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पतजलि: योगसूत्र–(भाग–2)–प्रवचन–17

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जागरण की अग्‍नि से अतीत भस्‍मसात—प्रवचन—सतरहवां

योग सूत्र:

(साधनापाद)

क्लेशमल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीय:।। 12।।

 चाहे वर्तमान में पूरे हों या कि भविष्य में,

कर्मगत अनुभवों की जड़ें होती हैं पाँच क्लेशों में।

सति मूले तद्विपाको जात्‍यायुर्भोग:।। 13।।

 जब तक जड़ें बनी रहती है, पुनर्जन्‍म से कर्म की पूर्ति होती है—

गुणवत्‍ता, जीवन का विस्‍तार और अनुभवों के ढंग द्वारा।

 ते ह्लादपारिताफला: पुण्‍यापुण्‍यहेतुत्‍वात्।। 14।।

पुण्‍य लाता है सुख: अपुण्‍य लाता है दुःख।

नुष्य वर्तमान में रहता दिखाई पड़ता है, लेकिन वह बात केवल एक प्रतीति ही है। मनुष्य जीता है अतीत में। वर्तमान में से वह गुजरता है, लेकिन वह बद्धमूल रहता है अतीत में। वर्तमान वास्तविक समय नहीं है सामान्य चेतना के लिए। सामान्य चेतना के लिए तो अतीत है वास्तविक समय, वर्तमान तो केवल एक रास्ता है अतीत से भविष्य तक जाने तक का, मात्र एक क्षणिक मार्ग। अतीत वास्तविक हो जाता है और भविष्य भी, लेकिन वर्तमान अवास्तविक होता है सामान्य चेतना के लिए। भविष्य और कुछ नहीं है सिवाय अतीत के फैलाव के। भविष्य कुछ नहीं है सिवाय अतीत के फिर —फिर प्रक्षेपित होने के।

वर्तमान का अस्तित्व नहीं जान पड़ता है यदि तुम सोचते हो वर्तमान के बारे में, तो तुम उसे पाओगे ही नहीं बिलकुल। क्योंकि जिस क्षण तुम पाते हो उसे, वह पहले से ही गुजर गया होता है। जब तुमने पाया नहीं था उसे, तो जरा उससे एक क्षण पहले ही, वह चला गया भविष्य में। बुद्ध की चेतना के लिए, जागे हुए व्यक्ति के लिए वर्तमान का अस्तित्व होता है। सामान्य चेतना के लिए, न जागे हुए, निद्राचारी जैसे सोए हुए के लिए अतीत और भविष्य सत्य होते हैं, वर्तमान असत्य होता है। जब कोई जाग जाता है तो वर्तमान ही सत्य होता है; अतीत और भविष्य दोनों असत्य बन जाते हैं।

ऐसा क्यों होता है? तुम क्यों जीते हो अतीत में?—क्योंकि मन और कुछ नहीं है सिवाय अतीत के संग्रह के। मन स्मृति है : वह सब जो तुमने किया है, वह सब जिसका स्‍वप्‍न तुमने देखा है, वह सब जो तुम करना चाहते थे और कर न सके, वह सब जिसकी तुमने कल्पना की अतीत में —वह सब तुम्हारा मन है। मन एक मृत तत्व है। यदि तुम देखते हो मन के द्वारा, तो तुम कभी न पाओगे वर्तमान को, क्योंकि वर्तमान है जीवन, और जीवन तक कभी नहीं पहुंचा जा सकता है मृत माध्यम के द्वारा। जीवन तक कभी नहीं पहुंचा जा सकता है मरे हुए साधनों द्वारा। जीवन को नहीं छुआ जा सकता है मृत्यु द्वारा।

मन मरी हुई चीज है। मन है दर्पण पर एकत्रित हुई धूल की भांति ही। जितनी ज्यादा धूल इकट्ठी होती है, उतना ही दर्पण दर्पण जैसा कम होता है। और यदि धूल की पर्त बहुत मोटी होती है जैसी कि वह तुम पर जमी है, तब दर्पण में प्रतिबिंब बिलकुल ही नहीं पड़ता।

हर कोई इकट्ठी कर लेता है धूल। न केवल तुम उसे इकट्ठा करते, तुम चिपकते भी हो उससे, तुम सोचते हो कि वह कोई खजाना है। अतीत जा चुका होता है; तो क्यों तुम चिपकते हो उससे? तुम कुछ नहीं कर सकते उस बारे में। तुम पीछे नहीं लौट सकते। तुम उसे अनकिया नहीं कर सकते। क्यों चिपकते हो तुम उससे? वह कोई खजाना नहीं है। और यदि तुम चिपकते हो अतीत से और तुम सोचते हो कि वह खजाना है, तो निस्संदेह तुम्हारा मन उसे फिर —फिर जीना चाहेगा भविष्य में। भविष्य औr कुछ नहीं हो सकता है सिवाय तुम्हारे परिवर्तित अतीत के —जो थोड़ा परिष्कृत होता है, थोड़ा ज्यादा सजा —संवत हुआ होता है। लेकिन वह वही होगा क्योंकि मन अज्ञात के बारे में सोच ही नहीं सकता; मन प्रक्षेपित कर सकता है केवल ज्ञात को ही, उसे जिसे तुम जानते हो।

तुम प्रेम में पड़ जाते किसी स्त्री के और वह स्त्री मर जाती है, अब तुम्हें कैसे मिलेगी कोई दूसरी स्त्री? वह दूसरी स्त्री तुम्हारी मृत पत्नी का ही एक परिवर्तित रूप होगी, वही एकमात्र ढंग है जिसे कि तुम जानते हो। भविष्य में जो कुछ भी तुम करो और कुछ नहीं होगा सिवाय अतीत की पुनरावृत्ति के। तुम थोड़ा बदल सकते हो —एक टुकड़ा यहां, एक टुकड़ा वहा, लेकिन मुख्य बात वही रहेगी, एकदम वही। जब मुल्ला नसरुद्दीन पड़ा था अपनी मृत्यु शय्या पर, किसी ने पूछा उससे, ‘यदि तुम्हें फिर से जीवन दे दिया जाए तो कैसे तुम जीयोगे उसे, नसरुद्दीन? क्या तुम कोई परिवर्तन करोगे?’ नसरुद्दीन ने सोच —विचार किया, आंखें बंद करके सोचता रहा, ध्यान किया, फिर खोली अपनी आंखें और बोला, ‘ही, यदि मुझे फिर जीवन दिया जाए, तो मैं अपने बालों के बीच में से निकालूंगा मांग। सदा वही रही है मेरी इच्छा, लेकिन मेरे पिता सदा जोर देते रहे कि मैं ऐसा न करूं। और जब मेरे पिता मरे, तो बाल एक ही दिशा में इतने जम गए थे कि उनके बीच से मांग निकाली न जा सकती थी।’

हंसों मत। यदि तुम सें पूछा जाए कि तुम फिर से क्या करोगे तुम्हारे जीवन में तो तुम थोड़े —बहुत परिवर्तन कर लोगे बिलकुल इसी तरह के पति होगा तो जरा —सी अलग नाक वाला, पत्नी होगी तो थोड़े से अलग रूप —रंग की; थोड़ा बड़ा या थोड़ा छोटा घर होगा; लेकिन वे तुम्हारे बालों की मांग बीच में से निकालने से ज्यादा बड़ी बातें नहीं हैं — क्षुद्र, हल्की, महत्वपूर्ण नहीं। तुम्हारा मौलिक जीवन वैसा ही बना रहेगा।

मैं झाकता हूं तुम्हारी आंखों में और मैं देखता हूं यही। तुमने ऐसा किया है बहुत—बहुत बार, तुम्हारा मूलभूत जीवन वैसा ही बना रहा है। बहुत बार तुम्हें मिले हैं जीवन, तुम जीए हो बहुत बार; तुम वहुत ज्यादा प्राचीन हो। तुम नए नहीं इस पृथ्वी पर, तुम पृथ्वी से ज्यादा पुराने हो, क्योंकि तुम दूसरी पृथ्यियों पर भी, दूसरे ग्रहों पर भी जीए हो। तुम उतने ही पुराने हो जितना अस्तित्व। ऐसी ही है यह बात, क्योंकि तुम उसके हिस्से हो। तुम बहुत पुराने हो, लेकिन फिर —फिर वही ढाचा दोहराए जा रहे हो।

इसलिए हिंदू इसे कहते —चक्र, जीवन और मृत्यु का, ‘चक्र’ क्योंकि यह स्वयं को दोहराए चला जाता है। यह एक दोहराव है : चक्र के वही आरे ऊपर आते और नीचे जाते, नीचे जाते और ऊपर आते। मन स्वयं का प्रक्षेपण करता है। मन अतीत है, इसलिए तुम्हारा भविष्य, अतीत के अतिरिक्त और कुछ नहीं होने वाला।

और अतीत क्या है? क्या किया है तुमने अतीत में? जो कुछ भी तुमने किया है —अच्छा, बुरा, ऐसा, वैसा—जों तुम करते हो वह अपनी पुनरावृत्ति बना लेता है, यही है कर्म का सिद्धांत। यदि तुम कल से एक दिन पहले क्रोधित हुए थे, तो तुमने एक निश्चित क्षमता क्रोध के लिए निर्मित कर ली—कल फिर से क्रोधित होने की। तो तुमने दोहरा दिया उसे, तुम ज्यादा ऊर्जा दे देते हो क्रोध को, क्रोध की भावदशा को, तुमने उसे और बद्धमूल कर दिया, तुमने उसे सींच दिया। अब आज तुम फिर दोहराओगे उसे ज्यादा शक्ति के साथ। तब कल तुम फिर शिकार हो जाओगे आज के।

प्रत्येक कार्य जिसे तुम करते हो या जिसके बारे में सोचते भी हो, उसके अपने ढंग होते हैं, फिर—फिर आ बनने के, क्योंकि वह एक मार्ग निर्मित कर देता है तुम्हारे अंतस में। वह तुमसे ऊर्जा को सोखने लगता है। तुम क्रोधित हो जाते हो, फिर वह भावदशा चली जाती है और तुम सोचते हो कि तुम अब क्रोधित नहीं रहे; तब तुम सार को चूक जाते हो। जब भावदशा जा चुकी होती है तो कुछ नहीं घटा होता; केवल चक्र घूम गया होता है और चक्र का जो आरा ऊपर था, नीचे चला गया होता है। कुछ क्षण पहले क्रोध मौजूद था सतह पर, क्रोध अब नीचे चला गया अचेतन में, तुम्हारी अंतस सत्ता की गहराई में। वह उसका समय फिर से आने की प्रतीक्षा करेगा। यदि तुम उसके अनुसार चलते हो, तो तुम उसे सहारा दे मजबूत कर देते हो, तब तुमने फिर उसके जीवन के लिए नाम और समय लिख दिया होता है। तुम उसे फिर शक्ति दे देते हो, ऊर्जा दे देते हो। वह स्पंदित हो रहा है, मिट्टी के नीचे पड़े बीज की भांति प्रतीक्षा कर रहा है सही अवसर और मौसम की, जब वह प्रस्फुटित होगा।

हर कार्य स्व—सातत्य पाने वाला होता है, हर विचार स्व —सातत्यवान है। यदि एक बार तुम उसे सहयोग देते हो, तो तुम उसे ऊर्जा दे रहे होते हो। देर — अबेर वह बात एक आदत का रूप ले लेगी। तुम करोगे उसे और तुम कर्ता न रहोगे, तुम करोगे उसे केवल आदत के जोर के कारण ही। लोग कहते हैं कि आदत द्वितीय स्वभाव होती है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं। इसके विपरीत यह एक न्यूनोक्ति है। वस्तुत: आदत अंत में बन जाती है पहला स्वभाव, और स्वभाव हो जाता है दूसरे नंबर की बात। स्वभाव बन जाता है किताब के परिशिष्ट की भांति या किसी किताब की टिप्पणियों की भांति, और आदत बन जाती. है मुख्य भाग, किताब का मुख्य अंग।

तुम जीते हो आदत के द्वारा, उसका अर्थ होता है कि आदत मूल रूप से तुम्हारे द्वारा जीती है। आदत स्वयं बनी रहती है, उसकी अपनी ही ऊर्जा होती है। निस्संदेह वह ऊर्जा लेती है तुमसे, लेकिन तुमने सहयोग दिया होता है अतीत में, तुम सहयोग दे रहे होते हो वर्तमान में। धीरे — धीरे आदत मालिक बन जाती है और तुम केवल एक नौकर बने रहोगे, एक छाया। आदत देगी निश्चित आदेश, आशा देगी, और तुम रहोगे मात्र एक आज्ञाकारी नौकर। तुम्हें अनुसरण करना होगा उसका।

ऐसा हुआ कि एक हिंदू रहस्यवादी संत, एकनाथ जा रहे थे तीर्थयात्रा को। तीर्थयात्रा चलने वाली थी कम से कम एक वर्ष तक, क्योंकि उन्हें दर्शन करना था देश के सारे पवित्र स्थलों का। निस्संदेह एकनाथ के संग होना एक सौभाग्य था, तो बहुत सारे लोग, हजारों लोग, यात्रा कर रहे थे उनके साथ। शहर का चोर भी आया और बोला, ‘मैं जानता हूं कि मैं एक चोर हूं और आपके धार्मिक दल का सदस्य होने के योग्य नहीं हूं लेकिन मुझे भी अवसर दें। मैं चलना चाहूंगा तीर्थयात्रा के लिए।’ एकनाथ ने कहा, ‘यह बात कठिन होगी, क्योंकि एक वर्ष कुछ लंबा समय है और हो सकता है तुम लोगों की चीजें चुराने लगो। तुम मुसीबत खड़ी कर सकते हो। तो कृपया छोड़ दो ऐसा खयाल।’ लेकिन उस चोर ने तो बहुत आग्रह किया। वह बोला, ‘एक साल के लिए मैं छोड़ दूंगा चोरी, लेकिन मुझे चलना तो जरूर है। और मैं वादा करता हूं आपसे कि एक साल तक मैं किसी की एक भी चीज नहीं चुराऊंगा।’ एकनाथ ने मान ली बात।

लेकिन एक हफ्ते के भीतर ही तकलीफ शुरू हो गई और तकलीफ यह थी. लोगों की चीजें गायब होने लगीं। और ज्यादा ही रहस्यमयी बात थी—क्योकि कोई चुरा नहीं रहा था उन्हें—चीजें गायब हो जातीं किसी के झोले से और कुछ दिनों बाद वे मिल जातीं किसी और के झोले में। जिस आदमी के झोले में वे मिलती वह कहता, ‘मैंने कुछ नहीं किया है। मैं सचमुच ही नहीं जानता कि ये चीजें कैसे आ गई हैं मेरे झोले में!’ एकनाथ को शक हुआ, इसलिए एक रात उन्होंने दिखावा किया कि वे सोए हुए हैं लेकिन वे जागे हुए थे, वे निगरानी करते थे। चोर आया करीब आधी रात को, मध्यरात्रि में, और वह एक व्यक्ति की पेटी से दूसरे व्यक्ति की पेटी में चीजें रखने लगा। एकनाथ ने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया और बोले, ‘क्या कर रहे हो तुम? और तुमने तो वादा किया था।’ वह चोर बोला, ‘मैं अपने वादे के अनुसार चल रहा हूं। मैंने एक भी चीज नहीं चुराई है लेकिन यह मेरी पुरानी आदत है। आधी रात को यदि मैं कोई खुराफात नहीं करता, तो असंभव होता है मेरे लिए सोना। और एक साल तक न सोऊ? आप तो करुणामय हैं। आपको तो मुझ पर करुणा होनी चाहिए। और मैं चुरा नहीं रहा हूं; चीजें तो फिर से मिल जाती हैं। वे कहीं जाती तो नहीं, केवल एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंच जाती हैं। और इसके अलावा यह भी कि एक साल बाद मुझे चोरी करनी होगी तो यह एक अच्छा खासा अभ्यास भी रहेगा।’

आदत तुम्हें कुछ चीजें करने को मजबूर कर देती है : तुम उसके शिकार हो जाते हो। हिंदू इसे कहते हैं —कर्म का सिद्धांत : हर वह कार्य जिसे तुम दोहराते हो, या कि हर एक विचार—क्योंकि विचार भी मन का एक सूक्ष्म कर्म होता है —और ज्यादा मजबूत हो जाता है। तब तुम उसकी पकड़ में होते हो। तब तुम कैद हो जाते हो आदत में। तब तुम एक कैदी का, एक गुलाम का जीवन जीते हो। और कारा बड़ी सूक्ष्म होती है, वह तुम्हारी आदतों की और संस्कारबद्धताओं की और कर्मों की होती है जिन्हें कि तुम करते हो। वह तुम्हारे शरीर के चारों ओर बनी रहती है। और तुम उसमें उलझे रहते हो। लेकिन तुम सोचते जाते हो और स्वयं को धोखा देते जाते हो कि तुम कर रहे हो ऐसा।

जब तुम क्रोधित होते तो तुम सोचते हो कि तुम कर रहे हो यह बात। तुम उसका तर्क बैठाते और तुम कहते कि स्थिति की मांग ही ऐसी थी मुझे क्रोध करना ही था, वरना तो बच्चा भटक जाएगा; यदि मैं क्रोध नहीं करता तो चीजें गलत हो जातीं, तो आफिस अस्त —व्यस्त हो जाता, तो फिर नौकर सुनते ही नहीं। मुझे क्रोध करना ही था चीजों को संभालने के लिए, बच्चे को अनुशासित करने के लिए। पत्नी को ठीक स्थिति में लाने को मुझे क्रोध करना ही था। ये बुद्धि के हिसाब हैं। इसी तरह तुम्हारा अहंकार सोचता चला जाता है कि तुम फिर भी मालिक ही हो, लेकिन तुम होते नहीं। क्रोध आता है पुराने ढांचों के कारण, अतीत से। और जब क्रोध आता है तो तुम उसके लिए कोई बहाना ढूंढने की कोशिश करते हो।

मनोवैज्ञानिक प्रयोग करते रहे हैं और वे उन्हीं तथ्यों तक पहुंचे हैं जिन तक पूरब का गुह्य मनोविज्ञान पहुंचा है : आदमी अधीन है, मालिक नहीं। मनोवैज्ञानिको ने लोगों को पूरे एकांत में रख दिया हर संभव सुविधा के साथ। जिस चीज की जरूरत थी उन्हें दे दी गई, लेकिन उनका दूसरे मनुष्यों के साथ कोई संपर्क नहीं रहा। वे बिलकुल अलग — थलग जीए वातानुकूलित कोठरी में —कोई काम नहीं, कोई अड़चन नहीं, कोई समस्या नहीं, लेकिन वही आदतें चलती चली गयीं। एक सुबह, अब कोई कारण न था —क्योंकि सुविधा पूरी हो गई थी, कोई चिंता न थी, क्रोधित होने का कोई बहाना नही—और आदमी अचानक पाता कि क्रोध उठ रहा है।

वह तुम्हारे भीतर होता है। कई बार अचानक बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के ही उदासी चली आती है। और कई बार व्यक्ति प्रसन्नता अनुभव करता है, कई बार वह अनुभव करता है सुखी, आनंदित। सारे सामाजिक संबंधों से छूटा हुआ आदमी, पूरी सुविधाओं में अलग पड़ा हुआ, हर जरूरत पूरी होने के साथ सारी भावदशाओं के बीच से गुजरता जिनसे कि तुम संबंधों में गुजरते हो। इसका अर्थ हुआ कि कोई चीज भीतर से आती है और तुम उसे टाग देते हो किसी दूसरे व्यक्ति पर। यह तो मात्र एक बुद्धि की व्याख्या होती है। तुम अच्छा अनुभव करते, तुम बुरा अनुभव करते, और ये अनुभूतियां तुम्हारे अचेतन से फूट पड़ रही होतीं, तुम्हारे अपने अतीत से। तुम्हारे सिवाय कोई और जिम्मेदार नहीं। कोई तुम्हें क्रोधी नहीं बना सकता। और कोई तुम्हें प्रसन्न नहीं बना सकता। तुम प्रसन्न होते हो अपने से ही। तुम क्रोधित होते हो अपने से, और तुम उदास होते हो अपने से ही। यदि तुम इस बात को नहीं जान लेते, तो तुम सदा गुलाम बने रहोगे।

स्वयं पर मालकियत तब मिलती है, जब कोई जान लेता है कि मैं पूरी तरह जिम्मेदार हूं जो भी मुझे घटित हुआ है, बेशर्त तौर पर। मैं जिम्मेदार हू पूसई तरह। शुरू में यह बात तुम्हें बहुत ज्यादा उदास और दुखी कर देगी। क्योंकि यदि तुम जिम्मेदारी दूसरे पर फेंक सकते हो, तो तब तुम ठीक अनुभव करते हो कि तुम गलत नहीं। क्या कर सकते हो तुम जब पत्नी इतने गंदे ढंग से व्यवहार कर रही हो? तुम्हें क्रोध करना ही पड़ता है। लेकिन याद रखना ठीक से, पत्नी गंदे ढंग का व्यवहार कर रही होती है उसकी अपनी संरचना के कारण। वह तुम्हारे प्रति अप्रिय व्यवहार नहीं करती है। यदि तुम न होओगे मौजूद तो वह अप्रिय व्यवहार करेगी बच्चे के साथ। यदि बच्चा वहा नहीं होगा तो वह बरस पड़ेगी प्लेटों पर, वह फेंक ही देगी उन्हें जमीन पर। उसने तोड़ दिया होगा रेडियो। उसे करना ही था कुछ न कुछ, उपद्रव उठ रहा था। यह मात्र एक संयोग था कि तुम अखबार पढ़ते पकड लिए गए और वह बिगड़ गई तुम पर। यह मात्र एक संयोग था कि तुम मौजूद थे गलत क्षण में।

तुम इस कारण क्रोधित नहीं होते कि पत्नी दुष्ट है, हो सकता है उसने कोई स्थिति बना दी हो, बस इतना ही। उसने शायद तुम्हें कोई संभावना दे दी हो; लेकिन क्रोध कुलबुला रहा था। यदि पत्नी वहां न होती तो भी तुम उतने ही क्रोधित होते —किसी और चीज के प्रति, किसी विचार के प्रति, लेकिन क्रोध तो आना ही था। वह कुछ ऐसी बात थी जो तुम्हारे अपने अचेतन से आ रही थी।

हर कोई जिम्मेदार है, पूरी तरह जिम्मेदार होता है उसके अपने लिए और अपने व्यवहार के लिए। शुरू में यह बात तुम्हें बहुत उदास भावदशा देगी कि तुम जिम्मेदार हो, क्योंकि तुमने सदा सोच्ग कि तुम सुखी होना चाहते हो, तो तुम कैसे जिम्मेदार हो सकते हो तुम्हारे दुख के लिए? तुम सदा आकांक्षा करते हो आनंदपूर्णता की, तो कैसे तुम क्रोध कर सकते हो अपने से ही? और इस कारण तुम जिम्मेदारी फेंकते जाते हो दूसरे पर ही। यदि तुम दूसरे पर ही जिम्मेदारी डालते जाते हो, तो याद रखना कि तुम सदा गुलाम बने रहोगे। क्योंकि कोई भी दूसरे को नहीं बदल सकता है। कैसे तुम बदल सकते हो दूसरे को? क्या कभी किसी ने दूसरे को बदला? दुनिया की सबसे अधूरी इच्छाओं में से एक इच्छा है दूसरे को बदलने की। किसी ने ऐसा कभी किया नहीं। यह बात असंभव होती है। क्योंकि दूसरा अस्तित्व रखता है उसके अपने ठीक ढंग से —तुम बदल नहीं सकते उसे। तुम जिम्मेदारी डालते जाते हो दूसरे पर, लेकिन तुम दूसरे को बदल नहीं सकते। और क्योंकि तुम दूसरे पर जिम्मेदारी डाल देते हो, तो तुम कभी न जान पाओगे कि बुनियादी जिम्मेदारी तुम्हारी होती है। बुनियादी परिवर्तन की जरूरत होती है तुम्हारे भीतर।

इसी तरह तो तुम फंसते हो यदि तुम सोचने लगो कि तुम जिम्मेदार हो तुम्हारे सारे कार्यों के लिए, तुम्हारे सभी भावों के लिए तो शुरू में एक उदासी छा जाएगी। लेकिन यदि तुम गुजर सकी उस उदासी में से, तो जल्दी ही तुम हल्का अनुभव करोगे, क्योंकि अब तुम मुक्त हो जाते हो दूसरों से, अब तुम काम कर सकते हो अपने से। तुम मुक्त हो सकते हो। चाहे सारा संसार दुखी हो और अमुक्त हो उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। अन्यथा किसी बुद्ध की संभावना कैसे बनती? और कैसे कोई पतंजलि संभव होते? कैसे मैं संभव होता? सारा संसार वैसा ही है। वह एकदम वैसा ही है जैसा तुम्हारे लिए है, लेकिन कृष्ण तो नृत्य करते हैं और गीत गाते हैं; वे मुक्त हैं। और पहली मुक्ति है दूसरे पर जिम्मेदारी डालने की बात समाप्त करना। पहली मुक्ति है यह जानना कि तुम जिम्मेदार हो। तो बहुत सारी चीजें तुरंत संभव हो जाती हैं।

कर्म का पूरा सिद्धांत यही है कि तुम जिम्मेदार हो, जो कुछ भी तुमने बोया, तुम वही काट रहे हो। शायद तुम कार्य —कारण के संबंध को न समझ पाओ, लेकिन यदि कार्य है मौजूद, तो कारण जरूर कहीं होगा ही।

यही है प्रति—प्रसव की सारी विधि : कैसे परिणाम से कारण की ओर सरकें, कैसे पीछे की ओर जाएं और कारण को ढूंढ लें, जहां से कि वह आया होता है। जो कुछ भी घटता है तुमको —तुम उदास अनुभव करते हो, तो बस मूंद लेना आंखें और देखते रहना तुम्हारी उदासी को। जहां वह ले जाए उसके पीछे जाना, उसमें और गहरे जाना। जल्दी ही तुम कारण तक पहुंच जाओगे। शायद तुम्हें लंबी यात्रा करनी पड़ेगी, क्योंकि यह सारा जीवन जुड़ा होता है; और न ही केवल यह जीवन, लेकिन और दूसरे जीवन अंतर्ग्रस्त होते हैं। तुम बहुत से घाव पाओगे तुममें जो पीड़ा देते हैं, और उन्हीं घावों के कारण तुम उदास अनुभव करते हो; वे उदास होते हैं। वे घाव अभी भी सूखे नहीं, वे जीवंत हैं। प्रति —प्रसव की विधि, स्रोत तक लौटने की विधि, कार्य से कारण तक लौटने की विधि उन्हें भर देगी, ठीक कर देगी। कैसे ठीक करती है वह? कौन —सी घटना है जो उसमें समायी होती है।

जब कभी तुम पीछे की ओर जाते हो, पहले तो तुम दूसरों पर जिम्मेदारी डालने की बात गिरा देते हो, क्योंकि यदि तुम दूसरों पर जिम्मेदारी डालते हो तो तुम बाहर की ओर जाते हो। तब सारी प्रक्रिया गलत हो जाती है। तुम कारण को दूसरे में ढूंढने की कोशिश करते हो : ‘पत्नी गलत क्यों है?’ तब यह ‘क्यों’ पत्नी के व्यवहार में उतरता जाता है। तुम चूक गए पहला चरण और तब सारी प्रक्रिया ही गलत हो जाएगी। क्यों मैं दुखी हूं? क्यों मैं क्रोध में हूं?—आंखें बंद कर लो और इसे एक गहन ध्यान बनने दो। जमीन पर लेट जाओ, आंखें बंद कर लो, शरीर को शिथिल करो और अनुभव करो कि तुम क्यों क्रोधित हो। पत्नी को तो बिलकुल भूल ही जाओ; वह तो एक बहाना है—क, ख, ग, जो भी हो, भूल जाओ उस बहाने को। जरा और गहरे उतरना अपने में, क्रोध में उतरते जाना। स्वयं क्रोध का ही प्रयोग करना नदी की भांति। क्रोध में तुम बहते हो और क्रोध तुम्हें ले जाएगा भीतर। तुम सूक्ष्म घाव पाओगे तुममें।

पत्नी गलत जान पड़ती है, क्योंकि उसने छू दिया था तुम्हारा कोई सूक्ष्म घाव, कोई ऐसी चीज जो चोट करती है। तुमने सदा सोचा कि तुम सुंदर नहीं, तुम्हारा चेहरा कुरूप है, और भीतर घाव है। जब पत्नी नाराज होती है, तो वह तुम्हें सचेत कर देगी तुम्हारे चेहरे के प्रति। वह कहेगी, ‘जाओ और देखो दर्पण में!’ चोट पड़ती है। तुमने विश्वासघात किया होता है पत्नी के साथ और जब वह तंग करना चाहती है, तब यह बात फिर उठाएगी वह कि ‘तुम उस स्त्री के साथ हंस—हंस कर क्यों बोल रहे थे? क्यों तुम इतनी खुशी से बैठे हुए थे उस स्त्री के साथ?’ एक घाव छू दिया गया। तुम विश्वासघाती रहे हो, तुम अपराधी अनुभव करते हो। घाव जीवंत होता है। तुम बंद कर लो आंखें, अनुभव करो क्रोध को, उसे अपनी समग्रता में उठने दो ताकि तुम उसे पूरी तरह देख सको, कि वह क्या है। तब उस ऊर्जा को तुम्हारी मदद करने देना अतीत की ओर सरकने में, क्योंकि क्रोध आ रहा होता है अतीत से। निस्संदेह वह भविष्य से तो आ नहीं सकता है। भविष्य का तो अभी अस्तित्व ही नहीं बना है। वह नहीं आ रहा है वर्तमान से।

यही है सारा दृष्टिकोण कर्म का, यह भविष्य से नहीं आ सकता क्योंकि भविष्य अभी आया ही नहीं है। और यह वर्तमान से नहीं आ सकता, क्योंकि तुम बिलकुल जानते ही नहीं कि वह क्या है। वर्तमान तो जाना जा सकता है केवल जागे हुओं द्वारा। तुम जीते हो केवल अतीत में, तो यह जरूर कहीं न कहीं अतीत से ही आ रहा होगा। घाव रहा होगा कहीं तुम्हारी स्मृतियों में। वापस लौटो। कोई एक घाव नहीं होगा, बहुत सारे होंगे, छोटे, बड़े। ज्यादा गहरे जाना और ढूंढ लेना पहला घाव, सारे क्रोध का मूल स्रोत। तुम खोज पाओगे उसे यदि तुम कोशिश करो तो, क्योंकि वह पहले से ही वहां होता है। वह वहा मौजूद है; तुम्हारा सारा अतीत अभी भी है वहा। वह फिल्म की भाति है रोल किया हुआ, लपेट कर बंद किया हुआ और प्रतीक्षा कर रहा है भीतर। तुम खोल दो उसे, तुम देखने लगो फिल्म को। यही प्रक्रिया है प्रति—प्रसव की। इसका अर्थ है पीछे की ओर एकदम मूल कारण तक लौटना। और यही सौंदर्य है प्रक्रिया का यदि तुम चेतन रूप से पीछे की ओर जा सको, यदि तुम चेतन रूप से घाव को अनुभव कर सको, तो घाव तुरंत भर जाता है।

क्यों भर जाता है वह?—क्योंकि घाव निर्मित होता है अचेतन द्वारा, असजगता द्वारा। घाव हिस्सा है अज्ञान का, निद्रा का। जब तुम होशपूर्वक पीछे की ओर जाते हो और देखते हो घाव को, तो वही होश स्वास्थ्यदायी शक्ति होता है। अतीत में, जब घाव बना था, वह बना था अचेतन में। तुम क्रोधित थे, क्रोध ने तुम पर अधिकार जमा लिया था। तुमने कुछ किया था; तुमने मार डाला था एक आदमी को और तुम दुनिया से यह सच्चाई छुपाते रहे। तुम इसे छुपा सकते हो पुलिस से, तुम इसे छुपा सकते हो न्यायालय और कानून से, लेकिन इसे तुम स्वयं से ही कैसे छुपा सकते हो? तुम जानते हो यह बात चोट करती है। जब कभी कोई तुम्हें अवसर देता है क्रोधित होने का तो तुम भयभीत हो जाते हो, क्योंकि वह बात फिर घट सकती है, तुम मार सकते हो पत्नी को। वापस लौटो, क्योंकि उस क्षण जब तुमने खून किया किसी व्यक्ति का या कि तुमने व्यवहार किया बहुत क्रोधपूर्ण और पागल ढंग से, तो तुम होश में न थे। अचेतन में वे घाव बचे ही रहे हैं। अब होशपूर्वक चलना।

प्रति —प्रसव, पीछे लौटना, इसका अर्थ है उन चीजों तक होशपूर्वक जाना जिन्हें तुमने होश के बिना किया है। पीछे जाओ—केवल होश का, चेतना का प्रकाश ही स्वस्थ करता है। वह एक स्वास्थ्यदायक शक्ति होती है। जिस किसी चीज को भी तुम होशपूर्वक बना सको वह भली—चंगी हो जायेगी। और फिर वह और पीड़ा न देगी।

वह आदमी जो पीछे की ओर आता है, अतीत को निर्मुक्त कर देता है। फिर अतीत क्रियान्वित नहीं हो रहा होता, तब अतीत की उस पर कोई पकड़ नहीं रहती और अतीत समाप्त हो जाता है। अतीत का उसकी अंतस —सत्ता में कोई स्थान नहीं होता। और जब अतीत का तुम्हारी अंतस—सत्ता में कोई स्थान नहीं रहता तभी तुम वर्तमान के प्रति उपलब्ध होते हो —उससे पहले कभी नहीं। तुम्हें थोड़ी खाली जगह की जरूरत है, अतीत इतना ज्यादा होता है भीतर—एक कबाड़खाना, मरी हुई चीजों का। वर्तमान के प्रवेश होने को कोई स्थान नहीं। वह कूड़ा—करकट भविष्य के बारे में ही स्वप्न देखता जाता है। तो आधी जगह तो उसी से भरी होती है जो अब है ही नहीं, और आधी जगह उससे भरी होती है जो अभी आया ही नहीं। और वर्तमान? —वह केवल प्रतीक्षा करता है द्वार के बाहर। इसीलिए वर्तमान और कुछ नहीं सिवाय एक रास्ते के, अतीत से भविष्य तक का रास्ता, मात्र एक क्षणिक रास्ता।

खत्म करो अतीत की बात! यदि तुम अतीत से नहीं टूटते, तो तुम एक प्रेतात्मा का जीवन जी रहे होते हो। तुम्हारा जीवन सच्चा नहीं होता, वह अस्तित्वगत नहीं होता। अतीत जीता है तुम्हारे द्वारा; मृत तुम पर मंडराता रहता है। पीछे की ओर जाओ —जब कभी तुम्हारे पास अवसर हो, जब कभी तुम को कुछ घटित हो प्रसन्नता, अप्रसन्नता, उदासी, क्रोध, ईर्ष्या तो आंखें बंद कर लेना और पीछे की ओर वापस जाना। जल्दी ही तुम पीछे की ओर यात्रा करने में कुशल हो जाओगे। जल्दी ही तुम पीछे समय में लौटने योग्य हो जाओगे और तब बहुत सारे घाव खुलेंगे। जब वे घाव खुलते हैं तुम्हारे भीतर, तो कुछ करने मत लग जाना। करने की कोई जरूरत नहीं। तुम केवल देखो ध्यान से; घाव वहां मौजूद होता है। तुम केवल ध्यान देना, तुम्हारी ध्यान—ऊर्जा ले जाना घाव की ओर, उसकी ओर देखना। उसकी ओर देखना बिना कोई निर्णय दिए। क्योंकि यदि तुम निर्णय देते हो, यदि तुम कहते हो, ‘यह बुरा है, यह ऐसा नहीं होना चाहिए,’ तो घाव फिर से बंद हो जाएगा। तब उसे छिप जाना पड़ेगा। जब भी तुम निंदा करते हो तो मन चीजों को छिपाने की कोशिश करता है। इसी भांति निर्मित होते हैं चेतन और अचेतन। अन्यथा, मन तो एक है; किसी विभाजन की कोई जरूरत नहीं। लेकिन तुम तो निंदा करते। तब मन को बांट देना पड़ता है और चीजों को अंधकार में रखना पड़ता है, तलघर में, ताकि तुम देख न सकी उन्हें —और तब कोई जरूरत नहीं रहती त्यइंदा करने की।

निंदा मत करना, प्रशंसा मत करना। तुम केवल साक्षी बने रही, एक अनासक्त द्रष्टा। अस्वीकृत मत करना। मत कहना, ‘यह अच्छा नहीं है’, क्योंकि वह बात एक अस्वीकृति होती है और तुमने दमन शुरू कर दिया होता है। निर्लिप्त हो जाओ। केवल ध्यान दो उस पर और देखो। करुणापूर्ण देखो और स्वस्थता घटित हो जाएगी।

मत पूछना मुझसे कि ऐसा क्यों घटता है, क्योंकि यह एक स्वाभाविक घटना है। यह ऐसी ही है जैसे सौ डिग्री पर पानी का वाष्पीकरण हो जाता है। तुम कभी नहीं पूछते, ‘निन्यानबे डिग्री पर क्यों नहीं होता?’ कोई नहीं उत्तर दे सकता है इसका। ऐसा होता ही है कि सौ डिग्री पर पानी वाष्प बन जाता है। इस पर कोई प्रश्न नहीं, और प्रश्न होता है अप्रासंगिक। यदि यह वाष्पीकरण होता निन्यानबे डिग्री पर, तो तुम पूछते, क्यों? यदि यह वाष्पीकरण अट्ठानबे डिग्री पर होता तो तुम पूछते, क्यों। यह एकदम स्वाभाविक है कि सौ डिग्री पर पानी का वाष्पीकरण हो जाता है।

यही बात आंतरिक स्वभाव के विषय में सत्य है। जब कोई अनासक्त, करुणामयी चेतना घाव तक चली जाती है, घाव तिरोहित हो जाता है, वाष्प बन जाता है। उस पर क्यों का कोई प्रश्न—चिह्न नहीं होता है। यह तो बस स्वाभाविक है, ऐसा ही होता है, यह इसी तरह घटता है। जब मैं ऐसा कहता हूं तो अनुभव से कहता हूं। आजमाना इसे और अनुभव तुम्हारे लिए संभव है, यही है मार्ग।

प्रति —प्रसव द्वारा व्यक्ति कर्मों से मुक्त हो जाता है। कर्म भविष्य पर जोर देने की कोशिश करते हैं। वे तुम्हें अतीत में नहीं जाने देते। वे कहते हैं, ‘भविष्य में सरको। अतीत में तुम क्या करोगे? कहा जा रहे हो तुम? क्यों व्यर्थ करते हो समय? कुछ करो भविष्य के लिए!’ कर्म सदा जोर देते हैं कि ‘भविष्य में जाओ ताकि अतीत अचेतन में छिपा रहे। ‘ उलटी प्रक्रिया शुरू करो—प्रति—प्रसव। मन की बात मत सुनना जो कि भविष्य में जाने को कहता है। जरा ध्यान देना—मन सदा भविष्य के बारे में कुछ कह रहा होता है। वह तुम्हें कभी यहीं नहीं होने देता। वह सदा तुम्हें भविष्य में सरकने को मजबूर कर रहा होता है।

पीछे अतीत में जाओ। और जब मैं पीछे अतीत में जाने को कहता हूं र तो मैं यह नहीं कह रहा कि तुम्हें अतीत का स्मरण करना चाहिए। स्मरण करना मदद न देगा, स्मरण करना एक नपुंसक प्रक्रिया है। यह भेद याद रखना है स्मरण से कोई मदद नहीं मिलती। वह शायद हानिकारक ही होगा—लेकिन यह पुन: जीना, वह समग्रतया विभिन्न है। भेद बहुत सूक्ष्म है। और उसे समझ लेना है।

तुम कोई चीज याद करते हो तुम याद करते हो तुम्हारा बचपन। जब तुम बचपन याद करते तो तुम रहते हो यहीं और अभी। तुम बच्चे नहीं बन जाते। तुम याद कर सकते हो, तुम बंद कर सकते हो तुम्हारी आंखें और तुम याद कर सकते हो जब कि तुम सात वर्ष के थे और दौड़ रहे थे बगीचे में—तुम देखते हो उसे। तुम यहीं होते हो और अतीत दिखता है फिल्म की भाति, तुम दौड रहे हो, बच्चा दौड रहा है तितलियों को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। तुम द्रष्टा हो और बच्चा दृश्य है। नहीं, यह बात ठीक नहीं, यह स्मरण करना हुआ। यह बात नपुंसक है, यह मदद न देगी।

घाव ज्यादा गहरे हैं। वे प्रकट नहीं किए जा सकते याद करने से, और स्मरण चेतन मन का ही एक हिस्सा बना रहता है। वह सब जो कि बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है छिपा रहा है अचेतन में, तो तुम याद करते हो केवल फिजूल बातें, या तुम याद करते हो केवल वे बातें जिन्हें तुम्हारा मन स्वीकार करता है। इसलिए हर व्यक्ति कहता है कि उसका बचपन एक स्वर्ग था। किसी का भी बचपन स्वर्ग न था। क्यों सब कहते हैं कि बचपन एक स्वर्ग था? तुम फिर से बच्चा बनना चाहोगे, लेकिन पूछो जरा बच्चों से। कोई बच्चा नहीं होना चाहता फिर से बच्चा। हर बच्चा बड़ा होने की कोशिश कर रहा है और सोच रहा है कि कितनी जल्दी वह ऐसा कर सकता है। कोई बच्चा बचपन से प्रसन्न नहीं, क्योंकि वह कहता है, ‘बड़े शक्तिशाली हैं। ‘ हर बच्चा असहाय अनुभव करता है और असहायपन कोई अच्छी अनुभूति नहीं हो सकती है। हर बच्चा यहा —वहां से खींचा और धकियाया जा रहा अनुभव करता है, जैसे कि उसकी कोई स्वतंत्रता ही नहीं। बचपन एक गुलामी जान पड़ता है। हर एक चीज के लिए उसे दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है। यदि उसे आइसक्रीम चाहिए तो उसे कहना पड़ता और मांगना पड़ता है। और यह शिक्षा देने को हर कोई मौजूद है कि आइसक्रीम बुरी चीज है। बच्चा सोचता है, ‘तो फिर ईश्वर बनाता ही क्यों है आइसक्रीम?’ वे सारी चीजें जिन्हें खाने के लिए मां —बाप उसे मजबूर करते हैं, बुरी होती हैं, वह उन्हें पसंद नहीं करता है। और जिन सारी चीजों को वह खाना चाहता है, मां —बाप को बुरी लगती हैं। वे कहते हैं, ‘यह तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी, तुम्हारा पेट खराब हो जाएगा, और यह हो जाएगा। ‘बच्चे को ऐसा जान पड़ता है कि सारे अच्छे— अच्छे विटामिन गंदी चीजों में डाल दिए गए हैं, और गंदी चीजें अच्छी चीजों में डाल दी गयी हैं। बच्चा बिलकुल खुश नहीं है। वह इस सारी व्यर्थ की मुसीबत को समाप्त कर देना चाहता है, वह बड़ा हो जाना चाहता है और एक स्वतंत्र व्यक्ति बनना चाहता है। लेकिन आगे चल कर ये ही बच्चे कहेंगे कि ‘बचपन स्वर्ग था!’ क्या घटित हुआ?

जो कुछ बुरा है, असुंदर है, फेंक दिया गया है अचेतन में क्योंकि अहंकार उसकी ओर देखना ही नहीं चाहता है। सारे दुख भुला दिए गए हैं और सारी खुशी याद रखी गयी है। तुम खुशी को संजोए रहते हो और भूलते जाते हो दुखों को। यह चुनाव होता है। इसलिए बाद में हर कोई कहता है कि बचपन स्वर्ग था, क्योंकि तुमने वह सब भुलाने की कोशिश की है जो बुरा था। तुम्हारा बचपन जैसा कि तुम्हें याद है वह सत्य नहीं, वह मनगढ़ंत होता है। वह अहंकार द्वारा निर्मित कल्पित कथा है।

इसलिए यदि तुम याद करते हो तो तुम याद करोगे खुशी देने वाली चीजों को, दुख देने वाली चीजों को नहीं। यदि तुम फिर जीते हो, तो तुम जीयोगे समग्र को —सुख, दुख—सब कुछ है।

और पुन: जीना होता क्या है? फिर से जीना है, फिर से बच्चा बन जाना, बच्चे को बगीचे में दौड़ते हुए नहीं देखना, बल्कि दौड़ता हुआ बच्चा ही बन जाना। द्रष्टा मत बनो —वही हो जाओ। ऐसा संभव है क्योंकि बच्चा अभी भी अस्तित्व रखता है तुममें, वह हिस्सा .होता है तुम्हारा। परत —दर—परत, वह सब जिसे तुमने जीया है अस्तित्व रखे रहता है तुममें। तुम बच्चे थे, वह मौजूद है। फिर तुम युवा हुए, वह मौजूद है। फिर तुम वृद्ध हो गए, वह मौजूद है। हर चीज वहां है, पर्त के ऊपर पर्त। तुम काट दो पेडू के तने को और पर्त होती है वहा। गहराई में एकदम केंद्र में तुम पाओगे पहली पर्त, जब वृक्ष बहुत छोटा —सा पौधा था। पहली पर्त होती है वहां, दूसरी पर्त होती है वहां। तुम गिन सकते हो वर्ष, क्योंकि हर वर्ष है एक पर्त और वृक्ष संचय करता है। तुम गिन सकते हो वृक्ष की आयु के वर्ष कि कितना पुराना है। केवल वृक्ष की ही नहीं, बल्कि पत्थरों, चट्टानों की भी पर्तें होती हैं।

हर चीज एक संचित घटना होती है। तुम पहले बीज थे जो घटित हुआ तुम्हारी मा की गर्भ में। अभी भी वह मौजूद है वहां। और फिर इसके बाद हर रोज लाखों पर्तें जुड़ती गयीं, हजार बातें घटती रहीं। वे सभी वहा हैं, संचित। तुम फिर वही हो सकते हो, क्योंकि तुम वह थे। तुम्हें बस कदम पीछे लौटाने हैं। तो आजमाओ फिर से जीने को।

प्रति—प्रसव है अतीत को फिर से जीना। तुम बंद कर लेना अपनी आंखें, लेट जाना और पीछे की तरफ लौट चलना। तुम इसे आजमा सकते हो सीधे —सरल रूप से। यह बात तुम्हें उसके सारे ढंग का पता देगी। हर रात तुम सो सकते हो बिस्तर पर और पीछे सुबह की ओर लौट सकते हो। बिस्तर पर लौटना अंतिम बात है —उसे पहली बात बना लेना, और अब पीछे की ओर लौट चलना। लेटने से पहले तुमने क्या किया था? तुमने एक प्याला दूध पीया था, उसे फिर से पीयो, फिर से जीयो। उसके पहले पत्नी के साथ झगड़ा किया था, उसे फिर से घटने दो भीतर। मूल्यांकन मत करना क्योंकि अब मूल्यांकन करने की कोई जरूरत नहीं है। वह घट चुका है। मत कहना अच्छा या बुरा, मूल्यांकन को मत लाना बीच में। तुम तो बस फिर से जीयो, वह घट चुका है। तुम पीछे की ओर जाओ. एकदम सुबह, जब एलार्म घड़ी ने तुम्हें जगाया, फिर से सुनो उसे। इसी तरह करते चलो और कोशिश करो दिन की हर घड़ी को जीने की, समय की घड़ी को खोलते हुए। तुम बहुत ज्यादा ताजा अनुभव करोगे और तुम्हें सुंदर नींद आएगी, क्योंकि दिन का और तुम्हारा लेन—देन समाप्त हुआ। अब दिन तुम्हारे सिर पर सवार नहीं है। तुमने उसे होशपूर्वक जी लिया है फिर से।

दिन में यह कठिन था होशपूर्ण बने रहना; तुम बहुत सारी चीजों से जुड़े थे। और तुम्हारे पास ऐसी चेतना नहीं है जिसे कि अभी तुम बाजार में साथ रख सको। शायद मंदिर में, कुछ पलों के लिए घटती है वह, शायद ध्यान में, कुछ पलों को तुम सजग हो जाओगे। तुम्हारे पास कोई इतनी ज्यादा चेतना नहीं है कि तुम बाजार में, दुकान में, सांसारिक झंझटों में साथ रख सको, जहां कि तुम होशपूर्ण नहीं रहते हो। फिर तुम निद्राचारिता की उसी पुरानी आदत में जा पड़ते हो। लेकिन बिस्तर पर लेटे हुए, तुम होशपूर्ण रह सकते हो। जरा ध्यान दो, फिर से जीओ, हर चीज को घटने दो फिर से। वस्तुत: ऐसा ही घटता है बुद्ध को।

तुम रात होशपूर्वक फिर से जीते हो. पत्नी ने कहा था कुछ, फिर तुमने कुछ कहा था, फिर उसने प्रतिक्रिया की, फिर उसी तरह सारी बात आ खड़ी हुई। कैसे तुम क्रोधित हुए थे और उसे मारा था, और कैसे उसने रोना शुरू कर दिया था।

और फिर तुम्हें उससे संभोग करना पड़ा। पल —पल ब्यौरे में जाओ, उतरो हर चीज में। ध्यानपूर्ण बने रहो, यह कहीं ज्यादा आसान होता है क्योंकि किसी चीज से कुछ खास लेना —देना नहीं होता। वह संसार अब मौजूद नहीं। तुम उसे देख सकते हो और फिर से जी सकते हो, जिस घड़ी तुम पहुंच रहे होते हो सुबह तक तो तुम बड़ी शाति अनुभव करोगे और निद्रा की विस्मरण भरी शाति तुम पर उतर रही होगी, किसी बेहोशी की भाति नहीं, बल्कि मखमल जैसे सुंदर अंधेरे की भांति—तुम उसे छू सकते हो, तुम उसे महसूस कर सकते हो। वह स्नेहार्द्रता एक मां की भांति तुम्हारे चारों ओर छा जाती है और फिर तुम उतर जाते हो रात्रि में।

तुम कम स्‍वप्‍न देखोगे क्योंकि स्वप्न निर्मित होते हैं अनजीए दिन के द्वारा। लाखों चीजें घट रही होती हैं। तुम उन सभी को नहीं जी सकते और तुम उन्हें किसी सजगता सहित नहीं जी सकते। वे झूलती रहती हैं। सारे अनजीए दिन की या कि बेहोशी में जीए दिन की मंडराती रह गयी प्रक्रिया होती है स्वप्न, बात एक ही है। आधे मन से जीया दिन, किसी तरह घिसटते हुए जीया गया दिन, जैसे कि तुमने शराब पी हुई हो, इसी तरह निर्मित होते हैं स्वप्न। जो प्रक्रिया अधूरी पड़ी रही दिन में उसे ही पूरा करने को स्वप्न होते हैं।

मन पूर्णतावादी है वह कोई चीज अधूरी नहीं रहने देना चाहता। वह उसे पूरा करना चाहता है और इसीलिए सारी रात तुम स्वप्न देखते हो। लेकिन यदि तुम दिन को फिर से जी सको तो स्वप्न गिर जाएंगे, और एक दिन आ जाता है जब अचानक वहा स्वप्न नहीं बनते। जब स्वप्न नहीं होते, तो पहली बार तुम स्वाद लेते हो कि निद्रा कैसी होती है।

पतंजलि कहते हैं कि समाधि निद्रा की भांति ही होती है, परम आनंद निद्रा की ही भाति होता है, केवल एक अंतर है निद्रा अचेतन है और समाधि चेतन है। निद्रा सर्वाधिक सुंदर घटनाओं में से है, लेकिन तुम कभी सोए नहीं क्योंकि तुम निरंतर इतने निर्विरोध रूप से स्वप्न देख रहे हो।

सारी रात में लगभग आठ आवर्तन होते हैं स्वप्न के और प्रत्येक आवर्तन बना रहता करीब—करीब चालीस मिनट तक। यदि तुम सोते हो आठ घंटे तो आठ आवर्तन तो स्वप्न के ही होते हैं और हर एक स्‍वप्‍न — आवर्तन बना रहता है चालीस मिनट तक। दो स्वप्नों के बीच तुम्हारे पास केवल बीस मिनट होते हैं, और वे भी कोई बहुत गहरे नहीं होते क्योंकि कोई दूसरा स्वप्न तैयार हो रहा होता है। एक स्वप्न समाप्त होता है, अभिनेता जा चुके होते हैं, पर्दे के पीछे, लेकिन वहां बहुत ज्यादा सरगरमी होती है क्योंकि वे तैयार हो रहे होते हैं, अपने चेहरे पोत रहे होते हैं और अपने कपड़े बदल रहे होते हैं। वे तैयार हो रहे होते हैं और जल्दी ही परदा उठ जाएगा; उन्हें आना होगा।

तो जब दो स्वप्नों के बीच बीस मिनट का अंतराल तुम्हें दिया जाता है तो वह भी कोई बहुत ज्यादा शांतिपूर्ण नहीं होता है। पीछे तलघर छिपा है. तैयारी चल रही होती है। यह बात तो दो युद्धों के बीच की शाति जैसी ही होती है पहला विश्वयुद्ध, दूसरा विश्वयुद्ध, और दोनों के बीच की शाति। लोगों ने उन्हें समझा शांतिपूर्ण दिनों की भाति—वे थे नहीं। वे हो नहीं सकते थे। वरना कैसे तुम तैयार हो सके दूसरे विश्वयुद्ध के लिए? वे शांतिपूर्ण दिन नहीं थे। अब उन्होंने ढूंढ लिया है एक सही शब्द, वे इसे कहते हैं ‘शीत —युद्ध’। उग्र गर्म युद्ध होता है, और दो युद्धों के बीच होता है शीत —युद्ध, यही है पर्दे के पीछे की तैयारी।

दो स्वप्न —चक्रों के बीच होता है बीस मिनट का अंतराल; वह किसी मध्यांतर की भांति होता है। हर चीज तैयार हो रही होती है और तुम भी तैयार हो रहे होते हो। यह कोई गैर —सक्रियता नहीं होती, यह होती है बेचैन सक्रियता।

जब तुम दोबारा जीते हो सारे दिन को, तो स्वप्न ठहर जाते हैं। तब तुम बहुत ही अतल गहराई में जा पड़ते हो। तुम गिरते जाते और गिरते जाते और गिरते जाते हो जैसे कि कोई पंख किसी अतल शून्य में गिर रहा हो —ऐसा ही होता है। इसका बड़ा सौंदर्य होता है, लेकिन यह तभी होता है जब तुम पीछे दिन में उतरते हो। यह उसके पूरे ढर्रे —ढांचे को जानने मात्र के लिए है, फिर तुम ऐसा कर सकते हो तुम्हारे पूरे जीवन भर तक।

ठीक उस घड़ी तक लौट जाओ जब तुम चीखे थे और तुम पैदा हुए थे। ध्यान रहे, उसे फिर से जीना होता है, स्मरण नहीं करना होता है—क्योंकि कैसे तुम स्मरण कर सकते हो? और फिर से चीख सकते हो वह पहली चीख—जिसे जैनोव कहता है आदिम चीख, प्राइमल स्कीम। तुम फिर से चीख सकते हो जैसे कि तुम फिर से जन्मे हो। जैसे कि तुम फिर से मां के गर्भ —मार्ग से निकलते हुए बच्चे बन गए। वह मार्ग बड़ा कठिन, दुरूह होता है। तुम बाहर आने के लिए संघर्ष करते हो और यह बात तकलीफ भरी होती है, क्योंकि नौ महीने तुम रहते रहे गर्भ जैसे स्वर्ग में।

हमारा सारा विज्ञान अभी तक गर्भाशय से ज्यादा सुविधापूर्ण चीज निर्मित नहीं कर पाया है। वह परिपूर्ण है। बच्चा बिलकुल जिम्मेदारी के बिना जीता है, बिना किसी चिंता के, रोजी—रोटी की कोई फिक्र नहीं, संसार की या कि संबंध की—कोई चिंता ही नहीं। क्योंकि कोई और दूसरा है ही नहीं, किसी संबंध का कोई प्रश्न ही नहीं। वह मा द्वारा पोषित होता है, किसी चीज को पचाने तक की भी फिक्र नहीं होती। मां पचा लिया करती है और बच्चा केवल पाता है पचाया हुआ भोजन। सांस लेने तक की चिंता नहीं होती। मां सास लेती है, बच्चा आक्सीजन पाता है और वह तैरता है पानी में।

हिंदुओं के पास एक वर्णनात्मक चित्र है विष्णु का। वे कहते हैं कि विष्णु सागर पर तिरते हैं। तुमने देखा ही होगा चित्र : नाग—शय्या पर वे विश्राम करते हैं; सर्प रखवाली करता है और विष्णु सोते हैं। वह चित्र वस्तुत: प्रतीक—रूप है गर्भ का। हर बालक विष्णु है, भगवान की मूरत है—कम से कम गर्भ में तो। हर चीज पूरी है, कुछ भी कमी नहीं। वह पानी जिसमें कि वह तैरता है बिलकुल सागर—जल की भांति होता है, वही रसायन होते हैं, वही नमक। इसीलिए गर्भवती स्त्री ज्यादा नमक और नमकीन चीजें खाने लगती है, नमकीन चीजों के लिए लालायित रहती है गर्भाशय को जरूरत रहती है ज्‍यादा नमक की। वह ठीक वैसी ही रासायनिक स्थिति होती है जैसी कि सागर की होती है और बच्‍चा तैरता है सागर में, एकदम आराम से। तापमान बिलकुल वही बना रहता है। बाहर चाहे ठंड हो या गरम, उसे कुछ अंतर नहीं पड़ता, मां का गर्भ बच्चे के लिए बिलकुल उतना ही तापमान बनाए रखता है। वह पूरे ऐश्‍वर्य में जीता है। उस ऐश्वर्य से बाहर निकल अंधेरे, संकरे, पीड़ा भरे मार्ग में आकर बच्चा चीख उठता है।

यदि तुम पीछे जा सको तुम्हारे जन्म की चोट तक तो तुम चीख पड़ोगे, और तुम चीखोगे यदि तुम फिर से जीयो तो। एक घड़ी आएगी जब तुम अनुभव करोगे कि तुम बच्चे ही हो, वह नहीं जो कि स्मरण कर रहा है।

तुम बाहर आ रहे होते हो जन्म —मार्ग से, एक चीख चली आती है। यह चीख तुम्हारे सारे अस्‍तित्‍व को आंदोलित कर देती है, यह बिलकुल तुम्हारे मूल अस्तित्व से ही आती है, तुम्हारे अस्तित्व की मूल जड़ों से। वह चीख तुम्हें बहुत सारी चीजों से मुक्त करा देगी। तुम फिर से बच्चे बन जाओगे, निर्दोष! यह होता है पुनर्जन्म।

यह भी पर्याप्त नहीं होता, क्योंकि यह केवल एक जन्म का होता है। यदि तुम ऐसा एक जन्म के साथ कर सकते हो, तो तुम दूसरे जन्मों में प्रवेश कर सकते हो। तुम चले जाते हो बिलकुल ही पहर—नें दिन तक, सृष्टि के दिन के दिन तक। या, अगर तुम ईसाई हो तब आदम की परिभाषा अच्छी रहेगी तार जाते हो पीछे की ओर, फिर तुम होते हो ईदन के बगीचे में। तुम बन गए होते हो आदम और हब्बा। तब तुम्हारे पिछले सारे कर्म, आदत, संस्कार तिरोहित हो जाते हैं, विलीन हो जाते हैं। तुम फिर से प्रवेश कर गए स्वर्ग में। यही है प्रक्रिया प्रति —प्रसव की। अब इन सूत्रों में प्रवेश करें।

चाहे वर्तमान में पूरे हों या भविष्य में कर्मगत अनुभवों की जड़ें होती हैं पांच क्लेशों में।

हमने बात की पांच क्लेशों की, पाच दुखों की, पांच कारणों की जो कि दुख निर्मित करते हैं। सारे कर्म, चाहे वे वर्तमान में पूरे हों कि भविष्य में, कर्मगत अनुभवों की जड़ें होती हैं पांच दुखों में। पहला क्लेश है अविद्या, जागरूकता का अभाव और बाकी चार तो उसी से आए परिणाम हैं। अंतिम है ‘ अभिनिवेश’ जीवन की लालसा। वे सारे कर्म जिन्हें तुम करते हो, मूलत: उत्पन्न होते हैं जागरूकता के अभाव से।

इसका अर्थ क्या होता है, और उसे क्या कहा जाएगा जब बुद्ध चलते, खाते, सोते? क्या वे बातें कर्म नहीं? नहीं, वे नहीं हैं। वे कर्म नहीं हैं क्योंकि वे उत्पन्न होते जागरूकता से। वे भविष्य के लिए कोई बीज साथ नहीं लिए रहते। यदि बुद्ध चलते हैं, तो वह चलना वर्तमान का होता है। उसका अतीत में चलने से कोई संबंध नहीं होता। यह बात अतीत से नहीं जुड़ी होती, कि जिसके कारण वे चल रहे होते हैं। वह एक वर्तमान की जरूरत होती है, बिलकुल अभी की, यहीं और अभी की। वह सहज — स्वाभाविक होती है। यदि बुद्ध भूख अनुभव करते हैं, तो वे भोजन करते हैं। लेकिन यह बात स्वत:प्रवाहित होती है, यहीं और अभी। अंतर को समझ लेना है।

पूरब के अध्यात्म विज्ञान की समस्याओं में से एक रही है यह समस्या बुद्ध चालीस वर्षों तक

जीवित रहे उनके बुद्धत्व को उपलब्ध होने के बाद, उन कर्मों का क्या होगा जिन्हें उन्होंने किया उन चालीस वर्षों के दौरान? यदि वे बीज बन गए होते तो उन्हें फिर से जन्म लेना पड़ता या कि कुछ और अंतर होता है?

वे नहीं बनते बीज, वे नहीं बनते तुम रोज भोजन करते हो दिन के एक बजे। वह दो ढंग से किया जा सकता है। तुम देखते हो घड़ी की तरफ और अचानक तुम अनुभव करते हो कि पेट में भूख कराह रही है। यह भूख जुड़ी है अतीत से। यह स्वतःस्फूर्त नहीं है क्योंकि हर रोज तुम भोजन करते रहे हो एक बजे। एक बजे का समय तुम्हें याद दिलाता है, यह शरीर को एकदम उकसा देता है और सारे शरीर को भूख लगने लगती है। तुम कहोगे कि मात्र याद दिलाने से किसी को भूख नहीं लग सकती —ठीक। लेकिन शरीर तुम्हारे मन के पीछे चलता है। तुरंत शरीर को याद आ जाता है कि एक बजा है, मुझे भूख लगनी ही चाहिए। शरीर इसका अनुसरण करता है : पेट में तुम भूख का मंथन अनुभव करते हो, यह होती है अतीत के कारण निर्मित हुई एक झूठी भूख। यदि घड़ी कहती है कि केवल बारह ही बजे हैं, यदि किसी ने घड़ी को एक घंटा पीछे कर दिया हो, तो तुम उसको देखोगे और कहोगे कि अभी भी एक घंटा बाकी है —मैं किए चला जा सकता हूं अपना काम — भूख नहीं लगी है।

तुम जीते हो अतीत के कारण और आदत के कारण। तुम्हारी भूख एक आदत है, तुम्हारा प्रेम एक आदत है, तुम्हारी प्यास एक आदत है, तुम्हारी प्रसन्नता एक आदत है, तुम्हारा क्रोध एक आदत है। तुम जीते हो अतीत के कारण। इसीलिए तुम्हारा जीवन इतना अर्थहीन होता है, कोई अर्थ नहीं, उसमें कोई चमक नहीं। कोई महिमा नहीं। यह एक बिना मरूद्यान वाले रेगिस्तान जैसी घटना है।

बुद्ध जीते हैं क्षण की सहज स्फुरणा में। यदि उन्हें भूख लगती है तो उन्हें अतीत के कारण भूख नहीं लगती, ठीक अभी भूख लगी होती है। उनकी भूख वास्तविक होती है, सच्ची होती है। ठीक अभी वे प्यास अनुभव करते हैं। प्यास मौजूद होती है; वह मन के द्वारा प्रेरित नहीं हुई होती। तुम जीते हो मन के द्वारा। बुद्ध के पास कोई मन नहीं; मन धुल कर साफ हो गया है। वे जीते हैं अपनी अंतस सत्ता के द्वारा, जो कुछ घटता है उसके द्वारा, जो कुछ जैसा वे अनुभव करते हैं उसके द्वारा।

इसीलिए बुद्ध जैसे लोग कह सकते हैं अब मैं मरूंगा। तुम नहीं कह सकते ऐसा। कैसे कह सकते हो इम यह? तुमने कभी अनुभव नहीं की स्वत:स्फूर्तता। तुम्हें भूख अनुभव होती है —क्योंकि समय आ पहुंचा; तुम्हें प्रेम अनुभव होता है, क्योंकि पुरानी आदतों का ढांचा दोहराया जाता है। तुमने मृत्यु को नहीं जाना अतीत में, तो कैसे तुम पहचानोगे मृत्यु को जब मृत्यु आ जाएगी? तुम नहीं पहचान पाओगे उसे, मृत्यु आ जाएगी। बुद्ध पहचानते हैं मृत्यु को।

जब मृत्यु आयी, बुद्ध ने कहा अपने शिष्यों से, यदि तुम्हें कुछ पूछना है तो तुम पूछ सकते हो, क्योंकि मैं मरने वाला हूं। वह आदमी जो सहजता में जीया है, भूख अनुभव करेगा जब शरीर को भूख लगी होती है, प्यास अनुभव करेगा जब शरीर को प्यास लगती है, मृत्यु का आना अनुभव करेगा जब शरीर मर रहा होता है। यह एक अजीब —सी बात है कि लोग मरते हैं और वे नहीं जान सकते कि शरीर मर रहा है, वे अनुभव नहीं कर सकते। वे इतने अनुभूतिविहीन हो चुके होते हैं —इतने यंत्रवत, मशीनी आदमी जैसे।

मृत्यु एक बड़ी घटना है। जब तुम्हें भूख अनुभव हो सकती है, तो तुम मृत्यु को क्यों नहीं अनुभव कर सकते? जब तुम अनुभव कर सकते हो कि शरीर सो रहा है, तो तुम क्यों नहीं अनुभव कर सकते कि शरीर उतरता जा रहा है मृत्यु में? नहीं, तुम नहीं कर सकते अनुभव। तुम अनुभव कर सकते हो केवल अतीत से आयी चीजों को, और अतीत में कहीं कोई मृत्यु नहीं रही, इसलिए तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं। मन में इसकी कोई स्मृति है नहीं, इसलिए जब मृत्यु आती है, तो वह आती है लेकिन मन होशपूर्ण नहीं होता। बुद्ध कहते हैं, ‘अब तुम पूछ सकते हो यदि तुम्हें कुछ पूछना हो तो, क्योंकि मैं मरने ही वाला हूं।’ और फिर वे लेट जाते हैं वृक्ष के नीचे और होशपूर्वक मरते हैं।

पहले तो वे अपने को हटा लेते हैं शरीर से, फिर होती हैं सूक्ष्म पर्तें, सूक्ष्म शरीर, फिर वे उतरते चले जाते हैं भीतर। चौथे चरण में वे विलीन हो जाते हैं; वे चार चरण चल लेते हैं भीतर की ओर। चौथे चरण पर वे विलीन हो जाते हैं। वे चार चरण चलते हैं भीतर की ओर। बुद्ध मृत्यु के कारण नहीं मरते हैं, वे मरते हैं स्वयं। और जब तुम मरते हो स्वयं ही तो उसका अपना सौंदर्य होता है, उसमें एक गरिमा होती है। तब कोई संघर्ष नहीं रहता है।

जब आदमी को होश होता है, तो वह जीता है इसी क्षण में, अतीत के कारण नहीं। यही है भेद यदि तुम जीते हो अतीत में तब भविष्य निर्मित होता है, कर्म का चक्र बढ़ता चलता है, यदि तुम जीते हो वर्तमान को तो फिर कर्म का चक्र नहीं बना रहता। तुम उसके बाहर होते हो, तुम उससे बाहर आ जाते हो। कोई भविष्य निर्मित नहीं होता।

वर्तमान कभी निर्मित नहीं करता भविष्य को, केवल अतीत निर्मित करता है भविष्य को। तब जीवन बन जाता है अतीत की किसी अविच्छिन्न धारा से रहित पल —प्रतिपल की घटना। तुम जीते हो इसी क्षण को। जब यह क्षण चला जाता है तो एक दूसरा क्षण मौजूद हो जाता है। तुम जीते हो दूसरे क्षण को अतीत के माध्यम से नहीं, बल्कि तुम्हारे जागरण, सजगता, तुम्हारी अनुभूति, तुम्हारी अंतस—सत्ता से। तब कोई चिंता नहीं रहती, कोई स्वप्न नहीं, अतीत का कोई प्रभाव नहीं। तुम बिलकुल निर्भार होते हो, तुम उड़ सकते हो। गुरुत्वाकर्षण अपने अर्थ खो देता है। तुम अपने पंख खोल सकते हो। तुम आकाश में विचरते पक्षी हो सकते हो, और तुम आगे और आगे और आगे चले चल सकते हो। पीछे लौटने की कोई जरूरत नहीं रहती। वापस आ जाने को कोई जगह न रही, वह स्थल आ पहुंचा है, जहां से कोई वापसी नहीं। क्या करना होगा? पिछले संचित कर्मों के साथ तुम्हें अपनानी होगी प्रति —प्रसव की विधि। तुम्हें लौटना होता है पीछे की ओर उसे जीते हुए, फिर से जीते हुए ताकि घाव भर जाएं। अतीत की बात खत्म हो गयी तुम्हारे लिए—घाव बंद हो जाता है।

दूसरी बात यह होती है कि जब पिछला खाता बंद हो जाता है, तो तुम्हारे लिए खत्म हो जाती वह बात सारा संचित जल गया, बीज जल गए, जैसे कि तुम्हारा कभी अस्तित्व ही न था, जैसे कि तुम बिलकुल इसी क्षण उत्पन्न हुए हो, ताजे, सुबह की ओस की बूंदों से ताजे। तब जीना जागरूकता सहित। जो कुछ भी तुमने किया तुम्हारी पिछली स्मृतियों के साथ, अब वही कुछ करना वर्तमान घटना के साथ। तुम फिर से जीए चैतन्य सहित, अब हर क्षण जीयो चैतन्य सहित। यदि तुम हर क्षण को जी सकते हो चैतन्य सहित तो तुम कर्मों को संचित नहीं करते, बिलकुल ही संचित नहीं करते। तुम जीते हो एक निर्भार जीवन।

यही अर्थ है संन्यास का निर्भार होकर जीना। हर क्षण दर्पण साफ कर देना ताकि कोई धूल इकट्ठी न हो, और जैसा जीवन हो, दर्पण सदा उसे ही प्रतिबिंबित करे। एक निर्भार जीवन जीना, बिना किसी गुरुत्वाकर्षण के जीना, पंखों सहित जीना, खुले आकाश —सा जीवन जीना ही संन्यासी होना है। पुरानी किताबों में यह कहा गया है कि संन्यासी आकाश —पक्षी है —वह है। जैसे कि आकाश के पक्षी कोई पदचिह्न नहीं छोड़ते, वह कोई पदचिह्न नहीं छोड़ता है। यदि तुम जमीन पर चलते हो तो तुम्हारे पदचिह्न छूट जाते हैं।

वह आदमी जो जागा नहीं है, चलता है धरती पर—न ही केवल धरती पर बल्कि गीली धरती पर चलता है, छोड़ता चलता है पदचिह्न — अतीत। जागरण पाने वाला व्यक्ति उड़ता है पक्षी की भांति; वह कोई पदचिह्न नहीं छोड़ता आकाश में, कुछ नहीं छोड़ता वह। यदि तुम देखो पीछे की ओर तो वहां आकाश होता है, यदि तुम देखो आगे तो वहां आकाश होता है —कोई पदचिह्न नहीं, कोई स्मृतियां नहीं।

जब मैं ऐसा कहता हूं तो मेरा यह अर्थ नहीं होता कि यदि बुद्ध तुम्हें जानते हों तो वे तुम्हें याद न रखेंगे। उनके पास होती हैं स्मृतियां, लेकिन मनोवैज्ञानिक स्मृतियां नहीं होतीं। मन कार्य करता है, लेकिन वह कार्य करता है यंत्रवत अलग — थलग। उनका कोई तादात्म्य नहीं मन के साथ। यदि तुम जाओ बुद्ध के पास और तुम कहो, ‘मैं यहां पहले आता रहा हूं। क्या आपको मेरी याद है?’ उन्हें याद आ जाएगी तुम्हारी। वे तुम्हें याद कर पाएंगे किसी दूसरे से ज्यादा बेहतर ढंग से, क्योंकि उन पर कोई बोझ नहीं होता। उनके पास साफ, दर्पण जैसा मन होता है।

तुम्हें इस भेद को समझ लेना है, क्योंकि कई बार लोग सोचते हैं कि जब कोई आदमी संपूर्णतया सजग और होशपूर्ण हो जाता है और मन मिट जाता है, तो वह सब कुछ भूल जाता होगा। नहीं, वह कोई चीज साथ नहीं रखता, वह याद रखता है। उसकी क्रियाशीलता बेहतर होती है, मन ज्यादा साफ होता है, दर्पण समान होता है। उसके पास अस्तित्वगत स्मृतियां होती हैं, लेकिन उनके पास मनोवैज्ञानिक स्मृतियां नहीं होती हैं। भेद बहुत सूक्ष्म है।

उदाहरण के लिए तुम कल मेरे पास आए और तुम्हें क्रोध आया था मुझ पर। तुम आज फिर आ गए और मैं तुम्हें याद रखूंगा क्योंकि तुम कल आए थे। मुझे याद रहेगा तुम्हारा चेहरा, मैं पहचान लूंगा तुम्हें, लेकिन मैं तुम्हारे क्रोध का घाव साथ नहीं लिए रहता। वह तुम्हारे किए की बात है। मैं यह घाव साथ नहीं लिए रहता कि तुम क्रोधित थे। पहली बात तो यह है कि मैंने घाव को कभी मौजूद होने ही नहीं दिया। जब तुम क्रोधित थे, तब वह कुछ ऐसी बात थी जिसे तुम स्वयं के साथ कर रहे थे, मेरे साथ नहीं। यह मात्र एक संयोग था कि मैं वहां मौजूद था। मैं घाव साथ नहीं लिए रहता। मैं ऐसा व्यवहार नहीं करूंगा जैसे कि तुम वही आदमी हो जो कि कल क्रोधित था। क्रोध मेरे और तुम्हारे बीच नहीं होगा। क्रोध वर्तमान संबंध को नहीं रंगेगा। यदि क्रोध रंग देता है वर्तमान संबंध को, तो यह एक मनोवैज्ञानिक स्मृति होती है, घाव साथ ही बना रहता है।

और मनोवैज्ञानिक स्मृति एक बहुत झुठलाने वाली प्रक्रिया होती है। तुम शायद आए हो माफी मांगने और यदि मैं घाव लिए रहूं, तो मैं नहीं देख सकता तुम्हारा आज का चेहरा जो माफी मांगने आया होता है, जो कि पछताने आया होता है। यदि मैं देखता हूं बीते कल का पुराना चेहरा तो मैं अभी भी आंखों में क्रोध ही देखूंगा, मैं अभी भी तुममें शत्रु को ही देखूंगा, और तुम फिर शत्रु तो नहीं रहते यदि तुममें पछतावा होता है तो। सारी रात तुम सो न सके, और तुम आए हो माफी मांगने। मैं उस ढंग से व्यवहार करूंगा क्योंकि मैं बीते कल को प्रक्षेपित कर दूंगा तुम्हारे चेहरे पर। वह बीता कल नयी बात के उत्पन्न होने की सारी संभावना को ही नष्ट कर देगा। मैं स्वीकार नहीं करूंगा तुम्हारे पछतावे को, मैं नहीं स्वीकारूंगा कि तुम्हें अफसोस हो रहा है। मैं सोचूंगा कि तुम कोई चालाकी कर रहे हो। मैं सोचूंगा कि इसके पीछे जरूर कोई और बात होगी। क्योंकि क्रोध, क्रोधी आदमी का चेहरा अभी भी मौजूद है मेरे और तुम्हारे बीच। मैं उसे इतना ज्यादा प्रक्षेपित कर सकता हूं कि तुम्हारे लिए असंभव हो जाएगा पछताना। या, मैं उसे इतने गहन रूप से प्रक्षेपित कर सकता हूं कि तुम पूरी तरह भूल ही जाओगे कि तुम माफी मांगने आए थे। मेरा व्यवहार फिर एक स्थिति बन सकता है जिसमें कि तुम क्रोधित हो जाओ। और यदि तुम क्रोधित होते हो, तो मेरा प्रक्षेपण पूरा हो जाता है, मजबूत हो जाता है।

अस्तित्वगत स्मृति तो ठीक होती है, उसे तो मौजूद रहना ही होता है। बुद्ध को याद रखना ही है अपने शिष्यों को। आनंद आनंद है और सारिपुत्र है सारिपुत्र। वह इस विषय को लेकर कभी उलझन में नहीं पड़े कि कौन आनंद है और कौन सारिपुत्र है। वे स्मृति बनाए रहते हैं, लेकिन वह तो बस हिस्सा होती है मस्तिष्क के ढांचे का, अलग — थलग कार्य करती हुई, जैसे कि तुम्हारी जेब में कंप्यूटर हो और कंप्यूटर स्मृति को साथ रखता हो। बुद्ध का मस्तिष्क जेब में पड़ा कंप्यूटर बन गया है, एक अलग घटना। वह उनके संबंधों में नहीं आता, वे उसे सदा साथ लिए नहीं रहते। जब उसकी जरूरत होती है तो वे देख लेते हैं उसमें, लेकिन वे कभी तादात्म्य नहीं बनाते उसके साथ।

जब कोई व्यक्ति पूरी जागरूकता सहित जीता है वर्तमान में — और पूरी जागरूकता के साथ तुम किसी और जगह नहीं जी सकते क्योंकि जब तुम जागरूक होते हो तो केवल वर्तमान ही बचता है वहा, अतीत न रहा, भविष्य न रहा अब। सारा जीवन बन जाता है वर्तमान की घटना—तब कोई कर्म, कर्म के कोई बीज, संचित नहीं होते। तुम मुक्त होते हो तुम्हारे अपने संबंध से। तुम्हारे अपने से ही निर्मित हुआ था बंधन।

और तुम मुक्त हो सकते हो। तुम्हें पहले सारी दुनिया के मुक्त हो जाने की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं। तुम आनंदित हो सकते हो। सारी दुनिया दुखों से मुक्त हो जाए तुम्हें इसके लिए प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं। यदि तुम प्रतीक्षा करते हो, तो तुम प्रतीक्षा करोगे व्यर्थ ही —यह बात घटित न होगी।

यह एक आंतरिक घटना है. बंधन से मुक्त होना। तुम संपूर्णतया मुक्त होकर जी सकते हो संपूर्णतया अमुक्त संसार में। तुम समग्ररूपेण मुक्त होकर जी सकते हो, कैद में भी हो तो इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि यह एक आंतरिक दृष्टिकोण होता है। यदि तुम्हारे अंतरबीज टूट जाते हैं, तुम मुक्त होते हो। तुम बुद्ध को कैदी नहीं बना सकते। डाल दो उन्हें जेल में लेकिन तो भी तुम नहीं बना सकते उन्हें कैदी। वे जीएंगे वहां, वे जीएंगे वहां जागरूकता सहित। यदि तुम होते हो संपूर्ण जागरण में तो तुम सदा ही होते हो मोक्ष में, सदा ही जीते हो स्वतंत्रता में। जागरूकता है स्वतंत्रता, अजागरूकता है बंधन।

जब तक जड़ें बनी रहती हैं पुनर्जन्म से कर्म की पूर्ति होती है— गुणवत्ता जीवन के विस्तार और अनुभवों के ढंग द्वारा।

यदि तुम बनाए रहते हो कर्म के बीजों को तो उन बीजों की पूर्ति होगी फिर—फिर लाखों तरीकों से। तुम फिर पा लोगे स्थितियों को और अवसरों को जहां कि तुम्हारे कर्मों की परिपूर्ति हो सकती है।

उदाहरण के लिए, तुम्हारे पास शायद बड़ी धन—संपत्ति हो, शायद तुम धनी व्यक्ति होओ। तुम धनवान हो सकते हो लेकिन तुम कंजूस हो और तुम जीते हो दरिद्र व्यक्ति का जीवन—यह है कर्म। पिछले जन्मों में तुम जीए हो दरिद्र व्यक्ति की भांति। अब तुम्हारे पास धन —दौलत है लेकिन तुम जी नहीं सकते उस दौलत को। तुम ढूंढ लोगे तर्कपूर्ण उत्तर। तुम सोचोगे कि सारा संसार दरिद्र है इसलिए तुम्हें जीना ही है एक दरिद्र जीवन। लेकिन तुम गरीब को नहीं दे दोगे तुम्हारी दौलत. तुम जीयोगे गरीब का जीवन, और धन पड़ा रहेगा बैंक में। या, तुम सोच सकते कि गरीबी की जिंदगी ही होती है धार्मिक जिंदगी, इसलिए तुम्हें जीनी ही है गरीबी की जिंदगी। यह कर्म होता है; दरिद्रता का एक बीज। तुम्हारे पास शायद धन —दौलत हो, लेकिन तो भी तुम उसे जी न सको; बीज बना रहेगा।

तुम शायद भिखारी हो और तुम जी सकते हो समृद्ध जीवन। तुम भिखारी हो सकते हो, और कई बार भिखारी ज्यादा समृद्ध होते हैं धनवान लोगों से। वे स्वतंत्रतापूर्वक जीते हैं। वे इसकी चिंता नहीं करते कि क्या घटने को है। खोने को उनके पास कुछ होता नहीं, इसलिए जो कुछ भी उनके पास होता है, वे आनंदित होते हैं उससे। जितना है उससे कम तो नहीं हो सकता, इसलिए वे आनंद मनाते हैं। एक गरीब आदमी समृद्ध जीवन जीता है यदि वह समृद्ध जीवन के बीज साथ लिए रहता हो, और वे बीज सदा ढूंढ लेंगे संभावनाओं को, पूरा करने वाले अवसरों को। जहां कहीं तुम हो, उससे कुछ अंतर न पड़ेगा। तुम्हें जीना होगा तुम्हारे अतीत द्वारा।

पुण्य लात‘ है सुख; अपुण्य लात’ है दुःख।

यदि तुमने पुण्य कर्म किए होते हैं, अच्छे कार्य किए होते हैं, तो तुम्हारे आसपास ज्यादा सुख होगा। तुम्हारे आसपास कुछ भी न हो, जीवन के प्रति एक सुखद दृष्टिकोण तो होगा, एक प्रीतिकर संभावना। तुम देख पाओगे अंधेरे बादलों में छिपी रजत—रेखा। तुम आनंदित हो जाओगे साधारण चीजों से, छोटी—छोटी चीजें, लेकिन तुम इतने ज्यादा आनंदित होओगे उनसे कि वे समृद्ध हो जाएंगी, समृद्ध चीजों से ज्यादा समृद्ध। भिखारी का चोला पहने तुम चल सकते हो किसी सम्राट की भांति। यदि तुमने पुण्य—कर्म किए होते हैं, तो सुख पीछे चला आता है। यदि तुमने पाप किया, बुरे कर्म —हिंसात्मक, आक्रामक, दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाला काम, तो पीड़ा चली आती है। ध्यान रहे, यह तो उसका फल है—एक स्वाभाविक परिणाम।

ईसाई, यहूदी, मुसलमान सोचते हैं कि ईश्वर तुम्हें सजा देता है क्योंकि तुम बुरा करते हो। तुम अच्छा करते हो और ईश्वर तुम्हारी प्रशंसा करता है, तुम्हें उपहार देता है —खुशनुमा चीजों का उपहार। हिंदू ज्यादा कुशल हैं, वे ईश्वर को नहीं लाते बीच में। वे तो बस कहते हैं, ‘यह नियम है,’ —जैसे कि गुरुत्वाकर्षण का नियम है, यदि तुम संतुलित होकर चलते हो, तो तुम गिरते नहीं, तुम आनंदित होते चलने से; यदि तुम किसी शराबी की भांति असंतुलित होकर चलते हो, तो तुम गिर पड़ते हो और हड्डी टूट जाती है। ऐसा नहीं है कि ईश्वर तुम्हें सजा दे रहा होता है क्योंकि तुमने कुछ गलत किया; यह तो एक सीधा—साफ नियम होता है गुरुत्वाकर्षण का। तुम अच्छा भोजन करते, अच्छी चीजें खाते, स्वास्थ्य बनता; तुम गलत ढंग से खाते, गलत चीजें, तो बीमारी चली आती। ऐसा नहीं कि कोई तुम्हें सजा दे रहा होता है। कोई नहीं है वहां तुम्हें सजा देने को, बस नियम है, केवल प्रकृति—ताओ, ऋत्।

कर्म का नियम सीधा —साफ है। यदि तुम ईश्वर की बात करने लगते हो, तो चीजें जटिल हो जाती हैं, बहुत जटिल। कई बार हम देखते हैं कि बुरा आदमी जीवन में आनंदित हो रहा है, और कई बार हम अच्छे आदमी को पीड़ा भोगते देखते हैं तो प्रश्न उठता है इस बारे में कि ईश्वर कर क्या रहा है २: वह अन्यायी जान पड़ता है। यदि वह न्यायी है, तब तो बुरे व्यक्ति को पीड़ा भोगनी चाहिए और अच्छे को जीवन का ज्यादा आनंद मनाना चाहिए।

जटिलता यह है यदि परमात्मा बिलकुल न्यायपूर्ण है तब तुम उसे करुणापूर्ण नहीं जान सकते क्योंकि तब करुणा कैसे न्याययुक्त बनेगी? यदि परमात्मा न्यायपूर्ण है तो वह करुणापूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि करुणा का अर्थ होता है कि यदि किसी ने कुछ गलत किया, पर फिर भी प्रार्थना किए जाता है तो तुम उसे माफ कर देते हो। इसलिए प्रार्थना बहुत अर्थपूर्ण बन जाती है ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों की दुनिया में — ‘प्रार्थना करो, क्योंकि यदि तुम प्रार्थना करते हो तो परमात्मा तुम्हें माफ कर देगा। वह स्वयं करुणा है।’ इसका अर्थ हुआ कि वह अन्यायी होगा। यदि किसी व्यक्ति ने प्रार्थना नहीं की .और वह पापी रहा है, उसे सजा मिलेगी और नर्क में फेंक दिया जाएगा। और वह आदमी जिसने कि प्रार्थना की है और ज्यादा बड़ा पापी रहा है, स्वर्ग में प्रवेश पाएगा। यह बात अन्यायपूर्ण मालूम पड़ती है। मात्र प्रार्थना करने से? और प्रार्थना चीज क्या है? क्या यह किसी प्रकार की खुशामद है? तुम प्रार्थना में करते क्या हो? —तुम खुशामद करते हो परमात्मा की।

हिंदू कहते हैं, ‘नहीं, परमात्मा को बीच में मत लाओ क्योंकि उलझनें आ बनेंगी। या तो वह न्यायपूर्ण होगा—तब तो करुणा के लिए कोई स्थान ही न रहेगा, या उसमें करुणा होगी —तो वह न्यायपूर्ण नहीं हो सकता।’ इस कारण लोग सोचेंगे कि अच्छे और बुरे काम—इनका वस्तुत: कोई सवाल नहीं, केवल प्रार्थना, पवित्र स्थानों की तीर्थयात्रा ठीक है। हिंदू कहते हैं : यह तो एक सीधा —साफ प्राकृतिक नियम है, प्रार्थना कोई मदद न देगी। यदि तुमने कुछ बुरा किया है तो तुम्हें दुख भोगना होगा। कोई प्रार्थना मदद नहीं कर सकती। तो मत प्रतीक्षा करना प्रार्थना के लिए, और मत गंवाना तुम्हारा समय प्रार्थना में। यदि तुमने कुछ बुरा किया है तो तुम्हें पीड़ा भोगनी ही होगी; यदि तुमने अच्छा काम किया है तो तुम आनंद मनाओगे।

लेकिन कोई उन चीजों को बांट नहीं रहा होता तुम्हारे लिए, संसार में कहीं कोई व्यक्ति नहीं—यह एक नियम है, अव्यक्तिगत। यह बात ज्यादा वैज्ञानिक है। यह जटिलताएं कम निर्मित करती है और समस्याओं को सुलझाती ज्यादा है। प्रकृति के नियम के विषय में हिंदुओं की जो अवधारणा है, ऋत्, वह संसार के प्रति बने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ हर ढंग से अनुकूल बैठती है। तो क्या कर सकते हो तुम? तुमने बुरा किया, तुमने अच्छा किया; दुख और सुख पीछे —पीछे चले आएंगे छाया की भाति। कैसे होता है यह? क्या करना होगा?

दो दृष्टिकोण हैं पूरब में एक तो पतंजलि का और दूसरा है महावीर का। महावीर कहते हैं, ‘यदि तुमने कुछ गलत किया है तो तुम्हें कुछ सही करना होगा संतुलन लाने को, अन्यथा तो तुम पीड़ा भोगोगे।’ यह बात तो जरा ज्यादा बड़ी लगती है, क्योंकि बहुत जन्मों से तुम लाखों चीजें करते रहे हो। यदि हर चीज का हिसाब —किताब चुकाना हो, तो इसमें लाखों जन्म लगेंगे। और फिर भी खाता बंद न होगा क्योंकि तुम्हें जीने पड़ेंगे ये लाखों जन्म, और तुम निरंतर रूप से वे चीजें करते रहोगे जो ज्यादा भविष्य निर्मित कर देंगी। हर चीज ले जाती किसी दूसरी चीज तक, एक चीज से दूसरी चीज तक, हर चीज परस्पर जुड़ी होती है। तब तो स्वतंत्रता की कोई संभावना ही नहीं जान पड़ती।

पतंजलि का दृष्टिकोण एक दूसरा दृष्टिकोण है। वह ज्यादा गहरे उतरता है। सवाल अच्छाई द्वारा संतुलन बनाने का नहीं, अतीत अनकिया नहीं किया जा सकता है। तुमने अतीत में एक व्यक्ति को मार दिया—महावीर का दृष्टिकोण ऐसा है, अब तुम संसार में अच्छी — अच्छी बातें करो। लेकिन तुम अच्छी बातें करते भी हो, तो वह आदमी फिर से जी नहीं उठता है। वह आदमी मर गया, सदा के लिए मर गया। वह हत्या सदा के लिए तुम्हारे भीतर एक जख्म की भाति बनी रहेगी। शायद तुम स्वयं को तसल्ली दे सकते हो कि तुमने इतने सारे मंदिर और धर्मशालाएं बनाई हैं, और तुमने लाखों रुपये दान दे दिए हैं लोगों को। शायद यह बात एक सांत्वना होगी, लेकिन अपराध तो मौजूद रहेगा ही। कैसे तुम हत्या का हिसाब बराबर कर सकते हो? उसे निष्प्रभाव नहीं किया जा सकता। तुम अतीत को अनकिया नहीं कर सकते।

पतंजलि कहते हैं, ‘अतीत स्मृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, वह एक स्वप्‍निल घटना है, वह अब मौजूद नहीं। तुम उसे अनकिया कर सकते हो मात्र प्रति—प्रसव में जाने से ही। तुम जाते हो पीछे की ओर, उसे फिर से जीते हो तुम्हारी स्मृति में तुम फिर से उस व्यक्ति की हत्या कर देते हो। उस घाव को अनुभव करो फिर से। जब तुमने उस आदमी की हत्या की तो उस क्षण की पीड़ा को अनुभव करना। सारी पीड़ा को फिर से जीना और इसी तरह भर जाएगा घाव और अतीत धुल जाएगा।’

पतंजलि के साथ मुक्ति संभव जान पड़ती है; महावीर के साथ वह असंभव मालूम पड़ती है। इसीलिए जैन धर्म ज्यादा नहीं फैल पाया। मोक्ष करीब —करीब असंभव ही जान पड़ता है, अविश्वसनीय। पतंजलि पूरब की गढ़ रहस्यवादिता के आधारों में से एक बन गए हैं।

महावीर रहे किनारे पर, सीमा पर ही। वे कभी न बन सके केंद्रीय शक्ति। वे बहुत ज्यादा जुड़े है क्रिया के साथ, और वे कर्मों की वास्तविकता में बहुत ज्यादा विश्वास रखते हैं। पतंजलि कहते हैं, ‘कर्म होते हैं एकदम स्वप्नों की भाति। सारा संसार और कुछ नहीं सिवाय एक बड़े रंगमंच के, और सारा जीवन और कुछ नहीं सिवाय एक नाटक के। तुम उसे खेलते रहे क्योंकि तुम्हें होश नहीं था। यदि तुम सजग रहे होते, तो कोई समस्या न होती।’

अब होश में आओ और होशपूर्ण ऊर्जा को तुम्हारे अतीत तक ले आओ। वह सारे अतीत को जला देगी : दुख और सुख दोनों तिरोहित हो जाएंगे, अच्छी —बुरी दोनों चीजें तिरोहित हो जाएंगी। और जब दोनों मिट जाती हैं, जब तुम अच्छे —बुरे के द्वैत के पार हो जाते हो, तुम मुक्त हो जाते हो। तब न तो सुख होता है और न दुख। तब एक शाति उतरती है, गह से शाति। इस शाति में एक नयी घटना घटती है —सच्चिदानंद की। उस गहन शाति में सत्य थी टच होता है तुममें, होश घटता है तुममें; आनंद घटित होता है तुममें। मैं पूरी तरह राजी हूं पतंजलि से।

इसीलिए महावीर का सारा दृष्टिकोण अधिकाधिक नैतिक हो गया। जैन धर्म तो बिलकुल ही भूल गया है योग को। तुम जैन मुनियों को योग करते हुए नहीं पाओगे —कभी नहीं। वे तो बस अपने कर्म का संतुलन बैठा रहे होते हैं! वे निरंतर सोच रहे हैं कि क्या करें और क्या न करें। कैसे घटित हो अंतस—सत्ता यह वे बिलकुल भूल ही चुके हैं। क्या करना है और क्या नहीं करना है, कर्तव्‍य और अकर्तव्य—उनका सारा दृष्टिकोण कर्मों से जुड़ा होता है—अंधेरे में मत चलो, क्‍योंकि कहीं कोई कीट—पतंगा मर जाएगा तो और फिर वही कर्म, रात में मत खाओ, क्योंकि अंधेरे में शायद कोई कीड़ा गिर जाए, कोई मक्खी गिर जाए भोजन में और शायद तुम उन्हें खा लो, और हिंसा हो जाए। इस खाओ, उसे मत करो। बारिश में भी मत चलो क्योंकि जब जमीन गीली होती है, बहुत बार कीड़े—पतंगे जमीन पर चलते रहते हैं, बहुत से कीड़े पैदा होते हैं वर्षा में। वे निरंतर चिंतित रहते है कार्यों के विषय में, क्या करना और क्या नहीं करना। उनका सारा दृष्टिकोण जुड़ा होता है केवल घटना के साथ। वे बिलकुल ही भूल गए हैं कि कैसे होना है, केंद्र में कैसे अवस्थित होना है। वे योग नहीं करते, वे स्थान नहीं करते। वे कर्म से जुड़े हैं, पतंजलि जुड़े हैं चेतना से।

ज्यादा लोग निर्वाण को उपलब्ध होते हैं पतंजलि के द्वारा। महावीर के द्वारा, विरले ही, बहुत थोड़े से, सारा दृष्टिकोण असंभव जानू पड़ता है। इसलिए पतंजलि की सुनना ठीक से। न ही केवल सुनना, बल्कि कोशिश करना सार तत्व को आत्मसात करने की। बहुत कुछ संभव है उनके द्वारा। वे इस पृथ्‍वी पर हुए अंतर्यात्रा के महानतम वैज्ञानिकों में से एक हैं।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अध्‍यात्‍म–उपनिषद–प्रवचन–15

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मेरे का सारा जाल कल्‍पित है—पंद्रहवां प्रवचन

सूत्र :

प्रारब्‍धं सिध्यति तदा यदा देहात्मना स्थिति।

देहात्मभावो नैवेष्ट: प्रारब्धं त्यज्यतामत:।। 56।।

प्रारब्‍धकल्पनाsप्यस्य देहस्य अति रेष हि।। 57।।

अध्यस्तस्य कुतस्य असत्यस्य कुतोजनिः।

अजातस्य कुतो नाश: प्रारब्‍धमसत: कुत:।। 58।।

ज्ञानेनाज्ञानकार्यस्य समूलस्य लयो यदि।

तिष्ठत्ययं कथं देह इति शङ्कावतो जडान् ।। 59।।

प्रारब्ध कर्म तो उसी समय सिद्ध होता है, जब देह के ऊपर आत्म—बुद्धि होती है। पर देह के ऊपर आत्म—भाव रखना तो कभी इष्ट नहीं है, इसलिए देह के ऊपर की आत्म—बुद्धि को तज कर प्रारब्ध कर्म का त्याग करना।

 देह की भ्रांति यही प्राणी के प्रारब्ध कर्म की कल्पना है। पर आरोपित अथवा भ्रांति से जो कल्पित हो, वह सच्चा कहां से हो? जो सच्चा नहीं है, उसका जन्म कहां से हो? जिसका जन्म नहीं हुआ उसका नाश कहां से हो? इस प्रकार जो असत् है, वस्तु रूप है ही नहीं, उसको प्रारब्ध कर्म कहं। से हो!

देह यह अज्ञान का कार्य है, उसका ज्ञान द्वारा जो समूल नाश हो जाता है तो यह देह रहती कैसे है? ऐसी शंका करने वाले अज्ञानियों का समाधान करने के लिए ही श्रुति ने बाह्य दृष्टि से प्रारब्ध कहा है। (वास्तव में न तो देह है और न प्रारब्ध है।)

 

 

सूत्र के पहले, एक—दो प्रश्न पूछे गए हैं, उनकी बात कर लेनी उचित है।

एक मित्र ने पूछा है कि आप जो कह रहे हैं वह बात समझ में भी आती है, और समझ में आती भी नहीं, तो क्या करें?

उनका प्रश्न मूल्यवान है। ऐसी सभी की प्रतीति होगी। क्योंकि समझ के दो तल हैं। एक तो जो मैं कहता हूं वह आपकी बुद्धि की समझ में आ जाता है, आपकी बुद्धि को युक्तिपूर्ण लगता है, आपकी बुद्धि को प्रतीत होता है कि ऐसा होगा।

यह समझ ऊपर—ऊपर है। यह समझ प्राण के भीतर तक नहीं उतर सकती। यह समझ आपके पूरे व्यक्तित्व की समझ नहीं है—आत्मिक नहीं है। इसलिए ऊपर से समझ में आता हुआ लगेगा। और जब तक यहां बैठ कर सुन रहे हैं, तब तक ऐसा लगेगा, बिलकुल समझ में आ गया। फिर यहां से हटेंगे और समझ खोनी शुरू हो जाएगी। क्योंकि जो समझ में आ गया है, वह जब तक साधा न जाए, तब तक आपके प्राणों का हिस्सा नहीं हो सकता। जो समझ में आ गया है, जब तक वह आपके खून, मांस, मज्जा में सम्मिलित न हो जाए, तब तक वह ऊपर से किए रंग—रोगन की तरह उड़ जाएगा।

फिर, जो समझ में आ गया है, उसके भीतर आपकी पुरानी सब समझ दबी हुई पडी है। जैसे ही यहां से हटेंगे, वह भीतर की सब समझ इस नई समझ के साथ संघर्ष शुरू कर देगी। वह इसे तोड़ने की, हटाने की कोशिश करेगी। इस नए विचार को भीतर प्रवेश करने में पुराने विचार बाधा देंगे, अस्तव्यस्त कर देंगे; हजार शंकाएं, संदेह उठाएंगे। और अगर उन शंकाओं और संदेहों में आप खो जाते हैं, तो वह जो समझ की झलक मिली थी, वह नष्ट हो जाएगी।

एक ही उपाय है कि जो बुद्धि की समझ में आया है, उसे प्राणों की ऊर्जा में रूपांतरित कर लिया जाए; उसके साथ हम एक तालमेल निर्मित कर लें। हम उसे साधें भी, वह केवल विचार न रह जाए, वह गहरे में आचार भी बन जाए—न केवल आचार, बल्कि हमारा अंतस भी उससे निर्मित होने लगे। तो ही धीरे—धीरे, जो ऊपर गया है, वह गहरे में उतरेगा, और साधा हुआ सत्य, फिर आपके पुराने विचार उसे न तोड़ सकेंगे। फिर वे उसे हटा भी न सकेंगे। बल्कि उसकी मौजूदगी के कारण पुराने विचार धीरे—धीरे स्वयं हट जाएंगे और तिरोहित हो जाएंगे।

तो यह बात ठीक है, साधक के लिए सवाल ऐसा उचित है। समझ में आ जाता है, फिर हम तो वैसे ही बने रहते हैं। अगर हम वैसे ही बने रहते हैं तो जो समझ में आया है, वह ज्यादा देर टिकेगा नहीं। कहां टिकेगा? किस जगह टिकेगा न: आप अगर पुराने ही बने रहते हैं, तो जो समझ में आया है वह जल्दी ही झड़ जाएगा, भूल जाएगा, विस्मृत हो जाएगा।

ऐसे तो बहुत बार आपको समझ में आ चुका है। यह कोई पहला मौका नहीं है। न मालूम कितनी बार आप सत्य के करीब—करीब पहुंच कर वापस हो गए हैं। न मालूम कितनी बार द्वार खटखटाना भर था, कि आप आगे हट गए हैं और दीवाल हाथ में आ गई है। भूल यहीं हो जाती है कि जो हमारी समझ में आता है, उसे हम तत्काल जीवन में रूपांतरित नहीं करते हैं।

इस संबंध में यह बात खयाल लेने जैसी है कि अगर आपको कोई गाली दे, तो आप तत्काल क्रोध करते हैं, और आपको कोई समझ दे, तो आप तत्काल ध्यान नहीं करते हैं। कुछ बुरा करना हो तो हम तत्काल करते हैं, कुछ भला करना हो तो हम सोच—विचार करते हैं। ये दोनों मन की बड़ी गहरी तरकीबें हैं; क्योंकि जो भी करना हो, उसे तत्काल करना चाहिए, तो ही होता है। क्रोध करना हो कि ध्यान करना हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बुरा हम करना चाहते हैं इसलिए हम तत्काल करते हैं, एक क्षण रुकते नहीं; क्योंकि रुके, तो फिर न कर पाएंगे।

कोई गाली दे, उससे कह आएं कि चौबीस घंटे बाद आकर जवाब दूंगा। फिर कोई जवाब संभव नहीं होगा। चौबीस घंटा तो बहुत लंबा वक्त है, चौबीस क्षण भी अगर आप चुपचाप विचार में व्यतीत कर दें, तो शायद क्रोध करने का मन नहीं रह जाएगा। शायद हंसी आ जाए। शायद उस आदमी की नासमझी पता चले। या शायद वह ठीक ही गाली दे रहा है, यह भी पता चल जाए। इसलिए समय खोना उचित नहीं है, जैसे ही गाली की चोट पड़े, तत्काल उबल पड़ना जरूरी है, फिर पछताने का काम पीछे कर लेंगे।

आपने खयाल किया है कि सभी क्रोधी पछताते हैं! क्रोध करने के बाद पछताते हैं। अगर थोड़ी देर रुक जाते, तो क्रोध करने के पहले ही पछतावा आ जाता और क्रोध कभी न होता। जिसका पछतावा क्रोध के बाद आता है, वह कभी क्रोध से मुक्त नहीं हो पाएगा; जिसका पछतावा क्रोध के पहले आ जाता है, वही मुक्त हो सकता है। क्योंकि जो हो चुका, वह हो चुका; उसे अनकिया नहीं किया जा सकता।

लेकिन जगह कहां है? गाली दी आपने, इधर क्रोध भभका, दोनों के बीच में स्थान कहां है कि मैं थोड़ा सोच लूं? विचार कर लूं! विमर्श कर लूं; देख लूं अतीत के अपने संकल्प न मालूम कितनी बार किए हैं कि क्रोध न करूंगा! खोज लूं अतीत में, कितनी बार क्रोध करके पछताया हूं! उतना मौका नहीं है; समय नहीं है, स्थान नहीं है। उधर गाली, इधर आग निकलनी शुरू हो जाती है। थोड़ी सी जगह बनाएं, क्रोध मुश्किल हो जाएगा।

क्रोध में तो नहीं बनाते जगह, लेकिन ध्यान में थोड़ी जगह बनाते हैं। इसलिए ध्यान भी मुश्किल हो जाता है। जब कोई शुभ और सही और ठीक बात की चोट पड़ती है, उसे उसी क्षण करने में हम नहीं लग जाते, हम राह देखते हैं। वह जो बीच का समय है, वही अस्तव्यस्त कर देगा। गरम लोहे पर चोट मारनी चाहिए। तो विचार करते रहते हैं कि चोट मारे या न मारे? तब तक लोहा ठंडा हो जाता है। फिर चोट भी मारते हैं तो कोई परिणाम नहीं होता।

एक मित्र आज आए थे। वे कहते हैं, संन्यास लेना है। लेकिन अभी और थोड़ा समय चाहिए; सोचना है। मैंने उनसे पूछा, और कितनी बातों के संबंध में जीवन में सोचा है? अगर और बातों के संबंध में सोचा होता, तो संन्यास कभी का फलित हो गया होता; क्योंकि सोच—विचार का अंतिम परिणाम संन्यास है। जो भी आदमी सोचेगा, विचारेगा, इस जीवन में भोग उसके लिए व्यर्थ हो ही जाने वाला है।

तो मैंने उनसे पूछा, और कितना सोचा—विचारा है? किस—किस बात को सोच—विचार कर किया है? या कि सिर्फ संन्यास को सोच—विचार कर लेंगे? कितना समय लगाएंगे सोचने—विचारने में? और आप ही सोचेंगे न? तो कल आप सोचते हैं कि आप कुछ ज्यादा बुद्धिमान हो जाएंगे न: तो जरा पीछे लौट कर देखें, बुद्धि कम भला हो गई हो, ज्यादा होती मालूम नहीं होती।

वैज्ञानिक कहते हैं कि चौदह साल और अठारह साल के बीच में आमतौर से लोगों की बुद्धि रुक जाती है, फिर कभी बढ़ती नहीं। यह भी बहुत विशेष लोगों की बात है, अठारह साल तक बुद्धि जिनकी बढ़ती हो। नहीं तो और पहले रुक जाती है।

पिछले महायुद्ध में अमरीका में जांच—पड़ताल की भर्ती के लिए युद्ध के सैनिकों की, तो औसत बुद्धि की उम्र साढ़े तेरह वर्ष पाई गई। औसत बुद्धि का साढ़े तेरह वर्ष का आंकड़ा तय हुआ कि आमतौर से आदमी की बुद्धि साढ़े तेरह वर्ष पर रुक जाती है, फिर कभी बढ़ती—बढ़ती नहीं।

आप कहेंगे कि यह बात जंचती नहीं। क्योंकि आपको लगता है कि जब आप जवान थे, उससे के होकर आप ज्यादा बुद्धिमान हो गए हैं। भला आपको न लगता हो, लेकिन अपने बेटों को आप जंचवाते रहते हैं कि ज्यादा बुद्धिमान, मैं का आदमी, अनुभवी, मेरे पास बुद्धि ज्यादा है।

बुद्धि ज्यादा नहीं है आपके पास, अनुभव ज्यादा हो सकते हैं। अनुभव तो संग्रह है। बुद्धि उस संग्रह का उपयोग है, वह अलग बात है। बच्चे के पास संग्रह कम होता है, आपके पास ज्यादा है। मगर उस संग्रह का जो उपयोग है, उस संग्रह का कैसे उपयोग करना, वह बुद्धि है। बुद्धि संग्रह नहीं है।

तो यह भी हो सकता है कि एक बच्चे के पास के से ज्यादा बुद्धि हो, यह कभी नहीं हो सकता कि एक बच्चे के पास के से ज्यादा अनुभव हो, कभी नहीं हो सकता। अनुभव तो बच्चे के पास कम होगा ही, लेकिन बुद्धि ज्यादा हो सकती है। बूढ़े के पास अनुभव ज्यादा होता है, बुद्धि ज्यादा नहीं होती।

उन मित्र से मैंने कहा कि कल आप सोचते हैं, या परसों, बुद्धि थोड़ी ज्यादा हो जाएगी? इतना ही होगा कि अभी इस विचार की हवा में, अभी इस ध्यान की तरंग में, अभी इतने संन्यासियों के आनंद और मुक्त प्रभाव में एक खयाल उठा है मन में। माउंट आबू से नीचे उतरते—उतरते, जैसे—जैसे आपकी बस नीचे उतरने लगेगी, वैसे—वैसे इस खयाल से आप भी नीचे उतरने लगेंगे। माउंट आबू रोड स्टेशन तक यह विचार टिक जाए, कठिन है। माउंट आबू रोड स्टेशन पर उतर कर आप ठंडी गहरी सांस लेंगे कि अच्छा हुआ, जैसे के तैसे वापस लौट आए। कुछ खोया नहीं, कुछ गंवाया नहीं, किसी झंझट में न पड़े! महीने भर बाद आपको खयाल भी नहीं आएगा।

वातावरण, अनेक लोगों की मौजूदगी, अनेक लोगों का सग्रिहक प्रयास आपको भी उठा देता है एक ऊंचाई पर, जिस पर होना आपकी आदत नहीं है। आप नाच रहे हैं कीर्तन में। आपको पता है, अकेले इस भाव से आप नाच सकेंगे? आप कम नाच रहे हैं, इतने लोग नाच रहे हैं, उनका नाच संक्रामक हो जाता है, वह आपको भी छू लेता है। उनकी तरंगें आपके हृदय को भी कंपाने लगती हैं। उनके पैरों की गति आपके पैरों को भी उछलने का मौका देने लगती है। और फिर आपके सदा के सोचने का ढंग यह है कि कोई क्या कहेगा! और जहा सभी लोग नाच रहे हों, एक बात पक्की है कि नाचने वाले से कोई कुछ कहने वाला नहीं है, खड़े रहने वाले से कोई कुछ भला कहे। तो गति आ जाती है, आप मुक्त अनुभव करते हैं कि ठीक है, यहां कोई अड़चन नहीं है, यहां नाचा जा सकता है।

उतरेंगे भीड़ में वापस बाजार की, यह जो एक ऊंचाई की झलक मिली थी, एक छलांग ली थी और आकाश की तरफ आंखें उठाई थीं, वे फिर जमीन की तरफ लग जाएंगी। तो क्या आशा है कि कल, परसों आप निर्णय कर सकेंगे! निर्णय तो आपको करना है, वह आज भी किया जा सकता है।

पर वे मित्र बोले कि ऐसा भी नहीं है कि मैंने निर्णय करने की कोशिश नहीं की, निन्यानबे परसेंट तो मन बिलकुल तैयार है, बस एक परसेंट रह गया है।

उनसे मैंने पूछा कि जिंदगी में और भी कोई काम किया है जिसमें निन्यानबे परसेंट मन तैयार रहा हो और एक परसेंट तैयार न रहा हो? कभी रुके हैं इस बात से? और उनसे मैंने यह भी पूछा कि क्या आपको पता है आप क्या कह रहे हैं? जब निन्यानबे परसेंट मन संन्यास लेने को तैयार है’ और एक परसेंट नहीं लेने को तैयार है, तो आप एक परसेंट के पक्ष में निर्णय ले रहे हैं!

यह तो आप सोचना ही. मत कि आप निर्णय लेने से बच सकते हैं। निर्णय लेने से बचने का इस जगत में कोई उपाय ही नहीं है। चाहे आप न लेने का लें, वह भी निर्णय है। रोकने का लें कि कल लेंगे, वह भी निर्णय है। दुनिया में आपके लिए चुनाव की स्वतंत्रता है कि आप क्या निर्णय लें, इसकी कोई स्वतंत्रता नहीं है कि आप निर्णय ही न लें। इसका कोई उपाय ही नहीं है। निर्णय तो लेना ही पड़ेगा।

लेकिन एक मजे की बात है कि न करने के निर्णय को हम निर्णय नहीं समझते हैं, यह बड़ी अदभुत बात है। उनको खयाल में भी नहीं था कि नहीं लूंगा संन्यास, यह भी निर्णय है। लूंगा, यह भी निर्णय है। अगर दोनों निर्णय हैं, तो बड़ा अदभुत मन है कि एक परसेंट निर्णय के साथ रुकता है और निन्यानबे परसेंट के साथ जाने की हिम्मत नहीं जुटाता है!

हम अपने को धोखा देने में बड़े कुशल हैं। ऊपर बुद्धि को समझ में आ जाता है संन्यास, तो हम डरते भी हैं। हम सोचते हैं, थोड़ा वक्त मिल जाए। वक्त इसलिए नहीं कि हम सोच लेंगे, वक्त इसलिए कि यह प्रभाव क्षीण हो जाएगा। और वह जो निन्यानबे परसेंट है वह एक परसेंट रह जाएगा, और जो एक परसेंट है वह निन्यानबे परसेंट हो जाएगा। और जब निन्यानबे परसेंट था तब हमने नहीं निर्णय लिया संन्यास का, तो जब एक परसेंट होगा तब हम लेने वाले हैं?

तो आपकी समझ, चूंकि आप उसे रूपांतरित नहीं करते, निर्णय नहीं बनाते, डिसीजन नहीं बनाते, कभी गहरी नहीं जा सकती है। इसे ठीक से खयाल में ले लें। बहुत बार सुन लेंगे, समझ लेंगे, फिर वैसे के वैसे रह जाएंगे। बल्कि इसका एक खतरा भी है कि जब बहुत बार सुन—सुन कर, समझ—समझ कर आप वैसे के वैसे रह जाते हैं, तो धीरे—धीरे आप चिकने घड़े हो जाते हैं, क्योंकि इतनी चीजें फिसलती हैं आप पर से तो चिकनाहट पैदा होती है। इतने विचार आप पर गिरते हैं और आप वैसे ही रह जाते हैं! और विचार गिर जाते हैं नीचे और घड़ा अपनी जगह बैठा रहता है! घड़ा चिकना हो जाता है। तो जितनी बार आप ऐसी बातें सुन कर वैसे के वैसे रह जाते हैं, उतना कठिन होता जा रहा है, क्योंकि तब बात गिरेगी नहीं कि फिसल जाएगी नीचे। घड़ा बिलकुल चिकना हो गया है, रास्ते बन गए हैं फिसलने के।

अच्छा है, अच्छी बात ही न सुनें। सुनें, तो हिम्मत करें और अपने को बदलने का निर्णय लें। तब आपको लगेगा कि जो समझ में आया था, वह ऊपर—ऊपर नहीं रहा, प्राणों का स्वर बन गया है। और जिस दिन श्वास—श्वास में न समा जाए समझ, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। उसका एक ही मूल्य है कि आप अच्छी बातें करना सीख जाएं। हम सभी जानते हैं, और हमारा मुल्क तो इतना कुशल है अच्छी बातें करने में! अध्यात्म तो हमारी जबान पर रखा है! बस जबान पर ही रखा है, उससे भीतर कहीं नहीं है। किसी से भी पूछ लें, ब्रह्मज्ञान तो कोई भी जानता है! कोई भी जानता है! हमारे पूरे देश की व्यवस्था, मन की, चिकने घड़े की हो गई है। हजारों—हजारों साल से तीर्थंकरों, अवतारों, ऋषियों का हमने एक ही उपयोग किया है. कि सुन—सुन कर हम चिकने घड़े हो गए हैं।

मुझसे कोई पूछता था, मैं एक गांव में था, और मुझसे वह कहने लगा आदमी कि यह भारत बड़ी पुण्य—भूमि है, सारे अवतार यहीं हुए, सारे तीर्थंकर यहीं हुए, सारे बुद्ध यहीं हुए!

मैंने कहा कि तू फिर से सोच, यह पुण्य—भूमि है कि यहां पापी बड़े अदभुत हैं कि इतने सब हुए फिर भी वे बिना बदले बैठे हैं? कि सब अवतार गए, हमारे चिकने घड़े पर लकीर न खींच पाए! कि सब तीर्थंकर आए, हमने कहा कि आओ और जाओ! हम उनमें से नहीं हैं कि बातों में आ जाएं!

क्या, मतलब क्या होता है न: एक घर में अगर गांव भर के डाक्टर आएं तो इसका मतलब है कि गाव में वही घर सबसे ज्यादा बीमार है। सारे अवतारों को यहीं पैदा होना पड़े! और कृष्ण ने कहा है गीता में कि जब धर्म की ग्लानि बढती है, और जब पाप बढ़ जाता है, और जब दुष्टजन बढ़ जाते हैं, तब मैं आता हूं। और सब अवतार यहीं आए। तो मतलब क्या है? पुण्य—भूमि है?

अगर कृष्ण का वाक्य सही है, तो जहा उनको नहीं जाना पड़ा, पुण्य—भूमि वहा हो सकती है। लेकिन सबको चुकता यहां आना पड़ा! बात जाहिर है कि इस मुल्क की आत्मा बिलकुल चिकनी हो गई है।

हमने इतनी अच्छी बातें सुनी हैं और सुन—सुन कर हम ऐसे तल्लीन हो गए हैं कि करने की हमने कभी फिक्र ही नहीं की है।

समझ आपकी तब तक गहरी न हो पाएगी, पूरी न हो पाएगी, जब तक समझ आपकी अंतरात्मा में प्रविष्ट नहीं होती। और आप कोई निर्णय लें, तो ही समझ अंतस में प्रविष्ट होती है। निर्णय द्वार है। छोटे से निर्णय भी बड़े क्रांतिकारी हैं। किस बात का निर्णय लिया, यह बहुत मूल्य का नहीं है, निर्णय लिया। इस लेने में ही आपके प्राण इकट्ठे हो जाते हैं, एकजुट हो जाते हैं। निर्णय लेते ही आप दूसरे आदमी हो जाते हैं। वह निर्णय बिलकुल क्षुद्र भी हो सकता है।

मैं आपसे कहता हूं कि दस मिनट खीसें भी नहीं। बड़ी अमानवीय बात मालूम पड़ती है; आपको खांसी आ रही है और मैं खांसने तक नहीं देता! दुष्टता मालूम पड़ती है। सभा में आप बैठे हैं, मैं आपको कहता हूं, खीसें मत, बिलकुल खांसी बंद रखें।

पर आपको खयाल में नहीं है, इतना छोटा सा निर्णय भी आपके भीतर आत्मा का जन्म बनता है : दस मिनट नहीं खांसूगा! और अगर इसमें आप सफल हो गए, तो एक खुशी की लहर रोएं—रोएं में फैल जाती है, आपको पता चलता है कि मैं कोई निर्णय लूं तो पूरा कर सकता हूं।

खांसी, छींक बड़ी गड़बड़ चीजें हैं। उनको रोको तो और जोर से आती हैं। रोको तो सारा ध्यान उन्हीं पर केंद्रित हो जाता है। रोको तो खांसी भी बगावत करती है। वह कहती है, ऐसा तो कभी नहीं किया! यह क्या नया ढंग सीख रहे हैं? यह क्या बात है? यह तो अपना कभी संबंध नहीं रहा ऐसा कि मैं आऊं और आप रोकें! यह तो मैं न भी आऊं, दूसरे को आ रही हो, तो आप खास लेते थे! आपको न भी हो, तो दूसरे की भी पकड़ लेते थे! यह क्या हुआ है?

लेकिन अगर दस मिनट भी आप बिना खांसे रुक जाते हैं, तो आपके और शरीर के बीच का संबंध इस छोटी सी बात से भी बदल रहा है।

जैसे मैं आपसे कहता हूं रुक जाएं। गुरजिएफ इसका बड़ा प्रयोग करता था ध्यान में। उसने इसके लिए स्टाप मेडीटेशन ही नाम दे रखा था। आप राजी हो जाएंगे थोड़े समय में, तो उस प्रयोग को हम पूरा करेंगे। जब मैं आपसे कहता हूं रुक जाएं, तो मेरे इस ’रुक जाने’ में, अभी मैं आप पर ज्यादा जोर नहीं दे रहा हूं। गुरजिएफ भी कहता था, रुक जाएं! लेकिन रुक जाने का मतलब था—जैसे हैं, एक पैर ऊपर है और एक पैर नीचे है, नाच रहे थे—तो वह वहीं रह जाए। गर्दन आड़ी है तो वैसी रह जाए, शरीर झुका है तो वैसा रह जाए। फिर जरा भी कोई फर्क नहीं करना है; जो हालत है, वैसी रह जाए। चाहे शरीर धड़ाम से गिर जाए, पर आपको कुछ फर्क नहीं करना है; शरीर गिरे तो गिर जाए। और जैसा गिर जाए, वैसा ही रहने देना है; आपको भीतर से इंतजाम नहीं करना है कि पैर जरा तिरछा है तो थोड़ा सा सीधा करके लेट जाएं—न।

तो गुरजिएफ इसको स्टाप मेडीटेशन कहता था। और उसने हजारों लोगों को इससे गहरे अनुभव करवाए। और यह बड़ा कीमती प्रयोग है, क्योंकि एकदम से रुक जाना! और धोखा देने में दूसरे को कोई सवाल नहीं है, आप अपने को दे सकते हैं। आपका एक पैर जरा ऊपर था, आप धीरे से नीचे रख लें तो कौन देख रहा है? बाकी आप खो गए एक मौका। कोई नहीं देख रहा है, किसी को मतलब भी नहीं है, आपका पैर है, कहीं भी रखिए। मगर आपने भीतर एक अवसर खो दिया, जहां आत्मा और शरीर का संबंध बदल सकता था, जहा आत्मा जीत सकती थी और कह सकती थी कि मैं मालिक हूं। अगर आपने धीरे से पैर रख लिया संभाल कर और फिर आराम से खड़े हो गए कि अब देखो स्टाप का प्रयोग कर रहे हैं, तो आप किसी और को धोखा नहीं दे रहे हैं, आपके शरीर ने आपको धोखा दै दिया।

छोटे—छोटे निर्णय, बहुत छोटे—छोटे निर्णय भी बड़े परिणामकारी हैं। छोटे से कोई संबंध नहीं है, निर्णय से संबंध है, डिसीसिवनेस, निर्णायक बुद्धि। तो आपकी समझ धीरे— धीरे गहरी उतर जाएगी।

तो जो मैं कह रहा हूं, उसे सिर्फ सुन न लें, उसे थोड़ा प्रयोग करें। उपनिषद बड़े व्यावहारिक पाठ हैं। इनका सिद्धात से कोई संबंध नहीं है। इनका आपको बदलने, रूपांतरित करने की कीमिया से संबंध है। ये तो सीधे सूत्र हैं, जिनसे नए मनुष्य का निर्माण हो जाता है।

लेकिन कठिनाई यही है कि कोई दूसरा छैनी—हथौड़ी लेकर आपका निर्माण नहीं कर सकता। आप ही मूर्तिकार हैं, आप ही पत्थर हैं, आप ही छैनी—हथौड़ी हैं; तीनों काम आपको ही करने हैं। अपने ही पत्थर को, अपने ही निर्णयों की छैनी—हथौड़ी से, अपने ही संकल्प की शक्ति से काटना है, छांटना है। अपनी ही समझ के अनुसार अपनी मूर्ति को निर्मित करना है। इसमें क्षण भर का भी स्थगन सदा के लिए स्थगन हो जाता है। जिसने कहा कल करेंगे, वह फिर कभी भी नहीं करता है। और अच्छा होता कि वह कहता कि कभी नहीं करेंगे, वह भी एक निर्णय होता।

तो वे मित्र आए तो मैंने उनसे कहा कि यही निर्णय कर लो कि संन्यास कभी न लेंगे—कभी; तो भी फायदा होगा। पर तुम कहते हो कि सोचेंगे, लेंगे कि नहीं लेंगे, यह इनडिसीसिवनेस….। नहीं लेंगे, यही पक्का कर लो, तो भी कुछ निर्णय तो किया। लेंगे तो पक्का कर लो, तो कोई निर्णय किया। नहीं लेंगे, यह भीतर की स्थिति है, लेकिन इसको भी साफ नहीं होने देते। इसको भी कहते हैं कि नहीं, लेंगे जरूर, थोड़ा समय। इस तरह अपने को धोखा दे जाते हैं।

संन्यास एक निर्णय है, एक संकल्प है। परिणामकारी है। लोग मुझसे पूछते हैं, क्या होगा गेरुए वस्त्र पहन लेने से? मैं उनसे कहता हूं, कुछ भी न होगा! तो तीन महीने पहन डालो! वे कहते हैं, लोग हंसेंगे। तो इतना तो कम से कम होगा। और तुम लोगों के हंसने को तीन महीने तक शांति से झेलना, तो बहुत कुछ हो जाएगा। लोग हंसेंगे, इसकी फिक्र ही छोड़ना, बहुत कुछ हो जाने की शुरुआत हो जाती है। लोग मुझसे कहते हैं, बाहर की बदलाहट से क्या होगा? आप तो भीतर की बदलाहट बता दें।

मैं उनसे कहता हूं, बाहर तक की बदलाहट की हिम्मत तुम्हारी नहीं, तुम भीतर की बदलाहट की बातें कर रहे हो! कपड़े बदलने में प्राण छूटते हैं, चमड़ी अगर बदलने लगता तो मुश्किल पड़ेगी। और भीतर की तुम बातें कर रहे हो?

लेकिन हम धोखा देने में कुशल हैं। हम अपने को धोखा देने में कुशल हैं। और जो आदमी अपने को धोखा दे रहा है, वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता। खयाल रहे, दूसरों को धोखा देने वाला धार्मिक हो सकता है, खुद को धोखा देने वाला धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि फिर कोई रास्ता ही नहीं बचता है।

एक और मित्र ने पूछा है : अच्छे कर्म बुरे कर्मों को काटते नहीं हैं बल्कि उन पर आच्छादित हो जाते हैं, इसलिए बुरे तथा अच्छे सभी कर्मों का फल भोगना अनिवार्य है। क्या बुरे कर्म तथा अच्छे कर्म क्रम से फल देते हैं या बिना क्रम के फल देते हैं? यदि बुरे कर्मों का क्षय अच्छे कर्मों से नहीं किया जा सकता, तब अच्छे कर्म करने का कोई औचित्य नहीं हो सकता। क्या यह सिद्धात समाज के लिए उपयोगी है?

इसे थोड़ा सा खयाल में ले लें। बुरे कर्मों का क्षय अच्छे कर्मों से नहीं किया जा सकता, तो उन मित्र को ऐसी चिंता लगी होगी कि फिर कोई अच्छा कर्म करेगा ही क्यों! और तब तो समाज के लिए बड़ा खतरा हो जाएगा!

बात बिलकुल उलटी है। आपको अगर पता है कि बुरे कर्म अच्छे कर्म से काटे जा सकते हैं, तो आप बुरे कर्म मजे से किए जाते हैं, क्योंकि कभी भी अच्छा कर लेंगे और काट लेंगे। दवा हाथ में है, तो बीमारी से डर क्या है! गंगास्नान कर लेंगे, सब कर्म धुल जाएंगे! किसी साधु—संत का आशीर्वाद ले लेंगे, सब कर्म धुल जाएंगे! चोरी की है, दान कर देंगे—उसी पैसे से! और तो पैसा है भी कहा! बड़ा चोर बडा दानी हो जाएगा, लाख चुराका, दस हजार दान करेगा! चोरी में डर नहीं है फिर कोई, क्योंकि दान से हम चोरी को काट लेंगे। किसी की हत्या कर देना, फिर एक बच्चे को जन्म दे देना! एक जीवन लिया, एक दे दिया!

यह दुनिया इतनी बुरी सिर्फ इसलिए है कि आपको यह पक्का पता है कि बुरा भी कट जाता है। जब मैंने आपसे कहा कि बुरे को काटने का कोई भी उपाय नहीं, अच्छा कर्म भी बुरे कर्म को नहीं काटेगा, तो आपको बुरा कर्म करते वक्त पुन: सोचना होगा कि जो नहीं कट सकता है और जिसे भोगना ही पड़ेगा अनिवार्यतया, जिसमें कोई उपाय नहीं है, न कोई अच्छा कर्म साथ देगा, न दान—पुण्य साथ देगा, न गंगा, न तीर्थ, न गुरु, न भगवान, कोई आशीर्वाद साथ न देगा, जो किया है, वह मुझे भोगना ही पड़ेगा।

तो करते वक्त आपको ठीक से सोच लेना है, क्योंकि यह बात आखिरी हुई जा रही है, इसमें अब कोई उपाय नहीं है। इसमें ऐसा नहीं है कि रोके भगवान के सामने कि हम तो पतित हैं और तुम पतितपावन हो, तो कुछ करो। हमारा कुछ न बिगड़ेगा, तुम्हारा नाम बदनाम होगा कि तुम पतितपावन हो। और हम तो इसीलिए करते रहे पाप, कि न. करेंगे पाप तो तुम पतितपावन कैसे रहोगे! तो अब दिखाओ अपना पतितपावन रूप।

एक महिला परसों मेरे पास पहुंच गई। भीड़ थी बहुत, उस भीड़ में उसने एकदम से कहा कि आशीर्वाद दीजिए। तो मैंने कहा, अच्छी बात। दूसरे दिन वह वापस आ गई! उसने कहा, आशीर्वाद फलेगा तो न: क्योंकि अच्छे महात्मा जो होते हैं, उनका आशीर्वाद फलता है! आपने आशीर्वाद दिया था। मैंने कहा, यह तो मुश्किल मामला दिखता है। दिखता है, मुझे तू अदालत में ले जाएगी! मुझे पता भी तो चले कि मामला क्या है? किस मामले में तेरा आशीर्वाद फलवाना है?

तो उसने कहा, लेकिन आपको खयाल होना चाहिए कि अच्छा महात्मा तो जब भी आशीर्वाद देता है तो फलता ही है।

तो मैंने कहा, इसमें एक उपाय है मेरे लिए कम से कम, अदालत मुझे नहीं जाना पड़ेगा। न फले, तो समझना कि न मैं अच्छा था, न महात्मा था—बात खतम हो गई। इसमें एक सुविधा मेरे लिए तूने बना दी कि न फले—अब मुझे पूछना भी नहीं कि तुझे क्या चाहिए था—तों समझ लेना कि अच्छा भी नहीं था, महात्मा भी नहीं था, बात खतम हो गई।

इसे हम धार्मिक मन कहते हैं। उस महिला का खयाल है, वह धार्मिक है!

इस जगत में नियम हैं, इस जगत में एक आंतरिक अनुशासन है। जिसको हमने ऋत कहा है वेदों में, लाओत्से ने जिसे ताओ कहा है। उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता, उसमें कोई अपवाद नहीं होते। कर्म आप जो करेंगे, वह आपको भोगना ही पड़ेगा—यह विचार अगर गहन हो जाए, तो आपको कर्म की धारा बदलनी पड़ेगी। और यही सत्य है। यह सत्य स्पष्ट हो जाए, तो समाज के लिए उपयोगी होगा।

आप कितने दिन से समझा रहे हैं लोगों को, समाज बदलता तो दिखाई पड़ता नहीं, पाप बढ़ते जाते हैं उलटे। क्योंकि सुविधा का खयाल है हमें कि कोई उपाय बाहर निकलने का है। अगर मैं एक पाप करता हूं, तो उस पाप के भवन में प्रवेश का द्वार ही नहीं है, एग्जिट भी है, उससे निकला जा सकता है। तो घुसने में इतना कोई डर नहीं है।

मैंने जो आपसे कहा, उसका मतलब यह कि एग्जिट नहीं है, आपको भोगना ही पड़ेगा। भोग कर ही बाहर निकल सकते हैं। काटने का उपाय नहीं है, भोगना ही काटना है। एक ही निर्जरा है कि उसे भोग लेना पड़ेगा, तो वह कट जाएगा। और कोई निर्जरा नहीं है उसकी।

और दूसरी बात उन्होंने कही कि फिर अच्छे कर्म करने का औचित्य क्या रह जाता है g:

तो उनके प्रश्न से भी जाहिर है बात कि अच्छे कर्म का औचित्य उनकी नजर में भी बुरे को काटने के लिए ही है। वे पूछते हैं कि अगर आप ऐसा कहते हैं तो फिर अच्छे कर्म का औचित्य ही नहीं रह जाता।

मतलब एक ही औचित्य था अच्छे कर्म का कि बुरे कर्म को काटे। अगर बुरा कर्म नहीं कटता है तो औचित्य ही खतम हो गया। तो उनके प्रश्न से भी जाहिर है, जो मै कह रहा हू र कि उनका चित्त भी यही मानता है कि अच्छे कर्म का एक ही औचित्य है, दान का एक ही औचित्य है कि चोरी को काटो। तब तो चोरी महत्वपूर्ण हो गई और दान गौण हो गया। और अगर दुनिया में चोरी न हो तो दान असंभव हो जाएगा। इसलिए एक तथाकथित विचारशील व्यक्ति, करपात्री ने, अपनी एक किताब में कहा है कि अगर समाजवाद आ जाएगा तो धर्म का बड़ा हास होगा क्योंकि न होगा कोई गरीब, तो दान किसको देंगे? इसलिए गरीब रहना चाहिए, ताकि दान दिया जा सके। और दान के बिना तो मोक्ष है नहीं! समझे मतलब आप इसका? इसका मतलब हुआ कि नर्क रहना चाहिए, भूखा आदमी सड़क पर होना चाहिए। न होगा भूखा, रोटी किसको दीजिएगा न: और किसी ने रोटी आपकी दान की न ली, तो फंसे आप, मोक्ष कहां से मिलेगा?

तो आपके अच्छे कर्म का औचित्य बुरे कर्म पर निर्भर है? उसके कटने पर? तब तो इसका मतलब हुआ कि अच्छा आदमी बुरे आदमी का शोषण कर रहा है, और अच्छा कर्म बुरे कर्म की छाती से फायदा ले रहा है, खून पी रहा है।

अच्छे कर्म का औचित्य बुरे कर्म को काटना नहीं है। बुरे कर्म का औचित्य है उसके दुख में, अच्छे कर्म का औचित्य है उसके सुख में। अच्छे कर्म से सुख मिलता है, वह उसका औचित्य है। जो सुख चाहता है, वह अच्छा कर्म करता है। और जो सोचता है कि बुरा कर्म करके सुख पा लूंगा, वह नासमझी करता है। वह नियम के प्रतिकूल जा रहा है, वह दुख पाएगा।

अच्छे कर्म का औचित्य है उसके फल में, बुरे कर्म का औचित्य है उसके फल में—या अनौचित्य, जो भी कहें। बुरे कर्म में अच्छे कर्म का औचित्य कैसे हो सकता है, उनका कोई संबंध नहीं है। अच्छा कर्म फल लाता है, वह है सुख, बुरा कर्म फल लाता है, वह है दुख। और अगर हम यह ठीक से समझा सकें, और यह बात गहरी बैठ जाए चित्त में, कि जिसे भी सुख चाहिए उसे अच्छे कर्म की यात्रा करनी चाहिए, तो समाज का फायदा होगा। और जिसे दुख चाहिए, वह बुरे कर्म की यात्रा करे। और बुरे कर्म की यात्रा जो कर रहा है, उसे दुख का फल भोगना ही पड़ेगा। फिर वह पीछे यह कहने लगे कि मैं थोड़ा अच्छा कर लेता हूं? इससे मैं लीप—पोत दूंगा बुरे को, यह नहीं हो सकता।

यानी इसे ऐसा समझिए कि मैंने आपको गाली दी, तो मैंने आपको चोट पहुंचाई, दुख पहुंचाया। वह दुख तो घटित हो गया। फिर मैंने माफी मांगी और आपको सुख पहुंचाया। क्या आप सोचते हैं कि मैंने माफी मांग कर जो सुख पहुंचाया, उससे वह जो दुख हुआ था, वह नहीं हुआ? वह हो चुका। वह दुख तो हो चुका, आपको मैंने जो चोट पहुंचाई, वह दुख तो हो चुका। अब चोट पहुंचा कर जो मैंने मलहम—पट्टी की, यह दुख को नहीं मिटाती, सिर्फ उस चोट के ऊपर मलहम—पट्टी करती है।

मैंने गाली दी, मैंने एक बुरा कर्म कर लिया, गाली देकर मैंने भी दुख पा लिया। मैंने माफी मांगी, मैंने अच्छा कर्म किया, अच्छा कर्म करके मैंने भी सुख पा लिया। बुरा दुख में ले जाता है, अच्छा सुख में ले जाता है। अच्छा जितना ज्यादा होता है, उतना सुख बढ़ जाता है, बुरा जितना ज्यादा होता है, उतना दुख बढ़ जाता है। जिस आदमी को सुख में रहना है, उसे धीरे—धीरे बुरे को नहीं करना है और अच्छे को करते जाना है।

लेकिन धर्म का संबंध सुख से भी नहीं है। क्योंकि दुख से बचना तो हम सबके मन की आकांक्षा है, सामान्य। जब तक आप दुख से बचने की आकांक्षा से भरे हैं, तब तक आप साधारण आदमी हैं, धार्मिक नहीं। अभी तो आपकी चाह सुख की है। यही औचित्य है अच्छे कर्म का कि आपसे कहा जाए, अच्छा कर्म करिए; सुख चाहते हैं, सुख मिलेगा। और दुख चाहते नहीं हैं, बुरा कर्म मत करिए, इससे दुख मिलेगा। अगर बुरे और दुख की अनिवार्यता ऐसे ही दिखाई पड़ जाए, जैसे आग में हाथ डालने से जलता है, तो लोगों के हाथ आग में जाने से रुक जाएंगे। अगर अच्छे कर्म के और सुख का संबंध ऐसे ही जोड़ दिया जाए कि हाथ में फूल आने से जैसे सुगंध आती है, अगर यह इतना साफ हो जाए, तो लोग अच्छे कर्म में उतर जाएंगे।

लेकिन धर्म का इससे कोई अभी संबंध नहीं है। अभी यह नीति है, अभी यह तल समाज की नैतिकता का है। लेकिन जो आदमी सुख का अनुभव करता है, धीरे— धीरे उसे पता चलता है एक नई बात का, कि दुख तो व्यर्थ है ही, सुख भी व्यर्थ है। दुख तो दुख देता ही है, जब सुख पूरी तरह मिलता है, तो वह भी दुख देने लगता है, सुख नहीं देता। उससे भी ऊब पैदा हो जाती है। सुख का जो दुख है, वह है ऊब, बोर्डम।

आपने कभी किसी जानवर को ऊबा हुआ देखा है, बोर्ड? कि कोई गधा खड़ा हो और दिखाई पड़ जाए कि ऊबे हुए खड़े हैं? कि कोई भैंस खड़ी हो और ऊबी हुई खड़ी है?

न, आदमी को छोड़ कर जमीन पर कोई जानवर ऊबता ही नहीं, सिर्फ आदमी ऊबता है। क्यों? क्योंकि जानवर निरंतर अपनी सामान्य जीवन की सुविधा जुटाने में ही व्यतीत हो जाता है, उसे कभी इतना सुख अर्जित नहीं हो पाता कि ऊब जाए। ऊब का संबंध सुख, बहुत सुख हो, तो ही ऊब आती है।

इसलिए गरीब आदमी भी ऊबा हुआ नहीं दिखाई पड़ता, अमीर आदमी ऊबा हुआ दिखाई पड़ता है। अमीर आदमी का चेहरा देखो तो ऊबा हुआ रहता है; कुछ सार नहीं, ऐसा मालूम पड़ता है; खींचे जा रहे हैं, कुछ मतलब नहीं लेकिन। गरीब आदमी के पैर में गति होती है, चाहे पैर में ताकत न हो; खून भला कम हो, ताकत भला कम हो, लेकिन गति होती है। कहीं पहुंचने का लक्ष्य होता है और आशा होती है। और आंखों में आशा की झलक होती है. कल एक मकान बन जाएगा, परसों एक दुकान खुल जाएगी, बेटा पढ़ लेगा, बड़ा स्वर्ग मालूम होता है भविष्य में। जिनका बेटा पढ कर घर आ गया है, वे जानते हैं कि बेटा घर जब पढ़ कर आता है तो क्या मतलब होता है, कैसा दुख लाता है! जिनके महल बन गए हैं, अब उनको पता चलता है कि यह महल तो कारागार हो गए। जब सुख पूरा मिल जाता है, तब पहली दफा पता चलता है कि इससे भी ऊब रहे हैं हम। मन सुख से भी ऊबता है।

इसीलिए बुद्ध और महावीर और कृष्ण और राम राजाओं के घरों में पैदा हुए। गरीब के घर में पैदा होकर कोई तीर्थंकर और अवतार नहीं हो पाता है। उसका कारण है, क्योंकि ऊब ही नहीं पाता सुख से। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं, बुद्ध, राम, कृष्ण, सब राजाओं के बेटे हैं। कारण है। राजा के घर में ही पता चलता है कि चीजें सब व्यर्थ हैं। हों तभी तो पता चलेगा, हों ही न तो पता कैसे चलेगा?

बुद्ध को अगर पता चला कि स्त्री देह में कुछ भी नहीं है, तो उसका कारण यह था कि बुद्ध के पिता ने, उनके राज्य में जितनी सुंदर लड़कियां थीं, सब बुद्ध के हरम में इकट्ठी कर दी थीं। तो पता चला कि कुछ सार नहीं है। असार तो तभी पता चलेगा जब आपके पास मौजूद हो कोई चीज।

इसलिए. आज अमरीका सबसे ज्यादा ऊबा हुआ है। और भाग रहा है सारी दुनिया में अमरीका का जवान लड़का और जवान लड़की, कि कहीं ऊब से छुटकारा हो जाए; कहीं भी—चाहे गांजा हो, अफीम हो, मारिजुआना हो—कुछ भी हो। कोई तरकीब मिले कि यह जो ऊब है, यह मिट जाए।

सुख से जब ऊब पैदा होती है और प्राण जब इस आकांक्षा से भर जाते हैं कि अब हम सुख के ऊपर कैसे जाएं, तब धर्म का जन्म होता है। तो अच्छे कर्म के औचित्य दो हुए : एक, अच्छे कर्म का फल सुख है। इसलिए जो लोग बिना धार्मिक हुए भी सुख की आकांक्षा करते हैं—सभी करते हैं; नास्तिक हों, अधार्मिक हों, हिंदू हों, मुसलमान हों, कोई भी हों—जो लोग सुख की आकांक्षा करते हैं, अच्छे कर्म का औचित्य यह है कि अच्छे कर्म से सुख मिलता है, वह उसका परिणाम है। और अच्छे कर्म का दूसरा औचित्य यह है कि जब सुख मिल जाता है, तब सुख की व्यर्थता दिखाई पड़ती है। और जब सुख व्यर्थ होता है तो आदमी धर्म की यात्रा पर निकलता है।

धर्म की यात्रा का अर्थ है, सुख से भी कैसे छुटकारा हो? दुख से कैसे छुटकारा हो, यह संसार की यात्रा, और सुख से भी कैसे छुटकारा हो, यह मोक्ष की यात्रा। अब हम सूत्र को लें

‘प्रारब्ध कर्म तो उसी समय सिद्ध होता है, जब देह के ऊपर आत्म—बुद्धि होती है। पर देह के ऊपर आत्म— भाव रखना तो कभी इष्ट नहीं, इसलिए देह के ऊपर की आत्म—बुद्धि को तज कर प्रारब्ध कर्म का त्याग करना।’

कर्म तो पकड़ता ही हमें तब है, जब हम मानते हैं कि यह शरीर मेरा है। इसका अर्थ हुआ कि कर्म शरीर को पकड़ता है, हमें कभी नहीं पकड़ता। लेकिन जब हम शरीर को पकड़ लेते हैं, तो स्वभावत:, कर्म की गिरफ्त में हो जाते हैं। कर्म पकड़ता है शरीर को और हम भीतर से पकड़ लेते हैं शरीर को। कर्म पकड़ता है बाहर से शरीर को, हम भीतर से पकड़ लेते हैं शरीर को। तो कर्म से हमारा संबंध जुड़ जाता है, शरीर के माध्यम से।

कर्म आत्मा को कभी नहीं पकड़ता, सदा ही शरीर को पकड़ता है। जैसे कि अगर कोई छुरी से किसी चीज को काटे, तो जहा भी पदार्थ है, वहा छुरी से काटा जा सकता है। लेकिन आप आकाश को छुरी से काटें, तो नहीं काटा जा सकता। छुरी घूम जाएगी और आकाश अनकटा रह जाएगा।

कर्म का जो प्रभाव है, जो परिणाम है, वह जो छुरी है कर्म की, वह पदार्थ को काट सकती है। शरीर पदार्थ है, मन भी पदार्थ है। पदार्थ से पदार्थ की टक्कर हो सकती है। लेकिन भीतर जो चैतन्य है, वह शून्य आकाश है, कोई कर्म उसे काटता नहीं, छूता नहीं। लेकिन एक बात हो सकती है कि वह जो भीतर चैतन्य है, वह अगर शरीर को मान ले मेरा—इसकी उसे स्वतंत्रता है मानने की, चेतना को स्वतंत्रता है यह मानने की कि वह मान ले कि मेरा—तो शरीर मेरा है, यह मानते ही, शरीर की जो—जो पीड़ाएं हैं, वे मुझमें फलित होने लगेंगी।

इसे हम ऐसे समझें। एक घर में, मैंने सुना, आग लग गई। तो जो मकान मालिक है, वह छाती पीट कर रो रहा है। लेकिन तभी एक पड़ोसी ने आकर कहा कि क्या कर रहे हो! तुम नाहक रो रहे हो, मकान का तो इंश्योरेंस हो चुका है। कल ही तो तुम्हारा लड़का इंश्योरेंस दफ्तर में सब करवा रहा था! लड़का कहां है तुम्हारा?

लड़का कहीं बाहर गया था। बाप ने कहा, क्या ठीक, इंश्योरेंस हो चुका? अरे, तब तो रोने की कोई बात ही नहीं। आंसू विदा हो गए! मकान अब भी जल रहा है, वही मकान। लेकिन अब इंश्योरेंस हो गया। तो मकान मेरा है, इससे संबंध तत्काल हट कर वह जो इंश्योरेंस से पैसा मिलेगा, वह मेरा है। अब मकान से मेरा हट गया। लेकिन तभी लड़का भागा हुआ आया और उसने कहा कि क्या कर रहे हैं, हंस रहे हैं खड़े होकर! मैं गया जरूर था, लेकिन हो नहीं पाया।

फिर आंसू बहने लगे! फिर आदमी छाती पीट कर रोने लगा कि मर गए, लुट गए! मकान वही का वही है, मगर बीच में क्या हुआ? मेरा मकान से अलग हो गया। फिर मकान से मेरा जुड़ गया। शरीर के साथ हमारा मेरा भाव ही हमारे दुख का कारण है—या सुख का, हमारे सब कर्मों का। मेरा भाव हट जाए, फिर शरीर पर होते कर्मों की प्रक्रिया का स्वयं से कोई संबंध नहीं रह जाता।

तो यह सूत्र कहता है, मेरा भाव, आत्म— भाव रखना ही समस्त कर्मों की प्रक्रिया को साथ देना है, कोआपरेट करना है, सहयोग देना है। हट जाए मेरा भाव, पता चल जाए कि मैं कौन हूं—शरीर नहीं हूं—तो जैसे इस आदमी को पता चला कि यह मकान मेरा नहीं है, अब जलता रहे, ऐसा ही बुद्ध और महावीर को पता चल गया है कि यह मकान मेरा नहीं है, जलता रहे। हट गए पीछे। उसका पता चल गया जो इस मकान में रहने वाला है। उसका पता चल गया जो मकान में जरूर है, लेकिन मकान ही नहीं है। आत्म—भाव का हटना ही समस्त प्रारब्ध कर्म का त्याग है। फिर कर्म का कोई अर्थ नहीं है। त्याग हो गया।

‘देह की भ्रांति यही प्राणी के प्रारब्ध कर्म की कल्पना है। पर आरोपित अथवा भ्रांति से जो कल्पित हो, वह सच्चा कहा से होगा?’

आरोपित है, कल्पित है, लगता है मेरा है।

आपका बेटा है। जी—जान दिए दे रहे हैं उसके लिए। कुर्बान हो सकते हैं खुद। और फिर एक दिन एक पत्र मिल जाए घर में, किसी पुरानी किताब में दबा, और पता चले कि पत्नी का किसी से प्रेम रहा—संदिग्ध हो जाए कि बेटा मेरा है कि नहीं है। सब डावाडोल हो गया।

बाप को संदेह सदा थोड़ा बना भी रहता है, क्योंकि बाप बहुत प्रासंगिक घटना है, कोई बहुत महत्वपूर्ण घटना नहीं है बेटे के जन्म में। उतना ही मूल्य है बाप का, जैसे कि एक इंजेक्यान का, इससे ज्यादा मूल्य नहीं है। मां भर असंदिग्ध रूप से जानती है कि बेटा उसका है। बाप को तो थोड़ा संदेह बना ही रहता है। उसी संदेह को मिटाने के लिए हमने इतने सख्त विवाह की व्यवस्था बनाई है, कि वह संदेह बाप को सताए नहीं, नहीं तो जिंदगी भर मुश्किल हो जाएगी। जिन बेटों के लिए मेहनत करनी, उन पर संदेह बना रहे कि पता नहीं अपने हैं भी कि नहीं, तो बड़ी अस्तव्यस्तता न हो जाए, इसलिए विवाह की बड़ी सख्त व्यवस्था की है। और स्त्रियों की सारी गति पर रुकावट डाल दी है कि कहीं उनका दूसरे पुरुषों से कोई संबंध न आए। संबंध ही न आए, तो डर न रहे। और इसलिए कुंवारी लड़की पर बड़ी फिकर होती है कि शादी कुंवारी लड़की से हो। इसलिए जो और भी ज्यादा इसमें बहुत ज्यादा चिंता में रत थे, वे बाल—विवाह कर देते थे, ताकि डर का कोई उपाय ही न रह जाए। तो निश्चित रहे कि पुत्र मेरा है। मेरा हो, तो आरोपित हो जाता हूं मैं। संदिग्ध हो, तो मुश्किल हो जाता है। जहां मेरे का आरोपण है, वहां लगता है कि बस मैं जुड़ गया। और अब मैं सब कुछ कर सकता हूं। फिर सब दुख भी झेलूंगा। जहां मेरा हटता है, वहा लगता है मैं टूट गया, अलग हो गया।

यह सब आरोपित है। मेरे का सारा भाव आरोपित है। मेरा इस जगत में कुछ भी नहीं है। मेरा शरीर भी मेरा नहीं है। वह भी मेरे मां—बाप से मिलता है। उनका भी नहीं है, उनके मां—बाप से मिलता है। खोजने अगर हम जाएं तो अरबों—खरबों वर्षों की यात्रा है छोटे से अणु की, जिससे आपका शरीर बना हुआ है। न हड्डी आपकी है, न मांस आपका, न मज्जा आपकी—कुछ भी आपका नहीं है, न मन आपका। सिर्फ आप ही आपके हैं। लेकिन उस आप का कोई पता नहीं है आपको।

वह कौन है भीतर, जो सिर्फ जिसे मैं कह सकूं मेरा? जिसे मैं कह सकूं मैं g:

मेरे को हटाते जाएं, छोड़ते जाएं, इलिमिनेट करते जाएं। उपनिषद कहते हैं, कहते जाए नेति—नेति, यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं, हटाते जाएं, सब मेरे से संबंध तोड़ लें। तब अचानक, जैसे अंधेरे में ज्योति जल जाए, उसका अनुभव होगा जो मैं हूं। मेरे से छुटकारा होने पर मैं का अनुभव होता है। और मेरे के फैलाव को बढ़ाते जाने से मैं का अनुभव क्षीण होता चला जाता है। तो जितना बड़ा मेरे का विस्तार, उतने कम मैं का अनुभव।

इसीलिए बुद्ध और महावीर घर छोड़ कर भागे। घर की वजह से तकलीफ न थी, बड़ा विस्तार था साम्राज्य का, बहुत कुछ था जो मेरा था, उस मेरे की मात्रा इतनी ज्यादा थी कि उसमें मैं का कहीं पता नहीं चलता था कि मैं कौन हूं? सारा मेरे का साम्राज्य छोड़ कर भाग गए।

महावीर ने आत्यंतिक कोशिश की है भागने की। वस्त्र तक छोड़ दिए, नग्न हो गए, ताकि कुछ भी कहने को न बचे कि मेरा, यह मेरा है, यह कपड़ा मेरा है, यह भी कहने को न बचे। क्यों? सिर्फ एक कारण से। ताकि यह जो मेरे के बड़े विस्तार में मैं की कोई अनुभूति नहीं होती, पता नहीं चलता, सब को छोड़ कर भाग जाऊं, खालिस अकेला रह जाऊं, तो शायद पता चले कि मैं कौन हूं।

मेरे से तोड़ कर मैं का पता आसान है। मेरे से जोड़ कर मैं का पता मुश्किल होता जाता है। इसलिए जितनी चीजें जुड़ती जाती हैं, जितना परिग्रह होता जाता है, जितना विस्तार होता चला जाता है, उतना ही मैं का केंद्र लुप्त होता चला जाता है, दबता चला जाता है।

मेरे का सारा का सारा जाल कल्पित है। सत्य तो हूं मैं, मेरा है असत्य।

‘जो सच्चा नहीं है, उसका जन्म कहां से होता g: जिसका जन्म नहीं हुआ, उसका नाश कहा होता? इस प्रकार जो असत् है, वस्तु रूप है ही नहीं, उसको प्रारब्ध कर्म कहां से हो!’ बड़ी विचारपूर्ण बातें कही हैं।

जो असत् है, जो है ही नहीं, मेरा, इसका जन्म कहां से होता है? कब होता है? इसका अंत कैसे होगा? कठिन है, क्योंकि हमें लगेगा कि जब मेरा है, तो उसका कहीं से जन्म तो होता ही होगा, नहीं तो होगा कैसे? और अगर मेरा कुछ है, तो कहीं उसकी मृत्यु तो होती होगी, नहीं तो फिर छुटकारा कैसे होगा?

इस बात को समझने के लिए, मैंने पीछे जो आपसे मिथ्या की कोटि कही थी, उसे खयाल में ले लें। रस्सी पड़ी है, सांप दिखाई पड गया। पास जाकर देखा, सांप नहीं है, रस्सी है। अब सवाल यह है कि इस रस्सी में सांप दिखाई पड़ा, तो सांप का रस्सी में जन्म तो हुआ। दिखाई पड़ा था। मगर जन्म कहां हुआ? झूठ का जन्म कैसे होगा? और फिर अब लालटेन लेकर आए तो दिखाई पड़ा कि सांप नहीं है, तो मृत्यु भी हो गई। लेकिन मरी हुई लाश कहां है उस सांप की?

जो दिखाई पड़ता है, और था नहीं, उसका जन्म भी नहीं होता, उसकी मृत्यु भी नहीं होती; वह सिर्फ भ्रांति है। पर भ्रांति होती है, भ्रांति हो सकती है। भ्रांति आरोपित है। रस्सी में किसी सांप का कोई जन्म हुआ ही नहीं था, आपके ही मन ने प्रक्षेपण किया था और रस्सी पर सांप दिखाई दिया था।

आप सिनेमागृह में बैठते हैं, आपकी पीठ की तरफ आप लौट कर नहीं देखते। देखेंगे भी क्या, वहां कुछ होता भी नहीं देखने को! सामने पर्दे पर सब होता है, रंग का, रूप का, गीत का, संगीत का प्रवाह होता है पर्दे पर सामने। लेकिन मजे की बात यह है कि पर्दे पर कुछ भी नहीं होता, पर्दा होता है खाली; केवल छाया और धूप फेंकती हुई किरणों का जाल होता है। वैसे पर्दा खाली होता है; सब कुछ होता है भीतर, पीछे, पीठ के पीछे—जहा प्रोजेक्टर लगा होता है।

वह प्रोजेक्टर शब्द बड़ा अच्छा है। जिसे कल्पित कहा है, जिसे प्रक्षेपित कहा है, अंग्रेजी का शब्द प्रोजेक्यान उसका अनुवाद है। प्रोजेक्टर पीछे लगा है। वहां से चीजें फेंकी जा रही हैं पर्दे पर। और पर्दे पर, जहां हैं नहीं, वहां दिखाईं पड़ रही हैं। जहा दिखाई पड़ रही हैं, वहां हैं नहीं, और जहा हैं, वहा आप पीठ किए हैं, वहां आप देखते नहीं। रस्सी में सांप दिखाई पड़ा; रस्सी केवल पर्दे का काम कर रही है और मेरा मन प्रोजेक्ट कर रहा है, मेरा मन सांप की छाया भेज रहा है रस्सी पर। रस्सी पर सांप की छाया मेरा मन डाल रहा है और रस्सी सांप मालूम पड़ रही है। फिर मैं भाग रहा हूं।

जब पहली दफा थी डायमेंशनल पिक्चर आए, चित्र बने, तो पहली दफा बडी मजेदार घटनाएं सारी दुनिया में घटीं। जब लंदन में पहली दफा थी डायमेंशनल चित्र दिखाया गया, तो उसमें एक घुड़सवार एक भाले को फेंकता है। वह घुड़सवार भागता हुआ आता है।

तो थी डायमेंशनल पिक्चर का मतलब है कि बिलकुल ऐसा दिखाई पड़ता है कि असली घोड़ा आ रहा है, चित्र नहीं दिखाई पड़ता— असली घोड़ा! तीनों आयाम हैं उसके। घोड़ा भागता हुआ आता है, टापें बढ़ती जाती हैं, घोड़ा पास आता है, फिर घुड़सवार एक भाला फेंकता है। पूरा हाल, पूरा हाल अपनी— अपनी गर्दन झुका लेता है! पूरे हाल में बीच में जगह बन जाती है भाले के निकलने के लिए। चीख मच जाती है, महिलाएं बेहोश हो जाती हैं।

क्या हुआ? कहीं कोई भाला—वाला था नहीं। मगर भाला बिलकुल वास्तविक मालूम हो रहा था। और थी डायमेंशनल था, तो बिलकुल लगा कि निकल जाएगा। तो उस क्षण में झुक जाना, क्योंकि मन को भीतर क्या पता कि भाला असली है कि नकली! कि दिखाई पड़ रहा है, है नहीं। मन तो आदतवश झुक गया कि कहीं भाला लग न जाए! यह तो क्षण में हो गया, इसके लिए सोचना थोड़े ही पड़ता है। फिर पीछे खुद ही हंसी आई होगी कि क्या पागलपन किया! लेकिन हो गया।

जब बुद्ध जगते हैं तो हंसी आती है कि क्या पागलपन किया! रिंझाई के संबंध में कहानी है कि रिंझाई को जब ज्ञान हुआ, तो वह हंसने लगा, वह खिलखिलाने लगा। और जब उसके शिष्यों ने पूछा कि आप क्यों हंस रहे हैं? क्या हो गया? तो रिंझाई ने कहा कि मुझे परम ज्ञान हो गया। तो उन्होंने कहा, परम ज्ञान! पर हमने कभी ऐसा सुना नहीं कि परम ज्ञान होने के बाद कोई इस तरह हंसता है! आप हंस क्यों रहे हैं?

तो रिंझाई लोट—पोट हुआ जाता है। उसके पेट में बल पड़ रहे हैं। और वह कह रहा है, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि खूब बुद्ध बने, और व्यर्थ बने। कुछ भी न था, जिसे पकड़े थे वह था नहीं और जिसे छोड़ने की कोशिश कर रहे थे वह भी नहीं था, खुद हम ही थे अकेले, हम ही अपने हाथ को पकड़े हुए थे।

जैसा कभी—कभी रात में होता है न कि अपने ही हाथ से अपनी छाती दबाए हुए हैं और अंदर सपना चल रहा है कि कोई छाती पर चढ़ा बैठा है। और जब आंख खुलती है तो कंप रहे हैं और पसीना छूट रहा है! अपने ही हाथ छाती पर पड़ गए थे। उनके वजन की वजह से लग रहा था। नींद में सभी इंद्रियां बहुत सतेज हो जाती हैं। इसलिए जरा सा वजन बहुत वजन मालूम पड़ता है। जरा सा वजन बहुत वजन मालूम पड़ता है! खुद का ही हाथ, लगता है कोई छाती पर चढ़ा बैठा है!

कभी कोशिश करें घर में कोई सोया हो, जरा पैर के पास बर्फ का एक टुकड़ा धीरे— धीरे घिस दें—उसके पैर में। बस सपना शुरू हो जाएगा भीतर। सपना होगा कुछ ऐसा कि पहाड़ पर चढ़ रहे हैं, बर्फ ही बर्फ है, मरे जा रहे हैं, गले जा रहे हैं। चीख—पुकार मच जाएगी भीतर।

जरा थोड़ा सा दीया पास ले जाकर जरा आंच दे दें पैर में किसी सोए आदमी के। वह समझेगा कि नर्क में पहुंच गए, लपटें जल रही हैं, कढाए हैं, और डाले जा रहे हैं, निकाले जा रहे हैं।

क्या, भीतर क्या हो रहा है? वह मन अपनी धारणाएं रखे बैठा है। जरा सा इशारा, और मन अपनी धारणाओं का फैलाव शुरू कर देता है, पर्दा मिले कि प्रोजेक्टर काम शुरू कर देता है।

जागते में भी हम जो कर रहे हैं, वह यही है। होश से जब कोई जागता है वस्तुत:—हमारा जागरण नहीं, बुद्ध का जागरण, उपनिषद के ऋषियों का जागरण—जब कोई उस जागरण को उपलब्ध होता है, तब उसे हंसी आती है कैसी नासमझी की! जो था नहीं, उसे देखा! जो था नहीं, उसे पकड़ा! जो था नहीं, उसे छोड़ने की कोशिश भी की! और सारा खेल अपना था। हम ही सब तरफ से थे। हमारा मन ही सब तरफ से था।

अगर जीवन की किसी भी घटना का ठीक—ठीक विश्लेषण करेंगे तो इस सचाई का अनुभव हो जाएगा। किसी भी घटना का ठीक—ठीक विश्लेषण करेंगे, इस सचाई का अनुभव हो जाएगा। नहीं करेंगे विश्लेषण, तो पीठ की तरफ मन का कारोबार जारी है, और जगत पर्दा बना हुआ है, उस पर सब खेल चल रहा है, सब चीजें दिखाई पड़ रही हैं।

नहीं, इस माया का न कोई जन्म है और न कोई मृत्यु। मिथ्या का न कोई जन्म होता है, न कोई मृत्यु। ‘देह यह अज्ञान का कार्य है, उसका ज्ञान द्वारा जो समूल नाश हो जाता है तो यह देह रहती कैसे है? ऐसी शंका करने वाले अज्ञानियों का समाधान करने के लिए ही श्रुति ने बाह्य दृष्टि से प्रारब्ध कहा है। (वास्तव में न तो देह है और न प्रारब्ध है।)’

यह बड़ी कठिन बात है। और जो मैं परसों आपसे, एक—दो दिन पहले कह रहा था, और अड़चन मालूम पड़ी होगी। मैंने आपसे कहा था कि बुद्ध को झूठ बोलना पड़ता है, महावीर को झूठ बोलना पड़ता है—आपकी वजह से। क्योंकि आप झूठ की ही भाषा समझते हैं, और कोई भाषा नहीं समझते।

यह इस सूत्र में है। यह सूत्र कह रहा है कि वास्तव में न तो देह है और न प्रारब्ध है। वस्तुत:, सत्य में, न तो देह है और न प्रारब्ध है, न कोई बुरा कर्म है और न कोई भला कर्म है, न कोई सुख है और न कोई दुख है। वास्तव में संसार नहीं है। यह तो वास्तविकता है, लेकिन यह कही नहीं जा सकती।

सूत्र कहता है,

अज्ञानियों से यह कहा नहीं जा सकता। क्योंकि अगर अज्ञानियों से कहो कि देह नहीं है, तो वे कहेंगे, हटो भी, आपका दिमाग ठीक है? आप अपने दिमाग का इलाज करवा लो! अज्ञानियों से कहो कि यह संसार नहीं है, तो वे आपको पागलखाने में भेज देंगे।

ज्ञानी अज्ञानियों के बीच वैसी हालत में है, जैसा अंधों के बीच में कोई आंख वाला हो। वह कहे बडा प्रकाश है। और सब अंधे हंसें। वे कहें, क्या बातें कर रहे हो! मस्तिष्क तो रास्ते पर है, ठिकाने पर? कैसा प्रकाश? वह कहे, मुझे दिखाई पड़ता है। तो अंधे सब हंसें कि दिखाई पड़ने का मतलब? दिखाई पड़ने जैसी कोई चीज सुनी—है कभी? होती है कभी? न हमारे बाप—दादों को हुई, न उनके बाप—दादों को हुई, जरूर तुम्हारा सिर फिर गया है!

अंधों के बीच में आंख वाले की क्या गति होगी, आप समझते हैं? अगर समझदार होगा, तो भूल कर भी वे बातें नहीं करेगा जो अंधों को दिखाई नहीं पड़ रही हैं। और अगर अंधों को भी वह आंख के रास्ते पर लाना चाहता है, तो उसे बहुत सी डिवाइसेस, उपाय करने पड़ेंगे। उसे सीधा यह कहना ठीक नहीं होगा कि मैं आंख वाला हूं और तुम सब अंधे हो, और मैं तुम्हारी आंख का इलाज करता हूं; और तुम जो हो, वह नहीं है, कुछ और है—जो आंख के खुलने पर दिखता है, तुम बिलकुल झूठ में जी रहे हो।

तो अंधों की आंख का इलाज करने की बजाए, अंधे मिल कर उसकी आंख का इलाज कर देंगे! कई दफे हो गया है जीसस को हमने सूली पर लटकाया, मैसूर को हमने काट डाला, सुकरात को जहर पिला दिया। उसका कारण कुछ और नहीं है, उसका कारण सिर्फ इतना ही है कि ये लोग सीधी—सीधी बातें कहने लगे जो हमारी पकड के बाहर हैं। और इनकी बातें अगर हम मान कर चलें तो हम चल ही नहीं सकते। हमारा भी कसूर नहीं है।

लेकिन आप जान कर हैरान होंगे कि भारत में हमने किसी बुद्ध, किसी महावीर, किसी रामकृष्ण को फांसी नहीं दी। जीसस को सूली लग गई जेरुसलम में। मंसूर को मुसलमानों ने मार डाला। सुकरात को यूनानियों ने काट डाला। इस मुल्क में हमने किसी बुद्ध, किसी महावीर, किसी कृष्ण को कभी नहीं काटा मारा, सूली नहीं दी। आप जानते हैं, कारण क्या है?

कारण बड़ा अदभुत है। और वह कारण यह है कि कृष्ण और बुद्ध और महावीर, जीसस और सुकरात से, अंधों के साथ बातचीत करने में ज्यादा कुशल हैं, और कोई कारण नहीं है। कुल कारण इतना है; ज्यादा कुशल हैं। और कुशलता की वजह है, क्योंकि इस मुल्क में हजारों साल से, हजारों साल से बुद्धों, महावीरों ने अंधों से बातें की हैं। तो उन्होंने तरकीबें ईजाद कर ली हैं।

जीसस गड़बड़ हालत में पड़ गए। जीसस की सारी शिक्षा तो हुई भारत में, तो उन्हें अंदाज नहीं था। भारत से वह सब सीख कर लौटे। और जेरुसलम में जाकर उन्होंने जब बोलना शुरू किया, तो जेरुसलम की परंपरा में उसकी कोई भी जगह न थी। जीसस बिलकुल ही विजातीय मालूम पड़े। और जीसस की बातें पागलपन की मालूम पड़ी।

पुरानी बाइबिल में कहा है कि जो एक आंख फोड़े तुम्हारी, उसकी दोनों फोड़ देना। अंधों की भाषा! और जीसस ने जाकर वहां आंख वालों की भाषा बोलनी शुरू कर दी—एकदम, अचानक, कोई बीच में सेतु नहीं था। कहा कि जो तुम्हारे बाएं गाल पर चांटा मारे, दायां भी उसके सामने कर देना; कि जो तुम्हारा कोट छीने, कमीज भी उसको दे देना; कि जो तुमसे कहे एक मील बोझ को ढो चलो, तुम दो मील तक साथ चले जाना, हो सकता है, संकोचवश उसने एक ही मील कहा हो। यह आंख वालों की भाषा—जहा नियम था कि जो ईंट मारे, पत्थर से जवाब देना—बिलकुल समझ के बाहर पड़ गई। असल में जीसस आंख वाले की बात सीधी—सीधी कह दिए अंधों से।

बुद्ध, महावीर ज्यादा कुशल हैं। और लगभग सत्य ईजाद करने में उनका कोई मुकाबला नहीं है। यही यह उपनिषद का सूत्र कह रहा है। यह साफ ही कह रहा है। यह-यह कह रहा है कि न तो यह देह है, न ये कर्म हैं, लेकिन अज्ञानियों को उनकी शंका समाधान करने के लिए बाह्य दृष्टि से, ऊपर—ऊपर की दृष्टि से, देह और कर्म और प्रारब्ध की बात कही है। वास्तव में न देह है और न प्रारब्ध है।

बड़ी मुश्किल बात है। सच है यह कि सभी शास्त्र निन्यानबे प्रतिशत झूठ हैं। झूठ इसलिए कि वे अंधों को समझाने के लिए कहे गए हैं, बाह्य दृष्टि से, नहीं तो उनकी समझ में कुछ भी नहीं पड़ता है। वे उलझन में पड़ जाएंगे उनको सीधा—सीधा समझाने से।

जैसे बच्चों को हम समझाते हैं, कहते हैं ग गणेश का। गणेश की कोई बपौती नहीं है, गधे का भी ग है। और जब से भारत धर्म—निरपेक्ष हो गया है, तो पहले स्कूल की किताबों में—जब मैं पढ़ता था—तब तो ग गणेश का होता था, अभी मैं सुनता हूं कि ग गधे का होता है। क्योंकि गधा जो है ज्यादा निरपेक्ष जानवर है। गणेश तो हिंदू संप्रदाय के हो जाते हैं, गधा किसी संप्रदाय का नहीं है। गधे सभी संप्रदायों में पाए जाते हैं! पर बच्चे को हम समझाते हैं ग गणेश का, या ग गधे का। और बच्चा पकड़ ले, और फिर जब भी ग आए कहीं तो पहले बोले ग गधे का और फिर आगे बढ़े, तो मुश्किल हो जाएगी। वह तो सिर्फ सहारा था। वह बच्चा गधे को समझ सकता था, ग को नहीं समझ सकता था, इसलिए ग को जोड़ दिया। फिर प्रतीक भूल जाएंगे, चित्र हट जाएंगे, ग सीधा आ जाएगा।

वह जो अज्ञानी है, जहा से उसे उठाना है, उसकी ही भाषा से बात शुरू करनी पड़ती है। उससे कहना पड़ता है. यह दुख है, यह सुख है। सुख चाहते हो तो अच्छा कर्म करो, दुख चाहते हो तो ही बुरा कर्म करो। न भी चाहते होओ दुख, बुरा करोगे तो बुरा फल पाओगे; अच्छा करोगे अच्छा फल पाओगे। अगर दोनों से छूट जाओगे, तो फिर तुम्हें कोई फल नहीं मिलेगा। और जब कोई फल नहीं मिलता है तो तुम मुक्त हो जाते हो।

लेकिन यह सारी की सारी बात, एक बात मान कर चल रहे हैं हम, कि यह सारा वास्तविक का जगत है। लेकिन जब कोई आदमी जागता है, जब होश से भरता है, जब शरीर से टूट जाता है और अज्ञान नाश होता है, तब उसे बड़ी हंसी आती है। जो छूट गया पीछे, वह वास्तविक नहीं था, एक बड़ा सपना था। एक बड़ा सपना था, वास्तविक नहीं था। और जो उपाय हमने बताए थे, वे भी सपने के भीतर सपने थे। ऐसा समझें तो आसानी होगी। रामकृष्ण तो भक्त थे काली के, पर बड़े विनम्र थे। और कोई भी कोई और मार्ग बताए, तो सदा पालन करने को तैयार रहते थे। फिर एक वेदांत के शिक्षक तोतापुरी का आगमन हुआ। और तोतापुरी ने रामकृष्ण से कहा कि यह क्या लगा रखा है? यह क्या कीर्तन, भजन, क्या इससे होगा? एक को खोजो! ये तो दो हैं। भक्त और भगवान दो नहीं, एक ब्रह्म!

तो रामकृष्ण ने—रामकृष्ण अदभुत थे—उनके पैरों में सिर रख दिया और कहा कि ठीक, मुझे शिक्षा दें, मुझे सिखाएं। तो ध्यान पर तोतापुरी रामकृष्ण को बिठाता है। और रामकृष्ण आंख बंद करके खूब आनंदित होते हैं। तोतापुरी कहता है, क्या हो रहा है?

तो वे कहते हैं, मां दिखाई पड़ती है। तो उन्होंने कहा कि यह सब फिजूल बकवास, मैं यहां रुकूंगा नहीं! अब मां दिखाई पड़ती है तो तुम इतने काहे के लिए आनंदित हो रहे हो? यह सब कल्पना है! यह मा और यह काली, यह सब तुम्हारी ही धारणा है!

रामकृष्ण कहते हैं, होगी, लेकिन आनंद बड़ा आता है। तो तोतापुरी ने कहा कि अगर इसी आनंद में पड़े रहना है, तो परम आनंद कभी न आएगा। तो रामकृष्ण ने पूछा, क्या करूं? तो तोतापुरी ने कहा कि एक तरकीब करो, जब काली भीतर दिखाई पड़े, उठाओ एक तलवार और दो टुकड़े कर. दो।

तो रामकृष्ण ने कहा, तलवार वहा कहा से लाएंगे?

स्वाभाविक, कहां से तलवार ले आएंगे एकदम से? और भीतर! अगर बाहर तलवार हो भी तो ले कैसे जाएंगे? और काली जब दिखाई पड़ेगी तो कैसे, कहां है तलवार?

तो तोतापुरी ने कहा कि जिस मन से काली को भीतर खड़ा कर लिया है, उसी मन से एक तलवार भी खड़ी कर लेना। जब तुम काली तक को भीतर खड़ा करने में सफल हो गए हो, तो छोटी सी तलवार न कर पाओगे?

यह सपने के भीतर सपने की विधि! समझे मेरा मतलब? काली भी एक कल्पना है भीतर। सुखद है, पर है तो कल्पना। अपना ही फैलाव है, अपना ही भाव है, जो मूर्तिमंत हो गया भीतर। अपनी ही चाह है, अपने ही रंग हैं, जो हमने ही डाल दिए भीतर 1 वह जो काली खड़ी है भीतर और रामकृष्ण भीतर जो उसके चरणों में सिर रखे पड़े हैं, बड़े मजे की बात है कि वह काली भी रामकृष्ण का ही भाव है और वह सिर रखे हुए भी रामकृष्ण पड़े हैं! तो तोतापुरी ने ठीक कहा कि तलवार क्या बाहर से ले जानी पड़ेगी? काली को कब बाहर से ले गए थे? तो जब भीतर काली बना ली, एक तलवार भी बना लो। और तुम तो कुशल मालूम पड़ते हो। जब काली को देखते हो, इतने आनंदित होते हो, तो मतलब तुमने बिलकुल पक्की मजबूत काली बना ली है। और तुम्हें शक—शुबहा भी नहीं है उसकी सचाई में। एक तलवार और बना लो।

रामकृष्ण बड़े उदास हो—हो जाते थे, कि यह कैसे होगा? तलवार से मैं खुद ही काली को काटू! तो तोतापुरी ने कहा कि अगर न कटे तलवार से, तो फिर सोचेंगे। तुम कोशिश तो करो। पर रामकृष्ण कहते थे, मैं ही खुद काटू? तो तोतापुरी ने कहा कि फिर मैं रुकूंगा नहीं। और जब तुमने स्वीकार किया कि साधना में उतरोगे वेदांत की, तो थोड़ी हिम्मत जुटाओ। यह क्या बच्चों जैसा रोते हो!

तो तोतापुरी एक काच का टुकड़ा ले आए और रामकृष्ण से कहा कि बैठो, ध्यान करो! और जब मैं देखूंगा काली भीतर आ गई, तो कहीं तुम भूल न जाओ, क्योंकि तुम ऐसे मोहित दिखते हो कि तुम भूल जाओगे। और अगर काली याद भी रही तो तुम्हारी हिम्मत भी नहीं दिखती कि तुम तलवार उठा लोगे। तुम इतने प्रेम से भरे दिखते हो कि तलवार तुम उठाओगे कैसे? जैसे कोई मां अपने बच्चे को काटे, उससे भी कठिन तुम्हें होगा, यह भी मैं समझता हूं। तो फिर मैं तुम्हें साथ दूंगा। तुम फिक्र न करो। जब मैं समझूंगा काली आ गई, तो यह कांच का टुकड़ा है, इससे मैं तुम्हारे तृतीय नेत्र की जगह को पूरा का पूरा काट दूंगा। जब तुम्हें यहां दरार मालूम पड़े, और लगे खून बहने लगा और दर्द उठने लगे, मैं काटता जाऊंगा, रगड़ता जाऊंगा कांच के टुकड़े से, तब तुम भी हिम्मत उठा कर उसी तरह एक जोर की चोट करना तलवार की और दो टुकड़ों में काली को तोड़ देना।

ठीक है, अगर तीसरे नेत्र पर काच से काटा जाए, तो भीतर तीसरे नेत्र में ही दिखाई पड़ता है सब कुछ। वह चाहे काली हो और चाहे राम हों, चाहे कृष्ण हों—कोई भी हों—वह तीसरे नेत्र में ही उनका प्रतिबिंब बनता है। तो अगर तीसरे नेत्र को बाहर से काटा जाए और भीतर से भी कोई हिम्मत जुटाए, तो तीसरे नेत्र के कटान के अनुभव के साथ ही कोई भी भीतर की प्रतिमा टूट कर दो टुकड़े हो जाती है।

रामकृष्ण ने हिम्मत की, प्रतिमा दो टुकड़े होकर टूट गई, गिर गई। रामकृष्ण ने लौट कर बाहर कहा, दि लास्ट बैरियर हैज फालेन—जो आखिरी बाधा थी, वह गिर गई।

मगर ये सब उपाय हैं। मैं समझा यह रहा था कि काली भी एक असत्य, भीतर, और तलवार भी एक असत्य, भीतर; लेकिन एक असत्य से दूसरा असत्य कट जाता है।

ये सारे उपनिषद के ऋषि, जो नहीं है, उसे काटने के लिए उपाय बता रहे हैं। क्योंकि हमने, जो नहीं है, उसे मान रखा है कि है। तो कुछ उपाय हमें दिए जा रहे हैं, जिनसे वह कट जाए। झूठी बीमारी झूठी दवा की मांग करती है। हमारा सारा भाव—संसार झूठ है। इसलिए इतनी विधियों की जरूरत है। और इसलिए कोई भी विधि काम दे सकती है। कोई भी विधि काम दे सकती है, बस पकड़ जाए आपको।

सपने के भीतर एक सपना। सपने से सपने को काटना। और कोई उपाय भी नहीं है। सत्य से सत्य नहीं काटा जाता, कट भी नहीं सकता। सत्य से असत्य भी नहीं काटा जाता, कट भी नहीं सकता, क्योंकि असत्य और सत्य का कहीं कोई मिलन ही नहीं होगा, कटेगा कैसे? असत्य से ही असत्य कटता है। एक असत्य से दूसरा असत्य कट जाता है। और जब दोनों गिर जाते हैं तो जो शेष रह जाता है…।

ऐसा समझें कि एक काटा लग गया पैर में, तो एक दूसरा काटा उठा कर उसे निकाल लेते हैं। कांटे से काटा निकलता है। फिर दोनों काटे फेंक देते हैं। तो यह सूत्र कह रहा है कि न तो है देह, न है कर्म, न है प्रारब्ध, न है संसार—वास्तव में।

आपसे नहीं कह रहा है कि आप मानने लगें कि न है कर्म, न है देह, न है संसार। तो अभी आप मुश्किल में पड़ जाएंगे—अभी, इसी वक्त।

नहीं, आपके लिए अभी है, क्योंकि अभी आप नहीं हैं। इसलिए सभी झूठ अभी सत्य हैं। अभी सत्य का पता नहीं है, इसलिए सभी झूठ सत्य हैं। जिस दिन आपको अपने सत्य का पता चलेगा, सभी झूठ मिथ्या हो जाएंगे।

स्वयं को जानते ही संसार मिथ्या हो जाता है। स्वयं को न जानने से ही मिथ्या संसार सत्य मालूम होता है।


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बिन बाती बिन तेल–(सूफी कथा) प्रवचन–11

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मृत्यु : जीवन का द्वार—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 1 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

 किसी सौदागर के पास एक हिंदुस्तानी पक्षी था। उसे उसने पिंजरे में बंद रखा था।

जब वह सौदागर दुबारा भारत जाने लगा, तब उसने पक्षी से पूछा

कि तुम्हारे देश से तुम्हारे लिये क्या लाऊं?

