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एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग–2) प्रवचन–16

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प्रवचन—16   समझ और समाधि के अंतरसूत्र

पहला प्रश्न :

 महाकाश्यप उस दिन सुबह खिलखिलाकर न हंसा होता, तो भी क्या बुद्ध उसे मौन के प्रतीक फूल को देते?

प्रश्‍न पूछते समय थोड़ा सोचा भी करें कि प्रश्न का सार क्या है। यदि ऐसा हुआ होता! यदि वैसा हुआ होता! इन सारी बातों में क्यों व्यर्थ समय को व्यतीत करते हो?

महाकाश्यप न हंसा होता तो बुद्ध फूल देते या न देते, इससे तुम्हें क्या होगा?

महाकाश्यप न भी हुआ हो, हुआ हो, कहानी सिर्फ कहानी हो, तो भी तुम्हें क्या होगा? कुछ अपनी पूछो। कुछ ऐसी बात पूछो जो तुम्हारे काम पड़ जाए। प्रश्न ऐसे न हों कि सिर्फ मस्तिष्क की खुजलाहट हों, क्योंकि खुजलाहट का गुण है जितना खुजाओ बढ़ती चली जाती है। पूछने के लिए ही मत पूछो। अगर न हो प्रश्न तो पूछो ही मत। चुप बैठेंगे, शायद तुम्हारे बीच कोई महाकाश्यप हंस दे।

हंसना न हंसना महत्वपूर्ण नहीं है। बाहर जो घटता है उसका कोई मूल्य बुद्धपुरुषों के लिए नहीं है। फूल तो महाकाश्यप को दिया ही होता। वह अकेला ही था वहा जो बुद्ध के मौन को समझ सकता था। हर हालत में फूल उसके पास गया होता। बुद्ध न देते तो भी गया होता। छोड़ दो फिकर! हंसता नहीं, बुद्ध न भी देते फूल, तो भी मैं कहता हूं? उसी के पास गया होता। फूल खुद चला गया होता। कोई बुद्ध को देने की जरूरत भी न थी।

घटना को समझने की कोशिश करो, ब्यौरे की व्यर्थ बकवास में मत पड़ो। घटना सीधी है कि बुद्ध चुप रहे, उस चुप्पी को कोई और न समझ पाया। चुप्पी को समझने के लिए तुम्हें भी चुप होना जरूरी है। जिस भाषा को समझना हो उस भाषा को जानना जरूरी है। मैं हिंदी बोल रहा हूं तो हिंदी जानना जरूरी है। मैं चीनी बोलूं, तो चीनी जानना जरूरी है, तभी समझ सकोगे।

बुद्ध उस दिन मौन बोले, मौन की भाषा बोले, जो मौन का रस जानता था वही समझा। जो मौन का रस नहीं जानते थे, उन्होंने इस मौन को भी अपने चिंतन का व्यापार बना लिया। वे सोचने लगे, बुद्ध मौन क्यों बैठे हैं? अभागे लोग! जब बुद्ध मौन थे तब तुम चुप हो गए होते, तो फूल उन्हें भी मिल सकता था। लेकिन वे सोचने लगे कि बुद्ध मौन क्यों बैठे हैं? कि बुद्ध हाथ में फूल क्यों लिए हैं? जिसने सोचा, उसने गंवाया।

बुद्धों के पास सोचने से संबंध नहीं जुड़ता। बुद्धों के पास तो न सोचने की कला आनी चाहिए। महाकाश्यप चुप रहा। उसने बस भर आंख देखा। उसने सोचा नहीं। कौन फिकर करे? इतना अप्रतिम सौदर्य उस दिन प्रगट हुआ था! ऐसा सूरज उगा था जैसा कभी-कभी सदियों में उगता है। बुद्ध उस दिन सब द्वार-दरवाजे अपने मंदिर के खोलकर बैठे थे। निमंत्रण दिया था कि जिसे भी आना हो आ जाए। परमात्मा द्वार पर आकर खड़ा था। दस्तक दे रहा था। तुम सोचने लगे, तुम विचार करने लगे, ऐसा क्यों? वैसा क्यों? क्यों बुद्ध चुप बैठे हैं? पहले क्यों कभी नहीं बैठे?

विचारक चूक गए। महाकाश्यप कोई विचारक न था। वह सिर्फ देखता रहा बुद्ध को। जैसे बुद्ध फूल को देखते रहे, ऐसा महाकाश्यप बुद्ध को देखता रहा। वही तो इशारा था कि जैसे मैं देख रहा हूं फूल कों-मात्र द्रष्टा हूं-ऐसे ही तुम भी द्रष्टा हो जाओ आज। हो चुकीं बहुत बातें दर्शन की, अब द्रष्टा हो जाओ। दर्शन की बात कब तक चलाए रखोगे? हो चुकी चर्चा भोजन की, अब भोजन करो। अब स्वाद लो। बुद्ध ने थाली सजा दी थी अपनी। तुम सोचने लगे भोजन के संबंध में, बुद्ध भोजन रखे सामने बैठे थे।

जैसे बुद्ध फूल को देख रहे थे, वैसा ही महाकाश्यप बुद्ध के फूल को देखने लगा। बुद्ध ने एक फूल देखा, महाकाश्यप ने दो फूल देखे। दो फूलों को एक साथ देखा। उन दोनों फूलों का तारतम्य देखा, संगीत देखा, लयबद्धता देखी। एक अपूर्व छंद का उसे अनुभव होने लगा। रुकता भी महाकाश्यप कैसे बिना हंसे!

क्यों हंसा महाकाश्यप? हंसा लोगों पर, जो कि सोच में पड़ गए हैं। मंदिर सामने खड़ा है और वे मंदिर की खोज कर रहे हैं। सूरज उग चुका है, वे आंख बंद किए प्रकाश की चर्चा में लीन हैं। महाकाश्यप हंसा लोगों की मूढ़ता पर। हंसा कहना ठीक नहीं, हंसी निकल गई। कुछ किया नहीं हंसने में। वह रुक न सका। घट गया, फूट पड़ी हंसी देखकर सारी नासमझी। हजारों लोग मौजूद थे चूके जा रहे हैं, इस मुढ़ता पर हंसा।

और इस बात पर भी हंसा कि बुद्ध ने भी खूब खेल खेला। जो नहीं कहा जा सकता, वह भी कह दिया। जो नहीं बताया जा सकता, उसको भी बता दिया। जिसको जतलाने में कभी अंगुलियां समर्थ नहीं हुईं, उस तरफ भी इशारा कर दिया। उपनिषद उस दिन मात हो गए। जो नहीं कहा जा सकता था, उसे कृत्य बना दिया। वक्तव्य दे दिया उसका संपूर्ण जीवन से।

इसलिए उस दिन के बाद झेन परंपरा में जब भी गुरु प्रश्न पूछता है तो शिष्य को उत्तर नहीं देना होता, कोई कृत्य करना होता है जिससे वक्तव्य मिल जाए। कोई कृत्य, ऐसा कृत्य जिसमें शिष्य संपूर्ण रूप से डूब जाए। महाकाश्यप हंसा, ऐसा नहीं, महाकाश्यप हंसी हो गया। पीछे कोई बचा नहीं जो हंस रहा था। कोई पीछे खड़ा नहीं था जो हंस रहा था। महाकाश्यप एक खिलखिलाहट होकर बिखर गया उस संगत पर। झेन फकीर प्रश्न पूछते हैं।

एक झेन फकीर हुआ। बैठा था, शिष्य बैठे थे। एक बर्तन में पानी रखा था। उसने कहा कि सुनो, बिना कुछ कहे बताओ कि यह क्या है? यह बर्तन और यह पानी, बिना कुछ कहे कोई वक्तव्य दो। अर्थात कृत्य से घोषित करो, जैसा महाकाश्यप ने किया था-खिलखिलाकर। और जब कृत्य से महाकाश्यप ने घोषित किया, तो कृत्य से बुद्ध ने उत्तर भी दिया-फूल देकर। आज मैं भी तुम्हें फूल देने को उत्सुक हूं।

शिष्य देखने लगे, हाथ में कोई फूल तो नहीं था। सोचने लगे कि यह बात तो और उलझन की हो गई। कम से कम बुद्ध हाथ में फूल तो लिए थे; इस आदमी के हाथ में कोई फूल नहीं है। वे फूल के संबंध में सोचने लगे। और उन्होंने लाख सोचा कि इस पानी भरे बर्तन के संबंध में क्या कहो, बिना कहे कैसे वक्तव्य दो? और तभी भोजन का समय करीब आ रहा था। रसोइया-जो भिक्षु, जो संन्यासी रसोई का काम करता था-वह भीतर आया। उसने ये उदासी, चिंतन से तने हुए लोग देखे। उसने पूछा, मामला क्या है? गुरु ने कहा, एक सवाल है। इस जल भरे बर्तन के संबंध में वक्तव्य देना है। कोई वक्तव्य जो इसके पूरे के पूरे रहस्य को प्रगट कर दे। शब्द का उपयोग नहीं करना है। और जो यह करेगा, वही फूल मैं देने को तैयार हूं जो बुद्ध ने दिया था।

लेकिन उस रसोइये ने गुरु के हाथ की तरफ देखा ही नहीं कि फूल वहां है या नहीं। गुरु फूल है। अब इसमें फूल क्या देखना! वह उठा, उसने एक लात मार दी उस बर्तन में, पानी लुढ़ककर सब तरफ बह गया। और वह बोला कि अब उठो, हो गई बकवास बहुत, भोजन का समय हो गया। कहते हैं, गुरु ने उसके चरण छू लिए-दे दिया फूल। वक्तव्य उसने प्रगट कर दिया। अस्तित्व को तो ऐसे ही बिखेर कर बताया जाता है। अब और क्या कहने को रहा-उलटा दिया पात्र, जल बिखर गया सब तरफ।

ऐसे ही उस दिन महाकाश्यप ने भी उलटा दिया था अपना पात्र। खिलखिलाहट बिखर गई थी सब तरफ। ऐसी फिर हजारों घटनाएं हैं झेन परंपरा में। एक घटना को दुबारा नहीं दोहरा सकते, याद रखना। क्योंकि दोहराने का तो मतलब होगा, सोच कर की। इसलिए हर घटना अनूठी है और आखिरी है। फिर तुम उसे पुनरुक्‍त नहीं कर सकते।

अगर मैं आज फूल लेकर आ जाऊं, तो जो हंसेगा, उसको भर नहीं मिलेगा। अगर आज मैं बर्तन में पानी रखकर बैठ जाऊं और तुम से पूछूं? तो जो लात मारकर लुढ़काकर, उसको भर नहीं मिलेगा। वह तो विचार हो गया अब। अब तो महाकाश्यप की कहानी पता है।

हजारों घटनाएं हैं, लेकिन हर घटना अनूठी है। और उसकी पुनरुक्‍ति। नहीं हो सकती। क्योंकि पुनरुक्ति यानी विचार। कुछ कहो पूरे अस्तित्व से, और कुछ कहो इस ढंग से जैसा कभी न कहा गया हो, तो फिर मन को जगह नहीं बचती। मन तो अनुकरण करता है, दोहराता है, यंत्रवत है। मन के पास कोई मौलिक सूझ नहीं होती।

एक दूसरे झेन फकीर का एक शिष्य बहुत दिन से चिंता में रत है-गुरु ने कोई सवाल दिया है जो हल नहीं होता। जब सब तरह के उपाय कर चुका तो उसने प्रधान शिष्य को पूछा कि तुम तो स्वीकार हो गए हो, तुम तो कुछ कुंजी दो। हम परेशान हुए जा रहे हैं, वर्षों बीत गए। कुछ हल नहीं होता, कोई राह नहीं मिलती। और जब भी जाते हैं, हम उत्तर भी नहीं दे पाते और गुरु कहता है, बस, बकवास बंद। अभी हम बोले भी नहीं! अब यह तो हद्द हो गई। ऐसे तो हम कभी भी जीत न पाएंगे। कम से कम बोलने तो दो। हम कुछ कहें, फिर तुम कहो गलत और सही। हम बोलते ही नहीं और गलत हो जाता है। तो अब तो सही होने का कोई उपाय न रहा। गुरु नाराज है।

शिष्य हंसने लगा। प्रधान शिष्य ने कहा, नाराज नहीं। क्योंकि जब तुम विचार करते हुए जाते हो तो चेहरे का ढंग ही और होता है। जब तुम निर्विचार में जाते हो, तो चेहरे का ढंग ही और होता है। सोचो थोड़ा, जब तुम विचार से भरे होते हो तो सारे चेहरे पर तनाव होता है। आंख में, माथे पर बल होते हैं। जब तुम निर्विचार में होते हो, सब बल खो जाते हैं, सब तनाव खो जाता है। जब तुम निर्विचार में होते हो, तब तुम्हारे चारों तरफ ऐसी शांति झरती है कि अज्ञानी भी पहचान ले, तो गुरु न पहचानेगा! वह तुम्हें दरवाजे के भीतर घुसने देता है, यह भी उसकी करुणा है। उस प्रधान शिष्य ने कहा कि मेरी तुम्हें पता नहीं। दरवाजे के बाहर ही रहता था, वह कहता था, लौट जा। फिजूल की बकवास लेकर मत आ। अभी उसने मुझे देखा भी नहीं था। लेकिन जैसे मेरी छाया मुझसे पहले पहुंच जाती। जैसे मेरा वातावरण, मैं दरवाजे पर होता, और उसे छू लेता। जैसे कोई गंध उसे खबर दे देती।

तो इस नए शिष्य ने पूछा, फिर तुमने कैसे उसकी अनुकंपा को पाया? उसके प्रसाद को पाया? उसने कहा, वह तो मैं कभी न पा सका। जब मैं मर ही गया, तब मिला। उसने कहा, भलेमानुष, पहले क्यों न बताया? यही हम भी करेंगे।

अब कहीं कोई यह कर सकता है? दूसरे दिन वह गया। जैसे ही गुरु ने उसकी तरफ देखा, इसके पहले कि गुरु कहे कि नहीं, बकवास बंद, वह भड़ाम से गिर पड़ा, आंखें बंद कर लीं, हाथ फैला दिए, जैसे मर गया।

गुरु ने कहा, बहुत खूब! बिलकुल ठीक-ठीक किया। प्रश्न का क्या हुआ? उस शिष्य ने-अब मजबूरी-एक आंख खोली और कहा कि प्रश्न तो अभी हल नहीं हुआ। तो गुरु ने कहा, नासमझ! मुर्दे बोला नहीं करते, और न मुर्दे ऐसे आंख खोलते हैं। उठ, भाग यहां से; और किसी दूसरे से उत्तर मत पूछना। पूछे उत्तरों का क्या मूल्य है? वह तुम्हारा होना चाहिए। तुम्हारे अंतरतम से आना चाहिए। तुम उसमें मौजूद होने चाहिए। वह तुम्हारा गीत हो, वह तुम्हारा नाच हो। उसमें तुम पूरे लीन हो जाओ। वह जीवन हो कि मौत, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

महाकाश्यप उस दिन हंसा। कहना ठीक नहीं हंसा। हंसी फैल गई देखकर यह सारी दशा। बुद्ध का सामने होना और लोगों का अंधे बने रहना, सूरज का निकल आना और अंधेरे का न मिटना देखकर हंसा। ज्ञान बरसता हो, और लोगों के घड़े हों, और जल उन पर पड़ता ही न हो, यह देखकर हंसा।

हंसता या न हंसता, फूल उसे मिलना था। हंसी, न हंसी तो सांयोगिक है। बुद्ध ने फूल हर हालत दिया होता। हंसने की वजह से नहीं दिया, ध्यान रखना, नहीं तो भूल हो जाएगी। यही तो भूल है मन की। तब तुम सोचोगे कि हंसने की वजह से दिया, तो अगर अब दुबारा कभी ऐसा मौका हमें मिलेगा तो हम हंस देंगे। वहीं तुम चूक जाओगे। हंसने की वजह से नहीं दिया। हंसी के पीछे जो मौन था-हंसी के पीछे विचार भी हो सकता है, तब व्यर्थ हो गई-हंसी के पीछे जो मौन था, उस। खिलखिलाहट के फूलों के पीछे जो परम शाति थी। वह हंसी निर्वाण का फूल थी। न हंसता तो बुद्ध उठकर गए होते। हंसा तो बुद्ध ने उसे बुला भी लिया। न हंसता तो बुद्ध खुद उठकर गए होते, खुद उसकी झोली में उंडेल दिया होता।

लेकिन इस तरह के प्रश्न तुम्हारे मन में उठते क्यों हैं? तुम्हारे जीवन की समस्याएं हल हो गयीं कि तुम महाकाश्यप की चिंता में पड़े हो? तुम्हारा जीवन समाधान को उपलब्ध हो गया कि तुम इस तरह के बौद्धिक प्रश्न उठाते हो? मत गवांओ समय को इस भाति, अन्यथा कोई महाकाश्यप तुम पर भी हंसेगा, तुम्हारी मूढ़ता पर भी हंसेगा। यहां मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूं कुछ हो सकता है। जब मैं मौजूद नहीं रहूंगा, तब तुम रोओगे। अगर अभी न हंसे, तो तब तुम रोओगे। इस मौजूदगी का उपयोग कर लो। इस मौजूदगी को पी लो। इस मौजूदगी को तुम्हारे रग-रेशे में उतर जाने दो। व्यर्थ के ऊहापोह में मत पड़ो।

मदरसे तक ही थीं बहस आराइयां

पाठशाला तक तर्क, तर्कजाल,

प्रश्न और प्रश्नों के विस्तार।

मदरसे तक ही थीं बहस आराइयां

चुप लगी जब बात की तह पा गए

तो जो मैं कहता हूं उसको तुम तर्क मत बनाओ, अन्यथा तुम चूके। तब तुम किसी दिन पछताओगे कि इतने करीब थे और चूक गए। और कभी-कभी ऐसा हुआ है कि सोचने वालों ने गंवा दिया है और न सोचने वालों ने पा लिया है। कभी-कभी क्या, हमेशा ही ऐसा हुआ है। जो मैं कह रहा हूं, वह इसीलिए कह रहा हूं ताकि चुप लग जाए, और तुम बात की तह पा जाओ। तुम बात में से बात निकाल लेते हो। बात की तह नहीं पाते। एक बात से तुम दस दूसरी बातों पर निकल जाते हो। मै करता हूं इशारा चांद की तरफ, तुम अंगुली पकड़ लेते हों। तुम अंगुली के संबंध में पूछने लगते हो, तुम चांद की बात ही भूल जाते हो। कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन तुम्हें कहना पड़े-

थी न आजादे-फना किश्ती-ए-दिले-नाखुदा

मौजे-तूफा से बची तो नज़े-साहिल हो गई

किसी तरह तूफान से बचकर आ भी गए तो किनारे से टकरा गए।

थी न आजादे-फना किश्ती-ए-दिले-नाखुदा

मौजे-तूफा से बची तो नज़े-साहिल हो गई

कहीं ऐसा न हो कि यहां मेरे किनारे पर आकर भी डूब जाओ।

कोई एजाजे-सफर था या फरेबे-चश्मे-शौक

सामने आकर निहां आंखों से मंजिल हो गई

कहीं ऐसा न हो कि मंजिल सामने आ गई हो और फिर भी तुम चूक जाओ। उस दिन बुद्ध के सामने बैठे लोग चूक गए।

सामने आकर निहां आंखों से मंजिल हो गई

आ गई थी सामने मंजिल, लेकिन जिसे पहुंचना है अगर वही तैयार न हो, तो मंजिल भी क्या करे? सामने भी आ जाए तो भी तुम चूक जाओगे। क्योंकि सवाल मंजिल का नहीं, तुम्हारा है।

व्यर्थ की बातों में मत पड़ो। और यदि ऐसा होता, तो कैसा होता, यह तो पूछो ही मत। इसकी तुम्हें व्यर्थता नहीं दिखाई पड़ती कि यदि रावण सीता को न चुराता तो रामायण का क्या होता? अब इसका कौन उत्तर दे? इसका कौन उत्तर दे और उत्तर का क्या अर्थ है?

जो हो गया, हो गया। उससे अन्यथा नहीं हो सकता था। अब तुम उसमें से और

व्यर्थ की बातें मत निकालो, नहीं तुम सोचते ही रहोगे। प्रत्येक पल सोचने में गंवाया, बड़ा महंगा है। क्योंकि उसी पल में सब कुछ उपलब्ध हो सकता था।

दूसरा प्रश्‍न:

 

बुद्ध के देह में जीवित रहते उनका भिक्षु-संघ एकता में रहा। लेकिन बुद्ध के देह-विसर्जन के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया, बुद्ध- धर्म अनेक शाखाओं एवं प्रशाखाओं में बंटने लगा। अज्ञानी संप्रदाय बनाते हैं, लेकिन बुद्ध के ज्ञानी शिष्य भी अनेक विभिन्न एवं विपरीत संप्रदायों में बंट गए। कृपया इस घटना पर कुछ प्रकाश डालें।

 

ज्ञानी संप्रदाय बनाते हैं। ज्ञानी भी संप्रदाय बनाते हैं। लेकिन अज्ञानी का संप्रदाय कारागृह मुक्‍ति की एक राह है। संप्रदाय का अर्थ होता है, मार्ग। संप्रदाय का अर्थ होता है, जिससे पहुंचा जा सकता है।

ज्ञानी मार्ग से पहुंचते हैं, मार्ग बनाते भी हैं। अज्ञानी मार्ग से जकड़ जाते हैं, पहुंचते नहीं। मार्ग बोझिल हो जाता है। छाती पर पत्थर की तरह बैठ जाता है। ज्ञानी मार्ग का उपयोग कर लेते हैं, अज्ञानी मार्ग से ही बंध जाते हैं। संप्रदाय में कुछ बुराई नहीं है, अगर पहुंचाता हो।

संप्रदाय शब्द बड़ा बहुमूल्य है। जिससे पहुंचा जाता है, वही संप्रदाय है। लेकिन बड़ा गंदा हो गया। लेकिन गंदा हो जाने का कारण संप्रदाय नहीं है। अब कोई नाव को सिर पर रखकर ढोए तो इसमें नाव का क्या कसूर है? क्या तुम नाव के दुश्मन हो जाओगे, कि लोग नाव को सिर पर रखकर ढो रहे हैं। मूढ़ तो ढोएंगे ही। नाव न होती, कुछ और ढोते। मंदिर-मस्जिद न होते लड़ने को तो किसी और बात से लड़ते। कुछ और कारण खोज लेते। जिन्हें जाना नहीं है, वे मार्ग के संबंध में विवाद करने लगते हैं। जिन्हें जाना है, वे मार्ग का उपयोग कर लेते हैं। और जिसने का उपयोग कर लिया, वह मार्ग से मुक्त हो जाता है। जिसने नाव का उपयोग कर लिया, वह नाव को सिर पर थोड़े ही ढोता है! नाव पीछे पड़ी रह जाती है, रास्ते पीछे पड़े रह जाते हैं। तुम सदा आगे बढ़ते चले जाते हो।

संप्रदाय में अपने आप कोई भूल-भ्रांति नहीं है। भूल-भ्रांति है तो तुम में है। तुम तो औषधि को भी जहर बना लेते हो। बड़े कलाकार हो! तुम्हारी कुशलता का क्‍या कहना! जो जानते हैं वे जहर को भी औषधि बना लेते हैं। वक्त पर काम पड़ जाता है जहर भी जीवन को बचाने के। तुम्हारी औषधि भी जीवन की जानलेवा हो जाती है। असली सवाल तुम्हारा है।

बुद्ध के जाने के बाद धर्म शाखा-प्रशाखाओं में बंटा। बंटना ही चाहिए। जब वृक्ष बड़ा होगा तो पीड़ ही पीड़ थोड़े ही रह जाएगा। शाखा-प्रशाखाओं में बंटेगा। पीड़ ही पीड़ बड़ी ठूंठ मालूम पड़ेगी। उस वृक्ष के नीचे छाया किसको मिलेगी जिसमें पीड़ ही पीड़ हो? उससे तो खजूर का वृक्ष भी बेहतर। कुछ तो छाया थोड़ी-बहुत कहीं पड़ती होगी।

वृक्ष तो वही शानदार है, वही जीवित है, जिसमें हजारों शाखाएं-प्रशाखाएं निकलती हैं। शाखाएं-प्रशाखाएं तो इसी की खबर हैं कि वृक्ष में हजार वृक्ष होने की क्षमता थी, किसी तरह एक में समा लिया है। हर्ज भी कुछ नहीं है। जितनी शाखाएं-प्रशाखाएं हों उतना ही सुंदर। क्योंकि उतने ही पक्षी बसेरा कर सकेंगे। उतने ही पक्षी घोंसले बना सकेंगे। उतने ही यात्री विश्राम पा सकेंगे। उतनी ही बड़ी छाया होगी, उतनी ही गहन छाया होगी। धूप से तपे-मादों के लिए आसरा होगा, शरण होगी।

जो वृक्ष ठूंठ रह जाए, उसका क्या अर्थ हुआ? उसका अर्थ हुआ, वृक्ष बांझ है। उसमें फैलने की क्षमता नहीं है। जीवन का अर्थ है, फैलने की क्षमता। सभी जीवित चीजें फैलती हैं। सिर्फ मृत्यु सिकुड़ती है। मृत्यु सिकोड़ती है, जीवन फैलाता है। जीवन विस्तार है, एक से दो, दो से अनेक होता चला जाता है। परमात्मा अकेला था, फिर अनेक हुआ, क्योंकि परमात्मा जीवित था। अगर मुर्दा होता, तो अनेक नहीं हो सकता था। संसार को गाली मत देना, अगर तुम्हें मेरी बात समझ में आए तो तुम समझोगे कि संसार परमात्मा की शाखाएं-प्रशाखाएं है। तुम भी उसी की शाखा-प्रशाखा हो। इतना जीवित है कि चुकता ही नहीं, फैलता ही चला जाता है। वृक्ष भारत में बड़े प्राचीन समय से जीवन का प्रतीक रहा है। बुद्ध के वृक्ष में बड़ी क्षमता थी, बड़ा बल था, बड़ी संभावना थी। अकेली पीड़ से कैसे बुद्ध का वृक्ष चिपटा रहता? जैसे-जैसे बढ़ा, शाखाएं-प्रशाखाएं हुईं। लेकिन ज्ञानी की दृष्टि में उन शाखाओं-प्रशाखाओं में कोई विरोध न था। वे सभी एक ही वृक्ष से जुड़ी थीं और एक ही जड़ पर जीवित थीं। उन सभी का जीवन एक ही स्रोत से आता था। बुद्ध स्रोत थे। ज्ञानी ने इसमें कुछ विरोध न देखा। इसमें इतना ही देखा कि बुद्ध में बड़ी संभावना है।

यह जरा हैरानी की बात है, सारी मनुष्य-जाति में बुद्ध ने जितनी संभावनाओ को जन्म दिया, किसी दूसरे आदमी ने नहीं दिया।

महावीर के वृक्ष में केवल दो शाखाएं लगीं-दिगंबर, श्वेतांबर। बस। और उनमें भी कोई बहुत फासला नहीं है। क्षुद्र बातों का फासला है। कि कोई महावीर का श्रृंगार करके पूजता है, कोई महावीर को नग्न पूजता है। श्रृंगार के भीतर भी महावीर नग्न हैं, और नग्न में भी उनका बड़ा श्रृंगार है। इसमें कुछ बड़ा फासला नही है। उनकी नग्नता ही श्रृंगार है, अब और क्या सजाना है? उनको और सजाना तो ऐसे ही है जैसे कोई सांप पर पैर चिपकाए। वह सांप अकेला बिना पैर के ही खूब चलता था। अब तुम और पैर चिपकाकर उसे खराब मत करो। यह तो उन पर और श्रृंगार करना ऐसे ही है जैसे कोई मोर को और रंगों से पोत दे। मोर वैसे ही काफी रंगीन था, अब तुम कृपा करके रंग खराब मत करो।

महावीर की नग्नता में ही खूब श्रृंगार है। उन जैसी सुंदर नग्नता कभी प्रगट हुई? पर फिर तुम्हारी मौज है। तुम्हारा मन नहीं मानता-इसलिए नहीं कि महावीर में कुछ कमी है-तुम्हारा मन बिना किए कुछ नहीं मानता। तुम कुछ करना चाहते हो। करो भी क्या? महावीर जैसे व्यक्ति के सामने एकदम असमर्थ हो जाते हो। सुंदर कपड़े पहनाते हो, सुंदर आभूषण लगाते हो, यह तुम्हारी राहत है। इससे महावीर का कुछ लेना-देना नहीं। तुम्हारे सब वस्त्रों के पीछे भी वे अपनी नग्नता में खड़े हैं, नग्न ही हैं। ऐसे छोटे-छोटे फासले हैं।

दिगंबर कहते हैं कि उनकी कोई शादी नहीं हुई। श्वेतांबर कहते हैं, शादी हुई। क्या फर्क पड़ता है? दिगंबर कहते हैं, उनका कोई बच्चा नहीं हुआ-जब शादी ही नहीं हुई तो बच्चा कैसे हो? श्वेतांबर कहते हैं, उनकी एक लड़की थी। पर क्या फर्क पड़ता है? महावीर में इससे क्या फर्क पड़ता है? शादी हुई कि न हुई? ये तो फिजूल की विस्तार की बातें हैं। महावीर के होने का इससे क्या लेना-देना है? शादी हुई हो तो ठीक, न हुई हो तो ठीक। जिसको जैसी मौज हो वैसी कहानी बना ले। लेकिन कोई बहुत बड़ा विस्तार नहीं हुआ।

जीसस की भी दो शाखाएं फूटकर रह गयीं। प्रोटेस्टेंट और केथोलिक। कोई बड़ा विस्तार नहीं हुआ।

बुद्ध अनूठे हैं, अद्वितीय हैं। सैकड़ों शाखाएं हुईं। और प्रत्येक शाखा इतनी विराट थी कि उसमें से भी प्रशाखाएं हुईं। कहते हैं, जितने दर्शन के मार्ग अकेले बुद्ध ने खोले उतने मनुष्य-जाति में किसी व्यक्ति ने नहीं खोले। बुद्ध अकेले समस्त प्रकार के दर्शनों का स्रोत बन गए। ऐसी कोई दार्शनिक परंपरा नहीं है जगत में जिसके समतुल परंपरा बुद्ध-धर्म में न हो।

अगर तुम बुद्ध-धर्म का पूरा इतिहास समझ लो, तो बाकी सब धर्मों का इतिहास छोड़ भी दो तो कुछ हर्जा न होगा। क्योंकि सारे जगत में जो भी कहीं हुआ है, जो विचार कहीं भी जन्मा है, वह विचार बुद्ध में भी जन्मा है। बुद्ध अकेले बड़े विराट वृक्ष हैं।

यह तो सौंदर्य की बात है। यह तो अहोभाव और उत्सव की बात है। इसमें कुछ चिंता का कारण नहीं है। यह तो इतना ही बताता है कि बुद्ध में बड़ी संभावना थी। शानी ने तो उस संभावना का उपयोग किया। उसमें कोई झगड़ा न था। बिलकुल विपरीत जाने वाली शाखाएं भी-एक पूरब जा रही है, एक पश्चिम जा रही है-फिर भी एक ही तने से जुड़ी होती हैं, विरोध कहां है? और उन दोनों का जीवन-स्रोत एक ही जगह से आता है। एक बुद्ध ही फैलते चले गए सब में। इससे कुछ अड़चन न थी।

लेकिन अज्ञानी अड़चन खड़ी करता है। अज्ञानी की अड़चन ऐसी है कि वह यह भूल ही जाता है कि सभी विरोध अलग-अलग दिशाओं में जाती शाखाएं हैं। एक ही स्रोत से जन्मी हैं।

मैंने सुना है, एक गुरु के दो शिष्य थे। गर्मी की दोपहर थी, गुरु विश्राम कर रहा था, और दोनों उसकी सेवा कर रहे थे। गुरु ने करवट बदली-तो दोनों शिष्यों ने आधा-आधा गुरु को बांट रखा था सेवा के लिए, बायां पैर एक ने ले रखा था, दायां पैर एक ने ले रखा था-गुरु ने करवट बदली तो बायां पैर दाएं पैर पर पड़ गया। स्वभावत: झंझट खड़ी हो गई।

गुरु तो एक है। शिष्य दो थे। तो उन्होंने हिदुस्तान-पाकिस्तान बांटा हुआ था। तो जब दाएं पैर पर बायां पैर पड़ा, तो जिसका दायां पैर था उसने कहा, हटा ले अपने बाएं पैर को। मेरे पैर पर पैर! सीमा होती है सहने की। बहुत हो चुका, हटा ले। तो उस दूसरे ने कहा, देखूं किसकी हिम्मत है कि मेरे पैर को और कोई हटा दे! सिर कट जाएंगे, मगर मेरा पैर जहां रख गया रख गया। यह कोई साधारण पैर नहीं, अंगद का पैर है। भारी झगड़ा हो गया, दोनों लट्ठ लेकर आ गए।

गुरु यह उपद्रव सुनकर उसकी नींद खुल गई, उसने देखी यह दशा। उसने जब लट्ठ चलने के ही करीब आ गए-लट्ठ चलने वाले थे गुरु पर! क्योंकि जिसका दायां पैर था वह बाएं पैर को तोड़ डालने को तत्पर हो गया था। और जिसका बायां पैर था वह दाएं पैर को तोड़ डालने को तत्पर हो गया था। गुरु ने कहा, जरा रुको, तुम मुझे मार ही डालोगे। ये दोनों पैर मेरे हैं। तुमने विभाजन कैसे किया?

अज्ञानी बांट लेता है और भूल ही जाता है। भूल ही जाता है कि जो उसने बांटा है वे एक ही व्यक्ति के पैर हैं, या एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। अज्ञानी ने उपद्रव खड़ा किया। अज्ञानी लड़े। एक-दूसरे का विरोध किया। एक-दूसरे का खंडन किया। एक-दूसरे को नष्ट करने की चेष्टा की। जब संप्रदाय अज्ञानी के हाथ में पड़ता है तब खतरा शुरू होता है।

ज्ञानी संप्रदाय को बनाता है, क्योंकि धर्म की शाखाएं-प्रशाखाएं पैदा होती हैं। जितना जीवित धर्म, उतनी शाखाएं-प्रशाखाएं। दुनिया से संप्रदाय थोड़े ही मिटाने हैं, अज्ञानी मिटाने हैं। जिस दिन संप्रदाय मिट जाएंगे, दुनिया बड़ी बेरौनक हो जाएगी। उस दिन गुरु बिना पैर के होगा। उसको फिर, जैसे भिखमंगों को ठेले पर रखकर चलाना पड़ता है, ऐसे चलाना पड़ेगा। फिर वृक्ष बिना शाखाओं के होगा। न पक्षी बसेरा करेंगे, न राहगीर छाया लेंगे। और जिस वृक्ष में पत्ते न लगते हों, शाखाएं न लगती हों, उसका इतना ही अर्थ है कि जड़ें सूख गयीं। अब वहां जीवन नहीं। जीवन छोड़ चुका उसे, उड़ गया।

तुम पूछते हो, ‘बुद्ध के देह में जीवित रहते उनका भिक्षु-संघ एकता में रहा।

नहीं, ज्ञानियों के लिए तो वह अब भी एकता में है। और तुमसे मैं कहता हूं अज्ञानी के लिए वह तब भी एकता में नहीं था जब बुद्ध जीवित थे। तब भी अज्ञानी अपनी तैयारियां कर रहे थे। तभी फिरके बंटने शुरू हो गए थे। बुद्ध के जीते जी अज्ञानियों ने अपने हिसाब बांट लिए थे, अलग-अलग कर लिए थे। बुद्ध के मरने से थोड़े ही अचानक अज्ञान पैदा होता है। अज्ञानी तो पहले भी अज्ञानी था, वह कोई अचानक थोड़े ही अज्ञानी हो गया। और जो अज्ञानी है, बुद्ध के जीवित रहने से थोड़े ही कुछ फर्क पड़ता है? अज्ञान तो तुम्हे छोड़ना पड़ेगा, बुद्ध क्या कर सकते हैं? बुद्ध ने कहा है, मार्ग दिखा सकता हूं? चलना तो तुम्हें पड़ेगा। समझा सकता हूं समझना तो तुम्हें पड़ेगा। अगर तुम न समझने की ही जिद्द किए बैठे हो, अगर समझने के लिए तुम में जरा भी तैयारी नहीं है-तैयारी नहीं दिखाई है-तो बुद्ध लाख सिर पीटते रहें, कोई परिणाम नहीं हो सकता।

तीसरा प्रश्न,

 

क्या जीवन में सभी कुछ नदी-नाव संयोग है? बुद्ध भी? बुद्धत्व भी?

हीं–बुद्धत्व को छोड़कर सभी कुछ नदी-नाव संयोग है। क्योंकि बुद्धत्व तुम्हारा स्वभाव है, संयोग नहीं। ऐसा नहीं है कि तुम्हें बुद्ध होना है। तुम बुद्ध हो। बस इतना ही है कि तुम्हें पहचानना है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें बुद्धत्व अर्जित करना है। तुमने कभी गंवाया ही नहीं। प्रत्यभिज्ञा करनी है। पहचान करनी है। जो मिला ही है, जागकर देखना है।

बुद्धत्व संयोग नहीं है। बुद्धत्व किन्हीं परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है। न तुम्हारी साधना पर निर्भर है, याद रखना। यह मत सोचना कि तुम बहुत ध्यान करोगे इसलिए बुद्ध हो जाओगे। बहुत ध्यान, बहुत तपश्चर्या से शायद तुम्हें जागने में आसानी होगी बूद्धत्व के प्रति, लेकिन बुद्ध होने में नहीं। बुद्ध तो तुम थे। गहरी तंद्रा में थे और खर्राटे ले रहे थे, तब भी तुम बुद्ध ही थे। भटक रहे थे योनियों में-अनंत योनियों में कीड़े-मकोड़ों की तरह-जी रहे थे कामवासना में, हजार क्रोध और लोभ में, तब भी तुम बुद्ध ही थे। ये सब सपने थे जो तुमने देखे। लेकिन सपनों के पीछे तुम्हारा मूलस्रोत सदा ही शुद्ध था। वह कभी अशुद्ध हुआ नहीं। अशुद्ध होना उसकी प्रकृति नहीं।

और सब जीवन में नदी-नाव संयोग है। किसी स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए, और तुमने शादी कर ली, वह नदी-नाव संयोग है। धन कमा लिया किसी ने और कोई न कमा पाया, वह नदी-नाव संयोग है। किसी ने यश कमा लिया और कोई बदनाम हो गया, वह नदी-नाव संयोग है। वह हजार परिस्थितियों पर निर्भर है। वह तुम्हारा स्वभाव नहीं। वह बाहर पर निर्भर है, भीतर पर नहीं।

सिर्फ एक चीज नदी-नाव संयोग नहीं है, वह है तुम्हारा होना। शुद्ध होना। बुद्धत्व भर संसार के बाहर है, शेष सब संसार है। तो जिस दिन तुम जागते हो, उस दिन तुम अचानक संसार के बाहर हो जाते हो, अतिक्रमण हो जाता है।

ऐसा समझो कि तुम एक सपना देख रहे हो। सपने में कोई देख रहा है गरीब है, कोई देख रहा है अमीर है। कोई देखता है साधु, कोई देखता है असाधु। कोई देखता है हजार पाप कर रहा हूं? कोई देखता है हजार पुण्य कर रहा हूं। यह सब नदी-नाव संयोग है। यह सब सपना है। लेकिन वह जो सपना देख रहा है, वह जो द्रष्टा है, वह नदी-नाव संयोग नहीं है। चाहे सपना तुम साधुं का देखो, चाहे असाधु का, सपने में भेद है, देखने वाले में कोई भेद नहीं है। वह देखने वाला वही है। चाहे साधु, चाहे असाधु; चाहे चोर, चाहे अचोर, पाप करो, पुण्य करो, वह जो देखने वाला है भीतर वह एक है। उस देखने वाले को ही जान लेना बुद्धत्व है। स्वयं को पहचान लेना बुद्धत्व है। शेष सब पराया है। शेष सब संयोग से बनता मिटता है। इसलिए शेष की फिकर नासमझ करते हैं। जो संयोग पर निर्भर है उसकी भी क्या फिकर करनी?

थोड़ा समझो। तुम एक गरीब घर में पैदा हुए। तुम्हें ठीक से शिक्षा नहीं मिल सकी, तो कुछ द्वार बंद हो गए संयोग के। तुम एक जंगल में पैदा हुए, एक आदिवासी समाज में पैदा हुए। अब वहां तुम उस आदिवासी समाज में शेक्सपियर न बन सकोगे, न कालिदास बन सकोगे। संयोग की बात है। तुम पूरब में पैदा हुए तो एक संयोग, पश्चिम में पैदा हुए तो दूसरा संयोग। इन संयोगों पर बहुत सी बातें निर्भर हैं-सभी बातें निर्भर हैं-सिर्फ एक को छोड़कर। एक भर अपवाद है। और इसीलिए धर्म उसकी खोज है, जो संयोग के बाहर है। धर्म उसकी खोज है, जो परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। धर्म उसकी खोज है, जो किसी चीज पर निर्भर नहीं है। जो परम स्वातंत्र्य का सूत्र है तुम्हारे भीतर, उसकी खोज है।

शेष सब तुम खोजते हो, वह सब संयोग की बात है। और छोटे-छोटे संयोग बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। किसी को बचपन में ही चेचक निकल गई और चेहरा कुरूप हो गया। अब इसकी पूरी जिंदगी इस चेचक पर निर्भर होगी। क्योंकि शादी करने में इस व्यक्ति को अड़चन आएगी। इस व्यक्ति को जिंदगी में चलने में हजार तरह की हीनताएं घेरेंगी। यह सब संयोग की ही बात है।

लेकिन, चेहरा सुंदर हो कि कुरूप, काला हो कि गोरा, वह जो भीतर द्रष्टा है,

वह एक है। जिसने उसे खोजना शुरू कर दिया, उसने सत्य की तरफ कदम रखने शुरू कर दिए।

तो इस बात को स्मरण रखो कि जो भी संयोग मालूम पड़े उस पर बहुत समय मत गंवाना, बहुत शक्ति मत लगाना। बहुत अपने को उस पर निर्भर मत रखना। वह है तो ठीक, नहीं है तो ठीक। चिंतन करना उसका, मनन करना उसका, ध्यान करना उसका, जो संयोगातीत है। उसका ही नाम बुद्धत्व है।

जिंदगी एक आंसुओ का जाम था

पी गए कुछ और कुछ छलका गए

जिंदगी तो आंसुओ का एक प्याला है। जो तुम पी रहे हो, वे तो आंसू ही हैं। कभी-कभार शायद जीवन में सुख की थोड़ी सी झलक भी मिलती है, लेकिन वह भी संयोग-निर्भर है। इसलिए उसके भी तुम मालिक नहीं। कब जिंदगी तुम पर मुस्कुरा देगी, उसके तुम मालिक नहीं। इसको ही तो पुराने ज्ञाताओं ने भाग्य कहा था, कि वह सब भाग्य की बात है। भाग्य का इतना ही अर्थ है कि वह संयोग की बात है, उसकी चिंता में बहुत मत पड़ो। जो भाग्य है, वह हजार कारणों पर निर्भर है। लेकिन जो तुम हो, वह किसी कारण पर निर्भर नहीं है।

मैं एक यहूदी विचारक फ्रेंकलिन का जीवन पढ़ता था। वह हिटलर के कारागृह में कैद था। उसने लिखा है कि हिटलर के कारागृह से और खतरनाक कारागृह दुनिया में कभी रहे नहीं। दुख, पीड़ा, सब तरह का सताया जाना, सब तरह का अपमान, हर छोटी-छोटी बात पर जूतों से ठुकराया जाना, लेकिन वहां भी उसने लिखा है कि मुझे धीरे-धीरे एक बात समझ में आ गई कि मेरी स्वतंत्रता अक्षुण्ण है।

जब मैं पढ़ रहा था उसका जीवन तो मैं भी चौंका, कि इसने अपनी स्वतंत्रता वहा कैसे पाई होगी? हिटलर ने सब इंतजाम कर दिए परतंत्र करने के, दीन करने के, दुखी करने के; एक रोटी का छोटा सा टुकड़ा रोज मिलता, वह एक दफे भोजन के लिए भी काफी नहीं था, तो लोग उसे छिपा-छिपा कर रखते। फ्रैंक बड़ा मनोवैज्ञानिक, प्रतिष्ठित विचारक। लेकिन उसने भी लिखा है कि बड़े डाक्टर मेरे साथ थे, जिन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि किसी की दूसरे की रोटी का टुकड़ा चुरा लेंगे; बड़े धनपति मेरे साथ थे, जो अपनी रोटी के टुकड़े को एक-एक टुकड़ा करके खाते-एक टुकड़ा सुबह खा लिया जरा सा, फिर दोपहर में खा लिया। क्योंकि इतनी बार भूख लगेगी, थोड़ा- थोड़ा करना ज्यादा बेहतर बजाय एक बार खा लेने के। फिर चौबीस घंटे भूखा रहना पड़ता है। तो छोटा-छोटा मन को समझाते। लोग अपनी रोटी को छिपाकर रखते, बार-बार देख लेते कि कोई दूसरे ने निकाल तो नहीं ली, क्योंकि सौ कैदी एक जगह बंद। रात लोग एक-दूसरे के बिस्तर में से टटोलकर रोटी निकाल लेते। ऐसा दीन हिटलर ने कर दिया। लेकिन, उसने लिखा है, फिर भी मुझे एक बात समझ में आ गई कि मेरी स्वतंत्रता अक्षुण्ण है।

कैसे? तो उसने लिखा है कि सब परतंत्र हो गया है, लेकिन इस परतंत्रता की तरफ मैं क्या दृष्टि लूं र उसके लिए मैं मालिक हूं। क्या दृष्टि लूं? कैसे इसे देखूं? स्वीकार करूं, अस्वीकार करूं, लडूं? न लडूं –द्रष्टा स्वतंत्र है।

और उसने लिखा है कि जिनको भी यह स्वतंत्रता का अनुभव हुआ, उन्होंने पाया कि ऐसी स्वतंत्रता की प्रतीति बाहर कभी भी न हुई थी। क्योंकि जहां इतनी परतंत्रता थी-इतनी काली दीवाल थी-वहां स्वतंत्रता की छोटी सी सफेद लकीर बड़ी उभरकर दिखाई पड़ने लगी।

तो उसने लिखा, वहा भी दो तरह के लोग थे कारागृह में। स्वतंत्र लोग भी थे वहा, जो स्वतंत्र ही रहे। वहां असली पता चल गया कि कौन स्वतंत्र है! उनको हिटलर झुका न सका, उनको तोड़ न सका। उनको भूखा मार डाला, उनको कोड़े लगाए, लेकिन उनको झुकाया न जा सका। उनको मारा जा सका, लेकिन झुकाया न जा सका। उनकी स्वतंत्रता अक्षुण्ण थी।

कौन तुम्हें कारागृह में डाल सकता है? लेकिन, अगर तुम्हारे भीतर द्रष्टा का बोध ही न हो, तो तुम अपने घर में भी कारागृह में हो जाते हो।

खुदा गवाह है दोनों हैं दुश्मने-परवाज

गमे-कफस हो कि राहत हो आशियाने की

कारागृह का दुख हो, वह तो बांधता ही है-कि राहत हो आशियाने की-घर की सुख-सुविधा भी बाध लेती है। जिसको बंधना है, वह कहीं भी बंध जाता है। उसके लिए कारागृह जरूरी नहीं।

तुम अपने घर को ही सोचो। तुमने कब का उसे कारागृह बना लिया। तुम स्वतंत्र हो अपने घर में? अगर तुम अपने घर में ही स्वतंत्र नहीं हो, अगर वहां भी तुम्हारी मालकियत नहीं है, अगर वहां भी तुम्हारा द्रष्टा मुक्त नहीं हुआ है, अगर तुम कहते हो मेरा घर, तो तुम गुलाम हो। अगर तुम कहते हो इस घर में मैं रहता हूं और यह घर मुझमें नहीं, तो तुम मालिक हो।

खुदा गवाह है दोनो हैं दुश्मने-परवाज

आकाश में उड़ने की क्षमता दोनों छीन लेते हैं।

गमे-कफस हो कि राहत हो आशियाने की

कारागृह तो छीन ही लेता है आकाश में उड़ने की क्षमता, घर की सुख-सुविधा भी छीन लेती है। सुरक्षा भी छीन लेती है।

तो असली सवाल न तो घर का है और न कारागृह का है। असली सवाल तुम्हारा है। तुम अगर कारागृह में भी द्रष्टा बने रहो, तो तुम मुक्त हो। और तुम घर में भी अगर द्रष्टा न रह जाओ, भोक्ता हो जाओ, तो बंध गए।

द्रष्टा हो जाना बुद्ध हो जाना है। बुद्धत्व कुछ और नहीं मांगता, इतना ही कि तुम जागो, और उसे देखो जो सब को देखने वाला है। विषय पर मत अटके रहो। दृश्य पर मत अटके रहो। द्रष्टा में ठहर जाओ। अकंप हो जाए तुम्हारे द्रष्टा का भाव, साक्षी का भाव, बुद्धत्व उपलब्ध हो गया। और ऐसा बुद्धत्व सभी जन्म के साथ लेकर आए हैं।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं बुद्धत्व जन्मसिद्ध अधिकार है। जब चाहो तब तुम उसे उठा लो, वह तुम्हारे भीतर सोया पड़ा है। जब चाहो तब तुम उघाड़ लो, वह हीरा तुम लेकर ही आए हो? उसे कहीं खरीदना नहीं, कहीं खोजना नहीं।

चौथा प्रश्‍न:

 

     होशपूर्ण व्यक्ति भूल नहीं करता तो कृपया मेरे नाम में अंग्रेजी और हिंदी में इस अंतर का क्या रहस्य है? हिंदी : स्वामी श्यामदेव सरस्वती, और अंग्रेजी : स्वामी श्यामदेव भारती।

 

तुमसे बात करना करीब-करीब ऐसे है जैस दीवाल से बात करना। तुमसे बात करना करीब-करीब ऐसे है जैसे बहरे आदमी से बात करना। तुम जो समझना चाहते हो वही समझते हो। तुम्‍हें लाख कुछ और दिखाने के उपाय किए जाएं, तुम उनसे चूकते चले जाते हो। और बड़े मजे की बात है कि तुम जिन सिद्धातों से मुका हो सकते थे, जो सिद्धात तुम्हारे जीवन को नए आकाश से जोड़ देते, वे ही सिद्धात तुम अपनी जंजीरों में ढाल लेते हो।

जैसे, यह बात बिलकुल सच है कि बुद्धपुरुष भूल नहीं करते। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जिन चीजों को तुम भूल समझते हो वैसी भूल बुद्धपुरुष नहीं कर सकते। बुद्धपुरुष कोई मुर्दा थोड़े ही है। सिर्फ मुर्दा बिलकुल भूल नहीं करते। तो तुम्हारे हिसाब में तो सिर्फ मुर्दे ही बुद्धपुरुष हो सकते हैं। इसीलिए तो जीवित गुरु को पूजना बहुत कठिन है। मरे हुए गुरु को पूजना आसान होता है। क्योंकि मरा हुआ गुरु फिर कोई भूल नहीं कर सकता है।

बुद्धपुरुष का तुमने क्या अर्थ ले लिया है? जैसे कि पीछे मैंने कहा कि बुद्ध एक मार्ग से गुजरते थे। एक मक्खी उनके कंधे पर आकर बैठ गई। वे बात कर रहे थे आनंद से, उन्होंने उसे उड़ा दिया। मक्खी तो उड़ गई, फिर वे रुक गए। और उन्होंने फिर से अपना हाथ उठाया और बड़े आहिस्ता से मक्खी को उड़ाने को गए। आनंद ने पूछा, अब आप क्या करते हैं, मक्खी तो जा चुकी। बुद्ध ने कहा, अब मैं ऐसे उड़ाता हूं जैसे उड़ाना चाहिए था। तुझसे बात में लगा था, बिना होश के मक्खी उड़ा दी। चोट लग जाती कहीं, मक्खी पर हाथ जोर से पड़ जाता कहीं-पड़ा नहीं संयोग-तो हिंसा हो जाती। मैंने जानकर नहीं की होती, फिर भी हो तो जाती। तत्‍क्षण दूसरे दिन प्रश्न आ गया कि बुद्धपुरुषों से तो कोई भूल होती नहीं, और बुद्धपुरुष ने कैसे मक्खी उड़ा दी आनंद से बातचीत करते हुए?

तुम पागल हो। बुद्धपुरुष से भूल नहीं होती, इसी का सबूत है उनका दुबारा मक्खी को उड़ाना। अगर तुम जैसे बुद्ध होते, तो चुप रह जाते। अगर वे भी इस सिद्धात को मानते होते कि बुद्धपुरुष से भूल नहीं होती, कैसे उड़ाऊं। आनंद क्या कहेगा, कि आप बुद्ध होकर और भूल कर लिए?

बुद्धपुरुष से भूल नहीं होती, लेकिन अगर हो जाए तो बुद्धपुरुष तत्क्षण स्वीकार कर लेता है। बिना किसी के बताए भी। भूल नहीं होती इससे भी बड़ी बात यह है कि वह भूल को स्वीकार कर लेता है। तुमसे भूल भी होती है और भूल को स्वीकार करने में कष्ट भी होता है, अड़चन भी होती है। तुम भूल को छिपाते हो, तुम ढांकते हो। तुम चेष्टा करते हो कि किसी को पता न चले कि हो गई।

अब यह मक्खी उड़ाने की बात तो दुनिया में कभी किसी को पता भी न चलती। कि चलती? कौन बैठा था वहां खुर्दबीन लेकर? आनंद-को भी पता न था, वे अगर दुबारा हाथ न ले जाते तो आनंद को भी पता न चलता। पर यह सवाल नहीं है।

बुद्ध ने इतना ही कहा कि अगर चैतन्य एक तरफ उलझा हो, जैसे आनंद से बात कर रहे थे तो सारा ध्यान उस तरफ था-बुद्धपुरुष जो भी करते हैं पूरे ध्यान से करते हैं-तो जब वे बात कर रहे थे तो सारा ध्यान उस तरफ था। वे तुम जैसे कटे-बंटे नहीं हैं कि बाएं देख रही है आधी खोपड़ी और आधी खोपड़ी दाएं देख रही है। वे पूरे ही आनंद की तरफ मुड़ गए होंगे।

तुम्‍हें भूल दिखाई पड़ती है, मुझे उनके ध्यान की एकाग्रता दिखाई पड़ती है। वे इतने तल्लीन होकर आनंद से बात करते थे कि जैसे सारा संसार मिट गया था। सारा संसार मिट गया था, मक्खी की तो बात क्या! ऐसी घड़ी में शरीर ने यंत्रवत मक्खी उड़ा दी। बुद्ध ने उड़ाई मक्खी भूल से, ऐसा कहना भी गलत है। क्योंकि बुद्ध तो मौजूद ही न थे। बुद्ध तो मौजूद थे आनंद से चर्चा में। शरीर ने उड़ा दी।

शरीर बहुत से काम यंत्रवत करता है। रात तुम सोए भी रहते हो, मच्छर आ जाता है, हाथ उड़ा देता है। उसके लिए जागने की भी जरूरत नहीं होती। तुम बैठे हो, कोई एक कंकड़ फेंक दे तुम्हारी आंख की तरफ, तो तुम्हें आंख बंद थोड़े ही करनी पड़ती है। आंख अपने से बंद हो जाती है। वह स्वचालित है, आटोमैटिक है। और अच्छा है कि स्वचालित है। नहीं तो कंकड़ पड़ जाता और तुम आंख बंद करने की सोचते ही रहते, करें बंद कि न करें। इसलिए प्रकृति ने तुम पर नहीं छोड़ा है। तुम्हारे लिए नहीं छोड़ा है कि तुम सोचो, फिर बंद करो। उसमें तो खतरा हो जाएगा। आंख जैसी नाजुक चीज तुम्हारे ऊपर नहीं छोड़ी जा सकती। प्रकृति ने इंतजाम किया है, जैसे ही कोई चीज करीब आएगी, आंख अपने से बंद हो जाएगी। तुम थोड़े ही आंख झपकाते हो, आंख झपकती है।

तुमने कभी खयाल किया कि बहुत से काम शरीर चुपचाप किए चला जाता है। तुमने भोजन किया। शरीर पचाता है, तुम थोड़े ही पचाते हो। तुम्हें तो फिर खयाल भी नहीं रखना पड़ता कि शरीर पचा रहा है। अपने आप पचाए चला जाता है।

उस घड़ी बुद्ध ने जो पहली दफा मक्खी उड़ाई, वह बुद्ध ने उड़ाइ यह कहना ही गलत है। कहने की बात है, इसलिए उस तरह कही गई। हुआ ऐसा कि बुद्ध तो पूरे के पूरे आनंद से चर्चा में मौजूद थे, मक्खी आ गई, शरीर ने उड़ा दी। बुद्ध ने शरीर को सुधारा। जब दुबारा उन्होंने मक्खी उड़ाई तो उन्होंने शरीर को एक पाठ दिया कि ऐसे उड़ानी थी-मैं घर पर नहीं था तो भी गलती नहीं होनी चाहिए। मैं मौजूद नहीं था, तो भी गलती नहीं होनी चाहिए। अगर मैं न भी रहूं तो भी तुझे ऐसे ही मक्खी उड़ानी चाहिए जैसे बुद्धपुरुषों को शोभा देती है। यह शरीर को थोड़ा सा संशोधन किया।

लेकिन तत्क्षण दूसरे दिन सवाल आ गया कि बुद्धपुरुषों से भूल हो गई! तुम इतने उत्सुक हो भूल दूसरे की देखने में कि बुद्धपुरुषों में भी देखने का रस तुम्हारा छूटता नहीं। किसी ने एक दिन पूछा कि कभी-कभी मैं बालने में किसी शब्द की भूल कर जाता हूं। बुद्धपुरुषों से भूल नहीं हो सकती। तो जाहिर है, या तो मैं बुद्धपुरुष नहीं हूं या फिर बुद्धपुरुषों से भूल होती है। इसलिए मैं कहता हूं? तुम्हारे सामने बोलना करीब-करीब भैंस के सामने बीन बजाने जैसा है।

जब मैं तुमसे बोल रहा हूं तब मैं तुम्हारे साथ इतनी गहनता से हूं कि मैं मस्तिष्क पर ध्यान ही नहीं दे सकता। तो बोलने का काम और शब्द बनाने का काम तो मस्तिष्क का यंत्र कर रहा है-जैसे बुद्ध के हाथ ने मक्खी उड़ा दी थी, ऐसा मेरा मस्तिष्क तुमसे बोले चला जाता है, मैं तो तुम्हारे साथ हूं। यंत्र कई दफे भूलें कर जाता है। यंत्र की भूलें मेरी भूलें नहीं हैं। और जिसने मुझे पहचाना, वह ऐसे सवाल न उठाएगा। ऐसे सवाल तुम्हारे मन में उठ जाते हैं, क्योंकि तुम आ गए हो भला मेरे पास लेकिन झुकने की इच्छा नहीं है। कोई भी बहाना मिल जाए, तो तुम अपना झुकना वापस ले लो-कि अरे! इस आदमी से एक शब्द की भूल हो गई! कहना कुछ था, कह कुछ और दिया। फिर पीछे सुधारना पड़ा। तुम इस तलाश में हो कि किसी भी तरह तुम्हारा समर्पण बच जाए।

सचाई यह है कि मैं एक बहुत कठिन काम कर रहा हूं। तुम्हारे साथ हो सकता हूं पूरा, बोलने की वजह से एक दूसरा काम भी मुझे साथ में करना पड़ रहा है। अच्छा तो यही होता कि मैं चुप हो जाता। तुम्हें भी भूल न मिलती, मेरी भी झंझट छूट जाती। लेकिन तुम शब्दों को भी नहीं समझ पा रहे हो, तुम मौन को भी न समझ पाते।

मेहरबाबा चुप हो गए। तो ऐसे लोग थे जो समझते थे कि बोलने को कुछ नहीं आता इसलिए चुप हो गए। तुम वहां भी भूल खोज लोगे। बुद्ध ने बहुत से प्रश्नों के

जवाब न दिए, तो सुनने वालों ने समझा कि इनको कुछ आता नहीं है। जब आता ही नहीं तो जवाब कैसे देंगे ‘ बुद्ध ने इसलिए जवाब नहीं दिए कि जवाब उन बातों के दिए ही नहीं जा सकते। उन बातों का जवाब केवल वही दे सकता है जो जानता न हो। जो जानता है, वह चुप रह जाएगा।

जब मैं तुमसे बोल रहा हूं तो मैं एक अति कठिन काम कर रहा हूं। पहला, कि तुम्हारी और मेरी उपस्थिति संपूर्ण रूप से एक हो जाए। तो बोल नहीं सकता। या फिर मैं बोलूं तो तुमसे मेरी उपस्थिति का कोई मिलन न हो पाए। तो फिर बोल सकता हूं लेकिन वे शब्द फिर कोरे होंगे। तब शब्द की कोई भूल न होगी। पंडित से कभी शब्द की भूल नहीं होती। बुद्धों से होती है। पंडित शब्द में कुशल होता है, क्योंकि यंत्र को ही निखारता रहता है।

शब्द तो कामचलाऊ हैं। जो मुझे कहना है, वह इन कामचलाऊ शब्दों से तुम समझ लेना। तुम यह बैठे मत सोच लेना कि व्याकरण की कोई भूल हो गई। तो बुद्धपुरुषों से कैसे भूल हो सकती है? व्याकरण मुझे आती हों ‘नहीं। इतना चला ले रहा हूं वह भी चमत्कार है! मौन आता है, भाषा नहीं आती। किसी तरह चला ले रहा हूं।

अब इन मित्र ने पूछा है कि ‘होशपूर्ण व्यक्ति भूल नहीं करता, तो कृपया मेरे नाम में अंग्रेजी में तो लिखा है-स्वामी श्यामदेव भारती, और हिंदी में लिखा है-स्वामी श्यामदेव सरस्वती।

जरूर मैं तुम्हें देखने में लग गया होऊंगा जब ये नाम लिखे। और संभावना इसकी है श्यामदेव भारती! श्यामदेव सरस्वती! कि तुम दो आदमी हो, एक नहीं। स्‍प्‍लिट, टूटे हुए। दर्पण में दो चेहरे बन गए होंगे। इस तरह भी तुम देख सकते थे। लेकिन उस तरह देखोगे तो तुम्हारी जिंदगी तुम्हें बदलनी पड़े! तुमने तत्‍क्षण देखा कि अरे! बुद्धपुरुष से भूल हो गई। कहां फंस गए? कोई और बुद्धपुरुष खोजें, जो श्यामदेव सरस्वती लिखे तो श्यामदेव सरस्वती ही लिखे।

झेन फकीर हुआ लिंची। वह अपने शिष्यों को नाम दे देता और भूल जाता। किसी को कोई नाम दे देता और जब वह दूसरे दिन उसको बुलाता तो वह किसी और नाम से बुलाता। लोग कहते, यह भी क्या बात हुई? हमने तो सुना है कि बुद्धपुरुष कभी इस तरह का विस्मरण नहीं करते।

लिंची कहता, लेकिन जिसको मैंने नाम दिया था कल, वह अब है कहां? तुम कुछ और ही होकर आ गए हो। तुम्हीं आते जो कल थे, तो पहचान भी लेता। तुम्हीं बदलकर आ गए तो अब मैं क्या करूं?

दूसरा फकीर हुआ बोकोजू। वह रोज सुबह उठकर कहता, बोकोजू! और फिर खुद कहता, यस सर। जी ही, यहीं हूं। उसके शिष्य पूछते कि यह क्या मामला है? वह कहता, रात सोने में भूल जाते हैं कि कौन सोया था! सुबह अगर याद न कर लो, ऐसा दो-चार-दस दिन निकल जाएं, अपना नाम ही भूल जाए! क्योंकि मैं कोई नाम तो नहीं हूं।

मन की इस वृत्ति को थोड़ा बदलो। अगर मेरी कोई भूल होगी, तो उसको मैं भोगूंगा, तुम क्यों परेशान हो? मेरे पाप, मेरी भूलें मुझे भटकाके। तुम अपनी भूलों को सुधार लो। तुम अपने होश को सम्हाल लो। और इस तरह की व्यर्थ की बातें मत पूछो।

अंतिम प्रश्न :

 

पतंजलि और सारे बुद्धपुरुषों ने कहा है, समाधि। परंतु कृष्णमूर्ति कहते हैं, समझ। समाधि से तो लगता है समझ फलित हो सकती है, परंतु समझ से समाधि कैसे फलित हो सकती है? क्या केवल समझ से बुद्धत्व की स्थिति प्राप्त की जा सकती है? भगवान, इसे ठीक से समझाएं।

 

ब्‍दों का ही भेद है समझ और समाधि में। जिसे कृष्णमूर्ति समझ कहते हैं, उसी को पतंजलि समाधि कहते हैं। तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं कहां है। क्योंकि तुम सोचते हो समझदार तो तुम हो। इसलिए क्या अकेली समझ से समाधि फलित हो सकती है? क्योंकि अगर ऐसा होता, तब तो समाधि फलित हो गई होती, समझदार तुम हो।

बुरा न मानना, समझदार भी तुम नहीं हो, समाधि भी तुम्हें अभी फलित नहीं हुई। समझ तो समाधि बन ही जाती है। समझ और समाधि एक ही घटना के नाम हैं।

कृष्णमूर्ति को पुराने शब्दों का उपयोग करने में थोड़ी अड़चन है। अड़चन यही है कि पुराने शब्द पुराने अर्थों से बहुत बोझिल हो गए हैं। इसलिए कृष्णमूर्ति नए शब्दों का उपयोग करते हैं। लेकिन शब्दों का तुम चाहे कुछ भी, कितना ही नया ऊपयोग करो, तुम गुलाब के फूल को गुलाब कहो या चमेली कहना शुरू कर दो, इससे गुलाब का फूल न बदल जाएगा। तुम्हारे चमेली कहने से तुम गुलाब के फूल को न बदल दोगे। तुम नाम बदलते चले जाओ, गुलाब का फूल गुलाब ही रहेगा। आदमी ने परमात्मा की कितनी प्रतिमाएं बनायीं। प्रतिमाएं अलग-अलग हैं, परमात्मा एक है।

कृष्णमूर्ति किसे समझ कहते हैं? अगर उनकी तुम परिभाषा समझोगे, तो तुम पाओगे वह परिभाषा वही है जिसको पतंजलि ने समाधि कहा है। क्या है कृष्णमूर्ति की परिभाषा समझ की? वे कहते हैं, समझ का अर्थ है होश, परिपूर्ण जागृति। वे कहते हैं, समझ का अर्थ है विचारों के ऊहापोह का शात हो जाना। निर्मल दृष्टि का आविर्भाव। ऐसे देखना कि देखो तो जरूर लेकिन चिंतन का धुआ तुम्हारी आंखों पर न हो। धुएं से रहित जब तुम्हारी चेतना की ज्योति जलती है, तब समझ।

पतंजलि भी यही कहता है-निर्विचार, निर्विकल्प। न कोई सोच-विचार, न कोई कल्प-विकल्प मन में, वही स्थिति समाधि। समाधि का अर्थ होता है समाधान। जहां सब चिंतन समाप्त हो गया, सब प्रश्न गिर गए, उस समाधान की अवस्था में तुम एक दर्पण बन जाते हो। उस दर्पण में जो है-‘जो है’ कृष्णमूर्ति का शब्द है परमात्मा के लिए। कृष्णमूर्ति कहते हैं-दैट व्हिच इज, जो है। पतंजलि कहेगा- सत्य। मीरा कहेगी-कृष्ण। बुद्ध कहेंगे-निर्वाण। ये उनके अपने-अपने शब्द हैं। जो है, वह तुम्हें उसी क्षण दिखाई पड़ेगा जब तुम्हारी सब धारणाएं गिर जाएंगी। जब तक तुम धारणा से देखोगे, तब तक तुम वही देख लोगे जो तुम्हारी धारणा दिखा देगी। जैसे किसी ने रंगीन चश्मा लगाकर संसार देखा, तो उसी रंग का दिखाई पड़ने लगता है। हर धारणा का रंग है। समझ निर्धारणा है। उसका कोई रंग नहीं। समझ का अर्थ है, वही दिखाई पड़ जाए जो है। जैसा है, वैसा ही दिखाई पड़े।

तो इन शब्दों के बहुत जाल में तुम मत पड़ना। तुम्हें जो रुच जाए, जो भा जाए। समझ भा जाए, ठीक। मगर मेरा खयाल है, समझ से तुम्हें अड़चन इसीलिए होती है कि तुम सोचते हो समझदार तो हम हैं। समाधि को पाना है। शायद तुम यह भी सोचते हो कि चूंकि हम समझदार हैं इसीलिए तो समाधि पाने निकले। नासमझ कहीं समाधि पाने की चेष्टा करते हैं! लेकिन मैं तुमसे कहता हूं नासमझ वही है जिसने अपने को समझदार समझ लिया है। सभी नासमझ अपने को समझदार समझते हैं, तुम्हीं थोड़े ही।

समझदार वही है जिसने अपनी नासमझी पहचान ली है। और जिसने अपनी नासमझी पहचान ली है, वह धीरे-धीरे-दो उपाय हैं उसके-या तो वह शुद्ध समझदारी के ही सूत्र को बड़ा करता चला जाए। प्रत्येक कृत्य जागकर करने लगे, होश सै करने लगे-उठे तो होशपूर्वक, बैठे तो होशपूर्वक, चले तो होशपूर्वक, जो कुछ भी करे उसके पीछे होश साध ले। और दूसरा उपाय पुराना उपाय हे, कि अगर इतना न हो सके, तो कम से कम घड़ीभर, दो घड़ी चौबीस घंटे में से निकाल ले और उन दो घड़ियों को समाधि के क्षणों में बिताए, ध्यान में बिताए।

घड़ीभर अगर तुमने ध्यान में बिताया, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, उस ध्यान का प्रभाव चौबीस घड़ियों पर फैलने लगा। क्योंकि यह असंभव है कि तुम एक घंटे के लिए स्वस्थ हो जाओ और तेईस घंटे बीमार रहो। एक घंटे को भी जो स्वस्थ हो गया, उसके स्वास्थ्य की लहरें चौबीस घंटों पर फैल जाएंगी। तो पुराने मनीषियों ने कहा है, चौबीस घंटे तुम आज शायद निकाल भी न पाओ-तुमसे आशा भी रखनी उतनी उचित नहीं है-तुम घड़ीभर निकाल लो। ऐसा नहीं कि उन्हें पता नहीं कि घड़ीभर से क्या होगा? लेकिन शुरुआत होगी। और जब हाथ पकड़ में आ जाए, तो फिर धीरे-धीरे पूरे सत्य को ही पकड़ा जा सकता है।

कृष्णमूर्ति कहते हैं, अलग से ध्यान करने की कोई जरूरत नहीं। ठीक ही कहते हैं। जिन्होंने अलग से करने को कहा है वे भी जानते हैं कि अलग से करने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन अभी तुम चौबीस घंटे कर सकोगे, इतनी अपेक्षा वे नहीं करते। कृष्णमूर्ति ने तुम पर ज्यादा भरोसा कर लिया। पतंजलि उतना भरोसा तुम पर नहीं करते। और इसलिए पतंजलि ने तो तुम में से कुछ को समाधि तक पहुंचा दिया, कृष्णमूर्ति न के बराबर किसी को पहुंचा पाए हों। तुम पर जरा ज्यादा भरोसा कर लिया। तुम घुटने से सरक-सरककर चलते थे। कृष्णमूर्ति ने मान लिया कि तुम दौड़कर चल सकते हो।

कृष्णमूर्ति ने जो बात कही है, अपने हिसाब से कह दी, तुम्हारी चिंता नहीं की। पतंजली ने जो बात कही है उसमें तुम्हारी चिंता है। और एक-एक कदम तुम्हें उठाने की बात है। पतंजलि ने सीढ़ियां रखी हैं, कृष्णमूर्ति ने छलांग। तुम सीढ़ियां चढ़ने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते, तुम छलता क्या खाक लगाओगे!

और अक्सर ऐसा होता है कि जो सीढ़ियों पर चढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते वे कृष्णमूर्ति में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि यहां तो सीढ़ियां चढ़नी ही नहीं, छलांग लगानी है। और वे कभी यह सोचते ही नहीं कि हम सीढ़ियां चढ़ने तक का साहस नहीं कर पा रहे, हम छलांग कैसे लगाएंगे? लेकिन, छलता लगानी है, सीढ़ियां चढ़ने से क्या होगा, इस भांति बहाना मिल जाता है। सीढ़ियां चढ़ने से बच जाते हैं और छलांग तो लगानी किसको है?

जितना ज्यादा मैंने तुम्हारे भीतर झांककर देखा उतना ही पाया कि तुम अपने को धोखा देने में बहुत कुशल हो। तुम्हारी सारी समझदारी वही है। कृष्‍णमूर्ति ने तुम पर जरूरत से ज्यादा आस्था कर ली। तुम इस योग्य नहीं। इसलिए कृष्णमूर्ति जीवनभर चिल्लाते रहे और किसी को कोई सहायता नहीं पहुंची। क्योंकि वे वहां से मानकर चलते हैं जहां तुम नहीं हो। और जो लोग उनके आसपास इकट्ठे हुए, उनमें अधिक लोग ऐसे हैं जो कुछ भी नहीं करना चाहते, उनको बहाना मिल गया। उन्होंने कहा, -करने से कहीं कुछ होगा? यह तो होश की बात है, करने से क्या होगा? करने से भी बच गए, होश तो साधना किसको है?

मेरे पास रोज ऐसी घटनाएं आती हैं। अगर मैं किसी को कहता हूं कि तुम शात-ध्यान करो, तो वह कुछ दिनों बाद आकर कहता है कि ऐसा शात बैठने से कुछ नहीं होता। और शात बैठने से होगा भी क्या? ऐसा आंख बंद करने से कहीं कुछ ध्यान हुआ है? अगर मैं उनको कहता हूं कि छोड़ो, सक्रिय-ध्यान करो। कुछ। दन बाद वे आकर कहते हैं कि ऐसे नाचने-कूदने-उछलने से क्या होगा? अरे, ध्‍यान तो शांत होना चाहिए! वह आदमी-वही आदमी-भूल ही जाता है। जब सक्रिय का कहो, तब वह शांत की सोचता है। क्योंकि तब शांत की आडू में सक्रिय से बच जाता है। जब शांत की कहो, तब वह सक्रिय की सोचता है। सक्रिय की आड़ में शांत से बच जाता है। तुम बचने ही चले हो? फिर तुम्हारी मर्जी। बदलना है या बचना है?

कृष्णमूर्ति के शब्द बहुमूल्य हैं, लेकिन बेईमानों के हाथ में पड़ गए। और बेईमानों को बड़ी राहत मिल गई। न पूजा करनी, न प्रार्थना करनी, न ध्यान करना, सिर्फ समझ। और समझ, समझ तो है ही तुम्हारे पास। तब उनकी तकलीफ यह होती है कि समझ तो हमारे पास है ही, पूजा करनी नहीं, ध्यान करना ही नहीं, प्रार्थना करनी नहीं, समाधि नहीं आ रही है?

समझ भी तुम्हारे पास नही है।

मैं तुमसे कहता हूं कृष्णमूर्ति की समझ पतंजलि की समाधि से ज्यादा कठिन है। क्योंकि पतंजलि ने टुकड़े-टुकड़े करके सीढ़ियां बना दी हैं। लंबे रास्ते को छोटे-छोटे खंडों में तोड़ दिया है।

बुद्ध एक जंगल से गुजरते थे, राह भटक गए थे। अब तुम कहोगे कि बुद्धपुरुष और राह भटक जाते हैं! बुद्धपुरुष अगर राह भटक ही न सकते हों, तो मुर्दा। राह भटक गए, जहा पहुंचना था न पहुंच पाए, देर होने लगी। तो आनंद ने राहगीर से पूछा कि गांव कितनी दूर है ‘ उस राहगीर ने कहा, बस दो कोस। चल पड़े, दो कोस पूरे हो गए, लेकिन गांव का कोई पता नहीं। फिर किसी राहगीर को पूछा। उसने कहा, बस दो कोस। आनंद ने कहा, ये लोग कैसे हैं? इनका कोस कितना बड़ा? दो कोस हम पार हो गए। पहला आदमी धोखा दे गया मालूम होता है। या उसे पता नहीं था, जवाब देने के मजे में जवाब दे गया। क्योंकि गुरु होने का जब मौका मिले तो कोई छोड़ता नहीं। तुम्हें पता भी न हो कि कितनी दूर है, कह दिया; अब कम से कम कहने से पता तो चला कि पता है।

फिर बुद्ध मुस्कुराते रहे। दो कोस फिर पूरे हो गए, अब भी गांव का कोई पता नहीं। आनंद ने कहा, ये इस गाव के आदमी सभी झूठे मालूम होते हैं। फिर किसी को पूछा। उसने कहा कि बस दो कोस। तब तो आनंद गुस्से में आ गया। उसने कहा, हद हो गई, जो देखो वही दो कोस कहता है! दो कोस का मतलब कितना होता है?

बुद्ध ने कहा, नाराज न होओ। इस गांव के लोग बड़े करुणावान हैं। चार कोस तो चला दिया उन्होंने। अगर पहला आदमी कहता दस कोस, आठ कोस, शायद हम थककर ही बैठ जाते कि अब कहां जाना! अब नहीं चलना हो सकता। दो कोस के भरोसे पर चल लिए, दो कोस पार हो गया। फिर दो कोस के भरोसे पर चल लिए, वह भी पार हो गया। अब इसकी मान लो। ऐसा लगता है कि अब दो ही कोस है। छह कोस रहा होगा शुरू में।

जब वे पहुंच गए दो कोस के बाद तो आनंद ने बुद्ध से क्षमा मांगी कि मुझे क्षमा कर दें। मैं तो समझा कहां के झूठे, बेईमान, दुष्ट लोग हैं कि कम से कम रास्ता तक सही नहीं बता सकते। लेकिन बुद्ध ने कहा, करुणावान हैं।

पतंजलि ज्यादा करुणावान हैं। कृष्णमूर्ति कठोर हैं। कृष्णमूर्ति उतना ही बता देते हैं जितना है। वे कहते हैं, हजार कोस। तुम बैठ गए। तुमने कहा, अब देखेंगे। पतंजलि कहते हैं, बस दो कोस है। जरा चल लो, पहुंच जाओगे। पतंजलि को भी पता है हजार कोस है। लेकिन तुम्हारी हिम्मत हजार कोस चलने की एक साथ हो नहीं सकती। तुमसे उतना ही कहना उचित है जितना तुम चल सको। पतंजलि मंजिल को देखकर नहीं कहते, तुमको देखकर कहते हैं कि तुम्हारे पैरों की हिम्मत कितनी, साहस कितना, सामर्थ्य कितनी? दो कोस। देख लेते हैं कि दो कोस यह आदमी चल सकता है। अगर दो कोस चल सकता है तो ढाई कोस बता दो। दो कोस के सहारे आधा कोस और भी चल जाएगा। फिर बता देंगे ढाई कोस। जल्दी क्या है? और धीरे-धीरे पहुंचा देंगे।

पतंजलि आहिस्ता-आहिस्ता क्रमबद्ध तोड़ते हैं। इसलिए पतंजलि का पूरा योग शास्त्र बड़ी क्रमिक सीढ़ियां हैं। एक-एक कदम, एक-एक कदम पतंजलि हजारों को ले गए। कृष्णमूर्ति नहीं ले जा सके।

और कुछ ऐसा नहीं है कि कृष्णमूर्ति ने यह बात पहली दफे कही है। कृष्णमूर्ति जैसे चिंतन के लोग पहले भी हुए हैं। उन्होंने भी इतनी ही बात कही है, यही बात कही है, वे भी किसी को नहीं पहुंचा सके।

कृष्णमूर्ति की ज्यादा इच्छा यह है कि तुमसे सच कहा जाए। सत्य की बड़ी प्रामाणिकता है। वे कहते हैं, हजार कोस है तो हजार ही कोस कहना है। एक कोस भी कम करके हम क्यों कहें, झूठ क्यों बोलें? कृष्णमूर्ति कहते हैं, कहीं झूठ बोलने से किसी को सत्य तक पहुंचाया जा सकता है?

मैं तुमसे कहता हूं ही! पहुंचाया जा सकता है। पहुंचाया गया है। पहुंचाया जाता रहेगा। और तुम अनुग्रह मानना उनका जिन्होंने तुम्हारे कारण झूठ तक बोलने की व्यवस्था की है। जो तुम्हारी वजह से झूठ तक बोलने को राजी हो गए।

सत्य को कह देना बहुत कठिन नहीं है। अगर तुम्हारी चिंता न की जाए, तो सत्य को कह देने में क्या कठिनाई है? जैसा है वैसा कह दिया, बात खतम। अगर तुम्‍हारी चिंता की जाए, तो वैसा कहना होगा जहा से तुम्हें खींचना है। तुम एक गहरे गर्त में पड़े हो। तुम्हारे अंधकार में रोशनी पहुंचती ही नहीं। तुमसे रोशनी की बात भी कल्पना करनी! तुम्हें तो धीरे-धीरे, शनैः-शनै: अंधेरे के बाहर लाना है। तुमसे कुछ लहना जरूरी है जिसका तुमसे आज तालमेल बैठ जाए। कल की कल देख लेंगे। पर ये दो दृष्टिकोण हैं। जिसको जो जम जाए। जिसको जो रम जाए। एक बात ” खयाल रखना, न तो पतंजलि की समाधि का तुम्हें अभी पता है, न कृष्णमूर्ति की समझ का। वे दोनों एक ही चीज के दो नाम हैं। और तुम यह जान लेना कि तुम नासमझ हो और समाधिशून्य हो। इसे जानकर ही अगर तुम चलोगे तो जिसको बुद्ध ने कहा है शिष्य, तुम शिष्य हो गए।

और जीवन को वे ही जीत लेते हैं जो सीखने में समर्थ हैं। और धर्म का फूलों से भरा पथ उन्हीं को उपलब्ध हो जाता है जिनके जीवन में शिष्यत्व की संभावना, शिष्यत्व का स्रोत खुल गया।

आज इतना ही।

 



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एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग–2) प्रवचन–17

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 प्रार्थना स्वयं मंजिल–प्रवचन–17

न परेस विलोमनि न परेस कताकतं।

अत्‍तनो’ वअवेक्‍खेय्य कतानि अकतानि च।।44।।

 यथापि रूचिरं पुष्‍फं वण्‍णवंतं अगंधकं।

एवं सुभाषिता वाचा अफला होति अकुब्‍बतो।।45।।

 यथापि रूचिरं पप्‍फं वण्‍णवंतं सगंधकं।

एवं सुभाषिता वाचा सफला होती कुब्‍बतो।।46।।

 यथापि पुप्‍फरासिम्‍हा कयिरा मालागुणे बहु।

एवं जातेन मच्‍चेन कत्‍तव्‍वं कुसलं।।47।।

 न पुप्‍फगंधो पटिवातमेति न चंदनं तगरं मल्‍लिका वा।

सतज्‍व गंधो पटिवातमेति सब्‍बा दिसा सप्‍पुरिसो पवाति।।48।।

 दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो

बंदगी तो अपनी फितरत है खुदा हो या न हो

बुद्ध ने जगत को एक धर्म दिया, मनुष्य को एक दिशा दी, जहां प्रार्थना परमात्मा से बड़ी है, जहां मनुष्य का हृदय-पूजा-अर्चना से भरा-परमात्मा से बड़ा है। असली सवाल इसका नहीं है कि परमात्मा हो। असली सवाल इसका है कि मनुष्य का हृदय प्रार्थना से भरा हो। प्रार्थना में ही मिल जाएगा वह जिसकी तलाश है। और प्रार्थना मनुष्य का स्वभाव कैसे हो जाए!

परमात्मा हुआ और फिर तुमने प्रार्थना की, तो प्रार्थना की ही नहीं। रिश्वत हो गई। परमात्मा हुआ और तुम झुके, तो तुम झुके ही नहीं। कोई झुकाने वाला हुआ तब झुके, तो तुम नहीं झुके। झुकाने वाले की सामर्थ्य रही होगी, शक्ति रही होगी। लेकिन कोई परमात्मा न हो और तुम झुके, तो झुकना तुम्हारा स्वभाव हो गया। बुद्ध ने धर्म को परमात्मा से मुक्त कर दिया। और धर्म से परमात्मा का संबंध न रह जाए तो धर्म अपने ऊंचे से ऊंचे शिखर को पाता है। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं है, बल्कि इसलिए कि परमात्मा के बिना झुकना आ जाए तो झुकना आ गया। इसे थोड़ा समझने की फिक्र करो।

तुम जाते हो और झुकते हो। झुकने के पहले पूछते हो, परमात्मा है? अगर है तो झुकोगे। परमात्मा के सामने झुकते हो तो इसीलिए कि कुछ लाभ, कुछ लोभ, कुछ भय, कुछ भविष्य की आकांक्षा-कोई महत्वाकांक्षा काम कर रही है। परमात्मा कुछ दे सकता है इसलिए झुकते हो। लेकिन झुकना तुम्हारी फितरत नहीं, तुम्हारा स्वभाव नहीं। बेमन से झुकते हो। अगर परमात्मा कुछ न दे सकता हो, तो तुम झुकोगे? अगर झुकने में और परमात्मा तुमसे छीन लेता हो, तो तुम झुकोगे? झुकने में हर्ग़ने हो जाती हो, तो तुम झुकोगे? झुकना स्वार्थ है। स्वार्थ से जो झुका, वह कैसा झुका? वह तो सौदा हुआ, व्यवसाय हुआ।

ऐसे तो तुम संसार में भी झुकते हो। जिनके हाथ में ताकत है उनके चरणों में झुकते हो। जिनके पास धन है, पद है, उनके चरणों में झुकते हो। तो तुम्हारा परमात्मा शक्ति का ही विस्तार हुआ, धन और पद का ही विस्तार हुआ। इसीलिए तो लोगों ने परमात्मा को ईश्वर का नाम दिया है। ईश्वर यानी ऐश्वर्य। ऐश्वर्य के सामने झुकते हो। ईश्वर को परमपद कहा है। उससे ऊपर कोई पद नहीं। पद के सामने झुकते हो। तो यह राजनीति हुई, धर्म न हुआ। और इसके पीछे लोभ होगा, भय होगा। प्रार्थना कहां?

दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो

और ध्यान रखना, जो किसी मतलब से झुकेगा, उसका सिर झुकेगा दिल नहीं, क्योंकि दिल हिसाब जानता नहीं। उसकी खोपड़ी झुकेगी, हृदय नहीं, क्योंकि हृदय

तो बिना हिसाब झुकता है। हृदय तो कभी उनके सामने झुक जाता है जिनके पास न कोई शक्ति थी, न कोई पद था, न कोई ऐश्वर्य था। हृदय तो कभी भिखारियों के सामने भी झुक जाता है। सिर नहीं झुकता भिखारियों के सामने। वह सदा सम्राटों के सामने झुकता है। हृदय तो कभी फूलों के सामने झुक जाता है। कोई शक्ति नहीं, कोई सामर्थ्य नहीं। क्षणभर हैं, फिर विदा हो जाएंगे। हृदय तो कमजोर के सामने और नाजुक के सामने भी झुक जाता है। सिर नहीं झुकता।

सिर है मनुष्य का अहंकार। हृदय यानी मनुष्य का प्रेम।

दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या न हो

दिल किसी के कदमों पर हो, काफी है। सर न झुका, चल जाएगा। झुक गया, ठीक। दिल के पीछे चला, ठीक। दिल की छाया बना, ठीक। दिल का साथ रहा, ठीक। न झुका, चल जाएगा। क्योंकि सिर के झुकने से कुछ भी संबंध नहीं है। तुम झुकने चाहिए। तुम्हारा वास हृदय में है-जहा तुम्हारा प्रेम है वहां। सिर झुकता है भय से। हृदय झुकता है प्रेम से। प्रेम और भय का मिलन कहीं भी नहीं होता।

इसलिए अगर तुम भगवान के सामने झुके हो कि भय था, डरे थे, तो सिर ही झुकेगा। और अगर तुम इसलिए झुके हो कि प्रेम का पूर आया, बाढ़ आई-क्या करोगे इस बाढ़ का? कहीं तो इसे बहाना होगा। कहीं तो उलीचना होगा। कूल-किनारे तोड़कर तुम्हारी इबादत बहने लगी। तुम्हारी प्रार्थना की बाढ़ आ गई-तब तुम्हारा हृदय झुकता है।

दिल है कदमों पर किसी के सर झुका हो या ने हो

बंदगी तो अपनी फितरत है खुदा हो या न हो

और फिर कौन फिक्र करता है कि परमात्मा है या नहीं। बंदगी अपनी फितरत है। फिर तो स्वभाव है प्रार्थना। बहुत कठिन है यह बात समझनी। प्रेम स्वभाव होना चाहिए। प्रेमपात्र की बात ही मत पूछो। तुम कहते हो, जब प्रेमपात्र होगा तब हम प्रेम करेंगे। अगर तुम्हारे भीतर प्रेम ही नहीं तो प्रेमपात्र के होने पर भी तुम कैसे प्रेम करोगे? जो तुम्हारे भीतर नहीं है, वह प्रेमपात्र की मौजूदगी पैदा न कर पाएगी। और जो तुम्हारे भीतर है, प्रेमपात्र न भी हो तो भी तुम उसे गवांओगे कहो, खोओगे कहां?

इसे ऐसा समझो। जो कहता है, परमात्मा हो तो हम प्रार्थना करेंगे, वह आस्तिक नहीं, नास्तिक है। जो कहता है, प्रेम है, हम तो प्रेम करेंगे, वह आस्तिक है। वह जहा उसकी नजर पड़ेगी वहां हजार परमात्मा पैदा हो जाएंगे। प्रेम से भरी हुई आंख जहा पड़ेगी वहीं मंदिर निर्मित हो जाएंगे। जहां प्रेम से भरा हुआ हृदय धड़केगा, वहीं एक और नया काबा बन जाएगा, एक नई काशी पैदा होगी। क्योंकि जहा प्रेम है, वहां परमात्मा प्रगट हो जाता है।

प्रेम भरी आंख कण-कण में परमात्मा को देख लेती है। और तुम कहते हो, पहले परमात्मा हो तब हम प्रेम करेंगे। तो तुम्हारा प्रेम खुशामद होगी। तुम्हारा प्रेम-प्रेम न होगा, सिर का झुकना होगा-हृदय का बहना नहीं।

असली सवाल प्रेमपात्र का नहीं है, असली सवाल प्रेमपूर्ण हृदय का है। बुद्ध ने इस बात पर बड़ा अदभुत जोर दिया। इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं की। और जितने लोगों को परमात्मा का दर्शन कराया, उतना किसी दूसरे व्यक्ति ने कभी नहीं कराया। ईश्वर को चर्चा के बाहर छोड़ दिया और लाखों लोगों को ईश्वरत्व दिया। भगवान की बात ही न की और संसार में भगवत्ता की बाढ़ ला दी। इसलिए बुद्ध जैसा अदभुत पुरुष मनुष्य के इतिहास में कभी हुआ नहीं। बात ही न उठाई परमात्मा की और न मालूम कितने हृदयों को झुका दिया।

और ध्यान रखना, बुद्ध के साथ सिर को झुकने का तो सवाल ही न रहा। न कोई भय का कारण है, न कोई परमात्मा है, न डरने की कोई वजह है। न परमात्मा से पाने का कोई लोभ है। मौज से झुकना है, आनंद से झुकना है। अपने ही अहोभाव से झुकना है, अनुग्रह से झुकना है।

जब वृक्ष लद जाता है फलों से तो झुक जाता है। इसलिए नहीं कि फलों को तोड़ने वाले पास आ रहे हैं। अपने भीतरी कारण से झुक जाता है। फल को खाने वाले पास आ रहे हैं इसलिए नहीं झुकता। अपने भीतर के ही अपूर्व बोझ से झुक जाता है। भक्त भगवान के कारण नहीं झुकता। अपने भीतर हृदय के बोझ के कारण झुक जाता है। फल पक गए, शाखाएं झुकने लगीं।

बंदगी तो अपनी फितरत है खुदा हो या न हो

बुद्ध का जोर प्रार्थना पर है, परमात्मा पर नहीं। और परमात्मा को काट देने से, बीच में न लेने से, बुद्ध का धर्म बहुत वैज्ञानिक हो गया। तब शुद्ध आंतरिक क्रांति की बात रह गई। ये सूत्र आंतरिक क्रांति के सूत्र हैं। समझने की कोशिश करो।

‘दूसरों के दोष पर ध्यान न दे, दूसरों के कृत्य-अकृत्य को नहीं देखे, केवल अपने कृत्य-अकृत्य का अवलोकन करे।’

जिसकी नजर परमात्मा पर है उसकी नजर दूसरे पर है। जिसने परमात्मा को बाहर देखा, वह शैतान को भी बाहर देखेगा। इसे थोड़ा समझना। थोड़ा बारीक है। पकड़ोगे तो बहुत काम आ जाएगा सूत्र। अगर तुमने परमात्मा को बाहर देखा, तो शैतान को कहां देखोगे? उसे भी तुम बाहर देखोगे। तुम्हारे बाहर देखने का ढंग हर चीज को बाहर देखेगा। तब तुम्हारी नजर दूसरों के आचरण में अटकी रहेगी।

इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी सदा दूसरों के कृत्य-अकृत्य का विचार करते रहते हैं। दूसरे की आलोचना में लीन रहते हैं। कौन ने बुरा किया, किसने भला किया। कौन मंदिर गया, कौन नहीं गया। दूसरा ही उनके चिंतन में प्रभावी रहता है। इसलिए धार्मिक जिनको तुम कहते हो, उन्हें अपने को छोड़कर सारे जगत की फिक्र बनी रहती है-कौन पाप कर रहा है, कौन पुण्य कर रहा है। कौन नर्क जाएगा, कौन स्वर्ग जाएगा।

बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ अपनी ही चिंता करना। तुम्हारे ऊपर तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का दायित्व नहीं है। अगर तुम उत्तरदायी हो, तो सिर्फ अपने लिए। अगर अस्तित्व तुमसे पूछेगा, तो सिर्फ तुम्हारे लिए। तुम्हें जो जीवन का अवसर मिला है, उस अवसर में तुमने क्या कमाया, क्या गंवाया? तुम्हें जो जीवन के क्षण मिले, उन्हें तुमने खाली ही फेंक दिया या जीवन के अमरस से भर लिया? तुम्हारे जो कदम पड़े जीवन की राह पर, वे मंजिल की तरफ पड़े या मंजिल से दूर गए? तुमसे और कुछ भी नहीं पूछा जा सकता, तुम किसी और के लिए जिम्मेवार भी नहीं हो। अपनी ही जिम्मेवारी पर्याप्त है।

‘दूसरों के दोष पर ध्यान न दे।’

और ध्यान रखना, जो दूसरों के दोष पर ध्यान देता है वह अपने दोषों के प्रति अंधा हो जाता है। ध्यान तुम या तो अपने दोषों की तरफ दे सकते हो, या दूसरों के दोषों की तरफ दे सकते हो, दोनों एक साथ न चलेगा। क्योंकि जिसकी नजर दूसरों के दोष देखने लगती है, वह अपनी ही नजर की ओट में पड़ जाता है। जब तुम दूसरे पर ध्यान देते हो, तो तुम अपने को भूल जाते हो। तुम छाया में पड़ जाते हो।

और एक समझ लेने की बात है, कि जब तुम दूसरों के दोष देखोगे तो दूसरों के दोष को बड़ा करके देखने की मन की आकांक्षा होती है। इससे ज्यादा रस और कुछ भी नहीं मिलता कि दूसरे तुमसे ज्यादा पापी हैं, तुमसे ज्यादा बुरे हैं, तुमसे ज्यादा अंधकारपूर्ण हैं। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं बिलकुल ठीक हूं दूसरे गलत हैं। बिना ठीक हुए अगर तुम ठीक होने का मजा लेना चाहते हो, तो दूसरों के दोष गिनना। और जब तुम दूसरों के दोष गिनोगे तो तुम स्वभावत: उन्हें बड़ा करके गिनोगे। तुम एक यंत्र बन जाते हो, जिससे हर चीज दूसरे की बड़ी होकर दिखाई पड़ने लगती है।

और जो दूसरे के दोष बड़े करके देखता है, वह अपने दोष या तो छोटे करके देखता है, या देखता ही नहीं। अगर तुमसे कोई भूल होती है, तो तुम कहते हो मजबूरी थी। वही भूल दूसरे से होती है तो तुम कहते हो पाप। अगर तुम भूखे थे और तुमने चोरी कर ली, तो तुम कहते हो, मैं करता क्या, भूख बड़ी थी! लेकिन दूसरा अगर भूख में चोरी कर लेता है, तो चोरी है। तो भूख का तुम्हें स्मरण भी नहीं आता।

जो तुम करते हो, उसके लिए तुम तर्क खोज लेते हो। जो दूसरा करता है, उसके लिए तुम कभी कोई तर्क नहीं खोजते। तो धीरे-धीरे दूसरे के दोष तो बड़े होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, और तुम्हारे दोष उनकी तुलना में छोटे होने लगते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है दुर्भाग्य की जब दूसरे के दोष तो आकाश छूने लगते है, -गगनचुंबी हो जाते हैं-तुम्हारे दोष तिरोहित हो जाते हैं। तुम बिना अच्छे हुए अच्छे होने का मजा लेने लगते हो। यही तो तथाकथित धार्मिक की दुर्भाग्य की अवस्था है।

जिसने दूसरों के पाप देखे, वह अपने पुण्य गिनता है। चोरी तुम हजार रुपए की करो तो तुम भुला देते हो। दान तुम एक पैसे का दो तो तुम याद रखते हो। एक पैसे का दान भी बहुत बड़ा मालूम पड़ता है। हजार रुपए की चोरी भी छोटी मालूम पड़ती है। शायद हजार रुपए की चोरी करके, तुम एक पैसे का दान देकर उसका निपटारा कर लेना चाहते हो।

थोड़ा सोचो, धार्मिक लोगों ने कैसी-कैसी तरकीबें निकाली हैं। पाप करते हैं गंगा में स्नान कर आते हैं। अब गंगा में स्नान करने का और पाप के मिटने से क्या संबंध हो सकता है! दूर का भी कोई संबंध नहीं हो सकता। गंगा का कसूर क्या है, पाप तुमने किया! और ऐसे अगर गंगा धो-धोकर सबके पाप लेती रही, तो गंगा के लिए तो नर्क में भी जगह न मिलेगी। इतने पाप इकट्ठे हो गए होंगे! और अगर इतना ही आसान हो-पाप तुम करो, गंगा में डुबकी लगा आओ और पाप हल हो जाएं-तब तो पाप करने में बुराई ही कहा रही? सिर्फ गंगा तक आने-जाने का श्रम है। तो जो गंगा के किनारे ही रह रहे हैं, उनका तो फिर कहना ही क्या!

तुमने तीर्थ बना लिए। तुमने छोटे-छोटे पुण्य की तरकीबें बना लीं, ताकि बड़े-बड़े पापों को तुम झुठला दो, भुला दो। छोटा-मोटा अच्छा काम कर लेते हो, अस्पताल को दान दे देते हो-दान उसी चोरी में से देते हो जिसका प्रायश्चित्त कर रहे हो-लाख की चोरी करते हो, दस रुपया दान देते हो। लेकिन लाख की चोरी को दस रुपए के दान में ढांक लेना चाहते हो! तुम किसे धोखा दे रहे हो?

या, इतना भी नहीं करता कोई। रोज सुबह बैठकर पांच-दस मिनट माला जप लेता है। माला के गुरिए सरका लेता है, सोचता है हल हो गया। या राम-राम जप लेता है। या रामनाम छपी चदरिया ओढ़ लेता है। सोचता है मामला हल हो गया। जैसे राम पर कुछ एहसान हो गया। अब राम समझें! चदरिया ओढ़ी थी। कहने को अपने पास बात हो गई। मंदिर गए थे, हिसाब रख लिया है।

जीवन अंधेरे से भरा रहे और प्रकाश की ज्योति भी नहीं जलती! सिर्फ अंधेरी दीवालों पर तुम प्रकाश शब्द लिख देते हो, या दीए के चित्र टल देते हो। प्यास लगी हो तो पानी शब्द से नहीं बुझती। अंधेरा हो तो दीए शब्द से नहीं मिटता।

मंजरे-तस्वीर दर्दे-दिल मिटा सकता नहीं

आईना पानी तो रखता है पिला सकता नहीं

तुम अगर सिर्फ तस्वीर का अवलोकन करते रहो-

मंजरे-तस्वीर दर्दे-दिल मिटा सकता नहीं

तो तुम्हारे दिल की पीड़ा न मिटेगी तस्वीरों के देखने से। प्रेमी की तस्वीर लिए बैठे रहो, इससे कहीं कोई प्रेमी मिला है?

आईना पानी तो रखता है पिला सकता नहीं

आईने में कैसी पानी की झलक है, पर उससे तुम्हारी प्यास न बुझेगी। शास्त्र

शब्द दे सकते हैं, सत्य नहीं। अंधेरे की दीवालों पर बनाई गई दीए की तस्वीरें धोखा दे सकती हैं, रोशनी नहीं।

और जो व्यक्ति दूसरों के दोष पर ध्यान देता है, वह अपने दोष पर तो ध्यान देता नहीं, जो छोटे-मोटे. जिनको तुम पुण्य कहते हो, जिनको पुण्य कहना फिजूल ही है। जिनको पुण्य केवल नासमझ कह सकते हैं, जो तुम्हारे पाप के ही सजावटों से ज्यादा नहीं है, पाप का ही श्रृंगार है जो, पाप के ही माथे पर लगी बिंदी है, पाप के ही हाथों में पड़ी चूड़ी है, पाप के ही पैरों में बंधे अर हैं, उन्हें तुम पुण्य कहते हो। उनका हिसाब रखते हो!

बुद्ध ने कहा, छोड़ो यह बात। दूसरों के दोष रार ध्यान न दो। उससे तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हारा प्रयोजन केवल तुमसे है। दूसरों के कृत्य-अकृत्य मत देखो। केवल अपने कृत्य-अकृत्य का अवलोकन करो। सिर्फ अपना ही आब्जर्वेशन, अवलोकन।

यह शब्द समझ लेने जैसा है-अवलोकन। अवलोकन बुद्ध की प्रक्रिया है जीवन के अंधकार से मुक्त होने के लिए। बुद्ध यह नहीं कहते हैं कि तुम अपने पाप को देखो और दुखी होओ, पश्चात्ताप करो कि मैं पापी हूं। और न बुद्ध कहते हैं, तम अपने पुण्य को देखो और बड़े फूले न समाओ और उछलकर चलो कि मैं बड़ा पुण्यात्मा हूं। बुद्ध कहते हैं, तुम अवलोकन करो।

अवलोकन का अर्थ होता है, तटस्थ दर्शन। बिना किसी निर्णय के। न यह कहना कि ठीक; न यह कहना कि बुरा, न भला; न पाप, न पुण्य। तुम कोई निर्णय मत लेना। तुम कोई मूल्यांकन मत करना। तुम सिर्फ देखना। जैसे कोई आदमी रास्ते के किनारे खड़ा हो जाए, भीड़ चलती है, देखता है। अच्छे लोग निकलते हैं, बुरे लोग निकलते हैं, उसे कुछ प्रयोजन नहीं। साधु निकलते हैं, असाधु निकलते हैं, प्रयोजन नहीं। या जैसे कोई लेट गया है घास पर क्षण भर, आकाश में चलते बादलों को देखता है। उनके रूप-रंग अलग-अलग। काले बादल हैं, शुभ्र बादल हैं, कोई हिसाब नहीं रखता, चुपचाप देखता रहता है।

अवलोकन का अर्थ है, एक वैज्ञानिक दृष्टि। तटस्थ-भाव। मात्र देखने पर ‘यान रखो। जोर देखने पर है। जो तुम देख रहे हो उसके निर्णय करने पर नहीं कि वह ठीक है या गलत। तुम न्यायाधीश मत बनो। तुम तराजू लेकर तौलने मत लगो। तुम मात्र द्रष्टा रहो। जिसको उपनिषद साक्षी कहते हैं, उसी को बुद्ध अवलोकन कहते हैं। बस देखो। जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं। एक तटस्थ- भाव। एक फासले पर खड़े हुए चुपचाप। और एक अदभुत क्रांति घटती है। जितने तुम तटस्थ होते जाते हो, उतना ही तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कृत्यों से अलग हो। पाप मै भी अलग, पुण्य से भी अलग। और यह जो अलगपन है इसी का नाम मुक्ति है, मोक्ष है।

जो पाप के साथ अपने को एक समझता है, वह भ्रांति में है। जो पुण्य के साथ अपने को एक समझता है, वह भी भ्रांति में है। उसने कृत्य के साथ अपने को एक समझ लिया। उसने अपने को कर्ता समझ लिया।

अवलोकन करने वाला इस नतीजे पर आता है कि मैं केवल द्रष्टा हूं, कर्ता नहीं। फिर पाप और पुण्य दोनों ही मिट जाते हैं। जैसे स्वप्न में किए हों कभी। जैसे किसी उपन्यास में पढ़े हों कभी। जैसे कभी अफवाह सुनी हो। स्वयं से उनका कोई संबंध नहीं रह जाता। यही शुद्ध बुद्धत्व है। कभी-कभी तुम्हें भी अचानक क्षणभर को इसकी झलक मिल जाएगी; और क्षणभर को भी बिजली कौंध जाए तो जिंदगी फिर वही नहीं होती जो पहले थी। अवलोकन करो।

तुम जमाने की राह से आए

वरना सीधा था रास्ता दिल का

दूसरों के संबंध में सोचते-विचारते, बाजार में भटकते, संसार की लंबी परिक्रमा करते अपने तक आए।

तुम जमाने की राह से आए

वरना सीधा था रास्ता दिल का

अन्यथा जरा गर्दन झुकाने की बात थी। अवलोकन से तुम सीधे स्वयं में पहुंच जाओगे। हा, दूसरे के कृत्य-अकृत्य का विचार करते रहे, तो बड़ी परिक्रमा है, अनंत परिक्रमा है। अनंत जन्मों तक भी तुम यह विचार चुकता न कर पाओगे। कितने हैं दूसरे? किस-किस का हिसाब करोगे? किस-किस के लिए रोओगे, हंसोगे? किसकी प्रशंसा, किसकी निंदा करोगे? अगर ऐसे तुम चल पड़े.।

मैंने सुना है कि एक आदमी भागा जा रहा था। राह के पास बैठे आदमी से उसने पूछा कि भाई, दिल्ली कितनी दूर है? उस आदमी ने कहा, जिस तरफ तुम जा रहे हो, बहुत दूर। क्योंकि दिल्ली तुम आठ मील पीछे छोड़ आए हो। अगर इसी रास्ते से जाने की जिद्द हो, तो सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके जब आओगे-अगर बच गए-तो दिल्ली पहुंच जाओगे। अगर लौटने की तैयारी हो तो ज्यादा दूर नहीं है। तुम जमाने की राह से आए

वरना सीधा था रास्ता दिल का

दिल्ली बिलकुल पीछे है। आठ मील का फासला भी नहीं है। अवलोकन की बात है। निरीक्षण की बात है। जागृति की बात है, अप्रमाद की बात है। जरा होश साधना।

पहली बात, दूसरों का विचार मत करो। अपना ही विचार करने योग्य काफी है। आंख बंद करो, अपने ही कृत्यों को देखो। और अपने कृत्यों के भी निर्णायक मत बनो, अन्यथा अवलोकन समाप्त हो गया। तुम आसक्त हो गए। तुमने कहा यह ठीक है, तो प्रीति बनी। तुमने कहा यह ठीक नहीं, तो अप्रीति बनी। किसी कृत्य से घृणा हुई, किसी कृत्य से प्रेम -हुआ। आसक्ति-अनासक्ति, राग-द्वेष पैदा हुआ, तो कृत्य तो दूर रहे राग-द्वेष के भावजाल में तुम खो गए। बस कृत्य को देखते रहो।

अगर घड़ीभर भी तुम रोज कृत्य का अवलोकन करते रहो, तो तुम्हें ऐसा ही अनुभव होगा जैसा आत्मा ने स्नान कर लिया। दिनभर उसकी ताजगी रहेगी। और दिनभर रह-रहकर लहरें आती रहेंगी आनंद की। रह-रहकर, रह-रहकर झोंके आ जाएंगे। पुलक आ जाएगी। एक मस्ती छा जाएगी! तुम झूम-झूम उठोगे, किसी भीतरी रस से। और यह जो भीतरी रस है, यह बुद्धि का नहीं है, हृदय का है।

जब तुम सोचते हो और निर्णय करते हो, बुद्धि सक्रिय हो जाती है। जब तुम मात्र देखते हो, तब हृदय का फूल खिलता है। जैसे ही तुमने निर्णय लेना शुरू किया, बूद्धि बीच में आई। क्योंकि निर्णय विचार का काम है। जैसे ही तुमने तौला,

आया। तराजू बुद्धि का प्रतीक है। तुमने नहीं तौला, बस देखते रहे, तो बुद्धि को बीच में आने की कोई जरूरत ही न रही। मात्र देखने की अवस्था में, साक्षीभाव में, बूद्धि हट जाती है। और जीवन के जो गहरे रहस्य हैं उन्हें हृदय जानता है।

अक्ल को क्यों बताएं इश्क का राज

गैर को सजदा नहीं करते

और हृदय ने कोई राज प्रेम का, परमात्मा का बुद्धि को कभी बताया नहीं।

अक्ल को क्यों बताएं इश्क का राज

गैर को राजदां नहीं करते

पराए को कहीं कोई भेद की बातें बताता है? बुद्धि पराई है, उधार है। हृदय तुम्हारा है।

इसे थोड़ा समझो। जब तुम पैदा हुए, तो हृदय लेकर पैदा होते हो। बुद्धि समाज देता है, संस्कार देते हैं, शिक्षा देती है; घर, परिवार, सभ्यता देती है। तो हिंदू के पास। एक तरह की बुद्धि होती है। मुसलमान के पास दूसरे तरह की बुद्धि होती है। जैन के पास तीसरे तरह की बुद्धि होती है। क्योंकि तीनों के संस्कार अलग, शास्त्र अलग, सिद्धात अलग। लेकिन तीनों के पास दिल एक ही होता है। दिल परमात्मा का है। बुद्धियां समाजों की हैं।

रूस में कोई पैदा होता है, तो उसके पास कम्यूनिस्ट-बुद्धि होगी। ईसाई घर में कोई पैदा होता है, तो उसके पास ईसाई-बुद्धि होगी। बुद्धि तो धूल है बाहर से इकट्ठी की हुई। जैसे हृदय के दर्पण पर धूल जम जाए। दर्पण तो तुम लेकर आते हो, धूल तुम्हें मिलती है।

इस धूल को झाडू देना जरूरी है। समस्त धर्म की गहनतम प्रक्रिया धूल को झड़ने की प्रक्रिया है, कि दर्पण फिर स्वच्छ हो जाए, तुम फिर से बालक हो जाओ, तुम फिर हृदय में जीने लगो। तुम फिर वहां से देखने लगो जहा से तुमने पहली बार देखा था, जब तुमने आंख खोली थी। तब बीच में कोई बुद्धि न खड़ी थी। तब तुमने सिर्फ देखा था। वह था अवलोकन।

‘जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होकर भी निर्गंध होता है, वैसे ही आचरण न करने वाले के लिए सुभाषित वाणी निष्फल होती है।

दूसरा सूत्र। जैसे कोई सुंदर फूल रंग-बिरंगा है बहुत, वर्णयुक्त है, लेकिन फिर भी गंधशून्य। ऐसा ही पांडित्य है। रंग बहुत हैं उसमें, सुगंध बिलकुल नहीं। जीवन में सुगंध तो आती है आचरण से। तुम जो जानते हो उससे जीवन में सुगंध नहीं आती। वह तो मौसमी फूल है। दूर से लुभावना लग सकता है। पास आने पर तुम उसे कागजी पाओगे। आदमी भला धोखे में आ जाए, मधुमक्खियां धोखे में नहीं आती। तितलियां धोखे में नहीं आती। भौरे धोखे में नहीं आते। भौरे धोखे में नहीं आते, तुम परमात्मा को कैसे धोखा दे सकोगे? तितलियां धोखे में नहीं आती, मधुमक्खियां धोखे में नहीं आती, तुम परमात्मा को कैसे धोखा दे सकोगे?

सम्राट सोलोमन के जीवन में कथा है। एक रानी उसके प्रेम में थी और वह उसकी परीक्षा करना चाहती थी कि सच में वह इतना बुद्धिमानं है जितना लोग कहते हैं? अगर है, तो ही उससे विवाह करना है। तो वह आई। उसने कई परीक्षाएं लीं। वे परीक्षाएं बड़ी महत्वपूर्ण हैं।

उसमें एक परीक्षा यह भी थी-वह आई एक दिन, राज दरबार में दूर खड़ी हो गई। हाथ में वह दो गुलदस्ते, फूलों के गुलदस्ते लाई थी। और उसने सोलोमन से कहा दूर से कि इनमें कौन से असली फूल हैं, बता दो। बड़ा मुश्किल था। फासला काफी था। वह उस छोर पर खड़ी थी राज दरबार के। फूल बिलकुल एक जैसे लग रहे थे।

सोलोमन ने अपने दरबारियों को कहा कि सारी खिड़कियां और द्वार खोल दो। खिड़कियां और द्वार खोल दिए गए। न तो दरबारी समझे और न वह रानी समझी कि द्वार-दरवाजे खोलने से क्या संबंध है। रानी ने सोचा कि शायद रोशनी कम है, इसलिए रोशनी की फिकर कर रहा है, कोई हर्जा नहीं। लेकिन सोलोमन कुछ और फिकर कर रहा था। जल्दी ही उसने बता दिया कि कौन से असली फूल हैं, कौन से नकली। क्योंकि एक मधुमक्खी भीतर आ गई बगीचे से और वह जो असली फूल थे उन पर जाकर बैठ गई। न दरबारियों को पता चला, न उस रानी को पता चला।

वह कहने लगी, कैसे आपने पहचाना? सोलोमन ने कहा, तुम मुझे धोखा दे सकती हो, लेकिन एक मधुमक्खी को नहीं।

मधुमक्खी को धोखा देना मुश्किल है, परमात्मा को कैसे दोगे?

बुद्ध कहते हैं, ‘जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होकर भी निर्गंध होता है, वैसे ही आचरण न करने वाले के लिए सुभाषित वाणी निष्फल होती है। ‘

तुम्हें जीवन के सत्यों का पता सोचने से न लगेगा। उन सत्यों को जीने से लगेगा। जीओगे तो ही पता चलेगा। जो ठीक लगे उसे देर मत करना। उसे कल के लिए स्थगित मत करना। जो ठीक लगे उसमें आज ही डुबकी लगाना। अगर तुम्हें अवलोकन की बात ठीक लग जाए, तो सोचते मत रहना कि कल करेंगे। ऐसे तुम्हारे जीवन में कभी सुगंध न आएगी। ऐसे यह हो सकता है कि अवलोकन के संबंध में तुम बातें करने में कुशल हो जाओ, और ध्यान के संबंध में तुम शास्त्रकार बन जाओ, लेकिन तुम्हारे जीवन में सुगंध न आएगी।

प्रार्थना के संबंध में जान लेना प्रार्थना को जानना नहीं है। प्रार्थना को तो वही जानता है जो करता है। प्रार्थना को तो वही जानता है जो डूबता है। प्रार्थना को तो वही जानता है जो प्रार्थना में मिट जाता है, जब प्रार्थना तुम्हारा अस्तित्व बनती है।

आचरण का अर्थ है, तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा अस्तित्व हो। तुम जो जानते हो, वह सिर्फ ऊपर से चिपकी हुई बात न रह जाए। उसकी जड़ें तुम्हारे जीवन में फैलें। तुम्हारे भीतर से वह बात उठे। वह तुम्हारी अपनी हो। ऊपर से इकट्ठा ज्ञान ऐसा है जैसे तुमने भोजन तो बहुत कर लिया हो, लेकिन पचा न सके। उससे तुम बीमार पड़ोगे। उससे शरीर रुग्ण होगा। पचा हुआ भोजन जीवन देता है, ऊर्जा देता है। अनपचा भोजन जीवन को नष्ट करने लगता है। भूखे भी बच सकते हैं लोग ज्यादा देर तक, ज्यादा भोजन से जल्दी मर जाते हैं। बोझ हो जाता है पूरी व्यवस्था पर। और ज्ञान का तो भारी बोझ है।

तुम्हारा चैतन्य अगर दब गया है तो तुम्हारे ज्ञान के बोझ से। तुम जानते ज्यादा हो, जीए कम हो। एक असंतुलन हो गया है। बुद्ध कहते हैं, थोड़ा जानो, लेकिन उसे जीने में बदलते जाओ। थोड़ा भोजन करो, लेकिन ठीक से चबाओ, ठीक से पचाओ। रक्त, मांस-मज्जा बन जाए।

होश के बंदे समझेंगे क्या गफलत है क्या होशियारी

अक्ल के बदले जिस दिन दिल की ज्योति जलाकर देखेंगे

अक्ल के बदले जिस दिन दिल की ज्योति जलाकर देखेंगे

होश के बंदे समझेंगे क्या गफलत है क्या होशियारी

केवल वे ही समझ पाएंगे जो बुद्धि से गहरे उतरकर हृदय का दीया जलाएंगे। हृदय के दीए से अर्थ है, जो जानते हैं उसे जीवन बना लेंगे। जो समझा है, वह समझ ही न होगी समाधि बन जाएगी। जो सुना है, वह सुना ही नहीं पी लिया है।

‘जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होकर भी निर्गंध होता है, वैसे ही आचरण न करने वाले के लिए सुभाषित वाणी निष्फल होती है।’

थोड़ा जानो, जीओ ज्यादा, और तुम पहुंच जाओगे। ज्यादा तुमने जाना और जीया कुछ भी नहीं, तो तुम न पहुंच पाओगे। तब तुम दूसरों की गायों का ही हिसाब रखते रहोगे, तुम्हारी अपनी कोई गाय नहीं। तुम गायों के रखवाले ही रह जाओगे, मलिक न हो पाओगे।

पंडित मत बनना। पापी भी पहुंच जाते हैं, पंडित नहीं पहुंचते। क्योंकि पापी भी

आज नहीं कल जग जाएगा। दुख जगाता है। पंडित एक सुख का सपना देख रहा है कि जानता है। बिना जाने।

शास्त्र से बचना। शास्त्र जंजीर हो सकता है। सुभाषित, सुंदर वचन जहर हो सकते हैं। जिस चीज को भी तुम जीवन में रूपांतरित न कर लोगे वही जहर हो जाएगी। तुम्हारी जीवन की व्यवस्था में जो भी चीज पड़ी रह जाएगी बिना रूपातरित हुए, बिना लहू-मांस-मज्जा बने, वही तुम्हारे जीवन में जहर का काम करने लगेगी। पंडित का अस्तित्व विषाक्त हो जाता है।

‘जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होने के साथ-साथ सुगंधित होता है, वैसे ही आचरण करने वाले के लिए सुभाषित वाणी सफल होती है।’

तो ध्यान इस पर हो कि मेरा आचरण क्या है? मेरा होने का ढंग क्या है? मेरे जीवन की शैली क्या है? परमात्मा को मानो या न मानो, अगर तुम्हारा आचरण ऐसा है-घर लौटने वाले का, संसार की तरफ जाने वाले का नहीं। प्रत्याहार करने वाले का, अपनी चेतना के केंद्र की तरफ आने वाले का। मारे तुम्हारा आचरण ऐसा है-व्यर्थ का कूड़ा-करकट इकट्ठा करने वाले का नहीं, सिर्फ हीरे ही चुनने वाले का। अगर तुम्हारा आचरण हंस जैसा है कि मोती चुन लेता है, कि दूध और पानी में दूध पी लेता है, पानी छोड़ देता है।

हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है। तुमने कभी समझा, क्यों? दो कारणों से। एक तो हंस सार को असार से अलग कर लेता है। और दूसरा, हंस सभी दिशाओं में गतिवान है। वह जल में तैर सकता है, जमीन पर चल सकता है, आकाश में उड़ सकता है। उसके स्वातंत्र्य पर कहीं कोई सीमा नहीं है। जमीन हो तो चल लेता है। सागर हो तो तैर लेता है। आकाश हो तो उड़ लेता है। तीनों आयामों में, तीनों डायमेंशन्स में उसके लिए कहीं कोई रुकावट नहीं है। जिस दिन तुम सार और असार को पहचानने लगोगे, उस दिन तुम्हारा स्वातंत्र्य भी इतना ही अपरिसीम हो जाएगा जैसा हंस का। इसलिए हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है।

न जानने से ही बंधें हो। जमीन पर ही ठीक से रहना नहीं आता, पानी पर चलने की तो बात अलग! आकाश में उड़ना तो बहुत दूर! शरीर में ही ठीक से रहना नहीं आता, मन की तो बात अलग, आत्मा की तो बात बहुत दूर!

शरीर यानी जमीन। मन यानी जल। आत्मा यानी आकाश। इसलिए मन जल की तरह तरंगायित। शरीर थिर है पृथ्वी की तरह। सत्तर साल तक डटा रहता है। गिर जाता है उसी पृथ्वी में जिससे बनता है। मन बिलकुल पानी की तरह है। पारे की तरह कहो। छितर-छितर जाता है। आत्मा आकाश की तरह निर्मल है। कितने ही बादल घिरे, कोई बादल धुएं की एक रेखा भी पीछे नहीं छोड़ गया। कितनी ही पृथ्वियां बनीं और खो गयीं। कितने ही चांद-तारे निर्मित हुए और विलीन हो गए। आकाश कूटस्थ है, अपनी जगह, हिलता-डुलता नहीं।

शरीर में ही रहना तुमसे नहीं हो पाता, मन की तो बात अलग। मन में जाते ही चिंता पकड़ती है। विचारों का ऊहापोह पकड़ता है। आत्मा तो फिर बहुत दूर है। क्योंकि आत्मा यानी निर्विचार ध्यान, आत्मा यानी समाधि-आकाश, मुक्त, असीम।

परमहंस कहा है ज्ञानियों को। लेकिन ज्ञान को आचरण में बदलने की कीमिया, बदलने का रहस्य समझ लेना चाहिए। तुम समझ भी लेते हो कभी कोई बात, स्फटिक-मणि की भांति साफ दिखाई पड़ती है कि समझ में आ गई, अगर तुम उसी क्षण उसका उपयोग करने लगो तो और निखरती जाए। तुम कहते हो, कल उपयोग कर लेंगे, परसों उपयोग कर लेंगे, अभी समझ में आ गई संभालकर रख लें।

एक मित्र यहां सुनने आते थे। डाक्टर हैं, पढ़े-लिखे हैं। मैंने उनको देखा कि जब भी वे सुनते, तो बैठकर बस नोट ले रहे हैं। फिर मुझे मिलने आए तो मैंने पूछा कि आप क्या कर रहे हो? वे कहते हैं कि आप इतनी अदभुत बातें कह रहे हैं कि नोट कर लेना जरूरी है, पीछे काम पड़ेगी। जब मैं समझा रहा हूं तब वे समझ नहीं रहे हैं। वे कल पर टाल रहे हैं, समझ तक को कल पर टाल रहे हैं। करने की तो बात अलग! वे नोट ले रहे हैं अभी। फिर पीछे कभी जब जरूरत होगी, काम पड़ जाएगी। तुम अभी मौजूद थे, मैं अभी मौजूद था, अभी ही उतर जाने देते हृदय में। लेकिन वे सोचते हैं कि वे बड़ा कीमती काम कर रहे हैं। वे धोखा दे रहे हैं। खुद को धोखा दे रहे हैं। यह बचाव है समझने से, समझना नहीं है।

सामने एक घटना घट सकती थी, अभी और यहीं। मैं तुम्हारी आंख में झांकने को राजी था। तुम आंख बचा लिए-नोट करने लगे। मैंने हाथ फैलाया था तुम्हें उठा लूं बाहर तुम्हारे गड्ढ़े से। तुम्हारा हाथ तुमने व्यस्त कर लिया, तुम नोट लेने लगे। मैंने तुम्हें पुकारा, तुमने पुकार न सुनी। तुमने अपनी किताब में कुछ शब्द अंकित ‘कर लिए और तुम बड़े प्रसन्न हुए। तुम अभी जीवित सत्य को न समझ पाए, कल के लिए टाल दिया। करोगे कब?

टालना मनुष्य के मन की सबसे बड़ी बीमारी है। जो समझ में आ जाए उसे उसी क्षण करना। क्योंकि करने से स्वाद आएगा। स्वाद आते से करने की और भावना जोगी। और करने से और स्वाद आएगा। अचानक एक दिन तुम पाओगे, जिसे तुमने ज्ञान की तरह सोचा था, वह ज्ञान नहीं रहा आचरण बन गया।

‘जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होने के साथ-साथ सुगंधित होता है, वैसे ही आचरण करने वाले के लिए सुभाषित वाणी सफल होती है।’

और ध्यान रखना, जो भी जाना जा सकता है वह जीकर ही जाना जा सकता है। नाहक की बहस में मत पड़ना। क्योंकि बहस भी अक्सर बचने का ही उपाय है। और व्यर्थ के तर्कजाल में मत उलझना। क्योंकि तुम्हें बहुत मिल जाएंगे कहने वाले। की इसमें क्या रखा है? लेकिन गौर से देख लेना कि जो कह रहा है, उसने कुछ अनुभव लिया है?

मेरी दीवानगी पर होश वाले बहस फरमाएं

मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है

मेरी दीवानगी पर होश वाले बहस फरमाएं-कोई हर्जा नहीं, तर्क करें। लेकिन, पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है, उनके पास भी कुछ स्वाद हो तभी। तुम उसी की बात सुनना जिसके पास कुछ स्वाद हो। अन्यथा इस जगत में आलोचक बहुत हैं, निंदक बहुत हैं। किसी भी चीज को गलत कह देना जितना आसान है, उतनी आसान और कोई बात नहीं। ईश्वर को कह देना ‘नहीं है’, कितना आसान है! ‘है’ कहना बहुत कठिन। क्योंकि जो है कहे, उसे सिद्ध करना पड़े। जो नहीं कहे, उसे तो सिद्ध करने का सवाल ही न रहा। जब है ही नहीं तो सिद्ध क्या करना है!

प्रेम को इनकार कर देना कितना आसान है। लेकिन प्रेम को ही करना कितना कठिन है? क्योंकि प्रेम का अर्थ होगा फिर एक आग से गुजरना। नहीं बहुत आसान है। इसलिए कायर हमेशा नहीं कह-कहकर जिंदगी चला लेते हैं। हालांकि वे दिखते बड़े बहादुर हैं। कोई आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है। लगता है बड़ी हिम्मत का आदमी है। अपनी इतनी हिम्मत नहीं है। पर मैं तुमसे कहता हूं कायर नहीं कहकर काम चला लेते हैं। क्योंकि जिस चीज को नहीं कह दिया उसे न सिद्ध करने की जरूरत, न जीवन में उतारने की जरूरत, न दाव लगाने की जरूरत, न मार्ग चलने की जरूरत। जिसने ही कहा, वही बहादुर है, वही साहसी है।

लेकिन ही भी नपुंसक हो सकती है, अगर तुमने सिर्फ बहाने के लिए हो कह दी हो। अगर किसी ने कहा, ईश्वर है। तुमने कहा, होगा भाई, जरूर होगा। सिर्फ झंझट छुटाने को कि इतनी भी किसको फुरसत है कि बकवास करे? इतना भी किसके पास समय है कि विवाद करे? अब कौन झंझट करे कि है या नहीं। कि बिलकुल ठीक, जरूर होगा। अगर तुमने ही भी सिर्फ बचाव के लिए कही तो तुम्हारी ही नहीं ही है। उस ही में ही नहीं, नहीं ही है।

मेरी दीवानगी पर होश वाले बहस फरमाएं

मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है

उसी के पास पूछना जिसके जीवन में कोई सुगंध हो और सुवास हो, और जिसके जीवन में कोई स्वाद हो। जिसके ओंठों से, जिसकी श्वासों से शराब की थोड़ी गंध आती हो, उसी से शराब की बात पूछना। जिसके आसपास थोड़ी मस्ती की हवा हो, जिसकी आंखों में खुमार हो, उसी से पूछना। हर किसी से मत पूछने बैठ जाना। और हर किसी की बात मत सुन लेना, नहीं तो जिंदगी को ऐसे ही गंवा दोगे। नासमझ बहुत हैं, कायर बहुत हैं। आलोचक बहुत हैं। उनका कोई अंत नहीं है, क्योंकि ये सब बचाव की तरकीबें हैं। जिंदगी को जानने वाले बहुत कम हैं। और तुम भी कहीं इसी भीड़ में न खो जाना। खो ही जाओगे। अगर जीवन में कोई सूत्र तुम्हारे पास आएं और तुमने उनका जल्दी उपयोग न कर लिया, वे जंग खा जाते हैं।

सत्य बड़ी नाजुक चीज है। वह बीज की तरह है। तुम उसे हृदय में ले जाओ समस्या, तो वह अंकुरित हो जाता है। बीज को रखे रहो तिजोडियों में सम्हालकर, वह सड़ जाएगा। सारे सत्य तुम्हारे शास्त्रों की तिजोडियों में सड़ गए हैं। ऐसा नहीं है कि सत्यों की कोई कमी है। सत्य बहुत हैं। शास्त्र भरे पड़े हैं, लेकिन किसी काम के नहीं रहे। तुम्हारे जीवन के शास्त्र में जब तक कोई सत्य उतरकर खून, मांस, मज्जा न बन जाए, पच न जाए, तुम्हारे रग-रेशे में न दौड़ने लगे, तब तक किसी काम का नहीं है। इसे स्मरण रखना।

‘जैसे फूलों से मालाएं बनती हैं, वैसे ही जन्म लेकर प्राणी को बहुत पुण्य करने चाहिए।

जीवन दो ढंग का हो सकता है। बुद्ध ने बड़ा ठीक प्रतीक चुना है। एक तो जीवन ऐसा होता है जिसको तुम ज्यादा से ज्यादा फूलों का ढेर कह सकते हो। और एक जीवन ऐसा होता है जिसे तुम फूलों की माला कह सकते हो। माला और ढेर में बड़ा फर्क है। माला में एक संयोजन है, एक तारतम्य है, एक संगीत है, एक लयबद्धता है। माला में एकजुटता है। एक श्रृंखला है, एक सिलसिला है। फूलों का एक ढेर है, उसमें कोई श्रृंखला नहीं है। उसमें कोई संगीत नहीं है। उसमें दो फूल जुड़े नहीं हैं किसी अनुस्यूत धागे से। सब फूल अलग-अलग हैं। बिखरे पड़े हैं।

तो या तो जीवन ऐसा हो सकता है कि जीवन के सब क्षण बिखरे पड़े हैं, एक क्षण से दूसरे क्षण के भीतर दौड़ती हुई कोई जीवनधारा नहीं है, कोई धागा नहीं जो सबको जोड़ता हो। अधिक लोगों का जीवन क्षणों का ढेर है। जन्म से लेकर मृत्यु तक तुम्हें भी उतने ही क्षण मिलते हैं जितने बुद्ध को। लेकिन बुद्ध का जीवन एक माला है। हर क्षण पिरोया हुआ है। हर क्षण अपने पीछे क्षण से जुड़ा है, आगे क्षण से जुड़ा है। जन्म और मृत्यु एक श्रृंखला में बंधे हैं। एक अनुस्यूत संगीत है।

इसे थोड़ा समझो। तुम ऐसे हो जैसे वर्णमाला के अक्षर। बुद्ध ऐसे हैं जैसे उन्हीं अक्षरों से बना एक गीत। गीत में और वर्णमाला के अक्षरों में कोई फर्क नहीं है। वही अक्षर हैं। वर्णमाला में जितना है उतना ही सभी गीतों में है। मार्क ट्वेन के जीवन में एक घटना है। उसके मित्र ने उसे निमंत्रित किया। मित्र एक बहुत बड़ा उपदेष्टा था। मार्क ट्वेन कभी उसे सुनने नहीं गया था। कुछ ईर्ष्या रही होगी मन में मार्क ट्वेन के। मार्क ट्वेन खुद बड़ा साहित्यकार था। लेकिन उपदेष्टा की बड़ी ख्याति थी।

मित्र ने कई दफा निमंत्रित किया तो एक बार गया। सामने की ही कुर्सी पर बैठा था। उस दिन मित्र ने जो श्रेष्ठतम उसके जीवन में भाव में था, कहा। क्योंकि मार्क ट्वेन सुनने आया था। लेकिन मार्क ट्वेन के चेहरे पर कोई भावदशा नहीं बदली। यह ऐसे ही बैठा रहा अकड़ा जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है। जैसे क्या कचरा बकवास कर रहे हो!

मित्र भी चकित हुआ। जब दोनों लौटने लगे गाड़ी में वापस, रास्ते में उसने हिम्मत जुटाई और पूछा, तुम्हें मेरी बातें कैसी लगीं? मार्क ट्वेन ने कहा, बातें! सब उधार। मेरे पास एक किताब है जिसमें सब लिखा है। तुमने उसी को पढ़कर बोला है। उस आदमी ने कहा, चकित कर रहे हो। कोई एकाध वाक्य, कोई एकाध टुकड़ा कहीं लिखा हो सकता है, लेकिन जो मैंने बोला है, वह मैंने किसी किताब से लिया नहीं। मार्क ट्वेन ने कहा, शर्त लगाते हो! सौ-सौ डालर की शर्त लग गई। उपदेष्टा सोचता था निश्चित ही शर्त मैं जीत जाऊंगा। यह पागल किस बात की शर्त लगा रहा है। जो मैं बोला हूं, यह पूरा का पूरा एक किताब में हो ही नहीं सकता। संयोग नहीं हो सकता ऐसा।

लेकिन उसे पता नहीं था। मार्क ट्वेन ने दूसरे दिन एक डिक्शनरी भेज दी और लिखा, इसमें सब है जो भी तुम बोले हो। एक-एक शब्द जो तुम बोले हो सब इसमें है। शब्दशः।

पर डिक्शनरी और शेक्सपियर में कुछ फर्क है। शब्दकोश में और कालिदास में कुछ फर्क है। शब्दकोश और उपनिषद में कुछ फर्क है। क्या फर्क है? वही फर्क तुममें और बुद्ध में है। तुम केवल शब्दकोश हो। फूल की भीड़, एक ढेर। अनुपस्थित नहीं हो। जुड़े नहीं हो। तारतम्य नहीं है। सब फूल अलग-अलग पड़े हैं, माला नहीं बन पाए हैं।

माला उसी का जीवन बनता है जो अपने जीवन को एक साधना देता है, एक अनुशासन देता है। जो अपने जीवन को होशपूर्वक एक लयबद्धता देता है। तब जीवन न केवल गद्य बन जाता है, अगर धीरे-धीरे तुम जीवन को निखारते ही जाओ, तो गद्य पद्य हो जाता है। जीवन तुम्हारा गाने लगता है, गुनगुनाने लगता है। तुम्हारे भीतर से अहर्निश संगीत की एक धारा छूटने लगती है। तुम बजने लगते हो।

जब तक तुम बजो न, तब तक तुम परमात्मा के चरणों के योग्य न हो सकोगे। और ध्यान रखना, व्यर्थ की शिकायतें-शिकवे मत करना।

उनसे शिकवा फजूल है सीमाब

काबिले-इलिफात तू ही नहीं

परमात्मा से क्या शिकायत करनी कि आनंद नहीं है जीवन में!

काबिले-इलिफात तू ही नहीं

परमात्मा की कृपा के योग्य तू ही नहीं। इसलिए किसी और से शिकवा मत करना।

तुम जैसे अभी हो ऐसे ही तुम परमात्मा पर चढ़ने योग्य नहीं हो। तुम माला बनो। तुम जीवन को एक दिशा दो। तुम ऐसे ही सब दिशाओं में मत भागते फिरो पागलों की तरह। तुम एक भीड़ मत रहो। तुम्हारे भीतर एकस्वरता है। और बुद्ध इसी को पुण्य कहते हैं। तुम चकित होओगे। बुद्ध कहते हैं, जिसके जीवन में एकस्वरता है, वही पुण्यधर्मा है। पापी एक भीड़ है, पुण्यधर्मा एक माला है। पापी असंगत है। कहता कुछ है, करता कुछ है। सोचता कुछ है, होता कुछ है। पापी के भीतर एकस्वरता नहीं है। बोलता कुछ है, आंखें कुछ और कहती हैं, हाथ कुछ और करते है।

पापी एक साथ बहुत है। पुण्यात्मा एक है। योगस्थ है। जुड़ा है, इंटीग्रेटेड है। वह जो भी करता है वह सब संयोजित है। वह सभी एक दिशा में गतिमान है। उसके पैर भी उसी तरफ जा रहे हैं जिस तरफ उसकी आंखें जा रही हैं, उसके हाथ भी उसी तरफ जा रहे हैं जिस तरफ उसका हृदय जा रहा है। उसकी श्वासें भी उसी तरफ जा रही हैं, जिस तरफ उसकी धड़कनें जा रही हैं। वह इकट्ठा है। उसके जीवन में एक दिशा है, एक गति है, विक्षिप्तता नहीं है।

‘जैसे फूलों से मालाएं बनती हैं, वैसे ही जन्म लेकर प्राणी को पुण्य अर्जन करना चाहिए।’

ताकि तुम्हारा जीवन एक माला बन जाए।

‘फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशाओं में नहीं जाती।

बड़ी मीठी बात बुद्ध कहते हैं। खूब हृदय भरकर सुनना।

‘फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशाओं में नहीं जाती। न चंदन की, न तगर की, न चमेली की, न बेला की।’

अगर हवा पूरब की तरफ बह रही हो, तो चंदन, कोई उपाय नहीं चंदन के पास कि अपनी सुगंध को पश्चिम की तरफ भेज दे। हवा के विपरीत नहीं जाती।

‘न तगर की, न चमेली की, न चंदन की, न बेला की। लेकिन सज्जनों की सुगंध विपरीत दिशा में भी जाती है।’

सत्पुरुष सभी दिशाओं में सुगंध बहाता है। एक ही सुगंध है इस जगत में जो विपरीत दिशा में भी चली जाती है। वह है सत्पुरुष की। वह है संत-पुरुष की। वह है जाग्रत पुरुष की सुगंध।

मनुष्य भी एक फूल है। और जो कली ही रह गए, खिल न पाए, उनके दुख का अंत नहीं। कलियों से पूछो, जो खिलने में असमर्थ हो गयीं; जिनमें गंध भरी थी और लुटा न पायीं; ऐसे ही जैसे किसी स्त्री को गर्भ रह गया, और फिर बच्चे का जन्म न हो, तो उसका संताप समझो। गर्भ बड़ा होता जाए और बेटे का जन्म न हो, तो उस स्त्री की पीड़ा समझो। ऐसा ही प्रत्येक मनुष्य पीड़ा में है, क्योंकि तुम्हारे भीतर जो बड़ा हो रहा है, वह जन्म नहीं पा रहा है। तुम एक गर्भ लेकर चल रहे हो। गर्भ बड़ा होता जाता है, लेकिन तुम्हारे जन्म की दिशा खो गई है। तुम भूल ही गए हो। तुम एक कली हो, उसके भीतर गंध इकट्ठी होती जा रही है। बोझिल हो गई है, कली अपने ही बोझ से दबी जा रही है।

मेरे देखे तुम्हारी पीड़ा यह नहीं है कि तुम्हारे जीवन में दुख है। तुम्हारी असली पीड़ा यही है कि जो सुख हो सकता था वह नहीं हो पा रहा है। यह दुख की मौजूदगी नहीं है जो तुम्हें पीड़ित कर रही है, यह उस सुख की मौजूदगी का अभाव है जो हो सकता था और नहीं हो पा रहा है। तुम्हारी गरीबी तुम्हें पीड़ा नहीं दे रही है। लेकिन तुम्हारे भीतर जो अमीरी का झरना फूट सकता था, फूटने को तत्पर खड़ा है, उस पर चट्टान पड़ी है, वह झरना फट नहीं पा रहा है। यह विकास की छटपटाहट है आदमी का संताप। यह आदमी की पीड़ा जन्म लेने की छटपटाहट है।

सारा अस्तित्व खिलने में भरोसा रखता है। जब भी कोई चीज खिल जाती है तो निर्भार हो जाती है। आदमी भी एक फूल है। और बुद्ध कहते हैं, बड़ा अनूठा फूल है। और बुद्ध जानकर रहते हैं। उनका फूल खिला तब उन्होंने एक अनूठी बात जानी कि विपरीत दिशाओं में भी, जहा हवा नहीं भी जा रही हो, वहा भी संत की गंध चली जाती है। संत की गंध कोई सीमाएं नहीं मानती।

‘फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशाओं में नहीं जाती। न चंदन की, न तगर की, न चमेली की, न बेला की। लेकिन सज्जनों की सुगंध विपरीत दिशा में भी जाती है।

सज्जन की सुगंध एकमात्र सुगंध है, जो संसार के नियम नहीं मानती। जो संसार के साधारण नियमों के पार है, जो अतिक्रमण कर जाती है।

सीख ले फूलों से गाफिल मुद्दआ-ए-जिंदगी

खुद महकना ही नहीं गुलशन को महकाना भी है

इतना ही काफी नहीं है कि खुद महकों।

खुद महकना ही नहीं गुलशन को महकाना भी है

इसलिए बुद्ध ने कहा है, समाधि, फिर प्रज्ञा। समाधि, फिर करुणा। बुद्ध ने कहा है, वह ध्यान-ध्यान ही नहीं, जो करुणा तक न पहुंचा दे।

खुद महकना ही नहीं गुलशन को महकाना भी है

उसी समाधि को बुद्ध ने परिपूर्ण समाधि कहा है जो लुट जाए सभी दिशाओं में। सभी दिशाओं में बह जाए।

लेकिन यही समझ लेने की बात है। यह बड़ी विरोधाभासी बात है। तुम साधारण अवस्था में सभी दिशाओं में दौड़ते हो और कहीं नहीं पहुंच पाते। बुद्धत्व की तरफ चलने. वाला व्यक्ति एक दिशा में चलता है और जिस दिन पहुंचता है उस दिन सभी दिशाओं में बहने में समर्थ हो जाता है।

तुम सभी दिशाओं में बहने की कोशिश करते हो। थोड़ा धन भी कमा लें, थोड़ा धर्म भी कमा लें। थोड़ी प्रतिष्ठा भी बना लें, थोड़ी समाधि भी कमा लें। थोड़ा दुकान भी बचा लें, थोड़ा मंदिर भी। तुम सभी दिशाओं में हाथ फैलाते हो। और आखिर में पाते हो भिखारी के भिखारी ही विदा हो गए। जैसे आए थे खाली हाथ वैसे खाली हाथ गए। बहुत पकड़ना चाहा, कुछ पकड़ में न आया।

तुम्हारी हालत करीब-करीब वैसी है जैसे तुमने एक बहुत प्रसिद्ध गधे की सुनी हो, कि एक मजाकिया आदमी ने एक गधे के पास दोनों तरफ घास के दो ढेर लगा दिए बराबर दूरी पर। और गधा बीच में खड़ा था। उसे भूख तो लगी, तो वह बाएं तरफ जाना चाहा, तब मन ने कहा कि दाएं। उस तरफ भी घास थी। दाएं तरफ जाना चाहा तो गन ने कहा बाएं।

कहते हैं गधा भूखा बीच में खड़ा-खड़ा मर गया, क्योंकि न वह बाएं जा सका, न दाएं। जब दाएं जाना चाहा तब मन ने कहा बायां। जब बाएं जाना चाहा तब मन ने कहा दायां।

तुम्हारा मन यही कर रहा है। जब तुम मंदिर की तरफ जाना चाहते हो, तब मन कहता है दुकान। जब तुम दुकान पर बैठे हो, मन को भजन याद आता है, मंदिर। ऐसे ही मर जाओगे। और दोनों तरफ तृप्ति के साधन मौजूद थे। कहीं भी गए होते। मैं तुमसे कहता हूं? अगर तुम दुकान पर ही पूरी तरह से चले जाओ तो वहीं ध्यान हो जाएगा। आधे-आधे मंदिर जाने की बजाय दुकान पर पूरे चले जाना बेहतर है। क्योंकि पूरे चला जाना ध्यान है। ग्राहक से बात करते वक्त भीतर राम-राम गुनगुनाना गलत है। ग्राहक को ही पूरा राम मान लेना उचित है।

आधे-आधे कुछ सार न होगा। आधा यहां, आधा वहां, तुम दो नाव पर सवार हो, तुम बड़ी मुश्किल में पड़े हो। तुम सब दिशाओं में पहुंचना चाहते हो और कहीं नहीं पहुंच पाते। बुद्धपुरुष एक दिशा में जाते हैं। और जिस दिन मंजिल पर पहुंचते हैं, सब दिशाओं में उनकी गंध फैल जाती है। तुम सब पाने की कोशिश में सब गंवा देते हो। बुद्धपुरुष एक को पा लेते हैं और सब पा लेते हैं।

महावीर ने कहा है, जिसने एक को पा लिया, उसने सब पा लिया। जिसने एक को जान लिया, उसने सब जान लिया।

जीसस ने कहा है, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गाड ऐंड आल एल्म शैल बी एडेड अनटू यू। अकेले तुम परमात्मा की खोज कर लो। प्रभु का राज्य खोज लो, शेष सब अपने से आ जाएगा, तुम उसकी फिकर ही मत करो। एक को जिसने गंवाया, वह सब गंवा देता है। और एक को जिसने पाया वह सब पा लेता है।

लेकिन तुम्हारा सब अधूरा-अधूरा है। अधूरे-अधूरे के कारण तुम खंड-खंड हो गए हो। तुम्हारे भीतर बड़े टुकड़े हो गए हैं। एक टुकड़ा कहीं जा रहा है, दूसरा टुकड़ा कहीं जा रहा है। तुम एक टूटी हुई नाव हो, जिसके तख्ते अलग-अलग बह रहे हैं। तुम कैसे पहुंच पाओगे? तुम कहा पहुंच पाओगे? तुम हो ही नहीं। तुम इतने खंड-खंड हो गए हो कि तुम हो, यह कहना भी उचित नहीं है। होने के लिए जरूरी है कि तुम्हारी दिशा बने, एक अनुशासन हो, एक श्रृंखला हो। तुम फूलों को पिरोना सीखो, फूलों की माला बनाना सीखो।

जीवन में सत्य का आविष्कार करना है, प्रेम का आविष्कार करना है। जीवन में तुम कौन हो इसका आविष्कार करना है। इसे ऐसी ही नहीं गंवा देना है। तो तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे अनुशासन आना शुरू हो जाए। अगर तुम्हारे पास कुछ भी-थोड़ी सी भी-दृष्टि हो, दिशा हो कहां पहुंचना है, तो एक तारतम्य आ जाए। उस तारतम्य के साथ ही साथ तुम्हारे भीतर एकता का जन्म होगा। इस एकता के माध्यम से ही किसी दिन तुम माला बन सकते हो। और जिस दिन तुम माला बन जाते हो, उस दिन परमात्मा के गले में चढ़ाने नहीं जाना होता। परमात्मा का गला खुद तुम्हारी माला में आ जाता है। आ ही जाएगा। तुम काबिल हो गए।

काबले-इल्‍तिफात तू ही नहीं

तभी तक अड़चन थी।

उनसे शिकवा फजूल है सीमाब

शिकायत बेकार है। इतना ही जानना कि अभी हम तैयार नहीं हुए।

अब यह फूलों की गठरी को तुम किसी के गले में डालना चाहोगे तो माला कैसे बनेगी? गिर जाएंगे फूल नीचे, धूल में पड़ जाएंगे। यह माला किसी के गले में डालनी हो तो माला होनी चाहिए। फूलों के ढेर को माला मत समझ लेना।

थोड़ा देखो, माला और ढेर में क्या फर्क है? ढेर में संगठन नहीं है, अर्थात आत्मा नहीं है। माला में एक संगठन है, एक व्यक्तित्व है, एक आत्मा है। धागा दिखाई नहीं पड़ता। एक फूल से दूसरे फूल में चुपचाप अदृश्य में पिरोया हुआ है। जीवन के लक्ष्य भी दिखाई नहीं पड़ते। एक क्षण से दूसरे क्षण में अदृश्य पिरोए होते हैं। बुद्ध उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, तो हर घड़ी के भीतर ध्यान का धागा पिरोया हुआ है। जो भी करते हैं, एक बात ध्यान रखते ही हैं कि उस करने में से ध्यान का धागा न छूटे। वह धागा बना रहे।

फूल से भी ज्यादा मूल्य धागे का है, लक्ष्य का है, दिशा का है। और जिस दिन यह घड़ी घट जाती है कि तुम संगठित हो जाते हो, तुम एक हो जाते हो, उसी दिन-उसी दिन परमात्मा की कृपा तुम पर बरस उठती है। उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

इसलिए बुद्ध उस संबंध में चुप रहे हैं। जो कहा जा सकता था, उन्होंने कहा। जो नहीं कहा जा सकता था, उन्होंने नहीं कहा। उन्होंने सारा जोर इस पर दिया है कि तुम्हारा व्यक्तित्व कैसे एक हो जाए। तुम्हारा ज्ञान कैसे आचरण बन जाए। तुम्हारे बिखरे फूल कैसे माला बन जाएं। इससे ज्यादा उन्होंने बात नहीं की, क्योंकि इसके बाद बात करनी ठीक ही नहीं है। इसके बाद जो होना है वह होता ही है। वह हो ही जाता है। उसमें कभी कोई अड़चन नहीं पड़ती।

इसलिए परमात्मा को तुम भूल जाओ तो अड़चन नहीं है। अपने को मत भूल जाना। अपने को भूला, तो सब गया, सब डूबा। खुद की याद रखी और उसी याददाश्त को रोज-रोज सम्हालते गए, रोज-रोज हर तरह से वह याददाश्त सघन होती चली जाए, जैसे जल गिरता है पहाड़ से-और चट्टान मजबूत है, जल बिलकुल नाजुक है-लेकिन रोज गिरता ही चला जाता है। एक दिन चट्टान तो रेत होकर बह जाती है, जल की धार अपनी जगह बनी रहती है।

कठोर से कठोर भी टूट जाता है सातत्य के सामने। इसलिए घबड़ाना मत, अगर आज तुम्हें अपनी दशा चट्टान जैसी लगे। तुम कहो कि कैसे यह अहंकार बहेगा? यह चट्टान बड़ी मजबूत है। कैसे यह दिल झुकेगा? यह झुकना जानता नहीं। तुम इसकी फिकर मत करना, तुम सिर्फ सातत्य रखना ध्यान का, अवलोकन का, साक्षी का। शेष सब अपने से हो जाता है।

बुद्ध ने मनुष्य के व्यक्तित्व का विज्ञान दिया। उन्होंने मनोविज्ञान दिया। मेटाफिजिक्स, परलोक के शास्त्र की बात नहीं की। बुद्ध बड़े यथार्थवादी हैं। वे कहते हैं जो करना -जरूरी है, वही। और ज्यादा व्यर्थ की विस्तार की बातों में तुम्हें भटकाने की जरूरत नहीं है। ऐसे ही तुम काफी भटके हुए हो।

थोड़े से तुम्हें सूत्र दिए हैं। अगर तुम उन्हें कर लो, तो उन सूत्रों में बड़ी आग है। वे अंधकार को जला डालेंगे। वे व्यर्थ को राख कर देंगे। और उन सूत्रों की आग से तुम्हारे भीतर का स्वर्ण निखरकर बाहर आ जाएगा। बुद्ध ने बहुत थोड़ी सी बातें कहीं। उन्हीं-उन्हीं को दोहराकर कहा है। क्योंकि बुद्ध को कोई रस दर्शनशास्त्र में नहीं है। बुद्ध को रस है मनुष्य की आंतरिक-क्रांति में, रूपांतरण में। बुद्ध को जिन लोगों ने गौर से अध्ययन किया है, उन सबको हैरानी होती है कि बुद्ध एक ही बात को कितनी बार दोहराए चले जाते हैं। वह हैरानी इसीलिए होती है कि बुद्ध व्यर्थ की बात को कभी बीच में नहीं लाते। बस सार्थक को ही दोहराते हैं, ताकि सतत चोट पड़ती रहे।

और तुम ऐसे हो, तुम्हारी नींद ऐसी है, तुम्हारी तंद्रा ऐसी है कि बहुत बार दोहराने पर भी तुम सुन लो, वह भी आश्चर्य है। बुद्ध से कोई पूछता था तो वे तीन बार दोहराकर जवाब देते थे। उसी वक्त तीन दफा दोहराकर जवाब देते थे। क्यों तीन बार? क्योंकि.. बुद्ध से कोई पूछने लगा कि क्यों तीन बार? क्या आप सोचते हैं हम बहरे हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं। अगर तुम बहरे होते तो इतनी अड़चन न थी। तुम बहरे नहीं हो और फिर भी सुनते नहीं हो। तुम सोए नहीं हो, यही तो अड़चन है। सोए होते तो जगाना आसान हो जाता है। तुम बनकर लेटे हो। तुम सोने का ढोंग कर रहे हो। उठना भी नहीं चाहते, जाग भी गए हो। तुम सुनते हुए मालूम पड़ते हो और सुनते भी नहीं, इसलिए तीन बार दोहराता हूं।

यह जो बुद्ध का दोहराना है, धम्मपद में-इस पूरी चर्चा में-बहुत बार आएगा। अलग-अलग द्वारों से वे फिर वहीं लौट आते हैं-कैसे तुम्हारा रूपांतरण हो? बुद्ध की सारी आकांक्षा, अभीप्सा मनुष्य-केंद्रित है। महावीर मोक्ष-केंद्रित हैं।

वे मोक्ष की चर्चा करते हैं। जीसस ईश्वर-केंद्रित हैं, वे ईश्वर की चर्चा करते हैं। बुद्ध मनुष्य-केंद्रित हैं। जैसे मनुष्य से ऊपर कोई सत्य नहीं है बुद्ध के लिए।

साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाहीं।

सबके ऊपर मनुष्य का सत्य है और उसके ऊपर कोई सत्य नहीं है। क्योंकि जिसने मनुष्य के सत्य को समझ लिया, उसे कुंजी मिल गई। सारे सत्यों के द्वार उसके लिए फिर खुले हैं।

बुद्ध को भोजन बनाओ, पीओ, पचाओ, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे तुम्हारे भीतर बुद्ध का अवतरण होने लगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे तुम्हारे भीतर बुद्ध की प्रतिमा उभरने लगी। हर चट्टान छिपाए है बुद्ध की प्रतिमा अपने में। जरा छेनी की जरूरत है, हथौड़ी की जरूरत है। व्यर्थ को छांटकर अलग कर देना है।

किसी ने माइकल एंजलो से पूछा-क्योंकि एक चर्च के बाहर एक पत्थर बहुत दिन से पड़ा था, उसे अस्वीकार कर दिया गया था, चर्च के बनाने वालों ने उपयोग में नहीं लिया था, वह बड़ा अनगढ़ था, माइकल एंजलो ने उस पर मेहनत की और उससे एक अपूर्व क्राइस्ट की प्रतिमा निर्मित की-किसी ने पूछा कि यह पत्थर तो बिलकुल व्यर्थ था, इसे तो फेंक दिया गया था, इसे तो राह का रोड़ा समझा जाता था, तुमने इसे रूपांतरित कर दिया! तुम अनूठे कलाकार हो!

माइकल एंजलो ने कहा, नहीं, तुम गलती कर रहे हो। जो मैंने पत्थर से प्रगट किया है, वह पत्थर में छिपा ही था, सिर्फ मैंने पहचाना। और जो व्यर्थ टुकड़े पत्थर के आसपास थे उनको छांटकर अलग कर दिया। यह प्रतिमा तो मौजूद ही थी। मैंने बनाई नहीं। मैंने सिर्फ सुनी आवाज। मैं गुजरता था यहां से, यह पत्थर चिल्लाया और इसने कहा कि कब तक मैं ऐसे ही पड़ा रहूं? कोई पहचान ही नहीं रहा है। तुम मुझे उठा लो, जगा दो। बस, मैंने छेनी उठाकर इस पर मेहनत की। जो सोया था उसे जगाया।

बुद्धत्व को कहीं पाने नहीं जाना है। हरेक के भीतर आज जो चट्टान की तरह मालूम हो रहा है-अनगढ़, बस जरा से छेनी-हथौड़े की जरूरत है। सब के भीतर से पुकार रहा है कि कब तक पड़ा रहूंगा? उघाड़ो मुझे!

इसलिए बुद्ध कहते हैं, जो तुम सुनो, जो सुभाषित तुम्हारे कानों में पड़ जाएं, उन्हें तुम स्मृति में संगृहीत मत करते जाना। उन्हें उतारना आचरण में। उन्हें जीवन की शैली बनाना। धीरे-धीरे तुम्हारे चारों तरफ उनकी हवा तुम्हें घेरे रहे, उनके मौसम में तुम जीना। जल्दी ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर का बुद्धत्व उभरना शुरू हो गया। फूल माला बन गए।

और तब एक ऐसी घटना घटती है, जो संसार के नियमों के पार है। फूलों की सुगंध वायु की विपरीत दिशा में नहीं जाती, न चंदन की, न तगर की, न चमेली की, न बेला की। लेकिन जिनके भीतर का बुद्धपुरुष जाग गया, बुद्ध चैतन्य जाग गया,

उनकी सुगंध विपरीत दिशा में भी जाती है। सभी दिशाओं में उनकी सुगंध फैल जाती है।

और जब तक तुम ऐसे अपने को लुटा न सकोगे, तब तक तुम पीड़ित रहोगे। एक ही नर्क है-अपने को प्रगट न कर पाना। और एक ही स्वर्ग है-अपनी अभिव्यक्ति खोज लेना।

जो गीत तुम्हारे भीतर अनगाया पड़ा है, उसे गाओ। जो वीणा तुम्हारे भीतर सोई पड़ी है, छेड़ो उसके तारों को। जो नाच तुम्हारे भीतर तैयार हो रहा है, उसे तुम बोझ की तरह मत ढ़ोओ। उसे प्रगट हो जाने दो।

प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर बुद्धत्व को लेकर चल रहा है। जब तक वह फूल न खिले, तब तक बेचैनी रहेगी, अशांति रहेगी, पीड़ा रहेगी, संताप रहेगा। वह फूल खिल जाए, निर्वाण है, सच्चिदानंद है, मोक्ष है।

आज इतना ही।


Filed under: एस धम्‍मो सनंतनो--(भाग-2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग–2) प्रवचन–18

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प्रार्थना : प्रेम की पराकाष्ठा–प्रवचन–18

पहला प्रश्न :

बुद्ध बातें करते हैं होश की, जागने की, और आप बीच-बीच में मस्ती, नशा, शराब और लीनता की बातें भी उठाया करते हैं। बुद्ध पर बोलते समय विपरीत की चर्चा क्यों आवश्यक है? कृपया समझाएं।दृष्‍टि न हो, तो

विपरीत दिखाई पड़ता है। दृष्टि हो, तो जस भी विपरीत दिखाई न पड़ेगा। जिसको बुद्ध होश कहते हैं, उसी को सूफियों ने बेहोशी कहा। जिसको बुद्ध अप्रमाद कहते हैं, उसी को भक्तों ने शराब कहा। बुद्ध के वचनों में और उमर खैयाम में इंचभर का फासला नहीं। बुद्ध ने जिसे मंदिर कहा है, उसी को उमर खैयाम ने मधुशाला कहा। बुद्ध तो समझे ही नहीं गए उमर खैयाम भी समझा नहीं गया। उमर खैयाम को लोगों ने समझा कि शराब की प्रशंसा कर रहा है।

कुछ अपनी करामात दिखा ए साकी

जो खोल दे आंख वो पिला ए साकी

होशियार को दीवाना बनाया भी तो क्या

दीवाने को होशियार बना ए साकी

तुम बेहोश हो। शराब तो तुमने पी ही रखी है। संसार की शराब। किसी ने धन की शराब पी रखी है और धन में बेहोश है। किसी ने पद की शराब पी रखी है और पद में बेहोश है। किसी ने यश की शराब पी रखी है। जिनको न पद, यश, धन की शराब मिली, वे सस्ती शराब मयखानों में पी रहे हैं। वे हारे हुए शराबी हैं।

और बडा मजा तो यह है कि बड़े शराबी छोटे शराबियों के खिलाफ हैं। जो दिल्ली में पदों पर बैठे हैं, वे छोटे-छोटे मयखानों में लोगों को शराब नहीं पीने देते। उन्होंने खुद भी शराब पी रखी है। लेकिन उनकी शराब सूक्ष्म है। उनका नशा बोतलों मैं बंद नहीं मिलता। उनका नशा बारीक है। उनके नशे को देखने के लिए बड़ी गहरी आंख चाहिए। उनका नशा स्थूल नहीं है।

राह पर तुमने शराबी को डगमगाते देखा, राजनेता को डगमगाते नहीं देखा? राह में तुमने शराबी को गिर जाते देखा, धनी के पैर तुमने डगमगाते नहीं देखे? शराबी को ऊलजलूल बकते देखा, पदधारियों को ऊलजलूल बकते नहीं देखा? तो फिर तुमने कुछ देखा नहीं। संसार में आंख बंद करके जी रहे हों।

बहुत तरह की शराबें हैं। संसार शराब है। उमर खैयाम, सूफी या भक्त जिस शराब की बात कर रहे हैं, वह ऐसी शराब है जो संसार के नशे को तोड़ दे। जो तुम्हें जगा दे।

परमात्मा की शराब का लक्षण है जागरण। इसलिए बुद्ध और उमर खैयाम की बातों में फर्क नहीं है। जानकर ही बुद्ध के साथ इन मस्तानों की भी बात कर रहा हूं। क्योंकि अगर तुम्हें फर्क दिखाई पड़ता रहा, तो न तो तुम बुद्ध को समझ सकोगे और न इन दीवानों को। जब इन दोनों में तुम्हें कोई फर्क न दिखाई पड़ेगा, तभी तुम समझोगे।

‘परमात्मा का भी एक नशा है। लेकिन नशा ऐसा है कि और सब नशे तोड़ देता है। नशा ऐसा है कि तुम्हारी नींद ही तोड़ देता है। नशा ऐसा है कि जागरण की एक अहर्निश धारा बहने लगती है। फिर भी उसे नशा क्यों कहें? तुम पूछोगे। जब होश आता है, तो नशा क्यों कहें? नशा इसलिए है कि होश तो आता है, मस्ती नहीं जाती। होश तो आता है, मस्ती बढ़ जाती है। और ऐसा होश भी क्या जो मस्ती भी छीन ले! फिर तो मरुस्थल का हो जाएगा होश। फिर तो रूखा-सूखा होगा। फिर तो हरियाली न होगी, फूल न खिलेंगे, और पक्षी गीत न गाएंगे, और झरने न बहेंगे, और आकाश के तारों में सौंदर्य न होगा।

या तो तुम उमर खैयाम को समझ लेते हो कि यह किसी साधारण शराब की प्रशंसा कर रहा है, और या तुम समझ लेते हो कि बुद्ध मस्ती के खिलाफ हैं। दोनों नासमझियां हैं। बुद्ध मस्ती के खिलाफ नहीं हैं। बुद्ध से ज्यादा मस्त आदमी तुम कहां पाओगे? तुम कहोगे, यह जरा अड़चन की बात है। बुद्ध को किसी ने कभी नाचते नहीं देखा। मीरा नाचती है, चैतन्य नाचते हैं। बुद्ध को कब किसने नाचते देखा? पर मै तुमसे कहता हूं? ऐसे भी नाच हैं जो दिखाई नहीं पड़ते। और मैं तुमसे यह भी कहता हूं कि नाच की एक ऐसी आखिरी स्थिति भी है, जहां सब थिर हो जाता है। ऐसा भी नाच है, जहां कंपन नहीं होता।

किसी और उदाहरण से समझें जो तुम्हारी समझ में आ जाए। क्योंकि यह बात तो बेबूझ हो जाएगी, पहेली बन जाएगी। कोई मर जाता है प्रियजन, तो तुमने आंखों से आंसू बहाते लोग देखे हैं। कभी तुमने उस दुख की घड़ी को भी देखा है जब आंसू भी नहीं बहते। ऐसे भी दुख हैं। दुख की आत्यंतिक ऐसी भी गहराई है कि आंख से आंसू भी नहीं बहते, मुंह से आह भी नहीं निकलती। दुख इतना गहन हो जाता है कि आंसू बहाना भी दुख की बेइज्जती मालूम होगी। दुख इतना गहन हो जाता है कि रोना भी व्यर्थ मालूम होगा।

रोते भी वे हैं, जिनके दुख में अभी थोड़ी सुख की सुविधा है। जिनका दुख पूरा नहीं है। रोते भी वे हैं, जिनके दुख ने अभी आखिरी तक नहीं छू लिया है। हृदय के आखिरी कोर तक को नहीं भिगो दिया है। चिल्लाते भी वे हैं, जिनका दुख स्थूल है। तुमने कभी ऐसी घड़ी जरूर देखी होगी, कि दुख महान हुआ, दुख इतना बड़ा था कि तुम सम्हाल न पाए, आंखें भी सम्हाल न पायीं, आंसू भी सम्हाल न पाए, सब सन्नाटा हो गया। आघात इतना गहरा था कि कंपन ही न हुआ।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर ऐसी घड़ी हो तो किसी भी तरह उस व्यक्ति को रुलाने की चेष्टा करनी चाहिए, अन्यथा वह मर भी जा सकता है। किसी भांति उसे हिलाओ, रुलाओ, उसकी आंखों में किसी भांति आंसू ले आओ, ताकि आघात हल्का हो जाए, ताकि आघात बह जाए ताकि दुख आंसुओ से निकल जाए और भीतर राहत आ जाए।

तुम दुख के कारण रोते हो, या दुख से छुटकारा पाने के कारण रोते हो? तुम दुख के कारण रोते हो, या दुख से राहत पाने के लिए रोते हो? दुख जब सघन होता है, तो आवाज भी नहीं उठती। दिल जब सच में ही टूट जाता है, तो आवाज भी नहीं उठती।

ठीक इससे विपरीत अब तुम समझ सकोगे। मीरा नाचती है। अभी नाच सकती है, इसलिए। अभी नाच इतना गहरा नहीं गया है। अभी लीनता और समाधि की दशा इतनी गहरी नहीं गई है जहां नाच भी खो जाए। ऐसे भी नाच हैं जहा नाच भी खो जाता है। ऐसे भी दुख हैं जहा आंसू भी नहीं होते।

बुद्ध भी नाच रहे हैं, लेकिन बड़ा सूक्ष्म है यह नृत्य। यह इतना सूक्ष्म है कि स्थूल आंखें न पकड़ पाएंगी। इसे तो केवल वे ही देख पाएंगे जिन्होंने ऐसा नाच जीया हो, जाना हो।

मैं तुमसे कहता हूं? बुद्ध नाच रहे हैं। अन्यथा हो ही नहीं सकता। मैं तुमसे कहता हूं बुद्ध ने पी ली वह शराब, जिसकी मैं बात कर रहा हूं। आनंद इतना सघन है,अवाक हो गए हैं! ठगे रह गए हैं! मीरा तो नाच भी सकी, थोड़ी राहत मिली होगी। आनंद भी जब सघन हो जाए तो कुछ करो तो राहत मिल जाती है। बुद्ध पी गए। पूरा आनंद पी गए। अगर कोई मुझसे पूछे, तो बुद्ध का नशा मीरा से भी ज्यादा है। मीरा को तो कम से कम नाचने की खबर रही। बुद्ध को उतनी खबर भी न रही।

ध्यान रखना, जब मैं मीरा, या बुद्ध, या किन्हीं और की बात करता हूं तो ये बातें तुलनात्मक नहीं हैं, कंपेरेटिव नहीं हैं। मैं किसी को छोटा-बड़ा नहीं कह रहा हूं। मैं तो सिर्फ तुम्हें समझाने के लिए बात ले रहा हूं। तुम्हें बुद्ध समझ में आ जाएं, तो तुम्हें उमर खैयाम भी समझ में आ जाएगा।

फिट्जराल्ड ने, जिसने उमर खैयाम का अंग्रेजी में अनुवाद किया, उमर खैयाम को बरबाद कर दिया। क्योंकि सारी दुनिया ने फिट्जराल्ड के बहाने ही, उसी के मार्ग से, उसी के निमित्त से उमर खैयाम को जाना। और सारी दुनिया ने यही समझा कि यह शराब की चर्चा है, यह मयखाने की चर्चा है। यह मयखाने की चर्चा नहीं है, शराब की चर्चा नहीं है, यह मंदिर की बात है।

कुछ अपनी करामात दिखा ए साकी

जो खोल दे आंख वो पिला ए साकी

होशियार को दीवाना बनाया भी तो क्या

दीवाने को होशियार बना ए साकी

बुद्ध ने ऐसी ही शराब ढाली, जिसमें दीवाने होशियार बन जाते हैं। वही उनका अप्रमाद योग है। वही उनकी जागरण की कला है। लेकिन मैं इसको फिर-फिर शराब कहता हूं। क्योंकि मैं चाहता हूं तुम यह न भूल जाओ कि यह रूखी-सूखी जीवन स्थिति नहीं है, बड़ी हरी-भरी है। यह रेगिस्तान नहीं है, मरूद्यान है। यहां फूल खिलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं। यहां चांद-तारे घूमते हैं। यहां गीतों का जन्म होता है। यहां रोएं-रोएं में, जरें-जरें में अज्ञात की प्रतिध्वनि सुनी जाती है। यहां मंदिर की घंटियों का नाद है और मंदिर में जलती धूप की सुगंध है। बुद्ध नीरस नहीं बैठे हैं। हीरा सम्हालकर बैठे हैं।

कबीर ने कहा है, हीरा पायो गांठ गठियायो।

तुम ऊपर ही ऊपर मत देखते रहना, गांठ ही दिखाई पड़ती है। भीतर हीरे को गठियाकर बैठे हैं। हिलते भी नहीं, इतना बड़ा हीरा है। कंपित भी नहीं होते, इतना बड़ा हीरा है। इतनी बड़ी संपदा मिली है कि धन्यवाद देना भी ओछा पड़ जाएगा। छोटा पड़ेगा। अहोभाव भी प्रगट क्या करें! अहोभाव प्रगट करने वाला भी खो गया है। कौन धन्यवाद दे, कौन अनुग्रह की बात करे, कौन उत्सव मनाए।

मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि ऐसे उत्सव भी हैं जब उत्सव भी ओछा पड़ जाता है। इसलिए जानकर ही बात कर रहा हूं। जब कभी उमर खैयाम की तुमसे बात करूंगा, तो बुद्ध की भी बात करूंगा। क्योंकि न तो उमर खैयाम समझा जा सकता है बुद्ध के बिना, न बुद्ध समझे जा सकते हैं उमर खैयाम के बिना।

मेरी सारी चेष्टा यही है कि जिनको तुमने विपरीत समझा है, उनको तुम इतने गौर से देख लो कि उनकी विपरीतता खो जाए। और अलग-अलग रंगों और रूपों में तुम्हें एक ही सौंदर्य की झलक मिल जाए। मीरा के नाच में अगर तुम्हें बुद्ध बैठे मिल जाएं और बुद्ध की ध्यानस्थ प्रतिमा में अगर तुम्हें मीरा का नाच मिल जाए, तो हाथ लग गई कुंजी। मंदिर का द्वार तुम भी खोलने में समर्थ हो जाओगे। जिन्होंने इससे अन्यथा देखा, उन्होंने देखा नहीं। उन अंधों की बातों में मत पड़ना।

दूसरा प्रश्न?

 

कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं

कुछ दिल ने सुना? कुछ भी नहीं

ऐसे भी बातें होती हैं?

ऐसे ही बातें होती हैं!

क तो मनुष्य की बुद्धि में चलते हुए विचारों का जाल है। वहां सब साफ-सुथरा है। वहां चीजें कोटियों में बंटी हैं, क्योंकि वहां तर्क का साम्राज्य है। और एक फिर हृदय में उठती हुई लहरें हैं। वहा कुछ भी साफ-सुथरा नहीं है। वहा तर्क का साम्राज्य नहीं है। वहां प्रेम का विस्तार है। वहां हर लहर दूसरी लहर से जुड़ी है। वहां कुछ भी अलग- थलग नहीं है, सब संयुक्त है। वहा शून्य भी बोलता है, और बोलना भी सन्नाटे जैसा है। वहां नृत्य भी आवाज नहीं करता, और वहां सन्नाटा भी नाचता है।

तर्क की जितनी कोटियां हैं, जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब आते हो, टूटती चली जाती हैं। तर्क के जितने हिसाब हैं, जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब आते चले जाते हो, वे हिसाब व्यर्थ होने लगते हैं। जितनी धारणाएं हैं विचार की, वे धारणाएं बस जब तक तुम मस्तिष्क में जीते हो, खोपड़ी ही तुम्हारा जब तक घर है, तब तक अर्थपूर्ण हैं। जैसे ही थोड़े गहरे गए, जैसे ही थोड़ी डुबकी ली, जैसे ही थोड़े अपने में लीन हुए, जैसे ही हृदय के पास सरकने लगे, वैसे ही सब रहस्य हो जाता है। जो जानते थे, पता चलता है वह भी कभी जाना नहीं। जो सोचते थे कभी नहीं जाना, एहसास होता है जानने लगे। शात छूटता है, अज्ञात में गति होती है। किनारे से नाव मुका होती है और उस सागर में प्रवेश होता है, जिसका फिर कोई किनारा नहीं। इस किनारे से नाव मुका होती है, उस तरफ जहां फिर कोई दूसरा किनारा नहीं है, तटहीन सागर है हृदय का, वहा बड़ी पहेली बन जाती है।

कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं

कुछ दिल ने सुना? कुछ भी नहीं

ऐसे भी बातें होती हैं?

ऐसे ही बातें होती हैं!’

दिल को सुनने की कला सीखनी पड़ेगी। अगर पुरानी आदतों से ही सुना, जिस ढंग से मन को सुना था, बुद्धि को सुना था, अगर उसी ढंग से सुना, तो तुम हृदय की भाषा न समझ पाओगे। वह भाषा भाव की है। उस भाषा में शब्द नहीं हैं, संवेग हैं। उस भाषा में शब्दकोश से तुम कुछ भी सहायता न ले सकोगे। उस भाषा में तो जीवन के कोश से ही सहायता लेनी पड़ेगी।

और इसीलिए अक्सर लोग हृदय के करीब जाने से डर जाते हैं। क्योंकि हृदय के पास जाते ऐसा लगता है, जैसे पागल हुए जाते हैं। सब साफ-सुथरापन नष्ट हो जाता है। ऐसा ही समझो कि विराट जंगल है जीवन का, और तुमने एक छोटे से आंगन को साफ-सुथरा कर लिया है-काट दिए झाड़-झंखाड़, दीवालें बना ली हैं। अपने आंगन में तुम सुनिश्चित हो। जरा आंगन से बाहर निकलो, तो जंगल की विराटता घबड़ाती है। वहां खो जाने का डर है। वहां कोई राजपथ नहीं। पगडंडियां भी नहीं हैं, राजपथ तो बहुत दूर।

उस विराट बीहड़ जंगल में, जीवन के जंगल में तो तुम चलो, जितना चलो उतना ही रास्ता बनता है। चलने से रास्ता बनता है। चलने के लिए कोई रास्ता तैयार नहीं है। रेडीमेड वहां कुछ भी नहीं है। इसलिए आदमी डरता है, लौट आता है अपने अपान में। यही तो अड़चन है। बुद्धि तुम्हारा आंगन है, जहां सब साफ-सुथरा है, जहां गणित ठीक बैठ जाता है।

प्लेटो ने अपनी अकादमी, अपने स्कूल के द्वार पर लिख रखा था-जों गणित न जानता हो, वह भीतर न आए। प्लेटो यह कह रहा है, जिसने बुद्धि की भाषा न सीखी हो, वह यहां भीतर न आए।

मेरे द्वार पर भी लिखा है कुछ। प्लेटो तो लिख सकता है, क्योंकि बुद्धि के पास शब्द हैं, मैं लिख नहीं सकता। लेकिन मेरे द्वार पर भी लिखा है कि जो हृदय की भाषा न समझता हो, वह भीतर न आए। क्योंकि यहां हम उस जगत की ही बात कर रहे हैं, जिसकी कोई बात नहीं हो सकती। यहां हम उसी तरफ जाने की चेष्टा में संलग्न हैं, जहां जाना अपने को मिटाने जैसा है। जहा केवल वे ही पहुंचते हैं जो अपने को खोने को तत्पर होते हैं। तो डर लगेगा।

इसीलिए तो लोग प्रेम से भयभीत हो गए हैं। प्रेम की बात करते हैं, प्रेम करते नहीं। बात खोपड़ी से हो जाती है। करना हो, तो जीवन के बीहड़ जंगल में प्रवेश करना होता है। खतरे ही खतरे हैं। प्रेम के संबंध मे लोग सुनते हैं, समझते हैं, गीत गाते हैं, कथाएं पढ़ते हैं, प्रेम करते नहीं। क्योंकि प्रेम करने का अर्थ, अपने को मिटाना। अहंकार खो जाए, तो ही प्रेम का अंकुरण होता है। और जिसने प्रेम ही न जाना-जिस अभागे ने प्रेम ही न जाना-वह प्रार्थना कैसे जानेगा। वह तो प्रेम की

पराकाष्ठा है। वह तो प्रेम का आखिरी निचोड़ है, आखिरी सार है।

‘कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं

कुछ दिल ने सुना? कुछ भी नहीं

ऐसे भी बातें होती हैं? ऐसे ही बातें होती हैं!

