु कि आपने बता दिया कि मैं भगवान हूं। ‘ न इतना किया, वे सिर घुटा लिए उसी जोश में! लक्ष्मी मुझसे कहने लगी कि ऊषा आ कर रोती है (उनकी पत्नी)। मैंने लक्ष्मी को कहा, तू ऊषा को कह, तू बिलकुल फिक्र न कर। ऐसे कहीं कोई… ऐसे कहीं स्वभाव जागने वाले नहीं। सिर घुटाने से क्या होता है, देख चोटी बचा ली है! उसी

में सब बच गया! चोटी क्यों बचाई स्वभाव ने? हिंदू चोटी तो बचाएगा ही!

मैंने उनकी पत्नी को खबर भेज दी कि तू बिलकुल घबड़ा मत, ऊषा। जब तक मैं ही न कहूं ये जाग गये, तब तक तू फिक्र मत कर। ऐसे तो ये कई करवटें लेंगे और फिर—फिर सो जाएंगे। उत्तर मैंने उनके प्रश्न का दिया नहीं था, मैंने. कि जरा तुम सुन लो पहले अष्टावक्र किस तरह जनक की परीक्षा करते हैं, फिर तुम्हारा उत्तर दे देंगे। अब अष्टावक्र की परीक्षा चल रही है जनक के लिए। वह सब सोचना, गौर से सोचना।

मन बड़ा बेईमान है! मन बड़ा कुशल है धोखा देने में! दूसरों को धोखा देता ही देता, अपने को भी दे लेता है। जागोगे निश्चित! जागना है! जागरण तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हारे भीतर पड़ा है! लेकिन जल्दी ही मान लोगे, बहुत जल्दी मान लोगे, तो गुरु को तुम्हारी टाग खींचनी पड़ेगी। फिर तुम्हें चारों खाने चित्त! अगर तुम न गिराए गए तो तुम किसी खतरे में पड़ सकते हो।

जागरण निश्चित घटता है—घटना चाहिए भी! कभी—कभी तीव्रता से भी घटता है। कभी—कभी तत्‍क्षण भी घटता है। लेकिन फिर भी गुरु को ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं वह किसी की भी भ्रामक दशा में सहयोगी तो न बन जाएगा। हालांकि तुम्हें कभी—कभी चोट भी लगेगी, क्योंकि तुम कुछ मान कर चलते थे और मैं कह देता हूं नहीं यह नहीं हुआ। तो तुम्हें चोट भी लगेगी। वह मजबूरी है। उसके लिए मुझे क्षमा करना। लेकिन चोट मुझे करनी ही पड़ेगी। अगर मैं चोट न करूं और तुम्हें किसी भांति में चलने दूं तो मैं तुम्हारा गुरु नहीं, तुम्हारा संगी—साथी नहीं; फिर तुम्हारा शत्रु हूं; फिर मैंने तुम पर करुणा न की, मैंने तुम पर प्रेम न किया। तुम्हारे अहंकार को अगर मैं किसी भी कारण भरूं तो मैं तुम्हारा दुश्मन हूं। तुम्हारे अहंकार को तो मिटाना है। तुम्हारे अहंकार को तो ऐसे मिटा देना है कि उसका बीज बिलकुल दग्ध हो जाए।

अब ध्यान रखना, कहीं स्वभाव जा कर चोटी न घुटा लें। अब कोई सार नहीं है घुटाने से। अब तो मैंने कह दिया, अब कुछ मतलब नहीं है। अब तुम घुटा भी लो तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

चेष्टा तो है समझने की, स्वभाव की! गहन चेष्टा है! बड़ी तीव्र आकांक्षा है! जागना चाहते हैं। जागना चाहते हैं, इसीलिए तो कभी—कभी नींद में भी जागने का सपना देख लेते हैं। आकांक्षा शुभ है। आकांक्षा होनी चाहिए। एक अर्थ में धन्यभागी है ऐसा व्यक्ति, क्योंकि कम—से —कम उनसे तो बेहंतर है जो नींद में भी जागने का सपना नहीं देखते। कम —से —कम जागने का सपना ही सही। लेकिन जागने की आकांक्षा होगी, तभी तो जागने का सपना देखोगे! अगर अहंकार संन्यास से भी भरते हो तो भी शुभ है एक अर्थ में कि संन्यास से भर रहे हो अहंकार, संन्यास की आकांक्षा तो है ही! अब थोड़े और आगे जाना है। इस आकांक्षा को परिशुद्ध करना पूरा। जागना ही है, सपना क्या देखना जागने का पु जागने के सपने से कुछ सार न होगा।

इस प्रभु की यात्रा के रास्ते पर कई पड़ाव पड़ेंगे, जहां तुम्हारा सो जाने का मन होगा। शक्तियां जगेंगी, तब तुम्हारा सो जाने का मन होगा। तुम कहोगे, ‘आ गए बस हो गया! देखो शक्ति जग गई!’ एक मुसलमान युवक मेरे पास साधना करता था। बड़ी गहन आकांक्षा से साधना में लगा था। बड़ी अटूट उसकी निष्ठा थी। वह एक दिन मेरे पास आया और उसने कहा कि घटना घट गई; मालूम होता है, आत्मज्ञान हो गया।

मैंने कहा, ‘हुआ क्या?’

तो उसने कहा, ‘मैं एक बस में बैठा था। और ऐसे बस मझी पहाड़ी के किनारे तो मुझे लगा कि मेरे सामने जो आदमी बैठा है वह कहीं गिर तो न जाएगा! और जैसे ही मुझे लगा, कि वह गिर गया। तो मैंने सोचा कि कहीं मेरे विचार ने तो इसको नहीं गिरा दिया। पर मैंने कहा, संयोग की बात भी हो सकती है। तो मैंने एक दूसरी दफे, जब मझी बस, तो मैंने एक दूसरे आदमी पर ध्यान किया और सोचा कि यह आदमी गिरेगा! वह आदमी गिर गया! तब मैं थोड़ा घबड़ाया कि यह मामला क्या है! पर फिर भी मैंने सोचा एक परीक्षा और कर लेनी चाहिए। तीसरी दफे जब बस मझी तो एक बहुत मोटे आदमी पर, जिसके गिरने की संभावना ही नहीं थी, जो ऐसा फंसा बैठा था कि सीट ही छोटी पड़ रही थी, बस पूरी भी उलट जाए तो वह शायद न उलटे—उसको सोचा कि यह गिर जाए, वह गिर गया! तो फिर बोला, फिर तो मुझे एकदम घबडाहट हो गई। घबड़ाहट भी हुई और आनंद भी आया। मैंने कहा कि यह तो मालूम होता है शक्ति हाथ में आ रही है।

अब वस्तुत: उसे घट रहा था, फिर भी मुझे कहना पड़ा, यह पागलपन है।

यह एकाग्रता की क्षमता है। अगर तुम ध्यान करते —करते बहुत एकाग्र हो जाओ और उस एकाग्रता में कोई विचार तुम सोचो, वह तत्‍क्षण घट जाएगा। इसलिए समस्त योगशास्त्रों ने कहा है, इसके पहले कि तुम ध्यान की एकाग्रता में उतरो, तुम्हें शुभ विचारों से भर जाना चाहिए। क्योंकि अगर ध्यान की एकाग्रता के बाद अशुभ विचार तुम्हारे भीतर चलते रहे तो उनके परिणाम आने शुरू हो जाएंगे। इसलिए पतंजलि ने, इसके पहले कि धारणा, ध्यान, समाधि साधो—यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, इन सबके साधने की बात कही। इतने परिशुद्ध हो जाओ कि जब ध्यान की ऊर्जा उठे तो तुम्हारे पास गलत विचार तो हो ही नहीं।

इसलिए महावीर ने कहा, ध्यान के पहले अहिंसा का भाव गहरा कर लो। बुद्ध ने कहा, ध्यान के पहले करुणा का भाव गहरा कर लो।

बुद्ध ने तो यह भी कहा कि हर ध्यान के बाद, उठने के पहले ध्यान से, सारे जगत के प्रति करुणा का फैलाव करना। हर ध्यान को करुणा पर पूरा करना, करुणा से शुरू करना; अन्यथा खतरा है, क्योंकि अगर जरा भी गलत विचार घूम जाए ध्यान की स्थिति में तो वह विचार परिणामकारी हो जाएगा। उस विचार में एक बल आ जाता है। वह विचार दूसरे व्यक्ति में प्रवेश कर जाएगा।

शक्ति जागनी शुरू होती है, उसे भी गुरु को रोकना पड़ता है। कल्पनाएं सत्य मालूम होने लगती हैं, उसे भी गुरु को रोकना पड़ता है।

भ्रांति जन्मों—जन्मों की है। उस भ्रांति का बड़ा फैलाव है। ऐसा ही समझो कि इस बगीचे में जन्मों —जन्मों से कूड़ा—कर्कट ऊगता रहा है, घास—पात ऊगता रहा है। अब तुमने गुलाब बो दिए, लेकिन इस बात की बहुत संभावना है कि तुम्हारे गुलाब पर घास चढ़ दौड़ेगा, उसे दबा लेगा। शायद गुलाब का पता ही नहीं चलेगा। जन्मों —जन्मों से तुम्हारे मन की भूमि आक्रांत रही है व्यर्थ से, असार से। तो जब सार की थोड़ी—सी क्षमता भी पैदा होगी, तत्‍क्षण असार उसे दबा लेगा। गुरु को चेष्टा रखनी होगी कि असार सार को दबा न पाए। स्वप्न सत्य पर हावी न हो पाए। इसलिए बहुत—सी परीक्षाओं से गुजारना होगा।

गुरु की मौजूदगी ही परीक्षा है। गुरु जब तुम्हारी आंख में आंख डाल कर देखता है, तभी परीक्षा चल रही। गुरु के पास होने का अर्थ ही यह होता है कि तुम चौबीस घंटे कसे जा रहे हो। और इस कसने से घबड़ाना मत, इस कसने के लिए तैयार रहना। और गुरु को धन्यवाद देना कि मुझे ऐसा छोड़ मत देना, मुझे कसते चलना। क्योंकि यात्रा लंबी है र अनजान है, अपरिचित है! मुझे तो कुछ पता नहीं, कहीं भटक न जाऊं! भटकाव की संभावना ज्यादा है, पहुंचने के बजाय; क्योंकि भटकाव हमारा पुराना अभ्यास है।

तीसरा प्रश्न :

 

हमारी संन्यास—दीक्षा के समय आप जिस कागज पर हमारे नये नाम और अपने हस्ताक्षर अंकित करते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा कोरा ही रह जाता है। उस पर क्या लिखते हैं जो कोरा रह जाता है? प्रभु, उस कोरेपन के पीछे क्या रहस्य है?

ही तुम्हारे संन्यास के लिए सूत्र है। जो नाम लिखता हूं तुम्हारा कोने में, उसे तो आज नहीं कल भूल जाना, उसे तो मिटा देना। कोरा कागज ही रह जाए! तुम कोरे रह जाओ! तुम्हें पता ही न रहे, तुम कौन हो, क्या हो! तुम्हें पता न रहे, कोई तादात्म्य। तुम्हारी सारी सीमाएं गिर जाएं, तुम कोरे कागज रह जाओ!

इसलिए जान कर ही एक कोने में तुम्हारा नाम लिख देता हूं वह भी नीचे। ऊपर कोरा आकाश! तुमने कभी चीनी झेन फकीरों की बनाई हुई चित्रकला देखी? उनके चित्र वास्तविक चित्र हैं। उनके चित्र में तुम पाओगे, बड़ा कैनवस होता, लंबा, और नीचे कोने में जरा—सी पेंटिंग होती है। बड़ा विराट आकाश और जरा—से कोने में! वे ठीक—ठीक सूचना दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, आदमी का जाना हुआ बस ऐसा है—जरा—सा कोने में! आदमी का बनाया हुआ बस ऐसा है—जरा—सा कोने में! फिर विराट आकाश है।

पश्चिम में जो पेंटिंग होती है, उसमें आकाश होता ही नहीं। सब भरा होता है, पूरा कैनवस भरा होता है। सब रंग डालते हैं, कोरा कुछ छोड़ते नहीं। जब पश्चिम पहली दफा झेन पेंटिंग को पहचानने लगा तो बड़ा चकित हुआ कि इतने बड़े कागज पर इतनी सी पेंटिंग! इतनी—सी पेंटिंग तो थोड़े से कागज पर हो जाती है! यह इतना कागज खाली क्यों छोड़ा है? वह खाली बड़ा राज है, वह रहस्य है, वह सूचक है। वह खाली ही सच है, बाकी तो थोड़ी—सी लहरें हैं। सागर ही सच है।

यह पृथ्वी तो हमारी बड़ी छोटी—सी है। यह बड़ा आकाश!

इस अनुपात को मत भूलना। इसलिए कोने में नीचे दस्तखत कर देता हूं तुम्हारा नाम लिख देता हूं। और पूरा कागज खाली छोड़ देता हूं? ताकि बार—बार तुम्हें याद आती रहे कि तुम्हारा नाम तो बस जरा—सा कोने में है। वह भी एक दिन भूल ही जाना है। अनाम हो जाना है, तभी संन्यास पूर्ण होता है। कोरे कागज जैसे हो जाना है।

सूफियों की एक किताब है, जो बिलकुल कोरी है। उस जैसी बढ़िया कोई किताब नहीं। उस किताब में कुछ लिखा नहीं है। कोई सात सौ आठ सौ साल पुरानी किताब है। एक गुरु से दूसरे गुरु को दी जाती रही। एक गुरु ने एक शिष्य को दे दी, फिर वह अपने शिष्य को दे गया, हाथ—हाथ चलती रही है। अभी भी सुरक्षित है। अभी भी सात सौ साल के बाद शिष्य उसे पढ़ते हैं खोल कर। उसमें कुछ लिखा नहीं है। वह कोरे कागज हैं। उस किताब को सूफी छापना चाहते थे, कोई पब्लिशर छापने को राजी नहीं। फिर किसी ने हिम्मत की और छापा। लेकिन उसने भी जब छापा उसको तो कोई बीस—पच्चीस पन्ने भूमिका के लिखवा लिए।.. खराब हो गई किताब! भूमिका में सब इतिहास दे दिया कि किसने शुरू की यह किताब, फिर किसके हाथ में रही, फिर किसके हाथ में गई। मगर उससे सब खराब हो गया। वह किताब कोरी ही होनी चाहिए। मगर कौन राजी होगा कोरी किताब छापने को! लोग कहेंगे, कुछ हो भी तो छापने को तो छापें। इसमें तो कुछ है नहीं।

राजस्थान में एक महिला है : भूरिबाई! अदभुत महिला है! जब भी मैं राजस्थान जाता था, वह जरूर मुझे मिलने आती थी। बहुत थोड़ी—सी महिलाएं भारत में होंगी, जो उस कोटि की हैं। बिलकुल देहाती है, उसे कुछ पता भी नहीं; मगर सब पता है। वह मुझसे कहने लगी कि ‘बापजी, आप मेरे गाव आना! मैंने एक किताब लिखी है, उसका उदघाटन करना। ‘

मैंने कहा, ‘तू किसी और को धोखा देना। तेरी किताब मैं समझ गया, उसमें क्या होगा। तू उसे यहीं ले आना, मैं यहीं उदघाटन कर दूंगा।

तो वह ले आई एक दफा, सिर पर रख कर लाई, बड़ी सुंदर पेटी में सजा कर लाई! उसके भक्त. उसके भक्त हैं! वह महिला है योग्य! उसके भक्त साथ में आए। उसकी किताब का मैंने उदघाटन कर दिया। कुछ भी नहीं, एक छोटी—सी पुस्तिका थी अंदर, खाली! कुछ उसमें लिखा नहीं था। वह लिखना—पढ़ना जानती भी नहीं।

जब पहली दफा मेरे शिविर में आई तो जो उसके साथ आए थे, भक्त, वे तो सब ध्यान करने लगे, वह उठ कर अपनी कोठरी में चली गई। उसके भक्तों ने जा कर कहा कि हम आए ही यहां इसलिए हैं कि ध्यान करें, आपने ध्यान नहीं किया? वह कहने लगी कि तुम बापजी से पूछ लेना। वे मेरे पास आए। उन्होंने कहा, यह मामला क्या है? श्रइरबाई कहती है, बापजी से पूछ लेना।

‘बापजी’ मुझे कहना नहीं चाहिए, क्योंकि वह होगी सत्तर— अस्सी साल की। मैंने कहा, वह ठीक कहती है। क्योंकि जो मैंने कहा था वही उसने किया। मैंने कहा था, कुछ न करो, शांत साक्षी हो जाओ! वे उसके पास गए। उन्होंने कहा, उन्होंने तो ऐसा कहा। वह कहने लगी कि ठीक कहा। वहा तो बड़ी भीड़— भाड़ थी, उपद्रव था। कई लोग कुछ—कुछ कर रहे थे। मैं इस कोठरी में आ कर बैठ गई, मैंने कुछ न किया, बड़ा ध्यान लगा।

फिर वह अपने गांव वापिस गई तो गाव के लोगों ने पूछा कि वहा से क्या लाई, तो उसने अपनी कोठरी पर ‘चुप’ लिखवा दिया। उसने कहा कि इतना ही समझी मैं तो, वे कहे तो बहुत—सी बातें लेकिन मेरी बुद्धि में ज्यादा नहीं समाता, मैं तो गैर—पढ़ी लिखी हूं; ‘चुप’—इतना ही मेरी समझ में आया। वह अपनी कोठरी पर लिखवा रखा है कि इतना उनकी बातों में से मैं समझ पाई। कहते तो वे बहुत कुछ हैं, इतना मैं पकड़ पाई। वही मैं तुमको कह सकती हूं।

वह जो कोरा कागज है, वह कहता है ‘चुप’। वह जो कोरा कागज है, वही कुरान है, वही धम्मपद वही अष्टावक्र की संहिता है। उस कोरे कागज के लिए ही सारे शास्त्रों ने चेष्टा की है कि तुम्हारी समझ में कोरा कागज पढ़ना आ जाए। शून्य को समझाने के लिए शब्दों का सहारा लिया है; लेकिन शब्दों को समझाने के लिए नहीं—शून्य को समझाने के लिए। मौन में ले जाने के लिए भाषा का प्रयोजन है। तुम साक्षी बनो! तुम कोरे भीतर शून्य के साक्षी बनो! वहीं निर्वाण घटित होता है, समाधि घटित होती है!

चौथा प्रश्न :

 

कल आपने मोह और ज्ञान के गंगा—तट जाने की कथा कही। उसमें मोह तो

गंगा में स्नान कर प्रेम को उपलब्ध हो गया लेकिन ज्ञान का क्या हुआ? कृपा कर ज्ञान की

नियति पर भी थोड़ा प्रकाश डालें!

ह अभी भी भटक रहा है। ज्ञान अभी भी भटक रहा है।

ज्ञान बड़ी अकड़ी हुई बात है। तुम पंडित से ज्यादा अहंकारी और किसको पाओगे? धनी भी उतना अहंकारी नहीं होता, जितना अहंकारी तथाकथित ज्ञानी हो जाता है। जिसको यह लगता है कि मुझे मालूम है, उसकी अकड़ का क्या कहना!

तो ज्ञान तो राजी न हुआ कल्प—गंगा में उतरने को। कल्प—गंगा ने तो दोनों को कहा था—ज्ञान और मोह दोनों खड़े थे किनारे। ज्ञान और मोह को तुम ऐसा समझ लो कि हृदय और बुद्धि, संकल्प और समर्पण, भाव और विचार—नाम कुछ भी दे दो। दोनों खड़े थे। गंगा ने कहा, ‘ आओ प्यारे! स्नान कर लो मुझमें! हो जाओ पवित्र! नहलाऊंगी तुम्हें! शुद्ध कर दूंगी! नया कर दूंगी! पुनर्जीवन होगा तुम्हारा!’

मोह तो उतर गया; क्योंकि मोह तो भाव है, हृदय है; तर्क नहीं है वहां। उसने तो निमंत्रण स्वीकार कर लिया। उसने कहा कि चलो, देखें। वह तो उतर गया। उसने तो डुबकी मार ली। वह तो जब निकला तो पुराना जा चुका था, नया हो चुका था। मोह प्रेम हो गया। हृदय समाधि बन गया। भाव रस में डूब गया।

ज्ञान अकड़ा खड़ा रहा। उसने कहा, कौन मुझे शुद्ध करेगा? यह किस तरह की बात? मुझे और शुद्ध? मैं शुद्ध हूं! यह साधारण—सी गंगा का जल मुझे शुद्ध करेगा? अरे मैं शास्त्रों का ज्ञाता! मुझे कौन शुद्ध करेगा? मैं दूसरों को शुद्ध कर दूं!

वह अकड़ा खड़ा रहा। वह मोह पर हंसा भी कि यह भी क्या पागल बातों में आ रहा है! वह अभी भी भटक रहा है। वह अभी भी वहीं खड़ा है, अब भी हंस रहा है। पंडित सदा ही हंसता है प्रेमी पर। लेकिन प्रेमी ही हैं जो पाते हैं।

तुमसे एक और कथा कहता हूं।

एक राजा के दो बेटे थे। राजा के पास बहुत धन था। एक बेटे का नाम ज्ञान था, एक बेटे का नाम प्रेम था। राजा बड़ी चिंता में था कि किसको अपना राज्य सौंप जाए। किसी फकीर को पूछा कि कैसे तय करूं? दोनों जुड़वां थे, साथ—साथ पैदा हुए थे। उम्र में कोई बड़ा—छोटा न था; नहीं तो उम्र से तय कर लेते। दोनों प्रतिभाशाली थे, दोनों मेधावी थे, दोनों कुशल थे। कैसे तय करें?

बाप का मन बड़ा डावाडोल था, कहीं अन्याय न हो जाए! फकीर से पूछा। फकीर ने कहा, ‘यह करो। दोनों बेटों को कह दो कि यही बात निर्णायक होगी। तुम जाओ और सारी दुनिया में बड़े—बड़े नगरों में कोठियां बनाओ। जो कोठियां बनाने में पांच साल के भीतर सफल हो जाएगा, वही मेरे राज्य का उत्तराधिकारी होगा।’

ज्ञान चला। उसने कोठियां बनानी शुरू कर दीं। मगर पांच साल में सारी पृथ्वी पर कैसे कोठियां बनाओगे ? हजारों बडे नगर हैं! कुछ कोठियां बनायीं, उसका धन भी चुक गया, सामर्थ्य भी चुक गई, थक भी गया, परेशान भी हो गया। और फिर बात भी मूढ़तापूर्ण मालूम पडी, इससे सार क्या है? पांच साल बाद जब दोनों लौटे तो जान तो थका—मादा था, भिखमंगे की हालत में लौटा। सब जो उसके पास थी संपदा, वह सब लगा दी। कुछ कोठियां जरूर बन गईं, लेकिन इससे क्या सार? वह बड़ा पराजित और विषाद में लौटा।

प्रेम बड़ा नाचता हुआ लौटा। बाप ने पूछा, कोठियां बनाई? प्रेम ने कहा कि बना दीं, सारी दुनिया पर बना दीं। सब बड़े नगरों में क्या, छोटे —छोटे नगरों में भी बना दीं। समय काफी था।

बाप भी थोड़ा चौंका। उसने पूछा कि यह तेरा बड़ा भाई, यह तेरा दूसरा भाई, यह तो थका—हारा लौटा है कुछ नगरों में बना कर, तूने कैसे बना लीं? प्रेम ने कहा कि मैंने मित्र बनाए, जगह—जगह मित्र बनाए। सभी मित्रों की कोठिया मेरे लिए खुली हैं। जिस गांव में जाऊं वहीं, एक क्या दो —दो, तीन—तीन कोठियां हैं। मकान मैंने नहीं बनाए, मैंने मित्र बनाए। यह आदमी मकान बनाने में लग गया, इसलिए चूक हो गई। मकान तो मेरे लिए खुले खड़े हैं, कोठियां मेरे लिए तैयार हैं, जगह—जगह तैयार हैं। जहां आप कहें, वहा मेरी कोठी। हर नगर में मेरी कोठी!

एक तो ढंग है प्रेम का और एक ढंग है ज्ञान का। ज्ञान से अंततः विज्ञान पैदा हुआ। ज्ञान की आखिरी संतति विज्ञान है। विज्ञान से अंततः टेक्योलॉजी पैदा हुई। विज्ञान की संतति टेक्योलॉजी है; तकनीक है।

प्रेम से भक्ति पैदा होती है। भक्ति प्रेम की पुत्री है। भक्ति से भगवान पैदा होता है। वह दोनों दिशाएं बड़ी अलग हैं।

ज्ञान के मार्ग से जो चला है, वह कहीं न कहीं विज्ञान में भटक जाएगा। इसलिए तो पश्चिम विज्ञान में भटक गया। यूनानी विचारकों से पैदा हुई पश्चिम की सारी परंपरा। वह ज्ञान के. उनकी बडी पकड थी। अरस्तृ प्लेटो! तर्क और विचार और ज्ञान! जानना है! जान कर रहेंगे! उस जानने का अंतिम परिणाम हुआ कि अणुबम तक आदमी पहुंच गया। मौत खोज ली और कुछ सार न आया। पूरब प्रेम से चला है। तो हमने समाधि खोजी। हमने कुछ अनूठा आकाश खोजा—जहां सब भर जाता है, सब पूरा हो जाता है। अब तो पश्चिम परेशान है, अपने ही ज्ञान से परेशान है।

अलबर्ट आइंस्टीन मरने के पहले कह कर मरा है कि ‘ अगर मुझे दुबारा जन्म मिले तो मैं वैज्ञानिक न होना चाहूंगा—कतई नहीं! प्लंबर होना पसंद कर लूंगा, वैज्ञानिक होना पसंद नहीं करूंगा। ‘ बड़ी पीड़ा में मरा है कि क्या सार? जानने का क्या सार? होने में सार है।

प्रेम भी जब तक झुके नहीं तब तक भक्ति नहीं बनता। ज्ञान भी अगर झुक जाए तो ध्यान बन जाता है। लेकिन ज्ञान झुकने को राजी नहीं होता। प्रेम झुकने को बड़ी जल्दी राजी हो जाता है।

अगर ज्ञान भी उतर गया होता गंगा में—समझ लो, उतरा नहीं, उतर गया होता—उसने भी निमंत्रण स्वीकार कर लिया होता, डुबकी मार ली होती, तो जैसे मोह प्रेम बन कर निकला, ज्ञान ध्यान बन कर निकल सकता था। लेकिन किनारे पर अकड़ा खड़ा रह गया, तो विज्ञान बन गया, तो टेक्योलॉजी बन गई। तो सब चीजें खराब होती चली गईं।

ऐसा नहीं है कि ज्ञान की वृत्ति वाले व्यक्ति के लिए मार्ग नहीं; झुक जाए वह भी तो उसके लिए भी मार्ग है। प्रेमी झुकता है तो प्रार्थना पैदा होती है; ज्ञानी झुकता है तो ध्यान पैदा होता है। प्रार्थना भी परमात्मा पर ले जाती है; ध्यान भी परमात्मा पर ले जाता है। भाषा अलग होगी। जब ध्यानी परमात्मा पर पहुंचेगा तो वह कहेगा, आत्मा! क्योंकि दूसरे का कोई उपाय नहीं है ध्यान में। जब प्रेमी परमात्मा पर पहुंचता है तो वह आत्मा नहीं कहता, वह कहता है, तुम्हीं हो, मैं कहां!

ये सिर्फ भाषा के भेद हैं। दोनों एक ही महाशून्य पर पहुंच गए हैं। एक उसे आत्मा कहता है, एक उसे परमात्मा कहता है। ये भाषा के भेद हैं। अगर तुम्हारी विचार पर बहुत पकड़ हो तो ध्यान का मार्ग पकड़ो; डुबकी मगर लगाओ। इधर रही गंगा! यह मैं कहता हूं कि आ जाओ, ले लो डुबकी! मैं तुम्हें नया कर दूंगा।

अगर विचार पर बहुत पकड़ है, कोई हर्जा नहीं। जो मोह तक को रूपांतरित कर देती है गंगा, वह विचार को न कर पाएगी? मोह तक को रूपांतरित कर दिया प्रेम में, तो विचार की क्या ताकत है? विचार तत्‍क्षण ध्यान में रूपांतरित हो जाता है। लेकिन झुकना पड़े। बिना झुके कुछ भी नहीं! बिना समर्पित हुए कुछ भी नहीं!

पांचवां प्रश्न :

 

ऐसा लगता है कि पृथ्वीचारी जनक पहली बार आकाश को देख कर आश्चर्यचकित होते हैं। तो आकाश—विहारी अष्टावक्र को संसार देख कर ही आश्चर्य होता है। क्या सच ही संसार और मोक्ष एक—दूसरे के लिए इतने आश्चर्य के विषय हैं? वे परस्पर—विरोधी हैं या एक—दूसरे के पूरक हैं?

 

तो विरोधी और न पूरक। जब एक होता है तो दूसरा होता ही नहीं। ऐसा समझो कि प्रकाश और अंधेरा एक—दूसरे के विरोधी हैं या एक—दूसरे के पूरक? न पूरक न विरोधी, क्योंकि जब प्रकाश होता है तो अंधेरा नहीं होता, जब अंधेरा होता है तो प्रकाश नहीं होता। पूरक होने के लिए तो दोनों को साथ—साथ होना चाहिए। विरोधी होने के लिए भी दोनों को साथ—साथ होना चाहिए। लेकिन एक ही होता है, दूसरा तो बचता ही नहीं।

जब तुम्हारे जीवन में आकाश का अनुभव आना शुरू होता है, पृथ्वी खो जाती है। इसलिए तो उस परम दशा को प्राप्त लोगों ने कहा कि यह पृथ्वी माया है। माया का अर्थ है, भ्रम हो गई, खो गई, स्वप्‍नवत हो गई। जब पृथ्वी का सपना पकड़ता है तुम्हें जोर से तो आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर सब स्वप्‍नवत हो जाते हैं।

जिसके लिए पृथ्वी सच है, उसके लिए आत्मा माया है। जिसके लिए आत्मा सच है, उसके लिए पृथ्वी माया हो जाती है। लेकिन दोनों साथ—साथ कभी नहीं होते, एक ही होता है।

ऐसा समझो कि रस्सी में सांप दिखाई पड़ गया। तो जब तक सांप दिखाई पड़ता है तब तक रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। फिर जब दीया ले आए और रस्सी दिखाई पड़ गई, तो सांप दिखाई नहीं पड़ता। तो तुम क्या कहोगे? —एक—दूसरे के पूरक हैं या एक—दूसरे के विरोधी? न तो पूरक न विरोधी। क्योंकि दोनों कभी साथ—साथ होते नहीं। एक ही है। एक ही भ्रांति में दूसरे जैसा भासता है।

आकाश ही है, परमात्मा ही है—तुम्हारे देखने के ढंग में जरा भूल है! तो तुम आकार में उलझ जाते हो, निराकार को नहीं देख पाते। तो तुम रूप में उलझ जाते हो, अरूप को नहीं देख पाते। गुण को तो पकड़ लेते हो, निर्गुण छूट जाता है। फिर जब तुम्हारी समझ गहन होती है, प्रगाढ़ होती है और तुम अरूप को देखने लगते हो तो रूप खो जाता है। तब तुम निराकार को देखने लगते हो तो आकार खो जाता है। और इसलिए आश्चर्य पैदा होता है।

जनक आश्चर्यचकित हैं, क्योंकि जब पहली दफा आकाश दिखाई पड़ा तो पृथ्वी एकदम खो गई। जिस पर सदा से खड़े थे, अचानक वह पैरों के नीचे से खिसक गई जमीन। तो वे आश्चर्य से भरे हैं! वे कहते हैं, ‘ आश्चर्य, आश्चर्य! यह हुआ क्या! यह कैसे हुआ!’

अष्टावक्र भी आश्चर्य से भरे हैं। वे आकाश की तरफ से जब देखते हैं तो पृथ्वी वहां कहीं भी नहीं है। तो वे कहते हैं कि आश्चर्य! तुझे आश्चर्य होता है आकाश को देख कर, मुझे आश्चर्य हो रहा है तेरा पृथ्वी की बातें सुन कर।

दोनों का आश्चर्य बिलकुल ठीक है। क्योंकि जिसने रस्सी में सांप देखा था, जब उसे पता चलेगा कि यह रस्सी है तो वह आश्चर्यचकित होगा। जो सदा से जानता रहा कि रस्सी रस्सी है, वह भी आश्चर्यचकित होगा कि किसी ने इसमें सांप देख लिया। दोनों आश्चर्यचकित होंगे।

एक ही हो सकता है। परमात्मा और पदार्थ दो चीजें नहीं हैं। सत्य और संसार दो चीजें नहीं हैं। जब हम सत्य को गलत ढंग से देखते हैं और हमारी व्याख्या गलत होती है —तो संसार। जब हम संसार को ठीक से देख लेते हैं और व्याख्या ठीक हो जाती है—तो सत्य। परमात्मा को ही देखते हैं हम हर हाल। कुछ भी देखो, परमात्मा को ही देखते हो। और कुछ है ही नहीं, जिसको देख सकते हो। ही, तुम्हारे देखने में अगर थोड़ी भांति हो, तुम्हारी आंख में अगर थोड़ी खराबी हो, तो जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, जो तुम देख लेते हो, वह जो दिखाई पड़ रहा है उससे भिन्न हो जाता है। लेकिन जो दिखाई पड़ रहा है, वह तो वही का वही है —शाश्वत, सनातन! उसमें कोई रूपांतरण नहीं होता है। आदमी की भूल है संसार। आदमी की गलत व्याख्या है संसार। रात अंधेरे में तुम देख लेते हो—तुम्हारा ही लंगोट टंगा है—और वह लंगोट में दो हाथ जैसे मालूम पड़ते हैं। लंगोटी लटकी है, तो लगता है कोई आदमी खड़ा है। तुम्हीं टांग आए दिन में, और रात तुम्हीं बाहर जाने से डरने लगते हो कि वहां कोई आदमी खड़ा मालूम होता है! लंगोट अब भी लंगोट है। लंगोट ने डराने का तुम्हें कुछ भी नहीं किया है। मगर तुम घबड़ा सकते हो।

कभी अंधेरे में तुमने देखा, अंधेरे रास्ते पर एकांत में चलते हुए अपने ही जूते की आवाज ऐसी लगती है कि कोई पीछे आ रहा है! घबड़ाहट पकड़ने लगती है। छोटी—छोटी चीजें भ्रम दे जाती हैं। उन सभी भ्रमों का जोड़ संसार है। जब भ्रम टूट जाते और वही दिखाई पड़ जाता है, जो है—तो परमात्मा। परमात्मा यानी जो है; संसार यानी जैसा हमने देख लिया है।

छठवां प्रश्न :

 

मैं कभी—कभी अपने शरीर पर गैरिक वस्त्र देख कर चकित हो उठता हूं। जीवन में मैंने अनगिनत स्वप्न देखे, उनमें यह स्वप्न कहां था कि मैं संन्यासी भी होऊंगा! मैंने तो सदा साधु—संन्यासियों का मखौल ही उड़ाया किया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनमें से किसी सच्चे संन्यासी ने मुझे यह वरद शाप दिया कि तुम्हारी देह पर भी गैरिक वस्त्र उतर जाएं?

 

ब सपने आदमी देखता है; संन्यास का सपना तो कभी नहीं देखता। क्योंकि संन्यास सपना नहीं—सपनों से जागना है। तुमने जो सपने देखे बहुत, वे सपने ही जब हार गए, थक गए और पराजित हो गए; जब उन सपनों में से तुम कुछ भी न निचोड़ पाए, तो संन्यास फलित हुआ।

संन्यास संसार की महत्वाकांक्षा की पराजय से फलित होता है। धन पाया तो व्यर्थ, नहीं पाया तो दुखदायी। पद पाया तो व्यर्थ, नहीं पाया तो दुखदायी। दौड़—दौड़ कर, कभी पा कर कभी न पा कर, हर हाल दुख पाया।

‘मैत्रेय’ का प्रश्न है। मैत्रेय मुझे मिले तब वे पार्लियामेंट के सदस्य थे, एम पी. थे। राजनिति में उनकी दौड़ थी। बने रहते वहां तो अभी कहीं न कहीं चीफ मिनिस्टर होते। बड़ी संभावना थी। जवाहर लाल के प्रिय पात्रों में से थे। तो मेरे चक्कर में न पड़ते, तो या तो जेल में होते या चीफ मिनिस्टर होते, दो में से कुछ होते। क्योंकि जयप्रकाश के भी वे प्रिय पात्र थे। दोनों से बचा लिया मैंने उन्हें।

लेकिन मैं समझ पाता हूं उनका प्रश्न। उन्होंने कभी सपना भी नहीं देखा होगा। राजनीतिज्ञ कहीं सपना देखता है संन्यासी होने का!

राजनीति और धर्म बड़े विपरीत आयाम हैं। उनसे ज्यादा विपरीत और कुछ भी नहीं। राजनीति है महत्वाकांक्षा, धर्म है महत्वाकांक्षा से शून्य हो जाना। राजनीति है पद—प्रतिष्ठा की दौड़, दूसरों पर काबू पाने की दौड़; और धर्म है अपने मालिक होने की आकांक्षा। ये बड़ी भिन्न बातें हैं। दूसरे के स्वामी होने की जो आकांक्षा है, वह राजनीति, अपने स्वामी होने की जो आकांक्षा है, वह धर्म।

इसलिए तो संन्यासियों को हम स्वामी कहते हैं। इससे तुम यह मत समझ लेना कि तुम किसी दूसरे के स्वामी, मैं तुमको बना रहा हूं। ऐसी भ्रांति हो सकती है कि हमको स्वामी बना दिया, अब हम सबके स्वामी हैं! ऐसा मत सोच लेना। अपने बस, इतने हो गए तो काफी है। अपना ही कोई स्वामी हो जाए तो पर्याप्त है। और जो अपना स्वामी नहीं है, वह दूसरों के स्वामी होने की चेष्टा कर रहा है, उसकी यात्रा असफल होना निश्चित है। जो अभी अपना भी स्वामी नहीं हो पाया, वह किसका स्वामी हो पाएगा?

इसलिए जिनको तुम राजनेता कहते हो, वे अपने अनुयायियों के भी अनुयायी होते हैं, वे अपने गुलामों के भी गुलाम होते हैं। अखबारों में उनकी तस्वीरें देख कर बहुत चकित मत हो जाना। वे छोटे —छोटे लुच्चे—लफंगों, गुंडों से दुबे होते हैं। वे पीछे खड़े रहते हैं। उन गुंडों की कहीं अखबारों में तस्वीर नहीं छपती। लेकिन उनके इशारों पर चलते होते हैं। चलना ही पड़ेगा। जिसको तुम्हें अपने पीछे चलाना है, उसके इशारे पर चलना होगा।

तुम्हारे अनुभव में सिर्फ एक ही बात होगी, क्योंकि तुम सभी राजनीतिज्ञ नहीं हो। पत्नी को तुम्हें अपने पीछे चलाना हो तो तुम्हें मालूम है पत्नी की एक—एक आकांक्षा पूरी करनी होती है तो ही वह तुम्हारे पीछे चलती है। वह कहती है, आप मालिक, मैं दासी! मगर दासी होने का मतलब समझते हैं? जब तक आप उसके दास न हो जाओ, वह दासी नहीं। लिखती है ‘आपकी दासी’, मगर मतलब साफ है। वह आपके पीछे—पीछे चलती है, जब भांवर पड़ती हैं; लेकिन अगर उसको जिंदगी भर अपने पीछे चलाना हो तो बड़े छिपे रूप में आपको उसके पीछे चलना होता है। नहीं तो वह आपके पीछे नहीं चलेगी। यह तो साझेदारी है. तुम हमारे पीछे तो हम तुम्हारे पीछे। यह तो सांठ—गांठ है।

राजनेता जिनको अपने पीछे चला रहा है, राजनेता उनके पीछे चलता होता है। वह लौट—लौट कर देखता रहता है, लोग कहां जा रहे हैं, उसी तरफ जाने लगता है। असली कुशल राजनीतिज्ञ का

अर्थ ही यही है।

कुछ कुशल राजनीतिज्ञ नहीं होते तो उनकी अकुशलता का कारण क्या होता है? इतना ही होता है—अकुशल राजनीतिज्ञ वही है कि जो यह सोचने लगता है दुनिया मेरे पीछे चल रही है। वह झंझट में पड़ता है। मोरारजी देसाई से पूछो! अकुशल राजनीतिज्ञ की अकुशलता यही है कि वह सोचता है सब मेरे पीछे चल रहे हैं, मैं जहां जाऊंगा वहां दुनिया जाएगी। वह गलती में है। कुशल राजनीतिज्ञ वह है जो देख लेता है, लोग किस तरफ जा रहे हैं, उसी तरफ उनके आगे—आगे चलने लगता। समाजवाद? समाजवाद सही! यही तो हम भी चाहते हैं!

मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर भागा जा रहा था। एक बाजार में लोगों ने उसे रोक लिया और पूछा कि कहा जा रहे हो? उसने कहा, मुझसे मत पूछो, मेरे गधे से पूछो! क्योंकि मैं राजनीतिज्ञ हूं। पहले मैंने बहुत कोशिश की इस गधे को चलाने की, मगर गधा है। हम बाएं चलाएं, वह दाएं जाए। बीच बाजार में मखौल उड़े! भीड़ इकट्ठी हो जाए कि अरे नसरुद्दीन, तुम्हारे गधे पर भी बस नहीं! क्या करें? फिर हमें समझ में आया कि गधे के साथ राजनीति करनी चाहिए। अब गधा जिस तरफ जाता है हम उसी तरफ जाते हैं। दुनिया यही समझती है कि हम गधे को चला रहे हैं, मगर गधा हमको चला रहा है।

‘मैत्रेय जी’ राजनीति में थे। उन्होंने कभी सपना नहीं देखा होगा संन्यासी होने का, यह सच है। लेकिन रह कर राजनीति में कुछ भी न पाया। उस न पाने से संन्यास की तरफ वृत्ति हुई। उस न पाने से वे दूसरी दिशा में झुकना शुरू हुए। राजनीतिज्ञ तो थे, लेकिन उनके पास राजनीतिज्ञ की प्रतिभा नहीं थी, बेईमानी नहीं थी। बड़े सरल आदमी हैं। संन्यास उन्हें स्वाभाविक पड़ा। राजनीति में वे बड़ी उलझन में पड़े थे। राजनीति में बड़ी बेचैनी में थे। अड़चन थी। वह उनके अनुकूल न था। वह उतने ओछे और छोटे आदमी नहीं थे।

वहां सफलता उनकी है जो जितने ओछे हैं, जितने छोटे हैं। वहां सफलता उनकी है, जो जितने नीचे उतर आएं। वहा कोई आदमी अगर सरल हो, सीधा—सादा हो, तो वहां सफलता नहीं है। वे गलत दिशा में पड़ गए थे। वह दिशा उनके लिए नहीं थी।

शायद संन्यासियों का मजाक भी वे इसीलिए उड़ाते रहे होंगे, क्योंकि हम मजाक भी अकारण नहीं उड़ाते। अक्सर तो ऐसा होता है कि हम मजाक उन्हीं की उड़ाते हैं जिनसे हमारी ईर्ष्या होती है। जैसे तुम पाओगे, सरदारों का मजाक पूरे मुल्क में उड़ाई जाता है। उसमें कुछ कारण है सरदारों से ईर्ष्या है। ईर्ष्या के कारण भी साफ हैं सरदार तुमसे ज्यादा मजबूत। गर्दन दबा दे तो तुम्हारी ची बोल जाए! तो पूरे भारत में सरदार पास में खड़ा हो तो तुम्हें बेचैनी तो होती है, कि यह आदमी ज्यादा ताकतवर है, अब इससे बदला कैसे लो! इससे झगड़ा—झांसा करने में सार नहीं है। तो हम मजाक उड़ाते हैं, हम मखौल करते हैं। वह मखौल झूठ है। वह ईर्ष्या के कारण है।

पश्चिम में यहूदियों का मजाक उड़ाया जाता है। जितनी मजाके हैं, यहूदियों के खिलाफ हैं। उसके भी पीछे कारण हैं। यहूदी की प्रतिभा से बड़ी ईर्ष्या है। जहां यहूदी पैर रख दे, वहां से दूसरों को हट जाना पड़ता है। जितनी नोबल प्राईज यहूदियों को मिलती उतनी दुनिया में किसी को नहीं मिलती। एक तरफ सारी दुनिया और एक तरफ यहूदी अकेले। उनकी संख्या ज्यादा नहीं है, लेकिन नोबल प्राईज वे इतनी मार ले जाते हैं कि चकित होना पड़ता है कि मामला क्या है!

इस सदी को जिन तीन लोगों ने प्रभावित किया है, वे तीनों के तीनों यहूदी थे—मार्क्स, फ्रायड, आइंस्टीन। यह सारी सदी, बीसवीं सदी, यहूदियों से प्रभावित है। यह सारी सदी यहूदियों के आधार से चल रही है। हिटलर इसीलिए कम्यूनिज्म के खिलाफ था, क्योंकि वह कहता था कि यह भी यहूदियों का षड्यंत्र है। यह जो मार्क्स है, यह इसने एक नई तरकीब निकाली है दुनिया पर कब्जा करने की। मगर आधी दुनिया पर कब्जा कर भी लिया है। फिर फ्रायड है; उसने सारे मनोविज्ञान पर कब्जा कर लिया है। आदमी के मनस के संबंध में मालिक हो गया है। उधर अलबर्ट आइंस्टीन है; उसने सारे विज्ञान पर कब्जा कर लिया है।

यहूदी जहां पैर रख दे—राजनीति में रखे तो राजनीति में, बाजार में रखे, धन की दौड़ में रखे तो धन में—वह सब जगह पराजित कर देता है लोगों को। उसके पास प्रतिभा है। उस प्रतिभा से बेचैनी होती है, ईर्ष्या होती है। तो मजाक में बदला लेते हैं हम।

मजाक का खयाल रखना। तुम उसी का मजाक उड़ाते हो जिससे तुम्हारी ईर्ष्या होती है।

तो मैत्रेय से मैं कहता हूं. संन्यासियों का तुमने मखौल उड़ाया होगा, क्योंकि संन्यासी से तुम्हारे भीतर मन में बड़ी ईर्ष्या रही होगी कि यह तुम्हें होना था और तुम नहीं हो पाए।

किसी संन्यासी के वरद शाप के कारण नहीं—तुम्हारे भीतर ही संन्यासी में लगाव था, रस था। तुम संन्यासी की उपेक्षा नहीं कर सकते थे। और तुम यह भी नहीं मान सकते थे कि संन्यासी सही है, क्योंकि अगर संन्यासी सही तो तुम गलत हो। तो मखौल उड़ाते थे। लेकिन कहीं तुम्हें लगता रहा होगा अचेतन में, कि संन्यासी सही है, उसकी दिशा सही है। वह तुम्हारी आत्म—सुरक्षा (डिफेन्स) का उपाय था—मजाक।

अगर तुम मुझे मिले होते, कभी भी मिले होते तो तुम चक्कर में पड़ते। क्योंकि मैं कुछ ऐसा संन्यासी हूं जो संन्यासी जैसा है ही नहीं। इसलिए बहुत लोग मेरे चक्कर में पड़ जाते हैं। जो संन्यासियों के सदा खिलाफ रहे वे आ कर मेरे पास संन्यास ले लेते हैं। जो धर्म के सदा खिलाफ रहे, वे मेरे पास आ कर ध्यान करने लगते हैं। मेरे पास नास्तिक आते हैं और कहते हैं, ‘बड़ी मुश्किल और आस्तिकों से तो हम लड़ लेते हैं, आपसे लड़ना नहीं हो पाता। ‘ मैं नास्तिक, महानास्तिक— मुझसे लड़ोगे कैसे? तुम एक नास्तिक चाल चलो, मैं दो नास्तिक चाल चलता हूं। मेरी आस्तिकता, नास्तिकता के विपरीत नहीं है—नास्तिकता के ऊपर है। मैं नास्तिकता को सीढ़ी बना लेता हूं। मैं कहता हूं? चलो यह खेल भी थोड़ी देर खेल लें। नास्तिक हो तो चलो नास्तिकता का खेल खेल लें। नास्तिकता मेरे लिए आस्तिकता की सीढ़ियां बन गई। संसार को मैंने संन्यास की सीढ़ी बनाया। इसलिए जो किसी भी प्राचीन परंपरागत संन्यासी से प्रभावित न होंगे, वे मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे हैं। वे जब भी मेरे संपर्क में आएंगे, उनको डूब जाना पड़ेगा।

मैंने कुछ फूल चुने

मैंने कुछ गीत बुने

अपनी महफिल को सजाने के लिए

अपने जीवन को बिताने के लिए

खाए कितने ही फरेब

अपने मन को बहलाने को

कच्चे धागों से कई जाल बुने

मैंने कुछ फूल चुने।

आसपास अपने बुनी सपनों की ठंडी छाया

मन लुभाती रहीं सुंदर काया

फिर भी यह आस की माया

मैंने दिन—रैन कभी चैन नहीं क्यों पाया!

मैंने कुछ गीत बुने गीत सुने

जो सुने सर धुने

इन मधुर गीतो की लय में खोकर

मुस्कुराते हुए भोले मन को

मैंने बहलाया है

रूप—रस पाने का भ्रम खाया है!

मैंने जो फूल चुने

मैंने जो गीत बुने

मन को उन फूलों ने

उन गीतो ने गर्माया है

नौजवानी के हसी ख्वाबों ने

चंद रातो में, मुलाकातो में

मुझको बहलाया है

रूप माया में मगर

सुख मेरे मन ने कहां पाया है!

तो ‘मैत्रेय जी’ तुम्हारे सपने थे सब, खूब तुमने बुने। वे सब सपने थे, टूटने को ही थे। उनमें शांति न मिली, सुख न मिला, छाया न मिली। ज्वर मिला, बीमारी मिली, तनाव मिला, संताप मिला—शांति न मिली! संसार से थके —हारे को, महत्वाकांक्षा से थके हारे कों—संन्यास के अतिरिक्त और शरण कहां। हारे को हरिनाम।

आखिरी प्रश्न :

मैं तेरे मैकदे के काबिल हूं?

यह हरगिज मैंने कहा नहीं।

इस्तिहां और भी बाकी हैं क्या,

क्या है, जो मैंने सहा नहीं?

मैं तेरे मैकदे के काबिल हूं यह हरगिज मैंने कहा नहीं।

इसीलिए तुम मेरे मैकदे के काबिल हो। जिसने यह कहा कि मैं काबिल हूं वह नाकाबिल है। जिसने कहा, मेरी कोई योग्यता नहीं, उसे मैं अपनी मधुशाला में भरती कर लेता हूं। योग्यों की यहां कोई जगह नहीं। अहंकारियों के लिए यहां कोई उपाय नहीं।

‘मैं तेरे मैकदे के काबिल हूं

यह हरगिज मैंने कहा नहीं। ‘

ठीक इसीलिए, बिलकुल ठीक इसीलिए, मेरे द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं। यह मेरी मधुशाला तुम्हारा मंदिर है। यहां न ज्ञानियों की जरूरत है; न पंडितो की। यहां न पुण्यात्माओं की जरूरत है; न साधु—महात्माओं की। यहां तो उनकी जरूरत है जो विनम्र हैं और झुकने की जिनकी तैयारी है।

‘इस्तिहां और भी बाकी हैं क्या,

क्या है, जो मैंने सहा नहीं?’

कोई इस्तिहां बाकी नहीं है। अगर तुमने जो सहा है, उसे मूर्च्छा में नहीं सहा है तो फिर कोई इस्तिहां बाकी नहीं है। तुमने जो सहा है, अगर होशपूर्वक सह लिया है तो तुम आ गए हो साक्षी के किनारे; वह घटना घटने के ही करीब है, किसी भी क्षण घट सकती है। लेकिन अगर मूर्च्छा में सहा है तो एक इस्तिहान बाकी है। और वह है जागने का। जो—जो मूर्च्छा में सहा है, अब उसे जाग कर सह लो। जो भी तुम जाग कर सह लोगे उससे तुम मुक्त हो जाओगे।

जब से तेरी लगन लगी है हमें

हम परीदा—हवास रहते हैं।

दिल की दूरी अगर न हायल हो

पास ही तेरे दास रहते हैं।

जब से तेरी लगन लगी है हमें

हम परीदा—हवास रहते हैं।

तब से हमारी बुद्धि का होश उड़ गया! जिनकी बुद्धि का होश उड़ गया है, वही मेरे काम के हैं। जब से तेरी लगन लगी है हमें

हम परीदा—हवास रहते हैं।

दिल की दूरी अगर न हायल हो

पास ही तेरे दास रहते हैं।

बस जरा—सी दूरी रह गई है। वह दूरी है तुम्हारे मूर्च्छित हृदय की। वहा थोड़ा जागरण का दीया जल जाए, फिर कोई दूरी नहीं। और वही मूर्च्छा सब दुखों का कारण है।

बेहिस वीरानी छाई है

अलबेले अरमां रूठे

अक्ल ने कैसी बेदर्दी से

दिल की बस्ती लूटी है!

बुद्धि ने तुम्हें लूटा है। तुम बुद्धि के हाथों लूटे गए हो।

बेहिस वीरानी छाई है

अलबेले अरमां रूठे

अक्ल ने कैसी बेदर्दी से

दिल की बस्ती लूटी है!

गुमसुम रहते हैं दुख सहते

हाले—दिल किससे कहते?

अपने— आप से छूट गए हम

तेरी गली क्या छूटी है!

वह जो प्रभु की गली है—प्रेमगली अति सीकरी तामें दो न समाय—वह जो प्रभु की गली है जहां केवल एक ही समा सकता है, वह छूट गई उसी दिन, जिस दिन तुम हुए।

गुमसुम रहते हैं दुख सहते

हाले —दिल किससे कहते?

अपने— आप से छूट गए हम

तेरी गली क्या छूटी है!

अगर उस गली में फिर, अगर उस वृंदावन की गली में फिर प्रवेश करना हो—तब अपने को छोड़ो! उतनी—सी दूरी है। बस तुम्हारे ‘मैं’ की दूरी ही एकमात्र दूरी है। एक ही कदम उठाना है—’मैं’ से ‘न—मैं’ में; अहंकार से निरहंकार में—और शेष सब अपने से हो जाता है। मधुशाला के द्वार खुले हैं। तुम ‘मैं’ को बाहर रख कर आ सकी तो यह मैकदा तुम्हारा है।

हरि ओंम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र महागीता--(भाग--2) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–2) प्रवचन–2

$
0
0

परीक्षा के गहन सोपान—प्रवचन—दूसरा

दिनांक: 27 सितंबर, 1976

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 सूत्र:

इहामुत्र विरक्तस्थ नित्यानित्यविवेकिन:।

आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।। 53।।

धीरस्तु भोज्यमानोउयि यीड्यमानोऽपि सर्वदा।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुष्यति।।54।।

चेष्टमानं शरीरं स्व पश्यत्यन्यशरीरवत्।

संस्तवे चापि निदाया कथं मुध्येत् महाशय:।।55।।

मायामात्रमिद विश्व पश्यन् विगतकौतुक।

अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी।! 56।।

निस्थृहं मानस यस्य नैराश्येउयि महात्मन:।

तस्यात्म ज्ञानतृप्तस्थ तुलना केन जायते।।57।।

स्वभावादेव जानानो झयमेतब्र किंचन।

हद ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी।। 58।।

अन्तस्लक्तकषायस्थ निर्द्वन्द्वस्थ निराशिष।

यद्वच्छयागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टतेये।। 59।।

 

 

क फूल का खिल जाना ही,

उपवन का मधुमास नहीं है।

बाहर घर का जगमग करना,

भीतर का उल्लास नहीं है।

ऊपर से हम खुशी मनाते,

पर पीड़ा न जाती घर से।

अमराई के लहराने पर भी,

सुलगा करते हैं भीतर से।

रेतीले कण की तृप्ति से,

बुझती अपनी प्यास नहीं है।

एक फूल का खिल जाना ही,

उपवन का मधुमास नहीं है।

इधर गरजता काला बादल,

आग उगलता सागर गहरा।

कुटि पुरानी सन्यासिन पर,

अवसादों का निशि—दिन पहरा।

इक पहरे का सो जाना ही,

मुक्ति का आभास नहीं है।

एक फूल का खिल जाना ही,

उपवन का मधुमास नहीं है।

खतरा इसका है कि एक फूल के खिल जाने को कोई समझ ले वसंत का आगमन हो गया! जब तक कि पूरे प्राण ही न खिल जाएं, जब तक कि पूरी चेतना ही कमलों से न ढक जाए, जब तक कि सारा अंतस्तल प्रकाश से मंडित न हो जाए..।

एक किरण के उतर लेने को सूर्य का आगमन मत मान लेना, और एक फूल के खिल जाने को मधुमास मत मान लेना। इसलिए गुरु के द्वारा परीक्षा जरूरी है। हम इतने अंधेरे में रहे हैं, इतने जन्मों, जीवनों, कि जरा—सी भी तृप्ति की झलक—और हमें लगता है आ गया मोक्ष का द्वार! जरा—सी सुगंध—लगता है पहुंच गए उस महा उपवन में। आंख में प्रकाश का सपना भी डोल जाए तो लगता है —हो गया सूर्योदय।

हमारा लगना भी ठीक है, क्योंकि हमने कभी दुख के सिवाय कुछ जाना नहीं। सुख की जरा—सी पुलक, सिहरन, जरा—सा रोमांच हमें आह्लादित कर जाता है। हम नर्क में ही जीए हैं; स्वर्ग का स्वप्न भी हमें तृप्ति देता मालूम पड़ता है।

लेकिन गुरु की जरूरत ही यही है कि वह हमें जगाए जाए; वह कहे, अभी बहुत फूल खिलने को हैं, वह हमें रुकने न दे, वह हमें बढ़ाए चले; वह कहे चले. और आगे, और आगे.! वह तब तक हमें न ठहरने दे, जब तक कि समस्त जीवन सुगंध से न भर जाए; जब तक कि प्राणों का कोना—कोना ही प्रकाश से आच्छादित न हो जाए; जब तक कि हम स्वयं प्रकाश—रूप न हो जाएं; हमारे भीतर सिवाय प्रकाश के और कुछ भी न बचे। तभी जानना कि हुआ वसंत का आगमन।

एक फूल का खिल जाना ही

उपवन का मधुमास नहीं है।

और एक पहरे का सो जाना ही

मुक्ति का आभास नहीं है।

इसलिए जनक का यह जो आनंद है, इसको अष्टावक्र ने चुपचाप स्वीकार नहीं कर लिया। इसकी वे बड़ी कसौटी करने लगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बहुत दिन का भूखा—प्यासा रूखी—सूखी रोटी पा गया है और समझ रहा है कि मिल गया अंतिम ? ऐसा तो नहीं है कि बहुत थका—मादा धूप का, जरा—सी छाया में बैठ गया है—चाहे खजूर के वृक्ष की छाया ही क्यों न हो—और सोचता है, आ गया कल्पवृक्ष के नीचे न: क्योंकि हम जो भी देखते हैं, वह हमारे अतीत अनुभव से देखते हैं।

एक गरीब आदमी को एक रुपया पड़ा हुआ मिल जाए तो आह्लादित हो जाता है। अमीर को एक रुपया पड़ा हुआ मिले, तो कुछ भी पड़ा हुआ नहीं मिला। रुपया वही है, लेकिन गरीब अपने अतीत से तौलता है, अमीर अपने अतीत से तौलता है। बहुत है उसके पास; उसमें एक रुपये के जुड्ने से कुछ भी नहीं जुड़ता। गरीब के पास कुछ भी नहीं है; उसमें एक रुपये का जुड़ जाना, जैसे सारे जगत की संपदा का जुड़ जाना है। रुपया तो वही है, लेकिन हमारी प्रतीति तुलनात्मक और सापेंक्ष होती है। हम अपने ही अनुभव से देखते हैं।

मैं कल एक छोटी—सी कहानी पढ़ता था। एक भूतपूर्व महाराजा ने अपने संस्मरणों में लिखी है, कि उन्होंने एक नए नौकर को नौकरी पर रखा। और उसे हुक्म दिया : झिनकु पीकदान उठा कर ला। झिनकू की समझ में नहीं आया। पीकदान शब्द उसने कभी सुना ही नहीं था। थूकने के लिए भी स्वर्णपात्र होते हैं, यह उसका अनुभव न था। कोने में ही रखा है स्वर्णपात्र—हीरे—जवाहरातो से जड़ा। सम्राट ने फिर कहा कि समझ में नहीं आया रे? अबे, वह कोने में जो स्वर्णपात्र रखा है, उसे उठा

कर ला।

झिनकू ने पीकदान में झांक कर देखा और बोला. तनिक रुको हजूर! एह में कौन्हों मूरख यूकी मरा है। मेहंतरवा बुलाई…।

पीकदान गरीब का अनुभव नहीं है! वह तो कहीं भी थूकता रहता है; सारी पृथ्वी पीकदान है। और स्वर्णपात्र! यूकने के लिए सोने का पात्र!

हम अपने अनुभव से तौलते हैं। हम जो भी व्याख्या करते हैं जीवन की, वह व्याख्या हमसे आती

तो अष्टावक्र सोचते हैं. जनक ने कभी जाना नहीं यह अहोभाव, यह आश्चर्य, यह अपूर्व घटना कभी घटी नहीं—कहीं ऐसा तो नहीं है, एक फूल के खिल जाने को मधुमास का आगमन समझ बैठा हो?

जिसने फूल देखे ही नहीं, जो मरुस्थलों में ही जीया हो, वह एक फूल के आगमन को भी मधुमास समझ सकता है। उसके भीतर की भूख धोखा दे सकती है। इसी तरह तो मृग—मरीचिका पैदा होती है। मरुस्थल में जब कोई भटक जाता है, घंटों और दिनों की प्यास से जब घिर जाता है, तो मृग—मरीचिका पैदा होती है। यही आदमी अगर तृप्त हो, इसके पास जल की बोतल हो, सुराही हो और जब प्यास लगे, तब यह अपना जल पी ले—तो मृग—मरीचिका नहीं होती। लेकिन जब प्यास बहुत हो जाती है और प्राण तड़पने लगते हैं, और मरुस्थल में कहीं कोई उपाय नहीं देखता कि कहीं कोई जलधार है, कि कोई मरूद्यान है, फिर भ्रम होने शुरू होते हैं। फिर किरणों के ही नियम के आधार पर इसे दूर मरूद्यान दिखाई पड़ने लगता है। मरूद्यान का धोखा किरणों के कारण जितना होता है, उससे भी ज्यादा प्यास के कारण होता है। प्यास इतनी है कि जो नहीं है, उसे भी देख लेने की आकांक्षा होने लगती है। प्यास इतनी है कि जो नहीं है, उसका भी स्वप्न हम साकार कर लेते हैं।

प्यासे को मृग—मरीचिका का भ्रम हो जाता है। भयभीत को रस्सी में सांप दिख जाता है। रस्सी में सांप नहीं होता—भय में होता है। अगर बहुत बार सांप से मुकाबला हुआ हो और बहुत बार सांप का दंश झेला हो और सांप की घबड़ाहट प्राणों में बैठ गई हो, तो रस्सी में सांप दिख जाए, इसमें आश्चर्य नहीं। रस्सी में सांप नहीं होता—देखने वाले की आंख और उसके भय में होता है, उसे आरोपित कर लेता है।

तो अष्टावक्र परीक्षा ले रहे हैं इसीलिए। हो भी सकता है सूर्योदय हुआ हो, और हो भी सकता है सिर्फ अंधेरे में रहने के कारण प्रकाश का सपना देखा हो।

फिर दूसरी बात—इसके पहले कि हम सूत्र में उतरें—जिसके अनुभव में आता है, अनुभव तो सत्य है। जैसे मैंने जाना तो वह मेरे लिए सत्य है—तुमसे कहा, वह असत्य होना शुरू हो गया। सत्य कहते ही असत्य होना शुरू हो जाता है। जब तक मैंने अपने भीतर रखा—जो मैंने जाना—तब तक वह सत्य है; क्योंकि मैंने जाना, अनुभव किया, वह मेरी प्रतीति है, मेरा साक्षात्कार है। जैसे ही तुमसे कहा, शब्द बनाए, व्यवस्था दी, संवाद किया, तुम तक पहुंचाया—वह असत्य होना शुरू हो गया। पहले तो जब मैंने शब्दों में बांधा निःशब्द को, तब बहुत कुछ टूट गया। जब मैंने विराट को भरा छोटे —से आंगन में, तब बहुत कुछ छूट गया। जब सुबह की ताजगी को शब्दों की मंजूषा में कैद किया,

तब कुछ मर गया। जैसे सुबह का सूरज निकला है, नाचती किरणें हरे वृक्षों को पार करती हैं, वृक्ष मस्ती में मदमाते हैं, सुबह की हवा आनंद से नाचती— भागती है, खिलखिलाती, ठिठलाती है—इस सबको तुम एक छोटी—सी पेटी में बंद कर लो। तुम जाओ उस जगह जहां सूरज की किरणें वृक्ष से छन—छन कर जमीन पर गिर रही हैं और हवा ने जहां पत्तों के साथ रास रचाया है, और जहां गंध है और जहां सुबह का ताजा माधुर्य है—तुम इसे एक पेटी में बंद कर लो। पेटी तुम उठा कर ले आओ —खाली पेटी ही आती है! शायद थोड़ी—बहुत भनक आ जाए सुगंध की। लेकिन कैसे बाधोगे प्रकाश को? और सुगंध भी पेटी में बंद होते ही जल्दी ही दुर्गंध हो जाएगी।

जो जाना जाता है, वह तो है शून्य में, मौन में, प्रगाढ़ निःशब्द में, फिर जैसे ही शब्द में रखा— अस्तव्यस्त हुआ। फिर कठिनाई यही नहीं है। शब्द में रखने से आधा सत्य तो मर जाता है, आधा भी बच जाए तो बहुत; यह कहने वाले की कुशलता पर निर्भर है।

इसलिए दुनिया में ज्ञानी तो बहुत होते हैं, सदगुरु बहुत नहीं। सदगुरु का अर्थ है : जिसने जाना और जो ऐसी कुशलता से कह देता है कि सत्य का कुछ अंश तो पहुंच ही जाए तुम तक। शिष्य तक कुछ पहुंच जाए, ऐसी कुशलता का नाम सदगुरु है। ज्ञानी तो बहुत होते हैं।

बुद्ध को किसी ने पूछा है एक दिन कि ये दस हजार भिक्षु हैं तुम्हारे, वर्षों से तुम्हारे साथ हैं, जीवन अर्पित किया है, साधना की है, साधना में लगे हैं, इनमें से कितने बुद्धत्व को उपलब्ध हुए? बुद्ध ने कहा : इनमें से बहुत उपलब्ध हुए हैं, बहुत उपलब्ध हो रहे हैं, बहुत उपलब्ध होने के मार्ग पर हैं। कुछ चल पड़े हैं, कुछ पहुंचने के करीब हैं, कुछ पहुंच भी गए हैं।

पूछने वाले ने कहा, इस पर भरोसा नहीं आता, क्योंकि इनमें से आप जैसा तो कोई भी नहीं दिखता। बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा : यह सच है। बुद्ध होने से ही कोई दिखाई नहीं पड़ता, जब तक कि बुद्धत्व को अभिव्यक्ति न दे; जब तक कि बुद्धत्व को बोले न; जब तक कि बुद्धत्व को गुनगुनाए नहीं, गीत न बनाए; जब तक कि बुद्धत्व को बांधे नहीं छंद और मात्रा में; जब तक कि बुद्धत्व को दूसरे तक पहुंचाए नहीं। जब तक बुद्धत्व सवांदित न हो, तब तक पता कैसे चले? और जब तक मैं जीवित हूं तब तक ये बोलेंगे भी नहीं। क्योंकि ये कहते हैं, जब आप मौजूद हैं तो हम बोलें क्या? आपकी मौजूदगी में क्या बोलें? इनमें बहुत पहुंच गए हैं। बहुत तो बोलेंगे भी नहीं, क्योंकि बोलना एक अलग कुशलता है।

पा लेना एक बात है, बोलना बड़ी दूसरी बात है। पा लेने वाले को जैनशास्त्र कहते हैं : केवली जिन। और बता देने वाले को जैनशास्त्र कहते हैं : तीर्थंकर। हजारों ‘केवली’ होते हैं, तब कहीं एकाध तीर्थंकर होता है। तीर्थंकर का अर्थ है : जो खुद ही पार नहीं हुआ, बल्कि जिसने घाट बनाया, नाव बनाई, औरों को भी बिठाया नाव में, घाट से उतारा और चलाया। तीर्थ यानी घाट। तीर्थंकर यानी घाट को बनाने वाला; खुद तैर कर तो बहुत लोग पार हो जाते हैं, लेकिन दूसरों को नाव पर ले जाने वाला। पर ध्यान रखना, जैसे ही—बडे से बड़ा तीर्थंकर हो, बड़ा से बड़ा सदगुरु हो—जैसे ही शब्द देता अनुभव को, अनुभव झूठ होने लगता है। उसमें से कुछ तो तत्क्षण मरने लगता है; अंश ही पहुंचता है। फिर पहुंचने वाले पर निर्भर है कितना पहुंचेगा। पहले तो बोलने वाले पर निर्भर है कितना भर पाएगा; फिर सुनने वाले पर निर्भर है कितना खोल पाएगा!

