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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–31

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सहजता—स्‍वाध्‍याय—विसर्जन—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

योगसूत्र

(साधनपाद)

तप:स्वाध्यायेश्‍वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।। 1।।

 क्रियायोग एक, प्रायोगिक, प्राथमिक योग है और वह संधटित हुआ है— सहज संयम (तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से।

‘समाधिभावनार्थ: क्लेउशतनूकरणार्थश्‍च।। 2।।

क्रियायोग का अभ्यास क्लेश (दुःख) को घटा देता है। और समाधि की ओर ले जाता है।

अविद्यास्‍मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशा:।। 3।।

दु:ख उत्‍पन्‍न होने के कारण है: जागरूकता की कमी, अहंकार, मोह, घृणा, जीवन से चीपके रहना और मृत्‍यु भय।

 अविद्या क्षेत्रमुत्‍तरेषां प्रसुप्‍ततनुविच्‍छिन्‍नोदाराणाम।। 4।।

चाहे वे प्रसुप्‍तता की, क्षीणता की, प्रत्‍यावर्तनकी या फैलाव की अवस्‍थाओं में हों, दुःख के दूसरे सभी कारण क्रियान्‍वित होते है—जागरूकता के आभाव द्वारा ही।

सामान्य मनुष्यता को दो मूलभूत प्रकारों में बांटा जा सकता है: एक तो है पर—पीड़क और दूसरा है स्व—पीड़क। पर—पीड़क आनंद पाता है दूसरों को पीड़ा पहुंचा कर और स्व—पीड़क आनंदित होता है स्वयं को पीड़ा पहुंचा कर। निस्संदेह दूसरों को पीड़ा देने वाला आकर्षित होता है राजनीति की ओर। वहां संभावना होती है, दूसरों को उत्पीड़ित करने का अवसर होता है। या वह आकर्षित होता है वैज्ञानिक खोज की ओर, विशेषकर चिकित्सा—शास्त्र की खोज की ओर। वहां प्रयोग के नाम पर एक संभावना होती है, मासूम जंतुओं को यातना देने की, रोगियों, मुर्दा और जीवंत शरीरों को उत्पीड़ित करने की। यदि राजनीति बहुत भारी पड़ती है और वह अपने बारे में ज्यादा निश्चित नहीं होता है और न ही इतना बुद्धिमान होता है कि किसी अनुसंधान में लग जाए तब पर—पीड़क बन जाता है स्कूल—मास्टर, वह छोटे—छोटे बच्चों को सताने लगता है! लेकिन पर—पीड़क सदा ही सरकता रहता है ज्ञात रूप से या अज्ञात रूप से उस परिस्थिति की ओर जहां कि वह पीड़ा दे सकता हो। देश के नाम पर समाज, राष्ट्र, क्रांति के नाम पर, सत्य और खोज के नाम पर, सुधार— आदोलन के, दूसरों को सुधारने के नाम पर, पर—पीड़क सदा किसी न किसी को उत्पीड़ित करने के अवसर की खोज में रहता है।

पर—पीड़क धर्म की ओर बहुत आकर्षित नहीं होते हैं। दूसरे प्रकार के लोग आकर्षित होते हैं धर्म की ओर, वे हैं स्व—पीड़क। वे स्वयं को पीड़ा दे सकते हैं। वे बन जाते हैं महात्मा, वे बन जाते हैं बड़े संत और वे सम्मान पाते हैं समाज के द्वारा क्योंकि वे स्वयं को पीड़ा पहुंचाते हैं। एक पक्का स्व— पीड़क सदा ही सीधे तौर पर सरकता है धर्म की ओर, बिलकुल वैसे ही जैसे कि एक पक्का पर—पीडक सरकता है राजनीति की ओर। राजनीति धर्म है पर—पीड़क की, धर्म राजनीति है स्व—पीड़क की। लेकिन यदि एक स्व—पीड़क बहुत निश्चित नहीं होता, तब वह ढूंढ लेता है दूसरे वैकल्पिक मार्ग। वह बन सकता है कलाकार, चित्रकार, कवि, और स्वयं को पीड़ा पहुंचाए जा सकता है—कविता, साहित्य, चित्रकला के नाम पर।

तुमने सुना होगा एक बड़े डच चित्रकार, विन्सेंट वानगाग का नाम। वह पक्का स्व—पीड़क था। यदि वह भारत में पैदा हुआ होता, तो बन गया होता महात्मा गांधी; लेकिन वह बना चित्रकार। कुछ ज्यादा धन नहीं था उसके पास। उसका भाई उसे जीने मात्र जितना पैसा दिया करता था। सप्ताह के सात दिनों में से, वह केवल तीन दिन भोजन करता, और सप्ताह के बाकी चार दिन वह चित्र बनाने के खातिर उपवास रखता।

वह एक स्त्री के प्रेम में था, लेकिन स्त्री का पिता उससे मिलने की इजाजत न देता था उसको। अत: उसने जबरदस्ती जलती लौ पर रख दिया अपना हाथ और वह बोला, ‘मैं जलती लौ पर ही रखे रखूंगा अपना हाथ, जब तक कि आप मुझे उससे मिलने न दोगे।’ उसने जला डाला अपना हाथ।

एक वेश्या ने कहां उससे, ‘तुम्हारे कान बहुत सुंदर हैं’, क्योंकि प्रशंसा करने को और कुछ था ही नहीं उसके चेहरे में। वह सबसे अधिक असुंदर व्यक्तियों में से एक था, उसके नाक—नक्‍श असुंदर थे। वह वेश्या तो इस आदमी के साथ जरूर बड़ी मुश्किल में पड़ गयी होगी, इसलिए उसने कह दिया उससे कि उसके कान बहुत सुंदर हैं। वह घर वापस गया, अपना एक कान काट दिया छुरी से, उसे पैकेट में रखा; बहते खून सहित ही वापस गया उसके पास और कान स्त्री के सामने यह कहते हुए पेश कर दिया कि ‘तुमने इसे इतना ज्यादा पसंद किया कि इसे मैं तुम्हें उपहार स्वरूप देना चाहूंगा।’

उसने चित्र बनाना जारी रखा फ्रांस के सबसे ज्यादा गरम भाग आर्लीज में, जब कि गरमियों में सूरज बहुत तप रहा था। हर एक ने कहां उससे, ‘तुम बीमार पड़ जाओगे, सूरज बहुत आग बरसा रहा है’, लेकिन सारा दिन, विशेष कर जब कि सूर्य सबसे ज्यादा तप्त रहता, पूरी भरी दुपहरी में, वह मैदानों में खड़ा रहता चित्र बनाते हुए। बीस दिनों के भीतर वह पागल हो गया। वह युवा था, तैंतीस या चौंतीस का ही था, जब उसने मार डाला खुद को, आत्महत्या कर ली।