वहां भीतर ऐसी ही तरंगें चलती रहती हैं। वहां ही और ना में फासला नहीं। वहां हो भी कभी ना होता है, ना भी कभी ही होता है। वहां सब विरोध लीन हो जाते हैं एक में। उत्तर में मैं तुमसे कहना चाहूंगा-

कान वो कान है जिसने तेरी आवाज सुनी

आंख वो आंख है जिसने तेरा जलवा देखा

जब तक कान आदमियों की ही बात सुनते रहे, जब तक कान वही सुनते रहे जो बाहर से आता है, जब तक कान आहत नाद को सुनते रहे-जिसकी चोट पड़ती है कान पर और कान के पर्दों पर झन्नाहट होती है-तब तक कान-कान ही नहीं। और जब तक आंखों ने वही देखा जो बाहर से आकर प्रतिबिंब बनाता है, तब तक उधार ही देखा। तब तक सत्य का कोई अनुभव न हुआ। तब तक सपना ही देखा। जब कानों ने वह सुना जो भीतर से उमगता है, जो भीतर से उठता है, जो भीतर से भरता है, तभी कान -कान हैं। और जब आंखों ने वह देखा जो आंखें देख ही नहीं सकतीं, जब आंखों ने वह देखा जो आंख बंद करके दिखाई पड़ता है, जब आंखें अपने पर लौटीं, स्वयं को देखा, तभी आंखें हैं।

कान वो कान है जिसने तेरी आवाज सुनी

आंख वो आंख है जिसने तेरा जलवा देखा

सरको। भीतर की तरफ चलो। थोड़ी अपने से पहचान करें। संसार की बहुत पहचान हुई। बहुत परिचय बनाए, कोई काम नहीं आते। बहुत संग-साथ किया, अकेलापन मिटता नही। भीड़ में खड़े हो, अकेले हो बिलकुल। ऐसे भी लोग हैं जो जिंदगी भर भीड़ में रहते हैं और अकेले ही रह जाते हैं। और ऐसे भी लोग हैं जो अकेले ही रहे और क्षणभर को भी अकेले नहीं। जिन्होंने भीतर की आवाज सुन ली उनका अकेलापन समाप्त हो गया। उन्हें स्वात उपलब्ध हुआ। जिन्होंने भीतर के दर्शन कर लिए, उनके सब सपने खो गए। सपनों की कोई जरूरत न रही। सत्य को देख लिया, फिर कुछ और देखने को नहीं बचता।

राबिया अपने घर में बैठी थी। हसन नाम का फकीर उसके घर मेहमान था। सुबह का सूरज निकला, हसन बाहर गया। बड़ी सुंदर सुबह थी। आकाश में रंगीन बादल तैरते थे और सूरज ने सब तरफ किरणों का जाल फैलाया था। हसन ने चिल्लाकर कहा, राबिया! भीतर बैठी क्या करती है? बाहर आ, बड़ी सुंदर सुबह है। परमात्मा ने बड़ी सुंदर सुबह को पैदा किया है। और आकाश में बड़े रंगीन बादल तैरते हैं। पक्षियों के गीत भी हैं। किरणों का जाल भी है। सब अनूठा है। स्रष्टा की लीला देख, बाहर आ! राबिया खिलखिलाकर हंसी और उसने कहा, हसन! तुम ही भीतर आ जाओ। क्योंकि हम उसे ही देख रहे हैं जिसने सुबह बनाई, जिसने सूरज को जन्म दिया, जिसके किरणों के जाल को देखकर तुम प्रसन्न हो रहे हो, भीतर आओ, हम उसे ही देख रहे हैं।

कान वो कान है जिसने तेरी आवाज सुनी

आंख वो आंख है जिसने तेरा जलवा देखा

तीसरा प्रश्न :

 

भगवान, आप अपने प्रवचनों में प्रतिदिन ऐसी तात्कालिकता पैदा कर देते हैं कि रोआं-रोआं सिहर उठता-है। और हृदय में बाढ़ सी आ जाती है और एक शिखर-अनुभव की सी स्थिति बन जाती है। फिर आप कहते हैं कि यदि हम तैयार हों, तो घटना इसी क्षण घट सकती है। कृपया इस तैयारी को कछ और स्पष्ट करें।

फिर से प्रश्न को पढ़ देता हूं क्योंकि प्रश्न में ही उत्तर छिपा है।

आप अपने प्रवचनों में प्रतिदिन ऐसी तात्कालिकता पैदा कर देते हैं कि रोआं-रोआं सिहर उठता है और हृदय में बाढ़ सी आ जाती है। ‘

बाढ़ नहीं आती, बाढ़ सी!

‘और एक शिखर-अनुभव की सी स्थिति बन जाती है।’

शिखर नहीं, शिखर की सी। वहीं उत्तर है। वहीं तैयारी चूक रही है।

बुद्धि झूठे सिक्के बनाने में बड़ी कुशल है। बाढ़ की सी स्थिति बना देती है। बाढ़ का आना और है। बाढ़ के आते तो फिर हो गई घटना! लेकिन बाढ़ की सी स्थिति से नहीं होगी। यह तो ऐसा ही है जैसे तट पर बैठे हैं, नदी में तो बाढ़ नहीं आती, सोच लेते हैं, एक सपना देख लेते हैं, एक ख्वाब देखा कि बाढ़ की सी स्थिति आ गई। फिर आंख खोलकर देखी कि गाव अपनी जगह है-न गांव डूबा, न कुछ बहा-नदी अपनी जगह है। बाढ़ की सी स्थिति आई और गई। कूड़ा-करकट वहीं का वहीं पड़ा है, कुछ भी बहा न। कुछ ताजा न हुआ, कुछ नया न हुआ।

मैं जब बोल रहा हूं तो दो तरह की संभावनाएं बन सकती हैं। तुम मुझे अगर बुद्धि से सुनो, तो ज्यादा से ज्यादा बाढ़ की सी स्थिति बनेगी। बुद्धि बड़ी कुशल है। और बुद्धि, तुम जो चाहो उसी का सपना देखने लगती है।

बुद्धि से मत सुनो। कृपा करो, बुद्धि को जरा बीच से हटाओ। सीधे-सीधे होने

दो बात हृदय की हृदय से। बुद्धि से सुनते हो तब.. तब तरंगें बुद्धि में उठती हैं। लेकिन बुद्धि की तरंगें तो पानी में खींची गई लकीरों जैसी हैं-बन भी नहीं पातीं और मिट जाती हैं। बुद्धि का भी कोई भरोसा है! विचार क्षणभर नहीं ठहरते और चले जाते हैं। आए भी नहीं कि गए। बुद्धि तो मुसाफिरखाना है। वहां कोई घर बनाकर कभी रहा है? रेलवे स्टेशन का प्रतीक्षालय है। यात्री आते हैं, जाते हैं। वहा तुम्हारे जीवन में कोई शाश्वत का नाद न बजेगा। एस धम्मो सनंतनो।

उस सनातन का बुद्धि से कोई संबंध न हो पाएगा। बुद्धि क्षणभंगुर है। पानी के बबूले हैं-बने, मिटे। उनमें तुम घर मत बसाना। कभी-कभी पानी के बबूलों में भी सूरज की किरणों का प्रभाव ऐसे रंग दे देता है, इंद्रधनुष छा जाते हैं। मेरी बात तुम सुनते हो। बुद्धि सुनती है, तरंगायित हो जाती है, बाढ़ की सी स्थिति बन जाती है। एक सपना तुम देखते हो। फिर उठे, गए, बाढ़ चली गई। तुम जहां थे वहीं के वहीं रह गए। कूड़ा-करकट भी न बहा, तुम्हें पूरा बहा ले जाने की तो बात ही दूर! शायद तुम और भी मजबूत होकर जम गए। क्योंकि एक बाढ़, तुम्हें लगा आई और चली गई, और तुम्हारा कुछ भी न बिगाड़ पाई। ऐसे तो तुम रोज सपने देखते रहो बाढ़ों के, कुछ भी न होगा।

बुद्धि को हटा दो। जब सुनते हो तो बस सुनो, विचारों मत। सुनना काफी है, विचारना बाधा है। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मैं जो कहता हूं उसे मान लो। क्योंकि वह मानना भी बुद्धि का है। मानना बुद्धि का, न मानना बुद्धि का। स्वीकार करना बुद्धि का, अस्वीकार करना बुद्धि का। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं उसे तुम मान लो। न मैं तुमसे कहता हूं न मानो, न कहता हूं मानो। मैं तो कहता हूं सिर्फ सुन लो। सोचो मत। बुद्धि को कह दो, तू चुप!

तुम मुझे ऐसे ही सुनो जैसे अगर पक्षी कोई गीत गाता हो, उसे सुनते हो। तब तो बुद्धि कोई काम नहीं कर सकती। यद्यपि वहां भी थोड़े अपने हाथ फैलाती है। थोड़े झपट्टे मारती है। कहती है बड़ा सुंदर है। कल सुना था वैसा ही गीत है। यह कौन सा पक्षी गा रहा है? थोड़े-बहुत हाथ मारती है, लेकिन ज्यादा नहीं। क्योंकि पक्षी की भाषा तुम नहीं समझते।

मैं तुमसे कहता हूं मेरी भाषा भी तुम समझते मालूम पड़ते हो, समझते नहीं। क्योंकि जो मैं बोल रहा हूं वही मैं बोल नहीं रहा हूं। जो मैं तुम्हें कहता हुआ सुनाई पड़ रहा हूं उससे कुछ ज्यादा तुम्हें देना चाहता हूं। शब्दों के साथ-साथ शब्दों की पोटलियों में बहुत शून्य बांधा है। स्वरों के साथ-साथ उनके पीछे-पीछे बहुत सन्नाटा भी भेजा है। जो कह रहा हूं वही नहीं, अनकहा भी कहे हुए के पीछे-पीछे छिपा आ रहा है।

तुम अगर बुद्धि से ही सुनोगे, तो जो मैंने कहा वही सुनोगे, अनकहे से वंचित रह जाओगे। जो कहा ही नहीं जा सकता, उससे तुम वंचित रह जाओगे। बाढ़ उससे

आती है। दृश्य के साथ जो अदृश्य को बांधा है, प्रतीकों के साथ उसे रख दिया है जिसका कोई प्रतीक नहीं, शब्दों की पोटलियों में शून्य को सम्हाला है। अगर बुद्धि से सुना, पोटली हाथ लग जाएगी, पोटली के भीतर जो था वह खो जाएगा। उसी के लिए पोटली का उपयोग था। कंटेंट खो जाएगा। विषयवस्तु खो जाएगी। कंटेनर, खाली डब्बा हाथ लग जाएगा। तब बाढ़ की सी स्थिति मालूम पड़ेगी।

सुनो, सोचो मत। सुनो, मानने न मानने की जरूरत ही नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं सुनने से ही मुक्ति हो सकती है, अगर तुम मानने, न मानने के जाल को खड़ा न करो। क्योंकि जैसे ही तुम्हारे मन में सवाल उठा कि ठीक है, मानने योग्य है; या सवाल उठा ठीक नहीं है. मानने योग्य नहीं है। जब तुम कहते हो ठीक है, मानने योग्य है, तो तुम क्या कर रहे हो ‘ तुम यह कह रहे हो, मेरे अतीत से मेल खाती है बात। मेरे विचारों से तालमेल पड़ता है। मेरी अतीत की श्रद्धा, मान्यताएं, सिद्धात, शास्त्र, उनके अनुकूल है। तो तुमने मुझे कहो सुना? तुमने अपने अतीत को -ही मुझसे पुनः-पुन: सिद्ध कर लिया। यहां मैं तुम्हारे अतीत को सही सिद्ध करने के लिए नहीं हूं।

तो फिर बाढ़ कैसे आएगी ‘ जिसको बहाना था, बाढ़ जिसे ले जाती, वह और मजबूत हो गया। या तुमने कहा कि नहीं, बात जमती नहीं। अपने शास्त्र के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल है। अपने सिद्धातों के साथ नहीं बैठता। तो तुमने अपने को तोड़ ही लिया अलग। जोड़ते हो तो बुद्धि से, तोड़ते हो तो बुद्धि से। यहां कुछ बात ही और हो रही है। न जोड़ने का सवाल है, न तोड़ने का सवाल है। अगर बुद्धि बीच से हट जाए, तो जोड़े कौन, तोड़े कौन ‘एक ही बचता है, जुड़े कौन, टूटे कौन?

अगर बुद्धि हट जाए, तो तुम पाओगे कि मैं तुम्हारे भीतर वहां हूं, तुम मेरे भीतर यहां हो। तब मैं कुछ ऐसा नहीं कह रहा हूं? जो मेरा है। मेरा कुछ भी नहीं है। कबीर ने कहा है, मेरा मुझमें कुछ नहीं।

जो मैं कह रहा हूं उसमें मेरा कुछ भी नहीं है। जो मैं कह रहा हूं वह तुम्हारा ही है। लेकिन तुमने अपना नहीं सुना है, मैंने अपना सुन लिया है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं जब तुम पहचानोगे, तो तुम पाओगे यह तुम्हारी ही आवाज थी। यह तुम्हारा ही गीत था जो मैंने गुनगुनाया।

यहां कोई शास्त्रों की, सिद्धातों की बात नहीं हो रही है, ये सब तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। यहां तो शास्त्रों, सिद्धातों के बहाने कुछ दूसरा ही खेल हो रहा है। अगर तुमने शब्द ही सुने और उन पर ही विचार किया-ठीक है या गलत; मानें कि न मानें; अपने अनुकूल पड़ता है कि नहीं-तो तुम मुझसे चूक गए। और जो मुझसे चूका, वह खुद से भी चूका। तुम अपने से ही चूक गए।

अब तुम पूछते हो… अगर तुमने अपना प्रश्न ही गौर से देखा होता तो समझ में आ जाता।

‘आप अपने प्रवचनों में प्रतिदिन ऐसी तात्कालिकता पैदा कर देते हैं कि रोआं-रोआं सिहर उठता है। और हृदय में बाढ़ सी आ जाती है।

बाढ़ सी? सावधान, बाढ़ सी से बचना। बाढ़ चाहिए।

और एक शिखर-अनुभव की सी स्थिति बन जाती है। ,

शिखर-अनुभव की सी? सावधान, यह झूठा सिक्का है!

मन के एक स्वभाव को समझ लो। तुम जो चाहते हो, मन उसकी प्रतिमाएं बना देता है। वह कहता है, यह लो, हाजिर है। दिनभर तुम भूखे रहे, रात सपना देखते हो कि सुस्वादु भोजन कर रहे हो। मन कहता है, दिनभर भूखे रहे, यह लो भोजन हाजिर है। लेकिन रात तुम कितना ही सुस्वादु भोजन करो, पेट न भरेगा। हालांकि नींद सम्हल जाएगी। भूखे रहते तो नींद लगना मुश्किल होती। सपने ने कहा, यह लो भोजन, मजे से कर लो और सो जाओ। तुमने सपने में भोजन कर लिया, सो गए।

तुमने कभी खयाल किया, नींद में प्यास लगी है, गर्मी की रात है, शरीर ने बहुत पसीना छोड़ दिया है, नींद में प्यास लग गई है। अब डर है, अगर प्यास बढ़ जाए तो नींद टूट जाए। तो मन कहता है, उठो। उठे तुम सपने में, गए रेफ्रिजरेटर के पास, सपने में ही कोकाकोला पी लिया, लौटकर अपने बिस्तर पर सो गए। निश्चित अब। मन ने धोखा दे दिया। प्यास अपनी जगह है। न तुम उठे, न तुम गए कहीं; बस एक स्वभाव, एक बाढ़ सी-कोकाकोला सा; नींद सम्हल गई, करवट लेकर तुम सोए रहे। सुबह पता चलेगा कि अरे, प्यासे रातभर पड़े रहे!

स्वप्न का काम है निद्रा की रक्षा। कहीं नींद टूट न जाए, तो स्वप्न का इंतजाम है। स्वप्न सुरक्षा है। नींद को नहीं टूटने देता। सब तरह से बचाता है। और धोखा पैदा हो जाता है। कम से कम नींद में तो काम चल जाता है। सुबह जागोगे, तब पता चलेगा। जिस दिन जागोगे उस दिन सोचोगे बाढ़ सी? किस धोखे में रहे, किस सपने में खो गए?

इन बातों का भरोसा मत करो। इससे एक बात साफ है कि जो भी मैं कहता हूं तुम्हारी बुद्धि उसकी छानबीन करती है, फिर तुम्हारे भीतर जाता है। तुम्हारी बुद्धि पहरेदार की तरह खड़ी है। जो मैं कहता हूं, बुद्धि पहले परीक्षण करती है उसका, फिर भीतर जाने देती है। परीक्षण ही करे तो भी ठीक है। उसका रंग-रूप भी बदल देती है। अतीत के अनुकूल बना देती है। बुद्धि यानी तुम्हारा अतीत। जो तुमने अब तक जाना है, अनुभव किया है, पढ़ा है, सुना है, उस सबका संग्रह। तो तुमसे कोई नई बात कही ही नहीं जा सकता। और मैं तुमसे नई ही बात करने की जिद्द किए बैठा हूं।

तुम वही सुन सकते हो जो पुराना है, मैं तुमसे वही कहने की जिद्द किए बैठा हूं, कि जो नया है। जो नितनूतन है वही सनातन है। जो प्रतिपल नया है वही सनातन है। जो कभी पुराना नहीं हो सकता वही पुरातन है। लेकिन तुम्हारी बुद्धि वहां बैठी है। अपना सारा धूल जमाए हुए है। कोई भी चीज आती है, बुद्धि उसके रंग को बदल देती है। तब तुम सुन पाते हो, पर वह सुनना धोखा हो गया। फिर बाढ़ की सी स्थिति बनती है। वहीं तैयारी चूक गई।

मैं तुमसे कहता हूं इसी क्षण घटना घट सकती है, यदि तुम तैयार हो। तैयार का क्या अर्थ? तैयार का इतना ही अर्थ, अगर तुम अपनी बुद्धि को किनारे रख देने को तैयार हो। अगर तुम कहते हो, ठीक है, हो जाए साक्षात्कार सीधा-सीधा।

आएं हमारे दिल में दिल से ही मिलाएंगे

यह बीच में भूमिका बांधने के लिए बुद्धि न होगी। परिचय करवाने के लिए बुद्धि न होगी तो अभी इसी घड़ी घटना घट सकती है।

धर्म के लिए ठहरने की कोई जरूरत ही नहीं। उसका कल से कुछ लेना-देना नहीं। आज हो सकता है। धर्म सदा नगद है, उधार नहीं। कल का कोई आश्वासन नहीं देता मैं तुम्हें। अभी हो सकता है, इसी क्षण हो सकता है। कुरल का तो तुम्हें वे ही आश्वासन देते हैं जो तुम्हारी बुद्धि को ही अपील कर रहे हैं, तुम्हारी बुद्धि को ही निमंत्रण दे रहे हैं। मैंने तुम्हारी बुद्धि को कोई निमंत्रण नहीं दिया है, तुम्हें बुलाया है। जिस दिन भी तुम आओगे बुद्धि को अलग रखकर, किनारे हटाकर, उसी क्षण मिलन संभव है।

तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो

तुमको देखूं कि तुमसे बात करूं

तुम यहां बैठे हो, मैं यहां बैठा हूं-

तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो

तुमको देखूं कि तुमसे बात करूं

‘अगर तुमने मुझसे बात की, चूके। अगर तुमने मुझे देखा, पाया। यहां मैं तुमसे बोल भी रहा हूं और यहां हूं भी। बोलना सिर्फ बहाना है। बोलना तो सिर्फ तुम्हें बुलाना है। बोलना तो सिर्फ यह है कि खाली तुम न बैठ सकोगे मेरे पास इतनी देर। रोज-रोज खाली बैठने को तुम न आ सकोगे। उतनी समझ की तुमसे अपेक्षा नहीं। अगर मैं चुप हो जाऊंगा, तुम धीरे-धीरे छंटते चले जाओगे। तुम कहोगे खाली ही वहां बैठना है, तो अपने घर ही बैठ लेंगे। घर भी तुम न बैठोगे, क्योंकि तुम कहोगे खाली बैठने से क्या सार? इतना समय तो धन में रूपांतरित हो सकता है। कुछ कमा लेंगे, कुछ कर लेंगे।

मैं तुमसे बोल रहा हूं ताकि तुम्हें उलझाए रखूं। ऐसे ही जैसे छोटा बच्चा ऊधम कर रहा हो, खिलौना दे देते हैं। खिलौने से खेलता रहता है, उतनी देर कम से कम शात रहता है। तुमसे बात करता हूं शब्द तो खिलौने हैं। थोड़ी देर तुम खेलते रहो, शायद खेलने में मन तल्लीन हो जाए, ठहर जाओ तुम थोड़ी देर मेरे पास। शायद तुम आंख उठाकर देखो और मैं तुम्हें दिखाई पड़ जाऊं। असली सवाल वही है, असली काम वही है। उसी क्षण असली काम शुरू होगा जिस दिन तुम मुझे देखोगे।

तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो

तुमको देखूं कि तुमसे बात करूं

कब तक तुम मुझसे बात करते रहोगे? देखो अब। और तैयारी का कोई अर्थ नहीं है। बात होती है बुद्धि से। देखना होता है हृदय से। जब तुम देखते हो, तो आंखों के पीछे हृदय आ जाता है। जब तुम बात करते हो, तो आंखों के पीछे बुद्धि आ जाती है। बुद्धि यानी तुम्हारे विचार करने का यंत्र। हृदय यानी तुम्हारे प्रेम करने का यंत्र। देखना एक प्रेम की घटना है। और अगर प्रेम से नहीं देखा, तो क्या खाक देखा! जब आंख से प्रेम उड़लता हो तभी देखना घटता है।

मैं तुम्हारे सामने भी हूं? तुमसे बात भी कर रहा हूं। अब यह तुम्हारे ऊपर है, तुम अपने से पूछ लो-

तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो

तुमको देखूं कि तुमसे बात करूं

बात तुम करते रहो जन्मों-जन्मों तक, बात से बात निकलती रहेगी। बात मैं करता रहूंगा, बात करने में कहीं कोई अड़चन है? बात से सरल कहीं कोई और बात है 7 लेकिन यह सिर्फ बहाना था। बहाना था कि शायद इसी बीच किसी दिन खिलौनों से खेलते-खेलते तुम आंख उठाकर देख लो। खिलौनों में उलझे होने के कारण मन तो खिलौनों में उलझा रह जाए, और तुम्हारी आंख मुझे मिल जाए। बुद्धि शब्दों में उलझी तो उलझी रहे, कभी किसी क्षण में रंध्र मिल जाए, थोड़ी जगह मिल जाए, और तुम झांककर मेरी तरफ देख लो। उसी क्षण घटना घट सकती है। मैं देने को तैयार हूं तुम जिस दिन लेने को तैयार होओगे।

चौथा प्रश्न :

 

कहां ले चले हो बता दो मुसाफिर

सितारों से आगे ये कैसा जहां है

वो क्या इश्क के बाकी इम्‍तहां हैं

पूछो मत, चलो। पूछना भी बुद्धि की होशियारी है। प्रेम के मार्ग पर भी बुद्धि पूछती है, कहां

ले चले हो? और प्रेम के मार्ग पर बुद्धि चल नहीं सकती। और बुद्धि अगर पूछती रहे, तो तुम्हें भी न चलने देगी। कभी तो इतना साहस करो, कि चलो चलते हैं। पूछेंगे नहीं। यही तो प्रेम का लक्षण है।

अगर मुझसे प्रेम है तो पूछने की कोई जरूरत नहीं, चल पड़ो। पूछना प्रेम के

अभाव का द्योतक है। पहले से सब पक्का कर लेना है-कहां जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? क्या प्रयोजन है? अपना कोई लाभ है, नहीं है? कहीं ले जाने वाला अपना ही कोई लाभ तो नहीं देख रहा है? कहीं ले जाने वाला धोखा तो नहीं दे रहा है? बुद्धि आत्मरक्षा है और प्रेम आत्मसमर्पण। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते।

यही प्रेम का आखिरी इम्‍तहां है। आखिरी, कि चल पड़ो। और बुद्धि पर कितने दिन भरोसा करके देख लिया, पहुंचे कहां? कितना बुद्धि के साथ हिसाब करके दिख लिया, मंजिल कहीं आती तो दिखाई पड़ती नहीं। झलक भी नहीं मिलती। फिर भी इस पर भरोसा किए जा रहे हो?

ठीक-ठीक बुद्धिमान आदमी अपनी बुद्धि पर संदेह करने लगता है। वह बुद्धि की पराकाष्ठा है, जब अपनी बुद्धि पर संदेह आता है। आना चाहिए। सिर्फ बुद्धुओं को अपनी बुद्धि पर संदेह नहीं आता। कितने दिन से चलते हो उसी के साथ, कहां पहुंचे हो? फिर भी भरोसा उसी पर है।

जिस दिन भी तुम्हें यह दिखाई पड जाएगा उसी दिन जीवन में एक नया मार्ग खुलता है। एक नया द्वार खुलता है। वह हमेशा पास ही था, कोई बहुत दूर न था। बुद्धि, हृदय में फासला ही कितना है? वह पास ही था, अब भी पास है। लेकिन जब तक तुम बुद्धि की ही सुने जाओगे, पूछे चले जाओगे?.। यह पूछना आश्वस्त होने की चेष्टा है। कैसे मैं तुम्हें आश्वस्त करूं? कुछ भी मैं कहूं, वह मेरा ही कहना होगा, तुम्हारा अनुभव न बन जाएगा। जब तक तुम्हारा अनुभव न बन जाए, तब तक मुझ पर भरोसा कैसे आएगा?

तो दो ही उपाय हैं। या तो तुम जैसे चलते हो वैसे ही चलते रहो। शायद कभी थकोगे, अनंत जन्मों के बाद ऊबोगे, होश आएगा, तो फिर किसी का हाथ पकड़ोगे। वह हाथ अभी भी उपलब्ध है। वह हाथ सदा उपलब्ध रहेगा। उस हाथ का मुझसे या किसी का कोई लेना-देना नहीं है। वह हाथ तो परमात्मा का है। वह परमात्मा का हाथ अनेक हाथों में प्रविष्ट हो जाता है। कभी बुद्ध के हाथ में, कभी मोहम्मद के हाथ में। लेकिन तुम्हारा हाथ उसे पकड़ेगा तभी तो कुछ होगा। और तुम तभी पकड़ोगे जब तुम अशात की यात्रा पर जाने को तैयार हो।

मत पूछो, ‘कहां ले चले हो बता दो मुसाफिर!’

एक तो बताना मुश्किल है। क्योंकि तुम्हारी भाषा में उस जगत के लिए कोई शब्द नहीं है। और बताने पर भी तुम भरोसा कैसे करोगे? पूछो बुद्ध से, वे कहते हैं निर्वाण। पूछो मीरा से, वह कहती है कृष्ण, बैकुंठ। क्या होता है शब्दों को सुनने से। मीरा के चारों तरफ खोजकर देखो, तुम्हें बैकुंठ का कोई पता न चलेगा। क्योंकि बैकुंठ तो मीरा के भीतर है। और जब तक वैसा ही तुम्हारे भीतर न हो जाए, जब तक तुम भी डुबकी न लगा लो!

मत पूछो, ‘कहां ले चले हो बता दो मुसाफिर, सितारों के आगे ये कैसा जहा है?’

सितारों के आगे का अर्थ ही यही होता है-जहां तक दिखाई पड़ता है, उसके आगे। सितारों का मतलब है, जहां तक दिखाई पड़ता है।

सितारों के आगे जहां और भी हैं

इसका मतलब इतना ही है कि कुछ दिखाई नहीं पड़ता, ये आंखें थक जाती हैं। इन आंखों की सीमा आ जाती है।

सितारों के आगे जहां और भी है

अभी इश्क के इम्‍तहां और भी हैं

इश्क का इम्‍तहांन क्या है? वही, जहां नहीं दिखाई पड़ता वहां भी किसी के ऊपर भरोसा। जहां नहीं दिखाई पड़ता वहा भी श्रद्धा। जहा नहीं दिखाई पड़ता वहा भी चलने का साहस।

तुम जिसे संदेह कहते हो, गौर से खोजना, कहीं वह सिर्फ कायरता तो नहीं है! कहीं डर तो नहीं है, कहीं भय तो नहीं है कि कहीं लूट न लिए जाएं! कहीं ऐसा तो नहीं है कि कैसे पक्का करें, कौन लुटेरा है, कौन मार्गदर्शक है!

लेकिन इसकी फिकर छोड़ो, पहले यह सोचो, तुम्हारे पास लुट जाने को है भी क्या? तुम पहले ही लुट चुके हो। संसार से बड़ा और लुटेरा अब तुम्हें कहा मिलेगा? संसार ने तो रत्ती-रत्ती, पाई-पाई भी लूट लिया है। एक सिफर हो, एक शुन्यमात्र रह गए हो। आंकड़ा तो एक भी नहीं बचा है भीतर। कुछ भी नहीं है पास, फिर भी डरे हो कि कहीं लुट न जाओ।

यह जो तुम’ पूछते हो–कहां ले चले हो बता दो मुसाफिर, यह भय के कारण, कायरता के कारण, साहस की कमी के कारण। लेकिन तुम जहां भी चलते रहे हो अब तक, अगर वहा से ऊब गए हो, तो अब खतरा क्या है? किसी नए मार्ग को खोजकर देख लो। असली सवाल साहस का है। साधारणत: लोग सोचते हैं, श्रद्धालु लोग डरपोक हैं, कायर हैं। और मैं तुमसे कहता हूं र श्रद्धा इस जगत में सबसे बड़ा दुस्साहस है।

ऐसा हुआ कि तिब्बत का एक फकीर अपने गुरु के पास गया। गुरु की बड़ी ख्याति थी। और यह फकीर बड़ा श्रद्धालु था। और गुरु जो भी कहता, सदा मानने को तैयार था। इसकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी। और शिष्यों को पीड़ा हुई। उन्होंने एक दिन इससे छुटकारा पाने के लिए-एक पहाड़ी के ऊपर बैठे थे-इससे कहा कि अगर तुम्हें गुरु में पूरी श्रद्धा है तो कूद जाओ। तो वह कूद गया। उन्होंने तो पक्का माना कि हुआ खतम। नीचे जाकर देखा तो वह पद्यासन में बैठा था। और ऐसा सौंदर्य और ऐसी सुगंध उन्होंने कभी किसी व्यक्ति के पास न देखी थी, जो उसके चारों तरफ बरस रही थी। वे तो बड़े हैरान हुए। सोचा संयोग है।

संदेह ज्यादा से ज्यादा संयोग तक पहुंच सकता है, कि संयोग की बात है कि बच गया। कोई फिकर नहीं। एक मकान में आग’ लगी थी, उन्होंने कहा कि चले

जाओ, अगर गुरु पर पूरा भरोसा है, शिष्यों ने ही। वह चला गया भीतर। मकान तो जलकर राख हो गया। जब वे भीतर गए तो आशा थी कि वह भी जलकर राख हो चुका होगा। वह तो वहां ऐसे बैठा था, जल में कमलवत। आग ने छुआ ही नहीं। उन्होंने सुनी थीं अब तक ये बातें कि ऐसे लोग भी हुए हैं-जल में कमलवत, पानी में होते हैं और पानी नहीं छूता। आज जो देखा, वह अदभुत चमत्कार था! आग में था और आग ने भी न छुआ। पानी न छुए, समझ में आता है!

अब संयोग कहना जरा मुश्किल मालूम पड़ा। गुरु के पास ये खबरें पहुंची। गुरु को भी भरोसा न आया, क्योंकि गुरु खुद ही इतनी श्रद्धा का आदमी न था। गुरु ने सोचा कि संयोग ही हो सकता है, क्योंकि मेरे नाम से हो जाए! अभी तो मुझे ही भरोसा नहीं कि अगर मैं जलते मकान में जाऊं तो बचकर लौटूंगा, कि मैं कूद पड पहाड़ से और कोई हाथ मुझे सम्हाल लेंगे अज्ञात के। तो गुरु ने कहा कि देखेंगे। एक दिन नदी के तट से सब गुजरते थे। गुरु ने कहा कि तुझे मुझ पर इतना भरोसा है कि आग में बच गया, पहाड़ में बच गया, तू नदी पर चल जा। वह शिष्य चल पड़ा। नदी ने उसे न डुबाया। वह नदी पर ऐसा चला जैसे जमीन पर चल रहा हो। गुरु को लगा कि निश्चित ही मेरे नाम का चमत्कार है। अहंकार भयंकर हो गया। कुछ था तो नहीं पास।

तो उसने सोचा, जब मेरा नाम लेकर कोई चल गया, तो मैं तो चल ही जाऊंगा। वह चला, पहले ही कदम पर डुबकी खा गया। किसी तरह बचाया गया। उसने पूछा कि यह मामला क्या है मैं खुद डूब गया! वह शिष्य हंसने लगा। उसने कहा, मुझे आप पर श्रद्धा है, आपको अपने पर नहीं। श्रद्धा बचाती है।

कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि जिन पर तुमने श्रद्धा की उनमें कुछ भी न था, फिर भी श्रद्धा ने बचाया। और कभी-कभी ऐसा भी हुआ है, जिन पर तुमने श्रद्धा न की उनके पास सब कुछ था, लेकिन अश्रद्धा ने डुबाया है। कभी बुद्धों के पास भी लोग संदेह करते रहे और डूब गए। और कभी इस तरह के पाखंडियों के पास भी लोगों ने श्रद्धा की और पहुंच गए।

तो मैं तुमसे कहता हूं गुरु नहीं पहुंचाता, श्रद्धा पहुंचाती है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं श्रद्धा ही गुरु है। और जहा तुम्हारी श्रद्धा की आंख पड़ जाए वहीं गुरु पैदा हो जाए। परमात्मा नहीं पहुंचाता, प्रार्थना पहुंचाती है। और जहां हृदयपूर्वक प्रार्थना हो जाए वहीं परमात्मा मौजूद हो जाता है। मंदिर नहीं पहुंचाते, भाव पहुंचाते हैं। जहां भाव है वहां मंदिर है।

मत पूछो कि कहां ले चला हूं। चलने की हिम्मत हो, साथ हो जाओ। चलने की हिम्मत न हो, नाहक समय खराब मत करो, भाग खड़े होओ। ऐसे आदमी के पास नहीं रहना चाहिए जिस पर भरोसा न हो। कहीं और खोजो। शायद किसी और पर भरोसा आ जाए। क्योंकि असली सवाल भरोसे का है! किस पर आता है, यह बात गौण है। कौन जाने किसी और पर आ जाए, तो फिर तुम्हारा मार्ग वहीं से हो जाएगा। जिसके पास जाकर तुम्हें पूछने का सवाल न उठे कि कहां ले चले हो, चल पड़ने को तैयार हो जाओ। अंधेरे में जाता हो वह तो अंधेरे में, और नर्क में जाता हो तो नर्क में। जहा तुम्हारे मन में ये संदेह और सवाल न उठते हों, यही आखिरी मंजिल है, यही आखिरी इम्‍तहां है।

सितारों के आगे जहां और भी हैं

अभी इश्क के इम्‍तहां और भी हैं

और आखिरी इम्‍तहांन इश्क का यही है कि प्रेम इतना अनन्य हो, श्रद्धा इतनी अपूर्व हो कि श्रद्धा ही नाव बन जाए, कि प्रेम ही बचा ले। मार्ग नहीं पहुंचाता, श्रद्धा पहुंचती है। मंजिल कहीं दूर थोड़े ही है। जिसने प्रेम किया, उसने अपने

पांचवां प्रश्न:

 

 

लीनता व भक्ति के साधक को बुद्ध के होश की और अप दीपो भव की बातों के प्रति क्या रुख रखना चाहिए?

रूरत क्या है? तुम्हें सभी के प्रति रुख रखने की जरूरत क्या है? तुम अपनी श्रद्धा का बिंदु चुन लो, शेष सब को भूल जाओ। तुम्हें कोई सारे बुद्धों के प्रति श्रद्धा थोड़े ही रखनी है। एक पर तो रख लो। सब पर रखने में तो तुम बड़ी झंझट में पड़ जाओगे। एक पर ही इतनी मुश्किल है, सब पर तुम कैसे रख सकोगे? तुम एक मंदिर को तो मंदिर बना लो; सब मस्जिद, सब गुरुद्वारे, सब शिवालय, उनकी तुम चिंता में मत पड़ो। क्योंकि जिसका एक मंदिर-मंदिर बन गया, वह एक दिन अचानक पा लेता है कि सभी मस्जिदों में, सभी गुरुद्वारों में वही मंदिर है। एक सिद्ध हो जाए सब सिद्ध हो जाता है।

और अगर तुमने यह चेष्टा की कि मैं सभी में श्रद्धा रखूं तुम्हारे पास श्रद्धा इतनी कहां है? इतना बांटोगे, रत्ती-रत्ती श्रद्धा हो जाएगी। अगर अल्लाह को पुकारना हो तो पूरे प्राणों से अल्लाह को ही पुकार लो। अल्ला ईश्वर तेरे नाम-इस तरह की बकवास में मत पड़ना। क्योंकि तब न तुम्हारे राम में बल होगा और न तुम्हारे अल्लाह में बल होगा। यह राजनीतिक बातचीत हो सकती है, धर्म का इससे कुछ लेना-देना नहीं। अल्लाह को ही तुम परिपूर्ण प्राणों से पुकार लो, तुम अल्लाह में ही छिपे राम को किसी दिन पहचान लोगे। अल्लाह ही जब पूरी त्वरा और तीव्रता से पुकारा जाता है, तो राम भी मिल जाते हैं। राम जब पूरी त्वरा से पुकारा जाता है, तो अल्लाह भी मिल जाता है। क्योंकि ये सब नाम उसी के हैं। लेकिन तुम बैठकर इन सभी नामों की माला मत बनाना।

लीनता और भक्ति के साधक को जरूरत ही क्या है बुद्ध की? बुद्ध जानें,उनका काम जाने। लीनता और भक्ति का साधक लीनता और भक्ति में डूबे। ऐसी अड़चनें क्यों खड़ी करना चाहते हो?

क्योंकि ध्यान रखना, मंजिल एक है, मार्ग अनेक हैं। तुम अगर सभी मार्गों पर एक साथ चलना चाहो, पागल हो जाओगे। चलोगे तो एक ही मार्ग पर, यद्यपि सभी मार्ग उसी मंजिल पर पहुंचा देते हैं। लेकिन अगर तुम्हें बंबई जाना हो, तो तुम एक ही मार्ग चुनोगे। अगर तुमने सभी मार्ग चुन लिए, तो दो कदम इस मार्ग पर चलोगे, दो कदम उस मार्ग पर चलोगे, चार कदम किसी और मार्ग पर चलोगे, तुम पहुंचोगे कैसे? एक ही मार्ग पर चलोगे तो पहुंचोगे।

भक्त की दुनिया अलग है। भक्त के देखने के ढंग अलग हैं। भक्त के तौर – तरीके अलग हैं। भक्त की जीवन-शैली अलग है। साधक की जीवन -शैली अलग है। साधक होश को साधता है। होश से ही मस्ती को पाता है। भक्त मस्ती को साधता है। मस्ती से ही होश को पाता है।

जबाने -होश से ये कुफ्र सरजद हो नहीं सकता

मैं कैसे बिन पिए ले लूं खुदा का नाम है साकी

भक्त की बडी अलग दुनिया है। वह कहता है, हम तो खुदा का नाम भी लेंगे तो बिना पीए नहीं ले सकते। खुदा का नाम है, कोई साधारण बात है कि बिना पीए ले लें! मस्ती में ही लेंगे। होश में -खुदा का नाम लें? बात जमती नहीं। डूबकर लेंगे। पागल होकर लेंगे।

जबाने-होश से ये कुफ्र सरजद हो नहीं सकता

भक्त कहता है कि मेरी जबान से ये पाप मैं न कर सकूंगा।

मैं कैसे बिन पिए ले लूं खुदा का नाम है साकी

पीकर ही लूंगा। नाचकर लूंगा। मस्ती में सराबोर करके लूंगा। होश से खुदा का नाम? तो बुद्धि पर ही अटक जाएगा। लड़खड़ाते कदमों से लूंगा।

पांव पडैं कित के किती -सहजो ने कहा है।

झूमते हुए लेंगे। सम्‍हलकर और खुदा का नाम? वह नाम खुदा का ही न रहा फिर भक्‍त की दुनियां बड़ी अलग है।

गुनाह गिन-गिन के मैं क्‍यों अपने दिल को छोटा करूं

सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं

तेरी कृपा का कोई अंत नहीं, हम काहे को छोटा मन करें गिन -गिनकर अपने

पापों को, कि यह भूल की, वह भूल की। यह तो तेरे संबंध में शिकायत हो जाएगी भक्त कहता है, हम अपनी भूलों और पापों का हिसाब रखें

गुनाह गिन-गिन के मैं क्यों अपने दिल को छोटा करूं

सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं

परमात्मा का हृदय अगर बड़ा है, अगर परमात्मा की करुणा अपार है, तो हम अपने मन को क्यों छोटा करें।

भक्त पाप-माप की फिकर नहीं करता। इसका यह मतलब नहीं है कि पाप करता है। भक्त परमात्मा में ऐसा लीन हो जाता है कि पाप होते नहीं। जिसने परमात्मा को इतने हृदय से याद किया हो, उससे पाप कैसे होंगे?

इसे तुम समझ लो। भक्त पाप छोड़ता नहीं। परमात्मा को पकड़ता है, पाप छूट जाते हैं। साधक पाप छोड़ता है। पाप के छूटने से परमात्मा को पाता है। साधक को चेष्टा करनी पड़ती है, रत्ती-रत्ती। साधक संघर्ष है, संकल्प है। भक्त समर्पण है। भक्त कहता है, तेरी करुणा इतनी अपार है कि हम क्यों नाहक दीन हुए जाएं कि यह भूल हो गई, वह भूल हो गई? तू भी कहीं इन भूलों की फिकर करेगा! हमारी भूलों का तू हिसाब रखेगा? हम इतने छोटे हैं कि बड़ी भूले भी तो हमसे नहीं होतीं। तुमने कौन सी बड़ी भूल की, जरा सोचो। और अगर परमात्मा हिसाब रखता हो, तो परमात्मा न हुआ कोई दुकानदार हो गया। तुम्हारी भूलें भी क्या हैं? क्या भूलें की हैं तुमने? भक्त तो कहता है, अगर की भी होगी, तो तूने ही करवायी होगी। तेरी कोई मर्जी रही होगी।

भक्त तो यह कहता है कि यह भी खूब मजा है! तूने ही बनाया जैसा हमें-अब हमसे भूलें हो रही हैं, और सजा हमको, यह भी खूब मजा है! यह भी खूब रही! बनाए तू करवाए तू फंस जाएं हम! भक्त अपने को बीच में नहीं लेता। वह कहता है, तेरा काम, तू जान। तूने बनाया जैसा बनाया, जो करवाया, वह हुआ। हम तेरे हैं, अब तू ही समझ। भक्त का ढंग और! साधक कहता है, भूलें हो गयीं, एक-एक भूल को काटना है, सुधारना है।

तो तुम अपना मार्ग चुन लो एक दफा। फिर बार-बार यह मत पूछो कि मैंने भक्त का मार्ग चुन लिया, अब मैं होश भी साधना चाहता हूं। फिर बात गलत हो जाएगी। कि मैंने भक्त का मार्ग चुन लिया, अब मुझे योगासन भी करने हैं। नाचने वाले को कहां फुर्सत योगासन करने की! और क्या मजा है योगासन का, जिसको नाचना आ गया! और नाच से बड़ा कहीं कोई योगासन है? योगासन का अर्थ होता है, जहां हम उससे मिलकर एक हो जाएं। नाच से बड़ा कहीं कोई योगासन है? क्योंकि नाच से बड़ा कहां कौन सा योग है? नृत्य महायोग है। पर वह भक्त की बात है।

अगर भक्त का मार्ग चुन लिया तो भूलो.. बुद्ध को भूल जाने से कोई अड़चन न होगी और बुद्ध कुछ नाराज न होंगे। जब तुम मंजिल पर पहुंचोगे, उनका आशीर्वाद भी तुम्हें मिलेगा ही कि तुम आ गए, और मुझे छोड़कर भी आ गए। लेकिन अगर बुद्ध को चुना है, तो फिर छोड़ दो भक्त की बात।

कहीं ऐसा न हो कि ये तुम्हारे मन की तरकीबें हों कि तुम जो चुनते हो वह करना नहीं है, तो दूसरे को बीच में ले आते हो, ताकि अड़चन खड़ी हो जाए, दुविधा बन जाए। दुविधा बन जाए तो करें कैसे?

बुद्ध को चुन लिया, पर्याप्त हैं बुद्ध। किसी की कोई जरूरत नहीं। फिर मीरा और चैतन्य को भूल जाओ। फिर कृष्ण को बीच में लाओ ही मत। बुद्ध काफी हैं। यह इलाज पर्याप्त है। उनकी चिकित्सा पूरी है। उसमें किसी और को जोड़ने की कोई जरूरत नहीं।

लेकिन वह ढंग और, वह दुनिया और! वहा एक-एक भूल को काटना है। होश को साधना है। संकल्प को प्रगाढ़ करना है। अपने को निखारना है, शुद्ध करना है। तुम जब निखर जाओगे, शुद्ध हो जाओगे, तब परमात्मा तुममें उतरेगा।

भक्त परमात्मा को बुला लेता है और कहता है, तुम आ जाओ, मुझसे तो क्या निखरेगा मुझसे क्या सुधरेगा। तुम आ जाओगे, तुम्हारी मौजूदगी ही निखार देगी, सुधार देगी।

दोनों बिलकुल ठीक हैं। मेरे लिए कोई चुनाव नहीं है। दोनों तरह के लोग पहुंचते है। तुम अपनी प्रकृति के अनुकूल मार्ग को चुन लो। अगर तुम समर्पण कर सकते हो, तो भक्ति। अगर तुम समर्पण न कर सकते हो, समर्पण में तुम्हारा रस न हो, अनुकूल न पड़ता हो, तो फिर योग, तप,ध्यान।

ध्यान उनके लिए, जो प्रेम में डूबने से घबड़ाते हों। प्रार्थना उनके लिए, जो प्रेम में डूबने को तत्पर हों। ध्यान में विचार को काटना है। प्रेम में विचार को समर्पित करना है। दोनों स्थिति में विचार चला जाता है। ध्यानी काटता है, प्रेमी परमात्मा के चरणों में रख देता है कि तुम सम्हालो।

आखिरी प्रश्न

 

 

कल आए थे प्रभु मेरे घर

मैं सो रही थी बेखबर

कौन से कर्मों के फल हैं प्रेमसागर

आप आए और मैं खड़ी रही बाहर

जीवन जैसे-जैसे थोड़ा झुकेगा, जैसे-जैसे अहंकार थोड़ा-थोड़ा गलेगा, वैसे-वैसे अंधेरी से अंधेरी रात में भी उसकी बिजलियां कौंधनी शुरू हो जाती हैं। तुम झुके नहीं कि उसका आना शुरू हुआ नहीं। तुम्हीं बाधा हो। तुम्हीं दीवाल बनकर खड़े हो। तुम गिर जाओ, उसका खुला आकाश सदा से ही मुक्त है।

परमात्मा दूर नहीं है, तुम अकड़े खड़े हो। तुम्हारी अकड़ ही दूरी है। तुम्हारा नब जाना, तुम्हारा झुक जाना ही निकटता हो जाएगी। उपनिषद कहते हैं, परमात्मा दूर से दूर और पास से भी पास है। दूर, जब तुम अकड़ जाते हो। दूर, जब तुम पीठ कर लेते हो। दूर, जब तुम जिद्द कर लेते हो कि है ही नहीं। दूर, जब तुम कहते हो मैं ही हूं तू नहीं है। पास, जब तुम कहते हो तू ही है, मैं नहीं हूं। जब तुम आंख खोलते हो। जब तुम अपने पात्र को-अपने हृदय के पात्र को-उसके सामने फैला देते हो, तब तुम भर जाते हो, हजार-हजार खजानों से।

प्रभु तो रोज ही आ सकता है। आता ही है। उसके अतिरिक्त और कौन आएगा? जब तुम नहीं पहचानते, तब भी वही आता है। जब तुम पहचान लेते हो, धन्यभाग! जब तुम नहीं पहचानते, तब भी उसके अतिरिक्त और कोई न कभी आया है, न आएगा। वही आता है। क्योंकि सभी शक्लें उसी की हैं। सभी रूप उसके। सभी स्वर उसी के। सभी आंखों से वही झांका है। तो अगर कभी एक बार ऐसी प्रतीति हो कि आगमन हुआ है, तो उस प्रतीति को गहराना, सम्हालना; उस प्रतीति को साधना, सुरति बनाना। और धीरे-धीरे कोशिश करो, जो भी आए उसमें उसको पहचानने की।

पुरानी कहावत है, अतिथि देवता है। अर्थ है कि जो भी आए उसमें परमात्मा को पहचानने की चेष्टा जारी रखनी चाहिए। चाहे परमात्मा हजार बाधाएं खड़ी करे, तो भी तुम धोखे में मत आना। परमात्मा चाहे गालियां देता आए तो भी तुम समझना कि वही है। मित्र में तो दिखाई पड़े ही, शत्रु में भी दिखाई पड़े। अपनों में तो दिखाई पड़े ही, परायों में भी दिखाई पड़े। रात के अंधेरे में ही नहीं, दिन के उजाले में भी। नींद और सपनों में ही नहीं, जागरण में भी। अभी तुम कली हो, और जितने पदचाप तुम्हें उसके सुनाई पड़ने लगें उतनी ही पखुडियां तुम्हारी खुलने लगेंगी।

तुम्हारी पीड़ा मैं समझता हूं। कभी-कभी उसकी झलक मिलती है और खो जाती है। कभी-कभी आता पास लगता है और पदध्वनियां दूर हो जाती हैं। लगता है मिला, मिला, और कोई सूत्र हाथ से छूट जाता है।

चमन में फूल तो खिलते सभी ने देख लिए

चमन में फूल तो खिलते सभी ने देख लिए

सिसकते गुंचे की हालत किसी को क्या मालूम

वह जो कली का रोना है, सिसकना है-

सिसकते गुंचे की हालत किसी को क्या मालूम

पर वह तुम्हारी सभी की हालत है। सिसकते हुए गुंचे की हालत। रोती हुई कली की हालत। और कली तभी फूल हो सकती है जब अनंत के पदचाप उसे सुनाई पड़ने लगें। तुम अपने तईं फूल न हो सकोगे। सुबह जब सूरज उगता है और सूरज की किरणें नाच उठती हैं आकर कली की निकटता में, सामीप्य में-कली के ऊपर-जब सूरज की किरणों के हल्के-हल्के पद कली पर पड़ते हैं, तो कली खिलती है, फूल बनती है। जब तक तुम्हारे ऊपर परमात्मा के पदचाप न पड़ने लगें, उसके स्वर आकर आघात न करने लगें, तब तक तुम कली की तरह ही रहोगे।

और कली की पीड़ा यही है कि खिल नहीं पाई। जो हो सकता था, वह नहीं हो पाया। नियति पूरी न हो, यही संताप है, यही दुख है। हर आदमी की पीड़ा यही है कि वह जो होने को आया है, नहीं हो पा रहा है। लाख उपाय कर रहा है-गलत, सही; दौड़-धूप कर रहा है; लेकिन पाता है, समय बीता जाता है और जो होने को मैं आया हूं वह नहीं हो पा रहा हूं। और जब तक तुम वही न हो जाओ जो तुम होने को आए हो, तब तक संतोष असंभव है। स्वयं होकर ही मिलता है परितोष।

तो सुनो प्रभु के पद जहां। से भी सुनाई पड़ जाएं। और धीरे-धीरे सब तरफ से सुनाई पड़ने लगेंगे। जिस दिन हर घड़ी उसी का अनुभव होने लगे, कि वही द्वार पर खड़ा है, उस क्षण फूल हठात खुल जाता है। वह जो सुगंध तुम अपने भीतर लिए हो, अभिव्यक्त हो जाती है। वही अनुग्रह है, उत्सव है, अहोभाव है।

चमन में फूल तो खिलते सभी ने देख लिए

सिसकते गुंचे की हालत किसी को क्या मालूम

मुझे मालूम है। तुम्हारी सबकी हालत मुझे मालूम है। क्योंकि वही हालत कभी मेरी भी थी। उस पीड़ा से मैं गुजरा हूं : जब तुम खोजते हो सब तरफ, कहीं सुराग नहीं मिलता; टटोलते हो सब तरफ और चिराग नहीं मिलता; और जिंदगी प्रतिपल बीती चली जाती है, हाथ से क्षण खिसकते चले जाते हैं, जीवन की धार बही चली जाती है-यह आई मौत, यह आई मौत; जीवन गया, गया-और कुछ हो न पाए; पता नहीं क्या लेकर आए थे, समझ में ही न आया; पता नहीं क्यों आए थे, क्यों भेजे गए थे, कुछ प्रतीति न हुई; गीत अनगाया रह गया, फूल अनखिला रह गया।

सुनो उसकी आवाज और सभी आवाजें उसकी हैं, सुनने की कला चाहिए। गुनो उसे, क्योंकि सभी रूप उसी के हैं, गुनने की कला चाहिए। जागते-सोते, उठते-बैठते एक ही स्मरण रहे कि तुम परमात्मा से घिरे हो। शुरू-शुरू में चूक-चूक जाएगा, भूल- भूल जाएगा, विस्मृति हो जाएगी, पर अगर तुम धागे को पकड़ते ही रहे, तो जैसा बुद्ध कहते हैं, तुम फूलों के ढेर न रह जाओगे। वही सुरति का धागा तुम्हारे फूलों की माला बना देगा।

और फिर मैं तुमसे कहता हूं-फिर-फिर कहता हूं-जिस दिन तुम्हारी माला तैयार है, वह खुद ही झुक आता है, वह अपनी गर्दन तुम्हारी माला में डाल देता है। क्योंकि उस तक, उसके सिर तक, हमारे हाथ तो न पहुंच पाएंगे। बस, हमारी माला तैयार हो, वह खुद हम तक पहुंच जाता है।

मनुष्य कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता। जब भी मनुष्य तैयार होता है, परमात्मा

उसके पास आता है।

आज इतना ही।



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एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग-2) प्रवचन–19

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जागरण का तेल + प्रेम की बाती = परमात्मा का प्रकाश–प्रवचन–19

चंदन कार वापि उप्पल अथ वस्सिकी।

एतेसं गंधजातान सीलगधो अनुत्‍तरो।।49।।

 अणमत्तो अयं गंधो’ या यं तगरचंदनी।

यो च सीलवतं गंधों वाति देवेतु उत्तमो।।50।।

 तेसं संपन्नसीलान अप्पमादविहारिनं।

सम्मदज्जा विमुत्‍तानं मारो मागं न विदति।।51।।

 यथा संकारधानस्मिं उज्‍झितस्मिं महापथे।

पदुमं तत्थ जायेथ सुचिगंध मनोरमं।।52।।

 एवं संकारभूतेसु अंधभूते पुथुज्‍जने।

अतिरोचति पज्जाय सम्‍मासंबुद्धसावको।।53।।

 सिवा इसके और दुनिया में क्या हो रहा है

कोई हंस रहा है कोई रो रहा है

अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक

सहर हो गई है और तू सो रहा है

निद्रा है दुर्गंध। जाग जाना है सुगंध। जो जागा, उसके भीतर न केवल प्रकाश के दीए जलने लगते हैं, वरन सुगंध के फूल भी खिलते हैं। और ऐसी सुगंध के जो फिर कभी मुरझाती नहीं। सदियां बीत जाती हैं, कल्प आते हैं और विदा हो जाते हैं, लेकिन जीवन की सुगंध अडिग और थिर बेनी रहती है। नाम भी शायद भूल जाएं कि किसकी सुगंध है, इतिहास पर स्मृति की रेखाएं भी न रह जाएं, लेकिन सुगंध फिर भी जीवन के मुक्‍त। आकाश में सदा बनी रहती है।

बुद्ध पहले बुद्धपुरुष नहीं हैं, और न अंतिम। उनके पहले बहुत बुद्धपुरुष हुए हैं और उनके बाद बहुत बुद्धपुरुष होते रहे हैं, होते रहेंगे। लेकिन सभी बुद्धों की सुगंध एक है। सोए हुए सभी आदमियों की दुर्गंध एक है; जागे हुए सभी आदमियों की सुगंध एक है। क्योंकि सुगंध जागरण की है; क्योंकि दुर्गंध निद्रा की है।

बुद्ध के ये वचन अनूठे काव्य से भरे हैं। कोई तो कवि होता है शब्दों का, कोई कवि होता है जीवन का। कोई तो गीत गाता है, कोई गीत होता है। बुद्ध गीत हैं। उनसे जो भी निकला है, काश, तुम उनके छंद को पकड़ लो तो तुम्हारे जीवन में भी क्रांति हो जाए।

‘चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है, कहा है बुद्ध ने।

चंदन या तगर, कमल या जूही; पर तुम्हारी सुगंध अगर मुक्त हो जाए तो सब सुगंधें फीकी हैं। क्योंकि मनुष्य पृथ्वी का सबसे बड़ा फूल है। मनुष्य में पृथ्वी ने अपना सब कुछ दाव पर लगाया है। मनुष्य के साथ पृथ्वी ने अपनी सारी आशाएं बांधी हैं। जैसे कोई मां अपने बेटे के साथ सारी आशाएं बांधे, ऐसे पृथ्वी ने मनुष्य की चेतना के साथ बड़े सपने देखे हैं। और जब भी कभी कोई एक व्यक्ति उस ऊंचाई को उठता है, उस गहराई को छूता है, जहा पृथ्वी के सपने पूरे हो जाते हैं, तो सारी पृथ्वी आनंद-मंगल का उत्सव मनाती है।

कथाएं हैं बड़ी प्रीतिकर, जब बुद्ध को बुद्धत्व उपलब्ध हुआ तो वन-प्रांत में जहां वे मौजूद थे, निरंजना नदी के तट पर, वृक्षों में बेमौसम फूल खिल गए। अभी कोई ऋतु न थी, अभी कोई समय न था, लेकिन जब बुद्ध का फूल खिला तो बेमौसम भी वृक्षों में फूल खिल गए। स्वागत के लिए जरूरी था।

जीवन इकट्ठा है। हम अलग- थलग नहीं हैं। हम कोई द्वीप नहीं हैं, महाद्वीप हैं। हम एक ही जीवन के हिस्से हैं। अगर हमारे बीच से कोई एक भी ऊंचाई पर उठता

है, तो उसके साथ हम भी ऊंचे उठते हैं। और हमारे बीच से कोई एक भी नीचे गिरता है, तो उसके साथ हम भी नीचे गिरते हैं। हिटलर या मुसोलिनी के साथ हम भी बड़ी गहन दुर्गंध और पीड़ा का अनुभव करते हैं। बुद्ध और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट के साथ हम भी उनके पंखों पर सवार हो जाते हैं। हम भी उनके साथ आकाश का दर्शन कर लेते हैं।

‘चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।’

क्यों? चंदन की सुगंध आज है, कल नहीं होगी। सुबह खिलता है फूल, साझ मुरझा जाता है। खिला नहीं कि मुरझाना शुरू हो जाता है। इस जीवन में शाश्वत तो केवल एक ही घटना है, वह है तुम्हारे भीतर चैतन्य की धारा जो सदा-सदा रहेगी। एक बार खिल जाए- तो फिर भीतर के फूल कशी मुरझाते नहीं। उन्होंने मुरझाना जाना ही नहीं है। वे केवल खिलना ही जानते हैं। और खिल जाने के बाद वापसी नहीं है, लौटना नहीं है।

ऊंचाई पर तुम जब पहुंचते हो, तो वही से वापस गिरना नहीं होता। जो सीख लिया, सीख लिया। जो जान लिया, जान लिया। जो हो गए, हो गए। उसके विपरीत जाने का उपाय नहीं है। जो गिर जाए ऊंचाई से, समझना ऊंचाई पर पहुंचा ही न था। क्योंकि ऊंचाई से गिरने का कोई उपाय नहीं। जो तुमने जान लिया उसे तुम भूल न सकोगे। अगर भूल जाओ तो जाना ही न होगा। सुन लिया होगा, स्मरण कर लिया होगा, कंठस्थ हो गया होगा। जीवन के साधारण फूल आज हैं, कल नहीं। चैतन्य का फूल सदा है।

तो बहुत बाहर के फूलों में मत भर में रहना, भीतर के फूल पर शक्ति लगाना। कब तक हंसते और रोते रहोगे बाहर के फूलों के लिए? फूल खिलते हैं, हंस लेते हो; फूल मुरझा जाते हैं, राख हो जाते हैं, रो लेते हो।

सिवा इसके और दुनिया में क्या हो रहा है।

कोई हंस रहा है कोई रो रहा है

सारी दुनिया को तुम इन दो हिस्सों में बांट दे सकते हो।

अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक

अब यह सपना और कब तक खींचना है? काफी खींच लिया है।

अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक

सहर हो गई है और तू सो रहा है

सुबह हो गई है। सुबह सदा से ही रही है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि सुबह न रही हो। सुबह होना ही अस्तित्व का ढंग है, अस्तित्व की शैली है। वहां सांझ कभी होती नहीं। तुम सो रहे हो इसलिए रात मालूम होती है।

इसे थोड़ा समझ लो। रात है इसलिए सो रहे हो, ऐसा नहीं है; सो रहे हो इसीलिए रात है। जो जागा, उसने सदा पाया कि सहर थी, सुबह थी। जो सोया, उसने समझा सदा कि रात है। तुम्हारी आंख बंद है, इसलिए अंधेरा है। अस्तित्व प्रकाशवान है। अस्तित्व प्रकाश है। हजार-हजार सूरज उगे हैं। सब तरफ प्रकाश की बाढ़ है। प्रकाश की ही तरंगें तुमसे आकर टकरा रही हैं, लेकिन तुम आंख बंद किए हो। छोटी सी पलकें आंख पर पड़ी हों, तो विराट सूरज ढंक जाता है। जरा सी कंकड़ी आंख में आ जाए तो सारा संसार अंधकार हो जाता है।

बस छोटी सी ही कंकड़ी आंख में पड़ गई है। छोटा सा ही धूल का कण आंख में पड़ गया है। उसे अहंकार कहो, अज्ञान कहो, निद्रा कहो, प्रमाद कहो, पाप कहो, जो मर्जी हो वह नाम दे दो, बात कुल इतनी है और छोटी है कि तुम्हारी आंख किसी कारण से बंद है। आंख खुली, सुबह हुई-अरे चौंक, सहर हो गई है और तू सो रहा है!

और यह सहर सदा से ही रही है। क्योंकि बुद्ध पच्चीस सौ साल पहले जागे और पाया कि सहर हो गई है। कृष्ण पांच हजार साल पहले जागे और पाया कि सहर हो गई है। जब भी कोई जागा, उसने पाया कि सुबह हो गई है।

जो सोए हैं वे अभी भी सोए हैं। वे हजारों वर्ष और भी सोए रहेंगे। तुम्हारे सोने में ही रात है। रात के कारण तुम नहीं सो रहे हो; सो रहे हो इसीलिए रात है। सुबह के कारण तुम न जागोगे, क्योंकि सुबह तो सदा से है। तुम जागोगे तो पाओगे कि सुबह है।

लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? पूछना चाहिए, हमारे पास आंखें कहां हैं? लोग पूछते हैं, परमात्मा को कहा खोजें? उन्हें पूछना चाहिए यह खोजने वाला कौन है? कौन खोजे परमात्मा को? लोग पूछते हैं, हमें परमात्मा पर भरोसा नहीं आता, क्योंकि जो दिखाई नहीं पड़ता उसे हम कैसे मानें? उन्हें पूछना चाहिए कि हमने अभी आंख खोली है या नहीं? क्योंकि बंद आंख कोई कैसे दिखाई पड़ेगा? परमात्मा द्वार पर ही खड़ा है। क्योंकि जो भी है वही है। अरे चौंक, सहर हो गई है! परमात्मा द्वार पर ही खड़ा है। कभी द्वार से क्षणभर को नहीं हटा है। क्योंकि उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।

अस्तित्व सुबह है, प्रभात है, सूर्योदय है। सवाल तुम्हारी आंख के खुल जाने का है। और तुम्हारी आंख जब खुलती है तो ऐसी ही घटना घटती है जैसे फूल की पखुडियां खुल जाएं। तुम्हारी पलकें पखुडियां हैं। जैसे फूल की पखुडियां खुल जाएं और सुगंध मुक्त हो जाए।

लेकिन छोटे-छोटे फूल हैं, जूही के, तगर के, बेला के, गुलाब के, कमल के, उनकी सामर्थ्य बड़ी छोटी है। उनकी सीमा है। थोड़ी सी गंध को लेकर वे चलते हैं। उसे लुटा देते हैं, रिक्त हो जाते हैं, फिर मिट्टी में गिर जाते हैं। लेकिन तुम कुछ ऐसी गंध लेकर चले हो, जिसकी कोई सीमा नहीं। तुम अपनी बूंद में सागर लेकर चले हो। तुम अपने इस छोटे से फूल में असीम को लेकर चले हो। उस असीम को ही हमने आत्मा कहा है, उस असीम को ही हमने परमात्मा कहा है।

तुम दिखाई पड़ते हो छोटे, तुम छोटे नहीं हो। मैंने तो बहुत खोजा छोटा, मुझे कोई मिला नहीं। मैंने तो बहुत जांच-पड़ताल की, सभी सीमाओं में असीम को छिपा पाया। हर बूंद में सागर ने बसेरा किया है। जिस दिन तुम खिलोगे उस दिन तुम पाओगे, तुम नहीं खिले परमात्मा खिला है।

इसलिए तो बुद्ध कहते हैं, ‘चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।

शील की सुगंध का अर्थ है, जागे हुए आदमी के जीवन की सुगंध, आंख खुले आदमी के जीवन की सुगंध, प्रबुद्ध हुई चेतना के जीवन की सुगंध। जिन फूलों को तुमने बाहर देखा है, उनका तो खिलना केवल मौत की खबर लाता है। खिला नहीं फूल कि मरा नहीं। इधर खिले, उधर अर्थी बंधने लगी।

फूल बनने की खुशी में मुस्कुराती थी कली

क्या खबर थी तगैयुर मौत का पैगाम है

बाहर तो जो फूल हैं उनका खिलना मरने की ही खबर है, मौत का पैगाम है। वहां तो खिले कि मरे।

फूल बनने की खुशी में मुस्कुराती थी कली

क्या पता उस बेचारी कली को, क्या पता उस नासमझ कली को कि यह खिलना विदा होने का क्षण है। लेकिन तुम्हारे भीतर का जो फूल है, वह जब खिलता है तो मृत्यु नहीं, अमृत को उपलब्ध होता है। साधारण फूल खिलकर मरते हैं। जितनी देर न खिले, उतनी देर ही बचे। वहा तो पूरा होना मरने के बराबर है। लेकिन तुम्हारे भीतर एक ऐसा फूल है जो खिलता है तो अमृत को उपलब्ध हो जाता है।

लेकिन ध्यान रखना, जब मैं कहता हूं तुम्हारे भीतर एक ऐसा फूल है, तो तुम यह मत समझ लेना कि मै कह रहा हूं तुम। तुम्हारे भीतर, तुम नहीं। तुम तो उसी तरह मरोगे जैसे बाहर की कली मरती है। क्योंकि तुम भी तुमसे बाहर हो। तुम भी तुमसे बाहर हो।

फूल बनने की खुशी में मुस्कुराती थी कली

वैसी घटना तुम्हारे भीतर भी घटेगी। क्योंकि तुम्हारा अहंकार तो मरेगा। तुमने अब तक जो जाना है कि तुम हो, वह तो मरेगा। इधर बुद्धत्व का फूल खिला, उधर गौतम सिद्धार्थ विदा हुआ। इधर महावीर का फूल खिला, वहा वर्द्धमान की अर्थी बंधी।

एक बहुत मजेदार घटना घटी। एक जैन मुनि चित्रभानु; संयोग से एक बार मुझे उनके साथ बोलने का मौका मिला। वे बड़े प्रसिद्ध जैन मुनि थे। मुझसे पहले बोले, मैं उनके पीछे बोला। उन्होंने, महावीर का जन्मदिन था तो महावीर के जीवन पर बातें कीं। लेकिन मुझे लगा, महावीर के जीवन पर उन्होंने एक भी बात नहीं की। वर्द्धमान की चर्चा की। वर्द्धमान महावीर के जन्म का नाम था। महावीर होने के पहले का नाम था। जब तक जागे न थे, तब तक का नाम था। कहां पैदा हुए, किस घर में पैदा हुए, कौन मां, कौन पिता, कितना बड़ा राज्य, कितने हाथी-घोड़े, इसकी उन्होंने चर्चा की। महावीर की तो बात ही न आई। इस सबसे क्या लेना-देना था? ऐसे तो बहुत राजकुमार हुए, कौन उनकी याद करता है?

मैं जब बोला तो मैंने कहा कि मैं तो यहां महावीर पर बोलने आया हूं वर्द्धमान पर बोलने नहीं। और मैंने कहा, वर्द्धमान और महावीर तो दो अलग-अलग आदमी हैं। मुनि चित्रभानु क्रोध से खड़े हो गए। उन्होंने समझा कि यह कौन नासमझ आ गया, जो कहता है वर्द्धमान और महावीर अलग-अलग आदमी हैं। उन्होंने खड़े होकर कहा, महानुभाव! मालूम होता है आपको कुछ भी पता नहीं है। महावीर और वर्द्धमान एक ही आदमी हैं। मैं तो हंसा ही, वे जो हजारों लोग थे वे भी हंसे।

मैंने उनसे कहा, मुनि महाराज! जो आपके श्रावक समझ गए वह भी आप नहीं समझ पा रहे हैं। मैंने भी नहीं कहा है कि दो आदमी थे। फिर भी मैं कहता हूं कि दो आदमी थे। वर्द्धमान सोया हुआ आदमी है। जब वर्द्धमान विदा हो जाता है, तभी तो महावीर का आविर्भाव होता है। या जब महावीर का आविर्भाव होता है, तब वर्द्धमान की अर्थी बंध जाती है। वर्द्धमान की बात मत करो। महावीर की बात अलग ही बात है।

तो तुम्हारे भीतर भी कुछ तो मरेगा। तुम मरोगे, जैसा तुमने अभी तक अपने को जाना है। नाम, रूप, परिवार, प्रतिष्ठा, अब तक तुमने अपने जितने तादात्म्य बनाए हैं, वे तो मरेंगे। लेकिन उन सबके मर जाने के बाद पहली बार तुम्हारी आंखें उसकी तरफ खुलेंगी जो तुम्हारे भीतर अमृत है। उस अनाहत नाद को तुम सुनोगे पहली बार, जब तुम्हारी आवाजें और शोरगुल बंद हो जाएगा। जब तुम अपनी बकवास बंद कर दोगे, जब तुम्हारे विचार जा चुके होंगे, जब तुम्हारी भीड़ विदा हो जाएगी, तब अचानक तुम्हारा सन्नाटा बोलेगा, तुम्हारा शून्य अनाहत के नाद से गूंजेगा। जब तुम्हारी दुर्गंध जा चुकी होगी, तभी तुममें परमात्मा की सुगंध का अवतरण होता है। वह छिपी है, पर तुम मौका दो तब फूटे न। तुम जगह दो तब फैले न। कली की छाती पर तुम सवार होकर बैठे हो, पखुडियों को खुलने नहीं देते।

‘चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।’

क्यों? क्योंकि चंदन या जूही, तगर या कमल रूप, रंग, आकार के जगत के खेल हैं। रूप के ही सपने हैं, रंग के ही सपने हैं। निराकार का फूल तुम्हारे भीतर खिल सकता है। क्योंकि निराकार का फूल तभी खिलता है जब कोई चैतन्य को उपलब्ध हो। निराकार यानी चैतन्य। आकार यानी तंद्रा, मूर्च्छा।

जिस दिन संसार जागेगा, उस दिन ब्रह्म को पाएगा। अगर मिट्टी का कण भी या पत्थर का टुकड़ा भी जागेगा, तो अपने को जमा हुआ चैतन्य पाएगा। जो जागा उसने परमात्मा को पाया, जो सोया उसने पदार्थ को समझा। पदार्थ सोए हुए आदमी की व्याख्या है परमात्मा की। परमात्मा जागे हुए आदमी का अनुभव है पदार्थ का। पदार्थ और परमात्मा दो नहीं हैं। सोया हुआ आदमी जिसे पदार्थ कहता है, जागा हुआ आदमी उसी को परमात्मा जानता है। दो दृष्टियां हैं। जागा हुआ आदमी जिसे परमात्मा जानता है, सोया हुआ आदमी पदार्थ मानता है। दो दृष्टियां हैं।

‘शील की सुगंध सर्वोत्तम है।’

क्योंकि वस्तुत: वह परमात्मा की सुगंध है। शील का क्या अर्थ है? शील का अर्थ चरित्र नहीं है। इस भेद को समझ लेना जरूरी है, तो ही बुद्ध की व्याख्या में तुम उतर सकोगे।

चरित्र का अर्थ है, ऊपर से थोपा गया अनुशासन। शील का अर्थ है, भीतर से आई गंगा। चरित्र का अर्थ है, आदमी के द्वारा बनाई गई नहर। शील का अर्थ है, परमात्मा के द्वार से उतरी गंगा। चरित्र का अर्थ है, जिसका तुम आयोजन करते हो, जिसे तुम सम्हालते हो। सिद्धात, शास्त्र, समाज तुम्हें एक दृष्टि देते हैँ-ऐसे उठो, ऐसे बैठो, ऐसे जीओ, ऐसा करो। तुम्हें भी पक्का पता नहीं है कि तुम जो कर रहे हो वह ठीक है या गलत। अगर तुम गैर-मांसाहारी घर में पैदा हुए तो तुम मांस नहीं खाते, अगर तुम मांसाहारी घर में पैदा हुए तो मांस खाते हो। क्योंकि जो घर की धारणा है, वही तुम्हारा चरित्र बन जाती है। अगर तुम रूस में पैदा हुए तो तुम मंदिर न जाओगे, मस्जिद न जाओगे। तुम कहोगे, परमात्मा! कहां है परमात्मा?

राहुल सांकृत्यायन उन्नीस सौ छत्तीस में रूस गए। और उन्होंने एक छोटे स्कूल में-प्राइमरी स्कूल में-एक छोटे बच्चे से जाकर पूछा, ईश्वर है? उस बच्चे ने कहा, हुआ करता था, अब है नहीं। यूज्‍ड टू बी, बट नो मोर। ऐसा पहले हुआ कुरता था, जब लोग अज्ञानी थे-क्रांति के पहले-उन्नीस सौ सत्रह के पहले हुआ करता था। अब नहीं है। ईश्वर मर चुका। आदमी जब अज्ञानी था, तब हुआ करता था।

जो हम सुनते हैं, वह मान लेते हैं। संस्कार हमारा चरित्र बन जाता है। पश्चिम में शराब पीना कोई दुश्चरित्रता नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे भी पी लेते हैं। सहज है। पूरब में बड़ी दुश्चरित्र बात है। धारणा की बात है।

कल, परसों ही मैं देख रहा था। जयप्रकाश नारायण के स्वास्थ्य की बुलेटिन रोज निकलती है, वह मैं देख रहा था। तो उन्होंने दो अंडे खाए। कोई सोच भी नहीं सकता, किस भाति के सर्वोदयी हैं! अहिंसा, सर्वोदय, गांधी के मानने वाले, अंडे? लेकिन बिहार में चलता है। बिहारी हैं, कोई अड़चन की बात नहीं। कोई जैन सोच भी नहीं सकता कि अहिंसक और अंडे खा सकता है। लेकिन जयप्रकाश को खयाल ही नहीं आया होगा। गांधी और विनोबा के साथ जिंदगी बिताई, लेकिन अंडे नहीं खाना है, यह खयाल नहीं आया।

एक क्वेकर कई वर्ष पहले मेरे पास मेहमान हुआ। तो मैंने उससे सुबह ही पूछा कि चाय लेंगे, दूध लेंगे, काँफी लेंगे, क्या लेंगे न वह एकदम चौंक गया, जैसे मैंने कोई बड़ी खतरनाक बात कही हो। उसने कहा, क्या आप चाय, दूध काँफी पीते हैं? जैसे मैंने कोई खून पीने का निमंत्रण दिया हो। मैंने पूछा, तुम.. कोई गलती बात हुई? उसने कहा, मैं शाकाहारी हूं दूध मैं नहीं पी सकता।

क्योंकि क्वेकर मानते हैं, दूध खून है। उनके मानने में भी बात तो है। क्वेकर अंडा खाते हैं, लेकिन दूध नहीं पीते, क्योंकि दूध तो रक्त से ही बनता है। शरीर में सफेद और लाल कण होते हैं खून में। मादा के शरीर से-चाहे गाय हो, चाहे स्त्री हो-सफेद कण अलग हो जाते हैं और दूध बन जाता है। वह आधा खून है।

तो उसने इस तरह नाक-भौं सिकोड़ी, कहा कि दूध! आप भी क्या बात कर रहे हैं! अंडा वे खा लेते हैं। क्योंकि अंडा वे कहते हैं कि जब तक अभी जीवन प्रगट नहीं हुआ तब तक कोई पाप नहीं है। ऐसे तो जीवन सभी जगह छिपा है; इसलिए प्रगट और अप्रगट का ही भेद करना उचित है उनके हिसाब से। ऐसे तो जीवन सभी जगह छिपा है।

तुमने एक फल खाया, अगर तुम न खाते और फल रखा रहता, सड़ जाता, तो उसमें कीड़े पड़ते, तो उसमें भी जीवन प्रगट हो जाता। तो जब तक नहीं प्रगट हुआ है तब तक नहीं है।

मान्यताओं की बातें हैं। चरित्र मान्यताओं से बनता है, संस्कार से बनता है। शील, शील बड़ी अनूठी बात है। शील तुम्हारी मान्यताओं और संस्कारों से नहीं बनता। शील तुम्हारे ध्यान से जन्मता है। इस फर्क को बहुत ठीक से समझ लो। मान्यता, संस्कार, समाज, संस्कृति, नीति की धारणाएं विचार हैं। जो विचार तुम्हें दिए गए हैं, वे तुम्हारे भीतर पकड़ गए हैं।

मैं जैन घर में पैदा हुआ। तो बचपन में मुझे कभी रात्रि को भोजन करने का सवाल नहीं उठा। कोई करता ही न था घर में, इसलिए बात ही नहीं थी। मैं पहली दफा पिकनिक पर कुछ हिंदू मित्रों के साथ पहाड़ पर गया। उन्होंने दिन में खाना बनाने की कोई फिकर ही न की। मुझ अकेले के लिए कोई चिंता का कारण भी न था। मैं अपने लिए जोर दूं यह भी ठीक न मालूम पड़ा।

रात उन्होंने भोजन बनाया। दिनभर पहाड़ का चढ़ाव, दिनभर की थकान, भयंकर मुझे भूख लगी। और रात उन्होंने खाना बनाया। उनके खाने की गंध, वह मुझे आज भी याद है। ऊपर-ऊपर मैंने हां-ना किया कि नहीं, रात कैसे खाना खाऊंगा, लेकिन भीतर तो चाहा कि वे समझा-बुझाकर किसी तरह खिला ही दें। उन्होंने समझा-बुझाकर खिला भी दिया। लेकिन मुझे तत्क्षण वमन हो गया, उलटी हो गई।

उस दिन तो मैंने यही समझा कि रात का खाना इतना पापपूर्ण है इसीलिए उलटी हो गई। लेकिन उनको तो किसी को भी न हुई। संस्कार की बात थी। कोई रात के खाने से संबंध न था। कभी खाया न था, और रात खाना पाप है, वह धारणा; तो किसी तरह खा तो लिया, लेकिन वह सब शरीर ने फेंक दिया, मन ने बाहर फेंक दिया। शील से इन घटनाओं का कोई संबंध नहीं है, मन की धारणाओं से संबंध है। तुम जो मानकर चलते हो, जो तुम्हारे विचार में बैठ गया है, उसके अनुकूल चलना आचरण है, उसके प्रतिकूल चलना दुराचरण है।

शील क्या है? शील है, जब तुम्हारे मन से सब विचार समाप्त हो जाते हैं और निर्विचार दशा उपलब्ध होती है, शुन्यभाव बनता है, ध्यान लगता है, उस ध्यान की दशा में तुम्हें जो ठीक मालूम होता है, वही करना शील है। और वैसा शील सारे जगत में एक सा होगा। उसमें कोई संस्कार के भेद नहीं होंगे, समाज के भेद नहीं होंगे।

चरित्र हिंदू का अलग होगा, मुसलमान का अलग होगा, ईसाई का अलग होगा, जैन का अलग होगा, सिक्ख का अलग होगा। शील सभी का एक होगा। शील वहां से आता है जहां न हिंदू जाता, न मुसलमान जाता, न ईसाई जाता। तुम्हारी गहनतम गहराई से, अछूती कुंवारी गहराई से, जहां किसी ने कभी कोई स्पर्श नहीं किया, जहा तुम अभी भी परमात्मा हो, वहां से शील आता है।

जैसे अगर तुम थोड़ी सी जमीन खोदो तो ऊपर-ऊपर जो पानी मिलेगा वह तो पास की सड़कों से बहती हुई नालियों का पानी होगा, जो जमीन ने सोख लिया है-चरित्र। चरित्र होगा वह। फिर तुम गहरा कुआ खोदो, इतना गहरा कुआ खोदो जहा तक नालियों का पानी जा ही नहीं सकता, तब तुम्हें जलस्रोत मिलेंगे, वे सागर के हैं। तब तुम्हें शुद्ध जल मिलेगा।

अपने भीतर इतनी खुदाई करनी है कि विचार समाप्त हो जाएं, निर्विचार का तल मिल जाए। वहां से तुम्हारे जीवन को जो ज्योति मिलेगी वह शील की है। चरित्र में?कोई बड़ी सुगंध नहीं होती। चरित्र तो प्लास्टिक के फूल हैं, चिपका लिए ऊपर से, सज-धज गए श्रृंगार कर लिया। दूसरों को दिखाने के लिए अच्छे, लेकिन परमात्मा के सामने काम न पड़ेंगे। शील ऐसे फूल हैं जो तुमने चिपकाए नहीं, तुम्हारे भीतर लगे, उगे, उमगे, तुम्हारे भीतर से आए। जिनकी जड़ें तुम्हारे भीतर छिपी हैं। उन्हीं फूलों को तुम परमात्मा के सामने ले जाने में समर्थ हो सकोगे। जो समाज ने दिया है, वह मौत छीन लेगी। क्योंकि जो समाज ने दिया है, वह जन्म के बाद दिया है। उसे तुम मौत के आगे न ले जा सकोगे। जन्म और मौत के बीच ही उसकी संभावना है।

लेकिन अगर शील का जन्म हो जाए तो उसका अर्थ है, तुमने वहां पाया अब जो जन्म के पहले था, जब तुम पैदा भी न हुए थे। उस शुद्ध चैतन्य से आ रहा है।

अब मृत्यु के आगे भी ले जा सकोगे। जो जन्म के पहले है, वह मृत्यु के बाद भी साथ जाएगा। शील को उपलब्ध कर लेना इस जगत की सबसे बड़ी क्रांति है।

न जाने कौन है गुमराह कौन आगाहे-मजिल है

हजारों कारवां हैं जिंदगी की शाहराहों में

कौन है गुमराह-कौन भटका हुआ है? कौन आगाहे-मंजिल है-और कौन है जिसे मंजिल का पता है? हजारों यात्री दल हैं जिंदगी के राजपथ पर। तुम कैसे पहचानोगे? चरित्र के धोखे में मत आ जाना। दुश्चरित्र को तो छोड़ ही देना, चरित्रवान को भी छोड़ देना। शीलवान को खोजना।

ऐसा समझो। एक सूफी फकीर हज की यात्रा को गया। एक महीने का मार्ग था। उस फकीर और उसके शिष्यों ने तय किया कि एक महीने उपवास रखेंगे। पाच-सात दिन ही बीते थे कि एक गांव में पहुंचे, कि गांव के बाहर ही आए थे कि गांव के लोगों ने खबर की कि तुम्हारा एक भक्त गाव में रहता है, उसने अपना मकान, जमीन सब बेच दिया। गरीब आदमी है। तुम आ रहे हो, तुम्हारे स्वागत के लिए उसने पूरे गांव को आमंत्रित किया है भोजन के लिए। सब बेच दिया है ताकि तुम्हारा ठीक से स्वागत कर सके। उसने बड़े मिष्ठान बनाए हैं। फकीर के शिष्यों ने कहा, यह कभी नहीं हो सकता, हम उपवासी हैं, हमने एक महीने का उपवास रखा है। हमने व्रत लिया है, व्रत नहीं टूट सकता। लेकिन फकीर कुछ भी न बोला।

जब वे गांव में आए और उस भक्त ने उनका स्वागत किया, और फकीर को भोजन के लिए निमंत्रित किया तो वह भोजन करने बैठ गया। शिष्य तो बड़े हैरान हुए कि यह किस तरह का गुरु है? जरा से भोजन के पीछे व्रत को तोड़ रहा है! भूल गया कसम, भूल गया प्रतिज्ञा कि एक महीने उपवास करेंगे। यह क्या मामला है? लेकिन जब गुरु ने ही इंकार नहीं किया तो शिष्य भी इंकार न कर सके। करना चाहते थे।

समारोह पूरा हुआ, रात जब विश्राम को गए तो शिष्यों ने गुरु को घेर लिया और कहा कि यह क्या है? क्या आप भूल गए? या आप पतित हो गए?

उस गुरु ने कहा, पागलो! प्रेम से बड़ी कहीं कोई तीर्थयात्रा है? और इसने इतने प्रेम से, अपनी सब जमीन-जायदाद बेचकर, सब लुटाकर-गरीब आदमी है-भोजन का आयोजन किया, उसे इंकार करना परमात्मा को ही इंकार करना हो जाता। क्योंकि प्रेम को इंकार करना परमात्मा को इंकार करना है। रही उपवास की बात, तो क्या फिकर है, सात दिन आगे कर लेंगे। एक महीने का उपवास करना है न? एक महीने का उपवास कर लेंगे। और अगर कोई दंड तुम सोचते हो, तो दंड भी जोड़ लो। एक महीने दस दिन का कर लेंगे। जल्दी क्या है? और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी यह अकड़ कि हमने व्रत लिया है और हम अब भोजन न कर सकेंगे, अहंकार की अकड़ है। यह प्रेम की और धर्म की विनम्रता नहीं।

यहां फर्क तुम्हें समझ में आ सकता है। शिष्यों का तो केवल चरित्र है, गुरु का शील है। शील अपना मालिक है, वह होश से पैदा होता है। चरित्र अपना मालिक नहीं है, वह अंधानुकरण से पैदा होता है। जब कभी तुम्हें जीवन में कोई शीलवान आदमी मिल जाए, तो समझ लेना यही चरण पकड़ लेने जैसे हैं। चरित्रवान के धोखे में मत आ जाना, क्योंकि चरित्रवान तो सिर्फ ऊपर-ऊपर है। भीतर बिलकुल विपरीत चल रहा है।

फर्क कैसे करोगे? चरित्रवान को तुम हमेशा अकड़ा हुआ पाओगे। क्योंकि, इतना कर रहा हूं! तो अहंकार मजबूत होता है। चरित्रवान को तुम हमेशा तना हुआ पाओगे, तनाव से भरा पाओगे। क्योंकि कर रहा है, कर रहा है, कर रहा है। फल की अपेक्षा कर रहा है। शीलवान को तुम हमेशा विश्राम में पाओगे। शीलवान इसलिए नहीं कर रहा है कि आगे कुछ मिलने को है। शीलवान इसलिए कर रहा है कि करने में आनंद है। शीलवान को तुम प्रफुल्लित पाओगे। शीलवान अपनी तपश्चर्या की चर्चा न करेगा। अपने उत्सव के गीत गाएगा। शीलवान तुम्हें आनंदित मालूम पड़ेगा।

चरित्रवान तुम्हें बड़ा तना हुआ और कष्ट झेलता हुआ मालूम पड़ेगा। बारीक हैं फासले, लेकिन अगर तुमने नजर खोलकर रखी तो तुम्हें कठिनाई न होगी। चरित्रवान के पास तुम्हें दंभ की दुर्गंध मिलेगी। शीलवान के पास तुम्हें सरलता की सुगंध मिलेगी। शीलवान को तुम ऐसा पाओगे जैसा छोटा बालक, चरित्रवान को तुम बड़ा हिसाबी-किताबी पाओगे। वह एक-एक बात का हिसाब रखेगा। गणित में पक्का पाओगे, प्रेम में नहीं। और जहां गणित बहुत पक्का हो जाता है, वहा परमात्मा से दूरी बहुत हो जाती है। तुम चरित्रवान को तर्कयुक्त पाओगे। वह जो भी करेगा, तर्क से ठीक है इसलिए करेगा।

शीलवान को तुम तर्कयुक्त न पाओगे, सहजस्फूर्त पाओगे। वह जो भी करेगा वह उसकी सहज-स्फुरणा है। ऐसा हुआ। शीलवान को तुम परमात्मा के हाथ में अपने को सौंपा हुआ पाओगे। चरित्रवान को तुम अपने ही हाथों में नियंत्रित पाओगे। चरित्रवान में नियंत्रण होगा, अनुशासन होगा। शीलवान में स्वातंत्र्य होगा, मुक्ति होगी। और सुगंध और दुर्गंध का फर्क होगा।

दुश्चरित्र तो होना ही नहीं, चरित्रवान भी मत होना। अगर होना ही है, तो शीलवान होना। चरित्र है ऊपर से थोपा गया-आरोपण। शील है भीतर से आई हुई जीवन-धारा, भीतर से आया हुआ बोध।

‘चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।’

शील छोटे बच्चे जैसा है। छोटे बच्चों को फिर से गौर से देखना। बहुत कम लोग उन्हें गौर से देखते हैं। छोटे बच्चों को ठीक से पहचानना, क्योंकि वही संतों की भी पहचान बनेगी। तुमने कभी कोई छोटा बच्चा देखा जो कुरूप हो? सभी छोटे बच्चे सुंदर होते हैं, सभी छोटे बच्चों में जीवन का आह्लाद होता है, एक सरलता होती है-गणितशून्य, हिसाब से मुक्त, एक प्रवाह होता है।

निकल के कूचे से तेरे बहुत खराब हुए

कहीं न चैन मिला फिर तेरी गली की तरह

अगर तुम अपने बचपन को याद करोगे, तो तुम्हें ये वचन समझ में आ जाएंगे। ये वचन तो कहे गए हैं अदम के लिए, कि अदम को जब स्वर्ग के बगीचे से निकाल दिया गया.? निकाला क्यों गया? निकाला इसलिए गया कि उसने बचपन खो दिया, उसने सरलता खो दी, निर्दोषता खो दी। उसने ज्ञान के वृक्ष का फल चख लिया, वह समझदार हो गया।

अब ये बड़ी मजे की कहानी है ईसाइयों की। इससे अनूठी कहानी दुनिया के इतिहास में दूसरी नहीं। अदम को इसलिए निकाला गया कि वह ज्ञानी हो गया। थोड़ा सोचो। हम तो सोचते हैं, ज्ञानियों को वापस ले लिया जाएगा। अदम जब तक सरल था, तब तक तो स्वर्ग के बगीचे में रहा, और जब समझदार हो गया-समझदार यानी जब वह चालाक हो गया, जब उसने ज्ञान के वृक्ष का फल चख लिया-उस क्षण परमात्मा ने उसे बाहर कर दिया।

निकल के कूचे से तेरे बहुत खराब हुए

कहीं न चैन मिला फिर तेरी गली की तरह

और आदमी, ईसाइयत कहती है, तब से बेचैन है, उसी की गली को फिर खोज रहा है। लेकिन यह खोज तभी पूरी हो सकती है जब ज्ञान को तुम वमन कर दो, जब तुम अपने पांडित्य को फेंक दो कूड़े-करकट के ढेर पर, जब तुम फिर से सरल हो जाओ, जब तुम फिर बालक की भांति हो जाओ। संतत्व में पुन: बच्चे का शील आ जाता है, बच्चे की सुगंध आ जाती है।

‘चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।’

यह शील की सुगंध तुम्हारे मस्तिष्क का हिसाब-किताब नहीं, तुम्हारे हृदय में जला हुआ दीया है, तुम्हारे हृदय में जली ज्योति है।

दिल से मिलती तो है इक राह कहीं से आकर

सोचता हूं यह तेरी राहगुजर है कि नहीं

मत सोचो। दिल से जो राह मिलती है वही परमात्मा की राह है। सोचा तो भटकोगे। उस राह पर थोड़ा चलकर देखो। उस राह पर चलते ही तुम्हें लगेगा, मंदिर के शिखर दिखाई पड़ने लगे, मंदिर की घंटियों का स्वर सुनाई पड़ने लगा, मंदिर में जलती धूप की सुगंध तुम्हारे नासापुटों को भरने लगी।

दिल से मिलती तो है इक राह कहीं से अकर

अज्ञात की राह तुम्हारे सिर से नहीं मिलती, तुम्हारा दिल से मिलती है।

सोचता हूं यह तेरी राहगुजर है कि नहीं

सोचो मत। जिसने सोचा उसने गंवाया। क्योंकि जब तुम सोचने लगते हो तब तुम मस्तिष्क में आ जाते हो। प्रेम करो, भाव से भरो। रो लेना भी बेहतर है सोचने से, नाच लेना बेहतर है सोचने से, आंसू टपका लेना बेहतर है सोचने से। जो भी हृदय से उठे, वह बेहतर है, वह श्रेष्ठ है। और जैसे-जैसे तुम्हारा थोड़ा संबंध बनेगा, तुम निश्चित ही जान लोगे कि उसी राह से परमात्मा आता है। ज्ञान की राह से नहीं, निर्दोष भाव की राह से आता है।

‘तगर और चंदन की जो यह गंध फैलती है वह अल्पमात्र है। और यह जो शीलवंतों की सुगंध है, वह उत्तम गंध देवलोकों में भी फैल जाती है, देवताओं में भी फैल जाती है।’

इसे थोड़ा समझें। तगर, चंदन की जो गंध है अल्पमात्र है, क्षणजीवी है। हवा का एक झोंका उसे उड़ा ले जाएगा। जल्दी ही खो जाएगी इस विराट में, फिर कहीं खोजे न मिलेगी। एक सपना हो जाएगी, एक अफवाह मालूम पड़ेगी। पता नहीं थी भी या नहीं थी। लेकिन शीलवंतों की जो सुगंध है, वह उत्तम गंध देवताओं में भी फैल जाती है।

मैंने सुना है, एक स्त्री मछलियां बेचकर अपने घर वापस लौटती थी। नगर के बाहर निकलती थी कि उसकी एक पुरानी सहेली मिल गई, जो एक मालिन थी। उसने कहा, आज रात मेरे घर रुक जा, बहुत दिन से साथ भी नहीं हुआ, बहुत बातें भी करने को हैं। वह रुक गई। मालिन ने यह सोचकर कि पुरानी सखी है, ऐसी जगह उसका बिस्तर लगाया जहां बाहर से बेला की सुगंध भरपूर आती थी। लेकिन मछली बेचने वाली औरत करवटें बदलने लगी। बेला की सुगंध की आदत नहीं। आधी रात हो गई, तो मालिन ने पूछा, बहन तू सो नहीं पाती, कुछ अड़चन है? उसने कहा, कुछ और अड़चन नहीं, मेरी टोकरी मुझे वापस दे दो। और थोड़ा पानी उस पर छिड़क दो, क्योंकि मछलियों की गंध के बिना मैं सो न सकूंगी। बेला की सुगंध मुझे बड़ी तकलीफ दे रही है। बड़ी तेज है।

मालिन को तो भरोसा न आया। मछलियों की गंध! गंध कहना ही ठीक नहीं उसे, दुर्गंध है। लेकिन उसने पानी छिड़का उसकी टोकरी पर, कपड़े के टुकड़े पर-जिन पर मछलियां बांधकर वह बेच आई थी। उसने उसे अपने सिर के पास रख लिया, जल्दी ही उसे घुर्राटे आने लगे, वह गहरी नींद में खो गई।

तल हैं बहुत। बुद्ध कहते हैं, देवताओं को भी; पृथ्वी पर रहने वालों को ही नहीं स्वर्ग में रहने वालों को भी शील की गंध आती है। शायद पृथ्वी पर रहने वालों की तो वैसी ही हालत हो जाए जैसी मछली बेचने वाली औरत की हो गई थी।

बुद्ध को लोगों ने पत्थर मारे। उन्हें दुर्गंध आई होगी, सुगंध न आई होगी। महावीर को लोगों ने सताया। उन्हें सुगंध न आई होगी, अन्यथा पूजते। जीसस को सूली पर लटका दिया। अब और क्या चाहते हो! जाहिर है बात कि हम कोई ऐसी बस्ती के रहने वाले हैं जहां मछलियों की दुर्गंध हमें सुगंध मालूम होने लगी है, जहां हम जीसस को सूली पर लटका देते हैं, जहां हम सुकरात को जहर पिला देते हैं, जहां बुद्धों को हम पत्थर मारते हैं, महावीरों का अपमान करते हैं। हमें उनकी सुगंध-सुगंध नहीं मालूम पड़ती है। हम भयभीत हो जाते हैं। उनका होना हमें डगमगा देता है। उनके होने में बगावत मालूम पड़ती है। उनकी श्वास-श्वास में विद्रोह के स्वर मालूम होते हैं। लेकिन देवताओं को उनकी गंध आती है।

महावीर के जीवन में बड़ा प्यारा उल्लेख है। कथा ही होगी। लेकिन कथा भी बड़ी बहुमूल्य है और सार्थक है। और कभी-कभी कथाओं के सत्य जीवन के सत्यों से भी बड़े सत्य होते हैं। कहते हैं कि महावीर ने जब पहली दफा अपनी उदघोषणा की, अपने सत्य की, तो देवताओं के सिवाय कोई भी सुनने न आया। आते भी कैसे कोई और प उदघोषणा इतनी ऊंची थी! उसकी गंध ऐसी थी की केवल देवता ही पकड़ पाए होंगे। अगर कहीं कोई देवता हैं तो निश्चित ही वही सुनने आए होंगे। फिर देवताओं ने महावीर को समझाया-बुझाया कि आप कुछ इस ढंग से कहें कि मनुष्य भी समझ सके। आप कुछ मनुष्य की भाषा में कहें। मतलब यही कि मनुष्य की टोकरी पर थोड़ा पानी छिड़कें, मनुष्य की टोकरी उसके पास रख दें, तो ही शायद वह पहचान पाए।

कोई भी नहीं जानता कि महावीर की पहली उदघोषणा में, पहले संबोधन में महावीर ने क्या कहा था। वही शुद्धतम धर्म रहा होगा। लेकिन उसके आधार पर तो जैन धर्म नहीं बना। जैन धर्म तो बना तब, जब महावीर कुछ ऐसा बोले जो आदमी की समझ में आ जाए। वह महावीर का अंतरतम नहीं हो सकता।

बुद्ध तो चुप ही रह गए जब उन्हें ज्ञान हुआ। उन्होंने कहा, बोलना फिजूल है, कौन समझेगा? यह गंध बांटनी व्यर्थ है। यहां कोई गंध के पारखी ही नहीं हैं। हम बांटेंगे सोना, लोग समझेंगे पीतल; हम देंगे हीरे, लोग समझेंगे कंकड़-पत्थर। फेंक आएंगे। बुद्ध तो सात दिन चुप रह गए।

फिर कथा कहती है कि स्वर्ग के देवता उतरे, खुद ब्रह्मा उतरे, बुद्ध के चरणों में सिर रखा और कहा कि ऐसी अनूठी घटना कभी-कभार घटती है सदियों में, आप कहें। कोई समझे या न समझे, आप कहें। शायद कोई समझ ही ले। शायद कोई थोड़ा ही समझे। एक किरण भी किसी की समझ में आ जाए तो भी बहुत है। क्योंकि किरण के सहारे कोई सूरज तक जा सकता है।

बुद्ध कहते हैं, ‘तगर या चंदन की यह जो गंध है, अल्पमात्र है। और यह जो शीलवंतों की सुगंध है, वह उत्तम देवलोकों तक फैल जाती है। ‘

इस सुगंध को शब्द देने कठिन हैं। यह सुगंध कोई पार्थिव घटना नहीं है। तुम इसे तौल न सकोगे। न ही तुम इसे गठरियों में बांध सकोगे। न ही तुम इसे शास्त्रों

में समा सकोगे। न ही तुम इसके सिद्धात बना सकोगे। यह सुगंध अपार्थिव है। यह तो केवल उन्हीं को मिलती है, जो बुद्धों की आंखों में झांकने में समर्थ हो जाते हैं। यह तो केवल उन्हीं को मिलती है, जो बुद्धों के हृदयों में डूबने में समर्थ हो जाते हैं। यह तो केवल उन्हीं को मिलती है, जो मिटने को राजी हैं, जो खोने को राजी हैं। इस सुगंध को पाना बड़ा सौदा है। केवल जुआरी ही इसको पा पाते हैं।

होता है राजे-इश्को-मुहब्बत इन्हीं से फाश

आंखें जुबां नहीं हैं मगर बेजुबां नहीं

बुद्ध की आंखों में जो झांकेगा, तो बुद्ध की आंखें जबान तो नहीं हैं कि बोल दें, लेकिन वे बेजुबां भी नहीं हैं। बोलती हैं। जो बुद्ध की आंखों के दीये को समझेगा, जो बुद्ध की आंखों के दीये के पास अपने बुझे दीयों को ले आएगा, जो बुद्ध की शून्यता में अपनी शून्यता को मिला देगा, जो बुद्ध के साथ होने को राजी होगा-अज्ञात की यात्रा पर जाने कों-केवल उसी के अंतरपट उस गंध से भर जाएंगे, केवल वही उस गंध का मालिक हो पाएगा।

‘वे जो शीलवान, अप्रमाद में विहार करने वाले सम्यक ज्ञान द्वारा विमुक्त हो गए हैं, उनकी राह में मार नहीं आता है।’

और जिसने भी शील को पा लिया, अप्रमाद को पा लिया, सम्यक ज्ञान को पा लिया-एक ही बातें हैं-उसकी राह में फिर वासना का देवता मार नहीं आता है। जो जाग गया, उसे फिर मार के देवता से मुलाकात नहीं होती। उसकी तो फिर परमात्मा से ही मुलाकात होती है। जो सोया है, उसकी घड़ी-घड़ी मुलाकात वासना के देवता से ही होती है।

‘जैसे महापथ के किनारे फेंके गए कूड़े के ढेर पर कोई सुगंधयुक्त सुंदर कमल खिले, वैसे ही कूड़े के समान अंधे सामान्यजनों के बीच सम्यक संबुद्ध का श्रावक अपनी प्रज्ञा से शोभित होता है।’

बहुत बातें हैं इस सूत्र में। पहली तो बात यह है कि कमल कीचड़ से खिलता है, कूड़े-करकट के ढेर से निकलता है। कमल कीचड़ में छिपा है। कमल तो पैदा करना है, लेकिन कीचड़ के दुश्मन मत हो जाना। नहीं तो कमल कभी पैदा न हो पाएगा।

समझो। जिसे तुमने क्रोध कहा है, वही है कीचड़; और जिसे तुमने करुणा जानी है, वही है कमल। और जिसे तुमने कामवासना कहा है, वही है कीचड़; और जिसको तुमने ब्रह्मचर्य जाना है, वही है कमल। काम के कीचड़ से ही राम का कमल खिलता है, क्रोध के कीचड़ से ही करुणा के फूल खिलते हैं।

जीवन एक कला है। और जीवन उन्हीं का है जो उस कला को सीख लें। भगोड़ों के लिए नहीं है जीवन, और न नासमझों के लिए है। तुम कहीं भूल में मत पड़ जाना। तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी तुम्हें जो समझाते हैं, जल्दी मत मान लेना। क्योंकि वे कहते हैं कि हटाओ क्रोध को; वे कहते हैं, हटाओ काम को। मैं तुमसे कहता हूं बदलों, हटाओ मत 1 रूपांतरित करो, ट्रांसफार्म करो। क्रोध ऊर्जा है, उसे काट दोगे तो करुणा पैदा न होगी। तुम सिर्फ शक्तिहीन, नपुंसक हो जाओगे। काम ऊर्जा है। उसे अगर काट दोगे तो तुम निर्वीर्य हो जाओगे। बदलो, रूपांतरित करो, उसमें महाधन छिपा है। तुम कहीं फेंक मत देना। कीचड़ समझकर फेंक मत देना, कमल भी छिपा है। हालांकि कीचड़ को ही कमल मत समझ लेना।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं। बड़ी खतरनाक दुनिया है। एक तो वे लोग हैं, जो कहते हैं, कीचड़ को हटाओ, क्योंकि कहां कीचड़ को ढो रहे हो? काटो कामवासना को, तोड़ो क्रोध को, जला दो इंद्रियों को। एक तो ये लोग हैं। इन्होंने काफी हानि की संसार की। इन्होंने मनुष्य को गरिमा से शून्य कर दिया। इन्होंने मनुष्य का सारा गौरव नष्ट कर दिया, दीन-हीन कर दिया मनुष्य को। क्योंकि उसी कीचड़ में छिपे थे कमल।

फिर दूसरी तरह के लोग भी हैं। अगर उनसे कहो, कीचड़ में कमल छिपा है, फेंको मत कीचड़ को, बदलो; तो वे कहते हैं, बिलकुल ठीक। फिर वे कीचड़ को ही सिंहासन पर विराजमान कर लेते हैं, फिर वे उसी की पूजा करते हैं। वे कहते हैं, तुम्हीं ने तो कहा था कि कीचड़ में कमल छिपा है। अब हम कीचड़ की पूजा कर रहे हैं।

ये दोनों ही खतरनाक लोग हैं। कीचड़ में कमल छिपा है। न तो कीचड़ को फेंकना है, न कीचड़ की पूजा करनी है। कीचड़ से कमल को निकालना है। कीचड़ से कमल को बाहर लाना है। जो छिपा है, उसे प्रगट करना है। इन दो अतियों से बचना। ये दोनों अतियां एक जैसी हैं। कुआं नहीं तो खाई। कहीं बीच में खड़े होने के लिए जगह खोजनी है। कोई संतुलन चाहिए।

‘जैसे महापथ के किनारे फेंके गए कूड़े के ढेर पर कोई सुगंधित सुंदर कमल खिले।

तो पहली तो बात यह है कि कमल खिलता ही कीचड़ में है। इसका बड़ा गहरा अर्थ हुआ। इसका अर्थ हुआ कि कीचड़ सिर्फ कीचड़ ही नहीं है, कमल की संभावना भी है। तो गहरी आंख से देखना, तो तुम कीचड़ में छिपा हुआ कमल पाओगे। कीचड़ सिर्फ वर्तमान ही नहीं है, भविष्य भी है। गौर से देखना, तुम भविष्य के कमल को झांकते हुए पाओगे। छिपा है। इसलिए जिनके पास पैनी आंखें हैं, उन्हीं को दिखाई पड़ेगा।

कीचड़ की पूजा भी नहीं करना, कीचड़ का उपयोग करना। कीचड़ को मालिक मत बन जाने देना, कीचड़ को सेवक ही रहने देना। मालिक तुम्हीं रहना, तो ही कमल निकल पाएगा। क्योंकि तुम्हारी मालकियत रहे तो ही कमल को तुम कीचड़ के बाहर खींच पाओगे। तुम अगर ऊर्ध्वगमन पर जाते हो, अगर तुम ऊपर की तरफ यात्रा कर रहे हो, तो ही कीचड़ का कमल भी ऊपर की तरफ तुम्हारे साथ जा सकेगा। तुम कीचड़ में ही डुबकी लगाकर मत बैठ जाना, नहीं तो कमल किसके सहारे जाएगा! तुम्हीं को तो कमल की डंडी बनना है। पैर रहें कीचड में, सिर रहे आकाश में, तो तुम कीचड़ से कमल को बाहर निकाल पाओगे। पैर रहें जमीन पर, सिर रहे आकाश में, चलना जमीन पर, उड़ना परमात्मा में; और इन दोनों के बीच अगर तालमेल बना लो, तो तुम्हारे भीतर एक अनूठा कमल खिलेगा।

‘जैसे महापथ के किनारे फेंके गए कूड़े के ढेर पर कोई सुगंधित सुंदर कमल खिले, वैसे ही कूड़े के समान अंधे सामान्यजनों के बीच सम्यक संबुद्ध का श्रावक अपनी प्रज्ञा से शोभित होता है।’

बुद्ध अपने शिष्य को श्रावक कहते हैं। श्रावक का अर्थ है, जिसने बुद्ध को सुना, श्रवण किया। बुद्ध को तो बहुत लोगों ने सुना, सभी श्रावक नहीं हैं। कान से ही जिन्होंने सुना, वे श्रावक नहीं हैं। जिन्होंने प्राण से सुना, वे श्रावक हैं। जिन्होंने ऐसे सुना कि सुनने में ही क्रांति घटित हो गई, जिन्होंने ऐसे सुना कि बुद्ध का सत्य उनका सत्य हो गया। श्रद्धा के कारण नहीं, सुनने की तीव्रता और गहनता के कारण। श्रद्धा के कारण नहीं, मान लिया ऐसा नहीं, पर सुना इतने प्राणपण से, सुना इतनी परिपूर्णता से, सुना अपने को पूरा खोलकर कि बुद्ध के शब्द केवल शब्द ही न रहे, निःशब्द भी उनमें चला आया। बुद्ध के शब्द ही भीतर न आए, उन शब्दों में लिपटी बुद्धत्व की गंध भी भीतर आ गई।

और ध्यान रखना, जब बुद्ध बोलते हैं तब शब्द तो वही होते हैं जो तुम बोलते हो, लेकिन जमीन-आसमान का फर्क है। शब्द तो वही होते हैं, लेकिन बुद्ध में डूबकर आते हैं, सराबोर होते हैं बुद्धत्व में, उन शब्दों में से बुद्धत्व झरता है। अगर तुमने बुद्ध के शब्दों को अपने प्राण में जगह दी, तो उनके साथ ही साथ बुद्धत्व का बीज भी तुम्हारे भीतर आरोपित हो जाता है। बुद्ध ने उनको श्रावक कहा है जिन्होंने ऐसे सुना।

और बुद्ध कहते हैं, सम्यक संबुद्धों का श्रावक सामान्यजनों के कूड़े-करकट की भीड़ में कमल की तरह खिल जाता है। अलग हो जाता है। रहता संसार में है, फिर भी पार हो जाता है। कमल होता कीचड़ में है, फिर भी दूर हो जाता है। उठता जाता है दूर। भिन्न हो जाता है।

कमल और कीचड़, कितना फासला है! फिर भी कमल कीचड़ से ही आता है। तुम्हारे बीच ही अगर किसी ने बुद्धत्व को अपने प्राणों में आरोपित कर लिया, बुद्ध के बीज को अपने भीतर जाने दिया, अपने हृदय में जगह दी, सींचा, पाला, पोसा, सुरक्षा की, तो तुम्हारे ठीक बीच बाजार के पूरे पर, ढेर पर उसका कमल खिल आएगा।

एक ही बात खयाल रखनी जरूरी है, ऊपर की तरफ जाने को मत भूलना। नीचे

की तरफ जो ले जाता है, वह है कामवासना, कीचड़। ऊपर की तरफ जो ले जाता है, वही है प्रेम, वही है प्रार्थना। काम को प्रेम में बदलो।

काम का अर्थ है, दूसरे से सुख मिल सकता है ऐसी धारणा। प्रेम का अर्थ है, किसी से सुख नहीं मिल सकता, और न कोई तुम्हें दुख दे सकता है। इसलिए दूसरे से लेने का तो कोई सवाल ही नहीं है। काम मांगता है दूसरे से। काम भिखारी है। काम है भिक्षा का पात्र। प्रेम है इस बात की समझ कि दूसरे से न कुछ कभी मिला है न मिलेगा। यह दूसरे के सामने भिक्षा के पात्र को मत फैलाओ। प्रेम है, तुम्हारे भीतर जो है उसे बांटो और दो। काम है मांगना, प्रेम है दान। जो तुम्हारे जीवन की संपदा है, उसे तुम दे दो, उसे तुम बांट दो। जैसे सुगंध बांटता है फूल, ऐसे तुम प्रेम को बाट दो। तो तुम्हारे जीवन में शील का जन्म होगा। बांटोगे तो तुम पाओगे, जितना बांटते हो उतनी बढ़ती जाती है संपदा। जितना लुटाते हो, साम्राज्य बड़ा होता जाता है।

केसरी और खुशरबी तो ढलती-फिरती छांव है

इस जिंदगी के बाहर दिखाई पड़ने वाले साम्राज्य और सम्राट तो ढलती-फिरती छांव हैं।

केसरी और खुशरबी तो ढलती-फिरती छांव है

इश्क ही एक जाबिदा दौलत है इंसानों के पास

दौलत एक है, धन एक है, संपत्ति एक है। बाकी तो ढलती-फिरती छांव है। इश्‍क ही है एक जाबिदां दौलत-प्रेम ही एकमात्र संपदा है। काम है भिखारीपन और प्रेम है संपदा। काम से पैदा होगा अशील और प्रेम से पैदा होता है शील। तो तुम्हारा जीवन एक प्रेम का दीया बन जाए।

और ध्यान रखना, प्रेम का दीया तभी बन सकता है जब तुम बहुत जागकर

जीओ। जागने का तेल हो, प्रेम की बाती हो, तो परमात्मा का प्रकाश फैलता है। और तब जहां अंधेरा पाया था, वहां रोशनी हो जाती है; जहां काटे पाए थे, वहां फूल हों जाते हैं; जहां संसार देखा था, वहा निर्वाण हो जाता है; जहां पदार्थ के सिवाय कभी कुछ न मिला था, वहीं परमात्मा का हृदय धड़कता हुआ मिलने लगता है। जीसस ने कहा है, उठाओ पत्थर और तुम मुझे छिपा हुआ पाओगे, तोड़ो चट्टान और तुम मुझे छिपा हुआ पाओगे।

ऐसे भी हमने देखे हैं दुनिया में इंकलाब

पहले जहां कफस था वहीं आशियां बना

जहा पहले कारागृह था, हमने ऐसे भी इंकलाब देखे, ऐसी क्रांतियां देखीं, कि जहां कारागृह था, वहीं अपना निवास बना, घर बना। यह संसार ही, जिसको तुमने अभी कारागृह समझा है… अभी कारागृह है। संसार कारागृह है ऐसा नहीं, तुम्हारे देखने के ढंग अभी नासमझी के हैं, अंधेरे के हैं।

ऐसे भी हमने देखे हैं दुनिया में इंकलाब

पहले जहां कफस था वहीं आशियां बना

बुद्ध, महावीर, कृष्ण ऐसे ही इंकलाब हैं। जहां तुमने सिर्फ कारागृह पाया और जंजीरें पायीं, वहीं उन्होंने अपना घर भी बना लिया! जहां तुमने सिर्फ कीचड़ पाई, वहीं उनके कमल खिले। और जहां तुम्हें अंधकार के सिवाय कभी कुछ न मिला, वहा उन्होंने हजार-हजार सूरज जला लिए।

मैं तुमसे फिर कहता हूं-

सिवा इसके और दुनिया में क्या हो रहा है

कोई हंस रहा है कोई रो रहा है

अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक

सहर हो गई है और तू सो रहा है

सहर सदा से ही है, सुबह सदा से ही है, तुम्हारे सोने की वजह से रात मालूम हो रही है। और जागना बिलकुल तुम्हारे हाथ में है। कोई दूसरा तुम्हें जगा न सकेगा। तुमने ही सोने की जिद्द ठान रखी हो, तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम जागना चाहो, तो जरा सा इशारा काफी है।

बुद्धपुरुष इशारा कर सकते हैं, चलना तुम्हें है। जागना तुम्हें है। अगर अपनी दुर्गंध से अभी तक नहीं घबड़ा गए, तो बात और। अगर अपनी दुर्गंध से घबड़ा गए हो, तो खिलने दो फूल को अब।

‘चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।’

आज इतना ही।


Filed under: एस धम्‍मो सनंतनो--(भाग-2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग–2) प्रवचन–20

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प्रेम की आखिरी मंजिल: बुद्धो से प्रेम–प्रवचन–20

पहला प्रश्‍न:

 जिन भिक्षुओं ने बुद्ध की मूर्तियां बनायीं और बुद्ध-वचन के शास्त्र लिखे, क्या उन्होंने बुद्ध की आज्ञा मानी? क्या वे उनके आज्ञाकारी शिष्य थे?

बुद्ध की आज्ञा तो उन्होंने नहीं मानी, लेकिन मनुष्य पर बड़ी करुणा की। और बुद्ध की आज्ञा तोड़ने जैसी थी, जहां मनुष्य की करुणा का सवाल आ जाए। ऐसे उन्होंने बुद्ध की आता तोड़कर भी बुद्ध की आशा ही मानी। क्योंकि बुद्ध की सारी शिक्षा करुणा की है।

इसे थोड़ा समझना पड़ेगा।

बुद्ध ने कहा मेरी मूर्तियां मत बनाना, तो जिन्होंने मूर्तियां बनायीं उन्होंने बुद्ध की आता तोड़ी। लेकिन बुद्ध ने यह भी कहा कि जो ध्यान को उपलब्ध होगा, समाधि जिसके जीवन में खिलेगी, उसके जीवन में करुणा की वर्षा भी होगी। तो जिन्होंने मूर्तियां बनायीं उन्होंने करुणा के कारण बनायीं। बुद्ध के चरण-चिह्न खो न जाएं, और बुद्ध के चरण-चिह्नों की छाया अनंत काल तक बनी रहे।

कुछ बात ही ऐसी थी कि जिस आदमी ने कहा मेरी मूर्तियां मत बनाना, हमने

अगर उसकी मूर्तियां न बनाई होतीं तो बड़ी भूल हो जाती। जिन्होंने कहा था हमारी मूर्तियां बनाना, उनकी हम छोड़ भी देते, न बनाते, चलता। बुद्ध ने कहा था मेरी पूजा मत करना, अगर हमने बुद्ध की पूजा न की होती, तो हम बड़े चूक जाते।

यह सौभाग्य की घड़ी कभी-कभी, सदियों में आती है, जब कोई ऐसा आदमी पैदा होता है जो कहे मेरी पूजा मत करना। यही पूजा के योग्य है। जो कहता है मेरी मूर्ति मत बनाना, यही मूर्ति बनाने के योग्य है। सारे जगत के मंदिर इसी को समर्पित हो जाने चाहिए। .

बुद्ध ने कहा मेरे वचनों को मत पकड़ना, क्योंकि जो मैंने कहा है उसे जीवन में उतार लो। दीये की चर्चा से क्या होगा, दीये को सम्हालो। शास्त्र मत बनाना, अपने को जगाना। लेकिन जिस आदमी ने ऐसी बात कही, अगर इसका एक-एक वचन लिख न लिया गया होता, तो मनुष्यता सदा के लिए दरिद्र रह जाती। कौन तुम्हें याद दिलाता ‘ कौन तुम्हें बताता कि कभी कोई ऐसा भी आदमी हुआ था, जिसने कहा था मेरे शब्दों को अग्नि में डाल देना, और मेरे शास्त्रों को जलाकर राख कर देना, क्योंकि मैं चाहता हूं जो मैंने कहा है वह तुम्हारे भीतर जीए, किताबों में नहीं? लेकिन यह कौन लिखता?

तो निश्चित ही जिन्होंने मूर्तियां बनायीं, बुद्ध की आज्ञा तोड़ी। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं उन्होंने ठीक ही किया। बुद्ध की आज्ञा तोड़ देने जैसी थी। नहीं कि बुद्ध ने जो कहा था, वह गलत था। बुद्ध ने जो कहा था, बिलकुल सही कहा था। बुद्ध से गलत कहा कैसे जा सकता है २ बुद्ध ने बिलकुल सही कहा था, मेरी मूर्तियां मत बनाना, क्योंकि कहीं मूर्तियों में तुम मुझे न भूल जाओ, कहीं मूर्तियों में मैं खो न जाऊं, कहीं मूर्तियां इतनी ज्यादा न हो जाएं कि मैं दब जाऊं। तुम सीधे ही मुझे देखना।

लेकिन हम इतने अंधे हैं कि सीधे तो हम देख ही न पाएंगे। हम तो टटोलेंगे। टटोलकर ही शायद हमें थोड़ा स्पर्श हो जाए। टटोलने के लिए मूर्तियां जरूरी हैं। मूर्तियों से ही हम रास्ता बनाएंगे। हम उस परम शिखर को तो देख ही न सकेंगे जो बुद्ध के जीवन में प्रगट हुआ। वह तो बहुत दूर है हमसे। आकाश के बादलों में खोया है वह शिखर। उस तक हमारी आंखें न उठ पाएंगी। हम तो बुद्ध के चरण भी देख लें, जो जमीन पर हैं, तो भी बहुत। उन्हीं के सहारे शायद हम बुद्ध के शिखर पर भी कभी पहुंच जाएं, इसकी आशा हो सकती है।

तो मैं तुमसे कहता हूं जिन्होंने आशा तोड़ी उन्होंने ही आज्ञा मानी। जिन्होंने वचनों को सम्हालकर रखा, उन्होंने ही बुद्ध को समझा। लेकिन तुम्हें बहुत जटिलता होगी, क्योंकि तर्क बुद्धि तो बड़ी नासमझ है।

ऐसा हुआ। एक युवक मेरे पास आता था। किसी विश्वविद्यालय में अध्यापक था। बहुत दिन मेरी बातें सुनीं, बहुत दिन मेरे सत्संग में रहा। एक रात आधी रात आया और कहा, जो तुमने कहा था वह मैं पूरा कर चुका। मैंने अपने सब वेद, उपनिषद, गीता कुएं में डाल दीं। मैंने उससे कहा, पागल! मैंने वेद-उपनिषद को पकड़ना मत, इतना ही कहा था। कुएं में डाल आना, यह मैंने न कहा था। यह तूने क्या किया?

वेद-उपनिषद को न पकड़ो तो ही वेद-उपनिषद समझ में आते हैं। वेद- उपनिषद को समझने की कला यही है कि उनको पकड़ मत लेना, उनको सिर पर मत ढो लेना। उनको समझना। समझ मुक्त करती है। समझ उससे भी मुक्त कर देती है जिसको तुमने समझा। कुएं में क्यों फेंक आया? और तू सोचता है कि तूने कोई बड़ी क्रांति की, मैं नहीं सोचता। क्योंकि अगर वेद-उपनिषद व्यर्थ थे, तो आधी रात में कुएं तक ढोने की भी क्या जरूरत थी 2 जहां पड़े थे पड़े रहने देता। कुएं में फेंकने वही जाता है, जिसने सिर पर बहुत दिन तक सम्हालकर रखा हो। कुएं में फेंकने में भी आसक्ति का ही पता चलता है। तुम उसी से घृणा करते हो जिस से तुमने प्रेम किया हो। तुम उसी को छोड़कर भागते हो जिससे तुम बंधे थे।

एक संन्यासी मेरे पास आया और उसने कहा, मैंने पत्नी-बच्चे सबका त्याग कर दिया। मैंने उससे पूछा, वे तेरे थे कब? त्याग तो उसका होता है जो अपना हो। पत्नी तेरी थी? सात चक्कर लगा लिए थे आग के आसपास, उससे तेरी हो गई थी? बच्चे तेरे थे? पहली तो भूल वहीं हो गई कि तूने उन्हें अपना माना। और फिर दूसरी भूल यह हो गई कि उनको छोड़कर भागा। छोड़ा वही जा सकता है जो अपना मान लिया गया हो। बात कुल इतनी है, इतना ही जान लेना है कि अपना कोई भी नहीं है, छोड़कर क्या भागना है! छोड़कर भागना तो भूल की ही पुनरुक्ति है।

जिन्होंने जाना, उन्होंने कुछ भी छोड़ा नहीं। जिन्होंने जाना, उन्होंने कुछ भी पकड़ा नहीं। जिन्होंने जाना, उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। क्योंकि जब दिखाई पड़ता है कि पकड़ने को यहां कुछ भी नहीं है, तो मुट्ठी खुल जाती है।

बुद्ध की मृत्यु हुई-तब तक तो किसी ने बुद्ध का शास्त्र लिखा न था, ये धम्मपद के वचन तब तक लिखे न गये थे-तो बौद्ध भिक्षुओं का संघ इकट्ठा हुआ। जिनको याद हो, वे उसे दोहरा दें, ताकि लिख लिया जाए। .

बड़े शानी भिक्षु थे, समाधिस्थ भिक्षु थे। लेकिन उन्होंने तो कुछ भी याद न रखा था। जरूरत ही न थी। समझ लिया, बात पूरी हो गई थी। जो समझ लिया, उसको याद थोड़े ही रखना पड़ता है। तो उन्होंने कहा कि हम कुछ कह तो सकते हैं, लेकिन वह बड़ी दूर की ध्वनि होगी। वे ठीक-ठीक वही शब्द न होंगे जो बुद्ध के थे। उसमें हम भी मिल गये हैं। वह हमारे साथ इतना एक हो गया है कि कहां हम, कहां बुद्ध, फासला करना मुश्किल है।

तो अज्ञानियों से पूछा कि तुम कुछ कहो, इतनी तो कहते हैं कि मुश्किल है तय करना। हमारी समाधि के सागर में बुद्ध के वचन खो गये। अब हमने सुना, हमने कहा कि उन्होंने कहा, इसकी भेद-रेखा नहीं रही। जब कोई स्वयं ही बुद्ध हो जाता है, तो भेद-रेखा मुश्किल हो जाती है। क्या अपना, क्या बुद्ध का ‘ अज्ञानियों से पूछो।

अज्ञानियों ने कहा, हमने सुना तो था, लेकिन समझा नहीं। सुना तो था, लेकिन बात इतनी बड़ी थी कि हम सम्हाल न सके। सुना तो था, लेकिन हम से बड़ी थी घटना, हमारी स्मृति में न समाई, हम अवाक और चौंके रह गये। घड़ी आई और बीत गई, और हम खाली हाथ के खाली हाथ रहे। तो कुछ हम दोहरा तो सकते हैं, लेकिन हम पक्का नहीं कह सकते कि बुद्ध ने ऐसा ही कहा था। बहुत कुछ छूट गया होगा। और जो हमने समझा था, वही हम कहेंगे। जो उन्होंने कहा था, वह हम कैसे कहेंगे?

तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। अज्ञानी कह नहीं सकते, क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं। ज्ञानियों को भरोसा है, लेकिन सीमा-रेखाएं खो गई हैं।

फिर किसी ने सुझाया, किसी ऐसे आदमी को खोजो जो दोनों के बीच में हो। बुद्ध के साथ बुद्ध का निकटतम शिष्य आनंद चालीस वर्षों तक रहा था। लोगों ने कहा, आनंद को पूछो! क्योंकि न तो वह अभी बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है और न वह अज्ञानी है। वह द्वार पर खड़ा है। इस पार संसार, उस पार बुद्धत्व, चौखट पर खड़ा है, देहली पर खड़ा है। और जल्दी करो, अगर वह देहली के पार हो गया, तो उसकी भी सीमा-रेखाएं खो जाएंगी।

आनंद ने जो दोहराया, वही संगृहीत हुआ। आनंद की बड़ी करुणा है जगत पर। अगर आनंद न होता, बुद्ध के वचन खो गये होते। और बुद्ध के वचन खो गये होते, तो बुद्ध का नाम भी खो गया होता।

नहीं कि तुम बुद्ध के नाम या वचन से मुक्त हो जाओगे। आग शब्द से कभी कोई जला? जल शब्द से कभी किसी की तृप्ति हुई? लेकिन सुराग मिलता है, राह खुलती है। शायद तुममें से कोई चल पड़े। सरोवर की बात सुनकर किसी की प्यास साफ हो जाए, कोई चल पड़े। हजार सुनें, कोई एक चल पड़े। लाख सुनें, कोई एक पहुंच जाए। उतना भी क्या कम है!

तो तुम पूछते हो, ‘जिन्होंने बुद्ध की मूर्तियां बनायीं क्या उन्होंने आज्ञा का उल्लंघन किया?’

निश्चित ही आज्ञा का उल्लंघन किया, करने योग्य था। अगर कहीं कोई अदालत हो, तो मैं उनके पक्ष में खड़ा होऊं। मैं बुद्ध के खिलाफ उनके पक्ष में खड़ा होऊं जिन्होंने मूर्तियां बनायीं। उन्होंने संगमरमर के नाक-नक्श से थोड़ी सी खबर हम तक पहुंचा दी।

बुद्ध की मूर्ति बनानी असंभव है। क्योंकि बुद्धत्व अरूप है, निराकार है। बुद्ध की तुम क्या प्रतिमा बनाओगे? कैसे बनाओगे? कोई उपाय नहीं है। लेकिन फिर भी अदभुत मूर्तियां बनीं। उन मूर्तियों को अगर कोई गौर से देखे, तो मूर्तियां कुंजियां हैं। तुम्हारे भीतर कोई ताले खुल जाएंगे, गौर से देखते-देखते। तुम्हारे भीतर कोई चाबी लग जाएगी, कोई द्वार अचानक खुल जाएगा।

हमने संगमरमर में मूर्तियां बनायीं, क्योंकि संगमरमर पत्थर भी है और कोमल भी। बुद्ध पत्थर जैसे कठोर हैं और फूल जैसे कोमल। तो हमने संगमरमर चुना। संगमरमर कठोर है, पर शीतल। बुद्ध पत्थर जैसे कठोर हैं, पर उन जैसा शीतल, उन जैसा शात तुम कहां पाओगे? हमने संगमरमर की मूर्तियां चुनीं। क्योंकि बुद्ध जब जीवित थे तब भी वे ऐसे ही शात बैठ जाते थे, कि दूर से देखकर शक होता कि आदमी है या मूर्ति?

मैंने एक बड़ी पुरानी कहानी सुनी है। एक बहुत बड़ा मूर्तिकार हुआ। उस मूर्तिकार को एक ही भय था सदा, मौत का। जब उसकी मौत करीब आने लगी, तो उसने अपनी ही ग्यारह मूर्तियां बना लीं। वह इतना बड़ा कलाकार था कि लोग कहते थे, अगर वह किसी की मूर्ति बनाए तो पहचानना मुश्किल है कि मूल कौन है, मूर्ति कौन है। मूर्ति इतनी जीवंत होती थी।

जब मौत ने द्वार पर दस्तक दी, तो वह अपनी ही ग्यारह मूर्तियों में छिपकर खड़ा हो गया। श्वास उसने साध ली। उतना ही फर्क था कि वह श्वास लेता, मूर्तियां श्वास न लेतीं। उसने श्वास रोक ली। मौत भीतर आई और बड़े भ्रम में पड़ गई। एक को लेने आई थी, यहां बारह एक जैसे लोग थे। लेकिन मौत को धोखा देना इतना आसान तो नहीं। मौत ने जोर से कहा, और सब तो ठीक है, एक जरा सी भूल रह गई। वह चित्रकार बोला, कौन सी भूल? मौत ने कहा, यही कि तुम अपने को न भूल पाओगे।

लेकिन अगर बुद्ध खड़े होते वहां, तो उतनी भूल भी न रह गई थी। उतनी भी भूल न रह गई थी, अपनी याद भी न रह गई थी। अपना होना भी न रह गया था। अगर बुद्ध को तुम ठीक से समझोगे, तो उनके स्वाभिमान में भी तुम विनम्रता को लहरें लेते देखोगे। उनके होने में भी तुम न होने का स्वाद पाओगे।

नियाज की ही मेरे नाज में भी ज्ञान रही

खुदी की लहर भी आई तो बेखुदी की तरह

नियाज की ही मेरे नाज में भी ज्ञान रही-मेरी अस्मिता में, मेरे स्वाभिमान में भी विनम्रता की ही ज्ञान रही, उसकी ही महिमा के गीत चलते रहे। खुदी की लहर भी आई-और कभी मैंने समझा भी कि मैं हूं-खुदी की लहर भी आई तो बेखुदी की तरह। इस तरह समझा कि जैसे नहीं हूं।

हमने संगमरमर में बुद्ध को खोदा। कभी बुद्ध की प्रतिमाओं के पास बैठकर गौर से देखो। यह पत्थर में जो खुदा है, इसमें बहुत कुछ छिपा है। बुद्ध की आंखें देखो, बंद हैं। बंद आंखें कहती हैं कि बाहर जो दिखाई पड़ता था, अब व्यर्थ हो गया। अब भीतर देखना है। यात्रा बदल गई। अब बाहर की तरफ नहीं जाते हैं, अब भीतर की तरफ जाते हैं। जो दिखाई पड़ता था, अब उसमें रस नहीं रहा। अब तो उसी को देखना है जो देखता है। अब द्रष्टा की खोज शुरू हुई, दृश्य की नहीं। मूर्ति ऐसी थिर है, जरा भी कंपन का पता नहीं चलता। ऐसे ही भीतर बुद्ध की चेतना थिर हो गई है, निष्कंप हो गई है। जैसे हवा का एक झोंका भी न आए और दीये की लपट ठहर जाए। मूर्ति में हमने यह सब खोदा। मूर्ति तो एक प्रतीक है। अगर तुम उस प्रतीक का राज समझो, तो देखते-देखते मूर्ति को तुम भी मूर्ति जैसे हो जाओगे। अच्छा ही किया जिन्होंने बुद्ध की आशा न मानी।

बुद्ध बिलकुल ठीक ही कहते थे कि मूर्ति मत बनाना, क्योंकि मैं अमूर्त हूं। आकार मत ढालना, क्योंकि मैं निराकार हूं। तुम जो कुछ भी करोगे, गलत होगा। सीमा होगी उसकी, मैं असीम हूं। बुद्ध बिलकुल ठीक ही कहते थे। लेकिन यह बात दूसरे बुद्धों के लिए ठीक होगी, तुम सबका क्या होता ‘ तुम सबके लिए तो निराकार की भी खबर आएगी तो आकार से। तुम्हारे लिए तो निर्गुण की श्री खबर आएगी तो सगुण से। तुम तो अनाहत नाद भी सुनोगे तो भी आहत नाद से ही। तुम तो वहीं से चलोगे न जहां तुम हो। जहां बुद्ध हैं, वहां तो पहुंचना है। वहां से तुम्हारी यात्रा न हो सकेगी।

और बुद्ध के वचन जिन्होंने इकट्ठे किये, वैसे वचन पृथ्वी पर बहुत कम बोले गये हैं, जैसे वचन बुद्ध के हैं। जैसी सीधी उनकी चोट है और जैसे मनुष्य के हृदय को रूपांतरित कर देने की कीमिया है उनमें, वैसे वचन बहुत कम बोले गये हैं। खो सकते थे वचन। और बहुत बुद्ध भी हुए हैं बुद्ध के पहले, उनके वचन खो गये हैं। उनके शिष्यों में कोई गहरा आज्ञाकारी न था, ऐसा मालूम होता है। बड़ा दुर्भाग्य हुआ, बड़ी हानि हुई। कौन जाने उनमें से कौन सा वचन तुम्हें जगाने का कारण हो जाता, निमित्त बन जाता।

तो मैं दोनों बातें कहता हूं। जिन्होंने मूर्तियां बनायीं, बुद्ध के वचन तोड़े; जिन्होंने बुद्ध के वचन इकट्ठे किये, उन्होंने बुद्ध के वचन तोड़े; लेकिन फिर भी मैं कहता हूं कि उन्होंने ठीक ही किया, अच्छा ही किया। और गहरे में मैं जानता हूं कि बुद्ध भी उनसे प्रसन्न हैं कि उन्होंने ऐसा किया। क्योंकि बुद्ध तो वही कहते हैं, जो वे कह सकते हैं, जो उन्हें कहना चाहिए। शिष्य को तो और भी बहुत सी बातें सोचनी पड़ती हैं, बुद्ध क्या कहते हैं वही नहीं। अंधेरे में भटकते हुए जो हजारों लोग आ रहे हैं, उनका भी विचार करना जरूरी है।

बुद्धों के पास एक प्रेम का जन्म होता है। यद्यपि बुद्ध कहते हैं, प्रेम आसक्ति है, लेकिन बुद्धों के पास प्रेम की आखिरी मंजिल आती है। यद्यपि बुद्ध कहते हैं, मेरे प्रेम में मत पड़ना, पर कैसे बचोगे ऐसे आदमी से? जितना वे कहते हैं, मेरे प्रेम में मत पड़ना, उतना ही उनके प्रति प्रेम उमगता है, उतना ही उनके प्रति प्रेम बहता है। जितना वे तुम्हें सम्हालते हैं, उतना ही तुम डगमगाते हो। कठिन है बहुत। बुद्ध मिल जाएं और प्रेम में न पड़ना कठिन है। ठीक ही बुद्ध कहते हैं कि मेरे प्रेम में मत पड़ना। लेकिन बचना असंभव है।

जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश

लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया

फरिश्ते भी जहां पिघल जाते हैं, जहां देवता भी खड़े हों तो प्रेम में पड़ जाएं। जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश

लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया

जब बुद्धों के पास कोई आता है तो ऐसे मुकाम पर आ जाता है कि-उनकी शिक्षा है कि प्रेम में मत पड़ना-लेकिन उनका होना ऐसा है कि हम प्रेम में पड़ जाते हैं। उनकी शिक्षा है कि हमें पकड़ना मत, पर कौन होगा पत्थर का हृदय जो उन्हें छोड़ दे?

तो फिर करना क्या है? फिर होगा क्या? होगा यही कि ऐसे भी पकड़ने के ढंग हैं, जिनको पकड़ना नहीं कहा जा सकता। प्रेम की ऐसी भी सूरतें हैं, जिनमें आसक्ति नहीं। लगाव की ऐसी भी शैलियां हैं, जिनमें लगाव नहीं। प्रेम में डूबा भी जा सकता है और प्रेम के बाहर भी रहा जा सकता है। मैं तुमसे कहता हूं जैसे जल में कमल, ऐसे बुद्ध के पास रहना होता है। प्रेम में पड़ते भी हैं, और अपना दामन बचाकर चलते भी। इस विरोधाभास को जिसने साध लिया, वही बुद्धों के सत्संग के योग्य होता है।

इनमें से दो में से तुमने अगर एक को साधा, अगर तुम प्रेम में पड़ गये, जैसे कि कोई साधारण जगत के प्रेम में पड़ जाता है, तो प्रेम बंधन हो जाता है। तब बुद्ध से तुम्हारा संबंध तुमने सोचा जुड़ा, बुद्ध की तरफ से टूट गया। तुमने समझा तुम पास रहे, बुद्ध की तरफ से तुम हजार-हजार मील दूर हो गये। अगर तुमने सोचा कि संबंध बनाएंगे ही नहीं, क्योंकि संबंध बंधन बन जाता है, तो तुम बुद्ध के पास दिखाई पड़ोगे, लेकिन पास न पहुंच पाओगे। बिना प्रेम के कभी कोई पास आया?

तो मैं तुमसे बड़ी उलझन की बात कह रहा हूं। प्रेम भी करना और सावधान भी रहना। प्रेम भी करना और प्रेम की जंजीरें मत बनाना। प्रेम करना और प्रेम का मंदिर बनाना। प्रेम करना और प्रेम को मुक्ति बनाना।

जिस जगह आकर फरिश्ते भी पिघल जाते हैं जोश

लीजिए हजरत सम्हलिए वह मुकाम आ ही गया

बहुत सम्हल-सम्हलकर सत्संग होता है। सत्संग का खतरा यही है कि तुम प्रेम में पड़ सकते हो। और सत्संग का यह भी खतरा है कि प्रेम से बचने के ही कारण तुम दूर भी रह सकते हो। दूर रहोगे तो चूकोगे, प्रेम बंधन बन गया तो चूक जाओगे, ऐसी मुसीबत है! पर ऐसा है। कुछ करने का उपाय नहीं। सम्हल-सम्हलकर चलना है। इसलिए सत्संग को खड्ग की धार कहा है। जैसे तलवार की धार पर कोई चलता हो-इधर गिरे कुआं, उधर गिरे खाई।

लीजिए हजरत सम्हलिए

बहुत सम्हलकर चलने की बात है।

दूसरा प्रश्‍न:

 

चारों और मेरे घोर अँधेरा

भूल न जाऊं द्वार तेरा

एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो।

अँधेरा दिखाई पड़ने लगे, मिटना शुरू हो जाता है। क्योंकि न देखने में ही अंधेरे के प्राण हैँ।

अगर कविता की पंक्तियां ही दोहरा दी हों, तब तो बात दूसरी। अगर ऐसा अनुभव में आना शुरू हो गया हो-चारो ओर मेरे घोर अंधेरा, अगर यह वचन उधार न हो, सुना-सुनाया न हो, किसी और की थाली से चुराया न हो, अगर इसका थोड़ा स्वाद आया हो, तो जिसे अंधेरा दिखने लगा उसे प्रकाश की पहचान आ गई। क्योंकि बिना प्रकाश की पहचान के कोई अंधेरे को भी देख नहीं सकता। अंधेरा यानी क्या? जब तक तुम प्रकाश को न जानोगे-भला एक किरण सही, भला एक छोटा सा टिमटिमाता चिराग सही-लेकिन रोशनी देखी हो तो ही अंधेरे को पहचान सकोगे।

यही तो घटता है बुद्धपुरुषों के पास। तुम अपने अंधेरे को लेकर जब उनकी रोशनी के पास आते हो, तब तुम्हें पहली बार पता चलता है-चारों ओर मेरे घोर अंधेरा। उसके पहले भी तुम अंधेरे में थे। अंधेरे में ही जन्मे, अंधेरे में ही बड़े हुए, अंधेरे में ही पले-पुसे, अंधेरा ही भोजन, अंधेरा ही ओढ़नी, अंधेरा ही बिछौना, अंधेरा ही श्वास, अंधेरा ही हृदय की धड़कन, पहचानने का कोई उपाय न था। इसलिए शास्त्र सत्संग की महिमा गाते हैं, और शास्त्र गुरु की महिमा गाते हैं। उस महिमा का कुल राज इतना है कि जब तक तुम किसी ऐसे व्यक्ति के पास न आ जाओ, जहां प्रकाश जलता हो, जहां दीया जलता हो, तब तक तुम अपने अंधेरे को न पहचान पाओगे। तुलना ही न होगी, पहचान कैसे होगी? विपरीत चाहिए, कंट्रास्ट चाहिए, तो दिखाई पड़ना शुरू होता है। और जब दिखाई पड़ना शुरू होता है, तब घबड़ाहट शुरू होती है। तब जीवन एक बेचैनी हो जाता है। तब कहीं चैन नहीं पड़ता। उठते-।बैठते, सोते-जागते, काम करते न करते, सब तरफ भीतर एक खयाल

‘चारों ओर मेरे घोर अंधेरा

भूल न जाऊं द्वार तेरा। ‘

प्रीतिकर है बात। अंधेरे में पूरी संभावना है कि द्वार भूल जाए। अंधेरे में द्वार का पता कहां है? अंधेरे में तो द्वार का सपना देखा है, द्वार कहां। लेकिन अगर इतनी याद बनी रहे, और इतनी प्रार्थना बनी रहे, और यह भीतर सुरति, स्मृति चलती रहे-भूल न जाऊं द्वार तेरा, तो यही स्मृति धीरे-धीरे द्वार बन जाती है।

द्वार कहीं तुमसे बाहर थोड़े ही है। द्वार कहीं तुमसे भिन्न थोड़े ही है द्वार कोई ऐसी जगह थोड़े ही है जिसे खोजना है। द्वार तुमसे प्रगट होगा। तुम्हारे स्मरण से ही द्वार बनेगा। तुम्हारे सातत्य, सतत चोट से ही द्वार बनेगा। तुम्हारी प्रार्थना ही तुम्हारा द्वार बन जाएगी। जिसको नानक सुरति कहते हैं, कबीर सुरति कहते हैं, जिसको बुद्ध ने स्मृति कहा है, जिसको पश्चिम का एक बहुत अदभुत पुरुष गुरजिएफ सेल्फ रिमेंबरिंग कहता था-स्वयं की स्मृति, स्व स्मृति-वही तुम्हारा द्वार बनेगी।

अंधेरे की याद रखो। भूलने से अंधेरा बढ़ता है। याद रखने से घटता है। क्योंकि याद का स्वभाव ही रोशनी का है। स्मृति का स्वभाव ही प्रकाश का है। याद रखो-चारों ओर मेरे घोर अंधेरा। इसे कभी गीत की कड़ी की तरह गुनगुनाना मत, यह तुम्हारा मंत्र हो जाए। श्वास भीतर आए, बाहर जाए, इसकी तुम्हें याद बनी रहे। इसकी याददाश्त के माध्यम से ही तुम अंधेरे से अलग होने लगोगे। क्योंकि जिसकी तुम्हें याद है, जिसको तुम देखते हो, जो दृश्य बन गया, उससे तुम अलग हो गये, पृथक हो गये।

‘भूल न जाऊं द्वार तेरा।’

भक्त गहन विनम्रता में जीता है। द्वार मिल भी जाए तो भी वह यही कहेगा, भूल न जाऊं द्वार तेरा। क्योंकि वह जानता है कि मेरे किये तो कुछ होगा नहीं। मेरे किये तो सब अनकिया हो जाता है। मैं तो भवन बनाता हूं र गिर जाते हैं। मैं तो योजना -करता हूं व्यर्थ हो जाती है। मैं पूरब जाता हूं पश्चिम पहुंच जाता हूं। अच्छा करता हूं बुरा हो जाता है। कुछ सोचता हूं? कुछ घटता है। मेरे किये कुछ भी न होगा। भक्त कहता है, तू ही अगर, तेरी कृपा अगर बरसती रहे, तो ही कुछ संभव है।

‘भूल न जाऊं द्वार तेरा

एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो। ‘

बहुत ही बढ़िया पंक्ति है। क्योंकि एक बार अगर प्रभु ने हाथ पकड़ लिया, तो फिर छूटता ही नहीं। क्योंकि उसकी तरफ से एक बार पकड़ा गया सदा के लिए पकड़ा गया। और एक बार तुम्हारे हाथ को उसके हाथ का स्पर्श आ जाए, तो तुम-तुम न रहे। वह हाथ ही थोड़े ही है, पारस है। छूते ही लोहा सोना हो जाता है।

लेकिन तुम्हें अथक टटोलते ही रहना पड़ेगा। वह हाथ मुफ्त नहीं मिलता है। वह हाथ उन्हीं को मिलता है जिन्होंने खूब खोजा है। वह हाथ उन्हीं को मिलता है जिन्होंने खोज की पराकाष्ठा कर दी। वह हाथ उन्हीं को मिलता है जिन्होंने खोजने में कुछ भी रख न छोड़ा। अगर तुमने थोड़ी भी बचाई हुई है अपनी ताकत, तो तुम चालाक हो। तो तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ जाएगी। अगर तुमने सब दाव पर लगा दिया, तो तुम्हारी जीत निश्चित है।

यह काम जुआरियों का है, दुकानदारों का नहीं। धर्म जुआरियों का काम है, दुकानदारों का नहीं। हिसाब-किताब मत रखना कि चलो दो पैसा ताकत लगाकर देखें, एक आना ताकत लगाकर देखें, दो आना ताकत लगाकर देखें। ऐसे हिसाब- किताब से उसका हाथ तुम्हारे हाथ में न आएगा। क्योंकि तुम्हारी बेईमानी जाहिर है। जब तुम अपने को पूरा दाव पर लगा देते हो-पीछे कुछ छूटता ही नहीं-जब तुम स्वयं ही पूरे दांव पर बैठ जाते हो, उसी क्षण हाथ-हाथ में आ जाता है। उस क्षण हाथ में न आए तो बड़ा अन्याय हो जाएगा। वैसा अन्याय नहीं है-देर है, अंधेर नहीं। और देर भी तुम्हारे कारण है।

यह कहावत तुमने सुनी है-देर है, अंधेर नहीं। लेकिन कहावत में लोग सोचते हैं कि देर उसकी तरफ से है। वहीं गलती है। देर तुम्हारी तरफ से है। तुम जितनी देर चाहो लगा दो। तुम बेमन से टटोल रहे हो। तुम टटोलते भी हो और डरे हो कि कहीं मिल न जाए। तुम ऐसे टटोलते भी हो और शंकित हो कि कहीं हाथ-हाथ में आ ही न जाए, क्योंकि बड़ा खतरनाक हाथ है। फिर तुम-तुम ही न हो सकोगे उसके बाद। उसकी एक झलक तुम्हें राख कर जाएगी। उसकी एक किरण तुम्हें सदा के लिए मिटा जाएगी। तुम जैसे हो वैसे न बचोगे।

ही, तुम जैसे होने चाहिए वैसे बचोगे, जो तुम्हारा स्वभाव है बचने का। जो कूड़ा-करकट तुमने अपने चारों तरफ इकट्ठा कर लिया है, पद का, प्रतिष्ठा का, नाम का, रूप का, वह सब जलकर राख हो जाएगा। तो तुम्हारी प्रार्थना-परमात्मा से तुम्हारी प्रार्थना-बस एक ही हो सकती है, और वह प्रार्थना है कि यह मेरा जो कूड़ा-करकट है, जिसको मैंने समझा कि मैं हूं? इसे मिटा।

जिंदगी दरिया-ए-बेसाहिल है और किश्ती खराब

मैं तो घबराकर दुआ करता हूं तुफां के लिए

तुम्हारी बस एक ही प्रार्थना हो सकती है कि तुम तूफान के लिए प्रार्थना करो। जिंदगी दरिया-ए-बेसाहिल है-किनारा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। सारी जिंदगी का अनुभव यही है कि किनारा कहीं नहीं है। और किश्ती खराब-और नाव टूटी-फूटी; अब डूबी, तब डूबी! मैं तो घबराकर दुआ करता हूं दया के लिए-तो मैं एक ही प्रार्थना करता हूं कि परमात्मा तूफान भेज दे।

जरा अपनी किश्ती को गौर से तो देखो। जरा अपने चारों तरफ आंख खोलकर देखो, किनारे कहां हैं! सपने देखे हैं तुमने किनारों के, आशाएं संजोई हैं तुमने किनारों की, किनारे हैं कहां? तुम डरते हो आंख उठाने में भी कि कहीं ऐसा न हो कि किनारा सच

में ही न हो। तुम आंख झुकाकर किनारों की सोचते रहते हो कि आज नहीं पहुंचे, कल पहुंच जाएंगे। पहुंच जाएंगे। एक बात तो तुमने मान ही रखी है कि किनारा है।

मैं तुमसे कहता हूं कि जिसे तुम जिंदगी कहते हो उसका कोई भी किनारा नहीं। वह तटहीन उपद्रव है। कोई किनारा नहीं। कभी कोई वहां किनारे पर नहीं पहुंचा। न एलेक्जेंड़र, न नेपोलियन, कभी कोई वहां किनारे पर नहीं पहुंचा। सभी बीच में ही डूबकर मर जाते हैं। कोई थोड़ा आगे, कोई थोड़ा पीछे।

लेकिन आगे-पीछे का भी क्या मतलब है, जहां किनारा न हो! किनारा होता, तो कोई किनारे के पास पहुंचकर डूबता तो कहते, थोड़ा आगे। हम बीच मझधार में डूब जाते तो कहते कि थोड़े पीछे। लेकिन सभी जगह बीच मझधार है। बीच मझधार ही है। किनारा नहीं है।

और किश्ती की तरफ तो देखो जरा, थंपेडे लगाए चले जाते हो। एक छेद टूटता है, भरते हो। दूसरा खुल जाता है, भरते हो। पानी उलीचते रहते हो। जिंदगी इस टूटी किश्ती के बचाने में ही बीत जाती है।

जो जानते हैं वे तूफान के लिए प्रार्थना करते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा! मैं जैसा हूं मुझे मिटा, ताकि मैं वैसा हो सकूं जैसा तूने चाहा।

जिंदगी दरिया-ए-बेसाहिल है और किश्ती खराब

मैं तो घबराकर दुआ करता हूं तुफ़ा के लिए

और तुम्हारे जीवन में अगर ऐसी प्रार्थना का प्रवेश हो जाए-प्रार्थना यानी मृत्यु की प्रार्थना-और कोई प्रार्थना है भी नहीं। तुमने प्रार्थनाएं की हैं, मुझे भलीभांति पता है। तुम्हारे मंदिरों में मैंने तुम्हारी प्रार्थनाएं भी सुनी हैं। तुम्हारी मस्जिदों में, तुम्हारे गुरुद्वारों में तुम्हारी प्रार्थनाएं खुदी पड़ी हैं। पत्थर-पत्थर पर लिखी हैं। लेकिन तुमने सदा प्रार्थना उसी जिंदगी के लिए की जिसमें कोई किनारा नहीं है। और तुमने सदा प्रार्थना उसी किश्ती को सुधार देने के लिए की, जो न कभी सुधरी है, न सुधर सकती है। तुमने कभी प्रार्थना अपने को डुबा देने के लिए न की। जिसने की, उसकी पूरी हो गई। और जो डूबने को राजी है, मझधार में ही किनारा मिल जाता है।

जिसे तुम जिंदगी कहते हो उसका कोई किनारा नहीं। और जिसको मैं परमात्मा कह रहा हूं वह किनारा ही किनारा है, वहा कोई मझधार नहीं। देखने का ढंग, एक तो अहंकार के माध्यम से देखना है-टूटी किश्ती के माध्यम से-वहां डर ही डर है, मौत ही मौत है। और एक अहंकार को हटाकर देखना है। वहा कोई मौत नहीं, कोई डर नहीं, क्योंकि अहंकार ही मरता है, तुम नहीं। तुम्हारे भीतर तो शाश्वत है। एस धम्मो सनंतनो। तुम्हारे भीतर तो अमृत है। तुम्हारे भीतर तो शाश्वत छिपा है, सनातन छिपा है।

अभी मयखाना-ए-दीदार हर जरें में खुलता है

अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए

बस एक छोटी सी बात कि अहंकार न रह जाए।

अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए

जरा अपने से दूर हो जाए, जरा अपने को छोड़ दे, यह अपना होना जरा मिटा दे। अभी मयखाना-ए-दीदार हर जरें में खुलता है

फिर तो हर कण-कण में परमात्मा की मधुशाला खुल जाती है। फिर तो क्या-कण में उसी की मधुशाला खुल जाती है। फिर तो सभी तरफ उसी का प्रसाद उपलब्ध होने लगता है। बस जरा सी तरकीब है, तुम जरा हट जाओ। तुम्हारे और परमात्मा के बीच में तुम्हारे सिवाय और कोई भी नहीं।

तीसरा प्रश्न:

 

इस प्रवचनमाला में आपने कई बार कहा है, एस धम्मो सनंतनो, यही सनातन धर्म है। और आश्चर्य तो यह है कि वह हर बार नये रूप में आपके द्वारा प्रगट हुआ है। क्या सनातन धर्म एक है या अनेक?

र्म तो एक है, लेकिन उसके प्रतिबिंब अनेक हो सकते हैं। रात पूरा चांद निकलता है। सागरों में भी झलकता है, सरोवरों में भी झलकता है, छोटे-छोटे डबरों में भी झलकता है-प्रतिबिंब बहुत हैं।

सागर में बताकर भी मैंने तुमसे कहा, एस धम्मो सनंतनो। छोटे सरोवर में भी बताकर कहा, एस धम्मो सनंतनो। राह के किनारे वर्षा में भर गये डबरे में भी बताकर कहा, एस धम्मो सनंतनो। मैंने बहुत बार कहा। बहुत रूप में कहा। लेकिन वे सब प्रतिबिंब हैं और जो चांद है, वह तो कहा नहीं जा सकता। इसलिए तुम और उलझन में पड़ोगे।

मैंने जब भी कहा, एस धम्‍मो सनंतनो, यही सनातन धर्म है, तभी प्रतिबिंब की बात कही है। प्रतिबिंब में मत उलझ जाना। इशारा किया। इशारे को मत पकड़ लेना। और जो है ऊपर, वह जो चांद है असली, उसकी तरफ कोई इशारा नहीं किया जा सकता। अंगुलियां वहां छोटी पड़ जाती हैं। शब्द वहां काफी सिद्ध नहीं होते। और फिर उस चांद को देखना हो तो तुम्हें गर्दन बड़ी ऊंची उठानी पड़ेगी। और तुम्हारी आदत जमीन में देखने की हो गई है। तो तुम्हें प्रतिबिंब ही बताए जा सकते हैं।

लेकिन अगर प्रतिबिंब कहीं तुम्हारे जीवन का आकर्षण बन जाए कहीं प्रतिबिंब का चुंबक तुम्हें खींच ले, तो शायद आज नहीं कल तुम असली की तलाश में भी निकल जाओ। क्योंकि प्रतिबिंब तो खो-खो जाएगा। जरा हवा का झोंका आएगा, झील कंप जाएगी और चांद टूटकर बिखर जाएगा। तो आज नहीं कल तुम्हें यह खयाल आना शुरू हो जाएगा, जो झील में देखा है, वह सच नहीं हो सकता। सच की खबर हो सकती है, सच की दूर की ध्वनि हो सकती है-प्रतिध्वनि हो सकती है, प्रतिबिंब हो सकता है-लेकिन जो झील में देखा है, वह सच नहीं हो सकता। शब्द में जिसे कहा गया है, वह सत्य नहीं हो सकता। लेकिन शब्द में जिसे कहा गया है, वह सत्य का बहुत दूर का रिश्तेदार हो सकता है।

मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि एक मित्र ने दूर गांव से एक मुर्गी भेजी। मुल्ला ने शोरबा बनाया। जो मुर्गी को लेकर आया था उसे भी निमंत्रित किया। कुछ दिनों बाद एक दूसरा आदमी आया। मुल्ला ने पूछा, कहां से आए? उसने कहा, मैं भी उसी गांव से आता हूं और जिसने मुर्गी भेजी थी उसका रिश्तेदार हूं। अब रिश्तेदार का रिश्तेदार भी आया था तो उसको भी ठहराया। उसके लिए भी शोरबा बनवाया। लेकिन कुछ दिन बाद एक तीसरा आदमी आ गया। कहां से आ रहे हो? उसने कहा, जिसने मुर्गी भेजी थी, उसके रिश्तेदार का रिश्तेदार हूं।

ऐसे तो संख्या बढ़ती चली गई। मुल्ला तो परेशान हो गया। यह तो मेहमानों का सिलसिला लग गया। मुर्गी क्या आई, ये तो लोग चले ही आते हैं। यह तो पूरा गांव आने लगा। आखिर एक आदमी आया, उससे पूछा कि भाई आप कौन हैं? उसने कहा, जिसने मुर्गी भेजी थी, उसके रिश्तेदार के रिश्तेदार के रिश्तेदार का मित्र हूं। मुल्ला ने शोरबा बनवाया। उस मित्र ने चखा, लेकिन वह बोला, यह शोरबा! यह तो सिर्फ गरम पानी मालूम होता है। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, यह वह जो मुर्गी आई थी, उसके शोरबे के शोरबे के शोरबे का मित्र है।

दूर होती जाती हैं चीजें। मैंने तुम्हें झील में दिखाया। तुम ऐसा भी कर सकते हो-कर सकते हो नहीं, करोगे ही-तुम झील के सामने एक दर्पण करके दर्पण में देखोगे। क्योंकि जब मैं तुमसे कहता हूं तुम मुझे थोड़े ही सुनोगे, तुम्हारा मन उसकी व्याख्या करेगा।

जब मैंने कहा तभी चांद दूर हो गया। मैं जब देखता हूं तब चांद है; जब मैं तुमसे कहता हूं तब झील में प्रतिबिंब है। जब तुम सुनते हो और सोचते हो, तब तुमने झील को भी दर्पण में देखा। फिर दर्पण को भी दर्पण में देखते चले जाओगे। ऐसे सत्य से शब्द दूर होता चला जाता है।

इसलिए बहुत बार जिन्होंने जाना है वे चुप रह गये। लेकिन चुप रहने से भी कुछ नहीं होता। जब तुम कह-कहकर नहीं सुनते हो, जगाए-जगाए नहीं जगते हो, तो चुप बैठने को तुम कैसे सुनोगे? जब शब्द चूक जाता है, तो मौन भी चूक जाएगा। जब शब्द तक चूक जाता है, तो मौन तो निश्चित ही चूक जाएगा। फिर भी जो कहा जा सकता है वह प्रतिध्वनि है, इसे याद रखना। उस प्रतिध्वनि के सहारे मूल की तरफ यात्रा करना, तीर्थयात्रा करना।

तंग था जिसके लिए हरफे-बयां का दायरा

वो फसाना हम खामोशी में सुनाकर रह गये

शब्द छोटे पड़ जाते हैं। दायरा छोटा है।

तंग था जिसके लिए हरफे-बयां का दायरा

कहने की सीमा है, जो कहना है उसकी कोई सीमा नहीं। गीत की सीमा है, जो गाना है उसकी कोई सीमा नहीं। वाद्य की सीमा है, जो बजाना है उसकी कोई सीमा नहीं।

वो फसाना हम खामोशी में सुनाकर रह गये

लेकिन खामोशी तो तुम कैसे समझोगे? शब्द भी चूक जाते हैं। हिलाए-हिलाए तुम नहीं हिलते नींद से। जगाए-जगाए तुम नहीं हिलते नींद से। शब्द तो ऐसे हैं जैसे पास में रखी घड़ी में अलार्म बजता हो। तब भी तुम नहीं जागते। तो जिस घड़ी में अलार्म नहीं बजता, उससे तुम कैसे जगोगे।

तो बहुत ज्ञानी चुप रह गये। बहुत इतनी बोले। चुप रहने वालों को तुमने समझा, जानते ही नहीं। बोलने वालों से तुमने शब्द सीखे और तुम पंडित हो गये। लेकिन कुछ ज्ञानियों ने बीच का रास्ता चुना। और बीच का रास्ता ही सदा सही रास्ता है। उन्होंने कहा भी और इस ढंग से कहा कि अनकहा भी तुम्हें भूल न जाए। उन्होंने कहा भी और कहने के बीच-बीच में खाली जगह छोड़ दी। उन्होंने कहा भी और रिक्त स्थान भी छोड़े। रिक्त स्थान तुम्हें भरने हैं।

तुमने छोटे बच्चों की किताबें देखी हैं? एक शब्द दिया होता है, फिर खाली जगह, फिर दूसरा शब्द दिया होता है। और बच्चों से कहा जाता है, बीच का शब्द भरो। जो परमज्ञानी हुए, उन्होंने यही किया। एक शब्द दिया, खाली जगह दी, फिर दूसरा शब्द दिया। बीच की खाली जगह तुम्हें भरनी है। जो मैं कह रहा हूं वह प्रतिबिंब है। जो तुम भरोगे, वह चांद होगा।

सत्य उधार नहीं मिल सकता। सत्य को तुम्हें जन्माना होगा। सत्य को तुम्हें अपने गर्भ में धारण करना होगा। सत्य तुम्हारे भीतर बढ़ेगा। जैसे मां के पेट में बच्चा बड़ा होता है। वह तुम्हारा खून, तुम्हारी श्वास मांगता है। वह तुम्हारा ही विस्तार होगा। जब तक तुम ही चांद न बन जाओ, तब तक तुम चांद को न देख सकोगे।

इसलिए मैंने बहुत बार कहा और बहुत बार कहूंगा, क्योंकि ये बुद्ध के वचन तो अभी बहुत देर तक चलेंगे। बहुत बार बहुत जगह कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। तब तुम स्मरण रखना कि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धर्म बहुत हैं। मैं इतना ही कह रहा हूं कि बहुत स्थान हैं जहां से धर्म का इशारा किया जा सकता है। कभी गुलाब के फूल की तरफ इशारा करके कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। कभी चांद की तरफ इशारा करके कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। कभी किसी छोटे बच्चे की आंखों में झांककर कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। क्योंकि चाहे गुलाब हो, चाहे आंख हो, चाहे चांद हो, सौंदर्य एक है।

बहुत रूपों में परमात्मा प्रगट हुआ है। हमारे अंधेपन की कोई सीमा नहीं। इतने रूपों में प्रगट हुआ है और हम पूछे चले जाते है, कहां है? कहीं एकाध रूप में प्रकट होता तब तो मिलने का कोई उपाय ही न था। इतने रूपों में प्रगट हुआ है। सब तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा है। जहां जाओ, वही सामने आ जाता है। जिससे मिलो, उसी से मिलना होता है। सुनो झरने की आवाज, तो उसी का गीत; सुनो रात का सन्नाटा, तो उसी का मौन; देखो सूरज को, तो उसी की रोशनी; और देखो अमावस को, तो उसी का अंधेरा। इतने रूपों में तुम्हें घेरा है, फिर भी तुम चूकते चले जाते हो। अभागा होता मनुष्य अगर कहीं उसका एक ही रूप होता, एक ही मंदिर होता और केवल वह एक ही जगह मिलता होता। तब तो फिर कोई शायद पहुंच ही न पाता। इतने रूपों में मिलता है, फिर भी हम चूक जाते हैं।

तो मैं बहुत जगह तुमसे कहूंगा, यह रहा परमात्मा! इसका यह मतलब नहीं कि बहुत परमात्मा हैं। इसका इतना ही मतलब कि बहुत उसके रूप हैं। अनेक उसके ढंग हैं। अनेक उसकी आकृतियां हैं। लेकिन वह स्वयं इन सभी आकृतियों के बीच निराकार है। होगा भी। क्योंकि इतने रूप उसी के हो सकते हैं, जो अरूप हो। इतने आकार उसी के हो सकते हैं जो निराकार हो। इतने अनंत-अनंत माध्यमों में वही प्रगट हो सकता है जो प्रगट होकर भी पूरा प्रगट न हो पाता हो।

बंदगी ने हजार रुख बदले

जो खुदा था वही खुदा है हनूज

प्रार्थनाएं बदल जाती हैं। बंदगी के ढंग बदल जाते हैं। पूजा बदल जाती है। कभी गुरुद्वारा, कभी मस्जिद, कभी शिवाला; कभी काबा, कभी काशी।

बंदगी ने हजार रुख बदले

न मालूम कितने पत्थरों के सामने सिर झुके, और न मालूम कितने शब्दों में उसकी प्रार्थना की गई, और न मालूम कितने शास्त्र उसके लिए रचे गये।

बंदगी ने हजार रुख बदले

जो खुदा था वही खुदा है हरू

लेकिन आज तक जो खुदा था वही खुदा है।

तो बहुत बार मैं कहूंगा, एस धम्मो सनंतनो। यही है सनातन धर्म। इससे तुम यह मत समझ लेना कि यही है। इससे तुम इतना ही समझना कि यहां भी है। और बहुत जगह भी है। सभी जगह है। सभी जगह उसका विस्तार है। वह तुम्हारे आंगन जैसा नहीं है, आकाश जैसा है। यद्यपि तुम्हारे अपान में भी वही आकाश है।

चौथा प्रश्न:

 

 

मेरी हालत त्रिशंकु की हो गई है। न पीछे लौट सकती, न आगे कोई रास्ता दिखाई पड़ता है। जाऊं तो जाऊं कहां?

जाने को कहीं है भी नहीं। जहां हो वहीं होना है।

अच्छा ही हुआ कि आगे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता, नहीं तो जाना जारी रहता। अच्छा है कि पीछे भी लौट नहीं सकते, नहीं तो लौट जाते। इससे बेचैनी मत अनुभव करो। बेचैनी अनुभव होती है, यह मैं समझता हूं। क्योंकि जाने की आदत हो गई है। कहीं जाने को न हो, तो आदमी घबड़ाता है। बेकार भी जाने को हो, तो भी निश्चित चला जाता है।

कहां जा रहे हैं, इसका इतना सवाल नहीं है। जा रहे है, कुछ काम चल रहा है। लगता है कुछ हो रहा है, कहीं पहुंच रहे हैं। मंजिल की किसको फिकर है। व्यस्तता बनी रहती है। चलने में उलझे रहते हैं। तो लगता है कुछ हो रहा है।

कौन कहां पहुंचा है चलकर? तुम भी न पहुंचोगे। कोई कभी चलकर नहीं पहुंचा। जो पहुंचे, रुककर पहुंचे। जिन्होंने जाना, ठहरकर जाना। देखो बुद्ध की प्रतिमा को। चलते हुए मालूम पड़ते हैं? बैठे हैं। जब तक चलते थे तब तक न पहुंचे। जब बैठ गये, पहुंच गये।

यह तो बड़ी शुभ घड़ी है। लेकिन हमारी आदतें खराब हो गयीं। हमारी आदतें चलने की हो गई हैं। बिना चले ऐसा लगता है, जीवन बेकार जा रहा है। चाहे चलना हमारा कोल्हू के बैल का चलना हो कि गोल चक्कर में घूमते रहते हैं। है वही। रोज तुम उठते हो, करते क्या हो? रोज चलते हो, पहुंचते कहां हो? सांझ वहीं आ जाते हो जहा सुबह निकले थे। जन्म जहां से शुरू किया मौत वही ले आती है। एक गोल वर्तुलाकार है।

मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा तार्किक तेल खरीदने गया था तेली के घर। तेली का कोल्हू चल रहा था। बैल कोल्हू खींच रहा था, तेल निचुड़ रहा था। तार्किक था! उसने देखा यह काम, कोई हांक भी नहीं रहा है बैल को, वह अपने आप ही चल रहा है।

उसने पूछा, गजब, यह बैल अपने आप चल रहा है! कोई हांक भी नहीं रहा! रुक क्यों नहीं जाता? उस तेल वाले ने कहा, महानुभाव, जब कभी यह रुकता है, मैं उठकर इसको फिर हांक देता हूं। इसको पता नहीं चल पाता कि हांकने वाला पीछे मौजूद है या नहीं।

तार्किक-तार्किक था। उसने कहा, लेकिन तुम तो बैठे दुकान चला रहे हो, इसको दिखाई नहीं पड़ता? उस तेल वाले ने कहा, जरा गौर से देखें, इसकी आंखों पर पट्टियां बांधी हुई हैं। इसे दिखाई कुछ नहीं पड़ता। जब भी यह जरा ठहरा या रुका कि मैंने हांका। पर उस तार्किक ने कहा कि तुम तो पीठ किये बैठे हो उसकी तरफ। पीछे चल रहा है कोल्हू तुम्हें पता कैसे चलता है? उसने कहा, आप देखते नहीं बैल के गले में घंटी बांधी हुई है? जब तक बजती रहती है, मैं समझता हूं चल रहा है। जब रुक जाती है, उठकर मैं हांक देता हूं। इसको पता नहीं चल पाता। उस तार्किक ने कहा, अब एक सवाल और। क्या यह बैल खड़े होकर गर्दन नहीं हिला सकता है? उस तेल वाले ने कहा, जरा धीरे-धीरे बोलें। कहीं बैल न सुन ले।

तुम जरा अपनी जिंदगी तो गौर से देखो। न कोई हांक रहा है, मगर तुम चले जा रहे हो। आंख बंद है। गले में खुद ही घंटी बांध ली है। वह भी किसी और ने बांधी, ऐसा नहीं। हालांकि तुम कहते यही हो। पति कहता है, पत्नी ने बांध दी। चलना पड़ता है। बेटा कहता है, बाप ने बाध दी है। बाप कहता है, बच्चों ने बांध दी है। कौन किसके लिए घंटी बांध रहा है! कोई किसी के लिए नहीं बाध रहा है। बिना घंटी के तुम्हें ही अच्छा नहीं लगता। तुमने घंटी को श्रृंगार समझा है। आंख पर पट्टियां हैं, घंटी बंधी है, चले जा रहे हो। कहां पहुंचोगे? इतने दिन चले, कहां पहुंचे? मंजिल कुछ तो करीब आई होती!

लेकिन जब भी तुम्हें कोई चौंकाता है, तुम कहते हो, धीरे बोलो। जोर से मत बोल देना, कहीं हमारी समझ में ही न आ जाए। तुम ऐसे लोगों से बचते हो, किनारा काटते हो, जो जोर से बोल दें। संतों के पास लोग जाते नहीं। और अगर जाते हैं, तो ऐसे ही संतों के पास जाते हैं जो तुम्हारी आंखों पर और पट्टियां बंधवा दें। और तुम्हारी घंटी पर और रंग-पालिश कर दें। न बज रही हो तो और बजने की व्यवस्था बता दें। ऐसे संतों के पास जाते हैं कि तुम्हारे पैर अगर शिथिल हो रहे हों और बैठने की घड़ी करीब आ रही हो, तो पीछे से हांक दें कि चलो, बैठने से कहीं कोई पहुंचा है! कुछ करो। कर्मठ बनो। परमात्मा ने भेजा है तो कुछ करके दिखाओ।

थोड़ा समझना। जीवन की गहनतम बातें करने से नहीं मिलतीं, होने से मिलती हैं। करना तो ऊपर-ऊपर है, पानी पर उठी लहरें है। होना है गहराई।

अच्छा ही हुआ, लेकिन व्याख्या गलत हो रही है।

प्रश्न है, ‘मेरी हालत त्रिशंकु की हो गई है। ‘

एकदम अच्छा हुआ। शुभ हुआ। धन्यवाद दो परमात्मा को। लेकिन शब्द से लगता है कि शिकायत है, शिकवा है। क्योंकि तुम्हें लग रहा है, यह तो कहीं के न रहे। पीछे लौट नहीं सकते। जरूरत क्या है लौटने की पीछे? लौट सकते तो क्या मिलता? पीछे से तो होकर ही आ रहे हो। कुछ मिलना होता तो मिल ही गया होता। हाथ तुम्हारे खाली हैं और पीछे लौटना है! जिस रास्ते से गुजर चुके, सिवाय धूल के कुछ भी नहीं लाए हो साथ, फिर लौटकर जाना है?