तो सभी सुन रहे हो तुम, लेकिन सभी उतना ही न खोल पाओगे, एक जैसा न खोल पाओगे। कोई बहुत खोल लेगा, कोई तुम्हारे पास में ही बैठा हुआ गदगद हो जाएगा और तुम चौंकोगे कि क्या यह आदमी पागल है! उसने कुछ तुमसे ज्यादा खोल लिया। उसके हृदय तक बात पहुंच गई। तुम्हारे शायद सिर में ही गूंजती रह गई। शायद तुम शब्दों का ही हिसाब बिठाते रहे। उस तक मर्म पहुंच गया। फिर तुम पर निर्भर है कि कितना तुम खोलोगे। लेकिन फिर कुछ सत्य मरेगा तुम्हारे खोलने में। जो बांधा गया है शब्दों में, वह शब्दातीत है। फिर शब्द से तुम्हें शब्दातीत को छांटना होगा; शब्द से फिर तुम्हें अर्थ को अलग करना होगा, फिर शब्द की परिधि तोड़नी होगी, सीमा तोड़नी होगी, असीम को फिर मुका करना होगा।

एक पक्षी को, अनंत के पक्षी को पिंजरे में रख कर मैं तुम्हें देता हूं। उनमें से बहुत से तो ऐसे हैं कि पिंजरे के सौंदर्य पर मोहित हो जाएंगे, पक्षी को भूल जाएंगे। बहुत—से तो ऐसे हैं, पिंजरे को सिर पर ले कर चलने लगेंगे, पक्षी की उन्हें याद नहीं आएगी, पहचान भी न होगी।

पिंजरे के लिए पिंजरा नहीं दिया था, भीतर एक जीवंत पक्षी है, उसके दिए दिया था। पिंजरा तो बनाया ही इसलिए था कि पक्षी तुम तक पहुंच जाए, नहीं तो मेरे हाथ से उड़ेगा और तुम तक कभी पहुंचेगा नहीं।

इसलिए शब्द का, शास्त्र का पिंजरा है; सिद्धात का, भाषा का पिंजरा है। उसे जितना सुंदर बना सकें, बनाने की कोशिश की जाती है, ताकि उसके सौंदर्य से तुम उसके भीतर प्रवेश पाने की आकांक्षा से भरो; ताकि तुममें प्यास उठे कि जो बाहर से इतना सुंदर है पिंजरा, भीतर भी देखें! लेकिन बहुत हैं, जो पिंजरे को सम्हाल कर रख लेंगे; वे पंडित हो जाएंगे। वे दोहराने लगेंगे मेरे शब्दों को; वे मेरे पिंजरे को ले कर घूमने लगेंगे और दिखाने लगेंगे लोगों को कि देखो, कैसा सुंदर पिंजरा है! कैसा सुंदर दर्शनशास्त्र, कैसा प्यारा सिद्धात, कैसा हृदयग्राही मंतव्य, कैसी बात कही, कैसी भा गई मन को, कैसी रच गई, कैसी रंग से भरी, कैसी इंद्रधनुषी! मगर भूल जाएंगे कि पिंजरे के लिए पिंजरा नहीं दिया था। कुछ उनमें से पिंजरे के भीतर छिपे पक्षी को भी पहचान लेंगे, लेकिन उसे पिंजरे से मुक्त न कर पाएंगे, वह पिंजरे में ही बंद रहेगा। अगर बहुत ज्यादा दिन बंद रह गया, तो पक्षी की उड़ने की क्षमता खो जाएगी।

मुझसे शब्द मिलें तो देर मत करना, उसे जल्दी निःशब्द में खोल लेना। तुम मुझसे जो सुनो, देर मत करना, उसे ध्यान में जल्दी ही रूपांतरित कर लेना। क्योंकि जितनी देर हो जाएगी, उतनी ही कठिनाई हो जाएगी। इधर सुनो, उधर ध्यान में मुक्त कर लेना। इधर मैं पिंजरा तुम्हारे हाथ में दूं तुम रुकना मत! पिंजरा हाथ में लेते ही द्वार खोलना, पक्षी को मुक्त कर लेना। अगर ज्यादा देर हो गई, तुमने कहा कल करेंगे, तुमने कहा परसों करेंगे, तुमने कहा जब सुविधा होगी तब करेंगे, अभी तो नोट—बुक में लिख लें, फिर पीछे अर्थ निकाल लेंगे, फिर सोच लेंगे, जल्दी क्या है? सुविधा से, मौके पर—तो तुम जब अर्थ निकालने जाओगे, तब तक अर्थ मर चुका होगा; शब्द ही रह जाएंगे, पिंजरा ही रह जाएगा। तुमने अगर पक्षी मुक्त न किया, तो पक्षी मर चुकेगा। फिर तुम जब खोलोगे भी, तो लाश मिलेगी; उसके प्राण तो जा चुके होंगे, क्योंकि उसके प्राण तो अनंत के हैं, उसके प्राण तो शून्य के हैं, उसके प्राण तो आकाश के हैं। वह पक्षी पिंजरे में रहने को बना नहीं। देह पड़ी रह जाएगी, प्राण का पखेरू तो उड़ जाएगा। फिर तुम उस देह की कितनी ही पूजा करो, तो भी उसमें प्राण न आएंगे। ऐसे ही तो तुम पूजा कर रहे हो मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में—मरे पक्षियों की पूजा कर रहे हो! अब प्राण डाले नहीं जा सकते हैं। तुमने अवसर खो दिया।

सदगुरु से जब वचन निकले तो उसे तत्‍क्षण खोल लेना; उसमें एक क्षण की भी देरी खतरनाक है; जब वह गर्म —गर्म हो तभी खोल लेना, जब उसकी ऊष्मा समाप्त न हो गई हो……।

जब मैं तुम्हें दे रहा हूं कुछ तो वह गर्म है, ताजा है। तुम उसे रख कर मत बैठ जाना। तुम जा कर अपने फ्रिज में मत रख देना कि जब सुविधा होगी तब खोल लेंगे, जब जरूरत होगी तब निकाल लेंगे। वह मर जाएगा, उसकी ऊष्मा खो जाएगी; प्राण—पखेरू जा चुके होंगे, देह पड़ी रह जाएगी।

सत्य की पड़ी हुई देहों का नाम ही शास्त्र है। फिर तुम सिर पर रखो गीता और कुरान और बाइबिल, और लाख करो पूजा और लाख पटको सिर, चढाओ फूल, अर्चना—सब व्यर्थ है; सब बिलकुल व्यर्थ है! इस आयोजन से अब कुछ होने वाला नहीं।

तो जब सदगुरु बोले, उसे तन्धण खोल लेना। इधर मैं बोलता जाऊं, उधर तुम खोलते चले जाना। तुम शब्द में बहुत ज्यादा मत उलझना; तुम अर्थ को मुक्त करते चले जाना। तुम फूल में मत उलझना, तुम तो सुवास को मुक्त करते चले जाना। तुम तो पिंजरे को भूल ही जाना। तुम तो मेरे साथ उड़ना आकाश में, तो ज्यादा पा सकोगे।

साधारणत: तो ऐसा नहीं होगा। तुम मुर्दा —मुर्दा पाओगे।

फिर अगर तुमने किसी दूसरे को कहा, जो तुमने मुझसे सुना, तब तो वह मरे से भी गया—बीता है, वह सड़ी हुई लाश है। और ऐसा ही हुआ है। ऐसे ही संप्रदाय बनते हैं। मैंने तुमसे कहा, तुम किसी और को कहोगे, वह किसी और को कहेगा, पीढ़ियां दूसरी पीढ़ियों से कहेंगी, एक समय दूसरे समय से कहेगा—उतरता चला जाता है। फिर सड़ती जाती है लाश। इसलिए तो धर्मों से इतनी दुर्गंध आती है और धर्मों के नाम पर इतने कल्ल होते हैं। और धर्मों से प्रेम नहीं फैला दुनिया में, घृणा फैली है। और धर्मों से संघर्ष हुआ, हत्याएं हुईं, युद्ध हुए; प्रार्थना नहीं उतरी, परमात्मा का द्वार नहीं खुला। धर्मों से शैतान की शक्ति बढ़ी, परमात्मा की शक्ति नहीं बढ़ी। क्योंकि तुम जिसे धर्म कहते हो, वह सड़ी हुई लाश है।

अष्टावक्र पूछने लगे, बार—बार चोट करने लगे जनक को। क्योंकि जब गुरु देता है, तो वह यह जानना चाहता है कि तुम तक जीवित पहुंचा? जीवंत पहुंचा? ऊष्ण था तभी पहुंचा? तुमने खोला ठीक—ठीक? कहीं तुम शब्द से तो आंदोलित नहीं हो गए? कहीं यह जनक पिंजरा ही तो नहीं हिला रहा है? इसके भीतर पक्षी भी है? जीवित पक्षी है? उस जीवित पक्षी को मुक्त करने की चेष्टा इसने की है या केवल शब्द—जाल में पड़ गया? क्योंकि जो—जो अष्टावक्र ने कहा, वही—वही जनक ने दोहरा दिया है—सिर्फ ‘आश्चर्य’ शब्द जोड़—जोड़ कर वही—वही दोहरा दिया है। तो कहीं यह पुनरुक्ति तो नहीं? कहीं यह यांत्रिक स्मृति तो नहीं? कहीं यह जनक बहुत स्मृतिवान व्यक्ति तो नहीं? यह वस्तुत: इसे हो रहा है जो यह कह रहा है?

तो अष्टावक्र सब तरफ से खोदने लगे। ये सूत्र उनकी खुदाई के हैं। इनमें बड़ी करुणा है और बड़ी कठोरता भी। कठोरता, कि जनक तो अहोभाव की बात कर रहे हैं और अष्टावक्र परीक्षा लेने

लगे। करुणा, क्योंकि परीक्षा अगर समय पर न ली जाए और समय खो जाए, तो फिर बात बेमौसम की हो जाती है, फिर उसका कुछ अर्थ नहीं रह जाता। तो अभी— अभी ताजी—ताजी परीक्षा वे ले रहे हैं कि वह जो मैंने तुझे कहा है वह पहुंच गया तेरे हृदय तक? बन गया तेरा रक्त, मांस—मज्जा? तूने उसे रूपांतरित कर लिया अपने प्राणों में? वह तेरे अस्तित्व का हिस्सा हो गया? या केवल बुद्धि में भटकती हुई बात है? कि बुद्धि में भटकते हुए शब्द और विचार हैं? तू कहां से कह रहा है? तेरे भीतर हो गया—वहां से कह रहा है? या तूने मुझे सुन लिया और तू मेरे सामने ही मुझ ही को दोहरा रहा है? तू कहीं ग्रामोफोन का रिकार्ड तो नहीं?

इसका खतरा है ही। क्योंकि सदगुरुओं के वचनों की एक खूबी है कि वे बड़े प्यारे हैं। वे इतने प्यारे हैं कि उन पर भरोसा कर लेने का मन होता है। वे इतने प्यारे हैं कि उन पर विश्वास जगता है। यही खतरा है। अगर सत्य पर विश्वास जग गया तो खतरा है। खतरा यही है कि सत्य कभी विश्वास नहीं बन सकता। विश्वास तो सदा झूठ हो जाता है। विश्वासमात्र झूठ है। सत्य से कानी चाहिए श्रद्धा, विश्वास नहीं।

मैंने तुम्हें एक बात कही, मैंने तुम्हें बड़ी प्यारी बात कही—तुम उससे मोहित हुए। तुमने मान ली कि बात इतनी प्यारी है कि सच होगी ही, कि जिसने कही उससे तुम्हें प्यार है, तो झूठ कैसे होगी? तो तुमने विवाद भी न किया, तुमने तर्क भी न किया। तुमने चुपचाप स्वीकार कर लिया। तुमने एक विश्वास बनाया, तुम उस विश्वास के सहारे जीने लगे —तुम झूठ के सहारे जीने लगे। मैंने कही थी, सच ही थी, लेकिन तुमने विश्वास बनाया तो झूठ हो गई, श्रद्धा बननी चाहिए।

क्या फर्क है श्रद्धा और विश्वास में? जब हम दूसरे को बिना अपने किसी अनुभव की गवाही के मान लेते हैं तो विश्वास। जब हम दूसरे को अपने अनुभव की कसौटी पर कस कर मानते हैं तो श्रद्धा। श्रद्धा अनुभव है। विश्वास दूसरे का अनुभव है, तुम्हारा नहीं। इससे सावधान रहना।

तो यह जो जनक कह रहा है विश्वास है या श्रद्धा, इसकी ही कसौटी अष्टावक्र करने लगे हैं। अष्टावक्र ने कहा :

इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिन:।

आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।।

‘जो इहलोक और परलोक के भोग से विरक्त है जनक, और जो नित्य और अनित्य का विवेक रखता है, और मोक्ष को चाहने वाला है, वह भी मोक्ष से भय करता है—यही तो आश्चर्य है!’

तेरे भीतर कहीं मोक्ष का भय तो नहीं बचा है?

इसे समझना, यह बड़ा अदभुत सूत्र है! मोक्ष का भय? तुम कहोगे, मोक्ष का भय? स्वतंत्रता का भय? हम सभी स्वतंत्र होना चाहते हैं। यह बात क्या हुई कि स्वतंत्रता का भय? स्वतंत्रता से कौन भयभीत है?

लेकिन तुम्हें पता नहीं। अष्टावक्र ठीक कह रहे हैं। इस जगत में बहुत कम लोग हैं, जो स्वतंत्र होना चाहते हैं। सौ में निन्यानबे आदमी तो बातें करते हैं स्वतंत्रता की, लेकिन स्वतंत्र होना नहीं चाहते। परतंत्रता में बड़ी सुरक्षा है। मुक्त होने में बड़ा खतरा है, जोखिम! इसलिए लोग एक परतंत्रता से दूसरी परतंत्रता में उतर जाते हैं। बस, परतंत्रता बदल लेते हैं, लेकिन स्वतंत्र कभी नहीं होते। पूंजीवाद साम्यवाद बन जाता है, लेकिन कुछ फर्क नहीं होता। परतंत्रता वहीं की वहीं। एक की गुलामी दूसरे की गुलामी से बदल जाती है, मगर फर्क कोई भी नहीं पड़ता। आदमी स्वतंत्र होना ही नहीं चाहता। तो इसे हम समझें। स्वतंत्रता का भय है। और मोक्ष तो परम स्वतंत्रता है, उसका तो बड़ा भय है। जो बात अष्टावक्र ने उठाई है, उसे पांच हजार साल के बाद पश्चिम में मनोविज्ञान अब समझ पा रहा है। पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक, ऐरिक फॉम ने इस पर बड़ा जोर दिया, बड़ी खोज की है इस संबंध में—फीयर ऑफ फ्रीडम; स्वतंत्रता का भय! हम चाहते हैं कि कोई हमें बांध ले। इसीलिए तो लोग हमें बांध पाते हैं। तुम सोचते हो लोग बांध लेते हैं इसलिए तुम बंधे हो, तो तुम गलती में हो। जो नहीं बंधना चाहता, उसे कोई भी नहीं बांध सकता। तुम बंधना चाहते हो, इसलिए लोग बांध लेते हैं। तुम्हारे बंधने की चाह पहले है, बांधने वाला बाद में आता है। पहले मांग, फिर पूर्ति। तुम पुकारते हो कि कोई बांध ले, तो बांधने वाला आ जाता है। फिर तुम चीखते —चिल्लाते हो कि मुझे बांध लिया गया।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ‘बड़े बंधन में हैं! पत्नी है, बच्चे हैं!’ मगर किसने तुम्हें कहा था? कौन तुम्हारे पीछे पड़ा था? और लाख लोग पीछे पड़े थे, अगर तुम्हें नहीं बंधना था तो कौन बांध सकता था रू तुम भाग निकले होते। घर में आग लगी हो और तुम घर के भीतर बैठे हो, लाख तुम्हें लोग समझाएं कि अरे बैठे रहो, कोई हर्जा नहीं—तुम बैठ न सकोगे। तुम कहोगे, ‘हो गई समझदारी की बातें, मैं बाहर चला। तुम बैठो!’ तुम भाग खड़े होते, अगर तुम्हें बंधन दिखाई पड़ता। लेकिन बंधन तुम्हें दिखाई पड़ा नहीं था।

और मजा यह है कि अगर यह पत्नी मर जाए तो बहुत संभावना है कि जल्दी ही तुम दूसरा विवाह करोगे। पत्नी के मरने के बाद ज्यादा दिन याद न रख सकोगे। मन नई कल्पनाएं करने लगेगा। मन कहेगा, ‘सभी स्त्रियां थोड़े ही एक जैसी होती हैं पू यह दुष्ट मिल गई थी तो भाग्य की बात, अब सभी थोड़े ही दुष्ट मिल जाएंगी? दुनिया में अच्छी स्त्रियां भी हैं। अपनी पत्नी को छोड़ कर सभी स्त्रियां अच्छी हैं ही। कोई अच्छी स्त्री मिल जाएगी तो जीवन में सुख हो जाएगा। ‘ फिर तुम खोजने लगे। देर नहीं लगेगी, जल्दी ही तुम फिर बंधन में पड़ जाओगे, फिर तुम चीखने—पुकारने लगोगे कि मैं बंधन में पड़ गया।

तुम्हीं बनाते हो अपने बंधन, क्योंकि बिना बंधन के रहने के लिए बड़ा साहस चाहिए। अनबंधा रहने के लिए बड़ा साहस चाहिए। क्योंकि बिना बंधन के रहने का अर्थ हुआ कि न कोई सुरक्षा है, कल का पता नहीं क्या होगा! पत्नी तुम क्यों खोज लाए हो? —कल की व्यवस्था के लिए। कल अगर तुम्हारे जीवन में कामवासना उठेगी तो कौन तृप्त करेगा? तो तुमने पत्नी खोज ली है, जो कल भी मौजूद होगी। पत्नी ने पति खोज लिया है; क्योंकि कल की क्या सुरक्षा है, भोजन कौन देगा, मकान कौन देगा, वस्त्र कौन देगा, अलंकरण कौन देगा! कल की सुरक्षा तुमने कर ली है, परसों की सुरक्षा कर ली है। लोगों ने आगे तक की सुरक्षा कर रखी है। फिर उस सुरक्षा में बंध गए हैं।

तुमने एक मकान बना लिया, तुमने बैंक में बैलेंस इकट्ठा कर लिया, तुमने धन—प्रतिष्ठा बना ली—अब तुम कहते हो, बड़ा बंध गया हूं! लेकिन कौन तुम्हें बांधता है? तुम बंधे हो इसलिए कि बंधन में कुछ सुरक्षा है—कल अगर बीमार हुए तो क्या होगा? मरने लगे तो क्या होगा?

मुहम्मद के जीवन में उल्लेख है, उनको जो कुछ मिलता दिन भर में, वे खाने—पीने के बाद जो बचता सांझ को बांट देते, रात भिखारी हो कर सो जाते। यह उनके जीवन भर की व्यवस्था थी। जिस रात मरे, उनकी पत्नी ने यह सोच कर कि मौत करीब आती है, चिकित्सक कहते हैं बचने का अब कोई उपाय नहीं है, दवादारू की जरूरत पड़े, रात वैद्य बुलाना पड़े, हकीम बुलाना पड़े—तो उसने पांच रुपये बचा कर रख लिए, पांच दीनार बचा कर रख लिए।

बारह बजे रात मुहम्मद बड़े तड़पने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाया और कहा कि देख, मुझे लगता है कि मेरे जीवन भर का जो नियम था, वह टूटा जा रहा है मरने का वक्त। मैंने कल के लिए कभी कोई व्यवस्था नहीं की। और मुझे आज डर लग रहा है कि घर में कुछ रुपये हैं। अगर हों, तो जल्दी उन्हें तू बांट दे, नहीं तो परमात्मा के सामने आखिरी दिन लज्जित होना पड़ेगा। वह मुझसे पूछेगा : तो फिर आखिरी दिन तूने रुपये बचा लिए?

पत्नी तो घबड़ा गई कि इन्हें पता कैसे चला! उसने जल्दी से पांच दीनार जो बचाए थे, निकाल कर दे दिए कि क्षमा करें, मुझसे भूल हो गई! मैं तो यह सोच कर कि रात—बेरात, आधी रात जरूरत पड़ सकती है, फिर मैं कहां मांगूगी?

तो मुहम्मद ने कहा : पागल, जिसने हर बार दिया है, हर दिन दिया है, इतने दिन तक दिया। कभी हम भूखे मरे? कभी जरूरत पूरी नहीं हुई, ऐसा हुआ? जो सुबह देता है, सांझ देता है, वह आधी रात न दे सकेगा? तू जरा दरवाजे पर तो जा कर देख!

वह पांच दीनार ले कर गई, वहा एक भिखारी खड़ा है; वह कहता है, मुझे पांच दीनार की जरूरत है। वे पांच दीनार उस भिखारी को दे दिए गए।

मुहम्मद ने कहा. देख, लेने भी वही आ जाता है, देने भी वही आ जाता है। हम नाहक चिंता खड़ी कर लेते हैं। फिर चिंता में बंधते हैं, फिर बंधन से पीड़ित होते हैं और चिल्लाते हैं। अब मैं निश्चित हुआ। अब मैं उसके सामने सिर उठा कर खड़ा हो सकूंगा कि तू ही मेरा एकमात्र भरोसा था। तेरे अलावा मैंने भरोसा और किसी चीज में न रखा।

जिसका परमात्मा में भरोसा है, उसको फिर कोई बंधन नहीं। लेकिन परमात्मा में हमारा भरोसा नहीं है; भरोसा हमारा हजार और चीजों में है—इश्योरेंस कंपनी में है, बैंक में है, स्त्री में है, पति में है, मित्रों में, परिवार में, पिता में, पुत्र में, सरकार में, और हमारे हजार भरोसे हैं!

नास्तिक भी जो अपने को कहता है, वह भी नास्तिक नहीं है। बैंक का जहां तक सवाल है, वह भी आस्तिक है, इंश्योरेंस कंपनी का जहां तक सवाल है, वह भी आस्तिक है; सिर्फ भगवान के संबंध में वह आस्तिक नहीं है।

आस्तिक का अर्थ है : जिसने अपना सारा भरोसा परमात्मा में रखा, जिसने सारा भरोसा जीवन की ऊर्जा में रखा, अस्तित्व में रखा।

जैसे ही रुपये बांट दिए, मुहम्मद हंसे और उन्होंने कहा : अब शुभ हुआ, अब ठीक घड़ी आ गई, अब मैं निश्चित जा सकता हूं। चादर उन्होंने अपने मुंह पर डाल ली और कहते हैं, प्राण उड़ गए। पत्नी ने चादर उघाड़ी, वहां तो लाश पड़ी थी, मुहम्मद जा चुके थे। जैसे वे पांच दीनार अटकाए थे! जैसे उनके कारण वे बेचैन थे, बोझ था, बंधन था!

हम कहते तो हैं कि हम स्वतंत्र होना चाहते हैं, लेकिन स्वतंत्र होने के लिए हम जो व्यवस्था करते हैं वही हमें बांध लेती है।

तुमने देखा, धन की आदमी आकांक्षा क्यों करता है? इसलिए ताकि स्वतंत्र हो। धन से स्वतंत्रता मिलती है, ऐसा खयाल है। ऐसी भ्रांति है कि जितना धन होगा, उतनी तुम्हारी स्वतंत्रता होगी; जहां जाना होगा जा सकोगे; जिस होटल में ठहरना होगा, ठहर सकोगे; हवाई जहाज में उड़ना होगा, हवाई जहाज में उड़ोगे; महल में रहना होगा, महल में रहोगे; जिस स्त्री को चाहोगे वह तुम्हारे पैर दाबेगी; जो कुछ तुम करना चाहोगे, कर सकोगे। धन स्वतंत्रता देता है, इस आशा में आदमी धन इकट्ठा करता है। लेकिन धन इकट्ठा करने में ही बंध जाता है, बुरी तरह बंध जाता है! धन का बोझ भारी हो जाता है और छाती उसके नीचे टूटने लगती है।

यह तो हमारी साधारण स्वतंत्रता है। फिर परम स्वतंत्रता का नाम मोक्ष है।

अष्टावक्र कहते हैं : ‘सुन जनक, जो इहलोक और परलोक के भोग से विरक्त है और जो नित्य और अनित्य का विवेक रखता है…। ‘

जैसा तेरी बातों से लग रहा है। तेरी बातों से ऐसा लग रहा है कि तू तो बिलकुल मुक्त हो गया! न इस लोक की तेरी कोई आकांक्षा है, न परलोक की तेरी कोई आकांक्षा है। न तू यहां कुछ चाहता है, न स्वर्ग में कुछ चाहता है। और ऐसा लगता है तेरी बातों से कि तुझे तो विवेक उत्पन्न हो गया। तुझे तो पता है : अनित्य क्या है, नित्य क्या है; सार क्या, असार क्या? तुझे तो दिखाई पड़ गया है, ऐसा मालूम होता है। तुझे दर्शन हो गया है, ऐसा मालूम होता है। लेकिन फिर भी मैं तुझसे पूछता हूं कि मोक्ष को चाहने वाला मोक्ष से ही भय करे, इस आश्चर्य का तुझे पता है? कहीं तेरे भीतर मोक्ष से भी तो भय नहीं है अभी। अगर है, तो यह सब बातचीत है, जो तू कर रहा है। उस भय के कारण तू बंधा ही रहेगा, तू संसार निर्मित करता रहेगा।

हमने भय के कारण ही संसार निर्मित किया है। संसार यानी हमारे भय का विस्तार। और तब एक बड़े मजे की बात, कि तुम्हारा भगवान भी तुम्हारे भय का विस्तार; और तुम्हारा स्वर्ग भी तुम्हारे भय का विस्तार, तुम्हारा पुण्य भी तुम्हारे भय का विस्तार। तुम अगर पुण्य भी करते हो तो इसी भय से कि कहीं नर्क न जाना पड़े। तुम अगर पाप भी नहीं करते तो इसी भय से कि कहीं नर्क न जाना पड़े। तुम अगर पुण्य करते हो तो इसी भय से कि कहीं स्वर्ग न खो जाए, स्वर्ग की अप्सराएं और कल्पवृक्ष और शराब के बहते झरने न खो जाएं। तुम अगर मंदिर और मस्जिद में जा कर सिर टेक आते हो, तो सिर्फ इसीलिए कि परमात्मा अगर कहीं हो तो नाराज न हो जाए।

तुम्हारा धर्म तुम्हारे भय से निकलता है—अधर्म हो गया। इस जहर से अमृत न निकलेगा; इससे तो जहर ही निकलता है। भय से जो निकलता है, वह संसार है। तुम उसे परमात्मा कहो, स्वर्ग कहो, बहिश्त कहो, जो तुम कहना चाहो, लेकिन एक बात याद रखना, भय से संसार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं निकलता। भय से मोक्ष कैसे निकलेगा? यह तो ऐसा होगा जैसे रेत से कोई निचोड़ ले तेल को। नहीं, यह होता नहीं।

भय से मोक्ष नहीं निकलता। अभय से मोक्ष निकलता है। फिर मोक्ष का भय क्या है? अष्टावक्र क्यों कहते हैं कि देख ले तू अपने भीतर खोजबीन करके, कहीं मोक्ष का भय तो नहीं है?

मोक्ष का भय क्या है? मोक्ष का भय महामृत्यु का भय है। मोक्ष तुम्हारी मृत्यु है। तुम्हारे मुक्त होने का एक ही अर्थ है. तुम्हारा बिलकुल मिट जाना। तब जो शेष बचेगा वही मोक्ष है; तुम जहां बिलकुल न रहोगे; तुम्हारी रूपरेखा भी न बचेगी; तुम बिलकुल खो जाओगे जहां।

मृत्यु में तो आदमी बचता है, मोक्ष में बिलकुल नहीं बचता। मृत्यु में तो शरीर खोता है; मन बचता है, अहंकार बचता है, संस्कार बचते हैं, सब कुछ बच जाता है, सिर्फ शरीर बदल जाता है। मृत्यु में तो केवल वस्त्र बदलते हैं; पुराने जीर्ण —शीर्ण वस्त्र छूट जाते हैं, नए वस्त्र मिल जाते हैं। मोक्ष में शरीर भी गया, संस्कार भी गए, अहंकार भी गया, मन भी गया; तुमने जो जाना, अनुभव किया—सब गया। तुम गए! तुम पूरे के पूरे गए, समग्रता से गए! फिर जो शून्य बचता है, तुम्हारे अभाव में, तुम्हारी गैर मौजूदगी में जो बचता है—वही मोक्ष है, वही परमात्मा है, वही सत्य है। तुम तो ऐसे चले जाओगे जैसे प्रकाश के आने पर अधंकार चला जाता है। मोक्ष के आने पर तुम न बचोगे —मोक्ष महामृत्यु है।

उपनिषद कहते हैं; गुरु महामृत्यु है। क्योंकि गुरु के माध्यम से मोक्ष की तरफ चलना पड़ता है। गुरु सिखाता ही है मरने की कला।

अष्टावक्र ठीक कहते हैं

आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।

मैंने देखा है, अष्टावक्र कहते हैं कि मोक्ष की कामना करने वाले लोग भी मोक्ष से ही डरे होते हैं। जनक तू जरा गौर से देख ले, कहीं तेरे भीतर भी कोई भय की रेखा तो नहीं है। अगर है, तो फिर मोक्ष की ये बातें सब व्यर्थ हैं, अनर्गल प्रलाप हैं, पागल का प्रलाप हैं! इनमें फिर कुछ भी सार नहीं। मोक्ष का स्वर तो तुम्हारे भीतर तभी फूटता है, जब तुम्हारे सब स्वर बंद हो जाते हैं। जब तुम्हारी सब आवाज खो जाती है, तभी उस महासंगीत में तरोबोर होने की घड़ी आती है। तुम खाली करो सिंहासन! सिंहासन पर बैठे —बैठे मोक्ष नहीं है। जब तक तुम हो, तब तक मोक्ष नहीं है। जैसे ही तुम न हुए, मिटे, झुके, खोए—मोक्ष है! मोक्ष था ही सदा से—तुम्हारे कारण दिखाई न पड़ता था, तुम ओट थे; तुम पर्दा थे; तुम ही अड़चन थे; तुम ही बाधा थे।

अब बड़ी अड़चन उठी। मोक्ष का तो अर्थ ही यह है कि जिसने इस सचाई को पहचान लिया कि मैं ही रोग हूं। मोक्ष का अर्थ तुम्हारी मुक्ति नहीं है, मोक्ष का अर्थ है—तुमसे मुक्ति। जिसने पहचान लिया कि मैं ही रोग हूं सारे रोग का आधार मैं ही हूं और जिसने कहा कि ठीक अब मैं यह आधार छोड़ता हूं, अब मैं न होने की तैयारी दिखलाता हूं, अब मैं मरने को राजी हूं; हो—हो कर देख लिया, कुछ पाया नहीं, हो—हो कर देख लिया, सिवाय खोने के कुछ भी नहीं हुआ; हों—हों कर देख लिया, अनेक बार हो कर देख लिया, कितने जन्मों तक हो कर देख लिया, काफी देर हो चुकी है। तुम बहुत बार हो कर देख लिए, हर होना खाली गया। अब जरा न हो कर देख लें। मोक्ष का मतलब इतना है : कि हो कर देख लिया, असफल हुए; अब जरा न हो कर देख लें।

‘जनक, कहीं तेरे भीतर कुछ भय तो नहीं है?’

मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषिका आश्चर्यम्!

अष्टावक्र कहते हैं : तू आश्चर्य की बात करता है, सुन, बड़े आश्चर्य मैं तुझे बताता हूं! बड़े से बड़ा आश्चर्य यह है कि मोक्ष की कामना करने वाला भी मरने से डरता है। और जो मरने से डरता है, वह मोक्ष को कैसे उपलब्ध होगा ? मोक्ष तो महामृत्यु है।

मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी खाना खा रहे थे, तभी रेडियो पर राग मल्हार आने लगा। ‘वाह—वाह!’ मुल्ला ने कहा, ‘क्या प्यारी चीज है। ‘

‘क्या?’ पत्नी ने जरा जोर से पूछा।

‘मैंने कहा, क्या प्यारी चीज है!’ मुल्ला ने और जरा जोर से दोहराया।

पत्नी बोली, ‘इस रेडियो को बंद करो तो कुछ सुनाई दे। इस बेसुरी आऽऽऽ आऽऽऽ के कारण तुम्हारी बात सुनाई ही नहीं दे रही है। ‘

मुल्ला उसी मल्हार राग की बात कर रहा है, जिसको पत्नी कह रही है यह बेसुरी आऽऽऽ आऽऽऽ इसके कारण तुम्हारी बात ही सुनाई नहीं दे रही।

वह जो मोक्ष का स्वर है, किन्हीं को तो मल्हार राग मालूम होती है, किन्हीं को सिर्फ आऽऽऽ आऽऽऽ..। क्या लगा रखा है शोरगुल! जो भयभीत हैं, उन्हें तो वह व्यर्थ का शोरगुल मालूम होता है। क्योंकि उन्होंने व्यर्थ के शोरगुल को सार्थक समझ रखा है, इसलिए सार्थक उन्हें व्यर्थ मालूम होने लगा। वे उल्टे खड़े हैं, शीर्षासन कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने व्यर्थ को व्यर्थ जान लिया है, उन्हें तत्‍क्षण वह जो मोक्ष की ध्वनि है, जो तुम्हारी मृत्यु में थोड़ी—सी आती है—वह राग मल्हार हो जाती है, वह जीवन का महासंगीत हो जाता है।

अगर तुमने जीवन से कुछ भी समझा है तो एक बात तो समझो कि जीवन बिलकुल असार है। इसमें सार जैसा कुछ भी तो। नहीं है। दौड़ो—को, आपा— धापी, खूब करो श्रम—हाथ कुछ भी लगता नहीं है। यह बड़ा आश्चर्य है! और फिर भी तुम मरना नहीं चाहते। फिर भी तुम मिटना नहीं चाहते। फिर भी तुम कहते हो, कोई तरकीब बताएं कि मैं सदा बना रहूं, सदा—सदा बना रहूं! क्या करोगे सदा बने रह कर?

कहते हैं, जब सिकंदर पूरब आया तो उसके दरबारियों में से एक ज्ञानी ने उसे कहा कि तू पूरब जा रहा है, मार्ग में कहीं एक ऐसा स्थान है, जहां जल का एक झरना है मरुस्थल में, उसे जो पी लेता है वह अमर हो जाता है। अब तू जा ही रहा है, तो उसकी भी खोज कर लेना; शायद मिल जाए; शायद यह कथा ही न हो, सच हो।

सिकंदर ने अपने सैनिकों को सचेत कर दिया कि खोजबीन करते रहना। कहीं भी ऐसी जरा भी भनक पड़े, कान में अफवाह पड़े, मुझे खबर कर देना। खबर आ गई। बीच एक रेगिस्तान से गुजरते वक्त खबर आई कि यहीं है वह झरना। सिकंदर ने उसकी खोज कर ली। वह सारे सिपाहियों को बाहर छोड़ कर, सैनिकों को बाहर छोड़ कर उतरा उस गुफा में, जहां वह झरना था। वह उतर गया गुफा में, सीढ़ियों से उतर कर झरने में खड़ा हो गया, बड़ा आह्लादित था कि इस झरने के जल को पी कर अब मैं सदा—सदा के लिए अमर हो जाऊंगा। उसने चुल्ल भी भर ली। तभी एक कौआ बैठा है पास ही चट्टान पर। वह कहने लगा रुक! सिकंदर तो बहुत घबड़ाया कौए को बोलते सुन कर। उसने कहा : घबड़ा मत, मेरी बात सुन ले इसके पहले कि तू पानी पीए क्योंकि मैं पी कर बड़ी झंझट में पड़ गया हूं।

सिकंदर ने कहा : क्या झंझट? कौए ने कहा : मैंने भी इसकी बड़ी खोज की, बामुश्किल मैं आ पाया। मैं कौओं का राजा हूं जैसा तू आदमियों का राजा है। मैं कोई छोटा—मोटा कौआ नहीं हूं। तू शाही कौए से बात कर रहा है। बामुश्किल मैं खोज पाया, मैंने हजारों कौए इस खोज में लगा दिए थे, आखिर इसका पता चल गया, आखिर मैं आ गया और मैंने यह पी भी लिया—पी कर मैं फंस गया। अब मैं मरना चाहता हूं, क्योंकि सदियां बीत गईं तब से मैं जिंदा हूं। अब मैं मरना चाहता हूं मर नहीं सकता। सिर पटकता हूं चट्टानों पर, कोई सार नहीं। जहर पी लेता हूं कुछ सार नहीं। गर्दन में फांसी लटका कर लटक जाता हूं कुछ सार नहीं। कोई उपाय मेरे मरने का नहीं है। यह पानी बड़ा खतरनाक है सिकंदर!

सिकंदर ने पूछा. तू और मरना क्यों चाहता है?

उस कौए ने कहा : अब क्या करूं? वही—वही राग, वही—वही उपद्रव, कब तक देखूं? मिलता तो कुछ है ही नहीं—दौड़— धूप, दौड़— धूप, दौड़— धूप…! अब तो मैं उनसे ईर्ष्या करने लगा जो मर जाते हैं; कम से कम शांति तो मिल जाती है। मुझसे ज्यादा अशांत इस पृथ्वी पर कोई नहीं सिकंदर! फिर तेरी मर्जी!

कहते हैं, सिकंदर ने हाथ से पानी नीचे गिरा दिया। सीढ़ियां चढ़ कर वापिस लौट आया। पानी उसने पीया नहीं।

कहानी सच हो या झूठी, मगर कहानी बड़ी सार्थक है। तुम्हीं सोचो, अगर तुम अमर हो जाओ, क्या करोगे? यह पचास—साठ—सत्तर साल की जिंदगी तो किसी तरह कट जाती है। यह कोई बड़ी जिंदगी नहीं है। सत्तर साल आदमी जीता है, उसमें से बीस—पच्चीस साल तो सोने में निकल जाते हैं; आठ घंटा रोज सोया तो एक तिहाई तो सोने में निकल गया। पंद्रह—बीस साल पढ़ने—लिखने में, स्कूली उपद्रव में निकल गए, तब कुछ होश ही नहीं था। बचे बीस—स्व साल—तो दफ्तर, फैक्टरी, दूकान, मजदूरी, पत्नी, बच्चे, हजार उपद्रव! मंदिर, मस्जिद—इसमें निकल गए। तुम्हारे पास बचता क्या सत्तर साल में? सात मिनट भी बचते हैं?

लेकिन तुम जरा सोचो कि अगर मरो ही न, तो कैसी असुविधा न खड़ी हो जाएगी? जिसको जीवन की यह व्यर्थता दिखाई पड़ती है, वह अमरत्व की आकांक्षा नहीं करता। वह कहता है : ‘हे प्रभु! महामृत्यु घटित हो, ऐसी मृत्यु घटित हो कि फिर जीवन न मिले। ‘ इसी को हम आवागमन से मुक्ति कहते हैं। यही तो पूरब की बड़ी से बड़ी निधि और खोज है। पश्चिम अभी बचकाना है। अभी पश्चिम जीवन से ऊबा नहीं। पूरब बड़ा प्राचीन है, बड़ा प्रौढ़ है—जीवन से ऊब गया। पश्चिम के तो विचारक सोच कर हैरान होते हैं कि यह मामला क्या है? बुद्ध, महावीर, पतंजलि, अष्टावक्र, लाओत्सु—ये सब यही एक बात करते हैं कि कैसे छुटकारा हो? यह मामला क्या है? अरे जीवन छूटने के लिए है? जीवन को थोड़ा लंबा करो, नई औषधियां खोजो, नए उपाय खोजो, आदमी लंबा जीए, खूब जीए! ये लोग क्या पागल हैं? ये सारे बुद्धपुरुष, इनका दिमाग फिर गया है? ये कहते हैं कि कैसे आवागमन से छुटकारा हो?

पश्चिम अभी बचकाना है। अभी पश्चिम को जीवन का अनुभव नहीं। पूरब ने जीवन का बड़ा लंबा अनुभव लिया है और पाया : यह बिलकुल ही असार है। ‘पानी केरा बुदबुदा!’ क्षणभंगुर है! और भीतर कुछ भी नहीं। फूटता है तो शून्य हाथ लगता है। प्याज की तरह है : पर्त —पर्त उघाडते चलो,

नई पर्तें निकलती आती, निकलती आती, एक दिन शून्य, कुछ हाथ नहीं लगता। दौड़ो— धापो, कहीं पहुंचते नहीं, जहां के तहां खड़े—खड़े मर जाते हो। कहीं पहुंचे हो तुम? चले तो हो—कोई तीस साल चल लिया, कोई पचास साल चल लिया, कोई साठ साल चल लिया—लेकिन कहीं पहुंचे हो? कहीं ऐसा लगता है कि कोई पहुंचना हुआ, कोई मंजिल आई? मार्ग ही मार्ग.. .घूमते रहते! कहीं पहुंचना तो होता नहीं, तृप्ति तो कुछ होती नहीं। एक अतृप्ति दूसरी अतृप्ति में ले जाती है; दूसरी अतृप्ति तीसरी अतृप्ति में। दो अतृप्तियों के बीच थोड़ी—सी आशा रहती कि शायद तृप्ति हो, बाकी तृप्ति कभी होती नहीं; संतोष कभी आता नहीं। संतुष्टि इस जगत में है ही नहीं।

जन्म—मरण से छुटकारे की आकांक्षा मोक्ष है।

अष्टावक्र ने कहा कि तू जरा गौर से देख, जरा हाथ में खुर्दबीन ले कर देख जनक! कहीं भी भय तो नहीं है मरने का? नहीं तो यह सब बात, ऊंची—ऊंची बात, बात की बात रह जाएगी। अगर तेरे प्राण में यह उतर गई हो, तो तुझे मरने को राजी होना चाहिए; तुझे महामृत्यु के लिए राजी होना चाहिए। तब तो तुझे अहोभाव से नाचता हुआ मृत्यु के स्वागत के लिए जाना चाहिए।

जो नाचता हुआ, गीत गुनगुनाता हुआ मृत्यु के स्वागत को गया है, उसी ने जीवन को जाना है। जो डरते और कंपते मृत्यु की तरफ जा रहे हैं, वे जीवन को नहीं जाने, नहीं पहचाने। और चूंकि जीवन को नहीं पहचाने, इसलिए मृत्यु का अर्थ भी नहीं समझ पाते। मृत्यु तो छुटकारा है। मृत्यु तो विश्राम है। लेकिन अगर मरते समय तुम्हारे मन में यह कामना रही कि फिर हो जाऊं, फिर हो जाऊं, मरते वक्त अगर तुम्हारे मन में यह कामना रही कि अभी थोड़ी देर और जी जाता, और जी जाता—तो तुम फिर लौट आओगे, तुम्हारी वासना तुम्हें फिर खींच लाएगी। वासना के धागे फिर तुम्हें वापिस किसी गर्भ में ले आएंगे। मरते वक्त जो कहता है : अहो, धन्यभागी मैं, आश्चर्य कि अब मैं जा रहा हूं और फिर कभी न आऊंगा!

बुद्ध ने ऐसी चेतना को अनागामिन कहा है —जो जाता है और फिर कभी नहीं आता, फिर जिसका आगमन कभी नहीं होता। बुद्ध ने कहा : धन्य हैं वे जो अनागामिन हैं—मरते क्षण जो पूरे मर जाते हैं और जो कहते हैं यह यात्रा समाप्त हुई, यह व्यर्थ की दौड़— धाप बंद हुई, यह सपना अब और नहीं देखना है!

मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषिका आश्चर्यम्।

—तो तू जरा देख, उस पर आश्चर्य कर अगर कहीं भय हो।

‘धीर—पुरुष तो भोगता हुआ भी और पीड़ित होता हुआ भी नित्य केवल आत्मा को देखता हुआ न प्रसन्न होता है और न क्रुद्ध होता है। ‘

धीरस्तु भोज्यमानोउपि पीड्यमानोउपि सर्वदा।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति।।

कहने लगे अष्टावक्र कि जनक, देख, जो वस्तुत: ज्ञान को उपलब्ध हो गया, जो धीर—पुरुष है, वह फिर न तो प्रसन्न होता है और न क्रुद्ध होता है। हानि हो तो अप्रसन्न नहीं, लाभ हो तो प्रसन्न नहीं। मान हो तो प्रसन्न नहीं, अपमान हो तो क्रुद्ध नहीं। तू जरा भीतर देख, अगर तेरा सम्मान हो, तो तू प्रसन्न होगा? अगर तेरा अपमान हो, तो तू नाराज होगा? अगर तू हारे जीवन में—आज तू सम्राट है कल भिखारी हो जाना पड़े—तो तेरे चित्त में कोई अंतर पड़ेगा? अगर रेखा—मात्र का भी अंतर पड़ता हो, तो अभी जल्दी मत कर। यह घोषणा बड़ी है जो तू कर रहा है, यह घोषणा मत कर। फिर यह घोषणा अयोग्य है और खतरनाक है, क्योंकि कहीं इस घोषणा का तू भरोसा करने लगे कि यह सत्य है, तो फिर तू सत्य को कभी भी न पा सकेगा।

गुरु की यह सतत चेष्टा दिखाने की, कि कहीं तुम किसी भ्रांत धारणा को जो नहीं हुई है, ऐसा मत मान लेना कि हो गई है। बड़ी अनिवार्य है गुरु की यह उपदेशना, बड़ी करुणामयी है! क्योंकि मन तो बड़े जल्दी मानने को होता है कि हो गया और जब बिना किए हो रहा हो तो दिक्कत ही क्या? पतंजलि के साथ तो यह खतरा नहीं है, अष्टावक्र के साथ बहुत खतरा है। इसलिए पतंजलि कोई परीक्षा भी नहीं लेते, अष्टावक्र परीक्षा लेते हैं।

यह तुमने खयाल किया? पतंजलि के साथ कोई खतरा नहीं है; वे एक—एक इंच बढ़ाते हैं। वे उतना ही बढ़ाते हैं जितना संभव है साधारण मनुष्य को बढ़ना। छलांग वहां नहीं है। और एक सीढ़ी चढ़ो तो ही दूसरी सीढ़ी पर चढ़ सकते हो। पहली सीढ़ी अगर नहीं चढ़ पाए तो दूसरी पर चढ़ ही न पाओगे। इसलिए पतंजलि परीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं करते। लेकिन अष्टावक्र ने परीक्षा की व्यवस्था की—करनी ही पड़ी। क्योंकि अष्टावक्र तो कहते हैं कोई सीढ़ी नहीं; चाहो तो तत्‍क्षण, अभी इसी क्षण मुक्त हो सकते हो! यह सुन कर कई पागल तल्लण घोषणा कर देंगे कि हम मुक्त हो गए। इन पागलों को खींच कर इनकी जगह लाना पड़ेगा। इनके लिए सूत्र दिए जा रहे हैं।

‘जो अपने चेष्टारत शरीर को दूसरे के शरीर की भांति देखता है, वह महाशय पुरुष स्तुति और निंदा में भी कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा?’

चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।

जो अपने शरीर को भी ऐसा देखता है जैसे किसी और का शरीर है; जो अपने शरीर को भी अपना नहीं मानता; जिसने अपने शरीर से भी उतनी ही दूरी कर ली है जितनी दूसरे के शरीर से है। जैसे तुम्हारे शरीर को कोई चोट पहुंचाए, तो मुझे चोट नहीं लगती—ऐसा ही मेरे शरीर को कोई चोट पहुंचाए और तब भी मैं जानता रहूं कि मुझे चोट नहीं लगती; जैसे यह किसी और का शरीर है। तो ही.।

‘जो अपने चेष्टारत शरीर को दूसरे के शरीर की भांति देखता है, वह महाशय पुरुष स्तुति और निंदा में कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा?

संस्तवे चापि निदाया कथं क्षुभ्येत् महाशय:।

यह ‘महाशय’ शब्द बड़ा प्रिय है। बना है महा फ़ आशय से—जिसका आशय महान हो गया; जो क्षुद्र आशयों से नहीं बंधा है; शरीर के और मन के, वृत्ति के और विचार के आशय जिसके जीवन में नहीं रहे; जिसने अपने समस्त आशय, अपनी समस्त आकांक्षाएं परमात्मा के चरणों में, महंत के चरणों में समर्पित कर दी हैं।

‘महाशय’ बड़ा अनूठा शब्द है। हम तो साधारण उपयोग करते हैं। कोई घर आता है तो कहते हैं. आइए महाशय, बैठिए! लेकिन उपयोग ठीक है। हमें यह मान कर चलना चाहिए कि दूसरा महाशय है; किसी क्षुद्र प्रेरणा से नहीं आया होगा, प्रभु—प्रेरणा से आया है। इसलिए तो हम अतिथि को देवता कहते हैं। अतिथि आया है तो प्रभु ही आया है। जो आया है वह महाशय है। चोर भी आया है तो भी किसी महाशय से आया होगा। ऐसी प्रतीति साधु—स्वभाव की होनी चाहिए।

कहते हैं. ‘वह महाशय पुरुष स्तुति और निंदा में कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा?’ तो तू देख जनक, तुझे क्षोभ होगा? तेरी स्तुति करूं तो तुझे प्रसन्नता होगी?

प्रसन्नता भी क्षोभ है। क्षोभ का मतलब होता है : तरंगें उठ आना; क्षुब्ध हो जाना। क्रोध तो क्षोभ है ही, प्रसन्नता भी क्षोभ है। दुखी होना तो क्षोभ है ही, सुखी होना भी क्षोभ है; क्योंकि दोनों हालत में चित्त तरंगों से भर जाता है, क्षुब्ध हो जाता है। जो सुख और दुख के पार है, वही क्षुब्ध होने के पार है। उसे फिर कोई क्षुब्ध नहीं कर पाता।

तो वे कहते हैं कि अगर तेरा कोई अपमान करे जनक, तो तू क्षुब्ध होगा? तेरा कोई सम्मान करे तो तू क्षुब्ध होगा? तुझमें कोई अंतर पड़ेगा—कोई भी अंतर पड़ेगा? अंतर—मात्र पड़े तो तू जो अभी कह रहा है, वह तूने मेरी सुनी बात दोहरा दी। और सत्य को पुनरुक्त नहीं करना चाहिए। सत्य को अनुभव करना चाहिए।

‘जो इस विश्व को माया—मात्र देखता है और जो कौतुक को पार कर गया है, वह धीरपुरुष मृत्यु के आने पर भी क्यों भयभीत होगा पू ‘

जिसकी जिज्ञासा, कुतूहल, अज्ञान सब बीत गए; जिसको अब पूछने को कुछ नहीं बचा है, जो पूछने की यात्रा समाप्त कर चुका; जिसके सब प्रश्न गिर गए हैं।

विगतकौतुक!

यह शब्द प्यारा है। जिसके मन में अब पूछने के लिए कुछ भी नहीं है, प्रश्न ही नहीं है।

मायामात्रमिद विश्व पश्यन् विगतकौतुक:।

‘जो इस विश्व को मायामात्र देखता है और जो कौतुक को पार कर गया है…।’

अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी:।

‘. …..क्या मृत्यु को पास आया हुआ देख कर वह भयभीत होगा?’

क्या जरा भी भय की रेखा उसमें उठेगी? तू तो देख, आ रही जैसे मृत्यु, खड़ी तेरे द्वार पर दस्तक दे रही मृत्यु, आ गए यमदूत अपने भैंसों पर सवार हो कर—तू उनका स्वागत करके उनके साथ जाने को तत्पर होगा कि जरा भी तेरा मन झिझकेगा? अगर जरा भी झिझक रह गई हो, तो फिर तू अभी विगतकौतुक नहीं। अगर जरा भी झिझक रह गई हो, तो अभी श्रद्धा का जन्म नहीं हुआ। अगर जरा भी झिझक रह गई हो, तो अभी बहुत कुछ करने को बाकी है, क्रांति घटी नहीं। तू समझा बुद्धि से, अभी प्राणों से नहीं समझा। तूने जाना ऊपर से, अभी अंतरतम में प्रकाश का दीया नहीं जला।

‘जिस महात्मा का मन मोक्ष में भी स्पृहा नहीं रखता और जो आत्मज्ञान से तृप्त है, उसकी तुलना किसके साथ हो सकती है?’

‘जिस महात्मा का मन मोक्ष में भी स्पृहा नहीं रखता…।’

निस्पृह मानस यस्य नैराश्येउपि महात्मन:।

जो इतना ज्यादा वासना के पार हो गया कि मोक्ष की भी वासना नहीं है। हो तो हो, न हो तो न हो—यह आत्यंतिक स्थिति है। जब मोक्ष की भी वासना नहीं होती, तभी मोक्ष फलित होता है। यह मोक्ष का विरोधाभास है।

कल मैं एक सूफी फकीर का जीवन पढ़ता था। वह बड़ा धनपति था—फकीर होने के पहले। दमिश्क में रहता था। और दमिश्क की जो बड़ी प्रसिद्ध मस्जिद है, जगत—प्रसिद्ध मस्जिद है, उसके मन में यह आकांक्षा थी कि वह उस मस्जिद का व्यवस्थापक हो जाए, वह उसके नियंत्रण में चले। वह बड़े सम्मान की बात थी। वह दमिश्क का सबसे ऊंचा पद था—उस मस्जिद का व्यवस्थापक हो जाना। तो वह धनी तो था ही, सब काम छोड़ कर वह सुबह मस्जिद में प्रवेश करने वाला पहला व्यक्ति होता और सांझ मस्जिद को छोड़ने वाला आखिरी व्यक्ति होता। वह दिन भर नमाज में लीन रहता। वह चौबीस घंटे तन्मय हो कर प्रार्थना करता—इस आशय से भीतर कि जब लोग मुझे इतनी प्रार्थना में देखेंगे, तो आज नहीं कल, मस्जिद में आने वाले लोगों का यह भाव होगा ही कि इतने बड़े नमाजी के रहते हुए कोई और दूसरा व्यवस्थापक हो!

नमाज में उसका रस न था। रस तो इसमें था कि लोग देख लें। लोगों ने देखा भी। महीने बीते, साल भी बीतने लगा; लेकिन कोई परिणाम दिखाई न पड़े। ईश्वर से तो कुछ उसे लेना—देना भी न था; वह तो सिर्फ प्रदर्शन था। साल पूरा हो गया तो उसने कहा, यह तो फिजूल की बात है। अगर साल भर में गांव के लोगों को इतना भी पता नहीं.. .कि कोई आ कर कहता भी नहीं मुझसे कि तुम व्यवस्थापक हो जाओ। तो उस रात उसने कहा कि व्यर्थ है यह। बात छोड़ दी। उसने उस रात परमात्मा से प्रार्थना की कि मुझे क्षमा कर। मैंने भी कहां की व्यर्थ बात में साल भर गंवाया! साल भर अगर तेरे को पाने की प्रार्थना की होती, तो शायद तेरे ही दर्शन हो जाते। मगर इन मूढ़ों को कुछ अक्ल न आई। मगर मैं भी मूढ़ हूं मुझे क्षमा कर!

उस रात उसने बड़े निस्पृह मन से प्रार्थना की, उसमें कुछ मांग न थी! वह प्रार्थना करके उठ कर द्वार पर आया कि देखा कि गांव के लोग इकट्ठे हो रहे हैं। उसने पूछा : मामला क्या है? लोगों ने कहा. हम सबने मिल कर तय किया कि तुम उस मस्जिद के व्यवस्थापक हो जाओ। साल भर से हम देखते हैं, तुम जैसा कोई नमाजी कभी हुआ!

वह तो बड़ा हैरान हुआ कि आज तो मैंने छोड़ी आकांक्षा और आज ही आकांक्षा पूरे होने का दिन आ गया! लेकिन तब उसे होश भी आया। उसने कहा कि क्षमा करो मित्रो, साल भर तो मैं आकांक्षा करता था, तब तुम कहां थे? अब तुम आए हो जबकि मैं आकांक्षा छोड़ चुका। जब आकांक्षा छोड़ने से ऐसा फल मिलता है तो अब आकांक्षा न करूंगा, अब तुम व्यवस्थापक किसी और को बना लो। और उसे इतना बोध हुआ इस घटना से कि वह सब छोड़—छाड़ कर फकीर हो गया। ‘मलिक बिन दीनार’ उसका नाम था। कहते हैं कि उसने मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं की फिर। स्वर्ग की आकांक्षा का तो सवाल ही नहीं; उसने आकांक्षा ही नहीं की। जब मरा तो किसी बुजुर्ग को सपने में दिखाई दिया और बुजुर्ग ने पूछा क्या खबर है? वहा कैसा हुआ?

क्योंकि जिस दिन मलिक बिन दीनार मरा, उसी दिन एक और फकीर मरा—हसन नाम का एक फकीर मरा। दोनों की बड़ी ख्याति थी। तो पूछा बुजुर्ग ने कि तुम दोनों साथ—साथ मरे, एक ही समय मरे, तो मोक्ष के दरवाजे पर एक साथ पहुंचे होओगे, पहले प्रवेश किसको मिला?

मलिक बिन दीनार ने कहा कि मैं भी बड़ा चकित हूं, पहले प्रवेश मुझको मिला। और मैंने पूछा प्रभु को कि मुझे प्रवेश पहले देने का क्या कारण है? क्योंकि हसन मुझसे ज्यादा बुद्धिमान है। हसन

मुझसे ज्यादा ज्ञानी है। हसन के पास तो मैं भी सीखने जाता था। तो प्रभु ने कहा. तुझसे ज्यादा ज्ञानी है, वह तुझसे ज्यादा त्यागी है; लेकिन उसके मन में मोक्ष की आकांक्षा थी और तेरे मन में मोक्ष की आकांक्षा न थी! तू पहले प्रवेश का हकदार है।

मोक्ष की आकांक्षा भी जिसकी छूट गई हो; जिस महात्मा का मन मोक्ष की भी स्पृहा न करता हो और जो आत्मज्ञान से तृप्त है, और जो अपने होने से तृप्त है; जिसकी तुष्टि अपने में है; जो अब कुछ भी नहीं मांगता, जो कहता है मेरा होना काफी है, काफी से ज्यादा है; और मुझे चाहिए क्या—जो ऐसा कहता है! जो कहता है, मैंने अपने को जान लिया, भर पाया, खूब पाया, मिल गया सब, अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए!

‘आत्मज्ञान से जो तृप्त है…….। ‘

तस्यात्म ज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते।

‘…….उसकी तुलना किसी से भी नहीं हो सकती। ‘

तो हे जनक, तेरे मन में मोक्ष की स्पृहा तो नहीं है? अभी भी तेरे मन में मुक्त होने की आकांक्षा तो नहीं है? तुझे जो यह आत्मज्ञान हुआ है, जैसा तू कह रहा है कि हो गया, इससे परितृप्त हो गया तू? अब और तो कुछ नहीं चाहिए? तेरी तृप्ति पूरी हो गई? अब तू कुछ और तो न मांगेगा? अगर प्रभु तेरे सामने आ जाए और कहे कि सुन जनक, तुझे क्या चाहिए, मैं देने को तैयार हूं —तो तेरे पास मांगने को कुछ होगा, या तू सिर्फ धन्यवाद देगा? तू कुछ मांगेगा या धन्यवाद देगा? तू यह कहेगा कि आपने दे दिया सब, अब मुझे कुछ चाहिए नहीं। अब तो कुछ भी नहीं चाहिए, ऐसा तू कह सकेगा बिना किसी अड़चन के? जरा—सी भी भीतर द्वंद्व की स्थिति न बनेगी, मन तेरा न कहेगा कि अरे, अब प्रभु कहते हैं तो थोड़ा कुछ मांग ही लो? जन्मों —जन्मों तक आकांक्षा की, अब घड़ी आई, शुभ घड़ी कि परमात्मा स्वयं कहता है कुछ मांग लो, मेरे वरदहस्त आज तुम्हें लुटाने को तैयार हैं, खड़े हैं तुम्हारी झोली भरने को—तो तेरा मन झोली फैला तो न देगा?

ये सारी बातें अष्टावक्र कहने लगे, ताकि जनक अपने को देख ले कहां है।

‘जो जानता है कि यह दृश्य स्वभाव से ही कुछ भी नहीं है, वह धीरबुद्धि कैसे देख सकता है कि यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य?’

यह बड़े महत्व का सूत्र है इन सब सूत्रों में महत्व का सूत्र है। इस सूत्र का अर्थ है कि अष्टावक्र कहते हैं कि जनक देख, इन सारी बातों को सुन कर—मैंने कहा कि धीरपुरुष धन में आकांक्षा न रखेगा; मैंने कहा कि धीरपुरुष मोक्ष में भी आकांक्षा न रखेगा; मैंने कहा, धीर—पुरुष साम्राज्य में, महल में, संपत्ति के विस्तार में आकांक्षा न रखेगा—इससे ऐसा तो नहीं होता कि तेरे मन में एक सवाल उठ रहा हो : तो मैं इस सबका त्याग कर दूं? यह बड़ी बारीक बात है। मेरी ये बातें सुन कर तेरे मन में ऐसा तो नहीं हो रहा है कि इस सबका त्याग कर दूं? क्योंकि धीरपुरुष तो धन की आकांक्षा नहीं रखता, महल की आकांक्षा नहीं रखता, सुख—सुविधा की आकांक्षा नहीं रखता, तो मैं इन सबको छोडूं और जंगल चला जाऊं—अगर तेरे मन में ऐसा हो रहा हो, तो अभी तू धीरपुरुष नहीं। क्योंकि धीरपुरुष न तो वस्तु की आकांक्षा करता है, न वस्तु के त्याग की आकांक्षा करता है। तो तेरे भीतर कहीं भोग बचा है? इसके लिए अब तक के सूत्र कहे कि अगर कहीं भी भोग की आकांक्षा बची है तो खोज ले।

अब यह बड़ा सूत्र, उससे भी बड़ा सूत्र है कि वे कहते हैं. अब मैं तुझसे यह पूछता हूं कि हो सकता है भोग न बचा हो, त्याग की आकांक्षा तो नहीं है कहीं?

क्योंकि त्याग की आकांक्षा भोग का ही दूसरा रूप है। त्याग की आकांक्षा भोग ही है—सिर के बल खड़ा, कुछ फर्क नहीं। भोग कहता है पकड़ो, त्याग कहता है छोड़ो; लेकिन पकड़ने और छोड़ने में जिस पर ध्यान होता है, वह तो एक ही चीज है—धन, कामिनी या काचन। भोग कहता है : ‘ और स्त्रियां। ‘ त्याग कहता है. ‘बिलकुल नहीं। ‘लेकिन दोनों की नजर तो स्त्री पर होती है या पुरुष पर होती है। भोग कहता है. ‘और— और धन!’ त्याग कहता है. ‘बिलकुल नहीं; .और—और त्याग!’ लेकिन दोनों के मन में अभी ‘ और’ तो होता है।

न भोगी को तुम तृप्त पाओगे, न त्यागी को। क्योंकि त्यागी सोचता है अभी और त्याग करना है, और भोगी सोचता है अभी और भोग करना है। बड़े मजे की बात है, दोनों की दृष्टि ‘ और’ पर लगी है—और! इस ‘ और’ को ठीक से समझना, इस ‘ और’ में ही सारा संसार समाया है।

तुम भोगी को भी बेचैन पाओगे। वह कहता है कि है, कार तो है, लेकिन और बड़ी चाहिए; मकान है, लेकिन और बड़ा चाहिए। तुम त्यागी के भीतर खोजो। त्यागी कहता है, किए तो उपवास, लेकिन और! त्याग किया तो, लेकिन और! अभी और बहुत कुछ छोड़ने को है। क्रोध छोड़ा, माया छोड़ी, मोह छोड़ना है, प्रतिष्ठा छोड़नी है, अहंकार छोड़ना है। लेकिन ‘और’ की दौड़ तो बराबर जारी है। न भोगी तृप्त है, न त्यागी तृप्त है।

स्वभावादेव शानानो दृश्यमेतन किंचन।

इदं ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी:।।

जो वस्तुत: धीर हो गया, जो वस्तुत: धैर्य को उपलब्ध हो गया, जो वस्तुत: शांत हो गया और जिसने वस्तुत: जान लिया कि ये सब दृश्य स्वभाव से ही कुछ भी नहीं हैं—उसके मन में न तो ग्रहण करने की कोई वासना उठती, और न त्याग की कोई वासना उठती है।

भोगी और योगी में बहुत अंतर नहीं है, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भोगी और त्यागी में कोई भेद नहीं है; वे एक ही तर्क की दो व्याख्याएं हैं। मगर तर्क एक ही है। वास्तविक धीर तो वही है जो दोनों के पार हो गया।

देखते हैं, परीक्षा कैसी कठिन होती जाती है! जनक को कैसे कसते जाते हैं सब तरफ से, भागने की कोई जगह नहीं दे रहे हैं! अभी तक भोग का खंडन किया था, तो एक उपाय था जनक को भागने का, कि जनक सोचता कि ठीक है, अष्टावक्र कहते हैं कि यह सब ज्ञानी नहीं करता—धन, माया, मद, पद, व्यवस्था, साम्राज्य, महल, यह सब नहीं करता। तो एक छुटकारे की जगह थी—तो ठीक है, सब छोड़ दूंगा।

अहंकार ज्ञान के दावे में छोड़ भी सकता है। अगर इस पर ही कसौटी हो जाए कि तुमने जो वक्तव्य दिया है जनक, कि मैं जाग गया, यह वक्तव्य तभी सही सिद्ध होगा, जब तुम यह सब छोड़ दो, क्योंकि जागा हुआ आदमी इन सब चीजों में नहीं होता—तो अहंकार की यह खूबी है, सूक्ष्म खूबी कि अहंकार इसके लिए भी राजी हो जाएगा। जनक कहता. अच्छा, अगर यही कसौटी है, हम पूरी किए देते हैं! मैं जाता यह सब छोड़ कर! यह रहा पड़ा साम्राज्य, मैं चला!