पक्षी ने कहा, ‘लाना कुछ नहीं, केवल हिंदुस्तान के किसी जंगल में जाना

और वहां के आजाद परिंदों से मेरी कैद का हाल सुनाना।

सौदागर ने वही किया। लेकिन जैसे ही वह बोला,

एक जंगली पक्षी मूर्च्छित होकर जमीन पर आ गिरा।

सौदागर ने सोचा कि मेरे कारण यह पक्षी मर गया।

जब वह देश लौटा तब उसके पक्षी ने अपने देश की खबर उससे पूछी।

सौदागर ने कहा, खबर बुरी है। तुम्हारा एक रिश्तेदार पक्षी तुम्हारा हाल सुनकर

मेरे पांव पर गिरकर मर गया। यह सुनते ही सौदागर का पक्षी मूर्च्छित हो गया

और पिंजरे की पेंदी में लुढ़ककर गिर गया। सौदागर ने सोचा,

कुटुंब की मृत्यु की खबर से यह भी मर गया है। और उसने उसे पिंजरे से निकाल दिया।

तुरंत ही वह पक्षी जी उठा और स्वतंत्र आकाश में उड़ गया।

कृपया इस कहानी का अर्थ हमें समझायें।

 

मृत्यु ही जीवन को पाने का द्वार है। और जो मरने को राजी है, वही मुक्त हो सकता है। जिसकी तैयारी है मिटने की, उसे स्वतंत्रता का आकाश मिल जाएगा। इससे कम में सौदा नहीं होगा। और इससे कम में जो सौदा करना चाहता है वह धोखे में पड़ेगा। वह धोखा अपने को ही दे रहा है।

परमात्मा को पाना हो…और परमात्मा यानी मुक्ति; परमात्मा यानी मोक्ष; परमात्मा यानी परम स्वतंत्रता; तो तुम बचे हुए उसे न पा सकोगे। तुम खो जाओ तो ही वह मिलेगा। तुम मिट जाओ तो ही वह महामिलन घट सकता है।

यही है राज इस छोटी-सी कहानी का।

सूफियों ने इसका बड़ा प्रयोग किया है। बड़ी गहरी सूफियों की पकड़ है। और जीवन के परम रहस्य की कुंजियां उन्होंने छोटी-छोटी कहानियों में रख दी हैं। शास्त्र जहां चूक जाते हैं, वहां कहानियां नहीं चूकतीं। बड़े-बड़े सिद्धांतों के तीर लक्ष्य पर नहीं पहुंच पाते, छोटी-छोटी कहानियां हृदय में छिद जाती हैं।

इस कहानी को हम समझने की कोशिश करें। यह कहानी मनुष्य की परतंत्रता और मनुष्य की स्वतंत्रता की कहानी है। इसके एक-एक चरण को खोलें। जैसे कोई प्याज की पर्तों को उघाड़ता है, ऐसे हम इस कहानी को उघाड़ें।

खयाल किया होगा: प्याज की पर्तों को कोई उघाड़ता ही जाए तो आखिर में शून्य हाथ आता है। एक पर्त उघड़ती, दूसरी पर्त आ जाती है; दूसरी पर्त उघड़ती, तीसरी पर्त आती है। लेकिन अगर कोई उघाड़ता ही जाए तो अंत में शून्य हाथ लगता है। वही शून्य महामुक्ति है, महामोक्ष!

इस कहानी की भी एक-एक पर्त हम उघाड़ें ताकि इसके भीतर छिपा हुआ शून्य हमारे हाथ में लग जाए। उस शून्य को इस कहानी में आकाश कहा है। और उस शून्य में उड़ जाने की स्थिति को मुक्ति, स्वतंत्रता कहा है।

कहानी का पहला चरण: एक पक्षी बंदी है। अपने देश से बाहर, विदेश में है।

ऐसा ही मनुष्य है। हम जहां भी हैं, विदेश में हैं। यह हमारा घर नहीं। जहां हम ठहरे हैं, वह धर्मशाला हो सकती है, अतिथि-गृह हो सकता है। वहां हम मित्रों के बीच हों या शत्रुओं के बीच हों, वहां हमारा स्वागत हो रहा हो या जबर्दस्ती हम टिके हों एक बोझ की तरह, लेकिन यह घर हमारा नहीं है। हम परदेस में है। और इसीलिये हम बेचैन हैं। और जब तक घर न मिल जाए पुनः तब तक बेचैनी जारी रहेगी।

घर की खोज ही धर्म है।

अमरीका का एक बहुत विचारशील व्यक्ति हुआ, कुलिज। वह अमरीका का प्रेसिडेंट हो गया था। विचारशील लोग मुश्किल से ही कभी ऐसे पदों पर पहुंच पाते हैं। कभी-कभी, लेकिन दुर्घटना घट जाती है। कुलिज अपनी आदत के अनुसार रोज ह्वाइट हाउस के आसपास जो कि प्रेसिडेंट का भवन है, घूमने निकलता था। एक दिन एक अजनबी उसे रास्ते पर सुबह-सुबह मिला। वह अजनबी नहीं पहचान पाया कि यह आदमी कुलिज है, जो इस समय राष्ट्रपति है। और न ही वह अजनबी पहचान पाया सुबह के धुंधलके में कि पास में जो खड़ा हुआ विशाल भवन है, यह राष्ट्रपति का निवास है; ह्वाइट हाउस है।

उसने चलते-चलते पूछा कि आप कौन हैं?

तो कुलिज ने कहा, ‘यह तो मुझे भी पता नहीं। इसीकी तलाश में चल रहा हूं। अभी उत्तर पाया नहीं’।

अजनबी ने सोचा होगा, झक्की मालूम होता है। छुटकारा पाने के लिये उसने पूछा, ‘और यहां जो सफेद मकान है, यहां जो बड़ा मकान है, यहां कौन रहता है?’

तो कुलिज हंसा और उसने कहा, ‘यहां कोई रहता नहीं। बस लोग आते हैं और जाते हैं। पीपुल कम एंड गो, नोबडी लिव्ज़ हिअर।’

जहां हम हैं, वहां लोग आते हैं और जाते हैं; रहता वहां कोई भी नहीं। यह घर नहीं है, यह पड़ाव है। यह मंजिल नहीं है। यहां क्षणभर को हम विश्राम करने रुके हों तो ठीक है। और अगर हमने यही समझ लिया हो कि यह घर है तो हम भटक गये। झाड़ के नीचे कोई यात्री रुक गया हो छाया में थोड़ी देर यात्रा के कष्ट से बचने को, समझ में आता है; लेकिन छाया में रम जाए और भूल ही जाए कि किस तरफ चला था, क्या खोजने चला था, वहीं घर बना ले, तो भटक गया।

संसार एक पड़ाव है; और पड़ाव पर कभी शांति नहीं हो सकती। थोड़ी देर विश्राम हो सकता है, लेकिन आनंद नहीं हो सकता। और विश्राम का तो इतना ही अर्थ है कि फिर हम श्रम करने को तैयार हुए, फिर यात्रा के लिये पैर तैयार हैं। विश्राम का और कोई अर्थ नहीं है। विश्राम तो बीच की एक कड़ी है। यह कोई लक्ष्य नहीं है, वह कोई सिद्धि नहीं है। कोई बड़ी यात्रा चल रही है। और उस बड़ी यात्रा में हम अपने घर से भटक गये हैं। और जहां भी अपने को पाते हैं, बेघर पाते हैं।

पक्षी बंद है विदेश में, जहां उसका अपना कोई भी नहीं; वह अकेला है।

यहां तुम्हारा कौन अपना है? यहां तुम भी अकेले हो। लेकिन पक्षी इतना चालाक न था, जितने चालाक तुम हो। पक्षी सीधा-सादा था, तुम चालाक हो। जहां तुम्हारा कोई भी नहीं है, वहां भी तुमने नाते-रिश्ते बना लिये हैं। जहां घर नहीं है, धर्मशाला को तुमने घर समझ लिया है और जहां कोई तुम्हारा अपना नहीं है वहां तुमने नाते-रिश्ते बना लिये हैं। तुमने इंतजाम ऐसा कर लिया है कि जैसे तुम अपने घर में ही हो, यह कोई पड़ाव नहीं है। तुम अपनों के ही बीच हो, तुम किसी विदेश में नहीं हो।

क्या हैं हमारे नाते-रिश्ते और हमारे संबंध?

जीसस ने बड़े एक कठोर वचन का प्रयोग किया है। उस कठोर वचन के कारण जीसस की बड़ी आलोचना की गई। बर्ट्रेंड रसेल ने जीसस की आलोचना में उसका बहुत प्रयोग किया है। और कोई भी ऊपर से देखेगा तो लगता है, कि रसेल ठीक है, जीसस गलत हैं।

कहानी है कि जीसस एक भीड़ में घिरे एक बाजार में खड़े हैं और एक आदमी ने भीड़ के भीतर कहा कि जीसस, भीड़ के बाहर तुम्हारी मां तुमसे मिलने की प्रतीक्षा कर रही है। तो जीसस ने कहा, कौन किसकी मां? कौन किसका पिता है? उस स्त्री को कहो, ‘टैल दैट वूमन, नोबडी इज़ माई मदर, नोबडी इज़ माई फादर।’ उस स्त्री को, उस औरत को कहो, न मेरी कोई मां है और न मेरा कोई पिता।

ये शब्द जरा कठोर मालूम पड़ते हैं। जीसस के ओठों पर तो और भी असंगत मालूम पड़ते हैं क्योंकि जो कहता है, प्रेम ही परमात्मा है और जिसने प्रेम को सार समझा है और जिसने सेवा को आधार बनाया धर्म का, जिसके धर्म की सारी की सारी कीमिया विनम्रता पर खड़ी है, वह आदमी यह कहता है कि इस औरत को कह दो कि कौन मेरी मां? कौन मेरा पिता? और तुमसे मैं कहता हूं, भीड़ से जीसस ने कहा कि जब तक तुम अपनी मां के खिलाफ न हो जाओ और अपने पिता के दुश्मन न हो जाओ तब तक तुम मेरे नहीं हो।

शब्दों में जो भटक जाएंगे, वे रसेल से राजी हो जाएंगे। रसेल का तर्क सीधा-साफ है कि यह आदमी दुष्ट प्रकृति का था। जो अपनी मां को कह रहा है ‘इस औरत को!’ और इसकी प्रेम की बातें सब बातें हैं। इसकी विनम्रता अहंकार का ही एक रूप मालूम पड़ती है।

जो शब्दों में खो जाएगा वह ऐसा ही समझेगा, लेकिन जीसस कठोर तो नहीं हो सकते। जीसस किसी प्रयोजन से यह कह रहे हैं। जीसस का प्रयोजन यह है कि वह तुम्हें बताना चाहते हैं कि तुम यहां अजनबी हो और तुम्हारा यहां अपना कोई भी नहीं। न तुम्हारी मां मां है, न पिता पिता। और अगर तुम किसी स्त्री से पैदा हुए हो तो यह सिर्फ संयोग है। इसको तुम संबंध मत समझो। यह सिर्फ संयोग है। तुम किसी और स्त्री से पैदा हो सकते थे। न तुमने इस स्त्री को मां की तरह चुना, न इस स्त्री ने तुम्हें बेटे की तरह चुना। यह सिर्फ एक दुर्घटना है। न तो इस स्त्री को पता था कि तुम बेटे की तरह आ रहे हो। न तुम्हें पता है कि तुम इस स्त्री को मां बना रहे हो। अंधेरे में जैसे दो आदमी मिल जाएं और टकरा जाएं; रास्ते पर प्रकाश न हो और कोई साथी हो ले, थोड़ी देर यात्रा साथ चले। बस ऐसी यह यात्रा है। सब अंधेरे में है। सब संयोग है।

कौन तुम्हारा मित्र है? किसको तुम अपना मित्र कहते हो? क्योंकि सभी अपने स्वार्थों के लिए जी रहे हैं। जिसको तुम मित्र कहते हो, वह भी अपने स्वार्थ के लिये तुमसे जुड़ा है और तुम भी अपने स्वार्थ के लिये उससे जुड़े हो। अगर मित्र वक्त पर काम न आये तो तुम मित्रता तोड़ दोगे। बुद्धिमान लोग कहते हैं मित्र तो वही, जो वक्त पर काम आये। लेकिन क्यों? वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब मेरे स्वार्थ की जरूरत हो, तब वह सेवा करे। लेकिन दूसरा भी यही सोचता है कि जब तुम वक्त पर काम आओ, तब मित्र हो। लेकिन तुम काम में लाना चाहते हो दूसरे को यह कैसी मित्रता है? तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो; यह कैसा संबंध है? सब संबंध स्वार्थ के हैं।

पिता बेटे के कंधे पर हाथ रखे है, बेटा पिता के चरणों में झुका है, सब संबंध स्वार्थ के हैं। और जहां स्वार्थ महत्वपूर्ण हो वहां संबंध कैसे? लेकिन मन चाहता है; अकेले होने में डर पाता है, इसलिये मन चाहता कि कोई संगी-साथी हो।

संगी-साथी हमारे मन की कल्पना है, क्योंकि अकेले होने में हम भयभीत हो जाएंगे। सब से बड़ा भय है अकेला हो जाना, कि मैं बिलकुल अकेला हूं। तो हम विवाह करते हैं, किसी स्त्री को पत्नी कहते हैं, किसी पुरुष को पति कहते हैं, किसी को मित्र बनाते हैं। थोड़ा-सा एक आसपास संसार खड़ा करते हैं। उस संसार में हमें लगता है कि अपने लोग हैं, यह अपना घर है। लेकिन जो भी थोड़ा-सा जागेगा वह पायेगा कि इस संसार में बेघर-बार होना नियति है। यहां घर धोखा है। हम यहां बेघर हैं।

बुद्ध अपने भिक्षुओं को अनेक नाम दिये हैं, उनमें एक नाम है ‘अगृही’–जिसका कोई घर नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि वह किसी घर में, किसी छप्पर के नीचे न रुकेगा। वह तो बुद्ध को भी कभी वर्षा होती है तो छप्पर के नीचे रुकना पड़ता है। कभी धूप होती है तो छप्पर के नीचे सोना पड़ता है।

मतलब यह है कि जिसका यह बोध टूट गया, यह भ्रांति जिसकी मिट गई कि इस संसार में मेरा कोई घर है। पड़ाव हैं, सरायें हैं; लोग आते हैं और जाते हैं लेकिन यहां कोई ठहरता नहीं। तुम नहीं थे तब बहुत लोग यहां थे। तुम नहीं होओगे बहुत लोग यहां रहेंगे। यह भीड़ चलती ही रहती है; यह बाजार भरा ही रहता है। तुम हटे नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारी जगह को भर देता है। तुम गये नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारे घर को अपना घर समझ लेता है।

एक सम्राट हुआ इब्राहिम; फिर पीछे वह फकीर हो गया। कीमती फकीर हो गया। बड़े सूफियों में उसका नाम है। रात सोया था, तो उसे लगा कि ऊपर छप्पर पर कोई चल रहा है। तो उसने चिल्लाकर पूछा कि कौन नासमझ है? कौन है चोर लुटेरा? छप्पर पर क्या कर रहे हो? पर उस आदमी ने कहा कि तुम्हारे छप्पर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं। मेरा ऊंट खो गया है। मैं उसको खोज रहा हूं।

महल के छप्पर पर कहीं ऊंट खोते हैं! इब्राहिम समझा यह आदमी पागल है। लेकिन फिर भी उस आदमी की आवाज में कुछ बल था। और जब उसने कहा कि सो जाओ, तुम्हारे छप्पर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं, मैं अपना ऊंट खोज रहा हूं। तो उसकी आवाज में कुछ बात ही और थी। वह आवाज भीतर तक चली गई और रातभर इब्राहिम सो न सका। और सोचता रहा, यह आदमी पागल है या इसका कोई प्रयोजन है? सुबह उसने गांव में आदमी भेजे कि उस आदमी को खोजो, जो रात छप्पर पर ऊंट खोज रहा था। उससे मैं मिलना चाहता हूं। लेकिन उसको खोजना मुश्किल था। उसका कोई नाम-पता नहीं।

लेकिन दोपहर में जब दरबार भरा था, इब्राहिम सिंहासन पर बैठा था, तब उसके पहरेदार आये और उन्होंने कहा कि एक आदमी बड़ा उपद्रव मचा रहा है। और बड़ा बलशाली आदमी है। उसकी आंखों में झांक नहीं सकते और वह जब कड़ककर कुछ कहता है तो छाती धकधका जाती है–वे हिम्मतवर पहरेदार थे–वह डरा देता है।

इब्राहिम ने पूछा, वह कहता क्या है?

पहरेदार ने कहा कि वह कहता है कि इस धर्मशाला में मुझे कुछ दिन रुकना है। और हमने उसको समझाया कि यह राजा का महल है, कोई धर्मशाला नहीं है। उसका निवास है, यह कोई सराय नहीं। सराय बाजार में है, तुम वहां जाकर रुक जाओ। तो वह कहता है, मैं उससे मिलना चाहता हूं, जो इसको अपना निवास समझता है।

इब्राहिम ने कहा, ‘उसको छोड़ो मत, उसे जल्दी भीतर लाओ। यह वही आदमी होना चाहिये, जो रात छप्पर पर ऊंट खोज रहा था।’ वह आदमी भीतर लाया गया, तो इब्राहिम ने कहा, ‘यह क्या बदतमीजी है? तुम मेरे निवास को सराय कहते हो?’

उस आदमी ने कहा, ‘बदतमीजी तुम्हारी है, क्योंकि पहले भी मैं आया था, तब एक दूसरा आदमी यही बदतमीजी कर रहा था। तुम नहीं थे तब इस सिंहासन पर; एक दूसरा आदमी यह कहता था, यह मेरा मकान है। उसके पहले भी मैं आया था, तब मैंने एक तीसरे आदमी को पाया था। और मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं, मैं जब दुबारा आऊंगा, तुम यहां नहीं पाये जाओगे, कोई और दावा करेगा। मैं किसकी मानूं?’

इब्राहिम ने कहा कि वह मेरे पिता थे। और जब तुम उसके पहले आये, वे मेरे पितामह थे। वह फकीर पूछने लगा कि अब वे कहा हैं जिनका यह निवास था? यह घर तो यहां का यहां है? वे कहां हैं? इब्राहिम ने कहा, ‘वे तो जा चुके।’ लेकिन तब उसकी हिम्मत टूट गई। उस फकीर ने कहा, ‘यहां लोग आते हैं, जाते हैं, ठहरते हैं; इसको निवास क्यों कहते हो? मैं इस सराय में कुछ दिन रुकना चाहता हूं।’

इब्राहिम बड़ी हिम्मत का आदमी रहा होगा। वह उठा और उसने कहा कि अगर यह सराय है तो तुम यहां रुको, मैं यहां से जाता हूं। बात तुम्हारी ठीक लगती है। मेरा भी घर न रहा यह, अब मैं घर की तलाश करूंगा। और जब तक घर न मिल जाए, तब तक लौटने का कोई उपाय नहीं। इब्राहिम बड़ा फकीर हो गया। सिद्ध हुआ। उसने घर अपना पा लिया एक दिन।

लेकिन वह घर यहां नहीं है, जहां तुम्हारी आंखें तलाशती हैं। वह घर वहां हैं, जहां तुम्हारी आंखें मुड़ती ही नहीं। यह तो परदेश है, जहां तुम देख रहे हो, सुन रहे हो; लेकिन जहां से तुम देख रहे हो, जहां से तुम सुन रहे हो, वहीं तुम्हारा स्वदेश है।

वह पक्षी परदेश में था। और जब भी कोई परदेश में होगा तो परतंत्र होगा। स्वदेश में न हो तो स्वतंत्र कैसे हो सकते हो? जब तुम स्वयं में नहीं हो तो स्वतंत्रता का क्या अर्थ हो सकता है? जब तुम विदेशियों से घिरे हो, विजातियों से घिरे हो तब तुम गुलाम रहोगे।

अपने ही घर में आदमी निश्चिंत होकर मुक्त हो सकता है। उस घर में, जहां से न तो आना होता है, न जाना होता है; जहां तुम सदा ही रहे हो, जहां तुम सदा ही रहोगे; जो शाश्वत है, जो सनातन है; जो अनादि है और अनंत है।

तुम उस पक्षी की हालत में हो। वह पक्षी तुम्हारा प्रतिनिधि है। पक्षी का मालिक जा रहा था पक्षी के देश को। उस पक्षी से पूछा उसने कि कुछ तुम्हारे सगे-संबंधियों को कोई खबर देनी हो, तुम्हारे मित्र-प्रियजनों को कोई संदेशा पहुंचाना हो, कोई चिट्ठी-पाती, तो कह दो, मैं जा रहा हूं।

यहां दूसरी बात समझ लें। मालिक ही जा सकता है। परतंत्र कहां जाए? कैसे खोजे? मालिक ही खोज सकता है। इसलिये हिंदुओं ने खोजियों को स्वामी कहा है। स्वामी का अर्थ मालिक। संन्यासी को स्वामी का नाम दिया है। जिसकी कम से कम इतनी मालकियत तो है कि वह खोज पर जाएगा।

तुम्हारी इतनी भी मालकियत नहीं कि तुम खोज पर निकलो। तुम तो पिंजरे में बंद हो। तुम तो किसी से कहोगे कि तुम जा रहे हो तो कुछ खबर ले जाना, या कुछ खबर ले आना! तुम खुद नहीं जा सकते। तुम्हारे पंख तो बंद हो गये हैं! इसलिए तुम्हें गुरुओं के पास जाना पड़ता है। किसी मालिक को खोजना पड़ता है, जो स्वदेश की खबर दे। इसलिए बिना गुरु के तुम्हारा काम न चल सकेगा।

यह पक्षी तो पिंजरे में बंद ही रह जाता, लेकिन मालिक इसका जा रहा था…मालिक जा सकता है। तो जब तक तुम किसी अर्थों में मालिक नहीं बनते, तुम भी न जा सकोगे।

इसलिए साधना का पहला सूत्र है: थोड़ी मालकियत उपलब्ध करना।

मालकियत का मतलब यह है कि तुम्हारा मन तुम्हें न चलाये। तुम मन की छाया बनकर न दोहरो, वरन तुम मन के मालिक हो जाओ और मन तुम्हारे पीछे चले। जब तुम मन से कहो, शांत हो जाओ, तो मन शांत हो जाए। जब तुम मन से कहो, विचार करो तो मन विचार करे। जब तुम कहो, निर्विचार हो जाओ तो मन तत्क्षण निर्विचार हो जाए। मन तुम्हारी आज्ञा माने, तो तुम मालिक।

इसलिए ध्यान, साधना का पहला सूत्र है। क्योंकि ध्यान से धीरे-धीरे तुम्हारी मालकियत उभरेगी; अन्यथा तुम पिंजरे में ही बंद रहोगे। मन तुम्हारा पिंजरा है। और तुम भूल ही गये हो। मन की मानते-मानते तुम बिलकुल ही भूल गये हो कि तुम मालिक हो, और तुम आदेश दे सकते हो और मन उसे मानेगा।

एक झेन फकीर लिंची बोल रहा था। एक जिद्दी आदमी, एक उपद्रवी आदमी बीच में खड़ा हो गया और उसने कहा कि तुमने लोगों को भरमा रखा है। तुमने लोगों को मालूम होता है सम्मोहित कर लिया है, हिप्नोटाइज कर लिया है। ये तुम्हारे शिष्य, जो तुम्हें चारों तरफ से घेरे हैं, तुम जो भी कहते हो ये वही करते हैं। कोई मुझे मनवाये! तुम मुझे आज्ञा देकर देखो तब मैं समझूं कि तुम गुरु हो।

लिंची ने कहा, ‘मैं जरा कम सुनता हूं, तुम इधर आओ।’

वह आदमी आगे आया। वह आकर बाएं खड़ा हो गया।

लिंची ने कहा, ‘बायां कान तो मेरा बिलकुल बेकार है, तुम दाएं आओ।’

वह आदमी दाएं आया।

उसने कहा कि भूल हो गई–लिंची ने कहा, ‘दायां खराब है, बायां तो बिलकुल ठीक है, तुम बाएं आओ!’ वह आदमी बाएं आया। लिंची ने कहा, ‘बैठो! क्योंकि खड़े-खड़े क्या बात होगी?’

वह आदमी बैठा। लिंची ने कहा, ‘मैं अपना व्याख्यान शुरू करूं! यह आदमी बड़ा आज्ञाकारी है। जो भी मैं कहता हूं, वही करता है। तू तो बिलकुल अनुयायी होने के योग्य है।’ लिंची ने कहा, ‘तू तो परम शिष्य हो जाएगा।’

तुम मन को जब तक बाएं न बिठा सको, दाएं न हटा सको तब तक तुम मालिक नहीं हो सकते। और मन बड़ा जिद्दी है। सच तो यह है कि तुम जो भी मन से कहो, उससे उल्टा मन तत्क्षण करके दिखलाता है। क्योंकि मन की मालकियत खोती है अगर तुम्हारी मान ले। तुम कहो बैठो, तो मन खड़ा हो जाता है। ताकि तुम्हें साफ हो जाए कि यह भूल दुबारा मत करना। तुम मना न पाओगे, मैं मानने वाला नहीं हूं।

यह बहुत पुरानी आदत हो गई है। जैसे किसी गुलाम को मालिक धीरे-धीरे-धीरे-धीरे भूल ही गया हो कि वह गुलाम है, और मोह से इतना भर गया हो कि गुलाम जो कहता है, मालिक मानने लगा हो; और अब गुलाम को समझाना मुश्किल है। अनेक जन्मों में तुमने गुलाम को मालिक बन जाने दिया, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम एक दफा ठीक से आवाज दोगे, अगर तुमने पूरे प्राणों से आवाज दी, गुलाम वहीं के वहीं ठिठककर खड़ा हो जाएगा। क्योंकि आखिर गुलाम गुलाम है, तुम मालिक   हो। मालकियत खोई नहीं जा सकती। आदतवश तुम भूल सकते हो। लेकिन मालिक जाएगा; गुलाम कहां जाएगा? गुलाम की कोई यात्रा नहीं।

मालिक जा रहा था स्वदेश पक्षी के। तो उस मालिक ने पूछा कि कोई खबर, कोई संदेश तो नहीं ले जाना है तेरे संबंधियों के लिये? निश्चित ही संबंधी स्वदेश में ही हो सकते हैं। यहां तो संबंध नाम-मात्र को है। यहां तो संबंध झूठे हैं। जो तुम्हारा मित्र है आज, कल शत्रु हो सकता है।

पश्चिम के चाणक्य मेक्यावेली ने एक किताब लिखी है: ‘दी प्रिन्स।’ उसमें उसने राजकुमारों और सम्राटों को जो सलाहें दी हैं, उसमें एक सलाह यह भी है कि तुम अपने मित्र को वह मत कहना, जो तुम अपने शत्रु को नहीं कहना चाहते, क्योंकि जो आज मित्र है, कल शत्रु हो सकता है। और तुम अपने शत्रु के संबंध में भी वह बात मत कहना जो तुम अपने मित्र के संबंध में न कहना चाहोगे क्योंकि जो आज शत्रु है, कल मित्र हो सकता है।

इस संसार में नाते-रिश्ते ऐसे बदल रहे हैं, जैसे हवा में कंपते हुए वृक्ष के पत्ते। कब दिशा बदल लेते हैं, हवा पर निर्भर है। खुद की कोई दिशा नहीं है। जो आज पत्नी है, कल तलाक दे सकती है, शत्रु हो सकती है। जो आज बेटा है, कल हत्या कर सकता है, हत्यारा हो सकता है। यहां कौन तुम्हारा है? परदेश में कोई किसी का हो भी नहीं सकता। यहां सभी संबंध छाया जैसे हैं। जैसे दो आदमी खड़े हों और उन दोनों की छायाएं मिल रही हैं। वह कोई संबंध है? वे आदमी हटे कि छायाएं हट जाएंगी। छायाओं का कोई मिलन थोड़े ही होता है!

प्लेटो ने, यूनान के बहुत बड़े विचारक ने कहा है कि यह जगत छाया की तरह है। असली जगत कहीं और है। यह जगत प्रतिबिंब है। जैसे कोई नदी के किनारे खड़ा है, तो पानी में प्रतिबिंब बनता है, ऐसे ही इस जगत में प्रतिबिंब बन रहे हैं। वे प्रतिबिंब आपस में मिलते भी हैं, लेकिन उनका मिलना वास्तविक नहीं क्योंकि वे छायाएं हैं। ऊपर इस जगत के विपरीत कोई और जगत भी है। उस जगत में ही मिलन होता है। इस जगत में तो नाममात्र का खेल है। यहां तो लोग खेल खेल रहे हैं। यहां तो दोस्ती एक खेल का नाम है, दुश्मनी दूसरे खेल का नाम है। और यहां बदलने में क्षण नहीं लगता। यहां सभी चीजें परिवर्तनशील हैं। हेराक्लतु ने कहा है कि एक चीज को छोड़कर सभी चीजें बदलती हैं; वह एक चीज परिवर्तन है। वह भर नहीं बदलता बाकी सब बदल जाता है। तो उसके न बदलने का क्या मतलब है? परिवर्तन सिर्फ स्थिर मालूम होता है, बाकी सब चीजें अस्थिर हैं।

मालिक ने पूछा कि जा रहा हूं तेरे देश; कोई खबर तो नहीं ले जानी है? पक्षी निश्चित बुद्धिमान रहा होगा। उसने खबर नहीं भेजी। उसने कहा, ‘बजाय खबर ले जाने के, सिर्फ मेरी दशा वहां बता देना।’ बड़ा बुद्धिमान रहा होगा।

तुमसे अगर कोई कहे कि जा रहा हूं मैं तुम्हारे देश, कोई खबर ले जानी है? तुम लंबी चिट्ठी लिखकर रख दोगे। उसने बड़ी सार की बात कही। और क्या खबर है? इतनी ही खबर है कि मैं यहां कारागृह में बंद हूं, पिंजरे से घिरा हूं, खुला आकाश छिन गया, पंख व्यर्थ हुए जा रहे हैं। उड़ना भूलता जा रहा हूं। जिंदगी एक दुख और बोझ है। इतनी खबर वहां दे देना। चले जाना जंगल में और जहां मेरे मित्र, परिचित हैं, जहां मेरे सगे संबंधी हैं, जोर से चिल्लाकर कह देना कि ऐसी-ऐसी घटना घटी है। तुम्हारा साथी बंद है विदेश में।

पक्षी ने बड़ी होशियारी की। यह खबर उसने भेजी कि शायद कोई पक्षी जानता हो स्वतंत्र होने का राज़। शायद किसी को तरकीब पता हो। शायद कोई पहले परतंत्र रह चुका हो और देश वापिस लौट गया हो। शायद कोई इस मुसीबत से गुजर चुका हो और उसके हाथ में कुंजी हो। शायद कोई गुरु मिल जाए।

गुरु का इतना ही अर्थ है, जो कभी परतंत्र था और अब स्वतंत्र है। तुम जहां हो, जो कभी वहीं खड़ा था और अब वहां नहीं है। जो छायाओं के जगत से वास्तविकता के जगत में पहुंच गया। जिसकी सराय हट गई और जिसका घर आ गया। लेकिन वही तुम्हारा गुरु हो सकता है।

यह बहुत मजे की बात है, परमात्मा सीधा तुम्हारा गुरु नहीं हो सकता, क्योंकि उसने कभी कोई परतंत्रता नहीं जानी। इसलिए स्वतंत्रता की कुंजियां तुम्हें उसके पास न मिलेंगी। परमात्मा तुम्हें मिल भी जाए और तुम उससे पूछो भी तो वह तुम्हारी स्थिति न समझ सकेगा। तुम उससे कितना ही कहो, मैं परतंत्र हूं, बड़ी मुसीबत में हूं, कोई तरकीब बताओ, परमात्मा तुम्हें कोई तरकीब न बता सकेगा।

क्योंकि परमात्मा किसी सराय में कभी ठहरा नहीं। वह घर में ही है।

इसलिए एक धारणा सभी धर्मों ने पैदा की, परमात्मा खुद जवाब नहीं दे सकता। तो परमात्मा का बेटा जीसस पैदा होता है! यह सिर्फ एक कहानी है। लेकिन जीसस के पैदा होने का अर्थ है, पहले जीसस मनुष्य बनते हैं। पहले वे परतंत्रता से गुजरते हैं, पिंजरे में कैद होते हैं, तभी स्वतंत्रता खोजी जा सकती है।

हिंदुओं की अवतार की धारणा है। परमात्मा सीधा उत्तर क्यों नहीं देता? क्या जरूरत है राम, कृष्ण की? आत्मा से सीधा सवाल क्यों नहीं आता? जैन कहते हैं, तीर्थंकर से सवाल का जवाब आयेगा। बौद्ध कहते हैं, बुद्ध उत्तर देंगे।

अस्तित्व उत्तर क्यों नहीं देता? पूछो आकाश से, उत्तर क्यों नहीं देता? आकाश उत्तर नहीं दे सकता क्योंकि आकाश कभी पिंजरे में बंद नहीं रहा। उत्तर वही दे सकता है, जो तुम्हारी मुसीबत से गुजरा हो। चाभी उसी के पास हो सकती है जो मुसीबत में भी रहा हो और बाहर भी हो गया हो। उस कैदी से पूछो जेल के बाहर निकलने का राज जो दीवाल पर छलांग लगाकर निकल गया। जो बाहर ही हैं, उनसे जेल के बाहर निकलने का राज तुम न पता न लगा सकोगे।

इसलिए गुरजिएफ कहता था, ‘उस कैदी की तलाश करो, जो किसी तरह जेल के बाहर निकल गया है। वही तुम्हारा गुरु है।’ जो जेल के बाहर हैं वे तुम्हें मिल भी जाएं तो तुम्हें किसी काम के नहीं हैं। क्या बतायेंगे तुम्हें? क्योंकि उन्हें पता ही नहीं कि जेल क्या है? उन्हें पता नहीं है कि कितनी ऊंची दीवालें हैं? उन्हें पता नहीं है कि कितने मजबूत पत्थरों की दीवालें हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि कितना मजबूत पहरा है। उन्हें पता नहीं है कि कहां से निकलने का उपाय हो सकता है। जो निकल गया है कारागृह के बाहर उसे पकड़ो, वही तुम्हारा गुरु है।

तो उस पक्षी ने कहा कि तुम जंगल में जाकर चिल्ला देना कि मेरी ऐसी दशा है। और कुछ कहना नहीं है। और कुछ कहने को भी नहीं है। सोचा उसने कि अगर कोई जानता होगा राज, तो किसी न किसी तरह खबर आ जाएगी।

गया यह आदमी। जंगल में जाकर जहां उसने देखा कि उस पक्षियों के जाति-बिरादरी के लोग वृक्षों पर बैठे थे, चिल्लाकर उसने कहा कि सुनो! तुम्हारी जाति का, तुम्हारे जगत का एक पक्षी, तुम जैसा एक पक्षी कारागृह में बंद है, पिंजरे में बंद है। उसने अपने दुख की, पीड़ा की खबर भेजी है।

यह सुनते ही एक पक्षी तत्क्षण वृक्ष से नीचे गिर पड़ा, मर गया!

आदमी तो बड़ा दुखी हुआ कि यह भी मैं कैसी खबर लाया–अपशकुन! क्या इतनी पीड़ा हो गई इस सगे-संबंधी को? शायद पति रहा हो, पत्नी रहा हो, मित्र रहा हो। इतनी पीड़ा कि खबर पाकर कि अपना कोई बंद है, यह मर ही गया! धक्का लग गया।

आदमी भी बेचैन हो गया। लेकिन अब तो कुछ किया नहीं जा सकता था। घटना घट गई थी। वह वापिस लौटा। उदासी से उसने जाकर पक्षी को कहा कि जब मैंने तेरी खबर दी और जब मैंने तेरे दुख की कथा कही तो बड़े दुख का समाचार है कि एक पक्षी तत्क्षण वृक्ष से नीचे गिरकर मर गया। मुझे बड़ी पीड़ा हुई। लेकिन जब यह कह रहा था तभी उसने देखा कि उसका खुद का पक्षी पिंजरे में गिरकर मर गया।

यह तो कुंजी थी, जो गुरु ने भेजी थी। और गुरु शब्दों से नहीं दे सकता था, आचरण से ही दे सकता था। शब्द क्या देंगे? गुरु आचरण से दे सकता है। गुरु ने व्यवहार कर के कुंजी दे दी। बड़ा होशियार पक्षी रहा होगा, बड़ी मजबूत कारागृह से छूटा होगा। और यही तरकीब उसने अखत्यार की होगी, जो तरकीब उसने भेजी। मर गया होगा पिंजरे में। और जब कोई मर जाता है तो मरे को तो कोई कैद नहीं करता, जिंदा को कैद किया जाता है। मरे को तो कोई कैद नहीं करता।

इसलिये लाओत्से ने कहा है, ‘मरे हुए की भांति हो जाओ, फिर तुम्हें कोई कैद न करेगा।’

इसलिये उपनिषद कहते हैं, जीते जी मुर्दा हो जाओ, फिर तुम्हें कोई बांधेगा नहीं। क्योंकि मुर्दे को तो लोग जलाने ले जाते हैं, बांधता कौन है? बांधते तो तुम्हें इसलिए हैं कि तुम जिंदा हो।

और लाओत्से ने यह भी कहा है कि तुम जितने ज्यादा जिंदा दिखाई पड़ोगे, उतने ज्यादा मुसीबत में पड़ोगे; क्योंकि उतने ज्यादा लोग तुम्हें बांधेंगे। तुम जितने ज्यादा सुंदर हो, उतनी झंझट में पड़ोगे, उतने ज्यादा लोग तुम्हें बांधेंगे। तुम जितने बुद्धिमान हो उतना तुमने मुसीबत को निमंत्रण दिया, क्योंकि उतने ज्यादा लोग तुम्हें बांधेंगे। तुम मुर्दा हो जाओ–न बुद्धि है, न रूप है, कुछ भी नहीं है। तुम नाकुछ हो फिर तुम्हें कोई नहीं बांधेगा। लाओत्से और उसका अनुयायी च्वांगत्से ऐसी बहुत सी कहानियों में रस लेते हैं।

एक जंगल से लाओत्से गुजर रहा है, वहां सारे वृक्ष काटे जा रहे हैं, सिर्फ एक वृक्ष नहीं काटा जा रहा है। वृक्ष बड़ा है। हजार बैलगाड़ियां उसके नीचे रुक जाएं ऐसी उसकी छाया है।

लाओत्से ने कहा, इस वृक्ष से जाकर पूछो कि तेरा राज क्या है? जब सब कट गये, तू कैसे बचा? शिष्यों ने कहा, वृक्ष क्या जवाब देगा? लाओत्से ने कहा, फिर भी तुम पूछो, पता लगाओ। इन मजदूरों से पूछो, जो दूसरे वृक्षों को काटे जा रहे हैं, जंगल साफ किया जा रहा है।

शिष्य गये। उन्होंने मजदूरों से पूछा। उन्होंने कहा, ‘वह वृक्ष किसी काम का ही नहीं। बिलकुल ऐसा बेकाम वृक्ष दुनिया में खोजना मुश्किल है। उसके पत्ते जानवर चरते नहीं, उसकी शाखाएं ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी हैं कि उनसे कुछ भी नहीं बनाया जा सकता। और उसकी शाखाओं को अगर जलाओ तो ऐसा भयंकर धुआं उठता है कि घर में रहना मुश्किल हो जाए, इसलिए उसको जलाया भी नहीं जा सकता। न उसका तुम ईंधन बना सकते हो, न फर्निचर; न पत्ते वृक्ष के किसी के खाने में काम आते हैं। ऐसा बेकार वृक्ष पृथ्वी पर है ही नहीं, इसीलिए बचा है।’

लाओत्से ने कहा, ‘समझ लो, अगर तुम्हें भी बचना हो तो बिलकुल बेकार हो रहो। यह वृक्ष के पास कुंजी है; इससे सीख लो। सब जब काटे जा रहे हैं, तब यह देखो आकाश में कैसा फैल रहा है उन्मुक्त! इसे कोई भय नहीं। जो सीधे थे वे सबसे पहले काट दिये गये। जो सुंदर थे, सुडौल थे, उनका फर्निचर बन चुका है। जो धनी थे और अकड़े थे आकाश में, अब उनको कहीं भी खोजना आसान नहीं है। तुम इस वृक्ष की भांति होते रहो, हो रहो; तभी तुम्हारा जीवन खिलेगा, फूलेगा।

लाओत्से एक गांव से गुजरा और उस गांव में लोग पकड़े जा रहे थे क्योंकि राज्य युद्ध में उलझा था और हर जवान, शक्तिशाली आदमी को पकड़ा जा रहा था। सिर्फ एक आदमी जो कुबड़ा था, वह भर छोड़ दिया गया था। लाओत्से ने कहा, इस कुबड़े से पूछो, ‘तेरे बचने की तरकीब क्या है?’ उस कुबड़े ने कहा, ‘चूंकि मैं कुबड़ा हूं, मैं किसी काम का नहीं। मेरी कमर झुकी है।’ लाओत्से ने कहा, ‘सीख लो। अगर कमर सीधी रखी, काटे जाओगे बकरों की तरह युद्ध के मैदान पर। यह कुबड़ा बच गया है। यह किसी काम का नहीं है। बेकाम हो रहो।’

लेकिन बेकाम तो तभी तुम पूरी तरह हो पाओगे, जब तुम मुर्दे की भांति हो। नहीं तो थोड़ा न बहुत काम रहेगा। थोड़ा न बहुत काम बचेगा ही। कुबड़ा भी किसी न किसी काम में लगाया जा सकता है। और यह बेकार वृक्ष का भी कोई न कोई उपयोग खोजा जा सकता है। पड़ोसियों को सताने के लिये धुआं करना हो, कि मच्छर भगाने हों, कोई न कोई रास्ता खोजा जा सकता है इस वृक्ष के लिये भी। जब तक तुम हो तब तक कुछ खतरा है; लेकिन जब तुम नहीं हो तब कोई खतरा नहीं है, तब तुम खतरे के बाहर हुए।

यह पक्षी पिंजरे में रह चुका होगा और मरकर बाहर हुआ। मरने में इसने कुंजी पाई। जब तक न मरा, तब तक बंद रहा। जिंदगी छोड़ दी, पिंजरा छूट गया, यह मृतवत हो गया।

संन्यास की परिभाषा है: संसार में मृतवत हो जाना। फिर तुम्हें कोई पकड़ेगा नहीं; फिर तुम्हें कोई बांधेगा नहीं।

कौन मुर्दे को बांधता है? मुर्दे को लोग घड़ी भर घर में नहीं रखते। यहां मरा नहीं कि वहां उसको उठाने की तैयारी कर देते हैं। जल्दी लकड़ी बांधी जाने लगती है, अर्थी तैयार होने लगती है। घर के लोग तो घर के लोग, पास-पड़ोस के लोग जो कभी किसी काम नहीं आए, वे जल्दी से बांस वगैरह इकट्ठा करके तैयारी करने लगते हैं, क्योंकि घर के लोग रोने-धोने में लगे हैं, जल्दी करनी है। तुम बंधे और चले!

यह पक्षी जानता था कुंजी; लेकिन इस कुंजी को कैसे पहुंचाये? क्योंकि पहुंचाने वाले के हाथ कुंजी विकृत हो सकती है। माध्यम कुंजी को नष्ट कर सकता है। शब्द माध्यम है; आचरण, ‘इमिजिएट’ है, सीधा है। अगर यह शब्दों से कहता तो यह आदमी के हाथ में शब्द पड़ जाते। फिर यह शब्दों में से कितना छोड़ता, कितना बचाता, कैसी व्याख्या करता, मुश्किल था! क्या खबर पहुंचती, कहना मुश्किल है।

शास्त्रों से जो खबर गुरुओं ने पहुंचाई है, वह तुम तक पहुंची नहीं है। यह आदमी अगर सुनकर ले जाता तो शास्त्र बन जाता। यह संदेश पहुंच नहीं सकता था। इसलिए गुरुओं ने दो तरह से संदेश भेजा है। एक तो शास्त्रों से भेजा है, जो नहीं पहुंचा। वह कोशिश असफल गई। दूसरा स्वयं दिया है–आचरण से, अपने होने से, अपने होने के ढंग से; वही पहुंचा।

लेकिन वह होने का ढंग तो तभी पहुंच सकता है, जब गुरु मौजूद हो। इसलिए जब तक जीवित गुरु मिले, तब तक शास्त्र में भटकना ही मत। जब जीवित गुरु न मिल सके तभी शास्त्र में भटकना। जीवित गुरु के सामने शास्त्र दो कौड़ी का है। वह न हो तो शास्त्र का कोई उपयोग है। तब फिर टटोलना, अंधेरे में खोजना। लेकिन जिंदा अगर ले जाने को तैयार हो, तब रामायण और गीता पढ़ते मत बैठे रहना; क्योंकि तुम चूक रहे हो।

माध्यम से खबर भेजी जाए तो विकृत हो जाती है।

वह पक्षी गिर पड़ा वृक्ष से। यह आदमी अब इसमें कुछ भी बदल न सका। आचरण सीधी चोट करता है। यह आदमी अवाक रह गया। उस अवाक क्षण में इसके विचार भी चुप हो गये होंगे, जब पक्षी मरकर गिरा। एक क्षण को यह ध्यानस्थ हो गया होगा। पक्षी बड़ा ही होशियार था। उसने इस माध्यम का ठीक उपयोग किया। एक क्षण को जब पक्षी मरकर वृक्ष से गिरा होगा तो इसके विचार रुक गये होंगे क्योंकि घटना इतनी आकस्मिक थी! पक्षी कुछ कहता तो इस आदमी के विचार चलते रहते। यह सुनता; लेकिन इसके विचार उसमें मिश्रित हो जाते। शुद्ध ‘की’ न पहुंच पाती, शुद्ध कुंजी न पहुंच पाती। और कुंजी अगर जरा भी इरछी-तिरछी हो जाए तो ताले नहीं खोलती। कुंजी तो ताला तभी खोल सकती है–जब बिलकुल वैसी ही पहुंचे, जैसी दी गई। उसमें रत्ती भर भेद नहीं चाहिये क्योंकि ताला बड़ा सूक्ष्म है।

पक्षी गिरा।

यह आदमी अवाक रह गया। इसको धक्का भी लगा कि यह मैंने कौन-सी बात कही! कैसा अपशकुन अपने हाथ लिया! यह मृत्यु का जिम्मा मेरा हुआ, मैं हत्यारा बना–अकारण!

वापिस लौटा, पर इसे खयाल भी न आया कि इसके माध्यम से एक कुंजी भेजी जा रही है। इसे पता भी न चला। पता चलने का कोई कारण भी नहीं था। क्योंकि न कुछ कहा गया था, न कुछ सुना गया था। शब्द कहे होते तो यह संदेश समझता। आचरण भेजा जा रहा था। यह उसे खयाल में भी नहीं आया। यह कल्पना में भी नहीं उठा। तुम्हारी कल्पना में भी नहीं उठता। अगर उसको खयाल में आ जाता तो शायद वह खुद भी मुक्त हो जाने की कुंजी पा जाता।

अकसर ऐसा ही होता है कि सदगुरु ऐसे माध्यमों का उपयोग भी करता है, जिनको खुद भी पता नहीं चलता कि वे कुंजी ले जा रहे हैं; कि उनकी कुंजी किसी के जीवन की मुक्ति का द्वार खोल देगी। वे कुंजी के वाहक हैं, लेकिन खुद किसी द्वार को नहीं खोल पाते। ऐसा बहुत बार हुआ है।

महावीर के गणधर हैं, उनके शिष्य हैं, जिनके माध्यम से उन्होंने कुंजियां फैलाईं; लेकिन उनमें उनका खास शिष्य गौतम अंत समय तक भी अज्ञानी रहा। और वह सबसे कुशल था संदेशवाहक। महावीर जो संदेश उससे भेजते, वह शुद्ध पहुंच जाता। लेकिन अपनी कुंजी, अपने ताले को वह नहीं खोल पाया। यही इस आदमी के साथ हुआ।

ऐसा बहुत बार हुआ है। रामकृष्ण ने विवेकानंद के हाथ कुंजी भेजी सारी दुनिया में। कुछ लोगों ने उस कुंजी से ताले खोले, लेकिन विवेकानंद नहीं खोल पाये अपना ताला। उन्हें पता ही नहीं चला कि क्या हो रहा है।

यह कहानी बड़ी अदभुत है। उस आदमी को स्मरण भी न रहा, अनुमान भी न लगा, विचार भी न उठा कि कुछ उसके द्वारा भेजा जा रहा है। भेजनेवाला इतना कुशल है। अगर कुंजी कहकर दी जाए तो उसमें फर्क पड़ जाएंगे। अगर कुंजी कहकर दी जाए कि सम्हालकर रखना तो यह आदमी उसे खो भी सकता है। क्योंकि जब तुम किसी चीज को बहुत सम्हालते हो तो खोने का डर पैदा हो जाता है। जब तुम किसी हीरे को तिजोरी में रखते हो तो चोरी हो जाता है। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, वे हीरे को कचरे की टोकरी में रख देते हैं; वहां से कभी चोरी नहीं जाता। कचरे की टोकरी में कौन फिक्र करता है? तिजोरी…।

यह आया वापिस। पक्षी प्रतीक्षा कर रहा था। इसने कहा कि बड़ी अनूठी बात हो गई। भरोसा नहीं आता, दुखद घटना घटी है। तेरा कोई प्रेमी, तेरा कोई संबंधी अपना कोई निकट का रिश्तेदार, जब मैंने जंगल में जाकर कहा कि तुम्हारा एक साथी ऐसा-ऐसा पिंजरे में बंद है, पीड़ा में है, परतंत्र है, सुनते ही इतना दुखी हो गया–यह इसकी व्याख्या है–कि सुनकर इतना दुखी हो गया कि दुख में उसका प्राणांत हो गया। वह गिरा और मर गया।

लेकिन जब वह यह कहने में संलग्न था, तभी उसने देखा कि उसका खुद का पक्षी पिंजरे में गिरकर मर गया। पिंजरे की तलहटी में पड़ा है निष्प्राण। फिर भी वह न समझ पाया।

वाहक अकसर नहीं समझ पाते। पंडित शास्त्रों को ढोते हैं सदियों तक और नहीं समझ पाते। पंडित एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संदेश पहुंचा देते हैं, और उनके ताले बंद रहते हैं। वे कारागृह में रह जाते हैं।

फिर भी नहीं समझ पाया। तब भी उसने यही समझा कि यह बात ही कुछ गड़बड़ है। यह कहना ही उचित नहीं हुआ। इसका सगा-संबंधी वहां मर गया, उसके मरने की खबर सुनकर यह मर गया। यह मुझे बात ही नहीं उठानी थी। लेकिन जब पिंजरे में पक्षी मर गया तो खोलने के सिवाय कोई उपाय न था। पिंजरा उसने खोल दिया। खोलते ही वह हैरान हुआ, पक्षी फड़फड़ाया, आकाश की तरफ उड़ गया।

यह स्वतंत्रता का राज था। पक्षी समझ गया कि क्या है उपाय। पक्षी को नहीं बांधा हुआ है, यह वह समझ गया; पक्षी के जीवन को बांधा हुआ है। यह जो पिंजरा है, यह पक्षी के जीवंतता के लिये है, पक्षी के लिये नहीं है। पक्षी अगर मर जाये तो यह पिंजरा खतम हो जाता है। जिसने दरवाजा बंद किया, वह खुद ही खोल देगा। यही सूत्र है।

इस पिंजरे में जहां तुम हो, इस परतंत्रता में जहां तुम बंद हो, इन जंजीरों में जिनमें तुम घिरे हो, ये जंजीरें तुम्हारी जीवंतता के लिये हैं। तुम निष्प्राण हो रहो, इसी क्षण जिसने तुम्हें बांधा है, वे तुम्हारा द्वार खोल देंगे। फिर खुला आकाश तुम्हारा है। मृतवत हो रहो, अगर परम जीवन पाना है।

इसलिए जीसस कहते हैं, ‘जो बचायेगा अपने जीवन को, वह खो देगा। जो खोने को राजी है, उसका जीवन बच जाएगा।’

अगर तुम बचाओगे, तुम पिंजरे में रहोगे। तुम अपने ही हाथ लुटा दो, पिंजरा बेकार हो जाता है।

मृतवत हो जाने का क्या अर्थ हो सकता है?

मृतवत हो जाने का अर्थ है, तुम्हारी कोई वासना न हो, तुम्हारी कोई चाह न हो। क्योंकि चाह जीवन का पर्याय है, वासना जीवन का पर्याय है। जब तक तुम मांगते हो, चाहते हो, तब तक तुम जीवित हो। मुर्दा में और तुम में फर्क क्या है? क्योंकि मुर्दा कुछ मांगता नहीं; उसकी कोई चाह नहीं। मुर्दे में और तुममें फर्क क्या है? कि मुर्दा जहां है, वहीं रहता है, तुम यात्रा करते हो। तुम्हारी आकांक्षा तुम्हें भविष्य में दौड़ाती है। मुर्दा वर्तमान में है, तुम भविष्य में हो; बस यही फर्क है। श्वास चलने न चलने से किसी के जीवित और मुर्दा होने का सवाल नहीं है। जिस व्यक्ति की वासना मिट गई वह मृतवत हो गया।

इसलिये जो लोग जीवन के पक्षपाती हैं–जैसे नीत्शे; नीत्शे कहता है कि भारतीयों की बात भूलकर भी मत सुनना। बुद्ध और महावीरों से दूर रहना क्योंकि ये खतरनाक लोग हैं। इनका खतरा यह है, वह कहता है कि अगर तुमने इनकी बात मानी तो तुम मृतवत हो जाओगे। तुम मर जाओगे। और जीवन है जीवन के लिये। ‘अगर तुम्हें जीना है तो मेरी सुनो।’ नीत्शे कहता है, ‘फैलाओ अपनी वासना को, जितनी फैला सको। बढ़ाओ अपनी आकांक्षा को, जितनी बढ़ा सको। तुम्हारी महत्वाकांक्षा क्षितिज को छू ले और उसके भी पार निकल जाए। तुम रुकना मत अपनी वासना में, तो ही तुम जी सकोगे।’ वह भी ठीक कह रहा है। क्योंकि वह दूसरा पहलू है। अगर जीना है तो महत्वाकांक्षा को फैलाओ।

लेकिन जितनी बड़ी महत्वाकांक्षा होती है, उतना ही छोटा पिंजरा हो जाता है। इसलिए सम्राट जिस बुरी तरह कैद होता है, भिखारी उस बुरी तरह कैद नहीं होता। सम्राट का महल अपने ही हाथ से बनाया हुआ कारागृह है। सम्राट के महल में और कारागृह में इतना ही फर्क है कि कारागृह में हम सिपाही को खड़ा करते हैं ताकि भीतर का आदमी बाहर न चला जाए। सम्राट के महल में सिपाही को खड़ा करते हैं ताकि बाहर का आदमी भीतर न चला जाए। बाकी सिपाही खड़ा है और कारागृह बराबर है। फर्क इतना ही है कि यह खुद का बनाया कारागृह है; इसलिए सम्राट को समझ में आता है कि मैं गुलाम हूं। कारागृह जब दूसरे बनाते हैं, तब तुम्हें समझ में आता है तुम गुलाम हो। जब तुम खुद ही बनाते हो तो मेहनत भी करते हो, गुलाम भी हो जाते हो। पिंजरे तुम खुद ही ढालते हो। तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं तुम्हारे पिंजरे बन जाती है।

नीत्शे भी ठीक कहता है, वह दूसरा पहलू है। वह बात तो ठीक ही कह रहा है। बुद्ध के विपरीत नहीं है बात, अगर समझो तो ठीक वही है। नीत्शे कह रहा है, ‘अगर तुम जीवन को चाहते हो तो बढ़ाओ आकांक्षा को, महत्वाकांक्षा को। और तनाव से घबड़ाओ मत, तनाव तो जीवन का हिस्सा है। अशांति से बेचैन मत होओ क्योंकि अशांति के बिना तो तुम मर जाओगे। जीवन अशांति है। शांति की कामना मत करो क्योंकि शांति तो केवल मरे हुए को मिल सकती है। जब तक जी रहे हो तब तक कैसे तुम शांत होओगे?

और नीत्शे कहता है, ‘जितनी बड़ी तुम्हारी महत्वाकांक्षा, उतनी जीवन की ऊर्जा तुम्हारे भीतर बहेगी। तुम मृत्यु को मानो ही मत। तुम शाश्वत जीवन को चाहो–फार एवर…फार एवर। जो सदा चलता रहे, ऐसे जीवन की आकांक्षा करो। मृत्यु को मानो ही मत। और अपने जीवन के लिये अगर तुम्हें दूसरों को मिटाना पड़े तो भय मत करो, मिटाओ। क्योंकि जीवन सदा दूसरे के जीवन पर जीता है।’

नीत्शे की बात मानकर हिटलर पैदा हुआ; वह नीत्शे का शिष्य। तो उसने लाखों लोग काट डाले। दूसरे को मिटाओ क्योंकि यही तुम्हारे जीवन का ढंग है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। बड़ा वृक्ष छोटे वृक्ष को सुखा देता है। जमीन से सारा पानी खींच लेता है, छोटा वृक्ष सूख जाता है। बड़े होओ, छोटे हो सुखाओ; और डरो मत। दुर्बल को मिटाओ ताकि तुम सफल हो सको।

यह एक दृष्टि है, जिसको चाहे हम बौद्धिक रूप से स्वीकार करें न करें, हम सब व्यवहार करते हैं। यही हमारा आचरण है। बुद्ध और महावीर, या सूफी फकीर कहते हैं कि यह तुम्हारा आचरण ही तुम्हारा कारागृह है। तुम दुखी ही रहोगे। तुम्हारी वासनाएं तुम्हारे चारों तरफ जंजीरें बन जाएंगी। तुम जितना चाहोगे, उतने ही बंधोगे।

एक और भी जीवन है अचाह का; लेकिन उस जीवन की कला मरना सीखना है। इसलिये सब धर्म मृत्यु की कला है। कैसे तुम मिटो! लेकिन ध्यान रहे, मिटकर भी तुम मिटोगे नहीं; तुम्हारा जो व्यर्थ है, वही मिटेगा। तुम उसी दीये को बुझा सकते हो जो तेल बाती वाला है। जो दीया बिन बाती बिन तेल जल रहा है, उसे तुम बुझा भी न सकोगे। तुम उसी को मिटा सकोगे, जो तुम नहीं हो। जो तुम हो, उसे तो मिटाया ही नहीं जा सकता। इसलिए जब धर्म कहता है: मरो तो वही मरेगा, जो मरणधर्मा है। वह मरा ही हुआ है। लेकिन जो तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन है, वह तो मरेगा नहीं।

पक्षी भी सिर्फ मरने का बहाना कर रहा था। उसके भीतर असली तो मरा नहीं था; नहीं तो उड़ता कौन? पक्षी भी मरकर बहाना कर रहा था, अभिनय कर रहा था। सिर्फ मृतवत पड़ा था, मृत था तो नहीं। यह तो टेकनिक था। यह तो विधि थी। लेकिन विधि कारागृह के मालिक को धोखा दे गई। विधि ने काम किया। उसने दरवाजा खोल दिया। जीवन की धारा तो भीतर बह रही थी। वह तो कभी मिटती नहीं। वह तो अकारण है। वह तो सदा है। उसका कोई अंत और प्रारंभ नहीं। वह धारा उड़ गई आकाश में।

तुम भी जब मरने का बहाना करोगे, तब तुम्हारे भीतर जो मरा हुआ है वही…तुम्हारे भीतर जो जीवन की धारा है, वह नहीं मरती। इसलिए संन्यास मृतवत होने की कला है। ‘मृतवत’–ध्यान रखना, तुम मर नहीं जाते हो, मृतवत हो जाते हो। तुम्हारे भीतर जो जग रहा है, जी रहा है, वह तो जीता है; और भी प्रगाढ़ता से जीता है क्योंकि तुम्हारे शरीर का धुआं उस पर नहीं होता। ज्योति निर्धूम जलती है। और जैसे ही एक बार लोगों ने समझा कि तुम मृतवत हो, तुम कारागृह के बाहर हो। खुला आकाश तुम्हारा है।

यह सूफियों की कुंजी है। यह समस्त सूफियों की कुंजी है–वह सूफी कहीं भी पैदा हुए हों।

महावीर संन्यस्त होना चाहते थे। मां ने कहा, ‘बात मत उठाना मेरे सामने जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक यह बात मत उठाना। मुझे बड़ा दुख होगा। मैं मर जाऊंगी।’ महावीर चुप हो गये। फिर मां चल बसी। पिता भी चल बसे। मरघट से लौटते वक्त महावीर ने अपने बड़े भाई को कहा कि अब आज्ञा दे दो, कि मैं संन्यासी हो जाऊं। यह मां और पिता के लिये रुका था कि उनको दुख न हो। भाई ने कहा, कि तू भी हद्द पागल है! अभी हम घर भी नहीं लौटे, मां को दफनाकर आ रहे हैं, मुझ पर इतना बड़ा दुख टूटा और तू संन्यास लेना चाहता है? यह बात मत उठाना।

महावीर चुप हो रहे। फिर उन्होंने यह बात न उठाई। दो साल बीत गये। लेकिन घर के लोगों को धीरे-धीरे भूल ही गया कि महावीर घर में है। वे मृतवत हो रहे। उठते, चलते, बैठते, लेकिन न किसी का विरोध, न किसी के मार्ग में आते, न कोई सलाह देते; जैसे थे ही नहीं। जैसे हवा का एक झोंका हो गए–आया, गया! किसी को पता भी न चलता। घर के लोगों को कई दिन बीत जाते और खयाल न आता कि महावीर क्या कर रहे हैं और क्या हैं, कहां हैं?

आखिर घर के लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा हम इस आदमी को व्यर्थ ही रोके हैं, यह तो जा चुका। पिंजरा हम बेकार ही बंद करे हैं, यह तो मर चुका। तो घर के लोग इकट्ठे हुए; और बड़े भाई ने प्रार्थना की, कि तुम जाओ क्योंकि हम तुम्हें रोक न सके। तुम्हारा इस भांति होना न होना बराबर है। हम क्यों पाप के भागीदार बनें? तुम हो ही नहीं इस घर में। यह महल तुम्हें भूल ही गया। तुम कब आते हो छाया की तरह, तुम कब जाते हो, कुछ पता नहीं चलता।

झेन फकीर कहते हैं, संन्यासी ऐसा हो जाता है जैसे वृक्ष की छाया। छाया–वृक्ष डोलता है तो छाया भी डोलती है, लेकिन छाया के डोलने से जमीन पर पड़ी धूल में कोई विघ्न-बाधा नहीं पड़ती। छाया डोलती है लेकिन धूल हिलती भी नहीं। धूल को पता भी नहीं चलता, कोई ऊपर बुहारी मार रहा है। लेकिन छाया की कोई बुहारी है? महावीर छाया की भांति हो गये–मृतवत।

सूफी कहानी ठीक ही कहती है। घर के लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा, तुम जाओ भी। उन्होंने पिंजरा खोल दिया कि जो मृतवत हो चुका है उसे हम अब क्या रोकेंगे? अब रोकने को कुछ बचा नहीं। जिसकी वासना जा चुकी उसे हम कैसे रोकेंगे? उसके लिये घर ही जंगल हो गया। उसके लिये महल एकांत हो गया। वहां कोई न रहा।

तुम भीड़ में हो क्योंकि तुम्हारी वासना है। तुम्हारी चाह ही तुम्हारी भीड़ है। तुम घर में बंधे हो क्योंकि तुम्हारी महत्वाकांक्षा है। महत्वाकांक्षा ही तुम्हारा घर है। जिस दिन तुम मृतवत हो–इसको सूत्र समझो। इस भांति जीयो जैसे तुम हो ही नहीं। फिर देखो, क्या घटता है। धीरे-धीरे लोग तुम्हें भूल जाएंगे।

तुम्हें डर लगता है कि लोग भूल न जाएं इसलिए तुम हर हालत कोशिश करते हो कि उनको पता चलता रहे कि तुम हो। घर तुम जाते हो तो जोर से कदम रखते हो, सामान गिराते हो, आवाज करते हो ताकि पता चलता रहे कि तुम हो। बेटा कहता है, ‘जरा मैं बाहर खेल आऊं?’ कोई हर्ज नहीं है कि वह बाहर खेल आये। तुमसे नहीं पूछता, पूछने की भी कोई जरूरत नहीं; लेकिन तुम कहते हो–‘नहीं’। ‘नहीं’ से पता चलता है कि तुम हो। हां कहोगे, तो किसको पता चलेगा?

संन्यासी अपने को हटा लेता है दूसरों के मार्ग से। वह शोरगुल नहीं करता। वह किसी को बाधा नहीं देता। वह छाया की भांति हो जाता है। डोलता जरूर है, लेकिन धूल हिलती नहीं। ऐसा–नहीं जैसा हो जाने का नाम संन्यास है। और वही कुंजी है संसार के बाहर जाने की। तुम संन्यस्त हुए कि जिनने तुम्हें कारागृह में बांधा है, वे द्वार खोल देंगे। अगर वे द्वार अभी भी बंद किए हैं तो उसका मतलब इतना है कि तुम अभी संन्यस्त नहीं हुए। तुम मरकर गिरे नहीं। तुम अभी भी बैठे, जागे, जीवन से भरे, इच्छा से भरे बैठे हो।

और आखिरी बात समझ लेना; अगर तुम्हारे मन में मुक्त होने की इच्छा भी रह गई तो भी यह पिंजरा खुलेगा नहीं।

अगर वह पक्षी सोचता–जैसा कि तुम सोचोगे, तुम्हारा मन सोचेगा–अगर वह पक्षी सोचता कि यह मेरा मालिक इतनी करुणा से भर गया है उस पक्षी के मरने से, कि शायद अब मुझे मुक्त कर दे! और वह आंखें टकटकी लगाये इस मालिक की तरफ देखता, क्या तुम आशा करते हो, यह मालिक उसका पिंजरा खोलता? यह पिंजरा खुलने वाला नहीं था। यह चाहे कितनी ही करुणा से भर गये हों, यह सब करुणा ऊपर-ऊपर है। करुणा इतनी नहीं है कि पिंजरा खोल देता। यह तो उसने सोचा भी नहीं था कि पिंजरा जाकर खोलना है। यह तो खयाल भी नहीं आया था। अगर इतनी भी वासना इसमें बचती तो यह कुंजी चूक जाता। मोक्ष की आकांक्षा भी मोक्ष में बाधा बन जाती है। न, यह तो समझ ही गया सार।

सूफियों की एक दूसरी कहानी है, बिलकुल ठीक इसके समानांतर।

एक सूफी फकीर नदी में स्नान कर रहा है। एक बड़े दार्शनिक ने जाकर उससे नदी के किनारे खड़े होकर पूछा, ‘मैं कई दिनों से तुम्हारी तलाश कर रहा हूं। लोग कहते हैं, तुम्हें मुक्ति का राज मिल गया। मैं पूछने आया हूं, और आज तुम्हें मैंने मौके पर पकड़ लिया है, नदी में स्नान करते। तुम मिलते ही नहीं। तुम कहां जाते हो, कहां ठहरते हो, तुम्हारा कोई पता-ठिकाना नहीं। जहां खोजने जाता हूं वहां पता चलता है, तुम कहीं और चले गये। वहां जाता हूं, पता चलता है, तुम कहीं और चले गये। आज ठीक वक्त पर पकड़ लिया है।’

नदी के किनारे ही खड़े उसने पूछा कि मुक्ति का राज क्या है?

उसका यह कहना था, कि फकीर एकदम जैसे मर गया और नदी की धारा उसे बहाकर ले गई।

उस दार्शनिक ने कहा, यह भी बड़ी भूल हो गई। क्या मैंने ऐसी बुरी बात पूछी, कि इस आदमी के प्राण ही निकल गये? और यह फिर हाथ से निकल गया। और अब इसे कहां पाऊंगा? यह तो मर ही गया। वह वापिस लौट आया, जीवन-मरण के संबंध में बड़े विचार करता हुआ; बड़े सिद्धांत, शास्त्रों के उद्धरण भीतर दोहराता हुआ। समझाता हुआ कि आत्मा तो अमर है; दुख की कोई बात नहीं। और यह फकीर तो ज्ञानी था।

लेकिन कुंजी चूक गई। जब उसने कभी वर्षों बाद किसी दूसरे फकीर से पूछा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि वह आदमी इतना बड़ा ज्ञानी था, कम से कम उत्तर देकर तो मरता! इतना तो कर ही सकता था कि दो शब्द कह देता। लेकिन मैंने प्रश्न किया, उसने उत्तर भी न दिया और नदी की धारा उसे ले गई। हुआ क्या एकदम से? भला-चंगा था, ऐसा मेरा प्रश्न सुनते ही क्या हुआ?

उस फकीर ने कहा, ‘नासमझ! वह बोला और तू सुन न पाया। उसने कहा और तू समझ न पाया। उसने सारी बात कह दी। यह तरकीब है, नदी की धार में मर जाओ और बह जाओ।

जब तक तुम जिंदा हो, तुम धार से लड़ते हो। तो विरोध करते हो, संघर्ष करते हो। क्योंकि संघर्ष में अहंकार निर्मित होता है। जीत-हार जहां-वहां अहंकार को मजा है। जब तुम मर जाते हो, नदी की धार बहा ले जाती है।

उस आदमी ने दो बातें कह दीं कि तुम मृतवत हो जाओ, और जीवन की धार को बहने दो; तुम बाधा मत दो। तुम पहुंच जाओगे उस महासागर में, जिसकी तलाश है।

‘मरना’ और ‘बह जाना’–दो सूत्र हैं।

इस कहानी को सोचना मत; बस सुनना और गिरकर मर जाना। पिंजरे में बैठकर सोचकर दार्शनिक मत बनना, नहीं तो चूक जाओगे। इसे सोचना मत। यह कुंजी है; घुमाना, ताला खुल जाएगा।

भोजन करते वक्त ऐसे भोजन करना, जैसे तुम नहीं हो। चलते वक्त ऐसे चलना जैसे तुम नहीं हो। बोलते वक्त ऐसे बोलना कि बोलते न बोलते बराबर है। सिंहासन मिल जाए तो ऐसे बैठ जाना जैसे कि मजबूरी है, बैठ गये। सिंहासन खो जाए तो ऐसे उतर आना, जैसे अपनी कुर्सी से नीचे उतर आते हो, काम में लग जाते हो। ‘नहीं हो’–नहींवत! उठना, बैठना, सब करना, लेकिन ऐसे हो जाना, जैसे शून्य हो। जल्दी ही पिंजरे का द्वार तुम खुला पाओगे।

तुम्हारी भीतरी शून्यता ही खुला द्वार है। और तब जहां भी तुम हो, वहीं आकाश है; वहीं मुक्ति है।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–38

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बुद्धों का मनोविज्ञान का निर्माण—(प्रवचन—अट्ठाहरवां)

प्रश्‍नसार:

 1—बुद्धो का मनोविज्ञान बनाने के लिए बुद्धो का अध्ययन करना होगा। तो बुद्ध मिलेंगे कहा?

 2—बुद्धों का मनोविज्ञान क्या है? वह अब तक निर्मित क्यों नहीं हो सका?

 3—आपके पास आ कर मैं खुश और शांत हो गया हूं। क्‍या मेरे लिए, ध्यान जरूरी है?

 4—गर्भकालीन दशा और फिर गर्भ से बाहर आने का अनुभव सुखद है या दुखद?

 5—साधक—समूह या सदगुरू की क्‍यों जरूरत है? क्‍या अकेले ध्‍यान करना पर्याप्त नहीं है?

 6—प्रतिप्रसव और अनसीखा करना क्‍या एक ही विधि है?

7—अच्‍छा—बुर—सब स्‍वप्‍नवत है, तो कर्म का सिद्धांत कैसे अस्‍तित्‍व रख सकता है?

पहला प्रश्न:

 

आपने कहा कि आप तीसरे प्रकार का मनोविज्ञान विकसित करने का प्रयत्न कर रहे बुद्धों का मनोविज्ञान; लेकिन अध्ययन करने के लिए आपको बुद्ध मिलेंगे कहां?

शुरुआत करने को, एक तो यहां मौजूद ही है, देर — अबेर वह तुममें से बहुतों को बुद्ध बना देगा। यदि एक बुद्ध होता है, तो बहुत से तुरंत ही संभव हो जाते हैं। क्योंकि वह एक बुद्ध कार्य कर सकता है कैटेलिटिक एजेंट, प्रेरक —शक्ति के रूप में। ऐसा नहीं कि वह कुछ करेगा, लेकिन क्योंकि वह मौजूद होता, इसी कारण चीजें अपने से ही होने लगती है। यह अर्थ है कैटेलिटिक एजेंट, प्रेरक —शक्ति का। देर — अबेर, तुममें से बहुत सारे लोग बुद्ध हो जाएंगे, क्योंकि हर कोई मौलिक रूप से बुद्ध ही होता है। इसे पहचानने में कितनी देर लगा सकते हो तुम? कितनी देर तक स्थगित कर सकते हो इसे? कठिन बात है —तुम अपनी पूरी कोशिश करोगे स्थगित करने की, देर करने की, लाखों कठिनाइयां खड़ी करने की, लेकिन कितनी देर तक ऐसा कर सकते हो तुम?

मैं यहां हूं तुम्हें किसी तरह अतल शून्य में धकेल देने को, जहां तुम मरते हो और बुद्ध उत्पन्न होते हैं। उस एक बुद्ध को पा लेने की ही तो सदा समस्या होती है। एक बार वह एक बुद्ध मौजूद हो जाता है तो मौलिक संपूर्ति, मौलिक जरूरत पूरी हो जाती है। तब बहुत सारे बुद्ध तुरंत संभव हो जाते हैं। और यदि बहुत होते हैं, तो हजारों संभव हो जाते हैं। जो पहला है वह कार्य करता है एक चिंगारी की भांति, और एक छोटी —सी चिंगारी काफी होती है सारी पृथ्वी को जला देने के लिए। इसी तरह ही घटा है अतीत में। एक बार गौतम हो गए बुद्ध, तो धीरे — धीरे हजारों को होना पड़ा। क्योंकि यह सवाल होने का नहीं, तुम वह हो ही। किसी को तुम्हें याद दिलाना पड़ता है, बस यही होती है बात।

अभी एक दिन मैं रामकृष्ण की एक कथा पढ़ रहा था। मुझे प्यारी लगती है वह। मैं फिर —फिर पढ़ता हूं उसे जब कभी मेरे सामने आ जाती है वह। वह सारी कथा गुरु के कैटेलिटिक उत्पेरक होने की ही है। कथा है एक बच्चे को जन्म देते हुए एक शेरनी मर गई, और बच्चे को पाला —पोस। बकरियों ने। निस्संदेह, बाघ स्वयं को इस तरह बकरी ही समझता था। यह बात सहज थी, स्वाभाविक थी, बकरियों द्वारा पाले जाने से, बकरियों के साथ रहने से, वह समझने लगा कि वह बकरी था। वह शाकाहारी बना रहा, घास ही खाता —चबाता रहा। उसके पास कोई धारणा न थी। अपने स्वप्नों तक में भी वह स्वप्न न देख सकता था कि वह बाघ था, और वह था तो बाघ।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि एक के बाघ ने बकरियों के इस झुंड को देखा और वह का बाघ विश्वास न कर सका अपनी दृष्टि पर। एक युवा बाघ चल रहा था बकरियों के बीच। न तो बकरियां भयभीत थीं उस बाघ से और न उन्हें पता था कि बाघ उनके बीच चल रहा था, बाघ भी बकरी की भांति ही चल रहा था।

वृद्ध बाघ ने बस किसी तरह जा पकड़ा युवा बाघ को, क्योंकि कठिन था उसे पकड़ पाना। वह तो भागा—ऐसी कोशिश की उसने, वह रोया, चीखा —चिल्लाया। वह भयभीत था, वह कैप रहा शा भय से। सारी बकरियां भाग निकलीं और वह भी उनके साथ भाग जाने की कोशिश में था, लेकिन के बाघ ने उसे पकड़ लिया और उसे खींचता हुआ ले चला झील की ओर। वह जाता न था। उसने उसी ढंग से बाधा डाली जैसे कि तुम मेरे साथ कर रहे हो! उसने अपनी ओर से पूरी कोशिश की न जाने की। वह मरने की हालत तक डरा हुआ था, चीख रहा था और रो रहा था, लेकिन वह का बाघ तो उसे जाने न देगा। का बाघ अभी भी खींचता था उसे और वह उसे ले गया झील की तरफ।

झील शांत, निस्तरंग थी किसी दर्पण की भांति। उसने युवा बाघ को बाध्य किया पानी में झांकने के लिए। उसने देखा, आंसू भरी आंखों से —दृष्टि साफ न थी लेकिन दृष्टि थी तो—कि वह लगता था एकदम वृद्ध बाघ की भांति ही। आंसू मिट गए और होने का एक नया बोध उदित हुआ; बकरी मिटने लगी मन से। अब कोई बकरी न थी, लेकिन तो भी वह विश्वास न कर सका उसके अपने ज्ञान के जागरण पर। अभी भी शरीर कुछ कांप रहा था, वह भयभीत था। वह सोच रहा था, ‘शायद मैं कल्पना ही कर रहा हूं। एक बकरी ऐसे अचानक ही बाघ कैसे बन सकती है। यह संभव नहीं, ऐसा कभी हुआ नहीं। ऐसा इस तरह से कभी नहीं हुआ।’ वह विश्वास न कर सका अपनी आंखों पर, लेकिन अब वह पहली चिंगारी, प्रकाश की पहली किरण उसकी अंतस—सत्ता में प्रवेश कर गई थी। सचमुच ही अब वह वही न रहा था। वह कभी फिर से वही न हो सकता था।

वह वृद्ध बाघ उसे ले गया अपनी गुफा में। अब वह उतना प्रतिरोधी नहीं था, उतना अनिच्छुक न था, उतना भयभीत न था। धीरे — धीरे वह निर्भीक हो रहा था, साहस एकत्र कर रहा था। जैसे ही वह गया गुफा की ओर, वह चलने लगा बाघ की भांति। के बाघ ने उसे कुछ मांस खाने को दिया। यह बात कठिन है शाकाहारी के लिए, करीब—करीब असंभव, उबकाई लाने वाली, लेकिन का बाघ तो कुछ सुनता ही न था। उसने उसे मजबूर किया खाने के लिए। जब युवा बाघ की नाक मास के निकट आई तो कुछ हो गया. उस गंध से उसके प्राणों की कोई गहरी बात जो कि सोई पड़ी थी जाग गयी। वह खिंच गया, आकर्षित हो उठा मास की ओर, और वह खाने लग गया। एक बार उसने स्वाद चख लिया मांस का, एक गर्जन फूट पड़ी उसके प्राणों से। बकरी विलीन हो गई उस गर्जन में, और बाघ वहा मौजूद था अपने सौंदर्य और भव्यता सहित।

यही है सारी प्रक्रिया। और एक के बाघ की जरूरत होती है। यही है तकलीफ का बाघ है यहां, और चाहे कैसे ही कोशिश करो बच निकलने की, इस ढंग से और उस ढंग से, वैसा संभव नहीं। तुम अनिच्छुक होते हो; झील तक तुम्हें ले चलना कठिन है, लेकिन मैं तुम्हें ले चलूंगा। तुम घास खाते रहे जीवन भर। तुम बिलकुल भूल ही चुके हो मांस की गंध, लेकिन मैं तुम्हें बाध्य करू दूंगा उसे खाने के लिए। एक बार स्वाद मिल जाए तो गर्जना फूट पड़ेगी। उस विस्फोट में बकरी तिरोहित हो जाएगी और बुद्ध उत्पन्न होंगे। तो तुम्हें इसमें चिंता करने की जरूरत नहीं कि मुझे अध्ययन करने के लिए इतने सारे बुद्ध कहां मिलेंगे! मैं निर्मित करूंगा उन्हें।

दूसरा प्रश्न :

 

बुद्धों के मनोविज्ञान से आपका क्या अर्थ है? पूरब में हजारों बुद्ध हुए हैं क्या उन्होंने बुद्धों का मनोविज्ञान निर्मित नहीं किया? क्या कपिल कणाद बादरायण पतंजलि इत्यादि जैसे संतों ने तीसरे मनोविज्ञान को प्रतिष्ठित नहीं किया?

हीं, अभी तक तो नहीं। बहुत—सी समस्याएं हैं। तीसरे मनोविज्ञान की स्थापना करने के लिए पहले दो जरूरतें पूरी करनी पड़ती हैं। यदि तुम तिमंजला मकान बनाते हो तो पहले दो मंजिलें पूरी बनानी होती हैं, और केवल तभी तीसरी बनाई जा सकती है।

अतीत में, रूग्‍ण आदमी के लिए मनोविज्ञान का कभी अस्तित्व नहीं रहा, पहले प्रकार के मनोविज्ञान का कभी अस्तित्व न था। किसी ने परवाह नहीं की मानसिक रोग के क्षेत्र में प्रवेश करने की; विशेष कर पूरब में तो ऐसा नहीं हुआ। किसी ने परवाह नहीं की। क्योंकि रोग से छुटकारा मिल सकता था उसमें जाए बिना। उसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत न थी। रुग्ण मन में यात्रा करने की कोई जरूरत न थी, इस बारे में कुछ भी करने की जरूरत न थी। कुछ विशेष विधियां अस्तित्व रखती थीं, अभी भी वे विधियां अस्तित्व रखती हैं। तुम उसे एकदम अलग कर सकते थे।

उदाहरण के लिए, जापान में जब कोई आदमी पागल होता है, कोई न्यूरोटिक होता है, वे उसे ले जाते हैं झेन मठ में, वे उसे ले जाते हैं नगर के धार्मिक व्यक्तियों के पास। यह सर्वाधिक प्राचीन तरीकों में से एक तरीका है उसे ले जाते हैं धार्मिक पुरुष के पास। और क्या किया जाता है मठ में? कुछ नहीं। —वस्तुत: कुछ नहीं किया जाता है। जब कोई पागल आदमी लाया जाता है मठ में, तो वे विश्लेषण करने की, निदान करने की फिक्र नहीं लेते। वे इस बारे में सोचने की चिंता नहीं करते कि यह किस प्रकार का रोग है। इसकी कोई जरूरत नहीं होती, क्योंकि रोग हटाया जा सकता है। वे पागल आदमी को मठ से दूर किसी अलग कमरे में रख छोड़ते हैं एक कोने में, कहीं पीछे। उसकी आवश्यकताएं पूरी की जाती हैं : भोजन दिया जाता है और जो कुछ उसे चाहिए, वह दिया जाता है, लेकिन कोई उसके विषय में बात नहीं करता, कोई उसके पागलपन पर ध्यान नहीं देता। पूरब जानता है कि जितना ज्यादा तुम उस पर ध्यान देते हो, उतना ज्यादा तुम पोषित करते हो पागलपन को सारा मठ बना ‘रहता है, उदासीन, तटस्थ—जैसे कि कोई अंदर आया ही न हो।

उदासीनता एक विधि है, क्योंकि एक पागल आदमी को सचमुच ही चाहिए होता है ज्यादा ध्यान। शायद ऐसा हो कि वह मात्र अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने को ही पागल हो गया हो। इसलिए मनोविश्लेषण कोई ज्यादा मदद नहीं दे सकता। क्योंकि मनोविश्लेषक इतना ज्यादा ध्यान देते हैं पागल पर, न्यूरोटिक पर, साइकोटिक पर, कि वह उस ध्यान पर पोषित होने लगता है : कई वर्षों से बराबर कोई ध्यान दे रहा होता है तुम पर।

तुमने ध्यान दिया होगा कि न्यूरोटिक लोग सदा दूसरों को बाध्य करते हैं अपनी ओर ध्यान देने के लिए। यदि वे ध्यान पा सकते हों तो वे कुछ भी करेंगे। झेन मठ में वे कोई ध्यान नहीं देते, वे उदासीन बने रहते हैं। कोई परवाह नहीं करता, कोई नहीं सोचता कि वह पागल है, क्योंकि यदि सारा समूह सोचे कि वह पागल है तो वह सोचना ऐसी तरंगें निर्मित कर देता है जो कि पागल को पागल बने रहने देने में मदद करती हैं। तीन सप्ताह, चार सप्ताह के लिए पागल आदमी को उसके अपने साथ रहने दिया जाता है। आवश्यकताएं पूरी की जाती हैं, लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया जाता; कोई विशिष्ट ध्यान नहीं अलगाव कायम किया जाता है। कोई नहीं सोचता कि वह पागल है। और तीन या चार सप्ताह के भीतर ही, वह पागल, अपने साथ रहते हुए ही, धीरे— धीरे बेहतर होता चला जाता है। पागलपन घटता जाता है।

अभी भी झेन मठों में वे यही कुछ करते हैं। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक इस तथ्य के प्रति सचेत हो गए हैं। बहुत से लोग गए हैं जापान यह अध्ययन करने के लिए कि होता क्या है। और वे बिलकुल हैरान हो गए। वे वर्षों तक कार्य किए हैं और कुछ घटित नहीं होता है, और झेन मठ में बिना कुछ किए ही पागल आदमी को उसके स्वयं के पास छोड़ देने से चीजें ठीक होने लगती हैं। पागल आदमी को चाहिए पृथकता। उन्हें चाहिए विश्राम, उन्हें चाहिए अलगाव, उपेक्षा, और वे लहरें, वे तनाव जो उनके मन में उठ रहे थे, वे एकदम विलीन हो जाते हैं। चौथे सप्ताह बाद वह आदमी तैयार हो जाता है मठ छोड़ देने के लिए। वह धन्यवाद देता है वहां के लोगों को, मठ के अधिकारियों को और दूसरों को, और चला जाता है। वह पूरी तरह ठीक होता है।

पूरब में इस कारण, इन विधियों के कारण, पहली प्रकार का मनोविज्ञान कभी विकसित नहीं हुआ था। और जब तक पहली प्रकार का मनोविज्ञान मौजूद न हो, दूसरी प्रकार का असंभव हो जाता है। रुग्ण मन को समझ लेना है उसके विस्तार में। पागल आदमी को ठीक होने में मदद देना एक बात है पागलपन का मनोविज्ञान निर्मित करना दूसरी बात है। वैज्ञानिक पहुंच की आवश्यकता है, ब्यौरे भरे विश्लेषण चाहिए। पश्चिम में उन्होंने कियो है ऐसा, पहले प्रकार का मनोविज्ञान वहां है। फ्रायड, का, एडलर और दूसरे कइयों ने रुग्ण आदमियों के लिए मनोविज्ञान निर्मित किया है। शायद वे उन लोगों की जो कि मुसीबत में होते हैं, बहुत ज्यादा मदद नहीं कर सकते, लेकिन उन्होंने एक और जरूरत पूरी की है। वह जरूरत वैज्ञानिक है उन्होंने निर्मित किया है पहले प्रकार का मनोविज्ञान। तुरंत ही दूसरे प्रकार का संभव हो जाता है। दूसरा है स्वस्थ आदमी का मनोविज्ञान।

दूसरे मनोविज्ञान के अंश पूरब में सदा अस्तित्व रखते रहे, लेकिन अंश ही, टुकड़े ही बने रहे, कभी संबद्ध संपूर्णता नहीं बने। टुकड़े ही क्यों?—क्योंकि धार्मिक लोगों को इसमें रुचि थी कि साधारण, स्वस्थ व्यक्ति को इंद्रियों के अनुभव के पार कैसे बढ़ाए। थोड़ी खोज की है उन्होंने, गहरे विस्तार में नहीं, एकदम अंत तक नहीं, क्योंकि उन्हें किसी मनोविज्ञान को निर्मित करने में कोई रुचि न थी। उन्हें रस था मात्र किसी आधार को खोज लेने में, ठोस मन का कोई ऐसा आधार तल जहां से कि ध्यान में छलांग लगाई जा सके। उनकी रुचि अलग थी। उन्होंने सारे क्षेत्र की कोई परवाह नहीं की!

जब कोई आदमी बस छलांग लगा लेना चाहता है नदी में —तो वह सारे किनारे की खोज नहीं करता। वह ढूंढ लेता है स्थान, कोई छोटी चट्टान और वहा से वह छलांग लगा देता है। सारे क्षेत्र को खोजने की कोई जरूरत नहीं। दूसरे मनोविज्ञान के अंश अस्तित्व रखते थे पूरब में। वे मौजूद हैं पतंजलि में, बुद्ध में, महावीर में’ और कई दूसरों में —बस थोड़े से ही टुकड़े, पूरे क्षेत्र का एक हिस्सा ही। सारी

पहुंच वैज्ञानिक न थी, पहुंच धार्मिक थी। ज्यादा की जरूरत न थी। तो इसकी फिक्र क्यों लेते वे? मात्र छोटी —सी भूमि को साफ कर लेने से ही, वहा से वे उड़ान भर सकते थे अपरिसीम में। सारे जंगल को साफ करने की कोशिश ही क्यों करनी? —और यहां एक विशाल जंगल है।

मानव —मन एक विशाल घटना है। रुग्ण मन स्वयं में ही एक बड़ी घटना है। स्वस्थ तो और भी ज्यादा बड़ा होता है रूग्‍ण मन से, क्योंकि रूग्‍ण मन तो मात्र एक हिस्सा होता है स्वस्थ मन का, वह संपूर्ण बात नहीं। कोई कभी पूरी तरह पागल नहीं होता है, कोई हो नहीं सकता। केवल एक हिस्सा ही पगला जाता है, केवल एक हिस्सा ही बीमार हो जाता है, लेकिन कोई भी पूरी तरह बीमार नहीं होता है। यह एकदम शरीर —विज्ञान की भांति ही है, किसी का शरीर संपूर्णतया बीमार नहीं हो सकता है। क्या कभी तुमने देखा है किसी के शरीर को पूरी तरह बीमार होते हुए? उसका तो अर्थ होगा कि जितनी सारी बीमारी मानवता के लिए संभव है, एक ही आदमी के शरीर में घट गई है। वैसा असंभव है, कोई उतनी हद तक नहीं पहुंचता। किसी के सिर में पीड़ा होती है, किसी का पेट दुखता है, किसी को बुखार होता है, कुछ न कुछ चलता रहता है—किसी हिस्से में ही। और शरीर एक विशाल घटना है, एक पूरा ब्रह्मांड है।

यही बात सच है मन के लिए मन है पूरी सृष्टि। सारा मन कभी पागल नहीं होता और इसलिए पागल आदमियों को वापस होश में लाया जा सकता है। यदि सारा मन पागल हो जाता है, तो तुम उसे होश में न ला सकते थे, कोई संभावना न थी। यदि सारा मन पागल हो जाता है तो कैसे उसे वापस होश में लाओगे? मात्र एक हिस्सा, एक हिस्सा ही भटक जाता है। तुम ला सकते हो उसे वापस, उसे फिर से समस्त के अनुकूल बैठा सकते हो।

पश्चिम में अब दूसरे प्रकार का मनोविज्ञान प्रसव —पीड़ा में से गुजर रहा है, अब्राहम मैसलो, एरिक फ्राम, जैनोव और दूसरों के साथ। यह एक समग्र पहुंच है : रोग की भाषा में नहीं सोचा जा रहा है बल्कि स्वास्थ्य की भाषा में सोच रहे हैं, मौलिक रूप से रोग —विज्ञान पर एकाग्र नहीं हो रहे हैं, बल्कि मौलिक रूप से एकाग्र हो रहे हैं स्वस्थ मानवता पर। दूसरा मनोविज्ञान उत्पन्न हो रहा है, लेकिन अभी वह पूरा नहीं हुआ है। इसीलिए मैं कहता हूं कि वह तो केवल प्रसव —पीड़ा में ही है, वह आ रहा है संसार में। देर— अबेर वह तेजी से विकसित होने लगेगा। केवल तभी तीसरे प्रकार का मनोविज्ञान संभव होता है। इसलिए मैं कहता हूं कि उसका कभी अस्तित्व ही न था।

बुद्ध हुए हैं, लाखों हुए, लेकिन बुद्धों का मनोविज्ञान नहीं हुआ, क्योंकि कभी किसी ने जागरूक मन को विशेष रूप से खोज कर उसके द्वारा कोई वैज्ञानिक अनुशासन निर्मित करने की कोशिश ही नहीं की। बुद्ध हुए हैं, लेकिन किसी ने कोशिश नहीं की है बुद्धत्व की घटना को वैज्ञानिक तरीकों से समझने की।

गुरजिएफ पहला आदमी था मनुष्यता के पूरे इतिहास में जिसने कोशिश की। इस अर्थ में गुरजिएफ विरला ही था, क्योंकि वह एक प्रवर्तक था तीसरी संभावना का। जैसा कि सदा होता है पहल करने वालों के साथ, कि यह कठिन था, बहुत कठिन था किसी ऐसी चीज में उतर जाना जो कि सदा अज्ञात बनी रही हो, लेकिन उसने कोशिश की। वह कुछ टुकड़े अंधेरे से बाहर ले आया है, लेकिन वह बात और — और कठिन हो गयी क्योंकि उसके सब से बड़े शिष्य पी डी ऑस्पेंस्की ने .उसे धोखा दिया। एक कठिनाई थी। गुरजिएफ स्वयं एक रहस्यवादी था, विज्ञान की दुनिया से परिचित न था, वह वैज्ञानिक मन का नहीं था। वह एक रहस्यवादी था, वह बुद्ध था। सारा प्रयास निर्भर करता था पी डी. ऑस्पेंस्की पर, क्योंकि वह एक वैज्ञानिक आदमी था सब से बड़े गणितज्ञों में से एक, और इस शताब्दी के कुशलतम विचारकों में से एक। सारी बात निर्भर करती थी ऑस्पेंस्की पर। गुरजिएफ को बीज बोने थे और ऑस्पेंस्की को उस पर काम करना था, उसे परिभाषित करना था, उसे एक दर्शन के रूप में सामने लाना था, उसमें से वैज्ञानिक सिद्धांत बनाने थे। वह एक सतत सहयोग था गुरु और शिष्य के बीच का। गुरजिएफ बीज बो सकता था, लेकिन वह उसकी वैज्ञानिक परिभाषा न कर सकता था और वह न ही उसे इस ढंग से रख सकता था कि वह कोई अनुशासन बन सकता। वह जानता था कि बात क्या है, लेकिन भाषा की कमी पड़ रही थी।

ऑस्पेंस्की के पास भाषा मौजूद थी। बिलकुल परिपूर्ण थी। मैं और कोई तुलना नहीं खोज पाता, ऑस्पेंस्की इतनी पूरी और सही बात कहता था कि अल्वर्ट आइंस्टीन तक को ईर्ष्या होती। उसके पास वस्तुत: एक बहुत ही प्रशिक्षित तर्कसंगत मन था। तुम पढ़ो उसकी एक किताब ‘टर्सियम ऑरगानम’ वह एक विरल घटना है। ऑस्पेंस्की कहता है उस किताब में, बिलकुल शुरू में ही : संसार में केवल तीन किताबें हैं : एक है अरस्तु की ‘ ऑरगानम—विचार का पहला सिद्धांत’, दूसरी है बेकन की ‘नोवम ऑरगानम—विचार का दूसरा सिद्धांत'; और तीसरी है ‘टर्सियम ऑरगानम—विचार का तीसरा सिद्धांत।’ ऑस्पेंस्की कहता है —जब वह कहता है तो वह गर्वित होकर या अहंकारी होकर या इसी तरह का कुछ होकर नहीं कहता— ‘दोनों के अस्तित्व में आने से पहले भी तीसरे का अस्तित्व था।’ वह कहता है टर्सियम ऑरगानम में, ‘मैं सारे ज्ञान के वास्तविक मूल को ही इसमें ला रहा हूं।’ और यह कोई अहंकार युक्त बात नहीं; वह किताब सचमुच ही असाधारण है।

गुरजिएफ का प्रयास ही निर्भर करता था ऑस्पेंस्की और उसके बीच के गहरे सहयोग पर। उसे राह दिखा देनी थी और ऑस्पेंस्की को उसे सूत्रों में पिरोना था, सूत्रबद्ध करना था, उसे एक ढाचा देना था। आत्मा आनी थी गुरजिएफ से और शरीर देना था ऑस्पेंस्की को, और ऑस्पेंसकी ने उसे बीच में ही धोखा दे दिया। वह एकदम छोड़ ही गया गुरजिएफ को। वैसी संभावना सदा से थी, क्योंकि वह इतना बौद्धिक था और गुरजिएफ बिलकुल ही प्रति—बौद्धिक था। यह लगभग असंभव बात थी कि वे अपना सहयोग बनाए रखते।

गुरजिएफ ने मांग की बेशर्त समर्पण की—जैसी मांग गुरुओं ने सदा की है; और ऐसी बात कठिन थी ऑस्पेंस्की के लिए—जैसी यह सदा कठिन होती है प्रत्येक शिष्य के लिए। और यह ज्यादा. कठिन होती है, जब शिष्य बहुत बौद्धिक होता है। धीरे — धीरे ऑस्पेंस्की सोचने लगा कि वह सब कुछ जानता था। यह एक धोखा होता है जिसे बुद्धिजीवी आसानी से निर्मित कर लेता है। वह इतना बौद्धिक व्यक्ति था कि उसने हर चीज सूत्रबद्ध की और वह अनुभव करने लगा कि वह जानता था। फिर धीरे— धीरे दरार पड़ने लगी।

गुरजिएफ सदा माग करता था असंगत बातों की। उदाहरण के लिए, ऑस्पेंस्की हजारों मील दूर था और गुरजिएफ ने उसे तार भेज दिया ‘फौरन चले आओ, हर चीज छोड़ कर।’ ऑस्पेंस्की आर्थिक, पारिवारिक झंझट में, और भी कई चीजों में फंसा हुआ था, और यह बात उसके लिए करीब—करीब असंभव थी कि सब छोड—छाड तुरंत चल देता, लेकिन वह छोड़ आया। उसने बेच दी हर चीज, वह हट आया परिवार से और वह फौरन भाग आया। जब वह पहुंचा, तो जो पहली बात गुरजिएफ ने कही, वह थी, ‘अब तुम जा सकते हो वापस।’ यही वह बात थी जिसने कि दरार खिंचने की शुरुआत की। ऑस्पेंस्की चला आया और फिर कभी वापस न आया—लेकिन वह चूक गया। वह तो मात्र एक जांच थी समग्र समर्पण की।

जब तुम समग्ररूपेण समर्पित होते हो, तो तुम पूछते नहीं, क्यों? गुरु कहता है, ‘ आओ ‘, तुम आ जाते हो। गुरु कहता, ‘जाओ’, तुम चले जाते हो। यदि ऑस्पेंस्की उस दिन उसी सरलता से चला गया होता जैसे कि आया था, तो उसके भीतर की कोई गहरी बात जो उसके सारे विकास को अवरुद्ध कर रही थी, गिर गयी होती। लेकिन ऑस्पेंस्की जैसे आदमी के लिए यह बात जरा ज्यादा बेमानी हो गयी कि गुरजिएफ ने अचानक कहा, और वह चला आया। वह जरूर बहुत—सी अपेक्षाएं लिए आया होगा, क्योंकि वह सोच रहा था कि उसने तो इतना कुछ त्याग दिया परिवार, समस्याएं, आर्थिक व्यवस्था, नौकरी —वह छोड़ आया था हर चीज। वह सोच रहा होगा कि वह कोई आत्मबलिदानी था। वह आ गया था और बिना उसे अभिवादन तक किए, पहली बात गुरजिएफ ने कही उसे देखते हुए, वह यह थी, ‘ अब तुम जा सकते हो वापस।’ यह तो बहुत ज्यादा हुआ, वह अलग हो गया।

ऑस्पेंस्की के अलग हो जाने से, तीसरे आयाम के मनोविज्ञान को निर्मित करने का सारा प्रयास ही रुक गया। गुरजिएफ ने बहुत कोशिशें कीं, उसने कोशिश की किसी और को खोज लेने की। बहुत सारे लोगों के साथ उसने कार्य किया, लेकिन ऑस्पेंस्की की योग्यता का वह कोई एक भी न ढूंढ सका। ऑस्पेंस्की का विकास रुक गया और तीसरे मनोविज्ञान के लिए किया जा रहा गुरजिएफ का कार्य रुक गया। एक साथ वे अदभुत थे, अलग हो कर दोनों ही पंगु हो गए। ऑस्पेंस्की बौद्धिक बना रहा, गुरजिएफ रहस्यवादी रहा। यही थी अड़चन। इसीलिए तो वह बात घट न सकी।

मैं फिर से कोशिश कर रहा हूं तीसरे आयाम पर कार्य करने की, और मैंने यह जोखिम नहीं उठाया है जो गुरजिएफ ने उठाया। मैं किसी पर निर्भर नहीं, मैं गुरजिएफ और ऑस्पेंस्की का जोड़ हूं। दो विभिन्न आयामों में जीना एक कठिन कार्य है, बहुत ही कठिन है यह। लेकिन चाहे जैसे भी है, यह अच्छा है, क्योंकि कोई मुझे धोखा नहीं दे सकता और मेरा कार्य रोक नहीं सकता, कोई नहीं कर सकता ऐसा। मैं निरंतर गतिमान हो रहा हूं अ—मन के संसार में, और शब्दों के और किताबों के और विश्लेषण के संसार में। गुरजिएफ के लिए श्रम का विभाजन था ऑस्पेंस्की कार्य कर रहा था लाइब्रेरी में और वह कार्य कर रहा था स्वयं के आसपास। मुझे दोनों करने हैं —ताकि वही बात फिर से न दोहरायी जाए। मैं दोनों स्तरों पर निरंतर कार्य करता रहा हूं और हर संभावना है कि प्रयास सफल हो सकता है। मैं तुम्हारा अध्ययन कर रहा हूं और तुम धीरे — धीरे विकसित हो रहे हो।

बुद्ध हो जाना स्वयं में एक बात है। वह बात बहुत अचानक घटती एक क्षण पहले तुम बुद्ध न थे, और एक क्षण बाद तुम बुद्ध होते हो। यह बात इतनी अचानक घटती है कि जब यह तुम्हारे स्वयं में घटती है, तो कोई अंतराल नहीं रहता जिसमें कि इसका अध्ययन किया जाए। तुम्हारे साथ मैं बहुत धीमे — धीमे अध्ययन कर सकता हूं। जितना ज्यादा तुम छल करते और प्रतिरोध करते, उतने ही बेहतर ढंग से मैं तुम्हारा अध्ययन कर सकता हूं; कि क्या घट रहा है यह। मुझे अध्ययन करना है बहुत—से लोगों का, केवल तभी वह बात घट सकती है। मनोविज्ञान एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं कर सकता है क्योंकि व्यक्ति इतने अलग होते, इतने बेजोड़। मैं हो गया होऊंगा बुद्ध, लेकिन मैं एक बेजोड़ व्यक्ति हूं। तुम हो सकते हो बुद्ध, लेकिन तुम एक बेजोड़ व्यक्ति हो। कम से कम सात प्रकार के लोग हैं जो कि इस ससार में अस्तित्व रखते हैं। तो कम से कम सात बुद्धों का अध्ययन बहुत ज्यादा गहराई से करना है, एक संबंध रखता हो एक—एक प्रकार से। केवल तभी संभव होगा मनोविज्ञान।

ऑस्पेंस्की बात करता है सात प्रकार के आदमियों की। वे सारे सातों प्रकार और उनके विकास समझ लेने हैं किस प्रकार की बाधाएं बना देते हैं वे, किस प्रकार के बचावों के लिए वे प्रयत्न करते और कैसे उनके बचाव और उनके प्रतिरोध तोड़े जा सकते हैं। हर प्रकार के साथ बात कुछ अलग ही होगी। जब तक सारे सातों प्रकार जाने नहीं जाते, चरण — चरण पर्त —दर —पर्त एकदम शुरू से ही, शुरू से लेकर आखिर तक ही अध्ययन नहीं किए जाते, तब तक मनोविज्ञान प्रतिपादित नहीं किया जा सकता है। वह पहले कभी अस्तित्व न रखता था, लेकिन वह अस्तित्व रख सकता है भविष्य में।

तीसरा प्रश्न:

 

जैसा कि आपने कहा मेरा जीवन एक दुख है— लेकिन आपके पास आने के बाद से दुख चला गया है। हालांकि मुझे मालूम है कि मेरा जीवन अभी भी आनंदमय नहीं है एक संतुष्टि चली आई है हर उस चीज के प्रति जो कि मुझे घटित होती है इस बात ने ध्यान करने की खोज करने की ही आकांक्षा में कमी कर दी है। मैं साथ बहे जाने में खुश हूं बस क्या मैं एकदम सुस्त हूं?

 

ह घड़ी आती है प्रत्येक खोजी को, जब नकारात्मक अब नहीं बच रहा होता है, लेकिन विधायक भी नहीं आया होता, जब पीड़ा जा चुकी होती है, लेकिन आनंद घटित नहीं हुआ होता, जब रात बाकी नहीं रही, लेकिन सूर्योदय तो नहीं हुआ। यह एक अच्छा लक्षण है कि तुम विकसित हो रहे हो। और फिर, तुरंत ही, व्यक्ति विश्रांति अनुभव करने लगता है, बहने लगता है, और हर चीज जैसे घटती है वह बहुत सुंदर होती है। मन कहता है, क्यों फिक्र करनी? जरा भी ध्यान क्यों करना? यदि तुम सुनते हो मन की, तो जल्दी ही रात वापस लौट आएगी, दुख का प्रवेश हो जाएगा। मत सुनो मन की। तुम निरंतर ध्यान करना लेकिन अब जरा अलग दृष्टिकोण सहित ऐसे ध्यान करो जैसे कि तुम उसमें बह रहे हो। बहुत ज्यादा प्रयास मत करना इस बात के लिए। इसी की तो जरूरत होती है। ध्यान करो प्रयास— विहीनता से, पर ध्यान करो। सुस्त मत पड़ना। सुस्ती के साथ पुरानी बात फिर से वापस चली आयेगी, क्योंकि आनंद अभी भी घटित नहीं हुआ है। एक बार आनंद घट जाता है —जब तुम संपूर्णतया परितृप्त अनुभव करते हो, जब तुम उस स्थल तक आ पहुंचते हो, जहां तुम संतुष्टि के बारे में भी भूल जाते हो, वह इतनी संपूर्ण होती है —केवल तभी ध्यान गिराया जा सकता है। वह गिर जाता है अपने से ही।

दो स्थलों पर गिराने का विचार आ बनता है। पहला स्थल यह होता है, जिसके लिए प्रश्न करने वाले ने पूछा है जब अंधकार मिट जाता है, दुख नहीं बचता, और तुम बहुत अच्छा — अच्छा अनुभव करते हो। यह बात तो दुख का अभाव मात्र होती है। यदि मन जो कि दुख में .पडा रहा, वह गैर—दुखी हो जाता है, तो यह बात करीब —करीब सुख जैसी जान पड़ती है, यह करीब—करीब आनंदपूर्णता जैसी दिखती है। आभास से धोखा मत खा जाना। अभी भी बहुत कुछ करना है—लेकिन अब, इसे जरा अलग ढंग से करना है। बस, बात इतनी ही है। अब ध्यान बहुत शाति से, चैन से करना, तनाव मत लाना, बहना—लेकिन करना जारी रखना, क्योंकि अभी और बहुत कुछ घटने को है। यात्रा की समाप्ति नहीं हुई है। शायद तुम उस जगह आ गए हो जहां तुम आराम कर सकते हो वृक्ष के नीचे और छांव शीतल है, लेकिन भूलना मत कि यह बात केवल एक रात भर का पड़ाव हो सकती है। सुबह तुम्हें फिर से चल देना है। जब तक कि तुम पूरी तरह मिट नहीं जाते, यात्रा को जारी रखना होता है। लेकिन अब बदल देना गुणवत्ता को, बहते रहना। प्रयासरहित होकर बढ़ना ध्यान में।

तो तुम जानते हो न अंतर? कोई तैरता है नदी में, प्रयास मौजूद होता, लेकिन फिर वह मात्र बहता है, अपनी पीठ के बल लेट जाता, नदी में रहता, लेकिन अब और तैरना नहीं बच रहा। बहती हुई नदी उसे धारा के संग लिए चलती है और वह बहता जाता है सागर की ओर। आरंभ में व्यक्ति का ध्यान तैरना होता है, क्योंकि मन के द्वारा निर्मित हुई बहुत सारी रुकावटें होती हैं, तुम्हें उनसे जूझना पड़ता है। दूसरे चरण में तुम्हें बहना होता है नदी के साथ। तीसरे चरण में तुम्हें बन ही जाना होता है नदी—तब कोई प्रश्न बचा नहीं रहता। तब तुम ध्यान करना गिरा सकते हो, लेकिन गिरा देने का सवाल नहीं बचता, वह गिर जाता है अपने आप ही। ध्यान जब पूरा होता है तो अपने से ही गिर जाता है। तुम्हें उसके लिए चिंता करने की जरूरत नहीं। जब वह संपूर्ण होता है तो वह गिर जाता है, बिलकुल ऐसे जैसे कि कोई पका फल गिर जाता है धरती पर।

लेकिन सुस्त मत बनना। मन तुम्हारे साथ चालाकियां चल सकता है और जो कुछ तुमने पाया है यह उसे नष्ट कर सकता है। बहुत ज्यादा प्रयास से थोड़ा —सा तुम पाते हो, और मन तुम्हें धोखा दे सकता है और कह सकता है कि अब कोई जरूरत नहीं। तुम इतना सुख अनुभव कर रहे हो —अनुभव करो सुख—लेकिन तुम इतना सुख अनुभव कर रहे होते ध्यान के कारण। यदि तुम ध्यान को गिरा देते हो तो तुरंत ही वह सुख तिरोहित हो जाएगा जिसे कि तुम अनुभव कर रहे होते हो। और तब तुम फिर से दुख में जा पड़ोगे।

चौथा प्रश्न:

 

लैग के अनुसार गर्भधारण के बाद के पहले नौ महीने आवश्यक रूप से ही आनंदपूर्ण नहीं होते और जैनोव की खोजें फ्रायड के जन्म— वेदना के सिद्धांत की पुष्टि नहीं करतीं कृपया क्या आप इसके बारे में थोड़ा और कुछ बताएंगे?

 

मेरे देखे, फ्रायड अभी भी ठीक बना हुआ है। केवल फ्रायड ही नहीं, बल्कि बुद्ध, महावीर और पतंजलि, सभी कहते हैं कि जन्म पीड़ा से भरा होता है, क्योंकि वह एक चोट होता है। लेकिन अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचना कठिन है। एक बच्चा जन्मता है और कोई नहीं जानता कि बच्चा कैसा अनुभव करता है। गर्भ में बच्चा आनंदपूर्ण अनुभव करता है या नहीं; या, जब कि पैदा हो रहा होता है, गर्भाश्य से बाहर गुजर रहा होता है और ज्यादा खुले संसार में आ रहा होता है, तो क्या वह दर्द अनुभव करता है? जब वह चीखता है तो पीड़ा होती या कि नहीं होती? कौन करेगा निर्णय?

निर्णय करने के दो तरीके हैं : एक तो है वस्तुगत निरीक्षण। ऐसा ही तो किया है फ्रायड ने, जो लैंग, जैनोव और दूसरे कई कर रहे हैं। जो कुछ घट रहा होता है, तुम उसका निरीक्षण कर सकते हो, लेकिन निरीक्षण बाहर—बाहर बना रहता है। तुम वस्तुत: जानते नहीं कि क्या घट रहा होता है। दोनों व्याख्याएं संभव हैं तुम कह सकते कि बच्चा गर्भ में आनंदमय होता है, क्योंकि कोई चिंता नहीं होती, बच्चे को करने को कुछ नहीं होता; हर चीज भेज दी जाती है। बच्चा तो बस आराम करता है, या क्योंकि बच्चा सीमाबद्ध होता है, कैद में होता है तो वह सब जो मां पर असर करता है बच्चे पर असर करता है। यदि मा बीमार होती है तो बच्चा बीमार हो जाता है। यदि मां गिर जाती है और उसकी हड्डिया टूट जातीं, तो बच्चे को चोट लगती है। वह लिए रहेगा वह घाव जीवन भर। यदि मां को सिरदर्द होता है, तो उसका प्रभाव पड़ेगा ही बच्चे पर क्योंकि बच्चा जुड़ा होता है, वह अलग नहीं होता है। यदि मां दुखी होती है, पीड़ित होती है, तो बच्चे पर जरूर पड़ेगा असर। बच्चा बहुत कोमल होता है, उसके नाजुक संवेदन तंत्र पर लगातार चोट पड़ेगी—अनुभूति द्वारा, भावदशाओ द्वारा और मां में घटने वाली घटनाओं द्वारा। बच्चा भीतर कैसे सुखी और आनंदमय हो सकता है? यदि मा संभोग करती है, जब कि बच्चा भीतर गर्भ में होता है, तो बच्चा दुख पाता है। क्यों? जब मां संभोग करती है, तो उसे ज्यादा आक्सीजन की जरूरत रहती है अपने लिए और बच्चे को दी जाने वाली आक्सीजन घट सकती है। श्वास में कमी आ जाती है और बच्चे का दम घुटता हुआ महसूस होता है।

इसी कारण, एक वैज्ञानिक प्रमाणित करने का प्रयत्न करता रहा है —निस्संदेह एक यहूदी वैज्ञानिक, क्योंकि यहूदियों का विश्वास है कि गर्भवती स्त्री से संभोग नहीं करना होता है; उस वैज्ञानिक ने उस खोज से बहुत जाना है —कि नौ महीनों तक मां गर्भवती होती है, उससे संभोग नहीं करना चाहिए क्योंकि बच्चा पीड़ा पाएगा। इसके पीछे एक खास कारण है, .क्योंकि मा को आक्सीजन की जरूरत होगी उसके शरीर द्वारा। इसीलिए संभोग करते समय, स्त्री और पुरुष तेज और गहरी सांस लेना शुरू कर देते हैं। शरीर को ज्यादा आक्सीजन की जरूरत होती है और मा उत्तेजित हो जाती है। शरीर का तापमान ऊंचा चला जाता है और बच्चा घुटन अनुभव करता है। ये बाहर की खोजें हैं।

यदि फ्रायड और लैंग के बीच निर्णय लेना हो, तो निर्णय कभी पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों बाहरी हैं। लेकिन मेरे पास भीतर की दृष्टि है, और इसीलिए मैं कहता हूं कि फ्रायड ठीक है और लैंग ठीक नहीं है। बुद्ध के पास अंतर्दृष्टि है। जब बुद्ध जैसा आदमी पैदा होता है तो वह संपूर्णतया जागरूक रूप में पैदा होता है। जब बुद्ध जैसा आदमी गर्भ में होता है, तो वह जागरूक होता है।

ऐसा कैसे होता है, इसे समझ लेना है। जब कोई आदमी संपूर्ण जागरूकता में मरता है, तो उसका अगला जन्म संपूर्णतया सजग होगा। यदि तुम इस जीवन में पूरी सजगता से मर सकते हो, बेहोश नहीं होते, जब कि तुम मरते हो, तो तुम रहते हो पूरे होश में, तुम देखते हो मृत्यु की प्रत्येक अवस्था; तुम सुनते हो हर पगध्वनि और तुम पूरी तरह सजग रहते हो कि शरीर मर रहा है; मन तिरोहित हो रहा होता है और तुम पूरी तरह सजग रहते हो —तब अचानक तुम देखते हो कि तुम शरीर में नहीं हो और चैतन्य ने शरीर छोड़ दिया है। तुम देख सकते हो मृत शरीर को वहा पड़े हुए और तुम मंडरा रहे होते हो शरीर के चारों ओर।

यदि तुम सजग हो सकते हो जब तुम मर रहे होते हो, तो यह बात जन्म का एक हिस्सा होती है, एक पहलू। यदि इस एक पहलू में तुम सजग होते हो, तो तुम सजग होओगे जब कि तुम गर्भ में उतरोगे। संभोगरत दंपत्ति के चारों ओर तुम बहोगे और तुम संपूर्णतया जागरूक होओगे। तुम गर्भ में प्रवेश करोगे पूरी तरह जागरूक होकर। बच्चा गर्भ में आ पहुंचता है, और उस छोटे —से बीज में, पहले बीज में ‘ तुम इसके प्रति पूरी तरह जागरूक रहोगे कि क्या घट रहा है। नौ महीने तक मां के गर्भ में तुम सजग रहोगे। न ही केवल तुम सजग रहोगे, बल्कि जब बुद्ध जैसा बालक मा के गर्भ में होता है, तो मा की गुणवत्ता बदल जाती है। वह ज्यादा सजग हो जाती है, एक प्रकाश भीतर प्रज्वलित रहता है। घर में कैसे अंधेरा रह सकता है? मां तुरंत अनुभव करती है चेतना का परिवर्तन।

बुद्ध की मां बनना एक दुर्लभ अवसर है। वह घटना ही रूपांतरित कर देती है मा को। इसके ठीक विपरीत बात सच है सामान्य बालक के लिए—वह बंधा होता है मां के शरीर, मन, चेतना द्वारा। वह एक कैद होती है। जब बुद्ध का जन्म होता है, जब बुद्ध की मा गर्भवती होती है तो ठीक विपरीत बात घटती है; मां हिस्सा होती बुद्ध की विशालतर चेतना का। बुद्ध उसे घेरे रहते हैं किसी आभा की भांति। वह स्‍वप्‍न देखती है बुद्ध के।

भारत में हमने इन माताओं के स्वप्नों का हिसाब रखा है बुद्ध की मां के, महावीर की मा के, और दूसरे तीर्थंकरों की माताओं के स्‍वप्‍न। हमने सचमुच कभी कोई चिंता नहीं की किन्हीं दूसरे स्वप्नों की; हमने केवल विश्लेषण किया है बुद्धों की माताओं के स्वप्नों का। यही है एकमात्र स्वप्न—विश्लेषण जो कि हमने किया। यह बात तीसरे प्रकार के मनोविज्ञान का हिस्सा होगी।

जब किसी बुद्ध को उत्पन्न होना होत है, तो मां प्रभावित रहती है किन्हीं विशेष स्वप्नों द्वारा। क्योंकि हजारों बार यही स्वप्न फिर —फिर दोहराए जाते हैं। इसका अर्थ होता है कि मां के भीतर की बुद्ध —चेतना एक निश्चित घटना निर्मित करती है उसके मन में और वह स्वप्न देखने लगती है एक विशेष आयाम के। उदाहरण के लिए बौद्ध कहते हैं कि जब कोई बुद्ध मां के भीतर होता है, तो मा स्वप्न देखती है सफेद हाथी का। यह एक प्रतीक है, किसी बहुत दुर्लभ चीज का प्रतीक—क्योंकि सफेद हाथी भारत की दुर्लभतम चीजों में से एक चीज है, करीब—करीब असंभव है उसे ढूंढ निकालना। एक दुर्लभ प्राणी होता है गर्भ में और सफेद हाथी का प्रतीक मात्र एक संकेत है। और स्‍वप्‍नों की एक शृंखला पीछे —पीछे चली आती है।

जब बुद्ध कहते हैं कि जन्म एक पीड़ा है, तो वह एक अंतस अनुभूति की दृष्टि है। महावीर कहते हैं कि जन्म दुख है, वह एक पीड़ा है, वह एक चोट है। महावीर और बुद्ध दोनों कहते हैं कि उत्पन्न होना और मरना, यह दो सब से बड़े दुख हैं। लैंग और फ्रायड की बातों से इनकी बात में ज्यादा बल है। लेकिन फ्रायड की दृष्टि इसके साथ मेल खाती है, और यही मेरा अपना अनुभव भी है।

मां के गर्भ में नौ महीने सब से ज्यादा आरामदेह होते हैं। निस्संदेह, कुछ दूसरे प्रसंग आते हैं, लेकिन अपवाद ही होते हैं वे। अन्यथा, वे नौ महीने तो बिना किसी खबर के होते हैं, क्योंकि खबर तो सदा बुरी खबर ही होती है। लगभग कुछ नहीं घटता है। तुम केबल बहा करते हो अदभुत आनंद—उल्लास में। लेकिन जन्म तो एक पीड़ा है, वह बहुत दर्द भरा होता है। वह बिलकुल ऐसे होता है जैसे कि तुम किसी वृक्ष को धरती में से खींचो —तो कैसा अनुभव करता है वृक्ष?

अब हमारे पास उपकरण हैं जांच करने के कि वृक्ष कैसा अनुभव करता है जब उखाड़ा जाता है। एक बच्चा इसी तरह अनुभव करता है, जब वह मां से बाहर आता है। मां धरती होती है और बच्चे की जड़ें मां में थीं अभी तक तो, अब वह उखड़ गया। पीड़ा बहुत बड़ी है। यदि तुम विश्वास कर सको मुझ पर, मैं कहता हूं कि यह पीड़ा ज्यादा बड़ी है मृत्यु से। मृत्यु दो नंबर पर आती है, जन्म का नंबर पहला है। और ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि जन्म संभव बनाता है मृत्यु को। वस्तुत: वह दुख जो शुरू होता है जन्म के साथ, अत पाता है मृत्यु पर। जन्म प्रारंभ है दुख का, मृत्यु अंत है। जन्म को होना पड़ता है ज्यादा दर्द भरा—वह है ही। और नौ महीनों की संपूर्ण विश्रांति के बाद —कोई चिंता नहीं ‘ कुछ करने को नहीं, उन नौ महीनों के बाद वह एक इतना अचानक झटका होता है बाहर फेंके जाने का, कि फिर कभी इतना अचानक झटका न लगेगा स्नायुतंत्र को, कभी भी नहीं! हर दूसरा झटका छोटा ही है।

यदि तुम दिवालिए हो जाते हो तो तुम्हें धक्का लगेगा, लेकिन इसका कोई मुकाबला नहीं जन्म की चोट के साथ। तुम्हारी पत्नी मर जाती है तुम दुखी होते, तुम चीखते, तुम रोते। लेकिन केवल समय की जरूरत होती है। घाव भर जाता है और तुम किसी दूसरी स्त्री के पीछे पड़े होते हो! तुम्हारा बच्चा मर जाता है, तुम गहरी चोट अनुभव करते हो, उस चोट का कुछ न कुछ सदा मौजूद रहेगा तुम्हारे प्राणों में। लेकिन जन्म की चोट की तुलना में तो वह कुछ भी नहीं है, जब कि तुम उखड़ गए होते हो जमीन से। तुम इस उखडाव में जागरूक रह सकते हो, और केवल तभी वह अर्थपूर्ण होगा जिसकी मैं बात कर रहा हूं। इस बात का खंडन किया जा सकता है बाहरी खोजों द्वारा। मेरे देखे यह बात अप्रासंगिक है, क्योंकि जो कुछ मैं कह रहा हूं, मैं कह रहा हूं मेरे अपने जन्म के बारे में। और यदि तुम सचमुच ही जानना चाहते हो, तो स्वयं को तैयार कर लो और— और ज्यादा जागरूक होने के लिए ताकि जब तुम इस बार मरो, तो तुम मरो पूरी जागरूकता सहित। तब तुम अपने आप ही पूरी जागरूकता लिए पैदा होओगे। यदि तुम बेहोशी में मरते हो तो तुम बेहोश हुए ही पैदा होते हो। जो कुछ घटता है मृत्यु में वही घटता है जन्म में, क्योंकि मृत्यु और कुछ नहीं सिवाय इस ओर की मृत्यु के —उस ओर तो वह जन्म है। यह वही द्वार है। यदि तुम द्वार में प्रवेश करते हो होशपूर्वक, तो तुम होशपूर्वक ही द्वार से बाहर आओगे, मृत्यु द्वार के इस ओर का भाग है, जन्म द्वार के उस ओर का भाग है।

पांचवां प्रश्न:

 

अभी— अभी पश्चिम ने बहुत— सी विधियां खोज निकाली हैं स्रोत तक लौटने की। इन विधियों में एक बात समान जान पड़ती है वे स्वीकार करते हैं कि कोई व्यक्ति स्वयं ही इन संघातक अनुभवों तक नहीं लौट सकता है। मन बहुत ही घनचक्करी होता है अहंकार बहुत जटिल है इसलिए विश्लेषण खोज लिए गए हैं. जिनमें से कुछ नाम है— प्राइमल— थैरेपी फिशर— हाफमैन और आरिका के कर्मों को साफ कर देने वाले उपकरण। आधारभूत मुख्य बात यह जान पड़ती है कि आदमी अकेला ही इस यात्रा पर नहीं चलेगा; दूसरे की जरूरत है— समूह की सक्रिय ऊर्जा या कोई तटस्थ मार्गदर्शक क्या अतीत के बारे में इतना आत्मसजग हो जाना जरूरी होता है? क्या यह स्वयं घटित नहीं हो जाता जैसे— जैसे आदमी ध्यान में ज्यादा गहरे उतरता है?

हली बात; अतीत में जाने की बिलकुल कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम सचमुच ही ध्यान करते हो, तो हर चीज अपने आप ही घटित हो जाती है। लेकिन यदि तुम्हारा ध्यान ठीक से नहीं चल रहा होता, तब अतीत में उतर जाना एक बड़ी मदद बन सकता है। इसलिए अतीत में चले जाना कोई परम आवश्यकता नहीं है। यदि तुम्हारा ध्यान ठीक जम रहा है, तो भूल जाना इस बारे में। यदि तुम्हारा ध्यान ठीक नहीं चल रहा है केवल तभी यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है। तब यह एक बड़ी मदद दे सकती है। तब यह सुलझा देगी ध्यान की कठिनाइयों को, लेकिन यह एक दोयम, एक पूरक घटना होती है।

प्रति—प्रसव, अतीत में जाना एक परिपूरक विधि है ध्यान की। पहले तो करना ध्यान, यदि वह काम कर जाए, तो भूल जाना अतीत को, अतीत में जाने की कोई जरूरत नहीं। यदि तुम अनुभव करते हो कि ध्यान कार्य नहीं कर रहा है, कोई चीज फिर—फिर आ बनती है बंद कली की भाति, गतिरोध घटता है, कोई बड़ा पत्थर आ जमता है, और तुम बढ़ नहीं सकते, इसका अर्थ होता है कि तुम्हारा अतीत बहुत बोझिल है—तुम्हें जरूरत पड़ेगी प्रति—प्रसव की। तुम्हें जरूरत होगी अतीत में जाने की और साथ ही साथ ध्यान करते रहने की।

यदि ध्यान ठीक काम करता है, तो उसका अर्थ होता है कि तुम्हारा अतीत बहुत बोझिल नहीं; तुम्हारे पास अतीत की बाधाएं नहीं। केवल ध्यान ही काम कर जाएगा। लेकिन यदि पत्थर जमे ही होते हैं और ध्यान काम नहीं कर रहा होता है, तब, मदद के रूप में, प्रति—प्रसव अदभुत है—अतीत में जाना बहुत जबरदस्त मदद करता है।

यह तुम पर निर्भर है। पहले तो कड़ा परिश्रम करना ध्यान पर, हर प्रयास कर लेना इसे जानने का कि यह घट सकता है या नहीं। यदि तुम अनुभव करते हो कि यह संभव नहीं, कुछ नहीं घट रहा है, केवल तभी विचार करना प्रति—प्रसव का। यह एक अच्छी विधि है, लेकिन दोयम है। यह बहुत प्राथमिक चीज नहीं है।

दूसरी बात यह है कि यह बिलकुल सच है कि अकेले तो तुम नहीं जा सकते, अकेले तुम विकसित नहीं हो सकते। अकेले इसमें लाखों जन्म लग जाएंगे किसी खास निष्कर्ष तक पहुंचने में, किसी खास अस्तित्व तक आने में, और वह भी कोई निश्चित नहीं। बहुत सारे कारणों से यह बात संभव नहीं, क्योंकि जो कुछ भी तुम हो वह एक बंद व्यवस्था है और व्यवस्था स्वायत्ततापूर्ण है, अपने में पर्याप्त है। वह अपने से काम करती है और उसकी बहुत गहरी जड़ें होती हैं अतीत में। व्यवस्था एकदम पर्याप्त और सक्षम है। व्यवस्था से बाहर आना करीब—करीब असंभव है जब तक कि कोई तुम्हारी मदद न करे। किसी बाहरी तत्व की जरूरत होती है तुम्हारे पूरे ढंग को तोड़ देने के लिए, तुम्हें झटका देने के लिए, तुम्हें नींद से जगा देने के लिए।

यह तो बिलकुल ऐसा है जैसे कि तुम सोए होते—और तुम सोए रहे हो बहुत—बहुत जन्मों से। कैसे तुम स्वयं को जगा सकते हो? शुरुआत करने के लिए भी तुम्हें कम से कम थोड़ा बहुत तो जागे हुए रहना होगा और वह थोड़ा—सा भी जागरण वहा है नहीं। तुम पूरी तरह सोए हो; तुम बेहोशी में हो। कौन शुरू करेगा कार्य? कैसे जगाओगे तुम स्वयं को? किसी की जरूरत होती है, कोई जो तुम्हें झटका दे सके बेहोशी से बाहर लाने को, जो बाहर आने में तुम्हारी मदद कर सके। एक अलार्म घड़ी भी मददगार होगी।

साधक—समूह की जरूरत होती है। क्योंकि एक बार तुम जगने लगते हो, तो सारा अतीत तुम्हें बेहोश अवस्था तक लाने की कोशिश करेगा, क्योंकि मन कम से कम प्रतिरोध के मार्ग का अनुसरण करता है। तुम बार—बार सो जाओगे। या तो किसी सद्गुरु की जरूरत होती है, जो तुम्हें मदद दे सके इससे बाहर आने में, या फिर खोजियों के समूह की, यदि कोई सद्गुरु उपलब्ध न हो तो, ताकि समूह के लोग एक—दूसरे की मदद कर सकें।

गुरजिएफ कहा करता था, ‘यह ऐसा है जैसे कि तुम जंगल में हो जंगली जानवरों से डरे हुए, लेकिन तुम्हारे साथ कोई समूह है। दस लोग मौजूद हैं, तो तुम एक चीज कूर सकते जब नौ सोए होते हैं, एक जागता रहता है। यदि जंगली जानवरों से, चोरों या डाकुओं से कोई खतरा होता है, तो वह जगा देता है दूसरों को। यदि वह अनुभव करता है कि वह सो रहा है, तो वह जगा देता है दूसरों को। लेकिन एक का होश कायम रहता है—वही बात बन जाती है बचाव। यदि कोई सद्गुरु उपलब्ध होता है, यदि बुद्ध उपलब्ध होते हैं तब तो समूह में कार्य करने की कोई जरूरत ही नहीं होती। क्योंकि वह जागता रहता है चौबीसों घंटे। यदि वह मौजूद न हो, तो दूसरी संभावना है —समूह में कार्य करने की। कई बार कोई आ पहुंचता है हल्की —सी जागरूकता तक, वह मदद कर सकता है। जिस समय वह सोने लगता है, तो कोई दूसरा आ पहुंचा होता है कुछ जागरण तक, वह मदद करता है, और समूह मदद करता है।

यह ऐसा होता है जैसे कि तुम कैद में हो, तो अकेले तुम्हारे लिए कठिन होगा बाहर आना क्योंकि भारी पहरा लगा हुआ होता है। लेकिन यदि सारे कैदी इकट्ठे हो जाते हैं और बाहर आने का इकट्ठा प्रयास करते हैं, तो पहरेदार शायद पर्याप्त न हो पाएं। लेकिन यदि तुम किसी उस व्यक्ति को जानते हो जो बाहर है, कैद से बाहर है और कोई मदद कर सकता है, तो सामूहिक प्रयास की कोई जरूरत नहीं है। वह कोई जो बाहर है, स्थितियां निर्मित कर सकता है : वह फेंक सकता है सीडी; वह पहरेदार को रिश्वत दे सकता है; वह पहरेदार को बेहोश कर सकता है; वह बाहर रह कर कुछ कर सकता है, क्योंकि वह मुक्त होता है। वह तरीके ढूंढ सकता है जिससे कि तुम बाहर आ सको।

एक सद्गुरु उस व्यक्ति की भांति होता है जो कैद से बाहर है, उसके पास कुछ करने के लिए ज्यादा स्वतंत्रता होती है। बहुत सारी संभावनाएं हैं और उसके लिए सभी खुली हैं क्योंकि वह मुक्त है। यदि तुम्हारा उस गुरु के साथ कोई संपर्क नहीं जो कि मुक्त है, कैद के बाहर है, तब कैदियों के लिए एकमात्र संभावना यही होती है —समूह निर्मित करने की।

इसीलिए पश्चिम में बहुत प्रकार के समूह कार्य कर रहे हैं आरिका के, गुरजिएफ के, और कइयों के समूह। सामूहिक चेतना पश्चिम में और ज्यादा महत्वपूर्ण होती जा रही है। यह अच्छा है, यह बेहतर है महर्षि महेश योगी से, यह बेहतर है बालयोगेश्वर से, क्योंकि ये गुरु नहीं हैं। समूह में कार्य करना बेहतर है, क्योंकि जो आदमी कहता है कि वह बाहर हो चुका, वह बाहर नहीं होता है; वह भी भीतर होता है। जो आदमी कहता है कि उसके संपर्क बाहर हैं, उसके कोई संपर्क नहीं होते हैं बाहर। वह तो बस तुम्हें धोखा दे रहा होता है। पश्चिम में केवल एक ही व्यक्ति है पूरब का, और वह है कृष्णमूर्ति। यदि तुम कृष्णमूर्ति के साथ हो सकते हो तो यह बात मदद दे सकती है, लेकिन कठिन है उनके साथ होना। वे लोगों की मदद करने की कोशिश ऐसे अप्रत्यक्ष रूप से करते रहे हैं कि जिन लोगों को मदद मिली है वे भी कभी न जान पाएंगे कि वे मदद करते रहे हैं। इस बात ने तो मुसीबत खड़ी कर दी है। अन्यथा, पश्चिम के सारे तथाकथित गुरु तो मात्र विक्रेता हैं; उनकी कोई योग्यता नहीं है।

यदि तुम सद्गुरु खोज सको, तो वह सबसे अच्छा है, क्योंकि समूह में भी तुम कैदी ही रहोगे, गहरी नींद में पड़े हुए। तुम कर सकते हो कोशिश, लेकिन इसमें लंबा समय लगेगा। या यह बात बिलकुल ही सफल न होगी, क्योंकि तुम सभी की वही क्षमता होगी, उसी धरातल की चेतना होगी। उदाहरण के लिए ‘आरिका’ के लोग एक साथ काम करते हुए उसी चेतना—तल के लोग हैं, अंधेरे में टटोल रहे हैं। शायद कुछ हो जाए, शायद कुछ न हो। एक बात तो निश्चित है, और वह है कि कुछ भी निश्चित नहीं। मात्र संभावना होती है।

गुरजिएफ मौजूद नहीं और गुरजिएफ के सारे समूह गुरजिएफ से ज्यादा तो ऑस्पेंस्की की किताबों द्वारा प्रभावित हैं। वस्तुत: सारे समूह ऑस्पेंस्की के समूह हैं; वे ठीक गुरजिएफ के समूह की तरह नहीं हैं। कुछ ज्यादा की संभावना नहीं है। तुम बात कर सकते हो सिद्धांतों की, तुम एक—दूसरे को समझा सकते हो। लेकिन यदि तुम चेतना के उसी धरातल से संबंधित होते हो, तो ज्यादा बातचीत, ज्यादा बहस, ज्यादा ज्ञान घटेगा लेकिन बोध नहीं, जागरण नहीं। जब गुरजिएफ मौजूद था तो बिलकुल ही अलग थी बात—सद्गुरु मौजूद था। वह तुम्हें कैद से बाहर ला सकता था।

पहली बात है गुरु को खोज लेना जो कि तुम्हारी मदद कर सकता हो। यदि गुरु को खोजना असंभव है, तो समूह का निर्माण कर लेना और सामूहिक प्रयास करना। अकेले की तो अल्पतम संभावना है। ये तीन ढंग हैं तुम काम करते हो अकेले, तुम काम करते हो समूह के साथ या तुम काम करते हो गुरु के साथ। श्रेष्ठ तो है गुरु के साथ काम करना, इससे कम श्रेष्ठ बात है समूह के साथ काम करना, तीसरी है अकेले की बात। वे लोग भी जिन्होंने अकेले पाया है परम सत्य को, बहुत जन्मों से कार्य करते रहे हैं गुरुओं के साथ और समूह के साथ। इसलिए मत धोखा खाना ऊपरी ढंग से।

कृष्णमूर्ति भी कहे चले जाते हैं कि अकेले तुम पा सकते हो। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी विधि एक अप्रत्यक्ष विधि है। वे तुम्हें न जानने देंगे कि वे मदद कर रहे हैं, और वे तुमसे नहीं कहेंगे, ‘मुझे समर्पण कर दो।’ पश्चिम में इतना ज्यादा अहंकार है और वे सारे समय कार्य करते रहे हैं पश्चिम में। अहंकार इतना ज्यादा है कि वे नहीं कह सकते, ‘मुझे समर्पण कर दो’, जैसा कि कृष्ण ने कहा अर्जुन से — ‘हर चीज को छोड़ मेरी शरण आओ और मुझे समर्पण कर दो।’ अर्जुन एक अलग संसार का था, पूरब का, जो जानता है कि समर्पण कैसे होता है, जो जानता है अहंकार की असुंदरता को और समर्पण की सुंदरता को। कृष्ण कह सकते थे ऐसा बिना उनके किसी अहंकार के। ऐसा कथन बहुत अहंकारयुक्त जान पड़ता है ‘ आओ और मुझे समर्पण कर दो।’ लेकिन कृष्ण इसे सहज रूप से कह सके, और अर्जुन ने कभी प्रश्न नहीं उठाया कि ‘ आप क्यों कहते ऐसा? क्यों करूं मैं आपको समर्पण? कौन होते हो आप?’ पूरब में समर्पण स्वीकृत था जाने हुए मार्ग के रूप में। हर कोई जानता था, इसी समझ के साथ बड़ा हुआ था कि अंततः व्यक्ति को गुरु के पास समर्पण करना ही होता है। यह बात सीधी—साफ थी, यह अनुकूल बैठती थी।

कृष्णमूर्ति ने काम किया पश्चिम में। वे स्वयं विकसित हुए गुरुओं के द्वारा। बहुत—बहुत गहन ढंग से उन्हें मदद मिली गुरुओं से। गुरु जो देह में थे और गुरु जो देह में न थे, सभी ने मदद की उनकी, उन्होंने विकसित होने में उनकी मदद की। लेकिन फिर उन्होंने कार्य किया पश्चिम में और वे जान गए, जैसे कि कोई भी जान ही लेगा, कि पश्चिम समर्पण करने को तैयार नहीं। इसलिए वे कृष्ण कीं भांति नहीं कह सकते, ‘ आओ और मुझे समर्पण कर दो।’ पश्चिमी अहंकार के लिए सब से अच्छा मार्ग है यह कहना कि तुम अपने से पा सकते हो। यही है उपाय; गुरु के पास समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं। यही है आधार तुम्हें आकर्षित करने का छ समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हारा अहंकार गिराने की कोई जरूरत नहीं, तुम बस तुम रहो। यह है युक्ति और लोग फंसे इस युक्ति में। उन्होंने सोचा कि समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं, कि वे स्वयं जैसे बने रह सकते हैं, कि दूसरे से सीखने की कोई जरूरत नहीं, केवल अपना प्रयास ही चाहिए। निरंतर कई वर्षों से वे जा रहे हैं कृष्णमूर्ति के पास। किसलिए? सीखने को? यदि तुम अकेले हो सकते हो तो क्यों जाते हो कृष्णमूर्ति के पास? एक बार तुमने सुन लिया कि वे कहते हैं, ‘ अकेले तुम पा सकते हो’ —तो उनकी बात अंतिम बन समाप्त हो जानी चाहिए तुम्हारे लिए। लेकिन तुम्हारे लिए तो उनकी बात अंतिम बनी ही नहीं। वस्तुत: अनजाने में ही तुम बन चुके होते हो एक अनुयायी। बिना तुम्हारे जाने ही तुम फंस चुके हो। कहीं गहरे में, समर्पण घट गया है। वह तुम्हारा बाहरी अहंकार बचा रहे हैं तुम्हें गहरे में मार देने को। उनका ढंग अप्रत्यक्ष है।

लेकिन कोई नहीं पाता अकेले। किसी ने कभी नहीं पाया अकेले, क्योंकि बहुत से जन्मों तक इस पर कार्य करना होता है—मैंने काम किया गुरुओं के साथ, मैंने काम किया साधक —समूहों के साथ; मैंने काम किया अकेले, लेकिन मैं कहता हूं तुमसे कि अंतिम घटना संचित परिणाम है। अकेले काम करना, साधक—समूह के साथ काम करना, गुरुओं के साथ काम करना, यह एक संचित परिणाम लाता है। अकेले होने पर जोर मत देना, क्योंकि वह जोर देना ही एक बाधा बन जाएगा। समूहों को खोजो। और यदि तुम गुरु खोज सको, तो तुम धन्यभागी हो। वह अवसर चूकना मत।

छठवां प्रश्न:

 

क्या प्रति— प्रसव पीछे जाने की प्रक्रिया फिर से जीने की बजाय अनसीखा करने की हो सकती है?

वे दोनों एक ही हैं जब तुम फिर से जीते हो, तो तुम अनसीखा कर देते हो। फिर से जीना एक प्रक्रिया है भुला देने की। जो कुछ तुम फिर से जीते, तुम्हारे पास से गायब हो जाता है, वह भुलाया जा चुका होता है; वह कोई निशान नहीं छोड़ता, स्लेट साफ हो जाती है। तुम इसे अनसीखा करने की प्रक्रिया कह सकते हो। यह एक ही बात है।

सातवां प्रश्न:

पतंजलि के अनुसार यदि अच्छा और बुरा स्वप्नवत होता है तो कर्म का सिद्धांत कैसे अस्तित्व रख सकता है?

 

क्योंकि तुम स्वप्नों में विश्वास रखते हो, तुम विश्वास करते हो कि वे सच हैं। कर्मों का अस्तित्व होता है तुम्हारे विश्वास के कारण। उदाहरण के लिए, रात में तुम्हें स्वप्न आया छ कोई बैठा हुआ था तुम्हारे शरीर पर अपने हाथ में छुरा लिए हुए और तुम्हें लग रहा था कि तुम्हें मार दिया गया, और तुमने कितनी—कितनी कोशिश की इस स्थिति से बच निकलने की, लेकिन ऐसा कठिन था। फिर भय के कारण ही तुम जाग गए। तुम जानते हो अब कि यह स्‍वप्‍न था, लेकिन शरीर अभी भी थोड़ा कंपता रहता है; पसीना छूट रहा होता है। तुम अभी भी भयभीत होते हो और तुम जानते हो कि यह तो केवल स्वप्न था, लेकिन तुम्हारा सास लेना अभी भी सरल और स्वाभाविक नहीं है। उसमें कुछ मिनट लगेंगे। करा पर! जाता है? दुखस्वप्न में तुमने मान लिया था कि वह सच है। जब तुम मान लेते हो कि वह सच है, तो वह तुम्हें प्रभावित करता है वास्तविकता की भांति।

कर्म स्‍वप्‍न—सदृश होते हैं। तुमने किसी का खून कर दिया तुम्हारे पिछले जन्म में, वह बात एक स्वप्न है, क्योंकि पूरब में सारा जीवन ही माना जाता है स्वप्न की भांति—अच्छे, बुरे, सभी स्‍वप्‍न। लेकिन तुम तो मानते हो कि वह सच था, इसलिए तुम पाओगे पीड़ा। यदि तुम बिलकुल अभी समझ सकते हो कि जो कुछ घटित हुआ वह सब सपना था, जो घट रहा है सब सपना है, और जो सब घटने वाला है वह सपना है, केवल तुम्हारी चेतना सत्य है, हर चीज जो घटती है वह सपना है, देखना सपना है, केवल द्रष्टा ही सच है, तब अचानक सारे कर्म धुल जाते हैं। तब कोई जरूरत नहीं रहती प्रति—प्रसव की प्रक्रिया में उतरने की। वे बिलकुल धुल ही जाते हैं। अचानक तुम उनसे बाहर आ जाते हो। यही है वेदांत की विधि, जिसमें शंकराचार्य जोर देते हैं कि सारा जीवन ही एक स्‍वप्‍न है। आग्रह इसलिए नहीं है कि वे एक दार्शनिक हैं—वे नहीं हैं दार्शनिक। जब वे कहते हैं कि संसार माया है तो यह बात कोई दर्शन का सिद्धांत नहीं होती, यह कोई आध्यात्मिक बात नहीं होती। यह एक विधि है। यह एक समझ है। यदि तुम किसी चीज में विश्वास करते हो तो वह वास्तविक बात की भांति तुम्हें प्रभावित करती है, तुम्हारा विश्वास उसे बना देता है वास्तविक। यदि तुम मानते हो कि वह सच नहीं है, तो वह तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकती।

उदाहरण के लिए तुम बैठे होते हो अंधेरे कमरे में और अचानक तुम कोई चीज देखते हो कमरे में। तुम्हें लगता है वह सांप है— भय होता है, आतंक होता है। तुम बिजली जला देते हो, लेकिन वहां तो कुछ भी नहीं, मात्र एक टुकड़ा है अखबार का, जो कि हिला —था हवा से। और तुम्हें लगा कि कोई सांप चल रहा था। तुम्हें लगा कि वह सच था, और तुम्हारे मानने ने उसे सच बना दिया—उतना ही वास्तविक जितना कोई वास्तविक सांप होता है, और तुम उसके द्वारा प्रभावित हो गए। इसके ठीक विपरीत अवस्था को सोचो, अगली रात वहा सचमुच का सांप है और तुम अंधेरे में बैठे हुए हो। तुम देखते हो किसी चीज को चलते हुए और तुम सोचते हो कि फिर जरूर वैसा ही अखबार का पन्ना होगा, और तुम भयभीत नहीं होते, तुम पर असर नहीं होता। तुम बैठे ही रहते जैसे कि इसमें तो कुछ है ही नहीं।

वास्तविकता तुम्हें प्रभावित नहीं करती। सवाल ‘वास्तविकता’ का नहीं है। विश्वास उसे बना देता है वास्तविक, विश्वास तुम्हें प्रभावित करता है। जितने ज्यादा तुम सजग होते हो, उतना ज्यादा जान पड़ेगा जीवन स्वप्न की भांति, जब कोई चीज तुम्हें प्रभावित ‘नहीं करती।

इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं गीता में, ‘तुम चिंता मत करो, तुम मारो। यह तो सब स्वप्न है।’ अर्जुन भयभीत था, क्योंकि उसने सोचा— कि ये लोग जो सामने खड़े हैं शत्रु हैं, वे वास्तविक हैं। उन्हें मारना पाप होगा और लाखों को मारना—कितना ज्यादा पाप चढ़ेगा उस पर! और कैसे वह इसका संतुलन ठीक कर पाएगा अच्छाई कर—कर के? यह तो असंभव होगा। उसने कहा कृष्ण से, ‘मैं भाग जाना चाहता हूं जंगलों में। यह लड़ाई मेरे लिए नहीं है। यह युद्ध पाप से बहुत ज्यादा भरा लगता है।’ कृष्ण जोर देते ही गए, ‘तुम चिंता मत करो, कोई मरता नहीं है क्योंकि आत्मा अनश्वर है। केवल शरीर मरता है लेकिन शरीर तो पहले से मरा होता है, इसलिए बहुत ज्यादा अशांत मत होओ। यह सब स्वप्न जैसा है; और यदि तुम इन लोगों को न भी मारो, फिर भी वे मर ही जाएंगे। वस्तुत: उनकी मृत्यु की घड़ी आ पहुंची है और तुम्हें तो बस मदद ही करनी है इसमें। तुम नहीं मार रहे हो उन्हें। तुम इसे मानो स्वप्न की भांति। तुम इसे सच नहीं मानो।’

यही है वेदांत का सारा दृष्टिकोण। वेदांत एक विधि है जिसमें धीरे — धीरे तुम सजग होते हो जीवन की स्वप्न जैसी गुणवत्ता के प्रति। एक बार उस अनुभूति के साथ तुम्हारा तालमेल बैठ जाता है तो सारे कर्म समाप्त हो जाते हैं। जो कुछ तुमने किया, वह कोई अर्थ नहीं बनाता। यदि रात में तुम चोर थे या खूनी, रात तुम मुनि थे, संत थे, तो सुबह क्या इससे कुछ अंतर पड़ेगा? या स्‍वप्‍न यह था कि तुम पापी थे; और स्‍वप्‍न यह था कि तुम पुण्यात्मा संत थे —क्या इससे कुछ अंतर पड़ेगा? स्वप्न तो सभी स्वप्न होते हैं। संत या पापी दोनों स्वप्न हैं। सुबह दोनों ही तिरोहित होते हैं, कहीं खो गए होते हैं। तुम अच्छे स्वप्न और बुरे स्‍वप्‍न के बीच कोई भेद नहीं कर सकते, क्योंकि अच्छी होने या बुरी होने के लिए चीज के वास्तविक होने की आवश्यकता होती है। भेद की कोई आवश्यकता भी नहीं यदि तुम जिंदगी को देख सकते हो, उस पर ध्यान दे सकते हो, उसे समझ सकते हो, और जान सकते हो कि यह बड़ा सपना है जो चलता चला जा रहा है। केवल द्रष्टा ही सत्य होता है, और वह सब जो दिखाई देता है वह स्वप्न है।

अचानक तुम सजग हो जाते हो और सारा संसार खो जाता है ऐसा नहीं है कि तुम तिरोहित हो जाओगे या कि मैं तिरोहित हो जाऊंगा, लेकिन वह संसार जिसे तुम जानते थे, तिरोहित हो जाता है। एक बिलकुल ही अलग सत्य उदघटित होता है। वह सत्य है ब्रह्म।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अध्‍यात्‍म–उपनिषद–प्रवचन–16

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एक और अद्वैत ब्रह्म—सोलहवां प्रवचन

 सूत्र :

समाधातुं वाह्मादृष्ट्या प्रारब्‍धं वदीत श्रुति:।

न तु देहादिसत्यत्व बोधनाय विपीश्चताम्।। 60।।

पीरपूर्णमनाद्यन्तमप्रमेयमीवक्तियम्।

सद्घनं चिद्घनं नित्यमानन्दघनमव्यम्।। 611।

प्रत्कोकरसं पूर्णमनन्‍त सर्वतोमुखम्।

अहेयमुनपादेयमनधेयमनाश्रयम्।। 62।।

निर्गुण निष्क्रियं सूक्ष्‍मं निर्विकल्प निरंजनम्।

अनिरूप्यस्वरूपं यन्मनोवाचामगोचरम्।। 63।।

सत्समृद्धं स्वत: सिद्ध शुद्धं बुद्धिमनीदृशम्।

एकमेवढ़यं ब्रह्म नेह नानाऽस्ति किंचन।। 64।।

स्वानुभूत्या स्वयं ज्ञात्वा स्वमात्मानमखीडतम्।

स सिद्ध: सुसुखं तिष्ठन् निर्विकल्पात्मनाऽत्मत्रि।। 65।।

 देह आदि सत्य है, ऐसा ज्ञानियों को समझाने के लिए श्रुति प्रारब्ध कर्म की बात नहीं कहती। पर अज्ञानियों का समाधान करने के लिए ही श्रुति प्रारब्ध कर्म की बात कहती है। वास्तव में परिपूर्ण, आदि—अंतरहित, अमाप (नाप सकने में असंभव), विकाररहित, सत्तामय, चैतन्यमय, नित्य, आनंदमय, अविनाशी, हर एक में व्यापक होने वाला, एकरस वाला, पर्णू, अनंत, सर्व तरफ मुख वाला, त्याग कर सकने में अथवा ग्रहण कर सकने में अशक्य, आधार के ऊपर नहीं रहने वाला, आश्रयरहित, निर्गुण, क्रियारहित, सूक्ष्म, विकल्परहित, स्वतःसिद्ध, शुद्ध—बुद्ध, अमुक के समान नहीं, एक और अद्वैत ब्रह्म ही सब कुछ है, और कोई भी नहीं।

इस प्रकार अपने अनुभव से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखंडित जान कर तू सिद्ध हो, और निर्विकल्प स्वरूप आत्मा में ही अत्यंत सुखपूर्वक स्थिति कर।

देह आदि सत्य है, ऐसा ज्ञानियों को समझाने के लिए श्रुति प्रारब्ध कर्म की बात नहीं कहती। पर अज्ञानियों का समाधान करने के लिए ही श्रुति प्रारब्ध कर्म की बात कहती है।’

जो कहा जाता है, वह उससे ही संबंधित नहीं होता जो कहता है, बल्कि उससे भी संबंधित होता है जिससे कहा जाता है। ज्यादा महत्वपूर्ण वही है, जिससे कहा जा रहा है : जो उसकी समझ में आ सके, जो उसकी बुद्धि के पार न पड़ जाए; जो उसे उलझा न दे, सुलझाए; जो उसके लिए मार्ग बने, ऊहापोह नहीं, जो उसके लिए मात्र चिंतन की यात्रा न हो जाए, वरन जीवन को बदलने की व्यवस्था हो।

तो यह सूत्र कहता है कि श्रुति अज्ञानियों से और भाषा में बोलती है, ज्ञानियों से और भाषा में। सच तो यह है कि बुद्ध पुरुष प्रत्येक व्यक्ति से दूसरी भाषा में बोलते हैं। और इसीलिए शास्त्र में इतनी असंगतियां हैं; क्योंकि वक्तव्य अलग— अलग लोगों के लिए दिए गए हैं।

बुद्ध आज कुछ कहते हैं, कल कुछ कहते हैं, परसों कुछ कहते हैं। और मुश्किल हो जाती है यह सोच कर कि ये तीनों बातें एक ही व्यक्ति ने कैसे कही होंगी! क्योंकि तीनों में विपरीतता है, विरोध है, कोई संगति नहीं है। और बुद्ध को मानने वाला जबरदस्ती संगति बिठाने की चेष्टा करता है, ताकि बुद्ध असंगत न मालूम पड़े। पर वास्तविक बात केवल इतनी है कि बोलने वाला तो तीनों में एक है, लेकिन सुनने वाला तीनों में अलग था। और सुनने वालों को ध्यान में रख कर कही गई बातें.।

चिकित्सक एक हो, लेकिन बीमार अलग— अलग होंगे तो दवा अलग— अलग हो जाएगी। बुद्ध के वचन सिद्धात नहीं हैं। बुद्ध पुरुषों के वचन सिद्धात नहीं हैं—दवाइयां हैं, औषधियां हैं। और इसलिए यह जानना जरूरी है कि किससे कही गई है बात।

श्रुति अज्ञानियों से कुछ और कहती है, ज्ञानियों से कुछ और कहती है। ज्ञानियों से कहती है कि देह है ही नहीं, अज्ञानियों से कहती है देह है, लेकिन तुम देह नहीं हो। ज्ञानियों से कहती है देह है ही नहीं, बस तुम ही हो; अज्ञानियों से कहती है देह है, लेकिन तुम देह नहीं हो।

ये दोनों बातें विपरीत हैं। अगर देह नहीं है, तो नहीं है, चाहे ज्ञानी से कही जाए, चाहे अज्ञानी से कही जाए। और अगर देह है, तो है, फिर तानी— अज्ञानी से क्या फर्क पड़ेगा? इसे थोड़ा हम सूक्ष्मता से समझ लें।

एक तो ऐसे सत्य हैं, जिन्हें हम तथ्य कहते हैं, आब्जेक्टिव फैक्ट्स। सुबह है। तो जानी हो या अज्ञानी, इससे क्या फर्क पड़ता है! सुबह है। और रात हो गई, सूरज ढल गया। तो तानी हो या अज्ञानी, इससे क्या फर्क पड़ता है! सूरज ढल गया और रात हो गई।

वितान तथ्यों की खोज करता है, इसलिए विज्ञान संगत भाषा बोलता है। विज्ञान, बाहर जो है उसकी बात करता है। इसलिए विज्ञान की भाषा में बड़ी संगति, कसिस्टेंसी है।

धर्म, भीतर जो देखने वाला है उसके अनुकूल भाषा बोलता है, सब्जेक्टिव है। तथ्य पर उतना जोर नहीं है, जितना दृष्टि पर जोर है। तो जो देखता है उसके हिसाब से भेद पड़ जाते हैं।

तानी जब देखता है तो देह दिखाई ही नहीं पड़ती, अज्ञानी जब देखता है तो आत्मा का कोई पता नहीं चलता। अज्ञानी के देखने का ढंग ऐसा है कि देह ही पकड़ में आती है, और ज्ञानी के देखने का ढंग ऐसा है कि आत्मा ही पकड़ में आती है। ज्ञानी को देह दिखाई पड़नी असंभव है, अज्ञानी को आत्मा दिखाई पड़नी असंभव है। इसीलिए तो शंकर जैसे मनीषी कह सके कि जगत मिथ्या है, है ही नहीं। और बृहस्पति जैसे पदार्थवादी कह सके कि आत्मा—परमात्मा सब असत्य हैं, केवल पदार्थ है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि इन दोनों में कहीं कोई मिलन ही नहीं होता। ये दो अलग ढंग से देखे गए वक्तव्य हैं। जीवन को देखने की व्यवस्था ही दोनों की अलग है। जहां से शंकर देखते हैं, वहा जगत दिखाई नहीं पड़ता, जहां से चार्वाक देखता है, वहा से जगत ही दिखाई पड़ता है। यह दृष्टि— भेद है। यह वक्तव्य बिलकुल अलग— अलग देखे गए लोगों के वक्तव्य हैं, जिनके देखने का ढंग अलग है।

जैसे समझें कि अगर सुगंध ही आपकी परख का ढंग हो, अगर नाक ही सिर्फ आपके पास हो और गंध से ही आप पता लगाते हों। बहुत से पशु—पक्षी हैं, बहुत से कीड़े—मकोड़े हैं, जो गंध से ही जीते हैं, गंध के ही आधार चलते हैं; गंध ही उनकी आंख है, गंध ही उनका मार्ग खोजने का ढंग है। ऐसे कीड़े—मकोड़ों को, जो गंध से ही चलते हैं, संगीत का कोई भी पता नहीं चलेगा, क्योंकि गंध से संगीत को जांचने का कोई उपाय नहीं है। संगीत में कोई गंध होती ही नहीं। अच्छा संगीत हो तो सुगंध नहीं होती और बुरा संगीत हो तो दुर्गंध नहीं होती, गंध का ध्वनि से कोई लेना—देना नहीं है।

तो जिसके पास जांचने की व्यवस्था गंध की हो, वह ध्वनि से अपरिचित रह जाएगा, उसके लिए ध्वनि है ही नहीं। हमारे लिए वही है जगत में, जिसको जांचने का हमारे पास उपाय है।

ध्यान रहे, हमारे पास पांच इंद्रियां हैं। इसलिए हमें पांच महाभूत का पता चलता है। अगर दस इंद्रियां हों तो दस महाभूतों का पता चलेगा। आदमी से नीचे पशु हैं, जिनके पास चार इंद्रियां हैं, तीन इंद्रियां हैं, दो इंद्रियां हैं, तो जितनी उनकी इंद्रियां हैं, उतना ही उनका जगत है। जिस पशु के पास कान नहीं हैं, और सब है, उसके लिए ध्वनि का कोई अस्तित्व ही नहीं है। इसलिए नहीं कि ध्वनि नहीं है, लेकिन ध्वनि को पकड़ने का उपाय न हो तो आपके लिए तो ध्वनि नहीं हो जाती है, यह जगत शून्य है ध्वनि से। कान नहीं हैं तो जगत में कोई ध्वनि नहीं है। आंख नहीं है तो जगत में कोई प्रकाश नहीं है। तो आप किस माध्यम से खोजने चलते हैं, वही आपको मिलता है। आपका माध्यम ही आपका जगत है।

अज्ञानी शरीर के माध्यम से खोजता है। इसलिए अज्ञानी अक्सर पूछता है, कहां है ईश्वर? दिखा दो! वह यह कह रहा है, जब तक मेरी आंख गवाही न दे, मैं न मानूंगा। वह कह क्या रहा है? जब आप कहते हैं, जब तक ईश्वर का दर्शन न होगा, हम नहीं मान सकते, आप क्या कह रहे हैं? आप यह कह रहे हैं कि जब तक ईश्वर मेरी आंख का विषय न बने, तब तक मानने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है।

लेकिन आपको यह किसने कहा कि ईश्वर आंख का विषय है? अगर वह आंख का विषय है ही नहीं, तो फिर आपका मिलन उससे कभी नहीं होगा, क्योंकि जो जिद आप कर रहे हैं आंख की, उससे उसका कोई संबंध ही नहीं हो पाएगा। रूप होता है आंख का विषय और समस्त ज्ञानी कहते हैं कि ईश्वर अरूप है। और आप कहते हैं हम आंख से देखेंगे, तब मानेंगे। तो आपने न मानने का निर्णय पक्का कर लिया है। और कोई उपाय नहीं है कभी भी कि आप आंख से ईश्वर को देख सकें। क्योंकि जिसका अरूप होना स्वभाव है, उसको आप रूप में कैसे देखेंगे?

और ध्यान रहे, अगर आपको कभी ईश्वर रूप में दिख जाए, तो आप फौरन कहेंगे, यह ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि शास्त्रों में कहा है वह अरूप है।

मार्क्स ने मजाक की है। मार्क्स ने कहा है, मैं किसी ईश्वर को नहीं मानता हूं, नहीं मान सकता हूं क्योंकि मैं तो उसी तथ्य को मानता हूं जो वितान—प्रमाणित हो। अगर ईश्वर को मैं प्रयोगशाला में विज्ञान की, टेस्ट—टयूब में जांच सकूं? प्रयोगशाला की टेबल पर रख कर शल्य—क्रिया कर सकूं? सब तरफ छान—बीन कर सकूं भीतर, तो ही मान सकता हूं। लेकिन फिर उसने मजाक में यह भी कहा है, लेकिन अगर कभी ईश्वर ने ऐसी भूल की कि वह प्रयोगशाला की टेस्ट—टयूब में और प्रयोगशाला की टेबल पर आकर जांच—परीक्षा करवाने को राजी हो गया, तो फिर वह ईश्वर न रह जाएगा। निश्चित ही, जिसको आप टेस्ट—टयूब में बंद करके जांच लेंगे, उससे आप बड़े हो जाएंगे। जिसको आप टेबल पर काट—पीट करके समझ—बूझ लेंगे भीतर क्या है, वह पदार्थवत हो जाएगा, वह ईश्वर नहीं रह जाएगा।

तो हमारी मांग ऐसी है कि अगर पूरी न हो तो कठिनाई है, अगर पूरी हो जाए तो कठिनाई है। लोग कहते हैं कि जब तक हम ईश्वर को प्रत्यक्ष न कर ले, आंख के सामने न कर लें—प्रत्यक्ष का मतलब होता है, आंख के सामने—तब तक हम न मानेंगे। तो उन्होंने एक बात तय कर रखी है कि जो आंख के सामने है, उतना ही उनका संसार है। जो आंख के सामने नहीं है, वह नहीं है।

जगत बड़ा है। तब जानी क्या करे न: जिसने उसे देख लिया है जो आंख से दिखाई नहीं पड़ता, जिसने आंख बंद करके उसे देख लिया है जो खुली आंख से दिखाई नहीं पड़ता, जिसने कान बंद करके उसे सुन लिया है जो खुले कान से सुनाई नहीं पड़ता, और जिसने बिना हाथ से स्पर्श किए अंतस्तल में उसका स्पर्श पा लिया है, वह किस भाषा में बोले? अज्ञानी समझ सके—तो उसे कुछ और ढंग से कहना होगा। और अगर वही बात वह ज्ञानी से कहे, तो ज्ञानी को हंसी आएगी।

मुसलमान फकीर शेख फरीद और कबीर का मिलना हुआ था। तो दोनों में बात न हुई। दो दिन तक साथ रहे, हंसे, गले मिले, पास बैठे, घंटों बैठे—कोई बात न हुई! बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। कबीर के भक्त, फरीद के भक्त, और कुतूहलवश बहुत लोग आ गए थे कि कबीर और फरीद का मिलना हुआ है, कुछ बात कीमत की होगी, थोड़ा हम भी सुन लेंगे।

लेकिन दो दिन ऐसे ही बीत गए! फिर विदा का क्षण भी आ गया। बड़ी निराशा हुई। जो इकट्ठे हुए थे सुनने, बड़े उदास हुए। और कहा, यह भी क्या मामला है? इतने बड़े दो अनुभवियों का मिलना हुआ, कुछ बात होती तो हमारे लाभ की हो जाती। लेकिन कबीर और फरीद की मौजूदगी में पूछने की किसी की हिम्मत भी न पड़ी।

फिर जब फरीद चल पड़ा अपनी यात्रा पर तो उसके भक्तों ने उसे कहा कि यह भी क्या हुआ, कुछ बोलते आप! तो फरीद ने कहा, जो बोलता, वह अज्ञानी साबित होता। जो बोलता, वह अज्ञानी साबित होता! और फिर बोलते भी क्या? जो मैं जानता हूं, वही कबीर भी जानते हैं, जहा से वे देख रहे हैं, वहीं से मैं देख रहा हूं।

कबीर से भी पूछा उनके मित्रों ने, आश्रमवासियों ने।

कबीर ने कहा, पागल हुए हो! हंस सकते थे ज्यादा से ज्यादा कि उन दो का मिलन हो रहा हैं जो दो हैं ही नहीं, जो मिल ही चुके हैं। बोलना किससे था?

कबीर ने कहा है कि बोलने की घटना घटती कब है? दो अज्ञानी काफी बोलते हैं एक—दूसरे से। हालांकि न एक दूसरे को समझता है, न दूसरा पहले को समझता है। दो अज्ञानी डट कर चर्चा करते हैं, परिणाम कुछ नहीं होता—विवाद; कहीं कुछ लेन—देन नहीं होता, कोई निष्कर्ष नहीं होता, विवाद होता है। तो दो अज्ञानियों की चर्चा शब्दों में होती है, हालांकि शब्द कहीं पहुंचते नहीं। दो जानी भी मिलते हैं; शब्द का उपयोग असंभव हो जाता है। मौन में मिलना होता है, शब्द नहीं बोले जाते। क्योंकि दोनों के दर्शन एक, दृष्टि एक, अनुभव एक—कहने को क्या है?

फिर बोलना कब घटित होता है? जब एक अज्ञानी और एक ज्ञानी मिलता है, तभी बोलना घटित होता है। जब एक जानता है और एक नहीं जानता तो बोलने का कोई अर्थ है, जब दोनों जानते हैं तो बोलने का कोई भी अर्थ नहीं है। और जब दोनों नहीं जानते हैं, तो रुक नहीं सकते बोलने से। बोलेंगे बहुत, अर्थ कोई भी नहीं है। तीन ही उपाय हैं।

तो जब ज्ञानी अज्ञानी से मिलता है तो वह क्या बोलेगा?

एक तो उपाय यह है कि जो उसका अनुभव है वह बोले चला जाए, बिना फिक्र किए कि किससे बोल रहा है। तब उसकी बातें दीवालों से हो रही हैं; तब कोई उसको सुनेगा नहीं, समझेगा भी नहीं; या गलत समझेगा। जो वह कहेगा, उससे विपरीत समझेगा। अनर्थ होगा, अर्थ नहीं होगा। इससे तो चुप रह जाना बेहतर है। या फिर अज्ञानी जो समझ सके वह बोले। अज्ञानी गलत ही समझ सकता है। तो क्या ऐसा कोई उपाय है कि गलत को इस ढंग से बोला जाए कि सही की तरफ अज्ञानी का मुंह हो जाए? बस इतना ही ध्यान में रखना जरूरी है।

देह है नहीं, लेकिन अज्ञानी को देह ही है। तो क्या किया जाए? बीच का कोई मार्ग, विधि खोजी जाए कि अज्ञानी को कहा जाए देह भी है, तुम भी हो, लेकिन तुम देह नहीं हो, इसकी तलाश में लगो! अगर अज्ञानी से यह कहा जाए कि देह है ही नहीं, तलाश ही बंद हो जाती है। वह कहेगा, अब बस चुप रहें। देह नहीं है? और मुझे देह के सिवाय कुछ अनुभव नहीं होता! देह ही है। वह कहेगा, आत्मा वगैरह कुछ भी नहीं है। और उसके कहने में गलती नहीं है, उसका जो अनुभव है, वह कह रहा है। तानी का जो अनुभव है, वह कह रहा है, अज्ञानी का जो अनुभव है, वह कह रहा है।

आपने अपने को देह के अतिरिक्त कभी भी जाना है? कभी ऐसी कोई झलक आपको मिली है कि आपको पता लगे कि मैं देह नहीं हू? आपको यह पक्का भरोसा है कि अगर आपकी गर्दन काट दी जाए तो आप नहीं कटेंगे? आपको इसकी थोड़ी सी भी प्रतीति है कि जब लाश आपकी जलाई जाएगी मरघट में तो आप नहीं जलेंगे न:

असंभव है! क्योंकि जब पैर में काटा गड़ता है छोटा सा तो आप में गड़ जाता है, हाथ जल जाता है तो आप जल जाते हैं। तो जब पूरा शरीर जलेगा तो यह आशा रखनी असंभव है कि आप नहीं जलेंगे। जरा सी चोट, जरा सी गाली आप में प्रवेश कर जाती है, तो जब मृत्यु आप में घुसेगी तो आप में प्रवेश नहीं करेगी, यह आप मत सोचना। आपको कोई अनुभव नहीं है कि आप शरीर के अलावा भी कुछ हैं, इतना ही अनुभव है कि शरीर हूं। ही, आप मानते हों भला कि मैं आत्मा हूं और मरूंगा नहीं, वह आपकी मान्यता है। और मान्यता बड़ी धोखे की है। और वह मान्यता भी अज्ञान का ही हिस्सा है। सभी आदमी मानना चाहते हैं कि न मरें। कोई मरना नहीं चाहता।

इस थोड़ी बात को खयाल में ले लें। कोई मरना नहीं चाहता। और जो भी मरना नहीं चाहता उसको पक्का पता है कि मरना पड़ेगा, इसीलिए तो मरना नहीं चाहता। ज्ञानी मरना चाहता है, अज्ञानी मरना नहीं चाहता। ज्ञानी मरना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि मरने से भी कुछ मरता नहीं है। इतनी मृत्यु में प्रवेश करना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि मृत्यु में प्रवेश करके अमृत का शुद्धतम अनुभव होगा। जहा विपरीत होता है, वहां अनुभव आसान होता है। सफेद रेखा खींच दें काले ब्लैक बोर्ड पर, चमक कर दिखाई पड़ती है। बादल घिरे हों काले, बिजली चमकती है, साफ दिखाई पड़ती है। दिन में सफेद बादलों में बिजली चमके, दिखाई नहीं पड़ती। ज्ञानी मृत्यु में प्रवेश करना चाहता है—आग्रहपूर्वक, आनंदपूर्वक, अहोभावपूर्वक—ताकि वह जो अमृत भीतर छिपा है, चारों तरफ मृत्यु के काले बादल घिर जाएं, तो वह अमृत की लकीर, वह शुभ रेखा कौंध जाए, और अनुभव साफ—साफ हो जाए कि मृत्यु सदा मेरे चारों ओर घटती है, मुझमें कभी नहीं घटती। अज्ञानी मृत्यु में जाने से डरता है, भयभीत होता है, क्योंकि उसे पक्का पता है कि मृत्यु का मतलब समाप्ति, कुछ बचेगा नहीं।

अब यह बड़े मजे की बात है कि इसीलिए अज्ञानी, कि बिलकुल मर न जाए, आत्मा अमर है, ऐसा विश्वास करता है। यह विश्वास ज्ञान के कारण नहीं, यह विश्वास भय के कारण है। इसीलिए जवान आदमी आत्मा वगैरह में उतना विश्वास नहीं करता। जैसे—जैसे का होने लगता है, ज्यादा विश्वास करता है। क्योंकि मौत करीब आती है, भय बड़ा होने लगता है। खाट पर पड़ा हुआ मरता आदमी आमतौर से धार्मिक हो जाता है। जो खाट पर भी अधार्मिक है, वह जरा हिम्मत का आदमी है। मरते वक्त भी जो अधार्मिक है, वह जरा हिम्मत का आदमी है। बड़े से बड़ा नास्तिक भी मरते वक्त डावाडोल होने लगता है, और सोचता है पता नहीं र और फिर मौत का भय और उस अंधेरे में प्रवेश। उस भय के कारण वह सब सिद्धातों को पकड़ लेता है।

आप भी मानते हैं कि आत्मा अमर है, यद्यपि आप जानते हैं कि मैं शरीर से ज्यादा कुछ भी नहीं हूं। किस आत्मा की बात कर रहे हैं जो अमर है, जिसका आपको कोई अनुभव नहीं है! जिसकी किंचित मात्र प्रतीति नहीं हुई, वह अमर है, आप कह रहे हैं! आपका भय आपका सिद्धात बन जाता है। जितने भयभीत लोग होते हैं, जल्दी आत्मवादी हो जाते हैं।

इसलिए हमारे मुल्क में दिखाई पड़ती है यह घटना, कि पूरा मुल्क आत्मवादी है और अंधेरे में जाने से डर लगता है, और आत्मा का पक्का भरोसा है! मौत से प्राण कंपते हैं, आत्मा का पक्का भरोसा है! आत्मवादियो का मुल्क एक हजार साल तक गुलाम रहा! आत्मवादियों के मुल्क पर कोई भी छोटी—मोटी कौम हावी हो गई! और आत्मवादी आत्मा को मानते रहे कि आत्मा अमर है, लेकिन युद्ध के मैदान पर जाने में डरते रहे!