तुम कहोगे, चलो छोड़ो, पीछे नहीं आगे तो जाने दो। मगर यह रास्ता वही है;

जो पीछे की तरफ फैला है, वही आगे की तरफ फैला है। ये एक ही रास्ते की दो दिशाएं हैं। तुम जिस रास्ते पर पीछे चलते आ रहे हो, उसी पर तो आगे जाओगे न। उसी की श्रृंखला होगी। उसी का सिलसिला होगा।

अब तक क्या मिला? पचास साल की उम्र हो गई, अब बीस साल और इसी रास्ते पर चलोगे, क्या मिलेगा? तुम कहोगे, चलो यह भी छोड़ो, कोई दूसरा रास्ता बता दो। मगर रास्ता तुम चाहते हो। क्योंकि चलना तुम्हारी आदत हो गई है। दौड़ने की विक्षिप्तता तुम पर सवार हो गई है। रुक नहीं सकते, ठहर नहीं सकते, दो घड़ी बैठ नहीं सकते।

क्यों? क्योंकि जब भी तुम रुकते हो, तभी तुम्हें जिंदगी की व्यर्थता दिखाई पड़ती है। जब भी तुम ठहरते हो, खाली क्षण मिलता है, तभी तुम्हें लगता है यह तो शून्य है। कुछ भी मैंने कमाया नहीं। तभी तुम कंप जाते हो। एक संताप पकड़ लेता है। एक अस्तित्वगत खाई में गिरने लगते हो। उससे बचने के लिए फिर तुम काम में संलग्न हो जाते हो। कुछ भी करने में लग जाते हो। रेडियो खोलो, अखबार पढ़ो, मित्र के घर चले जाओ, पत्नी से झगड़ लो। कुछ भी बेहूदा काम करने लगो। एक गेंद खरीद लाओ, बीच में रस्सी बाध लो, इससे उस तरफ फेंको, उस तरफ से इस तरफ फेंको।

लोग कहते हैं, फुटबाल खेल रहे हैं। कोई कहता है, वालीबाल खेल रहे हैं। और लाखों लोग देखने भी इकट्ठे होते हैं। खेलने वाले तो नासमझ हैं, समझ में आया। कम से कम खेल रहे हैं। लेकिन लाखों लोग देखने इकट्ठे होते हैं। मारपीट हो जाती है। एक गेंद को इस तरफ से उस तरफ करते हो, शर्म नहीं आती। मगर सारी जिंदगी ऐसी है। कुछ भी करने को बहाना मिल जाए। ताश फेंकते रहते हैं, ताश बिखेरते रहते हैं। शतरंज बिछा लेते हैं। जिंदगी में तलवार चलाना जरा महंगा धंधा है। घोड़े वगैरह रखना भी जरा मुश्किल है। हाथी तो अब कौन पाले? शतरंज बिछा लेते हो। हाथी-घोड़े चलाते हो। और ऐसे तल्लीन हो जाते हो जैसे सारा जीवन दाव पर लगा है। तुम अपने को कितनी भांति धोखे देते हो।

बहुत हुआ। अब जागो। और जागने का एक ही उपाय है कि तुम थोड़ी देर को रोज खाली बैठने लगो। कुछ भी मत करो। करना ही तुम्हारा संसार है। न करना ही तुम्हारा निर्वाण बनेगा। कुछ देर को खाली बैठने लगो। घडी-दो घड़ी ऐसे हो जाओ जैसे हो ही नहीं। एक शून्य सन्नाटा छा जाए। श्वास चले, चलती रहे। लेकिन कृत्य की कोई आसपास भनक न रह जाए। तुम बस चुपचाप बैठे रहो। धीरे-धीरे-शुरू में तो बड़ी बेचैनी होगी, बड़ी तलफ पकड़ेगी कि कुछ भी कर गुजरो, क्या बैठे यहां समय खराब कर रहे हो-लेकिन जल्दी ही तुम पाओगे कि जीवन की तरंगें शात होती जाती हैं; भीतर के द्वार खुलते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं र चुप बैठ जाओ। वे कहते हैं, यह

हमसे न होगा। कम से कम मंत्र ही दे दें। तो हम वही जपेंगे। मगर करेंगे। माला दे दें, उसको ही फिराते रहेंगे।

अब शतरंज में और माला में कोई फर्क है? चाहे तुम फिल्मी गीत गुनगुनाओ और चाहे तुम राम-राम जपो, कोई फर्क नहीं। असली सवाल तुम्हारे व्यस्त होने का है। कैसे तुम अव्यस्त हो जाओ, अनआकुपाइड हो जाओ।

ध्यान का अर्थ है, करने को कुछ भी न हो, बस तुम हो। जैसे फूल हैं। जैसे आकाश के तारे हैं। ऐसे बस हो गये। कुछ नहीं करने को। कठिन है बहुत, सर्वाधिक कठिन है। इससे ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं।

लेकिन अगर तुम बैठते ही रहे, बैठते ही रहे, बैठते ही रहे तो किसी दिन अचानक तुम पाओगे बज उठी कोई वीणा भीतर से। उसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। मैं कुछ कह नहीं सकता, कब यह होगा। तुम पर निर्भर है। आज हो सकता है। जन्म भर न हो। तुम पर निर्भर है।

लेकिन किसी दिन जब बज उठेगी तुम्हारी भीतर की वीणा, तब तुम पाओगे व्यर्थ गंवाया जीवन। भीतर इतना बड़ा उत्सव चल रहा था, हम हाथी-घोड़े चलाते रहे। भीतर इतने बड़े आनंद की अहर्निश वर्षा हो रही थी, भीतर स्वर्ग के द्वार खुले थे, हम बाजार में गंवाते रहे।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम बाजार छोड़कर भाग जाओ। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि चौबीस घंटे में दो घड़ी अपने लिए निकाल लो। बाकी सब घड़ी बाजार में गंवा दो, कोई हर्जा नहीं। जिंदगी के आखिर में तुम पाओगे, जो बैठकर तुमने गुजारा समय, वही बचाया, बाकी सब गया।

और एक बार तुम्हारे भीतर का यह अंतर्नाद तुम्हें सुनाई पड़ने लगे-उसे ओंकार कहो, या जो तुम्हारी मर्जी हो-जिस दिन यह भीतर का अंतर्नाद तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा, उस दिन फिर तुम बाजार में रहो, दुकान में रहो, जहा रहो, कोई फर्क नहीं पड़ता, भीतर की वीणा बजती ही रहती है। सदा बजती रही है। सिर्फ तुम्हें सुनने की आदत नहीं है। सुनने की सामर्थ्य नहीं है। तुम तालमेल नहीं बिठा पाए हो।

तो अच्छा हुआ कि हालत त्रिशंकु की हो गई। न पीछे जाने का कोई रास्ता-भगवान को धन्यवाद दो! न आगे जाने का कोई उपाय-बड़ा सौभाग्य! अब बैठ जाओ। वहीं बैठ जाओ जहा हो। न पीछे लौटकर देखो, न आगे। आंख बंद कर लो। कहीं जाना नहीं है। अपने पर आना है।

जिसे तुम खोजते हो, वह तुम में छिपा है। जिसकी तरफ तुम जा रहे हो, वह तुम में बसा है। आखिर में यही पाया जाता है कि हम जिसे तलाशते थे, वह तलाश करने वाले में ही छिपा था। इसीलिए तो इतनी देर लग गई और खोज न पाए।

आखिरी सवाल:

 

 

प्रेम मैंने जाना नहीं, यही मेरे जीवन की चुभन रही। यही कारण होगा जिसने मुझे ध्यान में गति दी। ध्यान से अशांति और वैर-भाव मिट रहे हैं। भक्ति और समर्पण मेरे लिए कोरे शब्द रहे। फिर भी ध्यान में और विशेषकर प्रवचन में, कई बार यह प्रगाढ़ भाव बना रहता है कि इस जीवन में जो भी मिल सकता था, सब मिला हुआ है।

 

जीवन में कुछ भी दुर्भाग्य नहीं है। बाधाएं ही सीढ़ियां भी बन सकती हैं। और सीढ़ियां बाधाएं भी बन सकती हैं। सौभाग्य और दुर्भाग्य तुम्हारे हाथ में है। जीवन तटस्थ अवसर है। एक राह पर बड़ा पत्थर पड़ा हो, तुम वहीं अटककर बैठ सकते हो कि अब कैसे जाएं, पत्थर आ गया। तुम उस पत्थर पर चढ़ भी सकते हो। और तब तुम पाओगे कि पत्थर ने तुम्हारी ऊंचाई बढ़ा दी। तुम्हारी दृष्टि का विस्तार बढ़ा दिया। तुम रास्ते को और दूर तक देखने लगे। जितना पत्थर के बिना देखना संभव न था। तब पत्थर सीढ़ी हो गया।

यह प्रश्न है कि ‘मैंने प्रेम जीवन में नहीं जाना, यही मेरे जीवन की चुभन रही।

‘उसे चुभन मत समझो अब। प्रेम नहीं जाना, निश्चित ही इसीलिए ध्यान की तरफ आना हुआ। उसे सौभाग्य बना लो। अब प्रेम की बात ही छोड़ दो। क्योंकि जिसने ध्यान जान लिया, प्रेम तो उसकी छाया की तरह अपने आप आ जाएगा।

दो ही विकल्प हैं परमात्मा को पाने के। दो ही राहें हैं। एक है प्रेम, एक है ध्यान। जो मिलता है वह तो एक ही है। कोई प्रेम से उसकी तरफ जाता है। उस रास्ते की सुविधाएं हैं, खतरे भी। सुविधा यह है कि प्रेम बड़ा सहज है, स्वाभाविक है। खतरा भी यही है कि इतना स्वाभाविक है कि उसमें उलझ जाने का डर है। होश नहीं रहता। बेहोशी हो जाती है।

इसलिए अधिक लोग प्रेम से परमात्मा तक नहीं पहुंचते, प्रेम से छोटे-छोटे कारागृह बना लेते हैं, उन्हीं में बंद हो जाते हैं। प्रेम बहुत कम लोगों के लिए मुक्ति बनता है, अधिक लोगों के लिए बंधन बन जाता है। प्रेम अधिक लोगों के लिए राग बन जाता है। और जब तक प्रेम विराग न हो तब तक परमात्मा तक पहुंचना नहीं होता।

तो प्रेम की सुविधा है कि वह स्वाभाविक है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर प्रेम की उमंग है। खतरा भी यही है कि वह इतना स्वाभाविक है कि उसमें होश रखने की जरूरत नहीं। तुम उसमें उलझ सकते हो।

जिनके जीवन में प्रेम नहीं संभव हो पाया-और बहुत लोगों के जीवन में संभव

नहीं हो पाया है-तो बैठकर काटे को पकड़कर मत पूजते रहो। नहीं प्रेम संभव हुआ, चिंता छोड़ो। ध्यान संभव है। और ध्यान के भी खतरे हैं और सुविधाएं भी। खतरा यही है कि श्रम करना होगा, चेष्टा करनी होगी। प्रयास और साधना करनी होगी। संकल्प करना होगा। अगर जरा भी शिथिलता की तो ध्यान न सधेगा। अगर जरा भी आलस्य की तो ध्यान न सधेगा। अगर ऐसे ही सोचा कि कुनकुने-कुनकुने कर लेंगे, तो न सधेगा। जलना पड़ेगा। सौ डिग्री पर उबलना पड़ेगा। यह तो कठिनाई है। लेकिन फायदा भी है कि थोड़ा भी ध्यान सधे, तो साथ में होश भी सधता है। क्योंकि प्रयास, साधना, संकल्प।

इसलिए ध्यान सधे, तो कभी भी कारागृह नहीं बनता। कठिनाई है सधने की। प्रेम सध तो जाता है बड़ी आसानी से, लेकिन जल्दी ही जंजीरें ढल जाती हैं। ध्यान सधता है मुश्किल से, लेकिन सध जाए तो सदा ही मोक्ष और सदा ही मुक्ति के आकाश की तरफ ले जाता है।

और दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे कि अगर प्रेम न सधा, तो उन्होंने ध्यान को साध लिया। और जो ऊर्जा प्रेम में जाती, वही सारी ध्यान में संलग्न हो गई। या जो ध्यान न सधा, तो उन्होंने सारी ऊर्जा को प्रेम में समर्पित कर दिया। या तो भक्त बनो, या ध्यानी। ये एक तरह के लोग हैं।

दूसरे तरह के लोग हैं, उनसे प्रेम न सधा, तो ध्यान की तरफ तो न गये, बस प्रेम का रोना लेकर बैठे हैं। रो रहे हैं कि प्रेम न सधा। और उन्हीं की तरह के दूसरे लोग भी हैं कि ध्यान न सधा, तो बस वे बैठे हैं, रो रहे हैं उदास मंदिरों में, आश्रमों में कि ध्यान न सधा। वे प्रेम की तरफ न गये।

मैं तुमसे कहता हूं सब साधन तुम्हारे लिए हैं, तुम किसी साधन के लिए नहीं। प्रेम से सधे, प्रेम से साध लेना। ध्यान से सधे, ध्यान से साध लेना। साधन का थोड़े ही मूल्य है। तुम बैलगाड़ी से यहां मेरे पास आए, कि पैदल आए, कि ट्रेन से आए, कि हवाई जहाज से आए आ गये, बात खतम हो गई। तुम कैसे आए इसका क्या प्रयोजन है? पहुंच गये, बात समाप्त हो गई।

ध्यान रखना पहुंचने का। फिर प्रेम से हो कि ध्यान से हो, भक्ति से हो कि ज्ञान से हो। इस उलझन में बहुत मत पड़ना। साधन को साध्य मत समझ लेना। साधन का उपयोग करना है। सीढ़ी से चढ़ जाना है और भूल जाना है। नाव से उतर जाना है और विस्मरण कर देना है नाव का।

इतनी ही याद बनी रहे कि सब धर्म तुम्हारे लिए हैं। सब साधन, विधियां तुम्हारे लिए हैं। तुम्हीं गंतव्य हो। तुम्हीं हो जहा पहुंचना है। तुमसे ऊपर कुछ भी नहीं।

साबार ऊपर मानुस सत्य ताहार ऊपर नाहीं।

चंडीदास के ये शब्द हैं कि सबसे ऊपर मनुष्य का सत्य है। उसके ऊपर कुछ भी नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि परमात्मा नहीं है। इसका इतना ही मतलब

है कि मनुष्य अगर अपने सत्य को जान ले, तो परमात्मा को जान ले।

साबार ऊपर मानुस सत्य ताहार ऊपर नाहीं।

तुम सबसे ऊपर हो। क्योंकि तुम अपने अंतरतम में छिपे परमात्मा हो। बीज हो अभी, कभी फूल बन जाओगे। लेकिन बीज में फूल छिपा ही है। न खाद का कोई मूल्य है, न जमीन का, न सूरज की किरणों का। इतना ही मूल्य है कि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह प्रगट हो जाए।

इसलिए व्यर्थ के साधनों की बहुत जिद्द मत करना। जैसे भी पहुंचों, पहुंच जाना। परमात्मा तुमसे यह न पूछेगा, किस मार्ग से आए? कैसे आए? आ गये,

आज इतना ही।

ओशो


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कहानियां, काबा ओर बुद्ध

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मनुष्य की बहुत सी परिभाषाएं की गई हैं। मैं कहना चाहूंगा : मनुष्य कहानी गढ़ने वाला प्राणी है। वह मिथक निर्मित कर लेता है—मनगढ़त किस्से—कहानियां। सारे पुराण कहानियां हैं। मनुष्य जीवन के विषय में, अस्तित्व के विषय में कहानियां निर्मित कर लेता है।
मनुष्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य निर्माण करता रहा है सुंदर पुराणों का। वह निर्मित करता है परमात्मा। वह निर्मित करता है यह बात कि परमात्मा ने संसार को बनाया; और वह गढ़ता रहता है सुंदर—सुंदर कहानियां। वह कल्पनाएं बुनता रहता है, वह नई—नई कहानियां अपने चारों ओर गढ़ता रहता है। मनुष्य कहानियां गढ़ने वाला प्राणी है; और जीवन एकदम उबाऊ हो जाएगा यदि उसके आस—पास कोई कहानी न हो।
आधुनिक युग की तकलीफ यही है : सारी पुरानी प्रतीक—कथाएं गिरा दी गई हैं। नासमझ बुद्धिवादियों ने बहुत ज्यादा विरोध किया उनका। वे खो गईं, क्योंकि यदि तुम प्रतीक—कथा के विपरीत तर्क करने लगते हो, तो प्रतीक—कथा तर्क से नहीं समझी जा सकती। वह तर्क के सामने नहीं टिक सकती। वह बहुत नाजुक होती है; वह बहुत कोमल होती है। यदि तुम उसके साथ लड़ने लगते हो तो तुम उसे नष्ट कर देते हो, लेकिन उसके साथ तुम मानव—हृदय की कोई बहुत सुंदर बात भी नष्ट कर देते हो। वह कल्पित कथा ही नहीं होती—कथा तो केवल प्रतीक है—गहरे में उसकी जड़ें हृदय में होती हैं। यदि तुम प्रतीक—कथा की हत्या कर देते हो तो तुमने हृदय की हत्या कर दी।
अब संसार भर के बुद्धिवादी, जिन्होंने सारी प्रतीक—कथाओं की हत्या कर दी, अब वे अनुभव कर रहे हैं कि जीवन में कोई अर्थ न रहा, कोई काव्य न रहा, आनंदित होने का कोई कारण न रहा, उत्सव मनाने का कोई कारण न रहा। सारा उत्सव खो गया है। प्रतीक—कथाओं के बिना संसार केवल एक बाजार रह जाएगा; सारे मंदिर खो जाएंगे। प्रतीक—कथाओं के बिना सारे संबंध सौदे हो जाएंगे, उनमें कोई प्रेम न बचेगा। प्रतीक—कथाओं के बिना तुम विराट शून्यता के बीच अकेले पड़ जाओगे।
जब तक तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो जाते, तुम कहानियों के बिना नहीं जी सकते; अन्यथा तुम अर्थहीनता अनुभव करोगे, और गहरी चिंता पकड़ेगी, और तुम्हारे प्राण विषाद से घिर जाएंगे। तुम आत्महत्या करने की सोचने लगोगे। तुम कोई न कोई रास्ता ढूंढने लगोगे अपने को उलझाए रखने का—मादक द्रव्य, शराब, सेक्स—ताकि तुम भूल सको स्वयं को, क्योंकि जीवन तो अर्थहीन लगता है।
प्रतीक—कथा देती है अर्थ। प्रतीक—कथा और कुछ नहीं सिवाय एक सुंदर कहानी के, लेकिन यह तुम्हें मदद देती है जीने में। जब तक तुम इतने सक्षम न हो जाओ कि बिना कहानी के जी सको—यह तुम्हें मदद देती है यात्रा में, जीवन—यात्रा में। यह तुम्हारे आस—पास एक मानवीय वातावरण बना देती है, वरना संसार तो बहुत रूखा—सूखा है। जरा सोचो : भारत के लोग नदियों के किनारे जाते हैं, गंगा किनारे जाते हैं—वे पूजा करते हैं उनकी। वह एक मिथक है; अन्यथा गंगा केवल एक नदी है। लेकिन मिथक से गंगा मां बन जाती है, और जब एक हिंदू गंगा जाता है तो यह उसके लिए एक तीर्थयात्रा हो जाती है, खुशी की बात हो जाती है।
मक्का में पूजा जाने वाला पत्थर, काबा का पत्थर, पत्थर ही है। वह एक क्यूवब—स्टोन है, इसीलिए उसे ‘काबा’ कहा जाता है; ‘काबा’ का मतलब है खूब। लेकिन तुम नहीं जान सकते कि एक मुसलमान को कैसी खुशी होती है, जब वह काबा जाता है। बड़ी अदभुत ऊर्जा उमड़ आती है। ऐसा नहीं है कि काबा कुछ करता है—नहीं, वह तो केवल एक मिथक है। लेकिन जब वह अता है उस पत्थर को, तो उसके पांव धरती पर नहीं पड़ते; वह एक दूसरे ही संसार में, काव्य के संसार में गति कर जाता है। जब वह परिक्रमा करता है काबा की, तो वह परमात्मा की परिक्रमा कर रहा होता है। संसार भर के मुसलमान जब प्रार्थना करने बैठते हैं तो वे काबा की ओर मुंह करके बैठते हैं। दिशाएं अलग होती हैं : कोई इंगलैंड में प्रार्थना कर रहा है, लेकिन मुंह रखता है काबा की ओर, कोई भारत में प्रार्थना कर रहा है, लेकिन मुंह रखता है काबा की ओर; कोई मिस्र में प्रार्थना कर रहा है, लेकिन मुंह रखता है काबा की ओर। संसार भर में मुसलमान पांच बार नमाज पढ़ते हैं, सारे संसार में हर कहीं, और वे मुंह रखते हैं काबा की तरफ—काबा संसार का केंद्र हो जाता है। एक प्रतीक है, एक सुंदर प्रतीक। उस क्षण में सारा संसार एक काव्य से आच्छादित हो जाता है।
मनुष्य अस्तित्व को अर्थ देता है; यही है प्रतीक—कथा का कुल अर्थ। मनुष्य कहानियां गढ़ने वाला प्राणी है। फिर छोटी—छोटी कहानियां हैं—मोहल्ले—पड़ोस की, पड़ोसी की पत्नी की, और बड़ी कहानियां हैं—ब्रह्मांड की, परमात्मा की। लेकिन मनुष्य को बड़ा रस आता है कहानियों में।
मुझे एक कहानी बहुत प्रीतिकर है; मैंने बहुत बार कही है। एक यहूदी कहानी है.
बहुत वर्ष पहले, बहुत सदियों पहले एक नगर में एक रबाई रहता था। जब भी नगर में कोई
मुसीबत आती, वह जंगल में जाता, कोई यज्ञ करता, प्रार्थना करता, अनुष्ठान करता; और परमात्मा से कहता, ‘मुसीबत दूर करो। हमें बचाओ।’ और नगर की सदा रक्षा हो जाती।
फिर वह रबाई मरा; दूसरा आदमी रबाई बना। नगर पर मुसीबत आई; लोग घबडाए, इकट्ठे हुए। रबाई गया जंगल में, लेकिन वह ठीक स्थान नहीं खोज पाया। उसे पता ही नहीं था। तो उसने परमात्मा से कहा, ‘मुझे ठीक—ठीक स्थान पता नहीं है जहां वह बूढ़ा रबाई आपसे प्रार्थना किया करता था, लेकिन उससे लेना—देना भी क्या है। आप तो वह स्थान जानते ही हैं, तो मैं यहीं बैठ कर प्रार्थना करूंगा।’ नगर पर कभी कोई मुसीबत न आई। लोग प्रसन्न थे।
फिर यह रबाई भी मरा; तो दूसरा रबाई आया। फिर नगर पर कोई मुसीबत आई, लोग इकट्ठे हुए। वह जंगल में गया, लेकिन उसने परमात्मा से कहा, ‘मुझे ठीक—ठीक पता नहीं कि वह स्थान कहां है। अनुष्ठान, कर्म —कांड वगैरह कुछ मैं जानता नहीं। मैं तो केवल प्रार्थना जानता हूं। तो कृपा करें, आप तो सब कुछ जानते हैं, शेष विस्तार की फिक्र न करें। मेरी प्रार्थना सुनें…..।’ और जो उसे कहना था उसने कहा। संकट टल गया।
फिर वह भी मरा; और दूसरा रबाई आया। नगर के लोग इकट्ठे हुए मुसीबत की घड़ी थी, कोई महामारी फैली थी, और लोगों ने कहा, ‘आप प्रार्थना करने जंगल में जाएं; ऐसा ही सदा से होता आया है। पुराने रबाई सदा जंगल जाते रहे हैं।’
वह बैठा हुआ था अपनी आरामकुर्सी पर। उसने कहा, ‘वहां जाने की क्या जरूरत है? परमात्मा यहीं से सुन सकता है। और मैं कुछ जानता नहीं।’ तो उसने नजरें उठाई आकाश की ओर और कहा, ‘सुनो, ठीक स्थान मैं जानता नहीं, मुझे क्रिया—कांड के बारे में कुछ पता नहीं—मैं तो प्रार्थना भी कुछ नहीं जानता। मुझे तो बस यह कहानी मालूम है कि पहला रबाई कैसे वहॉ जाता था, दूसरा कैसे जाता था, तीसरा कैसे जाता था, चौथा कैसे जाता था… मैं आपसे यही कहानी कह दूंगा—और मैं जानता हूं कि कहानियां आपको प्रिय हैं। कृपया कहानी सुन लें और गांव को मुसीबत से बचा लें।’ और उसने पुराने रबाइयों की सारी कहानी कह दी। और ऐसा कहा जाता है, परमात्मा को वह कहानी इतनी पसंद आई कि नगर की रक्षा हो गई।
उसे जरूर कहानियां बहुत प्रिय हैं; वह स्वयं कहानियां गढ़ता रहता है। उसे प्रिय होनी ही चाहिए कहानियां। उसी ने सबसे पहले यह जीवन की पूरी कहानी गढ़ी।
हां, जीवन एक कहानी है, अस्तित्व के शाश्वत मौन में एक छोटी सी कहानी, और मनुष्य है कहानी गढ़ने वाला प्राणी। जब तक कि तुम परमात्मा न हो जाओ तुम्हें कहानियां पसंद आएंगी : तुम्हें भाएगी राम और सीता की कहानियां, महाभारत की कहानियां; तुम्हें भाएगी यूनान की, रोम की, चीन की कहानियां। लाखों—लाखों कहानियां हैं—सभी सुंदर हैं।
यदि तुम तर्क को बीच में न लाओ, तो वे बहुत से भीतरी द्वारों को खोल सकती हैं, वे बहुत से आंतरिक रहस्यों को उदघाटित कर सकती हैं। यदि तुम तर्क करने लगते हो, तो द्वार बंद हो जाते हैं। तब वह मंदिर तुम्हारे लिए नहीं है। प्रेम करो कहानियों से। जब तुम उन्हें प्रेम करते हो, तो वे अपने रहस्यों को खोल देती हैं। और बहुत कुछ छिपा है उनमें : मनुष्यता ने जो भी खोजा है, वह सब छिपा है प्रतीक—कथाओं में। इसीलिए जीसस, बुद्ध कहानियों में बोलते हैं। उन सब को कहानियां प्रिय रही हैं।

ओशो

पंतजलि योग–सूत्र–प्रवचन–54


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–46

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ऊर्जा का रूपांतरण—(प्रवचन—छट्ठवां)

प्रश्न—सार:

1—आप हमारे लिए कौन सा मार्ग उदघाटित कर रहे हैं?

2—आपके पास आकर ध्यानमय जीवन सरल और स्वाभाविक हो गया है। लेकिन मैंने बुद्धत्व की’ आशा छोड़ दी है। क्या ये दोनों बातें विरोधाभासी हैं?

3—क्या अस्‍तित्‍व मुझसे प्रेम करता है?

4—क्या दमन के मार्ग से चेतना की ऊंचाइओं को छूना संभव है?

5—झेन की सहजता और योग का अनुशासन क्या कहीं आपस में मिलते हैं?

6—आपके विरूद्ध प्रचार करने के लिए मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए!

7—प्रेम या ध्‍यान—किस द्वार से प्रवेश करें?

8—आपके विरूद्ध हो रहे प्रचारों से घिरा साधक क्‍या करे?

9—आप किसी की निंदा नहीं करते, फिर सत्‍य साईंबाबा, कृष्‍णमूर्ति और अमरीकी गुरूओं की आलोचना क्‍यों करते है?

10—क्‍या केवल पुस्‍तकें पढ़ कर बुद्धत्‍व घट सकता है?

11—आपका सत्‍संग हमें घंटे, डेढ़ घंटे से ज्‍यादा क्‍यों नहीं मिलता?

12—योग के आठ चरणों का क्रम क्या किसी के लिए बदला भी जा सकता है?

13—तिब्बती गुरु चोग्याम त्रुंगपा का शराब पीकर मूर्च्‍छित हो जाना उनकी क्या स्थिति बताता है?

 

पहला प्रश्न :

 

आप हमारे लिए कौन सा मार्ग उदघाटित कर रहे हैं?

ह कोई मार्ग नहीं है; तुम्हें चलना नहीं है उस पर। बल्कि, वह एक सीधी सी समझ है। तुम्हें सारी यात्राओं को रोक देना है। मार्ग होता है यात्रा करने के लिए और कहीं जाने के लिए; मार्ग होता है कहीं पहुंचने के लिए, कुछ पाने के लिए; मार्ग साधन है और साध्य है कहीं बहुत दूर भविष्य में। यही है मेरा मतलब, जब मैं कहता हूं कि जो कुछ भी मैं कह रहा हूं तुम से, वह मार्ग की बात नहीं है, वह केवल सीधी—साफ समझ की बात है। यदि तुम समझ लो, तो तुम मंजिल पर पहुंच ही गए। यदि तुम समझ लो, तो तुम सदा मंजिल पर ही हो। एक क्षण के लिए भी तुम कभी दूर नहीं गए हो मंजिल से, तुम स्वप्न देख रहे होओगे कि तुम दूर चले गए हो, लेकिन तुमने अपना घर एक क्षण के लिए भी छोड़ा नहीं है।

यह है अ—मार्ग। या अगर तुम इसे मार्ग ही कहना चाहते हो, अगर तुम्हें मार्ग शब्द बहुत प्रीतिकर हो, तो तुम इसे एक मार्ग—विहीन मार्ग कह सकते हो। लेकिन मुझे समझने का प्रयत्न करो. यह कोई मार्ग नहीं है। मैं तुम्हें साधन नहीं दे रहा हूं बल्कि साध्य ही दे रहा हूं।

दूसरा प्रश्न :

 

जब से आपके पास आया हूं ध्यानमय जीवन जीना ज्यादा सरल और ज्यादा स्वाभाविक हो गया है फिर भी प्रकट में मैने बुद्धत्व की पूरी तरह आशा छोड़ दी है। क्या ये दोनों बातें विरोधाभासी हैं?

बिलकुल नहीं। बुद्धत्व पाने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है कि तुम्हें उसके प्रति सारी आशाओं को और इच्छाओं को छोड़ देना होगा। अन्यथा बुद्धत्व की आकांक्षा ही एक दुख—स्वप्न बन जाती है। और जितनी ज्यादा तुम आकांक्षा करते हो उसकी, उतने ही तुम उससे दूर होते हो—जितनी बड़ी आकांक्षा है उतनी ही ज्यादा दूरी होगी। तो उसके प्रति सारी आकांक्षाओं को, सारी आशाओं को छोड़ दो। यदि तुम बुद्धत्व के प्रति सचमुच ही आकांक्षारहित हो, तो किसी भी क्षण संभावना है उसके घटने की। थोड़ी जगह निर्मित करो; उसके प्रति आकांक्षा से मत भरे रहो।

बुद्धत्व के घटने में सब से बड़ी बाधा है उसकी आकांक्षा, क्योंकि जो मन कामना करता है

और आकांक्षा करता है, वह सदा ही तनावपूर्ण होता है। उसके आस—पास एक सूक्ष्म बेचैनी होती है, उसे कभी भी चैन नहीं होता। कैसे तुम्हें चैन हो सकता है यदि तुम्हें कहीं जाना हो, कहीं पहुंचना हो? तुम बैठे हुए हो सकते हो, लेकिन तुम चल ही रहे होओगे। ऊपर—ऊपर तुम शांत दिखोगे, लेकिन भीतर से तुम बेचैन हो। छोड़ो यह नासमझी। आकांक्षा से कभी किसी को बुद्धत्व उपलब्ध नहीं हुआ है। इसीलिए सारे बुद्ध पुरुष जोर देते हैं कि आकांक्षारहित हो जाओ।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जब तुम आकांक्षारहित होते हो तो तुम निर्वाण या बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे; मैं यह कह रहा हूं कि जब तुम आकांक्षारहित होते हो, तो तुम ही होते हो निर्वाण, तुम ही होते हो बुद्धत्व। आकांक्षा है तुम्हारे भीतर की अशांति, झील में उठी तरंगों की भांति—तरंगें खो जाती हैं तो झील शांत हो जाती है।

सांसारिक चीजों की इच्छाओं को गिरा देना आसान है, बहुत आसान है। असल में उनसे चिपके रहना नितांत मूढ़ता है। केवल मूढ़ व्यक्ति ही सांसारिक चीजों से चिपके रहते हैं, क्योंकि कोई भी देख सकता है कि वे तुम से छिनने ही वाली हैं। सारे परिग्रह व्यर्थ हैं, बेकार हैं। और जिसके पास भी थोड़ी सी बुद्धि है, वह सजग हो सकता है कि चीजों को इकट्ठा किए जाना तुम्हें कोई समृद्धि न देगा; बल्कि इसके विपरीत, वह तुम्हें और— और दरिद्र बनाएगा। जितनी ज्यादा चीजें तुम्हारे पास होंगी, उतना ज्यादा तुम अनुभव करोगे कि तुम रिक्त हो।

एक समृद्ध व्यक्ति—गहरे तल पर—बहुत दरिद्र हो जाता है। तुम सम्राटों से ज्यादा बड़े भिखारी नहीं खोज सकते। वे भलीभांति जानते हैं कि उनके पास सब कुछ है जिसकी वे आकांक्षा कर सकते थे, तो पहली बार वे सजग होते हैं कि भीतर कुछ बदला नहीं है. कोई संतुष्टि घटित नहीं हुई, कोई परितृप्ति नहीं आई। भीतर उतनी ही अशांति है जितनी पहले थी; सारा प्रयास बेकार गया, और सारा जीवन व्यर्थ गंवाया भाग—दौड़ में।

नहीं, सांसारिक आकांक्षाओं को गिरा देना कठिन नहीं है। लेकिन जब तुम सांसारिक आकांक्षाओं को गिरा देते हो तो मन तुरंत पारलौकिक आकांक्षाए निर्मित कर लेता है : मोक्ष, निर्वाण, बुद्धत्व, ईश्वर। अब तुम इनके पीछे भागते हो। स्थिति वही की वही रहती है—तुम आकांक्षा में ही जीते हो। विषय का सवाल नहीं है, असली सवाल यह है कि तुम आकांक्षा करते हो या नहीं? असली सवाल यह नहीं है कि तुम किसकी आकांक्षा करते हो।

तुम्हारे सारे आध्यात्मिक—तथाकथित आध्यात्मिक—शिक्षक तुम्हें भ्रांति में डाल देते हैं, क्योंकि वे कहते हैं, ‘ आकांक्षा का विषय बदल दो। सांसारिक चीजों की आकांक्षा मत करो; परमात्मा की आकांक्षा करो।’ लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यदि तुम परमात्मा की आकांक्षा करते हो, तो परमात्मा भी सांसारिक विषय हो जाता है। मेरे देखे संसार की परिभाषा ऐसी है : जिस चीज की आकांक्षा की जा सके वह संसार है।

परमात्मा की आकांक्षा नहीं की जा सकती। तुम परमात्मा को अपनी आकांक्षा का विषय नहीं बना सकते; वह उसकी विशुद्धता को नष्ट करना है। बुद्धत्व की आकांक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि बुद्धत्व केवल तभी घटता है जब कोई आकांक्षा नहीं रहती। और बुद्धत्व कुछ ऐसी बात नहीं जो बाहर से आती है। जब मन आकांक्षा से मुक्त हो जाता है, तो अचानक तुम भीतर बैठे सम्राटों के सम्राट के प्रति सजग होते हो। वह सदा से वहां है, लेकिन तुम्हीं इतने ज्यादा उलझे हुए थे आकांक्षा में और पहुंचने में और पाने में और उपलब्ध होने में।

उपलब्धि की आकांक्षा से भरा मन ही बाधा है। इसलिए अच्छा है कि तुमने बुद्धत्व की पूरी तरह आशा छोड़ दी है।

लेकिन मैं नहीं समझता कि तुमने पूरी तरह आशा छोड़ दी है—अन्यथा तो घटना घट गई होती। तुम ठीक कहते हो : यद्यपि प्रकट में तो तुमने पूरी तरह आशा छोड़ दी है बुद्धत्व की, लेकिन गहरे में तुम अभी भी स्वप्न देख रहे हो उसके, आकांक्षा कर रहे हो उसकी। प्रकट में तुमने छोड़ दी होगी आशा, लेकिन कहीं गहरे में आशा जरूर बनी है, वरना तो कोई समस्या ही नहीं है कि बुद्धत्व घटित क्यों नहीं हुआ। उसे तो तुरंत घटना चाहिए—स्व पल का भी अंतराल नहीं होता। यह बिलकुल निश्चित है। जब आकांक्षा ने तुम्हें पूरी तरह छोड़ दिया होता है, तो बुद्धत्व घटता ही है। वस्तुत: वह और कुछ नहीं है—तुम ही हो आकांक्षारहित।

तो थोड़ा गहरे तलाशना, थोड़ा और गहरे खोदना अपने भीतर, तुम फिर पाओगे आकांक्षाओं को वहा, पर्तें हैं आकांक्षाओं की; और उन्हें फेंकते जाओ। प्याज को पूरी तरह छील डालो एकदम भीतर तक। एक दिन घटना घटेगी। किसी भी दिन संभव है वह। किसी भी क्षण, जब कोई आकांक्षा नहीं होती, उसकी कोई स्फुरण। भी नहीं होती—कोई कंपन नहीं, कोई तरंग नही—और चेतना निर्धूम होती है; कामना, आकांक्षा का कोई धुंआ नहीं होता; केवल चेतना की ज्योति होती है, चेतना की लपट—अचानक तुम हंसने लगते हो, अचानक तुम्हें समझ आ जाती है बात कि जिसे तुम खोज रहे थे, वह तो तुम्हारे भीतर ही था।

यही मतलब है जीसस का जब वे जोर दिए जाते हैं कि ‘प्रभु का राज्य तुम्हारे भीतर है।’ यदि वह बाहर होता तो उसकी आकांक्षा की जा सकती थी; यदि वह कहीं बाहर होता तो उस तक पहुंचा जा सकता था किसी मार्ग से। व तुम ही हो! इसीलिए मैं कहता हूं कि मेरे पास कोई मार्ग नहीं है तुम्हें देने को। मैं तो केवल अपने बोध को बांट सकता हूं तुम्हारे साथ।

तीसरा प्रश्न:

 

क्या अस्तित्व मुझसे प्रेम करता है?

ह प्रश्न पूछना गलत है। तुम्हें इसके विपरीत पूछना चाहिए, ‘क्या तुम प्रेम करते हो अस्तित्व से? क्योंकि अस्तित्व कोई व्यक्ति नहीं है, वह प्रेम नहीं कर सकता तुमसे। उसका कोई केंद्र नहीं है, या कि तुम कह सकते हो सब जगह उसका केंद्र है। लेकिन वह एक निवैंयक्तिक घटना है। निवैंयक्तिक अस्तित्व कैसे प्रेम कर सकता है तुमसे? तुम प्रेम कर सकते हो।

लेकिन जब तुम प्रेम करते हो, तो अस्तित्व प्रतिसंवेदन करता है—समग्रता से प्रतिसंवेदन करता है। यदि तुम एक कदम उठाते हो अस्तित्व की ओर, तो अस्तित्व हजारों कदम उठाता है तुम्हारी —ओर, लेकिन वह एक प्रतिसंवेदन ही है।

तुम्हें लाओत्सु की बात समझनी होगी। लाओत्सु कहता है कि अस्तित्व का स्वभाव स्त्रैण है। स्‍त्री प्रतीक्षा करती है; वह कभी पहल नहीं करती। पुरुष को आगे आना पड़ता है और पहल करनी

पड़ती है। पुरुष को आग्रह और प्रणय—निवेदन करना पड़ता है और राजी करना पड़ता है। अस्तित्व स्त्रैण है—वह प्रतीक्षा करता है। तुम्हें निवेदन करना होता है; तुम्हें प्रेम प्रकट करना होता है; तुम्हें पहल करनी होती है.. और तब अस्तित्व बरसता है तुम पर—असीम बरसता है, भर देता है अनंत—अनंत द्वारों से। ठीक स्त्री की ही भांति : जब तुमने राजी कर लिया होता है उसे, तो वह अपने को न्यौछावर कर देती है।

कोई पुरुष इतना प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता जितनी कि स्त्री हो सकती है। पुरुष तो सदा आशिक प्रेमी ही रहता है; उसका संपूर्ण अस्तित्व कभी भी प्रेम में नहीं डूबता। स्त्री समग्ररूपेण डूबती है प्रेम में, वही उसका पूरा जीवन होता है, उसकी प्रत्येक श्वास होती है। लेकिन वह प्रतीक्षा करती है। वह कभी पहल न करेगी; वह कभी तुम्हारा पीछा न करेगी; और यदि कोई स्त्री तुम्हारा पीछा करे—तो चाहे कितनी ही सुंदर क्यों न हो वह स्त्री—तुम भयभीत हो जाओगे उससे। वह स्त्रैण न जान पड़ेगी। वह इतनी आक्रामक लगेगी कि उसका सारा सौंदर्य कुरूपता में बदल जाएगा। स्त्री निष्‍क्रिय होती है, पैसिव होती है। खयाल में ले लेना इस शब्द को : निष्‍क्रिय, निष्कि्रयता, पैसिविटी।

अस्तित्व मां है। ईश्वर को ‘मां’ कहना सदा ही बेहतर है ‘पिता’ कहने की अपेक्षा। पिता कहना उतना सुसंगत नहीं है। अस्तित्व मां है, स्त्रैण है, प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी—प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी सदा—सदा से। लेकिन दस्तक तो तुम्हें ही देनी होगी द्वार पर। यदि तुम दस्तक दो तो तुम द्वार खुला हुआ पाओगे, लेकिन यदि तुम दस्तक ही नहीं देते तो तुम खड़े रह सकते हो द्वार पर ही। अस्तित्व उसे नहीं खोलेगा; वह आक्रामक नहीं है। प्रेम तक में भी वह आक्रामक नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि वह प्रतिसंवेदित होता है।

लेकिन गलत प्रश्न मत पूछो। मत पूछो कि ‘क्या अस्तित्व मुझसे प्रेम करता है?’ अस्तित्व से प्रेम करो और तुम पाओगे कि तुम्हारा प्रेम कुछ भी नहीं है। अस्तित्व तुम्हें इतना अनंत प्रेम देता है, तुम्हारे प्रेम को इतने असीम ढंग से प्रतिसंवेदित करता है—लेकिन वह है प्रतिसंवेदन ही—अस्तित्व कभी पहल नहीं करता; वह प्रतीक्षा करता है। और यह बात सुंदर है कि वह प्रतीक्षा करता है। वरना तो प्रेम का सारा सौंदर्य ही खो जाएगा।

लेकिन यह प्रश्न उठता है, इसका संबंध तुम्हारे मन से है। मनुष्य का मन इसी तरह काम करता है, वह सदा यही पूछता है, ‘क्या दूसरा प्रेम करता है मुझसे?’ स्त्री, पत्नी पूछती है, ‘क्या पति प्रेम करता है मुझसे?’ पति पूछता रहता है, ‘क्या पत्नी, स्त्री, प्रेम करती है मुझसे?’ बच्चे पूछते हैं, ‘क्या मां—बाप प्रेम करते हैं हमें?’ और माता—पिता सोचते हैं कि बच्चे उन्हें प्रेम करते हैं या नहीं? तुम सदा दूसरे के विषय में पूछते हो।

गलत प्रश्न पूछ रहे हो तुम। गलत दिशा में बढ रहे हो तुम। तुम्हारे सामने दीवार आ जाएगी; तुम द्वार न पाओगे। तुम्हें चोट लगेगी, क्योंकि तुम टकराओगे दीवार से। शुरुआत ही गलत है। तुम्हें सदा पूछना चाहिए, ‘क्या मैं प्रेम करता हूं पत्नी से?’ ‘क्या मैं प्रेम करती हूं पति से?’ ‘क्या मैं प्रेम करता हूं बच्चों से? ‘क्या मैं प्रेम करता हूं अपने माता—पिता से?’ —क्या तुम प्रेम करते हो?

और यही है रहस्य. यदि तुम प्रेम करते हो, तो अचानक तुम पाते हो कि हर कोई प्रेम करता है तुम से। यदि तुम प्रेम करते हो पत्नी से, तो वह प्रेम करती है तुम्हें, यदि तुम प्रेम करती हो पति से, तो वह प्रेम करता है तुम्हें; यदि तुम प्रेम करते हो बच्चों से, तो वे प्रेम करते हैं तुम्हें। जो व्यक्ति अपने हृदय से प्रेम करता है, वह चारों ओर से प्रेम पाता है। प्रेम कभी निष्फल नहीं जाता। वह फूलता है, फलता है।

लेकिन तुम्हें ठीक शुरुआत करनी होगी, ठीक मार्ग पर चलना होगा; अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति पूछ रहा है, ‘क्या दूसरा प्रेम करता है मुझसे?’ और दूसरा भी यही पूछ रहा है। तब कोई प्रेम नहीं करता; तब प्रेम एक काल्पनिक स्वप्न बन जाता है; तब प्रेम खो जाता है धरती से—जैसा कि हो गया है। प्रेम खो गया है; वह केवल कवियों की कविताओं में जीवित है—मन की उड़ान, कल्पनाएं, स्वप्न। वास्तविकता अब नितांत शून्य है प्रेम से, क्योंकि तुम शुरुआत ही गलत प्रश्न से करते हो। छोड़ो इस प्रश्न को रोग की भांति। छोड़ो इसे और बचो इससे, और सदा पूछो, ‘क्या मैं प्रेम करता हूं?’ और यही बात चाबी बन जाएगी। इस चाबी द्वारा तुम कोई भी हृदय खोल सकते हो। और इस चाबी द्वारा, धीरे— धीरे तुम इतने कुशल हो जाओगे कि तुम इस चाबी द्वारा पूरे अस्तित्व को खोल सकते हो; तब यह प्रार्थना बन जाती है।

जरा यह प्रश्न पूछना, ‘क्या अस्तित्व प्रार्थना करता है तुमसे?’ तो यह बात मूढ़तापूर्ण मालूम पडेगी; तो यह बिलकुल व्यर्थ मालूम पड़ेगी।’क्या अस्तित्व प्रार्थना करता है तुमसे?’ तुम ऐसा पूछ भी नहीं सकते; लेकिन प्रार्थना और कुछ भी नहीं है सिवाय प्रेम के परम विकास के।

तुम अस्तित्व के साथ प्रार्थना में होते हो और तुम पाते हो कि चारों ओर से प्रेम के झरने तुम्हारी ओर प्रवाहित हो रहे हैं। तुम तृप्त हो जाते हो। अस्तित्व के पास बहुत कुछ है तुम्हें देने के लिए लेकिन उसके लिए तुम्हें खुला होना होगा। और खुले होना केवल प्रेम में संभव है; तब तुम खुले होते हो, अन्यथा तो तुम बंद रहते हो। और अस्तित्व भी कुछ नहीं कर सकता यदि तुम बंद हो।

चौथा प्रश्न:

 

क्या उच्चतर अवस्थाओं तक पहुंचना संभव है जब कि व्यक्ति बाहरी स्थितियों और भ्रांतियों के कारण अपने अस्तित्व के कुछ हिस्सों को इनकार कर रहा हो या उनका दमन कर रहा हो?

 

हीं, ऐसा असंभव है। तुम मुझसे पूछ रहे हो, ‘क्या सीढ़ी के ऊपर केवल आशिक रूप से जाना संभव है?’ तुम्हारा कोई हिस्सा नीचे छूट गया है, तुम्हारा कोई हिस्सा कहीं सीढ़ी पर छूट गया है, और केवल तुम्हारा एक हिस्सा ही पहुंचता है एकदम अंत तक—कैसे संभव है यह? तुम एक इकाई हो, तुम एक अखंड इकाई हो, तुम्हें बांटा नहीं जा सकता है। यही अर्थ है ‘व्यक्ति’ शब्द का : जिसे बांटा न जा सकता हो। तुम एक व्यक्ति हो। परमात्मा के द्वार तक तुम्हें जाना है अपनी समग्रता में, अखंड; कोई चीज पीछे नहीं छूट सकती।

इसीलिए मेरा बार—बार कहना है कि यदि तुम दमन करते हो अपने क्रोध का तो तुम परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट न हो पाओगे—क्योंकि वही तुम कर रहे हो. तुम कोशिश कर रहे हो क्रोध को मंदिर के बाहर छोड़ देने की और मंदिर में प्रविष्ट हो जाने की। कैसे प्रवेश कर सकते हो तुम? क्‍योंकि कौन बाहर छूट जाएगा क्रोध के साथ? वह तुम्हीं हो। यदि तुम कामवासना को दबाने का प्रयत्न कर रहे हो तो तुम परमात्मा के मंदिर में प्रवेश न कर पाओगे, क्योंकि कामवासना क्या है? वह तुम्हीं हो—तुम्हारी ही ऊर्जा है। कोई चीज बाहर नहीं छोड़ी जा सकती है। यदि तुम कुछ भी बाहर छोड़ देते हो, तो तुम पूरे के पूरे बाहर छूट जाओगे। तब केवल एक ही संभावना है : तुम रहोगे तो बाहर और तुम स्वप्न देखोगे कि तुम भीतर प्रविष्ट हो गए हो। यही तो तुम्हारे सारे महात्मा कर रहे हैं। वे मंदिर के बाहर रह कर स्वप्न देख रहे हैं कि वे भीतर प्रवेश कर गए हैं और देख रहे हैं परमात्मा को; वे स्वर्ग में हैं या मोक्ष पा गए हैं!

नहीं; केवल अखंड रूप से ही तुम प्रवेश करोगे—स्व भी हिस्सा पीछे नहीं छोड़ा जा सकता। तो करना क्या होगा? मुझे मालूम है कि कुरूप हिस्से हैं; और मेरी समझ में आती है तुम्हारी उलझन भरी स्थिति। तुम नहीं चाहोगे उन कुरूप हिस्सों को परमात्मा के पास ले जाना। तुम्हारी तकलीफ, तुम्हारी मुश्किल मेरी समझ में आती है। तुम सारी कामवासना को, सारे क्रोध को, सारी ईर्ष्या को, घृणा को गिरा देना चाहते हों—तुम शुद्ध, कुंआरे, निर्दोष हो जाना चाहते हो। अच्छी बात है। तुम्हारे विचार शुभ हैं, लेकिन जिस ढंग से तुम इसे करना चाह रहे हो, वह संभव नहीं है। केवल एक ही मार्ग है. रूपांतरण। अपने हिस्सों को काटो मत; उन्हें रूपांतरित करो। कुरूपता सुंदरता बन सकती है।

तुमने कभी ध्यान दिया कि बगीचे में क्या घटता है? तुम गोबर की खाद लाते हो, दुर्गंध होती है—उर्वरक, खाद—बुरी तरह दुर्गंध उठ रही होती है। लेकिन थोड़े समय में वही खाद धरती में विलीन हो जाती है; और वह प्रकट होती है सुंदर फूलों के रूप में जो इतनी दिव्य सुगंध लिए होते हैं! यह है रूपांतरण। दुर्गंध बन जाती है सुगंध; खाद का बेहूदा रूप बन जाता है सुंदर पुष्प।

तो जीवन को चाहिए रूपांतरण। तुम परमात्मा के मंदिर में अखंड प्रवेश करोगे—रूपांतरित होकर। किसी भी चीज का दमन मत करना, बल्कि उसे रूपांतरित करने की तरकीब खोजने का प्रयास करना। क्रोध ही करुणा बन जाता है। जिस व्यक्ति में क्रोध नहीं, वह करुणावान भी नहीं हो सकता—कभी नहीं। यह सांयोगिक ही नहीं है कि सभी चौबीस जैन तीर्थंकर क्षत्रिय थे—योद्धा, क्रोधी; और वे ही देशना देने लगे अहिंसा और करुणा की। बुद्ध योद्धा हैं, क्षत्रिय परिवार से आते हैं, जैसे समुराई होते हैं, और वे करुणा के महानतम संदेशवाहक हो गए। क्यों? उनके पास तुम से कहीं ज्यादा क्रोध था। जब क्रोध परिवर्तित और रूपांतरित हुआ, तो निश्चित ही वह विराट ऊर्जा बन गया।

तुम्हारे लिए क्रोध जरूरी है। जैसे तुम अभी हो तुम्हें क्रोध की जरूरत है, क्योंकि यह एक सुरक्षा कवच है; और रूपांतरण के बाद भी तुम्हें इसकी आवश्यकता होगी, क्योंकि तब यह ईंधन बन जाता है—ऊर्जा बन जाता है। यह एक शुद्ध ऊर्जा है।

क्या तुमने किसी छोटे बच्चे को क्रोध में देखा है? कितना सुंदर लगता है बच्चा—लाल, दमदमाता, ऊर्जा से भरपूर, जैसे कि विस्फोट कर सकता हो और नष्ट कर सकता हो सारे संसार को। बिलकुल छोटा, नन्हा सा बच्चा, परमाणु ऊर्जा की भांति मालूम पड़ता है—चेहरा लाल, उछल—कूद मचा रहा और रो रहा—मात्र ऊर्जा, शुद्ध ऊर्जा। यदि तुम बच्चे को रोको नहीं और उसे सिखाओ कि इस ऊर्जा को कैसे समझें, तो किसी दमन की कोई जरूरत न होगी. वही ऊर्जा रूपांतरित हो सकती है।

तुम ध्यान देना : बादल घिरते हैं आकाश में, और जोर से बिजली चमकती है, और जोर से बादल गरजते हैं। यह बिजली, अभी कुछ सौ वर्ष पहले तक, मनुष्य के जीवन का एक आतंकपूर्ण

तथ्य थी। मनुष्य इतना डरता था कड़कती बिजली से कि अभी तो तुम कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि अब वही बिजली विद्युत—ऊर्जा बन गई है। वह सेवक बन गई है घर की वह तुम्हारा एयरकंडीशनर चलाती है; वह तुम्हारा फ्रिज चलाती है। वह दिन—रात निरंतर काम करती है—कोई सेवक उस तरह से काम नहीं कर सकता। वही बिजली एक बड़ा भयंकर तथ्य थी मानव—जीवन का।

पहला देवता कड़कती—चमकती बिजली के कारण ही पैदा हुआ— भय के कारण इंद्र पैदा हुआ—गर्जन, वज्रपात और बिजली का देवता। और लोगों ने उसे पूजना शुरू कर दिया। क्योंकि लोगों ने सोचा कि यह कड़कती बिजली एक सजा के रूप में आती है। लेकिन अब कोई इसकी फिक्र नहीं करता। अब तुम इसके रहस्य को जानते हों—तुमने तरकीब खोज ली है। अब वही बिजली, इंद्र का दिया दंड, सेवक की भांति काम करती है. इंद्र तुम्हारा पंखा चला रहे हैं। अब इंद्र देवता न रहे, बल्कि सेवक हो गए। और इतने विनीत सेवक कि कभी हड़ताल नहीं करते, कभी तनख्वाह बढ़ाने के लिए नहीं कहते, कुछ नहीं कहते—बिलकुल आज्ञाकारी सेवक।

ऐसा ही घटता है मनुष्य के अंतराकाश में—क्रोध की बिजली चमकती है। बुद्ध में यही बिजली करुणा बन जाती है। अब देखना बुद्ध का चेहरा—इतना आलोकित! कहां से आता है यह आलोक? यह रूपांतरित क्रोध है। तुम भयभीत हो कामवासना से, लेकिन क्या कभी तुमने सुना कि कोई नपुंसक व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ? जरा बताना मुझे। क्या तुमने सुना है किसी नपुंसक व्यक्ति के बारे में, जिसमें कि काम—ऊर्जा नहीं थी, और जो मसीहा हो गया हो—महावीर, कि मोहम्मद, कि बुद्ध, कि क्राइस्ट? क्या तुमने सुना है ऐसा कभी? ऐसा कभी नहीं होता। ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि ऊर्जा ही नहीं होती। यह काम—ऊर्जा ही है जो ऊपर उठती है। यह काम—ऊर्जा ही है जो रूपांतरित होती है और रूपांतरित होकर समाधि बन जाती है।

काम—ऊर्जा ही बनती है समाधि, परम चेतना। मैं तुमसे कहता हूं : जितने ज्यादा तुम कामुक हो उतनी ही ज्यादा संभावना है; इसलिए भयभीत मत होना। ज्यादा काम—ऊर्जा इतना ही बताती है कि तुममें बहुत ज्यादा ऊर्जा है। अच्छी है बात। तुम्हें अनुग्रह मानना चाहिए परमात्मा का। लेकिन तुम अनुगृहीत नहीं हो—उलटे तुम अपराधी अनुभव करते हो; उलटे तुम तो परमात्मा के विरुद्ध शिकायत से भरे मालूम पड़ते हो कि ‘तुमने यह ऊर्जा क्यों दी मुझे?’

तुम नहीं जानते कि भविष्य में इस ऊर्जा द्वारा क्या संभव है। बुद्ध नपुंसक नहीं हैं। उन्होंने बहुत ही परिपूर्ण काम—जीवन जीया—कोई साधारण काम—जीवन नहीं। उनके पिता ने राज्य की सुंदरतम स्त्रियां उनकी सेवा में उपलब्ध करवा दी थीं, सारी सुंदर युवतियां उनकी सेवा में संलग्न थीं। तो ऊर्जा जरूरी है, और ऊर्जा सदा सुंदर होती है। यदि तुम उसका उपयोग करना नहीं जानते, तो वह असुंदर हो जाती है; तब वह यहां—वहां बिखरने लगती है। ऊर्जा को ऊपर ले जाना है।

काम, सेक्स तुम्हारे अस्तित्व का निम्नतम केंद्र है—केवल वही सब कुछ नहीं है : तुम्हारे अस्तित्व के सात केंद्र हैं। जब ऊर्जा ऊपर उठती है—यदि तुम्हें पता चल जाए इस तरकीब का कि कैसे उसे ऊपर ले जाना है, तो जैसे—जैसे वह बढ़ती है एक केंद्र से दूसरे केंद्र तक, तुम बहुत से रूपांतरण अनुभव करते हो। जब ऊर्जा हृदय—चक्र के पास आती है, हृदय के केंद्र में आती है, तुम प्रेम से इतने भर जाते हो कि तुम प्रेम ही हो जाते हो। जब ऊर्जा तीसरे नेत्र के केंद्र में आती है, तो तुम बोध हो जाते हो, सजगता हो जाते हो। जब ऊर्जा अंतिम चक्र सहस्रार में आती है, तब तुम खिल उठते हो, तुम्हारा फूल खिल जाता है, तुम्हारे जीवन का वृक्ष पूर्ण रूप से खिल उठता है. तुम बुद्ध हो जाते हो। लेकिन ऊर्जा वही है।

तो निंदा मत करो; दमन मत करो। रूपांतरित करो। ज्यादा बोधपूर्ण, ज्यादा सजग होओ; केवल तभी तुम समग्र रूप से विकसित हो सकोगे। और दूसरा कोई उपाय नहीं है। दूसरा उपाय केवल सपने देखना और कल्पना करना है।

पांचवां प्रश्न :

 

झेन कहता है ‘जब भूख लगे तब भोजन करो और जब प्यास लगे तब पानी पीओ।’ पतंजलि कहते हैं ‘नियमितता।’ तो सहज— स्फूर्तता और नियमितता में तालमेल कैसे बिठाएं?

तालमेल बिठाने की कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम सच में सहज—स्फूर्त हो, तो तुम नियमित हो जाओगे। यदि तुम सच में नियमित हो, तो तुम सहज—स्फूर्त हो जाओगे। तालमेल बिठाने की कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम तालमेल बिठाना चाहोगे तो तुम बुरी तरह उलझ जाओगे। तुम एक को चुन लेना और दूसरे को बिलकुल भूल जाना। यदि तुम झेन को चुनते हो, तो पतंजलि को भूल जाओ, जैसे कि वे कभी हुए ही नहीं; तब पतंजलि तुम्हारे लिए नहीं हैं। और एक दिन अचानक तुम पाओगे कि सहज—स्फूर्तता के पीछे—पीछे नियमितता आ गई है।

कैसे होता है यह? यदि तुम सहज—सरल हो, यदि तुम तभी भोजन करते हो जब तुम्हें भूख लगती है—और यदि तुम कभी अपनी इच्छा के विपरीत भोजन नहीं करते, तुम कभी अपनी इच्छा से अधिक भोजन नहीं करते, तुम सदा अपनी जरूरत के हिसाब से भोजन करते हो—तो धीरे— धीरे तुम थिर हो जाओगे नियमितता में। क्योंकि शरीर एक यंत्र है, बहुत ही सुंदर जैविक यंत्र है। तब रोज उसी समय तुम पाओगे कि तुम्हें भूख लग आती है; रोज उसी समय तुम पाओगे कि तुम्हें नींद आ जाती है। जीवन नियमित हो जाएगा।

लेकिन यदि तुम भयभीत हो सहजता से, जैसे कि लोग भयभीत हैं, क्योंकि संस्कृति है, सभ्यता है, धर्म है—संसार की सारी जहरीली चीजें हैं—उन्होंने तुम्हें भयभीत कर दिया है सहजता से; वे कहती हैं कि तुम एक जानवर छिपाए हुए हो अपने भीतर और यदि तुम सहज होते हो तो तुम भटक सकते हो। तो यदि तुम बहुत ज्यादा भयभीत हो सहजता से, तो पतंजलि को सुनना।

पतंजलि मेरे लिए सदा द्वितीय चुनाव रहे हैं, प्रथम कभी नहीं रहे। वे उन रुग्ण व्यक्तियों के लिए हैं जो संस्कृति द्वारा दूषित हो गए हैं, अस्वाभाविक हो गए हैं; सभ्यता और धर्म द्वारा विषाक्त हो गए हैं, पंडित—पुरोहितों द्वारा विकृत हो गए हैं। तब पतंजलि हैं। पतंजलि एक चिकित्सा हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि पतंजलि निन्यानबे प्रतिशत लोगों के लिए उपयोगी हैं, क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत लोग बीमार हैं। यह पृथ्वी एक बड़ा अस्पताल है। पतंजलि एक चिकित्सक हैं, एक वैज्ञानिक हैं।

झेन स्वाभाविक, सहज लोगों के लिए है, निर्दोष बच्चों के लिए है। यदि किसी दिन कोई सुंदर संसार होगा, तो पतंजलि को भुला दिया जाएगा; लेकिन झेन रहेगा। यदि यह संसार और— और ज्यादा बीमार हो जाएगा, तो झेन को भुला दिया जाएगा; केवल पतंजलि होंगे।

झेन कहता है कि स्वाभाविक रहो। क्या तुमने प्रकृति पर ध्यान दिया है? क्या तुमने प्रकृति की सहज—स्वाभाविकता और नियमितता दोनों को देखा है? वर्षा आती है, गर्मी आती है, सर्दी आती है—एक नियमित कम में ऋतुएं घूमती रहती हैं। और यदि तुम कोई अव्यवस्था पाते हो, तो वह तुम्हारे ही कारण है, क्योंकि मनुष्य ने अव्यवस्थित कर दिया है प्रकृति की इकालॉजी को, उसके मौसम के तालमेल को, वरना प्रकृति इतनी नियमित थी—और इतनी सहज—स्वाभाविक थी। तुम सदा जान लेते थे कि अब वसंत आने वाला है। तुम देख सकते थे वसंत की पगध्वनि को चारों ओर—पक्षियो के गीतों में, वृक्षों में, चारों तरफ फैलता एक उत्सव, एक आह्लाद। सब सुनिश्चित था, नियमित था। लेकिन अब तो हर चीज अव्यवस्थित हो गई है। ऐसा प्रकृति के कारण नहीं हुआ है। मनुष्य ने केवल मनुष्य को ही विषाक्त नहीं किया है; मनुष्य प्रकृति को भी विषाक्त करने में लगा हुआ है। अब हर चीज अनियमित है. तुम नहीं जानते कि कब वर्षा होगी; तुम नहीं जानते कि इस वर्ष वर्षा कम होगी या ज्यादा होगी; तुम नहीं जानते कि इन गर्मियों में कितनी गरमी होगी।

प्रकृति की नियमितता डांवाडोल हुई है तुम्हारे कारण, क्योंकि तुमने वर्तुल तोड़ दिया है। अन्यथा प्रकृति तो नितांत सहज—सरल है—और प्रकृति को किसी पतंजलि की जरूरत नहीं है। अब जरूरत होगी। अब इकॉलॉजी को ठीक करने के लिए पतंजलि की जरूरत है।

तो तुम्हें चुनना है। यदि तुम झेन को चुनते हो तो पतंजलि को भूल जाना; वरना तुम बहुत उलझ जाओगे। और मैं तुमसे कहता हूं कि पतंजलि अपने आप आ जाएंगे—तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। लेकिन यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम बहुत रुग्ण हो और तुम स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकते और तुम सहज—स्फूर्त नहीं हो सकते, तो फिर भूल जाना झेन के बारे में; वह तुम्हारे लिए नहीं है। यह ऐसे ही है जैसे कि व्यायाम की कोई किताब है। अब व्यायाम की किताब स्वस्थ व्यक्ति के लिए है—जिसे ओलंपिक में भाग लेना हो। तुम चाहो तो उसे पढ़ सकते हो, लेकिन उसे करने मत लगना—तुम खतरे में पड़ जाओगे। तुम लेटे हो अस्पताल में; तुम मत पूछना कि कैसे तालमेल बिठाएं इस किताब का और अपनी स्थिति का। तुम यह पूछना ही मत। तुम सुनना चिकित्सक की; तुम उसके अनुसार चलना। किसी दिन जब तुम स्वस्थ हो जाते हो, अपने सहज—स्वाभाविक स्वास्थ्य तक लौट आते हो, तो शायद तुम उपयोग कर सको इस किताब का, लेकिन अभी इस समय तो यह तुम्हारे काम की नहीं है।

पतंजलि हैं अस्वस्थ व्यक्तियों के लिए लेकिन करीब—करीब प्रत्येक व्यक्ति अस्वस्थ है। झेन है सहज—स्वाभाविक व्यक्तियों के लिए। तुम्हें निर्णय लेना होगा अपने विषय में। कोई और दूसरा तुम्हारे लिए निर्णय नहीं ले सकता है। तुम्हें अपनी ऊर्जा को अनुभव करना है।

लेकिन ध्यान रहे, तुम्हें तालमेल नहीं बिठाना है—ऐसा कभी मत करना। एक को चुन लो, दूसरा पीछे—पीछे चला आता है। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम बीमार हो, पहले से ही जटिल हो, सहज—सरल नहीं हो सकते, तो नियमित होने का प्रयास करना। नियमितता धीरे— धीरे तुम्हें स्वास्थ्य और सहज—स्फूर्तता तक ले आएगी।

छठवां प्रश्न:

 

मैं आपके विरुद्ध प्रचार करना चाहता हूं। क्या आप मुझे आशीर्वाद देंगे?

विचार तो अच्छा है। मेरा पूरा आशीर्वाद है, क्योंकि मेरे विरुद्ध प्रचार करना भी मेरे पक्ष में प्रचार करना ही है। जाने —अनजाने, जो भी मेरे विरुद्ध कुछ कहता है, मेरे विषय में ही कुछ कहता है। और कौन जाने. अगर तुम किसी से मेरे विरुद्ध कुछ बोल रहे हो, तो शायद वह मुझ में रस लेने लगे। तो जाओ और प्रचार करो, मेरा पूरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।

सातवां प्रश्न :

 

आपने इधर कहा कि केवल संबुद्ध व्यक्ति ही प्रेम कर सकता है। कई और मौकों पर आपने यह भी कहा है कि जब तक कोई प्रेम नहीं करता, संबुद्ध नहीं हो सकता तो किस द्वार से प्रवेश करें?

पूछा है आनंद प्रेम ने। वह द्वार पर ही खड़ी हुई है वर्षों से। असली बात है प्रवेश करना, द्वार से कुछ लेना—देना नहीं है। तुम किस द्वार से प्रवेश करते हो—यह बात व्यर्थ है। कृपा करके प्रवेश करो!

यदि तुम प्रेम के द्वार से प्रवेश करना चाहते हो, तो प्रेम के द्वार से प्रवेश करो। बुद्धत्व पीछे—पीछे चला आएगा; वह पराकाष्ठा है प्रेमपूर्ण हृदय की। यदि तुम भयभीत हो प्रेम से, जैसे कि लोग भयभीत हैं, क्योंकि समाज ने तुम्हें बहुत ज्यादा भयभीत कर दिया है प्रेम और जीवन के प्रति। समाज सोचता है कि प्रेम खतरनाक है। वह है। तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो। वह एक तरह का पागलपन है—सुंदर है बात, लेकिन फिर भी है तो पागलपन। तो यदि तुम भयभीत हो प्रेम से तो ध्यान में प्रवेश करो, ध्यानी बनो। यदि तुम ध्यान में गहरे उतरते हो तो तुम अनुभव करोगे, अचानक ऊर्जा का एक उमडाव, और तुम प्रेम से भर जाओगे।

लेकिन कृपा करके द्वार पर ही मत खड़े रहो। द्वार भी तुम से बहुत थक गए हैं। कुछ करो और भीतर प्रविष्ट होओ। बहुत समय हुआ, तुमने बहुत देर प्रतीक्षा कर ली है।

आठवां प्रश्न :

 

इन दिनों पूना के समाचार— पत्र आपके आपके आश्रम के और आपके शिष्यों के विरुद्ध बहुत प्रचार कर रहे हैं। इस बात ने सामान्यजन के मन में बहुत सी गलतफहमियां पैदा कर दी हैं। जो साधक इन्हीं लोगों के बीच रहता है उसे कैसे इस स्थिति का सामना करना चाहिए?

तुम्हें सामना बिलकुल नहीं करना चाहिए; तुम्हें तो हंसना चाहिए। और इस बारे में गंभीर मत हो जाना। यदि तुम इसका आनंद ले सकते हो तो आनंद लो—लेकिन सामना करने के चक्कर में मत पड़ जाना, प्रतिक्रिया मत करना। और मेरा बचाव करने की कोशिश मत करना—कोई मेरा बचाव नहीं कर सकता। और मेरे लिए तर्क जुटाने की कोशिश मत करना—कोई मेरे लिए तर्क नहीं जुटा सकता है। और तालमेल बिठाने का प्रयत्न मत करना, इसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा इससे कुछ लेना—देना नहीं है।

दुनिया तो अपने ढंग से चलती है। लोगों के अपने मन हैं और अपनी धारणाएं हैं—और मैं धारणाओं का, परंपराओं का भंजक हूं। मैं एक झंझावात हूं तो यह स्वाभाविक है कि साधारण व्यक्ति नाराज हो जाएं। और अखबार तो सदा ही किसी सनसनीखेज खबर की तलाश में रहते हैं; अखबार उस पर निर्भर करते हैं। लेकिन जो सत्य की खोज में निकले हैं उनके लिए ये बातें बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं होनी चाहिए।

तुम्हें तो बस हंसना चाहिए और आनंद मनाना चाहिए; कुछ भी गलत नहीं है इसमें। तुम्हें चोट अनुभव नहीं करनी चाहिए; उसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें तकलीफ हो यह स्वाभाविक है, मैं यह समझता हूं कि अगर कोई मेरे विरुद्ध कुछ कहता है, जो कि मुझे बिलकुल जानता नहीं, और तुम मुझे बहुत समय से जानते हो—तुम सुनते हो वह—तो तुम्हें चोट लगती है; तुम उसका विरोध करना चाहते हो। पर उसका विरोध मत करो, क्योंकि वह प्रयत्न व्यर्थ है। उपेक्षा, पूरी तरह उपेक्षा ही एकमात्र ढंग है जो तुम से अपेक्षित है।

जो लोग मुझे नहीं समझते, वे ऐसा ही करेंगे; और यदि तुम प्रतिक्रिया करते हो, तो तुम उन्हें बढ़ावा देते हो। तटस्थ रहो; वे अपने आप चुप हो जाएंगे। क्योंकि जब कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, तो सारा मजा ही खत्म हो जाता है।

और मैं भीड़ को राजी करने के लिए यहां नहीं हूं कि मैं ठीक हूं या गलत; भीड़ में मेरा बिलकुल रस नहीं है। केवल थोड़े से चुने हुए लोगों में मेरा रस है। मुझे उन्हीं के लिए काम करना है। तो यह झंझट बार—बार होने वाली है। वे नहीं जानते कि यहां क्या घट रहा है। वे जान नहीं सकते; अगर वे यहां आ भी जाएं, तो वे मुझे समझ न पाएंगे कि मैं क्या कह रहा हूं। वे गलत ही समझेंगे। तो उन्हें क्षमा कर दो और भूल जाओ।

नौवां प्रश्न:

 

आपके द्वारा की गई साईबाबा कृष्णमूर्ति और अमरीकी गुरुको की आलोचना से निंदा न करने का आपका दावा खंडित मालूम होने लगता है!

ब भी तुम्हें लगे कि किसी चीज का मेरे द्वारा खंडन हो रहा है, तो उससे घबड़ा मत जाना; मैं विरोधाभासी हूं। तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना है इसे। मैं अपना ही खंडन करता जाता हूं। यह भी एक विधि है जिसका मैं उपयोग कर रहा हूं। यदि तुम अविचलित रहते हो, तो तुम्हारे भीतर कुछ घनीभूत होता है, एक क्रिस्टलाइजेशन होता है।

मैं खंडन करता ही रहूंगा। अपनी कही हर बात का मैं खंडन करूंगा। मैं अपना एक भी वक्तव्य बगैर खंडन किए नहीं रहने दूंगा। इसमें एक विधि है : मैं नहीं चाहता कि तुम किसी एक दृष्टिकोण को पकड़ कर बैठ जाओ। मैं यह भी नहीं चाहता कि तुम मेरी बातों को पकड़ कर बैठ जाओ। तो एक ही रास्ता है : मुझे अपनी ही बातों का खंडन करना होगा। एक घड़ी आएगी, तुम समझ लोगे कि यह व्यक्ति तुम्हें कोई सिद्धात नहीं दे रहा है, क्योंकि हर बात का खंडन किया जा रहा है। कोई सिद्धात बचता नहीं। हर बात नकार देती है हर दूसरी बात को; तुम एक गहन शून्यता में छूट जाते हो। यही मेरा प्रयास है।

मैं तुम्हें कोई दार्शनिक सिद्धात नहीं दे रहा हूं। यदि मैं दार्शनिक होता तो मैं कभी अपना खंडन न करता, मैं सुसंगत होता। लेकिन मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं; ज्यादा से ज्यादा तुम मुझे कवि कह

सकते हो। कवि से तुम कभी किसी सुसंगति की आशा नहीं रखते। तुम जानते हो कि कवि कवि है; वह किसी व्यवस्था का निर्माता नहीं है। वह आज कुछ कहता है और कल कुछ और कहता है। लेकिन यदि तुम मुझे समझते रहे, तो एक घड़ी आएगी कि जो कुछ भी मैंने कहा है उसका खंडन कर दिया जाएगा—मेरे ही द्वारा—तुम एक शून्यता में छूट जाओगे, कुछ पकड़ने को नहीं होगा—कोई सिद्धात नहीं, कोई व्यवस्था नहीं, कोई शास्त्र नहीं।

और उस शून्य में ही तुम समझ पाओगे मुझे, क्योंकि मैं कुछ कह नहीं रहा हूं—यहो मैं तुम्हारे लिए एक मौजूदगी हूं। मैं तुम्हें कोई संदेश नहीं दे रहा हूं मैं ही हूं संदेश। केवल जब तुम पूरी तरह शून्य होते हो, तभी तुम इसे समझ पाओगे।

और दूसरी बात, यदि मैं कहता हूं कि साईंबाबा केवल मदारी हैं और रहस्यदर्शी संत नहीं हैं तो मैं केवल एक तथ्य कह रहा हूं उनकी निंदा नहीं कर रहा हूं उनकी बिलकुल आलोचना नहीं कर रहा हूं। यदि मैं कहता हूं. अभी सुबह है, नौ बजे हैं; यदि मैं कहता हूं : अभी दिन है और रात नहीं है, तो क्या मैं निंदा कर रहा हूं रात की 3: क्या मैं आलोचना कर रहा हूं रात की? मैं तो केवल एक तथ्य बता रहा हूं। सत्य साईंबाबा मदारी हैं और रहस्यदर्शी संत नहीं हैं—मेरे लिए यह एक तथ्य है। मैं उनकी आलोचना नहीं कर रहा हूं मैं उनके खिलाफ नहीं हूं।

यदि मैं कहता हूं कि कृष्णमूर्ति संबुद्ध हैं पर असफल हैं, वे किसी की मदद नहीं कर सके—उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की, असल में और किसी ने इतना श्रम नहीं किया। वे संबुद्ध हैं और जो कुछ वे कहते हैं सत्य है, लेकिन उनसे किसी को मदद नहीं मिली है, तो यह कोई आलोचना नहीं है। मैं इतना ही कह रहा हूं कि उनसे किसी को मदद नहीं मिली है। तो लाओ किसी को जिसे मदद मिली हो, और करो इस तथ्य का खंडन।

कृष्णमूर्ति के हजारों अनुयायियों से मेरा मिलना हुआ है। किसी को मदद नहीं मिली है। वे स्वयं आते हैं और कहते हैं मुझसे कि वे बीस वर्षों से, तीस वर्षों से, चालीस वर्षों से सुन रहे हैं—सुनते—सुनते के हो गए हैं—और वे भलीभांति समझते हैं कृष्णमूर्ति को कि वे क्या कह रहे हैं, क्योंकि वे निरंतर एक ही बात कह रहे हैं। चालीस वर्षों से वे एक ही स्वर अलाप रहे हैं—उन्होंने पिच तक नहीं बदली, ध्वनि तक नहीं बदली, नहीं। इस धरती पर जो दुर्लभतम सुसंगत व्यक्ति हुए हैं, उन में से एक हैं वे। एक ही स्वर में वे एक ही बात बार—बार दोहराए चले जाते हैं। तो लोग आते हैं मेरे पास और कहते हैं कि वे बौद्धिक रूप से उन्हें समझते हैं, लेकिन कुछ घटता नहीं है। क्योंकि बौद्धिक समझ द्वारा कुछ घट सकता नहीं है।

और यदि किसी को घटा है कृष्णमूर्ति को सुनते हुए, तो मैं कहता हूं तुमसे कि वह उस व्यक्ति को कृष्णमूर्ति को सुने बिना भी घट गया होता—क्योंकि कृष्णमूर्ति कोई विधि नहीं दे रहे हैं, कोई साधना नहीं दे रहे हैं। यदि उन्हें सुनते हुए किसी को घटना घटी है, तो वह उस व्यक्ति को पक्षियों को सुनते हुए भी घट सकती थी, या वृक्षों से गुजरती हवाओं को सुनते हुए भी घट सकती थी। वह आदमी तैयार ही था; कृष्णमूर्ति ने उसकी मदद नहीं की है।

और यह बात कृष्णमूर्ति भी समझते हैं। निश्चित ही समझते हैं वे। और वे निराश अनुभव करते ‘हैं—उनका सारा जीवन व्यर्थ हुआ। तो मैं एक तथ्य कह रहा हूं आलोचना नहीं कर रहा हूं।

और यदि मैं अमरीकी गुरुओं के बारे में कुछ कहता हूं तो मैं उनके विरुद्ध कुछ नहीं कह रहा हूं। पहली बात, सौ में से निन्यानबे प्रतिशत गुरु नकली हैं। तो जब अमरीकी गुरुओं का सवाल आता है, तब तुम समझ सकते हो! भारतीय गुरुओं में ही सौ में निन्यानबे गुरु नकली हैं, तो जब बात उठती है अमरीकी गुरुओं की, नकल करने वालों की..।

लेकिन मैं किसी के विरुद्ध नहीं हूं। ये सीधे—साफ तथ्य हैं; कोई निंदा नहीं है। असल में मैं उनके विषय में कुछ नहीं कह रहा हूं बस वस्तु—स्थिति के विषय में कह रहा हूं। व्यक्तिगत रूप से मुझे कुछ मतलब नहीं है। अवैयक्तिक वक्तव्य हैं।

दसवां प्रश्न :

 

एक ताओवादी गुरु ने ताओ की भाषा में कुछ बातें समझाई। उसके सुनने वालों ने पूछा कि आप ताओ को कैसे उपलब्ध हुए जब कि आपका कोई भी गुरु नहीं है? उसने कहा ‘मैने इसे पुस्तकों से पाया।’ क्या यह संभव है?

हां, कभी—कभी यह संभव है। वह व्यक्ति जरूर उस व्यक्ति जैसा रहा होगा जिसकी मैं अभी बात कर रहा था जो कृष्णमूर्ति को सुन कर संबुद्ध हो सकता है। वह आदमी पक्षियों के गीत सुनते हुए भी संबुद्ध हो सकता है। वह आदमी पुस्तकें पढ़ कर भी संबुद्ध हो सकता है।

लेकिन वह अपवाद है, नियम नहीं। ऐसा कभी—कभी हुआ है. यदि व्यक्ति सच में सजग है तो पुस्तक भी मदद दे सकती है; और यदि तुम गहरी नींद में सोए हो, तो बुद्ध भी व्यर्थ हो जाते हैं; बुद्ध भी कोई मदद नहीं कर सकते—तुम उनके सामने ही खर्राटे भरते रहते हो, क्या कर सकते हैं वे? एक जीवंत बुद्ध व्यर्थ हो जाते हैं तुम्हारे लिए यदि तुम सोए रहो। लेकिन यदि तुम सजग हो, तो एक निष्प्राण पुस्तक भी सहायक हो सकती है। यह तुम पर निर्भर करता है।

और कठिन है ऐसा व्यक्ति खोज पाना जो केवल पुस्तकें पढ़ने से ही जाग गया हों—लेकिन संभावना है। यह करीब—करीब असंभव ही है, लेकिन असंभव भी घटता है।

ग्यारहवां प्रश्न :

 

यदि सत्संग अर्थात संबुद्ध व्यक्ति की मुक्त व्यक्ति की उपस्थिति में होना इतना महत्वपूर्ण है? तो क्यों हम दिन में केवल एक—डेढ़ घंटा ही एक— दूसरे के साथ रहते हैं?

ससे ज्यादा तुम्हारे लिए बहुत ज्यादा हो जाएगा; अपच हो जाएगा। इससे ज्यादा तुम मुझे पचा न पाओगे। मैं तो तुम्हारे साथ चौबीस घंटे हो सकता हूं लेकिन तुम नहीं हो सकते। तुम्हें होम्योपैथिक खुराकें चाहिए।

बारहवां प्रश्न :

 

कल सुबह आपने योग—उपलब्धि के आठ चरणों पर चर्चा की और जोर दिया कि पहले चरण से आठवें चरण तक उसी क्रम में बढ़ना होता है। क्या किसी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं कि पहले किन्हीं दूसरी अवस्थाओं तक पहुंचे और फिर अपने क्रम में बडे—उन सभी आठों को पाने के लिए?

 

सा संभव है। लेकिन जब मैं कहता हूं संभव है तो मेरा मतलब है : केवल कभी—कभी ही; बहुत दुर्लभ है बात। प्रत्येक नियम के साथ सदा अपवाद होते हैं, लेकिन जब पतंजलि बोलते हैं, तब वे सामान्य नियम के विषय में बोलते हैं, अपवाद के विषय में नहीं। अपवाद के, विशिष्ट के विषय में बोलने की तो जरूरत ही नहीं है। मनुष्यता का वृहत समूह कहीं से किसी और ढंग से नहीं पहुंच सकता। उन्हें बढ़ना होगा चरण—दर—चरण—एक से दूसरे तक, दूसरे से तीसरे तक। वे एक—एक सीढ़ी चढ़ते हैं। लेकिन ऐसे अनूठे लोग हैं जो छलांग ले सकते हैं—लेकिन फिर उन्हें भी वापस आना होगा और पीछे छूटे हिस्से को पूरा करना होगा। उनका कम भिन्न हो सकता है, वह संभव है।

तुम प्राणायाम से शुरू कर सकते हो, लेकिन फिर तुम्हें आसन तक आना होगा, तुम्हें यम तक आना होगा। तुम ध्यान से शुरू कर सकते हो, लेकिन फिर तुम्हें दूसरे हिस्सों को पूरा करना होगा जो पीछे छूट चुके हैं। लेकिन आठों को पूरा करना होता है और आठों के बीच एक समस्वरता को विकसित करना होता है, ताकि तुम एक जीवंत इकाई हो सको।

ऐसा होता है कई बार कि कोई व्यक्ति सारे चरणों को पूरा किए बिना ही सातवें तक पहुंच जाता है, लेकिन कोई भी सारे चरणों को पूरा किए बिना आठवें तक नहीं पहुंचा है। सातवें तक संभावना है—तुम कुछ चरण छोड़ सकते हो और कुछ को पूरा कर सकते हो और पहुंच सकते हो सातवें तक—लेकिन तब तुम वहां अटके रहोगे। ध्यान तक तो तुम पहुंच सकते हो, लेकिन समाधि तक नहीं, क्योंकि समाधि को चाहिए तुम्हारी संपूर्ण सत्ता—परिपूर्ण, कुछ भी पीछे न छूटा हुआ, कोई चीज अधूरी न छूटी हुई—हर चीज संपूर्ण। फिर तुम्हें सातवें पर बहुत देर अटके रहना पड़ेगा, और तुम्हें वापस जाना होगा और वे चरण पूरे करने होंगे जो अधूरे हैं। जब तुमने सातवें तक की हर चीज पूरी कर ली होती है, केवल तभी आठवां चरण, समाधि, संभव होता है।

अंतिम प्रश्न :

 

ऐसा कैसे होता है कि चोग्याम त्रुंगपा जैसे महान गुरु त्यौहारों के अवसर पर शराब में इतने धुत हो जाते हैं कि उन्हें उठा कर घर लाना पड़ता है? क्या मनोरंजन के लिए किया गया शराब का प्रयोग खोजियों की सजगता को डांवाडोल कर सकता है?

तुम से कहा किसने कि यह आदमी गुरु है? वह उस परंपरा से संबंधित है जिसमें बहुत गुरु हुए हैं, लेकिन वह मृत बोझ ही ढो रहा है। और यही मुसीबत है, क्योंकि जिस परंपरा से वह संबंधित है उसमें मारपा, मिलारेपा, नरोपा, तिलोपा जैसे व्यक्ति हुए हैं, बड़े पहुंचे हुए सिद्ध हुए हैं, और वे सभी शराब पीते थे—अब यह एक बारीक बात है—लेकिन वे कभी भी शराब में धुत नहीं हुए। वे पीते थे, लेकिन वे कभी पीकर बेहोश नहीं हुए।

यह तंत्र की साधनाओं में से एक साधना है, एक विधि है. तुम्हें शराब की मात्रा को बढ़ाते जाना है और उसका अभ्यास करना है, लेकिन होश बनाए रखना है। पहले तुम केवल चम्मच भर लेते हो और होशपूर्ण रहते हो; फिर दो चम्मच, फिर तीन चम्मच, फिर तुम बढ़ाते जाते हो। फिर तुम पूरी बोतल पी जाते हो। लेकिन अब तुम्हारा इतना अभ्यास हो जाता है कि तुम्हारा होश नहीं खोता। तब शराब से काम नहीं चलेगा; तब तुम ज्यादा खतरनाक नशों की ओर बढ़ते हो।

तंत्र की परंपरा में एक ऐसा समय आता था जब जहरीले सांपों का उपयोग किया जाता था, क्योंकि व्यक्ति इतना आदी हो जाता था सभी तरह के मादक द्रव्यों का। तब अंतिम परीक्षा होती थी कोबरा सांप की। तब कोबरा सांप से उस आदमी की जीभ पर कटवाया जाता था। फिर भी वह साधक होश में रहता था।

यह एक गढ़ परीक्षा थी और एक विकास था. अब तुमने चेतना की ऐसी संगठित अवस्था पा ली है कि सारा शरीर भर जाता है शराब से, लेकिन वह तुम्हें प्रभावित नहीं करती। यह शरीर से पार जाने का एक सूत्र था तंत्र में; यह है शरीर से पार जाने की एक विधि—तंत्र के लिए।

यह व्यक्ति उस परंपरा से आता है, इसलिए शराब पीने की उसे स्वीकृति है परंपरा से, लेकिन यदि वह होश खो देता है तो वह पूरी बात ही चूक जाता है। वह गुरु नहीं है; वह जागा हुआ नहीं है। लेकिन अमरीका में अब हर चीज संभव है। पुरानी परंपरा को न जानने से वह कह सकता है लोगों से, ‘हमारे गुरु भी पीते रहे हैं।’

तंत्र में उन सभी चीजों का स्वीकार है जिनका सामान्यत: निषेध होता है। तांत्रिक को अनुमति है मांस खाने की, साधारणतया यह निषिद्ध है; उसे अनुमति है शराब पीने की, साधारणतया यह निषिद्ध है; उसे अनुमति है संभोग में उतरने की, साधारणतया साधक के लिए इसकी मनाही है। हर वह चीज जो साधारणतया वर्जित है साधक के लिए, तंत्र में उसकी स्वीकृति है, लेकिन स्वीकृति है ऐसी शर्तों के साथ कि यदि तुम शर्तों को भूल जाते हो तो तुम पूरी बात ही चूक जाते हो।

व्यक्ति संभोग में उतर सकता है, लेकिन स्खलन नहीं होना चाहिए। यदि स्खलन होता है, तो वह साधारण कामवासना हुई; तब वह तंत्र नहीं। यदि तुम संभोग में उतरते हो और कोई स्खलन नहीं होता, घंटों तुम रहते हो स्त्री के साथ और कोई स्खलन नहीं होता, तो यह तंत्र है। तो यह एक उपलब्धि है।

शराब पीने की अनुमति है, लेकिन होश खोने की अनुमति नहीं है। यदि तुम होश खो देते हो तो तुम साधारण शराबी हों—तंत्र को बीच में लाने की आवश्यकता नहीं है।

मांस की स्वीकृति है; तुम्हें खाना पड़ता है मांस—कई बार तो मनुष्य का मांस भी, मुर्दों का मांस—लेकिन तुम्हें विरक्त रहना होगा। तुम्हें अविचलित रहना होगा—तुम्हारी चेतना में एक कंपन तक नहीं होना चाहिए कि ‘कुछ गलत…।’

तंत्र कहता है कि प्रत्येक बंधन के पार जाना है, और अंतिम बंधन है नैतिकता—उसके भी पार जाना है। जब तक तुम नैतिकता के पार नहीं चले जाते तुम संसार के पार नहीं गए होते। तो भारत जैसे देश में जहां कि शाकाहार बहुत ही गहरे तल तक उतर चुका है भारतीय चेतना में, मास खाने की अनुमति थी, लेकिन यह उस ढंग की अनुमति न थी जैसे कि मांस खाने वाले खाते हैं। व्यक्ति को जीवन भर तैयार होना पड़ता था इसके लिए। उसे शाकाहारी रहना पड़ता था; साधक के रूप में उसे शाकाहारी रहना पड़ता था।

वर्षों बीत जाएंगे—दस वर्ष, बारह वर्ष वह शाकाहारी रहा, उसने संभोग नहीं किया किसी स्त्री के साथ, उसने कोई शराब नहीं पी और उसने किन्हीं और नशों का सेवन नहीं किया। फिर बारह वर्ष, पंद्रह वर्ष बाद, बीस वर्ष बाद, गुरु उसे अनुमति देगा कि अब उतरो कामवासना में, लेकिन ऐसी श्रद्धा से स्त्री का संग करो कि स्त्री देवी जैसी ही हो; यह कामुकता नहीं होती। और उस आदमी को जो कि स्त्री के संग होता है, उसकी पूजा करनी होती है, उसके पांव छूने होते हैं। और यदि हलकी सी भी कामवासना उठने लगती है, तो वह अयोग्य हो जाता है; तो वह अभी इसके लिए तैयार नहीं है।

यह एक बड़ी तैयारी थी और बड़ी परीक्षा थी—कठिनतम परीक्षा थी जो कि कभी निर्मित की गई मनुष्य के लिए। कोई आकांक्षा नहीं, कोई वासना नहीं, उसे स्त्री के प्रति ऐसी भाव—दशा रखनी पड़ती जैसे कि वह उसकी मां हो। यदि गुरु कहता है, और देखता है कि वह ठीक है—अब वह बच्चे की भांति प्रवेश कर रहा है स्त्री में, पुरुष की भांति नहीं, और बच्चे की ही भांति वह भीतर रहता है स्त्री के, उसमें कोई कामवासना नहीं उठ रही होती : उसकी श्वास प्रभावित नहीं होती; उसकी शरीर—ऊर्जा प्रभावित नहीं होती, घंटों वह स्त्री के साथ रहता है और कोई स्खलन नहीं होता; एक गहन मौन छाया रहता है—यह एक गहन ध्यान है।

बीस वर्षों तक शाकाहारी रहने के बाद अचानक तुम्हें मांस दिया जाता है खाने के लिए : तुम्हारे पूरे प्राण विकर्षण अनुभव करेंगे। यदि तुम विचलित अनुभव करते हो तो तंत्र कहता है, ‘तुम अस्वीकृत हुए। अब इसके पार जाओ। अब जो कुछ भी दिया जाए, उसे अनुग्रहपूर्वक स्वीकार करो।’ तुम जानते हो कि यदि तुम एक वर्ष तक शाकाहारी रहे हो और अचानक मांस सामने आ जाए, तो तुम उबकाई अनुभव करने लगोगे, मितली आने लगेगी। यदि ऐसा होता है, तो उसका मतलब है कि व्यक्ति अभी भी विचारों में जी रहा है—क्योंकि यह केवल एक विचार ही है कि यह मांस है और यह सब्जी है। शाक—सब्जी भी मांस है, क्योंकि वह वृक्ष के शरीर से आती है; और मांस भी वनस्पति है, क्योंकि वह मनुष्य—शरीर या पशु—शरीर के वृक्ष से आता है। तो यह नैतिकता का अतिक्रमण है।

और फिर उसे तेज नशों के लिए तैयार किया जाता। यदि वह वस्तुत: सजग है तो उसे कुछ भी दिया जाएगा, वह शरीर के रसायन को बदलेगा, लेकिन चेतना को नहीं बदल सकता; उसकी चेतना शरीर के रसायन के ऊपर ही बनी रहेगी।

गुरजिएफ खूब शराब पीया करता था—जितनी तुम सोच सकते हो उतनी शराब पीता था। लेकिन कभी भी होश नहीं खोता था, कभी भी बेहोश नहीं होता था। वह तांत्रिक गुरु था। यदि तुम पश्चिम में किसी में रस लेना चाहते हो तो वह है जार्ज गुरजिएफ—कोई तिब्बती शरणार्थी नहीं।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेंल–(झेनकथा) प्रवचन–18

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वासना-रहितता और विशुद्ध इंद्रियां—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक 8 जुलाई 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

संत उत्झूगेन ने एक दिन अपने शिष्यों से कहा,

‘तुम में से प्रत्येक के पास एक जोड़ा कान है,

लेकिन उनसे तुमने क्या कभी कुछ सुना?

प्रत्येक के पास मुंह हैं, लेकिन उससे तुमने क्या कभी कुछ कहा?

और प्रत्येक के पास आंखें हैं, उनसे क्या कभी कुछ देखा?’

‘नहीं-नहीं। तुमने न कभी सुना है, न कभी कहा है, न कभी देखा है, न कभी सूंघा है।

लेकिन ऐसी हालत में ये रंग, रूप, स्वर और सुगंध आते कहां से हैं?’

 ह झेन सदगुरु जीसस के वचन को दोहरा रहा है। जीसस बोलते थे, तो पहली बात अपने शिष्यों को कहते थे; ‘अगर कान हों तो सुनो; आंखें हों तो देखो; समझ हो तो समझ लो।’

या कभी कहते कि ‘जिनके पास आंखें हों, वे देख लें। और जिनके पास कान हों, वे सुन लें।’

जो भी सुनने वाले थे, सभी के पास कान थे। जो भी सामने बैठे थे, सभी के पास आंखें थीं। जीसस का क्या प्रयोजन होगा?

तुम मेरे सामने बैठे हो। कान हैं तुम्हारे पास, आंखें हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम जो देखते हो, वह वही नहीं हैं जो है। और तुम जो सुनते हो, वह वही नहीं है, जो कहा गया। तुम्हारी वासना तुम्हारी दृष्टि में मिश्रित हो जाती है। तुम्हारे विचार तुम्हारे श्रवण के साथ घुल-मिल जाते हैं। तुम सभी कुछ अशुद्ध कर लेते हो।

बहुत प्रसिद्ध फकीर हुआ, यहूदी–बालसेन। बालसेन के शिष्य जो भी बालसेन बोलता था, लिखते थे। बालसेन अकसर उनसे कहता कि लिख लो, जो मैंने कहा ही नहीं। और यह भी लिख लेना, तुम वही लिख रहे हो, जो मैंने कहा नहीं है।

बालसेन को समझा भी तो नहीं जा सकता। क्योंकि समझ शब्दों से नहीं आती, तुम्हारे अनुभव से आती है। तुम वही तो सुनोगे जो तुम सुन सकते हो।

एक दिन ऐसा हुआ कि बालसेन बोलता ही गया। सुननेवाले थक गए। और थोड़ी ही देर में सुनने वालों के हाथ से सब सूत्र खो गए। यह समझ में ही न आया कि वह क्या बोलता है? कहां बोल रहा है? क्यों बोल रहा है? फिर धीरे-धीरे लोगों के काम का समय हो गया। मंदिर खाली होने लगा। लोगों की दुकानें खुलने का वक्त आ गया। आफिस, दफ्तर लोग भागे। आखिर में बालसेन अकेला रह गया। जब आखिरी आदमी जा रहा था तो उसने कहा कि, ‘रुक! क्या मेरी जान लेगा?’ उस आदमी ने कहा, कि ‘मैं क्यों आपकी जान लूंगा? मैं तो जा रहा हूं। सब लोग जा चुके हैं।’

बालसेन ने कहा कि ‘मेरी हालत तुमने वैसी कर दी, जैसे कोई आदमी सीढ़ी पर चढ़े। तुम्हें जहां तक दिखाई पड़ा, तुम सीढ़ी को सम्हाले रहे। लेकिन यह सीढ़ी वहां है, जो ज्ञात से अज्ञात तक जाती है। और जैसे ही मैं तुम्हारी आंखों के पार हुआ, तुम सीढ़ी छोड़कर जाने लगे। मेरी जान लोगे? मैं तो चढ़ गया अज्ञात पर और तुम सब भागे जा रहे हो। सीढ़ी सम्हालने वाला तक कोई नहीं। तो तू जब तक रुका था, तो मैंने सोचा कम से कम एक तो मौजूद है, जो सीढ़ी को सम्हाले रखेगा। तब तक मैं कुछ न बोला। कम से कम मुझे नीचे तो उतर आने दे!’

बुद्ध जहां से बोलते हैं वह सीढ़ी का वह हिस्सा है, जो अज्ञात से टिका है। तुम जहां खड़े हो वह सीढ़ी का वह हिस्सा है, जो ज्ञात की पृथ्वी से टिका है। तुम्हारे बीच संवाद तो होना असंभव है। बुद्ध जो कहेंगे, तुम वह न समझ पाओगे। तुम जो समझोगे, वह बुद्ध ने कभी कहा नहीं।

इसलिए महावीर या बुद्ध के पास जब भी कोई आता तो वे कहते हैं, इसके पहले कि मैं बोलूं, तू सुनने की कला सीख ले। मेरे बोलने से कुछ सार नहीं है। क्योंकि मैं जो भी कहूंगा वह गलत समझा जाएगा। और गलत समझा गया ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक है। अज्ञानी तो विनम्र होता है, भयभीत होता है, डरता है; सोचता है कि मुझे कुछ पता नहीं है, लेकिन अर्ध-ज्ञानी अहंकार से भर जाता है। और उसे लगता है, मुझे पता है। और एक दफे जिसे खयाल हो गया मुझे पता है और पता नहीं है, उसका भटकना सुनिश्चित है।

इस बात को हम ठीक से समझ लें। ‘सम्यक श्रवण’ का, ‘राईट लिसनिंग’ का क्या अर्थ होगा? सम्यक श्रवण का अर्थ होगा, जब कोई बोलता हो, तब तुम सिर्फ सुनो। तब तुम सोचो मत। क्योंकि तुमने सोचा कि एक धुआं खड़ा हो गया। तुमने सोचा, कि तुम्हारे विचार मिश्रित होने लगे। तुमने सोचा कि तुम्हारा मन खिचड़ी की भांति हो गया। तुमने सोचा, कि तुम सुनोगे कैसे?

मन एक साथ एक ही काम कर सकता है। मन की क्षमता दो काम एक साथ करने की नहीं है। और जब कभी तुम दो काम भी करते हो, तब भी तुम समझ लेना; एक क्षण मन एक काम करता है फिर तुम दूसरा काम करते हो। फिर एक काम करता है। लेकिन एक क्षण में मन एक ही काम करता है। तुम बदल सकते हो। तुम मुझे सुनो एक क्षण में फिर एक क्षण सोचो; फिर मुझे सुनो, फिर सोचो। ऐसा तुम कर सकते हो, लेकिन जितनी देर तुम सोचोगे, उतनी देर तुम मुझे चूक जाओगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि आवाज तुम्हारे कानों में न पड़ेगी, आवाज तो पड़ेगी; कान झंकृत होंगे, शब्द सुने जाएंगे, लेकिन समझे न जा सकेंगे।

तुम्हारे घर में आग लग गई हो, रास्ते पर कोई गीत गा रहा हो, क्या तुम वह गीत सुन सकोगे? गीत सुनाई तो पड़ेगा लेकिन तुम न सुन सकोगे। तुम वहां मौजूद नहीं। तुम्हारे घर में आग लगी है, तुम चिंता से भरे हो; तुम्हारे मन में लपटें उठ रही हैं। भविष्य, अतीत सब सामने खड़ा हो गया है; अब क्या होगा? तुम भयातुर हो, तुम पत्ते की तरह कंप रहे हो तूफान में; तुम गीत सुन सकोगे? गीत कान पर पड़ेगा, आवाज तो टकराएगी, ध्वनि तो सुनी जाएगी, लेकिन अगर बाद में कोई तुमसे पूछेगा कि ‘कौन-सा गीत गाया गया था?’ तुम कहोगे, ‘कैसा गीत! किसने गाया?’

घर में आग लग गई है, और तुम भागे जा रहे हो, रास्ते पर लोग नमस्कार करेंगे, क्या तुम उनकी नमस्कार सुन सकोगे? यह भी हो सकता है कि तुम जवाब भी दो, फिर भी तुमने सुना नहीं। यह भी हो सकता है कि हाथ यंत्रवत उठें और नमस्कार का उत्तर दे दें। आदत के कारण एक आटोमेटिक, यंत्रवत तुम व्यवहार कर लो, लेकिन नमस्कार न तो तुमने सुनी, न तुमने जवाब दिया। तुम सोए हुए थे। तुम वहां थे ही नहीं।

सम्यक श्रवण का अर्थ होगा, जब बोला जाए तब तुम चुप रहो। तुम्हारे भीतर की जो अंतर्वाता है, वह मौन हो जाए। तुम्हारे भीतर कोई तरंगें न चलती हों। तब तुम्हारा सुनना शुद्ध होगा। तभी बुद्ध कहेंगे, झेन फकीर कहेंगे कि तुमने सुना, तुमने कानों का उपयोग किया। तुम जब देखते हो तब तुम देखते ही नहीं हो, तुम जो देखते हो, उसके ऊपर प्रक्षेप भी करते हो; प्रोजेक्ट भी करते हो।

रास्ते से एक सुंदर स्त्री गुजरती है; तुमने देखा, तुम कहते हो सुंदर है। लेकिन सौंदर्य तो तुम्हारी वासना में होगा कहीं। शरीर न तो सुंदर होते हैं और न कुरूप। जब वासना मन में भरी होती है, तो आंखों से वासना जाती है, शरीर पर पड़ती है, शरीर सुंदर हो जाता है। कुरूप से कुरूप स्त्री भी किसी क्षणों में सुंदर हो सकती है, अगर मन वासना से भरा हो।

मैंने सुना है कि एक सेनापति युद्ध के मैदान पर, अपने सैनिकों के साथ एक प्रयोग कर रहा था। और वह प्रयोग यह था कि वह उन्हें अत्यंत कुरूप स्त्रियों के नग्न चित्र देखने को देता था। लोग हाथ में उठाते और पटक देते। चित्र कुरूप ही नहीं थे, वीभत्स भी थे; देखकर मन ग्लानि से भर जाए। उसके एक मित्र ने पूछा, ‘यह तुम क्या कर रहे हो?’

उसने कहा कि ‘यह चित्र कुछ दिन देखने के बाद जब युद्ध के मैदान पर सैनिक घर से लौटता है, तो पटक देता है, देखता नहीं। लेकिन महीने-पंद्रह दिन में इन चित्रों में भी सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। और जब मैं देखता हूं कि इन चित्रों में भी देखने में रस आने लगा तब मैं समझता हूं, अब इस सैनिक को छुट्टी देने का वक्त आ गया, इसको घर भेजना चाहिए। अब स्त्री का अभाव इतना ज्यादा हो गया कि अब यह कुरूप और वीभत्स स्त्री भी सुंदर मालूम पड़ने लगी।’

चित्र वही है। आंख अब वासना को फेंक रही है। तुम सोचते हो कि स्त्री सुंदर है इसलिए तुम्हें प्रेम हो जाता है, तो तुम गलती में हो। तो तुम्हें जीवन का कुछ भी पता नहीं है। प्रेम के कारण स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, प्रेम के कारण सुंदर नहीं होती। जब प्रेम खो जाएगा, तो यही सुंदर स्त्री साधारण हो जाएगी।

मैंने सुना है, एक आदमी अपने घर लौटा। और उसने पाया कि उसका निकटतम मित्र उसकी पत्नी का चुंबन ले रहा है। मित्र घबड़ा गया। उस आदमी ने कहा, घबड़ाओ मत। मैं सिर्फ एक ही प्रश्न पूछना चाहता हूं। मुझे चुंबन लेना पड़ता है क्योंकि यह मेरी पत्नी है। लेकिन तुम क्यों ले रहे हो? तुम पर कौन-सा कर्तव्य आ पड़ा है?

आदमी की वासना जैसे ही चुकती है, सौंदर्य खो जाता है।

दो शराबी एक शराबघर में बैठकर बात कर रहे थे। आधी रात हो गई और एक शराबी दूसरे से कहता है, ‘इतनी रात तक बाहर रुकते हो, पत्नी नाराज नहीं होती?’ तो उस दूसरे आदमी ने कहा, ‘पत्नी? मैं विवाहित नहीं हूं।’ तो उस पहले आदमी ने कहा, ‘तुम और चकित करते हो। अगर विवाहित ही नहीं तो, इतनी रात तक यहां रुकने की जरूरत क्या है?’

लोग पत्नियों से बचने के लिए ही तो आधी-आधी रात तक शराबघरों में बैठे हैं! उस शराबी ने कहा, तुम मुझे हैरान करते हो। अगर विवाहित ही नहीं हो तो इतनी रात तक यहां किसलिए रुके हो?

जिससे हम परिचित हो जाते हैं, उसी से आकर्र्षण खो जाता है। इसलिए वासना को जो भी मिल जाता है, वही व्यर्थ हो जाता है। जो दूर है, वह सुंदर लगता है। जो पास है, वह कुरूप हो जाता है। जो हाथ में है, वह असार मालूम पड़ता है। जो हाथ के बाहर है, बहुत पार है, जिसको हम पा भी नहीं सकते जो हमारी पहुंच से बहुत दूर है उसका सौंदर्य सदा बना रहता है।

आंखें सिर्फ अगर देखें, और जो देखें उसमें कुछ डालें ना, तो आंखों ने देखा। लेकिन तुम कैसे देखोगे? तुम्हारी आंखें डालने का काम ही कर रही हैं। तुम्हारी आंखें धागे भी फेंक रही हैं वासनाओं के। तो तुम जो भी देखते हो, उस पर तुम्हारी वासना भी तुम फेंक रहे हो। आंख इकहरा मार्ग नहीं है, डबल-वे ट्रेफिक है। उसमें तुम्हारी आंख से भी कुछ जा रहा है। आंख में भी कुछ आ रहा है। ये दोनों मिश्रित हो रहे हैं। इन मिश्रित आंखों से जो देखा जाएगा, वह सत्य नहीं हो सकता।

इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, जब तुम्हारी आंखें शून्य हों और जब तुम्हारी आंखें कुछ भी जोड़ेंगी नहीं, तब सत्य तुम्हारे लिए प्रगट हो जाएगा। शून्य आंखें लेकर जाना, दर्पण की तरह आंखें लेकर जाना; तभी तुम जान सकोगे, जो है उसे।

यह झेन फकीर ठीक कह रहा है। यह अपने शिष्यों को कह रहा है, कि ‘तुम्हारे पास कान हैं, तुम्हारे पास आंखें हैं, लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं, तुमने कभी देखा? तुमने कभी सुना? तुम्हारे पास नाक है, तुमने कभी सुगंध ली?’

तुम्हारे पास इंद्रियां तो हैं, लेकिन जब तक इंद्रियों के पीछे वासना छिपी है, तब तक तुम्हारी इंद्रियां विकृत हैं।

बुद्ध पुरुष की इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं। यह सुनकर तुम्हें थोड़ी हैरानी होगी।

क्योंकि तुम तो सोचते रहे हो, सुनते रहे हो कि बुद्ध पुरुष की इंद्रियां रह ही नहीं जातीं। मैं तुमसे कहता हूं, बुद्ध पुरुष के पास ही इंद्रियां होती हैं, तुम्हारे पास तो इंद्रियां विकृत हैं। बुद्ध पुरुष की इंद्रियां शुद्ध होती हैं। उसकी आंख देखती है; सिर्फ देखती है। कुछ जोड़ती नहीं, अपनी तरफ से कुछ डालती नहीं।

तुम बड़ा अजीब खेल खेल रहे हो। तुम्हारी ही आंखें सौंदर्य को डाल देती हैं किसी की देह में, और फिर तुम उसके पीछे लग जाते हो। क्योंकि इतने सुंदर व्यक्ति को बिना पाए तुम कैसे रह सकते हो? तुम्हारा ही लोभ धन पर उतर जाता है, और धन की महिमा हो जाती है और फिर तुम धन के पीछे पागल हो जाते हो। तुम ही डालते हो और तुम ही फिर पागल हो जाते हो। तुम ही एक खेल रचते हो अपने चारों तरफ, और फिर उसमें दीवाने हो उठते हो।

बुद्ध पुरुष देखते हैं, सुनते हैं, स्वाद लेते हैं। उनकी गंध का क्या कहना! वे गंध का पूरा रस उपलब्ध करते हैं। लेकिन चूंकि भीतर कोई वासना नहीं है, चित्त निर्वासना से भरा है, चित्त वासना-मुक्त हो गया है; इसलिए उनकी आंखें, उनके कान शुद्ध द्वार होते हैं। बुद्ध पुरुष उनसे बाहर नहीं जाते, संसार उनसे भीतर आता है। उनकी आंखों से रोशनी भीतर उतरती है। लेकिन कोई वासना उनकी आत्मा को बाहर नहीं ले जाती।

बुद्ध पुरुष अपने में थिर रहते हैं। इंद्रियां शुद्धतम काम करती हैं। उनकी संवेदना परिपूर्ण हो जाती है। इसलिए अगर कोई पक्षी गीत गाएगा, तो जैसा गीत बुद्ध पुरुष सुनते हैं, तुम नहीं सुन पाओगे। तुम्हारे पास कान नहीं हैं। और जब वर्षा में वृक्ष हरे हो उठते हैं, तो बुद्धों ने जैसी हरियाली देखी है, तुम न देख पाओगे। तुम्हारे पास आंखें नहीं हैं। क्षुद्र से क्षुद्र में बुद्ध को विराट दिखाई पड़ेगा। आंखें तुम्हारे पास हों तो तुम्हें भी दिखाई पड़ेगा।

तुम पूछते हो, परमात्मा कहां हैं? अच्छा हो कि तुम पूछो कि मेरे पास आखें कहां हैं? तुम पूछते हो, कैसे सुनें कि वह अमृत वाणी सुनाई पड़े, ओंकार की ध्वनि गूंजे? पूछो कि तुम्हारे पास कान नहीं हैं। कान कैसे पाओ? क्योंकि ओंकार चारों तरफ गूंज रहा है। जिसके पास कान शुद्ध हैं, उसे ओंकार के सिवाय कुछ और सुनाई पड़ता ही नहीं। जिसके पास आंखें शुद्ध हैं, पदार्थ खो जाता है, परमात्मा प्रगट हो जाता है। यह शुद्ध आंखों का दर्शन है। जो सूंघ सकता है, उसे परमात्मा की गंध के सिवाय दूसरी गंध सूंघने में नहीं आती।

अब हम ऐसा कह सकते हैं, अशुद्ध आंखों से जब हम देखते हैं, तो पदार्थ दिखाई पड़ता है। परमात्मा शुद्ध आंखों की प्रतीति है। अशुद्ध कानों से सुनते हैं, शब्द सुनाई पड़ते हैं। शुद्ध कानों से सुनते हैं, सत्य सुनाई पड़ता है।

इंद्रियां तुम्हारी शत्रु नहीं हैं। लेकिन शुद्ध इंद्रियां चाहिए। तुम एक ऐसी दूरबीन लिए बैठे हो, जो विकृत है। उससे तुम जो भी देखते हो, वह विकृत हो जाता है।

इंद्रियों का शुद्धिकरण योग है।

और जितनी ही तुम्हारी इंद्रियां शुद्ध होती जाती हैं, उतना ही तुम्हारा प्रत्यक्ष निर्मल होता जाता है।

ऐसा हुआ, मगीध नाम का एक यहूदी फकीर जंगल में भटक गया–कहानी है। कहानी बड़ी मीठी है। शैतान ने उसे भटका दिया। क्योंकि मगीध से शैतान बड़ा परेशान था। यह उसकी सुनता ही नहीं था। और हजार उपाय करता था, सब असफल हो जाते थे। तो मगीध और उसके एक शिष्य जो जंगल से गुजर रहे थे, उनको शैतान ने रास्ता भटका दिया। जंगल में भटक रहे हैं, रास्ता मिलता नहीं है। और बड़ा हैरान हुआ मगीध, कि उसकी स्मृति खोती जा रही है। वह जो भी जानता था, वह भूलता जा रहा है।

उसने अपने शिष्य को कहा कि ‘यह तो बड़ी मुश्किल मालूम होती है। यह शैतान का हाथ मालूम होता है। मैं जो भी जानता था, वह भूल रहा है। सब शास्त्र खो गए, सब प्रक्रियाएं खो गईं, मेरी शक्ति छिनती जा रही है। तू कुछ कर! तूने मुझे इतना सुना है, कुछ तो तुझे याद होगा! उसमें से कुछ बोल। कोई प्रार्थना, जो मैं रोज करता था।’

उस शिष्य ने कहा, ‘अगर मेरे पास कान होते, तो मैं तुम्हारी प्रार्थना भी सुनता। मैंने सुनी हैं प्रार्थनाएं, लेकिन वह मैंने मेरी तरह से सुनी हैं। वह ठीक नहीं हो सकतीं। और जब तुम्हारी ठीक प्रार्थनाएं भटक गईं, तो मेरी गैर-ठीक प्रार्थनाएं क्या काम आएंगी? मैं भी भूलता जा रहा हूं, मैं भी घबड़ा गया हूं।’

मगीध ने कहा, ‘तुझे कुछ तो याद होगा मेरे सुने हुए में से’। उसने कहा, ‘तुम जोर ही देते हो तो सिर्फ अल्फाबेट–ए, बी, सी, डी: अलीफ, बे–बस, वही मुझे याद है। आ, बा, सा, दा, बस वही मुझे याद है। और तो सब मुझे भूल गया है।’

तो मगीध ने कहा, ‘कोई हर्जा नहीं। देर मत कर! इसके पहले कि वह भी भूल जाए, तू जोर से अलीफ, बे का पाठ शुरू कर। वर्णमाला का पाठ शुरू कर।’

शिष्य ने आज्ञा मानी। उसने ए, बी, सी, डी का पाठ जोर से शुरू किया। मगीध उसके पीछे पाठ को दोहराने लगा। मगीध दोहराने में ऐसा तल्लीन हो गया, समाधिस्थ हो गया। शैतान छोड़कर भाग खड़ा हुआ। क्योंकि ऐसे तन्मय चित्त के पास शैतान नहीं टिक सकता। परमात्मा के फूलों की वर्षा होने लगी। सब ज्ञान वापिस लौट आया। मगीध के शिष्य ने पूछा, ‘यह तो चमत्कार कर दिया! सिर्फ वर्णमाला के पाठ से!’

मगीध ने कहा, ‘सभी शास्त्रों में जो है, वह वर्णमाला से ज्यादा नहीं। वर्णमाला में सभी कुछ आ जाता है, कुछ बचता नहीं। और फिर मैंने जब पूरी वर्णमाला दोहरा दी, तो मैंने परमात्मा से कहा कि अब तू ठीक से जमा ले। प्रार्थना तो मेरी तुझे पता ही है। यह वर्णमाला यह रही, तू जमा ले। और उसने जमा दिया। और प्रार्थना पूरी हो गई।’

अगर भाव हो तो वर्णमाला वेद हो जाती है। अगर भाव न हो तो वेद भी वर्णमाला से ज्यादा नहीं है। अगर निर्विचार चित्त हो तो मंत्रों की जरूरत नहीं। निर्विचार चित्त में अ, ब, स का पाठ भी कर लिया जाए, तो मंत्र हो जाते हैं। और विचार से भरे चित्त में तुम कितने ही मंत्र दोहराओगे, सब व्यर्थ हो जाते हैं। तुम कितना ही ओंकार का पाठ करो, ओम-ओम दोहराओ, यह सब ऊपर-ऊपर है, भीतर तुम्हारी वासनाएं दौड़ रही हैं। और तुम्हारी वासनाएं तुम्हारे ओम को विकृत कर रही हैं। उनका धुआं घना है। वहां ओम की ज्योति जल नहीं सकती।

इस गुरु ने ठीक कहा अपने शिष्यों को कि तुम्हारे पास कान तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन हैं नहीं। तुम्हारे पास आंखें तो दिखाई पड़ती हैं, लेकिन हैं नहीं।

और फिर उसने एक बहुत अजीब सवाल पूछा और उसने कहा कि अगर तुम्हारे पास न कान है, न आंख है, न नाक है, तो मैं तुमसे पूछता हूं यह गंध, यह रूप, यह रंग, कहां से पैदा हो रहा है?

कहानी यहीं पूरी हो जाती है। बड़ा गहरा सवाल उसने उठाया। यह संसार जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है, अगर तुम्हारे पास देखने के यंत्र ही नहीं हैं तो यह संसार कहां से पैदा हो रहा है? तुम भी देख तो रहे हो कि वृक्ष हरा है। तुम भी देख तो रहे हो कि फूल में गंध है और रंग है। अगर तुम्हारी आंखें और कान और तुम्हारी इंद्रियां सब बंद पड़ी हैं, विकृत पड़ी हैं, तो यह इतना बड़ा संसार कैसे पैदा हो रहा है?

ज्ञानी कहते हैं कि यह संसार तुम्हारी वासना से पैदा हो रहा है। इसलिए शंकर इसे माया कहते हैं। माया का अर्थ है, स्वप्नवत है; तुमने पैदा किया है। तुम वह नहीं देख रहे हो, जो है। तुम वही देख रहे हो, जो तुम चाहते हो। यह तुम्हारी चाह का फैलाव है। जिस दिन तुम्हारी चाह समाप्त हो जाएगी, उस दिन तुम उसे देखोगे, जो है। और जो है, वह बड़ा अलग है।

यहां वृक्ष नहीं हैं, यहां परमात्मा ही फूलों में खिल रहा है। यहां आकाश में बादल नहीं भटक रहे हैं, यहां परमात्मा ही आकाश में भटक रहा है। यहां कंकड़-पत्थर नहीं पड़े हैं, यहां परमात्मा की प्रतिमाएं ही हैं–लेकिन जिस दिन तुम चाह का फैलाव न करोगे, तुम्हारा प्रोजेक्शन न होगा।

फिल्मगृह में तुमने प्रोजेक्टर देखा है; प्रोजेक्टर पीछे लगा होता है। उसकी तरफ तो तुम देखते भी नहीं, परदे पर आंख लगी होती है। और परदे पर कुछ भी नहीं होता, धूप-छाया का खेल होता है। असली चीज तो प्रोजेक्टर है। वह पीछे से चित्र फेंक रहा है। परदे पर चित्र बन रहे हैं। परदा खाली है, लेकिन चित्रों से ढंक जाता है।

तुम्हारा मन तो पर्दे से ज्यादा नहीं है। और तुम्हारी वासना प्रक्षेपण कर रही है। तुम्हारी वासना तुम्हें जो दिखाना चाहती है, वह तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। इसलिए अगर तुम बहुत वासना से भर जाओ कृष्ण की, तो कृष्ण भी तुम्हें दिखाई पड़ने लगेंगे। लेकिन तुम यह मत सोचना कि कृष्ण तुम्हें मिल गए। यह कृष्ण भी उसी माया का हिस्सा है। तुमने इतना चाहा कि वह दिखाई पड़ने लगे। तुम्हारी चाह ने उन्हें पैदा कर लिया।

जीसस के भक्त को जीसस दिखाई पड़ जाते हैं, कृष्ण कभी दिखाई नहीं पड़ते। कृष्ण के भक्त को कृष्ण दिखाई पड़ते हैं; राम दिखाई नहीं पड़ते। बुद्ध के भक्त को बुद्ध दिखाई पड़ते हैं; कृष्ण, जीसस का कोई पता नहीं चलता। क्या हो रहा है?

यह अनुभूति, अनुभूति नहीं है। यह प्रक्षेपण है। कृष्ण का भक्त अपनी सारी चाह को एकाग्र करके कृष्ण की मांग कर रहा है। अगर तुम मांगे ही चले जाओ–भूखे, प्यासे, दिन और रात; न सोओ, न चैन लो, तुम अपने सारे मन में एक ही गूंज से भर जाओ: ‘कृष्ण–कृष्ण–कृष्ण’…आज नहीं कल, कितनी देर लगेगी? तुमने इतना बड़ा संसार पैदा कर लिया, तुम छोटे-से कृष्ण को भी पैदा कर लोगे। तुम उनसे बातें करोगे, खेलोगे; और ऐसा नहीं कि तुम ही बोलोगे, तुम्हारे कृष्ण तुम्हें उत्तर भी देंगे। लेकिन तुम ही! वह मोनोलॉग है। तुम एकालाप कर रहे हो। कोई वहां कृष्ण बोलने वाला नहीं, तुम दोनों तरफ से जवाब दे रहे हो।

मन की क्षमता अदभुत है। मन माया को निर्मित कर लेता है। इस बात को खयाल से समझ लो।

जब तक तुम्हारी चाह है, तब तक तुम सत्य को नहीं जान सकोगे। तब तक तुम जो भी जानोगे, वह माया है। इसलिए परमात्मा की चाह नहीं की जा सकती। और जो परमात्मा को चाहता है, वह भटक जाता है। परमात्मा को तो तब जाना जाता है, जब तुम्हारी कोई चाह नहीं बचती। इसलिए बुद्ध जैसे ज्ञानियों ने इनकार ही कर दिया। कह दिया कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई कृष्ण नहीं है, कोई राम नहीं है, बचो इन से। तुम एक ही काम करो सिर्फ, कि तुम अपनी चाह को काट डालो। फिर जो है, वह प्रगट हो जाएगा। तुम उसे नाम मत दो, अन्यथा तुम्हारी कल्पना उस नाम को पकड़ लेगी और तुम खेल में लग जाओगे।

रात तुम सपना देखते हो, तब सपने में सब सपना सच ही मालूम पड़ता है। कभी सपने में खयाल आता है कि यह सपना है? अगर कृष्ण के भक्त को और राम के भक्त को एक ही कमरे में बंद कर दो, तो रात कृष्ण का भक्त बांसुरी को बजते हुए सुनेगा, राम का भक्त बिलकुल नहीं सुनेगा। राम का भक्त देखेगा धनुर्धारी राम खड़े हैं। रातभर पहरा दे रहे हैं। कृष्ण के भक्त को इनका पता ही नहीं चलेगा। और पता चल जाए तो इनको निकाल बाहर करेगा कि यहां कमरे में तुम क्या कर रहे हो?

मन की गहनतम क्षमता है–प्रोजेक्शन; माया का फैलाव। तुम जो चाहते हो, वह दिखाई पड़ने लगेगा। तुम बड़े शक्तिशाली हो।

यह झेन गुरु पूछता है कि फिर कहां से हो रहा है रूप, रंग पैदा? यह आकृतियां कहां से निर्मित हो रही हैं, जब तुम न देखते, न तुम सुनते?

ये तुम्हारी वासना से फैल रही हैं। क्या ऐसे क्षण की कोई संभावना है, जब तुम निर्वासना से देख सको, सुन सको? उस दिन तुम्हें परम गंध का अनुभव होगा।

भक्तों ने, ज्ञानियों ने बहुत उल्लेख किए हैं; कि जब ज्ञान की आंख खुलती है, या हृदय के द्वार खुलते हैं, या जब वासना गिर जाती है, और चित्त निर्मल और निर्विकार हो जाता है तो ऐसी ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, जो अनाहत है।

एक तो ध्वनि है, जो आहत है। कोई ताली बजाए, तो आवाज सुनाई पड़ती है। दो चीजें टकराएं तो आवाज पैदा होती है। टकराने से जो ध्वनि पैदा होती है वह आहत है। मैं बोल रहा हूं यह भी आहत है क्योंकि यंत्र टकरा रहा है। बोलने का यंत्र आवाज कर रहा है।

ज्ञानी कहते हैं, जब सब वासना खो जाती है तो अनाहत वाणी सुनाई पड़ती है। वह वाणी सुनाई पड़ती है, जो किसी टकराहट से पैदा नहीं हो रही। वही वाणी ओंकार है। वह सब तरफ गूंज रही है, लेकिन तुम उसे देख न पाओगे। तुम तो उस ओंकार में भी अपना हिसाब बना रहे हो।

कभी तुम ट्रेन में सफर करते हो, गाड़ी के चाक छक-छक, झक-झक करते हुए चलते हैं। तुम जो भी गीत सुनना चाहो, उसमें सुन सकते हो। यह हो सकता है कि राम का भक्त वहां बैठा हुआ हो, वह उस छक-छक में ‘राम-राम-राम-राम’ सुनने लगे। और उसके बगल में बैठा हुआ मुसलमान, ‘अल्लाह हू-अल्लाह हू’ सुनने लगे। तुम कोशिश करना। तुम दोनों सुनने की कोशिश करना; जैसे ही तुम कोशिश करोगे उसी ध्वनि में अल्लाह हू बैठ जाएगा, उसी ध्वनि में राम बैठ जाएगा। तुम वही सुन लोगे, जो तुम सुनना चाहते हो। मनोवैज्ञानिक इसे गेस्टाल्ट कहते हैं।

आकाश में तुम देखते हो, तुम्हें गणेशजी दिखाई पड़ सकते हैं, बदलियों में; अगर तुम गणेश के भक्त हो। तुम आकार चुन लोगे। दूसरा जो गणेश का भक्त नहीं है, उसे समझ में ही नहीं आएगा कि कैसे गणेशजी? कहां के गणेशजी? उसे कुछ और दिखाई पड़ेगा। अगर कोई कामातुर व्यक्ति है तो उसे कुछ कामवासना के चित्र आकाश में दिखाई पड़ जाएंगे।

यह तो निराकार है। आकार तुम इसमें बनाते हो। आकार तुम्हारी वासना से बनता है। और जब तक तुम्हारी वासना ही शून्य न हो जाए, तब तक निराकार प्रगट न होगा। तब तुम्हें न राम दिखाई पड़ेंगे, न कृष्ण; तब तुम्हें वह दिखाई पड़ेगा, जो है। उसी को हमने ब्रह्म कहा है। इसलिए ब्रह्म की कोई आकृति नहीं है। राम की आकृति है, कृष्ण की आकृति है, ब्रह्म की कोई आकृति नहीं, वह निराकार है। उसकी कोई प्रतिमा नहीं बनती, कोई बनाई नहीं जा सकती। वह तो उसी दिन प्रगट होगा, जब सब प्रतिमाएं गिर जाएंगी। तुम सभी प्रतिमाओं को छोड़ दोगे, तब अप्रतिम, तब निराकार प्रगट होगा।

दो उपाय हैं इस जगत में जीने के; एक उपाय तो है वासनाओं को फैलाना, वह संसारी का उपाय है। और एक है वासनाओं की निर्जरा करनी है, वह संन्यासी का उपाय है। संन्यासी उसको देखने की कोशिश में लगा है, जो है। वह अपनी तरफ से कुछ जोड़ना नहीं चाहता। और संसारी वही देखने में लगा है, जो वह चाहता है। वह वही नहीं देखना चाहता, जो है।

तुम्हारे घर बच्चा पैदा हो, तो संसारी देखता है कि परम जीवन का जन्म हुआ। और संन्यासी देखेगा, तो उसे दिखाई पड़ेगा, यह मौत पैदा हुई। क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह मरेगा। तुम हंसोगे, नाचोगे; संन्यासी रोएगा कि एक मौत और घटी, एक लाश और निर्मित हुई। एक रूप बना, अब बिखरेगा।

तुम्हें यश मिलेगा–अगर तुम संसारी हो, तो तुम सोच भी नहीं सकते कि यश कभी खोएगा। अगर तुम संन्यासी हो, तो तुम देखोगे कि यह यश लहर का चढ़ाव है; जल्दी ही उतार भी आ जाएगा। इस जगत में जो चीजें भी चढ़ती हैं, वे उतरती हैं। और जिसने सिंहासन खोजा, वह आज नहीं कल जमीन पर गिरेगा। जिसने यश चाहा, प्रतिष्ठा मांगी, उसे अपमान मिलेगा। जिसने स्तुति की खोज की, वह गालियों की तलाश कर रहा है।

तुम जो मांग रहे हो, उससे विपरीत जल्दी ही घटेगा। क्योंकि वासनाएं सभी द्वंद्वग्रस्त हैं; अपने विपरीत को अपने साथ ले आती हैं। तुमने चाहा कि इस मित्र से कभी बिछोह न हो, बस उसी दिन बिछोह के बीज बो दिए। और तुमने कहा, यह प्रेमी सदा मेरे पास रहे, उसी दिन तलाक की शुरुआत हो गई।

मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा था, कि ‘तुम जीवन के बड़े अनुभवी हो। तलाक रोज बढ़ते जाते हैं, क्या तुम उसका कोई कारण बता सकते हो?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मैं सोचूंगा।’ महीने भर बाद उस आदमी ने फिर पूछा, और नसरुद्दीन ने कहा, ‘मैंने बहुत सोचा और मूल कारण खोज लिया।’ उस आदमी ने कहा, ‘बताओ क्योंकि इस मूल कारण से दुनिया का लाभ हो।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मूल कारण, विवाह। न होगा विवाह, न होगा तलाक।’

विवाह हुआ कि तलाक होगा। कुछ लोग तलाक के बाद भी साथ रहते हैं, यह बात दूसरी है। कुछ लोग ज्यादा ईमानदार हैं तलाक के बाद अलग हो जाते हैं; यह बात दूसरी है। लेकिन जहां हुआ विवाह, वहां तलाक होगा। जहां हुआ प्रेम, वहां घृणा होगी। वासना का स्वभाव विपरीत से संयुक्त है। जो तुमने पाया, उसे तुम खोओगे। पाने में ही खोना घट गया। थोड़ी देर लगेगी। थोड़ा समय लगेगा।

संन्यासी उसको देखता है, जो है।

संसारी उसको देखता है जो वह चाहता है, जो हो।

संसारी अपनी वासना से देखता है, इसलिए एक जगत निर्मित कर लेता है, जो काल्पनिक है। कौन है पत्नी? कौन है पति? कौन है पिता? कौन है मां? कौन है अपना और कौन है पराया? क्या है, जिसे तुम कह सकते हो, मेरा है? क्या है जिसे तुम जन्म के साथ लाए थे? क्या है, जिसे तुम मौत के बाद साथ ले जाओगे?

लेकिन मध्य में एक बड़ा साम्राज्य तुम निर्मित करते हो। कहते हो, मेरा है। उसके लिए दुखी होते हो, सुखी होते हो, पीड़ित-परेशान होते हो। बड़ा उपद्रव पैदा होता है। बिना यह पूछे कि जब मैं कुछ लाया नहीं और जब मैं कुछ ले जा न सकूंगा तो इस थोड़ी-सी देर में, जहां सराय में विश्राम किया है, वहां अपने का फैलाव क्यों करूं?

जैसे किसी स्टेशन के विश्रामगृह में तुम बैठे हो, और शोरगुल मचाने लगो कि यह फर्निचर मेरा है; कि तू क्यों इस कुर्सी पर बैठा है? यह मेरी है। लेकिन तुम यह मचाते नहीं शोरगुल, क्योंकि तुम जानते हो घड़ी भर बाद तुम्हारी ट्रेन आ जाएगी; तुम पकड़ोगे ट्रेन और बिदा हो जाओगे। यह विश्रामालय है, यह तुम्हारा कोई घर नहीं।

लेकिन सात मिनिट रुके, कि सात घंटे, कि सत्तर वर्ष, इससे क्या फर्क पड़ता है? समय क्या असत्य को सत्य कर देगा? समय की लंबाई क्या विश्रामालय को घर बना देगी? सिर्फ समय की लंबाई से इतना हो सकता है, तुम्हारी बुद्धि दोनों छोर को मिला नहीं पाती कि तुम आए और गए। इसलिए मेरे और तेरे का बड़ा उपद्रव खड़ा होता है।

यह झेन गुरु कह रहा है कि तुम्हारे पास आंखें तो हैं, लेकिन तुमने देखा नहीं। क्योंकि देखना हो, तो आंखों को निर्धूम होना चाहिए। आंखों में फिर वासना नहीं होनी चाहिए। जब तक तुम्हारी आंख में वासना का बादल तैर रहा है, तब तक तुम जो भी देखोगे, वह गलत होगा–आंख निर्मल चाहिए, कोरी चाहिए, खाली चाहिए, ताकि आंख प्रतिबिंब बनाए; ताकि आंख दर्पण हो और जो है, वही दिखाई पड़े। कान निर्मल होने चाहिए ताकि वही सुनाई पड़े, जो है। काश! तुम वही देख सको, जो है–तुम मुक्त हो जाओगे।

जो मैं कह रहा हूं, अगर तुम वही सुन सको, तुम मुक्त हो सकते हो। अन्यथा जो मैं कह रहा हूं, तुम उससे भी बंध जाओगे। शास्त्र मुक्त नहीं करते, बांध लेते हैं। गुरु स्वतंत्रता नहीं बनता और एक नई परतंत्रता बन जाता है। तुम उसके पैर भी पकड़कर जंजीरें खड़ी कर लेते हो। तुमने कुछ गलत सुना; अन्यथा तुम बुद्धों को भी पिघलाकर जंजीरें कैसे बनाते?

सभी मंदिर कारागृह हो गए हैं। सभी चर्च गुलामियां हैं। सभी धर्म तुम्हारे ऊपर बोझ बन जाते हैं। और आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी को जन्म देनेवालों ने तुम्हारी मुक्ति का पैगाम दिया था। वे पैगंबर थे, तुम्हें स्वतंत्र करने के लिए आतुर थे। वे चाहते थे कि तुम मुक्त आकाश में उड़ जाओ, तुम्हारे पंख खुलें, और तुम्हारे पिंजरे टूट जाएं।

लेकिन तुम बड़े होशियार हो। तुमने उनसे भी पिंजरे निर्मित कर लिए। तुमने उनसे भी सींखचे ढाल लिए। तुमने उनसे भी कारागृह बना लिया। तुम्हारी कुशलता का अंत नहीं! तुम उनकी प्रतिमाएं अपने कारागृह में ले आए, बजाय कि तुम उनके साथ खुले आकाश में गए होते। तुम उन्हें भी अपने कारागृह के भीतर ले आए। तुमने अपने कारागृह की दीवारों को उनके चित्रों से सजा लिया है। अब यह कारागृह और भी छोड़ने जैसा मालूम नहीं पड़ता। यह बड़ा प्यारा है।

तुम कुछ ऐसे हो, तुम्हारी वासना का गणित कुछ ऐसा है कि तुम जंजीरों को आभूषण समझ लेते हो। तुम हीरे-मोती लगा लेते हो उन पर, फिर छोड़ना भी मुश्किल हो जाता है। तो तुम्हें जो भी मुक्त करने आता है, तुम उससे ही बंध जाते हो। हिंदू, मुसलमान, ईसाई बंधनों के नाम हैं। मुक्ति का भी क्या कोई नाम हो सकता है? कारागृहों के नाम हो सकते हैं, मुक्त आकाश का क्या नाम होगा? कारागृहों की सीमाएं हो सकती हैं, मुक्त आकाश की क्या सीमा होगी? तुम धर्म को भी गुलामी में बदल लेते हो, क्योंकि तुम जो सुनते हो, वह वही नहीं है, जो कहा गया है।

बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि एक रात वे बोले। उनके शिष्य मौद्गलायन ने उनसे पूछा, कि ‘क्या भगवान, हम वही सुन पाते हैं, जो तुम बोलते हो? क्योंकि मुझे कभी-कभी शक होता है। जब मैं दूसरों से बात करता हूं तो पता चलता है, उन्होंने कुछ और सुना, मैंने कुछ और सुना। और बड़ा विवाद होता है। तुम्हारे जीते जी विवाद होता है। लोग इसी में विवादग्रस्त हो जाते हैं कि बुद्ध का क्या अर्थ था! और अभी तुम मौजूद हो।’

बुद्ध ने कहा, ‘यह स्वाभाविक है। बोलने वाला एक, सुनने वाले बहुत हैं। इसलिए बोली तो एक बात जाती है, लेकिन सुनी उतनी ही जाती हैं, जितने सुनने वाले हैं। क्योंकि तुम मन से सुनते हो, आत्मा से नहीं। और मन का स्वभाव है, व्याख्या करना। वह तत्क्षण व्याख्या करता है।’

बुद्ध ने कहा, ‘कल रात ही की घटना तुमसे कहूं। जब मैंने रात के अंतिम प्रवचन के बाद कहा कि भिक्षुओ, मित्रो! अब उठो; अब रात्रि का अंतिम कार्य करो।’

सांकेतिक शब्द था बुद्ध का। बोलने के बाद वे कहते कि अब रात्रि की अंतिम प्रक्रिया में लीन हो जाओ। तो भिक्षु ध्यान करते और फिर सोने में चले जाते। ध्यान अंतिम प्रक्रिया थी।

बुद्ध ने कहा, ‘कल एक चोर भी आया हुआ था, कल एक वेश्या भी आई हुई थी। और जब मैंने कहा कि मित्रो! अब रात्रि के अंतिम काम में संलग्न हो जाओ, तो तुम्हें खयाल आया ध्यान का। चोर ने सोचा कि काफी रात हो गई, चांद ऊपर चढ़ गया, अब मैं जाऊं, काम धंधे का वक्त हुआ। वेश्या ने सोचा, बहुत देर हो गई, पता नहीं, ग्राहक अब मिलेंगे भी या नहीं मिलेंगे? मैंने एक ही बात कही थी। वेश्या ने अपना अर्थ लिया, चोर ने अपना, भिक्षुओं ने अपना। फिर भिक्षुओं ने भी अलग-अलग अर्थ ही लिये होंगे।’

जब तक तुम्हारा मन है, तब तक तुम अलग ही अर्थ लोगे। मन अलग करने की प्रक्रिया है। कुछ भी कहा जाए, तुम उसकी व्याख्या करोगे। व्याख्या कौन करेगा? तुम करोगे।

व्याख्या का क्या अर्थ है? व्याख्या का अर्थ है, तुम्हारा अतीत, तुम्हारी स्मृति, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा अनुभव व्याख्या करेगा। तुम अपने अतीत के माध्यम से, जो मैं तुमसे कह रहा हूं, उसको समझोगे। तत्क्षण वह कुछ और हो गया क्योंकि तुमने वही नहीं समझा, जो मैंने कहा। तुमने वह समझा, जो तुम्हारे अतीत की क्षमता थी। तुमने जो मैंने कहा, उसे अपने मन के बर्तन में ढाल लिया। उसका आकार बदल गया, उसका रूप बदल गया, उसकी गंध बदल गई। और अब तुम यही सोचोगे कि यही मैंने तुमसे कहा था।

गीता की हजार व्याख्याएं हैं। कृष्ण का तो एक ही अर्थ हो सकता है। या फिर कृष्ण पागल रहे होंगे, तो हजार अर्थ हो सकते हैं। क्योंकि जिसकी वाणी का हजार अर्थ होगा, उसका अर्थ हुआ कि उसमें कोई अर्थ ही नहीं है। कृष्ण की वाणी का तो एक ही अर्थ रहा होगा। जब अर्जुन से कहा था, तो बात का एक ही अर्थ रहा होगा। लेकिन अर्जुन के सुनते-सुनते ही दो अर्थ हो गये होंगे–एक कृष्ण का, एक अर्जुन का। फिर व्याख्याएं हैं। फिर संजय ने पूरी की पूरी घटना अंधे धृतराष्ट्र को कही–तीसरा अर्थ हो गया होगा। फिर धृतराष्ट्र ने सुनी, चौथा अर्थ हो गया।

और धृतराष्ट्र के बाद तो कितने व्याख्याकार हो चुके हैं। उन सबने अपना अर्थ कर लिया। फिर तुम पढ़ते हो, तब तुम्हारा अपना अर्थ होता है। अगर कृष्ण आ जाएं, तो बहुत हैरान होंगे। यह उन्होंने कहा कब था? यह अर्थ तो उनका है ही नहीं। यह हो भी नहीं सकता। लेकिन इससे अन्यथा भी होने का उपाय नहीं है, क्योंकि कृष्ण का अर्थ तुम तभी ही समझ सकोगे, जब तुम कृष्ण की चेतना की स्थिति में हो। उसके पहले कोई उपाय भी नहीं। क्योंकि अर्थ तो तुम्हारे अनुभव की सीढ़ी से समझे जाते हैं।

तुम सीढ़ी के नीचे खड़े हो और मैं सीढ़ी के ऊपर से बोल रहा हूं, तो यह जो सीढ़ी का फासला है, यह कौन तय करेगा? या तो तुम चढ़ो और मेरे पास आओ; तो जो मैं कह रहा हूं, वह तुम सुन सको। या मैं उतरूं और तुम्हारे पास आऊं, ताकि तुम जो समझ सकते हो, वह समझ सको। चढ़ना कठिन है। और मुझे उतरने को राजी नहीं किया जा सकता। लेकिन तुम अर्थ को नीचे उतार ले सकते हो, वह सुगम है। मैं ऊपर से बोलता रहूंगा, तुम नीचे से समझते रहोगे। तुम वहीं खड़े-खड़े व्याख्या करते रहोगे। वह व्याख्या मैंने जो कहा, उसे वहां ले आयेगी, जहां तुम खड़े हो। वह व्याख्या गलत होगी। सभी व्याख्याएं गलत हैं।

जब यह मैं कहता हूं, तो तुम हैरान होओगे क्योंकि तुम सोचते हो, कि कोई एकाध व्याख्या सही होगी। नहीं, कोई व्याख्या सही नहीं हो सकती। व्याख्या की जरूरत ही बताती है कि तुमने बदल दिया। जो है, वह है। उसकी व्याख्या की कोई भी जरूरत नहीं। तुम बोले कि गया!

रात तुम मेरे पास बैठे हो, चांद पूर्णिमा का आकाश में निकला है। मैंने कहा कि ‘देखो, चांद सुंदर है’ कि गड़बड़ हो गई बात। व्याख्या हो गई। मैं बीच मैं आ गया–इतनी व्याख्या भी! अब तुम चांद को न देख पाओगे क्योंकि मेरे शब्द बीच में खड़े हो गए। मैंने कहा, ‘सुंदर है’। इन शब्दों को सुनते ही तुम्हारे भीतर शब्दों का जाल उठेगा। या तो तुम कहोगे, कैसा सुंदर? या तुम कहोगे, हां, सुंदर है। या तो तुम राजी होओगे, या विरोध करोगे। या तुम कहोगे, इतना कुछ सौंदर्य नहीं कि कहने लायक है। लेकिन अब तुम कुछ प्रतिक्रिया करोगे। वह प्रतिक्रिया मेरे वक्तव्य पर होगी। चांद दूर हो गया। अब तुम चांद को न देख पाओगे।

सभी व्याख्याएं गलत हैं। ज्ञानियों ने व्याख्या नहीं की है, इशारे किये हैं।

झेन फकीर कहते हैं, ‘हम अंगुलि उठाकर बताते हैं। हम कहते नहीं कि चांद है। हम कहते नहीं कि सुंदर है, हम सिर्फ इशारा करते हैं।’

लेकिन तुम कुछ झेन फकीरों से कम होशियार हो? तुम चांद को देखते नहीं, तुम अंगुलि को पकड़ लेते हो। तुम कहते हो, कितनी प्यारी अंगुलि! कितनी सुंदर अंगुलि! शास्त्रों की पकड़ अंगुलि को पकड़ने से पैदा होती है। शब्द पकड़ लिए जाते हैं। फिर तुम उनकी व्याख्या करते हो, फिर तुम अपना जाल निर्मित कर लेते हो।

नहीं, तुम सुन नहीं सकते, क्योंकि सुनने के लिए शून्य कान चाहिए। और तुमने शून्य कान जैसी कोई चीज देखी ही नहीं। तुम भरे कान जानते हो, जो पहले ही शोरगुल से भरे हैं।

एक बाजार से दो फकीर निकल रहे हैं। सांझ अजान का समय हो गया, और दूर मस्जिद से अजान की आवाज आई। बाजार में बड़ा शोरगुल है। बाजार है! चीजें ली जा रही हैं, बेची जा रही हैं, नीलाम हो रहा है। शेयर मार्केट हो, कौन जाने! बड़ा शोरगुल मचा हुआ है। वहां अजान सुनाई भी नहीं पड़ सकती। लेकिन एक फकीर ने सुन ली। उसने कहा कि ‘भागें हम, वक्त हो गया नमाज का।’

दूसरे फकीर ने कहा, ‘हद्द कर दी तुमने! कैसे सुन ली इस शोरगुल में? यहां किसी ने नहीं सुनी। यह भीड़ पूरे अपने काम में लगी है। लोग बेच रहे हैं, खरीद रहे हैं, दाम तय कर रहे हैं। यहां कौन सुनेगा अजान बाजार में, और मस्जिद बहुत दूर है।’

उस फकीर ने कहा, ‘जो भी तुम सुनना चाहो, वह तुम सुन लेते हो। रात मां सोती है, तूफान आ जाए, आंधी हो, बादल गरजे, बिजली कड़के, पानी गिरे, सुनाई नहीं पड़ता। बच्चा थोड़ी-सी आवाज कर दे, रोये, करवट बदले, सुनाई पड़ जाता है।

उस फकीर ने कहा, ‘यह तो ठीक है, लेकिन कोई प्रत्यक्ष प्रमाण?’ तो उस पहले फकीर ने रुपये का एक सिक्का खीसे से निकाला और जोर-से सड़क पर गिरा दिया। खन्न की आवाज…चारों तरफ से लोग दौड़ पड़े। बाजार का शोरगुल, वह रुपये की आवाज सुनाई पड़ गई। फकीर ने कहा, ‘देखते हो? ये सब यहां रुपये की तलाश में आए हैं। यह बाजार का शोर-गुल ही काफी नहीं है। रुपये की आवाज फौरन सुनाई पड़ गई।’

जो हम सुनना चाहते हैं, सुन लेते हैं। जिसकी चाह है, वह पकड़ में आ जाता है। चुनाव चलता है पूरे समय। तुम मुझे सुनोगे, तुम वही चुन लोगे जिसकी खोज में तुम आए थे। तुम वह न सुन पाओगे, जो मैंने कहा। तुम्हें मस्जिद की अजान शायद सुनाई न पड़े, रुपये की खन्न की आवाज सुनाई पड़ जाएगी।

चाह तुम्हारा द्वार है और चाह से तुम भरे हो। और एक चाह नहीं है, अनंत चाहें भीतर भरी हैं। इन भरी हुई चाहों के बीच भीतर से कैसे तुम देखोगे? कैसे तुम सूंघोगे? कठिन है। असंभव!

क्या उपाय है?

अगर तुम ठीक से समझ पाओ, तो ध्यान इंद्रियों को रिक्त और खाली करने का माध्यम है, प्रयोग है। आंखें खाली हो जाएं, तुम कुछ देखना न चाहो, सिर्फ देखो; जस्ट लुक। तुम कोई तलाश नहीं कर रहे हो, तुम सिर्फ देख रहे हो। जैसे पहले दिन बच्चा पैदा होता है और देखता है, उसमें उसकी कोई चाह नहीं होती; तलाश नहीं होती; क्योंकि वह कुछ जानता ही नहीं है। जो भी दिखाई पड़ता है, देखता है। बच्चे का जो दर्शन है, वह शुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, संत की आंख फिर वैसी ही हो जाती है; हो जानी चाहिए। नहीं तो वह संत की आंख नहीं।

बच्चा भी देखता होगा। अगर कमरे में एक लाल रोशनी का बल्ब टंगा है तो बच्चा उसे देखता होगा, लेकिन उसके मन में व्याख्या पैदा नहीं होती। वह यह भी नहीं सोच सकता कि यह लाल है, क्योंकि अभी लाल को भी पता चलने में देर है। वह यह भी नहीं सोच सकता कि यह प्रकाश है, क्योंकि उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं; प्रकाश का भी उसे कोई पता नहीं। वह अभी यह भी नहीं कह सकता कि सुंदर है, असुंदर है, क्योंकि अभी कोई धारणाएं निर्मित नहीं हुईं। अभी मन धारणा-शून्य है। अभी वह सिर्फ देखता है–शुद्ध प्रत्यक्षीकरण, प्योर परसेप्शन! अभी कुछ बोलता नहीं। अभी भीतर कुछ उठता नहीं, बस देखता है। आंखें सिर्फ देखती हैं। अभी सिर्फ आंखें पीती हैं, अपनी तरफ से कुछ भी नहीं जोड़तीं।

कान पर आवाज होगी, तो सुनाई पड़ेगी। रविशंकर सितार बजाता हो तो भी बच्चा सुनेगा और बाहर कुत्ते भौंकते हों तो भी सुनेगा। लेकिन न तो कुत्तों का भौंकना कुरूप मालूम पड़ेगा, और न रविशंकर का सितार सुंदर मालूम पड़ेगा। अभी कान शुद्ध हैं, अभी व्याख्या नहीं है। अभी विभाजन नहीं हुआ। अभी दो नहीं हुए, अभी अद्वैत है। अभी कुत्ते की आवाज भी बच्चा उतनी ही गौर से सुनेगा और यह नहीं कहेगा कि ‘बंद करो यह बकवास! यह कुत्ते क्यों भौंक रहे हैं? इससे मेरी शांति में खलल पड़ता है।’ अभी बच्चे को शांति-अशांति का कोई भी पता नहीं है। अभी तो कुत्ता भौंकता है तो बच्चे के कान खड़े हो जाते हैं। सितार बजती है तो बच्चे के कान खड़े हो जाते हैं। अभी बच्चे का चुनाव नहीं; बच्चा च्वाईस-लेस है। अभी विकल्प-रहित है।

और जो विकल्प-रहित है, वह निर्विकल्प है।

अभी विकल्प खड़े होने में देर है। थोड़े दिन में बच्चा सीखेगा क्या ठीक, क्या गलत। हम उसे सिखाएंगे। हम उसकी आंखों का थोड़ा-सा हिस्सा खुला रहने देंगे, बाकी आंखें बंद कर देंगे। हम उसे अंधा बनाएंगे। हम उसके कानों में थोड़े-से छिद्र जाने के लिए छोड़ेंगे, बाकी बंद कर देंगे। सब कुछ भीतर नहीं जाना चाहिए। हम सब इंद्रियों पर नियंत्रण लगा देंगे। अब धीरे-धीरे वह वही देखेगा, जो हम चाहेंगे, देखे। वही सुनेगा, जो हम चाहेंगे सुने। समाज उसकी गर्दन को दबाएगा और सब भांति नियंत्रण देगा। उसके प्रत्यक्षीकरण अशुद्ध हो जाएंगे। फिर उसकी वासनाएं जग रही हैं, शरीर स्वस्थ हो रहा है। कामवासना उठेगी, इंद्रियां काम करना शुरू करेंगी। भीतर की मांग बढ़ेगी, सब कुरूप हो जाएगा। संसार निर्मित होगा।

जीसस से कोई पूछता है कि कौन तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे? तो जीसस ने एक छोटे बच्चे को कंधे पर उठा लिया, और कहा कि जो इसकी भांति हैं।

क्या मतलब है? क्या छोटे बच्चे मर जाएं, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर जायेंगे? नहीं, क्योंकि छोटे बच्चे अभी विकृत नहीं हुए। लेकिन विकृत होने की क्षमता उनमें दबी पड़ी है। उन्होंने अभी चोरी नहीं की, लेकिन चोरी कर सकते हैं; करेंगे। अभी द्वैत निर्मित नहीं हुआ, लेकिन बीज पड़ा है, अंकुरित होगा।

तो छोटे बच्चों जैसा, जीसस ने कहा है–छोटे बच्चे नहीं। ‘छोटे बच्चों जैसा’, इसका अर्थ हुआ कि जो पुनः छोटे बच्चों जैसा हो गया। जो गुजरा संसार से, जिसने देखी वासनाएं, जिसने देखे बाजार, जिसने चुनाव किया, दुख भोगा, पीड़ा पाई, संताप झेला, चिंता की, जिसने सब गंवाया, सब खोया। जिसने अपनी आत्मा को बिलकुल विस्मरण कर दिया बाजार की चीजों में। जिसने चीजें खरीदीं और अपने को बेचा, जिसने अपने बदले में चीजें खरीदीं। इन सबसे गुजरकर जो वापस लौट आया; फिर छोटे बच्चे की भांति हो गया। फिर आंखें निर्मल हो गईं। अब आंखें यह नहीं कहतीं, क्या सुंदर और क्या कुरूप! आंखे सिर्फ देखती हैं, व्याख्या नहीं करतीं। अब कान सुनते हैं। अब यह नहीं कहते कि यह सुनने योग्य और यह न सुनने योग्य।

कभी थोड़ा प्रयोग करो। कभी कुत्ते भौंक रहे हों तो जल्दी निर्णय मत करो कि क्यों शोरगुल मच रहा है? क्यों बाधा डाली जा रही है? सिर्फ सुनो, व्याख्या मत करो। तुम हैरान हो जाओगे, कुत्तों के भौंकने में भी एक संगीत है। होगा ही, क्योंकि उनसे भी परमात्मा ही भौंकता है। वह भी परमात्मा का एक ढंग है। उस भांति भी उसने होना चाहा है। उसकी भी कोई जरूरत है। तो वीणा के तारों में ही संगीत नहीं है, बादल के गर्जन में भी है, कुत्ते के भौंकने में भी है।

लेकिन तुम जब शांत होकर सुनोगे, तो तुम सभी जगह पाओगे ओंकार गूंज रहा है। जल्दी ही कुत्ते खो जाएंगे और ब्रह्म प्रगट होगा। लेकिन तुम जोड़ो भर मत।

तुम पैसिव हो जाओ, निष्क्रिय हो जाओ–यह सूत्र है, इस पूरी कथा का।

तुम्हारी इंद्रियां सक्रिय हैं, तो तुम संसार निर्मित करोगे। तुम्हारी इंद्रियां क्रिएटिव हैं। तुम कुछ निर्माण कर रहे हो। ध्यानी की इंद्रियां निष्क्रिय हो जाती हैं; सिर्फ द्वार होती हैं–पैसेज। उनसे कुछ निर्मित नहीं होता, सिर्फ खबर दी जाती है। खबर लाने वाला कुछ जोड़ता नहीं।

तुम्हारी इंद्रियां तब डाकिये की तरह हो जाती हैं। वह चिट्ठी में कुछ जोड़ता नहीं बीच में, खोलकर चिट्ठी में कुछ लिखता नहीं; कुछ काटता-पीटता नहीं। चिट्ठी को वैसा का वैसा ले आता है, जैसी दी गई। उसका काम संदेश को पहुंचा देना है; उसका काम संदेश को बनाना नहीं। तुम्हारी इंद्रियां तब डाकिये की तरह होंगी। जो भी दिया गया हो, वह उसे भीतर पहुंचा देंगी।

और जिस दिन इंद्रियां सिर्फ पहुंचाती हैं–पैसिविटी, सिर्फ निष्क्रिय हो जाती हैं; उसी दिन तुम ध्यानी हो गए। उसी दिन तुम अचानक पाते हो, सारा जगत ब्रह्म से भरा है।

इंद्रियों ने नहीं भटकाया है तुम्हें। तुम्हारी वासना इंद्रियों के द्वारा जा रही है, उससे तुम भटक रहे हो। इंद्रियों की शत्रुता मत करना। इंद्रियां तो बड़ी प्यारी हैं। आंख का क्या कसूर है? आंख को मत फोड़ लेना। आंख की वजह से कुछ भी भूल नहीं हो रही है। आंख को बंद करके मत बैठ जाना। सुंदर स्त्री गुजरे, तो आंख बंद मत कर लेना। आंख का कोई कसूर नहीं है। और तुमने अगर आंख बंद की, तो तुम और मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि सुंदर स्त्री से छुटकारा अगर इतना आसान होता तो सभी अंधे उससे कभी का छुटकारा पा गए होते। फिर तो अंधे मुक्त हो गए होते। फिर तो अंधों को बुद्धत्व पाने में कोई कठिनाई न होती। लेकिन आंख बंद हो, तो भी वासना उठती है। और आंख बंद हो, तो भी सुंदर स्त्री पैदा होती है। क्योंकि सुंदर स्त्री के बाहर होने की कोई जरूरत नहीं; तुम उसे भीतर ही पैदा कर लेते हो। तुम सपना देखने लगते हो।

और ध्यान रहे, भीतर की सुंदर स्त्री ज्यादा सुंदर होती है, जितनी बाहर की। क्योंकि बाहर की स्त्री थोड़ी तो बाधा डालती है तुम्हारे सौंदर्य के निर्माण करने में। भीतर कोई बाधा डालने वाला नहीं है। भीतर आब्जेक्टिव कुछ भी नहीं है, सिर्फ सपना है। तुम जैसा चाहो वैसा निर्मित कर लो।

आंख फोड़कर कोई मुक्त नहीं होता।

इंद्रियों को काटकर कोई इंद्रियों का विजेता नहीं होता, जितेंद्रिय नहीं होता। लेकिन इंद्रियां अगर शुद्ध हो जाएं, तो जितेंद्रियता फलित होगी।

यह झेन सदगुरु ठीक कह रहा है कि अभी तुमने एक संसार निर्मित किया है अपनी वासना से। इस वासना को हटा लो। यह संसार पूरा तिरोहित हो जाएगा; जैसे किसी ने पर्दा हटा दिया। यह संसार खो जाएगा, और एक दूसरे ही संसार का उदय होगा।

तब तुम कुछ और ही देख पाओगे, और जो तुम देखोगे वही सत्य है। जब भीतर चाह न रही तो जो भी देखा जाता है, वही दर्शन है। जब भीतर चाह न रही तो जो सुना जाता है, वही श्रवण है। जब भीतर चाह न रही तो जो सूंघा जाता है वही गंध है। तब वह शुद्ध है। तब उसका रूप सत्य का है।

भगवान : …कुछ और?

भगवान! एक डर यह और खड़ा होता है कि यदि हम मन के हस्तक्षेप को हटा दें, तो एक ही दृश्य पर, एक ही शब्द पर, एक ही सुगंध पर सारा जीवन खत्म हो जाए!

हो जाने दें। कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि जिसे तुम जीवन कहते हो वह तो खत्म होगा ही। उसे बचाने का कोई उपाय नहीं। उसे जो बचाता है, वह व्यर्थ ही मुश्किल में पड़ता है। वह बच नहीं सकता। वह तो जा रहा है।

और अगर चित्त का हस्तक्षेप अलग हो जाए और तुम्हारा जीवन एक में ही लीन हो जाए, यही तो खोज है। अगर गंध में ही तुम डूब जाओ तो गंध तुम्हारा परमात्मा है। तब तुमने गंध से ही उसे जान लिया। तब गंध की इंद्रिय में ही तुम्हारी सारी इंद्रियां लीन हो जाएंगी। तुम गंध का ही द्वार हो जाओगे। तब रोएं-रोएं से तुम सूंघोगे। तब सब तरफ से परमात्मा तुम्हारे लिए गंध बन जाएगा।

इसी कारण अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग इंद्रियां महत्वपूर्ण हो गईं।

इस्लाम गंध को बड़ा मूल्य देता है। निश्चित ही मोहम्मद ने परमात्मा को गंध की तरह जाना। मन का हस्तक्षेप अलग हुआ और मोहम्मद नाक हो गए; आंख, कान नहीं। जैसे मोहम्मद का पूरा शरीर, पूरी देह, पूरी काया नाक हो गई। और उन्होंने जिस परमात्मा को पहचाना, वह गंध-रूप था।

इसलिए इस्लाम में इत्र की बड़ी कीमत हो गई, और संगीत का बड़ा विरोध हो गया। मस्जिद के सामने संगीत नहीं बजा सकते। मस्जिद के भीतर संगीत नहीं चल सकता। संगीत का विरोध हो गया, क्योंकि नाक और कान बड़े गहरे में जुड़े हैं। और अगर तुम संगीत सुनते रहो तो धीरे-धीरे तुम्हारी गंध क्षीण हो जाती है। संगीत पर जिसकी बहुत गहरी पकड़ होती है, उसकी नाक धीरे-धीरे गंध लेना बंद कर देती है।

संगीतज्ञ अकसर, कोई शब्द नहीं है हमारे पास, गंध-अंध हो जाते हैं। क्योंकि आंख वाले को हम कहते हैं, नहीं हैं आंख तो अंधा; कान वाले का कान नहीं है, तो कहते हैं बहरा। और जिसके पास गंध नहीं, उसके लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है, क्योंकि किसी ने इसकी फिक्र ही नहीं की कि उसके भी अंधे होते हैं। जो आदमी कान का बहुत उपयोग करेगा, उसकी नाक की पूरी ऊर्जा कान से बहने लगती है।

इंद्रियां आपस में जुड़ी हैं। इसलिए अंधे अकसर संगीतज्ञ हो जाते हैं। क्योंकि आंख बंद हो जाती है तो आंख की ऊर्जा कान को मिलने लगती है। इसलिए अंधे जैसा श्रोता खोजना मुश्किल है। क्योंकि अंधा बहुत गहराई से सुनता है। क्योंकि उसके पास कान ही आंख है। आप आते हो, चलते हो, तो अंधा आपके पैर की आवाज भी पहचानता है, क्योंकि वही उसकी पहचान है। आप बोलते हो तो आपकी ध्वनि पहचानता है। वही उसकी पहचान है। अंधे की जो स्मृति है, वह कान से निर्मित होती है, आंख से निर्मित नहीं होती। हमारी स्मृति नब्बे प्रतिशत आंख से निर्मित होती है। अंधे की नब्बे प्रतिशत कान से निर्मित होती है।

तो कान कहीं नाक के स्रोत को पी न जाए, इसलिए इस्लाम ने संगीत को बंद ही कर दिया। यह खतरनाक है–अर्थपूर्ण, फिर भी खतरनाक। क्योंकि अनेक लोगों ने संगीत से परमात्मा को जाना है। और जितने लोगों ने संगीत से जाना है, उतने लोगों ने गंध से कभी नहीं जाना, क्योंकि गंध की क्षमता आदमी की बहुत कमजोर है। पशुओं से बहुत कमजोर है। कुत्ता ज्यादा सूंघता है तुमसे। घोड़ा ज्यादा सूंघता है। शेर, सिंह मीलों तक सूंघता है। तुम क्या सूंघोगे!

आदमी की सूंघने की क्षमता बहुत कम है; श्रवण की क्षमता ज्यादा गहरी है। इसलिए मोहम्मद के अनुभव पर जो आधार निर्मित हुआ, वह था तो ठीक; लेकिन वह अगर सांप्रदायिक मतांधता हो जाए तो खतरनाक। इसलिए सूफियों का एक वर्ग इस्लाम में पैदा हुआ, जिसने संगीत को वापिस लौटा लिया। इसलिए सूफियों को इस्लाम बड़ी बुरी नजर से देखता है। आम मुसलमान बड़ी बुरी नजर से देखता है। और तुम चकित होओगे, सूफियों ने जैसा संगीत विकसित किया है, कम ही लोगों ने विकसित किया है। संगीत से भी परमात्मा तक लोग पहुंचे हैं। मंत्र, ओम् की ध्वनि, राम का पाठ भीतर संगीत पैदा करने की कलाएं हैं।

आंख से तो बहुत लोग सत्य तक पहुंचे हैं। इसलिए हिंदुस्तान में तो हम सत्य की खोज को दर्शन कहते हैं। हमारे पास फिलासफी जैसा कोई शब्द नहीं है। हमारे पास शब्द है दर्शन। दर्शन का अर्थ तो विजन है; उसका अर्थ फिलासफी नहीं। आंख से देख-देखकर इतने लोग पहुंचे हैं; लेकिन पहले व्यक्ति के जीवन में जो घटना घटती है, वह दूसरों के लिए अंधापन हो जाती है।

मोहम्मद की गंध बड़ी तेज रही होगी। और उन्होंने परमात्मा को गंध की तरह जाना। और आप भी परमात्मा को गंध की तरह जान सकते हैं। कोई भी एक इंद्रिय उसका द्वार बन सकती है। और अकसर ऐसा होगा, कि जब भी उसका द्वार खुलेगा, एक ही इंद्रिय सारी इंद्रियों को पी जाएगी। वह घटना इतनी बड़ी है कि उसमें किनारे टूट जाएंगे। पांच नदियां अलग-अलग नहीं बहेंगी, एक ही हो जाएंगी। और एक नदी सबको आत्मसात कर लेगी, संगम हो जाएगा।

पर उससे भय क्या है?

मन सदा भयभीत है। और मन हर चीज से भयभीत है। तुम कुछ भी करो; मन पहला काम करता है, भय को खड़ा करता है। मन का भय क्यों है इतना गहरा? क्योंकि जहां भी कोई जीवंत अनुभव घटा, वहां मन की मौत हुई। मन मौत से डरता है। अगर तुम्हारी गंध परमात्मा बन जाए, मन गया! फिर तुम वापिस मन में न लौट सकोगे। तो मन भयभीत होता है। वह कहता है, लौट आओ इस तरफ। मत जाओ, यहां खतरा है। यहां मेरे मर जाने का डर है।

रामकृष्ण घंटों तक बेहोश हो जाते थे। किसी ने इसकी ठीक से खोज नहीं की कि बात क्या थी? बुद्ध कभी बेहोश नहीं हुए रामकृष्ण जैसे। रामकृष्ण बेहोश हो जाते। रामकृष्ण के परमात्मा का अनुभव आंख का तो नहीं है। क्योंकि आंख खुली रहे, होश चाहिए। रामकृष्ण का अनुभव मोहम्मद का भी नहीं है। गंध का भी नहीं है। रामकृष्ण का अनुभव सूफियों के संगीत का भी नहीं है, मीरा के संगीत का भी नहीं है। कृष्ण की बांसुरी का भी नहीं।

यह मैं तुमसे पहली बार कहता हूं कि रामकृष्ण बेहोश हो जाते थे क्योंकि उनका अनुभव परमात्मा का, स्वाद का है। यह बात कभी कही नहीं गई है। इसलिए इसके लिए प्रमाण तुम कहीं भी नहीं खोज सकोगे। परमात्मा को चखा रामकृष्ण ने। वह स्वाद का अनुभव है। और स्वाद एकदम बेहोशी में ले जाएगा, क्योंकि स्वाद इतनी भीतरी इंद्रिय है! सभी इंद्रियां बाहर हैं स्वाद के मुकाबले–कान बाहर, नाक भी, आंख भी; स्वाद बहुत गहरे में है।

और इसका कारण है। क्योंकि रामकृष्ण भोजन के बड़े प्रेमी थे, इसीलिए। चर्चा चलती ब्रह्मज्ञान की, बीच-बीच में उठकर चौके में शारदा को पूछ आते थे, ‘क्या बन रहा है?’ शारदा तक को संकोच लगता था, कि ‘लोग क्या कहेंगे? तुम ब्रह्मचर्चा छोड़कर बीच में चौके में आते हो?’ थाली लेकर शारदा आती तो रामकृष्ण बैठे नहीं रह जाते थे, एकदम खड़े हो जाते थे, थाली में झांकते, क्या है?

स्वाद से ब्रह्म को जाना था। भोजन उनके लिए ब्रह्म था। उपनिषदों ने जहां कहा है, अन्न ब्रह्म है। वह किसी ने स्वाद से जानकर कहा होगा, नहीं तो अन्न को कोई ब्रह्म कहेगा? सुनकर हमको भी थोड़ा बेहूदा लगता है। अन्न ब्रह्म! भोजन ब्रह्म! लेकिन किसी ने स्वाद से जाना होगा।

और बड़े मजे की बात है कि रामकृष्ण इतने दीवाने थे भोजन के, और उनको जब बीमारी हुई तो कंठ का कैंसर हुआ। फिर यह आखिरी परीक्षा थी स्वाद की। होनी ही चाहिए। रामकृष्ण को ही हो सकती है। रामकृष्ण का कंठ अवरुद्ध हो गया। फिर आखिरी दिनों में वे भोजन नहीं कर पाते थे। कैंसर हो गया था।

विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि ‘परमहंस देव! आप एक शब्द तो कह दें परमात्मा को, जिससे आप इतने निकट से जुड़े हैं; कि हटाओ इस कंठ-अवरोध को। और कितना प्यारा था भोजन आपको! स्वाद में आप कितना रस लेते थे! और हम पीड़ित होते हैं कि आप भोजन कर नहीं पाते। पानी तक भीतर ले जाना मुश्किल है।’

तो रामकृष्ण कहते, ‘एक दिन मैंने उससे कहा तो उसने कहा, इस कंठ से बहुत भोजन कर लिया, अब दूसरे कंठों से कर। अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन का रस ले रहा हूं। उसकी बड़ी कृपा है, उसने यह कंठ अवरुद्ध कर दिया। अब सभी कंठ मेरे हैं। अब जहां भी कोई स्वाद ले रहा है, मैं ही स्वाद ले रहा हूं। अब मैं तुमसे भोजन करूंगा।’

निश्चित ही रामकृष्ण ने परमात्मा को स्वाद की भांति जाना, और फिर सारी इंद्रियां में उसी में डूब गईं। कभी छह घंटे, कभी आठ घंटे, कभी छह दिन रामकृष्ण बेहोश पड़े रह जाते। वे स्वाद में लीन! बुद्ध ने परमात्मा को आंख से जाना होगा। आंख के लिए होश चाहिए, स्वाद के लिए लीनता चाहिए।

लेकिन रामकृष्ण ने कभी यह किसी को कहा नहीं। बड़े खतरे हैं कहने में। तुमसे अगर कोई कह दे कि स्वाद ब्रह्म है, उसे तुम पहले से ही स्वीकार कर रहे हो। स्वाद के लिए तो जी ही रहे हो। अगर यह बात पता चल जाए कि स्वाद ब्रह्म है, तुम भटक जा सकते हो। क्योंकि मनुष्य की गहरी से गहरी पकड़ भोजन पर है। कामवासना से भी ज्यादा गहरी पकड़ भोजन पर है। इसलिए ब्रह्मचारी होना आसान है, उपवासी होना कठिन है। अगर तुम तीन सप्ताह उपवास करो, तो कामवासना तो अपने आप खो जाती है, लेकिन भूख नहीं खोती। ब्रह्मचर्य से कोई मरता नहीं, लेकिन तीन महीने स्वस्थ से स्वस्थ आदमी भोजन न करे तो मर जाएगा। भोजन ज्यादा गहरे में जरूरी है।

कामवासना तो शायद भोजन का अतिरेक है। भोजन जब खूब मिलता है और तुम ह्नष्ट-पुष्ट हो, और ऊर्जा बहती है, तब कामवासना उठती है। तो कामवासना एक खेल है, क्रीड़ा है। लेकिन भोजन जीवन की जरूरत है, आवश्यकता है। वह अनिवार्य है; वह नीचे की बुनियाद है।

भोजन नहीं, तो तुम मिट जाओगे। कैसी कामवासना? कामवासना नहीं, तो तुम नहीं मिटोगे। तुमसे बच्चे पैदा न होंगे, समाज मिट जाएगा। इसलिए जो परम-स्वार्थी हैं, वे भोजन तो जारी रखेंगे; ब्रह्मचर्य साध सकते हैं। क्योंकि ब्रह्मचर्य से उनका कुछ नहीं मिटता। दूसरे नहीं पैदा होंगे, दूसरे मिटेंगे। तुम्हारे पिता ने ब्रह्मचर्य साधा होता, तो तुम्हें कोई नुकसान था। तुम नहीं हो पाते। तुम ब्रह्मचर्य साधोगे तो कोई नहीं हो पाएगा, जिसका तुम्हें पता ही नहीं है। इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन अगर तुम उपवास साधोगे तो तुम मिटोगे। इसलिए उपवास ब्रह्मचर्य से ज्यादा गहरी साधना है। और जो उपवास साधे, उसे ब्रह्मचर्य तो आसानी से सध जाता है।

भूख की पकड़ गहरी है क्योंकि वही तुम्हारे शरीर का जीवन है। इसलिए रामकृष्ण चुप रहे। स्वाद की बात उन्होंने किसी को कही नहीं। नहीं तो चारों तरफ अनुयायियों का, भोजन-भट्टों का एक संप्रदाय पैदा हो जाता। जैसा मुसलमान इत्र लगा रहा है, ऐसा रामकृष्ण के भक्त दिल खोलकर भोजन करते।

सत्य के बोलने में भी बहुत बार खतरे हैं। असत्य के बोलने में ही खतरे हैं ऐसा नहीं, सत्य के बोलने में और भी खतरे हैं, क्योंकि सत्य में कुंजियां छुपी हैं शक्ति की।

तो कुछ लोगों ने स्वाद से भी जाना है।

कुछ लोगों ने संभोग से भी जाना है। इसलिए तंत्र का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ। कोई भी इंद्रिय परिपूर्ण हो सकती है। सारी इंद्रियां उसमें बह जाएंगी। अगर तुम्हारे संभोग के क्षण में तुम्हारी सारी इंद्रियां लीन हो जाएं तो तुम वहीं से परमात्मा को जान लोगे।

बड़ी अनूठी कहानी है। शास्त्रों में, पुराणों में उल्लेख है लेकिन साधारणतया हिंदू उसका उल्लेख करते ही नहीं। क्योंकि बड़ी विचित्र भी मालूम पड़ती है, अशोभन भी मालूम पड़ती है, अश्लील भी लगती है। कहानी है पुराणों में कि कुछ उलझन आ गई और ब्रह्मा और विष्णु सलाह लेने शिव के पास गए। उलझन कुछ इमरजेंसी की थी, कोई बहुत तात्कालिक संकट था। इसलिए पूर्व निश्चय नहीं किया जा सका मिलने का, और अचानक पहुंच गए। द्वारपाल ने रोकने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कहा कि रोको मत। पर द्वारपाल ने कहा कि शिव तो अभी पार्वती से संभोग कर रहे हैं। आप थोड़ी देर रुक जाएं। ऐसे क्षण में बाधा डालनी उचित नहीं है। वे मैथुन में लीन हैं।

तो थोड़ी देर ब्रह्मा और विष्णु रुके। आधा घंटा, घंटा, दो घंटा…फिर उन्होंने कहा, ‘हद्द हो गई! यह किस भांति की क्रीड़ा चल रही है? अब नहीं रुका जाता।’ और उत्सुकता भी बढ़ी कि यह हो क्या रहा है? तो द्वारपाल से बचकर वे भीतर पहुंच गए। शिव और पार्वती को पता भी न चला कि वे खड़े हैं। जब संभोग समाधि हो, तो क्या पता चलेगा कौन खड़ा है! उनका संभोग चलता रहा।

कहानी यह है कि एक दिन रुके, लेकिन संभोग का अंत न हुआ; तो नाराज होकर लौट गए। और अभिशाप दे गये कि यह जरा सीमा के बाहर बात हो गई। और तुम संसार में काम-प्रतीकों की भांति ही जाने जाओगे–इसीलिए शिवलिंग! इस कथा पर शिवलिंग आधारित है। शिवलिंग अकेला नहीं है, नीचे पार्वती की योनि है। शिवलिंग मैथुन प्रतीक है। उसमें योनि और लिंग दोनों हैं।

इस कथा को हिंदू दोहराते नहीं हैं। भय भी लगता है कि ऐसी कथा क्या दोहरानी! और खतरा भी है क्योंकि संभोग की बड़ी पकड़ है आदमी के मन पर। भय भी है। लेकिन शिव का पूरा का पूरा सार संभोग के माध्यम से सत्य को जानने का है। तंत्र उसका नाम है।

संभोग से जाना जा सकता है, स्वाद से जाना जा सकता है, गंध से जाना जा सकता है, श्रवण से जाना जा सकता है, दर्शन से जाना जा सकता है। कोई भी इंद्रिय उसका द्वार हो सकती है। और हर हालत में मन डरता है। मन चाहता है, पांचों बने रहें। पांचों के बीच मन जीता है। क्योंकि अधूरा-अधूरा बंटा रहता है। जहां-जहां बटाव है, वहां मन को बचाव है। जहां इकट्ठापन आया कोई भी, कि मन घबड़ाया। क्योंकि जहां सब इंद्रियों की ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है, वहां तुम भीतर इंटीग्रेटेड, अखंड हो गए। तुम्हारी अखंडता सत्य के द्वार को खोल देगी।

भय न खाओ, हिम्मत करो।

और जिस तरफ भी तुम्हारा प्रवाह बहता हो, वहां तुम पूरे बह जाओ–ध्यानस्थ, समाधिस्थ! द्वार खुल जाएंगे, जो सदा से बंद हैं। रहस्य ढंका हुआ नहीं है, तुम टूटे हुए हो। तुम इकट्ठे हुए, रहस्य खुला हुआ है।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–47

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पहले शुद्धता—फिर शक्‍ति—(प्रवचन—सातवां)

योग—सूत्र

(साधनपाद)

अहिंसासत्‍यास्‍तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:।। 30।।

योग के प्रथम चरण यम के अंतर्गत आते है ये

पांचव्रत: अहिंसा, सत्‍य, अस्‍तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।

जातिदेशकालसमयानवच्‍छिन्‍ना: सार्वभौमा महाव्रतम।। 31।।

ये पाँच व्रत बनाते है एक महाव्रत जो कि फैला हुआ है

जाति, स्‍थान, समय और स्‍थिति की सीमाओं से परे

संबोधि की सातों अवस्‍थाओ तक।

हिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह—ये पांच व्रत मूल आधार हैं, बुनियाद हैं। जितने गहरे रूप में संभव हो उन्हें समझ लेना है, क्योंकि यह संभावना है कि यम को निर्मित करने वाले इन पाच चरणों को पूरा किए बिना ही कोई आगे बढ़ने लगे।

तुम ऐसे योगियों और फकीरों को संसार भर में देख सकते हो, जो पहले चरण के इन पांच आयामों को पूरा किए बिना ही आगे बढ़ गए हैं। तब उन्हें शक्ति तो उपलब्ध हो जाती है, लेकिन उनकी शक्ति हिंसक होती है। तब वे शक्तिशाली तो बहुत होते हैं, लेकिन उनकी शक्ति आध्यात्मिक नहीं होती। तब वे एक तरह की काली विद्या के जादूगर बन जाते हैं; वे दूसरों को क्षति पहुंचा सकते हैं। यह न केवल दूसरों के लिए खतरनाक होती है, यह स्वयं उन व्यक्तियों के लिए भी खतरनाक होती है। यह तुम्हें नष्ट कर सकती है; यह तुम्हें नया जन्म दे सकती है। यह निर्भर करता है। ये पांच व्रत तो एक आश्वासन हैं कि अनुशासन से जो शक्ति जगती है, उसका गलत उपयोग न हो।

तुम देख सकते हो ‘योगियों’ को जो अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते रहते हैं। यह असंभव है योगी के लिए, क्योंकि यदि योगी ने वास्तव में इन पांच व्रतों को पूरा किया है तो फिर प्रदर्शन में उसकी रुचि नहीं हो सकती; वह प्रदर्शन नहीं कर सकता। वह फिर कोई कोशिश नहीं कर सकता चमत्कारों का खेल दिखाने की—वह उसके लिए संभव नहीं है। चमत्कार उसके आस—पास घटते हैं, लेकिन वह उनका कर्ता नहीं होता।

ये पांच व्रत तुम्हारे अहंकार को पूरी तरह से मिटा देंगे। या तो अहंकार रह सकता है या ये पांच व्रत पूरे हो सकते हैं। दोनों एक साथ संभव नहीं हैं। और इससे पहले कि तुम शक्ति के जगत में प्रवेश करो—और योग है शक्ति का जगत, असीम शक्ति का जगत—बहुत—बहुत जरूरी होता है कि तुम अहंकार को मंदिर के बाहर ही छोड़ दो। यदि अहंकार तुम्हारे साथ है तो पूरी संभावना है कि शक्ति का दुरुपयोग होगा। तब सारा प्रयास ही व्यर्थ हो जाता है, एक दिखावा हो जाता है, वस्तुत: मजाक ही हो जाता है।

ये पांच व्रत तुम्हें शुद्ध करने के लिए हैं, ताकि तुम शक्ति के अवतरण के लिए पात्र बन सकी और शक्ति के अवतरण से तुम दूसरों के लिए एक मंगल और एक आशीष हो सको। ये व्रत बहुत जरूरी हैं। किसी को उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए। तुम छोड़ सकते हो। असल में उन्हें छोड़ कर बढ़ जाना उनमें से गुजरने की अपेक्षा ज्यादा सरल है, क्योंकि वे कठिन हैं। लेकिन तब तुम्हारा भवन बिना

नींव का होगा, किसी भी दिन गिर जाएगा, किसी भी दिन ढह जाएगा; वह पड़ोसियों की जान ले सकता है, शायद तुम्हें ही मार डाले। यह पहली बात है समझ लेने की।

दूसरी बात : अभी कल ही नरेन्द्र ने एक प्रश्न पूछा था, एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा था। उसने कहा, ‘संस्कृत में यम का अर्थ होता है मृत्यु और यम का अर्थ अंतर— अनुशासन भी होता है। क्या इन दोनों के—मृत्यु और अंतर—अनुशासन के—बीच कोई संबंध है?’