लेकिन उससे कुछ सिद्ध न होता। उससे यह बिलकुल भी सिद्ध न होता कि साम्राज्य स्वन्नवत हुआ। क्योंकि स्वप्न न तो पकड़े जा सकते हैं और न छोड़े जा सकते हैं। जब तुमसे कोई कहे कि मैंने लाखों रुपये त्याग कर दिए तो समझ लेना कि त्याग नहीं हुआ, हिसाब जारी है। तब तुम पक्का समझ लेना कि यह आदमी अभी भी हिसाब कर रहा है कि इसने कितने रुपये छोड़ दिए; रुपये अभी भी बहुत वास्तविक हैं।

मेरे एक मित्र हैं, उन्होंने लाखों रुपये छोड़े हैं। मुझसे बुजुर्ग हैं। कई वर्ष हो गए, तब उन्होंने छोड़े, मगर जब भी मैं उनसे मिलने जाता था तो वे किसी न किसी बहाने यह बात निकाल ही देते कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। एक दफा सुना मैंने, दो दफे सुना, तीसरी दफे मैंने उनसे कहा कि सुनें, नाराज न हों। यह लात आपने कब मारी थी?

कहने लगे, कोई तीस—पैंतीस साल पहले की बात है, लाखों पर लात मार दी!

मैंने कहा, यह लात आपने मारी, लेकिन लग नहीं पाई। इसको दोहराते क्यों हैं? तीस—पैंतीस साल की बात गई—बीती हो गई, इसको दोहराते क्यों हैं? वह लाखों का हिसाब अभी भी कायम है? पहले अकड़ कर चलते रहे होंगे कि मेरे पास लाखों हैं, अब अगडु कर चलते हैं कि लाखों पर लात मार दी—अकड़ वहीं की वहीं है! पहली अकड़ से दूसरी अकड़ थोड़ी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पहली अकड़ तो दिखाई भी पड़ जाती है, दूसरी दिखाई भी नहीं पड़ती, अति सूक्ष्म है।

जनक के लिए वह दरवाजा खुला रखा था इतनी देर तक अष्टावक्र ने, अब उसे भी बंद कर दिया। अब जनक को भागने की कोई जगह नहीं रही। अब तो जागने की ही जगह रही, भागने की कोई जगह नहीं रही। अब तो सीधे सत्य को स्वीकार करना होगा कि या तो हुआ है तो हुआ है, या नहीं हुआ है तो नहीं हुआ है। बचने का कोई उपाय नहीं है।’

स्वभावादेव ज्ञानानो दृश्यमेतव्र किंचन।

अरे, जिसे सब माया दिखाई पड़ने लगी, उसे कैसा छोड़ना, कैसा पकड़ना!

इर्द ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी:।

उसे तो कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता कि इसमें पकड़ना और छोड़ना क्या?

धीर—पुरुष ऐसा नहीं कहता कि सोना मिट्टी है। धीर—पुरुष कहता है. सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है; पर दोनों अर्थहीन, दोनों सारहीन। वह कहता है. महल में बैठो तो, महल के बाहर बैठो तो—सब बराबर हैं, दोनों सपने हैं। अमीर का सपना है, गरीब का सपना है; सफल का सपना है, असफल का सपना है—दोनों सपने हैं। सपने बदलने से कुछ भी न होगा। एक रात तुमने सपना देखा कि डाकू हो, दूसरी रात सपना देखा कि संत हों—दोनों सपने हैं, दोनों का कोई मूल्य नहीं है। न तुम डाकू हो, न तुम साधु हो।

तुम जब तक अपने को कोई तादात्म्य देते हो तब तक भांति जारी रहेगी। तुम तो परम शून्य हो, तुम तो परम प्रज्ञा हो, तुम तो परम साक्षी हो।

त्याग भी तो कृत्य हुआ! जैसे भोग कृत्य है, वैसे त्याग भी कृत्य है। और अष्टावक्र का पूरा क्रांति—सूत्र यही है. कर्ता नहीं, भोक्ता नहीं—साक्षी। छोड़ा, वह भी कर्म हुआ। पकड़ा, वह भी कर्म हुआ। दोनों में तुम कर्ता हो गए, दोनों में अहंकार निर्मित होगा। कृत्य से अहंकार निर्मित होता है। तुम

साक्षी हो जाओ।

‘जिसने अंतःकरण के कषाय को त्याग दिया है और जो द्वंद्व—रहित और आशा—रहित है, ऐसे पुरुष को दैवयोग से प्राप्त वस्तु से न दुख होता है और न सुख होता है।’

‘जिसने अंतःकरण से कषाय को त्याग दिया,…..। ‘

अंतःकरण से कषाय को त्यागने का अर्थ है. जिसने जाग कर देख लिया कि कषाय मेरे नहीं, जिसने दीया जला कर देख लिया कि मैं तो सिर्फ प्रकाश हूं और मैं कोई भी नहीं। न क्रोध मेरा, न मोह मेरा। पकड़ने—छोड़ने की बात नहीं; इतना जानने की बात है कि दोनों मेरे नहीं। न भोग मेरा, न त्याग मेरा।

‘जिसने अंतःकरण से कषाय को त्याग दिया है और जो द्वंद्व—रहित और आशा रहित है…।’

अब न तो कोई द्वंद्व है भीतर, क्योंकि दो बचे नहीं, सिर्फ साक्षी बचा है। साक्षी सदा एक है। और यह शब्द बड़ा अदभुत है. निरद्वंद्वस्य निराशिषः। जो द्वंद्व से रहित और आशा से रहित है! अब जो कोई भी आशा नहीं करता कि ऐसा हो, वैसा हो, यह मिले, वह मिले—जिसके लिए कल समाप्त हो गया!

दो कल हैं हमारे आज के दोनों तरफ। एक कल है बीता हुआ, उससे द्वंद्व पैदा होता है। एक कल है आने वाला, उससे आशा जगती, वासना जगती। जिसने अतीत के कल को छोड़ दिया, जिसने कह दिया कि जो भी मैं अब तक था, सब सपना था—वह मुक्त हुआ अतीत से। और जिसने सब आशा छोड़ दी, जिसने कहा जो मैं हूं वह काफी हूं अब मुझे कुछ और होना नहीं, कहीं और जाना नहीं; जहं। हूं वहीं मेरा घर है; जहां हूं वैसा होना ही मेरा स्वभाव है; जैसा हूं तैसा ही होना मेरा नियति है, अन्यथा की कोई चाह नहीं—उसने भविष्य को मिटा दिया। जिसने अतीत और भविष्य को पोंछ डाला, वह शाश्वत में प्रवेश कर जाता है।

अंतस्मक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिष:।

यदृच्छयागतो भोगो न दुखाय न तुष्टये।

उसे जो मिल जाए, वह दैवयोग से, भाग्य से—सुख मिले तो, दुख मिले तो।

यह समझना। यह सूत्र याद रखना, भूलना मत। तुम कहते हो : जो मिलता है, अपने कृत्य से, कर्म से..। यह कर्म की फिलॉसफी नहीं है। यह साक्षी का दर्शन है। अष्टावक्र कहते हैं. उसे दुख मिलता है तो वह कहता है : दैवयोग, प्रभु इच्छा, अदृश्य की इच्छा! दुख मिलता तो, सुख मिलता तो! न तो सुख में वह कहता है कि मेरे कारण मिला, न दुख में कहता है मेरे कारण मिला। वह तो कहता है, मैं तो सिर्फ देखनेवाला हूं; यह मिलना न मिलना उसकी लीला! फिर कैसा खेद! न तो फिर प्राप्त वस्तु में दुख है और न सुख है।

जीसस ने सूली पर आखिरी क्षण में कहा है : तेरी मर्जी पूरी हो! मेरी मर्जी मत सुन! मैं क्या कहता हूं इस पर ध्यान मत दे! तेरी मर्जी पूरी हो! क्योंकि मैं तो जो भी कहूंगा वह गलत होगा और तू जो भी कहेगा, वही ठीक है। मैं चाहूं या न चाहूं वही हो जो तेरी मर्जी है!

जब भी तुम प्रभु से प्रार्थना करते हो और कहते हो ऐसा कर दे, वैसा कर दे—तभी तुम्हारी प्रार्थना विकृत हो गई, खंडित हो गई, प्रार्थना न रही। तुम तो प्रभु को सुझाव देने लगे। तुम तो कहने लगे मैं तुझसे ज्यादा समझदार, तू यह क्या कर रहा है?

एक सूफी फकीर हुआ, उसके दो बेटे थे—जुडवां बेटे, बड़े प्यारे बेटे थे! और बड़ी देर से बुढ़ापे में पैदा हुए थे। उसका बड़ा मोह था उन पर। वह एक दिन मस्जिद में प्रवचन दे कर लौटा, घर आया तो वह आते ही से रोज पूछता था कि आज बेटे कहां हैं? अक्सर तो वे मस्जिद जाते थे, आज नहीं गए थे सुनने। उसने पूछा पत्नी से, बेटे कहां हैं? उसने कहा, आते होंगे, कहीं खेलते होंगे, तुम भोजन तो कर लो! उसने भोजन कर लिया। भोजन करके उसने फिर पूछा कि बेटे कहा हैं? क्योंकि ऐसा कभी न हुआ था, वे भोजन उसके साथ ही करते थे। तो उसने कहा, इसके पहले कि मैं बेटों के संबंध में कुछ कहूं एक बात तुमसे पूछती हूं। अगर कोई आदमी बीस साल पहले अमानत में कुछ मेरे पास रख गया था, दो हीरे रख गया था, आज वह वापिस मांगने आया, तो मैं उसे लौटा दूं कि नहीं?

फकीर ने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है? यह भी तू पूछने योग्य सोचती है? लौटा ही देने थे, मेरे से पूछने की क्या बात थी? उसके हीरे उसे वापिस कर देने थे, इसमें हमारा क्या लेना—देना है? तू मुझसे पूछने को क्यों रुकी?

उसने कहा, बस, ठीक हो गया। पूछने को रुक गई थी, अब आप आ जाएं!

वह कमरे में ले गई, दोनों बेटे मुर्दा पड़े थे। पास के एक मकान में खेल रहे थे और छत गिर गई। फकीर ने देखा, बात को समझा, हंसने लगा। कहा. तूने भी ठीक किया। ठीक है, बीस साल पहले कोई हमें दे गया था, अदृश्य, दैवयोग, परमात्मा या जो नाम पसंद हो—आज ले गया, हम बीच में कौन? जब ये बेटे नहीं थे, तब भी हम मजे में थे, अब ये बेटे नहीं हैं तो हम फिर वैसे हो गए जैसे हम पहले थे। इनके आने—जाने से क्या भेद पड़ता है! तूने ठीक किया। तूने मुझे ठीक जगाया। जो भी हो रहा है, वह मेरे कारण हो रहा है—इससे ही ‘मैं’ की भ्रांति पैदा होती है। जो हो रहा है, वह समस्त के कारण हो रहा है, मैं सिर्फ द्रष्टा—मात्र हूं—ऐसी समझ प्रगाढ़ हो जाए, ऐसी ज्योति जले अकंप, निर्धूम, तो साक्षी का जन्म होता है।

अष्टावक्र ने जनक को कहा. तू देख ले अपने को इन सब बातों पर कस कर। अगर इन सब बातों पर ठीक उतर जाता हो, तो तूने जो घोषणा की, वह परम घोषणा है। अगर इन बातों पर ठीक न उतरता हो, तो अपनी घोषणा वापिस ले ले। क्योंकि झूठी घोषणाएं खतरनाक हैं। तू मुझे सुन कर विश्वास मत बना, तू मुझे सुन कर श्रद्धा को जगा! तू सत्य में स्वयं जाग। मेरी जाग तेरी जाग नहीं हो सकती और मेरी रोशनी तेरी रोशनी नहीं हो सकती। मेरी आंखें मेरे काम आएंगी और मेरे पैर से मैं चलूंगा। तुझे तेरे पैर चाहिए और तेरी आंखें चाहिए और तेरी रोशनी चाहिए। तू ठीक से पहचान ले तू मुझसे प्रभावित तो नहीं हो गया है?

कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं किसी से प्रभावित मत होना। वे ठीक कहते हैं। वह अष्टावक्र का ही सूत्र है। किसी से प्रभावित मत होना। जागो, अनुकरण में मत पड़ जाना। अनुकरण तो सिर्फ नाटक है, अभिनय है; जीवन का उससे कुछ लेना—देना नहीं।

यही मैं तुमसे भी कहता हूं। मुझे सुनो, लेकिन सुन लेना काफी नहीं है। सुनते—सुनते जागो! जो सुनो, उसको पकड़ कर मत बैठ जाना। नहीं तो पिंजरा हाथ लगेगा, पक्षी उड़ जाएगा या मर जाएगा। जो सुनो, उसे जल्दी खोल लेना, गुन लेना। जो सुनो, उसे जल्दी रूपांतरित करना; पचाना; नहीं तो अपच हो जाएगा। उसे पचाना! वह तुम्हारा खून बने, तुम्हारे खून में बहे, तुम्हारी हड्डी बने, तुम्हारी

मज्जा बने, तुम्हारा प्राण बने—तो श्रद्धा!

श्रद्धा का अर्थ है : पचाया हुआ। विश्वास का अर्थ है : अनपचा।

विश्वास बोझ हो जाता है, श्रद्धा मुक्ति लाती है!

हरि. ओंम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र महागीता--(भाग--2) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–2) प्रवचन–3

$
0
0

विस्‍मय है द्वार प्रभु का—प्रवचन–तीसरा

दिनांक: 28, सितंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न:

 मनोवैज्ञानिक विक्टर ई. फ्रैंकल ने ‘अहा—अनुभव’ (Aha-Experience) एवं ‘शिखर—अनुभव’ (peak—Experience) की चर्चा करके मनोविज्ञान को नया आयाम दिया है। क्या आप कृपा करके इसे अष्टावक्र एवं जनक के आश्चर्य—बोध के संदर्भ में हमें समझाएंगे?

हली बात. जिसे फ्रैंकल ने ‘अहा—अनुभव’ कहा है, वह ‘ अहा ‘तो है’ अनुभव बिलकुल नहीं। अनुभव का तो अर्थ होता है ‘अहा’ मर गई। अहा का अर्थ ही होता है कि तुम उसका अनुभव नहीं बना पा रहे; कुछ ऐसा घटा है, जो तुम्हारे अतीत—ज्ञान से समझा नहीं जा सकता, इसीलिए तो अहा का भाव पैदा होता है, कुछ ऐसा घटा है जो तुम्हारी अतीत— श्रृंखला से जुड़ता नहीं, श्रृंखला टूट गई; अनहोना घटा है, अपरिचित घटा है, असंभव घटा है; जिसे न तुमने कभी सोचा था, न विचारा था, न सपना देखा था—ऐसा घटा है।

परमात्मा जब तुम्हारे सामने खड़ा होगा, तो न तो वह कृष्ण की तरह होगा बांसुरी बजाता हुआ और न जीसस की तरह होगा सूली पर लटका हुआ और न राम की तरह होगा धनुष—बाण हाथ में लिए हुए। अगर राम की तरह धनुष—बाण हाथ में लिए खड़ा हो, तो तुम्हारे अनुभव से मेल खा जाएगा। तुम कहोगे. ठीक है, प्रभु द्वार आ गए। अहा पैदा नहीं होगा; अनुभव बन जाएगा; तुम्हारी धारणा में बैठ जाएगा। थोड़े—बहुत चौंकोगे, लेकिन चौंक इतनी गहरी न होगी कि तुम्हारे अतीत से तुम्हारे भविष्य को अलग तोड़ जाए।

अहा का अर्थ होता है ऐसी चौंक कि जैसे बिजली कौंध गई और एक क्षण में जो अतीत था वह मिट गया, उससे तुम्हारा कोई संबंध न रहा। कुछ ऐसा घटा, जिसकी तुम्हें सपने में भी भनक न थी। असंभव घटा! अज्ञेय द्वार पर खड़ा हो गया! न जिसके लिए कोई धारणा थी, न विचार था, न सिद्धात था; जिसे समझने में तुम असमर्थ हो गए बिलकुल, जिस पर तुम्हारी समझ का ढांचा न बैठ सका; जो तुम्हारी समझ के सारे ढांचे तोड़ गया—उसी अवस्था में ही अहा का भाव पैदा होता है।

इसलिए अहा, पहली तो बात खयाल रखना, अनुभव नहीं है। अनुभव का तो अर्थ होता है प्रत्यभिज्ञा हो गई, रिकॅगनीशन हो गया, तुम पहचान गए कि अरे, यह गुलाब का फूल! लेकिन गुलाब के फूल की प्रत्यभिज्ञा, पहचान तभी हो सकती है, जब अतीत में देखे गए फूलों जैसा ही हो। अगर ऐसा हो जैसा कि अतीत में कभी जाना ही नहीं, तो तुम पहचान न सकोगे, तुम ठगे खड़े रह जाओगे; तुम्हारा मन एकदम स्तब्ध हो जाएगा। तुम्हारे मन की चलती विचारधारा एकदम खंडित हो जाएगी।

उस खंडित विचारधारा में, उस निर्विचार— क्षण में जो घटता है, वही अहा है, वह अनुभव नहीं है। अनुभव तो सभी मन के हैं। वह अनुभवातीत अनुभव है। कहने को अनुभव कहो, अनुभव नहीं है। उस अनुभवातीत अवस्था की तीन श्रेणियां हैं। पहली : जैसे ही किसी व्यक्ति को अनजान और अपरिचित की प्रतीति होती है, उसका सान्निध्य मिलता है—सबोधि कहो, समाधि कहो, परमात्मा कहो—जैसे ही तुम्हारे पास उस अनजान की तरंगें आती हैं, तुम तरंगायित होते हो, तो जो पहला भाव उठता है, वह होता है. आह! मुझे, और हुआ! इस पर भरोसा नहीं आता कि मुझे, और हो सकता है! बुद्ध को हुआ होगा, कृष्ण को हुआ होगा, क्राइस्ट को हुआ होगा—मुझे! पहली असंभावना तो यह दिखती है कि मुझ पापी को, मुझ ना—कुछ को, मुझ गिरे हुए को, मुझे हुआ! आह!

तो पहला अनुभव तो यह होता है कि जैसे एक छाती में छुरी चुभ गई। तुमने कभी सोचा ही नहीं था कि तुम्हें हो सकता है।

तुमने कभी सोचा, परमात्मा तुम्हें मिल सकता है? सदा किसी और को मिला है। तुमने न तो इतनी याद की है उसकी कभी कि तुम मान लो कि मुझे मिलेगा; न तुमने ऐसा कोई पुण्य— अर्जन किया है कि मान लो कि मुझे मिलेगा। तुम्हारे पास अर्जित क्या है? हजार—हजार भूलें की हैं, हजार—हजार पाप किए हैं, हजार—हजार नासमझिया की हैं—और की हैं ऐसा ही नहीं, अब भी जारी हैं।

तो जब पहली दफे परमात्मा उतरता है तो अपने पर भरोसा नहीं आता। तो पहली तो चोट उठती है आह! मुझे! नहीं, नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है! तुम यह मान ही नहीं पाते कि यह प्रसाद तुम पर भी बरस सकता है।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यह सभी पर बरस सकता है। यह प्रसाद है, इसके पाने के लिए तुम्हें अर्जित करने की जरूरत ही नहीं। यह कुछ ऐसी चीज नहीं जिसे तुम मोल—तोल कर लो, जिसे तुम खरीद लो—त्याग से, तपश्चर्या से। जो त्याग से मिलता है, वह कुछ और होगा, परमात्मा नहीं। जो तपश्चर्या से मिलता है, वह कुछ और होगा, परमात्मा नहीं। क्योंकि जो तुम्हारे करने से मिलता है वह तुमसे छोटा होगा, तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। जो तुम्हारे कृत्य से मिलता है, जो तुम्हारी मुट्ठी में बंधा है, उसका मूल्य ही क्या; वह विराट नहीं होगा। तुम्हारे कृत्य से जो मिलता है, वह कर्ता से तो बड़ा नहीं हो सकता। कर्ता तो अपने कृत्य से सदा बड़ा होता है।

तुम एक चित्र बनाते हो, कितना ही सुंदर चित्र हो, लेकिन चित्रकार से बड़ा तो नहीं हो सकता। चित्रकार से पैदा हुआ है, चित्रकार बड़ा होगा। तुमने एक गीत रचा; कितना ही सुंदर हो, कितना ही मनमोहक हो, लेकिन गीतकार से बड़ा तो नहीं हो सकता। तुमने वीणा बजाई, कैसी ही रस की धार बहे, लेकिन वीणा—वादक से तो बड़ी नहीं हो सकती, जिससे बहती है, उससे तो छोटी ही होगी। अगर तुम्हारे कृत्य से परमात्मा मिले, तो तुमसे छोटा होगा। इसलिए तो लोगों को जो परमात्मा मिलते हैं, वे बहुत परमात्मा नहीं हैं; वे उनसे छोटे हैं; वे उनके ही मन के खेल हैं; उनकी ही आकांक्षाओं, वासनाओं के रूप हैं। वे सपने की भांति हैं, यथार्थ नहीं।

वास्तविक परमात्मा तो प्रसाद—रूप मिलता है। वहां तुम्हारा कृत्य होता ही नहीं, न तुम्हारा पुण्य होता है, न तुम्हारा ध्यान, न तुम्हारा तप। वहा कुछ भी नहीं होता—वहां तुम भी नहीं होते। जब तुम मिटते हो, तब वह प्रसाद बरसता है। जब तुम सिंहासन खाली कर देते हो, तब वह राजा आता है।

तो पहली तो चोट लगती है? आह! तुम मान सकते थे कि किसी और को मिला, उसने बड़ी तपश्चर्या की थी, जन्मों—जन्मों तक पुण्य अर्जन किया था। तुम्हें मिला! तो पहला अनुभव तो है : आह! जब तुम थोड़े सम्हलते हो, जब तुम सम्हल कर जो हो रहा है उसे देखते हो; जिसे हो रहा है, उसकी फिक्र छोड़ देते हो, क्योंकि अब तो यह हो ही गया इस पर रुकना क्या; जो हो रहा है, जब तुम्हारी नजर उस पर जाती है—तो भाव उठता है……अहा! अपूर्व हो रहा है, अनिर्वचनीय हो रहा है!

‘अहा’ शब्द बड़ा प्यारा है। यह किसी भाषा का शब्द नहीं है। हिंदी में कहो तो अहा है, अंग्रेजी में कहो तो अहा है, चीनी में कहो तो अहा है, जर्मन में कहो तो अहा है। यह किसी भाषा का शब्द नहीं है—यह भाषाओं से पार है। जिसको भी होगा… इकहार्ट को हो तो उसको भी निकलता है अहा, और रिंझाई को हो तो उसको भी निकलता है अहा, और कबीर को हो तो उसको भी। सारी दुनिया में जहां भी किसी ने परमात्मा का अनुभव किया है, वहीं अहा का उदघोष हुआ है।

लेकिन यह भी दूसरी सीढ़ी है। पहले तुम अपने पर चौंकते हो कि मुझे हुआ, फिर तुम इस पर चौंकते हो कि परमात्मा हुआ! फिर इन दोनों के पार एक तीसरा बोध है, जिसे हम कहें : अहो! वही जनक को हो रहा है। तीसरा बोध है; फिर न तो यह सवाल है कि मुझे हुआ, न यह सवाल है कि परमात्मा हुआ। फिर सब्जेक्ट और आब्जेक्ट, मैं और तू के पार हो गई बात। हुआ, यही आश्चर्य है, होता है, यही आश्चर्य है।

तरतूलियन ने कहा है कि परमात्मा असंभव है; हो नहीं सकता, लेकिन होता है। तब तीसरी बात उठती है. अहो!

ऐसा समझो, आह—हृदय धक्क से रह गया; ठिठक कर रह गया; अवाक! एक पूर्ण विराम आ गया। दौड़े चले जाते थे, न मालूम कहां—कहां दौड़े चले जाते थे; पैर ठिठक गए; दौड़ बंद हो गई, सब रुक गया, श्वास तक ठहर गई। आह..! जो श्वास आह में बाहर गई, वह भीतर नहीं लौटती। थोड़ी देर सब शून्य हो गया। सम्हले—श्वास भीतर वापिस लौटी।

यह जो श्वास का भीतर लौटना है, यह बड़ा नया अनुभव है। क्योंकि तुम तो मिट गए आह में, अब श्वास भीतर लौटती है एक शून्य—गृह में, मंदिर में। और अब यह श्वास लौटती है—वह जो बाहर खड़ा है परमात्मा, उसकी सुगंध से भरी हुई, उसकी गंध से आंदोलित, उसकी शीतलता, उसके प्रकाश की किरणों में नहाई हुई, उसके प्रेम में पगी! जैसे ही यह श्वास भीतर जाती है, तो अहा! पहले तुम चौंक कर रह गए थे, श्वास बाहर की बाहर रह गई थी, अब श्वास भीतर आती है तो श्वास के बहाने परमात्मा भीतर आता है। तुम्हारा रोआं—रोआं खिल जाता है, कली—कली फूल बन जाती है, हजार—हजार कमल खिल जाते हैं तुम्हारे चैतन्य की झील पर। अहा!

और तब दोनों मिट जाते है—न तो तुम हो, न परमात्मा है, दोनों एक हो गए, सीमाएं खो गईं। महामिलन होता है! जहां न मैं मैं हूं, न तू तू है—तब अहो! आह है : अवाक हो जाना। अहा है : अवाक+आश्चर्य। अहो है : आश्चर्य+अवाक+कृज्ञता।

तो आह तो घट सकती है नास्तिक को भी। आह तो घट सकती है वैज्ञानिक को भी। जब वैज्ञानिक भी कोई नई खोज कर लेता है, तो धक्क रह जाता है, भरोसा नहीं आता, आह निकल जाती है। आह तो घट सकती है गणितज्ञ को भी। कोई सवाल जब बरसों तक उलझाए रहा हो, जब हल होता है, तो वर्षों तक उलझाए रहने के कारण इतना तनाव पैदा हो जाता है और जब हल होता है तो सारा तनाव गिर जाता है, बड़ी शांति मिलती है। इससे धर्म का अभी कोई संबंध नहीं है। आह तो घट सकती है गैर— धार्मिक को भी। जब हिलेरी एवरेस्ट पर पहुंचा तो आह निकल गई। इससे कुछ ईश्वर का लेना—देना नहीं है। कोई कभी नहीं पहुंच पाया था वहां, ऐसी अनहोनी घटना घटी थी। इससे हिलेरी का ईश्वरवादी होना जरूरी नहीं है।

जब पहली दफे आदमी चांद पर चला होगा तो आह निकल गई होगी, भरोसा न आया होगा कि मैं चल रहा हूं चांद पर! सदियों—सदियों से आदमी ने सपना देखा.. हर बच्चा चांद को पकड़ने के लिए हाथ उठाए पैदा होता है। ‘पहली दफा मैं, पहुंच गया हूं चांद पर!’ लेकिन इससे भी ईश्वर का कोई लेना—देना नहीं है।

जब अहा पैदा होती है, तो अहा पैदा हो सकती है कवि को, चित्रकार को, मूर्तिकार को। आह तो पैदा हो सकती है—वैज्ञानिक को, गणितज्ञ को, तर्कशास्त्री को। अहा पैदा होती है—एक कदम और. अवाक+आश्चर्य—कवि को, मनीषी को, संगीतज्ञ को। जब संगीतज्ञ किसी ऐसी धुन को उठा लेता है, जिसे कभी नहीं उठा पाया था, जब वह धुन बजने लगती है, जब वह धुन वास्तविक हो जाती है, सघन होने लगती है, जब धुन चारों तरफ बरसने लगती है! या कवि जब कोई गीत गुनगुना लेता है, जिसे गुनगुनाने को जीवन भर तड़पा था, शब्द नहीं मिलते थे, भाव नहीं बंधते थे, जब पंक्तियां बैठ जाती हैं, जब लय और छंद पूरे हो जाते हैं…।

अहा थोड़ी रहस्यमय है। आह बहुत व्यवहारिक है। और अहो धार्मिक है। वह घटती है केवल रहस्यवादी समाधिस्थ व्यक्ति को। वह संबोधि में घटती है।

ये जो जनक के वचन हैं, ये अहो के वचन हैं। सम्हाले नहीं सम्हल रही है बात। हर वचन में कहे जाते हैं. अहो! अहो!! इसमें बड़ी कृतज्ञता का भाव है, बड़ा गहन धन्यवाद है। पहली दफा आस्था का जन्म हुआ है, पहली दफे अंधेरे में आस्था की किरण उतरी है। अब तक माना था, सोचा था, विचारा था कि परमात्मा है—अब परमात्मा भीतर आ गया है, अब प्रत्यक्ष है!

रामकृष्ण से विवेकानंद ने पूछा कि मुझे परमात्मा को दिखाएंगे? मुझे परमात्मा को सिद्ध करके बताएंगे? मैं परमात्मा की खोज में हूं। मैं तर्क करने को तैयार हूं।

रामकृष्ण सुनते रहे। और रामकृष्ण ने कहा : तू अभी देखने को राजी है कि थोड़ी देर ठहरेगा? अभी चाहिए?

थोड़े विवेकानंद चौंके। क्योंकि औरों से भी पूछा था—वे पूछते ही फिरते थे। बंगाल में जो भी मनीषी थे, उनके पास जाते थे कि ईश्वर है? तो कोई सिद्ध करता था, प्रमाण देता था—वेद से, उपनिषद से। और यहां एक आदमी है अपढ़, वह कह रहा है : अभी या थोड़ी देर रुकेगा? जैसे कि घर में रखा हो, जैसे कि खीसे में पड़ा हो परमात्मा!

अभी! यह सोचा ही नहीं था विवेकानंद ने कि कोई ऐसा भी पूछने वाला कभी मिलेगा कि अभी। और इसके पहले कि वह कुछ कहें, रामकृष्ण खड़े हो गए। इसके पहले कि विवेकानंद उत्तर देते, उन्होंने अपना पैर विवेकानंद की छाती :से लगा दिया, और विवेकानंद के मुंह से जोर की चीख निकली : आह! और वे गिर पड़े और कोई घंटे भर बेहोश रहे।

जब वह होश में आए तो आंखें आसुरों से भरी थीं, ‘आह’ ‘अहा’ हो गई थी। जब उन्होंने रामकृष्ण की तरफ देखा तो ‘अहो’ में रूपांतरण हुआ ‘ अहा’ का। वे गदगद हो गए। उन्होंने पैर पकड़ लिए रामकृष्ण के और कहा : अब मुझे कभी छोड़ना मत! मैं नासमझ हूं! मैं कभी छोडूं भी, भाग भी, लेकिन मुझे तुम कभी मत छोड़ना! यह हुआ क्या?

विवेकानंद पूछने लगे : मुझे किस लोक में ले गए? सब सीमाएं खो गईं, मैं खो गया, अपूर्व शांति और आनंद की झलक मिली! तो परमात्मा है!

विचार ठिठक जाए—आह। भाव ठिठक जाए—अहा। तुम्हारी समग्र आत्मा ठिठक जाए—अहो।

फ्रैंकल ने महत्वपूर्ण काम किया है कि मनोविज्ञान में उसने अहा अनुभव की बात शुरू की। लेकिन फ्रैंकल कोई रहस्यवादी संत नहीं। उसे संबोधि का या ध्यान का कोई पता नहीं। इसलिए वह ‘अहा’ तक ही जा पाया, ‘ अहो’ की बात नहीं कर पाया है। और उसकी ‘अहा’ भी बहुत कुछ ‘आह’ से मिलती—जुलती है, क्योंकि उसके स्वयं के कोई अनुभव नहीं हैं। यह तर्क —सरणी से, विचार की प्रक्रिया से उसने सोचा है कि ऐसा भी अनुभव होता है। इकहार्ट हैं, तरतूलियन हैं, कबीर हैं, मीरा हैं—इनके संबंध में सोचा है। सोच—सोच कर उसने यह सिद्धात निर्धारित किया। लेकिन फिर भी सिद्धात मूल्यवान है, कम से कम किसी ने तर्क से भरे हुए खोपड़ियों में, कुछ तो डाला कि इसके पार भी कुछ हो सकता है! लेकिन फ्रैंकल की बात प्राथमिक है। उसे खींच कर ‘ अहो’ तक ले जाने की जरूरत है, तभी उसमें दिव्य आयाम प्रविष्ट होता है।

दूसरा प्रश्न :

 

हम मनुष्यों ने किस महंत आकांक्षा के वश अपनी अनुपम आश्चर्यबोध क्षमता का त्याग कर दिया है? कृपा करके इसे समझाएं।

 

प्रत्येक बच्चा आश्चर्य की क्षमता से भरा हुआ पैदा होता है। प्रत्येक बच्चा कुतूहल और जिज्ञासा में जीता है। और प्रत्येक बच्चा छोटी —छोटी चीजों से ऐसा अह्लदित होता है कि हमें भरोसा नहीं आता है। नदी के किनारे, कि सागर के किनारे सीपिया बीन लेता है, शंख बीन लेता है—और सोचता है हीरे—जवाहरात बीन रहा है! कंकड़ —पत्थर लाल—पीले —हरे इकट्ठे कर लेता है।

मां—बाप समझाते हैं कि फेंक, कहां बोझ ले जाएगा? वह छिपा लेता है अपने खीसों में। रात मां उसके बिस्तर में से पत्थर निकालती है, क्योंकि सब खीसे से पत्थर बिखर जाते हैं। वह छिपा—छिपा कर ले आता है।

हमें दिखाई पड़ते हैं पत्थर, उसे दिखाई पड़ते हैं हीरे। अभी उसकी आश्चर्य की क्षमता मरी नहीं। अभी उसके प्राण पुलकित हैं। अभी परमात्मा के घर से नया—नया, ताजा—ताजा आया है। अभी आंखें रंगों को देख पाती हैं; अभी आंखें धूमिल नहीं हो गईं, धुंधली नहीं हो गईं। अभी कान स्वरों को सुन पाते हैं। अभी हाथ स्पर्श करने से मर नहीं गए हैं, अभी जीवंत चेतना है, अभी संवेदनशीलता है। इसलिए बच्चा छोटी—छोटी चीजों में किलकारी मारता है।

तुमने छोटे बच्चे को देखा?… अकारण!… इतनी छोटी बात में कि तुम्हें ही भरोसा नहीं आता कि कोई इतनी छोटी बात में इतना प्रसन्न कैसे हो सकता है! लेकिन धीरे— धीरे वह क्षमता मरने लगती है; हम उसे मारते हैं, इसलिए मरने लगती है। बड़े —के बच्चे की जिज्ञासा में रस नहीं लेते। बड़े—बूढ़ों के लिए अड़चन है। बच्चे की जिज्ञासा उन्हें एक उपद्रव है, एक उत्पात है। पूछे ही चला जाता है। उनके पास उत्तर भी नहीं हैं। इसलिए बार—बार उसका पूछना उन्हें बेचैन भी करता है, क्योंकि उत्तर भी उनके पास नहीं हैं। या जो उत्तर उनके पास हैं, उन्हें खुद भी पता है, वे थोथे हैं। और बच्चों को धोखा देना मुश्किल है।

बच्चा पूछता है : यह पृथ्वी किसने बनाई है? और तुम कहो : परमात्मा ने। तो वह पूछता है : परमात्मा को किसने बनाया? तुम डाटते—डपटते हो। डांटने—डपटने से तुम सिर्फ इतना कह रहे हो कि तुम्हारा उत्तर थोथा है। बच्चे ने तुम्हारा अज्ञान दिखा दिया। उसने कह दिया : पिताजी, किसको धोखा दे रहे हो? दुनिया भगवान ने बनाई! वह पूछता है. भगवान को किसने बनाया? तुम कहते हो : चुप रह नासमझ, जब बड़ा होगा तो जान लेगा।

तुमने बड़े हो कर जाना? लेकिन सिर्फ तुम टाल रहे हो। तुम छुटकारा कर रहे हो। तुम कह रहे हो : मुझे मत सता, मुझे खुद ही पता नहीं। लेकिन इतना कहने की तुम्हारी हिम्मत नहीं कि मुझे पता नहीं है। जब बच्चे ने पूछा, पृथ्वी किसने बनाई, संसार किसने बनाया—काश, तुम ईमानदार होते और कहते कि ‘मैं भी खोज रहा हूं! पता चलेगा तो मैं तुझे कहूंगा। तुझे कभी पता चल जाए तो मुझे कह देना। मगर मुझे पता नहीं है। ‘तो आश्चर्य की क्षमता मरती नहीं।

स्कूल जाता बच्चा और शिक्षकों से पूछता, संसार किसने बनाया—और वे कहते कि ‘हमें पता नहीं, हम खोजते हैं, लेकिन अभी तक कुछ पता नहीं चला, बड़ा रहस्य है। तुम भी खोजना। ‘ नहीं, लेकिन मुश्किल है, बाप का अहंकार है कि बाप, और न जाने! बाप यह बात मान ही नहीं सकता। बाप क्या हो गया, सब बातों का जानकार हो जाना चाहिए! कोई स्त्री मां क्या बन गई, हर बात की जानकार हो गई! कोई आदमी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने क्या लगा, सौ रुपए की नौकरी क्या मिल गई—वह हर चीज का जानकार हो गया!

तो शिक्षक का अहंकार है, बाप का अहंकार है, मां का अहंकार है, बड़े भाइयों का, परिवार के लोगों का, समाज का अहंकार है—और छोटा—सा बच्चा इतने अहंकारों में तुम सोचते हो बच सकेगा? अबोध, उसका नाजुक आश्चर्य—तुम्हारे अहंकारों में दबेगा, पिस जाएगा, मर जाएगा। तुम

सब उसे पीस डालोगे। जहां जाएगा, वहीं डांट—डपट खाएगा। जहां जिज्ञासा उठाएगा, वहीं उसे ऐसा अनुभव होगा कि कुछ गलती की, क्योंकि जिससे भी जिज्ञासा करो वही कुछ ऐसे भाव से लेता है जैसे कोई भूल हो रही। जिससे प्रश्न पूछो वही नाराज हो जाता है, या ऐसा उत्तर देता है जिसमें कोई उत्तर नहीं है। अगर फिर उत्तर पूछो तो कहता है, नासमझी की बात है।

छोटे—मोटे लोगों की बात छोड़ दो, जिनको तुम बड़े—बड़े ज्ञानी कहते हो उनकी भी यही हालत है। जनक ने एक दफा बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन करवाया। उस समय के बड़े ज्ञानी याज्ञवल्‍लव भी उसमें शास्त्रार्थ में गए। जनक ने हजार गऊएं खड़ी रखी थीं महल के द्वार पर कि जो जीत जाए, ले जाए। याज्ञवल्ल महापंडित थे। उन्होंने अपने शिष्यों को कहा कि गऊएं धूप में खड़ी हैं, तुम इनको ले जाओ, विवाद मैं पीछे कर लूंगा। इतना भरोसा रहा होगा अपने विवाद की क्षमता पर। बड़ा अहंकारी व्यक्तित्व रहा होगा। और सचमुच, वे पंडित थे, उन्होंने विवाद में सभी को हरा दिया। लेकिन वे जमाने भी अदभुत थे! एक स्त्री खड़ी हो गई विवाद करने को। गार्गी उसका नाम था। उसने याज्ञवल्लव को प्रश्न पूछे, उसने मुश्किल में डाल दिया।

स्त्री, पुरुषों से ज्यादा बच्चों के करीब है। इसलिए तो स्त्री उम्र भी पा जाती है तो भी उसके चेहरे पर एक भोलापन और बचकानापन होता है; वही तो उसका सौंदर्य है। स्त्री बच्चों के करीब है, क्योंकि अभी भी रो सकती है, अभी भी हंस सकती है। पुरुष बिलकुल सूख गए होते हैं।

तो और तो सब पंडित थे, उन सूखे पंडितो को याज्ञवल्‍लव ने हरा दिया, एक रसभरी स्त्री खड़ी हो गई। और उसने कहा कि सुनो, मुझसे भी विवाद करो। वे दिन अच्छे थे, तब तक स्त्रियां विवाद से वर्जित न की गई थीं। याज्ञवल्‍लव के बाद ही स्त्रियों को विवाद से वर्जित कर दिया गया और कहा गया कि वे वेद न पढ़ सकेंगी। यह महंत अनाचार हुआ। लेकिन इसके पीछे कारण था. गार्गी! गार्गी ने याज्ञवल्लव को पसीने—पसीने कर दिया। कोई भी बच्चा कर देता, इसमें गार्गी की कोई खूबी न थी। खूबी इतनी ही थी कि अभी वह आश्चर्य— भाव से भरी थी। वह पूछने लगी प्रश्न। उसने सीधा—सा प्रश्न पूछा। पंडितो ने तो बड़े जटिल प्रश्न पूछे थे, उनके उत्तर भी याज्ञवल्ल ने दे दिए थे।

जटिल प्रश्न का उत्तर देना सदा आसान है। सरल प्रश्न का उत्तर देना सदा कठिन है। क्योंकि प्रश्न इतना सरल होता है कि उसमें उत्तर की गुंजाइश नहीं होती। जब प्रश्न बहुत कठिन हो तो उसमें बहुत गुंजाइश होती है; इस कोने, उस कोने, हजार रास्ते होते हैं। जब प्रश्न बिलकुल सीधा—सरल हो; जैसे कोई पूछ ले कि पीला रंग यानी क्या? तुम क्या करोगे? प्रश्न बिल्कुल सीधा सरल है। तुम कहोगे : पीला रंग यानी पीला रंग। वह कहे : यह भी कोई उत्तर हुआ? पीला रंग यानी क्या? समझाओ! अब पीला रंग इतनी सरल बात है, इसको समझाने का उपाय नहीं है, इसकी परिभाषा भी नहीं बना सकते। परिभाषा भी पुनरुक्ति होगी। अगर तुम कहो पीला रंग पीला रंग, तो यह तो पुनरुक्ति हुई। यह कोई परिभाषा हुई? यह तो तुमने वही बात फिर दोहरा दी, बात तो वहीं की वहीं रही, प्रश्न अटका ही रहा।

गार्गी ने कोई बड़े कठिन प्रश्न नहीं पूछे; सीधी—सादी स्त्री रही होगी। वहीं मुश्किल खड़ी हो गई। अगर वह भी उलझी स्त्री होती तो याज्ञवल्‍लव ने उसे हरा दिया होता। वह पूछने लगी. मुझे तो छोटे — छोटे प्रश्न पूछने हैं। यह पृथ्वी को किसने सम्हाला हुआ है?

याज्ञवल्ल तभी डरा होगा कि यह झंझट की बात है, यह कोई शास्त्रीय प्रश्न नहीं है। तो याज्ञवल्ल ने जो पौराणिक उत्तर था दिया कि कछुए ने सम्हाला हुआ है, कछुए के ऊपर पृथ्वी टिकी है। यह उत्तर बचकाना है। यह उत्तर बिलकुल झूठा है। गार्गी पूछने लगी? और कछुआ किस पर टिका है? यह बच्चे का प्रश्न है। इसलिए मैं कहता हूं गार्गी ने उलझन खड़ी कर दी, क्योंकि वह सीधी—सादी, आश्चर्य से भरी हुई स्त्री रही होगी। कछुआ किस पर खड़ा है?

याज्ञवल्ल को घबराहट तो बढ़ने लगी होगी, क्योंकि यह तो मुश्किल मामला है। यह तो अब पूछती ही चली जाएगी। तुम बताओ, हाथी पर खड़ा है। तो हाथी किस पर खड़ा है? तुम कहां तक जाओगे? आखिर में यह तो हल नहीं होने वाला।

तो उसने सोचा कि इसे चुप ही कर देना उचित है, जैसा कि सभी पंडित, सभी शिक्षक, सभी मां—बाप बजाय उत्तर देने के चुप करने में उत्सुक हैं। किसी तरह मुंह बंद कर दो! तो उसने कहा. सब परमात्मा पर खड़ा हुआ है, सभी को उसने सम्हाला हुआ है।

गार्गी ने कहा : बस अब एक प्रश्न और पूछना है, परमात्मा को किसने सम्हाला है?

इसलिए मैं कहता हूं यह बिलकुल बच्चों जैसा प्रश्न था—सीधा—सरल। बस याज्ञवल्ल क्रोध में आ गया। उसने कहा, यह अतिप्रश्न है गार्गी! अगर आगे पूछा तो सिर धड़ से गिरा दिया जाएगा! यह भी कोई उत्तर हुआ? मगर यही उत्तर सब बाप देते रहे हैं कि अगर ज्यादा पूछा तो पिटाई हो जाएगी! सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा! सिर गिर जाएगा गार्गी, अगर और तूने पूछा आगे! यह अतिप्रश्न है।

अतिप्रश्न का क्या मतलब होता है ? कोई प्रश्न अतिप्रश्न हो सकता है? या तो सभी प्रश्न अतिप्रश्न हैं—तो पूछो ही मत, फिर उत्तर ही मत दो। या फिर किसी प्रश्न को अतिप्रश्न कहने का तो इतना ही अर्थ हुआ कि मुझे इसका उत्तर मालूम नहीं, यह मत पूछो। तुम्हें उत्तर मालूम नहीं है, इसलिए प्रश्न अति हो गया! इससे तुम नाराज हो गए!

और वह आखिरी दिन था भारत के इतिहास में, उसके बाद फिर स्त्रियों को वेद पढ़ने की मनाही कर दी गई, शास्त्र पढ़ने की मनाही कर दी गई, क्योंकि स्त्रियां खतरनाक थीं। वे छोटे बच्चों की तरह थीं। वे झंझटें खड़ी करने लगीं पंडितो को। भारत में एक अंधेरी रात शुरू हुई स्त्रियों के लिए। उनसे सारे सोच—विचार के उपाय छीन लिए गए।

यही हमने बच्चों के साथ किया है। तो बच्चा कब तक अपने आश्चर्य के भाव को बचा कर रखे? देर— अबेर समझ जाता है कि कोई मेरे प्रश्नों में उत्सुक नहीं है, कोई मेरे आश्चर्य का साथी नहीं है; और जहां—जहां मैं आश्चर्य भाव प्रगट करता हूं जहां—जहां मैं उत्सुकता लेता हूं हर आदमी ऐसा भाव प्रकट करता है कि मैं कोई पाप कर रहा हूं। बच्चा इन इशारों को समझ जाता है। वह अपने आश्चर्य को पीने लगता है, रोकने लगता है, दबाने लगता है। जिस दिन बच्चा अपने आश्चर्य को दबाता है, उसी दिन बचपन की मौत हो जाती है। उस दिन के बाद वह बूढ़ा होना शुरू हो जाता है। उस दिन के बाद फिर जीवन में विकास नहीं होता, सिर्फ मृत्यु घटती है।

पूछा है कि ‘किस महंत आकांक्षा के वश हम अपनी अनुपम आश्चर्यबोध— क्षमता का त्याग कर देते हैं?’

महंत आकांक्षा है : लोग स्वीकार करें! बच्चा चाहता है. बाप स्वीकार करे, मां स्वीकार करे। क्योंकि बच्चा उन पर निर्भर है। वह चाहता है कि मां प्रेम करे, बाप प्रेम करे—तो ऐसा कोई काम न करूं, जिससे बाप नाराज हो जाता है या बाप को बेचैनी होती है, अन्यथा प्रेम रुक जाएगा। ऐसी कोई बात न पूछुं जिससे मां नाराज होती है। ऐसी कोई बात न पूछूं जिससे शिक्षक नाराज होता है। धीरे— धीरे प्रेम पाऊं, स्वीकार पाऊं, दूसरे मेरे जीवन में सहयोगी बनें—इस आधार पर आश्चर्य की मृत्यु हो जाती है। बच्चा आश्चर्य को छोड़ देता है, अहंकार को पकड़ लेता है। यह सब अहंकार की आकांक्षा है कि लोगों में सम्मान मिले, अपमान न मिले, सभी लोग मुझे स्वीकार करें; सब लोग कहें कितना अच्छा, कितना शांत, कितना सौम्य बच्चा है!

पूछने वाला उपद्रवी मालूम पड़ता है। सीमा से ज्यादा पूछने वाला विद्रोही मालूम पड़ने लगता है। अगर हर चीज पर पूछताछ करते चले जाओ, तो बड़ी अड़चन हो जाती है।

मैं छोटा था तो मेरे घर के लोग मुझे किसी सभा इत्यादि में नहीं जाने देते थे, कि तुम्हारे पीछे हमारा तक नाम खराब होता है; क्योंकि मैं रुक ही नहीं सकता था। कोई स्वामी जी बोल रहे हैं, मैं खड़ा हो जाऊंगा बीच में—और सारे लोग नाराजगी से देखेंगे कि यह बच्चा आ गया गड़बड़! मैं बिना पूछे रह ही नहीं सकता था। और ऐसा उत्तर मैंने कभी नहीं पाया, जिसके आगे और प्रश्न करने की संभावना न हो। तो स्वाभाविक था कि स्वामी लोग नाराज हों। कॉलेज से मुझे निकाल दिया गया, क्योंकि मेरे शिक्षक ने कहा कि हम नौकरी छोड़ देंगे अगर तुम इस क्लास में.। या तो तुम छोड़ दो या हम छोड़ दें।

फिलॉसफी पढ़ने कॉलेज गया था और फिलॉसफी पढ़ाने वाला प्रोफेसर कहता है कि तुम अगर प्रश्न पूछोगे तो हम नौकरी छोड़ देंगे। तो हद हो गई! तो क्या खाक फिलॉसफी पढाओगे? दर्शन— शास्त्र पढ़ाने बैठे हो, प्रश्न पूछने नहीं देते!

उनकी कठिनाई भी मैं समझता हूं —अब तो और अच्छी तरह समझता हूं उनकी कठिनाई! क्योंकि पढ़ना—लिखना हो ही नहीं सकता था। मेरे पूछने का अंत नहीं था और उनके पास इतनी हिम्मत न थी कि वे किसी प्रश्न पर कह दें कि मुझे इसका उत्तर नहीं मालूम—वह अड़चन थी। वह कुछ न कुछ उत्तर देते और मैं उनके उत्तर में से फिर भूल निकाल लेता।

ऐसा हुआ कि आठ महीने तक पहले पाठ से हम आगे बढ़े ही नहीं। तो उनकी घबड़ाहट भी मैं समझता हूं मगर एक छोटी—सी बात से हल हो जाता; वे कह देते, मुझे मालूम नहीं—बात खत्म हो जाती। मैं उनसे यही कहता कि आप इतना कह दो कि मुझे मालूम नहीं, फिर मैं आपको परेशान नहीं करूंगा। फिर बात खत्म हो गई। अगर आप कहते हो मुझे मालूम है तो यह विवाद चलेगा, चाहे जिंदगी मेरी खराब हो जाए और आपकी खराब हो जाए।

आठ महीने बीत गए तो उनको लगा, यह तो अब मुश्किल मामला है, यह परीक्षा का वक्त आने लगा, औरों का क्या होगा?

धीरे—धीरे यह हालत हो गई कि और विद्यार्थियों ने तो आना ही बंद कर दिया क्लास में कि सार ही क्या, ये दो आदमी लड़ते हैं, आगे तो बात बढ़ती ही नहीं! बढ़ सकती भी नहीं। क्योंकि ऐसा कोई भी उत्तर नहीं है जिसमें प्रश्न न पूछे जा सकें। हर उत्तर नए प्रश्न पैदा कर जाता है।

ही, अगर उन्होंने जरा भी विनम्रता दिखाई होती, बात हल हो गई होती। मैंने उनसे बार—बार कहा कि आप एक दफे कह दो कि मुझे इसका उत्तर नहीं मालूम, बात खत्म हो गई; फिर अशिष्टता है आपसे पूछना। लेकिन आप कहते हो मालूम है, तो मजबूरी है, फिर मुझे पूछना ही पड़ेगा।

उन्होंने तो इस्तीफा दे दिया, वे तीन दिन छुट्टी ले कर घर बैठ गए। उन्होंने कहा, मैं तो आऊंगा ही तब जब यह विद्यार्थी वहा नहीं रहेगा!

आश्चर्य को तुम बचने नहीं देते। अब यह स्वाभाविक था, क्योंकि मेरी परीक्षा के पत्र उन्हीं के हाथ में थे। यह तो तय ही था कि मैं फेल होने वाला हूं। इसमें तो कोई शक—सुबहा नहीं था। उनको भी लगता था कि धीरे—धीरे मुझे समझ आ जाएगी कि परीक्षा करीब आ रही है, तो अब मुझे चुप हो जाना चाहिए। मैंने उनको कहा, परीक्षा वगैरह की मुझे चिंता नहीं है। यह प्रश्न अगर हल हो गया तो सब हल हो गया।

अगर हम सम्मान चाहते हैं तो स्वभावत: हमें राजी होना होगा—लोग जो कहते हैं वही मान लेने को राजी हो जाना होगा।

तो तुमने पूछा है : ‘किस कारण से, किस महंत आकांक्षा से आश्चर्य मर जाता है?’

अहंकार की आकांक्षा से आश्चर्य मर जाता है। सफल होना है तो आश्चर्य से काम नहीं चलेगा। आश्चर्य से भरे हुए लोग असफल होंगे ही। वे कहीं भी सफल नहीं हो सकते, क्योंकि सफल होने के लिए दूसरों का साथ जरूरी है। सफल होने के लिए सम्मान पाना जरूरी है। सफल होने के लिए… दूसरों के बिना सफलता का उपाय कहां है?

अगर तुम असफल होने को राजी हो तो फिर तुम्हारे आश्चर्य को कोई भी मार नहीं सकता। लेकिन यह बड़ा कठिन है। असफल होने को कौन राजी होगा! अगर तुम ना—कुछ होने को राजी हो तो तुम्हारा आश्चर्य कोई भी मार नहीं सकता।

लेकिन अहंकार की स्वाभाविक आकांक्षा होती है : सर्टिफिकेट हों, पुरस्कार मिलें; शिक्षक सम्मान करें; मां —बाप सम्मान करें; गांव, नगर, समाज सम्मान करे, लोग कहें कि देखो, कैसा सुपुत्र हुआ! लेकिन तब आश्चर्य मरेगा। तुम्हारे भीतर का काव्य मर जाएगा। तुम्हारे भीतर का कुतूहल मर जाएगा। तुम्हारे भीतर की वह जो तरंगायित, रहस्य अनुभव करने की क्षमता है, वह जड़ हो जाएगी! तुम पथरीले हो जाओगे। तुम्हारे जीवन की रसधार सूख जाएगी। तुम एक मरुस्थल हो जाओगे। सफल हो जाओगे, लेकिन सफल होने में जीवन गंवा दोगे; मरने के पहले मर जाओगे।

मैं तुमसे कहता हूं. असफल रहना, कोई फिक्र नहीं; आश्चर्य को मत मरने देना! क्योंकि आश्चर्य परमात्मा तक पहुंचने का द्वार है। भरो अपने को आश्चर्य से! जितना विराट तुम्हारा आश्चर्य हो, जितनी गहन तुम्हारी जिज्ञासा हो, उतनी ही बड़ी संभावना है तुम्हारे भीतर विराट के उतरने की। पूछोगे, पुकारोगे, खोजोगे—तो मिलेगा।

जीसस ने कहा है : खटखटाओ, तो द्वार खुलेंगे! पूछो, तो उत्तर मिलेगा। मांगो, तो भर दिए जाओगे!

लेकिन अगर तुम्हारे भीतर संवेदनशीलता ही नहीं, तुम पूछते ही नहीं, तुम खोजते ही नहीं, तुम यात्रा पर जाते ही नहीं, तुम बैठे हो गोबर—गणेश की तरह..। हालांकि सब तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करते हैं कि देखो, गणेशजी कितने अच्छे मालूम होते हैं!

अक्सर ऐसा होता है कि जितना गोबर—गणेश बच्चा हो, मां—बाप उसकी उतनी ही प्रशंसा करते हैं। बैठा रहे मिट्टी के लौंदे जैसा, तो कहते हैं देखो गणेशजी कैसे प्यारे! मगर यह तो मर गया बच्चा, पैदा होने के पहले मर गया। अगर बच्चा उपद्रवी है उपद्रवी का मतलब ही यह होता है कि मां—बाप की धारणाओं को तोड़ता है। उपद्रवी का अर्थ ही होता है कि ऐसे प्रश्न उठाता है जिनके उत्तर मां —बाप के पास नहीं; ऐसी जीवन—शैली सीखता है, जिसकी स्वीकार की क्षमता और हिम्मत मां—बाप में नहीं। अगर मां—बाप आस्तिक हैं तो बच्चा ऐसे प्रश्न उठाता है जिनसे नास्तिकता की गंध आती है। अगर मां —बाप परंपरावादी हैं तो बच्चा ऐसी बातें उठाता है, जिनसे लीक टूटती, परंपरा टूटती। बच्चा लकीर का फकीर नहीं है।

तो सारा समाज, इतना बड़ा समाज, राज्य, पुलिस, अदालतें—सब आश्चर्य की हत्या करने को बैठे हैं। जब तुम्हारा आश्चर्य मर गया तब तुम यंत्रवत हो गए, फिर तुम योग्य हो गए, काम के हो गए कुशल हो गए। फिर तुम पूछोगे नहीं, तुम प्रश्न नहीं उठाओगे; तुम चुपचाप जो कहा जाएगा, करोगे। देखा, मिलिट्री में यही करते हैं वे! मिलिट्री में घंटों कवायद करवाते रहते हैं। कहते हैं. बाएं घूम, दाएं घूम! कोई पूछे कि तीन—तीन चार—चार घंटे, बाएं—दाएं घूम क्यों करवा रहे हो? उसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है। वे व्यक्ति के भीतर व्यक्तित्व को मारना चाहते हैं। वे कहते हैं : जब हम कहें बाएं घूम तो तुम बाएं घूमो। तुम्हारे भीतर ऐसा प्रश्न नहीं उठना चाहिए. क्यों?

किसी साधारण आदमी से सड़क पर खड़े हो कर कहो कि बाएं घूम तो वह कहेगा : क्यों? स्वाभाविक है, किसलिए बाएं घूमें? अब कोई कारण हो तो बाएं घूमें, लेकिन मिलिट्री में अगर तुम कहो कि किसलिए बाएं घूमें, क्या कारण है—तो तुम गलत बात पूछ रहे हो। कारण पूछने का सवाल नहीं—आज्ञा मानना है। तुम्हारे मस्तिष्क को इस तरह से ढालना है कि तुमसे जो कहा जाए, तुम बिना सोचे कर सको—यही कुशलता है; एफीसिएंसी। क्योंकि सोचने में तो समय लगता है। तुमसे कहा, बाएं घूमो; तुम सोचने लगे कि घूमें कि न घूमें कि फायदा क्या कि मतलब क्या, और फिर दाएं घूमना पड़ेगा और फिर यहीं आना पड़ेगा, तो थोड़ी देर में घूम कर लोग यहीं आ जाएंगे, हम यहीं खड़े रहें, सार क्या है—तो तुम सैनिक नहीं बन सकते।

सैनिक बनने का अर्थ ही यही है कि तुम्हारे भीतर विचार की कोई भी ऊर्मि न रह जाए, विचार की कोई तरंग न रह जाए; तुम बिलकुल जड़वत हो जाओ; जब कहा बाएं घूम, तो तुम ऐसे यंत्रवत घूम जाओ कि तुम चाहो भी अपने को रोकना तो न रोक सको।

विलियम जेम्स ने उल्लेख किया है कि पहले महायुद्ध के वक्त वह एक होटल में बैठा हुआ है। अपने मित्रों से बात कर रहा है। तभी बाहर से एक युद्ध से रिटायर सैनिक अंडों की एक टोकरी लिए सिर पर जा रहा है। उसने मजाक में, सिर्फ यह दिखाने के लिए कि आदमी कैसा यांत्रिक हो जा सकता है, होटल में जोर से कहा. अटेंशन! वह जो सैनिक बाहर जा रहा था अंडे की टोकरी लिए, वह अटेंशन में खड़ा हो गया। उसको नौकरी छोड़े भी दस साल हो गए हैं! वे सारे अंडे सड़क पर गिर कर, बिखर कर टूट गए। वह बड़ा नाराज हुआ। उसने कहा : यह किस नासमझ ने अटेंशन कहा? विलियम जेम्स ने कहा कि तुम्हें मतलब? हम अटेंशन कहने के हकदार हैं, तुम मत होओ अटेंशन!

उसने कहा. यह भी हो सकता है? तीस साल तक, अटेंशन यानी अटेंशन—अब तो वह खून में समा गया है। ऐसी मजाक करनी ठीक नहीं।

यह यंत्रवतता सैनिक में पैदा करनी पड़ती है। तभी तो एक सैनिक को कहा—मारो, गोली चलाओ! तो वह यह नहीं पूछता कि इस आदमी ने मेरा बिगाड़ा क्या, जिस पर मैं गोली चलाऊ? वह यह नहीं सोचता कि इसकी पत्नी होगी घर, इसके बच्चे होंगे; जैसे मेरी पत्नी और मेरे बच्चे हैं। वह यह नहीं सोचता कि इसकी की मां होगी, शायद इसी पर निर्भर होगी। वह यह नहीं सोचता कि इसका बूढ़ा बाप होगा, शायद आंखें खो गई होंगी, यही उसके जीवन की लकड़ी है, सहारा है। वह कुछ नहीं सोचता। ‘गोली मार! ‘—तो वह गोली मारता है, क्योंकि वह यंत्रवत है।

जिस आदमी ने हिरोशिमा पर ऐटम बम गिराया और एक ऐटम बम के द्वारा एक लाख आदमी दस मिनिट के भीतर राख हो गए, वह वापिस लौट कर सो गया। जब सुबह उससे पत्रकारों ने पूछा कि तुम रात सो सके? उसने कहा, क्यों? खूब गहरी नींद सोया! आज्ञा पूरी कर दी, बात खत्म हो गई। इससे मेरा लेना—देना ही क्या है कि कितने लोग मरे कि नहीं मरे? यह तो जिन्होंने पॉलिसी बनाई, वे जानें; मेरा क्या? मुझे तो कहा गया कि जाओ, बम गिरा दो फलां जगह—मैंने गिरा दिया। काम पूरा हो गया, मैं निश्चित भाव से आ कर सो गया।

एक लाख आदमी मर जाएं तुम्हारे हाथ से गिराए बम से, और तुम्हें रात नींद आ जाए— थोड़ा सोचो, मतलब क्या हुआ? एक लाख आदमी! राख हो गए! इनमें से तुम किसी को जानते नहीं, किसी ने तुम्हारा कुछ कभी बिगाड़ा नहीं, तुमसे किसी का कोई झगड़ा नहीं। इनमें छोटे बच्चे थे जो अभी दूध पीते थे, जिन्होंने किसी का कुछ बिगाड़ना भी चाहा हो तो बिगाड़ नहीं सकते थे। इनमें गर्भ में पड़े हुए बच्चे थे, मां के गर्भ में थे, अभी पैदा भी न हुए थे—उन्होंने तो कैसे किसी का क्या बिगाड़ा होगा! एक छोटी बच्ची अपना होमवर्क करने सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर जा रही थी, वह वहीं की वहीं राख हो कर चिपट गई दीवाल से! उसका बस्ता, उसकी किताबें सब राख हो कर चिपट गए!

लाख आदमी राख हो गए और यह आदमी कहता है, मैं रात सो सका मजे से!