भय आपके सिद्धात का आधार है—अनुभव नहीं, ज्ञान नहीं। नहीं तो आत्मवादी को तो कोई गुलाम बना ही नहीं सकता। उसको तो कोई भय ही नहीं है। आखिर गुलामी बनती ही भय के कारण है कि मार डालेंगे अगर नहीं गुलाम बनोगे तो। तो आदमी इस कीमत पर, जिंदा रहने की कीमत पर, गुलाम रहना भी पसंद कर लेता है, मरना नहीं चाहता है।

अगर यह मुल्क सच में आत्मवादी होता, जैसा कि लोग कहते फिरते हैं, तो यह मुल्क कभी गुलाम नहीं हो सकता था। यह पूरा मुल्क कट जाता, और कहता कि न शस्त्रों से हमें छेदा जा सकता है—नैनम् छिन्दति शस्त्राणि—न आग से हमें जलाया जा सकता है। तो जलाओ और छेदो! इस मुल्क को गुलाम बनाना असंभव था, अगर यह आत्मवादी होता। लेकिन यह आत्मवादी वगैरह नहीं है, परिपूर्ण देहवादी है। लेकिन भय के कारण आत्मा को माने चला जाता है।

आपकी प्रतीति तो देह की है कि मैं देह हूं और तानी की प्रतीति है कि देह है ही नहीं। तो कहां बने मिलन, जहां आप एक—दूसरे की भाषा समझ सकें? तो श्रुति ने एक उपाय खोजा है, शास्त्र ने एक विधि खोजी है, वह यह, कि आपको बिलकुल इनकार करना उचित नहीं होगा कि देह है ही नहीं। वह इनकार तो आपका दरवाजा बंद कर देगा, फिर तो आपकी समझ मुश्किल हो जाएगी। तो आपके लिए कहते हैं कि देह है। इससे अज्ञानी आश्वस्त हो जाता है कि हम बिलकुल गलत नहीं हैं, देह है, हमारी मान्यता भी ठीक है। इससे यस मूड पैदा होता है। इससे ही का भाव पैदा होता है।

अमरीकी विचारक डेल कारनेगी ने यस मूड पर बड़ा काम किया है, हा का भाव। उसका कोई धर्म से लेना—देना नहीं। वह तो चीजें कैसे बेची जाएं, सेल्समैनशिप, उसका जाता है; मित्रता कैसे खरीदी जाए, उसका ज्ञाता है। उसकी किताब, हाऊ टु विन फ्रेंड्स एंड इनश्वएंस पीपुल, बाइबिल के बाद सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब है दुनिया में। कैसे दोस्ती जीती जाए और कैसे लोग प्रभावित किए जाएं, सीक्रेट फार्मूला है हाऊ टु क्रिएट दि यस मूड—दूसरे आदमी में ही का भाव कैसे पैदा किया जाए। जब ही का भाव पैदा हो जाता है तो न करना मुश्किल होने लगता है।

तो डेल कारनेगी कहता है कि अगर किसी को प्रभावित करना हो, किसी को बदलना हो, किसी का विचार रूपांतरित करना हो, तो ऐसी बात मत कहना जिसको वह पहले ही मौके पर न कह दे। क्योंकि अगर उसने पहले ही न कह दी, तो उसका न का भाव मजबूत हो गया। अब दूसरी बात—जों हो सकता था, पहले कही जाती, तो वह ही भी कह देता—अब उस बात पर भी वह न कहेगा। इसलिए पहले दो—चार ऐसी बात करना उससे जिसमें वह ही कहे, फिर वह बात उठाना जिसमें साधारणत: उसने न कही होती। चार ही कहने के बाद न कहने का भाव कमजोर हो जाता है। और जिस आदमी की हमने चार बात में हां भर दी, वृत्ति होती है उसकी पांचवीं बात में भी ही भर देने की। और जिस आदमी की हमने चार बात में न कह दी, पांचवी बात में भी न कहने का भाव प्रगाढ़ हो जाता है।

डेल कारनेगी ने एक संस्मरण लिखा है, कि एक गांव में वह गया। जिस मित्र के घर ठहरा था, वह इंश्योरेंस का एजेंट था। और उस मित्र ने कहा कि तुम बड़ी किताबें लिखते हो कैसे जीतो मित्रता, कैसे प्रभावित करो। इस गाव में एक बुढ़िया है, अगर तुम उसका इंश्योरेंस करवा दो, तो हम समझें, नहीं तो सब बातचीत है।

डेल कारनेगी ने बुढ़िया का पता लगाया। बड़ा मुश्किल काम था, क्योंकि उसके दफ्तर में ही घुसना मुश्किल था। जैसे ही पता चलता कि इंश्योरेंस एजेंट, लोग उसे वहीं से बाहर कर देते। बुढ़िया अस्सी साल की विधवा थी, करोड़पति थी, बहुत कुछ उसके पास था, लेकिन इंश्योरेंस के बिलकुल खिलाफ थी। जहां घुसना ही मुश्किल था, उसको प्रभावित करने का मामला अलग था।

डेल कारनेगी ने लिखा है कि सब पता लगा कर, पाच बजे सुबह मैं उसके बगीचे की दीवाल के बाहर के पास घूमने लगा जाकर। बुढिया छह बजे उठती थी। वह अपने बगीचे में आई, मुझे अपनी दीवाल के पास फूलों को देखते हुए खड़े होकर उसने पूछा कि फूलों के प्रेमी हो? तो मैंने उससे कहा कि फूलों का प्रेमी हूं जानकार भी हूं; बहुत गुलाब देखे सारी जमीन पर, लेकिन जो तुम्हारी बगिया में गुलाब हैं, इनका कोई मुकाबला नहीं है। बुढ़िया ने कहा, भीतर आओ दरवाजे से। बुढ़िया साथ ले गई बगीचे में, एक—एक फूल बताने लगी! मुर्गियां बताईं, कबूतर बताए, पशु—पक्षी पाल रखे थे, वे सब बताए.। और डेल कारनेगी ने यस मूड पैदा कर लिया।

रोज सुबह का यह नियम हो गया। दरवाजे पर बुढ़िया उसके स्वागत के लिए तैयार रहती। दूसरे दिन बुढ़िया ने चाय भी पिलाई, नाश्ता भी करवाया। तीसरे दिन बगीचे में घूमते हुए उस बुढ़िया ने पूछा कि तुम काफी होशियार और कुशल और जानकार आदमी मालूम पड़ते हो, इंश्योरेंस के बाबत तुम्हारा क्या खयाल है? इंश्योरेंस के लोग मेरे पीछे पड़े रहते हैं, यह योग्य है करवाना कि नहीं? तब डेल कारनेगी ने उससे इंश्योरेंस की बात शुरू की। लेकिन अभी भी कहा नहीं कि मैं इंश्योरेंस का एजेंट हूं क्योंकि उससे न का भाव पैदा हो सकता है। जिंदगी भर जिसने इंश्योरेंस के एजेंट को इनकार किया हो, उससे न का भाव पैदा हो सकता है। लेकिन सातवें दिन इंश्योरेंस डेल कारनेगी ने कर लिया। जिससे हा का संबंध बन जाए, उस पर आस्था बननी शुरू होती है। जिस पर आस्था बन जाए, भरोसा बन जाए, उसको न कहना मुश्किल होता चला जाता है। अंगुली पकड़ कर ही पूरा का पूरा हाथ पकड़ा जा सकता है।

तो श्रुति अज्ञानी से ऐसी भाषा में बोलती है कि उसे ही का भाव पैदा हो जाए। तो ही आगे की यात्रा है। अगर सीधे कहा जाए. न कोई संसार है, न कोई देह है, न तुम हो। अज्ञानी कहेगा, तो बस अब काफी हो गया, इसमें कुछ भी भरोसे योग्य नहीं मालूम होता।

इसलिए श्रुति कहती है अज्ञानी से कि देह आदि सत्य है, तुम्हारा संसार बिलकुल सत्य है। अज्ञानी की रीढ़ सीधी हो जाती है, वह आश्वस्त होकर बैठ जाता है कि यह आदमी खतरनाक नहीं है, और हम एकदम गलत नहीं हैं। क्योंकि किसी को भी यह लगना बहुत दुखद होता है कि हम बिलकुल गलत हैं। थोडे तो हम भी सही हैं! थोड़ा जो सही है, उसी के आधार पर आगे यात्रा हो सकती है।

लेकिन आप बिलकुल गलत हैं, ज्ञानी का अनुभव यह है कि आप बिलकुल गलत हैं, शत प्रतिशत गलत हैं। मगर यह कहने का मतलब यह होगा कि आगे कोई संबंध नहीं जुड़ सकता। इसलिए ज्ञानी कहता है कि नहीं, आप काफी दूर तक सही हैं। शरीर है, संसार है, सब है; इसमें कोई आपकी भूल—चूक नहीं है; भूल जरा सी है, और वह यह है कि आप शरीर को आत्मा समझ बैठे हैं।

अज्ञानी में ही का भाव पैदा हो जाता है। वह कहता है कि बहुत दूर तक तो मैं भी सही हूं; थोड़ा सा ही फर्क है मुझ में और तानी में कि मैं शरीर को आत्मा समझ बैठा हूं। और अज्ञानी भी चाहता है कि शरीर को आत्मा न समझे, क्योंकि शरीर सिवाय दुख के कुछ और देता नहीं। और फिर शरीर मरता भी है, मृत्यु भी आती है। तो वह चाहता भी है खोजना कि उसका पता चल जाए जो शरीर नहीं है, तो अमरत्व का भी पता चल जाए। और फिर ज्ञानी कहता है कि परम आनंद है उस आत्मा को जान लेने में जो शरीर नहीं है, तो अज्ञानी का लोभ भी जगता है। वह भी उस परम आनंद को जानने के लिए उत्सुक हो जाता है। तब यात्रा शुरू होती है।

लेकिन यात्रा ऐसी है कि जैसे—जैसे अज्ञानी उसमें बढ़ता है, वैसे—वैसे उसे पता चलता है कि जो इतनी ने हां भरी थी कि देह है, वह है नहीं, जो संसार ही भरा था, वह है नहीं। और जैसे—जैसे गहरा होता है, वैसे—वैसे ज्ञानी उस पर शर्तें जोड़ता है, वह कहता है कि अगर आनंद का लोभ किया, तो आनंद कभी मिलेगा नहीं—हालाकि वह लोभ से ही चला था!

मगर ये बाद की बातें हैं। जब रास्ते पर चल पड़े, थोड़ी दूर यात्रा कर ली, लौटना भी मुश्किल हो गया—क्योंकि यह रास्ता ऐसा है, इस पर लौटना नहीं हो सकता। जितना आपने जान लिया, उसको फिर से अनजाना नहीं किया जा सकता। ज्ञान से वापसी असंभव है। तो जहा तक आप आ गए, वहां से आगे ही जाया जा सकता है, पीछे नहीं जाया जा सकता।

और बड़े मजे की बात यह है कि अज्ञानी जब रास्ते पर चलने लगता है, तो जितने कष्ट में वह कभी नहीं था, आगे बढ़ कर उतने कष्ट में पड़ जाता है! क्योंकि पहले जो कुछ था, गलत ही था, लेकिन सब साफ था। जैसे ही आगे बढ़ता है, तो पिछला तो सब धुंधला और व्यर्थ हो जाता है, मध्य में अटक जाता है। पीछे लौट नहीं सकता, आगे जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। इसलिए फिर ज्ञानी जो—जो शर्तें देता है, वे पूरी करनी पड़ती हैं। वह कहता है, लोभ छोड़ दो तो आनंद होगा। हालांकि पहली दफा शानी ने लोभ ही जगाया था कि परम आनंद है। कहां पड़े हो नर्क में! कहा पड़े हो दुख में! पास ही है अमृत का झरना, आ जाओ!

तो वह दुख को छोड़ने की आशा में, सुख पाने की आशा में—आनंद से लगा कि बड़ा सुख होगा वहां—इस आशा में बढ़ता है। यह लोभ ही है। लेकिन थोड़ी ही देर में तानी कहता है, लोभ बिलकुल छोड़ दो। आनंद मांगना मत, नहीं तो मिलेगा कभी नहीं। अब बड़ी मुश्किल हुई! पीछे लौटा नहीं जा सकता। मन होता है कि वह सुख ठीक था; लेकिन अब वहा सुख दिखाई पड़ नहीं सकता; अब वहां दुख साफ दिखाई पड़ने लगा। तो जो था हाथ में वह छूटता है, और जो मिलने की आशा से छोड़ा था, वह मिलता दिखाई नहीं पड़ता। और अब तानी कहता है कि आशा भी छोड़ दो मिलने की। छोड़नी ही पड़ेगी! पीछे लौट नहीं सकते, छोड़नी ही पड़ेगी।

ऐसा इंच—इंच तानी आपके गलत मोहो को तोड़ता है, और धीरे—धीरे, धीरे— धीरे वहां ले जाता है, जहा अगर आपसे पहले ही कहा जाता कि ले जा रहे हैं, तो आप कभी न गए होते।

बुद्ध ने ऐसी भूल की है। बुद्ध से ज्यादा सीधी—सीधी बात कह देने वाले लोग बहुत कम हुए हैं।

इसलिए बुद्ध—धर्म भारत में टिक नहीं सका। नहीं टिकने का कारण है, सिर्फ यही, कि अज्ञानी के साथ जो कुशलता बरतनी चाहिए, वह बुद्ध ने नहीं बरती।

बुद्ध को जो अनुभव हुआ था, उन्होंने सीधा—सीधा कह दिया। उसका कारण है, बुद्ध ब्राह्मण घर में पैदा नहीं हुए थे। ब्राह्मण पुराने चालाक हैं। लंबा उनका धंधा है, ओल्डेस्ट। इस दुनिया में ज्ञान का धंधा उन्होंने सनातन से किया है। वे कुशल हैं। उन्हें पता है, कहां से बात करनी है। ये थे क्षत्रिय के बेटे। बाप—दादों ने कभी यह धंधा किया नहीं था। इसकी कोई कुशलता न थी। धंधे में नए—नए आए थे। नई दुकान थी, ग्राहक से क्या कहना, कैसे ग्राहक को पटा लेना—उसका बुद्ध को कोई पता नहीं था। कह फंसे! जो सीधा—सीधा था, वैसा ही कह दिया। क्या कहा बुद्ध ने, आपको पता है g: बुद्ध के पास कोई आता कि मुझे आत्मा को पाना है। बुद्ध कहते, आत्मा है ही नहीं, पाओगे क्या खाक!

वह आदमी गया! उसने कहा कि यह क्या हो गया? आत्मा तो है! यहां तक भी समझ लेते कि शरीर नहीं है, आप कह रहे हैं आत्मा भी नहीं है! बुद्ध के पास कोई आता और पूछता कि मोक्ष में आनंद तो बहुत होगा न?

बुद्ध कहते, कैसा मोक्ष? कैसा आनंद? शून्य रह जाता है, न कोई आनंद, न कोई मोक्ष। क्योंकि जहा तक आनंद का पता चलेगा, वहा तक दुख रहेगा। रहेगा ही, क्योंकि पता विपरीत का चलता है। तो बुद्ध कहते, वहां कोई आनंद वगैरह नहीं है। तो वह जो आदमी आया था लोभ की थोड़ी सी आशा बांध कर, उसको बिलकुल तोड़ दिया दरवाजे पर ही। वह भीतर ही नहीं जाता। वह कहता, जब आनंद भी नहीं बचेगा तो यह क्षणभंगुर सुख भी क्या बुरा है!

शाश्वत सुख है नहीं, क्षणभंगुर सुख है। ज्ञानियों ने सदा उसके क्षणभंगुर सुख को तुड़वाया था शाश्वत सुख के लोभ में। बुद्ध ने कहा, कोई शाश्वत सुख वगैरह है नहीं। सुख है ही नहीं। न क्षणभंगुर कोई सुख है, न शाश्वत कोई सुख है, तुम धोखे में हो। तो उस आदमी ने कहा कि क्षमा करिए; जो अभी पास है, उसको ही संभालें। हाथ की आधी रोटी स्वर्ग की पूरी रोटी से बेहतर है। और आप कहते हो, न कोई स्वर्ग है, न कोई पूरी रोटी है, तो आधी रोटी हम क्यों छोड़े?

बुद्ध से लोग पूछने जाते हैं कि ईश्वर मिलेगा? बुद्ध कहते हैं, कोई ईश्वर नहीं है।

बुद्ध के पास जब पहली दफा सारिपुत्त गया, तो वह तो ब्राह्मण का बेटा था; ज्ञानी था, जानकार था, उसने बुद्ध से कहा कि अगर कुछ भी नहीं है, शून्य ही शून्य है, तब तो फिर हमें संसार को बचाने की कोशिश करनी चाहिए, कम से कम कुछ तो है। और आप अजीब बात कर रहे हैं! सब छीनना चाहते हैं और देने का कोई भी वायदा नहीं है, तो कौन आएगा? तो वह ब्राह्मण का बेटा था, उसने कहा, आएगा कौन? सब छुड़वाना चाहते हैं! सब, कहते हैं, छोड़ दो। और पाने की जब हम पूछते हैं, तो आप कहते हैं, पाने को कुछ है नहीं। तो छोड़ेगा कोई किसलिए? छोड़ता तो आदमी पाने के मोह में है। बुद्ध ने कहा, लेकिन जो पाने के मोह में छोड़ता है, वह छोड़ता ही नहीं।

त्याग का मतलब क्या है? त्याग अगर इसलिए है कि कुछ मिलेगा, तो यह सौदा हुआ, त्याग कहां है? एक आदमी महल छोड़ देता है कि स्वर्ग में महल मिल जाएगा, यह सौदा है। एक आदमी पुण्य करता है कि सुख मिलेगा; यह सौदा है। एक आदमी सेवा करता है, धर्म करता है, दान करता है, इस आशा में कि इसके प्रतिकार में कुछ मिलेगा किसी लोक में, किसी जन्म में, यह सौदा है। इसमें कहा त्याग है?

बुद्ध ने कहा, त्याग तो तभी है, जब कोई छोड़ता है और पाने की कोई आशा नहीं रखता। पर सारिपुत्त ने कहा कि होगा यह त्याग, लेकिन फिर आप त्यागी कहीं पा न सकेंगे। त्यागी मिलेगा कहा?

हम सब सौदेबाज हैं। हम अगर ईश्वर के साथ भी संबंध जोड़ते हैं तो वह व्यवसाय का है। अज्ञानी कुछ और कर भी नहीं सकता।

तो बुद्ध का धर्म भारत में टिक नहीं सका। और जब भारत में नहीं टिक सका तो कहां टिक सकता था! लेकिन दूसरे मुल्कों में टिका। टिका कब? टिका जब, जब बुद्ध के अनुयायियों ने वे सारी ट्रिक्स, वह सारा गोरखधंधा सीख लिया जो ब्राह्मणों को सदा से शांत था, तब टिका।

आप जान कर हैरान होंगे कि बुद्ध क्षत्रिय हैं, लेकिन उनके सब बड़े शिष्य ब्राह्मण हैं; और उन्होंने टिकाया। लेकिन भारत में तो बात बुद्ध बिगाड़ गए थे, भारत में तो बुद्ध कह गए थे, इसलिए शिष्य भी उस पर जबरदस्ती दूसरी बातें नहीं थोप सकते थे। इसलिए भारत में तो नहीं टिका, लंका में टिका, बर्मा में टिका, जापान में टिका, चीन में टिका, तिब्बत में टिका, श्याम में, कोरिया में—सारे एशिया में टिक गया, भारत में नहीं टिका। क्योंकि भारत ने बुद्ध से आमने—सामने बात कर ली थी और बुद्ध ने कहा था कुछ पाने को नहीं है। इसलिए भारत में फिर से पाने का लोभ जगाना मुश्किल था। भारत के बाहर जगा दिया। इसलिए भारत के बाहर जो बुद्ध— धर्म है, वह हिंदू धर्म का रूपांतर है। वह बुद्ध की वाणी नहीं है। वह वास्तविक नहीं है, इसलिए टिका। वास्तविक था तो बिलकुल नहीं टिका।

आप जानते हैं, महावीर क्षत्रिय थे, लेकिन महावीर के ग्यारह गणधर सब ब्राह्मण हैं, उन्होंने टिकाया। महावीर की हैसियत की बात नहीं थी टिकाने की। क्षत्रिय को पता नहीं है, यह धंधा ही नहीं उसका, वह तलवार वगैरह चलाना जानता होगा। यह शास्त्र की दुनिया, यह शब्द का जो खेल है, उसका उसे कोई पता नहीं है। तो ग्यारह के ग्यारह महावीर के जो बड़े शिष्य हैं, गणधर हैं, उन्होंने टिकाया।

और सुविधा बन गई। क्योंकि बुद्ध तो बोले खुद, इसलिए शिष्य भी उसको बिगाड़ने में मुश्किल में पड़ गए। महावीर बोले नहीं, महावीर चुप रहे, गणधर बोले। सुविधा रही। महावीर का सीधा वक्तव्य न होने से, गणधरों ने जो कहा, समझा गया यही जैन धर्म है। महावीर चुप रहे। कहा जाता है कि महावीर मौन रहे। उनके मौन को उनके गणधरों ने समझा, और गणधरों ने फिर लोगों को समझाया। इसलिए महावीर का धर्म थोड़ा सा टिका।

फिर भी बहुत ज्यादा टिका हुआ नहीं दिखाई पड़ता। कोई पच्चीस लाख जैन हैं, पच्चीस सौ साल में। अगर पच्चीस आदमी भी महावीर से प्रभावित होते, और शादी कर लेते, तो इतने बच्चे पच्चीस सौ साल में पैदा हो जाते। यह कोई संख्या किसी मतलब की नहीं है। कारण क्या है? कारण वही है, क्षत्रिय को पता नहीं है उस भाषा का, जो अज्ञानी से बोलनी चाहिए। वह तो सदियों में विकसित होती है।

यह श्रुति कहती है ’देह आदि सत्य है, ऐसा ज्ञानियों को समझाने के लिए श्रुति प्रारब्ध कर्म की बात नहीं कहती।’ ज्ञानियों को नहीं समझाना है ऐसा।

‘पर अज्ञानियों का समाधान करने के लिए श्रुति प्रारब्ध कर्म की बात कहती है।’

‘वास्तव में परिपूर्ण, आदि— अंतरहित, अमाप (नाप सकने में असंभव ), विकार रहित, सत्तामय, चैतन्यरूप, नित्य, आनंदमय, अविनाशी, हर एक में व्यापक होने वाला, एकरस वाला, पूर्ण, अनंत, सर्व तरफ मुख वाला, त्याग कर सकने में अथवा ग्रहण कर सकने में अशक्य, आधार के ऊपर नहीं रहने वाला, आश्रय रहित, निर्गुण, क्रिया रहित, सूक्ष्म, विकल्प रहित, स्वतसिद्ध, शुद्ध—बुद्ध, अमुक के समान नहीं, एक और अद्वैत ब्रह्म ही सब कुछ है, और कोई भी नहीं।’

बाकी सब असत्य है, वास्तव में। जो हमें सत्य दिखाई पड़ता है, वह इसीलिए’ सत्य दिखाई पड़ता है कि हमारे पास वह देखने की आंख ही नहीं है जो सत्य को देख सके। हमारे पास वह मन है केवल जो असत्य को जन्माता है। हमारे पास स्वप्न पैदा करने वाला मन है, सत्य देखने वाला चक्षु नहीं। इसलिए जो झूठ है वह हमें दिखाई पड़ता है, जो नहीं है वह हमें दिखाई पड़ता है, और जो है उससे हम चूक जाते हैं। वह कैसे चक्षु पैदा हो, वह ज्ञान—चक्षु कैसे जगे, वह शिव—नेत्र कैसे खुले—जिससे हम देख सकें, क्या सत्य है g:

एक छोटा बच्चा है। खिलौनों में जीता है। खिलौने उसके लिए वास्तविक हैं। इसलिए उसकी गुड़िया की टांग टूट जाए तो वह वैसे ही रोता है, जैसे वस्तुत: किसी की टांग टूट गई हो। रात उसे नींद नहीं आती। उसकी गुड़िया या गुड्डा उसके पास न रखा हो, तो उसे वैसी ही बेचैनी होती है, जैसे आपका वास्तविक प्रेमी आपके पास न हो। बच्चे के लिए अभी गुड्डा—गुडियां वास्तविक हैं। बड़ा होकर हंसेगा खुद ही कि मैं किस खेल में उलझा था! बड़ा होकर खुद ही गुड्डे—गुड़ियों को भूल जाएगा। वे कचरे के कोने में पड़ जाएंगे, फेंक दिए जाएंगे, रोएगा नहीं।

क्या, हुआ क्या? गुड्डा—गुडिया वही हैं, इसको क्या हुआ?

इसकी बुद्धि ऊपर उठी। यह ज्यादा देखने में समर्थ हुआ। लेकिन सिर्फ इतने से ही कुछ फर्क नहीं हो जाएगा, गुड्डा—गुड्डी की जगह दूसरे गुड्डा—गुड्डी आ जाएंगे, ज्यादा जीवित होंगे। एक दिन गुड़िया को छाती से लगा कर सो गया था, फिर किसी स्त्री को छाती से लगा कर सो जाएगा। गुड्डे—गुड़िया बदल जाएंगे, लेकिन चित्त?

फिर इस चित्त के भी ऊपर उठने का उपाय है। बहुत कम लोग उठ पाते हैं। बचपन से तो सभी लोग जवान हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि जवानी के लिए आपको कुछ करना नहीं पड़ता, वह प्राकृतिक विकास है। अगर आपको ही जवान होने के लिए कुछ करना पड़े, तो इस दुनिया में दो—चार आदमी जवान मिलेंगे, बाकी सब बच्चे रह जाएंगे। आपको कुछ नहीं करना पड़ता, जवानी मजबूरी है; आप बढ़ते चले जाते हैं। आप कुछ कर नहीं सकते, रोक नहीं सकते, इसलिए जवान हो जाते हैं। लेकिन आध्यात्मिक होश नहीं आता, क्योंकि उसके लिए कुछ आपको करना पड़ता है। कुछ करेंगे तो। वह विकास आपके निर्णय पर निर्भर है। प्रकृति उसको थोपती नहीं आपके ऊपर। आपकी स्वतंत्रता पर छोड़ दिया है।

इसीलिए दो—चार लोग बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट हो पाते हैं, क्योंकि श्रम, साधना!

जिस दिन आप जाग कर देखेंगे उस दिन सारा जगत आपको बच्चों के खेल जैसा मालूम पड़ेगा। उतनी प्रौढता के स्तर पर चीजें पीछे की झूठी होती चली जाती हैं।

तो यह सूत्र कहता है, वास्तव में तो एक ही है ब्रह्म। और इसके बाबत कुछ बड़ी महत्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं, इस एक ब्रह्म के बाबत। अनेक तो हमारी परिचित हैं, उनकी मैं चर्चा नहीं करूं।

‘परिपूर्ण, आदि— अंतरहित, अमाप, विकाररहित, सत्तामय, चैतन्यमय, नित्य, आनंदमय, अविनाशी, हर एक में व्यापक, एकरस वाला, पूर्ण, अनंत, सर्व तरफ मुख वाला’—ये हमारे परिचित शब्द हैं, जो ब्रह्म के लिए हमने उपयोग किए हैं। लेकिन इसमें कुछ दो—तीन लक्षण बड़े अदभुत हैं।’त्याग कर सकने में अथवा ग्रहण कर सकने में अशक्य’—यह बड़ी महत्व की बात है। जिसे आप छोड़ न सकें और जिसे आप पकड़ भी न सकें—ऐसा। इसका क्या मतलब हुआ?

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ईश्वर को खोजना है। मैं उनसे पूछता हूं, खोया कब? कहां? क्योंकि जिसे खोया हो, उसे खोजा जा सकता है, जिसे खोया ही न हो, बड़ी मुश्किल की बात है! वे कहते हैं, नहीं, खोया कहां, कब, कुछ पता नहीं! तो मैं उनसे पूछता हूं, पहले इसका तो पता करो, खोया भी है कभी? खोया हो अगर, पक्का करके आओ, तो मैं खोज की तरकीब तुम्हें बता दूं। और तुमने खोया ही न हो और मैं तुम्हें खोज की तरकीब बता दूर तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। क्योंकि तुम खोजने निकल जाओगे उसको जिसे कभी खोया नहीं, तो कैसे खोज पाओगे? और तुम्हारी खोज तुम्हें भटका देगी।

परमात्मा है हमारा स्वभाव, उसे हम खो कैसे सकते हैं? हम भूल सकते हैं, विस्मृत कर सकते हैं, खो नहीं सकते। इस फर्क को समझ लें। विस्मरण हो सकता है, ध्यान न दिया हो बहुत दिन तक, भूल गए हों कि कौन भीतर छिपा है। इतने निकट है हमारे कि ध्यान देने की जरूरत न पड़ी हो। दूर की बातों पर नजर लगी रही हो और पास का स्मरण न रहा हो, यह हो सकता है। लेकिन खो नहीं सकते।

इसलिए संतों ने कहा है, उसका स्मरण ही काफी है, खोजने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए नानक ने, कबीर ने, दादू ने, रैदास ने नाम—स्मरण पर जोर दिया। नाम—स्मरण का कुल मतलब इतना है कि जिसे खोया नहीं, उसे खोजने की तो बात करो मत, सिर्फ उसको स्मरण करने की फिक्र करो, पुनर्स्मरण। वह भी स्मरण नहीं, पुनर्स्मरण है। वह सदा मौजूद ही है।

यह सूत्र बड़ा अदभुत और क्रांतिकारी है।

‘त्याग कर सकने में अथवा ग्रहण कर सकने में अशक्य।’

जिसे हम खो नहीं सकते, वही है स्वभाव। अगर खो सकते हैं, तो वह स्वभाव न रहा। अगर आग अपनी आग्नेयता को खो दे, तो फिर वह उसका स्वभाव न रहा। अगर आग ठंडी हो, तो कुछ और होगी, आग नहीं होगी। आग का आग्नेय होना उसका स्वभाव है। आकाश का रिक्त होना उसका स्वभाव है। स्वभाव का अर्थ यह है कि चाहे कुछ भी हो जाए, जिससे हम अलग नहीं हो सकते। जिससे हम अलग हो सकते हैं, वह हमारा स्वभाव नहीं है।

इसे बहुत गहरे में बैठ जाने दें, इस विचार को। जिससे हम अलग हो सकते हैं, वह हमारा स्वभाव नहीं है। जिससे हम जुड़ सकते हैं, वह हमारा स्वभाव नहीं है। क्योंकि जिससे हम जुड़ सकते हैं, उससे हम टूट सकते हैं। न जिससे जुड़ सकते हैं, न जिससे टूट सकते हैं, वही है मेरा होना, वही है हमारा होना। ब्रह्म हमारा होना है। उससे भागने का कोई उपाय नहीं, उससे बचने का कोई उपाय नहीं, उसे छोड़ने का कोई उपाय नहीं, उसे पाने का कोई उपाय नहीं।

लेकिन अज्ञानी को अगर यह बात कही जाए, तो वह कहेगा कि फिर ठीक, जिसे खोया ही नहीं, खोजें क्यों? और जो सदा है ही, उसको पाने की जरूरत क्या है? तो फिर ठीक है, हम अपने संसार में रहें। क्या जरूरत? पागलपन क्यों करें?

नहीं, तो अज्ञानी को यह नहीं कहा जा सकता। अज्ञानी को यह कहा जाएगा कि खो दिया है उसे तुमने; उसे तुम खो चुके हो जो तुम्हारा वास्तविक होना है, उसे खोजो। जब तक उसे न खोज लोगे, तब तक तुम दुख में रहोगे। खोजो उसे। जब तक तुम परमात्मा को न पा लोगे, तब तक तुम्हारा जीवन विषाद, चिंता और संताप ही रहेगा।

खोज की भाषा अज्ञानी को समझ में आती है। क्योंकि उसे लगता है कि ठीक। सब चीजें खोजता है—धन खोजता है, पद खोजता है, यश खोजता है—वह कहता है, ठीक है। खोज तो अपनी जारी रहेगी, धन न खोजेंगे, धर्म खोजेंगे अब। अज्ञानी खोज की भाषा को समझता है। उसने जिंदगी भर, जिंदगी—जिंदगी खोजने का ही धंधा किया है, काम किया है। एक ही व्यवसाय रहा है उसका, खोजो, आज इसे खोजो, कल उसे खोजो। वह कहता है, ठीक है। धन भी खोज लिया, यश भी खोज लिया, पद भी खोज लिया, अब आप कहते हो कि इसमें मजा नहीं मिलता—और हमको भी अनुभव आता है कि मजा नहीं मिलता—अब हम तुम्हारा परमात्मा खोजते हैं, ठीक।

जैसे वह खोज पर निकलेगा, बाद में यह बताया जाएगा कि परमात्मा को तो खोजा नहीं जा सकता, जब तक तू खोज नहीं छोड़ देगा, तब तक उसे पा नहीं सकता। अब वह मुश्किल में पड़ा; क्योंकि उसने धन की खोज छोड़ दी, पद की खोज छोड़ दी, यश की खोज छोड़ दी, वे व्यर्थ हो गईं, इसी आशा में कि अब सार्थक खोज करूंगा, वह परमात्मा की खोज में आया। जब वह इस खोज में आगे आ गया, और पीछे नहीं लौट सकता अब, अब धन की खोज में नहीं जा सकता। वह व्यर्थ हो गई, इसीलिए तो इस तरफ आया एक नई खोज की सार्थकता में। और अब उसका गुरु उसे कहेगा, अब तू खोज छोड़ दे। पहले धन छोडा, पद छोड़ा, यश छोड़ा, आधी बात बचा ली थी—खोज। धन की खोज—धन छोड़ दिया था, खोज बचा ली थी। धन बाहर था, खोज भीतर थी। बाहर का छोड़ना आसान था। अब यह खोज भी छोड़ दे! क्योंकि जिसे तू खोज रहा है, उसे कभी खोया ही नहीं है।

जब कोई खोज भी छोड़ कर खड़ा हो जाता है, तो तत्क्षण उसमें प्रवेश हो जाता है, जिसमें हम सदा से हैं। परमात्मा हमारा होना है। इसलिए यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है और बड़ा कीमती है!

‘त्याग कर सकने में अथवा ग्रहण कर सकने में अशक्य।’

बुद्ध को हुआ ज्ञान, तो किसी ने पूछा है कि क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं; जो मिला ही हुआ था, उसी का पता चला है। मिला कुछ भी नहीं!

बस यही बुद्ध की गलती है। आपसे कह दें कि कुछ भी नहीं मिला, तो आप कहेंगे. चलो, अपने काम पर लगो! आठ दिन खराब किए इस आदमी के साथ। यह कहता है, कुछ भी मिला ही नहीं, जब ज्ञान हुआ तो कुछ भी नहीं मिला! तो हम काहे के लिए मेहनत कर रहे हैं, श्रम कर रहे हैं! इतना उछलकूद, थकाए डाल रहे हैं अपने को। और यह आदमी कहता है, कुछ मिलता नहीं आखिर में!

बुद्ध ने कहा, कुछ भी नहीं मिला।

जिसने पूछा था, उसने कहा, कुछ भी नहीं मिला? तो फिर शिक्षा किसकी दे रहे हैं आप लोगों को? बुद्ध ने कहा, इसी की। उस हालत में आ जाओ, जब न कुछ पाने को रहे, न कुछ खोने को रहे, और यह अनुभव हो जाए न कुछ पाया जा सकता है, न कुछ खोया जा सकता है।

पर यह शानी की समझ में आने वाली बात है।

‘आधार के ऊपर नहीं रहने वाला, आश्रयरहित, निर्गुण, क्रियारहित, सूक्ष्म, विकल्परहित, स्वतःसिद्ध, शुद्ध—बुद्ध’—ये भी हमारे परिचित शब्द हैं।

‘अमुक के समान नहीं।’

किसी से उसकी तुलना नहीं की जा सकती। अद्वितीय है, बेजोड़ है। ऐसा नहीं कहा जा सकता, इसके समान। तो जितनी तुलनाएं की जाती हैं, वे सब कामचलाऊ हैं।

हम कहते हैं, आकाश के समान शून्य।

नहीं, यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि आकाश भी उसमें समाया हुआ है। वह आकाश से बड़ा है आकाश के समान नहीं हो सकता।

हम कहते हैं, महासूर्य की तरह तेजस्वी।

यह भी छोटी बात है, क्योंकि उसके लिए महासूर्य भी छोटे टिमटिमाते दीए हैं। इनसे कोई तुलना नहीं की जा सकती।

हम कहते हैं, आनंदरूप।

तो हमारे मन में कहीं न कहीं सुख से तुलना शुरू हो जाती है। सुख से उसका कोई संबंध नहीं है। हम कहते हैं, शांत ।

तो हमारे मन में अशांति के विपरीत शांति का खयाल है। अशांति का उसे कभी अनुभव नहीं हुआ है। इसलिए हमारी शांति का उसे कोई पता नहीं हो सकता।

हमारी कोई तुलना काम की नहीं है। उस अनुभव के लिए, किसी और बात से कहने का कोई उपाय नहीं है। संतों ने कहा है, बस अपने ही जैसा; किसी और जैसा नहीं, बस अपने ही जैसा। खुद ही अपने समान है; खुद ही। कोई उपाय नहीं है उसे किसी और से बताने का। लेकिन बताया जाता है, वह अज्ञानी के लिए बताया जाता है कि ऐसा, ऐसा, ऐसा। आखिर में पता चलता है कि वह तो किसी जैसा नहीं है। ‘एक और अद्वैत ब्रह्म ही सब कुछ है और कोई भी नहीं।’

‘इस प्रकार अपने अनुभव से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखंडित जान कर तू सिद्ध हो, और निर्विकल्प स्वरूप आत्मा से ही अत्यंत सुखपूर्वक स्थिति कर।’

‘इस प्रकार अपने अनुभव से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखंडित जान कर तू सिद्ध हो।’

शास्त्र से जान कर नहीं चलेगा काम। श्रुतियां कहें, स्मृतियां कहें, नहीं चलेगा काम। सुन कर हल नहीं होगी बात। अपने ही अनुभव से ऐसा जान कर तू सिद्ध हो।

सिद्ध का अर्थ है, जिसके आगे कोई यात्रा और गति नहीं। सिद्ध का अर्थ है, अंतिम पड़ाव, अंतिम मुकाम, जिसके आगे रास्ते समाप्त हो जाते हैं।

असिद्ध का अर्थ है, जैसे हम हैं। असिद्ध का अर्थ है, जिसका अभी कुछ काम बाकी है, अभी कुछ करना है, अभी कुछ होगा, तो सुख होगा। असिद्ध का अर्थ है, कुछ होगा, कुछ करना है, कुछ पूरा करना है, कुछ पाना है। वह मिल जाएगा तो सुख होगा। असिद्ध का सुख किसी चीज पर निर्भर है। कोई स्त्री मिल जाएगी, कोई पुरुष मिल जाएगा, कोई मकान मिल जाएगा, कोई जमीन मिल जाएगी, कोई पद मिल जाएगा, राष्ट्रपति हो जाऊंगा, प्रधानमंत्री हो जाऊंगा; यह हो जाऊंगा, वह हो जाऊंगा—कहीं सुख है, वह मिलेगा तो सुख मिलेगा—कंडीशनल है, सशर्त है।

सिद्ध का अर्थ है, जिसका अपने होने में ही सुख है। कुछ भी मिले, न मिले, उसका कोई सवाल ही नहीं है। छिन जाए, आ जाएं। उसका सुख किसी बात पर निर्भर नहीं है, स्वयं के होने पर ही निर्भर है। बस मैं हूं, इतना काफी है। और कोई बात शर्त नहीं है। बेशर्त जिसका सुख है, वह सिद्ध है। अभी और यहीं उसका सुख है।

आपका सुख सदा कभी और कहीं है, अभी और यहीं कभी आपका सुख नहीं होता। कभी किसी आदमी को आपने देखा, जो कहे कि मैं सुखी हूं अभी और यहीं? अभी और यहीं तो सब दुखी होते हैं। सुख होता है कहीं आगे, कहीं आगे।

एक मेरे मित्र हैं। एक राज्य में उपमंत्री थे, डिप्टी मिनिस्टर थे। तो बड़े दुखी थे। मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है? कहा कि जब तक मिनिस्टर न हो जाऊं, मन में बड़ी बेचैनी है।

फिर वे मिनिस्टर हो गए। फिर मुझे मिले। वैसे ही दुखी थे! पूछा, क्या मामला है? अब तो मिनिस्टर हो गए। अब तो आपको सिद्ध हो जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि सिद्ध? जब तक चीफ मिनिस्टर न हो जाऊं, कुछ नहीं हो सकता! कोशिश में लगा हूं? कभी न कभी हो जाऊंगा।

इस बार वे चीफ मिनिस्टर भी हो गए! मैंने उन्हें खबर भिजवाई कि अब तो सिद्ध— अवस्था आ गई होगी? उन्होंने कहा, आप भी क्यों मेरे पीछे पड़े हैं? सिद्ध— अवस्था कहीं नहीं दिखाई पड़ती। चीफ मिनिस्टर तो हो गया, कुछ हल नहीं हुआ। कुछ हल नहीं हुआ। और आगे बहुत से बिंदु दिखाई पड़ रहे हैं जो पूरे हो जाएं, तो शायद।

सुख सदा आगे सरकता जाता है। असिद्ध का यह लक्षण है, सुख सदा आगे सरकता जाता है। सिद्ध का यह लक्षण है, सुख अभी और यहीं। कोई हो स्थिति, कुछ हो बाहर, भीतर की सुख— धार में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। और कोई शर्त नहीं है कि यह शर्त पूरी होगी।

जिसकी शर्त है, वह दुखी रहेगा। कोई शर्त कभी पूरी नहीं होती। और शर्त पूरी हो जाए, तो शर्त बनाने वाला मन नई शर्तें बनाता है। जैसे वृक्ष पर पत्ते लगते हैं, पुराने गिर जाएं, कोई फर्क नहीं पड़ता, नए लग जाते हैं। सच तो यह है कि नए लगना चाहते हैं, इसीलिए पुराने गिरते हैं। नए भीतर से धक्का देने लगते हैं निकलने के लिए, पुराने पत्ते बाहर से गिरने लगते हैं। पुराना पत्ता गिरा कि नया लग गया। पुरानी शर्त गिरती है तभी, जब नई शर्त भीतर धक्का मारने लगती है और ऊगने लगती है। वृक्ष पर पत्ते लगते हैं, आदमी के मन में शर्तें लगती हैं।

सशर्त जिसका जीवन है, दुख उसका परिणाम होगा। बेशर्त जिसका जीवन है, अभी और यहीं, जो बना किसी कारण के सुखी है, अकारण सुखी है। अकारण सुखी का मतलब होता है, बाहर से सुख नहीं आता, भीतर से सुख जाता है, भीतर से सुख की धार बहती है, झरना अपना है, स्रोत अपना है। यह किसी से उधार मांगने की बात नहीं है। यह सारा जगत भी विलीन हो जाए, ये सब चांद—तारे टूट जाएं, ये सारे लोग खो जाएं, समाप्त हो जाएं, तो भी सिद्ध के सुख में अंतर नहीं पड़ेगा।

और आपके लिए? जैसा आप चाहते हैं, ठीक वैसा जगत बना दिया जाए, तो भी आपके दुख में कोई अंतर नहीं पड़ेगा। शायद आप और ज्यादा दुखी हो जाएं। जब आपकी मांगें पूरी हो जाती हैं, तब पता चलता है कि इतनी मेहनत की, इतना श्रम उठाया, पाया कुछ भी नहीं, और ज्यादा दुखी हो जाते हैं।

सिद्ध होने के लिए सूत्र कहता है

‘अपने अनुभव से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखंडित जान कर तू सिद्ध हो, और निर्विकल्प स्वरूप आत्मा से ही अत्यंत सुखपूर्वक स्थिति कर।’

उसमें बना रह, उसमें रुका रह, उसमें ठहर, स्थिति कर। उसमें ही लीन हो जा। उससे बाहर मत जा।

इसका थोड़ा स्मरण रखें। उठते, बैठते, बेशर्त सुख की खोज करें। चलते, सोते, जागते, खाते, पीते—परिस्थिति कुछ भी हो—बेशर्त सुख की तलाश करें। सुखी रहें।

यह बड़ा अजीब लगता है हमें कि किसी से कहो कि बस सुखी रहो। वह कहेगा, कैसे सुखी रहें? क्योंकि हमें खयाल ही यह है कि सुख बाहर से आए, तो ही। भीतर से सुखी रहें! यह बात ही हमारी समझ में नहीं आती। हमने कभी जाना ही नहीं भीतर का सुख। इसकी थोड़ी खोज करें। भीतर सुख भरा है। जरा हिम्मत करें और भीतर जाएं। तोड़ दें बीच का पर्दा शर्त का, और आप पाएंगे कि भर गए सुख से। इतने भर गए कि आप चाहें तो अपने सुख से सारे जगत को भर दें, वह फैलता चला जाए।

हम सब मांग रहे हैं दूसरे से। और उससे मांग रहे हैं, जो खुद हमारे पास मांगने आया है। भिखमंगों की जमात है, एक—दूसरे के सामने भिक्षापात्र लिए खड़े हैं कि कुछ मिल जाए! और सभी मांग रहे हैं। कभी सोचा इस पर कि यह सारा संसार भिखमंगों की जमात है! मैं आपके पास आया हूं कि थोड़ा सुख दो, आप इसीलिए मेरे पास आए हैं कि थोड़ा सुख दो। न मैंने कभी अपने भीतर सुख पाया, न आपने कभी अपने भीतर सुख पाया। इसलिए जितने संबंध हमारे हैं, सब दुख देते हैं, कोई सुख नहीं देता। दे नहीं सकता; जो पास नहीं है, वह देंगे कैसे? जो खुद नहीं पाया, उसको दूसरों को देने चले गए हैं!

बाप बेटे को सुख दे रहा है! पत्नी पति को सुख दे रही है! बेटा मां को सुख दे रहा है! और पूछो, देने वाले का खयाल है दे रहे हैं और मिलने वाले को दुख मिल रहा है। सारी दुनिया एक—दूसरे को सुख दे रही है, और सब छाती पीट कर रो रहे हैं कि हम दुखी हैं, कोई सुखी हो नहीं रहा है। पर जब आपके पास ही नहीं है, आप दूसरे को देने जा रहे हैं!

इस दुनिया में सुखी होने का एक ही उपाय है कि आप किसी से मांगने मत जाना। वह है ही नहीं दूसरे के पास, आपके पास है। आप सारी माग छोड़ कर रुक जाओ। अगर दुख भी हो रहा हो तो उसी में रुक जाओ, प्रतीक्षा करो, मत जाओ मांगने। एक दिन आप अचानक पाओगे कि मांगने की आदत के छूट जाने से भीतर का पत्थर हट जाता है, झरना फूट पड़ता है; अचानक रोआं—रोआं सुख से भर जाता है। यह सुख अकारण है। फिर इसे कोई नहीं छीन सकता। यह आपके भीतर से आता है। फिर हो भी सकता है कि कोई आपकी सन्निधि में आपकी इस सुख की धार से आदोलित हो जाए।

मगर बड़े मजे की बात है, हम सुख मांगते हैं और सुख देना चाहते हैं! सुख दे नहीं पाते, सुख मांग नहीं पाते, मिल नहीं पाता। ऐसा कोई व्यक्ति, जिसकी अपनी धारा फूट जाती है, अपना स्रोत खुल जाता है, किसी से सुख मांगता भी नहीं और किसी को सुख देना भी नहीं चाहता, पर ऐसे व्यक्ति से सुख मिल जाता है अनेकों को। देना नहीं चाहता।

कोई बुद्ध किसी को सुख देने नहीं जाते, बस उनकी मौजूदगी। उनके भीतर खिले हुए फूल, उनकी सुगंध, उनके भीतर फूटा हुआ झरना, उसका कल—कल नाद। वह कोई भी, जो उनकी सन्निधि में होता है, जो खुला होता है, जो अपने हृदय के द्वार बंद किए नहीं बैठा होता, उसको झनक पहुंच जाती है; स्वर उसको भी छू लेते हैं।

और बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास जो आंख खुला होकर बैठा हो, उसे यह भी दिखाई पड़ जाता है कि इसका सुख कहीं से आता नहीं मालूम पड़ता, किसी पर निर्भर नहीं मालूम पड़ता, इसका सुख भीतर से ही फूटता मालूम पड़ता है। इसकी किरणें उधार नहीं हैं, इसकी किरणें अपनी हैं। यह चांद की तरह नहीं है कि सूरज की किरणों को लौटाता हो। यह सूरज की तरह है, जिसके पास अपनी किरण है सीधी निकल रही है, सीधी फूट रही है।

इसको हमने सत्संग कहा है। बुद्ध जैसे व्यक्तियों के पास होने का नाम सत्संग है। तो शायद हम भी अपनी मूढ़ता से डगमगा जाएं; शायद हमारा भी पत्थर सरकने की स्थिति में आ जाए; शायद यह देख कर कि कोई अपने आप में भी सुखी हो सकता है, हमारी यह भ्रांति टूट जाए कि दूसरे से सुख मांगते हैं, मलते चले जाते हैं, और भ्रांति को सजाए रहते हैं कि मिलेगा—कभी भी, आज नहीं कल, कल नहीं परसों—मगर मिलेगा दूसरे से, शायद यह भ्रांति टूट जाए। स्वयं को बेशर्त कर लें, मांग को छोड़ दें, यह आशा तोड़ दें कि कहीं और से सुख आएगा, तो एक दिन सुख मिल जाता है। वह अवस्था सिद्ध की अवस्था है; जब अपने सुख की धार उपलब्ध होती है।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–प्रवचन–12

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पृथ्वी में जड़ें, आकाश में पंख—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 2 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

जीवन का गंतव्य क्या है, इस संबंध में प्राचीन हिंदू मनीषी चार चीजें बताते हैं:

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

और आप कहते हैं, मैं तुम्हें एक साथ जीवन में जड़ें देना चाहता हूं

और जीवन के महाआकाश में उड़ने के पंख भी।

कृपाकर बताएं कि दोनों बातों में मेल क्या है और फर्क क्या है?

साथ ही यह भी बताने का कष्ट करें कि प्रज्ञा और तर्क; अमृत और प्रकाश;

आनंद और प्रेम; तथा मोक्ष और निर्वाण एक ही लक्ष्य के अलग-अलग नाम हैं,

अथवा उनमें भेद भी है?

 जो भी जानते हैं, उनके लिए इस संसार में और उस संसार में कोई भेद नहीं। जो नहीं जानते हैं, उनके लिए भी उस संसार में और इस संसार में कोई भेद नहीं; लेकिन दोनों के कारण अलग हैं। अज्ञानी को दिखाई पड़ता है यही संसार सब कुछ है; इसलिए दूसरे संसार का कोई सवाल नहीं। यह भोग, ये इच्छाएं, ये तृष्णाएं, ये आकांक्षाएं, बस यही जीवन है।

एपिक्युरस, बृहस्पति और चार्वाक परंपरा के लोग कहते हैं, चाहे घी उधार भी क्यों न लेना पड़े, लेकिन दिल भरकर घी पी लेना। चाहे भोग के लिए झूठ ही क्यों न बोलना पड़े, लेकिन भोग भोग लेना क्योंकि गया हुआ जीवन वापिस नहीं लौटता। उधार लेकर भोगा या अपने श्रम से भोगा, कोई अंतर नहीं है; क्योंकि मरने के बाद न लेनदार बचता है, न देनदार बचता है; सभी मिट जाते हैं। न कोई नीति है, न कोई अनीति। बृहस्पति और एपिक्युरस जैसे विचारक अज्ञानी इस संसार को ही सब कहते हैं; उसके समर्थन में हैं। वे संसारवादी हैं।

इससे बड़ी झंझट पैदा होती है, बड़ा उलझाव खड़ा होता है, क्योंकि परम ज्ञानियों ने कहा है कि वह संसार और यह संसार एक ही है। परम ज्ञानियों को भी कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि परम ज्ञानियों को वह संसार जैसे ही दिखाई पड़ता है, यह संसार खो जाता है।

अज्ञान में भी एक बचता है–यह संसार।

और ज्ञान में भी एक बचता है–वह संसार।

लेकिन तुम्हारे लिए दो हैं क्योंकि न तुम अज्ञानी हो, और न तुम ज्ञानी। और यह बड़ी दुविधा की दशा है। तुम मध्य में हो। त्रिशंकु की तरह चित्त है तुम्हारा। तुम हो तो अज्ञानी, लेकिन समझते खुद को ज्ञानी हो। इसलिए दो संसार हैं। और इन दो संसारों से तुम्हारी सारी तकलीफ पैदा होती है, क्योंकि कहां जाएं? यह संसार खींचता है, इसके विपरीत वह संसार खींचता है। और इसमें प्रवेश करें तो मन में अपराध लगता है कि दूसरे को भटक रहे हैं, चूक रहे हैं। उस तरफ जाएं तो यह संसार खोता हुआ मालूम पड़ता है। तुम्हारी अवस्था धोबी के गधे की तरह है, जो न घर का न घाट का। घाट भी खींचता है, घर भी खींचता है; दोनों विपरीत मालूम पड़ते हैं।

अगर तुम सच में ही अज्ञानी हो, जैसे कि पशु-पक्षी हैं, तो वह संसार नहीं है। पशु-पक्षियों में कोई चिंता नहीं। चिंता मानवी ईजाद है। वृक्षों में कोई चिंता नहीं है क्योंकि चिंता तो तब पैदा होती है जब विपरीत लक्ष्य मन में जगह बना ले। जब तुम दो तरफ खिंचे जाने लगो, तब तनाव पैदा होता है। जब तुम एक ही तरफ जा रहे हो, तब कोई तनाव पैदा नहीं होता। तनाव का अर्थ ही है कि तुम्हारे दो विपरीत गंतव्य हैं।

इसलिए जितना तनाव हो, उतना ही समझना कि तुम दो दिशाओं में एक साथ यात्रा कर रहे हो। दो नावों पर सवार हो, जो दो अलग तरफ जा रही हैं। एक इस किनारे की तरफ, एक उस किनारे की तरफ। तुम्हारी तकलीफ गहन है। और तुम एक नाव में सवार भी नहीं हो पाते क्योंकि तुम पशुओं की भांति अज्ञानी भी नहीं और तुम बुद्धों की भांति ज्ञानी भी नहीं।

अज्ञान भी अद्वैतवादी है और ज्ञान भी अद्वैतवादी है।

इसलिए समस्त पदार्थवादी कहते हैं, बस पदार्थ की ही सत्ता है, परमात्मा की नहीं। संसार ही सत्य है और सब असत्य। शरीर ही सब कुछ है, आत्मा कुछ भी नहीं! अद्वैतवादी हैं–एपिक्युरस, दिदरो, माक्र्स, एन्जल्स, लेनिन, स्टैलिन, माओ–सब अद्वैतवादी हैं; एक को ही मानते हैं।

और परम ज्ञानी भी कहता है कि ब्रह्म ही है, माया का कोई अस्तित्व नहीं। वही सत्य है, यह सब झूठ है। तुम आत्मा हो, शरीर आभास है। तो महावीर, बुद्ध, शंकर, रमण–वे सब भी अद्वैतवादी हैं।

तुम द्वैतवादी हो; यह तुम्हारा तनाव है। तुम्हारी मुसीबत यह है कि एक तरफ से पशु तुम्हें खींच रहा है और एक तरफ से बुद्ध तुम्हें खींच रहे हैं। तुम्हारी आंखें बुद्ध पर लगी हैं और तुम्हारे पैर पशुओं से जुड़े हैं। तुम सीढ़ी के मध्य में लटके हो। तुम्हारे पैर नीचे की तरफ जाना चाहते हैं, तुम्हारी आंखें ऊपर की तरफ जाना चाहती हैं। तुम्हारा जीवन बड़ा कष्ट का होगा।

यूनान में ऐसा हुआ, एक बहुत बड़ा ज्योतिषी एक रात तारों का अध्ययन करता हुआ, आकाश को देखता हुआ चल रहा था कि एक कुएं में गिर पड़ा। आंख आकाश पर लगी थी, कुएं का पता ही न चला। चिल्लाया, घबरा गया। रास्ता वीरान था। सिर्फ दूर किसी एक झोपड़े में एक बूढ़ी औरत थी; कोई किसान की मां। आवाज सुनकर आई। उसने झांककर नीचे देखा तो उस ज्योतिषी ने कहा, ‘मां, मुझे निकाल। मैं एक महान ज्योतिषी हूं। शायद तुमने मेरा नाम सुना हो। एथेन्स में कौन है, जो मुझे न जानता हो? दूर-दिगंत तक मेरी ख्याति है।’ अपना नाम उसने बताया और उसने कहा कि बड़े-बड़े सम्राट अपनी जन्मकुंडली दिखाने मेरे पास आते हैं। हजारों रुपया मेरी फीस है। तू मुझे बाहर निकाल दे, तेरी जन्मकुंडली मैं मुफ्त ही देख लूंगा। तेरा भविष्य मैं ऐसे ही बता दूंगा।

उस बूढ़ी स्त्री ने कहा, ‘जिसको सामने का कुआं नहीं दिखाई पड़ता, उसको दूर के आकाश के तारे क्या समझ में आते होंगे। तू अपनी जन्मकुंडली और अपने ज्ञान को अपने पास रख। और जिसे यह भी नहीं दिखाई पड़ता कि वह कुएं में गिरने जा रहा है, वह दूर का भविष्य कैसे देख पाएगा?–दूसरे का, वह भी! तुझे बाहर निकाल देती हूं, लेकिन मुझे तेरे ज्योतिष से कुछ लेना-देना नहीं!’

हम सभी कुओं में गिर पड़ते हैं क्योंकि पैर कहीं जा रहे हैं, आंखें कहीं देख रही हैं। हम जगह-जगह टकराते हैं। हमारी पूरी जिंदगी एक संघर्ष के अतिरिक्त और कुछ भी मालूम नहीं पड़ती। चले नहीं कि टकराये; उठे नहीं कि गिरे; कदम उठाया नहीं कि भटके।

और कहीं भी जाएं, कष्ट मालूम पड़ता है। अगर संसार में जाएं तो पीछे ग्लानि लगती है कि चूक रहे हैं। इतनी देर में तो परमात्मा मिल जाता, मंदिर में जाकर प्रार्थना कर ली होती, ध्यान कर लिया होता। इस संसार में क्या रखा है? ज्ञानियों के शब्द याद आते हैं, जब तुम संसार में जाते हो।

जब तुम संभोग में उतरते हो, तब तुम्हें समाधि पकड़ती है; तब तुम्हें खयाल आता है कि कहां जीवन को खो रहा हूं! शक्ति नष्ट कर रहा हूं। परम अवसर मिला है, उससे राम मिल जाता; उसको काम में गंवा रहा हूं। राम तुम्हें याद आता है काम के क्षण में। उसकी वजह से काम भी सुखद नहीं रह जाता। पशुओं की कामवासना बड़ी सुखद और निर्दोष है। आदमी की कामवासना भी एक चिंता का भार है। वह भी दूसरी दृष्टि में धुआं ही धुआं है।

और जब तुम राम को भजने जाते हो मंदिर में, जब तुम आंख बंद करके पालथी लगाते हो, जब तुम बैठते हो सिद्धासन में–बस तुम बैठ भी नहीं पाये कि काम पकड़ लेता है। मन में दोहराते हो राम-राम-राम; वह ऊपर ही ऊपर चलता है, भीतर गहरे में काम ही काम दुहरता है। इधर राम की याद करते हो, कोई सुंदर स्त्री याद आती है, कोई सुंदर पुरुष याद आता है, सपने खड़े होते हैं। जब भी दुकान पर बैठते हो, तब दान की इच्छा आती है। जब भी दान देने जाते हो, तब तुम्हें दुकान का खयाल आता है। तुम कहीं भी पूरे नहीं जा पाते, क्योंकि तुम आधे-आधे बंटे हो।

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं जब भी हम ध्यान करने बैठते हैं तो दूसरी बातें याद आती हैं। किस तरह इनको रोकें? तो मैं उनसे कहता हूं, जब तुम दूसरी बातें करते हो तब ध्यान याद आता है कि नहीं? वे कहते हैं, याद आता है। मैं उनसे पूछता हूं उसको रोकना है कि नहीं? वे कहते हैं, आप भी कैसी बातें कर रहे हैं! वह तो अच्छा लक्षण है।

जब तुम खाना खा रहे हो तब ध्यान याद आये, यह अच्छा लक्षण है? और जब तुम ध्यान कर रहे हो तब खाना याद आये, यह बुरा लक्षण है? यह कैसा गणित हुआ? और इस गणित को माननेवाला कभी भी उस अवस्था में नहीं पहुंचेगा, जब ध्यान करे और भोजन की याद न आये। जब तुम भोजन कर रहे हो, तब ध्यान की भी याद नहीं आनी चाहिए; तभी यह घटना घटेगी–जब तुम ध्यान करोगे, तब भोजन तुम्हें नहीं सतायेगा। जब तुम संभोग में हो तब समाधि का आकर्षण शून्य हो जाना चाहिए; तभी वह घड़ी आयेगी जब समाधि में तुम प्रवेश करोगे, संभोग तुम्हें नहीं खींचेगा। अन्यथा तुम सदा ही बंटे-बंटे रहोगे।

द्वैतवादी कभी भी अखंड नहीं हो सकता। इसलिए अखंड जिन्होंने होना चाहा उन्होंने अद्वैत की बात कही। क्योंकि जब तक दो हैं, तब तक तुम दोनों को पाना चाहोगे। जब एक बचेगा, तभी तुम्हारी आकांक्षा दो की समाप्त होगी और यात्रा सुगम होगी। तब तुम्हारे जीवन से चिंता और भार विदा हो जाएगा।

मैं जो कहता हूं कि तुम्हें इस पृथ्वी में मैं जड़ें देना चाहता हूं और उस आकाश में तुम्हें पंख देना चाहता हूं, उसका कारण है। उसका कारण यह नहीं है कि पृथ्वी और आकाश अलग-अलग हैं। बताओ कहां पृथ्वी समाप्त होती है, और कहां आकाश शुरू होता है? खोदो गङ्ढा पृथ्वी में; तुम जहां तक खोदोगे, वहीं तक पाओगे आकाश है। उतरो गहरे कुएं में, हटाओ मिट्टी को; जितना तुम हटाओगे, पाओगे, वहीं आकाश है। कहां शुरू होता है आकाश?

पृथ्वी भी सांस लेती है। पृथ्वी भी पोरस है; उसके अंग-अंग में आकाश समाया है। वैज्ञानिक से पूछो, वह कहता है कि अगर हम पृथ्वी से सारे आकाश को बाहर निकाल दें तो पृथ्वी एक नारंगी की तरफ छोटी रह जाएगी–सिर्फ एक नारंगी की तरह। इतना आकाश है, इतनी-सी पृथ्वी हैं। मैटर तो इतना-सा है, बाकी तो खाली शून्य है।

और अगर तुम्हारे भीतर से आकाश बाहर निकाल दिया जाए, तुम्हें पता है तुम्हारी क्या गति होगी? जब पृथ्वी नारंगी के बराबर रह जाए, आकाश अलग कर लेने पर–और यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आकाश अलग किया नहीं जा सकता, फिर भी बचेगा; हमारे साधन चुक जाएंगे। अगर और साधन हों तो पृथ्वी और छोटी हो जाएगी; और साधन हों…अगर हमारे पास पूरे साधन हों तो पृथ्वी खो जाएगी, आकाश ही रह जाएगा।

जब तुम मां के पेट में एक छोटे-से अणु थे तो तुम्हें पता है, क्या बात थी? उसमें और अब में तुममें क्या फर्क पड़ा था? थोड़ा ज्यादा आकाश तुममें प्रवेश कर गया है। तब तुम कन्डेन्स्ड थे।

वैज्ञानिक कहते हैं, इस सदी के पूरे होते-होते हम चीजों को आकाश से खाली करने की कला में कुशल हो जाएंगे। तो वे कहते हैं, इक्कीसवीं सदी में ऐसी घटना घट सकती है कि एक आदमी एक ट्रेन से उतरे और चिल्लाये कि दस-बारह कुलियों की जरूरत है। और उसके पास-पड़ोस के यात्री उससे कहें कि सामान तो तुम्हारा दिखाई नहीं पड़ता। सिर्फ एक सिगरेट की डिब्बी रखे हुए है, उस पर एक माचिस रखी है। किसके लिए दस-बारह कुली बुला रहे हो?

वह कहता है, थोड़ा रुको। वे दस-बारह कुली आते हैं और सिगरेट के डिब्बे को नहीं उठा पाते क्योंकि उसमें एक कार ‘कन्डेन्स्ड’ है। उसका, आकाश कार का बाहर निकाल लिया गया है। तो वह माचिस की डब्बी में, सिगरेट की डब्बी में समा जाती है। इतनी बड़ी कार को अमेरिका से भारत लाना फिजूल है, बहुत जगह घेरती है, वहां कार को कन्डेन्स्ड कर लेंगे। जैसे कन्डेन्स्ड मिल्क है, ऐसी कार कन्डेन्स्ड है। फिर उसको यहां लाकर फैक्टरी में फुला लेंगे। आकाश उसमें वापिस डाल देंगे तब वह फिर बड़ी हो जाएगी। तो बड़े-बड़े हवाई जहाज, रेल के इंजन माचिस के डिब्बी में आ सकेंगे।

जब पूरी पृथ्वी का आकाश खिंचकर नारंगी के बराबर हो जाता है, तुम्हारे भीतर का आकाश खिंच जाएगा, तुम क्या बचोगे? खाली आंख से देखे न जा सकोगे। मां के पेट में तुम्हारा जो अणु था, उसको देखने के लिए यंत्र चाहिए, खुर्दबीन चाहिए। खाली आंख से तुम देखे नहीं जा सकते थे।

कहां पृथ्वी शुरू होती है, कहां आकाश समाप्त होता है? रोज नई पृथ्वियां बन रही हैं, कोरे आकाश से निकलती हैं। और रोज पृथ्वियां खो जाती हैं, कोरे आकाश में लीन हो जाती हैं।

हिंदू इसको कहते हैं कि जब प्रलय होता है तो सब आकाश हो जाता है। प्रलय का अर्थ है: सिर्फ आकाश रह जाता है, शून्य रह जाता है; सब पदार्थ खो जाते हैं। और जब पुनः सृष्टि होती है तो फिर पदार्थ प्रगट होता है। शून्य से आता है संसार, शून्य में ही जाता है।

विज्ञान की जितनी खोज आगे बढ़ती है उतना ही पता चलता है कि हिंदुओं की धारणाएं सच मालूम होती हैं, बाकी और धारणाएं बचकानी मालूम पड़ती हैं क्योंकि हिंदू कहते हैं जगत शून्य से आया; ना-कुछ से आया और फिर ना-कुछ में चला जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि ना-कुछ, सब कुछ का ही छिपा हुआ रूप है। इसलिए जब मैं कहता हूं शून्य, तो तुम यह मत समझ लेना कि ना-कुछ।

शून्य का अर्थ: छिपा हुआ पूर्ण; अप्रगट पूर्ण।

पूर्ण का अर्थ: प्रगट हो गया शून्य।

जब मैं तुमसे नहीं बोल रहा था, आकर बैठा था इस कुर्सी पर क्षण भर को, तब शून्य था। फिर मैं बोला। कहां से आया यह शब्द? शून्य से बनी यह ध्वनि, शब्द; फैला, तुम तक पहुंचा। शब्द पदार्थ है इसलिए शब्द को रिकार्ड किया जा सकता है। उसकी चोट है। इसलिए शब्द सुना जा सकता है क्योंकि तुम्हारे कान पर धक्का मारता है। शून्य सुना नहीं जा सकता क्योंकि शून्य अपदार्थ है। जन्म के पहले तुम क्या थे? मरने के बाद तुम कहां होओगे? जन्म के पहले तुम अप्रगट थे। छिपा है छोटे-से बीज में पूरा वृक्ष।

एक वैज्ञानिक वनस्पतिशास्त्री प्रयोग कर रहा था। सभी का यही खयाल है कि जब वृक्ष बड़ा होता है तो वृक्ष में जो पदार्थ आ रहा है, वह पदार्थ मिट्टी, खाद, पानी, रोशनी इनसे आ रहा है। बड़ी अनूठी खोज है वनस्पतिशास्त्रियों की। वे कहते हैं, यह बात सब गलत सिद्ध हुई। एक वनस्पतिशास्त्री ने वर्षों तक प्रयोग किया एक पौधे पर। जब उसने पौधे के बीज को गमले में डाला तो गमले का वजन लिया। रत्ती-रत्ती वजन का हिसाब रखा। कोई भी खाद डाला तो वजन लिया। वृक्ष बड़ा हो गया तब वजन लिया तो बड़ा हैरान हुआ; क्योंकि जितना वजन उसने डाला था, उससे यह वजन तो कई गुना ज्यादा था।

तो उसने वृक्ष के पौधे को बिलकुल अलग कर लिया, निकाल लिया। रत्ती भर मिट्टी उसके साथ न जाने दी। और जब उसने तौला तो वह चकित हुआ। वह वजन उतना ही था, जितना होना चाहिए। जितनी मिट्टी, खाद डाली थी, जितना वजन था शुरू में बीज डालने के पहले, यह वजन गमले का उतना का उतना था। मिट्टी इसमें से रत्ती भर बाहर नहीं गयी। खाद गया नहीं कहीं; और यह वृक्ष इतना बड़ा है, जो कि गमले से तीन-चार गुना ज्यादा वजनी है। यह कहां से वृक्ष आया? इस वृक्ष में जो पदार्थ पैदा हुआ, वह आकाश से आया।

सिर्फ हिंदुओं ने स्वीकार किया है पंचत्तत्वों में आकाश को; कि तुम्हारे शरीर में चार तत्व तो हैं ही–जल है, पृथ्वी है, पानी है, अग्नि है; एक चौथा, चार के पार एक पांचवां भी पदार्थ है: आकाश।

चार्वाक चार को मानते हैं। वे कहते हैं, पंच पदार्थ से आदमी नहीं बना क्योंकि आकाश न तो दिखाई पड़ता है, न तौला जा सकता है, न नापा जा सकता है; आकाश तो बातचीत है। यह आकाश तो ईश्वर जैसा कोरा सिद्धांत है। आदमी चार से बना है–अग्नि, जल, मिट्टी, वायु; इनसे बना है। आकाश नहीं है। आकाश दिखाई नहीं पड़ता।

लेकिन वनस्पतिशास्त्री कहते हैं, ये पूरे इतने-इतने बड़े वृक्ष आकाश से आ रहे हैं। तुम भी जो बड़े हो रहे हो, मां के पेट में जो अणु विकसित हो रहा है, फिर तुम्हारा जन्म हो रहा है, फिर तुम बढ़ रहे हो। कुछ भी तुम्हारा वजन न था, बीज की तरह थे तुम मां के पेट में; और अब तुम सौ किलो के हो सकते हो। तुममें जो वजन आया है, यह तुम्हारे भोजन से आया है? बड़ी कठिन बात है; यह आकाश से आया है।

अब तक इस संबंध में वैसी खोज नहीं हो सकी, जैसी पौधे के संबंध में हुई है; लेकिन अमरीका का एक वैज्ञानिक कहता है कि यह भी आकाश से आया है क्योंकि आदमी भी पौधे से भिन्न नहीं हो सकता; यह भी शून्य से आया है। उस वैज्ञानिक का कहना है, इसलिए हम कभी न कभी वह तरकीब खोज लेंगे कि आदमी बिना भोजन के जी सके। वह कहता है, भोजन की जीने के लिए जरूरत नहीं है, भोजन सिर्फ एक पुरानी आदत है। इसलिए कुछ लोग बिना भोजन के ही जीये हैं। महावीर की कथा में अर्थ मालूम पड़ता है कि बारह साल में उन्होंने केवल तीन सौ पैंसठ दिन भोजन लिया, ग्यारह साल भूखे रहे।

यूरोप में बवेरिया में थेरेसा न्यूमन नाम की एक स्त्री इसी सदी में चालीस साल तक बिना भोजन के रही। दुबली-पतली औरत नहीं थी, वह वैसी ही रही वजनी, जैसी वजनी थी। काफी हृष्ट-पुष्ट स्त्री थी। और भी एक चमत्कार उसके साथ घट रहा था, जिसको कि ईसाई स्टेगमेटा कहते हैं। स्टेगमेटा एक ईसाई घटना है; कीमती है। भक्त जब जीसस के साथ इतना एक हो जाता है, कि उसके सब फासले टूट जाते हैं तो शुक्रवार के दिन जब जीसस को सूली लगी तब उस भक्त के हाथों में, जहां जीसस को खीले चुभे गए थे, हृदय में जहां खीला चोभा गया था, पैरों में…सब तरफ छेद हो जाते हैं शुक्रवार के दिन; जैसे कि निश्चित खीले चुभाकर छेद किए गए हों! और उनसे सतत खून की धार बहने लगती है।

यह थेरेसा न्यूमन को चालीस साल तक निरंतर हुआ। न तो वह भोजन करती। चालीस साल तक निरंतर शुक्रवार को उसके हाथों-पैरों और हृदय से खून की धारा बहने लगती, घाव पैदा हो जाते। चौबीस घंटे के भीतर घाव भर जाते। खून बंद हो जाता। और उसके वजन में कभी फर्क न पड़ा।

पश्चिम के चिकित्सा-शास्त्रियों के लिए न्यूमन एक चमत्कार हो गई। बड़े अध्ययन किए गए उसके। उसकी सारी पेट की अस्थियां सिकुड़कर कांटे जैसी हो गई थीं क्योंकि उनसे कोई भी भोजन नहीं गुजर रहा था। उसका पेट बिलकुल सिकुड़ गया था। उसका उपयोग ही चालीस साल से नहीं हुआ था। लेकिन शरीर उसका कायम रहा। शरीर का वजन कायम रहा। और हर शुक्रवार को यह जो खून का रक्तपात हो रहा है, इससे भी उसके शरीर के वजन में कोई फर्क न पड़ा। उसके हजारों कपड़े इकट्ठे किए गए, जिन पर खून के धब्बे हैं; क्योंकि हर शुक्रवार को…।

क्या घटना घट रही थी?

हिंदू कहते हैं, तुम्हारा मौलिक आधार आकाश है। वैज्ञानिक जो खोज करते हैं, वे कहते हैं, फिर इस भोजन की क्या जरूरत है? अगर आदमी बिना भोजन के जी सकता है, अगर एक जी सकता है तो सब जी सकते हैं। अपवाद यहां कोई भी नहीं। वह जो एक है, उससे नियम सिद्ध होता है। एक अनूठी बात उनके खयाल में आयी है और वह यह कि भोजन से केवल तुम्हारे भीतर…।

जैसे कि पानी से बिजली पैदा की जाती है, तो पानी से बिजली पैदा करने के लिए डाइनेमो लगाने पड़ते हैं। पानी उन पर गिरता है। डाइनेमो का चक्कर घूमता है, उससे बिजली पैदा होती है। बिजली घूमते हुए चक्र से पैदा नहीं होती, बिजली तो पानी से पैदा होती है, लेकिन अगर चक्र न घूमे तो नहीं पैदा होती। बिजली तो पानी में छिपी है लेकिन उस चके की जरूरत है ताकि पानी गतिमान हो जाए।

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि भोजन केवल तुम्हारे भीतर छिपे हुए जीवनत्तत्व को गतिमान करता है। उससे कुछ तुम्हें मिलता नहीं। जैसे पानी गिरता है चके पर, न तो चके से बिजली निकलती है, न चका पानी को कुछ देता; लेकिन चका सिर्फ पानी की चोट से घूमता है। उस घूमने के कारण पानी में छिपी बिजली प्रगट होती है। तुम्हारे भीतर रोज गिरता हुआ भोजन तुम्हारे आकाश को कंपाता है, आकाश को गतिमान करता है। भोजन तो मल बनकर निकल जाता है, लेकिन तुम्हारा आकाश गतिमान हो जाता है; उससे जीवन पैदा होता है।

इस सिद्धांत के सत्य होने की करीब-करीब संभावना है क्योंकि यही संतों का अनुभव भी है। किसी दिन यह आसान होगा कि पृथ्वी पर आदमी बिना भोजन के रह सके। और अब अगर बिना भोजन का न रहा तो रह भी न सकेगा क्योंकि आदमी ज्यादा होते जाते हैं, और भोजन कम पड़ता जाता है।

आकाश तुम्हारा भोजन है। आकाश शून्य है लेकिन तुम्हारे भीतर जाकर अभिव्यक्त होता है, पदार्थ बनता है, प्रगट होता है। सृष्टि और प्रलय अंत में ही नहीं घटते, तुम्हारे जन्म के साथ सृष्टि शुरू होती है, तुम्हारी मृत्यु के साथ तुम्हारा प्रलय हो जाता है। कम से कम तुम शून्य और पूर्ण के बीच बहुत बार घूम चुके हो।

कहां शुरू होती है पृथ्वी? कहां शुरू होता है पदार्थ? कहां अंत होता है आकाश का? नहीं, वे दोनों मिले-जुले हैं। यह ऐसे ही है, जैसे एक पत्थर की चट्टान पानी में तैर रही हो; अलग दिखती है क्योंकि पानी अलग, चट्टान अलग। पानी से ऊपर उठी दिखती है; लेकिन कहां पत्थर की बरफ की चट्टान अलग होती है पानी से? कहीं भी अलग नहीं होती। प्रतिपल बरफ पिघल रहा है और नदी बन रहा है। और यह भी हो सकता है, प्रतिपल नदी जम रही है और बरफ बन रही है। वे दोनों एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। एक ठोस हो गया, एक तरल।

बस, ऐसी ही पृथ्वी और आकाश है। पृथ्वी ठोस हो गई, आकाश तरल है। पृथ्वी व्यक्त हो गई, आकाश अनभिव्यक्त! पृथ्वियां पिघल रही हैं क्योंकि पुरानी हो जाती हैं, जरा जीर्ण हो जाती हैं। उनको शून्य में वापिस जाना पड़ता है। जैसे तुम्हें मृत्यु में वापिस जाना पड़ता है फिर ताजा होने को, फिर बच्चे की तरह पैदा होने को, ऐसे पृथ्वियों को आकाश में जाना पड़ता है। फिर नई पृथ्वियां पैदा हो रही हैं।

तो जब मैं तुमसे कहता हूं, इस पृथ्वी में तुम्हें जड़ें और उस आकाश में तुम्हें पंख देना चाहता हूं, तो तुम यह मत सोचना कि मैं पृथ्वी और आकाश को अलग-अलग कर रहा हूं। सिर्फ तुम्हारे कारण द्वैत की भाषा का उपयोग कर रहा हूं क्योंकि तुम वही भाषा समझ सकते हो। अद्वैत की भाषा बेबूझ हो जाती है, पागलपन मालूम पड़ने लगती है, उलटबांसी हो जाती है; फिर समझ में नहीं आती।

और तुम्हें समझाने के लिए प्रयास कर रहा हूं। कुछ ऐसी बात कहूं, जो तुम्हारी समझ में ही न आए तो तुम्हारे मन के द्वार बंद ही हो जाते हैं। इसलिए तुम्हारी भाषा बोल रहा हूं। और तुम्हारी भाषा में उसको डालने की कोशिश कर रहा हूं, जो तुम्हारी भाषा में ढालना करीब-करीब असंभव है। सभी संत असंभव चेष्टा कर रहे हैं। वे कहना चाहते हैं, जो नहीं कहा जा सकता। उससे कहना चाहते हैं, जो सुनने की स्थिति में नहीं हैं। तुम द्वैत में जीते हो, तुम दो को समझते हो। तुमने एक में कोई जीवन जाना नहीं है। लेकिन वही असली जीवन है।

तो जब मैं कहता हूं ‘इस’ पृथ्वी और ‘उस’ आकाश में, तो मैं दो की बात नहीं कर रहा हूं, तुम्हारी वजह से दो शब्दों का उपयोग कर रहा हूं। मेरे लिए तो वह आकाश यही पृथ्वी है, और यही पृथ्वी वह आकाश है।

लेकिन स्मरण रखना, अज्ञान में भी अद्वैत होता है और ज्ञान में भी। मैं पशुओंवाला अद्वैत तुम्हारे लिए नहीं चाहता। उन्हें एक दिखाई पड़ता है क्योंकि वे अंधे हैं। अंधेरे में सब चीजें एक हो जाती हैं क्योंकि दिखाई नहीं पड़ता। देखने के लिए आंखें चाहिए और एक देखने के लिए बड़ी गहरी आंखें चाहिए, जो कि सभी भेदों और सीमाओं के पार देख सके।

तो एकता दो तरह की है; एक तो अंधेरे की एकता है। घर में बिजली बुझ गई, एकता सिद्ध हो गई। अंधेरा एक है। अब न टेबल कुर्सी से अलग है, न आदमी औरत से अलग है। अब कुछ अलग नहीं, सब इकट्ठा हो गया। अंधेरे में सब एक हो जाता है क्योंकि दिखाई नहीं पड़ता। आंख भेद पैदा करती है, क्योंकि दिखाई पड़ता है, तो सीमाएं दिखाई पड़ती हैं।

तो एक तो अंधे की एकता है; वह प्रकृतिवादी नास्तिक की एकता है। वह अज्ञानी की एकता है। और एक उस ज्ञानी की एकता है, जो इतना गहरा देखता है, जिसकी आंखें एक्सरे की तरह देखती हैं कि तुम उसके लिए ट्रान्सपेरेंट हो जाते हो, पारदर्शी हो जाते हो। वह तुम्हें ही नहीं देखता, तुम्हारे आर-पार देखता है। और तब सीमाएं फिर खो जाती हैं और असीम प्रगट हो जाता है।

मैं उस अद्वैत की बात कर रहा हूं, जो गहरी आंख से उपलब्ध होता है। उस अद्वैत की नहीं, जो अंधी आंख का अद्वैत है। इसलिए बहुत-से लोग मेरे शब्दों को सुनकर बहुत बार भ्रांति में पड़ जाते हैं। कोई सोचता है, शायद मैं नास्तिक हूं। कोई सोचता है, शायद मैं परमात्मा को नहीं मानता। आस्तिक आता है तो वह मेरे पास दिक्कत में पड़ता है क्योंकि उसको लगता है, इस संसार का विरोध मुझे करना चाहिए, तभी तो उस संसार का पक्ष होगा। वह दो की भाषा में सोचता है। वह सोचता है कि मैं नास्तिक हूं। नास्तिक मेरे पास आता है तो वह कहता है, उस संसार की बात ही क्यों करनी? यह संसार काफी है। दोनों मेरे पास से असंतुष्ट लौटते हैं। दोनों मेरे पास से नाराज लौटते हैं। नास्तिक सोचता है कि मैं छिपा हुआ आस्तिक हूं; आस्तिक सोचता है, मैं छिपा हुआ नास्तिक हूं। मैं दोनों नहीं हूं। क्योंकि हां कहो तो तुमने अस्तित्व को तोड़ दिया। ना कहो तो तुमने अस्तित्व को तोड़ दिया। जहां हां और ना समानार्थी हो जाते हैं, वहां धर्म का जन्म है। जहां हां और ना एक हो जाते हैं, वहां धर्म का जन्म है।

मेरी अड़चन तुम्हें समझ में आ सकती है। इस संसार के मैं विरोध में नहीं हूं क्योंकि मैं जानता हूं, इसी में वह दूसरा संसार छिपा है। मैं तुम्हारे शरीर के विरोध में नहीं हूं क्योंकि मैं जानता हूं, इसी में वह अशरीरी वास कर रहा है। मैं तुम्हारे भोग के विरोध में नहीं हूं क्योंकि तुम इसी में अगर गहरे गए, होशपूर्वक गए तो तुम्हें पतंजलि का सारा योग वहां लिखा हुआ मिल जाएगा। मैं संभोग के विपरीत नहीं बोलता क्योंकि मैं जानता हूं, उसी में अगर तुम अपने को पूर्ण रूप से छोड़ सके और होश तुमने कायम रखा, बेहोश न हुए तो तुम्हें समाधि का पहला स्वाद उपलब्ध हो जाएगा।

समाधि की पहली सीढ़ी वहीं रखी जाएगी, जहां तुम हो। तुम जहां नहीं हो, वहां समाधि की सीढ़ी रखी रहे, उससे तुम कैसे यात्रा करोगे? कैसे चढ़ोगे? उसका क्या अर्थ है? तुम जहां हो, वहीं हमें परमात्मा की पहली सीढ़ी रखनी पड़ेगी, ताकि तुम वहां से यात्रा करो। तुम्हारे संसार में ही कहीं मंदिर को बनाना पड़ेगा, तुम्हारे घर में ही सीढ़ी टिकानी पड़ेगी। निश्चित दूसरा छोर आकाश में चला जाएगा। लेकिन पहला छोर तुम्हारे पास होना चाहिए। अगर पहला छोर भी तुमसे दूर है तो यात्रा कैसे शुरू होगी?

इस पृथ्वी से मेरा अर्थ है: तुम जहां हो। उस आकाश से मेरा अर्थ है: तुम्हें जहां होना चाहिए। इस पृथ्वी से मेरा अर्थ है: तुम जो आज दिखाई पड़ते हो। उस आकाश से मेरा अर्थ है: वह, जो तुम अपनी परम गरिमा में जब पहुंचोगे तो प्रगट होगा। इस पृथ्वी से अर्थ है: तुम्हारे बीज जैसे व्यक्तित्व का; उस आकाश से अर्थ है: तुम्हारे वृक्ष जैसे प्रगट हो गए परमात्मा का।

नीत्शे ने कहा है कि आदमी एक सीढ़ी है जो दो अनंतताओं के बीच टिकी है। तो ठीक कहा है कि आदमी एक पुल है, जो दो अनंतताओं के बीच में फैला हुआ है। उस पुल को बनाने की चेष्टा है। तुम एक किनारे खड़े हो, इस किनारे खड़े हो। और तुम्हारे धर्मगुरु कहते हैं, धर्म उस किनारे है। तुम क्या करो? उस किनारे तुम हो नहीं, इसलिए धर्म को तुम जीयोगे कैसे?

इसलिए लोग धर्म को टालते हैं, जब तक मौत न आ जाए। वे कहते हैं, बुढ़ापे में देखेंगे। जब वह किनारा पास आने लगेगा, तब सोचेंगे; अभी तो बहुत दूर है। धर्म को लोग सोचते हैं बिना मरे उपलब्ध ही न होगा। और जो जीवन में उपलब्ध न हो सके, वह तुम्हें मरकर कैसे उपलब्ध होगा? जो तुम्हें आज न मिल सके वह तुम्हें कल कैसे मिलेगा? क्योंकि कल के बीज आज बोए जा रहे हैं। और कल जो फसल तुम काटोगे, उसकी तैयारी आज करनी है। और आज अगर तुम बैठे रहे तो कल कोई फसल कटनेवाली नहीं। तुम इसी किनारे पर रहोगे।

तो एक तो तथाकथित धर्मगुरु हैं, वे कहते हैं, धर्म है उस किनारे पर। वे दिखाई तो पड़ते हैं कि धार्मिक हैं, लेकिन वे अधर्म के जन्मदाता हो जाते हैं। क्योंकि तुम उस किनारे पर नहीं हो। किनारा इतना दूर है कि दिखाई भी नहीं पड़ता। तब तुम क्या करो?

और दूसरे तथाकथित नास्तिक हैं, पदार्थवादी हैं, भौतिकवादी हैं, वे कहते हैं, यही किनारा है। जो दिखाई पड़ता है, वही सच है। और जब पुरोहित कहता है कि वह किनारा धर्म है, वहां परमात्मा है; और नास्तिक कहते हैं कि यह किनारा तो दिखाई पड़ता है, यहां तुम हो, इसे भोग लो; जो हाथ में है उसे छोड़ो मत–उसके लिए जो आशा और सपने में है। पता नहीं मिले या न मिले! फिर उस किनारे से कोई कभी लौटकर खबर भी नहीं देता कि वह किनारा है। कहीं ऐसी भ्रांति न करना कि यह किनारा भी छोड़ दो और वह किनारा भी न हो। तो तुम दोनों तरफ से गए!

तो तुम्हारे पुरोहित और तुम्हारे नास्तिक दोनों सांठ-गांठ में मालूम पड़ते हैं। दोनों की कान्स्प्रेसी है। तुम्हारा पुरोहित तुम्हें बताता है कि वह किनारा बहुत दूर है, अदृश्य है; वहां पहुंचना आसान नहीं। कभी कोई विरला पहुंच पाता है। और जीते जी तो वहां पहुंचता कोई नहीं।

मोहम्मद के जीवन में उल्लेख है कि वे जीते जी घोड़े पर सवार स्वर्ग में प्रवेश कर गए। यह कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है। तुम अपने घोड़ों को कहां ले जाओगे उस स्वर्ग में? और घोड़े पर बैठे हुए कैसे पहुंच जाओगे? लेकिन यह प्रतीक बड़ा मीठा है और अर्थपूर्ण है। यह यह बता रहा है कि वह दूसरा किनारा इससे जुड़ा है। इस किनारे के घोड़े उस किनारे पर पहुंच जाते हैं। इस किनारे से छूटनेवाली नाव उस किनारे तक जाती है। और मोहम्मद सशरीर प्रवेश कर जाते हैं, इसका मतलब है कि यही पृथ्वी स्वर्ग में प्रवेश करती है; कटे हुए नहीं हैं, जुड़े हैं। यह पृथ्वी और वह आकाश एक हैं। यह बात है, मोहम्मद के स्वर्ग में घोड़े पर बैठे प्रवेश कर जाने की।

वही मैं तुमसे कह रहा हूं। तुम्हारी इस पृथ्वी को और उस आकाश को जोड़ देना है। तुम्हारी जड़ें इस पृथ्वी में होनी चाहिए, जहां तुम हो। विरोध दीखता है लेकिन विरोध नहीं है। तुम्हारी जड़ें जितनी गहरी इस पृथ्वी में जाएंगी, उतनी ही तुम्हारी शाखाएं उस आकाश में ऊपर उठने लगेंगी।

तुम जितने भीतर गहरे उतरोगे उतने ही बाहर फैलते जाओगे। अगर तुम पाताल छू लोगे अपनी जड़ों से, तो तुम अपने फूलों से आकाश छू लोगे; और दोनों जुड़े हैं। वृक्ष से पूछो कि तेरा फूल और तेरी जड़ें दो हैं? तो वृक्ष कहेगा कि मेरा फूल मेरी जड़ों के कारण है। जड़ें मेरे फूल का ही दूसरा हिस्सा हैं। कितनी ही कुरूप और एढ़ी-टेढ़ी मालूम पड़ती हों, फूल का सारा सौंदर्य उन्हीं से आया है, रस उन्होंने ही खींचा है।

तुम फूल को देखकर खुश लौट आते हो। जड़ों को तुमने कभी धन्यवाद नहीं दिया। तुम्हारी नासमझी का कोई अंत नहीं है। यह फूल कभी होते ना। ये सतरंगे फूल खिलते हैं आकाश में, क्योंकि जड़ें निरंतर पाताल में काम कर रही हैं। और इनमें जो सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वह उनकी कुरूपता पर निर्भर है। क्योंकि जड़ें सुंदर नहीं हो सकतीं। उनको आड़ा-तिरछा होना पड़ेगा। उनको रास्ते बनाने पड़ेंगे, पत्थरों को तोड़ना पड़ेगा। जमीन को पकड़ना पड़ेगा। उनका इरछा-तिरछापन जमीन को पकड़ने के काम आता है। उनको अंधेरे में छिपा रहना पड़ेगा क्योंकि अगर वे प्रगट हो जाएं तो वृक्ष मर जाएगा। उनको आकाश में छिपा रहना पड़ेगा। वे सामने नहीं आ सकतीं।

अगर तुम फूलों से पूछो तो वे निरंतर धन्वाद दे रहे हैं जड़ों को। अगर तुम जड़ों से पूछो तो वे निरंतर फूलों को धन्यवाद दे रही हैं। जड़ें जीयी ही इसलिए हैं कि फूल खिल जाएं। उनका सौभाग्य खिला है। उनके जीवन भर का श्रम खिला है। उनके जीवन की गरिमा प्रगट हुई है। सार्थक हो गईं वे।

जिस दिन फूल खिलते हैं, उस दिन जड़ों के आनंद का ठिकाना नहीं क्योंकि सारा श्रम सार्थक हुआ है। हो सकता है पचास साल श्रम किया हो, तब फूल आये हैं। अंधेरे में, पत्थरों में, जमीन में, जल की तलाश की है, तब फूल आए हैं। सब तरह का संघर्ष किया है, तब फूल आए हैं। तो फूल उनकी चरम सार्थकता है, उनकी सिद्धि है। और फूल जड़ों के बिना जी नहीं सकते; वे एक दूसरे से जुड़े हैं।

वह आकाश और यह पृथ्वी जुड़ी है।

तो मैं तुमसे कहता हूं इसमें तुम अपनी जड़ें फैलाओ। और डरो मत। अगर तुम भयभीत हुए जड़ें फैलाने में, तो तुम्हारी शाखाएं सिकुड़ जाएंगी। अगर तुम बहुत ज्यादा डर गए और तुमने जड़ें फैलाईं ही नहीं, कि यहां तो अंधेरा ही है, यह तो पृथ्वी है, यह तो पदार्थ है, यह तो भोग है, यह तो संसार है। अगर तुम भयभीत हो गए, तो तुम सिकुड़ जाओगे। तुम्हारी जड़ें सिकुड़ी, तुम्हारा आकाश छोटा हो गया। अब तुम फैल न सकोगे।

तुम जाओ, अपने तथाकथित तपस्वियों को देखो। वहां तुम ऐसे ही व्यक्ति पाओगे जिनकी जड़ें सिकुड़ गई हैं और जिनका आकाश भी छोटा हो गया है। और वे चौबीस घंटे डरे हुए हैं कि जड़ें फैल न जाएं क्योंकि यह संसार है। इस भय में इस बुरी तरह लगे हैं, फैलने का मौका ही नहीं मिलता।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि केवल वे ही लोग इस जगत में सृजनात्मक और क्रिएटिव होते हैं–बड़े वैज्ञानिक, बड़े कवि, बड़े चित्रकार, बड़े विचारक; वे ही लोग इस जगत में नये को खोजते हैं; दुस्साहस करते हैं, नये का निर्माण करते हैं, जो लोग इस जगत के भीतर गहरे होते हैं।

उसमें मैं यह भी जोड़ देना चाहता हूं–मनोवैज्ञानिक इसे नहीं जोड़ते क्योंकि यह उनकी समझ के बाहर है–कि बड़े बुद्ध, बड़े महावीर, बड़े कृष्ण, बड़े क्राइस्ट जो कि चेतना के स्रष्टा हैं, जिनकी पेंटिंग किसी बाहर के कैनवास पर नहीं है और जिनका गीत शब्दों में नहीं गाया गया है, और जिन्होंने मूर्ति निर्मित नहीं की बल्कि खुद को ही निर्मित किया है; जो मूर्तिकार हैं स्वयं के, जिन्होंने स्वयं को सृजन किया है, जो खुद एक गीत बन गए हैं, जिनकी पूरी चेतना एक सुंदर प्रतिमा बन गई है, ये भी तभी पैदा होते हैं, जब जड़ें पृथ्वी में गहरी होती हैं।

इस पृथ्वी पर किसी वृक्ष के होने का उपाय नहीं है, जो जड़ों से डर जाए। तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी जड़ों से भयभीत हैं। उनके भय के कारण वे सृजनात्मक नहीं हो पाते। भय ही उनकी शक्ति को पी जाता है। लड़-लड़कर ही वे मर जाते हैं और कहीं पहुंच नहीं पाते हैं।

तुम्हें मैं निर्भय करना चाहता हूं। यह पृथ्वी परमात्मा के विपरीत नहीं है; अन्यथा यह पैदा नहीं हो सकती थी। यह जीवन उसीसे बहा है; अन्यथा यह आता कहां से? और यह जीवन वापिस उसी में जा रहा है; अन्यथा जाने की कोई जगह नहीं है। इसलिए तुम द्वंद्व खड़ा मत करना; तुम फैलना। तुम संसार में ही जड़ें डालना, तुम आकाश में भी पंख फैलाना। तुम दोनों का विरोध तोड़ देना। तुम दोनों के बीच सेतु बन जाना। तुम एक सीढ़ी बनना, जो जमीन पर टिकी है–मजबूत जमीन पर; और जो उस खुले आकाश में मुक्त है, जहां टिकने की कोई जगह नहीं है। ध्यान रखना, आकाश में सीढ़ी को कहां टिकाओगे? टिकानी हो तो पृथ्वी पर ही टिकानी होगी। दूसरी तरफ तो अछोर आकाश है; वहां टिकाने की भी जगह नहीं है। वहां तो तुम बढ़ते जाओगे। धीरे-धीरे सीढ़ी भी खो जाएगी, तुम भी खो जाओगे।

जड़ बहुत मजबूत है, पार्थिव है। पत्ते उतने मजबूत नहीं हैं। जरा-सी धूप, और कुम्हला जाते हैं। जरा-सा ज्यादा पानी, और सड़ने लगते हैं। उतने मजबूत नहीं हैं। फूल और भी सूक्ष्म हैं, और भी नाजुक हैं। पत्ता टिक जाए, उतनी धूप में भी नहीं टिक पाते। पत्ता टिक जाए, उतने भी पानी में नहीं टिक पाते। बड़ा नाजुक जोड़ है।

लेकिन फूल के बाद फिर सुगंध है, उसको तुम पकड़ भी नहीं पाते कि वह कहां है–आई, गई! सुगंध का रूप भी पता नहीं चलता; अरूप है। इसलिए मंदिरों में हमने धूप जलाई, दीप बाले। वह धूप सुगंध के लिए है ताकि तुम समझो कि परमात्मा सुगंध की तरह है। वह इस पृथ्वी की आखिरी…आखिरी निचोड़, नाजुकता है। वह आखिरी सूक्ष्मता है, जहां सब पदार्थ खो जाता है, बस, गंध रह जाती है। वह गंध आई और गई! और पता भी नहीं चलता। पहचानने में भी नहीं आती। थोड़ी देर में विराट आकाश में खो जाती है। खोता तो कुछ भी नहीं है। वह गंध कहीं तो रहती ही होगी। अरूप हो जाती है। अरूप के प्रतीक की तरह हमने धूप मंदिरों में जलायी है, मुसलमानों ने लोबहान जलाया है–वह अरूप। फूल में भी रूप है, फूल का भी निचोड़ है।

इसलिए इस्लाम ने इत्र को बड़ा महत्व दिया है। मुसलमान अपने उत्सव के दिन इत्र लगाकर निकलता है। उसको शायद पता भी न हो क्यों इत्र लगाकर निकलता है! वह सार है, संचय है। जड़ें बड़ी स्थूल हैं; इत्र बिलकुल सार-संचित है, आखिरी निचोड़ है।

जड़ों से और इत्र तक तुम्हारी यात्रा है। पर ध्यान रखना, इत्र खो जाएगा अगर जड़ें न हों। और अगर अकेली जड़ें हों तो उनका क्या अर्थ है? नास्तिक जोर देता है अकेली जड़ों पर; तथाकथित आस्तिक जोर देता है सिर्फ इत्र पर।

मेरा जोर दोनों पर है क्योंकि मुझे वह दोनों दो नहीं मालूम पड़ते। वह एक का ही फैलाव है। जड़ों के बिना इत्र नहीं, इत्र के बिना जड़ें निरर्थक हैं। उनके जीवन में कोई अर्थ नहीं, उनके होने का कोई सार ही नहीं। जड़ें फैलाओ, ताकि कभी तुम इत्र बन सको।

और बाजार से खरीदे गए इत्रों से काम न चलेगा। मंदिरों में जलाई गई धूप काफी नहीं है। तुम्हें धूप बनना पड़ेगा, तुम्हें सुगंध बनना पड़ेगा। जिस दिन तुम्हारे जीवन की सुगंध फैलेगी, उस दिन दूसरी सीढ़ी का छोर पास आने लगा; उसमें तुम खो जाओगे, उसमें तुम लीन हो जाओगे।

धूप को जलते देखा है? धुआं उठता है, थोड़ा-सा दिखाई पड़ता है, फिर खो जाता है। ऐसे ही तुम भी पदार्थ से परमात्मा की तरफ खोते रहोगे।

विरोध खड़ा मत करना। जिसने द्वंद्व खड़ा किया, वह चूक गया। जो निर्द्वंद्व जीया, वह पहुंच गया।

हिंदुओं को यह पता था, इसलिए हिंदुओं ने अपनी जीवन-व्यवस्था चार पुरुषार्थों में बांटी: धर्म, अर्थ, मोक्ष, काम। उसे हमें थोड़ा समझ लेना चाहिए। काम स्थूलतम, मोक्ष सूक्ष्मतम। काम है जड़, मोक्ष है सुगंध। काम है जड़, मोक्ष है अंतिम सूक्ष्मतम सुगंध। इसलिए काम दिखाई पड़ता है और राम दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए संभोग समझ में आ जाता है, समाधि समझ में नहीं आती। लेकिन जड़ संभोग है, समाधि फूल है।

हिंदू कहते हैं, तुम काम को भी साधना क्योंकि वह परमात्मा की पहली सीढ़ी है। हिंदू कहते हैं, तुम काम में भी उतरना उसका ही अनुग्रह मानकर। उसने जो भी दिया है वह सार्थक है, उसे तुम उपयोग करना। उसे राह की बाधा मत समझना, सीढ़ी बना लेना। एक पत्थर पड़ा है, तुम लौट भी जा सकते हो कि रास्ते पर पत्थर पड़ा है, आगे कैसे बढ़ें? जो समझदार है, वह पत्थर पर चढ़कर देखेगा कि पत्थर पर चढ़कर नया रास्ता शुरू होता है, जो पहले से ऊंचा है, जिसका तल बदल गया।

काम से कुछ लोग लौट जाते हैं। वहीं टकराते हैं, लौट जाते हैं; रास्ता बंद हो जाता है। जो काम के आगे खोज करेंगे, वे एक दिन मोक्ष तक पहुंच जाते हैं। काम है जड़–प्रथम: यह संसार, यह पृथ्वी। इसलिए काम बड़ा पार्थिव है; एकदम पार्थिव है, शारीरिक है।

फिर बचते हैं दो–अर्थ और धर्म। जड़ों को बचाना हो, अकेली जड़ें नहीं बच सकतीं। पानी चाहिए, खाद चाहिए, सूरज की गर्मी चाहिए, सुरक्षा चाहिए। अर्थ: इकनोमिक्स। जीवन की इकनोमिक्स है। भोजन चाहिए, वस्त्र चाहिए, मकान चाहिए तो ही काम जी सकता है, नहीं तो काम की जड़ें सूख जाएंगी। धन के बिना काम नहीं जी सकता। इसलिए धन का इतना महत्वपूर्ण रस लोगों के मन में है।

लोग चिल्लाते हैं, क्यों धन के पीछे पागल हो? कोई धन के पीछे पागल नहीं है। लेकिन धन के बिना काम की जड़ें सूख जाएंगी। लेकिन कभी-कभी ऐसा पागलपन सवार होता है कि तुम लक्ष्य भूल ही जाते हो और साधन में उलझ जाते हो। धन की तलाश इसीलिए चलती है कि किसी दिन मैं काम को निश्चिंतता से भोग सकूं। लेकिन फिर तुम धन इकट्ठे करने में आबसेस्ड हो जाते हो। तुम भूल ही जाते हो कि किसलिये धन इकट्ठा कर रहे हो! तुम एक दिन धन भी इकट्ठा कर लोगे तब तुम परेशान होओगे कि धन इकट्ठा करने में तो जीवन ही समाप्त हो गया।

भोजन, वस्त्र, शृंगार, सौंदर्य, स्वास्थ्य सब जड़ों को संभालते हैं। इसलिए आप चाहें तो सस्ता छुटकारा पा सकते हैं काम से, अगर भोजन न करें। इसलिए अनेक लोग उपवास में लग जाते हैं। उनका उपवास फिजूल है, वे जड़ों को काट रहे हैं। उपवास का कुल इतना प्रयोजन है कि न होगा भोजन, न जड़ों को पानी मिलेगा। जड़ें सूख जाएंगी। लेकिन जिस दिन जड़ें सूख जाएंगी, उस दिन मोक्ष के फूल कहां खिलेंगे? जड़ें तो सूख जा सकती हैं। भोजन मत करो, कामवासना खो जाती है तीन सप्ताह के भीतर। तीन सप्ताह भोजन न किया कि जड़ें सूख गईं। कोई रस न मालूम पड़ेगा।

पश्चिम में बहुत प्रयोग किए गए हैं। एक विद्यार्थियों के दल पर मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहे थे; उन्हें भूखा रखा। युवक थे सब, स्वस्थ थे, लड़कियों में रस था, फिल्म देखते थे, नग्न तस्वीरों में आनंद लेते थे। एक सप्ताह के बाद रस खोने लगा। रेडियो पर कितना ही कामुक संगीत चल रहा हो, वे बंद कर देते। उससे सिर्फ कानों में उपद्रव मालूम पड़ता। कितनी ही चमकदार पत्रिकाएं नग्न स्त्रियों के चित्र लिए पड़ी हों, ‘प्ले बॉय’ पड़ा हो, उसको उलटकर भी न देखते कि भीतर क्या है। इक्कीस दिन पूरे होते-होते सब रस खत्म हो गया। नग्न स्त्री उनके पास से गुजर जाए तो आंखें न उठाते। सुंदरतम स्त्री को, ‘मिस युनिह्वर्स’ को खड़ा कर दो, तो भी वे अपनी आंखें बंद किए सुस्त बैठे हैं।

क्या हुआ? यह कोई ऋषि-मुनि हो गए, सिर्फ इक्कीस दिन भूखे रहने से? तुम्हारे बहुत ऋषि-मुनि इसी दशा में हैं। फिर उनको भोजन देना शुरू किया। जैसे-जैसे शरीर में भोजन गया, वैसे-वैसे कामवासना में रस वापिस लौटा। दो दिन के भोजन के बाद फिर रेडियो में रस है, ‘प्ले बॉय’ उलटने लगे, लड़कियों की बातचीत शुरू हो गई, मजाक चल पड़ा, कहानियां एक-दूसरे को बताने लगे। सात दिन के भोजन के बाद वे वापिस स्वस्थ हैं। जड़ों में फिर पानी आ गया।

इन लड़कों को ऋषि-मुनि रखा जा सकता है। इनको थोड़ा-थोड़ा भोजन दिया जाए जीवन भर, लेकिन इतना न दिया जाए जिससे कि जड़ों में कभी भी अंकुर आ सकें; बस, किसी तरह जी लें; जीवन में इतनी ऊर्जा न हो कि बाहर बहने लगे, तो ये तुम्हें ब्रह्मचारी मालूम पड़ेंगे। लेकिन यह ब्रह्मचर्य झूठा है। यह ब्रह्मचर्य भूख के कारण है। यह ब्रह्मचर्य कोई उपलब्धि नहीं है, अभाव है।

हिंदू कहते हैं, अर्थ को भी साधना; नहीं तो जड़ें सूख जाएंगी। और जड़ें सूख गईं तो फूल कभी न आयेंगे। और फूल लाने हैं।

तो अर्थ साधन है काम का।

जैसे अर्थ साधन है काम का, ऐसे धर्म साधन है मोक्ष का। अर्थ से संभालना वृक्ष को, लेकिन वृक्ष की सार्थकता तो उसके फूल आने में है। इसलिए अर्थ काफी नहीं है, धर्म का सहारा भी चाहिए। इसलिए अर्थ को भी संभालना है। दुकान को संभालना और मंदिर को भूल मत जाना। दुकान का इस भांति उपयोग करना कि वह मंदिर की तरफ उन्मुख होने लगे। धन का सिर्फ इतना ही उपयोग मत करना कि जड़ें संभलें। धन का ऐसा उपयोग करना कि वह दान बनने लगे ताकि फूल भी संभलें। अगर धन सिर्फ भोग हो तो पानी जड़ों की तरफ तो बह रहा है, लेकिन फूलों की तरफ भी बहना चाहिए।

पानी की यात्रा दोहरी होनी चाहिए–नीचे की तरफ, ऊपर की तरफ। और ऊपर की तरफ की यात्रा कठिन है क्योंकि वह ‘ग्रेविटेशन’ के विपरीत है। इसलिए जड़ों में पानी पहुंचाना बहुत आसान है। तुम्हें अंदाज नहीं कि फूल, वृक्ष कितना चमत्कार कर रहे हैं! सारे वैज्ञानिक सिद्धातों को तोड़कर पानी ऊपर की तरफ जा रहा है। जाना चाहिए हर चीज नीचे की तरफ। नदियां यह चमत्कार नहीं कर सकतीं कि नीचे की तरफ बह रही हैं, लेकिन वृक्षों ने एक चमत्कार किया है, कि नदियां ऊपर की तरफ बह रही हैं। बड़ी गहरी कीमिया है वृक्ष की, वह कैसे पानी को ऊपर की तरफ चढ़ा रहा है! क्योंकि ऊपर की तरफ नहीं चढ़ेगा पानी, ऊर्ध्वगामी नहीं होगी जीवन-चेतना, तो फूल कैसे खिलेंगे? क्योंकि फूल तो ऊपर खिलने हैं।

क्या तरकीब है वृक्ष की? कैसे वह पानी को ऊपर चढ़ा रहा है? सांझ को जब सूरज ढल जाए तब तुम वृक्ष के पास बैठकर देखना तो तुम पाओगे कि वृक्ष के पत्ते-पत्ते से भाप उठ रही है। दिनभर की गरमी को वृक्ष पी गया है, ताप को पी गया है। और उस ताप के माध्यम से हर वृक्ष का पत्ता भाप बना रहा है। वह भाप आकाश में उड़ रही है, यह उसका दान है। इसने पानी लिया ही नहीं, वह दे रहा है। ये तुम्हारे जो बादल आकाश में उठ रहे हैं, यह वृक्षों का दान है। उसने पानी चूसा ही नहीं है, त्यागा है। और जैसे ही वृक्ष का पत्ता पानी का त्याग करता है, भाप बन जाता है, वैसे ही वृक्ष का पत्ता सूखा हो जाता है। सूखते ही उसके नीचे जो पानी है शाखा में, वह सूखे होने के कारण सूखे की तरफ बहता है। तुम कोई सूखी चीज पानी में रखो, तत्क्षण पानी उसमें भर जाएगा।

जिसने दिया है, उसे मिलेगा।

जिसने छोड़ा है, वह पाएगा।

‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः–जिन्होंने त्याग किया, उन्होंने भोगा।

इस पत्ते ने छोड़ दिया है, इसने पकड़ा नहीं। यह कंजूस होता तो मरता। कंजूस धन पर रुक जाता है। जड़ें उसकी काफी होती हैं। जड़ों को संभालने का इंतजाम काफी होता है, लेकिन ऊर्ध्वगमन नहीं होता। इसलिए धन दान बने। तुम्हारे जीवन के कृत्य सेवा बनें। तुम कुछ पकड़ो ही मत, छोड़ो भी; ताकि हाथ खाली हों। यह वृक्ष का पत्ता खाली होते ही नीचे का पानी दौड़ता है। इस तरकीब से पानी ऊपर चढ़ रहा है। शाखा का पानी पत्ते में चला जाता है तो शाखा सूख जाती है; तो शाखा नीचे से जड़ से खींचना शुरू कर देती है। जहां खाली जगह होती है, पानी उसको भरने जाता है।

इस अस्तित्व में खाली जगह पसंद नहीं है। तुम खाली होना, परमात्मा तुम्हें भरेगा। तुमने अपने को पकड़ा, कि परमात्मा की तरफ से भरना बंद हो जाएगा। किसी वृक्ष को राजी कर लो कंजूस होने के लिये, वह मर जाएगा। तरकीब है, तुम ऐसा करो कि पत्तों को पेंट कर दो ताकि उनसे पानी ऊपर न उड़ सके। दो-चार दिन में तुम पाओगे, वृक्ष मर गया।

देना पड़ेगा। लेने का राज देने में छिपा है।

इसलिए धर्म। धर्म का नीचे से अर्थ है: दान, त्याग, छोड़ने की क्षमता, सेवा। और वह सूत्र है, वह साधन है। जल्दी ही वृक्ष पर फूल आएंगे क्योंकि पानी ऊपर की तरफ बहने लगा। और जब पानी ऊपर की तरफ बहता है तो आखिरी फल लगने शुरू होते हैं। फूल लगेंगे, फल लगेंगे। वृक्ष गरिमा को उपलब्ध हुआ। सार्थकता मिली; अंत आ गया, सिद्धि हुई।

हिंदू कहते हैं, काम है जड़; अर्थ है व्यवस्था; धर्म है साधन आखिरी साध्य का; और मोक्ष है फूल। इसलिए हिंदुओं ने कहा कि तुम बीच से मत भाग जाना। हिंदुओं ने चार जीवन के पुरुषार्थ कहे। ये चारों तुम पूरे करना। यह तुम्हारे पुरुष होने का अर्थ इनमें छिपा है। और बीच से मत भागना क्योंकि बीच से तुम भागे कि तुम अधूरे वृक्ष रह जाओगे। इसलिए हिंदुओं ने बीच से संन्यास की आज्ञा नहीं दी। उन्होंने कहा, पहले पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य।

यह बड़े मजे की बात है। इसको कभी कोई सोचता नहीं। तथाकथित हिंदू पंडित इस पर विचार ही नहीं करते कि यह क्या अर्थ हुआ? पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य के लिए नहीं, ऊर्जा संग्रह! ताकि तुम कामवासना में परिपूर्ण तृप्त हो सको। जो ब्रह्मचर्य से रहा है प्राथमिक चरण में, वही संभोग की गहराई पा सकेगा। जिसने ऊर्जा कच्ची लुटा दी है, वह संभोग की गहराई नहीं पा सकेगा।

हिंदू अनूठे हैं। उनकी पकड़ गहरी होनी स्वाभाविक भी है। इस जमीन पर वह सबसे पुरानी जाति है। उन्होंने बड़े अनुभव लिए हैं। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने काफी खोज की है और कुछ सूत्र निकाल लिए हैं।

पच्चीस वर्ष…अगर सौ साल हम आदमी की जिंदगी मान लें, तो पच्चीस वर्ष पहला चरण है। वह जो पहला पुरुषार्थ है काम, उसके मुकाबले जीवन का पहला आश्रम ब्रह्मचर्य है। इसलिए चार पुरुषार्थ, और चार आश्रम हैं, और चार वर्ण हैं। हिंदुओं का गणित साफ है।

पहला काम–जड़ों का जगत है। वहां ब्रह्मचर्य को संभालना। वहां चित्त में कोई कामवासना न उठे ताकि तुम एक लबालब ऊर्जा हो जाओ। तुम एक आपूर ऊर्जा हो जाओ। तुम बहो तो बहने में कुछ रस हो। और नहीं तो तुम ऐसे टपकोगे, जैसा गर्मी के दिनों में नल का पानी टपकता है–बूंद…बूंद। उससे कोई सरिता नहीं बनेगी, जो सागर तक जाने वाली है।

आज की दुनिया में करीब-करीब ऐसा होता है। क्योंकि जिसने ब्रह्मचर्य नहीं देखा वह संभोग का रस भी नहीं देख पाता; खिन्न ही रह जाता है; बूंद-बूंद टपकता है। प्रवाह चाहिए अनुभव के लिए–अतिरेक चाहिए। इस जगत में सभी अनुभव अतिरेक से होते हैं। इतनी प्राण-ऊर्जा चाहिए कि तुम एक छलांग ले सको, और एक दूसरे जगत में प्रवेश कर सको।

पच्चीस वर्ष तक काम के मुकाबले हिंदू कहते हैं ब्रह्मचर्य।

पच्चीस वर्ष अर्थ के मुकाबले हिंदू कहते हैं गृहस्थ। तब तुम धन की फिक्र करना। चलाना दुकान, लड़ना राजनीति में। जूझना, डरना मत। कमाना, भय मत खाना।

तीसरे पच्चीस वर्ष हिंदू कहते हैं, वानप्रस्थ–धर्म के सामने। तब तुम धर्म की साधना में लग जाना। धन तुमने पा लिया, काम तुमने जान लिया, अब तुम्हारे ऊपर के वृक्ष की यात्रा शुरू होगी। जीवन का वर्तुल पचास वर्ष पर मुड़ता है। क्योंकि अगर सौ वर्ष जीवन की आखरी सीमा मान लें तो पचास वर्ष–आधा जगत पूरा हुआ। दो पुरुषार्थ पूरे हुए, दो बचे। अब एक नयी यात्रा शुरू हुई। तुम वानप्रस्थ हो जाना। तुम संन्यस्त का भाव ले लेना।

और अंतिम पच्चीस वर्ष मोक्ष के, संन्यास के।

अर्थ के साथ गृहस्थी। काम के साथ ब्रह्मचर्य। धर्म के साथ वानप्रस्थ। मोक्ष के साथ संन्यास। अंतिम फूल संन्यास के।

और इन चारों के साथ उन्होंने चार वर्ण की व्यवस्था दी, कि जो पहले पर रुक जाए, वह शूद्र। इसे तुम समझ लो मेरी व्याख्या को। जो काम पर रुक जाए, वह शूद्र। इसलिए हिंदू कहते हैं, पैदा तो सभी शुद्र होते हैं क्योंकि काम से ही पैदा होते हैं। जो दूसरे पर रुक जाए, वह वणिक, वैश्य–बस धन पर ही रुक जाए; दुकान ही सब कुछ हो जाए। जो तीसरे पर रुक जाए, वह क्षत्रिय। धन क्षत्रिय का रस नहीं है, यश…! और वानप्रस्थ को जितना यश मिलता है, उतना किसी को भी नहीं। लड़ाका है; जिंदगी में लड़ भी लिया, लड़ाई के पार भी उठ गया क्योंकि पा लिया यश। लेकिन यश की आकांक्षा बनी रहती है, अहंकार बना रहता है। वानप्रस्थ को भी अहंकार बना रहता है। क्षत्रिय अहंकार की प्रतिमा है; इसलिए वह वानप्रस्थ तक जा सकता है क्योंकि संन्यास में तो अहंकार छोड़ देना पड़ेगा।

तो वानप्रस्थ पर जो रुक जाए, वह क्षत्रिय। और जो मोक्ष को उपलब्ध हो जाए, वह ब्राह्मण।

ऐसे चार पुरुषार्थ, चार आश्रम और चार वर्ण। हिंदुओं का गणित है और कीमती गणित है। और अगर कोई समझ ले तो किसी और गणित की जरूरत नहीं।

आज इतना ही।


Filed under: बिन बाती बिन तेल--(झेन कहानियां) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग-2) प्रवचन–39

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दुःख मुक्‍ति—द्रष्‍टा दृश्‍य वियोग से—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

योगसूत्र:

     (साधनापाद)

परिणामतापसंस्‍कारदु: खैर्गुणवृत्‍तिविरोधाच्‍च।

दुःखमेव सर्वं विवेकिन:।। 15।।

विवेकपूर्ण व्‍यक्‍ति जानता है कि हर चीज दुःख की और ले जाती है।

परिवर्तन के कारण,चिंता के कारण, पिछले अनुभवों के कारण और

     उन द्वंदों के कारण जो तीन गुणों और

     मन की पाँच वृतियोंके बीच में आ बनते है।

हेयं दुःख मनागतम्।। 16।।

 द्रष्‍टा और दृश्‍य के बीच का संबंध, जो कि दुःख बनाता है, उसे तोड़ देना है।

जीवन एक रहस्य है, और जीवन के बारे में पहली रहस्यभरी बात यह है कि तुम जीवित हो और हो सकता है तुम्हारे पास जीवन बिलकुल ही न हो। केवल जन्म लेना ही पर्याप्त नहीं होता है जीवन पाने के लिए। जन्म लेना तो मात्र एक अवसर होता है। तुम इसका उपयोग कर सकते हो जीवन पाने में, और तुम इसे चूक भी सकते हो। तब तुम एक मुरदा जीवन जीओगे। केवल बाहरी तौर से वह जीवन जैसा जान पड़ेगा, लेकिन गहरे तल पर तुममें कोई जीवंत तरंग न होगी।

जीवन अर्जित करना पड़ता है, व्यक्ति को कार्य करना होता है उसके लिए। वह तुममें पड़े बीज की भांति होता है उसे जरूरत है ज्यादा प्रयास की, जमीन की, ठीक मिट्टी की, ध्यान देने की, प्रेम की, जागरूकता की। केवल तभी बीज प्रस्फुटित होता है। केवल तभी संभावना होती है कि किसी दिन वृक्ष में फल लगेंगे, किसी दिन उसमें फूल खिलेंगे। जब तक कि तुम पूरे खिलने की अवस्था तक नहीं पहुंच जाते, तब तक तो तुम कहने भर को ही जीवित होते, लेकिन तुमने खो दिया होता है अवसर। जब तक कि जीवन एक उत्सव नहीं बन जाता, वह जीवन होता ही नहीं।

आनंद, निर्वाण, संबोधि जो कुछ भी तुम इसे कहना चाहो—वही है परम विकास। यदि तुम दुखी रहते हो तो तुम जीवित नहीं होते। वह दुख ही दिखाता है कि तुम चूक गए हो किसी चरण को। वह दुख ही एक संकेत है कि जीवन भीतर संघर्ष कर रहा है विस्फोटित होने के लिए, लेकिन खोल बहुत कठोर है। बीज का आवरण उसे बाहर नहीं आने दे रहा होता; अहंकार बहुत ज्यादा होता है और द्वार बंद होते हैं। दुख और कुछ नहीं है सिवाय इस संघर्ष के कि जीवन फूट पड़े लाखों रंगों में, लाखों इंद्रधनुषों में, लाखों फूलों में, लाखों—लाखों गीतों में।

दुख एक नकारात्मक अवस्था है। वस्तुत: दुख और कुछ नहीं सिवाय आनंद के अभाव के। इसे बहुत गहरे में समझ लेना है, अन्यथा तुम तो लड़ने लगोगे दुख के साथ और कोई लड़ नहीं सकता किसी अभाव के साथ, वह होता है बिलकुल अंधकार की भांति। तुम नहीं लड़ सकते अंधकार के साथ। यदि तुम लड़ते हो, तो एकदम मूढ़ ही होते हो। तुम जला सकते हो दीया और अंधकार तिरोहित हो जाता है, लेकिन तुम लड़ नहीं सकते अंधेरे से। किसके साथ लड़ोगे तुम? अंधकार अस्तित्वगत नहीं होता, वह होता ही नहीं। वह कोई ऐसी चीज नहीं कि जिसे तुम बाहर फेंक सको, मार सको, या उसे पराजित कर सको। तुम अंधकार के विषय में कुछ नहीं कर सकते। यदि तुम करते हो कुछ, तो तुम्हारी अपनी ऊर्जाएं ही नष्ट होंगी और अंधकार वहां बना रहेगा ठीक उसी तरह, ज्यों का त्यों। यदि तुम अंधकार के विषय में कुछ करना चाहते हो, तो तुम्हें कुछ करना होता है प्रकाश के विषय में, अंधकार के विषय में तो बिलकुल कुछ भी नहीं। तुम्हें जलाना पड़ता है दीया, और अचानक कहीं कोई अंधकार नहीं होता।

दुख है अंधकार की भांति; वह कोई अस्तित्वगत बात नहीं। और यदि तुम दुख से लड़ना शुरू कर देते हो, तो तुम लड़ते रह सकते हो दुख से, लेकिन और ज्यादा दुख निर्मित होगा। यह तो मात्र एक सूचना होती है, एक स्वाभाविक सूचना तुम्हारी अंतस—सत्ता के विषय में कि जीवन अभी भी संघर्ष कर रहा है पैदा होने के लिए। दीया अभी प्रकाशित नहीं हुआ, इसलिए है दुख।

आनंद का अभाव है दुख, और कुछ किया जा सकता है आनंद के विषय में, लेकिन दुख के लिए तो कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम दुखी होते हो और तुम कौशिश किए चले जाते हो उसे सुलझाने की। यहां, इस बिंदु पर, धार्मिक और अधार्मिक आदमी का मार्ग अलग हो जाता है, वे अलग हो जाते हैं। अधार्मिक आदमी लड़ने लगता है दुख के साथ, ऐसी स्थितियां बनाने की कोशिश करता है जिनमें वह दुखी नहीं होगा; दुख को अपनी नजरों से, दृष्टि से कहीं दूर धकेलने लगता है। धार्मिक व्यक्ति खोजने लगता है आनंद, खोजना शुरू कर देता है परमानंद को, सच्चिदानंद को खोजने लगता है —तुम कह सकते हो इसे परमात्मा। अधार्मिक आदमी अभाव के साथ लड़ता है, धार्मिक आदमी लाने की कोशिश करता है अस्तित्वगत को—प्रकाश को, आनंद की मौजूदगी को।

ये मार्ग बिलकुल ही विपरीत हैं, वे कहीं नहीं मिलते। एक साथ मीलों तक समानांतर चल सकते हैं वे, लेकिन वे मिलते कहीं नहीं। अधार्मिक आदमी को उस जगह तक वापस आना पड़ता है जहां ये दो मार्ग विभक्त होते हैं और अलग होते हैं। उसे आना होता है उस समझ तक कि अंधकार से लड़ना, दुख से लडूना एक पागलपन है। भूल जाओ इस बारे में और इसके विपरीत प्रकार के लिए कोशिश करो। एक बार प्रकाश पहुंचता है, तो तुम्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं होती, दुख तिरोहित हो जाता है। जीवन होता है केवल एक संभावना के रूप में। तुम्हें उस पर कार्य करना पड़ता है, तुम्हें उसे ले आना होता है सच्ची अस्तित्वगत अवस्था तक। कोई जीवंत उत्पन्न नहीं होता, केवल जीवंत होने की संभावना लिए रहता है। कोई उत्पन्न नहीं होता दृष्टि सहित, केवल देखने की संभावना लिए रहता है। जीसस अपने :शिष्यों से कहते रहे, ‘यदि तुम्हारे पास कान हैं तो सुनो! यदि तुम्हारे पास आख है तो देखो।’ वे शिष्य तुम जैसे ही थे उनके पास आंखें थीं, उनके पास कान थे। वे अंधे या बहरे नहीं थे। क्यों जीसस कहते रहे कि यदि उनकी आंखें होतीं तो वे देखते; वह क्राइस्ट को देखने की क्षमता के विषय में कह रहे थे; वह क्राइस्ट को सुनने की सक्षमता की बात कह रहे थे। कैसे तुम सुन सकते हो क्राइस्ट को यदि तुमने नहीं सुनी होती है तुम्हारी अपनी आंतरिक आवाज? —असंभव। क्योंकि क्राइस्ट और कुछ नहीं सिवाय तुम्हारी आंतरिक आवाज के। कैसे तुम देख सकते हो क्राइस्ट को, यदि तुम स्वयं को नहीं देख पाते हो? क्राइस्ट तुम्हारी आत्मा के .अपनी परम महिमा में खिलने के, अपना परम विकास पाने के सिवाय कुछ नहीं।

तुम जीते हो एक बीज की भाति। कुछ कारण होते हैं जिनकी वजह से व्यक्ति बीज की भांति जीए चला जाता है। और निन्यानबे प्रतिशत लोग जीते हैं बीज की भांति। जरूर कोई बात होगी इसमें। बीज की भांति जीना आरामदेह लगता है। जीवन खतरनाक जान पड़ता है। बीज की भांति बने रहने से, आदमी ज्यादा सुरक्षित अनुभव करता है। उसके चारों ओर सुरक्षा होती है। बीज असुरक्षित नहीं होता है।

एक बार प्रस्फुटित होता है वह, तो वह बन जाता है असुरक्षित। उस पर आक्रमण किया जा सकता है, वह मारा जा सकता है —जानवर हैं, बच्चे हैं, इतने लोग मौजूद हैं। एक बार बीज पौधे के रूप में खिल जाता है, तो वह हो जाता है कवचहीन, असंरक्षित; खतरे शुरू हो जाते हैं।

जीवन एक बड़ा साहस है। बीज में रह कर, बीज में छिपे रह कर तुम सुरक्षित होते हो, बचाव में होते हो, कोई तुम्हें नहीं मारेगा। कैसे तुम्हें मारा जा सकता है यदि तुम जीवित ही न हो तो?— असंभव। केवल जब तुम जीवित होते हो, तभी तुम मारे जा सकते हो। जितने ज्यादा तुम जीवंत होते, उतने ज्यादा तुम असुरक्षित होते। जितने ज्यादा तुम जीवंत होते, उतने ज्यादा खतरे होते तुम्हारे आसपास। एक संपूर्णतया जीवंत व्यक्ति बड़े से बडे खतरों में जीता है। इसीलिए लोग बीज की भांति जीना चाहते हैं—संरक्षित, सुरक्षित।

ध्यान रखना, जीवन का असली स्वभाव ही है असुरक्षा। तुम सुरक्षित जीवन नहीं पा सकते, तुम पा सकते केवल सुरक्षित मृत्यु। सारे बीमे होते हैं मृत्यु के लिए। जीवन का कोई बीमा नहीं हो सकता। सारी सुनिश्चितता है बचाव के लिए, सुरक्षा के लिए, बंद रहने के लिए। जीवन खतरनाक होता है, लाखों खतरे होते हैं आसपास। इसलिए निन्यानबे प्रतिशत लोग बीज बने रहने के पक्ष में ही निर्णय लेते हैं। लेकिन क्या बचा रहे होते हो तुम? —बचाने को कुछ है नहीं। क्या सुरक्षित रख रहे हो तुम? —सुरक्षित रखने को अंतत: कुछ भी नहीं। बीज तो उतना ही मृत है जितने कि रास्ते के कंकड़ —पत्थर। और यदि वह बीज की भांति ही बना रहता है तो दुख आएगा ही। दुख आएगा क्योंकि इस तरह का होने में उसकी अर्थपूर्णता न थी। उसकी नियति बीज होने की न थी, बल्कि उससे बाहर आ जाने की थी। पक्षी को छोड़ना पड़ता है अंडे के खोल को अपरिसीम के लिए, खतरनाक आकाश के लिए जहां कि हर चीज संभव होती है।

और उन तमाम संभावनाओं सहित, मृत्यु भी होती है वहां। जीवन जोखम उठाता है मृत्यु का। मृत्यु जीवन के विपरीत नहीं है, मृत्यु ही वह पृष्ठभूमि है जिसमें जीवन खिलता है। मृत्यु जीवन के विपरीत नहीं। वह तो है ब्लैकबोर्ड की भांति ही जिस पर तुम लिखते हो सफेद खड़िया से। तुम लिख सकते हो सफेद दीवार पर, लेकिन तब शब्द दिखायी न पड़ेंगे। ब्लैकबोर्ड पर, जो कुछ भी तुम सफेद से लिखते हो, वह दिखायी पड़ता है। मृत्यु है ब्लैकबोर्ड की भांति : जीवन की सफेद रेखाएं दिखायी पड़ती हैं उस पर, वह विपरीत नहीं; वही तो है पृष्ठभूमि।

वे लोग जो कि जीवित रहना चाहते हैं उन्हें एक चीज का निर्णय लेना है : उन्हें मृत्यु को स्वीकार करने की बात का निर्णय लेना है। उन्हें न ही केवल स्वीकार करना होगा मृत्यु को, उन्हें तो उसका स्वागत करना है। हर क्षण उन्हें तैयार रहना होगा उसके लिए। यदि तुम नहीं स्वीकार करते मृत्यु को, तो तुम बिलकुल शुरू से ही मुरदा बने रहोगे। वही है बचाव का एकमात्र रास्ता—तुम बने रहोगे बीज। पक्षी मर जाएगा अंडे की खोल में —बहुत—से पक्षी मर जाते हैं अंडे की खोल में।

तुम हो यहां पर। यदि तुम मुझसे कोई मदद चाहते हो, तो मुझे तोड्ने दो तुम्हारा कवच, तुम्हारी सुरक्षाएं, तुम्हारे बैंक—खाते, तुम्हारे जीवन बीमे, मुझे बनाने दो तुम्हें खुले हुए, असुरक्षित। सुरक्षित तो तुम रहोगे कवच में, और जल्दी ही तुम एक सड़ी हुई चीज बन जाओगे। बाहर आ जाओ उससे। कवच है तुम्हारे बचाव के लिए, तुम्हें मारने के लिए नहीं। उसका उद्देश्य यह नहीं है कि तुम्हें सदा खोल में ही रहना चाहिए। अच्छी होती है यह बात—शुरू में यह बचाव भी करती है, जब तुम बहुत सुकोमल होते हो बाहर आने की दृष्टि से। लेकिन जब तुम तैयार होते हो तब तोड़ना ही होता है खोल को। चाहे कितनी ही सुविधा में और कितने ही सुरक्षित हो तुम, खोल में एक पल भी और बिताया और तुमने खो दी संभावना, तुम खो दोगे अवसर—जीवित होने का और आकाश में उड़ने का। निस्संदेह खतरे हैं, लेकिन खतरे सुंदर हैं। बिना खतरों का संसार असुंदर होगा, और बिना खतरों के जिंदगी कोई बहुत जीवंत नहीं हो सकती है।

इसीलिए गहरे तल पर हर पुरुष और हर स्त्री में खतरों के बीच जीने की एक अंतःप्रेरणा होती है। वह अंतःप्रेरणा है जीवन के लिऐ। इसीलिए तुम पर्वतों पर चले जाते, इसीलिए तुम निकल पड़ते अज्ञात यात्रा पर, इसीलिए आदमी कोशिश करता चांद तक पहुंचने की, इसीलिए कोई कोशिश करता एवरेस्ट तक पहुंचने की, और कोई चल पड़ता समुद्री यात्रा पर किसी छोटी—सी हाथ की बनी नाव में। खतरे के लिए एक गहरी अंतःप्रेरणा होती है, वह आंतरिक प्रेरणा होती है जीवन के प्रति। मत मारना उस आंतरिक प्रेरणा को, अन्यथा तुम यहां होओगे और जीवित न होओगे।

यदि तुम मुझे ठीक से समझो, तो जब मैं तुम्हें संन्यासी बनाता हूं, जब मैं संन्यास में दीक्षित करता हूं तुम्हें; तो मैं दीक्षित करता हूं असुरक्षा के, बिना खोल के जीवन में। संन्यास है खोल से बाहर होने की एक छलांग, और खोल है अहंकार। अहंकार एक सुरक्षा है, तुम्हारे चारों ओर की एक सूक्ष्म दीवार की भाति है। इसलिए अहंकार इतना ज्यादा कंपित होता है। कोई कहता है कुछ या कि कोई केवल हंस पड़ता तुम पर और वह यूं ही किसी कारण से हंस देता है और तुम्हें चोट लगती है। तुम स्वयं का बचाव शुरू कर देते हो, तुम लड़ने को तैयार हो जाते हो। जो कुछ भी खतरनाक जान पड़ता है उसके साथ लड़ने की तत्परता है अहंकार। अहंकार एक निरंतर संघर्ष है जीवन के विरुद्ध, क्योंकि जीवन खतरनाक होता है। जहां कहीं जीवन प्रयत्न करता है तुम्हारे पास पहुंचने का, अहंकार वहां एक चट्टान की भाति मौजूद रहता है तुम्हारा बचाव करने को। इस चट्टान को पार कर जाओ, अहंकार के इस कवच को तोड़ डालो, इसके बाहर आ जाओ।

आकाश खतरों से भरा है। मैं नहीं कहता कि वहां कोई खतरा नहीं है। मैं ऐसा कह नहीं सकता, खतरा तो है। खतरे ही खतरे हैं। लेकिन जीवन पल्लवित होता है खतरों में, खतरा ही है भोजन। खतरा जीवन के विरुद्ध नहीं; खतरा तो असली भोजन है, असली रक्त है, सही आक्सीजन जीवन के बने रहने के लिए।

खतरे में जीयो यही है संन्यास का अर्थ। अतीत तुम्हारा बचाव करता है, वह ज्ञात होता, परिचित। तुम अतीत के साथ एक आराम अनुभव करते हो। भविष्य होता है अपरिचित। अज्ञात भविष्य के साथ तुम पराया, अजनबी अनुभव करते हो। भविष्य सदा ही द्वार पर दस्तक देता हुआ अजनबी होता है। तुम सदा द्वार खोल देना भविष्य के लिए। वस्तुत: तुम चाहते हो कि तुम्हारा भविष्य बिलकुल तुम्हारे अतीत की भांति ही हो, एक दोहराव। यह है भय। और ध्यान रखना, तुम सदा सोचते हो कि तुम भयभीत हो मृत्यु से, लेकिन मैं कहता हूं तुमसे, तुम भयभीत नहीं हो मृत्यु से, तुम भयभीत हो जीवन से।

मृत्यु का भय मूल रूप से जीवन का भय है, क्योंकि केवल जीवन ही मर सकता है। यदि तुम भयभीत हो मृत्यु से, तो तुम भयभीत होओगे जीवन से। यदि तुम्हें भय होता है नीचे गिरने का, तो तुम्हें भय होगा ऊपर चढ़ने का। क्योंकि केवल वही लहर जो चढ़ती है, गिरती है। यदि तुम्हें अस्वीकृत होने का भय होता है तो तुम भयभीत रहोगे कि दूसरे के पास कैसे जाएं। यदि तुम्हें भय होता है अस्वीकृत होने का, तो तुम प्रेम करने में अक्षम हो जाओगे। मृत्यु से भयभीत होकर, तुम जीवन के प्रति अक्षम हो जाते हो। तब तुम बस जिंदा रहने भर को जिंदा रहते हो; और केवल दुख, अंधकार और काली रात तुम्हें घेरे रहती है।

मात्र जन्म लेना ही पर्याप्त नहीं होता, आवश्यक नहीं होता। तुम्हें दो बार जन्म लेना है। हिंदुओं के पास इसके लिए प्यारा शब्द है वे इसे कहते हैं द्विज, दो बार जन्म लेने वाला। पहला जन्म, तुम्हारे माता—पिता द्वारा दिया गया जन्म, मात्र एक संभावना है। एक संभावित घटना है, अभी वास्तविक नहीं है वह। दूसरे जन्म की आवश्यकता है। यही है जिसे जीसस कहते हैं पुनर्जीवन, दूसरा जन्म, जिसमें तुम सारे ढांचे तोड़ देते, सारे कवच तोड़ देते, सारे अहंकार, सारे अतीत को, परिचित को, ज्ञात को तोड़ देते और तुम सरकते अज्ञात में, अपरिचित में, खतरों से भरे हुए अस्तित्व में। हर क्षण संभावना रहती है मृत्यु की। और मृत्यु की संभावना के साथ ही हर क्षण तुम बन जाते हो और ज्यादा जीवंत।

वस्तुत: जीवन कभी मरता नहीं है, लेकिन यह अनुभव होता है उस व्यक्ति को जो जानता है कि जीवन क्या है। तुमने कभी भी पर्याप्त साहस एकत्र नहीं किया है खोल से बाहर आने का। कैसे जान सकते हो तुम कि जीवन क्या है? और कैसे जान सकते हो तुम कि जीवन मृत्यु —विहीन होता है? तुम मर जाओगे, जीवन कभी नहीं मरता। तुम जीओगे दुख में क्योंकि तुम नकार देते हो जीवन को—अहंकार है जीवन का नकार। अहंकार को नकार दो और जीवन घटेगा तुममें। इसलिए सारे प्रज्ञावानों का जोर रहा है ——जीसस, बुद्ध, मोहम्मद, महावीर, जरथुस्त्र, लाओत्सु —वे सभी जोर देते हैं केवल एक बात पर : अहंकार को हटा दो और जीवन तुममें घटित होगा बहुत बड़े रूप में। लेकिन तुम तो चिपके रहते हो अहंकार से। अहंकार से चिपकने का अर्थ है अंधेरे से, दुख से चिपक जाना।

ये सूत्र सुंदर हैं, इन्हें समझने की कोशिश करना।

विवेकपूर्ण व्यक्ति जानता है कि हर चीज दुख की ओर ले जाती है— परिवर्तन के कारण चिंता के कारण पिछले अनुभवों के कारण और उन द्वंद्वों के कारण जो तीन गुणों और मन की पांच वृत्तियों के बीच आ बनते हैं?

जीवन दुख है जैसा कि तुम इसे जानते हो; जीवन आनंदमय है जैसा कि मैं इसे जानता हूं। तब तो हम जरूर अलग— अलग चीजों की बात कर रहे होंगे, क्योंकि जीवन तुम्हारे लिए दुख और मेरे लिए सुख कैसे हो सकता है? तो हम बात नहीं कर रहे हैं किसी एक ही चीज की। जब तुम बात करते हो जीवन की, तो तुम उस जीवन की बात करते हो जो बीज मात्र है—जीवन जिसकी केवल आशा ही है; स्वप्नों और कल्पनाओं का जीवन, वास्तविक, प्रामाणिक जीवन नहीं; तुम बात कर रहे होते हो उस जीवन की जो केवल आकांक्षा करता है लेकिन जानता कुछ नहीं, जो केवल ललकता है लेकिन पहुंचता कभी नहीं; वह जीवन जो निरंतर घुटन अनुभव कर रहा होता है, लेकिन सोचता है कि घुटन सुविधा है; वह जीवन जो एक यातना भरा नरक है, लेकिन सदा सोचता है कि इसी नरक में से कुछ घटने वाला है—स्वर्ग पैदा होने वाला है इस नरक में से।

कैसे स्वर्ग उत्पन्न हो सकता है नरक में से? कैसे आनंद उपज सकता है तुम्हारी पीड़ाओं से? नहीं, तुम्हारे पीड़ित जीवन से और— और पीड़ाएं ही पैदा होंगी। एक बच्चा उतना दुखी नहीं होता, जितना कि कोई वृद्ध व्यक्ति होता है। होना तो ठीक उलटा चाहिए, क्योंकि वृद्ध ने तो जीवन इतना ज्यादा जी लिया होता है। वह पहुंच ही रहा होता है शिखर के निकट, अनुभवों का शिखर, खिले हुए फूल। लेकिन वह कहीं से भी निकट नहीं होता इसके। एकदम इसके विपरीत, जीवन चढ़ती हुई लहर नहीं रहा होता, वह नहीं पहुंचा है किसी स्वर्ग तक। बल्कि वह उतर गया है कहीं अधिक गहरे और गहरे नरक में। वृद्ध से तो ज्यादा स्वर्गीय जान पड़ता है कोई बालक। वृद्ध को तो बनना चाहिए एक पुराना वृक्ष, एक विशाल वृक्ष; लेकिन वह नहीं बनता। वह पहुंच चुका होता है नरक के ज्यादा अंधेरे क्षेत्रों में। यह ऐसे होता है जैसे कि जीवन एक गिरती हुई घटना हो न कि चढ़ती हुई, जैसे कि तुम गिर रहे हो और— और अंधेरे क्षेत्रों में, नहीं उठ रहे सूर्य की ओर।

क्या घटता है वृद्ध को? एक बच्चा दुखी होता है, एक वृद्ध भी दुखी होता है। वे दोनों एक ही मार्ग पर होते हैं। बच्चे ने तो बस शुरू ही की है यात्रा और वृद्ध ने संचित कर लिया है सारी यात्रा के सारे दुखों को।

नरक में से स्वर्ग नहीं जन्मता। यदि तुम आज दुखी हो, तो तुम कैसे सोचते हो कि कल सुखी और आनंदपूर्ण हो सकता है? कल तुमसे ही आएगा। और कहा से आ सकता है वह गुर कल किसी आकाश में से नहीं आता, तुम्हारा कल आता है तुमसे ही। तुम्हारे सारे बीते हुए कल एक साथ मिल कर, आज को मिला कर, होने वाला है तुम्हारा आने वाला कल। यह तो सीधा—साफ गणित है. आज तुम दुखी और पीड़ित हो; तो कैसे, यह कैसे संभव है कि कल सुख और आनंदपूर्णता की होगी? —असंभव बात है। जब तक तुम मर नहीं जाते, ऐसा असंभव है। क्योंकि तुम्हारी मृत्यु के साथ सारे बीते कल मर जाते हैं। तब यह बात तुम्हारे दुखों से न आयी होगी; तब यह एक ताजी घटना होगी, कोई ऐसी बात जो कि पहली बार घटती है। तब यह तुम्हारे मन से नहीं आएगी, यह आएगी तुम्हारी अंतस—सत्ता से। तुम बन जाते हो द्विज, दो बार जन्मते हो।

दुख की घटना को समझने की कोशिश करना। क्यों हो तुम इतने दुखी? कौन —सी चीज निर्मित करती है इतना ज्यादा दुख? मैं ध्यान. से देखता हूं तुम्हें, मैं झांकता हूं तुम्हारे भीतर, दुख के ऊपर दुख है, पर्त —दर—पर्त। यह तो सचमुच एक चमत्कार है कि कैसे तुम जीए जा रहे हो। जरूर यही बात रही होगी कि आशा अनुभव से ज्यादा मजबूत है; स्वप्न ज्यादा शक्तिशाली है वास्तविकता से। अन्यथा, कैसे जीए जा सकते थे तुम? तुम्हारे पास जीने को कुछ नहीं सिवाय इस आशा के कि कल किसी न किसी —तरह कोई चीज घटित होगी जो हर चीज बदल देगी। आने वाला कल एक चमत्कार है —और यही बात तुम सोच रहे हो बहुत— बहुत जन्मों से। लाखों कल आए, जो आज बन गए, लेकिन आशा बची रहती है। फिर आशा जीए जाती है। तुम इसलिए नहीं जीते कि तुम्हारे पास जीवन है, बल्कि इसलिए कि तुम्हारे पास आशा है।

उमर खय्याम कहीं कहता है कि उसने बड़े विद्वानों, धर्मज्ञों, पंडित—पुरोहितों, दार्शनिकों से पूछा, ‘क्यों आदमी जीए ही चला जाता है?’ कोई नहीं दे सका जवाब। सब ने कंधे उचका दिए, टाल गए बात। कहता है उमर खथ्याम कि मैं बहुतों के पास गया जो अपने ज्ञान के लिए विख्यात थे, लेकिन मुझे द्वार से वापस ही लौट आना पड़ा था। तब निराश होकर, न जानते हुए कि किससे पूछना है, मैं एक रात आकाश को देख—देख खूब रोया। मैंने पूछा आकाश से, मैंने कहा आकाश से कि ‘तुम तो यहां मौजूद रहे हो! तुमने देखी हैं वे सारी पीड़ाएं जिनका कि अस्तित्व रहा है अतीत में, लाखों लाखों पीड़ित रहे हैं यहां। तुम जरूर जानते होओगे कि क्यों लोग जीए ही चले जाते हैं!’ वाणी उतरी आकाश से, ‘आशा के कारण।’

आशा है तुम्हारा एकमात्र जीवन। आशा के धागे सहित तुम सह सकते हो सारे दुखों को। स्वर्ग के एक सपने सहित ही तुम भूल जाते हो तुम्हारे चारों ओर के नरक को। तुम जीते हो स्वप्नों में, स्वप्न जीवित रखते हैं तुमको। यथार्थ असुंदर होता है। क्यों घटता है इतना ज्यादा दुख और तुम क्यों नहीं जान सकते कि क्यों घट रहा होता है वह? तुम क्यों नहीं ढूंढ सकते उसका कारण?

दुख का कारण ढूंढने के लिए, तुम्हें उससे बचना छोड़ना होता है। कोई चीज तुम कैसे जान सकते हो यदि तुम उससे बचते रहते हो तो? कैसे जान सकते हो तुम कोई चीज यदि तुम बच कर निकल भागते हो? यदि तुम जानना चाहते हो कोई चीज, तो तुम्हें एकदम सामने हो साक्षात्कार करना होता है उससे। जब कभी तुम दुखी होते हो, तुम आशा करने लगते हो, आने वाला कल तुरंत ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है आज से। यह होता है बच निकलना। तुम भागे हो बच कर और अब आशा काम कर रही है नशे की भांति। तुम दुखी हो, तो तुम नशा करते हो और तुम भूल जाते हो। अब तुम नशे में मदमस्त होते हो, आशा के नशे में। आशा जैसा कोई नशा नहीं है। किसी मारिजुआना, किसी एल एस डी की कोई तुलना ही नहीं इसके साथ। आशा एक परम एल एस डी है। आशा के कारण ही तुम सह सकते हो हर चीज, हर एक चीज। हजारों नरक भी कुछ नहीं।

आशा का यह रचना —तंत्र कैसे काम करता है? जब कभी तुम दुखी होते हो, उदास, निराश होते हो, तो तुम तुरंत बचना चाहते हो इससे, तुम इसे भुलाने की कोशिश करते हो। इसी तरह चलती चली जाती है यह बात। अगली बार जब तुम दुखी होओ —और तुम्हें ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी, जैसे ही मेरा प्रवचन समाप्त होगा तुम हो जाओगे वैसे ही—तब भागने की कोशिश मत करना। मेरा प्रवचन भी शायद एक बचाव की भांति ही कार्य कर रहा हो —तुम सुनते हो मुझे, तुम भूल जाते हो स्वयं को। तुम सुनते हो मुझे, तुम्हें ध्यान देना पड़ता है मेरी ओर, लेकिन तुम्हारे स्वयं की ओर पीठ मोड़ लेते हो तुम। तुम भूल जाते हो, तुम भूल जाते हो कि तुम्हारी वास्तविक स्थिति क्या है। मैं बात करता हूं आनंद की, आनंदविभोरता की। वह बात सत्य होती है मेरे लिए, लेकिन तुम्हारे लिए वह बन जाती है एक स्वप्न। फिर एक आशा बन जाती है कि यदि तुम ध्यान करो, यदि तुम इस पर काम करो, तो ऐसा तुम्हें भी घटेगा। मत उपयोग करना इसका नशे की भांति। तुम गुरु का उपयोग कर सकते हो नशे की भांति, और तुम पर असर हो सकता है।

मेरा सारा प्रयास है तुम्हें ज्यादा जागरूक बना देने का, ताकि जब कभी तुम दुख में पड़ो तो भागने की कोशिश मत करो। आशा शत्रु है। आशा मत करो, और यथार्थ से विपरीत स्वप्न मत देखो। यदि तुम उदास हो, तो उदासी ही होती है वास्तविकता। उसी के साथ रहो; उसी के साथ रह कर, आगे न बढ़, उसी पर एकाग्र हो जाओ। सामना करो उसका, होने दो उसे। उसके विपरीत मत जाना। शुरू में यह एक बहुत कडुआ अनुभव होगा, क्योंकि जब तुम सामना करते हो उदासी का, तो वह तुम्हें घेर लेती है हर तरफ से। तुम बन जाते हो छोटे —से द्वीप की भांति और उदासी होती है चारों ओर का समुद्र—और इतनी बड़ी लहरें होती हैं उदासी की! भय लगने लगता है, एक कंपन महसूस होता है एकदम अंतस तक ही। कांपो, भयभीत होओ। एक बात मत करना— भागना मत। ऐसा होने दो। इसमें गहरे रूप से उतरो। देखो, ध्यान दो, मूल्याकन मत करो। तुम वैसा करते रहे लाखों जन्मों से। केवल देखो, उतरो उसमें। जल्दी ही, कडुआ अनुभव उतना कडुआ न रहेगा। जल्दी ही, कडुवे साक्षात्कार से उदित हो जाता है सत्य। जल्दी ही तुम गतिमान हो रहे होओगे, ज्यादा गहरे और गहरे में उतरते हुए—और तुम ढूंढ लोगे कारण, कि दुख का कारण क्या है, क्यों तुम इतने दुखी हो।

कारण कहीं बाहर नहीं, वह तुम्हारे भीतर होता है, तुम्हारे दुख में छिपा होता है। दुख होता है बिलकुल धुएं की भांति। कहीं तुम्हारे भीतर मौजूद होती है आग। धुएं में गहरे उतरना ताकि तुम ढूंढ सको आग को। कोई नहीं ला सकता अकेले धुएं को बाहर क्योंकि वह तो साथ जन्मता है। लेकिन यदि तुम बाहर ले आते हो आग तो धुंआ अपने से ही अदृश्य होता है। कारण ढूंढ लेना, परिणाम तिरोहित हो जाता है, क्योंकि तब कुछ किया जा सकता है।

ध्यान रहे, केवल कारण के साथ ही कुछ किया जा सकता है, परिणाम के साथ नहीं। यदि तुम परिणाम के साथ लड़ते चले जाते हो, तो वह सारा संघर्ष व्यर्थ होता है। यही है अर्थ पतंजलि की प्रति—प्रसव विधि का कारण तक लौट जाओ, परिणाम में उतरो और कारण तक पहुंच जाओ। कारण वहीं कहीं होगा जरूर। परिणाम होता है ठीक तुम्हें घेरने वाले धुएं की भांति ही, लेकिन एक बार धुआ घेर लेता है तुम्हें, तो तुम भाग कर चले जाते हो आशा में। तुम स्वप्न देखते हो उन दिनों का जब कोई धुआ न रहेगा। यह बिलकुल मूढ़ता है। न ही केवल मूढ़ता है, बल्कि आत्मघाती बात है, क्योंकि इसी तरह तो तुम चूक रहे हो कारण को।

पतंजलि कहते हैं, ‘विवेकपूर्ण व्यक्ति…..।’ संस्कृत में शब्द है विवेक—इसका अर्थ होता है जागरूकता, इसका अर्थ होता है होशपूर्णता, इसका अर्थ होता है विवेकपूर्ण शक्ति। क्योंकि जागरूकता के द्वारा तुम भेद कर सकते हो कि कौन चीज क्या है क्या सत्य है, क्या असत्य; क्या परिणाम है, क्या कारण।

प्रज्ञावान व्यक्ति, विवेकशील व्यक्ति, जागरूक व्यक्ति जान लेता है कि हर चीज ले जाती है दुख की ओर।

जैसे कि तुम हो, हर चीज ले जाती है दुख की ओर। और यदि तुम बने रहते हो जैसे तुम हो, तो हर चीज ले जाती ही रहेगी दुख की ओर। यह कोई स्थितियों को ही बदलने की बात नहीं है, यह तुम्हारे भीतर बहुत गहराई तक उतरी चीज की बात है। तुम्हारे भीतर की कोई बात आनंद की संभावना को ही कुंठित कर देती है। तुम्हारे भीतर की कोई चीज तुम्हारी आनंदमय अवस्था तक खिलने के विरुद्ध होती है। जागा हुआ आदमी जान लेता है कि हर चीज दुख की ओर ले जाती है, हर चीज।

तुमने कर ली होती है हर बात, लेकिन क्या तुमने कभी ध्यान दिया है कि हर बात दुख की ओर ले जाती है? यदि तुम घृणा करते हो, तो वह बात ले जाती दुख तक; यदि तुम प्रेम करते हो, तो वह बात ले जाती दुख तक। जीवन में कोई तर्कयुक्त ढंग दिखायी नहीं पड़ता है। व्यक्ति घृणा करता है, तो यह बात ले जाती है दुख की ओर। सीधा तर्क तो कहेगा कि यदि घृणा ले जाती है दुख तक, तब प्रेम को तो जरूर ले जाना चाहिए सुख तक। फिर तुम प्रेम करते हो, और प्रेम भी ले जाता है दुख की ओर ही। क्या है यह सब? क्या जीवन बिलकुल ही अतर्क्य और बेतुका है? क्या कहीं कुछ तर्कयुक्त नहीं है? क्या यह एक अराजकता है? तुम कर लेते हो जो कुछ भी करना चाहते हो, और अंत में चला आता है दुख ही। ऐसा मालूम पड़ता है कि दुख एक राजमार्ग है और हर मार्ग उस तक ही आ पहुंचता है। जहां कहीं से भी तुम प्रारंभ करना चाहो, तुम कर सकते प्रारंभ दाएं, बाएं, या मध्य से, हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, पुरुष —स्त्री, ज्ञान — अज्ञान, प्रेम —घृणा—हर चीज पहुंचा देती दुख तक। यदि क्रोध में होते हो, तो वह तुम्हें ले जाता है दुख की ओर। यदि तुम क्रोधित नहीं होते, वह बात भी ले जाती है दुख की ओर। ऐसा जान पड़ता है कि दुख मौजूद होता है और जो कुछ तुम करते हो वह अप्रासंगिक होता है। अंततः तुम आ पहुंचते हो उसी तक।

मैंने सुनी है एक कथा, और मुझे सदा ही प्यारी रही है यह।

एक मनोविश्लेषक एक पागलखाना देखने गया था। उसने एक पागल के बारे: में पूछा सुपरिन्टेंडेंट से जो कि चीख रहा था और रो रहा था और पटक रहा था अपना सिर दीवार पर। उसके हाथ में किसी सुंदर स्त्री की तस्वीर थी। पूछा उस मनोविश्लेषक ने, ‘क्या हुआ है इस आदमी को?’ सुपरिन्टेंडेंट ने कहा, ‘यह आदमी इस स्त्री को बहुत प्रेम कर रहा था। यह पागल हुआ क्योंकि वह स्त्री इससे विवाह करने को राजी नहीं हुई। इसलिए ही यह पागल हो गया है।’ तर्कयुक्त, सीधी—साफ बात। लेकिन उससे अगले कमरे में एक और पागल था और वह भी चीख रहा था और रो रहा था और पीट रहा था अपना सिर। उसके हाथ में उसी स्त्री की तस्वीर थी, और वह थूक रहा था तस्वीर पर और बोले जा रहा था अश्लील शब्द। पूछा मनोविश्लेषक ने, ‘क्या हुआ इस आदमी को? इसके पास वही तस्वीर है। बात क्या है?’ सुपरिन्टेंडेंट बोला, ‘यह आदमी भी इस स्त्री के प्रेम में पागल था, और वह मान गई और विवाह कर लिया इससे। इसलिए यह हुआ है पागल।’

स्त्री अस्वीकार करती है कि स्वीकार, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है; तुम विवाह करो या कि तुम विवाह न करो, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। मैंने गरीब लोगों को दुखी होते देखा है, मैंने अमीर लोगों को दुखी होते देखा है। मैंने असफल लोगों को दुखी पाया है, जो सफल हुए मैंने उन्हें दुखी पाया है। जो कुछ भी तुम करते हो, अंततः तुम आ पहुंचते हो लक्ष्य तक! और वह है दुख। क्या हर रास्ता नरक तक ले जाता है? बात क्या होती है? तब तो कहीं कोई विकल्प नहीं जान पड़ता।

हां, हर चीज ले जाती है दुख में —यदि तुम वैसे ही बने रहो तो। मैं तुमसे कहूंगा दूसरी बात यदि तुम बदल जाते हो तो हर चीज ले जाती है स्वर्ग में। यदि तुम वैसे के वैसे ही बने रहते हो, तो तुम्हीं रहते हो आधार, न कि जो तुम करते हो। जो तुम करते हो वह तो अप्रासंगिक होता है। गहराई में तुम्हीं होते हो। चाहे तुम घृणा करो—तुम्हीं करोगे घृणा, या कि तुम प्रेम करो —तुम्हीं करोगे प्रेम—वह तुम्हीं होते जो अंततः दुख या सुख की, पीड़ा या आनंद की घटना निर्मित करते हो —जब तक कि तुम्हीं नहीं बदल जाते…..। मात्र घृणा से प्रेम तक जाना, इस स्त्री से उस स्त्री तक, इस घर से उस घर तक जाना—यह बात मदद न देगी। तुम समय और ऊर्जा बरबाद कर रहे होते हो। तुम्हें बदलना होता है स्वयं को। क्यों हर चीज ले जाती है दुख में?

पतंजलि कहते हैं : ‘विवेकपूर्ण व्यक्ति जानता है कि हर चीज दुख की ओर ले जाती है —परिवर्तन के कारण, चिंता के कारण, पिछले अनुभवों के कारण..।’

ये वचन समझ लेने जैसे हैं। जीवन में हर चीज परिवर्तित हो रही है। जीवन के ऐसे गतिमय प्रवाह में तुम किसी चीज की अपेक्षा नहीं कर सकते। यदि तुम अपेक्षा करते हो तो तुम दुखी होओगे, क्योंकि अपेक्षाएं संभव होती हैं एक निश्चित और चिरस्थाई संसार में। बदलते हुए, गतिमय प्रवाह जैसे संसार में, किन्हीं अपेक्षाओं की संभावना नहीं होती है।

तुम प्रेम करते हो किसी स्त्री से; वह बहुत ज्यादा प्रसन्न जान पड़ती है, लेकिन अगली सुबह वह नहीं रहती वैसी। तुमने उसे प्रेम किया था उसकी प्रसन्नता के कारण, तुमने उसे प्रेम किया क्योंकि उसकी गुणवत्ता थी प्रसन्नचित्त रहने की। लेकिन अगली सुबह वह प्रसन्नता मिट चुकी होती है! वह गुणवत्ता मौजूद न रही और वह स्वयं अपने से एकदम विपरीत हो चुकी है। वह दुखी होती, क्रोधित, उदास, झगड़ालु, काट खाने को आतुर होती है —करोगे क्या? तुम कोई आशा नहीं रख सकते। हर चीज बदलती है, हर चीज बदलती है हर पल। तुम्हारी सारी अपेक्षाएं तुम्हें ले जाएंगी दुख में। तुम विवाह करते हो एक सुंदर स्त्री से, लेकिन वह बीमार पड़ सकती है और उसका सौंदर्य मिट सकता है। चेचक का प्रकोप हो सकता है और चेहरा बिगड़ सकता है। तो क्या करोगे तुम?

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने एक बार कहा उससे, ‘लगता है कि अब तुम मुझे प्रेम नहीं करते। क्या तुम्हें याद है, या क्या तुम भूल चुके हो कि मौलवी के सामने तुमने वायदा किया था कि तुम हमेशा मुझे प्यार करोगे, तुम हमेशा मेरा साथ दोगे सुख में और दुख में?’ मुल्ला नसरुद्दीन कहने लगा, ‘ही, मैंने वायदा किया था। मैंने बिलकुल किया था वायदा और वह खूब याद है मुझे : चाहे वह सुख की घड़ी हो या दुख की घड़ी हो, मैं साथ रहूंगा तुम्हारे। लेकिन मैंने कभी नहीं कहा था मौलवी से कि मैं तुम्हें प्रेम करूंगा वृद्धावस्था में। यह बात कभी नहीं थी उस वायदे का हिस्सा।’

लेकिन वृद्धावस्था आ जाती है; चीजें बदलती हैं। एक सुंदर चेहरा असुंदर हो जाता है। एक सुखी आदमी दुखी हो जाता है। एक बहुत कोमल व्यक्ति बहुत कठोर हो जाता है। गुनगुनाहट तिरोहित हो जाती है और झगड़ालु वृत्ति प्रकट होती है। जीवन प्रवाह है और हर चीज बदलती है। कैसे तुम अपेक्षा कर सकते हो? तुम अपेक्षा करते हो, तो दुख आ बनता है।

पतंजलि कहते हैं, ‘परिवर्तन के कारण?. दुख घटित होता है।’ यदि जीवन पूरी तरह जड़ होता और कहीं कोई परिवर्तन नहीं होता, तुम प्रेम करते किसी लड़की से और वह लड़की हमेशा ही रहे सोलह साल की, हमेशा गुनगुनाती रहे, हमेशा खुश रहे और आनंदित रहे और तुम भी वैसे ही रहो, जड़ अस्तित्व—निस्संदेह तब तुम व्यक्ति न रहोगे, जीवन जीवन नहीं होगा। वह जड़ पत्थर होगा, पर कम से कम आशाएं — अपेक्षाएं पूरी हो जाएंगी। लेकिन एक कठिनाई होती है : इससे एक ऊब आ बनेगी, और वह निर्मित कर देगी दुख को। परिवर्तन नहीं होगा, लेकिन तब ऊब आ बनेगी।

यदि चीजें नहीं बदलती हैं, तो तुम ऊब जाते हो। यदि पत्नी मुस्कुराती रहे और मुस्कुराती रहे रोज—रोज तो कुछ दिनों बाद ही तुम थोड़े चिंतित हो जाओगे—क्या हुआ है इस स्त्री को? क्या इसकी मुस्कान असली है या कि यह केवल अभिनय ही कर रही है?

अभिनय में तुम मुस्कुराते रह सकते हो। तुम मुख पर ऐसा नियंत्रण रख सकते हो। मैंने देखा है लोगों को जो नींद में भी मुस्कुरा रहे होते हैं; राजनीतिज्ञ और इसी तरह के कई लोग जिन्हें निरंतर ही मुस्कुराना पड़ता है। तब उनके होंठ एक स्थायी आकार धारण कर लेते हैं। यदि तुम कहो उनसे कि मुस्कुराए नहीं, तो वे कुछ नहीं कर सकते। उन्हें मुस्कुराना ही पड़ेगा, वह बात एक ढंग बन चुकी होती है। लेकिन तब ऊब आ बनती है, और वह ऊब तुम्हें ले जाएगी दुख की ओर।

स्वर्ग में हर चीज स्थायी होती, कोई चीज नहीं बदलती; हर चीज वैसी बनी रहती है जैसी कि होती है —हर चीज सुंदर। बर्ट्रेड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘मैं नहीं जाना चाहूंगा किसी जन्नत में कि किसी स्वर्ग में, क्योंकि वह बात बहुत ज्यादा उबाऊ होगी।’ ही, वह बात बहुत उबाऊ होगी। जरा सोचो तो उस जगह की जहां कि सारे पंडित—पुरोहित, पैगंबर, तीर्थंकर और बुद्ध—पुरुष एकत्रित हो गए हों, और कुछ न बदलता हो, हर चीज निश्चल बनी रहती हो—कोई गति न हो। यह तो रंगों से सजायी तस्वीर मालूम पड़ेगी, जो कि वास्तव में जिंदा न हो। कितनी देर तक तुम जी सकते हो उसमें? रसल ठीक कहता है, ‘यदि यही स्वर्ग है, तब तो नरक बेहतर है। कम से कम कुछ परिवर्तन तो होगा वहां।’

नरक में हर चीज बदल रही होती है, लेकिन तब किन्हीं अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं की जा सकती है। यही है अड़चन मन के साथ। यदि जीवन निरंतर गतिमय होता है, तो अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकती। यदि जीवन होता है एक निर्धारित घटना, तो अपेक्षाएं पूरी हो सकती थीं, इतनी ज्यादा कि तुम ऊब महसूस करने लगते। तब कहीं कोई रस नहीं रहता। हर चीज धुंधली पड़ गयी होती, कुनकुनी—कोई संवेदना नहीं, कोई उन्मेष नहीं, कोई नई चीज नहीं घटती। इस जीवन में जिसमें कि तुम जी रहे हो, परिवर्तन बना देता है दुख, चिंता। सदा चिंता मौजूद होती है, तुम्हारे भीतर, मैं कहता हूं सदा ही। यदि तुम गरीब हो, तो चिंता होती है धन कैसे पा लें? यदि तुम धनवान बन जाते, तो चिंता होती है कि कैसे उसे बनाए ही रहें जिसे कि प्राप्त किया है? सदा भय रहता है चोरों का, डाकुओं का और सरकार का—जो कि एक संगठित डकैती होती है! करों का भय है और कम्मुनिस्ट सदा आने — आने को ही हैं। यदि तुम गरीब होते हो तो तुम्हें चिंता होती है कैसे पा लें धन? यदि तुम पा लेते हो तो तुम्हें चिंता होती है कैसे उसे पास बनाए रखें जिसे कि तुमने पाया है? लेकिन चिंता तो बनी ही रहती है।

अभी उस दिन एक जोडा आया मेरे पास और पुरुष कहने लगा, ‘यदि मैं स्त्री के साथ होता हूं तो बेचैनी होती है, क्योंकि यह बात तो निरंतर संघर्ष की होती है। यदि मैं स्त्री के साथ न रहूं, तो यह एक निरंतर बेचैनी बनी रहती है; मैं अकेला हो जाता हूं।’ स्त्री पास न हो तो अकेलापन बन जाता है एक फिक्र। स्त्री पास में हो तो दूसरे के साथ चली ही आती हैं उसकी अपनी समस्याएं। और समस्याएं दुगुनी नहीं होतीं जब दो व्यक्ति मिलते हैं, वे तो कई गुना बढ़ जाती हैं। पुरुष अकेला नहीं रह सकता क्योंकि वह अकेलापन बना देता है चिंता। पुरुष स्त्री के साथ नहीं रह सकता क्योंकि तब स्त्री बना देती है चिंता। यही बात सत्य है स्त्री के लिए भी। चिंता तुम्हारे जीवन का एक ढंग ही बन जाती है; जो कुछ भी घटता है, चिंता तो बनी रहती है।

पिछले अनुभव, संस्कार दुख निर्मित करते हैं। क्योंकि जब कभी तुम जीते पिछले अनुभव द्वारा, यह बात तुममें एक लकीर खींच देती है। यदि कोई अनुभव बहुत —बहुत बार दोहराया जाता है, तो लकीर ज्यादा और ज्यादा गहरी हो जाती है। तब यदि जीवन विभिन्न अनुभवों, तरीकों से गतिमान हो और ऊर्जा तुम्हारे पिछले अनुभवों की उस लीक में न बह रही हो तो तुम अधूरापन अनुभव करते हो। लेकिन यदि जीवन उसी तरह बना रहता है, और ऊर्जा उसी लीक में से बहती रहती है, तब तुम ऊब अनुभव करते हो, तब तुम्हें चाहिए होती है उत्तेजना। यदि उत्तेजना न हो, तो तुम अनुभव करते हो कि प्रयोजन ही क्या है जीए चले जाने का?

तुम रोज —रोज वही भोजन नहीं खा सकते। मैं खा सकता हूं वही भोजन, मेरी बात छोड़ दो। तुम नहीं खा सकते एक ही प्रकार का भोजन हर रोज। यदि तुम एक ही प्रकार की चीजें खाते हो तो तुम हताश अनुभव करते हो, क्योंकि हर रोज एक ही तरह के भोजन से स्वाद, नवीनता खो जाती है। यदि तुम हर रोज बदलते हो खाने की चीजें, यह बात भी चिंता और मुसीबत खड़ी कर देगी, क्योंकि शरीर भोजन के साथ अनुकूलित हो जाता है। और यदि हर रोज बदलते हो उसे, तो शरीर का रसायन बदल जाता है और शरीर असुविधा अनुभव करता है। शरीर सुविधा अनुभव करता है यदि तुम एक ही तरह का भोजन खाते रहो, लेकिन तब मन नहीं अनुभव करता सुविधापूर्ण।

यदि तुम जीते हो तुम्हारी पिछली आदतों के द्वारा तो शरीर सदा अनुभव करेगा सुविधापूर्ण, क्योंकि शरीर एक यंत्र है, वह नए के लिए उत्सुक नहीं। वह तो बस वही बातें चाहता है। शरीर को चाहिए एक ही दिनचर्या। मन सदा चाहता है परिवर्तन, क्योंकि मन स्वयं ही एक गतिमय घटना है। पल भर के लिए भी मन वही नहीं रहता, वह बदलता ही जाता है।

मैंने सुना है लार्ड बायरन के बारे में कि उसका साथ कई सौ स्त्रियों से रहा। कम से कम साठ स्त्रियों की जानकारी तो पक्की है, प्रमाण मौजूद हैं कि उसने प्रेम किया साठ स्त्रियों से। वह बहुत समय तक नहीं जीया, तो वह जरूर हर तीसरे दिन बदलता रहा होगा स्त्रियां। लेकिन एक स्त्री की पकड़ में वह आ ही गया और उस स्त्री ने उसे मजबूर कर दिया था अपने से विवाह करने को। वह समर्पित नहीं हुई जब तक कि उसने विवाह न कर लिया उससे। उसने अपने शरीर को छूने नहीं दिया जब तक कि उसने विवाह नहीं कर लिया उससे। वह जानती थी कि उसका प्रेम —संबंध रहा है बहुत —सी स्त्रियों से। और एक बार वह प्रेम कर लेता है किसी स्त्री से, तो बस बिलकुल भूल ही जाता उस स्त्री को —खत्म हो जाती बात। वह मन था एक कल्पनाशील भावुक कवि का, और कवि भी विश्वसनीय नहीं होते। वे हो नहीं सकते वे जीते हैं मन के साथ। उनका मन प्रवाह भरा होता है, उनकी कविता की भांति। वह एक तरंगायित घटना है। उस स्त्री ने जोर दिया, वह जिद्दी थी, तो बायरन को झुकना ही पड़ा, उसे विवाह करना पडा उससे। वह बहुत आकर्षक हो गयी उसके लिए क्योंकि उसने समर्पण नहीं किया। यह बात तो उसके अहंकार का प्रश्न बन गयी।

जैसे ही वे बाहर आ रहे थे चर्च से, तो चर्च के घंटे अभी भी बज रहे थे, और मेहमान विदा ले रहे थे। वे चर्च की सीढ़ियों पर ही थे और बायरन ने थामा हुआ था उस स्त्री का हाथ, नवविवाहिता स्त्री का। अभी तो उससे संभोग भी न किया था उसने और अचानक उसे दिख गई सड़क पर जाती दूसरी स्त्री। जिस स्त्री का हाथ थामे हुए था उस स्त्री को तो बिलकुल भूल ही गया वह, और उसने कहा स्त्री से, ‘यह बात अदभुत है, लेकिन पल भर को जब मैंने उस स्त्री को जाते हुए देखा, मैं तो बिलकुल ही भूल गया तुम्हें, मेरा विवाह और हर चीज। तुम्हारा हाथ नहीं रहा मेरे हाथ में; मुझे कुछ पता नहीं था।’ स्त्री ने भी देखा था यह सब; तुम नहीं धोखा दे सकते स्त्री को। इससे पहले कि तुम देखो भी किसी दूसरी स्त्री की ओर, वे जान लेती हैं। तुम्हारे मन मै एक विचार की फड़फड़ाहट ही उठती और वे पता लगा लेती हैं उसका। वे बड़ी पहचान करने वाली होती हैं, झूठ को खोज लेने ‘वाली। उस स्त्री ने भी बात जान ली थी, और वह बोली, ‘मुझे पता था।’

यह होता है मन। उसका रस अब समाप्त हो गया उस स्त्री में। विवाह हुआ और बात खत्म हो गयी, प्राप्ति और समाप्ति। अब कोई आवेश न रहा। अब उस पर अधिकार हो गया, वह संपत्ति हुई। अब कोई चुनौती न रही।

चुनौती बना देती है उत्सुकता, क्योंकि तुम्हें संघर्ष करना पड़ता है तुम्हारे प्रयोजन के लिए। फिर जब तुम पा लेते हो, अधिकार जमा लेते हो, तो वह बात बना देती है एक दूसरी ही चिंता. यह चिंता कि तुम्हारे लिए समाप्ति हुई। सारी बात ही अब वह न रही। वह पहले से ही ऊब देने वाली है, पहले से ही मरी हुई है। बेचैनी सदा बनी रहती है क्योंकि जिस ढंग से तुम जीते हो, वह बना ही देता है बेचैनी। तुम संतुष्ट नहीं हो सकते। पिछले अनुभवों द्वारा, संस्कारों द्वारा तुम्हारा ताल—मेल बैठ जाता है किसी भी विशेष घटना के साथ और तब मन कहता कि उत्तेजना चाहिए, परिवर्तन चाहिए। तब सारा शरीर अशांत हो जाता। तो यह बात भी बेचैनी बनाती है।

‘……..और वे द्वंद्व जो तीन गुणों और मन की पांच वृत्तियों के बीच आ बनते हैं।

तो एक निरंतर संघर्ष मौजूद रहता है मन की वृत्तियों और तीन गुणों के बीच जिनके लिए हिंदू कहते कि वे तुम्हारे अस्तित्व को बनाते हैं। वे कहते हैं कि सत्व, रजस और तमस ये तीन घटक हैं मानव के व्यक्तित्व के। सत्व शुद्धतम है, शुभता का वास्तविक मूल, शुद्धता का, संपूर्ण सत्व का, तुममें रहने वाला पवित्रतम तत्व। फिर है रजस—ऊर्जा, बल, शक्ति, सत्ता का तत्व, और तमस है आलस्य, अकर्मण्यता और कर्महीनता का तत्व। ये तीनों संघटित करते हैं तुम्हारी सत्ता को। और ऐसा मालूम पड़ता है कि हिंदुओं की यह बात बड़ी अंतर्दृष्टि की है, क्योंकि यही तीन चीजें हैं जिन्हें भौतिक वैज्ञानिक कहते हैं पदार्थ की आणविक ऊर्जा के घटक। चाहे वे इसे कहते हों इलेक्ट्रान, प्रोट्रान और न्‍यूट्रान, लेकिन ये तो केवल नाम के भेद हैं। हिंदू इसे कहते हैं —सत्व, रजस और तमस।

वैज्ञानिक राजी हैं कि पदार्थ के बने रहने के लिए या किसी भी चीज के बने रहने के लिए तीन प्रकार के गुण चाहिए। हिंदू कहते हैं कि ये तीन गुण चाहिए व्यक्तित्व के बने रहने के लिए; न केवल व्यक्तित्व के लिए, बल्कि संपूर्ण अस्तित्व के बने रहने के लिए।

पतंजलि कहते हैं कि ये तीनों एक दूसरे के विपरीत होते हैं और ये उपद्रव की जड़ हैं। और तीनों ही मौजूद होते हैं तुममें। आलस्य का अस्तित्व होता है, वरना तो तुम सो ही न पाओ। जो लोग अनिद्रा से पीड़ित हैं वे पीड़ित हैं क्योंकि तमस गुण उनमें पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। इसलिए तो ट्रैक्यिलाइजर मदद करते हैं, क्योंकि ट्रैंक्यिलाइजर तमस निर्मित करने वाला रसायन होता है। वह निर्मित कर देता है तुममें तमस, आलस्य। यदि लोग बहुत ज्यादा राजसी होते हैं, ओज और ऊर्जा से बहुत भरे होते हैं, तो वे नहीं सो सकते। इसलिए पश्चिम में अनिद्रा अब एक समस्या बन चुकी है। पश्चिम में रजस ऊर्जा बहुत ज्यादा है। इसीलिए पश्चिम ने राज्य किया सारे संसार पर। इंग्लैंड जैसा छोटा देश राज्य करता रहा आधे संसार पर। वे जरूर बहुत राजसी रहे। साठ करोड़ लोगों का भारत जैसा देश अब दरिद्र बना हुआ है; इतने सारे लोग हैं जो कुछ नहीं कर रहे हैं। वे और— और ज्यादा बोझ बन जाते हैं। वे कोई मूल्यवान नहीं, वे देश के लिए बोझ हैं। बहुत ज्यादा है तमस, आलस्य, अकर्मण्यता। और फिर है सत्व जो कि विपरीत है दोनों के। ये तीन तत्व तुम्हें संघटित करते हैं। और वे सभी तीन विभिन्न आयामों में सरक रहे हैं। उनकी जरूरत है, उन सभी की जरूरत है उनकी विपरीतता में ही क्योंकि उनके तनाव द्वारा तुम जीते हो। यदि उनका तनाव खो जाए, यदि वे हो जाएं सुसंगत, तो मृत्यु आ जाए। हिंदू कहते हैं, जब ये तीन तत्व तनाव में होते हैं, तो अस्तित्व का अस्तित्व रहता है, सृजन होता है; जब ये तीन तत्व एक स्वर में होते हैं, अस्तित्व विघटित हो जाता है, प्रलय आ जाती, सृष्टि का नाश हो जाता है। तुम्हारी मृत्यु और कुछ नहीं सिवाय इन तीनों तत्वों के तुम्हारे शरीर में समस्वरता में आने के—तब तुम मर जाते हो। यदि वह तनाव ही न रहे, तो कैसे जी सकते हो तुम?

यही है अड़चन : बिना इन तीन तनावों के तुम जी नहीं सकते —तुम मर जाओगे! और तुम जी नहीं सकते उनके साथ क्योंकि वे विपरीत हैं और वे तुम्हें खींचते हैं विभिन्न दिशाओं में। तुमने बहुत बार अनुभव किया होगा तुम अलग— अलग दिशाओं में खींचे जा रहे हो। तुम्हारा एक हिस्सा कहता है ‘महत्वाकांक्षी बनो'; दूसरा हिस्सा कहता है, ‘महत्वाकांक्षा चिंता बना देगी। इसके विपरीत, ध्यान करो . प्रार्थना करो, संन्यासी हो जाओ।’ एक हिस्सा कहता है कि पाप सुंदर होता है, पाप का आकर्षण है उसमें एक चुंबकीय शक्ति होती है : ‘मौज मनाओ, क्योंकि देर— अबेर मृत्यु तो सब ले लेगी। मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है, और कुछ बचता नहीं। मौज कर लो इससे पहले कि मृत्यु सब छीन ले। फ्लो मत।’ तुम्हारा एक हिस्सा कहता है यह बात, और दूसरा हिस्सा कहता है, ‘मौत आ रही है, हर चीज व्यर्थ है। सुख भोगने में सार क्या है?’ ये तुम्हारे एक ही हिस्से नहीं बोल रहे होते। तुममें तीन हिस्से होते हैं। वस्तुत: तीन अहंकार होते हैं, तीन व्यक्ति होते हैं तुम में।

पतंजलि कहते हैं जैसे महावीर कहते है—कि मनुष्य बहु —चित्तवान है। तुम्हारा एक मन नहीं, तीन मन होते हैं; और तीन मन परिवर्तनों द्वारा, सम्मिश्रण द्वारा तीन हजार बन सकते हैं। तुम्हारे पास बहुत मन हैं; तुम हो बहुचित्तवान। हर मन तुम्हें खींच रहा है कहीं और ही। तुम एक भीड़ हो। निस्संदेह, कैसे तुम आनंदित हो सकते हो? तुम हो उस बैलगाड़ी की भांति जिसे खींचा जा रहा है विभिन्न दिशाओं में बहुत से बैलों द्वारा, एक जुता है उत्तर में, एक लगा हुआ है पश्चिम में और एक साथ—साथ ही लगा हुआ है दक्षिण में। वह बैलगाड़ी कहीं नहीं जा सकती। वह बहुत शोर पैदा करेगी, और अंततः ढह जाएगी, लेकिन वह पहुंच नहीं सकती कहीं। इसीलिए तुम्हारा जीवन बना रहता है खाली जीवन। ये तीनों तत्व द्वंद्व में रहते हैं, और फिर मन की वृत्तियां हैं वे द्वंद्व में रहती हैं गुणों के साथ।

उदाहरण के लिए, मैं जानता हूं एक आदमी को जो कि बहुत सुस्त है। और वह कहता था मुझसे, ‘यदि मेरी कोई पत्नी न होती, तो मैं विश्राम करता। पर्याप्त धन था मेरे पास, लेकिन पत्नी तो मुझे मजबूर ही करती रही काम करने के लिए। उसके लिए वह कभी पर्याप्त न हुआ।’ फिर पत्नी मर गई। तो मैंने कहा उस आदमी से, ‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए। तुम रो क्यों रहे हो? तुम खुश होओ। पत्नी की बात खत्म हुई तुम्हारे लिए, अब तुम कर सकते हो विश्राम।’ लेकिन वह रो रहा था बच्चे की भांति। वह कहने लगा, ‘अब मैं अकेला महसूस करता हूं। और वह आदत बन चुकी है।’ पत्नियां और पति आदत बन जाते हैं। वह कहने लगा, ‘ अब तो वह आदत बन चुकी है। अब मैं सो नहीं सकता बगैर स्त्री के।’ मैंने कहा उससे, ‘अब मूढ़ मत बनो! फिर से विवाह करने की कोशिश मत करना क्योंकि जीवन भर तुमने तकलीफ पायी, और दूसरी स्त्री फिर एक स्त्री ही होगी—वह जबरदस्ती बातें मनवाकी तुमसे। फिर तुम्हारा धन पर्याप्त न होगा।’

मैंने सुना है एक बहुत धनी व्यक्ति रॉथस्वाइल्ड के बारे में। किसी ने पूछा उससे, ‘कैसे कमायी आपने इतनी ज्यादा दौलत? कैसे कमा सके? क्या इच्छा रही थी? कैसे बने आप इतने महत्वाकांक्षी?’ वह गरीब आदमी के रूप में उत्पन्न हुआ था और फिर वह संसार का सब से धनवान व्यक्ति बन गया। उसने बताया, ‘मेरी पत्नी के कारण। मैं कोशिश करता रहा कि जितना संभव हो उतना धन कमाऊ क्योंकि मैं जानना चाहता था कि मेरी पत्नी संतुष्ट हो सकती थी या नहीं। मैं असफल हुआ—वह सदा और ज्यादा की ही मांग करती रही। हमारे बीच प्रतिस्पर्धा चलती थी। मैं कोशिश करता रहा ज्यादा से ज्यादा कमाने की, और मैं देखना चाहता था वह दिन जब वह कहेगी कि यह तो बहुत है। उसने कभी नहीं कहा ऐसा —उस प्रतिस्पर्धा के कारण मैं लगातार कमाता रहा, पागलों की भाति कमाता रहा लगातार। अब मैंने कमा लिया है इतना ज्यादा धन कि मैं नहीं जानता कि क्या करूं इसका, लेकिन मेरी पत्नी अभी भी संतुष्ट नहीं है। यदि एक दिन मैं चाहूं विश्राम करना और सुबह जल्दी न उठुं तो वह आती है और कहती है कि बात क्या है? क्या आप आफिस नहीं जा रहे हैं!’