बिलकुल है। उसे भी समझ लेना है।

संस्कृत बड़ी अर्थगर्भित भाषा है। असल में संसार में दूसरी कोई भाषा नहीं जो इतनी अर्थगर्भित हो। और प्रत्येक शब्द बड़ी सावधानी और परिश्रम से निर्मित किया गया है। संस्कृत कोई प्राकृतिक भाषा नहीं है। दूसरी सारी भाषाएं प्राकृतिक हैं। संस्कृत शब्द का अर्थ ही है निर्मित, परिष्कृत—प्राकृतिक नहीं। भारत की प्राकृतिक भाषा प्राकृत कहलाती है। प्राकृत का अर्थ है प्राकृतिक. जो सहज प्रयोग से बनी। संस्कृत एक परिष्कृत घटना है। वह प्राकृतिक फूलों के समान नहीं है, वह इत्र की भांति है, परिमार्जित। बड़ी सावधानी और सचेतन प्रयास से एक—एक शब्द को निर्मित किया गया है और उस पर सोच—विचार किया गया है और चिंतन—मनन किया गया है, जिससे कि सारी संभावनाएं इसमें समाहित हो जाएं।

इस ‘यम’ शब्द को समझ लेना है। इसका अर्थ होता है मृत्यु का देवता, इसका अर्थ अंतर— अनुशासन भी होता है। लेकिन मृत्यु और अंतर— अनुशासन के बीच ऐसा कौन सा महत्वपूर्ण अंतर्संबंध हो सकता है? कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता, फिर भी संबंध है।

इस धरती पर अब तक दो तरह की सभ्यताएं रही हैं—दोनों ही फणी हैं, दोनों ही असंतुलित हैं। अभी तक ऐसी सभ्यता को विकसित कर पाना संभव नहीं हुआ है जो कि समग्र हो, संपूर्ण हो, अखंड हो। पश्चिम में अब कामवासना को पूरी स्वतंत्रता मिल रही है; लेकिन तुमने शायद ध्यान न दिया हो—मृत्यु का दमन हुआ है। मृत्यु की कोई बात नहीं करना चाहता; हर कोई कामवासना की ही बात कर रहा है। तमाम अश्लील साहित्य मौजूद है कामवासना के विषय में, प्लेबॉय जैसी पत्रिकाएं हैं—अश्लील, विकृत, बीमार, न्यूरोटिक, विक्षिप्त। कामवासना के विषय में एक रुग्णता है पश्चिम में। लेकिन मृत्यु की कोई बात भी नहीं करता है। यदि तुम मृत्यु के विषय में बात करते हो तो लोग सोचेंगे कि तुम विकृत हों—’क्यों तुम बात कर रहे हो मृत्यु की?’ खाओ, पीओ, मौज करो—यही है आदर्श।’तुम मृत्यु को क्यों ले आते हो बीच में? उसे बाहर हटाओ। मत बात करो इस विषय में।’

पूरब में कामवासना को दबाया गया है, लेकिन मृत्यु के विषय में खुल कर बातें की गई हैं। कामुक, अश्लील, बेहूदे साहित्य की तरह ही पूरब में एक और ही तरह का अश्लील साहित्य मौजूद है। मैं इसे कहता हूं मृत्यु का अश्लील साहित्य—उतना ही अश्लील और रुग्ण जितनी कि पश्चिम की अश्लील पत्रिकाएं हैं कामवासना के विषय में। मैंने देखे हैं ऐसे शास्त्र…..। और तुम देख सकते हो हर कहीं, करीब—करीब सारे भारतीय शास्त्र भरे पड़े हैं मृत्यु के अश्लील विषय से। वे मृत्यु के विषय में अतिशय बातचीत करते हैं। वे कामवासना के विषय में कुछ नहीं कहते; कामवासना एक वर्जित विषय है। वे बात करते हैं मृत्यु की।

भारत के सारे तथाकथित महात्मा मृत्यु के विषय में बातें करते रहते हैं। वे निरंतर मृत्यु की ओर इशारा करते रहते हैं। यदि तुम किसी स्त्री को प्रेम करते हो तो वे कहते हैं, ‘क्या कर रहे हो तुम? स्त्री है ही क्या? मात्र एक थैली है चमड़े की। और भीतर सब प्रकार की गंदी चीजें हैं।’ और वे वर्णन करते हैं सारी गंदी चीजों का, और ऐसा लगता है कि वे इससे आनंदित होते हैं! यह रुग्ण बात है। वे वर्णन करते हैं शरीर के भीतर के कफ—पित्त और रक्त—मांस—मज्जा का; वे वर्णन करते हैं अंदर भरे मल—मूत्र का।’यह है तुम्हारी सुंदर स्त्री। गंदगी की थैली। और तुम प्रेम में पड रहे हो इस थैली के! सावधान!’

लेकिन यह समझने जैसी बात है : पूरब में जब वे तुम्हें सजग करना चाहते हैं कि जीवन गंदा है तो वे स्त्री को बीच में ले आते हैं, पश्चिम में जब वे सजग करना चाहते हैं कि जीवन सुंदर है तो फिर स्त्री की ही बात आ जाती है। जरा देखो प्लेबॉय पत्रिका : प्लास्टिक जैसी लड़कियां, इतनी सुंदर। वे इस दुनिया में कहीं नहीं हैं; वे वास्तविक नहीं हैं। वे फोटोग्राफी के चमत्कार हैं—और बिलकुल ठीक अनुपात का खयाल रखा गया है, फिर—फिर संवारा गया है। और वे बन जाती हैं आदर्श, और हजारों लोग उनके विषय में सुंदर—सुंदर कल्पनाएं करते हैं और उनके सपने देखते हैं।

कामुक अश्लील साहित्य स्त्री के शरीर पर निर्भर है और मृत्यु के अश्लील ग्रंथ भी स्त्री के शरीर पर निर्भर हैं। और फिर वे कहते हैं, ‘तुम प्रेम में पड़ रहे हो? यह युवती जल्दी ही बूढ़ी हो जाएगी। जल्दी ही यह एक कुरूप बुढ़िया हो जाएगी। सावधान रहना, और प्रेम में मत पड़ जाना, क्योंकि जल्दी ही यह स्त्री मर जाएगी; तब तुम रोओगे और चीखोगे, और तब तुम परेशान होओगे।’ यदि तुम्हें जीवन की बात करनी हो तो स्त्री का शरीर चाहिए। यदि तुम्हें मृत्यु की बात करनी हो तो स्त्री का शरीर चाहिए। ऐसा लगता है कि मनुष्य निरंतर स्त्री के खयाल से ही जकड़ा हुआ है—चाहे वे प्लेबॉय हों या महात्मा, उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है।

लेकिन क्यों? ऐसा सदा होता है : जब भी कोई समाज कामवासना का दमन करता है, तो वह मृत्यु की चर्चा करता है; जब भी कोई समाज मृत्यु का दमन करता है, तो कामवासना की चर्चा करता है। क्योंकि मृत्यु और काम दो ध्रुव हैं जीवन के। कामवासना का अर्थ है जीवन, क्योंकि जीवन आता है उससे। जीवन आता है कामवासना से—और मृत्यु उसका अंत है।

और यदि तुम एक साथ दोनों के विषय में सोचते हो, तो विरोधाभास लगता है; तुम काम और मृत्यु को संयुक्त नहीं कर सकते। कैसे ये संयुक्त हो सकते हैं? एक को याद रखने और दूसरे को भूलने की बात ज्यादा आसान लगती है। यदि तुम दोनों को याद रखो तो तुम्हारे मन के लिए बड़ा कठिन होगा समझना कि कैसे दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं—और वे एक साथ हैं, उनका अस्तित्व एक साथ है। असल में वे दो नहीं हैं, बल्कि एक ही ऊर्जा है दो अवस्थाओं में—सक्रिय और निष्किय, यिन और यांग।

क्या तुमने ध्यान दिया इस पर? स्त्री से संभोग करते हुए चरम शिखर की एक घड़ी आती है जहां तुम घबड़ा जाते हो, भयभीत हो जाते हो, कंपने लगते हो; क्योंकि काम के परम शिखर पर मृत्यु और जीवन दोनों एक साथ अस्तित्व रखते हैं। तुम जीवन का अनुभव करते हो उसकी परम ऊंचाइयों में और तुम मृत्यु का भी अनुभव करते हो उसकी परम गहराई में। ऊंचाई और गहराई दोनों उपलब्ध हैं एक ही क्षण में—वही है काम के चरम शिखर का भय। लोग उसकी आकांक्षा करते हैं क्योंकि वह जीवन है, और लोग उससे बचते हैं क्योंकि वह मृत्यु है। वे इसकी आकांक्षा करते हैं क्योंकि वह

सर्वाधिक सुंदर घड़ियों में से एक है, आनंदपूर्ण है, और वे इससे बचना चाहते हैं क्योंकि यह सर्वाधिक खतरे की घड़ियों में से भी एक है. क्योंकि मृत्यु अपना द्वार खोल देती है इसमें।

एक सजग व्यक्ति तुरंत देख लेगा कि मृत्यु और काम एक ही ऊर्जा हैं; और एक समग्र संस्कृति, एक संपूर्ण संस्कृति, एक अखंड संस्कृति, दोनों को ही स्वीकार करेगी। वह एकागी न होगी, वह न एक अति पर जाएगी और न दूसरी से बचेगी। प्रत्येक क्षण तुम जीवन और मृत्यु दोनों ही हो। इसे समझ लेने का मतलब है द्वैत के पार चले जाना। और योग का सारा प्रयास यही है : द्वैत का अतिक्रमण कैसे हो।

यम अर्थपूर्ण है क्योंकि जब कोई व्यक्ति मृत्यु के प्रति सजग हो जाता है केवल तभी आत्म—अनुशासन का जीवन संभव हो पाता है। यदि तुम केवल काम—ऊर्जा के प्रति, जीवन के प्रति सजग हो, और तुम मृत्यु से बच रहे हो, भाग रहे हो, उसके प्रति अपनी आंखें बंद रखते हो, उसे सदा पीछे धकेलते हो, उसे अचेतन में फेंक देते हो, तो तुम आत्म— अनुशासन का जीवन निर्मित नहीं करोगे। किसलिए करोगे? तब तुम्हारा जीवन भोग का जीवन होगा—खाओ, पीओ, मौज करो। इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन स्वयं में यह पूरी बात नहीं है। यह मात्र एक हिस्सा है, और जब तुम हिस्से को समग्र की भांति ले लेते हो, तो तुम चूक जाते हो—तुम बुरी तरह चूक जाते हो।

जानवरों को मृत्यु का कोई बोध नहीं है; इसलिए पतंजलि के लिए कोई संभावना नहीं कि वे पशुओं को शिक्षा दें, क्योंकि कोई भी जानवर तैयार नहीं होगा आत्म— अनुशासन सीखने के लिए। जानवर पूछेगा, ‘क्यों? किसलिए?’ केवल जीवन ही है, मृत्यु नहीं है, क्योंकि जानवर को बोध नहीं है कि वह मरेगा। यदि तुम सजग होते हो कि तुम्हें मरना है, तो तुम तुरंत ही जीवन के विषय में पुनर्विचार करने लगते हो। तब तुम चाहोगे कि मृत्यु जीवन में समाहित हो जाए।

जब मृत्यु समाहित हो जाती है जीवन में तो यम पैदा होता है : अनुशासन का जीवन। तब तुम जीते हो, लेकिन तुम सदा मृत्यु के स्मरण सहित जीते हो। तुम चलते हो, लेकिन तुम सदा जानते हो कि तुम बढ़ रहे हो मृत्यु की ओर। तुम आनंद मनाते हो, लेकिन तुम अच्छी तरह जानते हो कि ऐसा सदा न रहेगा। मृत्यु तुम्हारी छाया बन जाती है; तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा, तुम्हारे परिप्रेक्ष्य का हिस्सा बन जाती है। तुमने समाहित कर लिया मृत्यु को—अब आत्म— अनुशासन संभव होगा। अब तुम सोचोगे, ‘कैसे जीएं?’ क्योंकि अब जीवन ही लक्ष्य नहीं. मृत्यु भी उसका हिस्सा है। कैसे जीएं? ताकि तुम सुंदरता से जी सको और सुंदरता से मर भी सको। कैसे जीएं? ताकि न केवल जीवन आनंद का एक परम शिखर बन जाए, बल्कि मृत्यु भी उच्चतम शिखर हो जाए, क्योंकि मृत्यु जीवन का परम शिखर है।

इस ढंग से जीओ कि तुम समग्रता से जीने में सक्षम हो जाओ और तुम समग्रता से मरने में भी सक्षम हो जाओ; यही आत्म— अनुशासन का कुल अर्थ है। आत्म— अनुशासन दमन नहीं है; यह है सुनिदशित जीवन; ऐसा जीवन जिसमें एक दिशा हो। यह है मृत्यु के प्रति पूर्णत: सचेत और सजग जीवन। तब तुम्हारे जीवन की नदी के दो किनारे होते हैं—जीवन और मृत्यु, और चैतन्य की नदी इन दोनों के बीच प्रवाहित होती है। जो भी जीवन के एक हिस्से मृत्यु को अस्वीकार करके जीने का प्रयास कर रहा है, वह एक ही किनारे के साथ बहने का प्रयास कर रहा है; उसके चैतन्य की नदी

समग्र नहीं हो सकती। उसमें कुछ अभाव होगा; किसी बहुत सुंदर बात को वह चूक जाएगा। उसका जीवन सतही होगा। उसमें कोई गहराई न होगी। मृत्यु के बिना कोई गहराई नहीं होती।

और यदि तुम दूसरी अति पर चले जाते हो, जैसा कि भारतीयों ने किया है—उन्होंने निरंतर रहना शुरू कर दिया है मृत्यु के साथ—वे घबडाए हुए हैं, भयभीत हैं, प्रार्थना कर रहे हैं; प्रयास में लगे हैं कि कैसे मृत्यु से बच जाएं, कैसे अमर हो जाएं—तब वे बिलकुल ही जीना बंद कर देते हैं। वह बात भी एक पागलपन है। वे भी बहेंने एक ही किनारे के साथ; उनका जीवन भी एक दुखद घटना रहेगी।

पश्चिम दुखी है, पूरब दुखी है—क्योंकि एक समग्र जीवन अभी तक संभव नहीं हुआ है। क्या यह संभव है कि तुम एक सुंदर काम—जीवन जीओं, मृत्यु के स्मरण सहित? क्या प्रेम करना और गहनता से प्रेम करना संभव है— भलीभांति जानते हुए कि तुम्हें मरना है और तुम्हारी प्रिया को मरना है? यदि यह संभव है, तो एक समग्र जीवन संभव है। तब तुम एकदम संतुलित होते हो; तब तुम संपूर्ण होते हो। तब तुम में किसी चीज की कमी नहीं होती; तब तुम तृप्त होते हो; एक गहन तृप्ति तुम्हें भर देती है।

‘यम’ का जीवन एक संतुलित जीवन है। पतंजलि के ये पांच व्रत तुम्हें संतुलन देने के लिए हैं। लेकिन तुम उन्हें गलत समझ सकते हो और तुम फिर एक दूसरी तरह का असंतुलित जीवन निर्मित कर सकते हो। योग जीवन के भोग के विरुद्ध नहीं है, योग है संतुलन। योग कहता है, ‘भरपूर जीओ, लेकिन सदा तैयार रहो मरने के लिए भी।’ यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती है। योग कहता है, ‘ आनंद मनाओ। लेकिन ध्यान रहे, यह तुम्हारा घर नहीं है, यह रात भर का पड़ाव है।’ कुछ गलत नहीं है। यदि तुम धर्मशाला में ठहरे हो और आनंद मना रहे हो और पूर्णिमा की रात है, तो कुछ गलत नहीं है। इसका आनंद लो, लेकिन धर्मशाला को अपना घर मत मान लेना, क्योंकि कल हम चल देंगे। हम धन्यवाद देंगे रात के इस पड़ाव के लिए, हम अनुगृहीत होंगे—अच्छा था जब तक वह रहा, लेकिन उसके हमेशा बने रहने की मांग मत करना। यदि तुम माग करते हो कि इसे हमेशा—हमेशा रहना चाहिए, तो यह एक अति है; यदि तुम बिलकुल आनंदित नहीं होते क्योंकि यह सदा तो रहने वाला नहीं, तो यह एक दूसरी अति हो जाती है। और दोनों ही ढंग से तुम अधूरे ही रहते हो।

यदि तुम मुझे समझने की कोशिश करो तो मेरा सारा प्रयास यही है : तुम्हें संपूर्ण और समग्र बनाना, जिससे कि सारी विपरीतताए खो जाएं और एक समस्वरता पैदा हो। मैं नहीं चाहता कि तुम नीरस हो जाओ। साधारण भोग का जीवन उबाऊ होता है। साधारण योग का जीवन भी एकस्वर का, नीरस होता है। जो जीवन सारे विरोधाभास अपने में समाए होता है, जिसमें बहुत सारे स्वर होते हैं लेकिन फिर भी एक समस्वरता होती है, वह जीवन एक समृद्ध जीवन होता है। और वही समृद्ध जीवन, मेरे देखे, योग है।

और ये पांच व्रत तुम्हें जीवन से तोड़ देने के लिए नहीं हैं, वे तुम्हें जीवन से जोड्ने के लिए हैं। इस बात को अच्छे से स्मरण रख लेना है, क्योंकि बहुत से लोगों ने इन पांच व्रतों का उपयोग स्वयं को जीवन से तोड़ लेने के लिए किया है। वे इसलिए नहीं हैं—वें हैं इससे ठीक विपरीत बात के लिए।

उदाहरण के लिए पहला व्रत है—अहिंसा। लोगों ने इसका उपयोग स्वयं को जीवन से तोड़ लेने के लिए किया, क्योंकि वे सोचते हैं कि यदि तुम जीवन में रहे, तो कुछ न कुछ हिंसा होगी ही। भारत में जैन हैं; वे विश्वास करते हैं अहिंसा में। वही है उनका संपूर्ण धर्म। तुम जरा देखो किसी जैन मुनि को. वह हर चीज से भागता है, क्योंकि सब ओर वह हिंसा की संभावना पाता है। जैनों ने किसी भी तरह की खेती करना बंद कर दिया—बागबानी, खेती—बाड़ी—क्योंकि यदि खेती करते हैं, खेत में जुताई करते हैं, तो हिंसा होगी ही; क्योंकि तुम्हें पेडू—पौधे कांटने होंगे और हर पौधे में जीवन होता है। तो जैन पूरी तरह बाहर हो गए खेती—बाड़ी के काम से।

युद्ध में वे जा नहीं सकते थे, क्योंकि वहां हिंसा होगी। उनके सभी तीर्थंकर योद्धा थे; वे सब क्षत्रिय थे। महावीर और दूसरे सभी तीर्थंकर, वे सब क्षत्रिय थे, लेकिन उनके सारे अनुयायी दुकानदार हैं, व्यापारी हैं! क्या हुआ? लड़ाई पर वे जा नहीं सकते; सेना में भरती वे हो नहीं सकते। इसलिए वे योद्धा तो बन नहीं सकते, क्योंकि हिंसा होगी। वे किसान नहीं बन सकते, क्योंकि कृषि में हिंसा होगी। और कोई भी शूद्र होना नहीं चाहता, कोई भी अछूत होना नहीं चाहता और दूसरे लोगों के टायलेट और दूसरे लोगों के घर कोई साफ करना नहीं चाहता—कोई नहीं चाहता यह सब; इसलिए शूद्र वे बन नहीं सकते। और वे ब्राह्मण भी नहीं बन सकते थे, क्योंकि उनका पूरा धर्म ही एक विद्रोह था ब्राह्मणों के विरुद्ध। तो एकमात्र संभावना जो बची वह यह कि वे केवल वैश्य हो जाएं।

ऐसे जैन मुनि हैं जो श्वास लेने तक में घबड़ाते हैं, क्योंकि श्वास लेने में जीवाणु मरते हैं। बहुत छोटे—छोटे जीवाणु घूम रहे हैं हवा में। हवा भरी पड़ी है जीवाणुओं से, बहुत सूक्ष्म जीवाणुओं से; तुम देख नहीं सकते उन्हें खुली आंख से। जब तुम श्वास लेते हो, वे मर जाते हैं; जब तुम श्वास छोड़ते हो, तब तुम्हारी बाहर आती गरम श्वास उन्हें मार देती है। तो वे श्वास लेने में भी भयभीत हैं। रात्रि में वे चल नहीं सकते, क्योंकि शायद अंधेरे में कहीं कोई कीड़ा हो.. तो हिंसा हो जाए। वर्षा—ऋतु में वे कहीं जा नहीं सकते। वर्षा—ऋतु में बहुत से कीट—पतंगे और बहुत सी मक्खियां, बहुत से कीड़े—मकोड़े पैदा हो जाते हैं, और हर कहीं जीवन धड़क रहा होता है। यदि तुम गीली जमीन पर चलते हो तो ऐसी संभावना है…। कहा जाता है कि जैन मुनि को रात सोते हुए करवट भी नहीं बदलनी चाहिए क्योंकि तुम करवट बदलो और हो सकता है कुछ कीट—पतंगे मर जाएं; तो तुम्हें एक ही करवट सोना चाहिए। यह है अति पर जाना।

यह है बेतुकेपन तक बात को खींचना। तो स्मरण रखना, लोगों ने अहिंसा का उपयोग किया है जीवन के विरुद्ध। और अहिंसा का अर्थ होता है जीवन के प्रति इतना गहन प्रेम कि तुम मार न सको : तुम इतना गहन प्रेम करते हो जीवन से कि तुम किसी को भी चोट नहीं पहुंचाना चाहोगे। यह एक गहन प्रेम है, निषेध नहीं।

निश्चित ही, जीवित रहने में थोड़ी हिंसा तो जरूर होगी, लेकिन वह हिंसा नहीं है, क्योंकि तुम वैसा इच्छापूर्वक नहीं कर रहे हो। इसलिए ध्यान रहे, हिंसा तब होती है जब तुम जान कर उसे करते हो। यदि मैं सांस लेता हूं तो मैं ऐच्छिक रूप से सांस नहीं ले रहा हूं। श्वास अपने आप चल रही है—तुम नहीं ले रहे हो सांस; तुम नहीं हो कर्ता। तुम कोशिश करो न लेने की, और तुमको पता चल जाएगा। केवल क्षण भर को तुम रोक सकते हो, और वह तेजी से आती है भीतर और तेजी से जाती है बाहर। यह होता है, तुम इसके लिए जिम्मेवार नहीं हो। भोजन है, वह तुम्हें लेना ही पड़ेगा। जो कुछ भी तुम खाओगे, वह एक तरह की हिंसा ही होगी। यदि तुम वृक्षों से फल तोड़ते हो, तो तुम चोट पहुंचाते हो वृक्षों को।

जैनों ने मांस न खाने की शुरुआत की। अच्छी है बात—क्योंकि उससे बचा जा सकता है। जिससे बचा जा सके, वह सुंदर है। फिर वे भयभीत हो गए वृक्षों के फल खाने से, क्योंकि यदि तुम फल तोड़ते हो तो वृक्ष को चोट लगती है। तो करो क्या? प्रतीक्षा करो—जब फल पक जाए और गिर जा।! धरती पर। वह भी अच्छा है, कुछ गलत नहीं। लेकिन फल गिर भी जाता है धरती पर तो भी उसमें लाखों बीज होते हैं—और प्रत्येक बीज वृक्ष बन सकता था, और प्रत्येक वृक्ष में फिर संभावना थी लाखों फलों की। तो तुम खा रहे हो उन सारी संभावनाओं को—तुम हिंसा कर रहे हो!

तुम किसी भी सिद्धात को पागलपन तक खींच सकते हो; और तब केवल एक संभावना बचती है—आत्महत्या करने की। लेकिन वह भी हिंसा है. तुम मार रहे हो स्वयं को। न केवल स्वयं को, तुम्हारे रक्त में सात लाख जीवाणु हैं, वे मर जाएंगे यदि तुम आत्महत्या करते हो। तो जाओ कहां—आत्महत्या तक भी संभव नहीं।

यह तो बड़ा निरर्थक जीवन हो जाएगा, चिंतित, तनावपूर्ण। और तुम सुखी, शांत और मौन जीवन की खोज में निकले थे; और यह जीवन इतना तनावपूर्ण हो जाएगा और इतना व्यथित.। तुम देख सकते हो—जरा जाओ, देखो जैन मुनियों के चेहरों की ओर। तुम कभी उनके चेहरों को आनंदित न पाओगे—असंभव है। यदि तुम इतने भय में जीते हो कि हर चीज गलत मालूम पड़ती है, तो तुम अपराध ही अपराध से घिर जाते हो, और कुछ भी नहीं। और जो कुछ भी तुम करते हो वह करीब—करीब पाप ही होता है—एक शब्द बोलना भी पाप है, क्योंकि जब तुम बोलते हो, तब ज्यादा गरम वायु बाहर आती है मुंह से; वह मार डालती है हजारों छोटे —छोटे जीवाणुओं को। तुम पानी पीते हो और तुम जीवाणुओं को मारते हो, तुम बच नहीं सकते। तो करो क्या?

पतंजलि जीवन के विरोध में नहीं हैं; वे प्रेमी हैं। जो जानते हैं, वे कभी भी जीवन के विरोध में नहीं होते। तो अहिंसा का इतना ही अर्थ है कि जीवन को बहुत—बहुत प्रेम करो—मेरे देखे, अहिंसा प्रेम है—जीवन को इतना अधिक प्रेम करो कि तुम किसी को चोट न पहुंचाना चाहो, बस इतना ही। लेकिन फिर भी जीने में ही बहुत सी बातें होंगी जिन पर तुम्हारा कोई वश नहीं है। उन्हें लेकर चिंतित मत होना, अन्यथा तुम पागल हो जाओगे। कोई फिक्र मत करना उनकी। केवल एक बात ध्यान में रखना कि तुमने किसी को जान—बूझ कर कष्ट नहीं पहुंचाया है। और यदि तुम्हें किसी को मजबूरी में कष्ट पहुंचाना भी पड़ता है तो भी तुम में भाव प्रेम का ही होता है।

तुम किसी वृक्ष के पास जाते हो और यदि तुम्हें तोड़ना ही पड़ता है फल क्योंकि तुम्हें भूख लगी है और तुम मर जाओगे अगर तुम फल न तोड़ो, तो धन्यवाद करना वृक्ष का। पहले वृक्ष की अनुमति लेना कि ‘मैं यह फल ले रहा हूं। यह ज्यादती है, लेकिन मैं मर रहा हूं और मेरी मजबूरी है। लेकिन मैं बहुत सारे तरीकों से सेवा करूंगा तुम्हारी। मैं चुकाऊंगा कीमत। मैं तुम्हें पानी दूंगा, मैं तुम्‍हारी देख — भाल करूंगा; मैं जो भी ले रहा हूं तुम्हें लौटा दूंगा—उससे कहीं ज्यादा ही लौटा दूंगा।’

जीवन को प्रेम करो, जीवन को सहायता दो, जीवन को सहारा दो—प्रत्येक जीवंत चीज के प्रति आशीष बनो। और यदि तुम्हें कुछ ऐसा करना पड़े, जिससे कि तुम्हें लगता है बचा जा सकता था, तो पहली बात, उससे बचना। यदि उससे बचा न जा सकता हो, तो कोशिश करना उसे वापस लौटाने की, कोशिश करना प्रतिदान की।

और बहुत अंतर पड़ता है। अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि अंतर पड़ता है। यदि तुम वृक्ष की अनुमति लेते हो तो वृक्ष को चोट नहीं लगती। अब वह अनधिकार हस्तक्षेप नहीं है, अब अनुमति ले ली गई है। असल में वृक्ष को अच्छा लगता है कि तुम आए। वृक्ष आनंदित होता है कि वह जरूरत में किसी की मदद कर सका। वृक्ष समृद्ध होता है कि तुम आए और वृक्ष कुछ बांट सका। फल तो वैसे भी गिर ही जाते। वृक्ष बांट सका किसी के साथ—तुमने न केवल अपनी मदद की, तुमने वृक्ष की भी मदद की चेतना में विकसित होने में।

अहिंसक होने का अर्थ है हितैषी होना, सब की मदद करना—अपनी भी और दूसरों की भी। यह है यम का प्रथम आयाम। प्रेम है पहला आत्म— अनुशासन।

किसी ने संत अगस्तीन से पूछा, ‘मैं बिलकुल बेपढा—लिखा आदमी हूं और मैं नहीं जानता कि क्या करूं और क्या न करूं। और हजारों शास्त्र हैं और लाखों सिद्धात हैं और मैं भ्रम में पड़ा हूं क्योंकि कोई कुछ कहता है, कोई और उसके एकदम विपरीत कहता है—और मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं और क्या न करूं। आप महान व्यक्ति हो, बहुत बुद्धिमान, संत : बस एक शब्द बता दें मुझे, जिससे कि बिना किसी भ्रम के मैं उसी पर चल सकूं।’

संत अगस्तीन एक कुशल उपदेशक था। वह घंटों बोल सकता था, लेकिन किसी ने भी संपूर्ण धर्म को एक शब्द में नहीं पूछा था। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं, ध्यान किया, क्योंकि कठिन थी बात, और फिर उसने अपनी आंखें खोलीं और कहा, ‘तो तुम जाओ और प्रेम करो। यदि तुम प्रेम करते हो तो सब ठीक है।’

अहिंसा का अर्थ है प्रेम। यदि तुम प्रेम करते तो सब ठीक हो जाता है। यदि तुम प्रेम नहीं करते, तो चाहे तुम अहिंसक भी हो जाओ तो बेकार है। और क्यों पतंजलि इसे पहला यम, पहला अनुशासन कहते हैं? प्रेम पहला अनुशासन है, आधार है। यदि तुम में कोई भाव भी बच रहता है दूसरों को चोट पहुंचाने का, तो जब तुम शक्तिशाली होओगे तो खतरनाक हो जाओगे। वही बचा हुआ जरा सा भाव खतरा बन जाएगा। तुम में लेश मात्र भाव नहीं बचना चाहिए किसी को चोट पहुंचाने का; और वह प्रत्येक व्यक्ति में होता है।

और तुम हजारों—लाखों ढंग से चोट पहुंचाते हो—और तुम ऐसे—ऐसे तरीकों से चोट पहुंचाते हो कि कोई बचाव भी नहीं कर सकता है। कई बार तुम ‘ अच्छे’ तरीकों से चोट पहुंचाते हो—अच्छे कारणों से, अच्छे बहानों’ से। तुम किसी व्यक्ति से कुछ कहते हो जो शायद ठीक भी है और तुम कहते हो, ‘मैं सच कह रहा हूं ‘ लेकिन भीतर गहरे में इच्छा होती है उस सच द्वारा दूसरे को चोट पहुंचाने की। तब सच झूठ से बदतर होता है। उसे न कहना ठीक है। यदि तुम अपने सत्य को प्रीतिकर और सुखद और सुंदर नहीं बना सकते, तो बेहतर है उसे कहो ही मत। और सदा अपने भीतर देखना कि तुम ऐसा किस लिए कह रहे हो। गहरे में इच्छा क्या है? क्या तुम सत्य के नाम पर दूसरे को चोट पहुंचाना चाहते हो? तब तुम्हारा सत्य पहले से ही विषाक्त है : वह धार्मिक नहीं है, वह नैतिक नहीं है—वह पहले से ही अनैतिक है। छोड़ो ऐसा सत्य।

मैं कहता हूं तुम से, झूठ भी अच्छा है यदि वह प्रेम से जन्मा हो, और सत्य बुरा है अगर वह केवल चोट पहुंचाने के लिए बोला गया है।

ये कोई मुर्दा सिद्धात नहीं हैं। तुम्हें उन्हें समझना होगा और तुम्हें उस कुशलता को सीखना है कि उनका उपयोग कैसे करना होता है। मैंने देखा है लोगों को अच्छे सिद्धांतों को बुरे कारणों के लिए उपयोग करते हुए, अच्छा जीवन बुरे कारणों के लिए जीते हुए। तुम बड़े महात्मा हो सकते हो केवल अहंकार की तुष्टि के लिए; तब तुम्हारी धार्मिकता एक पाप है। तुम चरित्रवान हो सकते हो केवल गौरवान्वित अनुभव करने के लिए, कि तुम एक चरित्रवान व्यक्ति हो। इससे तो बेहतर था कि तुम बिना चरित्र के होते; कम से कम यह अहंकार तो न होता। यदि चरित्र केवल अहंकार का पोषण ही है तो वह चरित्रहीनता से बदतर है। तो सदा भीतर गहरे में झांकना, अपने अस्तित्व में भीतर देखना कि तुम क्या कर रहे हो, कि तुम क्यों कर रहे हो। और सतही निष्कर्षों से कभी संतुष्ट मत हो जाना—वे तो हजारों होते हैं और तुम यकीन दिला सकते हो स्वयं को कि तुम ठीक थे।

तुम घर आते हो। तुम क्रोध में हो, क्योंकि आफिस में बीस ने ठीक व्यवहार नहीं किया तुम्हारे साथ। कोई बीस कभी ठीक व्यवहार नहीं करता। क्योंकि वह बीस है इसलिए कुछ भी वह करता है, बुरा ही लगता है, खराब ही मालूम पड़ता है। क्योंकि भीतर तो तुम कुढ़ते रहते हो कि तुम नीचे हो दूसरा ऊपर है। तुम्हें नीचे होने की सच्चाई से नफरत होती है, इसलिए जो कुछ भी कहा जाता है वह बुरा लगता है। लेकिन तुम प्रतिक्रिया नहीं कर सकते, वह बात जरा मंहगी पड़ेगी। तुम क्रोध से भरे हुए आते हो घर और बच्चे की पिटाई करने लगते हो। और तुम कहते हो, ‘.. क्योंकि तुम बुरे लड़कों के साथ खेल रहे थे।’

बच्चा तो रोज ही खेलता है बुरे लड़कों के साथ। और कौन हैं ये बुरे लड़के? क्योंकि उन बुरे लड़कों की माताएं भी अपने बच्चों को पीट रही हैं, क्योंकि वे खेल रहे हैं तुम्हारे बुरे बेटे के साथ। कौन हैं ये बुरे लड़के? लेकिन तुम तो तर्क बैठा रहे होते हो। क्रोध मौजूद है, उबल रहा है। तुम उसे उलीच देना चाहते हो किसी पर। और निश्चित ही, केवल कमजोर व्यक्ति पर ही निकाला जा सकता है उसे। बच्चे इस दृष्टि से बड़े उपयोगी हैं। पिता क्रोध में है, तो वह पीट देता है बच्चे को; मां क्रोध में है, वह पीट देती है बच्चे को; शिक्षक क्रोधित होता है, वह पीट देता है बच्चे को। और हर कोई छोटे बच्चों पर उन चीजों को निकाल रहा होता है, जिन्हें किसी दूसरे पर नहीं निकाला जा सकता है।

मेरे देखे, यदि किसी दंपति के बच्चे न हों तो ज्यादा संभावना होती है तलाक की। यदि उनके बच्चे होते हैं, तो कम संभावना होती है तलाक की। क्योंकि जब भी पत्नी क्रोधित होती है पति पर, तो वह पीट सकती है बच्चों को; जब भी पति नाराज होता है पत्नी से, तो वह पीट सकता है बच्चों को। बच्चे एक थैरेपी की भांति हैं। वे मदद करते हैं, वे अदभुत रूप से मदद करते हैं। इसीलिए पूरब में जहां एक दंपति के अनेक बच्चे होते हैं, तलाक नहीं होता। पश्चिम में अब यह कठिन है, वैवाहिक जीवन असंभव हो रहा है, क्योंकि बच्चे नहीं होते। उनकी जरूरत होती है एक गहन थैरेपी के रूप में। वे एक जोड्ने वाली कड़ी होते हैं; वे मदद देते हैं रेचन में।

खयाल रहे, कभी भी किसी बुरे कारण के लिए अच्छी बात मत करना, क्योंकि वह बात अच्छी नहीं रहती और तुम धोखा ही दे रहे होते हो।

अहिंसा है पहली बात—प्रेम सदा पहली बात है। और यदि तुम सीख लेते हो कि प्रेम कैसे करना है, तो तुम सब सीख लेते हो। धीरे— धीरे वही प्रेम तुम्हारे चारों ओर का एक आभा—मंडल बन जाता है : जहां कहीं तुम जाते हो, एक प्रसाद तुम्हारे साथ रहता है; जहां भी तुम जाते हो, आनंद की भेंट साथ लिए जाते हो, तुम बांटते हो अपने प्रेम को।

अहिंसा कोई नकारात्मक बात नहीं है; वह प्रेम की एक विधायक अनुभूति है। अहिंसा शब्द नकारात्मक है। शब्द नकारात्मक है क्योंकि लोग हिंसक हैं, और हिंसा उनके व्यक्तित्व में इतनी विधायक घटना बन गई है कि किसी नकारात्मक शब्द की जरूरत है उसे नकार देने के लिए। लेकिन केवल शब्द नकारात्मक है; घटना विधायक है : वह है प्रेम।

‘अहिंसा, सत्य……।’

सत्य का अर्थ है—प्रामाणिकता, सच्चे रहना, झूठ में न जीना, मुखौटों का उपयोग न करना, जो भी तुम्हारा वास्तविक चेहरा हो उसे प्रकट करना, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े।

ध्यान रहे, इसका यह अर्थ नहीं कि तुम्हें दूसरों के मुखौटे उतारने हैं, यदि वे प्रसन्न हैं अपने झूठ के साथ तो यह उनके निर्णय की बात है। जाकर किसी का मुखौटा मत उतार देना, क्योंकि लोग इसी ढंग से चलते हैं। वे सोचते हैं कि उन्हें प्रामाणिक होना है; उसका मतलब वे समझते हैं कि उन्हें जाकर नग्न कर देना है प्रत्येक व्यक्ति को—’क्यों तुम छिपा रहे हो अपना शरीर? इन कपड़ों की कोई जरूरत नहीं।’

नहीं, कृपा करके ध्यान रखना : स्वयं के प्रति सच्चे रहना। तुम्हें संसार में किसी दूसरे का सुधार करने की कोई जरूरत नहीं। यदि तुम स्वयं विकसित हो सकते हो, तो पर्याप्त है। सुधारक मत बनना और दूसरों को सिखाने की कोशिश मत करना और दूसरों को बदलने की कोशिश मत करना। यदि तुम बदल गए, तो उतना संदेश पर्याप्त है।

प्रामाणिक होने का अर्थ है : अपने अंतस के प्रति सच्चे रहना। कैसे रहें सच्चे? तीन बातें ध्यान में ले लेनी हैं। पहली, किसी की मत सुनो कि वे तुम्हें क्या होने के लिए कहते हैं; सदा अपने अंतस की आवाज को सुनो कि तुम क्या होना चाहते हो। अन्यथा तुम्हारा पूरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा। तुम्हारी मां चाहती है कि तुम इंजीनियर बनो; तुम्हारे पिता तुम्हें डाक्टर बनाना चाहते हैं; और तुम खुद कवि बनना चाहते हो। तो करो क्या? निश्चित ही मां ठीक कहती है, क्योंकि वह बात ज्यादा फायदे की है, आर्थिक रूप से ज्यादा काम की बात है इंजीनियर होना। पिता भी ठीक कहते हैं कि डाक्टर बन जाओ; यह उपयोगी है बाजार में। बाजार में इसकी कीमत है।’कवि? क्या तुम पागल हो गए हो? क्या तुम बुद्धि गंवा बैठे हो?’

कवि अनादृत व्यक्ति हैं, कोई उन्हें नहीं चाहता। उनकी कोई जरूरत नहीं है। काव्य के बिना संसार चल सकता है। काव्य के खो जाने से कोई तकलीफ न होगी। लेकिन यह संसार इंजीनियरों के बिना नहीं चल सकता; संसार चलाने के लिए बहुत इंजीनियरों की जरूरत है। यदि तुम्हारी जरूरत है, तो तुम मूल्यवान हो; यदि तुम्हारी जरूरत नहीं है, तो तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है।

लेकिन यदि तुम कवि होना चाहते हो तो कवि हो जाओ। तुम शायद भिखारी रहोगे। ठीक है। तुम कविता करके बहुत धनवान नहीं हो सकते—फिक्र मत करो, क्योंकि हो सकता है तुम बड़े इंजीनियर बन जाओ और शायद तुम बहुत धन भी कमा लो, लेकिन तुम्हें कभी कोई तृप्ति न होगी। तुम सदा प्यासे रहोगे; तुम्हारे प्राण कवि होने के लिए तड़पते रहेंगे।

मैंने सुना है कि एक बड़े वैज्ञानिक, एक नोबल पुरस्कार विजेता सर्जन से पूछा गया, ‘जब आपको नोबल पुरस्कार मिला, तब आप खुश नहीं दिखाई पड़ रहे थे। क्या बात है?’ उसने कहा, ‘मैंने तो सदा नर्तक बनना चाहा था। पहली तो बात यह कि मैं सर्जन कभी बनना ही नहीं चाहता था। और अब न केवल मैं सर्जन हो गया हूं मैं बहुत सफल सर्जन हो गया हूं और यह एक बोझ है। और मैं तो केवल नर्तक होना चाहता था—और मैं एक मामूली सा नर्तक हूं—यही मेरी पीड़ा है, मेरा संताप है। जब भी मैं किसी को नृत्य करते देखता हूं तो मैं बहुत दुखी होता हूं बहुत पीड़ा अनुभव करता हूं। इस नोबल पुरस्कार का मैं क्या करूंगा? यह मेरे लिए कोई नृत्य तो नहीं हो सकता है; यह मुझे नृत्य नहीं दे सकता है।’

ध्यान रखना, अपनी भीतर की आवाज के प्रति सच्चे रहना। हो सकता है यह तुम्हें खतरे में ले जाए; तो जाना खतरे में, लेकिन भीतर की आवाज के प्रति सच्चे रहना। तो एक संभावना है कि किसी दिन तुम उस अवस्था तक पहुंच जाओगे जहां तुम आंतरिक तृप्ति के साथ नृत्य कर सको। सदा ध्यान रखना, पहली बात है तुम्हारी अंतस सत्ता, और दूसरों को तुम्हें प्रभावित और नियंत्रित मत करने देना। और ऐसे बहुत हैं. हर कोई तैयार है तुम पर नियंत्रण करने के लिए; हर कोई तैयार है तुम्हें सुधारने के लिए; हर कोई तैयार है तुम्हें बिना मांगे सलाह देने के लिए। हर कोई तुम्हें तुम्हारे जीवन के लिए निर्देश दे रहा है।

निर्देश तो तुम्हारे भीतर ही मौजूद है; तुम उसका नक्शा साथ लिए चलते हो। प्रामाणिक होने का अर्थ है स्वयं के प्रति सच्चे होना। यह बहुत खतरनाक बात है; विरले व्यक्ति ही ऐसा कर सकते हैं। लेकिन जब भी लोग ऐसा करते हैं तो उन्हें बहुत मिलता है। वे एक ऐसा सौंदर्य पा लेते हैं, ऐसा प्रसाद, ऐसी संतुष्टि—जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि प्रत्येक व्यक्ति इतना हताश दिखाई देता है तो कारण यही है कि कोई अपनी भीतर की आवाज को नहीं सुन रहा है।

तुम किसी लड़की से शादी करना चाहते थे, लेकिन वह लड़की मुसलमान थी और तुम हिंदू ब्राह्मण हो। तुम्हारे माता—पिता ने इजाजत नहीं दी। समाज स्वीकार नहीं करेगा; यह बात खतरनाक थी। लड़की गरीब थी और तुम अमीर हो। तो तुमने विवाह कर लिया किसी अमीर स्त्री से, हिंदू ब्राह्मण स्त्री से, जो स्वीकार किया गया सब के द्वारा—लेकिन तुम्हारे हृदय द्वारा नहीं। तो अब तुम एक असुंदर जीवन जीते हो। अब तुम किसी वेश्या के पास जाते हो। लेकिन वेश्याएं भी तुम्हारे काम न आएंगी। तुमने बेकार गंवाया अपना पूरा जीवन। तुमने व्यर्थ किया अपना पूरा जीवन।

सदा भीतर की आवाज को ही सुनना, और किसी बात को मत सुनना। हजारों प्रलोभन हैं तुम्हारे चारों ओर, क्योंकि बहुत से लोग अपनी— अपनी चीजों को बेच रहे हैं। एक बड़ा बाजार है यह संसार और हर किसी को अपनी चीज तुम्हें बेच देने में रुचि है, हर कोई सेल्समैन है। यदि तुम बहुत से सेल्समैनों की बातें सुनते हो तो तुम पागल हो जाओगे। किसी की मत सुनो, अपनी आंखें बंद कर लो और भीतर की आवाज को सुनो। यही है ध्यान. भीतर की आवाज को सुनना। यह पहली बात है।

फिर दूसरी बात—यदि तुमने पहली बात पूरी कर ली है, केवल तभी दूसरी संभव है—कोई मुखौटा कभी मत ओढो। यदि तुम क्रोधित हो, तो क्रोधित हो। खतरा है इसमें, तो भी मुस्कुराओ मत, क्‍योंकि वह झूठ हो जाना है।

लेकिन तुम्हें सिखाया गया है कि जब क्रोध आए तो मुस्कुराओ। तब तुम्हारी मुस्कुराहट झूठी हो जाती है, एक मुखौटा हो जाती है। मात्र एक व्यायाम ओंठों का, और कुछ भी नहीं। हृदय तो क्रोध से भरा है, विषाक्त है और ओंठ मुस्कुरा रहे हैं—तुम एक नकली आदमी हो जाते हो।

फिर एक दूसरी बात भी होती है : जब तुम सच में मुस्कुराना चाहते हो, तब भी तुम मुस्कुरा नहीं सकते। तुम्हारा सारा भीतरी ढांचा उलट—पुलट हो जाता है। क्योंकि जब तुम क्रोधित होना चाहते थे तो न हुए; जब तुम घृणा करना चाहते थे तो तुमने न की। अब तुम प्रेम करना चाहते हो, तो अचानक तुम पाते हो कि भीतरी रचना—तंत्र काम ही नहीं करता। अब तुम मुस्कुराना चाहते हो, तो तुम्हें जबरदस्ती मुस्कुराना पड़ता है। तुम्हारा हृदय हंसी से भरा हुआ है और तुम जोर से हंसना चाहते हो, लेकिन तुम हंस नहीं सकते। कोई चीज हृदय में घुटने लगती है, गले में कुछ फंसने लगता है। मुस्कुराहट आती ही नहीं, और यदि आ भी जाए तो वह बडी दबी—दबी और मरियल सी मुस्कुराहट होती है। वह तुम्हें आंदोलित नहीं करती। तुम जोर से खिलखिलाते नहीं। वह तुमसे एक आभा की तरह विकीरित नहीं होती।

इसलिए जब तुम क्रोधित होना चाहो, तो हो जाना क्रोधित। कुछ गलत नहीं है क्रोधित होने में। यदि तुम हंसना चाहते हो, तो हंसना। कुछ बुराई नहीं है जोर से हंसने में। धीरे— धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारा पूरा शरीर, भीतर की पूरी व्यवस्था बिना अवरोध के काम कर रही है। जब वह ठीक से काम करती है तो उसके आस—पास एक गुनगुनाहट होती है। जैसे कि कार में जब हर चीज ठीक काम कर रही होती है, तो एक गुनगुनाहट होती है। जो ड्राइवर कार से प्रेमपूर्वक परिचित होता है वह जानता है कि अब हर चीज ठीक काम कर रही है; एक तालमेल है, यंत्र—व्यवस्था ठीक से काम कर रही है।

तुम जान सकते हो; जब भी किसी व्यक्ति का रचना—तंत्र ठीक काम कर रहा होता है, तब तुम उसके चारों ओर की गुनगुनाहट को सुन सकते हो। वह चलता है, लेकिन उसके चलने में एक नृत्य होता है। वह बोलता है, लेकिन उसके शब्दों में एक काव्य होता है। वह देखता है तुम्हारी ओर, और वह सच में देखता है; उसका देखना कुनकुना—कुनकुना नहीं होता, ऊष्मापूर्ण होता है। जब वह छूता है तुम्हें, तो सचमुच छूता है तुम्हें। तुम अनुभव कर सकते हो उसकी ऊर्जा को अपने शरीर में प्रवाहित होते हुए; एक जीवन—तरंग तुम्हें छू रही होती है। क्योंकि उसकी भीतरी रचना ठीक—ठीक काम कर रही होती है।

तो मुखौटे मत ओढ़ना; अन्यथा तुम विकृतियां निर्मित कर लोगे अपनी संरचना में—ग्रंथियां निर्मित कर लोगे। तुम्हारे शरीर में बहुत सी ग्रंथियां हैं। जो व्यक्ति क्रोध का दमन करता है, उसके मसूढे सख्त हो जाते हैं। सारा क्रोध मसूढ़ों में इकट्ठा हो जाता है। उसके हाथ कुरूप हो जाते हैं। उनमें किसी नृत्यकार जैसी लोचपूर्ण भंगिमा नहीं होती। नहीं हो सकती, क्योंकि क्रोध अंगुलियों में इकट्ठा हो जाता है। ध्यान रहे, क्रोध के निकलने के दो स्थल हैं। एक है दात, दूसरा है अंगुलियां : क्योंकि सारे जानवर जब क्रोधित होते हैं तो वे तुम्हें कांटते हैं दांतों से या वे तुम्हें चीरना—फाड़ना शुरू कर देते हैं हाथों से। तो नाखून और दात दो स्थल हैं जहां से कि क्रोध निकलता है।

मेरा अपना खयाल है कि जहां भी क्रोध को बहुत ज्यादा दबाया जाता है, वहा लोगों को दांतों की तकलीफ होती है, उनके दात खराब हो जाते हैं। क्योंकि बहुत ज्यादा ऊर्जा होती है और कभी

निकलती नहीं। और जो भी क्रोध को दबाता है, वह खाएगा ज्यादा, क्रोधित व्यक्ति सदा ज्यादा खाएंगे, क्योंकि दांतों को कोई न कोई व्यायाम चाहिए। क्रोधित व्यक्ति सिगरेट ज्यादा पीएंगे। क्रोधित व्यक्ति बातें ज्यादा करेंगे, वे पागलपन की हद तक बातें कर सकते हैं, क्योंकि जबड़ों को किसी न किसी तरह का व्यायाम चाहिए ताकि ऊर्जा थोड़ी निकल जाए। और क्रोधी व्यक्तियों के हाथ गांठदार और कुरूप हो जाते हैं। यदि ऊर्जा निकल जाती, तो वे हाथ सुंदर हो सकते थे।

जब भी तुम कुछ दबाते हो, तो शरीर में कोई हिस्सा कठोर हो जाता है, उस भाव विशेष से मेल खाता हुआ हिस्सा कठोर हो जाता है। यदि तुम रोते नहीं, तो तुम्हारी आंखें चमक खो देंगी। क्योंकि आंसू जरूरी हैं; वे बहुत जीवंत घटना हैं। जब कभी—कभार तुम रोते हो, सचमुच ही तुम उस रोने में डूब जाते हो—पूरे हृदय से रो लेते हो—और आंसू बहने लगते हैं तुम्हारी आंखों से, तो तुम्हारी आंखें धुल जाती हैं। तुम्हारी आंखें फिर से ताजी, युवा और कुंआरी हो जाती हैं।

इसीलिए स्त्रियों की आंखें ज्यादा सुंदर होती हैं, क्योंकि वे अभी भी रो सकती हैं। पुरुष ने अपनी आंखों की चमक खो दी है, क्योंकि उनके पास गलत धारणा है कि पुरुषों को रोना नहीं चाहिए। यदि कोई छोटा लड़का भी रोता है तो दूसरे लोग, यहां तक कि मां—बाप भी कहते हैं, ‘क्या कर रहे हो तुम? क्या लड़कियों जैसे रो रहे हो?’ कितनी नासमझी चल रही है! क्योंकि ईश्वर ने तो तुम्हें—स्त्री—पुरुष दोनों को—एक जैसी अश्रु —ग्रंथियां दी हैं। यदि पुरुष को रोना नहीं होता, तो अश्रु—ग्रंथियां ही न दी होतीं। सीधा—साफ गणित है। पुरुष में उसी अनुपात में अश्रु—ग्रंथियां क्यों हैं जितनी स्त्री में हैं?

आंखों को जरूरत है रोने की, आंसुओ की, और बहुत ही सुंदर बात है यदि तुम पूरे हृदय से रो सको और आंसू बहा सको। ध्यान रहे, यदि तुम रो नहीं सकते पूरे हृदय से, तो तुम हंस भी नहीं सकते, क्योंकि वह दूसरा छोर है। जो लोग हंस सकते हैं, वे रो भी सकते हैं; जो लोग रो नहीं सकते, वे हंस भी नहीं सकते। और तुमने कभी ध्यान दिया होगा बच्चों की इस बात पर : यदि वे जोर से और ज्यादा देर तक हंसते हैं तो उनके आंसू आ जाते हैं। क्योंकि दोनों चीजें जुड़ी हुई हैं। गांवों में मैंने सुना है माताएं बच्चों से कहती हैं : ‘बहुत ज्यादा मत हंसो, वरना तुम रोने लगोगे।’ वस्तुत: सच है बात, क्योंकि घटना अलग नहीं है—वही ऊर्जा विपरीत ध्रुव की ओर चली जाती है।

तो दूसरी बात : मुखौटे मत पहनना, सच्चे रहना—किसी भी मूल्य पर।

और तीसरी बात प्रामाणिकता के संबंध में : सदा वर्तमान में रहना—क्योंकि सारा झूठ प्रवेश करता है या तो अतीत से या फिर भविष्य से। जो बीत चुका वह बीत चुका—उसकी फिक्र मत करना। और उसे किसी बोझ की भांति मत ढोना : अन्यथा वह तुम्हें वर्तमान के प्रति प्रामाणिक न होने देगा। और जो अभी घटा नहीं, वह तो अभी घटा ही नहीं—भविष्य के लिए अनावश्यक रूप से चिंतित मत होना; अन्यथा वह वर्तमान में आ जाएगा और उसे नष्ट कर देगा। वर्तमान के प्रति सच्चे रहना, और तब तुम प्रामाणिक होओगे। यहीं और अभी होना प्रामाणिक होना है। कोई अतीत नहीं, कोई भविष्य नहीं : यही क्षण है सब कुछ, यही क्षण है संपूर्ण शाश्वतता।

ये तीन बातें, और तुम उसे उपलब्ध हो जाते हो, जिसे पतंजलि सत्य कहते हैं। तब जो कुछ भी तुम कहोंगे, सच होगा। साधारणत: तुम सोचते हो कि तुम्हें सच कहने के लिए सजग रहना होता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं : तुम प्रामाणिकता निर्मित करो—फिर जो कुछ भी तुम कहते हो, वह सच होगा। एक प्रामाणिक व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकता है; वह जो भी कहता है, सच होगा।

योग में हमारी एक परंपरा है—शायद तुम्हारे लिए इस पर विश्वास करना भी संभव न हो; मैं विश्वास करता हूं क्योंकि मैंने इसे जाना है, मैंने इसे अनुभव किया है : यदि एक सच्चा प्रामाणिक व्यक्ति झूठ भी बोल दे, तो वह झूठ सच हो जाएगा, क्योंकि प्रामाणिक व्यक्ति झूठ बोल नहीं सकता। इसीलिए पुराने शास्त्रों में कहा गया है, ‘यदि तुम प्रामाणिकता का अभ्यास कर रहे हो, तो किसी के विरुद्ध कुछ कहने के प्रति सजग रहना—क्योंकि वह सच हो सकता है।’ हमारे पास बहुत सी कथाएं हैं महान ऋषियों की, जिन्होंने क्रोध में कुछ कह दिया, लेकिन वे इतने प्रामाणिक थे कि..।

तुमने सुना होगा दुर्वासा का नाम—स्व महान ऋषि, प्रामाणिक व्यक्ति, लेकिन यदि वह कुछ कह दे, तो उसे वह स्वयं भी वापस नहीं ले सकता। यदि वह शाप दे देता है किसी को, तो वह शाप पूरा होगा ही। यदि वह कह दे, ‘तुम कल मर जाओगे।’ तो तुम कल मर ही जाओगे, क्योंकि प्रामाणिकता के उस स्रोत से झूठ का आना संभव ही नहीं है। पूरा अस्तित्व समर्थन करता है प्रामाणिक व्यक्ति का। और फिर वह व्यक्ति भी उसे वापस नहीं ले सकता।

सुंदर है बात। इसीलिए लोग महान ऋषियों के पास उनका आशीर्वाद पाने के लिए जाते हैं : यदि वे आशीष दे दें, तो बात होकर रहेगी। यही है अर्थ, और कुछ भी नहीं। वे जाते हैं और मांगते हैं आशीष। यदि ऋषि आशीष दे देता है, तो उन्हें चिंता नहीं रहती; अब बात पूरी होगी ही, क्योंकि एक प्रामाणिक व्यक्ति झूठ कैसे कह सकता है! यदि वह झूठ भी हो, तो भी सच होने ही वाला है। तो मैं नहीं कहता, ‘सच बोलो।’ मैं कहता हूं ‘प्रामाणिक रही और जो भी तुम कहते हो, सच होगा।’

तीसरा है अस्तेय, अचौर्य—चोरी न करना, ईमानदारी। मन बड़ा चोर है। बहुत तरीकों से वह चोरी करता है। हो सकता है तुम लोगों की चीजें न चुराते हो। लेकिन तुम विचारों को चुरा सकते हो। मैं तुमसे कहता हूं कोई बात; तुम बाहर जाते हो और तुम दिखाते हो कि वह तुम्हारा ही विचार है। तो तुमने उसे चुराया है, तुम चोर हो। शायद तुम्हें पता भी नहीं होगा कि तुम क्या कर रहे हो।

पतंजलि कहते हैं, ‘अचौर्य की अवस्था में रहना।’ ज्ञान, चीजें—कुछ भी चुराना नहीं चाहिए। तुम्हें मौलिक होना चाहिए और सदा सजग रहना चाहिए कि ‘ये चीजें मेरी नहीं हैं।’ खाली रहो, वह बेहतर है, लेकिन अपने घर को चुराई हुई चीजों से मत भर लेना। क्योंकि यदि तुम चोरी करते रहते हो, तो तुम सारी मौलिकता खो दोगे। तब तुम कभी न खोज पाओगे तुम्हारा अपना आकाश. तुम भर जाओगे दूसरों की धारणाओं से, विचारों से, बातों से। और अंततः वे किसी मूल्य की सिद्ध नहीं होतीं। केवल वही मूल्यवान है, जो कि तुम से आता है। असल में केवल वही तुम्हारा है जो तुम से आता है, और कुछ भी नहीं। तुम चुरा तो सकते हो, लेकिन तुम उसका आनंद नहीं ले सकते।

एक चोर कभी निश्चित नहीं होता, हो नहीं सकता—उसे सदा पकड़े जाने का भय होता है। और यदि उसे कोई न भी पकड़ पाए, तो भी वह तो जानता ही है कि वह चीज उसकी नहीं है। यह बात एक निरंतर बोझ बनी रहती है उसके हृदय पर।

पतंजलि कहते हैं, ‘चोर मत बनो—किसी भी ढंग से, किसी भी आयाम से।’ ताकि तुम्हारी मौलिकता का फूल खिल सके। स्वयं को चुराई हुई चीजों और विचारों द्वारा, दर्शन—सिद्धांतों द्वारा, धर्मों द्वारा मत बोझिल करना। खिलने देना अपने अंतर—आकाश के फूल को।

चौथा है ब्रह्मचर्य। इसका अर्थ किया जाता रहा है काम—निग्रह। यह बात ठीक नहीं, क्योंकि ब्रह्मचर्य एक व्यापक शब्द है, बहुत विराट शब्द है। काम—निग्रह बहुत संकीर्ण बात है; वह एक हिस्सा है इसका, लेकिन पूरी बात नहीं है। ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ है—’ब्रह्म जैसी चर्या।’ इस शब्द का ही अर्थ है ईश्वर की भांति जीवन, ईश्वरीय जीवन।

निश्चित ही, ईश्वरीय जीवन में कामवासना तिरोहित हो जाती है। लेकिन ब्रह्मचर्य कामवासना के विरुद्ध नहीं है। यदि वह कामवासना के विरुद्ध है तो कामवासना कभी तिरोहित नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य रूपांतरण है ऊर्जा का : यह कामवासना के विरुद्ध नहीं है, बल्कि यह पूरी ऊर्जा को काम—केंद्र से हटा कर उच्चतर केंद्रों तक ले जाने की बात है। जब यह ऊर्जा व्यक्ति के सातवें केंद्र तक, सहस्रार तक पहुंचती है, तब ब्रह्मचर्य घटित होता है। यदि वह पहले ही केंद्र में, मूलाधार में बनी रहती है, तो कामवासना होती है। जब वह सातवें केंद्र पर पहुंचती है, तो समाधि होती है। एक ही ऊर्जा यात्रा करती है। यह उसके विरुद्ध होने की बात नहीं; उलटे यह एक कला है कि इसका उपयोग कैसे किया जाए।

जो व्यक्ति कामवासना में डूबा है, वह आत्मघाती है। वह अपनी ही ऊर्जा को नष्ट कर रहा है। वह उस आदमी की भांति है जो बाजार जाता है, अपने हीरे दे देता है और कंकड़—पत्थर खरीद लेता है—और प्रसन्न होकर घर लौट आता है कि उसने कोई बड़ा सौदा किया। कामवासना में तुम इतना छुद्र पाते हो—एक छोटी सी लहर प्रसन्नता की। और तुम इतनी ऊर्जा खो देते हो! वही ऊर्जा तुम्हें असीम आनंद दे सकती है, लेकिन तब उसे ऊंचे उठना होता है।

तो कामवासना को रूपांतरित करना है—उसके विरुद्ध मत हो जाना। यदि तुम उसके विरुद्ध हो, तो तुम उसका रूपांतरण नहीं कर सकते; क्योंकि जब तुम किसी चीज के विरोध में होते हो, तो तुम उसे समझ नहीं सकते। समझने के लिए बड़ी सहानुभूति चाहिए। यदि तुम विरोध में हो, तो तुम कैसे सहानुभूति रख सकते हो। जब तुम शत्रुता रखते हो किसी चीज के प्रति, तो तुम निरीक्षण भी नहीं कर सकते। तुम अलग हट जाना चाहते हो अपने शत्रु से; तुम बचना चाहते हो शत्रु से।

अपनी कामवासना के साथ मैत्रीपूर्ण रहना, क्योंकि वह तुम्हारी ऊर्जा है; उसमें बड़ी संभावनाएं छिपी हैं। वह ईश्वर है—अपरिष्कृत। कामवासना अनगढ़ समाधि है। वह रूपांतरित हो सकती है, वह परिवर्तित हो सकती है, वह परिष्कृत हो सकती है। संपूर्ण योग मार्ग है—निम्न को उच्चतर में रूपांतरित करने का, परिवर्तित करने का। सारी कला यही है कि लोहे को सोने में कैसे बदला जाए। योग कीमिया है, तुम्हारे आंतरिक जगत की कीमिया है।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है : काम—ऊर्जा को समझने की कोशिश, यह समझने की कोशिश कि कैसे वह तुम्हारे भीतर गतिशील होती है; यह समझने की कोशिश कि सच में आनंद आता कहां से है—वह संभोग से आता है? काम—ऊर्जा की निर्मुक्ति से आता है? या कहीं और से आता है? यदि तुम सजग होकर देखो, तो जल्दी ही तुम जान लोगे और देख लोगे कि वह कहीं और से आ रहा है। जब तुम सभोगरत होते हो, तो एक धक्का लगता है सारे शरीर को। एक झटका लगता है, क्योंकि इतनी सारी ऊर्जा निर्मुक्त होती है; सारा शरीर कैप जाता है झटके से। उस झटके में विचार ठहर जाते हैं। वह बिलकुल बिजली के झटके की भांति होता है।

कोई व्यक्ति पागल हो जाता है; तुम मनोचिकित्सक के पास जाते हो और वह उसे बिजली के झटके देता है। क्यों? क्योंकि यदि बिजली का झटका दिया जाए, तो पल भर के लिए जब झटका गुजरता है दिमाग से तो हर चीज ठहर जाती है। उदाहरण के लिए, तुम मुझे सुन रहे हो। फिर भी विचार चल रहे होंगे। यदि अचानक यहां एक बम फूट जाए : तुरंत कहीं कोई विचार न रहेगा। क्षण भर को झटका इतना ज्यादा हो जाएगा कि सारी बाहरी— भीतरी संरचना काम करना बंद कर देगी। बिजली का झटका मदद देता है पागल व्यक्तियों को, क्योंकि झटका एक गैप देता है। झटके के बाद उन्हें याद नहीं रहता कि वे इसके पहले क्या थे। यदि वे उससे पहले सोच रहे होते हैं कि वे घोड़ा बन गए हैं—पागल व्यक्ति कुछ भी बन सकते हैं—यदि वे झटके के पहले सोच रहे होते हैं कि वे घोड़ा बन गए हैं तो झटके के बाद उन्हें याद नहीं रहता कि वे किस विचार से ग्रस्त थे। अब एक नया वर्तुल शुरू हो जाता है। झटका मदद करता है।

काम—ऊर्जा भी विद्युत—ऊर्जा है। सभी ऊर्जाएं विद्युत—ऊर्जाएं हैं, और काम—ऊर्जा जैविक—विद्युत है। वह आती है तुम्हारे शरीर से।

क्या तुमने स्वीडन की एक स्त्री के बारे में सुना है? उसके शरीर में कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है। वह पांच कैंडल का बल्व हाथ में लेती है और बल्व जल उठता है। पांच कैंडल का बल्व जल सकता है उसके हाथ में। लेकिन ऐसा मत सोचने लगना कि बहुत अच्छा होगा यदि यह तुम्हें भी घट जाए। वह मुसीबत में है, क्योंकि उसका पति उसे छूता है तो उसे झटका लगता है। उस स्त्री से कोई प्रेम नहीं कर सकता। ऐसा झटका लगेगा कि व्यक्ति सदा के लिए भूल जाएगा स्त्रियों को। अब मामला अदालत में है, क्योंकि ऐसे किसी मामले का कोई उल्लेख नहीं है और कोई कानून नहीं है : पति ने तलाक मांगा है क्योंकि यह स्त्री इतने झटके दे रही है उसे कि वह भयभीत हो गया है। कुछ गड़बड़ हो गई है उसकी शारीरिक संरचना में—स्व शार्ट—सर्किट!

तो कामोत्तेजना में तुम ऊर्जा निर्मित करते हो; कामवासना का विचार, कल्पना, इच्छा द्वारा तुम ऊर्जा निर्मित करते हो। वह ऊर्जा सरकती है मूलाधार की ओर, काम—केंद्र की ओर, वहा इकट्ठी हो जाती है। फिर जब ऊर्जा एक सीमा से ज्यादा इकट्ठी हो जाती है तब अचानक विस्फोट होता है—सारे शरीर को झटका लगता है; फिर एक शाति उतर आती है। बहुत मंहगी है यह शाति। तुम मूल्यवान जीवन—ऊर्जा खो रहे हो—व्यर्थ में ही।

अब एक वैज्ञानिक, जो बड़ा प्रसिद्ध है और बड़ा खतरनाक है भविष्य के लिए—उसका नाम है देलगादो—उसने एक छोटा सा यंत्र बनाया है; तुम उसे जेब में रख सकते हो। उसे मस्तिष्क में तुम्हारे काम—केंद्र से जोड़ा जा सकता है जहां से शरीर का काम—केंद्र नियंत्रित होता है—एक तार तुम्हारे मस्तिष्क के काम—केंद्र से इस यंत्र तक जुड़ा रहता है। तुम उसे जेब में रख सकते हो. जब भी तुम सेक्स का आनंद लेना चाहो, तुम बटन को दबाओ। वह बैटरी से झटका देता है मस्तिष्क के काम—केंद्र को; तुम्हें बड़ा सुख मिलता है। यह बड़ा अच्छा है, लेकिन खतरनाक है यह—खतरनाक इसलिए है क्योंकि तब तुम रुकोगे नहीं, तुम दबाते ही जाओगे बटन!

ऐसा हुआ। देलगादो ने प्रयोग किया चूहों पर, एक दर्जन चूहों पर, और उसने इलेक्ट्रोड रख दिए उनके मस्तिष्क में। बटन ठीक सामने ही था उनके, और उसने उन्हें सिखा दिया कि कैसे उसे

दबाना है। वे पागल हो गए। एक घंटे में छह हजार बार! जब तक कि वे बेहोश होकर गिर न पड़े, उन्होंने एक न सुनी देलगादो की। वे बस दबाते ही रहे बटन। देलगादो कहता है यदि ऐसा संभव हो जाए मनुष्य के लिए तो कोई भी स्त्रियों में रुचिन लेगा; किसी स्त्री को पुरुषों में रुचि न रहेगी, क्योंकि यह तो सब उपद्रव से छुटकारा है!

अभी कल ही मैं पढ़ रहा था मारपा का वाक्य कि ‘स्त्री उपद्रव की जड़ है।’ वह है। यह यंत्र बहुत सुविधाजनक है। कोई झंझट नहीं। पुरुष भी उपद्रव की जड़ है, क्योंकि जब भी दोनों मिलते हैं, दो उपद्रवी ही मिलते हैं। यह यंत्र बड़ा सुविधाजनक है, लेकिन बड़ा खतरनाक भी है, क्योंकि वे चूहे. जाते ही नहीं खाने की तरफ, पानी की तरफ। वे सोते भी नहीं। और कोई मंहगा आयोजन नहीं है—केवल बिजली का खेल है।

वैसा ही कुछ घट रहा होता है, जब तुम संभोग कर रहे होते हो स्त्री से या पुरुष से। पूरी बात बचकानी है। तुम हंसते हो चूहों पर। लेकिन क्या तुम स्वयं पर हंसे हो? यदि तुम स्वयं पर नहीं हंसे, तो तुम्हें चूहों पर नहीं हंसना चाहिए—यह ठीक नहीं है। अपने मन को देखो. चूहा वहां मौजूद है, निरंतर स्वप्न निर्मित कर रहा है।

ब्रह्मचर्य है : पूरी बात को समझ लेना कि क्या घट रहा है। और यदि झटकों द्वारा तुम थोड़े शांत हो जाते हो और तुम थोड़ी सी झलक प्रसन्नता की पा लेते हो—तो वह शाश्वत नहीं हो सकती है। वह केवल क्षणिक ही हो सकती है। और जल्दी ही ऊर्जा खो जाएगी और फिर तुम हताश हो जाओगे। नहीं, कुछ और तलाशना है और खोजना है—कुछ शाश्वत, कुछ सनातन, जिससे कि तुम हमेशा आनंदपूर्ण रहो। वैसा झटकों से नहीं हो सकता है; वह केवल ऊर्जा के रूपांतरण द्वारा ही हो सकता है।

जब वही ऊर्जा ऊपर की ओर गतिमान होती है तो तुम ऊर्जा के एक बांध बन जाते हो। वह है ब्रह्मचर्य। तुम ऊर्जा संचित करते हो। जितनी अधिक ऊर्जा तुम संचित करते हो, उतनी वह ऊंची उठती है—बांध की भांति ही। होगी वर्षा, और पानी का तल और— और ऊंचा होता जाएगा। लेकिन यदि कहीं छिद्र है, तो पानी का तल ऊंचा नहीं उठ पाएगा। कामवासना छिद्र है तुम्हारे अस्तित्व में। यदि छिद्र नहीं है, तो ऊर्जा का तल और ऊंचा, और—और ऊंचा उठता चला जाता है, और एक घड़ी आती है—तब वह गुजरता है बहुत से केंद्रों से। पहले वह आता है हारा तक, मूलाधार से उठ कर वह आता है दूसरे केंद्र तक। उस केंद्र पर तुम्हें अमरता की अनुभूति होती है; तुम सजग हो जाते हो कि कुछ है जो कभी मरता नहीं है। भय तिरोहित हो जाता है।

क्या तुमने ध्यान दिया कि जब भी तुम भयभीत होते हो, तो कोई चीज ठीक तुम्हारी नाभि पर चोट करती है? वही है मृत्यु का और अमरत्व का केंद्र। जब ऊर्जा गुजरती है उस केंद्र से, आ जाती है उस तल तक, तब तुम अमरत्व अनुभव करते हो। यदि कोई तुम्हें मार भी डाले, तो तुम जानते हो कि तुम्हें नहीं मारा जा रहा है. ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे—शरीर को मारने से आत्मा नहीं मरती।’

फिर ऊर्जा और ऊपर उठती है—तीसरे केंद्र पर पहुंचती है। तीसरे केंद्र पर तुम बहुत शांत होने लगते हो। क्या तुमने कभी ध्यान दिया कि जब भी तुम शांत होते हो, तो तुम पेट द्वारा श्वास लेने लगते हो—न कि छाती द्वारा? क्योंकि शांति का केंद्र ठीक नाभि के ऊपर है। नाभि के नीचे मृत्यु का

और अमरत्व का केंद्र है; नाभि के ऊपर शांति का और तनावों का केंद्र है। यदि कोई ऊर्जा नहीं होती, तो तुम तनाव अनुभव करोगे; यदि कोई ऊर्जा नहीं होती तो तुम भय अनुभव करोगे। यदि वहां ऊर्जा होती है, तो तनाव तिरोहित हो जाता है; तुम बहुत विश्रामपूर्ण, निस्तरंग, शांत, मौन, प्रकृतस्थ अनुभव करते हो।

फिर ऊर्जा उठती है चौथे केंद्र तक, हृदय—केंद्र तक। वहां प्रेम उदित होता है। ठीक अभी तो तुम प्रेम नहीं कर सकतेग और जिसे तुम प्रेम कहते हो, वह सिवाय कामवासना के और कुछ नहीं है। प्रेम’ केवल सुंदर आवरण है। यह शब्द तुम्हारे अनुरूप नहीं है—हो नहीं सकता है। प्रेम केवल तब संभव होता है जब ऊर्जा हृदय के चौथे केंद्र तक पहुंच जाती है। अचानक ही तुम प्रेममय होते हो—संपूर्ण अस्तित्व के प्रेम में होते हो, प्रत्येक चीज के प्रेम में होते हो, तुम प्रेम ही होते हो।

फिर ऊर्जा आती है पांचवें केंद्र तक, गले में आती है। वह केंद्र है मौन का केंद्र—मौन, सोच—विचार, वाणी। वाणी और मौन—दोनों हैं वहां। अभी तो तुम्हारा गला केवल बोलने का ही काम करता है। वह नहीं जानता कि मौन कैसे रहना होता है, कैसे उतरना होता है मौन में। जब ऊर्जा वहा पहुंचती है, तो अचानक तुम मौन हो जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम कोई प्रयास करते हो, ऐसा नहीं है कि तुम अपने साथ जबरदस्ती करते हो मौन होने के लिए—तुम स्वयं को मौन, मौन से भरा हुआ पाते हो। यदि तुम्हें बोलना भी हो, तो तुम्हें प्रयास करना पड़ता है। और तुम्हारी आवाज मधुर हो जाती है। जो कुछ भी तुम कहते हो, वह काव्य हो जाता है—तुम्हारे शब्दों में एक जीवंतता होती है। और तुम्हारे शब्द मौन संजोए होते हैं अपने आस—पास। वस्तुत: तुम्हारा मौन तुम्हारे शब्दों की अपेक्षा अधिक मुखर हो जाता है।

फिर ऊर्जा उठती है छठवें केंद्र तक, तीसरी आंख तक। वहां तुम अनुभव करते हो—प्रकाश, सजगता, चेतना। वही है जगह जहां नींद घटित होती है, सम्मोहन घटित होता है। क्या तुमने किसी सम्मोहन करने वाले को ध्यान से देखा है? वह तुम्हें एक बिंदु पर टकटकी लगा कर देखने को कहता है। जब तुम अपनी दोनों आंखों को एक बिंदु पर स्थिर कर देते हो, तो तुम्हारी तीसरी आंख सो जाती है। वह एक तरकीब है तीसरी आंख को सुला देने की।

जब ऊर्जा तीसरी आंख तक पहुंचती है, तुम बहुत प्रकाश से भरा हुआ अनुभव करते हो, सारा अंधकार तिरोहित हो जाता है, असीम प्रकाश घिर जाता है तुम्हारे चारों ओर। वस्तुत: तब तुम में कोई छाया नहीं बचती। तिब्बत में एक बहुत पुरानी कहावत है. ‘जब योगी बोध को उपलब्ध होता है तो उसके शरीर की छाया नहीं पड़ती।’ इसे अक्षरश: मत मान लेना—शरीर तो छाया बनाएगा ही। लेकिन भीतर क्योंकि बहुत प्रकाश है हर जगह—बिना स्रोत का प्रकाश है..। यदि प्रकाश किसी स्रोत से आता है तो छाया बनेगी ही; बिना स्रोत का प्रकाश है. तो कहीं कोई छाया नहीं बन सकती।

और अब जीवन का एक अलग ही अर्थ और आयाम होता है। तुम चलते हो धरती पर, लेकिन तुम अब धरती के नहीं हो, जैसे कि तुम उड़ रहे होते हो। तुम आ गए बुद्धत्व के निकटतम। अब बहुत निकट है बगीचा; आने लगी सुगंध। इस जगह, पहली बार, तुम सक्षम होते हो बुद्ध को समझने में। इससे पहले धीरे— धीरे थोड़ी— थोड़ी समझ आशिक—रूप से घटित होती है तुम्हें, लेकिन पूरी समझ घटित नहीं होती। लेकिन इस जगह तुम करीब होते हो, एकदम करीब होते हो द्वार के। मंदिर आ गया; एक दस्तक—और द्वार खुल जाएगा और तुम बुद्ध हो जाओगे। अब, इतने करीब और इतने निकट तुम पहली बार अनुभव करते हो कि समझ क्या है!

और फिर ऊर्जा उठती है सातवें केंद्र तक, सहस्रार तक। वहा वह बन जाती है ब्रह्मचर्य, दिव्य जीवन। फिर तुम मनुष्य न रहे। फिर तुम ईश्वर हो जाते हो। तुमने भगवत्ता, दिव्यता उपलब्ध कर ली होती है। यह है ब्रह्मचर्य।

और फिर है अपरिग्रह। और केवल ब्रह्मचर्य के बाद ही, जब तुम परम तृप्ति को उपलब्ध हो जाते हो, तुम मालिक होते हो संसार के—बिना किसी मालकियत के। लेकिन धीरे— धीरे तुम्हें स्वयं को तैयार करना होता है अपरिग्रह के लिए। किसी पर मालकियत मत करो, क्योंकि जब भी तुम मालकियत करते हो, तो तुम इतना ही दिखाते हो कि तुम भिखारी हो। जब भी तुम मालकियत जमाने की कोशिश करते हो, तो तुम इतना ही दिखाते हो कि तुम उसके मालिक नहीं हो; अन्यथा किसी प्रयास की जरूरत ही नहीं है। तुम मालिक हो। उसके लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।

उदाहरण के लिए. तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो। यदि तुम उस व्यक्ति पर मालकियत जमाने की कोशिश करते हो, तो तुम प्रेम नहीं करते। और तुम उसके प्रेम के संबंध में भी सुनिश्चित नहीं हो, इसीलिए तुम सुरक्षा के सारे उपाय करते हो; हर तरकीब से, चालाकी से, होशियारी से उसे घेरते हो, ताकि वह तुम्हें छोड़ न सके। लेकिन तुम प्रेम की हत्या कर रहे हो। प्रेम स्वतंत्रता है; प्रेम स्वतंत्रता देता है; प्रेम स्वतंत्रता में जीता है—प्रेम मौलिक रूप में स्वतंत्रता है। तुम नष्ट कर दोगे सारी बात। यदि तुम सचमुच ही प्रेम करते हो तो मालकियत जमाने की कोई जरूरत नहीं, तुम इतने गहरे में मालिक हो कि कुछ और की जरूरत क्या है? तुम दावेदार मत बनो; दावा बहुत संकुचित मालूम पड़ेगा। जब तुम सच में मालिक होते हो, तो तुम अपरिग्रही हो जाते हो।

लेकिन व्यक्ति को स्वयं को तैयार करना पड़ता है। तो होशपूर्ण रहो। किसी चीज पर मालकियत जमाने की कोशिश मत करो। ज्यादा से ज्यादा उपयोग कर लो, और अनुगृहीत होओ कि तुम्हें उपयोग करने दिया गया, लेकिन मालकियत मत बनाओ।

परिग्रह कृपणता है; और कृपण व्यक्ति का फूल नहीं खिल सकता। कृपण व्यक्ति सदा ही एक प्रकार की आध्यात्मिक कब्जियत का शिकार होता है, रुग्ण होता है। तुम्हें खुला होना चाहिए, बांटना चाहिए। जो कुछ तुम्हारे पास है, बाँटो उसे; और वह बढ़ेगा—जितना बांटो उतना वह बढ़ता है। देते जाओ, और तुम निरंतर फिर— फिर भर दिए जाते हो। स्रोत शाश्वत है; कृपण मत बनो। और जो कुछ भी है—प्रेम, समझ—जों कुछ भी है, बांटो। अपरिग्रह का अर्थ होता है बांटना।

लेकिन तुम नासमझ हो सकते हो, जैसे कि बहुत लोग हैं। वे सोचते हैं, ‘घर छोड़ दो, जंगल चले जाओ, क्योंकि तुम उस घर में कैसे रह सकते हो यदि तुम्हारी उस पर मालकियत नहीं है?’

तुम मजे से रह सकते हो घर में; उस पर मालकियत जमाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम जंगल में रहोगे तो क्या तुम जंगल पर मालकियत कर लोगे? यदि तुम जंगल में बिना मालकियत के रह सकते हो तो समस्या क्या है? तो तुम घर में या दुकान में बिना मालकियत के क्यों नहीं रह सकते? मूढ़ हैं जो कहते हैं, ‘अपने पत्नी—बच्चों को छोड़ दो, भाग जाओ, क्योंकि अपरिग्रह का अभ्यास करना।’

मूढ़ हैं वे। कहां जाओगे तुम? तुम कहीं भी जाओगे तो जहां भी जाओगे, तुम्हारा परिग्रह का भाव तुम्हारे साथ रहेगा। कुछ अंतर नहीं पड़ेगा। तो जहां भी तुम हो, बस समझो, और मालकियत को गिरा दो। कुछ गलत नहीं है तुम्हारी पत्नी में—मत कहो ‘मेरी’ पत्नी। बस ‘मेरा’ गिरा दो। कुछ गलत नहीं है तुम्हारे बच्चों में—सुंदर बच्चे हैं, परमात्मा के बच्चे हैं। तुम्हें एक अवसर मिला है उनकी सेवा करने का और उन्हें प्रेम करने का—उपयोग कर लो इसका, लेकिन मत कहना ‘मेरा’। वे आए हैं तुमसे, लेकिन वे तुम्हारे नहीं हैं। वे भविष्य के हैं, वे संबंध रखते हैं संपूर्ण से। तुम एक मार्ग, एक माध्यम बने, लेकिन तुम मालिक नहीं हो।

. तो क्या जरूरत है कहीं भागने की? जहां भी तुम हों—वहीं रहो। वहीं रहो जहां भी ईश्वर ने तुम्हें रखा है और जीओ अपरिग्रह में, और अचानक ही तुम खिलने लगोगे—ऊर्जाए बहने लगेंगी; तुम एक अवरुद्ध घटना नहीं रह जाओगे; तुम एक प्रवाह बन जाओगे। और प्रवाह सुंदर होता है। अवरुद्ध होकर और बंद होकर जीने का मतलब है—कुरूप और मृत हो जाना।

ये पांच आंतरिक आत्म— अनुशासन आधारभूत आवश्यकताएं हैं।

…….जाति स्थान समय या स्थिति की सीमाओं से परे……।

चाहे तुम आज पैदा हुए हो या तुम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। भारत में ऐसे धर्मोपदेशक हैं जो कहते हैं, ‘इस कलियुग में तुम संबुद्ध नहीं हो सकते!’ और पतंजलि कहते हैं : ‘… जाति, स्थान, समय या स्थिति की सीमाओं से परे…।’ तुम जहां भी हो संबुद्ध हो सकते हो।

समय से कुछ अंतर नहीं पड़ता। होशपूर्ण होने की बात है। स्थान का महत्व नहीं है। चाहे तुम हिमालय में हो या बाजार में, उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। परिस्थिति महत्वपूर्ण नहीं है—चाहे तुम गृहस्थ हो या संन्यासी हो। न जाति—वर्ग का महत्व है—चाहे तुम समृद्ध हो या दरिद्र, शिक्षित हो या अशिक्षित, ब्राह्मण हो या शूद्र, हिंदू हो या मुसलमान, ईसाई हो या यहूदी—कोई बात महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि गहरे में तुम एक हो।

सतह पर बहुत सी भिन्नताएं हो सकती हैं, लेकिन वे केवल सतह पर ही होती हैं; केंद्र अछूता ही रहता है। केंद्र की शुद्धता को पा लेना है। वही लक्ष्य है।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(बोद्यकथा) प्रवचन–19

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चल उड़ जा रे पंछी—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 9 जुलाई 1974(प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना

 भगवान!

नित्य की तरह शिष्यों को उपदेश देने के निमित्त,

भगवान बुद्ध सुबह-सुबह सभागृह में पधारे। श्रोताओं की भीड़ इकट्ठी थी पहले से ही।

इसके पहले कि वे बोलने के लिये अपना मौन तोड़ दें,

एक पक्षी कक्ष के वातायन पर आ बैठा;

परों को फड़फड़ाया, चहका, और फिर उड़ गया।

भगवान बुद्ध ने वातायन की तरफ नजर उठाकर कहा,

‘आज का प्रवचन समाप्त हुआ!’ और वे सभा से चले गए।

भगवान! कृपापूर्वक बतायें कि यह कैसा प्रवचन था और इसमें क्या कहा गया?

जिन्होंने जाना है, वे कहना भी चाहें तो अपने अनुभव को कह नहीं पाएंगे। उसे कहने का कोई उपाय नहीं है। फिर भी उसे व्यक्त किया जा सकता है, इशारे किए जा सकते हैं, इंगित किए जा सकते हैं। और जो समझ सकता हो, तो इशारों को समझ लेगा। और जिसने जिद्द कर रखी हो ना समझने की, तो उसके सामने सूरज भी ऊगा हो तो भी वह आंखें बंद कर लेगा।

मैं एक और कहानी से शुरू करता हूं। एक सम्राट हुआ; बड़ा विचारशील, चिंतन-मनन का प्रेमी, सत्य का खोजी। उसे खबर मिली कि दूर किसी गांव में कोई बड़ा दार्शनिक है, बड़ा तार्किक है, बड़ा बुद्धिमान है। तो उसने अपना संदेशवाहक भेजा। अपने हाथों पत्र लिखा, मोहर लगाई, लिफाफा बंद किया।

संदेशवाहक सम्राट का पत्र लेकर उस दूर की यात्रा पर निकला। जाकर उस दार्शनिक के द्वार पर दस्तक दी, हाथ में पत्र दिया और कहा, सम्राट ने पत्र भेजा है। दार्शनिक ने पत्र को बिना देखे नीचे रख दिया और कहा, पहले तो यह सिद्ध होना जरूरी है, कि सम्राट ने ही पत्र भेजा है या किसी और ने? तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि तुम सम्राट के संदेशवाहक हो?

उस आदमी ने कहा, इसके भी प्रमाण की कोई जरूरत है? मेरे वस्त्र देखें। मैं संदेशवाहक हूं सम्राट का।

दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों से क्या होगा? वस्त्र तो कोई भी पहन सकता है, धोखा दे सकता है। क्या सम्राट ने स्वयं ही तुम्हें अपने हाथों यह पत्र दिया है?

संदेशवाहक भी थोड़ा संदिग्ध हुआ। उसने कहा, यह तो नहीं संभव है क्योंकि मैं और सम्राट तो बहुत दूर हैं। प्रधान वजीर को पत्र दिया होगा सम्राट ने, वजीर से प्रधान अधिकारी के पास आया, फिर मुझे मिला। सीधा तो मुझे नहीं मिला है।

वह दार्शनिक हंसा। उसने कहा, कि तुमने कभी सम्राट को देखा है?

संदेशवाहक ने कहा, मैं बहुत छोटा नौकर हूं, सेवक हूं, सम्राट को देखने का अवसर मुझे नहीं आया।

उस दार्शनिक ने कहा, जिसे तुमने न देखा, जिसने तुम्हें न संदेश दिया, तुम उसके संबंध में कैसे अधिकार से कह सकते हो कि वह है?

इतनी चर्चा होते-होते तो संदेशवाहक भी संदिग्ध हो गया। पत्र की तो जैसे बात ही भूल गई। दोनों निकल पड़े कि जब तक यह प्रमाणित न हो जाए कि सम्राट है, तब तक पत्र को खोलने की जरूरत भी क्या है? दोनों खोजने लगे। अनेक लोगों से पूछा। रास्ते पर एक सिपाही मिला; पूछा, तुम कौन हो? उसने कहा, मैं सम्राट का सैनिक हूं। क्या मेरे वस्त्रों को देखकर तुम नहीं पहचानते? उस दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों के धोखे में तो यह भी था, यह जो मेरे साथ खड़ा है। वस्त्रों से क्या होता है? तुमने सम्राट को अपनी आंखों से देखा?

वह सैनिक भी थोड़ा डगमगाया। उसने कहा कि नहीं मैंने तो नहीं देखा; लेकिन मेरे सेनापति ने देखा है। उस दार्शनिक ने पूछा कि तुमने सेनापति को अपनी आंख से देखा है?

उसने कहा, यह भी खूब! मैंने सेनापति को तो नहीं देखा, सुना है कि सेनापति सम्राट से मिलता है। मैं एक छोटा सैनिक हूं। उतनी पहुंच मेरी नहीं। महल के दरवाजे मेरे लिए बंद हैं। दोनों खिलखिलाकर हंसे–संदेशवाहक और दार्शनिक। और कहा, तुम भी हमारे साथ सम्मिलित हो जाओ। जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि सम्राट है, तब तक यह सब झूठ का जाल फैला हुआ है।

यह कभी सिद्ध न हो सका, क्योंकि जो भी मिला, उसका प्रत्यक्ष कोई अनुभव न था। और बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी, कि यह सिद्ध हो सकता था बड़ी आसानी से; क्योंकि सम्राट ने स्वयं निमंत्रण दिया था कि तुम आओ मेरे महल में, अतिथि बनो। और मैं तुम्हें राज्य का महागुरु बना देना चाहता हूं। लेकिन वह पत्र तो पढ़ा ही नहीं गया। किसी से पूछने की कोई जरूरत न थी। सीधा सम्राट का निमंत्रण था। महल के द्वार खुले थे, स्वागत था।

जिनके मन में संदेह है, बुद्ध के वचन उनके लिए संदेशवाहक की तरह हैं। ये वचन के पत्र बंद ही पड़े रह जाएंगे। वे उन्हें खोलेंगे ही नहीं। क्योंकि पहले तो यह सिद्ध होना चाहिए कि बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। और यह सिद्ध होना करीब-करीब असंभव है। कौन सिद्ध करेगा? कैसे यह सिद्ध होगा? शब्द बंद पड़े रह जाते हैं। कितना कहा गया है! लेकिन तुमने उसे सुना नहीं। कितना शब्दों में भरा गया है, लेकिन वे शब्द तुमने कभी खोले नहीं। उनकी कुंजियां भी साथ ही लटकी थीं, लेकिन तुम्हारा संदेह से भरा चित्त बुद्धत्व की कोई भी झलक को खोल नहीं पाता। तुम सूरज को उगा देखकर आंख बंद कर लेते हो और पूछते हो, सूरज कहां है?

बुद्ध रोज बोलते रहे। जो उन्होंने रोज बोला, वही उन्होंने इस सुबह के प्रवचन में भी बोला। आकर बैठे। सुननेवाले लोग आये थे। एक पक्षी वातायन पर आकर बैठ गया। उसने पंख फड़फड़ाये। उसने गीत गुनगुनाया और उड़ गया। बुद्ध उस पक्षी को देखते रहे–बैठते, फड़फड़ाते, गीत गाते, उड़ जाते। और फिर उन्होंने कहा, ‘आज का प्रवचन पूरा हुआ।’ उस दिन वे कुछ भी न बोले। पर उन्होंने कहा कि ‘आज का प्रवचन पूरा हुआ।’

और यह उनके गहरे से गहरे प्रवचनों में से एक है। इतना ही तो बुद्ध कहते हैं कि संसार तुम्हारा वातायन है। उस पर तुम बैठो, पर उसे तुम घर मत बना लो। वहां तुम थोड़ी देर विश्राम कर लो, लेकिन वह मंजिल नहीं है। बैठकर कहीं पंखों का फड़फड़ाना मत भूल जाना, नहीं तो खुला आकाश सदा के लिये खो जाएगा। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो पंखों की क्षमता खो जाती है। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो शायद भूल ही जाए कि उसके पास पंख भी हैं। क्योंकि क्षमताएं हमें वही याद रहती हैं, जिनका हम उपयोग करते हैं।

जिनका हम उपयोग नहीं करते, वे विस्मरण हो जाती हैं। और जिनका हम उपयोग नहीं करते, वे धीरे-धीरे निष्क्रिय हो जाती हैं। और उनकी क्षमता खो जाती है। तुम अगर चलो न, थोड़े ही दिन में पैर पंगु हो जाएंगे। तुम अगर अंधेरी कोठरीयों में ही रहो और देखो न, तो आंखें जल्दी ही अंधी हो जाएंगी। तुम अगर शब्द ही न सुनो, अगर तुम्हारे कान पर कोई ध्वनि तरंगित ही न हो, तो जल्दी ही तुम बहरे हो जाओगे। तुम जो नहीं करोगे, उसकी करने की क्षमता खो जाएगी।

कितने जन्म हुए, जब से तुम उड़े नहीं! तुमने पंख नहीं फड़फड़ाए। कितना समय बीता, जब से तुम खिड़की पर बैठे हो और तुमने खिड़की को घर समझा; जब से तुम द्वार को ही महल समझकर रुक गए! पड़ाव के लिए रुके थे इस वृक्ष के नीचे, लेकिन कितना समय बीता, तब से तुमने इसे ही घर मान लिया है! पंख फड़फड़ाओ। अगर बुद्धों के पास तुम पंख फड़फड़ाना न सीखो तो और कुछ सीखने को वहां है भी नहीं।

यही तो प्रवचन है: यही उनका संदेश है, कि तुम उड़ सकते हो मुक्त आकाश में। तुम मुक्त गगन के पक्षी हो। तुम व्यर्थ ही डरे हो। तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास पंख हैं। तुम पैरों से चल रहे हो। तुम आकाश में उड़ सकते थे। थोड़ा फड़फड़ाओ ताकि तुम्हें भरोसा आ जाए।

ध्यान फड़फड़ाहट है पंखों की; उन पंखों की जो उड़ सकते हैं, दूर आकाश में जा सकते हैं।

ध्यान सिर्फ भरोसा पैदा करने के लिए है ताकि विस्मृति मिट जाए; स्मृति आ जाए। संतों ने, कबीर ने, नानक ने शब्द का उपयोग किया है–सुरति। सुरति का अर्थ है, स्मरण आ जाए। जो भूला है, उसका खयाल आ जाए। तुमने कुछ खोया नहीं है, तुम सिर्फ भूले हो। खो तो तुम सकते भी नहीं। पक्षी भूल सकता है कि उसके पास पंख हैं, खो कैसे सकेगा? और कितने ही जन्मों तक न उड़े, तो भी अगर उड़ने का खयाल आ जाए, तो पुनः उड़ सकता है।

विवेकानंद एक छोटी-सी कहानी कहा करते थे। वे कहते थे, ऐसा हुआ कि एक सिंहनी एक पहाड़ी से छलांग लगा रही थी। गर्भवती थी और छलांग के बीच में ही उसे बच्चा हो गया। वह तो छलांग लगाकर चली गई। बच्चा नीचे से गुजरती हुई भेड़ों की एक भीड़ में गिर गया; फिर भेड़ों ने उसे बड़ा किया। वह सिंह का तो बच्चा था, लेकिन उसे याद कौन दिलाए? उसे पहचान कौन करवाए? सुरति कैसे मिले? वह भेड़ों के साथ ही बड़ा हुआ। और उसने समझा कि मैं भी भेड़ हूं; यही स्वाभाविक है।

तुम जिनके बीच बड़े होते हो, वही तुम अपने को समझ लेते हो। हिंदुओं के बीच तो हिंदू, मुसलमानों के बीच तो मुसलमान, सिक्खों के बीच तो सिक्ख। जिन के बीच पैदा होते हो, तुम वही अपने को समझ लेते हो। जो भूल तुम्हारी है, वही उस शेर के बच्चे की थी। शेर का बच्चा तुमसे ज्यादा बुद्धिमान तो नहीं था! उसने समझा कि मैं भेड़ हूं। वह भेड़ों के बीच ही चलता, भेड़ों जैसा ही भयभीत होता, घास-पात खाता।

एक दिन एक सिंह ने देखा। ये भेड़ों की कतार गुजरती थी, इनके बीच में एक सिंह! सिंह बड़ा हैरान हुआ। यह असंभव घट रहा है। न तो भेड़ें उससे घबड़ा रही हैं, न वह भेड़ों को खा रहा है। ठीक भेड़ों की भीड़ में घसर-पसर–जैसे और सब भेड़ें चली जा रही हैं, ऐसे ही वह भी चल रहा है। वह सिंह इस भेड़ों की भीड़ में आया। भेड़ें भागीं, चीख-पुकार मच गई। वह सिंह भी भागा चीख-पुकार मचाता। उसकी आवाज भी भेड़ों की हो गई थी।

क्योंकि भाषा भी तो तुम उनसे सीखते हो, जिनके तुम पास होते हो। भाषा कोई जन्म के साथ लेकर तो पैदा नहीं होता। भाषा भी सीखी जाती है, वह भी पाठ है। तुम हिंदी बोलते हो, मराठी बोलते हो, अंग्रेजी बोलते हो, तुम वही सीख लेते हो जो तुम्हारे चारों तरफ बोला जा रहा है। पैदा तो तुम खाली स्लेट की तरह होते हो।

उसने भेड़ों की भाषा ही जानी थी, वही सुनी थी, वही सीखी थी। वह भी मिमियाने लगा, रोने लगा, भागने लगा। यह नया सिंह भागा, बामुश्किल उसको पकड़ पाया। पकड़ा तो वह गिड़गिड़ाने लगा, छूटने की आज्ञा चाहने लगा। घबड़ा गया, जैसे मौत सामने खड़ी हो। लेकिन यह सिंह उसे घसीटा। इसने बहुत उसे कहा कि ‘नासमझ! तू भेड़ नहीं है!’ लेकिन वह कैसे माने? इसमें कुछ जालसाजी दिखाई पड़ी। यह सिंह कुछ ऐसी बात समझा रहा है, जो सच हो नहीं सकती। उसके जीवन भर के अनुभव के विपरीत है।

जब तुमसे कोई कहता है, तुम शरीर नहीं हो, क्या तुम्हें भरोसा आता है? जब तुमसे कोई बुद्ध पुरुष कहता है तुम आत्मा हो, तो क्या तुम्हें भरोसा आता है? और अगर उस सिंह को भी भरोसा न आया तो आश्चर्य तो नहीं। लेकिन यह दूसरा सिंह भी जिद्दी रहा होगा। और बुद्ध बड़े जिद्दी हैं। तुम जागो या न जागो, वे तुम्हें जगाए जाते हैं। तुम कितना ही भागो, वे तुम्हें घसीटते हैं।

उसने इसे घसीटा एक सरोवर के किनारे। छोड़ा नहीं; कितना ही रोया, चिल्लाया, आंख से आंसू झरने लगे, लेकिन वह सिंह उसे घसीटता ही ले गया उसकी इच्छा के विपरीत।

बहुत बार गुरु शिष्य को उसकी इच्छा के विपरीत दर्पण के निकट ले जाता है। शायद बहुत बार नहीं, हर बार। क्योंकि शिष्य तो दर्पण के निकट जाने से डरता है, क्योंकि दर्पण के सामने जाकर उसकी अब तक की सारी मान्यताएं छिन्न-भिन्न हो जाएंगी। जो भी उसने समझा-बूझा है, वह सब व्यर्थ हो जाएगा। जो भी उसकी धारणाएं हैं; टूटेंगी, खंडित होंगी। सब जीवन की प्रतिमा बिखर जाएगी। दर्पण के सामने जाने से सभी डरते हैं; अपना चेहरा देखने से सभी डरते हैं। क्योंकि तुम सब ने कुछ और चेहरे बना रखे हैं, जो तुम्हारे नहीं हैं।

तो वह सिंह भी डर रहा था। लेकिन गुरु माना नहीं। गुरु सिंह ने उसे खींचा और सरोवर के किनारे ले जाकर खड़ा किया और कहा, कि देख नासमझ! मेरे और तेरे चेहरे पानी में देख, कोई फर्क है? जो मैं हूं, वही तू है। ‘तत्वमसि’।

यही बुद्ध कह रहे हैं कि जो मैं हूं, वही तू है। यही उपनिषद कह रहे हैं कि जो मैं हूं, वही तू है। जरा भी भेद नहीं–लुक, देख!

डरते-डरते उस सिंह ने देखा। लगा, जैसे कोई सपना देखता हो। क्योंकि हम उसी को यथार्थ कहते हैं, जिसको हमने बहुत बार पुनरुक्त किया है। नया तो सपना ही मालूम पड़ता है। भरोसा न आया, आंख मीड़ी होंगी, पुनः देखा होगा। जीवन भर का अनुभव तो यह था कि मैं भेड़ हूं। लगा होगा, यह सिंह कोई तरकीब तो नहीं करता! कोई जादूगर तो नहीं है! कोई हिप्नोटिस्ट तो नहीं है!

जब तुम गुरु के पास पहली दफा जाओगे तो तुम्हें अनेक बार लगेगा कि कोई सम्मोहित तो नहीं कर रहा है? कोई तुम्हें धोखा तो नहीं दे रहा है? कोई तुम्हें ऐसी बात तो नहीं समझा रहा है, जो सच नहीं है? क्योंकि तुम्हारे अनुभव के प्रतिकूल है।

लेकिन सिंह ने कहा कि ‘तू देख गौर से।’ और फिर उस सिंह ने गर्जना की। उसकी गर्जना सुनते ही, दर्पण में…सरोवर के दर्पण में अपने चेहरे को ठीक से देखते ही, दूसरे सिंह का भीतर सोया हुआ सिंह भी जाग गया। भेड़ तो ऊपर ही ऊपर थी, ऊपर ही ऊपर हो सकती थी।

संस्कार तुम्हारी आत्मा तो नहीं बन सकते। तुम कुछ भी उपाय करो, तुम हिंदू न हो सकोगे। तुम लाख उपाय करो, मुसलमान होने का कोई उपाय नहीं है। तुम रहोगे तो आत्मा ही। तुम कितनी ही चेष्टा करो जन्मों-जन्मों तक, तो भी तुम शरीर न हो सकोगे। शरीर ऊपर ही ऊपर है। विचार ऊपर ही ऊपर है। मन ऊपर ही ऊपर है। और किसी भी दिन, जिस दिन गुरु तुम्हें दिखा देगा सरोवर में और जिस दिन तुम गुरु की हुंकार सुनोगे…।

उस हुंकार के साथ ही इस भटके सिंह के भीतर की भी आवाज जाग गई। रोआं-रोआं झाड़ दिया भेड़ होने का। हुंकार उठा। सारा जंगल, पहाड़, पर्वत, हुंकार से गूंज उठे।

एक क्षण में भेड़ खो गई–वह सिंह था!

वापिस उसने पानी में झांककर देखा। मुस्कुराया होगा; सोचा होगा कैसा खेल हुआ! कैसी वंचना! कैसा अपने को धोखा दिया!

बुद्धों के पास दर्पण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

और जब इस पक्षी को बुद्ध ने देखा पंख फड़फड़ाते, तब वे यही कह रहे थे कि तुम भी स्मरण करो पंखों को। तुम जहां बंद हो, वहां किसी ने तुम्हें बंद नहीं किया; वहां तुम अपनी ही विस्मृति के कारण बंद हो। तुम भेड़ नहीं हो, तुम सिंह हो। देखो इस पक्षी को, इस मुक्त आकाश में उड़ते पक्षी को!

और पक्षी गीत गाया और उड़ गया।

गीत केवल उन्हीं के जीवन में हो सकते हैं, जिनके जीवन में स्वतंत्रता की संभावना है। परतंत्रता के कैसे गीत? पक्षी गाते हैं, गा सकते हैं, क्योंकि उड़ सकते हैं।

आदमी का गीत खो गया, नृत्य खो गया। परतंत्रता में कैसा गीत? कैसा नृत्य? कैसी खुशी? कैसा आनंद? आदमी उदास है। उदासी का पत्थर उसकी छाती पर रखा ही रहता है। तुम मुस्कुराते भी हो तो भी तुम्हारी मुस्कुराहट सिर्फ उदासी की खबर देती है। तुम्हारे ओंठ मुस्कुराते हैं, लेकिन कोई उनमें गहरे देखे तो वहां भी आंसू छिपे हैं। तुम चलते हो लेकिन ऐसे, जैसे न मालूम कितनी जंजीरें तुम्हारे पैरों में बंधी हों। नृत्य नहीं है वहां। तुम नाच तो सकते ही नहीं; क्योंकि नाच तो वही सकता है, जिसे भीतर की परम स्वतंत्रता का अनुभव हुआ हो। नृत्य तो एक उत्सव है, एक धन्यवाद है। मीरा ने कहा है, ‘पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।’ लेकिन पैरों में घुंघरू तभी बांधे जा सकते हैं, जब आत्मा की भनक पड़ी हो। उसके बिना कोई गीत नहीं। उसके बिना जीवन एक बोझ है, एक संताप, एक दुख, एक…एक दुखस्वप्न है; और बड़ा लंबा दुखस्वप्न है। जिससे जागने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता; जिससे हटने का कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ता।

पक्षी ने गीत गाया।

खुला आकाश सामने था, पंख पास थे। गीत गाने में और चाहिए क्या? पंख हों और खुला आकाश हो। अंतहीन आकाश हो और अंतहीन उड़ने की क्षमता हो; और गीत के लिए चाहिए क्या? तुम्हारे भीतर भी गीत उस दिन उठेगा, जिस दिन तुम भी पंख फैलाओगे और खुले आकाश में उड़ जाओगे।

कभी तुमने देखा है सांझ को, आकाश में उड़ते हुए अबाबील? उड़ते भी नहीं, पंखों तक को ठहराकर तिरते हैं। उनके तिरने में ही ध्यान है। सांझ को आज देखना, जब अबाबील अपनी ऊंचाइयों से उतरने लगें, तब वे तैरते तक नहीं; तब वे उड़ते ही नहीं। तब श्रम बिलकुल नहीं है, सिर्फ हवा पर पंख फैलाकर ठहरे होते हैं। उस क्षण में, जिसको गीता स्थितप्रज्ञ कहती है, वैसी उनकी चित्त-दशा होती होगी।

जिस दिन तुम भी खुले आकाश में बिना किसी प्रयत्न के उड़ पाओगे, उस दिन नृत्य पैदा होगा। उस दिन गीत का जन्म होगा। उस दिन तुम धन्यवाद दे सकोगे।

पक्षी ने गीत गाया, पंख फैलाये, और खुले आकाश में उड़ गया।

बुद्ध ने कहा, ‘आज का प्रवचन पूरा हुआ।’

और कुछ कहने को है भी क्या?

कठिन हुआ होगा सुननेवालों को समझना, क्योंकि वे शब्द सुनने आए थे। और जो शब्द सुनने आता है, वह अकसर बहरा होता है। वे सिद्धांत सुनने आए थे। और जो सिद्धांत सुनने आता है, अकसर बुद्धिहीन होता है। सिद्धांतों में रस बुद्धिहीनों को होता है। बुद्धिमान का रस सत्य में होता है, सिद्धांत में नहीं। सिद्धांत को क्या खाओगे, पीओगे? क्या करोगे?

तुम्हें प्यास लगी हो और कोई जल का सिद्धांत तुम्हें समझाए–एच-टू-ओ–तुम क्या करोगे? तुम्हें प्यास लगी हो, तो एच-टू-ओ से प्यास तो नहीं बुझती। यह सूत्र बिलकुल सही होगा, लेकिन इस सूत्र को तुम क्या करोगे? इसे गर्दन से बांधे घूमते रहो, कंठ इससे ठंडा न होगा, शीतल न होगा। तुम कहोगे पानी चाहिए, एच-टू-ओ नहीं। पानी प्यास को बुझाएगा। पानी कोई सिद्धांत नहीं है।

सत्य कोई सिद्धांत नहीं है। सत्य एक अनुभव है, जैसे जल कंठ से उतरता है, तब जो अनुभव होता है; वह अनुभव बड़ा अलग है।

बुद्ध के पास जो लोग सिद्धांत सुनने आए होंगे, वे चौंके होंगे। बुद्ध के दिये गए पानी को वे न समझे होंगे। वे सुनने आए थे एच-टू-ओ के संबंध में कोई खबर, कोई सिद्धांत, कोई विश्लेषण, कोई प्रत्यय, कोई कन्सेप्ट, कोई बौद्धिक धारणा। उन्हें बड़ा बेबूझ लगा होगा। ये बुद्ध थोड़े विक्षिप्त लगे होंगे। यह व्यवहार समझ में न आया होगा। यह कैसा प्रवचन?

हम सुनने आए थे और बुद्ध ने दिखाने की कोशिश की।

हम समझने आए थे और बुद्ध ने जीवंत प्रतीक सामने खड़ा कर दिया।

बुद्ध प्रतीकों में न बोले, उन्होंने इशारा किया। उन्होंने कहा, ‘देखो! यह पक्षी वातायन पर बैठा, इसे घर न बनाया। ऐसे ही तुम संसार पर बैठना और घर मत बना लेना। पंख फड़फड़ाना। कहीं भूल न जाओ, विस्मृति न हो जाए। सुरति बनी रहे। गीत गाना, क्योंकि गीत ही प्रार्थना है।’

तुम गा सको तो ही तुम भक्त हो सकते हो। तुम गा सको तो ही तुम परमात्मा से किसी तरह का संबंध जोड़ सकते हो। तुम्हारे उदास चेहरों से मंदिरों की तरफ कोई रास्ता नहीं जाता। तुम्हारे बोझिल मन से परमात्मा की तरफ कोई स्वर नहीं उठता। तुम दुख से भरे, थके-मांदे, हारे-पराजित! तुम्हारे हृदय से ऐसी कोई गंध नहीं उठती, जो परमात्मा के चरणों को छू ले। तुम जब गाओगे, तब ही तुम्हारा हृदय पूरा का पूरा खिलता है।

गीत पक्षियों के फूल हैं। वृक्षों में फूल लगते हैं, पक्षियों में गीत। तुम्हारा गीत कहां है? और जब तक तुम्हारा गीत नहीं लगा, तब तक तुम अधूरे हो, पंगु हो! तुम्हारा वृक्ष अपनी पूर्णता पर नहीं पहुंचा।

क्या है तुम्हारा गीत?

धर्म उसी गीत की तलाश है। उसे धर्मों ने प्रार्थना कहा है, पूजा कहा है, अर्चना-आराधना कहा है, ध्यान कहा है, स्तुति कहा है, सामायिक कहा है, नमाज कहा है। ये सारे नाम हैं, लेकिन बात एक ही है।

जिस दिन तुम्हारे भीतर से अस्तित्व के प्रति आभार और अहोभाव का गीत उठता है, जिस दिन तुम कह पाते हो, मैं धन्यभागी हूं क्योंकि मैं हूं। बस मेरा होना पर्याप्त तृप्ति है, कुछ और नहीं चाहिए। जब तक तुम कुछ और मांगते हो, तब तक शिकायत उठती है। क्योंकि तुम्हारी मांग में ही छिपा है कि जो तुम्हें मिला है, वह काफी नहीं है। तुम्हारी मांग कहती है और चाहिए, तब मैं धन्यवाद दे सकता था। जो मुझे मिला, वह कम है। प्रार्थना कहती है, जो मुझे मिला है वह ज्यादा है। जितना मुझे मिलना था, मेरी पात्रता थी, उससे बहुत ज्यादा है। मैं हर हालत में धन्यवाद दे रहा हूं। मेरा होना ही पर्याप्त तृप्ति है।

थोड़ा सोचो! एक क्षण के होने को भी तुम किस तरह पा सकोगे? यह श्वास का भीतर जाना और बाहर आना, यह तुम्हारा होना, यह तुम्हारा होश! एक क्षण को भी तुम्हारा होना काफी नहीं है? अगर तुम्हें एक क्षण का भी होना मिलता हो, तो क्या तुम सारे जगत का साम्राज्य उसके बदले में दे देने को राजी न हो जाओगे?

लेकिन तुम्हें याद नहीं पड़ता। सरोवर के किनारे बैठे तुम्हें समझ में नहीं आता कि मरुस्थल में पानी की कितनी कीमत होगी! मरते वक्त समझ में आता है कि होने का कितना मूल्य था! जब श्वास आखिरी टूटती होगी, तब तुम चीखोगे, चिल्लाओगे कि एक क्षण को होना और हो जाए, मैं सब देने को तैयार हूं। लेकिन अभी? अभी तुम हो, लेकिन तुम्हारे मन में कोई धन्यवाद नहीं।

प्रार्थना अहोभाव है। जैसे धूप उठती है आकाश की तरफ सुगंध को लेकर, ऐसे तुम्हारे हृदय से जो भाव उठता है अनंत की तरफ, तुम्हारी सारी सुगंध को लेकर, वही प्रार्थना है। उस पक्षी का गीत गाना…।

बुद्ध ने काफी कह दिया, जरूरत से ज्यादा कह दिया। जितना समझना जरूरी हो, उससे ज्यादा कह दिया। जितने से पूरी यात्रा हो सकती है, उतना कह दिया। पूरा सेतु निर्मित कर दिया, रास्ता पूरा साफ कर दिया। और पक्षी ने गीत गाया और उड़ गया खुले आकाश में।

जिस दिन तुम प्रार्थना कर सकोगे, उसी दिन मोक्ष का आकाश तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा। जिस दिन तुम गा सकोगे, धन्यवाद जिस दिन तुम्हारा पूरा तन-मन, तुम्हारे पूरे प्राण, अहोभाव को प्रगट कर सकेंगे, और तुम कह सकोगे, ‘धन्यभाग’! उसी दिन मोक्ष तुम्हारा है। गीतों को कोई बंधन में नहीं रख सकता। प्रार्थनाओं को कारागृह में रखने का कोई उपाय नहीं।

जर्मनी में एक बहुत कीमती विचारक अभी-अभी हुआ, दूसरे महायुद्ध में–बोन हायफर, ईसाई फकीर। उसे हिटलर ने कारागृह में डाल दिया था। अनेक वर्ष कारागृह में बिताए। कारागृह से उसने जो पत्र लिखे हैं, उसमें एक वचन भूलने जैसा मुझे नहीं लगा। एक वचन उसने लिखा है, कि मुझे तो कारागृह में डाल दिया लेकिन मेरी प्रार्थना को कौन कारागृह में डाल सकेगा? मेरी प्रार्थना उतनी ही स्वतंत्र है, जितनी बाहर थी। मैं परमात्मा को उतने ही आनंद से पुकारता हूं, जितना बाहर पुकारता था; रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। मुझे तुम कारागृह में डाल सकते हो, लेकिन मेरी प्रार्थना को कैसे कारागृह में डालोगे?

प्रार्थना तुमसे बहुत बड़ी है। तुम्हारे ऊपर बंधन डाले जा सकते हैं। तुम्हारी प्रार्थना विराट है, उस पर बंधन डालने का कोई उपाय नहीं। और जिसके पास प्रार्थना है उसके पास आत्मा है। आत्मा को बंधन में कोई नहीं डाल सकता। और जो उड़ सकता है उसके लिए मोक्ष पूरा खुला है। तुम पूछते हो, मोक्ष कहां है? तुम्हें पूछना चाहिए, मेरे पंख कहां हैं? तुम पूछते हो, ईश्वर है या नहीं? तुम्हें पूछना चाहिए, मेरे पंख उड़ सकते हैं या नहीं? ईश्वर और मोक्ष पूछने की बातें नहीं हैं। तुम उड़ सकते हो तो तुम उन्हें जान ही लोगे। तुम उड़ सकते हो तो वे यहीं मौजूद हैं। वे दूर दिखाई पड़ते हैं क्योंकि तुम उड़ नहीं सकते।

एक यहूदी फकीर हुआ, मजीद उसका नाम था। उसने रात एक सपना देखा कि कोई आवाज उससे कह रही है कि मजीद! तू क्यों भूखा मरता है? क्यों प्यासा, क्यों दुख-पीड़ा में? तेरी पत्नी उदास है सदा, तेरे बच्चे भीख मांगते हैं। तू जा वार्सा, राजधानी की तरफ। वार्सा के पुल के पास इतने कदम चलने पर, एक सिपाही खड़ा है। बस ठीक उसके पीछे एक वृक्ष है। उस वृक्ष के पीछे बड़ा धन गड़ा है। सुबह मजीद उठा, मन में वासना भी जगी पर उसने कहा, सपनों का क्या भरोसा? और सपना ही है यह। कैसा वार्सा? कैसा धन?

लेकिन दूसरी रात फिर सोया कि फिर सपना आया और उसने कहा कि मजीद! चूक मत, हम बार-बार न चेताएंगे। फिर उसे दिखाई पड़ा वार्सा का पुल, सिपाही खड़ा है, उसके पीछे एक वृक्ष, वृक्ष के पीछे धन गड़ा है। दूसरे दिन भी उसने अपने को संतुष्ट कर लिया, समझा-बुझा लिया कि सपनों में पड़ना उचित नहीं है। लेकिन तीसरी रात, फिर वही सपना और वही आवाज, कि यह आखिरी चेतावनी है। अब बहुत हो गया। तू जा, खजाना खोदकर ले आ।

तब तीसरे दिन रुकना मुश्किल हो गया। मजीद ने कहा, हो न हो सपना भी साधारण नहीं है। क्योंकि तीन बार निरंतर कोई सपना लौटे तो करीब-करीब सत्य मालूम पड़ने लगेगा। और वही आवाज, वही पुल, सब पड़ता है। तो मजीद गया। सैकड़ों मील की यात्रा थी, पहुंचा।

जब वार्सा के करीब पहुंचा तो उसे लगा कि यह तो मामला सपने का नहीं दिखता। वही पुल, जो सपने में देखा था। हाथ-पैर कंपने लगे कि मैं फिर से सपना तो नहीं देख रहा हूं? मैं सो तो नहीं गया हूं? वही वृक्ष! सिपाही सामने खड़ा, वही सिपाही। उसने कहा कि अब बड़ा मुश्किल है, खजाना होगा ही। मगर खजाने को खोदना कैसे? सिपाही खड़ा है, रास्ता चलता है, कहीं संदिग्ध न हो जाऊं! तो भी उसने वृक्ष के आसपास चक्कर लगाकर देखा। ठीक वही स्थान, जो सपने में दिखाई पड़ा था। तीन बार देखा था, बिलकुल साफ था।

और तभी पुलिसवाले ने उसे पकड़ लिया। और कहा, कि ‘तू संदिग्ध मालूम पड़ता है। तू यहां क्या खोज रहा है? यहां तू क्या कर रहा है। और अजनबी है। सच-सच बोल।’ पुलिसवाला उसे अपने घर ले गया और कहा कि सच बोल दे तो तुझे छोड़ दूंगा। मजीद ने सोचा कि सच बोल देना ही उचित है। तो उसने सारी बात कह दी कि ऐसा-ऐसा तीन बार सपना आया। और मैं चला आया। और बड़ी मुश्किल की बात तो यह है कि सब ठीक वैसा ही है, जैसा सपने में था।

वह पुलिसवाला हंसने लगा। उसने कहा, ‘पागल! अगर मैं भी तेरे जैसा पागल होता, तो आज मैं क्राका नाम के गांव में होता। मजीद ने कहा, ‘क्या मतलब?’ क्योंकि क्राका गांव से वह आया था। उस पुलिसवाले ने कहा कि ‘तीन बार सपना आ चुका है, कि तू यहां खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है वृक्ष के नीचे? क्राका गांव में मजीद नाम का एक फकीर है, उसके घर के भीतर जहां उसका चूल्हा है, उसके बिलकुल बगल में खजाना गड़ा है। और आवाज कहती है, ‘जा, चूक मत!’ और मैंने सोचा, सपने-सपने हैं। अगर मैं भी तेरे जैसा पागल होता, तो आज क्राका गांव में होता। और फिर कहां खोजो मजीद को? मजीद नाम के न मालूम कितने आदमी हों। फिर उसके घर में कैसे घुसोगे? उसके चूल्हे के बगल में खजाना गड़ा है।

मजीद तो और भी मुश्किल में पड़ गया। लेकिन पुलिसवाले ने उसे छोड़ दिया कि तू पागल है, कोई अपराधी नहीं। वह भागा घर। जाकर चूल्हे के बगल में खोदा; खजाना वहां गड़ा था।

सपने बड़े अजीब हैं। तुम्हें वहां खजाना दिखलाते हैं, जहां बहुत फासला है। और खजाने तुम्हारे पास गड़े हैं। दूर दिखाता है सपना सदा–वार्सा में, राजधानी में; और खजाना तुम्हारे पास गड़ा है। वहां भी कोई देखता है लेकिन उसे भी खजाना दूर…सभी खजाने दूर दिखाई पड़ते हैं।

परमात्मा बहुत दूर दिखाई पड़ता है। उससे ज्यादा पास और कोई भी नहीं, लेकिन पास तुम देख नहीं पाते। पास के प्रति तुम अंधे हो गए हो। इशारे करते हैं बुद्ध पुरुष, कि खजाने तुम्हारे पास हैं।

पक्षी बिलकुल पास ही बैठा था वातायन पर। और उसने उस ढंग से बात कह दी, जिस ढंग से बुद्ध भी न कह पाते। लेकिन शायद किसी ने भी न देखा।

पक्षी फड़फड़ाया, गीत गाये, पंख खोले, उड़ गया।

किसी ने भी न देखा। वे सब बुद्ध की तरफ नजर लगाए थे–बहुत दूर, जहां से शब्दों के संदेश आएंगे। शब्द तो बहुत दूर हो जाते हैं, क्योंकि शब्द तो फीकी खबर है, प्रतिबिंब है। और बुद्ध एक जीवंत प्रतीक की तरफ इशारा कर रहे थे। वे देख रहे थे पक्षी की तरफ।

काश! सुनने वालों में थोड़ी भी समझ होती, तो वहीं देखते जिस तरफ बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध क्या कहते हैं, यह समझना जरूरी नहीं है। बुद्ध कहां देखते हैं, वहां देखना जरूरी है। बुद्ध क्या बोलते हैं, यह व्यर्थ है। बुद्ध कैसे हैं, वही सार्थक है। बुद्ध की आंखों में क्या झलक रहा है, वह हमें खोजना चाहिए। बुद्ध के शब्दों में क्या झलक आ रही है, वह तो बहुत दूर की है। बुद्ध की आंखें बिलकुल खजाने के पास हैं।

ठीक कहते हैं बौद्ध, कि उस दिन का प्रवचन पूरा हो गया। और बुद्ध ने कहा, ‘आज का प्रवचन पूरा हुआ।’ ऐसा मधुर प्रवचन उन्होंने दुबारा दिया भी नहीं।

तुम्हारी भी तकलीफ वही है, जो बुद्ध के सुननेवालों की थी। मेरी अड़चन भी वही है, जो बुद्ध की है। अगर मैं चुप बैठूं, तुम चूक जाओ। अगर मैं बोलूं, तुम सुन लो; फिर भी समझ नहीं पाओगे। बोलने से कौन-कब सुना और समझा है?–इशारे! लेकिन इशारों के लिए तुम्हारी तैयारी चाहिए। शब्द तो कोई भी सुन लेता है। शब्द सुनने के लिए तुम्हें कुछ तैयार होने की जरूरत तो नहीं है, बच्चे भी सुन लेते हैं। लेकिन इशारे देखने के लिए तुम्हारी तैयारी चाहिए, तुम्हारी चेतना तैयार होनी चाहिए। होश चाहिए, एक जागरूकता चाहिए।

उस दिन लोग हंसते हुए लौटे होंगे। उन्होंने कहा, ‘बुद्ध ने भी खूब मजाक किया! यह भी कोई बात थी? अगर ऐसा ही प्रवचन सुनना था, अपने ही घर सुन लेते। पक्षी वहां भी बैठते हैं वातायन पर और फड़फड़ाते हैं और उड़ जाते हैं। ऐसा बुद्ध ने नया क्या किया?’

तुम्हारे वातायन पर भी पक्षी बैठते हैं, लेकिन तुमने कब उन्हें देखा? फड़फड़ाते हैं पंख, तुमने कब अपने पंखों की स्मृति उनसे पाई? उड़ते हैं आकाश में, कब उड़ने की आकांक्षा तुम्हें पकड़ी? कब तुम्हें आकाश दिखाई पड़ा?

बुद्ध जैसे लोगों की जरूरत है उसको दिखाने की, जो बिलकुल प्रगट है। जो बिलकुल तुम्हारे पास ही गड़ा है। तुम्हारे चूल्हे के बगल में जो खजाना है, उसके लिए ही तुम्हें आवाजें देनी पड़ती हैं।

और ध्यान रहे, यह मजीद को भरोसा भी आ गया तीन दिन सपना देखकर, कि जा वार्सा और वहां खजाना खोद। अगर सपने में आवाज ने कहा होता, तेरे चूल्हे के बगल में खजाना गड़ा है, मजीद को भरोसा न आता, यही मैं तुमसे कहता हूं। यह कहता, ‘छोड़ो भी बकवास! कहां मजीद का घर, और कहां खजाना!’ सपना सपना है। वह तो वार्सा बहुत दूर था, इसलिए भरोसा भी आ गया।

तुम्हें पास भी खोजना हो, तो दूर के रास्ते से लाना पड़ता है। तुम्हें निकट भी बताना हो तो बड़ी यात्रा करवानी पड़ती है। क्योंकि दूर को तुम थोड़ा-सा समझ भी लेते हो, वासना दूर को समझ पाती है। ध्यान पास को समझ पाता है। ध्यान निकट की खोज है, वासना दूर की खोज है।

तीन बार सपना आया तो मजीद को भरोसा आ गया कि हो न हो–शायद! जाने में हर्ज भी क्या है? खोऊंगा क्या, अगर न भी मिला? चला जाऊं। लेकिन अगर यह चूल्हे के बगल में ही आवाज ने कहा होता, कि तेरे बगल में ही खजाना गड़ा है, तो मजीद सुबह दिल खोलकर हंसता और कहता, ‘खूब मजाक हो रही है। सपने मजाक कर रहे हैं। मेरे ही घर में कैसा खजाना?’

अगर में तुमसे कहूं कि तुम्हारे भीतर ही परमात्मा बैठा है, तुम सुन लोगे, लेकिन भरोसा न करोगे। इसलिए सारे धर्म कहते हैं, परमात्मा आकाश में, सात आकाशों के पार बैठा है। तब तुम्हारे हाथ जुड़ते हैं; तुम्हारा सिर झुकता है। परमात्मा दूर हो तो शायद हो भी! तुम्हारे भीतर परमात्मा? तुम मान ही नहीं सकते। तुम्हारे भीतर और परमात्मा हो सकता है? यह बात भरोसे की ही नहीं।

इसलिए दुनिया में आत्मवादी धर्मों का बहुत प्रचार नहीं हुआ, परमात्मवादी धर्मों का बहुत प्रचार हुआ। इस्लाम है, ईसाइयत है, हिंदू हैं, ये परमात्मवादी धर्म हैं। परमात्मा आकाश में बैठा है। जैन हैं, आत्मवादी हैं, इनका बहुत प्रचार नहीं हो सका। क्योंकि उन्होंने कहा, ‘परमात्मा तुम्हारे भीतर है।’ महावीर ने सपने को उल्टा करके तुम्हें आवाज दी, कि तुम्हारे चूल्हे की बगल में ही गड़ा हुआ है धन। इसलिए तुम राजी भी न हुए खोदने को। धन दूर हो सकता है, तुम्हारे पास कैसे होगा? तुम्हारे पास होता तो तुम खोद ही लेते। तुम्हारे भीतर होता, तो तुमने अब तक पा ही लिया होता।

और बुद्ध जैसे पुरुष निरंतर कोशिश कर रहे हैं तुम्हें जगाने की उसकी, जो तुम्हारे बिलकुल पास है। जैसे मछली के पास सागर है, वैसे तुम्हारे पास सब कुछ है। और शास्त्र, कहीं वेद, गीता और कुरान में नहीं है, शास्त्र तो प्रतिपल जीवित है चारों तरफ; पक्षियों के उड़ने में, फूलों के खिलने में, आकाश में बादलों के तैरने में, तुम्हारी आंखों में, बच्चे के हंसने में, सब तरफ मौजूद है।

मैं एक यहूदी फकीर का जीवन पढ़ता था। उसे लोग पागल समझते थे क्योंकि वह बातें ऐसी करता था। बातें उसकी बड़ी कीमती थीं। अकसर संतों की और पागलों की बातें एक जैसी हो जाती हैं। क्योंकि दोनों तुम्हारी बुद्धि के पार पड़ जाते हैं। वह फकीर से किसी ने कहा कि बाइबिल के संबंध में कुछ कहो। तो उसने कहा, ‘मैं क्या कहूं बाइबिल के संबंध में, सभी बाइबिलें मेरे संबंध में कहती हैं।’ यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा।

‘आने वाले मसीहा के संबंध में कुछ कहो’–किसी ने कहा।

तो उसने कहा, कि ‘आने वाला मसीहा मेरे संबंध में कुछ कहेगा। वह मेरे जीवन की व्याख्या करेगा। सब मसीहा मेरी सेवा में नियुक्त हैं।’

यह निश्चित आदमी पागल है। अगर कोई कहे कि कृष्ण, राम मेरी सेवा में नियुक्त हैं, तो तुम उसे पागल समझोगे ही। अगर कोई कहे कि वेद, गीताएं, उपनिषद सब मेरी व्याख्या करते हैं, तुम उसे पागल कहोगे ही। पर यह ठीक कह रहा था। यह बिलकुल ही ठीक कह रहा था। यह बिलकुल इसने तीर ठीक निशाने पर मारा है। सभी कुरान, सभी बाइबिल, सभी गीताएं, सभी वेद तुम्हारी व्याख्या करते हैं। और तुम उनमें अपनी ही खोज के लिए जाते हो। बेहतर होता तुम अपने भीतर जाते।

बुद्ध और क्या बोलेंगे?

यह निशब्द प्रवचन, यह बुद्ध का बिना बोले बोल दिया जाना…!

सोचना, इस पक्षी के प्रतीक को। तुम्हारे सपनों में उतर जाने देना। जब दुबारा तुम किसी पक्षी को वातायन पर बैठा हुआ देखो, रुकना; गौर से देखना, जैसा बुद्ध ने उस सुबह देखा होगा। प्रतीक्षा करना जब पक्षी गीत गाए, पंख फड़फड़ाए, और उड़े। अगर तुम ध्यानपूर्वक देख सके, अगर तुमने बिना सोचे इस प्रत्यक्ष को किया तो जब पक्षी पर फड़फड़ाएगा, तुम पाओगे कि तुम भी पर फड़फड़ा रहे हो। जब पक्षी गीत गाएगा तो तुम पाओगे, तुम्हारे हृदय में भी कोई धुन गूंजने लगी। और जब पक्षी उड़ेगा तो तुम पाओगे कि तुम भी उड़े।

जीवन तो एक है। फासले तो बहुत ऊपरी हैं। पक्षी और तुम में कोई फासला है? ऊपर की रेखाओं का भेद है। अगर तुम समग्र मनन भाव से पक्षी को उड़ते देख लो तो तुम उड़ गए। अगर तुम समग्र मनन भाव से एक फूल को खिलते देख लो तो तुम खिल गए। अस्तित्व एक है। तुम नाहक अपने में बंद सड़ रहे हो। तुम नाहक ही अपने को सब तरफ से बंद किए तोड़े हुए हो। अपने ही हाथों सब जड़ें तुमने काट डाली हैं।

संदेश चारों तरफ लिखा है।

शास्त्र सब तरफ खुदे हैं।

द्वार-द्वार, गली-गली, कूचे-कूचे, पत्थर-पत्थर पर वेद है। बस, तुम्हें रुककर देखने की जरूरत है।

उस सुबह बुद्ध रुके, चुपचाप उस पक्षी की तरफ देखते रहे, पक्षी उड़ गया, और उन्होंने कहा, ‘प्रवचन आज का पूरा हुआ।’

भगवान : …कुछ और?

भगवान! हम तो दुख से भागकर आपके पास आए हैं और अंधकार में खड़े हैं। और आप उस परम प्रकाश के प्रतिनिधि हैं, जो बिना बत्ती और तेल के जलता है। क्या दोनों में मिलन संभव है?

मिलन तो संभव नहीं है। वही दुविधा है। अंधकार और प्रकाश का कभी कोई मिलन नहीं होता। हो भी नहीं सकता क्योंकि प्रकाश ‘है’, और अंधकार ‘नहीं है।’ तो जो है, उसका जो नहीं है–कैसे मिलन होगा? अंधकार तो सिर्फ अभाव है, अनुपस्थिति है, प्रकाश की गैर-मौजूदगी है। अंधकार अपने आप में कुछ भी नहीं है। इसलिए तुम अंधकार के साथ सीधा कुछ करना चाहो तो न कर पाओगे।

कमरे में अंधेरा भरा है और तुम चाहो कि अंधेरे को हटाना है, तो तुम क्या करोगे? धक्के दोगे? पोटलियां बांधोगे? अंधेरे को बाहर उलीचकर फेंकोगे? क्या करोगे? नहीं, कुछ भी न किया जा सकेगा सीधा। तुम्हें कुछ भी करना हो तो तुम्हें दीया जलना होगा। कुछ करना है, तो प्रकाश के साथ करना होगा। अंधेरे के साथ कुछ भी नहीं कर सकते।

प्रकाश है, अगर तुम्हें अंधेरा लाना हो तो तुम क्या करोगे? बाजार से खरीदकर अंधेरा ला सकते हो? क्या तुम अंधेरे को दीये के ऊपर गिराकर दीये को बुझा सकते हो? कोई उपाय नहीं। तुम दीया बुझा दो, अंधेरा वहां आ जाएगा। अंधेरा सिर्फ अभाव है। इसलिए अंधेरे और प्रकाश का कभी कोई मिलना नहीं होता।

फिर बुद्ध तुम्हें क्या समझाते हैं? बुद्ध तुम्हारे अंधेरे से अपने प्रकाश को नहीं मिलाते, न मिला सकते हैं। बुद्ध तुम्हें यही समझाते हैं कि तुम्हारी भ्रांति है कि तुमने समझा कि तुम अंधेरे में हो। तुम भी बिन बाती बिन तेल जलने वाले दीये हो, तुम भी प्रकाश हो। बुद्ध केवल तुम्हें यह स्मरण दिलाते हैं, तुम कौन हो इसका। अगर तुम अंधेरे हो तब तो बुद्ध से तुम्हारा मिलना कभी भी न हो पाएगा। लेकिन तुम नहीं हो। यह सिर्फ तुम्हारा खयाल है, यह सिर्फ तुम्हारी धारणा है।

तो बुद्ध तुम्हारी धारणा भर को तोड़ते हैं। तुमने तादात्म्य कर रखा है अंधरे से, कि मैं अंधेरा हूं। तुमने मान लिया है, कि तुम अज्ञान हो। तुमने मान लिया है कि तुम भटक गए हो। तुमने मान लिया है, कि तुम पापी हो। ये तुम्हारी मान्यताएं हैं। बुद्ध इन मान्यताओं को तोड़ सकते हैं और जिस दिन ये मान्यताएं टूटेंगी, उस दिन तुम पाओगे कि तुम तो चैतन्य प्रकाश हो, तुम तो चिन्मय प्रकाश हो, तुम तो सदा-सदा जलने वाले प्रकाश हो। क्षण भर को भी तुम अंधेरा नहीं थे। अंधेरा तुम हो भी नहीं सकते।

एक छोटी कहानी से तुम समझो। एक सम्राट को उसके ज्योतिषी ने कहा कि इस वर्ष जो फसल आएगी उसे जो भी खाएगा, पीएगा, वह पागल हो जाएगा। तो तुम कुछ बचाने का उपाय कर लो। सम्राट ने कहा, ‘तो पिछले वर्ष की फसल हम बचा लें।’ लेकिन ज्योतिषी ने कहा, ‘वह इतनी काफी नहीं है कि तुम्हारे पूरे राज्य के लोग उससे एक साल तक जी सकें। इतना हो सकता है कि महल में रहने वाले लोग; तुम, मैं, तुम्हारी रानी, तुम्हारे बच्चे, थोड़े-से लोग बच जाएं।’

सम्राट ने कहा, ‘इन थोड़े-से लोगों को बचाकर क्या सार होगा? और जब मेरा पूरा साम्राज्य ही पागल हो जाएगा, तो उनके बीच न-पागल होने में और भी अड़चन होगी। तो तुम एक काम करो, सिर्फ तुम पुरानी फसल को बचा लो, पुराने अनाज को; और हम सब को पागल हो जाने दो। एक ही बात पक्का रखना, तुम पागल नहीं रहोगे। तो तुम एक-एक व्यक्ति को जो भी तुम्हें मिलें, उसे हिलाकर कहना कि ‘तू भी पागल नहीं है। बस, इतनी तुम कसम खा लो।’

तो सम्राट ने ठीक कहा। अगर पागल को स्मरण दिला दिया जाए, होश हिला दिया जाए पागल का, तो जो अन्न से गया है, वह तो शरीर पर ही होगा; आत्मा तक नहीं पहुंच सकता। वह जो बेहोशी है, बाहर-बाहर होगी; भीतर नहीं पहुंच सकती।

यह कहानी सूफियों की है, और बड़ी प्यारी है।

ऐसा ही हुआ। सारा साम्राज्य पागल हो गया। सिर्फ ज्योतिषी बचा। बड़ी कठिन उसकी यात्रा थी, क्योंकि पागलों को हिलाना बड़ा मुश्किल था। कितना ही उनको कहो, वे सुनते न थे। कितना ही चेताओ, चेतते न थे। कितना ही हिलाओ, जमे थे, हिलते न थे। लेकिन फिर भी कुछ लोग हिले, कुछ लोगों को याद आई। और जिनको याद आई, वह ज्योतिषी कहता, ‘तुम भी यही करो, दूसरों को हिलाओ।’ क्योंकि जो अन्न है, वह भीतर तक नहीं जा सकता; वह आत्मा नहीं बन सकता। ऊपर-ऊपर बेहोशी, तंद्रा ऊपर-ऊपर है।

जैसे कोई आदमी सो गया हो, तुम हिलाओ और वह जग जाए। तो जागरण कभी खोता नहीं; सिर्फ भीतर छिप जाता है। वासना ने, आकांक्षा ने, चाह ने तुम्हें विषाक्त किया है। तुम्हें धुएं से भर दिया है। लेकिन बस तुम्हारी देह पर ही है वह धुएं का आवरण।

प्रकाश से तुम्हारा मिलन अगर तुम अंधेरे होते तो कभी भी नहीं हो सकता था। तुम अंधेरा नहीं हो, तुम भी प्रकाश हो। तुम्हारे दीये की लौ चाहे कितनी ही मद्दिम जलती हो, उसके चारों तरफ चाहे कितना ही अंधेरा हो, वह स्वयं अंधेरा नहीं है। कोई चाहिए, जो तुम्हें हिलाए, कोई तुम्हें जगाए, कोई तुम्हें होश दे। बस, उतना होश! तत्क्षण तुम पाओगे, एक क्षण में क्रांति घट सकती है। और एक क्षण में तुम बुद्ध पुरुष हो जाओगे। तुम स्वयं बुद्ध हो जाओगे।

तुम अगर अंधेरे होते तो तुम्हारी मुक्ति का कोई उपाय नहीं था। अंधेरे की कोई मुक्ति नहीं हो सकती। क्यों? अंधेरा है ही नहीं। तुम्हारी मुक्ति हो सकती है क्योंकि तुम अंधेरा नहीं हो। बिन बाती बिन तेल तुम जल रहे हो। तुम्हारे भीतर एक दीया है, जो सदा से जल रहा है। सदा जलता रहेगा। कितना ही ढंक जाए, जैसे बादल आ जाते हैं, आकाश में सूरज ढंक जाता है। इससे कोई सूरज मिटता नहीं। जरा बादलों की परतों को हटाओ, सूरज फिर प्रगट हो जाता है। थोड़ी-सी हवाएं चाहिए बुद्ध पुरुषों की, कि तुम्हारे बादल छितर-बितर हो जाएं और तुम्हें स्मरण आ जाए कि तुम कौन हो!

आत्मबोध–कोई आत्मा को पैदा करना नहीं है, सिर्फ भूली आत्मा की पुनः स्मृति है, सुरति है।

तो मैं जो कर रहा हूं चेष्टा, वह तुम्हें हिलाने की है। उस हिलाने में तुम नाराज भी होते हो। क्योंकि किसी को हिलाओ, कोई सोता है उसे जगाओ, कोई मजे में विश्राम कर रहा है, उसकी तंद्रा तोड़ो, वह नाराज होता है। शिष्य सदा गुरुओं पर नाराज होते हैं, जब तक कि वे जाग न जाएं। गुरुओं को छोड़ भी नहीं सकते क्योंकि कहीं न कहीं गहरे तल में सरकती हुई उनको भी यह बात तो समझ में आती ही रहती है कि गुरु जो कह रहा है, ठीक ही कह रहा है।

शिष्य में दो तल होते हैं। एक तल पर तो वह जानता है, गुरु जो कह रहा है, बिलकुल ठीक कह रहा है। लेकिन एक तल पर वासनाएं मन को पकड़े हैं, और वह सोचता है, थोड़ी देर और सो लेते तो क्या हर्ज था? सपना बड़ा मधुर था, मीठा था और सपना बीच में तोड़ दिया। थोड़ी देर सो लेते तो क्या हर्ज था, इसलिए नाराज भी होता है।

शिष्य का एक तल गुरु से लड़ता है, और शिष्य का एक तल गुरु को छोड़ भी नहीं सकता।

इसलिए जब भी तुम सदगुरु के पास पहुंच जाओगे, बड़ा संघर्ष पैदा होगा। आधे से तुम भागना चाहोगे, हटना चाहोगे, बचना चाहोगे। तुम सब उपाय खोजोगे कि कैसे निकल भागें? और आधे से तुम रुके रहोगे, वापिस बार-बार लौट जाओगे। भागोगे तो भी वापिस आ जाओगे। क्योंकि आधा कहेगा, कहीं और जाने का कोई अर्थ नहीं। वह मंजिल आ गई, जिसकी तलाश थी।

गुरु पूरा एक है; शिष्य आधा-आधा है। शिष्य दो है, द्वैत है।

पर तुम्हारे भीतर जो व्यर्थ है, उससे ही छुटकारा दिलाना है। तुम्हारे भीतर जो सार्थक है, ताकि वह अपनी पूर्णता में, स्वच्छता में, प्रगट हो जाए। तुम्हें आग में डालना ही होगा, ताकि कचरा जल जाए और तुम्हारा स्वर्ण निखर आए। स्वर्ण तो जलता नहीं, सिर्फ निखरता है। तुम्हारा प्रकाश तो प्रगट होगा, तुम्हारा अंधेरा भर खो जाएगा।

जीसस ने कहा है, ‘तुम जो नहीं हो, वही मैं तुमसे छीन लूंगा, और तुम जो हो, वही मैं तुम्हें दे दूंगा।’ वचन विरोधाभासी लगता है, पर यही सत्य है: वही तुम से छीन लूंगा, जो तुम नहीं हो। तुमसे मैं भी वही मांगता हूं, जो तुम नहीं हो। क्योंकि उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाए, तो वह प्र्रगट हो सके, जो तुम हो। और इस क्षण ही अभी, यहीं, वह बाती, वह दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है जो अकारण है। जिसका तेल कभी चुकेगा नहीं क्योंकि तेल नहीं है। जिसकी बाती कभी बुझेगी नहीं क्योंकि बाती नहीं है। सिर्फ ज्योति है, सिर्फ प्रकाश है। वह शुद्ध प्रकाश तुम्हारा स्वभाव है।

अंधेरे से प्र्रकाश का मिलना कभी नहीं होता।

क्या तुम सोचते हो उस सिंह से, उस दूसरे सिंह की भेड़ का मिलना कभी हुआ? उस दूसरे सिंह की जो भेड़ थी, झूठी थी; थी ही नहीं, मिलने का कोई सवाल ही न था। मिलन तो दो सिंहों का हुआ। भेड़ का, सिंह का मिलन कैसा? भेड़ तो वहां थी भी नहीं। लेकिन इस सिंह ने क्या किया? उस भेड़ बन गए सिंह को जगाया, चौंकाया, हिलाया, डुलाया।

सूफी फकीर बायजीद अपने शिष्यों से कहता था, जब तक तुम्हें जगा ही न दूं तब तक मैं तुम्हें सताए ही चला जाऊंगा। और तुम भाग न सकोगे। मैं तुम्हारा पीछा करूंगा। मैं प्रेत की तरह तुम्हारे चारों तरफ घूमूंगा, जब तक तुम जग ही न जाओ! और जिस दिन तुम जग जाओगे, तुम्हें दूसरों के पीछे लगा दूंगा, तुम इनको जगाओ।

सारी पृथ्वी ने वह फसल खा ली, क्योंकि वे बेहोश हैं। कभी-कभी कोई एकाध आदमी उस फसल के विषाक्त भोजन से बच जाता है। उन्हीं को हम बुद्ध कहते हैं, कृष्ण कहते हैं, क्राइस्ट कहते हैं। वह तुम्हें जगाए चला जाता है। वह तुम्हें कुछ देने वाला नहीं है, जो तुम्हारे पास है, उसी के प्रति तुम्हें सजग कर देने वाला है।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–48

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एक सार्वभौम धार्मिकता की तैयारी—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्‍न—सार:

1—ऐसा क्‍यों है कि करने में तो तनाव रहता ही है न करने में भी तनाव रहता है?

2—कृपा करके क्‍या आप मुझे वचन देंगे कि इस जीवन में मैं जागने से चूकूंगा नहीं—और आप मेरे अंतिम गुरु होंगे?

3—क्‍या सभी मन एक ही तत्‍व से बने होते है—मूढता से?

4—आपके आश्रम की व्‍यवस्‍था केवल स्‍त्रियों के हाथ में क्‍यों है?

5—आप आनंदबांट रहे है, लेकिन इस दुःखी दुनियां में लेने वाले इतने कम क्‍यों है?

पहला प्रश्न :

 रोज— रोज सुबह आपको सुनते हुए भीतर डूबने और देखने की जरूरत के विचार से मैं पूरी तरह भर जाता हूं वस्तुत: मैं उस कुत्ते की भांति अनुभव करता हूं जो अपनी ही पूछ को पकड़ने का प्रयास कर रहा हो : जितनी ज्यादा वह कोशिश करता है उतनी ही कम संभावना होती है सफलता की। लेकिन प्रयास छोड़ने की कोशिश ने भी कुछ ज्यादा मदद नहीं की है क्योंकि ज्यादा सचेत और होशपूर्ण होना भी एक सूक्ष्म क्रिया बन जाता है और मैं वापस उसी ढर्रे पर पहुंच जाता हूं!

च्छी बात है कि तुम सजग हो रहे हो कि न तो कुछ करना मदद कर सकता है और न ही न करना, क्योंकि तुम्हारा न करना भी एक सूक्ष्म क्रिया है। इस सजगता के साथ एक नया द्वार खुल जाएगा—किसी भी दिन, किसी भी क्षण। जब तुम न कुछ करते हो और न कुछ नहीं करते हो, जब केवल तुम होते हो, जब तुम केवल हो—न तो कर्ता और न ही अकर्ता, क्योंकि अकर्ता भी कर्ता ही है—द्वैत तिरोहित हो जाता है, तब अचानक तुम पाते हो कि तुम घर में ही हो सदा से; तुमने उसे कभी छोड़ा ही नहीं है, तुम कहीं बाहर कभी गए ही नहीं हो। तब कुत्ता अनुभव करता है कि पूंछ को पकड़ने की कोई जरूरत नहीं; पूछ तो पहले से ही उससे जुड़ी है। पूंछ का पीछा करने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि पूंछ तो पहले से ही कुत्ते के पीछे है।

लेकिन व्यक्ति को कुछ करना पड़ता है—कुछ न करने तक पहुंचने के लिए। फिर व्यक्ति को कुछ न करने को साधना होता है अंतस सत्ता तक पहुंचने के लिए। और हर चीज मदद करती है। असफलताएं, निराशाए भी मदद करती हैं—हर चीज मदद करती है। अंततः जब तुम पहुंचते हो, तुम समझ जाते हो कि हर चीज ने मदद की। भटकाव ने, खाई—खड्डों में गिरने ने, पुराने जालों में उलझने ने—हर चीज ने मदद की; कोई चीज व्यर्थ नहीं जाती है। और हर चीज एक सीढ़ी बन जाती है किसी दूसरी चीज के लिए।

अभी कल मैं स्वामी अगेहानंद भारती का एक लेख पढ़ता था। उसने जिक्र किया है कि एक बार उसने रविशंकर से पूछा कि जार्ज हैरीसन सितार कैसी बजा लेता है? रविशंकर ने कुछ देर सोचा और फिर कहा, ‘वह उसे पकड़ता बिलकुल ठीक है।’

लेकिन यह भी एक बड़ी शुरुआत है। यदि तुम सितार सीखना चाहते हो, तो सितार को ठीक

से पकड्ना जैसे कि उसे पकड़ना चाहिए, एक अच्छी शुरुआत है; वह भी एक उपलब्धि है। इसलिए हंसो मत। रविशंकर ने प्रशंसा की है जार्ज हैरीसन की, कि वह सितार ठीक से पकड़ता है।

पहले तो तुम कर्ता बनोगे। उसे अच्छी तरह से करना, यही असली बात है। यदि तुम उसे ठीक से नहीं करते तो तुम्हें फिर—फिर आना होगा, क्योंकि कोई चीज अधूरी नहीं छोड़ी जा सकती; उसे पूरा करना होता है। असल में तुम्हें इतनी पूरी तरह से हताश हो जाना होता है कि तुम फिर कभी लौटते नहीं कुछ करने पर। फिर करना है अक्रिया को, और इतने संपूर्ण रूप से करना है कि वह बात भी समाप्त हो जाती है। और तब लौटने के लिए कहीं कोई मार्ग नहीं बचता। तुम पीछे जा नहीं सकते यदि हर चीज पूरी तरह जी ली गई है; केवल अधूरे अनुभव तुम्हें वापस बुलाते रहते हैं।

अधूरे अनुभवों में एक चुंबकीय शक्ति होती है; वे पूरा किए जाने की मांग करते हैं। इसीलिए तुम बार—बार उसी चक्कर में पड़ जाते हो। तुम अधपके रह जाते हो। एक अनुभव पका नहीं होता—बौद्धिक रूप से तुम उसे समझने लगते हो, लेकिन पूरे प्राणों से नहीं—और तुम आगे बढ़ जाते हो। यह बात मदद न करेगी। तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व को समझ में आना चाहिए कि ‘यह बात व्यर्थ है।’ इसलिए नहीं कि मैं ऐसा कहता हूं—वह बात मदद नहीं करेगी—बल्कि इसलिए कि तुम्हारा पूरा अस्तित्व कहता है, ‘यह बात व्यर्थ है। क्या कर रहे हो तुम? यह बिलकुल बेकार है।’

तब करना—कुछ न करने को। वह भी करना ही है, इसीलिए मैं कहता हूं ‘करना।’ बहुत सूक्ष्म बात है। पहले तो है स्थूल हिस्सा जब तुम कुछ करते हो। दूसरी बात सूक्ष्म है; जल्दी ही तुम जान लोगे कि यह फिर वही है, तुम फिर कुछ कर रहे हो। तुम कोशिश कर रहे हो न करने की, लेकिन कोशिश मौजूद है और प्रयास मौजूद है। तुम्हारा प्रयास न करना भी एक प्रयास है। लेकिन तुम बौद्धिक रूप से समझ सकते हो जो मैं कह रहा हूं उसका सवाल नहीं है। तुम्हें अनुभव करना होता है उसे। तो गुजरी उसमें से, जानो उसे। अनुभव के द्वारा परिपक्वता आनी चाहिए—तब एक दिन स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही बातें तिरोहित हो जाती हैं। अचानक तुम वहां होते हो—जहां न कुछ करने को है और न ही कुछ न करने को है।

फिर तुम क्या करोगे? तुम बस होओगे। पूंछ के पीछे दौड़ने की कोई जरूरत नहीं। अब कुत्ता जानता है कि पूंछ उसकी है। अब कुत्ता बुद्ध हो गया है। यही बुद्धत्व है।

दूसरा प्रश्न:

 

दर्शन में या आपके प्रवचनों के दौरान मैं उस चमत्कार से अभिभूत हो उठता हूं जो आप हैं और फिर मैं सोचता हूं कि जरूर ऐसा ही अहसास तब रहा होगा जब मैं बुद्ध के क्राइस्ट के और अन्य गुरुओं के चरणों में बैठा—और असफल हुआ। क्या आप कृपया मुझे वचन देने कि आप इसे सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेने कि आप मेरे अंतिम गुरु होगे?

ह तुम पर निर्भर करता है। मैं कोई कसर नहीं छोडूंगा, लेकिन उससे बहुत ज्यादा मदद न मिलेगी—बुद्ध ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी, न ही जीसस ने कोई कसर छोड़ी थी। कोई गुरु कभी कोई कमी नहीं रखता—लेकिन कोई गुरु तुमको बुद्धत्व दे नहीं सकता है। जब तक तुम्हीं नहीं समझ जाते, कुछ नहीं किया जा सकता है।

कई बार गुरु का प्रयास ही तुम में प्रतिरोध भी निर्मित कर सकता है। मैं ऐसा बहुत बार अनुभव करता हूं। यदि मैं बहुत ज्यादा तुम्हारे लिए कोशिश करता हूं तो तुम भागने लगते हो मुझ से। यदि मैं बहुत ज्यादा कोशिश करता हूं कुछ करने की, तो तुम भयभीत हो जाते हो। मुझे तुम्हें छोटी मात्राएं देनी पड़ती हैं—तुम्हारे पचाने की क्षमता के अनुसार।

तो यह तुम पर निर्भर करता है। यदि तुम चाहते हो तो सब कुछ संभव है; लेकिन कहीं गहरे में तुम चाहते ही नहीं। यही तो समस्या है तुम बदलना नहीं चाहते। तुम कहते हो कि तुम सबुद्ध होना चाहते हो, तुम कहते हो कि तुम्हारे लिए यह सड़ी—गली जिंदगी खत्म हो चुकी और तुम इसे रूपांतरित करना चाहते हो। लेकिन क्या यह सचमुच ही तुम्हारे लिए समाप्त हो चुकी है? क्या तुमने सच में उसके साथ अपना लेन—देन समाप्त कर लिया है? क्या कहीं गहरे में तुम्हारे भीतर अभी भी कोई इच्छा छिपी नहीं बैठी है—कोई आशा जो अभी भी जीवित है, कोई बीज जो किसी भी क्षण प्रस्फुटित हो सकता है दूसरे जीवन में?

यदि तुम ध्यान दोगे तो तुम समझोगे कि इच्छा है, आकांक्षा है, एक आशा है कि शायद तुमने सारा जीवन नहीं जाना है, कि शायद कहीं कुछ बाकी है जिसे तुम चूक रहे हो, कि शायद आनंद तो मिल सकता था लेकिन तुमने दस्तक नहीं दी सही द्वार पर। यह सब चलता रहता है। तुम आते हो मेरे पास, लेकिन तुम आधे—आधे मन से आते हो। यह कोई आना नहीं है; यह आना बिलकुल ही आना नहीं है। केवल लगता है कि तुम मेरे पास आते हो, लेकिन तुम आते कभी नहीं।

मैं वचन देता हूं कि मैं कोई कमी नहीं रखूंगा, लेकिन क्या तुम यहां हो? क्या तुम मेरे पास हो, निकट हो? तुम बहुत होशियार और चालाक हो, जब तुम निकट भी होते हो तो तुम हजारों तरीकों से बचाए रखते हो स्वयं को।

उदाहरण के लिए, तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारे व्यवहार भी, बचावपूर्ण होते हैं। और तुम जानते नहीं कि तुम किसे बचा रहे हो। मैं जानता हूं तुम में से एक को, एक बहुत कंजूस स्त्री—वह यहां आई है बुद्धत्व पाने के लिए। लेकिन वह जब से यहां आई है, तब से प्रश्न पूछे जा रही है. आश्रम के पास इतनी कीमती कार क्यों है? मैं इतनी कीमती घड़ी क्यों पहनता हूं?

उसे कार से या घड़ी से क्या लेना—देना है? केवल ऐसे ही प्रश्न क्यों उठ रहे हैं उसके मन में? उसकी अपनी कंजूसी बचाव कर रही है। मैं जानता हूं वह पक्की कंजूस है और जब तक उसकी कंजूसी की आदत टूटती नहीं, वह विकसित नहीं हो सकती है।

यह बात मेरे निर्णय की है कि कौन सी कार लेनी है और कौन सी नहीं। और मेरे अपने कारण हैं, और तुम नहीं समझ सकते मेरे कारणों को। मैं उसका उपयोग कभी नहीं करता, लेकिन वह है मेरे पास। बस वह है। लेकिन इस कार ने चमत्कार किया; इसने बहुत सी चीजें बदल दीं। कुछ कंजूस मुझे घेरे रहते थे, मारवाड़ी, और वे मुझे छोड़ते न थे। मैंने यह कार क्या खरीदी, वे सब चले गए! वे बस चले ही गए; उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा। दो संभावनाएं थीं; या तो उन्हें अपनी कंजूसी छोड़नी पड़ती, तो वे यहां रुक सकते थे; या फिर उन्हें मुझे छोड़ना पड़ता। और जब से वे गए हैं, आश्रम का माहौल बदल गया है। गंदे थे वे लोग। लेकिन मैं किसी को जाने के लिए कह नहीं सकता। मुझे कोई उपाय करना पड़ता है। उस कार ने अपने मूल्य से ज्यादा का काम किया। किंतु तुम जानते नहीं। लेकिन तुम्हें इन चीजों की फिक्र करने की जरा भी जरूरत नहीं है।

गुरजिएफ कहा करता था, जब भी कोई आता तो वह कहता, ‘अपना सारा पैसा मुझे दे दो।’ बहुत से लोगों ने उसे केवल इसी कारण छोड़ दिया; क्योंकि वे तो आध्यात्मिक गुरु के पास आए थे और वह उनके पैसे हड़पने के चक्कर में है। लेकिन जो टिक गए वे रूपांतरित हो गए। ऐसा नहीं कि गुरजिएफ को पैसे से कुछ लेना—देना था, उसे तो उनकी कंजूसी तोड्ने में रुचि थी, क्योंकि अगर तुम कंजूस हो तो तुम विकसित नहीं हो सकते। कंजूस व्यक्ति की सारी चेतना सिकुड़ जाती है। कंजूसी कब्जियत है, रोग है तुम्हारी अंतस सत्ता का, तुम विकसित नहीं हो सकते, तुम बांट नहीं सकते, तुम प्रवाह नहीं हो सकते। कंजूसी मन का एक पागलपन है; हर चीज कठोर हो जाती है। और पैसा ही ईश्वर हो जाता है। तुम्हें सच्चा ईश्वर देने के लिए तुम्हारे झूठे ईश्वर को तोड़ देना है। तो पहली बात गुरजिएफ पैसे के विषय में पूछेगा।

उससे प्रश्न पूछना भी कोई आसान न था जैसा कि तुम्हारे लिए आसान है मुझ से पूछ लेना। वह एक प्रश्न के सौ डालर मांगता था, मतलब एक प्रश्न के हजार रुपए। और क्या पता, वह ‘ही’ कहे कि ‘न’—अब यदि तुम्हें फिर कोई प्रश्न पूछना है तो फिर हजार रुपए दो। जब उसने अपनी पहली किताब आल एंड एवरीथिंग लिखी तो वह उसे प्रकाशित न करता था। शिष्य उसके पीछे पड़े थे : ‘प्रकाशित कराएं इसको; यह एक महान पुस्तक है।’ वह कहता, ‘जरा ठहरो।’ वह लोगों से पाडुलिपि देखने के भी एक हजार डालर ले लेता—केवल पांडुलिपि देखने के।

क्या कर रहा था वह? और उसे बिलकुल रुचि न थी पैसे में : एक हाथ से वह लेता और दूसरे हाथ से वह दे देता। वह गरीब आदमी की भांति मरा, और उसने लाखों डालर इकट्ठे कर लिए होते यदि उसे पैसे में रुचि होती, लेकिन उसके पास कुछ भी नहीं था—जब वह मरा तो एक डालर भी उसके पास नहीं मिला। कहां गया सारा पैसा? वह किसी से लेता और किसी को दे देता—वह मात्र एक मार्ग था पैसे के प्रवाहित होने के लिए।

जैसे ही वह लोगों से पैसे मांगता, लोग उसे छोड़ कर चले जाते। और वह मेरे जैसा नहीं था, वह तो सब मांगता—’जो कुछ भी है तुम्हारे पास, सब दे दो। समर्पित हो जाओ।’ लेकिन जिन्होंने समर्पण किया, वे आनंदित हुए; वे पूर्णरूपेण रूपांतरित हुए। वह शुरुआत हो जाती थी। वह एक जगह थी जहां से हर चीज बदल जाती थी। उस व्यक्ति के लिए, जो बहुत ज्यादा जुड़ा होता पैसे से, यह एक बहुत बड़ी बात थी—सब कुछ दे देना।

ऐसा हुआ एक बार : एक स्त्री, एक बड़ी संगीतकार आई उसके पास और उसने उसके सारे गहने मांग लिए। वह सच में गहरी आस्था रखती थी उसमें; उसने तुरंत वे सब गहने दे दिए। शाम को उसके सब गहने लौटा दिए गए। लेकिन केवल उसके ही गहने नहीं थे, गुरजिएफ ने कुछ और भी गहने रखवा दिए थे थैले में—उसके अपने गहनों से कहीं ज्यादा मूल्यवान। वह कुछ समझ न सकी कि हुआ क्या!

फिर पंद्रह दिन बाद ही एक दूसरी स्त्री आई, एक बड़ी धनवान स्त्री, और गुरजिएफ ने उससे भी सब मांगा—सभी गहने और सब पैसा और हर चीज—रख दो थैले में सब और दे दो उसको; केवल तभी वह काम शुरू करेगा। वह स्त्री डर गई। उसने कहा, ‘मैं सोचूंगी और मैं कल उत्तर दूंगी।’

फिर उसने उस संगीतकार स्त्री के बारे में सुना। वह गई उसके पास और पूछा, ‘क्या हुआ था?’ उसने पूरी बात बताई। तब तो वह खुश हो गई। तब तो यह अच्छा है, एक अच्छा सौदा है : ‘थोड़े से गहने देने होते हैं और करीब—करीब दुगुने वापस मिल जाते हैं।’ तुरंत रात को ही—वह अगले दिन तक भी नहीं रुकी—तुरंत उसने सारे गहने रख दिए थैले में, दे दिए गुरजिएफ को। वे गहने कभी वापस न मिले। स्त्री ने प्रतीक्षा की और प्रतीक्षा की, लेकिन वे कभी उसे वापस न मिले।

ऊपर—ऊपर से तुम नहीं समझ सकते कि क्या हो रहा है। जिस स्त्री ने समर्पण किया था, उसे पैसे से मोह न था; तो उससे लेने में कुछ सार न था। गुरजिएफ ने उसे और गहने रख कर लौटा दिए। दूसरी स्त्री ने धन दिया था सौदे की भांति, वह बंधी थी धन से। धन लौटाया नहीं जा सकता था। लेकिन वह दूसरी स्त्री भी रूपांतरित हुई उस सारी घटना को समझ कर कि वे गहने क्यों नहीं लौटाए गए।

तो फिक्र मत करना। मैं क्या करता हूं और क्या नहीं करता हूं—वह तुम्हारे सोच—विचार की बात नहीं है, वह तुम्हारी चिंता का विषय नहीं है। तुम्हारी अपनी ही चिंताएं जरूरत से ज्यादा हैं; तुम्हारी अपनी ही समस्याएं काफी हैं। मेरी फिक्र मत करो। मेरे अपने तरीके हैं। और मुझे सलाह देने की कोशिश मत करो— भूल ही जाओ वह बात। केवल अपने विषय में ही सोचो कि तुम यहां क्यों हो। और तुम छोटी—छोटी बातो के कारण चूक सकते हो, क्योंकि वे बातें तुम्हारी दृष्टि को अवरुद्ध कर देंगी।’ऐसा क्यों?’ और ‘वैसा क्यों?’ यह तुम्हारे सोचने की बात नहीं है। मुझे सब पता है कि क्या हो रहा है। और मैं जो भी कदम उठाता हूं, बहुत सोच—समझ कर उठाता हूं। और अपनी जिंदगी में मैं अपने किए पर कभी पछताया नहीं हूं—वही करने जैसा था।

लेकिन वह महिला तो बस कार के संबंध में या मकान के संबंध में, हजार बातो के संबंध में पूछती रहती है। और वह बहुत धनी महिला है, वस्तुत: जरूरत से ज्यादा धनी है—असल में वह अपने धन के बारे में भयभीत है। वह अपनी कंजूसी का बचाव कर रही है। और वह सोचती है कि वह बड़े संगत सवाल पूछ रही है। लेकिन अगर वह यहां रुकी रही तो मैं उसका सुरक्षा—कवच तोड़ दूंगा। सवाल सिर्फ यह है कि क्या उसके पास इतना साहस है कि वह कुछ दिन यहां रुक सके? और उसकी कंजूसी को तोड़ना ही होगा, क्योंकि उसे तोड़े बिना वह कभी विकसित नहीं होगी। यदि उसे सचमुच भय लगता है तो वह चली जाए, जितनी जल्दी हो सके यहां से चली जाए, क्योंकि जल्दी ही भागने की संभावना भी न रह जाएगी।

ऐसे सवाल पूछो जो तुम्हारे विकास से संबंधित हों—तुम्हारे सवाल, जो तुम्हारे गहन प्राणों से उठ रहे हों और जो उत्तर के लिए प्यासे हों।

तीसरा प्रश्न:

 

क्या सभी मन एक ही तत्व से बने है—मूढ़ता से?

हां; मन मूढ़ है। ऐसा कोई मन नहीं जो बुद्धिमान हो। मन बुद्धिमान हो नहीं सकता; मन ही मूढ़ता है। ‘मूढ़ मन’ ऐसा कहना ठीक नहीं है; यह एक पुनरुक्ति हुई, क्योंकि ‘मूढ़ता’ और ‘मन’ दोनों का अर्थ एक ही होता है।

मन क्यों मूढ़ता है? क्योंकि मन और कुछ नहीं सिवाय अतीत के, धूल के, जिसे कि तुमने रास्ते की यात्रा में इकट्ठा कर लिया है। पर्तें ही पर्तें हैं धूल की। यह धूल तुम्हारी बुद्धिमानी को ढांक देती है। ऐसे ही जैसे धूल से ढंका दर्पण. मन धूल है; चेतना दर्पण है। जब सारी धूल साफ हो जाती है, तो बुद्धिमत्ता प्रकट हो जाती है : जब कोई मन नहीं होता तो तुम बुद्धिमान होते हो; जब मन होता है तो तुम मूढ़ होते हो।

निश्चित ही, दो प्रकार के मूढ़ होते हैं—अज्ञानी मूढ़ और ज्ञानी मूड; वे मूढ़ जो कुछ नहीं जानते और वे मूढ़ जो बहुत ज्यादा जानते हैं। और ध्यान रहे, दूसरा प्रकार ज्यादा खतरनाक होता है पहले से, क्योंकि दूसरे प्रकार के दर्पण पर ज्यादा धूल होती है पहले की अपेक्षा। अज्ञानी ज्यादा आसानी से विकसित हो सकता है पंडित की अपेक्षा, उस आदमी की अपेक्षा जो समझता है कि वह जानता है। यह विचार ही कि वह जानता है, एक बाधा बन जाता है। मन बुद्धिमत्ता नहीं, अ—मन है बुद्धिमत्ता। मन एक अवरोध है।

इसे समझने की कोशिश करो। मन है अतीत अनुभव, जिससे तुम गुजर चुके, जो मृत है—मन मृत अंश है तुम्हारी सत्ता का। पर तुम उसे उठाए फिरते हो। वह तुम्हें वर्तमान में नहीं होने देता; वह तुम्हें अभी और यहीं नहीं होने देता। वह तुम्हें बुद्धिमान नहीं होने देता। इससे पहले कि तुम प्रतिसंवेदन करो, वह प्रतिक्रिया करना शुरू कर देता है।

उदाहरण के लिए यदि मैं पूछूं किसी व्यक्ति से, ‘क्या ईश्वर है? क्या ईश्वर का अस्तित्व है?’ यदि वह मन से उत्तर देता है तो वह मूढ़ है। यदि वह कहता है, ‘हा, ईश्वर है’, क्योंकि उसका पालन—पोषण हुआ है इस ढंग से—उसे सिखाया गया है, संस्कारित किया गया है कि ईश्वर है; वह कह देता है, ‘हां, ईश्वर है'; लेकिन यह कोई विवेकपूर्ण उत्तर न हुआ। वह जानता नहीं है; किसी और ने, दूसरों ने उसे बताया है। वे भी नहीं जानते थे, किसी और ने, किन्हीं और लोगों ने उन्हें बताया था। उसने सुन ली है अफवाह और वह विश्वास करता है उस अफवाह में। नहीं, वह बुद्धिमान नहीं है। वह इतना बुद्धिमान भी नहीं है कि समझे कि वह क्या कह रहा है।

या कोई आदमी कह सकता है, ‘नहीं, ईश्वर नहीं है’, क्योंकि उसका पालन—पोषण कम्मुनिस्ट परिवार में या रूस में या चीन में हुआ है। वह भी वही मूड मन है—संस्कार बदल गए, लेकिन मूढ़ता वैसी ही है। वह जानता है कि ईश्वर नहीं है—बिना जाने हुए ही! उसने खोजा नहीं है; उसने तलाशा नहीं है। उसने कोई छानबीन नहीं की है।

लेकिन यदि किसी बुद्धिमान व्यक्ति से पूछा जाए—बुद्धिमान व्यक्ति से मेरा मतलब उस व्यक्ति से है जो मन के द्वारा नहीं देखता है, जो मन को एक ओर रख देता है। तुम पूछो उससे, ‘क्या ईश्वर है?’ तुम कोई उत्तर न पाओगे। एक बुद्धिमान व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा कह सकता है, ‘मैं नहीं जानता।’ जब तुम कहते हो, ‘मैं नहीं जानता’, तो तुम थोड़ी बुद्धिमत्ता प्रकट करते हो, एक संभावना प्रकट करते हो। बहुत छोटी होती है, लेकिन वह विकसित हो सकती है और बड़ी घटना बन सकती है। या फिर वह व्यक्ति कहेगा, ‘मैंने खोजा नहीं। मैंने सुना है लोगों को बहुत कुछ कहते हुए, लेकिन मैं जानता नहीं। जहां तक मेरा संबंध है मैं दोनों में से किसी बात को नहीं जानता हूं है या नहीं है, कुछ नहीं जानता हूं। दोनों बातें असंभव लगती हैं; मैं कुछ नहीं कह सकता।’

यह है बुद्धिमत्ता, और यह आदमी जान सकता है किसी दिन, क्योंकि ऐसी बुद्धिमत्ता द्वारा खोज की संभावना है। यदि तुम सिद्धांतो से, मतो से भरे हो, शास्त्रों के बोझ से दबे हो, तो तुम कभी बुद्धिमान न हो पाओगे; तुम सदा ही मूढ़ रहोगे।

मन है अतीत—जीवंत पर छाई हुई मृत चीज। जैसे कोई बादल तुम्हें घेरे हुए हो : उसके पार तुम देख नहीं सकते, दृष्टि साफ नहीं होती, हर चीज धुंधली—धुंधली होती है। इस बादल को विदा हो जाने दो। बिना उत्तरों के रहो : बिना निष्कर्षों के, बिना दर्शन—सिद्धांतो के, बिना धर्मों के रहो। खुले रहो, पूरी तरह खुले रहो, अत्यंत संवेदनशील रहो, और सत्य घटित हो सकता है तुम्हें। खुले हुए होना है बुद्धिमान होना। यह जानना कि तुम नहीं जानते, बुद्धिमान होना है; यह जानना कि अ—मन से द्वार खुलता है, बुद्धिमान होना है। अन्यथा, मन मूढ़ता ही है।

चौथा प्रश्न :

 

आपने कहा कि आपने ऐसी कोई स्त्री कभी नहीं देखी जो सच में बुद्धिमान हो। लेकिन ऐसा कैसे है कि आश्रम में स्त्रियां ही सारी व्यवस्था संभाल रही हैं?

 

क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आश्रम बुद्धि द्वारा चले। मैं चाहता हूं कि यह हृदय द्वारा संचालित हो। मैं नहीं चाहता कि यह पुरुष—मन द्वारा चले। मैं चाहता हूं कि यह स्त्री—हृदय द्वारा संचालित हो। क्योंकि मेरे देखे स्त्रैण होने का मतलब है खुले होना, ग्राहक होना। स्त्रैण होने का मतलब है पैसिव होना। स्त्रैण होने का मतलब है स्वीकार— भाव। स्त्रैण होने का मतलब है प्रतीक्षा करना। स्त्रैण होने का मतलब है शीघ्रता और तनाव में न होना; स्त्रैण होने का मतलब है प्रेमपूर्ण होना। हां, आश्रम का संचालन स्त्रियों के हाथ में है, क्योंकि मैं चाहता हूं कि आश्रम हृदय द्वारा संचालित हो।

मैंने कहा कि मैंने ऐसी कोई स्त्री कभी नहीं देखी जो सच में बुद्धिमान हो। मेरा मतलब है ‘बौद्धिक'; वह बुद्धिमत्ता नहीं जिसकी मैं अभी बात कर रहा था। वह बुद्धिमत्ता न तो पुरुष होती है और न स्त्रैण। वह बुद्धिमत्ता अ—मन की होती है। मन है पुरुष, मन है स्त्री—अ—मन इनमें से कुछ नहीं है। अ—मन का कोई लिंग नहीं है। अ—मन एक खुलापन है, खुला आकाश है। वहा सारे द्वैत तिरोहित हो जाते हैं। पुरुष—स्त्री, यिन—यांग, विधायक—नकारात्मक, अस्तित्व— अनस्तित्व—सारे द्वैत खो जाते हैं अ—मन के साथ।

लेकिन इससे पहले कि वह अ—मन उपलब्ध हो, यदि तुम्हें चुनना हो कोई मन, तो पुरुष—मन की बजाय स्त्रैण—मन चुनना क्योंकि पुरुष—मन के साथ आक्रामकता जुड़ी है। संसार में रहने के लिए अच्छा है वह; यदि तुम संसार में सफल होना चाहते हो तो पुरुष—मन की जरूरत है : आक्रामक, जुझारू, सदा लड़ने —झगड़ने को तैयार, सदा प्रतियोगिता में उतरने को तैयार, मरने—मारने और हत्या करने को सदा तैयार—हिंसात्मक, ईर्ष्यालु, सदा सतर्क। और ऐसे संसार में रहने के लिए यह ठीक है जहां प्रत्येक व्यक्ति शत्रु है और हर कोई वही पाना चाह रहा है जिसे पाने की तुम कोशिश कर रहे हो… और बड़ा संघर्ष है।

तो यदि तुम इस संसार में सफल होना चाहते हो, तो पुरुष—मन चाहिए। यदि तुम भीतर के संसार में सफल होना चाहते हो, तो स्त्रैण—मन चाहिए। लेकिन वह केवल शुरुआत है, स्त्रैण—मन

केवल एक शुरुआत है। वह अ—मन की ओर जाने की एक सीडी है। असली बात यही है. पुरुष—मन स्त्रैण—मन की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा दूर है अ—मन से। इसीलिए स्त्रैण—मन रहस्यमय मालूम पड़ता है।

असल में तुम किसी स्त्री को जीवन भर प्रेम कर सकते हो, लेकिन तुम कभी उसे समझ न पाओगे। वह एक रहस्य ही बनी रहेगी। उसके व्यवहार के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। वह विचारों की अपेक्षा भाव—दशाओं से अधिक जीती है। वह मौसम की भांति अधिक है यंत्र की भांति कम। सुबह बदलियां छाई होती हैं और दोपहर बदलियां छंट जाती हैं और धूप निकल आती है। स्त्री को प्रेम करके देखो और तुम जान जाओगे। सुबह बादल घिरे होते हैं और वह उदास होती है, और शीघ्र ही, प्रत्यक्ष में कुछ खास हुआ भी नहीं होता, और बादल छंट जाते हैं और फिर धूप निकल आती है और वह गुनगुना रही होती है।

पुरुष के लिए बिलकुल बेबूझ है यह बात। क्या—क्या बेतुकी बातें चलती रहती हैं स्त्री में? हां, तुम्हें बेतुकी लगती हैं क्योंकि पुरुष के लिए चीजों की तर्कसंगत व्याख्या होनी चाहिए।’क्यों उदास हो तुम?’ तो स्त्री सरलता से कह देती है, ‘बस मुझे उदासी पकड़ती है।’ पुरुष यह बात नहीं समझ सकता। कोई कारण होना चाहिए उदास होने का। बस, ऐसे ही उदास हो जाना? ‘तुम खुश क्यों हो?’ स्त्री कहती है, ‘बस वह खुशी अनुभव कर रही है।’ वह भाव—दशाओं द्वारा जीती है।

निश्चित ही, पुरुष के लिए कठिन है स्त्री के साथ जीना। क्यों? क्योंकि यदि चीजें तर्कसंगत हों, तो चीजें संभाली जा सकती हैं। यदि चीजें एकदम बेबूझ हों—चीजें अनायास, अकारण आ जाएं और चली जाएं—तो कोई तालमेल बिठाना बहुत कठिन हो जाता है। कोई पुरुष कभी किसी स्त्री के साथ तालमेल नहीं बैठा पाया। अंततः वह समर्पण कर देता है, अंततः वह तालमेल बैठाने का पूरा प्रयास ही छोड़ देता है।

पुरुष—मन ज्यादा दूर है अ—मन से; वह ज्यादा यंत्रवत है, ज्यादा तर्कपूर्ण है, ज्यादा बौद्धिक है—सिर में ज्यादा जीता है। स्त्रैण—मन ज्यादा निकट है, ज्यादा स्वाभाविक है, ज्यादा अतार्किक है—हृदय के ज्यादा निकट है। और हृदय से नीचे नाभि में उतरना कहीं ज्यादा आसान है जहां कि अ—मन का अस्तित्व है।

सिर स्थान है बुद्धि का; हृदय स्थान है प्रेम का, अंतर्भाव का; और नाभि के ठीक नीचे, नाभि के दो इंच नीचे, वह केंद्र है जिसे जापानी हारा कहते हैं। वह केंद्र है अ—मन का—जहां जीवन और मृत्यु मिलते हैं, जहां सारे द्वैत खो जाते हैं। तुम्हें सिर से नीचे हारा में उतरना है।

बच्चा पैदा होता है, तो वह हारा से जीता है। मां के गर्भ में बच्चा हारा से जीता है : उसका कोई मन नहीं होता, कोई विचार नहीं होते। वह जीवंत होता है—पूर्णत: जीवंत होता है—असल में वह फिर कभी उतना जीवंत न होगा जितना वह गर्भ में होता है। फिर बच्चा पैदा होता है। तो भी कुछ महीने वह हारा से ही जीता है।

कभी किसी बच्चे को सोए हुए देखना : वह पेट से सांस लेता है, छाती से सांस नहीं लेता; छाती तो बिलकुल शांत रहती है। सांस एकदम हारा तक जाती है और हारा पर चोट करती है। वह हारा से जीता है। इसीलिए प्रत्येक बच्चा इतना निर्दोष जान पड़ता है। यदि तुम फिर हारा में थिर हो सको तो तुम फिर निर्दोष हो जाओगे, एक निर्मल दर्पण हो जाओगे।

स्त्रैण—मन लक्ष्य नहीं है—स्त्रैण—मन ज्यादा निकट है अ—मन के। इसीलिए लाओत्सु जोर दिए जाते हैं ‘अक्रिया में जीओ। प्रतीक्षा करो। धैर्यपूर्ण होओ। जल्दी मत करो और आक्रामक मत होओ।’ क्योंकि सत्य को जीता नहीं जा सकता है। तुम केवल उसके प्रति समर्पण कर सकते हो।

तो आश्रम स्त्रियों द्वारा ही संचालित होगा, जब तक कि मैं ऐसे लोग न ढूंढ लूं जो अ—मन को उपलब्ध हों। जब अ—मन को उपलब्ध व्यक्ति मौजूद होंगे तो स्त्री—पुरुष का कोई प्रश्न ही न रहेगा; तब आश्रम अ—मन के व्यक्तियों द्वारा संचालित होगा। तब एक अलग प्रकार की प्रज्ञा काम करती है। असल में केवल तब ही प्रज्ञा काम करती है : वह केवल बौद्धिक समझ नहीं होती; वह एक समग्र अस्तित्व से आती है।

पांचवां प्रश्न:

 

यहां पूना में आपके साथ मेरा जीवन बिना मेरे किसी प्रयास के बहुत अधिक समृद्ध हो गया है। इसके लिए मैं बहुत गहन रूप से अनुगृहीत हूं लेकिन यह अदभुत औषधि केवल मुट्टी भर लोगों के लिए ही क्यों उपलब्ध है जब कि सारा संसार मर रहा है?