यह सैनिक है। सैनिक का मतलब इतना है कि वह आज्ञा का पालन करे। दुनिया में आज्ञापालन करने वालों के कारण जितना नुकसान हुआ है, आज्ञा न पालन करने वालों के कारण नहीं हुआ। और अगर एक अच्छी दुनिया बनानी हो तो हमें आज्ञा मानने की ऐसी अंधता तोड़नी पड़ेगी। हमें व्यक्ति को इतना विवेक देना चाहिए कि वह सोचे कि कब आज्ञा माननी, कब नहीं माननी।

थोड़ा सोचो, यह आदमी यह कह सकता था कि ठीक है, आप मुझे गोली मार दें, लेकिन लाख आदमियों को मैं मारने नहीं जाऊंगा। अगर मेरे मरने से लाख आदमी बचते हैं तो आप मुझे गोली मार दें। थोड़ा सोचो कि जिस सैनिक को भी कहा जाता कि हिरोशिमा पर बम गिराओ, ऐटम, वह कह देता मुझे गोली मार दे, मैं तैयार हूं मगर मैं गिराने नहीं जाता—दुनिया में एक क्रांति हो जाती।

क्या आदमी ने इतना बल खो दिया है, विचार की इतनी क्षमता खो दी है? मगर इसी के लिए कवायद करवानी पड़ती है, ताकि धीरे — धीरे, धीरे— धीरे विचार की क्षमता खो जाए।

सैनिक और संन्यासी दो छोर हैं। संन्यासी का अर्थ है. जो ठीक उसे लगता है वही करेगा, चाहे परिणाम कुछ भी हो। और सैनिक का अर्थ है : जो कहा जाता है वही करेगा, चाहे परिणाम कुछ भी

हो। संन्यासी बगावती होगा ही, बुनियादी रूप से होगा। इसलिए मैं कहता हूं : धार्मिक आदमी विद्रोही

होगा ही। अगर कोई आदमी धार्मिक हो और विद्रोही न हो, तो समझना कि धार्मिक नहीं है। उसने सैनिक होने को संन्यासी होना समझ लिया है। वह मंदिर भी जाता है, पूजा कर आता है, लेकिन उसकी पूजा कवायद का ही एक रूप है। उसे कहा गया है कि ऐसी पूजा करो तो वह कर आता है, घंटी ऐसी बजाओ तो बजा आता है, पानी छिडको, गंगाजल डालो, तिलक—टीका लगाओ—वह कर आता है; लेकिन यह सब कवायद है। यह आदमी धार्मिक नहीं है; क्योंकि धार्मिक आदमी तो वही है जो अपने अंतरविवेक से जीता है।

यह दुनिया धर्म के बड़े विपरीत है। यहां तीन सौ धर्म हैं जमीन पर, मगर यह दुनिया धर्म के बड़े विपरीत है। ये तीन सौ धर्म सभी धर्म के हत्यारे हैं। इन्होंने सब धर्म को मिटा डाला है और मिटाने की पूरी चेष्टा है। धर्म मिट जाता है, अगर तुम आज्ञाकारी हो जाओ। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि अनाज्ञाकारी हो जाओ, खयाल रखना। मेरी बात का गलत अर्थ मत समझ लेना। मैं तुमसे कहता हूं. विवेकपूर्ण..। फिर जो ठीक लगे आज्ञा में, बराबर करो; और जो ठीक न लगे, फिर चाहे कोई भी परिणाम भुगतना पड़े, कभी मत करो। तब तुम्हारे जीवन में फिर से आश्चर्य का उदभव होगा। फिर से तुम्हारे प्राणों पर जम गई राख झड़ेगी और अंगारा निखरेगा और दमकेगा। उस दमक में ही कोई परमात्मा तक पहुंचता है।

परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग सैनिक होना नहीं है—परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग संन्यासी होना है। और संन्यासी का अर्थ है : जिसने निर्णय किया कि सब जोखिम उठा लेगा, लेकिन अपने विवेक को न बेचेगा; सब जोखिम उठा लेगा, अगर जीवन भी जाता हो तो गंवाने को तैयार रहेगा, लेकिन अपनी अंतस—स्वतंत्रता को न बेचेगा।

स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ विवेक है। स्वतंत्रता का अर्थ परम दायित्व है कि मैं अपना उत्तरदायित्व समझ कर स्वयं जीऊंगा, अपने ही प्रकाश में जीऊं—गा; उधार, परंपरागत, लकीर का फकीर हो कर नहीं। क्योंकि दुनिया की स्थितियां बदलती जाती हैं और लकीरें नहीं बदलतीं। दुनिया रोज बदलती जाती है, नक्‍शे पुराने बने रहते हैं। दुनिया रोज बदलती जाती है, आदेश पुराने हैं। अब तुम वेद से आदेश लोगे, भटकोगे नहीं तो क्या होगा? तुम कुरान से आदेश लोगे, गीता से आदेश लोगे, भटकोगे नहीं तो क्या होगा? पढ़ो गीता, समझो गीता, लेकिन आदेश सदा स्वयं की आत्मा से लेना। उपदेश ले लेना जहां से भी लेना हो, आदेश कहीं से भी मत लेना। उपदेश और आदेश का यही फर्क है।

उपदेश का अर्थ है : जहां भी शुभ बात सुनाई पड़े, सुन लेना, गुन लेना, समझ लेना। लेकिन आदेश कहीं से मत लेना। आदेश के लिए तो तुम्हारे भीतर बैठा परमात्मा है, उसी से लेना।

आश्चर्य की क्षमता मर गई है, क्योंकि तुमने अहंकार को चाहा, अहंकार की आकांक्षा में मर गई है। अगर तुम चाहते हो आश्चर्य फिर से जागे, तो अहंकार की चट्टानों को हटाओ—बहेगा झरना आश्चर्य का। और वह आश्चर्य तुम्हें ताजा कर जाएगा, कुंआरा कर जाएगा, नया कर जाएगा। फिर से तुम देखोगे दुनिया को जैसा कि देखना चाहिए। ये हरे वृक्ष कुछ और ही ढंग से हरे हो जाएंगे। ये गुलाब के फूल किसी और ढंग से गुलाबी हो जाएंगे।

यह जगत बड़ा सुंदर है, लेकिन तुम्हारी आंखों का आश्चर्य खो गया है; तुम्हारी आंखों पर पत्थर जम गए हैं। यह जगत अपूर्व है, क्योंकि प्रभु मौजूद है यहां, यह प्रभु से व्याप्त है! यहां पत्थर—पत्थर में परमात्मा छिपा है; इसलिए कोई पत्थर पत्थर नहीं है, यहां सिर्फ कोहिनूर ही कोहिनूर हैं। हर पत्थर से उसी का नूर प्रगट हो रहा है, उसी की रोशनी है। मगर तुम्हारे पास आश्चर्य की आंख चाहिए। इसलिए तो जीसस ने कहा है : धन्य हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति हैं, क्योंकि वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे। यहां वे आश्चर्य के संबंध में ही इंगित कर रहे हैं।

तीसरा प्रश्न :

 

गुरु शिष्यों के साथ क्या कभी छिया —छी का खेल भी खेलता है? कृपा करके कहें।

 

छिया—छी ही तो पूरा का पूरा संबंध है गुरु और शिष्य का। कभी—कभी खेलता है, ऐसा नहीं; बस वही तो संबंध है। और न केवल गुरु और शिष्य के बीच वैसा संबंध है, परमात्मा और सृष्टि के साथ भी वैसा ही संबंध है। गुरु और शिष्य तो उसी विराट खेल को छोटे पैमाने पर खेलते हैं जिसे बड़े पैमाने पर परमात्मा सृष्टि के साथ खेल रहा है।

यहां परमात्मा सब जगह छिपा है, पुकार रहा है जगह—जगह से : ‘ आओ, मुझे छुओ, खोजो!’ जिस दिन तुम उसकी पुकार सुन लोगे और तुम उसे खोजने लगोगे, उस दिन तुम पाओगे कि खोजने में इतना आनंद है कि तुम शायद कहने लगो कि जल्दी मत करना प्रगट हो जाने की।

तुम कभी छोटे थे, जब तुमने खेला बच्चों का खेल छिया—छी का। एक ही कमरे में बच्चे खड़े हो जाते हैं छिप कर, कोई बिस्तर के नीचे दब गया है, कोई कुर्सी के पीछे छिप गया है—और सबको पता है कि कौन कहां है, क्योंकि सभी धीरे — धीरे आंख खोल कर देख रहे हैं कि कौन कहां है, फिर भी खेल चलता है। जिसने देख लिया है, वह भी इधर—उधर दौड़ता है; वहां नहीं आता जहां कि तुम छिपे हो, क्योंकि खेल तो खेलना है; नहीं तो अगर सीधे चले आए, जहां तुम छिपे हो तो खेल खत्म हो गया। तुम्हें भी पता है कि वह कहां से आ रहा है। तुम भी देख रहे हो, वह भी देख रहा है; फिर भी खेल चल रहा है।

आत्यंतिक अर्थों में यही अर्थ है लीला का। परमात्मा ऐसा नहीं छिपा है कि मिले नहीं; ऐसा छिपा है कि तुम हाथ बढ़ाओ और मिल जाए। लेकिन जिस दिन तुम समझोगे कि इतने पास छिपा है, तुम कहोगे जरा खेल चलने दो।

चुभते ही तेरा अरुण बाण

बहते कण—कण से फूट—फूट

मधु के निर्झर से सजल गान

मेरे छोटे जीवन में

देना न तृप्ति का कणभर

रहने दो प्यासी आंखें

भरती आंसू के सागर

तुम मानस में बस जाओ

छिप दुख की अवगुंठन से

मैं तुम्हें ढूंढने के

मिस

परिचित हो लूं कण—कण से

तुम रहो सजल आंखों की

सित— असित मुकुरता बन कर

मैं सब कुछ तुमसे देखूं

तुमको न देख पाऊं पर।

भक्त कहता है सब तुमसे देखूं; तुम मेरी आंखों में छिप जाओ; मैं तुम्हारे द्वारा ही सब देखूं— फिर भी तुम्हें न देख पाऊं। और यह खेल चलता रहे।

तुम मानस में बस जाओ

छिप दुख की अवगुंठन से

मैं तुम्हें ढूंढने के

मिस

परिचित हो लूं कण—कण से

—ढूंढता फिरूं तुम्हें! और तुम्हें ढूंढने के बहाने…

मैं तुम्हें ढूंढने के मिस

तुम्हें ढूंढने के बहाने

परिचित हो लूं कण—कण से!

खोजता फिरूं, एक—एक कण में तुम्हें पुकारता फिरूं! लहर—लहर में तुम्हें झाकता फिरूं—और इस बहाने सारे अस्तित्व से परिचित हो लूं!

शायद परमात्मा के छिपने का राज और रहस्य भी वही है कि तुम उसे खोजने के बहाने इस अस्तित्व के महारहस्य से परिचित हो जाओ। वह तब तक छिपा ही रहेगा जब तक कि इस जगत के समग्र रहस्य से तुम परिचित नहीं हो जाते। तुम एक जगह उसे खोज लोगे, वह दूसरी जगह छिप जाएगा कि चलो अब दूसरी जगह से भी परिचित हो लो। तुम यहां उसे खोज लोगे, वह वहा छिप जाएगा, ताकि तुम वहा से भी परिचित हो लो। ऐसे वह तुम्हें लिए चलता है, तुम्हें अपने पीछे दौड़ाए

चलता है।

जब भक्त समझ पाता है ठीक से कि यह खेल है, चिंता मिट जाती है उसी क्षण। फिर खोजना एक तनाव नहीं रह जाता, एक आनंद हो जाता है। फिर खोजने में कोई अधैर्य भी नहीं होता।

मेरे छोटे जीवन में

देना न तृप्ति का कणभर!

फिर तो भक्त कहता है, मुझे तृप्त मत कर देना, क्योंकि मैं तृप्त हो गया तो फिर तुम्हें न खोजूंगा। तुम्हें खोजना—इसके मुकाबले क्या तृप्ति में रस हो सकता है? तुम्हारी प्रतीक्षा, तुम्हारा इंतजार— इससे ज्यादा और रस कहां हो सकता है?

मेरे छोटे जीवन में

देना न तृप्ति का कणभर

रहने दो प्यासी आंखें

भरती आंसू के सागर

तुम फिक्र मत करना, तुम ज्यादा परेशान मत हो जाना कि मेरी आंख के आंसू सागर बनाए दे रहे हैं। तुम फिक्र मत करना। इसमें मुझे आनंद आ रहा है। मैं रसमग्न हूं। यह मैं दुख से नहीं रो रहा हूं! भक्त आनंद से रोने लगता हैं, अहोभाव से रोने लगता है। उसके आंसुओ में फूल हैं, कांटे नहीं; शिकायत नहीं, शिकवा नहीं; प्रार्थना है, कृतज्ञता—ज्ञापन है, आभार है, शुक्रिया है!

जो बड़े पैमाने पर परमात्मा और सृष्टि के बीच हो रहा है, एक छोटे पैमाने पर वही खेल गुरु और शिष्य के बीच है। और छोटे पैमाने पर तुम खेलना सीख जाओ तो फिर बड़े पैमाने पर खेल सकोगे, इतना ही उपयोग है।

जैसे एक आदमी तैरना सीखने जाता है तो नदी के किनारे तैरना सीखता है; एकदम से नदी की गहराइयों में नहीं चला जाता, डूबेगा नहीं तो। किनारे पर, जहां उथला—उथला जल है, जहां गले—गले जल है, वहां तैरना सीखता है; फिर धीरे — धीरे गहराई में जाना शुरू होता है।

गुरु, जैसे किनारा है परमात्मा का, वहां तुम थोड़ा खेल सीख लो, वहां तुम थोड़ी क्रीड़ा कर लो। फिर जब तुम कुशल हो जाओ तैरने में और तुम जब खेल के नियम सीख जाओ और लीला का अर्थ समझ जाओ—तो फिर जाना गहन में, गहरे में! फिर उतरना सागरों में।

तो गुरु तो केवल पाठ है परमात्मा में उतरने का। इसलिए जो बड़े पैमाने पर सृष्टि में हो रहा है वही छोटे पैमाने पर गुरु और शिष्य के बीच घटता है।

ठीक तुमने पूछा, छिया—छी का खेल ही घटता है।

एक बात गुरु तुमसे कहता है, तुम उसे पूरी करने लगते हो; वह तत्क्षण दूसरी कहने लगता है। तुम एक बात मानने—मानने के करीब आते कि वह सब उखाड़ डालता है। तुम घर बनाने को होते कि वह आधार गिरा देता है। तुम जल्दी में हो कि किसी तरह हल हो जाए; गुरु इतनी जल्दी में नहीं है। गुरु कहता है कि जो जल्दी हल हो जाएगा, वह कोई हल न हुआ। यह जीवन का ऐसा प्रगाढ़ रहस्य है कि यह जल्दी हल नहीं हो सकता। ये कोई मौसमी फूल के पौधे नहीं हैं। ये बड़े दरख्त हैं जो आकाश को छूते हैं; जो हजारों साल जीते हैं; जो चांद—तारों से बात करते हैं; इनमें प्रतीक्षा..!

मैंने सुना है, महर्षि कश्यप की पत्नी को बड़ी आकांक्षा थी कि एक ऐसा पुत्र हो जो महासत्व हो। साधारण पुत्र की आकांक्षा नहीं थी। कश्यप की पत्नी थी, साधारण पुत्र की आकांक्षा भी क्या करती! कम से कम कश्यप जैसा तो हो। कश्यप से बड़ा हो, ऐसी आकांक्षा थी। महासत्व हो, बोधिसत्व हो, बुद्ध जैसा हो! तो उसने बड़ी प्रार्थनाएं कीं। कहते हैं, ईश्वर उस पर प्रसन्न हुआ। और विनीता उसका नाम था, उसे एक डिम्ब दिया गया कि उससे महासत्व संतान होगी। लेकिन वह बड़ी हैरान हुई। जैसा नियम होना चाहिए कि नौ महीने में बच्चा पैदा हो, बच्चे की कोई खबर ही नहीं। नौ महीने क्या, सालों बीतने लगे। वह बड़ी परेशान हुई। वह जल्दी में थी कि बच्चा होना चाहिए। वह के होने के करीब आ गई तो उसने डिम्ब फोड़ डाला। बच्चा निकला, लेकिन आधा निकला। जो बच्चा पैदा हुआ, पुराणों में उसी का नाम अरुण है। वही बच्चा बाद में सूर्य का सारथी बना।

अरुण जब पैदा हुआ तो उसने बड़े क्रोध से अपनी मां से कहा कि सुन, तू महासत्व संतान चाहती है, लेकिन महाप्रतीक्षा करने की तेरी कुशलता और क्षमता नहीं है। तूने बीच में ही अंडा फोड़ दिया! मैं अभी आधा ही बढ़ पाया हूं।

पर मां ने कहा, प्रतीक्षा हो गई, सालों बीत गए। तो उस बेटे ने कहा फिर महासत्व संतान की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। फिर साधारण बच्चा चाहिए तो नौ महीने में मिल जाता है। महासत्व चाहिए तो महाप्रतीक्षा चाहिए।

शिष्य तो बड़ी जल्दी में होते हैं। उन्हें तो लगता है, अभी हो जाए, कोई दे दे तो झंझट मिटे। तुम्हें रस नहीं है खोज का। गुरु जानता है कि खोज में रस इतना हो जाए जब कि तुम यह भी कह सको कि अब न भी मिलेगा तो चलेगा, खोज ही इतनी रसपूर्ण है, कौन फिक्र करता है! उसी दिन मिलता है। इसे तुम खयाल में रख लेना गांठ बांध कर।

मैं फिर से दोहरा दूं. जिस दिन तुम यह कहने में समर्थ हो जाओगे कि अब तू जान, मिलने—जुलने की हमें फिक्र नहीं, लेकिन खोज इतनी आनदपूर्ण है, हम खोज करते रहेंगे, तू छिपता रह। उसी दिन खोज व्यर्थ हो गई, उसी दिन छिपने का कोई अर्थ न रहा। जब खोज ही मिलन का आनंद बन गई और जब मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगा, तो फिर मंजिल छिप नहीं सकती; उसी दिन मिलन घटता है। महाप्रतीक्षा चाहिए।

तुम अमर प्रतिज्ञा हो,

मैं पग विरह पथिक का धीमा।

आते — जाते मिट जाऊं,

पाऊं न पंथ की सीमा।

पाने में तुमको खोऊं,

खोने में समझूं पाना।

यह चिर अतृप्ति हो जीवन,

चिर तृष्णा हो मिट जाना।

मेघों में विद्युत — सी छवि,

उनकी बन कर मिट जाती;

आंखों की चित्रपटी में

जिसमें मैं आंक न पाऊं।

वह आभा बन खो जाते

शशि किरणों की उलझन में

जिसमें उनको कण—कण में

ढूंढंअ पहचान न पाऊं।

एक अनंत प्रतीक्षा चाहिए, महंत प्रतीक्षा चाहिए।

तो गुरु कई बार तुमसे कहता है : अभी हुआ जाता, अभी हुआ जाता, बस होने को ही है! वह सिर्फ इसलिए, ताकि तुम खोज में लगे रहो, ताकि तुम्हारा धैर्य बंधा रहे। ‘पहुंचे, पहुंचे’ —गुरु कहता जाता है—’देखो किनारा करीब आ रहा है, पक्षी उड़ते दिखाई पड़ने लगे! देखो दूर किनारे वृक्ष दिखाई पड़ने लगे, अब हम पहुंचते हैं!’ ताकि तुम्हारी हिम्मत बंधी रहे।

तुम्हारी हिम्मत बड़ी कमजोर है। और जैसे ही तुम किसी स्थिति में थिर होने लगते हो, किसी मकान के नीचे घर बनाने लगते हो और किसी पड़ाव को मंजिल समझने लगते हो—तत्त्वा गुरु डेरा उखाड़ देता है। वह कहता है, चलो बस हो गया, अभी मंजिल बहुत है। अभी बहुत दूर जाना है। अभी यहां घर नहीं बना लेना है। ऐसी छिया—छी चलती है। धीरे — धीरे तुम इस राज को समझने लगते हो। अनुभव से ही समझ में आता है। धीरे— धीरे तुम समझने लगते हो कि वास्तविक बात पाना नहीं है, खोजना है। वास्तविक बात पहुंच जाना नहीं है, पहुंचने की चेष्टा करते रहना है। वास्तविक बात यात्रा है, मंजिल नहीं। हालांकि मैं समझता हूं तुम्हारी बड़ी जल्दी है किसी तरह मंजिल मिल जाए; कोई चोर—दरवाजा हो, वहा से पहुंच जाएं या कोई रिश्वत चलती हो तो किसी द्वारपाल को रिश्वत दे दें और अंदर हो जाएं; या कोई शार्टकट! मगर न कोई शार्टकट है, न कोई चोर दरवाजा है, न रिश्वत चलती है। न तुम्हारे पुण्य से कुछ होगा, न तुम्हारी तपश्चर्या से कुछ होगा।

अनंत यात्रा है परमात्मा। परमात्मा मंजिल है, इस भाषा में सोचा कि तुम भूल में पड़ोगे। क्योंकि मंजिल का मतलब है : फिर उसके बाद बैठ गए, फिर कुछ भी नहीं। परमात्मा सतत जीवन है, इसलिए बैठना तो घट ही नहीं सकता, यात्रा होती रहेगी। परमात्मा प्रक्रिया है—वस्तु नहीं। वस्तु की तरह सोचोगे तो भांति होगी, भूल होगी। परमात्मा प्रक्रिया है—चलते रहने में, जीते रहने में, बहते रहने में। जैसे नदी बही जाती है सागर की तरफ और सागर उडू—उडु कर नदी की तरफ बहता रहता है—ऐसे ही साधक खोजते रहते परमात्मा को, परमात्मा साधकों को खोजता रहता है। यह खेल छिया—छी का है।

जिस दिन समझ में आ जाएगा कि यह खेल है, तनाव समाप्त हो जाएगा, फिर खेल में पूरा मजा आएगा। हम तो ऐसे पागल हैं कि खेल में भी तनाव बना लेते हैं। तुमने देखा दो आदमी ताश खेल रहे हों, कैसा सिर भारी कर लेते हैं, लड़ने —मारने को उतारू हो जाते हैं! तलवारें खिंच जाती हैं शतरंज के खेलों में! लोगों ने एक—दूसरे की हत्या कर दी है शतरंज खेलते हुए। ऐसे पगला जाते हैं! और कुछ भी नहीं है वहां। न हाथी हैं, न घोड़े हैं, न राजा हैं, न कुछ है—लकड़ी के, या बहुत हुए हाथी—वत के। सब नकली हैं, मगर ऐसा रस पैदा हो जाता है कि जी—जान की बाजी लग जाती है। लोग खेल में इतनी गंभीरता ले लेते हैं और साधक वही है जो गंभीरता में भी खेल ले ले।

संसारी वही है जो खेल को भी गंभीर बना लेता है। और संन्यासी वही है जो गंभीरता को भी खेल बना लेता है।

तुम अमर प्रतिज्ञा हो, मैं

पग विरह पथिक का धीमा!

सुनो—

तुम अमर प्रतिज्ञा हो, मैं

पग विरह पथिक का धीमा।

आते —जाते मिट जाऊं

पाऊं न पंथ की सीमा।

भक्त कहता है पंथ की सीमा कहा पानी, किसको पानी, पा कर करना क्या?

आते —जाते मिट जाऊं

पाऊं न पंथ की सीमा।

पाने में तुमको खोऊं

खोने में समझूं पाना!

यही छिया—छी का अर्थ है।

यह चिर अतृप्ति हो जीवन

चिर तृष्णा हो मिट जाना!

तुम्हें खोजते —खोजते मिट जाऊं! तुम्हारी तृष्णा बनी ही रहे! तुम्हारी प्यास जलती ही रहे! मैं तुम्हें पा कर तृप्त नहीं हो जाना चाहता— भक्त कहता है। भक्त कहता है, तुम्हारी अतृप्ति इतनी प्यारी!

मेघों में विद्युत—सी छवि

उनकी, बनकर मिट जाती।

कभी—कभी बनेगी परमात्मा की छवि, मिटेगी परमात्मा की छवि!

आंखों की चित्रपटी में

जिससे मैं आंक न पाऊं।

वह बनेगी और मिटेगी इतनी शीघ्रता से कि तुम्हारे मन में तुम उसको संजो न पाओगे। तुम मन में प्रतिमा न बना पाओगे। तुम्हारा अहोभाव अहोभाव ही रहेगा। तुम यह न कह पाओगे : मैंने जान लिया। इसलिए उपनिषद कहते हैं. जो कहता है मैंने जान लिया, उसने नहीं जाना। और जो कहता है मुझे कुछ भी पता नहीं, शायद उसे पता हो।

मेघों में विद्युत—सी छवि

उनकी, बन कर मिट जाती।

आंखों की चित्रपटी में

जिससे मैं आंक न पाऊं।

कोई प्रतिमा नहीं बन पाती। झलक आती और जाती—और इतनी त्वरा से, इतनी तीव्रता से कि तुम मुट्ठी नहीं बांध पाते। बाधोगे भी तो मुट्ठी खाली रह जाएगी। परमात्मा मुट्ठी में बांधा नहीं जा

सकता—न शब्दों में, न सिद्धातो में, न शास्त्रों में। कहीं भी उसकी छवि तुम बांध न पाओगे। वह अरूप अरूप ही रहता। दर्शन भी हो जाते हैं, फिर भी अरूप रहता। मिल भी जाता, फिर भी पाने को सदा शेष रहता।

वह आभा बन खो जाते

शशि किरणों की उलझन में

जिसमें उनको कण—कण में

ढूंढंअ पहचान न पाऊं।

भक्त को जल्दी नहीं है। और जिसे जल्दी नहीं है, जल्दी ही घटना घट जाती है। और जिसे बहुत जल्दी है, उसे अनंत— अनंत काल तक भटकना पड़ता है और घटना नहीं घटती।

अगर तुम चाहते हो अभी मिल जाए परमात्मा, तो तुम अनंत प्रतीक्षा के लिए राजी हो जाओ। कह दो : जब मिलना हो मिल जाना, कुछ जल्दी नहीं है। हम खोजते रहेंगे, हम खोज में बहुत तृप्त हैं। हम अतृप्ति में भी बहुत तृप्त हैं। हमारे ये विरह के आंसू भी बड़े आनदपूर्ण हैं।

आखिरी प्रश्न :

 

आप भीतर के प्रकाश की तनी बात करते हैं, लेकिन मेरा अनुभव कुछ और है। जब भी ध्यान में मेरे विचार शांत होते हैं तो मेरे भीतर एक घना अंधकार घिरता है, जो ठंडा और प्रीतिकर लगता है। कृपापूर्वक समझाएं कि यह क्या है?

सुबह होने के पूर्व रात गहन रूप से अंधेरी हो जाती है। और अंधेरे के गर्भ से ही सुबह का जन्म होता है। तो जब मैं तुमसे निरंतर बात करता हूं प्रकाश की, तुम यह मत समझ लेना कि तुम भीतर जाओगे तो तत्‍क्षण प्रकाश मिल जाएगा। पहले तो गुजरना पड़ेगा गहन रात्रि से। उसी रात्रि के अंत पर सुबह है, प्रकाश है।

ईसाई फकीरों ने इस अवस्था को ‘डार्क नाइट ऑफ द सोल’ कहा है—आत्मा की अंधेरी रात। सिर्फ ईसाई फकीरों ने ऐसा प्यारा नाम दिया है, किसी और ने नहीं। और बड़ा ठीक किया है। क्योंकि सभी शास्त्र, कुरान, वेद, उपनिषद परमात्मा के प्रकाश—रूप की बात करते है—वह आत्यंतिक बात है। लेकिन जब साधक भीतर उतरेगा तो प्रकाश एकदम से नहीं मिलता। और अगर एकदम से मिलता हो तो जरा संदेह करना; क्योंकि वह प्रकाश कल्पना का होगा, वास्तविक नहीं हो सकता। वह तुमने

सुन—सुन कर, शास्त्रों में पढ़—पढ़ कर कि परमात्मा प्रकाश—रूप है, प्रकाश रूप…। और कई तो ऐसे पागल हैं जिनका हिसाब नहीं!

चार—छ: दिन पहले एक व्यक्ति ने संन्यास लिया। उन्होंने कहा कि मैंने बालयोगेश्वर से दीक्षा ली है, तो उन्होंने मुझे समझाया था कि आंख को अंगूठों से दबाने से प्रकाश का अनुभव होता है, बड़ा अनुभव होता है। मैं दबाता हूं आंख, बड़ा अनुभव होता है। तो वह मैं जारी रखूं कि बंद करूं? अब क्या पागल हो? आंख को दबाओगे अंगूठे से तो तिलमिलाहट पैदा होने से रोशनी मालूम होती है; वह तो किसी को भी मालूम होती है; उससे अध्यात्म का कोई संबंध है? कोई भी आंख को जोर से दबाएगा तो तिलमिलाहट पैदा होती है, तिलमिलाहट से रोशनी मालूम होती है। वह रोशनी तो सिर्फ आंख के दबाने के कारण मालूम हो रही है। इसको तुम आध्यात्मिक प्रकाश समझ रहे हो? और वे दो साल से यही काम कर रहे हैं। उसमें उनकी आंखें भी खराब हो गई हैं। क्योंकि जब बहुत आंखों को दबाओगे…। और फिर धीरे— धीरे रस आने लगा, तो फिर और ज्यादा दबाने लगे। क्योंकि जितना दबाओ उतना प्रकाश दिखाई पड़ता है, गजब हो रहा है! इसको बालयोगेश्वर ज्ञान कहते हैं। आंख में दबाने से जो रोशनी पैदा होती है—यह ज्ञान है।

अब यह मामला ऐसा है कि किसी की भी आंख दबा दो, उसको रोशनी दिखाई पड़ती है; वह भी चकित हो जाता है कि यह तो बात बिलकुल ठीक हो रही है! हमें पता ही नहीं था, बड़ा सीधा—सुगम उपाय मिल गया!

या फिर ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, रोशनी की भीतर धारणा करो। आंख बंद कर लो, दोनों आंखों के मध्य में देखो कि एक दीये की ज्योति जल रही है या एक प्रकाश का बिंदु, उस पर ध्यान रखो। अगर तुम ऐसी कल्पना करोगे तो धीरे — धीरे कल्पना प्रगाढ़ हो जाएगी। तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ने लगेगी, मगर यह झूठी रोशनी है।

धर्म ज्योति ने पूछा है यह प्रश्न। ठीक हो रहा है! अंधेरी रात से गुजर कर ही जो सुबह होगी, जिस सुबह को तुम नहीं ला सकते, जो अपने—आप आती है सुबह, वह अंधेरी रात से गुजर कर आती है। तुम अंधेरी रात में शांति से गुजरो, जाओ। प्रकाश करीब आने से पहले रात बहुत अंधेरी हो जाएगी। मगर शुभ हो रहा है, क्योंकि अंधेरे के साथ एक ठंडा और प्रीतिकर भाव है। तो बिलकुल शुभ हो रहा है। भय न हो अंधेरे से, प्रेम हो अंधेरे से, तो सुबह ज्यादा दूर नहीं। अगर भय हो तो तुम भागने लगोगे। भागने लगे तो सुबह से दूर हो जाओगे। भागोगे तो अंधेरे से, दूर हो जाओगे सुबह से।

और ठंडा, शीतल.. .बिलकुल शुभ हो रहा है। ठंडा और शीतल ही है अंधेरे का अनुभव। वह तो भय के कारण हम अनुभव नहीं कर पाते। बचपन से ही अंधेरे के संबंध में हमारी गलत धारणा हो जाती है। बच्चा डरता है अंधेरे से, क्योंकि अकेला रह जाता है। अंधेरे में घबराता है कि कोई आ न जाए, कुछ मार न दे, कोई चोट न कर दे, कुछ गिर न पड़े। छोटा बच्चा! वह भय बैठ जाता है। और फिर मनुष्य—जाति के इतिहास में भी आज से कोई दस हजार, बीस हजार साल पहले जब आदमी जंगलों में था, गुफाओं में था, आग का आविष्कार न हुआ था—तो रात बड़ी घबराने वाली थी। क्योंकि रात को ही जंगली जानवर हमला करते थे, दिन तो किसी तरह गुजर जाता था, रात में हमला होता था। दिन में तो सूरज की रोशनी होती थी, आदमी अपने को बचा लेता, भाग जाता। रात

को सिंह गरजते और शिकार करते। और हजार तरह के जंगली जानवर थे, उन सबके बीच बचना बड़ा कठिन था। तो रात के साथ उन सबका जोड़ हो गया।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के अचेतन मन में वह गुफा—मानव का अनुभव अभी तक पड़ा है, वह गया नहीं। वह शरीर की स्मृति में समाविष्ट हो गया है। तो इसलिए हम अंधेरे से डरते हैं। अब तो कोई कारण भी नहीं है, घर में बैठे हैं, बिजली पास में है, जब बटन दबाओ रोशनी हो जाए, कोई झंझट भी नहीं है ऐसी। देश में अनुशासन—पर्व चल रहा है—कोई उपद्रव नहीं है, कोई डर का कारण नहीं है। अपने कमरे में बैठे हैं, तो भी अंधेरे से घबरा रहे हैं। वह बीस हजार साल पहले आदमी का जो अनुभव था, वह तुम्हारी नस—नस में समाया हुआ है। तुम भी उसी आदमी से पैदा हुए हो। श्रृंखला उसी से बंधी है। वह बात भूली नहीं है, वह बहुत गहरे में पडी है। तो अंधेरे से डर लगता है। अंधेरे से आदमी भयभीत होता है।

लेकिन जो आदमी अंधेरे से भयभीत होता है और डरता है, वह भीतर जा ही न सकेगा। उसकी अंतर्यात्रा ही न हो सकेगी। अंतर्यात्रा में अंधेरे से तो पार होना ही पड़ेगा। अंतर्यात्रा अंतर्गुहा में प्रवेश है। शुभ हो रहा है। जाओ—आनंदपूर्वक, शांतिपूर्वक! सुबह भी करीब है। अंधेरा बढ़ने लगे, उतना ही भरोसा जगा लेना कि अब सुबह करीब आती है, अब करीब आती है।

एक ही बात ध्यान रखना इस अंधेरे से मोह मत बना लेना। एक तो खतरा है भय का कि आदमी घबड़ा कर भाग जाए। और दूसरा खतरा है, क्योंकि यह ठंडा और प्रीतिकर मालूम हो रहा है, इससे मोह मत बना लेना, नहीं तो तुम सुबह को पैदा न होने दोगे। तुम्हारा मोह ऐसा हो जाएगा कि तुम इसको पकड़ोगे। तुम धीरे — धीरे मोह के कारण अंधेरे से जकड़ जाओगे।

बहुत लोग हैं, जिन्होंने इसी तरह की जकड़ने पैदा कर ली हैं।

मेरे पास इतने लोग आते हैं, मैं चकित होता हूं! देखता हूं कोई आदमी उदासी से पकड़े हुए है अपने को, जकड़े हुए है। वह कहता है कि मुझे उदासी नहीं चाहिए, लेकिन सब उपाय करता है कि उदास हो जाए। बातें करता है कि मुझे उदासी से बाहर खींचो, लेकिन जब मैं उसे समझा रहा होता हूं तब मैं देख रहा होता हूं कि वह सुन भी नहीं रहा है। वह शायद मेरी बातों को सुन कर भी उदास हो जाएगा। ऐसे भी लोग मैंने देखे, वे मुझे सुन कर कहने लगे कि हम पहले से ही उदास थे, आपकी बातें सुन कर और उदास हो गए।

‘मैंने तुम्हें कौन—सी बात कही?’

आपने प्रकाश की और आनंद की इतनी बात कही कि उससे हमें ऐसा लगने लगा कि अरे, यह तो हम बड़े चूक रहे हैं! और उदासी आ गई। तो हमारा जीवन बेकार ही गया!

देखते हैं, मैं प्रकाश की बात कर रहा हूं परमात्मा की, कि तुम उठो, जागो, खोजो। वे कहते हैं, कि हम और सुस्त हो कर गिर पड़े कि मार डाला! हम तो सोचते थे, सब ठीक चल रहा है। आपने और यह कहां की बात कह दी? इससे हम और भी उदास हो गए।

लोग दुख से संबंध बना लेते हैं। फिर संबंध ऐसे हो जाते हैं प्राचीन और आदत के, कि छूटना भी चाहो तो छूटते नहीं। एक हाथ से छूटते हो, दूसरे हाथ से बनाए चले जाते हो। इसका थोड़ा खयाल रखना।

कल मैं एक गीत पढ़ता था :

एक उदास तनहाई

जिंदगी को रास आई!

कुछ लोग हैं, जिन्हें उदासी और अकेलापन रास आ जाता है। क्योंकि किसी के साथ रहो तो झंझट तो आती है। तुम जानते हो : साथ यानी झंझट। इसलिए तो आदमी साथ से भागता है। किसी के भी साथ रहो तो थोड़ी—बहुत झंझट होगी, क्योंकि जहां दो बर्तन हुए, थोड़ी आवाज, कलह होना शुरू होती है। वहीं चुनौती भी है। लेकिन इससे आदमी डर सकता है, भाग सकता है कि इससे तो अकेले बेहंतर। अकेले राम—कोई झंझट नहीं!

मगर अकेले राम तो हो गए, लेकिन चुनौती नहीं रही; सीता नहीं रही, रावण नहीं रहे! अकेले राम तो हो गए, लेकिन रामलीला खत्म! तो तुम तो राम से भी ज्यादा समझदार हो गए। राम का सारा व्यक्तित्व निखरा, क्योंकि अकेले राम नहीं थे; बड़ी चारों तरफ जीवन के संघर्ष की स्थिति थी। उसमें से व्यक्तित्व निखरता है। तो अकेले में एक तरह की मुर्दा शांति है।

एक उदास तनहाई

जिंदगी को रास आई

दिल में तेरी चाहंत भी

ले के रंगे—यास आई।

आशिकी शक—ए—बाइ

क्यों न मेरे पास आई?

कितने जाम खाली हैं

कितने जाम छलके हैं

इश्क की फजाओं में

वहम के महल के हैं

हुस्न की जियाओं में

सोच के धुंधलके हैं

मेरी आरजुओं के

रंग कितने हलके हैं

आह, क्यों मेरी फितरत

रोशनी से घबराई?

आह, क्यों मेरी फितरत

रोशनी से घबराई?

खलअतो की शैदाई

जलवतो से शरमाई

एक उदास तनहाई

जिंदगी को रास आई।

तुम कहीं इस उदासी से रास मत आ जाना। इस उदासी से संग—साथ मत बना लेना। इस उदासी से गठबंधन मत कर लेना। इस उदासी से विवाह मत कर बैठना। यह ठंडी है और प्रीतिकर है।

आह, क्यों मेरी फितरत

रोशनी से घबराई?

और अगर इससे तुमने बहुत संबंध बना लिया तो फिर तुम रोशनी से घबड़ाने लगोगे।

कुछ लोग हैं जो अंधेरे से घबड़ाते हैं; अंधेरे से घबड़ा कर भागते हैं तो रोशनी तक नहीं पहुंच पाते। फिर कुछ लोग हैं, जो रोशनी से घबड़ाने लगते हैं; क्योंकि अंधेरे से उनका प्रेम बन जाता है। जिसने पूछा है, धर्म ज्योति ने, उसके लिए यह खतरा है, इसलिए मैं कह रहा हूं। उसके लिए खतरा है कि वह इस अंधेरे, उदासी, शांति से कहीं बहुत ज्यादा संबंध न बना ले। अगर यह संबंध ज्यादा बन गया तो फिर सुबह, हो सकती थी जो सुबह, वह भी न हो पाएगी।

इसलिए गुजरो अंधेरे सें—आनंद से गुजरो, गीत गुनगुनाते गुजरो। अंधेरा निश्चित ही ठंडा और शीतल है, बड़ा विश्रामदायी है! लेकिन खयाल रखना, अंधेरा केवल गर्भ है उजाले का। अंधेरा केवल निषेध है। विधेय तो प्रकाश है। पहुंचना तो प्रकाश पर है। अंधेरे से गुजरो, अंधेरे में निखरो, नहाओ, लेकिन जाना तो प्रकाश पर है।

अगर कोई व्यक्ति अंधेरे में ही रह जाए तो शांत तो हो सकता है, लेकिन उसके जीवन में प्रेम पैदा न होगा।

बुद्ध ने कहा है : अगर ध्यान लग जाए और करुणा पैदा न हो, तो समझना कि कहीं कुछ चूक हो गई; होते —होते बात रह गई। अंधेरे में आदमी ध्यान को तो उपलब्ध हो सकता है, लेकिन जब प्रकाश का उदय होगा, तभी प्रेम को उपलब्ध होगा। और जब ध्यान और प्रेम दोनों एक साथ फलते हैं, तभी व्यक्ति के वृक्ष में फल और फूल दोनों आए; तभी कोई वस्तुत: सफल और सुफल हुआ। धर्म ज्योति को खतरा है, क्योंकि वह प्रेम से बड़ी डरी हुई है। उसने जीवन में प्रेम जाना नहीं। वह पहले से ही कुछ गलत गुरुओं के चक्कर में पड़ गई, जिन्होंने समझा दिया कि प्रेम पाप है; जिन्होंने समझा दिया कि शरीर पाप है; जिन्होंने समझा दिया कि संबंध संसार है, इससे तो पार जाना है। उन्होंने उसे बहुत घबड़ा दिया। उनसे वह छूट भी गई, लेकिन बड़े गहरे अचेतन में उनकी धारणाएं अब भी पड़ी रह गई हैं। इसलिए इस बात का डर है कि कहीं अंधेरे से गठबंधन न बन जाए।

तो ध्यान रखना, रोशनी से घबड़ाना मत। रोशनी करीब आए तो आंख बंद मत कर लेना। रोशनी करीब आए तो दरवाजा बंद मत कर लेना। क्योंकि परमात्मा के मार्ग पर भला अंधेरा हो, परमात्मा की उपलब्धि पर प्रकाश है। उसकी प्रतीक्षा करते रहना—अंधेरी रात में भी! अंधेरी रात में भी उसे पहचानने की कोशिश जारी रहे।

कुमुद—दल से वेदना के दाग को

पोंछती जब आंसुओ से रश्मिया

चौंक उठतीं अनिल के विश्वास छू

तारिकाएं चकित—सी अनजान—सी

अवनि अंबर की रुपहली सीप में

तरल मोती—सा जलधि जब कापता

तैरते घन मृदुल हिम के पुंज से

ज्योत्सना के रजत पारावार में

सुरभि बन जो थपकियां देता मुझे

नींद के उच्छवास—सा वह कौन है!

अंधेरे में भी जो तुम्हें थपकियां दे, खयाल रखना. वही है!

सुरभि बन जो थपकियां देता मुझे

नींद के उच्छवास—सा वह कौन है!

वह जो नींद में भी आ कर तुम्हें घेर लेता है, वह भी वही परमात्मा है। अंधेरे की तरह तुम्हें जो घेर लेता, वह भी वही परमात्मा है। शीतल छांह जो अंधेरे की मालूम होती है, वह भी उसी की शीतल छाह है। वह जो मीठा शांतिदायी, विश्राममयी भाव घेर लेता है अंधेरे में, वह भी उसी के पास होने की खबर है; कहीं पास ही वह मौजूद है!

उसे भूलना मत और उसकी खोज जारी रखना। जो आज सोया है, वह कल जागेगा। जो आज अंधेरे में दबा है—उभरेगा। क्षितिज पर उसकी लाली जल्दी ही दिखाई देने लगेगी।

मुझे यह महसूस हो रहा है मेरा खुदा

ख्वाबगाहे —गफलत में सो रहा है

मेरा दिले —बेकरार मुद्दत से रो रहा है

शिकस्त है यह कि आजमाइश

कि रब्बे — आलम कि लुत्मोंअकराम की नुमाइश

बफूरे—वहशत ने जिंदगी का सुहाग लूटा

तिलिस्म कैफे—शबाब लूटा

मुझे यह महसूस हो रहा है

कि खालिके —जीस्त सो रहा है।

बशर मुहब्बत से

जीस्त के हुस्ने—रंग से हाथ धो रहा है।

कभी तो जागेगा सोने वाला

कभी तो इस सबकी तीरगी को

मिटाएगा सुबह का उजाला।

कभी तो जागेगा सोने वाला

कभी तो इस सबकी तीरगी को

मिटाएगा सुबह का उजाला।

वह होगा—होने ही वाला है! निश्चित ही है! जब रात आ गई तो सुबह दूर नहीं। जब अंधेरा घना होने लगा और तारों की छांव गहरी होने लगी, तो सूरज करीब आने लगा। जल्दी ही क्षितिज पर फैल जाएगी उसकी लाल रेखा।

प्रतीक्षा करो! प्रार्थना करो! आशा को जगाए रखो! आंख खोल कर पुकारते रहो! अंधेरा भी उसका है, प्रकाश भी उसका है! मृत्यु भी उसकी, जीवन भी उसका। इसलिए सब जगह उसे पहचानते रहो।

हरि ओंम तत्सत्!

 


Filed under: अष्‍टावक्र महागीता--(भाग--2) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–2) प्रवचन–4

$
0
0

संन्यास का अनुशासन : सहजता—प्रवचन—चौथा

दिनांक: 29 सितंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 सूत्र:

हंतात्मज्ञस्य धीरस्थ खेलतो भोगलीलया।

न हि संसारवाहीकैर्मूढ़ै सह समानता।।60।।

यत्यदं प्रेम्मवो दीना: शक्राद्या सर्वदेइवता:।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुयगच्छति।।61।।

तज्‍जस्‍य पुण्ययायाथ्यां स्पर्शो ह्रयन्तर्न जायते।

न हयकाशस्थ धूमेन झयमानोऽयि संगति:।।62।।

आत्यवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।

यदृच्छया वर्तमान तं निषेद्युं क्षमेत क्र:।।63।।

आब्रह्मस्तम्बयर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।

विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने।। 64।।

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानति जगदीश्वरम।

यद्वेति तत्स कुस्ते न भयं तस्य कुत्रचित्।। 65।।

ष्‍टावक्र ने बड़ी कठिन परीक्षा ली। और जनक जैसे सद्य:, अभी—अभी पैदा हुए आत्मज्ञानी की, अभी— अभी जन्म हुआ, अभी— अभी प्रकाश की किरण उतरी। अभी सम्हल भी नहीं पाये जनक। अभी आश्चर्य की तरंगें उठी जा रही हैं। अभी भरोसा भी नहीं बैठा कि जो हो गया है, वह हो भी गया! भरोसा बैठने में थोड़ा समय लगता है। जितनी बड़ी घटना हो, जितनी अज्ञात घटना हो, उतना ही ज्यादा समय लगता है। अभी तो गदगद हैं जनक। हृदय में नयी—नयी तरंगें उठ रही हैं। जो हुआ है वह हो भी सकता है—इस पर भरोसा नहीं आ रहा है। जो हुआ है, वह मुझे हो सकता है—इस पर तो और भी भरोसा नहीं आ रहा। जो हुआ है, वह इतने तत्‍क्षण हो सकता है—इस पर कैसे भरोसा आये!

बड़े गहन अहोभाव से भरे जनक। और अष्टावक्र बड़ी कठोर परीक्षा लेते हैं; जैसे अभी—अभी पैदा हुआ बच्चा हो और परीक्षा शुरू हो गयी।

लेकिन उस कठोरता में करुणा है। उस कठोरता में जनक का सारा भविष्य है। और यह परीक्षा तत्‍क्षण ही ली जा सकती है। अगर थोड़ी देर हो जाये और ज्ञान की ताजगी समाप्त हो जाये, तो फिर परीक्षा लेनी कठिन है।

इसे थोडा समझने की कोशिश करें।

जब ताजा—ताजा ज्ञान है, तब तरल होता है, तब उसे नये रूप दिये जा सकते हैं, नये ढांचे दिये जा सकते हैं। जैसे छोटा—सा अंकुर निकलता है, उसे हम कैसे ही झुका लें और किन्हीं दिशाओं में मोड़ दें, कोई भी ढंग दे दें। फिर बड़ा पुराना वृक्ष है, उसे झुकाना मुश्किल हो जाता है—टूट जायेगा, झुकेगा नहीं!

तो ज्ञान जब पैदा हो, तभी अवसर है। देर हो जाये, आश्चर्य समाप्त हो जाये, तो ज्ञान ठोस हो गया, तरलता खो गयी। वह जो अग्नि पैदा हुई थी, वह विलीन हो गयी। वह जो लावा बहा था, वह जम गया, पत्थर हो गया। फिर उसकी परीक्षा बड़ी कठिन है और परीक्षा व्यर्थ भी है। क्योंकि फिर बड़ी तोड़—फोड़ करनी पड़ेगी।

इसलिए अष्टावक्र ने एक क्षण भी न खोया। इधर जनक आश्चर्य से भरे हैं, उधर अष्टावक्र ने कसना शुरू कर दिया।

जनक ने इन सूत्रों में, आज के सूत्रों में, उत्तर दिया है। जो परीक्षा ली जा रही है उसके प्रति अपने हृदय के भाव प्रकट किये हैं—वे बड़े अनूठे हैं। जनक न तो नाराज हुए; जरा भी नाराज हो जाते तो असफल हो जाते; जरा भी उद्विग्न हो जाते तो असफल हो जाते। क्या कहते हैं, यह उतना सवाल नहीं है—कैसे परीक्षा को लिया? करुणा को पहचाने अष्टावक्र की या कठोरता को? अगर कठोरता को पहचानते और करुणा को भूल जाते तो उसका अर्थ हुआ कि जनक का अहंकार अभी भी मरा नहीं। अहंकार ही कठोरता को पहचानता है। जहां अहंकार खो गया वहां तो सिर्फ महाकरुणा ही ज्ञात होती है। वहां तो गुरु गरदन पर तलवार भी रख दे तो फूलों का हार ही रखा हुआ मालूम होता है। वहा तो गुरु मार भी डाले तो भी शिष्य मरने को तत्पर होता है। क्योंकि गुरु के हाथ से मौत—इससे शुभ और क्या होगा! इससे महाजीवन और क्या हो सकता है! यह तो गुरु की महा अनुकंपा है कि वह गरदन को अलग कर दे, तो तुम पिंजरे से मुक्त हो जाओ। अगर मृत्यु भी दे गुरु और अहंकार न हो, तो करुणा का दर्शन होगा। और अगर अहंकार हो और गुरु महाजीवन भी देता हो, तो भी संदेह उठेंगे।

हजार संदेह उठ सकते थे जनक के मन में। पहली तो बात यह उठ सकती थी कि मुझ पर संदेह किया जा रहा है ? पहला तो संदेह यह उठ सकता था कि मुझ पर संदेह किया जा रहा है? अगर ऐसा संदेह उठ आता तो श्रद्धा खो जाती। तो वह जो संवाद चल रहा था गुरु और शिष्य के बीच, रुक जाता, सेतु टूट जाता। दूसरी बात यह उठ सकती थी कि कहीं अष्टावक्र को ईर्ष्या तो नहीं हो गयी? मुझ में यह जो ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ है, कहीं अष्टावक्र ईर्ष्यालु तो नहीं हो गये? कहीं ऐसा तो नहीं है कि शिष्य के जीवन में उठती इस क्रांति को देख कर मन में जलन पैदा हुई हो?

अगर ऐसा भाव उठता तो फिर शिष्य शिष्य नहीं रह गया। फिर तो शिष्य और गुरु के बीच हजारों —हजारों योजन का फासला हो गया। फिर तो एक—दूसरे की आवाज पहुंचानी असंभव है। फिर तो वे दूसरे अलग लोकों के वासी हो गये।

नहीं, न तो ऐसा संदेह उठा कि गुरु को मेरे पर संदेह है, न ऐसा भाव उठा कि गुरु ईर्ष्या से भरा है; न ही जनक ने अपने पक्ष में बोलने की चेष्टा की।

नहीं तो साधारणत: जब भी कोई तुमसे कुछ कहे और तुम्हें परीक्षा का संदेह हो तो तुम तत्‍क्षण सुरक्षा को तत्पर हो जाते हो। तुम तर्क देने लगते हो, विवाद करने लगते हो। तुम हजार सिद्धात खड़े करके बताने लगते हो कि नहीं, मैं ठीक हूं।

अगर जनक ने जरा भी कोशिश की होती कि मैं ठीक हूं तो वे गलत हो गये होते। क्योंकि ठीक सिद्ध करने की कोशिश गलत आदमी ही करता है। अगर कोई भी तर्क दिया होता और यह सिद्ध करने की कोशिश की होती बौद्धिक रूप से कि नहीं, आप गलत हैं, मैं ठीक हूं—तो इस कोशिश में ही गलत हो गये होते।

जीवन का गणित बड़ा विरोधाभासी है। यहां जो सिद्ध करने चला है कि मैं ठीक हूं वह गलत सिद्ध हो जायेगा। क्योंकि ठीक हूं, ऐसी सिद्ध करने की आकांक्षा ही तुम्हारे अचेतन में तभी उठती है जब तुम्हें भीतर पता ही होता है कि तुम गलत हो। आत्मरक्षा का भाव भीतर गलत की प्रतीति से पैदा होता है— भय के कारण कि कहीं बात खुल तो न जायेगी? कहीं मेरे भीतर का राज जाहिर तो न हो जायेगा? यह तो गुरु पर्दे उठाने लगा! यह तो मुझे नग्न किये दे रहा है!

नहीं, ऐसी बात भी नहीं उठी।

जनक के ये सूत्र तुम सुनोगे, ये चकित करने वाले सूत्र हैं। परीक्षा कठोर थी, गुरु की आंख तेज तलवार की धार की तरह थी। और गुरु ने जरा भी रहम न किया था। गुरु बड़ा बेरहम था। और गुरु ने चोट पूरी की थी, जितनी की जा सकती थी। और गुरु ने सब दरवाजों से चोट की थी; कहीं से भागने की जगह न छोड़ी थी। पहले भोग के दरवाजे रोक दिये, फिर त्याग का भी दरवाजा रोक दिया। बचने का उपाय न छोड़ा था। गुरु ने खूब कसा था, सब तरफ से कसा था। अगर थोड़ी भी संभावना होती जनक के भीतर अंधकार की, तो इन सूत्रों का जन्म नहीं हो सकता था। कोई अंधकार की संभावना नहीं रह गयी थी।

जनक ने ऐसे उत्तर दिया जिसमें आत्मरक्षा का भाव बिलकुल नहीं; ऐसे उत्तर दिया जिसमें तर्क—सरणी है ही नहीं। उत्तर कहना भी ठीक नहीं है। जनक ने जो उत्तर दिया है, वह प्रतिध्वनि है, उत्तर नहीं। गुरु ने दर्पण सामने रख दिया था, जनक ने अपना हृदय सामने रख दिया, उस दर्पण में जो झलका, वे ही ये सूत्र हैं। जरा भी अपने को ओट में छिपाने की कोशिश न की। जरा भी चौंक कर संदेह से न भरे। जरा भी तर्क को बीच में न लाये। जैसे गुरु ने कुछ परीक्षा ही नहीं ली है, इसी तरह जनक ने उत्तर दिये।

पहला सूत्र, जनक ने कहा. ‘हंत, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ़ पुरुषों के साथ कदापि नहीं हो सकती है। ‘

पहला शब्द है. ‘हंत!’ उसमें सारी श्रद्धा उंडेल दी। ‘हंत’ बड़ा प्यारा शब्द है। जैनों में उसका पूरा रूप है ‘ अरिहंत’। बौद्धों में उसका रूप है ‘अर्हत’। हिंदू संक्षिप्त ‘हंत’ का उपयोग करते हैं। हंत का, अरिहंत का, अर्हत का अर्थ होता है, जिसने अपने शत्रुओं पर विजय पा ली—काम, क्रोध, लोभ, मोह, भोग, त्याग, इहलोक, परलोक! जिसने अपनी समस्त आकांक्षाओं पर विजय पा ली, जो निष्काक्षा को उपलब्ध हुआ है, वही है अरिहंत।

सूत्र की उदघोषणा करते हैं जनक, अष्टावक्र को अरिहंत कह कर—परम श्रद्धा से! इससे बड़ा शब्द नहीं है भाषा में। अरिहंत का अर्थ होता है. भगवान, अरिहंत का अर्थ होता है. आखिरी चैतन्य की दशा, जिसके पार फिर कुछ भी नहीं है। .जो—जो हटाना था, हटा दिया। जो —जो गिराना था, गिरा दिया। जो —जो मिटाना था, मिटा दिया। जो —जो जीतना था, जीत लिया। अब कुछ भी नहीं बचा! शुद्ध चैतन्य का सागर रह गया। वैसी दशा का नाम है ‘अरिहंत’।

और हंत का एक अर्थ और भी है जो बड़ा कीमती है। हम तो इसका एक ही तरह से उपयोग करते हैं साधारण भाषा में। जब कोई आदमी अपने को मार लेता है तो हम कहते हैं : आत्महंता। हंत का अर्थ होता है, जिसने अपने को मिटा लिया; जिसने अपने को समाप्त कर दिया; जिसके भीतर ‘मैं’ न रहा; जिसके भीतर अहंकार न रहा; जिसने अपने को बिलकुल समाप्त कर दिया; जिसने अपनी कोई रूप—रेखा न बचायी, नाम—पता न छोड़ा; जो शून्यवत हुआ; जो महाशून्य हुआ; निर्वाण को उपलब्ध हुआ; जिसने वस्तुत: आत्मघात कर लिया!

तुम जिन्हें आत्मघात कहते हो वे आत्मघात नहीं हैं, वे तो केवल शरीर—घात हैं। एक आदमी

गोली मार कर मर जाता है, इसको आत्मघात नहीं कहना चाहिए। क्योंकि आत्मा तो नहीं मरती। अहंकार तो नहीं मरता। सच तो यह है कि अहंकार के कारण ही उसने शरीर को मिटा डाला है। अहंकार पर चोट पड़ रही थी; दाब लग गया था, मुश्किल दिखता था बचना; दिवाला निकल रहा था, कि पत्नी भाग गयी थी; कि पराजित हो गया था; चुनाव में हार गया था—आत्महत्या कर ली। ‘आत्महत्या’ कहनी नहीं चाहिए—’शरीर—हत्या’, ‘देह—हत्या’। मन, अहंकार सब मौजूद है। फिर जन्म ले लेगा। देर नहीं लगेगी। फिर किसी देह में उतर जायेगा।

लेकिन ज्ञानी वस्तुत: आत्महंता है। वह अपने को मिटा ही डालता है पूरा का पूरा। और उसके मिट जाने में ही परमात्मा का होना है। जब तुम खो जाते हो, तभी प्रभु होता है। जहां तुम नहीं हो, वहीं भगवान है।

तुम्हारा मिलन भगवान से कभी न हो सकेगा। तुम जब तक खोजते रहोगे तब तक भटकते रहोगे। क्योंकि तुम जब तक खोजते रहोगे तुम तुम ही बने रहोगे।

कल एक युवक इंगलैंड से आया और मुझसे कहने लगा कि मैं आपके पास आया हूं। मेरी जीसस में बड़ी आस्था है; बड़ा विश्वास है मुझे जीसस में—उसने कहा—क्या आप मेरे विश्वास को दृढ़ बना सकेंगे? क्या आप मेरे विश्वास को और मजबूत बना सकेंगे? तो मैं संन्यस्त होने को तैयार हूं। मैंने उससे कहा. फिर हमें बातचीत साफ कर लेनी चाहिए, क्योंकि तुम्हारे विश्वास को मजबूत बनाने का अर्थ तो तुम्हीं को मजबूत बनाना होगा। तुम सोचते हो तुम जीसस पर विश्वास करते हो? तुम्हें जीसस से कोई भी प्रयोजन है? तुम्हारा विश्वास मजबूत होना चाहिए! और जब तक तुम्हारा सब भाव न मिट जाये, ‘मैं’ होने का, तब तक जीसस से तुम्हारा कोई संबंध नहीं हो सकता। अगर तुम मुझ पर छोड़ते हो, तो मेरी पूरी चेष्टा यह होगी कि तुम्हारे विश्वासों को बिलकुल मिटा डालूं क्योंकि उन्हीं विश्वासों के सहारे तुम खड़े हो। जब सब सहारे गिर जायेंगे तो तुम भी गिर जाओगे। और जहां तुम गिरोगे वहीं सूली लगी! जहां तुम गिरे, वहीं तुम्हारा संबंध क्राइस्ट से हुआ।

उससे मैंने कहा, जब तक तुम क्रिश्चियन हो, तब तक क्राइस्ट से कोई संबंध न हो सकेगा। तो अगर तुम मुझ पर छोड़ते हो, तो मैं तुम्हारे क्राइस्ट. तुम्हारे क्राइस्ट को तो बिलकुल मिटा दूंगा, क्योंकि तुम्हारा क्राइस्ट तो तुम्हीं को भरता है। जब तुम समाप्त हो जाओगे, तुम्हारा क्राइस्ट, तुम्हारी क्रिश्चिएनिटी, तुम्हारा चर्च, तुम्हारा शास्त्र सब खो जायेगा, और तुम्हीं खो जाओगे सबके आधार! —तब जिसका प्रादुर्भाव होगा, उसे फिर तुम चाहे क्राइस्ट कहना, चाहे बुद्ध कहना, चाहे जिन कहना, तुम्हें जो मर्जी हो कहना। उससे फिर मुझे कोई प्रयोजन नहीं, वह नाम की ही बात है। न तो जीसस का नाम क्राइस्ट था, न बुद्ध का नाम बुद्ध था, न महावीर का नाम जिन था, वे तो चैतन्य की अवस्था के नाम हैं—आखिरी अवस्था के नाम हैं। जिन का अर्थ : जिसने जीत लिया। बुद्ध का अर्थ. जो जाग गया। क्राइस्ट का अर्थ भी है. जो सूली से गुजर गया और फिर भी न मरा। जो मृत्यु से गुजर गया और महाजीवन को उपलब्ध हो गया—क्राइस्ट का अर्थ है। सूली गुजर गयी और फिर भी कुछ न मिटा। जो शाश्वत था वह बना रहा, जो व्यर्थ था वही छूट गया। सूली पर जो मरा, वे जीसस थें—सूली से जो बच रहा, वे क्राइस्ट! वही पुनरुज्जीवन की कथा का अर्थ है।

हंता का अर्थ है. जिसने अपने को पोंछ डाला, मिटा डाला; जिसने अपने हाथ से अपने अहंकार

को घोंट दिया, गला घोंट दिया। फिर बचते हैं हम—असीम की भांति, अनंत की भांति, शाश्वत— सनातन की भाति।

ठीक किया जनक ने; उत्तर देने में जो पहला शब्द उपयोग किया, उसमें सब कह दिया। उसमें सब कह दिया कि आप मुझे धोखा न दे पायेंगे। आप मुझे नाराज न कर पायेंगे। कितनी ही परीक्षा लो मेरी, क्षण भर को भी मैं नहीं भूलूंगा कि तुम पहुंच गये हो। तुम्हारी कठोरता के कारण मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता हूं कि तुम्हारे मन में ईर्ष्या होगी। तुम तो हो ही नहीं, तो ईर्ष्या कैसी? तुम तो हो ही नहीं, तो अहंकार कैसा? तुम तो हो ही नहीं, तो कठोरता कैसी?

इसलिए पहला ‘हंत’ शब्द उपयोग किया। उस ‘हंत’ में सब कह दिया। बात तो वहीं खत्म हो गयी, शेष सूत्र तो फिर व्याख्या हैं। शेष सूत्रों में तो इसी बात को फैला कर कहा।

हंतात्मशस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।

न हि संसारवाहीकैर्मूढ़ै सह समानता।।

‘हे हंत, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोनेवाले मूढ़ पुरुषों के साथ कदापि नहीं हो सकती। ‘

और परीक्षा को व्यक्तिगत रूप से न लिया। उत्तर देखते हैं! उत्तर में यह नहीं कहा कि आप मेरी बराबरी अज्ञानियों से कर रहे हैं! ‘मुझको’ तो बीच में लाये ही नहीं। ‘मैं’ को तो उठाया ही नहीं। मैं का कोई संबंध न बांधा। उत्तर बिलकुल निवैंयक्तिक है।

कहा कि ‘भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोनेवाले मूढ़ पुरुषों के साथ कदापि नहीं हो सकती। ‘

दोनों संसार में खड़े हैं। अज्ञानी भी खड़ा है, ज्ञानी भी खड़ा है। दोनों बाजार में खड़े हैं। लेकिन दोनों के खड़े होने के ढंग में फर्क है। दोनों का स्थान भला एक हो, दोनों की स्थिति अलग है। अज्ञानी तो सिर पर ढो रहा है, ज्ञानी ने पोटली रथ पर उतार कर रख दी। फिर से तुम्हें वह कहानी कह दूं। बार—बार कहता हूं क्योंकि बड़ी महत्वपूर्ण है।

सम्राट चला आ रहा है शिकार खेल कर अपने रथ में बैठा हुआ, देखता है एक भिखारी को पोटली लिये हुए रास्ते पर। बिठा लेता है रथ में कि छोड़ दूंगा जहां तुझे उतरना हो; कहां तुझे उतरना है? भिखारी बड़ा सकपकाता है। बैठ तो जाता है रथ में—डरा—डरा! कहना तो चाहता है कि नहीं महाराज, मैं और रथ में बैठुं नहीं, नहीं! मगर इतनी भी हिम्मत नहीं, ‘नहीं’ कहने से कहीं सम्राट नाराज न हो जाये! उस स्वर्ण —सिंहासन पर सिकुड़ा—सिकुड़ा बैठा है, घबड़ाया हुआ बैठा है कि कहीं मेरे कारण सब गंदा न हो जाये। मैं दीन—हीन, इस राजरथ पर बैठूं! लेकिन पोटली उसने अपने सिर पर उठा रखी है।

सम्राट थोड़ी देर बाद कहता है : अरे पागल, पोटली नीचे रख! अब पोटली सिर पर क्यों रखे है? वह कहता है : नहीं महाराज, इतनी ही दया क्या कम है कि आपने मुझे बैठा लिया! और अपनी पोटली का व्रजन भी आपके रथ पर रखूं? नहीं—नहीं, यह ज्यादती हो जायेगी। यह तो अशिष्टाचार हो जायेगा। माना कि मैं दीन—हीन गरीब आदमी हूं इतनी तो बुद्धि मुझे भी है। पोटली तो मैं सिर पर ही रखूंगा, आप कुछ भी कहो। मैं बैठ गया, यही बहुत—बैठना भी नहीं था मुझे। डर के मारे बैठ

गया हूं कि कहीं आप नाराज न हो जायें। मेरे पैर तो चलने के लिए ही बने हैं। मैं तो गरीब आदमी हूं यह रथ मेरे लिए नहीं है। मुझे बड़ी दिक्कत हो रही है। तो कम से कम पोटली तो मुझे सिर पर रखे रहने दें। इतना बोझ आपके रथ पर और डालूं—नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा।

अब तुम रथ में बैठे हो, पोटली सिर पर रखो कि नीचे—बराबर है।

जनक कहते हैं. ज्ञानीपुरुष भी रथ में बैठता, अज्ञानी भी रथ में बैठता। अज्ञानी पोटली सिर पर रखे रहता है, ज्ञानी पोटली नीचे उतार कर रख देता है।

‘संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ़ पुरुषों के साथ ज्ञानी पुरुष की समानता कदापि नहीं की जा सकती।’

क्यों? भोगलीला के साथ खेलते हुए…। वह जो ज्ञानी पुरुष है उसके लिए तो सब लीला हो गया, सब खेल हो गया। वह तो इस जगत में खेल की तरह सम्मिलित है। इस जगत में उसे कोई रस नहीं है। इस जगत में पक्ष—विपक्ष नहीं रहा उसके मन में, इच्छा— अनिच्छा नहीं रही। वह तो सम्मिलित होता है—प्रभु —मर्जी से। वे सूत्र आगे आयेंगे। लेकिन जगत उसे खेल हो गया।

तुम दुकान पर दो ढंग से बैठ सकते हो। एक ढंग है अज्ञानी का कि तुम सोचते हो. दुकान ही जीवन। एक ढंग है ज्ञानी का कि तुम जानते हो. एक खेल है—जरूरी; खेलना आवश्यक, जीवन का हिस्सा, लेकिन खेल—मात्र! दोनों दुकान पर बैठे हैं; दोनों एक जगह बैठे हैं—लेकिन दोनों की चित्त—दशा बड़ी भिन्न है। एक साक्षी—मात्र है, क्योंकि सब खेल है। दूसरा भोक्ता हो गया; कर्ता हो गया, क्योंकि सब बड़ा गंभीर है।

अज्ञानी जगत को गंभीरता से लेता है, ज्ञानी हंस कर लेता। बस, उतनी मुस्कुराहट का फासला है। पत्नी मर जाती है तो अज्ञानी भी उसे मरघट तक छोड़ आता है, लेकिन रोता, चीखता, चिल्लाता। ज्ञानी भी मरघट तक छोड़ आता।.. एक खेल पूरा हुआ। एक नाटक समाप्त हुआ, पर्दा गिरा। रोने, चीखने, चिल्लाने जैसा कुछ भी नहीं है। भीतर वह साक्षी ही बना रहता है। द्रष्टा— भाव उसका क्षण भर को नहीं खोता। इतना ही भेद है।

ज्ञानी संसार को छोड़ कर भागे, तब ज्ञानी—तब तो इसका अर्थ हुआ कि अभी भी संसार को गंभीरता से ले रहा है, छोड़ कर भाग रहा है। अभी संसार को देख नहीं पाया। अभी आंख गहरी नहीं हुई। अभी उतरा नहीं जीवन के अंतरतम में। अभी पहचाना नहीं कि भोक्ता और कर्ता मैं दोनों नहीं हूं, सिर्फ साक्षी—मात्र हूं।

अमेरिका में लिंकन की पहली शती मनायी गयी। तो एक आदमी ने लिंकन का पार्ट किया, पार्ट किया एक वर्ष तक सारे अमेरिका में। उसका चेहरा लिंकन से मिलता—जुलता था। तो उसे नाटक का काम दिया गया कि वह लिंकन का अभिनय करे। और वह नाटक की मंडली सारे अमेरिका में घूमी, हर बड़े नगर में गयी, गांव—गांव गयी, साल भर उसने यात्रा की। वह आदमी साल भर तक लिंकन का अभिनय करता रहा।

लेकिन धीरे — धीरे, धीरे — धीरे लोगों को थोड़ा शक हुआ कि उस आदमी में गड़बड़ होनी शुरू हो गयी। वह लिंकन के कपड़े पहनता, नाटक में तो पहनता ही, धीरे— धीरे वह बाहर भी पहनने लगा। मंच के बाहर भी चलने लगा वैसे ही जैसे लिंकन चलता था। थोड़ा लंगड़ाता था लिंकन, तो वह ऐसे

ही लंगड़ा कर बाहर भी चलने लगा। लिंकन थोड़ा हकलाता था, तो वैसे ही हकला कर वह बाहर भी बोलने लगा। लोगों ने कहा कि यह क्या मजाक है?