परंतु चित्रकला, कला, सौंदर्य के नाम पर, तुम कर सकते हो स्वयं को पीड़ित। ईश्वर के नाम पर, प्रार्थना के नाम पर, साधना के नाम पर, तुम कर सकते हो स्वयं को पीड़ित। तुम इस ढंग को बहुत ही प्रबल पाओगे भारत में : कील, काटो की शैय्या पर लेटे, महीनों—महीनों उपवास करने वालों को। तुम्हारी भेंट होगी ऐसे—ऐसे लोगों से जो दस वर्षों से सोए ही नहीं हैं! वे खड़े ही रहते, लड़ते रहते नींद से। वे ऐसे लोग हैं जो खड़े रहे हैं वर्षों तक, उन्होंने दूसरी कोई मुद्रा अपनाई ही नहीं, उनकी टागें करीब— करीब मुरदा हो चुकी हैं। ऐसे लोग हैं जो कि आकाश की ओर एक हाथ उठाए—उठाए जी रहे हैं; पूरा हाथ मृत हो गया है, उसमें अब और खून संचरित नहीं होता; वह मात्र हड्डियों का ढांचा है। ये व्यक्ति बीमार हैं; उन्हें जरूरत है मानसिक इलाज की। लेकिन तो भी हजारों आकर्षित हो जाते हैं उनकी तरफ।

तुम्हारे सारे राजनेताओं को, एडोल्फ हिटलर या जोसेफ स्टालिन को या माओत्से तुंग को जरूरत है मानसिक इलाज करवाने की। और तुम्हारे सारे महात्माओं को भी जरूरत है इलाज की। क्योंकि वह व्यक्ति जो कि स्वयं को या दूसरों को पीड़ित करने में रुचि रखता है, बीमार होता है, गहन तौर पर बीमार होता है। पीड़ा में रुचि रखना, चाहे वह किसी दूसरे की हो या कि स्वयं की, पीडन में रुचि रखना, बिलकुल ही निश्चित लक्षण है गहन रुग्णता का। जब तुम स्वास्थ्यपूर्ण होते हो तब तुम दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहते; तुम स्वयं को पीड़ित नहीं करना चाहते। जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुम आनंदित होना चाहते हो। जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुम इतना आनंदित अनुभव करते हो कि तुम चाहते हो हर किसी को आशीष देना, आनंदित करना। तब तुम चाहोगे कि तुम्हारी मंगलकामनाएं तुम्हारे प्राणों से प्रवाहित हो जाएं सभी के प्राणों में, संपूर्ण अस्तित्व में। तुम आनंद के अतिरेक से, उमडाव से भरे होते हो। स्वस्थता एक उत्सव है। अस्वस्थता है पीड़ित करना—दूसरों को करना या स्वयं को करना।

पतंजलि पर बोलना शुरू करने से पहले मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? मैं ऐसा कह रहा हूं क्योंकि अब तक पतंजलि की व्याख्या सदा होती रही है खुद को पीड़ा पहुंचाने वालों के द्वारा। लेकिन मैं जो कुछ भी बोलने जा रहा हूं पतंजलि के बारे में वह समग्ररूपेण अलग होगा दूसरी टीका—टिप्पणियों से। मैं स्व—पीड़क नहीं हूं मैं पर—पीड़क भी नहीं हूं। मैं स्वयं उत्सव मना रहा हूं और मैं चाहूंगा कि तुम सम्मिलित हो जाओ मेरे साथ। पतंजलि पर मेरी व्याख्या पिछली सारी व्याख्याओं से मूलभूत रूप से अलग होगी। मेरा भाष्य बिलकुल वैसा होगा जैसे कि पतंजलि स्वयं भाष्य करते रहे।

वे न तो पर—पीड़क थे और न ही स्व—पीड़क। वे किसी आंतरिक अस्वस्थता से रहित, मनोवैज्ञानिक समस्याओं से रहित, मानसिक ग्रस्तताओं से रहित, संपूर्णतया पूरे, एकजुट व्यक्ति थे। वे थे स्वस्थ, संपूर्ण, संघटित। जो कुछ कहां है उन्होंने उसे तीन ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। कोई पर— पीड़क संयोगवश ही शायद इससे जुड़े, लेकिन वह विरल बात है, क्योंकि पर—पीड़क रुचि नहीं रखते हैं धर्म में। माओत्से तुंग, एडोल्फ हिटलर या कि जोसेफ स्टालिन की रुचि धर्म में, पतंजलि में होने की बात की तुम कल्पना नहीं कर सकते; नहीं। पर—पीड़क रुचि नहीं रखते, इसलिए उन्होंने व्याख्या नहीं की। स्व—पीड़क रुचि रखते हैं धर्म में और उन्होंने की है व्याख्या और अपना ही रंग चढ़ाया है पतंजलि पर। लाखों लोग हैं वैसे, और जो कुछ कहां है उन्होंने, उसने पूरी तरह विकृत कर दिया है पतंजलि के संदेश को, पूरी तरह विनष्ट कर दिया है उसको। अब हजारों साल बाद वे व्याख्याएं खड़ी हुई हैं तुम्हारे और पतंजलि के बीच, अभी भी वे बढ़ती चली जा रही हैं!

पतंजलि के योगसूत्र सबसे अधिक व्याख्यायित चीजों में से हैं; वे एकदम भरे हुए हैं महत्वपूर्ण अर्थ से, वे बहुत गहन रूप से अर्थपूर्ण हैं। लेकिन उन पर व्याख्या करने के लिए पतंजलि कहां मिलते हैं किसा को? कहां मिलता है कोई व्यक्ति जो किसी ढंग से अस्वस्थ न हो? क्योंकि अस्वस्थता रंग चढ़ा देगी, तुम इसमें कुछ नहीं कर सकते। जब तुम व्याख्या करते हो, तब तुम रहते हो तुम्हारी व्याख्या में, तुम्हें रहना ही होता है वहा; व्याख्या करने का कोई और ढंग नहीं है।

मैं वे: बातें कहने जा रहा हूं जो कही नहीं गई हैं, और तुम मुझे निरंतर अलग जान सकते हो सारी व्याख्याओं से।