मैंने कहा इस आदमी से, ‘फिर से जाल में मत फंसो। जिंदगी भर तो तुमने आराम करना चाहा, और अभी भी हालत वही है?

आलसी आदमी आराम करना चाहता है, लेकिन जब वह रहता है पत्नी के साथ, तो एक वृत्ति आ जमती है मन में। अब वह स्त्री उसकी सत्ता का अनिवार्य हिस्सा हो जाती है। वह जी नहीं सकता उसके साथ क्योंकि वह रोज झगड़ा कर सकती है, लेकिन वह बात भी आदत का एक हिस्सा बन जाती है। यदि कोई ऐसा नहीं होता झगड़ने के लिए जब कि वह घर आता है, तो वह अनुभव नहीं कसेग़ घरेलू ढंग का सुख, चैन।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन गया एक रेस्तरा में। सेविका ने कहा, ‘क्या चाहिए आपको? मैं तैयार हूं पूरा करने को।’

उस दिन का वह पहला ग्राहक था, और वह बात भारत की थी। पहले ग्राहक का सम्मान करना होता है और उसका स्वागत करना पड़ता है अतिथि की भांति, क्योंकि उससे शुरुआत होती है दिन की। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरे साथ घरेलू ढंग से व्यवहार करो। ले आओ चीजें।’

सेविका वे चीजें ले आयी जिनका आर्डर उसने दिया था : कॉफी और भी कई चीजें। फिर वह पूछने लगी, ‘कुछ और?’

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘अब बैठो मेरे सामने और जरा लड़ों—झगड़ो। मुझे घर की याद नहीं आ रही है!’

यदि पत्नी हर रोज लड़ती भी हो, तो वह आदत बन जाती है। तुम उसे खोने की बात बरदाश्त नहीं कर सकते, तुम उसका अभाव महसूस करते हो। मैंने कहा उस आदमी से, ‘अब फिर चिंता मत लो। यह तो केवल वृत्ति है मन की, एक आदत। तुम सुस्त आदमी हो।’

आलसी आदमी के लिए ब्रह्मचर्य सब से उत्तम है। उन्हें ब्रह्मचारी ही रहना चाहिए। वे कर सकते है आराम, कर सकते हैं ‘विश्राम, और अपने को ले कर जो कुछ करना चाहते हैं कर सकते हैं। वे अपने मन की कर सकते हैं और परेशान करने को कोई मौजूद नहीं होता।

उसने सुनी मेरी बात। ऐसा कठिन था, लेकिन उसने मेरी बात सुनी। दो वर्ष के बाद, वह निवृत्त हो गया नौकरी से, तो मैंने कहा, ‘ अब तुम्हें पूरी तरह चैन है, अब तुम आराम करो। अपने जीवन भर तुम इसी की तो सोचते रहे हो।’ वह कहने लगा, ‘वह तो ठीक है। लेकिन अब चालीस वर्ष काम करने के बाद यह बात तो एक आदत बन गयी है, और मैं बिना कुछ किए नहीं रह सकता।’

अवकाश—प्राप्त लोग उससे कुछ ज्यादा जल्दी ही मर जाते हैं, जब जिस समय कि उन्हें वास्तव में मरना होता—करीब दस वर्ष ज्यादा जल्दी मर जाते हैं। यदि किसी आदमी को मरना था अस्सी वर्ष की आयु में तो नौकरी से रिहा कर दो उसे साठवें वर्ष पर और वह मर जाएगा सत्तर वर्ष की आयु में। खाली बैठे —बैठे करोगे क्या? तुम धीरे — धीरे मर जाते हो।

आदतें बन जाती हैं और मन धारण कर लेता है वृत्तियां। तुम सुस्त होते हो लेकिन तुम्हें काम करना पड़े तो मन की आदत है काम करने की। अब तुम विश्राम नहीं कर सकते। यदि तुम निवृत्त भी हो जाओ, तो तुम बैठ नहीं सकते, तुम ध्यान नहीं कर सकते, तुम आराम नहीं कर सकते, तुम सो नहीं सकते। मैं देखता हूं कि साधारण दिनों की अपेक्षा लोग छुट्टियों में ज्यादा बेचैन होते हैं। इतवार एक कठिन दिन है, उन्हें पता नहीं होता कि क्या करना है। काम के छह दिन वे प्रतीक्षा कर रहे होते हैं इतवार की। छह दिन तक वे आशा बनाते हैं कि इतवार आने वाला है. ‘बस और एक दिन, और इतवार आ ही रहा है, और तब हम आराम ही करेंगे।’ और इतवार को सुबह से वे समझ नहीं पा रहे होते कि करेंगे क्या।

पश्चिम में, लोग चले जाते हैं अपनी रविवार या वीकएण्ड की यात्राओं पर : वे जाते हैं समुद्र—तट की ओर या पर्वतों की ओर। सारे देश में एक पागल हड़बड़ाहट होती; हर कोई भागा जा रहा होता है कहीं न कहीं। कोई नहीं सोचता कि हर कोई जा रहा है समुद्र—तट पर, तो वे कहां जा रहे हैं?—सारा शहर वहीं होगा। बेहतर होता यदि वे घर पर ही रुक गए होते। वह बात ज्यादा समुद्र—तट जैसी होती। तुम अकेले होते और सारा शहर जा चुका होता। हर कोई चला गया होता है समुद्र के किनारे। और ज्‍यादा दुर्घटनाएं घटती हैं छुट्टियों में, लोग ज्यादा थके हुए होते हैं। वे सौ मील जाते हैं और सौ मील लगते हैं लौटने में और वे थक जाते हैं।

मैंने सुना है, कहा जाता है कि रविवार के दिन लोग इतना थक जाते हैं कि सोमवार, मंगलवार और बुधवार—इन तीनों दिनों में वे आराम करते हैं और उत्साह को फिर से प्राणवान बनाते हैं, और तीन दिनों तक वे प्रतीक्षा करते हैं और फिर आशा करते हैं रविवार की। तो जब रविवार आता है वे फिर से थक जाते हैं!

लोग आराम नहीं कर सकते, क्योंकि आराम करने के लिए चाहिए एक अलग दृष्टिकोण। यदि तुम आलसी हो, और तुम काम करते हो, तो मन बना लेगा कुछ न कुछ। यदि तुम आलसी नहीं, तब भी मन निर्मित कर लेगा कोई न कोई बात। मन और तुम्हारे गुण सदा द्वंद्व में रहेंगे। पतंजलि कहते हैं कि ये ही हैं कारण कि लोग दुख में पड़े हैं। तो करना क्या होगा? कैसे बदल सकते हो तुम इन कारणों को? वे तो ० ही हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता। केवल तुम्हें बदला जा सकता है।

भविष्य के दुख को विनष्ट करना है।

मत सोचना अतीत के बारे में। अतीत तो खत्म हुआ और तुम उसे अनकिया नहीं कर सकते।

लेकिन भविष्य के दुख से बचा जा सकता है, उससे बचना ही होता है। कैसे बचना होगा उससे?

द्रष्टा और दृश्य के बीच का संबंध जो कि दुख बनाता है उसे तोड़ देना है।

तुम्हें साक्षी होना होगा तुम्हारे गुणों का, स्वाभाविक गुणों का, मन की वृत्तियों का, मन की होशियारियो का, चालबाजियों का, मन के फंदों का, आदतों का, संस्कारों का, अतीत का, बदलती स्थितियों का, अपेक्षाओं का तुम्हें सजग रहना होगा इन सभी चीजों के प्रति। तुम्हें याद रखनी है केवल एक बात द्रष्टा दृश्य नहीं है। जो कुछ तुम देख सकते हो, वह तुम नहीं हो। यदि तुम देख सकते हो तुम्हारे आलस्य की आदत, तो तुम वह नहीं होते। यदि तुम देख सकते हो निरंतर कुछ न कुछ किए जाने की तुम्हारी आदत, तो तुम वह नहीं होते। यदि तुम देख सकते हो तुम्हारी पिछली संस्कारबद्धताएं तो तुम वे बद्धताएं नहीं होते। द्रष्टा नहीं होता दृश्य। तुम जागरूकता हो। और जागरूकता उस सब से परे होती है, जिसे कि वह देख सकती है। द्रष्टा पार होता है दृश्य के।

तुम इंद्रियातीत चेतना हो। यह होता है विवेक, यह होती है जागरूकता। यही तो है जिसे बुद्ध उपलब्ध करते हैं और निरंतर इसी में रहते हैं। इसे निरंतर उपलब्ध करना तुम्हारे लिए संभव न होगा, लेकिन यदि कुछ पलों के लिए भी तुम द्रष्टा तक उठ सको और दृश्य के पार हो सको, तो अचानक ही दुख तिरोहित हो जाएगा। अचानक बादल न रहेंगे आकाश में और तुम पा सकते हो थोड़ी—सी झलक नीले आकाश की। —वह मुक्ति पा सकते हो जिसे वह देता है और पा सकते हो वह आनंद जो कि उसके द्वारा आता है। शुरू में, केवल कुछ क्षणों के लिए यह संभव होगा। लेकिन धीरे — धीरे, जैसे —जैसे तुम इसमें विकसित होते हो, तुम इसे अनुभव करने लगते हो, तुम इसकी आत्मा को ही आत्मसात करते हो, यह बात और और ज्यादा मौजूद होगी। एक दिन आएगा जब अचानक और कोई बादल नहीं बचा रहता, द्रष्टा जा चुका होता है कहीं पार। इसी तरह ही बचा जा सकता है भविष्य के दुख से।

अतीत में तुमने दुख भोगा, भविष्य में कोई आवश्यकता नहीं दुख भोगने की। यदि तुम दुख भोगते हो, तो तुम होओगे जिम्मेदार। और यही है कुंजी, कुंजियों की कुंजी सदा याद रखना कि तुम सब से परे हो। यदि तुम देख सकते हो तुम्हारा शरीर, तो तुम शरीर नहीं होते। यदि तुम आंखें बंद करो और तुम देख सको तुम्हारे विचार तो तुम विचार नहीं रहते —क्योंकि द्रष्टा कैसे हो सकता है दृश्य? द्रष्टा तो सदा परे होता है, पार होता है। द्रष्टा है सर्वथा परे, संपूर्णतया एक अतिक्रमर्णा।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–40

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उत्‍सव की कीमिया: विरोधाभासों का संगीत—(प्रवचन—बीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—मुझे अपने अहंकार के झूठेपन का बोध हो रहा है, इससे मेरे सारे बंधे—बंधाए उत्तर और सुनंश्चित व्यवस्थाएं और ढांचे बिखर रहे हैं। मैं मार्गविहीन, दिशाविहीन अनुभव करता हूं। क्या करूं?

 2—पश्‍चिम में जहां बहुत—सी धार्मिक दुकानें है, वहां आपकी बात कहते समय व्‍यावसायिकता का बोध ग्‍लानि लाता है। इसके लिए क्‍या करू?

 3—उत्‍सव क्‍या है? क्‍या दुःख का उत्‍सव मनाना संभव होता है?

 4—आप अत्‍यंत विरोधाभासी है और सतत स्‍वयं का खंडन करते है। इससे क्‍या समझ सीखी जाए?

पहला प्रश्न:

 

जितना ज्यादा मैं देखता हूं स्वयं को उतना ज्यादा मैं अनुभव करता हूं अपने अहंकार के झूठेपन को। मैं स्वयं को ही अजनबी लगने लगा हूं अब नहीं जानता कि क्या झूठ है। यह बात मुझे एक बेचैन अनुभूति के बीच छोड़ देती है कि जीवन— मार्ग की कोई रूपरेखाएं नहीं हैं जो कि मुझे लगता था पहले मेरे पास थीं।

सा होता है, ऐसा होगा ही। और ध्यान रहे कि तुम्हें खुश होना चाहिए कि ऐसा हुआ है। यह अच्छा लक्षण है। जब कोई चलना शुरू करता है अंतर्यात्रा पर तो हर चीज जान पड़ती है सीधी —साफ, बद्धमूल, क्योंकि अहंकार नियंत्रण में होता है और अहंकार के पास सारी रूपरेखाएं होती हैं, अहंकार के पास सारे नक्‍शो होते हैं, अहंकार मालिक होता है।

जब तुम कुछ और आगे बढ़ते हो इस यात्रा में, तो अहंकार वाष्पित होने लगता है, और — और झूठा जान पड़ने लगता है, और अधिक धोखा मालूम पड़ने लगता है, एक भ्रम। तुम जागने लगते हो स्वप्न में से, तब सारे नक्शे—ढांचे खो जाते हैं। अब वह पुराना मालिक कोई मालिक नहीं रहता, और नया मालिक अभी तक आया नहीं होता। एक उलझन होती है, एक अराजकता। यह एक अच्छा लक्षण होता है।

आधी यात्रा पूरी हुई, लेकिन एक बेचैन अनुभूति तो आ बनेगी, एक घबड़ाहट, क्योंकि तुम खोया हुआ अनुभव करते हो, स्वयं के प्रति अजनबी, न जानते हुए कि तुम कौन हो। इससे पहले, तुम जानते थे कि तुम कौन हो. तुम्हारा नाम, तुम्हारा रूप, तुम्हारा पता, तुम्हारा बैंक —खाता—हर चीज निश्चित थी, इस तरह तुम थे। तुम्हारा तादात्म्य था अहंकार के साथ। अब अहंकार विलीन हो रहा है, पुराना घर गिर रहा है और तुम नहीं जानते? तुम कौन हो, तुम कहां हो। हर चीज अंधेरे में घिरी होती है, धुंधली होती है और वह पुरानी सुनिश्चितता खो जाती है।

यह अच्छा है क्योंकि पुरानी निश्चितता एक झूठी निश्चितता थी। वस्तुत: वह निश्चितता थी ही नहीं। इसके पीछे गहरे में अनिश्चितता ही थी। इसीलिए, जब अहंकार विलीन होता है, तुम अनिश्चित अनुभव करते हो। अब तुम्हारे अस्तित्व की ज्यादा गहरी परतें उदघाटित हो जाती हैं तुम्हारे सामने —तुम अजनबी अनुभव करते हो। तुम सदा अजनबी थे। केवल अहंकार ही इस अनुभूति के धोखे में ले गया कि तुम जानते थे तुम कौन हो। स्वप्न बहुत ज्यादा था, वह एकदम सत्य जान पड़ता था।

सुबह जब तुम स्‍वप्‍न से जाग रहे होते हो, अचानक, तो तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो और कहां हो। क्या तुमने इस अनुभूति को अनुभव किया किसी सुबह? —जब अचानक, तुम स्वप्न से जागते हो और कुछ पलों तक तुम नहीं जानते कि तुम कहां हो, तुम कौन हो और क्या हो रहा है? ऐसा ही होता है जब कोई अहंकार के स्वप्न से बाहर आता है। असुविधा, बेचैनी, उखडाव महसूस होगा, लेकिन इससे तो प्रफुल्लित होना चाहिए। यदि तुम इससे दुखी हो जाते हो, तो तुम उन्हीं पुराने ढर्से में जा पड़ोगे जहां कि चीजें निश्चित थीं, जहां हर चीज का नक्शा बना था, खाका खिंचा था, जहां कि पहचानते थे हर चीज, जहां जीवन—मार्ग की रूपरेखाएं स्पष्ट थीं।

बेचैनी गिरा दो। यदि वह हो भी तो उससे ज्यादा प्रभावित मत हो जाना। रहने दो उसे, ध्यानपूर्वक देखो और वह भी चली जाएगी। बेचैनी जल्दी ही तिरोहित हो जाएगी। वह वहां होती है निश्चितता की पुरानी आदत होने से ही। तुम नहीं जानते कि अनिश्चित जगत में कैसे जीया जाता है। तुम नहीं जानते कि असुरक्षा में कैसे जीया जाता है। बेचैनी होती है पुरानी सुरक्षा के कारण। वह होती है केवल पुरानी आदत, पुराने प्रभाव के कारण। वह चली जाएगी। तुम्हें बस प्रतीक्षा करनी है, देखना है, आराम करना है, और प्रसन्नता अनुभव करनी है कि कुछ घटित हुआ है। और मैं कहता हूं तुमसे—यह अच्छा लक्षण है।

बहुत लौट गए इस स्थल से, केवल फिर से सुविधापूर्ण होने को—आराम में, सुख—चैन में होने को ही। चूक गए हैं वे। बिलकुल करीब आ ही रहे थे मंजिल के, और उन्होंने पीठ फेर ली। वैसा मत करना—आगे बढ़ना। अनिश्चितता अच्छी होती है, उसमें कुछ बुरा नहीं है। तुम्हारा तो केवल ताल—मेल बैठना है, बस इतना ही।

तुम्हारा ताल—मेल बैठ जाता है अहंकार के निश्चित संसार के साथ, अहंकार की सुरक्षित दुनिया के साथ। कितना ही झूठ क्यों न हो सतह पर, हर चीज बिलकुल ठीक जान पड़ती है जैसा कि उसे होना चाहिए। जरूरत है कि अनिश्चित अस्तित्व के साथ तुम्हारा तालमेल थोड़ा बैठ जाए।

अस्तित्व अनिश्चित है, असुरक्षित है, खतरनाक है। वह एक प्रवाह है —चीजें सरक रही हैं, बदल रही हैं। यह एक अपरिचित संसार है; परिचय पा लो उसका। थोड़ा साहस रखो और पीछे मत देखो, आगे देखो; और जल्दी ही अनिश्चितता स्वयं सौंदर्य बन जाएगी, असुरक्षा सुंदर हो उठेगी।

वस्तुत: केवल असुरक्षा ही सुंदर होती है, क्योंकि असुरक्षा ही जीवन है। सुरक्षा असुंदर है, वह एक हिस्सा है मृत्यु का—इसीलिए वह सुरक्षित होती है। बिना किन्हीं तैयार नक्शो के जीना ही एकमात्र ढंग है जीने का। जब तुम तैयार निर्देशों के साथ जीते हो, तो तुम जीते हो एक झूठी जिंदगी। आदर्श, मार्ग— निर्देश, अनुशासन—तुम लाद देते हो कोई चीज अपने जीवन पर; तुम सांचे में ढाल लेते हो अपना जीवन। तुम उसे उस जैसा होने नहीं देते, तुम कोशिश करते हो उसमें से कुछ बना लेने की। मार्ग निर्देशन की तैयार रूपरेखाएं आक्रामक होती हैं, और सारे आदर्श असुंदर होते हैं। उनसे तो तुम चूक जाओगे स्वयं को। तुम कभी उपलब्ध न होओगे अपने स्वरूप को।

कुछ हो जाना वास्तविक सत्ता नहीं है। होने के सारे ढंग, और कुछ होने के सारे प्रयास, कोई चीज लाद देंगे तुम पर। यह एक आक्रामक प्रयास होता है। तुम हो सकते हो संत, लेकिन तुम्हारे संतत्व में असौंदर्य होगा। मैं कहता हूं तुमसे और मैं जोर देता हूं इस बात पर बिना किन्हीं निर्देशों के जीवन जीना एक मात्र संभव संतत्व है। फिर तुम शायद पापी हो जाओ; पर तुम्हारे पापी होने में एक पवित्रता होगी, एक संतत्व होगा।

जीवन पवित्र है. तुम्हें कोई चीज उस पर जबरदस्ती लादने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें उसे गढ़ने की कोई जरूरत नहीं; कोई जरूरत नहीं कि तुम उसे कोई ढांचा दो, कोई अनुशासन दो और कोई व्यवस्था दो। जीवन की अपनी व्यवस्था है, उसका अपना अनुशासन है। तुम बस उसके साथ चलो, तुम बहो उसके साथ, तुम नदी को धकेलने की कोशिश मत करना। नदी तो बह रही है —तुम उसके साथ एक हो जाओ और नदी ले जाती है तुम्हें सागर तक।

यही होता है एक संन्यासी का जीवन सहज होने देने का जीवन—करने का नहीं। तब तुम्हारी अंतस—सत्ता पहुंच जाती है, धीरे — धीरे, बादलों से ऊपर, बादलों और अंतर्विरोधों के पार। अचानक तुम मुक्त होते हो। जीवन की अव्यवस्था में, तुम पा लेते हो एक नयी व्यवस्था। लेकिन व्यवस्था की गुणवत्ता अब संपूर्णतया अलग होती है। यह कोई तुम्हारे द्वारा आरोपित चीज नहीं होती, यह स्वयं जीवन के साथ ही आत्मीयता से गुंथी होती है।

वृक्षों में भी एक व्यवस्था होती है, नदियों में भी, पर्वतों में भी, लेकिन ये व्यवस्थाएं वे नहीं जो नैतिकतावादियों द्वारा, प्यूरिटन्स द्वारा, पुरोहितों द्वारा आरोपित होती हैं। वे नहीं जातीं किसी के पास मार्ग निर्देशन के लिए। व्यवस्था अंतर्निहित होती है; वह स्वयं जीवन में ही होती है। एक बार अहंकार वहां नहीं रहता योजनाएं बनाने को यहां —वहां खींचने — धकेलने को—कि यह करो और वह करो…। जब तुम पूरी तरह अहंकार से मुक्त होते हो, तो एक अनुशासन तुममें आ जाता है—एक आतंरिक अनुशासन। यह अकारण होता है, अहेतुक होता है। यह किसी चीज की तलाश नहीं है, यह तो बस घटता है जैसे कि तुम सांस लेते हो, जैसे कि जब तुम्हें भूख अनुभव होती है और तुम कुछ खा लेते हो, जैसे कि जब तुम्हें नींद आने लगती है और तुम बिस्तर पर चले जाते हो। यह आंतरिक सुव्यवस्था होती है, एक अंतर्निहित सुव्यवस्था। वह आ बनेगी जब तुम्हारा तालमेल बैठ जाता है असुरक्षा के साथ, जब तुम्हारी सुसंगति बन जाती है अपने भीतर के अजनबी के साथ, जब तुम अपने भीतर की अज्ञात सत्ता के साथ लयबद्ध हो जाते हो।

झेन में उनके पास एक कथन है, सुंदरतम कथनों में से एक : जब कोई व्यक्ति रहता है संसार में, तो पर्वत पर्वत होते हैं, नदिया नदियां होती हैं। जब कोई व्यक्ति ध्यान में उतरता है, तब पर्वत फिर पर्वत नहीं रहते, नदियां नदियां नहीं रहती। हर चीज एक भ्रम और एक अव्यवस्था होती है। लेकिन जब कोई व्यक्ति उपलब्ध कर लेता है सतोरी को, समाधि को, फिर नदियां नदिया होती हैं और पर्वत होते हैं पर्वत।

तीन अवस्थाएं होती हैं? पहली में तुम अहंकार के प्रति सुनिश्चित होते हो, तीसरी में तुम निरहंकार अवस्था में परिपूर्ण निश्चित होते हो। और इन दोनों के बीच अराजकता की अवस्था है, जब अहंकार की निश्चितता तिरोहित हो गयी है और जीवन की सुनिश्चितता अभी आयी नहीं। यह एक बहुत ज्यादा संभावनापूर्ण घड़ी होती है, बहुत गर्भित घड़ी है १ यदि तुम डर जाते हो और वापस मुड़ जाते हो, तो तुम चूक जाओगे संभावना को।

आगे है सच्ची निश्चितता। वह सच्ची निश्चितता अनिश्चितता के विपरीत नहीं है। आगे है सच्ची सुरक्षा, लेकिन वह सुरक्षा असुरक्षा के विपरीत नहीं है। वह सुरक्षा इतनी विशाल होती है कि वह असुरक्षा को समाए रहती है स्वयं के भीतर ही। वह इतनी विशाल होती है कि वह भयभीत नहीं होती असुरक्षा से। वह असुरक्षा को सोख लेती है स्वयं में ही, वह सारी विपरीत बातों को समाए रहती है। इसलिए कोई उसे कह सकता है असुरक्षा और कोई उसे कह सकता है —सुरक्षा। वस्तुत: वह इनमें से कुछ भी नहीं, या फिर दोनों ही है।

यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम स्वयं के लिए अजनबी बन गए हो, तो उत्सव मनाओ इसका, अनुगृहीत अनुभव करो। बहुत विरल, अनूठी होती है यह घड़ी, आनंदित होओ इससे। जितना ज्यादा तुम आनंदित होते हो:, उतना ज्यादा तुम पाओगे कि निश्चितता तुम्हारे ज्यादा निकट चली आ रही है, और — और तेजी से चली आ रही है तुम्हारी ओर। यदि तुम उत्सव मना सको तुम्हारे अजनबीपन का, तुम्हारे उखडाव का, तुम्हारी गृहविहीनता का, तो अचानक तुम पहुंच जाते हो घर—तीसरी अवस्था आ गयी होती है।

दूसरा प्रश्न:

 

आध्यात्मिक विषयों में भी पश्चिम बहुत अतिरेक से पीड़ित जान पड़ रहा है। बहुत से विभिन्न मार्ग हैं यह तो ऐसा हुआ जैसे कि सामने चुनने को सौ खाद्य पदार्थ पड़े हों और निर्णय के लिए कोशिश की जाए कि उनमें से कौन— सा प्रकार सर्वश्रेष्ठ है। हम आपके बारे में पश्चिम को कैसे बता सकते हैं बिना ऐसा प्रतीत हुए कि जैसे आप भी बाजार में उपलब्ध एक और कॉर्नफ्लेक्स का पैकेट है?

ह संसार एक बाजार है, और इसके बाजार होने में जरा भी बुराई नहीं है। तुम बाजार के इतना विरोध में क्यों हो? बाजार तो सुंदर होता है। तुम निकल सकते हो पर्वतों की ओर विश्राम के लिए, लेकिन अंततः तुम्हें लौटकर आना ही पड़ता है बाजार में। बाजार एक वास्तविकता है। पर्वत हो सकते हैं छुट्टियों के लिए, लेकिन छुट्टियां उतनी वास्तविक नहीं होतीं जितनी कि बाजार की वास्तविकता।

तुमने देखे होंगे झेन के दस बैल वाले चित्र। सुंदर हैं वे। पहले चित्र में, बैल कहीं खो गया है। बैल है आत्मा का प्रतीक, और बैल का मालिक खोज में है। वह जाता है जंगल में, वह नहीं जान सकता कि कहां भाग गया बैल, कहौ छिपा बैठा है बैल, लेकिन वह खोजता जाता है। अगले चित्रों में वह खोज लेता है बैल के पदचिह्न। तीसरे चित्र में वह देखता है, कहीं बहुत दूर, केवल बैल की पीठ ही, वह देख सकता है उसकी पूंछ। चौथे चित्र में वह देख सकता है सारे बैल को और वह पकड़ लेता है पूंछ को। पांचवें चित्र में उसने साध लिया है बैल को, छठवें में वह बैल पर सवार हो चल देता है घर की ओर। इसी तरह चलती चली जाती है कथा। सातवें में बैल कहीं पार चला गया है, नहीं है, और आठवें में बैल और: बैल का मालिक दोनों ही खो गए हैं। नौवें चित्र में संसार फिर से प्रकट हो रहा होता है : वृक्ष, पर्वत, फूल, लेकिन तुम नहीं देख सकते बैल को या बैल के मालिक को। दसवें चित्र में बैल का मालिक फिर आ गया है और वह खड़ा है बाजार में। न ही केवल खड़ा है बाजार में, बल्कि वह पकड़े हुए है मदिरा की बोतल।

पुराने दिनों में केवल आठ चित्रों का अस्तित्व था। आठवा चित्र खाली है; कुछ भी नहीं है वहां। वह ध्यान का उच्चतम शिखर है, जहां हर चीज खो जाती है —खोजने वाला और खोज, हर चीज खो जाती है, होती है केवल शून्यता। लेकिन फिर एक बड़े झेन गुरु को लगा कि यह बात तो अधूरी है।

वर्तुल पूरा नहीं हुआ आना ही होगा वापस संसार में। पर्वत अच्छे होते हैं, लेकिन वर्तुल अपूर्ण रहता है यदि तुम पर्वतों में ही रह गए होते हो। तुम्हें आना ही होगा बाजार में। उसने दो चित्र और जोड़ दिए, और मुझे लगता है कि उसने बहुत ठीक किया। अब वर्तुल पूरा हुआ। तुम शुरू करते हो बाजार से और तुम लौट आते हो बाजार में। बाजार वही है, लेकिन तुम वही न रहे। लौट कर आना ही होता है यहां तक।

ऐसा ही हुआ है सदा ही। महावीर छोड़ गए—बारह वर्षों तक वे पर्वतों में, जंगलों में रह कर मौन में रहे। फिर अचानक एक दिन वे लौट आए बाजार में। बुद्ध चले गए थे—छ वर्षों तक वे रहे एकांत में। फिर एक दिन अचानक वे खड़े थे बाजार में और लोगों को इकट्ठा कर रहे थे, यह समझाने को कि उन्हें क्या हुआ है। जीसस पर्वतों में रहे चालीस दिन तक। लेकिन कैसे तुम सदा के लिए ही रह सकते हो पर्वतों में? —वर्तुल तो अपूर्ण रहेगा। जो कुछ भी तुम उपलब्ध करते हो पर्वतों में, वह वापस देना होता है बाजार में।

पहली बात है बाजार के प्रति विरोध मत का लेना। सारा संसार एक बाजार है। विद्वेष, विरोध अच्छा नहीं होता। और कॉर्नफ्लेक्स का डिब्बा होने में बुराई क्या है? कॉर्नफ्लेक्स बहुत अच्छे होते हैं। उनमें उतनी ही संभावना होती है बुद्धत्व की जितनी कि तुममें।

मैं कहूंगा तुमसे कुछ दिलचस्प कथाएं।

एक झेन गुरु, लिंची तौल रहा था फ्लैक्स (अलसी)। जब वह तौल रहा था फ्लैक्स तो एक साधक आ पहुंचा और पूछने लगा, ‘मैं जल्दी में हूं और मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता, लेकिन एक बात पूछनी है मुझे। बुद्धत्व क्या होता है?’ गुरु ने तो उस साधक की ओर देखा तक भी नहीं, उसने तौलना जारी रखा और बोला, ‘एक पाउंड फ्लैक्स।’ यह बात एक संकेत—सूत्र ही बन गयी है झेन में—एक पाउंड फ्लैक्स। तो एक पाउंड कॉर्नफ्लेक्स क्यों नहीं?

फ्लैक्स की भी संभावना है—बुद्धत्व की संभावना। हर चीज पवित्र और दिव्य है। जब तुम निंदा करते हो किसी चीज की, तो तुममें ही कुछ गलत होता है।

एक बार लिंची बैठा हुआ था एक पेडू के नीचे और एक व्यक्ति आकर पूछने लगा, ‘क्या किसी कुत्ते के लिए संभावना होती है बुद्ध होने की? क्या कोई कुत्ता बुद्ध हो सकता है? क्या कोई कुत्ता संभावना लिए होता है बुद्धत्व की भी?’ लिंची ने क्या किया? —वह कूद पड़ा चार पांव के बल पर और भौंकने लगा, ‘वूफ–बुफ!’ वह कुत्ता बन गया और वह बोला, ‘हा कुछ गलत नहीं, एकदम कुछ भी गलत नहीं है कुत्ता होने में।’

यही होता है सच्चे धार्मिक व्यक्ति का दृष्टिकोण कि सारा जीवन दिव्य है, बिना किसी शर्त के। बाजार में रखा कॉर्नफ्लेक्स का पैकेट होने में कुछ गलत नहीं है। इसलिए लोगों को मेरे बारे में बताने से भयभीत मत होना। और भयभीत मत हो जाना बाजार से। बाजार सदा से मौजूद रहा है और सदा रहेगा। और बाजार में कुछ भी चलता रहता है। गलत चीजें भी बेची जाएंगी; कोई उसे रोक नहीं सकता। लेकिन गलत चीजों की वजह से, जिनके पास बाजार मै बेचने को कोई ठीक चीज होती है, वे लोग भयभीत हो जाते हैं। वे सदा डर जाते हैं और वे सोचते हैं, ‘कैसे ऐसी चीज को बाजार में ले आएं जहां कि हर चीज गलत चल रही है?’ लेकिन यह बात किसी ढंग से मदद नहीं बनती, बल्कि इसके विपरीत, तुम गलत चीज के बिकने में मदद करते हो।

अर्थशास्त्र में एक नियम है जो कहता है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाजार से बाहर होने पर मजबूर कर देते हैं। यदि तुम्हारे पास एक खोटा सिक्का होता है और एक असली सिक्का होता है तो मानव मन की प्रवृत्ति होती है —पहले खोटे सिक्के को चलाने की कोशिश करने की। तुम उससे छुटकारा पाना चाहते हो; असली सिक्के को तो रख लेते हो तुम्हारी जेब में और खोटे सिक्के को चला देते हो बाजार में। इसीलिए इतने सारे खोटे सिक्के चलते रहते हैं। किसी को लाना ही पड़ता है असली सिक्के को बाजार में। और एक बार तुम असली सिक्के को बाजार में ले आते हो, तो वह असलीपन ही काम कर जाता है।

जरा सोचो तो—यदि खोटी चीजें चलती हैं, तो फिर सच्ची क्यों नहीं? लेकिन जिन लोगों के पास सच्ची चीज होती है वे सदा भयभीत होते हैं अनावश्यक समस्याओं से। बहुत से लोगों को मैं जानता हूं जो कि मेरे बारे में लोगों से कहते हुए भी डरते हैं। वे सोचते हैं, ‘जब ठीक घड़ी आएगी—तब।’ कौन जाने कब आएगी वह घड़ी? वे सोचते हैं, ‘कैसे कह सकता हूं मैं? अभी तो मेरा अनुभव भी कुछ ज्यादा नहीं!’ फिर वे सोचते हैं कि ‘यदि मेरे बारे में कुछ कहते हैं तो बात किसी प्रचार जैसी हो जाती है।’ यदि तुम टी वी या रेडियो द्वारा कुछ कहते हो, या कि तुम लेख लिखते हो अखबारों में, तो ऐसा लगता है कि तुम कुछ बेच रहे हो। यह बात सस्ती मालूम पड़ती है। लेकिन लोग जो बेच रहे हैं बुरी और झूठी चीजें, वे भयभीत नहीं हैं, इस बात से उन्हें कुछ फिक्र नहीं। उन्हें तो इसकी भी फिक्र नहीं कि पैकेट के भीतर कॉर्नफ्लेक्स हैं भी या नहीं। वे तो बस बेच रहे हैं सुंदर पैकेट, डिब्बे, लेकिन खाली। उन्हें डर नहीं है!

इसी तरह गलत लोग ठीक लोगों को चलन से बाहर कर देते हैं। उन्हें कुछ फिक्र नहीं होती कि कोई चीज सस्ती है, वे तो बस जोर से चिल्लाते रहते हैं। और निस्संदेह जब कोई जोर से चिल्लाता है, तो लोग सुनते हैं। जब कोई बहुत जोर से और इतने आत्मविश्वास से चिल्लाता है, तो लोग आ जाते हैं उसकी पकड़ में।

भयभीत मत होओ। केवल तुम्हारे भयभीत होने से ही तुम गलत चीजों को बाजार से बाहर नहीं ला सकते। उन्हें बाहर करने का एकमात्र तरीका है—ठीक चीज को ले आना। और यदि तुम्हारे पास ठीक चीज है, तो पुकारों छतों पर चढ़ कर। फिक्र मत करो; जितनी जोर से तुम चिल्ला सकते हो—चिल्लाओ। वही है एकमात्र ढंग जिससे चीजें चलती हैं संसार में।

जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से, ‘दुनिया के दूरतम कोनों तक जाओ। रूपांतरण करो लोगों का। और घर की छतों पर चढ़कर चिल्लाओ, ताकि हर कोई सुन सके। तब हर कोई जान सकता है कि सत्य क्या है।’ बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों से, ‘जाओ, और एक ही स्थान पर लंबे समय के लिए मत ठहर जाना, क्योंकि यह दुनिया बड़ी है।’ बुद्ध के वचन हैं, ‘चरैवेति, चरैवेति’ —बढ़ते जाना, बढ़ते जाना! बहुत से अभी तक बचे हैं सत्य को सुनने को। ठहर मत जाना, आराम में मत पड़ जाना—’चरैवेति! चरैवेति!’ आगे बढ़ते जाना, निरंतर आगे ही, क्योंकि पूरी पृथ्वी संदेश की प्रतीक्षा में है।

भयभीत मत होओ। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारे पास ठीक कॉर्नफ्लेक्स हैं लोगों के लिए तो— चले जाना बाजार में। हिचकना मत, साहस जुटाना, क्योंकि केवल डिब्बे ही बेचे जा रहे हैं, जब कि तुम्हारे पास तो कॉर्नफ्लेक्स हैं डिब्बे में, जो कि एकमात्र तरीका है जिससे कि खाली डिब्बे चलने से बाहर किए जा सकते हैं। और कोई—तरीका नहीं। इसमें कुछ बुरा नहीं है। बाजार एक स्वतंत्र होड़ है हर चीज के लिए। तुम्हारे पास उतना ही अवसर है जीतने का जितना कि किसी और के पास।

ये समस्यायें सदा परेशान करती हैं उन लोगों को जिनके पास कुछ होता है, वे सदा हिचकते हैं। वे हिचकते हैं, क्योंकि यदि वे कुछ कहें, तो हो सकता है लोग अस्वीकृत कर देंगे उन्हें। कौन जाने? और अच्छे लोग सदा हिचकते हैं, बुरे लोग सदा ही हठधर्मी होते हैं, अड़ियल होते हैं। इसीलिए संसार को बुरे लोगों ने जीता है—और अच्छे लोग सदा खड़े रहे हैं बाजार के बाहर, यह सोचते हुए कि ‘क्या करें और क्या न करें?’ जब तक कि वे निर्णय करते हैं, सारा बाजार भर गया होता है झूठी चीजों से।

विशेष कर पश्चिम में ऐसा ही है, क्योंकि अब पश्चिम में मनुष्य से व्यक्तिगत रूप से संपर्क बनाना असंभव हो गया है। तुम्हें सभी संप्रेषणीय प्रचार साधनों का उपयोग करना पड़ता है। बुद्ध के समय में बात बिलकुल ही दूसरी थी—बुद्ध घूमते रहते और लोगों से मिलते प्रत्यक्ष रूप से ही। अखबार नहीं थे, न ही रेडियो, न टेलीविजन। लेकिन अब लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलना मुश्किल हो गया है, विशेष कर पश्चिम में, जब तक कि तुम मास मीडिया का प्रयोग न करो। और जब तुम मास मीडिया का प्रयोग करते हो तो निस्संदेह, ऐसा मालूम पड़ता है कि ध्यान भी एक बिकाऊ पदार्थ है। तुम्हें उन्हीं शब्दावलियों का प्रयोग करना पड़ता है, तुम्हें उसी भाषा का उपयोग करना पड़ता है, तुम्हें उसी ढंग से लोगों को मनवाना पड़ता है जैसे कि दूसरे लोग दूसरी चीजों के लिए जोर दे कर राजी करवा रहे हैं। यदि तुम कहते हो कि यह ध्यान ही सब से ऊंचा ध्यान है, तो यह व्यावसायिक मालूम पडेगा, क्योंकि ऐसे बहुत हैं जो यही कर रहे हैं। वे साबुनों के बारे में कह रहे हैं कि ‘यही है साबुनों में सबसे ऊपर, यही है सुगंधियों की सुगंधि!’ एक्टेसी नाम की सेंट है। देर— अबेर कोई न कोई नाम रख ही देगा ‘सतोरी’, ‘समाधि’! वही शब्दावली, वही भाषा उपयोग करनी ही पड़ती है, और कोई उपाय नहीं है। तुम्हें उन्हीं विधियों का उपयोग करना ही पड़ता है, लेकिन इसमें कुछ गलत नहीं है।

मैं रहा पर्वतों में और मैं लौट आया हूं बाजार में। क्या तुम मेरे हाथों में मदिरा की बोतल नहीं देख सकते? अब मैं बाजार में हूं। तुम्हें साहसी होना ही होगा। जाओ और उन सारे माध्यमों का उपयोग करो जो कि उपलब्ध हैं अभी। तुम इसे बुद्ध की भांति नहीं कर सकते हो, तुम इसे जीसस की भांति नहीं कर सकते हो—गए वे दिन। यदि तुम इसे उसी भांति किए जाओ, तब तो खबर पहुंचने, फैलने में लाखों वर्ष लगेंगे। जब तक कि खबर लोगों तक पहुंचे, चीज पहले ही मर चुकी होगी। जब ताजे हों कॉर्न— फ्लेक्स, तब जल्दी करना। पहुंचो लोगों तक।

तीसरा प्रश्न:

 

क्या आप हमसे थोड़ी और बात कह सकते हैं उत्सव के बारे में? क्या दुख का उत्सव मनाना संभव होता है?

सा संभव है क्योंकि उत्सव एक दृष्टि है। दुख के प्रति भी तुम उत्सव की दृष्टि बना सकते हो। उदाहरण के लिए. तुम उदास होते हो—तो तादात्‍म मत बना लेना उदासी के साथ। साक्षी हो जाओ और आनंदित होओ उदासी के क्षण द्वारा, क्योंकि उदासी के अपने सौंदर्य हैं। तुमने कभी ध्यान नहीं दिया। तुम इतना ज्यादा तादात्म्य बना लेते हो कि तुम उदास क्षण के सौंदर्य में कभी गहरे उतरते ही नहीं।

यदि तुम ध्यान दो तो तुम हैरान होओगे इससे कि कितने खजाने तुम चूकते रहे। जरा ध्यान देना—जब तुम प्रसन्न होते हो तो तुम उतनी गहराई में कभी नहीं होते, जितने कि जब तुम उदास होते हो। उदासी की अपनी एक गहराई होती है; प्रसन्नता में एक उथलापन होता है।

जाओ और जरा ध्यान से देखो प्रसन्न व्यक्ति को। वे तथाकथित प्रसन्न व्यक्ति, वे प्लेब्बॉयज् और प्लेगर्लज् —जिन्हें तुम पाओगे क्लबों में, होटलों में, थियेटरों में —वे सदा मुस्कुरा रहे होते हैं और लबालब भरे होते हैं प्रसन्नता से। तुम सदा उन्हें पाओगे उथला, सतही। उनमें कोई गहराई नहीं होती है। प्रसन्नता तो मात्र सतह की लहरों की भांति होती है, तुम जीते हो एक उथला जीवन, ऊपर —ऊपर ही। लेकिन उदासी की एक अपनी गहराई होती है। जब तुम उदास होते हो तो यह बात सतह की लहरों की भांति नहीं होती, यह बिलकुल प्रशांत महासागर की गहराई जैसी होती है : मीलों —मीलों तक चली गयी।

गहराई में उतरो, ध्यान से देखो उसे। प्रसन्नता बड़ी शोर भरी होती है, उदासी में मौन होता है, एक अपनी शाति होती है। प्रसन्नता होगी दिन की भाति, उदासी होती है रात्रि जैसी। प्रसन्नता हो सकती है प्रकाश की भाति, उदासी होती है अंधकार जैसी। प्रकाश आता है और चला जाता है; अंधकार बना रहता है—वह शाश्वत है। प्रकाश घटता है कभी—कभी; अंधकार तो सदा ही मौजूद रहता है। यदि तुम बढ़ो उदासी में, तो ये सारी चीजें अनुभव में आएंगी। अचानक तुम सजग हो जाओगे कि उदासी किसी उपस्थिति की भांति होती है, तुम ध्यान दे रहे होते हो और देख रहे होते हो और अचानक तुम प्रसन्नता अनुभव करने लगते हो। इतनी सौंदर्यपूर्ण उदासी! —अंधकार का फूल, शाश्वत गहराई का फूल। एक विराट अतल शून्य की भाति, इतना संगीत; जरा—सा भी शोर नहीं, कोई अशाति नहीं। अनंत रूप से इसमें और— और उतर सकते हो, और इसमें से बाहर आ सकते हो नितांत ताजे और युवा होकर। यह एक विश्राम होता है।

यह निर्भर करता है दृष्टिकोण पर। जब तुम उदास होते हो, तो तुम सोचते कि कुछ बुरा हुआ है तुम्हारे साथ। यह— व्याख्या ही होती है कि कुछ बुरा घटित हुआ है तुम्हारे साथ, और फिर तुम उससे बचने की कोशिश करने लगते हो। तुम कभी उस पर ध्यान नहीं करते। फिर तुम किसी के पास चले जाना चाहते हो पार्टी में, कि क्लब में, या टी वी चला देते हो या कि रेडियो, या अखबार पढ़ने लगते हो —कुछ न कुछ तो करते हो ताकि भूल सकी। यह एक गलत दृष्टिकोण दे दिया गया है तुम्हें—कि उदासी गलत है। कुछ बुराई नहीं है उसमें, वह एक दूसरा छोर है जीवन का।

प्रसन्नता एक ध्रुव है, उदासी दूसरा ध्रुव है। आनंद एक ध्रुव है, पीड़ा दूसरा। जीवन दोनों से बनता है, और दोनों के कारण ही जीवन संतुलित होता है, लयबद्ध होता है। केवल आनंदपूर्ण जीवन में विस्तार होगा, लेकिन गहराई न होगी। केवल उदासी वाले जीवन में गहराई होगी, लेकिन उसका विस्तार न होगा। उदासी और प्रसन्नता दोनों से बना जीवन बहु— आयामी होता है; वह एक साथ सारे आयामों में बढ़ता है।

जरा ध्यान से देखना बुद्ध की प्रतिमा को या कभी झांकना मेरी आंखों में और तुम पाओगे दोनों को साथ—साथ : एक आनंद, एक शाति, और एक उदासी भी। तुम पाओगे एक आनंदपूर्णता जिसमें उदासी भी होती है, क्योंकि वही उदासी उसे एक गहराई देती है। देखो बुद्ध की प्रतिमा की तरफ—आनंदपूर्ण हैं, लेकिन उदास भी हैं! यह ‘उदास’ शब्द ही तुम्हें गलत अवधारणा दे देता है, कि कोई चीज गलत है, यह तुम्हारी अपनी व्याख्या होती है।

मेरे देखे, जीवन अपनी समग्रता में ठीक होता है। और जब तुम जीवन को उसकी समग्रता में समझते हो, केवल तभी तुम उत्सव मना सकते हो अन्यथा नहीं। उत्सव का अर्थ है जो कुछ घटता है, अप्रासंगिक है—मैं उत्सव मनाऊंगा। उत्सव के लिए कोई शर्त नहीं किन्हीं चीजों की: ‘जब मैं प्रसन्न होऊं तभी मैं उत्सव मनाऊंगा’, या कि ‘जब मैं उदास होऊंगा तो मैं उत्सव नहीं मनाऊंगा।’ उत्सव बेशर्त है, मैं उत्सव मनाता हूं जीवन का। यह उदासी, दुख ले आती है—तो ठीक, मैं इसका उत्सव मनाता हूं। जीवन आनंद लाता है —तो ठीक, मैं इसका उत्सव मनाता हूं। उत्सव मेरी दृष्टि है, जो कुछ जीवन ले आए उसके प्रति एक बेशर्त भाव।

लेकिन समस्या उठ खड़ी होती है क्योंकि जब कभी मैं शब्दों का उपयोग करता हूं तो उन शब्दों के तुम्हारे मन में कुछ अर्थ होते हैं। जब मैं कहता हूं, ‘उत्सव मनाओ’, तुम सोचते हो, तुम्हें प्रसन्न हो जाना चाहिए। कैसे कोई उत्सवमय हो सकता है जब कि कोई उदास होता है? मैं नहीं कह रहा हूं कि प्रसन्न ही होना पड़ता है उत्सव मनाने के लिए। उत्सव तो एक अहोभाव है उसके लिए जो कि जीवन तुम्हें देता है। जो कुछ भी परमात्मा तुम्हें देता है, उत्सव उसके प्रति एक अहोभाव है, वह एक धन्यवाद है। मैंने तुमसे कहा है और मैं फिर कहूंगा तुमसे

एक सूफी फकीर बड़ा गरीब, भूखा, अस्वीकृत, यात्रा का थका—मादा था। वह रात को पहुंचा एक गांव में —और गाव था कि उसे स्वीकार न करता था। गांव था परंपरावादी लोगों का और जब परंपरावादी, रूढ़िवादी मुसलमान हों तो बहुत कठिन होता है उन्हें राजी करना। उन्होंने तो उसे शरण तक न दी अपने नगर में। सर्दी की रात थी और उसे भूख लगी थी, थका हुआ था, पर्याप्त कपड़े न होने से कांप रहा था। वह नगर के बाहर बैठा हुआ था एक वृक्ष के नीचे। उसके शिष्य वहा बैठे थे बहुत उदास, निराश थे, क्रोधित भी थे। और तब वह प्रार्थना करने लगा और वह कहने लगा परमात्मा से, ‘आप अपूर्व हैं! आप सदा मुझे दे देते हैं जो कुछ भी चाहिए होता है।’ यह तो जरा ज्यादती हुई जाती थी। एक शिष्य कह उठा, ‘ठहरिए जरा, आप तो ज्यादा ही कल्पनाशील हो रहे हैं, विशेष कर इस रात। ये शब्द झूठे हैं। हमें भूख लगी है, थके हुए हैं, वस्त्र नहीं, और ठंडी रात का अंधेरा फैलता जा रहा है। चारों तरफ जंगली जानवर हैं और हमें नगर द्वारा अस्वीकृत किया गया है, हमारे पास ठहरने को जगह नहीं। तो किस बात के लिए आप धन्यवाद दे रहे हैं परमात्मा को? इससे आपका मतलब क्या है जब आप कहते कि आप सदा मुझे दे देते हैं जो कुछ भी मुझे चाहिए होता है?’ वह फकीर कहने लगा, ‘ही, मैं फिर से दोहरा दूं : परमात्मा मुझे दे देता है जो कुछ भी मुझे चाहिए। आज रात मुझे अस्वीकृति चाहिए। आज रात मुझे जरूरत है भूख की, खतरे की। अन्यथा, वह क्यों देता मुझे यह सब? जरूरत होगी। इसकी जरूरत है और मुझे अनुगृहीत होना ही होगा। वह इतनी सुंदरता से मेरी जरूरतों की देख— भाल करता है। वह सचमुच अपूर्व है!’ यही होता है दृष्टिकोण जो कि संबंधित नहीं होता स्थिति से। स्थिति प्रासंगिक नहीं होती।

उत्सव मनाओ र जो कुछ भी हो स्थिति। यदि तुम उदास होते हो, तो उत्सव मनाओ—इसलिए कि तुम उदास हो। आजमाओ इसे। जरा इसे आजमाना और तुम हैरान होओगे—बात घटित हो जाती है। तुम उदास हो? —तो नृत्य करना शुरू कर देना क्योंकि उदासी इतनी सुंदर है; तुम्हारी अंतस—सत्ता का इतना शांत फूल! नृत्य करो, आनंदित होओ, और अचानक तुम अनुभव करोगे कि उदासी तिरोहित हो रही है, एक दूरी निर्मित हो गयी है। धीरे — धीरे, तुम भूल जाओगे उदासी को और तुम उत्सव मना रहे होओगे। तुमने ऊर्जा का रूपांतरण कर दिया होता है।

यही है कीमिया : निम्न धातुओं को उच्चतर स्वर्ण में बदल देना। उदासी, क्रोध, ईर्ष्या—निम्न चीजें स्वर्ण में बदली जा सकती हैं, क्योंकि वे बनी होती हैं उन्हीं तत्वों से जिनसे कि स्वर्ण। सोने और लोहे के बीच कोई अंतर नहीं होता है क्योंकि उनमें वही तत्व होते हैं, वही इलेक्ट्रान्स होते हैं।

क्या तुमने कभी सोचा है इसके बारे में कि कोयले का एक टुकड़ा और दुनिया का बड़े से बड़ा हीरा बिलकुल एक ही हैं? उनमें कुछ अंतर नहीं। वस्तुत: कोयला ही लाखों वर्षों तक धरती में दब—दब कर हीरा हो जाता है। मात्र दबाव का ही अंतर होता .है, लेकिन वे दोनों कार्बन ही हैं, दोनों बनते हैं एक जैसे तत्वों से ही। निम्न को बदला जा सकता है उच्चतर में। निम्न चीज में किसी चीज का कोई अभाव नहीं। केवल एक पुनर्संयोजन, पुनर्गठन की आवश्यकता होती है। यही है कीमिया का पूरा अर्थ। जब तुम उदास हो, तो उत्सव मनाना, और तुम उदासी को एक नया ही रूप दे रहे होते हो। तुम उदासी में कोई चीज पहुंचा रहे होते हो जो कि उसे बदल देगी। तुम उसे उत्सवमय बना रहे होते हो। क्रोधित हो?—तो सुंदर नृत्य में डूब जाना। शुरू में यह क्रोधमय होगा। तुम शुरू करोगे नृत्य करना और नृत्य क्रोधमय, आक्रामक, हिंसात्मक होगा। धीरे — धीरे, वह मधुर और शांत होता जाएगा। अचानक ही तुम भूल चुके होओगे क्रोध को, तो ऊर्जा बदल जाती है नृत्य में।

लेकिन जब तुम क्रोध करते हो, तो तुम सोच ही नहीं सकते नृत्य की बात। जब तुम उदास होते हो तो तुम नहीं सोच सकते गाने की बात। क्यों नहीं अपनी उदासी को एक गान बना लेते पड गाओ, बजाओ अपनी बांसुरी। शुरू में स्वर उदास होंगे, लेकिन उदास स्वर में गलत कुछ नहीं है। क्या तुमने सुना है, दोपहर में कभी जब हर चीज तप रही होती है, गरमी में जल रही होती है, चारों ओर आग ही आग होती है, अचानक आम्र —कुंज में तुम सुन सकते हो कोयल की कूक उठ रही है! शुरू में, स्वर उदास होता है। वह बुला रही होती है अपने प्रिय को, अपने प्रीतम को, इस भरी दुपहरी में। चारों तरफ हर चीज आग भरी होती है, और वह तड़प रही होती है प्रेम के लिए। बहुत उदास स्वर होता है—लेकिन सुंदर। धीरे — धीरे उदास स्वर बदलने लगता है प्रसन्न स्वर में। दूसरे उपवन से प्रिय उत्तर देना शुरू कर देता है। अब तपी हुई दोपहर न रही हर चीज शीतल हो रही होती है हृदय में। अब स्वर अलग ही होता है। जब प्रेमी उत्तर देता है, तो हर चीज बदल जाती है। यह एक कीमियापूर्ण बदलाहट होती है।

तुम उदास हो?—तो गीत गाने लगना, प्रार्थना करना, नृत्य करना। जो कुछ तुम कर सकते हो, करना और धीरे — धीरे निम्न पदार्थ बदल जाता है उच्चतर पदार्थ में—स्वर्ण में। एक बार तुम जान लेते हो कुंजी को तो तुम्हारा जीवन फिर वही न रहेगा। तुम खोल सकते हो ताला किसी भी द्वार का। और यह है कुंजियों की कुंजी : हर चीज का उत्सव मनाओ।

मैंने सुना है तीन चीनी फकीरों के बारे में। कोई नहीं जानता उनके नाम। वे जाने जाते थे केवल ‘तीन हंसते हुए संतों’ के रूप में, क्योंकि उन्होंने कभी कुछ किया ही नहीं था, वे केवल हंसते रहते थे। वे एक नगर से दूसरे नगर की ओर बढ़ जाते, हंसते हुए। वे खड़े हो जाते बाजार में और खूब जोर से हंसते। सारा बाजार उन्हें घेरे रहता। सारे लोग आ जाते। दुकानें बंद हो जातीं और ग्राहक भूल जाते कि वे आए किसलिए थे। ये तीनों आदमी सचमुच सुंदर थे —हंसते और उनके पेट हिलते जाते। और फिर यह बात संक्रामक बन जाती और दूसरे हंसना शुरू कर देते। फिर सारा बाजार हंसने लगता। उन्होंने बदल दिया होता बाजार की गुणवत्ता को, स्वरूप को ही। और यदि कोई कहता कि ‘कुछ कहो हम से’ तो वे कहते, ‘हमारे पास कहने को कुछ है नहीं। हम तो बस हंस पड़ते हैं और बदल देते हैं गुणधर्म ही।’ जब कि अभी थोड़ी देर पहले यह एक असुंदर जगह थी जहां कि लोग सोच रहे थे केवल रुपये —पैसे के बारे में ही, ललक रहे थे धन के लिए, लोभी, धन ही एकमात्र वातावरण था हर तरफ—अचानक ये तीनों पागल आदमी आ पहुंचते हैं और वे हंसने लगते, और बदल देते गुणवत्ता सारे बाजार की ही। अब कोई ग्राहक न था। अब वे भूल चुके थे कि वे खरीदने और बेचने आए थे। किसी को लोभ की फिक्र न रही। वे हंस रहे थे और नाच रहे थे इन तीन पागल आदमियों के आस—पास। कुछ पलों के लिए एक नयी दुनिया का द्वार खुल गया था!

वे घूमे सारे चीन में, एक जगह से दूसरी जगह, एक गांव से दूसरे गांव, बस लोगों की मदद कर रहे थे हंसने में। उदास लोग, क्रोधित लोग, लोभी लोग, ईर्ष्यालु लोग वे सभी हंसने लगे उनके साथ। और बहुतों ने अनुभव की कुंजी—तुम रूपांतरित हो सकते हो।

फिर, एक गांव में ऐसा हुआ कि उन तीनों में से एक मर गया। गांव के लोग इकट्ठे हुए और वे कहने लगे, ‘अब तो मुश्किल आ पड़ेगी। अब हम देखेंगे कि कैसे हंसते हैं वे। उनका मित्र मर गया है, वे तो जरूर रोके।’ लेकिन जब वे आए, तो दोनों नाच रहे थे, हंस रहे थे, और उत्सव मना रहे थे मृत्यु का। गाव के लोगों ने कहा, ‘यह तो बहुत ज्यादती हुई। यह असभ्यता है। जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो हंसना और नाचना अधर्म होता है।’ वे बोले, ‘तुम नहीं जानते कि क्या हुआ। हम तीनों सदा ही सोचते रहते थे कि सब से पहले कौन मरेगा। यह आदमी जीत गया है, हम हार गए। सारी जिंदगी हंसते रहे उसके साथ। तो हम उसे अंतिम विदाई किसी और चीज के साथ कैसे दे सकते हैं? —हमें हंसना ही है, हमें आनंदित होना ही है, हमें उत्सव मनाना ही है। यही एक मात्र विदाई संभव है उस व्यक्ति के लिए जो जीवन भर हंसता रहा है। और यदि हम नहीं हंसते, तो वह हंसेगा हम पर और वह सोचेगा, अरे नासमझों! तो तुम फिर जा फंसे जाल में? हम नहीं समझते कि वह मर गया है। हंसी कैसे मर सकती है? जीवन कैसे मर सकता है?’

हंसना शाश्वत चीज है, जीवन शाश्वत है, उत्सव चलता ही रहता है। अभिनय करने वाले बदल जाते हैं, लेकिन नाटक जारी रहता है। लहरें परिवर्तित होती हैं, लेकिन सागर बना रहता है। तुम हंसते, तुम बदलते और कोई दूसरा हंसने लगता, लेकिन हंसना तो जारी रहता है। तुम उत्सव मनाते हो, कोई और उत्सव मनाता है, लेकिन उत्सव तो चलता ही रहता है। अस्तित्व सतत प्रवाह है, वह सब कुछ समाए चलता है, उसमें एक पल का अंतराल नहीं होता। लेकिन गांव के लोग नहीं समझ सकते थे और वे इस हंसी में उस दिन तो शामिल नहीं हो सकते थे।

फिर देह का अग्नि—संस्कार करना था, और गांव के लोग कहने लगे, ‘हम तो इसे स्थान कराएंगे जैसे कि धार्मिक कर्मकांड नियत होते हैं।’ लेकिन वे दोनों मित्र बोले, ‘नहीं, हमारे मित्र ने कहा है कि कोई धार्मिक अनुष्ठान मत करना और मेरे कपड़े मत बदलना और मुझे स्नान मत कराना। जैसा मैं हूं तुम मुझे वैसा ही रख देना चिता की आग पर। इसलिए हमें तो उसके निर्देशों को मानना ही पड़ेगा।’

और तब, अचानक ही, एक बड़ी घटना घटी। जब शरीर को आग दी जाने लगी, तो वह बूढ़ा आदमी आखिरी चाल चल गया। उसने बहुत—से पटाखे छिपा रखे थे कपड़ों के नीचे, और अचानक

दीपावली हो गयी! तब तो सारा गांव हंसने लगा। ये दोनों पागल मित्र नाच ही रहे थे, फिर तो सारा गांव ही नाचने लगा। यह कोई मृत्यु न थी, यह नया जीवन था।

कोई मृत्यु मृत्यु नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक मृत्यु खोल देती है एक नया द्वार—वह एक प्रारंभ होती है। जीवन का कोई अंत नहीं, सदा एक नया प्रारंभ होता है, एक पुनर्जीवन।

यदि तुम अपनी उदासी को बदल देते हो उत्सव में, तो तुम अपनी मृत्यु को नए जीवन में बदलने में भी सक्षम हो जाओगे। तो सीख लो यह कला जब कि समय अभी बाकी है। जब तक निचले तल की चीजों को उच्चतर चीजों में बदलना न सीख लो उसके पहले मत आने दो मृत्यु को। क्योंकि अगर तुम बदल सकते हो उदासी को, तो तुम बदल सकते हो मृत्यु को। यदि तुम बेशर्त उत्सवमय हो सकते हो, तो जब मृत्यु आये तब तुम हंस पाओगे, तुम उत्सव मना पाओगे, तुम हो जाओगे प्रसन्न और तब तुम मनाए जा सकते हो उत्सव, मृत्यु तुम्हें नहीं मार सकती। बल्कि इसके विपरीत तुमने मार दिया होता है मृत्यु को। लेकिन ऐसा करना प्रारंभ करो, इसे आजमाओ। गंवाने को कुछ है नहीं। लेकिन लोग इतने मूढ़ हैं कि जब गंवाने को कुछ न हो, तो भी वे आजमाएंगे नहीं। गंवाने को है क्या?

यदि तुम उदास हो, तो मैं कहता हूं, ‘उत्सव मनाओ, नाचो, गाओ।’ तुम गंवाओगे क्या? ज्यादा से ज्यादा उदासी खो जाएगी और कुछ नहीं। लेकिन तुम सोचते हो, ऐसा असंभव है। और यह विचार ही कि ऐसा असंभव है, तुम्हें उसे आजमाने न देगा। और मैं कहता हूं, यह दुनिया की सबसेज्यादा आसान चीजों में से एक चीज है, क्योंकि ऊर्जा तटस्थ होती है। वही ऊर्जा बन जाती है उदासी; वही ऊर्जा बन जाती है क्रोध, वही ऊर्जा बन जाती है कामवासना, वही ऊर्जा बन जाती है करुणा; वही ऊर्जा बन जाती है ध्यान। ऊर्जा एक ही है। तुम्हारे पास बहुत तरह की ऊर्जाएं नहीं होती हैं। तुम्हारे पास ऊर्जा के बहुत सारे अलग— अलग खाने नहीं होते, जहां कि इस ऊर्जा पर लेबल लग जाए ‘उदासी’, और उस ऊर्जा पर लेबल लग जाए ‘प्रसन्नता’। ऊर्जाएं खानों में बंटी नहीं होतीं, वे अलग नहीं होतीं। तुममें कोई बंधे —बंधाए कोष्ठ अस्तित्व नहीं रखते हैं, तुम तो बस एक हो। यही एक ऊर्जा उदासी बन जाती है, यही एक ऊर्जा क्रोध बन जाती है। यह तुम पर निर्भर करता है।

तुम्हें रहस्य सीखना पड़ता है, यह कला कि कैसे ऊर्जाओं को रूपांतरित करना होता है। तुम तो केवल निर्देश देते हो और वही ऊर्जा गतिमान होने लगती है। और जब संभावना है क्रोध को आनंद में बदलने की, लोभ को करुणा में बदलने की, ईर्ष्या को प्रेम में बदलने की तो तुम नहीं जानते तुम क्या खो रहे हो। तुम नहीं जानते तुम क्या चूक रहे हो। तुम यहां इस विश्व में होने का सारा सार ही चूक रहे हो। आजमाओ इसे।

चौथा प्रश्न :

 

आपके प्रवचनों को सुनते हुए अब दो वर्ष हो चले हैं मेरी समझ में आता है कि आप अपने दिये हुए करीब— करीब प्रत्येक वक्तव्य का खंडन कर देते हैं क्या सचमुच कोई कुछ कर सकता है सिवाय ध्यान से देखने के और प्रतीक्षा करने के?

हां, मैं खंडन करता हूं प्रत्येक कथन का, प्रत्येक शब्द का जो मैं बोलता हूं। मेरे पास सिखाने को कोई दर्शन नहीं, बल्कि मेरे पास अस्तित्व ही है प्रत्यक्ष दिखा देने को। यहां तुम्हें कोई सिद्धांत नहीं सिखाया जा रहा है। यहां तुम्हें कोई धर्म —सिद्धांत नहीं दिया जा रहा है। मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। मैं उतना ही विरोधात्मक हूं जितना कि स्वयं अस्तित्व। मेरे पास कोई चुनाव नहीं है। अस्‍तित्‍व विरोधात्मक है : उसमें होते हैं रात और दिन, गर्मी और सर्दी, शैतान और ईश्वर—उसमें होता है सब ‘कुछ। और मैं अब हूं ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा, मैं एक झरोखा हूं अस्तित्व का। मुझे होना ही पड़ता ते पर रोधात्मक। और जो मैं कहता हूं यदि तुम उसे सोचते ही जाते हो, तो तुम हर दिन और— और उलझन में पडोगे। जो मैं कहता हूं उस पर ज्यादा ध्यान मत देना। जो मैं हूं तुम अपना ध्यान उस पर दो।

मेरे कथन विरोधाभासी हो सकते हैं —यदि तुम्हें विरोधाभास नहीं दिखाई पड़ते तो वह इसी कारण कि तुम मुझे प्रेम करते हो। वे विरोधाभासी हैं, लेकिन मैं नहीं हूं विरोधाभासी। दोनों अस्तित्व रखते हैं मुझमें, लेकिन मुझमें कोई असंगति नहीं है। इसी ओर ध्यान देना है तुम्हें, इसे ही समझना है गले। एक गहरी सुसंगति अस्तित्व रखती है मुझ में, मैं किसी भी द्वंद्व में नहीं हूं। यदि कोई द्वंद्व होता तो मैं एकदम पागल हो गया होता। इतने सारे विरोधाभासों के साथ कैसे कोई व्यक्ति जीए चला जा सकता है २: कैसे कोई व्यक्ति जी सकता है, सांस ले सकता है?

वे मुझमें कोई विसंगति निर्मित नहीं करते। हर चीज का ताल—मेल बैठा हुआ है। बल्कि इसके विपरीत, वे मदद देते हैं सम —स्वरता को, वे उसे ज्यादा समृद्ध बना देते हैं। यदि मैं एक ही स्वर का व्यक्ति होता, बस दोहरा रहा होता उसी स्वर को बार—बार, तो मैं अविरोधी होता। यदि तुम्हें चाहिए अविरोधी व्यक्ति, एकदम एक—स्वरीय व्यक्ति, तो जाओ जे कृष्णमूर्ति के पास। वे बिलकुल अविरोधी हैं। चालीस वर्षों से उन्होंने एक बार भी स्वयं का खंडन नहीं किया। लेकिन मैं समझता हूं इसीलिए बड़ी समृद्धि खो गयी है, बहुत —सी संपन्नता जो जीवन में होती है, खो गयी है। वे तर्कयुक्त हैं, मैं अतर्क्य हूं। वे हैं बाग—बगीचे की भांति हर चीज. सुसंगत है, क्यारियों में उगायी हुई है, तर्कयुक्त हैं, बौद्धिक हैं, मैं हूं स्वच्छंद वन की भांति कोई चीज उगायी नहीं गयी है।

यदि तुम तर्क की फिक्र बहुत ज्यादा करते हो, तो मुझसे ज्यादा कृष्णमूर्ति को चुनना बेहतर है। लेकिन यदि स्वच्छंद के लिए, बेतरतीब वन के लिए तुम्हारे पास कोई संवेदना है, केवल तभी तुम्हारा ताल—मेल बैठ पाएगा मेरे साथ। मैं तुम्हें खोल देता हूं उस सबके प्रति जो कि जीवन के पास है। मैं नहीं चुनता कि क्या कहना है, मैं नहीं चुनता कि क्या —क्या सिखाना है——मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं तो वही कह देता हूं जो कुछ भी घटता है उसी क्षण में। मैं नहीं जानता कि अगला वाक्य कौन—सा होगा। जो कुछ हो, मैं उसे पूरी निश्चयात्मकता से कह दूंगा। मेरे पास कोई पूर्व —नियोजित नमूना नहीं है। मैं उतना ही विरोधात्मक हूं जितना कि जीवन। और विरोधात्मक होने, सामंजस्य—रहित होने का सारा सार ही यही है कि तुम किसी सिद्धांत से चिपको नहीं। यदि मैं अविरोधी हू तो तुम चिपकोगे।

कृष्णमूर्ति के पीछे चलने वाले हैं, वे चिपक जाते हैं उनके शब्दों से, सिद्धांत की भांति। मैंने देखा है बहुतेरे बुद्धिमान लोगों को, बहुत ज्यादा बौद्धिक लोग जो सुनते आ रहे हैं उन्हें तीस—चालीस वर्षों से। वे आते हैं मेरे पास और वे कहते हैं. ‘कुछ हुआ नहीं। हमने सुना है कृष्णमूर्ति को, और जो कुछ वे कहते हैं, सच लगता है, ठीक मालूम पड़ता है, बिलकुल ठीक बात, लेकिन तब भी कुछ घटता नहीं। बौद्धिक रूप से समझते हैं उन्हें, लेकिन कुछ भी घटता नहीं।’ मैं कहता हूं उनसे, ‘यदि तुम सुनते रहे हो उन्हें चालीस वर्ष और बौद्धिक रूप से तुम अनुभव करते हो कि वे ठीक हैं लेकिन कुछ घटता नहीं, तो गिरा देना उस बुद्धिमानी को और चले आना मेरे पास। बुद्धि के हिसाबों से बिलकुल पार हुए व्यक्ति के संग हो लेना। यदि बुद्धि के द्वारा कुछ घटित नहीं होता है, तो हो सकता है वह अबुद्धि के द्वारा घटित हो सकता हो।’ तुरंत वे कहते हैं, ‘लेकिन आप तो विरोधात्मक हैं! कभी आप यह कहते, कभी आप वह कहते, और हमें पता नहीं कि करना क्या है।’

मैं सचमुच नहीं चाहता कि तुम कुछ करो, मैं चाहता हूं तुम होओ। मैं तुम्हें बौद्धिक नहीं बनाना चाहता। वे बहुतेरे हैं; संसार भरा पड़ा है उनसे और वे जीते हैं बड़ी दुखी जिंदगी। तुम्हें बौद्धिकों से ज्यादा दुखी लोग नहीं मिल सकते। वे तो जीते —जी आत्महत्या करते हैं। वे आत्मघाती, अर्थहीन जीवन जीते हैं। अर्थ अतर्क्य होता है, जीवन की सच्ची कविता विरोधात्मक होती है। कुछ नहीं किया जा सकता इसके लिए। यही जीवन का स्वभाव है, यही है अस्तित्व का ढंग।

मैं तुम्हें किसी निश्चित दृष्टिकोण में प्रशिक्षित करने को नहीं हूं यहां। इसीलिए मैं तुम्हारे साथ कृष्णमूर्ति की बात कर सकता हूं। वे भी ठीक हैं, लेकिन ठीक होने के केवल एक दृष्टिकोण से जुड़े हैं। मैं तुमसे बात करता हूं गुरजिएफ की : वे भी ठीक हैं, लेकिन ठीक होने का केवल एक दृष्टिकोण लिए हैं। और वे विरोधाभासी हैं; गुरजिएफ विश्वास करते हैं विधि में, समूह में, निश्चित ढंग में, शिक्षा में, प्रशिक्षण में, अनुशासन में, बहुत कड़े अनुशासन में। कृष्णमूर्ति किसी विधि में विश्वास नहीं करते—न ध्यान में, न समूह में, न गुरु में, न शिष्यत्व में। मैं कहता हूं तुमसे कि दोनों ठीक हैं, लेकिन दोनों केवल आशिक रूप से ही ठीक हैं। एक साथ वे बनते हैं संपूर्ण।

जीवन इतना विशाल है कि न तो कृष्‍णमूर्ति और न ही गुरजिएफ उसे एक व्यवस्था में ला सकते हैं। जीवन इतना विशाल है कि कोई समाप्ति नहीं ला सकता उसकी। सारे दृष्टिकोण उसमें समा सकते हैं, विपरीत दृष्टिकोण भी, और वे भी सत्य होते हैं। लोग हैं जिन्होंने पाया है विधियों द्वारा, गुरुओं द्वारा; और लोग हैं जिन्होंने पाया है बिना गुरुओं के, बिना विधियों के। ऐसे लोग हैं जो बाधित हुए हैं गुरुओं के द्वारा और विधियों के द्वारा, और ऐसे लोग हैं जो बाधित हुए हैं इस शिक्षा से कि गुरु की कोई जरूरत नहीं और ध्यान की कोई जरूरत नहीं, किसी विधि—विधान की कोई जरूरत नहीं। कई तरह के लोग हैं, और यह अच्छा है। अनेकरूपता है। तो कोई सिद्धांत सत्य नहीं हो सकता। बहुत थोड़े —से लोगों के लिए यह बात सत्य हो सकती है। लेकिन दूसरे सब लोगों के लिए यह बात असत्य होगी। इसलिए इतने सारे सिद्धांत अस्तित्व रखते हैं संसार में। बुद्ध हैं, जीसस हैं, मोहम्मद हैं : ऐसे बिलकुल ही अलग— अलग लोग हैं, और सभी सत्य हैं।

मैं प्रयत्न कर रहा हूं एक नितांत नए प्रयोग का. तुम सभी को एक साथ इकट्ठा कर देने का। यह स्वयं में एक अनुशासन होगा तुम्हारे लिए—ऐसा ही है। यदि तुम मुझे सुन रहे हो कई वर्षों से, तो यह अनुशासन ही है। यह एक ध्यान हुआ। मैं तुम्हें दे देता हूं एक दृष्टिकोण मैं बोलूंगा पतंजलि पर, तो मैं तुम्हें दे दूंगा एक दृष्टिकोण और मैं एक ढांचा निर्मित कर दूंगा तुममें। अगले ही दिन मैं बोलने लगूंगा तिलोपा पर और मैं गिरा दूंगा वह ढांचा।

यह बात तुम्हारे लिए पीड़ादायक है क्योंकि तुम चिपकने लगते हो। जब तुम बनाते हो एक ढांचा, तो तुम उससे चिपकने लग जाते हो। जिस क्षण मैं देखता हूं कि तुमने सिद्धांत के साथ चिपकना शुरू कर दिया है, तो तुरंत मुझे विपरीत को बीच में लाना पड़ता है उन्हें मिटा देने को।

कई बार तुम बनाओगे घर, और कई बार मैं तोड़ दूंगा उसे। कई बार तुम अनुभव करोगे कि एक सुव्यवस्था घट गई है, और मैं फिर बना दूंगा अव्यवस्था। इसमें अर्थ क्या होगा? अर्थ यह है कि एक दिन तुम जागरूक हो जाओगे, तुम सुनोगे मुझे लेकिन फिर भी तुम कोई सुव्यवस्था न बनाओगे, तुम कोई ढांचा खड़ा न करोगे। क्योंकि सार ही क्या रहा यदि मैं उसे मिटा ही दूंगा अगले दिन? तुम बस सुनोगे मुझे —शब्दों, सिद्धांतों या धर्म — सिद्धांतों से चिपके बगैर ही। जिस दिन तुम सुन सकते हो मुझे तुम्हारे भीतर कोई ढांचा बनाए बिना और मैं देखता हूं कि तुमने मुझे सुना है और वहा शून्यता है, तो मैंने पूरी कर दी बात।

वर्षों तक मुझे सुनना तुम्हें ले आएगा इस बिंदु तक। तुम्हें आना ही पड़ेगा इस तक, नहीं तो अर्थ क्या है? तुम लाने लगते हो एक सुव्यवस्था, एक अनुशासन, जब तक कि वह तैयार होता है, तो मैं आ पहुंचता हूं और मिटा देता हूं उसे।

एक तिब्बती कथा है मारपा के विषय में। उसके गुरु ने उससे घर बनाने को कहा, अकेले ही, बिना किसी की मदद के। गांव से ईंटों और पत्थरों को मठ तक लाना कठिन था। चार या पांच मील की दूरी थी। मारपा ने हर चीज अकेले ही ढोई, ऐसा करना ही था। और बनाना था तिमजला मकान, तिब्बत में उन दिनों जो बड़े से बड़ा बनाया जा सकता था। उसने दिन—रात कड़ी मेहनत की। अकेले ही करनी थी उसे हर चीज। वर्षों बीत गए, घर तैयार हो गया, और मारपा लौट आया खुशी—खुशी। उसने गुरु के चरणों में झुक कर प्रणाम किया और बोला, ‘घर तैयार है।’ गुरु ने कहा, ‘अब आग लगा दो उसमें।’ मारपा गया और जला दिया वह घर। सारी रात और सारे अगले दिन घर जलता रहा। सांझ तक कुछ न बचा था। मारपा गया, झुका, प्रणाम किया और बोला, ‘जैसा किं आपने आदेश दिया था, घर जला दिया गया है।’ गुरु ने देखा उसकी तरफ और बोला, ‘कल सुबह फिर से शुरू कर दो। एक नया घर बनाना होगा।’ और कहा जाता है कि ऐसा सात बार घटित हुआ। मारपा का हो चला, वही बात फिर—फिर करते हुए ही। वह बना देता घर— और वह बहुत ज्यादा कुशल हो गया धीरे — धीरे। वह ज्यादा जल्दी घर बनाने लगा, कम समय में ही। हर बार जब घर तैयार हो जाता, गुरु कह देता, जला दो उसे। जब घर सातवीं बार जल गया, तो गुरु ने कहा, ‘ अब कोई जरूरत नहीं।’

यह एक कथा है। शायद ऐसा न भी हुआ हो, लेकिन यही तो मैं कर रहा हूं तुम्हारे साथ। जिस क्षण तुम सुनते हो मुझे तो तुम भीतर एक ‘घर’ बनाना शुरू कर देते हो सिद्धातों का ढांचा, एक सुसंगत जोड़, जीने का एक दर्शन, अनुसरण करने का एक सिद्धांत, एक नक्शा जिस क्षण मैं देखता हूं कि घर तैयार है तो मैं गिराने लगता हूं उसे। और ऐसा मैं करूंगा सात बार, और यदि जरूरत हुई, तो सत्तर बार। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं उस क्षण की जब तुम सुनोगे और तुम इकट्ठा न करोगे शब्दों को। तुम सुनोगे, पर तुम सुनोगे मुझे, उसे नहीं जो कि मैं कहता हूं। तुम सुनोगे सार—तत्व को, उसे धारण करने वाले पात्र को नहीं; शब्दों को नहीं बल्कि शब्दविहीन संदेश को। धीरे — धीरे ऐसा होगा ही। कितनी देर तक तुम मकान बनाए जा सकते हो, यह खूब जानते हुए कि उसे गिराना ही होगा? यही अर्थ है मेरी सारी विरोधी बातों का।

कृष्णमूर्ति ने भी, जो कि कहते हैं किसी सिद्धांत की जरूरत नहीं, लोगों में एक सिद्धांत निर्मित कर दिया है, क्योंकि वे विरोधात्मक नहीं हैं। उन्होंने लोगों में उतार दिया है बड़े गहरे में सिद्धांत। मैंने बहुत

तरह के लोग देखे हैं, लेकिन कृष्णमूर्ति के अनुयायियों जैसे नहीं देखे। वे चिपक जाते हैं, बिलकुल चिपक ही गए हैं वे, क्योंकि वह आदमी बड़ा अविरोधी है। चालीस वर्षों से वह कह रहा है वही बात, बार —बार कह रहा है। अनुयायियों ने बना ली हैं गगनचुंबी इमारतें। चालीस वर्ष में निरंतर इसी में बढ़ते, उनकी इमारत बढ़ती ही जाती है, और— और आगे ही आगे बढ़ती जाती है।

मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगा। मैं चाहता हूं, तुम शब्दों से संपूर्णतया खाली हो जाओ। मेरा सारा प्रयोजन ही यही है तुमसे बात करने का। एक दिन तुम जान जाओगे कि मैं बोल रहा हूं और तुम ढांचा नहीं बना रहे हो। यह भली— भांति जानते हुए कि मैं खंडन कर दूंगा उसका जो कुछ भी मैं कह रहा हूं तुम चिपकते नहीं हो फिर। यदि तुम नहीं चिपकते, यदि तुम शून्य ही हुए रहते हो, तो तुम मुझे सुन पाओगे, न कि उसे जो कि मैं कहता हूं। और संपूर्णतया अलग ही बात है उस सत्ता को सुनना जो कि मैं हूं उस अस्तित्व को सुनना जो कि बिलकुल अभी घट रहा है, इसी क्षण घट रहा है।

मैं तो केवल एक झरोखा हूं तुम देख सकते हो मुझसे और उस पार का कुछ खुल जाता है। झरोखे की ओर मत देखो, उसमें से देखो। मत देखना झरोखे की चौखट की ओर। मेरे सारे शब्द झरोखे की चौखट हैं उनमें से उनके पार देखना। भूल जाना शब्दों को और चौखट के ढांचे को—और शब्दातीत, कालातीत कुछ मौजूद होता है, आकाश मौजूद होता है। यदि तुम चिपक जाते हो चौखट से, तो कैसे, कैसे पाओगे तुम पंख? इसीलिए मैं शब्दों को गिराता जाता हूं ताकि तुम चिपको नहीं ढांचे से। तुम्हें पंख पाने ही हैं। तुम्हें गुजरना होगा मुझसे, लेकिन तुम्हें जाना होगा मुझसे दूर। तुम्हें गुजरना होगा मुझमें से, लेकिन तुम्हें भूल जाना होगा मुझे पूरी तरह से। तुम्हें गुजर जाना है मुझमें से, लेकिन पीछे देखने की कोई जरूरत नहीं। एक विशाल आकाश मौजूद है। जब मैं विपरीत बात करता हूं तो मैं तुम्हें दे देता हूं एक स्वाद उस विशालता का।

बहुत आसान होता तुम्हारे लिए, यदि मैं एक ही बात को बार—बार कहता हुआ, तुम्हें एक ही सिद्धांत से फिर —फिर अनुकूलित करता हुआ एक स्वर का आदमी होता। तुम ज्यादा प्रसन्न हो गए होते, लेकिन वह प्रसन्नता नासमझी भरी होती, क्योंकि तब तुम कभी तैयार न हुए होते आकाश में उड़ान भरने को।

मैं तुम्हें नहीं चिपकने दूंगा ढांचे से, मैं गिराता जाऊंगा ढांचे को, इसी तरह मैं तुम्हें धकेल देता हूं अज्ञात की ओर। सारे शब्द ज्ञात से आते हैं। और सारे सिद्धांत ज्ञात से आते हैं। सत्य अज्ञात होता है, और सत्य को कहा नहीं जा सकता है। और जो कुछ कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं हो सकता।

आज इतना ही।

ओशो— एक परिचय

त्य की व्यक्तिगत खोज से लेकर ज्वलंत सामाजिक व राजनैतिक प्रश्नों पर ओशो की दृष्टि उनको हर श्रेणी से अलग अपनी कोटि आप बना देती है। वे आंतरिक रूपांतरण के विज्ञान में क्रांतिकारी देशना के पर्याय हैं और ध्यान की ऐसी विधियों के प्रस्तोता हैं जो आज के गतिशील जीवन को ध्यान में रख कर बनाई गई हैं।

अनूठे ओशो सक्रिय ध्यान इस तरह बनाए गए हैं कि शरीर और मन में इकट्ठे तनावों का रेचन हो सके, जिससे सहज स्थिरता आए व ध्यान की विचार रहित दशा का अनुभव हो।

ओशो की देशना एक नये मनुष्य के जन्म के लिए है, जिसे उन्होंने ‘ज़ोरबा दि बुद्धा ‘ कहा है— जिसके पैर जमीन पर हों, मगर जिसके हाथ सितारों को, छू सकें। ओशो के हर आयाम में एक धारा की तरह बहता हुआ वह जीवन—दर्शन है जो पूर्व की समयातीत प्रज्ञा और पश्चिम के विज्ञान और तकनीक की उच्चतम संभावनाओं को समाहित करता है। ओशो के दर्शन को यदि समझा जाए और अपने जीवन में उतारा जाए तो मनुष्य—जाति में एक क्रांति की संभावना है।

ओशो की पुस्तकें लिखी हुई नहीं हैं बल्कि पैंतीस साल से भी अधिक समय तक उनके द्वारा दिए गए तात्कालिक प्रवचनों की रिकार्डिंग से अभिलिखित हैं।

लंदन के ‘संडे टाइम्स’ ने ओशो को ‘बीसवीं सदी के एक हजार निर्माताओं ‘ में से एक बताया है और भारत के ‘संडे मिड—डे’ ने उन्हें गांधी। नेहरू और बुद्ध के साथ उन दस लोगों में रखा है, जिन्होंने भारत का भाग्य बदल दिया।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3)

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पतंजलि—(योग—सूत्र)

भाग—तीन

(‘योग: दि अल्‍फा एक दि ओगेगा’ शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गए सौ अमृत प्रवचनों में सक तृतीय बीस प्रवचनों का हिंदी अनुवाद)

र्म की जड़ें साधना में है, योग में है। योग के अभाव में साधु का जीवन या तो मात्र अभिनय हो सकता है। या फिर दमन हो सकता है। दोनों ही बातें शुभ नहीं है।

योग न भोग है, न दमन है। वह तो दोनों जागरण है। अतियों के द्वंद्व में से किसी को भी नहीं पकड़ना है। द्वंद्व का कोई भी पक्ष द्वंद्व के बाहर नहीं है। उसके बाहर जाना उनमें से किसी को भी चून कर नहीं हो सकता। जो उनमें से किसी को भी चुनता है और पकड़ता है। वह उसके द्वारा ही चुन और पकड़ लिया जाता है।

योग किसी को पकड़ना नहीं है। वरन समस्‍त पकड़ को छोड़ना है। किसी के पक्ष में किसी को नहीं छोड़ना है। बस बिना किसी पक्ष के, निष्‍पक्ष ही सब पकड़ छोड़ देनी है। पकड़ ही भूल है। वह कुएं में यां खाई में गिरा देती है। वह अतियों में द्वंदों में और संघर्षों में ले जाती है। जबकि मार्ग वहां है, जहां कोई अति नहीं है। जहां दुई नहीं है। जहां कोई संघर्ष नहीं है। चुनाव न करे वरन चुनाव करने वाली चेतना में प्रतिष्‍ठित हों। द्वंद्व में न पड़े, वरन द्वंद्व को देखने वाले ‘ज्ञान’ में स्‍थिर हों। उसमें प्रतिष्‍ठा ही प्रज्ञा है। और वह प्रज्ञा ही प्रकाश में जाने का द्वार है। वह द्वार निकट है।

और जो अपनी चेतना की लो को द्वंद्वों की अतियों से मुक्‍त कर लेते है, वह उस कुंजी को पा लेते है। जिससे सत्‍य का वह द्वार खुलता है।

ओशो

पतंजलि—योग—सूत्र

भाग—3


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–41

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योग है परम मिलन—(प्रवचन—पहला)

योग—सूत्र (41)

(साधनपाद)

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्‍द्रियात्‍मकं भोगापवर्गार्थं दृश्‍यम्।।18।।

 दृश्य, जो कि प्राकृतिक तत्‍वों से और इंद्रियों से संघटित होता है,

उसका स्वभाव होता है—प्रकाश थिरता सक्रियता और निष्‍क्रियता।

और द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंतत: मुक्‍ति फलित हो, इस हेतु यह होता है।

 विशेषाविशेषलिड्गमात्रालिड्गानि गुणपर्वाणि।।19।।

ये तीन गुण–प्रकाश (थिरता) सक्रियता और निष्‍क्रियता

इनकी चार अवस्‍थाएं हैं : निश्चित, अनिश्चित, सांकेतिक और अव्यक्त।

द्रष्‍टादृशिमात्र: शुद्धोउपि प्रत्‍यानुपश्‍य।।20।।

द्रष्‍टा यद्यपि शुद्ध चेतना है, फिर भी मन की विकृतियों के मध्‍यम से वह देखा करता है।

तदर्थ एव दृश्‍यस्‍यात्‍मा।।21।।

दृश्‍य का अस्‍तित्‍व होता है मात्र द्रष्‍टा के लिए।

कृतार्थं प्रति नष्‍टमप्‍यनटं तदन्‍यसाधारणत्‍वात् ।।22।।

 यद्यपि दृष्‍य उसके लिए मृत हो जाता है जिसने मुक्‍ति पा ली है। फिर भी बाकी दूसरों के लिए वह जीवित रहता है, क्‍योंकि यह सर्वनिष्‍ठ होता है।

स्‍वस्‍वामीशक्‍त्‍यो: स्‍वरूपोपलब्‍धि हेतु: संयोग:।।23।।

द्रष्‍टा और दृश्‍य साथ—साथ होते है, ताकि प्रत्‍येक का वास्‍तविक स्‍वभाव जाना जा सके।

तस्य हेतु: अविद्या।। 24।।

इस संयोग का कारण है अविद्या, अज्ञान।

वैज्ञानिक मानस सोचा करता था कि अव्यक्तिगत ज्ञान की, विषयगत ज्ञान की संभावना है। असल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यही ठीक—ठीक अर्थ हुआ करता था।’ अव्यक्तिगत ज्ञान’ का अर्थ है कि ज्ञाता अर्थात जानने वाला केवल दर्शक बना रह सकता है। जानने की प्रक्रिया में उसका सहभागी होना जरूरी नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यदि वह जानने की प्रक्रिया में सहभागी होता है तो वह सहभागिता ही ज्ञान को अवैज्ञानिक बना देती है। वैज्ञानिक ज्ञाता को मात्र द्रष्टा बने रहना चाहिए, अलग — थलग बने रहना चाहिए, किसी भी तरह उससे जुड़ना नहीं चाहिए जिसे कि वह जानता है।

लेकिन अब बात ऐसी नहीं रही। वितान प्रौढ़ हुआ है। इन थोड़े से दशकों में, पिछले तीन—चार दशकों में विज्ञान अपने भ्रमपूर्ण दृष्टिकोण के प्रति सचेत हुआ है। ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो अव्यक्तिगत हो। ज्ञान का स्वभाव ही है व्यक्तिगत होना। और ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो असंबद्ध हो, क्योंकि जानने का अर्थ ही है संबद्ध होना। केवल दर्शक की भांति किसी चीज को जानने की कोई संभावना नहीं है; सहभागिता अनिवार्य है। इसलिए अब सीमाएं उतनी स्पष्ट नहीं रही हैं।

पहले कवि कहा करता था कि उसके जानने का ढंग व्यक्तिगत है। जब एक कवि किसी फूल को जानता है तो वह उसे पुराने वैज्ञानिक ढंग से नहीं जानता। वह बाहर—बाहर से ही देखने वाला नहीं होता। किसी गहरे अर्थ में वह वही बन जाता है : वह उतरता जाता है फूल में और फूल को उतरने देता है अपने में, और एक गहन मिलन घटता है। उस मिलन में फूल का स्वरूप जाना जाता है।

अब विज्ञान भी कहता है कि जब तुम किसी चीज को ध्यानपूर्वक देखते हो तो तुम सहभागी होते हों—चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो वह सहभागिता, लेकिन फिर भी तुम सहभागी होते हो। कवि कहा करता था कि जब तुम किसी फूल की तरफ देखते हो तो वह फिर वही फूल नहीं रहता जैसा कि वह तब था जब किसी ने उसकी ओर देखा न था, क्योंकि तुम उसमें प्रवेश कर चुके हो, उसका हिस्सा बन चुके हो। तुम्हारी दृष्टि भी अब उसका हिस्सा हो जाती है; पहले वह वैसा न था। जंगल में किसी अज्ञात पगडंडी के किनारे खिला एक फूल, जिसके पास से कोई गुजरा नहीं, वह एक अलग ही फूल होता है; फिर अचानक कोई आ जाता है जो देखता है उसकी तरफ—वह फूल अब वही न रहा। फूल बदल देता है द्रष्टा को, और दृष्टि बदल देती है फूल को। एक नई गुणवत्ता प्रवेश कर गई।

लेकिन यह ठीक था कवियों के लिए—कोई भी उनसे बहुत तार्किक और वैज्ञानिक होने की आशा नहीं रखता—लेकिन अब तो विज्ञान भी कहता है कि यही प्रयोगशालाओं में घट रहा है : जब तुम निरीक्षण करते हो तो निरीक्षण की वस्तु वही नहीं रह जाती, उसमें देखने वाला शामिल हो जाता है और गुणवत्ता बदल जाती है। अब भौतिकशास्त्री कहते हैं कि जब कोई उन्हें देख नहीं रहा होता तो परमाणु अलग ही ढंग से व्यवहार करते हैं। जैसे ही तुम उन्हें देखते हो, वे तुरंत अपनी गतिया बदल देते हैं। बिलकुल ऐसे ही जैसे कि जब तुम अपने स्नानगृह में होते हो तो तुम एक अलग ई व्यक्ति होते हो, फिर अचानक ही तुम्हें लगता है कि चाबी के छेद से कोई देख रहा है —तत्‍क्षण तुम बदल जाते हो। परमाणु भी जब अनुभव करता है कि कोई देखने वाला है, तो फिर वह वही नहीं रहे जाता; वह अलग ही ढंग से गति करने लगता है। यही थीं सीमाएं : विज्ञान को समझा जाता था बिलकुल अव्यक्तिगत, कला थी विज्ञान और धर्म के मध्य में और समझा जाता था कि उसकी आशिक सहभागिता होती है; और धर्म था समग्र सहभागिता।

एक कवि देखता है फूल को, तब ऐसी झलकियां मिलती हैं जब वह भी खो जाता द्वै, फूल भी खो जाता है। लेकिन ये केवल झलकियां ही होती हैं, कुछ क्षणों के लिए मिलन घटता है, और—फिर वे अलग हो जाते हैं, फिर वे पृथक हो जाते हैं। जब एक रहस्यदर्शी, एक धार्मिक व्यक्ति फूल को देखता है तब क्या घटता है? तब सहभागिता समग्र होती है, आशिक नहीं होती। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं; बच रहती है केवल वह ऊर्जा जो दोनों के बीच आंदोलित हो रही होती है। अनुभूति बच रहती है, अनुभव करने वाला नहीं बचता, न ही अनुभव की विषय—वस्तु बचती है। विपरीतताए खो जाती हैं, विषय और विषयी मिट जाते हैं, सारी सीमाएं खो जाती हैं।

धर्म एक समग्र सहभागिता है। कविता या कला या चित्रकला आशिक सहभागिता है।

विज्ञान बिलकुल भी भागीदार न था। अब बात ऐसी नहीं है। विज्ञान को वापस कविता के, धर्म के ज्यादा निकट आना पड़ा है। अब सारी सीमाएं एक—दूसरे में घुल—मिल गई हैं। केवल पचास वर्ष पहले तक वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षित व्यक्ति हंस देता पतंजलि पर, खिलखिला कर हंस पड़ता शंकर और वेदांत पर और अपने भीतर सोचता कि ये लोग पागल हो गए हैं। अब असंभव है पतंजलि पर हंसना। वे ज्यादा ठीक सिद्ध हो रहे हैं।

जैसे —जैसे विज्ञान ज्यादा गहरे विकसित होता जाता है, योग ज्यादा प्रामाणिक और ज्यादा सत्य मालूम हो रहा है। क्योंकि योगी की सदा यही दृष्टि रही है. कि अस्तित्व अखंड है। पृथकता, सीमाओं का विभाजन कामचलाऊ है—यह अज्ञानवश है। इसकी जरूरत है; यह एक आवश्यक प्रशिक्षण है। तुम्हें g)जरना ही है इसमें से, तुम्हें भोगना है इसे और अनुभव करना है इसे—लेकिन तुम्हें गुजर जाना है इसमें से। यह कोई घर नहीं है; यह केवल एक मार्ग है। यह संसार पृथकता का, वियोग का मार्ग है। यदि तुम गुजर जाते हो इसमें से और तुम समझने लगते हो पूरे अनुभव को, तो मिलन और विवाह पास आता जाता है—और पास, और पास। और एक दिन अचानक ही तुम विवाहित होते हो, संपूर्ण सृष्टि से मिलन होता है और सारे वियोग मिट जाते हैं। और उस मिलन में ही आनंद है। इस अलगाव में पीड़ा है, क्योंकि यह अलगाव झूठा है। अलगाव है, क्योंकि तुम्हें बोध नहीं है। तुम्हारे अज्ञान में ही उसका अस्तित्व है। यह एक स्वप्न की भांति है।

तुम सोए हुए हो : फिर तुम स्वप्न देखते हो हजारों चीजों के, और सुबह वे सभी तिरोहित हो जाती हैं। और अचानक तुम हंसने लगते हो स्वयं पर ही। सारी बात ही इतनी बेतुकी मालूम पड़ती है। तुम्हें विश्वास नहीं आता कि ऐसा हुआ कैसे! तुम्हें विश्वास नहीं आता कि तुम भ्रांति में कैसे पड़ गए, जैसे कि वह सब वास्तविक हो! तुम्हें विश्वास नहीं आता कि ऐसा कैसे संभव हुआ कि तुम मन में तैरते उन चित्रों द्वारा इतने अभिभूत हो गए! वे विचारों के बुदबुदों के सिवाय और कुछ नहीं थे। और वे कैसे लगते थे—यथार्थ, ठोस, और वास्तविक!

ऐसा ही घटता है जब कोई सत्य के अनुभव में उतरता है! लेकिन सत्य जाना जाता है गहरी सहभागिता द्वारा। यदि तुम सहभागी नहीं होते तो तुम सत्य को बाहर—बाहर से ही जानोगे, किसी अजनबी की भांति, किसी बाहरी व्यक्ति की भांति। तुम इस घर के पास आ सकते हो; तुम घर के चारों तरफ घूम सकते हो; और तुम घर के बारे में कुछ बातें जान भी लोगे। लेकिन तुम घूमते रहे बाहर ही, सतह पर ही। तुमने दीवारों को बाहर से ही देखा। तुम घर को भीतर से नहीं जानते। कभी—कभी, रात के अंधेरे में आए चोर की भांति, तुम घर में प्रवेश भी कर सकते हो।

कवि चोर होता है। वैज्ञानिक अजनबी बना रहता है। धार्मिक आदमी मेहमान होता है; वह रात के अंधेरे में नहीं आता है : वह घर में चोरी से नहीं आता है। हालाकि कुछ बातों को चोर की भांति भी जाना जा सकता है, इसलिए कवि बेहतर होगा उस वैज्ञानिक व्यक्ति से जो कि बाहर—बाहर ही घूमता रहा और कभी भीतर नहीं आया। तो कवि भी थोड़ा—बहुत जान लेगा जिसे एक वैज्ञानिक कभी नहीं जान सकता, क्योंकि कवि प्रवेश कर चुका है घर में—चाहे रात में ही सही, अंधेरे में ही सही, चाहे अनिमंत्रित ही, अतिथि के रूप में नहीं, सामने के द्वार से नहीं।

धार्मिक आदमी घर में प्रविष्ट होता है अतिथि की भांति। वह उसे अर्जित करता है। और वह न केवल घर के बारें में ही जानता है, बल्कि मालिक के बारे में भी जानता है—क्योंकि वह मेहमान होता है। वह न केवल उस भौतिक घर के बारे में जानता है, बल्कि वह उस अभौतिक मालिक के बारे में भी जानता है जौ कि वस्तुत: केंद्र है घर का। वह घर के मालिक को भी जानता है।

विज्ञान जानता है केवल पदार्थ को। कला को कई बार झलकें मिलती हैं अभौतिक की। क्योंकि चोर भी देख सकता है मालिक को, लेकिन मालिक सोया हुआ होगा। वह भी देख सकता है उसका चेहरा, लेकिन केवल अंधकार में, क्योंकि वह भयभीत होता है, सदा भयभीत होता है कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। वह चोर होता है और सदा भयभीत होता है और कैप रहा होता है। लेकिन जब तुम घर में अतिथि की भांति आमंत्रित होकर आते हो, तुमने उसे अर्जित किया होता है, तो मालिक तुम्हारा आलिंगन करता है; तुम्हारा स्वागत करता है। तब तुम जानते हो सत्य के अंतरतम केंद्र को।

भारत में हमारे पास कवि के लिए दो शब्द हैं। किसी अन्य भाषा में कवि के लिए दो शब्द नहीं हैं, क्योंकि कोई जरूरत नहीं पडी। एक ही शब्द पर्याप्त होता है। वही इशारा कर देता है काव्य की घटना की तरफ—’कवि’ पर्याप्त है। लेकिन संस्कृत में हमारे पास दो शब्द हैं : ‘कवि’ और ‘ऋषि’। और भेद बहुत सूक्ष्म है और समझने जैसा है।’कवि’ वह है जो चोर की भांति आता है। वह सहभागी तो होता है, इसलिए वह कवि है। लेकिन उसका ज्ञान होता है टुकड़ों में। किन्हीं खास क्षणों में जैसे कि कोई चोर घर के भीतर हो और अचानक आकाश में बिजली कौंध जाए और वह सारे घर को

भीतर से भी देख सके—लेकिन ऐसा होता है क्षण भर को ही। फिर बिजली खो जाती हैं और हर चीज स्‍वप्‍नवत हो जाती है।

तो कभी—कभी कवि का सामना हो जाता है सत्य से, लेकिन इसी तरह जैसे कि उसने उसे अर्जित न किया हो। इसीलिए कई बार आश्चर्य करोगे तुम; तुम किसी की कविता पढ़ते हों—कोई भी कविता, किसी की भी—वह तुम्हें छूती है, तुम्हारे हृदय में उतर जाती है, तुम आंदोलित हो जाते हो और तुम मिलना चाहते हो इस आदमी से जिसमें कि ये पंक्तियां अवतरित हुई हैं। लेकिन जब तुम उस आदमी से, उस कवि से मिलते हो, तो — तुम्हें निराशा होती है—वह एकदम सामान्य आदमी होता है—साधारण, कुछ खास नहीं। अपनी कविता की उड़ान में वह बड़ा असाधारण था, लेकिन यदि. तुम मिलते हो उस कवि से तो वह साधारण ही होता है। क्या हुआ? तुम नहीं मान सकते कि ऐसा सुंदर काव्य पैदा हो सकता है एक साधारण आदमी से!

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कवि कोई स्थायी निवासी नहीं होता मंदिर का। वह चोर होता है। कई बार वह प्रवेश करता है, लेकिन अंधेरे में ही। निश्चित ही, चारों ओर घूमने से तो बेहतर है यह; कम से कम उसे एक झलक तो मिलती है। बस वह उस झलक के गीत गाता है। उसके हृदय में सतत एक टीस बनी रहती है उस आंतरिक झलक के लिए जिसे उसने एक बार देखॉ है। वह फिर—फिर उसी के गीत गाता है, लेकिन अब यह उसका अनुभव नहीं है। यह अतीत की बा_त हो गई—एक स्मृति, एक स्मरण, कोई वास्तविकता नहीं।

‘ऋषि’ वह कवि है जिसका स्वागत हुआ है मेहमान की भांति। ऋषि शब्द का अर्थ है द्रष्टा, और कवि शब्द का भी अर्थ है द्रष्टा। उन दोनों का ही अर्थ होता है : वह जिसने कि देख लिया। तो भेद क्या है? भेद यह है कि ऋषि ने उसे अर्जित किया होता है। वह दिन के प्रकाश में प्रविष्ट हुआ घर में, वह सामने के दरवाजे से प्रविष्ट हुआ। वह कोई अनिमंत्रित मेहमान नहीं है; वह किसी दूसरे के घर में अनधिकार प्रवेश नहीं कर रहा है। वह निमंत्रित है। मालिक ने उसका स्वागत किया। वह भी गीत गाता है, लेकिन उसका गीत पूरी तरह से अलग होता है साधारण कवि से।

उपनिषद ऐसे ही गीत हैं, वेद ऐसे ही गीत हैं—वें आए हैं ऋषियों के हृदयों से। वे कोई साधारण कवि न थे, वे असाधारण कवि थे। असाधारण इस अर्थ में कि उन्होंने अर्जित किया था उस झलक को; वह कोई चुराई हुई चीज न थी। लेकिन ऐसा केवल तभी संभव होता है जब तुम सीख लेते हो कि पूरे प्राणों से सहभागी कैसे होना है—यही है योग। योग का अर्थ है सम्मिलन; योग का अर्थ है विवाह; योग का अर्थ है जोड़। योग का अर्थ है : फिर से निकट कैसे आना, पृथकता को कैसे मिटा देना, सारी सीमाओं को कैसे विलीन कर देना, उस अवस्था तक कैसे आ जाना जहां ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाएं। यही है योग की खोज।

इन थोड़े से दशकों में विज्ञान और— और सजग हुआ है कि सारा ज्ञान व्यक्तिगत होता है। योग कहता है कि ज्ञान मात्र व्यक्तिगत होता है और जितना ज्यादा व्यक्तिगत होता है, उतना बेहतर होता है। तुम्हें उससे एकात्म हो जाना होगा : .तुम्हें फूल हो जाना होगा; तुम्हें चट्टान हो जाना होगा; तुम्हें चांद हो जाना होगा; तुम्हें सागर, रेत हो जाना होगा। तुम जहां कहीं देखो, तुम्हें विषय और विषयी दोनों हो जाना होगा। तुम्हें सम्मिलित होना होगा। तुम्हें सहभागी होना होगा। केवल तभी जीवन स्पंदित होता है, जीवन अपनी लय के साथ स्पंदित होता है। तब तुम उस पर कुछ आरोपित नहीं कर रहे होते।

विज्ञान आक्रमण है, कविता चोरी है और धर्म सहभागिता है।

अब हम पतंजलि के इन सूत्रों को समझने की कोशिश करें।

दृश्य जो कि प्राकृतिक तत्वों से और इंद्रियों से संघटित होता है उसका स्वभाव होता है— प्रकाश ( थिरता), सक्रियता और निष्कियता। और द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंतत: मुक्ति फलित हो इस हेतु वह होता है।

 

हली बात जो समझने जैसी है वह यह है कि यह संसार इसलिए है ताकि तुम्हें मुक्ति फलित हो सके। बहुत बार यह प्रश्न उठा है तुम में. ‘यह संसार क्यों है? इतनी ज्यादा पीड़ा क्यों है? यह सब किसलिए है? इसका प्रयोजन क्या है?’ बहुत से लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, ‘यह मूलभूत प्रश्न है कि हम आखिर है ही क्यों? और अगर जीवन इतनी पीड़ा से भरा है, तो प्रयोजन क्या है इसका? यदि परमात्मा है, तो वह इस सारी की सारी अराजकता को मिटा क्यों नहीं देता? क्यों नहीं वह मिटा देता इस सारे दुख भरे जीवन को, इस नरक को? क्यों वह लोगों को विवश किए चला जाता है इस में जीने के लिए?

योग के पास उत्तर है। पतंजलि कहते हैं, ‘द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित हो, इस हेतु यह होता है।’

यह एक प्रशिक्षण है? पीड़ा एक प्रशिक्षण है, क्योंकि बिना पीड़ा के परिपक्व होने की कोई संभावना नहीं। यह आग है, सोने को शुद्ध होने के लिए इसमें से गुजरना ही होगा। यदि सोना कहे, क्यों? तो सोना अशुद्ध और मूल्यहीन ही बना रहता है। केवल आग से गुजरने पर ही वह सब जल जाता है जो कि सोना नहीं होता और केवल शुद्धतम स्वर्ण बच रहता है। मुक्ति का कुल मतलब इतना ही है : एक परिपक्वता, इतना चरम विकास कि केवल शुद्धता, केवल निर्दोषता ही बचती है, और वह सब जो कि व्यर्थ था, जल जाता है।

इसे जानने का कोई और उपाय नहीं है। कोई और उपाय हो भी नहीं सकता इसे जानने का। यदि तुम जानना चाहते हो कि तृप्ति क्या है, तो तुम्हें भूख को जानना ही होगा। यदि तुम बचना चाहते हो भूख से, तो तुम तृप्ति से भी बच जाओगे। यदि तुम जानना चाहते हो कि गहन तृप्ति क्या होती है, तो तुम्हें जानना होगा प्यास को, गहन प्यास को। यदि तुम कहते हो, ‘मैं नहीं चाहता मुझे प्यास लगे’, तो तुम प्यास के बुझने की, उस गहन तृप्ति की सुंदर घड़ी को चूक जाओगे। यदि तुम जानना चाहते हो कि प्रकाश क्या है, तो तुम्हें गुजरना ही पड़ेगा अंधेरी रात से। अंधेरी रात तुम्हें तैयार करती है जानने के लिए कि प्रकाश क्या है। यदि तुम जानना चाहते हो कि जीवन क्या है, तो तुम्हें गुजरना होगा मृत्यु से। मृत्यु तुम में जीवन को जानने की संवेदनशीलता निर्मित करती है।

वे विपरीत नहीं हैं, वे परिपूरक हैं। ऐसा कुछ नहीं है संसार में जो कि विपरीत हो; हर चीज परिपूरक है।’यह’ संसार अस्तित्व रखता है ताकि तुम जान सको ‘उस’ संसार को।’इसका’ अस्तित्व है ‘उसको’ जानने के लिए। भौतिक है आध्यात्मिक को जानने के लिए; नरक है स्वर्ग तक आने के

लिए। यही है प्रयोजन। और यदि तुम एक से बचना चाहते हो तो तुम दोनों से बच जाओगे, क्योंकि वे एक ही चीज के दो पहलू हैं। एक बार तुम इसे समझ लेते हमे तो कोई पीड़ा नहीं रहती. तुम जानते हो कि यह एक प्रशिक्षण है, एक अनुशासन है। अनुशासन कठिन होता है। कठिन होगा ही, क्योंकि केवल तभी उससे सच्ची परिपक्वता आएगी।

योग कहता है कि यह संसार एक ट्रेनिंग स्कूल की भांति है, एक पाठशाला। इससे बचो मत और इससे भागने की कोशिश मत करो। बल्कि जीओ इसे, और इसे इतनी समग्रता से जीओ कि इसे फिर से जीने को विवश न होना पड़े तुम्हें। यही है अर्थ जब हम कहते हैं कि एक बुद्ध पुरुष कभी वापस नहीं लौटता। कोई जरूरत नहीं रहती। वह गुजर गया जीवन की सभी परीक्षाओं से। उसके लौटने की जरूरत न रही।

तुम्हें फिर—फिर उसी जीवन में लौटने को विवश होना पड़ता है, क्योंकि तुम सीखते नहीं। बिना सीखे ही तुम अनुभव की पुनरुक्ति किए चले जाते हो। तुम फिर—फिर दोहराते रहते हो वही अनुभव—वही क्रोध। कितनी बार, कितने हजारों बार तुम क्रोधित हुए हो? जरा गिनो तो। क्या सीखा तुमने इससे? कुछ भी नहीं। फिर जब कोई स्थिति आ जाएगी तो तुम फिर से क्रोधित हो जाओगे—बिलकुल उसी तरह जैसे कि तुम्हें पहली बार क्रोध आ रहा हो!

कितनी बार तुम पर कब्जा कर लिया है लोभ ने, कामवासना ने रूम फिर कब्जा कर लेंगी ये चीजें। और फिर तुम प्रतिक्रिया करोगे उसी पुराने ढंग से—जैसे कि तुमने न सीखने की ठान ही ली हो। और सीखने के लिए राजी होने का अर्थ है योगी होने के लिए राकँई होना। यदि तुमने न सीखने का ही तय कर लिया है, यदि तुम आंखों पर पट्टी ही बांधे रखना चाहते हो, यदि तुम फिर—फिर दोहराए जाना चाहते हो उसी नासमझी को, तो तुम वापस फेंक दिए जाओगे। तुम वापस भेज दिए जाओगे उसी कक्षा में जब तके कि तुम उत्तीर्ण न हो जाओ।

जीवन को किसी और ढंग से मत देखना। यह एक विराट पाठशाला है, एकमात्र विश्वविद्यालय है।’विश्वविद्यालय’ शब्द आया है ‘विश्व’ से। असल में किसी विश्वविद्यालय को स्वयं को विश्वविद्यालय नहीं कहना चाहिए। यह नाम तो बहुत विराट है। संपूर्ण विश्व ही है एकमात्र विश्वविद्यालय। लेकिन तुमने बना लिए हैं छोटे—छोटे विश्वविद्यालय और तुम सोचते हो कि जब तुम वहां से उत्तीर्ण होते हो तो तुम जान गए सब, जैसे कि तुम बन गए ज्ञानी!

नहीं, ये छोटे—मोटे मनुष्य—निर्मित विश्वविद्यालय न चलेंगे। तुम्हें इस विराट विश्वविद्यालय से जीवन भर गुजरना होगा।

पतंजलि कहते हैं, ‘.. अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित हो..।’

अनुभव मुक्ति लाता है। जीसस ने कहा है, ‘सत्य को जान लो और सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा।’ जब भी तुम किसी बात को सजग होकर, होशपूर्वक, पूरी तरह ध्यान देते हुए अनुभव करते हो कि क्या घट रहा है — ध्यान दे रहे होते हो और साथ—साथ सहभागी हो रहे होते हो—तो वह अनुभव मुक्तिदायी होता है। तुरंत कोई चीज उमगती है उसमें से : एक अनुभव, जो सत्य बन जाता है। तुमने उसे शास्त्रों से उधार नहीं लिया होता; तुमने उसे किसी दूसरे से उधार नहीं लिया होता। अनुभव उधार नहीं लिया जा सकता; केवल सिद्धात उधार लिए जा सकते हैं।

इसीलिए सारे सिद्धात गंदे होते हैं, क्योंकि वे बहुत से हाथों से गुजरते रहते हैं—लाखों हाथों से। वे गंदे नोटों की भांति होते हैं। अनुभव सदा ताजा होता है—सुबह की ओस जैसा ताजा, सुबह खिले गुलाब की भांति ताजा। अनुभव सदा निर्दोष और कुंआरा होता है, किसी ने कभी छुआ नहीं है उसे। तुम पहली बार उसके सामने आए हो। तुम्हारा अनुभव तुम्हारा है, वह किसी दूसरे का नहीं है, और कोई उसे दे नहीं सकता तुम्हें।

बुद्ध पुरुष मार्ग दिखा सकते हैं, लेकिन चलना तो तुम्हें ही है। कोई बुद्ध पुरुष तुम्हारी जगह नहीं चल सकता है; ऐसी कोई संभावना नहीं है। कोई बुद्ध पुरुष अपनी आंखें तुम्हें नहीं दे सकता कि तुम उनके द्वारा देख सको। और यदि कोई बुद्ध पुरुष तुम्हें आंखें दे भी दे, तो तुम बदल दोगे आंखों को—आंखें तुम्हें न बदल पाएंगी। जब आंखें तुम्हारे ढांचे में बिठाई जाएंगी, तो तुम्हारा ढांचा आंखों को ही बदल देगा, लेकिन आंखें तुम्हें नहीं बदल सकतीं। वे अंश हैं; तुम एक बहुत बड़ी घटना हो।

मैं अपना हाथ तुम्हें उधार नहीं दे सकता। यदि मैं दूं भी, तो स्पर्श मेरा न रहेगा, वह तुम्हारा होगा। जब तुम छुओगे और स्पर्श करोगे कुछ—चाहे मेरे हाथ द्वारा ही—तो वह तुम्हीं स्पर्श कर रहे होओगे, मेरा हाथ न होगा। सत्य को उधार पाने की कोई संभावना नहीं है। अनुभव मुक्त कर्ता है।

रोज मुझसे लोग मिलते हैं और कहते हैं, ‘कैसे कोई क्रोध से मुक्त हो? कैसे कोई काम से, वासना से मुक्त हो? कैसे कोई मुक्त हो इससे, कैसे कोई मुक्त हो उससे?’ और जब मैं कहता हूं ‘इसे जीओ’, तो उन्हें धक्का लगता है। वे मेरे पास आए थे उन बातों का दमन करने की किसी विधि की खोज में। और यदि वे भारत में किसी दूसरे गुरु के पास गए होते तो उन्हें अपना दमन करने के लिए कोई न कोई विधि मिल गई होती। लेकिन दमन कभी मुक्ति नहीं बन सकता, क्योंकि दमन का अर्थ है अनुभव से बचना। दमन का अर्थ है अनुभव की तमाम जड़ों को ही कांट देना। दमन कभी भी मुक्ति नहीं बन सकता। दमन सब से बड़ा बंधन है जो. तुम कहीं पा सकते हो। तुम जीते हो एक पिंजरे में। अभी एक दिन एक नए संन्यासी ने मुझसे कहा, ‘मैं पिंजरे में बंद जानवर जैसा अनुभव करता हूं।’ इसकी पूरी संभावना है कि उसका मतलब यही शा कि वह चाहता था कि मैं उसकी मदद करूं ताकि जानवर मर जाए, क्योंकि हम ‘जानवर’ तभी कहते हैं जब हम निंदा करते हैं। वह शब्द ही निंदित है। लेकिन जब मैंने संन्यासी से कहा, ‘ही, मैं तुम्हारी मदद करूंगा। मैं तोड़ दूंगा पिंजरा और पूरी तरह स्वतंत्र कर दूंगा जानवर को,’ तो उसे थोड़ा धक्का लगा; क्योंकि जब तुम कहते हो जानवर, तो तुमने उसकी निंदा, उसका मूल्यांकन कर ही दिया होता है। यह कोई महज तथ्य नहीं है। पशु या पशुता शब्द में ही तुमने वह सब कुछ कह दिया जो तुम कहना चाहते थे। तुम उसे स्वीकार नहीं करते। तुम उसे जीना नहीं चाहते।

इसीलिए तुमने पिंजरा बना लिया है। वह पिंजरा है—चरित्र। सारे चरित्र पिंजरे हैं, कारागृह हैं, तुम्हारे चारों ओर बंधी जंजीरें हैं। और चरित्र वाला आदमी कैदी आदमी है। वास्तविक रूप से जागा हुआ व्यक्ति चरित्र वाला व्यक्ति नहीं होता है। वह जीवंत होता है। वह पूरी तरह जागा हुआ होता है, लेकिन उसका कोई चरित्र नहीं होता, क्योंकि उसके आस—पास कोई पिंजरा नहीं होता। वह सहजस्फूर्त भाव से जीता है। वह जागा हुआ जीता है इसलिए कोई गलती नहीं हो सकती, लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए कोई पिंजरा नहीं होता आस—पास।

पिंजरा सजगता का झूठा विकल्प है। यदि तुम सोए—सोए जीना चाहते हो तो तुम्हें चरित्र की जरूरत है, ताकि चरित्र तुम्हें मार्ग—निर्देश दे सके। तब तुम्हें सजग रहने की जरूरत नहीं होती। जैसे, तुम कोई चीज चुराने ही वाले हो—कि चरित्र एकदम रोक देता है तुम्हें वह कहता है, ‘नहीं! यह गलत है! यह पाप है! तुम सडोगे नरक में! क्या तुम भूल गए सारी बाइबिल? क्या तुम भूल गए सभी दंड जिन्हें भुगतना पड़ता है आदमी को?’ यह ‘है चरित्र। यह रोक देता है तुम्हें। तुम चोरी करना चाहते हो, चरित्र एक रुकावट बन जाता है।

सजग व्यक्ति भी चोरी नहीं करेगा, लेकिन यह उसका चरित्र नहीं है; और यही है चमत्कार और सौंदर्य। उसके पास कोई चरित्र नहीं है और फिर भी वह चोरी नहीं करेगा?ँ क्योंकि उसके पास बोध है। ऐसा नहीं है कि वह भयभीत है पाप से—पाप जैसा कुछ है ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा कह सकते हो कि गलतियां हैं। पाप जैसा तो कुछ है ही नहीं। वह दंड से भयभीत नहीं है, क्योंकि दंड कहीं भविष्य में नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि पापों के लिए दंड मिलता है। असल में पाप ही दंड है।

ऐसा नहीं है कि तुम आज क्रोधित होते हो और दंड तुम्हें कल मिलेगा या अगले जन्म में मिलेगा—कोरी बकवास है यह सब। तुम अपना हाथ आग में अभी डालते हो, तो क्या सोचते हो कि वह अगले जन्म में जलेगा? जब तुम अपना हाथ आग में डालते हो, तो वह अभी जलता है; वह तत्‍क्षण जलता है। हाथ का वहा रखा जाना और उसका जल जाना साथ—साथ घटता है। एक क्षण का भी अंतराल नहीं होता। जीवन का भविष्य में कोई विश्वास नहीं, क्योंकि जीवन केवल वर्तमान में है। ऐसा नहीं है कि पापों की सजा भविष्य में मिलेगी, पाप ही सजा हैं। सजा अंतर्निहित है : तुम चोरी करते हो और तुम्हें सजा मिल जाती है। उस चोरी करने में ही तुम सजा पाते हो—क्योंकि तुम ज्यादा बंद हो जाते हो : तुम ज्यादा भयभीत हो जाओगे, तुम संसार का सामना न कर पाओगे। निरंतर तुम एक अपराध— भाव अनुभव करोगे, कि तुमने कुछ गलत किया है, किसी भी घड़ी तुम पकड़े जा सकते हो। तुम पकड़े ही गए हो! हो सकता है कभी किसी ने तुम्हें पकड़ा न हो और किसी न्यायालय ने तुम्हें कभी सजा न दी हो—और कहीं कोई पारलौकिक न्यायालय नहीं है—लेकिन फिर भी तुम पकड़े गए हो। तुम स्वयं के द्वारा ही पकड़े गए हो। इसे कैसे भूल पाओगे तुम? कैसे तुम क्षमा करोगे स्वयं को? कैसे तुम उस बात को अनकिया कर दोगे जिसे कि तुमने किया है? वह तुम्हारे चारों ओर छाई रहेगी। यह बात छाया की भांति तुम्हारा पीछा करेगी। किसी प्रेत की भांति यह तुम्हारे पीछे पड़ी रहेगी। यह स्वयं ही एक सजा है।

तो चरित्र तुम्हें गलत बातें करने से रोकता है, लेकिन वह तुम्हें उनके बारे में सोचने से नहीं रोक सकता। लेकिन चोरी करना या उसके बारे में सोचना एक ही बात है। सचमुच हत्या कर देना और उसके बारे में सोचना एक ही बात है। क्योंकि जहां तक तुम्हारी चेतना का प्रश्न है तुमने वह बात कर ही दी है —यदि तुमने उसके बारे में सोचा है। वह कृत्य न बनी क्योंकि चरित्र ने तुम्हें रोक लिया, यदि चरित्र वहा न होता तो वह बात कृत्य बन गई होती।

तो असल में चरित्र ज्यादा से ज्यादा यही करता है : वह रोक लगा देता है विचार पर; वह उसे कृत्‍य मैं नहीं बदलने देता। यह समाज के लिए ठीक है, लेकिन तुम्हारे लिए जरा भी ठीक नहीं है। यह समाज की सुरक्षा करता है; तुम्हारा चरित्र समाज की सुरक्षा करता है। तुम्हारा चरित्र दूसरों की सुरक्षा करता है, बस इतना ही। इसीलिए प्रत्येक समाज जोर देता है चरित्र पर, नैतिकता पर, ऐसी ही चीजों पर; लेकिन वह तुम्हारी सुरक्षा नहीं करता।

तुम्हारी सुरक्षा केवल होश में हो सकती है। और यह होश कैसे पाया जाता है? दूसरा कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके किं जीवन को उसकी समग्रता में जीया जाए।

‘द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित हो, इस हेतु यह होता है।’

‘दृश्य, जो कि प्राकृतिक तत्वों से और इंद्रियों से संघटित होता है, उसका स्वभाव होता है..।’

तीन गुण। योग तीन गुणों में विश्वास करता है. सत्य, रजस, तमस। सत्व वह गुण है जो चीजों को स्थिर बनाता है, रजस वह गुण है जो सक्रियता देता है; और तमस का गुणधर्म है अक्रिया। ये तीन आधारभूत गुण हैं। इन तीनों के द्वारा यह सारा संसार अस्तित्व में है। यह है योग की त्रिमूर्ति।

अब भौतिकशास्त्री भी योग के साथ राजी होने को तैयार हो गए हैं। उन्होंने परमाणु को तोड़ लिया है और उन्हें पता चला है तीन चीजों का. इलेक्ट्रान, न्‍यूट्रान, प्रोट्रान। ये तीनों वही तीन गुण हैं : एक की गुणवत्ता है प्रकाश की—सत्व, स्थिरता; दूसरे की गुणवत्ता है रजस की—क्रिया, ऊर्जा, शक्ति, और तीसरे की गुणवत्ता है अक्रिया की—तमस। सारा संसार बना है इन तीन गुणों से; और इन तीन गुणों से गुजरना पड़ता है सजग व्यक्ति को। उसे अनुभव लेना होता है इन तीनों गुणों का। और यदि तुम उनको एक लयबद्धता में अनुभव करते हो, जो कि वास्तविक अनुशासन है योग का…..।

हर कोई इन्हें अनुभव करता है. कई बार तुम आलस्य अनुभव करते हो, कई बार तुम ऊर्जा से भरा हुआ अनुभव करते हो; कई बार तुम अच्छा और हलका अनुभव करते हो, और कई बार तुम अशुभ और बुरा अनुभव करते हो; कई बार तुम अंधकार होते हो और कई बार तुम सुबह का उजाला होते हो। तुम्हें प्रतीति होती है इन तीनों गुणों की। उनकी घड़ियां निरंतर आती रहती हैं; तुम एक चक्र में घूमते रहते हो; लेकिन वे अनुपात में नहीं होते।

एक आलसी आदमी नब्बे प्रतिशत आलसी होता है। वह सक्रिय भी होता है—उसे होना ही पड़ेगा, क्योंकि आलस्य का जीवन जीने के लिए भी उसे थोड़ा काम तो करना होगा। उसकी सारी सक्रियता बस इतनी ही होती है—उसकी निष्‍क्रियता को सहारा देने के लिए। और उसे लोगों के साथ थोड़ा भला भी रहना पड़ता है, .अन्यथा तो लोग बहुत ही बुरी तरह पेश आएंगे उसके साथ। लोग बरदाश्त नहीं करेंगे उसकी निष्‍क्रियता को।

क्या तुमने ध्यान दिया? जो लोग बहुत सक्रिय नहीं होते .उदाहरण के लिए, बहुत मोटे लोग सदा मुस्कुराते रहते हैं। यह बात उनके लिए एक रक्षी—कवच होती है। वे जानते हैं कि वे लड़ नहीं सकते। वे जानते हैं कि यदि लड़ाई हो जाए तो वे बच कर भाग नहीं सकते, दौड़ नहीं सकते। तुम बहुत मोटे लोगों को सदा मुस्कुराते हुए देखते हो—प्रसन्न! कारण क्या है? क्यों पतले व्यक्ति दुखी मालूम पड़ते हैं, और क्यों मोटे व्यक्ति कभी बहुत दुखी नहीं मालूम पड़ते, सदा प्रसन्न दिखते हैं?

मनस्विद और शरीर—शास्त्री कहते हैं कि यह बात मोटे व्यक्ति के लिए एक सुरक्षा है, क्योंकि जीवन—संघर्ष में उनके लिए सदा लड़ने की भाव—दशा में रहना बहुत कठिन होगा, जिसमें कि दुबले—पतले लोग सदा ही रहते हैं। वे लड़ सकते हैं—यदि दूसरा आदमी कमजोर है तो वे पीट देंगे उसे; यदि दूसरा आदमी शक्तिशाली है तो वे बच कर भाग निकलेंगे। वे दोनों बातें कर सकते हैं, और मोटा आदमी इन दोनों में से कुछ भी नहीं कर सकता, तो वह मुस्कुराता रहता है; वह हर किसी के साथ अच्छा बना रहता है। यह उसकी सुरक्षा है, ताकि दूसरे उसके साथ अच्छा व्यवहार करें।

आलसी व्यक्ति सदा भले होते हैं। उन्होंने कभी कोई पाप नहीं किया, क्योंकि पाप करने के लिए भी व्यक्ति को थोड़ा सक्रिय होना पड़ता है। तुम किसी आलसी आदमी को हिटलर नहीं बना सकते, असंभव है। तुम किसी आलसी आदमी को नेपोलियन या सिकंदर नहीं बना सकते। यह असंभव है। आलसी आदमियों ने कोई बड़ा पाप नहीं किया है. वे कर नहीं सकते। एक तरह से वे बहुत भले लोग होते हैं, क्योंकि पाप करने के लिए भी उन्हें सक्रिय होना होगा—वह बात उनके अनुकूल नहीं पड़ती।

फिर सक्रिय व्यक्ति हैं, असंतुलित; वे सदा कुछ न कुछ करते रहते हैं। उन्हें कहीं पहुंचने की कोई चिंता नहीं होती; उन्हें केवल यही चिंता होती है कि तेजी से चलते रहें। उन्हें बिलकुल चिंता नहीं होती कि वे कहीं पहुंच रहे हैं या नहीं—इसका कोई सवाल ही नहीं है। यदि वे तेजी से चल रहे हैं तो फिर ठीक है। मत पूछना कि ‘कहा जा रहे हो तुम?’ वे कहीं नहीं जा रहे हैं; वे तो बस जा रहे हैं। उनका कोई लक्ष्य नहीं है। उनके पास केवल ऊर्जा है कुछ न कुछ करते रहने के लिए। ये लोग संसार के खतरनाक लोग हैं—आलसी लोगों से ज्यादा खतरनाक। इस दूसरी श्रेणी से ही आए हैं सारे एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, नेपोलियन, सिकंदर। सारे उपद्रवी आते हैं इस दूसरी श्रेणी से, क्योंकि उनके पास ऊर्जा होती है—एक बेचैन ऊर्जा।

फिर तीसरी तरह के लोग हैं, जिन्हें ढूंढ निकालना दुर्लभ है : कहीं कोई लाओत्सु बैठा होता है मौन—अकर्मण्य नहीं—निश्चेष्ट। न सक्रिय, न अकर्मण्य—निष्किय; ऊर्जा से भरा—पूरा, एक ऊर्जा—कुंड, लेकिन मौन बैठा हुआ। क्या तुमने ध्यान से देखा है किसी को शांत—मौन बैठे हुए, ऊर्जा से आपूरित? तुम एक आभामंडल अनुभव करते हो उसके चारों ओर, जीवंतता से दीप्तिमान, लेकिन फिर भी शांत—कुछ न करते हुए, मात्र होने में थिर।

और योग है इन तीनों के बीच संतुलन पा लेना। यदि तुम इन तीनों के बीच संतुलन पा लो तो अचानक तुम इनके पार चले जाते हो। यदि कोई एक गुण ज्यादा होता है बाकी दो गुणों से तो वही तुम्हारी समस्या बन जाता है। यदि तुम सक्रिय कम और आलसी ज्यादा हो तो आलस्य तुम्हारी समस्या बन जाएगा. तुम उसके द्वारा पीड़ा पाओगे। यदि सक्रियता ज्यादा है आलस्य से तो तुम अपनी सक्रियता द्वारा दुख पाओगे। और तीसरा कभी ज्यादा नहीं होता, वह सदा कम ही होता है, लेकिन यदि यह सिद्धांततः संभव भी हो—कि कोई जरूरत से ज्यादा अच्छा हो—तो यह बात भी एक दुख बन जाएगी उसके लिए, यह भी एक असंतुलन निर्मित करेगी। एक सम्यक जीवन संतुलन का जीवन होता है।

बुद्ध के पास आठ सिद्धात हैं अपने शिष्यों के लिए। प्रत्येक सिद्धात के आगे वे जोड़ देते हैं एक शब्द—सम्यक। यदि वे कहते हैं ‘होशपूर्ण होओ’ तो केवल ‘स्मृति’ नहीं कहते; वे कहते हैं, ‘सम्यक स्मृति’। अंग्रेजी में सदा इसका अनुवाद किया जाता रहा है ‘राइट मेमोरी’। यदि वे कहते ‘श्रम’, तो वे सदा यही कहते, ‘सम्यक श्रम’।’सम्यक’ का अर्थ है संतुलन।’सम्यक’ का अर्थ है समता। समाधि के लिए भी, ध्यान के लिए भी बुद्ध कहते हैं, ‘सम्यक समाधि’। समाधि भी अति हो सकती है, और तब यह खतरनाक हो जाएगी। अच्छाई भी अति हो सकती है, और तब यह खतरनाक हो जाएगी।

समता मुख्य तत्व होना चाहिए। जो कुछ भी करो, तुम सदा संतुलित रहना रस्सी पर चलते आदमी की भांति, निरंतर संतुलन बनाए रखना। यही है सम्यकत्व, संतुलन का तत्व। वह व्यक्ति जो परम मिलन को, परम योग को उपलब्ध होना चाहता है, उसे गहन संतुलन में रहना होता है। संतुलन में तुम तीनों गुणों के पार चले जाते हो। तुम गुणातीत हो जाते हो : तुम इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाते हो। तुम अब इस संसार के हिस्से नहीं रहते; तुम इसके पार चले जाते हो।

ये तीन गुण—प्रकाश (थिरता), सक्रियता और निष्कियता—इनकी चार अवस्थाएं हैं. निश्चित अनिश्चित सांकेतिक और अव्यक्ता

न तीनों गुणों की चार अवस्थाएं हैं। पहली को पतंजलि कहते हैं, निश्चित। तुम इसे पदार्थ कह सकते हो; यह तुम्हारे आस—पास की सर्वाधिक निश्चित चीज है। फिर है अनिश्चित, तुम इसे मन कह सकते हो; वह भी वहां है, निरंतर तुम्हें उसकी अनुभूति होती है, फिर भी वह एक अनिश्चित तत्व है। तुम निश्चित नहीं कह सकते कि मन क्या है। तुम जानते हो उसे, तुम निरंतर जीते हो उसे, लेकिन तुम उसे परिभाषित नहीं कर सकते। पदार्थ को परिभाषित किया जा सकता है लेकिन मन को नहीं। और फिर है ‘सांकेतिक’। अनिश्चित से भी ज्यादा सूक्ष्म है सांकेतिक : यह है आत्मा। तुम केवल संकेत दे सकते हो उसका। तुम यह भी नहीं कह सकते कि वह अपरिभाषित है। यह भी सूक्ष्म ढंग से उसे परिभाषित करना ही हुआ, क्योंकि यह बात भी एक परिभाषा हो जाती है। यह कहना कि कोई चीज अपरिभाषित है—तुमने परोक्ष रूप से उसे परिभाषित कर ही दिया; तुमने कुछ कह ही दिया उसके बारे में। तो यही है अस्तित्व की सूक्ष्म पर्त जो आत्मा है, जो सांकेतिक है। और फिर इसके पार है सूक्ष्मतम, जो है ‘अव्यक्त’—असांकेतिक—जो अनात्मा है।

तो पदार्थ, मन, आत्मा, अनात्मा—ये चार अवस्थाएं हैं इन तीन गुणों की।

यदि तुम गहन आलस्य में हो तो तुम पदार्थ की भांति छई हो। आलस्य से भरा आदमी करीब—करीब पदार्थ होता है, जड़ जीवन होता है उसका, तुम उसे जीवंत नहीं देखते। फिर है दूसरा गुण—मन। यदि रजस गुण बहुत ज्यादा हो, तो तुम मन से बहुत ज्यादा भर जाते हो। तब तुम बहुत ज्यादा सक्रिय होते हो—मन निरंतर सक्रिय रहता है, क्रिया से घिरा रहता है, निरंतर नई—नई व्यस्तताओं की खोज में रहता है।

एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने वाले पहले आदमी एडमंड हिलेरी से किसी ने पूछा, ‘क्यों? आखिर क्यों आपने इतना खतरा उठाया?’ वह कहने लगा, ‘क्योंकि एवरेस्ट मौजूद था, तो आदमी को चढ़ना ही था।’ वहा कुछ है नहीं…। चांद पर क्यों जा रहा है आदमी? क्योंकि चांद है। कैसे तुम बच सकते हो उससे? तुम्हें जाना ही है। सक्रियता से भरा आदमी निरंतर काम की खोज में रहता है। वह बिना काम के नहीं रह सकता। यह उसकी समस्या है। बिना काम के वह नरक में होता है; काम में तल्लीन होकर वह भूल जाता है स्वयं को।

यदि तमस, अक्रिया बहुत हो, तो तुम पदार्थ की भांति हो जाते हो। यदि रजस बहुत हो तो तुम मन हो जाते हो. मन है सक्रियता। इसीलिए मन पागल हो जाता है। फिर यदि सत्व बहुत ज्यादा हो जाए तो तुम आत्मा हो जाते हो। लेकिन वह भी एक असंतुलन है। यदि ये तीनों ही संतुलन में हों तो फिर आती है चौथी बात : अनात्मा। वही है तुम्हारा वास्तविक अस्तित्व जहां ‘मैं ‘ की अनुभूति भी अस्तित्व नहीं रखती! इसीलिए इसे ‘अनात्मा’ कहा गया है।

ये हैं चार अवस्थाएं—तीन हैं असंतुलन की और चौथी है संतुलन की। पहली निश्चित है, दूसरी अनिश्चित है, तीसरी सांकेतिक है, चौथी सांकेतिक भी नहीं, अव्यक्त है। और यही चौथी सब से अधिक वास्तविक है। पहली सब से अधिक वास्तविक मालूम पड़ती है क्योंकि तुम जीते हो पहली में। दूसरी बहुत निकट मालूम पड़ती है क्योंकि तुम जीते हो मन में। तीसरी थोड़ी दूर मालूम पड़ती है, लेकिन तुम समझ सकते हो उसे। चौथी तो बिलकुल अविश्वसनीय मालूम पड़ती है—अनात्मा? ब्रह्म कहो, या परमात्मा, या तुम जो भी नाम दे दो इसे, बहुत दूर मालूम पड़ता है, करीब—करीब असंभव मालूम पड़ता है; और जो सबसे ज्यादा सच है।

द्रष्टा यद्यपि शुद्ध चेतना है फिर भी मन की विकृतियों के माध्यम से वह देखा करता है।

र वह चौथी अवस्था, चाहे तुम उसे उपलब्ध भी हो जाओ—जब तक तुम देह में हो तब तक तुम्हें अपने अस्तित्व की सभी पर्तों का उपयोग करना होगा। बुद्ध भी जब तुम से बात करते हैं तो उन्हें मन के द्वारा ही बात करनी पड़ती है। बुद्ध भी जब चलते हैं तो उन्हें शरीर के द्वारा चलना पड़ता है। लेकिन अब, जब एक बार तुम जान लेते हो कि तुम मन के पार हो, तो मन तुम्हें कभी धोखा नहीं दे सकता। तुम उसका उपयोग कर सकते हो और तुम उसके द्वारा कभी उपयोग नहीं किए जाते। यही अंतर होता है। ऐसा नहीं. है कि बुद्ध मन का उपयोग नहीं करते, वे करते हैं। वे मन का उपयोग करते हैं; मन तुम्हारा उपयोग करता है। ऐसा नहीं है कि वे देह में नहीं जीते हैं, वे जीते हैं। तुम घसिटते हों—देह मालिक होती है और तुम गुलाम होते हो। बुद्ध होते हैं मालिक; देह होती है गुलाम। एक समग्र क्रांति, एक समग्र रूपांतरण घटित होता है—जो ऊपर होता है वह नीचे चला जाता है और जो नीचे होता है वह ऊपर आ जाता है।

दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।

यह योग का या वेदांत का चरम शिखर है. ‘दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।’ जब द्रष्टा खो जाता है, तो दृश्य भी खो जाता है, क्योंकि वह तो केवल द्रष्टा के मुक्त होने के लिए ही था। जब मुक्ति घट जाती है तो उसकी आवश्यकता नहीं रहती।

यह बात बहुत से प्रश्न उठा देगी। क्योंकि बुद्ध पुरुष—उनके लिए दृश्य तिरोहित हो चुका है, लेकिन तुम्हारे लिए वह अभी भी है। एक फूल है, तुम में से कोई बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है. उसके लिए वह फूल तिरोहित हो चुका, लेकिन तुम्हारे लिए वह अभी भी है। तो यह कैसे संभव है

कि किसी के लिए वह तिरोहित हो जाता है और तुम्हारे लिए वह बना रहता है?

यह बिलकुल ऐसा ही है : रात तुम सभी सो जाते हो, तुम सभी स्वप्न देखने लगते हो, फिर एक आदमी जाग जाता है—उसकी नींद टूट जाती है, उसका स्वप्न खो जाता है—लेकिन बाकी सभी के स्वप्न जारी रहते हैं। उसके स्वप्न के तिरोहित होने की घटना तुम्हारे स्वप्नों के टूटने में किसी प्रकार से मदद नहीं करती; वे चलते रहते हैं। इसीलिए बुद्धत्व व्यक्तिगत होता है। एक व्यक्ति जाग जाता है; बाकी सब अपने— अपने अज्ञान में जीए जाते हैं। वह दूसरों की मदद कर सकता है जाग जाने में। अपनी नींद से तुम बाहर आ सको उसके लिए मदद के उपाय वह तुम्हारे चारों ओर निर्मित कर सकता है, लेकिन जब तक तुम अपनी नींद से बाहर नहीं आ जाते तब तक तुम्हारे स्वप्न बने रहेंगे।

‘दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।’

यद्यपि दृश्य उसके लिए मृत हो जाता है जिसने मुक्ति पा ली है फिर भी बाकी दूसरों के लिए यह जीवित रहता है क्योंकि यह सर्वनिष्ठ होता है।

भारत में हमने स्वप्न और तुम्हारी तथाकथित वास्तविकता के बीच केवल एक भेद किया है, और यह है वह भेद. कि स्वप्न निजी वास्तविकता हैं और यह वास्तविकता जिसे कि तुम संसार कहते हो एक सार्वजनिक स्वप्न है, बस इतना ही। जब तुम स्वप्न देखते हो तो तुम निजी संसार के स्वप्न देखते हो। रात में तुम निजी संसार को जीते हो; तुम किसी और को नहीं बुला सकते अपने स्वप्न में साझीदार होने के लिए। तुम्हारा निकटतम मित्र या तुम्हारी पत्नी या तुम्हारी प्रेयसी भी बहुत दूर होते हैं। जब तुम स्वप्न देख रहे होते हो तो तुम अकेले ही स्वप्न देख रहे होते हो। तुम किसी को नहीं ले जा सकते वहां; वह एक निजी संसार है। तो फिर यह संसार क्या है? क्योंकि भारत में हम ने इस संसार को भी स्वप्‍नवत कहा है। यह एक सामूहिक स्वप्न है। हम सब एक साथ स्वप्न देखते हैं, क्योंकि हमारे मन एक ही ढंग से काम करते हैं।

कभी नदी पर जाओ। अपने साथ एक सीधी छड़ी ले जाना। तुम जानते हो कि छड़ी सीधी है। उसे डुबाना नदी में तत्‍क्षण तुम देखोगे कि वह टेढ़ी हो गई है, मुड़ गई है। बाहर निकालना उसे; तुम देखते हो कि वह सीधी ही है। फिर पानी में डालना उसे; वह फिर मुड़ जीती है। अब तुम अच्छी तरह जानते हो कि छड़ी सीधी ही रहती है, लेकिन तुम्हारे मन का ढंग और प्रकाश—किरणों का व्यवहार एक धोखा निर्मित कर देता है—एक भ्रम—कि वह मुड़ गई है। तुम जानते भी हो कि वह सीधी ही है, तो भी वह पानी के भीतर मुड़ी हुई ही दिखेगी। तुम्हारा ज्ञान काम न आएगा। तुम अच्छी तरह, खूब अच्छी तरह जानते हो कि वह मुड़ी हुई नहीं है, लेकिन वह दिखेगी मुड़ी हुई—क्योंकि आंखों का और प्रकाश की किरणों का व्यवहार ऐसा है कि भ्रम निर्मित हो जाता है। फिर अपने कुछ मित्रों को ले जाना अपने साथ : तुम सभी उसे मुड़ा हुआ देखोगे। यह एक सामूहिक भ्रम है। इसी तरह संसार एक सामूहिक स्वप्न है।

द्रष्टा और दृश्य साथ— साथ होते हैं ताकि प्रत्येक का वास्तविक स्वभाव जाना जा सके।

इस संयोग का कारण है अविद्या अज्ञान।

इस स्‍वप्‍नवत संसार के साथ जुड़ना, देह के साथ जुड़ना, मन के साथ जुड़ना—जो कि तुम हो नहीं—एक आवश्यकता है। इस जोड़ के द्वारा तुम तैयार होओगे ज्यादा बड़े जोड़ के लिए। इस जोड़ के द्वारा तुम जान लोगे कि यह जोड़ झूठा है। जिस दिन तुम जान लोगे कि यह जोड़ झूठा है, परम मिलन घटित होगा।

जब संसार से तुम्हारा तलाक हो जाता है तो परमात्मा से तुम्हारा विवाह हो जाता है। जब तुम्हारा विवाह होता है संसार के साथ, तो परमात्मा से तुम्हारा तलाक हो जाता है। इसीलिए सारे संत—मीरा, चैतन्य, कबीर, पश्चिम में थेरेसा—वे सभी बात करते हैं विवाह की भाषा में, दूल्हा और दुलहन की भाषा में। और वे सभी प्रतीक्षा कर रहे हैं परम मिलन की।

इस प्रतीक का बहुत उपयोग किया गया है। मनस्विद तो इस विषय में संदेह भी करते हैं कि क्यों रहस्यदर्शी संत प्रेम, विवाह, आलिंगन, चुंबन आदि प्रतीकों का प्रयोग करते हैं! भारत में तो संभोग तक का प्रयोग किया गया है प्रतीक के रूप में : जब परम मिलन घटित होता है तो आनंद का चरम शिखर अनुभव होता है—व्यक्ति का समग्र के साथ परम संभोग, लहर का सागर के साथ परम मिलन होता है। क्यों ये लोग यौन प्रतीकों का प्रयोग करते हैं? मनस्विद संदेह करते हैं कि जरूर कहीं कामवासना का दमन रहा होगा।

वे गलत हैं। कामवासना का कोई दमन नहीं है, लेकिन कामवासना इतनी बुनियादी घटना है कि धर्म कैसे बच सकता है उससे? उसका प्रयोग करना पड़ता है। और संभोग एकमात्र गहनतम घटना है जहां तुम स्वयं को पूरी तरह से खो देते हो। तुम ऐसी कोई और घटना नहीं जानते जिसमें तुम इतनी समग्रता से अपने को खो देते होओ। और परमात्मा में या अस्तित्व में व्यक्ति स्वयं को पूरी तरह खो देता है—अनात्मा हो जाता है। संभोग में उसकी एक हलकी सी झलक मिलती है तुम्हें। तो विवाह के प्रतीक का, दूल्हा—दुलहन के प्रतीक का प्रयोग करना अच्छा है।

संसार से विवाहित रहने पर परमात्मा से तुम्हारा तलाक हुआ रहता है। गुजरो संसार के अनुभव से—समृद्ध होओ, मुक्त होओ—अचानक तुम जान जाते हो कि यह विवाह एक भ्रम था, एक स्वप्न था। अब तुम्हारे सच्चे विवाह की तैयारी हो रही है। प्रियतम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(एक प्रश्‍न)–प्रवचन–13

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प्रयास नहीं, प्रसाद—(प्रवचन—तेरहवां)

 दिनांक 3 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

 यह सुनकर कि अब आप चुने हुए साधकों के बीच ही बोलते हैं

और उन पर ही काम करते हैं, हमारे बीच तरहत्तरह की प्रतिक्रियाएं हुई हैं।

एक संन्यासी मित्र ने कहा, ‘इससे एक ओर,

जहां मेरे अहंकार को रस मिला कि मैं चुना गया,

वहां दूसरी ओर यह डर भी लगा कि अब शायद

भगवान के प्रवचनों में रोज सम्मिलित होना ऐच्छिक न रहकर अनिवार्य हो जाए।

एक दूसरे संन्यासी मित्र ने कहा, ‘भगवान तो परम करुणावान हैं,

फिर करुणा बांटने में यह भेद क्यों कि कुछ चुने हुए लोग ही,

उनकी अमृतवाणी का प्रसाद पायें?’

और वही बात सुनकर, मुझे मेरी अयोग्यता और पिछड़ापन याद हो आया।

और डर होने लगा कि कहीं इसी कारण भगवान मुझे अपने ढंग से निकाल न दें।

भगवान! कृपापूर्वक हमारे संशय और भय को दूर करने की कृपा करें।

 

जीवन के सत्य अब सभी को दिये नहीं जा सकते। क्योंकि जिनमें प्यास ही नहीं है उनके लिए पानी का कोई अर्थ नहीं। वे सरोवर के किनारे भी खड़े हों तो भी सरोवर उन्हें दिखाई न पड़ेगा। भूखे को भोजन दिखाई पड़ता है, प्यासे को जल। और अगर भीतर इतनी गहरी प्यास न जगी हो कि परमात्मा दिखाई पड़ सके तो दिखाने का कोई उपाय भी नहीं है।

करुणा की कमी के कारण नहीं, तुम्हारी प्यास होगी तो ही तुम पात्र हो सकोगे। और तुम्हारा पात्र तैयार हो तो ही उसमें कुछ डाला जा सकता है। तुम पात्र उल्टा किये बैठे हो, तो कुछ भी डालना व्यर्थ है। वह श्रम निरर्थक चला जाता है।

पहली बात तो यह समझ लें कि जितनी गहरी प्यास होगी उतने ही बड़े सत्य के अधिकारी हो जाएंगे। और जरूरी नहीं है कि प्यास हो तो आपको गुरु को खोजना पड़े; प्यास होगी तो गुरु आपको खोज लेगा। जीवन के गहनतम रहस्यों में से एक यह है कि जब भी शिष्य तैयार है तब गुरु प्रगट हो जाता है।

खोजना तो इसलिए पड़ता है कि हम तैयार नहीं हैं। जब हम तैयार होते हैं तो गुरु ऐसे ही प्रगट हो जाता है, जैसे गङ्ढा तैयार हो, और वर्षा का जल बरसे और गङ्ढे में भर जाए। वर्षा तो पहाड़ों पर भी होती है लेकिन वे खाली के खाली रह जाते हैं। गङ्ढे झील बन जाते हैं। कोई वर्षा की करुणा में कमी नहीं है, लेकिन पहाड़ रिक्त रह जाएगा क्योंकि पहाड़ पहले से ही भरा हुआ है। गङ्ढा भर जाएगा क्योंकि गङ्ढा खाली है।

भरने के लिये खाली होना जरूरी है।

होने के लिये मिटना जरूरी है।

इसलिए मैं कहता हूं कि थोड़े से लोगों पर काम करूंगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि बाकी के प्रति करुणा कि कोई कमी है। वस्तुतः गौर से देखेंगे तो यह करुणा के कारण ही ऐसा करना पड़ रहा है। क्योंकि जो जल उन पात्रों पर फेंका जा रहा है, जो उल्टे पड़े हैं, वह व्यर्थ जा रहा है। वह जल उनके काम आ सकता है, जो सीधे हैं। जो पानी उनको दिया जा रहा है, जिनकी कोई प्यास नहीं है, वह उनके काम आ सकता है, जो प्यासे हैं। उस तक ही पहुंचना चाहिए जिसको जरूरत है।

और कई बार ऐसा होता है कि तुम्हें भूख न हो और भोजन मिल जाए तो भूख के पैदा होने की संभावना तक मर जाती है। तुम्हें प्यास न हो और कोई पानी पिला दे तो जो प्यास कल पैदा हो सकती थी, शायद वह भी पैदा न हो पाये। उचित यही है, करुणापूर्ण यही है कि जो प्यासा नहीं, उसे पानी न दिया जाए। शायद पानी की कमी उसके भीतर प्यास को जगाये। और प्यास जगे तो पानी सार्थक हो जाता है।

अब तक बोल रहा था सारे लोगों के बीच। वह जरूरी था ताकि उन्हें कुएं की खबर हो जाए और जब उन्हें प्यास लगे तो वे कुएं तक आ सकें। अब उसका कोई प्रयोजन नहीं है। पर इससे भयभीत होने का कोई भी कारण नहीं है। और न इससे किसी चिंता में पड़ने की कोई जरूरत है। चिंता अगर पैदा ही करनी है तो एक ही, कि अपनी प्यास को परखना है और अपनी पात्रता को गहरा करना है।

लोग प्रश्न पूछते हैं और वे सोचते हैं कि प्रश्न पूछ लिया इसलिए उत्तर पाने के अधिकारी हो गये। प्रश्न किसी को उतर का अधिकारी नहीं बनाता। प्रश्न सिर्फ कुतूहल भी हो सकता है। अगर गहरा हो तो जिज्ञासा बनता है। अगर और गहरा हो तो मुमुक्षा का जन्म होता है।

तो पहले तो उनके लिए बोल रहा था, जो कुतूहल से भरे थे।

फिर उनमें से मैंने उन लोगों को चुना, जिनकी जिज्ञासा थी।

और अब जिज्ञासा से उनको चुन रहा हूं, जिनकी मुमुक्षा है।

अब जो मोक्ष के लिए ही खोज में हैं, उससे कम पर जो राजी न होंगे, उनकी तरफ ही मेरा श्रम होगा। उससे कम पर जो राजी होने को तैयार हैं, उनके लिये संसार बड़ा है। वे कहीं और खोज लेते हैं; कहीं और खोज लेंगे। हजारों लोग अभी कुतूहल के लिये बोल रहे हैं, उनको सुन लेंगे। सैकड़ों लोग जिज्ञासा के लिये बोल रहे हैं, उनको समझ लेंगे। उन सबसे पार होकर जिनकी मुमुक्षा जग गई हो, अब मेरा श्रम उनके लिये होगा।

और ध्यान रहे, बहुत स्थानों पर गङ्ढे खोदने से कुआं नहीं बनता, एक ही जगह गहरा खोदने से कुआं बनता है। अभी तक बहुत जगह गङ्ढे खोद रहा था। अब थोड़े-से लोगों पर गहराई में कुएं खोदूंगा। तभी तुम्हारा मोक्ष प्रगट हो सकेगा।

और अंतिम परिणामों में अगर थोड़े-से लोगों के जीवन में मोक्ष का फूल खिल जाए, तो उनके पीछे जो जिज्ञासु खड़े हैं, उनकी जिज्ञासा मुमुक्षा में बदलनी शुरू हो जाती है। और जब जिज्ञासियों की जिज्ञासा मुमुक्षा बनती है। तो कुतूहल वाले लोगों का कुतूहल जिज्ञासा बनता है। तुम एक पंक्ति में खड़े हो। और जब तुम पाते हो कि तुम्हारे आगे खड़ा हुआ व्यक्ति कहीं पहुंच गया तो तुम्हारे जीवन में गति आ जाती है।

कुछ लोगों का मोक्ष जरूरी है।

इस पृथ्वी पर धर्म के खो जाने का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि तुम उस व्यक्ति को नहीं खोज पाते, जिसको मोक्ष उपलब्ध हुआ हो। तो तुम्हें प्यास कैसे जगे? तुम उनके बीच ही घूमते हो जो अतृप्त हैं। तुम्हें तृप्ति का कोई स्वाद नहीं मिलता। कहीं तृप्ति की कोई गंध नहीं मिलती। कहीं कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलता जिसका संगीत तुम्हें पकड़ ले और किसी अलौकिक की खबर दे। जिसका होना तुम्हारे लिए, नये का द्वार बन जाए। जिसके पास पहुंचकर तुम्हें लगे कि जब तक मैं ऐसा न हो जाऊं, तब तक मेरा होना व्यर्थ है। कुछ लोगों के जीवन में मोक्ष का फूल खिले तो अनेक लोगों को खयाल आयेगा कि फूल खिल सकता है।

तो लंबे अर्थों में यही करुणापूर्ण है कि थोड़े लोगों पर मैं मेहनत करूं तो उनके वृक्ष खिल जाएं। उनके कारण बहुत लोगों को परिणाम होगा। उनके कारण बहुत लोग मोक्ष की तलाश में प्यासे और गहरी खोज में लगेंगे।

इससे निश्चित ही तुम्हारे अहंकार को बल मिल सकता है। तुम्हें लग सकता है कि तुम चुने हुए थोड़े लोग हो। अगर ऐसा लगा, इस लगने के कारण ही तुम बाहर हो गये। तो तुम भौतिक रूप से मंदिर के भीतर बैठे रहो लेकिन तुम मंदिर आये नहीं। क्योंकि मंदिर में तो प्रवेश उसी का है, जो अपने अहंकार को बाहर रख आया है।

ऐसी बात सुनकर तुम्हें अहंकार नहीं, अनुग्रह जगना चाहिए। तुम्हें परमात्मा के प्रति अनुग्रह का भाव पैदा होना चाहिए। तुम्हें लगना चाहिए कि मैं पात्र नहीं भी था, फिर भी पात्र की तरह स्वीकार किया गया हूं। इससे तुम्हारी पात्रता बढ़ेगी। अगर तुम्हें लगा कि मैं पात्र हूं इसलिए चुना गया हूं, तुमने अपनी पात्रता खो दी।

और यह पात्रता कुछ ऐसी नहीं है कि तुम्हारी कोई स्थायी संपदा है। क्षण में तुम पाते हो, क्षण में खो देते हो। यह बड़ी तरल है अभी; ठोस नहीं हो गई है। एक क्षण में अहंकार का भाव–और तुम भटक जाते हो। जैसे ही लगा कि ‘मैं कुछ हूं,’ तुम अपात्र हो गये। जैसे ही लगा कि ‘मैं ना-कुछ हूं’, पात्रता उपलब्ध हो गई। तुम्हारे मिटने में ही तुम्हारा गुण है। तुम्हारे होने में ही तुम्हारी बाधा है। तो मन…मन तो सदा अहंकार की तलाश में रहता है। कहीं से भी कोई उपाय मिल जाए तो मन अहंकार को निर्मित करने की चेष्टा करता है। और अहंकार का अर्थ है, उल्टा पात्र। तुम उल्टे रखे हो फिर। फिर मैं बरसता रहूं तो भी तुम्हारे पात्र में एक बूंद न पहुंचेगी। जब अहंकार नहीं है तब तुम सीधे रखे पात्र हो। तब मूसलाधार वर्षा भी न हो, रिमझिम होती रहे तो भी तुम आज नहीं कल भर जाओगे।

अनुग्रह को पकड़ना। और जब भी तुम्हें अहंकार पकड़े तो कुछ खोजना दूसरा तत्व। जैसे ‘मैं चुना गया हूं’, ऐसा भाव तुम्हें पकड़े तो तुम दो रास्ते तुम्हारे लिये खुल जाते हैं: एक तो यह, कि मैं विशिष्ट हूं इसलिए चुना गया हूं। तब तुम भटक गये। तुम पहुंचते-पहुंचते चूक गये। तुम मुड़ गये उस जगह से, जहां से कि मार्ग शुरू होता था। दूसरा उपाय है कि तुम समझो कि मैं–अनुग्रह के प्रसाद से–पात्र नहीं हूं और चुन लिया गया हूं तो तुम ठीक रास्ते पर जा रहे हो।

सूफी फकीर जुन्नैद अपनी प्रार्थनाओं में रोज कहता था कि मैं चकित हूं कि मेरी कोई भी पात्रता नहीं, फिर भी मैं जी रहा हूं। जीने के लिए मैंने कुछ भी अर्जित नहीं किया और जीवन का यह परम धन्यभाग मुझे मिला। और मैं चकित हूं क्योंकि कोई भी कारण नहीं है कि इतनी शांति मुझ पर क्यों बरसे। जहां लोग इतनी अशांति से जल रहे हैं, वहां क्यों मेरे ऊपर यह शांति बरसती है? उसकी प्रार्थना में एक अजीब बात थी। वह कहता था परमात्मा! मैं यह मान नहीं सकता कि तुम न्याययुक्त हो। मैं यह मान नहीं सकता कि तू न्याययुक्त है। तू जरूर मेरी तरफ पक्षपात कर रहा है। मुझ अपात्र पर इतना बरस रहा है।

पर यही उसकी पात्रता थी।

खुद को अपात्र समझना अध्यात्म के मार्ग पर पात्रता है। और जिस दिन तुम अपने को समझोगे योग्य, उसी दिन तुम भटक गये। और मन सदा तुम्हें भटकायेगा। पहुंचते-पहुंचते सीढ़ियां हाथ से छूट जाएंगी।

झेन फकीर बोकूजू की मृत्यु करीब आई तो उसने अपने आश्रम में खबर की। वहां कोई पांच सौ संन्यासी थे–जापान के चुने हुए लोग, नवनीत जैसे, श्रेष्ठतम! एक से एक बड़े पात्र– ज्ञानी, विचारशील, ध्यानी। उसने घोषणा की कि अब वक्त आया, मैं विदा हो जाऊंगा; तो मुझे अपना उत्तराधिकारी चुनना है। तो जो व्यक्ति भी सोचता हो कि मेरा उत्तराधिकारी होने के योग्य है, वह चार छोटी-सी पंक्तियों में मेरे द्वार पर रात एक सूत्र लिख जाए, जिसमें सारे धर्म का सार आ जाता हो।

जो पात्र थे, वे चुप ही रहे क्योंकि पात्र योग्यता की घोषणा नहीं करता। जो पात्र थे, उन्होंने गुरु की झोपड़ी की तरफ जाना बंद ही कर दिया। वह बात ही खतम हो गई। ऐसे भी घूमने उस तरफ न जाते कि कहीं खयाल न आ जाए लिखने का। लेकिन जो अपात्र थे, वे रात-रात भर तैयारियां करने लगे। चार पंक्तियों में सारे धर्म का सार डाल देना है। एक चौपाई लिख देनी है। काम कोई बड़ा कठिन नहीं है। क्योंकि चौपाइयां पहले से ही लिखी पड़ी हैं, जिनमें धर्म का सारा सार आ जाता है। और इतनी-सी बात के लिए इतने बड़े आश्रम का, जिसकी ख्याति दूर-दिगंत तक थी, उत्तराधिकारी हो जाना! संपत्ति विराट थी। पांच सौ भिक्षु शिष्य थे और लाखों श्रावक शिष्य थे। बड़े से बड़ा आश्रम था बोकूजू का।

अनेक ने अपनी रातें चौपार्ऌ बनाने में खर्च कीं। और फिर आखिर जो सबसे बड़ा पंडित था, जो शास्त्र का सबसे बड़ा ज्ञाता था, उसने जाकर एक रात चौपाई लिखी। चौपाई में जरूर शास्त्र का सार आ जाता था, धर्म का आता हो या न आता हो। और धर्म और शास्त्र बड़ी अलग बातें हैं। शास्त्र में जो भी लिखा है उसको निचोड़ दिया था उसने। उसने चार छोटी सी पंक्तियां लिखीं कि:

‘आदमी का मन दर्पण की भांति है। इस दर्पण पर कर्मों की धूल जम जाती है। धूल को पोंछ दें, फिर स्वच्छ ब्रह्म उपलब्ध है।’

समस्त शास्त्रों का सार आ गया। यही सारे शास्त्र कह रहे हैं–चाहे पतंजलि, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर कि मन तुम्हारा गंदा हो गया है कर्मों के कारण। कर्म की लंबी शृंखला है। जैसे कोई यात्री किसी धूल-धवांस भरे रास्ते से वर्षों तक यात्रा करता रहा हो। स्नान का मौका न मिला, सुविधा न मिली जल की, कोई सरोवर न आया, तो धूल ही धूल से भर जाए।

फिर एक सरोवर में छलांग लगायी, सारी धूल धुल जाए और यात्री स्वच्छ और ताजा हो जाए क्योंकि भीतर की स्वच्छता कभी नष्ट तो नहीं होती। धूल बाहर ही जम सकती है, भीतर तो जा नहीं सकती। भीतर का ब्रह्म तो सदा निखालिस है। बस, ऊपर के कपड़ों पर गंदगी आ सकती है। वह कभी गंदा नहीं हो सकता, जो तुम हो। वह दीया जो बिन बाती बिन तेल जलता है, उस पर कभी कोई धुआं नहीं उठता; क्योंकि धुआं तो तेल के कारण उठता हैं। बाती गीली होती है इसलिए उठता है। लेकिन जहां बाती नहीं, तेल नहीं, वहां धुआं कैसे उठेगा? वहां अग्नि शुद्ध जलती है। तो भीतर तो कुछ कभी पहुंचता नहीं; बस ऊपर ही सब जम जाता है।

तो सार की बात तो कह दी थी कि मन एक दर्पण की भांति है। यही तो सभी ने कहा है।

‘कर्म का मल जम जाता है’–यही सभी शास्त्रों का सार है। धो लो इसे–आचरण, योग, चरित्र, धर्म, नीति धोने के उपाय हैं। और फिर तुम शुद्धतम हो, जो कि तुम सदा थे। जो तुमने कभी खोया नहीं था, वह तुम्हें फिर मिल जाएगा। तुम्हारी परम शुद्धता पुनः प्रगट हो जाएगी। आविष्कार है यह, कोई नये की उपलब्धि नहीं। धूल भर झाड़ देनी है।

सुबह गुरु उठा, देखा दीवाल पर लिखा सूत्र और कहा, किस मूढ़ ने यह उपाय किया है? उसे पकड़ो! भाग न जाए।

डर के कारण…डर तो था ही उस महापंडित को। पंडित भय के तो कभी बाहर नहीं हो सकता क्योंकि कितना ही वह समझ ले, भीतर तो जानता है कि मैं अभी समझा नहीं। कितने ही शास्त्र कंठस्थ हो जाएं, लेकिन कंठ से नीचे तो शास्त्र कभी गया नहीं; जा भी नहीं सकता। हृदय तो रिक्त ही रह जाता है। और कंठ में फांसी लग जाती है पांडित्य से। कंठ अवरुद्ध हो जाता है।

जानता तो था ही कि यह सब शास्त्र में ही लिखा है, जो मैंने पढ़ा है। और जो मैंने सार निकाला है, वह कोई अनुभव का सार नहीं है। वह मेरी बुद्धि की ही बातचीत है। और गुरु को धोखा देना असंभव है इसलिए दस्तखत उसने नहीं किये थे। इतनी उसने होशियारी की थी कि अगर ठीक पाया गुरु ने, तो घोषणा कर दूंगा मैंने लिखा है। अगर ठीक न पाया गुरु ने तो इनकार कर जाऊंगा। फिर भी डर था कि इससे भी बचना आसान नहीं है। गुरु फौरन पहचान लेगा किसने लिखा है! इसलिए रात लिखकर वह भाग गया था आश्रम के बाहर। अपने मित्रों को जता गया था कि अगर गुरु स्वीकार कर ले तो मुझे खबर कर देना, मैं बाहर छिपा हूं।

गुरु ने देखा और उसने कहा, यह किस मूढ़ ने लिखा है? उसे पकड़ो! भाग न जाए। उसकी मुझे पिटाई करनी ही पड़ेगी। बड़ा सन्नाटा आश्रम में छा गया। अनेक लोगों ने चौपाइयां तैयार कर रखी थीं, उन्होंने हिम्मत ही छोड़ दी। क्योंकि महापंडित हार गया, तो हमारी चौपाइयां अब क्या काम आएंगी? सारे आश्रम में एक ही चर्चा थी कि गुरु चाहता क्या है? क्या असंभव चाहता है? यह सार तो लिख दिया है।

और कई को तो शक होने लगा कि यह गुरु भी अगर लिखे तो इससे बेहतर लिख नहीं सकता। लिखेगा क्या और? बचता क्या है?

चार पंक्तियों में सब आ गया। मनुष्य की स्थिति आ गई, स्थिति का कारण आ गया, कारण को मिटाने का उपाय आ गया, मिट जाने के बाद परम अवस्था का वर्णन आ गया; और क्या?

बुद्ध ने चार ही तो बातें कहीं है,कि दुख है, दुख का कारण है, दुख को मिटाने का उपाय है और दुख को मिटने की…मिट गये दुख की स्थिति है। ये चार बातें पूरी आ गईं। दुख है क्योंकि मन पर धूल जम गई है। धूल जम गई है क्योंकि तुमने कर्म किये हैं, लंबी यात्रा की है। तुमर् कत्ता रहे हो, अंहकार रहे हो। तुमने सोचा है कि मैंर् कत्ता हूं, इसलिए धूल जम गई है। धूल को पोंछ दो ध्यान से, प्रार्थना से, शुद्ध आचरण से, यम से, नियम से। शुद्धता उपलब्ध हो जाती है। वही निर्वाण है।

लोग चर्चा करने लगे छिपे यहां-वहां, कि यह व्यवहार ठीक नहीं हुआ। यह चर्चा करते हुए आश्रम के भिक्षु जहां भोजन करते थे, वहां से गुजरते थे। तो जो आश्रम का चावल कूटता था आदमी, वह भी एक भिक्षु ही था। बारह वर्ष पहले आश्रम में आया था। बारह वर्ष पहले जाकर उसने इस गुरु बोकूजू के चरणों में सिर रखा था और कहा था कि मुझे अंगीकार कर लें। मैं भी सत्य की खोज में आया हूं।

तो गुरु ने कहा था, ‘तू सत्य के संबंध में जानना चाहता है कि सत्य जानना चाहता है?’ क्योंकि ये दो खोजें अलग-अलग हैं। सत्य के संबंध में जानना हो, आसान बात है; थोड़ा-सा बुद्धि का उपाय और खेल है। शास्त्र का अध्ययन कर, सूत्र कठंस्थ कर, पंडित हो जा। लेकिन ध्यान रख, यह ऐसे ही है, जैसे कोई हीरे के संबंध में जानता हो और हीरा कभी देखने न मिला हो। किसी ने पानी के संबंध में बहुत कुछ सुना हो, लेकिन कंठ के नीचे एक बूंद न उतरी हो। तो तू चाहता क्या है? ‘सत्य को जानना, या सत्य के संबंध में जानना?’

तो उस आदमी ने कहा था कि जब आ ही गया खोजने तो अब सत्य के संबंध में क्या जानना! सत्य को ही जानना है। रास्ता कितना ही लंबा हो, कितने ही जन्म लग जाएं, मैं तैयार हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह आश्रम का चौका है, पांच सौ भिक्षुओं का भोजन बनता है, तू चावल कूटने का काम संभाल ले। और अब दुबारा देख, यहां मत आना। जब जरूरत होगी, मैं आ जाऊंगा।

बारह साल बीत गये; न तो वह आदमी गुरु के पास आया, न गुरु उसके पास गया। वह आदमी सोचने जैसा है। बस वह चावल ही कूटता रहा। वह सुबह उठता और चावल कूटने में लग जाता। सांझ थक जाता, सो जाता। सुबह फिर चावल कूटने में लग जाता। आश्रम में उसकी कोई गणना ही न थी। भिक्षु उसके पास से गुजरते थे तो कोई उसकी तरफ देखता भी न था। कोई नमस्कार भी नहीं करता था। लोग उसे भूल ही गये थे। चावल कूटने वाला था, उससे कुछ लेना-देना नहीं था। धीरे-धीरे कोई उससे बोलता भी नहीं था; क्योंकि सब प्रतिष्ठित थे, वह चावल कूटने वाला था। जब कोई बोलता ही नहीं था तो धीरे-धीरे वह मौन हो गया। और लोगों में ऐसा खयाल हो गया कि वह चुप ही हो गया है, कुछ बोलता भी नहीं–उपेक्षित था।

कुछ दिन तक पुराने विचार मन में चलते रहे। जिस घर से आया था, जिस बाजार से आया था, जिनको पीछे छोड़ आया था, उनकी स्मृतियां भटकती रहीं; लेकिन कितने दिन? एक ही काम था–सुबह से चावल कूटना, रात सो जाना, सुबह फिर चावल कूटना। यह चावल कूटना ध्यान हो गया। यह काम ही ध्यान हो गया। बस एक ही, गुरु ने एक ही बात कही थी कि चावल कूट; तो उसने अपना सारा जीवन चावल कूटने में लगा दिया। मन को, पूरा वहीं संलग्न कर दिया। जैसे बस यही प्रार्थना, यही पूजा, यही साधना, यही योग। और अब कुछ बचा भी नहीं क्योंकि गुरु ने कहा, दुबारा तू आना मत। जरूरत होगी तब मैं आ जाऊंगा। इसलिए भविष्य की कोई चिंता भी न रही, अपने हाथ में कुछ बचा ही नहीं। समर्पण पूरा हो गया। धीरे-धीरे लोग इसे भूल ही गये।

उस दिन जब आश्रम में चर्चा चलती थी और लोग इसके पास से गुजर रहे थे भिक्षु; और वे कह रहे थे कि हमें तो शक है कि यह गुरु थोड़ी ज्यादती कर रहा है। यह खुद भी लिखना चाहे तो इससे बेहतर सूत्र लिख नहीं सकता। आपस में सूत्र का विश्लेषण कर रहे थे। वह चावल कूट रहा था। इसने सूत्र को सुना और यह जोर से हंसा।

यह पहली घटना थी बारह साल में। चौंककर भिक्षुओं ने इसकी तरफ देखा और कहा कि तुम हंसे। बात क्या है?

उसने कहा कि गुरु ने ठीक ही मुझसे कहा था, ‘सत्य के संबंध में जानना कि सत्य को जानना? जिसने भी यह सूत्र लिखा है, सत्य के संबंध में जानता है, सत्य का इसे कोई पता नहीं।’

लोग तो मजाक उड़ाने लगे कि तू चावल कूटते-कूटते सिद्ध हो गया! तो हम व्यर्थ ही सिर फोड़ रहे हैं। इतना शीर्षासन कर रहे हैं, इतने आसन लगा रहे हैं, और सुबह से शाम तक परेशान हैं। जिंदगी तपश्चर्या बना डाली और तू चावल कूटते-कूटते सिद्ध हो गया? तू भी सोचता है कि यह सत्य के संबंध में है, सत्य नहीं ? तो तेरा क्या कहना है?

उसने कहा, ‘यह जरा मुश्किल बात है। बारह साल में मैं थोड़ा बहुत लिखना भी जानता था, वह भूल गया। थोड़ी बुद्धि काम करती थी वह भी अब काम नहीं करती। देखते हैं, चावल हैं, चावल कूटते-कूटते निर्बुद्धि हो गया। लेकिन अगर कोई लिखने को तैयार हो तो मैं बोल दूंगा, तुम दीवार पर जाकर लिख दो।’

उन्होंने कहा, ‘चल साथ।’

उसने कहा, ‘उतने दूर मैं जाने वाला नहीं। यह सूत्र लिख दो जाकर कि मन कोई दर्पण नहीं है जिस पर धूल जम जाए। और जब धूल जमी ही नहीं तो साफ क्या खाक करोगे? जिसने यह जान लिया, उसने सब जान लिया।

किसी ने जाकर दीवाल पर लिख दिया।

गुरु बाहर निकला और उसने कहा, पकड़ो उस चावल कूटने वाले को क्योंकि सिवाय उसके कोई दूसरा यह वचन नहीं बोल सकता। गुरु भागा गया। वह आदमी चावल कूट रहा था और गुरु ने कहा कि वक्त आ गया कि मैं तेरे पास आऊं। तुम ने पा लिया। क्योंकि जो भी जान लेता है, वहां कैसा मन? कैसा दर्पण? कैसी धूल? वैसा व्यक्ति यह भी जान लेता है कि वह सब सपना था, जो टूट गया।

जो सुबह जागता है, क्या वह यह कहता है, सपना झूठ है या सच? कि सपने में हत्या की तो उसकी धूल लगी है? कि सपने में पाप किया तो उसे पोंछना पड़ेगा, साफ करना पड़ेगा? जागते ही पता चलता है कि सपना खो गया, दर्पण खो गया, धूल खो गई, सब खो गया, अकेला मैं बचा। तूने ठीक पहचान लिया। तू यह संभाल, यह कुंजी। तू मेरा उत्तराधिकारी हुआ।’

उसने कहा, ‘लेकिन मैं एक ही तरकीब जानता हूं–चावल कूटना। वही सिखाऊंगा, लेकिन इतने चावल का क्या करोगे? पांच सौ जो लोग हैं, मैं तो चावल कूट-कूटकर पहुंच गया। तुम्हारी बड़ी कृपा…। तुमने मुझे ज्ञान न दिया, तुमने मुझे मंत्र न दिया, तुमने मुझे शास्त्र न दिया, तुम्हारी अनुकंपा! मैं तो चावल कूट-कूटकर…लेकिन पांच सौ को मैं चावल कुटवाऊं? इतने चावल का क्या होगा?