पहले तो लोगों ने समझा, मजाक कर रहा है। लेकिन फिर धीरे—धीरे लोग गंभीर हो गये, क्योंकि वह तो बिलकुल ही मान बैठा कि लिंकन हो गया है।

जब साल भर बाद वह घर आया तो वह तो बिलकुल लिंकन हो कर आ गया था। साल भर अभिनय करते—करते वह यह भूल ही गया कि मैं अभिनेता हूं। उसने तो मान ही लिया कि मैं अब्राहम लिंकन हूं। उसके संबंध में तो यह लोकोक्ति प्रचलित हो गयी कि जब तक इसको गोली न मारी जायेगी तब तक यह न मानेगा। जैसे लिंकन को गोली मारी गयी और लिंकन की हत्या हुई—जब तक इसकी हत्या न होगी, यह मानने वाला नहीं है।

सब तरह के इलाज किये गये, चिकित्सा की गयी; डॉक्टरों को दिखाया गया, मनोवैज्ञानिकों को दिखाया गया। सब थक गये समझा—समझा कर। वे उसको समझायें, वह मुस्कुरा कर बैठा रहे। वह कहे कि आप बड़े मजे की बात कह रहे हैं। हद हो गयी, आप मुझको समझा रहे हैं कि मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं! आपका दिमाग ठीक है? मुझमें क्या कमी देखते हैं?

कमी उसमें कुछ भी न थी, अभिनय वह बिलकुल पूरा कर रहा था। वैसा चलता, वैसा बोलता, वैसा उठता—बैठता, वैसी उसने दाढ़ी—मूछें बढ़ा ली थीं—सब बिलकुल वैसा था।

आखिर चिकित्सक भी उससे थक गये। और उन्होंने कहा कि यह आदमी तो हद है! इसको भरोसा इतना गहरा आ गया है!

तभी अमेरिका में एक मशीन ईजाद की गयी थी, जिसको अदालतों में उपयोग करते हैं, झूठ पकड़ने के लिए—लाइ—डिटेक्टर। आदमी को मशीन के ऊपर खड़ा कर देते हैं, उससे प्रश्न पूछते हैं—ऐसे प्रश्न जिनके उत्तर वह झूठे तो कभी दे ही नहीं सकता। जैसे, उससे पूछते हैं घड़ी दिखा कर कि कितना बजा है? अब घड़ी में अगर साढ़े आठ बजा है तो वह कहता है, साढ़े आठ बजा है। इसमें क्या झूठ बोलेगा, घड़ी सामने है। झूठ बोलेगा कैसे? उससे पूछते हैं, यह रंग कैसा है, गेरुआ है कि हरा है? तो वह कहता है, गेरुआ है। इसमें झूठ क्या बोलेगा? उसके सामने किताब रख कर कहते हैं, यह किताब कुरान है कि बाइबिल है? वह कहता है, बाइबिल है। इसमें झूठ क्या बोलेगा ? ऐसे पांच—सात प्रश्न पूछते हैं, जिनमें सच बोलना अनिवार्य ही है। उनमें झूठ बोलने की कोई जगह नहीं है। नीचे मशीन ग्राफ बनाती है। जैसा तुमने कार्डियोग्राम देखा हो, वैसा ही ग्राफ बनता है नीचे। उसके हृदय की धड़कनें बताती हैं कि बिलकुल ठीक चल रही हैं।

तभी अचानक उससे पूछते हैं कि तुमने चोरी की? उसके हृदय में तो आवाज आती है कि की, क्योंकि उसने की है। लेकिन वह उसे गटक जाता है और कहता है, नहीं! नीचे कार्डियोग्राम जो बन रहा है, ग्राफ जो बन रहा है, वह झटका खा जाता है। क्योंकि अब पहली दफा कुछ कहना चाहता था और कुछ कहा, तो एक झटका लगा। हृदय की धड़कन पर, श्वास पर एक विरोध पैदा हुआ, एक द्वंद्व हुआ; द्वंद्व पकड़ जाता है। बस, वहीं उसे पकड़ लेते हैं।

तो किसी ने सुझाव दिया कि इस आदमी को लाइ—डिटेक्टर पर खड़ा कर के देखो। तो उसे खड़ा किया गया। तो उसके सब चिकित्सक इकट्ठे हुए, परिवार के लोग इकट्ठे हुए। वह आदमी भी थक

गया था; रोज—रोज, रोज—रोज सभी समझाते थे। उसने उस दिन कहा कि अच्छा चलो, झंझट खत्म करो। हूं तो मैं अब्राहम लिंकन, लेकिन क्या करूं! अब दुनिया ही मानने को राजी नहीं है तो जाने दो दुनिया को, कह देंगे कि नहीं हैं। इस किस्से को अब खत्म किया जाये।

लाइ—डिटेक्टर पर खड़ा किया; पांच—सात ऐसे प्रश्न पूछे जो ठीक उत्तर दिये जा सकते थे। तब उससे पूछा कि क्या तुम अब्राहम लिंकन हो? उसने कहा कि नहीं! और नीचे लाइ—डिटेक्टर ने कहा कि यह झूठ बोल रहा है। इतना गहरा भरोसा! ऊपर से कह रहा है, नहीं! लाइ—डिटेक्टर भी कहता है कि है तो यह अब्राहम लिंकन!

हमारी भी ऐसी दशा है। जन्मों—जन्मों..। उसने तो एक ही साल काम किया था अब्राहम लिंकन का, हम जन्मों—जन्मों से कर्ता और भोक्ता बने हैं। कोई लाइ—डिटेक्टर हमें पकड़ नहीं सकता। अगर हम कहें भी लाइ—डिटेक्टर पर खड़े हो कर कि हम साक्षी हैं, लाइ—डिटेक्टर कहेगा, यह आदमी झूठ बोल रहा है—कर्ता— भोक्ता है। साक्षी—बिलकुल नहीं!

हमारी आदत लंबी और प्राचीन हो गयी है—पुरातन है! सदियों से चली आती है।

जब कोई व्यक्ति जागता है, तो भागता थोड़े ही है कहीं, भागेगा कहां? जाग कर इतना ही अंतर पड़ता है। यह अंतर बहुत छोटा और बहुत बड़ा—दोनों एक साथ। यह किसी को पता भी नहीं चलेगा, ऐसा अंतर है। यह तो तुम गुरु के सामने खड़े होओगे, उसके दर्पण में ही झलकेगा, और किसी को पता भी नहीं चलेगा। शायद तुम्हारी पत्नी भी न पहचान पाये कि कब तुम कर्ता से साक्षी हो गये। कब, किस घड़ी में, किस क्षण में क्रांति घटी—शायद तुम्हारा पति भी न पहचान पाये; तुम्हारे बच्चे भी न जान पायें। जो तुम्हारे हृदय के बहुत करीब हैं, वे भी न जान पायेंगे। क्योंकि यह क्रांति बड़ी सूक्ष्म है—सूक्ष्म, अति—सूक्ष्म है यह। इतनी बारीक क्रांति है कि या तो तुम जानोगे या गुरु जानेगा। इसके अतिरिक्त कोई भी नहीं पहचान सकेगा।

क्योंकि रहोगे तो तुम वैसे के वैसे ही। दुकान करते थे तो उस दिन क्रांति के बाद भी तुम दुकान पर जा कर बैठोगे, तराजू से सामान तौलोगे, बेचोगे, ग्राहकों से मोल—तोल करोगे—सबकरोगे। घर आओगे; बच्चों के सिर थपथपाओगे, पत्नी के लिए फूल या आइस्कीम खरीद लाओगे—वह सब करोगे। सब वैसा ही चलता रहेगा। शायद पहले से भी अच्छा चल पड़ेगा। क्योंकि अब एक गहन समझ का जन्म हुआ है। अब तुम किसी को व्यर्थ कष्ट न देना चाहोगे।

लेकिन भीतर एक क्रांति घटित हो गयी। अब तुम दूर—दूर हो। अब तुम बहुत दूर हो। अब तुम कर रहे हो, लेकिन करने में अब कोई गंभीरता नहीं है। अब नाटक है। अब तुम जाग गये कि यह सब रामलीला है। अब तुम्हें होश आ गया।

इस होश को तो कोई होश वाला ही पहचानेगा और परखेगा। इसलिए गुरु की बड़ी जरूरत है, क्योंकि गुरु ही साक्षी हो सकता है।

जनक ने कहा. ‘भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ़ पुरुषों के साथ कदापि नहीं की जा सकती।’

देखना, उत्तर में ये ‘मैं’ को बीच में नहीं लाये। अगर थोड़ा भी अज्ञान बचा होता तो वे कहते, ‘क्या आप कहते हैं? मेरी बराबरी, और संसार के मूढ़ पुरुषों से करते हैं? ‘—ऐसा उत्तर होता। उत्तर

बिलकुल ऐसा ही होता, लेकिन जरा—सा फर्क होता कि ‘आप मेरी तुलना मूढ़ों से करते हैं! मैं ज्ञानी, मुझे ज्ञान का उदय हो गया!’ नहीं, वह तो बात ही नहीं उठायी। जिसे ज्ञान का उदय हो गया, उसका ‘मैं’ तो अस्त हो गया। अब मैं की बात उठाने का कोई कारण न रहा। अब तो सीधी बात की—सिद्धात की। सीधी बात की—सत्य की, सूत्र की।

हंतात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।

‘हे हंत, हे अरिहंत! खेलता है ज्ञानी तो भोगमयी लीला के साथ, ढोता नहीं। क्रीड़ा है जगत, कृत्य नहीं। ‘

अज्ञानी तो खेल भी खेलता है तो भी उलझ जाता है, गंभीर हो जाता है। ज्ञानी कृत्य भी करता है, तो भी उलझता नहीं, जागा रहता है। जानता रहता है कि मेरा स्वभाव तो सिर्फ साक्षी है। ऐसी अहर्निश सुन बजती रहती है कि मैं साक्षी हूं। यह ‘मैं साक्षी’ का भाव पृष्ठभूइम में खड़ा रहता है। सब होता रहता है। जन्म होता, मृत्यु होती; हार होती, जीत होती, सम्मान— अपमान होता, सब होता रहता है। कभी महल, कभी झोपड़े, सब होता रहता। लेकिन भीतर बैठा ज्ञानी जानता रहता है कि लीला है, खेल है, क्रीडा है।

तुमने देखा, तुम उसी रास्ते पर सुबह घूमने जाते हो और उसी रास्ते पर दोपहर दफ्तर के लिए जाते हो, रास्ता वही, तुम वही, रास्ते के किनारे खड़े दरख्त वही, सूरज, आकाश सब वही, पड़ोस के लोग वही, सब कुछ वही—लेकिन जब तुम दफ्तर जाते हो तो तुम्हारी चाल में तनाव होता है। तब तुम्हारे मन में चिंता होती है। सुबह उसी रास्ते पर तुम घूमने जाते हो, तब न कोई चिंता होती, न कोई तनाव होता। क्योंकि तुम कहीं जा ही नहीं रहे हों—खेल है। घूमने निकले हो; हवा खाने निकले हो। कहीं से भी लौट सकते हो, कोई मंजिल नहीं है। कहीं पहुंचने का कोई स्थिर स्थान नहीं है। कहीं पहुंचने को निकले ही नहीं हो, सिर्फ घूमने निकले हो। घूमने निकले हो, तो एक मौज होती है। काम से जा रहे हो, सब मौज खो जाती है।

ज्ञानी अपने समस्त कामों को खेल बना लेता है और अज्ञानी खेल को भी काम बना लेता है। बस, इतना ही फर्क है। इतनी को कर्म भी अभिनय हो जाते हैं। अज्ञानी को अभिनय भी कर्म हो जाता है। वह अभिनय को भी गंभीरता से पकड़ लेता है। ज्ञानी जीवन में से कुछ भी नहीं पकड़ता, कुछ भी नहीं छोड़ता। पकड़ने—छोड़ने का कोई सवाल नहीं। जो आ जाये, जो होता है—होने देता है। सिर्फ देखता रहता है।

‘जिस पद की इच्छा करते हुए शक्र और दूसरे देवता दीन हो रहे हैं, उस पद पर स्थित हुआ भी योगी हर्ष को नहीं प्राप्त होता—यही आश्चर्य है। ‘

वक्तव्य निवैंयक्तिक है।

यत्पदं प्रेप्सवो दीना: शक्राद्या सर्वदेवता।

इंद्र इत्यादि देवता भी दीन हो कर माग रहे हैं : और मिल जाये, और मिल जाये, और मिल जाये। जिनके पास सब मिला हुआ मालूम पड़ता है, वे भी मांग रहे हैं। मांग बंद होती नहीं, दीनता जाती नहीं, हीनता मिटती नहीं। कितने ही बड़े पद पर रहो, हीन बने ही रहते हो : ‘और बड़ा पद मिल जाये! और थोड़ी शक्ति बढ़ जाये! और थोड़ा साम्राज्य विस्तीर्ण हो जाये! तिजोरी थोड़ी और बड़ी हो जाये!’ इसका कहीं कोई अंत नहीं आता। दीन दीन ही बना रहता है।

‘जिस पद की इच्छा करते हुए शक्र और दूसरे देवता दीन हो रहे हैं।’

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति।

आश्चर्य है हंत, कि योगी वहां बैठा है—उस परम अवस्था में जिसके लिए देवता भी दीन हो रहे हैं—और फिर भी हर्ष को प्राप्त नहीं होता। उसकी सारी दीनता खो गयी है।

इसे समझना।

जब तक तुम सुखी हो सकते हो तब तक तुम दुखी भी हो सकते हो। सुख—दुख साथ—साथ हैं—रात—दिन की भांति। तुम एक को न बचा सकोगे। तुम यह न कर सकोगे कि हर्ष तो बच जाये, दुख खो जाये। तुम यह न कर सकोगे. दिन ही दिन बचें और रातें समाप्त हो जायें। दिन बचाओगे, रातें भी रहेंगी। सुख बचाओगे, दुख भी रहेगा। जन्म बचाओगे, मौत भी रहेगी। मित्र बचाओगे, शत्रु भी रहेंगे। द्वंद्व से तुम बाहर जा न सकोगे। जिस दिन तुम देखोगे कि ये तो दोनों जुड़े हैं. एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उस दिन पूरा सिक्का हाथ से गिर जाता है। योगी उस पद पर बैठा है जिसकी बड़े —बड़े देवता भी आकांक्षा कर ‘रहे हैं। लेकिन फिर भी हर्ष को उपलब्ध नहीं होता है।

‘वह उस पद पर स्थित हुआ भी, जरा भी हर्ष को उत्पन्न नहीं होता। ‘

क्यों? क्योंकि जो उस पद पर मिला है, वह तो स्वभाव है। उसके लिए हर्ष क्या? जो मिलना ही चाहिए वही मिला है। जो मिला ही हुआ था, वही मिला है। जिसको भूल से समझा था कि खो गया, वही मिला। खोया तो कभी भी न था। हर्ष क्या है? अपनी स्वयं की संपत्ति पाकर हर्ष कैसा? जनक कहते हैं : आश्चर्य यही है कि सब पाकर भी हर्ष नहीं होता योगी को। हर्ष होता ही नहीं योगी को।

तुम आनंद का अर्थ हर्ष मत समझना। हर्ष तो एक ज्वरग्रस्त दशा है। हर्ष भी थकाता है। तुम ज्यादा देर हर्ष में न रह सकोगे। हर्ष में भी तरंगें उठती हैं। जैसे चिंता की तरंगें हैं वैसे हर्ष की तरंगें हैं। जैसे दुख की तरंगें हैं, वैसे हर्ष की तरंगें हैं। :र्फ्क इतना ही है कि दुख की तरंगों को तुम पसंद नहीं करते, सुख की तरंगों को तुम पसंद करते हो—बस। मगर दोनों तरंगें हैं। दोनों में चित्त तो विक्षुब्ध होता है। दोनों में चित्त तो टूट—टूट जाता, खंड—खंड हो जाता है। तुम्हारी अखंडता तो बिखर जाती है। तुम्हारी शांत झील तो खो जाती है। तुम्हारा दर्पण तो ढंक जाता है।

तत्र स्थितो योगी न हर्षम् उपगच्छति अहो।

आश्चर्य प्रभु! जनक कहने लगे अष्टावक्र से कि जिसे पाने के लिए सारा संसार दौड़ा जा रहा है; जन्मों—जन्मों की यात्रा चल रही है ,. अनंत की खोज चल रही है, अनंत से चल रही है—उसे पाकर भी, उस सिंहासन पर विराजमान हो कर भी योगी में हर्ष का भी पता नहीं होता। वह वहा भी साक्षी बना रहता है। उसका साक्षी— भाव वहां भी नहीं खोता। जरा भी तरंग उठती नहीं। आकाश उसका कोरा का कोरा रहता है। न दुख के बादल, न सुख के बादल—बादल घिरते ही नहीं।

‘उस पद को जानने वाले के अंतःकरण का स्पर्श वैसे ही पुण्य और पाप के साथ नहीं होता है, जैसे आकाश का संबंध भासता हुआ भी धुएं के साथ नहीं होता। ‘

तुमने देखा, चूल्हा जलाते हो, धुआं उठता है। धुआं आकाश में फैलता है, लेकिन आकाश को गंदा नहीं कर पाता, न छूता। इतने बादल उठते हैं, सब धुआं हैं; फिर—फिर खो जाते हैं। कितनी बार बादल उठे हैं और कितनी बार खो गये हैं—आकाश तो जरा भी मलिन नहीं हुआ। न तो शुभ्र बादलों से स्वच्छ होता है, न काले बादलों से मलिन होता है।

जनक कहते हैं ‘उस पद को जानने वाले का अएंतःकरण ऐसे ही हो जाता है जैसे आकाश।’

तन्दास्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो हयन्तर्न जायते।

न हयकाशस्य धूमेन दृश्यमानोऽपि संगति:

जैसे धुएं के संग से आकाश अछूता, कुआरा बना रहता—अस्पर्शित—वैसे ही ज्ञानी के साक्षी— भाव का आकाश किसी भी चीज से धूमिल नहीं होता। उसकी प्रभा, वह भीतर की ज्योति धूम—रहित जलती है। न महल उसे अमीर करते और न झोपड़े उसे गरीब करते। न सिंहासनों पर बैठ कर स्वर्ण उसे छूता; न मार्गों पर भिखारी की तरह भटक कर दीनता उसे छूती।

‘जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा के अनुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?’

बड़ा अनूठा सूत्र है अब।

हि आकाशस्य संगति: दृश्यमाना अपि धूमेन न।

‘आकाश जैसा हो गया जो, धुआं जिसे अब छूता नहीं…। ‘

‘जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है.। ‘

‘मैं’ मिटा कि फिर भेद न रहा। जैसे मकान के आसपास तुम बागुड़ लगा लेते हो, तो पड़ोसी से भिन्न हो गये। फिर बागुड़ हटा दी, बागुड़ जला दी—जमीन तो सदा एक ही थी, बीच की बागुड़ लगा रखी थी, वह हटा दी, तो तत्‍क्षण तुम सारी पृथ्वी के साथ एक हो गये।

‘मैं’ की बागुड़ है। ‘मैं’ की हमने एक सीमा खींच रखी है अपने चारों तरफ, एक लक्ष्मण—रेखा खींच रखी है, जिसके बाहर हम नहीं जाते और न हम किसी को भीतर घुसने देते हैं। जिस दिन तुम इस लक्ष्मण—रेखा को मिटा देते हो—न फिर कुछ बाहर है, न कुछ फिर भीतर है, बाहर और भीतर एक हुए। बाहर भीतर हुआ, भीतर बाहर हुआ। तुमने मकान बना लिया है; ईंट की दीवालें उठा लीं, तो आकाश बाहर रह गया, कुछ आकाश भीतर रह गया। किसी दिन दीवालें तुमने गिरा दीं, तो फिर जो भीतर का आकाश है, भीतर न कह सकोगे उसे; जो बाहर का है, उसे बाहर न कह सकोगे। बाहर और भीतर तो दीवाल के संदर्भ में सार्थक थे। अब दीवाल ही गिर गयी तो बाहर क्या? भीतर क्या? कैसे कहो बाहर? कैसे कहो भीतर? दीवाल के गिरते ही बाहर— भीतर भी गिर गया। एक ही बचा। ‘जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा के अनुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?’

आत्मवेदं जगत्सर्वं ज्ञात येन महात्मना।

यदृच्छया वर्तमान तं निषेद्धुं क्षमेत क:।।

किसकी क्षमता है? कैसे कोई रोकेगा?

जनक के इस सूत्र को बहुत गहराई में समझना। जनक का यही उत्तर है। जनक कह रहे हैं. अब कौन रोके? जब मैं एक हो गया तो अब कौन रोके? जो हो रहा है, हो रहा है। जो होगा, होगा। अब रोकने वाला न रहा। अब तो ‘यदृच्छया’। अब तो भाग्य! अब तो विधि। अब तो परमात्मा या जो भी नाम दो। अब तो ‘वह’ जो कराये, होगा। अब तो अपने किये कुछ न होगा। हम तो रहे नहीं। हम तो गये। तब तो जो होगा, उसे देखेंगे। महल में रखवायेगा तो महल में रहेंगे। महल छीन लेगा, तो महल को छीनता हुआ देखेंगे।

ऐसी जनक के जीवन में कथा है कि एक गुरु ने अपने शिष्य को बहुत वर्षों तक मेहनत करने के बाद भी जब देखा कि कोई गति नहीं हो रही है समाधि में, तो कहा कि तू जनक के पास चला जा। अब जिसकी गति समाधि में नहीं हो रही थी, जाहिर है कि बडा अहंकारी रहा होगा। उसने कहा : मैं, और जनक के पास जाऊं? और जनक मुझे क्या सिखायेंगे? खुद ही तो पहले सीखें, पहले त्याग तो करें! महलों में रहते हैं; राग—रंग में जीते हैं—मुझे क्या खाक सिखायेंगे? मगर आप कहते हैं तो चला जाता हूं। गुरु— आज्ञा है, इसलिए चला जाता हूं।

गया तो, लेकिन गया नहीं। मजबूरी जैसा गया। विवशता में गया। माननी है आज्ञा, सो पूरी कर देनी है। गुरु ने कहा तो जाओ। गया, लेकिन अकड़ थी।

जब पहुंचा जनक के दरबार में तो वहा तो राग—रंग चल रहा था, संगीत उठ रहा था। नर्तकियां नाच रही थीं। शराब के प्याले ढाले जा रहे थे, दरबारी मस्त हो रहे थे। बीच में बैठे थे जनक। वह हंसा। अपने मन में उसने कहा कि मैं पहले ही जानता था। अभी इसको खुद ही बोध नहीं है। अब यह बैठा यहां क्या कर रहा है? और अगर यह ज्ञानी है, तो फिर अज्ञानी कौन है? और अगर इससे मुझे सीखना है. हालत तो उलटी मालूम होती है : इसको तो मैं ही सिखा सकता हूं कुछ।

जनक उठा। ब्राह्मण देवता आये थे तो उन्होंने उसके पैर पड़े और कहा कि आप विश्राम करें; सुबह विश्राम के बाद अपनी जिज्ञासा प्रगट करना।

उसने कहा, खाक जिज्ञासा! तुमने अपने को समझा क्या है? कैसी जिज्ञासा? तुमसे जिज्ञासा करूंगा?

उसने कहा कि नहीं, आपकी मर्जी, करना हो करें न करें; लेकिन अभी तो विश्राम कर लें, भोजन करें।

भोजन और विश्राम की व्यवस्था करवा दी। जनक को दिखायी तो पड़ गया सीधा—सीधा कि इस आदमी की अड़चन क्या है; इसके गुरु ने क्यों इसे भेजा है? यह भोग से तो छूट गया था, यह त्यागी हो गया था। और भोगी को तो ध्यान में ले जाना कठिन है ही, त्यागी को महा कठिन है। ध्यान में ले जाने में जो अहंकार बाधा है, वह त्यागी के पास तो और भी मजबूत हो जाता है—ठीक इस्पात का हो जाता है। त्यागी का अहंकार तो स्टैलिन हो जाता है। स्टैलिन का नाम स्टील से बना है। तो वह तो बिलकुल स्टैलिन हो जाता है। उसको तो झुकाना मुश्किल!

देख तो लिया जनक ने। पैर धोये त्यागी के। त्यागी तो और भी अकड़ा। उसने कहा, ‘मैं पहले ही जानता था कि यह मूढ़ मुझे क्या समझायेगा! मेरे पैर धो रहा है! यह खुद ही मुझसे सीखने को उत्सुक हो रहा है। सुबह यही जिज्ञासा करेगा। ‘ तो वह ज्ञान से सोया। वह थोड़ी—सी चिंता थी मन में, वह भी गयी कि किसी से कुछ सीखना पड़ेगा। सिखाने का मजा अहंकार को बहुत है। सीखने के लिए अहंकार बिलकुल राजी नहीं है। गुरु होने का मौका मिले तो अहंकार तत्‍क्षण होने को तैयार है।

शिष्य बनने में बड़ी अड़चन है, बड़ी कठिनाई है।

सुबह हुई। जनक ने उसे द्वार पर आ कर जगाया और कहा कि चलें स्नान को। पीछे बहती है नदी, वहा हम स्नान कर लें।

वे दोनों स्नान को गये। त्यागी के पास तो सिवाय लंगोटी के कुछ भी न था। दो लंगोटिया थीं। तो एक लंगोटी तो वह किनारे पर रख गया और एक लंगोटी वह पहने था, तो नदी में गया। जनक भी उसके साथ—साथ गये। जब वे दोनों नदी में स्नान कर रहे थे, तभी वह त्यागी चिल्लाया. अरे जनक, तेरे महल में आग लगी! सारा महल धू—धू कर जल रहा है।

जनक ने कहा. मेरा महल क्या? महल में आग लगी है, इतना ही कहो। अपना क्या! न ले कर आये थे, न ले कर जायेंगे।

उसने कहा. तू जान, तेरा महल, मेरी लंगोटी…! वह भागा, क्योंकि वह महल की दीवाल के पास ही लंगोटी रखी है।

बाद में जनक ने उसे कहा : सोच, यह महल धू— धू कर जल रहा है और मैं कहता हूं कि मैं बिना महल के आया था, बिना महल के जाऊंगा। इसलिए अब महल रहे कि जले, क्या फर्क पड़ता है? देखता हूं! लेकिन तू अपनी छोटी—सी लंगोटी का भी द्रष्टा न हो सका। तो सवाल यह नहीं है कि कितनी बड़ी संपदा तुम्हारे पास है, करोड़ की है या एक कौड़ी की है—सवाल यह है कि उस संपदा के प्रति तुम्हारा भाव क्या है, भोक्ता का है कि साक्षी का है?

यह आग, कहते हैं, जनक ने लगवायी थी। यह उपदेश था जनक का उस नासमझ त्यागी को। ‘जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा के अनसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?’

कौन रोकेगा? कोई बचा नहीं! जनक यह कह रहे हैं कि मैं तो अब हूं नहीं। परीक्षा गुरुदेव आप किसकी लेते हैं? जिसकी परीक्षा ली जा सकती थी, वह जा चुका। आप मुझे यह भी नहीं कह सकते कि तू ऐसा क्यों करता है, वैसा क्यों नहीं करता? क्योंकि अब नियंत्रण कौन करे? मैं तो रहा नहीं—अब तो जो होता है, होता है।

यह परम अवस्था की बात है।

तुमने देखा, छोटे बच्चों को पाप नहीं लगता, अदालत में जुर्म नहीं लगता, अपराध नहीं लगता; क्योंकि उन्हें बोध नहीं है। पागलों को भी अपराध नहीं लगता, क्योंकि उन्हें बोध नहीं है। बुद्धों को भी अपराध नहीं लगता, क्योंकि वे बोध के पार चले गये। उलझन बीच में खड़े आदमी की है। न तो नीचे पाप है, न ऊपर पाप है। जानवरों को तो तुम पापी नहीं कह सकते, क्योंकि पापी होने के लिए बोध तो चाहिए। लेकिन बुद्ध को भी तुम पापी नहीं कह सकते; क्योंकि बोध इतना है कि साक्षी हो गये, कर्ता का भाव ही न रहा।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन—सर्दी के दिन थे—अपने घर के बाहर बैठा धूप ले रहा है। उसका बेटा होमवर्क कर रहा है; वह उसके कान मरोड़ रहा है, उसे गालियां दे रहा है। वह उससे कह रहा है. हरामजादे! किस नालायक ने तुझे पैदा किया? अरे उल्लू के पट्ठे!

पड़ोस में पंडित रहते हैं एक, उन्होंने सुना। यह हद हो गयी। यह गालियां अपने को ही दे रहा

है! उल्लू के पट्टे का मतलब हुआ कि तुम खुद ही उल्लू हो। तब तो उल्लू का पट्टा!

‘किस नालायक ने तुझे पैदा किया! हरामजादे!’

उसने सोचा, पंडित ने, वह भी बैठा धूप ले रहा है। उससे न रहा गया। उसने कहा कि मुल्ला, तुम यह सोचो तो, ये गालियां किसको लगती हैं? मुल्ला ने कहा. जो साला गालियों को समझता है, उसी को लगती हैं! मैं तो समझता नहीं और यह तो उल्लू का पट्टा है, यह क्या खाक समझेगा! आप ही समझो! जो समझता है, उसी को लगती हैं।

कहते हैं, पंडित जल्दी से उठ कर घर के अंदर चला गया। उसने कहा कि झंझट.. हम इस झंझट में क्यों पड़े?

एक तो बच्चे हैं, पागल हैं; पशु—पक्षी हैं, पौधे हैं—वहा कुछ पाप नहीं है, क्योंकि वहां कोई समझ नहीं है। फिर बुद्धपुरुष हैं, अष्टावक्र हैं, जीसस हैं, महावीर हैं—वहां बोध इतना सघन हुआ है कि कर्ता का भाव नहीं रहा। इन दोनों को कोई पाप नहीं है। पाप तो बीच में पंडितो को है, जो समझते हैं। तुम समझते हो कि तुमने किया, इसलिए तुम पापी हो जाते हो। तुम समझते हो कि तुमने किया, इसलिए तुम पुण्यात्मा हो जाते हो। हम समझते हो तुमने किया—इसलिए भोगी। तुम समझते हो तुमने किया—इसलिए त्यागी। जिस दिन तुम समझोगे तुमने कुछ किया ही नही—जो हो रहा है, हो रहा है; तुम सिर्फ देखने वाले हो—उस दिन न पाप है न पुण्य है; न योग है न भोग है।

इसलिए अष्टावक्र परम योग की बात कह रहे हैं। यह योग के भी पार जाने वाली बात है। ऐसी अवस्था में न तो कोई विधि रह जाती है, न कोई निषेध रह जाता है।

जनक कहने लगे.

आत्यवेदं जगत्सर्वं ज्ञात येन महात्मना।

‘जिन महात्माओं ने अपने को जगत के साथ एक समझ लिया, जान लिया.। ‘

यदृच्छया वर्तमान तं निषेद्धुं क्षमेत क।

‘.. अब वे कैसे रोकें, क्या रोकें, क्या बदलें?’

बदलाहट की आकांक्षा भी अहंकार की ही आकांक्षा है। साधना भी अहंकार का ही आयोजन है। अनुष्ठान भी अहंकार की ही प्रक्रिया है। इसलिए तो जनक ने कहा कि आप ही तो कहे कि अधिष्ठान, अनुष्ठान, आधार, आश्रय सब बाधाएं हैं। करने को कुछ बचा नहीं, क्योंकि कर्ता नहीं बचा। इसका यह अर्थ नहीं कि कर्म नहीं बचा। कर्म तो चलेगा। कर्म की तो अपनी धारा है। शरीर को भूख लगेगी, शरीर भोजन मांगेगा। इतना ही फर्क होगा अब कि तुम जाग कर देखते रहोगे कि शरीर को भूख लगी है, शरीर को भोजन दे दो। मगर भूख भी शरीर की है, भोजन से आने वाली तृप्ति भी शरीर की है। तुम भूख के भी द्रष्टा हो, तुम तृप्ति के भी द्रष्टा हो, तुम हर हालत में द्रष्टा हो। कर्म तो जारी रहेगा। कर्म तो विधि है, भाग्य है। कर्म तो समस्त का है, व्यक्ति का नहीं है—समष्टि का है। वह परमात्मा चल रहा है। हजार—हजार कृत्य चल रहे हैं। वह तुमसे जो भी काम लेना चाहता है, लेता रहेगा। लेकिन अब तुम जानते हो कि तुम कर्ता नहीं हो। तुम निमित्त मात्र हो। इस स्थिति में जनक कहते हैं. कौन रोके, कैसे रोके, रोकने वाला कौन है, कौन नियंत्रण करे, कौन साधना करे, कौन अनुशासन दे? ‘जिस महात्मा ने संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया, उस वर्तमान ज्ञानी को..।’

यह शब्द भी खयाल करना—कहते हैं, ‘वर्तमान ज्ञानी’ को। ज्ञानी अतीत में नहीं होता है और न ज्ञानी भविष्य में होता है। ज्ञान की घटना तो वर्तमान की घटना है। या तो अभी या कभी नहीं। ज्ञान जब भी घटता है ‘ अभी’ घटता है। क्योंकि अभी ही अस्तित्व है। जो जा चुका, जा चुका। जो आया नहीं आया नहीं। इन दोनों के मध्य में जो पतली—सी धार है, बड़ी महीन धार है—जीवन—चेतना की, अस्तित्व की—वहीं ज्ञान घटता है। वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा से जीना होता है—स्वत स्फुरणा। वह ‘सर्व’ से आती है स्फुरणा। उसके लिए हम पैदा नहीं करते, न हम नियंत्रण करते हैं। न हम उसके जन्मदाता हैं, न हम उसके नियंत्रक हैं। वह स्फुरणा आती है।

पक्षी गीत गा रहे हैं। वृक्षों में फूल लग रहे हैं। यह सब स्वत: हो रहा है। यह स्फुरणा जागतिक है। वृक्षों को कोई अहंकार नहीं है। वृक्ष ऐसा नहीं कहते कि हम फूल खिला रहे हैं। ऐसी ही अवस्था फिर आ जाती है जब वर्तुल पूरा होता है और व्यक्ति बुद्धत्व को, अरिहंतत्व को उपलब्ध होता है, तब फिर ऐसी दशा आ जाती है।

तुम बुद्ध से पूछो कि आप चल रहे हैं? बुद्ध कहेंगे कि नहीं, मैं तो हूं ही नहीं, चलूंगा कैसे? वही चल रहा है, जो सब में चल रहा है। जो फूल की तरह खिल रहा है, जो नदी की धार की तरह बह रहा है, जो पक्षी की तरह आकाश में उड़ रहा है, जो आकाश की तरह फैलता चला गया है अनंत तक—वही चल रहा है।

पूछो बुद्ध से, आप बोल रहे हैं? वे कहेंगे कि नहीं, वही बोल रहा है।

हम तो बांस की पोगरी—कबीर ने कहा। वह जो गाता है, उसे हम प्रगट कर देते हैं, मार्ग दे देते हैं; रुकावट नहीं डालते। हम तो निमित्त मात्र हैं।

वर्तमान ज्ञानी. वर्तमान के क्षण में जिसका साक्षी जागा हुआ है।

तुम देखो, चाहो तो इसे अभी देख सकते हो, कोई रुकावट नहीं है। तुम साक्षी होकर अभी देख सकते हो। चीजें तो चलती रहेंगी। शरीर है तो भूख लगेगी। शरीर है तो प्यास लगेगी। धूप पड़ेगी तो गर्मी लगेगी। शीत बढ़ जायेगी तो सर्दी लगेगी। भोजन डाल दोगे शरीर में तो तृप्ति हो जायेगी। गर्म कपड़े पहन लोगे, शीत मिट जायेगी। धूप से हट कर छाया में बैठ जाओगे, धूप मिट जायेगी। कर्म तो जारी रहेगा, सिर्फ कर्ता नहीं रह जायेगा भीतर। तुम ऐसा न कहोगे कि मैं परेशान हो रहा, कि मैं पीडित हो रहा, कि मुझे भूख लगी। तुम इतना ही कहोगे, अब शरीर को भूख लगी; अब चलो इसे कुछ दें।

और शरीर को भूख लगी है, इसमें तुम्हारा कुछ. भी हाथ नहीं है। प्रकृति ही शरीर में भूखी हो रही है। और अगर धूप में बैठ कर शरीर को धूप लग रही है तो परमात्मा ही तप रहा है —तुम्हारा इसमें क्या है? अब अगर तुम जबर्दस्ती बिठा कर इसको धूप में तपाओ तो यह अहंकार का लौटना हो गया। तुम कहो कि हम तो तपायेंगे, क्योंकि हम त्यागी हैं, तपायेंगे नहीं तो तपश्चर्या कैसे होगी, तो हम तो बैठ कर तपायेंगे—तो तुम नियंत्रण की तरह बीच में आ गये। तब जो हो रहा था, तुमने उसे होने न दिया। अगर तुम स्वभावत: होने देते, तो शरीर खुद ही उठता।

तुम इसे करके देखो। तुम इसमें जरा बह कर देखो। तुम चकित हो जाओगे। तुम धूप में बैठे हो, धूप लग रही है—तुम सिर्फ देखते रहो। तुम अचानक देखोगे, शरीर उठ कर खड़ा हो गया। शरीर

चला छाया की तरफ। तुम कहोगे कि हम न चलायेंगे तो कैसे चलेगा? तुम फिर गलत बात कह रहे हो। तुम्हें पता ही नहीं। तुमने कभी प्रयोग नहीं किया। भूख लगी, शरीर चला रेफ्रिजरेटर की तरफ। तुम सिर्फ देख रहे हो। तुम न रोकना, न चलाना। यह परम सूत्र है. स्फुरणा से जीना। जो हो उसे होने देना। न शुभ—अशुभ का निर्णय करना। —. तुम हो कौन? न पाप—पुण्य का हिसाब रखना। जो होता रहे, जो होता जाये—उसके साथ बहते चले जाना।

‘ब्रह्मा से चींटी पर्यंत चार प्रकार के जीवों के समूह में ज्ञानी को ही इच्छा और अनिच्छा को रोकने में निश्चित सामर्थ्य है। ‘

इच्छा और अनिच्छा दोनों ही ज्ञानी की रुक जाती हैं; भोग—त्याग, दोनों। इच्छा यानी भोग, अनिच्छा यानी त्याग। पसंद—नापसंद दोनों रुक जाती हैं। क्योंकि ज्ञानी कहता, हमारा चुनाव ही कुछ नहीं है। जो होगा, जो स्वभावत: होगा, हम उसे देखते रहेंगे। हम उसे होने देंगे। हम न उसे झुकायेंगे इस तरफ, न उस तरफ। जो स्वभावत: होगा, हम उसे होने देंगे।

यह बात तो सुनो। यह बात तो गुनो। इस बात को जरा तुम्हारे हृदय पर तो फैलने दो। जरा प्राणों में इस बात का प्रकाश तो पहुंचने दो। तुम पाओगे यह बड़ी मुक्तिदायी बात है। जो होगा होने देंगे। हम कुछ भी ना—नुच न करेंगे।

भोगी कहता है और भोग चाहिए। भूख खत्म हो गयी तो भी खाये चला जाता है। शरीर तो कहता है. रुको अब! शरीर की स्फुरणा कहती है : बस हो गया, अब मत खाओ। लेकिन भोगी और खाये चला जाता है।

भोजन में भोग नहीं है, जब शरीर कहता है नहीं और तुम खाये चले जाते हो, तब भोग है। फिर त्यागी है; शरीर तो कहता है भूख लगी है, और त्यागी कहता है, हमने उपवास किया है। ये पर्युषण चल रहे हैं। हम उपवासी हैं, हम नहीं खा सकते! मांगते रहो, चिल्लाते रहो।

शरीर को जब भूख लगी, वह तो नैसर्गिक है। अब तुम जो जबर्दस्ती कर रहे हो, वही अहंकार आ रहा है। जबर्दस्ती में अहंकार है। हिंसा में अहंकार है।

हिंसा दो तरह की है : भोगी की और त्यागी की। लोग मुझसे आ कर पूछते हैं : आप अपने संन्यासियों को त्याग क्यों नहीं सिखाते?. बडा मुश्किल है! मैं अपने संन्यासियों को सहजता सिखाता हूं न भोग न त्याग। उतना खाओ जितना सहज शरीर की स्फुरणा मांगती है। उतना सोओ जितनी सहज शरीर की स्फुरणा कहती है। उतना श्रम करो, उतना बोलो, उतना चुप रहो—जितना सहज होता है। असहज मत होने दो। जहां असहज हुए, वहीं संतुलन खोया, संन्यास गंवाया।

दो तरह से संन्यास गंवा सकते हो। संन्यास का अर्थ ही संतुलन है; सम्यक न्यास; ठीक—ठीक बीच में ठहर जाना; न इस तरफ न उस तरफ। त्यागी संन्यासी है ही नही—हो ही नहीं सकता; उसी तरह नहीं हो सकता जैसे भोगी संन्यासी नहीं हो सकता। दोनों झुक गये हैं। संन्यासी तो बीच में खड़ा है। सहजता उसका अनुशासन है। परमात्म—स्फूर्ति एकमात्र उसके जीवन की व्यवस्था है। वही उसकी विधि है।

इसलिए झेन फकीर बोकोजू ने कहा—जब किसी ने पूछा, आप करते क्या हो? तुम्हारी साधना क्या है? —कहा कि जब भूख लगती, भोजन कर लेता; जब नींद आती तो सो जाता। पूछने वाला

चौंका होगा। पूछने वाले ने कहा : यह भी कोई बात हुई? यह तो हम सभी करते हैं। यह तो कोई भी करता है। यह कौन सी बड़ी बात हुई।

बोकोजू हंसने लगा। उसने कहा कि मैंने तो अभी तक मुश्किल से इने —गिने लोग देखे हैं जो यह करते हैं। जब भूख लगती तब तुम खाते नहीं या ज्यादा खा लेते हो। जब नींद आती है, तब तुम सोते नहीं या ज्यादा सो जाते हो। या तो कम या ज्यादा। कम यानी त्याग, ज्यादा यानी भोग। ठीक—ठीक सम्यक—यानी संन्यास; उतना ही जितना सहज हो पाता है।

सहज के सूत्र को पकड़ कर चलते रहो, मोक्ष दूर नहीं है। सहज के सूत्र को पकड़ कर चलते रहो, समाधि दूर नहीं है। साधो, सहज समाधि भली!

वह जो कबीर ने सहज समाधि कही है, उसकी ही बात जनक कह रहे हैं, अपने गुरु के सामने निवेदन कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि समझ गया। आप मुझे उकसाओ, उकसा न सकोगे। क्योंकि बात सच्ची घट गयी है, मुझे दिखायी ही पड़ गया। अब आप लाख इधर—उधर से घुमाओ, आप मुझे धोखे में न डाल सकोगे। अब तो मुझे दिख गया कि मैं साक्षी हूं और जो स्फुरणा से होता है, होता है। न तो मैं उसे रोकने वाला, न मैं उसे लाने वाला। मेरा कुछ लेना—देना नहीं है। मैं दूर खडा हो गया हूं। भूख लगती है, खा लूंगा। नींद आ जायेगी, सो जाऊंगा।

बोकोजू से किसी ने और एक बार पूछा कि जब तुम ज्ञान को उपलब्ध न हुए थे, तब तुम्हारी जीवन—चर्या क्या थी? तो उसने कहा कि तब मैं गुरु के आश्रम में रहता था; जंगल से लकड़ियां काटता था और कुएं से पानी भर कर लाता था। फिर उसने पूछा. अब? अब जब कि तुम स्वयं गुरु हो गये और तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये—तुम्हारी जीवन—चर्या क्या है?

बोकोजू ने कहा. वही, जंगल से लकड़ी काट कर लाता हूं; कुएं से पानी भर कर लाता हूं। उस आदमी ने कहा हद हो गयी! फिर फर्क क्या हुआ? बोकोजू ने कहा : फर्क भीतर हुआ है, बाहर नहीं हुआ। फर्क मुझे पता है या मेरे गुरु को पता है। काम में फर्क नहीं हुआ है। ध्यान में फर्क हुआ है। कृत्य तो वैसा का वैसा ही है। लकड़ी अब भी काट कर लाता हूं लेकिन अब मैं कर्ता नहीं हूं। पानी अब भी भर कर लाता हूं, लेकिन अब मैं कर्ता नहीं हूं। मैं साक्षी ही बना रहता हूं। कृत्य चलते चले जाते हैं। कृत्यों के पार एक नये भाव और एक नये बोध का उदय हुआ है। एक नया सूरज चमका है!

विज्ञस्य एव इच्छानिच्छा विवर्जने हि सामर्थ्यम्!

कहते हैं : ज्ञानी की बस एक ही सामर्थ्य है कि वह इच्छा और अनिच्छा दोनों से मुक्त हो जाता है। वह न तो कहता, ऐसा हो; और न कहता है, ऐसा नहीं हो। वह कहता है, जैसा हो मैं राजी। जैसा भी हो, मैं देखता रहूंगा। मैं तो द्रष्टा हूं —तो कैसा भी हो, फर्क क्या पड़ता है? हार हो तो ठीक, जीत हो तो ठीक। हार, तो तेरी; जीत, तो तेरी। सफलता, तो तेरी, असफलता, तो तेरी। अब मैं देखता रहूंगा। जीवन को देखूंगा, मृत्यु को भी देखूंगा।

एक बार साक्षी उठ जाये, तो सारा जीवन रूपांतरित हो जाता है। प्रभु—मर्जी!

जीसस सूली पर लटके हैं, आखिरी क्षण कहने लगे ‘हे प्रभु, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? क्या तूने मेरा साथ छोड़ दिया?’ लेकिन चौंके; खुद की ही बात समझ में आयी कि यह मैंने क्या कह

दिया, शिकायत हो गयी! यह तो यह हो गया कहने का मतलब कि मेरी मर्जी तू पूरी नहीं कर रहा है। यह तो मेरी मर्जी को मैंने ऊपर रख दिया और प्रभु की मर्जी को नीचे रख दिया। यह तो मैंने उसे सलाह दे दी। यह तो मैंने ‘सर्व’ को नियंत्रण करने की चेष्टा कर ली।

तो कहा कि नहीं—नहीं, क्षमा कर! क्षमा कर दे, भूल हो गयी। तेरी मर्जी पूरी हो! मुझे तो भूल ही जा। मेरी बात को ध्यान में मत रखना। बस तेरी मर्जी पूरी हो! प्रभु—मर्जी!

प्रभु —मर्जी—अगर प्रभु शब्द का उपयोग तुम्हें रुचिकर लगता हो। अरुचिकर लगता हों—कोई जरूरत नहीं है, शब्द ही है। सवेंच्छा—कहो ‘सर्व की इच्छा’। समग्र—इच्छा—समग्र की, इच्छा। अस्तित्व की मर्जी। जो तुम्हें कहना हो। इतनी ही बात खयाल रखो कि व्यक्ति की मर्जी नहीं, समष्टि की। जब तक व्यक्ति की मर्जी से जीते हों—संसार। जब समष्टि की मर्जी से जीने लगे तो मोक्ष। मोक्ष यानी स्वयं से मोक्ष। जो है, है। जो हो, हो। इसमें मैं बीच में न आऊं। जो दृश्य देखने को मिले, देख लेंगे—मरुस्थल तो मरुस्थल, मरूद्यान तो मरूद्यान। इसमें मैं बीच में न आऊंगा। जो हो, हो; जो है, है। अन्यथा की चाह नहीं। इच्छा— अनिच्छा के विवर्जन का यही अर्थ है. न विधि न निषेध। विधि— निषेध का कंकर नहीं है ज्ञानी; गुलाम नहीं है। ज्ञानी किसी अनुशासन को नहीं जानता—सर्वानुशासन में लीन हो जाता है।

‘कोई ही आत्मा को अद्वय और जगदीश्वर—रूप में जानता है..। ‘

‘कोई ही कभी विरला, आत्मा को अद्वय और जगदीश्वर—रूप में जानता है। वह जिसे करने योग्य मानता है, उसे करता है। उसे कहीं भी भय नहीं है। ‘

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम्।

यद्वेति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्।।

समझो, कभी कोई विरला ऐसी महंत घड़ी को उपलब्ध होता है जहां बूंद को सागर में लीन कर देता है; जहां अहं को शून्य में डुबा देता है, जहां सीमा को असीम में डुबा देता है! कोई विरला, कभी! धन्यभागी है वैसा विरला पुरुष! होना तो सभी को चाहिए, लेकिन हम होने नहीं देते। हम अड़ंगे डालते रहते हैं। होना तो सभी को चाहिए। सभी का स्वभाव—सिद्ध अधिकार है। लेकिन हम हजार अड़चनें खड़ी करते हैं, हम होने नहीं देते।

यह बड़े मजे की बात है, तुम चकित होओगे सुन कर कि तुम जो चाहते हो, वही तुम होने नहीं देते। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है। तुम आनंद चाहते हो और आनंद होने नहीं देते! क्योंकि आनंद हो सकता है सहजता में। तुम स्वतंत्रता चाहते हो, स्वतंत्रता होने नहीं देते। क्योंकि स्वतंत्रता हो सकती है केवल सर्व की स्फुरणा के साथ एक हो जाने में। तुम चिंता नहीं चाहते, दुख नहीं चाहते; लेकिन तुम बनाये चले जाते हो। क्योंकि चिंता और दुख है संघर्ष में।

समर्पण में फिर कोई चिंता और दुख नहीं है। बहो धार के साथ। यह गंगा जाती है सागर को—तुम इसी के साथ बह चलो! इसमें पतवार भी चलाने की कोई जरूरत नहीं है—छोड़ दो नाव को! तोड़ दो पतवार को! यह गंगा जा ही रही है सागर। धार के विपरीत मत बहो। गंगोत्री जाने की चेष्टा मत करो। अन्यथा तुम टूटोगे; दुखी और परेशान हो जाओगे।

जो भी प्रकृति से प्रतिकूल जाता है वही टूटता है; नहीं कि प्रकृति उसे तोड़ती—अपने प्रतिकूल

जाने से ही टूटता है। जो प्रकृति के अनुकूल जाता है, उसके टूटने का कोई उपाय नहीं।

जो संघर्ष ही नहीं करता, वह हारेगा कैसे? जो विजय की आकांक्षा ही नहीं करता, उसकी कोई पराजय नहीं। छोड़ो अपने को, जाती यह गंगा—चलो, बह चलो इस पर।

हिंदुओं ने अपने सारे तीर्थ नदियों के किनारे बनाये; बहुत कारणों में एक कारण यह भी है—ताकि नदी सामने रहे! बहती, सागर की तरफ जाती नदी का स्मरण रहे। और यह भाव कभी न भूले कि हमें अपने को छोड़ देना है—नदी की भांति।

नदी कुछ भी तो नहीं करती, सिर्फ बही चली जाती है। बहने में कोई प्रयास भी नहीं है, चेष्टा भी नहीं है। कोई नक्‍शा भी ले कर नदी नहीं चलती। गंगा जब निकलती है गंगोत्री से, कोई नक्‍शा पास नहीं होता कि सागर कहां है। बिना नक्‍शे के सागर पहुंच जाती है। सभी नदियां पहुंच जाती हैं! नदियां तो छोड़ो, छोटे—छोटे झरने, नदी—नाले, वे भी सब पहुंच जाते हैं। खोज लेते हैं मार्ग—बिना किसी शास्त्र के। एक तरकीब वे जानते हैं कि उलटे मत बहो, ऊंचाई की तरफ मत बहो। बहते रहो, जहां गड्डा मिल जाये, वहीं समाते जाओ।

स्वभाव पानी का नीचे की तरफ बहना है। बस इतने स्वभाव की बात नदी जानती है। नदी के किनारे बैठ कर हिंदू तपस्वियों ने, संन्यासियों ने, मनीषियों नें—कुछ भी नाम दो—एक ही सत्य जाना कि नदी जैसे बहने वाले हो जाओ, पहुंच ही जाओगे सागर। बहने वाले सदा पहुंच जाते हैं।

‘कोई कभी अद्वय और जगदीश्वर—रूप को जानता है.। ‘

जगदीश्वर—रूप को जानने के लिए तुम्हें अपना रूप खोना पड़े—उतनी शर्त पूरी करनी पड़े, उतना सौदा है! तुम अगर चाहो कि अपने को भी बचा लूं और प्रभु को भी जान लूं तो यह असंभव है, यह नहीं हो सकता। या तो अपने को बचा लो तो प्रभु खो जायेगा। या अपने को खो दो तो प्रभु बच जायेगा। अब तुम्हारी मर्जी! और जो अपने को खो कर प्रभु को बचा लेते हैं, तुम यह मत सोचना कि महंगा सौदा करते हैं। महंगा सौदा तो तुम कर रहे हो. अपने को बचा कर प्रभु को खो रहे हो। कंकड़ बचा लिया, हीरा खो दिया।

जिनको तुम ज्ञानी कहते हो, उन्होंने महंगा सौदा नहीं किया। वे बड़े होशियार हैं। उन्होंने कंकड़ छोड़ा और हीरा बचा लिया। तुम्हारे साथ सिवाय दुख और नर्क के है ही क्या? तुम हो, तो सिवाय पीड़ा और चिंता के है ही क्या? तुम तो काटे हो छाती में चुभे अपनी ही। इसे बचा—बचा कर क्या करोगे? इसको जो समर्पण कर देता है, वही कोई विरला..!

आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानति जगदीश्वरम्।

वही कभी, क्वचित, कोई जान पाता प्रभु को। और जो उसे जान लेता…

यद्वेति तत्स कुरुते।

फिर वह कुछ नहीं करता। फिर तो वह जिसे करने योग्य मानता है—वह, जिसमें तुमने अपने को समर्पित कर दिया—वह जिसे करने योग्य मानता है, वही करता है। फिर उसकी अपनी कोई मर्जी नहीं रह जाती।

यत् वेति तत् स कुरुते।

—वह तो वही करता है जो प्रभु करवाता है।

खूब जवाब दिया जनक ने। ठीक—ठीक जवाब दिया। अष्टावक्र नाचे होंगे हृदय में, प्रफुल्लित हुए होंगे! इसी जवाब की तलाश थी। इसी उत्तर की खोज थी।

तस्य भयम् कुत्रचित् न।

—और फिर ऐसे व्यक्ति को कहां भय है!

जिसने परमात्मा में अपने को छोड़ दिया, उसे कहां भय है! भय तो तभी तक है जब तक तुम लड़ रहे हो सर्व से। और भय स्वाभाविक है, क्योंकि सर्व के साथ तुम जीत सकते ही नहीं। तो भय बिलकुल स्वाभाविक है। मौत घटने ही वाली है। हार होने ही वाली है। तुम्हारी यात्रा पहले से ही पराजित है।

सर्व से लड़ कर कौन कब जीतेगा? अंश अंशी से लड़ कर कैसे जीतेगा? तो भयभीत है, कैप रहा है। जैसे छोटा—सा बच्चा अपने बाप से लड़ रहा है—कैसे जीतेगा? फिर वही छोटा बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़ लिया और बाप के साथ चल पड़ा—अब कैसे हारेगा?

परमात्मा के साथ अपने को एकस्वर, एकलीन, एक तान में बांध देने पर—फिर कैसा भय?

तस्य भयम् कुत्रचित् न!

शास्त्र कहते हैं : ‘ब्रह्मवित् ब्रह्मेव भवति—जों ब्रह्म को जानता, वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है। ‘ फिर कैसा भय है? जानते ही वही हो जाता है जो हम जानते हैं।

तुमने क्षुद्र को जाना तो क्षुद्र हो गये; विराट को जाना तो विराट हो जाओगे। तुम्हारा जानना ही तुम्हारा होना हो जाता है। ब्रह्मवित् ब्रह्मेव भवति! और शास्त्र यह भी कहते : ‘तरति शोकमात्मवित्। ‘ और जिसने स्वयं को जान लिया, वह समस्त शोकों के पार हो जाता है। फिर उसे कोई भय नहीं, दुख नहीं, पीड़ा नहीं।

सब दुख, सब पीड़ा, सब भय, सब नर्क अहंकार—केंद्रित हैं। अहंकार के बिना यह सब ऐसे ही बिखर जाता, जैसे ताश के पत्ते हवा के एक झोंके में गिर जाते हैं। ज्ञान का जरा—सा झोंका, साक्षी— भाव की जरा—सी हवा—और सब पत्ते बिखर जाते हैं।

जनक ने सीधा—सीधा उत्तर नहीं दिया। सीधा—सीधा उत्तर चाहा भी न गया था। जनक ने तो उत्तर भी बड़ा निवैंयक्तिक दिया और दूर खड़े हो कर दिया; जैसे कुछ परीक्षा उनकी नहीं हो रही है। क्योंकि जब तुम्हें खयाल हो जाये कि तुम्हारी परीक्षा हो रही है तो तनाव हो जाता है। तनाव हो जाता तो जनक परीक्षा में असफल हो जाते। बेचैन हो जाते बचाने को, सिद्ध करने को, तो गड़बड़ हो जाती। वे जरा भी बेचैन नहीं हैं, जरा भी चिंता नहीं है। वे दूर खड़े हो कर ऐसे देख लिये जैसे परीक्षा किसी और की हो रही है। जैसे जनक को कुछ लेना—देना नहीं है।

अनेक मित्रों ने प्रश्न पूछे हैं कि गुरु परीक्षा क्यों लेता है? क्या गुरु को इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह देख ले कि वस्तुत: शिष्य को हुआ या नहीं? गुरु तो सब जानता है, फिर परीक्षा क्यों लेता है?

परीक्षा सिर्फ परीक्षा ही नहीं है—परीक्षा आगे की प्रगति का उपाय भी है। ये जो प्रश्न पूछे अष्टावक्र ने, यह सिर्फ परीक्षा ही नहीं है। परीक्षा का तो मतलब होता है अब तक जो जाना उसको कसना है। अगर ये सिर्फ परीक्षा ही होती तो व्यर्थ थे। अब तक जो जाना वह तो अष्टावक्र को भी दिखायी पड़ रहा है। उसकी कोई परीक्षा नहीं है। लेकिन अब तक जो जाना उसके संबंध में प्रश्न उठा कर अब जो

प्रतिक्रिया भविष्य में यह जनक करेगा, वह आगे की प्रगति बनेगी। तो परीक्षा दोहरी है—अतीत के संबंध में, मगर वह गौण है। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। यह तो अष्टावक्र भी जान सकते हैं; सीधा ही जान रहे हैं कि क्या हुआ है—लेकिन जो हुआ है उसके संबंध में पूछ कर जनक जो प्रतिक्रिया करेगा, जो उत्तर देगा, उससे आगे के द्वार खुलेंगे।

दोनों संभावनाएं हैं। अगर जनक गलत उत्तर दें तो पीछे के द्वार बंद हो सकते हैं; जो खुलते— खुलते थे, वे फिर बंद हो सकते हैं। और अगर ठीक—ठीक उत्तर दे, तो जो द्वार खुले थे वे तो खुले ही रहेगे—और भी द्वार हैं, वे भी खुल जायेंगे। सब निर्भर करेगा जनक के उत्तर पर।

गुरु के सामने जनक को अब तक जो घटा है, वह तो साफ है; लेकिन जो घटेगा, वह तो किसी के लिए भी साफ नहीं है। जो घटेगा, वह तो अभी घटा नहीं है। भविष्य तो अभी शून्य में है, निराकार में है, अभी उसने आकार नहीं लिया। अतीत का तो सब पता है। अतीत का तो सब पता अष्टावक्र को जनक से भी ज्यादा है। जनक जितना अपने संबंध में बता सकेगा, अष्टावक्र उससे ज्यादा देख सकते हैं।

अष्टावक्र की दृष्टि निश्चित ही ज्यादा घिर और ज्यादा गहरी है। वे तो भीतर तक झांक कर देख लेंगे। उसका कोई सवाल भी नहीं है। अतीत से कुछ बड़ा सवाल नहीं है—सवाल है भविष्य से। भविष्य का कुछ पता नहीं है। एक क्षण बाद क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जीवन यंत्रवत नहीं है; जीवन परम स्वतंत्रता है। होते —होते बात रुक सकती है; घटते —घटते रुक सकती है। आदमी आखिरी क्षण से पहुंच कर लौट सकता है।

एक आदमी छलांग लगाने जा रहा था। मुझे बचपन में बहुत शौक था नदी पर ऊंचाई से कूदने का। जितनी ऊंचाई हो, उतना मुझे रस था। अब मेरे साथ जो मेरे मित्र थे, वे बड़े परेशान रहते थे। क्योंकि अगर मैं कूद जाऊं और वे न कूदे तो उनके अहंकार को चोट लगे। मगर कूदे तो उनके प्राण संकट में! तो कभी—कभी मैं देखता कि कोई हिम्मत करके दौड़ता है, मेरे साथ दौड़ रहा है कूदने के लिए—चालीस फीट या तीस फीट की ऊंचाई या पचास फीट की ऊंचाई। फिर धीरे— धीरे तो मुझे रस इतना आने लगा कि वह जो नदी के ऊपर रेलवे का पुल था, उससे जा कर मैं कूदने लगा। वह तो बहुत ही खतरनाक था। उस पर कोई मेरे साथ दौड़ कर आता— आता, आता— आता बिलकुल आखिर में; मैं तो कूद जाता, वे खड़े ही रह गये! अब बिलकुल आखिर पर आ गया था। कोई शक—शुबा न थी। मेरे साथ दौड़ा, किनारे पर आ गया था…।

एक बार तो ऐसा हुआ कि पंचमढ़ी में—मेरे गांव से थोड़े फासले पर पहाड़ी स्थान है—वहा के एक जलप्रपात में हम कूदने गये। तो मेरे एक मित्र थे, जो मेरे साथ बहुत जगह कूदे थे, काफी ऊंचाई थी, घबड़ा गये। कूद भी गये, लेकिन बीच में एक जड़ को पकड़ कर लटक गये। क्या करोगे? कूद भी गये! ऐसा भी नहीं कि न कूदे हों—कूद भी गये, लेकिन बीच में एक जड़ को पकड़ लिया। मैं जब पानी में नीचे पहुंच गया, डुबकी खा कर ऊपर आया तो मैंने कहा कि. अब यह बड़ा मुश्किल हो गया। उनको उतारना बड़ा मुश्किल हो गया।

जो हो गया है, वह तो अष्टावक्र देख सकते हैं; लेकिन जो अभी होने को है, उसका कोई उपाय नहीं है। भविष्य बिलकुल निराकार है! हो भी सकता है, न भी हो! तो इसको तुम परीक्षा ही मत

समझना, यह परीक्षा से भी ज्यादा। परीक्षा तो है ही—परीक्षा से भी ज्यादा, भविष्य की तरफ इंगित है। परीक्षा से भी ज्यादा, भविष्य को एक दिशा में लाने का उपाय है; भविष्य को एक रूप देने का उपाय है; भविष्य को जन्म देने का उपाय है।

और जनक ने जो उत्तर दिये हैं, वे निश्चित ही, साफ कहते हैं कि छलांग हो गयी—और होती रहेगी। जनक के उत्तर ने साफ कर दिया कि परीक्षा में तो वे पूरे उतरे, भविष्य की तरफ भी यात्रा साफ हो गयी है, नये द्वार खुल गये हैं।

गुरु जो भी करता है, ठीक ही करता है। तुम्हारे मन में ऐसे प्रश्न उठे कि क्या गुरु में इतनी सामर्थ्य नहीं कि वह जान ले। ऐसा प्रश्न अगर जनक के मन में भी उठता तो जनक चूक जाते। वे यह खुद भी कह सकते थे कि गुरुदेव, आप तो सर्वज्ञाता हैं; आप, और मेरी परीक्षा लेते हैं! अरे आप तो आंख खोल कर देख लो मुझमें! तो आप. खुद ही पता चल जायेगा।

नहीं, जनक ने वह भी न कहा। क्योंकि अगर गुरु परीक्षा लेते हैं तो परीक्षा में भी कोई राज होगा। कोई राज होगा, जिसका जनक को अभी पता ही नहीं। जनक ने चुपचाप परीक्षा स्वीकार कर ली। गुरु जितनी परीक्षाएं खड़ी करे, स्वीकार कर लेने में ही सार है। क्योंकि तुम जितना समझ सकते हो उतना ही तुम्हें समझाया जा सकता है। कुछ है, जो तुम्हें कराया जायेगा। यह परीक्षा तो एक सिचुएशन, एक स्थिति थी। गुरु ने तो एक स्थिति पैदा की। इस स्थिति में कैसा जनक प्रत्युत्तर लाते हैं, क्या प्रतिध्वनि होती है उनके भीतर—उस प्रतिध्वनि का एक मौका दिया। इससे अतीत का तो पता चल ही जायेगा, वह तो बिना इसके भी पता चल जाता—लेकिन इससे भविष्य भी सुनिश्चित होगा। एक रेखा निर्मित होगी, आयाम साफ होगा।

ऐसे प्रश्न एकाध मित्र ने नहीं, अनेकों ने पूछे हैं। मैंने उनके उत्तर अब तक नहीं दिये थे, क्योंकि मैं चाहता था जनक का उत्तर पहले तुम सुन लो।

जैसे मैंने ‘स्वभाव’ की पीछे चर्चा की। एक मित्र ने आ कर कहा कि आपने ऐसी बात की कि कहीं स्वभाव दुखी न हो जाये। मैंने कहा, दुखी हो जाये तो हुए अनुत्तीर्ण। ‘कि कहीं स्वभाव समझे न और नाराज न हो जाये; क्रुद्ध न हो जाये। ‘ क्रुद्ध हुए, तो फिर मैंने जो कहा कि हाथी तो निकल गया, पूंछ रह गयी—पूरा सिर तो उन्होंने घुटा लिया, चोटी रह गयी, तो हाथी तो निकल गया, पूंछ अटक गयी—तो फिर पूंछ के द्वारा पूरे स्वभाव अटक गये!