इस सत्य को ध्यान में रख लेना, क्योंकि मैं न तो स्व—पीड़क हूं और न ही पर—पीड़क। मैं धर्म में स्वयं को उत्पीड़ित करने के लिए नहीं उतरा हूं—बिलकुल विपरीत है बात। वस्तुत: मैं कभी नहीं उतरा धर्म में। मैं तो बस स्वयं आनंदित होता रहा हूं और धर्म घट गया—बिलकुल सहज। यह बात एक निष्पत्ति मात्र रही। मैंने कभी उस तरह से अभ्यास नहीं किए जैसे कि धार्मिक व्यक्ति अभ्यास करते हैं। मैं कभी उस ढंग की खोज में नहीं रहा। मैं तो बस जीया हूं—’जो कुछ है’ उसकी गहरी स्वीकृति में। मैंने स्वीकार कर लिया अस्तित्व को और स्वयं को, और मैं कभी इस भावदशा में नहीं रहा कि स्वयं को परिवर्तित करूं। अकस्मात, जितना—जितना मैंने स्वीकार किया स्वयं को, उतना ही मैंने स्वीकार किया अस्तित्व को, और एक गहरा मौन, एक आनंद उतर आया मुझ पर। उस आनंद में धर्म घटित हुआ मुझको। तो साधारण शाब्दिक अर्थों में धार्मिक नहीं हूं मैं। यदि तुम कुछ समानांतर खोजना चाहते हो तो तुम्हें उसे धर्म के अतिरिक्त कहीं और ही खोजना होगा।

मुझे उस व्यक्ति के साथ एक गहन घनिष्ठता अनुभव होती है जो दो हजार वर्ष पहले उत्पन्न हुआ था यूनान में। उसका नाम था एपीकुरस। कोई उसे धार्मिक नहीं मानता। लोग सोचते हैं कि जो सर्वाधिक नास्तिक व्यक्ति हुए वह उनमें से एक था, जो सर्वाधिक भौतिक व्यक्ति हुए उनमें से एक, वह धार्मिक

व्यक्ति के एकदम विपरीत था। लेकिन वैसी समझ मेरी नहीं। एपीकुरस सहज रूप से धार्मिक था। इन शब्दों को जरा खयाल में ले लेना, ‘सहज रूप से धार्मिक’, धर्म घटा है उसको। इसीलिए लोगों ने उसे नजरअंदाज कर दिया, क्योंकि उसने कभी कोई कोशिश नहीं की। यह उक्ति ‘खाओ, पीओ और आनंद मनाओ’, आयी है एपीकुरस से। और यही दृष्टिकोण बन गया है भौतिकवादी का।

वस्तुत: एपीकुरस ने एक बहुत ही आडंबररहित सरल जीवन जीया। जितना कभी कोई रह सकता है या रहा होगा, वह उतनी ही सादगी से रहा। महावीर और बुद्ध भी उतने सरल—सहज न थे जितना कि एपीकुरस क्योंकि उनकी सादगी परिष्कृत थी, उन्होंने कार्य किया था उस पर, उसका अभ्यास किया था। उन्होंने उस पर सोच—विचार किया था और उन्होंने वह सब कुछ गिरा दिया था जो कि अनावश्यक था। वे स्वयं को अनुशासित कर रहे थे—सीधे—सरल होने के लिए, और जब कभी अनुशासन मौजूद होता है, तो चली आती है जटिलता। पृष्ठभूमि में संघर्ष बना रहता है, और वह संघर्ष वहां बना रहेगा सदा, पृष्ठभूमि में ही। महावीर नग्न थे, खाली, उन्होंने त्याग दिया था सब कुछ, तो भी त्यागा तो था! वह बात सहज—स्वाभाविक तो न थी।

एपीकुरस एक छोटे से बगीचे में रहता था। वह बगीचा ‘एपीकुरस का बगीचा’ नाम से जाना जाता था। उसके पास अरस्तु की भांति कोई अकादमी न थी या कि प्लेटो की भांति कोई स्कूल न था, उसके पास एक बगीचा था। यह बात सहज और सुंदर जान पड़ती है। बगीचा ज्यादा स्वाभाविक जान पड़ता है एक अकादमी से। वह बगीचे में रहता था कुछ मित्रों के साथ। वह शायद पहला कम्यून था। वे बस वहां रह रहे थे—विशेष रूप से कुछ न करते हुए, बगीचे में काम करते हुए, मात्र जीने के लिए पर्याप्त था जिनके पास।

ऐसा कहां जाता है कि राजा वहां आया निरीक्षण करने को और वह सोच रहा था कि यह आदमी जरूर ऐश्वर्य में रहता होगा, क्योंकि इसका आदर्श वाक्य था ‘खाओ, पीओ और आनंद मनाओ।’ यदि यही है संदेश, राजा ने सोचा, तो मुझे मिलेंगे लोग ऐश्वर्य में जीते, भोगरत। लेकिन जब वह वहां पहुंचा तो उसने बगीचे में काम करते हुए, पौधों को पानी देते हुए बहुत सीधे—सादे लोगों को देखा। सारा दिन वे काम करते रहते थे। बहुत थोड़ा निजी सामान था उनका, जो जीने मात्र के लिए पर्याप्त था। शाम को, जब वे खाना खा रहे थे, तो मक्खन तक न था; केवल सूखी रोटी और था थोड़ा—सा दूध। लेकिन तो भी वे आनंदित थे इससे, जैसे कि यह कोई दावत हो। खाने के बाद वे नृत्य करने लगे। दिन समाप्त हो गया था और उन्होंने धन्यवाद दिया अस्तित्व को। और वह राजा रो पड़ा था, क्योंकि वह अपने मन में सदा सोचता रहा था, एपीकुरस की निंदा करने की बात ही। उसने पूछा, ‘खाओ, पीओ और आनंद मनाओ—ऐसा कहने से क्या मतलब है आपका?’ एपीकुरस बोला, ‘तुमने देखा! हम यहां चौबीसों घंटे प्रसन्न रहते हैं। यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो तो तुम्हें सहज होना होगा, क्योंकि जितने जटिल होते हो तुम, उतने ही दुखी हो जाते हो तुम। जितना ज्यादा जटिल होता है तुम्हारा जीवन, उतना ज्यादा दुख निर्मित करता है वह। हम सहज स्वाभाविक हैं इसलिए नहीं कि हम परमात्मा को खोज रहे हैं, हम सहज हैं क्योंकि सहज होना ही सुखी, प्रसन्न होना है।’ और राजा ने कहां, ‘मैं कुछ उपहार तुम्हारे लिए भेजना चाहूंगा। बगीचे के लिए और तुम्हारे आश्रम—निवासियों के लिए क्या चाहोगे तुम?’ एपीकुरस तो सोच न पाया। वह बहुत सोचता रहा और फिर बोला, ‘हमें ऐसा नहीं लगता कि किसी चीज की जरूरत है।