ह सदा से ही, सदियों—सदियों से एक महत्वपूर्ण प्रश्न रहा है। बुद्ध पुरुष होते हैं; वे सब लुटाते हैं जो कि वे लुटा सकते हैं, अपने अस्तित्व को बांटने को तैयार रहते हैं, लेकिन लगता है किसी को जरूरत ही नहीं है! और सबको जरूरत है। हर व्यक्ति बीमार है, और बुद्ध पुरुष मौजूद हैं, औषधि सामने है, लेकिन लगता है औषधि में किसी को कोई रुचि ही नहीं है। तो जरूर कोई कारण होगा।

यह मेरे देखने में आया है कि सुख में रुचि लेना बहुत कठिन बात है, स्वास्थ्य में रुचि लेना अत्यंत कठिन बात है। लोगों की एक विकृत रुचि होती है रुग्णता के लिए और लोगों का एक रुग्ण मोह होता है दुख के साथ। इसीलिए तुम सदा तैयार रहते हो दुखी होने के लिए। किसी तैयारी की कोई जरूरत नहीं होती, कोई पतंजलि नहीं चाहिए कोई आठ चरण नहीं चाहिए दुखी होने के लिए। हर कोई तैयार होता है छलांग लगा देने को। जहां तक दुखी होने का प्रश्न है, हर कोई लाओत्सु का अनुसरण करता है और कोई कभी नहीं पूछता कि कैसे! मेरे पास कोई नहीं आता और पूछता कि दुखी कैसे हों? हर कोई जानता है। तुम्हें दुखी होना किसी ने नहीं सिखाया है—किसी ने नहीं, बिलकुल भी नहीं। तुम यह बात अपने आप जान लेते हो। तुम तो पहले से ही इसमें सिद्धहस्त होते हो।

जरूर कोई गहरा न्यस्त स्वार्थ होगा इसके पीछे। क्यों लोग दुखी होना चाहते हैं? जब मैं ‘चाहते’ शब्द का प्रयोग करता हूं तो मेरा यह मतलब नहीं है कि वे जान—बूझ कर ऐसा चाहते हैं। वे तो कहेंगे कि वे नहीं चाहते. ‘कौन चाहता है दुखी होना?’ वे सुखी होना चाहते हैं। लेकिन बात वैसी नहीं है—वे चिपकते हैं दुख से। वे कहते हैं कि वे सुख चाहते हैं, लेकिन वे चिपकते हैं दुख से। वे कहते हैं कि उन्हें आनंद की आकांक्षा है, लेकिन जो कुछ भी वे करते हैं, वह दुख ही निर्मित करता है। और यह कोई नई बात नहीं है; वे ऐसा जन्मों—जन्मों से कर रहे हैं। फिर—फिर वे वही करते हैं—और फिर वे दुखी हो जाते हैं। और वे कहते हैं कि उन्हें आनंद चाहिए।

जरूर कोई न कोई न्यस्त स्वार्थ है। मैं तुमसे कुछ बातें कहना चाहूंगा, क्योंकि संभवत: वे सहायक सिद्ध होंगी। जब तुम दुखी होते हो तो सारे संसार की निंदा करना आसान होता है, हर किसी

पर जिम्मेवारी थोप देना आसान होता है। जब तुम दुखी होते हो, तो तुम अपने निकट के लोगों का शोषण कर सकते हो—क्योंकि तुम दुखी हो, और उनकी जिम्मेवारी है कि वे तुम्हें सुखी करें! जब तुम दुखी होते हो, तो तुम सबसे ध्यान की मांग कर सकते हो : मैं बीमार हूं; मैं दुखी हूं।

तुम्हारा मिलना हुआ होगा हाइपोकानड्रिआक लोगों से, रोग के भ्रम में रहने वाले लोगों से, जो अपनी बीमारी की और अपने रोगों की ही बातें करते रहते हैं। और वे इतना बढ़ा—चढ़ा कर बताते हैं कि सच में इतनी बड़ी बीमारी होती भी नहीं। लेकिन यदि तुम कहो कि ‘तुम बढ़ा—चढ़ा कर कह रहे हो’, तो वे बहुत बुरा अनुभव करते हैं। असल में वे इस विचार में ही बहुत रस लेते हैं कि वे इतने बीमार हैं। वे एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर के पास जाते हैं, केवल अपनी कथा सुनाने के लिए। जो बीमारी उन्हें है उसमें कोई मदद नहीं कर सकता उनकी—यह वे भलीभांति जानते हैं। कोई भी उतना समझदार नहीं है; किसी को कुछ पता नहीं है। और ऐसी असाधारण बीमारी है उन्हें कि वे पहले से ही जानते हैं कि कोई मदद नहीं कर सकेगा।

जब वे निरंतर बात कर रहे होते हैं अपनी बीमारी की तो वे क्या कर रहे हैं? यह ऐसा ही है जैसे कि कोई अपने घाव उघाड़—उघाड़ कर तुम्हें दिखा रहा हो और घाव में अंगुलियां डाल रहा हो और सता रहा हो स्वयं को। वह मांग कर रहा है सहानुभूति पाने की, ध्यान पाने की।

और बच्चा बचपन से ही सीख जाता है तरकीब। सारा समाज, एकदम शुरू से— ही, गलत हो जाता है। जब भी बच्चा बीमार होता है तो मां—बाप ज्यादा ध्यान देते हैं। जब भी वह दुखी होता है तो सारा परिवार जिम्मेवारी अनुभव करता है और वह बच्चा एक छोटा—मोटा तानाशाह बन जाता है। जब बच्चा बीमार होता है तो वह अपनी शर्तें मनवा सकता है। वह जिद कर सकता है कि शाम को यह खिलौना लाना होगा, और कोई न नहीं कह सकता—क्योंकि वह बीमार है। लेकिन जब वह स्वस्थ होता है तो कोई उसकी परवाह नहीं करता; जब वह ठीक होता है तो कोई उसके पास नहीं आता और कोई उसके पास नहीं बैठता। जब वह बीमार होता है तो पिता आते हैं—महान पिता, इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति, कि छोटा बच्चा सुख अनुभव करता है; अब वह तुमसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। तुम बिस्तर के करीब बैठे उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछ—ताछ करते हो। फिर डाक्टर आते हैं, बड़े डाक्टर, जाने—माने डाक्टर; पड़ोसी आते हैं, मां निरंतर बात कर रही होती है उसकी बीमारी को लेकर। वह केंद्र बन जाता है सारे परिवार का, और परिवार ही कुल संसार होता है उस बच्चे के लिए। सारा संसार उसके आस—पास घूमता है : वह बन जाता है सूर्य और सब चीजें ग्रह बन जाती हैं। उसे लगता है, क्या मजा आ रहा है! अब वह ऐसी तरकीब सीख रहा है, जिसके कारण वह जिंदगी भर पीड़ा पाएगा—बड़ी खतरनाक तरकीब सीख रहा है।

यदि मेरी बात मानने को तैयार हों तो मैं मां—बाप से कहूंगा कि जब बच्चा बीमार या दुखी हो तो बहुत ज्यादा ध्यान मत दें उसे, बल्कि जब वह खुश और स्वस्थ हो तो ध्यान दें। जब बच्चा खुश हो तो उसे अनुभव होने दें कि वह परिवार का केंद्र है। जब वह बीमार हो तो उसे एक ओर बैठने दें, औषधि दें उसे, लेकिन उसे अनुभव होने दें कि वस्तुत: कोई उसके लिए परेशान नहीं है। वह सबसे अलग— थलग है। यह बात बहुत कठोर मालूम पड़ती है—जो मैं कह रहा हूं बहुत कठोर मालूम पड़ता है—लेकिन मैं कहता हूं तुमसे कि यदि तुम पूरी बात को समझो तो यही करुणा है। क्योंकि तुम्हारी साधारण दयालुता द्वारा तो वह बच्चा जीवन भर दुख पाएगा। केवल इसी जन्म में नहीं—यह बात गहरे उतर जाती है—बहुत—बहुत जन्मों में वह यही बात दोहराएगा। जीवन में जब भी तुम्हें किसी का ध्यान चाहिए होगा—और हर किसी को चाहिए ध्यान, क्योंकि ध्यान अहंकार के लिए भोजन है। केवल एक बुद्ध पुरुष को ही ऐसा ध्यान पाने की जरूरत नहीं रह जाती—क्योंकि उनमें अहंकार ही नहीं होता तो भोजन की आवश्यकता भी नहीं होती—अन्यथा तो हर किसी को जरूरत होती है ध्यान पाने की। और जब भी तुम्हें ध्यान चाहिए होता है, तो तुम क्या करोगे? तुम केवल एक ही तरकीब जानते हो : दुखी होना, बीमार होना।

नब्बे प्रतिशत बीमारियां पहले मन में जन्म लेती हैं, अचेतन में पैदा होती हैं। पत्नी साधारणत: तुम्हारी परवाह नहीं करती : बल्कि उलटे जब तुम आफिस से आते हो, तो वह प्रतीक्षा कर रही होती है लड़ने की या कि उसने तुम्हारे धोने के लिए प्लेटें रख छोड़ी होती हैं। लेकिन जब तुम बीमार होते हो तो वह तुम्हारे पास ही बैठी रहती है। तुम्हारा खयाल रखती है। छोटी—छोटी बातो का भी ध्यान रखती है। वह लड़ती—झगड़ती नहीं—तुम्हें अच्छा लगता है।

यह सच में ही एक विकृत अवस्था है : कि जब तुम ठीक नहीं होते तो तुम ठीक अनुभव करते हो और जब तुम ठीक होते हो तो तुम ठीक अनुभव नहीं करते। लेकिन यही हालात हैं। यदि पत्नी बीमार है, तो पति महाराज चले आते हैं फूल लेकर और आइसक्रीम लेकर। जब वह ठीक—ठाक होती है, तो वे उसकी ओर देखते भी नहीं—वे अपना अखबार खोल कर पढ़ने लगते हैं।

तो हर कोई दुखी होने का खेल खेलता रहता है। तुम सुखी होना चाहते हो, लेकिन जब तक तुम दुख से अपने न्यस्त स्वार्थ नहीं तोड़ लेते, तुम सुखी नहीं हो सकते। और तुम्हें सुखी करना किसी दूसरे की जिम्मेवारी नहीं है, इसे ध्यान में रख लेना। कोई दूसरा तुम्हें सुखी नहीं कर सकता है। यह तुम्हारा अपना विकास है, अपनी सजगता है, अपनी ऊंची उठती ऊर्जा है जो तुम्हें आनंद देती है। लेकिन तुम्हें गहन अचेतन के काम करने के ढंग को समझ लेना है—कि तुम बातें तो करते हो सुख की, लेकिन आकांक्षा करते हो दुख की।

इसीलिए…..और जो कुछ तुम चाहते हो वह घटता है! यह संसार सच में एक जादूनगरी है। यदि तुम दुख चाहते हो, तो दुख मिलेगा। यदि तुम सुख चाहते हो तो सुख मिलेगा—क्योंकि तुम्हीं हो निर्णायक तत्व, तुम्हीं हो उस सब के आधार जो तुमको घटता है। यही है कर्म का कुल सिद्धात: जो कुछ भी तुम चाहते हो, तुम जो आकांक्षा करते हो, वह घटित होता है। यदि तुम दुखी हो तो इसीलिए क्योंकि तुम चाहते हो वैसा। मैं फिर कठोर मालूम पड़ता हूं। क्यों? क्योंकि तुम मेरे पास सांत्वना पाने के लिए आते हो। मुझे तुमसे कहना चाहिए, ‘तुम दुखी हो क्योंकि सारा संसार तुम्हारे विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा है।’ तब तुम्हें अच्छा लगता; लेकिन तब मैं तुम्हारी मदद नहीं कर रहा हूं तब मैं तुम्हारी बीमारी को बढ़ा रहा हूं; मैं तुम्हें और भी विक्षिप्त कर रहा हूं।

नहीं; तुम्हारे सिवाय और कोई जिम्मेवार नहीं है तुम्हारे दुख के लिए। और यह हमेशा सच है। इसमें कोई अपवाद नहीं है। यह बहुत वैज्ञानिक बात है—एकदम वैज्ञानिक, नियमगत. तुम जिम्मेवार हो। इस बात को अपने मन में गहरे उतर जाने देना कि केवल तुम्हीं जिम्मेवार हो। जब भी तुम दुखी होते हो, परेशान होते हो, उदास होते हो, तो ठीक से समझ लेना कि तुम्हीं निर्मित कर रहे हो उसे। और यदि तुम निर्मित करना ही चाहते हो, तो फिर ठीक है, आनंद लो उसका। फिर सुख की आकांक्षा मत करो। फिर बस शांति से उसका आनंद लो. उदास होओ, दुखी होओ, बन जाओ अंधेरी रात। मैं नहीं कह रहा हूं कि तुम्हें दिन ही होना चाहिए; कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम अंधेरी रात बनना चाहते हो तो अंधेरी रात बनो—लेकिन फिर आकांक्षा मत करना दिन की। मुश्किल तब पैदा होती है जब तुम चिपकते हो रात से और आकांक्षा करते हो दिन की।

तुम मेरे पास आते हो और मैं देखता हूं। तुम आकांक्षा करते हो शांति की—और मैं देखता हूं. तुम चिपक रहे होते हो शोरगुल से, विचारों से, चिंतन—मनन से। तुम आकांक्षा करते हो शांति की और तुम चिपक रहे होते हो उन चीजों से जो तुम्हें शात न होने देंगी। तो पहले साफ कर लेना अपने भीतर के जंजाल को।

लोगों को जरूरत है, उन्हें सदा से जरूरत है, लेकिन वे आएंगे नहीं क्योंकि शायद वे भयभीत हैं। बहुत से लोग आते हैं मेरे पास, और कई बार वे उस आनंद से भयभीत होते हैं जो उनके भीतर विकसित हो रहा होता है—क्योंकि वह बहुत अपरिचित मालूम होता है।

एक बार ऐसा हुआ, जार्ज बर्नार्ड शॉ एक आदमी की खूब निंदा कर रहा था। एक मित्र जो जार्ज बर्नार्ड शॉ और दूसरे व्यक्ति, दोनों को अच्छी तरह जानता था, उसने जार्ज बर्नार्ड शॉ से कहा, ‘मैं जानता हूं कि आप उस व्यक्ति को बिलकुल नहीं जानते; और आप उसकी इतनी निंदा कर रहे हैं और उसकी इतनी आलोचना कर रहे हैं—और मैं जानता हूं कि आपका उससे कोई परिचय भी नहीं है! आप बिलकुल परिचित नहीं हैं! तो यदि आप सच में ही जानना चाहते हैं उस आदमी को, तो क्या मैं उसे ले आऊं और परिचय करा दूं आपसे?’ जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा, ‘नहीं—नहीं, क्योंकि यदि आप परिचय करा देंगे तो शायद मैं उसे पसंद करने लग!’

यही अड़चन है। लोग दुखी हैं, लेकिन तुम उन्हें मेरे पास लाते हो तो संभावना है उनके शात हो जाने की—यही भय है। संभावना है उनके आनंदित हो जाने की—यही भय है। इसलिए मेरे पास आने की बजाय वे मेरे विरुद्ध बातें करेंगे। वे किसी और को समझाने के लिए मेरे विरुद्ध बातें नहीं कर रहे होते हैं; वे अपने को समझाने के लिए ही मेरे विरुद्ध बातें कर रहे होते हैं, ताकि उन्हें जरूरत ही न रहे मेरे पास आने की। मन बहुत चालाक है और तुम्हारे साथ चालाकी करता रहता है। और जब तक तुम पूरी तरह जाग नहीं जाते, तुम मन के इस झमेले से बाहर नहीं आ सकते।

छठवां प्रश्न:

 

यदि लाओत्‍सु और पतंजलि आज मिलें तो क्या वे आत्मिक—विकास संबंधी अपनी शिक्षाओं को समन्वित कर सकेंगे? यदि उनके बुद्धत्व के बीच कोई भेद नहीं है तो उनकी शिक्षाओं में इतना भेद क्यों है? और आप से पहले युगों— युगों में ऐसा कोई गुरु क्यों नहीं हुआ जिसने कि पिछले बुद्ध पुरुषों की सारी शिक्षाओं को जोड़ा और संश्लेषित किया हो?

 

प्रश्न तीन हिस्सों में है। पहला हिस्सा है : ‘यदि लाओत्सु और पतंजलि आज मिलें तो क्या वे आत्मिक—विकास संबंधी अपनी शिक्षाओं को समन्वित कर सकेंगे?’

यदि वे मिलते हैं तो वे समन्वित करने के लिए कुछ न पाएंगे—हर चीज समन्वित ही है। वे गले मिलेंगे, हाथ में हाथ लेकर बैठेंगे, लेकिन बोलेंगे नहीं। वे ऐसा ही कर रहे होंगे कहीं स्वर्ग में; क्योंकि हर चीज समन्वित ही है। समस्या तुम्हारे लिए है, उनके लिए नहीं। समस्या उनके लिए है जो मार्ग पर हैं; उनके लिए नहीं है जो मंजिल पर पहुंच गए हैं, क्योंकि मंजिल पर सब मार्ग मिल जाते हैं। मंजिल एक है; मार्ग अनेक हैं। एक मार्ग पर चलते हुए तुम अनुभव करते हो कि दूसरा किसी और मार्ग पर यात्रा कर रहा है। लेकिन मंजिल पर पहुंच कर तुम अचानक पाते हो कि हर कोई एक ही मंजिल पर पहुंचता है। सत्य एक ही है।

इसलिए किसी समन्वय का कोई प्रश्न नहीं उठता। किसी संश्लेषण की कोई जरूरत नहीं होती, हर चीज पूर्णरूपेण संश्लिष्ट है। उनके बीच हंसी—मजाक चल सकता है या वे मजे से चाय पी सकते हैं, लेकिन कोई दार्शनिक चर्चा न होगी—इतना पक्का है। वे ताश खेल सकते हैं या ऐसी ही कोई दूसरी गैर—गंभीर चीज, लेकिन कोई बौद्धिक विचार—विमर्श न होगा।

मैं सदा सोचता हूं कि स्वर्ग में, जहां मुक्त पुरुष हैं, वे क्या करते होंगे? वे जरूर ताश खेलते होंगे, शतरंज—निरर्थक चीजें। और क्या करोगे तुम वहां? खेलोगे। और खेल में कोई प्रतियोगिता नहीं है वहा, क्योंकि प्रतियोगिता तो गंभीर हो जाती है। खेल तो बस खेल है। तुम मजा लेते हो उसका छोटे बच्चों की भांति।

प्रश्न का दूसरा हिस्सा है : ‘यदि उनके बुद्धत्व के बीच कोई भेद नहीं है तो उनकी शिक्षाओं में इतना भेद क्यों है?’

शिक्षाएं भिन्न हैं लेकिन शिक्षक नहीं। शिक्षक एक ही है। शिक्षाएं भिन्न हैं क्योंकि विद्यार्थी भिन्न हैं, शिष्य भिन्न हैं। पतंजलि एक अलग तरह के लोगों से बात कर रहे थे—तुम्हें ठीक से समझ लेनी है यह बात—लाओत्सु एक अलग तरह के लोगों से बात कर रहे थे।

भारत में रहस्यवाद भी बहुत तर्कसंगत घटना है। भारत बहुत वैचारिक देश है : वह उन बातो पर भी विचार करता है जिन पर विचार नहीं किया जा सकता, वह उसके विषय में भी सिद्धात बनाता है जिसे कि सिद्धांतबद्ध नहीं किया जा सकता; वह उसको भी परिभाषित करता है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। सारे भारतीय शास्त्र भरे पड़े हैं इससे। वे कहते रहेंगे, ‘ईश्वर को परिभाषित नहीं किया जा सकता है’—और वे परिभाषित करेंगे। और वे कहेंगे, ‘सत्य अपरिभाष्य है’—और यह कह कर उन्होंने परिभाषा कर दी होती है उसकी; उन्होंने उसका एक लक्षण तो बता ही दिया कि वह अपरिभाष्य है। वे कहेंगे, ‘ईश्वर के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है’—और तुरंत वे कह देंगे, ‘वह तुम्हारे भीतर ही है’ या ‘उसी ने रचा है सब कुछ’ या ‘वह सर्वव्यापी।’

भारत एक चिंतनशील देश है। उसका चिंतन से बड़ा लगाव है। वह चिंतन में इतना रस लेता है कि उसकी वजह से वह लगभग अव्यावहारिक हो गया है। लोग खूब सोचते—विचारते रहे। और बस वे सोचते रहे, सोचते ही रहे, और फलत: अव्यावहारिक हो गए—करीब—करीब अकर्मण्य। भारत ने कोई वैज्ञानिक टेक्यॉलॉजी पैदा नहीं की। यदि व्यावहारिक मस्तिष्क हो तो वह कुछ करने में रस लेता है। भारत एक अव्यावहारिक चिंतक देश है; वह बस सोचता ही रहता है। लगता है जीवन का कुल काम केवल इतना ही है——सोचना!

लाओत्सु के समय चीन बिलकुल भिन्न था, और वे शिष्य जो उसके पास इकट्ठे हुए थे…।

और यह कोई नई परंपरा नहीं थी जिसे कि लाओत्सु प्रवर्तित कर रहा था। यह लाओत्सु से कम से कम पांच हजार वर्ष पहले से चली आई थी। यह बहुत प्राचीन परंपरा थी। चीन उन दिनों एक गैर—वैचारिक देश था. विचारशील कम था और ध्यानशील ज्यादा था। उसका विचार से, सिद्धांतो से, दार्शनिकता से कोई संबंध न था। चीन ने सुंदर दर्शन नहीं दिए हैं संसार को— भारत ने दिए हैं। करीब—करीब दुनिया के सभी दर्शन जो तुम जानते हो, उनके बीज तुम भारत में पाओगे।

कभी—कभी बहुत अदभुत घटनाएं घटती हैं। तुम संसार के किसी ऐसे दर्शन की कल्पना नहीं कर सकते जिसका समानांतर भारत में न हो। जिस पर कहीं भी विचार हुआ है, उस पर भारत में पहले ही विचार हो चुका है। विचार में तुम भारतीयों का मुकाबला नहीं कर सकते। आज के भारतीय नहीं—मैं आज के भारतीयों की बात नहीं कर रहा हूं। वे तो केवल खंडहर हैं बीते ऐश्वर्य के। असली भारत का तो अब कोई अस्तित्व ही नहीं है। बुद्ध का भारत, पतंजलि, वेदों और उपनिषदों का भारत, वह बिलकुल खो गया है। वे विचार करते रहे और विचार करते रहे और उन्होंने संसार के विषय में अदभुत सिद्धांतो की रचना की, लेकिन वे प्रायोगिक न थे, वे व्यावहारिक न थे।

चीन बिलकुल अलग था। उन्हें सिद्धांतो में कोई रुचि न थी; बल्कि उन्हें जीने में रुचि थी। उन्हें विचार करने की अपेक्षा होने में अधिक रुचि थी। और लाओत्सु है परम शिखर।

जब बोधिधर्म चीन गया, तो ये दो धाराएं मिली—लाओत्सु का ध्यान और बुद्ध का ध्यान। वे दो धाराएं मिलीं, और एक सुंदरतम घटना का जन्म हुआ, झेन। उसमें गुणवत्ता है बुद्ध की और उसमें गुणवत्ता है लाओत्सु की। वह न तो बुद्धवादी है और न ताओवादी है; वह दोनों ही है। वह इस धरती पर हुई बड़ी से बड़ी क्रॉस—ब्रीडिंग है।

पतंजलि बहुत तर्कसंगत हैं, तर्कसंगत हैं अध्यात्म के जगत में। एक—एक कदम वे आगे बढ़ते हैं; वे वैज्ञानिक हैं। वे संतुष्ट कर सकते थे किसी आइंस्टीन को, किसी विटगिन्‍स्‍टीन को या कि रसेल को। लाओत्सु आइंस्टीन को संतुष्ट नहीं कर सकते थे, वे रसेल को या विटगिन्‍स्‍टीन को संतुष्ट नहीं कर सकते थे, क्योंकि वे अतर्कसंगत मालूम पड़ते। वें बिलकुल पागलपन की बात कर रहे थे। लेकिन पतंजलि ने बड़े से बड़े वैज्ञानिक को संतुष्ट कर दिया होता, क्योंकि वे बहुत वैज्ञानिक ढंग से बोलते थे और बहुत कम से आगे बढ़ते थे, एक—एक कदम, बीच की कड़ी को स्पष्ट करते हुए।

तो शिक्षाएं भिन्न हैं क्योंकि पतंजलि पैदा हुए थे भारत में, बोल रहे थे भारतीयों से—बहुत मननशील देश। लाओत्सु बोल रहे थे ध्यानियों से; चीन उन दिनों बड़ा ध्यानी देश था। दोनों बोल रहे थे अलग—अलग लोगों से, अलग—अलग तरह के शिष्य उनके आस—पास इकट्ठे हुए थे। तो शिक्षाएं भिन्न होती हैं क्योंकि शिक्षाएं सीखने वालों के लिए होती हैं। शिक्षक भिन्न नहीं होते। यदि पतंजलि अकेले हों और लाओत्सु अकेले हों तो वे दोनों बिलकुल एक समान होंगे। लेकिन यदि पतंजलि अपने शिष्यों के साथ हों, और लाओत्सु अपने शिष्यों के साथ हों, तो वे अलग होंगे। यदि पतंजलि और लाओत्सु मौन हों, तो वे एक जैसे ही होंगे, लेकिन यदि वे किसी से बोलते हैं तो वे अलग होंगे। शिक्षक को शिष्य के हिसाब से बोलना होता है—उसकी समझ, उसकी क्षमता, उसकी बुद्धि, उसके संस्कार के हिसाब से बोलना होता है। उसे अपनी शिक्षा को शिष्य के स्तर तक ले आना होता है; अन्यथा वह शिक्षक नहीं है। इसीलिए शिक्षाओं में भेद है।

और एक और बात : दो तरह के लोग होते हैं। एक, जो कि बहुत साहसी होते हैं और छलांग लगा सकते हैं; असल में कहना चाहिए कि दुस्साहसी होते हैं—सोचते—विचारते नहीं। एक खास भाव — दशा में वे छलांग लगा सकते हैं; वे परिणाम आदि की चिंता नहीं करते। फिर दूसरी तरह का व्‍यक्ति है—वह हिचकता है; हर तरह से पक्का कर लेगा परिणाम के बारे में, केवल तभी वह आगे बढ़ेगा। पतंजलि का आकर्षण उनके लिए है जो छलांग के पहले ही आश्वस्त होना चाहते हैं। लाओत्सु उनके लिए हैं जो किसी परिणाम की फिक्र नहीं करते, वे छलांग के लिए तैयार ही होते हैं। इन दो प्रकार के लोगों के लिए दो प्रकार की शिक्षाएं हैं, लेकिन शिक्षक समान ही होते हैं।

और तीसरा हिस्सा. ‘और आप से पहले युगों—युगों में ऐसा कोई गुरु क्यों नहीं हुआ जिसने कि पिछले बुद्ध पुरुषों की सारी शिक्षाओं को जोड़ा और संश्लेषित किया हो?’

अब तक कोई जरूरत न थी, अब जरूरत है। अतीत में संसार बंटा हुआ था, संसार बहुत बड़ा था। लोग अपने—अपने देशों की सीमाओं में रहते थे। शिक्षाएं एक—दूसरे के प्रभाव में न आती थीं एक मुसलमान जीता था मुसलमान की भांति, उसे कुछ पता न था कि वेद क्या कहते हैं; एक हिंदू जीता था हिंदू की भांति, वह कभी न जानता कि जरथुस्त्र ने क्या कहा है। लेकिन अब संसार बहुत छोटा हो गया है, एक ग्लोबल विलेज; संसार बहुत सिकुड़ गया है। अब हर कोई हर किसी चीज के बारे में जानता है। एक ईसाई केवल ईसाई ही नहीं है, वह जानता है कि गीता क्या कहती है; वह जानता है कि कुरान क्या कहती है। अब भ्रम पैदा हो गया है; क्योंकि कुरान कुछ कहती है, गीता कुछ कहती है, बाइबिल कुछ और ही कहती है। अब प्रत्येक को पता है आस—पास की हर चीज। लोग एक देश से दूसरे देश जाते रहते हैं, एक शिक्षक से दूसरे शिक्षक के पास यात्रा करते रहते हैं। यहां बहुत से हैं जो कई शिक्षकों के पास रह चुके हैं; अब वे भ्रमित हैं।

इसलिए अब एक बड़े संश्लेषण की जरूरत है। भविष्य में धर्म अलग— अलग नहीं रह पाएंगे। नहीं, यह बात असंभव हो जाएगी। मैं तो एक नए मंदिर की नींव रख रहा हूं—जो चर्च भी होगा, मस्जिद भी होगा, गुरुद्वारा भी होगा। मैं उस धार्मिक व्यक्ति का आधार रख रहा हूं जो न ईसाई होगा, न हिंदू होगा, न मुसलमान होगा—केवल धार्मिक होगा। अब समय पक गया है एक बड़े संश्लेषण के लिए; ऐसा पहले कभी न हुआ था।

बुद्ध उन लोगों से बोल रहे थे जो मुसलमान न थे। जीसस उन लोगों से बोल रहे थे जो यहूदी थे, जीसस ऐसे बोलते हैं जैसे कि यहूदियों के अतिरिक्त और कोई है ही नहीं। वे यहूदियों से बोल रहे थे। लेकिन मैं किससे बोल रहा हूं? यहां यहूदी हैं, ईसाई हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्‍ख हैं—सब हैं। तुम यहां संसार का एक लघु रूप हो। जल्दी ही, जैसे—जैसे लोग एक—दूसरे को ज्‍यादा समझेंगे, भिन्नताएं खो जाएंगी। जब कोई ईसाई गीता को सच में ही समझेगा तो गीता और बाइबिल के बीच का भेद खो जाएगा; एक संवाद निर्मित होगा।

इसीलिए मैं कोशिश कर रहा हूं सारी धर्म —पद्धतियों और सारे गुरुओं पर बोलने की, ताकि एक आधार निर्मित हो सके। उस आधार पर खड़ा होगा भविष्य का मंदिर, भविष्य का धार्मिक व्‍यक्‍ति। वह ईसाई नहीं होगा। असल में भविष्य में यदि कोई ईसाई हुआ तो वह थोड़ा दकियानूसी मालूम पड़ेगा, और यदि कोई हिंदू हुआ तो वह कुछ नासमझ मालूम पड़ेगा, और यदि कोई तब भी कहे कि वह मुसलमान है तो वह समसामयिक नहीं होगा—एक मृत व्यक्ति होगा। भविष्य उस धर्म का है जिसमें कि सारे धर्म समाहित हो जाएंगे और सम्मिलित हो जाएंगे और घुल—मिल जाएंगे।

इसीलिए अतीत में इसकी कोई जरूरत न थी। अब इसकी जरूरत है। अब मनुष्य एक बड़े संक्रांति—बिंदु से गुजर रहा है। ऐसा होता है कि पच्चीस सौ साल बाद मनुष्यता एक मोड़ लेती है; एक वर्तुल पूरा होता है। मनुष्य—चेतना ने एक करवट ली थी बुद्ध के समय में। अब पच्चीस सौ साल बीत गए हैं और वह मोड़ फिर आ गया है। जो सजग हैं वे सर्वाधिक लाभान्वित होंगे उस मोड़ से, क्योंकि वे उपयोग कर सकते हैं उस उमड़ते ज्वार का। वे यात्रा कर सकते हैं उस ऊंचे ज्वार पर; वे सरलता से घर पहुंच सकते हैं। जब समुद्र उतार पर होता है तो किनारे पर पहुंचना कठिन होता है। जब समुद्र ज्वार पर होता है तो लहरें अपने आप जा रही होती हैं किनारे की ओर—तुम अपनी नाव लहरों में छोड़ देते हो और वे तुम्हें ले जाती हैं।

इन पच्चीस वर्षों के भीतर ही इतिहास के सब से महत्वपूर्ण संक्रांति—कालों में से एक काल आने वाला है और मनुष्य—चेतना एक मोड़ लेगी। यदि उस घड़ी तुम तैयार होते हो और ध्यानमय होते हो तो बहुत कुछ संभव है जो कि फिर पच्चीस सौ साल तक संभव न होगा। पतंजलि के युग में एक मोड़ आया था; पतंजलि हुए बुद्ध से पच्चीस सौ साल पहले। ऐसा सदा ही हुआ है।

यह ऐसे ही है जैसे पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूरा करती है एक निश्चित अवधि में, वैसे ही पूरी मनुष्य—चेतना एक वर्तुल में बढ़ती है और एक निश्चित अवधि, पच्चीस सौ साल में अपने मूल स्रोत तक आ जाती है। वह संक्रांति का क्षण निकट है। वह बहुत आमूल रूपांतरकारी बन सकता है। यदि तुम एक समन्वय को उपलब्ध हो, तो तुम उस घड़ी का उपयोग कर पाओगे। यदि तुम समन्वय को उपलब्ध नहीं हो—तुम मुसलमान बने रहते हो, क्रिश्चियन बने रहते हो—तो तुम पुराने ही रहते हो, तुम अतीत ही रहते हो। तुम ‘यहां’ नहीं होते; तुम वर्तमान में नहीं होते।

तुम्हें वर्तमान में लाने के लिए, तुम्हें यह समझने में सक्षम बनाने के लिए कि शीघ्र ही क्या घटने वाला है, इसीलिए संश्लेषण का यह मेरा सारा प्रयास है।

अंतिम प्रश्न:

 

आप भलीभांति जानते हैं कि हमारे पास केवल मन की आवाज ही है फिर आपका क्या अर्थ है हमें यह कहने में कि अपने अंतस की आवाज सुनो और उसी के अनुसार चलो? क्या शून्य की भी कोई आवाज होती है?

 

हां, शून्य की अपनी आवाज होती है। शाब्दिक अर्थों में तो वह कोई आवाज नहीं होती; वह केवल एक अंतःप्रेरणा होती है। वह कोई ध्वनि नहीं है, वह मौन है। कोई कहता नहीं कुछ करने के लिए, तुम्हें बस प्रेरणा होती है कुछ करने की। भीतर की आवाज सुनने का अर्थ है. हर चीज को आंतरिक शून्यता के ऊपर छोड़ देना। फिर वह तुम्हें मार्ग दिखाती है। यदि तुम शून्य चित्त से कुछ करते हो तो तुम सदा सम्यक होते हो। यदि तुम में आंतरिक शून्‍यता है तो कोई बात गलत न होगी, कोई बात गलत हो नहीं सकती। आंतरिक शून्यता में कुछ कभी गलत नहीं होता। तो यह पक्की कसौटी है सम्यक होने की, सदा सम्यक होने की।

हां, शून्यता की एक अपनी आवाज होती है, मौन का एक अपना संगीत होता है, शांति का एक अपना नृत्य होता है; लेकिन तुम्हें पहुंचना होगा उस तक।

मैं नहीं कह रहा हूं कि मन की सुनो। असल में मन तुम्हारा नहीं है। जब मैं कहता हूं : ‘अपनी आवाज सुनो’, तो मेरा मतलब है कि वह सब गिरा दो जो समाज ने तुम्हें दिया है। तुम्हारा मन समाज ने दिया है। तुम्हारा मन तुम्हारा नहीं है। वह है समाज, संस्कार; वह समाज से मिला है। शून्यता तुम्हारी है, मन तुम्हारा नहीं है। मन हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है; मन है कम्मुनिस्ट, गैर—कम्युनिस्ट, पूंजीवादी। शून्यता कुछ भी नहीं है। उस शून्यता में तुम्हारे अस्तित्व का कुआंरापन होता है। उसको सुनो।

जब मैं कहता हूं उसको सुनो, तो मेरा यह मतलब नहीं है कि कोई वहां तुमसे बोल रहा है। जब मैं कहता हूं उसको सुनो, तो मेरा मतलब है उसके प्रति उपलब्ध रहो, अपने पूरे प्राणों से सुनो उसे; और वह तुम्हें ठीक दिशा देगा। और वह कभी किसी को गलत दिशा नहीं देता। शून्यता से जो कुछ आता है, सुंदर होता है, सत्य होता है, शुभ होता है, एक शुभाशीष होता है।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–49

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योग का दूसरा चरण: अंतस शोधन—(प्रवचन—नौवां)

योग—सूत्र

(साधनापाद)

शौचसंतोषतप: स्‍वाध्‍यायेश्‍वरप्रणिधानानि नियमा:।। 32।।

शुद्धता, संतोष, तप, स्‍वाध्‍याय और ईश्‍वर के प्रति समर्पण—

ये नियम पूरे करने होते है।

वितर्कबाधने प्रतिपक्षभानम्।। 33।।

जब मन अशांत हो असद् विचारों से, तो मनन करना विपरीत विचारों पर।

वितर्क हिंसादय: कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका

मृदुमध्‍याधिमात्रा दुःख ज्ञानानन्‍तफला इति प्रतिपक्षभावनम्।। 34।।

विपरीत विचारों पर मनन करना आवश्‍यकत है क्‍योंकि हिंसा आदि विचार, भाव और कर्म—अज्ञान एवं तीव्र दुःख में फलित होते है—फिर वे अल्‍प, मध्‍यम या तीव्र मात्राओं के लोभ, क्रोध या मोह द्वारा स्‍वयं किए हुए, दूसरों से करवाए हुए या अनुमोदन किए हुए क्‍यों न हो।

नियम ही नियम हैं : मनुष्य को दमित करने के नियम, उसके विकास में सहायता देने के नियम; निषेध के, प्रतिबंध के नियम और उसके विकसित होने में, बढ़ने में सहायता देने के नियम। वह नियम जो केवल निषेध करता है, विध्वंसात्मक होता है; वह नियम जो विकसित होने और बढ़ने में सहायता देता है, सृजनात्मक होता है। ओल्ड टेस्टामेंट के टेन कमांडमेंट्स पतंजलि के नियमों से बिलकुल अलग हैं। वे निषेध करते हैं, प्रतिबंध लगाते हैं, दमन करते हैं। सारा जोर इस पर है कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम्हें वैसा नहीं करना चाहिए, इसकी आशा नहीं है। पतंजलि के नियम बिलकुल अलग हैं; वे सृजनात्मक हैं। जोर इस पर नहीं है कि क्या नहीं करना चाहिए, जोर इस पर है कि क्या करना चाहिए। और बहुत अंतर है दोनों में।

ओल्ड टेस्टामेंट में तो ऐसा लगता है जैसे कि नियम ही लक्ष्य हैं—जैसे कि मनुष्य उनके लिए है, न कि वे मनुष्य के लिए हैं। पतंजलि के लिए नियमों की उपयोगिता है, लेकिन वे किसी भी ढंग से, किसी भी दृष्टिकोण से अंतिम और परम नहीं हैं। मनुष्य नहीं है उनके लिए; वे हैं मनुष्य के लिए। वे साधन हैं, द्वार हैं, और उनका उपयोग कर लेना है—और उनके पार चले जाना है। इस बात को ध्यान में रखना है; अन्यथा तुम पतंजलि के विषय में गलत धारणा बना सकते हो।

साधारणतया तो धर्म बहुत विध्वंसात्मक रहे हैं। उन्होंने सारी मनुष्य—जाति को पंगु बना दिया है। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को अपराधी बना दिया है—और यही सब से बड़ा अपराध है जो मनुष्य के विरुद्ध किया जा सकता है। और कुल तरकीब यह है : पहले तुम लोगों को अपराधी बना दो, जब वे करा रहे हों, अपराध से भयभीत हों, डर गए हों, बोझिल हों, नरक में जी रहे हों, तब तुम उनकी सहायता करो उसमें से बाहर आने में, तब तुम पहुंच जाओ और उन्हें सिखाओं कि कैसे मुक्त होना है। लेकिन पहली तो बात कि अपराध— भाव ही क्यों निर्मित करना? और जब मनुष्य अपराध— भाव में धिरा होता है तो बहुत पंगु हो जाता है और बढ़ने और विकसित होने से इतना भयभीत हो जाता है, अज्ञात और अपरिचित और अनजान में जाने से इतना भयभीत हो जाता है कि वह बिलकुल बंद हो जाता है, मुर्दा हो जाता है; फिर बहुत से लोग आ जाते हैं उसकी मुक्ति में मदद करने के लिए।

पतंजलि तुम्हें कभी किसी चीज के बारे में कोई अपराध— भाव नहीं देते। इस अर्थों में वे धार्मिक होने की अपेक्षा वैज्ञानिक अधिक हैं, धर्मगुरु होने की अपेक्षा मनस्विद अधिक हैं। वे कोई उपदेशक नहीं है। जो कुछ भी वे कह रहे हैं, वे बस तुम्हें एक नक्शा दे रहे हैं कि विकसित कैसे हुआ जा सकता है; और यदि तुम विकसित होना चाहते हो तो तुम्हें अनुशासन की जरूरत है। लेकिन अनुशासन बाहर से आरोपित नहीं होना चाहिए; अन्यथा यह अपराध— भाव निर्मित कर देता है। अनुशासन तो भीतरी समझ से आना चाहिए, तब वह सुंदर होता है। और अंतर बहुत सूक्ष्म है। तुम्हें कहा जा सकता है कुछ करने के लिए, और फिर तुम करते हो वैसा, लेकिन तुम उसे गुलाम की भांति करते हो। लेकिन तुम्हें कोई बात समझाई जाती है और समझ से तुम करते हो उसे, फिर तुम उसे मालिक की भांति करते हो। जब तुम मालिक होते हो, तब तुम सुंदर होते हो; जब तुम गुलाम होते हो, तब तुम असुंदर हो जाते हो।

मैंने एक पुराना यहूदी मजाक सुना है। एक जुम्बाक नाम का दर्जी था। एक आदमी आया उसके पास। उसका सूट सिल कर तैयार था और वह उसे लेने आया था, किंतु उस आदमी ने देखा कि सूट की एक बांह लंबी थी, एक छोटी थी। जुम्बाक दर्जी ने कहा, ‘तो क्या हुआ? तुम क्यों इतना झगड़ा खड़ा कर रहे हो? देखो तो कितना खूबसूरत सिला है। और इतनी छोटी सी खराबी के लिए तुम इतना झगड़ा कर रहे हो! तुम अपनी बांह थोड़ी भीतर खींच सकते हो, और तब आस्तीन बिलकुल ठीक आएगी।’ तो उस आदमी ने कोशिश की; लेकिन जब उसने अपनी बांह को भीतर खींचा तो उसे लगा कि पीठ पर बहुत सलवटें हो गई हैं। उसने कहा, ‘अब पीठ पर बहुत सलवटें हैं!’ उस जुम्बाक दर्जी ने कहा, ‘तो क्या हुआ? तुम थोड़ा झुक सकते हो, लेकिन यह बेहतरीन सिला है और मैं इसे बदलने वाला नहीं। यह कितना सुंदर लगता है।’

तो वह आदमी कुबड़े की भांति झुका हुआ बाहर आया। जब वह घर जा रहा था तो बहुत कठिन था चलना, क्योंकि एक हाथ भीतर खींचे रखना था, और फिर उसे झुके रहना था जिससे कि सूट सुंदर बना रहे। आदमी तो बिलकुल भुला ही दिया गया, कोट ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। रास्ते में उसे कोई व्यक्ति मिला और उसने कहा, ‘ऐसा सुंदर सूट! मैं शर्त लगा सकता हूं कि इसे जरूर जुम्बाक दर्जी ने सिया होगा।’

पहले आदमी को बहुत आश्चर्य हुआ उसने कहा, ‘तुम्हें कैसे पता चला?’

उस आदमी ने कहा, ‘मुझे कैसे पता चला? केवल उस जैसा दर्जी ही तुम जैसे अपंग के लिए ऐसा सुंदर कोट सिल सकता है!’

यही सभी धर्मों द्वारा सारी मनुष्य—जाति के साथ किया गया है। उन्होंने सुंदर नियम बनाए हैं तुम्हारे लिए। वे कहते हैं कि यदि तुम्हें थोड़ा कुबड़ा होना पड़े तो क्या हर्ज है? बिलकुल ठीक। तुम बड़े सुंदर लगते हो। तुम्हें चलना है नियम के अनुसार और उसे पूरा करना है। तुम नहीं हो साध्य; नियम है साध्य। यदि तुम अपंग हो जाते हो तो ठीक, यदि तुम कुबड़े हो जाते हो तो ठीक, यदि तुम बीमार हो जाते हो तो ठीक—लेकिन नियम तो पूरा करना ही होगा!

पतंजलि तुम्हें उस तरह के नियम नहीं दे रहे हैं, नहीं। वे बेहतर समझते हैं। वे सारी स्थिति को समझते हैं। नियम हैं तुम्हें सहायता देने के लिए। वे ठीक उस ढांचे की भांति हैं जो इमारत बनाने के पहले चारों तरफ बनाया जाता है। नई इमारत के बनने में वह सहायता देता है, लेकिन जब इमारत तैयार हो जाती है तो ढांचे को हटा देना पड़ता है। वह एक .निश्चित उद्देश्य के लिए था, वही मंजिल न था। ये सारे नियम एक निश्चित उद्देश्य के लिए हैं, वे विकसित होने में तुम्हारी सहायता करते हैं।

पहला था ‘यम’, आत्म— अनुशासन। तुमने ध्यान दिया होगा—पांच व्रत, अहिंसा, सत्य आदि, उनकी अपनी एक विशेषता है कि तुम उनका अभ्यास केवल समाज में रह कर ही कर सकते हो। यदि तुम जंगल में अकेले हो, तो तुम उनका अभ्यास नहीं कर सकते; तब कोई आवश्यकता नहीं रह जाती और न ही कोई अवसर होता है। तुम्हें तब सच्चा रहना होता है, जब कोई दूसरा मौजूद होता है। जब तुम अकेले हो हिमालय की चोटी पर तो सत्य का कोई प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि तुम क्या झूठ बोलोगे—किससे बोलोगे? अवसर ही नहीं है।

तो यम तुम्हारे और दूसरों के बीच एक सेतु है, और वह है पहली बात : कि तुम्हें दूसरों के साथ अपने संबंधों को व्यवस्थित कर लेना चाहिए। यदि तुम्हारे और दूसरों के बीच के संबंध सुलझे हुए नहीं हैं, तो वे निरंतर परेशानी खड़ी करते रहेंगे। दूसरों के साथ के सारे हिसाब—किताब सुलझा लो, यही अर्थ है पहले व्रत ‘यम’ का। यदि तुम लोगों के साथ संघर्ष में हो, तो तनाव होगा, चिंता पकड़ेगी; तुम्हारे स्वप्नों में भी यह बात दुख—स्वप्न बन जाएगी। यह छाया की भांति तुम्हारा पीछा करेगी। खाते हुए, सोते हुए, ध्यान करते हुए—क्रोध बना रहेगा, हिंसा मौजूद रहेगी। वह हर बात को विकृत कर देगी। वह हर चीज को नष्ट कर देगी। तुम शांति से, चैन से नहीं रह सकते।

इसलिए पतंजलि कहते हैं, पहले तुम ‘यम’ के द्वारा लोगों के साथ व्यवस्थित और निर्भार हो जाओ। झूठे मत होओ, आक्रामक मत होओ, मालकियत मत जमाओ, ताकि तुम्हारे और दूसरों के बीच कोई संघर्ष न रहे—एक संवाद हो। यह तुम्हारे अस्तित्व का पहला वर्तुल है—तुम्हारी परिधि, जहां तुम दूसरों की परिधियों को स्पर्श करते हो। इसे शात होना चाहिए, ताकि समग्र के साथ तुम्हारे संबंध मैत्रीपूर्ण हों। केवल उस गहन मैत्री में ही विकास संभव है। अन्यथा बाहर की चिंताएं बहुत ज्यादा घेरे रहेंगी। वे तुम्हारा ध्यान आकर्षित करेंगी और तुम्हारा चित्त विचलित करेंगी और उसमें बहुत ऊर्जा खोएगी। और वे तुम्हें चैन न लेने देंगी और स्वात में न होने देंगी। यदि तुम दूसरों के साथ शांति से नहीं रह सकते तो अपने साथ भी शांति से नहीं रह सकते। कैसे रह सकते हो?

तो पहली बात है : दूसरों के साथ शांतिपूर्ण होना, ताकि तुम स्वयं के साथ शात हो सकी। जब परिधि पर कोई लहरें नहीं होतीं, तो अचानक एक शांति, एक मौन उतर आता है तुम्हारे अंतस में। तो पहली बात है तुम्हारे और दूसरों के बीच संबंध।

फिर दूसरा चरण है—नियम। इसका दूसरों से कुछ लेना—देना नहीं है; वह तुमने कर लिया, अब तुम्हें अपने साथ कुछ करना है। यदि तुम हिमालय की गुफा में बैठे हो, तो पहली बात संभव न होगी क्योंकि दूसरे वहां मौजूद न होंगे। लेकिन तुम्हें वहां भी दूसरे चरण का अभ्यास करना होगा, क्योंकि वह समाज से संबंधित नहीं है—वह तुम्हारे स्वात से संबंधित है।’यम’ है तुम्हारे और दूसरों के बीच, ‘नियम’ है तुम्हारे और स्वयं के बीच।

शुद्धता संतोष तप स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण— ये नियम पूरे करने होते हैं।

 

प्रत्येक बात को गहराई से समझ लेना है। पहली बात है. शुद्धता, शौच। तुम संसार में हो शरीर के रूप में —सशरीर। यदि तुम्हारा शरीर बीमार हो तो तुम स्वस्थ कैसे हो सकते हो? यदि तुम्हारे शरीर में बहुत विष हैं तो वे तुम्हें मूर्च्छित करते हैं। यदि तुम्हारा शरीर बहुत अशुद्ध है, बहुत बोझिल है, तो तुम हलके नहीं हो सकते, तुम उड़ नहीं सकते। इसलिए अब तुम्हें अपने शरीर और उसकी शुद्धता के लिए कुछ करना होगा।

ऐसे भोजन हैं जो तुम्हें पृथ्वी से बांध देते हैं; ऐसे भोजन हैं जो तुम्हें आकाश की ओर उन्‍मुख कर देते हैं। जीने के ऐसे ढंग हैं जहां कि तुम गुरुत्वाकर्षण के बहुत प्रभाव में होते हो; जीने के ऐसे ढंग हैं जहां कि तुम गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर उठने के लिए उपलब्ध हो जाते हो।

दो नियम हैं : एक है गुरुत्वाकर्षण, दूसरा है ग्रेस, प्रसाद। गुरुत्वाकर्षण तुम्हें नीचे की ओर खींचता है, प्रसाद तुम्हें ऊपर की ओर खींचता है। विज्ञान केवल गुरुत्वाकर्षण को जानता है, योग प्रसाद को भी जानता है। और इस संबंध में योग विज्ञान की अपेक्षा ज्यादा वैज्ञानिक मालूम होता है, क्योंकि प्रत्येक नियम का विपरीत नियम होता है। यदि पृथ्वी तुम्हें नीचे खींचती है तो जरूर कोई चीज होगी जो तुम्हें ऊपर भी खींचती होगी; वरना तो पृथ्वी ने तुम्हें खींच लिया होता पूरी तरह ही—तुम्हें भीतर ही खींच लिया होता—तुम तिरोहित हो चुके होते। तुम जीते हो धरती के धरातल पर। इसका अर्थ है कि तुम्हें नीचे खींचने वाले नियम और तुम्हें ऊपर खींचने वाले नियम के बीच एक संतुलन है। अन्यथा तो तुम बहुत पहले विनष्ट हो चुके होते पृथ्वी द्वारा—तुम समा चुके होते पृथ्वी के गर्भ में और तिरोहित हो चुके होते। इस विपरीत नियम का नाम है ‘प्रसाद।’

तुमने कई बार अनुभव किया होगा कि बिना किसी कारण के किसी दिन सुबह अचानक तुम बहुत हलका अनुभव करते हो, जैसे कि तुम उड़ सकते हो। तुम चलते हो जमीन पर, लेकिन तुम्हारे पांव जमीन पर नहीं पड़ते—तुम ऐसे हलके हो जाते हो जैसे पंख। और किसी दिन तुम इतने भारी होते हो, ऐसे बोझिल, कि चल भी नहीं सकते। क्या होता है? तो तुम्हें अपनी पूरी जीवन—शैली का अध्ययन करना चाहिए। कोई चीज हलके होने में तुम्हारी मदद करती है, और कोई चीज तुम्हारे बोझिल होने में मदद करती है। वह सब जो तुम्हें बोझिल करता है अशुद्ध है, और वह सब जो तुम्हें हलका करता है शुद्ध है। शुद्धता निर्भार होती है, अशुद्धता भारी और बोझिल होती है। एक स्वस्थ व्यक्ति हलका और निर्भार अनुभव करता है; अस्वस्थ व्यक्ति बहुत ज्यादा बोझिल होता है पृथ्वी द्वारा; बहुत ज्यादा नीचे की ओर खिंचा रहता है। स्वस्थ व्यक्ति चलता नहीं, दौड़ता है। अस्वस्थ व्यक्ति यदि बैठा भी है तो वह बैठा हुआ नहीं होता, वह सो रहा होता है।

योग जानता है तीन शब्दों को, तीन गुणों को. सत्व, रजस, तमस। सत्य है शुद्धता; रजस है ऊर्जा, तमस है बोझ, अंधकार। जो भोजन तुम लेते हो उससे तुम्हारा शरीर बनता है, और एक अर्थों में, तुम बनते हो। यदि तुम मांस खाते हो, तो तुम ज्यादा बोझिल होओगे। यदि तुम केवल दूध और फलों पर जीते हो, तो तुम हलके रहोगे। क्या तुमने ध्यान दिया : कई बार जब तुम उपवास करते हो, तो तुम कितना निर्भार अनुभव करते हो, जैसे कि शरीर का सारा वजन खो गया हो! वजन करने वाली मशीन तो बताएगी तुम्हारा वजन, तो भी तुम उसको अनुभव नहीं करते। क्या होता है? शरीर के पास पचाने के लिए कुछ भी नहीं होता, शरीर दिन—प्रतिदिन के कार्यक्रम से मुक्त होता है। ऊर्जा बह रही होती है, ऊर्जा के पास कुछ होता नहीं करने के लिए——यह एक छुट्टी का दिन होता है शरीर के लिए। तुम शात अनुभव करते हो; तुम सुंदर अनुभव करते हो।

तो भोजन का ध्यान रखना है। भोजन कोई साधारण बात नहीं है। तुम्हें सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि जो तुमने अब तक खाया है उसी से तुम्हारा शरीर बना है। प्रतिदिन तुम इसे भोजन द्वारा निर्मित कर रहे हो। कम या ज्यादा भोजन लेने से या सम्यक भोजन लेने से भी बहुत अंतर पड़ता है। तुम अति भोजन करने वाले हो सकते हो—तुम बहुत ज्यादा खा सकते हो जिसकी कि कोई जरूरत नहीं है—तब तुम बहुत सुस्त, बहुत बोझिल हो जाओगे। तुम एकदम ठीक मात्रा ले सकते हो, तब तुम ज्यादा आनंदित अनुभव करोगे, बोझिल नहीं—ऊर्जा बह रही होती है, अवरुद्ध नहीं होती। और वह व्यक्ति जो भीतर के आकाश में उड़ान भरना चाहता है और जो प्रयास कर रहा है भीतर के केंद्र तक पहुंचने का, उसे निर्भार होने की जरूरत है, वरना यात्रा पूरी नहीं हो सकती। आलसी रह कर तुम उस आंतरिक केंद्र में प्रवेश नहीं कर पाओगे। कौन यात्रा करेगा उस आंतरिक केंद्र तक?

तो जो तुम खाते हो उसके प्रति सावधान रहो; जो तुम पीते हो उसके प्रति सावधान रहो। सावधान रहो कि कैसे तुम ध्यान रखते हो अपने शरीर का। छोटी—छोटी बातें महत्व रखती हैं। साधारण व्यक्ति के लिए वे कोई महत्व नहीं रखतीं क्योंकि वह कहीं जा नहीं रहा होता है। जब तुम अंतर्यात्रा पर निकलते हो, तो हर चीज महत्व रखती है। तुम प्रतिदिन स्नान करते हो या नहीं—यह बात भी महत्वपूर्ण है। साधारणतया यह कोई महत्व नहीं रखती। बाजार में, दुकान में यह बात कुछ खास महत्व नहीं रखती कि तुमने ठीक से स्नान किया है या नहीं। असल में यदि तुम रोज ठीक से स्नान करते हो, तो यह बात तुम्हारे व्यवसाय के लिए एक अड़चन होगी। तुम इतना हलका अनुभव कर सकते हो कि चालाक होना कठिन हो जाए; तुम इतना ताजा अनुभव कर सकते हो कि धोखा देना कठिन हो जाए; तुम इतना शुद्ध, निर्दोष अनुभव कर सकते हो कि शोषण करना शायद असंभव ही हो जाए।

तो अस्वच्छ रहना बाजार में तो मदद दे सकता है, किंतु मंदिर में नहीं। मंदिर में तुम्हें ताजा और स्वच्छ जाना होता है—ओस—कणों की भांति, फूलों की भांति। मंदिर में, जहां तुम अपने जूते छोड़ते हो, वहीं छोड़ देना सारे संसार को और उसके सारे बोझों को। उन्हें भीतर मत ले जाना।

स्नान सर्वाधिक सुंदर घटनाओं में से एक है—बडी सरल है। यदि तुम इसका आनंद लेने लगो, तो यह बात शरीर के लिए एक ध्यान बन जाती है। बस फव्वारे के नीचे बैठना और उसका आनंद लेना, कोई गीत गुनगुनाना—या कोई मंत्र गुनगुनाना—तब वह दुगुना जानदार हो जाता है। तुम फव्वारे के नीचे बैठे हो और ‘ओम’ का गुंजार कर रहे हो और पानी बरस रहा है तुम्हारे शरीर पर और ‘ओम’ बरस रहा है तुम्हारे मन में, तो तुम दोहरा स्नान कर रहे हो. शरीर शुद्ध हो रहा है पानी के द्वारा, वह संबंध रखता है भौतिक तत्वों के संसार से; और तुम्हारा मन शुद्ध हो रहा है ओम के मंत्र द्वारा। स्नान के बाद तुम स्वयं को प्रार्थना के लिए तैयार पाओगे—तुम प्रार्थना करना चाहोगे। इस स्नान और मंत्र—उच्चार के बाद तुम बिलकुल भिन्न अनुभव करोगे; तुम्हारे चारों ओर एक अलग गुणवत्ता और सुवास होगी।

तो शौच का अर्थ है. भोजन की शुद्धता, शरीर की शुद्धता, मन की शुद्धता—शुद्धता की तीन पर्तें। और चौथी जो कि तुम्हारी अंतस सत्ता है, उसे किसी शुद्धता की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वह अशुद्ध हो ही नहीं सकती। तुम्हारा अंतरतम केंद्र सदा शुद्ध है, सदा कुंआरा है। लेकिन वह अंतस ‘सद्र ढंका होता है दूसरी चीजों से जो अशुद्ध हो सकती हैं—जों रोज—रोज अशुद्ध होती हैं।

तुम रोज उपयोग करते हो अपने शरीर का, उस पर धूल जमती रहती है। तुम रोज उपयोग करते हो मन का, तो विचार एकत्रित होते रहते हैं। विचार धूल की भांति ही हैं। संसार में रह कर कैसे तुम बिना विचारों के जी सकते हो? तुम्हें सोच—विचार करना पड़ता है। शरीर पर धूल जमती है और वह गंदा हो जाता है, मन विचारों को इकट्ठा करता है और वह गंदा हो जाता है। दोनों को जरूरत होती है एक अच्छे स्नान की। यह बात तुम्हारी जीवन—शैली का अंग बन जानी चाहिए। इसे नियम की भांति नहीं लेना चाहिए; यह सुंदरता से जीने का एक ढंग होना चाहिए। और यदि तुम शुद्ध हो तो दूसरी संभावनाएं तुरंत खुल जाती हैं, क्योंकि हर चीज जुड़ी है दूसरी चीज से; एक श्रृंखला है। और यदि तुम जीवन को रूपांतरित करना चाहते हो तो सदा प्रथम से ही शुरुआत करना।

नियम का दूसरा चरण है—संतोष। वह व्यक्ति जो स्वस्थ, निर्भार, निर्बोझ, ताजा, युवा, कुंआरा अनुभव करता है, वही समझ पाएगा कि संतोष क्या है। अन्यथा तो तुम कभी न समझ पाओगे कि संतोष क्या होता है—यह केवल एक शब्द बना रहेगा। संतोष का अर्थ है : जो कुछ भी है सुंदर है; यह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं। एक गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोष; संपूर्ण अस्तित्व जैसा है उस के प्रति ‘हौ’ कहने की अनुभूति है संतोष।

साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है।’ साधारणतया मन खोजता ही रहता है शिकायते—’यह गलत है, वह गलत है।’ साधारणतया मन इनकार करता है : वह ‘न’ कहने वाला होता है, वह ‘नहीं’ सरलता से कह देता है। मन के लिए ‘ही’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘ही’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; तब मन की कोई जरूरत नहीं होती।

क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन आगे और आगे सोच सकता है, क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण—विराम नहीं है, वह तो एक शुरुआत है। नहीं एक शुरुआत है; ही अंत है। जब तुम ही कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, बडबडाने—कुनमुनाने के लिए, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता—कुछ भी नहीं रहता। जब तुम ही कहते हो, तो मन ठहर जाता है, और मन का वह ठहरना ही संतोष है।

संतोष कोई सांत्वना नहीं है—यह स्मरण रहे। मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे तसल्ली दे रहे होते हैं स्वयं को। नहीं, संतोष सांत्वना नहीं है, सांत्वना एक खोटा सिक्का है। जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते। वस्तुत: भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं—बौद्धिक रूप से तुमने समझा—बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं है।’ तो तुमने एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’

लेकिन तुम आकांक्षा करते हो। अन्यथा यह आकांक्षा न करने की बात कहां से आती? तुम कामना करते हो, तुम आकांक्षा करते हो, लेकिन तुमने जान लिया है कि करीब—करीब असंभव ही है पहुंच पाना; तो तुम चालाकी करते हो, तुम होशियारी करते हो। तुम स्वयं से कहते हो, ‘असंभव

है पहुंच पाना।’ भीतर तुम जानते हो : असंभव है पहुंच पाना, लेकिन तुम हारना नहीं चाहते, तुम नपुंसक नहीं अनुभव करना चाहते, तुम दीन—हीन नहीं अनुभव करना चाहते, तो तुम कहते हो, ‘मैं चाहता ही नहीं।’

तुमने सुनी होगी ईसप की पुरानी कहानियों में से एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती है : अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती। फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, ‘कुछ नहीं। अगर खट्टे हैं।’

यह एक सांत्वना है। यह जान कर कि तुम नहीं पहुंच सकते, तुमने तर्क खोज लिया कि अगर खट्टे हैं—कामना करने के योग्य ही नहीं। ऐसा नहीं कि तुम कमजोर हो, वे पाने के योग्य ही नहीं। ऐसा नहीं कि तुम हार गए हो, बल्कि तुम्हीं ने उन्हें छोड़ दिया है।

मैं ऐसे बहुत से लोगों से मिला हूं जिन्होंने संसार त्याग दिया है, और वे ईसप की इस कहानी से बिलकुल भिन्न नहीं हैं। मेरा बहुत से संन्यासियों से, महात्माओं से मिलना हुआ है, लेकिन तुम देख सकते हो उनकी आंखों में—अभी भी अंगसे की आकांक्षा है। लेकिन वे कहते हैं कि उन्होंने सब त्याग दिया है, क्योंकि संसार असार है, भ्रम है, माया है। उन्होंने ईसप की कहानी नहीं पढ़ी है। उन्हें पढ़नी चाहिए। वह उन्हें वेद और गीता पढ़ने से ज्यादा मदद देगी। और उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए कि असल में क्या हो रहा है : यह केवल अहंकार की तुष्टि है।

सांत्वना एक तरकीब है; संतोष एक क्रांति है। संतोष का यह अर्थ नहीं है कि चारों ओर असफलताओं को देख कर तुम आंखें बंद कर लो और कहो, ‘यह संसार माया है; मुझे इसकी आकांक्षा नहीं।’

जापान के एक बहुत बड़े कवि बासो ने एक छोटी सी हाइकू लिखी है। उसका अर्थ है, ‘धन्यभागी है वह व्यक्ति, जो सुबह सूरज के प्रकाश में ओस—कणों को तिरोहित होता देख कर यह नहीं कहता कि संसार क्षणभंगुर है, संसार माया है।’

एक अदभुत हाइकू। मैं दोहरा दूं ‘धन्यभागी है वह व्यक्ति, जो सुबह सूरज के प्रकाश में ओस—कणों को तिरोहित होता देख कर यह नहीं कहता कि संसार क्षणभंगुर है, संसार माया है।’ ऐसा कह कर स्वयं को सांत्वना देना बहुत आसान है।

संतोष एक विधायक अवस्था है, सांत्वना दमन है। लेकिन संतोष की बात सांत्वना जैसी लगती है। एक आदमी मेरे पास आया और कहने लगा, ‘मैं एक संतुष्ट व्यक्ति हूं। मेरी पूरी जिंदगी मैं संतोषी रहा हूं लेकिन कुछ घटता नहीं।’ मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा, ‘क्या चाहते हो तुम? संतोष पर्याप्त है। और क्या चाहिए तुमको?’ उसने कहा, ‘मैंने सभी शास्त्रों में पढ़ा है कि यदि कोई व्यक्ति संतोष रखे तो सब मिल जाता है। और मुझे तो कुछ मिला नहीं! और मैंने देखे हैं ऐसे लोग जो संतुष्ट नहीं हैं, और वे सफल हैं। मैं असफल हूं। मेरे साथ धोखा हुआ है।’

यह आदमी संतोष द्वारा किन्हीं आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश कर रहा था। यह संतोष झूठा है—वह चालाकी कर रहा है। और अस्तित्व के साथ तुम चालाकी नहीं कर सकते। तुम उसे धोखा नहीं दे सकते; तुम उसके हिस्से हो। कोई हिस्सा कैसे धोखा दे सकता है पूर्ण को? इससे पहले कि हिस्सा धोखा देने की सोचे, पूर्ण को पता चल जाता है।

मैं भी कहता हूं कि सब मिल जाता है उस व्यक्ति को जो संतुष्ट है, क्योंकि संतोष ही सब कुछ है। यह कोई परिणाम नहीं है कि तुम्हें संतोष का अभ्यास करना होगा, ताकि तुमको सब कुछ मिल जाए—ईश्वर और आनंद और निर्वाण—नहीं। संतोष में ही सब कुछ है। एक संतुष्ट व्यक्ति को बोध होता है कि संतोष ही सब कुछ है; सब कुछ मिल ही चुका है। उसकी हा और—और विकसित होती है, उसका अंतस स्वीकार— भाव से और—और भरता जाता है, वह और—और अनुभव करता है कि चीजें वैसी ही हैं जैसी होनी चाहिए।

यदि तुम निर्मल हो तो संतोष संभव होता है। संतोष है क्या त्र: वह है देखना, अस्तित्व को देखना कि वह कितना सुंदर है! संतोष अपने आप ही चला आता है यदि तुम देख सको कि सुबह कितनी सुंदर होती है, यदि तुम देख सको कि दोपहर कितनी सुंदर होती है, यदि तुम देख सको कि रात कितनी सुंदर होती है; यदि तुम देख सको कि जो अस्तित्व तुम्हें निरंतर घेरे हुए है, वह कैसा अदभुत है! कैसा अपूर्व चमत्कार घट रहा है, हर पल एक चमत्कार है..। लेकिन तुम तो पूरी तरह अंधे हो चुके हो। फूल खिलते हैं—तुम कभी देखते नहीं, बच्चे हंसते हैं—तुम कभी सुनते नहीं; नदियां गीत गाती हैं—तुम बहरे हो; सितारे नृत्य करते हैं—तुम अंधे हो, बुद्ध पुरुष आते हैं और तुम्हें जगाने का प्रयास करते हैं—तुम गहरी नींद में सोए हो। संतोष संभव नहीं है।

संतोष तो उस सब के प्रति जागना है जो मौजूद है। यदि तुम देख सको उसकी एक झलक जो मिला ही हुआ है तो और ज्यादा की अपेक्षा करना अकृतज्ञता लगेगी। यदि तुम समग्र को देख सको, तो तुम अनुगृहीत होओगे। तुम अनुभव करोगे कि अत्यंत अनुग्रह उठ रहा है तुम्हारे भीतर। तुम कहोगे, ‘सब कुछ ठीक है; हर चीज सुंदर है; हर चीज पवित्र है। और मैं अनुगृहीत हूं क्योंकि मैंने इसे अर्जित नहीं किया है और मुझे एक मौका मिला है, एक सुअवसर मिला है—जीने का, होने का, श्वास लेने का, देखने का, सुनने का। वृक्षों को फूलते—फलते देखने का और पक्षियों के गीत सुनने का।’

यदि तुम सजग हो सको—बस थोड़ी सी सजगता और तुम पाओगे न कहीं कुछ बदलना है, न किसी चीज की आकांक्षा करनी है—हर चीज तुम्हें मिली ही हुई है। तुम्हारी शिकायतो के कारण—शिकायतो की धुंध के कारण, नकारात्मकता के कारण—तुम देख नहीं पाते, तुम्हारी आंखें धुएं से भरी रहती हैं और तुम ज्योति को देख नहीं पाते।

संतोष है एक दृष्टिकोण—जीवन को देखने का एक भिन्न दृष्टिकोण आकांक्षाओं द्वारा न देखना, बल्कि उसे देखने का प्रयास जो कि पहले ही उपलब्ध है। यदि तुम कामना के माध्यम से देखते हो, तो तुम कभी संतुष्ट न होओगे। कैसे हो सकते हो तुम! क्योंकि कामना तो आगे, और आगे बढ़ती जाती है। तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं, तो कामना कहती है सौ हजार चाहिए। जब तुम्हारे पास सौ हजार होते हैं, तो कामना आगे बढ़ चुकी होती है, अब दस लाख रुपए चाहिए, सौ लाख रुपए चाहिए। जब तुम वहां पहुंचोगे, कामना तुमसे और आगे जा चुकी होगी। वह तुम्हारे आगे—आगे ही चलती है। वह कभी भी तुम्हारे साथ नहीं चलती; तुम उसको कभी पूरा न कर पाओगे। कितना भी तुम दौड़ो, सदा उसे क्षितिज की भांति पाओगे—आगे, कहीं भविष्य में। सदा ऐसा ही होगा। और पीछे—पीछे आएगा असंतोष. कामना है आगे, तो तुम असंतुष्ट ही रहोगे। और असंतोष नरक है।

जब तुम समझ लेते हो इस बात को, तो तुम सत्य को कामना के पर्दे से नहीं देखते; तुम देखते हो प्रत्यक्ष, तुम देखते हो सीधे—सीधे, तुम कामना को हटा देते हो एक तरफ और तुम सीधे देखते हो। तुम आंखें खोलते हो और तुम सीधे देखते हो, और हर चीज इतनी ठीक मालूम पड़ती है! मैंने देखा है इस तरह, इसीलिए मैं तुम से ऐसा कहता हूं। सब कुछ इतना ठीक है कि इसे और बेहतर नहीं किया जा सकता। यह अंतिम है, कोई सुधार संभव नहीं है। तब संतोष तुम में उतरता है किसी संध्या की भांति। वह सूर्य, कामना— आकांक्षा का वह झुलसा देने वाला सूर्य अस्त हो चुका होता है और शीतल सांध्य पवन और शांत, गहरी सौम्य—संध्या तुम में उतर आती है—और जल्दी ही तुम सुखद रात से आच्छादित हो जाओगे, तुम संतोष के अंतरगर्भ में उतर जाओगे। संतोष देखने का एक दृष्टिकोण है; लेकिन जब तुम शुद्ध होते हो, निर्भार होते हो, केवल तभी यह संभव होता है।

और संतोष के बाद पतंजलि कहते हैं—तप। यह ठीक से समझ लेने जैसी बात है, बहुत ही नाजुक और सूक्ष्म बात है। तुम संतोष आने से पहले भी तपस्वी हो सकते हो, लेकिन तब तुम्हारा तप कामनाओं के कारण होगा। तब अपने तप द्वारा भी तुम कामना कर रहे होओगे मोक्ष की, मुक्ति की, स्वर्ग की, ईश्वर की। तब तुम्हारी तपस्या भी एक साधन ही होगी। इसीलिए पतंजलि पहले कहते हैं संतोष और फिर कहते हैं तप। जब तुम संतुष्ट होते हो, तब तप कुछ पाने का साधन नहीं रहता; तब यह सहज सुंदर ढंग होता है जीने का। तब यह प्रश्न नहीं होता कि तुम्हारे पास कम चीजें हैं कि ज्यादा चीजें हैं—तब यह समस्या ही नहीं होती। चीजों के कम—ज्यादा होने से इसका कोई लेना—देना नहीं है। तब यह जीने का सहज ढंग होता है—जीने का जटिल ढंग नहीं।

और कठिन है इस बात को समझना. यदि बिना संतोष को उपलब्ध हुए तुम तपस्वी होने का प्रयास करते हो, तो तुम्हारी तपस्या उलझी हुई होगी, जटिल होगी।

एक बार ऐसा हुआ, मैं फर्स्ट क्लास के डिब्बे में एक दूसरे संन्यासी के साथ यात्रा कर रहा था। मैं उस संन्यासी को नहीं जानता था, वह संन्यासी मुझे नहीं जानता था, लेकिन डिब्बे में हम दो ही यात्री थे। किसी स्टेशन पर बहुत से लोग उससे मिलने आए; वह जरूर बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति होगा। कुछ नहीं था उसके पास, बस एक छोटा सा झोला था, शायद एक—दो वस्त्र, और एक छोटी सी लुंगी घुटनों तक, और वह करीब—करीब नग्न ही था। और वह लुंगी भी सस्ते से सस्ते कपड़े की थी।

फिर हम यात्रा में साथ रहे, धीरे— धीरे मैं उसकी जटिलताओं के प्रति सजग हुआ; वैसे वह एक सीधा—सादा आदमी था जहां तक बाहरी रंग—ढंग का प्रश्न है। जब स्टेशन पीछे छूट गया और वे लोग चले गए और गाड़ी चली और उसने देखा कि मैं ऊंघ रहा हूं —मैंने आंखें बंद की हुई थीं—तो तुरंत उसने अपने झोले में से कुछ निकाला। मैं सोया नहीं था। मैंने देखा—वह नोट गिन रहा था, कोई सौ रुपए से ज्यादा न होंगे, लेकिन जिस ढंग से वह गिन रहा था—ऐसे मजा लेकर, ऐसे लोभ के साथ कि मैं विश्वास न कर सका।

यह देख कर कि मैं देख रहा हूं उसने तुरंत नोटों को झोले में डाल दिया और फिर से सीट पर बुद्ध की भांति बैठ गया। अब यह जटिलता है। यदि तुम गिन रहे हो तो गिन रहे हो। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं देख रहा हूं या नहीं? क्यों छिपाना? क्यों इसके लिए अपराधी अनुभव करना? यदि तुम मजा ले रहे हो नोट गिनने का, तो कुछ गलत नहीं है इसमें—निर्दोष बात है, कुछ हर्ज नहीं है। लेकिन नहीं; उसने अपराध— भाव अनुभव किया. कि संन्यासी को तो नोट छूने नहीं चाहिए! पर वह पकड़ में आ गया। फिर उसे जहां उतरना था वह स्टेशन सुबह छह बजे आने वाला था। लेकिन जहां भी गाड़ी रुकती, वह पूछता बार—बार—रात के दो बजे और वह खिड़की से बाहर झांकता और पूछता—कौन सा स्टेशन है यह? वह मेरी नींद इतनी बिगाड़ रहा था कि मैंने उससे कहा, ‘चिंतित मत होओ। वह स्टेशन छह बजे से पहले तो आने वाला नहीं। और यह गाड़ी आगे जाती नहीं—तो तुम्हें फिक्र नहीं करनी चाहिए। यदि तुम गहरी नींद भी सोए हुए हो तो भी तुम चूक नहीं सकते स्टेशन—वह तो अंतिम स्टेशन है।’ लेकिन वह सो नहीं सका सारी रात, वह इतना तनावग्रस्त था; और मैं समझ नहीं पा रहा था कि बेचैनी क्या है।

सुबह, जब स्टेशन निकट आ रहा था, मैंने उसे दर्पण के सामने खड़े हुए देखा। कुछ ठीक—ठाक करने को न था, बस एक छोटी सी लुंगी थी, लेकिन वह बार—बार उसे ही बाध रहा था और देख रहा था दर्पण में कि वह ठीक लगती है या नहीं। तभी उसने फिर देख लिया मुझे देखते हुए तो वह एकदम घबड़ा गया। जब भी मैं अपनी आंखें बंद कर लेता वह झट से कुछ न कुछ करने लगता; यदि मैं अपनी आंखें खोल देता तो वह तुरंत कुछ भी करना बंद कर देता। इतना वह अपराध— भाव से भरा हुआ था हर चीज के प्रति।

इस आदमी को संतोष उपलब्ध नहीं हुआ और यह तपश्चर्या साधने लगा। वह आकांक्षाओं से भरा एक साधारण व्यक्ति ही है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि दर्पण में देखने में कुछ बुराई है—कुछ बुराई नहीं है। बुराई केवल यही है कि जब कोई दूसरा देखता है तो इतने घबड़ा क्यों जाते हो? बिलकुल ठीक है, तुम देख सकते हो—तुम्हारा अपना चेहरा है, तुम देख सकते हो दर्पण में। तुम्हें पूरा अधिकार है, कम से कम अपना चेहरा तो देख ही सकते हो। और कुछ गलत नहीं है इसमें। आनंदित होओ—वह चेहरा भी ईश्वर की प्रतिमूर्ति है। लेकिन वह अपराध— भाव से भरा है : वह एक साधारण व्यक्ति है जो दिखा रहा है, कोशिश कर रहा है संत पुरुष दिखने की।

बिना संतोष के तुम दिखावा कर सकते हो, तुम पीड़ित हो सकते हो, तुम तपस्वी हो सकते हो, तुम सरलता ओढ़ सकते हो, तुम घर और वस्त्र छोड़ सकते हो और नग्न हो सकते हो; लेकिन तुम्हारी नग्नता में एक जटिलता होगी; उसमें सरलता नहीं हो सकती। सरलता आती है केवल संतोष की छाया की तरह, तब तुम महल में रह सकते हो और तुम सरल हो सकते हो। तुम्हारे पास क्या है उससे सरलता का कुछ लेना—देना नहीं है; सरलता का संबंध है मन की गुणवत्ता से।

एक स्टेशन के लिए इतनी बेचैनी है, तो जब मौत आ रही होगी तो यह आदमी शात कैसे हो सकता है? मेरे देखने से ऐसा भयभीत है, तो कितना भयभीत न हो जाएगा, अगर ईश्वर देख रहा हो; और वह कितना भयभीत न होगा जब उसे सामना करना होगा परमात्मा का? वह न कर पाएगा। वह स्वयं को ही धोखा दे रहा है; किसी और को धोखा नहीं दे रहा है।

तपश्चर्या का मतलब है सहजता. एक सहज—सरल जीवन जीना। सरल जीवन क्या है? सरल जीवन है बच्चों की भांति जीना—तुम हर चीज का आनंद लेते हो, लेकिन किसी से चिपकते नहीं।

ऐसा हुआ भारत के महानतम संतो में से एक थे कबीर। उनका एक लड़का था, उसका नाम था कमाल। वह पिता से भी पहुंचा हुआ था। लेकिन कोई कमाल के विषय में ज्यादा जानता नहीं था, क्योंकि वह सच में ही बहुत अदभुत था। बहुत से शिष्य थे कबीर के, और उनमें बहुत प्रतियोगिता थी, जैसी कि होती है शिष्यों में। और बहुत से लोग नहीं चाहते थे कि कमाल कबीर के साथ रहे, क्योंकि वे कहते, ‘यह आदमी गलत है।’ लोग कबीर के चरणों में अर्पित करने के लिए बहुत सी भेंटें—दान, धन, हीरे—जवाहरात लाते, वे उनको कभी स्वीकार न करते। और कमाल बैठा रहता बाहर। और जब वे वापस लौटते यदि वे कमाल को भेंट देते, तो वह उन्हें ले लेता।

तो लोग कहते, ‘तुम्हारा बेटा लोभी है।’ कबीर जानते थे भलीभांति कि वह लोभी बिलकुल नहीं है; वह तो बहुत सीधा—सादा आदमी है। इसीलिए वे उसे कमाल कहते थे। कमाल का अर्थ है—चमत्कार। वह सच में ही चमत्कार था, और ऐसा होना ही था. कबीर का लड़का कमाल ही होगा। लेकिन वह सच में ही सीधा—सहज था—एकदम बच्चे की भांति। कई बार वह मांग तक लेता! किसी की भेंट अस्वीकृत हो गई होती, कबीर ने इनकार कर दिया होता उसको—कोई हीरे ले आया होता उन्हें देने के लिए और कबीर ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया होता—और वह आदमी उन्हें वापस ले जा रहा है और कमाल कहता, ‘सुंदर कंकड़—पत्थर! कहां लिए जा रहे हो तुम इन्हें? इधर लाओ। यदि मेरे पिता नहीं ले सकते तो मैं ले सकता हूं।’

यह बात गलत थी। तो अंततः शिष्यों ने कबीर को, उनकी मरजी के खिलाफ, राजी कर लिया और कबीर ने कहा, ‘ठीक है, अगर आप सब ऐसा सोचते हैं, तो मैं उसको घर से निकाल देता हूं।’ कमाल को अलग रहने को कह दिया गया। उसने कुछ नहीं कहा : उसने स्वीकार कर लिया—संतोष। उसने तर्क भी न किया कि जो लोग उसके खिलाफ शिकायत कर रहे हैं, गलत हैं। नहीं, ऐसा आदमी वाद—विवाद में नहीं पड़ता। वह चुपचाप चला गया। उसने एक छोटी सी झोपड़ी बना ली वहीं कबीर के पास ही, और वहां रहने लगा। कबीर के पास हजारों लोग आते, और कमाल के पास कोई न आता, क्योंकि उसकी बिलकुल ख्याति न थी; और यह बात सबको जाहिर थी कि कबीर ने उसे अलग कर दिया है, तो यही बात पर्याप्त निंदा का कारण थी।

काशी नरेश, जो कि कबीर का भक्त था, वह एक बार आया और उसने पूछा, ‘कमाल कहां है? कबीर ने सारी बात बताई। काशी नरेश ने कहा, ‘लेकिन मुझे तो कभी नहीं लगा कि उस लड़के में कोई लोभ है। वह बिलकुल सीधा—सादा है। मैं जाता हूं और देखता हूं।’ तो वह गया कमाल की झोपड़ी में, एक बहुत ही कीमती, जो उसके पास सब से बड़ा हीरा था, वह साथ ले गया।

कमाल ने उस दिन भोजन नहीं किया था और घर में कुछ भोजन था नहीं, तो उसने कहा, ‘मैं क्या करूंगा इस पत्थर का? इसे खाऊंगा कि पीऊंगा? इससे तो अच्छा था कि कुछ खाने—पीने की चीज लाते, क्योंकि मुझे भूख लगी है।’

काशी नरेश ने अपने मन में सोचा, ‘तो मैं ठीक ही सोचता था। क्या गजब! इतना कीमती हीरा और वह एकदम इनकार कर रहा है।’

तो नरेश जब वापस जाने लगा तो उसने वह हीरा उठा लिया।

कमाल ने कहा, ‘अगर समझ में आ गया है कि यह पत्थर ही है तो फिर क्यों बोझ ढोते हो? छोड़ो यहीं। पहली बात तो यह कि यहां तक ढोकर लाए, एक गलती की। अब फिर क्यों वही गलती करनी वापस ढोने की? आखिर पत्थर ही है।’

अब काशी नरेश उलझन में पड़ गया, ‘कहीं यह कोई चालाकी न हो। शायद कमाल को रस है इस हीरे में, लेकिन मेरे साथ होशियारी कर रहा है।’ फिर भी काशी नरेश ने सोचा, ‘ठीक है, देखते हैं।’ तो उसने कहा, ‘कहां रख दूं मैं इसको?’

कमाल ने कहा, ‘फिर आप वही गलती कर रहे हैं। यदि पत्थर ही है तो कोई पूछेगा नहीं कि कहा रख दूं इसे। अरे कहीं भी रख दो, झोपड़ी बड़ी है।’

काशी नरेश भी पूरी बात को अंत तक देख लेना चाहता था, तो उसने झोपड़ी की छत पर खोंस दिया हीरा और चला आया, भलीभांति जानते हुए कि यह कमाल जरूर वह हीरा निकाल कर रख लेगा।

सात दिन बाद वह वापस आया पूछताछ करने के लिए कि क्या हुआ। उसे पक्का था कि अब तक तो हीरा बिक भी चुका होगा। वह वहां पहुंचा, उसने थोड़ी देर इधर—उधर की बातचीत की और फिर कहा, ‘उस हीरे का क्या हुआ?’

कमाल ने कहा, ‘फिर हीरे की बात? और मैंने कह दिया आपसे कि वह एक पत्थर था। और मैं क्यों फिक्र करूं इसकी कि क्या हुआ उसका?’

अब तो काशी नरेश ने सोचा, ‘यह पक्का धूर्त है। इसने बेच दिया उसे या कहीं छिपा दिया है; तभी तो अब कह रहा है, मैं क्यों फिक्र करूं उसकी?’ और फिर कमाल ने कहा, ‘लेकिन तुम जहां उसे रख गए थे वहां देख लो। अगर अभी तक किसी ने लिया नहीं होगा, तो वहीं होगा।’

और हीरा वहीं रखा हुआ था। यह है सरलता। यह है सहज सादगी। लेकिन कठिन है बात. कोई रह सकता है महल में, और यदि महल नहीं है उसके मन में, तो यह है सहज सादगी। तुम झोपड़ी में रह सकते हो और यदि झोपड़ी तुम्हारे मन में प्रवेश कर जाती है, तो यह सादगी नहीं है। तुम बैठ सकते हो सिंहासन पर सम्राट की भांति, और तुम संन्यासी हो सकते हो। इसी तरह तुम संन्यासी हो सकते हो और तुम नग्न खड़े हो सकते हो सड़क पर, और हो सकता है तुम संन्यासी न हो। चीजें उतनी सीधी—सरल नहीं हैं, जितनी लोग उन्हें समझते हैं। और बाहरी रंग—रूप पर बहुत भरोसा रखना भी नहीं चाहिए, तुम्हें भीतर गहरे में देखना चाहिए।

सादा जीवन केवल संतोष के बाद ही संभव होता है, क्योंकि संतोष के बाद तुम्हारी सादगी किसी साध्य को पाने का साधन न होगी; वह केवल जीने का एक गैर—जटिल ढंग होगी, जीने का एक सहज—सरल ढंग होगी। और क्यों सहज—सरल? क्योंकि सहज जीवन ज्यादा प्रसन्नता देने वाला होता है। जितना ज्यादा जटिल होता है तुम्हारा जीने का ढंग, उतने ही ज्यादा तुम दुखी होते हो, क्योंकि तब तुम्हें बहुत सारी चीजों के जोड़—तोड़ बैठाने पड़ते हैं। जितना सहज जीवन होता है, उतना ही ज्यादा आनंद होता है, क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती। तुम श्वास की भांति जी सकते हों—सहज।

और फिर है—स्वाध्याय। वह व्यक्ति जो उपलब्ध हो चुका है शुद्धता को, संतोष को, तप—संयम को, केवल वही अध्ययन कर सकता है ‘स्व’ का, अंतस का; क्योंकि अब सारा कूड़ा—करकट फेंका जा चुका है, सारी गंदगी फेंकी जा चुकी है। अन्यथा स्वाध्याय संभव ही न होगा। तुम्हारे भीतर इतनी ज्यादा गंदगी है, यदि तुम अपना अध्ययन करोगे तो वह कोई स्वाध्याय न होगा, वह उस कचरे का ही अध्ययन होगा। वह फ्रायड के मनोविश्लेषण जैसा होगा। यही अंतर है स्वाध्याय और फ्रायड के मनोविश्लेषण के बीच।

फ्रायड का मनोविश्लेषण वर्षों चल सकता है—पांच वर्ष, दस वर्ष—और फिर भी बात समाप्त नहीं होती. कूड़ा—करकट निकलता ही जाता है। तुम हमेशा—हमेशा जारी रख सकते हो। कचरा अंतहीन है, क्योंकि वह अपने आप इकट्ठा होता है : आज तुम फेंकते हो कचरे को, कल तुम फिर आ जाते हो मनोविश्लेषण के लिए; चौबीस घंटे में फिर कचरा इकट्ठा हो चुका होता है वहा। फिर तुम फेंकते उसे, फिर वह इकट्ठा हो जाता है। जब तक तुम्हारी जिंदगी का पूरा आधार ही नहीं बदल जाता, तुम इकट्ठा करते ही रहोगे कूड़ा—करकट।

तो बात कूड़े—कचरे को फेंकने की नहीं है—तुम इकट्ठा करते रहते हो उसे। तुम्हारा जीने का ढंग ऐसा है कि तुम उसे इकट्ठा करते हो; तुम चिपकते हो उससे। जब तक कि वह ढंग न बदले, जब तक कि वह जीवन—शैली न बदले, तुम स्वयं का अध्ययन नहीं कर सकते। तुम एक भीड़ हो और तुम्हारा ‘स्व’ भीड़ में खो चुका है।

पतंजलि बहुत वैज्ञानिक ढंग से चलते हैं। तप—संयम के बाद जब तुम बहुत सरल—सहज हो जाते हो, कोई कचरा इकट्ठा नहीं होता, जब तुम इतने संतुष्ट हो जाते हो कि कोई आकांक्षा तुम में नहीं बचती, जब तुम इतने निर्दोष और शुद्ध हो जाते हो कि कोई बोझ नहीं रहता—तुम सुगंध की भांति हो जाते हो; निर्भार, पंख पसार उड़ने लगते हो हवा में, हवा पर तिरते हो—तब स्वाध्याय। अब तुम स्वयं का अध्ययन कर सकते हो। स्वाध्याय कोई आत्म—विश्लेषण नहीं है; वह है स्वयं को देखना। वह है स्वयं पर ध्यान करना।

और स्वाध्याय के बाद है नियम का अंतिम चरण—ईश्वर के प्रति समर्पण। असल में पतंजलि जिस ढंग से चलते हैं वह बहुत अदभुत है। उन्होंने प्रत्येक चरण पर वर्षों सोचा होगा, क्योंकि ठीक इसी तरह होता है यह। जब तुमने स्वयं का अध्ययन कर लिया होता है, केवल तभी तुम समर्पण कर सकते हो, क्योंकि अन्यथा तुम समर्पित क्या करोगे? स्वयं को ही करना होता है समर्पित। यदि तुम स्वयं को ठीक से समझ लेते हो, केवल तभी तुम समर्पण कर सकते हो। अन्यथा कैसे तुम समर्पण करोगे? लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, ‘हम समर्पण करना चाहते हैं।’

लेकिन तुम क्या समर्पित करोगे मुझे? अभी तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम्हारा समर्पण खोखला है। तुम्हें मौजूद होना चाहिए समर्पित होने के लिए। पहली बात, एक केंद्रीभूत आत्मा की जरूरत है समर्पित होने के लिए। मात्र कह देने से समर्पण नहीं घट सकता है। तुम में इसकी सामर्थ्य होनी चाहिए; इसे अर्जित करना होता है।

स्वाध्याय के बाद—जब आत्मा एक प्रकाश—स्तंभ की भांति तुम्हारे भीतर प्रकट होती है और तुम्हें उसका स्पष्ट बोध होता है, और सब अनावश्यक काटा जा चुका और फेंका जा चुका होता है,

जब तुम शल्य—क्रिया से गुजर चुके होते हो और आत्मा अपनी आदिम शुद्धता में और सौंदर्य में प्रकट होती है—अब तुम इसे परमात्मा के चरणों में समर्पित कर सकते हो। और पतंजलि बड़ी अनूठी बात कहते हैं कि यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। ईश्वर पतंजलि के लिए कोई सिद्धात नहीं है; ईश्वर को प्रमाणित नहीं करना है। पतंजलि कहते हैं. ईश्वर समर्पण करने के लिए एक बहाने के सिवाय और कुछ नहीं है। अन्यथा कहां करोगे तुम समर्पण? यदि तुम ईश्वर के बिना समर्पण कर सको तो ठीक; पतंजलि को कोई अड़चन नहीं है। वे नहीं कहते कि ईश्वर को मानना ही है। वे इतने वैज्ञानिक हैं कि वे कहते हैं : ईश्वर जरूरी नहीं है, वह केवल समर्पण करने का एक ढंग है। वरना तुम मुश्किल में पड़ोगे कि कहां करें समर्पण? तुम पूछोगे, ‘किसे करें समर्पण?’

बुद्ध और महावीर जैसे लोग हुए हैं जिन्होंने ईश्वर के बिना ही समर्पण किया, लेकिन वे दुर्लभ व्यक्ति हैं, क्योंकि तुम्हारा मन तो सदा पूछेगा, ‘किसे?’ यदि मैं तुमसे कहता हूं ‘प्रेम करो’, तो तुम पूछोगे, ‘किसे?’ क्योंकि तुम किसी प्रेम—पात्र के बिना प्रेम नहीं कर सकते। यदि मैं तुमसे पत्र लिखने के लिए कहूं तो तुम पूछोगे, ‘किस पते पर लिखूं?’ पते के बिना तुम पत्र नहीं लिख सकते, क्योंकि वह बात एकदम मूढ़ता की लगेगी। तुम्हारा मन ऐसा है! यदि अंतिम साध्य के रूप में ईश्वर न हो और तुम से कहा जाए, ‘समर्पण करो,’ तो तुम कहोगे, ‘किसे?’

तो केवल तुम्हें बहाना देने के लिए—ईश्वर एक बहाना है तुम्हारी मदद के लिए। ईश्वर कोई लक्ष्य नहीं है और ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। पतंजलि के लिए ईश्वर इस मार्ग पर एक मदद है—अंतिम मदद। ईश्वर के नाम पर समर्पण आसान हो जाता है। ईश्वर का नाम हो तो तुम्हारा मन उलझन में नहीं रहता कि कहां समर्पण करें। तुम्हारे पास समर्पण करने की एक जगह होती है, तुम्हारे पास एक जगह होती है झुक जाने के लिए। ईश्वर वही जगह है, कोई व्यक्ति नहीं।

और पतंजलि कहते हैं : यदि तुम ईश्वर के बिना समर्पण कर सकते हो, तो सवाल समर्पण का है—ईश्वर का नहीं। यदि तुम ठीक से समझो जो मैं कह रहा हूं तो समर्पण ही ईश्वर है। समर्पण करने का मतलब है दिव्य हो जाना, समर्पण करने का मतलब है दिव्यता को उपलब्ध हो जाना। लेकिन तुम्हें मिटना होगा। इसलिए पहले तो तुम्हें खोजना है स्वयं को, ताकि तुम मिट सको। पहले तुम्हें क्रिस्टलाइज करना है स्वयं को, ताकि तुम जा सको मंदिर में और समर्पण कर सको परमात्मा के चरणों में—उंडेल सको स्वयं को सागर में और मिट सको।

‘शुद्धता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण—ये नियम पूरे करने होते हैं।’

ये विकास के नियम हैं। ये निषेध नहीं करते; ये सहायता देते हैं। ये निषेधात्मक नहीं हैं; ये सृजनात्मक हैं।

जब मन अशांत हो असद विचारों से तो मनन करना विपरीत विचारों पर।

यह एक सुंदर विधि है, तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी होगी। उदाहरण के लिए, यदि तुम बहुत असंतोष अनुभव कर रहे हो तो क्या करना चाहिए? पतंजलि कहते हैं, विपरीत विचारों पर ध्यान देना. यदि तुम असंतोष अनुभव कर रहे हो तो ध्यान करना संतोष पर, कि संतोष क्या है? संतुलन ले आना। यदि तुम्हारा मन क्रोध से भरा है, तो करुणा को भीतर उतारना, करुणा पर मनन करना। और तुरंत ही ऊर्जा बदल जाती है। क्योंकि वे एक ही हैं, विपरीत तत्व में भी वही ऊर्जा है। एक बार तुम करुणा से भर जाते हो, तो क्रोध विलीन हो जाता है। क्रोध आए तो ध्यान करना करुणा पर।

एक काम करना बुद्ध की प्रतिमा रखना। क्योंकि वह प्रतिमा करुणा की मुद्रा है। जब भी तुम क्रोधित होते हो, भीतर कमरे में जाना, बुद्ध की ओर देखना, बुद्ध की भांति बैठ जाना और अनुभव करना करुणा को। अचानक तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर रूपांतरण घट रहा है क्रोध रूपांतरित हो रहा है, उत्तेजना खो रही है—करुणा उदित हो रही है। और यह कोई भिन्न ऊर्जा नहीं है; यह वही ऊर्जा है—क्रोध की ही ऊर्जा अपनी गुणवत्ता बदल रही है, ऊपर उठ रही है। इसे प्रयोग करना। यह कोई दमन नहीं है, यह स्मरण रखना। लोग मुझ से पूछते हैं, ‘क्या पतंजलि दमन सिखाते हैं? क्योंकि जब मैं क्रोधित हूं तब अगर मैं करुणा का विचार करूं, तो क्या यह दमन न होगा?’

नहीं। यह रूपांतरण है; यह दमन नहीं है। यदि तुम क्रोधित हो और तुम दबा लेते हो क्रोध को बिना करुणा पर ध्यान किए, तो यह दमन है। तुम क्रोध को पीछे धकेल देते हो और ऊपर तुम मुस्कुराते हो और दिखावा करते हो, जैसे कि तुम क्रोधित नहीं हो। और क्रोध कुलबुला रहा होता है और उबल रहा होता है और फूट पड़ने को तैयार होता है, तो यह दमन है। नहीं, हम दमन नहीं कर रहे हैं किसी चीज का, और न ही कोई मुस्कुराहट या कुछ और ऊपर से ओढ़ रहे हैं; हम तो बस ऊर्जा के दूसरे छोर को प्रकट कर रहे हैं।

विपरीत तत्व ही दूसरा छोर है। जब तुम घृणा से भरो तो सोचना प्रेम के विषय में। जब तुम कामना का अनुभव करो, तो ध्यान करना कामनाशून्यता पर और उस मौन पर जो उसके साथ आता है। जो भी हो अवस्था, उसके विपरीत को ले आना भीतर और ध्यान देना कि क्या घटता है तुम्हारे भीतर। एक बार तुम इसके रहस्य को जान लेते हो, तो तुम मालिक हो जाते हो। अब तुम्हारे पास चाबी है, किसी भी क्षण घृणा बदल सकती है प्रेम में, किसी भी क्षण दुख बन सकता है उल्लास, पीड़ा बन सकती है आनंद, क्योंकि पीड़ा वही ऊर्जा है जो आनंद बनती है; ऊर्जा अलग नहीं है। तुम्हें बस इतना जानना है कि उसे कैसे रूपांतरित किया जाए।

और इसमें कोई दमन नहीं होता, क्योंकि क्रोध की सारी ऊर्जा करुणा बन जाती है, दमन करने के लिए कुछ बचता ही नहीं। असल में तुमने उसका उपयोग कर लिया होता है करुणा में।

अभिव्यक्ति के दो ढंग हैं। पश्चिम में अब रेचन पर, केथार्सिस पर बहुत जोर है। एनकाउंटर युप, प्राइमल थैरेपी—सभी में रेचन पर बहुत जोर दिया जाता है। मेरा अपना सक्रिय— ध्यान भी एक रेचन की विधि है, क्योंकि लोगों ने सब्लिमेशन की, रूपांतरण की कुंजी खो दी है। पतंजलि रेचन की तो बिलकुल बात ही नहीं करते। क्यों वे इस बारे में कोई बात नहीं करते? क्योंकि लोगों के पास कुंजी थी, एक कुशलता थी। वे जानते थे कि ऊर्जा को कैसे रूपांतरित कर लेना। तुम भूल चुके हो, इसलिए मुझे तुम्हें रेचन सिखाना पड़ता है।

क्रोध है, उसे करुणा में रूपांतरित किया जा सकता है, लेकिन तुम्हें खयाल नहीं कि कैसे करें? और यह कोई कला नहीं जो सिखाई जा सकती हो; यह एक कुशलता है। तुम्हें इसे करना पड़ता है, और करके ही सीखना होता है, और कोई उपाय नहीं है। यह तैरने जैसा है : तुम्हें हाथ—पैर मारने होते हैं और गलतियां करनी होती हैं, और कई बार खतरे में पड़ना होता है, और कई बार तुम अनुभव करोगे, कि गए, मारे गए, डूबे। तुम्हें गुजरना होता है इस सब अनुभव से, और तब एक कुशलता आती है, तब तुम जानते हो कि यह क्या है। और यह इतनी आसान बात है—तैरना।

—क्या तुमने ध्यान दिया? कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें तुम सीख सकते हो, लेकिन तुम भूल नहीं सकते। तैरना उन बातो में से एक है, या फिर साइकिल चलाना। तुम सीख सकते हो, लेकिन तुम भूल नहीं सकते। दूसरी बहुत सी चीजें तुम सीख सकते हो और भूल सकते हो। हजारों बातें तुमने सीखीं स्कूल में; अब तुम करीब—करीब सब भूल चुके हो। स्कूल की ढेरों पढ़ाई बेकार गई मालूम पड़ती है। लोग सीखते रहते हैं, और फिर किसी को कुछ याद नहीं रहता। बस परीक्षा देने भर के लिए….. फिर खत्म हो जाती है बात; फिर कुछ याद नहीं रहता।

लेकिन तैरना तुम नहीं भूल सकते। यदि तुम पचास साल भी नदी में न उतरो और अचानक तुम्हें पानी में उतार दिया जाए, तो तुम तैरने लगोगे हमेशा की तरह कुशलता से—एक पल को भी तुम हिचकिचाओगे नहीं कि क्या करना है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि यह एक कुशलता है, एक नैक है। इसे भुलाया नहीं जा सकता। यह कोई सीखी हुई बात नहीं है; यह कोई कला नहीं है। और सब सीखने को, कला को भुलाया जा सकता है, लेकिन कुशलता, नैक कुछ ऐसी बात है जो तुम्हारे अस्तित्व में इतने गहरे उतर जाती है कि वह तुम्हारा हिस्सा बन जाती है।

ऊर्जा का रूपांतरण ऐसी ही एक कुशलता है।

पतंजलि कभी रेचन की बात नहीं करते; मुझे तुम्हारे कारण रेचन की बात करनी पड़ती है। .लेकिन एक बार तुम समझ लेते हो, और यदि तुम ऊर्जा को रूपांतरित कर सकते हो, तो रेचन की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती, क्योंकि रेचन एक तरह से ऊर्जा को फेंकना है। लेकिन, दुर्भाग्यवश, बिलकुल अभी कुछ किया नहीं जा सकता। और तुमको इतनी सदियों से दमन सिखाया गया है कि ऊर्जा का रूपांतरण दमन जैसा मालूम पड़ता है, इसलिए रेचन ही मार्ग है। पहले तुम्हें निर्मुक्त होना होता है। तुम थोड़े निर्भार होते हो, हलके होते हो—और फिर तुम्हें ऊर्जा के रूपांतरण की कला सिखाई जा सकती है।

रूपांतरण है ऊर्जा का उच्चतर तल पर उपयोग, वही ऊर्जा एक अलग गुणवत्ता के साथ अभिव्यक्त होती है। तो इसे प्रयोग करना। तुम में से बहुत से लोग लंबे समय से सक्रिय ध्यान करते रहे हैं। तुम प्रयोग कर सकते हो। अब जब क्रोध आए, उदासी पकडे, तो बैठ जाना मौन और उदासी को बढ़ने देना प्रसन्नता की ओर— थोड़ी सहायता—उसे थोड़ा सहयोग देना, मदद देना। अति मत करना और जल्दबाजी मत करना। क्यों? क्योंकि पहले तो उदासी राजी नहीं होगी प्रसन्नता में बदलने के लिए। क्योंकि ‘सदियों—सदियों से, जन्मों —जन्मों से, तुमने उसे उस ओर बढने नहीं दिया है, तो वह राजी नहीं होगी। जैसे कि तुम किसी घोड़े को नए मार्ग पर चलाओ जिस पर वह कभी नहीं चला है, तो वह राजी नहीं होगा। वह पुराने ढर्रे पर, पुराने मार्ग पर, पुरानी लीक पर जाने का प्रयत्न करेगा।

तो धीरे — धीरे राजी करके दूसरे मार्ग पर ले आना। कहना उदासी से, ‘ भयभीत मत होओ। यह बहुत बढ़िया मार्ग है, आओ इस मार्ग पर। तुम प्रसन्नता बन सकती हो, और इसमें कुछ गलत नहीं है और न ही यह असंभव है।’ थोड़ा फुसलाना; बात करना अपनी उदासी से।

और एक दिन तुम अचानक पाओगे कि उदासी बढ़ गई एक नए मार्ग की ओर : वह प्रसन्नता में रूपांतरित हो गई। उस दिन योगी का जन्म होता है, उससे पहले नहीं। उससे पहले तो तुम बस तैयारी कर रहे हो।

विपरीत विचारों पर मनन करना आवश्यक है क्योंकि हिंसा आदि विचार भाव और कर्म—अज्ञान एवं तीव्र दुख में फलित होते है— फिर वे अल्प मध्यम या तीव्र मात्राओं के लोभ क्रोध या मोह द्वारा स्वयं किए हुए दूसरों से करवाए हुए या अनुमोदन किए हुए क्यों न हों।

 

जो भी नकारात्मक है, वह खतरनाक है तुम्हारे लिए और दूसरों के लिए। जो भी नकारात्मक है, वह पहले से ही नरक बना रहा होता है तुम्हारे लिए और दूसरों के लिए; वह दुख और पीड़ा बना रहा है तुम्हारे लिए और दूसरों के लिए। तो सजग रहो। यदि तुम ने नकारात्मक विचार सोचा भी, तो वह जगत के लिए एक वास्तविकता बन चुका। ऐसा नहीं है कि जब तुम कुछ करते हो तभी वह वास्तविक बनता है. विचार उतना ही वास्तविक है जितना कि कर्म। यदि तुम किसी की हत्या करने की बात सोचते हो, तो तुमने हत्या कर ही दी होती है। वह आदमी जिंदा रहेगा, लेकिन तुमने अपना काम कर दिया : वह आदमी उतनी संपूर्णता से न जीएगा जितना कि संभव था। तुमने थोड़ा मार दिया उसे। और शायद वह आदमी तो जीवित रहेगा, लेकिन तुम हत्यारे हो गए और तुम्हारी ऊर्जा वही हत्या का तत्व तुममें बनाए रखेगी।

विचार, भाव या कर्म—हम उनके बीच कोई भेद नहीं करते। वे एक ही हैं। वे बीज, पौधे और वृक्ष की भांति हैं। यदि बीज है, तो वृक्ष मौजूद ही है—मार्ग पर है, आ रहा है। तो जब भी कोई नकारात्मक विचार तुम्हें पकड़े, तो तुरंत शुद्ध कर लेना उसे, रूपांतरित कर लेना उसे। खतरनाक है वह। प्रत्येक विचार अंतत: कर्म बन जाता है। प्रत्येक विचार अंततः वास्तविकता बन जाता है।

तुमने कभी ध्यान दिया. तुम किसी होटल के कमरे में ठहरते हो, और अचानक तुम परिवर्तन अनुभव करते हो अपने भीतर। या तुम किसी नए घर में आते हो और एक अजीब सी अनुभूति पकड़ती है कि कुछ गड़बड़ है। ऐसा एक निश्चित नियम के अनुसार होता है। होटल के कमरे में बहुत सी बातें होती रहती हैं; बहुत तरह के लोग आते —जाते रहते हैं। वह बहुत ही भीड़ भरी जगह बन जाती है। होटल का कमरा बहुत भीड़ से भरा स्थान होता है—हजारों विचार तैरते रहते हैं उस कमरे में। वह खाली नहीं होता, जैसा कि तुम सोचते हो; वह खाली नहीं होता। वे विचार वहां गूंजते रहते हैं। जब तुम भीतर जाते हो, तो अचानक तुम बहुत से विचारों के प्रभाव में आ जाते हो।

तुम नए घर में आते हो, थोड़ा अजीब लगता है। करीब तीन हफ्ते, इक्कीस दिन लग जाते हैं तुम्हें स्थिर होने में और अनुभव करने में कि यह तुम्हारा घर है, क्योंकि इक्कीस दिन में धीरे— धीरे तुम्हारे विचार उन विचारों को हटा देते हैं जो वहा मौजूद थे और घर पर प्रभाव जमा लेते हैं। फिर चीजें ज्यादा व्यवस्थित हो जाती हैं। तुम चैन अनुभव करते हो—जैसे कि तुम लौट आए अपने तक। कई बार, यदि किसी कमरे में कोई हत्यारा रहा हो और लगातार सोचता रहा हो हत्या के बारे में और योजना बनाता रहा हो, और यदि उसके जाने के छह मिनट के भीतर तुम उस कमरे में जाओ

और वहां ठहरो, तो वह तो शायद हत्या न करे लेकिन तुम कर सकते हो हत्या—क्योंकि उसके विचार इतने शक्तिशाली होते हैं उस समय। छह मिनट तक विचार बहुत शक्तिशाली होते हैं। धीरे— धीरे वे क्षीण होते हैं। या अगर वह आदमी आत्महत्या करने की सोच रहा था, तो कोई और कर सकता है आत्महत्या। तुम्हारा विचार किसी और के लिए कर्म बन सकता है।

लेकिन जब भी तुम कुछ नकारात्मक सोचते हो, तो तुम अपने लिए और दूसरों के लिए बुरा कर्म निर्मित कर रहे होते हो; तुम वास्तविकता को बदल रहे हो। ऐसा ही होता है विधायक ऊर्जा के साथ, विधायक विचार के साथ. जब तुम संसार की ओर करुणा का विचार संप्रेषित करते हो, तो वह ग्रहण किया जाता है। तुम एक बेहतर संसार का निर्माण करते हो—उसके विषय में विचार करने से ही।

और यदि तुम अ—मन की अवस्था को उपलब्ध हो सको तो तुम अपने चारों ओर एक खुला स्थान निर्मित करते हो जो शून्य होता है। उस शून्य आकाश में किसी दिन कोई और बुद्ध हो सकता है। इसीलिए इतना ज्यादा समादर और इतना ज्यादा सम्मान दिया जाता है और इतनी ज्यादा श्रद्धा अर्पित की जाती है संसार के कुछ स्थलों को—मक्का, मदीना या जेरूसलम, या गिरनार, कैलाश। हजारों लोग बुद्ध हुए हैं उन स्थलों से। उन्होंने वहा एक शून्य निर्मित कर दिया है, एक अत्यंत जीवंत शून्य, और वह इतना शक्तिशाली है कि उस शून्य में कोई विचार प्रवेश नहीं कर सकते। यदि तुम कैलाश पर ठीक स्थान ढूंढ सको, और तुम बैठ जाओ वहां, तो तुम अचानक रूपांतरित हो जाओगे—तुम अ—मन के एक विराट ऊर्जा के बवंडर में होते हो। तुम उसमें नहा जाओगे, स्वच्छ हो जाओगे। ऐसा ही नकारात्मक भाव के साथ घटता है जैसा विधायक भाव के साथ घटता है।

तो जब भी तुम कोई नकारात्मक भाव अनुभव करो, तुरंत उसे विधायक भाव में बदल लेना, उसे रूपांतरित कर लेना। मैं नहीं कह रहा हूं कि उसे दबा देना, मैं नहीं कह रहा हूं कि उसका दमन करना—मैं कह रहा हूं कि उसे विपरीत में बदल लेना; उसको मदद देना विपरीत की ओर बढ़ने में। और कुछ कठिन नहीं है यह। व्यक्ति को केवल इस कुशलता को, इस नैक को, जान लेना होता है।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) Tagged: अदविता नीयती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–50

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ध्‍यान का स्‍वाद: योग की उड़ान—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या यह बहुत शुभ संकेत है कि पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहे?

2—ऐसा कहा जाता है कि मनुष्यता पर महासंकट की घड़ी आती है, तब महाशुभ भी संभव होती। क्‍या आपके निकट आज हमें वही आज हमें वही अवसर मिल रहा है?

3—गंदी के बुद्धत्व के लिए किया गया प्रयास कैसे झु० हो सकेगा?

4—विकास का वह कौन सा बिंदु है जहां रेचन छोड़ा जा सकता है?

5—पतंजलि के युग के बाद, आज के आदमी ने ऊर्ध्‍वगमन की, सब्‍लिमेशनकी क्षमता क्‍यों खो दी है?

6—पतंजलि के अनुसार ध्‍यान योग का सातवां चरण है। फिर आप हमें ध्‍यान में उतरने के लिए क्‍यों जोर देते है?

7—मैं पिछले जन्‍मों में अनेक बुद्ध पुरूषों से बचता रहा। अब भय लगता है। कि इस देह के छूटने के कारण कहीं आपका साथ न चूक जाये।

 

पहला प्रश्न :

 

क्या यह बहुत शुभ संकेत है कि पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहे?

दि सच में ही ऐसा हो कि तुम्हारे पास पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहे, तो यह एक अदभुत घटना है। यह मन की सुंदरतम अवस्थाओं में से एक अवस्था है। क्योंकि जब प्रश्न नहीं होते, तो वह प्रश्न—शून्य चेतना ही सारे प्रश्नों का उत्तर होती है। ऐसा नहीं कि तुम को उत्तर मिल जाते हैं, बल्कि सारे प्रश्न गिर जाते हैं। मन तनावहीन हो जाता है; क्योंकि प्रत्येक प्रश्न एक तनाव है, एक चिंता है, एक बेचैनी है।

और कोई भी उत्तर प्रश्न को हल नहीं करेगा। प्रश्न पैदा करने वाला मन समस्या है, प्रश्न नहीं। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल सकता है, लेकिन उस उत्तर द्वारा तुम्हारा प्रश्न पैदा करने वाला मन और हजारों प्रश्न बना लेगा; तुम हर उत्तर को और— और प्रश्नों में बदल लोगे। इससे कुछ हल नहीं होता। हल तभी होता है, जब सारे प्रश्न गिर जाते हैं, जब चेतना प्रश्नों के पार चली जाती है, तुम समझ लेते हो कि पूछने को कुछ नहीं है, उत्तर पाने को कुछ नहीं है। जीवन एक रहस्य है, समस्या नहीं। तुम उसके बाबत कोई प्रश्न नहीं उठा सकते।

तो यदि ऐसा सच में ही हो, तो यह समाधि है। इसी के लिए तो मेरा सारा प्रयास है! तुम्हें उस जगह पहुंच जाना है जहां कोई प्रश्न नहीं उठता। उस मौन में, उस समग्र सुंदरता में, उस शांति में तुम रूपांतरित हो जाते हो : सारी चिंता, सारी पीड़ा मिट जाती है।

लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह स्थिति वास्तविक है? क्योंकि हो सकता है कि तुम प्रश्न पूछ न रहे होओ और प्रश्न भीतर बने रहते हों; तो फिर बेकार है। तब फिर पूछ लेना बेहतर है। यदि मन में प्रश्न हैं और तुम पूछते नहीं, तुम झिझक अनुभव करते हो, तो उससे कुछ फायदा नहीं। तब फिर बेहतर है पूछ लेना और बात खतम कर देना।

ऐसा नहीं है कि पूछने से तुम्हें उत्तर मिल जाएंगे—किसी के पास उत्तर नहीं है, किसी के पास कभी था भी नहीं, किसी के पास कभी होगा भी नहीं। उत्तर असंभव है, क्योंकि जीवन एक रहस्य है। उसे सुलझाया नहीं जा सकता। जितना ज्यादा तुम उसे सुलझाते हो, उतना ही तुम पाते हो कि असंभव है उसे सुलझाना। लेकिन प्रश्न पूछने से, धीरे— धीरे, तुम प्रश्नों की व्यर्थता के प्रति सजग हो जाते हो। फिर एक दिन सजगता के किसी क्षण में, चेतना के किसी बोधपूर्ण पल में, तुम प्रश्नों के पार चले जाते हो। जैसे कि सांप बाहर आ जाता है पुरानी केंचुली से—पुरानी केंचुली पीछे छूट जाती है; सांप सरक जाता है। एक दिन तुम्हारा चैतन्य आगे सरक जाता है और प्रश्नों की वह पुरानी केंचुली पीछे छूट जाती है। अचानक तुम नए होते हो और कुंआरे होते हो—तुम उपलब्ध हो जाते हो। तुम बुद्ध हो जाते हो। बुद्ध—चेतना वह चेतना नहीं होती जिसके पास सारे उत्तर होते हैं, बुद्ध—चेतना वह चेतना है जिसके पास कोई प्रश्न नहीं होते।

दूसरा प्रश्न :

 

ऐसा कहा गया है कि बड़े तनावपूर्ण समय में— सामाजिक आर्थिक धार्मिक उथल— पुथल के समय में— विराट शुभ संभव होता है। क्या यह सूत्र इसी घटना की तरफ इंगित करता है जिसका कि हमें यहां पूना में आपके सान्निध्य में अनुभव मिल रहा है?

हां; संकट की घड़ी बहुत कीमती घड़ी है। जब सब चीजें व्यवस्थित होती हैं और कहीं कोई संकट नहीं होता, तो चीजें मर जाती हैं। जब कुछ बदल नहीं रहा होता और पुराने की पकड़ मजबूत होती है, तो करीब—करीब असंभव ही होता है स्वयं को बदलना। जब हर चीज अस्तव्यस्त होती है, कोई चीज स्थायी नहीं होती, कोई चीज सुरक्षित नहीं होती, कोई नहीं जानता कि अगले पल क्या होगा—ऐसे अराजक समय में तुम स्वतंत्र होते हो, तुम रूपांतरित हो सकते हो, तुम उपलब्ध हो सकते हो अपनी अंतस सत्ता के आत्यंतिक केंद्र को।

यह जेल जैसा ही है : जब हर चीज सुव्यवस्थित होती है तो किसी कैदी के लिए उससे बाहर आना, जेल से भाग निकलना करीब—करीब असंभव ही होता है। लेकिन जरा सोचो भूचाल आया हो और हर चीज अव्यवस्थित हो गई हो और किसी को पता न हो कि पहरेदार कहां हैं और किसी को पता न हो कि जेलर कहां है और सारे नियम टूट गए हों और हर कोई अपनी जान बचा कर भाग रहा हो—तो उस क्षण में अगर कैदी जरा भी सजग हो तो वह बड़ी आसानी से भाग सकता है; यदि वह बिलकुल मूर्ख है, केवल तभी वह इस अवसर को चूकेगा।

जब समाज उथल—पुथल में होता है और हर चीज संकट में होती है, तो एक अराजकता फैल जाती है। इस समय यदि तुम चाहो, तो निकल सकते हो कैद से। यह बहुत आसान है, क्योंकि कोई तुम्हारे पीछे नहीं है। तुम अकेले हो। परिस्थिति ऐसी है कि हर कोई अपनी फिक्र कर रहा होता है—तुम्हारी तरफ कोई नहीं देख रहा होता। यही है घड़ी। चूकना मत इस घड़ी को। बहुत संकट की घड़ियों में लगभग सदा ही बहुत लोगों को बुद्धत्व घटा है। जब समाज बहुत व्यवस्थित होता है और करीब—करीब असंभव ही होता है विद्रोह करना, अतिक्रमण करना, नियमों का अनुसरण न करना, तो बुद्धत्व ज्यादा कठिन हो जाता है—क्योंकि बुद्धत्व है स्वतंत्रता, बुद्धत्व है परम स्वच्छंदता। वस्तुत: वह है समाज से हटना और एक व्यक्ति बनना।

समाज पसंद नहीं करता व्यक्तियों को वह पसंद करता है यंत्र—मानवों को जो लगते तो हैं बिलकुल व्‍यक्‍तियों की भांति, लेकिन व्यक्ति होते नहीं। समाज प्रामाणिक व्यक्ति को पसंद नहीं करता है। उसको पसंद आते हैं मुखौटे, चालबाज, पाखंडी, लेकिन प्रामाणिक व्यक्ति पसंद नहीं आते हैं क्योंकि प्रामाणिक व्यक्ति तो सदा एक झंझट होता है। एक प्रामाणिक व्यक्ति सदा मुक्त होता है।

तुम जबरदस्ती उस पर चीजें आरोपित नहीं कर सकते, तुम उसे कैदी नहीं बना सकते, तुम उसे गुलाम नहीं बना सकते। वह अपना जीवन गंवाना पसंद करेगा, लेकिन वह अपनी स्वतंत्रता खोना पसंद नहीं करेगा। स्वतंत्रता उसके लिए जीवन से भी ज्यादा कीमती है। स्वतंत्रता का मूल्य उसके लिए परम है। इसीलिए भारत में हमने परम अवस्था को कहा है—मोक्ष, निर्वाण। उसका अर्थ है : मुक्ति, आत्यंतिक मुक्ति, परम मुक्ति।

तो जब भी समाज में उथल—पुथल होती है और हर कोई अपनी फिक्र में होता है—स्थिति ही ऐसी होती है—तो बच निकलना। उस घड़ी कारागृह के द्वार खुल जाते हैं, दीवारों में सधे हो जाती हैं, पहरेदारों का कहीं पता नहीं होता—तुम आसानी से भाग सकते हो।

पच्चीस सौ साल पहले यही स्थिति थी बुद्ध के समय। ऐसा सदा वर्तुल में चलता है। पच्चीस सौ साल में एक वर्तुल पूरा होता है। जैसे एक वर्तुल पूरा होता है एक वर्ष में—फिर गर्मियां आ जाती हैं, एक वर्ष का वर्तुल और गर्मियां लौट आती हैं—वैसे ही पच्चीस सौ साल का एक बड़ा वर्तुल होता है। हर बार पच्चीस सौ साल बाद पुराने आधार गिरते हैं; समाज को नए आधार बनाने होते हैं। सारा भवन व्यर्थ हो जाता है, उसे गिरा देना होता है। फिर आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सारे व्यवस्था—तंत्र अस्तव्यस्त हो जाते हैं। नए का जन्म निकट होता है; एक प्रसव—पीड़ा होती है।

दो संभावनाएं हैं। एक तो संभावना है कि तुम शायद गिरते हुए पुराने ढांचे को ठीक—ठाक करने लगो. तुम समाज सुधारक बन सकते हो और तुम चीजों को ज्यादा मजबूत बनाने में जुट सकते हो। तब तुम चूक जाते हो, क्योंकि कुछ किया नहीं जा सकता. समाज तो मर ही रहा है।

प्रत्येक समाज की एक जीवन—अवधि होती है और प्रत्येक संस्कृति की एक जीवन— अवधि होती है। जैसे एक बच्चा पैदा होता है और हम जानते हैं कि वह जवान होगा, का होगा और मरेगा—सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष। उसी तरह प्रत्येक समाज का जन्म होता है, वह जवान होता है, का होता है और फिर मर जाता है। प्रत्येक सभ्यता जो पैदा होती है, मरती है। ये संक्रांति घड़ियां पुराने की, अतीत की मृत्यु और नए के जन्म की घड़ियां होती हैं। तुम्हें पुराने की फिक्र नहीं करनी है; तुम्हें पुराने ढांचे को सहारा नहीं देने लगना है—वह तो जाने वाला ही है। यदि तुम उसे सहारा दे रहे होते हो, तो तुम उसके नीचे कुचल जाओगे। तो यह एक संभावना है कि तुम पुराने ढांचे को सहारा देने लगो। उससे काम न बनेगा। तुम अवसर चूक जाओगे।

फिर एक दूसरी संभावना है कि तुम नए को लाने के लिए शायद कोई सामाजिक क्रांति शुरू कर दो। तो भी, तुम फिर चूक जाओगे अवसर, क्योंकि नए को तो आना ही है। तुम्हें उसको लाने की जरूरत नहीं है। नया तो आ ही रहा है—उसकी चिंता मत लेना, क्रांतिकारी मत बन जाना। नया आएगा ही। यदि पुराना जा चुका है तो कोई उसे जबरदस्ती बनाए नहीं रख सकता है। और यदि नया मौजूद है और समय आ गया है और बच्चा गर्भ में तैयार है, तो बच्चा पैदा होगा ही। तुम्हें बच्चे को गर्भ के बाहर खींचने की जरा भी जरूरत नहीं है। बच्चा तो पैदा होगा ही, उसकी कोई फिक्र मत करना।

क्रांति अपने से ही होती है; वह एक स्वाभाविक घटना है। किसी क्रांतिकारी की जरूरत नहीं है। तुम्हें किसी को मारने की जरूरत नहीं है, वह स्वयं ही मरने वाला है। यदि तुम सामाजिक क्रांति में लग जाते हो—तुम कम्युनिस्ट हो जाते हो, समाजवादी हो जाते हो—तो तुम चूक जाओगे।

ये दो संभावनाएं हैं जहां तुम चूक सकते हो। या फिर तुम संकट की इस घड़ी का उपयोग कर सकते हो और रूपांतरित हो सकते हो। उपयोग कर लो इसका अपने व्यक्तिगत विकास के लिए। इतिहास की संकटकालीन घड़ी जैसा अवसर दूसरा नहीं होता; हर बात तनावपूर्ण होती है और बदल रही होती है, और हर बात एक निश्चित घड़ी तक, एक शिखर तक आ चुकी होती है, जहां से घूमेगा चक्र। उपयोग कर लेना इस द्वार का, इस अवसर का, और रूपांतरित हो जाना। इसीलिए मेरा जोर व्यक्तिगत क्रांति के लिए है।

तीसरा प्रश्न :

 

इन दिनों जन्म से लेकर मृत्यु तक हर बात राजनीति द्वारा नियंत्रित निर्देशित आदेशित प्रभावित प्रशासित और परिचालित की जा रही है। तो जब तक राजनीति ठीक नहीं हो जाती सारे धार्मिक और वैज्ञानिक प्रयास व्यर्थ हो सकते हैं क्योंकि यदि आज संसार में अराजकता और अव्यवस्था है पीड़ा और दुख है तो केवल गंदी राजनीति के कारण ही; क्या ऐसा नहीं है?

प्रश्न दो भागों में है। मनुष्यता गंदे राजनीतिज्ञों के कारण गंदी नहीं है, गंदे राजनीतिज्ञ हैं गंदी मनुष्यता के कारण। तुम्हें इसे ठीक से समझ लेना है। जिम्मेवारी राजनीतिज्ञों पर मत डालना, वे तुम्हारा ही प्रतिनिधित्व करते हैं—और कुछ नहीं। यह बड़ी नासमझी की बात है कि पहले तो तुम उन्हें चुनते हो, फिर तुम उन्हें गंदा कहते हो; और जब तुम उन्हें चुनते हो, तो तुम गंदे से गंदे को चुनते हो। तुम वोट देते हो उनको, और फिर तुम उनको गंदा कहते हो। कैसे टपक पड़ते हैं वे? कहा से आते हैं वे? वे आते हैं तुम्हारे द्वारा। वे तुम्हारे समर्थन, तुम्हारे सहयोग से आते हैं, अगर तुम्हारा उनको समर्थन न मिले, तो वे खो जाएंगे।

तो उनको गंदा मत कहना। यह एक पुरानी तरकीब है मन की : हमेशा दूसरे पर जिम्मेवारी डाल दो और खुद अपराध— भाव से मुक्त हो जाओ। तुम्हीं हो वास्तविक अपराधी। यदि गंदे राजनीतिज्ञ हैं, तो वे तुम्हारे गंदे मन के कारण हैं; कहीं तुम्हारे मन में हैं उनकी जड़ें; वहीं से उन्हें पोषण मिलता है। तो राजनीतिज्ञों को बदलने मात्र से कुछ नहीं बदलेगा। हजारों—हजारों वर्षों से आदमी और कुछ नहीं कर रहा है, केवल राजनीतिज्ञों को बदल रहा है; तो भी कुछ हल होता नहीं—क्योंकि व्यक्ति स्वयं को नहीं बदलता है। तुम बदल सकते हो इन राजनीतिज्ञों को, लेकिन फिर आने वालों को कौन चुनेगा? फिर तुम्हीं तो चुनोगे न!

और जब भी कोई राजनीतिज्ञ सत्ता के बाहर हो जाता है, तो वह बड़ा सुंदर, भला, निर्दोष लगता है, क्योंकि बिना सत्ता के तुम गंदे नहीं हो सकते। गंदे होने के लिए तुम्हें सत्ता चाहिए। इसलिए जब भी कोई राजनीतिज्ञ सत्ता में नहीं रहता तो वह बड़ा विनीत, बड़ा पुनीत जान पड़ता है। जरा उसे सत्ता में पहुंचा दो और तुरंत वह रूपांतरित हो जाता है, वह वही व्यक्ति नहीं रह जाता है। क्योंकि राजनीति है सत्ता की दौड़। वह व्यक्ति सत्ता के पीछे भाग रहा है, तो उसे विनीत होना पड़ता है तुम्हें विश्वास दिलाने के लिए, तुम्हें फुसलाने के लिए, कि वह विनम्र आदमी है, साधु आदमी है। एक बार वह सत्ता में आ जाता है, तो फिर वह तुम्हारी फिक्र नहीं करता।

असल में, उसने कभी की ही न थी फिक्र, वह तो मात्र एक खेल खेल रहा था तुम्हारे साथ।

वह फुसला रहा था तुमको, शोषित कर रहा था तुमको। अब उसने पा लिया अपना लक्ष्य तो क्यों करेगा वह तुम्हारी चिंता? कौन हो तुम? वह तुमको पहचानता भी नहीं! अब इतने दिनों से संजोया स्‍वप्‍न, यह सत्ता उसके हाथ आई है, वह उपभोग करता है उसका। तब तुम उसे गंदा कहने लगते हो। और तुम सदियों से बदलते आ रहे हो राजनीतिज्ञों को—और कुछ भी बदला नहीं। अब स्वयं को बदलों। बहुत हुआ—ऐसे ही बहुत समय हुआ—अब तुम्हें समझ लेना है कि कोई सामाजिक क्रांति क्रांति नहीं हो सकती। ज्यादा से ज्यादा वह तुम्हें एक कामचलाऊ मुक्ति दे सकती है, लेकिन वह कुछ भी नहीं है, किसी मूल्य की नहीं है। जब तक तुम न बदलों, कुछ नहीं बदल सकता। मनुष्य को, व्यक्ति को ही बदलना है।

और प्रश्न का दूसरा भाग। तुम सोचते हो कि आजकल, इन दिनों जन्म से लेकर मृत्यु तक हर बात राजनीतिज्ञों द्वारा नियंत्रित, निर्देशित, आदेशित, प्रभावित, प्रशासित और परिचालित की जा रही है।

क्या तुम कोई ऐसा समय जानते हो, जब कि ऐसा नहीं था? तुम इसे क्यों कहते हो, ‘इन दिनों?’ ऐसा सदा ही था; सदा ही मनुष्य को निर्देशित किया गया है, नियंत्रित किया गया है। असल में आजकल तो नियंत्रण इतना मजबूत नहीं है, इसीलिए प्रश्न उठा है। राम के समय में प्रश्न भी नहीं उठ सकता था—नियंत्रण पूरा था। और पीछे जाओ, और इतना नियंत्रण था कि तुम प्रश्न भी नहीं पूछ सकते थे। अब तुम प्रश्न पूछ सकते हो, क्योंकि नियंत्रण थोड़ा शिथिल हुआ है। तुम प्रश्न उठा सकते हो; कम से कम इतनी स्वतंत्रता तो संसार में आई है। और पीछे जाओ तुम, लोगों को और ज्यादा बंधा हुआ पाओगे।

अतीत में कभी कोई स्थिति ऐसी नहीं रही है, जैसी कि आज है। अभी तक तो यही सर्वश्रेष्ठ है। अब तक की घड़ियों में यह घड़ी सर्वश्रेष्ठ है जिसे तुम जी रहे हो। और ऐसा ही होना भी चाहिए। अतीत कुछ बेहतर न था वर्तमान से—हो नहीं सकता। अब कम से कम स्वतंत्रता का एक दिखावा तो है संसार में. कम से कम तुम्हें बोलने तो दिया जाता है; कम से कम तुम्हें इजाजत तो है प्रश्न उठाने की। यह बड़ी से बड़ी मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि समझ लेने जैसी है।

उदाहरण के लिए, भारत में शूद्रों का, अछूतो का हजारों वर्षों से अस्तित्व है, लेकिन पिछला इतिहास बताता है कि कभी कोई प्रश्न नहीं उठाया गया उनकी गुलामी के विरुद्ध। क्यों? क्योंकि नियंत्रण पूरा था। नियंत्रण इतना पक्का था, संस्कार इतने गहरे थे, कि वे अनुभव भी न कर सकते थे कि वे बंधन में हैं। कौन करेगा अनुभव? कैसे करोगे तुम अनुभव यदि गुलामी परिपूर्ण हो? तुम सोचोगे. यही जीवन है, तुलना करने के लिए किसी और जीवन की कोई संभावना नहीं है। शूद्रों ने स्वीकार कर लिया कि यही एकमात्र संभावना है। वे इस पृथ्वी पर सर्वाधिक भद्दा जीवन जीए, लेकिन कभी इसके प्रति सजग न हुए। संस्कार बहुत गहरे थे।

संस्कारित करने में ब्राह्मण अति कुशल हैं; और वे अति कुशल होंगे ही, क्योंकि वे इस धंधे के सब से पुराने खिलाड़ी हैं। वे इस व्यवसाय को बहुत पहले से जी रहे हैं। कोई और नहीं जानता उतनी तरकीबें जितनी वे जानते हैं। सारे संसार को ब्राह्मणों से सीखना चाहिए कि मन को कैसे संस्कारित किया जाता है। वे सबसे पुराने ब्रेन—वाश करने वाले लोग हैं। उन्होंने इतने परिपूर्ण रूप से संस्कारित किया कि शूद्रों ने, लोगों के एक बडे समूह ने बिलकुल मान ही लिया कि उनके पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के कारण वे दुख भोग रहे हैं; तो कहीं कोई प्रश्न ही नहीं उठता किसी विद्रोह का—तुम्हें दुख भोगना ही है। यदि तुम दुख भोग लेते हो चुपचाप, तो संभावना है कि अगले जन्म में तुम शायद शूद्र न बनो; यदि तुम झंझट खड़ी करते हो, तो अगले जन्म में भी तुम शूद्र बनोगे, इससे भी बदतर। वे केवल एक ही जन्म को संस्कारित नहीं करते थे, जन्मों की पूरी श्रृंखला को संस्कारों में जकड़ देते थे। और शूद्रों को पढ़ने की इजाजत न थी, क्योंकि जब तुम पढ़ने—लिखने लगते हो, तो तुम प्रश्न उठाने लगते हो। उन्हें वेदों के विषय में, शास्त्रों के विषय में कुछ जानने नहीं दिया जाता था, क्योंकि यदि तुम्हें भी वे रहस्य पता चल जाएं जो कि शोषण करने वाले जानते हैं, तो कठिन होगी बात। उन्हें किसी तरह की कोई बुद्धि विकसित करने की इजाजत न थी। वे जीते थे पशुओं की भांति।

वह गुलामी परिपूर्ण थी; और ऐसा ही होता रहा है संसार भर में। पहली बार ऐसा हुआ है कि मनुष्य को थोड़ी स्वतंत्रता मिली है, थोड़ा आकाश मिला है। इसलिए मत कहना ‘इन दिनों’, क्योंकि उसी ‘इन दिनों’ में वर्तमान की निंदा होती है और अतीत की प्रशंसा होती है; वह बात ठीक नहीं। वर्तमान सदा बेहतर है। ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि वर्तमान आता है अतीत से. ज्यादा अनुभवी, ज्यादा समृद्ध। भविष्य और अच्छा होगा। लेकिन गुलामी पहले भी रही है और वह सदा से रही है। समाज जीता है संस्कारों द्वारा, वह प्रत्येक व्यक्ति को संस्कारित करता है! विधियां अलग हो सकती हैं—चीन में वे अलग ढंग से संस्कारित करते हैं; रूस में अलग ढंग से, भारत में और अलग ढंग से—लेकिन संस्कारित सभी करते हैं।

तुम क्या सोचते हो, धार्मिक व्यक्ति क्या कर रहे हैं? क्या तुम सोचते हो केवल राजनेता संस्कारित कर रहे हैं लोगों को? धर्म बड़ी से बड़ी राजनीति रहा है संसार में; उसने भी लोगों को संस्कारित किया है। तुम हिंदू कैसे हुए? हिंदू होना या ईसाई होना या मुसलमान होना क्या है? एक संस्कार है। एक बच्चा पैदा होता है : राजनीति तो बहुत देर से पकड़ पाएगी उस बच्चे की गर्दन, जब बच्चा स्कूल जाएगा तब। तब तक वह सात वर्ष का हो जाएगा। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष की उम्र तक बच्चे के अस्सी प्रतिशत संस्कार पड़ चुके होते हैं। तो कौन डाल रहा है ये संस्कार? मां—बाप, पंडित—पुरोहित, मंदिर, चर्च। एकदम शुरू से ही वे तुम्हारे मन को संस्कारित कर रहे हैं कि तुम हिंदू हो, कि तुम मुसलमान हो, कि तुम ईसाई हो—या कि तुम कम्युनिस्ट हो।

प्रत्येक धर्म की रुचि है बच्चों में, उनको सिखाने में। जैसे ही वे शब्द समझना शुरू करते हैं, उन्हें सिखाना शुरू हो जाता है। तुरंत—क्योंकि एक बार जल्दी सिखाने का अवसर चूक जाए तो खतरा हो जाता है; तुम्हारे अचेतन को पूरी तरह संस्कारित करना होता है। और वे संस्कार तुम्हारे पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं। चाहे तुम कुछ भी बन जाओ, वे संस्कार रहेंगे। तुम्हारे व्यवहार को, तुम्हारे मन को प्रभावित करते रहेंगे। यदि तुम हिंदू हो, जन्म से हिंदू हो, तो अध्ययन द्वारा, बौद्धिक समझ द्वारा, दूसरे लोगों से मिलने से, दूसरे धर्मों को, शास्त्रों को जानने से शायद तुम थोडे सजग हो जाओ कि केवल हिंदू ही ठीक नहीं हैं, दूसरे लोग भी सही हैं—कुरान भी ठीक है, केवल वेद ही ठीक नहीं हैं—लेकिन यदि तुम अचेतन में गहरे देखो, तो तुम सदा पाओगे एक सूक्ष्म पक्षपात वेद हमेशा सब से ऊपर होंगे। तुम प्रशंसा करते हो क्राइस्ट की, लेकिन कृष्ण ही सब से ऊपर होंगे!

बर्ट्रेंड रसेल जैसा आदमी भी, जो कि बिलकुल अज्ञेयवादी हो गया था अपने अंतिम दिनों में, धर्म से हट गया था, ईश्वर में या पुनर्जन्म में विश्वास करना छोड़ दिया था—वह स्वयं कहता है कि उसको भलीभांति मालूम है कि इस संसार में बुद्ध सर्वाधिक महान व्यक्ति जान पड़ते हैं; लेकिन केवल बौद्धिक रूप से ही वह कह सका ऐसा, उसका हृदय तो कहता ही रहा—’नहीं, बुद्ध कैसे इतने महान हो सकते हैं—जीसस से ज्यादा महान? यह संभव नहीं।’ तो वह कहता है, ‘ज्यादा से ज्यादा मैं उन्हें बराबर रख सकता हूं। लेकिन मैं ऊंचे नहीं रख सकता बुद्ध को। और मैं बौद्धिक रूप से जानता हूं कि बुद्ध जीसस के मुकाबले बहुत महान मालूम होते हैं।’ लेकिन वह बचपन की शिक्षा तुम्हारे हृदय को जकड़े रहती है।

तो धर्म तुम्हें संस्कारित करते रहे, राजनेता तुम्हें संस्कारित करते रहे : तुम एक संस्कारित चित्त हो। केवल ध्यान द्वारा संभावना है तुम्हारे मन को अ—संस्कारित करने की। केवल ध्यान ही संस्कारों के पार जाता है। क्यों? क्योंकि प्रत्येक संस्कार विचारों के द्वारा काम करता है। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम हिंदू हो, तो क्या है यह? विचारों का एक बंडल तुम्हें दे दिया गया, जब तुम जानते भी न थे कि तुम्हें क्या दिया जा रहा है। विचारों की एक भीड़—और तुम ईसाई हो जाते हो, कैथोलिक हो जाते हो, प्रोटेस्टेंट हो जाते हो।

ध्यान में विचार तिरोहित हो जाते हैं—सभी विचार। तुम निर्विचार हो जाते हो। मन की निर्विचार अवस्था में कोई संस्कार नहीं रहते. फिर तुम हिंदू नहीं रहते, ईसाई नहीं रहते; कम्युनिस्ट नहीं रहते, फासिस्ट नहीं रहते। तुम कुछ भी नहीं रहते—तुम केवल तुम होते हो। पहली बार सारी संस्कारों की जंजीरें गिर चुकी होती हैं। तुम कैद के बाहर होते हो।

केवल ध्यान ही तुम्हें संस्कार—मुक्त कर सकता है। कोई सामाजिक क्रांति मदद न देगी, क्योंकि क्रांतिकारी फिर तुम्हें संस्कारित कर देंगे—अपने ढंग से। उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। इससे पहले वह सर्वाधिक रूढ़िवादी ईसाई देशों में एक था। रूसी चर्च सर्वाधिक पुराना चर्च था—वेटिकन से ज्यादा रूढ़िवादी—लेकिन फिर, अचानक, रूसियों ने हर चीज बदल दी। चर्च बंद हो गए—वे स्कूलों में, कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तरों में, अस्पतालों में बदल दिए गए—धार्मिक शिक्षा पर रोक लगा दी गई, और उन्होंने लोगों को कम्युनिज्म के लिए संस्कारित करना शुरू कर दिया। दस वर्षों के भीतर सब नास्तिक हो गए। केवल दस वर्षों में ही! उन्नीस सौ सत्ताईस तक सारा धर्म गायब हो चुका था रूस से; उन्होंने लोगों को एक दूसरे ही ढंग में संस्कारित कर दिया।

लेकिन मेरे देखे बात एक ही है : चाहे तुम किसी व्यक्ति को कैथोलिक के रूप में, ईसाई के रूप में संस्कारित करो या तुम उसे कम्युनिस्ट की भांति संस्कारित करो, मेरे देखे इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि सारी समस्या संस्कारों की है। तुम संस्कारों में बांधते हो, तुम स्वतंत्रता नहीं देते

उसका। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम ईसाई नरक में रहते हो या हिंदू नरक में रहते हो? तुम ईसाई गुलामी में जीते हो या हिंदू गुलामी में जीते हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं पड़ता है।

अगर तुम हिंदू जेल में रहते हो तो किसी दिन क्रांति हो जाती है. वे फाड़ देते हैं लेबल, वे नया लेबल लगा देते हैं : ‘कम्मुनिस्ट जेल!’ और तुम प्रसन्न होते हो और आनंद मनाते हो कि तुम मुक्त हो—उसी जेल में।

केवल शब्द बदल जाते हैं। पहले तुम्हें सिखाया गया : ‘ईश्वर है, उसने संसार बनाया'; अब तुम्हें सिखाया जाता है: ‘ईश्वर नहीं है, और किसी ने नहीं बनाया संसार को'; लेकिन दोनों ही बातें तुम्हें सिखाई गई हैं। और धर्म सिखाया नहीं जा सकता। वह सब जो सिखाया जा सकता है, राजनीति होगी। इसीलिए मैं कहता हूं : धर्म स्वयं एक बहुत बड़ी राजनीति रहा है अतीत में। और किसी सामाजिक क्रांति की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि सारी क्रांतिया तुम्हें फिर संस्कार देगी।

केवल एक संभावना है : अ—मन को उपलब्ध होने की व्यक्तिगत क्रांति। तुम निर्विचार को उपलब्ध हो जाते हो; तब कोई तुमको संस्कारित नहीं कर सकता, तब सारे संस्कार—बंधन गिर जाते हैं। तब, पहली बार, तुम मुक्त होते हो। तब सारा आकाश तुम्हारा होता है; बिना किन्हीं सीमाओं के, बिना किन्हीं दीवारों के तुम जीवन में गति करते हो। तुम जीते हो, तुम प्रेम करते हो, तुम आनंद मनाते हो, तुम आह्लादित होते हो।

चौथा प्रश्न :

 

विकास का वह कौन सा बिंदु है जहां रेचन छोड़ा जा सकता है?

वह स्वयं ही छूट जाता है जब वह समाप्त हो जाता है। तुम्हें उसको छोड़ने की जरूरत नहीं होती। धीरे—धीरे तुम अनुभव करोगे कि उसमें कोई ऊर्जा नहीं रही। धीरे— धीरे तुम अनुभव करोगे कि तुम रेचन कर रहे हो, लेकिन वे रिक्त चेष्टाएं हैं, ऊर्जा मौजूद नहीं है—असल में तुम दिखावा कर रहे हो रेचन का, अभिनय कर रहे हो; रेचन हो नहीं रहा है। जब भी तुम अनुभव करते हो कि रेचन हो नहीं रहा है और तुम्हें उसे जबरदस्ती करना पड़ रहा है, तो वह गिर ही चुका होता है।

तो तुम्हें अपने हृदय की आवाज को सुनना है। जब तुम क्रोधित होते हो, तो तुम कैसे जानते हो कि कब क्रोध चला गया? जब तुम कामवासना से भरे होते हो, तो कैसे पता चलता है कि अब कामवासना खो गई? क्योंकि उस विचार में अब शक्ति नहीं रहती। विचार हो सकता है मौजूद, लेकिन शक्ति नहीं होती; वह एक रिक्त विचार है। कुछ मिनट पहले तुम क्रोधित थे : अब, तुम्हारा चेहरा शायद अभी भी थोड़ा लाल हो, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि अब क्रोध नहीं है, ऊर्जा जा चुकी है। यदि तुम अपने बच्चे पर क्रोधित हुए हो, तो तुम मुस्कुरा नहीं सकते, अन्यथा बच्चा तुमको गलत समझ लेगा। तो तुम दिखावा करते हो कि तुम अभी भी क्रोधित हो; हालांकि अब तो तुम हंसना चाहते हो और तुम बच्चे को गोद में उठा लेना चाहते हो; चूम लेना चाहते हो बच्चे को, प्यार करना चाहते हो बच्चे को। लेकिन तुम अभी भी दिखावा कर रहे होते हो। वरना सारा प्रभाव खो जाएगा—वह तुम्हारा क्रोध—और बच्चा हंसने लगेगा और सोचेगा. यह कुछ था ही नहीं। तो तुम दिखावा जारी रखते हो; मात्र एक मुखौटा, लेकिन गहरे भीतर तो ऊर्जा खो चुकी होती है।

ऐसा ही कुछ होगा रेचन के साथ। तुम रेचन कर रहे हो; वह अभी बहुत शक्तिशाली है। बहुत सी दमित भावनाएं होती हैं—उनकी गांठें खुलने लगती हैं, वे ऊपर आने लगती हैं, फूटने लगती हैं। तब बहुत ज्यादा ऊर्जा होती है। तुम चीखते हो—ऊर्जा मौजूद होती है। और चीखने के बाद तुम एक मुक्ति अनुभव करते हो, जैसे कोई बोझ उतर गया। तुम निर्भार अनुभव करते हो। तुम चैन अनुभव करते हो; शांत अनुभव करते हो; विश्राम अनुभव करते हो। लेकिन अगर कोई दमित भाव न हो, तो

तुम कर सकते हो ऊपरी चेष्टाएं—उन चेष्टाओं के बाद तुम थकान अनुभव करोगे, क्योंकि तुम व्यर्थ गंवा रहे थे ऊर्जा। कोई दमित भावना थी नहीं, कुछ भी बाहर नहीं आ रहा था और तुम व्यर्थ ही कूद रहे थे और चीख रहे थे; तुम थकान अनुभव करोगे।

यदि रेचन प्रामाणिक है, तो तुम उसके बाद एकदम ताजा अनुभव करोगे, यदि रेचन झूठा है, तो तुम थकान अनुभव करोगे। यदि रेचन प्रामाणिक है, तो तुम उसके बाद बहुत जीवंत अनुभव करोगे—पहले से ज्यादा युवा, जैसे कुछ वर्ष कम हो गए हों—तुम तीस के थे, अब तुम अट्ठाइस के या पच्चीस के होते हो। कोई बोझ उतर गया, तुम ज्यादा युवा अनुभव करते हो—ज्यादा जीवंत, ज्यादा ताजा। लेकिन यदि तुम मुद्राएं भर बना रहे हो, तो तुम थकान अनुभव करोगे। तुम तीस साल के थे, तो तुम अनुभव करोगे कि पैंतीस साल के हो।

तो तुम्हें देखना होगा। दूसरा और कोई नहीं बता सकता कि तुम्हारे भीतर क्या घट रहा है। तुम्हें देखना होगा। निरंतर देखो कि क्या घट रहा है। दिखावा ही मत किए जाना—क्योंकि रेचन साध्य नहीं है; वह केवल साधन है। एक दिन उसे छोड़ना ही है। उसे ढोए मत रहना। वह नाव की भांति है, उस पार ले जाने वाली नाव. तुम नदी पार कर लेते हो और फिर तुम नाव को भूल जाते हो; तुम उसको अपने सिर पर ही नहीं ढोते रहते।

बुद्ध बार—बार एक कहानी कहा करते थे कि एक बार ऐसा हुआ, पांच मूढ़ों ने नदी पार की। फिर वे सोच में पड़ गए, क्योंकि नाव ने उनकी इतनी मदद की थी। वर्षा का मौसम था और बाढ़ आई हुई थी नदी में और नाव की सहायता के बिना नदी पार करना करीब—करीब असंभव ही था, तो उन्होंने कहा, ‘यह नाव इतनी मददगार रही है कि हम इसे कैसे यहां छोड़ सकते हैं? हमें अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित—करनी चाहिए।’ तो वे बाजार में चले उसे सिर पर रखे हुए। लोगों ने पूछा, ‘यह क्या कर रहे हो?’ उन्होंने कहा, ‘इस नाव ने इतनी मदद की है हमारी, अब इसे हम कैसे छोड़ सकते हैं? हम इसे जीवन भर ढोएंगे तो भी कृतज्ञता पर्याप्त न होगी। इस नाव ने हम लोगों का जीवन बचाया।’ बुद्ध कहा करते थे, ‘उन पांच मूढ़ों की भांति मूढ़ मत होना।’

धर्म नाव है; जीवन लक्ष्य है। धर्म नाव है, आनंद मंजिल है। ध्यान रहे, सारी विधियां बस ‘विधियां’ ही हैं—इस बात को भूलना मत। कोई विधि लक्ष्य नहीं है। एक दिन पतंजलि की पूरी बात छोड़ देनी है, क्योंकि पूरी बात विधि की ही है। और जब पतंजलि पूरे छूट जाते हैं तो अचानक तुम पाओगे, पीछे लाओत्सु छिपे है—वह है मंजिल। मंजिल है ‘होना’। करना लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य है होना। सारी विधियां हैं कुछ करने के लिए; वे मदद देती हैं तुम्हें घर तक आने में। लेकिन जब तुम घर में प्रविष्ट हो जाते हो, तब तुम वाहन को भूल जाते हो कि तुम बैलगाड़ी में बैठ कर आए, या गधे पर बैठ कर आए, या नाव में बैठ कर आए। सारी विधियां बाहर छूट जाती हैं. तुम घर आ गए।

ध्यान रहे, तुम रेचन को भी पकड़ ले सकते हो। तुम रेचन ही करते रह सकते हो, और तब वह भी एक आदत, एक पैटर्न बन जाता है। तो इसे पैटर्न नहीं बना लेना है। देखना, जब तक जरूरत हो, जारी रखना। धीरे — धीरे तुम सजग होओगे—यह बड़ी सूक्ष्म बात है, क्योंकि घटना बड़ी सुक्ष्म है —कि अब कोई ऊर्जा नहीं है : तुम चीखते हो, पर चीख में दम नहीं है; तुम कूदते हो, लेकिन तने: प्रयास करना पड़ता है। तब इसे छूट जाने देना. नाव को उठाए मत फिरना।

‘विकास का वह कौन सा बिंदु है, जहां रेचन छोड़ा जा सकता है?’

वह स्वयं ही छूट जाता है। तुम तो बस सजग रहते हो और देखते रहते हो उसको। और जब वह छूटने लगे तो चिपकना मत उससे, छूट जाने देना उसको।

पांचवां प्रश्न :

 

पतंजलि के युग के बाद आदमी ने सब्लिमेशन की ऊर्ध्वगमन की क्षमता क्यों खो दी है?

त्यधिक दमन के कारण। इस प्रक्रिया को समझ लेना है। पतंजलि का युग बहुत आदिम था, प्राकृतिक था, नैसर्गिक था; लोग बच्चों की भांति थे, निर्दोष थे। अब हर कोई सभ्य है, सुसंस्कृत है। तुम्हारे भीतर का वह बच्चा दबा दिया गया है, पूरी तरह कुचल दिया गया है। सभ्यता किसी राक्षस की भांति है : वह तुम्हारे भीतर के बच्चे की हत्या कर देती है, उसे मार डालती है। जो भी प्राकृतिक है, विकृत हो चुका है; जो भी प्राकृतिक है, निंदित हो चुका है।

इसके कारण हैं। उदाहरण के लिए प्रत्येक संस्कृति, प्रत्येक समाज को बहुत से युद्धों से गुजरना पड़ता है। यदि कामवासना का दमन न हो, तो सेना नहीं बनाई जा सकती। सैनिक को अपनी कामवासना का दमन करना ही पड़ता है, केवल तभी वह ऊर्जा लड़ने की ताकत बनती है। कोई देश अपने सैनिकों को उनकी पत्नियों और प्रेमिकाओं को युद्ध के मोर्चे पर साथ ले जाने की आज्ञा नहीं देता है—सिवाय अमरीका के। और अमरीका हर जगह हारेगा। क्योंकि तब भीतर कोई इकट्ठी दमित ऊर्जा नहीं रहती। एक सैनिक को चाहिए बेचैन ऊर्जा। अगर उसके साथ उसकी प्रेमिका है या पत्नी है, तो वह संतुष्ट है। फिर वह क्यों लड़ेगा?

क्या तुमने ध्यान दिया? जब भी तुम कामवासना का दमन करते हो तो ज्यादा क्रोध आता है। जरा जाओ और देखो अपने ऋषि—मुनियों को, अपने तथाकथित साधु—संतो को, और तुम उन्हें सदा क्रोधित ही पाओगे। क्रोध उनकी जीवन—शैली हो गई है, क्योंकि वे कामवासना को दबाते रहे हैं। जब तुम कामवासना को दबाते हो तो ऊर्जा धक्के देती है। अगर तुम एक द्वार बंद कर देते हो तो दूसरा द्वार तुरंत खुल जाता है—और वह दूसरा द्वार विकृत ही होगा। पहला प्राकृतिक था। दूसरा द्वार बंद करो, तीसरा खुल जाएगा; वह तीसरा और भी विकृत होगा। और जब तक तुम चौथा खोलोगे, तब तक तुम पागलखाने में पहुंच चुके होगे।

सभी समाज काम—ऊर्जा का उपयोग करते हैं; इसीलिए सभी समाज कामवासना के विरुद्ध हैं। अगर प्रत्येक व्यक्ति की कामवासना तृप्त हो जाए, संतुष्ट हो जाए, सुंदर हो जाए, तो कौन परवाह करता है लड़ने की? तुम हिप्पियों को युद्ध पर नहीं भेज सकते हो। केवल इसी कारण कि वे इतने प्रसन्न हैं, इतने नैसर्गिक रूप से जी रहे हैं अपना जीवन। न केवल वे नहीं जाएंगे, बल्कि वे प्रदर्शन करते हैं झंडियां लेकर— ‘प्रेम करो, युद्ध नहीं।’ और ठीक कहते हैं वे। अगर लोगों को प्रेम करने दिया जाए, तो दुनिया से युद्ध मिट जाएंगे।

यह बड़ी जटिल बात है। जैन धर्म जैसा धर्म भी जो कि अहिंसा सिखाता है, वह भी कामवासना का दमन सिखाता है। यह पागलपन है। अगर कामवासना का दमन किया गया तो युद्ध होगा, हिंसा होगी, क्योंकि ऊर्जा जाएगी कहां? अगर सच में ही दुनिया से युद्ध मिटाने हैं तो कामवासना को स्वाभाविक ढंग से जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। लेकिन कोई समाज इसकी आज्ञा नहीं दे सकता, क्योंकि युद्ध आवश्यक है; वरना दूसरे झपट पड़ेंगे तुम पर। वे यह नहीं सोचेंगे कि तुम अच्छे लोग हो इसलिए तुम्हें झंझट में नहीं डालना चाहिए।

अगर भारत पूरी यौन—स्वतंत्रता दे दे और एक हिप्पी देश बन जाए, तो चीन चढ़ बैठेगा। इसलिए वह संभव नहीं है। अगर चीन छूट देता है, तो भय है कि रूस चढ़ बैठेगा। अगर रूस छूट देता है, तो अमरीका प्रतीक्षा में बैठा है। तो सब एक—दूसरे की घात में हैं और कोई भी जीवन को सहज—स्वाभाविक ढंग से खिलने नहीं दे सकता है। प्राकृतिक होना, सहज होना संसार की सर्वाधिक कठिन बात हो गई है।

तो अगर तुम एक बच्चे को शिक्षित करना चाहते हो, तो तुम्हें कामवासना को दबाना पड़ता है। क्योंकि तेरह—चौदह वर्ष के करीब बच्चा यौन के हिसाब से परिपक्व हो जाता है। तब प्रकृति ने उसको दे दी होती है टिकट, अब वह बच्चे पैदा कर सकता है—लेकिन कालेज की पढ़ाई पूरी करनी है। अगर वह विवाह कर ले चौदह वर्ष की अवस्था में, तो डाक्टर कैसे बनेगा वह? इंजीनियर कैसे बनेगा वह? नहीं, उसे डाक्टर बनना ही है। लेकिन डाक्टर बनने के लिए उसे प्रतीक्षा करनी होगी। पच्चीस—छब्बीस वर्ष की उम्र तक वह हो पाएगा इंजीनियर या डाक्टर या प्रोफेसर; तब उसे विवाह की अनुमति मिलेगी—क्योंकि उसी ऊर्जा का तो उपयोग करना है पढ़ाई—लिखाई में।

अगर तुम युवक—युवतियों .को एक ही हॉस्टल में रहने दो, तो यूनिवर्सिटिया गायब हो जाएंगी; वे बनी नहीं रह सकतीं। वे बनी हुई हैं दमन की एक सूक्ष्म प्रक्रिया के कारण। कामवासना का दमन करना होता है, केवल तभी किसी दूसरी चीज के लिए ऊर्जा उपलब्ध होती है। तब युवक और युवतियां अपनी ऊर्जा परीक्षाओं में लगा देते हैं। उनको पसंद नहीं है यह, लेकिन करें क्या? भीतर ऊर्जा मौजूद है।

फिर सारे समाज हस्तमैथुन के विरुद्ध हैं, क्योंकि अगर तुम लड़कियों और लड़कों को एक साथ नहीं रहने देते हो, तो लड़के हस्तमैथुन करेंगे, लड़कियां हस्तमैथुन करेंगी। समाजों को विरुद्ध होना पड़ता है इसके, क्योंकि इससे ऊर्जा खोती है। ऊर्जा को तो जबरदस्ती लगाना होता है यूनिवर्सिटी में; उन्हें इंजीनियर बनना होता है। उन्हें आनंदित नहीं होना होता। तो सभी समाज अपराध— भाव पैदा करते हैं हस्तमैथुन के प्रति। और सारे समाज प्रशंसा करते हैं कि यदि तुम काम—ऊर्जा को सुरक्षित रखो तो तुम बहुत महान हो जाओगे।

निश्चित ही, एक अर्थों में तो महान हो ही जाते हों—महत्वाकांक्षा की दुनिया में महान हो जाते हो। यदि तुमने कामवासना का दमन नहीं किया है तो तुम बड़े राजनेता नहीं बन सकते हो, क्योंकि कौन फिक्र करता है? यह इतनी व्यर्थ की बात है कि कौन जाना चाहता है दिल्ली या व्हाइट हाऊस, वाशिंगटन 1: कोई नहीं फिक्र करता। जरूरत ही क्या है? तुम्हारा छोटा सा घर ही है व्हाइट हाऊस। न, ‘। सूंदर ढंग से जीते हो और तुम आनंदित होते हो। और क्यों तुम अपना जीवन गवाओगे दिल्ली पाने में या वाशिंगटन जाने में? नहीं, तब तुम बड़े .राजनेता नहीं बन सकते।

काम — ऊर्जा का दमन करना होता है, तभी तुम बनते हो बड़े कलाकार। काम —ऊर्जा को होना

होता है कुंठित, तभी तुम बनते हो बड़े वैज्ञानिक। फ्रायड कहता है कि जिन लोगों की काम—ऊर्जा बहुत ज्यादा दमित होती है, वे वैज्ञानिक बन जाते हैं; क्योंकि रहस्य को उघाड़ने की कोशिश एक कामुक जिज्ञासा है—एक छोटा लड़का जानने की कोशिश कर रहा है कि नग्न लड़की कैसी लगती है; उसे जिज्ञासा होती है।

सारे लड़के दुनिया भर में एक खेल खेलते हैं—’डाक्टर।’ वे बन जाते हैं डाक्टर और लड़की बन जाती है मरीज—छोटी लड़कियां, छोटे डाक्टर, छोटे मरीज—बस यह जानने के लिए कि वस्त्रों के भीतर लड़की कैसी लगती है। और डाक्टर को अनुमति है; उसे जांचना ही होता है शरीर। यह जिज्ञासा वैसी ही जिज्ञासा है जैसी किसी वैज्ञानिक की जिज्ञासा। यदि कामवासना का दमन किया गया है, तो बाद में वैज्ञानिक हर कहीं छानबीन करने की कोशिश करेगा—प्रकृति को निर्वस्त्र करेगा रहस्यों से पर्दे उठाएगा—कि क्या छिपा है। वह चाहता है कि सारा संसार, सारा अस्तित्व नग्न प्रकट हो जाए, ताकि वह प्रत्येक रहस्य, प्रत्येक स्थान, प्रत्येक कोना जान ले।

यदि कामवासना को जीने की स्वतंत्रता हो.. उदाहरण के लिए संसार भर में आदिम समाज हैं, थोड़े से आदिम समाज। उन्होंने कोई बड़ा वैज्ञानिक नहीं पैदा किया। वे कर नहीं सकते। बस्तर में भारत में, मैंने देखा है आदिवासियों के एक छोटे से समुदाय को। उनके यहां एक छोटा निवास—स्थान होता है, समुदाय का घर, एक ‘घोटुल’ होता है प्रत्येक गांव में। बारह वर्ष की आयु के बाद प्रत्येक युवक और युवती को उस घोटुल में जाकर सोने की आज्ञा होती है। सारी युवतियां वहां सोती हैं, सारे युवक वहां सोते हैं। और कोई बंधन नहीं होता उनकी काम— भावना पर—वे आनंदित होते हैं। केवल एक शर्त होती है, जो कि अदभुत है, कि कोई युवक किसी युवती के साथ तीन दिन से ज्यादा नहीं रहेगा। ताकि वह गांव की तमाम लड़कियों को जान ले जिससे वह निर्णय ले सके, और प्रत्येक लड़की जान ले गांव के प्रत्येक लड़के को। तो वे निर्णय ले सकते हैं कि उन्हें जीवन भर किसके साथ रहना है। यह बात सच में बहुत सुंदर है—सहज—सरल, और बड़ी मानवीय। हर लड़के को पूरी स्वतंत्रता मिलती है, हर लड़की को पूरी स्वतंत्रता मिलती है—कोई दमन नहीं होता।

एक बार वे जान लेते हैं अपने समुदाय के सभी लड़कों को और सभी लड़कियों को तो निर्णय कर सकते हैं। जब निर्णय कर लेते हैं, तब फिर कोई स्वतंत्रता नहीं रहती। असल में तब कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। वे ऐसे सच्चे प्रेमी होते हैं जैसे तुम्हें संसार में कहीं नहीं मिल सकते। एक बार कोई युवक और युवती विवाह करने का निर्णय ले लेते हैं, तो वे दूसरे युवक और युवतियों को भूल जाते हैं बिलकुल। कोई मतलब नहीं रहता; उन्होंने जान लिया सभी को। और यह उनका अपना चुनाव है। उन्होंने खोज लिया है अपना साथी, खत्म हो गई बात! वे कभी विश्वासघात नहीं करते एक—दूसरे के साथ। ऐसा कभी नहीं हुआ उनके इतिहास में कि कोई पति किसी दूसरी स्त्री के साथ प्रेम करता पाया गया हो या किसी दूसरी स्त्री में रुचि रखता हो या स्त्री छुपे तौर पर प्रेमिका बन गई हो किसी दूसरे की। नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं होता। ऐसा होने की जरूरत ही नहीं रह जाती।

लेकिन उन्होंने कोई बड़े वैज्ञानिक या बड़े कवि या बड़े कलाकार या बड़े योद्धा पैदा नहीं किए। नहीं, उन्होंने किसी तरह के कोई बड़े आदमी नहीं पैदा किए। उन्होंने पैदा किए साधारण सीधे—सादे, सहज आदमी।

असल में सभी तरह की महानता एक तरह की अस्वाभाविकता है, और कहीं न कहीं काम—ऊर्जा का ही उपयोग करना पड़ता है, क्योंकि वही एकमात्र ऊर्जा है।

पतंजलि के समय में लोग सीधे—सादे थे, सहज थे। रेचन की कोई जरूरत न थी : किसी चीज का दमन न था। रेचन के चरण की जरूरत न थी। लेकिन अब हर कोई दमित है। और हर कोई इतने तरीकों से दमित है कि रेचन के कई वर्ष चाहिए, केवल तभी तुम फिर से सहज होओगे। तुमने अचेतन मन में इतना ज्यादा कूड़ा—करकट इकट्ठा कर लिया है कि उसे फेंकना जरूरी है। अभी तुम मार्ग पर नहीं चल सकते—पहले तुम्हें स्वयं को निर्भार करना होगा।

तुम्हें ठीक से समझ लेना है. कि समाज की अपनी जरूरतें हैं, देश की अपनी जरूरतें हैं। जरूरी नहीं है कि वे व्यक्ति की भी जरूरतें हों—यही समस्या है। व्यक्ति की जरूरत है कि वह सुखी हो, आनंदित हो, उसे जो छोटा सा जीवन मिला है उसे आनंद से जीए। यह व्यक्ति की जरूरत है, लेकिन यह समाज की जरूरत नहीं है। समाज को इससे मतलब नहीं है कि तुम सुखी हो कि दुखी हो; समाज चाहता है कि तुम उपयोगी हो, समाज चाहता है कि तुम महान सैनिक बनो ताकि समाज की सुरक्षा के काम आओ, समाज चाहता है कि तुम बड़े वैज्ञानिक बनो क्योंकि विज्ञान शक्ति है। समाज की अपनी जरूरतें हैं। और व्यक्ति की जरूरतें बिलकुल भिन्न हैं।

एक आदर्श समाज में कोई समाज न होगा—केवल व्यक्ति होंगे। एक आदर्श राज्य में कोई राज्य न होगा, कोई शासन न होगा—केवल व्यक्ति होंगे। ज्यादा से ज्यादा एक कामचलाऊ शासन व्यवस्था हो सकती है। उदाहरण के लिए, डाक—व्यवस्था की देख— भाल की जा सकती है किसी केंद्रीय एजेंसी द्वारा। या रेलवे को संचालित किया जा सकता है एक केंद्रीय एजेंसी द्वारा। बस इतना ही। रेलगाड़ियां समय से चलें, डाक—व्यवस्था ठीक से काम करे, बस ऐसी चीजों के लिए सरकार होनी चाहिए। और सरकार को एक नकारात्मक शक्ति होना चाहिए।

जब मैं कहता हूं नकारात्मक शक्ति, तो मेरा मतलब है. सरकार को ध्यान देना चाहिए कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के काम में दखल न दे और दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता में और उसके जीवन में दखल न दे। बस इतना ही। सरकार को अपने नियम नहीं थोपने चाहिए लोगों पर। इतना पर्याप्त है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता हो, अपना काम करने की स्वतंत्रता हो और कोई दखलंदाजी न करे। अगर कोई दखल दे, तो सरकार बीच में आए, अन्यथा नहीं।

लेकिन यह तो एक आदर्श स्थिति, यूटोपिया की बात मालूम पड़ती है। यह शब्द ‘यूटोपिया’ बहुत सुंदर है। इसका अर्थ है. ‘जो कभी होता नहीं।’ यूटोपिया का अर्थ है ऐसी बात जो कभी होती नहीं, जिसका होना संभव ही नहीं लगता है। बात ही असंभव मालूम पड़ती है।

तो मैं तुम्हें किसी यूटोपिया की कामना करना नहीं सिखा रहा हूं। जो किया जा सकता है, और जो व्यावहारिक है, वह है—होशपूर्ण हो जाना, ताकि तुम इस उपद्रव के बाहर आ जाओ। और तुम कृपा करके दूसरों की चिंता में मत पड़ो, क्योंकि कोई उन्हें उनके उपद्रव से बाहर नहीं ला सकता है अगर वे स्वयं ही बाहर नहीं आना चाहते। अगर वे आनंद ले रहे हैं तो लेने दो उनको आनंद। अगर उन्‍हें सूख मिल रहा है अपने दुख में, तो रहने दो उन्हें दुखी; यह उनकी स्वतंत्रता है। किसी पर कोई चीज थोपने की कोशिश मत करना—यह अनधिकार चेष्टा है, जबरदस्ती है, हस्तक्षेप है।

मेरे देखे, यह हिंसा है। प्रत्येक को अपने जैसा होने दो और अपनी स्वतंत्रता से जीने दो; तब रेचन की कोई जरूरत न रहेगी।

लेकिन अभी तो हर कोई दखल दे रहा है दूसरों के जीवन में; कोई तुम्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहता। और ऐसी सूक्ष्म तरकीबें उपयोग की जाती रही हैं कि जब तक तुम बहुत ही ज्यादा सजग न होओ तुम जान न पाओगे कि किन—किन तरकीबों से तुम्हें गुलाम बनाया गया है।

धर्म कहते हैं कि तुम कहीं भी हो, ईश्वर तुम्हें देख रहा है। इसका अर्थ हुआ : कहीं कोई संभावना ही नहीं अकेले होने की और स्वयं होने की। यह ईश्वर तो पीपिंग टाम मालूम पड़ता है! तुम कहीं भी हों—स्नानघर में भी—वह मौजूद है, तुम्हें देख रहा है। वहां भी तुम गुनगुना नहीं सकते; वहां भी तुम दर्पण में मुंह नहीं बिचका सकते; वहां भी तुम नाच नहीं सकते; नहीं, ईश्वर देख रहा है। और ‘ईश्वर’ का अर्थ है बहुत गंभीर, कोई बूढ़ा—सफेद बाल, सफेद दाढ़ी, और सदा का उदासीन और गहन—गभीर—और वह देख रहा है!

मैंने सुना है एक नन के बारे में जो बिना कपड़े उतारे ही स्नान किया करती थी। तो किसी ने पूछा, ‘यह क्या करती हो तुम? स्नान करते समय तो तुम अपने कपड़े उतार सकती हो।’ लेकिन उसने कहा, ‘ईश्वर हर जगह देख रहा है, तो कैसे मैं नग्न हो सकती हूं? वह बात तो अपमानजनक होगी।’ लेकिन यदि ईश्वर सब जगह देख रहा है, तो वह तुम्हारे वस्त्रों के भीतर भी देख रहा होगा! तो क्या मतलब हुआ? इसका तो मतलब हुआ कि तुम कहीं भी नग्न हो सकते हो। ईश्वर सब जगह देख रहा है. तुम बच नहीं सकते। भूल जाओ उसके बारे में।

ये सूक्ष्म तरकीबें हैं। समाज ने तुम्हारे भीतर एक अंतःकरण निर्मित कर दिया है, तो कुछ भी तुम करते हो, वह अंतःकरण काम करता रहता है—समाज की सेवा में। और समाज ने तुम्हें सिखा दिया है, ‘यह तुम्हारे भीतर की आवाज है।’ यदि तुम मुसलमान परिवार में पैदा हुए हो, तो तुम चार पत्नियां रख सकते हो और तुम्हारा अंतःकरण कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा—चार तक। पांचवीं के साथ ही खतरा पैदा होगा। पांचवीं पत्नी के साथ ही तुम्हारा अंतःकरण बेचैन होने लगेगा और वह कहेगा, ‘यह ठीक नहीं।’ लेकिन अगर तुम हिंदू हो या ईसाई हो तो केवल एक पत्नी की इजाजत है। दूसरी पत्नी के साथ ही झंझट खड़ी हो जाएगी। तुम्हारा अंतःकरण कहने लगेगा, ‘यह गलत है, यह ठीक नहीं, यह अनैतिक है। क्या कर रहे हो तुम? तुम्हें केवल एक ही स्त्री से प्रेम करना चाहिए—और सदा—सदा के लिए करना चाहिए।’

यह अंतःकरण क्या है? मुसलमान का अंतःकरण क्यों अलग होता है? हिंदू का अंतःकरण क्यों अलग होता है?

मेरे बचपन में मेरे घर में टमाटरों की मनाही थी, क्योंकि मैं एक जैन परिवार में पैदा हुआ, और टमाटर मांस जैसा लगता है। बस लगता ही है, होता तो उसमें ऐसा कुछ नहीं। टमाटर तो इतना निर्दोष और किसी को नुकसान न पहुंचाने वाला है। लेकिन बचपन में मैंने टमाटर कभी नहीं खाए थे, क्योंकि मेरे परिवार में इजाजत न थी। और जब पहली बार एक मित्र के घर में मेरे सामने खाने में टमाटर आया तो मैंने वमन कर दिया। पूरा अंतःकरण…! मैं मान ही नहीं सकता था कि लोग टमाटर खाते हैं। टमाटर तो कितनी खतरनाक चीज है, मांस जैसा लगता है। कैसे उसको तुम खा सकते हो?

अंतःकरण सिवाय समाज की एक चालबाजी के और कुछ नहीं है। तुम्हारे अंतःकरण में कुछ धारणाएं भर दी जाती हैं और वहां से वे काम करना शुरू कर देती हैं। वे हैं देलगादो के इलेक्ट्रोड्स की भांति। बहुत सूक्ष्म… जहां भी तुम जाते हो, समाज तुम्हारे साथ आता है, तुम्हारे पीछे छिपा होता है; तुम्हारे भीतर ही होता है। अगर तुम समाज के विपरीत कोई काम करते हो, तो अंतःकरण कचोटने लगता है। यह वास्तविक अंतस की आवाज नहीं है—क्योंकि वास्तविक भीतरी आवाज हिंदू के लिए और मुसलमान के लिए, और जैन के लिए, और ईसाई के लिए अलग— अलग नहीं हो सकती है। वास्तविक भीतरी आवाज तो एक ही होगी, क्योंकि सच्ची भीतर की आवाज समाज के सिखावन से पैदा नहीं होती। सच्ची भीतर की आवाज तो आती है तुम्हारे अस्तित्व के आत्यंतिक केंद्र से। लेकिन उस तक पहुंचने के लिए ध्यान की सारी अवस्थाओं से गुजरना होता है।

जब तक सभी विचार तिरोहित नहीं हो जाते, तुम अपनी भीतर की आवाज नहीं सुन सकते। समाज ने तुम्हारे मन को इतना ज्यादा भर दिया है कि तुम जो भी सुनोगे, वह समाज द्वारा तुम्हें भीतर से नियंत्रित करने की कोशिश ही होगी। बाहर से समाज नियंत्रण करता है पुलिस द्वारा और अदालतो द्वारा। भीतर से वह नियंत्रण करता है ईश्वर द्वारा, अंतःकरण द्वारा, नैतिकता द्वारा, स्वर्ग—नर्क द्वारा और ऐसी ही हजार चीजों द्वारा।

इसीलिए रेचन की जरूरत है। तुम नैसर्गिक नहीं हो, और केवल रेचन द्वारा ही तुम स्वयं को निर्भार कर पाओगे समाज के बोझ से; तुम मुक्त हो पाओगे समाज से। समाज से मुक्त होकर तुम प्रकृति के प्रति खुले हो जाते हो। प्रकृति के प्रति खुलने से तुम अस्तित्व के प्रति खुले हो जाते हो। और मेरे देखे, अस्तित्व ही ईश्वर है।

छठवां प्रश्न :

 

आप क्यों जोर देते हैं कि हमें सीधे सातवें चरण— ध्यान— पर छलांग लगा देनी चाहिए और फिर दूसरे चरण पूरे करने चाहिए ताकि समग्र समाधि उपलब्ध हो?