नहीं, लेकिन स्वभाव ने बुरा नहीं माना, न दुख लिया। समझने की चेष्टा की। ऐसी चेष्टा जारी रहे, तो हाथी तो निकल ही गया है, किसी दिन पूंछ भी निकल जायेगी। स्वभाव ने ठीक किया है।

हरि ओंम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र महागीता--(भाग--2) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–2) प्रवचन–5

$
0
0

क्रांति: निजी और वैयक्‍तिक—प्रवचन—पांचवां

दिनांक: 30 सितंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

 आप आज मौजूद हैं, तो भी मनुष्य नीचे और नीचे की ओर जा रहा है; जबकि बद्धों के आगमन पर मनुष्यता कोई शिखर छूने लगती है। हजारों आंखें आपकी ओर लगी हैं कि शायद आपके द्वारा फिर नवजागरण होगा और धर्म का जगत निर्मित होगा। कृपया बताएं कि यह विस्फोट कब और कैसे होगा? क्योंकि बदलना तो दूर, उलटे लोग आपका ही विरोध कर रहे हैं।

हली बात, मनुष्यता सदा ऐसी की ऐसी ही रही है। कुछ विरले मनुष्य बदलते हैं, मनुष्यता जरा भी नहीं

बदलती बाहर की स्थितियां बदलती हैं, व्यवस्थाएं बदलती हैं, भीतर मनुष्य वैसा का ही वैसा रहता है! तो पहले तो इस भ्रांति को छोड़ दो कि आज का मनुष्य पतित हो गया है।

सदा का मनुष्य ऐसा ही था। बुद्ध के समय में भी लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं बुद्ध से, कि आज का मनुष्य पतित हो गया है, आप कुछ करें। लाओत्सु से भी ऐसे ही प्रश्न, कन्‍फ्यूशियस से भी ऐसे ही प्रश्न। पुराने से पुराना शास्त्र खोज लें, पुराने से पुराना शास्त्र यही रोना रोता है कि मनुष्य पतित हो गया है।

बेबिलोन में छह हजार वर्ष पुरानी एक ईंट मिली है जिस पर शिलालेख है। उस शिलालेख में यही लिखा है कि आज के मनुष्य को क्या हो गया, पतित हो गया!

छह हजार साल पहले भी यही बात है। हर समय के आदमी ने ऐसा सोचा है कि आज का मनुष्य पतित हो गया है। इसके पीछे कुछ मनोवैज्ञानिक कारण हैं। अतीत के मनुष्यों का तो तुम्हें पता नहीं। उनके संबंध में तो तुम कुछ भी नहीं जानते। बुद्ध के संबंध में तो तुम कुछ जानते हो, लेकिन बुद्ध किन मनुष्यों के बीच जी रहे थे, उनके संबंध में तुम कुछ भी नहीं जानते हो। बुद्ध के संबंध में तो शास्त्र हैं, उनकी महिमा के गीत हैं, उनकी महिमा के गीत को तुम उस समय की मनुष्यता की महिमा मत समझ लेना। अगर सच में ही बुद्ध के समय के लोग ऊंचे होते तो बुद्ध की कौन फिक्र करता? अंधेरे काले बादलों में ही बिजली चमकती है। बुद्ध इतने बड़े होकर दिखाई पड़े, यह छोटे मनुष्यों के कारण ही संभव था। अगर बुद्ध जैसे ही मनुष्य होते बड़ी संख्या में तो बुद्ध को कौन पूछता? कौन खयाल करता?

सोचो, कोहिनूर हीरा कीमती है, क्योंकि अकेला है। अगर गाव, गली—कूचे, राह के किनारे, नदी के तटों पर कोहिनूरों के ढेर लगे होते तो कोहिनूर को कौन पूछता?

राम की हम याद करते हैं, क्योंकि जमाना राम जैसा नहीं था। कृष्ण की हम याद करते हैं, क्योंकि जमाना कृष्ण जैसा नहीं था। जमाना तो रावण जैसा रहा होगा और जमाना तो कंस जैसा रहा होगा।

आदमी सदा से ऐसा ही है। लेकिन अतीत के संबंध में एक धारणा बन जाती है कि अतीत सुंदर था, क्योंकि अतीत के सुंदरतम लोगों की खबरें तुम तक आती हैं, अतीत के सुंदरतम गीत गूंजते हुए सदियों में तुम्हारे पास आते हैं। बाजार की भीड़— भाड़, छीना—झपटी तो भूल जाती है, सुंदरतम बचता है; फूल बचते हैं, काटे तो भूल जाते हैं।

और आज, जो तुम्हारे निकट लोग हैं उनमें तुम्हें काटे दिखाई पड़ते हैं; कांटे ही कांटे सब तरफ दिखाई पड़ते हैं। समसामयिक बुद्धपुरुष दिखाई भी नहीं पड़ता, क्योंकि इतने कीटों की भीड़ में भरोसा भी करना मुश्किल है कि गुलाब का फूल खिल सकता है।

तो जब कोई बुद्धपुरुष मौजूद होता है, उस पर भरोसा नहीं आता; क्योंकि बुद्धपुरुष तो एक होता है और अबुद्धपुरुष अरबों—खरबों होते हैं। भरोसा आए भी कैसे? लेकिन जब समय बीत जाता है तो उस एक की तो याद गूंजती रहती है और उन अनेकों का विस्मरण हो जाता है। तब तुम्हारे सब मूल्यांकन अस्तव्यस्त हो जाते हैं।

आदमी सदा से ऐसा ही रहा है। न तो अतीत के समय का आदमी श्रेष्ठ था, न तुम निकृष्ट हो। न अतीत के समय का आदमी निकृष्ट था, न तुम श्रेष्ठ हो। आदमी आदमी जैसा है, चीजों में फर्क पड़ गए हैं। यह बात निश्चित है कि अतीत का आदमी फिएट कार की आकांक्षा नहीं करता था, क्योंकि फिएट कार नहीं थी। इससे तुम यह मत सोच लेना कि आज आदमी बड़ा पतित हो गया है, देखो फिएट कार की आकांक्षा करता है। अतीत का आदमी एक शानदार घोड़े की आकांक्षा करता था, एक अच्छी बग्घी की आकांक्षा करता था, रथ की आकांक्षा करता था। आकांक्षा वही है। बग्घी की जगह फिएट आ गई, आकांक्षा में कोई फर्क नहीं पड़ा है।

अतीत का आदमी ऐसा ही लोभी था, ऐसा ही कामी था, ऐसा ही क्रोधी था; नहीं तो बुद्धपुरुष पागल हैं जो समझाएं कि क्रोध मत करो, वासना में मत पड़ो, जो लोगों को समझाएं, लोभ छोड़ो। तुम्हारे सारे शास्त्र शिक्षा क्या देते हैं? शिक्षा किसको दी जाती है? अगर लोग अलोभी थे तो बुद्ध पागल थे जो लोगों को कहते कि लोभ छोड़ो। लोग तो लोभ छोड़े ही हुए थे—वे कहते, आप भी बातें क्या कर रहे हैं? लोभी यहां है कौन? चालीस साल निरंतर बुद्ध गांव—गांव घूम कर लोगों को समझाते रहे. लोभ छोड़ो, ईर्ष्या छोड़ो, महत्वाकांक्षा छोड़ो, अहंकार छोड़ो! निश्चित ही ये बातें लोगों में रही होंगी, अन्यथा ये औषधियां किसको बांटी जा रही थीं ? लोग बीमार रहे होंगे।

तुम्हारे शास्त्र गवाह हैं कि किस लोगों के बीच में लिखे गए होंगे। जो बीमारी होती है उसकी चिकित्सा का आयोजन करना होता है लोग कामी रहे होंगे इसलिए तो ब्रह्मचर्य की इतनी प्रशंसा है। अगर लोग ब्रह्मचारी ही थे तो की प्रशंसा का क्या प्रयोजन था?

लाओत्सु ने कहा है : अगर लोग धार्मिक हों तो धर्म—शास्त्र व्यर्थ। ठीक कहा है। अगर लोग सचमुच धार्मिक हों तो धर्म —शास्त्र की क्या जरूरत?

या दूसरी तरफ से देखें। कृष्ण ने कहा है कि जब—जब धर्म की हानि होगी मैं आऊंगा। तो उस वक्त क्यों आए थे? धर्म की हानि हो गई होगी। सीधी—सी बात है. जब—जब अंधेरा घिरेगा, साधु—संत सताए जाएंगे, तब—तब आऊंगा। तो उस समय यह घड़ी घट गई होगी।

अगर तर्क को ठीक से समझें, तो जब तुम्हारे घर में कोई बीमार होता है तभी वैद्य को बुलाते हैं। जब कोई समाज पतित होता है तो उसे उठाने की चेष्टा होती है।

इतने अवतार, इतने तीर्थंकर किसलिए पैदा होते हैं? कहीं—न—कहीं आदमी गलत रहा होगा। तो, पहली तो बात यह समझ लेना कि आदमी सदा से ऐसा ही है।

यह जो हमें भांति पैदा होती है, इसके पीछे और भी कारण हैं। सभी को ऐसा खयाल है कि बचपन बड़ा सुंदर था, स्वर्णिम! सभी को! हालांकि बच्चों से पूछो, कोई बच्चा इस बात के लिए राजी नहीं कहने को कि स्वर्णिम काल बचपन है। बच्चे जल्दी से जल्दी बड़े होना चाहते हैं। बच्चा बाप के बगल में कुर्सी पर खड़ा हो जाता है और कहता है, देखो तुमसे.। वह उसकी आकांक्षा का सबूत है; वह चाहता है, तुमसे बड़ा हो जाए।

एक छोटे बच्चे को स्कूल में एक शिक्षक ने मारा उसने कुछ भूल—चूक की थी। मारने के बाद उसे फुसलाया, समझाया और कहा, ‘बेटा देख, यह मैं हूं इसीलिए कि तुझे मैं प्रेम करता हूं। ‘ उस बेटे ने आंख से आंसू पोंछते हुए कहा कि प्रेम तो मैं भी आपको बहुत करता हूं, लेकिन प्रमाण अभी दे नहीं सकता।

छोटे बच्चों से पूछो, वे जल्दी से जल्दी बड़े हो जाना चाहते हैं। लेकिन बाद में याद रह जाती है सिर्फ कि बचपन बड़ा सुंदर था। कैसे हो सकता है बचपन सुंदर? क्योंकि तुम बचपन में बिलकुल ही परतंत्र थे, हर बात के लिए असहाय थे, दीन थे और हर बात के लिए तुम्हें किसी का मुंह तकना पड़ता था। ऐसी परतंत्र अवस्था, ऐसी स्वतंत्रता—हीन अवस्था कैसे सुंदर हो सकती है? लेकिन बाद में यही याद रह जाती है कि बचपन बड़ा सुंदर था।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इसके पीछे एक कारण है। आदमी का मन, जो दुखपूर्ण है उसे भुला देता है, क्योंकि दुख को याद रखना कठिन है। दुख इतना ज्यादा है कि अगर हम दुख को याद रखें तो हम जी न सकेंगे। तो जो दुखपूर्ण है उसे हम हटा देते हैं, उसे हम अचेतन में, गर्त में डाल देते हैं। और जो सुखद—सुखद है उसकी फूलमाला बना लेते हैं, जैसे—जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं जो सुखद है, उसको इकट्ठा करते जाते हैं। जो सुखद नहीं है उसे छोड़ते चले जाते हैं। तो पीछे के संबंध में हम जो भी वक्तव्य देते हैं, वे सब गलत होते हैं।

और यही स्थिति बड़े पैमाने पर समाज के संबंध में सही है। हम सोचते हैं कि अतीत में सब सुंदर था; सब स्वर्णयुग अतीत में हो चुके। यह बात हर हाल में गलत है, क्योंकि अगर अतीत इतना सुंदर था तो यह वर्तमान उसी अतीत से पैदा हुआ है, यह और भी सुंदर होना चाहिए। अगर बचपन इतना सुंदर था तो जवानी उसी बचपन से आई है, यह बचपन से ज्यादा सुंदर होनी चाहिए। अगर जवानी सुंदर थी तो बुढ़ापा जवानी से आया है, बुढ़ापा जवानी से भी ज्यादा सुंदर होना चाहिए। और अगर जीवन तुम्हारा सचमुच आह्लाद था तो मृत्यु भी नृत्य होगी, उत्सव होगी, क्योंकि मृत्यु उसी जीवन का सार—निचोड़ है।

लेकिन तुम तो देखते हो कि बचपन सुंदर था जवानी से, जवानी सुंदर बुढ़ापे से; जीवन सुंदर, मृत्यु सुंदर कभी नहीं! यह तो तुम दुख—दुख को छोड़ते जाते हो, सुख—सुख को चुनते जाते हो। सुख तुम्हें मिलता तो नहीं, लेकिन जो कुछ भी क्षणभंगुर स्मृतियां रह जाती हैं, उन्हीं को तुम सजा—संवार कर रख लेते हो।

तुम आए हो उन्हीं समाजों से जिनको लोग स्वर्णयुग कहते हैं, सतयुग कहते हैं। यह कलियुग सतयुग से पैदा हुआ है। अगर यह कलियुग बुरा है तो कहावत है कि फल से वृक्ष का पता चलता है। अगर फल गलत है तो वृक्ष सड़ा हुआ रहा होगा, बीज से ही सड़ा हुआ रहा होगा। तुम सबूत हो इस बात के कि सारा मनुष्य—जाति का अतीत तुमसे बेहंतर तो नहीं रहा, किसी हालत में नहीं रहा। तुमसे शायद बुरा भले रहा हो, तुमसे बेहंतर तो नहीं हो सकता, क्योंकि तुम उसके फल हो।

तो पहली तो मैं यह भ्रांति तुम्हारे मन से हटा देना चाहता हूं। मैं तुमसे यह भी नहीं कहना चाहता कि तुम श्रेष्ठ हो। तुमसे यह भी नहीं कहना चाहता कि तुम निकृष्ट हो। तुमसे मैं एक बहुत सीधा—सादा प्रस्ताव करता हूं कि तुम वैसे ही हो जैसे सदा से मनुष्य रहा है। इसलिए यह चिंता, विचार छोड़ कर इस बात पर ध्यान दो कि कुछ मनुष्यों ने कभी—कभी जीवन में क्रांति की है। तुम सबकी चिंता भी भूल जाओ। तुम तो इतनी ही फिक्र कर लो कि तुम्हारे जीवन में प्रकाश उतर आए, तुम्हारा दीया जल जाए तो बस काफी है।

‘आप मौजूद हैं तो भी मनुष्य नीचे की ओर, नीचे की ओर जा रहा है।’

मैं किसी को नीचे की ओर जाते नहीं देखता और न किसी को ऊंचे जाते देखता। लोग कोल्ह के बैल की तरह घूम रहे हैं, वहीं के वहीं घूम रहे हैं। आंख पर पट्टियां बंधी हैं, सोचते हैं कहीं जा रहे हैं। कोई कहीं नहीं जा रहा है। कभी—कभी कोई एकाध व्यक्तिं आंख से पट्टियां हटा देता है—धारणाओ की, सिद्धातो की, धर्मों की, राजनीतियों की; खोल कर देखता है, देखता है. अरे, मैं एक वर्तुल में घूम रहा हूं कोल्ह का बैल! वह निकल पड़ता है वर्तुल के बाहर। उस वर्तुल के बाहर छलांग लगा लेना ही संन्यास है।

इस समाज में कभी धर्म आने वाला नहीं है; कुछ संन्यासियों के जीवन में धर्म आने वाला है। धर्म तो महाक्रांति है—और क्रांति व्यक्ति में ही घट सकती है। समाज में तो ज्यादा से ज्यादा सुधार घटते हैं, लीपा—पोती चलती है। मकान वही का वही रहता है, कहीं पलस्तर गिर गया तो चढ़ा दिया; कहीं रंग खराब हो गया तो रंग कर दिया; कहीं छप्पर खराब हो गया तो कुछ खपरे बदल दिये, कहीं दीवाल गिरने लगी तो सहारे और टेक लगा दी—मगर मकान वही का वही रहता है। क्रांति तो व्यक्ति में घटती है। नितांत रूप से वैयक्तिक है क्रांति।

तो मैं तो किसी को नीचे —ऊंचे जाते नहीं देखता। समाज तो वहीं का वहीं है।

पूछा है. ‘……जबकि बुद्धपुरुषों के आगमन पर मनुष्यता कोई शिखर छूने लगती है। ‘

मनुष्यता नहीं, कुछ मनुष्य! कुछ मनुष्यों में छिपी मनुष्यता जरूर छूने लगती है। लेकिन उस शिखर को छूने वाले लोगों की संख्या सदा बड़ी होती है। कभी करोड़ में एक आदमी बुद्धों के साथ उस अनंत यात्रा पर निकलता है। आज तुम्हें लगता है कि बुद्ध के समय में बड़ी क्रांति हुई होगी, या के समय में बड़ी क्रांति हुई होगी; लेकिन अगर तुम अनुपात देखो तो तुम चकित हो जाओगे। बुद्ध जिस गाव से गुजरते हैं अगर उसमें दस हजार आदमी हैं तो दस भी सुनने को आ जाएं तो बस पर्याप्त है। और उन दस में भी जो सुनने आ गए हैं, उनमें से एक भी सुन ले तो बहुत। सुनने आ जाने से ही थोड़े ही कोई सुन लेता है। आज तुम्हें लगता है कि बहुत लोग…।

अभी जो मुझे सुन रहे हैं, उनकी संख्या नगण्य है। जो मुझे समझ रहे हैं उनकी और भी नगण्य है। जो मुझे समझ कर अपने जीवन को बदल रहे हैं उनकी और भी नगण्य है। समय बीत जाने पर यही संख्या बड़ी दिखाई पड़ने लगेगी।

आज जैनों की संख्या तीस लाख से ज्यादा नहीं है। अगर महावीर ने तीस आदमियों को बदला हो तो दो हजार साल में उनसे तीस लाख की संख्या पैदा हो सकती है। बहुत ज्यादा लोगों को नहीं बदला होगा। ढाई हजार साल में जैनियों की संख्या तीस लाख है। तीस जोड़े इतनी बड़ी संख्या पैदा कर सकते हैं ढाई हजार साल में। बहुत थोड़े से लोग बदले होंगे।

बदलाहट सदा थोड़े से लोगों में आती है। ही, उन थोड़े से लोगों में मनुष्यता जो है वह बड़े ऊंचे शिखर छूने लगती है। मगर तुम इसकी चिंता न करके, इसकी ही चिंता करो कि तुम्हारे भीतर वह शिखर छुआ जा रहा है या नहीं? कहीं ऐसा न हो कि तुम सबकी चिंता में खुद को बिसार बैठो। और वहीं घटना घट सकती है। सबकी चिंता में तुम तो चूक ही जाओगे और सब को कोई लाभ न होगा। ‘.. हजारों आंखें आपकी ओर लगी हैं कि शायद आपके द्वारा फिर नवजागरण होगा। ‘

ये भ्रांतियां छोड़ो। किसी के द्वारा कभी कोई नवजागरण न हुआ है, न होनेवाला है। कितने सत्पुरुष हुए! तुम ये भ्रांतियां कब तक बांधे रहोगे? ये भ्रांतियां तुम्हें भटकाती हैं। इनके कारण तुम जो क्रांति कर सकते थे, वह नहीं करते; तुम बैठ कर प्रतीक्षा करते हो, होगा। जैसे किसी और का काम है! जैसे यह मेरी जिम्मेवारी है। जैसे नहीं होगा तो मैं दोषी! तब तो तुम सभी बुद्धपुरुषों को दोषी पाओगे, क्योंकि वह नवजागरण अब तक नहीं आया।

मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं. वह कभी नहीं आएगा।

अंग्रेजी में उस नवजागरण के लिए जो शब्द है, उटोपिया, वह बहुत अच्छा है। उटोपिया शब्द का ही अर्थ होता है, जो न कभी आया, न कभी आएगा। वह सिर्फ तुम्हारी आकांक्षा है—और नपुंसक आकांक्षा है। दूसरे के लिए प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो?

मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं ‘ अब अवतार का जन्म कब होगा?’ तुम क्या कर रहे हो? जन्माओ अवतार को अपने भीतर! तुम यह उत्तरदायित्व क्यों टालते हो? किस पर टाल रहे हो? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं. ‘भगवान सुनता नहीं। इतनी आहें उठ रही हैं, भगवान कहा है? आता क्यों नहीं?’ ये मनुष्य की जालसाजिया, ये धारणाएं! इनसे एक तरकीब तुम अपने भीतर बना लेते हो कि हमें तो कुछ करना नहीं, बैठकर राह देखनी है, जब आएगा तब होगा। कोई मसीहा आएगा, कोई पैगंबर आएगा, कोई अवतार आएगा।

आ चुके पैगंबर, आ चुके मसीहा, आ चुके अवतार—और नवजागरण नहीं आया। तुम कब जागोगे? कितने अवतार, कितने तीर्थंकर आ चुके! कहां नवजागरण आया? कहां हुई क्रांति रू

नहीं, तुम्हारी भ्रांति है। किसी दूसरे से होने वाली नहीं है। तुममें घटना घटेगी। समूह में कभी घटना नहीं घटेगी। समूह में जो घटती है वह राजनीति है; व्यक्ति में जो घटता है, वह धर्म। तुम राजनीति को धर्म पर आरोपित मत करो। अगर लोग सोना चाहते हैं तो कौन जगाएगा, कैसे जगाएगा मे’ अगर ज्यादा जगाने वाला गड़बड़ करेगा, सोने वाले उसकी हत्या कर देंगे। वही तो हुआ। जीसस को सूली पर लटका दिया, सुकरात को जहर पिला दिया। ये लोग जरा ज्यादा शोरगुल मचाने लगे।

अब जिसको सोना है, तुम उठ कर और घंटा बजाने लगे सुबह से और कहने लगे प्रभात —वेला

आ गई, जागो! पर जिसको सोना है, वह कहता है. सोना और जागना तो कम से कम मेरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। दूसरा आदमी आ कर घंटा बजाने लगे कि जागो तो उसे गुस्सा आए, बिलकुल स्वाभाविक है। और सोने वाले लोग ज्यादा हैं। सोए ही हैं। घंटे बजाने वाले आते हैं और चले जाते हैं और सोने वाले करवट भी नहीं बदलते। या बहुत—से—बहुत करवट बदल लेते हैं, फिर सो जाते हैं। थोड़े नाराज हो जाते हैं। अगर भले हुए तो कहते हैं, ‘महाराज, नमस्कार! आप बड़े महात्मा हैं! मगर अभी मुझ दीन को छोड़ो, अभी मेरी सुविधा नहीं जागने की। जपता जरूर। आपकी बात बिलकुल ठीक है। ‘

लोग कहते हैं कि आपकी बात बिलकुल ठीक है, कि छोडो, मेरा पिंड छोड़ो।

अब कौन विवाद करे? सोने वाला विवाद कैसे करे? सोने वाला कहता है, मुझे सोने दो। माना कि ब्रह्ममुहूर्त है और उठना चाहिए ब्रह्ममुहूर्त में, और कभी हम जरूर उठेंगे, और याद रखेंगे तुम्हारी बात और तुम्हारा नाम स्मरण करेंगे, तुम्हारी पूजा भी करेंगे, फोटो लटका लेंगे, मूर्ति लगा देंगे, सदा—सदा तुम्हें पूजेंगे—मगर अभी छोड़ो! अभी मुझे नींद आ रही है। अभी मैं इस योग्य नहीं, अभी मैं पात्र नहीं। अभी घर है, गृहस्थी है, बच्चे हैं, पत्नी है —अभी इनको सम्हालने दो; एक दिन तो मोक्ष की तरफ जाना है, आप बिलकुल ठीक कहते हैं।

इसीलिए तुम पूजा करते हो, मंदिर बनाते हो। तुम्हारे मंदिर और तुम्हारी पूजाएं तुम्हारे बचने की विधियों का अंग हैं। जो दुष्ट हैं, वे झगड़ने को खड़े हो जाते हैं, जो सज्जन हैं, वे पूजा करने को। मगर जगने को कोई राजी नहीं।

हमने भारत में सूली नहीं दी—सज्जनों का देश है! मारपीट, झगड़ा—झांसे में हम भरोसा नहीं करते—अहिसकों का देश है! शाकाहारियों का देश है! बड़ी पुरानी हमारी परंपरा है। हम कहते हैं, जिसको हाथ जोड़ कर, पैर छू कर छुटकारा पाया जा सकता है, उसको सूली पर क्यों लटकाना? और सूली पर लटकाने से झंझट ही बढ़ती है; आखिर सोने वाले आदमी को सूली बनाना पड़े, ले जाओ, सूली पर लटकाओ..। पैर छू लिए कि महाराज साष्टाग दंडवत है, आप जाएं! हमने समझ ली तरकीब।

तो जो जीसस के साथ यहूदियों ने किया, वह हमने बुद्ध के साथ नहीं किया। कभी इक्के—दुक्के किसी पागल ने पत्थर फेंक दिया, लेकिन आमतौर से समाज ने कहा कि आप ईश्वर के अवतार हैं। महावीर को हमने थोड़ी—बहुत गाली—गलौज दी, लेकिन कोई जहर नहीं पिला दिया, जैसा सुकारात को यूनान में पिला दिया। हमने कबीरको कोई मंसूर की तरह काट नहीं डाला है, जैसा मुसलमानों ने मंसूर को काट दिया। सज्जनों का देश है! हम तरकीब ज्यादा बेहंतर जान गए। हम समझ गए कि जहां सुई से काम हो जाता है, वहां तलवार की क्या जरूरत? मंदिर में बिठा देते हैं, मूर्ति बना देते हैं, फूल चढ़ा देंगे, शास्त्र बना देते हैं—और क्या चाहिए? मगर जगाने की कोशिश मत करो!

समाज कभी भी नहीं जागेगा। समाज तो सोई हुई भीड़ है। इस भीड़ में से कभी—कभी कोई विरला पुरुष जागता है।

तो तुम यह तो पूछो ही मत, यह तो बात ही मत करो। मैं तुम्हारी किसी भ्रांति में किसी तरह का सहारा देने को तैयार नहीं हूं। मैं नहीं तुमसे कहता कि मेरे द्वारा नवजागरण आएगा, सारी दुनिया में क्रांति हो जाएगी, राम—राज्य स्थापित हो जाएगा। हो चुकीं ये पागलपन की बातें बहुत। राम से नहीं हुआ रामराज्य स्थापित, तो किसी दूसरे से कैसे हो जाएगा? कृष्ण से नहीं हुआ, हार गए सिर पटक—पटक कर! बुद्ध से नहीं हुआ, तो मुझसे कैसे हो जाएगा?

नहीं, बुद्ध और कृष्ण और राम ने वैसी भ्रांति पाली ही नहीं; वह भ्रांति तुम पाले हुए हो। बुद्ध तो बार—बार कहते हैं कि अपने दीये बनो; मेरे द्वारा कुछ भी न होगा। महावीर बार—बार कहते हैं. अपनी शरण जाओ, मेरी शरण आने से क्या होगा पड

महावीर ने तो बहुत साफ कहा है कि मैं स्वयं जागा हूं, मैं तुम्हारे कल्याण के लिए नहीं आया हूं; यद्यपि जैन अभी भी कहे जाते हैं कि जगत के कल्याण के लिए उनका जन्म हुआ। महावीर कहते हैं, मैं तुम्हारे कल्याण के लिए नहीं आया, क्योंकि कोई दूसरा तुम्हारा कल्याण कैसे करेगा? और अगर दूसरा तुम्हारा कल्याण कर सके तो वह कल्याण भी दो कौड़ी का होगा। उसमें तुम्हारा विकास फलित नहीं होगा, तुम्हारी आंतरिक उत्कांति घटित नहीं होगी। वह उधार होगा, बासा होगा। तो महावीर कहते हैं. अपनी शरण जाओ, समझो, अपने को जगाओ!

‘…… धर्म का जगत कब निर्मित होगा?’

झूठे सपने मत देखो। जगत अधर्म का रहेगा। इसमें कभी—कभी धार्मिक व्यक्ति गाते रहेंगे। यह रात तो अंधेरी रहेगी। इसमें कभी—कभी कोई तारे जगमगाते रहेंगे। अब तुम यह प्रतीक्षा मत करो कि कब पूरी रात बदलेगी। तुम तो इसकी फिक्र करो कि मैं जगमगाने लगा या नहीं गुम तुम जगमगा गए, तुम्हारे लिए रात समाप्त हो गई। तुम जिस दिन जगमगाए, तुम्हारी सुबह हो गई।

इसे मैं बार—बार दोहराना चाहता हूं कि यह क्रांति व्यक्ति के अंतस्तल में घटती है! यह बड़ी आंतरिक है, आत्यंतिक रूप से निजी है। समूह, भीड़ से इसका कुछ नाता नहीं।

पूछा है : ‘क्योंकि बदलना तो दूर. कब होगा विस्फोट? कैसे होगा? बदलना तो दूर उल्टे लोग आपका विरोध कर रहे हैं। ‘

वे सदा से करते रहे हैं। कुछ नया नहीं इसमें। वे विरोध न करें तो आश्चर्य होगा। विरोध उन्हें करना ही चाहिए। वह उनकी पुरानी आदत है।

जैन शास्त्रों में उल्लेख है : एक मुनि नदी में स्नान करने उतरा। एक बिच्छु को उसने तैरते देखा, डुबकी खाते। कि मर न जाए, तो उसने हाथ पर चढा कर उसे घाट पर रख देना चाहा; लेकिन जब तक उसने घाट पर रखा, उसने दो —तीन डंक मार दिए। और जैसा कि तुमने देखा होगा, चींटे को अगर हटाने की कोशिश करो तो जिस दिशा से हटाओ वह उसी दिशा की तरफ भागता है। बड़े जिद्दी होते हैं। जितनी नासमझी, उतनी ही जिद्द। तो बिच्छु तो बिच्छु! उसको छोड़ा तो वह फिर भागा पानी की तरफ। उस मुनि ने फिर उसे उठाया और फिर किनारे पर रखा। फिर उसने दो—तीन डंक मार दिए।

एक मछुआ राह के किनारे खड़ा है। वह कहने लगा कि महाराज वह आपको डंक मारे जा रहा है, अब छोड़ो भी, मरने भी दो! वह मुनि हंसने लगा। उसने कहा कि वह अपनी आदत नहीं छोड़ता, मैं अपनी आदत छोड़ दूं? देखें कौन जीतता है? बिच्छु है तो यह मान कर ही चलना चाहिए कि वह डंक मारेगा; इसमें कुछ नया तो नहीं कर रहा है। न मारे डंक और अचानक कहे कि धन्यवाद, तो घबड़ाहट होगी, तो भरोसा न आएगा।

जब भी कोई सोए हुए लोगों को जगाने की कोशिश करेगा तो वे डंक मारेंगे, वे नाराज होंगे। उनकी बात मेरी समझ में आती है, मैं उसमें कुछ एतराज भी नहीं करता। मुझे बिलकुल समझ में आता है. सोए हुए को जगाओ तो नाराजगी होती है। यह भी हो सकता है कि तुम से कह कर सोया हो कि सुबह चार बजे उठा देना, मुझे ट्रेन पकड़नी है, लेकिन उसको भी चार बजे उठाओ तो वह भी गुस्सा दिखलाता है। वह भी तुम्हें दुश्मन की तरह देखता है. कि अरे, कहा था ठीक है, मगर इसका यह मतलब थोड़े ही है कि जगाने ही लगो। अब कह दिया, भूल हो गई, मगर अब पीछे तो न पड़ो। रुग्ण आदमी को दवा दो तो भी वह पीने में आनाकानी करता है।

बच्चे जैसे हैं लोग, नासमझ हैं। उनकी तरफ से विरोध बिलकुल स्वाभाविक है। अगर इस विरोध का तुम मनोविज्ञान समझो तो बड़े चकित होओगे। वे विरोध इसीलिए कर रहे हैं कि उन्हें बात जंचने लगी है कि बात में कुछ सचाई है। नहीं तो वे विरोध भी नहीं करते। उन्हें डर लगने लगा है कि यह आदमी कहीं जगा ही न दे। उनके विरोध की केवल इतनी ही सार्थकता है कि वे शंकित हो गए हैं कि अगर इस आदमी को सुना, इसकी बात को जरा गौर से सुना, विरोध का धुआं खड़ा न किया, अपनी आंखें विरोध से न भर लीं तो कहीं यह बात समझ में न आ जाए; कहीं यह बात हृदय में न उतर जाए; कहीं यह बीज आत्मा में पड़ न जाए।

तो उनका विरोध सांकेतिक है। वे कह रहे हैं कि अब या तो हमें विरोध करना पड़ेगा या साथ चलना पड़ेगा—अब दो ही उपाय छोड़े हैं। इसलिए सदा उन्होंने विरोध किया है। उनके विरोध की मैं निंदा नहीं कर रहा हूं, मैं उसे स्वीकार करता हूं; वह बिलकुल स्वाभाविक है। वे जिस दिन विरोध न करेंगे उस दिन समझना कि उनका अब बुद्धत्व में कोई रस नहीं रहा। वे बड़े दुर्दिन होंगे, जब बुद्धपुरुष आएगा और लोग बिलकुल विरोध न करेंगे—लोग कहेंगे, मजे से आपको जो कहना है कहो, जो करना है करो; हमारा मनोरंजन होता है, आप बड़े मजे से कहो। लोग ताली बजाएंगे और अपने घर चले जाएंगे, कोई विरोध न करेगा। उस दिन कठिनाई होगी।

ध्यान रखना, विरोध का मतलब ही है, लगाव शुरू हो गया। घृणा प्रेम का रूप है। जो आदमी घृणा करने लगा, अब ज्यादा देर नहीं है, वह प्रेम भी कर सकेगा।

उपेक्षा खतरनाक है। बुद्धपुरुष आएं और लोग उनकी उपेक्षा कर दें; वे राह से निकलें, न कोई विरोध करे, न कोई प्रेम करे; लोग कहें कि ठीक आपकी मर्जी, आपका जैसा दिल आप कहें, जो आपको रहना है आप रहें, हमें कोई एतराज नहीं। जरा सोचो उस स्थिति की बात कि कोई विरोध न करे; कोई पक्ष में नहीं, कोई विपक्ष में नहीं; बुद्ध आएं, कहें और चले जाएं, कोई लकीर ही न छूटे किसी पर—तो दुर्दिन होगा। तो उसका अर्थ हुआ कि अब बुद्धत्व में इतना भी रस नहीं रहा लोगों का। अब कोई विरोध भी नहीं करता।

विरोध तो रागात्मक है।

एक यहूदी हसीद फकीर ने किताब लिखी थी। किताब बड़ी बगावती थी। हसीद बड़े बगावती फकीर हैं। और उसने अपने देश के सबसे बड़े यहूदी धर्मगुरु को वह किताब भेजी, खुद अपनी पत्नी के हाथ भेजी। और उसने कहा कि कुछ फिक्र न करना। जो भी हो, तू उसमें उलझना मत, सिर्फ देखते रहना क्या हो रहा है; सब मुझे आ कर वैसा का वैसा बता देना। वह गई। जैसे ही किताब उसने दी

पंडित के हाथ में, उसने किताब उलट कर देखी, देखा कि हसीद फकीर की है। वह तो ऐसा तिलमिला गया कि जैसे हाथ में अंगारा रख दिया हो। उसने तो किताब उठा कर बाहर फेंक दी अपने मकान के। उसने कहा कि मेरे हाथ अपवित्र हो गए, मुझे स्नान करना पड़ेगा। वह तो आग—बबूला हो गया।

उसके पास ही एक दूसरा पुरोहित बैठा था, एक दूसरा धर्मगुरु। उसने कहा कि माना कि वह बगावती है, मगर उसने किताब भेंट भेजी, तुम थोड़ी देर बाद फेंक देते, यह पत्नी को तो चले जाने देते! उसने भेजी तो! उसने तो प्रेम से भेजी, उपहार दिया। इस पत्नी को चले जाने देते, फिर फेंक देते। इतनी जल्दी क्या थी? और तुम्हारे घर में इतनी किताबें हैं, इतनी बड़ी लायब्रेरी है, उसमें यह एक किताब पड़ी भी रहती तो क्या बिगाड़ देती?

पत्नी वापिस लौटी। पति ने पूछा, क्या हुआ? उसने कहा कि प्रधान पुरोहित ने तो किताब एकदम बाहर फेंक दी; वे तो ऐसे नाराज हो गए कि मुझ पर हमला न कर दें। उन्होंने तो ऐसे किया कि जैसे मैंने हाथ में अंगारा रख दिया हो। मगर उनके पास ही एक दूसरे धर्मगुरु बैठे थे। उन्होंने कहा कि नहीं, यह करना उचित नहीं है, पत्नी को चले जाने देते, फिर फेंक देते, या फिर रखी रहती किताब, इतनी किताबें पड़ी हैं! तुम्हारे घर में विरोधियों की किताबें भी रखी हैं, तो यह तो यहूदी है, माना कि बगावती है। रख लेते, पड़ी रहती लायब्रेरी में, क्या बिगड़ता था?

पति ने कहा. जिसने किताब फेंकी, उसे तो हम किसी न किसी दिन बदल लेंगे, लेकिन दूसरे से हमारा कोई संबंध नहीं बन सकता।

समझे आप मतलब?

जिसने किताब फेंकी, उससे तो रागात्मक संबंध बन गया। वह कम से कम इतना तो राग है उसका, जोश तो आया! उसने कुछ किया तो, तरंग तो उठी। वह जो बैठ कर शांति से कह रहा है, रख लो, डाल दो, किनारे में पडी रहेगी लायब्रेरी में, वह उपेक्षा से भरा आदमी है, उससे हम कभी कोई संबंध न बना पाएंगे। इस धर्मगुरु को तो हम बदल लेंगे, लेकिन दूसरे धर्मगुरु से हमारा कोई संबंध न बन पाएगा। मैं दूसरे के लिए दुखी हूं।

पत्नी तो बहुत चौंकी। वह तो सोचती थी, दूसरा भला आदमी है; पहला आदमी बुरा है। लेकिन उसके पति ने कहा कि पहला आदमी तो हमारे चक्कर में आ ही चुका है, दूसरा खतरनाक है। मैं तुमसे कहता हूं कि पहला तो उठा कर किताब पडेगा। जिसने इतने जोश से फेंकी है वह बिना पढ़े नहीं रह सकता, क्योंकि इस जोश को कैसे शांत करेगा? वह तो उत्सुक हो ही गया। मैं उसका पीछा करूंगा; रात सपने में दिखाई पडूगा। मैं उसके सिर के आसपास घूमूंगा। वह सोचेगा, कई बार कि फेंकना था कि नहीं फेंकना था, देख तो लूं इसमें लिखा क्या है!

जो मेरा विरोध करते हैं, वे निश्चित रूप से मेरी किताब पढ़ते हैं—यह तुम खयाल रखना। उनसे मेरा संबंध बन चुका है। उनसे मेरे हृदय का नाता जुड़ गया है, धीरे— धीरे खींच लूंगा। लेकिन जो विरोध भी नहीं करते, विरोध तक नहीं करते, उनके साथ बड़ा मुश्किल है। उनके हृदय का दरवाजा पाना बहुत मुश्किल है। उनके दरवाजे सब बंद हैं।

और यह बिलकुल स्वाभाविक है। जितनी क्रांति की बात होगी, उतनी ही कठिनाई होती है। लोग परंपरा से जीते हैं। लोग परंपरा में सुविधा और सुरक्षा पाते हैं। बदलाहट साहसियों का काम है,

दुस्साहसियों का काम है। उतना साहस जिसमें नहीं होता, वह विरोध न करे तो क्या करे? उसका विरोध तो समझो, वह यह कह रहा है कि इतना साहस मुझ में नहीं है, तो या तो मैं यह स्वीकार करूं कि मैं कायर और कमजोर हूं और या सिद्ध करूं कि यह बात गलत है। तो पहले वह कोशिश करता है सिद्ध करने की कि बात गलत है, जाने योग्य है ही नहीं, इसलिए हम नहीं जाते। नहीं तो उसे साफ हो जाएगा, अगर जाने योग्य है और नहीं जाते, तो फिर हम कायर हैं। अहंकार को फिर चोट लगती है। वह अहंकार की सुरक्षा है विरोध।

लेकिन जब कोई व्यक्ति मुझमें और उसके अहंकार में चुनाव करने लगा, तो एक न एक दिन उसे मुझे चुनना ही होगा, क्योंकि अहंकार सिवाए नर्क के कुछ देता ही नहीं। उस चुनाव को तुम कब तक किए चले जाओगे?

दूसरा प्रश्न :

 

आपने कहा कि उपदेश सबसे लेना चाहिए, लेकिन आदेश अपनी अंतरात्मा से, अपने विवेक से। प्रश्न है कि जब तक विवेक न हो तब तक कैसे पता चले कि जो आवाज अंदर से आ रही है, वह विवेक—जन्य है या मन का ही एक खेल है? कृपया प्रकाश डालें।

स्‍वाभाविक प्रश्न उठेगा। मैंने कहा, उपदेश सबसे ले लेना, आदेश अपने । से लेना। तुम्हारा प्रश्न संगत है। तुम पूछते हो, तय कैसे होगा कि जो हम कर रहे हैं, जो हम मान कर चल रहे हैं, जिस दिशा को हमने चुना, वह हमारी अंतरात्मा का आदेश है या हमारे मन का ही खेल है?

चलो! चलने से ही पता चलेगा। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम हमेशा सही चल पाओगे। यह मैंने कहा भी नहीं। तुम बहुत बार चूकोगे। लेकिन चूक—चूक कर ही तो पता चलता है कि गलत क्या है और सही क्या है। तुम बहुत बार गिरोगे; गिर—गिर कर ही तो पता चलता है कि कैसे चलना चाहिए ताकि न गिरे।

छोटा बच्चा चलना शुरू करता है। अगर वह कहे कि मुझे बिलकुल ऐसी तरकीब चाहिए, सौ प्रतिशत गारंटी की कि गिरूं न—तो वह कभी चलेगा नहीं, कभी चल ही न पाएगा। फिर वह किसी की गोदी में ही चढा रहेगा। गिरना तो पड़ेगा। और जब मां कहती है, बेफिक्र हो कर तू चल, गिरेगा

थोड़े ही—तो वह जानती है कि गिरेगा। लेकिन गिरने के सिवाए चलना सीखने का कोई उपाय नहीं।

तुम साइकिल चलाने के संबंध में किताब पढ़ लो, किताब में सब समझाया हो कि किस तरह संतुलन कायम करना चाहिए, किस तरह पैडल चलाने चाहिए, किस तरह हैंडल पकड़ना चाहिए— इससे कुछ न होगा। तुम लाख किताब को कंठस्थ करके साइकिल चलाने जाओ, दो—चार बार गिरोगे, हाथ—पैर पर पट्टी बंधेगी, चमड़ी दो—चार बार छिलेगी। मगर उसी गिरने से तुम्हें संतुलन की प्रतीति होगी, क्या है संतुलन। किताब में लिखने से थोड़े ही पता चलता है कि संतुलन क्या है, बैलेंस क्या है? वह तो साइकिल पर चढ़ने से पता चलता है।

अब दो चाक की साइकिल, और सधी रह जाती है, चमत्कार है। गिरना तो बिलकुल नियमानुसार है; नहीं गिरना, चमत्कार है। मगर दो —चार बार गिर कर तुमको खयाल आने लगता है। अब वह खयाल ऐसा है कि कोई दूसरा कितना ही जिंदगी से साइकिल चला रहा हो तो भी तुम्हें दे नहीं सकता। कोई तुम्हें दे नहीं सकता कि यह लो मैं तुम्हें अपनी समझ दिए देता हूं। वह कितना ही समझा दे, फिर भी तुम्हें गिरना पड़ेगा।

तो जब मैंने तुमसे कहा, उपदेश सबसे लेना, तो मैंने कहा जितने साइकिल सवार हों, सबसे पूछ लेना। मगर इससे तुम यह मत समझ लेना कि तुम्हें साइकिल चलाना आ गया। चढ़ना तो तुम्हें ही पड़ेगा। और इससे मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम्हें सौ प्रतिशत गारंटी है कि तुम न गिरोगे। ऐसी गारंटी मैं देता ही नहीं। गारंटी इतनी दे सकता हूं कि जरूर गिरोगे; मगर गिर—गिर कर सीखोगे। कई बार गलत रास्तों पर भटक जाओगे। लेकिन अगर अपने ही कारण भटके तो लौट आओगे, अगर दूसरे के कारण भटके तो कभी न लौट सकोगे। क्योंकि जो आदमी दूसरे के पीछे चल रहा है उसे कभी पता ही नहीं चलता है कि मैं ठीक जा रहा हूं कि गलत जा रहा हूं।

जैसे कि तुम किसी साइकिल सवार के पीछे कैरियर पर बैठे हुए हो, तुम्हें थोड़े ही बैलेंस आएगा! हालांकि तुम भी साइकिल पर सवार हो, लेकिन तुम्हें संतुलन नहीं आएगा। तुम जन्मों—जन्मों तक बैठे रहो दूसरे की साइकिल के पीछे, यात्रा भी होगी, मगर संतुलन नहीं आएगा।

और असली बात संतुलन है।

तो तुम किसी की पीठ के पीछे चल पड़ो.. .तुम जब किसी के पीछे चलते हो तो तुम इसी भय के कारण तो चलते हो, कहीं हम चलें तो भूल न हो जाए, तो हम जानकार के पीछे चलें! लेकिन हो सकता है कि जानकार भी तुम्हारी जैसी ही बुद्धि का हो, किसी और जानकार के पीछे चल रहा हो और वे भी इसी बुद्धि के हों—और अक्सर इसी बुद्धि के लोग हैं—तो तुम पाओगे कि एक आदमी दूसरे के पीछे चल रहा है, दूसरा तीसरे के पीछे चल रहा है; तीसरा किसी और के, जो कि मर चुके हैं, वे किसी और के पीछे चलते थे जो कि बहुत पहले मर चुके हैं, वे किसी और के पीछे चलते थे, जो कभी हुए ही नहीं। अब चले जा रहे हैं! अब इनको कभी पता नहीं चलेगा कि गलती हो रही है, क्योंकि गलती होने का उपाय नहीं है; यह तो क्यू है, और इसका छोर खोजना मुश्किल है। गलती तो तब पता चले जब क्यू का छोर पता चले।

अब अष्टावक्र की मान कर चलने लगें जनक, जनक की मान कर चलने लगें कोई और, कोई और, पांच हजार साल में अब तो तुम्हें पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि गलती कहां हो रही है।

यह तो बड़ा क्यू है। इसमें तो अष्टावक्र गिरे तो भी तुम्हें पता न चलेगा कि वे गिर गए खड्ड में। काम नहीं आई उनकी गीता। वे तड़प रहे हैं पड़े हुए। उसका भी तुम्हें पता नहीं चलेगा। तुम तो भेड़—चाल से चलते चले जाओगे। जब दस—पांच हजार साल में तुम भी उनके ऊपर गिरोगे, उनकी हड्डियों पर, तब तुम्हें पता चलेगा कि यह तो भूल हो गई है। लेकिन तब बहुत देर हो चुकी होगी।

नहीं, भूल कर किसी के पीछे मत चलना। सुन लेना, जान लेना, समझ लेना; लेकिन उत्तरदायित्व सदा अपना अपने हाथ में रखना। तो उसका लाभ है; कम से कम क्यू तो नहीं है आगे। तुम गिरोगे तो पता तो चलेगा कि मैं गिरा। तुम गिरोगे तो गिरना क्यों हुआ, किस कारण से हुआ—इसका तो पता चलेगा! अगली बार उस तरह का कारण न दोहरे, इसकी समझ तो आएगी। दस—पांच बार गिर कर तुम्हें साइकिल चलाने की कला आ जाएगी। वह कला है, विज्ञान नहीं। विज्ञान होता तो दूसरा दे देता। कला कोई दे नहीं सकता, कला सीखनी पड़ती है अनुभव से।

तो तुमने मुझसे पूछा है कि ‘प्रश्न है जब तक विवेक न हो तब तक कैसे पता चले कि जो आवाज अंदर से आ रही है वह विवेक—जन्य है या मन का ही एक खेल है?’

कोई उपाय नहीं है जानने का। अनुभव से ही तुम्हें धीरे — धीरे पता चलेगा। कैसे पता चलेगा? जो मन का खेल है, उससे तुम हमेशा तकलीफ में पड़ोगे—हमेशा तकलीफ में पड़ोगे, दुख आएगा! और जो मन का खेल नहीं है, उससे हमेशा आनंद की स्फुरणा होगी। वही कसौटी है। जो भीतर से आ रही, अंतरात्मा से, उसका फल सदा ही आनंद है, सच्चिदानंद है। जो मन का है जाल, उससे तुम हमेशा दुख पाओगे। दुख से पता चलेगा। करके ही पता चलेगा किससे दुख मिला, किससे सुख मिला। जिससे सुख मिले, वह सत्य की तरफ जा रही है यात्रा, और जिससे दुख मिले, वह असत्य की तरफ जा रही है यात्रा।

तुमने सुना है, पढ़ा है कि नर्क में दुख है। अच्छा हो इसे थोड़ा उल्टा कर लो : दुख में नर्क है। तो जहां—जहां दुख मिले, तुम समझ लेना कि नर्क की तरफ चल रहे हो, गड्डे में गिर रहे हो। जहां—जहां सुख मिले, तरंग आए समाधि की, लहर उठे, गीत फूटे, खिले भीतर के इंद्रधनुष, सुवास उठे, संगीत जन्मे—समझना कि चल रहे स्वर्ग की तरफ।

चलते—चलते, गिरते —उठते आदमी सीखता है। एक भूल कभी मत करना—और वह भूल है. बैठे मत रह जाना भूल के डर से। भूल करनी ही होगी। हौ, एक ही भूल को दुबारा करने की कोई जरूरत नहीं। तो बोधपूर्वक भूल करना। और एक भूल जब हो जाए और पता चल जाए तो पछताते मत बैठे रहना कि भूल हो गई। उतना अनुभव हुआ। लाभ हुआ। अब आगे ऐसी भूल दुबारा न हो, इसकी गांठ बांध लेना। ऐसे धीरे — धीरे तुम पाओगे, भूल कम होती गईं, कम होती गईं, एक दिन भूल समाप्त हो गई और तुम्हारे जीवन में विवेक का उदय हो गया।

तुमसे मैं यह पूछता हूं—तुमने पूछा है कि ‘ अगर हम दूसरे से उपदेश न लें तो हमें कैसे पक्का पता चलेगा कि क्या ठीक और क्या गलत? क्या मन का खेल और कया विवेक की आवाज? ‘—मैं तुमसे पूछता हूं बिना विवेक के जगे तुम कैसे पक्का करोगे कि किसकी मानें और किसकी न मानें? प्रश्न तो वही का वही है। हजारों लोग हैं, हजारों शास्त्र हैं, हजारों शास्ता हैं, सबके मंतव्य अलग हैं, सबकी दृष्टि अलग है—इसमें तुम किसको चुनोगे? महावीर को चुनोगे कि कृष्ण को चुनोगे? कैसे

चुनोगे? क्योंकि महावीर कहते हैं, चींटी भी न मरे, नहीं तो सडोगे नरकों में। कृष्ण कहते हैं. फिक्र ही मत कर, सब उसकी लीला है! तू बेधड़क मार। तू मारने वाला कौन? और फिर कभी आत्मा मारी गई है? न हन्यते हन्यमाने शरीरे। यह तो शरीर ही गिरता—उठता है, आत्मा कभी मरती नहीं। तू तलवार से काटेगा, तब भी नहीं कटती। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि। तू फिक्र ही छोड़, यह तो खेल है!

किसकी मानोगे? कैसे तय करोगे? कौन ठीक इन दो गुरुओं में? तय करने का लोगों ने एक सस्ता रास्ता निकाल लिया है. जिस घर में पैदा हुए। अगर जैन घर में पैदा हुए तो महावीर को मानेंगे। यह भी कोई बात हुई? सिर्फ घर में पैदा हो जाने से! हिंदू घर में पैदा हुए तो कृष्ण को मान लेंगे! कैसे तय करोगे कौन ठीक है? अंततः तो तुम्हीं को तय करना है।

जब तुम गुरु भी चुनते हो, तब तुम कैसे तय करते हो यह अंतरात्मा से आवाज उठी कि मन की आवाज है? तुम बच नहीं सकते। यह निर्णय तो तुम्हारा ही होगा। तुम अगर मुझे गुरु चुन लो, तो तुम कैसे पक्का करोगे कि इस आदमी की बातचीत में उलझ गए, सम्मोहित हो गए, प्रीतिकर थी बातचीत, तर्कयुक्त थी—इसलिए उलझ गए या कि सच में यह आदमी जाग्रत पुरुष है? कैसे तय करोगे? क्या उपाय है? क्या कसौटी है? तुम्हीं तो तय करोगे न! तो वही प्रश्न वहीं का वहीं खड़ा है।

जब तय तुम्हीं को करना है तो एक बात साफ है कि परमात्मा ने निर्णय की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को दी हुई है और निर्णय किसी दूसरे पर नहीं छोड़ा जा सकता। तुम निर्णायक हो।

सुनो मेरी, समझो मेरी। हृदयपूर्वक समझने की कोशिश करो, समग्रता से समझने की कोशिश करो। लेकिन जब अंतिम निर्णय लोगे, तो निर्णय तो तुम्हीं लोगे कि यह आदमी ठीक कह रहा है कि गलत; इसकी मान कर चलें कि न चलें। तो तुम कुछ भी करो, चाहे किसी के पीछे चलो, चाहे न चलो, चाहे अपने पैर चलो, चाहे किसी के कंधे पर सवार हो कर चलो—निर्णायक तुम ही हो, जिम्मेवारी तुम्हारी है। तुम तो चाहते हो जिम्मेवारी टल जाए। तो कल अगर गड्डे में गिरो तो तुम मेरी गर्दन पकड़ लो कि देखो, गिराया गड्डे में, मैं तो आपके पीछे चल रहा था!

इसलिए मैं पहले ही कहे दे रहा हूं. मेरे पीछे चलने से कुछ मतलब नहीं है। गड्डे में गिरोगे तो तुम गिरोगे। और गड्डे में गिरोगे तो मैं गड्डे के किनारे खड़े हो कर हसूंगा; मैं कहूंगा, मैंने पहले ही कह दिया था। तुम्हारी मर्जी थी, तुम मेरे पीछे चले, फिर भी सुन कर चले। मैंने पहले ही कह दिया था कि अगर गिरोगे तो तुम गिरोगे। तुम मुझसे यह न कह सकोगे कि हम तो आपके पीछे चल रहे थे। आपने ही चुना था। मेरे पीछे चलना भी आपने चुना था। मैंने जबर्दस्ती थोप नहीं दिया था। जबर्दस्ती कौन किस पर थोप देता है? कैसे थोपा जा सकता है?

लेकिन आदमी उत्तरदायित्व से बचता है। आदमी चाहता है, किसी के कंधे पर जिम्मेवारी हो जाए तो कल हम कह तो सकें; अगर अदालत हो कहीं परमात्मा की, तो हम कह सकें हम तो बिलकुल निर्दोष हैं, ये गेरुए वस्त्र इस आदमी ने पहना दिए थे। अब क्या पक्का है तुम्हें कि परमात्मा गेरुए वस्त्र के पक्ष में होगा? कुछ पक्का नहीं है। बुद्ध ने पीले वस्त्र चुन लिए थे, हो सकता है, परमात्मा पीले वस्त्र के पक्ष में हो। पार्श्वनाथ ने सफेद वस्त्र चुन लिए थे, हो सकता है परमात्मा सफेद वस्त्रों के पक्ष में हो। और महावीर नग्न खड़े हो गए थे, हो सकता है परमात्मा न्यूइडस्ट हो। करोगे क्या? यह तो परमात्मा जब आएगा, तभी। उस वक्त तुम यह न कह सकोगे कि हमें तो कुछ पता ही नहीं था; हमें तो इस आदमी ने कह दिया, गैरिक वस्त्र पहन लो, हमने गैरिक वस्त्र पहन लिए।

नहीं, तब तुम्हें जवाब स्वयं ही देना होगा। यह चुनाव भी तुम्हारा चुनाव है। अगर तुमने यह चुना कि मेरे प्रति समर्पित हो जाओ, यह भी तुम्हारा संकल्प है, यह भी तुमने ही चाहा है। इस तरह तुम इस बात को सदा ही याद रखना कि तुम्हीं निर्णायक हो, तुम्हीं उत्तरदायी हो और अंतिम रूप से जो भी फलित होगा, घटित होगा, उसका श्रेय भी तुम्हारा है।

ऐसा मान कर जो व्यक्ति चलता है—वही सत्य का शोधक, खोजी।

खतरे तो हैं ही। जीवन जोखिम है। और जो जितने ज्यादा खतरे उठाता है, उतना ही जानने में समर्थ हो पाता है। जो लोग खतरे नहीं उठाते, वे मिट्टी के लौंदे रह जाते हैं। उनके जीवन में कोई धार नहीं होती। उनके जीवन में कोई त्वरा नहीं होती। कोई चमक नहीं होती। उनके जीवन में प्रतिभा नहीं होती। तुम जा कर देख सकते हो, ऐसे मिट्टी के लौंदे तुम्हें आश्रमों में बैठे मिलेंगे, मंदिरों में बैठे मिलेंगे—घंटियां बजा रहे, पूजा कर रहे, कोई उपवास कर रहा——मिट्टी के लौंदे हैं! उन आंखों में तुम बिजलियां न पाओगे, और उनके प्राणों में तुम वह ऊर्जा न पाओगे, जो ऊर्जा सत्य को पाने के लिए अत्यंत अनिवार्य है। तुम उन्हें मुर्दा पाओगे। तुम उन्हें लाश की तरह पाओगे।

तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि ऐसे तुम मत बन जाना। तुम अपनी निजता को बचाना और अपनी निजता को निखारना। और कितनी ही कठिनाई हो, कभी अपनी निजता को मत खोना। क्योंकि निजता ही तुम्हारी आत्मा है और उसी आत्मा में छिपा है सत्य।

बुद्ध ने अंतिम वचन कहा है आनंद को. ‘अप्प दीवो भव!’ अपना दीया स्वयं बन। आनंद रोने लगा था बुद्ध को जाता देख कर, बुद्ध चले। घबड़ा गया होगा। इन्हीं के पीछे चलता रहा चालीस— व्यालीस साल। पूरा जीवन दाव पर लगा दिया। इन्हीं की पीठ के सिवाए कुछ देखा नहीं। इन्हीं के पीछे चलता रहा, उठता रहा, बैठता रहा; आज ये चले, तो रोने लगा! स्वाभाविक था रोना। उसने कहा कि मैं तो अभी तक पहुंचा नहीं और आपके जाने की घड़ी आ गई। तो बुद्ध ने कहा. मैंने तुझे कभी कहा ही नहीं कि मैं तुझे पहुंचा दूंगा। अपना दीया खुद बन! और आनंद, शायद मेरे कारण बाधा पड़ती रही हो, तो अब मैं जा रहा हूं; अब वह बाधा भी न रहेगी। अब तेरे सामने कोई पीठ न होगी; अब तेरे सामने खुला आकाश होगा।

और आश्चर्य की घटना है कि आनंद चौबीस घंटे बाद ही ज्ञान को उपलब्ध हुआ। व्यालीस साल में जो न हो सका, वह चौबीस घंटे में हुआ। यह बात तीर की तरह चुभ गई। यह बात तो उसकी समझ में आ गई कि आज बुद्ध चले, अब मैं अकेला रह गया।

अकेले तो हम सदा से हैं। किसी के पीछे चलो तो भी तुम अकेले हो, भ्रांति भर पैदा होती है कोई साथ है। इस अकेलेपन को तुम पहले से ही याद रखो। बुद्ध ने आनंद से अंत में कहा था, मैं अपने ‘आनंदों’ से प्रथम से कह रहा हूं कि तुम अपने दीये स्वयं बनो। तब कोई जरूरत नहीं कि मेरे जाने के बाद चौबीस घंटे में तुम ज्ञान को उपलब्ध होओ; तुम मेरे रहते चौबीस क्षण में ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हो। क्योंकि ज्ञान को उपलब्ध होने का कुल अर्थ इतना ही है कि यह जीवन मेरा है और मैं उत्तरदायी हूं। भूल होगी, चूक होगी तो मैं जिम्मेवार हूं। मैं उत्तरदायित्व पूरा अपने हाथ में लेता हूं। मैं अपनी मालकियत अपने ऊपर घोषणा करता हूं।

इसलिए तो तुम संन्यासियों को मैं स्वामी कहता हूं। स्वामी का अर्थ है. तुम्हारी मालकियत तुम्हारे हाथ में है। यह मैंने घोषणा कर दी कि अब तुम स्वामी हुए। अब तुम्हारा कोई भी स्वामी नहीं है। अब तुम अपने स्वामी हो। यह तुम्हारा स्वामित्व है।

इस घोषणा के साथ ही सत्य की यात्रा शुरू होती है। और इस घोषणा को जिस दिन तुम पूरा—पूरा अनुभव कर लोगे, उस दिन आ गई मंजिल, उस दिन आ गया अपना घर।

सिखलाका वह ऋत् एक ही अनल है,

जिंदगी नहीं वहां, जहां नहीं हलचल है।

जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है, ‘

सुख की तरंग का जहां अंध वर्जन है।

जो सत्य राख में सने रुक्ष रूठे हैं,

छोड़ो उनको, वे सही नहीं, झूठे हैं।

जो सत्य राख में सने रुक्ष रूठे हैं।

छोड़ो उनको, वे सही नहीं, झूठे हैं।

जीवंत सत्य तो तुम्हारे भीतर पैदा होगा। बाहर से तुम जो भी ले आए हो, सब कूड़ा—कर्कट है; किसी और से इकट्ठा कर लिया है, सब उधार और बासा और व्यर्थ है। आग लगा दो उस सब में। वे सब सत्य राख में सने हैं।

तुम्हारा सत्य तुम्हारे भीतर पैदा होगा। तुम्हारे सत्य के लिए तुम्हें ही प्रसव—पीड़ा से गुजरना होगा। तुम्हारा सत्य तुम्हारे भीतर जन्मेगा। तुम्हें उस सत्य के लिए गर्भ बनना होगा, और प्रसव—पीड़ा से गुजरना होगा।

खयाल किया तुमने? कोई स्त्री को बच्चा पैदा नहीं होता, वह किसी के बच्चे को गोद ले लेती है। ऐसे मन समझाना हो जाता है।

मैं तुमसे कहता हूं. सत्यों को गोद मत लेना। यह तो बड़ी झूठ हो जाएगी। और हम सबने सत्य गोद ले लिए हैं। कोई हिंदू बना बैठा है, कोई ईसाई, कोई मुसलमान, कोई जैन। हमने सब सत्य उधार ले लिए हैं।

नानक का सत्य है; तुम सिक्ख बने बैठे हो, यह सत्य तुम्हारा नहीं है। नानक ने इसके लिए पीड़ा सही, नानक ने गर्भ धारण किया—इस सत्य को जन्म दिया। तुम मुक्त लिए बैठे हो। तुमने इसके लिए कुछ भी नहीं किया। न तुम आग में गए, न तुम जले, न तुम भटके, न तुम गिरे—तुम्हें यह मुक्त मिला। पीड़ा निखारती है। मुफ्त मिलने से कुछ भी निखार नहीं आता।

गोद मत लेना सत्यों को—जन्माना। और जब तुम जन्माने में समर्थ हो पाओगे, तभी तुम्हारे भीतर वह तरंग उठेगी निजता की, व्यक्तिगत की। तुम अद्वितीय बनोगे। अद्वितीयता धर्म का आखिरी फल है।

और यह भी मैं जानता हूं कि अचानक आज तुम पूरे सत्य को न पा सकोगे। इंच—इंच चलना होगा, घिसटना होगा—और चढ़ाई बड़ी है और पहाड़ ऊंचा है, और सांस घुटेगी, और सब बोझ छोड़ देना होगा; क्योंकि जरा भी बोझ नहीं ले जाया जा सकता। जैसे—जैसे पहाड़ पर कोई चढ़ने लगता है, वैसे—वैसे बोझ कम करना पड़ता है। जब हिलेरी एवरेस्ट पर पहुंचा, उसके पास कुछ भी नहीं था। पानी की बोतल भी थोड़े पीछे उसे छोड़ देनी पड़ी, क्योंकि उतना बोझ ढोना भी मुश्किल हो गया। जितनी ऊंचाई होती है उतना बोझ मुश्किल हो जाता है। सब सामान ले कर आया था, वे धीरे — धीरे सब छूट गए; धीरे— धीरे सब डालता गया, राह के किनारे रखता गया, क्योँकि उनका खींचना मुश्किल होने लगा था। जब पहुंचा तो अकेला था, खाली था।

और जिस गौरीशंकर की चढ़ाई की मैं तुमसे बात कर रहा हूं वह तो आखिरी ऊंचाई है अस्तित्व की। वह आज न घट जाएगी। इंच—इंच जलना और तपना होगा। धीरे— धीरे तुम छोड़ पाओगे। मगर छोड़ने का खयाल रहे।

बांसों—बांस उछलती लहरें।

देख लिया है चांद सलोना,

लेकिन हाथ रह गया बौना।

रह—रहकर कर मलती लहरें,

बांसों—बांस उछलती लहरें।

शीतलता कैसी बिखरा दी,

पानी में ही आग लगा दी।

बुझती और सुलगती लहरें,

बांसों—बांस उछलती लहरें।

स्वप्न —लोक के यात्रा — पथ पर,

भावुकता ने रचा स्वयंवर,

असफल हो सिर हरनती लहरें,

बांसों — बांस उछलती लहरें।

चांद तो दिखाई पड़ने लगता है उपदेश से, तुम बांसों—बांस उछलने लगते हो। मगर इतने से चांद मिल न जाएगा। उपदेश से चांद नहीं मिलेगा, उपदेश से चांद दिखेगा। मिलेगा तो तुम्हारे अपने जीवन को एक अनुशासन और आदेश देने से।

वह जो मैंने कहा कि तुम उपदेश सब से ले लेना, आदेश स्वयं देना—उसका इतना ही अर्थ है। महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, नानक, कबीर, उनके पास तुम्हें पहली दफे चांद की स्मृति आएगी कि चांद है। पहली दफे तुम्हारी जमीन में गड़ी आंखें ऊपर उठेंगी और आकाश को देखेंगी। तुम उछलोगे खूब। जीवन बड़ी प्रफुल्लता से भर जाएगा।

सदगुरु के पास होना एक अपूर्व अनुभव है। तो फिर सत्य को पहुंच जाना तो कैसा अपूर्व होगा, सोच लो! सदगुरु के पास होना भी अपूर्व अनुभव है। जिसे सत्य मिला है, उसके पास होना भी अपूर्व अनुभव है।

बांसों —बांस उछलती लहरें

देख लिया है चांद सलोना

लेकिन हाथ रह गया बौना।

रह—रहकर कर मलती लहरें

बांसों—बांस उछलती लहरें!