नाराज मत होना, आप एक महान राजा हैं, हर चीज दे सकते हैं—लेकिन हमें जरूरत नहीं है। यदि आप जोर देते हैं, तो आप भेज सकते हैं थोड़ा—सा नमक और मक्खन।’ वह एक सीधा—सादा आदमी था।

इस सरलता में धर्म घटता है स्वाभाविक रूप से। तुम ईश्वर के बारे में सोचते नहीं, ऐसी कोई जरूरत नहीं होती, जीवन ही ईश्वर होता है। आकाश की ओर हाथ जोड़ तुम प्रार्थना नहीं करते; वह मूढ़ता है। तुम्हारा सारा जीवन सुबह से लेकर साझ तक एक प्रार्थना होता है। प्रार्थना एक भाव है: उसे तुम जीते हो, उसे तुम कोई क्रिया नहीं बनाते।

एपीकुरस समझ सकता था पतंजलि को। मैं समझ सकता हूं उन्हें। मैं अनुभव कर सकता हूं कि क्या मतलब है उनका। यह तुम्हारे लिए ही है जो मैं बोल रहा हूं यह सब, ताकि तुम भ्रम में न पड़ जाओ, क्योंकि दूसरी व्याख्याएं भी हैं जो ठीक इसके विपरीत ही पड़ती हैं।

क्रियायोग एक प्रायोगिक प्राथमिक योग है और वह संघटित हुआ है— सहज— संयम ( तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से।

पहला शब्द है—सहज—संयम। स्व—पीड़कों ने सहज—संयम को स्व—पीड़ा में बदल दिया। वे सोचते हैं कि जितनी ज्यादा पीड़ा तुम देह को पहुंचाते हो, उतने ज्यादा तुम आध्यात्मिक बनते हो। देह को रत्पीडित करना एक मार्ग है आध्यात्मिक होने का—यही समझ होती है एक स्व—पीड़क की।

देह को पीड़ा पहुंचाना कोई मार्ग नहीं। उत्पीड़न आक्रामक होता है। चाहे तुम दूसरों को पीड़ा पहुंचाओ या कि स्वयं को, यह बात ही आक्रामक होती है, और आक्रामकता कभी धार्मिक नहीं हो सकती है। दूसरों के शरीर को उत्पीड़ित करने और तुम्हारे अपने शरीर को उत्पीड़ित करने के बीच भेद—क्या होता है? क्या भेद होता है? शरीर है ‘दूसरा’। तुम्हारा अपना शरीर भी दूसरा है। तुम्हारा अपना शरीर थोड़ा निकट है और दूसरे का शरीर कुछ दूर है, बस इतनी ही है बात। क्योंकि तुम्हारा शरीर ज्यादा नजदीक है इसलिए उसके तुम्हारी हिंसा का शिकार बनने की ज्यादा संभावना है, तुम उत्पीड़ित कर सकते हो उसको। और हजारों सालों से लोग अपने शरीरों को पीड़ा पहुंचाते रहे हैं इस झूठी धारणा के साथ कि यही है ईश्वर की ओर ले जाने का मार्ग।

पहली बात ईश्वर ने क्यों दिया तुम्हें शरीर? उसने तुम्हें कोई अंग शरीर को उत्पीड़ित करने के लिए नहीं दिया है। बल्कि इसके विपरीत, उसने तुम्हें दिया है संवेदनाओं को, संवेदनशीलता को, इंद्रियों को—उससे आनंदित होने के लिए—उत्पीड़ित होने के लिए नहीं। ईश्वर ने तुम्हें बहुत संवेदनशील बनाया है क्योंकि संवेदनशीलता के द्वारा जागरूकता विकसित होती है।

यदि तुम पीड़ा पहुंचाते हो तुम्हारे शरीर को तो तुम ज्यादा और ज्यादा संवेदनशून्य हो जाओगे। यदि तुम काटो के बिस्तर पर लेट जाओ, तो धीरे— धीरे तुम संवेदनशून्य हो जाओगे। शरीर बन ही जाएगा संवेदनशून्य, अन्यथा कैसे तुम निरंतर सहन कर सकते हो कीटों को? शरीर तो एक तरह से मर ही जाएगा, वह खो देगा अपनी संवेदनशीलता। यदि तुम निरंतर खड़े रहते हो तपते सूर्य की गरमी में, शरीर स्वयं को बचाएगा असंवेदनशील होकर। यदि तुम हिमालय जाकर नग्न बैठ जाते हो जब कि बर्फ गिर रही होती है और सारी पर्वतमाला ढंकी होती है बर्फ से, तो धीरे— धीरे, शरीर अपनी संवेदनशीलता खो देगा ठंड के कारण, वह बन जाएगा मुरदा शरीर।

और एक मुरदा शरीर के द्वारा कैसे तुम अनुभव कर सकते हो अस्तित्व के आशीष को? कैसे तुम अनुभव कर सकते हो अनुग्रह की निरंतर वर्षा को जो कि हर क्षण घट रही है? अस्तित्व लाखों—लाखों आशीष बरसाए चला जाता है, तुम उन्हें गिन तक नहीं सकते। वस्तुत: धार्मिक आदमी बनने के लिए तुम्हें कम की नहीं, ज्यादा संवेदनशीलता की जरूरत होती है, क्योंकि जितने अधिक संवेदनशील तुम होते हो, उतनी ही अधिक भगवत्ता तुम हर कहीं देख पाओगे। संवेदनशीलता बन जाती है एक आंख एक खुलापन। जब तुम संपूर्णतया संवेदनशील हो जाते हो, तो ‘हवा का कोई एक हलका झोंका भी तुम्हें छू लेता है और तुम्हें दे जाता है कोई संदेश। और हवा में थर्राता एक साधारण पत्ता भी इतनी जबरदस्त घटना बन जाता है तुम्हारी संवेदनशीलता के कारण ही। तुम देखते हो एक साधारण पत्थर को और वह बन जाता है कोहनूर। यह निर्भर करता है तुम्हारी संवेदनशीलता पर।

जीवन अधिक होता है यदि तुम अधिक संवेदनशील होते हो; जीवैन कम होता है यदि तुम कम संवेदनशील होते हो। यदि तुम्हारे पास बिना किसी संवेदना का पूरा लकड़ी का ही शरीर हो, तो जीवन बिलकुल शून्य होता है, जीवन फिर वहां बचता ही नहीं; तुम पहले से ही पहुंचे होते हो तुम्हारी कब्र में। स्वयं को पीड़ा पहुंचाने वालों ने किया है ऐसा। साधना एक प्रयास बन जाती है शरीर और संवेदनशीलता को मारने का।