गुरु ने कहा, ‘वह तेरी झंझट वह तू जान!’ इस व्यक्ति के माध्यम से अनेक लोग निर्वाण तक पहुंचे। और उसकी कुल प्रक्रिया इतनी थी कि अगर बगीचे में गङ्ढा खोद रहे हो तो वह कहता, सिर्फ गङ्ढा खोदो। तुम मत रहो और गङ्ढा खोदना ही बचे। तुम मिट जाओ, गङ्ढा खोदने की क्रिया बचे। अगर तुम लकड़ी काट रहे हो तो लकड़ी कटे, तुम न रहो। तुम रास्ते पर चल रहे हो तो चलना तो घटे, लेकिन चलने वाला न हो। तुम कुएं से पानी भर रहे हो तो पानी तो भरा जाए, भरने वाला न पाया जाए कुएं पर।

अनूठे शिष्य उसके सिद्धत्व को उपलब्ध हुए। उसके सिद्धों से जब लोग पूछते तो बड़े हैरान होते। कोई कहता पानी भर-भर के मैं ध्यान को उपलब्ध हुआ। पहले जब पानी भरना शुरू किया तो भरने वाला था, फिर भरने वाले को भरने की क्रिया में लीन किया। फिर पानी तो भरता रहा, हम न रहे;–बस सतोरी, सिद्धि घट गई, समाधि हो गई।

कोई कहता लकड़ी काटते-काटते; कोई कहता गङ्ढा खोदते-खोदते; कोई कहता गायों को चराते-चराते। बोकूजू के इस शिष्य के माध्यम से जो लोग सिद्धि को उपलब्ध हुए, उनकी संख्या बड़ी है। और जीवन की सहजता से वे सिद्धत्व को पहुंचे।

एक तो जानना है सत्य के संबंध में; वह जिज्ञासा है। और एक सत्य को जानना है; वह मुमुक्षा है। और सत्य को जिसे जानना है, उसे मिटना होगा। वह चाहे चावल कूटने में मिटे, चाहे ओंकार की ध्वनि में मिट जाए, चाहे दुकान पर बैठे-बैठे मिट जाए।

कबीर बुनते रहे कपड़े, जुलाहे के जुलाहे रहे; और वहीं सिद्ध हो गये। और जब बाद में लोगों ने कबीर से कहा कि अब तो छोड़ो। अब तो तुम परम स्थिति को पहुंच गये, अब क्यों कपड़ा बुने जा रहे हो? तो कबीर ने कहा, ‘जिसको बुन-बुनकर पहुंचा, उसको अब क्या छोड़ना? इसी से पहुंचा हूं, यही साधन है।’ बस, कपड़े को बुन-बुनकर, धागे डाल-डालकर कबीर मिट गये।

गोरा कुम्हार हुआ; वह मिट्टी रोंद-रोंदकर, घड़े बना-बनाकर उपलब्ध हो गया। रैदास चमार जूते बनाना जारी ही रखा।

एक हसीद फकीर बालसेन के पास आकर एक चमार ने पूछा कि मैं बड़ी मुश्किल में हूं। कब करूं प्रार्थना? क्योंकि मैं हूं गरीब, बारह मेरे बच्चे हैं, पत्नी है, बूढ़ा पिता है, विधवा बहन है। इन सबका पालन-पोषण मेरे ऊपर है और जूता बनाने के सिवाय मैं कुछ जानता नहीं। सुबह से काम में लग जाना पड़ता है। अगर वहां सुबह काम में न लगूं तो ग्राहक दूसरी दुकानों पर चले जाते हैं और वह है प्रार्थना का समय। तो प्रार्थना कब करूं? सांझ को रात देर तक मुझे काम करना पड़ता है, तभी भरण-पोषण हो पाता है।’

बालसेन ने कहा, ‘जब तू जूता ही बनाता है तो प्रार्थना की जरूरत क्या है? बस जूता ही बना। वही तेरी प्रार्थना। और जो ग्राहक आये, वही तेरा परमात्मा।’ और कहते हैं चमार जूते बना-बनाकर और ग्राहक में परमात्मा को देखते-देखते मिट गया; उपलब्ध हो गया।

तुम मिटोगे तो पाओगे। कैसे तुम मिटते हो, यह गौण है। तुम रहे तो तुम चूक जाओगे; कैसे तुम बचते हो, यह गौण है। कोई धन ज्यादा है इसलिए सोचता है, मैं कुछ हूं। कोई बड़े पद पर है इसलिए सोचता है, मैं कुछ हूं।

तुम सोच सकते हो कि तुम थोड़े से चुने हुए लोगों में हो, तुम कुछ हो — तुम चूके। तुम्हारी पात्रता किसी भी क्षण अपात्रता हो सकती है। तुम अपनी पात्रता को अपात्रता में मत बदलने देना। सूत्र एक है, तुम अनुग्रह मानना।

इसीलिए सभी संतों ने कहा है, परमात्मा प्रयास से नहीं मिलता; प्रसाद से मिलता है। इसे समझ लो। परमात्मा कभी भी प्रयास से नहीं मिलता; क्योंकि प्रयास में तो अहंकार बचा ही रहता है–मैं कर रहा हूं! जब तक मैं कर रहा हूं कुछ, तब तक वह नहीं मिलता। तब तक मैं मौजूद हूं। इसलिए प्रयास से पहुंचने वाला चांद पर पहुंच जाए, एवरेस्ट पर खड़ा हो जाए, लेकिन प्रयास से चलने वाला स्वयं तक नहीं पहुंच पाता।

अहंकार और स्वयं में विरोध है। तुम जितना ही समझते हो तुम हो, उतना ही तुम अपने स्व को ढांक रहे हो। जितना ही तुम्हारा अहंकार खोयेगा उतना ही तुम्हारा स्व उघड़ेगा। और तुम्हारे उघड़ेपन का नाम ही परमात्मा है। जब तुम्हारा पूरा स्वभाव उघड़ गया, नग्न, अपनी निर्दोषता में प्रगट हो गया, जब तुम खुलोगे पूरे, तुम्हारी पंखुड़ियां खिलेंगी और तुम फूल बनोगे।

तो तुम यह सोच सकते हो कि तुम कुछ हो। बुद्ध के निकटतम शिष्य वंचित रहे आखिरी क्षण तक। आनंद जो उनके निकटतम चालीस वर्ष तक था, आखिरी दिन तक वंचित रहा। और रोने लगा और उसने उनसे कहा, कि अब तुम छोड़ रहे हो! मेरा क्या होगा? और चालीस साल मैं तुम्हारे साथ रहा, कुछ पाया नहीं। बुद्ध ने कहा, ‘मैं क्या कंरू? तेरी अकड़, कि तू बुद्ध के साथ है, बाधा बन गई। तेरी जिद, कि तू साथ ही रहेगा, बाधा बन गई। तेरा खयाल, कि तू बुद्ध का चचेरा भाई है, और न केवल चचेरा भाई है, बड़ा चचेरा भाई है।’

क्योंकि जब आनंद पहली दफा दीक्षा लेने आया तो उसने कहा, सुनो, दीक्षा के बाद मैं तो शिष्य हो जाऊंगा, अभी दीक्षा के पहले मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। तुम्हें मैं दोत्तीन बातें कहता हूं, वह बड़े भाई की आज्ञा समझना। एक, कि दीक्षा लेने के बाद तुम जहां भी जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। तुम यह न कह सकोगे कि आनंद कहीं और जाओ। मैं कहीं विहार न करूंगा। यह बड़े भाई की हैसियत से तुमसे कह रहा हूं। दीक्षा के बाद तो फिर मैं कुछ न कह सकूंगा। यह वचन तुम मुझे दे दो। तुम जहां सोओगे, वहीं मैं सोऊंगा उसी कमरे में। मैं क्षण भर तुम्हें छोड़ूंगा नहीं और तुम यह न कह सकोगे कि एकांत चाहिए। और तीसरी बात: आधी रात भी किसी को मिलाऊंगा तो मिलना पड़ेगा। तुम यह न कह सकोगे कि नहीं, यह कोई मिलने का वक्त है? और चौथी बात कि कोई भी प्रश्न पूछूं, तुम टाल न सकोगे; जवाब देना पड़ेगा। यह बड़े भाई की हैसियत से मांगता हूं।

फिर आनंद दीक्षित हो गया और ये चार बातें बुद्ध ने सदा पूरी कीं। वक्त-बेवक्त किसी को मिलाया, मिले, संगत-असंगत सवाल पूछा, जवाब दिया। चालीस साल तक आनंद को छाया की तरह साथ रखा। लेकिन वह अकड़ कि मैं बड़ा भाई हूं बुद्ध का भीतर बनी रही। रस्सी जल भी गई, तो भी अकड़ बनी रही। तो बुद्ध ने कहा, जब तक मैं मर ही न जाऊं आनंद, तू मुक्त न हो सकेगा क्योंकि तुझे मैं अलग कर नहीं सकता; तेरी अकड़ जाती नहीं, अब एक ही उपाय है कि मैं खो जाऊं, ताकि तू अकेला रह जाए।

बुद्ध जिस दिन मरे उसके दूसरे दिन आनंद बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया। सब सहारा खो गया तो अहंकार के खड़े होने की जगह न रही। तुम बुद्ध को भी अहंकार का सिंहासन बना सकते हो।

अनुग्रह का खयाल रखना। प्रयास से कभी सत्य मिलता नहीं, क्योंकि प्रयास में तो तुम बच ही जाते हो। इसलिए संत कहते हैं प्रसाद से; उसकी कृपा से। यह बड़ी मीठी बात है।

तुम्हारे करने से क्या होगा? तुम्हारा करना कितना छोटा है! तुम करोगे भी क्या? माला फेरोगे, क्या कर रहे हो तुम? नाम रटोगे? राम…राम…राम…राम…करोगे, क्या कर रहो हो? तोते कर लेते हैं। तुम करोगे क्या? यह न खाओगे, वह न पीओगे; इसका कितना मूल्य है? यह कपड़ा न पहनोगे, वह कपड़ा पहनोगे; इसका कितना अर्थ है? तुम्हारे करने की सार्थकता कितनी? गहराई कितनी? तुम करोगे क्या? अहंकार का करना जाएगा कहां? छिछला अहंकार! उसके कर्म भी छिछले होंगे। कोई सागर की लहर सागर की गहराई में तो जा नहीं सकती। ऊपर ही रहेगी। कितनी ही उछल-कूद करे, कितना ही शोर-शराबा मचाये, नाचे, चिल्लाये, लेकिन गहराई में नहीं जा सकती। लहर सतह पर ही रहेगी। अहंकार सतह पर है; वह भीतर नहीं जा सकता। वह गहराई में नहीं ले जा सकता। तुम कुछ भी करो, तुम्हारा किया हुआ ऊपर ही ऊपर रहेगा।

इसलिए दो उपाय हैं। और दो उपाय सिर्फ दो तरह की भाषा के कारण हैं। एक तो यह है कि तुम कुछ न करो, तुम निष्किय हो जाओ; तुम अकर्म में लीन हो जाओ। बुद्धों ने कहा, तुम कुछ भी मत करो। तुम करना ही छोड़ दो ताकि लहर मिट जाए। जब लहर मिट जाती है तो गहरे में प्रवेश हो जाता है। क्योंकि सागर के भीतर जाने के लिये लहर का रूप बाधा है। लहर मिटी कि फिर सागर के भीतर जा सकती है। भीतर कोई लहर नहीं है, भीतर परम शांति है। जब तक लहर शांत न हो जाए, भीतर न जा सके। तो बुद्ध कहते हैं, तुम चुप हो जाओ। और तुम करो ही मत कुछ। तुम अकर्म में लीन हो जाओ। यह एक ढंग है।

एक ढंग यह है कि परमात्मा करने वाला है, करना सब उस पर छोड़ दो। तुम सिर्फ उसके उपकरण हो जाओ। यह दूसरा ढंग है। यह कृष्ण का मार्ग है। कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, ‘तू उपकरण हो जा, निमित्त मात्र। वह कर रहा है, तू नहीं कर रहा है। वह करवा रहा है। स्वर उसके हैं, तू भला बांस की पोंगरी है, बांसुरी है। वह बजा रहा है। जैसे उसे बजाना हो, बज! बाधा मत डाल। तू बीच में खड़ा मत हो कि मैं यह स्वर तो बजाऊंगा और यह स्वर न बजाऊंगा। यह गीत तो मुझे पसंद है, यह गीत मुझे पसंद नहीं। यह तू बीच में खड़ा मत हो। तू बांस की पोंगेरी हो जा। उसके स्वरों को निकलने दे, तू न बाधा डाल, न अड़चन खड़ी कर। न तू अपनी तरफ से निर्णय ले। निर्णय उसका, कर्म उसका। न तूर् कत्ता है, न तू निर्णायक है। तू सिर्फ निमित्त है। तू सिर्फ उपकरण है, साधन है।’

यह एक मार्ग है। यह भक्त का मार्ग है। एक मार्ग है कि तू निष्क्रिय हो जा, तू कुछ भी मत कर। तू है ही नहीं–शून्यवत! यह ज्ञानी का मार्ग है।

दो ही मार्ग हैं। और दोनों का मतलब एक है। चाहे परमात्मार् कत्ता हो, या तुम निष्क्रिय हो जाओ; यह दो छोरों से एक ही चीज की तरफ जाना है। परमात्मार् कत्ता है तो अहंकार समाप्त हुआ। तुम निष्क्रिय हुए तो अहंकार समाप्त हुआ। और जहां अहंकार नहीं, वहीं सब प्रगट हो जाता है।

भगवान : …कुछ और?

भगवान! क्या हम पूछ सकते हैं कि भगवान बुद्ध तो परम ज्ञानी थे और आनंद अज्ञानी–चाहे उनका बड़ा भाई ही क्यों न हो। फिर उन्होंने–एक ज्ञानी ने अज्ञानी की ऐसी शर्तें क्यों मानी थीं, जो उसके कल्याण में नहीं थीं?

ज्ञानी अज्ञानी की शर्तें न माने तो अज्ञानी भटक जाए। यही उसके कल्याण में था। मुक्त तो हो सका–बुद्ध के मरने के बाद सही; लेकिन अगर बुद्ध इनकार कर दें तो आनंद सदा के लिये भटक जाएगा। उसकी अकड़, उसके बड़े भाई का अहंकार दीक्षित न होने देगा। तो बुद्ध ने यह चार बेहूदा बातें मान लीं। जिनका कोई अर्थ बुद्ध को नहीं था। लेकिन यही उपाय था।

ज्ञानी बहुत बार झुकता है ताकि तुम्हें उठा सके। स्वाभाविक है, जब तुम रास्ते पर गिर पड़ो तो जो खड़ा है, वही झुकेगा। तुम कैसे झुकोगे उठने के लिए? जो खड़ा है, वह झुकता है ताकि गिरे को उठा ले।

बुद्ध झुके। चालीस साल लगे, लेकिन चालीस साल कुछ भी नहीं है। इस अनंत यात्रा में चालीस साल क्षण भर से ज्यादा नहीं हैं। आनंद मुक्त हो सका। लेकिन बुद्ध इनकार कर देते और कहते ये पागलपन की बातें हैं, तो आनंद लौट ही गया होता। वह दीक्षित होने को राजी नहीं होता।

जो चालीस साल बुद्ध के पास रहकर अहंकार न छोड़ पाया, बुद्ध ने अगर उसकी शर्तें न मानी होतीं तो तुम सोचते हो, वह दीक्षित हुआ होता? चालीस साल बुद्ध की सतत सान्निध्य में रहकर जिसका अहंकार न मिटा, वह बुद्ध के इनकार करने से उसका अहंकार मिटता? असंभव! वह दीक्षित तो होता ही नहीं, शायद बुद्ध के विपरीत हो जाता। वह खुद तो ज्ञान को उपलब्ध होता नहीं, शायद बुद्ध के विरोध में प्रचार करता और अनेकों को ज्ञान के मार्ग से जाने से रोकता।

बुद्ध की करुणा है कि वे झुके। और जो जानता है, वही झुक सकता है। जो नहीं जानता वह कैसे झुकेगा? जो जानता है वह झुकता है; ताकि धीरे-धीरे तुम्हें राजी करे, ताकि तुम भी झुकना सीख सको। ज्ञानी ही तुम्हारी शर्तें मानेगा क्योंकि तुम तो उसकी शर्तें समझ भी नहीं सकते; मानना तो बहुत दूर!

बुद्ध घर वापिस लौटे बारह वर्ष के बाद। तो बुद्ध ने आनंद से कहा, महल मुझे जाना होगा। यशोधरा बारह वर्ष से प्रतीक्षा करती है। मैं उसका पति न रहा, लेकिन वह अभी भी मेरी पत्नी है। यह ज्ञानी और अज्ञानी की समझ है। मैं उसका पति न रहा। अब तो मैं कुछ भी नहीं हूं। न किसी का पति हूं, न किसी का पिता हूं, न किसी का बेटा हूं, लेकिन वह अब भी मेरी पत्नी है। उसका भाव अभी भी वही है। और वह नाराज बैठी है। बारह साल का क्रोध इकट्ठा है। और उसका क्रोध स्वाभाविक है क्योंकि एक रात अचानक मैं घर छोड़कर भाग गया उससे बिना कहे। वह माननीय है, राजघर की है, राजपुत्री है, बड़ी अहंकारी है। और उसको भारी आघात लगा है। उसने किसी से एक शब्द भी नहीं कहा, वह कोई छोटे घर की अकुलीन महिला नहीं है।

बुद्ध के जाने के बाद यशोधरा ने बुद्ध के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। बारह वर्ष चुप रही। इस बात को उठाया ही नहीं। बुद्ध के पिता भी चकित, बुद्ध के परिवार के और लोग भी चकित। साधारण घर की स्त्री होती, छाती पीटती, रोती, चिल्लाती, हल्की भी हो जाती। असाधारण थी। यह बात किसी और से कहने की तो थी ही नहीं। यह बुद्ध और उसके बीच का मामला था। मान! क्षत्रिय की लड़की, बड़े राजघर की पुत्री! आंसू कोई देखे यह तो बात समझ में नहीं आती थी। लेकिन मुस्कुराती रही। बच्चे को बड़ा किया। राहुल बारह वर्ष का हो गया। बेटे को भी कभी उसने कुछ नहीं कहा पिता के संबंध में। वह चुप ही रही, जैसे बात ही समाप्त। लेकिन भीतर तो आग जलती रही। बाहर निकल जाती तो हल्की हो जाती। भीतर तो बड़ा क्रोध इकट्ठा होता गया। और किसी पर निकाल भी नहीं सकती। यही आदमी जब मिलेगा तभी बात हो सकती है। दूसरे से तो अब कोई बात करने में कोई अर्थ भी नहीं है। दूसरे से तो अब कोई संबंध भी नहीं है।

तो बुद्ध ने कहा, ‘वह प्रतीक्षा कर रही है, बारह साल का क्रोध है; मुझे जाना होगा’। सारा गांव बुद्ध को लेने आया था। पिता आये थे, परिवार के लोग आये थे, बुद्ध ने देखा लेकिन पत्नी वहां नहीं थी। बुद्ध ने कहा, ‘वह आयेगी भी नहीं क्योंकि मैं ही उसे छोड़कर भागा हूं, जाना मुझे ही चाहिए।’

यह ज्ञानी झुकता है। अज्ञानी को उठाना हो तो ज्ञानी को झुकना पड़ता है। महल के भीतर जाकर बुद्ध ने आनंद से कहा कि तेरी चार शर्तें जो मैंने स्वीकार की हैं, अगर तू आज्ञा दे तो आज तू घड़ी भर मुझे अकेला छोड़ दे। क्योंकि मैं यशोधरा को जानता हूं। तेरे सामने उसकी आंख से आंसू न गिरेगा। तेरे सामने वह एक अभद्र शब्द मुझसे न बोलेगी। तेरे सामने वह शिष्टाचार कायम रखेगी। और यह जरा ज्यादती होगी मेरी तरफ से। तेरी मौजूदगी उसे हल्का न होने देगी। बारह साल उसने प्रतीक्षा की है। तू कृपा कर। अगर तू कर सके तो तू थोड़ा पीछे रुक जा, ताकि वह अकेले में पाकर अपने सारे क्रोध को निकाल दे।

यह एक ही मौका है, जब बुद्ध ने आनंद से आज्ञा मांगी–पुरानी जो प्रतिज्ञा थी, जो शब्द मानने थे उसके विपरीत। और आनंद ने भी यही सवाल उठाया कि परम ज्ञान को उपलब्ध होकर, बुद्धत्व को उपलब्ध होकर कौन पत्नी है? कौन पति? बुद्ध ने कहा, ‘वह मैं जानता हूं, लेकिन यशोधरा नहीं जानती। यह मैं जानता हूं, लेकिन यशोधरा नहीं जानती। और वह भी एक दिन जान सके, इसके लिये मुझे दो-चार कदम उसकी तरफ चलने पड़ेंगे’।

बुद्ध गये। यशोधरा पागल हो उठी। चीखी, चिल्लाई, रोई, नाराज हुई, शिकायतें कीं। थोड़ी देर में उसे खयाल आया, लेकिन बुद्ध चुप खड़े हैं। उन्होंने एक भी बात का जवाब नहीं दिया। उसकी आंखें तो करीब-करीब अंधीं थीं क्रोध से, कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। आंसू जो बारह साल से रुके थे, वर्षा की तरह बह रहे थे।

उसने आंखें पोंछी और गौर से बुद्ध को देखा। और कहा कि बोलते क्यों नहीं? तुम्हारी जबान खो गई? तुम मुझसे पूछे होते, मैं तुम्हें आज्ञा देती। क्या तुम्हें इतना भरोसा नहीं था? मैं क्षत्रिय की पुत्री हूं। तुमने कहा होता, मुझे सब छोड़ना है, मुझे अकेले जाना है तो मैं मार्ग में बाधा नहीं बनती। या तुम कहते कि तुझे भी छोड़कर जाना है, तो मैंने वह भी किया होता। लेकिन यह थोड़ा ज्यादा था कि तुम चुपचाप चोर की तरह रात भाग गये। यह कैसा भरोसे का उल्लंघन? मैंने एक श्रद्धा रखी थी प्रेम पर, वह तुमने तोड़ी।’

बुद्ध उसकी बातें सुनते रहे। लेकिन उन्हें मौन देखकर उसने कहा, ‘तुम चुप क्यों हो? तुम्हारी जबान खो गई?’

बुद्ध ने कहा कि ‘नहीं ; तू अपना सब निकाल ले। तेरा रेचन हो जाए ताकि तू देख सके, कि जो आदमी बारह साल पहले इस घर को छोड़कर गया था, वही वापस नहीं लौटा है। तू किसी और से बातें कर रही है। जो भाग गया था, वह मैं नहीं हूं; क्योंकि वह आदमी तो खत्म हो गया, खो गया, मिट गया। अब यह कोई और आया है। तू उसको गौर से तभी देख पायेगी, तेरी आंख तभी खुलेगी, जब तेरा सारा भाव क्रोध का निकल जाए। तू निकाल ले, तू उसे रोक मत। तू शिष्टाचार को बाधा मत बनने दे। तुझे जो कहना हो तू कह ले ताकि तू हल्की हो जाए। और मैं आया इसीलिए हूं, कि इन बारह सालों में जो मैंने खोया, उसको तू पहचान ले; और जो मैंने पाया उसको तू देख ले। और उस आदमी की तरफ से मैं क्या जवाब दूं, जो तुझे छोड़कर भाग गया था, वह तो मर चुका और उस आदमी को अब तू कहीं भी न पा सकेगी। वह सपना टूट चुका। इसलिए अब कोई तुझे उत्तर देने वाला नहीं है। मैं तुझे उत्तर दे सकता हूं लेकिन वह उस आदमी का उत्तर नहीं है, क्योंकि वह धारा विछिन्न हो गई। यह अलग ही हूं मैं।

यशोधरा ने गौर से देखा, निश्चित यह ज्योतिर्मय पुरुष बिलकुल अन्य था। जिसे उसने जाना था, वासना से पीड़ित सिद्धार्थ को, यह वह नहीं था। जिसकी आंखों से वासना थी, जिसके शरीर में संसार का सब कुछ था, यह वह नहीं है। यह देह और है। यह काया और है। इन आंखों से कोई और बरस रहा है। और बुद्ध अपनी पत्नी से मिलने नहीं आये हैं; न अब बुद्ध पति हैं, न कोई पत्नी है। कोई सोया है उसे जगाने आये हैं।

पत्नी झुकी उनके चरणों में और संन्यस्त हुई; और उसने कहा कि मुझे भी मिटने का रास्ता दो। क्योंकि हो-होकर मैंने दुख ही पाया है; और लगता है, तुम्हें सुख का सूत्र मिल गया है। उसने अपने बेटे को भी आगे किया और कहा कि यह तुम्हारा बेटा है। बारह वर्ष पहले तुम इसे छोड़कर चले गये थे। इसके लिये कोई संपदा, पिता की धरोहर, परंपरा, वंशगत संपति?

बुद्ध आनंद को पीछे छोड़ आये थे। उन्होंने आनंद को बुलाया और कहा, मेरा भिक्षापात्र! वह भिक्षापात्र राहुल को दिया और कहा तू भी दीक्षित हुआ क्योंकि यही मेरी संपदा है। बुद्धों के पास और कुछ देने को नहीं। न तो मैं तेरा पिता हूं, न तू मेरा बेटा है। यह नाता कभी था, वह सपना मेरा टूट गया, तेरा नहीं टूटा; लेकिन जिनका नहीं टूटा, उनको मैं सहारा दूंगा कि उनका सपना भी टूट जाए।

बारह साल का यह बेटा दीक्षित होकर भिक्षु हो गया, पत्नी भिक्षुणी हो गई। यशोधरा निश्चित हिम्मत की महिला रही होगी। फिर हम उसके नाम की कोई खबर नहीं पाते। फिर क्या हुआ? बुद्ध की पत्नी थी। जो भूल आनंद ने की, वह भूल उसने नहीं की। बुद्ध की पत्नी थी, छा सकती थी पूरे संघ पर। घोषणा कर सकती थी अपनी महत्ता की; लेकिन फिर हमें कुछ पता नहीं चलता कि उसका क्या हुआ? यह आखिरी है उसके संबंध में कहानी। इसके बाद बौद्ध शास्त्र बिलकुल चुप हैं, फिर यशोधरा का क्या हुआ? राहुल का क्या हुआ? क्योंकि वह बुद्ध का बेटा था। मरने के बाद कह सकता था कि अब यह मैं अधिकारी हूं इस सारे विराट संगठन का। उसका कोई पता नहीं चलता। जो भूल आनंद ने की बड़े भाई होने की, वह भूल यशोधरा ने नहीं की, वह भूल राहुल ने नहीं की। उन्होंने इसे अनुग्रह समझा कि बुद्ध आये। न आते तो कोई बस न था। बुद्ध ने यह स्मरण रखा। सपने के साथियों को भी जगाने आये। यह अनुकंपा थी।

ज्ञानी झुकता है ताकि तुम्हें झुका सके।

ज्ञानी तुम्हारी शर्तों को राजी हो जाता है, ताकि तुम्हें अपनी शर्तों के लिए राजी कर सके। और निश्चित ही ज्ञानी को ही शुरुआत करनी पड़ती है, क्योंकि तुम तो शुरुआत कैसे करोगे? तुम्हारे तो द्वार बंद हैं। ज्ञानी को ही पहले तुम्हारा द्वार खटखटाना पड़ता है। और तुम जहां खड़े हो, वहां से तुम्हारी मांग आती है। उसमें तुम्हारा कोई कसूर भी नहीं है। ज्ञानी जानता है कि तुम्हारी मांगें व्यर्थ हैं।

जैसे छोटे बच्चों की मांगें, तुम जानते हो व्यर्थ हैं। खिलौने मांगते हैं। लेकिन अगर बच्चों को कुछ सिखाना हो तो, खिलौनों से ही सिखाना शुरू करना पड़ता है। हम उन्हें खिलौने दे देते हैं, और खिलौनों के माध्यम से शिक्षा में प्रवेश कराते हैं। मान्टेसरी की सारी शिक्षा ज्ञानी और अज्ञानी के बीच भी घटती है। छोटे बच्चों को स्कूल में खिलौनों के प्रलोभन में बुला लिया जाता हैं। वह तो प्रलोभन है। जल्दी ही उन खिलौनों के पीछे से शिक्षा का सारा जगत प्रगट होगा। खिलौने खो जाएंगे।

जो मान्टेसरी ने बच्चों के लिए किया है, वही बुद्धों ने अज्ञानियों के लिए किया है। पहले तो खिलौने ही उनको बांटने होते हैं। खिलौनों के पीछे उनका राग बन जाता है, रस बन जाता है। उस रस से वे खिंचे चले आते हैं। और उन्हें पता नहीं कि इसी रस में उनका अहंकार घुल जाएगा, मिल जाएगा। अनंत में उनकी बूंद खो जाएगी, सागर बचेगा।

इसलिए बुद्ध ने शर्तें स्वीकार कर लीं, जानते हुए कि यही रास्ता है आनंद के लिये। लेकिन आनंद को कठिनाई हुई, वह अपने कारण। फिर भी चालीस साल कोई लंबा समय नहीं है। चालीस जन्म भी छोटे हैं। सत्य जब भी मिल जाए, तभी जल्दी है। निर्वाण की झलक जब भी आ जाए तभी शीघ्र है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं, कब समाधि की झलक मिलेगी? मैं उनसे कहता हूं, जल्दी ही। जो ज्यादा हिसाबी-किताबी हैं वे पूछते हैं, जल्दी ही का मतलब? कुछ साल, कुछ महीना, कुछ सप्ताह, कुछ दिन?

मैं उनसे कहता हूं, ‘जब भी मिल जाए तभी जल्दी है। जन्मों-जन्मों के भी बाद मिले तो भी जल्दी है क्योंकि यह अनंत है व्यापार। इसमें समय का कुछ भी तो मूल्य नहीं है। तुम्हारे सत्तर साल का क्या मूल्य है? तुम्हारे सत्तर जीवन का भी कोई मूल्य नहीं है। इस अनंत फैलाव में तुम एक बूंद भी तो नहीं हो। तो जब भी घटना घट जाए तभी जल्दी है। जब भी तुम जग जाओ तभी सबेरा है।

और ज्ञानी को ही पहले चरणों में झुकना होगा। तुम्हारी शर्तें उसे माननी होंगी। तुम्हारा अहंकार शर्तों के साथ आता है। तुम बेशर्त हो भी नहीं सकते। तुम छोटी-छोटी बात में शर्त रखे हुए हो। अगर तुम गुरु के चरण भी छूते हो तो भी तुम्हारी आंखें उठकर देखती हैं कि गुरु ने तुम्हारी अंदरूनी शर्तों को स्वीकार किया या नहीं? चाहे तुम उन शर्तों को बोले भी नहीं। गुरु ने तुम्हें गौर से देखा या नहीं? तुम्हें विशिष्टता दी या नहीं? तुम्हारी उपेक्षा तो नहीं हुई?

अहंकार उपेक्षा से सदा डरा हुआ है क्योंकि उपेक्षा में उसकी मृत्यु हो जाती है। अहंकार सदा चाहता है ध्यान; कोई ध्यान दे। इसलिए जब तुम्हें लोग ज्यादा ध्यान देते लगते हैं तब तुम्हें बड़ा मजा आता है। तुम कुछ भी करने को राजी हो–लोग ध्यान दें।

स्पेन में एक आदमी ने दस वर्ष पहले इकट्ठी सात हत्याएं कीं। गया समुद्र के तट पर और समुद्र के तट पर विश्राम करते लोगों को–जिनसे कोई परिचय भी नहीं, जिनको उसने इसके पहले कभी देखा भी नहीं, कुछ को तो उसने कभी नहीं देखा क्योंकि उनकी पीठ थी–उसने गोली मार दी। सात लोगों की हत्या करके वह पकड़ा गया। अदालत में जब उससे पूछा गया कि तुमने क्या किया? तो उसने कहा कि मैं अखबार में बड़े-बड़े अक्षरों में छपा हुआ अपना नाम और प्रथम पृष्ठ पर अपनी तस्वीर देखना चाहता था। और मुझे कोई रास्ता नहीं सूझा। मरना बेहतर है, लेकिन बिना अखबार में छपे मरने से क्या सार? मैंने हत्यायें की हैं और मैं फांसी के लिये राजी हूं। लेकिन मैं प्रसन्न हूं। सारी दुनिया की नजर मेरी तरफ है। जगह-जगह मेरी चर्चा है। मैं ऐसे ही नहीं चला गया, चर्चित होकर गया हूं।

राजनेता की क्या खुशी है? धनपति का क्या रस है? सम्राटों का क्या मजा है? विशिष्टता का! सब का ध्यान उनकी तरफ लगा है। सब आंखें उनकी तरफ मुड़ी हुई हैं।

क्या मिलता होगा, जब आंखें तुम्हारी तरफ मुड़ती हैं? जब तुम रास्ते से चलते हो, कोई तुम्हारी तरफ देखता नहीं, जैसे तुम हो ही नहीं, क्या खोता है? तुम्हारा अहंकार दूसरों के ध्यान का भोजन करता है। जितने ज्यादा लोग तुम्हारी तरफ देखते हैं, जितनी आंखें तुम्हारी तरफ बहती हैं, उतना तुम्हारा अहंकार मजबूत होता है। जितना कोई तुम्हारी तरफ नहीं देखता, उतना तुम्हारा अहंकार मरने लगता है; उसकी सांसें घुटने लगती हैं। अगर कोई भी तुम्हारी तरफ न देखे और रास्ते से तुम ऐसे गुजर जाओ जैसे तुम थे ही नहीं, कितने दिन तुम जिंदा रह सकोगे अहंकार को लेकर?

गुरजिएफ एक प्रयोग कर रहा था। अपने तीस शिष्यों को लेकर टिफलीस के एक जंगल में गया। एक बंगले में उसने तीस शिष्यों को बंद किया और कहा कि यह साधना है तुम्हारी कि प्रत्येक यही समझे कि यहां अकेला है, उन्तीस नहीं। इसी तरह व्यवहार करो, कि यहां कोई और नहीं, तुम अकेले हो। न तो बोलना, न दूसरे की तरफ देखना, न कोई इशारा करना। चलते वक्त अगर दूसरे के पैर पर पैर भी पड़ जाए तो क्षमा मत मांगना; क्योंकि यहां कोई है ही नहीं। इशारे से भी क्षमा मत मांगना। आंख की मुद्रा से भी मत बताना कि दूसरा है। और तीन महीने में सब हो जाएगा, जिसकी तुम तलाश अनेक जन्मों से कर रहे हो।

लगेगा, तीन महीना सस्ता सौदा है। लेकिन तीन दिन मुश्किल हो गये। और गुरजिएफ ने कहा कि मैं तीसरे दिन के बाद जांच शुरू कर दूंगा। तीन दिन का मौका है तुम्हें व्यवस्थित हो जाने का कि तुम अकेले हो, दूसरा नहीं है। दूसरे की पूर्ण उपेक्षा। लेकिन दूसरे की पूर्ण उपेक्षा में दिक्कत भी नहीं है। तुम तो दूसरे की उपेक्षा करते ही हो। दिक्कत यह है कि तब दूसरा भी तुम्हारी उपेक्षा कर रहा है। उन्तीस लोग तुम्हारी उपेक्षा कर रहे हैं और तुम उन्तीस की।

लोगों ने सोचा था सरल है; उपेक्षा ही तो करनी है, उपेक्षा तो हम करते ही हैं। मालिक नौकर की उपेक्षा कर रहा है, तो पति पत्नी की उपेक्षा कर रहा है, मां बच्चों की उपेक्षा कर रही है। एक दूसरे की उपेक्षा कर रहे हैं। एक चारों तरफ दीवाल बना लेते हैं उपेक्षा की क्योंकि जितनी तुम दूसरे की उपेक्षा करते हो, उतना ही उसका अहंकार छोटा और तुम्हारा बड़ा होता है।

अहंकार चाहता है, सब मुझे ध्यान दें और मैं सब की उपेक्षा कर सकूं। तो सब ने सोचा था कि सरल है। उपेक्षा ही तो करनी है कि दूसरा नहीं है। यही तो हम जिंदगी भर किये हैं। लेकिन जल्दी ही एक घड़ी दो घड़ी में उनको पता चला कि मामला कठिन है क्योंकि हम ही उपेक्षा नहीं कर रहे हैं, वे उन्तीस भी हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। और हमारी उपेक्षा तो एक की है, उन्तीस की उपेक्षा के मुकाबले तो हम मिट जाएंगे।

तीन दिन होते-होते सत्ताइस लोग भाग गये। परीक्षा के पहले ही भाग गये। तीन बचे; और वे तीन टिके तीन महीना। उनमें से एक आदमी ऑस्पेन्स्की था। उसने बाद में कहा कि उन तीन महीनों में जो घटा, उससे और श्रेष्ठ कुछ घट सकता है, इसकी हम आशा भी नहीं कर सकते।

क्या घटा उन तीन महीनों में? अहंकार मरता गया। रोज-रोज उसकी सांस कमजोर होती चली गई। मृत्यु शय्या पर पड़ गया। तीन महीने पूरे होते-होते तुम नहीं बचे क्योंकि तुम्हारे लिये दूसरे की मौजूदगी जरूरी है। वह तुम्हें उकसाता रहे। जैसे आग, अगर कोई भी उसको उकसाये ना, तो धीरे-धीरे राख में दब जाती है। अंगारा धीरे-धीरे बुझ जाता है। तुम्हारे अहंकार को प्रतिपल कोई उकसावा चाहिए। कोई सहारा देता रहे, राख झाड़ता रहे, अंगारे को जगाता रहे। नया ईंधन डालता रहे। तीन महीने में सब बुझ गया।

तीन महीने बाद गुरजिएफ जब उस मकान में गया तो वहां सन्नाटा था, जैसे कोई भी न हो। तीन आदमी वहां थे, लेकिन वहां जैसे कोई भी न हो, ऐसा शून्य था। क्योंकि तुम्हारे विचार की तरंगें चारों तरफ कोलाहल पैदा करती हैं। तुम चाहे न भी बोलो, तुम्हारा अहंकार उपद्रव पैदा करता रहता है। चाहे तुम कहो भी न! अगर तुम अहंकारी आदमी के पास खड़े हो, वह कुछ भी न कहे तो भी तुम पाओगे कि तुम्हें वह तकलीफ दे रहा है।

तुम अहंकारी हो, तुम किसी के पास खड़े हो; कुछ भी नहीं कहते, लेकिन खड़े होकर तुम तकलीफ देना शुरू कर देते हो। तुम सताना शुरू कर देते हो। यह बड़ा सूक्ष्म है। तुम्हारी तरंगें उसको दबोचने लगती हैं। अहंकारी आदमी के पास ज्यादा देर बैठने पर तुम थके-मांदे लौटोगे क्योंकि वह दोहरे काम कर रहा है, तुम्हारी गर्दन दबा रहा है और तुम्हारे ध्यान को खींचकर शोषण कर रहा है।

तीन महीने में यह तीन आदमी मिट गये। इन्हें पहली झलक मिली ना-कुछ होने की।

जब तुम ना-कुछ होते हो, तब सब कुछ की झलक मिलती है। जब तुम शून्य होते हो तब सर्व प्रगट होता है। जहां तुम नहीं हो, वहां पूर्ण विराजमान हो जाता है।

खाली करो सिंहासन। क्योंकि उस सिंहासन पर दो नहीं बैठ सकते; या तो तुम या परमात्मा। उतरो सिंहासन से नीचे; और तुम अचानक पाओगे, परमात्मा वहां विराजमान है। मिटना ही राज है पाने का। अनुग्रह, प्रसाद; प्रयास नहीं।

इसलिए झेन फकीर कहते हैं, ‘एफर्टलेसनेस’, प्रयत्नशून्यता द्वार है। तुमने कोशिश की और तुमने खोया। तुमने पाने की चेष्टा की और तुम भटके। तुम चले और रास्ता भटका। तुम चलो ही मत। तुम हो ही नहीं।

अगर एक भाव को तुम जगा सको कि ‘मैं नहीं हूं।’ चौबीस घंटे प्रयोग करके देखो। चलो, जैसे कोई चलने वाला नहीं। भोजन करो, जैसे कोई भोजन करने वाला नहीं। रास्ते पर देखो, जैसे कोई देखने वाला नहीं। खाली आंखें, खाली हृदय, खाली मन!

चौबीस घंटे–और तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन में ऐसी शांति आने लगी, जिससे तुम अपरिचित हो। और ऐसे रस की धारा बहने लगी, जिसे तुमने कभी नहीं चखा था। और तुम्हारे भीतर कोई नया प्रकाश फूटने लगा। बिन बाती बिन तेल कोई दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है।

पर तुम मिटो, तो ही तुम उसे पहचान सकते हो।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–42

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साधना, बुद्धत्‍व और सहभागिता—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्‍न सार:

1—बुद्ध पुरुष दैनंदिन जीवन में समग्ररूपेण कैसे भाग लेते हैं?

 2—तामसिक, राजसिक और सात्‍विक व्यक्तियों के लिए——कौन सी ध्यान विधियां अनुकूल होती है? आप हमेशा सक्रिय ध्यान की विधि ही क्‍यों देते हैं?

 3—बुद्धत्व व्‍यक्‍तिगत है, तो क्या बुद्धत्व के बाद भी व्‍यक्‍तित्‍व बना रहता है?

 4—हम कहां से आए और हमारा होना कैसे घटित हुआ?

 5—आपने मुझे भ्रमित, सुस्‍त और पागल जैसा बना दिया है। अब मैं श्रद्धा भी अनुभव नहीं करता। मैं क्‍या करूं? कहां जाऊं?

 6—कई बार स्‍नान करने और कपड़े बदलने की आदत के बारे में कुछ कहें।

 7—आप निरंतर ताओत्‍सु पर ही क्‍यों नहीं बोलते रहते?

 8—क्‍या वर्नर एरहार्ड बुद्धत्‍व के निकट है?

पहला प्रश्न : बुद्ध पुरुष दैनंदिन जीवन में समग्ररूपेण कैसे भाग लेते हैं?

कैसे’ की इसमें कोई बात ही नहीं है। जब तुम होशपूर्ण होते हो तो ‘कैसे’ की कोई जरूरत नहीं रहती। जब तुम जागे हुए होते हो तो तुम सहज—स्फूर्त रूप से जीते हो, किसी योजना को मन में नहीं रखते, क्योंकि अब मन ही नहीं होता। बुद्ध पुरुष क्षण— क्षण प्रतिसंवेदन करते हैं—जैसी स्थिति होती है। कोई योजना नहीं, ‘कैसे करें’—इसकी कोई धारणा नहीं, कोई विधि नहीं, वे केवल प्रतिसंवेदन करते हैं। उनका प्रतिसंवेदन किसी अनुगूंज की भांति होता है। तुम पहाड़ पर जाते हो, तुम आवाज करते हो, और पहाड़ियां उसे गुंजा देती हैं। क्यों? तुमने कभी सोचा कि पहाड़ियां कैसे गूंजती हैं? वे प्रतिसंवेदित होती हैं। जब तुम सितार बजाते हो तो क्या सितार के पास कोई ‘कैसे’ जैसी बात होती है? तुम्हारे मन में कोई विधि और कई बातें हो सकती है—कि क्या बजाना है, क्या गाना है—लेकिन सितार? वह तो बस प्रतिसंवेदित करता है तुम्हारी अंगुलियों को।

एक बुद्ध पुरुष होता है शून्य, खाली। तुम आते हो उसके पास; वह प्रतिसंवेदन करता है। इस ‘प्रतिसंवेदन’ शब्द को स्मरण रखना। यह प्रतिक्रिया नहीं है; यह प्रतिसंवेदन है। जब तुम प्रतिक्रिया करते हो तो तुम्हारे मन में विचार रहता है—कैसे, क्या! जब तुम प्रतिक्रिया करते हो तो वह किसी पूर्व—निर्धारित धारणा से निकलती है। जब तुम किसी बुद्ध पुरुष के पास जाते हो, तो वे किसी पूर्व—निर्धारित धारणा से उत्तर नहीं देते, उनके पास कोई धारणा होतीं ही नहीं। उनमें कोई पूर्वाग्रह नहीं होता, कोई धारणा नहीं होती, कोई वैचारिक सिद्धात नहीं होते। वे प्रतिसंवेदित होते हैं। वे उस परिस्थिति के प्रति प्रतिसंवेदन करते हैं।

एक दिन एक आदमी बुद्ध के पास आया और उसने पूछा, ‘क्या ईश्वर है?’ बुद्ध ने उसकी ओर देखा और कहा, ‘नहीं।’ और उसी दिन दोपहर को एक दूसरा आदमी आया। उसने पूछा, ‘क्या ईश्वर है?’ बुद्ध ने उसके भीतर झांका और कहा, ‘ही।’ और उसी दिन सांझ एक तीसरा आदमी आया। उसने पूछा, ‘क्या ईश्वर है?’ और बुद्ध मौन रहे, उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।

यदि उनके मन में कोई निर्धारित दृष्टि रही होती, तो उत्तर में एक संगति होती, क्योंकि वह स्थिति के प्रति प्रतिसंवेदन नहीं होता, वह सदा मन की धारणा से आता; वह बिलकुल संगत होता। यदि वे नास्तिक होते, उनका ईश्वर में कोई विश्वास न होता, तो प्रश्नकर्ता कोई भी हो उससे कुछ

अंतर न पड़ता। असल में बंधी—बधाई धारणा रखने वाला व्यक्ति कभी तुमको नहीं देखता, परिस्थिति को नहीं देखता। उसके पास एक जड़ विचार होता है, सच पूछा जाए तो उसे अपनी ही धुन होती है। बुद्ध ने तीनों आदमियों से कह दिया होता, ‘नहीं’ —यदि वे नास्तिक होते। यदि वे आस्तिक होते तो उन्होंने तीनों आदमियों से कह दिया होता, ‘ही।’ असल में जब तुम्हारे पास कोई निश्चित धारणा होती है, कोई दृष्टिकोण होता है, कोई पूर्वाग्रह, कोई बंधा हुआ ढांचा होता है—मन होता है —तो व्यक्ति, वह जीवंत स्थिति अप्रासंगिक हो जाती है; तब तुम परिस्थिति की ओर नहीं देखते।

अन्यथा प्रतिसंवेदन बिलकुल ही अलग होंगे। एक गहन आंतरिक संगति होगी—अस्तित्व की संगति, उत्तरों की नहीं। बुद्ध वही हैं जब उन्होंने कहा नहीं। बुद्ध वही हैं जब उन्होंने कहा ही। बुद्ध वही हैं जब उन्होंने कुछ नहीं कहा और चुप रह गए। लेकिन स्थितियां भिन्न—भिन्न थीं।

इन तीनों स्थितियों में बुद्ध का शिष्य आनंद उपस्थित था। वह उलझन में पड़ गया। वे तीनों आदमी कुछ जानते न थे उन दो उत्तरों के विषय में जो बुद्ध ने दिए थे, लेकिन आनंद मौजूद था तीनों ही स्थितियों में। जब रात को बुद्ध शय्या पर विश्राम के लिए लेटने वाले थे तो आनंद ने कहा, ‘एक प्रश्न है। आपने एक ही प्रश्न का उत्तर तीन ढंग से क्यों दिया—परस्पर विरोधी ढंग से, विरोधाभासी ढंग से?’

बुद्ध ने कहा, ‘मैंने तुम्हें कोई उत्तर नहीं दिया—तुम चिंता मत करो। तुम अपना प्रश्न पूछ सकते हो और मैं तुम्हें उत्तर दूंगा। वे उत्तर तुम्हें नहीं दिए गए थे। तुम बीच में क्यों आए?’

उत्तर स्थिति के अनुकूल दिया जाता है। जब स्थिति बदल जाती है, उत्तर बदल जाता है। यह एक प्रतिसंवेदन है।

बुद्ध ने कहा, ‘वह पहला पूछने वाला आदमी नास्तिक था। वस्तुत: वह जिज्ञासु था ही नहीं। जब मैंने उसे देखा तो उसके पास एक निश्चित धारणा थी—वह पहले से ही तय कर चुका था, निष्कर्ष पर पहुंच चुका था। एक निष्कर्ष था उसके पास कि कहीं कोई ईश्वर नहीं है। वह आया था केवल मुझसे पुष्टि पाने के लिए, ताकि वह कह सके लोगों से कि बुद्ध का भी विश्वास वही है जो मेरा विश्वास है : कि कहीं कोई ईश्वर नहीं है। इसलिए मुझे उसे नहीं कहना पड़ा।

‘जो आदमी दोपहर को आया, वह भी एक निष्कर्ष लिए आया था। वह आस्तिक था, पक्का परंपरागत आस्तिक—उसका विश्वास था कि ईश्वर है। वह भी उसी मतलब से आया था, मेरा समर्थन पाना चाहता था।

‘तीसरा आदमी जो आया, वह बिना किसी धारणा के आया था, उसका कोई निष्कर्ष नहीं था। वह जिज्ञासु था। वह किसी बात में विश्वास नहीं रखता था : वह किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा था। वह रास्ते पर था; वह शुद्ध था। मुझे उसके साथ मौन ही रहना पड़ा। अब, यदि तुम्हारे पास भी वही प्रश्न है, तो तुम पूछ सकते हो।’

प्रतिसंवेदन सदा ही अलग होगा, और फिर भी गहरे तल पर अंतस सत्ता की एक अनवरत धारा उससे बहती होगी। बुद्ध पुरुष सदा व्यक्ति में, स्थिति में झांकते हैं। स्थिति ही निर्णय लेती है, न कि बुद्ध पुरुष का मन; उनके पास मन होता ही नहीं।

तो तुम पूछते हो, ‘बुद्ध पुरुष दैनंदिन जीवन में समग्ररूपेण कैसे भाग लेते हैं?

यदि तुम कोशिश करते हो समग्र रूप से भाग लेने की, तो वह समग्र न होगा : कोई प्रयास कभी भी समग्र नहीं हो सकता। कोई विधि, कोई तरकीब कभी समग्र नहीं हो सकती, क्योंकि तुम करने वाले होओगे, तुम तो उससे अलग रह जाओगे। तुम समग्र होने की कोशिश कर रहे होओगे। तुम कोशिश कैसे कर सकते हो समग्र होने की? तुम विश्रांत हो जाओ, केवल तभी समग्रता पैदा होती है। तुम प्रवाह के साथ बहो, तभी तुम समग्र होते हो।

समग्रता कोई अनुशासन नहीं है। सारे अनुशासन आशिक होते हैं। इसलिए जो आदमी बहुत ज्यादा अनुशासित होता है, वह कभी नहीं पहुंच पाएगा सत्य तक, क्योंकि वह सदा बोझ लिए रहेगा—निरंतर कुछ न कुछ करते हुए. स्थूल या सूक्ष्म, सतह पर या गहराई में, लेकिन रहेगा वह सदा कर्ता ही। नहीं, बुद्ध पुरुष कर्ता नहीं हैं। असल में जब तुम विश्रांति में होते हो, तब होने का दूसरा कोई ढंग ही नहीं बचता—एकमात्र जो ढंग बचता है, वह है समग्र रूप से सहभागी होने का। उसमें कोई ‘कैसे’ नहीं होता। लेकिन तुम्हारे मन में प्रश्न उठता है, क्योंकि तुम जानते नहीं कि सजगता क्या है। यह ऐसे ही है जैसे कोई अंधा आदमी पूछे, ‘जिन लोगों के पास आंखें हैं, वे हाथ में लकड़ी लिए बिना कैसे ढूंढ लेते हैं अपना रास्ता?’ यदि तुम उससे कहो कि उन्हें कोई जरूरत नहीं किसी लकड़ी की, कि उन्हें कोई जरूरत नहीं ढूंढने की, तो वह विश्वास न कर पाएगा। वह हंसेगा। वह कहेगा, ‘तुम मजाक कर रहे हो। यह कैसे संभव हो सकता है? क्या आप यह कहना चाहते हो कि आंख वाले लोग बिना टटोले ही चलते—फिरते हैं?’ अंधा आदमी इसे नहीं समझ सकता है। उसके पास इसका कोई अनुभव नहीं है। वह सदा टटोलता ही रहा है और तब भी बार—बार ठोकर खाता रहा है और गिरता रहा है। वह किसी भांति सँभले रहने की कोशिश करता रहा है। बुद्ध पुरुष संभालते नहीं हैं। वे अपने को छोड़ देते हैं, और हर चीज अपने आप ही ठीक होती है।

दूसरा प्रश्न:

 

कृपया समझाएं कि तामसिक राजसिक और सात्विक व्यक्तियों के लिए ध्यान की कौन— कौन सी विधियां अलग— अलग रूप से अनुकूल होती हैं। आप हमेशा सक्रिय ध्यान की विधि ही क्यों देते हैं?

सक्रिय विधि असल में बड़ी अदभुत विधि है। यह किसी खास प्रकार के व्यक्ति से संबंधित नहीं है; यह सभी की मदद कर सकती है। जो आदमी तमस से, आलस्य से, निष्कि्रयता से भरा है, यह उसे बाहर ले आएगी उसके तमस से। यह उसमें इतनी अधिक ऊर्जा भर देगी कि तमस टूट जाएगा; सारा न भी टूटे, तो भी उसका एक हिस्सा तो टूटेगा ही। यदि तामसी व्यक्ति इसे कर सके तो यह बहुत चमत्कार कर सकती है, क्योंकि तामसी आदमी में असल में ऊर्जा का अभाव नहीं होता। ऊर्जा तो होती है, लेकिन सक्रिय स्थिति में नहीं होती, सक्रिय दशा में नहीं होती। ऊर्जा गहरी नींद में पड़ी होती है। सक्रिय ध्यान एक अलार्म की भांति काम, कर सकता है : वह निष्‍क्रियता को सक्रियता में बदल सकता है; वह ऊर्जा को गतिशील कर सकता है; वह तामसी व्यक्ति को तमस के बाहर ला सकता है।

दूसरे प्रकार का व्यक्ति, राजसिक प्रकार का, जो कि बहुत सक्रिय होता है—असल में जरूरत से ज्यादा सक्रिय होता है, उसके भीतर इतनी ऊर्जा होती है कि उसे सूझता नहीं कि वह क्या करे, एक ऊर्जा का उफनता आवेग होता है—सक्रिय विधि उसे मदद देगी निर्भार होने में, हलके होने में। सक्रिय विधि के बाद वह निर्भार अनुभव करेगा। और जीवन में सक्रियता के लिए जो उसकी उत्तेजना है, निरंतर पागलपन है, वह धीमा पड़ जाएगा। व्यस्त रहने की उसकी दौड़ तिरोहित हो जाएगी।

निश्चित ही, उसे तमस में जीने वाले व्यक्ति से ज्यादा लाभ मिलेगा, क्योंकि तामसिक व्यक्ति को तो पहले सक्रिय बनाना पड़ता है। वह सीढ़ी के निम्नतम तल पर जीता है। लेकिन एक बार वह सक्रिय हो जाए, तो सब संभव हो जाता है। एक बार वह सक्रिय हो जाए, तो वह दूसरे प्रकार का हो जाएगा; अब वह राजसिक हो जाएगा।

और सात्विक आदमी को सक्रिय ध्यान बहुत सहायता देता है। वह जड़ता में नहीं जीता; उसकी ऊर्जा को ऊपर लाने की कोई जरूरत ही नहीं होती। वह पागलपन की हद तक सक्रिय भी नहीं होता, तो किसी कैथार्सिस की, किसी रेचन की कोई जरूरत नहीं होती उसको। वह संतुलित होता है, दूसरे दोनों प्रकारों से कहीं ज्यादा शुद्ध, दूसरे दोनों प्रकारों से ज्यादा प्रसन्न, दूसरे दोनों प्रकारों से ज्यादा हल्का। तो सक्रिय ध्यान उसकी मदद कैसे करेगा? वह उत्सव बन जाएगा उसके लिए। वह बस बन जाएगा एक गीत, एक नृत्य, समग्र के साथ एक सहभागिता। सब से ज्यादा लाभ उसे ही मिलेगा।

यही है जीवन का विरोधाभास। जीसस कहते हैं, ‘जिनके पास है, उन्हें और मिलेगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी ले लिया जाएगा जो उनके पास है।’ तामसी व्यक्ति को ज्यादा दिए जाने की जरूरत है, लेकिन उसे ज्यादा दिया नहीं जा सकता, क्योंकि उसकी ग्रहण करने की क्षमता नहीं है। सक्रिय ध्यान, अधिक से अधिक, उसे उसके तमस के बाहर सीढ़ी के दूसरे तल तक ले आएगा; और वह भी इस शर्त के साथ कि वह सम्मिलित हो। लेकिन इतनी सक्रियता भी उसके लिए कठिन हो जाती है कि वह सम्मिलित होने का निर्णय ले।

ऐसे लोग आते हैं मेरे पास—उनके चेहरों से तुम समझ सकते हो कि वे गहरी नींद में सोए हैं, गहन निद्रा में पड़े हैं—और वे कहते हैं, ‘हमें नहीं चाहिए ये सक्रिय विधियां, हमें कोई शांत ढंग बताइए।’ वे शाति की बात करते हैं। वे कोई ऐसा ढंग चाहते हैं जिसे वे बिस्तर पर लेटे हुए ही कर सकें! या ज्यादा से ज्यादा वे बड़े प्रयास से बैठ सकते हैं। वह भी पक्का नहीं है कि वे बैठ सकेंगे। फिर सक्रिय ध्यान तो उन्हें बहुत ज्यादा सक्रिय मालूम पड़ता है। यदि वे पूरी तरह सम्मिलित होते हैं तो उन्हें मदद मिलेगी; निश्चित ही दूसरे प्रकार के लोगों जितनी तो न मिलेगी, क्योंकि दूसरे प्रकार का आदमी तो पहले से ही जी रहा होता है दूसरे तल पर। उसमें पहले से ही कुछ बात होती है; उसे ज्यादा मदद मिलेगी। वह इस विधि के द्वारा विश्रामपूर्ण होगा, हल्का होगा, निर्भार होगा। धीरे— धीरे वह सरकना शुरू कर देगा प्रथम तल की ओर, उच्चतम की ओर।

सात्विक व्यक्ति, जो निर्मल है, निर्दोष है, सब से ज्यादा मदद पाएगा। उसके पास बहुत कुछ है, उसकी मदद की जा सकती है। प्रकृति का नियम करीब—करीब बैंक जैसा है. यदि तुम्हारे पास धन नहीं है, तो वे नहीं देंगे। यदि तुम्हें जरूरत है धन की तो वे हजारों शर्तें खड़ी कर देंगे, यदि तुम्हें जरूरत नहीं है धन की तो वे तुम्हें देने के लिए आतुर होंगे। यदि तुम्हारे पास अपना ही काफी है तो वे जितना तुम चाहो उतना देने के लिए सदा तैयार रहते हैं। प्रकृति का नियम ठीक इसी तरह का है : तुम्हें ज्यादा दिया जाता है जब तुम्हें जरूरत नहीं होती। तुम्हें कम दिया जाता है, जब तुम्हें जरूरत होती है।

अस्तित्व ले लेता है यदि तुम्हारे पास कुछ नहीं होता, और अस्तित्व हजार—हजार ढंग से दे देता है यदि तुम्हारे पास कुछ होता है।

ऊपर—ऊपर से तो ऐसा लगता है जैसे कि यह विरोधाभासी हो—गरीब को तो ज्यादा मिलना चाहिए।’गरीब’ से मेरा मतलब है तामसिक व्यक्ति। संपन्न व्यक्ति को, सात्विक व्यक्ति को तो बिलकुल दिया ही नहीं जाना चाहिए। लेकिन नहीं, जब तुम्हारे पास एक निश्चित समृद्धि होती है तो तुम ज्यादा समृद्धि को अपनी ओर खींचने के लिए चुंबकीय शक्ति बन जाते हो। गरीब आदमी दूर हटाता है; वह समृद्धि को आने नहीं देता अपने पास। गहरे तल पर, गरीब व्यक्ति इसलिए गरीब होता है, क्योंकि वह समृद्धि को आकर्षित नहीं करता। उसके पास कोई चुंबकीय आकर्षण नहीं समृद्धि को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए; इसीलिए वह गरीब होता है। किसी ने उसे गरीब बनाया नहीं है। वह गरीब है, क्योंकि वह आकर्षित नहीं करता; उसके पास चुंबकीय आकर्षण नहीं है।

ये सीधे—साफ आर्थिक नियम हैं कि यदि तुम्हारी जेब में कुछ रुपए हों, तो वे रुपए दूसरे रुपयों को तुम्हारी जेब में खींच लेंगे। यदि तुम्हारी जेब खाली है तो जेब भी खो जाएगी, क्योंकि कोई दूसरी जेब जिसमें काफी ज्यादा है, तुम्हारी जेब को आकर्षित कर लेगी। तुम जेब भी खो दोगे। जितने ज्यादा तुम समृद्ध होते हो उतने ही और ज्यादा समृद्ध तुम बनते जाते हो। तो मूल आवश्यकता तुम्हारे भीतर कुछ होने की है।

तामसिक व्यक्ति के पास कुछ नहीं होता। वह तो बस एक मिट्टी का लोंदा होता है। वह निष्किय जीवन जीता है। राजसिक आदमी मिट्टी का लोंदा नहीं होता; वह एक सक्रिय ऊर्जा होता है। तेज सक्रिय ऊर्जा के साथ बहुत संभावना होती है। असल में ऊर्जा के सक्रिय हुए बिना किसी चीज की संभावना नहीं होती। लेकिन फिर उसकी ऊर्जा पागलपन बन जाती है—वह अति पर चली जाती है। बहुत ज्यादा सक्रिय होने के कारण वह बहुत कुछ खो देता है। बहुत ज्यादा सक्रिय होने के कारण वह नहीं जानता कि क्या करे और क्या न करे। वह कुछ न कुछ करता ही रहता है। वह उलटी बातें किए चला जाता है : एक हाथ से वह कुछ करेगा, दूसरे हाथ से उसे अनकिया कर देगा। वह करीब—करीब पागल होता है। सदा स्मरण रहे कि पहले प्रकार का व्यक्ति, तामसिक व्यक्ति, कभी पागल नहीं होता। इसीलिए पूरब में पागलपन ज्यादा नहीं फैला है। तुम्हें बहुत ज्यादा मनोविश्लेषण की आवश्यकता नहीं है, तुम्हें बहुत ज्यादा पागलखानों की आवश्यकता नहीं है। नहीं, पूरब में लोग मिट्टी के लोंदों की भांति हैं, कैसे तुम पागल हो सकते हो? तामसिक में पागलपन की संभावना ही नहीं होती। तुम कुछ करते ही नहीं कि पागल होओ।

पश्चिम में पागलपन करीब—करीब सामान्य बात हो गई है। अब केवल मात्रा का ही अंतर है सामान्य और असामान्य लोगों के बीच। जो पागलखाने के भीतर हैं और जो पागलखाने के बाहर हैं, वे सभी एक ही नाव में सवार हैं—सिर्फ मात्रा का अंतर है। और हर कोई सीमा पर खड़ा है. जरा सा धक्का, और तुम भीतर हो जाओगे। कोई भी चीज गलत हो सकती है—और हजारों बातें हैं तुम्हारे जीवन में। कोई भी चीज गलत हो सकती है, और तुम भीतर हो जाओगे। पश्चिम राजसिक है—बहुत ज्यादा गति है। गति ही लक्ष्य है. चलते रहो, कुछ न कुछ करते रहो। और अब तक कोई ऐसा समाज नहीं बना जो सात्विक व्यक्तियों का हो, अब तक ऐसा संभव नहीं हुआ।

भारत का दावा है, पूरब का दावा है कि वे सात्विक लोग हैं। वे सात्विक नहीं हैं; वे तामसिक हैं। बहुत कम, कभी—कभार कोई बुद्ध होते हैं या कोई कृष्ण होते हैं—उससे कुछ सिद्ध नहीं होता। वे अपवाद हैं; वे सिर्फ नियम को सिद्ध करते हैं। पूरब तामसिक है—बहुत धीमी गति है, बिलकुल जड़, गतिहीन।

मैं अपने गांव जाता था। तो मैं वर्षों के बाद जाता और हर चीज लगभग वही होती। स्टेशन पर मुझे वही कुली मिलता, क्योंकि एक ही कुली है वहां। वह का होता जा रहा है, पर है वही आदमी। मुझे वही तांगे वाला मिलता, क्योंकि बहुत थोड़े तांगे हैं वहां, और उनमें से एक सदा मुझ पर अधिकार दिखाता, कि मैं उसकी सवारी हूं। और वह बहुत मजबूत आदमी है, इसलिए कोई लड़ नहीं सकता उससे, तो वह पकड़ लेता मुझे और जबरदस्ती बिठा देता मुझे अपने तांगे में। और फिर वही चीजें सामने आती चली जातीं, जैसे कि मैं स्मृति में यात्रा कर ‘ रहा हूं वास्तविक संसार में नहीं। मुझे वही—वही आदमी सड़क पर मिलते। कई बार कोई मर गया होता और वही बहुत बड़ी खबर होती। अन्यथा, संसार चलता वर्तुल में : वही सब्जी वाला होता, वही दूध वाला होता—हर चीज वही! लगभग स्थिर ही।

पश्चिम में कोई चीज स्थिर नहीं है, और हर चीज नया समाचार है। तुम कुछ समय बाद घर लौटो—हर चीज बदल गई होती है। हो सकता है तुम्हारी मां तुम्हारे पिता को तलाक दे चुकी हो, हो सकता है तुम्हारा पिता किसी दूसरी स्त्री के साथ भाग गया हो; घर जैसा वहां कोई घर नहीं होता—परिवार का कोई अस्तित्व ही नहीं है!

मैं अमरीकी ढंग के जीवन के विषय से संबंधित एक लेख पढ़ रहा था। लगभग हर आदमी अपना काम बदल लेता है तीन वर्षों में; अपना शहर भी बदल लेता है तीन वर्षों में। हर चीज बदलती रहती है। और लोग जल्दी में हैं। और लोग ज्यादा से ज्यादा तेज दौड़ रहे हैं। और कोई फिक्र नहीं करता कि कहां जा रहे हो तुम।

और सात्विक समाज कहीं है नहीं। केवल बहुत थोड़े से व्यक्ति कई बार इतने संतुलित होते हैं कि तमस और रजस बिलकुल एक ही अनुपात में होते हैं। उनके पास पर्याप्त ऊर्जा होती है सक्रिय होने के लिए, और उनके पास पर्याप्त समझ होती है विश्राम करने के लिए। वे अपने जीवन को एक लयबद्धता बना लेते हैं : दिन में वे सक्रिय रहते हैं; रात को वे विश्राम करते हैं।

पूरब में दिन में भी वे विश्राम करते हैं। पश्चिम में रात में भी वे सक्रिय रहते हैं—अपने सिरों में, स्वम्नों में। सारे पश्चिमी स्वप्न दुख—स्वप्न बन गए हैं। पूरब में तुम्हें ऐसी आदिवासी जातियां मिल सकती हैं जो नहीं जानतीं कि स्वप्न क्या होता है। यह बिलकुल सच है। मैं भारत की कुछ आदिवासी जातियों के संपर्क में आया हूं. यदि तुम उनके स्वप्नों के विषय में पूछो तो वे कहते हैं, ‘ आपका मतलब क्या है?’ बहुत कम ऐसा होता है, और जब ऐसा होता है तो यह गांव की एक बड़ी खबर होती है कि किसी को स्वप्न आया। क्योंकि लोग तो स्‍वप्‍न—रहित विश्राम कर रहे होते हैं। पश्चिम में तो नींद असंभव हो गई है, क्योंकि स्वप्न इतने चल रहे हैं और इतनी तीव्रता से चल रहे हैं, कि हर चीज कंपित हो रही है। कोई चीज संतुलन में नहीं मालूम पड़ती। पूरब में हर चीज मुर्दा है।

सत्व तभी संभव है जब रजस और तमस दोनों संतुलन में होते हैं। जब तुम जानते हो कि कब काम करना है और कब विश्राम करना है; जब तुम जानते हो कि दफ्तर को दफ्तर में ही कैसे छोड़ आना है और उसे घर में लिए नहीं आना है; जब तुम जानते हो कि आफिस के मन को आफिस में ही कैसे छोड़ आना है और फाइलों को घर साथ नहीं लाना है—तब सत्य घटता है। सत्व है संतुलन; सत्य है समत्व।

सात्विक आदमी के लिए सक्रिय विधियां आश्चर्यजनक रूप से सहायक होंगी, क्योंकि वे उसके जीवन में न केवल शांति ही लाएंगी, बल्कि आनंद भी लाएंगी। शांत तो वह पहले से है ही, क्योंकि संतुलन लाता है एक मौन, एक शांति। लेकिन शांति एक नकारात्मक घटना है—जब तक कि वह नृत्य न बन जाए, एक गीत न बन जाए, एक आनंद न हो जाए, वह काफी नहीं है। अच्छा है मौन होना, अच्छा है शांत होना, लेकिन उसी से संतुष्ट मत हो जाना, क्योंकि अभी बहुत कुछ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

शांत होना तो उस आदमी जैसा है जिसकी डाक्टरों ने जांच—पड़ताल की और उन्होंने उसमें कुछ गलत नहीं पाया। लेकिन यह कोई स्वास्थ्य नहीं है। हो सकता है तुम बीमार न होओ, लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम स्वस्थ भी हो। स्वास्थ्य की तो एक अलग ही सुवास है, एक ओज है। रोग के न होने का प्रमाणपत्र स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य एक विधायक घटना है। तुम आनंदित होते हो उससे; तुम पुलकित होते हो उससे। इतना काफी नहीं है कि तुम्हें कोई रोग नहीं है। स्वास्थ्य केवल अभाव नहीं है रोग का, वह स्वयं एक मौजूदगी है।

एक शांत व्यक्ति, एक सात्विक व्यक्ति शांत तो होता है; वह बड़ी शांत जिंदगी जीता है। शांत, पर कोई मुस्कुराहट नहीं। शांत, पर ऊर्जा का कोई उमडाव नहीं। शांत, लेकिन कुछ आभा नहीं। शांत, पर अंधकार; प्रकाश नहीं उतरा होता उसमें। एक सात्विक व्यक्ति बिलकुल शांत हो सकता है, लेकिन उस शाति में वह नाद, वह अनाहत नाद, वह दिव्य गान नहीं उतरा होता। सक्रिय ध्यान उसकी सहायता करेगा नाचने में, नृत्य को उसके हृदय तक लाने में, गान को उसके अस्तित्व के रोएं—रोएं तक लाने में।

निश्चित ही, सात्विक व्यक्ति को सबसे ज्यादा सहायता मिलेगी, सबसे ज्यादा लाभ मिलेगा। लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता, यही नियम है। यदि तुम्हारे पास है, तो तुम्हें और ज्यादा दिया जाएगा; यदि तुम्हारे पास नहीं है, तो जो तुम्हारे पास है वह भी ले लिया जाएगा।

तीसरा प्रश्न:

 

आपने कहा कि बुद्धत्व व्यक्तिगत होता है लेकिन क्या बुद्धत्व के बाद भी व्यक्तित्व बना रहता है?

हीं, बुद्धत्व के बाद व्यक्तित्व नहीं बना रहता, लेकिन बुद्धत्व व्यक्तिगत होता है। तुम्हें इसे ऐसे समझना होगा : नदी मिल जाती है सागर में। जब मिल जाती है तो नदी खो जाती है—उस नदी का कोई व्यक्तित्व नहीं बचता, लेकिन केवल वैयक्तिक नदी ही सागर में मिलती है। तुम बुद्धत्व के सागर में व्यक्ति की तरह उतरते हो. तुम अपनी पत्नी को या अपने मित्र को साथ नहीं ले जा सकते—कोई उपाय नहीं है। तुम अकेले जाते हो। कोई किसी को साथ नहीं ले जा सकता।

कैसे तुम किसी को अपने साथ ले जा सकते हो? जब तुम ध्यान करते हो तो तुम अकेले ही ध्यान करते हो। जिस क्षण तुम आंखें बंद करते हो और शांत हो जाते हो, हर कोई तिरोहित हो जाता है —पत्नी, मित्र, बच्चे। निकटतम लोग भी निकट नहीं रहते; निकटतम भी अब एकदम दूर हो जाते हैं। तुम्हारे गहन मौन में, आत्यंतिक केंद्र में, तुम अकेले ही होते हो। यही एकाकी सत्ता मिलेगी सागर में।

तो बुद्धत्व व्यक्तिगत होता है। निश्चित ही, बुद्धत्व के बाद व्यक्तित्व तिरोहित हो जाता है, कोई व्यक्तित्व नहीं बच रहता। तो याद रखना इसे तुम्हारा भीतर जाना सामूहिक नहीं हो सकता; तुम संगठन की भांति भीतर नहीं उतर सकते, तुम संप्रदाय की भांति भीतर नहीं डूब सकते। तुम नहीं कह सकते, ‘सारे ईसाइयो! चले आओ,’ या ‘ आओ, हिंदुओं! मैं चला बुद्धत्व की ओर—और मैं सारे हिंदुओं को अपने साथ ले जाऊंगा।’

कोई किसी दूसरे को नहीं ले जा सकता। यह बात नितांत अकेले में घटती है। और यही इसका सौंदर्य है, यही इसकी शुद्धता है। अपने परिपूर्ण एकाकीपन में तुम निर्वाण—सागर में उतरते हो। अभी एक क्षण पहले तुम नदी थे, बस क्षण भर पहले तुम एक व्यक्ति थे—वैयक्तिकता के शिखर थे, गौतम थे—और बस क्षण भर बाद कुछ नहीं बचता। तुम नदी की भांति नहीं रहते; तुम सागर हो जाते हो। तुम अब यह भी नहीं कह सकते, ‘मैं हूं।’ सागर ही है, नदी खो गई है।

तुम इसे दो ढंग से कह सकते हो. एक तो ढंग यह है कि नदी खो गई है—यह बौद्ध ढंग है; या तुम कह सकते हो कि नदी सागर हो गई है—यह दूसरा ढंग है, वेदांत का ढंग है। लेकिन दोनों एक ही बात कह रहे हैं।’नदी सागर हो गई है’ या ‘नदी खो गई है; केवल सागर है’, ये एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं।

चौथा प्रश्न:

 

हम कहां से आए हैं और हमारा होना कैसे घटित हुआ है?

हीं से भी नहीं। फ्राम नोव्हेअर! और यह शब्द ‘नोव्हेअर’ दो शब्दों में बांटा जा सकता है, तब यह बन जाता है—’नाउ हिअर’। ये दो संभाव्य उत्तर हैं। दोनों सच हैं। क्योंकि दोनों का अर्थ एक ही है। तुम ‘नोव्हेअर’ से आते हो या तुम ‘नाउ हिअर’ से आते हो।

जब तुम पूछते हो, ‘कहा से?’ तो तुम जानना चाहते हो शुरुआत के विषय में। लेकिन कोई शुरुआत है नहीं। तुम सदा से हो, तुम सदा रहोगे। अस्तित्व आदिहीन है, अंतहीन है। ऐसा नहीं है कि कभी वह शुरू हुआ। ऐसा संभव नहीं, क्योंकि यदि अस्तित्व कभी, किसी तारीख को, किसी दिन शुरू हुआ—जैसा कि ईसाई कहते हैं कि यह जीसस से चार हजार चार वर्ष पहले शुरू हुआ—तो इसका अर्थ हुआ कि समय अस्तित्व से पहले भी था। यह बात मूढ़तापूर्ण होगी, क्योंकि समय अस्तित्व का ही हिस्सा है। इसका अर्थ हुआ कि अवकाश, स्पेस अस्तित्व के पहले था—अन्यथा कहो रखोगे तुम इस नई रचना को? और स्पेस अस्तित्व का ही हिस्सा है।

वैज्ञानिक कहते हैं, वस्तुत: अवकाश और समय, स्पेस और टाइम ही अस्तित्व है। इसलिए समय शुरू नहीं हो सकता, क्योंकि तब दूसरे समय की आवश्यकता होगी। तब तुम पूछोगे, ‘कब

शुरू हुआ यह समय?’ चार हजार चार वर्ष पहले? सोमवार को, सुबह छह बजे? तब तो समय पहले से ही था; अन्यथा कैसे तुम जानते कि यह सोमवार है, और कैसे पता चलता तुम्हें कि इतवार गुजर गया, और कैसे तुम जानते कि सुबह के छह बजे हैं? नहीं, समय की कोई शुरुआत नहीं हो सकती, क्योंकि तब दूसरे समय की आवश्यकता पड़ती है। और यदि तुम कहते हो, ‘ठीक है, हम दूसरे समय को मान लेते हैं।’ तब इस दूसरे समय की शुरुआत नहीं हो सकती। फिर उससे आगे एक और समय की आवश्यकता होगी। तुम एक अनंत कम में जा पड़ते हो। तुम एक निरर्थक तर्कजाल में पड़ जाते हो जिससे कुछ हल नहीं होता।

तो शुरुआत कहीं है नहीं। और यदि शुरुआत नहीं है तो कोई अंत नहीं हो सकता, क्योंकि जो चीज कभी शुरू नहीं हुई, वह समाप्त नहीं हो सकती। कैसे होगी वह समाप्त?

तो तुम कहीं से नहीं आते। यह एक उत्तर हुआ कि तुम कहीं से नहीं आते; तुम सदा से यहीं हो। इससे एक दूसरी और ज्यादा संगत बात आती है. ‘नोव्हेअर’ को तोड दो ‘नाउ हिअर’ में।

मैंने एक कहानी सुनी है। एक नास्तिक था, और वह वकील था और बहुत तार्किक था। और अपने विश्वास की घोषणा करने के लिए उसने बड़े—बड़े अक्षरों में दीवार पर लिख रखा था, ताकि जो भी आए जान ले—उसने बड़े—बड़े अक्षरों में दीवार पर लिख रखा था ‘गॉड इज नोव्हेअर’ ईश्वर कहीं नहीं है। फिर वह पिता बना; उसके घर एक बच्चा पैदा हुआ। और उस बच्चे ने लिखना—पढ़ना शुरू किया। लेकिन इतने बड़े शब्द ‘नोव्हेअर’ का उच्चारण उसके लिए कठिन था। तो वह बच्चा पढ़ता था—वह ‘गॉड इज’ पढ़ सकता था लेकिन वह ‘नोव्हेअर’ नहीं पढ़ सकता था, वह बहुत बड़ा शब्द था। तो उसने उसे दो में तोड़ दिया। वह पढ़ता था. ‘गॉड इज नाउ हिअर।’ और मैंने सुना है कि एक दिन पिता ने यह सुना और वह रूपांतरित हो गया। अचानक कुछ पिघलने लगा उसमें. वह’ बच्चा एक संदेश ले आया था।

तो इस शब्द को दो में तोड़ दो; बच्चे बन जाओ। जब मैं कहता हूं ‘नोव्हेअर’ तो कोशिश करो ‘ नाउ हिअर’ सुनने की। या तो तुम कहीं से नहीं आते हो और या तुम हर घड़ी, हर क्षण, अभी और यहीं पैदा होते हो। क्षण— क्षण है जन्म। क्षण— क्षण मरते हो तुम और तिरोहित होते हो, और क्षण— क्षण तुम फिर से जन्मते हो। तुम एक प्रक्रिया हो, एक बहाव हो, कोई वस्तु नहीं; वस्तु जन्मती है, और जब वह चुक जाती है तो मर जाती है। नहीं, तुम कोई वस्तु नहीं हो। तुम ठहरे हुए नहीं हो। तुम एक प्रक्रिया हो, नदी की भांति एक बहाव हो। हर क्षण तुम फिर—फिर नए हो रहे हो; हर क्षण तुम पुनरुज्जीवित हो रहे हो। हर क्षण तुम मरते हो, और हर क्षण तुम पुनरुज्जीवित होते हो।

यदि तुम वर्तमान क्षण के प्रति सजग हो जाओ तो तुम इस घटना के प्रति भी सजग हो जाओगे. कि हर क्षण तुम अंधेरे में विलीन हो जाते हो, तुम तिरोहित हो जाते हो, और फिर बाहर आ जाते हो नए होकर। हर क्षण घट रही है यह बात, लेकिन तुम सजग नहीं हो इसीलिए तुम चूक जाते हो। उस अंतराल को देखने के लिए बड़ी गहन सजगता चाहिए।

और तब तुम प्रश्न का दूसरा हिस्सा नहीं पूछोगे, ‘…. हमारा होना कैसे घटित हुआ है?’

तुम सदा से हो। यह होना ही है तुम्हारा अस्तित्व। तुम सदा से विकसित हो रहे हो, सदा—सदा से, कोई अंत नहीं है इसका। ऐसा मत सोचना कि कोई समय आएगा जब तुम संपूर्ण हो जाओगे

और कोई विकास नहीं होगा—क्योंकि वह तो मृत्यु होगी। ऐसा कोई समय नहीं आता। व्यक्ति रूपांतरित होता रहता है—एक संपूर्णता से दूसरी संपूर्णता तक।

जाओ हिमालय। तुम्हें एक शिखर दिखाई पड़ता है, और कोई शिखर दिखाई नहीं पड़ते। जब तुम उस शिखर पर पहुंचते हो तो अचानक दूसरे शिखर तुम्हें दिखाई पड़ते हैं। जब तुम उन शिखरों पर पहुंचते हो तो और कई शिखर तुम्हें दिखाई पड़ने लगते हैं। जितने ज्यादा विकसित होते हो तुम, उतना ज्यादा तुम देखते हो कि विकसित होने की और संभावना है। जितना ज्यादा सृजन होता है तुम्हारा, उतने ज्यादा द्वार खुलते हैं तुम्हारे सृजन के—नए परिदृश्य, नए मार्ग, नए आयाम।

जीवन एक सतत गति की घटना है, एक सातत्य है। तुम ऐसे बिंदु पर कभी नहीं पहुंचते जब तुम कह सको, ‘अब मैं पूर्ण हो गया।’ और यदि तुम मांग करते हो ऐसी घड़ी की तो तुम मांग कर रहे हो आत्महत्या की। ऐसा कभी मत चाहना। बहाव के साथ बहे जाना। यदि तुम जुड़े रह सको बहाव से, प्रक्रिया से, तो वह बड़ी सुंदर बात है. बार—बार जन्म लेना, बार—बार नए होना। यदि तुम पूर्ण होना चाहते हो, जड़ चट्टान की भांति, तब कुछ बनने की जरूरत नहीं। तुम मृत्यु की मांग कर रहे हो : तुम जीवन के प्रेम में नहीं हो; तुमने जीवन को जीया नहीं, जाना नहीं।

जीयो जीवन को, स्वीकार करो जीवन को, वर्तमान क्षण के प्रति सजग रहो, और सारे रहस्य तुम्हारे सामने तुम्हारी सजगता द्वारा ही आविष्कृत हो जाएंगे। दूसरा कोई उपाय नहीं है।

तुम कहीं से नहीं आए हो और कहीं नहीं जा रहे हो। तुम सदा मध्य में हो; तुम सदा मार्ग पर हो। असल में मैं कहना चाहूंगा कि तुम ही मार्ग हो, क्योंकि मार्ग तुम से कहीं अलग अस्तित्व नहीं रखता। जब मैं कहता हूं कि तुम विकसित हो रहे हो, तो गलत मत समझ लेना मेरी बात—तुम सोच सकते हो कि तुम अलग हो और तुम विकसित हो रहे हो। नहीं; तुम्हीं हो विकास, तुम्हीं हो विकास की प्रक्रिया, तुम से अलग कुछ भी नहीं है।

फिर अचानक, इस होने की सारी प्रक्रिया में, होने के इस तेज भंवर में, तुम पा लेते हो वह शून्यता—तुम्हारे अपने भीतर। और वह अंतराकाश बहुत अदभुत है। वह अंतराकाश वही है जिसे हम परम आशीष कहते हैं।

पांचवां प्रश्न :

 

आपने मुझे पूरी तरह भ्रमित और सुस्त बना दिया है मैं पागल जैसा हो गया हूं। अब तो मैं श्रद्धा भी अनुभव नहीं करता अब मुझे बताएं कि मैं क्या करूं? कहां जाऊं?

 

ह प्रश्न है ‘स्वभाव’ का। तुम्हारा भी जरूर सामना हुआ होगा उसके पागलपन से। अब वह स्वयं भी इसके प्रति सजग हुआ है—यह एक सुंदर घड़ी है।

यदि तुम भ्रमित हो सकते हो, तो इससे इतना ही प्रकट होता है कि तुम बुद्धिमान हो। केवल एक जड़बुद्धि व्यक्ति भ्रमित नहीं हो सकता; केवल एक मूढ़ व्यक्ति भ्रमित नहीं हो सकता। यदि तुम्हारे पास थोड़ी बुद्धि है तो तुम भ्रमित हो सकते हो। एक बुद्धिमान व्यक्ति ही भ्रमित हो सकता है। इसलिए भ्रमित होने से डरो मत। जरूर तुम्हारे पास थोड़ी सी बुद्धि है। अब बुद्धि बढ़ रही है, परिपक्व हो रही है।

भ्रांति सदा से थी, लेकिन तुम सजग न थे, इसलिए तुम उसे जानते नहीं थे। अब तुम सजग हो और तुम जान सकते हो। यह बिलकुल ऐसा ही है. तुम एक अंधेरे कमरे में रहते हो। वहां जाले लगे हैं, चूहे दौड़ते रहते हैं जहां—तहां, कोनों में धूल इकट्ठी है। और अचानक मैं दीया लिए आ जाता हूं तुम्हारे कमरे में। तो तुम कहते हो, ‘बुझाइए अपना दीया, क्योंकि आप गंदा किए दे रहे हैं मेरा कमरा। यह ऐसा कभी न था; अंधेरे में हर चीज कैसी सुंदर थी!’

मैं कैसे तुम्हें भ्रमित कर सकता हूं? मैं यहां तुम्हारी सारी भ्रांति मिटाने के लिए हूं। लेकिन मिटाने की इस प्रक्रिया में पहला चरण यही होगा कि तुम्हें अपनी भ्रांति के प्रति सजग होना होगा। यदि तुम्हारा कमरा साफ किया जाना है, तो पहला काम यही होगा कि कमरे को वैसा देखा जाए जैसा कि वह है; अन्यथा कैसे तुम साफ करोगे उसे? यदि तुम मानते हो कि वह साफ ही है—और जो धूल के ढेर वहां जम चुके हैं उनका तुम्हें कभी पता ही नहीं चला अंधेरे में, और मकडिया क्या—क्या चमत्कार करती रहीं तुम्हारे कमरे में, और कितने सांप—बिच्छू अपने घर बना चुके हैं वहा—यदि तुम अंधेरे में गहरी नींद सोए रहते हो, तब तो कोई समस्या ही नहीं है। समस्या केवल उसी आदमी के लिए है जिसकी बुद्धि विकसित हो रही है।

इसलिए जब तुम मेरे पास आते हो और मुझे समझते हो तो पहली बात, पहला सामना होगा भ्रांति से। अच्छा लक्षण है यह। ठीक मार्ग पर हो तुम, बढ़ते चलो। चिंता मत करना। यदि भ्रांति है, तो स्पष्टता भी संभव है। यदि तुम भ्रांति को नहीं देख सकते, तब कोई संभावना नहीं है स्पष्टता की। बस इसे देखो. कौन कह रहा है कि तुम भ्रमित हो। भ्रमित मन तो यह भी नहीं कह सकता कि ‘मैं भ्रमित हूं।’ तुम एक ओर खड़े एक द्रष्टा मात्र हो—तुम भ्रांति को अपने चारों ओर छाया देखते हो, धुएं की भांति। लेकिन यह कौन है जो देख रहा है कि भांति है? सारी आशा इसी बात में निहित है कि तुम्हारा एक हिस्सा—निश्चित ही बहुत छोटा हिस्सा, लेकिन वह भी काफी है शुरू में—तुम्हें सौभाग्यशाली अनुभव करना चाहिए कि तुम्हारा एक हिस्सा ध्यान दे सकता है और देख सकता है सारी भ्रांति को। अब इसी हिस्से को और बढ़ने देना। भ्रांति से भयभीत मत हो जाना; अन्यथा तुम इस हिस्से को दबाने में लग जाओगे कि यह फिर से सो जाए ताकि तुम फिर से सुरक्षित अनुभव कर सको।

मैं स्वभाव को बहुत पहले से जानता हूं। वह भ्रमित नहीं था, यह सच है—क्योंकि वह पूरी तरह मूढ़ था। वह हठी था, जिद्दी था। वह करीब—करीब ‘सब कुछ’ जानता था, बिना जाने हुए! अब पहली बार उसका एक हिस्सा बुद्धिमान, सचेत, सजग हो रहा है; और वह हिस्सा देख रहा है आस—पास चारों तरफ : वहा भांति ही भ्रांति है।

सुंदर है यह बात। अब दो संभावनाएं हैं : या तो तुम इस हिस्से की सुनते हो जो कह रहा है कि सब भ्रमित है, और तुम इसे विकसित करते हो—यह एक प्रकाश—स्तंभ बन जाता है। और उस प्रकाश में सारे उलझाव विलीन हो जाएंगे। या फिर तुम घबड़ा जाते हो और भयभीत हो जाते हो —तुम भागना शुरू कर देते हो इस हिस्से से जो कि सजग हो चुका है, तुम इसे फिर से धकेलना शुरू कर देते हो अंधेरे में। तब तुम फिर से ज्ञानी हो जाओगे. जिद्दी, हठी, हर चीज एकदम साफ—सुथरी, कोई उलझाव नहीं। केवल वही आदमी जो ज्यादा जानता नहीं, केवल वही आदमी जो सजग नहीं है—बिना भ्रम के रह सकता है।

एक असली सजग आदमी तो देखेगा, झिझकेगा—हर कदम पर झिझकेगा—क्योंकि कुछ भी निश्चित नहीं है। लाओत्सु कहता है, ‘विवेकशील व्यक्ति बहुत ध्यान—पूर्वक चलता है, जैसे कि हर कदम पर मृत्यु का भय हो।’

एक विवेकशील व्यक्ति सजग हो जाता है भ्रांति के प्रति; यह है पहला चरण। और फिर आता है दूसरा चरण. जब विवेकशील आदमी इतना बोधपूर्ण हो जाता है कि सारी ऊर्जा प्रकाश बन जाती है, तो अब वही ऊर्जा जो भांति निर्मित कर रही थी और भ्रांति में व्यय हो रही थी, बचती ही नहीं; वह विलीन हो जाती है। सारी भ्रांति मिट जाती है; अचानक एक नई सुबह होती है। और जब अंधकार बहुत ज्यादा होता है, तो ध्यान रहे कि सुबह करीब होती है। लेकिन तुम भाग सकते हो।

‘आपने मुझे पूरी तरह भ्रमित.।’

बिलकुल ठीक है बात, यही तो मैं कर रहा हूं। तुम्हें इसके लिए धन्यवाद देना चाहिए।

‘… और सुस्त बना दिया है।’

ही, यह भी ठीक है। क्योंकि मैं जानता हूं स्वभाव को। वह रजोगुणी प्रकृति का है—बहुत ज्यादा सक्रिय। जब वह पहले—पहले आया मुझ से मिलने तो पूरा भरा हुआ था ऊर्जा से। अति सक्रिय—रजोगुणी प्रकृति का था। अब ध्यान और समझ उसकी सक्रियता को मध्यम सुर तक, संतुलित अवस्था तक ला रहे हैं। एक रजोगुणी व्यक्ति जब संतुलित हो रहा होता है, तो वह सदा अनुभव करेगा कि वह सुस्त हो रहा है। यह उसका दृष्टिकोण होता है। वह सदा अनुभव करेगा कि कहां चली गई उसकी ऊर्जा? वह सुस्त हो गया है! क्या हो रहा है उसे? वह यहां आया था बड़ा योद्धा बनने के लिए और सारे संसार को जीत लेने के लिए, और मैं कुल इतना ही कर रहा हूं कि उसे अति सक्रियता से, व्यर्थ की भाग—दौड़ से वापस लौटा रहा हूं।

पश्चिम में तुम्हारे पास एक कहावत है कि खाली मन शैतान का घर है। इसे गढ़ा है रजोगुणी व्यक्तिउयों ने। यह सच नहीं है, क्योंकि खाली मन घर है परमात्मा का। शैतान वहां काम नहीं कर सकता, क्योंकि खाली मन में शैतान बिलकुल प्रवेश ही नहीं कर सकता। शैतान तो केवल सक्रिय मन में प्रवेश कर सकता है। तो खयाल में ले लेना इसे. रजोगुणी मन घर है शैतान का। अति सक्रियता है, तो तुम्हारी सक्रियता का शैतान फायदा उठा सकता है।

तुमने दो विश्वयुद्ध देखे हैं। वे रजोगुणी व्यक्तियों की देन हैं। यूरोप में जर्मनी रजोगुणी है, बहुत ज्यादा सक्रियता है। पूरब में जापान रजोगुणी है, बहुत ज्यादा सक्रियता है। और ये दोनों स्रोत बन गए दूसरे विश्वयुद्ध की सारी मूढ़ताओं के। बहुत ज्यादा सक्रियता!

जरा सोचो, जर्मनी आलसी व्यक्तियों से, सुस्त व्यक्तियों से भरा होता तो क्या करता हिटलर? तुम उनको दाएं मुड़ने के लिए कहते, और वे खड़े हैं। तुम उनसे घूम जाने के लिए कहते, और वे खड़े हैं। असल में तब तक तो वे बैठ चुके होते और सो गए होते।

एडोल्फ हिटलर बिलकुल मूढ़ मालूम पड़ेगा तामसिक लोगों के बीच। और वह बिलकुल विक्षिप्त मालूम पड़ेगा सात्विक समाज में—बिलकुल पागल लगेगा। सात्विक समाज में लोग पकड़ लेंगे उसे और चिकित्सा करेंगे उसकी। तामसिक समाज में वह एकदम मूड मालूम पड़ेगा, नासमझ। लोग आराम कर रहे हैं और तुम नाहक घूम रहे हो झंडे लेकर नारे लगाते हुए—और कोई तुम्हारा अनुयायी नहीं; अकेले हो! लेकिन जर्मनी में वह नेता बन गया, ‘फ्यूहरर’, जर्मनी का सब से महान नेता, क्योंकि लोग रजोगुणी थे।

स्वभाव रजोगुणी प्रकृति का था, क्षत्रिय वृत्ति का, लड़ने को तैयार, क्रोधित होने को सदा ही तैयार; अब थोडा शांत हुआ है। वह दौड़ रहा था एक सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से, और मैं उसे ले आया हूं दस मील प्रति घंटा तक। निश्चित ही वह सुस्त अनुभव करता है। यह आलस्य नहीं है, यह सक्रियता की विक्षिप्तता को सामान्य अवस्था तक ले आना है, क्योंकि केवल वहीं से संभव हो पाएगा सत्व; अन्यथा वह संभव नहीं हो पाएगा। तुम्हें संतुलन पाना होगा रजोगुण और तमोगुण के बीच, आलस्य और गति के बीच। तुम्हें जानना होगा कि आराम कैसे करना है और तुम्हें जानना होगा कि सक्रिय कैसे होना है

केवल विश्राम करना सदा आसान है, और केवल सक्रिय होना भी आसान है। लेकिन इन दोनों विपरीत ध्रुवों को जानना और उनके बीच संतुलन करना और एक लय निर्मित करना बहुत कठिन है—और वह लय ही सत्व है।

‘आपने मुझे पूरी तरह भ्रमित और सुस्त बना दिया है।’

सच है।

‘मैं पागल जैसा हो गया हूं।’

बिलकुल सच है। तुम सदा से हो। अब तुम जानते हो इसे—और यह उस आदमी का लक्षण है जो पागल नहीं है। एक पागल आदमी कभी नहीं जान सकता कि वह पागल है। जाओ पागलखाने; जरा पूछो वहां। कोई पागल नहीं कहता, ‘मैं पागल हूं।’ प्रत्येक पागल मानता है कि सिवाय उसके सारा संसार पागल है—यही है परिभाषा पागलपन की। तुम्हें ऐसा कोई पागल नहीं मिल सकता जो कहे, ‘मैं पागल हूं।’ यदि उसके पास इतनी बुद्धि हो कहने की कि वह पागल है, तो फिर वह बुद्धिमान ही हुआ, फिर वह पागल न हुआ। पागल व्यक्ति कभी स्वीकार नहीं करता। पागल व्यक्ति बहुत ही जिद्दी होते हैं। डाक्टर के पास जाने के लिए भी वे राजी नहीं होते। वे कहते हैं, ‘क्यों? किसलिए? क्या मैं पागल हूं? कोई जरूरत नहीं है, मैं बिलकुल ठीक हूं। तुम जा सकते हो।’

मुल्ला नसरुद्दीन एक मनस्विद के पास गया और उसने कहा, ‘ अब कुछ करना पड़ेगा—चीजें मेरे वश के बाहर हो गई हैं। मेरी पत्नी पूरी तरह पागल हो गई है, और वह सोचती है कि वह रेफ्रिजरेटर बन गई है।’

वह मनस्विद भी थोड़ा चौंका। उसके सामने भी ऐसी कोई समस्या अभी तक नहीं आई थी। उसने कहा, ‘यह तो गंभीर बात है। जरा विस्तार से बताओ मुझे।’

उसने कहा, ‘बताने के लिए ज्यादा कुछ है नहीं। वह रेफ्रिजरेटर बन गई है, वह मानती है कि वह रेफ्रिजरेटर है।’

मनस्विद ने कहा, ‘लेकिन यदि यह केवल मानना ही है तो इसमें कुछ बुरा नहीं। निर्दोष बात है। मानने दो उसे। वह कोई और उपद्रव तो नहीं खड़ा कर रही है?’

नसरुद्दीन ने कहा, ‘उपद्रव? मैं बिलकुल सो ही नहीं पाता, क्योंकि रात भर वह मुंह खोल कर सोती है—और रेफ्रिजरेटर की रोशनी के कारण मैं सो नहीं सकता।’

अब कौन पागल है? पागल आदमी कभी नहीं सोचते कि वे पागल हैं। स्वभाव, यह सौभाग्य की बात है कि तुम सोच सकते हो, ‘मैं पागल हूं।’ यह तुम्हारे भीतर का बुद्धिमान हिस्सा है जो इसे देख रहा है। हर कोई पागल है। जितनी जल्दी तुम देख लो इसे, उतना शुभ है।

‘अब तो मैं कोई श्रद्धा भी अनुभव नहीं करता।’

अच्छा है। क्योंकि जब तुम थोड़े सजग होते हो तो श्रद्धा अनुभव करना कठिन हो जाता है। बहुत सी अवस्थाएं हैं। एक अवस्था है जब लोग संदेह अनुभव करते हैं। फिर वे संदेह का दमन करते हैं क्योंकि श्रद्धा से बहुत आशा बंधती है. ‘समर्पण करो, और तुम सब कुछ पाओगे।’ मैं तुम्हें आशा दिए जाता हूं ‘समर्पण करो, और तुम्हारा बुद्धत्व निश्चित है।’ श्रद्धा बड़ी आशापूर्ण मालूम पड़ती है। तुम्हें लोभ पकड़ता है। तुम कहते हो, ‘ठीक है, तो हम श्रद्धा करेंगे और समर्पण करेंगे।’ लेकिन यह श्रद्धा नहीं है, यह लोभ है—और भीतर गहरे में तुम संदेह छिपाए रहते हो। तुम भीतर— भीतर संदेह करते रहते हो। तुम सजग रहते हो कि श्रद्धा ठीक है, लेकिन बहुत ज्यादा श्रद्धा भी नहीं करनी है। क्योंकि कौन जाने, यह आदमी क्या चाहता हो, मूर्ख ही बना रहा हो, धोखा दे रहा हो! तो तुम श्रद्धा करते हो, लेकिन तुम आधे—आधे मन से श्रद्धा करते हो। और कहीं भीतर संदेह बना ही रहता है।

जब तुम ध्यान करते हो, जब तुम्हारी समझ थोड़ी बढ़ती है, जब तुम मुझे निरंतर सुनते हो, और मैं कई दिशाओं से, कई आयामों से तुम पर चोट करता रहता हूं—तो मैं तुम्हारे अस्तित्व में कई छिद्र बना देता हूं। मैं चोट करता रहता हूं तुम्हें तोड़ता रहता हूं। मुझे तुम्हारा सारा ढांचा तोड़ना है। मुझे तुम्हें तोड़ना है; केवल तभी तुम पुनर्निर्मित हो सकते हो। और कोई उपाय नहीं है। मुझे तुम्हें पूरी तरह मिटा देना है, केवल तभी नया सृजन संभव है।

तो मैं मिटाए जाता हूं; फिर तुम्हें थोड़ी समझ आती है—समझ की झलकें मिलती हैं। उन झलकों में तुम देखोगे कि तुम श्रद्धा भी नहीं करते; संदेह वहा छिपा हुआ है। पहले तुम संदेह करते हो। दूसरी सीढ़ी पर तुम गहरे छिपे संदेह सहित श्रद्धा करते हो। तीसरी सीढ़ी पर तुम सजग हो जाते हो भीतर छिपे हुए संदेह और ऊपर—ऊपर की श्रद्धा के प्रति—और तुम एक साथ श्रद्धा और संदेह कैसे कर सकते हो? तो तुम झिझकते हो, तुम भ्रम में पड़ जाते हो।

इस जगह से दो संभावनाएं खुलती हैं : या तो तुम संदेह को पकड़ लेते हो, वह पहली अवस्था है—जैसे तुम मेरे पास आए थे; या फिर तुम में श्रद्धा विकसित होती है और तुम सारे संदेह गिरा देते हो। यह एक बहुत ही तरल अवस्था होती है। यह दो ढंग से विकसित हो सकती है. या तो तुम नीचे उतर जाते हो जहां तुम फिर से संदेहों से भर जाते हों—झूठी श्रद्धा भी मिट चुकी होती है; या तुम में श्रद्धा का विकास होता है और श्रद्धा एक सुदृढ़ आधार बन जाती है, संदेह का दमित हिस्सा खो जाता है। तो यह अवस्था बहुत नाजुक होती है और व्यक्ति को बहुत सावधानी और सजगता से बढ़ना होता है।

‘अब मुझे बताएं कि मैं क्या करूं? कहा जाऊं?’

एक बार तुम मेरे पास आ गए तो अब कहीं कोई जगह नहीं है जाने के लिए। वैसे तुम कहीं भी जा सकते हो, लेकिन तुम्हें वापस आना पड़ेगा। मेरे पास आना खतरनाक है : फिर तुम कहीं भी जा सकते हो, लेकिन सब जगह मैं तुम्हें घेरे रहूंगा। तो कोई जगह नहीं है जाने के लिए।

और कुछ नहीं है करने के लिए। बस, सजग रहो सारी स्थिति के प्रति। क्योंकि यदि तुम कुछ करने लगे, यदि तुम कुछ करने के लिए आतुर होने लगे, तो तुम सब कुछ गड़बड़ कर दोगे। जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो। उलझाव है, पागलपन है, श्रद्धा जा चुकी है—केवल प्रतीक्षा करना और देखना और बैठे रहना किनारे पर और नदी को थिर होने देना अपने आप। वह थिर होती है अपने से ही; तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है।

बहुत कर लिया तुमने—अब विश्राम करो। बस प्रतीक्षा करो और देखो कि कैसे नदी थिर होती है। वह साफ नहीं है; कीचड़ है उसमें और सूखे पत्ते तैर रहे हैं सतह पर—कूद मत पड़ना उसमें। तुम आतुर हो रहे हो उसमें कूद पड़ने के लिए कुछ करने के लिए, ताकि पानी साफ हो सके—जो कुछ भी तुम करोगे, तुम और ज्यादा कीचड़ मचा दोगे। कृपा करके इस प्रलोभन को रोकना। किनारे पर ही रुकना, नदी में मत उतरना, और बस देखते रहना।

यदि तुम देखते रह सको बिना कुछ किए ही… और करना सब रो बड़ा मोह है मन का। मन कहता है, ‘कुछ न कुछ करो; अन्यथा चीजें कैसे बदलेंगी?’ मन कहता है. ‘केवल प्रयास से ही, केवल कुछ करने से ही कुछ बदल सकता है।’ और यह बात तर्कपूर्ण, आकर्षक, भरोसे की मालूम पड़ती है—और यह बिलकुल गलत है। तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम्हीं हो समस्या। और जितना अधिक तुम कुछ करते हो, उतना ज्यादा तुम अहंकार अनुभव करते हो; ‘मैं’ मजबूत हो जाता है; अहंकार शक्तिशाली हो जाता है।

कुछ करो मत, केवल देखो। देखने से अहंकार तिरोहित होता है, करने से अहंकार मजबूत होता है। बस साक्षी बने रहो। स्वीकार करो इसको—बिलकुल मत लड़ना इससे। यदि उलझाव है तो गलत क्या है? बस एक बादलों भरी शाम, बादलों से घिरा आकाश—बुरा क्या है? आनंदित होओ। बहुत ज्यादा सूर्य भी अच्छा नहीं; कई बार जरूरत होती है बादलों की। क्या बुरा है इसमें? सुबह धुंध से भरी है और तुम धुंधला— धुंधला अनुभव करते हो। क्या बुरा है इसमें? धुंध का भी आनंद मनाओ। जैसी भी स्थिति हो, तुम देखो, प्रतीक्षा करो, और आनंदित होओ। स्वीकार करो। यदि तुम स्वीकार कर लेते हो इसे, तो वही स्वीकार रूपांतरित कर जाता है, वही स्वीकार क्रांति कर देता है।

जल्दी ही तुम देखोगे कि तुम बैठे हो वहां, नदी खो गई—केवल कीचड़ ही नहीं, बल्कि पूरी नदी खो गई। अब कोई धुंध वहां नहीं है, बादल तिरोहित हो चुके, और एक खुला आकाश, एक विराट आकाश उपलब्ध है।

लेकिन धैर्य की जरूरत पड़ेगी। इसलिए यदि तुम जोर देते हो कि ‘अब मुझे बताएं, मैं क्या करूं?’ तो मैं कहूंगा, ‘धैर्य रखो।’ यदि तुम जोर देते हो कि ‘मैं कहा जाऊं?’ तो मैं तुम्हें कहूंगा, ‘और निकट आओ मेरे।’

छठवां प्रश्न:

 

रोज कई बार स्नान करने और कपड़े बदलने की ब्राह्मणों की आदत के बारे में आप कुछ कहेंगे? क्या वर्तमान संन्यासी के लिए यह उचित होगा?

ब्राह्मण पागल हो गए हैं। वे पीड़ित हैं नियमों से, रूढ़ियों से, विक्षिप्तता से। साफ रहना

अच्छा है, लेकिन निरंतर सफाई में लगे रहना पागलपन है। और मन अतियों में डोलता है। तुम या तो गंदे रहते हो, तब तुम नहाते ही नहीं

एक इतालवी संन्यासिनी को मैं जानता था। वह एक कैम्प में साथ थी। मैं बहुत चकित हुआ, वह कभी स्नान ही नहीं करती थी! तो मैंने पूछा और उसने बताया कि साल में एक बार वह स्नान करती है। और वह चकित होकर पूछने लगी, ‘क्या यह काफी नहीं है—साल में एक बार स्नान?’ और फिर ब्राह्मण हैं जो कुछ और कर ही नहीं रहे—बस, केवल स्नान कर रहे हैं!

एक आदमी को मैं जानता हूं वह करीब का रिश्तेदार है, थोड़ा सनकी आदमी है। वह सारी जिंदगी अविवाहित ही रहा। केवल एक बात को छोड़ कर हर ढंग से अच्छा आदमी है। और वह एक बात भी निर्दोष है, किसी का नुकसान नहीं होता, लेकिन उसका पूरी तरह नुकसान हो गया है। वह गरीब आदमी है, क्योंकि ज्यादा उसने कभी कमाया नहीं। अपने पिता द्वारा छोड़ी गई संपत्ति पर ही जीया है। और उसे बहुत कंजूसी से जीना पड़ता है, क्योंकि उसके पास कुछ ज्यादा नहीं है और जो है उसे पूरी जिंदगी चलाना है। और कमाने के लिए उसके पास समय नहीं है उस सनक के कारण; और वह सनक है सफाई। दिन भर वह अपना घर साफ करता रहता है। साफ करने के लिए कुछ है नहीं : एक छोटा सा कमरा है, वह उसे ही साफ करता रहता है। फिर वह स्नान करेगा। और यह उसकी सनक का हिस्सा है कि यदि वह किसी स्त्री के लिए देख ले, तो फिर स्नान करेगा, क्योंकि वह कुंआरा है, बाल ब्रह्मचारी, कि स्त्री की छाया मात्र अशुद्ध कर जाती है उसे!

वह पानी लाने के लिए एक सार्वजनिक नल पर जाता है। वह एकदम सुबह चला जाता है जिससे कि रास्ते में कोई उसे मिले नहीं, क्योंकि अगर कोई स्त्री राह से गुजर जाए तो वह फिर से साफ करेगा अपना बर्तन। पानी फेंक देगा, बर्तन साफ करेगा, फिर से पानी लाएगा। और कभी—कभी ऐसा हुआ कि तीस, चालीस, साठ बार गया होगा वह पानी भरने—पूरे दिन! और तुम किसी का आना—जाना तो रोक नहीं सकते, और लोग गुजर रहे हैं, और उतनी ही स्त्रियां हैं जितने कि पुरुष। कठिन है बात। और वह चूक सकता नहीं—वह तो तलाश ही रहा है स्त्रियों को। यदि वह बहुत दूर से भी देख ले किसी स्त्री को, तो तुरंत.। सारा दिन व्यर्थ हो जाता है। वह इतनी सफाई से रहता है, लेकिन क्या करेगा इस सफाई का? सारा जीवन व्यर्थ गया।

स्मरण रहे कि संतुलन सदा ठीक है। गंदे भी मत रहो; गंदगी से भी मत जुड़ जाओ। अब हिप्पी सम्मोहित हैं गंदगी से। यह एक प्रतिक्रिया है। यह कोई स्वतंत्रता नहीं है, क्योंकि प्रतिक्रिया कभी स्वतंत्रता नहीं हो सकती। ईसाइयत बहुत ज्यादा जोर देती है स्वच्छता पर। उनके पास एक मुहावरा है कि क्लीनलीनेस इज नेक्स टु गॉडलीनेस। उन्होंने बहुत ज्यादा जोर दिया स्वच्छता पर, अब नई पीढ़ी ने, आधुनिक पीढ़ी ने विद्रोह कर दिया है इसके विरुद्ध। अब हिप्पी स्नान नहीं करते। वे कोई फिक्र नहीं करते कपड़ों को धोने की—जैसे कि गंदगी ही उनकी साधना हो गई है; गंदे रहना उनका अनुशासन हो गया है। वे सोचते हैं कि वे समाज के पुराने ढांचे से पूरी तरह मुक्त हो गए हैं।

नहीं, तुम मुक्त नहीं हो गए हो। प्रतिक्रिया, विद्रोह कोई क्रांति नहीं है। तुम दूसरी अति पर जा सकते हो, लेकिन तुम उसी ढांचे में बने रहते हो। वे सफाई के पीछे पागल थे; तुम गंदे होने के पीछे पागल हो। और यदि मुझ से पूछते हो, अगर एक ही रास्ता हो. व्यक्ति को अति चुननी ही पड़ती हो तो मैं स्वच्छता की अति चुनूंगा, कम से कम वह स्वच्छ तो है। लेकिन मैं सदा संतुलन के पक्ष में हूं।

और कोई दूसरा तुम्हारे लिए अनुशासन नहीं दे सकता। तुम्हें अपने शरीर को, अपने संतुलन को अनुभव करना होगा—क्योंकि अस्वच्छता, गंदगी एक बोझ बन जाती है तुम्हारे शरीर पर, तुम्हारे चित्त पर। स्वच्छता किसी दूसरे के लिए या समाज के लिए नहीं है, वह तुम्हारे ही लिए है—हलका अनुभव करने के लिए है, प्रसन्न अनुभव करने के लिए है, शुद्ध और साफ अनुभव करने के लिए है। एक अच्छा स्नान तुम्हें पंख दे देता है। एक अच्छा स्नान, और तुम थोड़ी दिव्यता पा लेते हो, पृथ्वी का हिस्सा नहीं रहते; तुम थोड़ी उड़ान भर सकते हो। अच्छा स्नान जरूरी है।

और कोई दूसरा तुम्हारे लिए नियम नहीं बना सकता; अपने शरीर को तुम्हें ही समझना पड़ेगा। कई बार तुम बीमार होते हो और स्नान की कोई जरूरत नहीं होती, क्योंकि स्नान झंझट पैदा कर सकता है; तो स्नान से बंध मत जाना। कई बार स्थिति ऐसी नहीं होती कि तुम स्थान कर सकी; तो इसको लेकर पागल मत हो जाना—अपराध मत अनुभव करना। इसमें ऐसा कुछ नहीं है कि अपराध अनुभव करो; स्नान करना कोई पुण्य नहीं है, स्नान न करना कोई पाप नहीं है। अधिक से अधिक यह स्वास्थ्यप्रद है।

और तुम्हें अपने शरीर का खयाल रखना है; शरीर मंदिर है ईश्वर का। उसे स्वच्छ होना चाहिए; उसे सुंदर होना चाहिए। तुम्हें उसमें रहना है; तुम्हें उसके साथ रहना है। यह कई ढंग से तुम्हें प्रभावित करेगा। एक स्वच्छ शरीर में, एक स्वस्थ मंदिर में एक स्वच्छ मन के घटने की और होने की संभावना ज्यादा होती है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा जरूरी है। मैं इतना ही कह रहा हूं कि संभावना है—एक स्वच्छ शरीर में ज्यादा संभावना है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अस्वच्छ शरीर में कोई संभावना नहीं है स्वच्छ मन के लिए, संभावना है, लेकिन यह बात थोड़ी कठिन होगी, प्रकृति के विरुद्ध होगी।

ध्यान आंतरिक स्नान है चेतना का, और स्नान शरीर के लिए ध्यान है।

सातवां प्रश्न :

 

आप निरंतर लाओत्‍सु पर ही क्यों नहीं बोलते रहते?

दि तुम मुझे समझते हो तो मैं सदा ही लाओत्सु पर बोल रहा हूं। यदि तुम मुझे नहीं समझते, तो जब मैं लाओत्सु पर बोलता हूं वह भी किसी काम का न होगा। असल में मैं किसी दूसरे के साथ कभी न्यायपूर्ण नहीं होता—पतंजलि, जीसस, महावीर, बुद्ध। नहीं, मैं बिलकुल न्यायपूर्ण नहीं होता, मैं हो नहीं सकता। लाओत्सु चले ही आते हैं। मैं निरंतर लाओत्सु पर बोल रहा हूं। जब मैं पतंजलि पर बोल रहा होता हूं जब मैं बुद्ध पर या जीसस पर बोल रहा होता हूं तो यदि तुम मुझे समझ सको तो लाओत्सु निरंतर एक अंतर— धारा बने रहते हैं। लेकिन यदि तुम मुझे नहीं समझते, तो यह प्रश्न खड़ा होता है, ‘आप निरंतर लाओत्सु पर ही क्यों नहीं बोलते रहते?’

लाओत्सु मेरे लिए कोई विषय नहीं हैं, पतंजलि हैं। मैं जब पतंजलि पर बोलता हूं तो मैं पतंजलि पर बोलता हूं। मैं जब लाओत्सु पर बोलता हूं तो मैं लाओत्सु पर नहीं बोलता हूं; मैं जो बोलता हूं वह लाओत्सु ही है। और भेद बड़ा है, बहुत बड़ा है।

अंतिम प्रश्न :

 

क्या वर्नर एरहार्ड बुद्धत्व के निकट हैं?

पूछा है माधुरी ने। एरहार्ड उतना ही निकट है जितना कि माधुरी। हर कोई उतना ही निकट है जितना कि एरहार्ड। असल में बुद्धत्व एक छलांग है, कोई क्रमिक घटना नहीं है—एक ही कदम में यात्रा पूरी हो जाती है। यह ऐसे ही है जैसे तुम आंखें बंद किए बैठे हो, और तुम आंखें खोलते हो और सूर्य सामने है, सारा संसार अपूरित है प्रकाश से। कोई आंखें बंद किए बैठा है : तब भी संसार आलोकित है प्रकाश से और सूर्य मौजूद है, केवल वही आंखें बंद किए बैठा है। और यदि इससे वह आनंदित हो रहा है तो इसमें कुछ गलत नहीं है, एकदम ठीक है; लेकिन यदि वह दुखी है तो मैं कहता हूं कि तुम आंखें क्यों नहीं खोल लेते?

अज्ञान और ज्ञान के बीच भेद बस आंखें खोलने का ही है। भेद कुछ ज्यादा नहीं है, यदि तुम आंखें खोलने के लिए तैयार हो। तुम आंखें खोलने के लिए तैयार नहीं हो, तो भेद बहुत ज्यादा है।

एरहार्ड उतना ही निकट है जितना कि कोई और, लेकिन लगता है कि बुद्धि एक रुकावट है उसके लिए। ठीक ऐसे ही जैसे कि बुद्धि तुम्हारे लिए, करीब—करीब तुम सभी के लिए एक रुकावट है। उसने बात समझ ली है। एकदम ठीक समझ ली है उसने बात, लेकिन बौद्धिक रूप से। जब मैंने पिछली बार उसके थोड़े से वक्तव्यों पर बात की, तो मैंने उन सभी को ठीक बताया। वे सभी बिलकुल सही हैं, लेकिन मैंने उसके बारे में कोई बात नहीं कही है। जो कुछ उसने कहा है, एकदम ठीक है। लेकिन तुम लाओत्सु का अध्ययन कर सकते हो, बौद्धिक रूप से तुम समझ भी सकते हो और तुम वही बातें दोहरा भी सकते हो। जहां तक शब्दों का संबंध है वे सही हैं, लेकिन वह स्वयं बौद्धिक रूप से जुड़ा हुआ लगता है; अस्तित्वगत रूप से नहीं जाना है उसने। और यही समस्या है।

और यही सब से बड़ी समस्या है जिसका सामना व्यक्ति को करना होता है। मेरी हर बात तुम समझ लेते हो, तुम दूसरों को भी समझा सकते हो, लेकिन बुद्धत्व उतना ही दूर रहेगा जितना कि सदा था। बौद्धिक रूप से समझने का प्रश्न ही नहीं है, यह बात है समग्र समझ की—तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसे समझता है, केवल तुम्हारा मस्तिष्क ही नहीं। तुम्हारा हृदय समझता है उसे। और केवल तुम्हारा हृदय ही नहीं—तुम्हारा रक्त और तुम्हारी हड्डियां, तुम्हारे मांस—मज्जा को समझ आती है बात। कोई चीज छूटती नहीं, तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व उस बोध में नहा जाता है, उस समझ में स्नान कर लेता है। तब एक सुगंध उठती है, तब एक नृत्य घटित होता है, तब तुम खिल उठते हो।

और केवल एक कदम उठता है और यात्रा पूरी हो जाती है। तुम्हारे और मेरे बीच दूरी केवल एक कदम की है—दूरी ज्यादा नहीं है। दो कदमों की भी जरूरत नहीं है।

लेकिन भूलो एरहार्ड को। बस अपनी फिक्र कर लो, क्योंकि एरहार्ड तो अपने लिए ही एक समस्या है, तुम्हारा इससे क्या लेना—देना कि उसकी फिक्र करो? तुम केवल अपनी फिक्र कर लो। क्या तुम्हें बहुत बार ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि तुम मुझे पूरी तरह समझ गए हो, और फिर—फिर तुम चूक जाते हो? क्यों? यदि तुम मुझे समझ लेते हो, तो फिर तुम क्यों चूकते हो?

तुम मुझे समझ लेते हो बौद्धिक रूप से, शाब्दिक रूप से, सैद्धातिक रूप से, लेकिन तुम्हारा अस्तित्व उसमें सम्मिलित नहीं होता। तो जब तुम मेरे निकट होते हो तो तुम समझ लेते हो, जब तुम दूर जाते हो तो समझ खो जाती है। तुम फिर अपने उसी पुराने रंग—ढंग में, तुम्हारे उसी पुराने संसार और ढांचे में लौट जाते हो। जब तुम मेरे साथ होते हो तो तुम स्वयं को भूल जाते हो और हर चीज स्पष्ट हो जाती है, एकदम पारदर्शी। मुझ से दूर होकर तुम फिर अपने अंधेरे में जा पड़ते हो और हर चीज उलझ जाती है और कोई चीज साफ नहीं रहती।

बस एक कदम। और वह कदम अपने पूरे प्राणों से उठाना होता है। तुम बस बैठे हो और कल्पना कर रहे हो कि तुमने कदम उठा लिया है। तुम बैठे रह सकते हो और तुम कल्पना किए चले जा सकते हो एक महायात्रा की। यदि तुम ऐसा ज्यादा देर तक करते रहे तो यात्रा इतनी वास्तविक लगने लगती है, इतनी सत्य मालूम होने लगती है कि तुम किसी बुद्ध पुरुष की भांति बोलने भी लग सकते हो—लेकिन उससे कुछ हल नहीं होगा।

तुम्हें जागना ही होगा। यह कोई कल्पना नहीं है; यह कोई विचार नहीं है; यह है स्वयं की उपलब्धि।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(सूफीकथा) प्रवचन–14

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जो जगाये, वही गुरु–(प्रवचन–चौदहवां)

दिनांक 4 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

गुरु पूर्णिमा के इस पवित्र अवसर पर हमारे शत-शत नमन स्वीकार करें।

भगवान! एक सद्गुरु ने अपने शिष्य को आवाज दी, ‘होशिन!’

गुरु का नाम था कोकुशी।

गुरु की आवाज पर शिष्य ने कहा, ‘जी।’

कोकुशी ने दुबारा पुकारा, ‘होशिन!’

और शिष्य ने फिर कहा, ‘जी।’

लेकिन गुरु ने तीसरी बार भी आवाज दी, ‘होशिन!’

और होशिन फिर बोला, ‘जी।’

कोकुशी ने तब होशिन से कहा, ‘इस भांति बार-बार पुकारने के लिये

मुझे तुमसे क्षमा मांगनी चाहिये, लेकिन

वस्तुतः तो तुम्हीं मुझसे क्षमा मांगो तो ठीक है।

भगवान! इस कथा का मर्म बताने की कृपा करें।

नींद बहुत गहरी है। शायद नींद कहना भी ठीक नहीं, बेहोशी है। कितना ही पुकारो, नींद के परदे के पार आवाज नहीं पहुंचती। चीखो और चिल्लाओ भी, द्वार खटखटाओ, सपने काफी मजबूत हैं। थोड़े हिलते हैं, फिर वापिस अपने स्थान पर जम जाते हैं।

गुरु का एक ही अर्थ है: तुम्हारी नींद को तोड़ देना। तुम्हें जगा दे, तुम्हारे सपने बिखर जाएं, तुम होश से भर जाओ।

निश्चित ही काम कठिन है। और न केवल कठिन है बल्कि शिष्य को निरंतर लगेगा कि गुरु विध्न डालता है।

जब तुम्हें कोई साधारण नींद से भी उठाता है तब भी तुम्हें लगता है, उठानेवाला मित्र नहीं, शत्रु है। नींद प्यारी है। और यह भी हो सकता है कि तुम एक सुखद सपना देख रहे हो और चाहते थे कि सपना जारी रहे। उठने का मन नहीं होता। मन सदा सोने का ही होता है।

मन आलस्य का सूत्र है। इसलिए जो भी तुम्हें झकझोरता है, जगाता है, बुरा मालूम पड़ता है। जो तुम्हें सांत्वना देता है, गीत गाता है, सुलाता है, वह तुम्हें भला मालूम पड़ता है। सांत्वना की तुम तलाश कर रहे हो, सत्य की नहीं। और इसलिए तुम्हारी सांत्वना की तलाश के कारण ही दुनिया में सौ गुरुओं में निन्यान्नबे गुरु झूठे ही होते हैं। क्योंकि जब तुम कुछ मांगते हो तो कोई न कोई उसकी पूर्ति करनेवाला पैदा हो जाता है। असदगुरु जीता है क्योंकि शिष्य कुछ गलत मांग रहे हैं; खोजनेवाले कुछ गलत खोज रहे हैं।

अर्थशास्त्र का छोटा-सा नियम है–‘मांग से पूर्ति पैदा होगी': डिमांड क्रिएट्स द सप्लाय।

अगर हजारों, लाखों, करोड़ों लोगों की मांग सांत्वना की है तो कोई न कोई तुम्हें सांत्वना देने को राजी हो जाएगा। तुम्हारी सांत्वना का शोषण करने को कोई न कोई राजी हो जाएगा। कोई न कोई तुम्हें गीत गाएगा, तुम्हें सुलाएगा। कोई न कोई लोरी गानेवाला तुम्हें मिल ही जाएगा, जिससे तुम्हारी नींद और गहरी हो, सपना और मजबूत हो जाए।

जिस गुरु के पास जाकर तुम्हें नींद गहरी होती मालूम हो, वहां से भागना; वहां एक क्षण रुकना मत। जो तुम्हें झकझोरता न हो, जो तुम्हें मिटाने को तैयार न बैठा हो, जो तुम्हें काट ही न डाले, उससे तुम बचना।

जीसस का एक वचन है कि लोग कहते हैं कि मैं शांति लाया हूं लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, मैं तलवार लेकर आया हूं।

इस वचन के कारण बड़ी ईसाइयों को कठिनाई रही। क्योंकि एक ओर जीसस कहते हैं कि अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा भी उसके सामने कर देना। जो तुम्हारा कोट छीन ले, तुम कमीज भी उसे दे देना। और जो तुम्हें मजबूर करे एक मील तक अपना वजन ढोने के लिए, तुम दो मील तक उसके साथ चले जाना।

ऐसा शांतिप्रिय व्यक्ति जो कलह पैदा करना ही न चाहे, जो सब सहने को राजी हो, वह कहता है, मैं शांति लेकर नहीं, तलवार लेकर आया हूं। यह तलवार किस तरह की है? यह तलवार गुरु की तलवार है। इस तलवार का उस तलवार से कोई भी संबंध नहीं, जो तुमने सैनिक की कमर पर बंधी देखी है। यह तलवार कोई प्रगट में दिखाई पड़नेवाली तलवार नहीं। यह तुम्हें मारेगी भी और तुम्हारे खून की एक बूंद भी न गिरेगी। यह तुम्हें काट भी डालेगी और तुम मरोगे भी नहीं। यह तुम्हें जलाएगी, लेकिन तुम्हारा कचरा ही जलेगा, तुम्हारा सोना निखरकर बाहर आ जाएगा।

हर गुरु के हाथ में तलवार है। और जो गुरु तुम्हें जगाना चाहेगा, वह तुम्हें शत्रु जैसा मालूम होगा।

फिर तुम्हारी नींद आज की नहीं, बहुत पुरानी है। फिर तुम्हारी नींद सिर्फ नींद नहीं है, उस नींद में तुम्हारा लोभ, तुम्हारा मोह, तुम्हारा राग, सभी कुछ जुड़ा है। तुम्हारी आशाएं, आकांक्षाएं सब उस नींद में संयुक्त हैं। तुम्हारा भविष्य, तुम्हारे स्वर्ग, तुम्हारे मोक्ष, सभी उस नींद में अपनी जड़ों को जमाए बैठे हैं। और जब नींद टूटती है तो सभी टूट जाता है।

तुम ध्यान रखना, तुम्हारी नींद टूटेगी तो तुम्हारा संसार ही छूट जाएगा ऐसा नहीं। जिसे तुमने कल तक परमात्मा जाना था वह भी छूट जाएगा। नींद में जाने गए परमात्मा की कितनी सचाई हो सकती है? तुम्हारी दुकान तो छूटेगी ही, तुम्हारे मंदिर भी न बचेंगे। क्योंकि नींद में ही दुकान बनाई थी, नींद में ही मंदिर तय किए थे। जब नींद की दुकान गलत थी तो नींद के मंदिर कैसे सही होंगे? तुम्हारी व्यर्थ की बकवास ही न छूटेगी, तुम्हारे शास्त्र भी दो कौड़ी के हो जाएंगे। क्योंकि नींद में ही तुमने उन शास्त्रों को पढ़ा था, नींद में ही तुमने उन्हें कंठस्थ किया था, नींद में ही तुमने उनकी व्याख्या की थी। और तुम्हारे दुकान पर रखे खाते-बही अगर गलत थे तो तुम्हारी गीता, तुम्हारी कुरान, तुम्हारी बाइबिल भी सही नहीं हो सकती।

नींद अगर गलत है तो नींद का सारा फैलाव गलत है।

इसलिए गुरु तुम्हारी जब नींद छीनेगा तो तुम्हारा संसार ही नहीं छीनता, तुम्हारा मोक्ष भी छीन लेगा। वह तुमसे तुम्हारा धन ही नहीं छीनता, तुमसे तुम्हारा धर्म भी छीन लेगा।

कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहा है: सर्वधर्मान् परित्यज्य–‘तू सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण आ जा।’

तुम हिंदू हो, गुरु के पास जाते ही तुम हिंदू न रह जाओगे। और अगर तुम हिंदू रह गए तो समझना गुरु झूठा है। तुम मुसलमान हो, गुरु के पास जाते ही तुम मुसलमान न रह जाओगे। अगर फिर भी तुम्हें मुसलमानियत प्यारी रही तो समझना, तुम गलत जगह पहुंच गए। तुम जैन हो, बौद्ध हो, या कोई भी हो, गुरु तुमसे कहेगा, ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य!’ सब धर्म को छोड़कर तू मेरे पास आ जा।

धर्म तो अंधे की लकड़ी है। उससे वह टटोलता है। शास्त्र तो नासमझ के शब्द हैं। जो नहीं जानता, वह सिद्धांतों से तृप्त होता है। गुरु के पास पहुंचकर तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे धर्म, तुम्हारी मस्जिद, मंदिर, तुम खुद, तुम्हारा सब छिन जाएगा।

इसलिए गुरु के पास जाना बड़े से बड़ा साहस है।

और गुरु के पास पहुंचकर टिक जाना सिर्फ थोड़े से लोगों की हिम्मत का काम है।

लोग आते हैं और जाते हैं। आते हैं और भागते हैं। जैसे ही नींद पर चोट होती है, वैसे ही बेचैनी शुरू हो जाती है। जब तक तुम उन्हें फुसलाओ, थपथपाओ, लोरी सुनाओ, जब तक उनकी नींद को तुम गहरा करो, तब तक वे प्रसन्न हैं। जैसे ही तुम उन्हें हिलाओ, वैसे ही बेचैनी शुरू हो जाती है।

तुमने अकारण ही जीसस को सूली नहीं दी। और तुमने सुकरात को व्यर्थ ही जहर नहीं पिलाया। जीसस को सूली देनी पड़ती है क्योंकि यह आदमी तुम्हें सोने नहीं देता। तुम थके-मांदे हो, तुम नींद में उतरना चाहते हो। तुम इतने बेचैन और परेशान हो, तुम चाहते हो थोड़ी देर शांति मिल जाए, खो जाऊं, बेहोशी आ जाए। अगर ठीक से समझो तो संसार की सारी खोज बेहोशी की खोज है। कोई शराब से खोजता है, कोई संगीत से खोजता है, कोई संभोग से खोजता है और कुछ नासमझ ध्यान से भी उसी को खोजते हैं–किसी तरह तुम भूल जाओ कि तुम हो।

गुरु तुम्हें जगाएगा और याद दिलाएगा कि तुम हो। गुरु तुम्हारे नशे को तोड़ेगा, तुमसे शराब छीन लेगा। तुमसे सारी मादकता छीन लेगा। तुम्हारा भजन, तुम्हारा कीर्तन, तुम्हारा नाम-स्मरण, तुम्हारे मंत्र, सब छीन लेगा ताकि तुम्हारे पास सोने का कोई भी उपाय न रह जाए। तुम्हें जागना ही पड़े। तुम्हें पूरी तरह जागना होगा ताकि तुम जान सको, तुम कौन हो।

उस प्रतीति से ही पुरानी नींद की दुनिया का अंत, और एक नये जगत का प्रारंभ होता है। उस नये जगत का नाम मोक्ष है। नींद में देखा गया कोई सपना नहीं, नींद जब टूट जाती है तब जिसकी प्रतीति होती है, उसी का नाम परमात्मा है। नींद में की गई प्रार्थना नहीं, जब नींद नहीं रह जाती तब तुम्हारी जो भावदशा होती है, उसका नाम ही प्रार्थना है।

यह छोटी-सी झेन कथा बड़ी सांकेतिक है। निश्चित ही शिष्य को लगा होगा कि यह गुरु क्या कर रहा है?

पुकारा एक बार–‘होशिन!’

एक बार क्षम्य है बात। सोचा होगा होशिन ने, कुछ काम है; लेकिन ध्यान रहे, कोई भी गुरु तुम्हें किसी काम से नहीं पुकार रहा है। अगर काम दे भी रहा हो तो वह सिर्फ बहाना है ताकि तुम्हें पुकार सके।

पहली तो बात यह समझ लेना कि गुरु तुम्हें पुकार रहा है बिना काम के, अकारण। संसार में जितनी पुकारें हैं, वे सब सकारण हैं। पत्नी तुम्हें बुला रही है, उसमें कारण है। पति बुला रहा है, उसमें कारण है। बेटा बुला रहा है, उसमें कारण है। एक छोटा-सा निर्दोष बच्चा भी बुला रहा है तो उसमें कारण है। उसकी निर्दोषता भी अकारण नहीं। वह भी भूखा है, तो मां को चिल्ला रहा है, आवाज दे रहा है। उसमें प्रयोजन है, उसमें स्वार्थ है।

मैंने सुना है, एक आदमी सांझ घर लौटा। उसकी पत्नी जार-जार रो रही है, आंख से आंसू गिर रहे हैं, वह आदमी बैठकर चुपचाप अखबार पढ़ने लगा। उसकी पत्नी ने कहा, कम से कम यह तो पूछो कि मैं क्यों रो रही हूं? उसने कहा, यही पूछ-पूछकर मेरा दिवाला निकल गया है। रो रही है तो मतलब साफ है। कोई न कोई झंझट है, कोई न कोई मांग है। यही पूछ-पूछकर मेरा दिवाला निकला जा रहा है कि क्यों रो रही है? अब मैंने यह पूछना ही बंद कर दिया।

हम रो भी रहे हैं, हंस भी रहे हैं, आवाज भी दे रहे हैं तो सकारण है; उसमें कोई प्रयोजन है। अकारण तुम तो रास्ते पर किसी से नमस्कार भी नहीं करते। अकारण तो तुम मुस्कुराते भी नहीं हो, आवाज देने का श्रम तुम क्यों उठाओगे?

इस संसार में गूंजती आवाजों से गुरु की आवाज मूलतः पृथक है। उसका गुणधर्म अलग है। पहला गुणधर्म, कि वह किसी काम से नहीं बुला रहा है। वह तुम्हें बेकाम बुला रहा है। वह तुम्हें जगाने के लिए बुला रहा है, किसी काम से नहीं बुला रहा।

‘होशिन!’ गुरु ने कहा।

सोचा होगा शिष्य ने, कोई काम है। उसने कहा, ‘जी।’

प्रतीक्षा की होगी। और गुरु चुप हो गया, काम कुछ बताया न गया। होशिन बेबूझ हो गया होगा। फिर झपकी लग गई होगी।

थोड़ी देर में गुरु ने फिर बुलाया, ‘होशिन!’

उसने फिर नींद से चौंककर उत्तर दिया, ‘जी।’

सोचा होगा शायद गुरु काम भूला गया, अब शायद कोई काम होगा! लेकिन गुरु फिर चुप हो गया। फिर झपकी लग गई होगी। तीसरी बार गुरु ने फिर आवाज दी, ‘होशिन!’ उसने फिर कहा, ‘जी।’

हैरान हुआ होगा मन में। यह गुरु पागल तो नहीं हो गया? बुलाता है, लेकिन बुलाने पर कभी पूर्ण-विराम तो होता नहीं; बुलाने के आगे बात चलती है। इसका बुलाने पर पूर्ण-विराम हो जाता है। ‘होशिन!’–जैसे बात खतम हो गई। जैसे बुलाने के लिए ही बुला रहा हो। जैसे बुलाने से कोई और यात्रा न निकलती हो।

गुरु का बुलाना किसी वासना की पुकार नहीं है, कोई मांग नहीं है। गुरु का बुलाना अपने आप में पूरा है। वह तुम्हें कहीं और ले जाना नहीं चाहता। कुछ पाने में नहीं लगाना चाहता। कोई और खोज पर नहीं ले जाना चाहता। उसके बुलाने में ही बात पूरी हो गई। उसका बुलाना अगर तुम समझ सको तो ध्यान बन जाए। उसकी पुकार तुम्हारे भीतर तंद्रा को तोड़ दे। ‘होशिन!’–उस एक क्षण में होशिन के विचार भी बंद हो जाते होंगे। तभी तो कह पाता है, ‘जी।’

उस एक क्षण में सजग हो जाता होगा। उस एक क्षण में उसकी रीढ़ सीधी हो जाती होगी। एक क्षण को विचार की तंद्रा खो जाती होगी, धुआं हट जाता होगा, बादल विलीन हो जाते होंगे। एक क्षण को भीतर का नीला आकाश झांकता होगा। उसी नीले आकाश से तो ‘जी’ निकलता है।

अगर होशिन खोया ही रहे तो पता ही नहीं चलेगा गुरु ने कब बुलाया! पता ही नहीं चलेगा कोई बुला रहा है, या नहीं बुला रहा है। होशिन अगर खोया ही रहे, अपनी तंद्रा में डूबा ही रहे, तो यह आवाज तीर की तरह भीतर प्रवेश न करेगी। लेकिन होशिन चकित जरूर होगा, चिंतित भी होगा। गुरु बुलाता है और चुप हो जाता है।

गुरु अकसर…अकसर पागल मालूम होगा, तुम पागलों की दुनिया में–यह उसकी नियति है। वह पागल मालूम होगा। पागलों के बीच में जो होशपूर्ण है, वह पागल मालूम होगा ही।

होशिन भी सोच रहा होगा, गुरु को क्या हो गया है? आवाज देता है और चुप हो जाता है; यह कैसी आवाज?

हम समझ पाते हैं किसी भी चीज को, अगर उसमें शृंखला हो। हम उस रास्ते को समझ पाते हैं, जो कहीं पहुंचता हो, कोई मंजिल हो। लेकिन रास्ता हो और कहीं न जाता हो तो हम बड़ी विडंबना में पड़ जाते हैं। होशिन विडंबना में पड़ गया होगा। इसलिए गुरु ने उसकी भीतरी विडंबना को देखकर कहा कि ‘होशिन, मुझे तुझसे क्षमा मांगनी चाहिए।’

बहुत बार गुरु तुमसे कहेगा कि होशिन, मुझे तुमसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि मैं तुम्हारी नींद तोड़ रहा हूं। और अकारण तोड़ रहा हूं; कोई काम भी नहीं है। कोई वासना, कोई इच्छा का संबंध भी नहीं। मैं तुमसे कुछ चाहता भी नहीं। मेरी कोई मांग भी नहीं। तुम्हारा किसी भांति का कोई शोषण नहीं करना है, फिर भी तुम्हें पुकार रहा हूं; फिर भी तुम्हें बुला रहा हूं। मुझे तुमसे क्षमा मांगनी चाहिए।

होशिन के चेहरे पर प्रसन्नता आई होगी कि बात तो ठीक ही है। बेकार बुला रहे हो।

हम समझ लेते हैं, जब कोई काम हो। जहां भी निष्काम कुछ हो, हमारी समझ के बाहर हो जाता है। हम तो परमात्मा का भी विचार करते हैं तो सोचते हैं, उसने जगत को किसी काम से बनाया होगा; उसका कोई प्रयोजन होगा।

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा ने यह सृष्टि किस प्रयोजन से बनाई? इसका क्या अर्थ है? क्या अभिप्राय है? जरूर कोई छिपा हुआ अभिप्राय होना चाहिए।

हम अपनी ही प्रतिमा में परमात्मा को सोचते हैं। हम बिना काम एक कदम न उठाएंगे। हम बिना काम आंख भी न हिलाएंगे। तो इतना बड़ा विराट आयोजन! जरूर पीछे कुछ धंधा होगा। कोई प्रयोजन होगा।

और जिस व्यक्ति ने भी परमात्मा के संबंध में प्रयोजन पूछा, थोड़े दिन में पाएगा प्रयोजन तो रह गया, परमात्मा खो गया। ऐसा व्यक्ति आज नहीं कल नास्तिक हो जाएगा, जो प्रयोजन पूछेगा। क्योंकि प्रयोजन यहां है नहीं। और तुम ऐसे परमात्मा को मान न सकोगे, जो निष्प्रयोजन हो।

हिंदुओं ने बड़ी हिम्मत की है। वैसी हिम्मत पृथ्वी पर कहीं भी नहीं पाई गई। उन्होंने यह कहा कि यह लीला है। यह कोई परमात्मा का काम नहीं है। इसमें कुछ है नहीं, इसमें कुछ पाने को नहीं है; यह जगत कहीं जा नहीं रहा है। यह जगत हो रहा है, लेकिन कहीं जा नहीं रहा है। यह रास्ता कहीं पहुंचता नहीं–है।

एक भिखारी एक रास्ते के किनारे बैठा है और एक राह भटक गए यात्री ने उससे पूछा कि क्या तुम बता सकोगे, यह रास्ता कहां जा रहा है? उस भिखारी ने कहा, मैं कई साल से यहां रह रहा हूं; रास्ते को मैंने कहीं जाते नहीं देखा। हां, लोग इस पर आते-जाते हैं। परमात्मा कहीं भी नहीं जा रहा है, तुम आते-जाते हो। रास्ता अपनी ही जगह है; उस भिखारी ने कहा, जहां तक मेरी समझ है।

परमात्मा अपनी ही जगह है; कहीं आ नहीं रहा, कहीं जा नहीं रहा। लेकिन तुम उस पर काफी यात्रा करते हो–कभी इस दिशा में, कभी उस दिशा में, कभी धन की तरफ, कभी त्याग की तरफ; कभी भोग के लिए, कभी योग के लिए; लेकिन रुकते तुम नहीं। चाहे भोग हो तो भी तुम दौड़ते हो; चाहे योग हो तो भी तुम दौड़ते हो। तुम्हारा श्रम जारी रहता है।

और तुम परमात्मा को उसी दिन समझ पाओगे, जिस दिन तुम भी इस रास्ते की भांति हो जाओ, जो कहीं भी आता नहीं, जाता नहीं, जो सिर्फ है। जिस दिन तुम्हारी वासना गिरेगी, जिस दिन न योग तुम्हें बुलाएगा, न भोग; न जिस दिन संसार तुम्हें खींचेगा, न मोक्ष; जिस दिन तुम जाने की बात ही छोड़ दोगे, जिस दिन तुम पूर्ण-विराम हो जाओगे, तुम जहां हो वहीं पूर्ण-विराम हो जाएगा।

गुरु ने पुकारा, ‘होशिन’ और पूर्ण-विराम हो गया। यह पुकार निष्प्रयोजन है। यह पुकार लीला है। यह पुकार एक खेल है।

होशिन के भीतर जगी चिंता को देखकर गुरु ने कहा, मुझे तुझसे क्षमा मांगनी चाहिए। अकारण ही तुझे जगाता हूं, सोने नहीं देता। कारण भी हो तो क्षम्य है, व्यर्थ ही तुझे हिलाता हूं। न उठकर दुकान खोलनी है, न बाजार जाना है, न नौकरी पर जाना है, फिर भी तुझे उठाता हूं। तुझे सोने नहीं देता। मुझे तुझसे क्षमा मांग लेनी चाहिए।

होशिन के मन में चिंता कम हुई होगी। लगा होगा, गुरु ठीक ही कह रहा है, क्षमा तो मांगनी ही चाहिए। बैठने भी नहीं देता शांति से। अकारण ‘होशिन, होशिन, होशिन’, लगाए हुए है। सोचने भी नहीं देता शांति से; भीतर भी विघ्न खड़ा कर देता है।

लेकिन तत्क्षण गुरु ने कहा, लेकिन वस्तुतः तो तुझे ही मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए। तीन बार बुलाना पड़ा क्योंकि एक बार बुलाने से काम न चला। तूने ‘जी’ कहा जरूर, लेकिन करवट ली और तू फिर सो गया; दुबारा इसलिए बुलाना पड़ा। वस्तुतः तो तुझे ही क्षमा मांगनी चाहिए क्योंकि तेरी नींद के लिए तू ही जिम्मेवार है। तेरे आलस्य के लिए तू ही आधार है। तीसरी बार बुलाना पड़ा, फिर भी तू करवट लेता है और सो जाता है।

तीन हजार बार भी बुलाना पड़े तो गुरु थकता नहीं। जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन तुम क्षमा मांगोगे। तुम कहोगे कि एक ही आवाज में जो बात हो जानी चाहिए थी, उसके लिए अकारण तीन हजार बार तुम्हें दोहराना पड़ा।

बुद्ध के पास कोई आता, कुछ पूछता, बुद्ध कोई उत्तर देते तो हमेशा तीन बार दोहराते। कोई पूछता, निर्वाण है? तो बुद्ध कहते– ‘है’। फिर जैसे भूल गए हों कि अभी कहा है, फिर से कहते– ‘है’। फिर जैसे भूल गए हों कि अभी कहा, फिर से कहते– ‘है’।

जिन लोगों ने बौद्ध शास्त्रों का संकलन किया उनको बड़ी कठिनाई मालूम पड़ी। कि अब इस तरह लिखेंगे तो शास्त्र तीन गुने हो जाते हैं। व्यर्थ ही शास्त्र बड़ा हो जाता है और पढ़नेवाले को असुविधा होती है। जो काम एक ही ‘है’ से हो सकता है, बुद्ध तीन दफे ‘है’ कहते हैं।

तो बौद्ध शास्त्रकारों ने चिह्न बना लिए हैं: ‘है’–और चिह्न बना दिया–‘तीन बार’। तीन का चिह्न बना दिया है। ‘है–तीन बार'; ताकि तीन बार लिखना न पड़े। शास्त्रकार ज्यादा बुद्धिमान मालूम पड़ते हैं।

लेकिन बुद्ध से किसी ने पूछा कि मैं पूछता हूं एक बार, तुम कहते हो तीन बार; बात क्या है? बुद्ध ने कहा, तीन बार में भी कोई सुन ले तो अनूठा है, अद्वितीय है। तीन बार में भी कौन सुनता है? तुम वहां मौजूद भी नहीं हो सुनने को। तुमने प्रश्न पूछा कि तुम सो गये। तुम प्रश्न भी शायद नींद में पूछते हो।

जैसे छोटा बच्चा भूखा हो और नींद में रोता हो, आवाज करता हो; दूध पिला दिया और सो जाता हो। न उसे पता चलता है भूख का, और न पता चलता है उसे दूध का। दोनों ही कृत्य नींद में हो जाते हैं। जैसे शराबी रास्ते पर चलता है; डगमगाता है, फिर भी चल लेता है। ऐसा ही तुम्हारा जीवन है; ऐसा ही तुम्हारा चलना है; ऐसा ही तुम्हारा होश है–डगमगाता हुआ।

बुद्ध कहते हैं, कि तीन बार में भी कोई सुन ले तो उसने जल्दी सुन लिया।

इस सदगुरु ने कहा, ‘होशिन, ऊपर से देखने पर तो मुझे तुझसे क्षमा मांगनी चाहिए; लेकिन भीतर से देखने पर तू ही मुझसे क्षमा मांग।’

कहानी पूरी हो जाती है। बहुत-सी बातें हैं। झेन छोटी-छोटी कहानियों में कहता है। शायद कहानियां छोटी इसीलिए हैं कि उतनी देर शायद तुम होश से सुन पाओ। ज्यादा देर तो तुम होश से सुन भी न पाओगे।

मैंने सुना है, एक आदमी से उसका डाक्टर पूछ रहा था कि रविवार को तो छुट्टी रहती है, रविवार की सुबह तुम कितनी देर तक सोते हो? उस आदमी ने कहा, ‘इट डिपेंड्स’। यह निर्भर करता है कि चर्च में प्रवचन कितनी देर चला! उतनी देर सोता हूं।

मंदिर जगाने को है लेकिन वहां भी लोग सो रहे हैं! चर्च जगाने को है लेकिन वहां भी लोग नींद ले रहे हैं! हम इतने कुशल हैं कि हम जागरण की दवाइयों का उपयोग भी निद्रा की दवाइयों की तरह कर लेते हैं। हम अपनी नींद में सभी कुछ समाहित कर लेते हैं–चर्च हो, मंदिर हो, मस्जिद हो, हम सबको अपनी नींद में डुबा लेते हैं। हमारी नींद बड़ी विकराल है, विराट है। और कोई अगर हम पर सतत ही चोट न करता रहे तो शायद हम जाग भी न सकेंगे।

इसलिए सभी पुराने अनुभवियों ने कहा है, गुरु के बिना ज्ञान न होगा। गुरु के साथ हो जाए तो भी अनूठी घटना है। गुरु के बिना तो होगा नहीं। गुरु का इतना ही मतलब है कि कोई तुम्हारे द्वार पर चोट किये ही चला जाए। यह चोट विनम्र ही होगी। यह चोट कोई आक्रमक नहीं हो सकती। यह चोट पानी की तरह होगी। जैसे पानी चट्टान पर गिरता है। ‘होशिन’–यह गुरु की आवाज तो बहुत कठोर नहीं हो सकती। गुरु कठोर हो नहीं सकता। यह ‘होशिन’ की आवाज पानी की तरह पत्थर पर गिरेगी। लेकिन गुरु इसे दोहराता रहेगा। यह धीमी और मधुर आवाज पत्थर को भी काट डालेगी।

लाओत्से ने कहा है, गुरु पानी की तरह है, तुम पत्थर की तरह हो। लेकिन ध्यान रखना, आखिर में तुम ही हारोगे। तुम्हारी मजबूती बहुत ज्यादा काम न आएगी। पानी गिरता रहेगा। मृदु है उसकी चोट; उस चोट में कोई हथौड़े की चोट नहीं है, लेकिन आज नहीं कल चट्टान टूटती जाएगी, रेत हो जाएगी। आज नहीं कल तुम पाओगे कि चट्टान समाप्त हो गई, पानी अब भी बह रहा है।

गुरु की चोट तो मधुर है लेकिन गहरी है। और मधुर उस अर्थ में है–इस अर्थ में नहीं कि मीठी है और तुम्हारी नींद को सहयोगी होगी–मधुर इस कारण है कि उसकी करुणा से निकली है।

वासना की सब चोट कठोर होती है क्योंकि वासना से जो भी आवाज निकलती है, उस आवाज को तुमसे प्रयोजन नहीं होता। चाहे प्रेमी अपनी प्रेयसी को कहता हो, चाहे मां अपने बेटे को कहती हो, पति अपनी पत्नी को कहता हो, लेकिन उस आवाज में, उस पुकार में दूसरा साधन है, मैं स्वयं साध्य हूं। वासना में मैं दूसरे का उपयोग कर रहा हूं। वह उपकरण है। अंत तो मैं ही हूं, लक्ष्य तो मैं ही हूं। मेरा ही सुख केंद्र है। दूसरे का तो मैं उपयोग कर रहा हूं।

इसलिए मित्र बेचैन होते हैं, प्रेमी परेशान होते हैं। मित्रों और प्रेमियों में हमेशा कलह बनी रहती है। उस कलह का आधार है क्योंकि एक दूसरे का जब भी हम उपयोग करते हैं तो दूसरे का अपमान होता है। उसे लगता है, मैं एक वस्तु हो गया, व्यक्ति न रहा। मेरा उपयोग किया जा रहा है लेकिन मेरा कोई मूल्य नहीं। मेरी कोई आत्यंतिक मूल्यवत्ता नहीं है। मैं वस्तुओं की भांति हूं।

वासना जब भी बुलाती है तो कठोर होगी क्योंकि शोषण कठोर ही हो सकता है।

गुरु की आवाज मृदु है। वह कहता है, ‘होशिन’। यह जापानी शब्द होशिन बड़ा सोचकर चुना होगा। यह शब्द भी बड़ा मीठा है। यह आवाज भीतर जाएगी लेकिन चोट पानी की बूंद की तरह है। पर यह सतत सातत्य बना रहे तो ही तुम्हें तोड़ पायेगी। तो गुरु बुलाये चला जाता है।

और गुरु के इस बुलाने को, तुम्हारे इस उत्तर को, कि ‘जी'; इन दोनों के मेल को सत्संग कहा है। तुम अगर सुनो ही ना, तब सत्संग घटित नहीं होगा। वहां गुरु तो है, तुम नहीं हो। तुम अगर पूरी तरह सुन लो तो वहां कोई शिष्य न बचा। तुम थोड़ा-सा सुनते हो, थोड़ा-सा नहीं भी सुनते हो। तुम्हारी नींद में थोड़ी खलल पड़ती है। तुम थोड़ी आंख-पलक खोलते हो, लेकिन भारी है आंख; फिर झपकी लग जाती है। तुम ‘जी’ का उत्तर तो देते हो। तुम इतनी तो खबर देते हो कि मैं हूं और सुन रहा हूं–सत्संग है।

यह कहानी सत्संग की कहानी है। गुरु बुला रहा है, शिष्य सुन रहा है। शिष्य समझ नहीं पा रहा है, गुरु क्या कह रहा है। लेकिन इतनी श्रद्धा है कि बुलाता है तो ‘जी’ कहता है। कम से कम नाराज नहीं हो रहा है।

तुम होते तो शायद नाराज भी हो जाते; यह क्या बकवास लगा रखी है! अगर कुछ कहना है तो कहो; अन्यथा ‘होशिन, होशिन, होशिन’, बार-बार क्या कह रहे हो? कुछ कहना हो तो कह दो अन्यथा चुप रहो। तुम्हारे मन में यही आवाज उठी होती। तो फिर श्रद्धा नहीं है।

एक बात समझ लेना; इस होशिन के मन में भी संदेह तो है। इसीलिए गुरु ने कहा कि मुझे तुमसे क्षमा मांगनी चाहिए। उसके संदेह को देखकर ही कहा है। श्रद्धा पूरी तो नहीं है, क्योंकि जब श्रद्धा पूरी हो तो पुकारने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। श्रद्धा पूरी नहीं है, संदेह है; लेकिन संदेह भी पूरा नहीं है, नहीं तो यह सो जाएगा–आधा-आधा है।

तर्तूलियन एक बड़ा ईसाई फकीर हुआ। उसने ईश्वर की रोज की प्रार्थना में एक वाक्य जोड़ रखा था और वह कहता था, श्रद्धा मेरी तुझमें है, लेकिन मेरी अश्रद्धा की तरफ भी तुम खयाल रखना। भरोसा मैं तुझमें रखता हूं लेकिन भीतर मेरे संदेह भी है, उसकी चिंता तू कर।

यह ईमानदार शिष्य की आवाज है। क्योंकि तुम संदेह को छिपा लो, इससे वह मिटेगा नहीं। तुम कितना ही कहो मेरा समर्पण पूरा है; और अगर रत्ती भर भी संदेह है, तो वह समर्पण पूरा तो नहीं है और पूरा कभी हो भी न सकेगा क्योंकि तुम इस भ्रांति में जीयोगे कि वह पूरा है। तुम जैसे हो, वहां तुम पूरे हो ही नहीं सकते। वहां संदेह तो रहेगा ही। इतना ही तुम कर सकते हो कि संदेह को नीचे कर दो, श्रद्धा को ऊपर कर दो; पर संदेह भीतर छिपा रहेगा और कीड़े की तरह तुम्हारी श्रद्धा को काटता रहेगा। और श्रद्धा आज ऊपर है, कब तक ऊपर रहेगी? किसी भी क्षण संदेह ऊपर आ सकता है।

अकसर ऐसा हो जाता है कि अगर दो व्यक्ति कुश्ती लड़ रहे हों तो जो व्यक्ति ऊपर बैठा है, उसको ऊपर बैठने में श्रम करना पड़ता है, क्योंकि ताकत लगाये रखनी पड़ती है कि नीचे का आदमी निकलकर ऊपर न आ जाए। नीचे का आदमी आराम कर सकता है; उसे कोई ताकत लगाने की जरूरत नहीं। नीचे होने के लिए ताकत लगाने की कोई जरूरत भी नहीं है, वह आराम कर सकता है। ऊपर का आदमी श्रम में लगा है। अगर घंटे भर ऊपर का आदमी ऊपर बैठा रहे और नीचे का नीचे पड़ा रहे, तो ऊपर का अपनी मेहनत के कारण थककर नीचे गिरेगा। उसी थकान में नीचे का आदमी ऊपर आ जाएगा।

जब तुम श्रद्धा को संदेह के ऊपर बिठा देते हो, श्रद्धा थक रही है और संदेह विश्राम कर रहा है। ज्यादा देर नहीं लगेगी, संदेह ऊपर आ जाएगा, श्रद्धा नीचे चली जाएगी। लेकिन अगर तर्तूलियन जैसा भाव हो, कि तुम अपनी श्रद्धा की ही घोषणा न करते हो, अपने परमात्मा को यह भी कह देते हो कि संदेह भी मेरे पास है, इसको मैं दबा नहीं रहा हूं, इसे छिपा नहीं रहा हूं, इसे झुठला नहीं रहा हूं, यह है। और जैसा भी नग्न मैं हूं, कुरूप या सुंदर; श्रद्धालु या संदेहग्रस्त; तुम्हारे सामने हूं। श्रद्धा की फिक्र मैं करूंगा, संदेह की फिक्र तुम कर लेना।

होशिन के मन में भी संदेह तो है लेकिन श्रद्धापूर्वक वह उत्तर देता है ‘जी’। उसने एक भी बार नहीं कहा, कि क्यों मुफ्त पुकार रहे हो? क्यों बुलाते हो? क्या काम है?

एक फकीर के संबंध में मैंने सुना है, एक दूसरे फकीर से मिलने गया था। वहां देखा कि शिष्यों में बड़ी श्रद्धा है गुरु के प्रति, बड़ा भाव है। उसने कहा कि मेरी तो बड़ी मुसीबत है; ऐसा भाव मैं अपने शिष्यों में पैदा नहीं कर पाता। क्या करूं? तो उस फकीर ने कहा कि आज मैं तुम्हारे घर आऊंगा भोजन करने। वहीं हम बात कर लेंगे।

सांझ वह फकीर इस दूसरे फकीर के घर पहुंचा। पैर कीचड़ से भरे हैं; वर्षा के दिन होंगे, रास्ते पर कीचड़ है, कपड़े भीगे हैं। तो दूसरे फकीर ने अपनी पत्नी को कहा, ‘सुनती है, थोड़ा पानी ले आ। मेरे मित्र आये हैं, उनके पैर धोने हैं।’ पत्नी ने भीतर से आवाज दी, ‘कुआं कोई बहुत दूर नहीं है। ले जाओ अपने मित्र को कुएं पर और वहीं पैर धुला दो। और स्नान भी करा देना। सुबह पानी भरते वक्त कहां थे?’

दोनों फकीर गये, कुएं से साफ होकर वापिस लौटे। गृहपति फकीर ने कहा भोजन के बाद, ‘अब कहो।’

उसने कहा, ‘कल तुम मेरे घर भोजन करना। वर्षा के दिन हैं, कीचड़ तो है ही।’

यह दूसरा फकीर पहले फकीर के घर भोजन करने गया। द्वार पर फकीर ने अपनी पत्नी से कहा कि ‘घी का जो मटका है, वह ले आ।’ वह घी के मटके को लेकर बाहर आयी। और इस फकीर ने कहा, ‘मेरे मित्र आये हैं; और कभी आये हैं, पानी से क्या पैर धोना? घी से इनके पैर धो दे।’ उस पत्नी ने पूरा मटका घी का उनके पैर पर उंड़ेलकर पैर धो दिये।

भोजन के बाद गृहपति फकीर ने कहा, ‘कुछ पूछना है कि बात पूरी हो गई?’

दूसरे फकीर ने कहा, ‘बात पूरी ही हो गई। कुछ कहना नहीं है।’

जहां प्रेम है, वहां श्रद्धा छाया की भांति चली आती है। और जहां प्रेम है, वहां स्वीकार का भाव है। और जहां प्रेम है, वहां निष्प्रश्न पुकारो ‘होशिन’, और ‘जी’ का उत्तर आता है।

ऐसा नहीं है कि इस पत्नी के मन में भी विचार न उठे होंगे; विचार तो उठे ही होंगे। मन का काम विचार उठाना है। इसने भी सोचा होगा, घी फिजूल खराब कर रहे हो। पानी से काम चल सकता था। मुसीबत के दिन हैं, घी महंगा है और मुश्किल से घी इकट्ठा होता है। ये सब विचार उठे होंगे, लेकिन इन सारे विचारों के बावजूद भी प्रेम प्रथम हो गया और उसने सोचा कि अगर पति कह रहे हैं तो कुछ अर्थ होगा। मैं चुप रहूं। जल्दी न करूं।

होशिन के मन में विचार तो उठ रहे हैं लेकिन वह कह नहीं रहा है। जानता है कि गुरु जब बुला रहे हैं तो कुछ न कुछ राज होगा। मुझे पता हो न पता हो। तीन बार बुला रहे हैं तो जरूर कुछ–कुछ गहरी बात होगी, कोई कुंजी होगी। आज नहीं कल कुंजी खुल जाएगी। लेकिन भीतर विचार हैं, संदेह है।

मन सदा संदेह करता रहता है। यह स्वाभाविक है। इसलिए एक बात खयाल रखना, संदेह भीतर हो उसे छिपाना मत; उसे जानना। संदेह भीतर हो, उसे सक्रिय मत होने देना; उसे तुम्हारी श्रद्धा पर हावी मत होने देना, लेकिन उसे श्रद्धा से दबाना भी मत, हटाना भी मत। संदेह तुम्हारे भीतर हो तो छिपाये बिन प्रतीक्षा करना। जल्दी ही घड़ी आयेगी जब संदेह की गांठ खुल जाएगी। लेकिन चलना तुम श्रद्धा के पीछे।

शिष्य का अर्थ पूर्ण श्रद्धावान नहीं हो सकता; पूर्ण श्रद्धावान जो हो गया, वह तो गुरु हो जाएगा। शिष्य का अर्थ, आधी श्रद्धा, आधा संदेह होगा।

अब इस आधी श्रद्धा के तुम दो उपयोग कर सकते हो। एक तो यह कि संदेह की छाती पर बैठ जाओ। तब तुम्हारी श्रद्धा भी पंगु हो जाएगी। क्योंकि जिसे तुम दबाते हो उससे तुम बंध जाते हो। तब तुम्हारी श्रद्धा संदेह से लड़ने में लग जाएगी और तुम्हारी शक्ति व्यर्थ होगी। जैसे तुम्हारा बायां और दायां हाथ लड़ रहे हों और तुम्हारी शक्ति व्यर्थ ही व्यय हो रही हो। तुम श्रद्धा और संदेह को लड़ाना मत; जो कि सहज स्वाभाविकतः घटता है। तुम श्रद्धा से चलना।

तुम श्रद्धा को गतिमान करना और संदेह के लिए छिपाये बिना प्रतीक्षा करना समय की, जब कुंजी तुम्हें उपलब्ध हो जाएगी। तुम संदेह पर ध्यान मत देना, उपेक्षा करना। ध्यान तुम श्रद्धा पर देना क्योंकि जहां ध्यान जाता है, वहीं भोजन जाता है। तुम जिस चीज पर ध्यान देते हो, तुम्हारी जीवन ऊर्जा उसी को परिपुष्ट करती है। तुम सिर्फ संदेह के प्रति उपेक्षा रखना, लड़ना मत। कोई भीतर युद्ध खड़ा मत करना। दबाना मत, कोई दमन मत करना; सिर्फ ध्यान को तुम श्रद्धा की तरफ प्रेरित रखना। तुम श्रद्धा को सींचना ध्यान से और संदेह की उपेक्षा करना और प्रतीक्षा करना।

‘होशिन!’

होशिन ने सुना होगा, संदेह भी उठा होगा, लेकिन ध्यान उसने श्रद्धा पर रखा। उसने कहा, ‘जी!’

यह ‘जी’ बड़ी गहरी श्रद्धा से उठ रहा है। इसके पास ही संदेह खड़ा है लेकिन इस ‘जी’ के क्षण में जैसे संदेह मिट गया हो; जैसे एक क्षण को पूरा हृदय ‘जी’ हो गया।

शुरू में घटना ऐसे ही घटेगी। और गुरु बहुत मौके देगा कि तुम संदेह पर ध्यान दो। क्योंकि बिना मौके के तुम्हारा श्रद्धा के प्रति ध्यान का प्रवाह सुनिश्चित न होगा। गुरु बहुत बार तुम्हें डगमगाएगा। गुरु बहुत बार बेबूझ हो जाएगा। ऐसा व्यवहार करेगा, जो तुम्हारी अपेक्षा न थी। क्योंकि अपेक्षा तो मन का हिस्सा है। और मन को तोड़ना है, तो तुम्हारी अपेक्षा को भी तोड़ना होगा। तुम जो चाहते थे गुरु से, वह वैसा ही अगर व्यवहार करे तुम्हारी चाह के अनुसार, तो तुम गुरु के निर्माता हुए जा रहे हो।

इसलिए जो गुरु तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार चले, समझ लेना कि उससे तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति नहीं होनेवाली। इसीलिए तो तुम्हारे तथाकथित गुरुओं की भीड़ है, लेकिन जीवन में कहीं धर्म की कोई किरण नहीं। कितने संन्यासी हैं! कितने फकीर हैं! कितने साधु-मुनि हैं! लेकिन वे सब तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रहे हैं। यह हालत ऐसी है, जैसे डाक्टर मरीजों की अपेक्षाएं पूरी कर रहा हो! तुम जैसा चाहते हो वैसा वे व्यवहार कर रहे हैं। रत्ती भर फर्क करते हैं कि तुम उपद्रव शुरू कर देते हो।

अगर जैन मुनि को रात में चलना मना है, तो सारे जैन श्रावक आंख लगाये बैठे हैं कि वे उसको रात में चलते हुए देख लें। अगर जैन मुनि को ठंडा पानी पीना मना है और अगर वह ठंडा पानी पीता हुआ पकड़ लिया जाए, तो श्रावक जैसे न्यायाधीश है! पीछे चलनेवाला जैसे न्यायाधीश है! वह आंख लगाये बैठा है। वह फौरन शोरगुल मचा देगा कि यह मुनि भ्रष्ट हो गया।

जिस दिन अज्ञानी तय करता है कि ज्ञानी कैसा व्यवहार करे; जिस दिन अज्ञानी मर्यादा बनाता है कि ज्ञानी कैसा चले, कैसा उठे, कैसा बैठे, उस दिन शिष्य के पीछे गुरु को चलना पड़ता है। इस गुरु की क्या कीमत होगी? क्या मूल्य होगा? यह चिकित्सक मरीज की सलाह मानकर चल रहा है। तुम्हारी अपेक्षा तो टूटेगी, जब तुम सदगुरु के पास पहुंचोगे।

यह होशिन के गुरु के संबंध में एक घटना है। इस आश्रम में काफी भिक्षु थे। नियम तो यही है बौद्ध भिक्षुओं का कि सूरज ढलने के पहले एक बार वे भोजन कर लें। लेकिन इस गुरु के संबंध में एक बड़ी अनूठी बात थी, कि वह सदा सूरज ढल जाने के बाद ही भोजन करता। और नियम तो यह है कि बौद्ध भिक्षु सदा सामूहिक रूप से भोजन करें ताकि सब एक दूसरे को देख सकें कि कौन क्या खा-पी रहा है? भोजन छिपाकर न किया जाए, एकांत में न किया जाए। लेकिन इस होशिन के गुरु की एक नियमित आदत थी कि रात अपने झोपड़े के सब दरवाजे बंद करके ही वह भोजन करता था, और रातभर करता था।

यह खबर सम्राट तक पहुंच गयी। सम्राट भी भक्त था और उसने कहा कि यह अनाचार हो रहा है।

हम अंधों की आंखें क्षुद्र चीजों को ही देख पाती हैं। इस गुरु की ज्योति दिखाई नहीं पड़ती। इस गुरु की महिमा दिखाई नहीं पड़ती। इस गुरु में जो बुद्धत्व जन्मा है वह दिखाई नहीं पड़ता। रात भोजन कर रहा है, यह हमें तत्काल दिखाई पड़ता है। और कमरा बंद क्यों करता है?

सम्राट को भी संदेह हुआ। सम्राट भी शिष्य था। उसने कहा, इसका तो पता लगाना होगा। यह तो भ्रष्टाचार हो रहा है। और रात जरूर छिपकर खा रहा है तो कुछ मिष्ठान्न…या पता नहीं, जो कि भिक्षु के लिए वर्जित है; अन्यथा छिपने की क्या जरूरत है? द्वार बंद करने का सवाल ही क्या है? भिक्षु के भिक्षापात्र को छिपाने का कोई प्रयोजन नहीं है।

हम छिपाते तभी हैं, जब हम कुछ गलत करते हैं। स्वभावतः हम सबके जीवन का नियम यही है। हम गुप्त उसी को रखते हैं, जो गलत है। प्रगट हम उसको करते हैं जो ठीक है। ठीक के लिए छिपाना नहीं पड़ रहा है, गलत के लिए छिपाना पड़ रहा है। लेकिन गुरुओं के व्यवहार का हमें कुछ भी पता नहीं। यह हमारा व्यवहार है, अज्ञानी का व्यवहार है कि गलत को छिपाओ, ठीक को प्रगट करो। ना भी हो ठीक प्रगट करने को, तो भी ऐसा प्रगट करो कि ठीक तुम्हारे पास है; और गलत को दबाओ और छिपाओ। किसी को पता न चलने दो, गुप्त रखो। तो हम सबकी जिंदगी में बड़े अध्याय गुप्त हैं। हमारी जीवन की किताब कोई खुली किताब नहीं हो सकती। पर हम सोचते हैं कि गुरु की किताब तो खुली किताब होगी।

सम्राट ने कहा, पता लगाना पड़ेगा। रात सम्राट और उसका वजीर इस गुरु के झोपड़े के पीछे छिप गये नग्न तलवारें लेकर; क्योंकि यह सवाल धर्म को बचाने का है।

कभी-कभी अज्ञानी भी धर्म को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। उनको जरा हमेशा ही खतरा रहता है कि धर्म खतरे में है। जिनके पास धर्म बिलकुल नहीं है, उन्हें धर्म को बचाने की बड़ी चिंता होती है। और इन मूढ़ों ने धर्म को बुरी तरह नष्ट किया है।

वह छिप गया तलवारें लिये कि आज कुछ भी फैसला कर लेना है। सांझ हुई, गुरु आया। अपने वस्त्र में, चीवर में छिपाकर भोजन लाया। द्वार बंद किये। जहां यह छिपे थे, इन्होंने दीवार में एक छेद करवा रखा था ताकि वहां से देख सकें, द्वार बंद किये। बड़े हैरान हुए कि गुरु भी अदभुत है। वह उनकी तरफ पीठ करके बैठ गया, जहां छेद था और उसने बिलकुल छिपाकर अपने पात्र से भोजन करना शुरू कर दिया। इन्होंने कहा, यह तो बर्दाश्त के बाहर है। यह आदमी तो बहुत ही चालाक है। इनको यह खयाल में न आया, यह हमारी चालाकी को अपनी निर्दोषता के कारण पकड़ पा रहा है, किसी बड़ी चालाकी के कारण नहीं।

छलांग लगाकर खिड़की को तोड़कर दोनों अंदर पहुंच गये। गुरु ने अपना चीवर फिर से पात्र पर डाल दिया। सम्राट ने कहा कि हम बिना देखे न लौटेंगे कि तुम क्या खा रहे हो? गुरु ने कहा कि नहीं, आपके देखने योग्य नहीं है। तब तो सम्राट और संदिग्ध हो गया। उसने कहा, हाथ अलग करो। अब हम शिष्य की मर्यादा भी न मानेंगे। गुरु ने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी! लेकिन सम्राट की आंखें ऐसी साधरण चीजों पर पड़ें यह योग्य नहीं।

उसने चीवर हटा लिया; भिक्षापात्र में न तो कोई मिष्ठान्न थे, न कोई बहुमूल्य स्वादिष्ट पदार्थ थे, भिक्षा-पात्र में सब्जियों की जो डंडियां और गलत सड़े-गले पत्ते, जो कि आश्रम फेंक देता था, वे ही उबाले हुए थे।

सम्राट मुश्किल में पड़ गया। रात तो सर्द थी लेकिन माथे पर पसीना आ गया। उसने कहा, इसको छिपाकर खाने की क्या जरूरत है?

गुरु ने कहा, क्या तुम सोचते हो गलत को ही छिपाया जाता है? सही को भी छिपाना पड़ता है। तुम गलत को छिपाते हो, हम सही को छिपाते हैं; यह हममें और तुममें फर्क है। तुम गलत को गुप्त रखते हो, हम सही को गुप्त रखते हैं। तुम सही को प्रगट करते हो क्योंकि सही के प्रगट करने से अहंकार भरता है और गलत को प्रगट करने से अहंकार टूटता है। हम गलत को प्रगट करते हैं और सही को छिपाते हैं। हम तुमसे उलटे हैं। हम शीर्षासन कर रहे हैं।

‘यह घास-पात खाने के लिए छिपाने की क्या जरूरत थी?’

वह गुरु हंसने लगा और उसने कहा कि मैं जानता था, आज नहीं कल तुम आओगे क्योंकि तुम सबकी नजरें क्षुद्र पर हैं। विराट घटा है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन बस, यह मेरी आखिरी सांझ है। इस आश्रम को मैं छोड़ रहा हूं। अब तुम संभालो और जो मर्यादा बनाते हैं, वे संभालें। तुम्हारी अपेक्षाएं मैं पूरी नहीं कर सकता। और जब तक मैं तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करूंगा, मैं तुम्हें कैसे बदलूंगा?

सिर्फ वही गुरु तुम्हें बदल सकता है, जो तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं चलता। जो तुम्हारे पीछे चलता है, वह तुम्हें नहीं बदल सकता। और बड़ा कठिन है उस आदमी के पीछे चलना, जो तुम्हारे पीछे न चलता हो; अति दूभर है। रास्ता अत्यंत कंटकाकीर्ण है फिर। शिष्य के मन में संदेह हो–संदेह होगा। इतनी श्रद्धा भर काफी है कि वह बिना अपेक्षा किए गुरु के पीछे चल पाये।

गुरु के व्यवहार से गुरु को मत नापना; क्योंकि हो सकता है, व्यवहार तो सिर्फ तुम्हारे लिए आयोजित किया गया हो।

सूफी फकीर जुन्नैद के संबंध में खबर आयी–उसके शिष्य के पास, वह भी सम्राट था–कि तुम किसके पीछे लगे हो? यह आदमी शराब पीता है और गलत स्त्रियों के साथ भी यह आदमी देखा गया है। सम्राट ने कहा, अगर ऐसा होगा तो इसकी गर्दन मैं अपने हाथ से अलग कर दूंगा। जिसके पैरों पर मैंने सिर रखा हो, अगर वह ऐसा गलत है तो मैं पीछे नहीं रहूंगा। यह तलवार मेरी इसकी गर्दन अलग कर देगी। लेकिन तुमने जब खबर दी है तो तुम्हें सिद्ध भी करना होगा। उसने कहा, इसमें कोई कठिनाई ही नहीं है; आप कल मेरे साथ चलें।

सम्राट को लेकर वह गया। एक झील के किनारे दोनों छिपकर खड़े हो गये। झील के उस पार जुन्नैद बैठा है, सुराही रखी है शराब की, प्याले ढाले जा रहे हैं और एक औरत बुर्का ओढ़े प्याले भर रही है। सम्राट की तलवार बाहर आ गयी। उसने उस आदमी से कहा, तुम जाओ। अब कुछ और सिद्ध करने की जरूरत नहीं। अब मैं निपट लेता हूं। वह दस कदम आगे बढ़ा, लेकिन तब उसके मन में थोड़ा भय आने लगा, जुन्नैद को कैसे काट सकेगा? फिर सोचा, यह काम मैं अपने हाथ से क्यों करूं? यह तो सैनिक भी कर सकते हैं। मैं यह हत्या अपने सिर क्यों लूं?

उसने घोड़ा लौटा लिया। जैसे ही घोड़ा लौटाया, जुन्नैद की आवाज सुनी कि जब इतने दूर आ गये हो तो अब लौटो मत; और थोड़े पास आ जाओ। जब जानना ही चाहते हो तो बिलकुल पास आ जाओ। जरा भी फासला न रहे; तभी जान पाओगे। जुन्नैद की आवाज सुनकर सम्राट लौट भी न सका। पास आना पड़ा।

जुन्नैद ने सुराही उसके हाथ में दे दी। उसमें सिवाय पानी के और कुछ भी न था। और उसने स्त्री का बुर्का उलट दिया, वह जुन्नैद की मां थी!

सम्राट ने कहा, तो फिर यह क्या नाटक रचा है?

जुन्नैद ने कहा, शिष्यों के लिए। यह रोज चल रहा है नाटक। इस नाटक की वजह से न मालूम कितने भाग गये; जो भाग गये, अच्छा हुआ क्योंकि वे भागते ही। वे किसी कारण की तलाश में थे। कोई बहाना खोज रहे थे।

आचरण को देखकर गुरु के जो तय करेगा, उसने दूर से तय कर लिया; क्योंकि आचरण तो बाहर है। उसने घोड़ा पूरे करीब नहीं लाया, जल्दी लौट गया। अंतस से जो तय करेगा, वही करीब आया।

और अंतस के करीब वे ही आ पायेंगे, जो अपने संदेह पर ध्यान देना बंद करेंगे। संदेह पूरे वक्त आवाज दे रहा है कि सुनो मेरी! जो श्रद्धा को सुने और संदेह को न सुने, आज नहीं कल श्रद्धा उन्हें उस जगह ले आएगी, जहां संदेह के सारे बीज नष्ट हो जाएंगे! वहां परम श्रद्धा पूरी होगी, वहां पूर्णता को उपलब्ध होगी।

जीवन का एक नियम है कि अगर तुम प्रतीक्षा कर सको तो सभी चीजें पूरी हो जाती हैं। जीवन का ढंग चीजों को पूरा करने का है; अगर तुम प्रतीक्षा कर सको। कच्चे फल मत तोड़ो, थोड़ी प्रतीक्षा करो; वे पकेंगे, गिरेंगे। तुम्हें तोड़ना भी न पड़ेगा, वृक्ष पर चढ़ना भी न पड़ेगा। जीवन का नियम है चीजों को पूर्ण करना। यहां सब चीजें पूरी होती हैं, सिर्फ प्रतीक्षा चाहिए।

लेकिन तुमने अगर जल्दी की तो तुम कच्चा फल तोड़ ले सकते हो। तब तुम्हें वृक्ष पर भी चढ़ना पड़ेगा और हाथ-पैर भी तोड़ ले सकते हो गिरकर, और कच्चा फल हाथ लगेगा। और एक दफा वृक्ष से टूट गया तो उसके पकने के उपाय समाप्त हो गये। अगर उसको घर में रखकर तुमने पकाया तो वह पकना नहीं है, वह केवल सड़ना है क्योंकि पकने के लिए जीवंत ऊर्जा चाहिए। वह फिर ऐसा है, जैसे किसी ने धूप में बाल सफेद कर लिये हों। वह अनुभव प्रौढ़ता में नहीं, जीवन की प्रक्रिया से गुजरकर नहीं।

तो तुम घर में छिपाकर भी फल को पका सकते हो, लेकिन वह सिर्फ सड़ा हुआ फल है। पकने के लिए तो जीवंत ऊर्जा चाहिए थी वृक्ष की, उससे तुमने उसे तोड़ लिया। हर चीज पकती है। यहां बिना पका कुछ भी नहीं रह जाता। हर चीज पूर्णता पर पहुंचती है। जल्दी भर नहीं करना! औ हमारा मन बड़ी जल्दी करता है।

श्रद्धा पर ध्यान देना, संदेह से लड़ना मत। गुरु के पास होने का यही ढंग है। गुरु पुकारे तो कहना, ‘जी’। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे संदेह मिट गये; संदेह रहेंगे, लेकिन उनको तुम सुनना मत। उनके बावजूद तुम्हारी पुकार आनी चाहिए। वे मौजूद हैं, उन्हें तुम जानना; छिपाना भी मत क्योंकि जो है, वह है। और तुम चाहे छिपा भी लो, गुरु से तुम कैसे छिपा पाओगे?

इसमें होशिन तो कुछ भी बोला कहानी में; गुरु ही बोल रहा है। होशिन ने तो सिर्फ तीन बार ‘जी’ कहा। फिर गुरु ने खुद ही कहा कि मुझे तुझसे क्षमा मांगनी चाहिए। उसके संदेहों को देखकर कहा। फिर उसकी श्रद्धा को देखकर कहा, लेकिन वस्तुतः तो तुझे ही मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए।

ये दो वक्तव्य बड़े कीमती हैं। एक वक्तव्य होशिन के संदेहों के लिए है कि तेरे भीतर संदेह है, मुझे पता है। वे संदेह तुझसे कह रहे हैं, इस आदमी को तुझसे क्षमा मांगनी चाहिए। यह तेरी नींद में बाधा डाल रहा है। बैठने भी नहीं देता, रुकने भी नहीं देता; और व्यर्थ पुकार रहा है। इसकी पुकार पागलपन की है। उसके संदेहों को देखकर कहा है कि मुझे तुझसे क्षमा मांगनी चाहिए।

शायद होशिन उसी क्षण में थोड़ा-सा संदेहों की तरफ ध्यान दे रहा हो। यह सुनते ही चौंक गया होगा, संदेह से ध्यान हटा लिया होगा, श्रद्धा पर लग गया होगा। तत्क्षण गुरु ने कहा, लेकिन वस्तुतः तो तू ही मुझसे क्षमा मांग। मुझे तीन बार बुलाना पड़ा और तू नहीं जागा, इसलिए तू मुझसे क्षमा मांग। मुझे दुबारा भी बुलाना पड़ता है, इसलिए तू मुझसे क्षमा मांग। और मैं तुझे बुला रहा हूं बिना किसी कारण के, इसलिए तू मेरा अनुगृहीत हो।

वासना पुकारती है, कोई कारण है, करुणा पुकारती है, कोई कारण नहीं है; इसलिए अनुगृहीत कौन होगा?