 

क खास कारण है। मैं जोर देता हूं कि पहले ध्यान में छलांग लगा दो और फिर दूसरे चरण पूरे करो, क्योंकि तुमने ध्यान का स्वाद बिलकुल ही खो दिया है। इस कदर खो दिया है कि जब तक तुम एक बार स्वाद को अनुभव न कर लो, तब तक तुम दूसरी चीजों को पूरा करने का कष्ट ही नहीं उठाओगे।

पतंजलि के समय में ध्यान एक अनुभव की बात थी। प्रत्येक व्यक्ति ध्यान करता था। प्रत्येक बच्चे को भेजा जाता था गुरुकुल में, जंगल के आश्रमों में। वहां बुनियादी शिक्षा ध्यान की थी; शेष सब गौण था। जब वह पच्चीस वर्ष का होता तो समाज में वापस आ जाता, मगर उसने ध्यान की कला सीख ली होती। वह रहेगा बाजार में, पर ध्यान के साथ। पचास वर्ष की उम्र तक वह फिर तैयार हो जाता वापस जंगल जाने के लिए। और पचहत्तर वर्ष की अवस्था तक आते—आते वह ध्यान के लिए ही पूरा समय समर्पित करने लगता।

तो अगर तुम पूरी जीवन— अवधि को देखो, अगर सौ वर्ष की उम्र मानें : तो पहले के पच्चीस वर्षों में, आरंभ में, ध्यान का स्वाद दे दिया जाता था—तुम जान लेते थे उसके सौरभ को, उसकी सुवास को। तुम जान लेते उसके सौंदर्य को, उसके अहोभाव को, आनंद को—और तब तुम आते संसार में। अब तुम कभी न बनोगे संसार का हिस्सा। तुम जानते हो, वहां जंगल में कोई सुंदर चीज अस्तित्व रखती है। तुमने जान लिया होता है एकांत को; अब भीड़ में, संसार में रहते हुए, तुम कभी पूरे चैन से न रहोगे। तुमने चख लिया परम स्वाद. अब बाकी के सारे स्वाद मूल्यहीन हो गए। तुम रहोगे संसार में एक कर्तव्य की तरह।

ऐसा ही हिंदू—शास्त्र कहते हैं कि व्यक्ति को संसार में जीना चाहिए कर्तव्य की तरह। तुम्हारे माता—पिता ने तुम्हें पैदा किया : तुम्हारे ऊपर एक कर्तव्य है, तुम्हें दूसरों को जन्म देना है, ताकि समाज और उसकी श्रृंखला निरंतर चलती रहे और धारा बहती रहे—तुम्हें धारा पर रोक नहीं लगानी है।

लेकिन भीतर एक पुकार उठती ही रहती है। व्यक्ति काम करता है दुकान में, जाता है बाजार, बच्चों को बड़ा करता है, विवाह करता है, हजार चीजें करता रहता है वह, लेकिन किसी बुलावे की अनुगूंज उठती रहती है। किन्हीं घड़ियों में, सुबह—सुबह जब बाजार में सन्नाटा है और संसार अभी भी सोया ही हुआ है—वह उठ आता है.. वह डुबकी ले लेता है उस ध्यान में जिससे कि उसका परिचय हुआ था अपने पहले पच्चीस वर्षों में। रात को, जब सब सो जाते हैं तो वह बैठ जाता है अपनी शय्या पर……किसी निमंत्रण की पुकार उसके पीछे—पीछे चलती रहती है छाया की भांति।

पचास वर्ष की अवस्था आते—आते वह संसार से हटने लगता, क्योंकि अब उसके बच्चे करीब—करीब पच्चीस वर्ष के हो जाते, वे जंगल से लौट आए होते। अब वे सम्हालेंगे संसार, अब उसका कर्तव्य पूरा हुआ। लेकिन पचास वर्ष की अवस्था में वह सचमुच ही नहीं चला जाता जंगल। संस्कृत का शब्द है ‘वानप्रस्थ’. वह मुंह कर लेता जंगल की ओर। वह घर को छोड़ता नहीं है, क्योंकि कुछ वर्ष अभी उसकी जरूरत होगी उन बच्चों को जो अभी गुरुकुल से आए हैं, ताकि वह उन्हें अपने जीवन का अनुभव दे दे, उन्हें व्यवस्थित होने में मदद करे। अन्यथा यह उन बच्चों के लिए बहुत अराजकता हो जाएगी—कि वे घर आएं और बूढ़ा पिता जंगल चला जाए। तब तो संसार के साथ कोई संबंध ही न जुड़ेगा उनका। उन युवा बच्चों ने कुछ सीखा है, जाना है अस्तित्व के विषय में; अब उन्हें संसार के संबंध में कुछ सीखना है पिता से।

लेकिन अब पिता पीछे होगा, बच्चे आगे आ जाएंगे। पिता पीछे हट जाएंगे, मां पीछे हट जाएगी—बहू आगे आ जाएगी, बेटा आगे आ जाएगा। अब वे हैं असली मालिक, और माता—पिता सिर्फ इसलिए हैं कि अगर उन लोगों को किसी सलाह—मशवरे की जरूरत पड़े तो सलाह ली जा सकती है। लेकिन अब उनका रुख होता जंगल की तरफ; वे तैयार हो रहे होते।

और जब वे पचहत्तर वर्ष के होते तो उनके बच्चे हो गए होंगे करीब पचास वर्ष के। अब माता—पिता तैयार होते जंगल वापस जाने के लिए—वें लौट जाते, वे फिर चले जाते जंगल।

भारतीय जीवन शुरू होता जंगल से, फिर समाप्त होता जंगल में; शुरू होता स्वात से, समाप्त होता एकांत में; शुरू होता ध्यान से, समाप्त होता ध्यान में। असल में पचहत्तर वर्ष ध्यान के लिए होते, केवल पच्चीस वर्ष संसार के लिए होते; संसार कभी हावी नहीं हो पाता, एक अंतर्धारा ध्यान की बनी रहती। वस्तुत: सारा जीवन ही ध्यानमय था—केवल पच्चीस वर्षों के लिए व्यक्ति संसार को कर्तव्य की भाति जीता था।

उन दिनों कोई जरूरत न थी तुम्हें ध्यान का स्वाद देने की, तुमने जाना ही होता था उसको। लेकिन अब चीजें बिलकुल भिन्न हैं। तुम नहीं जानते कि ध्यान क्या है। जब मैं कहता हूं ‘ ध्यान’ तो बस एक शब्द गूंजता है तुम्हारे कानों में, कोई प्रतिसवेदन नहीं होता। यदि मैं कहता हूं ‘नींबू’ तो तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है, लेकिन जब मैं कहता हूं ‘ध्यान’ तो कोई संबंध नहीं बनता। जब मैं कहता हूं ‘परमात्मा’ तो रूखा—सूखा ही रहता है मुंह। तुमने स्वाद ही नहीं लिया, वह शब्द अर्थहीन है।

इसीलिए मैं कहता हूं. पहले ध्यान करो। यानी थोड़ा स्वाद लो, थोड़ी झलक लो। तब तुम अपने से चलने लगोगे, और फिर तुम दूसरे चरण पूरे करने लगोगे। तुम्हें चाहिए एक झलक, पहले उसकी कोई जरूरत न थी; इसलिए मेरा जोर है सीधे ध्यान पर। एक बार तुम ध्यान में उतर जाओ, फिर सब कुछ पीछे—पीछे चला आएगा। मुझे उसके बारे में कहने की जरूरत नहीं; तुम स्वयं ही वैसा करने लगोगे।

जब तुम ध्यान में उतरते हो, तो तुम मौन और शात बैठ जाना चाहोगे ही : आसन सध जाएगा। जब तुम ध्यान में उतरते हो, तो तुम देखोगे कि श्वास की एक मौन लय होती है. प्राणायाम सध जाएगा। जब तुम मौन होते हो, ध्यानपूर्ण होते हो, आनंदमग्न होते हो अपने एकांत में, तो तुम्हारा चरित्र बदल जाएगा; तुम किसी के जीवन में दखलंदाजी न करोगे : तुम अहिंसक हो जाओगे। तुम प्रामाणिक हो जाओगे, क्योंकि जब भी तुम अप्रामाणिक होओगे तो तुम्हारा आंतरिक संतुलन खो जाएगा। झूठे होकर, बेईमान होकर तुम शायद बचा लो पांच रुपए, लेकिन झूठे होकर तुम भीतर का बहुत कुछ खो दोगे। अब तुम्हें एक नया उपलब्ध हुआ धन खोना पड़ेगा। और मैंने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो इतना मूढ़ हो कि मात्र पांच रुपए के लिए वह भीतर का खजाना खोने को राजी हो, जो कि ज्यादा मूल्यवान है, अपार मूल्यवान है। फिर चला आता है ‘यम’। जब तुम और—और मौन, और— और शात हो जाते हो तो जीवन स्व—स्फूर्त हो जाता है : ‘नियम’, एक आंतरिक अनुशासन अपने आप चला आता है। बस जरा सी तुम्हारी मदद और थोड़ी समझ, तो चीजें एक कम में उतरने लगती हैं। लेकिन पहली बात है यह जानना कि ध्यान क्या है; शेष सब पीछे चला आता है।

जीसस ने कहा है, ‘पहले प्रभु का राज्य खोज लो, फिर सब कुछ पीछे—पीछे चला आता है।’ वही मैं तुम से कहता हूं।

अंतिम प्रश्न :

 

स्पष्ट है कि मैं पिछले सभी बुद्ध पुरुषों से बचता रहा जिनसे मेरा पहले मिलना हुआ। लेकिन अब मैं जानता हूं कि जब तक मैं इस शरीर में हूं मैं इस बुद्ध को नहीं छोडूंगा लेकिन फिर एक छिपा— छिपा भय बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि अभौतिक मिलन होने के पहले ही मैं देह छोड़ हूं या आप विदा हो जाएं।

 

य स्वाभाविक है, और एक तरह से अच्छा ही है। इससे घबड़ाने की कोई बात नहीं, यह भय मदद करेगा। सारे भय बुरे नहीं होते और सारी बहादुरी अच्छी नहीं होती। कई बार बहादुरी केवल मूढ़ता होती है और कई बार भय एक बुद्धिमानी होता है। इस भय को मैं बुद्धिमानी कहता हूं क्योंकि तुम जानते हो कि ऐसा संभव है। अतीत में तुम चूकते रहे हो बहुत से बुद्ध पुरुषों को—ज्यादा संभावना इसी बात की है कि तुम मुझे भी चूक जाओगे, क्योंकि तुम चूकने में बहुत कुशल हो चुके हो। तो अच्छा है भय। यह मदद करेगा। यह भय बुद्धिमानी है; यह तुम्हें चैन से न बैठने देगा और असजग न रहने देगा—यह तुम्हें फिर से न चूकने में मदद देगा।

धन्यवाद दो इस भय को और याद रखो : भय सदा ही बुरा नहीं होता। जब तुम्हें रास्ते पर सांप मिल जाता है, तो तुम क्या करते हो? तुम छलांग लगा कर हट जाते हो। क्या तुम डरपोक हो? क्या तुम कायर हो? कोई मूर्ख कह सकता है कि तुम कायर हो। लेकिन तुम क्या सोचते हो, बुद्ध क्या करेंगे? वह तुम से ज्यादा तेज छलांग लगाएंगे; इतना ही करेंगे। लेकिन क्या बुद्ध भयभीत हैं सांप से? नहीं, सवाल भयभीत होने या न होने का नहीं है। वे होशपूर्ण हैं, और वे होश से जीते हैं।

यह भय एक तरह की सजगता है। इसे ‘छिपा भय’ मत कहो; बल्कि इसे ‘नई सजगता’ कहो क्योंकि तुम किसी चीज को जिस ढंग से कहते हो, उससे बहुत अंतर पड़ता है। अगर तुम इसे ‘ भय’ कहते हो, तो तुमने इसकी निंदा कर दी। अगर तुम इसे ‘नई सजगता’ कहते हो, तो तुमने इसे स्वीकार किया, इसकी प्रशंसा की।

और अगर तुम सजग हो, तो इस बार तुम चूकोगे नहीं। सारी बात है—सजगता। यदि तुम सजग हो तो तुम नहीं चूकोगे। तुम अतीत में चूकते रहे क्योंकि तुम गहरी नींद में थे, एक सम्मोहन में थे। तुम्हारी आंखें बंद थीं। तुम चूकते रहे क्योंकि तुम बुद्ध को पहचान न पाए। एक बार तुम पहचान लेते हो कि बुद्ध सामने मौजूद हैं, तो कैसे चूक सकते हो तुम? एक बार तुम जान लेते हो कि यह हीरा है, तो तुम उसे फेंक नहीं सकते। तुमने दूसरे हीरे यह सोच कर फेंक दिए होंगे कि वे कंकड़—पत्थर हैं।

मैंने एक सूफी कहानी सुनी है। ऐसा हुआ : एक फकीर, एक गरीब भिखारी एक छोटी सी झील के किनारे टहल रहा था। उसे अचानक एक थैला मिल गया। ब्रह्ममुहूर्त का समय था। सूर्योदय नहीं हुआ था, अभी भी अंधेरा था। उसने थैला खोला, टटोल कर देखा कि भीतर क्या है; पत्थर ही पत्थर भरे थे उसमें। झील के किनारे बैठे—ठाले करने को कुछ था नहीं, वह उन पत्थरों को फेंकने लगा झील में। वे पानी में गिरते, छपाक की आवाज होती, तरंगें उठतीं—उसे मजा आने लगा। फिर धीरे— धीरे सुबह हुई, अंधकार कम हुआ। जब पर्याप्त रोशनी हुई और उसने देखा कि वह क्या कर रहा था, तब एक अंतिम पत्थर ही बचा था। वह हीरा था। वह तो रोने—चीखने लगा। वे सभी हीरे ही थे। लेकिन अब वह इसे नहीं फेंक सकता था।

तुमने शायद फेंक दिया होगा पत्थरों के पूरे थैले को—और बुद्ध पुरुषों को। इस बार अगर थोड़ी सी सजगता तुम्हें मिली है और प्रकाश की एक किरण उतरी है, तो कैसे तुम उसे फेंक सकते हो? यह असंभव है।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

निश्‍चल ध्‍यान योग–गीता

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जिन लोगों को मन के पार जाना है, उन्हें हृदय, मस्तिष्क दोनों से उतरकर नाभि के पास वापस लौटना होता है। अगर आप फिर से अपनी चेतना को नाभि के पास अनुभव कर सकें, तो आपका मन तत्क्ष ण ठहर जाएगा।
तो इस ध्यान की प्रक्रिया के लिए, जिसको मैं निश्चल ध्यान योग की तरफ एक विधि कहता हूं दो बातें ध्यान में रखने जैसी जरूरी हैं। जैसा कि सूफी फकीरों को अगर आपने देखा हो प्रार्थना
करते, या मुसलमानों को आपने नमाज पढ़ते देखा हो, तो जिस भांति घुटने मोड़कर वे बैठते हैं वैसे घुटने मोड़कर बैठ जाएं। बच्चे के घुटने ठीक उसी तरह मुड़े होते हैं मां के गर्भ में। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें और श्वास को बिलकुल शिथिल छोड़ दें, रिलैक्स छोड़ दें, ताकि श्वास जितनी धीमी और जितनी आहिस्ता आए—जाए, उतना अच्छा। श्वास जैसे न्यून हो जाए, शांत हो जाए। श्वास को दबाकर शांत नहीं किया जा सकता है। अगर आप रोकेंगे, तो श्वास तेजी से चलने लगेगी। रोकें मत, सिर्फ ढीला छोड़ दें।
आंख बंद कर लें, और अपनी चेतना को भीतर नाभि के पास ले आएं। सिर से उतारें हृदय पर, हृदय से उतारें नाभि पर। नाभि के पास चेतना को ले जाएं। श्वास का हल्का—सा कंपन पेट को नीचे—ऊपर करता रहेगा। आप अपने ध्यान को आंख बंद करके वहीं ले आएं, जहां नाभि कंपित हो रही है। श्वास के धक्के से पेट ऊपर—नीचे हो रहा है, आंख बंद करके ध्यान को वहीं ले आएं। शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। थोड़ी ही देर में शरीर आपका आगे झुकेगा और सिर जाकर जमीन से लग जाएगा। उसे छोड़ दें और झुक जाने दें।
जब सिर आपका जमीन से लग जाएगा, तब आप ठीक उस हालत में आ गए, जिस हालत में बच्चा मां के पेट में होता है। शांत होने के लिए इससे ज्यादा कीमती आसन जगत में कोई भी नहीं है। आसन ऐसा हो जाए, जैसा गर्भ में बच्चे का होता है; और आपका ध्यान नाभि पर चला जाए। बच्चे का ध्यान और चेतना नाभि में होती है। आपका ध्यान भी नाभि पर चला जाए।
अनेक बार ध्यान उचट जाएगा, कहीं कोई आवाज होगी, ध्यान चला जाएगा। कहीं कोई बोल देगा कुछ, ध्यान चला जाएगा। नहीं कहीं कुछ होगा, तो भीतर कोई विचार आ जाएगा, और ध्यान हट जाएगा। उससे लड़े मत। अगर ध्यान हट जाए, चिंता मत करें। जैसे ही खयाल में आए कि ध्यान हट गया, वापस अपने ध्यान को नाभि पर ले आएं। किसी कलह में न पड़े, किसी कांफ्लिक्ट में न पड़े कि यह मन मेरा क्यों हटा! यह मन बड़ा चंचल है, यह क्यों हटा! नहीं हटना चाहिए। इस सब व्यर्थ की बात में मत पड़े। जब भी खयाल आ जाए, वापस नाभि पर अपने ध्यान को ले आएं।
और चालीस मिनट कम से कम— ज्यादा कितनी भी देर कोई रह सकता है—ठीक ऐसे बच्चे की हालत में मां के गर्भ में पड़े रहें। संभावना तो यह है कि दो—चार—आठ दिन के प्रयोग में ही आपको
एक गहरी निश्चलता भीतर अनुभव होनी शुरू हो जाएगी। ठीक आप बच्चे के जैसी सरल चेतना में प्रवेश कर जाएंगे। मन ठहरा हुआ मालूम पड़ेगा। जितना नाभि के पास होंगे, उतनी देर मन ठहरा रहेगा। और जब नाभि के पास रहना आसान हो जाएगा, तो मन बिलकुल ठहर जाएगा।
मन भी चलता है, हृदय भी चलता है, नाभि चलती नहीं। मन की भी दौड़ है, विचार की भी दौड़ है, भाव की भी दौड़ है, नाभि की कोई दौड़ नहीं। अगर ठीक से समझें, तो मन भी भविष्य में होता है, हृदय भी भविष्य में होता है, नाभि वर्तमान में होती है—जस्ट इन दि मोमेंट, हियर एंड नाउ, अभी और यहीं।
जो आदमी नाभि के पास जितना जाएगा अपनी चेतना को लेकर, उतना ही वर्तमान के करीब आ जाएगा। जैसे बच्चा नाभि से जुड़ा होता है मां से, ऐसे ही एक अज्ञात नाभि के द्वार से हम अस्तित्व से जुड़े हैं। नाभि ही द्वार है।
जिन लोगों को—शायद दो—चार लोगों को यहां भी— कभी अगर शरीर के बाहर होने का कोई अनुभव हुआ हो। पृथ्वी पर बहुत लोगों को कभी—कभी, अचानक, आकस्मिक हो जाता है। अचानक लगता है कि मैं शरीर के बाहर हो गया। तो जिन लोगों को भी शरीर के बाहर होने का आकस्मिक, या ध्यान से, या किसी साधना से अनुभव हुआ हो, उनको एक अनुभव निश्चित होता है, कि जब वे अपने को शरीर के बाहर पाते हैं, तो बहुत हैरानी से देखते हैं कि उनके और उनके शरीर के बीच, जो नीचे पड़ा है, उसकी नाभि से कोई एक प्रकाश की किरण की भांति कोई चीज उन्हें जोड़े हुए है। पश्चिम में वैज्ञानिक उसे सिल्वर कॉर्ड, रजत— रज्जु का नाम देते हैं। जैसे हम मां से जुड़े होते हैं इस भौतिक शरीर से, ऐसे ही इस बड़े जगत, इस बड़े अस्तित्व से, इस प्रकृति या अस्तित्व के गर्भ से भी हम नाभि से ही जुड़े होते हैं। तो जैसे ही आप नाभि के निकट अपनी चेतना को लाते हैं, मन निश्चल हो जाता है।
जीसस का बहुत अदभुत वचन है— शायद ही ईसाई उसका अर्थ समझ पाए—जीसस ने कहा है कि तुम तभी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकोगे, जब तुम छोटे बच्चों की भांति हो जाओ।
लेकिन मोटे अर्थ में इसका यही अर्थ हुआ कि हम बच्चों की तरह सरल हो जाएं। लेकिन गहरे वैज्ञानिक अर्थ में इसका अर्थ होता है कि हम बच्चे की उस आत्यंतिक अवस्था में पहुंच जाएं, जब बच्चा होता ही नहीं, मां ही होती है। और बच्चा मां के सहारे ही जी

रहा होता है। न अपनी कोई हृदय की धड़कन होती है, न अपना कोई मस्तिष्क होता; बच्चा पूरा समर्पित, मां के अस्तित्व का अंग होता है।
ठीक ऐसी ही घटना निश्चल ध्यान योग में घटती है। आप समाप्त हो जाते हैं और परमात्मा के साथ एकीभाव हो जाता है। और परमात्मा के द्वारा आप जीने लगते हैं।
यह जो कृष्णज ने कहा है कि निश्चल ध्यान योग से मुझमें एकीभाव को स्थित हो जाता है, इसका ठीक वही अर्थ है, जो बच्चे और मां के बीच स्थूल अर्थ है, वही अर्थ साधक और परमात्मा के बीच सूक्ष्म अर्थ है। इस प्रयोग को थोड़ा करेंगे, तो जो अर्थ स्पष्ट होंगे, वे अर्थ शब्दों से स्पष्ट नहीं किए जा सकते।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–51

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योग का आधार—पंच महाव्रत—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

योग—सूत्र

(साधनपाद)

अहिंसाप्रतष्‍ठायां तत्‍सन्‍निधौ वैरत्‍याग:।। 35।।

जब योगी सुनिश्चित रूप से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है,

तब जो उसके सान्‍निध्‍य में आते हैं, वे शत्रुता छोड़ देते हैं।

सत्‍यप्रतिष्‍ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।। 36।।

जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है,

तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्‍त कर लेता है।

अस्‍तेयप्रतिष्‍ठाया सर्वरत्‍नोपस्‍थनम्।। 37।।

जो योगीसुनिश्‍चित रूप से अस्‍तेय में प्रतिष्‍ठित होत जाता है,

तब आंतिरिक समृद्धियां स्‍वयं उदित होती है।

ब्रह्मचर्यप्रतिष्‍ठायां वीर्यलाभ:।। 38।।

जब योगी निश्‍चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्‍ठित हो जाता है,

तब तेजस्‍विता की उपलब्‍धि होती है।

अपरिग्रहस्‍थैर्ये जन्‍मकिान्‍तासंबोध:।। 39।।

जब योगी सुनिश्‍चित रूप से अपरिग्रह में प्रतिष्‍ठित हो जाता है,

तब अस्‍तित्‍व के ‘कैसे’ और कहां से का ज्ञान उदित होता है।

क बार ऐसा हुआ, मैं कुछ मित्रों के साथ एक पहाड़ी स्थान पर ठहरा हुआ था। हम एक जगह देखने गए जो ‘ईको प्याइंट’ कहलाता था; सुंदर स्थल था, बहुत शांतिपूर्ण, पहाड़ियों से घिरा हुआ। एक मित्र ने कुत्ते की तरह भौंकने की आवाज की। सारी पहाड़ियां उसकी अनुगूंज से गज उठीं—ऐसा लगा जैसे वह स्थान हजारों कुत्तों से भरा हुआ है। फिर किसी ने बौद्ध मंत्रों का जाप शुरू कर दिया : ‘सब्बे संघार अनिच्चा। सब्बे धम्मा अनत्ता। गते, गतें, परागते, परा संगते। बोधि स्वाहा!’ पहाड़ियां बौद्ध बन गईं; उन्होंने उसे गुंजा दिया। मंत्र का अर्थ है : ‘सब कुछ नश्वर है, कोई चीज अनश्वर नहीं; सब कुछ एक बहाव है, कुछ भी स्थायी नहीं। हर चीज आत्म—विहीन है। गई, गई, खो गई, अंततः हर चीज खो गई—शब्द भी, ज्ञान भी, बुद्धत्व भी।’

जो मित्र मेरे साथ थे मैंने उनसे कहा कि जीवन भी इसी ‘ईको प्याइंट’ की भांति है : तुम भौंकते हो उस पर, तो वह वापस भौंकता है तुम पर; तुम पढ़ते हो सुंदर मंत्र, तो जीवन एक मधुर गुंजार से भर जाता है। जीवन एक दर्पण है। लाखों—लाखों दर्पण हैं तुम्हारे चारों ओर—प्रत्येक चेहरा एक दर्पण है; प्रत्येक चट्टान एक दर्पण है; प्रत्येक बादल एक दर्पण है। सारे संबंध दर्पण हैं। जिस ढंग से भी तुम जीवन से संबंधित होते हो, वह तुम्हें प्रतिबिंबित करता है। जीवन के प्रति क्रोध से मत भर जाना अगर वह तुम पर भौंकने लगे। तुम्हीं ने आरंभ की होगी श्रृंखला। तुमने जरूर कुछ किया होगा तभी यह हो रहा है। जीवन को बदलने का प्रयास मत करो; बस अपने को बदलो और जीवन बदल जाता है।

ये दो दृष्टिकोण हैं : एक को मैं कहता हूं कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण, जो कहता है, ‘जीवन को बदलो, केवल तभी तुम सुखी हो सकते हो'; दूसरे को मैं कहता हूं धार्मिक दृष्टिकोण, जो कहता है, ‘स्वयं को बदलो, और जीवन अनायास ही सुंदर हो जाता है।’ समाज को, संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम उस दिशा में चल रहे हो, तो तुम गलत दिशा में चल रहे हो जो तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगी। पहली तो बात, तुम उसे बदल नहीं सकते—वह बहुत जटिल और विराट है। यह असंभव है। वह बहुत जटिल है और तुम्हारी जिंदगी छोटी है! और जीवन सनातन है और जीवन अनंत है। तुम एक मेहमान हो; रात भर का पड़ाव है और तुम चल दोगे : गते, गते—हमेशा के लिए विदा हो जाओगे। कैसे तुम कल्पना कर सकते हो इसको बदलने की?

यह कहना कि जीवन बदला जा सकता है, निपट नासमझी की बात है। लेकिन बहुत अच्छा रन गत। है इस बात से। कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण का अपना एक गहरा आकर्षण है। इसलिए नहीं कि वह सही है—आकर्षण है किसी दूसरे कारण से—क्योंकि वह तुम्हें जिम्मेवार नहीं ठहराता है, यही उसका आकर्षण है। तुम्हारे अतिरिक्त हर चीज जिम्मेवार है; तुम तो बस एक शिकार हो! ‘पूरा जीवन जिम्मेवार है। तो जीवन को बदलना है।’ साधारण मन को यह बात अच्छी लगती है, क्योंकि मन जिम्मेवारी नहीं लेना चाहता।

जब भी तुम दुखी होते हो तो तुम जिम्मेवारी किसी दूसरे पर डाल देना चाहते हो—कोई भी चलेगा, कोई भी बहाना चलेगा—तुम निर्भार हो जाते हो। तुम्हें लगता है : तुम इस आदमी की वजह से दुखी हो—या इस स्त्री की वजह से, या इस समाज की, इस सरकार की, इस सामाजिक ढांचे की, इस अर्थव्यवस्था की वजह से दुखी हो—या, अंततः ईश्वर या भाग्य जिम्मेवार है। ये सभी कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण हैं। जैसे ही तुम जिम्मेवारी दूसरों पर डाल देते हो, तुम कम्युनिस्ट हो जाते हो, तुम फिर धार्मिक नहीं रहते।

अगर तुम ईश्वर पर भी जिम्मेवारी डालते हो, तो भी तुम कम्मुनिस्ट हो। मुझे समझने की कोशिश करना, क्योंकि कम्युनिस्ट तो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, लेकिन किसी दूसरे पर जिम्मेवारी डालने का पूरा दृष्टिकोण ही कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण है—तब तो ईश्वर को ही बदलना पड़ेगा।

यही तो लोग कर रहे हैं मंदिरों में. वे वहा जाते हैं और प्रार्थना करते हैं ईश्वर से कि वह बदले। वे लोग बिलकुल कम्युनिस्ट हैं। वे छिपे होंगे धार्मिक वस्त्रों में, लेकिन वे हैं कम्मुनिस्ट। वे क्या प्रार्थना कर रहे हैं? वे कह रहे हैं ईश्वर से, ‘ऐसा करो, वैसा मत करो’, ‘मेरी पत्नी बीमार है, उसको ठीक कर दो।’ तुम कह रहे हो अस्तित्व से कि अस्तित्व जिम्मेवार है! तुम शिकायत कर रहे हो; गहरे में तुम्हारी प्रार्थना एक शिकायत ही है। शायद तुम बहुत विनम्रतापूर्वक कह रहे हो, लेकिन तुम्हारी विनम्रता झूठी है। तुम शायद स्तुति कर रहे हो उसकी, लेकिन गहरे में तुम कह रहे हो, ‘तुम ही जिम्मेवार हो—अब कुछ करो!’

इस दृष्टिकोण को मैं कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण कहता हूं। कम्मुनिस्टवादी दृष्टिकोण से मेरा मतलब है वह दृष्टिकोण जो कहता है, ‘मैं जिम्मेवार नहीं हूं मैं तो शिकार हूं। सारा जीवन जिम्मेवार है।’ धार्मिक दृष्टिकोण कहता है, ‘जीवन तो केवल प्रतिबिंबित करता है।’

जीवन कोई कर्ता नहीं है, वह एक दर्पण है। वह तुम्हारे प्रति कुछ कर नहीं रहा है, क्योंकि वही जीवन बुद्ध पुरुष के साथ अलग ढंग से व्यवहार करता है। जीवन वही है, तुम्हारे साथ वह अलग ढंग से व्यवहार करता है। दर्पण वही है, लेकिन जब तुम आते हो दर्पण के सामने तो वह तुम्हारे चेहरे को प्रतिबिंबित करता है। और यदि तुम्हारा चेहरा बुद्ध पुरुष का चेहरा नहीं है, तो दर्पण क्या कर सकता है? जब बुद्ध पुरुष आते हैं दर्पण के सामने तब दर्पण उनके बुद्धत्व को प्रतिबिंबित करता है। मैं तुम से यह इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मेरा भी अनुभव यही है। जब तुम्हारा चेहरा बदलता है तो दर्पण में प्रतिबिंब भी बदल जाता है; क्योंकि दर्पण की कोई निर्धारित दृष्टि नहीं है। दर्पण तो बस प्रतिबिंबित कर रहा है। वह अपनी तरफ से कुछ नहीं कहता। वह तो बस प्रतिबिंबित करता है—वह तुम्हें ही तुम्हारे सामने प्रकट कर देता है। यदि जीवन में दुख है, तो जरूर तुम ने शुरू की होगी श्रृंखला। यदि हर कोई तुम्हारे विरुद्ध है, तो तुम्हीं ने शुरू की होगी श्रृंखला। यदि हर कोई शत्रुता अनुभव करता है, तो तुमने ही शुरू की होगी श्रृंखला।

कारण को बदलों। और कारण तुम हो। धर्म तुमको ही जिम्मेवार ठहराता है—और इस तरह धर्म तुमको स्वतंत्रता देता है, क्योंकि तब चुनने की स्वतंत्रता तुम्हारी अपनी है। दुखी होना है या सुखी होना है, यह तुम पर निर्भर करता है। इस बात से किसी दूसरे का कोई संबंध नहीं है। संसार तो वैसा ही रहेगा; तुम शुरू कर सकते हो नृत्य करना, और तब सारा संसार तुम्हारे साथ नृत्य करने लगता है।

एक प्रसिद्ध कहावत है कि जब तुम रोते हो तो तुम अकेले रोते हो, जब तुम हंसते हो तो सारा संसार तुम्हारे साथ हंसता है। नहीं, यह बात भी सच नहीं है। जब तुम रोते हो तो सारा संसार प्रतिबिंबित करता है तुम्हारे रोने को। और जब तुम हंसते हो, तो सारा संसार तुम्हारे हंसने को प्रतिबिंबित करता है। जब तुम रोते हो, तब सारा संसार रोता हुआ मालूम पड़ता है। जब तुम उदास होते हो, तब जरा देखना चांद की तरफ—चांद उदास मालूम पड़ता है; जरा देखना तारों की तरफ—वे घोर निराशा में डूबे हुए मालूम पड़ते हैं; देखना नदी की ओर—लगता है कि वह बह नहीं रही है, उदास है, अंधेरे में खोई हुई है। जब तुम प्रसन्न होते हो, तब जरा देखना चांद की तरफ—वह मुस्कुरा रहा होता है; और वही तारे नाच—गा रहे होते हैं, और वही नदी बह रही होती है गुनगुनाते हुए; सारा विषाद, सारी उदासी खो जाती है।

न कहीं कोई नरक है और न कहीं कोई स्वर्ग है। जब तुम्हारे भीतर स्वर्ग होता है, तो इसी संसार में… और यही एकमात्र संसार है। स्मरण रखना, दूसरा और कोई संसार नहीं है। जब तुम भीतर स्वर्ग से भरे होते हो, तो संसार उसे प्रतिबिंबित करता है। जब तुम नरक से भरे होते हो, तो संसार कुछ नहीं कर सकता इसमें, वह उसे ही प्रतिबिंबित करता है।

यदि तुम स्वयं को जिम्मेवार अनुभव करते हो, तो तुमने धर्म की दिशा में बढ़ना शुरू कर दिया है। धर्म विश्वास करता है व्यक्तिगत क्रांति में। दूसरी कोई क्रांति क्रांति नहीं है। बाकी सब क्रांतिया झूठी हैं, नकली हैं। ऐसा लगता है कि बहुत बदलाहट हो रही है, लेकिन कुछ बदलता नहीं। बड़ा शोरगुल मचता है बदलाहट का, लेकिन कहीं कुछ बदलता नहीं। कोई बदलाहट संभव नहीं है, जब तक तुम स्वयं नहीं बदल जाते।

ये सूत्र इसी जिम्मेवारी की खबर देते हैं—व्यक्तिगत जिम्मेवारी की। शुरू—शुरू में तुम थोड़ा बोझ सा अनुभव करोगे—कि मैं जिम्मेवार हूं—और तुम इसे किसी दूसरे पर नहीं डाल सकते। लेकिन ठीक से समझ लो कि यदि तुम जिम्मेवार हो, तो थोड़ी आशा है; कुछ तुम कर सकते हो। यदि दूसरे जिम्मेवार हैं तब तो कोई आशा भी नहीं, क्योंकि क्या कर सकते हो तुम? तुम ध्यान करोगे, लेकिन दूसरे लोग झंझटें खड़ी करते रहेंगे, तुम दुखी के दुखी रहोगे। तुम बुद्ध हो जाओ, तो भी संसार नरक बना रहेगा। तुम दुखी होओगे। शुरू—शुरू में प्रत्येक स्वतंत्रता बोझ जैसी लगती है। इसीलिए लोग स्वतंत्रता से डरते हैं।

एरिक फ्रॉम ने एक सुंदर पुस्तक लिखी है, ‘दि फिअर ऑफ फ्रीडम’—स्वतंत्रता का भय। मुझे यह शीर्षक बहुत अच्छा लगा। लोग इतने ज्यादा भयभीत क्यों हैं स्वतंत्रता से? होना तो इसके विपरीत चाहिए; उन्हें स्वतंत्रता से भयभीत नहीं होना चाहिए। बल्कि उलटे हम सोचते हैं कि हर कोई स्‍वतंत्रता चाहता है। लेकिन मेरे देखने में भी ऐसा आया है कि कहीं गहरे में कोई नहीं चाहता स्‍वतंत्रता—क्योंकि स्वतंत्रता एक बड़ी जिम्मेवारी है। तब केवल तुम्हीं जिम्मेवार हो। तब तुम किसी दूसरे के कंधों पर जिम्मेवारी नहीं थोप सकते। तब तुम्हारे पास कोई सांत्वना नहीं होती—यदि तुम दुखी हो, तो अपने कारण दुखी हो; तुम्हीं ने निर्मित किया है अपना दुख।

लेकिन उस बोझ के साथ ही एक नया द्वार खुल जाता है. तुम फेंक सकते हो उसे। यदि मैं ही निर्मित कर रहा हूं अपने दुखों को तो मैं उनको निर्मित करना बंद कर सकता हूं। मैं ही पैडल चलाता रहा हूं साइकिल के और मैं थक गया हूं और मैं चाहता हूं कि बंद हो यह, और मैं चलाए जाता हूं पैडल… मुझे ही पैडल चलाना बंद करना है, और साइकिल रुक जाएगी। कोई और उसे नहीं चला रहा है।

यही गहरे में अर्थ है कर्म के सिद्धात का. कि तुम्हीं जिम्मेवार हो। एक बार तुम समझ लेते हो इस बात को गहरे में कि ‘मैं जिम्मेवार है, तो आधा काम पूरा हो गया। वस्तुत: जिस क्षण तुम समझ लेते हो कि ‘मैं ही जिम्मेवार हूं उस सब के लिए जिससे मैं दुखी होता रहा या सुखी होता रहा’, तो तुम स्वतंत्र हो—समाज से स्वतंत्र, संसार से स्वतंत्र। अब तुम जीने के लिए अपना संसार चुन सकते हो। यही है एकमात्र संसार—ध्यान रखना। लेकिन तुम चुन सकते हो अब। अब तुम नृत्य कर सकते हो और सारा संसार तुम्हारे साथ नृत्य करता है।

पतंजलि के ये सूत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं:

जब योगी सुनिश्चित रूप से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है तब जो उसके सान्निध्य में आते हैं वे सब शत्रुता छोड़ देते हैं।

 

बहुत सी बातो की ओर संकेत है। पहली तो बात, भारत में हमने कभी ‘प्रेम’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है। हम सदा अहिंसा शब्द का प्रयोग करते हैं—अहिसाप्रतिष्ठाया। जीसस ‘प्रेम’ शब्द का प्रयोग करते हैं, महावीर, पतंजलि, बुद्ध, वे कभी ‘प्रेम’ शब्द का प्रयोग नहीं करते, वे ‘ अहिंसा’ शब्द का प्रयोग करते हैं। क्यों? ‘प्रेम’ बेहतर शब्द मालूम पड़ता है, ज्यादा विधायक, ज्यादा काव्यात्मक।’अहिंसा’ शब्द काव्यात्मक नहीं है, नकारात्मक है। लेकिन उसमें कुछ सार है। जब तुम कहते हो ‘प्रेम’, तो उसमें एक सूक्ष्म हिंसा है। जब मैं कहता हूं ‘मैं तुम से प्रेम करता हूं, तब मैं अपने केंद्र से सरक चुका होता हूं तुम्हारी ओर। वह हिंसा प्रीतिकर लगती है, तो भी है तो हिंसा ही। पतंजलि कहते हैं, ‘अहिंसा।’ यह एक नकारात्मक अवस्था है, एक क्रिया—शून्य अवस्था। मैं इतना ही कहता हूं : ‘मैं तुम्हें चोट न पहुंचाऊंगा’, बस इतना ही।

प्रेम कहता, ‘मैं तुम्हें सुखी करूंगा’, जो कि असंभव है। कौन किसे सुखी कर सकता है? प्रेम आश्वासन देता है। सारे आश्वासन झूठे सिद्ध होते हैं। कैसे तुम किसी को सुखी कर सकते हो? यदि हर कोई स्वयं के लिए जिम्मेवार है, तो यह सोचना भी कैसे संभव है कि तुम किसी को सुखी कर सकते हो? जब मैं कहता हूं ‘मैं तुम को प्रेम करता हूं,, तो मैं बहुत आश्वासन निर्मित कर रहा हूं मैं तुम्हें बहुत सब्ज—बाग दिखा रहा हूं मैं तुम्हें सपने दे रहा हूं।

नहीं, पतंजलि उस शब्द का उपयोग नहीं करेंगे, क्योंकि गहरे में तो यही कहा जा रहा होता है, ‘मैं तुम्हें सुख दूंगा। मेरे निकट आओ; मेरे करीब आओ। मैं तैयार हूं तुम्हें सुखी करने को’—जो

अएसंभव है। कोई किसी को सुखी नहीं कर सकता है। ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कह सकता हूं ‘मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा।’ उतनी बात मेरे सामर्थ्य में है कि मैं चोट न पहुंचाऊं। लेकिन मैं कैसे कह सकता हूं कि ‘मैं तुम्हें सुखी करूंगा!’

इसीलिए प्रेम में विषाद होता है। प्रेमी परस्पर आश्वासन देते हैं—जाने, अनजाने—सुंदर सपने, स्वर्ग के आश्वासन देते हैं; और प्रत्येक राह देख रहा होता है आश्वासनों के पूरे होने की, और फिर कोई आश्वासन कभी पूरा नहीं होता। कोई सुखी नहीं कर सकता तुम्हें—सिवाय तुम्हारे। जब तुम प्रेम में पड़ते हो, तो पुरुष सोच रहा होता है कि स्त्री उसे एक सुंदर जीवन, एक सम्मोहक, एक अदभुत संसार देगी; और स्त्री भी सोच रही होती है कि पुरुष उसे परम स्वर्ग में ले जाएगा।

लेकिन कोई किसी को कहीं नहीं ले जा सकता। इसीलिए प्रेमी विषाद अनुभव करते हैं; आश्वासन झूठा निकलता है। ऐसा नहीं है कि वे धोखा दे रहे होते हैं एक—दूसरे को, वे स्वयं ही धोखे में होते हैं। ऐसा नहीं है कि वे जान—बूझ कर धोखा दे रहे थे एक—दूसरे को, उन्हें पता नहीं था, उन्हें होश नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं।

महावीर, बुद्ध, पतंजलि—वे एक अकाव्यात्मक शब्द का प्रयोग करते हैं।

हालाकि यह अच्छा नहीं लगता है, यह नकारात्मक है। वे कहते हैं, ‘हिंसा नहीं’ —बस इतना ही! ‘मैं तुम्हें चोट नहीं पहुचाऊंगा’—इतनी बात पूरी की जा सकती है। फिर भी कोई पक्की गारंटी नहीं है कि तुम चोट अनुभव नहीं करोगे।’मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा,’ बस इतना ही; फिर भी कोई पक्का नहीं है कि तुम चोट अनुभव नहीं करोगे। अभी भी तुम चोट अनुभव कर सकते हो, क्योंकि तुम निर्मित करते हो अपने घाव, तुम निर्मित करते हो अपनी पीड़ा।’मैं उसमें सहयोगी न होऊंगा,’ बस इतना ही कह सकते हैं पतंजलि, ‘मेरा उसमें कोई हाथ न होगा। मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा।’ ‘जब योगी सुनिश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है—अहिसा के इस दृष्टिकोण में कि वह किसी को चोट न पहुंचाएगा—तब जो उसके सान्निध्य में आते हैं, वे सब शत्रुता छोड़ देते हैं।’

ऐसा आदमी जो किसी भी प्रकार से हिंसा का विचार नहीं करता, कल्पना नहीं करता—चेतन, अचेतन जिसकी कोई इच्छा नहीं रहती किसी को चोट पहुंचाने की—उसके सान्निध्य में शत्रुता का त्याग घटित होता है।

लेकिन इससे पहले कि तुम यह निष्कर्ष बनाओ और बहुत से प्रश्न खड़े हो जाते हैं। जीसस को सूली दी गई; शत्रुता का भाव नहीं छोड़ा गया! इसलिए अगर तुम जैनों से पूछो, तो वे नहीं कहेंगे कि जीसस बुद्धत्व को उपलब्ध थे, क्योंकि लोगों ने उनको सूली दी। लेकिन यही तो हुआ महावीर के साथ। उनके बुद्धत्व के बाद उनको पत्थर मारे गए। यही हुआ बुद्ध के साथ—हा, उन्हें सूली नहीं दी गई, लेकिन पत्थर मारे गए, अपमानित किया गया। लोगों ने बहुत कोशिशें कीं उन्हें मार डालने की। तो कैसे समझाएं इसे? जैन और बौद्ध—उनके पास इसके लिए व्याख्याएं हैं। जब जीसस की बात आती है, तो वे कह देते हैं कि वे बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं थे—सीधी व्याख्या कर देते हैं, बात समाप्त हो जाती है। लेकिन यदि महावीर की बात आ जाए तो वे कहते हैं कि महावीर अपने पिछले जन्मों का लेन—देन पूरा कर रहे हैं।

दोनों बातें गलत हैं। दोनों गलत हैं, क्योंकि जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो वह अपने सारे लेन—देन पूरे कर चुका होता है। उसने सभी कर्म समाप्त कर दिए होते हैं; अब कहीं कुछ शेष नहीं रहता। फिर भी घटनाएं हैं. जीसस को सूली दी गई; सुकरात को जहर पिलाया गया; अलहिल्लाज मंसूर की हत्या की गई, बहुत ही क्रूरता से हत्या की गई; महावीर को पत्थर मारे गए, अपमानित किया गया, गौवों के बाहर खदेड़ा गया; बुद्ध को बहुत बार मार डालने की कोशिशें की गईं। तो फिर पतंजलि के इस सूत्र की व्याख्या कैसे हो? यदि यह सूत्र सत्य है तो ये सब घटनाएं नहीं घटनी चाहिए। यदि ऐसी घटनाएं घटती हैं तो केवल दो संभावनाएं हैं. या तो ये सब—अलहिल्लाज मंसूर, जीसस, महावीर, बुद्ध—ये सब बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हैं, सच में प्रतिष्ठित नहीं हैं अहिंसा में, या फिर नियम के बाहर कुछ अपवाद हैं।

कुछ अपवाद हैं। वस्तुत:, जब भी कोई व्यक्ति अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है तो समस्त जीवन—सिवाय मनुष्य के—उसके प्रति बिलकुल अहिंसक हो जाता है। मनुष्य एक विकृत प्राणी है। दर्पण स्वच्छ नहीं है। मनुष्य को छोड़ कर समस्त जीवन… वृक्ष अहिंसक होते हैं बुद्ध पुरुष के प्रति, पशु अहिंसक होते हैं।

ऐसा हुआ कि बुद्ध का एक चचेरा भाई, जो बहुत गहरी ईर्ष्या का भाव रखता था उनके प्रति. व्यर्थ ही, क्योंकि बुद्ध तो किसी के प्रतिद्वंद्वी नहीं थे। लेकिन वह लगातार सोचता रहता, ‘बुद्ध कितने महान हो गए हैं और मैं पीछे छूट गया हूं। मैं कुछ भी नहीं, कोई हस्ती नहीं मेरी।’ उसने हर ढंग से कोशिश की कुछ शिष्य इकट्ठे कर लेने की और स्वयं को घोषित कर दिया कि मैं बुद्ध हूं लेकिन कोई उसकी सुनता न था। निश्चित ही कुछ बुद्ध जरूर इकट्ठे हो गए थे। आखिर वह बुद्ध के बहुत खिलाफ हो गया; उसने उन्हें मार डालने की कोशिश की।

कहा जाता है कि बुद्ध एक पहाड़ी के निकट वृक्ष के नीचे बैठे ध्यान कर रहे थे, और देवदत्त, बुद्ध के चचेरे भाई ने एक बड़ी चट्टान लुढ़का दी पहाड़ी से। पूरी संभावना थी कि बुद्ध कुचल जाते। लेकिन न जाने कैसे चट्टान ने अपनी राह बदल ली, बुद्ध अछूते ही बैठे रहे। किसी ने पूछा, ‘क्या हुआ?’ बुद्ध ने कहा, ‘एक चट्टान ज्यादा संवेदनशील है देवदत्त से, मेरे भाई से; चट्टान ने अपना मार्ग बदल दिया।’

फिर देवदत्त ने एक पागल हाथी बुद्ध के पीछे छुड़वा दिया। वह हाथी पागल था; वह तेजी से दौड़ता हुआ आया। शिष्य भागे बचने के लिए, वे सब कुछ भूल— भाल गए, और बुद्ध मौन—शात बैठे रहे वृक्ष के नीचे। वह हाथी पास आया, फिर कुछ हुआ—वह बुद्ध के चरणों में झुक गया। लोग बुद्ध से पूछने लगे, ‘क्या हुआ?’ उन्होंने कहा, ‘एक पागल हाथी भी उतना पागल नहीं है जितना देवदत्त। इस पागल हाथी में भी थोड़ी समझ शेष है।’

जो प्रसिद्ध मनस्विद मनुष्य के मस्तिष्क पर काम कर रहे हैं और गहरी खोज कर रहे हैं उनमें से एक है देलगादो। उसने इलेक्ट्रोड्स को लेकर एक प्रयोग किया है। कुछ ऐसा ही हुआ होगा जब हाथी ठहर गया और झुक गया। देलगादो ने एक बैल के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड्स लगा दिए। उन इलेक्ट्रोड्स को रेडियो, वायरलेस द्वारा दूर से संचालित किया जा सकता था। हजारों लोग इकट्ठे हुए थे देखने के लिए। उसने दबाया बटन और मस्तिष्क का वह केंद्र सक्रिय हो गया जहां से क्रोध उठता था : बैल क्रोध से पागल हो गया। वह क्रोध से भड़क उठा और दौड़ा देलगादो की ओर’। लोगों की

सांसें थम गईं, क्योंकि मौत सुनिश्चित थी। बस एक कदम की दूरी, देलगादो ने दूसरा बटन दबाया—और अचानक ही कुछ हुआ भीतर, और बैल रुक गया! बस एक कदम की दूरी, मौत एक कदम दूर थी।

देलगादो ने तो ऐसा किया विद्युत उपकरणों द्वारा, लेकिन ऐसा ही कुछ हुआ होगा. बुद्ध ने नहीं किया कुछ, लेकिन तो भी कुछ हुआ—स्व गहरी अहिंसा, एक सहज उगेरणा, कुछ हुआ हाथी के मस्तिष्क में। वह पागल न रहा; उसने समझा। कोई अनुभूति हुई उसको; वह रुक गया, झुक गया।

मनुष्यता अब सम्यक दर्पण नहीं रही है। मनुष्यता उतनी शुद्ध नहीं है जितनी कि अनुगूंज करती घाटियां। मनुष्यता विकृत हो गई है, इसलिए यह संभव नहीं है। मैं पिछले जन्मों को लेकर कोई व्याख्या नहीं खोजता। मैं कोई व्याख्या नहीं करता कि जीसस बुद्ध पुरुष नहीं थे। नहीं, असली बात यह है कि जीवन केवल तभी प्रतिबिंबित कर सकता है जब वह जीवंत हो। आदमी मुर्दा हो गया है। तुम्हारी संवेदनशीलता मर गई है। यदि तुम बुद्ध से मिलने भी आते हो, तो तुम्हें कुछ ज्यादा अनुभूति नहीं होती। तुम कहते हो. बुद्ध भी वैसे हैं जैसे कि कोई और आदमी।

निश्चित ही, हड्डियां वैसी ही हैं और चमड़ी वैसी ही है और शरीर वैसा ही है। परिधि पर सब कुछ वैसा ही है—लेकिन केंद्र पर, वह ज्योति कौन है? लेकिन तुम उसे केवल तभी अनुभव कर सकते हो, जब तुमने उसे अपने भीतर अनुभव किया हो। अन्यथा कैसे तुम उसको अनुभव कर सकते हो? तुम बुद्ध को केवल तभी पहचान सकते हो जब तुमने अपने बुद्धत्व को पहचान लिया हो। वहीं से बनता है सेतु। यदि तुमने अपने भीतर के बुद्धत्व को, अपने भीतर की भगवत्ता को नहीं पहचाना है, तो तुम्हारे लिए असंभव है बुद्ध को पहचानना, उनकी अहिंसा को पहचानना, यह पहचानना कि वे पार जा चुके हैं, वे अब तुम्हारे पागलपन का हिस्सा नहीं हैं।

इसीलिए महावीर को पत्थर मारे गए : उन लोगों ने महावीर को पत्थर मारे जो बिलकुल विकृत हो चुके थे। कोई प्राकृतिक नियम उनके साथ काम नहीं करता; अन्यथा नियम तो बिलकुल निश्चित है। यदि तुम शांत और मौन हो और तुम बुद्ध के पास आते हो, तो अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे भीतर एक बड़ा परिवर्तन घट रहा है। तुम कोई शत्रुता अनुभव नहीं कर सकते।

इसीलिए तो बुद्ध के पास आने में एक डर लगता है। उनसे दूर रह कर तुम शत्रुता का भाव रख सकते हो। यदि तुम उनके सामने आ जाते हो, तो बात कठिन हो जाती है—बहुत कठिन हो जाती है। अगर तुम उनके सान्निध्य में रहो, तो अगर तुम पागल भी हो, तो संभावना यही है कि उनकी मौजूदगी एक चुंबकीय शक्ति बन सकती है; संभावना यही है कि तुम अपने पागलपन के बावजूद परिवर्तित हो जाओ, रूपांतरित हो जाओ। इसीलिए लोग सदा बुद्ध पुरुषों से बचते रहे हैं—महावीर, पतंजलि, जीसस या लाओत्सु से बचते रहे हैं। वे उनके करीब नहीं आते। वे उनसे संबंधित अफवाहें इकट्ठी करते रहते हैं और उन अफवाहों में विश्वास करने लगते हैं, लेकिन वे पास नहीं आएंगे। वे यह देखने नहीं आएंगे कि क्या हो रहा है।

और फिर जब वे आते हैं, तो उन्होंने इतना कूड़ा—कचरा इकट्ठा कर लिया होता है, इतनी ज्यादा गंदगी घिर चुकी होती है उनके आस—पास, कि वे पहले से ही मुर्दा होते हैं। उनके इतने पूर्वाग्रह होते हैं कि उनका दर्पण अब काम ही नहीं करता। उनका दर्पण धूल से ढंका होता है। निश्चित ही एक

दर्पण प्रतिबिंबित करता है, लेकिन यदि वह धूल से ढंका हो तो तुम उसमें देखते रहो पर तुम्हारा चेहरा प्रतिबिंबित न होगा।

पशु, पेड़, पक्षी—उन्होंने भी महसूस किया। ऐसा कहा जाता है कि जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो बिना मौसम के फूल खिल उठे। और ऐसा केवल बुद्ध के साथ ही नहीं हुआ; ऐसा बहुत बार हुआ है। यह कोई कपोल—कल्पना नहीं है। वृक्ष इतना आह्रादित हो गया…! इसीलिए बौद्ध सुरक्षित रखे हुए हैं उस वृक्ष को, बोधि—वृक्ष को, जिसके नीचे बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। कुछ तरंगें उसने—वह साक्षी रहा है संसार की महानतम घटना का। केवल एक वही साक्षी बचा है। उसके पास असली इतिहास है, कि उस रात क्या घटित हुआ जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए।

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि बोधि—वृक्ष संसार का सर्वाधिक बुद्धिमान वृक्ष है। उसमें कुछ ऐसे रसायन हैं जो बुद्धि के लिए नितांत आवश्यक हैं, जिनके बिना बुद्धि का विकास नहीं हो सकता है। दूसरे अनेक वृक्ष हैं, लेकिन बोधि—वृक्ष के समान नहीं हैं। उसमें उन रासायनिक तत्वों की प्रचुर मात्रा है जो मस्तिष्क को बुद्धिमान बनाते हैं। शायद वह संसार का सर्वाधिक बुद्धिमान वृक्ष है। वह साक्षी रहा है बुद्ध के दूसरे ही आयाम में खिल उठने का। उसने अस्तित्व के उच्चतम शिखर— क्षण को जाना है।

लेकिन मनुष्य का दर्पण धूल से ढंक गया है—विश्वासो की धूल, विचारों की धूल, सिद्धांतो की धूल। अभी दो—तीन दिन पहले एक परिवार ने संन्यास लिया। परिवार के छोटे लड़के ने भी संन्यास लिया। मैंने उसे सर्वाधिक सुंदर नामों में से एक नाम दिया—स्वामी कृष्ण भारती। लेकिन वह बोला, ‘नहीं, यह तो लड़कियों जैसा नाम है।’ कृष्ण! वह परिवार जैन है; वे कृष्ण के प्रति कोई भाव अनुभव नहीं करते। वह नाम लड़कियों जैसा लगता है। कृष्ण जरूर जैनियों को लड़कियों जैसे लगते होंगे—उनके वस्त्र पहनने का ढंग, उनका नृत्य, उनका चेहरा, लंबे बाल! यह तो अच्छा है कि वे पुराने दिनों में हुए। अगर वे अभी हुए होते तो किसी सरकार ने काट दिए होते उनके बाल। लंबे बालों और बांसुरी के साथ तो वे हिप्पी लगते। तो वह लड़का कहने लगा, ‘यह नाम। लड़कियों जैसा है। मुझे कुछ और कहें, कोई और नाम दें।’

अगर जैन आए कृष्ण से मिलने, तो वह नहीं पहचान पाएगा। अगर हिंदू मिले महावीर से, तो वह नहीं पहचान पाएगा। विश्वास, धारणाएं, ये सब तुम्हारे आस—पास इकट्ठी हो गई धूल हैं —तुम देख नहीं सकते ठीक से, तुम्हारी दृष्टि खो गई है। अगर तुम मुसलमान हो तो तुम गीता नहीं पढ़ सकते। अगर तुम हिंदू हो तो तुम कुरान नहीं पढ़ सकते—असंभव है—क्योंकि सदा तुम्हारा हिंदू होना बीच में आ जाएगा।

गांधी, जो कि कहा करते थे कि सभी धर्म समान हैं, उन्होंने भी कुरान के वही उद्धरण चुने जो बिलकुल अनुवाद लगते हैं—गीता के अनुवाद मालूम पड़ते हैं; बाकी उद्धरण उन्होंने छोड़ दिए। उन्होंने गीता पढ़ी और कुरान पढ़ी और वे अंश चुन लिए जो उनकी विचारधारा के साथ मेल खाते थे और फिर वे कहते हैं कि सब ठीक है। लेकिन उन्होंने असली अंश, जो विपरीत पड़ते हैं गीता के, जो कुरान को कुरान बनाते हैं, वे उन्होंने छोड़ दिए!

विश्वासों, विचारों, धारणाओं, सिद्धांतो से लदा मन पंगु होता है—गति क़े लिए मुक्त नहीं होता—बंद होता है, बंधन में होता है, गुलाम होता है। और बुद्ध को देखने के लिए, जानने के लिए

तुम्हें एक उन्‍मुक्त मन चाहिए—स्व निर्मल मन चाहिए—कोई बंधन नहीं, कोई पूर्वाग्रह नहीं; कोई विश्वास—धारणाएं उसे घेरे हुए न हों।

यह सूत्र बिलकुल ठीक है : ‘जब योगी सुनिश्चित रूप से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब जो उसके सान्निध्य में आते हैं, वे सब शत्रुता छोड़ देते हैं।’

अचानक एक प्रेम उमड़ आता है—बिना किसी प्रकट कारण के। बस उनकी उपस्थिति काम करती है, उनके होने का ढंग ही ऐसा होता है कि तुम उनके ऊर्जा— क्षेत्र में प्रवेश करते हो, और तुम फिर वही नहीं रह जाते। इसीलिए ऐसे व्यक्तियों के सामने साधारण लोगों को तो सदा ऐसा ही लगता है कि वे किसी भांति सम्मोहित हो जाते हैं। कोई सम्मोहित नहीं कर रहा होता है तुम्हें, तो भी सम्मोहन घटता है। उनकी उपस्थिति ही शीतल होती है। उनकी उपस्थिति तुम्हें शात कर देती है; तुम्हारा भीतरी शोरगुल बंद हो जाता है उनकी मौजूदगी में। तुम अपने को पहले जैसा अनुभव नहीं करते; तुम अपने को बदला हुआ अनुभव करते हो। जब तुम वापस लौट आते हो अपने घर, फिर तुम वैसे ही हो जाते हो, पहले जैसे ही। तब तुम पीछे विचार करते हो कि तुम सम्मोहित हो गए थे या कि क्या हुआ था?

कोई सम्मोहित नहीं कर रहा है, तो भी ऐसा सदा लगता रहा है कि बुद्ध सम्मोहित करते हैं, जीसस सम्मोहित करते हैं। कोई नहीं सम्मोहित कर रहा है तुमको, लेकिन उनकी उपस्थिति ही इतनी शांति देने वाली होती है कि तुम नींद सी अनुभव करने लगते हो। तुम न जाने कब से ठीक से सोए नहीं हो, उनकी उपस्थिति तुम्हें शिथिल करती है, एक विश्राम देती है। उनके ऊर्जा— क्षेत्र की छांव में कुछ जो अप्रकट था प्रकट हो जाता है और जो प्रकट था पीछे चला जाता है। तुम वही नहीं रहते; तुम्हारा सारा ढंग बदल जाता है।

अगर तुम इस प्रक्रिया को समझ सको तो तुम हिंदुओं के शब्द ‘सत्संग’ को समझ सकते हो। बस, बुद्ध पुरुष की मौजूदगी में होना। किसी और चीज की जरूरत नहीं है। पश्चिम करीब—करीब असमर्थ है इसे समझने में कि केवल मौजूदगी ही काफी है। सत्संग का अर्थ है, जिसने सत्य को पाया है, उसकी मौजूदगी में रहना—उसके साथ होना, उसके ऊर्जा— क्षेत्र में होना, उसकी तरंगों को आत्मसात करना।

उस अंतिम रात्रि, जब जीसस अपने मित्रों से विदा ले रहे थे, उन्होंने रोटी के टुकड़े अपने शिष्यों को दिए और कहा, ‘खाओ इसे; यह मैं हूं।’ ऐसा संभव है। जब जीसस जैसा व्यक्ति अपने हाथ में रोटी लेता है, तो वह रोटी फिर वही नहीं रहती; वह दिव्य हो जाती है। और जब जीसस कहते हैं, ‘यह मैं हूं’ तो उनका मतलब यही है। गुरु की मौजूदगी में होना उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण करने जैसा ही है।

असल में पुराने हिंदू शास्त्र कहते हैं कि सदगुरु के साथ होना उसके गर्भ में, उसके अंतर्गर्भ में होना है। वह ऊर्जा— क्षेत्र गुरु का गर्भ होता है। और जब तुम उस गर्भ में होते हो, तब तुम बदलने लगते हो, परिवर्तित होने लगते हो, रूपांतरित होने लगते हो। एक नई अंतस सत्ता का जन्म होता है। गुरु के द्वारा व्यक्ति एक नए जन्म को उपलब्ध होता है—वह ‘द्विज’ हो जाता है। उसका दोबारा जन्म होता है। एक जन्म मिलता है माता—पिता से—वह है शरीर का जन्म। एक और जन्म मिलता है गुरु से—वह है आत्मा का जन्म।

बुद्ध के निकट होना, उनकी मौजूदगी में होना बुद्ध होने के मार्ग पर होना है। किसी और चीज की जरूरत नहीं होती। अगर तुम आत्मसात कर सको उस मौजूदगी को, अगर तुम उस मौजूदगी को अपने में प्रवेश होने दो, अगर तुम चेष्टाविहीन रह सको उस मौजूदगी में, उसे भीतर आने दो, ग्रहणशील रहो, तो सब कुछ अपने आप घटित होगा।

हिंदुओं के पास दो शब्द हैं। एक तो है ‘सत्संग’, जिसे समझना करीब—करीब असंभव है पश्चिमी लोगों के लिए क्योंकि ‘वे कहते हैं कि कोई शिक्षा होनी चाहिए। हिंदू कहते हैं. मौजूदगी पर्याप्त है, किसी और शिक्षा की जरूरत नहीं है। दूसरा शब्द है ‘दर्शन’। उसे समझना भी कठिन है : सदगुरु को देखना भर पर्याप्त है। दर्शन का अर्थ है : देखना।

पश्चिम से लोग आते हैं मेरे पास, वे बहुत से प्रश्न लेकर आते हैं। जब वे यहां कुछ दिन रह जाते हैं तो वे समझ जाते हैं; तब वे अनुभव करने लगते हैं कि प्रश्न व्यर्थ हैं। तब वे आते हैं और कहते हैं, ‘मेरे पास कहने को, पूछने को कुछ नहीं है; बस यहां रहना है।’ उन्हें थोड़ा समय लगता है यह समझने में कि मेरे साथ होना ही पर्याप्त है।

प्रश्न लेकर आना एक बाधा लेकर आना है। प्रश्नों को साथ लाना, बाधाओं को साथ लाना है। बिना प्रश्नों के आना—कुछ पूछना नहीं, मात्र यहां होना—यह है बिना अवरोध, बिना किसी बाधा के आना। तब ऊर्जा बहती है, मिलती है, एक हो जाती है—तुम मेरे अंतर्गर्भ का हिस्सा बन सकते हो, मैं तुममें प्रवाहित हो सकता हूं। लेकिन यदि तुम्हारे पास प्रश्न हैं तो बुद्धि बीच में आ जाती है। जब तुम्हारे पास प्रश्न नहीं होते, तब तुम्हारी अंतस सत्ता उपलब्ध होती है; तुम खुले होते हो, ग्राहक होते हो, संवेदनशील होते हो।

जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्त कर लेता है।

यह और भी कठिन है। जब योगी सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है: ‘सत्यप्रतिष्ठाया।’ तुम्हें शुरुआत से ही सजग रहना है कि जब पूरब के शास्त्र ‘सत्य’ कहते हैं, तो उनका अर्थ केवल सत्य बोलने से नहीं है। नहीं; सत्य में प्रतिष्ठित होने का अर्थ है : प्रामाणिक होना, स्वयं होना—झूठ का, नकलीपन का एक कण भी भीतर न रहे। निश्चित ही, ऐसा व्यक्ति सत्य ही बोलता है, लेकिन उसकी बात नहीं है। ऐसा व्यक्ति जीता है सत्य में—असली बात यह है।

पश्चिम में सत्य का अर्थ है सत्य बोलना, बस इतना ही। पूरब में इसका अर्थ है—सत्य होना। सत्य बोलना तो अपने आप चला आएगा, उसका सवाल नहीं है—वह छाया है—लेकिन सत्य में प्रतिष्ठित होने का अर्थ है पूरी तरह ‘स्वयं’ होना, कोई मुखौटा नहीं, कोई पर्सनैलिटी नहीं, बस तुम जैसे हो प्रामाणिक रूप से वैसे होना।

यह शब्द ‘पर्सनैलिटी’ बहुत अर्थपूर्ण है। यह आता है ग्रीक मूल ‘पर्सोना’ से। पर्सोना का अर्थ होता है मुखौटा। ग्रीक नाटक के कलाकार मुखौटे का उपयोग करते थे जिन्हें ‘पर्सोना’ कहा जाता था। वास्तविकता पीछे छिपी रहती है और पर्सोना ही लोगों के सामने आता है—चेहरे के रूप में।

तो बिना किसी ओढ़े हुए व्यक्तित्व के, बस अपने मौलिक स्वरूप में.. झेन गुरु कहते हैं : ‘अपना चेहरा खोजो—अपना मौलिक चेहरा खोजो।’ यही है ध्यान का कुल अर्थ। वे अपने शिष्यों से कहते हैं, ‘पीछे लौटो, और खोजो वह चेहरा जो तुम्हारे जन्म से पहले था। वही है सत्य।’ तुम्हारे जन्म से पहले! क्योंकि जैसे ही तुम पैदा होते हो, झूठ की शुरुआत हो जाती है। जिस क्षण तुम परिवार का हिस्सा बनते हो, तुम एक झूठ का हिस्सा हो गए। जिस क्षण तुम समाज का हिस्सा बनते हो, तुम एक ज्यादा बड़े झूठ का हिस्सा हो गए। सारे समाज झूठ हैं—सुंदर ढंग से सजे हैं, पर झूठ हैं। तुम्हें खोज लेना है वह चेहरा जो तुम्हारे पास इस संसार में आने से पहले था—वह मौलिक कुंआरापन।

तुम्हें पीछे लौटना है, भीतर जाना है। अपने केंद्र तक पहुंचना है, अपनी अंतस सत्ता तक आना है, जिसके पार जाने की फिर कोई संभावना नहीं रह जाती है। हर चीज को हटाते जाना है : तुम शरीर नहीं हो, शरीर बदलता रहता है; तुम मन नहीं हो, मन एक सतत प्रवाह है—विचार, विचार और विचार—स्व प्रवाह। तुम भावनाएं नहीं हो, वे आती हैं और चली जाती हैं। तुम तो वह हो जो सदा रहता है और देखता रहता है। शरीर आता है और जाता है; मन आता है और जाता है। वह जो सदा मौजूद रहता है पीछे छिपा, वही है सत्य। वही होने का अर्थ है : सत्यप्रतिष्ठाया—वह जो सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है।

‘वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्त कर लेता है।’

यहां तुम लाओत्सु की बात समझ सकते हो : अगर तुम अपने आंतरिक सत्य में प्रतिष्ठित हो जाते हो तो तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं रह जाती, चीजें अपने आप घटती हैं। ऐसा नहीं है कि तुम बस लेटे रहते हो अपने बिस्तर पर और सोए रहते हो; नहीं। लेकिन तुम कर्ता नहीं रहते। तुम सब कुछ करते हो, लेकिन तुम कर्ता नहीं रहते। अस्तित्व ही तुम्हारे माध्यम से करता है। तुम अस्तित्व को उपलब्ध हो जाते हो, एक माध्यम हो जाते हो। जिसे कृष्ण कहते हैं ‘निमित्त’ : समग्र के निमित्त मात्र हो जाते हो—वह प्रवाहित होता है तुमसे और काम करता है। तुम्हें परिणाम की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं; तुम्हें कोई योजना बनाने की चिंता करने की जरूरत नहीं। तुम जीते हो क्षण में, वर्तमान में, और संपूर्ण अस्तित्व तुम्हारा ध्यान रखता है और सब कुछ ठीक ही होता है।

एक बार तुम अपनी अंतस सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाते हो, तो तुम संपूर्ण अस्तित्व में प्रतिष्ठित हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारी अंतस सत्ता समग्र अस्तित्व का एक हिस्सा है। तुम्हारा चेहरा समाज का हिस्सा है और तुम्हारा व्यक्तित्व संसार का हिस्सा है; तुम्हारी अंतस सत्ता समग्र अस्तित्व का हिस्सा है। अपने आत्यंतिक केंद्र में तुम परमात्मा हो। सतह पर तुम चोर हो सकते हो, सतह पर तुम साधु हो सकते हो; भले आदमी हो सकते हो, बुरे आदमी हो सकते हो; अपराधी हो सकते हो, जज हो सकते हो—हजारों तरह के नाटक, खेल—लेकिन गहरे में तुम परमात्मा हो। जब तुम उस भगवत्ता में स्थित हो जाते हो, तो समग्र अस्तित्व तुम्हारे द्वारा काम करने लगता है।

क्या तुम देखते नहीं? किसी पेडू को कोई चिंता नहीं होती फूलों की, वे बस खिलते हैं। किसी नदी को फिक्र नहीं होती सागर तक पहुंचने की, वह कभी पागल नहीं होती और कभी किसी मनस्विद के पास नहीं जाती सलाह—मशविरा करने के लिए। वह बस सहज रूप से पहुंच जाती है सागर तक। तारे घूम रहे हैं। हर चीज चल रही है इतने सहज रूप से, कहीं कोई गड़बड़ी नहीं होती और कभी

कोई भटकता नहीं। केवल आदमी ही चिंताओं का इतना बोझ ढोए रहता है : कि क्या करे, क्या न करे; क्या अच्छा है और क्या बुरा है; मंजिल तक कैसे पहुंचें, प्रतियोगिता में कैसे सफल हों—दूसरों को पहुंचने से कैसे रोकें और सबसे पहले कैसे पहुंचें—कैसे कुछ हो जाएं! बुद्ध ने इसे कहा है तन्हा का रोग, तृष्णा का रोग।

जो सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है उसका होना हो ही गया। अब कोई रोग नहीं बच रहता कुछ होने का; वह हो गया जो होना था। कुछ होने की कोशिश है रोग; अपने में होना है स्वास्थ्य। और अंतस सत्ता अभी इसी क्षण उपलब्ध है अगर तुम भीतर मुड़ जाओ। भीतर देखने भर की बात है।

मैंने एक झेन फकीर के बारे में सुना है। बुद्धत्व को उपलब्ध होने के पहले वह सरकारी दफ्तर में एक छोटा—मोटा अफसर था। वह अपने गुरु के पास आया और वह भिक्षु हो जाना चाहता था, वह त्याग देना चाहता था संसार को। गुरु ने कहा, ‘इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अंतस सत्ता को कहीं भी रह कर पाया जा सकता है। आश्रम में आने की कोई जरूरत नहीं। वहीं रह कर बुद्धत्व उपलब्ध हो सकता है जहां तुम हो। वहीं रहो, वहीं उसको घटित होने दो।’

वह ध्यान करने लगा, और यही ध्यान था—मौन बैठना, कुछ न करना। विचार आते और चले जाते। वह बस देखता रहता, न निंदा करता, न प्रशंसा करता—कोई मूल्यांकन नहीं—केवल देखता रहता उन्हें निर्लिप्त, तटस्थ।

वर्षों बीत गए। एक दिन वह अपने आफिस में बैठा था, कुछ आफिस का काम कर रहा था। अचानक—बरसात के दिन थे—जोर से बिजली कडूकी और एक झटका लगा उसे, और वह अपने अंतरतम केंद्र में उतर गया : और वह हंसने लगा। और ऐसा कहा जाता है कि फिर उसने कभी बंद नहीं किया हंसना। वह हंसते हुए गया गुरु के पास और उसने कहा, ‘बादलों का अचानक गरजना और मैं जाग गया। मैंने भीतर देखा और वह सनातन पुरुष भीतर वहा विराजमान था। खोजता था जन्मों—जन्मों से जिसे, वह भीतर ही बैठा था शांत और तृप्त!’

बादलों का अचानक गरजना। अगर तुम तैयार हो तो कोई भी चीज बहाना बन सकती है। गुरु की एक पुकार, गुरु की एक चोट, गुरु की एक दृष्टि—बादलों का अचानक गरजना—और कुछ हो जाता है।. तुम वही हो जिसे तुम खोजते रहे हो। भीतर मुड़ कर देखने भर की बात है। तुम अपने आत्यंतिक केंद्र में स्थित हो जाते हो। और फिर तुम समग्र के माध्यम हो जाते हो, समग्र तुमसे होकर बहता है—और समग्र के माध्यम हो जाना ही सब कुछ है। फिर और कुछ नहीं बचता। तब तुम्हारी नदी बहती है सागर की ओर, तुम्हारे वृक्ष पर वसंत आ जाता है, फूल खिलने लगते हैं।

‘जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्त कर लेता है।’

तब करने को कुछ नहीं बचता; हर चीज घटती है। ऐसा नहीं कि तुम कुछ करते नहीं—ध्यान रहे इस बात का—समग्र अस्तित्व तुम्हारे माध्यम से करता है; तुम करने वाले नहीं होते।

जब योगी सुनिश्चित रूप से अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है तब आंतरिक समृद्धियां स्वयं उदित होती हैं।

तुम सदा ही खजानों की खोज में रहे हो और वे कहीं मिलते नहीं, और वे मृग—मरीचिकाए सिद्ध होते हैं, और वे दूर दिखते हैं और लंबी यात्राओं के बाद जब तुम वहां पहुंचते हो तो वे ओझल हो जाते हैं—क्योंकि असली खजाना तो तुम्हारे भीतर छिपा है। वह तुम स्वयं हो! और कोई खजाना नहीं है, तुम्हीं हो खजाना।

जब कोई अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है. ‘अस्तेयप्रतिष्ठाया।’ अस्तेय शब्द का ठीक—ठीक अर्थ है—अचौर्य। इस बात को ठीक से समझ लेना है। ईमानदारी शब्द वही अर्थ नहीं रखता। निश्चित ही ईमानदारी एक हिस्सा है अचौर्य का, बहुत से हिस्सों में एक हिस्सा, लेकिन अचौर्य बड़ी अलग बात है। तुम शायद चोर नहीं हो, लेकिन अगर तुम्हें दूसरों की संपत्ति देख कर ईर्ष्या होती है तो तुम चोर हो। अगर एक कार गुजरी करीब से और ईर्ष्या पकड़ गई या महत्वाकांक्षा उठ खड़ी हुई, इच्छा उत्पन्न हो गई कार पाने की—तो चोरी हो गई। कोई अदालत तुम्हें नहीं पकड़ सकती, लेकिन उस परम अस्तित्व की अदालत में तुम चोर हो गए; चोरी हो गई।

अचौर्य का अर्थ है. इच्छारहित मन। क्योंकि इच्छाओं के रहते कैसे तुम अ—चोर हो सकते हो? मन और— और चीजों पर मालकियत करने की कोशिश करता है—और जब भी तुम मालकियत जमाना चाहते तो तुम्हें उसे छीनना होता है किसी दूसरे से। यह चोरी है। तुमने वस्तुत: न भी की हो, लेकिन मन तो कर ही चुका होता है चोरी। अचौर्य का अर्थ है वह मन जो ईर्ष्यालु नहीं है, जो प्रतियोगी नहीं है। और फिर एक बड़ी क्रांति घटती है जब यह अचौर्य आ जाता है तुम्हारे अंतस में, तो अचानक तुम अपने खजाने में उतर जाते हो। क्योंकि जब तुम चोर होते हों—प्रतियोगी, महत्वाकांक्षी, ईर्ष्यालु—तो तुम सदा दूसरों के खजानों की तरफ देख रहे होते हो। और तुम अपना खजाना चूक रहे होते हो। दृष्टि सदा बाहर लगी रहती है और दूसरों के खजानों को देखती रहती है. कौन क्या—क्या लिए है, किस के पास क्या—क्या है। जब तुम और की दौड़ में पड़े होते हो तो तुम उसे चूक रहे होते हो जो तुम्हारे पास पहले से ही है। उसी ‘ और—और’ के कारण तुम हमेशा दौड़ते रहते हो और कभी उस शांत भाव—दशा में नहीं होते जहां कि तुम अपनी अंतस सत्ता को आविष्कृत कर सकते हो।

तुम्हारा अपना खजाना एक सुनिश्चित भाव—दशा में ही पाया जा सकता है। और वह भाव—दशा तभी उपलब्ध होती है, जब तुम ईर्ष्यारहित होते हो, जब तुम इसकी फिक्र नहीं कर रहे होते कि दूसरों के पास क्या है। तुम बंद कर लेते हो अपनी आंखें, संसार कोई महत्व नहीं रखता; और की दौड़ अब कुछ अर्थ नहीं रखती : तब अंतस उदघाटित होता है। और दो तरह के लोग होते हैं. एक वे, जो रुचि रखते हैं ज्यादा इकट्ठा करने में; और दूसरे वे, जिन्हें रस है ज्यादा होने में। अगर तुम्हें और—और इकट्ठा करने में रस है—इकट्ठा करने का विषय चाहे कुछ भी हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—तुम धन इकट्ठा किए जा सकते हो, तुम ज्ञान इकट्ठा किए जा सकते हो, तुम मान—सम्मान इकट्ठा किए जा सकते हो, तुम कुछ भी इकट्ठा किए जा सकते हो, लेकिन यदि तुम्हें इकट्ठा करने में रस है, तो तुम चूक जाओगे। क्योंकि इकट्ठा करने के इस निरंतर प्रयास की कोई जरूरत नहीं है, तुम्हारे पास भीतर मौजूद ही है खजाना।

‘जब योगी निश्चित रूप से अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब आंतरिक समृद्धियां स्वयं उदित होती हैं।’

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठाया वीर्यलाभ:।

जब योगी निश्चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो जाता है तब तेजस्विता की उपलब्धि होती है।

संस्कृत से अनुवाद करना करीब—करीब असंभव ही है। सदियों —सदियों के परिष्कार से, सदियों—सदियों की आध्यात्मिक खोज से, ध्यान से संस्कृत ने एक सुगंध उपलब्ध की है जो किसी और भाषा के पास नहीं है। उदाहरण के लिए, इस ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द का अनुवाद करना असंभव है। शाब्दिक रूप से तो इसका अर्थ है : ब्रह्म जैसी चर्या, परमात्मा जैसा आचरण, परमात्मा की भांति होना। लेकिन साधारणतया इसका अनुवाद किया जाता है : ‘काम—निरोध।’ और दोनों में बहुत बड़ा अंतर है—ब्रह्मचर्य केवल काम—निरोध नहीं है। इसे ठीक से समझ लेना. तुम कामवासना पर रोक लगा सकते हो और हो सकता है तुम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होओ, लेकिन यदि तुम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हो तो तुम्हारी कामवासना अपने आप खो जाती है।

काम—निरोध दमन है, तुम दमन करते हो अपनी काम—ऊर्जा का। और वह दमन कभी रूपांतरण की दिशा में नहीं ले जाता। लेकिन ऐसी विधियां हैं जिनके द्वारा तुम्हारा ब्रह्मरूप तुम्हारे सामने उदघाटित हो जाता है : अचानक कामवासना खो जाती है। ऐसा नहीं कि उसका दमन हो जाता है। उस भगवत्ता में ऊर्जा बिलकुल अलग ही रूप ले लेती है। तुम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हो बिना किसी प्रयास के; अगर कोई प्रयास हो तो दमन हो जाएगा। कामवासना का खो जाना परिणाम है ब्रह्मचर्य का। तो कैसे हों ब्रह्मचर्य को उपलब्ध?

‘जब योगी निश्चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो जाता है…।’

अगर तुम निश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो अहिंसा में, अगर तुम निश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो सत्य में, अगर तुम निश्चित रूप से प्रतिष्ठित हो अचौर्य में, तो बहुत सहज होता है परमात्मा की भांति होना, ब्रह्म जैसी चर्या। तुम ही परमात्मा होते हो। जब तुम दूसरों को कोई चोट नहीं पहुंचा रहे होते हो, तुम कोई जंजीरें नहीं बना रहे होते हो; तुम अपने बंधन काट रहे होते हो, तुम मुक्त हो रहे होते हो, जब तुम कोई दिखावा करने की कोशिश नहीं कर रहे होते हो और तुम प्रामाणिक होते हो, जब तुम अपने को मुखौटों में छिपाने की कोशिश नहीं कर रहे होते हो—तुम सच्चे होते हो अपने आत्यंतिक प्राणों तक—तो काम—ऊर्जा रूपांतरित होने लगती है।

क्या तुमने खयाल किया कि जब तुम हिंसक होते हो तो ज्यादा काम—ऊर्जा अनुभव होती है? असल में पति—पत्नी भली— भाति जानते हैं कि जब वे लड़ते—झगड़ते हैं, तो उस रात वे बहुत प्रेम कर सकते हैं। क्यों होता है ऐसा? हिंसा कामवासना पैदा करती है। जितना ज्यादा हिंसक होता है व्यक्ति, उतना ज्यादा वह कामुक होता है। अहिंसा काम—ऊर्जा को रूपांतरित करती है। यदि तुम कोशिश में हो कि किसी को चोट न पहुंचे, अगर तुम्हें किसी को चोट पहुंचाने में कोई रस नहीं है, अगर तुम में गहन प्रेम है, स्नेह है, करुणा है दूसरों के लिए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारी कामवासना कम हो रही है।

कामवासना एक खास वातावरण में ही रह सकती है. क्रोध, हिंसा, घृणा, ईर्ष्या, प्रतियोगिता) महत्वाकांक्षा—ये तमाम बातें मौजूद हों तो इनके साथ कामवासना बनी रहती है। अगर तुम दूसरी बातो को छोड़ देते हो, तो धीरे— धीरे तुम पाओगे कि कामवासना ने —बल खो दिया है; वह स्नेह बन गई है, प्रेम बन गई है, करुणा बन गई है—वही ऊर्जा ऊपर उठने लगी, ज्यादा ऊंचे तल पर पहुंचने लगी।

कामवासना के दमन से कोई ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। अगर तुम जाओ और देखो उन लोगों को जिन्होंने अपनी कामवासना को दबाया है, तो तुम पाओगे कि वे ज्यादा क्रोधी हो गए हैं, वे ज्यादा हिंसक हो गए हैं। इसीलिए मनुष्य का सारा इतिहास बताता है कि सेनाओं को जबरदस्ती कामवासना के दमन में रखा गया। क्योंकि जब सैनिकों को जबरदस्ती कामवासना के दमन में रखा जाता है, तो वे ज्यादा हिंसक हो जाते हैं : वह ऊर्जा जो कामवासना में निर्मुक्त हो सकती थी, वह निर्मुक्त नहीं होती। असल में मनस्विदों की खोज से पता चला है कि हिंसा और दमित काम—ऊर्जा के बीच एक गहरा संबंध है। सारे हिंसात्मक हथियार—चाकू या खंजर या तलवार—भोंके जाते हैं किसी के शरीर में. यह ऐसा ही है जैसे काम—ऊर्जा प्रविष्ट होती है स्त्री में। दूसरे का शरीर स्त्री बन जाता है और तुम्हारे हथियार लैंगिक प्रतीक बन जाते हैं। अब चाहे यह मशीनगन से निकली गोली हो और तुम दूर खड़े हो, लेकिन बात वही है। जब भी तुम्हारी काम—ऊर्जा का दमन होता है, तो तुम दूसरे तरीके और साधन खोज लेते हो कि दूसरों के शरीर में कैसे प्रविष्ट हों।

तो सैनिकों को प्रेमिकाएं साथ रखने की इजाजत नहीं है। केवल अमरीकी सेना में इजाजत है—वे हर जगह हारेंगे। वे संसार में कहीं ठीक से लड़ नहीं सकते। अमरीकी सैनिक युद्ध नहीं कर सकते। अगर तुम्हारी कामवासना तृप्त है, तो लड़ने की इच्छा मिट जाती है। वे दोनों बातें जुड़ी हुई हैं। इसलिए ऐसा होता है कि जब भी कोई संस्कृति बहुत विकसित हो जाती है तो वह सदा कम विकसित संस्कृति से हार जाती है। भारत हारा हूणों से, तुर्कों से, मुसलमानों से—वे सब बहुत अविकसित जगहों से आए और उन्होंने बहुत ज्यादा सभ्य, विकसित संस्कृति को हरा दिया। जब भी कोई संस्कृति बहुत ज्यादा विकसित हो जाती है तो वह बहुत तृप्त हो जाती है, संतुष्ट हो जाती है। हर चीज इतनी शांति से चल रही होती है तो फिर कौन युद्ध करना चाहेगा? और जो बाहर से आए, वे एकदम जंगली थे, खूंखार थे। बिलकुल असभ्य थे और यौन की दृष्टि से बहुत कुंठित थे। अगर तुम चाहते हो कि सेना बहुत अच्छी तरह लड़े, तो सैनिकों की कामवासना को कुंठित कर दो। फिर वे जी—जान से लड़ेंगे, क्योंकि तब लड़ना यौन का प्रतीक बन जाता है।

ऐसा अभी वियतनाम में हुआ। ऐसा नहीं है कि कम्युनिस्ट जीत गए और अमरीका हार गया, बात केवल यह है कि ज्यादा समृद्ध संस्कृति सदा हार जाती है। अविकसित संस्कृति या गरीब देश, हर ढंग से असंतुष्ट—यौन के लिहाज से बहुत दमन भरी अवस्था वाले—उनकी जीत होगी ही। जब भी एक गरीब देश लड़ता है किसी अमीर देश से, तो अमीर देश ही अंतत: हारेगा। तुम देखते हो. अगर कोई अमीर परिवार गरीब परिवार से लड़ता है, तो अमीर परिवार हारेगा। क्योंकि जब तुम समृद्ध होते हो, संतुष्ट होते हो, तो लड़ने का भाव नहीं रह जाता है; और लड़ाई में तुम कुछ खोने ही वाले हो, तो तुम लड़ना टालते हो। और गरीब के पास खोने को कुछ है नहीं—क्यों वह बचेगा लड़ाई से? असल में वह मजा लेता है लड़ाई का। उसके पास पाने को सब कुछ है, खोने को कुछ नहीं।

और ऐसा ही होता है व्यक्तियों के जीवन में। यदि तुम अहिंसक हो जाते हो, यदि तुम सत्य में स्थित हो जाते हो, यदि तुम अचौर्य में प्रतिष्ठित हो जाते हो, तो अचानक तुम पाते हो कि कामवासना का बल खो जाता है। अब वह पागल आवेश न रहा। तुम चाहो तो उसका सुख ले सकते हो, लेकिन

अब वह पागलपन नहीं रहता। वह ज्यादा सौम्य हो जाता है, और अंततः वह तिरोहित हो जाता है। और जब वह तिरोहित हो जाता है, तो वह ऊर्जा जो कामवासना में बंधी थी, निर्मुक्त हो जाती है। वह ऊर्जा तुम्हारा संचित ऊर्जा—कुंड बन जाती है।

इसीलिए पतंजलि कहते हैं, ‘जब योगी निश्चल रूप से ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब तेजस्विता की उपलब्धि होती है।’

अदभुत ऊर्जा उपलब्ध होती है। ऐसा नहीं कि तुम कोई बड़े खिलाड़ी बन जाते हो, या बड़े मुक्केबाज बन जाते हो; नहीं। उस ऊर्जा का आयाम पूरी तरह अलग होता है। वह ऊर्जा है असंघर्ष की। वह ऊर्जा इस संसार की नहीं है। वह ऊर्जा वस्तुत: पुरुष जैसी नहीं है, वह ऊर्जा स्त्रैण है। जो योगी इसको उपलब्ध हो जाते हैं, वे ज्यादा स्त्रैण हो जाते हैं। बुद्ध को देखो. उनका चेहरा, उनका शरीर—उसकी गोलाई, उसकी सुकोमलता—वह स्त्रैण जान पड़ती है।

हिंदुओं ने बिलकुल ठीक किया है—उन्होंने बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को या राम को कभी दाढ़ी—मूंछ सहित नहीं दिखाया; कभी नहीं। ऐसा नहीं है कि उनमें किसी तरह के हार्मोन्स की कमी थी और उनके दाढ़ी—मूंछ नहीं थी। उनकी दाढ़ी—मूंछ जरूर सुंदर रही होगी, लेकिन हिंदुओं ने वह भाव ही गिरा दिया। क्योंकि दाढ़ी—मूंछ के साथ तो वे पुरुष लगते, और उनकी अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए स्त्रैण भाव— भंगिमा चाहिए : बुद्ध के शरीर की वह गोलाई, वह सुकोमलता। और संगमरमर ने अदभुत रूप से मदद की, संगमरमर उसे एक स्त्रैण गुणवत्ता दे देता है।

नीत्से ने बुद्ध की और जीसस की आलोचना में उन्हें ‘स्त्रैण’ कहा है। उसकी आलोचना बिलकुल बेतुकी है, लेकिन उसने एक बात यह बिलकुल ठीक पकड़ी कि वे स्त्रैण हैं।

जब काम—ऊर्जा तिरोहित हो जाती है, तो वह कहां जाती है? वह बाहर नहीं जाती; वह भीतर एक कुंड बन जाती है। व्यक्ति सहज ही शक्ति और ऊर्जा से भरा हुआ अनुभव करता है। ऐसा नहीं कि वह उसका प्रयोग करता है और लड़ने लगता है। अब तो कोई भाव ही नहीं रह जाता लड़ने का। व्यक्ति इतना शक्तिशाली होता है कि वस्तुत: लड़ना संभव ही नहीं होता। केवल कमजोर व्यक्ति लड़ते हैं। जिन्हें अपनी शक्ति के प्रति आशंका होती है वे लड़ते हैं—यह प्रमाणित करने के लिए कि वे शक्तिशाली हैं। असल में शक्तिशाली व्यक्ति लड़ते ही नहीं। वे पूरी बात को खेल की भांति लेते हैं, बच्चों के खेल की भांति लेते हैं।

जब योगी सुनिश्चित रूप से अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाता है तब अस्तित्व के ‘कैसे’ और ‘कहां से’ का ज्ञान उदित होता है।

जब योगी अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाता है, जब वह अपने सिवाय किसी और चीज पर मालकियत नहीं रखता; वह सम्राट हो सकता है, वह महल में रह सकता है, लेकिन वह उस पर मालकियत नहीं रखता। अगर वह छिन जाए, तो एक हलकी सी तरंग भी न उठेगी उसके मन में।

एक महान योगी के विषय में एक कथा है; उसका नाम था जनक। भारत में उसे बहुत सम्मान से याद किया जाता रहा है सदियों से, और भारत ने उसकी भांति किसी और को इतना सम्मान कभी

नहीं दिया, क्योंकि एक ढंग से वह अनूठा है। बुद्ध ने अपना महल छोड़ा, राज्य छोड़ा; महावीर ने अपना महल और राज्य छोड़ा; जनक ने कभी कुछ नहीं छोड़ा। बुद्ध और महावीर तो हजारों हैं, पूरा इतिहास भरा पड़ा है उनसे—जनक अनूठे हैं। उन्होंने इस राह का अनुसरण नहीं किया। वे महल में रहे; वे सम्राट बने रहे।

ऐसा हुआ कि एक साधक युवक से उसके गुरु ने कहा, ‘अब तुम जनक के पास जाओ। तुम्हारी अंतिम दीक्षा उनके द्वारा संपन्न होगी। जो कुछ मैं सिखा सकता था, मैंने तुमको सिखा दिया है, लेकिन मैं तो एक भिक्षु हूं। मैं कुछ जानता नहीं संसार के विषय में, मैंने उसे त्यागा हुआ है। तुम्हें जाना चाहिए उस आदमी के पास जो संसार के विषय में जानता है। यही तुम्हारी अंतिम दीक्षा होगी। इससे पहले कि तुम त्यागो, तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति से सब सीख लेना चाहिए जो संसार को ठीक से जानता हो। मैं उसे नहीं जानता, इसलिए तुम सम्राट जनक के पास जाओ।’

शिष्य थोड़ा हिचकिचाया, क्योंकि वह तो सब छोड़ देने को तैयार ही बैठा था और उसे भरोसा भी नहीं होता था कि यह जनक प्रज्ञावान पुरुष हो सकता है। अगर वह प्रज्ञावान है, तो फिर क्यों वह महल में रह रहा है? साधारण तर्क की बात है उसे तो त्याग देना चाहिए सब कुछ। उसे किसी चीज पर मालकियत नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि यही मूलभूत बातो में से एक है—सादगी में जीना, अपरिग्रह में जीना, संयम में जीना। तब तो व्यक्ति इतना सरल हो जाता है, इतना सीधा—सादा हो जाता है, तो वह क्यों जी रहा है सम्राट की भांति?

लेकिन जब गुरु ने कहा, तो उसको जाना ही पड़ा। हिचकते हुए, अनिच्छा से वह पहुंचा वहा। शाम को वह पहुंचा; जनक ने उसे निमंत्रित किया दरबार में। बहुत राग—रंग भरा उत्सव चल रहा था वहा। सुंदर स्त्रियां नृत्य कर रही थीं, सुरा—सुंदरी का दौर चल रहा था, और करीब—करीब हर कोई नशे में चूर था। आश्रम से आए युवक को तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, और उसे अपने वृद्ध गुरु पर भी भरोसा नहीं आया कि क्यों उस नासमझ ने उसे यहां भेजा है! किस लिए?

वह इतना घबड़ा गया कि वह तुरंत ही वहा से लौट जाना चाहता था, लेकिन जनक ने कहा, ‘यह तो अपमानजनक होगा। तुम आए हो तो कम से कम एक रात तो रुको, कल सुबह चले जाना। और तुम इतने अशात क्यों हो? थोड़ी देर आराम करो। सुबह हम बात करेंगे कि आप यहां किस काम से आए हैं।’ उस युवक ने कहा, ‘अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं। मैंने अपनी आंखों से देख लिया है कि यहां क्या हो रहा है।’

जनक हंस दिए। उस युवक की आवभगत की गई—अच्छा भोजन खिलाया गया, अच्छी मालिश और स्थान का इंतजाम किया गया, बहुत सुंदर कमरे में ठहराया गया, बहुत मूल्यवान आरामदायक पलंग दिया गया। वह बहुत थका हुआ था, जंगल के आश्रम से पैदल चल कर आया था राजधानी तक। जैसे ही वह बिस्तर पर लेटा, उसने देखा कि एक तलवार बहुत पतले धागे से बंधी ठीक उसके ऊपर लटक रही है। वह बहुत चकित हुआ कि आखिर इस सब का मतलब क्या है! और उसका इतनी अच्छी तरह स्वागत किया गया और अब ऐसा मजाक क्यों! वह सो न सका रात भर, लगातार भय बना रहा। न वह बिस्तर के आराम का आनंद ले सका, न वह महल का कोई सुख ले सका—तलवार लटकी थी उसके ठीक ऊपर।

सुबह सम्राट ने पूछा, ‘आप ठीक से सोए न?’

उसने कहा, ‘कैसे सो सकता था मैं? आप कैसी उलटी—सुलटी बातें कर रहे हैं मुझसे? हर चीज बिलकुल ठीक थी, लेकिन वह जो पतले धागे से तलवार लटक रही थी—किसी भी क्षण गिर सकती थी। हवा का जरा सा झोंका, और मैं तो मारा जाता!’

सम्राट ने कहा, ‘तो तुम आराम से सो नहीं पाए उस बिस्तर पर? वह तो हमारे महल का सर्वाधिक सुंदर पलंग है और वह कमरा जो मैंने तुमको दिया सर्वाधिक ऐश्वर्यपूर्ण है।’

उसने कहा, ‘मुझे याद भी नहीं रहा वह कमरा और वह पलंग। मैंने कभी इतनी तकलीफ नहीं झेली जितनी इस तलवार के कारण।’

सम्राट ने कहा, ‘तब तो बेहतर है कि तुम थोड़ा रुक जाओ। मैं यहां इस महल में हूं, लेकिन तलवार लटकी ही रहती है मुझ पर—मौत की तलवार। और धागा इससे भी ज्यादा बारीक है, और मैं किसी भी क्षण मर सकता हूं।’

जब कोई व्यक्ति मृत्यु का स्मरण रखता है, तो वह कैसे मालिक हो सकता है किसी चीज का? यह राज्य है, महल है, लेकिन मृत्यु हर समय सामने है। तो कैसे कोई मालिक हो सकता है? जब मौत लटकी है सिर पर और तुम उसे याद रखते हो, तो तुम किसी चीज पर मालकियत नहीं करते। तब तुम जानते हो, ‘मैं केवल अपना ही मालिक हो सकता हूं। बाकी हर चीज मौत छीन लेगी।’

‘जब योगी सुनिश्चित रूप से अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब अस्तित्व के ‘कैसे’ और ‘कहां से’ का ज्ञान उदित होता है।’

जब कोई गैर—मालकियत की भाव—दशा में जीता है तो फिर ऊर्जा बाहर की तरफ नहीं जाती। वह बाहर जाती है मालकियत जमाने की इच्छा के कारण। जब तुम जान लेते हो कि किसी चीज पर मालकियत नहीं की जा सकती—तुम संसार में आते हो और चले जाते हो, तुम से पहले संसार मौजूद था, तुम्हारे बाद भी मौजूद रहेगा—किसी चीज पर मालकियत नहीं की जा सकती; मालकियत करने की धारणा ही मूढ़ता की बात है; जिस क्षण तुम इस बात के प्रति जाग जाते हो तो अचानक तुम्हारी पूरी ऊर्जा जो हजारों दिशाओं में बह रही थी संसार पर मालकियत जमाने के लिए, वह भीतर की तरफ बहने लगती है।

और पतंजलि कहते हैं, ‘… तब अस्तित्व के ‘कैसे’ और ‘कहां से’ का ज्ञान उदित होता है।’

और तब तुम जान लेते हो कि तुम कहां से आए हो, तुम कौन हो। तब तुम जीवन के, अस्तित्व के मूल स्रोत का साक्षात्कार करते हो। तब तुम आमने—सामने होते हो उस स्रोत के, उस मौलिक स्रोत के। वह स्रोत है परमात्मा. वही है आदि और वही है अनादि—वही है अल्फा और वही है ओमेगा।

आज इतना ही।


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दीया तले अंधेरा–(झेन,सुफी ओरबोध कथाएं) प्रवचन–1

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दीया तले अँधेरा

(ओशो द्वाराझेन और सूफी बोध कथाओं पर 21 सितंबर से 10 अक्‍टूबर, 1974 तक श्री रजनीश आश्रम, पूना में दिये गये बीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

 ह अंधेरा कब तक रहेगा? जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दीया है, तब तक अंधेरा रहेगा। ज्योति अकेली हो, फिर उसके नीचे कोई अंधेरा नहीं रहेगा। ज्योति सहारे से है। थोड़ी देर को सोचो, ज्योति मुक्त हो गई अकेली आकाश में, उसके चारों तरफ प्रकाश होगा। लेकिन ज्योति दीये के सहारे है। दीया तो ज्योति नहीं है। जितनी जगह दीया घेरेगा, उतनी तो अंधेरे में रहेगी। इसलिए बड़ी विरोधाभासी घटना घटती है। दीया सबको प्रकाशित कर देता है और खुद अंधेरे में डूबा रह जाता है। तुम सब को देख लेते हो, बस खुद ही का दर्शन नहीं हो पाता। तुम सबको समझ लेते हो, बस एक ही अनसमझा रह जाता है–वह तुम स्वयं हो। तुम सबकी सहायता कर देते हो, बस एक ही असहाय रह जाता है–वह भीतर। तुम चारों तरफ संपत्ति के ढेर लगा लेते हो, बस भीतर एक खालीपन, एक निर्धनता रह जाती है।

ओशो

शरीर से तादात्म्य के कारण आत्मिक दीये के तले अँधेरा—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 सितंबर, 1974;

श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

‘पथ के प्रदीप’ में आपका वचन है:

 

‘मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई मनुष्य का अपने प्रति ही अज्ञान है। दीये के नीचे जैसे अंधेरा होता है, वैसे ही मनुष्य उस सत्ता के प्रति अंधकार में होता है जो कि उसकी आत्मा है। हम स्वयं को ही नहीं जानते हैं। और तब यदि हमारा सारा जीवन ही गलत दिशाओं में चला जाता है, तो आश्चर्य करना व्यर्थ है।’

 

भगवान! मिट्टी के दीये तले अंधेरे का इकट्ठा होना तो कुछ समझ में आता है; लेकिन यह आत्मिक दीये के नीचे जो घना अंधकार है, उससे हम बिलकुल अपरिचित हैं। वह क्या है, क्यों है, और कैसे दूर हो सकता है, यह हमें विस्तार से समझाने की कृपा करें।

 

जीवन के कुछ मूलभूत नियम समझ लेने जरूरी हैं। पहला नियम: जो हमें मिला ही हुआ है उसे भूल जाना एकदम आसान है। जो हमें नहीं मिला है उसकी याद बनी रहती है। अभावों का पता चलता है। खाली जगह दिखाई पड़ती है। एक दांत टूट जाये तो जीभ खाली जगह पर बार-बार पहुंच जाती है। जब तक दांत था शायद कभी वहां न गई थी, दांत था तो जाने की जरूरत ही न थी। खालीपन अखरता है। आत्मा से तुम सदा से ही भरे हुए हो। ऐसा कभी भी न था, कि वह न हो गई हो। वह दांत टूटने वाला नहीं। वह जगह कभी खाली नहीं हुई। सदा ही आत्मा रही है और सदा रहेगी। यही कठिनाई है।

जिसका कभी अभाव नहीं हो; उसका स्मरण नहीं आता। जब तक तुम्हारे पास धन हो, तब तक धन की क्या जरूरत? निर्धनता में धन याद आता है। जब तक तुम स्वस्थ हो, शरीर का पता भी नहीं चलता। जब बीमारी आती है तब शरीर…शरीर ही शरीर दिखाई पड़ता है। बीमारी की परिभाषा ही यही है कि जब शरीर का पता चले। स्वास्थ्य की परिभाषा यही है कि जब शरीर का बिलकुल पता न चले। पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति ऐसे होगा जैसे शरीर है ही नहीं। शरीर कभी बीमार होता है, कभी स्वस्थ होता है। आत्मा कभी बीमार नहीं होती, कभी स्वस्थ नहीं होती। आत्मा जैसी है एकरूप, वैसी ही बनी रहती है। उसका तुम्हें पता कैसे चलेगा? उसकी तुम्हें स्मृति कैसे आयेगी? यह पहली कठिनाई है।

इसलिए जन्म-जन्म लग जाते हैं उसे खोजने में, जो तुम्हारे भीतर मौजूद है। बड़ा उल्टा लगता है यह कहना कि जन्म-जन्म लग जाते हैं उसे खोजने में, जिसे खोजने की कोई जरूरत न थी। जो सदा ही मिला हुआ था। जिसे तुमने कभी खोया ही नहीं था। जिसे तुम चाहते तो भी खो न सकते थे। जिसे खोने का कोई उपाय ही नहीं। इस कारण दीये के तले अंधेरा हो जाता है; यह पहली बात।

दूसरी बात: जीवन चौबीस घंटे संघर्ष है। जहां-जहां संघर्ष है, वहां-वहां हमें सजग रहना पड़ता है; वहां डर है। तुम भय के कारण ही सजग होते हो। अगर सब भय मिट जायें, तो तुम सो जाओगे। कोई भय न हो तो तुम पैर तान लोगे, गहरी नींद में चले जाओगे। भय होता है तो तुम जगते हो। भय होता है, तो सुरक्षा के लिए तुम खड़े रहते हो। तुम सोते नहीं। आत्मा के तल पर कोई भय नहीं है। अभय उसका स्वभाव है। शरीर के तल पर सब तरह के भय हैं। अभय शरीर का स्वभाव नहीं है। भय उसका गुणधर्म है। अगर तुम जरा भी वहां सोये तो शरीर से छूट जाओगे। वह संपदा तुम्हारी नहीं है। वह संपदा क्षण भर को ही तुम्हारी है। आई, और गई; वहां तुम्हें जागते ही रहना पड़ेगा।

देखो, जिनकी संपत्ति है वे तो रात सोये रहते हैं लेकिन चोर रात भर जागता है। मैंने सुना है, एक चोर ने एक बार बहुत धन इकट्ठा कर लिया। चोर अक्सर कर लेते हैं। लेकिन रात वह सोता नहीं था। घूम कर चक्कर लगाता था। उसके मित्रों ने कहा, नासमझ! अब तुझे चक्कर लगाने की कोई जरूरत नहीं है। रात भर जागने की कोई जरूरत नहीं है। चोर ने कहा, पुरानी आदत है। और फिर डर भी लगता है कि अगर मैंने चोरी की तो कोई मेरा न ले जाये।

चोर सदा भयभीत होता है। अचोर ही सो सकता है। चोर भयभीत होगा। उसे अच्छी तरह पता है, कि किस तरह दूसरे लोग सो रहे थे तब वह चोरी कर ले गया। उनकी नींद ही तो चोरी का रास्ता बनी।

बहुत बड़ा विचारक हुआ आस्कर वाइल्ड। किसी मित्र ने उससे पूछा, एक किताब मुझे पढ़ने की जरूरत है। बाजार में मिलती नहीं है, लाइब्रेरियों में मौजूद नहीं। मैंने सुना है कि वह किताब तुम्हारे पास है। वाइल्ड ने कहा, निश्चित। लेकिन मैं दूंगा नहीं। मित्र हैरान हुआ। पुराना संबंध! सिर्फ पढ़ने को किताब मांगता हूं, किताब दोगे नहीं? वाइल्ड ने कहा, उसका कारण है। ये सब किताबें मैंने मांग-मांग कर इकट्ठी की हैं। ये सब चुराई हुई हैं। ये जो हजारों किताबें मेरी लाइब्रेरी में दिखाई पड़ती हैं, मैंने एक भी खरीदी नहीं है। अब तुम मुझसे मत मांगो।

चोर सदा डरा होता है। जो उसने किया है वही उसके साथ हो सकता है। तो तुम धन के प्रति तो जागे रहते हो। तिजोरी भरी हो तो तुम होश से बैठे रहते हो। मकान बड़ा हो, तुम पहरा लगा कर बैठे रहते हो। तुम जो भी कमा लेते हो उस पर तो तुम्हें जीते और मरते पहरा देना पड़ता है। कहावत है कि धनी मर जाये तो अपनी संपत्ति पर सांप हो कर बैठ जाता है। कहावत बड़ी अच्छी है। उसका कुल मतलब इतना है, कि जिंदा भी तुम पहरा दोगे, मरकर भी तुम पहरा दोगे।

लेकिन आत्मा की संपदा न तो तुमने चुराई, न तुमने किसी से छीनी। वह संपदा सदा ही तुम्हारी रही है। और वहां कोई भय व्याप्त नहीं होता; तो तुम जागोगे क्यों? जहां भय नहीं वहां तुम जागोगे क्यों? इसीलिए दीये के तले अंधेरा इकट्ठा हो जाता है।

तीसरी बात: जो शाश्वत है, जो सदा है और सदा रहेगा उसके लिए जल्दी भी क्या है? जो क्षणभंगुर है, अभी है और अभी खो जायेगा, वहां बड़ी जल्दी है, बड़ी आपाधापी है। देखो, पूरब और पश्चिम में एक फर्क है। पश्चिम में लोग बहुत तेजी में हैं। रोज नई-नई व्यवस्था करते हैं कि तेज रफ्तार…और तेज रफ्तार कैसे हो जाये। कितनी तेजी से हम पहुंच जायें। कितनी तेजी से काम कर लें। नई विधियां खोजते हैं, नये उपकरण खोजते हैं। और भयंकर तीव्रता में जीते हैं।

पूरब में लोग इतनी जल्दी में नहीं हैं। आहिस्ता चलते हैं। कहीं पहुंचने का कोई बहुत आग्रह नहीं है। पहुंच गये तो ठीक, न पहुंचे तो ठीक। पश्चिम और पूरब के लोग एक दूसरे को समझ भी नहीं पाते। पश्चिम में अगर किसी ने कहा कि मैं पांच बजे मिलने आता हूं तो वह पांच बजे ही मिलने आयेगा। पूरब में किसी ने कहा आता हूं मिलने, तो तुम पक्का मत करना कि वह आज आयेगा, कल आयेगा, कि परसों आयेगा, आयेगा कि नहीं आयेगा। इसका कारण यह नहीं है, कि पूरब कोई विश्वासघाती है। इसका कारण यह है कि पूरब में समय की त्वरा नहीं है।

और गहरे में खोजोगे तो पाओगे, पश्चिम में जो धर्म प्रचलित हैं–ईसाईयत, यहूदी, इस्लाम, वे तीनों धर्म एक ही जीवन को मानते हैं। वे कहते हैं, आगे फिर कोई जीवन नहीं है। बस, यहीं जीवन समाप्त। इससे जल्दी पैदा हो गई। सब खोया जा रहा है। भोग लो, सब जा रहा है हाथ के बाहर। इसके पहले कि निकल जाये, चूस लो, उसका रस ले लो। वह तुम्हारे लिए रुका नहीं रहेगा। अगर तुमने देर-अबेर की, तो तुम्हीं भटकोगे। समय लौट कर न आयेगा।

एक मारवाड़ी ने उन्नीस सौ पचास के एक करोड़ कैलेंडर खरीद लिए। एक पैसे के चार मिल रहे थे। अब उन्नीस सौ पचास के कैलेंडर का कोई उपयोग भी नहीं है। नहीं बिक पाये होंगे। पड़े रह गये थे। तो कोई उससे पूछा कि पागल! माना, कि बहुत सस्ते हैं, एक पैसे के चार मिले, लेकिन उनका करेगा क्या? उसने कहा कि कभी न कभी तो उन्नीस सौ पचास लौट कर आयेगा; तब देखना। तब करोड़ों बरस जायेंगे।

पूरब में लोग वर्तुलाकार समय को मानते हैं। हर चीज फिर लौट कर आयेगी। कोई चीज सदा के लिए नहीं खो जाती। आज खो गई, कल मिल सकती है, परसों मिल सकती है। इस जन्म में खो गई, अगले जन्म में मिल जायेगी। इस जन्म में जवानी को खो दिया, घबड़ाओ मत। बहुत बार मिलेगी। इसलिए तेजी नहीं है, भागदौड़ नहीं है।

पश्चिम में एक ही जन्म की धारणा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक–बस, इतनी ही सत्तर साल की यात्रा है। फिर सदा के लिए समाप्त। इसलिए कितनी ही तेजी से रफ्तार करो, कितनी तेजी से उत्पादन करो, आदमी का कितना समय बच जाये, कि वह जीवन को भोग ले। और आदमी आखिरी दम तक भोगता रहे इसकी व्यवस्था करो। यह सारी धारणा पैदा हुई। यह मैं क्यों कह रहा हूं? यह मैं इसलिए कह रहा हूं, कि जहां समय कम मालूम पड़े वहां तुम जोर से भागोगे, पकड़ोगे। भोगने में उत्सुक हो जाओगे। और जहां समय शाश्वत है वहां कोई जल्दी नहीं। आज न देखा, हर्ज नहीं। कल भी न देखा, हर्ज नहीं। जन्मों-जन्मों न देखा, तो भी हर्ज नहीं। कभी भी देख लेंगे।

आत्मा शाश्वत तत्व है, शरीर शाश्वत नहीं है। इसलिए तुम शरीर को पकड़ते हो, देखते हो, सम्हालते हो, खोजते हो। शरीर के सुखों की चिंता करते हो। इसलिए दीया तले अंधेरा इकट्ठा हो जाता है।

शरीर मरेगा। तुम चाहे स्वीकार करो या न करो। तुम्हारे चित्त में यह तीर छुपा ही है, चुभा ही है कि शरीर मरेगा। आत्मा अमृत है। तुमने जानी हो, न जानी हो; उसका अमृत स्वर तुम्हारे भीतर प्रतिध्वनित हो रहा है। तुम पहचानो, न पहचानो; सुनो, न सुनो। वह स्वर वहां गूंज ही रहा है। जो अमृत है उसे भूलना आसान है। जो मरणधर्मा है उसे भूलना कठिन है। जो मरणधर्मा है उसे जल्दी भोग लो। गणित सीधा और साफ है। आत्मा अमृत है, शाश्वत है। वह संपदा खोनेवाली नहीं है। वहां कभी कोई बीमारी प्रविष्ट नहीं होती। इन सब कारणों के कारण दीये तले अंधेरा है।

बुद्ध कितना ही कहें, ‘जल्दी करो’ तो भी जल्दी नहीं होती। कृष्ण कितना ही समझायें, तुम समझ लेते हो फिर जा कर अपने संसार में लग जाते हो। यह बात इतने लोग समझाते हैं, फिर भी समझ में नहीं आती। शरीर के संबंध में कोई भी नहीं समझा रहा है, फिर भी समझ में आता है कि भोग लो। यह धारा सदा न रहेगी।

ये सारे कारण अगर ठीक से देख लोगे, तुम्हें समझ में आयेगा कि क्यों चेतना की धारा बाहर की तरफ बह रही है और भीतर की तरफ नहीं। क्यों तुम बाहर की तरफ देख रहे हो और भीतर नहीं। क्यों तुम धन खोज रहे हो, पद खोज रहे हो, संसार खोज रहे हो; आत्मा, परमात्मा, मोक्ष नहीं। यह बिलकुल स्वाभाविक घटा है। यह दीया तले अंधेरा बिलकुल स्वाभाविक है। यह वैसे ही है, जैसे साधारण मिट्टी के दीये के नीचे अंधेरा होता है। ऐसे ही तुम्हारे नीचे अंधेरा है।

यह अंधेरा कब तक रहेगा? जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दीया है, तब तक अंधेरा रहेगा। ज्योति अकेली हो, फिर उसके नीचे कोई अंधेरा नहीं रहेगा। ज्योति सहारे से है। थोड़ी देर को सोचो, ज्योति मुक्त हो गई अकेली आकाश में, उसके चारों तरफ प्रकाश होगा। लेकिन ज्योति दीये के सहारे है। दीया तो ज्योति नहीं है। जितनी जगह दीया घेरेगा, उतनी तो अंधेरे में रहेगी। इसलिए बड़ी विरोधाभासी घटना घटती है। दीया सबको प्रकाशित कर देता है और खुद अंधेरे में डूबा रह जाता है। तुम सब को देख लेते हो, बस खुद ही का दर्शन नहीं हो पाता। तुम सबको समझ लेते हो, बस एक ही अनसमझा रह जाता है–वह तुम स्वयं हो। तुम सबकी सहायता कर देते हो, बस एक ही असहाय रह जाता है–वह भीतर। तुम चारों तरफ संपत्ति के ढेर लगा लेते हो, बस भीतर एक खालीपन, एक निर्धनता रह जाती है।

जब तक ज्योति शरीर के सहारे है, जब तक तुमने समझा है कि मैं शरीर हूं, जब तक ज्योति को यह भ्रांति है कि वह दीया, मिट्टी का दीया है; जब तक ज्योति ने साफ-साफ नहीं पहचान लिया कि दीया मिट्टी है और मैं मिट्टी नहीं, आत्मा अग्निधर्मा है, शरीर मिट्टी है…।

तुमने देखा, कि अग्नि का एक स्वभाव है वह सदा ऊपर की तरफ जाती है, ऊपर…ऊपर। तुम दीये को उल्टा भी कर दो, तो भी ज्योति ऊपर की तरफ जायेगी। तुम ज्योति को उल्टा न कर पाओगे। अग्नि का स्वभाव है ऊर्ध्वगमन। इसलिए सारे ज्ञान को उपलब्ध व्यक्तियों ने आत्मा को अग्निधर्मा कहा है। इसलिए जरथुस्त्र को माननेवाले चौबीस घंटे दीये को जलाये रखते हैं मंदिर में। वह सिर्फ इस बात की खबर है कि अग्नि तुम्हारा स्वभाव है। इसलिए सारी दुनिया में अग्नि की पूजा पैदा हुई। हिंदू सूर्य को नमस्कार करते हैं। वह नमस्कार सिर्फ अग्नि के ऊर्ध्वगामी स्वभाव को है।

जिस दिन महावीर को निर्वाण उपलब्ध हुआ उस दिन जैन दीपावली मनाते हैं। महा-निर्वाण हुआ उस दिन वे, उनकी ज्योति दीये से मुक्त हुई, उस दिन करोड़ों-करोड़ों दीये जलाते हैं। हिंदुओं की बजाय जैनों की दीवाली ज्यादा सार्थक है। हिंदू तो लक्ष्मी की पूजा के लिये दीवाली मनाते हैं। बड़ी उल्टी है। तुम अग्नि को भी लक्ष्मी की पूजा में लगाते हो? जो ऊर्ध्वगामी है, उसको भी अधोगामी की तरफ लगाते हो? तुम दीये भी जलाते हो तो भी संसार को प्रकाशित करने के लिये।

जैनों की दीवाली ज्यादा अर्थपूर्ण है। वे इसलिए मनाते हैं दीवाली, कि उस रात महावीर महानिर्वाण को उपलब्ध हुए। अमावस की रात महावीर ने ठीक रात चुनी। बुद्ध ने पूर्णिमा की रात ज्ञान उपलब्ध किया, पर महावीर ने ज्यादा ठीक रात चुनी। अमावस की अंधेरी रात! सब तरफ अंधकार है और महावीर प्रकाश हो गये। उस अंधकार में वह प्रकाश, ठीक विरोध के कारण प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ा। एक दीया जलाओ, तो जब पूर्णिमा की रात हो, उसका कुछ पता भी न चलेगा। अंधेरी अमावस में एक दीया जलाओ, उसकी रोशनी बड़ी प्रगाढ़ होगी।

जैनों की दीवाली ज्यादा सार्थक है, लेकिन कोई जैन उसको मनाता नहीं। सब जैन हिंदुओं की दीवाली मना रहे हैं। कब उन्होंने भी लक्ष्मी की पूजा शुरू कर दी, कहना मुश्किल है। मन तो हिंदुओं का ही है। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। वे भी धन की ही पूजा कर रहे हैं। आदमी जैसा है, वह सभी चीजों को मिट्टी की तरफ नियोजित कर देता है। यही कारण है कि हमारी चेतना बाहर की तरफ देखती है। यह कुछ स्वाभाविक है।

बच्चा पैदा होता है, तो स्वाभाविक है, कि पहले बाहर देखे। जैसे ही बच्चे का जन्म है तो वह आंख खोलेगा, बाहर का संसार दिखाई पड़ेगा। कान खुलेंगे, बाहर की ध्वनियां सुनाई पड़ेंगी। हाथ फैलायेगा, मां को छुयेगा, स्पर्श करेगा, बाहर की यात्रा शुरू हो गई। फिर प्रतिपल की जरूरतें हैं। बच्चे को भूख लगेगी तो रोयेगा, चिल्लायेगा। भूख भीतर तो नहीं भर सकती है। बाहर से भरनी पड़ेगी। प्यास लगेगी तो रोयेगा। पानी तो बाहर से मांगना पड़ेगा। भीतर तो कोई जल के स्रोत नहीं हैं। बाहर में धीरे-धीरे निमज्जित होता जायेगा। धीरे-धीरे बाहर ही सब कुछ हो जायेगा। भीतर की कोई याद ही न आयेगी। तुम भूल ही जाओगे कि तुम भी हो।

प्यास ही नहीं है, जिसको प्यास लगती है वह भी है। भूख ही नहीं है, जिसको भूख दिखाई पड़ती है, वह भी है। यह हाथ, जो तुम्हें छूता है यही नहीं है, तुम्हीं नहीं हो, जिन्हें छूता हूं, इस हाथ के भीतर जो छिपा है, जिसके बिना हाथ हिल भी न सकेगा वह भी है। वह धीरे-धीरे भूल जायेगा। तुम उसके आदी हो जाओगे। और वह इतना शांत है कि उसका तुम्हें पता भी न चलेगा। उसकी आवाज इतनी धीमी है, कि इस बड़े कोलाहल में जो बाहर हो रहा है, वह आवाज खो जायेगी। ऐसे ही है, जैसे कोई बाजार में धीमे-धीमे गीत गाता हो।

दो फकीर रास्ते से गुजरते थे। अचानक एक फकीर ने कहा कि सुना? अजान का समय हो गया। मस्जिद से अजान की आवाज आई। सांझ का वक्त! उस दूसरे फकीर ने कहा, हैरान कर दिया तुमने। इस बाजार के कोलाहल में, जहां हजारों लोग भाव कर रहे हैं, चीजें बेच रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, जहां कुछ समझ में नहीं आता, तुम्हें अजान मस्जिद की कैसे सुनाई पड़ी? उस दूसरे फकीर ने कहा, ‘जिस तरफ ध्यान लगा हो, वह कहीं भी सुनाई पड़ जायेगा।’ उसने कहा, ‘देख, तुझे मैं प्रत्यक्ष प्रमाण देता हूं।’ खीसे से एक रुपया निकाला, जोर से रास्ते पर पटका। खन की आवाज हुई। वे सब जो बड़ा शोरगुल मचा रहे थे, दूकानदार, ग्राहक, चिल्लानेवाले सब एकदम दौड़ पड़े।

रुपया! उन सबका ध्यान, आवाज वे कहीं भी लगा रहे हों, लेकिन रुपये पर लगा है। उसी के लिए तो सारी आवाज चल रही है। उन्हें अजान सुनाई न पड़ी, जो कि रुपये की आवाज से बहुत तेज थी। रुपये की आवाज तत्क्षण सुनाई पड़ गई। वहां ध्यान लगा है। भीतर तो सतत रुपये के लिए धुन चल रही है। उसका जाप चल रहा है। वही तुम्हारा महामंत्र है।

तुम वही देख पाते हो जिस तरफ तुम्हारी वासना दौड़ रही है। तुम वही सुन पाते हो जिस तरफ तुम्हारे कान लगे हैं। तुम वही पकड़ पाते हो जो तुम चाहते हो।

एक बड़ा चित्रकार शास्त्रीय चित्रों के संबंध में एक सभा में बोल रहा था। उसने कोई दो घंटे तक चित्रकला की बड़ी सूक्ष्मतम गहराइयों में प्रवेश किया। चित्रकला के बड़े सूक्ष्म पहलू उघाड़े और समझाये। मंत्रमुग्ध थे लोग। और अंत में उसने पूछा कि कोई सवाल? कुछ पूछने को न था। क्योंकि उसने करीब-करीब जो भी पूछा जा सकता था, सब कह दिया था। लोग तो चुप रहे, लेकिन एक बूढ़ी औरत खड़ी हो गई। उसने कहा, एक सवाल है। इस फर्श को साफ करने के लिए किस पॉलिश का उपयोग किया गया है? वह जिस हाल में सभा हो रही थी, इसमें कौन सा तेल लगाया गया है, कि इतनी चमचमाहट मालूम हो रही है?

चित्रकला की लंबी कथा, चित्रों के रहस्य का सारा निवेदन व्यर्थ गया। यह स्त्री पूरे वक्त फर्श को ही देखती रही होगी। और इसने सोचा कि यह आदमी रंगों और चित्रों के संबंध में इतना जानता है कि फर्श पर कौन सा तेल लगाकर इसको चमकाया गया है, जरूर जानता होगा। यह औरत घर में फर्श चमकाने में लगी रहती होगी। कुछ औरतें हैं जिनका दिमाग इसी में खराब हो जाता है। वे फर्श ही चमकाती रहती हैं। उनको खुद को चमकाने का मौका ही नहीं आता। वे घर की ही सफाई में लगी रहती हैं। उन्हें भीतर की सफाई का समय ही नहीं मिलता।

पर जिस तरफ ध्यान लगा हो, वह बात तत्क्षण समझ में आ जाती है। तुम चूंकि बाहर की तरफ में ध्यान लगाये हुए हो, बाहर समझ में आता है।

कब तुम भीतर की तरफ ध्यान लगाओगे? क्या होगा? क्या बुद्ध तुम्हें, बुद्धपुरुष तुम्हें भीतर की तरफ ध्यान लगवा सकते हैं? अगर लगवा सकते, तो यह बात कभी की घट गई होती। कोई तुम्हारे ध्यान को भीतर की तरफ नहीं लगवा सकता, जब तक कि तुम बाहर से ऊब न जाओ। जब तक कि तुम बाहर से ऐसे विपन्न न हो जाओ, इतने क्षुब्ध न हो जाओ, बाहर इतना व्यर्थ न दिखाई पड़ने लगे, कि तुम खुद ही पूछो कि कोई और यात्रा भी है? कि बाहर की यात्रा समाप्त हुई।

लेकिन अभी वह घड़ी नहीं आई, अन्यथा तुम भीतर झांक कर देख लेते। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, बड़ी कठिनाई है ध्यान लगाने में। कठिनाई जरा भी नहीं है। अभी बाहर की वासना नहीं मरी, वही कठिनाई है। और समाज ने जैसा तुम्हें ढांचा दिया है, उसमें वह बाहर की वासना मर नहीं पाती।

इसे थोड़ा समझना। यह थोड़ा कठिन है। समाज ने तुम्हें जो ढांचा दिया है, उसके कारण बाहर की वासना न तो तृप्त हो पाती है और न मर पाती है। तृप्त हो जाये तो मर जाये। क्योंकि सभी तृप्ति तुम्हें ऊबा जाती है। अगर तुम ऐसे समाज में रहते हो, जहां स्त्रियां बुरका ओढ़े हुए हैं, तो हर स्त्री जो रास्ते से निकलेगी उसमें तुम्हारी उत्सुकता होगी। वह चाहे भीतर कुरूप हो, लेकिन बुरका उत्सुकता जगायेगा। पश्चिम में लोग स्त्रियों में इतने उत्सुक नहीं हैं। समुद्र तट पर स्त्रियां नग्न लेटी रहती हैं। पास से लोग गुजर रहे हैं, कोई देख भी नहीं रहा है। किसी को प्रयोजन नहीं है। स्त्री उघड़ा हुआ सत्य हो गई है। अब उसमें कुछ छिपाने को नहीं है।

पूरब के लोग ज्यादा चालबाज थे। घूंघट कुरूप स्त्री को भी सुंदर बनाये रखता है। रस कायम रहता है। और तुम्हारे समाज में सब चीजों पर घूंघट डाल दिया है। जहां भी तुम जाओ वहां ही कुछ खुला नहीं है। सब छिपा हुआ है। उस छिपे होने के कारण जिंदगी भर तुम सिर फोड़ते हो लेकिन ऊब नहीं पाते। रस कायम रहता है। अगर एक स्त्री से छुटकारा हो जाये, तो दूसरी स्त्री में रस आ जाता है। दूसरी से छुटकारा हो, तो तीसरी में आ जाता है। और मन यह कहे ही चला जाता है कि तुम्हें अभी वह स्त्री नहीं मिली, जिससे तृप्ति मिलेगी; जल्दी वह स्त्री मिलेगी।

बुद्ध ऊब गये। बाप की भूल थी। क्योंकि बाप ने सारी सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर दीं। बुद्ध का जन्म हुआ तो ज्योतिषियों ने कहा कि यह लड़का या तो तीर्थंकर होगा, बुद्धपुरुष हो जायेगा और या चक्रवर्ती सम्राट होगा। स्वभावतः बाप ने सोचा कि तीर्थंकर होने में क्या सार है? भिक्षु संन्यासी होने में क्या रस है? चक्रवर्ती सम्राट हो तो मेरे अहंकार को रस होगा। सारी दुनिया का राजा बन जायेगा। तो बाप ने ज्योतिषियों से पूछा कि तुम मुझे बताओ कि मैं इसे तीर्थंकर होने से कैसे रोकूं?

बस, यहीं भूल हो गई। अगर मुझसे पूछा होता तो मैं कहता कि सब स्त्रियों पर घूंघट डाल दो। सब स्त्रियों को मुसलमान बना दो। जहां भी यह जाये, दरवाजा बंद पाये। जहां भी रास्ता मिले, वहीं लिखा हो भीतर झांकना मना है। इसको संसार में भोगने मत देना। थोड़ा-सा जाने देना और ज्यादा अटका लेना। बिलकुल भी मत रोकना। क्योंकि उससे आदमी आत्महत्या कर लेता है। इसे इतना तो भोजन देते ही रहना कि जिंदा रहे, लेकिन पूरा भी मत दे देना। क्योंकि पूरा मिलते ही आदमी ऊब जाता है। आधे-आधे में लटकाये रखना।

तो बुद्ध शायद घर छोड़कर न भागे होते। लेकिन ज्योतिषियों ने सीधे गणित की बात कही। जिंदगी सीधे गणित को मानती नहीं। जिंदगी बड़ी तिरछी है। उसकी चाल सीधी नहीं है, बड़ी रहस्यपूर्ण है। वह गणित जैसी–दो और दो चार होते हैं, ऐसी नहीं है। कभी-कभी दो और दो तीन होते हैं; कभी दो और दो पांच होते है, कभी दो और दो कितना ही जोड़ो जुड़ते ही नहीं। जिंदगी बड़ी रहस्यपूर्ण है, पहेली भरी है।

ज्योतिषियों ने कहा कि सब सुंदरतम स्त्रियां इकट्ठी कर दो राजमहल में। इसे कोई कमी न रहने दो। न रहेगी कमी, न दौड़ेगा खोज में। इसके आसपास साधारण लोगों को आने ही मत दो। न यह कभी बीमार को देखे, न कभी बूढ़े को देखे, न कभी मुर्दे को देखे। क्योंकि न जीवन में मृत्यु दिखाई पड़ेगी, न सवाल उठेगा। न सवाल उठेगा, न यह खोज पर जायेगा। इसके बगीचे के फूल-पत्ते भी सूखने के पहले अलग कर दो। क्योंकि हो सकता है पूछे कि यह फूल कैसे सूख गया? शायद उससे संकेत मिल जाये और पूछने लगे कि क्या मैं भी आज जो फूल जैसा खिला हूं, कल फूल जैसा सूख जाऊंगा? तो इसे सूखे फूल मत देखने दो। सर्दी का अलग महल बनाओ, जहां गर्मी रहे। गर्मी का अलग महल बनाओ, जहां सर्दी रहे। वर्षा के लिए अलग इंतजाम करो।

तो बुद्ध के पिता ने तीन महल बनाए। उन तीनों में अलग-अलग आयोजन किया। बुद्ध जवान हो गये तब तक उन्होंने बूढ़ा आदमी नहीं देखा, बीमार आदमी नहीं देखा, मुर्दा नहीं देखा। उन्हें पता ही नहीं था कि कोई मरता है। फूल सूखने के पहले हटा दिये जाते। पत्ते गिरने के पहले तोड़ दिए जाते और समस्त सुंदरतम लड़कियां सारे राज्य की उनके आसपास इकट्ठी कर दीं।

बस, यही उपद्रव हो गया। वे ऊब गये जल्दी ही। मन हर चीज से ऊब जाता है। संसार से नहीं ऊब पाता क्योंकि संसार तुम्हें मिल ही नहीं पाता, ऊबोगे कैसे? धनी ऊब सकता है धन से; गरीब कैसे ऊबेगा? गरीब को तो रस बना रहता है। समाज ने ऐसा ढांचा बनाया है जिसमें तुम्हें जरा-जरा सी बूंद टपकती मिलती है जीवन की। कभी तुम भरपेट नहीं जीवन को ले पाते हो। भरपेट ले लो, छुटकारा हो जाये। और सारा समाज समझाता है, कि यह बुरा है। अब यह बड़ा मजा है, कि जिस-जिस को तुम कहते हो बुरा है, उसी-उसी में रस पैदा होता है। जिस चीज में किसी को भी रस न हो, उसको भी तुम कह दो यह पाप है, उसमें रस आ जायेगा।

एक कैथलिक पुरोहित–शराब पीने की मनाही है, शराब पी नहीं है कभी–शराब में बड़ा रस था। जो भी न भोगा हो उसमें रस होता है। क्योंकि उसका अभाव खलता है। शराब कभी पी ही नहीं थी। उसमें बड़ा रस था, बड़ा परेशान था। चौबीस घंटे बस शराब का ही खयाल आता था, कि लोग न मालूम कैसा मजा ले रहे हैं। रास्ते पर शराबी झूमता निकलता है। पता नहीं भीतर कैसी झूम चल रही है। मस्ती चल रही है। कौन सी प्रसन्नता है? कौन सा आनंद छलका पड़ रहा है? गीत गाता निकलता है। उदास चेहरे हंसते हैं। जो कभी चल भी नहीं सकता था, वह भी नाचता मालूम पड़ता है। बुझे-बुझे मुरझाये चेहरे पर रौनक आ जाती है। पता नहीं शराब भीतर क्या करती है। चौबीस घंटे वह शराब के लिए ही सोचता था। अंततः उससे न सहा गया, तो उसने शराब चोरी से चख ली। बड़ा आनंद आया। आनंद इतना आया कि उसने सोचा कि अब यह चोरी कब तक चलाऊंगा? तो वह कैथलिक ईसाई से, प्रोटेस्टेंट ईसाई हो गया क्योंकि वहां शराब की पाबंदी नहीं थी। वहां दिल खोल कर शराब पीने लगा।

कुछ दिन बाद उसने अपनी डायरी में लिखा, कि जो मजा कैथलिक होकर शराब पीने में था, वह प्रोटेस्टेंट होकर नहीं। उसने लिखा कि अब मैं समझा, कि वही चीज आनंदपूर्ण हो सकती है, जिसको समाज पाप कहता है।

व्यर्थ की चीज भी आनंदपूर्ण हो जायेगी अगर पाप कह दी जाये। पाप में जैसा रस है वैसा पुण्य में कहां? छोटे बच्चों से पूछो। घर के पके हुए आम वह रस नहीं देते, जो पड़ोसी की दीवार छलांग लगा कर कच्चे आमों के खाने में आता है। निश्चित ही सवाल मिठास का और खटास का नहीं है, सवाल निषेध का है। तुम उस बच्चे को कहो कि तुम पैसे ले लो, बाजार से खरीद लो। तुम समझ ही नहीं रहे हो बात को। बाजार से तो आम खरीद लिए जायेंगे, लेकिन कैथलिक होकर शराब में जो मजा है, वह प्रोटेस्टेंट होकर कहां? बाजार से आम तो रोज ही खरीद कर आ जाते हैं; वह बात नहीं है। तुम समझ ही नहीं पा रहे कि बच्चा रस किस बात का ले रहा है। बच्चा रस ले रहा है इस बात का कि उसने प्रतिबंध तोड़ा, नियम तोड़ा, स्वतंत्रता की घोषणा की। वह मालिक हुआ। तुम उसे रोक न पाये। सारी दुनिया रोकने की कोशिश कर रही थी, न रोक पाई।

मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा एक छोटे से पौधे को खींच रहा था। आखिर उसने खींच लिया। मैंने उससे कहा, ‘तूने गजब किया। तेरी अभी इतनी ताकत नहीं है। फिर भी तूने पौधा खींच लिया!’ और उसने कहा, ‘यह भी तो देखिए, सारी दुनिया उस तरफ लगी थी। सारी पृथ्वी और मैं अकेला। सारी दुनिया उस तरफ लगी थी खींचने में और फिर भी मैंने खींच लिया।’

अहंकार को रस मिलता है नियंत्रण तोड़ने में। अहंकार को रस मिलता है सीमा के पार जाने में। अहंकार निर्मित होता है विरोध में। तुमने जितने प्रतिशोध बनाये, उतना अहंकार पैदा किया। और तुमने जहां-जहां कहा, मत जाना, वहां-वहां तुमने बुलावा दिया है। जितने तुम्हारे निषेघ हैं, उतने ही प्रगाढ़ तुम्हारे निमंत्रण हैं। इसलिए छुटकारा नहीं हो पाता। जा भी नहीं सकते पूरे।

अब क्या कठिनाई है आम मन की? तुम स्त्री को प्रेम भी करोगे और पूरा कर भी न पाओगे। पूरा करते, तुम ऊब जाते। तुम प्रेम भी करते हो, करने से बच भी नहीं सकते। क्योंकि पूरा प्रवाह जीवन-धारा का कामुकता से भरा है। तुम प्रेम करोगे भी। न करोगे तो वही-वही सोचोगे। सारा चित्त, मन, वासना के आसपास घूमने लगेगा। स्वप्न भर जायेंगे उसी से। कविता लिखने लगोगे, चित्र बनाने लगोगे, सब तरफ स्त्री दिखाई पड़ने लगेगी। जहां नहीं है, वहां भी दिखाई पड़ने लगेगी। तुम्हारा मन स्त्री से लिप्त हो जायेगा, धक्के मारेगा।

अगर स्त्री को भोगोगे तो पूरा न भोगोगे। क्योंकि भोगते वक्त सब बुद्ध, महावीर तुम्हारा पीछा करेंगे। उनके वचन तुम्हें सुनाई पड़ेंगे। क्या पाप कर रहे हो? कैसा अपराध कर रहे हो? कहां उलझे हो कीचड़ में, छूटो, भागो, मुक्त होओ। यही तो बंधन है। तुम्हें सब ज्ञान उसी वक्त याद आयेगा, जब तुम्हें स्त्री मिलेगी। स्त्री न मिले तो स्त्री याद आयेगी। स्त्री मिले तो ज्ञान याद आयेगा। तुम स्त्री को भी आधा-आधा भोग पाओगे।

वह जो कुनकुनी-कुनकुनी बुद्धि है वह छुटकारा नहीं पा सकती। तुम पूरे कहीं भी नहीं हो। मैं तुमसे कहता हूं: पूरा भोग लो और तुम्हें छुटकारा हो जाएगा। तुम बाहर हो जाओगे। तब तुम समझ पाओगे कि बुद्ध के कहने का क्या अर्थ है; उसके पहले नहीं। तुम भोजन करते हो, तब तुम डरते-डरते करते हो क्योंकि सब चिकित्सक याद आते हैं, जो कहते हैं कि ज्यादा मत! वे निषेध बन कर खड़े हैं।

गुरजिएफ ने संस्मरण लिखा है, उसे कोई फल खाना प्रीतिकर था। इतना ज्यादा प्रीतिकर था, कि उसके कारण वह अक्सर बीमार पड़ता। पेट में दर्द होता। कच्चा जंगली फल! आखिर उसके दादा ने, एक दिन टोकरी भर कर वह फल ले आया। और उसने कहा, ‘आज तू खा, जितना खा सके।’ गुरजिएफ ने पूछा, ‘जितना खा सकूं?’ जितना तू खा सके। और वह दादा डंडा ले कर उसके पास बैठ गया। जब वह पूरा खा चुका और घबड़ाने लगा तो उसके दादा ने कहा, ‘आज पूरा ही करना है। टोकरी पूरी खतम करनी है।’ उसने कहा, लेकिन मुझे अब वमन की हालत हो रही है। उसने कहा, ‘वह वमन हो जाये, उसकी फिक्र नहीं लेकिन टोकरी पूरी करनी है, नहीं तो डंडा है मेरे पास।’ आज हालत उल्टी हो गई। रोज डंडा फल न खाने के लिए था–कि फल खाया, कि डंडा पड़ा। आज डंडा फल खाने के लिए था।

उसका मन भागने लगा। वह खा रहा है, लेकिन फल बेस्वाद मालूम पड़ने लगा। वह खा रहा है, लेकिन फल अब तिक्त हो गया। वह खा रहा है, लेकिन अब उलटी आने की हालत पैदा हो गई। और दादा है, कि डंडा हिला रहा है कि तू इस टोकरी को पूरा कर। किसी तरह उसके दादा ने टोकरी पूरी करवा दी। गुरिजएफ ने लिखा है, ‘फिर मैं सत्तर साल जीया। फिर, फिर भूल कर वह फल मैंने…मुझे दिखाई भी पड़ जाये, तो मेरे पेट में दर्द होता है। क्योंकि वमन हुई, दस्त लगे। कोई आठ दिन तक तकलीफ रही, बुखार रहा, लेकिन उस फल से छुटकारा हो गया।’

गुरिजएफ का दादा बुद्ध के बाप के ज्योतिषियों से ज्यादा होशियार और कुशल था।

तुम्हें जीवन में ऊब नहीं आई है। अभी भी रस कायम है। अभी भी आशा बनी है। अभी भी तुम सोचते हो कि मिल जायेगा सुख वहां। अब तक नहीं मिल पाया, क्योंकि तुमने ठीक से कोशिश नहीं की है। अब तक नहीं मिल पाया, क्योंकि तुम धीमे-धीमे चल रहे हो। अब तक नहीं मिल पाया, कि दूसरे लोग चालाक हैं, वे तो पा रहे हैं। तुम सीधे-सादे हो, तुम नहीं पा रहे हो। अभी तुम्हें यह नहीं दिखाई पड़ा, कि वहां रस ही नहीं है। चाहे तुम तेज चलो, चाहे धीमे, चाहे तुम चालाकी करो, चाहे मत करो। जहां रस नहीं है, वहां रस पाया नहीं जा सकता। तुम रेत से तेल न निचोड़ पाओगे। तुम आकाश-कुसुम की तलाश में हो। वह फूल कहीं है ही नहीं।

लेकिन यह तुम्हें कैसे दिखाई पड़े? यह मेरे कहने से दिखाई पड़ता तो बड़ी आसान बात थी। जिंदगी इतने आसान रास्ते नहीं मानती। यह तुम्हें अनुभव से देखना पड़ेगा। तुम्हें पीड़ा से गुजरना ही होगा। तुम्हें उस सीमा तक जाना पड़ेगा, जहां तुम्हारे सब सुख, दुख हो जाएं।

इसे स्मरण रखो: जहां तुम्हारे सब सुख दुख हो जायें, वहीं संन्यास का जन्म है। और वहीं से दीये के नीचे का अंधेरा मिटना शुरू होता है। क्योंकि तब रोशनी भीतर लौटने लगती है। तब यह यात्रा समाप्त हुई। बाहर कुछ भी नहीं है। परिपूर्ण मन से यह जान कर, कि बाहर कुछ भी नहीं है, फिर तुम पूरे के पूरे भीतर लौट आते हो।

पूरे बाहर चले जाओ। डर क्या है? भयभीत किससे हो? भय के कारण बाहर नहीं जा रहे। बाहर न जाने के कारण बाहर में रस बना हुआ है। रस बना है, तो आशा जगी है। आशा जगी है, तो भीतर न मुड़ पाओगे। आधे-आधे हो तुम सब जगह। तुम न मालूम कितनी नावों पर सवार हो। तुम सीढ़ी पर ऊपर भी जाना चाहते हो, नीचे भी जाना चाहते हो। तुमने एक पैर नीचे की तरफ रखा हुआ है, एक पैर ऊपर की तरफ रखा हुआ है। तुम्हारा जीवन बड़े व्यर्थ के संकट में अटका हुआ है।

मैं तुमसे कहता हूं: तुम्हें पाप में रस है, तुम पूरे पापी हो जाओ। तुम उसमें ही पूरे डूबो। अभी तुम पुण्य की चिंता छोड़ दो। लेकिन तुम अपने को ही धोखा देते हो। तुम कहते हो कि दोनों सम्हालना ज्यादा ठीक है। थोड़ा पुण्य भी सम्हाले रखो, और थोड़ा पाप भी सम्हाले रखो। वेश्या के घर भी जाते रहो, मंदिर में दान भी करते रहो। शराब भी पीते रहो, मंदिर में जाकर कसमें भी खाते रहो। संकल्प करते रहो कि अगले वर्ष सब ठीक कर लेंगे, सब छोड़ देंगे। बस, एक ही साल की बात और है। कि आज का ही सवाल है, कल से तो सब ठीक कर लेना है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने एक बार कसम खा ली कि अब शराब नहीं पीना है। कुछ भी हो! शराबघर के सामने आया, बड़ी बेचैनी होने लगी। पर उसने कहा कि कुछ भी हो जाये, शराब मैं पीने वाला नहीं। कोई बीस कदम आगे तक गया, फिर उसने अपनी पीठ ठोंकी और कहा, ‘शाबाश नसरुद्दीन! इतनी हिम्मत की कि शराबघर के आगे से निकल गया और भीतर न गया। अब इस खुशी में तुझे पिलवाते हैं।’ तब उसने जाकर दुगुनी पी ली।

सभी कसमें खाने वालों के साथ यही हो रहा है। मंदिर में कसम खाते हो ब्रह्मचर्य की, उसी क्षण स्त्री इतनी सुंदर दिखाई पड़ने लगती है, जितनी कसम के पहले न थी। तुम्हारी कसमें भी स्वाद को जगाने का उपाय तो नहीं? स्त्री में रस खो रहा होता है, तो तुम ब्रह्मचर्य की कसम खा लेते हो। उससे रस वापिस लौट आता है। भोजन से ऊबने लगते हो, तो उपवास कर लेते हो। उससे रस लौट आता है। सभी विपरीत चीजें रस को जन्माती हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, कि पति-पत्नी को एक ही कमरे में नहीं रहना चाहिए। उससे रस क्षीण होता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, कि उन्हें दो अलग कमरों में रहना चाहिए और चौबीस घंटे मिलना-जुलना नहीं चाहिए। उससे रस क्षीण होता है।

इसलिए पति-पत्नी एक दूसरे से ऊब जाते हैं। परेशान हो जाते हैं। पत्नी को कभी-कभी मायके चले जाना चाहिए। उससे रस वापिस लौट आता है। जिस चीज से तुम ऊबने लगो, उससे विपरीत करने से स्वाद लौट आता है। तुम्हारा जीवन ऐसे ही है जैसे मिठाई खाने वाला नमकीन भी खाता है। नमकीन से मीठे का रस वापिस लौटता है। विपरीत से जीभ साफ हो जाती है।

तुम भोजन करते हो। और मैं देखता हूं इधर, कि जो ज्यादा भोजन करनेवाले लोग हैं, अक्सर उपवास में उत्सुक हो जाते हैं। जिन्होंने ज्यादा खा लिया है, अब उपवास के सिवाय कुछ बचता भी नहीं है करने को। उपवास से उनके खाने की वृत्ति फिर वापिस लौट आती है। बहुत कामी-चित्त के लोग ब्रह्मचर्य में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि काम शिथिल हो जाता है, घबड़ा जाते हैं। ब्रह्मचर्य फिर से रस दे देता है। जैसे घड़ी का पेंडुलम बांये से दांये तरफ जाता है, दांये से बांये तरफ आता है। जब वह दांए जा रहा है, तब तुम्हें पता नहीं है, बांये आने की शक्ति जुटा रहा है। जितनी लंबी झूल लेगा दांये तरफ, उतनी ही लंबी झूल लेगा बांये तरफ।

तुम्हारा चित्त ऐसे ही द्वंद्व में भटकता है। तुम पूरे भाव से संसार को भोग लो, उसी क्षण मुक्त हो जाओगे। संसार इतना व्यर्थ है कि आश्चर्य है कि उसमें रस कायम कैसे रह जाता है; उसमें रस कायम रह जाता होगा, तो उसका कारण एक ही है कि तुमने पूरी आंख खोलकर भी नहीं देखा।

एक स्त्री ने जाकर एक दिन पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाई कि मेरे साथ बहुत अभद्र व्यवहार हुआ है। एक आदमी ने मुझे रास्ते पर पकड़ लिया और मेरा चुंबन लिया; भरी दुपहरी, बाजार खुला, दूकानों पर लोग काम कर रहे, सड़कें चलतीं-फिरतीं–सुपरिटेंडेंट ने कहा, कैसा आदमी था? उसका हुलिया लिखवाओ। कितना लंबा था? कैसे कपड़े पहने था? कैसी शक्ल थी? उस स्त्री ने कहा, यह मुझे कुछ भी पता नहीं। सुपरिटेंडेंट ने कहा, हैरान किया तुमने। भरी दुपहरी है, अंधेरा नहीं है, कोई आदमी ने तुम्हें पकड़ा, चुंबन लिया और तुम यह भी न देख पाईं कि उसकी शक्ल कैसी है? कपड़े क्या पहने है? ऊंचाई-लंबाई क्या है? उस स्त्री ने कहा, ‘बात यह है, कि जब भी कोई मेरा चुंबन लेता है तो मैं आंख बंद कर लेती हूं।’ स्त्रियां अक्सर कर लेती हैं।

तुम संसार में तो हो, लेकिन आंख बंद करके या आधी आंख खोल कर। तुम संसार का हुलिया नहीं पहचान पाते, राग-रंग नहीं समझ पाते। तुम हो तो संसार में, लेकिन पूरे-पूरे नहीं। और तुम सोचते हो कि यह तुम्हारी धार्मिकता है। क्योंकि तुम पूरे-पूरे नहीं हो। और जिस दिन तुम पूरे-पूरे हो जाओगे उस दिन तुम हंसोगे, कि कैसी मूढ़ता है! संसार पाप नहीं है, अज्ञान है।

इस बात को बहुत ठीक से समझ लो। मैं संसार को पाप नहीं कहता क्योंकि जिन-जिन ने उसे पाप कहा है, उन सबने तुम्हारा रस बढ़ाया है। संसार पाप नहीं है, मूढ़ता है। इसलिए संसार को छोड़ना नहीं है; संसार को जानना है। संसार तुम्हारे त्याग से नहीं मिटेगा। त्याग से तो संसार का रस वापिस लौट आयेगा। जो खो गया रस, वह फिर जीवित हो जायेगा। संसार त्याग से नहीं मिटेगा, संसार ज्ञान से मिटेगा।

यह बहुत क्रांतिकारी फर्क है। संसार अगर पाप है, तो उसे छोड़ने में तुम्हारा अहंकार बढ़ता है। और जिससे तुम्हारा अहंकार बढ़ता है, तुम उससे कैसे छूटोगे? मैं तुमसे कहता हूं कि संसार मूढ़ता है। उससे अहंकार बढ़ाने का कोई भी कारण नहीं। उससे तुम सिर्फ मूढ़ सिद्ध होते हो। उससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि तुमने आंख खोलकर देखा भी नहीं, कि संसार का हुलिया क्या है, ढंग क्या है, यह संसार क्या है! तुम पुलिसथाने में भला रिपोर्ट लिखाने पहुंच गये हो। तुम भला किसी सदगुरु के पास पहुंच गये हो और कहते हो, छुटकारा दिलाओ इस संसार से; लेकिन कोई तुम्हें छुटकारा नहीं दिला सकता, तुम्हारी खुली आंखों के अतिरिक्त। भरपूर नजर से इसे देख लो। आंख बंद क्यों करते हो?

पर आंख बंद करने के पीछे जाल है। सबने समझाया है कि यह बेकार है। तुम्हारी खोपड़ी में ये विचार बैठ गये हैं कि संसार बेकार है, क्या भोगना! तो जब तुम भोगते हो, आंख बंद कर लेते हो। इसलिए पूरा भोग नहीं पाते। पूर्ण भोग त्याग बन जाता है। तुम्हें जिस चीज में रस हो, तुम किसी की मत सुनना। तुम उस रस को पूरा ही कर लेना। जिस दिन तुम पूरा करोगे उस दिन तुम पाओगे, कि तुम कैसी व्यर्थता में लगे थे।

संसार व्यर्थ हो जाये, तत्क्षण अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है। तब मिट्टी का दीया बेकार हुआ। तब रोशनी सब तरफ गिरती है। दीये के नीचे का अंधेरा मिटता है। इसे समस्त ज्ञानियों ने आत्मज्ञान कहा है। लेकिन आत्मज्ञान के पहले एक शर्त है, और वह है ‘संसार-ज्ञान।’ संसार एक विद्यापीठ है, एक अनुभव का विस्तार है। उस अनुभव को तुम कच्चा-कच्चा क्यों लेते हो? उसे पकने क्यों नहीं देते, कि वह खुद गिर जाये? कच्चे फलों को तोड़ना पड़ता है। तोड़ने से फल को भी घाव लगता है, वृक्ष को भी घाव लगता है। पके फल चुपचाप गिर जाते हैं। उन्हें तोड़ना भी नहीं पड़ता।

आज ही सुबह मैं देख रहा था। बादाम के वृक्ष पर पत्ते पक गये हैं। पका पत्ता ऐसा गिरता है, वृक्ष को भी पता नहीं चलता, पत्ते को भी पता नहीं चलता। चुपचाप गिर जाता है। कहीं कोई घाव नहीं छूटता। जिस दिन संसार का ज्ञान ठीक-ठीक हो जाता है–पक गये! और पका हुआ त्याग ऐसा है, जैसे पका हुआ पत्ता; पका हुआ वृक्ष। कहीं कोई खबर नहीं होती। तब तुम जाकर शोरगुल न मचाओगे, कि मैंने त्याग कर दिया। यह कच्चे टूट गये फलों का लक्षण है। तब तुम जाकर डुंडी न पीटोगे गांव में कि ‘देखो, मैंने त्याग कर दिया।’ तब तुम किसी से न कहोगे कि ‘मेरी शोभा यात्रा निकालो। कि मैंने त्याग कर दिया है। देखो, मैंने सब संसार छोड़ दिया।’

अगर सच में ही तुम्हें अनुभव हो गया है कि संसार व्यर्थ है, तो क्या तुम कहोगे कि मैंने उसे छोड़ दिया है? क्या तुम्हारे भीतर त्याग की अस्मिता निर्मित होगी? तुम रोज अपने घर के बाहर कचरा फेंकते हो; क्या तुम मोहल्ले में जाकर खबर करते हो, कि कचरे का त्याग कर दिया? आज फिर किया, फिर से छोड़ा। अगर तुम ऐसा करोगे, तो मुहल्ले के लोग तुम्हें विक्षिप्त समझेंगे। मुहल्ले के लोग समझेंगे कि कचरा भी छोड़ते हो, इसका अर्थ हुआ कि कचरे में बड़ी पकड़ है। जब भी तुम किसी त्यागी को पाओ, जो त्याग में रस ले रहा हो, तो समझ लेना कि अधूरा छूट गया, कच्चा टूट गया। और जो कच्चा टूटा है, उसे वापिस लौटना पड़ेगा। पके बिना छुटकारे का कोई मार्ग नहीं है।

नीत्शे का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है ‘राइपननेस इज ऑल।’ पक जाना सब कुछ है। मैं भी तुमसे यही कहता हूं, कि पक जाना सब कुछ है। समय मत खोओ, पको। परिपक्व हो जाओ। सुनी हुई बातों के कारण नहीं, अपने ही अनुभव से पाओ कि व्यर्थ क्या है! तब छोड़ना भी नहीं पड़ता। तुम्हें पता भी नहीं चलता कब छूटना शुरू हो गया। व्यर्थ छूटता चला जाता है। जैसे-जैसे व्यर्थ छूटता है, सार्थक उभरता है, निर्मित होता है। व्यर्थ के हटते ही रोशनी भीतर लौटनी शुरू होती है।

यही प्रयोजन है इस वचन का।

मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई, मनुष्य का अपने प्रति ही अज्ञान है। दीये के नीचे जैसे अंधेरा होता है, वैसे ही मनुष्य उस सत्ता के प्रति अंधकार में है, जो कि उसकी आत्मा है। हम स्वयं को नहीं जानते। और तब यदि हमारा सारा जीवन ही गलत दिशाओं में चला जाये, तो आश्चर्य करना व्यर्थ है।

तुम गलत कामों को तो बदलने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम यह कभी नहीं देखते कि गलत काम तुमसे पैदा हो रहे हैं। तुम एक गलत काम को बदलोगे, तुमसे दूसरा गलत काम पैदा हो जायेगा।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं मुझे सिगरेट पीनी छोड़नी है। मैं उनसे कहता हूं कि सवाल तुम्हारा है। तुम्हारा सिगरेट पीना छुड़ा लूंगा, कल तुम इसकी जगह और कोई परिपूरक खोजोगे। तंबाकू खाओगे, सुंघनी सूंघोगे, तुम कुछ न कुछ करोगे। क्योंकि सवाल सिगरेट पीने का नहीं है। यह सिगरेट पीना ऊपर से आ गया कृत्य नहीं है, तुममें लगा फल है। इसको तुम तोड़ दो, दूसरा फल लगेगा। तुम अपने कृत्यों को बदल कर क्या करोगे? तुम अपनी आत्मा को जानने की कोशिश करो। जिस दिन तुम अपने को जानोगे, तुम्हारे कृत्य बदलने शुरू हो जायेंगे। लेकिन अक्सर लोग कृत्य को बदलने में लगते हैं क्योंकि वह आसान है। उसमें कोई अड़चन नहीं है।

तुम सात बजे सो कर उठते हो, पांच बजे उठ सकते हो; दो-चार, आठ दिन परेशानी होगी। अगर जिद्दी स्वभाव के हुए, थोड़ी लट्ठ प्रकृति के हुए, दो, चार, आठ दिन में पांच बजे उठने लगोगे। थोड़ी हठवादिता रही, दंभी आदमी हुए, उठने लगोगे पांच बजे। लेकिन तुम्हीं तो उठोगे न पांच बजे? सात बजे तुम उठते थे, पांच बजे भी तुम ही उठोगे। जल्दी उठने से क्या फर्क हो जायेगा? लेकिन तुम सोचते हो, हो जायेगा।

मुल्ला नसरुद्दीन एक लड़की के प्रेम में था। सभी प्रेमी अपने प्रेम की प्रशंसा करते हैं। उस लड़की से कह रहा था कि ‘सुबह उठते ही तेरा नाम लेता हूं।’ तो उस लड़की ने कहा, ‘यही तो तुम्हारा भाई कहता है।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘लेकिन एक बात खयाल रखना, मैं उससे पहले सो कर उठता हूं।’

पहले सोकर उठकर भी तुम नाम लोगे भगवान का इससे क्या फर्क पड़ता है? सात बजे लेते कि पांच बजे लेते, तुम्हीं लोगे न? सात और पांच से तुममें क्या फर्क पड़ता है? कोई भी फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यह आसान है। कृत्य को बदलना आसान है। क्योंकि कृत्य ऊपरी बात है–कपड़े बदलने जैसा है। यह पहना, दूसरा पहन लिया।

स्वयं को बदलना असली सवाल है। लेकिन स्वयं को बदलने की पहली शर्त है कि दीये के तले का अंधेरा मिटे। वहां अंधेरा है, जहां तुम हो। वहां तुम जाओगे तो सदा अंधेरा पाओगे। समस्त शास्त्र कहते हैं, कि भीतर प्रवेश कर के बड़े प्रकाश का अनुभव होता है। लेकिन तुम आंख बंद करो, सिर्फ अंधेरा दिखाई पड़ेगा। यह कोई शाब्दिक बात नहीं है जो मैं कह रहा हूं, कि दीया तले अंधेरा है। समस्त वेद, उपनिषद, कुरान, बाईबिल, धम्मपद सभी का एक–एक बारे में सहमति है, कि भीतर अनंत प्रकाश है। लेकिन तुम जाओ, आंख बंद करो, जैसे ही आंख बंद करते हो, अंधकार है।

क्या मामला है? कि ये सारे लोग भ्रांति में थे? तुम जब भी आंख बंद करते हो, अंधेरा है। और ये सब चिल्लाये चले जाते हैं, अलग-अलग देशों में पैदा हुए लोग, अलग-अलग समयों में, एक दूसरे से कोई संबंध भी नहीं है, एक दूसरे से सीखने का उपाय भी नहीं है, लेकिन समस्त शास्त्र कहते हैं, कि भीतर परम प्रकाश है। थोड़ा सोचना कि क्या होगा कारण?

परम प्रकाश भीतर है; लेकिन अभी तुम जहां खड़े हो, वहां अंधेरा पड़ रहा है। अभी तुम्हारी सारी रोशनी बाहर जा रही है। भीतर कुछ भी नहीं बचती। अभी तुम ऐसे हो, कि सारी गंगा सागर की तरफ बही जा रही है, गंगोत्री में कुछ नहीं बचता। गंगोत्री खाली हो जाती है। पानी भाग रहा है–बाहर की तरफ, बाहर की तरफ। दूर जा रहा है अपने से। भीतर सब रिक्त होता जा रहा है। और ऐसा अगर होता रहा, तो कितना ही प्रकाश तुम्हारे भीतर हो, अंधकार हो जायेगा।

वैज्ञानिक कहते हैं, कि हमारा जो सूरज है, यह चार हजार साल में बुझ जायेगा। क्योंकि रोशनी बाहर जा रही है। विराट है, पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है, अनंत क्षमता का है, लेकिन वह भी चुक जायेगा। चार हजार साल में सूरज भी खाली हो जायेगा। क्योंकि प्रकाश बाहर चला जा रहा है। तुम सूरज से भी बड़ी क्षमता के हो। कबीर ने कहा है, जैसे हजारों सूरज एक साथ जल जायें, ऐसा वहां प्रकाश है। लेकिन वह भी चुका देते हो तुम। बाहर…बाहर…बाहर…खाली होते जाते हो। जैसे-जैसे खाली होते हो, वैसे-वैसे दीनता लगती है। बच्चे को देखो, बड़े भाव से भरा हुआ पैदा होता है, जैसे सम्राट है। और बूढ़े को देखो, थका-हारा, टूट गया।

जिब्रान की एक छोटी सी कहानी है। एक लोमड़ी सुबह-सुबह उठी। उसने अपनी छाया देखी, सुबह का सूरज ऊग रहा था। उसकी छाया बहुत बड़ी थी। उसने कहा, ‘आज तो एक ऊंट मिले खाने को तभी हल होगा।’ इतनी बड़ी छाया थी। एक ऊंट से कम में पेट न भरेगा। फिर दोपहर तक उसने ऊंट की तलाश की। अब लोमड़ी को कहीं ऊंट मिले! और मिल भी जाये, तो लोमड़ी करेगी क्या? लेकिन दोपहर तक भूखी हो गई, थक गई। फिर उसने दुबारा नीचे छाया की तरफ देखा, सूरज सिर पर आ गया था। अब छाया बहुत छोटी पड़ रही थी। उसने कहा, ‘अब तो एक चींटी भी मिल जाये तो भी काफी है।’

सभी बच्चे ऐसे भरे हुए पैदा होते हैं। सुबह छाया बड़ी लंबी पड़ती है। बूढ़े होते-होते सब सिकुड़ जाता है। ऊंट की आशा लेकर चलते हैं, चींटी भी मिलती नहीं है। अब तो एक चींटी भी मिल जाये तो बहुत है। सुबह ऊंट भी मिलने से काम चलनेवाला नहीं है। सभी बच्चे बड़ी महत्वाकांक्षा लेकर संसार में चलते हैं। और सभी बूढ़े सिर्फ टूटे हुए खिलौने लेकर समाप्त होते हैं। सब सपने पैरों तले रूंदे हुए। सब इंद्रधनुष टूटे हुए। बूढ़े की असली पीड़ा न तो बुढ़ापा है, न मृत्यु है। बूढ़े की असली पीड़ा है, सब सपनों का टूट जाना। सब महत्वाकांक्षायें व्यर्थ सिद्ध हुईं। जो भी पाना चाहा वह व्यर्थ गया। मिला तो भी व्यर्थ गया, न मिला तो भी व्यर्थ गया।

जीवन बड़ा अनूठा है। यहां सभी हार जाते हैं। जीतता यहां कोई भी नहीं। जो जीते हुए दिखाई पड़ते हैं, वे भी हार जाते हैं। जो हारे हुए हैं, वे तो हारे हुए हैं ही। यहां पराजित और विजेता सब बराबर हो जाते हैं। मृत्यु जैसी समाजवादी और कोई घटना नहीं है। वह बिलकुल परम साम्यवादी है। सबको बराबर कर देती है। सब लिखा-पढ़ा साफ हो जाता है। जैसे-जैसे जीवन उतरने लगता है, वैसे-वैसे लगता है सब व्यर्थ गया। इसके पहले अगर तुम सजग हो जाओ, कि यह जीवन का स्वभाव ही है व्यर्थ जाना; बाहर तुम संपदा को पा ही न सकोगे। और तुम जो भी खोजोगे, अगर भीतर तुम गलत हो, तो तुम्हारी सब खोज गलत होगी। यात्रा-पथों का सवाल नहीं है, यात्री का सवाल है।

मुझसे लोग पूछते हैं कि सही मार्ग क्या है? उनसे कहता हूं, तुम मार्ग की फिक्र छोड़ो। सही यात्री गलत मार्ग से भी पहुंच जायेगा। और गलत यात्री सही मार्ग पर भी क्या करेगा? तुम्हारी आंखों में अगर नशा हो, तो तुम जो भी देखोगे, जहां भी देखोगे, सब गलत होगा।

मुल्ला नसरुद्दीन और उसका जुड़वां भाई, दोनों का जन्मदिन था। तो दोनों ने सोचा, जायें किसी होटल में, खायें, पीयें, मौज करें। दोनों ने एक से कपड़े पहने, एक सी टाई लगाई, एक से रंग का कोट, एक सा जूता, एक सा रूमाल खोंसा, दोनों पहुंचे। मिठाई खाई, भोजन किया, शराबघर में पहुंचे। एक से ग्लासों में एक सी शराब बुलाई। एक शराबी सामने बैठा आंखें मीड़-मीड़ कर उनको देखने लगा। कई बार आंखें मीड़ के देखा, तो नसरुद्दीन हंसा। उसने कहा, ‘परेशान न होओ। नशे के कारण तुम्हें गलत दिखाई पड़ रहा है, ऐसा मत सोचो। या एक का दो दिखाई पड़ रहा है, ऐसा भी मत सोचो। हम दो जुड़वां भाई हैं।’ उस शराबी ने फिर से आंख मीड़ी और कहा कि ‘तुम चारों!’ उसको चार दिखाई पड़ रहे हैं।

तुम्हारी आंख में अगर मोह है, तुम जहां भी देखोगे वहीं संसार है। संसार नहीं है सवाल, मोह सवाल है। तुम परमात्मा को भी देखोगे, वहां भी संसार दिखाई पड़ेगा। तुम्हारी आंख से मोह खो जाये, तुम जहां भी देखोगे, पाओगे परमात्मा है। असली सवाल बाहर क्या है? यह नहीं है। असली सवाल: कौन है भीतर? किस रास्ते जाते हो, व्यर्थ; हिंदू, कि मुसलमान, कि ईसाई, कि बौद्ध, कि जैन–सब व्यर्थ। रास्ता सवाल नहीं है, यात्री सवाल है।

तुम हो असली सवाल। और तुम्हारी दो स्थितियां हैं। एक तो स्थिति है कि प्रकाश बाहर जाता हुआ–भीतर अंधेरा; और दूसरी स्थिति है, प्रकाश भीतर आता हुआ और भीतर कोई अंधेरा नहीं। जिस दिन तुम भीतर प्रकाश से भर जाते हो, उस दिन तुम जहां भी जाओगे वहीं प्रकाश है। उस दिन तुम जहां भी जाओगे वहीं परमात्मा है। उस दिन तुम जहां देखोगे वहीं ब्रह्म। उस दिन तुम जहां झांकोगे वहीं उसे पाओगे। जीसस ने कहा है, ‘तोड़ो लकड़ी को और पाओगे तुम मुझे। उठाओ पत्थर को, मैं ही छिपा हूं।’ लेकिन यह किसके लिए कहा है? तुम लकड़ी तोड़ोगे, ईश्वर को पाओगे? कुछ भी न पाओगे। लकड़ी और टूट गई। पत्थर उठाओगे, ईश्वर को दबा हुआ पाओगे? असंभव।

तुम जहां भी जाओगे, जो तुम्हारी दशा है उसी की प्रतिध्वनि पाओगे। संसार दर्पण है। तुम अपने को ही देखोगे और कुछ देखने का उपाय नहीं। और दर्पण को तोड़ने में मत लग जाना। उससे कोई फर्क न पड़ेगा। मैंने सुना है, एक कुरूप स्त्री थी। वह जहां भी दर्पण देखती, तोड़ देती। लोग उससे पूछते कि ऐसा तू क्यों करती है? तो वह कहती, ‘क्योंकि दर्पण के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं।’

दर्पण किसी को कुरूप नहीं करते। दर्पण तो वही झलका देते हैं, जो तुम हो। तुम्हारे सब संबंध–पत्नी, पति, बेटे, पिता, मां, मित्र, शत्रु, समाज, संसार, तुम्हीं को झलकाता है। सभी दर्पण हैं। जहां-जहां तुम देखते हो कुरूपता, वहीं से तुम भागते हो, दर्पण तोड़ते हो। दर्पण तोड़ने से क्या होगा? अपने को बदलो। लेकिन अपने को बदलने का स्मरण ही तब आता है, जब रोशनी भीतर की तरफ जानी शुरू हो जाती है।

दो यात्रायें हैं प्रकाश की; या बाहर की तरफ, या भीतर की तरफ। और जो गहनतम घटना घटती है, वह यह है, कि जैसे ही प्रकाश भीतर आना शुरू होता है, जैसे ही तुम आंख बंद करते हो और ध्यान भीतर आता है…।

कब आयेगा ध्यान भीतर? जब बाहर कोई वासना न हो। वासना ध्यान को आकर्षित करती है। वह ध्यान का ऑबजेक्ट है, विषय-वस्तु बन जाती है। उपवास करो, भोजन पर ध्यान जायेगा। कभी नहीं जाता था भोजन पर। उपवास के दिन भोजन पर जायेगा। मंदिर में बैठो, ध्यान दूकान पर जायेगा। क्यों ऐसा होता है? जिस चीज की भी मन में वासना है, चाह है, जब तुम उसे छोड़ते हो, तो वह सारी प्रगाढ़ता से ध्यान को आकर्षित करती है। आंख बंद करते हो, भीतर ध्यान क्यों नहीं जाता? क्योंकि अभी बाहर चाह कायम है। निर्वासना हुए बिना ध्यान न होगा।

क्या करोगे? साधु-संत समझाते हैं, वासना छोड़ो। काश, इतना आसान होता! यह ऐसे ही है, जैसे किसी को बुखार चढ़ा है, तुम बड़े ज्ञानी हो, उसको कहो, ‘बुखार छोड़ो!’ औषधि बताओ कुछ! यह तो वह भी चाहता है कि बुखार छोड़ दे। लेकिन छोड़े कैसे? तुम कितना ही कहो कि तुम्हीं बुखार को पकड़े हुए हो, बुखार तुम्हें नहीं पकड़े हुए है। फिर भी वह कहेगा कि मैं क्या करूं? कैसे छोड़ दूं? बुखार है, औषधि चाहिए।

क्या है औषधि? इस संसार से चाह टूट जाये। एक ही औषधि मैं अनुभव कर पाता हूं। और वह यह है, कि तुम बहुत सजगता से संसार को भोगो। बेहोशी में भोगोगे, यह संसार कभी भी तुमसे छूटेगा न। तुम सजगता से भोगो। जहां-जहां संसार कहे यहां रस है, वहां-वहां जाओ, वहां-वहां पूरा ध्यान लगा दो। भूल जाओ परमात्मा को, भूल जाओ आत्मा को, भूल जाओ सदगुरुओं को, शास्त्रों को। पूरा ध्यान वहां लगा दो और पूरे ध्यान से भोग लो।

जिस चीज को तुम पूरे ध्यान से भोग लोगे, वही व्यर्थ हो जायेगी। सार्थकता वहां है ही नहीं। संसार को व्यर्थ करो, संसार को चुका दो, तुम अचाह से भर जाओगे।

और जब अचाह होगी, तब भीतर ध्यान ले जाने में क्या अड़चन है? अड़चन खतम हो गई। बाधा कोई न रही। तब बिना विधि के भी ध्यान भीतर जाता है। विधियों की तो जरूरत इसीलिए है, क्योंकि तुम बिलकुल अस्तव्यस्त हो। तब तुम आंख बंद करो, ध्यान भीतर जाता है। आंख खोलो, ध्यान बाहर जाता है। हाथ से किसी को छुओ, स्पर्श दूसरे को मिलता है। मत छुओ, थिर बैठ जाओ, खुद का स्पर्श शुरू हो जाता है। इतना ही सहज है। लेकिन चाह टूट जाये। और चाह के टूटने का ढंग है, औषधि है, कि चाह को ध्यानपूर्वक…।

संभोग करो ध्यानपूर्वक, स्त्री से छुटकारा हो जायेगा, पुरुष से छुटकारा हो जायेगा। भोजन करो ध्यानपूर्वक, स्वाद से मुक्ति हो जायेगी। सौंदर्य को देखो ध्यानपूर्वक, सौंदर्य समाप्त हो जायेगा। सुख को देखो गौर से, सुख खो जायेगा। दुख को देखो गौर से, दुख खो जायेगा। जैसे-जैसे बाहर की चीजें व्यर्थ होंगी, वैसे-वैसे दीये के नीचे जो अंधेरा है, वह मिटेगा, रोशनी आयेगी। और जिस दिन दीये के नीचे का अंधेरा मिट जाता है, उस दिन आत्मज्ञान।

बुद्ध ने मरते समय जो अंतिम शब्द कहे हैं, वे हैं, ‘अप्पदीपो भव।’ आनंद ने पूछा, ‘अब हम क्या करेंगे? तुम हमारे दीये थे। तुम्हारी रोशनी से हम चलते थे। तुम प्रकाश थे, तो अंधेरा न था। अब रात अंधेरी हो जायेगी, अब हम भटकेंगे। हम तुम्हारे प्रकाश में भी न पहुंच पाये, हम तुम्हारे बिना कैसे पहुंचेंगे? तुम बुझे जा रहे हो, हमारा क्या होगा?’ बुद्ध ने कहा, ‘अप्पदीपो भव। अपने दीये बनो आनंद।’

और दूसरे की रोशनी से कोई कभी नहीं पहुंचा है। क्योंकि दूसरे की रोशनी भी बाहर पड़ सकती है। तुम्हारे भीतर तो सिर्फ तुम्हारी रोशनी ही पड़ सकती है। मैं कितना ही प्रकाश करूं, वह तुम्हारे चारों तरफ होगा। तुम्हारे भीतर नहीं जा सकता। मैं कितना ही समझाऊं, वह समझ तुम्हारे चारों तरफ से तुम्हें घेर लेगी, तुम्हारा वातावरण बन जायेगी, तुम्हारे चारों तरफ एक आभा का मंडल बन जायेगी, लेकिन भीतर नहीं जायेगी। भीतर तो तुम्हारा ही ज्ञान स्फुरित होगा; तुम्हारी ही आत्मा जलेगी। तुम्हारा ही दीया जलेगा तभी। वह दीया जल ही रहा है, सिर्फ उसके नीचे अंधेरा है।

अंधेरे के कारण मैंने तुम्हें बताये। एक-एक कारण को तोड़ते चलो। सबसे बड़ा कारण यह है, कि तुम्हारा रस अभी संसार में कायम है। तो मैं नहीं कहूंगा तुमसे कि रस कायम रहते हुए तुम भीतर मुड़ो। तुम कभी न मुड़ पाओगे। तुम इस रस को विरस कर डालो। और विरस करने का मेरा प्रयोग बिलकुल भिन्न है, जो तुम्हें दूसरों ने समझाया है। दूसरों ने समझाया है कि विरस कर डालो मतलब, समझो ऐसा कि इसमें कोई रस नहीं है। विचार करो, इसमें कोई रस नहीं है। मैं तुमसे नहीं कहता कि विचार करो। मैं कहता हूं ध्यान करो। सोचो मत, कि रस नहीं है। सिर्फ ध्यान को गड़ा कर देखो। अगर रस है, तो मिल जायेगा। रस नहीं है, तो मिल जायेगा। अब तक संसार में जिन्होंने ध्यान से देखा, जिन्होंने बाहर ध्यान से देखा उन्होंने पाया कि वहां सब असार है।

यह असार की प्रतीति तुम्हारी अंतर्यात्रा का द्वार बन जाती है। रोशनी भीतर आ जाये, तुम रोशनी के एक भीतरी वर्तुल बन जाओ, फिर तुम्हारे जीवन में कुछ गलत न होगा। तुम जो भी करोगे वह ठीक।

लोग कहते हैं कि साधु वह है, जो ठीक करता है। जो ठीक-ठीक करता है सब काम, जिसका सब व्यवहार सम्यक है, वह साधु है। मैं नहीं कहता। मैं तो कहता हूं, साधु जो करता है, वही सम्यक व्यवहार है। वही ठीक-ठीक व्यवहार है। व्यवहार से कोई साधु नहीं होता, साधु से व्यवहार जन्मता है। आचरण तो तुम ठीक-ठीक कर सकते हो बिलकुल राम जैसा, लेकिन तुम राम न हो जाओगे। तुम ज्यादा से ज्यादा रामलीला के राम रहोगे। यही तो बेचैनी है। इतने साधु-संत हैं, इतने राम, कृष्ण चारों तरफ मौजूद हैं। उनमें अधिकतर अभिनेता हैं। उनकी मंच बड़ी है। वे किसी थियेटर में नहीं कर रहे हैं काम, लेकिन थियेटर में हैं। आचरण में सब कुछ है। भीतर वे भी परेशान हैं। साध लिया है सब, जैसे तोते ने कंठस्थ कर लिया हो।

एक आदमी एक तोते को बेचने गया। एक सर्कस में पहुंचा। उसने सर्कस के मैनेजर को कहा, ‘सिर्फ बीस रुपये दे दें। यह तोता असाधारण है। यह इस तरह बोलता है, कि कभी कोई तोता नहीं बोला।’ तो उस मैनेजर ने कहा कि, अगर सच में ही यह बात है, तो बीस रुपये में तुम इसे क्यों बेच रहे हो? हटाओ इस तोते को यहां से। बीस रुपये में कोई ऐसे अदभुत तोते को बेचने आयेगा?