मेरे देखे, बिलकुल विपरीत होता है ढंग। तप का मतलब उत्पीड़न नहीं है; तप का मतलब है सहज जीवन, एक सरल जीवन। क्यों सरल जीवन? क्यों बहुत जटिल जीवन न हो? क्योंकि जीवन जितना अधिक जटिल होता है, उतने ही कम संवेदनशील होओगे तुम। एक धनी व्यक्ति कम संवेदनशील होता है निर्धन व्यक्ति की अपेक्षा, क्योंकि धन एकत्रित करने के उसके प्रयत्न ने ही उसे संवेदनशून्य बना दिया होता है। यदि तुम्हें धन एकत्रित करना हो तो तुम्हें होना ही होता है असंवेदनशील। तुम्हें पूरी तरह खूनी की तरह बनना होगा और परवाह नहीं करनी होगी कि दूसरों को क्या हो रहा है। तुम खजाने संचित किए चले जाते हो, और दूसरे मर रहे होते हैं। तुम अधिकाधिक धनवान होते चले जाते हो, और दूसरे अपना जीवन ही खो रहे होते हैं इसमें। एक धनी व्यक्ति होता ही है असंवेदनशील, अन्यथा वह धनवान हो नहीं सकता। कैसे करेगा वह शोषण? यह बात तो असंभव ही होगी।

मैंने सुना है एक बहुत बड़े धनवान के बारे में मुल्ला नसरुद्दीन उससे मिलने के लिए गया। जो अनाथालय वह चला रहा था उसके लिए कुछ अनुदान चाहिए था उसे। वह धनपति कहने लगा, ‘ठीक है नसरुद्दीन मैं तुम्हें कुछ दूंगा। लेकिन मेरी एक शर्त है और किसी ने उसे पूरा नहीं किया। मेरी आंखों में देखो; एक आंख नकली है और दूसरी आंख असली है। यदि तुम मुझे बिलकुल ठीक—ठीक बता सको कि कौन—सी आंख नकली है: और कौन—सी असली है, तो मैं अनुदान दूंगा।’ नसरुद्दीन ने देखा ध्यान से उसकी आंखों की ओर और बोला, ‘बायीं आंख असली है और दायीं आंख नकली है,।’ हैरान होकर वह धनपति कहने लगा, ‘लेकिन तुमने कैसे बता दिया?’ वह बोला, ‘क्योंकि मैं दायीं आंख में देख सकता हूं थोड़ी बहुत करुणा; तो जरूर वही होगी नकली।’

उसने देखी थी थोड़ी करुणा, एक हल्की—सी चमक, और वह नकली ही होनी थी। यदि संवेदन— शील हो तो धनवान धनवान ही नहीं होता। धन इकट्ठा करते—करते वह मरता ही जाता है।

तुम्हारे शरीर को मारने के दो तरीके हैं एक तरीका है स्व—पीड़क का जो कि पीड़ा पहुंचाता है। दूसरा तरीका है धनपति का जो कि धन और कूड़ा—करकट इकट्ठा करता रहता है। धीरे— धीरे वह सारा कूड़ा—करकट जिसे वह जमा कर लेता है, एक बाधा बन जाता है और वह कहीं बढ़ नहीं सकता, वह देख नहीं सकता, वह सुन नहीं सकता, वह स्वाद नहीं ले सकता, वह सूंघ नहीं सकता।

सरल जीवन का अर्थ होता है बिना उलझाव का जीवन। ध्यान रहे, यह कोई गरीबी का पोषण नहीं, क्योंकि यदि तुम गरीबी को पोषित करते हो प्रयास द्वारा, तो फिर वह पोषण ही तुम्हें मार देगा।

सहज जीवन एक गहरी समझ का जीवन होता है, जानबूझ कर बढ़ाने—सजाने का नहीं। वह गरीब—होने का अभ्यास नहीं। तुम गरीब होने का अभ्यास कर सकते हो, लेकिन उस अभ्यास द्वारा तुम्हारी संवेदनाएं कठोर हो जाएंगी। किसी भी चीज का अभ्यास तुम्हें कठोर बना देता है, कोमलता—खो जाती है, लचीलापन चला जाता है। फिर तुम बच्चे की तरह लचीले नहीं रहते। तब तुम जड़ बन जाते हो किसी वृद्ध की भांति। लाओत्सु कहता है, ‘जड़ता मृत्यु है, लचीलापन जीवन है।’ सहज— सरल जीवन, पोषित किया दरिद्र जीवन नहीं होता। गरीबी को अपना उद्देश्य मत बनाओ और उसे बढ़ाने की कोशिश मत करो। जरा—सा समझ भर लो कि जितना ज्यादा सहज, निर्भार तुम्हारा शरीर और मन होता है, उतने ज्यादा तुम प्रवेश कर सकते हो अस्तित्व में। निर्भार होकर तुम सत्य के सीधे संपर्क में आ सकते हो; भार सहित ऐसा नहीं हो सकता। धनपति के रास्ते में सदा उसका बैंक—खाता आ जमता है।

तुम देखते हो इंग्लैंड की महारानी को, एलिजाबेथ को? वह हाथ तक नहीं मिला सकती बिना दस्ताने के। मानव—स्पर्श भी कोई अशुद्ध चीज जान पड़ता है, कोई असुंदर चीज! रानी, राजा घेरे में बंद हुए जीते हैं, यह कोई हाथ की बात ही नहीं। वह तो एक प्रतीक मात्र है यह बताने का कि रानी का जीवन दफन हो गया है, वह जीवंत नहीं है।

मध्ययुग में योरोप में ऐसा विचार चलता था कि राजाओं और रानियों की दो टांगें नहीं होती हैं, क्योंकि किसी ने कभी उन्हें निरावरण देखा ही नहीं होता था। ऐसा सोचा जाता था कि उनके एक ही टांग होगी। वे मानव नहीं, वे दूरी पर रहे होते थे।

अहंकार सदा दूरी पर रहने की कोशिश करता है, और दूरी तुम्हें संवेदनशून्य बना देती है। तुम जाकर सड़क पर खेलते बच्चे को छू नहीं सकते। तुम किसी पेड़ के पास जाकर उससे लिपट नहीं सकते। तुम जीवन के ज्यादा निकट नहीं जा सकते, तुम दिखावा कर रहे होते हो कि तुम जीवन से ज्यादा ऊंचे हो, जीवन से ज्यादा महान हो, जीवन से ज्यादा बड़े हो। दूरी निर्मित करनी पड़ती है, और केवल तभी तुम जीवन से ज्यादा बड़े होने की बात का दिखावा कर सकते हो। लेकिन जीवन तो कुछ नहीं गंवा रहा, तुम्हारी इस मूढ़ता द्वारा तुम्हीं अधिकाधिक संवेदनशून्य बनते जा रहे हो। तुम तो पहले से ही मरे हुए हो। जीवन मांग करता है तुम्हारे ज्यादा जीवंत होने की।