इस छोटी-सी कथा में तुम्हारा पूरा हृदय है, उसके दो खंड हैं। जैसा मैंने कहा कि जीवन में हर चीज पूरी होती है, सिर्फ प्रतीक्षा चाहिए। और ध्यान तुम्हारी जीवन ऊर्जा है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ जीवन खिलना शुरू हो जाता है।

अभी वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अगर तुम पौधों को भी ध्यान दो तो वे जल्दी बड़े होते हैं। अगर तुम पौधों को पूरा ध्यान दो तो समय के पहले उन में फूल आ जाते हैं, फल लग जाते हैं। जिन पौधों पर तुम ध्यान मत दो, उपेक्षा करो, पानी बराबर दो, खाद बराबर दो, सिर्फ ध्यान मत दो, वे बढ़ते नहीं हैं। बढ़ते भी हैं तो भी पंगु रह जाते हैं। फूल उनमें देर से आते हैं। उनका पूरा फैलाव नहीं हो पाता।

मां जिस बेटे को ध्यान देती है, वह जल्दी बढ़ता है, स्वस्थ होता है। जिस बेटे की उपेक्षा करती है, दूध बराबर देती है, लेकिन उपेक्षा करती है…।

एक तो शरीर का भोजन है, जो दूध है; और एक आत्मा का भोजन है, जो ध्यान है। जिसको हम प्रेम करते हैं, उसकी तरफ हम ध्यान देते हैं। हमारी आंखें उसकी तरफ लगी रहती हैं। चाहे हम किसी भी काम में उलझे हों, हमारी सुरति उसकी तरफ बहती रहती है। चाहे हम हजारों मील दूर हों, तो भी हमें प्रेमी की याद बनी रहती है। हमारा ध्यान उसी की तरफ लगा रहता है।

श्रद्धा को प्रेम करो; वही तुम्हारा गुरु के प्रति प्रेम बनेगा। तुम्हारे भीतर की श्रद्धा से तुम जुड़े नहीं, कि तुम बाहर के गुरु से जुड़ जाओगे। लेकिन अगर तुम्हारी भीतर की श्रद्धा से ही संबंध नहीं है तो तुम गुरु के पास कितने ही भटको, तुम्हारे फासले में कोई अंतर न आयेगा; वह कम न होगा।

जीवन के भीतर कुछ राज है कि हर चीज पूरा होना चाहती है।

वैज्ञानिक कहते हैं आदमी तो दूर, जानवर तक पूर्णता की तलाश करते हैं। एक चिम्पांजी को…तुम जाओ किसी अजायब घर में और एक चिम्पांजी के सामने एक वर्तुल खींच दो अधूरा; पूरा न बनाओ वर्तुल, थोड़ा-सा हिस्सा छोड़ दो, आधा वर्तुल बना दो और चाक छोड़ दो; चिम्पांजी फौरन उसे पूरा कर देगा। उसको भी बेचैनी होती है कि अधूरा है।

तुम्हारे मन में भी बेचैनी बनी रहती है कि हर चीज पूरी होनी चाहिए। जब तक तुम पूरी नहीं कर लेते तब तक एक बेचैनी रहती है। लेकिन कुछ चीजें हैं जिन्हें तुम पूरी कर सकते हो। और कुछ चीजें है जिन्हें तुम पूरी नहीं कर सकते; जिनके लिए तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी।

यही फर्क विज्ञान और धर्म का है। विज्ञान उन चीजों की तलाश है, जिन्हें ‘तुम’ पूरा कर सकते हो। वर्तुल अधूरा है, चाक पास में पड़ी है, तुम इतना हिस्सा और जोड़ दे सकते हो। एक मशीन में एक पुर्जा कम है, तुम तैयार करके बिठा सकते हो। विज्ञान चीजों को पूरा कर रहा है। चीजें पूरी की जा सकती हैं क्योंकि तुमसे बाहर हैं।

धर्म तुम्हें पूरा करता है। लेकिन वहां तुम कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि वहां तुमको ही पूरा होना है, तुम कुछ करोगे कैसे? वहां तुम ही मूर्तिकार हो, तुम ही मूर्ति हो। वहां कोई बनानेवाला और बनायी जानेवाली चीजें अलग नहीं हैं। वहां तुम पूरा कैसे करोगे? वहां तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी।

इसलिए विज्ञान तो श्रम है और धर्म प्रतीक्षा है। विज्ञान जल्दबाज है, धर्म धैर्य है। वहां तुम्हें कुछ करना नहीं; वहां तो जीवन-ऊर्जा वृक्ष में आ रही है। तुम सिर्फ प्रतीक्षा करो। तुम सिर्फ ठीक मुड़कर प्रतीक्षा करो। तुम ठीक दिशा में देखो और प्रतीक्षा करो; तुम पहुंच जाओगे। श्रद्धा पर तुम्हारी आंखें हों, संदेह पर तुम्हारी पीठ हो। कोई शत्रुता नहीं, कोई दुश्मनी नहीं, कोई संघर्ष नहीं; सिर्फ पीठ, सिर्फ उपेक्षा! और सारा प्रेम श्रद्धा पर हो। और तुम प्रतीक्षा करो।

जल्दी ही तुम पाओगे, तुम्हारे संदेह की ऊर्जा भी श्रद्धा बनने लगी। जल्दी ही तुम पाओगे, संदेह का वृक्ष सूख गया। और जो जल संदेह के वृक्ष में जा रहा था, वह जल अब श्रद्धा के वृक्ष में बहने लगा।

जिस दिन तुम्हारे भीतर श्रद्धा पूरी होगी, उसी दिन गुरु कहेगा, होशिन! शायद तुम्हें ‘जी’ भी न कहना पड़े। तुम जाग जाओगे। एक पुकार तुम्हें खड़ा कर देगी। उस एक पुकार के लिए सारी तैयारी है।

यह गुरुपूर्णिमा का दिन पूर्णिमा की वजह से चुना गया है। वह पूरे का प्रतीक है। चांद चलता है, बड़ी छोटी सीमा से शुरू करता है और पूरा हो जाता है। चांद को कुछ करना नहीं पड़ता है पूरे होने में, सिर्फ प्रतीक्षा ही करनी होती है। पूर्णिमा आती है, और चांद अपना पूरा प्रकाश लुटा देता है।

और एक बात ध्यान रखनी जरूरी है कि चांद जब पूरा नहीं होता, तब भी हमें दिखाई पड़ता है कि पूरा नहीं है। ऐसे तो पूरा ही होता है। पूरा होना तो स्वभाव है। दिखाई पड़ने में बाधा पड़ती है। चांद छोटा दिखाई पड़ता है, पहली तिथि को, दूसरी तिथि को, तीसरी तिथि को; उसका कारण यह नहीं कि चांद अधूरा है, चांद तो पूरा ही है, लेकिन उतने ही हिस्से पर सूरज की रोशनी पड़ रही है, जितना हमें दिखाई पड़ता है। चांद पूरा है, सिर्फ रोशनी कुछ कम हिस्से पर पड़ रही है। पूर्णिमा के दिन पूरे चांद पर रोशनी पड़ेगी। पूरा चांद दिखाई पड़ेगा। अमावस के दिन पूरा चांद खो जाएगा। चांद तो अपनी जगह है; कुछ खोता नहीं, कुछ आता नहीं। रोशनी नहीं पड़ेगी।

तुम्हारा ध्यान तुम्हारी रोशनी है। तुम्हारा ध्यान तुम्हारा जीवन है। तुम पूरे हो। तुम्हारा ध्यान तुम पर नहीं है। और जितना तुम्हारा तुम पर ध्यान पड़ेगा, उतना ही चांद प्रगट होने लगेगा। दूज का चांद बनोगे तुम, छोटी-सी रेखा दिखाई पड़ेगी। कभी दिखाई पड़ेगी, कभी खो जाएगी। अगर तुम प्रतीक्षा करते रहे और ध्यान की ऊर्जा को फेंकते गये श्रद्धा पर, फोकसिंग जारी रहा, ध्यान की तुम वर्षा करते रहे, आज नहीं कल चांद पूर्णता की तरफ पहुंचेगा और एक दिन पूर्ण हो जाएगा।

पूर्णिमा का दिन पूरे चांद की वजह से चुना गया है। और सभी पूरे होने के रास्ते पर हैं। देर-अबेर सभी पूरे हो जाएंगे। जल्दबाजी मत करना क्योंकि जल्दबाजी में अकसर तुम गड़बड़ कर लोगे।

कौन करेगा जल्दबाजी? तुम्हारा मन ही करेगा। तुम्हें खयाल है, जब कभी तुम जल्दी में होते हो, तब ज्यादा देर लग जाती है। ट्रेन पकड़नी है, और तुम जल्दी में हो तो नीचे की बटन ऊपर लग जाती है, टाई उल्टी-सीधी बंध जाती है, जूता गलत पैर में चला जाता है। फिर बदलो। और इस बदलाहट की वजह से और जल्दी हो जाती है। जल्दी में तुम ट्रेन चूक ही जा सकते हो। धीरज से कभी कोई नहीं चूकता, जल्दी से लोग चूक जाते हैं। क्योंकि जितनी जल्दी होती है उतना तनाव बढ़ जाता है। जितना धैर्य होता है, उतना तनाव शांत होता है।

मैंने सुना है, एक जंगल में एक नयी रेलवे लाईन बन रही थी। आदिवासियों का इलाका था। रेलमंत्री, जब रेल की लाईन बन गई और चलने का वक्त करीब आ गया, उदघाटन का दिन आने लगा तो देखने गया था। जंगली आदिवासी इकट्ठे हुए थे, बड़े प्रसन्न थे, बड़े कुतूहल से भरे थे कि क्या मामला है? उस मंत्री ने उन्हें कहा कि सुनो, तुम्हें शहर जाने में कितना समय लगता है? लकड़ी बेचने जाते हो, फल बेचने जाते हो, सब्जी बेचने जाते हो। तो उन्होंने कहा, तीन दिन लगते हैं आने-जाने में। उन्होंने कहा, अब तुम खुश हो जाओ। यह ट्रेन बन गई है और आज इसका उदघाटन होने को है। अब तुम सुबह जाओगे और सांझ घर वापिस आ जाओगे।

यह सुनकर आदिवासी कुछ चिंतित मालूम पड़े। उसने पूछा कि इसमें खुश होने की बात है, तुम उदास क्यों हो गए? उन्होंने कहा, बाकी दो दिन का हम क्या करेंगे?

पुरानी दुनिया शांत थी। बड़े धीरज से चल रही थी। रफ्तार नहीं थी, तनाव नहीं था, जल्दबाजी नहीं थी कहीं पहुंचने की, लौटने की भी कोई जल्दी न थी। जैसे समय काफी था, पर्याप्त था। सब समय में हो जाएगा। जितनी रफ्तार बढ़ती है, जितनी स्पीड बढ़ती है, उतना तुम्हारा तनाव बढ़ता है। क्योंकि रफ्तार के साथ तुम जल्दबाज होते चले जाते हो। एक-एक मिनिट की फिक्र है कि खो न जाए!

और तुम कभी नहीं पूछते कि बचाकर तुम क्या करोगे! उन लोगों ने ठीक ही पूछा कि वह दो दिन का हम क्या करेंगे? अभी तो तीन दिन हमें लगते हैं। दो दिन बच जाएंगे उनका क्या होगा? वे उदास हो गए। तुम कभी नहीं पूछते कि जल्दबाजी करके क्या करोगे?

जल्दबाजी तुम किसी कारण से कर भी नहीं रहे हो, वह तुम्हारी बेचैनी के कारण हो रही है। तुम जल्दबाजी इसलिए नहीं कर रहे हो कि कहीं तुम्हें पहुंचना है। पहुंचने का पक्का हो जाए तो तुम्हारे मन में भी सवाल उठेगा कि पहुंचकर क्या करेंगे? तुम जल्दबाजी इसलिए कर रहे हो कि तुम बेचैन हो। और बेचैनी जल्दबाजी में भूल जाती है, व्यस्त हो जाती है। तो जितना बेचैन आदमी है, उतना जल्दबाजी में है। जितना जल्दबाजी में है, उतना बेचैन है। एक विसियस सर्कल, एक दुष्चक्र पैदा हो जाता है। उसमें तुम पागल ही होकर समाप्त होओगे।

धैर्य रखना। अधैर्य पागलपन की फसल का बोना है। और चांद अपने से पूरा हो जाता है, तुम्हें कुछ करना नहीं है। नदी अपने से सागर पहुंच जाती है, तुम्हें कुछ करना नहीं है। कोई नदी को धक्का दे-देकर सागर तक नहीं पहुंचाना है। और न चांद पर मेहनत कर-करके उसकी पूर्णिमा बनानी है। और जब यह प्रकृति पूरी की पूरी अपने आप चल रही है तो तुम अकेले कुछ अपवाद हो? तुम भी परमात्मा तक पहुंच जाओगे; वह तुम्हारी पूर्णिमा है। लेकिन जल्दी मत करना, धैर्य रखना। जितना होगा गहरा धैर्य, उतने जल्दी परिणाम आ जाते हैं। अगर धैर्य परिपूर्ण हो, इसी क्षण तुम पूर्णिमा के चांद हो जाओगे। क्योंकि चांद तुम सदा हो। जब धैर्य पूरा होता है तो ध्यान पूरा हो जाता है। इस बात को ठीक से समझ लें।

जब बेचैनी होती है, ध्यान बंट जाता है; पच्चीस चीजों में बंट जाता है। एक हाथ से बटन लगा रहे हो और दूसरे हाथ से जूता पहन रहे हो, तीसरे हाथ से कोट संभाल रहे हो, चौथे हाथ से…तुम कहोगे इतने हाथ नहीं हैं। लेकिन तुम हिंदुओं के देवताओं को देखो! हजार हाथ के उनको इसीलिए बनाया है। हाथ चाहे हजार न हों लेकिन तुम काम ऐसा ही कर रहे हो, जैसे हजार हाथ हों।

मैं एक कार्टून देख रहा था। एक स्त्री बनियान बुन रही है; बनियान बुनती जा रही है, अखबार पढ़ती जा रही है। रेडियो जारी कर रखा है, रेडियो सुनती जा रही है, पैर से बच्चे के झूले को हिला रही है–हजार हाथ हैं। तुम जितनी जल्दी में हो और जितना ज्यादा कर लेने को उत्सुक हो, उतने तुम बंट जाते हो। यह स्त्री न तो रेडियो सुन रही है, न बनियान बुन रही है, न अखबार पढ़ रही है, न बच्चे को प्रेम दे रही है। मगर यह सोच रही है कि बहुत काम कर रही है। कुछ भी नहीं हो रहा है। बच्चे की उपेक्षा हो रही है। यह पैर और ढंग का है। यह पैर काम की तरह हिला रहा है। इस पैर से कोई प्रेम की धारा नहीं बह रही है। इस पैर से कोई ध्यान नहीं जा रहा है बच्चे की तरफ। एक कर्तव्य है, जो पूरा किया जा रहा है। एक यंत्रवत काम हो रहा है। यह स्त्री आटौमेटा है, इसके पास हृदय नहीं है। इसके पास हजार हाथ हैं।

देवताओं को क्षमा किया जा सकता है, उनके पास हजार हाथ रहे हैं। तुम हजार हाथ पैदा मत करना। तुम हजार व्यस्तताएं पैदा मत करना। तुम हजार तनाव पैदा मत करना। तुम धीरज से बहना। तुम धीरे-धीरे बहना। चांद प्रगट होगा। पूर्णिमा अपने से आ जाती है।

एक ही बात खयाल रखने की है कि श्रद्धा पर तुम्हारा ध्यान हो। श्रद्धा पर तुम्हारे पूरे ध्यान की ऊर्जा बरसती रहे। वह वर्षा श्रद्धा पर होती रहे तुम गुरु से जुड़ जाओगे।

गुरु से जुड़ने का उपाय है, भीतर की श्रद्धा से जुड़ जाना।

और जिस दिन तुम गुरु से जुड़ जाओगे, जिस दिन संदेह के रहते हुए भी गुरु और तुम्हारे बीच एक सेतु बंध जाएगा, उसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति शुरू हो जाएगी। क्योंकि गुरु के साथ जुड़ जाने का अर्थ है, केटलेटिक एजेंट के साथ जुड़ जाना। गुरु कुछ करता नहीं है, किए हुए का मूल्य भी नहीं होता। गुरु की मौजूदगी कुछ करती है।

वैज्ञानिक एक तत्व को स्वीकार करते हैं, वह केटलेटिक एजेंट है। केटलेटिक एजेंट का अर्थ है कि जब दो तत्व मिलते हैं, तो सिर्फ इसकी मौजूदगी तीसरे की चाहिए, यह कुछ करता नहीं। इससे उन दो तत्वों में कुछ जाता नहीं। उन दो तत्वों को हम तोड़ें तो हम दो को ही पायेंगे, इस तीसरे को हम बिलकुल न पायेंगे। लेकिन अगर यह मौजूद न हो तो वे दो तत्व मिलते नहीं।

यह बड़ी रहस्यपूर्ण घटना है। लेकिन वैज्ञानिकों ने इसे स्वीकार कर लिया क्योंकि कोई और उपाय नहीं है।

आक्सिजन और हाइड्रोजन को मिलाना हो तो बिजली की चमक चाहिए; इसलिए आकाश में वर्षा में बिजली चमकती है। वह बिजली न चमके तो वर्षा न हो। बिजली की मौजूदगी चाहिए। बिजली की मौजूदगी में तत्क्षण आक्सिजन और हाइड्रोजन मिल जाते हैं और पानी बन जाता है। लेकिन अगर पानी को तुम तोड़ो तो हाइड्रोजन और आक्सिजन मिलते हैं, बिजली नहीं मिलती। उसकी सिर्फ मौजूदगी थी। उस मौजूदगी में घटना घट गई।

अगर भौतिक जगत में केटलेटिक एजेंट होते हैं तो आध्यात्मिक जगत में भी होते हैं। गुरु केटलेटि्क एजेंट हैं। वह कुछ करेगा नहीं; तुम उससे जुड़ गए, उसकी मौजूदगी मिल गई, घटना तुम्हारे भीतर ही घटनी है। तुम्हारे भीतर के दो विभिन्न हिस्से उसकी मौजूदगी में मिल जायेंगे और एक हो जायेंगे। गुरु की आंखों के नीचे तुम एक हो जाओगे। और गुरु कुछ करेगा नहीं। इस तुम्हारी एकता में गुरु का कोई भी स्पर्श न पाया जाएगा। इस तुम्हारी आत्म-क्रांति में गुरु का कुछ भी दान नहीं मिलेगा–बस, उसकी मौजूदगी।

इसलिए हमने गुरु के पास रहने को सत्संग कहा है। बस, उसके पास होना काफी है–उसकी उपस्थिति में। वह मौजूद है; और उसकी मौजूदगी में तुम बढ़ रहे हो और बड़े हो रहे हो और तुम्हारा चांद प्रगट हो रहा है।

जब गुरु तुम्हें बुलाए ‘होशिन’।

तो तुम भूल जाना संदेह को और तुम्हारी श्रद्धा को कहने देना, ‘जी’।

और गुरु बार-बार बुलाए तो भी तुम बार-बार उत्तर देने को राजी होना। बार-बार सावधान होने को राजी होना। गुरु के पानी की जैसी चोट तुम्हारी चट्टान को आज नहीं कल तोड़ देगी। तुम बहोगे। तुम सागर तक पहुंचोगे।

आज इतना ही।


Filed under: बिन बाती बिन तेल--(झेन कहानियां) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–43

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ज्ञान नहीं—जागरण—(प्रवचन—तीसरा)

योग—सूत्र:

(साधनापाद)

तदाभावात्‍संयोगाभावो हानं तद्ददृशे: कैवल्यम्।। 25।।

अज्ञान के विर्स्‍जन द्वारा द्रष्टा और दश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है।

यहीं मुक्‍ति का उपाय है।

विवेकख्‍यातिरविप्‍लवा हानोपाय:।। 26।।

सत्‍य और असत्‍य के बीच भेद करने के सतत अभ्‍यास द्वारा

अज्ञान का विसर्जन होता है।

तस्‍य सप्‍तधा प्रान्‍तभूमि: प्रज्ञा।। 27।।

संबोधि की परम अवस्‍था उपलब्‍ध होती है सत चरणों में।

ज्ञान की अवस्था ही कारण है सारी भ्रांतियों का, सारे भ्रमों का, सभी मिथ्या प्रतीतियों का। लेकिन ज्यादा जानना ज्ञान की अवस्था नहीं है। अज्ञान कारण है, लेकिन ज्ञान—जानकारी के अर्थ में—कोई उपाय नहीं है। तुम ज्यादा से ज्यादा जान सकते हो, लेकिन तुम वही रहते हो। ज्ञान एक व्यसन बन जाता है। तुम उसे इकट्ठा करते चले जाते हो, लेकिन जो इकट्ठा कर रहा है वह वही का वही बना रहता है। तुम ज्यादा जानते हो, लेकिन ‘तुम’ ज्यादा होते नहीं।

और अज्ञान का मूल कारण केवल तभी मिट सकता है जब तुम विकसित होओ, जब तुम्हारा होना मजबूत हो, जब तुम्हारी स्व—सत्ता जागे। सारी पीड़ा का मूल कारण अज्ञान है, लेकिन तथाकथित ज्ञान उपचार नहीं है—जागरण है उपचार।

यदि तुम इस सूक्ष्म भेद को नहीं समझते, तो पहले तो तुम अज्ञान में खोए हो, फिर तुम ज्ञान में खो जाओगे—और कुछ ज्यादा ही खो जाओगे। उपनिषदों में सर्वाधिक क्रांतिकारी वचनों में से एक वचन है। वह वचन यह है कि अज्ञान में तो लोग भटकते ही हैं, लेकिन ज्ञान में वे और भी गहरे अर्थों में भटक जाते हैं। अज्ञान तो भटकाता ही है, ज्ञान और भी ज्यादा भटका देता है।

तो अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है। यदि वह ज्ञान का अभाव होता तो चीजें बहुत आसान होती—और सस्ती होतीं। तुम ज्ञान उधार ले सकते हो; तुम स्वयं का होना उधार नहीं ले सकते। ज्ञान तो तुम चुरा भी सकते हो; तुम स्व—सत्ता को नहीं चुरा सकते। तुम्हें उसमें विकसित होना होता है।

इस बात को कसौटी की तरह याद रखना : जब तक तुम किसी चीज को स्वयं के भीतर विकसित नहीं करते, तब तक वह तुम्हारी कभी नहीं होती। जब तुम भीतर विकसित होते हो, केवल तभी कोई चीज तुम्हारी होती है। तुम किसी चीज पर मालकियत कर सकते हो, लेकिन उस मालकियत से भांति में मत पड़ जाना। वह चीज तुमसे अलग ही बनी रहती है, वह तुम से छीनी जा सकती है। केवल तुम्हारी अंतस सत्ता नहीं छीनी जा सकती तुम से। तो जब तक तुम्हारी अंतस सत्ता में ही ज्ञान न घट जाए, अज्ञान नहीं मिट सकता।

अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है; अज्ञान है होश का अभाव। अज्ञान एक प्रकार की निद्रा है, एक प्रकार की मूर्च्छा है, एक प्रकार का सम्मोहन है; जैसे कि तुम नींद में चल रहे हो, नींद में काम कर रहे हो। तुम नहीं जानते कि तुम क्या कर रहे हो। तुम आलोकित नहीं हो; तुम्हारा सारा अस्तित्व अंधकार में डूबा है। तुम जान सकते हो प्रकाश के विषय में, लेकिन प्रकाश के विषय में वह ज्ञान

कभी प्रकाश न बनेगा। उलटे, वह एक अवरोध बन जाएगा प्रकाश की ओर गति करने में, क्योंकि जब तुम बहुत कुछ जान लेते हो प्रकाश के संबंध में तो तुम भूल जाते हो कि प्रकाश घटित नहीं हुआ है तुम्हें। तुम अपने ही ज्ञान द्वारा धोखा खा जाते हो।

यह ऐसे ही है जैसे कि तुम एक अंधेरी कोठरी में रह रहे हो। तुमने प्रकाश के विषय में सुना है, लेकिन तुमने प्रकाश देखा नहीं है। और तुम प्रकाश के विषय में सुन कैसे सकते हो? उसे केवल देखा जा सकता है। कान माध्यम नहीं हैं प्रकाश को जानने का; आंखें हैं माध्यम। और तुमने सुन लिया है प्रकाश के बारे में। और बार—बार प्रकाश की बातें सुन कर तुम्हें लगता है कि तुम जानते हो प्रकाश को। तुम जानते हो उसके बारे में, लेकिन किसी के बारे में जानना उसे जानना नहीं है। तुमने सुना है। और कैसे तुम सुन सकते हो प्रकाश को? यह तो ऐसा ही होगा जैसे कोई कहे कि उसने देखा है संगीत को। यह बात बड़ी बेतुकी होगी।

फिर प्रकाश की बातें सुन—सुन कर मन और लोभी हो जाता है। तुम शास्त्रों में खोजते हो। तुम जाते हो और खोजते हो बुद्धिमान वृद्धों को। तुम्हें शायद कोई मिल भी जाए जिसने देखा हो, लेकिन जब वह उसके बारे में कुछ कहता है, तो तुम्हारे लिए वह सुनी हुई बात हो जाती है।

भारत में प्राचीनतम शास्त्र श्रुति के नाम से जाने जाते हैं. वह जिसे कि सुना गया है। सुंदर है यह बात। सचमुच सुंदर है यह। सत्य सुना कैसे जा सकता है? और सारे प्राचीनतम शास्त्र श्रुतियां और स्मृतियां कहलाते हैं। श्रुति का अर्थ है ‘सुना हुआ’ और स्मृति का अर्थ है ‘स्मरण रखा हुआ’। तुमने सुना है और स्मृति में रख लिया है। तुमने रट लिया है।

लेकिन सुन कर तुम सत्य को कैसे जान सकते हो? तुम्हें उसे अनुभव करना होता है। वस्तुत: तुम्हें उसे जीना होता है। गुफा में, अंधेरे में जीने वाला आदमी प्रकाश के बारे में बहुत जानकारी इकट्ठी कर सकता है। वह बहुत बड़ा पंडित भी बन सकता है। तुम कुछ भी पूछ सकते हो उससे और तुम भरोसा कर सकते हो उस पर। वह हर चीज बता देगा जो प्रकाश के बारे में कभी भी कही गई है, लेकिन फिर भी रहेगा वह अंधेरे में ही। और प्रकाश को पाने में वह तुम्हारी मदद नहीं कर सकता; वह स्वयं ही अंधा है।

जीसस बार—बार कहते हैं, ‘अंधे अंधों को चला रहे हैं।’ कबीर कहते हैं, ‘यदि तुम दुख भोग रहे हो, तो सजग हो जाओ; जरूर तुम अंधे आदमी द्वारा चलाए गए हो।’ कबीर कहते हैं, ‘अंधा अंधे ठेलिया दोनों कूप पड़ंत।’ और तुम सभी पड़े हो दुख के कुएं में; तुमने सत्य के विषय में जरूर बहुत कुछ सुना होगा; तुमने बहुत कुछ सुना होगा ईश्वर के विषय में। हजारों उपदेशक निरंतर उपदेश दे रहे हैं ईश्वर के संबंध में—चर्च हैं, मंदिर हैं, पंडित—पुरोहित हैं—निरंतर चर्चा कर रहे हैं उसके विषय में। लेकिन ईश्वर कोई बातचीत नहीं है, वह तो एक अनुभव है।

अज्ञान ज्ञान के द्वारा नहीं मिट सकता है। वह मिट सकता है केवल होश के द्वारा। ज्ञान तो तुम स्वप्न में भी इकट्ठा किए जा सकते हो; लेकिन वह स्वप्न का हिस्सा ही है, और स्वप्न हिस्सा है तुम्हारी नींद का। कोई चाहिए जो तुम्हें झकझोर दे। कोई चाहिए जो तुम्हें धक्का दे दे। कोई चाहिए जो तुम्हें तुम्हारी नींद से जगा दे। अन्यथा तुम तो ऐसे ही चलते चले जा सकते हो। नींद मादक होती है। अज्ञान मादक होता है, वह एक प्रकार का नशा है। तुम्हें उससे बाहर आना है।

मैं तुम से एक कहानी कहूंगा, जो मुझे सदा प्रीतिकर रही है। वह तिलोपा के शिष्य, सिद्ध नरोपा के विषय में है। नरोपा के अपने गुरु तिलोपा से मिलने के पहले की घटना है। उसके बुद्धत्व को उपलब्ध होने से पहले की घटना है। और यह बहुत जरूरी है प्रत्येक खोजी के लिए, सब के साथ ऐसा ही होगा। तो सवाल यह नहीं है कि ऐसा नरोपा के साथ हुआ या नहीं, लेकिन इस यात्रा पर ऐसा होना अनिवार्य है। जब तक ऐसा न घटे, बुद्धत्व संभव नहीं है। इसलिए मैं नहीं जानता कि ऐतिहासिक रूप से ऐसा हुआ या नहीं, लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से मैं निश्चित हूं एकदम सुनिश्चित हूं कि ऐसा हुआ, क्योंकि कोई भी इस अनुभव के बिना पार के जगत में गति नहीं कर सकता।

नरोपा बहुत बड़ा विद्वान था, एक बड़ा पंडित था। कहानियां हैं कि वह एक महान उपकुलपति था एक बड़े विश्वविद्यालय का—दस हजार उसके विद्यार्थी थे। एक दिन वह बैठा हुआ था अपने विद्यार्थियों के बीच। उसके चारों ओर हजारों शास्त्र बिखरे पड़े थे—प्राचीन, अति प्राचीन, दुर्लभ शास्त्र। अचानक ही उसे झपकी लग गई— थका रहा होगा—और उसे एक दृश्य दिखाई पड़ा। मैं इसे दृश्य कहता हूं स्वप्न नहीं कहता, क्योंकि यह कोई साधारण स्वप्न नहीं है। यह इतना अर्थपूर्ण है कि इसे स्वप्न कहना उचित न होगा; यह दर्शन था। उसने एक बहुत की, कुरूप, भयंकर स्त्री देखी, चुड़ैल जैसी। उसकी कुरूपता इतनी भयंकर थी कि वह नींद में कांपने लगा। वह बहुत घबरा गया। वह भाग जाना चाहता था—लेकिन भागे कहां? जाए कहा? वह पकड़ लिया गया, मानो कि की चुड़ैल द्वारा सम्मोहित हो गया हो। उस स्त्री का शरीर घबराने वाला था, लेकिन उसकी आंखें चुंबकीय थीं।

उसने पूछा, ‘नरोपा, तुम क्या कर रहे हो?’

और उसने कहा, ‘मैं अध्ययन कर रहा हूं।’

‘क्या अध्ययन कर रहे हो तुम?’ की स्त्री ने पूछा।

उसने कहा, ‘दर्शन, धर्म, तत्व—मीमांसा, भाषा, व्याकरण, तर्कशास्त्र।’

उस की स्त्री ने फिर पूछा, ‘क्या तुम समझते हो इन्हें?’

नरोपा ने कहा, ‘बिलकुल. ही, मैं समझता हूं इन्हें।’

उस स्त्री ने फिर पूछा, ‘तुम शब्दों को समझते हो या कि अनुभव को?’

यह बात पहली बार पूछी गई थी। नरोपा से जीवन में हजारों प्रश्न पूछे गए थे। वह एक बड़ा शिक्षक था—हजारों विद्यार्थी सदा ही पूछते रहे थे, जिज्ञासा करते रहे थे—लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा था : ‘तुम शब्दों को समझते हो या कि भाव को?’ और उस स्त्री की आंखें इतनी गहरे देखने वाली थीं कि झूठ बोलना असंभव था—वह जान जाएगी। उसकी दृष्टि के सम्मुख नरोपा ने अपने को बिलकुल नग्न अनुभव किया, निर्वस्त्र, पारदर्शी। वे आंखें उसके अंतस में एकदम गहरे झांक रही थीं, और झूठ बोलना असंभव था। उसने और किसी से कह दिया होता, ‘निश्चित ही मैं समझता हूं भाव’, लेकिन इस स्त्री से, इस भयंकर स्त्री से वह झूठ नहीं बोल सका; उसे सत्य ही कहना पड़ा।

उसने कहा, ‘ही, मैं शब्दों को समझता हूं।’

वह स्त्री बहुत प्रसन्न हो गई। वह नाचने लगी और हंसने लगी।

यह सोच कर कि स्त्री इतनी खुश हो गई है—और उसकी खुशी के कारण उसकी कुरूपता भी बदल गई थी; अब वह उतनी कुरूप न रही थी, एक सूक्ष्म सौंदर्य उसके भीतर से बाहर झलकने लगा

था—तो यह सोच कर कि मैंने इसे इतना प्रसन्न कर दिया है तो क्यों न इसे थोड़ा और प्रसन्न कर दूं उसने कहा, ‘और ही, मैं भाव भी समझता हूं।’

उस स्त्री की हंसी रुक गई। उसका नृत्य थम गया। वह चीखने लगी और रोने लगी, और उसकी सारी कुरूपता लौट आई—पहले से हजार गुना ज्यादा।

नरोपा ने कहा, ‘क्यों? क्यों तुम रो रही हो? और पहले क्यों तुम हंस रही थीं और नाच रही थीं?’ वह स्त्री कहने लगी, ‘मैं नाच रही थी और हंस रही थी और खुश थी, क्योंकि तुम्हारे जैसे महान विद्वान ने झूठ नहीं बोला था। लेकिन अब मैं चीख रही हूं और रो रही हूं क्योंकि तुमने मुझसे झूठ बोला। मैं जानती हूं—और तुम जानते हो—कि तुम भाव को नहीं समझते।’

दृश्य विलीन हो गया और नरोपा रूपांतरित हो गया। उसने विश्वविद्यालय छोड़ दिया। उसने फिर कभी अपनी जिंदगी में कोई शास्त्र न छुआ। वह बिलकुल अज्ञानी हो गया : वह समझ गया कि केवल शब्दों को समझ कर तुम किसे धोखा दे रहे हो! और केवल शब्दों को समझ—समझ कर तुम बन गए हो एक कुरूप बूढ़ी चुड़ैल।

ज्ञान कुरूप होता है। और यदि तुम विद्वानों के पास जाओ तो तुम पाओगे कि वे दुर्गंध से भरे हैं—ज्ञान की दुर्गंध से—वे मुर्दा हैं।

एक प्रज्ञावान व्यक्ति के पास, एक बोधपूर्ण व्यक्ति के पास उसकी एक अपनी ताजगी होती है, एक सुवासित जीवन होता है—जो कि नितांत अलग होता है पंडित से, ज्ञान से भरे व्यक्ति से। जो भाव को समझता है वह सुंदर हो जाता है, जो केवल शब्द को ही समझता है वह कुरूप हो जाता है। और वह स्त्री कोई बाहर की नहीं थी : वह तो भीतर का एक प्रक्षेपण थी। वह नरोपा का ही एक हिस्सा था जो ज्ञान के द्वारा कुरूप हो गया था। मात्र इतनी समझ कि ‘मैं भाव को नहीं समझता’ और सारी कुरूपता एक सुंदरता में बदल जाने वाली थी।

नरोपा तलाश में निकल पड़ा, क्योंकि अब शास्त्र काम न देंगे। अब जरूरत है किसी जीवंत सदगुरु की। फिर लंबी यात्राओं के बाद उसे तिलोपा मिले। तिलोपा को भी इस व्यक्ति की तलाश थी, क्योंकि जब तुम्हारे पास कुछ होता है, तो तुम उसे बांटना चाहते हो; एक करुणा पैदा होती है। करुणा बौद्ध शब्दावली है। इसके लिए अंग्रेजी शब्द ‘कम्पैशन’ एकदम वही भाव व्यक्त नहीं करता—कर नहीं सकता। करुणा शब्द बहुत ही अर्थपूर्ण है। यह उसी संस्कृत मूल से आता है जिससे कि किया शब्द आता है। क्रिया और करुणा—वे दोनों आते हैं एक ही मूल धातु ‘कृ’ से। बौद्ध शब्द करुणा का अर्थ है ‘सक्रिय करुणा।’

और यही अंतर है सहानुभूति और करुणा के बीच, सहानुभूति में कुछ करने की कोई जरूरत नहीं होती—तुम बस अपनी सहानुभूति प्रकट कर देते हो और बात खतम हो जाती है। करुणा सक्रिय होती है; तुम करते हो कुछ, तुम्हें कुछ करना ही पड़ता है। तुम मात्र सहानुभूति में कैसे जी सकते हो? सहानुभूति तो बहुत उथली, बहुत ठंडी मालूम पड़ेगी। करुणा में ऊष्मा होती है। करुणा का अर्थ ही है कि वह सक्रिय होती है।

जब कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो करुणा पैदा होती है। तिलोपा ज्ञान को उपलब्ध हो गए थे। उनका साक्षात्कार हुआ था सत्य से; और अब करुणा उमग आई थी। और वे उस व्यक्ति

की खोज में थे जो लेने को तैयार हो—क्योंकि सत्य के अनुभव को तुम उन पर नहीं थोप सकते जो कुछ समझेंगे ही नहीं। एक संवेदनशील हृदय की, एक स्त्रैण हृदय की जरूरत होती है। शिष्य को स्त्री जैसा होना होता है, क्योंकि गुरु को उंडेलना है और शिष्य को उसे स्वीकार करना है।

तो वे दोनों मिले और तिलोपा ने कहा, ‘नरोपा, अब मैं वह सब कहूंगा जिसे कहने की मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं। मैं तुम्हें सब कुछ कहूंगा, नरोपा। तुम आ गए हो; अब मैं स्वयं को निर्भार कर सकता हूं।’

नरोपा को जो दिखा, वह दृश्य बहुत अर्थपूर्ण है। वह दर्शन जरूरी है। जब तक तुम अनुभव न कर लो कि ज्ञान व्यर्थ है, तब तक तुम प्रज्ञा की तलाश कभी करोगे ही नहीं। तुम झूठे सिक्के ही लिए रहोगे यह सोच कर कि यही है सच्चा खजाना।

तुम्हें सजग होना है कि ज्ञान नकली सिक्का है—वह जानना नहीं है, वह बोध नहीं है। अधिक से अधिक वह बौद्धिक है—शब्द समझ में आ गए हैं लेकिन बोध चूक गया है। एक बार तुम समझ लेते हो, इसे तो तुम उतार फेंकोगे अपना सारा ज्ञान और तुम निकल पड़ोगे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में जो कि जानता है, क्योंकि जो जानता है, केवल उसी के साथ हृदय से हृदय का, प्राणों से प्राणों का संवाद संभव होता है। लेकिन शिष्य यदि पहले से ही ज्ञान से भरा है तो संवाद असंभव है, क्योंकि ज्ञान एक दीवार बन जाएगा।

मैं सदा ही तुम्हारे चारों ओर एक सूक्ष्म दीवार देखता हूं। जब तुम मेरे पास आते हो, तो मैं देखता हूं कि मैं तुम तक पहुंच सकता हूं या नहीं, तुम तक पहुंचना संभव है या नहीं। यदि मैं ज्ञान की बहुत मोटी दीवार देखता हूं तो नितांत असंभव लगता है तुम तक पहुंचना; मुझे प्रतीक्षा करनी होती है। यदि मुझे छोटी सी संध भी मिले तो मैं वहां से प्रवेश कर जाता हूं। लेकिन भयभीत लोग, भय से भरे हुए लोग—वे संध तक नहीं छोड़ते; वे पक्की दीवार बना लेते हैं। वे अपने चारों ओर एक घेरा बना लेते हैं ज्ञान का, जानने का, धारणाओं का, अर्थहीन शब्दों का। व्यर्थ। मात्र शोरगुल। वस्तुत: एक उपद्रव, लेकिन तुम विश्वास करते हो उनमें।

तो यह पहली बात समझ लेने की है : ज्ञान कोई ज्ञान नहीं है। और केवल वह ज्ञान जो कि ज्ञान नहीं बल्कि प्रज्ञा है, समझ है, बोध है, वही कांट सकता है अज्ञान की जड़ों को।

याद रखना इस शब्द ‘बोध’ को। जैसे सुबह धीरे— धीरे तुम जागते हो और नींद के बाहर आते हो और नींद समाप्त हो जाती है, मिट जाती है। वैसा ही फिर घटता है : तुम नींद से बाहर आते हो; धीरे— धीरे तुम्हारी आंखें खुलती हैं, तुम देखने लगते हो; तुम्हारा हृदय आंदोलित होता है, तुम्हारा अंतस खुलने लगता है, और तत्क्षण तुम वही व्यक्ति नहीं रह जाते जो तुम सोए हुए थे।

क्या तुमने कभी गौर किया, सुबह जब तुम जागते हो, तो तुम बिलकुल ही दूसरे व्यक्ति होते हो, तुम वही नहीं होते जो सोया हुआ था? क्या तुमने ध्यान दिया, नींद में तुम बिलकुल अलग ही आदमी होते हो। नींद में तुम ऐसे काम करते हो, जिनकी तुम जागे हुए करने की— कल्पना भी नहीं कर सकते! नींद में तुम ऐसी बातों पर विश्वास कर लेते हो, जिन पर जागे हुए तुम विश्वास कर ही नहीं सकते। नींद में तो हर तरह की बेतुकी बातों पर विश्वास आ जाता है। जागने पर तुम हंसते हो अपनी ही मूढ़ता पर, अपने ही सपनों पर।

ऐसा ही तब घटता है, जब तुम अंतिम रूप से जाग जाते हो। तब संसार की वे सब बातें जिन्हें तुम उस क्षण तक जी रहे थे, एक सपने का—एक लंबे सपने का—हिस्सा बन जाती हैं। इसीलिए हिंदू सदा कहते रहे हैं, संसार माया है. वह सपनों से बना है; वह वास्तविक नहीं है। जागो! और तुम पाओगे कि वे सब मिथ्या आभास जो तुम्हें घेरे हुए थे, खो गए हैं। और अस्तित्व का एक नितांत अलग आयाम उपलब्ध होता है—वही है मुक्ति। मुक्ति का अर्थ है भ्रमों से मुक्ति। मुक्ति का अर्थ है निद्रा से मुक्ति। मुक्ति का अर्थ है उस सब से मुक्ति जो कि नहीं है और भासता है कि है।

सत्य को जानने का अर्थ है घर आ जाना, असत्य में उलझे रहने का अर्थ है संसार में रहना। अब हम पतंजलि के सूत्रों को समझने का प्रयास करें।

अज्ञान के विसर्जन द्वारा द्रष्टा और दृश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है। यही मुक्ति का उपाय है।

कहां से प्रारंभ करें? क्योंकि पतंजलि की रुचि सदा प्रारंभ में है। यदि प्रारंभ स्पष्ट नहीं है तो हम बात किए जा सकते हैं कि मुक्ति क्या है, लेकिन वह बातचीत ही रहेगी। प्रारंभ को बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए—हर कदम एकदम स्पष्ट, ताकि तुम वहा से आगे बढ़ सको जहां कि तुम हो।

यदि तुम लाओत्सु को सुनते हो तो लाओत्सु बोलते हैं शिखर से, मानव—चेतना के उच्चतम शिखर से; यदि तुम तिलोपा से पूछो, तो वे वहां से उत्तर देते हैं, जहां वे हैं। यदि तुम पतंजलि से पूछो, तो वे वहां से बोलते हैं जहां तुम हो। वे अपने बारे में कुछ नहीं कहते; वे वहां से बोलते हैं जहां तुम हो—प्रारंभ से। वे ज्यादा व्यावहारिक हैं; लाओत्सु ज्यादा प्रामाणिक हैं। पतंजलि ज्यादा उपयोगी हैं।

कल ही किसी ने पूछा था कि मैं निरंतर लाओत्सु पर ही क्यों नहीं बोलता रहता!

तुम्हारे कारण। यदि मैं अकेला होता, तो ठीक था, एकदम ठीक था; लेकिन तुम भी मौजूद हो, और तुम्हें मैं भूल नहीं सकता। जब मैं लाओत्सु पर बोलता हूं तो मुझे तुम्हें बहुत पीछे छोड़ देना पड़ता है। फिर तुरंत मैं बोलने लगता हूं पतंजलि पर या किसी और पर जो तुम्हारे बारे में और तुम्हारे पहले चरणों के बारे में कहता हो। और अंतर बहुत बड़ा है।

तुम लाओत्सु का आनंद ले सकते हो, लेकिन तुम कुछ कर नहीं सकते, क्योंकि वे कुछ कहते ही नहीं करने के विषय में। उन्होंने पा लिया है और वे बात करते हैं अपनी उपलब्धि कीं—उसी जगह से। दोनों बिलकुल अलग बातें हैं। तुम उनके द्वारा सम्मोहित हो सकते हो, तुम्हारे लिए उनकी दृष्टि का बड़ा आकर्षण हो सकता है, लेकिन वह बात काव्य ही बनी रहेगी। वह रोमांस भर रहेगी; वह अनुभव न बनेगी, वह प्रयोगात्मक न बनेगी। अपना यात्रा—पथ तुम लाओत्सु द्वारा न खोज पाओगे। हर चीज एकदम सत्य है, लेकिन प्रारंभ कहां से करो? जिस क्षण तुम अपने प्रति सजग होते हो, लाओत्सु बहुत दूर मालूम होते हैं, बहुत ही दूर…।

पतंजलि तुम्हारे एकदम निकट हैं। तुम उनके हाथ में हाथ दिए चल सकते हो। वे प्रारंभ की बात करते हैं।

‘.. द्रष्टा और दृश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है।’

तो पहले कदम को ही खयाल में ले लेना है ध्यानपूर्वक, कि तुम पृथक हो दृश्य से : जो भी तुम देखते हो, तुम द्रष्टा हो। एक वृक्ष है, बहुत हरा— भरा और बहुत सुंदर, फूलों से लदा—लेकिन वृक्ष है तो दृश्य ही; तुम द्रष्टा हो। पृथक करो उन्हें। ठीक से जानो कि वृक्ष वहां है और तुम यहां हो; वृक्ष बाहर है, तुम भीतर हो, वृक्ष दृश्य है और तुम द्रष्टा हो।

ऐसा स्मरण रखना कठिन है, क्योंकि वृक्ष इतना सुंदर है और फूल इतना चुंबकीय आकर्षण रखते हैं कि वे तुम्हें सम्मोहित करते हैं। तुम खो जाना चाहोगे। तुम स्वयं को भूल जाना चाहोगे। असल में तुम सदा स्वयं को भूल जाने की, स्वयं से बचने की तलाश में ही होते हो। तुम इतने ऊब गए हो स्वयं से…। कोई नहीं चाहता स्वयं के साथ रहना। स्वयं से बचने के लिए ही तुम हजारों रास्ते खोज लेते हो। जब तुम कहते हो, ‘वृक्ष सुंदर है,’ तो तुमने कर लिया होता है बचाव; तुम स्वयं को भूल चुके होते हो। जब तुम पास से गुजरती किसी सुंदर स्त्री को देखते हो, तो तुम भूल जाते हो स्वयं को। द्रष्टा खो जाता है दृश्य में।

द्रष्टा को खोने मत देना दृश्य में। बहुत बार खो जाएगा वह—वापस बुला लेना उसे। फिर—फिर द्रष्टा हो जाना। धीरे — धीरे तुम थिर हो जाओगे। धीरे— धीरे तुम मजबूत होओगे। कोई चीज पास से गुजरती हो—कोई भी चीज—चाहे ईश्वर ही गुजरता हो, पतंजलि कहते हैं, ‘ ध्यान रहे कि तुम द्रष्टा हो और वह दृश्य है।’ इस भेद को भूल मत जाना, क्योंकि केवल इस भेद से ही तुम्हारी दृष्टि साफ होगी, तुम्हारी चेतना एकाग्र होगी, तुम्हारी सजगता घनीभूत होगी, तुम्हारा अस्तित्व जड़ें पाएगा और केंद्रित होगा।

फिर—फिर लौट आओ, फिर—फिर उतरो आत्म—स्मरण में। ध्यान रहे, आत्म—स्मरण कोई अहं—स्मरण नहीं है; यह नहीं याद रखना है कि ‘मैं हूं। नहीं, यह याद रखना है कि भीतर द्रष्टा है और बाहर दृश्य है। यह प्रश्न ‘मैं’ का नहीं है; यह प्रश्न है चेतना का और चेतना की विषय—वस्तु का।

‘अज्ञान के विसर्जन द्वारा द्रष्टा और दृश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है। यही मुक्ति का उपाय है।’

तुम अपने चारों ओर की चीजों के प्रति जैसे—जैसे और सजग होते हो, तो धीरे — धीरे तुम पाओगे कि केवल संसार ही तुम्हें नहीं घेरे हुए है, तुम्हारा अपना शरीर भी तुम्हें घेरे हुए है। वह भी दृश्य है। मैं जान सकता हूं अपने हाथ को, मैं अनुभव कर सकता हूं अपने हाथ को, तो जरूर मैं हाथ से अलग हूं। यदि मैं शरीर ही होता तो कोई उपाय न था शरीर को अनुभव करने का। कौन अनुभव करता उसे? जानने के लिए पृथकता की जरूरत होती है। सारा ज्ञान, सारा जानना, पृथक कर देता है। सारा अज्ञान विस्मरण है पृथकता का। जब तुम सजग होते हो कि शरीर भी अलग है, तो तुम्हारी चेतना स्वयं में थिर होने लगती है।

फिर तुम सजग होते हो कि तुम्हारी भावनाएं, तुम्हारे विचार—वे भी अलग हैं, क्योंकि तुम उन्हें भी देख सकते हो। तुमने देखा है उन्हें बहुत बार, लेकिन तुम्हें याद नहीं रहता कि तुम पृथक हो। तुम देखते हो कि मन के परदे पर एक विचार गुजर रहा है। वह आकाश में गुजरते बादल की भांति ही है। तुम सफेद बादल को या काले बादल को गुजरते हुए देखते हो जो कि उत्तर की ओर बढ़ रहा है।

जब कोई विचार गुजर रहा हो तो बस देखना कि वह कहा जा रहा है, कहां से आ रहा है। ध्यान से देखना उसे। उससे उलझ मत जाना; उसके साथ एक मत हो जाना। यह जुड़ जाना, यह एक हो जाना, तादात्म्य कहलाता है. और यही है अज्ञान। तादात्म्य से तुम अज्ञान में रहते हो। तादात्म्य—हीन होकर—पृथक, साक्षी, द्रष्टा होकर—तुम बोध की दिशा में बढ़ते हो।

यही वह विधि है जिसे उपनिषद कहते हैं नेति—नेति की विधि, विसर्जन की विधि। तुम देखते हो संसार को—और जानते हो, मैं संसार नहीं। तुम देखते हो शरीर को—और जानते हो, मैं शरीर नहीं। तुम देखते हो विचार को—और जानते हो, मैं विचार नहीं। तुम देखते हो भावना को—और जानते हो, मैं भावना नहीं। इसी तरह तुम कांटते जाते हो, कांटते जाते हो, कांटते जाते हो—एक घड़ी आती है जब केवल द्रष्टा बचता है; सारे दृश्य कट जाते हैं। और दृश्य के तिरोहित होने के साथ ही सारा संसार तिरोहित हो जाता है।

चेतना के उस परम एकांत में बड़ा सौंदर्य है, बड़ी सादगी, बड़ी निर्दोषता, बड़ी सहजता है। उस चेतना में प्रतिष्ठित होते ही, उस चेतना में थिर होते ही कोई चिंता नहीं रहती, कहीं कोई चिंता नहीं—कोई बेचैनी, कोई संताप, कोई पीड़ा नहीं; कोई घृणा, कोई प्रेम, कोई क्रोध नहीं। हर चीज खो जाती है; केवल तुम होते हो। यह अनुभूति भी कि ‘मैं हूं? नहीं रहती। क्योंकि यदि तुम अनुभव करते हो कि ‘मैं हूं?, तो तुम सजग हो सकते हो उस अनुभूति के प्रति—जो कि तुम से पृथक है। अकेले तुम होते हो। बस, तुम होते हो। इतने सहज—सरल कि कोई भाव नहीं होता कि ‘मैं हूं, मात्र एक ‘हूं —पन’, एक होना मात्र बचता है। यही है व्याख्या अंतस सत्ता की। यह कोई दर्शनशास्त्र का प्रश्न नहीं है, कि कैसे इसकी व्याख्या करें, यह बात है अनुभव की, कि कैसे इसका अनुभव करें।

सब कुछ खो जाता है; सारे स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं; सारा संसार तिरोहित हो जाता है। तुम स्वयं में प्रतिष्ठित रहते हो कुछ न करते हुए। विचार की एक तरंग भी नहीं होती, भाव का एक हलका सा झोंका भी नहीं गुजरता तुम्हारे पास से—हर चीज इतनी थिर होती है और इतनी शांत. समय थम जाता है, दूरी मिट जाती है। यह एक भावातीत अतिक्रमण की घड़ी होती है।

इस घड़ी में, पहली बार, तुम अज्ञानी नहीं रहते। इस तरह तुम अस्तित्वगत रूप से विकसित होते हो। इस तरह तुम जानने वाले बनते हो, जानकारी रखने वाले नहीं। तुमने कुछ सूचनाएं एकत्रित नहीं की हैं, बल्कि तुमने वह सब अलग कर दिया है जो कि तुम्हें घेरे हुए था। बिलकुल नग्न, निर्वस्त्र, शून्य की भांति, खाली होते हो तुम।

पतंजलि कहते हैं कि यही है अज्ञान से मुक्ति।

तो पहली बात है, अलग किए जाओ। तुम जो कुछ भी देखो, सदा ध्यान रहे द्रष्टा का, कि ‘मैं अलग हूं, और तुरंत एक मौन तुम्हें घेर लेगा। जिस क्षण तुम्हें याद आ जाता है, ‘मैं द्रष्टा हूं और दृश्य नहीं हूं?, उसी क्षण तुम इस संसार का हिस्सा नहीं रह जाते—तत्‍क्षण तुम रूपांतरित हो जाते हो। हो सकता है तुम फिर भूल जाओ। शुरू—शुरू में याद बनाए रखना बहुत कठिन है, लेकिन चौबीस घंटों में यदि तुम इसे एक क्षण को भी याद रख सको, तो वह उसके लिए पर्याप्त पोषण होगा। और धीरे — धीरे ज्यादा क्षण संभव हो पाएंगे। एक दिन आता है जब तुम इतने सहज रूप से याद रखते हो कि याद रखने की कोशिश करने की भी जरूरत नहीं रहती : यह बात श्वास की भांति स्वाभाविक हो जाती है—जैसे तुम श्वास लेते हो उसी तरह तुम याद रखते हो। तब यह कहना भी ठीक नहीं है कि याद रखते हो, क्योंकि उसमें कोई प्रयास नहीं होता। यह बात सहज घटती है; यह सहज—स्फूर्त हो जाती है।

सत्य और असत्य के बीच भेद करने के सतत अभ्यास द्वारा…….।

फिर आता है दूसरा चरण। पहला चरण है पृथकता, दृश्य और द्रष्टा के बीच के तादात्‍म्य को तोड़ना। फिर दूसरा चरण है :

सत्य और असत्य के बीच भेद करने के सतत अभ्यास द्वारा अज्ञान का विसर्जन होता है।

पहला चरण हमने समझा; फिर आता है दूसरा चरण। वे दोनों एक साथ चलते हैं। ऐसा कहना ठीक नहीं कि यह दूसरा चरण दूसरा है—वे दोनों साथ—साथ ही चलते हैं। लेकिन बेहतर है कि शुरुआत हो द्रष्टा और दृश्य के भेद के साथ; तब दूसरी बात संभव होगी, क्योंकि दूसरी बात ज्यादा सूक्ष्म है—सत्य और असत्य के बीच भेद।

उदाहरण के लिए, सामान्य जीवन में तुम पूरी तरह भ्रमित हो चुके हो। तुम नहीं जानते कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। तुम इतने डांवाडोल हो कि कोई भी भ्रांति तुम्हारे लिए सत्य मालूम हो सकती है; और जब वह सत्य हो जाती है—मतलब यह कि जब तुम उसे सत्य मान लेते हो—तो वह तुम्हें प्रभावित करने लगती है। और जब वह तुम्हें प्रभावित करने लगती है, तो वह और ज्यादा सत्य मालूम पड़ती है, क्योंकि वह तुम्हें प्रभावित कर रही होती है। यह एक दुष्‍चक्र हो जाता है।

रात को तुम स्वप्न देखते हो कि कोई तुम्हारी छाती पर चढ़ा बैठा है छुरा लिए और बस तुम्हें मार डालने को ही है—एक दुखस्वप्न। तुम चीख पड़ते हो। उस चीखने के कारण नींद टूट जाती है। तुम आंखें खोलते हो, वहा कोई नहीं बैठा है तुम्हारी छाती पर। शायद नींद में तुमने अपना ही तकिया रख लिया था अपनी छाती पर, या शायद तुम्हारे अपने ही हाथ थे, और उस दबाव ने असर दिखाया, उस दबाव ने निर्मित कर दिया वह स्वप्न।

अब तुम जानते हो कि वह एक स्वप्न था, लेकिन फिर भी तुम्हारा हृदय जोर से धड़कता ही रहता है। और तुम भलीभांति जानते हो कि वह एक सपना था। अब तुम पूरी तरह जागे हुए हो। तुमने रोशनी कर ली है—कहीं कोई नहीं है, कुछ नहीं है। लेकिन तुम्हारा शरीर थोड़ा कंपता ही रहता है। थोड़ा समय लगेगा फिर से शांत होने में।

एक झूठा सपना, कैसे वह सच्ची घटना पैदा कर देता है शरीर में? केवल दो संभावनाएं हैं। पहली कि शरीर भी कोई बड़ी सच्चाई नहीं है। यह है जीवन के विषय में हिंदू—दृष्टि। क्योंकि एक स्वप्न इसे प्रभावित कर सकता है, तो यह स्वप्न जैसा ही होगा; यह सत्य नहीं हो सकता। दूसरी संभावना यह है. क्योंकि तुम सपने को सच मान लेते हो, इसीलिए वह तुम्हें प्रभावित करता है। वह सच हो जाता है। यह तुम्हारा अपना मन ही है; यदि तुम किसी चीज को सच मान लेते हो, तो वह

सच हो जाती है। यदि तुम उसे झूठ मानो, तो वह झूठ हो जाती है। तब वह तुम्हें बिलकुल प्रभावित नहीं करती।

कभी ध्यान देना. तुम्हें भूख लगी है। क्या यह सच्ची भूख है? तुम्हारे शरीर की जरूरत है? या केवल इसलिए कि तुम रोज इसी समय भोजन करते हो तो घड़ी कह देती है कि समय हो गया, भूख अनुभव करो। घड़ी कह देती है और तुम तुरंत आज्ञा मान लेते हो; तुम्हें भूख लगने लगती है। क्या यह सच्ची भूख है? यदि यह सच्ची भूख होती, तो जितनी देर तुम भूखे रहो उतनी ही ज्यादा यह बढ़ेगी। यदि तुम रोज एक बजे खाना खाते हो और तुम्हें एक बजे भूख लगती है, तो थोड़ा रुकना। बस पंद्रह मिनट बाद ही तुम्हें भूख नहीं रह जाएगी, एक घंटे बाद तुम बिलकुल भूल ही जाओगे। क्या हुआ? यदि भूख सच्ची होती, तो एक घंटे बाद और ज्यादा बढ़ जाती—लेकिन वह तो मिट गई। वह मन का एक खेल थी—शरीर की वास्तविक आवश्यकता न थी, मात्र एक काल्पनिक आवश्यकता थी, एक झूठी आवश्यकता थी।

तो ध्यान देना कि क्या सच है और क्या झूठ है, और तुम बहुत सी चीजों के प्रति सजग होओगे। और तब तुम उनमें भेद कर सकते हो। और जीवन और— और सरल होता जाएगा। यही है संन्यास का अर्थ यह जान लेना कि क्या—क्या झूठ है। यदि कोई चीज झूठ है, और तुमने उसे झूठ की तरह जान लिया है, तो उसकी जरा भी मालकियत नहीं रहती तुम पर। जिस क्षण तुम समझ लेते हो कि ‘यह झूठ है’, उसकी ताकत खो जाती है, वह बेजान हो जाती है, अब वह तुम्हें प्रभावित नहीं करती। जीवन ज्यादा सहज हो जाता है, ज्यादा स्वाभाविक हो जाता है।

और फिर, धीरे— धीरे, तुम जान लेते हो कि निन्यानबे प्रतिशत चीजें झूठ हैं। मैं कहता हूं निन्यानबे प्रतिशत, एक प्रतिशत मैं छोड़ देता हूं अंतिम चरण के लिए, क्योंकि उस अंतिम चरण में वह भी झूठ हो जाती है—एकमात्र सत्य जो बच रहता है, वह तुम हो। एक—एक करके हर चीज झूठ हो जाती है और छूट जाती है, अंततः केवल चैतन्य ही सत्य बचता है।

उदाहरण के लिए, रात को तुम सोते हो, तुम कोई सपना देखते हो। रात सपना सत्य होता है। तुम उसे सत्य ही मानते हो, तुम उसे सत्य की तरह जीते हो—तुम अनुभव करते हो, तुम क्रोधित होते हो, तुम प्रेम करते हो—सब तरह के मनोभाव, विचार, सब तरह के जीवन तुम से गुजरते हैं। फिर सुबह वह सब झूठ हो जाता है। अब तुम जाते हो आफिस, दुकान, संसार में, बाजार में—अब यह संसार सत्य हो जाता है। सांझ तुम लौट आते हो घर। फिर तुम सो जाते हो—बाजार, दुकान—हर चीज फिर झूठ हो जाती है। गहरी नींद में तुम्हें याद नहीं रहती बाजार की, परिवार की, घर की चिंताओं की—वे सब बातें खो जाती हैं।

लेकिन केवल एक चीज सदा सत्य रहती है—वह है द्रष्टा। रात जब सपना चलता है, तो सपना भला सपना हो, लेकिन द्रष्टा सपना नहीं होता—क्योंकि सपना देखने के लिए भी वास्तविक द्रष्टा की जरूरत होती है। दोनों ही सपना नहीं हो सकते।

तुम युवा होते हो, फिर तुम बूढ़े हो जाते हो, लेकिन द्रष्टा वही रहता है। तुम बीमार होते हो, तुम स्वस्थ होते हो; लेकिन द्रष्टा वही रहता है। तुम्हारे भीतर की चेतना सदा वही रहती है, वही एक स्थिर—तत्व है—एकमात्र सत्य, क्योंकि हिंदू सत्य की व्याख्या इसी तरह करते हैं कि जो शाश्वत है, सनातन है। उनकी परिभाषा है : ‘जो शाश्वत है वह सत्य है, और जो क्षणभंगुर है वह झूठ है।’ क्योंकि एक क्षण तो वह होता है, अगले क्षण वह जा चुका होता है। तो क्यों कहना उसे सत्य? वह सपना था। कोई चीज जो एक क्षण को अर्थवान थी और फिर अगले क्षण अर्थहीन हो जाती है, वह सपना ही है। हिंदू कहते हैं : सारा जीवन एक सपना है, क्योंकि जब तुम मरते हो तो सारा जीवन अर्थहीन हो जाता है, जैसे कि वह कभी था ही नहीं।

धीरे— धीरे सत्य और असत्य के बीच भेद करने से, उन्हें साफ—साफ पहचानने से और— और प्रामाणिक सजगता पैदा होगी। ध्यान रहे, यह पहचान—सत्य और असत्य के बीच भेद करना—यह एक विधि है और ज्यादा सजगता निर्मित करने की। असली बात यह जानना नहीं है कि क्या सत्य है और क्या असत्य। असली बात यह है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है, इसे जानने की कोशिश में तुम अत्यंत सजग हो जाओगे। यह एक विधि है।

तो इसमें उलझ मत जाना; क्योंकि लोग विधि में ही उलझ जाते हैं। सदा ध्यान रहे कि यह एक विधि है। यह केवल एक साधन है। जितना ज्यादा तुम गहराई में उतरते हो और इसके प्रति सजग होते हो कि क्या सत्य है और क्या असत्य, कि दोनों के बीच क्या घटित हो रहा है, तो तुम्हारा बोध और— और गहन हो जाता है, जीवंत हो जाता है। तुम्हारी दृष्टि और गहरी हो जाती है, जीवन के रहस्य में दूर तक पहुंचती है। यही है असली बात।

योग की दृष्टि में हर चीज साधन है। लक्ष्य है—तुम्हें पूरी तरह जाग्रत कर देना, ताकि अंधकार का एक टुकड़ा भी तुम्हारे हृदय में न रह जाए, एक कोना भी अंधेरा न रहे—सारा घर प्रकाशित हो उठे।

‘सत्य और असत्य के बीच भेद करने के सतत अभ्यास द्वारा अज्ञान का विसर्जन होता है।’

तो असली बात है अज्ञान का विसर्जन।

भारत में कुछ बहुत ज्यादा जहरीले सांप पाए जाते हैं, कोबरा और दूसरी कई जातियों के। जब कोबरा किसी व्यक्ति को कांट लेता है, तो समस्या यह होती है कि यदि तुम उस आदमी को छत्तीस घंटे होश में रख सको तो शरीर स्वयं ही विष को बाहर फेंक देता है। रक्त संचारित होता है और स्वयं को विशुद्ध कर लेता है; विष शरीर से बाहर फेंक दिया जाता है। लेकिन एक ही शर्त है छत्तीस घंटों तक व्यक्ति को सोना नहीं चाहिए। एक बार वह सो जाता है, तो फिर बचना असंभव हो जाता है। तो जब कोबरा किसी आदमी को कांटता है भारत के जंगलों में या आदिम जातियों में जहां कि कोई औषधि उपलब्ध नहीं होती, तो सारा गांव इकट्ठा हो जाता है।

एक बार मैं एक गांव में था और ऐसा हुआ और मैं देखता रहा सारी घटना—छत्तीस घंटे। सुंदर थी बात, क्योंकि यही है पूरी प्रक्रिया सजग होने की। समस्या यह होती है कि विष व्यक्ति को सुस्त बना देता है। उसे बहुत जोर की नींद लगती है। साधारण नींद नहीं है यह—बहुत गहन नींद पकड़ती है। तो उसे बैठने नहीं दिया जाता; लोगों को उसे सम्हालना पड़ता है, पकड़े रहना पड़ता है। बैठे हुए या खड़े हुए उसे झटके देने पड़ते हैं—और चारों ओर ढोल और बाजा और गाना और नाचना चलता है, और चीखना और चिल्लाना और हुंकारना—ताकि वह सो न सके। जैसे ही उसकी आंखें बंद होने लगती हैं उसे झटका देकर बार—बार जगाना पड़ता है। उसे पीटते भी हैं।

बारह घंटे बाद एक घड़ी आती है कि उसके लिए करीब—करीब असंभव हो जाता है जागे रहना : तुम चीखते रहते हो, वह सुनता नहीं; उसका शरीर बेजान हो जाता है, तुम उसे सम्हाल नहीं पाते, खड़ा हो या बैठा हो। तब उसे जोर से मारना—पीटना पड़ता है; केवल मारना—पीटना ही उसे जगाए रखता है। यदि छत्तीस घंटे पूरे हो जाते हैं तो विष बाहर फेंक दिया जाता है शरीर द्वारा और व्यक्ति बच जाता है। यदि वह सो जाता है, कुछ मिनटों के लिए भी, तो वह व्यक्ति नहीं बचता।

योग का सारा प्रयास ऐसा ही है. बहुत सी विधियां प्रयोग करनी पड़ती हैं जागे रहने के लिए। और इसी कारण गलतफहमियां हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, उपवास: उपवास एक विधि है सजग रहने की—शरीर से इसका कोई लेना—देना नहीं है। क्योंकि जब भी तुम उपवास में होते हो, तो तुम आसानी से नहीं सो सकते। सोने के लिए शरीर को भोजन की जरूरत होती है। जब तुम जरूरत से ज्यादा खा लेते हो, तो तुम तुरंत सो जाते हो। यदि तुमने बहुत ज्यादा खा लिया होता है, तो तुम तुरंत ही अनुभव करते हो कि अब तुम चल—फिर नहीं सकते, अब तुम कुछ कर नहीं सकते। होश खोने लगता है। शरीर की सारी ऊर्जा पेट की ओर चली जाती है, वह सिर से हट जाती है जहां कि वह होश के लिए जरूरी है, क्योंकि भोजन पचाना होता है, और वह पहली जरूरत है—सबसे पहली जरूरत है। सारी शारीरिक ऊर्जा पेट के निकट केंद्रित हो जाती है और तुम्हें नींद आने लगती है।

उपवास में, यदि तुमने कभी उपवास किया है तो तुमने अनुभव किया होगा कि रात तुम सो नहीं सकते। तुम बार—बार करवट बदलते हो। कोई बात चूक रही है। शरीर की ऊर्जा पूरी तरह मुक्त हो जाती है—कुछ पचाने के लिए नहीं है। मुक्त हो गई ऊर्जा सारे शरीर में घूमती है। अब वह पेट में ही केंद्रित नहीं रहती। असल में वह ऊर्जा उपलब्ध होती है, इसलिए तुम्हारा मन चलता रहता है; तुम सजग रहते हो। नींद कठिन हो जाती है।

उपवास एक ढंग है सजगता निर्मित करने का। यदि तुम लंबे समय तक उपवास करते हो, तो तुम सजगता की एक निश्चित गुणवत्ता पा लोगे जिसे भोजन लेते हुए पाना कठिन है। वह बिना उपवास के भी मिल सकती है, लेकिन उसमें ज्यादा समय लगेगा। उपवास एक छोटा और सुगम उपाय है। लेकिन कहीं भूल हो गई। ऐसा सदा ही होता है सोए हुए लोगों के साथ। तुम उन्हें कोई विधि देते हो : वे उसे ही पकड़ कर बैठ जाते हैं। वे भूल जाते हैं लक्ष्य को—विधि ही लक्ष्य बन जाती है, साधन साध्य बन जाता है। अब हजारों जैन मुनि हैं जो निरंतर उपवास कर रहे हैं—और कुछ हाथ लगता नहीं। मैं देश भर में घूमता रहा हूं तरह—तरह के लोगों से मिलता रहा हूं। मैंने हजारों जैन मुनियों से पूछा है, ‘आप उपवास क्यों करते हैं?’

वे कहते हैं, ‘क्योंकि इससे शरीर की शुद्धि होती है।’

बिलकुल बेकार की बात है। होती होगी शरीर की शुद्धि, लेकिन सवाल यह नहीं है। कभी—कभी स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो सकता है उपवास—सदा ही नहीं। यदि तुम्हारे शरीर में बहुत ज्यादा चरबी इकट्ठी हो गई है, तो उपवास सहायक होगा उसका शोधन करने में; यह चरबी कम करता है। यदि तुमने वर्षों तक बहुत ज्यादा भोजन किया है और तुम्हारे शरीर में बहुत से विषैले तत्व जमा हो गए हैं, तो उपवास मदद देता है उन्हें शोधित करने में। लेकिन यह बात दूसरी है, धर्म से इसका कुछ लेना—देना नहीं है। यह प्राकृतिक चिकित्सा है—धर्म नहीं।

लेकिन जैन मुनि को शरीर—शुद्धि करनी ही क्यों पड़े? वह बीमार नहीं है। उसके शरीर में कोई जहर नहीं है। असल में वह बिलकुल भूल ही गया है लक्ष्य को। लक्ष्य तो था सजगता का। अब वह साधनों में ही लगा है, साधनों का ही प्रयोग कर रहा है, लक्ष्य को नहीं जान रहा है। वह केवल पीड़ित हो रहा है। इसलिए उपवास अब उपवास नहीं है, वह केवल भूखा रहना है। और ऐसा बहुत बार हुआ है—करीब—करीब सदा ही ऐसा होता है—क्योंकि साधन दिए जाते हैं सोए हुए लोगों को। वे नहीं समझ सकते लक्ष्य को, लक्ष्य बहुत दूर है। वे साधनों से चिपके रहते हैं।

तुमने देखे होंगे चित्र, या अगर तुमने चित्र नहीं देखे तो तुम जा सकते हो बनारस और देख सकते हो काटो की शय्या पर लेटे हुए लोगों को। यह प्राचीनतम ढंग था सजगता निर्मित करने का, बहुत पुराना ढंग, सब से प्राचीन। यह सजगता बढ़ाने के लिए है। किसी बहादुरी से इसका कुछ भी संबंध नहीं है। दूसरों पर प्रभाव जमाने से इसका कोई संबंध नहीं है। इस व्यक्ति को बनारस की सड्कों पर नहीं होना चाहिए; उसे छिप जाना चाहिए घने जंगलों में, जहां कोई नहीं जाता, क्योंकि यह कोई प्रदर्शन की चीज नहीं है। लेकिन अब यह प्रदर्शन की चीज हो गई है।

और तुम देखोगे लोगों को काटो की शय्या पर लेटे हुए और तुम सजगता की जरा सी भी चमक नहीं पाओगे उनकी आंखों में या चेहरे पर, बल्कि तुम उन्हें बहुत जड़, असंवेदनशील पाओगे; बुद्धिहीन, मूढ़ पाओगे। चमत्कार है यह, क्योंकि विधि तो इसलिए थी कि सजगता निर्मित हो। क्या हुआ? वे बिलकुल भूल ही गए कि यह किसलिए है. यह स्वयं में लक्ष्य बन गई। उन्होंने तो एक तरकीब सीख ली है। और यदि तुम्हें इस तरह की तरकीबें सीखनी हैं, तो तुम्हें संवेदनहीन होना ही पड़ता है; केवल तभी तुम कीलों के या कीटों के बिस्तर पर लेट सकते हो। शरीर को संवेदनहीन होना चाहिए, ताकि वह ज्यादा कुछ महसूस ही न करे। उसे जड़ होना चाहिए, ताकि काटे या कीलें चुभे नहीं। तुम्हें एक सघन जड़ता, एक संवेदनहीनता निर्मित कर लेनी होगी अपने शरीर के चारों ओर। और लक्ष्य तो ठीक इसके विपरीत था. कि ज्यादा संवेदनशील होना है, कि शरीर को उसकी पूरी संवेदना में अनुभव करना है। यदि तुम कीलों या कांटो की शय्या पर लेटो तो तुम शरीर का पोर—पोर अनुभव करोगे। सारा शरीर पीड़ा में है। और पीड़ा तुम्हें झटका देती है, और पीड़ा तुम्हें जगाती है, तुम्हें सजग करती है।

तो इसका अभ्यास नहीं करना है। यदि तुम इसका अभ्यास करते हो, तो धीरे— धीरे शरीर चालाकी सीख जाता है। तब शरीर बेजान हो जाता है; शरीर मुर्दा स्थान निर्मित करने लगता है, ताकि शरीर में जहां कहीं कील चुभे एक मृत बिंदु बन जाए। शरीर को अपना बचाव करना पड़ता है। तो तुम कीलों पर लेटे हुए आदमी को पाओगे एकदम बेहोश—तुम से ज्यादा बेहोश। यदि तुम लेटो ऐसी शय्या पर तो तुम पीड़ा से चीख पड़ोगे। तुम ज्यादा सजग हो; तुम ज्यादा संवेदनशील हो। वह तो आराम से लेट जाता है; वह तो सो भी जाता है उस पर। उसका शरीर ज्यादा पत्थर हो जाता है। जो असली बात है, सजगता, वह उसने खो दी है। अब ठीक उलटी बात हो गई है।

और ऐसा ही होता है धर्म की सारी प्रक्रियाओं के साथ. वे क्रियाकांड बन जाती हैं। मेरा एक ऐसे व्यक्ति से मिलना हुआ जो दस वर्ष से खड़ा ही है। वह सोता नहीं, वह बैठता नहीं, वह बस खड़ा है। हठयोग की बहुत पुरानी विधियों में से यह एक विधि है चेतना निर्मित करने की। क्योंकि शरीर सोना चाहेगा। शरीर तो कहेगा, ‘मैं सोना चाहता हूं।’ कितनी देर खड़े रह सकते हो तुम? कुछ घंटों बाद या कुछ दिनों बाद, तुम नींद का जबरदस्त आवेग अनुभव करोगे। उस आवेग पर काबू पाने के लिए उसका अतिक्रमण करने के लिए और सजग बने रहने के लिए इस विधि का उपयोग है।

तो मुझे यह व्यक्ति मिला। बहुत प्रसिद्ध है वह, हजारों लोग आते हैं उसे नमस्कार करने। लेकिन वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं और किसके प्रति कर रहे हैं। वह आदमी पूरी तरह संवेदनशून्य हो चुका है। इतनी देर खड़ा रहा है वह कि उसके पांव करीब—करीब मुर्दा हो चुके हैं। वह उन्हें मोड़ नहीं सकता। वे ऐसे हो गए हैं जैसे कि हाथी—पांव के रोग में हो जाते हैं। पांव हाथी के पांव जैसे मोटे हो जाते हैं। उसके सारे शरीर का वजन पांवों में चला गया है। वह एक दुबला—पतला आदमी है। ऊपर का हिस्सा पतला हो गया है और नीचे का हिस्सा बहुत मोटा और भारी हो गया है। वह विकृत हो गया है। उसका चेहरा कुरूप हो गया है।

तुम देख सकते हो कि भला उसने स्वयं को खूब सताया हों—लेकिन वह सजग नहीं हुआ है; बल्कि पीड़ा के प्रति संवेदनशून्य हो गया है, अभ्यस्त हो गया है, प्रभावशून्य हो गया है। अब पीड़ा उसे उद्विग्न नहीं करती। इसके द्वारा होश पाने की बजाए उसने होश खो दिया है।

तो ध्यान रहे, ये सब विधियां हैं. दृश्य और द्रष्टा के बीच भेद करना; सत्य और असत्य के बीच भेद करना—ये सब केवल विधियां हैं। लक्ष्य है सजगता।

‘सत्य और असत्य के बीच भेद करने के सतत अभ्यास द्वारा अज्ञान का विसर्जन होता है।’

संबोधि की परम अवस्था उपलब्ध होती है सात चरणों में।

पतंजलि क्रमिक विकास में विश्वास करते हैं। वे कहते हैं, लक्ष्य तक सात चरणों में पहुंचा जाता है। मैं कहता हूं कि एक चरण में पहुंचा जाता है, लेकिन पतंजलि उसी एक चरण को सात हिस्सों में बांट देते हैं ताकि तुम्हारे लिए आसानी हो जाए, और कुछ भी नहीं। तुम एक छलांग में पार कर सकते हो छह फीट, सात फीट, या तुम उसी अंतराल को सात चरणों में पार कर सकते हो।

पतंजलि छलांग में विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि तुम कमजोर हो; तुम छलांग लगा नहीं पाओगे। तुम्हें राजी किया जा सकता है—असल में फुसलाया जा सकता है—धीरे — धीरे छोटे कदम उठाने के लिए। तुम छोटे चरण उठा सकते हो, क्योंकि छोटे चरणों के साथ तुम आश्वस्त हो सकते हो कि कोई खतरा नहीं है। छलांग खतरनाक होती है, क्योंकि तुम नहीं जानते कि कहां पहुंचोगे तुम। एक छोटा कदम तुम देख सकते हो आस—पास और सुरक्षित अनुभव कर सकते हो धीरे — धीरे तुम कदम बढ़ा सकते हो; और तुम आश्वस्त हो कि यदि कुछ गड़बड़ हो जाती है तो तुम सदा पीछे लौट सकते हो, यह केवल छोटे से अंतराल की ही बात है। लेकिन छलांग वापस पीछे नहीं लगा सकते—यदि कुछ गड़बड़ हो जाए तो। छलांग एक आमूल परिवर्तन है, आत्यंतिक बदलाहट है। पतंजलि जब भी कुछ कहते हैं तो सदा तुम्हारा खयाल रखते हैं। अब—तत्‍क्षण—सजगता उपलब्ध करने का ढंग समझाने के तुरंत बाद ही वे कहते हैं, ‘संबोधि की परम अवस्था उपलब्ध होती है सात चरणों में।’ इसलिए चिंतित मत होना, भयभीत मत होना तुम धीरे — धीरे बढ़ सकते हो!

ये सात चरण क्या हैं? यह अंक ‘सात’ बहुत महत्वपूर्ण है। यह सब से ज्यादा महत्वपूर्ण अंक जान पड़ता है। बहुत मार्गों से और बहुत ढंगों से यह अंक बार—बार सामने आ जाता है। यदि तुम गुरजिएफ से पूछो, वह कहता है कि सात प्रकार के व्यक्ति होते हैं। वे सात प्रकार सात चरण हैं। यदि तुम रहस्यवादी कब्बाला से या मिस्र के प्राचीन गढ अध्यात्मवादियों से पूछो, वे कहते हैं कि व्यक्ति के सात शरीर होते हैं—शरीरों की सात परतें होती हैं। शरीर की वे सात परतें सात चरण बन जाती हैं। यदि तुम योगियों से पूछो, वे कहते हैं, व्यक्ति में सात केंद्र होते हैं। वे सात केंद्र सात चरण बन जाते हैं। कुछ भी हो, सात बहुत महत्वपूर्ण अंक मालूम पड़ता है। और तुम्हारा सामना बार—बार इस सात के अंक से होगा, लेकिन आधारभूत अर्थ वही है।

दो संभावनाएं हैं : एक, तुम छलांग लगा देते हो, एक अचानक छलांग, जैसा कि झेन गुरु चाहते हैं कि तुम लगाओ—जैसी कि मैं सदा आशा रखता हूं कि तुम लगा पाओगे। छलांग में वे सातों चरण पूरे हो जाते हैं एक ही चरण में, लेकिन बहुत साहस की आवश्यकता होती है—न केवल साहस की वरन दुस्साहस की आवश्यकता होती है—क्योंकि तुम अज्ञात में उतर रहे होते हो। भेद बड़ा है तुम्हारे और उस घाटी के बीच जहां कि तुम छलांग के बाद पहुंचोगे। तुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। यह है ज्ञात से अज्ञात में छलांग। यह कोई क्रमिक विकास नहीं है, एक विस्फोट है।

दूसरी संभावना है इस अंतराल को सात में बांटने की—ताकि तुम धीरे — धीरे बढ सको, ताकि तुम्हारा चालाक मन, होशियार मन संतुष्ट हो सके। लोग मेरे पास आते हैं और मैं उनसे पूछता हूं ‘क्या तुम बिना कुछ सोचे —विचारे संन्यास लेना चाहोगे, या कि तुम इस पर सोच—विचार करना चाहोगे?’ बहुत कम ऐसा होता है कि कोई कहता है, ‘मैं सोच—विचार से बिलकुल थक गया हूं।’

मनीषा ने कहा था ऐसा जब वह आई थी। पहले दिन जब वह आई मेरे पास तो मैंने पूछा, ‘क्या तुम सोच—विचार कर संन्यास लेना चाहोगी? क्या तुम पहले इसके बारे में सोचना चाहोगी, पक्का करना चाहोगी? या कि बिलकुल अभी तैयार हो तुम?’ उसने कहा, ‘मैं बिलकुल थक गई हूं सोच—विचार से।’

तो कभी—कभार ऐसा होता है कि कोई कहता है कि एकदम थक गया हूं सोच—विचार से। करीब—करीब सभी के साथ ऐसा होता है कि वे कहते हैं, ‘हम सोचेंगे।’ और वे अवसर चूक जाते हैं, क्योंकि यदि तुम सोच—विचार करते हो, तो तुम पुराने ही बने रहते हो। यदि ‘तुम’ इस बारे में निर्णय लेते हो, तो यह बात छलांग न रही। यदि तुम्हारी बुद्धि पहले सुरक्षा अनुभव करती है, पूरी सुरक्षा का इंतजाम करती है, हर चीज समझने की कोशिश करती है—तो यह तुम्हारे पुराने व्यक्तित्व का ही सुधरा हुआ रूप है। तब तुम्हारा अतीत इसमें सम्मिलित है। और संन्यास का अर्थ होता है अतीत को पूरी तरह गिरा देना, वह तुम्हारे अतीत का संशोधित रूप नहीं है। वह एक समग्र क्रांति है; वह एक आमूल रूपांतरण है।

तो जो कहते हैं, ‘हम सोचेंगे,’ वे कुछ चूक जाते हैं। वे फिर आते हैं। पहले वे सोचते हैं इस विषय में कुछ दिन, फिर वे आते हैं, फिर वे संन्यास लेते हैं। लेकिन संभावना बहुत थी, बहुत कुछ उपलब्ध था। वे उसे चूक जाते हैं। यदि तुम छलांग लगा सकते हो, तो लगा दो छलांग। यदि तुम धीरे— धीरे बढ़ना चाहते हो तो तुम धीरे — धीरे बढ़ सकते हो, लेकिन तुम कुछ चूक जाओगे।

यह मैंने देखा है। जिन लोगों में आकस्मिक बुद्धत्व का साहस है, वे जिस शिखर को उपलब्ध होते हैं, उसे क्रमिक रूप से विकसित होने वाले कभी अनुभव नहीं कर पाते। वे भी पहुंच जाते हैं उस शिखर तक, लेकिन वे इतने चरण—दर—चरण पहुंचते हैं, वे सारे अंतराल को बांट देते हैं बहुत से हिस्सों में, कि वह बात कभी आनंद—उत्सव नहीं बनती। वे भी पहुंचते हैं उसी शिखर तक…।

तुम देखो। मीरा नाचती है। चैतन्य दीवाने हैं और नाचते हैं और गाते हैं। और योगी? नहीं, वे कभी नाचते नहीं, वे कभी गाते नहीं, क्योंकि वे इतने क्रमिक रूप में पहुंचते हैं कि वह बात कभी बहुत आनंद का अनुभव नहीं बनती, बिलकुल नहीं। वे इतने क्रमिक रूप से पहुंचते हैं! वे आनंद को उपलब्ध होते हैं हिस्सों में। वे इसे मात्राओं में पाते हैं—छोटी खुराकें, होम्योपैथी की खुराकें—कि दूसरी खुराक मिलने के पहले ही पहली खुराक आत्मसात हो जाती है। वे पचा गए होते हैं उसे। फिर मिलती है दूसरी खुराक—उसे भी तीसरी के पहले ही पचा लिया जाता है। वे नृत्य नहीं कर सकते। तुम योगी को नृत्य करते हुए नहीं पा सकते। वह चूक गया है कुछ। वह पहुंच तो गया है उसी शिखर तक, लेकिन मार्ग में कुछ खो गया है।

मैं तो सदा छलांग के ही पक्ष में हूं। क्योंकि जब तुम्हें पहुंचना ही है, तो क्यों न नृत्य करते हुए पहुंचो? तब तुम्हें पहुंचना ही है, तो क्यों न प्राणों में आनंद लिए पहुंचो? योगी दुकानदार मालूम पड़ते हैं—गणित बिठाते, हिसाबी—किताबी—प्रेमियों की भाति पागल नहीं। लेकिन रास्ते दोनों खुले हैं। और चुनाव तुम पर निर्भर करता है।

यह ऐसा है जैसे तुम्हारी लाटरी लग जाए—दस लाख रुपए की। और फिर तुम्हें एक रुपया दिया जाए, फिर और एक रुपया, फिर और एक रुपया; धीरे— धीरे तुम सब पा जाते हो, लेकिन तुम्हें एक साथ दस लाख रुपए कभी नहीं दिए जाते और तुम्हें कभी पता नहीं लगने दिया जाता कि तुम्हें दस लाख रुपए मिलेंगे। तुम्हें मिलेंगे दस लाख रुपए, लेकिन युग बीत जाएंगे—और तुम सदा भिखारी ही रहोगे : जेब में वही एक रुपया! तुम जब तक उस एक रुपए का उपयोग न कर लो, उसके पहले दूसरा न दिया जाएगा; जब तुम उसका उपयोग कर लो तब तीसरा दिया जाएगा।

अचानक बुद्धत्व का अपना एक सौंदर्य होता है, एक असीम सौंदर्य होता है—कि अचानक तुम्हें दे दिए गए दस लाख रुपए। तुम नृत्य कर सकते हो। लेकिन यदि तुम्हारा हृदय कमजोर है तो बेहतर है धीरे— धीरे बढ़ना।

मैंने सुना है, ऐसा हुआ : एक आदमी हमेशा ही लाटरी की टिकटें खरीदता था और जैसा कि होता है उसे कभी कोई इनाम नहीं मिला। वर्षों गुजर गए लेकिन यह बात एक यांत्रिक आदत बन गई थी। हर महीने वह अपनी तनख्वाह में से कुछ टिकटें खरीद लेता था। लेकिन एक दिन घटना घट गई। वह आफिस में था और पत्नी को खबर मिली कि उसकी मनोकामना पूरी हो गई है—दस लाख रुपए। वह डर गई, क्योंकि वह गरीब आदमी था, कुल सौ रुपए महीना तनख्वाह मिलती थी। दस लाख रुपए तो बहुत बड़ी बात हो जाएगी। इतनी बड़ी बात हो जाएगी कि कहीं वह मर ही न जाए!

तो करें क्या? वह अपने एक पड़ोसी के यहां दौड़ी गई जो कि चर्च में पादरी था। वह एक समझदार व्यक्ति था, और कोई ज्यादा समझदार व्यक्ति उसके ध्यान में आया नहीं, तो वह उसके पास गर्द और उसने पादरी से कहा, ‘आपको ही करना होगा कुछ। वे आफिस से आते ही होंगे, और अगर

इतने अचानक उन्हें पता चला दस लाख रुपयों का, तो यह निश्चित है कि वे बचेंगे नहीं। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानती हूं। वे बहुत कंजूस हैं और उन्होंने सौ रुपए से ज्यादा कभी देखे भी नहीं हैं। वे पागल हो जाएंगे या मर जाएंगे, लेकिन कुछ न कुछ होकर रहेगा। आप आएं और उन्हें बचा लें।’

उस समझदार व्यक्ति ने कहा, ‘मैं आ जाऊंगा। भयभीत मत होओ; मैं आता हूं।’

उसने योजना बनाई, जैसे कि सभी हिसाबी—किताबी लोग योजना बनाते हैं। वह आदमी घर आया तो वह पादरी वहा बैठा हुआ था। उसने कहा, ‘सुनो, तुम्हारी लाटरी लग गई है। तुमने एक लाख की लाटरी जीत ली है।’

उसने सोचा था कि यह एक छोटी मात्रा होगी—उसने कुल राशि को दस हिस्सों में बांट दिया था। धीरे— धीरे वह कहेगा कि नहीं, एक लाख की नहीं, दो लाख की। जब वह देखेगा कि उसने झटका सह लिया है, तो वह कहेगा, तीन लाख की।

लेकिन उस आदमी ने कहा, ‘एक लाख रुपए! क्या यह सच है? यदि यह सच है, तो मैं आधा तुम्हारे चर्च के लिए तुम्हें दे दूंगा।’

वह पादरी गिर पड़ा और मर गया। पचास हजार रुपए! वह भरोसा न कर सका इस बात पर। बहुत बड़ी थी बात।

तो तुम्हें चुनना है; चुनाव तुम्हारा है। यदि तुम अनुभव करते हो कि हृदय मजबूत है, तो आ जाओ मेरे साथ। यदि तुम अनुभव करते हो कि हृदय कमजोर है और संभावना है हृदय—गति रुकने की, तो पतंजलि के साथ आगे बढना। वे गणित से चलते हैं।

वे तुम्हें छोटी खुराकें देते हैं। लेकिन ध्यान रहे, कुछ चूक जाओगे तुम। तुम पहुंच जाओगे उसी अवस्था तक, अस्तित्व की, चैतन्य की उसी अवस्था तक—शांत, आनंदित। लेकिन उत्सव न होगा। तुम बैठ जाओगे बोधि—वृक्ष के नीचे—शांत, मौन; लेकिन तुम मीरा की भांति या चैतन्य की भांति नृत्य न कर पाओगे। और वह नृत्य अदभुत है। वह नृत्य घटित होता है अचानक उपलब्ध होने वालों को।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(झेन कथा) प्रवचन–15

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आखिरी भोजन हो गया?—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 5 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

 एक नया-नया शिष्य, गुरु जोशू के पास आकर बोला,

‘मैं हाल ही धर्मसंघ में सम्मिलित हुआ हूं और ध्यान का पहला सूत्र सीखना चाहता हूं।

क्या आप मुझे वह सिखाने की कृपा करेंगे?’

जोशू ने पूछा, ‘क्या तुमने शाम का भोजन कर लिया?’

शिष्य ने कहा, ‘जी, मैंने कर लिया।’

गुरु ने तब कहा, ‘अब जाकर अपनी थाली धो लो।’

भगवान! कृपा कर इस लघुवार्ता का अभिप्राय बतायें।

छोटी-सी दीखने वाली कथा जीवन का, साधना का सारा सार-संक्षिप्त लिए हुए है। वह सार-संक्षिप्त इतना ही है, कि यदि वासनाएं पूरी हो गई हों, यदि भोजन पूरा हो गया हो, तो अब थाली को धो डालो। अगर मन की दौड़ पूरी हो गई हो, तो अब मन को धो लो। अगर संसार में चलने की आकांक्षा भर गई हो, तो अब थाली को धो लो। इतना ही ध्यान का सार भी है।

पहले हम ध्यान का अर्थ समझें और फिर वापिस कथा के अर्थ पर लौट आएं। ध्यान का अर्थ है: मन काम कर रहा है चौबीस घंटे, सतत। चाहे तुम जागो, चाहे तुम सोओ, चाहे तुम उठो, चाहे बैठो; चाहे श्रम करो, चाहे विश्राम; लेकिन मन निरंतर काम में लगा है। मन की थकान धूल की तरह इकट्ठी होती है। और मन की प्रत्येक क्रिया तुम्हारी चेतना को धुएं से भर जाती है। क्योंकि मन की क्रिया में भी ईंधन जलता है।

रास्ते से कार गुजरती है, तो धुआं चाहे दिखाई न पड़े लेकिन हवा में छूट जाता है, वायु को दूषित कर जाता है। दीया जलता है तो धुआं चारों तरफ छूटता है, वायु को दूषित कर जाता है।

तुम्हारा मन का दीया जल रहा है। उसमें ईंधन काम आ रहा है। क्योंकि मन वह दीया नहीं है, जो बिन बाती और बिन तेल जलता है। तुम भोजन कर रहे हो, पानी पी रहे हो, उस सबसे ईंधन निर्मित हो रहा है। तेल और बाती बन रही है। और तेल और बाती से तुम्हारे मन का दीया जल रहा है। जितना ही तुम मन के दीये को जलाते हो, उतना ही भीतर धुआं, धूल इकट्ठी होती है।

फिर मन प्रतिक्षण स्मृति को इकट्ठी कर रहा है। तुम जो भी करते हो, वह करते ही नहीं हो, उसे तुम याद भी कर लेते हो। तुम जो नहीं करते हो, देखते हो, वह भी स्मृति बनता है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि एक क्षण में कोई एक करोड़ सूचनाएं तुम्हारे मन पर अंकित हो रही हैं। तुम तो डर ही जाओगे। एक करोड़ सूचनाएं एक क्षण में कैसे अंकित हो रही हैं? तुम्हें तो उनका पता भी नहीं चलता। तुम्हारा मन तो थोड़ी-सी बातों को ही चेतन रूप से संकलित करता है, बाकी अचेतन रूप से संकलित करता है।

मैं बोल रहा हूं, तुम मुझे सुन रहे हो। तुम्हारा चेतन मन मेरी तरफ लगा है। एक पक्षी वृक्ष पर गीत गाता है, रास्ते से कार गुजरती है, कोई पड़ोस में बच्चा रोता है, कुत्ते भोंकते हैं, उस तरफ तुम्हारा कोई ध्यान नहीं है; लेकिन तुम्हारा मन उनको भी अंकित कर रहा है। एक करोड़ सूचनाएं प्रतिक्षण तुम अंकित कर रहे हो। एक जीवन में तुम कितनी धूल इकट्ठी न कर लोगे!

यह सारी की सारी धूल ही तुम्हारा रोग है।

इस धूल को झाड़ देना, पोंछ देना ही ध्यान है।

ठीक कहा जोशू ने। पूछा था शिष्य ने, नये-नये शिष्य ने कि ‘नया-नया संघ में सम्मिलित हुआ हूं, दीक्षित हुआ हूं, पहला कदम ध्यान का उठाना है; क्या करूं? क्या है ध्यान? मुझ अज्ञानी को बता दें।’

जोशू ने देखा होगा इस शिष्य की तरफ और कहा कि ‘भोजन कर चुके हो सांझ का?’

उस शिष्य ने कहा, ‘कर चुका हूं।’

तो जोशू ने कहा, ‘जाओ और बर्तन मांज डालो, बर्तन धो लो।’

ऊपर से देखने पर कथा बेबूझ लगती है। शिष्य पूछता है ध्यान की बात और जोशू कहता है बर्तन धो डालो।

जोशू के एक दूसरे शिष्य की कथा है। बहुत दिनों तक जोशू के पास रहा। लेकिन ध्यान का राज हाथ में न आया। बहुत दिन तक जोशू का सत्संग किया लेकिन सत्संग हुआ नहीं। भीतर कोई किरण न फूटी, कोई दीया न जला। भीतर कोई नई सुगंध न आई। पुराना था, पुराना ही रहा। तो एक दिन जोशू को उसने पूछा कि ‘अब तो बहुत वर्ष बीत गये, और अब तक कुछ हुआ नहीं। अब मैं क्या करूं?’

तो जोशू ने कहा, कि ‘तू एक काम कर। मैं जानता हूं एक सदगुरु को, जो फलां-फलां गांव, फलां-फलां धर्मशाला का मालिक है। तू वहां चला जा। और अब तू उसी से सीख। शायद तू उससे सीख जाए।’

शिष्य बड़ी उत्सुकता से, बड़ी आतुरता से भागा; पहुंचा दूसरे गांव। लेकिन वहां जाकर बड़ा उदास हुआ, क्योंकि वह मालिक कोई सदगुरु नहीं था। वह तो एक छोटी-सी सराय को चलाने वाला गरीब आदमी था। एक धर्मशाला को चलाता था; सस्ती धर्मशाला थी राह के किनारे। उससे कुछ सीखने की संभावना भी न थी। जोशू ने मजाक किया, या जोशू ने पिंड छुड़ाना चाहा? लेकिन रात देर हो गई थी, और रात तो रुक ही जाना था।

तो उसने सराय के मालिक को पूछा कि ‘मैं रात रुक जाऊं? वैसे मुझे जोशू ने भेजा है। लेकिन कहीं कोई भूल हो गई। जोशू ने तो कहा था कि आप एक गुरु हैं और जो उसके पास नहीं सीख पाया, आपके पास सीख लूंगा।’

उस सराय के मालिक ने कहा, ‘मुझे कुछ पता नहीं। कैसे गुरु, कैसे शिष्य? और मेरे पास सिखाने को कुछ भी नहीं है। लेकिन अब तुम आ गये हो, तो रात रुक जाओ। विश्राम कर लो, सुबह चले जाना।’

पर जोशू ने कहा था कि वह जो गुरु है, उस धर्मशाला का जो मालिक है, वह कुछ बोलेगा नहीं, तू उसके आचरण को देखना; वह आचरण से ही बोलता है। तू उस पर नजर रखना; उसके इशारे समझना। तो इस शिष्य ने सोचा, कि ‘अब आ ही गया हूं तो जरा देखता ही रहूं, क्या कर रहा है यह आदमी! चौबीस घंटे रुक ही लूं।’

तो वह देखता रहा। कुछ देखने जैसा भी न था, कुछ समझने की बात भी न थी। कभी वह बुहारी लगा रहा है, कमरे साफ कर रहा है, कभी वस्त्र धो रहा है, कभी बर्तन साफ कर रहा है। कभी मेहमानों की सेवा कर रहा है। बस इसी तरह के काम थे, जिनमें सीखने जैसा कुछ भी न था। फिर रात हो गई, वह धर्मशाला का मालिक सो गया।

सुबह जोशू का शिष्य उठा भोर में, और उसने कहा, ‘मैं जाऊं? क्योंकि यहां सीखने को कुछ भी नहीं। एक ही बात और पूछनी है। क्योंकि बाकी तो सब मैंने देख लिया। रात सो जाने के बाद तुमने क्या किया, वह मुझे पता नहीं है। शायद गुरु कहे कि तुमने चौबीस घंटे क्यों न निरीक्षण किया?’

उसने कहा, ‘रात सो जाने के बाद? रात सोते समय धर्मशाला के सब बर्तन मैंने धोकर रख दिये थे। फिर रात निश्चिंत सोया, क्योंकि बर्तन धुले थे। फिर सुबह उठा, थोड़ी धूल जम गई थी। बिना कारण भी बर्तन रात भर रखे रहें, तो थोड़ी धूल जम जाती है। कुछ करना ही जरूरी नहीं है, निष्क्रिया तक में धूल जम जाती है। सोचना जरूरी नहीं है, खाली बैठे-बैठे भी धूल जम जाती है। समय बीतता है तो धूल जमती है। समय भी धूल है। तो उसने कहा कि सुबह थोड़ी धूल जम गई थी, फिर से उन्हें धो डाला। सब ठीक है।’

इस शिष्य ने अपने सिर पर हाथ मार लिया कि मैं भी किस ना-समझ के पीछे पड़ा हूं! यह सिर्फ धर्मशाला का मालिक है। सिर्फ बर्तन जमाना, धोना, साफ करना, इतनी ही इसकी समझ है। वह वापिस लौट आया।

जोशू से उसने कहा। जोशू ने कहा, ‘तू चूक गया। इतना ही तो राज है।’

दिन में तो धूल जमती ही है, रात तुम सपना देखते हो उसमें भी धूल जम जाती है। मन उसमें भी विकृत हो जाता है। मन उसमें भी अशांत और बेचैन हो जाता है। सुबह उठकर फिर साफ कर लो। जितना बन सके बर्तन साफ करते रहो। लेकिन बर्तन तुम साफ तभी कर पाओगे, जब सांझ का भोजन कर लिया हो।

आखिर जोशू यह भी तो कह सकता था, ‘सुबह का भोजन कर लिया?’ लेकिन उसने कहा, सांझ का भोजन। सांझ का भोजन मतलब, अंतिम भोजन। सांझ का भोजन मतलब, जब सूर्यास्त हो रहा है, सब ढल रहा है। सांझ के भोजन का अर्थ है, आखिरी वासना को भी चख लिया, स्वाद ले लिया? अगर ले लिया है स्वाद, तब क्या देर कर रहे हो? बर्तन धो डालो। और अगर अभी आखिरी भोजन नहीं हुआ, तो अभी ध्यान की बात ही मत पूछो।

जिनकी वासनाएं अभी अधूरी हैं, जिन्होंने संसार को अभी जाना नहीं, वे ध्यान की बात ही न पूछें। संसार को बिना जाने कोई संसार से मुक्त न कभी हुआ है, न हो सकेगा। और जिनकी अभी शरीर की दौड़ ही कायम है, जो उससे थक नहीं गये हैं, ऊब नहीं गये हैं, जिन्होंने पहचान नहीं लिया है कि शरीर व्यर्थ है, उसकी दौड़ व्यर्थ है, वे ध्यान के संबंध में न पूछें तो अच्छा। कोई सदगुरु उन्हें उत्तर नहीं देगा। वे ऐसे ही हैं, जैसे छोटे बच्चे कामवासना के संबंध में कुछ पूछें। कौन उन्हें उत्तर देगा? उत्तर का कोई अर्थ नहीं है।

जब तक संसार व्यर्थ न हो जाए, तब तक धर्म सार्थक नहीं होता। और जब संसार व्यर्थ हो जाए ऐसी ‘तुम्हारी’ प्रतीति हो–मेरे कहने से नहीं; कबीर और बुद्ध और क्राइस्ट समझाएं इससे नहीं; वे तो चिल्ला रहे हैं कि संसार व्यर्थ है। तुम काफी भोजन कर चुके, रुको। थाली को धो डालो। अब और मत दौड़ो, काफी दौड़ चुके, ठहरो। लेकिन उनके कहने से तुम न रुकोगे; और अगर रुके तो भी भूल हो जाएगी। क्योंकि भला तुम रुक जाओ, लेकिन तुम्हारा मन न रुकेगा। तुम बुद्ध की मानकर संसार से मुड़ भी आओ, लेकिन तुम लौट-लौटकर संसार की तरफ देखते रहोगे।

इसलिए जोशू ने पूछा, ‘सांझ का भोजन पूरा हो गया? आखिरी वासना भी तृप्त कर ली या नहीं?’

अब यह बड़े मजे की बात है; कि वासना तृप्त करने से तृप्त तो होती नहीं। भोजन करने से कभी किसी की भूख मिटी? भोजन करने से सिर्फ नई भूख शुरू होती है। पानी पीने से सिर्फ नई प्यास का प्रारंभ होता है। थोड़ी देर के लिए भुलावा होता है। तो पानी पीने से प्यास बुझती नहीं; बुझ जाए, तो फिर पानी की दुबारा जरूरत न हो। पानी पीने से प्यास छिपती है, दबती है। भोजन से भूख मरती नहीं, सिर्फ थोड़ी देर के लिए भूख भूल जाती है, विस्मरण हो जाती है। कामभोग से कामवासना नष्ट नहीं होती, सिर्फ थोड़ी देर के लिए तुम थक जाते हो, फिर जाग आएगी।

इसलिए भूख के बाद सभी को उपवास सार्थक मालूम होता है। संभोग के बाद सभी को संभोग की व्यर्थता मालूम होती है। लेकिन घंटे, दो घंटे, चार घंटे–भूख फिर लौटेगी। चौबीस घंटे, अड़तालीस घंटे–कामवासना फिर जगेगी। और जब वासना जगेगी तब सब वही सार्थक मालूम होने लगेगा, जो व्यर्थ मालूम हुआ था।

जोशू कह रहा है, ‘आखिरी भोजन कर लिया? यदि आखिरी भोजन कर लिया है तो जाओ और बर्तन साफ कर डालो।’

मन के बर्तन में ही हमारी वासनाओं का भोजन चला है। और एक दिन नहीं, जन्मों-जन्मों से चला है। मन का बर्तन बिलकुल गंदा हो गया है। अगर हो गई है बात पूरी तो जाओ, और मन का बर्तन साफ कर लो; इतना ही ध्यान है।

और शिष्य निश्चित ही समझ गया होगा। क्येंकि उसने फिर कोई सवाल न उठाया। उसे बात दिखाई पड़ गई होगी।

क्या है बात? बात इतनी है कि अगर वासना व्यर्थ हो गई तो ध्यान करने की जरूरत भी कहां है? अगर तुमने जान ही लिया दौड़ना व्यर्थ है, तो रुकने के लिए कुछ श्रम करना पड़ेगा? तुम्हें पहचान आ गई कि हाथ में कंकड़-पत्थर हैं, हीरे नहीं, तो क्या छोड़ने के लिए तुम्हें कोई बड़ा प्रयास करना पड़ेगा? छोड़ने का प्रयास तो तभी करना पड़ता है, जब कंकड़-पत्थर हीरे मालूम पड़ते हैं। हाथ खाली हो जाएंगे, तुम छोड़ ही दोगे। मिट्टी पर कौन मुट्ठी बांधता है? और जैसे ही तुम छोड़ दोगे, वैसे ही ध्यान फलित हो जाएगा।

तो ध्यान क्या है?

ध्यान है, वासना का अभाव।

ध्यान है, आकांक्षा का अभाव।

ध्यान है, दौड़ से मुक्ति।

ध्यान का अर्थ हुआ, अब मैं कुछ भी नहीं चाहता हूं। मैं जैसा हूं, तृप्त हूं। मैं जो भी हूं, राजी हूं। जहां हूं, वहीं मेरी मंजिल है। वहां से कहीं और मुझे नहीं जाना।

वासना का स्वरूप है कि जहां मैं हूं, वहां से कहीं और मुझे जाना है। कहीं भी मैं होऊं, वहां से मुझे कहीं और जाना है। मंजिल कहीं और है। जहां भी मैं हूं, वहीं अतृप्त हूं। वासना कभी भी तृप्त नहीं है, दुष्पूर है। तुम स्वर्ग में रहो तो भी वासना कहेगी, आगे क्या? इससे क्या होगा? स्वर्ग भी मिल गया तो क्या होगा? तुम मोक्ष भी चले जाओ तो भी तुम्हारी वासना तुम्हें संसार में वापस ले आएगी।

तुम्हारी वासना संसार है।

बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि बालसेन मरा–एक यहूदी फकीर और वह स्वर्ग पहुंचा। और वहां उसने देखा कि बड़े-बड़े पुराने यहूदी फकीर बैठकर शास्त्रों का अध्ययन कर रहे हैं; तालमुद का अध्ययन कर रहे हैं। झुके हैं अपनी-अपनी किताबों पर, पाठ कर रहे हैं। यह थोड़ा हैरान हुआ बालसेन। इसने कहा, ‘स्वर्ग में रहकर शास्त्रों की क्या जरूरत है अब? अब यहां भी अगर शास्त्रों का पाठ ही चल रहा है तो फिर मंजिल कहां है?’

जो देवदूत उसे स्वर्ग का राज्य घुमा रहा था, उसने कहा कि सुनो, संत स्वर्ग में नहीं होते, स्वर्ग संतों में होता है। स्वर्ग कोई जगह नहीं है, जहां संत प्रवेश करते हैं। स्वर्ग एक भावदशा है, जो संत के भीतर होती है।

तुम थोड़े ही स्वर्ग में प्रवेश करोगे! स्वर्ग तुममें प्रवेश करेगा। तुम द्वार दो ताकि स्वर्ग प्रवेश कर सके। लेकिन तुम्हारा द्वार वासनाओं से बंद है। तो तुम अगर स्वर्ग में भी पहुंच गये तो कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम तालमुद ही पढ़ोगे। तुम वही किताब पढ़ते रहोगे, जो और आगे ले जाने का उपाय है।

तुम अगर स्वर्ग में भी पहुंच गये, जिसके ऊपर कुछ भी नहीं, तो भी अपनी सीढ़ी साथ ले जाओगे, कहीं लगाकर और ऊपर चढ़ने के लिये। तुम बिना सीढ़ी के हो ही नहीं सकते। तुम सीढ़ी को ढोओगे ही; चाहे सीढ़ी कितनी ही वजनी हो। तुम नाव को सिर पर लेकर चलोगे ही; चाहे तुम उस किनारे पर क्यों न पहुंच जाओ। क्योंकि तुम्हारे लिये कोई दूसरा किनारा नहीं हो सकता; तुम्हारे लिए हर किनारा छोड़ने वाली जगह है। और हर पहुंचने वाली जगह कहीं दूर है, जहां तुम्हें नाव से जाना होगा।

ध्यान का अर्थ है, तुम उस किनारे पर हो, जहां से आगे नहीं जाना। तुम दूसरे किनारे पर हो। तुम सदा ही वहां हो, जहां होना तृप्ति है। तुम प्रतिक्षण जहां भी पहुंचते हो, तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे साथ चलता है।

ठीक कहा जोशू ने, कि अगर तेरा आखिरी भोजन हो गया, तो अब तू बर्तन साफ कर ले।

यही मैं तुमसे पूछता हूं कि क्या तुम्हारा आखिरी भोजन हो गया? और भोजन तुम बहुत जन्मों से कर रहे हो। भूख तुम्हारी मिटी नहीं। छोटा-सा गणित है, जो तुम अब तक हल न कर पाये। भोजन से भूख मिटेगी भी नहीं। मिटती होती तो कब की मिट गई होती। छोड़ो पिछले जन्मों को, इस जन्म में भी काफी भोजन कर चुके, भूख मिटती नहीं। लगता ऐसा है कि भोजन भी भूख को ही मिटाता है, भूख बढ़ती है। कितना तुम पानी पिये हो और कितने सरोवर तुमने खोजे, प्यास कहीं गई नहीं। तुम्हारा कंठ प्यासा का प्यासा रह जाता है। शायद पानी तुम्हें और नई तलफ जगाता है। पानी सिर्फ आभास देता है तृप्ति का; तृप्ति नहीं लाता।

कब तक तुम इसको ही जारी रखोगे? कब तुम देख सकोगे कि भूख से भोजन का कोई संबंध नहीं। प्यास से पानी का कोई संबंध नहीं। प्यास पानी से नहीं मिटेगी।

जिस दिन तुम जानोगे कि प्यास पानी से मिटती ही नहीं, उस दिन तुम कुछ और खोजोगे, जिससे प्यास मिटती है। यह जरा कठिन है। हम सोचते हैं पानी से प्यास मिटती है, तृप्ति आती है। जो जानते हैं, वे कहते हैं, तृप्ति से प्यास मिटती है, और पानी आता है। अब यह जरा…जो जानते हैं वे कहते हैं, तृप्ति से प्यास मिटती है, और पानी आता है। सरोवर प्रगट हो जाता है। लेकिन तृप्ति से प्यास मिटती है। तृप्ति से भूख मिटती है। तृप्ति से काम मिटता है। तुम जहां तृप्त हुए, वहीं वासना शांत हो जाती है।

क्या तुम आखिरी भोजन कर चुके?

यही सवाल है, जो हर नये साधक को अपने से पूछना है। और अगर अभी आखिरी भोजन नहीं हुआ तो बेहतर है, संतों के पास मत जाओ। पहले आखिरी भोजन कर लो। उनके पास जाकर समय अपना और उनका खराब मत करो। क्योंकि उनके पास तुम कुछ भी न पा सकोगे। तुम गलत जगह पहुंच गए। वह जगह तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हें अभी संसार में थोड़ा और चलना है। तुम्हें अभी और थोड़ी खोज करनी है। तुम्हें अभी थोड़ा और भटकना है। अभी तुम थके नहीं, अभी तुम्हारे पैरों में ताकत है; और तुम अभी और चलने के लिए उत्सुक हो। अभी तुम थोड़े और दौड़ो।

मैं भी तुमसे यही कहता हूं कि संसार का तुम ठीक से भोग कर लो। तुममें से अधिक की कठिनाई यही है, कि तुम संसार का भोग किये नहीं और अध्यात्म की वासना तुम्हें पकड़ गई है। अध्यात्म कोई वासना नहीं है। संसार से तुम भरे नहीं और मोक्ष की भी आकांक्षा तुम्हें पकड़ गई है। तुम बड़ी दुविधा में हो। तो ऊपर से तुम कुछ कहते हो और भीतर तुम्हारे कुछ चलता है। ऊपर से तुम मोक्ष की चर्चा करते हो, भीतर संसार चलता है। तुम दोहरी यात्रा पर चल रहे हो।

मैंने सुना है, कि एक साधारण सैनिक अपनी बहादुरी, युद्ध के मैदान पर अपनी कुशलता…बड़ा सम्मानित हुआ; और उसे कर्नल का पद दे दिया गया। वह उसके योग्य भी था। एक दिन वह अपने ‘कमांडर इन चीफ’ के साथ रास्ते से गुजर रहा था। अब वह कर्नल हो गया है। जो भी सैनिक रास्ते पर मिलते हैं, तत्क्षण खड़े होकर सलाम ठोकते हैं। कर्नल भी सलाम करता है। लेकिन कमांडर थोड़ा हैरान हुआ, कि यह जो कल तक सैनिक था, अब कर्नल हो गया है–कमांडर हैरान हुआ! तो वह धीरे से कहता है ‘दि सेम टू यू।’ ऐसा जब दस-पांच बार उसने सुना तो वह थोड़ा चकित हुआ। उसने पूछा कि यह तुम्हारी क्या विचित्र-सी आदत है? जब भी कोई नमस्कार करता है, और पैर ठोकता है तब तुम धीरे-से क्या फुसफुसाकर कहते हो कि ‘दि सेम टू यू': ‘वही तुम्हें भी?’

उसने कहा, ‘मैं पहले सैनिक रह चुका हूं। ये सब भीतर से तुम गाली दे रहे हो। मैं भी देता रहा हूं। यह नमस्कार ऊपर-ऊपर है। इसलिए मैं इनको भलीभांति जानता हूं कि ये भीतर क्या कह रहे हैं। इसलिए मैं कहता हूं, ‘दि सेम टू यू’! कुछ भी कह रहे हों भीतर–‘वही तुम्हें भी’।

ऊपर से तुम नमस्कार करते हो मंदिरों में, और भीतर? ऊपर तुम संतों का सत्संग करते हो और भीतर? ऊपर तुम ब्रह्मचर्य के सूत्र पढ़ते हो और भीतर? ऊपर तुम निर्वासन और ध्यान, समाधि, विपस्सना की चर्चा करते हो और भीतर? भीतर संसार चलता है।

और जो तुम भीतर हो, वही तुम्हारी वास्तविक यात्रा है। जो तुम ऊपर हो, वह यात्रा काम की नहीं।

इसलिए पूछता है जोशू, आखिरी भोजन कर लिया? वह यह पूछ रहा है कि भीतर का उपद्रव समाप्त हुआ? थक गये उससे या अभी भी रस कायम है? भूख बाकी है या हट गई?

उस युवक ने कहा, कि ‘जी हां। आखिरी भोजन कर चुका हूं। तभी तो आया हूं आपके पास; नहीं तो आने का कोई सवाल न था। यहां आया इसलिए हूं, ध्यान की पूछता इसलिए हूं, कि आखिरी भोजन हो चुका। अब कोई और भोजन करने को नहीं बचा है।’ तो जोशू ने कहा, ‘मामला सीधा-साफ है, बड़ा सरल है।’

और मैं भी तुमसे कहता हूं इतना ही सरल मामला है, जैसा जोशू ने कहा कि जा और बर्तन साफ कर लो। और कुछ और करना नहीं। निन्यान्नबे प्रतिशत तो ध्यान घट ही गया, अगर आखिरी भोजन हो गया। एक प्रतिशत बचा है। वह पुराने जो भोजन की प्रक्रिया चली है जन्मों-जन्मों तक, वह जो मन पर कचरा इकट्ठा हो गया है, उसको साफ कर डालो।

निन्यान्नबे प्रतिशत ध्यान घटता है वासना की व्यर्थता के बोध से; कि भोजन से भूख न मिटे, पानी से प्यास न मिटे! संभोग से भोग की आकांक्षा नहीं जाती, बढ़ती है। जैसे कोई घी डालता हो आग में, और भभकती है। ऐसी प्रतीति में निन्यान्नबे प्रतिशत तो ध्यान पूरा हो गया। जो एक प्रतिशत बचा है, वह बहुत छोटा-सा काम है। वह बर्तन धो लेने जैसा है। वह मन में जो कचरा इकट्ठा है अतीत का, उसे पोंछ डालना है; वह एक स्नान है।

ध्यान के दो चरण हुए। एक चरण, कि जीवन जैसा तुम जी रहे हो, वह तुम्हें व्यर्थ मालूम पड़ जाए। ‘तुम्हें’ व्यर्थ मालूम पड़े। यह ‘तुम्हारी’ प्रतीति हो। इस पर बहुत जोर देने का है। यह प्रामाणिक तुम्हारा अनुभव हो। इसमें उधारी नहीं चलेगी। इसमें बुद्ध की गवाही नहीं चलेगी। इसमें कितने ही बुद्ध खड़े होकर कहें कि हां, हम कहते हैं, मान लो। न, वह काम नहीं आएगा। तुम्हारे भीतर का ईश्वर उठे और कहे।

तुम्हारा मन जल्दी से मानने को राजी भी हो जाता है क्योंकि तुम परेशान तो काफी हो रहो हो; लेकिन पूरे नहीं हुए हो। तुम काफी कुनकुने तो हो, लेकिन इतने गर्म नहीं हुए हो कि भाप बन जाओ। तो तुम्हें भी लगता है कि तकलीफ तो है संसार में, दुख तो है, और इसको छोड़ना है।

बस, यहीं खेल की कुंजी है। तुम्हें लगता है दुख तो है, लेकिन दूसरी बात भी तुम्हें लगती है कि यहां सुख भी है। और नीत्से ने कहा है…और वह तुम्हारा अनुभव है। अब यह बड़ी जटिलता है। बुद्ध जो कहते हैं, वह तुम्हारा अनुभव नहीं है, लेकिन बुद्ध से तुम राजी होते हो। और नीत्से जो कहता है, वह तुम्हरा अनुभव है लेकिन उससे तुम राजी नहीं होते।

नीत्से ने कहा है, ‘माना कि दुख है, लेकिन सुखों के मुकाबले कुछ भी नहीं। और माना कि दुख काफी है, लेकिन सुख उससे गहरा है।’ और नीत्से ने कहा है, ‘मैं उन मूढ़ों में से नहीं हूं, जो कांटे के कारण गुलाब के फूल को फेंकते हैं। हम कांटे से बचने की कोशिश करेंगे और फूल को भोगेंगे।’ तो नीत्से को तो बुद्ध मूढ़ हैं। तुम्हें भी मूढ़ हैं। तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं कि तुम सच-सच कह सको; नीत्से हिम्मतवर है। और नीत्से दोहरा आदमी नहीं है। बात इकहरी है। वह कह रहा है, आखिरी भोजन हुआ नहीं और कभी हम आखिरी भोजन करेंगे नहीं। माना कि तकलीफ है, भोजन चबाने की तकलीफ है, दांत को भी पीड़ा होती है, पचाना भी पड़ता है; लेकिन उसमें स्वाद है। और वह स्वाद इतनी तकलीफ झेलने जैसा है।

एक अमीर मर रहा था, और उसने अपने बेटे को बुलाकर कहा कि देख, मैं तेरे लिए अपने पूरे जीवन के अनुभव से कहता हूं कि धन में कोई सुख नहीं है। गरीब भी दुखी है, अमीर भी दुखी है। इसलिए जो भूल मैंने की उस भूल में तू मत पड़ना। उस बेटे ने कहा कि देखें, आपकी भूल का मुझे पता नहीं, आपके अनुभव का मुझे पता नहीं। अगर आप मुझे चुनने का मौका दें, तो मैं अमीर का दुख चुनना पसंद करूंगा बजाय गरीब के दुख के। माना कि दोनों में दुख है, लेकिन मैं अमीर का दुख चुनना पसंद करूंगा।

तुम जानते हो कि जीवन में दुख है। और तुम यह भी जानते हो कि वासना पीड़ा में ले जाती है लेकिन यह आधा ही जानना है। भीतर आधा स्वर यह भी है कि सुख भी है। इसलिए तुम्हारी चेष्टा संसार से मुक्त होने की नहीं है। तुम्हारी चेष्टा संसार के दुख से मुक्त होने की है। सुख बच जाए, दुख कट जाए। इसीलिए तुमने स्वर्ग की ईजाद की है। स्वर्ग कहीं है नहीं, स्वर्ग तुम्हारी कामना है। और इसीलिए तुमने नर्क की ईजाद की है। नर्क कहीं है नहीं; वह वह जगह है, जहां तुम दूसरों को भेजना चाहते हो–शत्रुओं को। स्वर्ग वह जगह है, जहां तुम जाना चाहते हो।

स्वर्ग और नर्क दोनों मिले हुए हैं पृथ्वी में; संयुक्त हैं। तुमने उनको काट-काटकर अलग कर लिया है दिमाग में। तुम अपने लिए स्वर्ग चाहते हो। सब कांटे तुमने गुलाब के अलग कर दिये, सिर्फ फूल ही फूल बचाए। और सब कांटे तुमने इकट्ठे कर दिये उनके लिए, जो तुम्हारे दुश्मन हैं, तुमसे राजी नहीं हैं; और जिन्हें तुम कांटों में डालना चाहोगे। लेकिन ध्यान रहे, जिंदगी में फूल और कांटे साथ-साथ हैं। तुम उन्हें अलग-अलग न कर पाओगे।

इसलिए ज्ञानी स्वर्ग और नर्क की बात नहीं करते; ज्ञानी संसार और मोक्ष की बात करते हैं। अज्ञानी संसार, स्वर्ग और नर्क की बात करते हैं। ज्ञानी संसार और मोक्ष की बात करते हैं। ज्ञानी कहते हैं, स्वर्ग-नर्क का कोई सवाल नहीं है, संसार या संसार से मुक्ति। और जब तुम संसार से मुक्त होते हो, तो तुम यह मत सोचना कि संसार के दुख वहां न होंगे, और संसार के सब सुख वहां होंगे। न वहां संसार के सुख होंगे, न वहां दुख होंगे। वहां सुख-दुख दोनों खो जाएंगे। वहां सुख-दुख की दोनों स्थितियां समाप्त हो जाएंगी। न वहां फूल होंगे, न वहां कांटे होंगे। और इसीलिए बुद्ध या महावीर उस परम दशा को शांति या आनंद की दशा कहते हैं, जहां सुख-दुख दोनों का अभाव है।

क्या तुम्हारा दुख का भोजन पूरा हो गया? क्या तुमने दुख का पूरा स्वाद ले लिया? क्या तुम्हारा मुंह दुख की तिक्तता से भर गया? क्या तुम्हारे ओंठ जीवन की कडुवाहटता को अनुभव कर लिए? क्या तुम्हारे हृदय में जीवन के कांटे काफी चुभ गए और उनकी पीड़ा पूरी हो गई? तो फिर जाओ और बर्तन साफ कर लो। फिर ज्यादा काम नहीं बचता है।

ध्यान सरल है, अगर पहला काम पूरा हो गया। और ध्यान असंभव है अगर पहला काम पूरा नहीं हुआ। और तुम ध्यान में इसीलिए असफल होते हो क्योंकि वह निन्यान्नबे प्रतिशत काम तो अधूरा पड़ा है और एक प्रतिशत तुम करना शुरू करते हो। जो तुम्हें पहले करना था, वह तो तुमने पीछे के लिए छोड़ रखा है। और जो तुम्हें पीछे करना था, वह तुम पहले कर रहे हो। तुम बर्तन साफ करने में लगे हो और इसका तुम्हें खयाल ही नहीं कि अभी आखिरी भोजन नहीं हुआ। तुम साफ भी करोगे, क्या फायदा है? तुम फिर भोजन करोगे। तुम बर्तन साफ ही इसीलिए करते हो ताकि फिर भोजन कर सको। लोग ध्यान भी करने इसीलिए आते हैं, ताकि जिंदगी में महत्वाकांक्षा की दौड़ है, वहां भी शांति से महत्वाकांक्षा की दौड़ पूरी कर सकें।

एक मेरे मित्र हैं। वे आकर मुझे अकसर कहते हैं–राजनीति में हैं–वे कहते हैं ध्यान थोड़ा मुझे मिल जाए, तो मैं विरोधियों को पछाड़ दूं। चित्त अशांत रहता है इसलिए न तो मैं ठीक से सो पाता हूं, न मेरा स्वास्थ्य ठीक रह पाता है, इसलिए विरोधियों को मैं पछाड़ नहीं पाता। और वे मुझसे पूछते हैं, बड़ी हैरानी की बात है कि विरोधी किस तरह चल रहे हैं? न उनके सिर में दर्द होता है, न रात उनकी नींद खोती है। राजनीति का चक्कर आप जानते हैं, चौबीस घंटे चक्कर में हैं। उसे रत्ती भर विश्राम नहीं है। लेकिन इन मित्र को तकलीफ यह है कि ये इतना नहीं झेल पाते। ये डावांडोल हालत है इनकी। यह ध्यान भी इसलिए चाहते हैं ताकि संसार में ठीक से गति हो सके। ये ध्यान को भी संसार की नाव बनाना चाहते हैं।

ऐसे तो चोर भी ध्यान चाहेगा। क्योंकि चोरी करने में अगर आप ध्यानस्थ हो सकें तो पकड़े जाने की संभावना कम है। अगर चोरी करते वक्त आप इतने थिर भाव से कर सकें कि जैसे अपना ही घर है, तो आपका हाथ नहीं डगमगाएगा। चाबी जल्दी लगेगी, ताला आसानी से खोला जा सकेगा।

हत्यारा अगर ध्यानी हो सके, तो जितनी कुशलता से हत्या कर सकेगा उतनी कुशलता से आप न कर सकेंगे। आपका हाथ चूकेगा, भय लगेगा, हृदय धड़केगा, रक्तचाप बढ़ेगा, आप मुसीबत में पड़ेंगे। हत्यारा भी चाहता है कि कोई तरकीब हो शांत होने की। चोर भी चाहता है, राजनीतिज्ञ भी चाहता है, धनपति भी चाहता है कि कोई शांत होने की तरकीब हो, ताकि संसार में विजय मिल सके।

ध्यान रखो, ध्यान को संसार में नाव बनाने का कोई उपाय नहीं है। तुम तो हद्द पागलपन की बात कर रहे हो। तुम तो जोशू से पूछना चाहते हो कि ध्यान भी बर्तन बन जाए। जिसमें हम वासनाओं का भोजन कर सकें। तुम जोशू से पूछना चाहते हो कि ठीक है, तुम कह रहे हो तो हम बर्तन साफ कर लेंगे लेकिन हम साफ इसलिए करना चाहते हैं ताकि और ढंग से भोजन कर सकें।

अमरीका में, जहां पहली दफा वैश्यों ने संस्कृति निर्मित की है, जहां व्यापारी के हाथ में, वणिक के हाथ में सारी सत्ता आ गई है, वहां अगर आपको ध्यान का भी प्रचार करना हो तो यही समझाना पड़ता है कि ध्यान से एफिशियंसी बढ़ेगी, काम करने की कुशलता बढ़ेगी। ध्यान से धन के द्वार खुलेंगे। ध्यान अगर तुमने किया तो तुम महत्वाकांक्षा के जगत में आसानी से सफल हो जाओगे, संसार में विजय मिलेगी। ध्यान तुम्हारे लिए शक्ति है।

स्वाभाविक है; वणिक सभ्यता में ऐसा होगा। वहां अगर ध्यान को भी चलाना हो तो भी धन के सहारे ही चलाया जा सकता है। और धन मिलता हो तो ही कोई दौड़ने को राजी हो सकता है। अगर तुम लोगों को कहो कि यह परमात्मा की खदान है, इसको तुम खोदो; पास में तुम कहो कि यह सोने की खदान है। तुम्हें परमात्मा की खदान खोदता हुआ कोई भी नहीं मिलेगा। लोग सोने की खदान पहले खोदेंगे। और लोग कहेंगे कि सोने की खदान पहले खोद लेनी जरूरी है। परमात्मा प्रतीक्षा करता रहेगा; जल्दी क्या है? अगर परमात्मा और सोना सामने रखा हो तो तुम भी सोना ही चुनोगे।

अपने मन को बहुत गहरे में पूछना, तुम्हारा चुनाव क्या होगा? और अगर तुम सोना ही चुनना चाहो तो तुमने अभी आखिरी भोजन नहीं किया। अभी बर्तन तुम साफ कर भी कैसे सकोगे? क्योंकि तुम साफ कर भी न पाओगे, नई वासनाएं तुम्हारे बर्तन को फिर गंदा कर जाएंगी।

तुम मन को शांत करना चाहते हो? महत्वाकांक्षी व्यक्ति अगर मन को शांत करेगा, कैसे सफल होगा? क्योंकि हर महत्वाकांक्षा मन को गंदा कर जाती है। जब भी तुम भरते हो आकांक्षा से कि कुछ पा लूं, कहीं पहुंच जाऊं, कुछ हो जाऊं, तभी तुम फिर गंदे हो गए। महत्वाकांक्षी चित्त मन को शांत नहीं कर सकता। महत्वाकांक्षा शून्य चित्त ही मन को शांत कर सकता है।

ठीक कहा जोशू ने। तुम भी अपने से पूछना, क्या आखिरी भोजन हो चुका? तो फिर देर क्यों कर रहे हो? जाओ, और बर्तन साफ कर लो।

बर्तन साफ होते ही तुम स्वयं मोक्ष हो। वह निर्मलता, जो तुम्हारा स्वभाव है, प्रगट हो जाएगी। वह दीया जो बिन बाती बिन तेल जलता है, जिससे कोई धुआं नहीं उठता–धूम्रहीन! जिसमें किसी ईंधन का उपयोग नहीं होता है, इसलिए कोई कचरा पैदा नहीं होता; जो तुम्हारे भीतर के आकाश को दूषित नहीं करता, वह दीया तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा। वह जल ही रहा है, लेकिन उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं है।

दौड़ने वाले आदमी का ध्यान सदा कहीं और है–स्वयं को छोड़कर। वह सब देखता है, अपने भर को नहीं देखता। उसे फुरसत भी नहीं है अपने को देखने की। उसकी आंखें सब तरफ भटकती हैं। एक जगह को वह छोड़ देता है–खुद को। तुम्हारी आंख तुम्हारी खोज पर जब ही निकलेगी जब और कहीं खोजने को कुछ भी न बचेगा। जब तुम कह सकोगे कि ठीक है, देख लिया। ये सब रास्ते चल लिए, कहीं पहुंचे नहीं। ये सब स्वाद ले लिए; इनसे भूख बढ़ती है, घटती नहीं। ये सब जल पी लिए; इनसे प्यास जलती है, समाप्त नहीं होती। ये सब आकांक्षाएं पूरी करके देख लीं, कुछ भी पूरा नहीं होता। सब अधूरा का अधूरा रह जाता है।

जिस दिन तुम्हें ऐसा लग जाए, आखिरी भोजन हो गया।

आखिरी भोजन के बाद ध्यान बड़ी सरल घटना है। शायद कुछ करना भी न पड़े। बर्तन का गंदा होना बंद हो गया। पुराने बर्तन को साफ कर लेना कितनी कठिनाई की बात है? जरा-सी भी कठिनाई नहीं।

जोशू की कथा को भीतर सोचना और एक बात खयाल रखना: पके बिना तुम वृक्ष से न गिर सकोगे। और कच्चे तुम गिरने की कोशिश मत करना। कच्चा गिरकर कोई भी कहीं पहुंचता नहीं, सिर्फ सड़ता है। इससे मेरी बात बड़ी कठिन मालूम पड़ती है कि साधारणतया तुम किसी और के पास जाओ तो वह कहेगा, ‘धन्यभाग, कि तुम संसार छोड़कर और प्रार्थना पूजा में उत्सुक हो रहे हो।’

मैं तुमसे नहीं कहूंगा, धन्यभाग! क्योंकि मैं जानता हूं कि यह तुम्हारा दुर्भाग्य भी हो सकता है। दुर्भाग्य तब होगा, जब तुम्हारा मन तो अभी दुकान से तो भरा नहीं था और तुम मंदिर आ गए। यह मंदिर झूठा होगा। और दुकान तुम्हें खींचती रहेगी। और मंदिर में तुम प्रार्थना करोगे, लेकिन सिर तुम्हारा दुकान में झुका रहेगा। यहां परमात्मा के चरण तुम पकड़े रहोगे, लेकिन तुम्हारे हाथ परमात्मा के चरणों तक नहीं पहुंचेंगे। यह सब झूठा-झूठा होगा। और झूठ से कहीं कोई यात्रा होती है स्वर्ग की, या मोक्ष की या आनंद की? झूठ से तुम कहीं भी न जाओगे।

झूठे मत होना; प्रामाणिक होना। और मैं कहता हूं, कोई चिंता नहीं, तुम दुकान पर ही प्रामाणिक हो जाना। तुम कह देना कि अभी कैसा परमात्मा? कैसा मोक्ष? अभी मैंने संसार भी नहीं जाना। यह तुम्हारी ईमानदारी होगी। इस आदमी को मैं धार्मिक कहता हूं। क्योंकि यह कम से कम सच्चा है। और जो सच्चा है, वह ज्यादा देर तक नहीं भटक सकता। जो झूठा है, उसकी बड़ी कठिनाई है; वह खुद को तक धोखा दे लेता है। वह खुद से भी झूठ बोल लेता है। वह खुद को भी समझा लेता है। वह खुद के साथ भी वंचना करता है।

मैंने सुना है, एक पुलिस का आदमी रात एक रास्ते से निकल रहा था। और उसने एक दुकान के भीतर बड़ा शोरगुल सुना। जैसे दो आदमी भारी विवाद कर रहे हैं और हालत ऐसी है कि सिर फुटव्वल हो जाएगी। उसने दरवाजा खटखटाया। दुकान के मालिक ने दरवाजा खोला। पुलिस के आदमी ने अंदर झांककर देखा, वहां कोई और दूसरा नहीं है। उसने कहा कि अभी मैं सुन रहा था कि यहां आवाज दो की थी और विवाद काफी था। और गर्मी इतनी थी कि मुझे लगा कि कुछ खतरा होने वाला है। दूसरा आदमी कहां है?

वह दुकानदार हंसा, और उसने कहा कि जाने भी दीजिए कोई दूसरा है नहीं; मैं अपने से ही बातें कर रहा था। उस पुलिसवाले ने कहा, ‘हद हो गई! लेकिन आवाज बिलकुल अलग-अलग मालूम पड़ रही थी।’ उस आदमी ने कहा, ‘यह बात ठीक है, क्योंकि मेरे भीतर कई आवाजें हैं।’ और उसने कहा, ‘यह भी ठीक है, लेकिन विवाद भी चल रहा था, और एक दूसरे का खंडन हो रहा था।’ उसने कहा वह भी ठीक है। जब भी मैं अपने से बात करता हूं तो विवाद शुरू हो जाता है। पुलिसवाले ने कहा, लेकिन खुद से तुम विवाद कैसे करते हो? तो उसने कहा कि मुझे झूठी बातें बिलकुल नापसंद हैं। और मैं ऐसा झूठा हूं कि खुद से भी झूठ ही बोलता हूं; फिर विवाद शुरू हो जाता है। फिर मैं इतना गुस्से में आ जाता हूं कि गर्दन दबा दूंगा, अगर झूठ बोले।

तुम अगर अपने को पकड़ोगे तो कई मौके पाओगे जब तुम खुद से झूठ बोल रहे हो। और दूसरे से झूठ बोलना क्षमा किया जा सकता है, खुद से झूठ बोलकर तुम कहां जाओगे? जब तुम मंदिर में हाथ जोड़े खड़े हो, तब पूछना कि ये हाथ सच में जुड़े हैं, या तुम अपने से झूठ बोल रहे हो? बेहतर है तुम दुकान पर ही रुकना; दुकान का अनुभव पूरा हो जाने दो। दुकान इतनी निस्सार है कि तुम कितनी देर रुकोगे? लेकिन अगर तुम बीच-बीच मंदिर जाते रहे तो खतरा है। तुम बहुत ज्यादा रुक जाओगे। क्योंकि बीच में मंदिर आने से फिर दुकान में रस जग जाता है।

मैंने सुना है कि एक आदमी अपने मित्र को कह रहा था कि पिछले तीन महीने परम आनंद के थे। तुम्हारी भाभी ने ऐसा सुख दिया कि जैसे फिर हनीमून वापिस लौट आया; फिर सुहागरात आ गई। उस मित्र ने कहा ऐसा! तुम्हारे विवाह हुए तो कोई बीस साल हो गए। उसने कहा कि हां, बीस साल बाद फिर से जैसे सुहागरात वापिस आई। ये तीन महीने ऐसे आनंद के थे, रस ही रस बह गया। मित्र ने पूछा, फिर तुम आज उदास क्यों मालूम पड़ रहे हो? उसने कहा कि आज पत्नी मायके से तीन महीने के बाद वापस लौट रही है।

जब पत्नी मायके होती है, तब सब रस वापस लौट आता है। जब तुम मंदिर में जाते हो, तब दुकान मायके में है। सब रस वापस लौट आता है। जब तुम प्रार्थना करते हो तब धन मायके में है। तब सब रस वापस लौट आता है। जब तुम ध्यान करते हो, तब सारा संसार तुमने मायके भेज दिया। फिर सुहागरात वापस आ जाती है।

दूरी होते से ही रस पैदा हो जाता है। हो सकता है तुम बड़े होशियार हो; तुम मंदिर इसलिए जाते हो ताकि दुकान का रस बिलकुल मर न जाए। हो सकता है तुम बड़े चालाक हो; तुम इसीलिए गीता पढ़ लेते हो, कुरान पढ़ लेते हो, बाइबिल सुन लेते हो, संतों के पास बैठ आते हो ताकि जिंदगी का, संसार का रस कायम रहे। संतों की बात सुनकर जब फिर तुम धन की आवाज सुनते हो, खनक सुनते हो तो खनक में जो माधुर्य और सौंदर्य मालूम पड़ता है, कान फिर से जीवित हो जाते हैं।

उपवास करके भोजन किया है? बस वैसा ही! उपवास करके भोजन में रस लौट आता है। स्वाद पुनरुज्जीवित हो जाता है।

तुम्हारा धर्म तुम्हारा धोखा है। तुम्हारा सत्संग तुम्हारी प्रवंचना है। तुम संतों के पास जा कैसे सकते हो, जब तक कि आखिरी भोजन न हो गया हो? और जिस दिन आखिरी भोजन हो जाएगा उस दिन तुम जहां हो, वहां संत प्रगट होने लगेंगे। वहां कोई तुम्हारे द्वार-दरवाजे को खटखटाते आने लगेगा।

इस युवक को जाने की जरूरत न थी जोशू के पास; जोशू गया होता। आखिरी भोजन भर हो जाए!

हर वासना को जल्दी आखिरी करो। और जितनी त्वरा में भोग सको, उतनी जल्दी आखिरी हो जाए। और बीच-बीच में स्वाद मत बदलो। पत्नी को मायके मत भेजो, नहीं तो छुटकारा कभी भी न होगा। रस फिर-फिर लौट आएगा। फिर तुम एक वर्तुल में घूमते रहोगे।

भोगो संसार को। डर कुछ भी नहीं है। क्योंकि संसार इतना असार है कि भोगकर भी तुम भटक तो नहीं सकते। भोगकर कोई कभी भटका नहीं। अधूरा भोगी भटकता है। तुम भोगो संसार को। धन इतना व्यर्थ है कि तुम कब तक ढोओगे उसका वजन? साफ हो जाएगा। सोने में कुछ सार तो नहीं है, लेकिन सोना पास में न हो तो बहुत सार है। पास हो तभी निस्सार है। तुम संसार को पा ही लो, जितना पा सकते हो। तुम उसको चख लो भरपूर। आकंठ तुम भर जाओ। वह इतना व्यर्थ है कि डर का कोई कारण नहीं। उसकी व्यर्थता जब उसकी संपूर्णता में प्रगट होगी…!

गुरजिएफ ने कहा है कि जब मैं बच्चा था तो काकेशस में मिलने वाले एक फल से मुझे बड़ा लगाव था। वह लगाव इतना ज्यादा था, कि उस फल को मैं अकसर ज्यादा खा लेता और पेट में दर्द हो जाता और तकलीफ होती, बुखार आ जाता। जंगली फल! और बच्चे उसको खाना पसंद करते।

तो गुरजिएफ ने कहा है कि मेरे दादा ने एक दिन एक टोकरी भर फल लाए और कहा कि तू मेरे सामने बैठ और खा। गुरजिएफ बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने फल खाना शुरू किया लेकिन दादा डंडा लिये बैठा था। जब वह हटने लगा खाकर, उसने कहा ‘बैठ, आज यह टोकरी पूरी करनी है।’ गुरजिएफ ने कहा, ‘क्या मेरी जान लेनी है? अब मैं अब और नहीं खा सकता। मैं जितना खा सकता था वह तो पहले ही खा चुका हूं।’ उसके दादा ने कहा, ‘नहीं, अभी तू और खा सकता है। तू कोशिश कर।’ थोड़ी उसने और कोशिश की। उसने कहा, कि ‘अब तो मुश्किल है, अब तो वमन हो जाएगा।’ उसके दादा ने कहा कि ‘वमन हो जाए, लेकिन अब रुकना नहीं है। यह टोकरी पूरी करनी है।’

गुरजिएफ ने लिखा है, तब तक खिलाया मेरे दादा ने–वह डंडा लिए बैठा रहा–जब तक कि मैं नारकीय अनुभव न करने लगा। और चिल्लाने लगा, रोने लगा, भागने लगा, लेकिन वह राजी नहीं था। वह कहता था और! जब तक कि वमन नहीं हो गया, और मैं बेहोश होकर न गिर गया। लेकिन बस, वह आखिरी दिन था।

गुरजिएफ ने लिखा है, उस दिन के बाद वह फल मैंने चखा नहीं। उस बात को बीते कोई पचास साल हो गए, तब उसने यह घटना दोहराई; फिर मैंने वह चखा नहीं। उस झाड़ के नीचे से भी निकलता हूं तो उस फल को देखकर मेरे रोंगटे कंपने लगते हैं, भयभीत हो जाता हूं।

यही मैं तुमसे कहता हूं; तुम संसार की टोकरी सामने रखकर चख ही लो। तुम आखिरी भोजन कर ही लो। तुम वहां तक मत रुको, जहां तक कि वमन न हो जाए। जब तुम्हारी वासनाओं का वमन हो जाता है, ध्यान निन्यान्नबे प्रतिशत पूरा हुआ। फिर काम बड़ा छोटा बचता है। वह उतना ही काम है, जैसा सांझ गृहिणी जब भोजन चुक जाता है तो बर्तन को धोकर रख देती है।

भगवान : …और कुछ?

भगवान! भगवान बुद्ध तो दुख से नहीं भागे थे, सुख से भागे थे। पूरा भोजन ही नहीं, आखिरी भोजन करके निकले थे। लेकिन भगवान, उनको भी ध्यान खोजने में वर्षों क्यों लगे?

बुद्ध निश्चित ही सुख से भागे इसीलिए वर्षों में काम पूरा हो गया, जनम न लगे। तुम सोचते हो वर्षों लगे? तुम्हें लगता है कि बहुत ज्यादा समय लगा? छह साल कोई वक्त है? जहां तुम्हारे हजारों जन्म हुए हों, वहां छह साल कोई समय है? तुम्हें लगता है कि छह साल! इतने छह साल ज्यादा क्यों लगते हैं?

एक बच्चा स्कूल में पढ़ने जाता है, तुम कभी नहीं कहते कि सात साल में मेट्रिक होगा, सिर्फ मेट्रिक होगा? फिर छह साल में ग्रेजुएशन की डिग्री मिलेगी, सिर्फ ग्रेजुएट होगा? फिर तीन साल, दो साल लगेंगे तो डाक्टरेट की डिग्री मिलेगी। आधी जिंदगी सर्टिफिकेट इकट्ठा करने में लग जाती है, लेकिन कोई कभी नहीं कहता कि इतना ज्यादा समय? बुद्धत्व छह साल में मिलता हो तो भी हमें लगता है, ज्यादा समय लग गया!

क्या कारण है? असल में युनिवर्सिटी से हमारी महत्वाकांक्षा जुड़ी है। उससे कुछ धन, पद, प्रतिष्ठा, मिलने वाली है। इसलिए कितना भी समय लगे, थोड़ा लगता है। और बुद्धत्व में हमें कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं; क्या मिल गया? किसी एम्प्लाइमेंट दफ्तर के ‘क्यू’ में बुद्ध खड़े हो जाते तो आफिसर कह देता कि सर्टिफिकेट कहां है? कोई बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से कोई नौकरी मिलती है? कि बुद्ध अगर बेचने जाते अपने बुद्धत्व को तो कितने पैसे मिल सकते थे? क्या मिलता? कौन खरीदता? किसको मतलब है? लोग मुफ्त भी बुद्धत्व लेने को तैयार नहीं हैं।

कोई तुम्हारे घर अचानक आ जाए, और कहे कि बुद्धत्व तुम्हें देता हूं। तुम कहोगे, ठहर भाई! सोच लेने दे। पत्नी से बात कर लेने दे। बच्चे भी हैं। यह उपद्रव इतनी जल्दी नहीं। और फिर सार क्या है?

हमें लगता है कि छह साल काफी लंबे हैं! लंबे क्यों लगते हैं? लंबे लगने का कारण छह साल की लंबाई नहीं है। छह साल के बाद जो मिलता है, उसमें हमें कुछ सार नहीं दिखाई पड़ता। निस्सार बुद्धत्व मिलता है और छह साल भटककर! छह साल में तो दुकान जम जाती। छह साल में तो दिल्ली पहुंच जाते। छह साल में तो क्या से क्या नहीं हो जाता! और कुल बुद्धत्व मिला!

तो पहली तो बात यह है कि हम समय का माप करते हैं आकांक्षा से। और फल क्या मिल रहा है, उससे हम सोचते हैं। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर साठ जन्मों में भी बुद्धत्व मिलता तो भी जल्दी मिला है। क्योंकि जो मिलता है वह अकूत है। छह साल से क्या उसकी गणना? जल्दी मिला। छह साल कोई वक्त है? कोई भी वक्त नहीं। पलक झपके निकल गए छह साल।

लेकिन फिर भी पूछने जैसा है कि जब सुख से बुद्ध जाग गए, और उन्हें लगा कि सब जीवन असार है, तब तो बर्तन धोना ही बचा था; तो जल्दी हो जाना चाहिए।

जल्दी ही हो गया है। लेकिन बर्तन धोने में…थोड़ा सोचना पड़ेगा, क्योंकि कितने-कितने जन्मों का भोजन उन बर्तनों से लगा है! बुद्ध को जो सफाई करनी पड़ी है, यह सफाई बहुत पुरानी है, धूल-धूसरित व्यक्तित्व की है। दर्पण एकदम गंदा हो गया है। और धूल इतने दिनों की जमी है कि बिलकुल पत्थर जैसी हो गई है। पुरानी आदतों का जाल है। तुम जाग भी जाओ तो भी आदतें पीछा करती हैं। तुम संसार से हट भी जाओ, तो भी इतना आसान नहीं है क्योंकि संसार बाहर ही तो नहीं था, भीतर भी था।

फिर बुद्ध की तलाश उस व्यक्ति की, जो पहुंचने की कला बता दे; जो बर्तन को साफ करने की कला बता दे। क्योंकि अगर बर्तन साफ करने की कला न आती हो तो यह भी हो सकता है कि साफ करने में तुम और गंदा कर लो। क्योंकि नाजुक है बात! मन से नाजुक बर्तन खोजना कठिन है। तुम अपनी घड़ी को भी अगर बिगड़ जाए तो खोलकर नहीं बैठ जाते हो सुधारने। कुछ नासमझ बैठ जाते हैं, फिर वह कभी नहीं सुधरती। घड़ी बिगड़ जाए तो तुम जाते हो जानकार के पास। क्योंकि घड़ी भी बड़ा महीन जाल है।

लेकिन घड़ी में क्या जाल है? कुछ भी जाल नहीं। अगर मनुष्य के मन को तुम समझो तो इससे बड़ा जटिल कोई यंत्र जगत में अब तक नहीं है। और संभावना भी नहीं है कि हम कभी इससे जटिल यंत्र पैदा कर सकेंगे।

इस छोटी-सी खोपड़ी के भीतर, जिसका वजन मुश्किल से कोई डेढ़ किलो है, कोई सात करोड़ तंतु हैं। और प्रत्येक तंतु अरबों सूचनाओं को संग्रहीत कर सकता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जितने पुस्तकालय हैं पृथ्वी पर, एक व्यक्ति स्मरण कर सकता है–चुकता! न कर पाओ यह दूसरी बात है, लेकिन क्षमता है। मस्तिष्क बड़ा बारीक और बड़ा जटिल है। सारे जगत का ज्ञान उसमें इकट्ठा हो सकता है। ज्ञान ही इकट्ठा नहीं होता है, सारे जगत की धूल भी इकट्ठी हो सकती है। जिसको तुम ज्ञान कहते हो, अकसर धूल ही होती है।

सफाई समय लेगी। लेकिन छह साल कोई बड़ा समय नहीं है।

फिर बुद्ध एक-एक द्वार पर गये, जहां-जहां उन्हें आशा थी कि कोई सफाई करवाने वाला मिल जाए। बुद्ध ने होशियारी का काम किया। बुद्ध घड़ी को खोलकर नहीं बैठ गए। नहीं तो शायद छह साल भी काफी न होते। बुद्ध ने विशेषज्ञ को खोजा कि कोई जो खोल चुका हो, जान चुका हो, जिससे सीधा रास्ता मिल जाए। क्योंकि कभी-कभी छोटी-सी ही भूल-चूक होती है, सुधारने में और बिगड़ जाती है।

मैंने सुना है, कि एक बहुत बड़ी फैक्ट्री में एक कंप्यूटर लगाया गया। बड़ा कीमती कंप्यूटर था। कुछ बिगड़ गया। सारी फैक्ट्री बंद हो गई। दस हजार लोग काम करते थे, उनकी जगह कंप्यूटर अकेला ही काम करता था। सारी फैक्ट्री ठप्प हो गई। एक विशेषज्ञ को बुलाया गया। उसने जरा-सा एक स्क्रू कसा, सब काम शुरू हो गया। मालिक प्रसन्न हुआ, उसने उसकी फीस पूछी। तो उसने कहा, ‘पांच हजार डालर।’

‘पांच हजार डालर?’ एक सेकेंड भी नहीं लगा उसे स्क्रू को कसने में। तो उस मालिक ने पूछा कि यह जरा ज्यादा है। सिर्फ जरा-सा स्क्रू कसने के पांच हजार डालर?

उसने कहा कि ‘नहीं, स्क्रू का तो एक डालर कसने का। लेकिन कैसे कसना, उसके चार हजार नौ सौ निन्यान्नबे डालर। स्क्रू कसने का तो एक ही डालर लेता हूं। लेकिन कैसे कसना, कहां कसना, कौन-सा स्क्रू ढीला है, उसके लिए मैंने जिंदगी लगा दी; उसके दाम ले रहा हूं। और स्क्रू कसवाना हो तो किसी और से अगली दफा कसवा लेना।’

तो बुद्ध तलाश में गए किसी विशेषज्ञ की, किसी गुरु की, जो चल चुका रास्ते पर, जो पहुंच चुका मंजिल पर। जिससे व्यर्थ का भटकाव बचेगा, यहां-वहां के रास्तों पर जाने से बचाव हो जाएगा। क्योंकि बड़ी भूल-भुलैया है। अनेक गुरुओं के पास गए। गुरु थे और काफी दूर तक जानते थे। लेकिन ऐसा कोई गुरु न मिला, जो बुद्धत्व दे सके। क्योंकि बुद्धत्व की आकांक्षा बड़ी अनूठी थी।

यहां फर्क समझ लें। बुद्ध तो सुख से ऊबकर आए थे; जिन गुरुओं के पास गए, वे दुख से ऊबकर आए थे, इसलिए बड़ी मुसीबत थी। जिन गुरुओं के पास गए उन्होंने भी ध्यान साधा था, लेकिन उन्होंने ध्यान एकाग्रता का साधा था, जिससे और शक्ति मिलती है। मंत्रत्तंत्र साधा था, योग साधा था। बड़े शक्तिशाली हो गए थे। बीमार आदमी को छू दें तो स्वस्थ हो जाए। जिंदा आदमी को छू दें तो मुर्झा जाए। ताकत थी उनके पास, शक्ति थी। लेकिन बुद्ध कोई बीमारी ठीक करवाने न आए थे। अंधी आंखें नहीं थीं उनकी, जिनको छूने से आंखें मिल जाएं। वह भीतर की आंख चाहते थे।

सब गुरुओं को उन्होंने थका डाला। बड़ी मीठी कथा है कि हर गुरु ने आखिर में उनसे कहा कि अब तू जा। क्योंकि जो हम जानते थे वह हमने बता दिया, लेकिन उससे तेरी तृप्ति नहीं। बुद्ध कहते, मैं शांति की तलाश में आया हूं, शक्ति की तलाश में नहीं। मुझे बीमारी ठीक नहीं करनी, मुझे चमत्कार नहीं करने, हाथ से ताबीज नहीं निकालने, यह मुझे करना नहीं। मुझे तो वह जानना है, जो परम सत्य है; जो आत्यंतिक सत्य है। वह मुझे जानना है। वह है या नहीं! मुझे तो मेरी परम सत्ता का उदघाटन करना है। मुझे दूसरों को प्रभावित नहीं करना है। मैं मान लेता हूं कि तुम आंख से इशारा करते हो, पक्षी आकाश से नीचे गिर जाता है–जैसे तीर लग गया! ऐसी तुम्हारी एकाग्रता है। सिर्फ आंख के तीर से आकाश में उड़ता पक्षी नीचे गिर जाता है। तुम्हारा निशाना कभी नहीं चूकता, लेकिन मुझे कोई पक्षी गिराना नहीं। इसे करूंगा क्या? माना कि तुम पानी पर चल जाते हो, लेकिन वह काम तो नाव से ही हो जाता है। उसकी मुझे चिंता नहीं है।

बहुत गुरुओं के पास बुद्ध गए। सभी गुरुओं ने देखा कि इसकी आकांक्षा ही कुछ और है, इसकी खोज कुछ और है। यह शक्ति नहीं खोज रहा, यह परम शांति खोज रहा है। उन्होंने कहा, उसका तो हमें भी पता नहीं। हम योग जानते हैं, मंत्र जानते हैं, तंत्र जानते हैं। तुम जो भी सीखना चाहो सीख लो, लेकिन यह निर्वाण, यह मोक्ष, इसका हमें भी पता नहीं।

ये छह साल बुद्ध अनेक-अनेक मार्गों पर गए, अनेक विधियां कीं, अनेक साधन किए, और सभी साधन व्यर्थ पाए। और सभी विधियां व्यर्थ पाईं।

यह समझ लेना जरूरी है। मोक्ष की कोई विधि नहीं हो सकती। क्योंकि जो विधि से पाया जाए, वह विधि से बड़ा नहीं हो सकता। मोक्ष का कोई मार्ग नहीं हो सकता, क्योंकि जो मार्ग से पहुंचा जाए, वह अंत नहीं हो सकता। उसके आगे भी मार्ग हो सकते हैं। मोक्ष की कोई तरकीब नहीं हो सकती क्योंकि जो तरकीब से मिल जाए, उसकी क्या कीमत है? वह तुमसे छोटा होगा। तुम्हारी तरकीब से मिल गया।

बुद्ध उसको खोज रहे थे, जो खोजने से मिलता ही नहीं। वह तभी मिलता है जब खोज खो जाती है। संसार व्यर्थ हो गया, आधी खोज पूरी हो गई। लेकिन बुद्ध के मन में एक नई खोज पैदा हो गई–मोक्ष को खोजने की; यह भी उपद्रव है। इससे छह साल लगे। संसार नहीं खोजना, साफ हो गया। लेकिन मोक्ष खोजना है–खोज जारी है। जो पहले संसार खोज रहा था, अब मोक्ष खोज रहा है। लेकिन खोज जारी है। दौड़ने वाला जिंदा है। महत्वाकांक्षी भीतर मौजूद है। छह साल थक गए।

एक खोज पहले खत्म हो गई थी संसार की, दूसरी खोज भी खत्म हो गई मोक्ष की। खोज ही खत्म हो गई।

जिस सांझ बुद्ध को मुक्ति का अनुभव हुआ, उस दिन वह कुछ भी नहीं खोज रहे थे। उस दिन वृक्ष के नीचे वे शांत बैठे थे। जब तक खोज है, तुम शांत होओगे कैसे? क्योंकि खोज अशांत करती है। अभी तक नहीं मिला, कब मिलेगा? मिलेगा कि नहीं मिलेगा? कहीं मैं भटक तो नहीं जाऊंगा? खोज विचार पैदा करती है, अशांति पैदा करती है।

उस दिन बुद्ध को…जैसा छह साल पहले महल छोड़ा था उन्होंने, ऐसा ही मंदिर भी छोड़ दिया। दुकान पहले छूट गई थी, यह मंदिर भी उसी दुकान का हिस्सा था, यह भी छूट गया। एक पहलू पहले समाप्त हुआ, दूसरा भी समाप्त हुआ। पूरा सिक्का बुद्ध के हाथ से गिर गया। उस रात वे सोये। कोई खोज न थी, कहीं जाना न था, कुछ पाना न था। न कोई मोक्ष, न कोई परमात्मा, न कोई शांति, न कोई आनंद। कुछ भी नहीं पाना था। बस! उस वृक्ष के नीचे वे सिर्फ थे। उसी दिन घटना घट गई।

भोजन तो हो चुका था, उस रात बर्तन साफ हो गये।

बर्तन उसी दिन साफ होते हैं, जब तुम्हारी सब खोज मिट जाती है। बर्तन उसी दिन साफ होते हैं, जिस दिन तुम्हारी सब आकांक्षा गिर जाती है।

और जब मैं कहता हूं सब, तो मेरा अर्थ है सब!

अगर तुम ध्यान की भी आकांक्षा कर रहे हो तो बर्तन साफ न होंगे। ध्यान भी भोजन है। वह भी बर्तन को गंदा करेगा।

संसार में दो तरह के महत्वाकांक्षी हैं: एक संसारी और एक धार्मिक; दोनों महत्वाकांक्षी हैं। दोनों पदातुर हैं, दोनों कुछ पाना चाहते हैं।

एक तीसरे तरह का व्यक्ति कभी-कभी घटता है, वह अनूठी घटना है; जो कुछ भी नहीं पाना चाहता।

और जब तुम कुछ भी नहीं पाना चाहते, तब तुम सब कुछ हो जाते हो। उसी क्षण बर्तन साफ हो गए। निर्मलता उपलब्ध हो गई। वह दीया जलने लगा, जो बिन बाती बिन तेल जलता है।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रपचन–44

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पहेली : बुद्धत्‍व में छलांग की—(प्रवचन—चौथी)

प्रश्‍न सार: (44)

1—बुद्धत्व यदि ऊर्ध्‍वगमन है, तो नीचे से ऊपर छलांग कैसे संभव है?

 2—अचानक घटित होने वाले बुद्धत्‍व के लिए शिष्‍य को गुरु के पास वर्षों—वर्षों तक क्यों रहना पड़ता है?

 3—बीज छलांग लगाकर कर फूल नहीं बन सकता, तो व्यक्ति एक छलांग में बुद्ध कैसे बन

सकता है?

 4—पतंजलि, लाओत्‍सु और रजनीश के उपदेशों का हम श्रोताओं से कैसा संबंध है?

 5—यदि हम सभी बुद्ध है, तो हम अज्ञान और मुर्च्‍छा में क्‍यों गिरे जाते है?

 6—मादक द्रव्‍यों से क्‍या कोई भीतर छलांग लगा सकता है?

 7—आप क्रमिक मार्ग से संबुद्ध हुए अथवा छलांग से?

 8—तत्‍काल बुद्धत्‍व और अप्रयास में विश्राम की आपकी बातें मुझे पागल बना रही है।

 9—क्‍या यहमेरी कल्‍पना हो सकती है कि मुझे परम अनुभूति घटित हो चुकी है?

 

पहला प्रश्न:

आप कहते हैं कि बुद्धत्व की तत्काल उपलब्धि के लिए छलांग लगाई जा सकती है। क्या ऐसा संभव है? बुद्धत्व का अर्थ है ऊर्ध्वगमन है न? लेकिन छलांग तो केवल तभी लगाई जा सकती है जब हमें नीचे जाना हो जैसे कि कई मंजिलों वाली इमारत से नीचे जमीन पर छलांग लगाना। कैसे कोई जमीन से इमारत की छत पर छलांग लगा सकता है? किसी चीज पर चढ़ कर ही ऊपर जाना हो सकता है। कृपया समझाएं।

तुम पूरी बात ही चूक रहे हो, और तुम चूक रहे हो शाब्दिक प्रतीक के कारण। बुद्धत्व है, ‘कहीं नहीं जाना’—न ऊपर जाना, न नीचे जाना। बुद्धत्व है वहीं होना जहां कि तुम हो—बिलकुल अभी, इसी क्षण। यह कहीं जाना नहीं है; यह होना है। बुद्धत्व में तुम कहीं जाते नहीं। बुद्ध जा नहीं रहे हैं, किसी एवरेस्ट पर चढ़ नहीं रहे हैं। तुम भीतर जाते हो; और भीतर का वह आयाम न तो ऊपर है, न नीचे। वह न तो ऊपर जाने से संबंधित है और न नीचे जाने से; ऊपर और नीचे तो बाहरी दिशाएं हैं। भीतर तुम बिलकुल वहीं होते हो जहां कि हो। बुद्धत्व कहीं जाने की बात नहीं, बल्कि होने की बात है—समग्र रूप से थिर होने की बात है। इसीलिए छलांग संभव है।

तुमने ठीक कहा। यदि यह ऊपर जाने की बात है, तो तुम कैसे छलांग लगा सकते हो? असल में, अगर यह नीचे जाना भी हो, तो एवरेस्ट से छलांग लगाना केवल मूढ़ता होगी। तुम मर जाओगे। नहीं, वह न तो नीचे जाना है और न ऊपर जाना है। तुम तो बस सारी दिशाओं से स्वयं को भीतर समेट लेते हो। धीरे— धीरे तुम थिर हो जाते हो भीतर।

अंग्रेजी शब्द ‘मिस्टिक’ के लिए ग्रीक शब्द, ग्रीक का मूल शब्द बहुत सुंदर है। ग्रीक मूल शब्द का अर्थ है : ‘स्वयं में स्थिर होना।’ तब तुम एक ‘मिस्टिक’ हो जाते हो, रहस्यदर्शी हो जाते हो—कही जाना नहीं, कोई गति नहीं। बिलकुल इसी क्षण अगर तुम किसी भी दिशा में नहीं जा रहे हो—नीचे, ऊपर; दाएं, बाएं; भविष्य, अतीत—कहीं नहीं जा रहे हो, तो तुम्हारी चेतना थिर होती है, कोई कंपन नहीं होता। उस क्षण में बुद्धत्व है। इसीलिए छलांग संभव है।

तुम पूना से कलकत्ता कैसे छलांग लगा सकते हो? यह असंभव है। लेकिन तुम भीतर छलांग लगा सकते हो, क्योंकि तुम वही हो। समय की जरूरत नहीं है, केवल समझ चाहिए। स्थगन की जरूरत नहीं है, कल की जरूरत नहीं है, केवल समझ की जरूरत है। तुम समझ लेते हो और घटना घट जाती है। तो सारा प्रयास इसीलिए जरूरी होता है क्योंकि समझ नहीं होती।

और किसी शाब्दिक प्रतीक को मत पकड़ लेना। शाब्दिक प्रतीक सदा एक संकेत होते हैं; तुम्हें उन्हें जोर से नहीं पकड़ लेना है।’छलांग’ का अर्थ यहां छलांग नहीं है; ‘ऊर्ध्वगमन’ का अर्थ ऊपर जाना नहीं है, ‘अधोगमन’ का अर्थ नीचे जाना नहीं है। ये संकेत हैं; शब्दों को मत पकड़ो। सुगंध ले लो और फूल को भूल जाओ, वरना तो तुम मुझे गलत ही समझते रहोगे।

और ऐसा ही हुआ है बहुत बार, लाखों बार, सभी धार्मिक लोगों के साथ यही होता रहा है। क्योंकि वे प्रतीकात्मक संकेतों में बोलते हैं। बोलने का दूसरा कोई उपाय भी नहीं है। वे बोलते हैं प्रतीकों में, प्रतीक—कथाओं में। और फिर तुम प्रतीक—कथाओं को मूढ़ता की सीमा तक खींच सकते हो। यदि तुम प्रतीकों को खींचे जाओ, तो एक जगह आती है, जहां सारी बात खो जाती है और हर चीज एक मूढ़ता मालूम पड़ने लगती है।

इसीलिए अज्ञानियों के हाथ में सारे धर्म मूढ़ता बन जाते हैं। सारी तरकीब यही है कि तुम प्रतीकों को खींचे चले जाओ—एक जगह आ जाती है जहां कि वे फिर तर्कसंगत नहीं रहते, अर्थपूर्ण नहीं रहते। उदाहरण के लिए, जीसस कहते हैं, ‘मेरे पिता जो ऊपर आकाश में हैं।’ अब इस ‘ऊपर’ का अर्थ ऊपर नहीं है।’मेरे पिता’ का अर्थ मेरे पिता से नहीं है, क्योंकि इसमें कोई ‘मेरा’ हो नहीं सकता।’ जो ऊपर आकाश में हैं’—अब तुम बड़ी आसानी से पूरा अर्थ बिगाड़ सकते हो। जब ईसाई मित्र ही इसे बिगाड़ देते हैं, फिर विरोधी तो बिगाड़ेंगे ही। वे प्रार्थना करते हैं ऊपर देखते हुए। यह मूढ़ता है, क्योंकि वास्तव में अस्तित्व में न तो कुछ ऊपर है और न कुछ नीचे है। यदि तुम अस्तित्व को उसकी समग्रता में लो, तो ऊपर क्या और नीचे क्या? न कोई चीज ऊपर हो सकती है और न कोई चीज नीचे हो सकती है—ये सापेक्ष परिभाषाएं हैं यदि तुम ‘पिता’ शब्द को लो, तो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। एक आर्यसमाजी—हिंदू धर्म के एक नए, कट्टर और जड़ संप्रदाय का व्यक्ति—मेरे पास आया और कहने लगा, ‘मैंने आपको कई बार जीसस के बारे में बोलते सुना है। क्या आप ईसाई हैं?’ मैंने कहा, ‘एक तरह से, हूं।’ निश्चित ही वह उलझन में पड़ गया। वह समझ नहीं सका—’एक तरह से’ को। वह कहने लगा, ‘मैं प्रमाणित कर सकता हूं कि आपके जीसस एकदम गलत हैं। वे कहते हैं, मेरे पिता आकाश में है—तो फिर मां कौन है?’ अब इस तरह से बिगड़ सकते हैं शाब्दिक प्रतीकों के अर्थ —मां कौन है? बिना मां के पिता कैसे हो सकते हैं? बिलकुल ठीक है। बात बड़ी सीधी—साफ मालूम पडती है। तुम जीसस की बात का आसानी से खंडन कर सकते हो।

और फिर ईसाई भयभीत हैं, क्योंकि वे कहते हैं, ‘ईश्वर पिता है’, तो उन्हें स्पष्ट करना पड़ता है कि जीसस उसके इकलौते बेटे हैं, क्योंकि अगर हर कोई बेटा है तब तो सारा महत्व ही समाप्त हो गया। तो जीसस की विशिष्टता और विलक्षणता क्या रही! तो वे उसके इकलौते बेटे हैं!

अब चीजें बद से बदतर होती जाती हैं। तो फिर और दूसरे लोग कौन हैं? सभी दोगले हैं? सारा संसार? केवल जीसस ही इकलौते बेटे है—तो तुम कौन हो, तुम्हें क्या कहें? पोप हैं, ईसाई धर्म—प्रचारक हैं, और जो संसार के तमाम लोग हैं, उन्हें क्या कहें? तब तो सारी दुनिया नाजायज हुई, बिना बाप की हुई। कोई नहीं जानता यदि तुम ‘पिता’ शब्द को लो, तो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। एक आर्यसमाजी—हिंदू धर्म के एक नए, कट्टर और जड़ संप्रदाय का व्यक्ति—मेरे पास आया और कहने लगा, ‘मैंने आपको कई बार जीसस के बारे में बोलते सुना है। क्या आप ईसाई हैं?’ मैंने कहा, ‘एक तरह से, हूं।’ निश्चित ही वह उलझन में पड़ गया। वह समझ नहीं सका—’एक तरह से’ को। वह कहने लगा, ‘मैं प्रमाणित कर सकता हूं कि आपके जीसस एकदम गलत हैं। वे कहते हैं, मेरे पिता आकाश में है—तो फिर मां कौन है?’ अब इस तरह से बिगड़ सकते हैं शाब्दिक प्रतीकों के अर्थ —मां कौन है? बिना मां के पिता कैसे हो सकते हैं? बिलकुल ठीक है। बात बड़ी सीधी—साफ मालूम पडती है। तुम जीसस की बात का आसानी से खंडन कर सकते हो।

और फिर ईसाई भयभीत हैं, क्योंकि वे कहते हैं, ‘ईश्वर पिता है’, तो उन्हें स्पष्ट करना पड़ता है कि जीसस उसके इकलौते बेटे हैं, क्योंकि अगर हर कोई बेटा है तब तो सारा महत्व ही समाप्त हो गया। तो जीसस की विशिष्टता और विलक्षणता क्या रही! तो वे उसके इकलौते बेटे हैं!

अब चीजें बद से बदतर होती जाती हैं। तो फिर और दूसरे लोग कौन हैं? सभी दोगले हैं? सारा संसार? केवल जीसस ही इकलौते बेटे है—तो तुम कौन हो, तुम्हें क्या कहें? पोप हैं, ईसाई धर्म—प्रचारक हैं, और जो संसार के तमाम लोग हैं, उन्हें क्या कहें? तब तो सारी दुनिया नाजायज हुई, बिना बाप की हुई। कोई नहीं जानता!

तुम प्रतीक शब्दों को खींच सकते हो। एक जगह आती है जब पूरा अर्थ ही खो जाता है। इतना ही नहीं, यह ऐसा मूढ़तापूर्ण चित्र खींच देता है कि कोई भी मजाक उड़ा देगा। इसलिए धर्म को केवल गहरी सहानुभूति में ही समझा जा सकता है। यदि तुम में सहानुभूति है तो तुम उसे समझोगे; यदि तुम में सहानुभूति नहीं है तो तुम उसे गलत ही समझ सकते हो—क्योंकि पूरी बात ही प्रतीक—कथाओं में है। प्रतीक—कथाओं को समझने के लिए भाषा की समझ ही काफी नहीं है, व्याकरण की समझ ही काफी नहीं है, क्योंकि प्रतीक कुछ ऐसी बात है जो भाषा और व्याकरण से परे है। यदि तुम बहुत सहानुभूतिपूर्वक समझो, केवल तभी एक संभावना है कि तुम अर्थ समझ सको।

प्रतीक—कथा कोई प्रमाण नहीं है। वह तो बस एक विधि है उसका संकेत देने के लिए जिसे बताया नहीं जा सकता—उन चीजों को दिखाने की एक कोशिश है जिन्हें कहा नहीं जा सकता। इसे हमेशा याद रखना, अन्यथा तुम अपनी ही चालाकी में फंस जाओगे।

दूसरा प्रश्न:

 

बुद्धत्व के अचानक घटित होने के लिए झेन साधकों को अपने गुरुओं के पास दस बीस या चालीस वर्षों तक क्यों रहना पड़ता है?

 

उनकी मूढ़ताओं के कारण। तुम क्षण भर में बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हो; और तुम प्रतीक्षा कर सकते हो चालीस वर्षों तक। यह इस पर निर्भर करता है कि तुम कितनी मोटी बुद्धि के हो। तुम प्रतीक्षा कर सकते हो कई जन्मों तक, यह इस पर निर्भर करता है कि तुम अपने अज्ञान से कितना चिपके रहते हो। झेन गुरु जिम्मेवार नहीं है कि शिष्य को प्रतीक्षा करनी पड़ी चालीस वर्षों तक। शिष्य ही जिम्मेवार है। वह बहुत मंदबुद्धि व्यक्ति रहा होगा, जड़मति रहा होगा; उसकी बुद्धि में कोई चीज उतरती ही नहीं होगी। या बौद्धिक रूप से बहुत होशियार रहा होगा, इसलिए जो कुछ भी कहा जाए, वह उसके चारों ओर एक बौद्धिक समझ निर्मित कर लेता होगा—और उस बात को चूक जाता होगा, जो केवल हृदय से हृदय तक ही पहुंच सकती है। एक गहन आत्मीयता में, जहां कि हृदय से हृदय का मिलन होता है, समझ का फूल खिलता है।

तो वे लोग जिन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी चालीस वर्षों तक या तो बहुत मूढ़ रहे होंगे या बहुत ज्यादा ज्ञानी रहे होंगे। ये दोनों मूढ़ता के ही प्रकार हैं। वे या तो पंडित रहे होंगे या मूढ़ रहे होंगे; दोनों समान ही हैं। पंडित ज्यादा चूकते हैं मूढ़ों की अपेक्षा। कभी—कभी तो मूढ़ भी समझ सकता है, उसे समझ आ सकती है, क्योंकि वह सीधा—सरल होता है। उसका मन जटिल नहीं होता. यदि कोई बात उतरती है तो उतर ही जाती है। लेकिन ज्ञानी, पंडित, तार्किक, शास्त्रज्ञ, दार्शनिक—वहां इतनी जटिल पर्तें होती हैं कि उनमें उतरना करीब—करीब असंभव ही होता है। यदि तुम सहज—सरल हो तो बात घट सकती है बिलकुल अभी। यदि तुम सरल नहीं हो तो तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी; और तब तुम्हें देखना होगा कि कौन सी जटिलता है जो समस्या बन रही है।

जो कुछ भी घटता है उसके तुम्हीं जिम्मेवार हो। गुरु तो केवल एक मौजूदगी है। तुम उसके। सहभागी हो सकते हो। वह है सूर्य की भांति, एक आलोक. तुम आंखें खोल सकते हो और देख सकते हो। लेकिन यदि तुम आंखें न खोलो, तो प्रकाश तुम्हें विवश नहीं करेगा आंख खोलने के लिए। सूर्य भी ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन सदा याद रहे, यदि तुम चूक रहे हो तो अपने ही कारण। या तो यह तुम्हारी होशियारी है या तुम्हारी मूढ़ता है। दोनों को छोड़ो। इसी तरह तो कोई शिष्य होता है—तुम्हारी मूढ़ता और तुम्हारा ज्ञान दोनों को छोड़ो। जब तुम दोनों को छोड़ देते हो, तो कोई बाधा नहीं रहती; तुम संवेदनशील होते हो, तुम खुले होते हो।

उस खुले होने में किसी भी क्षण बुद्धत्व संभव है।

तीसरा प्रश्न :

 

मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि आप एक बीज से न कहेंगे कि अचानक छलांग लगाओ और फूल बन जाओ। लेकिन फिर मनुष्य से आप क्यों कहना चाहते हैं कि अचानक छलांग लगाओ और बुद्ध हो जाओ?