तोता एकदम उछला अपने पिंजड़े में और उसने कहा, ‘महाशय, जल्दी मत करें। मैं सच में ही ऐसा तोता हूं। और इस आदमी से बुरा आदमी खोजना मुश्किल है, जो मेरा मालिक है। इसने मेरे कारण लाखों रुपये कमाये हैं। हिटलर, मुसोलिनी, चर्चिल, रूजवेल्ट, सभी ने मुझे प्रशंसा के पत्र दिए हैं। जगह-जगह मुझे स्वर्णपदक मिले, इसने सब बेच खाये। यह मुझे ठीक से खाना भी नहीं देता, पानी भी नहीं पिलाता। आप थोड़ी दया करें और मुझे खरीद लें।’

चौंक गया वह मैनेजर तो सर्कस का। कि ऐसी भाषा, जैसे ठीक काशी से शिक्षित पंडित हो–शुद्ध और इतनी संगत! उसने उस आदमी को कहा ‘तू पागल है। यह तोता लाखों का है और इसको तू बीस रुपये में बेच रहा है? क्या कारण है तेरा बेचने का?’ उसने कहा कि ‘और तो सब ठीक है, मैं इसकी झूठ से बहुत ऊब गया हूं। चौबीस घंटे बकवास! एक तो बकवास लगाये रखता है। और मुझे पता है कि सिर्फ तोता है। तो सिर्फ बकवास है, भीतर तो कुछ है नहीं इसके। और जो भी सुन लेता है, दोहराने लगता है। ये हिटलर, मुसोलिनी, न इसने कभी देखे। तो मैं इससे थक गया हूं। इससे मैं छुटकारा चाहता हूं। बीस रुपये तो सिर्फ बहाना है, आप इसको मुफ्त में भी रख लें।’

तुमने कभी अपने मन की तरफ खयाल किया कि मन क्या है? इस तोते से ज्यादा है? इसने कुछ जाना नहीं है। वेद पढ़ लिए हैं, उपनिषद रट लिये हैं, दुहरा सकता है कबीर को, कुंद कुंद को, किसी को भी, पर यह तोते से ज्यादा है? और यह तोता कितना ही कुशल हो गया हो बोलने में, बीस रुपये में भी कोई लेने को तैयार होगा?

लेकिन आश्चर्य कि तुम इससे अभी तक ऊबे नहीं। और इसकी झूठों से भी तुम ऊबे नहीं। इसने जमाने भर के गोल्ड मेडल इकट्ठे कर लिए हैं। यह तुमसे निरंतर झूठ बोल रहा है और तुम भरोसा किए चले जाते हो। और इसकी बकवास चौबीस घंटे चल रही है। तोता तो कभी सोता भी रहा होगा, यह सोता भी नहीं है। यह रात भर सपने चलाता है, दिन भर विचार चलाता है। और कुछ भी सार नहीं।

तुम्हारा मन भी एक झूठ है, जो तुमने उधार ले लिया। तुम्हारा आचरण भी एक झूठ है, जो तुमने उधार ले लिया। तुम्हारे पास न तो कोई अंतरात्मा है, न कोई अंतःकरण। आचरण तुमने दूसरों से सीख लिया है। जैन घर में पैदा हुए, तो रात खाना नहीं खाते। हिंदू घर में पैदा हुए, तो मजे से खाते हो। मुसलमान घर में पैदा हुए तो मांसाहार में कोई अड़चन नहीं है। तुम सीखते हो दूसरों से। तुम्हारे चारों तरफ जो बताया जाता है, वही तुम पकड़ लेते हो। कोई फर्क नहीं है हिंदू-मुसलमान-जैन में। जो जैन को बताया गया, वह उसने पकड़ लिया। जो मुसलमान को बताया गया, वह उसने पकड़ लिया। जो हिंदू को बताया गया, वह उसने पकड़ लिया। तोतों में कोई फर्क नहीं है। जो बताया गया, वह पकड़ लिया।

तुमने अपनी चेतना का कोई उपयोग किया पकड़ने में? तुमने अपनी तरफ से जीवन को कुछ साधा? या जो सुना, अंधे की तरह तुम उसके पीछे चले गये? तुम बिलकुल उधार हो। और इस उधारी से तुम्हारे भीतर बड़ा अंधकार है। न चिंता करो आचरण की, न चिंता करो व्यवहार की, न चिंता करो विचार की, चिंता करो सिर्फ ध्यान की। क्योंकि उस एक के साधने से सब साध लिया जायेगा। जैसे माला के भीतर धागा अनुस्यूत है, ऐसे तुम्हारे आचरण, व्यवहार, विचार, सबमें ध्यान अनुस्यूत है। वह धागा है। उस एक को पकड़ लो, सब पकड़ में आ जायेगा।

कहां से पकड़ोगे?–जहां तुम हो। अभी तुम बाहर हो, वहीं ध्यान करो। भोजन को ध्यान बना लो, भोग को ध्यान बना लो, धन को ध्यान बना लो, क्रोध को ध्यान बना लो। जो भी हो, जहां हो, वहीं ध्यान को लगा दो। और तुम बड़े चकित होओगे। क्रोध से ध्यान जोड़ा, कि क्रोध समाप्त हो जाता है, ध्यान ही रह जाता है। लोभ से ध्यान जोड़ा, लोभ समाप्त हो जाता है, ध्यान ही रह जाता है।

संसार में ही ध्यान करते-करते तुम पाओगे कि संसार खो गया, ध्यान रह गया। जैसे ही ध्यान बचता है, अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है। दीये के नीचे का अंधेरा मिट जाता है। पहुंच जाते हो तुम उस जगह, जहां हजारों सूर्य एक साथ उदित हो रहे हैं। और जो कभी डूबते नहीं, जिनका कोई अस्त नहीं है। तुम्हारे भीतर परम सूर्योदय छिपा है।

आज इतना ही।

 


Filed under: दीया तले अंधेरा (झेन--सूफी कथाएं) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–3) प्रवचन–52

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कर्तव्‍य नहीं—प्रेम—(प्रवचन—बारहवां)

प्रश्न—सार:

1—सत्संग—सदगुरु की उपस्थिति में होना—अत्‍यंत महत्वपूर्ण है, तो यदि संभव हो तो क्या आप विश्व भर के अपने सन्‍यासियों को साथ ही रखना पसंद करेंगे?

 2—आप विवाह के पक्ष में नहीं है, फिर भी आप अनेक लोगों को विवाह का सुझाव क्‍यों देते हैं?

 3—आश्रम में आपके निकट मैं शांत और सुखी हो जाता हूं, लेकिन बाहर निकलते ही सड़क पर बैठे भिखारियों को देख कर दुःखी हो जाता हूं, इस दुख के लिए मैं क्या करूं?

 4—एक साथ आप इतने अधिक शिष्‍यों पर कैसे काम कर पाते है?

 

5—अगर मैंने आपसे संन्‍यास न लिया होता तो मैंने आपको छोड़ दिया होता। बहरहाल, मैं आप में श्रद्धा नहीं खोना चाहता। अगर आप मुझे आपने चरणों में बांधे रख सकें तो मुझे लगेगा कि आपने गुरु के रूप में अपना कर्तव्‍य पूरा किया।

 

6—कोई कैसे चिंता करना छोड़े?

 

7—क्‍या मूल्यांकन करने और विवेक करने के बीच कोई अंतर है?

 

8—पद्यसंभव की भविष्‍यवाणी है कि जब पृथ्‍वी पर लोहे का पक्षी उड़ेगा, तब धर्म का अवतरण होगा। क्‍या इस वचन को पूरा करना आपके काम का हिस्‍सा है?

 

पहला प्रश्न:

 

आपने बहुत बार हमें बताया है कि सत्संग— किसी बुद्ध पुरुष की किसी मुक्त पुरुष की उपस्थिति में होना— कितना अधिक महत्वपूर्ण है फिर भी आपके बहुत से संन्यासी अपना अधिक जीवन आप से दूर ही व्यतीत करते हैं अगर आप पर निर्भर होता तो क्या आप हम सबको यहां पूना में हर समय अपने साथ रहने देते?

हीं। क्योंकि सदगुरु की उपस्थिति में बहुत अधिक जीना भी एक अति हो सकती है। मदद देने की बजाय वह तुम्हें हानि पहुंचा सकती है। हर चीज सदा एक अनुपात में और संतुलन में होनी चाहिए। इसकी संभावना है कि जब कोई चीज मीठी हो तो तुम उसे जरूरत से ज्यादा खा लो। तुम भूल जाओ अपनी आवश्यकता; तुम खूब ठूंस—ठूंस कर भर लो अपना पेट। और सत्संग मधुर होता है—वह संसार की सबसे मधुर चीज है। वस्तुत: सत्संग मादक होता है, तुम मदहोश हो सकते हो। तब वह तुम्हें मुक्त नहीं करेगा; वह एक नया बंधन निर्मित कर देगा।

तो सदगुरु के पास होना बंधन भी हो सकता है, मुक्ति भी, यह निर्भर करता है। केवल पास होने से जरूरी नहीं है कि तुम मुक्त हो ही जाओगे. तुम्हें बदहजमी हो सकती; और तुम आदी हो सकते हो मौजूदगी के। नहीं, वह ठीक नहीं है। जब भी मुझे लगता है कि किसी को जरूरत है अकेले होने की, जब भी मुझे लगता है कि किसी को मुझ से दूर चले जाना चाहिए, तो मैं उसे दूर भेज देता हूं। अच्छा है एक प्यास निर्मित करना, तब तृप्ति भी गहरी होती है। और अगर तुम बहुत ज्यादा मेरे साथ रहते हो तो तुम मुझे भूल भी सकते हो। केवल बदहजमी ही नहीं, हो सकता है तुम मुझे बिलकुल ही भूल जाओ।

अभी कल ही शीला कह रही थी कि जब वह अमरीका में थी तो वह मेरे ज्यादा निकट थी। अब जब कि वह यहां है तो उसे लगता है कि वह दूर हो गई है। कैसे होता है ऐसा? वह बड़ी परेशान थी, बहुत उलझन में थी। बात सीधी—साफ है। जब वह अमरीका में थी तो वह निरंतर सोच रही थी मेरे बारे में, यहां आने और मेरे पास होने के बारे में, वह जी रही थी एक स्वप्न में। उस स्वप्न में उसे लगता होगा कि वह मेरे निकट है। अब जब कि वह यहीं है, तो कैसे सपना देख सकती है वह? मैं सामने मौजूद हूं; सपनों की अब कोई जरूरत नहीं है। और मैं इतना उपलब्ध हूं यहां कि वह भुलने लगी है मुझे —इसीलिए वह अनुभव कर रही है कि वह मुझ से दूर हो गई है।

चीजें जटिल हैं। कई बार मैं तुम्हें दूर भेज देता हूं ताकि तुम मुझे ज्यादा अनुभव कर सको। उसकी जरूरत होती है। एक पृथकता चाहिए, ताकि तुम फिर निकट आ सको। सदगुरु के पास होने और सदगुरु के पास न होने की एक लय चाहिए। उस लय में बहुत सी संभावनाएं खुलती हैं, क्योंकि अंततः तुम्हें निर्भर होना है स्वयं पर। गुरु तुम्हारे साथ सदा—सदा के लिए नहीं रह सकता। एक दिन मैं अचानक खो जाऊंगा—मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी, तुम मुझे कहीं नहीं खोज पाओगे। तब, अगर तुम मेरे प्रति बहुत आसक्ति बना लोगे और तुम मेरे बिना रह ही न सकोगे तो तुम दुख पाओगे, नाहक पीड़ित होओगे। और मैं यहां तुम्हें पीड़ा देने के लिए नहीं हूं : मैं यहां तुम्हें और ज्यादा आनंदित होने में सक्षम बनाने के लिए हूं। कई बार यह अच्छा होता है कि तुम दुनिया में कहीं दूर चले जाओ, अपने साथ रहो, अपने एकांत में रहो, भीतर उतरो, अकेले में जीओ।

और जो कुछ भी तुमने मेरे साथ यहां पाया है, उसे संसार में कसौटी पर कसो, क्योंकि आश्रम संसार नहीं है। आश्रम ज्यादा से ज्यादा एक सीखने की जगह हो सकता है, वह कोई वैकल्पिक संसार नहीं है। अधिक से अधिक यह एक स्कूल हो सकता है जहां तुम्हें थोड़ी झलक मिलती है। फिर तुम उस झलक के साथ जाते हो संसार में—वहां होती है कसौटी, वहां होती है परीक्षा। अगर वे अनुभव वहां भी खरे उतरते हैं, केवल तभी वे वास्तविक हैं।

आश्रम में रहते हुए, बुद्ध पुरुष के साथ रहते हुए, उसके ऊर्जा— क्षेत्र में रहते हुए, बहुत बार तुम्हें धोखा हो सकता है कि तुम्हें कुछ उपलब्ध हो गया है। हो सकता है कि वह तुम्हारी उपलब्धि न हो; हो सकता है कि केवल उस चुंबकीय शक्ति के कारण तुमने छू लिए हों नए आयाम। लेकिन जब मैं पास नहीं होता और आश्रम का वातावरण मौजूद नहीं होता और तुम साधारण दैनंदिन जीवन में गति करते हो—बाजार के, आफिस के, फैक्टरी के जीवन में गति करते हो—अगर तुमने जो यहां पाया है उसे साथ लिए रहते हो और वह डांवाडोल नहीं होता, तब सच में तुमने कुछ पाया है। वरना तो तुम यहां एक स्वप्न में, एक भ्रम में जी सकते हो।

नहीं, अगर मेरे लिए तुम सब को यहां रखना संभव भी होता, तो भी मैं तुम्हें दूर भेजता। मैं बिलकुल यही करता जैसा कि मैं अब कर रहा हूं; कोई अंतर न होता। जैसा अभी है बिलकुल ठीक है। तो जब मैं तुम्हें दूर भेजूं तो खराब अनुभव मत करना—तुम्हें जरूरत है उसकी।

और जब मैं तुम से यहां रहने को कहूं तो बहुत गर्व अनुभव मत करना—वह भी एक जरूरत है। दोनों बातें जरूरी हैं। और कोई जड़ सिद्धात मत बना लेना, क्योंकि चीजें जटिल हैं और हर व्यक्ति अनूठा है। कई बार मैं किसी को यहां रहने देता हूं क्योंकि वह इतना मुर्दा होता है कि उसके विकसित होने में बहुत समय लगता है। कोई बहुत जल्दी विकसित हो जाता है, तो कुछ सप्ताह के भीतर ही मैं कह देता हूं कि जाओ। तो यहां होने से ही गर्व अनुभव मत करना; और अगर मैं तुम्हें दूर भेज दूं तो चोट अनुभव मत करना। कई बार मैं किसी को यहां रहने देता हूं क्योंकि वह बहुत संतुलित होता है और कोई डर नहीं होता कि वह जरूरत से ज्यादा ग्रहण कर लेगा, या कि अति भोजन का शिकार हो जाएगा; तो मैं रहने देता हूं उसे।

कई बार, जब मुझे लगता है कि किसी ने कुछ उपलब्ध कर लिया है, तो भी मैं उसे दूर भेज देता हूं; क्योंकि केवल संसार हो इसकी कसौटी हो सकता है कि तुमने सच में कुछ पा लिया है या नहीं। आश्रम के एकांत में, एक अलग वातावरण में, तुम्हें पार की एक झलक मिल सकती है, क्योंकि तुम एक हिस्सा बन जाते हो उस सामूहिक मन का जो यहां मौजूद है। तुम मेरी तरंगों पर यात्रा करने लगते हो, वे तुम्हारी नहीं हैं। लेकिन जब तुम वापस घर जाते हो, तो तुम्हें अपनी ही तरंगों पर यात्रा करनी होती है—चाहे वे छोटी हों, किंतु बेहतर हैं, क्योंकि वे तुम्हारी अपनी हैं, और अंततः उन्हें ही ले जाना है तुम्हें दूसरे किनारे तक। मैं तो केवल राह दिखा सकता हूं।

गुरु को बंधन नहीं बन जाना चाहिए; और बहुत आसान होता है गुरु का बंधन बन जाना। प्रेम सदा बदल सकता है बंधन में। वह सदा ही बन सकता है कारागृह। प्रेम को होना चाहिए स्वतंत्रता, उसे तुम्हारी मदद करनी चाहिए तमाम बेड़ियों और बंधनों से मुक्त होने में। इसलिए मुझे सतत देखते रहना पड़ता है कि किसे दूर भेजना है, किसे यहां रहने देना है, और कितनी देर रहने देना है।

एक लय चाहिए—कभी मेरे साथ रहो और कभी मुझसे दूर चले जाओ। एक दिन आएगा, तुम एक जैसा ही अनुभव करोगे। तब मैं प्रसन्न होऊंगा तुम्हारी स्थिति से। चाहे मेरे साथ रहो चाहे मुझसे दूर रहो, तुम वैसे ही रहते हो; चाहे यहां आश्रम में ध्यान करो या बाजार में काम करो, तुम वैसे ही रहते हो—कोई बात तुम्हें छूती नहीं; तुम होते हो संसार में लेकिन संसार नहीं होता तुम में. तब तुम मुझे प्रसन्न करते हो। तब तुम संतुष्ट होते हो, तृप्त होते हो।

दूसरा प्रश्न :

 

आप विवाह के पक्ष में नहीं हैं और फिर भी आप लोगों से विवाह करने के लिए कह देते हैं ऐसा क्यों है?

 

पूछा है अनुराग ने। मेरे देखे, विवाह एक मुर्दा चीज है। यह एक संस्था है, और तुम संस्थाओं में जी नहीं सकते; केवल विक्षिप्त व्यक्ति रहते हैं संस्थाओं में। विवाह प्रेम का विकल्प है। प्रेम खतरनाक बात है : प्रेम में जीना निरंतर तूफानों में जीना है। तुम्हें जरूरत होती है साहस की, और तुम्हें जरूरत होती है सजगता की, और तुम्हें तैयार रहना होता है किसी भी चीज के लिए। प्रेम में कोई सुरक्षा नहीं होती; प्रेम असुरक्षित होता है। विवाह है सुरक्षा : रजिस्ट्री आफिस है, पुलिस है, अदालत है। राज्य, समाज, धर्म—ये सभी उसे सम्हाले हैं। विवाह एक सामाजिक घटना है। प्रेम होता है व्यक्तिगत, वैयक्तिक, अंतरंग।

क्योंकि प्रेम खतरनाक होता है, असुरक्षित होता है.. और कोई नहीं जानता कि प्रेम कहां ले जाएगा। वह बादल की भांति होता है—बिना किसी मंजिल के, बस हवाओं में तिरता हुआ। प्रेम है रहस्यमय बादल, जिसका कोई गंतव्य नहीं। कोई नहीं जानता कि वह किस क्षण कहां होगा। जिसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती—कोई ज्योतिषी भविष्यवाणी नहीं कर सकता प्रेम के बारे में। और विवाह के बारे में? उसमें तो ज्योतिषी बहुत मददगार होते हैं; वे भविष्यवाणी कर सकते हैं।

मनुष्य को विवाह की ईजाद करनी पड़ी क्योंकि मनुष्य अज्ञात से भयभीत है। जीवन और उस्तित्व के हर तल पर मनुष्य ने विकल्प निर्मित कर लिए हैं. प्रेम के स्थान पर विवाह है; असली धर्म की जगह संप्रदाय हैं—वे विवाह जैसे ही हैं। हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म, ईसाई धर्म, जैन धर्म — वे असली धर्म नहीं हैं। असली धर्म का कोई नाम नहीं होता; वह प्रेम की भांति होता है।

लेकिन क्योंकि प्रेम खतरनाक होता है और तुम अज्ञात से इतने भयभीत होते हो कि तुम कोई न कोई सुरक्षा खड़ी कर लेना चाहते हो। तुम जीवन की अपेक्षा बीमा कंपनियों में ज्यादा विश्वास करते हो। इसीलिए तुमने विवाह की ईजाद कर ली है।

प्रेम की अपेक्षा विवाह ज्यादा स्थायी होता है। प्रेम अनंत—असीम हो सकता है, लेकिन वह स्थायी नहीं होता है। वह बना रह सकता है हमेशा—हमेशा, लेकिन जरूरी नहीं है कि वह हमेशा बना रहे। वह एक फूल की भांति है : सुबह खिलता है, सांझ खो जाता है। वह चट्टान की भांति नहीं है। विवाह ज्यादा स्थायी होता है; तुम निर्भर कर सकते हो उस पर। बुढ़ापे में वह मददगार होगा। यह एक ढंग है कठिनाइयों से बचने का।

लेकिन जब भी तुम कठिनाइयों से और चुनौतियों से बचते हो तो तुम विकसित होने से भी बच जाते हो। विवाहित व्यक्ति कभी विकसित नहीं होते। प्रेमी विकसित होते हैं, क्योंकि उन्हें हर क्षण चुनौती का सामना करना होता है—और कोई सुरक्षा नहीं होती। उन्हें एक आंतरिक सजगता निर्मित करनी पड़ती है। सुरक्षा हो तो तुम्हें सजगता की चिंता नहीं करनी पड़ती; समाज मदद करता है।

विवाह एक औपचारिकता है, एक कानूनी बंधन है। प्रेम हृदय की बात है विवाह बुद्धि की। इसीलिए मैं विवाह के बिलकुल पक्ष में नहीं हूं।

लेकिन प्रश्न ठीक है, प्रासंगिक है, क्योंकि कई बार मैं लोगों से विवाह करने को कह देता हूं। विवाह नरक है, लेकिन कई बार लोगों को नरक के अनुभव की जरूरत होती है। करो क्या? तो मुझे उनसे विवाह करने के लिए कहना पड़ता है। उन्हें जरूरत है उस नरक में से गुजरने की, और वे नहीं समझ सकते उसकी नारकीयता को जब तक कि वे उसमें से गुजरें नहीं।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि विवाह में प्रेम का फूल नहीं खिल सकता है; वह खिल सकता है, लेकिन आवश्यक नहीं है कि ऐसा हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि प्रेम से विवाह नहीं पैदा हो सकता है; वह हो सकता है पैदा, लेकिन उसकी कोई जरूरत नहीं है; उसकी कोई तर्कसंगत अनिवार्यता नहीं है। प्रेम बन सकता है विवाह, लेकिन तब वह बिलकुल अलग ही तरह का विवाह होता है. तब वह कोई सामाजिक औपचारिकता नहीं होती है, तब वह संस्थागत बात नहीं होती है, तब वह कोई बंधन नहीं होता है। जब प्रेम विवाह बनता है, तब उसका अर्थ है कि दो व्यक्तियों ने साथ रहने का निर्णय लिया—लेकिन पूरी स्वतंत्रता के साथ, एक—दूसरे पर मालकियत जमाए बिना। प्रेम मालकियत नहीं जमाता, वह स्वतंत्रता देता है।

और जब प्रेम विकसित होता है विवाह में, तो विवाह कोई साधारण बात नहीं रह जाती। वह एकदम असाधारण बात होती है। उसका रजिस्ट्री आफिस से कोई लेना—देना नहीं होता। शायद तुम्हें रजिस्ट्री आफिस जाना भी पड़े, सामाजिक औपचारिकताएं भी निभानी पड़े; लेकिन वे बातें केवल परिधि पर ही रहती हैं, वे केंद्रीय नहीं होतीं। केंद्र में होता है हृदय, केंद्र में होती है स्वतंत्रता।

और कभी—कभी विवाह में भी प्रेम पैदा हो सकता है, लेकिन ऐसा कभी—कभार ही घटता है। दुर्लभ बात है विवाह में प्रेम का पैदा होना। अधिकतर तो यह एक परिचय मात्र होता है। अधिक से अधिक एक प्रकार की सहानुभूति होती है—प्रेम नहीं। प्रेम में ऊर्जा होती है; सहानुभूति ठंडी होती है। प्रेम होता है जीवंत; सहानुभूति होती है औपचारिक, कुनकुनी!

लेकिन मैं क्यों कहता हूं लोगों से विवाह करने को? जब मैं देखता हूं कि वे सुरक्षा के पीछे भाग रहे हैं, जब मैं देखता हूं कि उन्हें सामाजिक समर्थन की फिक्र है, जब मैं देखता हूं कि वे प्रेम में उतर ही नहीं सकते अगर विवाह न हो, तो मैं उनसे विवाह करने को कह देता हूं—लेकिन मैं उनकी मदद करता रहूंगा उसके पार जाने में। उसका अतिक्रमण करने में मैं उनकी मदद करता रहूंगा।

विवाह का अतिक्रमण होना चाहिए; केवल तभी वास्तविक विवाह घटित होता है। विवाह पूरी तरह से भुला दिया जाना चाहिए। असल में जिसे तुम प्रेम करते हो उसे सदा अजनबी बने रहना चाहिए और कभी भी उसे पूरी तरह परिचित नहीं मान लेना चाहिए। जब दो व्यक्ति अजनबियों की भांति रहते हैं, तो उसमें एक सौंदर्य होता है—बहुत सहज, निर्दोष सौंदर्य होता है। और जब तुम किसी के साथ अजनबी की तरह रहते हो…।

और हर कोई अजनबी ही है। तुम किसी व्यक्ति को नहीं जान सकते। सब जानना बहुत ऊपर—ऊपर होगा; व्यक्ति बहुत विराट घटना है। व्यक्ति एक असीम रहस्य है। इसीलिए हम कहते हैं कि हर एक के भीतर परमात्मा है। कैसे तुम जान सकते हो परमात्मा को? ज्यादा से ज्यादा तुम परिधि को छू सकते हो। और जितना ज्यादा तुम जानते हो किसी व्यक्ति को, उतने ही ज्यादा विनम्र तुम हो जाओगे—उतना ही ज्यादा तुम अनुभव करोगे कि रहस्य छूट—छूट जाता है। असल में रहस्य और गहरा हो जाता है। जितना ज्यादा तुम जानते हो, उतना ही तुम अनुभव करते हो कि तुम कम जानते हो।

अगर प्रेमी सच में ही प्रेम में हैं, तो वे कभी एक—दूसरे को नहीं कहेंगे कि जान लिया; क्योंकि केवल चीजों को जाना जा सकता है—व्यक्तियों को नहीं। केवल चीजें ही जानकारी का हिस्सा बन सकती हैं। व्यक्ति तो एक रहस्य ही रहता है—गहनतम रहस्य।

तो विवाह के ऊपर उठो। यह कोई कानून की, औपचारिकता की, परिवार की बात नहीं है—वह सब कोरी बकवास है। इसकी जरूरत है क्योंकि तुम समाज में रहते हो, लेकिन उसके ऊपर उठो; उसी पर समाप्त मत हो जाना। और किसी व्यक्ति पर मालकियत करने की कोशिश मत करना। ऐसा मत सोचने लगना कि दूसरा व्यक्ति पति है—तब तुमने व्यक्ति के सौंदर्य को एक असुंदर चीज में बदल दिया : पति। कभी मत कहना कि यह स्त्री तुम्हारी पत्नी है—फिर वह अजनबी नहीं रह जाती, तुमने उसे बहुत भौतिक तल तक, चीजों के बहुत साधारण तल तक उतार लिया होता है। पति और पत्नी सांसारिक संबंध हैं। प्रेमियों का संबंध दूसरे जगत का संबंध है।

तो दूसरे की पवित्रता और दिव्यता को याद रखना। कभी अतिक्रमण मत करना उसका, कभी दखल मत देना उसमें। प्रेमी सदा झिझकता है। वह तुम्हें सदा एक खुला आकाश देता है स्वयं होने के लिए। वह कृतज्ञ होता है; वह कभी अनुभव नहीं करता कि तुम उसके अधिकार में हो। वह अनुगृहीत होता है कि कभी—कभी किन्हीं अदभुत घड़ियों में तुम उसे आने देते हो अपने आत्यंतिक मंदिर में और अपने साथ होने देते हो। वह सदा अनुगृहीत होता है।

लेकिन पति—पत्नी तो सदा शिकायतो से भरे होते हैं, कभी अनुगृहीत नहीं होते—सदा लड़ते —झगड़ते रहते हैं। और अगर तुम देखो उनकी लड़ाई, वह कुरूप होती है। प्रेम का पूरा सौंदर्य ही खो जाता है। केवल क्षुद्र बातें ही रह जाती हैं. पत्नी है, पति है, बच्चे हैं, और रोज — रोज की कलह है। वह अनजाना, अपरिचित अब स्पर्श नहीं करता। इसीलिए तुम पाओगे कि एक धूल सी जम जाती

है—पत्नी थकी— थकी दिखाई पड़ती है; पति बेजान दिखाई देता है। जीवन ने खो दिया होता है अर्थ, जीवंतता और उल्लास। अब जीवन एक काव्य न रहा; वह एक बोझ बन चुका होता है।

प्रेम काव्य है। विवाह है साधारण गद्य, अच्छा है साधारण लेन—देन के लिए; अगर तुम्हें सब्जी खरीदनी है तो अच्छा है; लेकिन यदि तुम आकाश की तरफ देख रहे हो और बातचीत कर रहे हो परमात्मा से तो पर्याप्त नहीं है—तो जरूरत है काव्य की। साधारणतया तो जीवन गद्य जैसा होता है। धार्मिक जीवन काव्यमय होता है : एक लय होती है, एक छंद होता है, उसमें कुछ अज्ञात, अपरिचित रहस्य उतर आता है।

मैं विवाह के पक्ष में नहीं हूं। और मुझे गलत मत समझ लेना—मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अविवाहित रह कर साथ—साथ रहो। वह सब औपचारिकता पूरी कर लो जो समाज चाहता है, लेकिन उसे ही सब कुछ मत मान लेना। वह तो ऊपर—ऊपर की बात है; उसके पार जाना है। और अगर मुझे लगता है कि तुम्हें विवाह की जरूरत है मैं तुमसे विवाह करने को कहता हूं।

असल में यदि मुझे लगता है कि तुम्हें नरक के अनुभव से गुजरने की जरूरत है तो मैं तुम्हैं जाने देता हूं—मैं तुम्हें और धक्का दे देता हूं —कि नरक से गुजर ही लो, क्योंकि उसी की जरूरत है तुम्हें, और उससे गुजर कर ही तुम विकसित होओगे।

तीसरा प्रश्न :

 

मुझे यहां आए अब चार हफ्ते हो गए हैं और मैं अभी भी सड़क पर दिखती दीनता— दरिद्रता को नहीं झेल पाता उस ओर से आख बंद कर लेने ‘के सिवाय कोई उपाय नहीं बचता। तो जितना मैं आश्रम में खुलता हूं जब मैं साइकिल से घर लौटता हूं तो उतना ही बंद हो जाता हूं। कृपया इस विषय में कुछ कहें।

मैं पहले ही कह चुका हूं और मैंने पहले ही इस प्रश्न का उत्तर दे दिया है। अगर तुम यहां किसी भीतर की खोज के लिए हो, तो कृपा करके कुछ दिनों के लिए—जब तक तुम यहां मेरे साथ हों—संसार को भूल जाओ। लेकिन ऐसा लगता है कि यह कठिन है। तो अब केवल एक ही रास्ता बचता है—दुखी हो जाओ, जितना दुखी हो सको हो जाओ। जाओ और बैठ जाओ सड़क पर भिखारियों के साथ और रोओ और चीखो और दुखी होओ—और खतम करो बात। अगर तुम नरक चाहते हो, तो गुजरो नरक से।

यह एक बड़ा अहंकारी दृष्टिकोण है। तुम सोच रहे होओगे कि यह करुणा है। लेकिन यह नासमझी है—क्योंकि तुम्हारे दुखी हो जाने से ही सड़क के किसी भिखारी को मदद नहीं मिल जाती है। अगर सौ व्यक्ति दुखी थे, तो तुम्हारे दुखी होने से एक सौ एक हो जाते हैं। दुखी होकर तुम कैसे किसी की मदद कर सकते हो? लेकिन यह एक सूक्ष्म अहंकार होता है जो अच्छा महसूस करता है : ‘मैं कितना दयालु हूं कितना करुणावान हूं। मैं दूसरे कठोर व्यक्तियों की तरह नहीं हूं, पत्थर जैसा नहीं हूं; मेरे पास हृदय है। जब मैं गुजरता हूं सड्कों से तो मैं दुखी हो जाता हूं, क्योंकि मैं इतनी गरीबी देखता हूं चारों तरफ।’ यह एक पवित्र अहंकार है—बहुत पवित्र मालूम होता है, लेकिन कहीं गहरे में बहुत ही अपवित्र होता है।

लेकिन अगर तुम्हें गुजरना ही है इससे, तो गुजरो। मैं क्या कर सकता हूं?

तुम यहां अपने अंतस की खोज के लिए हो। यह अवसर मत गंवा देना। भिखारी तो सदा रहेंगे; तुम बाद में भी दुखी हो सकते हो। वे इतनी जल्दी संसार से विदा नहीं हो जाएंगे—डरो मत। तुम उन्हें सदा पाओगे। अगर और कहीं नहीं, तो भारत में तो तुम उनको सदा ही पाओगे। चिंता मत करो. तुम सदा भारत आ सकते हो और दुखी हो सकते हो; इसके लिए जल्दी करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन मैं यहां नहीं रहूंगा सदा, यह स्मरण रखना। अगली बार जब तुम आओगे, तो भिखारी रहेंगे—मैं शायद न रहूं।

तो यदि तुम जरा सा भी होश रखते हो, तो मेरे साथ होने के अवसर का उपयोग कर लेना। इसे गंवा मत देना किसी मूढ़ता में। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि तुम इसे नहीं भूल सकते, तो केवल एक ही रास्ता है कि भूल जाओ मुझे और बैठो भिखारियों के साथ और दुखी होओ—जितना हो सकते हो दुखी होओ। शायद इसी तरह तुम इसके बाहर आ सकते हो। तुम्हें मदद की जरूरत है, गुजरो इससे। मैं प्रतीक्षा करूंगा। जब तुम्हारे लिए यह बात खतम हो जाए, तो आ जाना।

चौथा प्रश्न:

 

आप एक ही साथ हम सब लोगों पर कैसे काम करते हैं? इसका राज क्या है?

समें राज जैसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि मैं तुम सबको प्रेम करता हूं तुम बहुत नहीं रहते। मेरा प्रेम तुम्हारे चारों ओर छाया रहता है; उसमें तुम एक हो जाते हो। असल में मैं एक—एक व्यक्ति पर काम नहीं कर रहा हूं अन्यथा तो बहुत कठिन हो जाए। जब मैं तुमको देखता हूं तो मैं तुम्हें अलग—अलग नहीं देखता। मैं तुम्हें संपूर्ण के हिस्से की भांति देखता हूं। मेरे प्रेम की छांव में तुम एक हो। जिस क्षण तुम समर्पण करते हो, तुम अहंकार की तरह मिट जाते हो—तुम एक विराट घटना का हिस्सा हो जाते हो। तुम हो बूंद की भांति. जब तुम समर्पण करते हो, तब तुम सागर का हिस्सा हो जाते हो। मैं काम करता हूं सागर पर—बूदों पर नहीं। इसमें रहस्य जैसा कुछ नहीं है।

और असल में यह कहना कि मैं काम करता हूं ठीक नहीं है। यह मेरे होने का ढंग है। यह कोई काम नहीं है; यह केवल मेरे होने का ढंग है। यह एक ‘होना’ है। इससे अन्यथा मैं हो नहीं सकता। एक बार तुम धड़कने देते हो अपने हृदय को मेरे साथ, तो वह काम करने लगता है। असल में यह बात तुम्हारे निर्णय की है। अगर तुम चाहते हो कि मैं कुछ करूं, तो बस उसे होने दो। मैं तो कर ही रहा हूं काम। शायद तुम पूरी दुनिया में पच्चीस हजार हो—या शायद पच्चीस लाख, उससे कुछ अंतर न पड़ेगा। मेरा काम वही रहता है। अगर पूरा संसार भी संन्यास ले ले, तो भी मेरा काम वही रहता है।

यह ऐसा ही है जैसे कि एक दीया जल रहा हो कमरे में. कोई व्यक्ति भीतर आता है—तो एक को प्रकाश मिलता है; फिर दस व्यक्ति आ जाते हैं कमरे में, तो ऐसा नहीं होता कि दीए पर बहुत बोझ हो जाता है। जब वहा कोई न था तो भी दीए से प्रकाश झर रहा था उस नितांत मौन और एकांत में। कोई एक प्रवेश करता है, वह देख सकता है। अब दस भीतर आएं, वे देख सकते हैं। लाखों भीतर आएं, और वे देख सकते हैं। प्रकाश वहा बरस रहा है, जब वहा कोई नहीं होता है, तो भी वह बरस रहा होता है।

अगर यहां कोई न हो, तो भी मैं इसी तरह काम करता रहूंगा। यह गिनती का प्रश्न नहीं है, और इसमें कोई राज नहीं है। और असल में यह काम नहीं है; यह प्रेम है। जब तुम प्रेम की अवस्था को उपलब्ध हो जाते हो, तो तुम प्रकाश से भर जाते हो। वह प्रकाश तुमसे बरसता रहता है, एक ज्योति जलती रहती है : जो भी अपनी आंखें खोलने को तैयार हो, वह उस प्रकाश का लाभ ले सकता है।

पांचवां प्रश्न:

 

अगर मैने आपसे संन्यास न लिया होता तो मैने आपको छोड़ दिया होता और मेरे पहले गुरु भी शायद अब मुझे स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि मैने उनको छोड़ दिया और अपनी श्रद्धा खोई। बहरहाल मैं आप में श्रद्धा नहीं खोना चाहता। अब मैं बुद्धत्व की भी आकांक्षा नहीं करता हूं। अगर आप मुझे अपने चरणों में बांधे रख सके तो मैं सोचता हूं कि आपने गुरु के रूप में अपना कर्तव्य पूरा किया।

समें बहुत सी बातें समझने जैसी हैं; उनसे मदद मिलेगी।

पहली बात : मेरा किसी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है जिसे मुझे पूरा करना है।’कर्तव्य’ एक गंदा शब्द है, मेरे देखे एक भद्दा शब्द है, सर्वाधिक भद्दा शब्द है। प्रेम कोई कर्तव्य नहीं है। अगर लोगों की मदद करना तुम्हारा प्रेम है, तो तुम आनंदित होते हो। यह कर्तव्य नहीं है, यह कोई बोझ नहीं हैं। कोई मुझे जबरदस्ती मजबूर नहीं कर रहा है कुछ करने के लिए। ऐसा करने के लिए किसी भी ढंग से मैं बाध्य नहीं हूं—यह बस प्रेम का एक प्रवाह है।

जब प्रेम मर जाता है, तो कर्तव्य आता है। तुम लोगों से कहते हो, ‘यह मेरा कर्तव्य है कि मैं आफिस में काम करूं क्योंकि मेरे पत्नी—बच्चे हैं और कर्तव्य तो निभाना ही होता है।’ तो तुम प्रेम नहीं करते अपने बच्चों से—इसीलिए यह शब्द ‘कर्तव्य’ अर्थपूर्ण हो जाता है। तुम्हारी की मां मर रही है और तुम कहते हो, ‘यह मेरा कर्तव्य है कि मैं मां की सेवा करूं।’ तुम मां से प्रेम नहीं करते। अगर तुम प्रेम करते हो, तो कैसे तुम प्रयोग कर सकते हो यह शब्द— ‘कर्तव्य’?

एक पुलिस वाला सड़क पर खड़ा हुआ अपना कर्तव्य पूरा कर रहा होता है। ठीक है बात, वह प्रेम नहीं करता उन लोगों से जो कि ट्रैफिक में अव्यवस्था पैदा कर रहे हैं। जब तुम अपने आफिस जाते हो, तो तुम एक कर्तव्य पूरा कर रहे हो, एक नौकरी। किंतु यदि तुम कहते हो कि दुम अपने बच्चों के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हो, तो तुम इस शब्द का प्रयोग करके पाप कर रहे हो। तुम प्रेम नहीं करते बच्चों से : तुम बोझ ढो रहे हो।

नहीं, मेरा कोई कर्तव्य नहीं है जिसे पूरा करना है। मैं तुमको प्रेम करता हूं? इसलिए बहुत सी बातें होती हैं। मेरे प्रति कृतज्ञ होने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा रहा हूं। यदि मैं कर्तव्य पूरा कर रहा होऊं, तो तुम्हें मेरे प्रति कृतज्ञ होना होगा। यह तो बस प्रेम की बात है।

असल में मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूं कि तुमने मेरे प्रेम को अपने ऊपर बरसने दिया। तुम इनकार कर सकते थे। और यही है प्रेम का राज : जितना ज्यादा तुम प्रेम बांटते हो, उतना ज्यादा वह बढ़ता है। जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतने ज्यादा जीवंत स्रोत फूट पड़ते हैं और वह ज्यादा बरसता है और उपलब्ध होता है बांटने के लिए। जितना ज्यादा तुम देते हो, उतना ज्यादा तुम पर बरस जाता है। मैं थका नहीं हूं। मैं किसी भी ढंग से उससे बोझिल नहीं हूं। यह बात सुंदर है।

पहली तो बात : मेरा कोई कर्तव्य नहीं है तुम्हारे प्रति पूरा करने के लिए। यदि तुम ऐसा गुरु चाहते हो जिसका कोई कर्तव्य हो, तो तुम गलत आदमी के पास आ गए हो। कहीं और जाओ। बहुत से गुरु हैं जो बड़े—बड़े कर्तव्यों को पूरा कर रहे हैं। मैं तो बस आनंदित हूं स्वयं में। क्यों पूरा करूं मैं कोई कर्तव्य? मैं आनंदित हूं अपने साथ। और जो कुछ मैं करता हूं वह मेरा आनंद है, मेरा उत्सव है।’ अगर मैंने आपसे संन्यास न लिया होता तो मैंने आपको छोड़ दिया होता।’

अगर ऐसा विचार आ गया है, तो तुम छोड़ ही चुके हो। शारीरिक रूप से ही तुम यहां मौजूद हो, जो कि अर्थहीन है। अगर तुम कहते हो, ‘ अगर मैंने आपसे संन्यास न लिया होता तो मैंने आपको छोड़ दिया होतां।’ तो तुम छोड़ ही चुके हो और संन्यास का कोई अर्थ नहीं है। कृपा करके इसे वापस कर दो—क्योंकि यह तो एक बंधन हो गया। तुम कहते हो, ‘मैंने आपको छोड़ दिया होता’—अब यह संन्यास तुम्हारी जंजीर बन रहा है। गिरा दो उसे। मैं यहां तुम्हें मुक्ति देने के लिए हूं तुम्हें बांधने के लिए नहीं। भूल जाओ उसे।

‘और मेरे पहले गुरु भी शायद अब मुझे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि मैंने उनको छोड़ दिया और अपनी श्रद्धा खोई।’

यह तुम्हारे अपने निर्णय की बात है। अगर पुराना गुरु तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा तो तुम किसी नए गुरु के पास जा सकते हो, या तुम पुराने गुरु के पास जा सकते हो और दोबारा कोशिश कर सकते हो। अगर पुराना गुरु सच में ही गुरु था तो वह हजारों बार स्वीकार करेगा, क्योंकि जब कोई शिष्य धोखा देता है, तो यह कुछ ज्यादा उपद्रव की बात नहीं होती। यह करीब—करीब स्वाभाविक बात होती है। अज्ञानी व्यक्तियों से इससे ज्यादा की?, तो अपेक्षा भी नहीं रखी जा सकती। तो जाओ और आजमाओ पुराने गुरु को ही। शायद वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हो। और यदि वह क्षमा नहीं कर सकता तो वह गुरु नहीं; तो फिर कहीं और ढूंढ लेना किसी को।

और तुम कहते हो, ‘बहरहाल, मैं आप में श्रद्धा नहीं खोना चाहता।’

तुम खो ही चुके श्रद्धा। असल में, तुम्हारे पास कभी वह थी ही नहीं। क्योंकि एक बार तुम्हें श्रद्धा हो तो कैसे उसको तुम खो सकते हो? कठिन है इसे समझना, लेकिन एक बार तुम्हें श्रद्धा हो तो तुम उसको खो नहीं सकते। यह कुछ ऐसी बात नहीं है जिसे वापस लिया जा सके। कौन लेगा उसे वापस? श्रद्धा का अर्थ होता है : तुम अपने अहंकार को समर्पित कर देते हो। यह अंतिम कृत्य हो सकता है अहंकार का। एक बार अहंकार समर्पित हो गया, फिर कैसे तुम वापस ले सकते हो उसको? यदि तुम वापस ले सकते हो उसको, तो उसका मतलब समर्पण समर्पण था ही नहीं—तुम खेल रहे थे शब्द के साथ, तुम्हें पता ही नहीं था कि इसका अर्थ क्या होता है। अगर तुम समर्पण करते हो, तो समर्पण समग्र और अंतिम होता है—आत्यंतिक होता है। पीछे जाने का, पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं रहता।

‘बहरहाल, मैं आप में श्रद्धा नहीं खोना चाहता।’

यह विचार ही क्यों उठ रहा है? तुम्हारे पास श्रद्धा है नहीं; तुम खो ही चुके हो उसको। असल में वह कभी थी ही नहीं तुम्हारे पास। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी, लेकिन यह सच है।

पहली तो बात केवल वही श्रद्धा खो सकती है जो कभी थी ही नहीं। अगर तुम में श्रद्धा नहीं है तो ही तुम खो सकते हो उसको; अगर श्रद्धा है तो खोने की कोई संभावना नहीं है। बिलकुल असंभव है उसे खो देना, क्योंकि श्रद्धा में तुमने अपने को ही खो दिया होता है, अब कोई पीछे बचता नहीं जो इसे वापस ले सके और अपने घर चला जाए।

‘अब मैं बुद्धत्व की भी आकांक्षा नहीं करता हूं।’

तुम आकांक्षा कर रहे हो, अन्यथा क्या जरूरत है मेरे पैरों से चिपके रहने की? मेरे पैरों का क्या मूल्य है? क्यों चिपके रहना चाहते हो उनसे? वे क्या दे देंगे तुमको? कहीं गहरे में कामना है, आकांक्षा है। शायद अब ज्यादा सूक्ष्म हो, ज्यादा परोक्ष हो, उतनी स्थूल न हो, लेकिन वह मौजूद है अभी भी।

‘अगर आप मुझे अपने चरणों में बांधे रख सकें..।’

लेकिन क्यों? मेरे पैरों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? क्या बुरा किया है? क्यों तुम मेरे पैरों के पीछे पड़े हो? जरूरत क्या है? सार क्या है?

अभी दो दिन पहले एक बड़ी मूढ़ स्त्री मुझ से मिलने आई। मूड इसलिए क्योंकि वह कहने लगी, ‘मैं परमात्मा की तलाश में हूं।’ मैंने उससे पूछा कि वह क्यों तलाश कर रही है परमात्मा की, क्या बिगाड़ा है परमात्मा ने उसका! मैंने उससे पूछा, ‘तुम जरूर किसी और चीज की तलाश कर रही हो—सुख, प्रसन्नता, आनंद…?’

उसने कहा, ‘नहीं, मुझे कोई रुचि नहीं सुख में, प्रसन्नता में। मैं परमात्मा को खोज रही हूं।’

लेकिन किसलिए? वह इतनी क्रोधित हो गई, क्योंकि मैंने पूछा कि किसलिए। वह तुरंत चली गई। क्यों कोई खोजेगा परमात्मा को? सार क्या है? एकदम मूढुता की बात मालूम पड़ती है। परमात्मा को कोई खोजता है आनंदित होने के लिए। आत्म—ज्ञान को कोई खोजता है सुखी होने के लिए—दुखी होने के लिए नहीं। सत्य को कोई खोजता है शाश्वत आनंद पाने के लिए।

वस्तुत: हर कोई सुख की तलाश में है, और इसके अतिरिक्त कुछ और हो नहीं सकता—और कोई संभावना नहीं है। और जो लोग कहते हैं कि वे सुख की तलाश में नहीं हैं, वे मूढ़ होते हैं किसी न किसी ढंग से। वे नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं। तुम्हारा सुख इस संसार का हो सकता है, तुम्हारा सुख इस संसार से परे पारलौकिक संसार का हो सकता है—उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—लेकिन हर कोई सुख चाहता है। हर कोई तलाश कर रहा है सुख की, और हर कोई गहरे में स्वार्थी है। इससे अन्यथा संभव नहीं है। मैं निंदा नहीं कर रहा हूं किसी की—ध्यान में ले लेना इस बात को। ऐसा ही है जैसा होना चाहिए।

लोग आते हैं मेरे पास और वे कहते हैं कि वे लोगों की सेवा करना चाहते हैं। किसलिए? अगर कोई डूब रहा हो नदी में और तुम कूद पड़ो नदी में और अपना जीवन दाव पर लगा दो और उस व्यक्ति की मदद करो बाहर आने में, तो क्या तुम समझते हो तुमने उस व्यक्ति की मदद की? यदि तुम सोचते हो कि तुमने उस व्यक्ति की मदद की है और तुमने उस व्यक्ति की सेवा की है और तुमने अपना जीवन दाव पर लगाया है और तुम महान परोपकारी हो, तो तुम गहरे नहीं देख रहे हो। उस व्यक्ति की मदद करके तुमने बहुत प्रसन्नता अनुभव की। मदद न करके तुमने अपराध— भाव अनुभव

किया होता। यदि तुम वहां से उपेक्षा करके चले गए होते, तो तुम्हारा हृदय सदा—सदा के लिए अपराध से भरा रहता। तुम दुखी होते। बार—बार सपने में तुम उस व्यक्ति को डूबते हुए देखते—और तुम उसे बचा सकते थे और तुमने उसे नहीं बचाया।

जब तुम किसी आदमी को नदी में डूबने से बचाते हो तो तुम प्रसन्नता अनुभव करते हो। असल में तुम्हें धन्यवाद देना चाहिए उस आदमी को : ‘तुम बहुत अदभुत हो। तुम ठीक उसी समय पर डूबे, जब मैं यहां से गुजरा। तुमने मुझे बहुत खुशी दी, बहुत गहरी खुशी, बहुत गहरा संतोष कि मैं किसी आदमी की मदद कर सका। मैं किसी के काम आ सका; मैं धरती पर बेकार ही बोझ नहीं हूं। मैं कितना अच्छा अनुभव कर रहा हूं।’ तुम्हारे पांवों में थिरकन आ जाती है। तुम्हारी आंखों में रोशनी आ जाती है। तुम एक गौरव अनुभव करते हो। तुम अपनी ही दृष्टि में उठा हुआ अनुभव करते हो। यह अपने ही सुख की तलाश है।

कोई किसी की मदद नहीं करता—कर नहीं सकता। हर व्यक्ति तलाश कर रहा है अपने सुख की, अपनी खुशी की। बुद्धत्व वह परम आनंद है जो एक बार उपलब्ध होने पर खोता नहीं। उस अवस्था को उपलब्ध होने की आकांक्षा तुम कैसे छोड़ सकते हो? वह मौजूद है, अन्यथा क्यों तुम मेरे चरणों से चिपके रहना चाहते हो?

सजग होओ। अपनी आकांक्षाओं के प्रति सजग होओ। क्योंकि जब तुम सजग होते हो, केवल तभी तुम समझ सकते हो; और समझ के द्वारा ही रूपांतरण घटित होता है।

मुझे पता है कि जब तक सारी आकांक्षा न गिर जाए, बुद्धत्व संभव नहीं है। और यही मैं कहता रहता हूं तुम से—इसीलिए तुम अब कहते हो कि तुम कोई आकांक्षा नहीं कर रहे हो। तो फिर तुम यहां कर क्या रहे हो? अगर तुम ठीक—ठीक समझते हो, तो न तुम कहोगे, ‘मैं आकांक्षा नहीं करता हूं, न तुम कहोगे, ‘मैं आकांक्षा करता हूं।’ अगर तुम समझ लेते हो तो आकांक्षा विदा हो जाती है—कोई चिह्न तक नहीं बचता। तब तुम यह भी नहीं कहते, ‘मैं आकांक्षा नहीं करता हूं।’ बस, सहज रूप से आकांक्षा मिट जाती है। तुम प्रकाश से भर जाते हो, आनंद से भर जाते हो, आकांक्षा का अंधकार खो जाता है।

लेकिन उसके लिए तुम्हें निरंतर होशपूर्ण रहना है, क्योंकि आकांक्षा बहुत से रूप लेगी और बहुत—बहुत ढंग से तुम्हें धोखा देगी, और आकांक्षा इतनी सूक्ष्म हो सकती है कि तुम करीब—करीब भूल ही जाओ कि वह आकांक्षा है। वह कुछ और होने का दिखावा कर सकती है। आकांक्षा दिखावा कर सकती है आकांक्षाशून्य होने का भी, लेकिन तुम पहचान सकते हो—जब किसी व्यक्ति में कोई आकांक्षा नहीं बचती, तो पूछने को कुछ नहीं रहता। वह तो बस होता है, और अस्तित्व जहां ले जाना चाहे वहां जाता है। जब तुम आकांक्षा को गिरा देते हो, तब संपूर्ण अस्तित्व तुम्हें सम्हाल लेता है, तुम बहते हो नदी के साथ। तब तुम्हारा कोई अपना निजी लक्ष्य नहीं रहता।

अभी कुछ दिन पहले मैं तुम्हें ‘ईडियट’ शब्द का अर्थ बता रहा था। वह आता है ग्रीक मूल से, ग्रीक शब्द है—’ईडियाटिकी’। इसका अर्थ होता है ‘विशिष्ट लक्ष्य’। वह व्यक्ति जिसका अपना कोई विशिष्ट लक्ष्य होता है, वह व्यक्ति जिसका अपना कोई विशिष्ट संसार होता है —समग्रि के विरुद्ध—वह ‘ईडियट’ है, मूढ़ है।

जब तुम समष्टि के साथ बहते हो—धारा में तैरते तक नहीं बल्कि धारा के साथ बहते हो, जहां भी वह ले जाए—तो तुम क्षण— क्षण बुद्धत्व में जीते हो। जब बुद्धत्व की आकांक्षा मिट जाती है, तब बुद्धत्व घटित होता है। प्रश्नकर्ता के लिए अभी वह घटित नहीं हुआ है। जरूर कोई आकांक्षा होगी; जरा ध्यान से उसे देखना।

छठवां प्रश्न:

 

कोई कैसे चिंता करना छोडे?

पूछा है ‘पथिक दि पैथेटिक’ ने! वह नाहक ही ‘पैथेटिक’ बना हुआ है। अब, ‘कोई कैसे चिंता करना छोड़े?’ चिंता छोड़ने की जरूरत क्या है? अगर तुम चिंता छोड़ने की कोशिश में लग जाते हो, तो तुम एक नई चिंता बना लेते हो : कैसे चिंता करना छोड़े! तब तुम चिंताओं की चिंता करने लगते हो; तब चिंता दुगनी हो जाती है, तब कोई उपाय नहीं रह जाता है।

और अगर कोई कहता है, जैसे कि बहुत लोग हैं.. डेल कार्नेगी ने किताब लिखी है: ‘चिंता कैसे छोड़े और जीना शुरू करें।’ ये लोग और चिंता निर्मित कर देते हैं, क्योंकि ये तुम्हें आशा दे देते हैं कि चिंताएं छोड़ी जा सकती हैं। वे छोड़ी नहीं जा सकतीं; लेकिन वे खो जाती हैं—इतना मैं जानता हूं। वे छोड़ी नहीं जा सकतीं, किंतु वे तिरोहित हो जाती हैं! तुम उनके विषय में कुछ कर नहीं सकते। यदि तुम उन्हें आने दो और जरा भी परवाह न करो, तो वे तिरोहित हो जाती हैं। चिंताएं तिरोहित होती हैं, वे छोड़ी नहीं जा सकतीं—क्योंकि जब तुम कोशिश करते हो उन्हें छोड़ने की, तो तुम हो कौन? वही मन जो कि चिंताएं खड़ी कर रहा है वह एक नई चिंता बना लेता है कि चिंता कैसे छोड़े! अब तुम पागल हो जाओगे। परेशान हो जाओगे। अब तुम्हारी हालत उस कुत्ते जैसी हो जाएगी जो अपनी ही पूंछ को पकड़ने की कोशिश कर रहा है।

देखना किसी कुत्ते को; वह देखने जैसी बात है। सर्दियों में भारत में तुम कहीं भी देख सकते हो कुत्तों को धूप सेंकते हुए, धूप का मजा लेते हुए। फिर वह अचानक ही अपनी पूंछ के प्रति सजग हो जाता है कि यह क्या है। इतना आकर्षण, कि वह छलांग लगा देता है। लेकिन पूंछ भी छलांग लगा देती है। निश्चित ही एक कुत्ते के लिए यह बात सहना जरा ज्यादा ही है, यह असंभव है। यह बात चोट करती है कि यह साधारण सी पूंछ और परेशान कर रही है—इतने बड़े कुत्ते को! वह पागल हो जाता है, गोल—गोल घूमता है। तुम देखोगे उसको हांफते हुए, परेशान, और वह विश्वास ही नहीं कर पाता कि यह क्या हो रहा है। वह—और इस पूंछ को नहीं पकड़ पा रहा?

अपनी ही पूंछ को पकड़ने वाले कुत्ते जैसा व्यवहार मत करो, और मत सुनो डेल कार्नेगियों को। यही है एकमात्र विधि जो वे तुम्हें सिखा सकते हैं : अपनी ही पूंछ का पीछा करो और पागल हो जाओ। एक दृष्टि है—विधि नहीं—एक दृष्टि से चिंताएं मिट जाती हैं : अगर तुम उनको बस देखते भर रहो, तटस्थता से, अलग— थलग; तुम उन्हें देखते रहो जैसे तुम्हारा कोई लेना—देना न हो। वे हैं; तुम उनको स्वीकार कर लो। जैसे कि बादल तिरते हैं आकाश में : विचार चलते हैं मन में, अंतर—आकाश में। ट्रैफिक चलता है सड़क पर : विचार चल रहे हैं भीतरी सड़क पर। बस, तुम उनको देखते रहते हो।

तुम क्या करते हो जब तुम सड़क के किनारे खड़े बस की प्रतीक्षा कर रहे होते हो? तुम केवल देखते रहते हो। ट्रैफिक चलता रहता है; तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं होता उससे। जब तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं होता, चिंताएं कम होने लगती हैं। तुम्हारा जुड़ाव ही उन्हें ऊर्जा देता है। तुम उन्हें पोषित करते हो; तुम उन्हें शक्ति देते हो; और फिर तुम पूछते हो—उन्हें छोड़े कैसे। और जब तुम पूछते हो कि उन्हें छोड़े कैसे, तो वे तुम पर हावी हो चुकी होती हैं।

गलत प्रश्न मत पूछो। चिंताएं हैं, स्वाभाविक है यह। जीवन इतनी विराट और जटिल घटना है कि चिंताएं होंगी ही। उन्हें देखो। साक्षी बने रहो और कर्ता मत बनो। मत पूछो कि कैसे छोड़े। जब तुम पूछते हो कैसे छोड़े, तो तुम पूछ रहे हो कि क्या करें। नहीं, कुछ नहीं किया जा सकता है। स्वीकार करो उनको—वे हैं। गौर से देखो उनको, प्रत्येक कोण से देखो उनको, कि वे क्या हैं। छोड़ने की बात ही भूल जाओ।

और एक दिन अचानक तुम देखते हो कि केवल ध्यान देने से, केवल देखने से, एक अंतराल पैदा होता है। चिंताएं नहीं हैं; ट्रैफिक रुक गया है; रास्ता खाली है; कोई नहीं गुजर रहा है। उस खालीपन में, उस शून्यता में भगवत्ता प्रकट होती है। उस शून्यता में अचानक तुम्हें झलक मिलती है अपने बुद्धत्व की, अपने आंतरिक वैभव की, और हर चीज एक प्रसाद हो जाती है।

लेकिन तुम चिंताओं को छोड़ नहीं सकते। तुम उनको स्वीकार कर सकते हो; उनको होने दे सकते हो; ध्यान दे सकते हो उन पर—बहुत ही उपेक्षापूर्ण, तटस्थ दृष्टि से, जैसे कि उनका कोई अस्तित्व ही न हो। और वे बस विचारों के बुदबुदे ही हैं, उनका सच में ही कोई अस्तित्व नहीं है। जितने ज्यादा तुम उनसे जुड़ जाते हो, उतनी ही वे महत्वपूर्ण हो जाती हैं। जितनी ज्यादा वे महत्वपूर्ण हो जाती हैं, उतने ज्यादा तुम उनसे जुड़ जाते हो। अब तुम एक दुध्वक्र निर्मित कर लेते हो। इस दुक्कक्र के बाहर आओ।

सातवां प्रश्न:

 

क्या मूल्यांकन करने और विवेक करने के बीच कोई अंतर है?

हां, बहुत अंतर है। मूल्यांकन आता है तुम्हारे विश्वासों से, सिद्धांतो से, धारणाओं से, मूल्यांकन आता है तुम्हारे अतीत से, तुम्हारे ज्ञान से। विवेक आता है तुम्हारे वर्तमान से, तुम्हारे बोधपूर्ण प्रतिसंवेदन से।

उदाहरण के लिए. तुम किसी शराबी को देखते हो। तुरंत एक मूल्यांकन आ जाता है. यह आदमी अच्छा काम नहीं कर रहा है—’शराबी’ है। तुरंत एक निंदा—यह है मूल्यांकन! यदि तुम्हारे पास कोई निश्चित धारणाएं नहीं हैं कि क्या ठीक है और क्या गलत है, तो कैसे तुम इतनी जल्दी निर्णय कर सकते हो! तुम उस आदमी को बिलकुल नहीं जानते, उसकी परिस्थिति को नहीं जानते। उसकी समस्याओं का तुम्हें कुछ पता नहीं, उसकी पीड़ाओं का तुम्हें कुछ पता नहीं। उस आदमी की पूरी जिंदगी जाने बिना तुम कोई निर्णय कैसे दे सकते हो? एक हिस्से से ही कैसे निर्णय कर सकते हो तुम? कैसे कह सकते हो तुम कि यह आदमी बुरा है? अगर वह शराबी न होता तो क्या तम सोचते हो कि वह कुछ बेहतर आदमी होता? संभव है कि वह और भी बुरा होता।

ऐसा मेरा बहुत से शराबियों के साथ अनुभव रहा है कि वे अच्छे आदमी होते हैं—बहुत कोमल, बहुत भरोसे के, चालाक नहीं होते, सीधे—साफ होते हैं—बच्चों जैसा निर्दोष भाव होता है। तो क्यों वे शराब पीते हैं फिर? संसार ज्यादा भारी हो जाता है उनके लिए; वे उसका सामना नहीं कर पाते। वे इस संसार के लिए नहीं बने होते; यह संसार बहुत धूर्त है। वे भुला देना चाहते हैं इसे, और वे नहीं जानते कि क्या करें—और शराब आसानी से मिल जाती है; ध्यान को तो खोजना पड़ता है व्यक्ति को। मेरे देखे. वे सब लोग जो शराबी हैं उन्हें ध्यान की जरूरत होती है। वे ध्यान की खोज में होते हैं—आनंद की गहरी खोज में होते हैं, लेकिन उन्हें कोई द्वार, कोई रास्ता नहीं मिलता। अंधेरे में टटोलते हुए शराब उनके हाथ लग जाती है। बाजार में शराब आसानी से मिल जाती है; ध्यान इतनी आसानी से नहीं मिलता। लेकिन गहरे में उनकी तलाश ध्यान के लिए ही होती है।

संसार भर में जो लोग मादक द्रव्य ले रहे हैं उन्हें भीतरी आनंद की ही तलाश है। वे एक संवेदनशील हृदय निर्मित करने की बड़ी कोशिश करते हैं और उन्हें ठीक उपाय, ठीक मार्ग नहीं मिलता। इतनी आसानी से नहीं मिलता है ठीक मार्ग, और मादक द्रव्य आसानी से मिल जाते हैं। और मादक द्रव्य दे देते हैं झूठी झलकियां. वे तुम्हारे मन में एक रासायनिक स्थिति निर्मित कर देते हैं जिसमें तुम ज्यादा तीव्रता से, ज्यादा संवेदनशील ढंग से अनुभव करना शुरू कर देते हो। वे तुम्हें वास्तविक ध्यान नहीं दे सकते हैं, लेकिन फिर भी वे तुम्हें उसकी एक झूठी छाया दे सकते हैं।

लेकिन मेरी समझ है कि जो खोज रहा है, वह झूठी घटना का शिकार हो सकता है, लेकिन वह खोज तो रहा ही है। किसी भी दिन वह इससे बाहर आ जाएगा, क्योंकि यह बात उसे असली अनुभव तो दे नहीं सकती और यह सदा उसको धोखा नहीं दे सकती। किसी न किसी दिन वह जान लेगा कि वह स्वयं को धोखा देता रहा है रासायनिक पदार्थों द्वारा। लेकिन उसके भीतर खोज है। वे लोग जिन्होंने कभी शराब नहीं पी, वे लोग जिन्होंने कभी कोई नशा नहीं किया, वे लोग जो बिलकुल बुरे नहीं हैं—अच्छे लोग, सम्मानित लोग—वे ध्यान की खोज में बिलकुल नहीं हैं।

तो कैसे हो निर्णय? कैसे उस व्यक्ति को ‘बुरा’ कहो जो खोजी है? और कैसे उस व्यक्ति को ‘अच्छा’ कहो जो बिलकुल नहीं है खोज की राह पर? शराबी तो शायद किसी दिन पहुंच भी जाए परमात्मा तक, क्योंकि वह उसे खोज रहा है। और असल में जब तक वह परमात्मा को न उपलब्ध हो जाए, उसकी शराब नहीं छूट सकती—क्योंकि केवल वही तृप्ति दे सकता है। तब झूठ छूट जाएगा। लेकिन सम्मानित व्यक्ति—जो हर रविवार को चर्च जाता है, शराब नहीं पीता, सिगरेट नहीं पीता, बाइबिल पढ़ता है, कुरान पढ़ता है, गीता पढ़ता है—यह आदमी तो खोज ही नहीं रहा है। तो कौन बुरा है? कैसे तय करोगे?

अब संसार भर में मादक द्रव्यों को लेकर नई पीढ़ी के बारे में बहुत चिंता है। युवा पीढ़ी पूरी तरह मादक द्रव्यों में उत्सुक है। क्या हो रहा है 2: कैसे निर्णय करें? क्या कहें इस बारे में? यदि तुम सजग हो तो निर्णय देना इतना आसान न होगा। यदि तुम सजग नहीं हो, तो तुम तुरंत निर्णय दे सकते हो कि वे गलत हैं या वे गलत नहीं हैं। फिर ऐसे लोग हैं जो मादक द्रव्यों के पक्ष में हैं, टिमोथी लिअरी और कई दूसरे लोग, जो कहते हैं, ‘यह सुंदर अनुभव है।’ और फिर ऐसे लोग हैं—संसार की तमाम व्यवस्थाएं—जो विरुद्ध हैं; वे कहते हैं, ‘यह बहुत विनाशकारी बात है।’

लेकिन सचाई क्या है? जो लोग मादक द्रव्य ले रहे हैं वे वियतनाम नहीं बना रहे, कश्मीर नहीं बना रहे, मिडिल—ईस्ट नहीं बना रहे। जो लोग मादक द्रव्य ले रहे हैं वे कहीं भी कोई युद्ध खड़ा नहीं कर रहे। उन्होंने किसी मुजीबुर्रहमान का कत्‍ल नहीं किया है; वे किसी की हत्या नहीं कर रहे हैं। अगर तुम सोचते भी हो कि वे हानि पहुंचा रहे हैं, विनाशकारी हैं, तो वे अपने को ही हानि पहुंचा रहे हैं, किसी और को नहीं। वे किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं। और ये सम्मानित लोग, ये जिम्मेवार हैं संसार भर में हो रही अत्यधिक हिंसा के लिए। ये सम्मानित लोग हैं। अब जिन्होंने मुजीबुर्रहमान को और उसके सारे परिवार को मार डाला—अब वे राष्ट्रपति हो गए हैं और न जाने क्या—क्या हो गए हैं, और वे सम्मानित व्यक्ति हैं।

तो वास्तविक अपराधी कौन है? रिचर्ड निक्सन ने कोई मादक द्रव्य नहीं लिए। क्या तुम्हें पता है, एडोल्फ हिटलर ने कभी शराब नहीं पी, कभी सिगरेट नहीं पी, पक्का शाकाहारी था। क्या तुम उससे बड़ा अपराधी खोज, सकते हो? वह पक्का जैन था—शाकाहारी, धूम्रपान न करने वाला, शराब न पीने वाला, और वह बड़ा अनुशासित जीवन जीता था, घड़ी के हिसाब से चलता था—और उसने नरक बना दिया धरती को! कई बार मैं सोचता हूं कि अगर उसने थोड़ी शराब पी ली होती तो क्या बेहतर न होता? शायद तब वह इतना हिंसात्मक न होता। अगर वह थोड़ा धूम्रपान कर लेता—मूढ़तापूर्ण है, पर निर्दोष खेल है धूम्रपान—तो वह इतना कठोर न होता, क्योंकि धूम्रपान एक प्रकार का रेचन है।

इसीलिए जब भी तुम क्रोधित अनुभव करते हो, तो तुम धूम्रपान करना चाहते हो; जब भी तुम चिड़चिड़ाहट अनुभव करते हो, तो तुम धूम्रपान करना चाहते हो। जब भी तुम अशांत होते हो, व्याकुल होते हो, तो तुम धूम्रपान करना चाहते हो। वह मदद करता है। लेकिन करने के लिए बेहतर चीजें हैं. तुम किसी मंत्र का प्रयोग कर सकते हो। धूम्रपान भी एक प्रकार का मंत्र है। इसकी जगह तुम कह सकते हो, ‘राम, राम, राम, राम..।’ धूम्रपान एक प्रकार का मंत्र है : तुम धुआं भीतर खींचते हो, तुम धुआं बाहर छोड़ते हो; तुम धुआं भीतर लेते हो, तुम धुआं बाहर फेंकते हो.. एक पुनरुक्ति! धूम्रपान द्वारा एक प्रकार का जप करते हो। तुम कह सकते हो, ‘राम, राम, राम’—वह बात भी मदद देगी। अब जब क्रोध आए तो जरा प्रयोग करना, दोहराना. ‘राम, राम, राम.।’ वह धूम्रपान से बेहतर है। लेकिन बात वही है, कुछ ज्यादा अंतर नहीं है।

अगर एडोल्फ हिटलर किसी की पत्नी के प्रेम में पड़ गया होता, तो उसकी निंदा की जाती कि बुरा आदमी है, लेकिन वह इतना हिंसात्मक न होता। तब वह थोड़ा शिथिल, थोड़ा शांत होता—तो संसार बेहतर होता।

तो क्या कहा जाए? कैसे हो निर्णय? चीजें जटिल हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शराबी हो जाओ, और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मादक द्रव्य लेने लगो। मैं यह कह रहा हूं कि जीवन की जटिलता ऐसी है कि किसी को निर्णय नहीं लेना चाहिए।

निर्णय आते हैं क्षुद्र मनों से; वे सदा तैयार रहते हैं निर्णय करने के लिए। तुम्हारे निर्णय ऐसे हैं जैसे कि तुम्हें एक छोटा सा टुकड़ा मिल जाए कागज का किसी बड़े उपन्यास के पन्ने का और तम पढ़ लो कुछ पंक्तियां —वे भी पूरी न हों—बस थोड़ी सी पंक्तियां, पन्ने का एक हिस्सा ही : और का दे दो निर्णय। इसी तरह तो तुम कर रहे हो। किसी व्यक्ति के जीवन का एक हिस्सा ही आता है तुम्हारी निगाहों के सामने और तुम निर्णय कर लेते हो पूरे व्यक्ति के संबंध में—कि वह बुरा है, कि वह अच्छा है। नहीं, बुद्धिमान व्यक्ति निर्णय नहीं लेते।

ऐसा हुआ जीसस के साथ। लोग एक स्त्री को लेकर उनके पास आए; और सारा शहर पागल हुआ जा रहा था। मूढ़ व्यक्ति सदा पागल होते हैं; भीड़ सदा पागल होती है—छोटी—छोटी बातो के लिए, वस्तुत: ना—कुछ बातो के लिए। उन्होंने कहा, ‘इस स्त्री ने पाप किया है। यह व्यभिचारिणी है। तो क्या करना चाहिए हमें इसके साथ? पुराने शास्त्र कहते हैं कि इसे पत्थर मार—मार कर मार डालना चाहिए।’

वे एक तीर से दो शिकार करना चाहते थे—उस स्त्री और जीसस दोनों को मुश्किल में डालना चाहते थे। क्योंकि अगर जीसस कहते, ‘ही, पुराना शास्त्र सही है। इस स्त्री को मार डालो।’ तो वे पूछते, ‘आपके सिद्धात का क्या हुआ—कि अपने शत्रु से भी प्रेम करो? आपके सिद्धात का क्या हुआ—कि दूसरा गाल सामने कर दो? अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर मारता है तो उसे दूसरा गाल भी दे दो? आपके क्षमा के सिद्धात का क्या हुआ? क्या आप उसे बिलकुल ही भूल गए?’ और अगर जीसस कहते हैं कि पुराना शास्त्र गलत है, तो वे अधार्मिक हैं, धर्मद्रोही हैं—वें विरुद्ध हैं शास्त्रों के। उन्हें मार डालना चाहिए। लोग तैयार ही थे। असल में स्त्री में उन्हें ज्यादा रस न था; उन्हें जीसस में ज्यादा रस था। स्त्री तो केवल बहाना थी जीसस को घेरने के लिए।

जीसस सोचते रहे कुछ देर। निर्णय में देर नहीं लगती है, क्योंकि वह बना—बनाया तैयार होता है। वह तैयार ही होता है, रेडीमेड होता है : बंधा—बंधाया होता है। एक सजग व्यक्ति थोड़ा ठहरता है, देखता है चारों तरफ, अनुभव करता है, अपने बोध के स्पर्श से टटोलता है पूरी बात—कि स्थिति क्या है? उन्होंने देखा वहां बैठी हुई उस गरीब स्त्री को। आंसू बह रहे थे। उन्होंने देखा इन क्रोधित व्यक्तियों को। उन्होंने अनुभव किया पूरी स्थिति को, फिर उन्होंने कहा, ‘हां, शास्त्र की आशा है कि इस स्त्री को पत्थर मार—मार कर मार डालो, लेकिन पहला पत्थर वह आदमी मारे जिसने कभी कोई पाप न किया हो। अगर तुमने कभी व्यभिचार नहीं किया, अगर तुमने कभी व्यभिचार का सोचा भी नहीं, तो उठाओ पत्थर।’

वे नदी के किनारे बैठे हुए थे, बहुत सारे पत्थर पड़े थे आस—पास। जो लोग बिलकुल आगे—आगे खड़े थे—शहर के सम्मानित व्यक्ति—वे पीछे हटने लगे। वे भयभीत हो गए; अब यह खतरनाक बात थी। धीरे— धीरे सब लोग वहा से चले गए। केवल जीसस और वह स्त्री रह गए। उस स्त्री ने जीसस को बहुत श्रद्धा से देखा। बहुत अदभुत बात है : वे सम्मानित व्यक्ति नहीं पहचान सके जीसस को और पापी ने पहचान लिया!

वह स्त्री जीसस के चरणों में गिर पड़ी, और उसने कहा, ‘मैंने पाप किया है। मुझे क्षमा करें।’ जीसस ने कहा, ‘यह बात तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच की है। मैं कौन होता हूं निर्णय करने वाला? अगर तुम सोचती हो कि तुमने कुछ गलत किया है तो याद रखना और उसे फिर मत करना, बस इतना ही। लेकिन मैं कौन होता हूं निर्णय करने वाला और कहने वाला कि तुम पापी हो। यह तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच की बात है।’

समझदार व्यक्ति प्रतिसंवेदित होता है—निर्णय के साथ नहीं, बल्कि विवेक के साथ। जीसस ने बहुत विवेक से काम लिया। उन्होंने कहा, ‘हा, यह बात ठीक है, शास्त्र ठीक कहता है। मार डालो इस स्त्री को।’ फिर उन्होंने विवेक से थोड़ा भेद किया, ‘अब, जो स्वयं पापी नहीं हैं, उन्हें ही अपने हाथों में उठाने चाहिए पत्थर और वही मारें स्त्री को।’ यह है विवेक—सम्मत निर्णय। यह आया बोध से; यह कोई मुर्दा निर्णय नहीं था। उन्होंने किसी शास्त्र का अनुसरण नहीं किया। उन्होंने खुद बनाया अपना शास्त्र—सजगता के उस क्षण में।

सजग व्यक्ति लकीर का फकीर नहीं होता; सजग व्यक्ति की सजगता ही उसका मार्गदर्शक होती है। और वह सजगता कभी गलत नहीं होती, मैं यह कहता हूं तुम से। वह कभी गलत नहीं होती। और वह सदा प्रामाणिक होती है, सच्ची होती है—वर्तमान क्षण के प्रति सच्ची होती है।

अंतिम प्रश्न :

 

पद्यसंभव का कहना है ‘जब लोहे का पक्षी उड़ेगा तब धर्म लाल मनुष्य की भूमि में पहुंचेगा।’ क्या इस भविष्यवाणी को पूरा करना आपके काम का हिस्सा है?

मैं यहां किसी की भविष्यवाणी पूरा करने के लिए नहीं हूं। और क्यों करूं मैं पूरा? यह पद्यसंभव की अपनी कल्पना हो सकती है, लेकिन वह अपनी कल्पना मुझ पर जबरदस्ती क्यों लादे? मैं यहां स्वयं होने के लिए हूं। मैं कोई प्रोफेट नहीं हूं, और मैं यहां किसी को उसके पापों से मुक्ति दिलाने के लिए नहीं हूं। मैं यहां धर्म का कोई युग लाने के लिए नहीं हूं। ये तमाम बातें एकदम व्यर्थ और मूढ़ता भरी हैं।

मैं तो अपना आनंद मनाता हूं। अगर तुम भी आनंद मनाना चाहते हो तो तुम मेरे आनंद में सम्मिलित हो सकते हो, बस इतना ही। मेरे देखे, जीवन कोई गंभीर बात नहीं है। प्रोफेट जीवन को बड़ी गंभीरता से लेते हैं। संत सरल होते हैं। प्रोफेट सदा खतरनाक होते हैं।

बुद्ध कोई प्रोफेट नहीं हैं; असल में भारत ने प्रोफेट पैदा नहीं किए। प्रोफेट यहूदी धर्म की विशेष देन हैं। हमने संत पैदा किए—लाखों —लाखों संत—लेकिन वे सरल व्यक्ति हैं। जैसे तुम फूलों के साथ खुश होते हो—वे किसी खास उपयोग के नहीं होते। असल में प्रोफेट धर्म के राजनीतिज्ञ हैं। उन्हें बदलना होता है सारे संसार को; उन्हें एक लक्ष्य पूरा करना होता है, और बहुत कुछ करना होता है।

मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। मैं कोई मिशनरी नहीं हूं। मैं एक ऐसा संसार चाहता हूं जिसमें न कोई प्रोफेट हों, न कोई मिशनरी हों, ताकि लोग अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हों। प्रोफेट और मिशनरी ऐसा कभी नहीं होने देते। वे सदा तुम्हारे पीछे पड़े रहते हैं—अपने निर्णय सहित। वे सदा तुम्हारी छाती पर बैठे रहते हैं—अपनी धारणाओं और तुलनाओं के साथ। वे सदा तैयार रहते हैं तुम्हें नरक में फेंकने को या तुम्हें स्वर्ग का पुरस्कार देने को।

मेरे पास कुछ नहीं है—न तो कोई नरक है जिसमें तुम्हें फेंकना है और न कोई स्वर्ग है जिसे तुम्हें देना है—सिर्फ होने का आनंद है। और यह संभव है, बिलकुल संभव है। अगर तुम उसे होने दो तो यह अभी संभव है।

मेरे देखे, जीवन कोई गंभीर चीज नहीं है। असल में जीवन अस्तित्व की शाश्वतता में होने वाली एक कहानी, एक गुफ्तगू के सिवाय और कुछ नहीं है। मैं गुफ्तगू कर रहा हूं यहां; तुम सुन रहे हो, बस इतनी सी बात है। यदि तुम आनंदित हो तो तुम यहां हो। यदि मैं आनंदित हूं तो मैं यहां हूं। यदि परस्पर आनंदित होना कठिन हो जाए, तो हम अलग हो जाते हैं—और कोई बंधन नहीं है।

और मैं किसी को इजाजत नहीं देता—चाहे वह पद्यसंभव ही क्यों न हो—कि वह अपने जाल का लक्ष्य मुझे बनाए।

आज इतना ही।


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दीया तले अंधेरा–(बोधकथा) प्रवचन–2

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अकंप चित्त में सत्य का उदय—(प्रवचन—दूसरा)

 दिनांक 22 सितंबर, 1974.

श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

दो साधु एक झंडे के बारे में विवाद कर रहे थे।

एक ने कहा: ‘झंडा डोल रहा है।’

दूसरे ने कहा: ‘हवा डोल रही है।’

तभी छठे कुलगुरु वहां से गुजर रहे थे।

उन्होंने कहा: ‘न हवा, न झंडा, मन डोल रहा है।’

 भगवान! इस झेन लघुकथा का अर्थ क्या है?

स बोध कथा में प्रवेश के पहले मन के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बात, कितना ही तेज तूफान हो, सागर की सतह ही कंपित होती है, सागर का अंतस्तल नहीं। ऊपर आंधियां बहें, तो भी लहरें ही डोलती हैं। सागर का अंतस केंद्र बिना डोला ही रहता है। वहां तक हवाओं का कोई प्रवेश नहीं। वहां तक उनकी कोई चोट भी नहीं पड़ती। चोट पड़ भी नहीं सकती। सतह ही डोलती है। सीमा ही डोलती है। केंद्र सदा अकंप, अडोल है।

मन सतह है तुम्हारे व्यक्तित्व की। वह तुम्हारी आत्मा नहीं। तुम्हारी सीमा है, जहां से तुम दूसरों से अलग होते हो। जहां से तुम और पड़ोसी अलग होता है, वहीं तुम्हारा मन है। अगर तुम अकेले हो इस पृथ्वी पर, तब कोई भी मन न होगा। इसलिए जिनको मन को मिटाना है, वे अकेले होने में लग जाते हैं। भरे संसार में भी अपने को अकेला समझने में जो लग जाता है, जल्दी ही उसका मन खो जाता है। मन का अर्थ है तुम और दूसरे के बीच जो सीमा-रेखा है, वही तुम्हारी सतह है। ध्यान रहे, सतह के लिए दूसरा जरूरी है। इसलिए परमात्मा का कोई मन नहीं हो सकता। उसकी कोई सतह नहीं हो सकती। उससे दूसरा कोई नहीं है जो सीमा बनाये।

असीम अकंप होगा, सीमित कंपित होगा। मन सीमित है, तुम असीम हो। मन सतह है, जहां से दूसरा पृथक होता है। तुम वह निमज्जन हो, जहां मैं और तुम दोनों ही खो जाते हैं। तुम्हारी गहराई में कभी कोई तूफान नहीं गया। और ध्यान रखना जहां तक तूफान पहुंच जाये, समझ लेना कि वहां तक गहराई नहीं, सतह ही है। जो व्यक्ति स्वयं की खोज में निकलते हैं, आत्मज्ञान की खोज में, जो दीये के तले अंधेरे को मिटाना चाहते हैं, उनकी खोज का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा इसी बात की पहचान है, कि कहां तक बाहर की चीजें मुझे कंपाती हैं। कौन सी सीमा है, जहां तक बाहर मुझे आंदोलित करता है। जहां तक बाहर मुझे आंदोलित करता है, वहां तक मन है। एक ऐसी जगह भी है तुम्हारे भीतर जहां कोई आंदोलन कभी प्रवेश नहीं कर सकता।

ऐसा हुआ; एक जर्मन विचारक हेरिगेल ने अपना संस्मरण लिखा है। वह एक झेन-गुरु के पास वर्षों तक रहा। जापान के एक तीन मंजिल मकान में, तीसरी मंजिल पर उसकी विदाई समारोह का आयोजन किया था। हेरिगेल वापस लौट रहा था। उसके बहुत मित्र, साथी, परिचित, सहयात्री, गुरु के अन्य शिष्य, जिन सबसे वह निकट हो गया था, सभी बुलाये गये थे। गुरु को भी उसने आमंत्रित किया था।

संयोग की बात! जब भोजन चलता था, अचानक भूकंप आ गया। जापान में भूकंप आसान है। लकड़ी का मकान भयानक रूप से कंपने लगा। किसी भी क्षण गिरा…गिरा। लोग भागे। हेरिगेल भी भागा। सीढ़ियों पर भीड़ हो गई। उसे खयाल आया गुरु का। उसने लौट कर देखा, गुरु आंख बंद किए अपनी जगह पर बैठा है। हेरिगेल का एक मन तो हुआ कि भाग जाये और एक मन हुआ कि गुरु को निमंत्रित किया है मैंने, मैं ही उन्हें छोड़कर भाग जाऊं, शोभायुक्त नहीं। फिर जो गुरु का होगा वही मेरा होगा। और जब वे इतने अकंप और निश्चिंत बैठे हैं, तो मुझे इतना भयभीत होने की क्या जरूरत! वह भी रुक गया, गुरु के पास बैठ गया। हाथ पैर कंपते रहे, जब तक कि कंपन समाप्त न हो गया। बड़ा भयंकर उत्पात हो गया था। अनेक मकान गिर गये थे। सड़क पर कोलाहाल था, लोग पागल थे।

जैसे ही भूकंप रुक गया, गुरु ने आंख खोली और जहां बात टूट गई थी भूकंप के आने और लोगों के भागने के कारण, वहीं से बात शुरू कर दी, जैसे बीच में कुछ भी न हुआ। हेरिगेल ने कहा, ‘अब तो मुझे याद भी नहीं, कि हम क्या बात करते थे। बीच में बड़ी घटना घट गई। बड़ा फासला पड़ गया। मैं तो भूल ही गया हूं कि पहले आपने क्या कहा था। अब वह सवाल महत्वपूर्ण भी नहीं है। अब तो मैं कुछ और ही पूछना चाहता हूं। यह जो भूकंप हुआ इस संबंध में कुछ कहें।’ तो गुरु ने कहा, ‘वह सदा बाहर ही बाहर है। और जो भीतर न हो उसका कोई भी मूल्य नहीं है। बाहर सब कंप गया। मैं वहां सरक गया भीतर, जहां कोई कंपन कभी नहीं जाता।’

यही तो सारी आत्मज्ञान की कला है। अपने भीतर उस जगह सरक जाना, जहां कोई कंपन कभी नहीं जाता।

तुम अगर उद्विग्न हो, परेशान हो, बेचैन हो, संतप्त हो, तो उसका एक ही कारण है कि परिधि के साथ तुमने अपने को एक समझा। तुम उस जगह खड़े हो, जहां सभी तूफान आते हैं, हवायें कंपाती हैं, आग जलाती है, सुख-दुख घेरते हैं, प्रशंसा-निंदा छूती है। और तुम वहीं खड़े होकर इस कोशिश में लगे हो कि कैसे वह घड़ी आ जाये, कि निंदा परेशान न करे, प्रशंसा हर्षोन्माद से न भरे; सुख दीवाना न बनाये, दुख आंसू न लाये।

खड़े तुम परिधि पर और वहां इस कोशिश को करोगे, तुम हारोगे। अनंत जन्मों से तुम वहीं परिधि पर खड़े हारते चले आ रहे हो। वहां तो कोई भी खड़ा रहेगा तो हवायें छुएंगी। दुख आयेंगे। तुम खुश होओगे। दुख आयेंगे तो तुम दुखी होओगे, सुख आयेंगे तो सुखी होओगे। वहां बचने का कोई उपाय नहीं है, वहां शरण नहीं है। शरण भीतर है। असली सवाल यह नहीं है कि वहीं खड़े-खड़े कैसे तुम दुख में गैर-दुखी हो जाओ। उसके भी उपाय हैं, लेकिन वे उपाय बड़े महंगे हैं। उनसे बीमारी बेहतर! औषधि और भी खतरनाक है।

ऐसा हो सकता है कि परिधि पर खड़े-खड़े भी दुख तुम्हें न छुए, लेकिन तब तुम्हें अपने को बिलकुल निर्जीव कर लेना होगा। तब तुम्हें सारी संवेदना, सेंसिटिविटि खो देनी होगी। तब तुम्हें करीब-करीब ऐसे हो जाना होगा जैसे पत्थर की चट्टान। तब तुम आत्मा नहीं हो। क्योंकि आत्मा तो संवेदनशीलता की आत्यंतिक घड़ी है। वह तो आखिरी ऊंचाई है संवेदना की। वहां तो बोध सघन से सघन होता चला जायेगा। लेकिन परिधि पर खड़े रह कर एक तरकीब है, वह तरकीब लोग कर रहे हैं।

जिनको तुम साधु संन्यासी आमतौर से कहते हो, उनमें और तुममें एक ही फर्क है कि तुम जरा ज्यादा जीवित, वे जरा कम जीवित। तुम ज्यादा जीवित हो। तुम्हें चीजें ज्यादा छूती हैं। वे मर गए हैं। और उनका मरना कोई उपाय नहीं, आत्मघात है। जैसे एक मरी हुई लाश को तुम बाजार में रख दो तो बाजार का शोरगुल उसे परेशान न करेगा। लेकिन यह कोई उपलब्धि न हुई!

इसलिए जिसको तुम साधु कहते हो उसकी सारी कोशिश क्या है? उसकी पूरी साधना क्या है? कैसे संवेदनशीलता को मार ले! तो वह कांटे के बिस्तर पर सोया हुआ है…मूढ़ता है। और आत्मघाती मूढ़ता है। क्योंकि अगर तुम कांटे के बिस्तर पर सोते ही रहे, जिद तुमने की, तो थोड़े ही दिनों में कांटों की चुभन बंद हो जायेगी। इसलिए नहीं, कि तुम बदल गये, बल्कि इसीलिए कि स्पर्श की जो संवेदनशीलता थी, वह खो गई। स्पर्श मुर्दा हो गया। तुमने एक इंद्रिय मार डाली।

और स्पर्श सबसे बड़ी इंद्रिय है। क्योंकि सबसे पहले बच्चे के जीवन में स्पर्श आविर्भूत होता है। क्योंकि मां के पेट में बच्चा सबसे पहले चमड़ी होता है। फिर बाकी और सब इंद्रियां चमड़ी के ही स्पेशलाइजेशन हैं। उसी के विशेषीकरण हैं। तुम्हारी आंख चमड़ी है। लेकिन उसने एक विशेष ढंग सीख लिया है देखने का। तुम्हारे कान भी चमड़ी हैं; उन्होंने एक विशेष उपयोग कर लिया है सुनने का। तुम्हारी जीभ भी चमड़ी है; लेकिन उसने स्वाद का एक विशेष प्रशिक्षण ले लिया। तुम्हारी नाक भी चमड़ी है; उसने सूंघने की कला सीख ली। वे एक्सपर्ट्स हैं। उन्होंने कुछ विशेष कला में अपने को दीक्षित कर लिया। पर सभी चमड़ी है।

इसलिए स्पर्श सबसे मौलिक इंद्रिय है। इसीलिए साधु सबसे पहले स्पर्श को मारने में लगता है। नंगा हो जायेगा, धूप में खड़ा रहेगा, सर्दी में खड़ा रहेगा, बर्फ पर बैठेगा, आग जला कर बैठा रहेगा। धूप है, गर्मी है, वह धूनी रमायेगा। वह क्या कर रहा है? उसके भीतर एक ही कोशिश चल रही है। चाहे उसे पता हो या न हो। नहीं ही होगा पता; क्योंकि पता हो, तो ऐसी मूढ़ता कोई भी न करेगा। और तुम्हें भी पता नहीं है, नहीं तो इस तरह की मूढ़ताओं को तुम आदर न दोगे। वह कर क्या रहा है? वह यह कर रहा है कि चमड़ी धीरे-धीरे जड़ हो जाये। हो जाती है! तुम जानते हो, इसमें कुछ साधु होने की जरूरत नहीं। तुम्हारे पैर के नीचे भी चमड़ी है, लेकिन वह जड़ हो गई है, क्योंकि चलना पड़ता है। वहां संवेदनशीलता ज्यादा हो तो तुम चल ही न पाओगे। कभी कंकड़ भी पड़ जाता है तो पता नहीं चलता। जो लोग बिना जूते के ही चलते हैं उनकी पैर की चमड़ी बिलकुल ही मर जाती है।

एक घटना मैंने सुनी है कि एक पहाड़ी आदिवासी बैठकर अपनी चिलम पी रहा है। उसकी पत्नी थोड़े ही पास कुछ काम कर रही है खड़ी, और उससे वह कहता है कि देख, तूने अंगारे पर पैर रख दिया है, पैर हटा। वह स्त्री अपना काम करती रहती है। वह कहती है कौन सा पैर, बांया कि दांया?

आदिवासी के पैर की चमड़ी इतनी ही मरी होती है।

यही साधु कोशिश कर रहा है कि पूरा शरीर पैर की चमड़ी जैसा मृत हो जाये। इसलिए धूप, गर्मी, सर्दी को सह रहा है। परिधि नहीं बदल रहा है, परिधि पर ही खड़ा है। स्वाद मर जाये इसकी चेष्टा चलती है। अस्वाद को साधुओं ने व्रत बना रखा है। गांधी जी के ग्यारह व्रतों में अस्वाद खास व्रत है। तो गांधीजी खाने के साथ-साथ नीम की चटनी भी खाते थे, स्वाद को मारने के लिए।

अमरीकी विचारक लुई फिशर गांधी के घर मेहमान था। उसकी थाली में भी उन्होंने चटनी रखी। सभी की थाली में रखते थे। एक बात ध्यान रखना, जो आदमी खुद को कष्ट देगा वह सभी को कष्ट बांटेगा। वह उसका रस हो जायेगा। वही कसौटी हो जायेगी। लुई फिशर ने चटनी चखी, सब जहर हो गया मुंह। भला आदमी! सुसंस्कारशील! उसने सोचा, कुछ कहना उचित नहीं है। गांधी ने इतने प्रेम से रखी है, और वे बगल में ही बैठे खाना खा रहे हैं। और वह भी उस चटनी को बड़े रस से ले रहे हैं। तब कुछ कहना उचित नहीं। शायद अभद्रता हो! और फिर इस चटनी के साथ भोजन करने का मतलब पूरा भोजन जहर हो जाये। उसने सोचा बेहतर इसको इकट्ठा ही निगल जाओ; एक दफा में। ताकि कम से कम भोजन पूरा खराब न हो। वह पूरी चटनी को इकट्ठा निगल गया। गांधी ने कहा, ‘देखो, मैंने पहले ही कहा था लुई फिशर पसंद करेगा। और ले आओ।’

तुम्हारे सब साधु तुम्हारे भोजन में नीम की चटनी रख रहे हैं। न तुम्हें होश है, न उन्हें होश है, कि हो क्या रहा है! स्वाद को मारना है। रोज अगर नीम की चटनी खाते रहेंगे तो स्वाद मर जायेगा। इसमें कुछ हैरानी की बात नहीं। चमड़ी की जो विशेषता है जीभ की, जो उसने बड़ी कला से सीखी है वह मर जायेगी, खो जायेगी। तुम्हारी चमड़ी साधारण चमड़ी हो जायेगी। जीभ हाथ की चमड़ी हो जायेगी। हाथ पर तुम नीम रखो कि मिठाई रखो, कुछ पता नहीं चलता।

लेकिन यह उपलब्धि हुई कि नुकसान हुआ? लाखों-लाखों वर्ष की कोशिश के बाद जीभ की चमड़ी स्वाद को लेने में समर्थ हो पाई है। यह एक महान उपलब्धि है। इस उपलब्धि को थोड़ा समझो कि चमड़ी इतनी संवेदनशील हो गई है कि स्वाद को भी लेने में कुशल हो गई है। नाक सूंघने में सफल हो गई। गंध का नया आयाम खुल गया है।

तुम देखते हो, मेहतर सिर पर पाखाने की टोकरी लिए जाता है, उसे कुछ अड़चन नहीं होती। वह महासाधु है! तुम उसकी पूजा करो क्योंकि उसे सुगंध बिलकुल नहीं आती। तुम सोचते होओगे कितनी दुर्गंध में जी रहा है। पास से निकलते हो तो तुम नाक पर रूमाल रख लेते हो। और वह मजे से गपशप करता चला जा रहा है। किसी से बात कर रहा है, गाना गुनगुना रहा है। तुम गलती में हो। उसकी नाक मर चुकी है। निरंतर अगर पाखाना ढोना पड़ेगा तो नाक कितनी देर जिंदा रहेगी? बहुत सूक्ष्म हैं; नासापुटों में छिपे हुए जो अणु हैं जिनसे गंध मिलती है, बहुत सूक्ष्म हैं और बहुत डेलिकेट, नाजुक हैं। उन पर अगर बहुत चोट की तो वे मर जाते हैं। इसलिए इस आदमी को कोई गंध नहीं आती। क्या तुम इसे साधु कहोगे? न इसे गंध आती है, न इसे दुर्गंध आती है। एक इंद्रिय और मर गई।

सूरदास की कहानी बड़ी प्रतीकात्मक है। मैं नहीं जानता सूरदास ने ऐसा किया हो। किया हो तो वह आदमी बेकार। दो कौड़ी की कीमत का नहीं। न किया हो तो ही कुछ सूरदास के पदों में अर्थ हो सकता है। कहते हैं कि एक सुंदर स्त्री को देखकर उन्होंने आंखें फोड़ लीं। न रहेंगी आंखें, न सौंदर्य दिखाई पड़ेगा।

यही तो गणित है आत्महत्या करनेवाले का। न रहेगा जीवन, न कोई बेचैनी होगी। लेकिन यह कोई उपलब्धि है? न रहेगा मरीज, न बीमारी बचेगी। अस्पतालों में तुम बड़ी गलती कर रहे हो, मरीजों को मार डालो! जब तक वे हैं तब तक बीमारी का डर।

यही तुम्हारे साधु-संत हजारों साल से कर रहे हैं। उनसे ज्यादा जीवन में जहर डालने वाले लोग खोजना कठिन है। वे ही पाइजनस हैं। उन्होंने सब विषाक्त कर दिया है। न तुम्हें स्वाद लेने देते ठीक से–उसमें नीम डाल दी। न तुम्हें गंध लेने देते ठीक से–उसमें पाप डाल दिया है। न तुम्हें स्पर्श करने देते हैं ठीक से। क्योंकि स्पर्श? वही तो सब नरक का द्वार है। न तुम्हें सौंदर्य को देखने देते हैं। उन्होंने सभी सूक्ष्म संवेदनाओं को मिटा डाला है।

नहीं, मैं तुमसे यह नहीं कहूंगा। मैं जीवन का पक्षपाती हूं, आत्महत्या का नहीं। मैं तुम्हें मरने को नहीं कहूंगा। और किसी ज्ञानी ने कभी नहीं कहा है। इसे तुम ज्ञानी की परीक्षा समझ लेना। यह कसौटी है। ज्ञानी तुम्हें अमृत देगा, जहर नहीं। तुम्हारे पास जो है वह नहीं छीनेगा। तुम्हारे पास जो नहीं है वह तुम्हें देगा। निश्चित ही जब तुम्हारे पास और विराट होगा तो क्षुद्र छूटता जायेगा।

मैं तुम्हें इतना स्वाद दूंगा कि भोजन की जरूरत न रह जाये। मैं तुम्हें इतनी गंध देना चाहता हूं कि तुम इतने सूक्ष्म हो जाओ गंध में, कि सारा जगत एक गंध का प्रवाह हो जाये। यहां तुम उठो, बैठो, डोलो तो जगत की सूक्ष्मतम गंध तुम्हें पकड़ ले। मैं तुम्हारे कानों को बहरा नहीं करना चाहता, उन्हें ऐसी ध्वनि चाहता हूं देना कि इस जगत में छिपा हुआ जो परम निनाद है, ओंकार–वह तुम्हें सुनाई पड़ जाये। चारों तरफ वह निनाद चल रहा है। हर हवा के झोंके में उसी की खबर है। हर फूल के खिलने में उसी का सौंदर्य है। हर आंख से वही झांक रहा है। और जब तुम किसी को स्पर्श करते हो, तो तुमने उसी को छुआ है। तुम जानो या न जानो, यह दूसरी बात है। तुम्हारी सारी इंद्रियां इतनी सतेज हो जायें कि पदार्थ के भीतर छिपे परमात्मा को तुम अनुभव कर सको।

तब क्या करना पड़े? क्योंकि जितनी इंद्रियां सतेज होती हैं उतनी ही चिंता पैदा होती है। जितना संवेदनशील व्यक्ति होगा उतना ही चिंतित होगा। मूढ़ों को कभी तुमने चिंतित देखा है? वे तो परमहंस मालूम होते हैं। वे अपना सिर लटकाये अपने घरों के सामने बैठे हैं। उन्हें कोई चिंता नहीं छूती। क्या तुम भी वैसी ही अवस्था चाहते हो? तो साधु-संन्यासियों के पीछे चले जाओ। आज नहीं कल वे तुम्हें मूढ़ बना देंगे। अच्छा होगा कभी पागलखाने में जा कर किसी इडियट को, किसी मूढ़ को देखो। उसे कुछ चिंता नहीं छूती। ऐसा भी, कि अगर आग भी लग जाये तो भी वह निश्चिंत बैठा रहेगा।

लेकिन इस निश्चिंतता में और झेन गुरु की निश्चिंतता में–जो तीन मंजिल मकान पर भूकंप के समय शांत बैठा रहा–बड़ा फर्क है। मौलिक फर्क है। गुणात्मक फर्क है। ये दोनों एक घटनायें नहीं हैं। क्योंकि झेन की सारी शिक्षा इंद्रियों को संवेदनशील बनाने की है। इसलिए अगर तुम झेन गुरुओं का आश्रम देखोगे तो तुम चकित हो जाओगे।

गांधी तो उस आश्रम को देखकर कहेंगे, ‘यह कोई आश्रम हुआ? यह तो भोग विलास है।’ इसलिए गांधी ने वर्धा चुना। इस मुल्क में सबसे ज्यादा कुरूप जगह उनके खयाल में आई आश्रम बनाने के लिए। तप्त धूल के सिवाय कुछ भी नहीं। इस मुल्क में सुंदर पहाड़ियां हैं, वृक्ष हैं, सुंदर ऋतुओंवाली जगहें हैं, वे गांधी ने नहीं चुने।

झेन गुरु पहाड़ में, झील के तट पर, वृक्षों के पास आश्रम को बनाता है। उसके आश्रम में फूल खिलते हैं, फल लगते हैं, पक्षी गीत गाते हैं। ऐसे ही हिंदुओं के गुरुकुल थे कभी। वहां पक्षी थे, वृक्ष थे, फूल थे। जैनों और बौद्धों की नासमझी से सब नष्ट हुआ। उन्होंने सब सुखा डाला। फूल देख कर उन्हें घबड़ाहट लगती है। सौंदर्य से डर पैदा होता है, क्योंकि सौंदर्य तत्क्षण उन्हें कामवासना की याद दिलाता है।

यह आश्चर्य की बात है कि जो भी सुखद है उससे भय क्यों पैदा होता है? उससे तुम भागना क्यों चाहते हो? भागने से ही पता चलता है कि तुम चेष्टा परिधि पर कर रहे हो।

वह झेन गुरु जो तीसरी मंजिल पर बैठा था, मैं तुमसे कहता हूं भागा वह भी। लेकिन उसके भागने का ढंग बहुत दूसरा है। हट वह भी गया वहां से। और यही उसने कहा भी। उसने कहा यह कि भागे तो तुम भी, लेकिन तुम जहां भाग रहे थे वहां भी भूकंप था। उसमें अर्थ क्या है? तुम्हारा भागना अर्थहीन है। कोई इसी मकान में थोड़े ही भूकंप आया हुआ था! कोई तीसरी मंजिल पर ही थोड़े ही भूकंप आया हुआ था! वह तो दूसरी पर भी था, पहली पर भी था, सड़क पर भी था। तुम भाग कहां रहे थे? तुम एक भूकंप के स्थान से दूसरे भूकंप के स्थान पर ही भाग रहे थे। वह कोई बचाव नहीं था। असली बचाव तो मैंने किया। भागा तो मैं भी। परिधि से केंद्र की तरफ भागा। अपने भीतर सरक गया, जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंचता। वह झेन गुरु बुद्धिमान है।

तुम जब तक भागोगे एक परिधि से दूसरी परिधि पर, क्या अंतर पड़ेगा? घर रहो कि आश्रम, बाजार में रहो कि हिमालय, अगर तुम परिधि पर हो तो परिधि पर ही रहोगे। वहां भी भूकंप है। सब तरफ भूकंप है। क्योंकि सब तरफ तुम्हारी परिधि को, कुछ न कुछ छुएगा, आंदोलन पैदा होंगे। तब एक सीधा रास्ता दिखाई पड़ता है–परिधि को मार डालो। कोई तरह का एनेस्थेसिया खोज लो ताकि परिधि बिलकुल जड़ हो जाये। तुम्हें कुछ पता न चले। यह कोई क्रांति न हुई। यह तो तुम्हें जो मिला था वह भी खो दिया और जो मिल सकता था उसकी संभावना भी समाप्त हो गई।

इसलिए तुम ऐसे साधुओं को, जो लेटे हैं सड़कों पर, पैर उठाये खड़े हैं, दस वर्ष से बैठे नहीं हैं, लेटे नहीं हैं, कांटों पर लेटे हैं, पत्थरों पर पड़े हैं, ठंडी रात में पानी में खड़े हैं–इन साधुओं को जरा गौर से देखना। इनकी आंखों में तुम्हें गहराई न दिखाई पड़ेगी। इनसे ज्यादा छिछले आदमी खोजने मुश्किल हैं। क्योंकि ये बिलकुल परिधि पर जकड़ गये हैं। और सारा संघर्ष इतना ही है कि परिधि को किसी तरह मार डालो। न होगी संवेदना, न आयेगी चिंता। लेकिन यह हल नहीं है।

जाओ केंद्र पर, जहां कोई चिंता कभी नहीं पहुंचती। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारी परिधि पर कंपन बंद हो जायेंगे। यह झेन गुरु अपने भीतर चला गया तो भी यह मकान तो कंप ही रहा है। शरीर तो कंपेगा ही।

झेन गुरु रिंझाई मरा। उसका जो प्रमुख शिष्य था वह रोने लगा। तो लोगों ने कहा रोओ मत। लाखों लोग इकट्ठे थे। लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? क्योंकि हम तो सोचते हैं कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये हो। और तुम रो रहे हो। रोते अज्ञानी हैं।

वह शिष्य आंख खोला और बोला, ‘अज्ञानी को इतनी स्वतंत्रता और ज्ञानी को इतनी भी नहीं, कि मैं रो भी न सकूं? और तुम कह क्या रहे हो मुझसे? तुम यह कह रहे हो कि लोग तुम्हें आदर करते हैं, वे आदर वापिस ले लेंगे अगर तुम रोये।’

उस शिष्य ने कहा, ‘भाड़ में जाये उनका आदर। उनका आदर मैंने मांगा कब?’ उसने कहा, ‘जब मेरा गुरु मर गया है तो रोने में बड़ा आनंद है। मैं उसे बिदा दे रहा हूं और आंसूओं से बेहतर और क्या होगा? मैं दुखी नहीं हूं। भीतर केंद्र पर तो सब सन्नाटा है। वहां कौन गुरु, कौन शिष्य? कौन मरता, कौन जीता? कैसा जन्म? कैसी मृत्यु? वह केंद्र पर है, आंसू तो परिधि पर हैं। ये कोई मेरी आत्मा से नहीं आ रहे हैं। मेरी परिधि पर हैं, शरीर के हिस्से हैं।’

किसी ने कहा, ‘लेकिन तुम्हें तो भलीभांति पता है कि कोई मरता नहीं। गुरु मरे नहीं हैं, फिर क्यों रोते हो?’

तो उसने कहा, ‘मुझे पता है कि आत्मा नहीं मरती, लेकिन शरीर जो मर गया, वह भी बड़ा प्यारा था। और ऐसा शरीर अब दुबारा देखने में न आयेगा।’

एक तो, जीवन के परम स्वीकार में से आंसुओं का भी स्वीकार, हंसने का भी स्वीकार, रोने का भी स्वीकार–परिधि पर। उससे चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं, न उसको दबाने का कोई कारण है। इतनी ही जरूरत है, कि तुम परिधि के साथ तादात्म्य मत रखो।

हवा आयेगी तो वृक्षों में कंपन होगा। होना ही चाहिए। सिर्फ मरा हुआ वृक्ष नहीं हिलेगा जिसके सब पत्ते सूख गये हैं। जीवित वृक्ष तो कंपेगा और जोर से कंपेगा। और कंपन से कोई नुकसान नहीं होने वाला है। हवा चली जायेगी, धूल झड़ जायेगी, वृक्ष ताजा और नया होगा। रोना, जब रोना हो। हंसना, जब हंसना हो। स्वाद लेना। जीवन में कुछ भी छोड़ने जैसा नहीं है। छोड़ने जैसा होता तो परमात्मा उसे बनाता ही नहीं। तुम परमात्मा से ज्यादा बुद्धिमान होने की कोशिश में लगे हो। जीवन में सभी अपरिहार्य है, अनिवार्य है, उस सबसे गुजरना, लेकिन केंद्र पर बने रहना। सब छुये फिर भी न छू पाये। नाचना तुम, लेकिन भीतर कोई कंपित ही न हो। डोलना तुम, लेकिन भीतर अडोल बने रहना। अगर तुम इस द्वंद्व के बीच दोनों को साध सके तो तुम्हारे जीवन में जो फूल खिलेगा उस फूल में रस होगा, अर्थ होगा, संगीत होगा। क्योंकि उस फूल में विरोधी स्वरों का समन्वय होगा।

तुमने देखा है आर्केस्ट्रा? पचास वाद्य बजते हैं लेकिन एक संगीत पैदा होता है। तुम ऐसा भी कर सकते हो कि पचास पागलों को वाद्य दे दो। फिर एक उपद्रव पैदा होगा। संगीत पैदा नहीं होगा, शोरगुल मचेगा। विक्षिप्त करने वाला शोरगुल मच जायेगा। तब क्या करना चाहिए? वाद्यों को तोड़ देना चाहिए? या इन वाद्यों के भीतर जो संगीत की क्षमता है, तालमेल की, हारमनी की, वह सीखनी चाहिए?

तुम्हारी पांचों इंद्रियों के कारण तुम्हारे जीवन में बड़ा उपद्रव मचा है। क्योंकि तुम पांचों को केंद्र के साथ जोड़ने में सफल नहीं हो पाये। अन्यथा जीवन एक आर्केस्ट्रा है। और जब एक इंद्रिय इतना रस दे सकती है, तो पांचों इंद्रियां मिल कर जब संगीत को पैदा करती हैं, उस संगीत का नाम ही समाधि है। जब पांचों इंद्रियां मिल जाती हैं और एक ही गीत गाती हैं और एक ही नृत्य चलता है और उस नृत्य के बीच में तुम्हारा केंद्र थिर होता है, न हिलता है, न डोलता; तब तुम उस अवस्था में आ गये, जिसको हिंदुओं ने रास कहा है। कृष्ण खड़े हैं बीच में और गोपियां नाच रही हैं। गोपी इंद्रिय का प्रतीक है, कृष्ण केंद्र के प्रतीक हैं। रास का अर्थ है परिधि नाच रही है और केंद्र थिर है। बस, और रास से बड़ा अनुभव इस जगत में कोई दूसरा नहीं।

मन के संबंध में कुछ और बातें समझ लें।

दूसरी बात, मन के कारण जो भी तुम्हें दिखाई पड़ता है वह एक विशेष रंग में रंग जाता है। तुम नहीं देखते, बीच में मन खड़ा है। जहां भी तुम आंख ले जाते हो, तुम्हारी आंख का शुद्ध प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है। क्योंकि बीच में मन खड़ा है। तुम मन के द्वारा देखते हो। और मन का अर्थ क्या होता है? मन का अर्थ है अतीत अनुभव, स्मृतियां, जो तुमने सीखा, सुना, पढ़ा, लिखा, जाना, वह सब इकट्ठा है। उसकी पर्त तुम पर जमी है। जैसे धूल जम गई हो दर्पण पर। फिर तुम उसमें जाकर अपना चेहरा देखते हो। वह चेहरा साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ता। कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है।

मन धूल है, क्योंकि मन अतीत है। और धूल परिधि पर ही जमती है। भीतर तो जा नहीं सकती। जब तुम यात्रा से लौटते हो, स्नान कर लेते हो, बात समाप्त हो गई। और जाकर डाक्टर को नहीं कहते कि आपरेशन करो मेरे भीतर। धूल निकालो। धूल परिधि पर पड़ती है।

लेकिन शरीर के संबंध में तुम ज्यादा होशियार हो। रोज स्नान कर लेते हो, लेकिन रोज ध्यान नहीं करते। ध्यान स्नान है मन का, कि उस पर कुछ धूल जमे न। रोज-रोज उसे झाड़ देना है। ताकि मन साफ-सुथरा, पारदर्शी बना रहे। और मन पर जो प्रतिबिंब जगत के बनते हैं, वे विकृत न हों। अभी हम जो भी देख रहे हैं वह सभी विकृत है। तुम कुछ भी ठीक से नहीं देख पाते, क्योंकि हर चीज के बीच में तुम्हारी धारणायें खड़ी हो जाती हैं।

मैंने सुना है, पता नहीं कहां तक सही है, न हो सही तो अच्छा! सुना है कि तुलसीदास राम की बड़ी प्रार्थना-पूजा में लीन हैं। फिर वे वृंदावन गये और कृष्ण के मंदिर में गये। तो जो मित्र उन्हें ले गये थे कृष्ण के मंदिर में, वे बड़े चौंके। क्योंकि तुलसीदास खड़े रहे, झुके नहीं। और उन्होंने कहा कि जब तक, कृष्ण को कहा, जब तक धनुषबाण हाथ में न लोगे, तब तक मैं झुकने वाला नहीं। मैं राम का भक्त हूं।

क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब हुआ कि अगर परमात्मा भी आकर तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम्हारा मन कहेगा कि मेरी धारणा के अनुकूल! अगर तुम्हारी धारणा है कि उसके हजार हाथ हैं तो एक हजार एक तुम बर्दाश्त न करोगे, एक काट दोगे। और अगर दो ही हाथ का हुआ तो तुम बिलकुल घर के बाहर करोगे। ‘तुम जाओ, सहस्रबाहु हो कर आओ तभी मैं झुकूंगा।’ परमात्मा के सामने भी झुकने में मन की शर्त है। तो तुम नहीं झुक रहे हो, तुम परमात्मा को झुका रहे हो। तुलसीदास कह क्या रहे हैं? वे यह कह रहे हैं, ‘मैं झुकूंगा तब, जब तुम मेरी शर्त पूरी करो।’

झुकने में भी शर्त है। समर्पण में भी शर्त है। वह भी कंडीशनल है, कि धनुषबाण हाथ लो। पहले तुम झुको, तब मैं झुकूं। आदमी एक दूसरे के सामने भी इतना अशिष्ट नहीं होता। परमात्मा के सामने भी मन अशिष्ट होगा क्योंकि मन परमात्मा का दुश्मन है। वह कहता है सब मेरे अनुकूल होना चाहिए। जो मेरे अनुकूल है वह सत्य है। और फिर मन ऐसे-ऐसे तर्क देता है, कि तुम विश्वास ही न कर सको। लेकिन तुम्हारा मन भी यही कर रहा है।

ओ हेनरी की एक छोटी सी कहानी है कि एक गांव में हत्या हो गई। यह तो पक्का हो गया कि आदमी ने आत्महत्या नहीं की है, किसी ने मारा है। लेकिन किस ने मारा है कुछ पता न चले, कोई सुराग न मिले, तो एक बड़े जासूस को बुलाया गया। बड़ा जासूस आया उसने खुर्दबीन से लाश का एक-एक हिस्सा देखा। कोट पर पड़ा हुआ एक बाल मिल गया।

उसने कहा, पहेली हल हो गई। अब छोटी सी बात करने की है; वह यह, कि यह बाल किस आदमी का है? उसी ने इसको मारा है। उसने कहा पहेली हल हो गई। राज मिल गया। जिस आदमी ने भी इसे मारा है, उसका बाल इसके कंधे पर है। यह बाल इसका नहीं है। बस, अब इतना ही करना है कि उस आदमी को खोजना है, जिसका एक बाल खो गया हो।

जासूस बड़ा था, उसकी बड़ी ख्याति थी। अधिकारियों ने सुना तो थोड़े तो हैरान हुए, पर उन्होंने कहा, कोशिश करें। चार दिन न्यूयॉर्क में वह जासूस गली-कूचे, गली-कूचे भटकता रहा–होटल, स्टेशन, एयरपोर्ट। चौथे दिन एक आदमी को उसने जहाज पर चढ़ते देखा, बंदरगाह पर। वह आदमी संदिग्ध मालूम पड़ा उसकी चाल से, उसके कपड़े-लत्तों से। और उसने एक टोपी पहन रखी थी। जिसमें उसका सारा सिर ही नहीं बल्कि कान भी ढंके हुए थे। उसने कहा, हो न हो यही आदमी है। भागने की कोशिश कर रहा है। जासूस भागा हुआ उसके पीछे पहुंचा और जोर से चिल्लाया ‘पकड़ो इस आदमी को।’ अधिकारियों ने उसे पकड़ लिया जहाज के। और जासूस ने कहा कि बस, यही आदमी है। इसकी चाल से साफ होता है। अब इतना ही है, कि बाल का मेल करना है कि इसका बाल है या नहीं। इसकी टोपी उतारो।

टोपी उतारी तो बड़ी मुश्किल हो गई; वह बिलकुल गंजा था। एक बाल भी नहीं था। इसलिए बिचारा छिपाये हुए था। कोई संदिग्ध आदमी नहीं था। अपनी खोपड़ी छिपाये हुए था कोई और…। अधिकारी मन ही मन हंसे। वे समझे कि हम पहले ही जानते थे कि यह बात मूढ़तापूर्ण है। लेकिन जासूस ने क्या कहा? कि इससे सिद्ध होता है, कि इसने एक ही हत्या नहीं की, कम-से-कम दस लाख लोगों की हत्या इसके सिर पर है।

ऐसा मन का तर्क है। वह कभी अपने तर्क से पीछे नहीं हटता। वह तर्क की अंतिम सीमा तक जाता है। और हर तर्क अपनी अंतिम सीमा पर बेहूदा हो जाता है, रिडिकुलस हो जाता है। तुम किसी भी तर्क को खींचते चले जाओ उसकी आखिरी सीमा पर, तुम पाओगे कि वह मूढ़तापूर्ण हो गया। जो चीज अंत में मूढ़तापूर्ण हो जाती है वह पहले से ही मूढ़तापूर्ण थी, सिर्फ तुम देख न पाये।

इसलिए तर्क के साथ एक बात करनी जरूरी है कि तुम उसे खींचते हुए अंत तक ले जाओ। पागल यही करते हैं, इसलिए वे पागल हैं। पागल तुमसे ज्यादा तार्किक होता है।

एक आदमी को मैं जानता हूं जो दिन भर हाथ धोने में लगा रहता था। उसको मेरे पास लाया गया। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा आदमी विक्षिप्त है। तो उस आदमी को मैंने पूछा कि ‘क्या मामला है?’ उसने कहा, ‘मामला क्या है! आप भी मानेंगे कि अगर हाथ गंदा हो जाये तो साफ करना चाहिए।’ मैं भी मानूंगा। तो उसने पूछा, ‘कितनी दफा साफ करना चाहिए?’ तो मैं समझा कि उसका तर्क साफ है। उससे मैंने कहा ‘एक दफा।’ उसने कहा, ‘अगर न हो पाये पूरी तरह साफ?’ तो कहा, ‘दो दफा।’ ‘वही तो मैं कर रहा हूं। मैं पाता हूं कि दूसरी दफा भी पूरी तरह साफ नहीं हो पाया, तो तीनत्तीन सौ दफा! और ये सब लोग मुझे पागल समझ रहे हैं। और मैं केवल स्वच्छता का प्रेमी हूं।’

एक दफा हाथ धोना समझ में आता है। तीन सौ दफा हाथ धोना समझ में नहीं आता है। क्यों? तर्क को वह खींचकर उसकी आखिरी सीमा पर ले गया।

एक घर में मैं कुछ दिनों तक मेहमान था। उस घर में बड़ी मुसीबत थी। महिला बड़ी ही स्वच्छता की प्रेमी थी। तो दरवाजे बंद ही रखती थी। कोई आ भी जाये, तो पहले खिड़की से देखती थी, कि भीतर लाने योग्य है या नहीं। उसके पति भी सोफा वगैरह पर नहीं बैठ सकते थे। इतनी सफाई का सारा मामला था। उसका खुद भी, चौबीस घंटे सफाई में बीतता था। उसका लाभ कुछ हो ही नहीं सकता था। क्योंकि जीना है तो थोड़ी बहुत धूल तो आ ही जायेगी। अगर मरना ही हो तो कब्र ही साफ रह सकती है, घर तो थोड़ा बहुत…लोग आयेंगे-जायेंगे, बच्चे खेलेंगे-कूदेंगे। उसने बच्चों को जन्म नहीं दिया सफाई की वजह से। उसने कहा, ‘कौन उपद्रव लेगा।’ उसने शादी की यही चमत्कार है। पति भी ऐसे डरते हुए उसके घर में चलते थे।

मैं जब मेहमान हुआ उनके घर, तो मैंने कहा वह महिला तो किसी को भी पागल कर दे। क्योंकि आप बैठें तो वह आपको ऐसा देखे अपराधी भाव से नीचे से ऊपर तक, कि कहीं कोई धूल, कोई कचरा, या उसकी गद्दी पर कोई गड़बड़ तो नहीं हो जायेगी। लेकिन अगर इस महिला से तर्क करो, तो तुम हारोगे। क्योंकि वह कहती, कि स्वच्छता क्या बुरी बात है? स्वच्छता बिलकुल अच्छी बात है। खींचो इसको आखिरी तक और तुम मरे!

तुम अपने साधु-संतों को देखो। उन्होंने जो बातें अच्छी हैं, उनको आखिरी तक खींच के मुसीबत खड़ी कर दी है। वह तर्क का आखिरी परिणाम है। खींचते चले गये हैं, और बात बेहूदी हो गई। हर चीज को अगर तुम मध्य से खींचोगे इस कोने या उस कोने, मूढ़ हो जाओगे। मध्य यह है कि भूख लगे तो पेट भरो। अतियां ये हैं कि इतना भर लो कि वमन करना पड़े, और या इतना खाली छोड़ दो कि भूखे मरने लगो। दोनों तरह के लोग हैं इस दुनिया में। ज्यादा खाने वाले लोग, उपवास करने वाले लोग। दोनों अतियों पर चले गये हैं। और दोनों तर्कनिष्ठ हैं। वह जो ज्यादा खाता है…।

जैसे नीरो हुआ सम्राट। वह इतना खाता था, कि उसने चार डाक्टर रख छोड़े थे, जो खाने के बाद उसको उलटी करवाते। वह दिन में कोई बीस, पच्चीस कभी तीस बार खाता था। डाक्टर उसको तत्क्षण खाने के बाद वमन करवा देते थे। क्योंकि वमन के बिना दुबारा नहीं खा सकता था। नीरो कहता था कि जब खाने में इतना मजा एक दफे में आता है, तो चार दफा में और ज्यादा आयेगा, आठ दफा में और ज्यादा आयेगा। और जब खाने में इतना मजा आता है, तो जिंदगी खाने के लिए है। तो चार डाक्टर रख छोड़े हैं।

इसको तुम पागल कहोगे। लेकिन तुम्हारे उपवास करने वाले साधु-संत…वे सिर के बल खड़े नीरो हैं। शीर्षासन करते हुए नीरो! वे कहते हैं कि खाने से इंद्रियों को शक्ति मिलती है। इसी से तो जीवन का चक्र चलता है। इसी से तो वासना पैदा होती है। न होगी शक्ति, न होगी वासना। जब शक्ति ही न होगी, निर्बलता होगी, तो कैसे काम उठेगा? कैसे वासना उठेगी? तो बस, बंद कर दो खाना-पीना।

कुछ हैं, जिन्होंने गाड़ी में पूरा पेट्रोल भर लिया है। खुद के बैठने की जगह ही नहीं है। कुछ हैं जो गाड़ी में पेट्रोल ही नहीं डालते। बस, वे हैंडल पर बैठे रहते हैं। गाड़ी उनकी चलती ही नहीं। कुछ हैं, इतना पेट्रोल भर लिया है, वे बाहर खड़े हैं। क्योंकि भीतर आने की जगह नहीं है, जितनी जगह है, उतने में तो पेट्रोल डाल दिया है।

ये दो जो हैं, अतियां हैं। बुद्धिमान आदमी सदा मध्य में है। पर एक बड़े मजे की बात है मन के संबंध में कि मध्य में ही तुम रहो कि मन मर जाता है; अति पर जाओ कि मन बड़ा होने लगता है। मध्य में मन हो ही नहीं सकता। इस सूत्र को जितनी गहराई में ले सको, ले लेना। ठीक मध्य बिंदु पर मन नहीं हो सकता। इसलिए मन तुम्हें मध्य बिंदु पर कभी नहीं रहने देता। या तो खाओ खूब, या तो उपवास करो। दोनों से वह राजी है। या तो पागल होकर संसारी हो जाओ, या पागल होकर संन्यासी हो जाओ, दोनों से राजी है। ‘सम्यकत्व’–मध्य में भर मत आना। बीच में भर मत खड़े होना। या तो अतीत की सोचो–राजी; या भविष्य की सोचो–राजी। वर्तमान में मत खड़े होना। क्योंकि वर्तमान में सोच कैसे सकोगे? वर्तमान में सोच बंद हो जाता है। इसी क्षण, वर्तमान के क्षण में कैसे विचार चलेगा? वर्तमान में विचार चल ही नहीं सकता। या तो अतीत, या भविष्य।

वे दो अतियां हैं। मन मध्य से डरता है। और जो मध्य में आ जाते हैं वे मन से मुक्त हो जाते हैं। मन के मालिक हो जाते हैं। और मन ही कंपा रहा है। और जितनी अति पर तुम जाते हो, उतना ही कंपाता है। उपवास करता हुआ आदमी कंपता हुआ आदमी है; थिर हो कैसे सकता? अति पर कोई कभी थिर नहीं हो सकता। क्योंकि अति का अर्थ ही यह है, कि जीवन-ऊर्जाओं को तुम इतनी अतिशयोक्ति पर खींच दिये हो, कि वहां तुम शांत नहीं हो सकते। ज्यादा खा कर भी तुम शांत नहीं हो सकते। चौबीस घंटे दूकान पर ही डूब जाओ, तो भी तुम शांत नहीं हो सकते और दूकान को छोड़ कर तुम जंगल भाग जाओ, तो भी तुम शांत नहीं हो सकते।

क्रिया और अक्रिया के मध्य में कहीं खड़ा होना होगा। इसलिए बुद्ध ने अपने मार्ग को ‘मज्झिम निकाय’ कहा है, ‘दि मिडल वे।’ और मज्झिम निकाय का अर्थ है। मध्य मार्ग का अर्थ है। क्योंकि मन मध्य में मर जाता है, अभी तुम जो भी देखोगे उसमें मन के कंपन हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन शराबघर पहुंचा। ऐसे ही काफी पीये था, घर से ही पीकर चला था। दूकानदार ने भी देखा कि इतना ज्यादा पीये है। उसने कहा कि, ‘आज तुम्हें न दूंगा।’ तो नसरुद्दीन ने कहा, ‘तुमने क्या समझा है? तुम एक ही दूकान हो इस गांव में? किस अकड़ में भूले हो? दुबारा पैर न रखूंगा। देते हो या नहीं?’ दूकानदार ने कहा, ‘तुम जाओ। जब होश में हो तब आना।’

नसरुद्दीन लड़खड़ाता बाहर निकला। बड़ी देर खोजने के बाद दूसरी दूकान खोजी; वह उसी दूकान का दूसरा दरवाजा था। शराबी आदमी! उसको बड़ी देर लग गई टटोलते। इधर गया, उधर गया, गोल-गोल घूमा, परिक्रमा की, पहुंचा। बड़ी प्रसन्नता से भीतर गया और कहा कि ‘क्या समझा है उन लोगों ने? दूसरे दूकान वाले अकड़ गये हैं। ग्राहक पर ही जीते हैं और अकड़ से मरे जा रहे हैं।’ उस दूकानदार ने कहा, ‘नसरुद्दीन तुम फिर वहीं आ गये हो और आज तुम्हें न मिलेगी।’

नसरुद्दीन बाहर निकला, फिर खोजा-बीना। आधी रात गये, तीसरे दरवाजे से उसी दूकान के भीतर प्रवेश हुआ। उसने कहा, कि बड़ी मुसीबत हो गई इतनी दूकानें दूर-दूर। तो एक दूकान वाला न दे, तो दूसरे पर जाने में घंटों लग जाते हैं, तब उसने गौर से देखा और कहा, ‘क्या मामला है? क्या तुमने सब दूकानें खरीद लीं और हर जगह तुम्हीं मौजूद हो?’

मन इस दरवाजे से घुसे, तो भी उसी दूकान पर जाता है; दूसरे दरवाजे से घुसे तो भी उसी दूकान पर जाता है, मन कहीं और जा ही नहीं सकता। एक अति भी वहीं ले जायेगी, दूसरी अति भी वहीं ले जायेगी। मन मध्य से कभी प्रवेश नहीं करता। क्योंकि वहां मौत है। इसलिए मन एक अति से दूसरी अति पर डोलता है, घड़ी की पेंडुलम की भांति। इस डोलने में ही मन का अस्तित्व है।

तुम अति मत चुनना, अन्यथा मुश्किल में पड़ोगे। और जीवन में हर जगह हर चीज का मध्य खोजना। कठिन नहीं है। क्योंकि जब तुम अति खोज लेते हो, मध्य खोजना कैसे कठिन होगा? दोनों अतियों के बीच में रुक जाना। न तो भोग के पीछे पागल हो जाना, न त्याग के पीछे पागल हो जाना। न शरीर के गुलाम हो जाना, न शरीर के दुश्मन हो जाना। न तो इंद्रियों में इतने लिप्त हो जाना कि तुम बचो ही न, और न इतनी लड़ाई करने लगना कि इंद्रियों को काट ही डालो और वे बचें ही न। दोनों के मध्य।

मध्य बड़ा कठिन है। बड़ी कुशलता चाहिए। और सारे जीवन की कला इसमें है कि कैसे तुम मध्य को खोज लो!

मेरे पास कोई आता है; अगर वह ज्यादा खाता है, तो वह कहता है, ‘मुझे उपवास पर भेज दें।’ मैं उससे कहता हूं कि तू थोड़ा कम खा। उसके लिए वह राजी नहीं होता। उपवास के लिए वह राजी है। उससे मैं कहता हूं कि सम्यक भोजन कर। जितना जरूरी है उतना खा। उसके लिए वह राजी नहीं होता। वह कहता है, बड़ा कठिन है। उपवास के लिए वह राजी है। क्यों? उपवास के लिए क्यों राजी है? ज्यादा खाकर भी वह शरीर को नष्ट कर रहा था। उपवास करके भी वह शरीर को नष्ट करेगा। वह शरीर का दुश्मन है।

ये तरकीबें अलग हैं, दरवाजे अलग हैं, दूकान एक ही है। इधर वह स्त्रियों के पीछे दौड़-दौड़ कर, पुरुषों के पीछे दौड़-दौड़ कर परेशान हो रहा था। दौड़ थी।

डॉन जुआन हैं, वे दौड़ रहे हैं। कहते हैं, बायरन कोई साठ स्त्रियों के प्रेम में था एक साथ। जरूर कहीं न कहीं कोई विक्षिप्तता होनी चाहिए। क्योंकि प्रेम हो तो एक स्त्री का भी काफी, और न हो तो छः हजार का भी काफी नहीं।

मेरे एक मित्र हैं, उनके घर मैं मेहमान था। उनकी बैठक में बैठा था। एक लड़के को वे डांट रहे थे। उसको वे कह रहे थे, ‘तूने मेरी लड़की का अपमान किया। तूने रात उससे शादी का प्रस्ताव किया और मुझे पता चला है कि रात ही तू दूसरी लड़की के भी घर गया और उससे भी तू शादी का प्रस्ताव किया। और इतना ही नहीं, तू तीसरी लड़की के भी घर गया और उससे भी शादी का प्रस्ताव किया। यह तूने कैसे किया?’ उस लड़के ने कहा, ‘इसमें क्या अड़चन है बाबूजी? मेरे पास साइकिल जो है!’

साठ स्त्रियों से बायरन का संबंध! प्रेम विक्षिप्त मालूम होता है। कहीं कोई रोग है। यह प्रेम के पीछे कहीं कोई और ही बात है, जो बायरन पूरी करना चाह रहा है। प्रेम से कोई संबंध नहीं है। शायद प्रेम अहंकार की यात्रा है। कितनी स्त्रियों को जीत लूं। कितनी स्त्रियों पर कब्जा कर लूं–अहंकार! और अहंकार प्रेम का दुश्मन है। यह तृप्ति कभी न होगी। सारी दुनिया की स्त्रियां मिल जायें तो भी यह आदमी अतृप्त होगा।

तो एक तो डॉन जुआन टाइप है, बायरन टाइप है, जो सारी स्त्रियों को भोगना चाहता है। परेशान है। उसका शरीर टूटता है, नष्ट होता है। फिर कभी भी यह डॉन जुआन टाइप जब थक जाता है, परेशान हो जाता है, तो यही है जो फिर ब्रह्मचर्य के गुणगान गाता है। जो फिर सारे शरीर का दुश्मन हो जाता है। फिर यह किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकता है, कि कोई प्रेम में है। जो भी प्रेम में है उसको यह नरक में डाल कर सड़ाने की योजना बनाता है। ‘वहां आग जलेगी, वहां सड़ोगे।’

ये डॉन जुआनों ने ही तुम्हारे शास्त्र लिखे हैं। ये पहले स्त्रियों के पीछे भागते रहे, अब स्त्रियों के दुश्मन हो गये हैं। क्योंकि वहां कुछ पाया नहीं। न पाने का कारण खुद हैं, स्त्रियां नहीं। अन्यथा इस जगत में हर जगह परमात्मा है; स्त्री में न होगा? कण-कण में वे कहते हैं परमात्मा है; स्त्री से सावधान रहना। स्त्री अदभुत है! परमात्मा को खूब हराया उसने! सब पर जीत गया परमात्मा, स्त्री के भीतर प्रवेश न कर पाया। कहते हैं, ‘अभय रखना। लेकिन स्त्री से सावधान रहना।’ स्त्री से डर रहे हो और किससे अभय रखोगे?

सदा मन देखता है कि दूसरे पर जिम्मेवारी थोप दो। अगर तुम भटक रहे हो तो कोई भटका रहा है।

जागो! कोई तुम्हें भटका नहीं रहा है। तुम भटक रहे हो, तो तुम्हीं कारण हो। न कोई स्त्री तुम्हें खींच रही है, न कोई धन तुम्हें पुकार रहा है। न कोई पद तुम्हारे लिए आतुर है कि आओ और विराजो। कोई तुम्हें नहीं परेशान कर रहा है। तुम खुद ही परेशान हो रहे हो। और जब तुम बहुत परेशान हो जाते हो, तो तत्क्षण तुम विपरीत चुन लेते हो। अब तुम विपरीत से परेशान होओगे।

इधर लोगों को मैं देखता हूं स्त्रियों से परेशान हैं। उधर मैं साधुओं को देखता हूं वे स्त्रियों के न होने से परेशान हैं। साधु मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, ‘क्या करें! स्त्री कठिनाई है।’ और मेरे पास गृहस्थ आते हैं वे भी यही कहते हैं, ‘क्या करें! स्त्री कठिनाई है।’

तब मैं बड़ा चकित होता हूं, कि ये दोनों आदमी विपरीत हैं और कठिनाई एक है। ये आदमी दोनों विपरीत हो नहीं सकते, नहीं तो कठिनाई एक कैसे होती? अलग-अलग दरवाजों से एक ही दूकान में घुस रहे हैं। अन्यथा कठिनाई अलग होनी चाहिए।

और आश्चर्य तो यह है कि तुमसे, गृहस्थ से, ज्यादा परेशान साधु है। क्योंकि तुमने कम से कम प्राकृतिक अति चुनी। उसने अप्राकृतिक अति चुनी है।

ध्यान रहे, ज्यादा खाने वाला भी आज नहीं मर जायेगा। कम से कम पचास साल जिंदा रहेगा। परेशानी में रहेगा, लेकिन पचास साल। उपवास करनेवाला तीन महीने में मर जायेगा। वह अति अप्राकृतिक है। मगर कोई भी अति हो, उससे मन बढ़ता है। उसी के सहारे मन खड़ा रहता है। तो मन के संबंध में यह भी खयाल रख लें कि वह अतियों में जीता है।

अति, मन का भोजन है। तुम मध्य में आये कि मन गया।

अब हम इस छोटी सी कहानी को समझें।

दो साधु एक झंडे के बाबत विवाद कर रहे थे…।

एक झेन आश्रम में लगा है झंडा। सुबह की हवा ने उसे फहराया है। दो साधु गुजरते हैं। वे खड़े हो गये हैं, और विवाद शुरू हो गया।

मन बड़ा विवादी है, कोई भी बहाना–और विवाद शुरू हो जाता है। अब झंडे से क्या लेना-देना! लेकिन मन विवाद में रस लेता है। इसलिए बहाना कोई भी, बहाना है। तुम चाहे ईश्वर के संबंध में विवाद करो, चाहे कौन सी फिल्म अभिनेत्री सबसे ज्यादा सुंदर है; कोई फर्क नहीं।

विवाद का रस! विवाद का रस क्या है? दूसरे को हराना है। आदमी सुसंस्कृत हो गया है, लेकिन उसके भीतर का जानवर मर नहीं गया है; जिंदा है। लट्ठ नहीं मारता, तर्क मारता है। किसी के सिर पर लकड़ी मारो, पुलिस पकड़ लेगी। उसका हमने इंतजाम कर रखा है। लेकिन तर्क मारो, कोई नहीं पकड़ सकता। लेकिन रस वही है, कि दूसरे को झुका देना, गिरा देना। ‘मैं ठीक हूं, तुम गलत हो’ इसमें इतना रस क्यों है? क्यों हिंदू कहता है मुसलमान से कि तुम गलत हो? क्यों मुसलमान कहता है कि तुम्हारा वेद गलत है? क्यों जैन कहता है कि कुछ नहीं रखा है तुम्हारे वेदों में? क्यों हिंदू कहते हैं कि क्या सार है इन महावीर में? क्या कारण है कि सारे दुनिया के लोग विवाद में लीन रहते हैं? जरूर विवाद में कोई गहरा रस होना चाहिए। और कोई भी बहाना…।

और कभी-कभी तो ऐसे व्यर्थ के बहाने, कि तुम अगर बाहर हो विवाद के तो हंसोगे। भीतर हो, तो बड़े गंभीर रहोगे। क्या है श्वेतांबरों-दिगंबरों का विवाद? कि महावीर ने वस्त्र पहने या नहीं। अब विवाद चल रहा है। इस पर सिर फूट रहे हैं ढाई हजार साल से। अदभुत गधापच्चीसी है। महावीर ने पहने या नहीं पहने यह उनके लिए झंझट की बात होगी। किसी और को इसमें क्या प्रयोजन है? क्या रस है? महावीर ने शादी की या नहीं, इस पर श्वेतांबर-दिगंबरों में विवाद चल रहा है। और बड़े पंडित लगे हैं। और बड़े तर्क खोजते हैं, की या नहीं की! तो महावीर की झंझटों में तुम कैसे उतरते हो? की होगी तो उनने भोगा होगा। नहीं की होगी तो उनने भोगा होगा। तुम कहां आते हो?

लेकिन नहीं, यह तो बात ही नहीं है। असली बात यह नहीं कि हवा हिल रही है, कि झंडा हिल रहा है। इस पर सिर फूट सकते हैं। इसको अति पर खींचते जाते हैं लोग। हिंदू, मुसलमानों की मस्जिदें जलाते रहे हैं। मुसलमान, हिंदुओं की मूर्तियां तोड़ते रहे।

जिस आदमी में थोड़ा भी बोध है, वह अपने जीवन को सम्हालेगा। किस मंदिर को तोड़ने में शक्ति को लगानी है? किस मस्जिद को तोड़ने में लगानी है? कुछ बनाने में लगा रहे हैं, कुछ तोड़ने में लगा रहे हैं। लेकिन दोनों बाहर उलझे हैं और भीतर जीवन चुकता जा रहा है। हद की मूढ़ता है! लेकिन मन मूढ़ता में रस लेता है। प्रयोजन यह है, कि किसी भी तरह दूसरे को हराना है।

कितनी तरकीबें आदमी ने निकाली हैं। वे सब सुसंस्कृत उपाय हैं पशुता को सिद्ध करने के। शतरंज खेल रहे हैं। हाथी-घोड़े चलाना मुश्किल है। असली हाथी-घोड़े चलाओ तो झंझट में पड़ोगे। पालना भी मुश्किल है असली हाथी-घोड़े। तो नकली बना रखे हैं। हाथी हैं, घोड़े हैं, पिद्दी हैं, सम्राट है। और शतरंज खेलने वाले को देखो, कैसा गंभीर है! जीवन दांव पर लगा है। इसे पता नहीं है यह क्या कर रहा है। सब्स्टीटयूट है, परिपूरक है।

हमने हत्या बाहर बंद कर दी, लेकिन भीतर हत्यारा छिपा है। हम आदमियों की गर्दनें भीतर से नहीं काट सकते; क्योंकि वह महंगा धंधा है। तो हमने सुलभ उपाय खोजे हैं। देखें, कोई फुटबॉल खेल रहा है। लाखों लोग देखने पहुंच गये। चकित होने की बात है, कि आदमी के भीतर कोई रोग चल रहा है भारी। कहीं क्रिकेट चल रहा है, करोड़ों लोग टेलीविजन और रेडियो के पास खपे बैठे हैं। जैसे उनके जीवन दांव पर लगे हैं!

एक सज्जन को मैं जानता हूं, वे जिस टीम में उत्सुक थे वह हार गई, तो उन्होंने रेडियो गिरा कर तोड़ दिया, इतने जोश में आ गये। देखो जाकर। अगर तुम्हें पागल देखने हैं तो रेसकोर्स में देखो। घोड़े दौड़ रहे हैं, ये परेशान हैं! घोड़ों को तुम राजी करो, आदमियों की रेस करवाओ, एक घोड़ा न आयेगा। एक घोड़ा रस न लेगा, कि मरो! तुम दौड़ो, तुम्हारा क्या करना। लेकिन आदमी घोड़े पर दांव लगा रहा है। प्रयोजन घोड़ा नहीं है। प्रयोजन यह है, कि किसी भी तरह मैं घोषित करूं कि मैं जीत गया। दूसरा हारा, मैं जीता। जीत का इतना रस!

हम कोई भी बहाना खोज लेते हैं। फिर सभी बहाने बराबर हैं। भीतरी वृत्ति को पहचानना। अब क्या प्रयोजन हो सकता है दो साधुओं को? एक झंडे के बारे में विवाद कर रहे थे।

एक ने कहा, ‘झंडा डोल रहा है।’

दूसरे ने कहा, ‘हवा डोल रही है।’

अब यह विवाद बड़ा कठिन है तय करना। यह वैसे ही है, जैसे अंडा-मुर्गी–कौन पहले आया! इस पर बड़े-बड़े विद्वान और दार्शनिक विवाद करते रहे हैं। तुम हंसोगे कभी, कि बड़े-बड़े दार्शनिक भी इसमें क्यों उलझे हैं? पहले मुर्गी पैदा हुई, कि पहले अंडा?

राहुल सांकृत्यायन एक बहुत बड़े बौद्ध दार्शनिक थे। आखिर में उन्होंने सिद्ध ही कर दिया है अपनी किताब में, कि अंडा ही पहले हुआ। पर किसको प्रयोजन है? मुर्गी को मतलब नहीं है, हम क्यों परेशान हैं? और दोनों ही गलत हैं। इसलिए हल नहीं हो पाता। ध्यान रखना, जिन-जिन चीजों में विवाद का हल नहीं होता, वहां दोनों ही गलत होंगे।

ईश्वर के संबंध में अब तक तय नहीं हो पाया है कि वह है या नहीं। करोड़ों वर्ष से आदमी लड़ रहा है। न आस्तिक नास्तिक को हरा पाता है, न नास्तिक आस्तिक को हरा पाता है। जरूर बात कुछ ऐसी है, कि वह मूढ़तापूर्ण है और तय नहीं हो सकती। कुछ प्रश्न ही ऐसा है, कि उसमें कोई भी उत्तर देने से गड़बड़ होगी।

जैसे यह समझो, कि कोई तुमसे पूछने लगे, कि लाल रंग की सुगंध क्या है? प्रश्न तो बिलकुल ठीक लगता है। भाषाशास्त्री कोई गलती नहीं निकाल सकते। व्याकरण साफ सुथरी है। ‘लाल रंग की सुगंध क्या है?’ और दो जवाब देनेवाले मिल जायेंगे। वे हमेशा मिल जायेंगे। फिर विवाद शुरू हो जाए, फिर हल कुछ भी न हो पायेगा।

लोग कहते हैं कि ईश्वर है या नहीं। यह विवाद ऐसा ही है। क्योंकि तुम कैसे सिद्ध करोगे कि वह है? अगर वह असीम है, तो उसकी तरफ कोई इशारा नहीं किया जा सकता। अगर वह अदृश्य है, तो उसे किसी को बताया नहीं जा सकता। तुम कैसे सिद्ध करोगे कि वह है?

अगर उसने जगत बनाया तो एक बात पक्की है, कि बनाते वक्त तुम मौजूद नहीं थे। कोई साक्षी नहीं है, कोई गवाह नहीं है। और इतना बड़ा कृत्य बिना गवाह के कौन मानेगा? इतना बड़ा उपद्रव! उसने भी फिर यह भूल दुबारा नहीं की बनाने की।

कहते हैं लोग, कि उसने सब पशु बनाये–ईसाइयों की कथा है–झाड़ बनाये, पौधे, पृथ्वी, चांद, तारे; छठवें दिन आदमी बनाया। और फिर उसके बाद उसने कुछ नहीं बनाया। तो लोग पूछते हैं, फिर क्यों कुछ नहीं बनाया? तो उसने कहा कि वह आदमी से इतना ज्यादा घबड़ा गया देख कर, कि यह क्या कर बैठे! फिर उसने बनाना ही बंद कर दिया। यह आखिरी कृति है।

लेकिन गवाह तो कोई भी नहीं है। बातचीत सब हवा में है। इसलिए बुद्ध जैसे पुरुष जवाब नहीं देते। तुम उनसे पूछो, ‘ईश्वर है या नहीं?’ वे कहते हैं, ‘व्यर्थ की बातें मत उठाओ। कुछ सार्थक बात पूछो।’ और जो कहता है ‘नहीं है’ वह भी सिद्ध नहीं कर सकता है निर्णायक रूप से। कैसे सिद्ध करोगे कि नहीं है? जब तक एक-एक कण खोज न लिया जाये अनंत का, और कहीं भी उसे न पाया जाये, तब तक तुम कैसे सिद्ध करोगे कि वह नहीं है?

यह कभी होने वाला नहीं है। क्योंकि विस्तार अनंत है। कुछ न कुछ बाकी रह ही जायेगा। सदा बाकी रहेगा। जानने को सदा बाकी रहेगा। आदमी का मस्तिष्क छोटा है, अस्तित्व विराट है। इसलिए जो आस्तिक है वह कहेगा, जब तक तुमने पूरा नहीं जाना तब तक कम से कम चुप रहो। कहीं छिपा होगा। कहीं कोने कांतर में बैठा होगा।

विवाद चलता रहेगा। कैसे तय करोगे कि मुर्गी पहले कि अंडा पहले? कठिनाई प्रश्न में छिपी है, इसे समझ लो। क्योंकि तुम्हारे बहुत से प्रश्न, करीब-करीब सभी, इसी तरह के हैं। जैसे ही कोई कहे कि मुर्गी पहले पैदा हुई, सवाल उठ आता है कि बिना अंडे के कैसे होगी? जैसे ही किसी ने कहा अंडा पहले पैदा हुआ, सवाल उठ आता है कि जब मुर्गी ही न थी अंडा रखने को, तो अंडा रखेगा कौन?

भूल सवाल में है। भूल देखने में है। मुर्गी और अंडा दो चीजें नहीं हैं। मुर्गी अंडे का एक रूप है। अंडा मुर्गी का एक रूप है। दोनों अलग किए नहीं जा सकते। वह एक ही घटना है। एक छोर पर अंडा, दूसरे छोर पर मुर्गी। वे दो हैं नहीं। क्या तुम पक्का बता सकते हो? कहां तक अंडा, और कहां से मुर्गी, कहां सीमा रेखा खींचोगे? कोई सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती। अंडा प्रतिपल मुर्गी हो रहा है। मुर्गी प्रतिपल अंडा हो रही है। तुम दो मान लेते हो कि अंडा अलग, मुर्गी अलग। इससे सवाल उठता है।

ठीक वैसी ही स्थिति सृष्टि और स्रष्टा की है। वे दो नहीं हैं, इसलिए सवाल गलत है और सब जवाब गलत हैं। यह अस्तित्व, यह सृष्टि हो नहीं सकती बिना स्रष्टा के। और स्रष्टा हो नहीं सकता बिना सृष्टि के। अर्थात किस अर्थ का स्रष्टा होगा, जब सृष्टि ही नहीं है? वे दोनों एक ही घटना के दो हिस्से हैं, दो छोर हैं। स्रष्टा प्रतिपल सृष्टि हो रहा है, सृष्टि प्रतिपल स्रष्टा हो रही है। जैसे मुर्गी अंडा हो रही है, अंडा मुर्गी हो रहा है। एक वर्तुलाकार वृत्त है, जिसमें दो नहीं हैं।

अब बड़ा कठिन है तय करना कि झंडा हिल रहा है, या हवा डोल रही है। दोनों अपने पक्ष में तर्क खोज सकते हैं। बड़े मजे की बात यह है, कि असत्य के संबंध में तर्क खोजा जा सकता है। तर्क को असत्य से कुछ विरोध नहीं है, तर्क सिर्फ असंगति के विरोध में है। असत्य के विरोध में बिलकुल नहीं है तर्क। तर्क असंगति के विरोध में है। वह कहता है कि एक संगति होनी चाहिए। एक सुसंबद्धता होनी चाहिए। और बड़ी कठिनाई यही है, कि जीवन असंगत है। सत्य असंगत है। और तर्क संगति के पक्ष में है–कंसिस्टेंसी।

अब जो आदमी कहता है कि झंडा डोल रहा है वह कहेगा, कि हवा दिखाई भी कहां पड़ रही है? जो दिखाई ही नहीं पड़ रही है वह उस झंडे को कैसे डुला सकेगी जो दिखाई पड़ रहा है? अदृश्य, दृश्य को कैसे छुएगा? दोनों का संबंध कैसे होगा? तुम हवा को दिखाओ कहां है? और जो दिखाई ही नहीं पड़ती तुम उसको क्यों आधार मानते हो? जो दिखाई पड़ रहा है झंडा, वह साफ सीधा दिखाई पड़ रहा है कि डोल रहा है।

यही तो सारे भौतिकवादी और ईश्वरवादियों का झगड़ा है–यही हवा और झंडा–इससे फर्क नहीं है। इसलिए कथा बड़ी प्रीतिकर है और बड़ी प्रतीकात्मक है। क्योंकि वह सभी दार्शनिकों की मूढ़ता बता रही है।

क्या कहता है माक्र्स? वह यही तो कहता है कि जो ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता वह कैसे इस जगत का स्रष्टा होगा? जो आत्मा दिखाई नहीं पड़ती वह इस शरीर को कैसे चलायेगी? अच्छा तो उल्टा होगा, कि जो दिखाई भी पड़ रहा है वही उस सब को चला रहा है, जो दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए माक्र्स कहता है कि जो चेतना है वह पदार्थ की उप-उत्पत्ति है: ‘ए बाई प्रॉडक्ट आफ मैटर।’ वह जो तुम्हारी आत्मा है, वह पदार्थ की ही उप-उत्पत्ति है। वह उस पदार्थ से ही पैदा हुई, जो दिखाई पड़ रहा है। वही आधार है जो दिखाई नहीं पड़ता, वह इसी का ही उत्पन्न हुआ एक रूप है।

झंडा डोल रहा है वह साफ दिखाई पड़ता है। पदार्थवादी कहेगा कि झंडा डोल रहा है, और झंडे के डोलने के कारण अदृश्य हवा में तरंगें पैदा हो रही हैं।

तुम पत्थर फेंकते हो झील में। पत्थर के कारण तरंगें झील में पैदा हो जाती हैं। फिर पूरी झील के अंत तक तरंगें चली जाती हैं। क्या तुम यह कहोगे कि तरंगों के कारण पत्थर फेंका गया? या तुम यह कहोगे कि पत्थर फेंका गया, इसलिए तरंगें पैदा हुईं। यह झंडा डोल रहा है, यह पत्थर की तरह तरंगें पैदा कर रहा है। वे तरंगें हवा को डुला रही हैं। और झंडा दिखाई पड़ता है, और हवा दिखाई नहीं पड़ती।

दूसरा भी अपने पक्ष में दलीलें खोज लेगा। वह कहेगा जब हवा नहीं चलती, तब तुम झंडे को डुला कर दिखा दो। बिना कुछ किए, बिना किसी और के डोलाये झंडा कभी डोलता नहीं। या तो हाथ से डोलाओ तो डोल सकता है। झंडा अपने आप कैसे डोलेगा? हवा नहीं होती तब तुम झंडे से करो प्रार्थना कि जरा डोल के दिखाओ। हवा ही डुला रही है। दिखाई नहीं पड़ती इससे क्या फर्क पड़ता है? स्पर्श तो होता है। जब हवा तेजी से चलती है तो हम भी डोलते हैं, कपड़े डोलते हैं, स्पर्श तो पता चलता है। स्पर्श भी तो एक प्रत्यक्ष है। वह भी तो देखा जाना है। हवा डुला रही है।

और ये दोनों कभी भी तय न कर पायेंगे। ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं हो सकता, जिस पर ये दोनों राजी हो जायें। तुम भी अगर गौर करोगे तो दो में से एक में अपने को बंटे पाओगे। तुममें से कई का मन कह रहा होगा, ‘डुला तो हवा ही रही है।’ जो तुममें से अपने को धार्मिक समझते हैं, वे कहेंगे, हवा डुला रही है। जो तुममें अपने को वैज्ञानिक समझते हैं, वे कहेंगे कि झंडा ही डोल रहा है।

उन दोनों का गुरु अचानक पास से गुजरता था।

छठे कुलगुरु वहां से गुजरते थे। उन्होंने कहा, ‘न हवा, न झंडा, मन डोल रहा है।’

अब यह एक बिलकुल तीसरा आयाम है। और यहीं से धर्म शुरू होता है। यह बिलकुल अलग यात्रा है। और यहीं से भीतरी द्वार खुलता है। झेन गुरु ने क्या कहा? उसने कई बातें कहीं। उसने कहा कि तुम दोनों ही बाहर की बात कर रहे हो। एक कह रहा है हवा, एक कह रहा है झंडा; लेकिन एक बात तय है, कि दोनों बाहर। तुम दोनों के कारण बाहर हैं। मैं तुमसे कहता हूं, कारण भीतर है। एक बात, कि अगर कारण खोजना है तो भीतर है।

क्या कह रहा है झेन गुरु? झेन गुरु यह कह रहा है, कि तुम उत्सुक हो कि झंडा डोल रहा है कि हवा डोल रही है। यह उत्सुकता जहां से आ रही है, वहीं सब कंपन है। तुम ठहर गये, कि सब ठहर गया। तुम्हारा कंपन मिटा, कि सब सवाल गिर गये।

इसलिए सच्चा गुरु तुम्हें जवाब नहीं देता, केवल तुम्हें अकंप होने की कला देता है। विधि देता है, कि तुम कैसे अकंप हो जाओ। विचार कंपन है, ध्यान अकंप होना है। ध्यान रुकना है। वह झेन गुरु यह कहता है, ‘बकवास बंद करो झंडे की और हवा की। सदियों से चलती है। कोई कभी तय नहीं कर पाया। कभी तय कर पायेगा भी नहीं। बच्चों का खेल है।’

एक दूकान पर मैंने एक खिलौना देखा, कई टुकड़े में। जिसे जमा कर बच्चे पूरा खिलौना बनायेंगे। मैंने लाख कोशिश की उसको जमाने की, वह जमे न। तो मैंने उस दूकानदार को कहा कि ‘बड़ा मुश्किल मामला है। इसे मैं भी नहीं जमा पा रहा हूं। तुमने भी कभी कोशिश की है इसको जमाने की? इसको कोई बच्चा कैसे जमायेगा?’ उसने कहा, ‘कोशिश तो मैंने भी की है, जमता नहीं। और भी कई लोग कोशिश कर चुके हैं। और जब किसी से भी नहीं जमा तो मैंने कंपनी को लिख कर पूछा। उन्होंने कहा कि वह जमेगा ही नहीं। वह तो बच्चे को यह अनुभव देने के लिए कि जिंदगी इस तरह की है, खिलौना बनाया। वह जमने वाला है नहीं। उस खिलौने का राज ही यही है कि बच्चे को यह अकल आनी शुरू हो जाये, कि जिंदगी जमने वाली नहीं है।’

तुम कितनी ही कोशिश करो यह गैर-जमी रहेगी। गैर-जमा होना इसका स्वभाव है। बाहर के प्रश्न और बाहर के उत्तर कुछ भी जमा न पायेंगे। कितना ही जमाओ! कितने दर्शनशास्त्र, कितने विचार की परंपरायें हैं। क्या खाक! कुछ भी नहीं जम पाया। एक के पास उत्तर नहीं है। और सब बड़े-बड़े उत्तर दिए हैं। हां, अगर तुम उसी घर में पैदा हुए हो जिनमें वह शास्त्र पूजा जाता है, तो तुम्हें शायद उत्तर दिखाई पड़े। क्योंकि तुम बचपन से ही अंधे किए गए हो। अन्यथा अगर तुम जरा भी छूट जाओ अपने अंधेपन से, और घर की कंडिशनिंग से, संस्कार से, तो तुम पाओगे हर शास्त्र बड़ी अजीब सी बात कह रहा है। क्योंकि उसमें मूल तो प्रश्न का कोई उत्तर ही नहीं है।

हिंदू कहते हैं, परमात्मा ने जगत बनाया। क्योंकि बिना किसी के बनाये कोई चीज हो कैसे सकती है? और तुम कभी नहीं पूछते कि परमात्मा को किसने बनाया? अगर तुम पूछो तो वे कहते हैं यह अतिप्रश्न हो गया। जहां उत्तर नहीं है उनके पास, वहां अतिप्रश्न है। मगर पहला प्रश्न अतिप्रश्न नहीं था, कि संसार को किसने बनाया? तब तुमने दलील दी कि बिना बनाये कोई चीज हो कैसे सकती है? अब तुम्हारी ही दलील का हम उपयोग कर रहे हैं कि परमात्मा को किसने बनाया, तो तुम कहते हो जबान गिर जायेगी, अतिप्रश्न मत करो।

याज्ञवल्क्य जैसा विचारशील व्यक्ति भी जनक के दरबार में गार्गी से बोला कि ‘तू अतिप्रश्न कर रही है गार्गी। तेरा सिर गिर जायेगा।’ जनक ने एक दरबार बुलाया था। और वहां जो सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी सिद्ध होगा, उसे उसने हजार गौएं, सोने से मढ़े हुए सींग, हीरे-जवाहरात से लदी हुई खड़ी रखी थीं। करोड़ों का मूल्य था उनका। वे उसे भेंट मिलेंगी। याज्ञवल्क्य ने सभी पंडितों को हरा दिया, लेकिन एक स्त्री को हराने में बड़ी मुसीबत हो गई।

उसका कारण है। क्योंकि पुरुष के तर्क की विधि अलग है, स्त्री के तर्क की विधि अलग है। इसलिए याज्ञवल्क्य मुश्किल में पड़ गया। स्त्री का तर्क बिलकुल अलग है। उसमें शृंखला नहीं है, छलांग है। इसलिए पति की कभी पत्नी से ठीक से बातचीत हो ही नहीं पाती। तुम कुछ कहते हो, वह कुछ कहती है। उसमें कहीं मेल ही नहीं होता। वह जमता ही नहीं है खिलौना। कितना ही जमाओ। आखिर में पति धीरे धीरे चुप ही हो जाता है। क्योंकि उसमें कोई सार नहीं है।

एक आदमी अखबार से पढ़ कर अपनी पत्नी को सुना रहा था कि एक घटना छपी है इसमें। एक घोड़े ने एक आदमी को लात मार दी और वह बोलने लगा। तो पत्नी ने पूछा, ‘क्या वह शादीशुदा था?’ पति ने कहा ‘हां। इसमें लिखा है, चार बच्चे भी थे उसके।’ पत्नी ने कहा, ‘इससे अच्छा होता, वह तलाक ले लेता।’ इससे ज्यादा सरल होता बोलने का ढंग कि तलाक ले लेता, बजाय घोड़े की लात खाने के।

कोई पति नहीं बोलता। धीरे-धीरे बोलना बंद हो जाता है क्योंकि सवाल यह है, कहीं मेल ही नहीं पड़ता। बोलते हैं, कि झंझट ही बढ़ती है। स्त्री का तर्क और है। उसका तर्क नहीं है। वह इंटयूटिव है, अंतःप्रज्ञात्मक है। उसकी धारा ही अलग है। पति है यूक्लिड की ज्यामेट्री जैसा और स्त्री है नॉन-यूक्लिडन ज्यामेट्री जैसी। उनकी परिभाषायें, जीवन के सोचने के ढंग ही अलग हैं। होने ही चाहिए। क्योंकि दोनों का चित्त, शरीर रसायन, सब अलग है। उनकी तर्क की विधि भी एक नहीं हो सकती।

सब पंडितों को तो हरा दिया याज्ञवल्क्य ने, क्योंकि वे सभी पुरुष थे। जो बात याज्ञावल्क्य कहता था उनकी समझ में पड़ती थी। लेकिन गार्गी ने मुश्किल खड़ी कर दी। और याज्ञवल्क्य को वही करना पड़ा, जो हर पति को करना पड़ता है। यह बड़े मजे की बात है, कि चाहे बुद्धू, चाहे बुद्धिमान; स्त्री के साथ आखिरी व्यवहार वही करना पड़ता है।

याज्ञवल्क्य ने कहा कि, ‘संसार को ब्रह्मा ने बनाया।’ और गार्गी ने पूछा कि ‘ब्रह्मा को किसने बनाया याज्ञवल्क्य?’ और याज्ञवल्क्य ने वही किया, जो कोई पति अपने पत्नी के साथ करता है, कि उसकी खोपड़ी पर एक डंडा मारे, या लड़ने को खड़ा हो जाये। याज्ञवल्क्य ने कहा कि ‘यह अतिप्रश्न है। अगर तूने आगे पूछा तो सिर गिर जायेगा।’

इसके बाद क्या हुआ पता नहीं। क्योंकि वह जमात पुरुषों की थी। उन्होंने निर्णय याज्ञवल्क्य के पक्ष में लिया होगा। जनक की बुद्धि भी पुरुष की थी।

लेकिन बात साफ है, कि प्रश्न अधूरा रह गया। और याज्ञवल्क्य हार गया। उत्तर नहीं है। उत्तर नहीं होता तभी क्रोध आता है। नहीं तो सिर टूट जाने का सवाल क्या है? गार्गी ने नस पकड़ ली। आखिरी सवाल उठा लिया। और याज्ञवल्क्य समझ गया कि अब इसका उत्तर दिया, कि मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि यह पूछती ही चली जायेगी, कि फिर उसको किसने बनाया? फिर उसको किसने बनाया? और आखिर में झंझट आयेगी ही। क्योंकि आखिर तो इसका होनेवाला नहीं है।

लेकिन सभी दर्शनशास्त्र इसी हालत में हैं। जैन कहते हैं, ईश्वर बनानेवाला नहीं है। तो उन्होंने एक झंझट से बचने की कोशिश की। एक दर्शनशास्त्र दूसरे दर्शनशास्त्र की झंझट से बचने की कोशिश करता है, लेकिन अपनी झंझट में पड़ जाता है। वे बच गये एक झंझट से कि ईश्वर बनानेवाला नहीं है, सृष्टि अपने आप बनी।

लेकिन तब सवाल यह है कि आत्मा बंधन में कैसे पड़ी? बड़ी मुसीबत है। वे कहते हैं, ‘आत्मा मुक्त हो जायेगी।’ लेकिन पूछनेवाला यह पूछता है कि मुक्त हो जायेगी तो समझ लिया आखिर में, लेकिन बंधन में तो शुरुआत में कैसे पड़ी? अगर तुम उनसे कहो कि कर्मों के कारण; तो वे कहते हैं कि कर्मों के कारण का मतलब हुआ कि पिछले जन्म में कर्म किए, इस जन्म में पैदा हुए। लेकिन बिलकुल प्रारंभ में, उसके पहले तो कर्म का कोई सवाल ही नहीं है।

बस, अतिप्रश्न आ गया! और जैन कहते हैं कि बस, यह कुतर्क है। तुम जो करो वह तर्क, दूसरा जो करे वह कुतर्क?

लेकिन सभी दर्शनशास्त्र में एक छेद होगा। उस छेद को भर मत छूना। अन्यथा दार्शनिक नाराज हो जायेगा। जब तक तुमने उस छेद को न छुआ, और वह तुम्हें इस तरह चक्कर देगा कि उस छेद भर का तुम्हें पता न चले। सब तरफ तुमको भटकायेगा। सब जवाब देगा। बस, एक बात तुम मत पूछना। उसके पहले ही अगर तुम थक गये और कहा कि ठीक है, झंझट मिटाओ। हम तुम्हारे पीछे चलते हैं, तो वह प्रसन्न है। अनुयायी सब इसी तरह पीछे हैं। उन्होंने मूल छेद नहीं देखा, जो हर जगह है। क्योंकि विचार से कोई उत्तर न कभी मिला है, न मिल सकता है। सब दर्शनशास्त्र विचार का ही फैलाव हैं। विचार अंतिम सत्य को दे नहीं सकता। विचार तो केवल धारणाओं को परिपुष्ट कर सकता है। और कोई धारणा सत्य नहीं है। धारणाशून्य चित्त में सत्य की समझ, सत्य का अनुभव, सत्य का प्रकाश होता है।

गुरु ने यह कहा है, कि तुम इस बातचीत में मत पड़ो। दोनों बाहर हो। उत्तर मत खोजो वहां। भीतर आओ। कंपन मन में है। मन का कंपन मिटाओ। मन के कंपन मिट जाने में उत्तर है। और जिस दिन तुम न कंपोगे, तुम पाओगे, सारा जगत ठहर गया है। जिस दिन तुम स्वस्थ हुए, उस दिन सारा जगत स्वस्थ हो गया। जिस दिन तुम प्रकाश से भरे, कहीं कोई अंधकार नहीं। बाहर का अंधकार मिटाते रहो, मिटाते रहो, कोई अंत न आयेगा। इधर तुम मिटाओगे, उधर घना हो जायेगा। बाहर की सब खोजबीन उस गरीब आदमी के वस्त्र की भांति है, जो पैर ढांकता है तो सिर उघड़ जाता है। सिर ढांकता है तो पैर उघड़ जाता है। कपड़ा छोटा है।

तर्क बड़ा छोटा है, सत्य बहुत बड़ा है। तर्क में तुम कभी भी सत्य को ढांक न पाओगे। पैर ढांकोगे, सिर उघड़ जायेगा। सिर ढांक लोगे, पैर उघड़ जायेगा। तार्किक कहता है, कि थोड़े पैर छांट डालो, थोड़ा सिर छांट दो, कपड़े के बराबर हो जाओ। बिलकुल समा जाओगे।

कुछ लोग यह भी करते हैं। उन्हीं को हम पंडित कहते हैं। जिन्होंने सिर भी छांट दिया, पैर भी। कपड़े के अनुसार जो खुद को बना लेते हैं वह पंडित। ज्ञानी वह है, जो सत्य को समझ पाता है कि कपड़ा मुझे ढांक ही नहीं पायेगा, क्योंकि मैं बड़ा हूं। यह कपड़ा बहुत छोटा है। वह बड़े कपड़े की तलाश करता है, जो मेरे विराट स्वरूप को ढांक ले।

परमात्मा से कम तुम्हें कोई भी न ढांक पायेगा, क्योंकि तुम परमात्मा हो। उससे तुम छोटे नहीं। उससे सब वस्त्र छोटे पड़ेंगे। और अगर तुमने अपने को काटा, तो तुम मुर्दा होते जाओगे। मैं तुमसे सिकुड़ने को नहीं कहता; क्योंकि वस्त्र छोटा है तो सिकुड़ जाओ। मैं कहता हूं तुम फैलो और इतने बड़े हो जाओ, जितना यह विराट है। तभी यह विराट तुम्हें ढांक पायेगा। आकाश से कम तुम्हारा वस्त्र नहीं हो सकता। और ब्रह्म से कम तुम्हारी क्षमता नहीं हो सकती। उससे कम पर तुम राजी अगर हुए तो गलती है। तुम मंजिल के पहले रुक गये।

ठीक कहा झेन गुरु ने: ‘न हवा, न झंडा, मन डोल रहा है।’

तुम मन की चिंता में लगो।

दार्शनिक, प्रश्नों के उत्तर खोजने में लगता है। धार्मिक, उस मन को शांत करने में लगता है, जिससे प्रश्न उठते हैं, उत्तर उठते हैं। जिस दिन मन शांत हो जाता है फिर कोई प्रश्न नहीं उठते।

इसका यह अर्थ नहीं है कि वह जो परम ज्ञान को उपलब्ध होता है, उसके पास सब उत्तर होते हैं। इस भ्रांति में मत पड़ना। उसके पास कोई उत्तर नहीं होता; न कोई प्रश्न होता है। वह निष्प्रश्न, निरुत्तर, परम शांत होता है।

लोगों ने यहां भी भ्रांति की है। वे यही समझते हैं कि जब महावीर को ज्ञान हुआ, तो वे सर्वज्ञ हो गये। अब उनके पास सब उत्तर हैं। तुम उनसे पूछो कि साइकिल का पंक्चर कैसे जोड़ें? वे बतायेंगे। न बता पायेंगे। और न बता पायेंगे तो तुम कहोगे, ‘अरे, कैसे सर्वज्ञ!’ बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो लोग सोचते हैं सब ज्ञान हो गया। तीनों काल पता हो गये। अब, कब क्या होगा भविष्य में, वह भी बतायेंगे। कब क्या हुआ अतीत में वह भी बतायेंगे। नासमझी की बातें हैं; कि तुम पच्चीस सौ साल बाद, उन्नीस सौ चौहत्तर में केले के छिलके पर फिसल के गिरोगे बाजार में, हड्डी में फ्रेक्चर होगा। यह बुद्ध बतायेंगे? तो फिर उन जैसा बुद्धू कोई भी नहीं। तुम्हारी हड्डियों का और तुम्हारे केले के छिलके का कौन हिसाब रखे? किसको पड़ी है? लेकिन तुम्हें लगता है कि जब ज्ञान हो गया तो सर्वज्ञ होना चाहिए।

ज्ञान का अर्थ सर्वज्ञता नहीं है, ज्ञान का अर्थ है आत्मज्ञता। ज्ञान का अर्थ है, स्वयं को जान लेना।

लेकिन इसे तुम एक गहरे अर्थों में सर्वज्ञता कह सकते हो। क्योंकि जिसने स्वयं को जान लिया, उसे जानने को अब कुछ भी न बचा। जानने का मूल जान लिया। अब जानने को कुछ भी न बचा। गंगोत्री पकड़ ली, पूरी गंगा हाथ आ गई। बीज हाथ आ गया, पूरा वृक्ष हाथ आ गया। इस अर्थों में सर्वज्ञता। क्योंकि अब न कोई प्रश्न है, न कोई उत्तर है। न कोई शास्त्र है, न कोई सवाल है, न कोई विवाद है।

गुरु यह कह रहा है कि तुम्हारा विवाद जहां से उठ रहा है, वहीं खोजो। आंख करो बंद, न झंडा, न हवा, तुम उस मन को देखो जहां से विवाद उठ रहा है। वही विवाद तुम्हारी तरंगायित स्थिति है। वहीं सब डांवाडोल हो रहा है। धर्म का सूत्र है यह। इस छोटी सी कथा में समस्त धर्म समाया हुआ है।

तुम भी व्यर्थ के प्रश्नों में मत भटको।

परसों कोई आया और पूछने लगा कि ‘विश्वामित्र एक हजार साल तक जीये कि नहीं?’ तुम्हें क्या मतलब! गलती की होगी, उनने की होगी। नहीं, वे बोलते हैं, ‘जिज्ञासा है।’ जिज्ञासा का भी क्या करोगे? सभी जिज्ञासा सार्थक थोड़े ही है! नहीं तो भटकते ही रहोगे। जिज्ञासायें तो उठती ही चली जायेंगी। उनका कोई अंत नहीं है। क्या प्रयोजन है इससे? कोई भी प्रयोजन नहीं है।

मन खुजली की तरह है। खुजलाओ, और खुजली उठती है। थोड़ी मिठास भी आती है और मिठास की वजह से और खुजली उठती है। खुजलाते चले जाओ और आखिर में तुम पाओगे, घाव पड़ गये। मन के कुतूहल के पीछे अगर तुम चले तो सारी आत्मा घाव से भर जायेगी। वह खुजलाहट है, खुजली है। वह बीमारी है।

मन बीमारी है, इसकी ज्यादा मत सुनो। औषधि खोजो कि कैसे मन शांत हो जाये। और तुम केंद्र पर थिर हो जाओ। कैसे तुम अपने घर वापिस लौट आओ। कैसे मूलस्रोत से मिलन हो जाये। और वह स्रोत तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

यही कहा छठवें गुरु ने: कि मत चिंता करो हवा डोलती है कि झंडा डोलता है। एक ही चिंता करने योग्य है, कि तुम अभी डोल रहे हो। अडोल हो जाओ, सब तुम्हें मिल जायेगा। अडोल हो जाओ और तुम स्वयं को पा लोगे। स्वयं को पा लेना, सत्य को पा लेना है।

आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–1) प्रवचन–1

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अष्‍टावक्र : महागीता

यूग बीते पर सत्‍य न बीता

                        सब हारा पर सत्‍य न हारा

 सत्‍य का शुद्धतम वक्‍तव्‍य—प्रवचन—पहला

11 सितंबर 1976

ओशो आश्रम, पूना।

जनक उवाच।

कथं ज्ञानमवाम्मोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।

वैराग्य ब कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो।। १।।

अष्टावक्र उवाच।

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज।

क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद् भज।। 2।।

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुधौर्न वा भवान्।

एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्दि मुक्तये।।3।।

यदि देहं पृथस्कृत्य निति विश्राम्ब तिष्ठसि।

अधुनैव सखी शांत: बंधमक्तो भविष्यसि।।4।।

न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचर:।

असंगोऽमि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।5।।

धर्माऽधमौं सुखं दुःख मानसानि न तो विभो।

न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।6।।

 

क अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं। मनुष्य—जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र—गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं; जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है!