तुम्हारा हृदय उछलने लगेगा, तरंगें लेने लगेगा : चांद दिखाई पड़ने लगा!

लेकिन उपदेश को ही तुम सब मत समझ लेना—शुरुआत है, प्रारंभ है। चांद तक चलना है, चांद तक पहुंचना है। और तुम अपने ही पैरों से पहुंच पाओगे। कोई किसी और के पैरों से कभी नहीं पहुंचा है। अप्प दीपो भव! अपने दीए बनो!

तीसरा प्रश्न :

 

मैं आंसू का एक झरना हूं? लेकिन हूं कंधा हुआ अरसे से। कैसे चट्टान हटे बुद्धि की, कैसे मैं फूट कर बह निकलूं?

 

पूछा है ‘योग प्रीतम’ ने। प्रीतम कवि हैं। और कवि के लिए सदा एक कठिनाई है। और कठिनाई यह है कि कवि का अस्तित्व तो होता है हृदय का, अभिव्यक्ति होती है बुद्धि की। तो कवि के भीतर एक द्वंद्व होता है, एक सतत द्वंद्व है। जो उसे कहना है, वह शब्दों के पार है। और जो उसे कहने का माध्यम है, वे शब्द हैं। जो वह उडेलना चाहता है, वह हृदय है—और उडेलना पड़ता है बुद्धि की भाषा में। सब कट—पिट जाता है, सब खंड—खंड हो जाता है, छितर जाता है।

इसलिए कवि सदा पीड़ा में रहता है। कवि कभी तृप्त नहीं हो पाता। और जो कवि तृप्त हो जाए वह बहुत छोटा कवि है; तुकबंद कहना चाहिए, कवि नहीं। जितना बड़ा कवि हो उतनी अतृप्ति होती है। तडुफता है कुछ प्रगट होने को। और जब उसे प्रगट करना चाहो तब मिलते हैं छोटे —छोटे शब्द, जिनमें वह समाता नहीं। बड़ा आकाश है हृदय का और शब्दों के भीतर जगह नहीं है, स्थान नहीं, अवकाश नहीं।

तो कह—कह कर भी कवि कह नहीं पाता। जीवन भर गा—गा कर भी गा नहीं पाता। जिसे गाने आया था वह तो अनगाया ही रह जाता है। जिसके लिए जीवन भर चाहा था कि प्रगट कर दे, वह

अप्रगट ही रह जाता है।

तो कवि की दुविधा है। वह दुविधा यह है कि भाव तो प्रगट करना है और बुद्धि से प्रगट करना है। अगर कवि इसमें ही उलझा रहे तो सदा बेचैन और असंतुष्ट रहेगा।

कवि एक साथ दो संसारों में जीता है, तो बड़ा तनाव होता है। पश्चिम में बहुत—से कवि आत्महत्या कर लिए। और बहुत—से कवि पागल हो जाते हैं। और अक्सर कवि शराब पीने लगते हैं। और उसका कुल कारण इतना है कि उनके भीतर इतनी बेचैनी होती है कि उस बेचैनी को ढालने के लिए सिवाय शराब के, बेचैनी को ढांकने के लिए सिवाय शराब के और कुछ मिलता नहीं। किसी तरह अपने को विस्मरण करना चाहते हैं; वह तनाव भारी है।

कवि तब तक खिंचा रहता है जब तक कि संत न बन जाए। कवि तब तक असंतुष्ट रहता है जब तक संत न बन जाए। संत बनने का अर्थ है कि अब बुद्धि से प्रगट करने की चेष्टा छूटती है, अब प्रगट करने की चेष्टा विचार से छूटती है; और नए ढंग पकड़ता है कवि। जैसे मीरा नाचने लगी, बजाने लगी अपना सितार; कि बाऊल ले लेते इकतारा, ले लेते एक डुगी, बजाने लगते डुग्गी और बजाने लगते इकतारा और नाचने लगते। जो बड़े—बड़े कवि नहीं कह पाते, वे बाऊल कह पाते हैं। कि चैतन्य महाप्रभु नाचने लगे। वे जो कहना चाहते थे, वह नाच से ज्यादा आसानी से कहा जा सकता है। शब्द उसके लिए ठीक माध्यम नहीं हैं। तो जब तक कवि रहस्य को अपने समग्र व्यक्तित्व से प्रगट न करने लगे, तब तक अड़चन होती है।

‘मैं आंसू का इक झरना हूं,—पूछा है—’लेकिन हूं रुंधा हुआ अरसे से!’

रुंधे हुए हो, इसीलिए आंसू के झरने हो, ऐसा प्रतीत होता है। जैसे ही आंसू प्रगट हुआ, मुस्कान बन जाता है। मुस्कान रुंधी रह जाए, आंसू हो जाती है। रुंधी मुस्कान का नाम ही आंसू है।

इसलिए तो तुम जब कभी रो लेते हो तो हलके हो जाते हो। और अगर तुम दिल भर कर रो लो तो तुम्हारे चेहरे पर एक स्मित आ जाता है, एक प्रसाद आ जाता है, एक आशीष की वर्षा हो जाती है तुम्हारे ऊपर। इसलिए तो रोने में इतना प्रसाद है।

पुरुषों ने खो दिया प्रसाद। स्त्रियों के चेहरे पर थोड़ा प्रसाद शेष रहा है, क्योंकि उन्होंने रोने की क्षमता कभी नहीं खोई। स्त्रियों ने बहुत कुछ खोया, लेकिन एक बहुत बहुमूल्य चीज बचा ली, वह रोने की क्षमता। पुरुषों ने बहुत कुछ बचाया, शक्ति, पद, प्रतिष्ठा। लेकिन कुछ बहुत बहुमूल्य खो दिया, वह रोने की क्षमता खो दी। उनकी आंखें गीली नहीं हो पातीं। और जिसकी आंखें गीली नहीं हो पातीं उसका हृदय धीरे— धीरे पथरीला हो जाता है।

तो मैं तुमसे कहूंगा : प्रीतम, अगर तुम्हें लगता है आंसू का झरना भीतर पड़ा है—

‘… रुंधा हुआ अरसे से

कैसे चट्टान हटे बुद्धि की?

कैसे मैं फूट कर बह निकलूं?’

और तुम जो प्रश्न पूछ रहे हो, वह फिर बुद्धि का है—’कैसे?’ तुम बुद्धि से ही बुद्धि को न हटा सकोगे। रोओ, दिल भर कर रोओ। कौन रोकता है? पहले संकोच लगेगा, तो एकांत में चले गए, वृक्षों के पास बैठ लिए। वृक्ष तुम्हारा बिलकुल भी अपमान न करेंगे कि रो रहे, अरे स्त्रैण मालूम होते! वृक्ष तुमसे बिलकुल न कहेंगे कि प्रीतम रोओ मत, यह पुरुष जैसा नहीं मालूम पड़ता, अरे बहादुर आदमी, तुम रो रहे? चले जाओ पहाड़ियों में, चले जाओ नदी के तट पर। रोओ! वृक्ष तुम्हें स्वीकार करेंगे। नदियां तुम्हें स्वीकार कर लेंगी! पहाड़ तुम्हें स्वीकार कर लेंगे। दिल भर कर रोओ। रोने के लिए ‘कैसे’ क्या पूछना? रोना शुरू करो।

रोना तो एक कृत्य है। कैसे का कोई सवाल नहीं है। कैसे का तो मतलब यह है कि अब तुम पहले इंतजाम करोगे, विधि—विधान करोगे, अनुष्ठान करोगे, आयोजन करोगे कि कैसे रोएं। तो क्या करोगे? मिर्ची पीस कर आंखों में डालोगे? तो रोना झूठा हो जाएगा।

अभिनेता वैसा करते हैं। अब रामलीला में राम को रोना पड़ रहा है और सीता का उन्हें कोई दर्द है नहीं। सीता है भी नहीं सीता, गांव का कोई लड़का ही बना हुआ है। हो सकता है राम और सीता में झगड़ा भी हो। तो अब क्या करना? तो मिर्च का थोड़ा—सा मसाला बना लेते हैं। उसको हाथ में लगाए रखते हैं। जब रोना पड़ता है राम को तो वे अपनी आंख में लगा लेते, आंसू बहने लगते हैं। आयोजन करके जो रोना आएगा, वह झूठा हो जाएगा। चेष्टा से जो आंसू आएंगे, वे आंसू न रहे, उनका प्रसाद—गुण खो गया। इतना कुछ है चारों तरफ इतना दुख है, उसे देखकर रोओ! इतनी पीड़ा है, उसे देखकर रोओ! इतना आनंद है, उसे देखकर रोओ! इतने फूल खिले हैं, उन्हें देखकर रोओ! इतने चांद—तारे हैं, उन्हें देखकर रोओ! रोने के लिए क्या कमी है? पूरा आयोजन है। और रोओ—ध्यानपूर्वक! डोलो रोने में! नाचो रोने में! बहने दो आंसुओ की धार!

शुरू—शुरू में कठिनाई होगी, क्योंकि बहुत दिन का अवरुद्ध है तो शायद तुम भूल गए होओ। स्वात में जाकर बैठ जाओ और प्रतीक्षा करो। किसी—न—किसी दिन तुम अचानक पाओगे, आंखों से आंसू बहने लगे अकारण।

लोग सोचते हैं, कारण चाहिए। घर में कोई मरेगा तो रोके। मृत्यु रोज घट रही है; तुम्हारे घर में घटेगी, इसके लिए क्या प्रतीक्षा करते हो? जीवन मृत्यु से घिरा है। चले जाओ मरघट पर।

बुद्ध भेज देते थे अपने भिक्षुओं को मरघट पर कि तीन महीने वहीं ध्यान कर लो। कोई लाश आएगी, जलेगी, तुम बैठ कर देखते रहो।

रोना है तो हर जगह सुविधा है। कारण खोजने की कोई विशेष जरूरत ही नहीं; सब जगह कारण मौजूद है। देखते हो, वृक्ष पर पत्ता था, कल तक हरा था, आज पीला हो गया! देखते रहो उस पीले होते पत्ते को—और तुम पाओगे तुम्हारी आंखें डबडबा आईं। और तुम पाओगे वह पत्ता पीला होकर गिरने लगा, वह टूट गया, अब जमीन पर पड़ा है। ऐसे ही सब गिर जाएगा। ऐसे ही तुम गिर जाओगे। ऐसा गिरना ही होने वाला है।

जो फला, सो झरा। यहां जो जन्मा, सो मरा। यहां सब तरफ इन हरे—से—हरे वृक्षों को भी मृत्यु की काली छाया घेर कर खड़ी है।

फिर कोई दुख ही जरूरी नहीं है रोने के लिए; सुख भी! इतनी मृत्यु के घिराव में भी जीवन नष्ट नहीं होता—देखो तो इस अपूर्व चमत्कार को! इतने कांटे हैं, फिर भी फूल खिले चले जाते हैं। मौत रोज—रोज आती है, फिर भी बच्चे जन्मे जाते हैं। परमात्मा थकता नहीं। मौत जीत नहीं पाती। जीवन हारता नहीं, जीवन बढ़ता ही चला जाता है। आये मौत कितनी, जीवन फिर नई तरंगें ले कर उठ आता

है। मौत आती रहती है और जीवन बढ़ता जाता है।

इस अहोभाव को देखो, इस आनंद भाव को देखो! इस अपने होने को सोचो। यह होना इतना आश्चर्यजनक है —तुम देख पाते हो, सोच पाते हो, अनुभव कर पाते हो। तुम हो, इतना ही काफी है। यह भाव ही तुम्हें डोला जाएगा।

तो स्वात में बैठो, शिथिल हो जाओ, धारणाएं छोड़ो। देखो आकाश के तारों को, कि बहती नदी की धार को, कि आकाश में उठे हुए वृक्षों को, कि घूमते— भटकते बादलों को। इस जीवन—प्रकृति के चमत्कार से घिर जाओ। और तुम पाओगे आंखों से आंसू बहने लगे।

विधि की नहीं बात करूंगा, क्योंकि तुम पूछते हो ‘कैसे?’ कैसे में तो अड़चन हो जाएगी। कैसे ही से तो रुकावट पड़ गई है।

फूट कर बह निकलने में बुद्धि बाधा नहीं दे रही है। तुम बुद्धि को पकड़े हो, इसलिए बाधा है। इसे भी खयाल में ले लेना। लोग सोचते हैं, बुद्धि बाधा दे रही है। बुद्धि बाधा नहीं दे रही।

चैतन्य महाप्रभु के पास कुछ कम बुद्धि न थी। लेकिन फर्क इतना ही है कि उन्होंने बुद्धि को पकड़ा नहीं। बुद्धि अपनी जगह है, हृदय उसे डुबाता हुआ, सरोबोर करता हुआ बहता रहता है। बुद्धि बाधा नहीं डालती। सच तो यह है, जहां चट्टानें होती हैं। वहां नदी में संगीत आ जाता है।

तुमने देखा, झरना जब चट्टानों से बह कर निकलता है तो झरने में संगीत आ जाता है! चट्टानें न हों तो संगीत खो जाता है। झरना कुछ रिक्त हो जाता है बिना चट्टानों के। झरने में शोर नहीं रह जाता, स्वर नहीं रह जाता। झरना नीरव हो जाता है। झरने की वाणी खो जाती है।

तो मैं तो तुमसे कहता हूं बुद्धि की फिक्र ही मत करो। बुद्धि को रहने दो पत्थर की तरह, चट्टानों की तरह; बहो बुद्धि के ऊपर से, बहो बुद्धि को घेर कर। और तुम पाओगे कि तुम्हारे हृदय के बहते झरने पर जब बुद्धि की चट्टानों की टक्कर होती है तो उठेगा एक संगीत, उठेगा एक निनाद, एक मरमर! वही काव्य है। वही असली कविता है।

एक तो ऐसी कविता है जो भाव उठता है और उसको तुम चेष्टा करके बुद्धि के शब्दों में ढालते हो—वही तुम्हारी अड़चन है अभी। एक और भी कविता है, जो बहती अनायास, बुद्धि की चट्टानों से टकराती। उस टकराहट से जो रव पैदा होता है, जो लय पैदा होती है, वह जो गुनगुनाहट पैदा हो जाती है—वह एक कविता है। उस कविता में अर्थ कम होगा, लय ज्यादा होगी। उस कविता में व्याकरण कम होगा, संगीत ज्यादा होगा। उस कविता को शायद बुद्धि के ढांचे में समझा ही न जा सके, लेकिन फिर भी हृदय उससे आंदोलित होगा।

आधुनिक काव्य की यही खूबी है। उसने व्याकरण छोड़ी, लयबद्धता पुराने ढंग की, मात्रा, छंद का आयोजन छोड़ा। नई कविता शुद्ध कविता है। पुरानी कविता से उसने बड़ी ऊंचाई ली है। यह बहुत लोगों की समझ में नहीं आती, क्योंकि बहुत लोग सीमा के बाहर को नहीं समझ पाते। बहुत लोग व्याकरण के बाहर को नहीं समझ पाते। बहुत—से लोग परिभाषा के बाहर को नहीं समझ पाते।

ऐसा नए चित्रों में भी हुआ है, नई मूर्तियों में भी हुआ है, नई कविता में भी हुआ है। सारे जगत में एक विस्फोट हुआ है—वह विस्‍फोट हृदय को बहाने से है। बुद्धि के पत्थर पड़े रहने दो। इससे हानि नहीं है। इससे बुद्धि के इन पत्थरों से थोड़ी समृद्धि ही बढ़ेगी।

और कवि को चाहिए प्रेम, चाहिए प्रार्थना, चाहिए परमात्मा; अन्यथा अड़चन रहेगी। जब तक कविता भजन नै बने, तब तक दुविधा रहेगी। और जब तक कविता प्रार्थनापूर्ण न हो जाए, अर्चना न बने, नैवेद्य न बने, तब तक अड़चन रहेगी।

कौन है अंकुश

इसे मैं भी नहीं पहचानता हूं।

पर सरोवर के किनारे

कंठ में जो जल रही है,

उस तृषा, उस वेदना को जानता हूं।

आग है कोई नहीं जो शांत होती

और खुल कर खेलने से निरंतर भागती है।

टूट गिरती हैं उमंगें

बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है,

अप्रतिभ में, फिर उसी दुर्गम जलधि में डूब जाता

फिर वही उद्विग्न चिंतन

फिर वही पृच्छा चिरंतन

रूप की आराधना का मार्ग

आलिंगन नहीं तो और क्या है?

स्नेह का सौंदर्य को उपहार

रस चुंबन नहीं तो और क्या है?

रक्त की उत्तप्त लहरों की परिधि के पार कोई सत्य हो तो,

चाहता हूं भेद उसका जान लूं

पंथ औ’ सौंदर्य की आराधना का

व्योम में यदि

शून्य की उस रेख को पहचान लूं।

पर जहां तक भी उडूं

इस प्रश्न का उत्तर नहीं है।

मृत्तिमहद् आकाश में ठहरें कहां पर

शून्य है सब

और नीचे भी नहीं संतोष।

मिट्टी के हृदय से

दूर होता ही कभी अंबर नहीं है।

इस व्यथा को झेलता

आकाश की निस्सीमता में

घूमता, फिरता, विकल, विभ्रांत

पर कुछ भी न पाता

प्रश्न जो गढ़ता

गगन की शून्यता में गज कर सब ओर

मेरे ही श्रवण में लौट आता।

मैं न रुक पाता कहीं

फिर लौट आता हूं पिपासित

शून्य से साकार सुषमा के भुवन में

युद्ध से भागे हुए

उस वेदना—विह्वल युवक—सा

जो कहीं रुकता नहीं

बेचैन जा गिरता अकुंठित

तीर—सा सीधे प्रिया की गोद में।

नींद जल का स्रोत है

छाया सघन है

नींद श्यामल मेघ है

शीतल पवन है।

किंतु जग कर देखता हूं

कामनाएं वर्तिका—सी बल रही हैं

जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं

प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं।

प्राण की चिरसगिनी यह वहि

इसको साथ लेकर

भूमि से आकाश तक चलते रहो

मर्त्य नर का भाग्य

जब तक प्रेम की धारा न मिलती

आप अपनी आग में जलते रहो।

मर्त्य नर का भाग्य

जब तक प्रेम की धारा न मिलती

आप अपनी आग में जलते रहो!

काव्य एक यात्रा का प्रारंभ है, अंत नहीं। काव्य की अंतिम पूर्णाहुति तो प्रेम में है।

कवि का हृदय तो केवल इस बात की सूचना दे रहा है कि प्रेम की बड़ी गहरी संभावना है, जो नहीं घट रहा है। करो प्रेम!

तुम पूछोगे ‘कैसे’ फिर। प्रेम के लिए ‘कैसे’ की कोई भी जरूरत नहीं। शुरू करो; ऐसे ही जैसे

कोई तैरना शुरू करता है, अनगढ़ हाथ फेंकता है। कोई भी तो यहां जन्म से ही सीखा हुआ नहीं आता। सभी को हाथ इरछे—तिरछे फेंकने पड़ते हैं। फिर धीरे— धीरे तैरने की कुशलता आ जाती है।

करो प्रेम! वृक्षों से करो, पशु—पक्षियों से करो, मित्रों से करो, प्रियजनों से करो। जहां मौका मिले प्रेम का, —खो मत।

हम बड़े अजीब हैं! हम प्रेम के संबंध में बड़े कृपण हैं। प्रेम में हम ऐसे कंजूस हैं कि जिनसे हम कहते हैं, हमारा प्रेम है, उनसे भी हम बामुश्किल से प्रेम का संबंध बनाते हैं; जैसे कि कुछ लुटा जा रहा है; जैसे कि प्रेम क्या कर लेंगे, तो कुछ खो जाएगा; जैसे कि प्रेम क्या दे देंगे किसी को तो कुछ मिट जाएगा भीतर; जैसे कि कुछ कम हो जाएगा। प्रेम ऐसी संपदा नहीं है। यह तिजोड़ी नहीं है आदमियों की, कि तुमने अगर दस रुपए किसी को दे दिए तो दस रुपए कम हो गए। यह कुछ मामला ही और है। यह तो ऐसे है जैसे कुएं से कोई पानी भर ले। तुम भर लो पुराना पानी, नया ताजा झरना कुएं में फूटा चला आ रहा है। पुराने को हटाओ, नया मिलता है। सड़े को हटाओ, गले को हटाओ—ताजा मिलता है। जैसे कुएं से पानी को भरते रहो तो कुआं जीवंत रहता है, झरने जागे रहते हैं, नई—नई धारें फूटती रहती हैं; सागर, दूर का सागर, कुएं को भरता रहता, भरता रहता। बीच की मिट्टी छानती है। सागर के पानी को सीधे नहीं पीया जा सकता। पीयोगे तो मर जाओगे। लेकिन बीच की मिट्टी सागर के पानी को छान लेती है, छान देती है। और कुएं में पानी भागा चला आ रहा है। अगर तुम भरोगे न पानी, बांटोगे नहीं पानी, तुम कहोगे मेरा कुआ खाली हो जाएगा—तो तुम्हारा कुआ सडेगा, मरेगा। धीरे — धीरे झरने बहेंगे नहीं, तो सूख जाएंगे।

अब तुम पूछते हो कि झरनों को कैसे खोलें, मैं अवरुद्ध पड़ा हूं एक अरसे से, रुंधा पड़ा हूं कैसे खोलूं इस झरने को? मैं कहता हूं : बांटो प्रेम! निमंत्रण दो लोगों को! जहां मौका मिल जाए— परिचित से, अपरिचित से; अपने से, पराए से; पहचान वाले से, अजनबी से! प्रेम में कुछ भी तो तुम्हारा खर्च नहीं होता है। दो! जरूरी नहीं कि तुम कुछ दो ही.।

टालस्टॉय ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं एक दिन जा रहा था एक राह के किनारे से, एक भिखमंगे ने हाथ फैला दिया। सुबह थी, अभी सूरज ऊगा था और टालस्टॉय बड़ी प्रसन्न मुद्रा में था, इंकार न कर सका। अभी— अभी चर्च से प्रार्थना करके भी लौट रहा था, तो वह हाथ उसे परमात्मा का ही हाथ मालूम पड़ा। उसने अपने खीसे टटोले, कुछ भी नहीं था। दूसरे खीसे में देखा, वहा भी कुछ नहीं था। वह जरा बेचैन होने लगा। उस भिखारी ने कहा कि नहीं, बेचैन न हों, आपने देना चाहा, इतना ही क्या कम है! टालस्टॉय ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। और टालस्टॉय कहता है, मेरी आंखें आंसुओ से भर गईं। मैंने उसे कुछ भी न दिया, उसने मुझे इतना दे दिया। उसने कहा कि आप बेचैन न हों! आपने टटोला, देना चाहा—इतना क्या कम है? बहुत दे दिया!

न दे कर भी देना हो सकता है। और कभी—कभी दे कर भी देना नहीं होता। अगर बेमन से दिया तो देना नहीं हो पाता। अगर मन से देना चाहा, न भी दे पाए, तो भी देना घट जाता है—ऐसा जीवन का रहस्य है।

बांटते चलो! धीरे— धीरे तुम पाओगे, जैसे—जैसे तुम बांटने लगे ऊर्जा, वैसे—वैसे तुम्हारे भीतर से कहीं परमात्मा का सागर तुम्हें भरता जाता। नई—नई ऊर्जा आती, नई तरंगें आतीं। और एक दफा यह तुम्हें गणित समझ में आ जाए. .यह जीवन का अर्थशास्त्र नहीं है, यह परमात्मा का अर्थशास्त्र है, यह बिलकुल अलग है। जीवन का अर्थशास्त्र तो यह है कि जो है, अगर नहीं बचाया तो लुटे। इसको तो बचाना, नहीं तो भीख मांगोगे!

मैंने सुना, एक भिखमंगा मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर भीख मांग रहा था। मुल्ला ने उसे खूब दिल खोल कर दिया। खिलाया, पिलाया, वस्त्र पहनाए, जाने लगा तो दस का नोट भी दिया। फिर मुल्ला ने उससे पूछा कि तुम आदमी तो भले मालूम पड़ते हो, तुम्हारे चेहरे से संस्कार मालूम पड़ता है। तुम्हारे वस्त्र भी यद्यपि दीन, मलिन हैं, फटे—पुराने हैं, लेकिन कीमती मालूम होते हैं। यह दशा तुम्हारी कैसे हुई?

वह कहने लगा, जैसे आप कर रहे हैं, ऐसे ही मैं करता था। जल्दी आपकी भी यही दशा हो जाएगी। दे—दे कर यह दशा हुई। बांटता रहा, उसी में लुट गया।

तो एक तो इस बाहर के जगत का अर्थशास्त्र है : यहां छीनो तो मिलेगा, यहां दो तो खो जाएगा। एक भीतर का अर्थशास्त्र है, कबीर ने कहा दोनों हाथ उलीचिए! उलीचते रही तो नया आता रहेगा। बांटते रहो तो मिलता रहेगा। जो बचाया वह गया; जो दिया वह बचा। जो तुमने बांट दिया और दे दिया, वही तुम्हारा है अंतर के जगत में।

तो दो काम करो : प्रेम बाटो और आंसुओ को आने दो।

और दोनों साथ—साथ हो जाएंगे, क्योंकि दोनों एक ही घटना के हिस्से हैं। जितना हृदय में प्रेम बंटने लगता है, उतनी आंखें गीली होने लगती हैं, नम होने लगती हैं।

प्राण की चिरसगिनी यह वहि

इसको साथ ले कर

भूमि से आकाश तक चलते रहो

मर्त्य नर का भाग्य

जब तक प्रेम की धारा न मिलती

आप अपनी आग में जलते रहो।

यह जो आज जलन है, यही कल फूल की तरह खिलेगी। यह आज जो अग्नि है, यही कल तुम्हारे भीतर कमल बनेगी। मगर बांटों! प्रेम सूत्र है। और प्रेम के जगत में ‘कैसे’ का कोई संबंध नहीं! बेशर्त बांटी। यह भी मत कहना ‘किसको’! यह तो कंजूस पूछता है। पात्र— अपात्र, यह भी कंजूस पूछता है। हम कौन हैं तय करें—कौन पात्र, कौन अपात्र? जो मिल जाए, दे दो।

और जो तुमसे तुम्हारे प्रेम को ले ले, उसका धन्यवाद मानना, आभार मानना; इंकार भी कर सकता था। उसने इंकार न किया, तुम धन्यभागी हो। उसने तुम्हें अपने को लुटाने का थोड़ा मौका दिया, क्योंकि उस लुटाने से ही तुम और भरोगे, उसे धन्यवाद देना!

प्रेम जीवन में आए तो धीरे— धीरे प्रार्थना भी आ जाती है। और जब तक काव्य की क्षमता भजन न बने, जब तक काव्य प्रार्थना न बने, तब तक कवि को बड़ी बेचैनी रहेगी।

तुम्हारा काव्य जब उपनिषद बन जाए, तो कवि मर जाता है और ऋषि का जन्म होता है। ऋषि और कवि दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है। फर्क इतना ही है कि कवि चेष्टा करके हृदय के भावों को शब्दों में डालता है; और ऋषि निश्चेष्टा से, सहजता से, सहज स्फुरणा से, भाव को बहने देता है मस्तिष्क की चट्टानों पर से। उससे जो रव पैदा होता है, जो संगीत पैदा होता है—वही उसका काव्य है। और वही उसका नैवेद्य है प्रभु के चरणों में।

आखिरी प्रश्न

 

मेरे माजी के तल्स अंधेरों में,

बता ‘रजनीश ‘ क्या देखा तूने?

गर्दिश —ए— अथ्याम में था उलझा,

या बाहर उलझनों से आते देखा?

(मेरे अतीत के गहरे अंधेरे में क्या देखा? क्या मैं भाग्य—चक्र में उलझा था या भाग्य— चक्र के बाहर आ रहा था।)

 

दिनेश ने पूछा है।

उलझे तो अभी भी हो। और भाग्य—चक्र में आदमी उलझा ही रहता है जब तक पूरा न जाग जाए। भाग्य—चक्र का अर्थ ही इतना होता है कि हम बेहोशी से चले जा रहे हैं। भाग्य होता ही बेहोश आदमी का है। होश से भरे आदमी का कोई भाग्य नहीं होता। बेहोश आदमी के संबंध में ज्योतिषी भविष्यवाणी कर सकते हैं। होश वाले आदमी के संबंध में कोई ज्योतिषी कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता। क्योंकि होश से भरा हुआ आदमी क्या करेगा, इसका कोई निर्णय अतीत के हाथों में नहीं है। बेहोश आदमी क्या करेगा, यह सब अतीत पर निर्भर है।

अगर तुम्हारा अतीत बता दिया जाए, पता हो, तो तुम्हारे भविष्य की भी घोषणा की जा सकती है। तुमने कल भी क्रोध किया था, परसों भी क्रोध किया था, और पूरी पीछे क्रोध किया था—तुम कल भी क्रोध करोगे, इसमें कुछ अड़चन नहीं है। क्योंकि तुम वही करोगे जो तुम करते रहे हो। तुम आदत से चलते हो, यंत्रवत हो। भाग्य यानी यंत्रवत जीवन।

जैसे—जैसे होश जगता है, ध्यान जगता है, आदमी भाग्य के बाहर होने लगता है। फिर तुम अतीत से संचालित नहीं होते। फिर प्रतिक्षण जो घटता है, उसके साथ तुम्हारा संवाद होता है। वह संवाद सीधा है। वह पुरानी आदत के कारण नहीं। उसका कोई निर्धारण तुम्हारे पीछे के अनुभवों से नहीं होता। इस क्षण की मौजूदगी और इस क्षण की उपस्थिति और इस क्षण का बोध ही उसका निर्णायक होता है। लेकिन ‘दिनेश’ के जीवन में चेष्टा तो है बाहर आने की—और वही शुभ है। चेष्टा है तो बाहर आना भी हो जाएगा।

मुझे इसकी चिंता नहीं है कि तुमने क्या किया। तुमने पाप किए, तुमने बुरे कर्म किए—मुझे उसकी कोई चिंता नहीं, या कि तुमने पुण्य किए। न तो मेरे लिए पुण्य का कोई मूल्य है और न पाप का कोई मूल्य है; क्योंकि पुण्य भी तुमने सोए—सोए किए, पाप भी तुमने सोए—सोए किए। तुम चोर थे तो सोए थे, तुम संत थे तो सोए थे। मेरे लिए तो एक ही बात का मूल्य है कि अब तुम्हारे मन में जागने की आकांक्षा पैदा हुई। उस आकांक्षा पर सब निर्भर है। वही आकांक्षा जीवन की सबसे बड़ी घटना है। मैं कि बरबादे—निगाराने—दिलाआरा ही सही,

मैं कि रुसवा—ए—मय— ओ—सागरो —मीना ही सही,

मैं कि मक्यूले —गुलो —नरगिसे—सहला ही सही,

फिर भी मैं खाके —रहे—साहिदे —नजरा हूं दोस्त।

मैं कि बरबादे —निगाराने —दिलाआरा ही सही।

—हृदय आकर्षक सुंदरियों द्वारा बरबाद, मान लिया यही सही है।

मैं कि रुसवा—ए—मय— ओ—सागरो —मीना ही सही

—या कि शराब के प्याले और सुराही के द्वारा अपमानित, मान लिया, तो वह भी ठीक।

मैं कि मक्यूले —गुलो—नरगिसे —सहला ही सही

—और या कि फूलों, नरगिस के फूल, ऐसी आंखों वाली सुंदरियों द्वारा मारा हुआ! ठीक, वह भी ठीक, वह भी स्वीकार कर लिया।

फिर भी मैं खाके—रहे—साहिदे —नजरा हूं दोस्त।

—फिर भी मैं पारखियों के मार्ग की धूल हूं। बस, वही बात मूल्यवान है।

‘दिनेश’ के भीतर पारखी का जन्म हो रहा है। आकांक्षा पैदा हो रही है—आकांक्षा के पार जाने की। पूरब के क्षितिज पर सूरज की पहली किरणों की लाली प्रगट होने लगी।

नहीं, तुम्हारे अतीत से, तुम्हारे माजी से मुझे कुछ लेना—देना नहीं।

तुमने सपने देखे हैं अब तक, अब जागने की पहली झलक आ रही है। नींद टूटने के करीब है—वही मूल्यवान है। तुम सम्राट थे कि दरिद्र, तुम साधु थे कि असाधु, कि तुमने अब तक पुण्यों का अंबार लगा लिया था कि पापों के संग्रह कर .लिए थे—सब बात व्यर्थ है। वह सब तुमने नींद—नींद में किया था, वे सब सपने थे। अब सपना टूटने की घड़ी करीब आ रही है। ध्यान के प्रति प्रेम पैदा हुआ है, वही बात महत्वपूर्ण है।

और ‘दिनेश’ की तैयारी है मिटने की—वही बात महत्वपूर्ण है। जो मिटने को तैयार है, वह अतीत से मुक्त हो जाएगा। क्योंकि तुम हो ही अतीत का संग्रह।

हम जो निरंतर कहते हैं यहां कि अहंकार छोड़ दो, तो उसका मतलब सिर्फ इतना ही होता है कि तुम अब तक जो अतीत ने तुम्हें बनाया है उसे विस्मृत करो, उससे अपने को विच्छिन्न कर लो, ताकि ताजे के लिए घटने के लिए जगह बन सके।

बावरे, अहेरी रे! कुछ भी अवध्य नहीं तुझे,

सब आखेट है।

एक बस मेरे मन—विवर में, दुबकी कलोंच को,

दुबकी ही छोड़ कर, क्या तू चला जाएगा?

ले मैं खोल देता हूं कपाट सारे

मेरे इस खंडहर की

शिरा—शिरा छेद दे

आलोक की अनि से अपनी।

गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर दे,

विफल दिनों की तू कलोंच पर मान जा

मेरी आंखें आज जा

कि तुझे देखूं

देखूं और मन में, कृतज्ञता उमड़ आए

पहनूँ सिरोपे से, ये कनक तार तेरे

बावरे, अहेरी!

‘दिनेश’ की प्रार्थना मुझे सुनाई पड़ रही है.

ले मैं खोल देता हूं कपाट सारे

मेरे इस खंडहर की

शिरा—शिरा छेद दे

आलोक की अनि से अपनी!

और वही शुभ घड़ी है, वही भाग्योदय है, जब तुम किसी के पास जा कर कह सकी, मिटा दो मुझे। गढ़ सारा डाह कर, ढूह भर कर दे

विफल दिनों की तू कलोंच पर मान जा

मेरी आंखें आज जा!

ध्यान यानी आंखों का आंजना है। ध्यान यानी आंखों को ताजा करना है, नया करना है, अतीत की धूल झाडूना है!

‘मेरे माजी के तल्स अंधेरों में

बता ‘रजनीश’ क्या देखा तूने?’

नहीं, तुम्हारे अतीत की मैं चिंता ही नहीं करता। जो गया, गया। जो बीता सो बीता।

‘गर्दिश—ए—अथ्याम में था उलझा

या बाहर उलझनों से आते देखा?’ ‘

नहीं, अभी आए नहीं बाहर। लेकिन बाहर आने की पहली आकांक्षा उठी। और पहली आकांक्षा का उठ आना आधी यात्रा का पूरा हो जाना है।

ले मैं खोल देता हूं कपाट सारे,

मेरे इस खंडहर की

शिरा—शिरा छेद दे

आलोक की अनि से अपनी।

इधर मैं प्रकाश लिए बैठा हूं, तुम अगर तैयार हो हृदय को खोल देने को, तो मृत्यु घटेगी और तुम्हारा नया जन्म भी होगा। सूली भी लगेगी और तुम्हारा पुनर्जन्म भी होगा।

पर मिटने की तैयारी चाहिए, पूरी—पूरी मिटने की तैयारी चाहिए! वही संन्यास है. अतीत से अपने को विच्छिन्न कर लेना; अतीत की भूमि से अपनी जड़ों को बिलकुल उखाड़ लेना। नई भूमि की तलाश है संन्यास। जैसे अब तक जो था व्यर्थ था; जो हुआ हुआ; नहीं हुआ नहीं हुआ; अब हम उससे सब संबंध छोड़ लेते हैं; अब आगे उसका कोई हिसाब न रखेंगे, और अब पीछे लौट—लौट कर न देखेंगे। गढ सारा ढाह कर, ढूह भर कर दे

विफल दिनों की तू कलोंच पर मान जा

मेरी आंखें आज जा।

मैं तैयार हूं! अगर तुम तैयार हो, तो मैं तैयार हूं तुम्हारी आंखें आजने को। थोडी तकलीफ भी होती है जब आंखें आजी जाती हैं। आंसू भी बहते हैं, आंख बंद कर लेने का भी मन होता है। वह सब स्वाभाविक है। लेकिन अगर साहस हो तो परमात्मा सुनिश्चित घट सकता है।

मेरी तैयारी है; अगर तुम भी तैयार हो तो कोई रुकावट रुकावट नहीं बन सकती। छोड़ो पीछे को, आगे की सुधि लो।

हरि ओंम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र महागीता--(भाग--2) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मन ही पूजा मन ही धूप–(संत रैदास) प्रवचन–9

$
0
0

संगति के परताप महातम—(प्रवचन—नौंवां)

सूत्र:

 अब कैसे छूटै नामरट लागी।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

 

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी। जग—जीवन राम मुरारी।।

गली—गली को जल बहि आयो, सुरसरी जाय समायो।

संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।।

स्‍वति बूंद बरसै फनि ऊपर, सोहि विषै होई जाई।।

ओहि बूंद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई।।

तुम चंदन हम रेंड बापुरे, निकट तुम्‍हारे आसा।।

संगति के परताप महातम आवै बास सुबासा।।

जाति ओछी करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।।

नीचै से प्रभु ऊंच कियो है, कहि रैदास चमारा।।

 

अंधियारे बीजा करते हैं

गीली माटी में पीड़ाएं

पोर—पोर फटती देखूं मैं

केवल इतना सा उजियारा

मेरी आंखों में रहने दो

सूरज सुर्ख बताने वालों!

सूरजमुखी दिखाने वालो!!

अर्थ नहीं होता है कोई,

अथ से ही टूटी भाषा का

तार—तार कर सकूं मौन को,

केवल इतना शोर सुबह का

भरने दो मुझको सांसों में

स्वर की हदें बांधने वालो!

पहरेदार बिठाने वालो!!

गलियारों से चौराहों तक

सफर नहीं होता है कोई

अपना ही आकाश बुनूं मैं

केवल इतनी सी तलाश ही

भरने दो मुझको पाखों में

मेरी दिशा बांधने वालो!

दूरी मुझे बताने वालो!!

मनुष्य पैदा तो होता है विराट की संभावना लेकर, लेकिन रह जाता है क्षुद्र। होता तो है पैदा सागर बनने को और बन नहीं पाता बूंद भी। यही पीड़ा है, यही संताप है, यही दुख है। मनुष्य के जीवन का यही नरक है।

बीज तो हम लेकर आते हैं कि कमल खिले, आकाश भर जाए उनकी सुवास से; लेकिन बस बीज ही रह जाते हैं। अंकुर ही नहीं फूटता कभी; फूल तो बहुत दूर, बहुत दूर! समाज, राज्य, परंपराएं रूढ़ियां ऐसे जकड़े हैं आदमी को कि जब तक अथक चेष्टा न हो मुक्त हो जाने की, प्रज्वलित अभीप्सा न हो सब सीमाओं को तोड़ कर पार उड़ जाने की— तब तक यह सागर होने की बात सपना ही रहती है। और इतना ध्यान रहे, जब तक सागर न हो जाओगे तब तक कोई संतृप्ति नहीं। तृप्ति का एक ही अर्थ होता है : हम वही हो जाएं जो हम होने को पैदा हुए हैं।

मनुष्य परमात्मा का बीज है। और सब तरफ से उस पर बाधाएं हैं। सब तरफ से चेष्टा है कि बीज कहीं टूट न जाए, क्योंकि न्यस्त स्वार्थों को बड़ा भय है। तुम अगर परमात्मा होने लगो तो फिर तुम्हें गुलाम नहीं बनाया जा सकता, न तुम्हारा शोषण किया जा सकता, न तुम्हें मूढ़तापूर्ण कृत्यों में संलग्न किया जा सकता, फिर तुम्हें हिंदू मुसलमान, ईसाई नहीं बनाया जा सकता। फिर तुम्हें भारतीय पाकिस्तानी और चीनी नहीं बनाया जा सकता। परमात्मा पर ये कोई विशेषण नहीं लगेंगे।

इसलिए तथाकथित समाज, समाज के ठेकेदार तुम्हें हर तरफ से बांध देते हैं—बचपन से ही बांधना शुरू कर देते हैं। तुम्हारे चारों तरफ ऐसा जाल बुन देते हैं कि तुम्हें याद भी नहीं रहती इस बात की कि तुम एक जाल में फंसे हुए चल रहे हो, कि तुम एक ऐसी मछली हो जो जन्म से ही जाल में फंसी है और जाल को ही जिसने अपना जीवन समझ लिया है।

गलियारों से चौराहों तक

सफर नहीं होता है कोई

अपना ही आकाश बुनूं मैं

केवल इतनी सी तलाश ही

भरने दो मुझको पांखों में

मेरी दिशा बांधने वालो!

दूरी मुझे बताने वालो!!

पंडित हैं, पुजारी हैं, पुरोहित हैं, राजनेता हैं— वे सब कहते हैं परमात्मा बहुत दूर है; इतने दूर कि तुम पा न सकोगे, जन्म—जन्म लग जाएंगे। कुछ तो हैं यह कहने वाले भी कि परमात्मा है ही नहीं, पाने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ हैं जो उसे इतना दूर बताते हैं कि वह न होने के बराबर हो जाता है। मगर उन सब की चेष्टा यही है कि तुम्हारे मन में यह बात घनीभूत हो जाए कि तुम जो हो बस इतना ही बहुत है, इससे ज्यादा होने की कोई आशा नहीं है।

अंधियारे बीजा करते हैं

गीली माटी में पीड़ाएं

पोर—पोर फटती देखूं मैं

केवल इतना सा उजियारा

मेरी आंखों में रहने दो

सूरज सुर्ख बताने वालो!

सूरजमुखी दिखाने वालो!!

दूर के सूरज की बातें होती हैं, लेकिन तुम्हारी आंखों में जरा—सी भी प्रकाश की संभावना दिखाई पड़े, तत्थण नष्ट कर दी जाती है।

अर्थ नहीं होता है कोई

अथ से ही टूटी भाषा का

तार—तार कर सकूं मौन को

केवल इतना शोर सुबह का

भरने दो मुझको सांसों में

स्वर की हदें बांधने वालों!

पहरेदार बिठाने वालो!!

लेकिन तुम्हारे स्वरों पर सब तरफ से पाबंदी है। तुम वही बोलने के लिए स्वतंत्र नहीं हो जो तुम्हारी अंतरात्मा बोलना चाहती है। तुमसे वही बुलवाया जाता है जो समाज के न्यस्त स्वार्थ चाहते हैं कि तुम बोलो। तुम्हें वही दिखाया जाता है जो उनके हित में है कि तुम देखो। सत्य से तुम वंचित रहो, इसका पूरा आयोजन है।

इसलिए चमत्कार है कि कभी—कभी कोई एक व्यक्ति, कोई कबीर, कोई रैदास, कोई फरीद—छूट भागता है तुम्हारे जाल से! खोल लेता है आंखें, भर लेता है सारे आकाश को अपनी अंतरात्मा में! छेड़ देता है अपने हृदय की वीणा को! गा उठता है गीत जो गाने को पैदा हुआ था! छोड़नी ही पड़ेगी सीमाएं। ये जो पहरेदार बिठाए हैं, इनसे मुक्त होना ही पड़ेगा।

तू खुद रहबर है, खुद बांगे—जरस है, खुद ही मंजिल है

मुसाफिर! फिर यह तकलीदे— अमीरे—कारवां कब तक

कब तक तुम दूसरों के पीछे चलते रहोगे?

मुसाफिर! फिर यह तकलीदे— अमीरे—कारवां कब तक

यह कारवां को राह दिखाने वाले लोगों के पीछे तुम कब तक चलते रहोगे? इन्हें खुद भी पता नहीं ये कहां जा रहे हैं। इनकी आंखों में झांको, कोई दीये वहां जलते हुए नहीं। इनके प्राणों में तलाशो, कोई गंध वहां उठती हुई नहीं, कोई सुगंध नहीं। ये खुद ही नहीं खिले। इनके आश्वासनों में मत पड़ो। ये आश्वासन देने में कुशल हैं।

तू खुद रहबर है………

तुम खुद अपने मार्ग—दर्शक हो।

…….खुद बांगे—जरस है, खुद ही मंजिल है

मुसाफिर! फिर यह तकलीदे—अमीरे—कारवा कब तक

कब तक तुम दूसरों की मान कर जीते रहोगे? मुक्त करो अपने को सारे जंजालों से, रूढ़ियों से, लकीरों से!

वो अपने हर कदम पर है कामयाबे—मजिल

आजाद हो चुका जो तकलीदे—कारवा से

केवल वे ही थोड़े से व्यक्ति इस जगत में अपनी मंजिल पाने में समर्थ हुए हैं, यात्रीदल के अंधे अनुकरण से जो मुक्त हो गए हैं।

वो अपने हर कदम पर है कामयाबे—मजिल

और ऐसा भी नहीं है कि मंजिल दूर है; हर कदम पर मंजिल है।

वो अपने हर कदम पर है कामयाबे—मजिल

आजाद हो चुका जो तकलीदे—कारवा से

समाज की रूढ़ियों, अंधेपन, अंधविश्वासों से जो मुक्त हो चुका है, वह निश्चित ही मंजिल पाने को समर्थ हो जाता है। ये सारे फकीर क्रांतिकारी हैं। इनके शब्दों में अंगारे हैं, चिनगारियां हैं। काश, तुम पड़ जाने दो अपने प्राणों में तो तुम भी भभक उठो, तुम भी धधक उठो! नहीं तो तुम्हारी जिंदगी यूं ही बीत जाएगी। सुबह होगी, सांझ होगी, और यूं ही बस सुबह और सांझ के बीच डोलते—डोलते जिंदगी तमाम होगी।

हाथों से छूट गई

सपनों की डोर

संभावित प्रश्नों में

डूब गया भोर।

कुहरे से निकलेगा

जाने कब अर्क

क्या होगा करने से

तर्कों पर तर्क

बूढ़े अनुमानों का

बेमतलब शोर

संभावित प्रश्नों में

डूब गया भोर।

प्राची में फैल—फैल

रंग हुए व्यर्थ

अनिमंत्रित शब्दों

को दे डाले अर्थ

बीत गया शर्त बिना

एक याम और

संभावित प्रश्नों में

डूब गया भोर।

धीरे से सरक गई

आंगन में धूप

परिचय की टहनी पर

खिल आया रूप

टूटे संदर्भों के

जुड़ आएं छोर

संभावित प्रश्नों

में डूब गया भोर।

जीवन की प्रभात व्यर्थ के प्रश्नों में बीत जाती है। आधी जिंदगी यूं ही व्यर्थ के तर्क, व्यर्थ के विचारों, व्यर्थ की आकांक्षाओं— अभिलाषाओं में बीत जाती है। और बाकी शेष जिंदगी— पछताने में। ऐसे चार दिन की जिंदगी : दो दिन बीत जाते हैं व्यर्थ के उपक्रमों में— धन, पद, प्रतिष्ठा, अहंकार; बचे दो दिन बीत जाते हैं पश्चात्ताप मे कि यह मैंने क्या किया! यह क्या कर लिया मैंने! यह कैसा आत्मघात कर लिया! यह कैसे अपने को बरबाद कर लिया! और अब मौत द्वार पर दस्तक देने लगी।

और चार दिन की जिंदगी है, बड़ी छोटी जिंदगी है! लेकिन यह छोटी जिंदगी बहुत बड़ी जिंदगी का द्वार बन सकती थी— द्वार तो छोटे ही होते हैं! इन छोटी सी जिंदगियों को मंदिर का द्वार बनाया जा सकता था, जहां विराट से मिलन हो जाए। मगर द्वार के बाहर ही कंकड़—पत्थर बीनते रहोगे! द्वार के बाहर ही व्यर्थ की बातों में उलझे रहोगे!

कांटों—सी उलझन में

पतझड़—से रूखे में

एक सांझ बीती थी

एक और बीत गई।

रोज एक दिन बीत रहा है। हाथ से जीवन—ऊर्जा सरकती जाती है, सरकती जाती है। जल्दी ही पाओगे, हाथ में कुछ भी नहीं बचा। फिर बहुत पछतावा होता है। लेकिन समय बीत जाने पर पछताने से भी क्या होगा? फिर रोना भी व्यर्थ है। समय पर रोओ भी तो आंसू मोती बन जाते हैं। असमय में हंसो भी तो हंसी भी आंसू का काम नहीं कर पाती; हंसी भी मोती नहीं बन पाती। और हंसना तो दूर, अंत में सिर्फ पछतावा रह जाता है—आंखें गीली और उदास।

कांटों—सी उलझन में

पतझड़— से रूखे में

एक सांझ बीती थी

एक और बीत गई।

पानी में लहरों का

तद्रिल ठहराव है

पेड़ों में फूलों के

उभरे ये घाव हैं

सिहर उठे पीपल के

पात डाल—डाल पर

दर्द—गंध बांटती

हवाएं सब रीत गईं।

मकड़ी के जाले—सा

मन में उलझाव है

बोझिल है अपनापन

बौने—से पांव हैं

छायाएं रेंग रहीं

पगडंडी—पगडंडी

मुरझाई चाहें थीं,

एक और पीत हुई।

मन का सब भारीपन

सूने में खो गया

द्या क्षण कल की सब

चिंताएं बो गया

लुढ़क रही सांसों की

पटरी पर जिंदगी

आधी हो तिक्त चुकी

आधी भी तिक्त हुई।

ऐसे ही तिक्त होओगे, ऐसे ही रिक्त होओगे! जब तक प्रभु को न पुकारों, खाली आए, खाली जाओगे। खाली आए थे कि भर कर जा सको। इसीलिए खाली आता है आदमी, ताकि इस जीवन को फूलों से भर ले। मगर बहुत कम लोग भर कर जाते हैं। जो भर कर जाते हैं बस वही जीए। उन्होंने ही जीवन के उत्सव में संपदा बटोरी।

समय रहते सम्हल जाओ। अभी समय है, सम्हला जा सकता है। रैदास के ये सूत्र जागरण का काम कर सकते हैं। सोयों को तो जगा ही सकते हैं, जिनको भ्रांति है जागे होने की, उनको भी जगा सकते हैं।

उनको तो जगाया सोते थे जो राह में ऐ फरियादे—जरस

जो चलते—चलते सोते हैं उनको भी जगाना आता है

संतों का एक ही संदेश है—जागों को कैसे जगाओ? जागे हुए नहीं हैं, भ्रांति है जागने की। मगर सोए को जगाना आसान है, क्योंकि वह मानता है मैं सोया हुआ हूं। और जो सोया है और सपना देख रहा है कि मैं जागा हुआ हूं उसको जगाना बहुत मुश्किल है। इसलिए पंडितों को जगाना बहुत मुश्किल है, तथाकथित ज्ञानियों को जगाना बहुत मुश्किल है। अज्ञानी तो जागना चाहता है, क्योंकि अज्ञान पीड़ा देता है और शान अहंकार को तृप्ति देता है।

इस जगत में पूरी व्यवस्था है तुम्हें पंडित बनाने की। स्कूल हैं, कालेज हैं, युनिवर्सिटीज हैं, वेद हैं, कुरान हैं, बाइबिले हैं, सारा आयोजन है कि तुम पंडित हो जाओ। इसके पहले कि तुम्हें परमात्मा का कोई स्वाद लगे परमात्मा के संबंध में इतनी बकवास तुम्हें याद हो जाती है कि फिर स्वाद लगने का उपाय ही नहीं रह जाता।

ये सूत्र किसी पंडित के सूत्र नहीं हैं। पंडित सूत्र दे भी नहीं सकते। उनके वक्तव्य थोथे होते हैं। रैदास जैसे व्यक्ति सूत्र देते हैं। सूत्र का अर्थ होता है सार—संक्षिप्त, निचोड़, इत्र।

अब कैफे छूठै शाअनठ लागी।

एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं कि राम को कैसे जपें। एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं— भजन कैसे हो? ध्यान कैसे हो? कीर्तन कैसे हो? पूजा कैसे? अर्चना कैसे? और रैदास कहते हैं हमारी मुसीबत दूसरी ही है। हमारी मुसीबत यह है कि अब कैसे छूटै नामरट लागी! अब छुडाए नहीं छूटती। ऐसा रंग चढ़ता है कि अब हम चाहें भी कि बंद हो जाए तो बंद नहीं होती।

मेरे एक शिक्षक थे, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक थे, प्यारे आदमी थे, बूढ़े आदमी थे! दार्शनिक थे, सो स्वभावत: झक्की थे। वर्षों तक उनकी कक्षा में कोई विद्यार्थी भरती नहीं होता था, क्योंकि उनके झक्कीपन से लोग राजी नहीं हो पाते थे। कोई तीन वर्षों से कोई विद्यार्थी नहीं था। जब मैं उनकी कक्षा में भरती हुआ तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम भी झक्की हो क्या? मेरी कक्षा में लोग भरती नहीं होते। मैं तुम्हें अपनी शर्तें पहले बता देता हूं। मेरी पहली शर्त तो यह है कि मैं बोलना तो शुरू करता हूं जब घंटा बजता है, लेकिन खतम घंटा जब बजता है तब नहीं करता। कर ही नहीं सकता, जब तक कि मेरा हृदय पूरा न उड़ेल दूं। तो कभी दो घंटे बोलता हूं कभी तीन घंटे, कभी चार घंटे, कभी पांच घंटे। तुम्हें बीच में उठ कर जाना हो, तुम चुपचाप जा सकते हो, पूछने की जरूरत नहीं है। तुम्हें प्यास लगे, पानी पी आना, लौट आना। मैं बोलना जारी रखूंगा; तुम नहीं रहोगे तब भी जारी रखूंगा।

मुझे भरोसा न आया कि बिना मेरे मौजूद रहे वे कैसे बोलते रहेंगे! पहले ही दिन मैंने सिर्फ प्रयोग के लिए देखा। कोई घंटे भर बाद मैं उठ कर बाहर चला गया, खिड़की के पास खड़ा रहा, वे बोले चले जा रहे थे। बाद में मैंने उनसे पूछा कि इसका राज? जब कोई सुनने वाला नहीं तब भी आप बोल रहे हैं!

उन्होंने कहा मैं जो बोल रहा हूं उसमें मुझे ही सुनने में इतना रस आता है कि उसे मैं रोकूं तो रोकूं कैसे! मैं उनकी कक्षा में सो जाता, क्योंकि कभी चार घंटे.. .मगर वे बोलना जारी रखते। धीरे— धीरे उनका मुझसे प्रेम हो गया, गहरा प्रेम हो गया। मैंने उनसे कहा कि आप भी नाराज न होना, मेरी भी शर्त है। असल में रोज मुझे दोपहर में सोने की आदत है। जब मेरा सोने का समय हो जाएगा तो मैं सो जाऊंगा, आप बोलना जारी रखना, मगर जरा आहिस्ता और धीमे, मेरी नींद न टूटे।

उन्होंने कहा यह बात ठीक। तुम अगर मेरी शर्त मानते हो, मैं तुम्हारी शर्त मानूंगा। और उन्होंने निभाया। फिर तो उनसे मेरा लगाव बहुत हो गया। झक्की झक्की मिल गए! तो उन्होंने कहा. क्या हॉस्टल में तुम रहते हो! मैं भी अकेला हूं— उन्होंने कभी शादी तो की नहीं थी— और बड़ा बंगला है मेरे पास, तुम वहीं रहो।

मैंने कहा जैसी मर्जी। मैं आपके बंगले में आ जाता हूं।

वे एक दिन आए, अपनी गाड़ी में मेरा सब सामान इत्यादि लेकर मुझे अपने बंगले ले गए। बंगले जाकर उन्होंने कहा कि एक बात तुम्हें बता दूं मुझे रात रोज दो बजे उठ कर गिटार बजाने की आदत है। अब तक तो मेरे साथ कोई रहा नहीं, इसलिए कुछ किसी से कहने का सवाल नहीं था। यह बंगला भी मैंने युनिवर्सिटी से इतनी दूर लिया हुआ है कि ताकि किसी पड़ोसी को कोई झंझट न हो। अब तुम यहां रहोगे तो दो बजे रात से मैं गिटार बजाऊंगा।

मैंने कहा देखेंगे, आप बजाए। वे ठीक दो बजे उठ आते और गिटार बजाते—इलेक्ट्रिक गिटार—कि सोना मुश्किल हो जाए। मैंने दूसरे दिन उनसे कहा कि मैं भी आपको अपनी आदत बता दूं कि रोज शाम सात बजे से दो बजे तक मुझे जोर—जोर से पढ़ने की आदत है। उन्होंने कहा इसमें तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि मैं दो बजे तक सोता हूं और दो बजे उठ कर गिटार बजाता हूं। मैंने कहा वह आपकी मर्जी।

मैं ठीक उनके बगल के कमरे में बैठ कर इतने जोर—जोर से पढ़ा कि दो बजे उन्होंने मुझसे कहा कि अच्छा ऐसा करो, समझौता कर लेते हैं, न हम गिटार बजाएंगे, न तुम इतने जोर से पढ़ो। ताकि दोनों सो सकें।

मगर वे आदमी प्यारे थे और उनकी यह बात मुझे बहुत प्यारी लगी कि जब मैं बोलना शुरू कर देता हूं तो मैं भूल ही जाता हूं कि सुनने वाला कोई है या नहीं! फिर मेरे भीतर से एक अंतर— धारा शुरू हो जाती है!

उनमें कुछ संतों का था, वे सिर्फ पंडित नहीं थे, सिर्फ अध्यापक नहीं थे। कुछ जीया था, कुछ जाना था, कुछ अनुभव किया था। जितने दिन उनके करीब रहा उतनी ही यह बात साफ होती चली गई।

रैदास कहते हैं अब कैसे छूठै ताअनठ लाउााइ!

किसी ने पूछा होगा रैदास से कि राम को कैसे जपें? कैसे स्मरण करें? करते हैं, छूट—छूट जाता है। एकाध—दो क्षण को याद रहती है, फिर भूल जाती है। हाथ में माला चलती रहती है यंत्रवत और मन कहीं का कहीं चला जाता है। उसके ही उत्तर में कहा होगा कि तेरी यह मुश्किल, मेरी यह मुश्किल!

अब कैफे छूठै तााअनठ लाउााइ।

मैं तो छुड़ाना चाहता हूं कभी—कभी कि कभी तो फुरसत हो, मगर छूटती नहीं। मैं अगर न भी बोलूं तो भी गूंजती रहती है।

मंत्र—विज्ञान की चार सीढ़ियां हैं। पहली सीढ़ी— जहां अधिक लोग रुक जाते है—वह है ओंठ से मंत्र—उच्चार, राम—राम—राम, या कोई भी मंत्र, अल्लाह— अल्लाह या जो तुम्हारी मर्जी, जो तुम्हें प्रीतिकर लगे। अपना नाम भी!

महाकवि हुआ अंग्रेजी का, टेनिसन। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे बचपन से ही न मालूम— अब तो मुझे याद भी नहीं कि यह कैसे हो गया—रात मुझे डर लगता था और मां मुझे मेरे कमरे में अकेला छोड़ देती। जैसा यूरोप में रिवाज है कि बच्चों को अकेला सुलाया जाए, ताकि उनकी हिम्मत बढ़े। बचपन से ही अंधेरा, अकेलापन, इसकी उन्हें आदत हो, ताकि जिंदगी में कायरता न रहे। तो मां मुझे अकेला छोड़ देती, मुझे कुछ न सूझता कि मैं क्या करूं, तो मैं जोर—जोर से अपना नाम रटता था— टेनिसन, टेनिसन। उसमें मुझे ऐसा लगता जैसे कोई मुझे पुकार रहा है— दो हैं, एक नहीं।

अक्सर तुम भी करते हो, अंधेरी गली हो, कुछ हो, तो सीटी बजाने लगे कि फिल्मी गाना गाने लगे। फिल्मी गाने की आवाज सुन कर तुम यह भूल जाते हो कि अंधेरा है, अकेले हो, गली है। सीटी बजा कर खुद को ही बल आ जाता है, खुद ही बजा रहे हो सीटी, मगर खुद को ही ऐसा लगता है ताकत आ गई।

ऐसे टेनिसन अपना ही नाम लेता था। मगर उसे एक राज हाथ लग गया। बहुत देर तक अपना ही नाम लेते—लेते धुन बंध जाती। ऐसी धुन बंधती, उसे ऐसी मस्ती छा जाती कि फिर भय का तो सवाल ही न रहा, उसे मंत्र हाथ लग गया— अनायास, आकस्मिक! इसे उसने जिंदगी भर उपयोग किया। वह कहता है, अब तो कभी जब भी मुझे एकांत मिल जाता है, बस अपना ही नाम दोहराने लगता हूं। बस पांच—सात मिनट दोहराने के बाद किसी और लोक में प्रवेश हो जाता है। और जो मैंने जीवन में जाना है— जो भी आनंद, जो भी शांति, जो भी सुख— वह उन्हीं क्षणों में जाना है, जब मैं तन्मय हो गया।

पहला मंत्र का कदम है : ओंठों से उच्चार। मगर ओंठ पर ही रह जाए मंत्र, तो व्यर्थ हो गया। जैसे कोई पहली ही सीढ़ी पर चढ़े और बैठा रह जाए, तो मंदिर कहां? सीढ़ी मंदिर नहीं है। यद्यपि बिना सीढ़ी के भी मंदिर नहीं है, मगर सीढ़ी मंदिर नहीं है, सीढ़ी के पार जाना होगा।

फिर दूसरा कदम है : उच्चार हो कंठ में, ओंठ तक न आए। ओंठ तो हिले भी नहीं, मगर कंठ तन्मय हो जाए। कुछ लोग दूसरे कदम पर रुक जाते हैं। दूसरे कदम पर भी रस आने लगता है। और जहां रस आया वहां खतरा है, क्योंकि रस आने लगता है तो लगता है. रुके रहो, रुके रहो! और पीओ, और पीओ! मगर गुरु उपलब्ध हो तो वह कहेगा— और आगे! जब यहां इतना रस मिल रहा है तो जरा और आगे! और रस है, रस के सागर हैं।

तीसरा कदम है : कंठ से भी उच्चारण नहीं, सिर्फ हृदय में उच्चारण। सिर्फ हृदय में राम—राम का भाव।

ये तीन स्थूल कदम हैं और चौथे कदम से द्वार शुरू होता है। चौथा कदम है, उच्चार भी नहीं! तुम्हारी तरफ से कोई प्रयास ही नहीं। उसी की बात कर रहे हैं रैदास।

अब कैसे छूटै नामरट लागी।

तुम्हारी तरफ से कोई चेष्टा ही नहीं, प्रयास नहीं। तुम जप नहीं रहे हो, भजन नहीं कर रहे, कीर्तन नहीं कर रहे। तुम्हारे भीतर कीर्तन हो रहा है, नाम—जप हो रहा है! तुम बैठे हो, तुम साक्षी मात्र रह गए हो और भीतर कुछ हो रहा है—जो अपने से हो रहा है।

शुरू में सुनोगे तो कठिनाई लगेगी कि अपने से कैसे होगा?

श्वास कैसे चल रही है अपने से? खून कैसे बह रहा है अपने से? तुम कोई बहा रहे हो? कि खून को कह रहे हो कि अब बाएं चलो, अब दाएं मुड़ो, अब हाथ आ गया, अब सिर आ गया, अब पैर आ गया! खून चौबीस घंटे चल रहा है। तुमने भोजन कर लिया, फिर कौन पचा रहा है? फिर भोजन अपने से पच रहा है। तुम श्वास ले रहे हो, सोच कर ले रहे हो? सोच कर लो तो बड़ी मुश्किल हो जाए। सोच कर लो तो दुनिया में आदमी मिलें ही नहीं। रात जरा नींद लग गई, भूल गए। रात भर श्वास न ली, सुबह खात्मा। किसी काम में उलझ गए, भूल गए। मन कहीं दूर विचारों में चला गया और भूल गए।

नहीं, श्वास चल ही रही है। तुम शइर्च्छत भी होओ, तुम शराब पीकर सड़क के रास्ते के किनारे पड़े होओ, तो भी श्वास चल रही है। कोमा में जो लोग पड़ जाते हैं…। एक स्त्री को मैं देखने गया, वह नौ महीने से कोमा में थी। नौ महीने से उसे होश नहीं था, मगर श्वास चल रही थी।

तो श्वास को तुम नहीं चला रहे हो, न खून तुम चला रहे हो, न भोजन तुम पचा रहे हो। यह सब अपने से हो रहा है। ऐसे ही नामरट भी, नाम—जप भी अपने से होने लगता है। और जब स्वस्कूर्त होता है, तब उसका आनंद अपूर्व है। फिर तुम छुड़ाना भी चाहो तो नहीं छूट सकता। जैसे तुम अपनी श्वास बंद करना चाहो तो भी नहीं कर सकते, आएगी ही आएगी। भीतर रोकोगे तो बाहर जाएगी; बाहर रोकोगे तो भीतर आएगी। एकाध क्षण शायद तुम सफल भी हो जाओ, मगर बड़ी तकलीफ होगी। और फिर तुम्हें असमर्थ होकर हारना पड़ेगा।

ऐसा ही चौथे चरण में प्रभु—स्मरण हो जाता है। उस चौथे चरण को ही संतों ने सुरति कहा है। तुम सिर्फ साक्षी मात्र रहते हो। तुम सिर्फ देखते रहते हो कि जो हो रहा है। फिर तुम हजार काम में लगे रहो कोई फर्क नहीं पड़ता, भीतर एक अंत—धारा बहती रहती है, एक सतत स्मरण— शब्द—शून्य, वाणी से मुक्त, सिर्फ भाव!