क्योंकि बीज बीज है और समझ नहीं सकता, और मनुष्य बीज नहीं है और समझ सकता है। लेकिन यदि तुम बीज हो, तो तुम नहीं सुनोगे; यदि तुम मनुष्य हो, तो तुम समझ जाओगे। यह तुम पर निर्भर करता है, क्योंकि हो सकता है तुम लगते होओ मनुष्य की भांति—लेकिन तुम शायद होओ बीज ही या चट्टान ही। जो दिखाई पड़ता है वही सत्य नहीं होता। तुम सभी लगते हो मनुष्य जैसे, लेकिन कभी—कभार ही कोई मनुष्य होता है।

यह शब्द ‘मनुष्य’ या अंग्रेजी शब्द ‘मैन’ सुंदर हैं। ये आते हैं संस्कृत मूल ‘मनु’ से। मनु का अर्थ होता है : ‘वह जो समझ सकता है।’ उसी मूल से ही आते हैं भारतीय शब्द—’मन’, ‘मनस्वी’—वह जो समझ सकता है।’मनुष्य’ या ‘मैन’ सुंदर शब्द हैं। इनका अर्थ है : ‘जो समझ सकता है’, ‘जिसमें क्षमता है समझने की।’ इसलिए मैं बीज से नहीं कहता, ‘ अचानक छलांग लगाओ और फूल बन जाओ।’ लेकिन मनुष्य से मैं कहता हूं। और यही है विडंबना, कि कई बार बीज भी इसे सुन सकता है और मनुष्य नहीं सुनेगा।

क्या तुमने लूथर बुरबांक के बारे में कुछ पढ़ा है? वह एक अमरीकी था और वृक्षों और पौधों का बहुत प्रेमी था। उसने यह चमत्कार किया. वह बातें करता था बीजों से; वह बातें करता था अपने पौधों से, और वह बातें करता रहा निरंतर—वही तो मैं कर रहा हूं —और एक घड़ी आई जब पौधे सुनने लगे उसकी। वह एक कैक्टस पर सात वर्ष तक काम करता रहा—निरंतर बात करता रहा कैक्टस से, कहता रहा, ‘तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं और सुरक्षा के लिए कुछ उपाय करने की जरूरत नहीं, क्योंकि तुम्हारे जीवन को कोई खतरा नहीं है।’

प्रत्येक कैक्टस में कांटे होते हैं उसकी सुरक्षा के लिए। वे ही उसका कवच होते हैं। रेगिस्तान में कैक्टस असुरक्षित होता है; रेगिस्तान में कैक्टस बड़ी गहरी असुरक्षा और खतरे में जीता है। रेगिस्तान में कैक्टस जीवित कैसे रह जाता है, यही एक चमत्कार है। और कोई—कोई कैक्टस तो दो हजार वर्ष तक जीवित रहते हैं, बड़े पुराने प्राचीन कैक्टस होते हैं। रेगिस्तान में पानी मिलता नहीं; जीवन एक गहन संघर्ष होता है। वे केवल ओस—कणों पर जीते हैं। इसीलिए उनके पत्ते नहीं होते; क्योंकि पत्ते बहुत ज्यादा पानी वाष्पीभूत करते हैं। यह उनकी तरकीब है जिससे कि सूरज उनका पानी सोख न सके। पानी की इतनी कमी होती है। कैक्टस के पत्ते नहीं होते; केवल काटे होते हैं। और उनके अंतःकोष के भीतर गहरे में वे पानी इकट्ठा करते रहते हैं। महीनों तक भी अगर पानी न हो, तो वे जी लेंगे। वे वास्तव में पानी ही इकट्ठा करते हैं। उनके पास कोई अतिरिक्त चीज नहीं होती है—पत्ते नहीं, कुछ नहीं। और बिना काटो के कैक्टस की कोई जाति नहीं होती।

यह आदमी बुरबांक पागल था। उसके मित्र सोचने लगे, ‘वह पागल हो गया है।’ उसका सारा परिवार तक सोचने लगा, ‘अब यह तो बहुत हुआ : हर रोज कैक्टस के पास बैठा हुआ है और बातें कर रहा है। उनसे कह रहा है, तुम्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं; मैं तुम्हारा मित्र हूं। तुम अपने काटे हटा सकते हो। कोई असुरक्षा नहीं है—तुम सुख—चैन से रह रहे हो मित्र के साथ, प्रेमी के साथ। तुम रेगिस्तान में नहीं हो। और कोई तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाएगा।’

सात वर्ष बहुत लंबा समय है; लेकिन घटना घटी। सात वर्ष बाद एक नई शाखा, बिना काटो वाली शाखा उगी कैक्टस में। यह पहला मानवीय संपर्क था वृक्षों के साथ। यह एक अदभुत घटना है—केवल बात करने से ही ऐसा हो गया।

इसीलिए मैं बोले जाता हूं; तुम्हें आश्वस्त करता हूं कि तुम छलांग लगा सकते हो, भलीभांति जानते हुए कि सात वर्ष भी लग सकते हैं और सत्तर वर्ष भी! कौन जाने? तुम भी सोचने लग सकते हो मेरे बारे में : ‘वह पागल हुआ है, रोज—रोज बातें किए जाता है, कोई सुनता नहीं।’ लेकिन अगर बुरबांक को सफलता मिल सकती है बीजों के साथ, कैक्टस के साथ, पेड़ों के साथ, तो मुझे क्यों नहीं?

चौथा प्रश्न:

 

आपने कहा कि आप ‘लाओन्द्व को’ बोलते हैं और आप ‘पतंजलि पर’ बोलते हैं। क्या यह आप पर निर्भर है या हम पर या फिर क्या बात है?

दि मैं अकेला होता, तुम न होते, तो मैं कभी पतंजलि पर न बोलता; क्योंकि वह बात ही बिलकुल निरर्थक होती। यदि केवल तुम्हीं होते और मैं नहीं होता, तो मैं निरंतर बोलता पतंजलि पर; क्योंकि तब लाओत्सु पर बोलना संभव न होता। लेकिन क्योंकि तुम भी हो और मैं भी हूं तो यह बात आधी—आधी है। स्थिति यह है कि अगर तुम मुझे लाओत्सु पर सुनने के लिए राजी हो, तो मैं बोलूंगा पतंजलि पर। तुम्हें मुझे सुनना पड़ेगा लाओत्सु पर, तब मैं बोलूंगा पतंजलि पर; और क्योंकि तुम मुझे पतंजलि पर बोलते सुनना चाहते हो, तुम्हें मुझे सुनना होगा लाओत्सु पर।

तुम्हारा पूरा मन चाहता है क्रमिक गति में सोचना। यही मेरा मतलब है पतंजलि से। मैं पतंजलि के विषय में कुछ नहीं कह रहा हूं—गलत अर्थ मत लगा लेना। पतंजलि को सुनने का अर्थ है कि तुम क्रमिक रूप से चलना चाहते हो, धीरे— धीरे, एक—एक कदम। इसका अर्थ है कि तुम स्थगित करना चाहते हो, तैयार होना चाहते हो। पतंजलि का अर्थ है : स्थगित करो, तैयार होओ। याद रखना ये शब्द : पतंजलि और स्थगन, तैयारी। पतंजलि के साथ समय की संभावना है, कल संभव है, भविष्य संभव है। वे तुम से नहीं कह रहे हैं, ‘एकदम अभी, बिलकुल अभी छलांग लगा दो।’ वे बहुत तर्कसंगत हैं, वैज्ञानिक हैं, कम से चलते हैं—नासमझी की बात नहीं करते; समझ की बात करते हैं। तुम उन्हें आसानी से समझ सकते हो; वे वहीं से शुरू करते हैं जहां तुम हो।

लाओत्सु तो एकदम अतर्क्य हैं : कवि जैसे ज्यादा दिखते हैं और वैज्ञानिक जैसे कम; ऐसे ज्यादा मालूम पड़ते हैं कि तुम उनकी बातों का मजा ले सको, लेकिन जो वे कह रहे हैं, उस पर तुम कुछ कर नहीं सकते। कैसे कर सकते हो तुम? अंतर बहुत ज्यादा है।

मैं तुम से पतंजलि के विषय में बात करता हूं ताकि तुम धीरे— धीरे होश जगाओ, सजग हो जाओ; और मैं बात करता जाता हूं लाओत्सु की भी : कि अगर तुम सचमुच ही पतंजलि को समझ रहे हो तो तुम और ज्यादा तैयार हो जाओगे। पतंजलि तैयार करते हैं—फिर खयाल में ले लेना यह शब्द ‘तैयारी’। पतंजलि तैयार करते हैं; वे एक तैयारी हैं। लेकिन यदि तुम पतंजलि को ही सुनते रहते हो, तो तुम तैयारी और तैयारी और तैयारी ही करते रहते हो, और वह घड़ी कभी नहीं आती जब तुम छलांग लगा दो। यह तो उस आदमी जैसी बात हुई जो हमेशा तैयारी करता रहता है, नक्शे और टाइम—टेबलों को पढ़ता रहता है, और यात्रा पर कभी नहीं जाता। असल में, वही उसका कुल काम हो जाता है, कुल शौक हो जाता है। वह सोचता रहता है जाने के बारे में; वह खरीद लाता है हिमालय से संबंधित पुस्तकें—नक्‍शे, गाइड, चित्रों वाली किताबें—वह जाकर देख आता है फिल्में, वह बातें करता है उन लोगों से जो हिमालय हो आए हैं और वह तैयारी करता है—वह कपड़े खरीदता है और यात्रा में काम आने वाली चीजें जुटाता है—लेकिन वह सदा तैयारी ही करता रहता है और मर जाता है। पतंजलि को सुनने में यह खतरा है : तुम्हें तैयारी की ही आदत पड़ सकती है।

कई लोग हैं—’कई’ कहना भी ठीक नहीं, करीब—करीब सभी ही हैं—जिन्हें आदत पड़ गई है तैयारी की। वे यह सोच कर धन कमाते हैं कि किसी दिन वे आनंद मनाएंगे; और वे कभी आनंद नहीं मनाते। धीरे— धीरे वे भूल ही जाते हैं आनंद के बारे में और उन्हें धन कमाने की इतनी लत पड़ जाती है कि धन ही लक्ष्य बन जाता है। धन साधन है। और प्रारंभ में उन्हें भी यही खयाल था कि जब धन होगा तो वे आनंद मनाएगे—वे वह सब करेंगे जो वे हमेशा से करना चाहते थे और कर नहीं पाते थे क्योंकि धन नहीं था, जब धन होगा तो वे जी भर कर जीएंगे। लेकिन जब तक धन आता है, तब तक वे कुशल हो जाते हैं कमाने में और भूल चुके होते हैं कि खर्च कैसे करना है; तब धन लक्ष्य हो जाता है। तब वे कमाते जाते हैं, कमाते जाते हैं, और एक दिन मर जाते हैं।

पतंजलि एक आदत बन सकते हैं—तब तुम तैयारी करते हो, तुम धन कमाते हो, विधियां सीखते हो, लेकिन तुम कभी तैयार नहीं हो पाते नृत्य के लिए और आनंद मनाने के लिए। इसीलिए मैं लाओत्सु पर बोलता रहता हूं, ताकि जब भी तुम अनुभव करो कि अब तुम तैयार हो, तो अचानक लाओत्सु हृदय में कहीं गहरे चोट करते हैं और तुम छलांग लगा देते हो।

जब मैं लाओत्सु पर बोलता हूं तो मैं कहता हूं, ‘मैं लाओत्सु को बोलता हूं?, क्योंकि जहां से वे बोल रहे हैं, मैं वहीं पर खड़ा हूं। जो वे कह रहे हैं, मैं स्वयं वही कहना चाहूंगा। मुझे अभी तक ऐसी कोई भी बात नहीं मिली, जिस पर मैं कह सकूं कि मैं उनसे असहमत हूं। मैं पूरी तरह से सहमत हूं। पतंजलि से मैं सहमत हूं आशिक रूप से, सापेक्ष रूप से, पूरी तरह से नहीं, क्योंकि पतंजलि साधन हैं और लाओत्सु साध्य हैं।

यदि तुम साधनों को छोड़ सको और बिलकुल अभी छलांग लगा दो, तो सुंदर है। यदि तुम ऐसा न कर सको, तो थोड़ी तैयारी करना। वह तैयारी तुम्हें छलांग लगाने के लिए तैयार नहीं करती,

वह तैयारी तो केवल तुम्हें साहस जुटाने के लिए तैयार करती है। छलांग तो बिलकुल अभी संभव है, लेकिन तुम्हारे पास साहस नहीं है। यदि तुम्हारे पास साहस है : तो बिलकुल अभी—कोई जरूरत नहीं है तैयारी की, तुम हटा दे सकते हो पतंजलि को पूरी तरह। पतंजलि को हटाना ही होता है किसी न किसी दिन—यात्रा छोड़नी ही पड़ती है जब मंजिल मिल जाती है, साधनों को गिरा ही देना होता है जब साध्य मिल जाता है—लेकिन तुम लाओत्सु को कभी नहीं हटा सकते, वही है असली मंजिल। तो यह आधा— आधा समझौता है।

तुम चकित होओगे कि कई बार तुम भी लाओत्सु को बहुत पसंद करते हो, लेकिन सवाल पसंद करने का नहीं है। तुम रात देख सकते हो सितारों को, और तुम उन्हें पसंद कर सकते हो, लेकिन करो क्या? पहुंचो कैसे? बहुत दूर हैं वे! तुम्हें वहा से शुरू करना होता है जहां तुम हो। पतंजलि उपयोगी हैं। लाओत्सु बिलकुल ही अनुपयोगी हैं। उपयोग कर लो पतंजलि का, जिससे कि तुम उपयोग कर सको अनुपयोगी लाओत्सु का भी; वे ऐश्वर्य हैं, एक विश्राम। ही, लाओत्सु एक ऐश्वर्य हैं, एक लेट—गो। खयाल में ले लो ये बातें—वे ऐश्वर्य हैं, एक लेट—गो। यदि तुम से हो सके, तो सुंदर है। यदि तुम न कर सको, तो यह बस एक आकांक्षा निर्मित कर देती है और एक निराशा पकड़ती है : एक आकांक्षा, कि कितना अच्छा होता अगर तुम छलांग लगा सकते! एक जबरदस्त आकांक्षा पैदा हो जाती है। तुम उन्हें इतना निकट अनुभव करते हो अपनी आकांक्षा में, लेकिन तुम छलांग नहीं लगा पाते क्योंकि साहस नहीं है, और अचानक, वे इतनी दूर हो जाते हैं, सितारे की भांति। और एक निराशा तुम पर उतर आती है।

तो पतंजलि— और—लाओत्सु एक गहरा संतुलन है साधन और साध्य के बीच, राह और मंजिल के बीच।

पांचवां प्रश्न:

 

यदि हम सभी बुद्ध हैं तो हम अज्ञान और मूर्च्छा में क्यों गिर जाते हैं?

 

क्योंकि तुम बुद्ध हो। एक चट्टान कभी नहीं गिरती मूर्च्छा में। क्योंकि तुम बुद्ध हो इसलिए तुम गिर सकते हो। केवल होश वाला ही बेहोश हो सकता है। केवल जीवित व्यक्ति ही मर सकता है। केवल प्रेमपूर्ण व्यक्ति ही घृणा कर सकता है। और केवल करुणा ही क्रोध बन सकती है। इसलिए इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। यह प्रश्न मन में उठता है. ‘यदि हर कोई बुद्ध है, और हर कोई परमात्मा है, तो हम इतने अज्ञान में क्यों हैं?’ क्योंकि तुम परमात्मा हो, इसीलिए तुम गिर सकते हो।

ऐसा हुआ. एक सूफी संत, जुन्नैद, एक जंगल से गुजर रहा था। उसने वहा एक आदमी को एक गहरी झील के एकदम किनारे पर टहलते हुए देखा। वह आदमी बिलकुल नशे में था, उसके हाथ में बोतल थी, और वह लड़खड़ा रहा था शराबी की तरह—और किसी भी क्षण वह झील में गिर सकता था, और खतरा हो सकता था। तो जुन्नैद उसके पास गया, उसका हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, ‘मित्र, क्या कर रहे हो तुम? यह खतरनाक है। यहां टहल रहे हो, इतनी शराब पीकर, तुम गिर सकते हो। और झील बहुत गहरी है, और यहां आस—पास कोई है नहीं। यदि तुम चीखो — चिल्लाओ भी, तो कोई सुनेगा नहीं।’

उस शराबी ने अपनी आंखें खोलीं और कहा, ‘जुन्नैद, तुम शायद मुझे नहीं जानते होओगे, लेकिन मैं तुम्हें जानता हूं। जो तुम मुझे कह रहे हो, मैं भी तुम से वही कहना चाहूंगा : कि अगर मैं गिरता हूं तो ज्यादा से ज्यादा—हद से हद—यही होगा कि मेरे शरीर को चोट पहुंचेगी, लेकिन यदि तुम गिरते हो तो तुम्हारी पूरी चेतना……।’

जुन्नैद अपने शिष्यों के पास वापस आया और उसने कहा, ‘आज मैंने एक गुरु पाया।’

और ठीक था वह; वह शराबी ठीक था, क्योंकि जुन्नैद शिखर पर था; चेतना के शिखर पर यात्रा कर रहा था—यदि वह गिरता है वहा से तो हर चीज बिखर जाएगी। जितना ज्यादा ऊंचे तुम उठ जाते हो, उतना ही ज्यादा खतरा होता है। वे लोग जो समतल जमीन पर चलते हैं, अगर वे गिर भी जाएं तो क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा कोई छोटी—मोटी हड्डी टूट जाएगी, तीर्था की भांति। तो वे अस्पताल जा सकते हैं और उनकी मरहम—पट्टी हो सकती है। लेकिन अगर तुम ऊंचाइयों पर चलते हो, तो खतरा बहुत ज्यादा होता है।

क्योंकि तुम बुद्ध हो, इसीलिए तुम गिर गए हो इतने अज्ञान में, अंधकार की इतनी गहरी घाटी में। तो इसे लेकर हताश मत हो जाना। यदि तुम घाटी में इतने गहरे उतर गए हो, तो यह बात केवल एक संकेत है कि फिर से तुम शिखरों पर पहुंच सकते हो। गिरने की संभावना शिखर पर होने की क्षमता के कारण ही घटती है। और अच्छा है यह—इसमें कुछ गलत नहीं है—क्योंकि यह एक अनुभव है। तुम्हारा बुद्धत्व और निखर जाएगा। जब तुम गुजर जाते हो इस अंधकार और पीड़ा से, और जब तुम वापस घर आते हो, तो तुम वही नहीं रहोगे जैसे कि तुम गिरने के पहले थे। तुम्हारी सजगता की गहनता में अब एक अलग ही गुणवत्ता होगी : तुम पीड़ा से गुजरे हो और तुमने उसे जीया है। तुम ज्यादा होशपूर्ण होओगे। तुम्हारी सजगता अब ज्यादा होशपूर्ण हो जाएगी—गहन, सघन, अकंप हो जाएगी।

ऐसा हुआ : एक बहुत समृद्ध व्यक्ति अपने धन से ऊब गया—जैसा कि हमेशा ही होता है। असल में यही कसौटी होनी चाहिए व्यक्ति के समृद्ध होने या न होने की। यदि व्यक्ति सचमुच ही समृद्ध है तो वह ऊब ही जाएगा धन से। यदि वह ऊबा नहीं है तो वह दरिद्र ही है, हो सकता है उसके पास धन हो, लेकिन वह समृद्ध नहीं—क्योंकि समृद्ध तो जानता ही है कि जो कुछ भी उसके पास है उसे जरा भी संतुष्ट नहीं कर सका है। एक गहरी बेचैनी, रिक्तता बनी ही है, बल्कि अब वह और भी घनी हो जाती है—क्योंकि आशा भी टूट जाती है। गरीब आदमी सदा आशा रख सकता है कि कल अच्छा होगा। समृद्ध कैसे आशा रख सकता है? कल भी यही होने वाला है। आशा मर जाती है। उसके पास वह सब है जो मिल सकता है, कल कुछ और ज्यादा नहीं जोड़ देगा। एण्ड्रू कार्नेगी जब मरा तो वह लाखों—करोड़ों डालर छोड़ कर मरा! कल और क्या बढ़ जाएगा? कुछ लाख और? लेकिन वह उन कुछ लाख डालरों का कोई उपयोग नहीं कर सकता, क्योंकि अभी भी वह नहीं जानता कि अपने धन का क्या करे। पहले ही उसके पास जरूरत से ज्यादा है।

असल में जितना ज्यादा धन तुम्हारे पास होता है, उतनी ही कम कीमत होती है धन की। धन की कीमत निर्भर करती है निर्धनता पर। गरीब व्यक्ति की जेब में पड़े एक रुपए की कीमत अमीर व्यक्ति की जेब में पड़े एक रुपए से बहुत ज्यादा होती है, क्योंकि गरीब व्यक्ति उसका उपयोग कर सकता है; अमीर व्यक्ति उसका उपयोग नहीं कर सकता है। जितना ज्यादा धन तुम्हारे पास होता है, उतना ही कम मूल्य होता है उसका। समृद्धि की एक सीमा होती है जहां कि धन का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता, तुम्हारे पास हो कि न हो उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता; तुम्हारा जीवन उसी तरह चलता रहता है।

समृद्ध होने का अर्थ है धन का मूल्य न रह जाना, तब धन मूल्यहीन हो जाता है। जो घर तुम चाहते थे, तुम्हारे पास है, जो कारें तुम चाहते थे, तुम्हारे पास हैं। तुम्हारे पास सब कुछ है जो तुम चाहते थे—अब धन कुछ नहीं, मात्र एक गिनती है। तुम गिनती बड़ी करते जा सकते हो तुम्हारे बैंक बैलेंस में—पर उपयोग कुछ नहीं है। तब अचानक ही आशा मर जाती है और अचानक ही व्यक्ति पाता है कि मैंने पाया कुछ भी नहीं है।

यह समृद्ध व्यक्ति, जिसकी बात मैं तुम से कह रहा था, सचमुच ही समृद्ध था। और वह इतना ऊब गया अपने धन से कि किसी प्रज्ञावान पुरुष की खोज में वह अपने महल से निकल पड़ा; क्योंकि वह वास्तव में दुखी था, सचमुच पीड़ित था। वह थोड़ा आनंदित होना चाहता था। वह बहुत से संतों के पास गया, लेकिन कुछ बात न बनी। उन्होंने बहुत समझाया, लेकिन कोई भी उसे आनंद न दे सका। और वह आग्रह करता—वह बहुत समझदार आदमी रहा होगा—वह इस बात पर जोर देता : ‘मुझे आनंद का अनुभव करा दो, तो मैं विश्वास करूंगा।’ वह जरूर वैज्ञानिक—चित्त का रहा होगा। वह कहता, ‘तुम मुझे बातों से ही नहीं बहला सकते। मुझे आनंद का अनुभव कराओ—कहां है वह। अगर मैं उसे अनुभव कर लूं केवल तभी मैं तुम्हारा शिष्य हो सकता हूं।’

अब ऐसा गुरु खोज पाना बहुत कठिन है जो तुम्हें अनुभव करा सके। शिक्षक हैं, हजारों शिक्षक हैं, जो बातें कर सकते हैं आनंद के विषय में, लेकिन यदि तुम उनके चेहरों की ओर देखो तो तुम पाओगे कि वे तुम से ज्यादा दुखी हैं।

यह अमीर व्यक्ति एक गांव में पहुंचा और लोगों ने उससे कहा, ‘ही, हमारे गांव में एक सूफी संत है। शायद वह कुछ मदद कर सके। वह थोड़ा पागल है, मनमौजी है, तो जरा होशियार रहना उससे। बस जरा होशियार रहना. क्योंकि कोई नहीं जानता कि वह क्या कर बैठेगा। लेकिन वह है अदभुत—तुम जाओ उसके पास।’

वह अमीर व्यक्ति गया; उसने उसे ढूंढा। वह झोपड़ी में नहीं था। लोगों ने कहा कि वह अभी— अभी जंगल की ओर चला गया है, तो वह भी वहां गया। सूफी संत बैठा हुआ था एक बड़े वृक्ष के नीचे, गहरे ध्यान में। अमीर व्यक्ति वहां गया, अपने घोड़े से नीचे उतरा। और वह आदमी सच में ही गहरे आनंद में जान पड़ता था, बहुत मौन, बहुत शांत। उसके आस—पास की हर चीज तक शांत थी—पेड, पक्षी, सभी कुछ। बहुत शांत वातावरण था; सांझ उतर रही थी।

वह अमीर सूफी संत के पैरों पर गिर पडा और बोला, ‘मालिक, मैं आनंद पाना चाहता हूं। मेरे पास सब कुछ है—सिवाय आनंद के।’ उस सूफी ने अपनी आंखें खोलीं और कहा, ‘मैं तुम्हें आनंद दूंगा, तुम मुझे अपना धन दिखाओ।’

बिलकुल ठीक है बात। यदि तुम उससे आनंद का अनुभव कराने को कहते हो, तो तुम अपना धन दिखलाओ। उसके पास घोड़े की पीठ पर रखी थैली में हजारों हीरे थे, क्योंकि उसने पहले से ही इंतजाम कर रखा था। वह सदा सोचता था, ‘यदि किसी के पास आनंद है, तो वह अपनी कीमत मांगेगा; और कीमत चुकानी पड़ेगी। और जीवन में ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम बिना कीमत चुकाए पा सको।’ इसलिए वह अपने साथ हीरे लाया था। वे हीरे लाखों रुपए के थे।

उसने दे दी थैली और कहा, ‘देखो।’

तत्‍क्षण उस सूफी संत ने उसके हाथ से थैली ले ली और भागा। उस अमीर व्यक्ति को कुछ पल तो विश्वास ही न आया कि क्या हो गया। जब उसकी समझ में बात आई तो वह भी भागा रोता—चिल्लाता, ‘मुझे लूट लिया!’

निश्चित ही, सूफी फकीर जानता था गांव के रास्ते, और वह तेज दौड़ सकता था। और वह फकीर था, मजबूत था, और वह अमीर आदमी अपने जीवन में कभी किसी के पीछे न भाग। था। तो वह रो रहा था, चीख रहा था, चिल्ला रहा था… और सारा गांव इकट्ठा हो गया, और लोग कहने लगे, ‘हमने तो तुमसे पहले ही कहा था : मत जाओ; वह पागल है। कोई नहीं जानता कि वह क्या करेगा।’ और गांव भर में उत्तेजना फैल गई। वह अमीर आदमी बहुत परेशान हो गया। उसके जीवन भर की कमाई डूब गई—और मिला कुछ भी नहीं।

गांव में चारों ओर चक्कर लगा कर, सूफी फकीर उसी पेडू के नीचे लौट आया जहां कि घोड़ा अभी भी खड़ा हुआ था। उसने थैली घोड़े के पास रख दी, पेडू के नीचे बैठ गया, आंखें बंद कर लीं, और मौन हो गया। वह अमीर आया दौड़ता हुआ, बुरी तरह हाफता हुआ, पसीने से लथपथ, आंसू बह रहे थे—उसका सारा जीवन दाव पर लगा था। फिर अचानक उसने देखा कि थैली तो पडी है घोड़े के पास. उसने उसे उठा कर हृदय से लगा लिया, नाचने लगा, इतना खुश हो गया.!

सूफी फकीर ने अपनी आंखें खोलीं और कहा, ‘देखो! क्या मैंने तुम्हें कुछ अनुभव दिया कि आनंद क्या होता है?’

तुम्हें दुख को जानना होता है, केवल तभी तुम जानते हो कि आनंद क्या है। तुम्हें जरूरत होती है एक पृष्ठभूमि की। प्रत्येक अनुभव एक अनुभव बनता है—पृष्ठभूमि के विपरीत में। बुद्ध को संसार में आना पड़ता है, यह अनुभव करने के लिए कि वे बुद्ध हैं। तुम्हें आना पड़ता है संसार में और पीड़ा भोगनी पड़ती है, यह जानने के लिए कि तुम कौन हो। इसके बिना कहीं कोई संभावना नहीं है।

तुम उसी अवस्था में हो, जिसमें कि वह अमीर था—दौड़ रहा सूफी संत के पीछे; हर चीज लुट चुकी; चीख रहा और रो रहा। मैं देख सकता हूं : हर चीज लुट चुकी है; तुम दौड़— भाग रहे हो संसार के इस गाव में। रास्ते मालूम नहीं, तुम लुट भी चुके हो। तुम एकदम अंतरतम तक दुखी हो, पीड़ित हो। दौड़ना, दौड़ना और दौड़ना. एक दिन तुम लौट आओगे वृक्ष की ओर; तुम फिर से पा लोगे थैली। तुम नाच उठोगे; तुम आनंदमग्न हो जाओगे। तुम कहोगे, ‘अब मैं जानता हूं कि आनंद क्या है।’

संसार एक आवश्यक अनुभव है। वह एक पाठशाला है। तुम्हें गुजरना होता है उसमें से। स्वयं को जानने के पहले स्वयं को खोना होता है। और दूसरा कोई उपाय नहीं है; वही एकमात्र मार्ग है। इस विषय में कुछ नहीं किया जा सकता। और कोई उपाय नहीं है।

ही, इसीलिए। क्योंकि तुम बुद्ध हो, इसीलिए तुम दुख में हो। क्योंकि तुम बुद्ध हो, इसीलिए तुम बेहोशी में हो। तुम किसी भी दिन वापस घर आ सकते हो। यह तुम पर निर्भर है; तुम्हें निर्णय लेना है और वापस लौट आना है स्रोत तक।

ईसाइयत में एक शब्द को बहुत गलत समझा गया है और वह शब्द है ‘रिपेंट’, पश्चात्ताप। जो मूल हिलू शब्द है ‘रिपेंट’ के लिए उसका अर्थ ‘रिटर्न’ है, रिपेंट नहीं। वही है एकमात्र पश्चात्ताप, यदि तुम लौट आओ। लेकिन उसे रिपेंट की भांति लेने से सारी बात ही खतम हो जाती है। मुसलमानों के पास इसी तरह का एक शब्द है ‘तोबा’। तोबा का अर्थ होता है : लौटना। उसका अर्थ है. ‘स्रोत पर लौट आना।’ तोबा भी पश्चात्ताप जैसा लगता है; उसका अर्थ भी पश्चात्ताप नहीं है। जैनों के पास भी एक शब्द है : वे उसे कहते हैं—प्रतिक्रमण; उसका भी अर्थ है लौटना।

कुल बात इतनी है कि उस स्रोत तक वापस कैसे लौट जाओ जहां से तुम आए हो। और यही है ध्यान की सारी प्रक्रिया : लौट आना, स्रोत तक वापस लौट आना और उसमें केंद्रित हो जाना।

तुम बुद्ध हो, तुम बुद्ध ही थे, तुम बुद्ध ही रहोगे—लेकिन बुद्धत्व की तीन अवस्थाएं होती हैं : पहली, जब कि तुमने उसे खोया नहीं होता—बुद्ध का बचपन; फिर तुम खोज करते हो उसकी—बुद्ध का यौवन; फिर पा लेते हो उसे—प्रौढ़ावस्था। प्रत्येक बच्चा बुद्ध है, प्रत्येक युवा खोजी है और प्रत्येक वृद्ध को—यदि चीजें ठीक—ठीक विकसित हों तो—पुन: बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाना चाहिए। इसीलिए हम पूरब में वृद्ध व्यक्तियों का इतना ज्यादा सम्मान करते हैं और उन्हें इतनी प्रतिष्ठा देते हैं। यदि हर बात ठीक चले तो वृद्ध का अर्थ होता है वह जो स्रोत पर लौट आया।

बच्चे के पास एक निर्दोषता होती है, लेकिन उसे उसका होश नहीं होता, क्योंकि वह उसके पास जन्म से ही होती है। कैसे वह उसके प्रति सजग हो सकता है? उसे अनुभव चाहिए विपरीत का; केवल तभी वह सजग होगा। और तब वह फिर से उसमें लौट चलने की अभीप्सा से भर उठेगा : हर कोई फिर से बच्चा हो जाना चाहता है, उतना निर्दोष हो जाना चाहता है। वह अनुभव इतना अदभुत था, अपूर्व था।

लेकिन उस समय वह उतना अपूर्व न था! जरा पीछे लौटो अपने बचपन में। उसे केवल याद मत करो—उसे जीओ फिर से। वह एक पीड़ा थी। कोई बचपन सुखी नहीं होता : प्रत्येक बच्चा बड़ा हो जाना चाहता है—जवान, बड़ा, शक्तिशाली—प्रत्येक बच्चा। क्योंकि प्रत्येक बच्चा स्वयं को असहाय अनुभव करता है। वह नहीं जानता कि उसके पास क्या है। कैसे जान सकते हो तुम, यदि तुमने उसे खोया ही न हो? उसे निर्दोषता खोनी होगी. उसे चालाक संसार में जीना होगा; उसे नरक में गहरे उतरना होगा। वह साधु था, लेकिन वह साधुता कोई उपलब्धि न थी। वह केवल प्रकृति की भेंट थी। और यदि तुम्हें प्रकृति द्वारा कोई चीज दी जाती है, तो तुम उसका मूल्य नहीं समझ सकते। इसीलिए तुम कोई कृतज्ञता अनुभव नहीं करते।

मैंने एक सूफी कहानी सुनी है। एक आदमी एक सूफी फकीर के पास आया और कहने लगा, ‘मैं निराश हूं और मैं आत्महत्या कर लूंगा। मैं नदी में डूबने जा ही रहा था कि मैंने आपको किनारे पर बैठे हुए देखा। मैंने सोचा, क्यों न एक आखिरी कोशिश कर ली जाए! मैं जानना चाहता हूं कि आप क्या कहते हैं।’

उस सूफी फकीर ने कहा, ‘तुम इतने निराश क्यों हो?’

वह आदमी कहने लगा, ‘मेरे पास कुछ नहीं है, इसीलिए मैं निराश हूं —एक पैसा भी नहीं है मेरे पास। मैं संसार का सब से गरीब आदमी हूं और मैं बहुत दुखी हूं। और हर चीज में इतनी मुसीबत है—मैं थक गया हूं। बस मुझे आशीर्वाद दें कि मैं मर सकु क्योंकि मेरी किस्मत इतनी खराब है कि जो कुछ भी मैं करता हूं मैं हमेशा असफल होता हूं। मुझे डर है कि आत्महत्या में भी मैं असफल ही होऊंगा।’

सूफी फकीर ने कहा, ‘तुम थोड़ा रुको। अगर तुम्हें आत्महत्या करनी ही है और तुम कहते हो कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, तो बस मुझे एक दिन का समय दो। कल मैं सब संभाल लूंगा।’

दूसरे दिन सुबह वह उसे सम्राट के पास ले गया। वह सम्राट शिष्य था सूफी फकीर का। वह गया महल में, बात की सम्राट से, वापस आया, उस आदमी को सम्राट के पास ले गया और उस आदमी से कहा, ‘सम्राट तैयार है तुम्हारी दोनों आंखें खरीदने के लिए। और जो भी कीमत तुम मांगो, वह देगा।’

उस आदमी ने कहा, ‘क्या कह रहे हैं आप? क्या मैं पागल हूं जो अपनी आंखें बेचूं?’

सूफी ने कहा, ‘तुमने कहा कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है। अब जो भी तुम मांगो, जितनी भी कीमत—लाख रुपए, दो लाख रुपए, दस लाख रुपए, करोड़ रुपए—राजा तैयार है आंखें खरीदने के लिए। और अभी कुछ घंटे पहले ही तुम कह रहे थे कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है—और तुम आंखें बेचने के लिए तैयार नहीं? और तुम तो आत्महत्या करने जा रहे थे। और मैंने सम्राट को राजी कर लिया है तुम्हारे कान खरीदने के लिए भी, तुम्हारे दात भी, हाथ, पैर—सब खरीदने के लिए। तुम मांग लो कीमत। और हम हर चीज कांट लेंगे और पैसा तुम्हें दे देंगे। तुम संसार के सर्वाधिक धनी व्यक्ति हो जाओगे।’

उस आदमी ने कहा, ‘मैं तो सोच रहा था कि आप संत—पुरुष हो—आप तो हत्यारे मालूम पड़ते हो!’ वह आदमी भाग गया। उसने कहा, ‘कौन जाने, अगर मैं महल जाऊं और राजा भी इसी की तरह पागल हो और वे लोग मेरी आंखें निकालने लगें……।’ वह भाग गया, लेकिन पहली बार उसे लगा कि कितनी कीमत है आंखों की!

लेकिन तुम कभी अनुगृहीत नहीं हुए उनके लिए। तुमने कभी परमात्मा को धन्यवाद नहीं दिया कि तुम जीवित हो। यदि तुम अभी मरने वाले होओ और कोई तुम्हें एक दिन और दे दे, तो तुम कितनी कीमत चुकाने के लिए तैयार हो जाओगे? तुम सब कुछ देने के लिए तैयार हो जाओगे। लेकिन तुमने कभी धन्यवाद नहीं दिया, क्योंकि तुम्हें जीवन मुफ्त मिला है। तुमने उसे उपहार के रूप में पाया है, और कोई मूल्य नहीं समझता उपहारों का।

बचपन एक उपहार है। निर्दोषता होती है, लेकिन बच्चे को होश नहीं होता। उसे इसे खोना ही होगा। जब वह उसे खो देगा—अपने यौवन में वह भटकेगा; संसार के रंग—ढंग में खो जाएगा; बिलकुल खो जाएगा अंधेरों में, निर्दोष न रहेगा, गंदा हो जाएगा—तब वह आकांक्षा करेगा। तब वह जानेगा कि उसने क्या खो दिया है। और तब वह जाएगा चर्चों में और मंदिरों में और हिमालय की ओर, और तलाश करेगा गुरुओं की—और वह कुछ और नहीं मांग रहा है; वह केवल इतना ही मांग रहा है मेरी निर्दोषता मुझे वापस लौटा दो। और अगर चीजें ठीक —ठीक विकसित हों और व्यक्ति साहसी हो, तो अंत में, जब कि वह मरने के करीब होता है, वह फिर से उस निर्दोषता को उपलब्ध कर लेता है।

लेकिन जब एक वृद्ध व्यक्ति फिर से बच्चे जैसा निदोंष हो जाता है तो बिलकुल ही अलग बात होती है। यही है संत की परिभाषा : एक वृद्ध व्यक्ति का फिर से बच्चा हो जाना, निर्दोष हो जाना। लेकिन उसकी निर्दोषता की एक अलग ही गुणवत्ता होती है, क्योंकि वह जानता है अब कि वह खो सकती है; और वह जानता है अब कि जब वह खो जाती है तो व्यक्ति बहुत भयंकर पीड़ा भोगता है। अब वह जानता है कि बिना इस निर्दोषता के हर चीज नरक बन जाती है। अब वह जानता है कि यही निर्दोषता ही एकमात्र आनंद की अवस्था है, एकमात्र मुक्ति है।

ऐसा ही घटता है तुम्हारी सजगता के साथ. तुम्हारे पास वह होती है, फिर तुम खो देते हो उसे, फिर तुम वापस पा लेते हो उसे। वर्तुल पूरा हो जाता है। इसीलिए जीसस कहते हैं, ‘जब तक तुम बच्चे जैसे नहीं हो जाते, तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न कर पाओगे।’

वही है लौटना; वर्तुल पूरा हो जाता है। भूल जाओ ‘रिपेंट’ शब्द को, उसके स्थान पर लाओ ‘रिटर्न’ को, और ईसाइयत अपराध— भाव से मुक्त हो जाएगी। इस रिपेंट शब्द ने ही सारा दुख निर्मित कर दिया है। वापस लौटना सुंदर है; पश्चात्ताप एक कुरूप घटना है। और धर्म को तुम में कोई अपराध— भाव नहीं निर्मित करना चाहिए उसे साहस निर्मित करना चाहिए। अपराध— भाव निर्मित करता है भय। और घर लौट आने के लिए जिस एक चीज की जरूरत होती है वह है—साहस—निर्भयता।

छठवां प्रश्न :

 

क्या मादक द्रव्यों की सहायता से कोई अचानक छलांग लगा सकता है?

 

हीं। वह मादक द्रव्य की छलांग होगी, तुम्हारी नहीं; और सवाल तुम्हारी छलांग का है, मादक द्रव्य की छलांग का नहीं। मादक द्रव्यों को बुद्धत्व की तलाश नहीं है; वे वैसे ही बिलकुल ठीक हैं जैसे वे हैं। यदि तुम मादक द्रव्य लेते हो, और तुम्हें कुछ होता है, तो वह वास्तव में उन मादक द्रव्यों को ही घट रहा होता है, तुमको नहीं। वह केवल शरीर के रसायन को ही घट रहा होता है, तुम्हारी चेतना को नहीं। यह एक स्वप्निल घटना होती है—एक कल्पना—जाल।

और कभी—कभी यह घटना सुंदर होती है—ध्यान रहे, कभी—कभी। कई बार तो यह नरक बन सकती है। यह निर्भर करता है। इसीलिए मैं कहता हूं कि मादक द्रव्य केवल तुम्हारे शरीर के रसायन को बदल सकता है, लेकिन यदि तुम्हारा मन नरक से गुजर रहा है, तो मन अब भी गुजरता रहेगा नरक से। अब नरक ज्यादा भयंकर होगा, बस इतना ही; क्योंकि अब रसायन अलग है। तुम जाओगे नरक ही, लेकिन अब तुम ज्यादा तेज चलोगे। मादक द्रव्य तुम्हें गति दे सकता है। तो मादक द्रव्यों को ‘स्पीड’ कहना ठीक ही है; वे केवल तेजी देते हैं और कुछ भी नहीं। यदि तुम सुंदर और अच्छा अनुभव कर रहे थे, तो तुम अच्छा अनुभव करोगे—और प्रगाढ़ता से। तो भी वे तुम्हें बदल नहीं सकते। जो कुछ तुम हो—तुम वही रहोगे।

और खतरा यह है कि तुम उनके द्वारा धोखे में पड़ सकते हो। और एक बार तुम धोखे में आ जाते हो और तुम सोच लेते हो कि ‘यह आनंद की मस्ती है, यही तो है जिसकी जरूरत थी’, तो तुम भटक जाते हो। तब तुम सोचोगे सदा उन्हीं सीमाओं में : कि मादक द्रव्य ले लो और अनुभव कर लो परमात्मा को!

तुम कुछ अनुभव नहीं कर रहे हो, क्योंकि परमात्मा अनुभव की बात ही नहीं है। वह है सभी अनुभवों की समाप्ति। जब सारे विषय मिट जाते है—अनुभव एक विषय है—और जब केवल स्वयं का शुद्ध होना मात्र बचता है, केवल चेतना बचती है—जानने को कुछ नहीं होता, केवल जानने वाला ही होता है—तो परमात्मा होता है। परमात्मा कोई विषय नहीं है; परमात्मा है विशुद्ध बोध। उसे कोई मादक द्रव्य तुम्हें नहीं दे सकता है।

सातवां प्रश्न :

 

क्या मेरा यह अनुमान ठीक है कि आपकी यात्रा क्रमिक बुद्धत्व की रही? जब बुद्धत्व घटित हुआ तो क्या आपने नृत्य किया?

मैं अभी भी नृत्य कर रहा हूं। यदि तुम्हारे पास दृष्टि है तो तुम देख सकते हो। यदि तुम्हारे पास दृष्टि नहीं है तो मैं क्या कर सकता हूं?

और बुद्धत्व क्रमिक नहीं होता; बुद्धत्व सदा अचानक ही होता है। तुम क्रमिक रूप से तैयार हो सकते हो, तुम अचानक तैयार हो सकते हो, लेकिन बुद्धत्व सदा अचानक ही होता है। वह घटता है क्षण में। ऐसा नहीं है कि कोई पचास प्रतिशत बुद्ध है, कि साठ प्रतिशत बुद्ध, कि सत्तर प्रतिशत बुद्ध—नहीं। अभी क्षण भर पहले कोई सौ प्रतिशत अबुद्ध था, और क्षण भर बाद वह सौ प्रतिशत बुद्ध हो जाता है। वह अचानक ही घटता है, अन्यथा तो डिग्रियां होतीं। कोई डिग्रियां नहीं होतीं।

वह मृत्यु की भांति है. मृत्यु क्षण में ही घटती है। तुम नहीं कह सकते कि कोई आदमी आधा मृत है। यदि आधा मृत लगता भी है तो भी वह जीवित है; वह केवल वैसा दिखता है। कोई आदमी बेहोश हो सकता है, कोमा में हो सकता है, लेकिन तब भी वह पूरा जीवित है, आधा मृत नहीं। या तो तुम मृत होते हो और या तुम जीवित होते हो। और कोई ढंग होता नहीं—या तो यह या वह। बुद्धत्व सदा अचानक ही होता है।

और तैयारी? यह बहुत ही सूक्ष्म बात है समझने की. तैयारी बुद्धत्व के लिए नहीं होती, तैयारी होती है तुम्हारे साहस के लिए। साहसी व्यक्ति तो इसे बिलकुल अभी उपलब्ध कर सकता है, कायर को वर्षों लगेंगे स्वयं को तैयार करने में। सारी समस्या भय की है। यदि भय गिर जाए, तो तुम मुक्त हो ही। यदि तुम अपने भय को पालते—पोसते रहते हो, तो तुम कभी मुक्त नहीं होओगे।

इसलिए अपने चित्त में इसे स्पष्ट कर लो कि बुद्धत्व के लिए कोई तैयारी नहीं चाहिए; सारी तैयारी केवल इसीलिए है क्योंकि तुम भयभीत हो। तो यह तुम पर निर्भर करता है। जब भी तुम निर्णय करो भय को गिरा देने का, यह घट सकता है।

जो पाना है वह तुमसे बाहर नहीं है; तुम पहले से ही अपने साथ उसे लिए हुए हो। यह बच्चे के जन्म जैसा ही है : एक स्त्री गर्भवती होती है—बच्चा होता ही है वहां, धड़क रहा, जीवंत, हाथ—पैर चला रहा—लेकिन यदि स्त्री बहुत ज्यादा भयभीत है, तो बच्चे के जन्म में बहुत समय लगेगा। यदि वह बहुत ज्यादा भयभीत है और तनाव में है तो जब बच्चा गर्भ से बाहर आना चाहेगा तो वह अपनी सारी यंत्र—संरचना भय से सिकोड़ लेगी और बच्चे को बाहर न आने देगी। बच्चे को बाहर आने के लिए एक शिथिल मार्ग चाहिए और स्त्री इतनी तनावपूर्ण है कि वह बच्चे को बाहर न आने देगी। और बच्चा बाहर आना चाहता है, क्योंकि अब वह यदि गर्भ में रहा, तो मर जाएगा। तो बच्चा हर ढंग से प्रयास करेगा बाहर आने के लिए, और स्त्री तनावपूर्ण है; वहा एक संघर्ष पैदा हो जाता है। वह संघर्ष पीड़ा निर्मित कर देता है; वरना तो बच्चे का जन्म पीड़ा के साथ नहीं होना चाहिए। यह अनिवार्य नहीं है; उसकी कोई आवश्यकता नहीं है।

जरा भारत की पुरानी, प्राचीन जनजातियों को देखो। प्रसव इतनी आसानी से, इतने स्वाभाविक रूप से होता है कि उन लोगों ने कभी सुना ही नहीं है कि यह भी कोई पीड़ा की बात है। कोई स्त्री खेत में काम कर रही होती है और बच्चा पैदा हो जाता है—कोई भी नहीं होता उसकी देख— भाल करने के लिए; वह स्वयं ही अपनी देख— भाल कर लेगी। वह बच्चे को लिटा देगी वृक्ष के नीचे, अपना दिन भर का काम करेगी—घर वापस जाने की भी कोई जल्दी नहीं होती—फिर शाम को बच्चे को लेकर घर चली जाएगी। बड़ी सीधी बात, एकदम सहज, जैसा कि जानवरों में होता है—कोई समस्या नहीं होती। मां पैदा कर देती है समस्या। मां तनाव से भरी होती है, भयभीत होती है। वह तनाव और बच्चे का बाहर आने का प्रयास एक संघर्ष पैदा कर देता है, और तब इसमें समय लगता है।

बच्चा तो बाहर आने के लिए तैयार ही है। तुम सभी गर्भ का समय पूरा कर चुके हो। जैसा कि मैं जानता हूं हर किसी का नौवां महीना है—नौ महीने कब के पूरे हो गए हैं। अब कुल समस्या इतनी है कि कैसे थोड़े शिथिल हों, विश्रांत हों और बच्चे को बाहर आने दें और उसे जन्म दें।

लेकिन तुम तभी विश्रांत हो सकते हो यदि तुम भयभीत नहीं हो। स्वीकार करो, भयभीत मत होओ। स्वीकार करो जीवन को। वह मित्र है, शत्रु नहीं है। यह सारा अस्तित्व हमारा घर है; तुम कोई अजनबी नहीं हो यहां। भूल जाओ सब कि इस बारे में डार्विन क्या कहता है—जीवित बने रहने के लिए संघर्ष, विजय, प्रतिस्पर्धा। सब बकवास है। सुनो उन लोगों की जो कहते हैं कि यह हमारा घर है, क्योंकि वे ही ठीक हैं। इससे अन्यथा संभव नहीं है।

तुम जीवन से आए हो—जीवन तुम्हारे विरुद्ध कैसे हो सकता है? मां कैसे विरुद्ध हो सकती है बच्चे के? और तुम वापस लौट जाओगे उसी में। जैसे कि कोई लहर सागर से उठती है, सूर्य की किरणों में नाचती है, और फिर वापस सागर में गिर जाती है। सागर कैसे विरुद्ध हो सकता है लहर के? असल में लहर की सारी शक्ति सागर से मिला एक उपहार ही है. वह ऊंची उठती है तो ऐसा नहीं कि ‘वह’ उठती है, बल्कि सागर ही उठता है उसमें।

तुम चेतना के इस सागर में लहरों की भांति हो। स्वीकार करो इसे। अनुभव करो कि तुम अपने घर में हो। तुम कोई अजनबी नहीं हो यहां; तुम बहुत प्रिय हो अस्तित्व के। और फिर, अचानक ही, तुम साहस जुटा लेते हो, क्योंकि कोई भय नहीं रहता।

बुद्धत्व सदा अचानक घटता है। यदि तुम्हें क्रमिक रूप से बढ़ना पड़ता है तो अपने बंद, संदेहशील और भयभीत मन के कारण ही।

आठवां प्रश्न :

 

मुझे पागल बनाना आपको अच्छी तरह आता है। अब बुद्धत्व भी पर्याप्त न रहा। नहीं उसे अचानक ही होना है वरना हम चूक जाएंगे कुछ! यदि मुझे कभी ईश्वर मिला तो मैं उसे गोली मार दूंगा आप मुझ से संतुलन बनाए रखने की आशा कैसे करते हैं जब आप पहले तो जोर देते हैं बुद्धत्व को बिलकुल भूल जाने पर स्वाभाविक रहने पर और अगर कुछ करना ही है तो वह है धैर्य का अभ्यास और फिर अचानक मुझे एक चरण में ही सात चरण कूद जाने है— साहसी होना है और छलांग लगा देनी है? क्या यह सब इसीलिए है कि हम एक घोर निराशा में डूब जाएं?

वश्य ही!

और मैं भी तुम से यही कहूंगा कि जब भी तुम्हारा ईश्वर से मिलना हो, तो उसे गोली मार देना, क्योंकि वही अंतिम अवरोध होगा। तुरंत उसे गोली मार देना, ताकि तुम अकेले ही बच रहो अपने अकेलेपन में, अन्यथा वही बन जाएगा एक संसार, एक अनुभव।

और तुम ठीक समझे, सारी बात है तुम्हें पागल कर देने की। इतने पागल हो जाओ कि तुम थक जाओ अपने पागलपन से और अचानक छलांग लगा दो उसके बाहर; वरना तो तुम कभी छलांग नहीं लगाओगे। यदि तुम अपने पागलपन में चैन से हो तो कैसे तुम बाहर आओगे उससे? तो मैं सारी स्थिति को इतनी निराशाजनक बना दूंगा, इतने गहनरूप से निराशाजनक, कि तुम अपने आवरण से बाहर आ जाओ—और तुम मुक्त हो।

अंतिम प्रश्न:

 

मैने परम शून्य केंद्र को अनुभव कर लिया है जहां से सारा अस्तित्व आता है और साथ ही उस आनंद को भी जिसकी आप बात करते हैं यदि मैं पूछूं……..

यदि तुमने परम शून्य को अनुभव कर लिया है, तो पूछने की जरूरत ही क्या है? कोई ‘यदि’ नहीं होता, अगर तुमने अनुभव कर लिया होता है। अगर तुम पूछते हो तो शायद तुमने कल्पना कर ली है कि तुमने शून्य की अवस्था का अनुभव कर लिया है—क्योंकि शून्य की अवस्था से कोई प्रश्न नहीं उठते। उठ नहीं सकते, कोई संभावना नहीं है। कौन उठाएगा प्रश्न शून्य की अवस्था में? एक बार तुम उस शून्य को, उस रिक्तता को जान लेते हो, तो फिर कोई चीज नहीं उठती।

तुमने जरूर कल्पना कर ली होगी। और ऐसा होता है : इससे पहले कि कोई उस अवस्था को उपलब्ध होता है, वह बहुत बार कल्पना कर लेता है—अपनी आकांक्षा के कारण। निरंतर मुझे सुनते—सुनते तुम एक आकांक्षा बना लेते हो. कि कैसे बुद्धत्व को उपलब्ध हों, कैसे सारी पीड़ा से मुक्ति मिले। वह आकांक्षा स्वप्न निर्मित कर देगी। यदि आकांक्षा बहुत गहरी है, तो इतने जीवंत सपने निर्मित कर देगी कि वे वास्तविक मालूम पड़ेंगे। वे ज्यादा वास्तविक मालूम होंगे साधारण वास्तविकता से, और तब तुम समझोगे कि तुमने अनुभव किया। नहीं।

यदि शून्य का अनुभव होता है, तो सारे प्रश्न गिर जाते हैं—ऐसा नहीं है कि तुम उत्तर पा लेते हो। किसी प्रश्न का कभी कोई उत्तर नहीं मिलता। क्योंकि प्रश्न होते ही निरर्थक हैं। उनका उत्तर पाया नहीं जा सकता। सारे प्रश्न निरर्थक होते हैं। जब मैं ऐसा कहता हूं तो मेरा मतलब है : अगर कोई पूछे, ‘लाल रंग की सुगंध कैसी होती है?’ तो यह प्रश्न व्याकरण की दृष्टि से तो ठीक लगता है, लेकिन यह व्यर्थ है, क्योंकि लाल रंग या कोई भी रंग हो, उसका सुगंध से कोई संबंध नहीं है। अगर कोई पूछता है : ‘लाल रंग की सुगंध कैसी होती है?’ तो यह बात व्यर्थ है।

सारे प्रश्न निरर्थक हैं; इसलिए उन्हें हल करने की कोई जरूरत नहीं है। एक बार तुम मौन हो जाते हो, परिपूर्ण मौन, तो तुम अचानक समझ लेते हो सारे प्रश्नों की व्यर्थता को—और सारी दार्शनिक धारणाओं की व्यर्थता को, क्योंकि सभी दर्शन इस धारणा पर निर्भर करते हैं कि प्रश्न उत्तर दिए जाने जैसे हैं।

नहीं। तुम कल्पना कर सकते हो, जब तुम कल्पना कर लेते हो तब ऐसा ही होगा।

‘मैंने परम शून्य केंद्र को अनुभव कर लिया है जहां से सारा अस्तित्व आता है, और साथ ही उस आनंद को भी जिसकी आप बात करते हैं। यदि मैं पूछूं कि बुद्धत्व में छलांग लगाने के लिए मैं क्या करूं…?’

लेकिन अब इसकी जरूरत क्या है? तुम कहते हो कि तुमने अनुभव कर लिया है शून्य केंद्र को। तुम कहते हो कि तुमने पा लिया है और अनुभव कर लिया है आनंद की अवस्था को। यही है बुद्धत्व। अब कोई भी छलांग इससे बाहर छलांग होगी। तो कृपा करके, छलांग मत लगाना। अब छलांग लगाना खतरनाक होगा। तुम फिर से संसार में छलांग लगा दोगे। यह सांसारिक लोगों के लिए है जिन्हें मैं झकझोर रहा हूं—’बुद्धत्व में छलांग लगा दो’—बुद्धों के लिए नहीं, जिन्होंने कि पा लिया है। उन्हें छलांग नहीं लगानी है। उन्हें बचना है हर छलांग से और छलांग लगाने के हर प्रलोभन से, वरना तो वे वापस कूद जाएंगे संसार में, और झंझट फिर से खड़ी हो जाएगी।

ध्यान रहे, कल्पना के शिकार मत हो जाना। कल्पना बहुत चालें चल सकती है—केवल तुम्हारे साथ ही नहीं, वह हर किसी के साथ चालें चलती है। जो कुछ भी तुम चाहो, वह तुम्हें वही प्रदान कर सकती है।

ऐसा हुआ. मुल्ला नसरुद्दीन ने जहाज की नौकरी के लिए दरख्वास्त दी। उसका इंटरव्यू हुआ। जो आदमी इंटरव्यू लें रहा था, उसने पूछा, ‘यदि तूफान आ जाए तो तुम क्या करोगे?’

उसने कहा, ‘मैं लंगर डाल दूंगा।’

उस व्यक्ति ने कहा, ‘ और दूसरा तूफान आ जाए, पहले से भी तेज, तो तुम क्या करोगे?’

उसने कहा, ‘मैं दूसरा लंगर डाल दूंगा।’

इसी तरह बातें बढ़ती गईं।

‘दसवां तूफान।’

और नसरुद्दीन ने कहा, ‘मैं एक और लंगर डाल दूंगा।’

उस व्यक्ति ने कहा, ‘लेकिन इतने लंगर तुम ला कहा से रहे हो?’

उसने कहा, ‘जहां से तुम तूफान ला रहे हो, वहीं से!’

आज इतना ही।

 


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बिन बाती बिन तेल–(सुफी कथा) प्रवचन–16

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साधु, असाधु और संत—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 6 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

 एक धनाढय बुढ़िया बीस वर्षों से एक साधु को आश्रय दिये थी।

उसके लिये एक झोपड़ा बनवा दिया था और भोजन देती थी।

एक दिन उसने साधु की जांच लेने की सोची। इसके लिये एक वेश्या की मदद ली।

उससे उसने कहा, ‘जाओ और साधु का आलिंगन करो।’ और फिर पूछो, ‘अब क्या हो?’

वेश्या साधु के पास गयी, उस पर प्रेम प्रगट किया और

फिर पूछा कि अब क्या होना चाहिये?

साधु ने उत्तर दिया, ‘जाड़े में ठंडी चट्टान पर जैसे पुराना वृक्ष लगा हो;

कहीं कोई गरमी नहीं।

वेश्या ने लौटकर सारी बात बुढ़िया को बताई।

बुढ़िया बहुत नाराज हुई और उसने जाकर झट साधु का झोपड़ा जला डाला।

भगवान! इस बुढ़िया के व्यवहार को आप क्या कहेंगे?

 र्म को देखने के दो ढंग हैं। एक ढंग तो है, धर्म को संसार के विरोध में, शत्रुता में देखने का; जैसे धर्म संसार से उल्टा है। जो हम यहां करते हैं उससे विपरीत करेंगे तो धर्म होगा। अगर भोजन में रस है, तो उपवास में धर्म होगा। अगर शरीर के सौंदर्य में रस है, तो शरीर की विकृति और कुरूपता में धर्म होगा। अगर धन को इकट्ठा करने में मन लगता है तो धन के त्याग में धर्म होगा। संसार की तरफ पीठ कर लेने में धर्म होगा।

यह एक दृष्टि है। यह दृष्टि बड़ी साधारण है। इस दृष्टि का कोई गहरा अनुभव नहीं है। यह मन का साधारण गणित है। मन का नियम है एक अति से दूसरी अति पर चले जाना। जब तुम देखते हो कि धन से सुख न मिला, तो तत्क्षण मन में खयाल उठता है, धन छोड़ने से मिलेगा। विवाह किया और सुख न मिला, तो तत्क्षण मन कहता है, तलाक करने से सुख मिलेगा।

तुम्हारा मन कहता है, सुख तो मिलेगा ही। तुमने जैसा अभी किया उससे उल्टा करो। लेकिन सुख मिलेगा, इस संबंध में मन को संदेह पैदा नहीं होता। सिर्फ अपनी दिशा बदल लो। पूरब जाते थे, नहीं मिला तो पश्चिम जाओ; पर सुख मिलेगा। दिशा बदल लेने की जरूरत है। अभी दुकान पर बैठते थे, अब मंदिर और मस्जिद में बैठो। अभी तक अश्लील पोरनोग्राफी का साहित्य पढ़ते थे, अब शास्त्र पढ़ो, धर्मग्रंथ पढ़ो, लेकिन पढ़ने से मिलेगा। दिशा भर बदल लेनी है। उल्टा कर लेना है। यह मन का स्वाभाविक नियम है।

तुम बच्चे को प्रेम करते हो, समझाते हो, नहीं मानता; तत्क्षण डंडा उठा लेते हो। प्रेम से नहीं माना तो कठोरता से मानेगा। पुरस्कार से नहीं माना तो दंड से मानेगा। पहले तुम स्वर्ग का प्रलोभन देते हो, नहीं कोई राजी होता तो फिर नर्क का भय बताते हो। मन तत्क्षण विपरीत में खोजता है।

मन के लिये दो ही हैं: या तो यह, या इससे उल्टा; तीसरे का कोई उपाय नहीं। और अगर इससे नहीं मिला तो आधी संभावना समाप्त हो गयी; आधी बची है, उसमें खोज लो। यह धर्म मन से ऊपर नहीं जाता। यह मन के द्वंद्व के भीतर है।

और धर्म तभी शुरू होता है, जब तुम मन के पार जाओ। जब तुम दो के बीच न चुनो, दोनों को छोड़ दो। जब धन तो छूटे ही, निर्धनता का मोह भी छूट जाये। जब स्त्री तो छूटे ही, पुरुष तो छूटे ही, लेकिन विपरीत न पकड़ ले। कुएं से बचे और खाई में गिर गए, ऐसा जब न हो। बड़ा कठिन है। मन के लिये द्वंद्व में बदल लेना बहुत आसान है, निर्द्वंद्व हो जाना कठिन है।

धर्म का जो गहनतम रूप है, वह निर्द्वंद्वता है। यह कथा उसी की तरफ इशारा है।

साधु पहले तरह के धर्म को मानता होगा। अकसर साधु पहले तरह का धर्म मानते हैं। इसलिये साधु ही रह जाते हैं, संत नहीं हो पाते। बुढ़िया दूसरे तरह के धर्म की तलाश में थी; संतत्व की तलाश में थी, इस भेद को ठीक से समझ लो।

संसार में दो तरह के लोग हैं; असाधु हैं और साधु हैं। लेकिन दोनों संसार में हैं। संत संसार के पार है। इसलिये संत को समझना बड़ा कठिन है। साधु को समझना बिलकुल आसान है, क्योंकि गणित तुम्हारा ही है वह। तुम भोग समझते हो, त्याग भी समझ लोगे। वह कुछ दूर की बात नहीं, तुम्हारे करीब है। तुम लोभ समझते हो, तुम दान भी समझ लोगे। क्योंकि दान की भाषा, लोभ की भाषा के विपरीत हो; लेकिन दूर नहीं है, बहुत करीब है। तुम अहंकार समझते हो, विनम्रता भी समझ लोगे; क्योंकि विनम्रता अहंकार का ही सूक्ष्मतम रूप है।

जब कोई आदमी विनम्रता से तुम्हें मिलता है, तुम कितने प्रसन्न होते हो! तुम कहते हो, यह आदमी कितना विनम्र है! तुम समझ लेते हो। लेकिन तुम समझ कैसे पाते हो विनम्रता को? जब दूसरा आदमी विनम्र होता है, तब तुम्हारे अहंकार की तृप्ति होती है। कोई झुककर तुम्हारे चरण छूता है, तुम कहते हो कितना विनम्र! लेकिन उसकी विनम्रता का क्या अर्थ है? उसकी विनम्रता तुम्हारे अहंकार को भर रही है। तुम्हारा अहंकार विनम्रता को ठीक से समझ पाता है। तुम किसी से मांगने जाते हो दो पैसे, वह तुम्हें चार पैसे दे देता है। तुम्हारा लोभ उसके दान को भली-भांति समझ पाता है। लोभ को दान के समझने में जरा भी कठिनाई नहीं है। भाषा एक ही है।

एक आदमी स्त्रियों के पीछे भाग रहा है और दीवाना है। फिर एक आदमी छोड़ देता है स्त्रियों को, उनकी तरफ पीठ करके जंगल की तरफ भागता है। तुम बिलकुल समझ पाते हो। यह भाषा कामवासना की ही है। यह ब्रह्मचर्य कोई कामवासना के बाहर नहीं है, उसके भीतर है। लेकिन तुम कृष्ण के ब्रह्मचर्य को न समझ पाओगे। क्योंकि वह तुम्हारी कामवासना के बिलकुल बाहर है; विपरीत नहीं, बाहर। इस बात को ठीक से समझ लो।

विपरीत तो द्वंद्व के भीतर ही होता है। मोक्ष संसार के विपरीत नहीं है, संसार के पार है। संतत्व असाधु के विपरीत नहीं है, साधु-असाधु दोनों के पार है। अगर असाधु सीधा खड़ा है, तो साधु शीर्षासन कर रहा है। आदमियों में कोई भी फर्क नहीं है, वे दोनों एक जैसे हैं। तुम किसी साधु के पास जाओ, तुम हजार स्वर्ण-मुद्राएं उसके चरणों में रखो और वह फेंक दे और कहे, ‘हटाओ, इस कचरे को यहां क्यों लाए?’ तुम बिलकुल समझ जाओगे कि यह है साधु। लेकिन अगर वह कुछ भी न कहे, तुम हजार स्वर्ण-मुद्राएं उसके चरणों में रखो, वह चुपचाप बैठा रहे, तब तुम्हें संदेह पैदा होगा। समझ मुश्किल में पड़ी।

ऐसा हुआ, कबीर का बेटा था कमाल। और कबीर अगर साधु हैं तो कमाल संत हैं। बेटा बाप से एक कदम आगे था। और कबीर को तो लोग समझ पाते थे, कमाल को नहीं समझ पाते थे। काशी के नरेश ने कबीर से पूछा कि कई लोग कमाल को भी पूजते हैं, उसके पास भी जाते हैं। लेकिन मुझे कमाल समझ में नहीं आता। नरेश को भिखारी समझ में आ सकता है। कबीर समझ में आते थे। सब छोड़े हैं।

नरेश ने कहा, ‘इस कमाल को तो तुम अलग ही कर दो यहां से। यह एक उपद्रव है। यह लोभी मालूम पड़ता है।’

कबीर ने पूछा, ‘कैसे तुमने पता लगाया?’

तो नरेश ने कहा,’एक दिन मैं गया एक बहुमूल्य हीरा लेकर। और मैंने कमाल को कहा कि यह बहुमूल्य हीरा भेंट लाया हूं। तुम्हारे पास भी हीरे लाया हूं, तुम कहते हो, पत्थर है। हृदय मेरा गदगद हो जाता है। व्यर्थ है, मैं समझता हूं!’

कमाल ने कहा, ‘ले ही आये हो तो अब बोझ को कहां वापिस ले जाओगे? रख जाओ।’ यह बात जरा कठिन हो गयी। तो मैंने पूछा कि ‘कहां रख दूं?’ तो कमाल ने कहा कि ‘अब पूछते हो, कहां रख दूं? समझे नहीं; लेकिन ठीक है–‘ झोपड़े में जहां कमाल बैठा था, सनोरियों का झोपड़ा था–‘छप्पर में खोंस दो।’

तो सम्राट ने कहा, ‘मैं छप्पर में खोंस आया हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि मैं बाहर नहीं निकला होऊंगा कि हीरा निकाल लिया गया होगा। अब तक तो बिक भी चुका होगा।’ कबीर ने कहा, ‘तुम एक बार और जाकर पता तो लगाओ कि हीरे का क्या हुआ?’

सम्राट गया और उसने कमाल से पूछा कि कोई छह महिने हुए एक हीरा मैं लाया था, बड़ा बहुमूल्य था। तुमने कहा, ‘छोड़ जाओ’, मैं झोपड़े में खोंस गया था। वह हीरा कहां है?’

कमाल हंसने लगा और उसने कहा, ‘उस दिन भी मैंने कहा था वह हीरा नहीं है, पत्थर है। और इसलिये तो कहा था कि छोड़ जाओ, क्योंकि अब ले ही आये हो, इतनी नासमझी की यहां तक ढोने की, अब वापिस कहां वजन को ले जाओगे? फिर तुम झोपड़े में खोंस गये थे। अब मुझे पता नहीं। अगर किसी ने निकाल न लिया हो तो वहीं होगा। और किसी ने निकाल लिया हो तो हम कोई उसकी रक्षा करने यहां नहीं बैठे हैं!’ संदेह पक्का हो गया कि हीरा निकाल लिया गया है। लेकिन फिर भी चलते-चलते सम्राट ने आंख उठाकर देखा, हैरान हुआ। हीरा वहीं था। वह निकाला नहीं गया था। तुम संन्यासी के पास रुपये लेकर जाओ और वह कहे कचरा है, हटाओ, तुम्हें समझ में आता है। लेकिन अगर सच में ही कचरा है, तो हटाने की इतनी जल्दी भी क्या? कमाल का संतत्व तुम्हारी पकड़ में न आयेगा। क्योंकि कमाल कहता है, पत्थर है, अब कहां ले जाओगे? कमाल कहे कि पत्थर है, हटाओ तो समझ में आता है। लेकिन जो आदमी कहता है, पत्थर है, हटाओ यहां से, वह विपरीत बातें कह रहा है।

अगर पत्थर है तो इतनी हटाने की जल्दी क्या है? पत्थर तो बहुत पड़े थे कमाल के झोपड़े के पास; और कभी नहीं चिल्लाया कि हटाओ। हीरे को देखकर चिल्लाता है, हटाओ। तो वह कहता भला हो कि पत्थर है लेकिन उसको भी दिखाई पड़ता है, हीरा है। उसे भी डर लगता है, उसे भी भीतर लोभ पकड़ता है। पर उसे न कोई डर है, न कोई लोभ है; तो वह कहता है, ‘अब ले ही आये, एक भूल की, अब और दूसरी भूल क्या करनी? छोड़ जाओ।’

पर जो संत तुमसे कहेगा, छोड़ जाओ यह हीरा, वह तुम्हारी समझ के बाहर हो गया। वह धर्म के भीतर होगा, तुम्हारी बुद्धि के बाहर हो गया। और धर्म होता ही तब है, जब बुद्धि के कोई बाहर हो जाता है।

इस बूढ़ी स्त्री ने वर्षों तक इस बौद्ध भिक्षु की सेवा की। उसे भोजन दिया, रुग्ण हुआ तो सेवा, परिचर्या की। उसके लिये झोपड़ा बनाया। उसकी प्रार्थना, पूजा, ध्यान का सुविधापूर्ण इंतजाम किया। फिर यह मरने के करीब थी। यह बुढ़िया बड़ी अनूठी रही होगी। यह मरने के करीब थी, तब उसने एक वेश्या को बुलाया और कहा कि जीवन भर जिसकी मैंने सेवा की है, मैं जान लेना चाहती हूं, वह कहीं पहुंचा भी या नहीं? या मेरी सेवा व्यर्थ ही रेगिस्तान में खो रही थी और जिसे मैं पूज रही थी, वहां कोई पूज्य नहीं था? वह यह जानना चाहती है कि यह साधु ही है या संत?

बड़ा बारीक फासला है साधु और संत का। बारीक है और बहुत बड़ा भी है। और पहचान बड़ी मुश्किल है। कैसे जानोगे कि इस आदमी की काम-वासना खो गयी, इसलिये ब्रह्मचर्य है! या इस आदमी ने कामवासना को दबा लिया है, इसलिये ब्रह्मचर्य है? ऊपर से तो ब्रह्मचर्य दिखाई पड़ेगा। और जिसने दबाया है, उसका ज्यादा दिखाई पड़ेगा। क्योंकि जिसे हम दबाते हैं, उसके विपरीत को हम उभारकर दिखाते हैं। हमें खुद ही डर होता है कि अगर विपरीत दिखाई न पड़ा, तो कहीं जो छिपा है वह दिखाई न पड़ जाये! और जिसने ब्रह्मचर्य को कामवासना दबाकर नहीं पाया; जिसकी कामवासना तिरोहित हो गई, इसलिये पाया उसके ब्रह्मचर्य में प्रदर्शन नहीं होगा। वह दिखाने की कोई चिंता नहीं होगी। क्योंकि जो है ही नहीं, जिसे छिपाना नहीं है, उसके विपरीत को दिखाना क्या? बड़ा कठिन है।

तो अकसर तो दमित ब्र्रह्मचारी तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा, तुम पहचान जाओगे। लेकिन जिसकी वासना शमित हो गयी, शांत हो गयी, वह तुम्हारी पहचान में न आएगा। प्रदर्शनकारी दिखाई पड़ जाता है। जिसका कोई प्रदर्शन नहीं है, कोई एक्जीबिशन नहीं है, वह दिखाई नहीं पड़ेगा।

यह बूढ़ी स्त्री की दुविधा यही थी, जो तुम सब की दुविधा है; कि संत और साधु को कैसे पहचानें? असाधु से साधु को अलग करना बिलकुल साफ है, आसान है। दोनों उल्टे खड़े हैं। संत को साधु से अलग करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि दोनों करीब-करीब एक जैसे हैं। लेकिन फर्क उतना ही है, जैसा कागज के फूल में और असली फूल में हो। लेकिन कागज के फूल पर भी इत्र डाला जा सकता है। और अगर तुमने गुलाब का इत्र डाला है कागज के फूल पर, तो असली गुलाब से इतनी सुगंध न आएगी, जितनी कागज के फूल से आएगी। कागज के फूल को सुगंध जरा ज्यादा ही देनी पड़ेगी तभी धोखा हो सकता है। और गुलाब का फूल तो उत्सुक भी नहीं है प्रचार करने में। जितनी आएगी, आएगी और हवा आती होगी तो ले आएगी; न आएगी तो न आएगी। गुलाब किसी प्रचार में आतुर भी नहीं है।

यह बूढ़ी स्त्री मरते वक्त जान लेना चाहती है कि इसकी पूजा व्यर्थ तो नहीं गई? इसकी सेवा व्यर्थ तो नहीं गई? इसने इतने दिन तक जिसकी चिंता की, जिसके चरण दबाए, वह साधु था या संत?

यह ध्यान रखना, वह यह नहीं जानना चहाती है कि वह असाधु था कि साधु? वह तो जाहिर है कि वह साधु है। असाधु नहीं है, नहीं तो बीस साल में जाहिर हो गया होता। साधु है यह तो पक्का है। एक और बात जाननी है, और एक बारीक फासला–कैसे इसको जाने?

एक वेश्या को बुला लिया उसने। वेश्या को इसलिए बुलाया कि जो तुम्हारे भीतर दमित है, जब तक वह ऊपर न आ जाए तब तक पहचान न हो सकेगी। और वेश्या कुशल है तुम्हारे दमित को बाहर लाने में।

तुम हैरान होओगे, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बहुत से पुरुष पत्नियों के पास नपुंसक हो जाते हैं। वेश्या के पास जाकर खिल पाते हैं; उनका पुंसत्व वापस आ गया। खुद की पत्नी उन्हें नहीं जगा पाती, वेश्या जगा देती है। वेश्या कुशल है। वह कलाकार है। उसने कामवासना में विशेषता अर्जित की है। कामवासना उसके लिए सिर्फ एक नैसर्गिक घटना नहीं है, एक कलात्मक क्रिया है।

जापान में वेश्याओं के एक वर्ग ने–गैशा–बड़ी कुशलता प्राप्त की है वासना के संबंध में। और जो लोग एक बार गैशा स्त्री को प्रेम कर लेते हैं, फिर कोई स्त्री उनको जगाने में समर्थ नहीं रह जाती। क्योंकि उसने इतनी खूबियां खोजी हैं शरीर के भीतर, कि कहीं भी दबा हुआ कुछ भी पड़ा हो, वह उसे जगाने में कुशल है। साधारण पत्नी उसे नहीं जगा सकती। फिर तुम जिसके पास निरंतर रहते हो, धीरे-धीरे उसका आकर्षण क्षीण होता जाता है। नये का आकर्षण है, अजनबी का आकर्षण है, अज्ञात का आकर्षण है। उससे तुम परिचित होना चाहते हो।

उसने नगर की श्रेष्ठतम वेश्या को बुलाया, और कहा कि तू जा, आलिंगन करना इस साधु का। और जांचना, वासना जगती है या नहीं! और आलिंगन के बाद पूछना कि अब क्या? क्या इरादा है?

वह वेश्या गई। आधी रात साधु ध्यान में लीन था। द्वार तो खुले ही थे क्योंकि साधु के पास बचाने को कुछ भी न था, जिसे चोर ले जाएं। दरवाजा उसने खोला। साधु ने आंख खोली। भय की एक लहर उसमें दौड़ गई। आधी रात वेश्या द्वार पर खड़ी! और यह तो निश्चित ही है कि इस वेश्या को साधु ने बहुत बार नगर में देखा होगा।

साधु की दृष्टि और वेश्या पर न जाए यह असंभव है। वे एक ही धंधे के दो छोर हैं। वे एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं। एक ही रेखा की दो अतियां हैं। तो विपरीत को तो तुम तत्काल देख लेते हो; उससे बचना मुश्किल है। वेश्या निकले और उसकी नजर साधु पर न जाए, यह असंभव है। साधु निकले, और उसकी नजर वेश्या पर न जाए, यह असंभव है। बीच के लोग छोड़े जा सकते हैं। लेकिन विपरीत तो प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ते हैं। जैसे दीवाल पर किसी ने काली रेखा खींच दी, सफेद दीवाल पर। रेखा उभरकर दिखाई पड़ती है। बहुत बार इस वेश्या को देखा होगा। बहुत बार इस वेश्या के लिए कामना भी उठी होगी। क्योंकि जिसे हम छोड़ते हैं, उसके प्रति हमारा रस बढ़ता जाता है, घटता नहीं।

छोड़ने से अगर रस घटता होता तो सारी दुनिया कभी की बुद्धत्व को उपलब्ध हो गई होती। छोड़ना तो बिलकुल आसान है। कोई भी चीज छोड़कर देखो, और तुम पाओगे कि रस बढ़ गया है। जिस चीज में रस बढ़ाना हो, उसे छोड़ना चाहिए। अगर भोजन में रस खो गया हो, उपवास करना चाहिए। रस वापिस लौट आएगा।

प्राकृतिक चिकित्सालयों में उपवास करवाए जाते हैं। और वहां जो लोग जाते हैं, अकसर वे ही लोग जाते हैं, जिनके शरीर में ज्यादा चर्बी इकट्ठी हो गई है। जिन्होंने ज्यादा खा लिया है–ओह्वर फेड। इसलिए गरीब मुल्क में तो कोई प्राकृतिक चिकित्सालय चल नहीं सकते, अमीर मुल्कों में चलते हैं। और उरली कांचन जैसे चिकित्सालय अगर चलते हैं, तो बंबई के कारण चलते हैं। जहां लोग ज्यादा खा लिए हैं, उनके आसपास उपवास का इंतजाम करना पड़ता है।

लेकिन बड़े मजे की बात है, प्राकृतिक चिकित्सालयों का यह अनुभव है कि वहां जो लोग भी जाकर वजन कम कर लेते हैं, दोत्तीन महीने में वजन कम कर पाते हैं। लौटकर तीन सप्ताह में वजन पहले से भी ज्यादा हो जाता है। क्योंकि उपवास से भूख में रस आ जाता है, जिसका खयाल नहीं है। उपवास किया तीन महिने तक, तो भूख पहली दफा प्रज्वलित होकर जलेगी; जठराग्नि पूरी शुद्ध हो जाएगी। तब उसके बाद ज्यादा भोजन। तब एक दुष्ट चक्र पैदा होता है। ज्यादा भोजन किया, फिर चर्बी बढ़ती है; फिर घटाओ, फिर ज्यादा भूख लगती है।

इसीलिए गरीब को जितना भोजन में रस आता है, अमीर को नहीं आता। क्योंकि गरीब भूखा है। भूख में रस है। धन में जो मजा गरीब को आता है, अमीर को नहीं आता; आ नहीं सकता। क्योंकि जो तुम्हारे पास है, उसमें रस खो जाएगा। जो तुम्हारे पास नहीं है, उसमें रस पैदा होगा।

अभी पश्चिम में नई शोध चलती है नये युवक और युवतियों के बीच। तो एक नया तत्व प्रगट हो रहा है, वह यह कि नये युवक युवतियों को एक दूसरे में रस कम होता जा रहा है। यह उनको बहुत देर से पता चला। यह पूरब को बहुत पहले से पता है। इसलिए हम पति-पत्नी तक को दिन में, एकांत में नहीं मिलने देते थे। रस कायम रहता था। वर्षों बीत जाते थे, पति ठीक से देख भी नहीं पाता था कि पत्नी का चेहरा है कैसा? क्योंकि रात अंधेरे में मिल लेते थे, वह चेहरा अजनबी ही बना रहता था।

और यह तो असंभव है–अगर तुम मुर्दों को उठा सको, उनसे पूछो कि तुमने अपनी पत्नी को नग्न कभी देखा था? यह असंभव है। पत्नी भी दूर बनी रहती थी।

वेश्याएं अपनी शिष्याओं को सिखाती हैं कि तुम सब करना, लेकिन जिन पुरुषों को मोहित करना हो, उनके लिए पूरी प्रगट मत हो जाना। छिपे को उघाड़ने का मन होता है। इसलिए वेश्या कभी पूरी नग्न न होगी, अर्ध-नग्न होगी। तुम्हारी कल्पना को कुछ बचना चाहिए पूरा करने को। आधी नग्न वेश्या के जो हिस्से दबे रहते हैं, ढंके रहते हैं, उनको तुम कल्पना में पूरे करते हो। और यथार्थ इतना सुंदर कभी भी नहीं है, जितनी कल्पना। सपनों का क्या मुकाबला यह जगत करेगा! इसलिए वेश्या ऐसे कपड़े पहनती है, जो व्यर्थ को तो उघाड़ती है, और जिसको तुम उघाड़ना चाहते हो, उसको ढांकती है। और वेश्या कभी पूरी प्रगट नहीं होगी; क्योंकि पूरी जिस दिन प्रगट हो जाएगी, उसी दिन व्यवसाय व्यर्थ हो जाएगा। वह तुम्हें आकर्षित करेगी, लेकिन पास न आने देगी।

पूरब इस तथ्य को समझ गया था। समझना ही चाहिए, नहीं तो वात्स्यायन के जैसे कीमती शास्त्र पूरब ने न लिखे होते। वात्स्यायन ने कहा है कि पुरुष–पति को–पत्नी कितने ही निकट आने दे, लेकिन पूरा निकट न आने दे। क्योंकि जिस दिन वह पूरा निकट आ जाएगा, उसी दिन पत्नी व्यर्थ हो जाएगी।

पश्चिम के युवक और युवतियों का रस कामवासना में कम होता जा रहा है; हो ही जाएगा। क्योंकि इतना उपलब्ध है कामवासना–भरपेट; शायद ज्यादा। व्यर्थ होती जा रही है स्त्री। व्यर्थ होता जा रहा है पुरुष। इस जगत का सबसे गहरा आकर्षण पश्चिम में कम होता जा रहा है। अब उनको समझ में आता है कि पूरब के लोग होशियार रहे।

वेश्या को देखा तो होगा इस साधु ने बहुत बार। बहुत बार इसका मन डावांडोल भी हुआ होगा। क्योंकि मन का स्वभाव डावांडोल होना है। और जिस चीज का हम निषेध करते हैं, उसमें आकर्षण पैदा होता है। दरवाजे पर लिखकर टांग दें, ‘यहां झांकना मना है।’ फिर वहां से ऐसा कोई पुरुष नहीं निकल सकता, जो बिना झांके निकल जाए। जिस दरवाजे पर आपको लिखा मिल जाए कि ‘झांकना मना है’, आप मुश्किल में पड़े। अगर आप निकल भी गए लाज-संकोच में, तो लौटकर आना पड़ेगा। अगर हिम्मत न जुटा सके, सुविधा न मिली लौटकर आने की, तो रात सपने में आप पहुंचेंगे। लेकिन उस दरवाजे में झांकना तो पड़ेगा ही। वैसे ही जहां-जहां हम द्वार बंद करते हैं, वहां-वहां हमारा आकर्षण सघन होता है।

इस साधु ने बहुत बार वेश्या को देखा होगा। शायद गृहस्थ बिना वेश्या को देखे निकल जाए; स्त्री उपलब्ध है। लेकिन साधु बिना वेश्या को देखे कैसे निकल सकता है? भरा पेट आदमी रास्ते से बिना देखे निकल जाए कि मिठाई की दुकानें सजी हैं; भूखा आदमी कैसे बिना देखे निकल सकता है? भूखे आदमी को सिर्फ मिठाई की दुकानें ही दिखाई पड़ती हैं पूरे बाजार में। बाकी सब चीजें खो जाती हैं। हर चीज में भोजन दिखाई पड़ता है।

हेनरिक हेन ने लिखा है कि एक दफे मैं जंगल में भटक गया। तीन दिन तक रास्ता न मिला। फिर पूर्णिमा का चांद निकला, तो मैं हैरान हुआ कि मुझे चांद न दिखाई पड़ा, एक रोटी दिखाई पड़ी आकाश में तैरती हुई। तीन दिन का भूखा आदमी! चांद भी रोटी हो जाता है। उसने लिखा है, ‘मैंने बहुत कविताएं लिखी थीं, बहुत कविताएं पढ़ी थीं। कहीं मैंने यह प्रतीक नहीं देखा कि चांद तैरती हुई रोटी! कभी उसमें चेहरा दिखाई पड़ता है प्रेयसी का, कभी प्रेमी का, वह समझ में आता है; लेकिन रोटी!’ पर भूखा पेट प्रोजेक्ट करता है। हम बाहर वही देखते हैं जिसे हम भीतर छिपाते हैं।

इस साधु ने निश्चित इस वेश्या को देखा होगा, भलीभांति यह जानता होगा। बहुत बार सपने में भी इस वेश्या को देखा होगा। साधुओं के सपने असाधुओं के जीवन के समतुल होते हैं। असाधु अकसर सपने देखता है साधु होने के। साधु अकसर सपने देखता है असाधु होने के। अगर साधुओं के सपने खोलकर रख दिए जाएं तो तुम बहुत घबड़ा जाओगे। क्योंकि हम सपना वही देखते हैं, जिसे हम जीवन में पूरा नहीं कर पाते। वह अधूरे की पूर्ति है। दिन उपवास किया, रात राजमहल में भोजन का निमंत्रण मिलेगा ही–स्वप्न है। दिन जिससे आंखें चुराईं, रात आंखें उसे देखेंगी ही।

जो हम नहीं कर पाते, वह मन सपने में पूरा कर देता है। सपना सब्स्टीटयूट है; वह परिपूरक है। इसलिए गरीब सपने देखते हैं कि सम्राट हो गए। और अकसर सम्राट भी सपने देखते हैं कि भिक्षु हो गए हैं, और जंगल में चले जा रहे हैं; और वृक्षों के नीचे एकांत में विश्राम कर रहे हैं। महल की झंझट नहीं, सिपाही, सैनिक नहीं, वजीर, चिंताएं नहीं, कुछ भी नहीं। एक भिक्षु की तरह स्वतंत्र। अगर बुद्ध और महावीर संन्यासी हो जाते हैं, तो यह सम्राटों के सपने को पूरा करने के लिए। वह जो सपना है उसको उन्होंने पूरा किया। और अगर बुद्ध और महावीर को मानने के लिए, सैकड़ों सम्राट उनके चरण छूने को आते हैं, वह इसीलिए कि वह जो सपना वे अपने मन में देखते हैं, वह इनमें सार्थक हो गया है। बुद्ध और महावीर के अनुयायियों में अधिकतम राजे-महाराजे हैं। लगता है उनको, कि चाहते तो हम भी यही हैं; हम नहीं कर पाते, कमजोर हैं; मजबूरियां हैं, मुश्किलें हैं। तुमने करके दिखा दिया। तुमने सपने को पूरा कर दिया।

गरीब, अमीरी के सपने देखता है। रात हम वही हो जाते हैं, जो हम दिन में नहीं होते। साधु अकसर पाप के सपने देखते हैं, व्यभिचार के।

मेरे पास साधु आते हैं तो वे कहते हैं, और तो सब ठीक है; दिनभर तो किसी तरह मन से छुटकारा मिल जाता है, लेकिन रात! रात हम विवश हो जाते हैं। इसलिए साधु नींद लेने में डरने लगता है। संत की नींद तो परम गहरी हो जाएगी–स्वप्न-शून्य। साधु नींद लेने से डरने लगता है। क्योंकि सब असाधुता प्रगट होनी शुरू हो जाती है।

गांधी परम साधु पुरुष हैं। उन्होंने लिखा है कि सत्तर साल की उम्र तक भी रात मुझे कामवासना के सपने आते हैं। वे ईमानदार आदमी हैं, परम साधु हैं। दूसरे साधु इतने ईमानदार भी नहीं कि यह कहें। और गांधी कहते हैं कि दिन भर तो मुझे कुछ खयाल में नहीं आता, लेकिन रात सपने मुझे कामवासना के आते हैं। संत के सपने खो जाएंगे। और साधु के सपने असाधुता के हो जाएंगे।

इसने सपने में भी इस वेश्या को देखा होगा। और यह वेश्या जितनी सुंदर नहीं है, उतनी इसे दिखाई पड़ती रही होगी। आज अचानक द्वार पर इसे खड़ा देखकर साधु बहुत चौंक गया होगा। झकझोर उठा होगा। एकांत, रात अंधेरी, कोई आसपास नहीं, दूर गांव से यह झोपड़ा! एक दफा तो सोचा होगा कि सपना तो नहीं देख रहा हूं? आंखें मीड़कर फिर से देखा होगा। वेश्या सामने खड़ी थी। इसकी सारी वासना जग आई होगी, एक झंझावात में पड़ गया होगा। जो-जो दबाया था, वह प्रगट हो गया होगा। रोएं-राएं में भर गया होगा। इसका पूरा शरीर कामातुर हो गया होगा। यह भयभीत हो उठा।

कहानी के बहुत रूप हैं। कहानी के अनेक रूप प्रचलित हैं, इस कहानी के। एक रूप कहता है, कि वह घबड़ा गया। रात तो सर्द थी, लेकन माथे पर उसके पसीने की बूंदें आ गईं। अभी वेश्या द्वार पर ही खड़ी थी। और उसने चिल्लाकर कहा कि ‘यहां कैसे? इतनी रात आने की क्या जरूरत?’ उसकी वाणी में भय था। जब हम दबाते हैं कुछ, तो हम एक तूफान के ऊपर बैठे हैं। जैसे कोई ज्वालामुखी के ऊपर आसन लगाए हो! चाहे सिद्धासन ही लगाए हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, ज्वालामुखी नीचे है।

और कामवासना से बड़ा ज्वालामुखी खोजना कठिन है। सब आग बुझ जाती है, कामवासना की आग बड़ी मुश्किल से बुझती है। करीब-करीब असंभव घटना है। और जब कामवासना की आग बुझती है, तभी ही वह शांति उपलब्ध होती है, जो मोक्ष की है। नहीं तो आग में आदमी जलता ही रहता है। कामवासना एक ज्वर है। ठंडी रात, पसीने की बूंदें उसके सिर पर आ गईं। वह भयभीत हो गया। कंठ अवरुद्ध हो गया होगा, बोलते नहीं बना होगा।

घबड़ाकर उसने कहा, ‘यहां इतनी रात…आधी रात आने की जरूरत? बाहर निकलो। हटो।’

वेश्या करीब आने लगी। और जैसे-जैसे वह करीब आई होगी, भीतर उसके अचेतन मन से दबी हुई वासना भी करीब आई होगी। क्योंकि भय वेश्या का थोड़े ही है, भय तो सदा अपना है। बुद्ध तो वेश्या के घर में भी सो सकते हैं, उसी निश्चिंतता से, जैसे वे बोधिवृक्ष के नीचे सोते हैं। तुम बोधिवृक्ष के नीचे भी बिना वेश्या के नहीं सो सकते हो। सोओगे अकेले, रात में पाओगे, दो हो गए। बोधिवृक्ष के नीचे भी सपना स्त्री का होगा।

वेश्या करीब आ गई, न केवल करीब आ गई, उसने उस भिक्षु को आलिंगन में भर लिया। सम्हाल लिया होगा उसने अपने को। वर्षों की साधुता थी, वर्षों का दमन था। इस भय को भी दबा लिया होगा, सचेत हो गया। आकस्मिक घटना घटी थी तो कंप गया था। आकस्मिक के कारण कंप गया था। जिसका पता नहीं था, वह घट गया था। एक दुर्घटना थी, लेकिन इतनी देर में सम्हाल लिया होगा। अपने को संतुलित कर लिया होगा।

और वेश्या ने पूछा, ‘अब क्या?’

तो वह जो ज्वर उठा था, वह जो झंझावात आया था, वह जो वासना कंपा गई थी, अब वह संतुलित था, नियंत्रित था। फिर साधुता असाधुता को दबा देती है। उसने कहा, ‘तेरा मुझे आलिंगन करना वैसे ही है, जैसे कोई रात की सर्द चट्टान को कोई वृक्ष आलिंगन करो। जरा भी गर्मी चट्टान में पैदा नहीं होती।’

वासना ऊष्णता है; न केवल मानसिक अर्थों में, भौतिक अर्थों में भी, शारीरिक अर्थों में भी। जब तुम कामवासना से भरते हो तो तुम्हारा शरीर ज्वर-ग्रस्त हो जाता है। तुम्हारे रोएं-रोएं में बुखार आ जाता है। तुम्हारे पूरे शरीर से पसीना छूट जाता है। रक्तचाप बढ़ता है, हृदय की धड़कन बढ़ती है।

पहले तो चिकित्सक कहते थे कि जिसका हृदय कमजोर हो, उसे काम-संभोग से बचना चाहिए। क्योंकि काम-संभोग हृदय की धड़कन को बढ़ाता है। उसमें कभी हृदय के टूटने का भी डर है। लेकिन अब तक कभी भी काम-संभोग करते हुए किसी का हृदय बंद होकर प्राणांत नहीं हुआ। कोई हार्टफेल अब तक नहीं हुआ।

तो चिकित्सक चिंता में पड़े कि इसमें कहीं कोई भूल होनी चाहिए। तो अब एक नया सिद्धांत विकसित हुआ है, जो यह कहता है कि हृदय के रोगी के लिए काम-संभोग अच्छा है। क्योंकि उससे हृदय का अभ्यास होता रहता है, व्यायाम होता रहता है। जैसे चलने से शरीर का व्यायाम होता है, ऐसा काम-संभोग से हृदय का व्यायाम होता है। और उस व्यायाम से कम से कम जितनी तीव्रता काम-संभोग में आती है, उतनी तीव्रता तक तो तुम्हारा हृदय बंद नहीं होगा। उतना अभ्यास है। तो पश्चिम में नया आधुनिक चिकित्साशास्त्र तो हृदय के रोगी को काम-संभोग की आज्ञा देता है। लेकिन दोनों में एक बात स्वीकार है कि हृदय की धड़कन बढ़ती है, रक्तचाप बढ़ता है, पसीना आता है, शरीर ज्वर-ग्रस्त हो जाता है।

इसको भी ज्वर प्रतीत हुआ। अन्यथा इस चट्टान और वृक्ष के प्रतीक के खयाल में आने की जरूरत क्या थी? कुछ और खयाल न आया? यह लीपना-पोतना चाहता है। जो घट गई है घटना, वेश्या ने देख लिया है। वेश्या की आंखों से वासना को छुपाना मुश्किल है। क्योंकि जीवन भर उसका अनुभव और कला वही है। तुम वेश्या से आंखें नहीं चुरा सकते। उसकी समझ गहरी हो जाती है। वह तुम्हारे रत्ती-रत्ती भेद को जानती है। वह तुम्हारे इशारे-इशारे में कंपती हुई वासना को पहचान लेती है। वह कलाकार है। उसने शरीर के संबंध में बहुत कुछ सीखा है। उससे छिपाना तो मुश्किल है, लेकिन अब यह लीपा-पोती कर रहा है। अब यह व्याख्या करने की कोशिश कर रहा है।

यह उससे कह रहा है, ‘जैसे ठंडी चट्टान को कोई रात में वृक्ष आलिंगन कर ले, तो जरा भी ऊष्णता पैदा नहीं होती, ठंडी चट्टान ठंडी ही बनी रहती है। ऐसा ही मैं ठंडी चट्टान जैसा हूं। तेरे कारण कोई ऊष्णता पैदा नहीं हो गई।’

लेकिन इससे ही राज खुल गया। क्योंकि हम उसी को समझाने की कोशिश करते हैं, जहां हम पकड़े गए होते हैं। यह व्याख्या ही तो सारा गड़बड़ कर दी।

वेश्या ने जाकर बुढ़िया को कह दिया कि इतनी बात कही है, कि जैसे ठंडी चट्टान को कोई वृक्ष छुए और ऊष्णता पैदा नहीं होती।

बुढ़िया गई और उसने झोपड़े में आग लगा दी। यह आदमी साधु तो था लेकिन संत नहीं था। और जिसके चरणों में इसने इतने दिन बिताए, इतने दिन गुजारे, वह कोई सदगुरु होने की योग्यता नहीं थी। वह खुद ही अभी संघर्ष में था, मार्ग में था, पहुंचा नहीं था। और जो खुद न पहुंचा हो, वह किसी को कैसे पहुंचा सकता है? केवल वही पहुंचा सकता है, जो खुद पहुंच गया हो।

जो खुद ही रास्ते पर चल रहा हो, वह तुम्हें भी चला सकता है लेकिन पहुंचा नहीं सकता। जो अभी रास्ते पर ही है, उसे भी पक्का नहीं होता कि रास्ता पहुंचाएगा भी, या नहीं पहुंचाएगा? मंजिल मिलेगी या नहीं मिलेगी? वह भी अनुयायी चाहता है क्योंकि अनुयायियों से हिम्मत बढ़ती है। आसपास अनुयायियों को देखकर उसे लगता है, जैसे मैं पहुंच गया। रास्ते पर चलनेवाले आदमी को भी अनुयायी मिल जाएं। और अनुयायी इसलिए किसी का साथ खोज लेते हैं कि कोई भी कम से कम जा रहा है, तो शायद हम भी पहुंच जाएं।

हमारी हालत ऐसी है, मैंने सुना है, एक जंगल में एक शिकारी भटक गया। तीन दिन मुसीबतों का मारा, न रास्ता मिलता, न कोई दिशा सूझती! कोई पदचिह्न भी नहीं दिखाई पड़ता, जिसको पकड़कर यात्रा कर ले। भूखा, प्यास, परेशान, करीब-करीब इस हालत में कि गिर पड़े, मर जाए! अचानक उसने देखा, तीसरे दिन, सांझ को सूरज ढल रहा है और एक जंगल के घने हिस्से से दूसरा शिकारी चला आ रहा है। खुशी से भर गया। नाच उठा। जाकर उसे गले लगा लिया और कहा कि ‘मेरे भाई! तीन दिन से मैं भटका हुआ हूं, तुम मिल गए बड़ा अच्छा हुआ।’ उस दूसरे शिकारी ने कहा, ‘इतने खुश होने की कोई जरूरत नहीं। मैं सात दिन से भटका हुआ हूं।’

दूसरे का साथ मिल जाए तो भी खुशी हो जाती है। शायद रास्ता बन जाएगा। एक से नहीं मिला, दो से मिल जाएगा। शिष्य साथ खोजने के लिए गुरुओं के पीछे हो जाते हैं। गुरुओं की हिम्मत बढ़ जाती है। जितने शिष्य पीछे होते हैं, लगता है हम जरूर कहीं पहुंच गए होंगे; तभी तो इतने लोग पीछे हैं। लेकिन जो खुद नहीं पहुंचा है, वह पहुंचा नहीं सकता।

इस बूढ़ी स्त्री को बात साफ हो गई।

और हम व्याख्या उसी बात की देते हैं, जिससे हम डरते हैं। पति सांझ घर लौटता है, तैयार व्याख्या करके लौटता है। तुम उसकी व्याख्या पूछ लो, उससे ही पता चल जाएगा कि वह क्या गड़बड़ करके घर आ रहा है। शराब पीकर आ रहा है, तो वह व्याख्या करके आएगा कि आज जरा पार्टी थी। और जरूरी था काम-धंधे के लिए, इसलिए पीकर आ रहा हूं। उसकी व्याख्या पूछ लो। उससे पता चला जाएगा, वह क्या करके आ रहा है।

मैंने सुना है कि एक शराबी रात घर की तरफ चला, कई तरह के विचार तय करके। शराबी सदा घर की तरफ विचार तय करके चलते हैं। पत्नी पता नहीं क्या पूछे! सब तैयारी रखनी पड़ती है। भटक गया रास्ता और एक अजायबघर में पहुंच गया। किसी तरह ढूंढ़-ढांढ़कर दरवाजा खोज रहा था अपना। अपना दरवाजा तो वहां मिलने का कोई सवाल न था। एक हिप्पोपोटेमस के सींखचे के पास खड़ा हो गया। गौर से देखा, बहुत घबड़ा गया। और कहा कि ‘देख, ऐसा चेहरा मत बना। मैं पूरी-पूरी हर चीज का उत्तर तैयार करके आया हूं। इतना विकराल रूप मत दिखा।’ ‘आई हेव गाट एक्सप्लेनेशन्स फार एह्वरीथिंग।’

एक्सप्लेनेशन ही तो खबर देता है कि समस्या कहां है! तुम क्या व्याख्या देते हो, तुम कैसे सुलझाना चाहते हो मामले को, उससे ही तो मामले का पता चलता है।

यह साधु घबड़ा गया है। ऊष्णता जो शरीर में आ गई, माथे पर जो पसीने की बूंद दिख गई, शरीर जो कंप गया भय से, वासना की ऊष्णता जो दौड़ गई देह में, यह इस वेश्या से छिपाना मुश्किल है। शायद वह ऊष्णता छिप भी जाती, लेकिन यह व्याख्या उस बूढ़ी से छिपाना मुश्किल है। शायद यह वेश्या धोखे में भी पड़ जाती, लेकिन इसने जो वचन कहा, कि ‘जैसे चट्टान को कोई छू ले रात अंधेरे में वृक्ष, और चट्टान वैसी ही बनी रहती है–ठंडी की ठंडी; ऊष्णता पैदा नहीं होती; ऐसा ही मैं हूं।’ फिर बूढ़ी ने एक क्षण देर न की, उसने जाकर झोपड़े में आग लगा दी।

और बूढ़ी का आखिरी वक्तव्य है कि ‘मैंने व्यर्थ ही जीवन भर इस आदमी की सेवा की। यह खुद अभी कहीं पहुंचा नहीं था। यह तो रास्ते पर था। अच्छा आदमी था, सज्जन था, साधु था, लेकिन संत नहीं था।’

कहानी के बहुत रूपों में एक रूप यह कहता है कि उस बूढ़ी ने उस वेश्या को कहा कि कुछ भी हो, अभी संतत्व नहीं फला। नहीं तो कम से कम थोड़ी करुणा तो दिखा ही सकता था। वासना न दिखाता, लेकिन थोड़ी करुणा तो दिखा ही सकता था। और चट्टान चाहे ऊष्ण न हो, लेकिन बुद्ध का हृदय तो ऊष्ण होगा। वह वासना की ऊष्णता नहीं है। अब यह जरा और सूक्ष्म बात है, समझ लेने जैसी है।

एक और ऊष्णता भी है, जो करुणा की है। वासना से भी तुम ऊष्ण होते हो लेकन वह ऊष्ण ज्वर जैसा है, रोग जैसा है। करुणा से भी एक ऊष्णता तुम में दौड़ जाती है लेकिन वह ऊष्मा स्वागत की है। अंग्रेजी में शब्द है, ‘वार्म वेल-कम’–ऊष्ण स्वागत। जब तुम आतुर भाव से किसी को निकट लेते हो। एक मां भी अपने बेटे को निकट लेती है। एक मित्र भी अपने मित्र को निकट लेता है। एक गुरु भी अपने शिष्य को अपनी बाहों में भर ले सकता है। लेकिन उस ऊष्णता में कोई वासना नहीं है। वह ऊष्णता सिर्फ हृदय की है, वह करुणापूर्ण है; वह कोई उद्विग्नता नहीं है। वह केवल खुले द्वार का स्वागत है। वह कहती है कि हृदय खुला है, आओ।

उस बूढ़ी स्त्री का यह वचन है, उसने वेश्या को कहा कि वासना दिखाने की कोई जरूरत न थी, लेकिन थोड़ी करुणा तो दिखा ही सकता था।

ध्यान रहे, जिसने कामवासना को दबाया है, उसका ब्रह्मचर्य करुणापूर्ण नहीं होगा। जिसने कामवासना को दबाया है, उसकी कामवासना तो दबेगी ही, प्रेम भी दब जाएगा। क्योंकि वह सदा प्रेम से भी भयभीत रहेगा क्योंकि जहां भी प्रेम दिखाया, उसे डर लगेगा कि कहीं कामवासना के झरने फिर से न फूट पड़ें। और जिसका ब्रह्मचर्य कामवासना के पार जाकर उपलब्ध होता है, उसके ब्रह्मचर्य में प्रेम की अपार सरिता होगी। उसमें ऊष्णता होगी करुणा की। वह प्रेमी होगा। यह भेद बारीक है।

अगर वस्तुतः कोई व्यक्ति कामवासना के पार जाए तो उसकी समस्त जीवन ऊर्जा प्रेम बन जाएगी। वही लक्षण है। उसका सारा जीवन करुणा बन जाएगा। वह प्रेम से रिक्त नहीं हो जाएगा, प्रेम से पहली दफा पूरी तरह भर जाएगा। और जिस व्यक्ति ने कामवासना को दबाया, डरा, भयभीत हुआ, वह प्रेम से डर जाएगा। वह तुम्हारा हाथ भी छूने से भय खायेगा। क्योंकि हर वक्त उसे डर है कि वह ज्वाला भीतर जल रही है। और जरा-सा भी मौका मिला कि वह ज्वाला भभक सकती है। उस ज्वाला के डर के कारण वह प्रेम से भी वंचित कर लेगा अपने को। वह साधारण करुणा से भी दूर रहेगा। वह ऐसी परिस्थितियों से भाग जाएगा, जहां प्रेम के पैदा होने का कोई भी उपाय हो।

लेकिन जो ब्रह्मचर्य प्रेम से भी शून्य हो जाए, उस ब्रह्मचर्य को पाने का अर्थ ही खो गया। यह तो ऐसा हुआ, जैसे बच्चे को धोया टब में, गंदे पानी के साथ बच्चे को भी फेंक दिया। प्रेम तो बचना ही चाहिये था, वही तो आत्यंतिकता है; वही तो परमात्मा है। संत के जीवन में प्रेम होगा। साधु के जीवन में प्रेम नहीं होगा। और यही भेद रेखा होगी उनके ब्रह्मचर्य की।

उसने ठीक ही किया कि झोपड़ा जला दिया। यह तो सिर्फ प्रतीक है। यह सिर्फ इस बात का सूचक है, उस बूढ़ी ने खबर दे दी उस संन्यासी को, कि तू अभी रास्ते पर है, गुरु होने के योग्य न था, अभी तू खुद ही भयभीत हो रहा है। अभी तू खुद ही डर रहा है। अभी तू खुद ही व्याख्याएं देता है। तू खुद अपने को बचाने की कोशिश में लगा है। अभी तू भी असुरक्षित अनुभव करता है। अन्यथा व्याख्या की क्या जरूरत थी? कौन तुझ से पूछता था, तू किस से डरा था? अपने से ही डरा हुआ आदमी अपने चारों तरफ जाल खड़ा करता है। झोपड़े में आग नहीं लगाई है, उसके जाल में आग लगाई है; उसके चारों तरफ–ताकि उसे दिखाई पड़ जाए, उसे अपनी भ्रांति खयाल में आ जाए।

जीवन में ये दो मार्ग हैं। एक तो दमन का मार्ग है और एक मुक्ति का। अगर तुम दमन के मार्ग से चले तो तुम वासना से जो पीड़ा मिलती है, वह तुम्हें नहीं मिलेगी। वासना से जो उलझन होती है, वह तुम्हें नहीं होगी, लेकिन प्रेम से जो मुक्ति मिलती है वह भी तुम्हें नहीं मिलेगी। और प्रेम से जो आनंद उपलब्ध होता है, वह भी तुम्हें नहीं मिलेगा। एक स्थिति है, अगर तुम वासना से अपने को बचाओ, तो जो दुख तुम्हें मिलते हैं वे तुम्हें नहीं मिलेंगे।

मैंने सुना है, एक युवक ने अपने बाप को पत्र लिखा। युनिवर्सिटी में पढ़ता है, आखिरी साल है। उसने बाप को पत्र लिखा कि ‘अब मैंने तय कर लिया है विवाह का। लड़की भी मैंने चुन ली है। बस आपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा है। आपका आशीर्वाद मिला कि मैं विवाह कर लूंगा।’

बाप ने बेटे को उत्तर लिखा, और लिखा कि ‘खुश हूं, आनंदित हूं। इसी घड़ी की प्रतीक्षा थी हम दोनों को कि कब तुम विवाह कर लोगे, कब तुम्हें जीवन का साथी मिल जाएगा! यह सोचकर कि तुम विवाह करने जा रहे हो, मुझे अपने उन दिनों की याद आती है, जब मैं तुम्हारी मां के प्रेम में पड़ा था। वह सामने ही मेरे टेबल पर बैठी है। सब स्मरण हो आया। यह इतने बीस वर्षों का सुख, यह आनंद जो तुम्हारी मां ने मुझे दिया; परमात्मा करे, ऐसा ही सुख तुम्हारे जीवन में भी तुम्हें मिले। हमारे आशीर्वाद।’ और नीचे पुनश्च करके लिखा था, ‘सावधान! भूलकर विवाह मत करना। तेरी मां जरा बाहर गई है, तो मैं असली बात लिखे दे रहा हूं।’

लेकिन अगर कोई विवाह न करे तो निश्चित विवाह के दुख से तो बच जाता है, लेकिन कोई सुख उपलब्ध नहीं होता। यह तकलीफ है। विवाह के दुख से बच जाता है क्योंकि विवाह के दुख हैं; संबंध की अड़चनें हैं। दूसरे के साथ रहने की उलझन है, समस्याएं हैं, कलह है, संघर्ष है। जहां दो हैं, वहां थोड़ी सी आवाज होगी, बर्तन बजेंगे। कष्ट उसके हैं। इस भय से कोई विवाह करने से बच जाए तो अकेले रहने का कोई सुख नहीं है। तुम चाहो तो एक तरह अपने को सिकोड़ ले सकते हो। दुख तुम्हें बिलकुल न रहेंगे, लेकिन सुख भी कोई न रह जाएगा।

जिसको तुम साधु कहते हो, वह इसी तरह का भागा हुआ भगोड़ा है। जहां-जहां दुख मिलता था, वहां-वहां से उसने अपने को सिकोड़ लिया। तो दुख तो नहीं मिलता, वह तुमसे कम दुखी है, यह बात सच है; लेकिन किसी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ। क्योंकि सिकुड़ने से कोई आनंद को उपलब्ध नहीं होता, फैलने से कोई आनंद को उपलब्ध होता है। उसने सुरक्षा तो पूरी कर ली, लेकन सुरक्षा कब्र बन गई। वह उसी में सड़ जाएगा।

संत बड़े और तरह का अनुभव है। संतत्व का अर्थ है: तुम दुख से अपने को नहीं बचा रहे हो, तुम आनंद की तरफ अपने को फैला रहे हो। तुम कामवासना से मुक्त होने की कोशिश ही नहीं कर रहे हो, तुम प्रेम की तरफ विकसित होने की कोशिश…तुम्हारी यात्रा विधायक है। तुम चिंता में नहीं हो कि कामवासना रहे या जाए, तुम चिंता में हो कि मैं प्रेमपूर्ण कैसे बन जाऊं। तुम एक घर को नहीं छोड़ रहे हो बल्कि पूरी पृथ्वी, पूरा संसार, पूरा अस्तित्व, तुम्हारा घर कैसे बन जाए इसकी कोशिश कर रहे हो। यह यात्रा बिलकुल दूसरी है। यह आदमी भी अकेला हो जाएगा, लेकिन उसके अकेलेपन में एक गरिमा होगी। क्योंकि इसका अकेलापन एक आनंद से भरा होगा। इसको भी कोई दुख न होंगे, लेकिन दुख न होना कोई गुणधर्म थोड़े ही है! पीड़ा इसको भी नहीं होगी। मरे हुए आदमी को कोई बीमारी नहीं लगती। इसलिए तुम मर जाओ तो तुम्हें कभी कोई बीमारी का डर नहीं रहेगा। न डाक्टर की फीस चुकानी पड़ेगी, न दवा लेनी पड़ेगी। लेकिन यह कोई स्वास्थ्य हुआ?

साधु ऐसा ही मरा हुआ आदमी है, जो गृहस्थी के दुख देखकर डर गया, भयभीत हो गया। सब तरफ से उसने द्वार बंद कर लिए। जहां-जहां से दुख आते हैं, द्वार बंद कर लिए। कब्र बन गया घर। लेकिन आनंद इसे फलित नहीं होगा। तुम्हारे साधु तुमसे कम दुखी हैं यह सच है, क्योंकि दुख की परिस्थितियों के बाहर हैं। न इन्कमटेक्स भरना है, न चोरी करनी है, न किसी को धोखा देना है। ना, ये सब चिंताएं नहीं हैं। लेकिन यह सिर्फ परिस्थिति से हट जाना है। न पत्नी है, न बच्चे हैं, न रोज की मुसीबतें हैं।

मैंने सुना है, एक आदमी फोन कर रहा है अपनी पत्नी को। कह रहा है कि आज एक मित्र को भोजन पर ला रहा हूं। उसकी पत्नी फोन पर ही चीखने-चिल्लाने लगी। और उसने कहा कि तुम्हारी अक्ल खो गई है? आंखें फूट गई हैं? नौकरानी छोड़कर चली गई है, रसोइया बीमार पड़ा है। बच्चे के दांत निकल रहे हैं। मैं खुद तीन दिन से बुखार में हूं। अनाज घर में नहीं है। दुकानदार ने आगे देने से मना किया है, जब तक हम पिछले पैसे न चुका दें। तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? उस आदमी ने कहा कि इसीलिए तो उसको घर ला रहा हूं। यह मित्र शादी करना चाहता है। इसको दिखाने ही तो घर ला रहा हूं कि देख ले, कैसा सुख का साम्राज्य छाया हुआ है!

पर इस वजह से अगर कोई दुख से बच जाए, तो क्या आनंदित हो जाएगा?

दुख के भय से तुम सिकुड़ोगे, फैल नहीं सकते। आनंद की यात्रा अलग है। उसे ही मैं धर्म की यात्रा कहता हूं। वह एक विधायक यात्रा है, नकारात्मक नहीं। तुम कुछ छोड़ते नहीं, तुम विराट को पाते हो। तुम किसी से भागते नहीं, तुम विराट को आलिंगन करते हो। उसमें क्षुद्र अपने आप खो जाता है। तुम घर से हटते नहीं, तुम सारे अस्तित्व को अपना घर बनाते हो।

संत महाभोगी है।

तुम भोगी हो, तुम्हारा साधु भोग के विपरीत–अभोगी है, संत महाभोगी है। क्योंकि संत आनंद में थिर होता है। और जहां आनंद है, वहां प्रेम है; करुणा है। वह उसकी छाया की तरह है।

उस स्त्री ने ठीक ही कहा कि जला दो इस आदमी का झोपड़ा अब। यह फिजूल की मेहनत थी, इतने दिन तक जो की। इसे खुद कुछ नहीं मिला। अभी भी भयभीत है, अभी भी व्याख्याएं दे रहा है।

तुम भी सोचना, क्योंकि ये दोनों रास्ते हैं। और गलत पर जाने का तुम्हारा मन सदा साथ देगा। सदा तुम्हारा मन गलत को चुनने में साथ देगा। क्योंकि मन तुम्हारे भीतर गलत की प्रक्रिया है। वह गलत का स्रोत है।

एक मित्र, एक मित्र को बिदा कर रहा है। दोनों काफी पी गए हैं। मित्र को बिदा कर रहा है। दोनों हाथ-पैर कंप रहे हैं। एक दूसरे को गले भी लगाते, तो ठीक से लगा नहीं पाते। एक दूसरे को चूमते हैं, तो कहीं का चुंबन कहीं पड़ जाता है। दोनों काफी पी गए हैं। फिर उसने कहा कि देख भाई! एक बात अनुभव से कहता हूं। यहां से तू जाएगा, सौ कदम के बाद दो रास्ते दिखाई पड़ेंगे। बायें तरफ मत मुड़ना; वह रास्ता है ही नहीं। दायें तरफ ही मुड़ना। वह रास्ता एक ही है लेकिन मैं जब भी ज्यादा पी जाता हूं, तो दो दिखाई पड़ते हैं। और बायें तरफ के रास्ते पर भूलकर मत जाना; वह है ही नहीं।

तुम्हारा मन तुम्हारे भीतर गलत की बेहोशी की प्रक्रिया है, शराब है। वह हमेशा बायें तरफ का रास्ता दिखाएगा। और वह सुगम मालूम पड़ेगा। क्योंकि मन को उसमें जाने में कोई भी अड़चन नहीं है। जब तुम पत्नी से ऊब जाओगे, तब तुम्हें साधुओं की बातें एकदम ठीक मालूम पड़ेंगी। जब घर में कोई मर जाएगा तब तुम धर्मशास्त्र एकदम से पढ़ने लगोगे। जब दिवाला निकल जाएगा, तब तुम्हें साधु बनने की बड़ी प्रेरणा होगी। जब भी तुम हारोगे, तत्क्षण तुम हरि नाम जपने लगोगे–‘हारे को हरिनाम।’ भजन-कीर्तन करने लगोगे।

इससे बचना। यह तुम्हारा मन ही समझा रहा है। जो तुम्हें दुकान में लगाए था, वही तुम्हें मंदिर में ले जा रहा है। जो तुम्हें धन का हिसाब करवाता था, वही राम-नाम जपवा रहा है। वहां हार गए तो वह कहता है, चलो यहां कोशिश कर लो। लेकिन ठीक रास्ता बायें तरफ नहीं है, मन की तरफ नहीं है। ठीक रास्ता, मन की सुनना बंद कर देना है। तुम मन से पूछना ही मत; मन तो द्वंद्व में बताएगा। और बड़ी अजीब हालत है मन की। अगर तुम जहां हो वहां से तुम्हें बताएगा, विपरीत चले जाओ। अगर तुम विपरीत चले गए, वहां से तुम्हें बताएगा, तुमने वह जगह बेकार छोड़ दी।

एक आदमी हवाई जहाज का पायलट है। हवाई जहाज पर अपने एक मित्र को घुमाने ले गया। केलीफोर्निया की सुंदर घाटी के ऊपर वे उड़ रहे हैं। नीचे एक झील आती है। और वह पायलट अपने मित्र से कहता है, ‘बड़ी अजीब बात है। जब मैं छोटा बच्चा था, तो इस झील पर मैं मछलियां पकड़ता था। और जब मैं कांटा डालकर बैठा रहता, मछलियां पकड़ता, ऊपर हवाई जहाज उड़ते तो मेरा मन कहता था, कब वह सौभाग्य मिलेगा, जब मैं पायलट हो जाऊंगा! अब मैं पायलट हो गया। अब मैं इस झील पर से जब भी निकलता हूं, सोचता हूं कब रिटायर्ड हो जाऊंगा कि फिर मछलियां मारूं?’

मन ऐसा है! अब वह कहता है, बस एक ही सुख मालूम पड़ता है कि कब छुटकारा मिले इस सबसे, और बैठूं झील पर, मछलियां मारूं! कोई चिंता नहीं मछलियां मारने में। और पहले मैं मछलियां मारता ही था, लेकिन तब पायलट होना चाहता था।

तुम्हारा मन, जब तुम दुकान में हो तो मंदिर में जाएगा। जब तुम मंदिर में हो तब दुकान ले जाएगा। तुम्हारा मन तुम्हें सदा विपरीत में बुलाता रहेगा। जब तुम जागोगे और दोनों को छोड़ दोगे, तब संतत्व का जन्म है।

अगर यह व्यक्ति संत रहा होता तो इसका व्यवहार बिलकुल भिन्न होता। कुछ कहना मुश्किल है, कैसा व्यवहार होता।

यह और एक खास बात समझ लेनी जरूरी है। साधु का व्यवहार तय है। कैसा होगा, प्रिडिक्टेबल है। असाधु से उल्टा होगा। तुम थोड़ी देर सोचो, कि तुम रहे होते इस साधु की कोठरी में, और यह सुंदर वेश्या आई होती; तुमने क्या किया होता? तुम सोचते कि अब एक दिन के लिए साधुता-वाधुता छोड़ देने में कुछ हर्ज नहीं है। और एक दिन की बात है, फिर कमा लेंगे, अपनी ही कमाई है। गंवाना क्या है? और ऐसा अवसर हाथ लगा, इसे जाने देना ठीक नहीं। खुद वेश्या खोजती आ गई है। और जब भगवान ऐसा अनुग्रह करे, तो इनकार मत करना। भक्त को कभी इनकार नहीं करना, स्वीकार करना। तुम अपना व्यवहार भलीभांति सोच सकते हो। उससे विपरीत इस आदमी का व्यवहार है। यह साधु है; यह प्रिडिक्टेबल है।

साधु के संबंध में घोषणा की जा सकती है, वह क्या करेगा; लेकिन संत के संबंध में कोई घोषणा नहीं की जा सकती। संत के संबंध में कोई भविष्य-वाणी संभव नहीं है। क्योंकि संत किसी भी बंधी हुई विचार-धारणा पर नहीं चलता। संत की चेतना पर निर्भर है, कि वह क्या करेगा?

बौद्ध कथा है: एक बौद्ध भिक्षु रास्ते से गुजर रहा है। सुंदर है।

और भिक्षु अकसर सुंदर हो जाते हैं। संन्यासी अकसर सुंदर हो जाते हैं। क्योंकि संसार इतना कुरूप है, उसमें जी-जीकर चेहरा भी कुरूप हो जाता है। उसमें लगे-लगे चेहरे पर भी वे सब घाव बन जाते हैं, जो चारों तरफ हैं। और बुरा करते-करते बुराई की रेखा भी आंखों में खिंच जाती है। संन्यासी सुंदर हो जाते हैं। इसलिए संन्यासी बड़े आकर्षक हो जाते हैं। और स्त्रियां जितनी संन्यासियों के प्रति मोहित होती हैं, किसी के प्रति मोहित नहीं होतीं।

एक वेश्या ने उसे रास्ते से गुजरते देखा। और उन दिनों वेश्या बड़ी बहुमूल्य बात थी। इस मुल्क में उन दिनों बिहार में, बुद्ध के दिनों में जो नगर में सबसे सुंदर युवती होती, वही वेश्या हो सकती थी। एक समाजवादी धारणा थी वह। वह धारणा यह थी कि इतनी सुंदर स्त्री एक व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए। इसलिए इसको पत्नी नहीं बनने देंगे। इतनी सुंदर स्त्री सबकी ही हो सकती है। इसलिए वह नगर-वधू कही जाती थी। और नगर-वधू का सौभाग्य श्रेष्ठतम स्त्रियों को मिलता था। और यह गौरव का पद था, क्योंकि पत्नी होना तो बहुत आसान है, लेकिन नगर-वधू होना बड़ा कठिन है।

यह नगर-वधू थी, और उसने अपने महल से नीचे झांककर देखा, और यह शानदार भिक्षु अपनी मस्ती में चला जा रहा है। वह मोहित हो गई। वह भागी। उसने जाकर भिक्षु का चीवर पकड़ लिया। और कहा कि ‘रुको। सम्राट मेरे महल पर दस्तक देते हैं, लेकिन सभी को मैं मिल नहीं पाती; क्योंकि समय की सीमा है। यह पहला मौका है, मैं किसी के द्वार पर दस्तक दे रही हूं। तुम आज रात मेरे पास रुक जाओ।’

भिक्षु संत ही रहा होगा। उसकी आंखों में आंसू आ गए।

उस वेश्या ने पूछा कि ‘आंख में आंसू?’

उसने कहा, ‘इसीलिए कि तुम जो मांगती हो, वह मांगने जैसा भी नहीं है। तुम्हारे अज्ञान को, तुम्हारे अंधेरे को देखकर पीड़ा होती है। आज तो तुम युवा हो, सुंदर हो। अगर मैं न भी रुका आज रात तुम्हारे घर, तो कुछ बहुत अड़चन न होगी। बहुत युवक प्यासे हैं तुम्हारे पास रुकने को। लेकिन जब कोई तुम्हारे द्वार पर न आए, तब मैं आऊंगा।’

यह संत का व्यवहार है। मना नहीं किया उसने, कि मैं नहीं आता। उसने कहा, मैं आऊंगा, लेकिन अभी तो बहुत बाजार पड़ा है। अभी बहुत लोग आने को उत्सुक हैं। अभी मेरी कोई जरूरत भी नहीं है। मेरी कोई–कोई उपयोगिता भी नहीं। मैं न भी आया तो तुम भूल जाओगी। और मैं आया भी तो भी दो दिन बाद भूल जाऊंगा। पानी पर खिंची लकीर है, मिट जाएगी। लेकिन जिस दिन कोई न होगा…ज्यादा देर न लगेगी, यह भीड़ छंट जाएगी। यह भीड़ सदा नहीं रहेगी। आज तुम सुंदर हो, कल तुम सुंदर न रहोगी। आज लोग तुम्हें चाहते हैं, कल तुमसे बचेंगे। आज सुंदर हो, सिर पर उठाया है। कल कुरूप हो जाओगी, गांव के बाहर फेंक देंगे। और जिस दिन कोई न होगा, उस दिन मैं आऊंगा। मुझे भी तुमसे प्रेम है, लेकिन प्रेम प्रतीक्षा कर सकता है।

उस वेश्या की समझ में कुछ न आया। क्योंकि वासना तो बिलकुल अंधी है, वह कुछ नहीं समझ पाती। करुणा के पास आंखें हैं, वासना के पास कोई आंखें नहीं हैं। लोग कहते हैं, प्रेम अंधा है। वह जो प्रेम वासना से भरा है, निश्चित ही अंधा है। लेकिन एक और प्रेम भी है, जो अंधा नहीं है। वस्तुतः उसी प्रेम के पास आंखें हैं, जो आंखों वाला है।

इस भिक्षु ने प्रेम से इनकार न किया। इसने यह न कहा कि ‘यह क्या पागलपन की बात है? हट, स्त्री! यह क्या शैतान का निमंत्रण! मेरे चीवर को छूकर भ्रष्ट किया। दूर हो! यह क्या पाप की बात!’ इसके माथे पर पसीना न आया, आंख में आंसू आए। इसे किसी वासना से कोई ज्वर पैदा न हुआ। इसने कुछ व्याख्या भी न दी। इसने कोई व्याख्या मांगी भी नहीं। इसने इतना ही कहा, ‘जब जरूरत होगी, मैं जरूर आ जाऊंगा।’

बीस वर्ष बाद, अंधेरी रात है अमावस की। और एक स्त्री पड़ी है गांव के बाहर और तड़फ रही है। क्योंकि गांव ने उसे बाहर फेंक दिया। वह कोढ़ ग्रस्त हो गई। यह वही वेश्या है, जिसके द्वार पर सम्राट दस्तक देते थे। अब दस्तक देने का तो कोई सवाल नहीं है। अब उसके शरीर से बदबू आती है। उसके पास भी कोई बैठने को राजी नहीं। उस अंधेरी रात में सिर्फ एक भिक्षु उसके सिर के पास बैठा हुआ है। वह करीब-करीब बेहोश पड़ी है। बीच-बीच में उसे थोड़ा-सा होश आता है, तो भिक्षु कहता है, ‘सुन, मैं आ गया! अब भीड़ जा चुकी है। अब कोई तेरा चाहने वाला न रहा। लेकिन मैं तुझे अब भी चाहता हूं। और मैं कुछ तुझे देना चाहता हूं, कोई सूत्र, जो जीवन को वस्तुतः सुंदर करता है। और कोई सूत्र, जो जीवन को निश्चित ही तृप्ति से भर देता है। उस दिन तूने मांगा था, लेकिन उस दिन तू ले न पाती। और जो तू मांगती थी, वह देने योग्य नहीं है। प्रेम उसे नहीं दे सकता है।’

बौद्ध कहते हैं इस कथा के संबंध में, कि वह भिक्षुणी, वह जो स्त्री थी, वह उस रात दीक्षित हुई। भिक्षुणी की तरह मरी। और परम तृप्त मरी। और बौद्ध कहते हैं कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुई। इसने उसे ध्यान दिया। प्रेम ध्यान ही दे सकता है। क्योंकि उससे बड़ा देने योग्य कुछ भी नहीं।

लेकिन प्रिडिक्टेबल नहीं है संत का व्यवहार। कुछ ऐसा नहीं है कि दूसरे संत के पास वेश्या गई होती, तो उसकी आंख से आंसू निकले होते। कुछ कहना मुश्किल है, उस परिस्थिति में क्या होता। क्योंकि संत जीता है सहज, क्षण-क्षण। क्या उत्तर आता है, कहना मुश्किल है।

एक और दूसरी बौद्ध कथा है।

एक वेश्या ने भिक्षु को रोका, निमंत्रण दिया, कि मेरे घर रुक जाओ वर्षाकाल में। उस भिक्षु ने कहा, ‘रुकने में मुझे जरा अड़चन नहीं है,… यह बात अलग! फिर भविष्यवाणी मुश्किल है।’ उसने कहा, ‘रुकने में मुझे जरा अड़चन नहीं, लेकिन जिस से दीक्षा ली है, उस गुरु से जरा पूछ आऊं। ऐसे वह मना भी नहीं करेंगे, उसका पक्का भरोसा है। लेकिन उपचारवश! सिर्फ औपचारिक है। क्योंकि मैं गुरु का शिष्य हूं। बुद्ध गांव के बाहर ही हैं, अभी पूछकर आ जाता हूं।’

वेश्या भी थोड़ी चिंतित हुई होगी। कैसा भिक्षु! इतनी जल्दी राजी हुआ?

वह भिक्षु गया। उसने बुद्ध से कहा कि ‘सुनिए, एक आमंत्रण मिला है एक वेश्या का, वर्षाकाल उसके घर रहने के लिए। जो आज्ञा आपकी हो, वैसा करूं।’ बुद्ध ने कहा, ‘तू जा सकता है। निमंत्रण को ठुकराना उचित नहीं।’

सनसनी फैल गई भिक्षुओं में। दस हजार भिक्षु थे,र् ईष्या से भर गए। लगा कि सौभाग्यशाली है। तो वेश्या ने निमंत्रण दिया वर्षाकाल का। और हद्द हो गई बुद्ध की भी कि उसे स्वीकार भी कर लिया और आज्ञा भी दे दी। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि ‘रुकें! इससे गलत नियम प्रचलित हो जाएगा। भिक्षुओं को वेश्याएं निमंत्रित करने लगें, और भिक्षु उनके घर रहने लगें, भ्रष्टाचार फैलेगा। यह नहीं होना चाहिए।’

बुद्ध ने कहा, ‘अगर तुझे निमंत्रण मिले, और तू ठहरे तो भ्रष्टाचार फैलेगा। तू ठहरने को कितना आतुर मालूम होता है! कह तू उलटी बात रहा है। अगर तुझे निमंत्रण मिले और तू पूछने आए…पहली तो बात तू पूछने आएगा नहीं, क्योंकि तू डरेगा। यह पूछने आया ही इसीलिए है कि कोई भय नहीं है। तू आएगा नहीं पूछने। अगर तू पूछने भी आएगा, तो मैं तुझे हां न भरूंगा। और तू भयभीत मत हो। मुझे पता है यह आदमी अगर वेश्या के घर में ठहरेगा, तो तीन महीने में यह वेश्या के पीछे नहीं जाएगा, वेश्या इसके पीछे आएगी। मुझे इस पर भरोसा है। यह बड़ा कीमती है।’

वह भिक्षु चला भी गया। वह तीन महीने वेश्या के घर रहा। बड़ी-बड़ी कहानियां चलीं, बड़ी खबरें आईं, अफवाहें आईं कि भ्रष्ट हो गया। वह तो बरबाद हो गया, बैठकर संगीत सुनता है। पता नहीं खाने-पीने का भी नियम रखा है कि नहीं! वह भिक्षु भीतर तो जा नहीं सकते थे, लेकिन आसपास चक्कर जरूर लगाते रहते थे। और कई तरह की खबरें लाते थे। लेकिन बुद्ध सुनते रहे और उन्होंने कोई वक्तव्य न दिया।

तीन महीने बाद जब भिक्षु आया, तो वह वेश्या उसके पीछे आई। और उस वेश्या ने कहा कि मेरे धन्यभाग कि आपने इस भिक्षु को मेरे घर रुकने की आज्ञा दी। मैंने सब तरह की कोशिश की इसे भ्रष्ट करने की, क्योंकि वह मेरा अहंकार था।

जब वेश्या तुम्हें भ्रष्ट कर पाती है, तब जीत जाती है।

वह मेरा अहंकार था कि यह भिक्षु भ्रष्ट हो जाए। लेकिन इसके सामने मैं हार गई। मेरा सौंदर्य व्यर्थ, मेरा शरीर व्यर्थ, मेरा संगीत व्यर्थ, मेरा नृत्य, इसे कुछ भी न लुभा पाया और तीन महीने में, मैं इसके लोभ में पड़ गई। और मेरे मन में यह सवाल उठने लगा, क्या है इसके पास? कौन-सी संपदा है, जिसके कारण मैं इसे कचरा मालूम पड़ती हूं? अब मैं भी उसी की खोज करना चाहती हूं। जब तक वह संपदा मुझे न मिल जाए, तब तक मैं सब कुछ करने को राजी हूं, सब छोड़ने को राजी हूं। अब जीने में कोई अर्थ नहीं, जब तक मैं इस अवस्था को न पा लूं, जिसमें यह भिक्षु है।

कहना मुश्किल है, संत का व्यवहार क्या होगा। साधु का व्यवहार निश्चित है।

उस बुढ़िया ने पाया कि यह साधु तो है, संत नहीं। झोपड़े में आग लगा दी। उसने अपनी सेवा वापिस ले ली। वह सदगुरु नहीं हो सकता था। वह खुद ही अभी यात्रा का पथिक है, अभी यात्री है। अभी मार्ग पूरा होना है। और न केवल पूरा होना है, अभी मार्ग बायें की तरफ चल रहा है, उसे दायें की तरफ चलना है। न केवल वह यात्री है, बल्कि गलत यात्रा में संलग्न है।

असाधु के विपरीत साधु मत बनना। साधना में ही अगर उत्सुक हो जाए चित्त, साधना का ही अगर निमंत्रण मिल जाए, तो साधु-असाधु दोनों के पार एक तीसरी यात्रा है संत की, उस तरफ जाना–द्वंद्व के पार, अतियों के पार, विपरीत से मुक्ति।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–45

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योग के आठ अंग—(प्रवचन—पांचवां)

‘योग—सूत्र’

(साधनपाद)

योगाड्गानुष्‍ठानात् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्‍तिरा विवेकख्‍याते:।। 28।।

योग के विभिन्‍न अंगों के अभ्‍यास द्वारा

अशुद्धि के क्षय होने से आत्‍मिक प्रकाश का अविर्भाव होता है,

जो कि सत्‍य का बोध बन जाता है।

यमनियमासनप्राणायामप्रत्‍याहारधारणाध्‍यानसमाधयोउष्‍टावाड्गानि।। 29।।

यम, नियम,आसन,प्राणायन, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान और समाधि।

जिस प्रकाश को तुम खोज रहे हो वह तुम्हारे भीतर ही है। इसलिए खोज होगी भीतर की ओर। यह यात्रा किसी बाहरी मंजिल की नहीं है, यह अंतस की यात्रा है। तुम्हें अपने केंद्र पर पहुंचना है। जिसे तुम खोज रहे हो, वह पहले से ही तुम्हारे भीतर है। तुम्हें तो बस प्याज के छिलके उतारने हैं : पर्त दर पर्त अज्ञान है वहा। हीरा छिपा हुआ है कीचड़ में; हीरे को निर्मित नहीं करना है। हीरा तो मौजूद ही है—केवल कीचड़ की पर्तें हटा देनी हैं।

यह एकदम मूलभूत बात है समझ लेने की : खजाना पहले से ही मौजूद है। शायद तुम्हारे पास चाबी नहीं है। चाबी को खोजना है—खजाने को नहीं। यह पहली बात है, एकदम मूलभूत, क्योंकि सारी प्रक्रिया निर्भर करेगी इसी समझ पर। यदि खजाने को निर्मित करना हो, तब तो यह बड़ी लंबी प्रक्रिया होगी; और कोई निश्चित भी नहीं हो सकता कि इसे निर्मित किया भी जा सकता है या नहीं। लेकिन केवल चाबी को खोज लेना है। खजाना तो मौजूद है, एकदम निकट ही है। अवरोधों की कुछ पर्तें हटा देनी हैं।

इसीलिए सत्य की खोज नकारात्मक है। यह कोई विधायक खोज नहीं है। तुम्हें कुछ जोड़ना नहीं है अपने में, बल्कि तुम्हें कुछ हटाना है। तुम्हें कुछ कांटना है स्वयं से। सत्य की खोज एक शल्य—क्रिया है। वह कोई औषधि—चिकित्सा नहीं है; वह शल्य—क्रिया है। कुछ जोड़ना नहीं है तुम में : बल्कि उलटे कुछ हटाना है तुम से, झाडू देना है।

इसीलिए उपनिषदों की विधि है. ‘नेति—नेति।’ नेति—नेति का अर्थ है : तब तक निषेध किए जाओ जब तक कि तुम निषेध करने वाले तक ही न पहुंच जाओ; तब तक निषेध किए जाओ जब तक निषेध करने की कोई संभावना ही न रह जाए, केवल तुम्हीं बचो—तुम तुम्हारे केंद्र में, तुम्हारी चेतना में जिसे कि हटाया ही नहीं जा सकता—क्योंकि कौन हटाएगा उसे? तो निषेध करते ही जाओ ‘मैं न यह हूं और न वह हूं।’ इसी तरह बढ़ते जाओ। यह भी नहीं, यह भी नहीं—नेति—नेति। फिर एक ऐसी जगह आ जाती है जब केवल तुम ही रह जाते हो—इनकार करने वाला; और इनकार करने को कुछ भी नहीं बचता, शल्य—क्रिया पूरी हो जाती है; तुम पहुंच जाते हो खजाने तक।

यदि इसे ठीक से समझ लो, तो यात्रा बोझिल नहीं रह जाती; यात्रा बड़ी सरल हो जाती है। तुम सरलता से बढ़ सकते हो मार्ग पर, हर पल भलीभांति जानते हुए कि खजाना भूल सकता है, लेकिन खो नहीं सकता है। तुम शायद भूल गए हो कि ठीक—ठीक कहां है वह, लेकिन वह है तुम्हारे भीतर ही। तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो सकते हो; इस विषय में कोई अनिश्चितता नहीं है। असल में यदि तुम इसे खोना भी चाहो तो तुम इसे खो नहीं सकते, क्योंकि यह तुम्हारी निजता ही है। यह कोई तुमसे बाहर की बात नहीं; यह अंतर्निहित बात है।

लोग आते हैं मेरे पास और कहते हैं, ‘हम परमात्मा को खोज रहे हैं।’ मैं पूछता हूं उनसे, ‘तुमने उसे खोया कहां है? क्यों खोज रहे हो तुम? क्या तुमने उसे कहीं खोया है गुम यदि तुमने उसे कहीं खोया है, तो बताओ मुझे कि कहां खोया है तुमने उसे, क्योंकि केवल वहीं तुम खोज पाओगे उसे।’ वे कहते हैं, ‘नहीं, हमने खोया नहीं है उसे।’

तो क्यों तुम खोज रहे हो? तब तो अपनी आंखें बंद करो और भीतर देखो। शायद इस खोज के कारण ही तुम चूक रहे हो उसे। शायद तुम खोज में बहुत व्यस्त हो; तुमने अपने भीतर देखा ही नहीं है कि सम्राटों का सम्राट तो पहले से ही वहां बैठा हुआ है, प्रतीक्षा कर रहा है कि तुम घर आ जाओ। और तुम ठहरे बड़े खाँजी, तो तुम जा रहे हो मक्का, मदीना, काशी और कैलाश! तुम एक महान खोजी हो। तुम भाग रहे हो संसार भर में, सिवाय एक जगह के—जहां कि तुम हो। खोजने वाला ही है मजिल—जब वह मौन और शांत हो जाता है।

कुछ नया नहीं पा लिया जाता, बस तुम समझ जाते हो कि बाहर देखने में ही सारी बात चूक रही थी। भीतर देखते हो, वह वहा मौजूद है। वह सदा से ही वहा मौजूद है, एक क्षण को भी कभी ऐसा नहीं होता जब कि वह नहीं था—और न ही ऐसा क्षण आगे कभी होगा—क्योंकि परमात्मा कहीं बाहर नहीं है, सत्य कहीं बाहर नहीं है तुमसे. वह तुम्हीं हो अपनी आत्यंतिक महिमा में, वह तुम्हीं हो अपनी परम विशुद्धता में। यदि तुम समझ लो इसे, तो पतंजलि के ये सूत्र बहुत आसान हो जाएंगे।

योग के विभिन अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से आत्मिक प्रकाश का आविर्भाव होता है जो कि सत्य का बोध बन जाता है।

वे नहीं कह रहे हैं कि कुछ निर्मित करना है; वे कह रहे हैं कि कुछ हटाना है। तुम कुछ ज्यादा ही हो अपनी स्व सत्ता से—यही है समस्या। तुमने अपने आस—पास बहुत कुछ इकट्ठा कर लिया है, हीरे पर बहुत कीचड़ जम गया है। कीचड़ को धो देना है। और अचानक, हीरा प्रकट हो जाता है।

‘योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से……।’

यह कोई शुद्धता या पावनता या दिव्यता को निर्मित करने की बात नहीं है, यह केवल अशुद्धि को हटाने की बात है। शुद्ध तो तुम हो ही। पावन तो तुम हो ही। तो पूरी बात ही बदल जाती है। तो बस कुछ चीजें कांट देनी हैं और गिरा देनी हैं; कुछ चीजें अलग कर देनी हैं।

गहरे में यही अर्थ है संन्यास का, त्याग का। यह घर को छोड़ देना नहीं है, परिवार को छोड़ देना नहीं है, बच्चों को छोड़ देना नहीं है—वह तो बहुत कठोर मालूम पड़ता है। और करुणावान व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है? तो पत्नी को नहीं छोड़ देना है, क्योंकि वह कोई समस्या नहीं है। पत्नी परमात्मा के मार्ग में बाधा नहीं है; न तो बच्चे बाधा हैं और न घर। नहीं, यदि तुम उन्हें छोड़ देते हो तो तुम समझे ही नहीं। कुछ और छोड़ना है, जिसे तुम अपने भीतर इकट्ठा करते रहे हो।

यदि तुम घर छोडना चाहते हो तो असली घर छोड़ना, जो शरीर है, जिसमें तुम रहते हो और निवास करते हो। और छोड़ने से मेरा यह अर्थ नहीं है कि जाओ और आत्महत्या कर लो, क्योंकि वह तो कोई छोड़ना न होगा। इतना ही जान लेना कि तुम शरीर नहीं हो, पर्याप्त है। शरीर के प्रति कठोर होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम शरीर नहीं हो, लेकिन शरीर भी तो परमात्मा का ही है। तुम नहीं हो शरीर, लेकिन शरीर का भी अपना जीवन है, वह भी हिस्सा है जीवन का, वह भी अंग है इस समग्रता का। तो कठोर मत होओ उसके प्रति, हिंसक मत होओ उसके प्रति। स्व—पीड़क मत होओ।

धार्मिक व्यक्ति करीब—करीब सदा ही स्व—पीड़क हो जाते हैं। या वे पहले से ही होते हैं—धर्म एक आडू बन जाता है और वे स्वयं को सताना शुरू कर देते हैं। स्व—पीड़क मत बनो। दो तरह के सताने वाले और हिंसक लोग होते हैं : एक तो होते हैं सैडिस्ट, पर—पीड़क, जो दूसरों को सताते हैं—राजनीतिज्ञ, एडोल्फ हिटलर आदि; और फिर होते हैं स्व—पीड़क—तथाकथित धार्मिक व्यक्ति, संत—महात्मा, जो सताते हैं स्वयं को—वे मैसोचिस्ट होते हैं। दोनों एक ही हैं. हिंसा वही है। चाहे तुम किसी दूसरे के शरीर को सताओ या अपने शरीर को, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—तुम हिंसा तो कर ही रहे हो।

त्याग कोई अपने को सताना नहीं है। यदि वह अपने को सताना हो जाता है तो वह सिर के बल खड़ी राजनीति ही है। शायद तुम इतने कायर हो कि तुम दूसरों को नहीं सता सकते। तथाकथित सौ धार्मिक व्यक्तियों में से निन्यानबे तो स्व—पीड़क ही होते हैं, कायर होते हैं। वे दूसरों को सताना चाहते थे, लेकिन भय था और खतरा था, और वे वैसा न कर सके। तो उन्होंने बड़ा निर्दोष, असुरक्षित, अवश शिकार खोज लिया. उनका अपना ही शरीर। और वे लाखों ढंग से उसे सताते हैं।

नहीं, त्याग का तो अर्थ है जानना; त्याग का तो अर्थ है सजगता, त्याग का अर्थ है साक्षात्कार—इस तथ्य का साक्षात्कार कि तुम शरीर नहीं हो। तो खत्म हो जाती है बात। तुम रहते हो उसमें भली— भांति जानते हुए कि तुम वह नहीं हो। तादात्म्य न हो, तो शरीर सुंदर है। और अस्तित्व के बड़े से बड़े रहस्यों में एक है। यही है वह मंदिर जहां सम्राटों का सम्राट छिपा है।

जब तुम समझ लेते हो कि त्याग क्या है, तब तुम समझ लेते हो कि यह नेति—नेति है। तुम कहते हो, ‘मैं शरीर नहीं हूं क्योंकि मैं सजग हूं शरीर के प्रति; वह सजगता ही मुझे पृथक और भिन्न बना देती है।’ और गहरे उतरो, प्याज के छिलकों को छीलते जाओ : ‘मैं विचार नहीं हूं क्योंकि वे तो आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन मैं रहता हूं। मैं भावनाएं नहीं हूं…..।’ वे आती हैं, और कई बार तो बड़ी शक्तिशाली होती हैं, और तुम उनमें स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो, लेकिन वे भी चली जाती हैं। एक समय था वे नहीं थीं, तुम थे, एक समय था वे थीं, और तुम ढंक गए थे उनमें; अब फिर ऐसा समय है जब वे जा चुकी हैं और तुम बैठे हुए हो वहीं। तुम वे भावनाएं नहीं हो सकते। तुम अलग हो।

छीलते जाओ प्याज को : नहीं, शरीर नहीं हो तुम; विचार नहीं हो तुम; भाव नहीं हो तुम। और यदि तुम जान लेते हो कि तुम इन पर्तों में से कुछ भी नहीं हो, तो तुम्हारा अहंकार बिलकुल तिरोहित हो जाता है, पीछे कोई निशान भी नहीं छूटता—क्योंकि तुम्हारा अहंकार इन तीन पर्तों के साथ तादात्म्य के सिवाय कुछ भी नहीं है। फिर तुम होते हो, लेकिन तुम ‘मैं’ नहीं कह सकते। यह शब्द अर्थ खो देता है। अहंकार नहीं रहा; तुम घर लौट आए।

यही संन्यास का अर्थ है : उस सब को इनकार कर देना जो कि तुम नहीं हो, लेकिन जिसके साथ तादात्म्य बनाए हुए हो। यही है शल्य—क्रिया। यही है कांटना।

‘योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से..।’

और यही है अशुद्धि : जो तुम नहीं हो, वही अपने को मान लेना अशुद्धि है। मेरी बात का गलत अर्थ मत लगा लेना, क्योंकि संभावना सदा यही है कि तुम इसे गलत समझ लो कि शरीर अशुद्धि है। मैं यह नहीं कह रहा हूं। तुम्हारे पास एक बर्तन में शुद्ध पानी है और दूसरे में शुद्ध दूध है। दोनों को मिला दो : अब पानी मिला दूध दुगना शुद्ध नहीं हो जाता। दोनों शुद्ध थे : पानी शुद्ध था, एकदम गंगा का पानी, और दूध शुद्ध था। अब तुम दो शुद्धताएं मिलाते हो और एक अशुद्धता पैदा हो जाती है। ऐसा नहीं होता कि शुद्धता दोहरी हो गई। क्या हुआ? तुम पानी और दूध के इस मिश्रण को अशुद्ध क्यों कहते हो?

अशुद्धता का अर्थ है किसी विजातीय, बाहरी तत्व का प्रवेश, उसका प्रवेश जो कि इससे संबंध नहीं रखता, जो इसके लिए स्वाभाविक नहीं, जो आरोपित है, जिसने इसके क्षेत्र में अनुचित प्रवेश किया है। केवल ऐसा ही नहीं है कि दूध अशुद्ध हो गया है, पानी भी अशुद्ध हो गया है। दो शुद्धताएं मिलती हैं और दोनों अशुद्ध हो जाती हैं।

तो जब मैं कहता हूं अशुद्धता छोड़ो, तो मेरा यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा शरीर अशुद्ध है, मेरा यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा मन अशुद्ध है, मेरा यह भी अर्थ नहीं है कि तुम्हारे भाव अशुद्ध हैं। कुछ अशुद्ध नहीं है—लेकिन जब तुम तादात्म्य कर लेते हो, तो उस तादात्म्य में अशुद्धि है। हर चीज शुद्ध है। तुम्हारा शरीर शुद्ध है यदि वह अपने से ही क्रियाशील हो और तुम उसमें कोई हस्तक्षेप न करो। तुम्हारी चेतना शुद्ध है यदि वह अपने से ही गतिशील हो और शरीर कोई दखल न दे। यदि तुम अतादात्म्य की भाव—दशा में जीते हो तो तुम शुद्ध हो। हर चीज शुद्ध है। मैं शरीर की निंदा नहीं कर रहा हूं। मैं कभी निंदा नहीं करता किसी चीज की। इसे सदा स्मरण रखो. मैं कोई निंदा करने वाला व्यक्ति नहीं हूं। हर चीज सुंदर है जैसी वह है। लेकिन तादात्म्य अशुद्धि निर्मित कर देता है।

जब तुम सोचने लगते हो कि तुम शरीर हो, तो तुमने हस्तक्षेप किया शरीर में। और जब तुम हस्तक्षेप करते हो शरीर में, तो शरीर तुरंत प्रतिक्रिया करता है और अनुचित हस्तक्षेप करता है तुम में। इस तरह अशुद्धि प्रवेश करती है।

पतंजलि कहते हैं, ‘योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से…।’

एकरूपता के मिटने से, तादात्म्य के मिटने से, उस गड्ड—मड्ड अवस्था के मिटने से जिसमें कि तुम पड़े हुए हो—एक अराजकता, जहां हर चीज कुछ और ही चीज बन गई है। कोई चीज स्पष्ट नहीं है। कोई केंद्र अपने से गतिमान नहीं है। तुम एक भीड़ हो गए हो। हर चीज हस्तक्षेप कर रही है एक—दूसरे के स्वभाव में। यही है अशुद्धता।

‘……अशुद्धि के क्षय होने से आत्मिक प्रकाश का आविर्भाव होता है।’

और जब अशुद्धि मिट जाती है, तो अचानक प्रकाश का उदय होता है। वह कहीं बाहर से नहीं आता; वह तुम्हारी अंतरतम सत्ता ही है अपनी शुद्धता में, अपनी निर्दोषता में, अपने कुंआरेपन में। एक आलोक का तुम में आविर्भाव होता है। हर चीज स्पष्ट हो जाती है : उलझाव भरी भीड़ खो जाती

है; बोध की स्पष्टता होती है। अब तुम हर चीज को वैसा ही देखते हो जैसी कि वह है : कहीं कोई प्रक्षेपण नहीं होते, कहीं कोई कल्पना नहीं होती, कहीं कोई विकृति नहीं होती सत्य की। तुम चीजों को वैसी ही देखते हो जैसी कि वे हैं। तुम्हारी आंखें निर्मल होती हैं और तुम्हारा अंतस अस्तित्व मौन होता है। अब तुम्हारे भीतर कुछ नहीं होता, अत: तुम प्रक्षेपण नहीं कर सकते। तुम शांत—मौन द्रष्टा हो जाते हो, एक साक्षी—और वही है स्व—सत्ता की शुद्धता।

‘… आत्मिक प्रकाश का आविर्भाव होता है, जो कि सत्य का बोध बन जाता है।’

फिर आते हैं योग के आठ चरण। बहुत धीरे— धीरे मेरी बात को समझना, क्योंकि यह पतंजलि की प्रमुख देशना है

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि।

योग के आठ अंग हैं : यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि।

योग के आठ चरण। यह है योग का संपूर्ण विज्ञान एक वाक्य में, एक बीज में। बहुत सी बातों की ओर संकेत है। पहले योग के प्रत्येक चरण का ठीक—ठीक अर्थ समझ लें। और खयाल रहे, पतंजलि उन्हें चरण और अंग दोनों ही कहते हैं। वे दोनों ही हैं। वे चरण हैं क्योंकि एक चला आता है दूसरे के पीछे; विकास का एक अनुक्रम है। लेकिन वे चरण ही नहीं हैं, वे योग की देह के अंग भी हैं। उनका एक आंतरिक जुड़ाव है, उनका एक जीवंत अंतर्संबंध है, यही है अंग का अर्थ।

उदाहरण के लिए मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा हृदय—वे अलग— अलग काम नहीं करते। वे एक—दूसरे से अलग नहीं हैं, वे जुड़े हुए हैं। यदि हृदय रुक जाए तो फिर हाथ नहीं चलेगा। हर चीज जुड़ी हुई है। वे सीढ़ी के सोपानों की भांति नहीं हैं, क्योंकि सीढ़ी का तो हर डंडा अलग होता है। यदि एक डंडा टूट जाए तो पूरी सीढ़ी नहीं टूट जाती। इसलिए पतंजलि कहते हैं कि वे चरण हैं, क्योंकि उनका एक सुनिश्चित विकास है—लेकिन वे अंग भी हैं, शरीर के जीवंत अंग हैं। तुम उन में से किसी एक को छोड़ नहीं सकते हो। सोपान छोड़े जा सकते हैं; अंग नहीं छोड़े जा सकते। तुम दो चरण कूद सकते हो एक ही छलांग में, तुम एक चरण छोड़ सकते हो; लेकिन अंग नहीं छोड़े जा सकते हैं, वे कोई यांत्रिक हिस्से नहीं हैं। तुम उन्हें हटा नहीं सकते। वे तुम्हें निर्मित करते हैं। वे समग्र के साथ संबंधित हैं, वे पृथक नहीं हैं। समग्रता उनके द्वारा एक इकाई की भांति काम करती है।

तो योग के ये आठ अंग, चरण और अंग दोनों हैं। चरण हैं इस अर्थ में कि प्रत्येक अनुगामी है दूसरे का, और वे एक गहन संबद्धता में जुड़े हुए हैं। दूसरा पहले के पूर्व नहीं आ सकता—पहले को पहला होना है और दूसरे को दूसरा होना है। और आठवां चरण आठवां ही होगा, वह चौथा नहीं हो सकता है, वह पहला नहीं हो सकता है। तो वे चरण भी हैं और जीवंत इकाई भी हैं।

‘यम’ का अर्थ अंग्रेजी में होता है सेल्फ—रेस्ट्रेट। अंग्रेजी में शब्द थोड़ा अलग हो जाता है। असल में थोड़ा अलग नहीं, ‘यम’ का सारा अर्थ ही खो जाता है। क्योंकि सेल्फ—रेस्ट्रेंट निषेध जैसा, दमन जैसा मालूम पड़ता है। और ये दो शब्द दमन और निषेध, फ्रायड के बाद बड़े भद्दे शब्द हो गए हैं, कुरूप हो गए हैं। यम दमन नहीं है। उन दिनों जब पतंजलि ने ‘यम’ शब्द का प्रयोग किया, तो उसका बिलकुल अलग ही अर्थ था। शब्द बदलते रहते हैं। अब भारत में भी संयम शब्द, जो कि ‘यम’ से आता है, उसका अर्थ नियंत्रण, दमन हो गया है। अब मूल अर्थ खो गया है।

तुमने शायद एक घटना सुनी होगी। इंगलैंड के सम्राट जार्ज प्रथम के विषय में ऐसा कहा जाता है कि जब सेंट जॉन कैथेड्रल बन कर पूरा हुआ तो वह उसे देखने गया। वह एक उत्कृष्ट कलाकृति थी। उसका निर्माता, उसका रचनाकार, कलाकार वहा मौजूद था; उसका नाम था क्रिस्टोफर रेन। सम्राट उससे मिला और उसे बधाई दी। उसने तीन शब्द कहे; उसने कहा, ‘यह अम्यूजिंग है। यह ऑफुल है। यह आर्टिफीशियल है।’ क्रिस्टोफर रेन बहुत खुश हुआ प्रशंसा पाकर…।

लेकिन तुम्हें तो आश्चर्य ही होगा। उन शब्दों का अब वही अर्थ नहीं रह गया है। उन दिनों, तीन सौ साल पहले अम्प्रइजंग का अर्थ होता था अमेजिंग—आश्चर्यजनक, ऑफुल का अर्थ होता था ऑव—इन्सपायरिग—विस्मयकारी, और आर्टिफीशियल का अर्थ होता था आर्टिस्टिक—कलात्मक। प्रत्येक शब्द की एक जीवन—कथा होती है, और वह बहुत बार बदलती है। जैसे—जैसे जीवन बदलता है, हर चीज बदलती है : शब्द नया रंग ले लेते हैं। और असल में जिनमें बदलने की क्षमता होती है, केवल वे ही जीवित रहते हैं, अन्यथा वे मर जाते हैं। रूढ़िवादी शब्द, जो बदलने के लिए राजी नहीं होते, वे मर जाते हैं। जीवंत शब्द जिनमें कि अपने आस—पास नए अर्थों को संजो लेने की क्षमता होती है, केवल वे ही जीते हैं; और वे सदियों तक जीते हैं कई—कई अर्थों में।

‘यम’ एक सुंदर शब्द था पतंजलि के समय में, सुंदरतम शब्दों में से एक था। फ्रायड के बाद यह शब्द कुरूप हो गया—न केवल अर्थ बदल गया है, बल्कि सारा रंग—रूप, शब्द का सारा स्वाद भी बदल गया है। पतंजलि के लिए आत्म—संयम का अर्थ स्वयं का दमन नहीं है। इसका अर्थ है स्वयं के जीवन को दिशा देना—ऊर्जाओं का दमन नहीं, बल्कि निर्देशन; उन्हें सम्यक दिशा देना। क्योंकि तुम ऐसा जीवन जी सकते हो, जो विपरीत दिशाओं में गति करता हो, बहुत सी दिशाओं में जाता हो—तब तुम कभी भी कहीं नहीं पहुंचोगे।

यह उस कार की भांति है, जिसका ड्राइवर कुछ मील उत्तर की ओर जाता है, फिर बदल लेता है मन; फिर कुछ मील पश्चिम की ओर जाता है, फिर बदल लेता है मन, और इसी भांति चलता रहता है। वह वहीं मरेगा जहां वह पैदा हुआ था। वह कभी कहीं नहीं पहुंचेगा। वह कभी तृप्ति की अनुभूति नहीं पाएगा। तुम बहुत से रास्तों पर चल सकते हो, लेकिन जब तक तुम्हारे पास दिशा नहीं है, तुम व्यर्थ ही चल रहे हो। तुम केवल और—और निराशा अनुभव करोगे, और कुछ भी नहीं।

आत्म—संयम का अर्थ है, पहली बात, तुम्हारी जीवन—ऊर्जा को सम्यक दिशा देना। जीवन—ऊर्जा सीमित है। यदि तुम उसका उपयोग नासमझी और दिशा—हीन ढंग से करते हो, तो तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। देर—अबेर तुम्हारी ऊर्जा चुक जाएगी—और वह खालीपन बुद्ध का शून्य न होगा; वह बिलकुल नकारात्मक खालीपन होगा— भीतर कुछ भी नहीं, एक खोखला रिक्त पात्र। तुम मरने के पहले ही मर जाओगे।

लेकिन ये सीमित ऊर्जाएं जो तुम्हें मिली हैं प्रकृति से, अस्तित्व से, परमात्मा से—या जो भी कहना चाहो उसे—ये सीमित ऊर्जाएं इस ढंग से प्रयोग की जा सकती हैं कि वे असीम के लिए द्वार बन सकती हैं। यदि तुम ठीक ढंग से बढ़ते हो, यदि तुम होशपूर्वक बढ़ते हो, यदि तुम बोधपूर्वक बढ़ते हो, अपनी सारी ऊर्जाओं को इकट्ठा कर लेते हो और एक ही दिशा में बढ़ते हो, तो तुम भीड़ नहीं रहते बल्कि एक व्यक्ति हो जाते हो—यही है यम का अर्थ।

साधारणतया तुम एक भीड़ हो; बहुत सी आवाजें हैं तुम्हारे भीतर। एक कहती है, ‘इस दिशा में जाओ।’ दूसरी कहती है, ‘यह तो बेकार है। उधर जाओ।’ एक कहती है, ‘मंदिर जाओ।’ दूसरी कहती है, ‘थिएटर जाना बेहतर होगा।’ और तुम्हें कभी कहीं चैन नहीं मिलता, क्योंकि तुम कहीं भी जाओ, तुम पछताओगे। यदि तुम थिएटर जाते हो तो जो आवाज मंदिर जाने के लिए कह रही थी वह तुम्हारे लिए बेचैनी पैदा करेगी : ‘तुम यहां क्या कर रहे हो? अपना समय बरबाद कर रहे हो? तुम्हें तो मंदिर में होना चाहिए था! और प्रार्थना सुंदर बात है। और कौन जाने, वहां क्या हो रहा हो! और कौन जाने, यही अवसर हो तुम्हारे बुद्धत्व के लिए और तुम फिर चूक गए।’

यदि तुम मंदिर जाओ, तो भी यही होगा—वह आवाज जो थिएटर जाने के लिए कह रही थी, वह कहने लगेगी. ‘यहां क्या कर रहे हो तुम? एक मूढ़ की भांति तुम यहां बैठे हो। और तुमने पहले भी प्रार्थनाएं की हैं और कुछ भी नहीं हुआ। क्यों तुम अपना समय व्यर्थ गंवा रहे हो?’ और अपने चारों ओर तुम देखोगे—मूढ़ लोगों को बैठे हुए और व्यर्थ की चीजें करते हुए—कुछ भी नहीं हो रहा। कौन जाने थिएटर में कैसा मजा मिलता, कितना आनंद होता। तुम चूक रहे हो.।

यदि तुम आत्मवान नहीं हो, अखंड नहीं हो, तो जहां कहीं भी तुम होगे तुम सदा चूकते ही रहोगे। तुम कभी कहीं चैन से नहीं रहने पाओगे। तुम सदा ही कहीं न कहीं जा रहे होओगे और कभी कहीं पहुंचोगे नहीं। तुम पागल हो जाओगे। वह जीवन जो ‘यम’ के विपरीत है, विक्षिप्त हो जाएगा।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पश्चिम में पूर्व की अपेक्षा ज्यादा लोग पागल होते हैं। पूर्व में—जाने, अनजाने—अभी भी थोड़े आत्म—संयम का जीवन जीया जाता है। पश्चिम में आत्म—संयम की बात गुलामी जैसी मालूम पड़ती है; आत्म—संयम के विरुद्ध होना ऐसे मालूम पड़ता है जैसे कि तुम मुक्त हो, स्वतंत्र हो। लेकिन जब तक तुम आत्मवान न हो जाओ, तुम मुक्त नहीं हो सकते हो। तुम्हारी स्वतंत्रता एक प्रवंचना होगी; वह आत्महत्या के सिवाय और कुछ न होगी। तुम मार डालोगे स्वयं को, नष्ट कर दोगे अपनी संभावनाओं को, अपनी ऊर्जाओं को; और एक दिन तुम अनुभव करोगे कि जीवन भर तुमने इतनी कोशिश की, लेकिन पाया कुछ भी नहीं, उससे कोई विकास नहीं हुआ।

आत्म—संयम का अर्थ है, पहला अर्थ : जीवन को एक दिशा देना। आत्म—संयम का अर्थ है, केंद्र में थोड़ा और प्रतिष्ठित होना। कैसे तुम और केंद्रित हो सकते हो? जब तुम अपने जीवन को दिशा देते हो, तो तुरंत तुम्हारे भीतर एक केंद्र बनना शुरू हो जाता है। दिशा से निर्मित होता है केंद्र; फिर केंद्र देता है दिशा। और वे परस्पर एक—दूसरे को बढ़ाते हैं। जब तक तुम आत्म—संयमी नहीं होते, दूसरी बात की संभावना नहीं है। इसीलिए पतंजलि उसे पहला चरण कहते हैं।

दूसरा चरण है ‘नियम’। एक सुनिश्चित नियमन : वह जीवन जिसमें कि अनुशासन है, वह जीवन जिसमें कि नियमितता है, वह जीवन जो कि बहुत ही अनुशासित ढंग से जीया जाता है, अव्यवस्थित नहीं। एक नियमितता है। लेकिन वह भी तुम्हें गुलामी जैस लगेगा। पतंजलि के समय के सारे सुंदर शब्द अब कुरूप हो गए हैं।

लेकिन मैं कहता हूं तुमसे कि जब तक तुम में और तुम्हारे जीवन में नियमितता नहीं आती, अनुशासन नहीं आता, तब तक तुम गुलाम ही रहोगे अपनी वृत्तियों के—और तुम सोच सकते हो कि यही स्वतंत्रता है, लेकिन तुम गुलाम रहोगे अपने आवारा विचारों के। यह स्वतंत्रता नहीं है। भले ही तुम्हारा कोई प्रकट मालिक न हो, लेकिन तुम्हारे बहुत से अप्रकट मालिक होंगे तुम्हारे भीतर; और वे तुम पर शासन करते रहेंगे। केवल वही आदमी जिसके पास नियमितता होती है, किसी दिन मालिक हो सकता है।

वह भी बहुत दूर है अभी, क्योंकि असली मालिक का केवल तभी आविर्भाव होता है जब आठवां चरण पा लिया जाता है—जो कि लक्ष्य है। तब व्यक्ति हो जाता है जिन, जिसने जीता। तब व्यक्ति हो जाता है बुद्ध, जो जाग गया। तब व्यक्ति हो जाता है क्राइस्ट, मुक्तिदाता—क्योंकि यदि तुम मुक्ति पा गए हो, तो अचानक तुम दूसरों के लिए मुक्ति देने वाले हो जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम उन्हें मुक्ति देने की कोशिश करते हो : बस तुम्हारी उपस्थिति ही एक मुक्तिदायी प्रभाव बन जाती है। तो दूसरा है ‘नियम’—एक सुनिश्चित नियमन।

फिर तीसरा है ‘आसन’। और प्रत्येक चरण पहले आने वाले चरण से आता है : जब तुम्हारे जीवन में नियमितता होती है, केवल तभी तुम्हें आसन उपलब्ध होता है।

कभी आसन के लिए प्रयोग करके देखना; बस प्रयास करना मौन बैठ जाने का। तुम नहीं बैठ सकते—शरीर तुम्हारे खिलाफ विद्रोह करने की कोशिश करता है। अचानक तुम यहां—वहां दर्द अनुभव करने लगते हो! टांगें मुर्दा होने लगती हैं। अचानक तुम शरीर के बहुत से हिस्सों में एक बेचैनी अनुभव करते हो। तुमने पहले कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। ऐसा क्यों होता है कि मौन बैठने से ही ये सब समस्याएं उठ खड़ी होती हैं? तुम अनुभव करते हो कि चींटियां रेंग रही हैं। आंख खोल कर देखो, और तुम पाओगे कि कहीं कोई चींटियां नहीं हैं, शरीर तुम्हें धोखा दे रहा है। शरीर राजी नहीं है अनुशासित होने के लिए। शरीर बिगड़ चुका है। शरीर तुम्हारी नहीं सुनना चाहता। वह स्वयं अपना मालिक बन गया है। और तुम सदा उसका अनुसरण करते रहे हो। अब कुछ देर के लिए शांत बैठना करीब—करीब असंभव हो गया है।

यदि तुम केवल शांत बैठने को कह दो तो लोग बहुत परेशान हो जाते हैं। यदि मैं किसी से शांत बैठने के लिए कहता हूं तो वह कहता है, ‘बस शांत बैठना है, कुछ करना नहीं है?’ जैसे कि ‘करना’ एक विक्षिप्तता हो गई है। कोई कहता है, ‘कम से कम कोई मंत्र ही दे दें जिसे मैं भीतर जपता रहूं।’ तुम्हें कोई व्यस्तता चाहिए। केवल मौन होकर बैठना कठिन मालूम पड़ता है। और वही है सुंदरतम संभावना जो कि किसी मनुष्य को घट सकती है. बस बिना कुछ किए मौन बैठना।

आसन का अर्थ है एक विश्रांत मुद्रा। तुम इतने हल्के हो जाते हो, तुम इतने आराम में होते हो कि शरीर को हिलाने—डुलाने की कोई जरूरत नहीं रहती। उस विश्राम के क्षण में, अचानक, तुम शरीर का अतिक्रमण कर जाते हो।

शरीर तुम्हें नीचे लाने की कोशिश कर रहा होता है जब शरीर कहता है कि ‘जरा देखो, बहुत सारी चींटियां रेंग रही हैं।’ या तुम अचानक खुजलाने की एक जबरदस्त उत्तेजना अनुभव करते हो, बेचैन होने लगते हो। शरीर कह रहा होता है, ‘इतने आगे मत जाओ। लौट आओ पीछे। कहां जा रहे

हो तुम?’ क्योंकि चेतना ऊर्ध्वगामी हो रही होती है, शरीर के तल से बहुत दूर जा रही होती है; शरीर विद्रोह करने लगता है। ऐसा पहले तुमने कभी किया नहीं। शरीर तुम्हारे लिए समस्याएं खड़ी करता है, क्योंकि एक बार समस्या खडी हो जाए, तो तुम्हें लौटना ही पड़ेगा। शरीर तुम्हारा ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है : ‘मेरी तरफ ध्यान दो।’ वह पीड़ा निर्मित कर देगा। वह खुजलाहट निर्मित कर देगा; तुम्हें लगेगा कि खुजलाना जरूरी है। अचानक शरीर कोई साधारण चीज नहीं रह जाता; शरीर विद्रोह कर देता है। यह शरीर की राजनीति है। तुम्हें वापस बुलाया जा रहा है : ‘इतने दूर मत जाओ, उलझे रहो। यहीं रहो। बंधे रहो शरीर से और धरती से।’ तुम आकाश की ओर बढ़ रहे हो, और शरीर भयभीत होने लगता है।

आसन केवल उसी व्यक्ति को घटित होता है, जो संयम का जीवन जीता है, नियमितता का जीवन जीता है; केवल तभी आसन संभव होता है। तब तुम शांत बैठ सकते हो, क्योंकि शरीर जानता है कि तुम अनुशासन में जीने वाले व्यक्ति हो। यदि तुम बैठना चाहते हो, तो तुम बैठोगे ही—तुम्हारे विरुद्ध कुछ भी नहीं किया जा सकता। शरीर कुछ—कुछ कहे जा सकता है…..। धीरे—धीरे वह शांत हो जाता है। कोई है नहीं सुनने के लिए।

तो यह कोई दमन नहीं है; तुम शरीर का दमन नहीं कर रहे हो; उलटे शरीर कोशिश कर रहा है तुम्हारा दमन करने की! यह कोई दमन नहीं है। तुम शरीर को कुछ करने के लिए नहीं कह रहे हो; तुम बस विश्राम कर रहे हो। लेकिन शरीर का किसी विश्राम से परिचय नहीं है, क्योंकि तुमने कभी उसे विश्राम दिया नहीं है। तुम सदा बेचैन रहे हो।’आसन’ शब्द का ही अर्थ है विश्राम, एक गहन विश्राम; और यदि तुम ऐसा कर सको, तो और बहुत सी बातें तुम्हारे लिए संभव हो जाएंगी।

यदि शरीर शांत हो, तो तुम अपनी श्वास को नियमित कर सकते हो। अब तुम और ज्यादा गहरे उतर रहे हो, क्योंकि श्वास शरीर और आत्मा के बीच, शरीर और मन के बीच एक सेतु है। यदि तुम श्वास को नियमित कर सको—यही है प्राणायाम—तो अपने मन पर तुम्हारी मालकियत हो जाती है।

क्या तुमने कभी ध्यान दिया है कि जब भी मन बदलता है, तो श्वास की लय तुरंत बदल जाती है? यदि तुम इसका उलटा करो—यदि तुम श्वास की लय बदल दो—तो मन को तुरंत ही बदलना पड़ता है। जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम धीमी श्वास नहीं ले सकते; वरना तो क्रोध खो जाएगा। प्रयोग करके देखना। जब तुम क्रोधित अनुभव करते हो, तो तुम्हारी श्वास अराजक हो जाती है, अनियमित हो जाती है, वह सारी लय खो देती है, उद्विग्न, बेचैन हो जाती है। फिर वह एक समस्वरता नहीं रहती। अराजक हो जाती है; लय खो जाती है।

एक काम करना. जब भी तुम्हें क्रोध आ रहा हो तो बस शांत हो जाना और श्वास को लय में चलने देना। अचानक तुम पाओगे कि क्रोध तिरोहित हो गया है। तुम्हारे शरीर की एक विशेष प्रकार की श्वास के बिना क्रोध नहीं हो सकता।

जब तुम संभोग कर रहे होते हो तो श्वास बदल जाती है—बहुत अराजक हो जाती है। जब तुम कामवासना से भरे होते हो, तो श्वास बदल जाती है, बहुत अराजक हो जाती है। कामवासना में थोड़ी हिंसा है। कई बार प्रेमी एक—दूसरे को कांट लेते हैं और एक—दूसरे को चोट पहुंचा देते हैं! और यदि तुम दो व्यक्तियों को संभोग करते हुए देखो, तो तुम्हें लगेगा कि किसी प्रकार का युद्ध चल रहा है। उसमें थोड़ी—बहुत हिंसा होती है। और दोनों अराजक श्वास ले रहे होते हैं; उनकी श्वास लयपूर्ण नहीं होती, समस्वरता में नहीं होती।

तंत्र में, जहां कामवासना के विषय में और कामवासना के रूपांतरण के विषय में बहुत काम हुआ है, वहां उन्होंने श्वास की लय पर बहुत खोज की है। यदि दो प्रेमी संभोग के दौरान श्वास को लयबद्ध रख सकें, समस्वर रख सकें, दोनों की लय वही बनी रहे, तो कोई स्खलन नहीं होगा। वे घंटों संभोग कर सकते हैं। क्योंकि स्खलन केवल तभी होता है, जब श्वास लयबद्ध नहीं होती; केवल तभी शरीर ऊर्जा बाहर फेंक सकता है। यदि श्वास लयपूर्ण है, तो शरीर ऊर्जा को आत्मसात कर लेता है; वह उसे बाहर नहीं फेंकता।

तंत्र ने बहुत सी विधियां विकसित की हैं श्वास की लय बदलने की। तब तुम घंटों संभोग कर सकते हो और तुम ऊर्जा खोते नहीं हो। बल्कि उलटे तुम्हें ऊर्जा प्राप्त होती है, क्योंकि अगर कोई स्त्री किसी पुरुष से प्रेम करती है और कोई पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है, तो वे एक—दूसरे की मदद करते हैं ऊर्जावान होने में—क्योंकि वे विपरीत ऊर्जाएं हैं। जब विपरीत ऊर्जाएं मिलती हैं और एक विद्युत— धारा निर्मित करती हैं, तो वे एक दूसरे को उद्दीप्त करती हैं; वरना तो ऊर्जा खो जाती है और संभोग के बाद तुम हारा— थका, दीन—हीन अनुभव करते हो। इतनी आशा—और हाथ कुछ नहीं लगता, हाथ खाली के खाली रह जाते हैं।

आसन के बाद बारी आती है प्राणायाम की। थोड़े दिन गौर करना और इस पर ध्यान देना : जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम्हारी श्वास की लय क्या होती है—उच्छवास ज्यादा देर होता है या अंतःश्वसन ज्यादा देर होता है या वे बराबर होते हैं? या श्वास का भीतर लेना थोड़ी देर होता है और श्वास का बाहर निकाला जाना ज्यादा देर होता है, या उच्छवास बहुत कम होता है और अंत—श्वसन ज्यादा होता है? जरा ध्यान देना श्वास लेने और श्वास छोड़ने के अनुपात पर। जब तुम कामवासना से भरे होते हो, तो ध्यान देना, खयाल में लेना।

जब कभी मौन बैठे होते हो और रात देख रहे होते हो आकाश को, चारों तरफ मौन है, तो ध्यान देना कि तुम्हारी श्वास कैसी चल रही है। जब तुम करुणा अनुभव कर रहे होते हो, तो ध्यान देना, खयाल में लेना। जब तुम लड़ने—झगड़ने की भाव—दशा में हो, तब ध्यान देना, नोट करना श्वास की गति को। जरा एक चार्ट बनाओ अपनी श्वास का, और तुम्हें बहुत सी बातें खयाल में आएंगी। और प्राणायाम कोई ऐसी बात नहीं है जो तुम्हें सिखाई जा सके। तुम्हें उसे खोजना पड़ता है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य की श्वास की लय अलग—अलग होती है। हर व्यक्ति की श्वास और उसकी लय उतनी ही भिन्न होती है जितनी कि अंगूठे की छाप। श्वास एक वैयक्तिक घटना है, इसलिए मैं उसे कभी सिखाता नहीं। तुम्हें स्वयं खोजनी होती है अपनी लय। तुम्हारी लय किसी दूसरे की लय नहीं हो सकती। या हो सकता है किसी दूसरे के लिए वह हानिकारक भी हो। तुम्हारी लय तुम्हें ही खोजनी है।

और कठिन नहीं है यह बात। किसी विशेषज्ञ से पूछने की भी जरूरत नहीं है। बस, एक चार्ट बना लेना महीने भर की अपनी सारी भाव—दशाओं और अवस्थाओं का। और तुम्हें पता चलता है कि

कौन न सी लय में तुम सर्वाधिक आराम अनुभव करते हो, शांत अनुभव करते हो, एक गहन निर्मुक्ति में बहते हो; कौन सी लय है जिसमें तुम मौन अनुभव करते हो—शांत, सुव्यवस्थित, थिर अनुभव करते हो; कौन सी लय है जब अनायास ही तुम आनंदित अनुभव करते हो, किसी अज्ञात आनंद से भर जाते हो, कुछ उमड़ कर बहने लगता है—तुम इतने ज्यादा भरे होते हो उस क्षण कि तुम सारे संसार को बांट सकते हो और वह समाप्त न होगा।

उस क्षण का अनुभव लो और उस पर ध्यान दो जब तुम्हें लगता है कि तुम संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो, जब तुम्हें लगता है कि अब कोई पृथकता न रही, एक अखंडता है। जब तुम वृक्षों और पक्षियों के साथ, नदियों और चट्टानों के साथ, सागर और रेत के साथ एक अनुभव करते हो—तब ध्यान देना। तुम पाओगे कि तुम्हारे श्वास की बहुत सी लय हैं, उनका सतरंगा विस्तार है : अति हिंसक, असुंदर, दारुण, नारकीय रूप से लेकर अति मौन, स्वर्ग जैसे रूप तक।

और फिर जब तुम अपनी लय खोज लो, तो अभ्यास करना उसका—उसे अपने जीवन का एक हिस्सा बना लेना। धीरे— धीरे यह सहज हो जाती है, फिर तुम उसी लय में श्वास लेते हो। और उस लय के साथ तुम्हारा जीवन एक योगी का जीवन हो जाएगा : तुम क्रोधित न होओगे, तुम इतनी कामवासना अनुभव न करोगे, तुम स्वयं को इतना घृणा से भरा हुआ न पाओगे। अचानक ही तुम अनुभव करोगे कि एक रूपांतरण घट रहा है तुम में।

प्राणायाम मानव चेतना की महानतम खोजों में एक है। प्राणायाम की तुलना में चांद तक पहुंच जाना भी कुछ नहीं है। बात बड़ी रोमांचक लगती है, लेकिन है उसमें कुछ भी नहीं। क्योंकि तुम चांद पर पहुंच भी जाओ, तो तुम करोगे क्या वहां? यदि तुम पहुंच भी जाओ चांद पर तो भी तुम रहोगे तो वही के वही। तुम जारी रखोगे वही मूढ़ताएं जो तुम यहां कर रहे हो।