सबसे बड़ी बात तो यह है कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा।

कृष्ण की गीता का बहुत प्रभाव पड़ा। पहला कारण : कृष्ण की गीता समन्वय है। सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितनी समन्वय की चिंता है। समन्वय का आग्रह इतना गहरा है कि अगर सत्य थोड़ा खो भी जाये तो कृष्ण राजी हैं।

कृष्ण की गीता खिचड़ी जैसी है; इसलिए सभी को भाती है, क्योंकि सभी का कुछ न कुछ उसमें मौजूद है। ऐसा कोई संप्रदाय खोजना मुश्किल है जो गीता में अपनी वाणी न खोज ले। ऐसा कोई व्यक्ति खोजना मुश्किल है जो गीता में अपने लिए कोई सहारा न खोज ले। इन सबके लिए अष्टावक्र की गीता बड़ी कठिन होगी।

अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं हैं—सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है—बिना किसी लाग—लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा, इसकी भी चिंता नहीं है। सत्य का ऐसा शुद्धतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका।

कृष्ण की गीता लोगों को प्रिय है, क्योंकि अपना अर्थ निकाल लेना बहुत सुगम है। कृष्ण की गीता काव्यात्मक है : दो और दो पांच भी हो सकते हैं, दो और दो तीन भी हो सकते हैं। अष्टावक्र के साथ कोई खेल संभव नहीं। वहां दो और दो चार ही होते हैं।

अष्टावक्र का वक्तव्य शुद्ध गणित का वक्तव्य है। वहां काव्य को जरा भी जगह नहीं है। वहां कविता के लिए जरा—सी भी छूट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है। किसी तरह का समझौता नहीं है। कृष्ण की गीता पढ़ो तो भक्त अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने भक्ति की भी बात की है, कर्मयोगी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने कर्मयोग की भी बात की है; ज्ञानी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने शान की भी बात की है। कृष्ण कहीं भक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, कहीं ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, कहीं कर्म को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं।

कृष्ण का वक्तव्य बहुत राजनैतिक है। वे राजनेता थे—कुशल राजनेता थे! सिर्फ राजनेता थे, इतना ही कहना उचित नहीं—कुटिल राजनीतिज्ञ थे, डिप्लोमैट थे। उनके वक्तव्य में बहुत—सी बातों का ध्यान रखा गया है। इसलिए सभी को गीता भा जाती है। इसलिए तो गीता पर हजारों टीकाएं हैं; अष्टावक्र पर कोई चिंता नहीं करता। क्योंकि अष्टावक्र के साथ राजी होना हो तो तुम्हें अपने को छोड़ना पड़ेगा। बेशर्त! तुम अपने को न ले जा सकोगे। तुम पीछे रहोगे तो ही जा सकोगे। कृष्ण के साथ तुम अपने को ले जा सकते हो। कृष्ण के साथ तुम्हें बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है। कृष्ण के साथ तुम मौजूं पड़ सकते हो।

इसलिए सभी सांप्रदायिकों ने कृष्ण की गीता पर टीकाएं लिखीं—शंकर ने, रामानुज ने, निम्बार्क ने, वल्लभ ने, सबने। सबने अपने अर्थ निकाल लिए। कृष्ण ने कुछ ऐसी बात कही है जो बहु—अर्थी है। इसलिए मैं कहता हूं काव्यात्मक है। कविता में से मनचाहे अर्थ निकल सकते हैं।

कृष्ण का वक्तव्य ऐसा है जैसे वर्षा में बादल घिरते हैं. जो चाहो देख लो। कोई देखता है हाथी की सूंड़; कोई चाहे गणेश जी को देख ले। किसी को कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता—वह कहता है, कहां की फिजूल बातें कर रहे हो? बादल हैं! धुआ—इसमें कैसी आकृतियां देख रहे हो?

पश्चिम में वैज्ञानिक मन के परीक्षण के लिए स्याही के धब्बे ब्लाटिंग पेपर पर डाल देते हैं और व्यक्ति को कहते हैं, देखो, इसमें क्या दिखायी पड़ता है? व्यक्ति गौर से देखता है, उसे कुछ न कुछ दिखाई पड़ता है। वहां कुछ भी नहीं है, सिर्फ ब्लाटिंग पेपर पर स्याही के धब्बे हैं—बेतरतीब फेंके गये, सोच—विचार कर भी फेंके नहीं गये हैं, ऐसे ही बोतल उंडेल दी है। लेकिन देखने वाला कुछ न कुछ खोज लेता है। जो देखने वाला खोजता है वह उसके मन में है, वह आरोपित कर लेता है।

तुमने भी देखा होगा. दीवाल पर वर्षा का पानी पड़ता है, लकीरें खिंच जाती हैं। कभी आदमी की शक्ल दिखायी पड़ती है, कभी घोड़े की शक्ल दिखायी पड़ती है। तुम जो देखना चाहते हो, आरोपित कर लेते हो।

रात के अंधेरे में कपड़ा टंगा है— भूत—प्रेत दिखायी पड़ जाते हैं।

कृष्ण की गीता ऐसी ही है—जों तुम्हारे मन में है, दिखायी पड़ जायेगा। तो शंकर ज्ञान देख लेते हैं, रामानुज भक्ति देख लेते हैं, तिलक कर्म देख लेते हैं—और सब अपने घर प्रसन्नचित्त लौट आते हैं कि ठीक, कृष्ण वही कहते हैं जो हमारी मान्यता है।

इमर्सन ने लिखा है कि एक बार एक पड़ोसी प्लेटो की किताबें उनसे माग कर ले गया। अब प्लेटो दो हजार साल पहले हुआ—और दुनियां के थोड़े —से अनूठे विचारकों में से एक। कुछ दिनों बाद इमर्सन ने कहा, किताबें पढ़ ली हों तो वापस कर दें। वह पड़ोसी लौटा गया। इमर्सन ने पूछा, कैसी लगीं? उस आदमी ने कहा कि ठीक। इस आदमी, प्लेटो के विचार मुझसे मिलते—जुलते हैं। कई दफे तो मुझे ऐसा लगा कि इस आदमी को मेरे विचारों का पता कैसे चल गया! प्लेटो दो हजार साल पहले हुआ है; इसको शक हो रहा है कि इसने कहीं मेरे विचार तो नहीं चुरा लिए!

कृष्ण में ऐसा शक बहुत बार होता है। इसलिए कृष्ण पर, सदियां बीत गईं, टीकाएं चलती जाती हैं। हर सदी अपना अर्थ खोज लेती है; हर व्यक्ति अपना अर्थ खोज लेता है। कृष्ण की गीता स्याही के धब्बों जैसी है। एक कुशल राजनीतिज्ञ का वक्तव्य है।

अष्टावक्र की गीता में तुम कोई अर्थ न खोज पाओगे। तुम अपने को छोड़ कर चलोगे तो ही अष्टावक्र की गीता स्पष्ट होगी।

अष्टावक्र का सुस्पष्ट संदेश है। उसमें जरा भी तुम अपनी व्याख्या न डाल सकोगे। इसलिए लोगों ने टीकाएं नहीं लिखीं। टीका लिखने की जगह नहीं है; तोड़ने—मरोड़ने का उपाय नहीं है; तुम्हारे मन के लिए सुविधा नहीं है कि तुम कुछ डाल दो। अष्टावक्र ने इस तरह से वक्तव्य दिया है कि सदियां बीत गईं, उस वक्तव्य में कोई कुछ जोड़ नहीं पाया, घटा नहीं पाया। बहुत कठिन है ऐसा वक्तव्य देना। शब्द के साथ ऐसी कुशलता बड़ी कठिन है।

इसलिए मैं कहता हूं एक अनूठी यात्रा तुम शुरू कर रहे हो।

अष्टावक्र में राजनीतिज्ञों की कोई उत्सुकता नहीं है—न तिलक की, न अरविंद की, न गांधी की, न विनोबा की, किसी की कोई उत्सुकता नहीं है। क्योंकि तुम अपना खेल न खेल पाओगे। तिलक को उकसाना है देश— भक्ति, उठाना है कर्म का ज्वार—कृष्ण की गीता सहयोगी बन जाती है।

कृष्ण हर किसी को कंधा देने को तैयार हैं। कोई भी चला लो गोली उनके कंधे पर रख कर, वे राजी हैं। कंधा उनका, पीछे छिपने की तुम्हें सुविधा है, और उनके पीछे से गोली चलाओ तो गोली भी बहुमूल्य मालूम पड़ती है।

अष्टावक्र किसी को कंधे पर हाथ भी नहीं रखने देते। इसलिए गांधी की कोई उत्सुकता नहीं है, तिलक की कोई उत्सुकता नहीं है; अरविंद, विनोबा को कुछ लेना—देना नहीं है। क्योंकि तुम कुछ थोप न सकोगे। राजनीति की सुविधा नहीं है। अष्टावक्र राजनीतिक पुरुष नहीं हैं।

यह पहली बात खयाल में रख लेनी जरूरी है। ऐसा सुस्पष्ट, खुले आकाश जैसा वक्तव्य, जिसमें बादल हैं ही नहीं, तुम कोई आकृति देख न पाओगे। आकृति छोड़ोगे सब, बनोगे निराकार, अरूप के साथ जोड़ोगे संबंध तो अष्टावक्र समझ में आयेंगे। अष्टावक्र को समझना चाहो तो ध्यान की गहराई में उतरना होगा, कोई व्याख्या से काम होने वाला नहीं है।

और ध्यान के लिए भी अष्टावक्र नहीं कहते कि तुम बैठ कर राम—राम जपो। अष्टावक्र कहते हैं : तुम कुछ भी करो, वह ध्यान न होगा। कर्ता जहां है वहां ध्यान कैसा? जब तक करना है तब तक भ्रांति है। जब तक करने वाला मौजूद है तब तक अहंकार मौजूद है।

अष्टावक्र कहते हैं : साक्षी हो जाना है ध्यान—जहां कर्ता छूट जाता है, तुम सिर्फ देखने वाले रह जाते हो, द्रष्टा—मात्र! द्रष्टा—मात्र हो जाने में ही दर्शन है। द्रष्टा—मात्र हो जाने में ही ध्यान है। द्रष्टा—मात्र हो जाने में ही ज्ञान है।

इसके पहले कि हम सूत्र में उतरें, अष्टावक्र के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। ज्यादा पता नहीं है, क्योंकि न तो वे सामाजिक पुरुष थे, न राजनीतिक, तो इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है। बस थोड़ी—सी घटनाएं ज्ञात हैं—वे भी बड़ी अजीब, भरोसा करने योग्य नहीं, लेकिन समझोगे तो बड़े गहरे अर्थ खुलेंगे।

पहली घटना—अष्टावक्र पैदा हुए उसके पहले की; पीछे का तो कुछ पता नहीं है—गर्भ की घटना। पिता—बड़े पंडित। अष्टावक्र—मां के गर्भ में। पिता रोज वेद का पाठ करते हैं और अष्टावक्र गर्भ में सुनते हैं। एक दिन अचानक गर्भ से आवाज आती है कि रुको भी! यह सब बकवास है। ज्ञान इसमें कुछ भी नहीं—बस शब्दों का संग्रह है। शास्त्र में ज्ञान कहां? ज्ञान स्वयं में है। शब्द में सत्य कहां? सत्य स्वयं में है।

पिता स्वभावत: नाराज हुए। एक तो पिता, फिर पंडित! और गर्भ में छिपा हुआ बेटा इस तरह की बात कहे! अभी पैदा भी नहीं हुआ! क्रोध में आ गए, आगबबूला हो गए। पिता का अहंकार चोट खा गया। फिर पंडित का अहंकार! बड़े पंडित थे, बड़े विवादी थे, शास्त्रार्थी थे। क्रोध में अभिशाप दे दिया कि जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा। इसलिए नाम—अष्टावक्र। आठ जगह से कुबड़े पैदा हुए। आठ जगह से ऊंट की भांति, इरछे—तिरछे! पिता ने क्रोध में शरीर को विक्षत कर दिया। ऐसी और भी कथाएं हैं।

कहते हैं, बुद्ध जब पैदा हुए तो खड़े—खड़े पैदा हुए। मां खड़ी थी वृक्ष के तले। खड़े—खड़े.. मां खड़ी थी खड़े—खड़े पैदा हुए। जमीन पर गिरे नहीं कि चले, सात कदम चले। आठवें कदम पर रुक कर चार आर्य—सत्यों की घोषणा की, कि जीवन दुख है—अभी सात कदम ही चले हैं पृथ्वी पर—कि जीवन दुख है; कि दुख से मुक्त होने की संभावना है; कि दुख—मुक्ति का उपाय है; कि दुख—मुक्ति की अवस्था है, निर्वाण की अवस्था है।

लाओत्सु के संबंध में कथा है कि लाओत्सु बूढ़े पैदा हुए, अस्सी वर्ष के पैदा हुए; अस्सी वर्ष तक गर्भ में ही रहे। कुछ करने की चाह ही न थी तो गर्भ से निकलने की चाह भी न हुई। कोई वासना ही न थी तो संसार में आने की भी वासना न हुई। जब पैदा हुए तो सफेद बाल थे; अस्सी वर्ष के बूढ़े थे। जरथुस्त्र के संबंध में कथा है कि जब जरथुस्त्र पैदा हुए तो पैदा होते से ही खिलखिला कर हंसे। मगर इन सबको मात कर दिया अष्टावक्र ने। ये तो पैदा होने के बाद की बातें हैं। अष्टावक्र ने अपना पूरा वक्तव्य दे दिया पैदा होने के पहले।

ये कथाएं महत्वपूर्ण हैं। इन कथाओं में इन व्यक्तियों के जीवन की सारी सार—संपदा है, निचोड़ है। बुद्ध ने जो जीवन भर में कहा उसका निचोड़. बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया. तो सात कदम चले, आठवें पर रुक गये। आठ अंग हैं कुल। पहुंचने की अंतिम अवस्था है सम्यक समाधि। उस समाधि की अवस्था में ही पता चलता है जीवन के पूरे सत्य का। उन चार आर्य—सत्यों की घोषणा कर दी।

लाओत्सु बूढ़ा पैदा हुआ। लोगों को अस्सी साल लगते हैं, तब भी ऐसी समझ नहीं आ पाती। बूढ़े हो कर भी लोग बुद्धिमान कहां हो पाते हैं! बूढ़ा होना और बुद्धिमान होना पर्यायवाची तो नहीं। बाल तो धूप में भी पकाये जा सकते हैं।

लाओत्सु की कथा इतना ही कहती है कि अगर जीवन में त्वरा हो, तीव्रता हो तो जो अस्सी साल में घटता है वह एक क्षण में घट सकता है। प्रज्ञा की तीव्रता हो तो एक क्षण में घट सकता है। बुद्धि मलिन हो तो अस्सी साल में भी कहां घटता है!

जरथुस्त्र जन्म के साथ ही हंसे। जरथुस्त्र का धर्म अकेला धर्म है दुनियां में जिसको ‘हंसता हुआ धर्म’ कह सकते हैं। अतिपार्थिव, पृथ्वी का धर्म है! इसलिए तो पारसी दूसरे धार्मिकों को धार्मिक नहीं मालूम होते। नाचते—गाते, प्रसन्न! जरथुस्त्र का धर्म हंसता हुआ धर्म है; जीवन के स्वीकार का धर्म है; निषेध नहीं है, त्याग नहीं है। तुमने कोई पारसी साधु देखा—नंग—धड़ंग खड़ा हो जाये, छोड़ दे, धूप में खड़ा हो जाये, धूनी रमा कर बैठ जाये? नहीं, पारसी—धर्म में जीवन को सताने, कष्ट देने की कोई व्यवस्था नहीं है। जरथुस्त्र का सारा संदेश यही है कि जब हंसते हुए परमात्मा को पाया जा सकता है तो रोते हुए क्यों पाना? जब नाचते हुए पहुंच सकते हैं उस मंदिर तक तो नाहक काटे क्यों बोने? जब फूलों के साथ जाना हो सकता है तो यह दुखवाद क्यों? इसलिए ठीक है, प्रतीक ठीक है कि जरथुस्त्र पैदा होते ही हंसे।

इन कथाओं में इतिहास मत खोजना। ऐसा हुआ है—ऐसा नहीं है। लेकिन इन कथाओं में एक बड़ा गहरा अर्थ है।

तुम्हारे पास एक बीज पड़ा है। जब तुम बीज को देखते हो तो इससे पैदा होने वाले फूल की कोई भी तो खबर नहीं मिलती। यह क्या हो सकता है, इसकी भनक भी तो नहीं आती। यह कमल बनेगा, खिलेगा, जल में रहेगा और जल से अछूता रहेगा, सूरज की किरणों पर नाचेगा और सूरज भी ईर्ष्यालु होगा—इसके सौंदर्य से, इसकी कोमलता से, इसकी अपूर्व गरिमा, इसके प्रसाद से, इसकी सुगंध आकाश में उड़ेगी—यह बीज को देख कर तो पता भी नहीं चलता। बीज को तो देख कर इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता, अनुमान भी नहीं कर सकता। लेकिन एक दिन यह घटता है।

तो दो तरह से हम सोच सकते हैं। या तो हम बीज को पकड़ लें जोर से और हम कहें, जो बीज में दिखाई नहीं पड़ा वह कमल में भी घट नहीं सकता। यह भ्रम है। यह धोखा है। यह झूठ है।

जिनको हम तर्कनिष्ठ कहते हैं, संदेहशील कहते हैं, उनका यही आधार है। वे कहते हैं, जो बीज में नहीं दिखायी पड़ा वह फूल में हो नहीं सकता; कहीं भ्रांति हो रही है।

इसलिए संदेहशील व्यक्ति बुद्ध को मान नहीं पाता; महावीर को स्वीकार नहीं कर पाता; जीसस को अंगीकार नहीं कर पाता। क्योंकि वे कहते हैं, हमने जाना इनको।

जीसस अपने गांव में आये, बड़े हैरान हुए. गांव के लोगों ने कोई चिंता ही न की। जीसस का वक्तव्य है कि पैगंबर की अपने गांव में पूजा नहीं होती। कारण क्या रहा होगा? क्यों नहीं होती गांव में पूजा पैगंबर की? गांव के लोगों ने बचपन से देखा : बढ़ई जोसेफ का लड़का है! लकड़ियां ढोते देखा, रिंदा चलाते देखा, लकड़ियां चीरते देखा, पसीने से लथपथ देखा, सड़कों पर खेलते देखा, झगड़ते देखा। गांव के लोग इसे बचपन से जानते हैं—बीज की तरह देखा। आज अचानक यह हो कैसे सकता है कि यह परमात्मा का पुत्र हो गया!

नहीं, जिसने बीज को देखा है, वह फूल को मान नहीं पाता। वह कहता है, जरूर धोखा होगा, बेईमानी होगी। यह आदमी पाखंडी है।

बुद्ध अपने घर वापस लौटे, तो पिता. सारी दुनियां को जो दिखाई पड़ रहा था वह पिता को दिखायी नहीं पड़ा! सारी दुनियां अनुभव कर रही थी एक प्रकाश, दूर—दूर तक खबरें जा रही थीं, दूर देशों से लोग आने शुरू हो गये थे; लेकिन जब बुद्ध वापस घर आये बारह साल बाद, तो पिता ने कहा मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूँ यद्यपि तूने काम तो बुरा किया है, सताया तो तूने हमें, अपराध तो तूने किया है; लेकिन मेरे पास पिता का हृदय है। मैं माफ कर दूंगा। द्वार तेरे लिए खुले हैं। मगर फेंक यह भिक्षा का पात्र! हटा यह भिक्षु का वेश! यह सब नहीं चलेगा। तू वापस लौट आ। यह राज्य तेरा है। मैं का हो गया, इसको कौन सम्हालेगा? हो गया बचपना बहुत, अब बंद करो यह सब खेल!

बुद्ध ने कहा. कृपा कर मुझे देखें तो! जो गया था वह वापिस नहीं आया है। यह कोई और ही आया है। जो आपके घर पैदा हुआ था वही वापिस नहीं आया है। यह कोई और ही आया है। बीज फूल हो कर आया है। गौर से तो देखो।

पिता ने कहा, तू मुझे सिखाने चला है? पहले दिन से, जब तू पैदा हुआ था, तबसे तुझे जानता हूं। किसी और को धोखा देना। किसी और को समझा लेना, भ्रम में डाल देना। मुझे तू भ्रम में न डाल पायेगा। मैं फिर कहता हूं। मैं तुझे भलीभांति जानता हूं। मुझे कुछ सिखाने की चेष्टा मत कर। क्षमा करने को मैं राजी हूं।

बुद्ध ने कहा : आप, और मुझे जानते हैं! मैं तो स्वयं को भी नहीं जानता था। अभी—अभी किरणें उतरी हैं और स्वयं को जाना हूं। क्षमा करें! लेकिन यह मुझे कहना ही पड़ेगा कि जिसको आपने देखा, वह मैं नहीं हूं। और जहां तक आपने देखा, वह मैं नहीं हूं। बाहर—बाहर आपने देखा, भीतर आपने कहां देखा? मैं आपसे पैदा हुआ हूं लेकिन आपने मुझे निर्मित नहीं किया। मैं आपसे आया हूं जैसे एक रास्ते से कोई राहगीर आता है, लेकिन रास्ता और राहगीर का क्या लेना—देना? कल रास्ता कहने लगे कि मैं तुझे पहचानता हूं तू मेरे से ही तो होकर आया है—ऐसे ही आप कह रहे हैं। आपके पहले भी मैं था। जन्मों—जन्मों से मेरी यात्रा चल रही है। आपसे गुजरा जरूर हूं ऐसा मैं औरों से भी गुजरा हूं। और भी मेरे पिता थे, और भी मेरी माताएं थीं। लेकिन मेरा होना बडा अलग— थलग है।

कठिन है बहुत, अति कठिन है! अगर बीज देखा तो फूल पर भरोसा नहीं आता।

एक तो ढंग है अश्रद्धालु का, तर्कवादी का, संदेहशील का, कि वह कहता है कि बीज को हम पहचानते हैं, तो फूल हो नहीं सकता। हम कीचड़ को जानते हैं, उस कीचड़ से कमल हो कैसे सकता है? सब गलत! सपना होगा। भ्रांति होगी। किसी मोह—जाल में पड़ गये होओगे। किसी ने धोखा दे दिया। कोई जादू कोई तिलिस्म। एक तो यह रास्ता है।

एक रास्ता है श्रद्धालु का—प्रेमी का, भक्त का, सहानुभूति से भरे हृदय का—वह फूल को देखता है और फूल से पीछे की तरफ यात्रा करता है। वह कहता है, जब फूल में ऐसी सुगंध हुई, जब फूल में ऐसी विभा प्रगट हुई, जब फूल में ऐसी प्रतिभा, जब फूल में ऐसा कुंआरापन दिखा, तो जरूर बीज में भी रहा होगा। क्योंकि जो फूल में हुआ है वह बीज में न हो, तो हो ही नहीं सकता।

ये सारी कथाएं घटी हैं, ऐसा नहीं। जिन्होंने अष्टावक्र के फूल को देखा, उनको यह खयाल में आया कि जो आज हुआ है वह कल भी रहा होगा—छिपा था, अवगुंठित था, परदे में पड़ा था। जो आज है, अंत में है, वह प्रथम भी रहा होगा। जो मृत्यु के क्षण में दिखायी पड़ रहा है, वह जन्म के क्षण में भी मौजूद रहा होगा; अन्यथा पैदा कैसे होता!

तो एक तो ढंग है फूल से पीछे की तरफ देखना, और एक है बीज से आगे की तरफ देखना। गौर से देखो तो दोनों में सार—सूत्र एक ही है, दोनों की आधारभित्ति एक ही है; लेकिन कितना जमीन— आसमान का अंतर हो जाता है! जो बीज वाला है, वह भी यह कह रहा है कि जो बीज में नहीं है वह फूल में कैसे हो सकता है! यह उसका तर्क है। फूल वाला भी यही कह रहा है। वह कह रहा है, जो फूल में है वह बीज में भी होना ही चाहिए। दोनों का तर्क तो एक है। लेकिन दोनों के देखने के ढंग अलग हैं। बड़ी अड़चन है!

मुझसे कोई पूछता था कि आपके साथ बचपन में बहुत लोग पढ़े होंगे—स्कूल में, कालेज में—वे दिखायी नहीं पड़ते! वे कैसे दिखायी पड़ सकते हैं! उनको बड़ी अड़चन है। वे भरोसा नहीं कर सकते। अति कठिन है उन्हें।

कल ही मेरे पास रायपुर से किसी ने एक अखबार भेजा। श्री हरिशंकर परसाई ने एक लेख मेरे खिलाफ लिखा है। वे मुझे जानते हैं, कालेज के दिनों से जानते हैं। हिंदी के मूर्धन्य व्यंग्यलेखक हैं। मेरे मन में उनकी कृतियों का आदर है। लेख में उन्होंने लिखा है कि जबलपुर की हवा में कुछ खराबी है। यहां धोखेबाज और धूर्त ही पैदा होते हैं—जैसे रजनीश, महेश योगी, मूंदड़ा। तीन नाम उन्होंने गिनाए। धन्यवाद उनका, कम से कम मेरा नाम नंबर एक तो गिनाया। इतनी याद तो रखी! एकदम बिसार नहीं दिया। बिलकुल भूल गये हों, ऐसा नहीं है।

लेकिन अड़चन स्वाभाविक है, सीधी—साफ है। मैं उनकी बात समझ सकता हूं। यह असंभव है—बीज को देखा तो फूल में भरोसा! फिर जिन्होंने फूल को देखा, उन्हें बीज में भरोसा मुश्किल हो जाता है। तो सभी महापुरुषों की जीवन—कथाएं दो ढंग से लिखी जाती हैं। जो उनके विपरीत हैं, वे बचपन से यात्रा शुरू करते हैं; जो उनके पक्ष में हैं, वे अंत से यात्रा शुरू करते हैं और बचपन की तरफ जाते हैं। दोनों एक अर्थ में सही हैं। लेकिन जो बचपन से यात्रा करके अंत की तरफ जाते हैं, वे वंचित रह जाते हैं। उनका सही होना उनके लिए आत्मघाती है, जो अंत से यात्रा करते हैं और पीछे की तरफ जाते हैं, वे धन्यभागी हैं। क्योंकि बहुत कुछ उन्हें अनायास मिल जाता है, जो कि पहले तर्कवादियो को नहीं मिल पाता।

अब न केवल मैं गलत मालूम होता हूं मेरे कारण जबलपुर तक की हवा उनको गलत मालूम होती है. कुछ भूल हवा—पानी में होनी चाहिए! यद्यपि मैं उनको कहना चाहूंगा, जबलपुर को कोई हक नहीं है मेरे संबंध में हवा—पानी को अच्छा या खराब तय करने का। जबलपुर से मेरा कोई बहुत नाता नहीं है। थोड़े दिन वहां था। महेश योगी भी थोड़े दिन वहां थे। उनका भी कोई नाता नहीं है। हम दोनों का नाता किसी और जगह से है। उस जगह के लोग इतने सोए हैं कि उन्हें अभी खबर ही नहीं है। महेश योगी और मेरा जन्म पास ही पास हुआ। दोनों गाडरवाड़ा के आस—पास पैदा हुए। उनका जन्म चीचली में हुआ, मेरा जन्म कुछवाड़े में हुआ। अगर हवा—पानी खराब है तो वहां का होगा। इसका दुख गाडरवाड़ा को होना चाहिए—कभी होगा। या सुख…। जबलपुर को इसमें बीच में आना नहीं चाहिए।

लेकिन मन कैसे तर्क रचता है!

अब जो अष्टावक्र की कथा को देखेगा, वह सुनते से ही कह देगा : ‘गलत! असंभव!’ यह तो कथा जिन्होंने लिखी है उनको भी पता है कि कहीं कोई गर्भ से बोलता है! वे तो केवल इतना कह रहे हैं कि जो आखिर में प्रगट हुआ वह गर्भ में मौजूद रहा होगा; जो वाणी आखिर में खिली वह किसी न किसी गहरे तल पर गर्भ में भी मौजूद रही होगी, अन्यथा खिलती कहां से, आती कहां से? शून्य से थोड़े ही कुछ आता है! हर चीज के पीछे कारण है। नहीं देख पाये हों हम, लेकिन था तो मौजूद। ये सारी कथाएं इसी का सूचन देती हैं।

अष्टावक्र के संबंध में दूसरी बात जो ज्ञात है, वह है जब वे बारह वर्ष के थे। बस दो ही बातें ज्ञात हैं। तीसरी उनकी अष्टावक्र—गीता है; या कुछ लोग कहते हैं ‘अष्टावक्र—संहिता’। जब वे बारह वर्ष के थे तो एक बड़ा विशाल शास्त्रार्थ जनक ने रचा। जनक सम्राट थे और उन्होंने सारे देश के पंडितों को निमंत्रण दिया। और उन्होंने एक हजार गायें राजमहल के द्वार पर खड़ी कर दीं और उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और हीरे—जवाहरात लटका दिये, और कहा, ‘जो भी विजेता होगा वह इन गायों को हांक कर ले जाये।’

बड़ा विवाद हुआ! अष्टावक्र के पिता भी उस विवाद में गये। खबर आई सांझ होते—होते कि पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे, वंदिन नाम के एक पंडित से हारे जा रहे हैं। यह खबर सुन कर अष्टावक्र भी राजमहल पहुंच गया। सभा सजी थी। विवाद अपनी आखिरी चरम अवस्था में था। निर्णायक घड़ी करीब आती थी। पिता के हारने की स्थिति बिलकुल पूरी तय हो चुकी थी। अब हारे तब हारे की अवस्था थी।

अष्टावक्र दरबार में भीतर चला गया। पंडितों ने उसे देखा। महापंडित इकट्ठे थे! उसका आठ अंगों से टेढ़ा—मेढ़ा शरीर! वह चलता तो भी देख कर लोगों को हंसी आती। उसका चलना भी बड़ा हास्यास्पद था। सारी सभा हंसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिला कर हंसा। जनक ने पूछा. ‘और सब हंसते हैं, वह तो मैं समझ गया क्यों हंसते हैं, लेकिन बेटे, तू क्यों हंसा?’

अष्टावक्र ने कहा. ‘मैं इसलिए हंस रहा हूं कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है!’ बड़ा… आदमी अनूठा रहा होगा! ‘ये चमार यहां क्या कर रहे हैं?’

सन्नाटा छा गया!.. चमार! सम्राट ने पूछा. ‘तेरा मतलब?’ उसने कहा: ‘सीधी—सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखायी पड़ती है, मैं नहीं दिखायी पड़ता। मुझसे सीधा—सादा आदमी खोजना मुश्किल है, वह तो इनको दिखायी ही नहीं पड़ता; इनको आड़ा—टेढ़ा शरीर दिखायी पड़ता है। ये चमार हैं! ये चमड़ी के पारखी हैं। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा—मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ तो देखो! इससे तुम सीधा—सादा और कुछ खोज न सकोगे।’

यह बड़ी चौंकाने वाली घोषणा थी, सन्नाटा छा गया होगा। जनक प्रभावित हुआ, झटका खाया। निश्चित ही कहां चमारों की भीड़ इकट्ठी करके बैठा है! खुद पर भी पश्चात्ताप हुआ, अपराध लगा कि मैं भी हंसा। उस दिन तो कुछ न कहते बना, लेकिन दूसरे दिन सुबह जब सम्राट घूमने निकला था तो राह पर अष्टावक्र दिखायी पड़ा। उतरा घोड़े से, पैरों में गिर पड़ा। सबके सामने तो हिम्मत न जुटा पाया, एक दिन पहले। एक दिन पहले तो कहा था, ‘बेटे, तू क्यों हंसता है?’ बारह साल का लड़का था। उम्र तौली थी। आज उम्र नहीं तौली। आज घोड़े से उतर गया, पैर पर गिर पड़ा—साष्टांग दंडवत! और कहा : पधारें राजमहल, मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें! हे प्रभु, आयें मेरे घर! बात मेरी समझ में आ गई है! रात भर मैं सो न सका। ठीक ही कहा : शरीर को ही जो पहचानते हैं उनकी पहचान गहरी कहां! आत्मा के संबंध में विवाद कर रहे हैं, और अभी भी शरीर में रस और विरस पैदा होता है, घृणा, आकर्षण पैदा होता है! मर्त्य को देख रहे हैं, अमृत की चर्चा करते हैं! धन्यभाग मेरे कि आप आये और मुझे चौंकाया! मेरी नींद तोड़ दी! अब पधारो!

राजमहल में उसने बड़ी सजावट कर रखी थी। स्वर्ण—सिंहासन पर बिठाया था इस बारह साल के अष्टावक्र को और उससे जिज्ञासा की। पहला सूत्र जनक की जिज्ञासा है। जनक ने पूछा है, अष्टावक्र ने समझाया है।

इससे ज्यादा अष्टावक्र के संबंध में और कुछ पता नहीं है—और कुछ पता होने की जरूरत भी नहीं है। काफी है, इतना बहुत है। हीरे बहुत होते भी नहीं, कंकड़—पत्थर ही बहुत होते हैं। हीरा एक भी काफी होता है। ये दो छोटी—सी घटनाएं हैं।

एक तो जन्म के पहले की : गर्भ से आवाज और घोषणा कि ‘क्या पागलपन में पड़े हो? शास्त्र में उलझे हो, शब्द में उलझे हो? जागो! यह ज्ञान नहीं है, यह सब उधार है। यह सब बुद्धि का ही जाल है, अनुभव नहीं है। इसमें रंचमात्र भी सार नहीं है। कब तक अपने को भरमाये रखोगे?’

और दूसरी घटना : राजमहल में हंसना पंडितों का और कहना अष्टावक्र का, कि जीवन में देखने की दो दृष्टियां हैं—एक आत्म—दृष्टि, एक चर्म—दृष्टि। चमार चमड़ी को देखता है। प्रज्ञावान आत्मा को देखता है।

तुमने गौर किया? चमार तुम्हारे चेहरे की तरफ देखता ही नहीं, वह जूते को ही देखता है। असल में चमार जूते को देख कर सब पहचान लेता है तुम्हारे संबंध में कि आर्थिक हालत कैसी है; सफलता मिल रही है कि विफलता मिल रही है, भाग्य कैसा चल रहा है। वह सब जूते में लिखा है। जूते की सिलवटें कह देती हैं। जूते की दशा कह देती है। जूते में तुम्हारी आत्मकथा लिखी है। चमार पढ़ लेता है। जूते में चमक, जूते का ताजा और नया होना, चमार तुमसे प्रसन्नता से मिलता है। जूता ही उसके लिए तुम्हारी आत्मा का सबूत है।

दर्जी कपड़े देखता है। तुम्हारा कोट—कपड़ा देख कर समझ लेता है, हालत कैसी है।

सबकी अपनी बंधी हुई दृष्टियां हैं।

सिर्फ आत्मवान ही आत्मा को देखता है। उसकी कोई दृष्टि नहीं है। उसके पास दर्शन है।

एक छोटी घटना और—जों अष्टावक्र के जीवन से संबंधित नहीं, रामकृष्ण और विवेकानंद के जीवन से संबंधित है, लेकिन अष्टावक्र से उसका जोड़ है—फिर हम सूत्रों में प्रवेश करें।

विवेकानंद रामकृष्ण के पास आये, तब उनका नाम ‘नरेंद्रनाथ’ था।’विवेकानंद’ तो बाद में रामकृष्ण ने उनको पुकारा। जब आये रामकृष्ण के पास तो अति विवादी थे, नास्तिक थे, तर्कवादी थे। हर चीज के लिए प्रमाण चाहते थे।

कुछ चीजें हैं जिनके लिए कोई प्रमाण नहीं—मजबूरी है। परमात्मा के लिए कोई प्रमाण नहीं है; है और प्रमाण नहीं है। प्रेम के लिए कोई प्रमाण नहीं है; है और प्रमाण नहीं है। सौंदर्य के लिए कोई प्रमाण नहीं है; है और प्रमाण नहीं है।

अगर मैं कहूं देखो ये खजूरिना के वृक्ष कैसे सुंदर हैं, और तुम कहो, ‘हमें तो कोई सौंदर्य दिखायी नहीं पड़ता। वृक्ष जैसे वृक्ष हैं। सिद्ध करें।’मुश्किल हो जायेगी। कैसे सिद्ध करें कि सुंदर हैं! सुंदर होने के लिए सौंदर्य की परख चाहिए—और तो कोई उपाय नहीं। आंख चाहिए—और तो कोई उपाय नहीं।

कहते हैं, मजनू ने कहा कि लैला को जानना हों तो मजनू की आंख चाहिए। ठीक कहा। लैला को देखने का और कोई उपाय ही नहीं।

मजनू को बुलाया था उसके गांव के राजा ने और कहा था. तू पागल है! मैं तेरी लैला को जानता हूं साधारण—सी लड़की है, काली—कलूटी, कुछ खास नहीं। तुझ पर मुझे दया आती है। ये मेरे राजमहल की बारह लड़कियां खड़ी हैं, ये इस देश की सुंदरतम स्त्रियां हैं, इनमें से तू कोई भी चुन ले। यह तुझे रोते देख कर मेरा भी प्राण रोता है।

उसने देखा और उसने कहा. इनमें तो लैला कोई भी नहीं। ये लैला के मुकाबले तो दूर, उसके चरण की धूल भी नहीं।

सम्राट कहने लगा. मजनू तू पागल है।

मजनू ने कहा : यह हो सकता है। लेकिन एक बात आपसे कहना चाहता हूं—लैला को देखना हो तो मजनू की आंख चाहिए। ठीक कहा मजनू ने।

अगर वृक्षों के सौंदर्य को देखना हो तो कला की आंख चाहिए—और कोई प्रमाण नहीं है। अगर किसी के प्रेम को पहचानना हो तो प्रेमी का हृदय चाहिए—और कोई प्रमाण नहीं है। और परमात्मा तो इस जगत के सारे सौंदर्य और सारे प्रेम और सारे सत्य का इकट्ठा नाम है। उसके लिए तो ऐसा निर्विकार चित्त चाहिए, ऐसा साक्षी— भाव चाहिए, जहां कोई शब्द न रह जाये, कोई विचार न रह जाये, कोई तरंग न उठे। वहां कोई धूल न रह जाये मन की और चित्त का दर्पण परिपूर्ण शुद्ध हो! प्रमाण कहां? रामकृष्ण से विवेकानंद ने कहा : प्रमाण चाहिए। है परमात्मा तो प्रमाण दें।

और विवेकानंद को देखा रामकृष्ण ने। बड़ी थी संभावनाएं इस युवक की। बड़ी थी यात्रा इसके भविष्य की। बहुत कुछ होने को पड़ा था इसके भीतर। बड़ा खजाना था, उससे यह अपरिचित है। रामकृष्ण ने देखा, इस युवक के पिछले जन्मों में झांका। यह बड़ी संपदा, बड़े पुण्य की संपदा ले कर आ रहा है। यह ऐसे ही तर्क में दबा न रह जाये। कराह उठा होगा पीड़ा और करुणा से रामकृष्ण का हृदय। उन्होंने कहा, ‘छोड़, प्रमाण वगैरह बाद में सोच लेंगे। मैं जरा बूढ़ा हुआ, मुझे पढ़ने में अड़चन होती है। तू अभी जवान, तेरी आंख अभी तेज—यह किताब पड़ी है, इसे तू पढ़।’ वह थी अष्टावक्र—गीता।’ जरा मुझे सुना दे।’

कहते हैं, विवेकानंद को इसमें तो कुछ अड़चन न मालूम पड़ी, यह आदमी कुछ ऐसी तो कोई खास बात नहीं मांग रहा है! दो—चार सूत्र पढ़े और एक घबड़ाहट, और रोआं—रोआं कंपने लगा! और विवेकानंद ने कहा, मुझसे नहीं पढ़ा जाता। रामकृष्ण ने कहा : पढ़ भी! इसमें हर्ज क्या है? तेरा क्या बिगाड़ लेगी यह किताब? तू जवान है अभी। तेरी आंख अभी ताजी हैं। और मैं बूढ़ा हुआ, मुझे पढ़ने में दिक्कत होती है। और यह किताब मुझे पढ़नी है तो तू पढ़ कर सुना दे।

कहते हैं उस किताब को सुनाते—सुनाते ही विवेकानंद डूब गये। रामकृष्ण ने देखा इस व्यक्ति के भीतर बड़ी संभावना है, बड़ी शुद्ध संभावना है, जैसी एक बोधिसत्व की होती है जो कभी न कभी बुद्ध होना जिसका निर्णीत है, आज नहीं कल, भटके कितना ही, बुद्धत्व जिसके पास चला आ रहा है। क्यों अष्टावक्र की गीता रामकृष्ण ने कही कि तू पढ़ कर मुझे सुना दे? क्योंकि इससे ज्यादा शुद्धतम वक्तव्य और कोई नहीं। ये शब्द भी अगर तुम्हारे भीतर पहुंच जायें तो तुम्हारी सोयी हुई आत्मा को जगाने लगेंगे। ये शब्द तुम्हें तरंगायित करेंगे। ये शब्द तुम्हें आह्लादित करेंगे। ये शब्द तुम्हें झकझोरेंगे। इन शब्दों के साथ क्रांति घटित हो सकती है।

अष्टावक्र की गीता को मैंने यूं ही नहीं चुना है। और जल्दी नहीं चुना—बहुत देर करके चुना है, सोच—विचार कर। दिन थे, जब मैं कृष्ण की गीता पर बोला, क्योंकि भीड़— भाड़ मेरे पास थी। भीड़— भाड़ के लिए अष्टावक्र—गीता का कोई अर्थ न था। बड़ी चेष्टा करके भीड़— भाड़ से छुटकारा पाया है। अब तो थोड़े—से विवेकानंद यहां हैं। अब तो उनसे बात करनी है, जिनकी बड़ी संभावना है। उन थोड़े से लोगों के साथ मेहनत करनी है, जिनके साथ मेहनत का परिणाम हो सकता है। अब हीरे तराशने हैं, कंकड़—पत्थरों पर यह छैनी खराब नहीं करनी। इसलिए चुनी है अष्टावक्र की गीता। तुम तैयार हुए हो, इसलिए चुनी है।

पहला सूत्र :

जनक ने कहा, ‘हे प्रभो, पुरुष ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है। और मुक्ति कैसे होगी और वैराग्य कैसे प्राप्त होगा? यह मुझे कहिए! एतत मम लूहि प्रभो! मुझे समझायें प्रभो!’

बारह साल के लड़के से सम्राट जनक का कहना है : ‘हे प्रभु! भगवान! मुझे समझायें!

एतत मम लूहि!

मुझ नासमझ को कुछ समझ दें! मुझ अज्ञानी को जगायें!’ तीन प्रश्न पूछे हैं—

‘कथं ज्ञानम्! कैसे होगा ज्ञान!’

साधारणत: तो हम सोचेंगे कि ‘यह भी कोई पूछने की बात है? किताबों में भरा पड़ा है।’ जनक भी जानता था। जो किताबों में भरा पड़ा है, वह ज्ञान नहीं; वह केवल ज्ञान की धूल है, राख है! ज्ञान की ज्योति जब जलती है तो पीछे राख छूट जाती है। राख इकट्ठी होती चली जाती है, शास्त्र बन जाती है। वेद राख हैं—कभी जलते हुए अंगारे थे। ऋषियों ने उन्हें अपनी आत्मा में जलाया था। फिर राख रह गये। फिर राख संयोजित की जाती है, संगृहीत की जाती है, सुव्यवस्थित की जाती है। जैसे जब आदमी मर जाता है तो हम उसकी राख इकट्ठी कर लेते हैं—उसको फूल कहते हैं। बड़े मजेदार लोग हैं! जिंदगी में जिसको फूल नहीं कहा, उसकी हड्डिया—वड्डिया इकट्ठी कर लाते हैं—कहते हैं, ‘फूल संजो लाये’! फिर सम्हाल कर रखते हैं, मंजूषा बनाते हैं। जिसको जिंदगी में कभी फूल का आदर नहीं दिया, जिसको जिंदगी में कभी फूल की तरह देखा नहीं, जब मर जाता है—आदमी पागल है—तब उसकी हड्डी को, राख को फूल कहते हैं!

ऐसे ही जब कोई बुद्ध जीवित होता है, तब तुम सुनते नहीं। जब कोई महावीर तुम्हारे बीच से गुजरता है, तब तुम नाराज होते हो। लगता है, यह आदमी तुम्हारे सपने तोड़ रहा है, या तुम्हारी नींद में दखल डाल रहा है।’यह कोई जगाने का वक्त है? अभी—अभी तो सपना आना शुरू हुआ था; अभी—अभी तो जरा जीतना शुरू किया था जिंदगी में; अभी—अभी तो दाव ठीक लगने लगे थे, तीर ठीक—ठीक जगह पड़ने लगा था—और ये सज्जन आ गये! ये कहते हैं, सब असार है! अभी—अभी तो चुनाव जीते थे:, पद पर पहुंचने का रास्ता बना था—और ये महापुरुष आ गये! ये कहते हैं, यह सब सपना है, इसमें कुछ सार नहीं; मौत आयेगी, सब छीन लेगी! और छोड़ो भी, जब मौत आयेगी

तब देखेंगे, बीच में तो इस तरह की बातें मत उठाओ!’

लेकिन जब महावीर मर जाते, बुद्ध मर जाते, तब उनकी राख को हम इकट्ठी कर लेते हैं। फिर हम धम्मपद बनाते हैं, वेद बनाते हैं। फिर हम पूजा के फूल चढ़ाते हैं।

जनक भी जानता था कि शास्त्रों में सूचनाएं भरी पड़ी हैं। लेकिन उसने पूछा, ‘कथं ज्ञानम्? कैसे होगा ज्ञान?’ क्योंकि कितना ही जान लो, ज्ञान तो होता ही नहीं। जानते जाओ, जानते जाओ, शास्त्र कंठस्थ कर लो, तोते बन जाओ, एक—एक सूत्र याद हो जाये, पूरे वेद स्मृति में छप जायें—फिर भी ज्ञान तो होता नहीं।

‘कथं ज्ञानम्?

कैसे होगा ज्ञान? कथं मुक्ति? मुक्ति कैसे होगी?’

क्योंकि जिसको तुम ज्ञान कहते हो, वह तो बांध लेता उलटे, मुक्त कहां करता? ज्ञान तो वही है जो मुक्त करे। जीसस ने कहा है, सत्य वही है जो मुक्त करे। ज्ञान तो वही है जो मुक्त करे—यह ज्ञान की कसौटी है। पंडित मुक्त तो दिखाई नहीं पड़ता, बंधा दिखाई पड़ता है। मुक्ति की बातें करता है, मुक्त दिखाई नहीं पड़ता; हजार बंधनों में बंधा हुआ मालूम पड़ता है।

तुमने कभी गौर किया, तुम्हारे तथाकथित संत तुमसे भी ज्यादा बंधे हुए मालूम पड़ते हैं! तुम शायद थोड़े—बहुत मुक्त भी हो, तुम्हारे संत तुमसे भी ज्यादा बंधे हैं। लकीर के फकीर हैं, न उठ सकते स्वतंत्रता से, न बैठ सकते स्वतंत्रता से, न जी सकते स्वतंत्रता से।

कुछ दिनों पहले कुछ जैन साध्वियों की मेरे पास खबर आई कि वे मिलना चाहती हैं, मगर श्रावक आने नहीं देते। यह भी बड़े मजे की बात हुई! साधु का अर्थ होता है, जिसने फिक्र छोड़ी समाज की; जो चल पड़ा अरण्य की यात्रा पर; जिसने कहा, अब न तुम्हारे आदर की मुझे जरूरत है न सम्मान की। लेकिन साधु—साध्वी कहते हैं, ‘श्रावक आने नहीं देते! वे कहते हैं, वहां भूल कर मत जाना। वहां गये तो यह दरवाजा बंद!’ यह कोई साधुता हुई? यह तो परतंत्रता हुई, गुलामी हुई। यह तो बड़ी उलटी बात हुई। यह तो ऐसा हुआ कि साधु श्रावक को बदले, उसकी जगह श्रावक साधु को बदल रहा है। एक मित्र ने आ कर मुझे कहा कि एक जैन साध्वी आपकी किताबें पढ़ती है, लेकिन चोरी से; टेप भी सुनना चाहती है, लेकिन चोरी से। और अगर कभी किसी के सामने आपका नाम भी ले दो तो वह इस तरह हो जाती है जैसे उसने कभी आपका नाम सुना ही नहीं।

यह मुक्ति हुई?

जनक ने पूछा, ‘कथं मुक्ति?

कैसे होती मुक्ति? क्या है मुक्ति? उस ज्ञान को मुझे समझायें, जो मुक्त कर देता है।’

स्वतंत्रता मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण आकांक्षा है। सब पा लो, लेकिन गुलामी अगर रही तो छिदती है। सब मिल जाये, स्वतंत्रता न मिले तो कुछ भी नहीं मिला। मनुष्य चाहता है खुला आकाश। कोई सीमा न हो! वह मनुष्य की अंतरतम, निगढ़तम आकांक्षा है, जहां कोई सीमा न हो, कोई बाधा न हो। इसी को परमात्मा होने की आकांक्षा कहो, मोक्ष की आकांक्षा कहो।

हमने ठीक शब्द चुना है ‘मोक्ष'; दुनियां की किसी भाषा में ऐसा प्यारा शब्द नहीं है। स्वर्ग, फिरदौस—इस तरह के शब्द हैं, लेकिन उन शब्दों में मोक्ष की कोई धुन नहीं है। मोक्ष का संगीत ही अनूठा है। उसका अर्थ ही केवल इतना है : ऐसी परम स्वतंत्रता जिस पर कोई बाधा नहीं है; स्वतंत्रता इतनी शुद्ध कि जिस पर कोई सीमा नहीं है।

पूछा जनक ने, ‘कैसे होगी मुक्ति और कैसे होगा वैराग्य? हे प्रभु, मुझे समझा कर कहिए!’ अष्टावक्र ने गौर से देखा होगा जनक की तरफ; क्योंकि गुरु के लिए वही पहला काम है कि जब कोई जिज्ञासा करे तो वह गौर से देखे. ‘जिज्ञासा किस स्रोत से आती है? पूछने वाले ने क्यों पूछा है?’ उत्तर तो तभी सार्थक हो सकता है जब प्रश्न क्यों किया गया है, वह समझ में आ जाये, वह साफ हो जाए।

ध्यान रखना, सदज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, सदगुरु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं देता—तुम्हें उत्तर देता है! तुम क्या पूछते हो, इसकी फिक्र कम है; तुमने क्यों पूछा है, तुम्हारे पूछने के पीछे अंतरचेतन में छिपा हुआ जाल क्या है, तुम्हारे प्रश्नों की आड़ में वस्तुत: कौन—सी आकांक्षा छिपी है..!

दुनियां में चार तरह के लोग हैं—ज्ञानी, मुमुक्षु, अज्ञानी, मूढ़। और दुनियां में चार ही तरह की जिज्ञासाए होती हैं। ज्ञानी की जिज्ञासा तो नि:शब्द होती है। कहना चाहिए, ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा होती ही नहीं—जान लिया, जानने को कुछ बचा नहीं, पहुंच गये, चित्त निर्मल हुआ, शांत हुआ, घर लौट आये, विश्राम में आ गये! तो ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा जैसी होती ही नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञानी सीखने को तैयार नहीं होता। ज्ञानी तो सरल, छोटे बच्चे की भांति हो जाता है—सदा तत्पर सीखने को।

जितना ज्यादा तुम सीख लेते हो, उतनी ही सीखने की तत्परता बढ़ जाती है। जितने तुम सरल और निष्कपट होते चले जाते हो, उतने ही सीखने के लिए तुम खुल जाते हो। आयें हवाएं, तुम्हारे द्वार खुले पाती हैं। आये सूरज, तुम्हारे द्वार पर दस्तक नहीं देनी पड़ती। आये परमात्मा, तुम्हें सदा तत्पर पाता है।

ज्ञान—ज्ञान को संगृहीत नहीं करता; ज्ञानी सिर्फ ज्ञान की क्षमता को उपलब्ध होता है। इस बात को ठीक से समझ लेना, क्योंकि पीछे यह काम पड़ेगी। ज्ञानी का केवल इतना ही अर्थ है कि जो जानने के लिए बिलकुल खुला है; जिसका कोई पक्षपात नहीं, जानने के लिए जिसके पास कोई परदा नहीं; जिसके पास जानने के लिए कोई पूर्व—नियोजित योजना, ढांचा नहीं। ज्ञानी का अर्थ है ध्यानी जो ध्‍यान पूर्ण है।

तो देखा होगा अष्‍टावक्र ने गौर से, जनक में झांक कर : यह व्यक्ति ज्ञानी तो नहीं है। यह ध्यान को तो उपलब्ध नहीं हुआ है। अन्यथा इसकी जिज्ञासा मौन होती; उसमें शब्द न होते।

बुद्ध के जीवन में उल्लेख है—एक फकीर मिलने आया। एक साधु मिलने आया। एक परिव्राजक घुमक्कड़। उसने आकर बुद्ध से कहा : ‘पूछने योग्य शब्द मेरे पास नहीं। क्या पूछना चाहता हूं उसे शब्‍दों में। बांधने की मेरे पास कोई कुशलता नहीं। आप तो जानते ही हैं, समझ लें। जो मेरे योग्य हो, कह दें।‘

यह ज्ञानी की जिज्ञासा है।

बुद्ध चुप बैठे रहे, उन्होंने कुछ भी न कहा। घड़ी भर बाद, जैसे कुछ घटा! वह जो आदमी चुपचाप बैठा बुद्ध की तरफ देखता रहा था, उसकी आंख से आंसुओ की धार लग गई, चरणों में झुका नमस्कार किया और कहा, ‘धन्यवाद! खूब धन्यभागी हूं! जो लेने आया था, आपने दिया।’वह उठकर चला भी गया। उसके चेहरे पर अपूर्व आभा थी। वह नाचता हुआ गया।

बुद्ध के आसपास के शिष्य बड़े हैरान हुए। आनंद ने पूछा. ‘भंते! भगवान! पहेली हो गई। पहले तो यह आदमी कहता है कि मुझे पता नहीं कैसे पूछ— पता नहीं किन शब्दों में पूछ— यह भी पता नहीं क्या पूछने आया हूर फिर आप तो जानते ही हैं सब; देख लें मुझे; जो मेरे लिए जरूरी हो, कह दें। पहले तो यह आदमी ही जरा पहेली था.. यह कोई ढंग हुआ पूछने का! और जब तुम्हें यही पता नहीं कि क्या पूछना है तो पूछना ही क्यों? पूछना क्या? खूब रही! फिर यहीं बात खत्म न हुई; आप चुप बैठे सो चुप बैठे रहे! आपको ऐसा कभी मौन देखा नहीं; कोई पूछता है तो आप उत्तर देते हैं। कभी—कभी तो ऐसा होता है कि कोई नहीं भी पूछता तो भी आप उत्तर देते हैं। आपकी करुणा सदा बहती रहती है। क्या हुआ अचानक कि आप चुप रह गये और आंख बंद हो गई? और फिर क्या रहस्यमय घटा कि वह आदमी रूपांतरित होने लगा। हमने उसे बदलते देखा। हमने उसे किसी और ही रंग में डूबते देखा। उसमें मस्ती आते देखी। वह नाचते हुए गया है—आंसुओ से भरा हुआ, गदगद, आह्लादित! वह चरणों में झुका। उसकी सुगंध हमें भी छुई। यह हुआ क्या? आप कुछ बोले नहीं, उसने सुना कैसे? और हम तो इतने दिनों से, वर्षों से आपके पास हैं, हम पर आपकी कृपा कम है क्या? यह प्रसाद, जो उसे दिया, हमें क्यों नहीं मिलता?’

लेकिन ध्यान रहे, उतना ही मिलता है जितना तुम ले सकते हो।

बुद्ध ने कहा, ‘सुनो। घोड़े..।’आनंद से घोड़े की बात की, क्योंकि आनंद क्षत्रिय था, बुद्ध का चचेरा भाई था और बचपन से ही घोड़े का बड़ा शौक था उसे, घुड़सवार था। प्रसिद्ध घुड़सवार था, प्रतियोगी था बड़ा! उन्होंने कहा, ‘सुन आनंद!’ बुद्ध ने कहा : ‘घोड़े चार प्रकार के होते हैं। एक तो मारो भी तो भी टस से मस नहीं होते। रही से रही घोड़े! जितना मारो उतना ही हठयोगी हो जाते हैं, बिलकुल हठ बांध कर खड़े हो जाते हैं। तुम मारो तो वे जिद्द बना लेते हैं कि देखें कौन जीतता है! फिर दूसरे तरह के घोड़े होते हैं. मारो तो चलते हैं, न मारो तो नहीं चलते। कम से कम पहले से बेहतर। फिर तीसरे तरह के घोड़े होते हैं : कोड़ा फटकासे, मारना जरूरी नहीं। सिर्फ कोड़ा फटकारो, आवाज काफी है। और भी कुलीन होते हैं—दूसरे से भी बेहतर। फिर आनंद, तुझे जरूर पता होगा ऐसे भी घोड़े होते हैं कि कोड़े की छाया देख कर भागते हैं, फटकारना भी नहीं पड़ता। यह ऐसा ही घोड़ा था। छाया काफी है।’

अष्टावक्र ने देखा होगा गौर से।

जब तुम आ कर मुझसे कुछ पूछते हो तो तुम्हारे प्रश्न से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल तुम हो। कभी—कभी तुम्हें भी ऐसा लगता होगा कि तुमने जो नहीं पूछा था, वह मैंने उत्तर दिया है। और कभी—कभी तुम्हें ऐसा भी लगता होगा कि शायद मैं टाल गया तुम्हारे प्रश्न को, बचाव कर गया, कुछ और उत्तर दे गया हूं। लेकिन सदा तुम्हारी भीतरी जरूरत ज्यादा महत्वपूर्ण है; तुम क्या पूछते हो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं। क्योंकि तुम्हें खुद ही ठीक पता नहीं, तुम क्या पूछते हो, क्यों पूछते हो। उत्तर वही दिया जाता है, जिसकी तुम्हें जरूरत है। तुम्हारे पूछने से कुछ तय नहीं होता।

देखा होगा अष्टावक्र ने. ज्ञानी तो नहीं है जनक। अज्ञानी है फिर क्या? अज्ञानी भी नहीं है। क्योंकि अज्ञानी तो अकड़ीला, अकड़ से भरा होता है। अज्ञानी तो झुकना जानता ही नहीं। यह तो मुझे बारह साल की उम्र के लड़के के पैरों में झुक गया, साष्टांग दंडवत की। यह अज्ञानी के लिए असंभव है। अज्ञानी तो समझता है कि मैं जानता ही हूं मुझे कौन समझायेगा! अज्ञानी अगर कभी पूछता भी है तो तुम्हें गलत सिद्ध करने को पूछता है। क्योंकि अज्ञानी तो यह मान कर ही चलता है कि पता तो मुझे है ही; देखें इनको भी पता है या नहीं! अज्ञानी परीक्षा के लिए पूछता है। नहीं, इसकी आंखें, जनक की तो बड़ी निर्मल हैं। मुझ बारह साल के अनजान—अपरिचित लड़के को सम्राट होते हुए भी इसने कहा, ‘एतत मम बूहि प्रभो! हे प्रभु, मुझे समझा कर कहें!’ नहीं, यह विनयशील है, अज्ञानी तो नहीं है। मूढ़ है क्या फिर? मूढ़ तो पूछते ही नहीं। मूढ़ों को तो पता ही नहीं है कि जीवन में कोई समस्या है।

मूढ़ और बुद्धपुरुषों में एक समानता है। बुद्धपुरुषों के लिए कोई समस्या नहीं रही, मूढ़ों के लिए अभी समस्या उठी ही नहीं। बुद्धपुरुष समस्या के पार हो गये : मूढ़ अभी समस्या के बाहर हैं। मूढ़ तो इतना मूर्च्‍छित है कि उसे कहां सवाल? ‘कथं ज्ञानम्’—मूढ़ पूछेगा? ‘कथं मुक्ति’—मूढ़ पूछेगा? ‘कैसे होगा वैराग्य’—मूढ़ पूछेगा? असंभव!

मूढ़ अगर पूछेगा भी तो पूछता है, राग में सफलता कैसे मिलेगी? मूढ़ अगर पूछता भी है तो पूछता है, संसार में और थोड़े ज्यादा दिन कैसे रहना हो जाये? मुक्ति..! नहीं, मूढ़ पूछता है बंधन सोने के कैसे बनें? बंधन में हीरे—जवाहरात कैसे जड़ें? मूढ़ पूछता भी है तो ऐसी बातें पूछता है। ज्ञान! मूढ़ तो मानता ही नहीं कि ज्ञान हो सकता है। वह तो संभावना को ही स्वीकार नहीं करता। वह तो कहता है, कैसा ज्ञान? मूढ़ तो पशुवत जीता है।

नहीं, यह जनक मूढ़ भी नहीं है—मुमुक्षु है।

‘मुमुक्षु’ शब्द समझना जरूरी है। मोक्ष की आकांक्षा—मुमुक्षा! अभी मोक्ष के पास नहीं पहुंचा, ज्ञानी नहीं है; मोक्ष के प्रति पीठ करके नहीं खड़ा, मूढ़ नहीं है; मोक्ष के संबंध में कोई धारणाएं पकड़ कर नहीं बैठा, आज्ञानी भी नहीं है—मुमुक्षु है। मुमुक्षु का अर्थ है, सरल है इसकी जिज्ञासा; न मूढ़ता से अपवित्र हो रही है, न अज्ञानपूर्ण धारणाओं से विकृत हो रही है। शुद्ध है इसकी जिज्ञासा। सरल चित्त से पूछा है।

अष्टावक्र ने कहा, ‘हे प्रिय, यदि तू मुक्ति को चाहता है तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज।

शब्द ‘विषय’ बड़ा बहुमूल्य है—वह विष से ही बना है। विष का अर्थ होता है, जिसे खाने से आदमी मर जाये। विषय का अर्थ होता है, जिसे खाने से हम बार—बार मरते हैं। बार—बार भोग, बार—बार भोजन, बार—बार महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या, क्रोध, जलन—बार—बार इन्हीं को खा—खा कर तो हम मरे हैं! बार—बार इन्हीं के कारण तो मरे हैं! अब तक हमने जीवन में जीवन कहा जाना, मरने को ही जाना है। अब तक हमारा जीवन जीवन की प्रज्वलित ज्योति कहां, मृत्यु का ही धुआ है। जन्म से ले कर मृत्यु तक हम मरते ही तो हैं धीरे—धीरे, जीते कहां? रोज—रोज मरते हैं! जिसको हम जीवन कहते हैं, वह एक सतत मरने की प्रक्रिया है। अभी हमें जीवन का तो पता ही नहीं, तो हम जीयेगे कैसे? यह शरीर तो रोज क्षीण होता चला जाता है। यह बल तो रोज खोता चला जाता है। ये भोग और विषय तो रोज हमें चूसते चले जाते हैं, जराजीर्ण करते चले जाते हैं। ये विषय और कामनाएं तो छेदों की तरह हैं; इनसे हमारी ऊर्जा और आत्मा रोज बहती चली जाती है। आखिर में घड़ा खाली हो जाता है, उसको हम मृत्यु कहते हैं।

तुमने कभी देखा, अगर छिद्र वाले घड़े को कुएं में डालो तो जब तक घड़ा पानी में डूबा होता है, भरा मालूम पड़ता है; उठाओ, पानी के ऊपर खींचो रस्सी, बस खाली होना शुरू हुआ! जोर का शोरगुल होता है। उसी को तुम जीवन कहते हो? जलधारें गिरने लगती हैं, उसी को तुम जीवन कहते हो? और घड़ा जैसे—जैसे पास आता हाथ के, खाली होता चला जाता है। जब हाथ में आता है, तो खाली घड़ा! जल की एक बूंद भी नहीं! ऐसा ही हमारा जीवन है।

बच्चा पैदा नहीं हुआ, भरा मालूम होता है; पैदा हुआ कि खाली होना शुरू हुआ। जन्म का पहला दिन मृत्यु का पहला दिन है। खाली होने लगा। एक दिन मरा, दो दिन मरा, तीन दिन मरा! जिनको तुम ‘जन्म—दिन’ कहते हो, अच्छा हो, ‘मृत्यु—दिन’ कहो तो ज्यादा सत्यतर होगा .। एक साल मर जाते हो, उसको कहते हो, चलो एक जन्म—दिन आ गया! पचास साल मर गये, कहते हो, ‘पचास साल जी लिये, स्वर्ण—जयंती मनाएं!’ पचास साल मरे। मौत करीब आ रही है, जीवन दूर जा रहा है। घड़ा खाली हो रहा है! जो दूर जा रहा है, उसके आधार पर तुम जीवन को सोचते हो या जो पास आ रहा है उसके आधार पर? यह कैसा उलटा गणित! हम रोज मर रहे हैं। मौत करीब सरकती आती है।

अष्टावक्र कहते हैं. विषय हैं विषवत, क्योंकि उन्हें खा—खा कर हम सिर्फ मरते हैं; उनसे कभी जीवन तो मिलता नहीं।

‘यदि तू मुक्ति चाहता है, हे तात, हे प्रिय, तो विषयों को विष के समान छोड़ दे, और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’

अमृत का अर्थ होता है, जिससे जीवन मिले, जिससे अमरत्व मिले; जिससे उसका पता चले जो फिर कभी नहीं मरेगा।

तो क्षमा!

क्रोध विष है; क्षमा अमृत है।

आर्जव!

कुटिलता विष है; सीधा—सरलपन, आर्जव अमृत है।

दया!

कठोरता, क्रूरता विष है; दया, करुणा अमृत है।

संतोष।

असंतोष, का कीड़ा खाए चला जाता है। असंतोष का कीड़ा हृदय में कैंसर की तरह है; फैलता चला जाता है; विष को फैलाए चले जाता है।

संतोष—जो है उससे तृप्ति; जो नहीं है उसकी आकांक्षा नहीं। जो है वह काफी से ज्यादा है। वह है ही काफी से ज्यादा। आंख खोलो, जरा देखो!

संतोष कोई थोपना नहीं है ऊपर जीवन के। जरा गौर से देखो, तुम्हें जो मिला है वह तुम्हारी जरूरत से सदा ज्यादा है! तुम्हें जो चाहिए वह मिलता ही रहा है। तुमने जो चाहा है, वह सदा मिल गया है। तुमने दुख चाहा है तो दुख मिल गया है। तुमने सुख चाहा है तो सुख मिल गया है। तुमने गलत चाहा तो गलत मिल गया है। तुम्हारी चाह ने तुम्हारे जीवन को रचा है। चाह बीज है, फिर जीवन उसकी फसल है। जन्मों—जन्मों में जो तुम चाहते रहे हो वही तुम्हें मिलता रहा है। कई बार तुम सोचते हो हम कुछ और चाह रहे हैं, जब मिलता है तो कुछ और मिलता है—तो तुम्हारे चाहने में भूल नहीं हुई है सिर्फ तुमने चाहने के लिए गलत शब्द चुन लिया था। जैसे—तुम चाहते हो सफलता, मिलती है विफलता। तुम कहते हो, विफलता मिल रही है, चाही तो सफलता थी।.

लेकिन जिसने सफलता चाही उसने विफलता को स्वीकार कर ही लिया; वह विफलता से भीतर डर ही गया है। विफलता के कारण ही तो सफलता चाह रहा है। और जब—जब सफलता चाहेगा तब—तब विफलता का खयाल आयेगा। विफलता का खयाल भी मजबूत होता चला जायेगा। सफलता तो कभी मिलेगी; लेकिन रास्ते पर यात्रा तो विफलता—विफलता में ही बीतेगी। विफलता का भाव संगृहीभूत होगा। वह इतना संगृहीभूत हो जायेगा कि वही एक दिन प्रगट हो जायेगा। तब तुम कहते हो कि हमने तो सफलता चाही थी। लेकिन सफलता के चाहने में तुमने विफलता को चाह लिया।

लाओत्सु ने कहा है : सफलता चाही, विफलता मिलेगी। अगर सचमुच सफलता चाहिए हो, सफलता चाहना ही मत; फिर तुम्हें कोई विफल नहीं कर सकता।

तुम कहते हो : हमने सम्मान चाहा था, अपमान मिल रहा है। सम्मान चाहता ही वही व्यक्ति है, जिसका अपने प्रति कोई सम्मान नहीं। वही तो दूसरों से सम्मान चाहता है। अपने प्रति जिसका अपमान है वही तो दूसरों से अपने अपमान को भर लेना चाहता है, ढांक लेना चाहता है। सम्मान की आकांक्षा इस बात की खबर है कि तुम अपने भीतर अपमानित अनुभव कर रहे हो; तुम्हें अनुभव हो रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं दूसरे मुझे कुछ बना दें, सिंहासन पर बिठा दें, पताकाएं फहरा दें, झंडे उठा लें मेरे नाम के—दूसरे कुछ कर दें!

तुम भिखमंगे हो! तुमने अपना अपमान तो खुद कर लिया जब तुमने सम्मान चाहा। और यह अपमान गहन होता जायेगा।

लाओत्सु कहता है, मेरा कोई अपमान नहीं कर सकता, क्योंकि मैं सम्मान चाहता ही नहीं। यह सम्मान को पा लेना है। लाओत्सु कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि जीत की हमने बात ही छोड़ दी। अब हराओगे कैसे! तुम उसी को हरा सकते हो जो जीतना चाहता है अब यह जरा उलझा हुआ हिसाब है।

इस दुनियां में सम्मान उन्हें मिलता है जिन्होंने सम्मान नहीं चाहा। सफलता उन्हें मिलती है जिन्होंने सफलता नहीं चाही। क्योंकि जिन्होंने सफलता नहीं चाही उन्होंने तो स्वीकार ही कर लिया कि सफल तो हम हैं ही, अब और चाहना क्या है? सम्मान तो हमारे भीतर आत्मा का है ही; अब और चाहना क्या है? परमात्मा ने सम्मान दे दिया तुम्हें पैदा करके; अब और किसका सम्मान चाहते हो? परमात्मा ने तुम्हें काफी गौरव दे दिया! जीवन दिया! यह सौभाग्य दिया कि आंख खोलो, देखो हरे वृक्षों को, फूलों को, पक्षियों को! कान दिए—सुनो संगीत को, जलप्रपात के मरमर को! बोध दिया कि बुद्ध हो सको! अब और क्या चाहते हो? सम्मानित तो तुम हो गये! परमात्मा ने तुम्हें प्रमाण—पत्र दिया। तुम भिखारी की तरह किनसे प्रमाण—पत्र मांग रहे हो? उनसे, जो तुमसे प्रमाण—पत्र मांग रहे हैं?

यह बड़ा मजेदार मामला है : दो भिखारी एक—दूसरे के सामने खड़े भीख मांग रहे हैं! यह भीख मिलेगी कैसे? दोनों भिखारी हैं। तुम किससे सम्मान मांग, रहे हो? किसके सामने खड़े हो? यह अपमान कर रहे हो तुम अपना। और यही अपमान गहन होता जायेगा।

संतोष का अर्थ होता है : देखो, जो तुम्हारे पास है। देखो जरा आंख खोल कर, जो तुम्हें मिला ही है। यह अष्टावक्र की बड़ी बहुमूल्य कुंजी है। यह धीरे—धीरे तुम्हें साफ होगी। अष्टावक्र की दृष्टि बड़ी क्रांतिकारी है, बड़ी अनूठी है, जड़—मूल से क्रांति की है।

‘संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’

क्योंकि असत्य के साथ जो जीयेगा वह असत्य होता चला जायेगा। जो असत्य को बोलेगा, असत्य को जीयेगा, स्वभावत: असत्य से घिरता चला जायेगा। उसके जीवन से संबंध विच्छिन्न हो जाएंगे, जड़ें टूट जाएंगी।

परमात्मा में जड़ें चाहते हो तो सत्य के द्वारा ही वे जड़ें हो सकती हैं। प्रामाणिकता और सत्य के द्वारा ही तुम परमात्मा से जुड़ सकते हो। परमात्मा से टूटना है तो असत्य का धुआ पैदा करो, असत्य के बादल अपने पास बनाओ। जितने तुम असत्य होते चले जाओगे उतने परमात्मा से दूर होते चले जाओगे।

‘तू न पृथ्वी है, न जल है, न वायु है, न आकाश है। मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।’

सीधी—सीधी बातें हैं; भूमिका भी नहीं है। अभी दो वचन नहीं बोले अष्टावक्र ने कि ध्यान आ गया, कि समाधि की बात आ गई। जानने वाले के पास समाधि के अतिरिक्त और कुछ जताने को है भी नहीं। वह दो वचन भी बोले, क्योंकि एकदम से अगर समाधि की बात होगी तो शायद तुम चौंक ही जाओगे, समझ ही न पाओगे। मगर दो वचन—और सीधी समाधि की बात आ गई!

अष्टावक्र सात कदम भी नहीं चलते; बुद्ध तो सात कदम चले, आठवें कदम पर समाधि है। अष्टावक्र तो पहला कदम ही समाधि का उठाते हैं।

‘तू न पृथ्वी है, न जल, न वायु, न आकाश’—ऐसी प्रतीति में अपने को थिर कर।’मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।’

‘साक्षी’ सूत्र है। इससे महत्वपूर्ण सूत्र और कोई भी नहीं। देखने वाले बनो! जो हो रहा है उसे होने दो; उसमें बाधा डालने की जरूरत नहीं। यह देह तो जल है, मिट्टी है, अग्नि है, आकाश है। तुम इसके भीतर तो वह दीये हो जिसमें ये सब जल, अग्नि, मिट्टी, आकाश, वायु प्रकाशित हो रहे हैं। तुम द्रष्टा हो। इस बात को गहन करो।

साक्षिणां चिद्धूपं आत्मानं विदि…….

यह इस जगत में सर्वाधिक बहुमूल्य सूत्र है। साक्षी बनो! इसी से होगा शान! इसी से होगा वैराग्य! इसी से होगी मुक्ति!

प्रश्न तीन थे, उत्तर एक है।

‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो तू अभी ही सुखी, शांत और बंध—मुक्त हो जायेगा।’

इसलिए मैं कहता हूं यह जड़—मूल से क्रांति है। पतंजलि इतनी हिम्मत से नहीं कहते कि ‘अभी ही।’ पतंजलि कहते हैं, ‘करो अभ्यास—यम, नियम; साधो—प्राणायाम, प्रत्याहार, आसन; शुद्ध करो। जन्म—जन्म लगेंगे, तब सिद्धि है।’

महावीर कहते हैं, ‘पंच महाव्रत! और तब जन्म—जन्म लगेंगे, तब होगी निर्जरा; तब कटेगा जाल कर्मों का।’

सुनो अष्टावक्र को

यदि देह पृथस्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।

अधुनैव सुखी शांत: बंधमुक्तो भविष्यसि।।

‘अधुनैव!’ अभी, यहीं, इसी क्षण! ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है…!’ अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं; मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है—बचपन था कभी तो बचपन देखा, फिर जवानी आयी तो जवानी देखी, फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं हो सकता—आया और गया, मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकता— आई और गई; मैं तो हूं! बुढ़ापा आया, जा रहा है, तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता है जाता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो सदा हूं। जिस पर बचपन आया, जिस पर जवानी आई, जिस पर बुढ़ापा आया, जिस पर हजार चीजें आईं और गईं—मैं वही शाश्वत हूं।

स्टेशनों की तरह बदलती रहती है बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म—यात्री चलता जाता। तुम स्टेशन के साथ अपने को एक तो नहीं समझ लेते! पूना की स्टेशन पर तुम ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं पूना हूं! फिर पहुंचे मनमाड तो ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं मनमाड हूं! तुम जानते हो कि पूना आया, गया; मनमाड आया, गया—तुम तो यात्री हो! तुम तो द्रष्टा हों—जिसने पूना देखा, पूना आया; जिसने मनमाड़ देखा, मनमाड आया! तुम तो देखने वाले हो!

तो पहली बात : जो हो रहा है उसमें से देखने वाले को अलग कर लो!

‘देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम..।’

और करने योग्य कुछ भी नहीं है। जैसे लाओत्सु का सूत्र है—समर्पण, वैसे अष्टावक्र का सूत्र है—विश्राम, रेस्ट। करने को कुछ भी नहीं है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान कैसे करें? वे प्रश्न ही गलत पूछ रहे हैं। गलत पूछते हैं तो मैं उनको कहता हूं करो। अब क्या करोगे! तो उनको बता देता हूं कि करो, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा—अभी तुम्हें करने कीं खुजलाहट है तो उसे तो पूरा करना होगा। खुजली है तो क्या करोगे! बिना खुजाए नहीं बनता। लेकिन धीरे—धीरे उनको करवा—करवा कर थका डालता हूं। फिर वे कहते हैं कि अब इससे छुटकारा दिलवाओ! अब कब तक यह करते रहें? मैं कहता हूं मैं तो पहले ही राजी था, लेकिन तुम्हें समझने में जरा देर लगी। अब विश्राम करो!

ध्यान का आत्यंतिक अर्थ विश्राम है। ाउ

चिति विश्राम्य तिष्ठसि

—जो विश्राम में ठहरा देता अपनी चेतना को; जो होने मात्र में ठहर जाता…!

कुछ करने को नहीं है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, वह मिला ही हुआ है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, उसे कभी खोया ही नहीं। उसे खोया नहीं जा सकता। वही तुम्हारा स्वभाव है। अयमात्मा ब्रह्म! तुम ब्रह्म हो! अनलहक! तुम सत्य हो! कहां खोजते हो? कहां भागे चले जाते हो? अपने को ही खोजने कहां भागे चले जाते हो? रुको, ठहरो! परमात्मा दौड़ने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा दौड़ने वाले में छिपा है। परमात्मा कुछ करने से नहीं मिलता, क्योंकि परमात्मा करने वाले में छिपा है। परमात्मा के होने के लिए कुछ करने की जरूरत ही नहीं है—तुम हो ही!

इसलिए अष्टावक्र कहते हैं. चिति विश्राम्य! विश्राम करो! ढीला छोड़ो अपने को! यह तनाव छोड़ो! कहां जाते? कहीं जाने को नहीं, कहीं पहुंचने को नहीं है।

और चैतन्य में विश्राम. तो तू अभी ही, इसी क्षण, अधुनैव, सुखी, शांत और बंध—मुक्त हो जायेगा।

अनूठा है वचन! नहीं कोई और शास्त्र इसका मुकाबला करता है।

‘तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है और न तू कोई आश्रम वाला है और न आंख आदि इंद्रियों का विषय है। असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है। ऐसा जानकर सुखी हो।’

अब ब्राह्मण कैसे टीका लिखें!

‘तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है.।’

अब हिंदू इस शास्त्र को कैसे सिर पर उठायें! क्योंकि उनका तो सारा धर्म वर्ण और आश्रम पर खड़ा है। और यह तो पहले से ही अष्टावक्र जड़ काटने लगे। वे कहते हैं, तू कोई ब्राह्मण नहीं है, न कोई शूद्र है, न कोई क्षत्रिय है। यह सब बकवास है! ये सब ऊपर के आरोपण हैं। यह सब राजनीति और समाज का खेल है। तू तो सिर्फ ब्रह्म है, ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय नहीं, शूद्र नहीं!

‘तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं और न तू कोई आश्रम वाला है।’

और न तो यह है कि तू कोई ब्रह्मचर्य—आश्रम में है कि गृहस्थ—आश्रम में है, कि वानप्रस्थ कि संन्यस्त, कोई आश्रम वाला नहीं है। तू तो इस सारे स्थानों के भीतर से गुजरने वाला द्रष्टा, साक्षी है। अष्टावक्र की गीता, हिंदू दावा नहीं कर सकते, हमारी है। अष्टावक्र की गीता सबकी है। अगर अष्टावक्र के समय में मुसलमान होते, हिंदू होते, ईसाई होते, तो उन्होंने कहा होता, ‘न तू हिंदू है, न तू ईसाई है, न तू मुसलमान है।’ अब ऐसे अष्टावक्र को.. कौन मंदिर बनाये इसके लिए! कौन इसके शास्त्र को सिर पर उठाये! कौन दावेदार बने! क्योंकि ये सभी का निषेध कर रहे हैं। मगर यह सत्य की सीधी घोषणा है। ‘असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है—ऐसा जान कर सुखी हो!’

अष्टावक्र यह नहीं कहते कि ऐसा तुम जानोगे तो फिर सुखी होओगे। वचन को ठीक से सुनना। अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा जान कर सुखी हो!

न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचर।

असंगोsसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।

सुखी भव! अभी हो सुखी!

जनक पूछते हैं, ‘कैसे सुख होगा? कैसे बंधन—मुक्ति होगी? कैसे ज्ञान होगा?’

अष्टावक्र कहते हैं, अभी हो सकता है। क्षणमात्र की भी देर करने की कोई जरूरत नहीं है। इसे कल पर छोड़ने का कोई कारण नहीं, स्थगित करने की कोई जरूरत नहीं। यह घटना भविष्य में नहीं घटती, या तो घटती है अभी या कभी नहीं घटती। जब घटती है तब अभी घटती है। क्योंकि ‘अभी’ के अतिरिक्त कोई समय ही नहीं है। भविष्य कहां है? जब आता है तब अभी की तरह आता है।

तो जो भी ज्ञान को उत्पन्न हुए हैं—’अभी’ उत्पन्न हुए हैं। कभी पर मत छोड़ना—वह मन की चालाकी है। मन कहता है, इतने जल्दी कैसे हो सकता है; तैयारी तो कर लें!

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ‘संन्यास लेना है.. लेंगे कभी।’ ‘कभी!’ कभी न लोगे! कभी पर टाला तो सदा के लिए टाला। कभी आता ही नहीं। लेना हो तो अभी। अभी के अतिरिक्त कोई समय ही नहीं है। अभी है जीवन। अभी है मुक्ति। अभी है अज्ञान, अभी है ज्ञान। अभी है निद्रा, अभी हो सकता जागरण। कभी क्यों? कठिन होता है मन को, क्योंकि मन कहता है तैयारी तो करने दो! मन कहता है, ‘कोई भी काम तैयारी के बिना कैसे घटता है? आदमी को विश्वविद्यालय से प्रमाण—पत्र लेना है तो वर्षों लगते हैं। डाक्टरेट करनी है तो बीस—पचीस साल लग जाते हैं, मेहनत करते—करते, फिर आदमी जाकर डाक्टर हो पाता है। अभी कैसे हो सकते हैं?’

अष्टावक्र भी जानते हैं : दुकान करनी हो तो अभी थोड़े खुल जायेगी! इकट्ठा करना पड़े, आयोजन करना पड़े, सामान लाना पड़े, दुकान बनानी पड़े, ग्राहक खोजने पड़े, विज्ञापन भेजना पड़े—वर्षों लगते हैं! इस जगत में कोई भी चीज ‘अभी’ तो घटती नहीं; क्रम से घटती है। ठीक है। अष्टावक्र भी जानते हैं, मैं भी जानता हूं। लेकिन एक घटना यहां ऐसी है जो अभी घटती है—वह परमात्मा है। वह तुम्हारी दुकान नहीं है, न तुम्हारा परीक्षालय है, न तुम्हारा विश्वविद्यालय है। परमात्मा क्रम से नहीं घटता। परमात्मा घट ही चुका है। आंख भर खोलने की बात है—सूरज निकल ही चुका है। सूरज तुम्हारी आंख के लिए नहीं रुका है कि तुम जब आंख खोलोगे, तब निकलेगा। सूरज निकल ही चुका है। प्रकाश सब तरफ भरा ही है। अहर्निश गज रहा है उसका नाद! ओंकार की ध्वनि सब तरफ गंज रही है! सतत अनाहत चारों तरफ गंज रहा है! खोलो कान! खोलो आंख!

आंख खोलने में कितना समय लगता है? उतना समय भी परमात्मा को पाने में नहीं लगता। पल तो लगता है पलक के झपने में। पल का अर्थ होता है, जितना समय पलक को झपने में लगता, उतना पल। मगर परमात्मा को पाने में पल भी नहीं लगता।

विश्वसाक्षी असंगोउसि निराकारो। सुखी भव!

अभी हो सुखी! उधार नहीं है अष्टावक्र का धर्म—नगद, कैश..।

‘हे व्यापक, धर्म और अधर्म, सुख और दुख मन के हैं : तेरे लिए नहीं हैं। तू न कर्ता है न भोक्ता है। तू तो सर्वदा मुक्त ही है।’

मुक्ति हमारा स्वभाव है। ज्ञान हमारा स्वभाव है। परमात्मा हमारा होने का ढंग है; हमारा केंद्र है; हमारे जीवन की सुवास है; हमारा होना है।

धर्माउधमौं सुखं दुःखं मानसानि न तो विभो।

अष्टावक्र कहते हैं, ‘हे व्यापक, हे विभावान, हे विभूतिसंपन्न! धर्म और अधर्म, सुख और दुख मन के हैं।’ ये सब मन की ही तरंगें हैं। बुरा किया, अच्छा किया, पाप किया, पुण्य किया, मंदिर

बनाया, दान दिया—सब मन के हैं।

न कर्ताउसि न भोक्ताउसि मुक्त एवासि सर्वदा।

‘तू तो सदा मुक्त है। तू तो सर्वदा मुक्त है।’

मुक्ति कोई घटना नहीं है जो हमें घटानी है। मुक्ति घट चुकी है हमारे होने में! मुक्‍ति से बना है यह अस्तित्व। इसका रोआं—रोआं, रंच—रंच मुक्ति से निर्मित है। मुक्ति है धातु, जिससे बना है सारा अस्तित्व। स्वतंत्रता स्वभाव है। यह उदघोषणा, बस समझी कि क्रांति घट जाती है। समझने के अतिरिक्त कुछ करना नहीं है। यह बात खयाल में उतर जाये, तुम सुन लो इसे मन भर कर, बस! तो आज इतना ही कहना चाहूंगा. अष्टावक्र को समझने की चेष्टा भर करना। अष्टावक्र में ‘करने’ का कोई इंतजाम नहीं है। इसलिए तुम यह मत सोचना कि अब कोई तरकीब निकलेगी जो हम करेंगे। अष्टावक्र कुछ करने को कहते ही नहीं। तुम विश्राम से सुन लो। करने से कुछ होने ही वाला नहीं है। इसलिए तुम कापी वगैरह, नोटबुक ले कर मत आना कि लिख लेंगे, कुछ आयेगा सूत्र तो नोट कर लेंगे, करके देख लेंगे। करने का यहां कुछ काम ही नहीं है। इसलिए तुम भविष्य की फिक्र छोड़ कर सुनना। तुम सिर्फ सुन लेना। तुम सिर्फ मेरे पास बैठ कर शांत भाव से सुन लेना, विश्राम में सुन लेना। सुनते—सुनते तुम मुक्त हो जा सकते हो।

इसलिए महावीर ने कहा है कि श्रावक मुक्त हो सकता है—सिर्फ सुनते—सुनते! श्रावक का अर्थ होता है जो सुनते—सुनते मुका हो जाये। साधु का तो अर्थ ही इतना है कि जो सुन—सुन कर मुक्त न हो सका, थोड़ा कमजोर बुद्धि का है। कुछ करना पड़ा। सिर्फ कोड़े की छाया काफी न थी। घोड़ा जरा कुजात है। कोड़ा फटकारा, तब थोड़ा चला; या मारा तो थोड़ा चला।

छाया काफी है। तुम सुन लेना, कोड़े की छाया दिखाई पड़ जायेगी।

तो अष्टावक्र के साथ एक बात स्मरण रखना : कुछ करने को नहीं है। इसलिए तुम आनंद— भाव से सुन सकते हो। इसमें से कुछ निकालना नहीं है कि फिर करके देखेंगे। जो घटेगा वह सुनने में घटेगा। सम्यक श्रवण सूत्र है।

अधुनैव सुखी शांत: बंधमुक्तो भविष्यसि।

अभी हो जा मुका! इसी क्षण हो जा मुका! कोई रोक नहीं रहा। कोई बाधा नहीं है। हिलने की भी जरूरत नहीं है। जहां है, वहीं हो जा मुक्त। क्योंकि मुक्त तू है ही। जाग और हो जा मुक्त!

असंगोउसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।

हो जा सुखी! एक पल की भी देर करने की कोई जरूरत नहीं है। छलांग है, क्यांटम छलांग! सीढ़ियां नहीं हैं अष्टावक्र में। क्रमिक विकास नहीं है; सडन, इसी क्षण हो सकता है!

हरि ओम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र महागीता--(भाग--1) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

दीया तले अंधेरा–(सुफी कथा) प्रवचन–3

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समाज की उपेक्षा कर स्वयं में छिपे ध्यान-स्रोत की खोज करें—(प्रवचन—तीसरा)

 दिनांक 23 सितंबर, 1974.

श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

किसी पुराने समय में मूसा के गुरु खिद्र ने चेतावनी दी कि एक खास तारीख के बाद दुनिया के सारे पानी का गुण बदल जायेगा और उसे पीनेवाले पागल हो जायेंगे। केवल वे ही लोग सही-सलामत रहेंगे जो थोड़ा पानी अलग बचा कर रख लेंगे और उसे ही पीयेंगे।

केवल एक व्यक्ति ने खिद्र की चेतावनी पर ध्यान दिया। उसने थोड़ा पानी बचाकर रख लिया।

निश्चित तिथि के बाद वही हुआ जो खिद्र ने कहा था। और इस एक आदमी को छोड़ कर गांव के सभी लोग पागल हो गये। लेकिन जब उसने लोगों से बातचीत की, तब उसे पता चला कि सब उसे ही पागल समझते हैं।

धीरे-धीरे उसके लिये पागलों के बीच अपना अकेलापन असह्य हो गया और उसने भी नया पानी पी लिया। फिर तो वह यह भी भूल गया कि उसने कुछ शुद्ध जल बचा रखा था। और गांव के लोग कहने लगे कि वह जो एक पागल था उनके बीच, वह भी स्वस्थ हो गया है।

 भगवान! इस सूफी कथा का अभिप्राय क्या है, यह हमें विस्तार से समझाने की अनुकंपा करें।

 

सूफियों की इस कथा के पूर्व कुछ आधारभूत बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बात: समाज भीड़ के मनोविज्ञान से जीता है। समाज में सत्य की चिंता किसे भी नहीं। दूसरों से सहमति बनी रहे इसकी ही चिंता है। समाज के साथ व्यक्ति कैसे समायोजित रहे, एडजस्टेड रहे, इसकी ही चिंता है। समाज झूठ हो तो व्यक्ति को भी झूठ हो जाना पड़ता है। व्यक्ति बहुत अकेला है। समाज बड़ा है। और जब तक समाज से बड़े का सहारा न मिले, तब तक इसके अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं कि समाज के साथ सहमत रहा जाये।

केवल वे ही लोग समाज के पार उठ पाते हैं जिन्हें परमात्मा का सहारा मिल जाता है; क्योंकि तब उन्होंने विराट और अनंत के साथ अपना संबंध जोड़ लिया। तब उन्होंने सागर से संबंध जोड़ लिया। नदी से संबंध टूट भी जाये, डबरे से संबंध टूट भी जाये, तो कोई अंतर नहीं पड़ता।

परमात्मा में प्रविष्ट होते ही व्यक्ति समाज से मुक्त हो पाता है। अन्यथा समाज बहुत बड़ी घटना है। चारों तरफ वे ही लोग हैं। उनसे जरा भी तुम भिन्न हुए कि तुम पागल हो। उनसे जरा भी तुम अन्य हुए कि तुम नासमझ हो।

जेम्स थरबर की एक बहुत प्रसिद्ध कथा है कि सांपों के देश में एक बार एक शांतिप्रिय नेवला पैदा हो गया। नेवलों ने तत्क्षण उसे शिक्षा देनी शुरू की कि सांप हमारे दुश्मन हैं। पर उस नेवले ने कहा, ‘क्यों? मेरा उन्होंने अब तक कुछ भी नहीं बिगाड़ा।’ पुराने नेवलों ने कहा, ‘नासमझ, तेरा न बिगाड़ा हो, लेकिन वे सदा से हमारे दुश्मन हैं। उनसे हमारा विरोध जातिगत है।’ पर उस शांतिप्रिय नेवले ने कहा, ‘जब मेरा उन्होंने कुछ नहीं बिगाड़ा तो मैं क्यों उनसे शत्रुता पालूं।’

खबर फैल गई नेवलों में कि एक गलत नेवला पैदा हो गया है, जो सांपों का मित्र और नेवलों का दुश्मन है। नेवले के बाप ने कहा, ‘यह लड़का पागल है।’ नेवले की मां ने कहा, ‘यह लड़का बीमार है।’ नेवले के भाइयों ने कहा, ‘यह लड़का, यह हमारा भाई बुजदिल है।’ समझाया बहुत उसे कि यह हमारा फर्ज है, राष्ट्रीय कर्तव्य है, कि हम सांपों को मारें। हम इसीलिए हैं। इस पृथ्वी को सांपों से खाली कर देना है, क्योंकि उन के कारण ही सारी बुराई है। सांप ही शैतान हैं। उस शांतिप्रिय नेवले ने कहा, ‘मैं तो इसमें कोई फर्क नहीं देखता। सांपों को भी मैं देखता हूं, मुझे उन में कोई शैतान नहीं दिखाई पड़ता। उनमें भी संत हैं और शैतान हैं, जैसे हम में भी संत और शैतान हैं।’

खबर फैल गई कि वह नेवला वस्तुतः सांप ही है। सांपों की तरह रेंगता है। और उससे सावधान रहना। क्योंकि शक्ल उसकी नेवले की है और आत्मा सांप की है। बड़े-बूढ़े इकट्ठे हुए, पंचायत की और उन्होंने आखिरी बार कोशिश की नेवले को समझाने की कि ‘तू पागलपन मत कर।’ उस नेवले ने कहा, ‘लेकिन सोचना-समझना तो जरूरी है।’ एक नेवला भीड़ में से बोला, ‘सोचना-समझना गद्दारी है।’ दूसरे नेवले ने कहा, ‘सोचना-समझना दुश्मनों का काम है।’

फिर जब वे उसे न समझा पाये तो उस नेवले को उन्होंने फांसी दे दी। जेम्स थरबर ने अंतिम वचन इस कहानी में लिखा है, कि यह शिक्षा मिलती है कि अगर तुम अपने दुश्मनों के हाथ न मारे गये, तो अपने मित्रों के हाथ मारे जाओगे। मारे तुम जरूर जाओगे।

ऐसी ही स्थिति प्रत्येक मनुष्य की है। तुम जब पैदा होते हो, तब तुम परमात्मा से जुड़े पैदा होते हो। क्योंकि उसके बिना कोई जीवन नहीं है। तब तुम शुद्धतम स्रोत से जुड़े हो। अभी तुमने वह जल नहीं पीया, जिसको पीने से आदमी पागल हो जाता है। वह जल समाज की शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति है। वह जल, जो समाज बड़ी जल्दी तुम्हें पिलायेगा। और एक बार तुमने वह जल पी लिया तो तुम भूल ही जाओगे कि तुम्हारे भीतर शुद्ध जल का झरना भी कल-कल नाद कर रहा है।

इसलिए समाज जल्दी से उत्सुकता लेता है बच्चों को शिक्षित करने की। शिक्षित करने की इतनी उत्सुकता क्यों? अगर बच्चा थोड़े दिन अशिक्षित रह जाये…।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष की उम्र तक बच्चा अपने जीवन का पचास प्रतिशत ज्ञान सीख लेता है। फिर पूरे जीवन शेष पचास प्रतिशत ही सीखता है।

इसलिए मां-बाप, धर्म, संप्रदाय, धर्मगुरु जल्दी से बच्चे की गर्दन पकड़ते हैं। उसका खतना करेंगे मुसलमान, यहूदी। हिंदू उसे जनेऊ पहनायेंगे, यज्ञोपवीत संस्कार करेंगे। जल्दी ही उसे भीड़ का हिस्सा बनाने की उत्सुकता है। ईसाई उसका बप्तिस्मा करेंगे।

आदमी किसी को भी स्वीकार नहीं। अकेला, खालिस आदमी सभी को अस्वीकार है। या तो हिंदू, या मुसलमान, या ईसाई, या जैन, या कोई और। तीन सौ पागलपन हैं जमीन पर। तीन सौ धर्म हैं।

और इन धर्मों को मैं पागलपन कहता हूं। क्योंकि धर्म जब तीन सौ होंगे तो पागलपन ही होगा। धर्म तो एक ही हो सकता है, तभी पागलपन नहीं होगा। और उस शुद्ध धर्म का झरना न तो पंडित से मिलता है, न मौलवी से, न चर्च से, न मंदिर से। उस शुद्ध धर्म का झरना तुम्हारे भीतर है और उस दिन तुम्हें मिल जायेगा, जिस दिन समाज के द्वारा पिलाये गये जहर से तुम मुक्त हो जाओगे। बच्चा पैदा होता है तब उस झरने से भरा है। इसलिए बच्चे की आंखों में संतत्व होता है। बच्चे की आंखों में वह झलक होती है अनंत की। और जब भी कोई ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है तो फिर उसकी आंखों में वही बच्चों जैसी झलक आ जाती है। वर्तुल पूरा हो जाता है।

जीसस ने कहा है, जो बच्चों की तरह हैं, वे ही केवल प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। ठीक ही कहा है। लेकिन समाज तुम्हें बच्चों की तरह नहीं रहने देता। काटता है, छांटता है, सुधारता है, बनाता है। समाज राजी नहीं है कि परमात्मा ने तुम्हें जैसा बनाया वैसे तुम ठीक हो। समाज परमात्मा से स्वयं को ज्यादा समझदार समझता है। वह तुम्हारे अंग काटेगा, तुम्हारी बुद्धि छांटेगा, तुम्हारे ऊपर नियंत्रण बिठायेगा। समाज तुम्हें जंगल के वृक्ष की तरह नहीं छोड़ता। वह उस बागवान की तरह है जो तुम्हें सब तरफ से काट कर रूप-रंग देगा। बागवान कहता है कि यह सौंदर्य है। वृक्ष की आत्मा कटती है, वृक्ष के प्राण तड़फते हैं, बागवान का सौंदर्य निर्मित होता है।

तुम भी कटे हुए वृक्ष हो। सब तरफ से छांट दिए गये हो। जो छांट दिया गया है, वह भी परमात्मा ने तुम्हें दिया था, लेकिन पंडितों ने, पुरोहितों ने छीन लिया। और अगर तुम जरा भी, लीक से यहां से वहां हुए, कि तुम पागल हो।

पश्चिम में मनोवैज्ञानिक बड़ा गहरा काम कर रहे हैं। और वे इस खोज पर, इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पागलखानों में जो लोग बंद हैं उनमें से अधिक लोग पागल नहीं हैं। उनमें से अधिक लोग सिर्फ लीक से हट गये हैं, इसलिए पागल समझे जा रहे हैं। आर. डी. लैंग इस समय पश्चिम का बड़े से बड़ा मनस्विद है। उसका कहना है कि पागलखानों में बहुत से तो ऐसे लोग बंद हैं कि अगर उन्हें मौका मिलता तो वे संतत्व को उपलब्ध हो जाते। या बड़ी महान प्रतिभा की उनमें संभावना थी। लेकिन अड़चन वहां पैदा हो गई कि वे लीक से हटने लगे।

प्रतिभाशाली सदा लीक से हटता है। सिर्फ जड़बुद्धि लीक पर चलता है।

कबीर ने कहा है, ‘सीहों के नहीं लेहड़े संतों की नहीं जमात।’

कोई सिंह भीड़ में नहीं चलते, सिर्फ भेड़ें चलती हैं। और संतों का तुम समाज न पाओगे। संत अकेला चमकता है। जितनी असाधारण प्रतिभा का व्यक्ति होगा, उतना ही लीक से उतरेगा। उतना ही समाज उससे बदला लेगा। तुम बुद्धुओं के पीछे चल सकते हो, बुद्धिमानों के पीछे नहीं। तुम्हारे सब नेता वैसे हैं। वे तुम्हीं जैसे हैं। तुम्हारे जैसे ही पागल। तुम्हारी जैसी ही धारणाओं में बंधे। तुम से भी ज्यादा शायद बंधे। यही उनकी अपील है।

मैंने सुना है, एक पागलखाने में पुराने डाक्टर की बदली हुई और एक नया डाक्टर आया। पागलखाने के सारे अंतेवासियों ने बड़ा स्वागत-समारोह किया, फूल-मालायें पहनायीं, फूल फेंके। बड़े आनंदित हुए, नाचे। डाक्टर भी थोड़ा चिंतित हुआ। क्योंकि और भी पागलखानों में वह रह चुका था। इतना आनंद पागलों ने कभी न मनाया था। और डाक्टर से पागल नाराज रहते हैं। तो उसने पूछा पागलों के मुखिया से कि ‘इतनी खुशी की क्या बात है?’ तो उसने कहा कि ‘आप बिलकुल हम जैसे लगते हैं। पहला जो डाक्टर था वह बिलकुल पागल था। और आप बिलकुल हम जैसे लगते हैं। आपको देखकर ही कोई कह देगा कि आप भी अंतेवासी हैं। इसलिये हम बड़ा आनंद मना रहे हैं।’

पागल, पागल को ही नेता चुन लेगा। मूढ़, मूढ़ के पीछे चलेगा। क्योंकि सब से बड़ी कठिनाई तुम्हें तब होती है, जब तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम गलत हो। और प्रतिभाशाली व्यक्ति तुम्हें सदा कहेगा कि तुम गलत हो। उससे बचने का एक ही उपाय है कि जितनों को वह गलत कहता है वह भीड़ इकट्ठी हो जाये और उसकी गर्दन दबा दे। इसलिये सुकरात को तुम जहर पिलाते हो, जीसस को सूली लगाते हो, बुद्धों पर पत्थर फेंकते हो। वह कारण है उसके पीछे। वह तुम्हारी आत्मरक्षा का उपाय है। क्योंकि अगर इन आदमियों को छुट्टा रहने दिया जाये, स्वतंत्र रहने दिया जाये, तो आज नहीं कल तुम्हारे नीचे जो आत्मविश्वास की जमीन है, वह खींच लेंगे। तुम्हें संदिग्ध कर देंगे।

सोच-विचार गद्दारी है। सोच-विचार दुश्मनों का काम है। जिसको तुम बुद्धिमान कहते हो वह वही आदमी है, जो लकीर का फकीर है। जो परंपरा से चलता है। जो अतीत से इंच भर यहां-वहां नहीं जाता। जो सिर्फ एक पुनरुक्ति है। जो बासा है, उधार है, वस्तुतः मुर्दा है। तुम्हारे नेताओं में और तुममें बहुत फर्क नहीं होता।

मैंने सुना है, पता नहीं कहां तक सच है! मोरारजी देसाई जब उपप्रधान मंत्री थे तो एक बार बीमार पड़े। बेहोश हो गये। बड़े से बड़े चिकित्सक को दिखाया अहमदाबाद में। उसने कहा, ‘तत्क्षण दिल्ली ले जाना पड़ेगा। यह होश यहां वापिस नहीं लौट सकेगा।’ जल्दी से हवाई जहाज का इंतजाम किया गया। एअरपोर्ट, मोरारजी लाये गये। चिकित्सक परेशान है। हवाई जहाज तैयार है, लेकिन घंटा भर हो गया और कोई मंत्री जी को चढ़ाता नहीं। उसने पूछा अधिकारियों से कि ‘देर क्यों हो रही है? यहां जीवन-मरण का सवाल है।’ उन्होंने कहा, ‘हम भी जानते हैं, लेकिन फूलमालायें नहीं आ पाईं।’ उस चिकित्सक ने कहा, ‘तुम पागल हो गए हो? यह वक्त फूलमालाओं का है? इसी वक्त मंत्री जी को हवाई जहाज पर चढ़ाया जाये।’ मोरारजी भाई ने आंखें खोलीं और कहा, ‘कुछ हर्ज नहीं है। थोड़ी देर इंतजार कर लेने दें, वैसे भी फूल मेरी तबीयत को बहुत रास आते हैं।’

जिस तरह के अहंकार से तुम भरे हो उसी तरह के अहंकार से तुम्हारे नेता भरे हैं। वही तुम्हारे और उनके बीच संबंध है। जिस तरह की विक्षिप्तता तुममें है, उसी तरह की विक्षिप्तता तुम्हारे गुरु में है। वही तुम्हारे और उसके बीच सेतु है।

इसलिए जब बुद्ध पुरुष पैदा होते हैं तब तुम्हारी पहली प्रतिक्रिया उनके विरोध में होती है। तुम उन पर हंसते हो। तुम सब तरह से सिद्ध करने का उपाय करते हो कि इनका दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि दो ही बातें हो सकती हैं, या तो ये पागल हैं और या फिर तुम पागल हो। और स्वयं को पागल समझना अत्यंत कठिन है। क्योंकि अहंकार पूरा का पूरा गिरता है। कोई पागल स्वयं को पागल नहीं समझता–कोई पागल! बड़े से बड़ा पागल भी स्वयं को बिलकुल ठीक समझता है।

और ध्यान रहे, जो पागल यह समझ ले कि मैं पागल हूं, समझ लेना उसका पागलपन गया। वह रात टूट गई। वह सपना अब चल नहीं सकता। क्योंकि यह बड़ी बुद्धिमानी की घटना है यह समझ लेना कि मैं पागल हूं। सुकरात ने कहा है, ज्ञानी का लक्षण है पहला कि वह समझ ले कि मैं अज्ञानी हूं। स्वस्थ व्यक्ति का पहला लक्षण ही यह है कि वह समझ ले कि मुझमें पागलपन है।

एच. जी. वेल्स एक कहानी कहा करते थे। वे कहते थे, ‘एक दफा मैं ट्रेन में सवार हुआ और एक आदमी मेरे पास बैठा था। वह इतना उदास था कि मुझे पूछना ही पड़ा कि इतनी उदासी क्यों? क्या परेशानी है? वह ऐसा मुर्दे की तरह बैठा था कि जैसे अब मरा, अब मरा। तो उस आदमी ने अपना दुख रोया। उसका दुख यह था कि उसने कहा कि अब मैं क्या बताऊं, किसको कहूं? मेरी पत्नी पागल हो गई है और वह अपने को मुर्गी समझने लगी है। और चौबीस घंटे ‘कुकडूं कूं, कुकडूं कूं’ किया करती है। उसका ‘कुकडूं कूं’ मेरे सिर में घूमता रहता है रात दिन। तो एच. जी. वेल्स ने उसको कहा कि ‘भाई, इसमें इतने परेशान होने की जरूरत नहीं। किसी अच्छे मनोविश्लेषक को दिखा लो, ठीक हो जायेगी। इससे भी बड़ी बीमारियां ठीक हो जाती हैं।’

उसने और भी उदास हो कर कहा, ‘साहब, वह तो ठीक है कि ठीक हो जायेगी, लेकिन हमें अंडों की जरूरत भी रहती है।’

अब पागल कौन? कोई पागल अपने को पागल नहीं समझता। सभी पागल दूसरे को पागल समझते हैं। जिस दिन तुमने समझ लिया कि मैं पागल हूं, तुम्हारे जीवन में क्रांति की किरण आनी शुरू हुई। जिस दिन तुमने समझ लिया कि मैं अज्ञानी हूं…क्योंकि सभी अज्ञानी अपने को ज्ञानी समझते हैं। जिस दिन तुमने समझ लिया कि मैं भटका हुआ हूं…क्योंकि कोई भी नहीं भटक सकता इसको समझने के बाद। उसी दिन तुम ठीक रास्ते पर आ गये।

लेकिन समाज दूध के साथ जहर पिलाता है। वह सब अनजाने चल रहा है। जिस ढांचे में बाप है, मां है, समाज है, गुरु है, उसी ढांचे में बच्चे को वे ढालेंगे। बिना इस बात की फिक्र किए, कि वह ढांचा बुनियादी रूप से गलत था। इस जमीन को गौर से देखो। अगर ये ढांचे गलत न हों तो क्यों इतनी जरूरत है युद्धों की? हर दस वर्ष में एक महायुद्ध जरूरी हो जाता है। करोड़ों लोग जब तक मारे न जायें हर दस वर्ष में, तब तक आदमियत को चैन नहीं। और बेहूदा कारणों से मारे जाते हैं। ऐसे कारण कि तुम भी अगर थोड़े होश में आओगे तो हंसोगे।

एक डंडे पर कपड़ा लटका रखा है, उसको झंडा कहते हो। उसको किसी ने झुका दिया, इसमें युद्ध हो सकता है। कपड़े का टुकड़ा है। इसमें लाखों लोग मर सकते हैं। तुमने एक मंदिर बना रखा है, वहां एक भगवान की प्रतिमा तुम बाजार से खरीद लाये हो, उसे स्थापित कर दी, किसी ने उसको फोड़ दिया, दंगे हो जायेंगे। छोटे बच्चे भी इतने बचकाने नहीं। उनकी गुड्डी तोड़ दो तो थोड़ा शोरगुल करेंगे, फिर भूल जायेंगे। लेकिन तुम्हारे दंगे जीवन भर चलेंगे। जन्मों-जन्मों चलेंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराये जायेंगे, क्योंकि किसी ने मंदिर तोड़ दिया है।

परमात्मा का कोई मंदिर तोड़ा जा सकता है? यह सारा अस्तित्व उसका मंदिर है। तुम्हारे मंदिर तोड़े जा सकते हैं, जो तुमने बनाये हैं। क्योंकि वे परमात्मा के मंदिर नहीं हैं। जो तोड़ा जा सकता है उससे ही सिद्ध हो गया कि वह परमात्मा का नहीं है। परमात्मा का तो कुछ भी तोड़ा नहीं जा सकता। जो बनाया जा सकता है वह तोड़ा जा सकता है। बनाने में ही तुमने भूल की थी, इसीलिए तो तोड़ दिया गया है।

कोई मस्जिद में आग लगा देता है, और मुहम्मद परेशान रहे जिंदगी भर समझाने में कि परमात्मा का कोई आवास नहीं है, वह सभी जगह है। उसका कोई नाम नहीं है, कोई रूप नहीं है, कोई मूर्ति नहीं है। लेकिन मस्जिद, मंदिर से भिन्न नहीं है। वहां मूर्ति तो नहीं है, लेकिन मस्जिद ही मूर्ति हो गई। और पागलपन हमारा ऐसा है कि अगर तुम मूर्ति बनाओ तो तुम काफिर हो, पापी हो, अज्ञानी हो। यह बात यहां तक पहुंच गई कि अगर मुहम्मद का कोई चित्र बना ले, तो उसकी जान खतरे में। मुहम्मद का कोई चित्र छाप दे तो उपद्रव हो जायेंगे। क्योंकि मूर्ति नहीं है कोई।

परमात्मा की मूर्ति नहीं है, मुहम्मद की तो हो सकती है। परमात्मा निराकार है, मुहम्मद निराकार नहीं हैं। उनका तो चित्र हो सकता है। लेकिन नहीं, जब पागलपन चढ़ता है तो अति पर जाता है।

बचपन से जो बाप का धर्म है, मां का धर्म है, परिवार का धर्म है, वह बच्चे को पिलाया जायेगा। पिलाने के ढंग इतने सूक्ष्म हैं कि पता भी नहीं चलता। वह उस मंदिर ले जाया जायेगा जहां वे जाते रहे हैं। लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि इन मंदिरों के कारण दुनिया में शांति आई, या अशांति बढ़ी?

पर सोचना-विचारना गद्दारी है। सोचना-विचारना दुश्मनों का काम है। कोई यह नहीं सोचता कि इन शास्त्रों के कारण मनुष्यता एक हुई, या टूटी? आदमी-आदमी के बीच दीवाल किसकी है? शास्त्रों की दीवाल है। कोई नहीं पूछता, कि तुम्हारे धर्मों ने तुम्हें जोड़ा या अलग किया? सब धर्म तोड़ दिए हैं आदमी को–खंड-खंड। एक धर्म में भी पचास खंड हो जाते हैं। कैथलिक ईसाई, प्रोटेस्टेंट ईसाई के उतने ही खिलाफ हैं, जितने हिंदू के खिलाफ हैं; हिंदू से भी ज्यादा खिलाफ हैं। सारे धर्म कहते हैं, प्रेम करो। सारे धर्म कहते हैं, ‘भाईचारा, बंधुत्व, मित्रता। सारी पृथ्वी उसकी ही है, एक ही पिता है, सब उसके पुत्र हैं।’

लेकिन यह सब बातचीत रह जाती है। ये कहने वाले तलवारें उठा लेते हैं और वे यह भी कहते हैं कि बिना तलवार उठाये शांति कैसे होगी? वे कहते हैं लड़ना तो पड़ेगा ही, तभी शांति होगी। शांति के लिए युद्ध करना जरूरी हो जाता है। कोई भी नहीं पूछता कि हम युद्ध तो करते रहे, शांति अब तक क्यों न आई?

कोई तीन हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध हुए। पांच युद्ध प्रतिवर्ष! और क्या चाहते हो? हिसाब लगाते हैं इतिहासविद तो वे कहते हैं, ऐसा दिन खोजना मुश्किल है जब कहीं न कहीं युद्ध न चल रहा हो जमीन पर। कभी वियतनाम हो, कभी कोरिया हो, कभी इजराइल हो, कभी काश्मीर हो, कभी बांगला देश हो। युद्ध कहीं न कहीं चलना ही चाहिए। आदमियत कभी भी स्वस्थ नहीं। कभी पैर बीमार, कभी सिर बीमार, कभी हाथ बीमार, कहीं न कहीं आपरेशन चल ही रहा है। लेकिन कोई नहीं पूछता कि इस पूरी संस्कृति में कहीं कोई जहर के बीज होंगे।

और फिर जब युद्ध नहीं भी चलता, तब छोटे युद्ध तो चल ही रहे हैं। वे घर-घर में चल रहे हैं।

एक स्कूल में एक शिक्षक ने एक बच्चे से पूछा कि ‘तुम बताओ, तुम्हें बड़े से बड़े युद्ध का कुछ पता है कौन सा?’ तो उस लड़के ने कहा, ‘बता तो देते, लेकिन बताने की मनाही है।’ शिक्षक ने कहा, ‘पागल! किसने मनाही की? इतिहास इसीलिए तो पढ़ाया जा रहा है।’ तो उसने कहा कि ‘बड़े से बड़ा युद्ध तो मेरी मां और पिता के बीच चलता है। मगर किसी को आप कहना मत।’

बड़े युद्ध तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन छोटे-छोटे युद्ध प्रतिपल चल रहे हैं। सारी जमीन प्रतिपल कलह से भरी है। प्रेम के नाम पर भी घृणा और कलह है।

मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा था कि कभी तुम्हें अपने विवाह की तिथि और साल भूलता तो नहीं? उसने कहा, ‘कभी नहीं। दुख की बात भुलाओ तो भी भूलती नहीं। सुख भूल जायेगा, दुख कभी नहीं भूलता।’

प्रेम दुख हो गया है। और कोई भी नहीं पूछता कि कहीं न कहीं हमारे जीवन की संरचना में कोई मौलिक गलती है, जिसके कारण सब गलत हो जाता है। कुछ भी ठीक नहीं मालूम पड़ता। और जिनको तुम ठीक कहते हो, उनका भी ठीक होना कितना ठीक है? आदमी काम करता है, दूकान जाता है, बाजार जाता है, सम्हालता है घर-द्वार। क्या तुम सोचते हो, इतने से पक्का हो गया कि वह स्वस्थ है, पागल नहीं? तब तुम उसे क्रोध में देखो, तो तुम पाओगे वह पागल है।

मनस्विद कहते हैं क्रोध अस्थाई पागलपन है। और दिन में कम से कम दो चार दस दफा हरेक को पकड़ता है। कितनी देर लगेगी स्थाई पागलपन आने में? उदास आदमी को देखो। और फिर तुम अपने मस्तिष्क की अगर जांच करो तो तुम बहुत हैरान हो जाओगे, कि वहां क्या चलता है! तुम वहां पाओगे सब तरह के पागल मौजूद हैं। तुम्हारे भीतर जो चलता रहता है वह बहुत हैरानी का है। तुम उस तरफ देखते ही नहीं। कभी आधा घंटा मन में जो चलता है उसे लिख डालो। जैसा चलता है वैसा ही। फिर तुम अपने निकटतम मित्र को भी बताने को राजी न होओगे कि यह मेरे भीतर चलता है।

इसलिए भीतर की तरफ हम देखते नहीं, क्योंकि वहां पागलपन मालूम पड़ता है। तुम में और पागल में कोई गुणात्मक भेद नहीं है। सिर्फ परिमाणात्मक भेद है। डिग्री का थोड़ा सा अंतर है। तुम अट्ठानबे डिग्री पर हो, वह सौ डिग्री पर पहुंच गया। उबल रहा है, भाप बन रहा है।

आदमी खोजना मुश्किल है, जो स्वस्थ हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं बहुत मुश्किल है स्वस्थ आदमी खोजना, जो मानसिक रूप से परम स्वस्थ हो। शरीर से स्वस्थ तो लोग मिल जायेंगे, क्योंकि शरीर का स्वास्थ्य कोई बड़ी गुणवत्ता नहीं है। सारे पशु स्वस्थ हैं। शरीर का स्वास्थ्य पाशविकता का हिस्सा है। लेकिन मन का स्वास्थ्य बुद्धत्व है। वह मुश्किल है। कभी करोड़ों वर्षों में एकाध दो लोग उतने स्वस्थ हो पाते हैं कि उन्हें हमें तीर्थंकर, अवतार और भगवान कहना पड़ता है। कहना हमें इसीलिए पड़ता है, अन्यथा कोई जरूरत नहीं है–अगर बहुत लोग स्वस्थ होते मानसिक रूप से, तो क्या जरूरत किसी को अवतार कहने की, बुद्ध कहने की, तीर्थंकर कहने की? कोई जरूरत नहीं है। वे इतने कम हैं, कि उंगलियों पर गिने जा सकें। उन्हें हमें आदमियों से अलग करना पड़ता है।

यह बड़ी दुखद घटना है। यह सहज होनी चाहिए कि सभी आदमी भगवत्ता को उपलब्ध हों। यह कभी-कभी होना चाहिए कि कोई आदमी चूक जाये, न उपलब्ध हो पाये, बीमार हो। सोचो उस जमीन को, जिसमें सभी लोग अस्पताल में हों और अस्पताल के बाहर–घर, कभी कोई एकाध आदमी हो। कैसी वह दुनिया होगी?

ऐसी ही अभी मन की दृष्टि से हालत है। लेकिन कोई नहीं सोचता। जब एक नया बच्चा पैदा होता है तो एक नई दुनिया की शुरुआत हो सकती है। पर हमारा पुराना मन उसे भी जल्दी लीप-पोत कर हमारे साथ राजी कर देता है। हमारे अहंकार हैं। बाप चाहेगा बेटा मेरे जैसा हो; बिना इसकी फिक्र किए कि मैंने क्या पा लिया है, जो मैं बेटे को बरबाद करने की तैयारी कर रहा हूं? मैं तो था मेरे जैसा, क्या मिला? परिवार के लोग चाहते हैं बेटा हमारे जैसा हो, हमारा प्रतीक रहे। हम तो न रहेंगे लेकिन हमारा नाम बेटे में रहे। लेकिन क्या है तुम्हारे नाम में? अगर जरा खोज-बीन करोगे तो मुश्किल में पड़ोगे।

एक नया आदमी धनपति हो गया। जब वह धनपति हो गया तो उसने एक बड़े इतिहासविद को शोधकार्य में लगाया, कि मेरी वंशावली का पता लगाओ, ताकि मैं वंश-वृक्ष बना सकूं। मैंने पूछा उस धनपति को कुछ महीनों बाद कि ‘वह इतिहासविद कुछ कर पाया? उसने खोज की?’

उदास, उस धनपति ने कहा, ‘हां। उसने खोज थोड़ी ज्यादा कर ली। और अब मुझे उसे रुपये देने पड़ रहे हैं चुप रहने के लिए। क्योंकि जो उसने पता लगाया है, वह तो बड़ा खतरनाक है। कोई हत्यारा था पीछे, कोई जेलखाने में पड़ा सड़ा, कोई पागल था। यह सब पता लगाया है उसने। और अब मुझे उसे रुपये देने पड़ रहे हैं कि तू चुप रह।’

पहले रुपये दे रहा था खोज करने के लिए। तुम भी अगर खोज करने जाओगे अपने वंशावली की, तो उन सब अपराधों को पाओगे जो आदमी ने किए हैं। क्योंकि पूरी मनुष्यता के तुम वंशज हो। तुम आते हो मनुष्यता की एक लहर की भांति। विचार करना जरूरी है कि नये बच्चे को जब हम ज्ञान दे रहे हैं, तो हम सोच कर दें। और अगर अज्ञान गलत मालूम हो, और हमारे पास देने को कुछ न हो, तो हम बच्चे को हाथ जोड़ कर माफी मांग लें, कि हमारे पास देने को कुछ नहीं, तू खुद ही खोजना।

जहर से तो खाली पात्र दे देना बेहतर है। यही सब इस कथा में है।

अब हम इस कथा के एक-एक हिस्से को समझने की कोशिश करें। और सूफियों ने बहुत जानकर यह कहानी लिखी है।

किसी पुराने समय में मूसा के गुरु खिद्र ने चेतावनी दी कि एक खास तारीख के बाद दुनिया के सारे पानी का गुण बदल जायेगा और उसे पीनेवाले पागल हो जायेंगे। केवल वे ही लोग सही सलामत रहेंगे जो थोड़ा पानी अलग बचा कर रख लेंगे और उसे ही पीयेंगे। केवल एक व्यक्ति ने खिद्र की चेतावनी पर ध्यान दिया।

पहली बात, भगवान भी आ जाये आकाश से उतर कर, और तुमसे कहे, तो करोड़ों में से एक उसकी बात पर ध्यान देगा। तुम सुन लोगे, अनसुनी कर दोगे। क्योंकि उसकी बात पर ध्यान देना तुम्हारे पूरे जीवन की व्यवस्था को बदलने की तैयारी पर ही संभव हो सकता है।

लोग हंसे होंगे। उन्होंने कहा, क्या पागलपन की बात है! कहीं ऐसा हुआ है? कहीं ऐसा हो सकता है? कभी पहले नहीं हुआ तो अब क्यों होगा? लोग अतीत से जीते हैं और सोचते हैं भविष्य सिर्फ अतीत की पुनरुक्ति होगी। इसलिए लोग कहते हैं अनुभव इकट्ठा करो, अनुभव से जीयो। अनुभव से जो जीयेगा, उसका अर्थ ही यह होता है, कि वह अतीत के ही आधार पर भविष्य को पुनरुक्त करेगा। मैं तुमसे कहता हूं बोध से जीयो, अनुभव से नहीं। क्योंकि अनुभव तो मरा हुआ है। वह अतीत का है। बोध सदा वर्तमान का है। जो हो चुका है वह अब कभी न होगा। जिंदगी प्रतिपल बदल रही है। गंगा बही जाती है, सूरज जला जाता है, सब बदलता जाता है और तुम अनुभव से जीते हो। और अनुभव का मतलब अतीत। और अतीत को जब तुम भविष्य पर लगाते हो, वर्तमान पर लगाते हो, तभी चूक हो जाती है।

जिस घटना से तुम्हें अनुभव मिला, वह घटना दुबारा होगी नहीं। इस दुनिया में दुबारा कुछ भी नहीं होता। यहां पुनरुक्ति तो है ही नहीं। यहां प्रतिपल नया है। जैसे हर कोंपल नई है और हर सुबह की ओस नई है, ऐसा हर क्षण यहां नया है। इस नये में पुराने का तुम जो कचरा ले आते हो, उसी से उपद्रव होता है। तुम भी नये हो जाओ। और तुम भी कोंपल की तरह नये, बोधपूर्ण रहो। तब तुम्हारा जो भी प्रत्युत्तर होगा जीवन को, वह सही होगा।

पंडित और ज्ञानी में यही फर्क है। पंडित अतीत के अनुभव से जीता है। ज्ञानी सिर्फ बोध से जीता है, ज्ञान से नहीं। जाग कर जीता है। अतीत को साथ लेकर नहीं चलता, कि उससे हिसाब लगाये।

झेन फकीरों की एक मीठी कथा है। दो मंदिर थे एक गांव में। दोनों मंदिर के पुजारियों में विरोध था जैसा कि होता है। दोनों एक दूसरे के खिलाफ पीढ़ी दर पीढ़ी से दुश्मन थे। न कभी मिलते थे। रास्ते पर भी एक दूसरे से मिल जायें, तो बच कर निकल जाते थे। लेकिन दोनों पुजारियों के पास दो छोटे लड़के थे जो उनकी सेवा में थे। बाजार से सामान लाना, सब्जी खरीद लाना, दौड़ धूप के काम! बच्चे, बच्चे हैं। बूढ़ों को भी बिगाड़ने में देर लग जाती है। उन बच्चों को भी पुरोहित कहते थे कि देखो, दूसरे मंदिर के बच्चे के साथ खेलना मत। लेकिन बच्चे, बच्चे हैं। बिगड़ने में समय लगता है। वे कभी-कभी रास्ते पर मिल जाते थे तो दो बात भी कर लेते थे।

एक दिन पहले मंदिर का बच्चा वापिस आया। वह उदास था और उसने अपने गुरु को कहा कि आज बड़ी मुश्किल हो गई। मैं जा रहा था रास्ते पर, चौराहे पर दूसरे मंदिर का लड़का मिला। मैंने उससे पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ तो उसने कहा, ‘जहां हवा ले जाये।’ तो फिर मैं कुछ भी न सोच पाया कि अब मैं क्या कहूं? उसने तो बड़ी पहेली कह दी।

गुरु बहुत नाराज हुआ कि पहले तो तूने भूल की पूछ कर। क्योंकि उन अज्ञानियों से पूछना क्या! और जब मैं यहां मौजूद हूं, तो जो भी पूछना हो मुझसे पूछ। और पूछ कर तूने सिद्ध किया कि हम अज्ञानी हैं। हम सदा उत्तर देते हैं। पूछते हम कभी नहीं। अब पूछ ही लिया, तो उसे हराना जरूरी है। तू हार कर लौटा है। ऐसा कभी हुआ नहीं। इस मंदिर का कण-कण विजेता है। यहां सारी कथा विजय की है। हम हारे कभी नहीं। कल उसे हराना पड़ेगा तुझे। कल फिर पूछना, ‘कहां जा रहे हो?’ और वह जब कहे, ‘हवा जहां ले जाये’, तो कहना, ‘और अगर हवा न चल रही हो, सब बंद हो, फिर क्या करोगे?’ उसका मुंह बंद करना जरूरी है।

यही उत्तर है धार्मिकों का–मुंह बंद कर देना दूसरों का। लड़का उत्सुकता से जल्दी उठकर चौराहे पर दूसरे दिन खड़ा हो गया। आया दूसरे मंदिर का लड़का। उसने पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ उसने कहा, ‘जहां पैर ले जायें।’

बड़ी मुसीबत हो गई! उत्तर तैयार था, लेकिन स्थिति बदल गई। बंधे उत्तर…लोगों की यही दशा होती है हर वक्त। उनका उत्तर तैयार है, और स्थिति रोज बदलती है। उत्तर कहीं नहीं बैठता। सब जगह अड़चन आ जाती है।

लौटा दुख में और उसने कहा, ‘वह लड़का बेईमान है। कल कुछ कहा, आज बदल गया।’ गुरु ने कहा, ”उस मंदिर के लोग सदा के बेईमान हैं, इसीलिए हम कहते हैं उनसे बात ही मत करना। वे भरोसे के नहीं हैं। हम जिस उत्तर पर अटल हैं, उस पर अटल रहते हैं। उनका कोई भरोसा नहीं है जब जैसा देखा, बदल गये। उनकी स्थिति तो गिरगिट जैसी है। अवसरवादी हैं, अपारचुनिस्ट हैं, मगर हराना जरूरी है। तो कल फिर पूछना, ‘कहां जा रहे हो?’ वह लड़का कहेगा, ‘जहां पैर ले जायें।’ तो कहना, ‘और अगर लंगड़े हो गये, फिर क्या करोगे?’ उसका मुंह बंद करना हर हालत में जरूरी है।”

बस! पंडित एक दूसरे का मुंह बंद करने में लगे रहते हैं। वह लड़का फिर जाकर और भी जल्दी खड़ा हो गया। आया, उधर से दूसरे मंदिर का लड़का। पूछा इसने, ‘कहां जा रहे हो?’ उसने कहा, ‘बाजार सब्जी लेने जा रहे हैं।’ अब कोई उत्तर की संगति न रही। न पैर, न हवा। वह लौटा बहुत दुख में। उसने अपने गुरु से कहा कि ‘इसका मुंह बंद करना मुश्किल है। क्योंकि मैं तैयार उत्तर ले जाता हूं। और वह बदल जाता है।’

जिंदगी भी ऐसी ही बदल रही है प्रतिपल। और तुम तैयार उत्तर ले कर उसके पास जाते हो। तुम अगर जिंदगी को चूक रहे हो, तो तुम्हारे तैयार उत्तरों के कारण चूक रहे हो। परमात्मा का अगर द्वार बंद है, तो तुम्हारे ज्ञान के कारण बंद है। तुम अपने ज्ञान को हटाओ और तुम उसे पाओगे वह सामने खड़ा है। लेकिन तुम चाहते हो, धनुषबाण लेकर खड़े होओ। क्योंकि हम तो रामचंद्र जी का उत्तर पकड़े बठे हैं। कि मुंह पर बांसुरी बजाओ रख कर। क्योंकि हम तो कृष्ण के भक्त हैं।

तुम होओ भक्त! जिंदगी न कृष्ण को मानती है, न राम को, न बुद्ध को। ये सब जिंदगी में पैदा हुए हैं। जिंदगी इनके किसी के ढांचे को नहीं मानती। वह रोज बदलती जाती है। जिंदगी पुररुक्त नहीं होती। कृष्ण एक बार; दुबारा नहीं होते। जिंदगी बासी नहीं होती। जिंदगी रोज नये को पैदा करती है। अब वे दुबारा मोर-मुकुट बांध कर खड़े न होंगे और तुम मोर-मुकुट वाले कृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे हो। तुम थकोगे, मरोगे, मिटोगे। वे कृष्ण अब आयेंगे नहीं। वह बात चूक गई। अब हो सकता है वे टाई वगैरह बांध कर खड़े हों। तुम चूक जाओगे। तुम कहोगे, ‘टाई और कृष्ण? कभी नहीं।’

लेकिन क्या अड़चन है? मोर-मुकुट बांध सकते हो, टाई नहीं? मोर-मुकुट कुछ बेहतर है टाई से? लेकिन मोर-मुकुट परंपरागत उत्तर है। समझ में आता है।

एक गांव में मैं गया था, वहां दंगा हो गया। वहां दंगा हो गया, क्योंकि कालेज के लड़के एक नाटक खेल रहे थे। नाटक एक मजाक था, लेकिन लोग मूढ़ हैं और मजाक को भी नहीं समझ पाते। मूढ़ का लक्षण ही यही है कि वह मजाक को बिलकुल ही नहीं समझ पाते। नाटक था मॉडर्न रामलीला। मजाक ही था, एक व्यंग था। लेकिन झगड़ा हो गया। क्योंकि रामचंद्र जी टाई वगैरह बांधे, पैंट-कोट पहने खड़े थे नाटक में। और सीता जी सिगरेट पी रही थीं। झगड़ा हो गया। वहीं दंगा-फसाद हो गया। वहीं कुर्सियां तोड़ डाली गईं। मंच पर लोग चढ़ गये, उन्होंने कहा कि अपमान हो गया।

बड़ी हैरानी की बात है! शास्त्रों में लिखा है कि विष्णु स्वर्ग में बैठे तांबूल चर्वण करते रहते हैं। वह चलेगा। पान खायें, चलेगा। मोर-मुकुट बांधें, चलेगा। क्योंकि वह उत्तर हमारा सुना हुआ है। इतनी बार दोहराया गया, कि हम भूल ही गये–जरा मोर-मुकुट बांध कर चौखट्टे पर खड़े हो जाओ कैसा पता चलता है! लोग समझेंगे, पागल हो गये।

जिंदगी रोज बदल जाती है। और तुम्हारे उत्तर कभी नहीं बदलते। तुम जिंदगी से रोज चूक जाते हो। तुम्हारा कहीं मेल ही नहीं होता। अगर परमात्मा तुम्हें नहीं मिल रहा है, तो तुम्हारे बंधे हुए उत्तरों की वजह से। और जब भी तुम्हें कोई नया उत्तर दिया जायेगा, तुम सुनोगे नहीं। क्योंकि तुम इतने पुराने से भरे हो!

मूसा के गुरु खिद्र ने चेतावनी दी कि एक घड़ी आ रही है जब दुनिया का सारा पानी अपना गुणधर्म बदल देगा। जो भी उसे पीयेगा, पागल हो जायेगा। और जिसको पागलपन से बचना है, वह इस पानी को बचा ले। एक आदमी ने सुनी।

आदमी हैरानी का रहा होगा। वैसे ही आदमी बनो, तो ही तुम्हारी जिंदगी में कुछ घट सकता है। नये की सुनो। नये की गुनो। नये को पहचानो।

लेकिन उसके लिए नयी आंख चाहिए, नया हृदय चाहिए। पुराना हृदय, पुरानी आंख, नये को कैसे पहचानेगी? और इसीलिए तुम चूक जाते हो। और परमात्मा सदा नया अवतरण है। प्रतिपल वह नया होकर आ रहा है। उसकी कला चुक नहीं गई है। जिनकी कला चुक जाती है, वे ही पुराने को दोहराते हैं। परमात्मा अनंत कला है। वह कभी नहीं चुकेगा। उसे पुराने को दोहराने की जरूरत न पड़ेगी। वह रोज नये को जन्माता जायेगा। पुराने को तो तभी दोहराते हो जब तुम और कुछ नहीं कर पाते। तुम्हारी प्रतिभा चुक जाती है, उसकी प्रतिभा चुकी नहीं। वह नये कृष्ण बनायेगा। नये राम बनायेगा। नये बुद्धों को जन्म देगा। वह रोज नया करेगा और नये को सुनने की क्षमता ही उससे मिलन का द्वार बनेगी।

एक आदमी ने सुना।

केवल एक व्यक्ति ने खिद्र की चेतावनी पर ध्यान दिया।

बाकी लोगों ने भी सुना तो होगा… इसलिए सुनना पर्याप्त नहीं है। कान से सुना होगा। एक कान से आया होगा, दूसरे कान से निकल गया होगा। उनमें कई पंडित भी होंगे, जिन्होंने सुना होगा और कुछ अर्थ निकाला होगा। उन्होंने कहा होगा, ‘यह तो प्रतीक है। कहीं पानी बदलता है? इसका कुछ मतलब है। इस मतलब में कुछ राज है।’ उन्होंने बड़े शास्त्र रचे होंगे, लेकिन पानी नहीं बचाया होगा। उन्होंने चेतावनी की व्याख्या की होगी। उन्होंने चेतावनी पर बड़े-बड़े सिद्धांत रचे होंगे, लेकिन पानी नहीं बचाया होगा।

पंडित ऐसा ही है। वह दूसरे को समझाने में जीवन गंवा देता है और जो वह दूसरे को समझा रहा है, कभी अपनी जिंदगी में नहीं उतारता। और वही कसौटी है। क्योंकि जिसको तुम बहुमूल्य समझते हो दूसरे के लिए, उसे तुम इतना मूल्यवान भी नहीं समझते कि अपनी जिंदगी में उतारो।

पिरहो नाम का यूनान में एक दार्शनिक हुआ। वह लोगों को समझाता था, ‘जीवन असार है। और आत्महत्या एकमात्र उपाय है।’ वह खुद तिरान्नबे साल तक जीया। आत्महत्या नहीं की उसने। और बड़े मजे से जीया। उससे बुढ़ापे में किसी ने पूछा कि, ‘पिरहो, जिंदगी से तुम समझाते हो कि जिंदगी बेकार है और आत्महत्या एक मात्र उपाय है, और तुम्हारी मानकर हमने सुना कई लोगों ने आत्महत्या भी कर ली। तुमने क्यों नहीं की?’ उसने कहा कि ‘मेरी मजबूरी है। मुझे समझाने के लिए लोगों को, रुके रहना पड़ा। नहीं तो समझाता कौन?’

पंडित तुम्हें समझाता है, परमात्मा तक पहुंचो। वह परमात्मा तक नहीं जाता है। तुम्हें समझाने के लिए रुका रहता है। तुम्हें समझाना परमात्मा तक जाने से ज्यादा मूल्यवान है? नहीं, वह कभी इसे मूल्यवान ही नहीं समझता। वह जो भी कह रहा है, वह व्यवसाय है। वह भी शोषण की विधि है। उसे खुद भी कभी पक्का नहीं जंचा। तुम अगर पंडित के हृदय में खोजोगे, तो संदेह छिपा हुआ पाओगे। वह दूसरों को समझाता होगा श्रद्धा, उसके भीतर तुम संदेह का कीड़ा पाओगे, जो उसके भीतर की आत्मा को काटता रहता है।

सुना बहुत लोगों ने होगा, लेकिन एक ने ध्यान दिया। और जिसने ध्यान दिया वही केवल बचेगा। बहुतों ने विचार किया होगा, ध्यान एक ने दिया।

ध्यान और विचार में फर्क है। विचार का अर्थ है, तुम विस्तार में चले जाते हो। विश्लेषण में चले जाते हो। ध्यान का अर्थ है, एक चीज पर तुम एकाग्र हो जाते हो। तुम्हारी सारी जीवन-ऊर्जा वहीं लग जाती है। दांव लग जाता है। ध्यान का अर्थ है, तीर की तरह तुम एक ही निशाने की तरफ चलने लगते हो। विचार का अर्थ है, हजार चीजें चारों तरफ हो जाती हैं। तुम खंड-खंड होकर सोचने लगते हो। क्या ठीक, क्या नहीं ठीक! क्या करना, क्या नहीं करना!

समझो कि तुम्हारे घर में आग लगी हो और कोई तुमसे कहे कि घर में आग लगी है। तुम इस पर विचार करोगे या ध्यान? तुम अगर विचार करोगे, तो जलोगे। क्योंकि विचार में समय लगेगा और आग तुम्हारे लिए नहीं रुकेगी। जो ध्यान देगा वह झट से छलांग लगा कर बाहर जायेगा। विचार फिर भी किया जा सकता है, लेकिन ध्यान निरंतर कृत्य बन जाता है। और विचार कृत्य से बचाव बन जाता है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि तुम कृत्य से बचने के लिए विचार करते रहते हो। और तुम कहते हो जब तक निर्णय न कर लें, तब तक कृत्य को कैसे उतारें?

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ‘संन्यास का विचार चल रहा है। सोच रहे हैं, छलांग लेनी है, अभी समय लगेगा।’ मैं उनसे पूछता हूं कि मृत्यु तुमसे पूछ कर न आयेगी, किसी भी क्षण आ जायेगी। तुम मृत्यु से यह न कह सकोगे कि जरा रुको, मैं संन्यास के लिए सोच रहा हूं, मैं संन्यास ले लूं फिर मरूं; न तो जन्म तुमसे पूछ कर आता है, न मृत्यु तुमसे पूछ कर आती है। न प्रेम तुमसे पूछ कर आता है; घट जाता है, अचानक तुम पाते हो किसी व्यक्ति के प्रेम में पड़ गये हो।

संन्यास को तुम सोच रहे हो। जो भी महत्वपूर्ण है उस पर ध्यान दिया जाता है, सोचा नहीं जाता। जो महत्वहीन है, उसको ही लोग सोचते हैं। सोचना, स्थगित करने की तरकीब है, पोस्टपोन करने की तरकीब है, टालने की तरकीब है। तुम सोचने की बात ही तब उठाते हो, जब तुम टालना चाहते हो। तुम क्रोध के लिए नहीं सोचते कि कल करूंगा, सोच कर करूंगा। अभी करते हो। ध्यान तुम कहते हो, ‘सोचेंगे।’ तुम्हें किसी की हत्या करनी हो, तो तुम तत्क्षण करते हो। क्योंकि तुम भी जानते हो एक क्षण अगर चूक गये, फिर शायद न कर पाओगे। क्योंकि वह क्षण क्रोध का फिर आये, न आये। लेकिन अगर दान देना हो, तो तुम कहते हो, ‘सोचेंगे।’ और तुम भी भलीभांति जानते हो कि यह क्षण भी चूक जायेगा।

मार्क ट्वेन ने लिखा है अपने संस्मरण में, ‘एक चर्च में मैं गया। जो पुरोहित बोल रहा था वह इतना अदभुत बोल रहा था कि पांच मिनट सुनने के बाद मुझे लगा कि दस डालर मेरी जेब में हैं, दान करके जाऊंगा। यह चर्च देने जैसा है।

‘व्याख्यान चलता रहा, लेकिन मेरे भीतर एक नई उलझन चलने लगी कि दस देना जरूरी है? पांच से काम नहीं चल जायेगा? जैसे ही मैंने सोच लिया कि दस देना है, वैसे ही व्याख्यान से मेरा संबंध टूट गया और भीतर एक धारा चलने लगी कि पांच से भी चल जायेगा? और अभी कुछ कहा तो है नहीं किसी को। किसी को पता भी नहीं है। पांच ही दे देंगे। तो कोई ऐसा थोड़ी है, पांच क्या कम है?’

आधा व्याख्यान होते-होते मार्क ट्वेन ढाई पर आ गया। खत्म होते-होते उसने सोचा कि एक डालर भी कौन देता है? यहां जो लोग देनेवाले हैं; कोई चौथाई डालर देगा, कोई आधा डालर देगा। एक डालर सब से बड़ा दान होगा। एक काफी है। और जब दान-पात्र आया तो मार्क ट्वेन ने लिखा है कि मैंने अपना डालर तो डाला ही नहीं, एक डालर उसमें से उठा लिया। मैंने सोचा, कौन देख रहा है? और इस आदमी ने एक घंटा खराब किया मेरा। एक घंटा व्याख्यान दिया, एक घंटा मेरा खराब किया। एक डालर लेकर घर आ गया।

तुम जिस चीज पर भी कहते हो, ‘सोचेंगे'; जरा गौर करना, तुम टाल रहे हो। और क्षण होते हैं जीवन में कृत्य के। जब तुम एक शिखर पर होते हो, जहां से कृत्य फलित होता है। क्योंकि कृत्य तभी फलित होता है, जब तुम्हारी पूरी जीवन-ऊर्जा एक शिखर पर केंद्रित हो जाती है; तभी कृत्य फलित होता है। इसलिए क्रोध तुम उसी वक्त करते हो। क्योंकि अगर यह शिखर खो गया, फिर कल तुम न कर पाओगे। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, बुराई को स्थगित करना, सोचना; और भलाई पर ध्यान देना, और करना। बुराई को कहना, कल करेंगे। भलाई को कहना, अभी! इसी क्षण! उसमें क्षण भी मत खोना। अगर तुम यह नियम मान लो…।

इससे उलटा नियम तुम मान ही रहे हो। उसका ही तुम्हारा जीवन परिणाम है, कि बुराई को तुम तत्क्षण करते हो। भलाई को तुम कल पर टालते हो। पाप आज करते हो, पुण्य अगले जन्म में। पाप अभी, पुण्य बुढ़ापे में। किसी के प्राण लेना हो तो आज, और प्रार्थना करनी हो तो कल। वह कल कभी नहीं आता। पापी का जीवन–यह उसका सूत्र है: बुराई अभी, भलाई कल। परमात्मा का जीवन: भलाई अभी, बुराई कल। जो कल पर छोड़ा वह कभी नहीं होता। कल पर छोड़ने की कुशलता विचार है; कि सोचेंगे। सोचने में समय लगेगा, त्वरा चली जायेगी, क्षण खो जायेगा, तुम भूमि पर आ जाओगे। भावावेश खो जायेगा।

एक आदमी ने ध्यान दिया। ध्यान का अर्थ है, इस बात ने उसे ऐसा पकड़ लिया, कि पूरा जीवन दांव पर है। उसने कुछ सोचा नहीं।

उसने कुछ पानी बचा कर रख लिया। निश्चित तिथि के बाद वही हुआ, जो खिद्र ने कहा था। और इस एक आदमी को छोड़ कर गांव के सभी लोग पागल हो गये। लेकिन जब उसने लोगों से बातचीत की, तब उसे पता चला कि सब उसे ही पागल मानते हैं।

स्वाभाविक है। जहां सभी पागल हों, वहां बुद्धिमान होना बड़ा खतरनाक है। जहां सभी बीमार हों, वहां स्वस्थ होना खतरा लेना है। जहां सभी अंधे हों, वहां आंखें मुसीबत में डालेंगी। क्योंकि जहां सभी एक जैसे हैं और तुम पृथक, भीड़ तुम्हें पागल करेगी। और भीड़ बड़ी है। बहुमत उसका है। तुम अकेले हो। सिद्ध करने का कोई उपाय भी नहीं है। सिद्ध तुम किसके सामने करोगे? किसको समझाओगे? वहां समझने वाला भी कोई नहीं है। लोग हंसेंगे और वे कहेंगे, ‘देखो पागल को।’

ऐसा ही घट रहा है पूरे जीवन में। जिस भीड़ से तुम घिरे हो, वह भीड़ अपने को ठीक समझती है। अगर तुम जरा लीक से यहां-वहां हटे, तो वह तुम्हें पागल समझती है।

बड़ी प्रसिद्ध कथा है, कि ऐसा हुआ कि एक सम्राट को एक चालबाज आदमी ने कहा, कि मैं तुम्हें देवताओं के वस्त्र लाकर दे सकता हूं। देवताओं के वस्त्र कभी पृथ्वी पर आये नहीं थे। उस सम्राट ने कहा कि जो भी खर्च करना हो, किया जाये। यह ऐतिहासिक बात है। मैं अकेला पहला आदमी होऊंगा जिसको देवताओं के वस्त्र मिले। तुम लेकर आओ। उस आदमी ने कहा, ‘कई करोड़ों का खर्च है। आना-जाना, यह यात्रा लंबी और रिश्वत! वहां भी कोई ऐसे नहीं मिल जायेंगे। द्वारपाल, और फिर द्वारपाल से लेकर देवताओं तक पहुंचना। बहुत रिश्वत! सम्राट ने कहा, ‘कुछ भी हो, कुछ भी खर्च हो, एक ही बात खयाल रखना, घोखा देने की कोशिश मत करना। नहीं तो जिंदगी से हाथ धोओगे।’ उसने कहा, ‘धोखे का कोई सवाल नहीं है। इसी महल में मुझे कमरा दे दिया जाये, चारों तरफ पहरा लगा दिया जाये।’

महल में कमरा दे दिया गया। चारों तरफ पहरा लगा दिया गया। धोखे का कोई कारण नहीं था। निश्चित तिथि पर वह आदमी बाहर आया। एक बड़ी खूबसूरत पेटी ले कर आया। दरबार में पेटी रखी। सारे दरबारी इकट्ठे हैं। राजधानी में बड़ा शोरगुल है। लोग इकट्ठे हैं। भीड़ों पर भीड़ टूट रही है। महल की तरफ रास्ते भरे हुए हैं। सारी राजधानी भर गई है देखनेवालों से। देवताओं के वस्त्र! उसने राजा की पगड़ी ली, पेटी में हाथ डाला। खाली हाथ बाहर निकाला और कहा, ‘यह देवताओं की पगड़ी। लेकिन एक बात कह दूं, जब मैं चलने लगा, तो देवताओं ने कहा, ये साधारण वस्त्र नहीं हैं। केवल उन्हीं को दिखलाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुए हों।’

हाथ खाली था। पगड़ी उसमें थी नहीं। राजा ने गौर से भी देखा कि पगड़ी है नहीं, लेकिन अब झंझट है। उसने झट से पगड़ी ली और कहा, ‘अहा! कैसी सुंदर पगड़ी!’ जो थी ही नहीं, सिर पर रख ली। सारे दरबारी तालियां बजाने लगे। एक-एक को दिखाई पड़ा कि पगड़ी तो नहीं है। लेकिन जब सब ताली बजा रहे हों, सब को दिखाई पड़ रही है, तो हम क्यों झंझट में पड़ें?

यही सब की दशा थी। पगड़ी किसी को दिखाई न पड़ी, लेकिन सभी ने सोचा, कि बाकी सब को दिखाई पड़ रही है तो सिर्फ मैं ही नाहक अपने पिता और अपने वंश के संबंध में क्यों गलतफहमी का कारण बनूं? लोग एक दूसरे से बढ़-बढ़ कर तालियां बजाने लगे। और एक दूसरे से बढ़-बढ़ कर प्रशंसा करने लगे। कोई पीछे न खड़ा रहा क्योंकि कहीं शक न हो जाये, कि यह आदमी पीछे क्यों खड़ा है? कुछ बोलता क्यों नहीं? लोग चुप भी न रह सके क्योंकि कहना जरूरी है। जोर से कहना जरूरी है। और जब सबने प्रशंसा की, तो राजा ने कहा, ‘हो न हो, मेरा ही जन्म संदिग्ध है। मगर अब कुछ करना ठीक नहीं। चुपचाप पगड़ी पहन लेना ठीक है।’

पगड़ी उसने पहन ली, जो थी ही नहीं। यही सभी वस्त्रों का हुआ। वह चालाक आदमी उसके वस्त्र ले कर पेटी में डालता गया। क्योंकि वे भी कीमती थे और बचाना जरूरी थे। और खाली हाथ बाहर आता। कोट आया, कमीज आया, और अंत में आखिरी वस्त्र भी उसका चला गया। राजा बिलकुल नंगा खड़ा है और दरबार ताली पीट रहा–‘इससे सुंदर वस्त्र कभी देखे नहीं गये।’

और उस चालबाज आदमी ने कहा कि ‘अब रथ तैयार किया जाये, क्योंकि करोड़ों लोग इकट्ठे हैं। और सभी वस्त्र देखने को आतुर हैं।’ और उस चालबाज आदमी ने गांव में डुंडी पिटवा दी, कि ये वस्त्र साधारण वस्त्र नहीं हैं। ये केवल उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने ही बाप से पैदा हुए हैं।

सभी अपने बाप से पैदा हुए हैं। नंगा राजा रथ पर सवार गांव में निकला और भीड़ पागल हो रही है। वस्त्रों की प्रशंसा कर रही है। सिर्फ एक बच्चा, जो अपने बाप के कंधे पर बैठकर आ गया था, उसने अपने बाप से कहा, ‘मुझे तो राजा नंगा दिखाई पड़ता है।’

बाप ने कहा, ‘चुप नासमझ! अगर किसी ने सुन लिया, तो मुसीबत होगी। ये वस्त्र ऐसे हैं, कि जब तू बड़ा हो जायेगा तब दिखाई पड़ेंगे। तू अभी बच्चा है।’ सिर्फ उस एक बच्चे को राजा नंगा दिखाई पड़ा। उसको ही सत्य दिखाई पड़ा। लेकिन बाप ने कहा, ‘तू बड़ा हो जायेगा तो तुझे भी दिखाई पड़ेगा। घबड़ा मत। जल्दी मत कर। यह अनुभव से दिखाई पड़ता है।’

सभी बाप अपने बेटों से यही कह रहे हैं, ‘अनुभव से दिखाई पड़ेगा!’ बेटे को दिखाई पड़ता है, पत्थर की मूर्ति; बाप कहता है, ‘भगवान।’ राजा नंगा है, बाप कहता है ‘वस्त्र पहने हुए हैं।’ बाप झुकता है, बेटे को भी झुकाता है। ‘झुको, नमस्कार करो, यह भगवान हैं।’ बेटा इंकार भी करना चाहता है। उसका इंकार सही भी है, क्योंकि उसे वही दिखाई पड़ता है जो है, कि यहां सिर्फ मूर्ति है, खिलौने के सामने झुकाया जा रहा है। लेकिन बाप कहता है, ‘अनुभव से तुझे भी दिखाई पड़ेगा।’ और इसको भी अनुभव से दिखाई पड़ने लगेगा। दिखाई इसलिए पड़ने लगेगा, क्योंकि अनुभव का केवल इतना ही मतलब है कि चालबाज हो जायेगा। और यह भी समझ लेगा कि इसमें इंकार करने में झंझट है। भीड़ झूठ मानती है तो भीड़ का झूठ मान लेना उचित है। भीड़ जो कहती है उसके साथ चलने में सुविधा है।

असत्य भी सुविधापूर्ण है, अगर भीड़ मानती है। सत्य की तरफ इशारा करना अपने लिए असुविधा पैदा करनी है। क्योंकि भीड़ ने शर्तें लगा रखी हैं। अगर तुम कहो कि मंदिर में रखी हुई मूर्ति सिर्फ पत्थर है, तो लोग कहेंगे, ‘तुम नास्तिक हो। तुम अपने बाप से पैदा नहीं हुए हो। तुम सड़ोगे नर्क में।’ और भीड़ तुम्हें हजार तरह की झंझटें पैदा करेगी। तुम्हें कुंए से पानी न पीने देगी। तुम्हें साथ बैठ कर भोजन न करने देगी। तुम्हारे विवाह में मुसीबत आयेगी। तुम्हारे बच्चों के विवाह न हो सकेंगे।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि ‘आपकी बातें तो ठीक लगती हैं। लेकिन मैं जैन हूं। मैं ज्यादा अभी आ नहीं सकता, क्योंकि मुझे लड़की की शादी करनी है। शादी हो जाये, फिर मुझे कोई डर नहीं। फिर मैं आऊंगा। लेकिन अभी लड़की की शादी करनी है। अगर ज्यादा आया गया और लोगों को संदेह हो गया, तो मुझे लड़की की शादी करने में मुसीबत हो जायेगी।’

तुम्हारा धर्म तुम्हारी सुविधा है, या तुम्हारा सत्य?…सुविधायें! और जो सुविधायें खोज रहा है, उसे सत्य कभी न मिलेगा।

क्योंकि पहली तो असुविधा यह है सत्य की कि तुम अकेले पड़ जाओगे। तुम सत्य की दुनिया में कोई प्रतिस्पर्धा न पाओगे। वहां तुम बिलकुल अकेले होओगे। वहां कोई तुम्हारे साथ दौड़ता हुआ न मिलेगा। वह एकांगी पगडंडी है। वह कोई राजपथ नहीं है। वहां बहुत नहीं जाते, क्योंकि बहुत सुविधा के लिए जीते हैं।

वह एक अकेला आदमी जो स्वस्थ था, पागल हो गया। क्योंकि भीड़ ने उसे कहा कि ‘तुम पागल हो। तुम्हारा दिमाग, मालूम होता है खराब हो गया।’ और निश्चित ही भीड़ ने कहा, जाना होगा कि खिद्र की चेतावनी झूठी थी। कोई भी पागल नहीं हुआ।

ऐसा समझो कि यहां हम बैठे हैं। चारों तरफ चीजें हैं। अगर परमात्मा किसी चमत्कार से सभी चीजों को समान अनुपात में छोटा या बड़ा कर दे, हमें पता नहीं चलेगा। समझ लो, कि अभी जो-जो…तुम्हारी ऊंचाई छह फीट है, वह तीन फीट हो जाए एकदम। लेकिन तुम्हारी अकेले की नहीं, आसपास बैठे सब लोगों की, मकान की, तुम जिस गज से नापते हो उसकी, सब चीजें आधी हो जायें अभी, तो किसी को भी पता नहीं चलेगा कि कुछ फर्क हो गया। कैसे पता चलेगा? वृक्ष भी आधे हो जायेंगे, मकान आधा हो जायगा। अगर तुम छः इंच के भी हो जाओ इसी वक्त, और सब चीजें तुम्हारे साथ छः इंच की हो जायें, तुम्हें पता नहीं चलेगा। अगर तुम चींटियों जैसे हो जाओ, और सभी चीजें उसी अनुपात में छोटी हो जायें, तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि पता चलने के लिए विपरीत चाहिए। कोई चीज पुराने ढंग से रह गई हो, वह चाहिए।

सारी भीड़ पागल हो गई। और भीड़ ने कहा होगा, ‘देखो। वह खिद्र कहता था, लोग पागल हो जायेंगे, अगर यह पानी पीओगे। तारीख भी आ गई, और हमने पानी भी पीया, और हम पागल नहीं हुए। वह खिद्र गलत है।’

यही तुम भी कह रहे हो। तुम कहते हो, बुद्ध ने कहा है, ऐसा करोगे तो पागल हो जाओगे। कहां हम पागल हुए? महावीर कहते हैं, ऐसा करो, तो नर्क में सड़ोगे। ऐसा हम कर रहे हैं और नर्क में नहीं सड़ रहे हैं। और मैं तुमसे कहता हूं, तुम सड़ रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम पागल हो गये हो। लेकिन तुम्हारे चारों तरफ उसी तरह के लोग हैं इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता। सबकी ऊंचाई बराबर है। जो उन्होंने कहा है, वह ठीक हो रहा है। लेकिन तुम्हें पता नहीं चल सकता। तुम अकेले होओ, तो पता चले।

सिर्फ एक आदमी को पता चला, कि वह पागल हो गया है–जो कि पागल नहीं हुआ था। उसे भर अड़चन हुई, कि अब क्या करूं! और उस आदमी ने वही किया, जो साधारण बुद्धिमान आदमी करेगा। उसने नया पानी पी लिया, ताकि असुविधा मिट जाये। इसलिए बगावती बेटे भी देर-अबेर परेशान होकर पानी पी लेते हैं और समाज के साथ हो जाते हैं। एक उम्र होती है तब थोड़ी सी बगावत करते हैं, फिर ठंडे हो जाते हैं।

तुम देखो, अमरीका में हिप्पी हैं, बीटनिक हैं, तुम उनमें कभी भी तीस साल के ऊपर न पाओगे। बस! तीस साल के करीब हुए कि वे वापस समाज में लौट जाते हैं। उसी समाज में, जिसकी बगावत की थी। तब तक उनको भी अकल आ जाती है कि यह पागलपन है। और पूरा समाज हमें पागल समझ रहा है। वे लौट जाते हैं। तीस साल के बाद हिप्पी कहां जाते हैं। अठारह उन्नीस के करीब हिप्पी पैदा होता है; तीस के करीब विदा हो जाता है। सत्तर साल का हिप्पी दिखाई नहीं पड़ता। क्या मामला है?

सभी अपनी जवानी में क्रांति के जोश से भरते हैं। फिर जैसे-जैसे समझ आती है–समझ का मतलब, जैसे-जैसे सुविधा की अकल आती है, तो जिस बच्चे को दिखाई पड़ा कि ‘राजा नंगा है,’ वह भी कहता है कि नहीं, मेरी भूल थी। राजा वस्त्र सुंदर पहने हुए है। उसके कंधे पर भी उसका बेटा कभी कहेगा कि ‘राजा नंगा है।’ वह कहेगा नासमझ, ठहर, मैं अनुभव से कहता हूं कि उम्र बढ़ने पर कपड़े दिखाई पड़ने लगते हैं।

ऐसा सदियों से चलता रहा है। हर बेटा कंधे पर एक बार जरूर कहता है। क्योंकि बच्चे के पास नई आंख होती है। उसे तुम अभी झुठला नहीं पाते। वह सच्चा, सीधा, साफ-साफ कह देता है। इसलिए बच्चे बड़ी असुविधा पैदा करते हैं। तुम भी जानते हो, बच्चे घर में असुविधा पैदा करते हैं। तुम उन्हें समझाते हो, सच बोलना। और फिर तुम उनसे कहते हो कि कोई घर आने वाला है, तुम उनको कह देना कि घर नहीं हैं। बच्चे की समझ के बाहर हो जाता है कि मामला क्या है?

एक बाप ने अपने बेटे को कहा कि अगर कोई पूछे, ‘पिताजी घर पर हैं?’ तो तू पहले पूछना, ‘आप कौन? मित्र हैं? मित्र हैं, ऐसा कहे तो कहना, आइये भीतर। अगर कहे कि मैं इंश्योरेन्स का आदमी हूं, बीमा के लिए आया हूं, तो कहना, बाहर गये हैं। कब लौटेंगे कुछ पता नहीं।’

बेटा बाहर बैठा था। एक आदमी आया। उसने पूछा, ‘पिताजी घर हैं?’ उसने कहा, ‘आप कौन हैं? मित्र हैं, या इंश्योरेन्स के आदमी?’ उसने कहा, ‘मैं दोनों हूं।’ बेटे ने कहा, ‘तब ठीक। आइये, घर के भीतर बैठें, अभी बाहर गये हैं, कब लौटेंगे कुछ पता नहीं।’ क्या करे बेटा आखिर!

जिंदगी को तुम झुठलाओगे तो भी तो समय लगेगा। बच्चे बड़े होंगे तब तक समझ पायेंगे। लेकिन बीच में एक घड़ी आती है जब बच्चे सभी को बेचैनी देते हैं। क्योंकि वे सभी सीधी और सच्ची बात कह देते हैं। उन्हें वही दिखाई पड़ता है कि राजा नंगा है और कपड़े बिलकुल नहीं दिखाई पड़ते। तुम उन्हें सजा देते हो, मारते हो, पीटते हो। तुम्हारी सारी सजा यह है, क्योंकि उनकी आंखें अभी धुंधली नहीं हैं। अभी वे देख सकते हैं सीधा। अभी ताजा जल उनके भीतर बह रहा है। अभी उन्होंने तुम्हारा जल नहीं पीया। अभी तुम्हारे कुंए पर उन्होंने पानी नहीं पीया है। अभी वे परमात्मा के कुंए पर पानी पी रहे हैं। अभी उनके जीवन में सभी कुछ सच्चा है। वे क्रोध भी करते हैं तो उसमें एक सच्चाई है। वे प्रेम भी करते हैं तो उसमें एक सच्चाई है। तुम क्रोध भी करते हो तो भी सच्चाई का पक्का नहीं है। झूठा हो, दिखावे के लिए कर रहे हो। प्रेम भी करते हो, उसमें प्रामाणिकता नहीं है। क्योंकि वह भी व्यवसाय हो।

एक महिला मुझसे कह रही थी कि ‘मुझे पति को तलाक देना है।’ तो मैंने उससे पूछा, ‘तुमने उनमें कुछ तो देखा होगा जब शादी की; और इतनी जल्दी तलाक?’ तो उन्होंने कहा, ‘हां, कुछ देख कर ही शादी की थी, लेकिन अपनी वह विशेषता अब वे खर्च कर चुके हैं।’

पैसा देख कर शादी की थी! वह विशेषता खर्च कर चुके हैं। अब कोई रस नहीं है। पैसा प्रेम से बड़ा है चालाक आदमी को। सत्य से बड़ी सुविधा है। यही तो मतलब होता है पैसे का–सुविधा। प्रेम का मतलब सत्य।

एक आदमी को सुनाई पड़ा। उसने ध्यान दिया। वह बच गया, लेकिन मुसीबत में पड़ा। जिनने नहीं सुना वे मुसीबत में न पड़े, यह ऊपर से दिखाई पड़ रहा है। लेकिन तुम चाहे भीड़ के साथ कितने ही चलते रहो भेड़ों की तरह, तुम मुसीबत में हो। मुसीबत पता चले, या न चले। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सबको कैंसर हो जाये, और तुम्हें कैंसर हो, तो कैंसर की तकलीफ न होगी। सिर्फ तुम समझोगे कि यह बीमारी साधारण है। सभी को होती है।

मनाली, कुल्लू-मनाली के एरिया में नब्बे प्रतिशत लोगों को सुजाक है। मगर किसी को कोई अड़चन नहीं है क्योंकि सभी को है। जिनको नहीं है वही कुछ हैरानी के हैं। जन्म के साथ ही जैसे सुजाक चल रहा है। अमरीका में, दक्षिण अमरीका में एक छोटी सी घाटी है, जहां पंचान्नबे प्रतिशत बच्चे अंधे हो जाते हैं। क्योंकि एक मक्खी है जिसके काटने से आंख खराब हो जाती है। तो अंधापन स्वाभाविक है। जब पहली दफा उस घाटी के लोगों को पता चला कि बड़ी जमीन है, जहां सभी की आंखें हैं, उन्होंने विश्वास न किया। उन्होंने कहा, ‘यह बात गलत है। यह हो ही नहीं सकता।’

ऐसी कथा है उस घाटी में कि पुराने समय में जब कि लोग समझदार थे, जब कोई बच्चा आंखवाला पैदा हो जाता था, तो उसकी आंखें फोड़ देते थे। क्योंकि दो तीन प्रतिशत आदमी आंखवाले हों, तो उनको अड़चन ही आयेगी। अंधों की पूरी जमात में वे उपद्रव का कारण होंगे। कुछ गलती हो गई।

हम भी यही करते हैं। अगर एक छः अंगुली का बच्चा पैदा हो जाये, हम उसका ऑपरेशन कर देते हैं। कारण क्या है? कारण कुल इतना है, कि हम पांच अंगुली के हैं, वह छः अंगुली का है। जरूर कोई गड़बड़ है। जो भीड़ का है वह नियम है। जो भीड़ से भिन्न है वह गड़बड़ है। भीड़ अपने को सत्य मानती है, अपने से भिन्न को असत्य मानती है।

उस आदमी ने वही किया, जो साधारण बुद्धिमान करता है। लेकिन मैं कहता हूं, साधारण बुद्धिमान! साधारण बुद्धिमान सिर्फ अनुभवी है। साधारण बुद्धिमान वास्तविक बोधपूर्ण नहीं है। उसने वही किया जो तुम सबने किया है। उसने पानी पी लिया।

धीरे-धीरे उसके लिए पागलों के बीच अपना अकेलापन असह्य हो गया और उसने भी नया पानी पी लिया। फिर तो वह यह भी भूल गया कि उसने कुछ शुद्ध जल बचा रखा है। और गांव के लोग कहने लगे कि वह जो एक पागल था उनके बीच, वह भी स्वस्थ हो गया है।

पागल होते ही स्वस्थ हो गया! और उसे भी भूल गया कि मैंने जल बचा रखा है।

यही सूफी इस कथा से कहना चाहते हैं, कि तुम चाहे कितने ही पागल हो गये हो, तुमने भी जल बचा रखा है। वह तुम्हारे भीतर है। तुमने बाहर का जल पी लिया है। तुम्हारे भीतर का जल समाप्त नहीं हो गया है। समाज ने तुम्हें आच्छादित कर लिया, लेकिन तुम्हारे भीतर का झरना अभी भी शुद्ध बह रहा है। वह कभी अशुद्ध नहीं होता। लेकिन तुम बिलकुल भूल गये हो।

तुम भूल ही गए हो कि तुम हिंदू नहीं हो, मुसलमान नहीं हो, ईसाई, जैन, बौद्ध नहीं हो। तुम भूल ही गये हो कि तुम स्त्री नहीं हो, पुरुष नहीं हो। तुम भूल ही गये हो कि शरीर नहीं हो, मन नहीं हो। यह सब तुम्हें सिखा दिया गया है। तुम भूल ही गये हो कि धन से सुविधा मिल जाये, परम-धन न मिलेगा। तुम भूल ही गये हो कि यश से कितनी ही फूलमालायें तुम्हारे ऊपर बरस जायें, सब फूल जल्दी ही सूख जायेंगे। जीवन की असली सुगंध वहां नहीं है। और तुम भूल ही गये हो कि तुम्हारे पास कितने ही सोने के आभूषण इकट्ठे हो जायें, अंततः वे सभी आभूषण जंजीरें सिद्ध होते हैं। और देह के लिए तुम कुछ भी करो, सभी खो जायेगा; क्योंकि देह ही खो जाती है। पर समाज ने सब तुम्हें सिखा दिया है। समाज ने सब तरह की भ्रांतियां तुम्हें दे दी हैं। समाज तुम्हें धक्के दिए जाता है–महत्वाकांक्षा! और कमाओ, इतने से क्या होगा?

किसी ने एण्ड्रू कारनेगी, अमेरिका के एक बहुत बड़े अरबपति से पूछा कि पुरुष के जीवन की बड़े से बड़ी सफलता क्या है? तो एण्ड्रू कारनेगी ने कहा, ‘पुरुष के जीवन की सफलता यह है कि वह इतनी कमाई कर ले कि उसकी पत्नी खर्च न कर पाये।’ सुनकर आदमी हैरान हुआ। उसने ऐसी परिभाषा की अपेक्षा न की थी। तो उसने पूछा, ‘और फिर स्त्री की सफलता क्या है?’ तो एण्ड्रू कारनेगी ने कहा, ‘ऐसे आदमी को खोज लेना, जो इतना कमाये कि पत्नी खर्च न कर पाये।’ यह स्त्री की सफलता!

पर इन सफलताओं की दौड़ में सभी असफल हो जाते हैं। तुम ही खाली नहीं हो, तुम्हारे राष्ट्रपति, तुम्हारे प्रधानमंत्री, तुम्हारे सम्राट, सब खाली हैं। पूछो निक्सन को, क्या बचा? सिर्फ रुग्णता, बेचैनी, परेशानी! पूछो हेलसिलासी को, क्या बचा? पचास वर्ष का सम्राट, हाथ क्या लगा? निंदा, अपमान!

जो आज प्रशंसा करते हैं, वे ही कल पत्थर फेंकते हैं। पहले दिन ही सावधान हो जाना। जब प्रशंसा करनेवाले लोग आयें, तभी हाथ जोड़ लेना। क्योंकि जिसने प्रशंसा की, वह कभी न कभी पत्थर फेंक कर बदला लेगा। ध्यान रखना, जिसने तुम्हारी प्रशंसा की वह तुम्हें कभी क्षमा न कर पायेगा। वह तुमसे बदला लेगा। जब तक पत्थर न फेंक देगा तब तक उसके भीतर बेचैनी रहेगी। पत्थर फेंक कर हिसाब किताब बराबर हो गया। फूल पहनाये, पत्थर फेंक दिए, मामला निपट गया। दिया था, वापिस ले लिया। अन्यथा खटकता रहेगा, कोई चीज कमी मालूम पड़ती रहेगी। जिसकी तुम प्रशंसा करते हो आज, कल तुम उसकी निंदा करते हो।

फिर भी लोग दौड़े जा रहे हैं प्रशंसा के लिए। किनसे तुम प्रशंसा पाना चाहते हो? जो खुद पागल हैं, उनकी प्रशंसा पाकर भी क्या करोगे? वे तुम्हारा शोरगुल मचायें उससे भी क्या होगा? जो जीवन में खुद धनहीन हैं, जिनके भीतर सिवाय गरीबी के और कुछ भी नहीं है, जिनके भीतर सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है, उनकी फूलमालाओं में उनका दुख ही आयेगा, और क्या आएगा? लेकिन तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तुम अंधे ही नहीं हो; तुम अंधे से भी बुरी हालत में हो।

मैंने सुना है कि बड़े महाकवि मिल्टन ने अंतिम जीवन में शादी की। जब वे अंधे हो गये, तब शादी की। आंखवाले आदमी भी ठीक पत्नियां नहीं खोज पाते, तो अंधे ने कैसी खोजी होगी, हम समझ ही सकते हैं। और साधारण गणित से जीने वाले लोग भी चूक जाते हैं, तो कविता से जीने वाला तो निश्चित चूका होगा।

एक उपद्रवी स्त्री घर में उठा लाया। जिंदगी भर शांति से बीती थी, आंखें फूट कर मुसीबत हो गई। बड़ी कर्कशा, उपद्रवी, मारे-पीटे भी। और अंधा आदमी! सोचा था यह कि अंधा हो गया हूं, कोई साथी चाहिए। साथी की तलाश में अक्सर लोग शत्रु को खोज कर घर आ जाते हैं। एक मित्र बहुत दिन बाद मिलने आये। उन्होंने पत्नी नहीं देखी थी। देखी पहली दफा, तो मिल्टन से बोले, गुलाब का फूल है। ऐसी सुंदर पत्नी! मिल्टन ने कहा, ‘फूल है या नहीं, गुलाब का है या नहीं, मैं अंधा हूं, देख नहीं पाता। लेकिन कांटे मुझे जरूर चुभते हैं।’

पर तुम अंधे से भी गये बीते हो। तुम्हें कांटे भी नहीं चुभ रहे। तुम्हारी आंखें तो चली ही गई हैं, तुम्हारी स्पर्श की क्षमता भी खो गई है। तुम जहां खड़े हो, वहां कुछ भी नहीं है। लेकिन फिर भी तुम समझ रहे हो कि कुछ तुमने कमा लिया, कुछ तुमने पा लिया। और यह वहम तुम्हें चारों तरफ खड़े हुए लोग दे रहे हैं। तुम बिलकुल नंगे खड़े हो, लेकिन लोग कह रहे, ‘अहा! कैसे सुंदर वस्त्र तुमने पहने हुए हैं।’

उस कहानी के राजा तुम्हीं हो। बिलकुल नग्न खड़े हो। नग्न आये हो, नग्न जी रहे हो, नग्न मरोगे। लेकिन बीच में बड़े वहम पालोगे, कि यह पा लिया, वह पा लिया, इतना-इतना साम्राज्य बना लिया, इतनी तिजोड़ी भर ली। और सब व्यर्थ!

क्योंकि जो मृत्यु छीन ले, वह संपत्ति नहीं है। जो मृत्यु न छीन पाये वही संपत्ति है। जो मृत्यु छीन ले वह विपत्ति थी। तुम उसे संपत्ति समझते थे, वह तुम्हारी भूल थी। जो मृत्यु न छीन पाये वही संपत्ति है। वह तुम्हारे साथ जायेगी, अनंत यात्रा पर तुम्हारी होगी। बस, वही एक साथी है।

और उसे पाना हो, तो भीतर के जल की तरफ वापिस लौटना जरूरी है। लेकिन तुम भूल ही गये हो, कि वह जल वहां है। तुम कुएं की तलाशें कर रहे हो। तुम गंदा जल पी रहे हो। तुम न मालूम किन-किन के सामने भिक्षापात्र लिए खड़े हो कि ‘मैं प्यासा हूं।’ और तुम्हारी प्यास न बुझेगी। विषाक्त जल से प्यास नहीं बुझ सकती। तुम्हारी प्यास तो तभी बुझेगी, जब तुम भीतर के अनंत स्रोत से पीओगे।

जीसस एक कुएं पर गये और उन्होंने कहा, ‘मुझे प्यास लगी है,’ और एक महिला पानी भरती थी। पर उस महिला ने कहा कि ‘क्षमा करें। तुम परदेसी मालूम पड़ते हो और मैं तुम्हें जल न दे सकूंगी। क्योंकि मैं शूद्र जाति की हूं।’ जीसस ने कहा, ‘तू फिक्र मत कर। क्योंकि मेरे लिए कोई जातियां नहीं हैं, कोई शूद्र, कोई ब्राह्मण नहीं है। तू मुझे जल दे और इसके उत्तर में तुझे मैं ऐसा जल दूंगा कि उसे जो भी पी लेता है उसकी प्यास सदा को बुझ जाती है।’

वे किस जल की बात कर रहे हैं? ऐसा जल, जो जो भी पी लेता है, उसकी प्यास सदा को बुझ जाती है। वह जल तुम्हारे भीतर बह रहा है। जीसस उसे देंगे नहीं, सिर्फ इशारा करेंगे। बुद्ध ने कहा है, ‘बुद्ध-पुरुष देते नहीं, सिर्फ इशारा करते हैं।’ क्योंकि जो देने को है वह तो तुम्हारे पास है। वह तो मिला ही हुआ है।

इस सूफी कथा का मर्म इतना ही है कि तुम समाज के कुएं से पी कर पागल हो गये हो। तुम भीड़ के साथ खड़े होकर भटक गये हो। तुम खो ही गये हो। तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम कौन हो! भीड़ ने जो नाम दिया, वही तुम समझते हो तुम्हारा नाम है। भीड़ ने जो प्रशंसा दी, वही समझते हो तुम्हारा अहंकार है। भीड़ ने निंदा दी, तो तुम समझते हो तुम पापी हो। फूल पहनाये, तो तुम समझते हो तुम महात्मा हो। बस, भीड़ जो करती है, वही तुम समझते हो।

और भीड़ किनकी है? भीड़ तुम जैसे ही भटके हुए लोगों की है। भीड़ से ही क्या होगा! हजार भटके हुए मिलकर भी तो सत्य को नहीं बना सकते। दो गलत मिलकर एक ठीक तो नहीं हो जाता। तुम करोड़ भी गलत मिल जाओ, तो गलती करोड़ गुना हो जाती है। करोड़ असत्य मिल कर भी एक सत्य निर्मित नहीं होता। यह सूफी कथा कहती है, तुमने भी बचाया है वह जल। वह तुम्हारे भीतर है। उसे लेकर तुम पैदा हुए थे।

क्या है वह जल? उस जल का नाम ध्यान है। इसीलिए वह आदमी बचा सका, जिसने ध्यान दिया। तुम भी उसे खोज ले सकते हो, अगर ध्यान दो। थोड़े से ध्यानपूर्ण होने की जरूरत है। ध्यानपूर्ण होने का अर्थ है, विचार न रह जायें मन में। मन के आकाश में बदलियां विचार की समाप्त हो जायें। नीला गगन रह जाये, शून्य गगन रह जाये। वह ध्यान है। उस ध्यान में तत्क्षण वर्षा हो जाती है। वह जल तुम्हें मिलने लगेगा जो तुम्हारी संपदा है, जिसे कोई मृत्यु नहीं छीन सकती, जिसे तुम जन्म के पहले से लेकर आये हो; जो तुम हो।

ध्यान आत्मा है, विचार मन है। विचार उधार है, बाहर से है। मन दूसरों ने दिया है, आत्मा परमात्मा से मिली है। उसको खोज लो। उसका स्वाद तुम्हारे जीवन में पकड़ जाये, फिर तुम्हें भीड़ न भटका सकेगी। भीड़ कितनी ही बड़ी हो, परमात्मा विराट है। उस एक के सहारे को पाकर फिर तुम इस भीड़ के विपरीत भी चले जाओ, तो तुम्हें चिंता न होगी। तुम इससे अलग भी हो जाओ, तो तुम्हें चिंता न होगी। तुम राजपथ छोड़ दोगे, पगडंडी पकड़ोगे। परमात्मा तक कोई राजपथ नहीं जाता, कोई हाईवे नहीं जाता, पगडंडियां जाती हैं।

और पगडंडियां भी ऐसी कि एक आदमी चलता है, फिर हजारों साल बाद कोई दूसरा चलता है। इसलिए किसी दूसरे की पगडंडी भी तुम्हें मिल नहीं सकती। खुद ही चलना पड़ता है, खुद ही बनानी पड़ती है। चल चल कर रास्ता बनता है। ध्यान कर करके रास्ता बनता है। और जिस दिन जल स्रोत मिल जाता है, उस दिन तुम हैरान होओगे कि कैसे इतने दिन तुम पागलों के साथ राजी थे। कैसे तुम इतने दिन तक इन पागलों जैसा व्यवहार करते थे। कैसे तुमने राजा के वस्त्र देखे, जो वहां थे ही नहीं।

यह भीड़ तुम्हारा बंधन और तुम्हारा कारागृह है।

संन्यास का इतना ही अर्थ है–समाज के पार हो जाओ।

समाज छोड़ कर भाग जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन समाज जो भी कर रहा है वह खेल रह जाये–अभिनय! नाटक! उसमें गंभीरता खो जाये। तुम यहीं रहो, ठीक बाजार में बैठे रहो, लेकिन समाज से मुक्त हो जाओ। कोई पत्नी को छोड़ कर भाग जाने की जरूरत नहीं है। भागते नासमझ हैं। समझदार तो जहां हैं वहीं रूपांतरित हो जाते हैं। क्योंकि झरना तुम्हारे भीतर है, हिमालय में नहीं। दूकान पर, बाजार में, जहां तुम हो, वहीं रहो। सिर्फ भीड़ से तुम्हारा धीरे-धीरे छुटकारा हो जाये। तुम्हारी आंखें निर्मल ध्यान से भर जायें। समाज ने जो तुम्हें दिया है वह तुम्हारे ऊपर आच्छादित न रह जाये। परमात्मा ने जो तुम्हें दिया है उसकी धुन तुम्हारे भीतर बजने लगे, यही इस कथा का मर्म है।

आज इतना ही।

 


Filed under: दीया तले अंधेरा (झेन--सूफी कथाएं) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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