अब कैसे छूटै नामरट लागी।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।

रैदास कहते हैं : अब समझ में आना शुरू हुआ कि तुम चंदन हो और हम पानी हैं। जैसे पानी में चंदन डाल दो तो पानी के कण—कण में चंदन की बास समा जाती है।

जाकी अंग—अंग बास समानी।

तुम मुझमें ऐसे समा गए हो जैसे चंदन की बास पानी में समा जाए। अब अलग करने का कोई उपाय नहीं। जब परमात्मा को अलग करने का कोई उपाय न रह जाए, तभी समझना कि उसे पाया। जब तक अलग करने का उपाय हो, तब तक समझना कि पाया नहीं है, अभी सिर्फ कल्पना की है। क्योंकि कल्पना ही अलग की जा सकती है, परमात्मा अलग नहीं किया जा सकता।

प्यार के बस गीत लेकर क्या करूंगी

तुम मिलो तो यार आंखें चार भी हों

तुम मिलो तो जिंदगी रस में नहाए

अश्रु से धो आंख, फिर अंजन करूंगी

तुम छिपे हो यार जाने किस अतल में

मौन में डूबे प्रभो। ढूंढूं कहां मैं

तुम सुधा में, गरल में, पावक—पुहुप में

आ बसो उर में, तेरी पूजा करूंगी

प्यास बन कर तू पिया उर में समा जा

अश्रु बन कर तू पिया उर में समा जा

गीत बन कर प्राण से प्यारे छिड़ो तुम

जिंदगी मेरे बलम अर्पित करूंगी

होता है ऐसा अपूर्व अनुभव भी— जब तुम्हारी श्वास—श्वास उसकी गंध से भर जाती है, उसकी सुगंध से भर जाती है।

मंदिरों में सदियों से हमने चंदन को मूल्य दिया है; वह केवल प्रतीक है। और प्रतीक कभी—कभी इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि हम भूल ही जाते हैं किसके प्रतीक हैं। जैसे मील का पत्थर है, कोई उसी को पकड़ कर बैठ जाए कि आ गई मंजिल। मील का पत्थर मंजिल नहीं है। मील का पत्थर तो सिर्फ मंजिल की तरफ तीर है, एक इशारा है कि और आगे चले चलो। जिन्होंने पहली दफा चंदन को खोजा होगा और पूजा का अंग बनाया होगा, चंदन के तिलक और टीके को प्रतीक बनाया होगा, उन्होंने किसी ऐसे ही रैदास जैसे अनुभव के कारण किया होगा।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।

लेकिन फिर कब.. .हम भूल गए। हम भुलक्कड़ हैं। सुंदर से सुंदर प्रतीक भी हमारे हाथों में पड़ कर अर्थहीन हो जाते हैं। चंदन लगाया जाता है तृतीय नेत्र पर। वह केवल प्रतीक है। वह यह कह रहा है कि तुम्हारे तीसरे नेत्र में प्रभु चंदन की तरह समा जाना चाहिए। मगर बस ऊपर लगा लिया चंदन और काम समाप्त हो गया। स्त्रियां तीसरे नेत्र पर टीका लगाती हैं। वह केवल प्रतीक है कि जिससे तुम्हें प्रेम है वह तुम्हारे तीसरे नेत्र तक समा जाना चाहिए, तो ही प्रेम है। क्यों तीसरे नेत्र तक? क्योंकि तीसरे नेत्र संसार की सीमा को निर्मित करते हैं, उसके पार तो फिर ब्रह्म है। तीसरा नेत्र है छठवां केंद्र; उसके बाद सातवां है सहस्रार, वह तो मुक्ति का द्वार है। फिर वहां न तो प्रेमी रह जाता है न प्रेयसी, न भक्त न भगवान। लेकिन छठवें तक याद रहती है।

तो अगर किसी से प्रेम किया हो तो वह ऐसा होना चाहिए जैसे तीसरी आंख तक में उसे देख लिया। देह ही नहीं देखी उसकी, उसकी आत्मा भी देख ली। दो आंखें हैं हमारे पास, ये तो केवल देह को देखती हैं। इनसे हुआ प्रेम भी कोई प्रेम है! वासना का ही एक नाम है। लेकिन इन दोनों आंखों के भीतर छिपी एक तीसरी आंख है— शिवनेत्र; उससे जब देखा तो प्रेम। तीसरी आंख जब किसी व्यक्ति से जुड़ जाती है, तुम उसकी आत्मा से जुड़े और एक हुए। प्रेयसी को भी वहीं से देखो तो तुम्हारा प्रेम प्रार्थना बन जाएगा। और गुरु को तो केवल वहीं से देखा जा सकता है। चर्म—चक्षु देखने में असमर्थ हैं। चर्म—चक्षु तो केवल चमड़ी को ही देख सकते हैं। वही उनकी सीमा है। तुम्हारे भीतर एक अदृश्य दृष्टि है, दिखाई नहीं पड़ती। उस अगोचर दृष्टि से ही अगोचर को देखा जा सकता है।

तो तीसरे नेत्र पर स्त्रियां टीका लगाती रही हैं। मगर बस टीका लगा है और पति के साथ झगड़ा चल रहा है! ऐसी हमारे सारे प्रतीकों की गति हो गई है। मंदिर गए, तिलक लगा लिया, चंदन घिस कर तीसरे नेत्र पर ऊपर से शीतलता पहुंचा दी और घर चले आए!

तुम्हारे तीसरे नेत्र पर परमात्मा चंदन की बास जैसा हो जाना चाहिए। और चंदन को क्यों चुना है? बहुत कारणों से चुना है। चंदन अकेला वृक्ष है जिस पर विषैले सांप लिपटे रहते हैं, मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। चंदन विषाक्त नहीं होता। सर्प भला सुगंधित हो जाएं, मगर चंदन विषाक्त नहीं होता।

ऐसा ही यह संसार है— जहर से भरा हुआ। इसमें तुम्हें चंदन जैसे होकर जीना होगा। यह तुम्हें विषाक्त न कर पाए, ऐसा तुम्हारा साक्षीभाव होना चाहिए। कि कीचड़ में से भी गुजरो तो भी कीचड़ तुम्हें छुए न। यह काजल की कोठरी है संसार; इससे गुजरना तो है, परमात्मा चाहता है कि गुजरो। जरूर कोई शिक्षा है जो जरूरी है। लेकिन ऐसे गुजरना जैसे कबीर गुजरे, रैदास गुजरे।

कबीर कहते हैं. ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया! खूब जतन से ओढी रे कबीरा! कालख से भरी हुई काजल की इस कोठरी से गुजर गए, मगर बड़ी जतन से गुजरे, बड़े होश से गुजरे, कि परमात्मा ने जैसी चदरिया दी थी, ठीक वैसी की वैसी, बिना दाग— धब्बे के वापस लौटा दी।

साक्षी— भाव हो तो संसार में से ऐसा ही गुजरा जा सकता है। इस साक्षीभाव के साथ संसार से गुजरने को ही मैं संन्यास कहता हूं। चंदन की तरह हो जाओ तो संन्यासी।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।

प्राण—वीणा पर पिया,

मैं आज तेरे गीत गाऊं।

नयन से तुझको निहारूं,

पलक में तुझको छिपाऊं।

गीत उर के, प्रीत मन के,

अश्रु के तुम प्राण—धन हो।

चूम कर तुमको बलम मैं

हृदय—मंदिर में बसाऊं।

प्राण—वीणा छेड़ प्रियतम!

मैं तुम्हें हरदम पुकारूं।

नयन के माणिक पिरो कर,

प्रेम की माला पिन्हाऊं।

पुकारोगे तो एक दिन पुकार सुनी जाएगी। अहर्निश पुकारोगे तो एक दिन पुकार बन जाओगे। देर— अबेर हो सकती है, अंधेर नहीं है। और जल्दी मत करना, अधीर मत होना। यह इतना महत कार्य है कि अगर जन्मों में भी हो तो जल्दी। ये कोई छोटे—मोटे घास—पात के पौधे नहीं हैं। ये प्रेम और प्रार्थना के पौधे हैं, चांद—तारों को छूने वाले पौधे हैं। ये आकाश को भर देने वाले पौधे हैं। ये जब भी, जितनी देर में भी खिल जाएं, फूलों से लद जाएं— समझना कि जल्दी ही है, समझना कि अभी सुबह ही है।

मगर अगर तुमने बहुत जल्दबाजी की तो तुम चूक जाओगे। जो जल्दबाज है उसकी प्रार्थना ओंठों तक रह जाएगी। जिसमें थोड़ा धैर्य है, उसकी प्रार्थना कंठ तक पहुंचेगी। जिसमें और धैर्य है, उसकी प्रार्थना हृदय तक पहुंचेगी। और जिसमें अनंत धैर्य है, उसकी प्रार्थना आत्मा बन जाती है। जब प्रार्थना आत्मा बनती है, फिर छूटे नहीं छूटती।

अब कैसे छूटै नामरट लागी।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

और जैसे बादल घिर आते हैं आषाढ़ में— घनघोर बादल— और मोर नाचने लगते हैं। ऐसे ही रैदास कहते हैं कि तुम घने बादलों की तरह छा गए हो और हम तो मोर हैं, हम नाच उठे।

जिस व्यक्ति ने अपने भीतर अहर्निश प्रभु के नाद को सुना, उसे चारों तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है—वृक्षों में, पहाड़ी में, चांद—तारों में, लोगों में, पशुओं में, पक्षियों में। उसे सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। और जो सब तरफ परमात्मा से घिर गया है वह मोर की तरह नहीं नाचेगा तो कौन नाचेगा?

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

उसकी आंखें तो जैसे चकोर की आंखें चांद पर टिकी रह जाती हैं, बस ऐसे ही परमात्मा पर टिकी रह जाती हैं। ही, एक फर्क है। चकोर चांद से आंखें नहीं हटाता और ध्यानी हटाना भी चाहे तो नहीं हटा सकता, क्योंकि जहां भी आंख ले जाए वहीं उसे परमात्मा दिखाई पड़ता है, वहीं चांद है उसका। कंकड़— कंकड़ में उसकी ही ध्वनि है, पत्ते—पत्ते पर उसी के हस्ताक्षर हैं। तो चकोर तो कभी थक भी जाए… थक भी जाता होगा। कवियों की कविताओं में नहीं थकता, मगर असली चकोर तो थक भी जाता होगा। असली चकोर तो कभी रूठ भी जाता होगा। असली चकोर तो कभी शिकायत से भी भर जाता होगा कि आखिर कब तक देखता रहूं?

लेकिन चकोर के प्रतीक को कवियों ने ही नहीं उपयोग किया, ऋषियों ने भी उपयोग किया है। प्रतीक प्यारा है। चकोर एकटक चांद की तरफ देखता है; सारी दुनिया उसे भूल जाती है, सब भूल जाता है, बस चांद ही रह जाता है। ठीक ऐसी ही घटना भक्त को भी घटती है। सब भूलता नहीं, सभी चांद हो जाता है। जहां भी देखता है, पाता है वही, वही परमात्मा है

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्यारे वचन हैं रैदास के। सीधे—सादे, लेकिन बड़े मधुर, बड़े मीठे।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।

तुम ज्योति हो, हम तुम्हारी बाती हैं। इतना ही तुम्हारे काम आ जाएं तो बहुत। तुम्हारी ज्योति के जलने में उपयोग आ जाएं तो बहुत। तुम्हारे प्रकाश को फैलाने में उपयोग आ जाएं तो बहुत। यही हमारा धन्यभाग। कि हम तुम्हारे दीये की बाती बन जाएं। तुम्हारे लिए मिट जाने में सौभाग्य है; अपने लिए जीने में भी सौभाग्य नहीं है। अपने लिए जीने में भी दुर्भाग्य है, नरक है, और तुम्हारे लिए मिट जाने में भी सौभाग्य है, स्वर्ग है।

ग्र प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

और जो परमात्मा के लिए बाती बन गया है, उसे एक अनूठा अनुभव होता है। वह बाती जलती नहीं, समाप्त नहीं होती।

जाकी जोति बरै दिनराती।।

दिन और रात जलती है, शाश्वत जलती है! वह जगत शाश्वत का है, क्षणभंगुर का नहीं। उससे जुड़ जाना शाश्वत हो जाना है। जैसे कोई बूंद सागर में गिर जाए तो सागर हो जाती है, ऐसे ही जो परमात्मा से जुड़ जाए, किसी बहाने— बाती बन कर जुड़ जाए, बूंद बन कर जुड़ जाए, चकोर की भांति जुड़ जाए— इससे फर्क नहीं पड़ता किस भांति कोई जुड़ जाता है, मगर परमात्मा से जुड़ते ही समय समाप्त हो जाता है। शाश्वत— न जिसका कोई प्रारंभ है, न कोई अंत— उसमें हम प्रवेश करते हैं।

जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

छोटे—छोटे प्रतीक, मगर खूब अर्थ भरे हैं, खूब रस भरे हैं।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

कि तुम मोती हो, हमें धागा ही बना लो। इतने ही तुम्हारे काम आ जाएं कि तुम्हारी माला बन जाए। तुम तो बहुमूल्य हो, हमारा क्या मूल्य है! धागे का क्या मूल्य है! मगर धागा भी मूल्यवान हो जाता है जब मोतियों में पिरोया जाता है।

जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

सुहागे का क्या मूल्य है, मगर सोने से मिल जाए तो मूल्यवान हो जाता है।

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

तुम मालिक हो। सूफी फकीर परमात्मा को सौ नाम दिए हैं, उसमें एक नाम सबसे ज्यादा प्यारा है, वह है— या मालिक! कि तुम मालिक हो, हम तो ना—कुछ, तुम्हारे पैरों की धूल!

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

यही हमारी भक्ति है कि हम तुम्हारे मोती में धागा बन जाएं, कि हम तुम्हारी ज्योति में बाती बन जाएं; कि तुम मालिक हो हम दास हो जाएं— बस इतनी हमारी भक्ति है। और हमें भक्ति का शास्त्र नहीं आता, कि कितने प्रकार की भक्ति होती है, नवधा भक्ति, कि कितने प्रकार की पूजा—अर्चना होती है, कि कैसे व्यवस्था से यश करें, हवन करें। हमें कुछ नहीं आता। हम तो धागा बनने को राजी हैं, तुम मोती हो ही। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, हमें धागा बन जाने दो। और तुम तो चंदन हो ही, और हम तो पानी हैं। बस तुम्हारी बास समा जाए, बहुत। और तुम तो ज्योति हो ही, तुम्हें बातियों की जरूरत तो पड़ती ही होगी न? हम तुम्हारी बाती बनने को राजी हैं।

कहीं बिजली, कहीं गुलचीं, कहीं सैयाद का खतरा

फले—फूलेगी इस गुलशन में शाखें—आशिया क्योंकर

इस दुनिया में तो कोई खिल नहीं पाता। बड़ा मुश्किल है खिलना। कहीं बिजली! यहां आशिया बनाओगे भी तो कैसे बनाओगे? कब बिजली टूट जाएगी, कहा नहीं जा सकता। कहीं शिकारी बैठा है, कहीं जाल डाले सैयाद बैठा है। यहां फंसने ही फंसने के उपाय हैं।

कहीं बिजली, कहीं गुलचीं, कहीं सैयाद का खतरा

वह चला आ रहा है माली तोड्ने कलियां; यहां फूल बनना मुश्किल है। यह चमकी बिजली! यह जल गया गरीब पक्षी का घोंसला। यह फैलाया सैयाद ने अपना जाल, कट गए पंख पक्षी के। यहां चारों तरफ जाल ही जाल हैं।

कहीं बिजली, कहीं गुलचीं, कहीं सैयाद का खतरा

फले—फूलेगी इस गुलशन में शाखे—आशिया क्योंकर

यहां बहुत मुश्किल है इस संसार में घर बन जाए। कोई कभी नहीं बना पाया। घर बनाना हो तो परमात्मा में बनाओ। वहां कोई खतरा नहीं। न शिकारी, न जाल डालने वाला, न बिजलियां चमकती हैं वहां। वहां मौत नहीं। वहां बीमारी नहीं। वहां वृद्धावस्था नहीं। वहां शाश्वत यौवन है। वहां शाश्वत सौंदर्य है। अमृत का वह लोक है!

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

इसलिए रैदास कहते हैं हमने तो सब देख—समझ कर यही तय किया कि संगति करनी तो तुम्हारी। इस संसार में और कुछ संगति करने योग्य नहीं है।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

तुम्हीं हो हमारा संग—साथ, क्योंकि बाकी सब संग—साथ छूट जाते हैं। यहां कौन किसके साथ चलता है! कितनी देर चलता है! कब रास्ते बदल जाएंगे, कब मोड़ आ जाएंगे, कब तुम अपने रास्ते पर और कब तुम्हारा साथी अपने रास्ते पर हो जाएगा— कोई भी नहीं जानता! हर घड़ी मोड़ है। हर क्षण बिछुड़ जाने की संभावना है। इसलिए तो प्रेमी डरे रहते हैं कि कहीं विछोह न हो जाए, क्योंकि विछोह प्रतिपल लटका है नंगी तलवार सा, कच्चे धागे में। कब गिर पड़ेगी तलवार और गर्दन कट जाएगी, कहा नहीं जा सकता। यहां कौन किसका संग—साथ सदा के लिए निभा पाया! करनी हो संगति, दोस्ती ही करनी हो तो परमात्मा से करने योग्य है। संगति, जो कि शाश्वत होगी। एक दफा बनी तो फिर कभी मिटेगी नहीं। रेत के घर मत बनाओ, बहुत बना चुके और बहुत मिटा चुके।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

और उसकी संगति करनी हो तो एक ही कला है, एक ही सूत्र है—समर्पित हो जाओ। उसकी शरण गहो, ना—कुछ हो जाओ। मिटो। कहो कि मैं नहीं हूं तू ही है! उससे संगति का राज यही है, यही सौदा है उसके साथ, यही शर्त है उसकी।

कबीर ने कहा है : प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय।

अगर तुम रहे तो परमात्मा नहीं रहेगा। अगर चाहते हो परमात्मा रहे तो अपने को पोंछ डालो, मिटा डालो।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी। जग—जीवन राम मुरारी।।

ऐसे तो तुम सब जगह व्याप्त हो, सारे जग का जीवन हो। तुम्हीं हो राम, तुम्हीं हो कृष्ण। तुम्हारे ही सारे रूप हैं। लेकिन उसी को दिखाई पड़ते हो तुम, जो अपने को मिटा लेता है—जो शरणागति का सार समझ लेता है।

गली—गली को जल बहि आयो, सुरसरी जाय समायो।

देखते हो तुम रोज, गली—गली का जल, नाली—नाले सब पहुंच जाते हैं गंगा में। और सब पहुंच जाते हैं सागर में।

गली—गली को जल बहि आयो, सुरसरी जाय समायो।

संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।।

था तो नाली का, लेकिन मिल गया गंगा में, गंााएदक हो गया। संगति का महातम! संगति का महत्व! जिसके साथ जुड़ जाओगे वही हो जाओगे। सदगुरु के पास बैठते—बैठते तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाएगी।

‘गुरु’ शब्द बड़ा प्यारा है। दुनिया की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं है। दुनिया की भाषा में जो शब्द हैं, उनका अर्थ होता है शिक्षक, अध्यापक, आचार्य। मगर गुरु, किसी भाषा में उसका समानार्थी शब्द नहीं है। क्योंकि गुरु की अनुभूति ही पूर्वीय है, मौलिक रूप से भारतीय है। गुरु का अर्थ होता है. अंधेरे को जो दूर कर दे।’ गु ‘ का अर्थ होता है : अंधेरा; ‘ रु’ का अर्थ होता है दूर करने वाला। गुरु का अर्थ हुआ दीया, रोशनी, क्योंकि रोशनी अंधेरे को दूर कर देती है। रोशनी से जुड़ जाओगे, रोशनी हो जाओगे।

अरे देखते नहीं, रोज नाले और नालों का गंदा जल भी गंगा में जाकर गंगाजल हो जाता है! रोज देखते हो, फिर भी अंधे हो!

संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।।

और नाली का जल भी जब गंगा में मिलता है तो कुछ भेद नहीं रह जाता, गंगा उसे पवित्र कर लेती है। सदगुरु शर्तें नहीं रखता कुछ और। यह नहीं कहता कि पापियों के लिए द्वार बंद हैं। सदगुरु है ही पापियों के लिए।

जीसस से किसी ने कहा कि तुम्हारे पास हम देखते हैं जुआरी भी आकर बैठ जाते हैं, शराबी भी आकर बैठ जाते हैं, गांव की वेश्या भी तुम्हारे पास आकर बैठ जाती है, तुम इन्हें भगाते नहीं, हटाते नहीं?

जीसस ने कहा यह तो ऐसा ही होगा कि प्रकाश अंधेरे से डर जाए। यह तो ऐसे ही होगा कि चिकित्सक बीमारों को अपने पास न आने दे। मैं हूं किसके लिए? मैं इन्हीं के लिए हूं! जिसने शराब पी है उसे परमात्मा पिलाऊंगा। और जो वेश्या है, जिसने अभी तन को ही जाना है और तन को ही पहचाना है और तन के पार जिसके जीवन में अभी प्रेम का कोई अनुभव नहीं है — उसे तन के पार का प्रेम अनुभव कराऊंगा। और जो जुआरी है, है तो हिम्मतवर, दांव तो लगाना जानता है— उसे मैं असली दांव लगाना सिखाऊंगा।

सदगुरु के पास किसी को इनकार नहीं है। जो भी डूबने को राजी है, सदगुरु उसे लेने को तैयार है। वह शर्तें नहीं रखता। वह पात्रताओं के बहुत बड़े जाल खड़े नहीं करता। अपात्र को पात्र बना ले, वही तो सदगुरु है। अयोग्य को योग्य बना ले, वही तो सदगुरु है। संसारी को संन्यासी बना ले, वही तो सदगुरु है।

संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।।

स्‍वति बूंद बरसै फनि ऊपर, सोहि विषै होई जाई।।

सांप के ऊपर अगर स्वाति की बूंद भी गिरती है तो जहर हो जाती है।

ओहि बूंद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई।।

लेकिन वही बूंद अगर सीपी में बंद हो जाती है तो मोती बन जाती है। बूंद वही है। सांप के साथ जहर हो जाती है; सीपी में बद होकर मोती बन जाती है। सदगुरु की सीपी में बंद हो जाओ तो मोती बन जाओगे।

हम जिनके पास बैठते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। जिनके साथ उठते—बैठते हैं, उनका रंग चढ़ जाता है।

मैंने सुना है, मिश्र का एक सम्राट पागल हो गया। उसके लिए बहुत चिकित्सक बुलाए गए, लेकिन कोई उसे ठीक न कर सका। आखिर एक फकीर को बुलाया गया। आखिर जब कोई और उपाय न बचे तो लोग फकीरों के पास जाते हैं।

उस फकीर ने कहा कि कुछ बातें मैं जानना चाहता हूं। इस सम्राट के संबंध में कुछ बातें मुझे बताओ। इसका कोई शौक था? कोई ऐसा शौक जो जिंदगी भर इसको घेरे रहा हो? उन्होंने कहां. हां, यह शतरंज का खिलाड़ी था, अदभुत खिलाड़ी था। फकीर ने कहा फिर रास्ता बन जाएगा। शतरंज का जो सबसे अच्छा खिलाड़ी हो तुम्हारे देश में, उसको बुला लो। और वह जितने पैसे मांगे उसे दो, लेकिन राजा के साथ उसे शतरंज खेलने दो।

उन्होंने कहा इससे क्या होगा? सम्राट पागल है, वह क्या खाक शतरंज खेलेगा! फकीर ने कहा तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं। यह फिकर करे शतरंज उसके साथ जिसको खेलनी हो वह। और पैसा वह जितना मांगे हम देने को तैयार हैं। अगर पैसे का लोभी होगा तो सहेगा, पागल के साथ भी शतरंज खेलेगा।

पैसे भी उसने बहुत मांगे— लाखों रुपये रोज लूंगा। फकीर ने कहा दो। महंगा नहीं है सौदा। साल भर बाद आना। साल भर बाद दरबारी आए। फकीर ने पूछा, कहो क्या हाल है? उन्होंने कहा सब मामला ही बदल गया। बात ही उलटी हो गई। वह जो शतरंज का खिलाड़ी था बड़ा भारी, वह तो पागल हो गया और सम्राट ठीक हो गया।

अब साल भर तुम पागल आदमी के साथ शतरंज खेलोगे तो चाहे कितने ही बड़े शतरंज के खिलाड़ी होओ, पगला जाओगे। और जैसे—जैसे तुम पगलाओगे, दूसरे का पागलपन तुम में समाता जाएगा। और उसका पागलपन से छुटकारा हो जाएगा; रेचन हो गया उसका।

यही तो है कारण। जान कर तुम चकित होओगे कि दुनिया में जितने मनोवैज्ञानिक हैं, वे सर्वाधिक पागल होते हैं किसी भी दूसरे व्यवसाय के मुकाबले। होंगे ही बेचारे। पागलों के साथ शतरंज खेलोगे, कब तक ठीक रहोगे! मनोवैज्ञानिक दुगुनी आत्महत्याएं करते हैं और दूसरे लोगों की बजाय, और दो गुने पागल होते हैं। होना तो ऐसा नहीं चाहिए। मनोवैज्ञानिक और आत्महत्या करे, तो यह दूसरों को क्या बचाएगा! और मनोवैज्ञानिक खुद ही पागल हो जाता हो, तो यह दूसरों को कैसे पागलपन से बचाएगा! लेकिन बात इतनी बेबूझ नहीं है। पागलों के साथ चौबीस घंटे रहेगा तो स्वाभाविक है कि पागलों जैसा हो जाएगा। आज नहीं कल संग—साथ असर लाने लगेगा।

मेरे हिसाब में प्रत्येक मनोवैज्ञानिक को, इसके पहले कि वह मनोविज्ञान के व्यवसाय में लगे, ध्यान की गहरी प्रक्रियाओं से गुजरना चाहिए, क्योंकि वह खतरनाक धंधे में जा रहा है। वहां ध्यान ही बचा सकता है।

अगर उस सम्राट के साथ शतरंज खेलने वाले खिलाड़ी ने मुझसे पूछा होता तो मैं उससे कहता कि तू खेल जरूर, लाख रुपया भी ले, लेकिन साक्षी— भाव रखना। दूरी बनाए रखना, तादात्म्य मत करना। हार—जीत की फिकर ही छोड़ देना। पागल के साथ क्या हार—जीत! हारे तो ठीक, जीते तो ठीक, सब बराबर। और तू बिलकुल दूर रहना। यंत्रवत खेलते रहना और भीतर साक्षीभाव बनाए रखना।… तो वह पागल नहीं होता।

प्रत्येक मनोवैज्ञानिक को साक्षीभाव से गुजरना ही चाहिए। उसे ध्यान की गहरी प्रक्रियाओं का अनुभव कर लेना चाहिए। अगर सम्यक शिक्षा हो तो मनोवैज्ञानिक को सर्टिफिकेट देने के पहले साल, दो साल ध्यान के अभ्यास से गुजारना चाहिए, तो उसकी सुरक्षा है, नहीं तो वह पागल होने ही वाला है।

इधर मेरे पास सारी दुनिया से मनोवैज्ञानिक आने शुरू हुए हैं। ध्यान कर रहे हैं, और उनके जीवन में एक नये आयाम का उदघाटन हो रहा है— जिस संबंध में उन्होंने कभी सोचा ही न था। मन से ही घिरे थे, मन की जानकारी भी थी उन्हें; लेकिन मन के पार भी कुछ है, उसकी जानकारी अगर न हो तो पागलों के साथ संबंध रखना खतरे से खाली नहीं है।

जिसके साथ रहोगे वैसे हो जाओगे। अब सवाल यह है कि कौन मजबूत है? कौन शक्तिशाली है? जीसस के साथ अगर जुआरी रहेगा तो जीसस नहीं बदल जाएंगे, जुआरी बदलेगा। और तुम अगर जुआरी के साथ रहे तो डर यह है कि तुम बदलोगे, जुआरी नहीं बदलेगा। कौन बलशाली है?

बुद्ध का एक भिक्षु एक नगर से गुजर रहा था श्रावस्ती के एक रास्ते से। श्रावस्ती की सबसे ज्यादा सुंदरी वेश्या ने इस भिक्षु को देखा और इस भिक्षु के सौंदर्य पर मोहित हो गई। उसने सम्राट देखे थे, उसने बड़े से बड़े सेनापति देखे थे, बड़े धनपति देखे थे। उसके द्वार पर कतार लगी रहती थी इन्हीं लोगों की।

उस वेश्या के साथ बैठने का मौका बड़ी मुश्किल से मिलता था। बहुत कीमती वेश्या थी। और इस भिक्षु पर मोहित हो गई।

कभी—कभी ऐसा होता है कि संन्यासी में जो सौंदर्य होता है वह किसी में भी नहीं होता। कारण? कारण कि उसकी अलिप्तता उसे एक सौंदर्य देती है, एक प्रसाद देती है; वह कमल हो जाता है, जल उसे छूता नहीं। यह जल में रह कर जल से न छूने की जो क्षमता है, यह उसको एक अपूर्व सौंदर्य से भर देती है। और उसके भीतर ध्यान घटा होता है, तब तो कहना ही क्या! उसके भीतर से परमात्मा ज्योतिर्मय हो उठता है। उसके रग—रग रेशे—रेशे से आभा प्रकट होने लगती है। उसकी वाणी में एक माधुर्य आ जाता है। उसके उठने—बैठने में एक कला होती है। वह बोले तो मधुर। वह चुप रहे तो मधुर। माधुर्य उसे घेर लेता है।

वह वेश्या उतरी अपने महल से, उसने फकीर के चरण छुए और कहा कि मैं निमंत्रण देती हूं। वर्षाकाल करीब आ रहा है— और मुझे पता है कि बौद्ध भिक्षु वर्षाकाल में एक जगह रुकते हैं— मेरे महल में निवास करो! किसी छप्पर के नीचे तो रुकना ही होगा। मेरे निमंत्रण को अस्वीकार न करना। यह मेरे जीवन का पहला निमंत्रण है। मुझे निमंत्रण देने लोग आते हैं, मैंने किसी को कभी निमंत्रण नहीं दिया।

भिक्षु ने कहा. मुझे कोई अड़चन नहीं है, लेकिन मुझे गुरु से तो आशा लेनी ही होगी। और जहां तक निश्चित है कि आशा मिल जाएगी। और जाकर उन्होंने बुद्ध से कहा। और भिक्षुओं को तो आग लग गई। क्योंकि कई भिक्षु चक्कर लगाते थे उस वेश्या के घर के आस—पास। वहीं—वहीं भीख मांगते थे, बार—बार वहीं—वहीं जाते थे। उस वेश्या की एक झलक मिल जाना भी बहुत थी। और इसको चार महीने उस वेश्या के घर रहना है! और बुद्ध ने कहा कि ठीक है, अगर वेश्या खुद ही खतरा ले रही है तो हम कर भी क्या सकते हैं! तू मजे से रह!

अनेक भिक्षु खड़े हो गए, उन्होंने कहा यह आप क्या कर रहे हैं? यह भिक्षु भ्रष्ट हो जाएगा।

बुद्ध ने कहा : इसे मैं तुमसे ज्यादा जानता हूं। पहली तो बात, अगर यह भ्रष्ट हो सकता होता तो वेश्या इस पर मोहित नहीं हुई होती। उसने बड़े सुंदर लोग देखे हैं। इसमें जो सौंदर्य उसे दिखाई पड़ा है, वह चुनौती है। इसकी अलिप्तता, इसका साक्षीभाव ही उसे छू गया है। तुम भी तो चक्कर लगाते हो उसके घर के। तुम्हें उसने निमंत्रण नहीं दिया, इसको ही क्यों निमंत्रण दिया है? और इसे मैं जानता हूं तुम नहीं जानते। तुम अपने को नहीं जानते, इसे क्या जानोगे! मैं इसे आर—पार जानता हूं। मुझे कोई चिंता नहीं है। भिक्षु को आशा है। और अगर तुम चिंतित हो तो चार महीने रुक जाओ, वर्षाकाल बीत जाने पर निर्णय हो जाएगा।

भिक्षु गया। वेश्या के घर चार महीने रहा। और बाकी भिक्षुओं ने जितनी कहानियां उड़ा सकते थे उड़ाई। और तो कुछ कर भी नहीं सकते थे। जब लोग कुछ भी नहीं कर सकते, जब लोग बिलकुल नपुंसक अनुभव करते हैं तो अफवाहें उड़ाते हैं। और तो कोई उपाय नहीं, अब करें भी क्या! न मालूम कहा—कहा की कहानियां गढ़ कर लाते थे कि आज गांव में ऐसा सुना, कि वह भिक्षु तो उसके साथ नाच रहा था, कि वह भिक्षु उसकी गोद में सिर रखे लेटा था, कि वह वेश्या अपने हाथ से उसको भोजन करवा रही थी, कि उस भिक्षु ने तो भिक्षु का वेश छोड़ दिया है, वह तो अब सुंदर बहुमूल्य वस्त्रों में रह रहा है, गद्दियों पर सो रहा है! वह वेश्या उस भिक्षु के शरीर पर मालिश करती देखी गई है। न मालूम क्या—क्या खबरें!

लेकिन बुद्ध ने कुछ कहा नहीं। बुद्ध सुनते रहे, सुनते रहे चार महीने। उन्होंने कहा. चार महीने बाद सब निर्णय हो जाएगा। मगर बाकी भिक्षुओं में तो आग लगी थी, ईर्ष्या जल रही थी। ईर्ष्या जो न कराए, थोड़ा है। ईर्ष्या जो न झूठ बुलवाए, थोड़ा है। और एकाध भिक्षु नहीं था, सारे भिक्षुओं में आग लगी थी। इसलिए उनकी बातों में बल भी मालूम होता था। एक अफवाह एक ही नहीं लाता था, वही अफवाह बहुत लोग लाते थे। तो ऐसा भी लगता था कि सचाई होनी चाहिए। जब इतने लोग कहते हैं तो सच ही कहते होंगे। सारे गांव में बस एक ही चर्चा का विषय था कि भिक्षु भ्रष्ट हो गया, कि बुद्ध ने यह क्या किया! क्यों भेजा उसको!

और कुछ ऐसा हुआ कि भिक्षु जिस दिन से आया, वेश्या ने घर के द्वार ही बंद कर दिए। और कोई ग्राहकों के लिए आने का उपाय ही न रहा। तो और भी अफवाहों को गति मिली। दरवाजे बंद। कोई भीतर आना—जाना किसी का है नहीं। वेश्या निकली ही नहीं चार महीने घर से बाहर। तो खूब राग—रंग चल रहा है— ऐसा राग—रंग चल रहा है कि चार महीने से वेश्या बाहर नहीं निकल रही है! भिक्षु के भी किसी ने दर्शन नहीं किए कि चार महीने.. .बचा कि खत्म हो गया! शराब पीने लगा है, कोई कहता; कोई कहता कि यह करने लगा, कोई कहता वह करने लगा। लेकिन बुद्ध चुप रहे सो चुप रहे। सुनते और कहते, चार महीने बीत ही जाएंगे आखिर, इतनी जल्दी क्या है!

और चार महीने बीते, वर्षाकाल व्यतीत हुआ; और भिक्षु आया और भिक्षु के पीछे वेश्या आई। बुद्ध के चरण भिक्षु ने छुए और बुद्ध के चरण वेश्या ने छुए और कहा. मुझे दीक्षा दें। मैंने हर चेष्टा की कि भिक्षु को गिरा लूं र लेकिन मेरी हर चेष्टा टूट गई और भिक्षु ने ही मुझे उठा लिया। चार महीने मैंने अथक चेष्टा की। भिक्षु बैठा रहे, मैं नग्न उसके आस—पास नाची। और जो अफवाहें आप सुनते थे, वे एकदम झूठ नहीं हैं। भिक्षु बैठा रहे ध्यान में, मैं उसकी गोद में सिर रख दूं। भिक्षु बैठा है ध्यान में, मैं उसके शरीर की मालिश करूं। मैंने हर कोशिश की कि उसे डिगा लूं और नहीं डिगा पाई। अब तो बस जीवन में एक ही लक्ष्य है कि ऐसी अडिग अवस्था मैं कब पाऊंगी, कैसे पाऊंगी न: आपका भिक्षु जीत गया। असल में मुझे उसी दिन जान लेना चाहिए था कि जिस दिन आपने भिक्षु को मेरे घर ठहरने की आज्ञा दी कि मेरी हार तय हो गई।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा देखते हो! भिक्षु के साथ वेश्या भी भिक्षु होने के लिए तैयारी से भर गई!

कौन बलशाली है, इस पर निर्भर करता है। सबल खींच लेता है। इसलिए अपने से सबल जहां भी तुम पाओ सदगुरु, अपने से सबल जहां भी तुम ज्योति पाओ, सुगंध पाओ— फिर डूब ही जाना, फिर दांव पर सब लगा ही देना। तुम जरूर रूपांतरित हो सकोगे।

रैदास ठीक कहते हैं, क्रांति घट जाती है।

संगति के परताप महातम आवै बास सुबासा।।

स्‍वति बूंद बरसै फनि ऊपर।

सांप के ऊपर गिरती है स्वाति की बूंद।

सोहि विषै होई जाई।।

वह विष हो जाती है। सांप बलशाली है।

ओहि बूंद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई।।

और उसी बूंद से मोती भी बन जाता है।

तेरे बिना है बेसुरी यह बांसुरी

दर्द की इक रागिनी यह जिंदगी

मैं न भूलूंगी तुम्हें प्रियतम कभी

जिंदगी तेरे बिना कुछ भी नहीं

फूंक दो गर प्यार से, वह गा उठे

प्यार में डूबी हुई है जिंदगी

सांस लेते हो, धड़कते हो तुम्हीं

तुम नहीं तो कुछ नहीं फिर जिंदगी

आरजू मेरी तुम्हीं बस एक हो

तुम मिलो तो खिल उठे फिर जिंदगी

परमात्मा मिले तो तुम खिलो। और परमात्मा मिल सकता है, क्योंकि दूर नहीं, पास से भी पास है— तुम्हें घेरे हुए है! जरा आंख खोलो, जरा टटोलो, जरा आस—पास अपने हाथ फैलाओ, तुम उसे छू लोगे, तुम उसे देख लोगे। और एक बार उसका संस्पर्श हो जाए कि बस पारस छू गया तुम्हें।

इसकी चिंता न करो कि तुम पापी हो। पारस फिकर नहीं करता कि लोहा लोहा है। एक बड़ी प्रीतिकर घटना है। विवेकानंद अमरीका गए, उसके पहले की घटना है। राजस्थान में एक राजा के घर मेहमान थे। राजा तो राजा! विवेकानंद की विदाई के लिए उसने बड़ा समारोह किया। वे अमरीका जाने की तैयारी में थे विश्व— धर्म—सम्मेलन में भाग लेने, तो राजा ने बड़ा समारोह किया। और राजा जैसे समारोह कर सकता था वैसा किया। उसने काशी की सबसे प्रसिद्ध वेश्या भी बुलवा ली। उसको यह खयाल भी न आया, खयाल आने का कहां सवाल! रात भर पीए और दिन भर सोए। उसे होश कहां कि विवेकानंद के स्वागत में वेश्या को बुलाना चाहिए या नहीं, यह गणित का खयाल ही नहीं बैठा। और अच्छा ही हुआ कि खयाल नहीं बैठा; बैठ जाता तो यह अपूर्व घटना घटने से रह जाती।

दिन आ गया उत्सव का, तब विवेकानंद को पता चला, सांझ जब उनको जाना था उत्सव में, तब पता चला कि काशी की बहुत प्रसिद्ध वेश्या नृत्य करेगी वहां!

विवेकानंद— पुराने ढब के संन्यासी। कलकत्ते में भी उनके संबंध में कहा जाता था कि जिस मोहल्ले में वेश्या रहती हों, उससे गुजरते नहीं थे वे। चाहे उनको चार मील का चक्कर लगाना पड़े, तो वे चार मील का चक्कर लगा कर घर आते, मगर उस रास्ते से नहीं गुजरते थे जहां कोई वेश्या रहती हो। तो वे कहीं जाने वाले थे उत्सव में! आखिरी वक्त जब पता उनको चला तो उन्होंने राजा के वजीर को कहा कि फिर मैं नहीं आ सकूंगा। लेकिन राजा तो फिर मैंने कहा न राजा ही! उसने कहा अब नहीं आते तो नहीं आएं, अब समारोह तो होगा ही! और फिर इतने दूर से वेश्या आई है, उसका गीत—गान, नृत्य तो होगा ही। चलने दो, उत्सव शुरू होने दो। मैं तो हूं ही।

लेकिन वेश्या को बहुत चोट लगी और उसने एक भजन गाया। भजन, जिसका अर्थ होता है कि पारस पत्थर को जरा भी भेद नहीं होता कि जिस लोहे को वह सोना बना रहा है वह पूजा—घर में रखा जाने वाला लोहा है या कसाई के घर पशुओं की हत्या जिससे की जाती है वह लोहा है। पारस तो दोनों को ही सोना बना देता है।

पास ही विवेकानंद का कमरा है। वे सब सुन रहे हैं। यह गीत जब उन्होंने सुना तब उन्हें बड़ी चोट पड़ी। लगा कि अभी मैं दमन से ही भरा हुआ हूं। अभी भी डर है मेरे भीतर। सच तो है, पारस को क्या फिकर? लोहा कहां से आया है, कसाई के घर से आया है कि पूजा—गृह से आया है, यह तो पारस पूछता ही नहीं। उसको तो जो लोहा छू ले वही सोना हो जाता है।

वह वेश्या रो रही है और गा रही है। विवेकानंद बीच में पहुंच गए और कहा : मुझे क्षमा करो, मुझसे भूल हो गई। मुझे बड़े—बड़े इतनी जो न समझा सके, वह तूने समझा दिया। तू मेरी गुरु है।

विवेकानंद ने बड़े आदर से स्मरण किया है इस घटना का कि उस घटना के बाद मेरे जीवन में क्रांति हो गई। मुझे जो भय था, स्त्रियों का जो डर था, वह गल गया और बह गया। मैंने कहा यह भी क्या बात है! बात तो ठीक है। इतने भय से, इतनी भीरुता से कहीं संन्यास का जन्म होगा?

लेकिन भारतीय जनमानस को यह बात बहुत अखरी। विवेकानंद का पहुंच जाना और वेश्या से क्षमा मांगना, लोगों को बहुत अखरा। लोग तो खुश थे कि विवेकानंद नहीं आए, क्योंकि तब तक संन्यासी की परिभाषा में पड़ते थे।

अब तुम मजा देखते हो कि लोगों की बुद्धि कैसी है! विवेकानंद का आना और क्षमा मांगना मेरे हिसाब से विवेकानंद के संन्यास में प्रवेश का क्षण है। रामकृष्ण जो नहीं कर पाए थे वह उस वेश्या ने कर दिया। रामकृष्ण ने जो संन्यास दिया था, ऊपर—ऊपर रह गया, उस वेश्या ने अंतर्तम को छू लिया। विवेकानंद का आना उस उत्सव में और क्षमा मांगना उनके असली संन्यास की शुरुआत है। मगर लोगों में बड़ी भद्द हो गई। लोगों ने तो समझा कि ये तो सब बहाने हैं—माफी मांगना और यह करना…….। असली बात यह है कि खबर सुनी होगी कि स्त्री बड़ी सुंदर है, तो नहीं रह सके।

मगर विवेकानंद के सिर से एक बोझ उतर गया। और उनके पश्चिम जाने में और पश्चिम के जीवन में तालमेल बैठ जाने में उस वेश्या ने जितना सहयोग दिया, किसी और ने नहीं। नहीं तो पश्चिम में बड़ी मुश्किल हो जाती। भारत में तो ठीक था। पश्चिम में तो स्त्री और पुरुष समानता को उपलब्ध हो गए हैं, बराबरी के दर्जे पर जी रहे हैं। अब वह मूढ़ता नहीं रही जो पहले थी। वहां विवेकानंद बड़ी मुश्किल में पड़ जाते। और जिन्होंने विवेकानंद को सच में वहां साथ दिया, वे सब महिलाएं थीं। और जो महिला उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिष्या बनी— निवेदिता— अगर वे पुराने ढब के ही संन्यासी रहे आते तो निवेदिता से संबंध ही नहीं बन सकता था।

लेकिन भारतीय मानस को बड़ी चोट पहुंची। विवेकानंद जब वापस लौटे निवेदिता के साथ तो बंगाल में बड़ी बदनामी हुई— कि संन्यासी और स्त्री के साथ आया! गए थे बचाने, खुद ही डूब गए!

हजार—हजार तरह की अफवाहें उड़ी। लेख लिखे गए विवेकानंद के खिलाफ, पुस्तिकाएं छापी गईं। और न मालूम किस—किस तरह की बेहूदी बातें! और जान कर तुम हैरान होओगे कि निवेदिता को दक्षिणेश्वर के मंदिर में नहीं ठहरने दिया गया। जिसने विवेकानंद और रामकृण को सारी दुनिया में पहुंचाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम किया, उस महिला को दक्षिणेश्वर के मंदिर में नहीं ठहरने दिया गया, उसको बाहर मकान लेकर रहना पड़ा, आश्रम में भीतर नहीं। और विवेकानंद को उस कारण बड़ी परेशानी झेलनी पड़ी, बड़ा कष्ट झेलना पड़ा। विवेकानंद के अंतिम दिन बहुत पीड़ा और दुख में बीते। बड़ी से बड़ी पीड़ा तो थी यह जनमानस की अंधी दशा, कि ये कभी समझेंगे या नहीं समझेंगे?

लोगों ने यही समझा कि निवेदिता ने विवेकानंद को बदल लिया। तुम्हें अपने संन्यासियों का भी कोई भरोसा नहीं! तुम इतना भरोसा न कर सके कि विवेकानंद निवेदिता को बदल सकते हैं। तुमने निवेदिता की स्त्रैणता को ज्यादा मूल्य दिया बजाय विवेकानंद के संन्यास के। लेकिन विवेकानंद बलशाली व्यक्ति हैं। उनके पास जो आएगा वह बदला जाएगा।

तुम चहता हअ बेड बाटुने, तिक्रठ तुग्हाने आसा।

रैदास कहते हैं कि तुम चंदन हो और हम तो ऐसी लकड़ी समझो कि जो किसी काम की नहीं। मगर अगर तुम्हारा साथ मिल जाए तो हम में भी गंध समा जाए।

तुम चंदन हम रेंड बापुरे, निकट तुम्‍हारे आसा।।

बस तुम्हारे नैकटच में ही हमारी सारी आशा है, सारा भविष्य है, सारी संभावना है।

बहन, तुम तो बिलकुल लता मंगेशकर की तरह गाती हो, गुलाबो ने अपनी सहेली गुलजान से कहा। धन्यवाद बहन! काश यह वाक्य मैं तुम्हारे संबंध में भी कह सकती, गुलजान ने शरमाते हुए गुलाबो से कहा।

अरे, इसमें क्या परेशानी है। तुम भी मेरी तरह झूठ बोलने की आदत डालो, गुलाबो सहज स्वर में उत्तर देते हुए बोली।

तुम किनके साथ हो, थोड़ा देखना, सोचना, समझना। बेहतर है अकेले होना। कम से कम जैसे हो वैसे तो रहोगे, उससे नीचे तो नहीं गिरोगे। लेकिन लोग अक्सर अपने से नीचे लोगों का साथ खोजते हैं। कारण? क्योंकि अपने से नीचे लोगों के बीच में वे बड़े मालूम होते हैं। लोग अपने से हमेशा नीचे लोगों के साथ रहने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं, क्योंकि उनके बीच में वे महत्वपूर्ण मालूम होते हैं। अपने से बड़े लोगों के पास बैठने में लोग संकोच खाते हैं, डरते हैं, जाते नहीं, क्योंकि वहां वे छोटे हो जाते हैं।

फिर तुमसे जो सच में ही बड़ा है, सदगुरु है, वह तो दर्पण है, वह तुम्हारा चेहरा प्रकट कर देगा। अपना असली चेहरा कोई भी नहीं देखना चाहता है। लोग दर्पण पर नाराज हो जाते हैं!

चंदूलाल गए एक फोटोग्राफर के पास फोटो उतरवाने। चंदूलाल ने कहा—जब फोटो उतर चुका— कि मैं इस फोटोग्राफ को नहीं खरीद सकता। मैं इसमें बिलकुल बंदर लगता हूं।

फोटोग्राफर ने कहा तो साहब, यह आपको फोटो खिंचवाने के पहले ही सोचना था। अब मैं क्या कर सकता हूं? फोटो आपका है, चाहें तो इस दर्पण में देख लें और फोटो से मिला लें। इसमें मुझ पर नाराज होने की जरूरत नहीं है।

सदगुरु के पास जाने में तो और भी भय है— बड़ा भय है! सबसे बड़ा भय यह है कि तुम जैसे हो, वह तुम्हें वैसा ही देख लेगा। तुम उससे अपने को बचा न सकोगे। उसकी आंखों में तुम्हारा जो प्रतिबिंब बनेगा, वह वह नहीं होगा जैसा तुम चाहते हो कि दिखलाओ। वह वही होगा जैसे कि तुम हो। दूसरे लोग तो तुम्हें तुम्हारे मुखौटे से ही पहचानते हैं। चाहे उनको शक भी होता हो तुम्हारे मुखौटे पर, मगर उतनी गहरी आंखें होती भी नहीं कि तुम्हारे भीतर देख सकें।

सेल टैक्स आफिसर ने खाते का आखिरी पन्ना खोला जिस पर लिखा था— दो हजार रुपये के बिस्कुट कुत्ते को खिलाए। उस आफिसर ने आश्चर्य से पूछा क्यों जी चंदूलाल, यह क्या माजरा है? हमें धोखा देना चाहते हो? सेल टैक्स बचाने की तुमने अच्छी तरकीब निकाली! मगर इतना तो सोच लेते महाशय कि इस बात पर कोई भरोसा करेगा कि तुमने दो हजार रुपये के बिस्कुट कुत्ते को खिलाए? तुमने, और दो हजार के बिस्कुट, और कुत्ते को! बोलो तुम्हें ऐसा सफेद झूठ बोलते हुए शर्म न आई?

शर्म तो आई हुजूर, मगर क्या करूं— चंदूलाल ने अपनी चांद पर हाथ फेरते हुए कहा— यदि मैं आपका शुभ नाम लिखता तो वह और भी ज्यादा लज्जाजनक बात होती।

लोग देख भी लें तुम्हारी असली शकल तो भी कहेंगे नहीं, क्योंकि कौन झंझट ले! लोग देख कर भी नहीं देखते, सुन कर भी अनसुना करते हैं। तुम जैसा दिखलाना चाहते हो वैसा ही मान लेते हैं। लेकिन जैसे—जैसे तुम अपने से ऊंचे लोगों के पास जाओगे वैसे—वैसे यह बात मुश्किल होने लगेगी। और जब सदगुरु के पास बैठोगे तो तुम जैसे हो ठीक वैसे ही झलकोगे। और इसीलिए लोग सदगुरुओं पर नाराज होते हैं। सदगुरुओं को जितनी गालियां पड़ती हैं इस पृथ्वी पर, किसी और को नहीं पड़ती। सदगुरु फूल बरसाते हैं और उन पर गालियां बरसती हैं। यह स्वाभाविक है, क्योंकि इतने लोगों के चेहरे वे प्रकट कर देते हैं— असली चेहरे— कि भीड़ नाराज हो जाती है।

जब तक तुम यह कहने में समर्थ न हो सको— तुम चंदन हम रेड बापुरे, निकट तुम्हारे आसा— तब तक तुम सदगुरुओं के पास नहीं बैठ सकोगे, परमात्मा के पास बैठने की तो बात दूर।

संगति के परताप महातम आवै बास सुबासा।।

हम तो व्यर्थ की लकड़ी हैं, पास ले लो तो तुम्हारी बास हममें समा जाए।

जाति ओछी करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।।

रैदास कहते हैं जाति हमारी ओछी है, कर्म भी हमारा ओछा, व्यवसाय भी हमारा ओछा।

नीचै से प्रभु ऊंच कियो है, कहि रैदास चमारा।।

वे एक क्षण को भी यह बात नहीं भूलते कि मैं चमार हूं और मुझ चमार को ऐसा ऊपर उठा लिया, ऐसा आकाश में उठा लिया। जिन हाथों ने मुझ चमार को कमल की तरह ऊपर उठा लिया है, उन हाथों का जितना धन्यवाद करूं उतना थोड़ा है।

मगर खयाल रखना, यह बात तुम पर भी उतनी ही लागू है जितनी किसी और पर। तुम चाहे चमार के घर में पैदा न हुए होओ, इससे यह मत सोच लेना कि यह होगा रैदास के संबंध में सच, मैं तो हूं ब्राह्मण— चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी! बड़ी अकड़ रहती है!

एक सज्जन ने मुझे पत्र लिखा, उनका नाम था त्रिवेदी। भूल से मैंने उनको जो पत्र लिखा, उसमें द्विवेदी लिख दिया। उनका लौटती डाक से पत्र आया कि आपने ठीक नहीं किया, मैं त्रिवेदी हूं। तो मैंने उनको चतुर्वेदी लिख दिया। मैंने कहा पिछली भूल के हिसाब से, द्विवेदी लिख दिया था, एक वेद कम हो गया था, इसमें एक बढ़ाए देता हूं। अब आपके चित्त को शांति मिले!

यह मत सोच लेना कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण, बड़े शुद्ध ब्राह्मण! यह होगी रैदास के संबंध में बात सच! नहीं, खयाल रखना, जब तक चमड़ी के ऊपर तुम कुछ भी नहीं जानते हो तब तक चमार हो।

जनक ने एक धर्म—सभा बुलाई थी। उसमें बड़े—बड़े पंडित आए। उसमें अष्टावक्र के पिता भी गए। अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़ा था, इसलिए तो नाम पड़ा अष्टावक्र। दोपहर हो गई। अष्टावक्र की मां ने कहा कि तेरे पिता लौटे नहीं, भूख लगती होगी, तू जाकर उनको बुला ला।

अष्टावक्र गया। धर्म—सभा चल रही थी, विवाद चल रहा था। अष्टावक्र अंदर गया। उसको आठ जगह से टेढ़ा देख कर सारे पडितजन हंसने लगे। वह तो कार्टून मालूम हो रहा था। इतनी जगह से तिरछा आदमी देखा नहीं था। एक टांग इधर जा रही है, दूसरी टांग उधर जा रही है, एक हाथ इधर जा रहा है, दूसरा हाथ उधर जा रहा है, एक आंख इधर देख रही है, दूसरी आंख उधर देख रही है। उसको जिसने देखा वही हंसने लगा कि यह तो एक चमत्कार है! सब को हंसते देख कर.. .यहां तक कि जनक को भी हंसी आ गई।

मगर एकदम से धक्का लगा, क्योंकि अष्टावक्र बीच दरबार में खड़ा होकर इतने जोर से खिलखिलाया कि जितने लोग हंस रहे थे सब एक सकते में आ गए और चुप हो गए। जनक ने पूछा कि मेरे भाई, और सब क्यों हंस रहे थे, वह तो मुझे मालूम है, क्योंकि मैं खुद भी हंसा था, मगर तुम क्यों हंसे? उसने कहा मैं इसलिए हंसा कि ये चमार बैठ कर यहां क्या कर रहे हैं!

अष्टावक्र ने चमार की ठीक परिभाषा की, क्योंकि इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मेरा शरीर आठ जगह से टेढ़ा है, इनको शरीर ही दिखाई पड़ता है। ये सब चमार इकट्ठे कर लिए हैं और इनसे धर्म— सभा हो रही है और ब्रह्मशान की चर्चा हो रही है? इनको अभी आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। है कोई यहां जिसको मेरी आत्मा दिखाई पड़ती हो? क्योंकि आत्मा तो एक भी जगह से टेढ़ी नहीं है।

वहां एक भी नहीं था। कहते हैं, जनक ने उठ कर अष्टावक्र के पैर छुए। और कहा कि आप मुझे उपदेश दें। इस तरह अष्टावक्र—गीता का जन्म हुआ। और अष्टावक्र—गीता भारत के ग्रंथों में अद्वितीय है। श्रीमद्भगवद्गीता से भी एक दर्जा ऊपर! इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता को मैंने गीता कहा है और अष्टावक्र—गीता को महागीता कहा है। उसका एक—एक वचन हीरों से भी तौला जाए, हजारों हीरों से भी तौला जाए, तो भी पलड़ा उस वचन का ही भारी रहेगा, हीरों का भारी नहीं हो सकता। सारे सूत्र ध्यान के हैं और समाधि के हैं।

तो तुम समझ लेना, जब तक तुम्हें शरीर ही दिखाई पड़ता है— अपना और दूसरों का—तब तक तुम चमार ही हो। मेरे हिसाब से सभी शूद्र पैदा होते हैं, कभी—कभी कोई ब्राह्मण हो पाता है— कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई महावीर, कोई रैदास, कोई फरीद, कोई नानक। कभी—कभी कोई ब्राह्मण हो पाता है; नहीं तो लोग शूद्र ही पैदा होते हैं, शूद्र ही मर जाते हैं। तो यह सूत्र तुम्हारे संबंध में भी है—तुम्हारे ही संबंध में है!

जाति ओछी करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।।

नीचै से प्रभु ऊंच कियो है, कहि रैदास चमारा।।

लेकिन रैदास कहते हैं कि मैं चमार था, शूद्र था, मेरा सब छोटा है—मेरी जाति, मेरा कर्म, मेरा व्यवसाय, सब छोटा है। लेकिन मुझ छोटे को भी तुमने क्या छुआ कि लोहा सोना हो गया। तुम पारस हो।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

आज इतना ही।


Filed under: मन ही पूजा मन ही धूप--(संत--रैदास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–41)

$
0
0

की पूरब श्रेष्ठतम देन : संन्यास—(प्रवचन—इक्‍कतालिसवां)

‘नव— संन्यास क्या?':

से संकलित ‘संन्यास: मेरी दृष्टि में’ :

रेडिओ—वार्ता आकाशवाणी बम्बई से प्रसारित

दिनांक 3 जुलाई 1971

 नुष्‍य है एक बीज—अनन्त सम्भावनाओं से भरा हुआ। बहुत फूल खिल सकते हैं मनुष्य में, अलग—अलग प्रकार के। बुद्धि विकसित हो मनुष्य की तो विज्ञान का फूल खिल सकता है और हृदय विकसित हो तो काव्य का और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए तो संन्यास का।

संन्यास है, समग्र मनुष्य का विकास। और पूरब की प्रतिभा ने पूरी मनुष्यता को जो सबसे बड़ा दान दिया—वह है संन्यास।

संन्यास का अर्थ है, जीवन को एक काम की भांति नहीं वरन एक खेल की भांति जीना। जीवन नाटक से ज्यादा न रह जाए, बन जाए एक अभिनय। जीवन में कुछ भी इतना महत्वपूर्ण न रह जाए कि चिन्ता को जन्म दे सके। दुख हो या सुख, पीड़ा हो या संताप, जन्म हो या मृत्यु संन्यास का अर्थ है इतनी समता में जीना—हर स्थिति में—ताकि भीतर कोई चोट न पहुंचे। अन्तरतम में कोई झंकार भी पैदा न हो। अंतरतम ऐसा अछूता रह जाए जीवन की सारी यात्रा में, जैसे कमल के पत्ते पानी में रहकर भी पानी से अछूते रह जाते हैं। ऐसे अस्पर्शित, ऐसे असंग, ऐसे जीवन से गुजरते हुए भी जीवन से बाहर रहने की कला का नाम संन्यास है।

यह कला विकृत भी हुई। जो भी इस जगत में विकसित होता है, उसकी सम्भावना विकृत होने की भी होती है। संन्यास विकृत हुआ, संसार के विरुद्ध खड़े हो जाने के कारण—संसार की निंदा, संसार की शत्रुता के कारण। संन्यास खिल सकता है वापस, फिर मनुष्य के लिए आनन्द का मार्ग बन सकता है, संसार के साथ संयुक्त होकर, संसार को स्वीकृत करके। संसार का विरोध करनेवाला, संसार की निन्दा और संसार को शत्रुता के भाव से देखनेवाला संन्यास अब आगे सम्भव नहीं होगा। अब उसका कोई भविष्य नहीं है। है भी रुग्ण वैसी दृष्टि।

यदि परमात्मा है तो यह संसार उसकी ही अभिव्यक्ति है। इसे छोड़कर, इसे त्यागकर परमात्मा को पाने की बात ही ना—समझी है। इस संसार में रहकर ही इस संसार से अछूते रह जाने की जो सामर्थ्य विकसित होती है, वही इस संसार का पाठ है, वही इस संसार की सिखावन है। और तब संसार एक शत्रु नहीं वरन एक विद्यालय हो जाता है और तब कुछ भी त्याग करके—सचेष्ट रूप से त्याग करके, छोड़कर भागने की पलायन—वृत्ति को प्रोत्साहन नहीं मिलता वरन जीवन को उसकी समग्रता में, स्वीकार में, आनन्दपूर्वक, प्रभु का अनुग्रह मानकर जीने की दृष्टि विकसित होती है।

भविष्य के लिए मैं ऐसे ही संन्यास की सम्भावना देखता हूं जो परमात्मा और संसार के बीच विरोध नहीं मानता, कोई खाई नहीं मानता वरन संसार को परमात्मा का प्रगट रूप मानता है। परमात्मा को संसार का अप्रगट छिपा हुआ प्राण मानता है। संन्यास को ऐसा देखेंगे तो वह जीवन को दीन—हीन करने की बात नहीं, जीवन को और समृद्धि और सम्पदा से भर देने की बात है।

वास्तव में जब भी कोई व्यक्ति जीवन को बहुत जोर से पकड़ लेता है तब ही जीवन कुरूप हो जाता है। इस जगत में जो भी हम जोर से पकड़ेंगे, वही कुरूप हो जाएगा। और जिसे भी हम मुक्त रख सकते हैं, स्वतंत्र रख सकते हैं, मुट्ठी बांधे बिना रख सकते हैं, वही इस जगत में सौंदर्य को, श्रेष्ठता को शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है।

जीवन के सब रहस्य ऐसे हैं, जैसे कोई मुट्ठी में हवा को बांधना चाहे। जितने जोर से बांधी जाती है मुट्ठी, हवा मुट्ठी के उतने ही बाहर हो जाती है। खुली मुट्ठी रखने की सामर्थ्य हो तो मुट्ठी हवा से भरी रहती है और बंधी मुट्ठी ही हवा से खाली हो जाती है। उल्टी दिखाई पड़नेवाली, उलट—बासी सी यह बात कि मुट्ठी खुली हो तो हवा भरी रहती है और बंद की गई हो, बंद करने की आकांक्षा हो तो मुट्ठी खाली हो जाती है, जीवन के समस्त रहस्यों पर यह बात लागू होती है।

कोई अगर प्रेम को पकड़ेगा, बांधेगा तो प्रेम नष्ट हो जाएगा। कोई अगर आनंद को पकड़ेगा, बांधेगा तो आनंद नष्ट हो जाएगा और अगर कोई जीवन को भी पकड़ना चाहे, बांधना चाहे तो जीवन भी नष्ट हो जाता है।

संन्यास का अर्थ है : खुली हुई मुट्ठीवाला जीवन, जहां हम कुछ भी बांधना नहीं चाहते, जहां जीवन एक प्रवाह है और सतत नये की स्वीकृति और कल जो दिखाएगा उसके लिए भी परमात्मा को धन्यवाद का भाव।

बीते हुए कल को भूल जाना है, क्योंकि बीता हुआ कल अब स्मृति के अतिरिक्त और कहीं नहीं है। जो हाथ में है, उसे भी छोड़ने की तैयारी रखनी है, क्योंकि इस जीवन में सब कुछ क्षणभंगुर है। जो अभी हाथ में है, क्षणभर बाद हाथ के बाहर हो जाएगा। जो सांस अभी भीतर है, क्षणभर बाद बाहर होगी। ऐसा प्रवाह है जीवन। इसमें जिसने भी रोकने की कोशिश की, वह वही गृहस्थ है और जिसने जीवन के प्रवाह में बहने की सामर्थ्य साध ली, जो प्रवाह के साथ बहने लगा—सरलता से, सहजता से, असुरक्षा में, अनजान में, अज्ञान में—वही संन्यासी है।

 

संन्यास के तीन बुनियादी सूत्र खयाल में ले लेने जैसे हैं।

पहला—जीवन एक प्रवाह है। उसमें रुक नहीं जाना, ठहर नहीं जाना, वहां कहीं घर नहीं बना लेना है। एक यात्रा है जीवन। पड़ाव है बहुत, लेकिन मंजिल कहीं भी नहीं। मंजिल जीवन के पार परमात्मा में है।

दूसरा सूत्र—जीवन जो भी दे उसके साथ पूर्ण संतुइष्ट और पूर्ण अनुग्रह, क्योंकि जहां असंतुष्ट हुए हम तो जीवन जो देता है, उसे भी छीन लेता है और जहां संतुष्ट हुएहम कि जीवन जो नहीं देता, उसके भी द्वार खुल जाते हैं।

और तीसरा सूत्र—जीवन में सुरक्षा का मोह न रखना। सुरक्षा संभव नहीं है। तथ्य ही असंभावना का है। असुरक्षा ही जीवन है। सच तो यह है कि सिर्फ मृत्यु ही सुरक्षित हो सकती है। जीवन तो असुरीक्षत होगा ही। इसलिए जितना जीवंत व्यक्तित्व होगा, उतना असुरक्षित होगा और जितना मरा हुआ व्यक्तित्व होगा, उतना सुरक्षित होगा।

सुना है मैंने, एक सूफी फकीर मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मरते वक्त वसीयत की थी कि मेरी कब्र पर दरवाजा बना देना और उस दरवाजे पर कीमती से कीमती, वजनी से वजनी, मजबूत से मजबूत ताला लगा देना, लेकिन एक बात ध्यान रखना, दरवाजा ही बनाना, मेरी कब्र की चारों तरफ दीवार मत बनाना। आज भी नसरुद्दीन की कब्र पर दरवाजा खड़ा है, बिना दीवारों के, ताले लगे हैं—जोर से, मजबूत। चाबी समुद्र में फेंक दी गई, ताकि कोई खोज न ले। नसरुद्दीन की मरते वक्त यह आखिरी मजाक थी—संन्यासी की मजाक, संसारियों के प्रति। हम भी जीवन में कितने ही ताले डालें, सिर्फ ताले ही रह जाते हैं। चारों तरफ जीवन असुरक्षित है सदा, कहीं कोई दीवार नहीं है।

जो इस तथ्य को स्वीकार करके जीना शुरू कर देता है—कि जीवन में कोई सुरक्षा नहीं है, असुरक्षा के लिए राजी हूं मेरी पूर्ण सहमति है, वही संन्यासी है और जो असुरक्षित होने को तैयार हो गया—निराधार होने को—उसे परमात्मा का आधार उपलब्ध हो जाता है।

‘नव— संन्यास क्या?':

से संकलित ‘संन्यास: मेरी दृष्टि में’ :

रेडिओ—वार्ता आकाशवाणी बम्बई से प्रसारित

दिनांक 3 जुलाई 1971


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
Viewing all 1170 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>