जब पतंजलि कहते हैं ‘तप’, तो उनका मतलब है—सरल—सहज होओ, सहजता को गढ़ो मत। क्योंकि गढ़ी हुई सरलता, सरलता नहीं होती है। गढ़ी हुई सरलता कैसे हो सकती है सरल? वह तो बहुत जटिल होती है, तुम प्रयास कर रहे होते हो, गणना कर रहे होते हो, आरोपण कर रहे होते हो।

मैं जानता हूं एक व्यक्ति को, जहां वह रहता था उस गांव से मेरा गुजरना हुआ। मेरे ड्राइवर ने कहां, ‘आपका मित्र तो यहीं रहता है, बस गाव के बाहर ही।’ तो मैंने कहां, ‘अच्छा है। कुछ देर के लिए मैं जाऊंगा उससे मिलने, और देखूंगा कि वह अब क्या कर रहा है।’ वह एक जैन मुनि था। जब मैं पहुंचा उसके घर के पास तो उसे भीतर नग्न चलते हुए देख सकता था खिड़की से। जैन मुनियों की पांच अवस्थाएँ होती हैं; धीरे— धीरे वे अभ्यास करते हैं सरलता का। पांचवीं, आखिरी अवस्था पर वे नग्न हो जाते हैं। पहले वे पहनते हैं तीन वस्त्र, फिर दो, फिर एक, और फिर वह भी गिरा देना होता है। यह अवस्था सरलता का उच्चतम आदर्श होती है, जब कोई नितांत नग्न हो जाता है; धारण करने को कुछ न रहा—कोई बोझ नहीं, कोई कपड़े नहीं, कोई चीज नहीं। लेकिन मैं जानता था कि वह आदमी दूसरी अवस्था पर था, तो फिर क्यों हुआ वह नग्न?

मैंने द्वार खटखटाया। उसने खोला द्वार, लेकिन अब तो वह लुंगी पहने हुए था तो मैंने पूछा, ‘बात क्या है? बिलकुल अभी तो मैंने तुम्हें खिड़की से देखा और तुम नग्न थे।’ वह कहने लगा, ‘हां, मैं अभ्यास कर रहा हूं। मैं पांचवीं, अंतिम अवस्था के लिए अभ्यास कर रहा हूं। पहले, मैं घर के भीतर अभ्यास करूंगा, फिर मित्रों के साथ, फिर धीरे— धीरे मैं गांव में जाया करूंगा और फिर दुनिया भर में। मुझे अभ्यास करना होगा। मुझे कम से कम थोड़े से वर्ष तो लगेंगे ही उस शर्म को गिराने में, संसार में नग्न घूमने के लिए पर्याप्त रूप से साहसी होने में।’ मैंने कहां उससे, ‘बेहतर था तुम सरकस में भरती हो गए होते। तुम हो जाओगे नग्न, लेकिन अभ्यास से आयी नग्नता सहज नहीं होती है; वह बहुत गुणनात्मक होती है। तुम बहुत चालाक होते हो, और तुम चालाकी के साथ कदम—दर—कदम सरक रहे होते हो। वस्तुत: तुम कभी नग्न होओगे ही नहीं। अभ्यास से आई नग्नता फिर कपड़ों की भांति ही होगी, बहुत सूक्ष्म कपड़ों की भांति। तुम उन्हें अभ्यास द्वारा निर्मित कर रहे होते हो।’

‘यदि तुम किसी निर्दोष बालक की भांति अनुभव करते हो, तो तुम गिरा ही दोगे कपड़ों को और उसी तरह चलोगे संसार में। भय क्या है? कि लोग हसेंगे? क्या गलत है उनकी हंसी में?—हंसने दो उनको। तुम भी भाग ले सकते हो, तुम भी हंस सकते हो उनके संग। वे तुम्हारा मजाक उड़ाके? तो यह भी ठीक ही है, क्योंकि लोग तुम्हारा मजाक उड़ाए, इससे ज्यादा अहंकार को कुछ और नहीं मारता है। यह अच्छा होता है, वे तुम्हारी मदद कर रहे होते हैं। लेकिन पांच वर्ष के अभ्यास द्वारा तो तुम सारी बात ही चूक जाओगे। नग्नता निर्दोष होनी चाहिए किसी बालक की भांति ही। नग्नता एक समझ होनी चाहिए, न कि कोई अभ्यास। अभ्यास द्वारा, तुम समझ के लिए एक विकल्प ढूंढ रहे होते हो। निर्दोषता मन की चीज नहीं, वह तुम्हारी गणना का, तुम्हारी बुद्धि का हिस्सा नहीं। निर्दोषता हृदय की एक समझ है।’

सहजता का, सादगी का अभ्यास नहीं किया जा सकता है। तुम्हें केवल ध्यान से देखना है जीवन को और समझ लेना है कि जितने ज्यादा तुम जटिल हो जाते हो उतने कम संवेदनशील होते जाते हो तुम। और जितने कम संवेदनशील होते हो तुम, उतने ही दूर होते हो तुम परमात्मा से। तुम जितने ज्यादा संवेदनशील होते हो, उतने तुम और— और निकट होते हो। एक दिन आता है जब तुम तुम्हारे अस्तित्व की मूल जड़ों के प्रति संवेदनशील हो जाते हो, अचानक तुम फिर बचते ही नहीं, तुम होते हो मात्र एक संवेदना, एक संवेदनशीलता। तुम अब नहीं रहते, तुम होते हो केवल एक जागरूकता। और तब हर चीज सुंदर होती है, हर चीज जीवंत होती है, कुछ भी मृत नहीं होता।

हर चीज चेतनापूर्ण है; कोई चीज मृत नहीं। हर चीज चेतन है, कुछ अचेतन नहीं। तुम्हारी संवेदन— शीलता के साथ ही, संसार बदल जाता है। अंतिम घड़ी में, जब संवेदनशीलता अपनी संपूर्णता तक पहुंचती है, अपने परम शिखर पर, तो संसार खो जाता है, वहां होता है परमात्मा। वस्तुत: परमात्मा को नहीं पाना है, संवेदनशीलता को पा लेना है। इतनी समग्रता से संवेदनशील हो जाओ कि कुछ भी पीछे न छूटे, कोई जबरदस्ती का नियंत्रण नहीं, और अचानक परमात्मा वहा मौजूद होता है। परमात्मा सदा से ही है वहां, केवल तुम ही संवेदनशील न थे।