प्राणायाम एक अंतर्यात्रा है। और प्राणायाम चौथा चरण है—और कुल आठ चरण हैं। आधी यात्रा पूरी हो जाती है प्राणायाम पर। वह आदमी जिसने प्राणायाम सीख लिया है—किसी शिक्षक से नहीं, क्योंकि वह तो झूठी बात है, मैं उसके पक्ष में नहीं—लेकिन जिस व्यक्ति ने अपनी खोज और अपने होश द्वारा प्राणायाम सीखा है, जिसने अपनी अस्तित्वगत लय को सीख लिया है, उसने आधी मंजिल तो पा ही ली है। प्राणायाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोजों में से एक है।

और प्राणायाम के बाद है ‘प्रत्याहार’। प्रत्याहार वही है जिसकी मैं तुम से बात कर रहा था कल। ईसाइयों का शब्द ‘रिपेंट’ वस्तुत: हिलू में ‘रिटर्न’ है—पश्चात्ताप नहीं, बल्कि प्रतिक्रमण, पीछे लौट आना। मुसलमानों की ‘तोबा’ भी रिपेंट नहीं है; वह पछतावा नहीं है। उस पर भी थोड़ा रंग चढ़ गया है पश्चात्ताप वाले अर्थ का; तोबा भी पीछे लौट आना है। और प्रत्याहार भी पीछे लौट आना है, वापस आना है— भीतर आना, भीतर की ओर मुड़ना, घर लौटना।

प्राणायाम के पश्चात संभावना होती है प्रत्याहार की; क्योंकि प्राणायाम तुम्हें लय दे देगा। अब तुम जानते हो सारे विस्तार को : तुम जानते हो कि किस लय में तुम निकटतम होते हो घर के और किस लय में तुम सर्वाधिक दूर होते हो स्वयं से। हिंसक, कामोन्मत्त, क्रोधित, ईर्ष्याग्रस्त, तुम पाओगे। कि तुम बहुत दूर हो गए हो अपने से; करुणा में, प्रेम में, प्रार्थना में, अनुग्रह में, तुम स्वयं को घर के ‘गदा निकट पाओगे।

प्राणायाम के पश्चात प्रत्याहार, वापस लौटना संभव होता है। अब तुम्हें मालूम है मार्ग —तो तुम पहले से ही जानते हो कि कैसे कदम वापस लौटाने हैं।

फिर है धारणा। प्रत्याहार के बाद, जब तुमने घर लौटना आरंभ कर दिया होता है, जब तुम अपने अंतरतम केंद्र के निकट आने लगते हो, तो तुम अपने अस्तित्व के द्वार पर ही होते हो। प्रत्याहार तुम्हें द्वार के निकट ले आता है। प्राणायाम बाहर से भीतर के लिए एक सेतु है। प्रत्याहार द्वार है, और तब संभावना होती है धारणा की, एकाग्रता की। अब तुम अपने मन को एक ही लक्ष्य पर एकाग्र कर सकते हो।

पहले तुमने अपने शरीर को दिशा दी, पहले तुमने अपनी जीवन—ऊर्जा को दिशा दी—अब तुम अपनी चेतना को दिशा दो। अब चेतना को यूं ही कहीं भी और हर कहीं नहीं भटकने दिया जा सकता। अब उसे एक लक्ष्य पर लगाना होता है। यह लक्ष्य है एकाग्रता, ‘ धारणा’ : तुम अपनी चेतना को एक ही बिंदु पर लगा देते हो।

जब चेतना एक ही बिंदु पर एकाग्र हो जाती है तो विचार खो जाते हैं, क्योंकि विचार केवल तभी संभव हैं जब तुम्हारी चेतना निरंतर उछल—कूद कर रही होती है किसी बंदर की भांति; तब बहुत विचार चलते रहते हैं और तुम्हारा पूरा मन भर जाता है भीड़ से—एक बाजार होता है। अब संभावना है—प्रत्याहार, प्राणायाम के बाद संभावना है कि तुम एक ही बिंदु पर एकाग्र हो सकते हो।

और जब तुम एक बिंदु पर एकाग्र हो सकते हो, तब संभावना है ध्यान की। धारणा में तुम अपने मन को एक बिंदु पर एकाग्र करते हो। ध्यान में तुम उस बिंदु को भी छोड़ देते हो। अब तुम पूरी तरह केंद्रित हो जाते हो, कहीं गति नहीं करते। क्योंकि गति करने का अर्थ है बाहर की ओर गति करना। ध्यान के दौरान आया एक विचार भी तुमसे बाहर ही है—कोई विषय मौजूद है; तुम अकेले नहीं हो; दो हैं। धारणा तक दो होते हैं—विषय और तुम। धारणा के बाद उस विषय को भी गिरा देना पड़ता है।

सारे मंदिर तुम्हें केवल धारणा तक ही ले जाते हैं। वे तुम्हें इसके पार नहीं ले जा सकते, क्योंकि सारे मंदिरों में ध्यान के लिए विषय होता है उनमें ध्यान के लिए ईश्वर की मूर्ति होती है। सारे मंदिर तुम्हें केवल धारणा तक ले जाते हैं। इसीलिए जितना कोई धर्म ऊंचा उठता है, मंदिर और मूर्ति तिरोहित हो जाते हैं। उन्हें हो ही जाना चाहिए तिरोहित। मी दर को नितांत शून्य होना चाहिए, ताकि केवल तुम्हीं हो वहां—और कोई नहीं, और कोई भी नहीं, कोई विषय नहीं—विशुद्ध आत्म—बोध। ध्यान है विशुद्ध आत्म—बोध, आत्मरमण। किसी चीज का ध्यान नहीं करना है, क्योंकि यदि तुम किसी विषय पर ध्यान कर रहे हो तो वह धारणा है। धारणा का अर्थ है कि किसी विषय पर एकाग्रता करनी है। ध्यान है मेडिटेशन, वहां कोई विषय नहीं रहता, हर चीज छूट जाती है, लेकिन तुम जागे हुए हो। विषय छूट चुके हैं, लेकिन तुम सो नहीं गए हो। तब एक गहन बोध होगा, कोई विषय नहीं होगा, तुम स्वयं में केंद्रित होओगे।

लेकिन अभी भी ‘मैं’ की अनुभूति बची रहेगी। वह छाया की भांति मौजूद रहेगी। विषय गिर चुका, लेकिन विषयी अभी भी मौजूद है। तुम अब भी अनुभव करते हो कि तुम हो। यह अहंकार नहीं है। संस्कृत में हमारे पास दो शब्द हैं : ‘अहंकार’ और ‘अस्मिता’। अहंकार का अर्थ है ‘मैं हूं।’ और

अस्मिता का अर्थ है ‘हूं, मात्र हूं—पन—कोई अहंकार न रहा, मात्र एक छाया बची है। तुम अब भी किसी न किसी तरह अनुभव करते हो कि तुम हो। यह कोई विचार नहीं होता, क्योंकि अगर यह विचार हो, कि मैं हूं तब तो यह अहंकार है।

ध्यान में अहंकार पूरी तरह खो जाता है, लेकिन एक ‘हूं —पन’, एक छाया जैसी घटना, मात्र एक अनुभूति, तुम्हारे चारों ओर छाई रहती है—सुबह की धुंध की तरह तुम्हारे आस—पास छाई रहती है। ध्यान अर्थात सुबह; सूर्य अभी उगा नहीं, धुंधलका है; अस्मिता, हूं —पन अब भी मौजूद है।

तुम अभी भी पीछे लौट सकते हो। एक हलकी सी अशांति—कोई बात कर रहा है और तुम सुनते हो—ध्यान खो गया; तुम वापस आ गए धारणा तक। यदि तुम केवल सुनते ही नहीं बल्कि तुमने उसके विषय में सोचना भी शुरू कर दिया है, तो धारणा भी खो चुकी है, तुम लौट आए हो प्रत्याहार तक। और यदि तुम न केवल सोचते हो, बल्कि तुमने तादात्म्य भी बना लिया है सोच—विचार के साथ, तो प्रत्याहार भी खो चुका है, तुम उतर आए हो प्राणायाम तक। और यदि विचार इतना हावी हो गया है कि तुम्हारी श्वास की लय गड़बड़ा जाती है, तो प्राणायाम भी खो गया; तुम आ गए हो आसन पर। और यदि विचार और श्वास इतनी ज्यादा अस्तव्यस्त हैं कि शरीर कैपने लगता है, बेचैन हो जाता है, तो आसन भी खो गया। वे सब आपस में जुड़े हुए हैं।

तो कोई ध्यान तक पहुंच कर भी गिर सकता है। ध्यान सर्वाधिक खतरनाक बिंदु है संसार का, क्योंकि वह उच्चतम तल है जहां से कि तुम गिर सकते हो, और बहुत बुरी तरह से गिर सकते हो। भारत में हमारे पास एक शब्द है, योग— भ्रष्ट. जो व्यक्ति योग से गिर गया। यह शब्द बहुत ही अदभुत है। यह एक साथ समादर भी करता है और निंदा भी करता है। जब हम कहते हैं कि कोई योगी है तो वह बहुत बड़ा आदर है। जब हम कहते हैं कि कर्म योग— भ्रष्ट है, तो वह एक निंदा भी है—योग से गिरा हुआ। यह व्यक्ति अपने किसी पिछले जन्म में ध्यान तक पहुंच गया था, और फिर गिर गया! ध्यान में संभावना है अभी भी संसार में वापस लौट जाने की—अस्मिता के कारण, उस ‘हूं —पन’ के कारण। बीज अभी भी जिंदा है। वह किसी भी क्षण प्रस्फुटित हो सकता है; इसलिए यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई है। जब अस्मिता भी तिरोहित हो जाती है, जब तुम्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि तुम हो—निश्चित ही तुम हो, लेकिन वहां कोई तरंग नहीं बचती कि ‘मैं हूं? या ‘हूं’—तब समाधि घटित होती है। समाधि है अतिक्रमण; वहां से कोई वापस नहीं आता। समाधि बिंदु है न लौटने का। वहा से कोई नहीं गिरता। समाधिस्थ व्यक्ति भगवान होता है।

इसीलिए हम बुद्ध को भगवान कहते हैं, महावीर को भगवान कहते हैं। समाधि को उपलब्ध व्यक्ति फिर इस संसार का नहीं रहता। वह इस संसार में भले ही रहता हो, लेकिन वह इस संसार का नहीं होता। वह यहां का नहीं रहता, वह परदेशी हो जाता है। वह यहां रह सकता है, लेकिन उसका घर कहीं और है। वह चलता है इसी पृथ्वी पर, लेकिन अब उसके चरण पृथ्वी पर नहीं पड़ते। ऐसा कहा गया है समाधिस्थ व्यक्ति के संबंध में कि वह संसार में रहता है लेकिन संसार उसमें नहीं रहता। तो ये आठ चरण हैं योग के और आठ अंग भी हैं। अंग हैं क्योंकि वे इतने जुड़े हुए हैं और बहुत जीवंत रूप से संबंधित हैं। चरण हैं क्योंकि तुम्हें उनसे गुजरना है एक—एक करके, तुम ऐसे ही ‘कहीं से भी शुरू नहीं कर सकते; तुम्हें शुरू करना पड़ेगा ‘यम’ से।

अब कुछ और बातें समझ लें, क्योंकि यह इतनी मूलभूत बात है पतंजलि के लिए कि तुम्हें कुछ और बातें समझ लेनी हैं। यम एक सेतु है तुम्हारे और दूसरों के बीच, आत्म—संयम यानी अपने आचरण का नियमन। यम तुम्हारे और दूसरों के बीच, तुम्हारे और समाज के बीच घटने वाली घटना है। यह ज्यादा सजग व्यवहार है; तुम अचेतन रूप से प्रतिक्रिया नहीं करते, तुम यंत्रवत प्रतिक्रिया नहीं करते, तुम मशीन की तरह व्यवहार नहीं करते। तुम ज्यादा होशपूर्ण हो जाते हो; तुम ज्यादा सजग हो जाते हो। तुम केवल तभी प्रतिक्रिया करते हो जब बहुत जरूरी होता है; तब भी तुम्हारी कोशिश यही होती है कि प्रतिक्रिया प्रतिक्रिया न होकर प्रतिसंवेदन हो।

प्रतिसंवेदन बिलकुल अलग बात है प्रतिक्रिया से। पहला अंतर यह है कि प्रतिक्रिया यंत्रवत होती है; प्रतिसंवेदन होशपूर्ण होता है। कोई तुम्हारा अपमान कर देता है; तुम तुरंत प्रतिक्रिया करते हो—तुम उसका अपमान कर देते हो। एक क्षण का भी अंतराल नहीं होता समझने के लिए : यह एक प्रतिक्रिया है। आत्म—संयमी व्यक्ति प्रतीक्षा करेगा, अपने अपमान पर थोड़ा विचार करेगा, उस पर सोचेगा।

गुरजिएफ कहा करता था कि उसके दादा की एक बात से उसका पूरा जीवन बदल गया। क्योंकि जब उसके दादा मर रहे थे, गुरजिएफ उस समय केवल नौ वर्ष का था, तो उन्होंने उसे बुलाया और उससे कहा, ‘मैं एक गरीब आदमी हूं और मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं कुछ देना चाहूंगा। यही एकमात्र चीज है जिसे मैं किसी खजाने की भांति सम्हालता आया हूं; इसे मैंने अपने पिता से सीखा है…। तुम बहुत छोटे हो, लेकिन स्मरण कर लो इसे। किसी दिन तुम समझ भी पाओगे—अभी तो बस तुम ध्यान में रख लो इसे। कभी किसी दिन तुम समझ पाओगे। अभी तो मुझे आशा नहीं कि तुम समझ सको, लेकिन यदि तुम भूले नहीं, तो किसी दिन तुम समझ जाओगे।’ और यह बात उसने कही गुरजिएफ से : ‘यदि कोई तुम्हारा अपमान करे तो चौबीस घंटे बाद उसे उत्तर देना।’

यह बात एक रूपांतरण बन गई, क्योंकि कैसे तुम प्रतिक्रिया कर सकते हो चौबीस घंटे बाद? प्रतिक्रिया को तात्कालिकता चाहिए। गुरजिएफ कहता था, ‘कोई मेरा अपमान करे या कोई कुछ गलत कह दे, तो मैं कहता, मैं कल आऊंगा। केवल चौबीस घंटे बाद ही मैं उत्तर दे सकता हूं—और मैंने वचन दिया है अपने दादा को और वे मर चुके हैं और वचन तोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन मैं आऊंगा।’ वह आदमी तो चकित होता। वह नहीं समझ पाता कि बात क्या है।

और फिर गुरजिएफ सोचेगा इस विषय में। जितना ज्यादा सोचेगा वह, उतनी ही ज्यादा व्यर्थ लगेगी बात। कई बार तो यही लगेगा कि वह आदमी ठीक ही कहता है। जो कुछ भी उसने कहा, ठीक ही है। तो गुरजिएफ जाता और धन्यवाद करता उस व्यक्ति का, ‘तुमने वह प्रकट कर दिया जिसका कि मुझे भी पता नहीं था।’ और कभी वह पाता कि वह व्यक्ति बिलकुल ही गलत कह रहा है। और जब कोई बिलकुल गलत कह रहा है, तो क्यों फिक्र करनी? कोई आदमी झूठी बातों के लिए चिंता नहीं करता। जब तुम्हें चोट लगती है, तो जरूर कुछ न कुछ सच्चाई होती है बात में; अन्यथा तो तुम चोट अनुभव नहीं करते। तब भी कोई सार नहीं होता जाने में।

और उसने कहा, ‘ऐसा हुआ कि बहुत बार मैंने अपने दादा की इस सलाह का उपयोग किया,

और धीरे— धीरे क्रोध तिरोहित हो गया।’ और केवल क्रोध ही नहीं धीरे— धीरे वह जान गया कि यही विधि दूसरे आवेगों के साथ भी प्रयोग की जा सकती है। और हर चीज तिरोहित हो जाती है। गुरजिएफ इस युग के उच्चतम शिखरों में से एक था—एक बुद्ध पुरुष। और वह महायात्रा आरंभ हुई एक छोटे से चरण से, मृत्यु—शय्या पर पड़े वृद्ध को दिए गए एक वचन से। इस बात ने उसकी पूरी जिंदगी बदल दी।

तो यम एक सेतु है तुम्हारे और दूसरों के बीच—होशपूर्वक जीओ; लोगों के साथ होशपूर्वक संबंध रखो। फिर दूसरे दो हैं, नियम और आसन—उनका संबंध है तुम्हारे शरीर से। तीसरा प्राणायाम, वह भी एक सेतु है। पहला ‘यम’ सेतु है तुम्हारे और दूसरों के बीच। अगले दोनों चरण एक तैयारी हैं एक दूसरे सेतु के लिए—तुम्हारा शरीर तैयार किया जाता है नियम और आसन के द्वारा—फिर प्राणायाम का सेतु है शरीर और मन के बीच। फिर प्रत्याहार और धारणा, ये तैयारी हैं मन की। फिर ध्यान एक सेतु है—मन और आत्मा के बीच। और समाधि है परम उपलब्धि। वे अंतर्संबंधित हैं, एक श्रृंखला है; और यही है तुम्हारा पूरा जीवन।

दूसरों के साथ तुम्हारे संबंध को बदलना है। दूसरों के साथ तुम जिस तरह संबंधित होते हो, उस ढंग को रूपांतरित करना है। यदि तुम दूसरों के साथ उसी ढंग से संबंध बनाए रखते हो जैसा कि तुम सदा से करते आए हो, तो रूपांतरण की कोई संभावना नहीं है। तुम्हें अपने संबंध बदलने हैं।

थोड़ा ध्यान देना कि तुम अपनी पत्नी के साथ या अपने मित्र के साथ या अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करते हो! बदलो उसे। हजारों बातें बदलनी होंगी तुम्हारे संबंधों में। यह है यम—संयम। लेकिन ध्यान रहे, यम संयम है—दमन नहीं। समझ से संयम आता है। अज्ञान में व्यक्ति जबरदस्ती करता है और दमन करता है। जो भी करो समझ से करो, तो तुम कभी भी स्वयं की या किसी दूसरे की हानि नहीं करोगे।

यम है तुम्हारे आस—पास एक अनुकूल वातावरण का निर्माण करना। यदि तुम हर किसी के प्रति दुश्मनी रखते हो, लड़ते हो, घृणा करते हो, क्रोधित होते हो—तो कैसे तुम भीतर मुड़ सकोगे? ये बातें तुम्हें भीतर न जाने देंगी। तुम इतने ज्यादा अस्तव्यस्त हो जाओगे परिधि पर कि अंतर्यात्रा संभव ही न होगी। तुम्हारे आस—पास एक अनुकूल, एक मैत्रीपूर्ण वातावरण का निर्माण करना यम है।

जब तुम दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से, होशपूर्वक संबंधित होते हो, तो वे तुम्हारे लिए कोई अड़चन नहीं खड़ी करते तुम्हारी अंतर्यात्रा में। वे सहयोगी बन जाते हैं; वे तुम्हारे लिए रुकावट नहीं बनते। यदि तुम अपने बच्चे से प्यार करते हो, तो जब तुष ध्यान कर रहे हो तो वह तुम्हारे ध्यान में बाधा नहीं डालेगा। बल्कि वह दूसरों से भी कहेगा, ‘शांत रहें, पिताजी ध्यान कर रहे हैं।’ लेकिन यदि तुम अपने बच्चे को प्रेम नहीं करते, तुम क्रोधित ही रहते हो, तो जब तुम ध्यान कर रहे हो तो वह हर तरह की अड़चन खड़ी करेगा। वह बदला लेना चाहता है—अचेतन रूप से। यदि तुम अपनी .पत्नी को गहन रूप से प्रेम करते हो, तो वह सहायक होगी; अन्यथा वह तुम्हें प्रार्थना न करने देगी, वह तुम्हें ध्यान न करने देगी—क्योंकि तुम उसकी पकड़ के बाहर हो रहे हो।

यही मैं रोध देखता हूं. पति संन्यास ले लेता है तो पत्नी चली आती है रोती हुई—’आपने हमारे परिवार के साथ यह क्या किया? आपने हमें बर्बाद कर दिया।’ मैं जानता हूं कि पति ने प्रेम नहीं

नहीं किया पत्नी को; वरना तो वह प्रसन्न होती। वह उत्सव मनाती कि उसका पति ध्यानी हो गया है। लेकिन उसने प्रेम किया नहीं उसे। अब न केवल यह कि उसने प्रेम नहीं किया, वह बढ़ रहा है भीतर की ओर। इसलिए भविष्य में भी कोई संभावना नहीं है उससे प्रेम पाने की।

यदि तुम प्रेम करते हो किसी व्यक्ति को, तो वह व्यक्ति सदा सहायक होता है तुम्हारे विकास में, क्योंकि वह जानता है—या स्त्री हो तो वह जानती है—कि जितने ज्यादा तुम विकसित होते हो, उतने ज्यादा तुम सक्षम हो जाते हो प्रेम में। वह जानती है प्रेम का स्वाद। और सारे ध्यान तुम्हें मदद देंगे ज्यादा प्रेममय होने में; हर तरह से ज्यादा सौंदर्यपूर्ण होने में।

लेकिन यही रोज होता है। यही हुआ शीला की बहन के साथ। वह एक शिविर में थी और वह संन्यास लेना चाहती थी, लेकिन पति की इच्छा न थी। पति बहुत सुशिक्षित हैं। अमरीका में कहीं किसी रिसर्च इंस्टीटधूट के डायरेक्टर हैं। फिर वह घर चली गई। निरंतर संघर्ष बना रहा। वह संन्यास लेना चाहती थी, वह दीक्षित होना चाहती थी, लेकिन वह इजाजत न देते थे। फिर वह आए मुझे देखने कि कौन है यह आदमी जो हमारी जिंदगी गड़बड़ किए दे रहा है! और उन्होंने संन्यास ले लिया। अब पत्नी खड़ी कर रही है मुसीबत! अब पत्नी एकदम खिलाफ है। और वे बहुत सीधे —सरल आदमी हैं, सचमुच सुंदर। और वे मुझे लिखते हैं : ‘मैं क्या करूं? क्योंकि मैं प्रेम करता हूं उसे, लेकिन जब से उसने सुना है कि मैंने संन्यास ले लिया है, वह तो बिलकुल बदल गई है।’

इसी भांति चीजें चलती हैं। हर कोई प्रयत्न. कर रहा है दूसरे पर नियंत्रण करने का।

यम को साधने वाला व्यक्ति स्वयं को साधता है, दूसरों को नहीं। दूसरों को तो वह स्वतंत्रता देता है। तुम दूसरों पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हो, लेकिन स्वयं पर कभी नहीं। यम का व्यक्ति स्वयं को संयमित करता है और दूसरों को स्वतंत्रता देता है। वह इतना ज्यादा प्रेम करता है दूसरों को कि उनको स्वतंत्रता दे सकता है। और वह इतना ज्यादा प्रेम करता है स्वयं को कि अपने को संयमित करता है। इसे समझ लेना है : वह स्वयं को इतना ज्यादा प्रेम करता है कि वह अपनी ऊर्जाओं को बिखरा नहीं सकता, उसे एक दिशा देनी होती है।

फिर शरीर के लिए हैं नियम और आसन। नियमित जीवन बहुत स्वास्थ्यप्रद होता है शरीर के लिए, क्योंकि शरीर एक यंत्र है। यदि तुम अनियमित जीवन जीते हो तो तुम शरीर को उलझन में डाल देते हो। आज तुमने भोजन किया एक बजे, कल तुम करते हो ग्यारह बजे; परसों तुम करते हो दस बजे—तुम उलझन में डाल देते हो शरीर को! शरीर की एक आंतरिक जैविक घड़ी होती है; वह एक नियम में चलती है। यदि तुम रोज उसी समय पर भोजन करते हो तो शरीर सदा ऐसी स्थिति में होता है जहां कि वह समझता है कि क्या हो रहा है, और वह तैयार होता है उसके लिए—रस प्रवाहित हो रहे होते हैं पेट में बिलकुल ठीक समय पर। अन्यथा जब भी तुम भोजन करना चाहो, तुम कर सकते हो, लेकिन रस प्रवाहित न हो रहे होंगे। और यदि तुम भोजन करते हो और रस नहीं प्रवाहित हो रहे होते हैं, तो भोजन ठंडा हो जाता है; फिर उसे पचाना कठिन होता है।

रसों को वहा तैयार होना चाहिए भोजन को पचाने के लिए। जब भोजन गरम होता है, तब तुरंत पाचन आरंभ हो जाता। भोजन का छह घंटे में पाचन हो सकता है यदि रस तैयार हों, प्रतीक्षा कर रहे हों। यदि रस तैयार नहीं हैं तो बारह या अठारह घंटे लग जाते हैं। तब तुम बोझिलता अनुभव करते हो, आलस्य लगता है। तब भोजन तुम्हें जीवन तो देता है, लेकिन तुम्हें विशुद्ध जीवन नहीं देता है। वह तुम्हारी छाती पर पड़े किसी बोझ जैसा लगता है; तुम किसी तरह उसे ढोते रहते हो, खींचते रहते हो। और भोजन बड़ी विशुद्ध ऊर्जा बन सकता है—लेकिन तब एक नियमित जीवन की जरूरत है। तुम रोज दस बजे सो जाते हो. शरीर को पता है—ठीक दस बजे शरीर तुम्हें खबर कर देता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इसी से जकडू जाओ, कि जब तुम्हारी मां मर रही हो तब भी तुम दस बजे सो जाओ। मैं यह नहीं कह रहा हूं। क्योंकि लोग किसी भी पागलपन में पड़ सकते हैं।

इमेनुएल कांट के विषय में बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं। वह नियमितता को लेकर पागल था; वह बात एक पागलपन हो गई थी। किसी भी बात को सनक मत बना लेना। उसकी तो एक नियत दिनचर्या थी, इतनी निश्चित, एक—एक पल निश्चित, कि यदि कोई व्यक्ति, कोई मेहमान आया हो, तो वह देखेगा घड़ी की तरफ और जैसे ही सोने का समय हुआ, वह मेहमान से कोई बात भी न करेगा, क्योंकि उस बात—चीत में समय लगेगा—वह घुस जाएगा बिस्तर में, कंबल ओढ़ लेगा, और वह तो सो गया और मेहमान वहां बैठा ही हुआ है! उसका नौकर आएगा और मेहमान से कहेगा, ‘अब आप जाएं, क्योंकि उनके सोने का समय हो गया।’

नौकर का इतना अभ्यास हो गया था कांट के साथ कि कोई जरूरत न थी कहने की कि ‘ आपका भोजन तैयार है’, और कोई जरूरत न थी कहने की कि ‘अब आप जाकर सोए।’ केवल समय बताना पड़ता। नौकर आएगा कमरे में और कहेगा, ‘मालिक, ग्यारह बजे हैं।’ वह तुरंत समझ जाएगा, क्योंकि कुछ और कहने की कोई जरूरत न थी।

वह इतना नियम से चलता था कि नौकर धौंस जमाने लगा—क्योंकि वह हमेशा उसे धमकी देता रहता, ‘मैं चला जाऊंगा। मेरी तनख्वाह बढ़ाओ।’ फौरन तनख्वाह बढ़ानी पड़ती, क्योंकि दूसरा नौकर, कोई नया आदमी तो सब गड़बड़ कर देगा। एक बार उसने नौकर बदल कर भी देखा. एक नया आदमी रखा, लेकिन वह संभव न था, क्योंकि कांट तो पल—पल के हिसाब से जीता था।

वह यूनिवर्सिटी जाता; वह बहुत प्रसिद्ध शिक्षक और महान दार्शनिक था। एक दिन सड़क कीचड़ से भरी थी और बारिश हो रही थी, और उसका एक जूता कीचड़ में धंस गया—तो उसने उसे वहीं छोड़ दिया। वरना उसे देर हो जाए! तो वह चला एक जूता पहने हुए। कोनिग्सबर्ग के विश्वविद्यालय क्षेत्र में ऐसा कहा जाता था कि लोग उसे देख कर अपनी घड़ियां मिला लेते हैं, क्योंकि उसकी हर बात बिलकुल घड़ी के अनुसार होती थी।

एक नए पड़ोसी ने कांट के घर के साथ वाला घर खरीद लिया और उसने नए वृक्ष लगाने शुरू कर दिए। शाम को रोज ठीक पांच बजे, कांट घर के उस ओर आया करता था और खिड़की के पास बेठ जाता था और देखता रहता था आकाश की तरफ। अब वृक्षों ने ढांक दिया खिड़की को और वह श्राकाश नहीं देख सकता था। वह बीमार पड़ गया। वह इतना बीमार पड़ गया… और डाक्टर कोई बीमारी भी नहीं ढूंढ पा रहे थे उसमें, क्योंकि वह इतना नियमित आदमी था! वह असल में बहुत स्‍वस्‍थ व्यक्ति था। डाक्टर कुछ पता न लगा सके; वे रोग का निदान न कर सके। तब उस नौकर ने कहां ता, ‘ आप परेशान न हों। मैं जानता हूं कारण। वे पेडू उनकी नियमितता में बाधा दे रहे हैं। अब वेद खिड़की पर बैठ कर आकाश को नहीं देख पाते हैं। आकाश की ओर देखना अब संभव नहीं रहा है।’

आखिर पड़ोसी को राजी करना पड़ा। पेड कांट दिए गए, और वह बिलकुल ठीक हो गया; बीमारी दूर हो गई।

लेकिन यह तो आदत से जकड़ जाना है। ऐसा जकड़ जाने की कोई जरूरत नहीं; हर बात समझ के साथ करनी होती है।

तो नियम और आसन हैं शरीर के लिए। संयमित शरीर एक सुंदर घटना है—एक संयमित ऊर्जा, ज्योतिर्मय, और सदा अतिरिक्त ऊर्जा से भरपूर और जीवंत, और कभी भी दीन—हीन और मुर्दा नहीं। तब शरीर का भी अपना बोध है, शरीर का भी अपना विवेक है, शरीर एक नई सजगता से ज्योतिर्मय हो उठता है। फिर प्राणायाम एक सेतु है मन और शरीर के बीच। तुम शरीर को बदल सकते हो श्वास के द्वारा, तुम मन को बदल सकते हो श्वास के द्वारा। उसके बाद प्रत्याहार और धारणा—घर लौटना और एकाग्रता—संबंधित हैं मन के रूपांतरण के साथ। फिर ध्यान एक और सेतु है मन और आत्मा के बीच या मन और अनात्मा के बीच—जो भी तुम कहना चाहो उसे, वह दोनों ही है। ध्यान सेतु है समाधि का।

तुम्हारे चारों तरफ समाज है; समाज से तुम तक एक सेतु है — यम। तुम्हारा शरीर है; शरीर के लिए हैं नियम और आसन। फिर एक सेतु है—प्राणायाम, क्योंकि मन का आयाम शरीर से भिन्न है। फिर है मन की तैयारी : प्रत्याहार और धारणा—घर लौट आना और एकाग्र होना। फिर एक सेतु है, यह है अंतिम सेतु—ध्यान। और फिर तुम पहुंच जाते हो मंजिल तक : समाधि।

समाधि बहुत सुंदर शब्द है। इसका अर्थ है. अब हर बात का समाधान हुआ। इसका अर्थ ही है समाधान : सब मिल गया। अब कोई आकांक्षा न रही; कुछ पाने को न रहा; कहीं जाने को न रहा; तुम घर आ गए।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(सूफी कथा) प्रवचन–17

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 अहंकार की उलझी पूंछ—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 7 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

एक दिन गोसो ने अपने शिष्यों से कहा,

‘एक भैंस उस आंगन से बाहर निकल गयी है, जिसमें कि वह कैद थी।

उसने आंगन की दीवार तोड़ डाली है।

उसका पूरा शरीर ही दीवार से बाहर निकल गया–सींग, सिर, पैर, धड़, सब;

लेकिन पूंछ बाहर नहीं निकल पा रही है। और पूंछ कहीं उलझी हुई भी नहीं है।

और पूंछ को किसी ने पकड़ भी नहीं रखा है।

मैं पूछता हूं, फिर भी पूंछ बाहर क्यों नहीं निकल पा रही है?’

शिष्य सोचने लगे और गोसो हंसने लगा।

फिर उसने कहा, ‘जिसने सोचा, उसकी पूंछ भी उलझी।’

शिष्य और भी विचार में खो गए।

फिर गोसो ने कहा, ‘जिसकी समझ में न आये, वह पीछे लौटकर अपनी पूंछ देखे।’

भगवान! कृपया इस कहानी का अर्थ समझायें।

 जो है, उससे मुक्त हो जाना बहुत आसान है। जो नहीं है, उससे मुक्त होना बहुत कठिन है। जो दिखाई पड़ता हो, उसे तोड़ देने में कितनी ही कठिनाई हो, असंभव नहीं; लेकिन जो दिखाई ही न पड़ता हो, उसे हम तोड़ना भी चाहें तो कैसे तोड़ें!

विरोधाभासी दीखनेवाली यह बात जीवन के आंतरिक सत्यों के संबंध में बहुत सही है। मनुष्य सभी चीजों से मुक्त हो पाता है, अहंकार से नहीं। और अहंकार बिलकुल नहीं है। उसका अस्तित्व ही नहीं है। उसे तुम खोजने जाओगे तो पाओगे भी नहीं। जिससे तुम बंधे हो, खोजने पर मिलेगा भी नहीं कि वह कहां है। शायद इसलिए बंधन बहुत गहरा हैं। तोड़ने का उपाय नहीं। दिखता तो तोड़ देते। तोड़ने का उपाय नहीं; होता तो तोड़ देते।

जो नहीं है, उससे हम इस बुरी तरह बंधते हैं! लेकिन जो नहीं है, उससे भी बंधन हो जाता है। कुछ कारण समझ लेने चाहिए।

बोधिधर्म चीन गया चौदह सौ वर्ष पहले। चीन के सम्राट ने कहा, ‘मैं बहुत अशांत हूं।’ बोधिधर्म ने कहा, ‘कल सुबह आ जाओ। और ध्यान रहे, अपनी अशांति को साथ ले आना। क्योंकि तुम अगर उसे घर भूल आये, तो मैं तुम्हारा इलाज भी कैसे करूंगा?

सम्राट लौटा तो जरूर, लेकिन सोचता लौटा कि सुबह जाए या नहीं। क्योंकि यह आदमी थोड़ा पागल मालूम पड़ता है। अशांति कोई चीज तो नहीं है कि तुम घर रख आओगे। अशांति कोई चीज तो नहीं है; लाने-ले जाने का सवाल क्या है? रात बहुत सोचा, जाऊं न जाऊं, लेकिन यह आदमी आकर्षक भी लगा, इसकी आंखों में कोई बल भी था, इसके होने के ढंग में कोई गहराई भी थी। और जिस भांति उसने कहा था कि ले आना अशांति अपने साथ, अन्यथा मैं शांत किसे करूंगा? उसमें इतनी सचाई और प्रामाणिकता थी कि सम्राट ने सोचा, जाने में हर्ज नहीं है। प्रयोग कर लेने जैसा है। यह अवसर खोना उचित नहीं।

सुबह-सुबह सम्राट पहुंचा। अभी सूरज भी उगा नहीं था, और बोधिधर्म अपने मंदिर के बाहर बैठा हुआ था सीढ़ियों के पास। देखते ही सम्राट को कहा, ‘बैठ जाओ। और कहां है अशांति? कहां है तुम्हारा मन? निकालो ताकि मैं उसे शांत कर दूं।’

सम्राट ने कहा, ‘व्यंग्य करते हैं, या आप विक्षिप्त हैं? अशांति कोई चीज तो नहीं है, जिसे मैं दिखा सकूं।’

बोधिधर्म ने कहा, ‘जिसे तुम देख सकते हो, उसे मैं क्यों न देख सकूंगा? और अशांति अगर कोई वस्तु ही नहीं है, तो जो तुम्हें इतना परेशान किये है वह होगी तो जरूर; छिपी हो, कोई आवरण पड़ा हो, लेकिन जिससे तुम इतने उद्विग्न हो, जो तुम्हें रात सोने नहीं देती, पेट में गया भोजन पचने नहीं देती, जिसके कारण सारे साम्राज्य का सुख तुम भोग नहीं पाते वह अशांति होगी तो जरूर। और काफी मजबूत होगी।’

सम्राट ने कहा, ‘वह मैं जानता हूं, कि है और मजबूत है। लेकिन कोई बाहर की चीज तो नहीं है; भीतर की है।

तो बोधिधर्म ने कहा, तुम आंख बंद करो और भीतर खोजो; और जब तुम पकड़ लो तो मुझे बताना। मैं इधर बाहर तैयार बैठा हूं। तुमने उधर पकड़ा, इधर मैंने हल किया। तुम्हें शांत करके ही भेजूंगा।

सम्राट ने आंखें बंद कीं और खोजने लगा कि अशांति कहां है। मन के एक-एक कोने-कांतर में झांका। एक-एक मन की पर्त उठाकर देखी। सब वस्त्र हटाये। जैसे-जैसे खोजता गया, बड़ा हैरान हुआ; अशांति तो मिलती नहीं, उल्टे मन शांत होता जाता है।

जो व्यक्ति भी अपने भीतर अशांति की खोज पर निकल जाएगा, वह शांत हो जाएगा। अशांति है इसलिए, कि तुमने कभी गौर से देखा नहीं। तुम्हारे न देखने में ही उसका अस्तित्व है। वह अपने आप में कुछ भी नहीं है।

जैसे-जैसे पर्तें उलटने लगा, वैसे-वैसे पाया कि कोई गहरा, शांत आकाश खुलता जाता है। कोई मंदिर के द्वार खुल रहे हैं, जहां सब शांत है। उसके बाहर के चेहरे पर भी झलक आने लगी। वह धुन जो भीतर बजने लगी थी, बाहर भी फैलने लगी। घड़ी बीती, दो घड़ी बीती, सूरज ऊग आया। उस ऊगते सूरज की किरणें सम्राट के चेहरे पर पड़ रही हैं। वह शांत बैठा है; जैसे पत्थर की मूर्ति हो, बुद्ध की मूर्ति हो। आखिर बोधिधर्म ने उसे हिलाया और कहा कि बहुत हो गया। अब मुझे दूसरे काम भी करने हैं। आंख खोलो, अगर पकड़ लिया हो तो बोलो, अन्यथा कल सुबह फिर आ जाना।

सम्राट ने आंख खोली, और झुककर चरण छुए और कहा, ‘धन्य हैं! आपने मुझे शांत ही कर दिया। खोजता हूं तो अशांति पाता नहीं; नहीं खोजता हूं तो अशांति है। देखता हूं तो दिखाई नहीं पड़ती, खो जाती है। नहीं देखता, पीठ करता हूं तो बड़ी वजनी है। बड़ी भयंकर है।’

उस अशांति से तुम परेशान हो, जो है नहीं। उन बीमारियों से तुम पीड़ित हो, जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। और जो नहीं है, बुरी तरह पकड़ लेता है। और उससे छूटते भी नहीं बनता। प्रगट कुछ होता तो छूटने का उपाय कर लेते; अप्रगट है। इतना सूक्ष्म है, ना के बराबर है। शून्य जैसा है।

कारागृह की जो दीवालें दिखाई पड़ती हैं वे कितनी ही ऊंची हों, सीढ़ी खोजी जा सकती है। कारागृह की जो दीवालें दिखाई पड़ती हैं, कितनी ही मजबूत चट्टानों की बनी हों, तोड़ी जा सकती हैं। लेकिन तुम उस कारागृह में बंद हो, जो दिखाई नहीं पड़ता। सीढ़ी तुम लगाओगे कहां? दीवालें अदृश्य हैं; तुम तोड़ोगे कैसे? और कारागृह तुम्हारा ऐसा है कि तुमसे बाहर नहीं, तुम्हारे भीतर है। और कारागृह ऐसा है कि तुम उसमें बंद नहीं हो, तुम उसे अपने साथ ढोते हो। तुम उसे अपने साथ ही लेकर चलते हो। और कारागृह ऐसा है कि सब निकल जाएगा, लेकिन पूंछ तुम्हारी फंसी रह जाएगी।

हिंदी में ‘पूछ’ शब्द बड़ा अदभुत है। और अगर शब्द के साथ थोड़ा खेल करना हो तो बड़े रहस्य का है। लोग कहते हैं, गये, किसी ने पूछा नहीं। कोई पूछत्ताछ न की किसी ने। बड़े दुखी होते हैं। पूछ हो तो सुखी होते हैं। पूछ न हो तो दुखी होते हैं। पूछ अहंकार है। किसी के घर गये, मेहमान हुए, किसी ने पूछा नहीं, दुखी लौटे। कहीं काफी पूछ हुई, बड़े सुखी लौटे। कोई देखे, सम्मानित करे, आदर करे, स्वीकार करे कि तुम हो, कुछ विशिष्ट हो।

पूछ विशिष्टता है। विशिष्टता में हरेक बंद है।

और जिस दिन तुम साधारण हो जाओगे, उस दिन तुम मुक्त होओ। उस दिन पूछ बंद न रह जाएगी। और हर आदमी सोचता है कि मैं विशिष्ट हूं, कुछ खास हूं। तुम ऐसा आदमी न खोज सकोगे, जो अपने को खास न समझता हो। और अगर ऐसा आदमी मिल जाए तो उसके चरण मत छोड़ना, क्योंकि वह आदमी भगवान है। यह खयाल कि मैं असाधारण हूं, बड़ा साधारण है; सभी को है। तुमको ही नहीं, वृक्षों को, कीड़े-मकोड़ों को, सभी को है कि मैं असाधारण हूं। छोटा-सा पतिंगा और मक्खी भी इसी खयाल से भरी है।

पुरानी लुकमान की एक कथा है। लुकमान पुराने ज्ञानियों में एक हुआ; कोई जीसस से तीन हजार साल पहले। मुहम्मद ने लुकमान का कुरान में बड़े आदर से उल्लेख किया है। एक पूरा अध्याय लुकमान के लिए समर्पित किया है। दुनिया की ऐसी कोई भाषा नहीं है, जहां लुकमान का शब्द गहरे में प्रवेश न कर गया हो। जिनको लुकमान का कोई पता भी नहीं है, वे भी उसका उपयोग करते हैं। लोग नाराज हो जाते हैं तो कहते हैं, ‘बड़े लुकमान बने बैठे हैं।’ उन्हें पता भी नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। कहावत है कि लुकमान को क्या समझाना! लुकमान से ज्यादा कोई समझदार भी नहीं हैं। लुकमान से किसी ने पूछा कि तुझे इतनी समझदारी कैसे मिली? लुकमान ने कहा, ‘जब मैं नासमझ हो गया।’ लुकमान से किसी ने पूछा, ‘तुम इतने समादृत क्यों हो?’ लुकमान ने कहा, ‘जब मैंने आदर की आकांक्षा छोड़ दी।’

लुकमान की एक छोटी कहानी है। और लुकमान ने कहानियों में ही अपना संदेश दिया है। ईसप की प्रसिद्ध कहानियां आधे से ज्यादा लुकमान की ही कहानियां हैं, जिन्हें ईसप ने फिर से प्रस्तुत किया है। लुकमान कहता है, एक मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई, आवाज की, और कहा, ‘भाई!’ मक्खी का मन होता है हाथी को भाई कहने का। कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरता था बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’ हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के बिदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई। तीर्थयात्रा थी, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं। कोई काम हो, तो मुझे कहना।’

तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी। उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं। कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी।

लुकमान कहता है, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इस बड़े अस्तित्व में हाथी और मक्खी के अनुपात से भी हमारा अनुपात छोटा है। क्या भेद पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं! वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी? वह चाहती थी हाथी स्वीकार करे, तू भी है; तेरा भी अस्तित्व है। पूछ चाहती थी।

हमारा अहंकार अकेले तो नहीं जी सक रहा है। दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है। इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें; उपेक्षा न हो। हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों के लिये, स्नान करते हैं तो दूसरों के लिये, सजाते-संवारते हैं तो दूसरों के लिये। धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों के लिये। दूसरे देखें और स्वीकार करें कि तुम कुछ विशिष्ट हो। तुम कोई साधारण नहीं। तुम कोई मिट्टी से बने पुतले नहीं हो। तुम कोई मिट्टी से आये और मिट्टी में नहीं चले जाओगे, तुम विशिष्ट हो। तुम्हारी गरिमा अनूठी है। तुम अद्वितीय हो। अहंकार सदा इस तलाश में है–वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

अब हम गोसो की कहानी समझें।

गोसो थोड़े से बुद्धत्व को प्राप्त लोगों में एक है। गोसो ने अपने शिष्यों का कहा कि सुनो! एक आंगन में एक भैंस बंद है; निकलने की कोशिश करती है।

सभी कोशिश करते हैं। जहां भी बंधन हो, वहां से हम निकलने की कोशिश करते हैं। क्योंकि जहां भी बंधन हो, वहीं अहंकार को चोट लगती है। परतंत्रता इतनी सालती है, इतनी चुभती है; क्यों? क्योंकि परतंत्रता का अर्थ है कि अब तुम अपने तईं होने में समर्थ नहीं हो। तुम चाहो तो चल नहीं सकते, चाहो तो बैठ नहीं सकते। तुम्हारे अहंकार को फैलने का उपाय नहीं है। इसलिए अहंकार स्वतंत्रता मांगता है।

अब इसे तुम समझना। अहंकार की स्वतंत्रता, आत्मा की स्वतंत्रता नहीं हो सकती। और अहंकार कितनी ही स्वतंत्रता चाहे, पूरी स्वतंत्रता नहीं चाह सकता। यह अहंकार का पैराडाक्स है। यह अस्मिता का विरोधाभास है।

यह थोड़ा सूक्ष्म है। इसे थोड़ा समझने की कोशिश करो। अहंकार चाहता है मैं परतंत्र न रहूं, लेकिन अहंकार दूसरों के बिना रह भी नहीं सकता, बच भी नहीं सकता। तुम चाहते हो कि अकेला रहूं, लेकिन तुम दूसरों के बिना जी भी नहीं सकते। अहंकार की स्थिति वैसी है, जैसे कुछ लोग कहते हैं, पत्नियों के साथ रहें तो मुश्किल; साथ नहीं रह सकते। बिना रहना चाहें तो मुश्किल; पत्नी के बिना भी नहीं रह सकते। रहना ही असंभव है। साथ जाते हैं तो साथ की कठिनाइयां हैं; अलग जाते हैं तो मजा ही चला जाता है। अहंकार कुछ ऐसा चाहता है कि दूसरे तो हों, लेकिन परतंत्र न बनायें। दूसरों का मैं शोषण तो करूं, मैं तो दूसरों को परतंत्र बनाऊं, मैं स्वतंत्र बना रहूं।

गोसो ने कहा कि भैंस बंद है आंगन में। दरवाजा खुला है, कोई जंजीरें भी नहीं पड़ी हैं। भैंस मुक्त होने के लिये बाहर निकलती है। सींग निकल गये, सिर निकल गया, धड़ निकल गया, सब निकल गया लेकिन पूंछ नहीं निकलती। और पूंछ को न तो कोई पकड़े है और न पूंछ बांधी गयी है।

अब दरवाजा बड़ा होगा। जिसमें से भैंस निकल गयी उसमें से पूंछ क्यों नहीं निकलती? भैंस खुद ही खड़ी हो गयी होगी। पूंछ को तो कोई निकालना नहीं चाहता। आंगन में बंद थी, तब तक उसने सोचा होगा स्वतंत्रता चाहिए, मुक्ति चाहिए। और जब आंगन से पूरी निकल गयी तभी उसको पता चला कि अगर पूंछ भी बाहर निकल गयी, तो स्वतंत्रता का भी क्या करोगे?

संन्यासी भाग जाता है हिमालय, पूंछ यहीं छूट जाती है संसार में। वहां बैठकर हिमालय की शिला पर भी वह सोचता है तुम्हारे बाबत, कि कब आओगे, कब दर्शन करोगे, कब चरणों में फूल चढ़ाओगे। वहां दूर हिमालय पर बैठकर भी राह देखता है कि कोई आये, कोई कहे कि आप जैसा एकांगी, आप जैसा एकांत में वास करने वाला कोई दूसरा नहीं देखा। संसार को खबर मिले कि मैं हिमालय आ गया हूं। संसार भलीभांति जान ले कि मैंने त्याग कर दिया है। लेकिन संसार जान ले!

तो त्यागी भी अखबार में खबर देखना चाहता है; यह बड़े मजे की बात है। भैंस बाहर निकल जाती है, पूंछ भीतर रह जाती है। जिस संसार का ही त्याग कर दिया, उसका अखबार न छूटा? सब छोड़ दिया लेकिन संसार पूछे तुम्हारे बाबत, जाने तुम्हारे बाबत, तुम हो; यह न छूटा। हिमालय आकर बैठ गये हो, लेकिन मन को प्रसन्नता तभी होगी, जब सारी दुनिया के कोने-कोने में लोग जान लें कि तुमने जगत छोड़ दिया, तुम एकांतवास कर रहे हो। दूसरों को पता चले कि तुम एकांत में हो, तो ही तुम्हें एकांत में भी मजा आयेगा।

भैंस बाहर निकल जाती है, पूंछ भीतर रह जाती है। कोई पकड़े नहीं है। कौन पकड़े है तुम्हें? जब तुम हिमालय तक चले गये, किसी ने नहीं रोका। कोई बांधे नहीं है; कौन बांधे है? सब अपनी-अपनी पूंछ की फिक्र में हैं, तुम्हारी पूंछ को कौन बांधेगा? अपनी ही पूंछ इतनी भारी है, अपनी ही पूंछ ढोना इतना कष्टपूर्ण है, तुम्हारी चिंता किसे है? तुम्हें किसकी चिंता है? सब अपनी ही चिंता कर रहे हैं, लेकिन पूंछ भीतर रह गयी है।

और गोसो ने पूछा कि बोलो, क्या अड़चन है? पूरी भैंस बाहर हो गयी है, न कोई बांधे, न कोई पकड़े, दरवाजा खुला है, पूंछ भीतर क्यों रह गयी है? कहीं अटकी भी नहीं है।

शिष्य सोचने लगे। गोसो हंसा और उसने कहा, ‘अगर सोचा, तुम्हारी पूंछ भी भीतर रह जाएगी।’

जो नहीं सोचता, उसकी पूंछ तत्क्षण खो जाती है क्योंकि बिना सोचे अहंकार को बचने की कोई जगह नहीं है।

तुम सोचते हो इसलिए अहंकार निर्मित होता है। इसलिए जितना तुम सोचोगे उतना ज्यादा अहंकार निर्मित होगा। इसलिए तुम्हारे तथाकथित विचारक सर्वाधिक अहंकारी होंगे। जिनको तुम इनटेलिजेंशिया कहते हो, जिनको तुम कहते हो बुद्धिशाली, बौद्धिक लोग, ये सबसे ज्यादा अहंकारी होंगे। दो पंडितों को साथ बिठाना आसान नहीं। दो कुत्ते भी थोड़ी देर शांत बैठ जाएं, न भौंके एक दूसरे पर, दो पंडित नहीं बैठ सकते। स्वर्ग में सब को जगह मिलती होगी, पंडितों को नहीं मिलती होगी। नहीं तो वहां चैन ही न मिलेगा। वहां इतनी बकवास होगी, वहां इतना विवाद होगा–अकारण, बेबात का! इतना शोरगुल और कलह मचेगा कि नर्क से बदतर हालत हो जाएगी।

पंडित का अहंकार भयंकर हो जाता है। जितना बुद्धि विचार करती है, उतना ही लगता है, तुम महान हो। निर्विचार में तो तुम बच नहीं सकते। विचार में ही बचते हो। विचार सहारा है; इसलिए अज्ञानी बहुत अहंकारी नहीं हो सकता। पंडितों ने वचन लिखे हैं, जिनमें उन्होंने कहा है, ‘धन पूजा जाता हो, सम्राट की पूजा होती हो एक देश में, लेकिन ज्ञानी सर्वत्र पूजा जाता है।’ ये खुद ही ज्ञानी लिख रहे हैं! इनका ज्ञान बहुत गहरा नहीं हो सकता। पूंछ भीतर उलझी रह गयी, भैंस बाहर निकल गयी।

और अगर ये ज्ञान की तलाश भी कर रहे हैं तो सिर्फ इसीलिए, ताकि सर्वत्र पूजा हो; ताकि सभी पूजें। लेकिन दूसरे की आंखों में पूजा देखने से मिलता क्या होगा? दूसरे की आंखों में पूजा देखकर कौन-सी शक्ति इकट्ठी होती है? कौन-सी ऊर्जा इकट्ठी होती है?–तुम खास हो जाते हो। तुम विशिष्ट हो जाते हो। लगता है, तुम कुछ हो। तुम्हें अपने पर भरोसा आ जाता है कि मैं कुछ हूं। अन्यथा इतने लोग मुझे क्यों देखते? इतने लोग, इतनी आतुरता से देखते हैं, सबकी आंखें मेरी तरफ लगी हैं, तो मैं कोई साधारण नहीं हो सकता। मैं कोई असाधारण हीरा हूं।

जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, वे बड़े निर्बुद्धि हैं, अगर उनकी पूंछ की तरफ देखो। इसलिए दुनिया में जितने उपद्रव होते हैं, वे इन तथाकथित इनटेलिजेंशिया के कारण होते हैं।

दुनिया में अब तक समाज केवल दो स्थानों पर ऐसी जगह पहुंचा है, जहां इस तरकीब को समाज के निर्माताओं ने समझ लिया था। एक तो भारत में, और एक अब रूस में। भारत में कोई पांच हजार सालों में क्रांति नहीं हुई। क्योंकि उपद्रवी को हमने ब्राह्मण का ऊंचा से ऊंचा पद दे दिया। और उससे कुछ ऊपर जगह न थी। वह जो बुद्धिशाली था, वह पूज्य था। ब्राह्मण की अकड़ देखते हैं! रास्ते पर चलता है, भिखारी हो, उसकी नाक देखते हो? उसकी नाक से उसकी पूंछ उगी हुई है। उसके पास एक पैसा न हो, एक धेला न हो, लेकिन उसकी चाल देखते हो? क्या कोई सम्राट उस अकड़ से चलेगा! और जब वह तुम्हारी तरफ देखता है, जैसे तुम कोई तुच्छ कीड़े हो। वह अकड़ ब्राह्मण की धीरे-धीरे खो गयी है। इसलिए अब भारत ज्यादा दिन क्रांति से नहीं बच सकता। उपद्रव खड़े हो रहे हैं।

रूस ने फिर उस प्रयोग को किया। रूस पिछले पचास सालों में सबसे ज्यादा दमित समाज है। लेकिन वहां कोई क्रांति नहीं होती क्योंकि वहां ब्राह्मण आदृत हैं। जो बुद्धिशाली इनटेलिजेंशिया है, वह रूस में जितना आदृत है, पृथ्वी में कहीं आदृत नहीं है। और दुनिया भर के बुद्धिवादी अमरीका के खिलाफ हैं। क्योंकि अमरीका में बुद्धिवादी का कोई आदर नहीं, दो कौड़ी का आदर नहीं है। अमरीका में आप कितने बड़े बुद्धिशाली हैं, कोई फिक्र नहीं करता। आप का बैंक-बैलेंस कितना है, यह सवाल है। अमरीका वैश्य का समाज है, वणिक का। वहां कीमत धन की है, कुशलता की है, विचार की नहीं है।

रूस ने बुद्धिवादी को ऊपर बिठा दिया है। प्रोफेसर, एकेडेमिशयन, लेखक, कवि इतने आदृत हैं, फिर से ब्राह्मणों का पुराना युग रूस में लौट आया। रूस में क्रांति न हो सकेगी तब तक, जब तक ब्राह्मण पद-च्युत न हो। जैसे ही ब्राह्मण पद-च्युत हुआ, उपद्रव शुरू कर देता है, क्योंकि उसकी पूंछ होनी ही चाहिए।

इसलिए आज सारी दुनिया में जहां-जहां उपद्रव के अड्डे हैं, वे युनिवर्सिटीज हैं; वहां ब्राह्मण पैदा होते हैं। विश्वविद्यालय अड्डे हैं उपद्रव के। सबसे ज्यादा आग वहां है। वहां बिलकुल सूखी बारूद है। चिंगारी की जरूरत है। आने वाले पचास साल दुनिया में जो भी मुसीबत, उपद्रव अड़चन, बेचैनी होगी वह सभी विश्वविद्यालय से आयेगी। वहां सभी प्रोफेसर असंतुष्ट हैं। वहां होने वाले भविष्य के प्रोफेसर, जो अभी विद्यार्थी हैं, वे असंतुष्ट हैं। जितनी बुद्धि बढ़ती है, उतना असंतोष बढ़ता है। क्योंकि जितनी बुद्धि बढ़ती है, कितना ही अहंकार को कोई सम्मान दे, तृप्ति नहीं होती है; मांग बढ़ती चली जाती है। बुद्धि की मांग का कोई अंत नहीं है। बड़े से बड़ा सिंहासन भी जल्दी ही छोटा लगने लगता है। विश्वविद्यालय राजनीति के भयंकर अड्डे हैं। वहां चपरासी से लेकर कुलपति तक सब गहरी राजनीति में संलग्न हैं। सबको और ऊपर पहुंचना है। यह ऊपर पहुंचने की दौड़ बुद्धिशाली में होगी ही।

गोसो ने कहा, ‘देखो! अगर तुमने सोचा, तुम्हारी भी पूंछ उलझ जाएगी।’

सोचनेवाला आदमी निरहंकारी कैसे होगा? निरहंकारी आदमी तभी हो सकता है, जब अहंकार की ईंटें खिसका ली जाएं। यह मकान खड़ा है। इस मकान की ईंटें तुम्हें दिखाई नहीं पड़तीं क्योंकि सब पलस्तर के भीतर छिपी हैं। तुम्हारे अहंकार की भी ईंटें नहीं दिखाई पड़तीं क्योंकि सब पलस्तर के भीतर छिपी हैं। लेकिन मकान की एक-एक ईंट निकालते जाओ, क्या तुम सोचते हो, जब सब ईंटें निकल जाएंगी तो पीछे मकान बचेगा? जिस दिन सब ईंटें निकल जाएंगी, मकान खो जाएगा। विचार अहंकार के भवन की ईंटें हैं। जितने तुम विचार रखते जाते हो, उतना महल बड़ा होता जाता है।

गोसो ठीक कह रहा है, ‘सोचे कि भटके।’

इसलिए धर्म विचार के विपरीत है। धर्म कोई दर्शनशास्त्र नहीं है। धर्म कोई विचार की कला नहीं है। धर्म तो निर्विचार की अनुभूति है।

जिस क्षण निर्विचार होता है, महल खो जाता है। तुम होते हो, लेकिन अहंकार नहीं होता। खुले आकाश के नीचे खड़े हो जाते हो। सब कारागृह खो गये। और अचानक पीछे लौटकर तुम देखोगे कि वहां पूंछ नहीं है। क्योंकि जो निर्विचार की अवस्था में है, वह वृक्ष जैसा हो गया, पक्षी जैसा हो गया, पानी के झरने जैसा हो गया, हवा में कंपती धूप जैसा हो गया, आकाश में उड़ते बादल जैसा हो गया। वहां कहां अहंकार?

मैंने सुना है, लुकमान की एक कहानी है कि एक दिन विवाद हो रहा था और लुकमान बैठा सुन रहा था। लुकमान गरीब गुलाम था और एक सम्राट ने उसे खरीदा था। खरीदने की घटना भी समझने जैसी है। बाजार में लुकमान बिक रहा था। दो और गुलाम उसके साथ बेचे जा रहे थे। उसमें एक सबसे सुंदर गुलाम था। लुकमान बहुत कुरूप था। खरीदनेवाले की नजर पहले तो उस पर गयी, जो सुंदर था, स्वस्थ था। तो उसने पूछा कि तुम क्या कर सकते हो? तो उस आदमी ने कहा, ‘एनीथिंग’। कोई भी चीज कर सकता हूं। अहंकारी आदमी रहा होगा–‘कुछ भी कर सकता हूं।’ तब उसने दूसरे आदमी की तरफ देखा और उससे पूछा कि तुम क्या कर सकते हो? उसने कहा, ‘एवरीथिंग’। सभी कुछ कर सकता हूं।

इन उत्तरों को सुनकर उसे लगा कि इस तीसरे से भी पूछ लेना चाहिए कि तू क्या कर सकता है। हालांकि इसे खरीदने का कोई सवाल न था। लुकमान कुरूप था। उस आदमी ने पूछा कि और तू क्या कर सकता है? लुकमान ने कहा, ‘नथिंग’। मैं कुछ भी नहीं कर सकता। सम्राट ने कहा, अजीब उत्तर हैं तुम्हारे। एक कहता है ‘एनीथिंग’, दूसरा कहता है ‘एवरीथिंग’, तीसरा कहता है ‘नथिंग’। तू कुछ तो कर ही सकता होगा कि बिलकुल कुछ नहीं कर सकता? उसने कहा, ‘अब बचा ही नहीं।’ एक कहता है एवरीथिंग, एक कहता है एनीथिंग; कुछ बचा नहीं करने को। सिर्फ ‘नहीं कुछ’ बचा है, वही मैं कर सकता हूं।

ध्यान ‘नहीं-कुछ’ की कला है।

जब तक तुम कुछ कर सकते हो, अहंकार निर्मित होगा, पूंछ बनेगी। तुम जितने कुशल होते जाओगे कुछ करने में, उतने ही तुम अहंकारी होते जाओगे। महल बड़ा होने लगेगा। लुकमान ने ठीक कहा कि ‘नहीं-कुछ’। सम्राट को उत्तर तो जंचा। और लुकमान ने कहा, खरीद ही लो, इतना क्या विचार कर रहे हो? इनको तो कोई भी खरीद लेगा, मुझे तो सिर्फ सम्राट ही खरीद सकता है। इनको कोई भी खरीद लेगा, गरीब मजदूर भी खरीद लेगा; कुछ न कुछ कर सकते हैं। ये अपने हाथ फंसे हैं। ये बिकेंगे किसी नासमझ के हाथ। मुझे तो सिर्फ सम्राट ही खरीद सकता है, जो समझता हो। इससे निश्चित ही सम्राट के अहंकार को चोट लगी। पूंछ बड़ी हो गयी। जब किसी ने कहा कि मुझे तो सिर्फ सम्राट ही खरीद सकता है; उसने तत्काल खरीद लिया। और काफी पैसे चुकाये।

लुकमान सम्राट के घर गया। गुलाम की तरह वह सम्राट के घर रहा। तो उसने एक संस्मरण लिखा है कि एक दिन वह साफ कर रहा था कमरे को। महल के बाहर, सम्राट की ध्वजा हवाओं में फहरा रही थी। और महल के भीतर सीढ़ियों पर बिछा हुआ कालीन विश्राम कर रहा था। तो लुकमान ने कहा, मैंने दोनों की चर्चा सुनी। वह पताका कह रही थी कि मैं सदा मुसीबत में हूं। हवा के झोंके में, धूप, वर्षा, तूफान, आंधी! युद्ध के मैदान पर पहला घोड़ा लेकर मुझे चलता है। गोलियां जहां चल रही हों, तोपें फोड़ी जा रही हों, वहां सबसे आगे मैं होती हूं। मेरा जीवन सदा संकट में है। एक तू है, कालीन से उसने कहा, तू सदा यहीं विश्राम करता है छाया में; न धूप, न हवायें, न आंधियां, न युद्ध के मैदानों पर जाना। तू सदा विश्राम में है। तेरी तरकीब, तेरा राज क्या है?

तो कालीन ने उस पताका को कहा, ‘ना-कुछ’ हो जाना मेरी तरकीब, मेरा राज है। मैं पैरों की धूल हूं। तूने सिर पर होने का खयाल ले रखा है। तू पताका है। तेरी अकड़ बड़ी है। गोलियां चलेंगी ही तेरे आसपास। आंधी उठेगी ही तेरे आसपास। नहीं तो तेरी अकड़ को सिद्ध करने का उपाय क्या होगा? तू तनाव में रहेगी ही। मैं ना-कुछ हूं, पैरों की धूल हूं। जो ना-कुछ है, वह विश्राम को उपलब्ध हो जाएगा।

लुकमान झाड़ रहा था, सफाई कर रहा था; हंसने लगा। सम्राट ने उससे पूछा कि तू क्यों हंस रहा है? उसने कहा कि यह कालीन, ठीक उसी जगह पहुंच गयी, जहां मैं। जो मैंने तुमसे कहा था–‘नथिंग’, कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता; यह कालीन भी उसी राज को पा गयी है। सम्राट! अगर कुछ सीखना हो, इस कालीन से सीखना, पताका से बचना।

लेकिन कैसे पताका से बचा जाए! अहंकार की पताका तो आगे-आगे चल रही है। तुम जाते हो, उसके पहले तुम्हारा अहंकार चलता है। उस अहंकार की पताका का, तुम शायद अहंकार की पताका के डंडे मात्र हो। पताका ही असली चीज है।

गोसो ने कहा, ‘सोचा, तुम्हारी पूंछ भी उलझ जाएगी।’ यह सुनकर वे और चिंतित हो गये क्योंकि अब तक तो कहानी थी, अब यह बात जिंदगी की हो गयी। यह किसी और भैंस के संबंध में चर्चा न थी, गोसो उन्हीं के बाबत बात कर रहा था। वे और बेचैन हो गये। वे और सोचने लगे।

कुछ चीजें हैं, जिनके बाहर तुम प्रयास से नहीं जा सकते। और जितना तुम प्रयास करोगे, उतने तुम उलझ जाओगे। जैसे रात नींद न आती हो, क्या करोगे? तुम जो भी करोगे उससे नींद में बाधा पड़ेगी। मंत्र पढ़ोगे, राम-नाम जपोगे, क्या करोगे? उठकर कमरे में चक्कर लगाओगे, भेड़ों की गिनती करोगे, एक से सौ तक जाओगे, सौ से उलटे निन्यान्नबे, अट्ठान्नबे, एक तक वापस लौटोगे? क्या करोगे? तुम जो भी करोगे, नींद में बाधा पड़ेगी। क्योंकि नींद न करने की अवस्था है। और जब भी तुम कुछ करते हो, तब तनाव पैदा होता है। काम विश्राम नहीं बन सकता।

लेकिन तुम किसी के भी पास जाओ, अगर तुम्हें नींद न आती हो तो तुम्हें मुफ्त सलाह देने वाले मिल जाएंगे कि क्या करो। और उनकी वजह से तुम्हें फिर नींद कभी भी न आयेगी; उनसे तुम बचना। नींद के लिये कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम जो भी करोगे, वही उल्टा होगा। नींद तो तब आती है, जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते। तो कुछ चीजें हैं जिनके संबंध में कुछ किया कि तुम उलझे।

ध्यान नींद जैसा है। निर्विचारणा नींद जैसी है। इसलिए हिंदुओं ने अपने शास्त्रों में कहा है कि समाधि और सुषुप्ति का एक ही स्वभाव है। गहरी सुषुप्ति, गहरी नींद समाधि जैसी है। फर्क जरा-सा है; वह फर्क है कि नींद में तुम होश में नहीं होते, समाधि में तुम होश में होते हो; लेकिन गुणधर्म एक ही है। परम साधु वही है जो उतने विश्राम में है, जितने तुम गहरी नींद में होते हो, लेकिन होश में है। बस, इतना ही फर्क है। जागा हुआ सोया है, तुम सोये हुए जागते हो। तुमसे बिलकुल भिन्न है। कुछ चीजें हैं कि तुमने उपाय किया कि तुम मुश्किल में पड़े। लेकिन इसे समझो।

गोसो ने कहा कि सोचा, कि तुम्हारी पूंछ उलझ जाएगी। इससे उन्होंने सोचना बंद न किया, वे और भी सोच में पड़ गये। वे जितने सोच में पड़े, गोसो ने कहा, कि देखो! अगर ज्यादा सोचा तो पीछे लौटकर देखो, तुम्हारी पूंछ बढ़ती जा रही है, बड़ी होती जा रही है।

विचार, विचार के बाहर नहीं ले जा सकता। अहंकार, अहंकार के बाहर नहीं ले जा सकता।

अगर तुम अहंकार से भरे हो, तो सारी दुनिया तुम्हें सिखायेगी कि विनम्र हो जाओ, विनम्र होने से लोग तुम्हें पूजा देंगे। मंदिरों में, मस्जिदों में, चर्चों में समझाया जा रहा है, विनम्र हो जाओ क्योंकि जो विनम्र है, उसीको लोग सम्मान देंगे। यह बड़े मजे की बात है। सम्मान की आकांक्षा विनम्र होने के लिये आकर्षण बनायी जा रही है। यह विनम्रता झूठी होगी। यह विनम्रता अहंकार का ही आभूषण होगा।

मंदिरों में समझाया जा रहा है, त्याग करो, लोभ मत करो; क्योंकि जो छोड़ेगा, परलोक में पायेगा। यह बड़े मजे की बात है! लेकिन पाने के लिये ही छोड़ा जा रहा है। छोड़ेगा कौन? यहां जो ज्यादा चालाक है, वह छोड़ेगा। जो परलोक तक में इंतजाम कर लेना चाह रहा है पहले से, वह छोड़ेगा। दान दो, ताकि परमात्मा तुम्हें हजारों गुना वापस लौटाये। इतना सस्ता धंधा तो यहां भी नहीं होता। यह सौदा तो बिलकुल बड़े मजे का है। एक पैसा तुम दो, और करोड़ पैसे लौटते हैं। यह तो जुआ मालूम होता है।

लाटरी कोई यहीं नहीं चल रही, स्वर्ग में भी चल रही है। और यहां की लाटरी तो जरूरी नहीं कि तुम्हें मिले। चूक भी जाओ। वहां की लाटरी कभी नहीं चूकती। तुमने एक पैसा दिया, करोड़ तय हुए। शास्त्रों में कहा है, ‘एक करोड़ गुना भगवान देता है; तुम दो!’

तुम्हें सिखाया जा रहा है दान, लेकिन उसके आधार में लोभ है। यह दान झूठा होगा। इसलिए यह मुल्क पांच हजार साल से दान की बात कर रहा है लेकिन इससे ज्यादा लोभी आदमी संसार में कहीं भी खोजना कठिन है।

इस पृथ्वी पर जितना भयंकर लोभ भारत में है, उतना कहीं भी नहीं। और दान की यहां चर्चा चल रही है, और दान भी हो रहा है। मंदिर भी बन रहे हैं, मस्जिदें भी बन रही हैं, धर्मशालायें भी खड़ी हो रही हैं। दान भी चल रहा है और लोभ का कोई हिसाब नहीं है।

क्या हुआ होगा? कहीं कुछ गणित की भूल हो गयी है। हमारा दान भी लोभ पर ही खड़ा है। हमारा परलोक भी इसी संसार पर खड़ा है। छोड़ो, वहां पाना हो तो। यह किस भांति का छोड़ना हुआ! छोड़ने का मतलब ही यह होता है कि अब पाने की कोई आकांक्षा न रही। अब कुछ पाना नहीं है, इसलिए छोड़ते हैं। छोड़ना पूरा हो गया, पूर्ण-विराम हो गया। इसके आगे कोई पाने की दौड़ नहीं है। यह कोई इनवेस्टमेंट नहीं है। यह कोई नया धंधा नहीं है जिसमें पैसा लगा रहे हैं। यह सिर्फ छोड़ना है। इससे छुटकारा हुआ।

त्याग–जहां पूर्णविराम है, और आगे की मांग नहीं करता, वही त्याग है। विनम्रता–जहां पूर्ण विराम है, और सम्मान की आकांक्षा नहीं करती, वहीं विनम्रता है।

अहंकार अहंकार को छोड़ नहीं सकता। अहंकार को छोड़ना हो तो हमें अहंकार को फुसलाना पड़ता है, परसूएड करना पड़ता है। हम उससे कहते हैं देखो, तुम विनम्र रहोगे तो सभी तुम्हें समादर देंगे और तुमने अगर अहंकारीपन दिखाया, कोई तुम्हें आदर न देगा, जूते पड़ेंगे। अगर फूल की मालायें चाहिये, तो बिलकुल गरदन झुकाकर चलो। मगर भीतर आकांक्षा फूल की माला के लिये है।

विचार से विचार के बाहर तुम न जा सकोगे। क्या करोगे? अगर तुम यह भी सोचने लगे, कैसे निर्विचार हो जाऊं? अनेक लोग कर रहे हैं यह काम। सुनते हैं गुरुओं को, ज्ञानियों को, संत पुरुषों को, तो खयाल आता है निर्विचार का। पर यह भी तुम्हारे भीतर तो एक विचार है, यह एक वासना है–कैसे निर्विचार हो जाएं? अब बैठे हैं आंख बंद करके और सोच रहे हैं, कैसे निर्विचार हो जाऊं? क्या तरकीब है निर्विचार होने की? यह सब विचार चल रहा है। यह निर्विचार भी तुम्हारे लिये एक विचार है। विचार से कभी कोई निर्विचार को उपलब्ध न होगा।

गोसो ने देखा कि वे और भी विचार में पड़े गये हैं। वह हंसा और उसने कहा, ‘पीछे लौटकर देखो। तुम्हारी पूंछ बड़ी होती जा रही है।’

अगर तुम वहां गये होते तो तुमने भी पीछे लौटकर देखा होता। चाहे संकोचवश तुम वहां रुक भी गये होते, तो गोसो के मंदिर से बाहर निकलकर एकांत गली में तुमने पीछे लौटकर देखा होता कि पूंछ बढ़ गयी या नहीं! पर यह पूंछ कोई दिखायी पड़ने वाली चीज नहीं, जिसे तुम पीछे लौटकर देख लो। यह शरीर का हिस्सा नहीं है। लेकिन फिर भी गोसो ठीक कह रहा है। गोसो जैसे लोग गलत नहीं कहते।

‘पीछे लौटकर देखो’, इसका मतलब पीठ की तरफ से मत देखने का सवाल है। ‘पीछे लौटकर देखो’ का मतलब है, आंख बंद करो और पीछे लौटकर भीतर देखो। वहां पूंछ बढ़ रही है। जितना तुम विचार कर रहे हो, जितना धुआं पैदा हो रहा है, उतना तुम अहंकारी होते जा रहे हो। वह बढ़ती जा रही है। पीछे लौटने का अर्थ है, प्रतिक्रमण–जिसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा।

चित्त की दो अवस्थाएं हैं। एक है आक्रमण, जब तुम दूसरे पर जाते हो; और चित्त की दूसरी दशा है, प्रतिक्रमण; जब तुम चेतना को अपने पर लौटाते हो। गोसो ने कहा, पीछे लौटकर देखो, इसका मतलब वही है जो कबीर ने कहा है, ‘आंख बंद करो, और आंखों को उल्टी हो जाने दो।’ पीछे लौटकर देखने का मतलब है कि तुम्हारे भीतर जो चल रहा है, उसके प्रति सजग हो जाओ। सोचोगे, और सोच बढ़ेगा। एक-एक विचार से हजार विचार पैदा होते हैं। सोचने से कभी कोई निर्विचार पर पहुंचा है? सोचने से और विचार…और विचार…पागलपन आखिर में आ सकता है। विक्षिप्त हो सकते हो, विमुक्त नहीं। विचार की ईंटों से बनती है अस्मिता। वही तुम्हारी पूंछ है।

भैंस कोई और नहीं, तुम्हीं हो। आंगन कहीं और नहीं, तुम्हारा ही मन है। पूरे तुम बाहर निकल गये हो, सिर्र्फ पूंछ उलझी है। बड़ी बेबूझ लगती है बात। उलटबांसी लगती है कि जब पूरी भैंस ही निकल गयी तो अब पूंछ के उलझने का क्या सवाल? लेकिन हमेशा यही होता है, भैंस निकल जाती है, पूंछ उलझ जाती है। तुम बाहर हो जाओगे। तुम्हारी मुक्ति में कोई बाधा नहीं, लेकिन तुम्हारा अहंकार उलझा रहेगा।

थोड़ा सोचो, तुम प्रार्थना करने मंदिर में जाते हो। प्रार्थना का अर्थ ही है, परमात्मा के सामने समर्पित हो जाना। लेकिन वहां भी तुम दबी आंखों से देखते रहते हो, कोई देख रहा है या नहीं! परमात्मा से तुम्हें मतलब नहीं होता, गांव के लोग देख रहे हैं कि नहीं, कि तुम–कितना बड़ा धार्मिक आदमी! अकेले में कोई मंदिर प्रार्थना करने नहीं जाता। भीड़ में लोग जाते हैं। भीड़ देख ले कि तुम धार्मिक हो; उससे रिस्पेक्टेबिलिटी मिलती है। उससे आदर मिलता है, सम्मान मिलता है। तुम झुकते जरूर हो परमात्मा के सामने, लेकिन तुम खयाल अपनी पूंछ का ही रखते हो–कोई देख रहा है या नहीं!

और अगर लोग बहुत गौर से देख रहे हैं, तुम प्रार्थना में बड़े तल्लीन हो जाते हो। वह तल्लीनता बड़ी झूठी है। अगर वहां कोई भी न देख रहा हो, तो तुम झटपट अपनी नमाज, अपनी प्रार्थना पूरी करके अपने घर लौट जाते हो। परमात्मा से तो कुछ लेना-देना नहीं है, यह जो भीड़ चारों तरफ है…।

सोचो, जिस दिन तुम प्रार्थना कर रहे हो उस दिन टी. वी. के लोग कैमरा लेकर आ गये हों, उस दिन कैसी तल्लीनता आयेगी! अखबार वाले खड़े हों, फोटोग्राफर खड़े हों, फ्लेश के बल्ब चमक रहे हों, फोटो उतारी जा रही हो, कैमरा तुम्हारे चारों तरफ घूम रहा हो; उस दिन जैसा तुम्हारा ध्यान लगेगा, वैसा कभी नहीं लगा था। क्योंकि उस दिन पूंछ काफी बड़ी हो रही है। इस पूंछ के लिए तुम कुछ भी कर सकते हो। तुम परमात्मा को चूक सकते हो, इस पूंछ को नहीं चूक सकते।

जीसस ने कहा है, ‘तेरा बायां हाथ दे तो तेरे दायें हाथ को पता न चले; अन्यथा दान व्यर्थ हो गया।’ तुम देना और भाग खड़े होना। धन्यवाद के लिए मत रुकना; अन्यथा दान भी व्यर्थ हो गया। लेकिन हम देते हैं धन्यवाद के लिए ही। और हम किसी को दें और वह धन्यवाद न दे, तो हम खड़े रहते हैं कि कब तक दोगे! और अगर वह बिलकुल बात ही न करे धन्यवाद की, तो हम बड़े दुखी और पीड़ित और परेशान लौटते हैं। व्यर्थ गया देना! और जीसस कहते हैं, ‘तुम भाग खड़े होना देकर ताकि वह धन्यवाद न दे पाये। बायां हाथ दे, दायें को पता न चले।’

सूफी फकीर कहते हैं, ‘रात अंधेरे में प्रार्थना करना; तुम्हारी पत्नी को भी पता न चले कि तुम प्रार्थना कर रहे हो। उसको भी पता चल गया तो बात गड़बड़ हो गयी। इसलिए नहीं कि उसके पता चलने से गड़बड़ हो जाएगी; तुम इतने चालाक हो कि तुम समझोगे कि आकस्मिक रूप से उसको पता चल गया; और तुम पूरा इंतजाम कर लोगे पता चलने का। हम इतने कुशल हैं खुद को धोखा देने में, हम तरकीबों से देते हैं धोखा, कि खुद भी नहीं पहचान पाते कि हम धोखा दे रहे हैं। याद करो, कभी तुमने कोई ऐसा कृत्य किया है, जिसमें पूंछ का ध्यान न रहा हो?

भिखारी भी भलीभांति जानते हैं कि तुम अकेले रास्ते पर होते हो तो छेड़ते नहीं क्योंकि अकेले में तुम कहते, कि हट! कोई देखने वाला नहीं है, डर क्या है? तुम चार आदमियों के साथ चले जा रहे हो, बस भिखारी फंसा लेगा। पैर-हाथ पकड़ लेगा, रोने-चिल्लाने लगेगा। अब तुम्हें देना पड़ेगा। भीतर तुम गालियां दे रहे हो कि अकेले में मिलता तो तुझे बताता! लेकिन अब चार आदमियों के सामने उसने पकड़ लिया है। इन चार के सामने प्रतिष्ठा का सवाल है कि नहीं तो ये क्या सोचेंगे कि दो पैसा देने में इतनी कंजूसी! तुम एकदम उदार हो जाते हो। वह उदारता झूठी है। तुम दो की जगह चार पैसा देते हो। वह तुम इन चारों की आंखों के लिए दे रहे हो। इन चारों की आखों में तुम्हारी पूंछ हो रही है। तुम्हारा अहंकार बड़ा हो रहा है। भिखारी तक जानता है कि तुम्हें कब ठीक मौके पर पकड़े। क्योंकि भीख का भी मनोविज्ञान है। और हर वक्त तुम भीख नहीं देते। हर वक्त तुम दे भी नहीं सकते। उसे भी तुमसे निकालना पड़ता है। और तुम देना बिलकुल नहीं चाहते, लेकिन फिर भी तुम देते हो।

एक गांव की मुझे खबर है, उस गांव में मैं बहुत दिन तक रहा। उस गांव में जब भी लोग दान लेने जाते थे तो गांव का जो धनपति था, पहले उसके घर जाते थे। कहते हैं कि उसने कभी दान नहीं दिया। लेकिन वह लिखवा देता था दस हजार, पंद्रह हजार, बीस हजार। और यह बात तो स्वीकृत थी कि वह देगा एक पैसा भी नहीं, लेकिन लिस्ट पर लिखवा देता था। जब वह बीस हजार दे देता तो छोटी-मोटी पूंछ वाले लोग भी फंस जाते। जब उसने बीस हजार दिये–कंजूस ने, महाकंजूस ने, तो अब अगर ना दे कुछ तो उससे भी बदतर हालत गांव में हो जाए। तो वह भी लिखवा देते थे। अगर तुम भी अपने गांवों में दान लेने वालों से पूछोगे तो वह जानते हैं कि पहले किनके नाम लिखवा देना! चाहे वह दें या न दें, यह बड़ा सवाल नहीं है। और उनकी वजह से मिलता है। दूसरों के अहंकार को चोट लगनी शुरू हो जाती है। एक धनपति दे देता है तो दूसरे धनपति को लगता है, मैं कोई छोटा हूं! मैं कोई पीछे रह जाऊंगा!

तुम्हारे तीर्थ, तुम्हारे मंदिर भी भिखारी के मनोविज्ञान से ही जीते हैं। मंदिरों में दान होता, वह एकांत में नहीं होता है। सब लोग इकट्ठे हो जाते हैं, फिर दान बोला जाता है। जैन मंदिरों में पर्युषण के बाद दान का दिन हो जाता है। उस दिन दान बोला जाता है। कोई कहता है दस हजार, वह नीलाम जैसा है–पूंछ बिक रही है। और अब जब एक कह देता है, दस हजार, तो दूसरे को भी अकड़ आ जाती है; चाहे हैसियत न भी हो तो वह कह देता है, पंद्रह हजार। फिर अकड़ बढ़ती जाती है। फिर सवाल प्रतिष्ठा का हो जाता है कि कौन प्रथम लेता है; कौन पहले आता है। वह दौड़ महत्वाकांक्षा की हो जाती है।

मंदिर भी महत्वाकांक्षा पर जीते हैं; दुकान भी उसी पर जीती है। कहीं कोई भेद नहीं है। गणित एक ही है। उसके ढंग कितने ही ऊपर से अलग दिखाई पड़ते हों, भीतर की प्रक्रिया एक है–अहंकार। मंदिर बनवाने में दौड़ लग जाती है, पत्थर लगवाने की दौड़ लग जाती है। कौन कितना बड़ा पत्थर लगवाता है, कौन कितना दान देता है। तुम्हारा सारा जीवन अहंकार से ही चल रहा है।

इस अहंकार से चलनेवाले जीवन का नाम संसार है। तुम उसमें बंद हो, किसी ने तुम्हें बंद किया नहीं है। दरवाजे खुले हैं। तुम भी उसके बाहर होना चाहते हो क्योंकि परतंत्रता में दुख है। लेकिन तुम बाहर हो नहीं सकते क्योंकि अहंकार दूसरों पर निर्भर है। बिलकुल बाहर हो जाओगे तो अहंकार भी मिटेगा। यह दुविधा है।

भैंस बीच में खड़ी है। पूरी तो निकल गयी, पूंछ को उसने खुद ही छोड़ रखा है। काश! गोसो के शिष्यों में से एक को भी ज्ञान हुआ होता तो वह कह देता कि भैंस बाहर नहीं जा रही है, इसमें कोई बाधा नहीं है। यह भैंस का अपना निर्णय है। क्योंकि गोसो साफ कर रहा है। पहेली सीधी है, कि कोई भैंस की पूंछ पकड़े नहीं है। पूंछ कहीं उलझी नहीं है, कोई अटकाव नहीं है। पूरी भैंस निकल गयी है, दरवाजा काफी बड़ा है। पूंछ के रुकने का कोई भी कारण नहीं है–अकारण।

मगर गोसो के शिष्य सोच-विचार में पड़ गये। सीधी-सी बात उन्हें दिखाई न पड़ी। विचार का एक अंधापन, जो सत्यों को नहीं देखने देता। बात सीधी है कि भैंस अपनी मरजी से खड़ी है। शायद भैंस सोच रही हो कि वापस लौट आयें, कि परतंत्रता सुखद थी। या भैंस दोनों आनंद एक साथ लेना चाहती है, स्वतंत्रता का भी और अहंकार का भी; और अहंकार तो परतंत्रता में ही मिल सकता है।

तुम जिनसे प्रतिष्ठा चाहते हो, तुम उनके गुलाम हो ही जाओगे। जिनसे तुम आदर चाहते हो, वे तुम्हारे मालिक हो जाएंगे। क्योंकि आदर देंगे तो मुफ्त तो नहीं देंगे। उनकी भी शर्तें होंगी। वे तुम्हें चलायेंगे, उठायेंगे, बतायेंगे। साधुओं को देखो, उनके पीछे जमाते हैं उनके शिष्यों की, और सब शिष्य साधुओं को चला रहे हैं। कैसे उठो, कैसे बैठो, क्या करो, क्या न करो। और नजर रखे हुए हैं कि जरा भूल-चूक हुई तो प्रतिष्ठा वापस। पद गया, साधुता खो गयी।

तुम जिससे प्रतिष्ठा मांगोगे, तुम उसके गुलाम हो जाओगे। अगर मुक्त होना हो तो प्रतिष्ठा मांगना ही मत। अगर मुक्त होना हो तो सम्मान की आकांक्षा मत रखना। तब भैंस बाहर निकल सकती है। पूंछ को भीतर रखने की कोई भी जरूरत नहीं। सभी साधु पूरे बाहर नहीं निकल पाते, पूंछ भीतर रह जाती है।

गोसो के शिष्य सोच में लग गये क्योंकि यह सत्य उन्हें समझ में नहीं आया। यह सत्य तभी समझ में आ सकता है, जब इसे तुमने अपने जीवन में समझा हो और पहचाना हो। सोचने लगे।

यह कोई पहेली थोड़ी थी, जो सोचने से हल होगी! यह एक तथ्य था, जो ध्यान से दिखाई पड़ेगा। पहेलियां सोच-विचार से हल हो सकती हैं। तथ्य सोच-विचार से हल नहीं होते। तथ्यों के लिये तो खुली, खाली, साफ आंख चाहिये। वह तो सामने मौजूद हैं, सिर्फ उनको देखना है। आंख खोलनी है और देखनी है।

अब इसमें क्या कठिनाई थी? यह कहानी तो बड़ी सरल है, कि भैंस अपनी मरजी से खड़ी है, ठिठक गयी। शायद डरती है और बाहर जाना खतरे के बाहर नहीं है। भीतर ही रहना उचित है। इतना तो भीतर रहना उचित ही है कि पूंछ बनी रहे। सब छोड़ दो, लेकिन इतना संसार में बने रहना कि लोग तुम्हारा खयाल रखें, स्मरण रखें; पूंछ बनी रहे। जंगल में भी भागो तो पूंछ को यहीं छोड़ जाना। संन्यास ले लो, स्थानक में रहने लगो, पूंछ को यहीं छोड़ जाना। साधु बैठा स्थानक में भी सोचता है, खबर लेता है, गपशप का पता लगाता है। कौन उसके संबंध में क्या कह रहा है? गांव में क्या हवा चल रही है?

एक जैन मुनि को मैं एक दफा मिलने गया। कमरे में कुछ भी न था। मैं बड़ा हैरान हुआ, सिर्फ अखबारों की एक थप्पी लगी थी उनकी चटाई के पास। पूरी थप्पी अखबारों की! मैंने उनसे पूछा, ‘कमरे में कुछ भी नहीं। आप सब छोड़ चुके, ये अखबार किसलिये इकट्ठे रखे हैं? उनको बेचते हैं रद्दी? संसार छोड़ चुके, संसार की खबरों का इतना क्या हिसाब रखते हैं कि वहां कहां क्या हो रहा है। जिसको हम छोड़ ही आये, वहां क्या हो रहा है इससे क्या फर्क पड़ता है? नहीं, छोड़ नहीं आये हैं। पूंछ हम वहां रखते हैं। इन अखबारों से सेतु बना रहता है। राजनीतिज्ञ अखबार पढ़ता है, समझ में आता है। वह पूरा का पूरा…उसकी पूरी भैंस भीतर है। वह खबर रखता है, कहां क्या हो रहा है। जरा-सा मौसम में फर्क हो तो पता रखना चाहिये क्योंकि उसकी जिंदगी वहां निर्भर हैं। लेकिन साधु भी वही फिक्र रखता है कि वहां क्या हो रहा है। पूंछ उसने भी भीतर छोड़ी है। भैंस बीच दरवाजे पर खड़ी है।

और ध्यान रहे, इस तरफ हो जाओ या उस तरफ; क्योंकि बीच में बड़ा संकट हैं। बीच में टंगे रहना बड़ा कष्टपूर्ण है। संसारी होना अच्छा है, संन्यासी होना अच्छा है, यह बीच में खड़ी भैंस बड़ी बुरी अवस्था है। क्योंकि इसमें त्रिशंकु की स्थिति हो जाती है। बड़ा तनाव पैदा होता है। तुम चाहते तो वही थे, जो संसारी को मिल रहा है; और तुम वह भी चाहते हो, जो संन्यासी को मिलना चाहिये। संन्यासी जैसी स्वतंत्रता और संसारी जैसा पद, प्रतिष्ठा, अहंकार का रस; तुम दोनों चाहते हो। तुम दो नावों पर सवार हो।

यह भैंस बड़ी होशियार रही होगी। ठीक तुम्हारे साधुओं जैसी कुशल, गणित में पक्की। इसने देखा कि दोनों संभाल लो। न यह संसार जाए, न वह संसार जाए। तो आधी भैंस उस संसार में खड़ी है; स्वतंत्रता के खुले आकाश में, पूंछ को भीतर छोड़ दिया है। कम से कम उतनी जगह बनाये रखो, कभी भी लौटना हो तो रास्ता न खो जाए। और ध्यान रखना, पूंछ तुम्हारी बाहर गयी कि दरवाजा बंद हो जाता है। सोचकर बाहर निकालना। उतना दरवाजा खुला रखना, बीच में खड़े रहना। कभी मन बदल जाए और भीतर आना पड़े! और मन प्रतिपल बदल रहा है।

और मन की एक आखिरी बात खयाल ले लो कि मन हमेशा विरोधों को चाहता है। तुम उस तरह का प्रेम चाहते हो, जो केवल प्रार्थना करनेवाले को मिलता है; और तुम उस तरह की वासना भी चाहते हो, जो केवल कामी को मिलती है। और ये दोनों एक को कभी नहीं मिलती। तुम वह प्रेम चाहते हो जो परमात्मा का है; और तुम वह वासना तृप्त करना चाहते हो, जो पशुओं की है। और ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसमें तुम दोनों को बिगाड़ लोगे। तुम न यहां के रहोगे, न वहां के।

यह भैंस ऐसी ही दशा में खड़ी है। न तो मुक्त आकाश में जा सकती है, क्योंकि पूंछ को पीछे छोड़ रखा है। और न पीछे लौट सकती है, क्योंकि मुक्त आकाश बुलाता है, स्वतंत्रता पुकारती है।

मेरे पास लोग आते हैं; उनकी, अधिकतम लोगों की सौ में से निन्यान्नबे कठिनाई, यह भैंस की दशा है। वह मुझसे कहते हैं, ‘यह भी संभल जाए, वह भी संभल जाए।’ वे कहते हैं, ‘घर है, गृहस्थी है, दुकान है, बाजार है, इसको भी संभाल लें, और परमात्मा भी मिल जाए।’ चाहते हैं यह धन भी पकड़ में रहे, धर्म भी पकड़ में आ जाए। वह थोड़ा बहुत धन छोड़ने को भी राजी हैं, अगर धर्म कहीं बिकता हो।

यह जो त्रिशंकु की दशा है, यह बड़े संताप से भर देगी। यह भैंस शांत नहीं हो सकती; यह आज नहीं कल पागल हो जाएगी। क्योंकि दो नावों पर कोई कैसे चढ़ सकता है? और दोनों नावें विपरीत दिशा में जा रही हैं। पूंछ थोड़ी देर एक जगत में और भैंस थोड़ी देर दूसरे जगत में हो जाएगी। और दोनों के बीच जो खिंचाव पैदा होगा वही तुम्हारा संताप और चिंता है। तुम्हारी एन्ग्झायटी क्या है? चिंता क्या है?

गोसो ने बड़ी मीठी कहानी कही है। इस कहानी में उसने तुम्हें पूरी तरह पकड़ लिया है। और सोचो मत; नहीं तो चूक जाओगे, समझ न पाओगे। इस कहानी को सीधा देखो। इसमें बुद्धि लगाने की कोई जरूरत ही नहीं है। इतनी सरल है कि बुद्धि लगायी, कि जटिल कर लोगे। यह तो सीधा तथ्य है, फैक्ट है। इसे सीधा देखो; अपनी जिंदगी में कहां तुम खड़े हो। क्या तुम भी बीच में नहीं खड़े हो? और क्या पूंछ की आकांक्षा तुम्हारे मन में भी जोर नहीं मार रही है?

मेरे पास लोग आते हैं; अगर मैं उन पर जरा कम ध्यान दूं, वे नाराज लौट जाते हैं, पीड़ा होती है। अगर थोड़ा ज्यादा ध्यान दूं तो मुश्किल! वे बीमार लौटते हैं। उनको लगता है, जैसे मुझे उनकी कोई जरूरत है। कुछ भी करो, उनको शांत लौटाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि बीच में खड़ा हुआ आदमी, दो नावों पर सवार, शांत कैसे हो सकता है। यहां आते हैं शांति के लिए, तो भी अहंकार की आकांक्षा बनी रहती है। वह पीछे भाव बना रहता है। उन्हें पता भी न हो–यही तो मजा है–उन्हें खयाल भी न हो। उनसे पूछो तो वे चौंक जाएं।

इस भैंस को क्या पता है कि बीच में खुद खड़ी हो गई है? यह भी रेशनालाइज कर रही होगी। और भैंसें बड़ा रेशनालाइजेशन जानती हैं। यह भी सोच रही होगी कि मैं बीच में खड़ी नहीं हूं, किसी ने पूंछ पकड़ ली है। मैं बीच में खड़ी नहीं हूं, आगे रास्ता ही नहीं है। मैं बीच में खड़ी नहीं हूं। दरवाजे से मैं तो निकल आयी, लेकिन पूंछ उलझ गयी। जब तक पूंछ सुलझ न जाए, मैं बाहर कैसे निकलूं? यह भी अपने को समझा रही होगी। यह अचेतन है घटना। चेतन रूप से पूर्ण मुक्ति चाहती है भैंस; अचेतन रूप से अहंकार भी चाहती है।

तुम्हारा अहंकार तुम्हारा अचेतन तथ्य है, अनकांशस है। तुम्हें खयाल में भी नहीं है कि तुम हर वक्त उसे चाह रहे हो। रास्ते से भी तुम गुजरते हो, अगर रास्ते पर कोई नहीं है तो तुम्हारा चेहरा और होता है। फिर अचानक रास्ते पर कोई आ जाता है, तत्क्षण तुम्हारा चेहरा बदल जाता है। तुम संभल जाते हो, टाई ठीक कर लेते हो। अगर आइना हो तो तुम आइना देख लो। तुम स्त्रियों जैसे नासमझ नहीं, नहीं तो एक बैग हाथ में रख लो, जल्दी से आइना निकालकर ठीक-ठाक कर लो। आखिर यह दूसरे की मौजूदगी…तुम क्या संभाल रहे हो? पूंछ संभाल रहे हो। यह आइना जो है, इसमें तुम पूंछ देख रहे हो। चेहरा देखने के लिए आइने की क्या जरूरत है? दूसरे के आने से तुम्हें इतना बेचैन होने की क्या जरूरत है? तुम जैसे अकेले थे, वैसे ही रह सकते थे। नहीं, तुम जैसे अकेले थे वैसे नहीं रह सकते। क्योंकि सवाल दूसरे का है।

मैंने सुना है, एक पति अपनी पत्नी से कह रहा था कि अब सीमा के बाहर बात हो गई है। रोज तुझसे कह रहा हूं; पैंट के बटन टूट गये हैं, कभी कोट के बटन टूट गये हैं, कभी कमीज के; अगर बटन तक नहीं लगा सकती तो स्त्रियां और क्या कर सकती हैं? तो उसकी स्त्री ने कहा कि और अगर स्त्रियां न हों, तो तुम पुरुषों की क्या गति हो जाए? तुम बटन तक अपनी नहीं संभाल सकते? उस पुरुष ने कहा कि अगर स्त्रियां न हों तो हम बटन लगायें ही किसलिए? बटन उन्हीं के लिए लगाये हुए हैं।

कपड़े हम दूसरों के लिये पहने हुए हैं। बटन हम दूसरों के लिए लगाये हुए हैं। चेहरे हम दूसरों के लिए ओढ़े हुए हैं। पुरुष स्त्रियों के लिए सजा है। स्त्रियां पुरुषों के लिए सजी हैं। सब दूसरे के लिए। लेकिन दूसरे से क्या रस है? दूसरे से क्या मिल रहा है?

जब एक सुंदर स्त्री राह पर चलते, गुजरते लौटकर तुम्हें देख लेती है तब तुम्हारी पूंछ एकदम बड़ी हो जाती है। तब तुम अकड़कर आते हो, गीत गुनगुनाने लगते हो। कदमों में गति आ जाती है, जोश आ जाता है, शक्ति आ जाती है। अभी भी स्त्रियां तुम्हारी तरफ देखती हैं!

मैंने सुना है, एक कैशियर, एक महिला एक बैंक में काम करती थी। उसने एक दिन उदास होकर अपने मालिक को कहा कि मुझे कुछ महीने दो महीने की छुट्टी चाहिये। ऐसा लगता है कि उम्र का असर होने लगा और शरीर कुछ कमजोर मालूम पड़ता है। स्वास्थ्य के लिये मैं थोड़ी दिन के लिये पहाड़ पर चली जाऊंगी। उसके मालिक ने कहा, तुम पूरी स्वस्थ सब तरह ठीक हो। क्या जरूरत है? तुम्हें कैसे पता चला? डाक्टर को दिखाया? उसने कहा कि नहीं, लोगों को मैं चिल्लर वापिस लौटाती हूं, उन्होंने कुछ दिनों से गिनना शुरू कर दिया है। जब स्त्री सुंदर न रह जाए तो लोग चिल्लर गिनने लगते हैं। स्त्री सुंदर हो, जल्दी से खीसे में डालते हैं क्योंकि फिर यह जरा अशोभन हो जाए!

अहंकार पूरे समय प्रत्येक गतिविधि में मौजूद है। सब भांति छिपा खड़ा है, पर अचेतन है। और अगर तुमने सोचा-विचारा तो वह छिप जायेगा क्योंकि सोचने-विचारने के सामने अचेतन के द्वार नहीं खुलते, बंद हो जाते हैं।

इसलिए फ्रायड ने अचेतन के आविष्कार की जो विधि निकाली है, वह फ्री-एसोसिएशन है। वह मुक्त विचारों की अभिव्यक्ति है। तो फ्रायड की एक कुशलता थी कि वह कभी मरीज के सामने नहीं बैठता था। मरीज को लेटा देता कोच पर। वह भी बैठा नहीं रखता, लेटा देता। और कोच के पीछे एक पर्दा होता और परदे के पीछे वह बैठता। जब फ्रायड के शिष्य उससे पूछते कि आप मरीज को लेटने पर क्यों जोर देते हो? तो वह कहता कि बैठने में अकड़ ज्यादा होती है।

यह बात सच है, खड़े होने में और भी अकड़ ज्यादा होती है। लेटने में अकड़ सबसे कम होती है, क्योंकि लेटना कोई बड़ी भारी बात नहीं; बच्चे भी कर लेते हैं। और जब आदमी लेटता है तो पशुओं के जगत में वापिस लौट जाता है। खड़े होकर वह पशुओं से अलग है। बैठकर पशुओं से अलग है। लेटकर तो पशुओं के साथ एक है। इसलिए बैठे-बैठे सोना बड़ा मुश्किल, खड़े-खड़े सोना तो बहुत ही मुश्किल, शीर्षासन करते हुए सोना तो असंभव है। लेकिन लेटकर आदमी सो जाता है क्योंकि रिलेक्स होता है। प्रकृति में गिर जाता है।

तो फ्रायड कहता है, लेटकर आदमी का अचेतन सक्रिय हो जाता है, चेतन कम हो जाता है। इसलिए लेटकर तुम अगर बहुत विचार करना चाहो, तो न कर पाओगे। विचार करने के लिए बैठना जरूरी है। और, अगर और ही बहुत विचार करना हो तो ठीक योगी की तरह रीढ़ को बिलकुल सीधा करके बैठना जरूरी है। रीढ़ के सीधे होने से ध्यान का संबंध कम, तीव्र विचार का संबंध ज्यादा है; एकाग्रता का संबंध ज्यादा है। और अगर तुम्हें कोई और ही बहुत तकलीफ की बात हो जो विचार करनी हो तो अकसर तुमने देखा होगा कि फिर तुम उठकर चलने लगोगे। कुछ अगर सूझ ही न रहा हो तो खड़े होकर तुम विचार करोगे, लेटे कि आदमी शिथिल हो जाता है। तो फ्रायड कहता है, अचेतन को उघाड़ना है, इसलिए लेटाता हूं।

उसके शिष्य कहते हैं, ‘फिर आप सामने क्यों नहीं बैठते?’ तो वह कहता है, ‘अगर सामने रहो तो वह दूसरा आदमी अहंकार से भरा रहता है। जब तक कोई मौजूद है, तब तक वह रिलेक्स नहीं होता, शिथिल नहीं होगा। इसलिए परदे के पीछे बैठता हूं ताकि वह समझे कि अकेला है; चेहरे उतारकर रख दे। दूसरा नहीं है, कोई डर नहीं है।’

और फिर उसकी प्रक्रिया थी, जो भी उसके भीतर आये, वह बिना सोचे-विचारे उसको कहता जाए। व्यर्थ के विचार होंगे, असंगत विचार होंगे, कोई तर्क न बिठाये, कुछ सोचे ना, बस कहता जाए। ताकि उसका अचेतन प्रगट हो। और अचेतन में ही सारी बीमारियां हैं।

जब तुम सोचोगे, अचेतन के दरवाजे बंद हो जाते हैं। जब तुम नहीं सोचोगे, तब अचेतन के द्वार खुलते हैं। इसलिए रात नींद में अचेतन के द्वार खुल जाते हैं। तुम्हारे स्वप्न अचेतन से निकले हुए विचार हैं। इसलिए तुम्हारे सपने जितने सच्चे हैं, तुम्हारा जागरण उतना सच्चा नहीं। और तुम्हें अपने संबंध में कुछ पता लगाना हो, तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं अपने सपने के संबंध में पता लगाना है। क्योंकि जागते में तो तुम धोखा दे सकते हो, सपने में तुम धोखा नहीं दे सकते। जागते में तुम बिलकुल एक पत्नीव्रता हो, एक पतिव्रता हो; सोते में यह सब खो जाता है। सोते में सारे जगत की स्त्रियां तुम्हारी। सोते में तुम फिक्र नहीं करते कि यह स्त्री पड़ोसी की है कि अपनी है। सच तो यह है कि अपनी पत्नी का सपना शायद ही किसी पति को आता हो। कभी आया है? आया तो समझना कि दिमाग में कुछ गड़बड़ी है। अपनी पत्नी का सपना किसको आता है? दूसरी पत्नियों के सपने आते हैं। क्योंकि जो-जो तुमने दबाया है, वह अचेतन से प्रगट होता है। जिस-जिस को तुमने छिपाया है, अचेतन द्वार खोल देता है। और सपने तब तक कायम रहेंगे, जब तक तुम्हारा अचेतन पूरा खाली न हो जाए।

इसलिए सिर्फ ध्यानी निस्वप्न सोता है। जो ध्यान को उपलब्ध नहीं हुआ, उसकी रात तो स्वप्नों से भरी रहेगी। उसकी नींद तो बीमार है, रुग्ण है, ज्वर-ग्रस्त है। उसकी नींद तो एक कोलाहल है। उसकी नींद एक सन्नाटा नहीं। उसकी नींद एक शांति नहीं है, एक उपद्रव है, अराजकता है। उसकी नींद में भी बाजार भरा है, दुकान चल रही है, वासनायें दौड़ रही हैं। नींद एक तरह की रोज की विक्षिप्तता है तुम्हारी। इसलिए अकसर लोग रात के बाद सुबह और थके हुए उठते हैं। रातभर के सपने थका देते हैं। दिनभर में किसी तरह ठीक हो पाते हैं, फिर रात आ जाती है। फिर सपने थका देते हैं। रात तुम्हें शांत करती, स्वस्थ करती। उलटी हालत है।

सोचना मत। अन्यथा द्वार अचेतन का तत्क्षण बंद हो जाएगा। जैसे ही तुमने सोचा कि तनाव पैदा हुआ। तनाव पैदा हुआ कि तुम बंद हो गये। मन बहुत छुईमुई है। तुमने पौधा देखा होगा, जिसका नाम छुइमुई है। छुओ, उसके पत्ते बंद हो जाते हैं। ऐसा ही मन छुइमुई है। विचारो, और उसके पत्ते बंद हुए। मत विचारो, सिर्फ देखो। बैठ जाओ छुइमुई के पौधे के पास, सिर्फ देखो। थोड़ी देर में उसके बंद पत्ते फिर खुल आते हैं। सिर्फ देखो।

देखना ध्यान है। और उस देखने में तुम पाओगे, अचेतन खुल रहा है।

उस अचेतन में तुम पाओगे कि तुम खड़े हो, तुम्हीं भैंस हो। सोचना नहीं है, यह तुम्हारे जीवन का तथ्य है। और तुमने अपनी मरजी से पूंछ भीतर छोड़ी है। अब अगर तुम चाहते हो कि पूंछ भीतर रहे और तुम बाहर रहो, तो यह तुम्हारा निर्णय। अब शोरगुल मत मचाओ और दुखी मत होओ। तुम अपने ही विचार का अनुसरण कर रहे हो। स्वीकार कर लो। तब धर्म-वर्म की खोज मत करो, फिर मोक्ष परमात्मा मत पूछो, फिर अपने को धोखा मत दो।

या तुम तय करो कि यह पूंछ अपने ही हाथ से छोड़ी। जब पूरा ही मैं निकल गया, तो फिर पूरा ही क्यों न निकल जाऊं–पूंछ ही सहित? तो फिर बाहर निकल जाओ। कोई तुम्हें रोकने वाला नहीं।

तुम्हारी स्वतंत्रता में तुम्हारे अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा कोई शत्रु नहीं है।

गोसो ने बड़ी मीठी बात और बड़ी मीठी कहानी से कह दिया है। इसे सोचना मत। बैठ जाना और इसे देखना। और जिस दिन तुम्हें भैंस की जगह तुम खुद दिखाई पड़ो, उसी दिन कुंजी तुम्हारे हाथ लग जाएगी। जब तक तुम भैंस की तरह किसी और को देखते रहो, तब तक समझना कि अभी कुंजी हाथ नहीं आयी।

आज इतना ही।


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एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग–2) प्रवचन–15

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प्रवचन—15 केवल शिष्य जीतेगा

को इमं पठविं विजेस्सति यमलोकज्‍च इमं सदेवकं।

को धम्मपद सुदेसितं कुसलो पुप्‍फमिव पचेस्सति।।39।।

 सेखो पठविं विजेस्सति यमलोकज्‍च इमं सदेवकं।

सेखो धम्मपद सुदेसित कुसलो पुप्‍फमिव पचेस्सतिा।।40।।

 फेणूपमं कायमिमं विदित्वा मरीचिधम्मं अभिसम्‍बुधाना।

छेत्वान मारस्स पुपुप्‍फ अदस्‍सनं मच्‍चुराजस्‍स गच्छे।।41।।

 पुप्‍फ हेव पचिनतं व्यासत्तमनसं नरं।

सुत्‍तं गामं महोघोव मच्चु आदाय गच्छति।।42।।

 यथापि भमरो पुप्‍फं वण्णगन्‍धं उहेठयं।

पलेति रसमादाय एवं गामे मुनिचरे।।43।।

 चलने को चल रहा हूं पर इसकी खबर नहीं

मैं हूं सफर में या मेरी मंजिल सफर में है

जीवन यदि चलने से ही पूरा हो जाता, तो सभी मंजिल पर पहुंच गए होते। क्योंकि चलते तो सभी हैं। चलते ही नहीं, दौड़ते हैं। सारा जीवन चुका डालते हैं उसी दौड़ में, पर पहुंचता कभी कोई एकाध है-करोड़ों में, सदियों में।

यह चलना कैसा, जो पहुंचाता नहीं? यह जीना कैसा, जिससे जीवन का स्वाद आता नहीं? यह होने का कैसा ढंग है? न होने के बराबर। भटकना कहो इसे, चलना कहना ठीक नहीं। जब पहुंचना ही न होता हो, तो चलना कहना उचित नहीं है। मार्ग वही है जो मंजिल पर पहुंचा दे। चलने से ही कोई मार्ग नहीं होता, मंजिल पर पहुंचने से मार्ग होता है।

पहुंचते केवल वे ही हैं, जो जागकर चलते हैं। चलने में जिन्होंने जागने का गुण भी जोड़ लिया, उनका भटकाव बंद हो जाता है। और बड़े आश्चर्य की बात तो यही है कि जिन्होंने जागने को जोड़ दिया चलने में, उन्हें चलना भी नहीं पड़ता और पहुंच जाते हैं। क्योंकि जागना ही मंजिल है।

तो दो ढंग से जी सकते हो तुम। एक तो चलने का ही जीवन है, चलते रहने का। केवल थकान लगती है हाथ। राह की धूल लगती है हाथ। आदमी गिर जाता है आखिर में-कब्र में, मुंह के बल। उसे ही मंजिल मान लो, तब बात और!

एक और ढंग है चलने का-होशपूर्वक, जागकर। पैरों का उतना सवाल नहीं है जितना आंखों का सवाल है। शक्ति का उतना सवाल नहीं है जितना शाति का सवाल है। नशे-नशे में, सोए-सोए कितना ही चलो, पहुंचोगे नहीं।

यह चलना तो कोल्हू के बैल जैसा है। आंखें बंद हैं कोल्हू के बैल की, चलता चला जाता है। एक ही लकीर पर वर्तुलाकार घूमता रहता है। अपने जीवन को थोड़ा विचारों, कहीं तुम्हारा जीवन भी तो वर्तुलाकार नहीं घूम रहा है? जो कल किया था वही आज कर रहे हो। जो आज कर रहे हो वही कल भी करोगे। कहीं तो तोड़ो इस वर्तुल को। कभी तो बाहर आओ इस घेरे के।

यह पुनरुक्ति जीवन नहीं है। यह केवल आहिस्ता-आहिस्ता मरने का नाम है। जीवन तो प्रतिपल नया है। मौत पुनरुक्ति है। इसे तुम परिभाषा समझो। अगर तुम वही दोहरा रहे हो, जो तुम पहले भी करते रहे हो, तो तुम जी नहीं रहे हो। तुम जीने का सिर्फ बहाना कर रहे हो। सिर्फ थोथी मुद्राएं हैं, जीवन नहीं। तुम जीने का नाटक कर रहे हो। जीना इतना सस्ता नहीं है। रोज सुबह उठते हो, फिर वही शुरू हो जाता है। रोज सांझ सोते हो, फिर वही अंत हो जाता है।

कहीं से तोड़ो इस परिधि को। और इस परिधि को तोड़ने का एक ही उपाय है, जो बुद्धपुरुषों ने कहा है-आंख खोलो। कोल्हू का बैल चल पाता है एक ही चक्कर में, क्योंकि उसकी आंखें बंद कर दी गई हैं। उसे दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारी आंखें भी बंद हैं।

चलने को चल रहा हूं पर इसकी खबर नहीं

मैं हूं सफर में या मेरी मंजिल सफर में है

इतना भी पता नहीं है कि यह जिंदगी ही मंजिल है, या यह जिंदगी कहीं पहुंचाती है। यह बस होना काफी है, या इस होने से और एक बड़े होने का द्वार खुलने को है। मैं पर्याप्त हूं या केवल एक शुरुआत हूं। मैं अंत हूं? या प्रारंभ हूं। मैं बीज हूं या वृक्ष हूं। तुम जो हो, अगर वह पर्याप्त होता तो तुम आनंदित होते। क्योंकि जहा भी पर्याप्त हो जाता है, वहीं संतोष, परितृप्ति आ जाती है। जहां पर्याप्त हुए, वहीं परितोष आ जाता है।

तुम पर्याप्त तो नहीं हो, यह तुम्हारी बेचैनी कहे देती है। तुम्हारी आंख की उदासी कहे जाती है। तुम्हारे प्राणों का दुख भरा स्वर गुनगुनाए जाता है-तुम पर्याप्त नहीं हो। कुछ खो रहा है। कुछ चूका जा रहा है। कुछ होना चाहिए जो नहीं है। उसकी रिक्त जगह तुम अनुभव करते हो। वही तो जीवन का संताप है। तो फिर ऐसे ही अगर रहे और इसी को दोहराते रहे, तब तो वह रिक्त जगह कभी भी न भरेगी। तुम्हारा घर खाली रह जाएगा। जिसकी तुम प्रतीक्षा करते हो, वह कभी आएगा नहीं। जागकर देखना जरूरी है।

असली सवाल, कहां जा रहे हो, यह नहीं है। असली सवाल, किस मार्ग से जा रहे हो, यह भी नहीं है। असली सवाल यही है कि जो जा रहा है, वह कौन है? जिसने अपने को पहचाना, उसके कदम ठीक पड़ने लगे। अपनी पहचान से ही ठीक कदमों का जन्म होता है। जिसने अपने को न पहचाना, वह कितने ही शास्त्र और कितने ही नक्शे और कितने ही सिद्धात लेकर चलता रहे, उसके पैर गलत ही पड़ते रहेंगे। वह तो एक ऐसा शराबी है, जो नक्शे लेकर चल रहा है। शराबी के खुद के पैर ही ठीक नहीं पड़ रहे हैं। शराबी के हाथ नक्शे का क्या उपयोग है?

तुम्हारे हाथ में शास्त्रों का कोई उपयोग नहीं। तुम्हारे साथ शास्त्र भी कंपेगा, डगमगाएगा। शास्त्र तुम्हें न ठहरा पाएगा, तुम्हारे कारण शास्त्र भी डगमगाएगा। तुम ठहर जाओ, शास्त्र की जरूरत ही नहीं। तुम्हारे ठहरने से ही शास्त्र का जन्म होता है, दृष्टि उपलब्ध होती है, दर्शन होता है। बुद्ध के ये सारे वचन सब तरफ से एक ही दिशा की तरफ इंगित करते हैं कि जागो! प्रमाद में मत डूबे रहो, अप्रमाद तुम्हारे जीवन का आधार बने, आधारशिला बने।

पूछते हैं बुद्ध, ‘कौन इस पृथ्वी और देवताओं सहित इस यमलोक को जीतेगा? कौन? कौन कुशल पुरुष फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा? कौन?’

तुम तो कैसे चुनोगे, जैसे तुम हो। चुनना तो तुम भी चाहते हो। काटो से कौन बचना नहीं चाहता? फूलों को कौन आलिंगन नहीं कर लेना चाहता? सुख की आकांक्षा किसकी नहीं है? दुख से दूर हटने का भाव किसके मन में नहीं उठता? लेकिन बुद्ध पूछते हैं, कौन जीतेगा? कौन उपलब्ध होगा फूलों से भरे धर्मपथ को ‘तुम जैसे हो वैसे न हो सकोगे। तुम सोए हो। तुम्हें खबर ही नहीं, तुम कौन हो। फूल और कांटे का भेद तो तुम कैसे करोगे? सार-असार को तुम कैसे अलग करोगे? सार्थक-व्यर्थ को तुम कैसे छांटोगे? तुम सोए हो। तुम्हारे स्वप्‍नों में अगर तुमने फूल और काटे अलग भी कर लिए, तो जागकर तुम पाओगे दोनों खो गए। सपने के फूल और सपने के काटो में कोई फर्क नहीं।

इसलिए असली सवाल तुम्हारे जागने का है। उसके बाद ही निर्णय हो सकेगा। नींद में तुम मंदिर जाओ कि मस्जिद, सब बेकार। कुरान पढ़ो कि वेद, सब व्यर्थ। नींद में तुम बुद्धपुरुषों को सुनते रहो, कुछ हल न होगा। तुम्हें जागना पड़ेगा। क्योंकि जागकर ही तुम सुनोगे तभी तुम समझ सकोगे। सुन लेना समझने के लिए काफी नहीं है। नींद अगर भीतर घिरी हो, तो तुम्हारे कान सुनते भी रहेंगे और तुम यह मानते भी रहोगे कि मैं सुन रहा हूं? फिर भी तुमने कुछ सुना ‘नहीं। तुम बहरे के बहरे रह गए। अंधे के अंधे रहे। तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति उससे पैदा न हो सकेगी।

‘कौन इस पृथ्वी और देवताओं सहित इस यमलोक को जीतेगा? कौन कुशल पुरुष फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा?

‘शिष्य–शैक्ष-इस पृथ्वी और देवताओं सहित इस यमलोक को जीतेगा। कुशल शैक्ष–कुशल शिष्य–फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा। ‘

शिष्य को समझना होगा। बुद्ध का जोर शिष्य पर उतना ही है, जितना नानक का था। इसलिए नानक का पूरा धर्म ही सिक्ख धर्म कहलाया–शिष्य का धर्म। सिक्ख यानी शिष्य। सारा धर्म ही सीखने की कला है। तुम सोचते भी हो बहुत बार कि तुम सीखने को तैयार हो, लेकिन मुश्किल से कभी मुझे कोई व्यक्ति मिलता है जो सीखने को तैयार है। क्योंकि सीखने की शर्तें ही पूरी नहीं हो पातीं।

सीखने की पहली शर्त तो यह समझना है कि तुम जानते नहीं हो। अगर तुम्हें जरा सी भी भ्रांति है कि तुम जानते ही हो, तो तुम सीखोगे कैसे? सीखने के लिए जानना जरूरी है कि मैं अज्ञानी हूं। ज्ञान को निमंत्रण देने के लिए यह बुनियादी शर्त है। इसके पहले कि तुम पुकारो ज्ञान को, इसके पहले कि तुम अपना द्वार खोलो उसके लिए, तुम्हें बड़ी गहन विनम्रता में यह स्वीकार कर लेना होगा कि मैं नहीं जानता हूं।

इसलिए पंडित शिष्य नहीं हो पाते। और दुनिया जितनी ही जानकार होती जाती है उतना ही शिष्यत्व खोता चला जाता है। पंडित जान ही नहीं सकता।

यह बडी विरोधाभासी बात मालूम पड़ती है। क्योंकि हम तो सोचते हैं, पंडित जानता है। पंडित अकेला है जो नहीं जान सकता। अज्ञानी जान ले भला, पंडित के जानने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि पंडित तो मानकर बैठा है कि मैं जानता ही हूं। उसे वेद कंठस्थ हैं। उसे उपनिषदों के वचन याद हैं। उसे बुद्धपुरुषों की गाथाएं शब्दशः स्मरण मैं हैं। उसकी स्मृति भरी– पूरी है। और उसे भरोसा है कि मैं जानता हूं। वह कभी भी जान न पाएगा। क्योंकि जगह चाहिए। तुम पहले से भरे हो। खाली होना जरूरी है।

कौन है शिष्य? जिसे यह बात समझ में आ गई कि अब तक मैंने कुछ जाना. नहीं। तुम्हें भी कभी– कभी यह बात समझ में आती है, लेकिन तुम्हें इस तरह समझ में आती है कि सब न जाना हो, थोड़ा तो मैंने जाना है। वहीं धोखा हो जाता है। एक बात तुम्हें कह दूं? या तो जानना पूरा होता है, या बिलकुल नहीं होता। थोड़ा–थोड़ा नहीं होता। या तो तुम जीते हो, या मरते हो। या तो मरे, या जिंदा। तुम ऐसा नहीं होते कि थोड़े–थोड़े जिंदा। या तो तुम जागे, या सोए। थोड़े-थोड़े जागे, थोड़े–थोड़े सोए, ऐसा होता ही नहीं। अगर तुम थोड़े भी जागे हो, तो तुम पूरे जागे हो। जागने के खंड नहीं किए जा सकते। ज्ञान के खंड नहीं किए जा सकते।

यही पांड़त्‍य और बुद्धत्व का फर्क है। पांडित्य के खंड किए जा सकते हैं। तुमने पहली परीक्षा पास कर ली, दूसरी कर ली, तीसरी कर ली, बड़े पंडित होते चले गए। एक शास्त्र जाना, दूसरा जाना, तीसरा जाना, मात्रा बढ़ती चली गई। पांडित्य मात्रा में है, क्वांटिटी में है। बुद्धत्व क्वालिटी में है। मात्रा में नहीं, गुण में। बुद्धत्व होने का एक ढंग है। मात्र जानकारी की संख्या नहीं है, जागने की एक प्रक्रिया।

इसे थोड़ा सोचो। सुबह जब तुम जाग जाते हो, क्या तुम यह कह सकते हो कि अभी मैं थोड़ा- थोड़ा जागा हूं? कौन कहेगा? इतना जानने के लिए भी कि मैं थोड़ा- थोड़ा जागा हूं पूरा जागना जरूरी है। जागने की मात्राएं नहीं होतीं। रात जब तुम सो जाते हो, क्या तुम कह सकते हो कि मैं थोड़ा-थोड़ा सोया हूं? कौन कहेगा? जब तुम सो गए तो सो गए। कौन कहेगा कि मैं थोड़ा-थोड़ा सोया हूं? अगर तुम कहने को अभी भी मौजूद हो, तो तुम सोए नहीं, तुम जागे हो।

न तो जागना बांटा जा सकता है, न सोना बांटा जा सकता है। न जीवन बांटा जा सकता, न मौत बांटी जा सकती। पांडित्य बांटा जा सकता है। जो बांटा जा सकता है, उसे तुम ज्ञान मत समझना। जो नहीं बांटा जा सकता, जो उतरता है पूरा उतरता है, नहीं उतरता बिलकुल नहीं उतरता, उसे ही तुम ज्ञान समझना।

मेरे पास लौग आते हैं, उनको अगर मैं कहता हूं कि पहले तुम यह जानने का भाव छोड़ दो। वे कहते हैं कि इसीलिए तो हम आपके पास आए हैं। जो थोड़ा-बहुत जानते हैं, उससे कुछ सार नहीं हुआ; और जानने की इच्छा है। उनको वह जो खयाल है थोड़ा-बहुत जानने का, वही बाधा बनेगा। वह उन्हें शिष्य न बनने देगा। वे विद्यार्थी बन जाएंगे, शिष्य न बन सकेंगे।

विद्यार्थी वह है जो थोड़ा जानता है, थोड़ा और जानने को उत्सुक है। विद्यार्थी यानी जिज्ञासु। जानकारी की खोज में निकला। शिष्य विद्यार्थी नहीं है, सत्यार्थी है।

शिष्य जानकारी की खोज में नहीं निकला है, जानने की कला की खोज में निकला है। शिष्य का ध्यान जो जाना-जाना है उस पर नहीं है, जो जानेगा उस पर है। विद्यार्थी आब्जेक्टिव है। बाहर उसकी नजर है। शिष्य सब्जेक्टिव है। भीतर उसकी नजर है। वह यह कह रहा है कि पहले तो मैं जाग जाऊं, फिर जानना तो गौण बात है। जाग गया तो जहां मेरी नजर पड़ेगी, वहीं ज्ञान पैदा हो जाएगा। जहा देखूंगा, वहीं झरने उपलब्ध हो जाएंगे ज्ञान के। पर मेरे भीतर जागना हो जाए।

विद्यार्थी सोया है और संग्रह कर रहा है। सोए लोग ही संग्रह करते हैं, जागो ने संग्रह नहीं किया। न धन का, न ज्ञान का, न यश का, न पद का। सोया आदमी संग्रह करता है। सोया आदमी मात्रा की भाषा में सोचता है।

कौन जीतेगा? बड़ा अजीब उत्तर देते हैं बुद्ध, शिष्य जीतेगा। कोई योद्धा नहीं। और शिष्य के होने की पहली शर्त यह है कि जिसने अपनी हार स्वीकार कर ली हो। जिसने यह कहा हो कि मैं अब तक जान नहीं पाया। चला बहुत, पहुंचा नहीं। सोचा बहुत, समझा नहीं। सुना बहुत, सुन नहीं पाया। देखा बहुत, भ्रांति रही, क्योंकि देखने वाला सोया था। जो हार गया है आकर, जिसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया और कहा कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं जिसने अपने सिर के साथ अपनी जानकारी भी सब गुरु के चरणों पर रख दी, वही सीखने को कुशल हुआ, सीखने में सफल हुआ। सीखने की क्षमता उसे उपलब्ध हुई। जिसने जाना कि मैं नहीं जानता हूं र वही शिष्य है। कठिन है। क्योंकि अहंकार कहता है कि मैं और नहीं जानता! पूरा न जानता होऊं, थोड़ा तो जानता हूं। सब न जान लिया हो, पर बहुत जान लिया है।

बुद्ध के पास एक महापंडित आया, सारिपुत्र। वह बड़ा ज्ञानी था। उसे सारे वेद कंठस्थ थे। उसके खुद पांच हजार शिष्य थे-शिष्य नहीं, विद्यार्थी कहने चाहिए। लेकिन वह समझता था कि शिष्य हैं, क्योंकि वह समझता था मैं ज्ञानी हूं।

जब वह बुद्ध के पास आया और उसने बहुत से सवाल उठाए, तो बुद्ध ने कहा, ये सब सवाल पांडित्य के हैं। ये सवाल शास्त्रों से पैदा हुए हैं। ये तेरे भीतर नहीं पैदा हो रहे हैं, सारिपुत्र! ये सवाल तेरे नहीं हैं, ये सवाल उधार हैं। तूने किताबें पढ़ी हैं। किताबों से सवाल पैदा हो गए हैं। अगर ये किताबें तूने न पढ़ी होतीं, तो ये सवाल पैदा न होते। अगर तूने दूसरी किताबें पढ़ी होतीं, तो दूसरे सवाल पैदा होते। ये सवाल तेरी जिंदगी के भीतर से नहीं आते, ये तेरे अंतस्तल से नहीं उठे, ये अस्तित्वगत नहीं हैं, बौद्धिक हैं।

सारिपुत्र अगर सिर्फ पंडित ही होता, तो नाराज होकर चला गया होता। उसने आंखें झुकायीं, उसने सोचा। उसने देखा कि बुद्ध जो कह रहे हैं उसमें तथ्य कितना है? और तथ्य पाया। उसने सिर उनके चरणों में रख दिया। उसने कहा कि मैं अपने सवाल वापस ले लेता हूं। ठीक कहते हैं आप, ये सवाल मेरे नहीं हैं। अब तक मैं इन्हें अपना मानता रहा। और जब सवाल ही अपना न हो, तो जवाब अपना कैसे मिलेगा? जब सवाल ही अभी अपने अंतरतम से नहीं उठा है, तो जवाब अंतरतम तक कैसे जाएगा?

एक तो जिज्ञासा है जो बुद्धि की खुजलाहट जैसी है, कुतूहल जैसी है। पूछ लिया, चलते-चलते। कोई जीवन दाव पर नहीं लगा है। और एक जिज्ञासा है जिसको हमने मुमुक्षा कहा है। जीवन दाव पर लगा है। यह कोई सवाल ऐसा ही नहीं है, कि चलते-चलते पूछ लिया। इसके उत्तर पर निर्भर करेगा जीवन का सारा ढंग। इसके उत्तर पर निर्भर करेगा कि मैं जीऊं या मरूं? इसके उत्तर पर निर्भर करेगा कि जीवन जीने योग्य है या व्यर्थ है? जहां सब दाव पर लगा है।

सारिपुत्र ने कहा, अब मैं तभी पूछूंगा जब मेरे अंतरतम का प्रश्न आएगा। मुझे शास्त्रों से मुक्त करें, भगवान! बुद्ध ने कहा, तू समझ गया, तू मुक्त हो गया। शास्त्र थोड़े ही तुझे पकड़े हुए हैं, तूने ही पकड़ा था। तू समझ गया, तूने छोड़ दिया। सारिपुत्र को बुद्ध ने शिष्य की तरह स्वीकार कर लिया।

कहते हैं, सारिपुत्र ने फिर कभी सवाल न पूछे, वर्षों तक। और बुद्ध ने एक दिन सारिपुत्र को पूछा कि तू पूछता नहीं। तू जब आया था, बड़े सवाल लेकर आया था। वह सवाल तो तुझसे छीन लिए गए थे। तूने कहा था, अब जब मेरा सवाल उठेगा, तब पूछूंगा। तूने पूछा नहीं। सारिपुत्र ने कहा, अचंभा है। पराए सवाल थे, बहुत थे। उत्तर भी बहुत मिल गए थे, फिर भी उत्तर मिलता नहीं था। क्योंकि अपना सवाल न था। प्राणों की कोई हूक न थी, कोई प्यास न थी। जैसे बिन प्यासे आदमी को पानी पिलाए जाओ। उलटी हो सकती है, तृप्ति थोड़े ही होगी। फिर उनको छोड़ दिया तो बड़ी हैरानी हुई। प्रश्न उठा ही नहीं और उत्तर मिल गया।

जिसने अपने भीतर उतरने की थोड़ी सी भी शुरुआत की, उसके प्रश्न खोते चले जाते हैं। अंतरतम में खड़े होकर, जहा से प्रश्न उठना चाहिए वहीं से जवाब उठ आता है। हर अस्तित्वगत प्रश्न अपना उत्तर अपने भीतर लिए है। प्रश्न तो बीज है। उसी बीज से फूटता है अंकुर, उत्तर प्रगट हो जाते हैं। तुम्हें तुम्हारे जीवन की समस्या मालूम पड़ती है समस्या की तरह, क्योंकि वह समस्या भी तुमने उधार ही बना ली है। किसी और ने तुमसे कह दिया है। और किसी और की मानकर तुम चल भी पड़े हो। किसी और ने तुम्हें समझा दिया है कि तुम बहुत प्यासे हो, पानी को खोजो।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ईश्वर को खोजना है। मैं उनकी तरफ देखता हूं -किसलिए खोजना है? ईश्वर ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? जरूरी खोजना है? निश्चित ही खोजना है? जीवन को दांव पर लगाने की तैयारी है? वे कहते हैं, नही, ऐसा कुछ नहीं। अगर मिल जाए! वैसे तो हमें पक्का भी नहीं कि है भी या नहीं। मैं उनसे पूछता हूं? तुम्हें ठीक-ठीक पक्का है कि तुम खोजने ही निकले हो? वे कहते हैं, वह भी कुछ साफ नहीं, धुंधला-धुंधला है। किसलिए खोज रहे हो ईश्वर को? सुन लिया है शब्द। शब्द पकड़ गया मन में। कोई और लोग भी खोज रहे हैं, तुम भी खोजने निकल पड़े हो।

नहीं, ऐसे खोज नहीं होती सत्य की। शिष्य होने से खोज होती है। पहले तो उधार ज्ञान छोड़ देना जरूरी है। उधार जान छोड़ते ही तुम ऐसे शात और पवित्र हो जाते हो, क्‍वांरापन उतर आता है, सारी गंदगी हट जाती है।

‘कौन जीतेगा? कौन कुशल पुरुष फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा? ‘शिष्य इस पृथ्वी और देवताओं सहित इस यमलोक को जीतेगा। ‘

मृत्यु को भी जीत लेगा। लेकिन जीतने की कला है, जानने की भ्रांति को छोड़ देना। पांडित्य को छोड़ते ही जीवन अपने रंग खोलने शुरू कर देता है। पांडित्य जैसे आंखों से बंधे पत्थर हैं, जिनकी वजह से पलकें खुल नहीं पातीं, बोझिल हो गई हैं। पांडित्य के हटते ही तुम फिर छोटे बच्चे की भांति हो जाते हो।

शिष्य यानी फिर से तुम्हारा बालपन लौटा। जैसे छोटा बच्चा देखता है जगत को, बिना जानकारी के। गुलाब के फूल को छोटा बच्चा भी देखता है, तुम भी देखते हो। तुम जब देखते हो तब तुम्हारे भीतर एक शब्द बनता है-गुलाब का फूल। या एक शब्द बनता है कि-हा, सुंदर है। या तुलना उठती है कि-पहले देखे थे फूल, उतना ही सुंदर है, ज्यादा है, या कम है। बात खतम हो जाती है। थोड़े से शब्दों का भीतर शोरगुल होता है, और उन शब्दों के शोरगुल में जीवित फूल खो जाता है।

एक छोटा बच्चा भी गुलाब के फूल को देखता है। अभी उसे पता ही नहीं कि यह गुलाब है, कि कमल है, कि चमेली, कि जूही। अभी नाम उसे याद नहीं। अभी ज्ञान की उस पर कृपा नहीं हुई। अभी शिक्षकों ने उसे बिगाड़ा नहीं। अभी सौभाग्यशाली है, शिक्षा का जहर उस पर गिरा नहीं। अभी वह सिर्फ देखता है। अभी तुलना भी नहीं उठती। क्योंकि तुलना के लिए भी नाम सीख लेना जरूरी है। अतीत में भी उसने फूल देखे होंगे, उनको फूल भी नहीं कह सकता। रंगों का एक जागता हुआ अनुभव था। रंग भी नहीं कह सकता। शब्द तो उसके पास नहीं हैं। सीधा फूल को देखता है, बीच में कोई दीवाल खड़ी नहीं होती, कोई शब्द जाल नहीं बनता, कोई तुलना नहीं उठती। सीधे फूल से हृदय से हृदय का मिलन होता है। फूल के साथ एक तादात्म्य बनता है। फूल में डूबता है, फूल उसमें डूबता है। छोटा बच्चा एक डुबकी लगा लेता है फूल के अस्तित्व में। फूल अपने सारे सौंदर्य को उसके चारों तरफ बिखरा देता है। अपनी सारी सुगंध लुटा देता है। छोटे बच्चे का जो अनुभव है गुलाब के फूल के पास, वह तुम लाख तरसो, तब तक तुम्हें न हो सकेगा जब तक तुम फिर से बच्चे न हो जाओ।

जीसस ने कहा है, मेरे प्रभु के राज्य के वे ही अधिकारी होंगे जो छोटे बच्चों की भाति हैं। छोटे-छोटे बच्चों की भांति सरल हैं।

शिष्य का यही अर्थ है कि जो फिर से सीखने को तैयार है। जो कहता है, अब तक जो सीखा था, बेकार पाया। अब मैं फिर से द्वार पर खड़ा हूं अपने हृदय की झोली को भरने को। अब कूड़ा-करकट से नहीं भरना है। अब जानकारी से नहीं ‘भरना है। अब होश को मांगने आया हूं।

विद्यार्थी ज्ञान मांगने आता है, शिष्य होश मांगने आता है। विद्यार्थी कहता है, और जानकारी चाहिए। शिष्य कहता है, जानकारी को क्या करेंगे, अभी जानने वाला ही मौजूद नहीं, जानने वाला चाहिए।

‘कुशल शिष्य फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा।

और जिसने जीवन का थोड़ा सा भी स्वाद लेना शुरू कर दिया, जिसके भीतर होश की किरण पैदा हुई, होश का चिराग जला, अब उसे दिखाई पड़ने लगेगा-कहो कांटे है, कहां फूल है।

तुम्हें लोग समझाते हैं, बुरा काम मत करो। तुम्हें लोग समझाते हैं, पाप मत करो। तुम्हें लोग समझाते हैं, अनीति मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो। मैं तुम्हें नहीं समझाता। मैं तुम्हें समझाता हूं र चिराग को जलाओ। अन्यथा पहचानेगा कौन कि क्या अनीति है, क्या नीति है? कौन जानेगा-कहां काटे हैं, कहां फूल है ‘ तुम अभी मौजूद ही नहीं हो। रास्ता कहां है, भटकाव कहां है, तुम कैसे जानोगे? तुम अगर दूसरों की मानकर चलते भी रहे तो तुम ऐसे ही होओगे, जैसे अंधा अंधों को चलाता रहे। न उन्हें पता है, न उनके आगे जो अंधे खड़े हैं उन्हें पता है। अंधों की एक कतार लगी है। वेद और शास्त्रों के ज्ञाताओं की कतार लगी है। और अंधे एक -दूसरे को पकड़े हुए चले जा रहे हैं।

किस बात को तुम कहते हो नीति? किस बात को तुम कहते हो धर्म? कैसे तुम जानते हो? तुम्हारे पास कसौटी क्या है? तुम कैसे पहचानते हो क्या सोना है क्या पीतल है? दोनों पीले दिखाई पड़ते हैं। है।, दूसरे कहते हैं यह सोना है, तो मान लेते हो। दूसरों की कब तक मानते रहोगे? दूसरों की मान-मानकर ही तो ऐसी गति हुई द्वै ऐसी दुर्गति हुई है।

धर्म कहता है, दूसरों की नहीं माननी है, अपने भीतर उसको जगाना है, जिसके द्वारा जानना शुरू हो जाता है और मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। चिराग जलाओ, ताकि तुम्हें खुद ही दिखाई पड़ने लगे-कहां गलत है, कहा सही है।

मैंने सुना है, दो युवक एक फकीर के पास आए। उनमें से एक बहुत दुखी था। बड़ा बेचैन था। दूसरा ऐसा कुछ खास बेचैन नहीं था, प्रतीत होता था मित्र के साथ न ‘ना आया है। पहले ने कहा, हम बड़े परेशान हैं। हमसे बड़े भयंकर पाप हो गए हे, उनसे छुटकारे का और प्रायश्चित्त का कोई मार्ग बताओ। उस फकीर ने पहले से पूछा कि तू अपने पापों के संबंध में कुछ बोल। तो उसने कहा, ज्यादा मैंने पाप नहीं किए, मगर एक बहुत जघन्य अपराध किया है। और उसका बोझ मेरी छाती पर एक चट्टान की तरह रखा है। दया करो, किसी तरह यह बोझ मेरा उतर जाए। मैं पछता , हा हूं, भूल हो गई। लेकिन अब क्या करूं, जो हो गया हो गया। वह रोने लगा, आंख से उसकी आंसू गिरने लगे।

उस फकीर ने कहा दूसरे से कि तेरा क्या पाप है? दूसरे ने मुस्कुराते हुए कहा, ऐसा कुछ खास नहीं। कोई बड़े पाप मैंने नहीं किए हैं। ऐसे ही छोटे-छोटे, जिनका कोई हिसाब भी नहीं, और कोई उनसे मैं दबा भी नहीं जा रहा हूं। मित्र आता था, इसलिए मैं भी साथ चला आया। और अगर इसके बड़ों से छुटकारा मिल सकता है, तो मेरे छोटे-छोटे पापों का भी आशीर्वाद दो कि छुटकारा हो जाए।

उस फकीर ने कहा, ऐसा करो, तुम दोनों बाहर जाओ। और उस पहले युवक से कहा कि तू अपने पाप की दृष्टि से उतने ही वजन का एक पत्थर उठा ला। और दूसरे से कहा कि तू भी, तूने जो छोटे-छोटे पाप किए हैं कंकड़-पत्थर उसी हिसाब की संख्या से भर ला। पहला तो एक बड़ी चट्टान उठाकर लाया। पसीने से तरबतर हो गया, उसे लाना भी मुश्किल था, हांफने लगा। दूसरा झोली भर लाया, छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर बीनकर।

जब वे अंदर आ गए, उस फकीर ने कहा, अब तुम एक काम करो। जिस जगह से तुम यह बडा पत्थर उठा लाए हो, वहीं रख आओ। और उस दूसरे से भी कहा कि तू ये जो छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर बीन लाया, जहा-जहां से उठाए हैं वहीं-वहीं वापस रख आ।

उसने कहा, यह तो झंझट हो गई। जिसने बड़ा पाप किया है यह तो खैर रख आएगा, मैं कहां रखने जाऊंगा? अब तो याद भी करना मुश्किल है कि कौन सा पत्थर मैंने कहो से उठाया था। सैकड़ों कंकड़-पत्थर बीन लाया हूं।

उस फकीर ने कहा, पाप बड़ा भी हो, लेकिन अगर उसकी पीड़ा हो, तो प्रायश्चित्त का उपाय है। पाप छोटा भी हो और उसकी पीड़ा न हो, तो प्रायश्चित्त का उपाय नहीं है। और जो तुम्हारे पत्थर के संबंध में तुम्हारी स्थिति है, वही तुम्हारे पापों के संबंध में भी स्थिति है। जिसका दीया जला हुआ है, वह न तो बड़े करता है, न छोटे करता है। जिनके दीए अभी जले हुए नहीं हैं, वे बड़े करने से भला डरते हों, छोटे-छोटे तो मजे से करते रहते हैं। छोटे-छोटे का तो पता ही कहां चलता है!

तुमने किसी आदमी से जरा सा झूठ बोल दिया, कई बार तो तुम ऐसे झूठ बोलते हो कि तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुमने झूठ भी बोला। कई बार तो तुम्हें फिर जीवन में कभी याद भी नहीं आता उसका। लेकिन वह सब इकट्ठा होता चला जाता है। छोटे-छोटे पत्थर इकट्ठे होकर भी बड़ी-बड़ी चट्टानों से ज्यादा बोझिल हो सकते हैं।

असली सवाल छोटे और बड़े का नहीं है। और जिन्होंने जागकर देखा है, उनका तो कहना यह है कि पाप छोटे-बड़े होते ही नहीं। पाप यानी पाप। छोटा-बड़ा कैसे? एक आदमी ने दो पैसे की चोरी की। क्या छोटा पाप है? और एक आदमी ने दो लाख की चोरी की। क्या बड़ा पाप है?

थोड़ा सोचो। चोरी-चोरी है। दो पैसे की भी उतनी ही चोरी है, जितनी दो लाख की। चोर होना बराबर है। दो लाख से ज्यादा का नहीं होता, दो पैसे से कम का नहीं होता। चोर होने की भावदशा बस काफी है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। दो लाख और दो पैसे का भेद बाजार में है। लेकिन दो लाख और दो पैसे की चोरी का भेद धर्म में नहीं हो सकता। चोरी यानी चोरी। लेकिन यह तो उसे दिखाई पड़ेगा जिसका भीतर का दीया जल रहा है। फिर पाप-पाप है। बड़ा-छोटा नहीं है। पुण्य-पुण्य है। छोटा-बड़ा नहीं है।

लेकिन जब तक तुम दूसरों के पीछे चल रहे हो, जब तक तुम जानकारी को ही जीवन मानकर चल रहे हो, और पांडित्य से तुम्हारे जीवन को मार्गदर्शन मिलता है, तब तक तुम ऐसे ही भटकते रहोगे।

शिष्य वही है जिसने अपने को जगाने की तैयारी शुरू की। शिष्य वही है जिसके लिए पांडित्य व्यर्थ दिखाई पड़ गया और अब जो बुद्धत्व को खोजने निकला है। और जैसे ही तुम्हारे जीवन में यह क्रांति घटित होती है, शिष्यत्व की संभावना बढ़ती है, बड़े अंतर पड़ने शुरू हो जाते हैं। तब तुम और ही ढंग से सुनते हो। तब तुम और ही ढंग से उठते हो। तब तुम और ही ढंग से सोचते हो। तब जीवन की सारी प्रक्रियाओं का एक ही केंद्र हो जाता है कि कैसे जागू? कैसे यह नींद टूटे? कैसे यह कटघरा पुनरुक्ति का मिटे और मैं बाहर आ जाऊं? तब तुम्हारा सारा उपक्रम एक ही दिशा में समर्पित हो जाता है।

शिष्य का जीवन एक समर्पित जीवन है। उसके जीवन में एक ही अभीप्सा है, सब द्वारों से वह एक ही उपलब्धि के लिए चेष्टा करता है, द्वार खटखटाता है कि मैं कैसे जाग जाऊं? और जिसके जीवन में ऐसी अभीप्सा पैदा हो जाती है कि मैं कैसे जाग जाऊं, उसे कौन रोक सकेगा जागने से? उसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती। वह जाग ही जाएगा। आज चाहे जागने की आकांक्षा बड़ी मद्धिम मालूम पड़ती हो, लेकिन बूंद-बूंद गिरकर जैसे चट्टान टूट जाती है, ऐसी बूंद-बूंद आकांक्षा जागने की तंद्रा को तोड़ देती है। तंद्रा कितनी ही प्राचीन हो और कितनी ही मजबूत हो, इससे कोई भेद नहीं पड़ता।

‘इस शरीर को फेन के समान जान; इसकी मरीचिका के समान प्रकृति को पहचान; मार के पुष्प-जाल को काट; यमराज की दृष्टि से बचकर आगे बढ़।

‘तुम जहा बैठे हो वहां कुछ पाया तो नहीं, फिर किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? तुम जहा बैठे हो वहा कुछ भी तो अनुभव नहीं हुआ, अब तुम राह क्या देख रहे हो? न कोई वादा न कोई यकीं न कोई उम्मीद

मगर हमें तो तेरा इंतजार करना था

न तो किसी ने कोई वादा किया है वहां मिलने का, न तुम्हें यकीन है कि कोई मिलने वाला है, न तुम्हें कोई उम्मीद है, क्योंकि जीवनभर वहीं बैठ-बैठकर तुम थक। गए हो–नाउम्मीद हो गए हो-लेकिन फिर भी इंतजार किए जा रहे हो। कितनी बार तुमने क्रोध किया है, कितनी बार लोभ किया है, कितनी बार मोह किया है, कितनी बार राग किया है, पाया कुछ? गांठ गठियाया कुछ? मुट्ठी बांधे बैठे हो, मुट्ठी के भीतर कोई संपदा इकट्ठी हुई?

न कोई वादा न कोई यकीं न कोई उम्मीद

मगर हमें तो तेरा इंतजार करना था

कैसी जिद पकड़कर बैठ गए हो इंतजार करने की। किस का इंतजार कर रहे हो? इस राह से कोई गुजरता ही नहीं। तुम जिस राह पर बैठे हो, वह किसी की भी रहगुजर नहीं।

बुद्ध कहते हैं, ‘इस जीवन की मृग-मरीचिका के समान प्रकृति को पहचान।

‘प्यासे को मरुस्थल में भी पानी दिखाई पड़ जाता है। वह मृग-मरीचिका है। है नहीं वहां कहीं पानी। प्यास की कल्पना से ही दिखाई पड़ जाता है। प्यास बहुत सघन हो, तो जहां नहीं है वहां भी तुम आरोपित कर लेते हो।

तुमने भी इसे अनुभव किया होगा। तुम्हारे भीतर जो’ चीजें बहुत ज्यादा सघन होकर पीड़ा दे रही है, जिसे तुम खोज रहे हो, वह दिखाई पड़ने लगती है। कभी तुम किसी की राह देख रहे हो घर के अंदर बैठे, कोई प्रियजन आ रहा है, कोई मित्र आ रहा है, प्रेयसी या प्रेमी आ रहा है, पत्ता भी खड़कता है तो ऐसा लगता है कि उसके पैर की आवाज सुनाई पड़ गई। फिर उठकर देखते हो। पोस्टमैन द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है, तो समझते हो कि प्रेमी आ गया। प्रसन्न होकर, धड़कती छाती से द्वार खोलते हो। कोई नहीं भी आता, न पत्ता खड़कता है, न पोस्टमैन आता है, न द्वार से कोई निकलता है, तो तुम कल्पना करने लगते हो कि शायद आवाज सुनी, शायद किसी ने द्वार खटखटाया, या कोई पगध्वनि सुनाई पड़ी सीढ़ियों पर चढ़ती हुई। भागकर पहुंचते हो, कोई भी नहीं है।

न कोई वादा न कोई यकीं न कोई उम्मीद

मगर तुम कल्पना किए चले जाते हो। मृग-मरीचिका का अर्थ है, जहां नहीं है वहां देख लेना। और जो व्यक्ति वहां देख रहा हो जहा नहीं है, वह वहां देखने से वंचित रह जाएगा जहा है। तो मृग-मरीचिका जीवन के आत्यंतिक सत्य को देखने में बाधा बन जाती है। तुम दौड़ते रहते हो उस तरफ जहां नहीं है। और तुम उस तरफ देखते ही नहीं लौटकर जहां है।

जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर छुपा है। जिसे तुम पाने निकले हो, उसे तुमने कभी खोया ही नहीं। उसे तुम लेकर ही आए थे। परमात्मा किसी को दरिद्र भेजता ही नहीं। सम्राट के अलावा वह किसी को कुछ और बनाता ही नहीं। फिर भिखमंगे तुम बन जाते हो, वह तुम्हारी ही कुशलता है। वह तुम्हारी ही कला है। तुम्हारी मौज। परमात्मा तुम्हें इतनी स्वतंत्रता देता है कि तुम अगर भिखमंगे भी होना चाहो तो उसमें भी बाधा नही डालता।

‘इस शरीर को फेन के समान जान।

शिष्य को कह रहे हैं यह बात बुद्ध, विद्यार्थी को नहीं। विद्यार्थी से बुद्धों का होई मिलना ही नहीं होता। केवल शिष्यों से। जो वस्तुत: आतुर हैं, और जिनका ‘यवन एक लपट बन गई है-एक खोज, और जो सब कुर्बान करने को राजी हैं। जिन्‍हें जीवन में ऐसी कोई बात दिखाई ही नहीं पड़ती जिसके लिए रुके रहने की कोई जरूरत हो। जो अशात की तरफ जाने को तत्पर हैं। जो ज्ञान को छोड़कर अज्ञान को स्वीकार किए हैं, केवल वे ही ज्ञात से मुक्त होते हैं और अज्ञात में उनका प्रवेश होता है। उनसे ही बुद्ध कह रहे हैं-

‘इस शरीर को फेन के समान जान। ‘

समुद्र के तट पर तुमने फेन को इकट्ठे होते देखा है। कितना सुंदर मालूम होता है! दूर से अगर देखा हो तो बड़ा आकर्षक लगता है। कभी सूर्य की किरणें उससे गुजरती हों तो इंद्रधनुष फैल जाते हैं फेन में। पास आओ, पानी के बबूले हैं। वह शुभ्रता, वह चांद जैसी सफेदी, या चमेली के फूल जैसी जो बाढ़ आ गई थी, वह कुछ भी नहीं मालूम पड़ती। फिर हाथ में, मुट्ठी में फेन को लेकर देखा है? बबूले भी खो जाते हैं।

जिंदगी आदमी की बस ऐसी ही है। फेन की भाति। दूर से देखोगे, बड़ी सुंदर; पास आओगे, सब खो जाता है। दूर-दूर रहोगे, बड़े सुंदर इंद्रधनुष दिखाई पड़ते रहेंगे; पास आओगे, हाथ में कुछ भी नहीं आता।

सुनते हैं चमन को माली ने फूलों का कफन पहनाया हैं

दूर से फूल दिखाई पड़ते हैं, पास आओ कफन हो जाता है। जिसको तुम जिंदगी कहते हो, दूर से जिंदगी मालूम होती है, पास आओ मौत हो जाती है।

सुनते हैं चमन को माली ने फूलों का कफन पहनाया है

चारों तरफ जहां-जहा तुम्हें फूल दिखाई पड़े, जरा गौर से पास जाना, हर फूल है। छिपा हुआ कांटा तुम पाओगे। हर फूल चुभेगा। हां, दूर से ही देखते रहो तो भ्रांति बनी रहती है। पास जाने से भ्रांतियां टूट जाती हैं। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते है। दूर से सभी चीजें सुंदर मालूम होती हैं।

तुमने कभी खयाल किया, दिन में चीजें उतनी सुंदर नहीं मालूम पड़ती जितनी रात की चांदनी में मालूम पड़ती हैं। चांदनी एक तिलिस्म फैला देती है, क्योंकि चांदनी। एक धुंधलका दे देती है। वैसे ही आंखें नहीं हैं, वैसे ही अंधापन है, चांदनी और पुराखों को धुएं से भर देती है। जो चीजें दिन में साधारण दिखाई पड़ती हैं, वे भी रात भर सुंदर होकर दिखाई पड़ने लगती हैं। जितना तुम्हारी आंखों में धुंध होता है, उतना हो जीवन का फेन बहुमूल्य मालूम होने लगता है। हीरे-जवाहरात दिखाई पड़ने लगते हैं।

लो आओ मैं बताऊं तिलिस्मे-जहां का राज

जो कुछ है सब खयाल की मुट्ठी में बंद है

जितने दूर रहो, उतना ही वस्तुओं से संपर्क नहीं होता, सिर्फ खयालों से संपर्क होता है। जितने पास आओ, जीवन का यथार्थ दिखाई पड़ता है, खयाल टूटने लगते हैं। और जिसने भी जीवन का यथार्थ देखा, वह घबड़ा गया। वह भयभीत हो गया। क्योंकि वहां जीवन के घर में छिपी मौत पाई, फूल में छिपे काटे पाए। सुंदर सपनों के पीछे सिवाय पत्थरों के कुछ भी नहीं था। पानी की झाग थी, कि मरुस्थल में देखे गए जल के झरने थे। दूर से बड़े मनमोहक थे, पास आकर थे ही नहीं।

और यह सभी को अनुभव होता है, लेकिन फिर भी तुम न मालूम किसका इंतजार कर रहे हो? न किसी ने वादा किया है, न तुम्हें भरोसा है कि कोई आएगा, उम्मीद भी नहीं है-मगर शायद तुम सोचते हो, और करें भी क्या? अगर इंतजार न करें, तो और करें भी क्या न

बुद्धपुरुष तुम्हें बुलाते हैं कि तुम गलत राह पर बैठे हो और जिसकी तुम प्रतीक्षा करते हो वह वहा से गुजरता ही नहीं। और भी राहें हैं। प्रतीक्षा करने के लिए और भी प्रतीक्षालय हैं। अगर प्रतीक्षा ही करनी है तो थोड़ा भीतर की तरफ चलो। जितने तुम बाहर गए हो उतने ही तुम ने झाग और फेन के बुलबुले पाए हैं। थोड़े भीतर की तरफ आओ और तुम पाओगे उतना ही यथार्थ प्रगट होने लगा। जितने तुम भीतर आओगे उतना सत्य, जितने तुम बाहर जाओगे उतना असत्य। जिस दिन तुम बिलकुल अपने केंद्र पर खड़े हो जाओगे, उस दिन सत्य अपने पूरे राज खोल देता है। उस दिन सारे पर्दे, सारे घूंघट उठ जाते हैं।

‘इस शरीर को फेन के समान जान; और इसकी मरीचिका के समान प्रकृति को पहचान; ‘मार के पुष्पजाल को काट। ‘

बुद्ध कहते हैं, वासना ने बड़े फूलों का जाल फैलाया है।

‘मार के पुष्‍पजाल को काट। ‘

सुनते हैं चमन को माली ने फूलों का कफन पहनाया है

मार का पुष्पजाल। उन फूलों के पीछे कुछ भी नहीं है। धोखे की टट्टी है। पीछे कुछ भी नहीं है। सारा सौंदर्य पर्दे में है। खाली घूंघट है, भीतर कोई चेहरा नहीं है। लेकिन घूंघट को जब तक तुम खोलोगे न और भीतर की रिक्तता का पता न चलेगा, तब तक तुम जागोगे न। कई बार तुमने घूंघट भी खोल लिए हैं। एक घूंघट के भीतर तुमने कोई न पाया, तो भी तुम्हें समझ नहीं आती। तब तुम दूसरा घूंघट खोलने में लग जाते हो। एक मुट्ठी झाग-झाग सिद्ध हो गई तो मन कहे चला जाता है, सारी ही झाग थोड़ी झाग होगी। एक घूंघट व्यर्थ हुआ, दूसरे घूंघट में खोज लेंगे। ऐसा जन्मों अजन्मों से घूंघट उठाने का कम चल रहा है। किसी घूंघट में कभी किसी को नहीं पाया। सब घूंघट खाली थे।

तुमने कभी किसी में किसी को पाया? पति में कुछ पाया? पत्नी में कुछ पाया?

मित्र में कुछ पाया? सगे-साथी में कुछ पाया? या सिर्फ घूंघट था। नहीं मिलता है, कोई नहीं मिलता है वहां, लेकिन मन की आशा कहती है, यहां नहीं मिला तो कहीं और मिल जाएगा। इस झरने में पानी सिद्ध नहीं हुआ, फिर दूर और झरना दिखाई पड़ने लगता है। तुम कब जागोगे इस सत्य से कि झरने तुम कल्पित करते हो, कहीं कोई नहीं है! तुम्हारे अतिरिक्त सब अयथार्थ है। तुम्हारे अतिरिक्त सब माया है।

‘यमराज की दृष्टि से बचकर आगे बढ़ो।’

अगर जीवन को सचमुच पाना है तो मौत से,. जहां-जहां मौत हो वहा-वहां जीवन नहीं है, इसको तुम समझ लो। जहां-जहां परिवर्तन हो, वहां शाश्वत नहीं है। और जहां-जहां क्षणभंगुर हो वहां सनातन नहीं है। और जहां-जहा चीजें बदलती हों, वहां समय को मत गंवाना। उसको खोजो जो कभी नहीं बदलता है। उस न बदलने को खोज लेने की कला का नाम धर्म है। एस धम्मो सनंतनो।

‘विषयरूपी फूलों को चुनने वाले, मोहित मन वाले पुरुष को मृत्यु उसी तरह उठा ले जाती है, जिस तरह सोए हुए गांव को बढ़ी हुई बाढ़।

जैसे सोए हुए गांव में अचानक नदी में बाढ़ आ जाए और लोग सोए-सोए ही बह जाते हैं, ऐसे ही विषयरूपी फूलों को चुनने वाले, मोहित मन वाले पुरुष को मृत्यु उठा ले जाती है। सोए ही सोए बाढ़ आ जाती है और जिंदगी विदा हो जाती है। तुम सपने ही देखते रहते हो और बाढ़ आ जाती है। सारी कामवासना स्वज देखने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

ये ऐश के बंदे सोते रहे फिर जागे भी तो क्या जागे

सूरज का उभरना याद रहा और दिन का ढलना भूल गए

एक तो जागते ही नहीं, सोए ही रहकर बिता देते हैं। और अगर कभी कोई सोचता भी है कि जाग गया, तो सोचता ही है कि जाग गया। वह भी जागना जैसे सपने में ही जागना है।

सूरज का उभरना याद रहा और दिन का ढलना भूल गए

तो लोग अपने जन्मदिन को याद रखते हैं। मृत्युदिन की कौन चर्चा करता है? लोग जीवन पर नजर रखते हैं। मौत! मौत की बात ही करनी बेहूदी मालूम पड़ती है। अगर किसी से पूछो कि कब मरोगे, तो वह नाराज हो जाता है। मरोगे कि नहीं? तो वह फिर दुबारा तुम्हें कभी मिलेगा ही नहीं। वह तुम्हें दुश्मन समझ लेगा। पूछा कुछ गलत न था। जो होने ही वाला था वही पूछा था। लेकिन मौत की लोग बात भी नहीं करना चाहते। बात से भी भय लगता है। फिर भी मौत तो है। उस तथ्य को इनकार न कर सकोगे। किसी भांति उस तथ्य को स्वीकार करो तो शायद इस जीवन से जागने की क्षमता आ जाए।

जिसने भी मृत्यु को स्वीकार किया वह देखेगा, मृत्यु कभी आती है ऐसा थोड़े ही, रोज हम मर रहे हैं। अभी आती है। अभी आ रही है, अभी घट रही है। ऐसा थोड़े ही कि कभी सत्तर साल के बाद घटेगी। रोज-रोज घटती है, सत्तर साल में पूरी हो जाती है। जन्म के साथ ही मौत का सिलसिला शुरू होता है, मरने के साथ पूरा होता है। लंबी प्रक्रिया है। मृत्यु कोई घटना नहीं है, प्रक्रिया है। पूरे जीवन पर फैली है। जैसे झील पर लहरें फैली हों, ऐसे जीवन पर मौत फैली है। अगर तुम मौत को छिपाते हो, ढांकते हो, बचते हो, तो तुम जीवन के सत्य को न देख पाओगे। जिसे तुम जीवन कहते हो इस जीवन का सत्य तो मृत्यु है।

सूरज का उभरना याद रहा और दिन का ढलना भूल गए

सूरज उग चुका है, ढलने में ज्यादा देर न लगेगी। जो उग चुका, वह ढल ही चुका। जो उग गया है, वह ढलने के मार्ग पर है। सुबह का सूरज सांझ का सूरज बनने की चेष्टा में संलग्न है। सांझ दूर नहीं है, अगर सुबह हो गई। जब सुबह ही हो गई, तो सांझ कितनी दूर हो सकती है! जिसको तुम भर जवानी कहते हो, वह केवल आधे दिन का पूरा हो जाना है-आधी सांझ का आ जाना है। जवानी आधी मौत है। लेकिन कौन याद रखता है? जो याद रख सके, वही शिष्य है।

मौत ही इंसान की दुश्मन नहीं

जिंदगी भी जान लेकर जाएगी

मौत ही इंसान की दुश्मन नहीं, जिंदगी भी जान लेकर जाएगी-मौत को दुश्मन मत समझना। जिसे तुम जिंदगी कहते हो वह मौत ही है, वह भी जान लेकर जाएगी। ‘फूलों को चुनने वाले, मोहित मन वाले पुरुष को मृत्यु उसी तरह उठा ले जाती है, जिस तरह सोए हुए गांव को बढ़ी हुई बाढ़।

तू हविश में दुनिया की जिंदगी मिटा बैठा

भूल हो गई गाफिल जिंदगी ही दुनिया थी

तू हविश में दुनिया की जिंदगी मिटा बैठा-दुनिया को पाने की चेष्टा में वह जो

जीवन था उसे तूने मिटा दिया। और दुनिया को पाने की चेष्टा को ही तूने जिंदगी समझी। वह जिंदगी न थी। भूल हो गई गाफिल-सोए हुए आदमी, भूल हो गई। जिंदगी ही दुनिया थी।

इसे थोड़ा समझ लो। जिसे तुम दुनिया कहते हो, तुम्हारे बाहर जो फैलाव है, उसे जिंदगी मत समझ लेना। अगर उस बाहर की दुनिया को ही इकट्ठा करने में लगे रहे, तो असली जिंदगी गंवा दोगे। पीछे पछताओगे। समय बीत जाएगा और रोओगे। फिर शायद कुछ कर भी न सकोगे। अभी कुछ किया जा सकता है। मरते क्षण में शायद अधिकतम लोगों को यह समझ आती है-

तू हविश में दुनिया की जिंदगी गंवा बैठा

मरते वक्त अधिक लोगों को यह खयाल आना शुरू हो जाता है-

भूल हो गई गाफिल जिंदगी ही दुनिया थी

लेकिन तब समय नहीं बचता। मरते-मरते दिखाई पड़ना शुरू होता है कि महल

केवल शिष्य जीतेगा जो बनाए, धन जो इकट्ठा किया, साम्राज्य जो फैलाया-

भूल हो गई गाफिल जिंदगी ही दुनिया थी

भीतर की जिंदगी को जान लेते तो दुनिया को पा लेते। बाहर की दुनिया को पाने में लग गए, भीतर की जिंदगी गंवा दी। बाहर और भीतर में उतना ही फर्क है, जितना सत्य में और स्वप्न में। बाहर है स्वप्न का जाल, भीतर है साक्षी का निवास। जो दिखाई पड़ता है उस पर ध्यान मत दो, जो देखता है उस पर ध्यान दो। जो भोगा जाता है उस पर ध्यान मत दो, जो भोगता है उस पर ध्यान दो। आंख की फिकर मत करो, आंख के पीछे जो खड़ा देखता है उसकी फिकर करो। कान की फिकर मत करो, कान के पीछे खड़ा जो सुनता है उसकी फिकर करो। न जन्म की चिंता करो न मृत्यु की, चिंता करो उसकी जो जन्म में आता है और मृत्यु में जाता है। जो जन्म के भी पहले है और मृत्यु के भी बाद है। मरते क्षण में यह याद भी आए तो फिर क्या करोगे? जिनको पहले याद आ जाती है वे कुछ कर लेते हैं।

हिचकियों पर हो रहा है जिंदगी का राग खत्म

झटके देकर तार तोड़े जा रहे हैं

मरते क्षण में तो फिर ऐसा ही लगेगा

कि जिसको जिंदगी समझी-

हिचकियों पर हो रहा है

जिंदगी का राग खत्म

वे सारे स्वप्न, वे सारे गीत, वह सारा संगीत, हिचकियों में बदल जाता है। हिचकियां ही हाथ में रह जाती हैं।

हिचकियों पर हो रहा है जिंदगी का राग खत्म

झटके देकर तार तोड़े जा रहे हैं

इसके पहले कि सब कुछ हिचकियों में बदल जाए, और इसके पहले कि तुम्हारा साज तोड़ा जाए, भीतर के गीत को गा लो। इसके पहले कि मौत शरीर को छीने, तुम उसे जान लो जिसे मौत छीन न सकेगी। इसके पहले कि बाहर का जगत खो जाए, तुम भीतर के जगत में पैर जमा लो। अन्यथा तुम सोए हुए गांव की तरह हो, बढ़ी हुई नदी की बाढ़ तुम्हें सोया-सोया बहा ले जाएगी।

‘जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को हानि पहुंचाए बिना रस को लेकर चल देता है, वैसे ही मुनि गांव में भिक्षाटन करे।’

जीवन के गांव की बात है। बुद्ध कह रहे हैं, जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को हानि पहुंचाए बिना रस को लेकर चल देता है, ऐसे ही तुम इस जिंदगी में रहो। जीवन जो रस दे सके, ले लो। मगर रस केवल वे ही ले पाते हैं जो जाग्रत हैं। शेष तो उन भौंरों की तरह हैं, जो रस लेने में इस तरह डूब जाते हैं कि उड़ना ही भूल जाते है। सांझ जब कमल की पखुडियां बंद होने लगती हैं तब वे उसी में बंद हो जाते हैं। उनके लिए कमल भी कारागृह हो जाते हैं।

जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को बिना हानि पहुंचाए रस लेकर चुपचाप

चल देता है, ऐसे जिंदगी को बिना कोई हानि पहुंचाए-यही अहिंसा का सूत्र है। अहिंसा का सूत्र इतना ही है कि रस लेने के तुम हकदार हो, लेकिन किसी को हानि पहुंचाने के नहीं। फूल को तोड़कर भी भोगा जा सकता है। वह भी कोई भोगना हुआ! भौंरा आता है फूल पर चुपचाप, गुनगुनाता है गीत, रिझा लेता है फूल को, रस ले लेता है, उड़ जाता है। तोड़ता नहीं, मिटाता नहीं। भौरे की तरह मुका, भ्रमर की तरह मुक्त, बुद्ध कहते हैं, जीवन के गांव में तुम जीओ जरूर, लेकिन आबद्ध मत हो जाना, बंद मत हो जाना। हमारी हालत तो बड़ी उलटी है, इससे ठीक उलटी। बुद्ध कहते हैं, दुनिया में रहना, लेकिन दुनिया के मत हो जाना। बुद्ध कहते हैं, दुनिया में रहना, लेकिन दुनिया तुममें न रहे। हमारी हालत इससे ठीक उलटी है।

बाद मरने के भी दिल लाखों तरह के गम में है

बाद मरने के भी दिल लाखों तरह के गम में है

हम नहीं दुनिया में लेकिन एक दुनिया हम में है

मर भी जाएं हम तो भी गम नहीं मरते। कब्र में भी तुम पड़े रहोगे-

हम नहीं दुनिया में लेकिन एक दुनिया हम में है

तब भी तुम सपने देखोगे। तब भी तुम उसी दुनिया के सपने देखोगे जिससे तुमने कुछ कभी पाया नहीं। तुम्हारी आंखें फिर भी उसी अंधेरे में खोई रहेंगी, जहां कभी रोशनी की किरण न मिली।

तो एक तो है ढंग सांसारिक व्यक्ति का, वह मर भी जाए, तो भी दुनिया उसके भीतर से नहीं हटती। और एक है संन्यासी का ढंग, वह जीता भी है, तो भी दुनिया उसके भीतर नहीं होती।

यह जीवन के विराट नगर के संबंध में भी सही है, और यही बुद्ध ने अपने भिक्षुओं के लिए कहा कि गांव-गांव जब तुम भीख भी मांगने जाओ-भिक्षाटन भी करो-तो चुपचाप माग लेना, ऐसे ही जैसे भौंरा फूलों से मांग लेता है, और विदा हो जाना। ले लेना, जो मिलता हो। धन्यवाद दे देना, जहां से मिले। अनुग्रहपूर्वक स्वीकार कर लेना। न मिले, तो दुखी मत होना। क्योंकि मिलना चाहिए, ऐसी कोई शर्त कहां? मिल जाए, धन्यभाग! न मिले, संतोष! और जो न मिलने में संतुष्ट है, उसे मिल ही जाता है। लेकिन हमारी स्थिति ऐसी है कि मिल जाने पर भी संतोष नहीं है। तो मिलकर भी नहीं मिल पाता। हम दरिद्र के दरिद्र ही रह जाते हैं।

जीवन से बहुत कुछ पाया जा सकता है। सपने से भी सीखा जा सकता है। और मृग-मरीचिकाएं भी बुद्धत्व का आधार बन जाती हैं। भ्रम से भी जागने की कला उपलब्ध हो जाती है।

‘जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को हानि पहुंचाए बिना रस को लेकर चल देता है, वैसे ही मुनि गाव में भिक्षाटन करे।’

न तो संसार का सवाल है। न संसार को छोड़ने का सवाल है। क्योंकि जो तुम्हारा है ही नहीं उसे तुम छोड़ोगे कैसे? इतना भर जानने की बात है कि हम यहां मेहमान से ज्यादा नहीं। जब तुम किसी के घर मेहमान होते हो, जाते वक्त तुम ऐसा थोड़े ही कहते हो कि अब सारा घर तुम्हारे लिए छोड़े जाते हैं, त्याग किए जाते है।। मेहमान का यहां कुछ है ही नहीं। जितनी देर घर में ठहरने का सौभाग्य मिल गया, धन्‍यवाद! अपना कुछ है नहीं, छोड़ेंगे क्या?

इसलिए त्यागी वही है जिसने यह जान लिया कि हमारा कुछ भी नहीं है। वह नहीं, जिसने छोड़ा। क्योंकि जिसने छोड़ा, उसे तो अभी भी खयाल है कि अपना था, छोड़ा। अपना हो तो ही छोड़ा जा सकता है। अपना हो ही न, तो छोड़ना कैसा? इसलिए मैं तुमसे कहता हूं छोड़ने की भ्रांति में मत पड़ना, क्योंकि वह पकड़ने की ही भ्रांति का हिस्सा है। तुम तो पकड़ने की भ्रांति को ही समझ लेना। अपना कुछ भी नहीं। अभी नहीं थे तुम, अभी हो, अभी फिर नहीं हो जाओगे। घड़ीभर का सपना है। आंख झपक गई, एक सपना देखा। आंख खुल गई, सपना खो गया। इस संसार को भीतर घर मत बनाने देना। तुम संसार में रहना, लेकिन संसार तुम में न रह पाए।। गुजरना पानी से, लेकिन पैर भीगें नहीं। जीना, लेकिन भौरे की तरह-किसी को हानि न पहुंचे।

‘जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को हानि पहुंचाए बिना रस को लेकर चल देता है।

क्या रस है? किस रस की बात कर रहे हैं बुद्ध? समझा दूं क्योंकि डर है कि तुम कुछ गलत न समझ लो। बुद्ध किस रस की बात कर रहे हैं? किस भौरे की बात कर रहे हैं? तुम जिन्हें सुख कहते हो उनकी बात नहीं कर रहे हैं। बुद्ध तो इस जीवन का एक ही रस जानते हैं, वह है बुद्धत्व। वह है इस जीवन से जागने की कला सीख कर चल देना। वही रस है। क्योंकि जिसने वह जान लिया उसके लिए महारस के द्वार खुल गए।

तो जीवन के हर फूल से और जीवन की हर घटना से-जन्म हो कि मृत्यु-और जीवन की हर प्रक्रिया से तुम एक ही रस को खोजते रहना और चुनते रहना : हर अवस्था तुम्हें जगाने का कारण बन जाए, निमित्त बन जाए। घर हो कि गृहस्थी, बाजार हो कि दुकान, कोई भी चीज तुम्हें सुलाने का बहाना न बने, जगाने का बहाना मन जाए, तो तुमने रस ले लिया। मरने के पहले अगर तुमने इतना जान लिया कि तुम अमृतपुत्र हो, तो तुमने रस ले लिया। मौत के पहले अगर तुमने जीवन-असली जीवन को, महाजीवन को-जान लिया, तो तुमने रस ले लिया। तो तुम यूं ही न भटके। तो तुमने ऐसे ही गर्द-गुबार न खाई। तो रास्ते पर तुम चले ही नहीं, पहुंचे। पहुचे भी।

तब, तब तुम अचानक हैरान होओगे, चकित होओगे, कि जिसे तुम खोजते। ‘हरते थे वह तुम्हारे भीतर था। वह परमात्मा का राज्य तुम्हारे हृदय के ही राज्य का दूसरा नाम है। मोक्ष तुम्हारे भीतर छिपी स्वतंत्रता का ही नाम है। और क्या है स्वतंत्रता? तुम दुनिया में रहो, दुनिया तुममें न हो। वह निर्वाण तुम्हारे अहंकार के बुझ जाने का ही नाम है। जब तुम्हारे अहंकार का टिमटिमाता दीया बुझ जाता है, तो ऐसा नहीं कि अंधकार हो जाता है। उस टिमटिमाते दीए के बुझते ही महासूर्यों का प्रकाश तुम्हें उपलब्ध हो जाता है।

रवींद्रनाथ ने लिखा है कि जब वे गीतांजलि लिख रहे थे, तो पद्यमा नदी पर एक बजरे में निवास करते थे। रात गीत की धुन में खोए-कोई गीत उतर रहा था, उतरे चला जा रहा था-वे एक टिमटिमाती मोमबत्ती को जलाकर बजरे में और देर तक गीत की कड़ियों को लिखते रहे। कोई आधी रात फूंक मारकर मोमबत्ती बुझाई, हैरान हो गए। पूरे चांद की रात थी यह भूल ही गए थे। यद्यपि वे जो लिख रहे थे वह पूरे याद का ही गीत था। जैसे ही मोमबत्ती बुझी कि बजरे की उस छोटी सी कोठरी में सब तरफ से चांद की किरणें भीतर आ गयीं। रंध्र-रंध्र से। वह. छोटी सी मोमबत्ती की रोशनी चांद की किरणों को बाहर रोके हुए थी।

तुमने कभी खयाल किया, कमरे में दीया जलता हो तो चांद भीतर नहीं आता। फिर दीया फूंक मारकर बुझा दिया, चांद बरस पड़ा भीतर, बाढ़ की तरह सब तरफ से आ गया।

रवींद्रनाथ उस रात नाचे। और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि आज एक अपूर्व अनुभव हुआ। कहीं ऐसा ही तो नहीं है कि जब तक यह अहंकार का दीया भीतर जलता रहता है, परमात्मा का चांद भीतर नहीं आ पाता।

यही बुद्ध ने कहा है कि अहंकार के दीए को फूंक मारकर बुझा दो। दीए के बुझाने का ही नाम निर्वाण है। इधर तुम बुझे, उधर सब तरफ से परमात्मा, सत्य-या जो भी नाम दो-भीतर प्रविष्ट हो जाता है।

तो एक तो जीवन को जीने का ढंग है, जैसा तुम जी रहे हो। एक बुद्धों का ढंग भी है। चुनाव तुम्हारे हाथ में है। तुम बुद्धों की भांति भी जी सकते हो-कोई तुम्हें रोक नहीं रहा है सिवाय तुम्हारे। और तुम दीन-हीन भिखमंगों की भांति भी जी सकते हो-जैसा तुम जी रहे हो-कोई तुम्हें जबर्दस्ती जिला नहीं रहा। तुमने ही न मालूम किस बेहोशी और नासमझी में इस तरह की जीवन-शैली को चुन लिया है। तुम्हारे अतिरिक्त कोई जिम्मेवार नहीं है। एक झटके में तुम तोड़ दे सकते हो, क्योंकि सब बनाया तुम्हारा ही खेल है। ये सब जो घर तुमने बना लिए हैं अपने चारों तरफ, जिनमें तुम खुद ही कैद हो गए हो।

मैं एक घर में मेहमान था। सामने एक मकान बन रहा था और एक छोटा लड़का वहां मकान के सामने पड़ी हुई रेत और ईंटों के बीच में खेल रहा था। उसने धीरे-धीरे-मैं देखता रहा बाहर बैठा हुआ, मैं देख रहा था-उसने धीरे-धीरे अपने चारों तरफ ईंटें लगा लीं और ईंटों को जमाता गया ऊपर। फिर वह घबड़ाया जब उसके गले तक ईंटें आ गयीं, क्योंकि वह खुद कैद हो गया। तब वह चिल्लाया कि बचाओ!

मैं उसे देख रहा था, और मुझे लगा, यही आदमी की अवस्था है। तुम ही अपने चारों तरफ ईंटें जमा लेते हो, जिसको तुम जिंदगी कहते हो। फिर एक दिन तुम पाते हो कि गले तक डूब गए। तब चिल्लाते हो कि बचाओ।

तुमने ही रखी हैं ईंटें, चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं। जिस ढंग से रखी हैं उसी ढंग से गिरा दो। तुमने ही रखी हैं, तुम ही उठा सकते हो। कारागृह तुम्हारा ही बनाया हुआ है, किसी और ने तुम्हें कारागृह में बंद नहीं किया है। खेल-खेल में बना लिया है। खेल-खेल में ही आदमी बंद हो जाता है। जंजीरों में उलझ जाता है।

चलने को चल रहा हूं पर इसकी खबर नहीं

मैं हूं सफर में या मेरी मंजिल सफर में है

अब ऐसे मत चलो। अब जरा जागकर चलना हो जाए। अब जरा होश से चलो। अब जरा देखकर चलो। जितने जागोगे, उतना पाओगे मंजिल करीब। जिस दिन पूरे जागोगे, उस दिन पाओगे मंजिल सदा भीतर थी।

आज इतना ही।


Filed under: एस धम्‍मो सनंतनो--(भाग-2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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