मेरे देखे, सहज—संयम है सरल—सहज जीवन, समझ भरा एक जीवन। तुम्हें झोपड़ी में जाकर रहने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें नग्न हो जाने की कोई जरूरत नहीं। तुम जीवन में सरलता—सहजता से रह सकते हो, एक समझ के साथ। गरीबी मदद न देगी बल्कि समझ देगी मदद। तुम गरीबी लाद सकते हो तुम्हारे ऊपर, तुम मैले—कुचैले बन सकते हो, लेकिन उससे कोई मदद न मिलेगी।

पश्चिम में अब हिप्पियों के साथ और उसी तरह के और लोगों के साथ यही हो रहा है। वे वही गलती कर रहे हैं जो भारत एक लंबे समय से करता चला आ रहा है। अतीत में भारत परिचित रहा है हर प्रकार के हिप्पियों से। जितने गंदे से गंदे जीवन संभव हैं उन्हें जीया है उन्होंने। केवल तप के नाम पर उन्होंने स्नान नहीं किए क्योंकि उन्होंने महसूस किया, ‘क्यों फिक्र करनी और क्यों सजाना शरीर को?’ क्या तुम जानते हो कि जैन मुनि नहाते नहीं हैं? तुम बैठ नहीं सकते हो उनके पास, उनके पास से बदबू आती है। वे अपने दात साफ नहीं करते। तुम उनसे बात नहीं कर सकते, दुर्गंध आती है, बदबू उठती है उनके मुंह से। और इसे तप—संयम माना जाता है, क्योंकि वे कहते हैं, ‘नहाना या शरीर साफ रखना भी भौतिकवादी होना है। तब तुम बहुत ज्यादा, जुड़ जाते हो शरीर से, तो क्यों चिंता करनी?’ लेकिन इस तरह का दृष्टिकोण तो ऐसा हुआ कि दूसरी अति की ओर सरकना, एक मूढ़ता से दूसरी मूढ़ता तक बढ़ना।

ऐसे लोग हैं जो चौबीस घंटे शरीर के साथ ही व्यस्त रहते। तुम खोज सकते हो ऐसी स्त्रियों को जो कि दर्पण के सामने घंटों गवाती रहती हैं। यह हुई एक तरह की मूढ़ता : बस निरंतर साफ किए चले जाना एक हिस्से को ही, कभी ध्यान न देना कि वह तो केवल एक हिस्सा ही है। यह अच्छा है, साफ करना उसे, लेकिन उसे सारा दिन लगातार ही साफ मत करते रहना, वरना वह बात एक रुग्ण ग्रस्तता हो जाती है। स्वच्छ देह अच्छी होती है, लेकिन उसे साफ करते रहने की एक निरंतर सनक—वह तो पागलपन है। ऐसे लोग हैं जो निरंतर अपने शरीरों को सजाए चले जा रहे हैं। दुनिया के लगभग आधे उद्योग जुटे हुए हैं देह की साज—सज्जा को लेकर ही, पाउडर हैं, साबुन हैं, इत्र हैं।

स्वच्छता अच्छी चीज है, पर उसकी कोई मनो—ग्रस्तता नहीं होनी चाहिए। वह आब्‍शेसन बन गई थी पश्चिम में, और अब है दूसरा छोर। जो लोग बहुत ज्यादा संबंधित होते हैं देह के साथ, कपड़ों के और सफाई के साथ और ऐसी कई बातो के साथ, वे व्यवस्थाबद्ध लोग होते हैं। लेकिन हिप्पी तो दूसरी अति तक बढ गए हैं—वे बिलकुल ही परवाह नहीं करते। वे गंदे होते हैं, और गंदगी ही बन गई है धर्म! जैसे कि गंदे होने भर से ही, वे पा जाएंगे कुछ। वे तो बस ज्यादा और ज्यादा असंवेदनशील होते जाते हैं जीवन की सुंदरताओं के प्रति।

तुम बहुत असंवेदनशील हो गए हो तभी तो नशे इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं। अब लगता है कि रासायनिक नशों के बिना तो तुम संवेदनशील हो ही नहीं सकते। अन्यथा एक सहज—सादा व्यक्ति तो इतना संवेदनशील होता है कि उसे जरूरत ही नहीं होती नशों की। जो कुछ तुम अनुभव करते हो नशों के द्वारा, वह अनुभव कर लेता है केवल अपनी संवेदनशीलता द्वारा ही। तुम नशा करते हो और एक साधारण वृक्ष बन जाता है एक अदभुत घटना—हर एक पत्ता स्वयं में एक अनुपम संसार होता है, एक वृक्ष में हजारों हरीतिमाए होती हैं। और हर फूल प्रकट करता है प्रकाश, बन जाता है इंद्रधनुषी रंगावली। एक साधारण वृक्ष जिसके पास से तुम कई बार गुजरे होते हो और कभी भी देखा नहीं होता उसकी ओर, अचानक हो जाता है एक स्‍वप्‍न, एक भावोल्लास, एक रंगीन इंद्रधनुष। ऐसा ही है जो कि घटता है नशे का प्रयोग न करने वाले एक संवेदनशील व्यक्ति को। नशे का मतलब है कि तुम इतने कठोर और हतोत्साही और मुरदा हो गए हो कि अब रासायनिक आक्रामकता की आवश्कता होती है तुम्हारे शरीर पर। केवल तभी कुछ घड़ियों के लिए वातायन खुलेगा और तुम देखोगे जीवन की कविता को, और फिर बंद हो जाएगा वातायन; और अधिक से अधिक नशे की मात्रा की जरूरत होगी। एक घड़ी आएगी जबकि नशे भी मदद न देंगे। तब तुम सचमुच ही पत्थर हो जाओगे।

ज्यादा संवेदनशील होओ, ज्यादा सहज हो जाओ। और जब मैं कहता हूं ‘हो जाओ’, तो मेरा मतलब अभ्यास करने से नहीं—होता, मेरा मतलब समझ लेने से होता है। समझने की कोशिश करना कि जब कभी तुम सहज—सरल होते हो, तो चीजें सुंदर होती जाती हैं। जब कभी तुम जटिल होते हो, तो चीजें होती जाती हैं समस्या से भरी हुई; तुम और पहेली बना लेते हो सुलझाने को और हर चीज उलझ जाती है, एक झंझट बन जाती है।

आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली सीधी—सादी जिंदगी जीयो, बिना पागल इच्छाओं वाली जिंदगी। तुम्हें आवश्यकता है भोजन की, तुम्हें आवश्यकता है कपड़ों की, तुम्हें आवश्यकता है एक छत की—खत्म हो गई बात। तुम्हें कोई चाहिए प्रेम करने को, तुम्हें कोई चाहिए जो तुम्हें प्रेम करे। प्रेम, भोजन, कमरा—सीधी—सहज बात; लेकिन तुम खड़ी कर लेते हो लाखों—लाखों इच्छाएं। यदि तुम्हें रॉल्स—रॉयस चाहिए तो कठिनाइयां उठ खड़ी होती हैं; यदि तुम्हें महल चाहिए या तुम संतुष्ट नहीं साधारण स्त्रियों से, तुम्हें चाहिए विश्व—सुंदरी—और तुम्हारी सारी विश्व—सुंदरियां करीब—करीब मुरदा होती हैं—तो तुम चाहते हो असंभव चीजें। तो तुम आगे और आगे की सोचते जाते हो। और तुम्हें स्थगित करते जाना होता है ‘किसी दिन जब मेरे पास महल होगा तो मैं शांति से बैठूंगा।’ लेकिन इस बीच तो जीवन बहा जा रहा है तुम्हारे हाथों से। यदि कभी ऐसा हो जाए कि तुम पा लो तुम्हारा महल तो तुम भूल चुके होंगे शांतिपूर्वक बैठना। क्योंकि महल के पीछे दौड़ते— भागते, तुम बिलकुल भूल ही जाओगे कि कैसे बैठा जाता है।

ऐसा घटता है सभी महत्वाकांक्षी लोगों को। वे दौड़ते जाते हैं, तब दौड़ना उनके जीवन का ही एक ढंग बन जाता है। एक घड़ी आती है, जब वे पा लेते हैं, लेकिन अब फिर वे रुक नहीं सकते। तुम इसे बखूबी जानते हो कि यदि सारा दिन तुम सोचते ही जाओ, तो तुम रुक नहीं सकते।

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन घर लौटा कुछ करने और उसे न भूलने की बात सोच कर। उसने अपने कपड़ों में एक गांठ लगा दी जिससे कि उसे याद रहे। फिर जब वह घर आया, वह बड़ा बेचैन था क्योंकि वह भूल चुका था। ’गाठ वहा मौजूद है, लेकिन किसलिए?’ उसने कोशिश की सोचने की। उसकी पत्नी ने बार—बार कहां, ‘ अब तुम सो जाओ और कल सुबह हम देख लेंगे।’ फिर भी वह कहने लगा, ‘नहीं, कोई बहुत ही जरूरी बात है। वह जरूरी थी और मैंने सोच लिया था कि उसे आज रात ही करना है। किसी भी कीमत पर मैं उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता, इसलिए तुम सो जाओ।’ आधी रात जब घड़ी ने दो का घंटा बजाया, तो उसे याद आया। उसने तय किया था कि जल्दी सो जाना है। यही बात याद दिलाने के लिए थी वह गांठ।

यही कुछ घट रहा है सभी महत्वाकांक्षी लोगों को। वे इतनी ज्यादा इच्छाएं बना लेते हैं कि जब तक वे लक्ष्य प्राप्त करते हैं, तब तक वे बिलकुल भूल ही जाते हैं कि किस बात को पाना चाह रहे थे वे। पहली बात, वे इतनी सारी बातो की आकांक्षा कर ही किसलिए रहे थे? अब प्राप्ति हो गई है उन्हें और भूल गए हैं वे। यदि उन्हें यह भी याद रहा हो कि वे शांत हो जाना चाहते थे, विश्रांति पाना चाहते थे, तो उनके जीवन का सारा ढांचा—ढर्रा और सारी बद्धताएं उन्हें विश्रांति पाने न देंगे; उन्हें शांति से बैठने न देंगे और आनंदित होने न देंगे। जब तुम जीवन भर महत्वाकाक्षाओं सहित दौड़े होते हो, तो तुम आसानी से रुक नहीं सकते। दौड़ना तुम्हारा अस्तित्व ही बन जाता है। यदि तुम ठहरना चाहते हो, तो यही होती है घड़ी। इसके लिए कोई भविष्य नहीं, यही वर्तमान क्षण ही है।

आवश्यकताएं सीधी—सरल होती हैं। कोई आदमी बड़ा सरल, सादा जीवन जी सकता है और उससे आनंदित हो सकता है। खूब बढ़िया भोजन की जरूरत नहीं होती आनंदपूर्वक भोजन का स्वाद लेने के लिए, केवल एक बढ़िया जिह्वा की जरूरत होती है। जिस समय तुम बड़ा बढ़िया भोजन जुटा पाने के योग्य होओगे, तुम क्षमता ही खो चुके होओगे आनंदपूर्वक उसका स्वाद लेने की। आनंद मनाना उसका जब कि संवेदनशीलता का क्षण है। आनंद मनाना उसका जब कि तुम जीवित हो। उसे गंवाना मत और उसे स्थगित मत करना।

एक सीधा—सादा आदमी जीता है पल प्रतिपल, यह दिन अपने में पर्याप्त होता है, और आने वाला कल अपना खयाल अपने आप रख लेगा। जीसस फिर—फिर कहते हैं, ‘जरा बाग में लिली के फूलों को देखना, कितने सुंदर हैं! वे आनेवाले कल की फिक्र नहीं करते। सोलोमन भी अपनी सर्वाधिक महिमा—मंडित घड़ियों में इतना सुंदर न था जितने कि ये बाग के साधारण लिली के फूल!’

जरा इन पक्षियों की ओर तो देखो, वे आनंद मनाते हैं। इसी क्षण में सारा अस्तित्व उत्सव मना रहा है—सिवाय तुम्हारे।

आदमी के साथ मुश्किल क्या है? मुश्किल यह है कि वह सोचता है कि आनंदित होने के लिए पहले किन्हीं खास अवस्थाओं की पूर्ति आवश्यक है, यही है अड़चन। जीवन का आनंद मनाने के लिए वस्तुत: किन्हीं शर्तों को पूरा नहीं करना होता, वह तो एक बेशर्त निमंत्रण है। लेकिन आदमी सोचता है कि पहले तो खास शर्तें पूरी करनी हैं, केवल तभी वह जीवन का आनंद मना सकता है। यही होता है एक जटिल मन। सरल मन अनुभव करता है कि जो कुछ भी उपलब्ध है उससे ही आनंदित होना है। आनंदित होओ उससे। किन्हीं शर्तों की पूर्ति नहीं करनी है। और जितना ज्यादा तुम इस क्षण का आनंद मनाते हो, उतने ही ज्यादा तुम अगले क्षण का आनंद मनाने योग्य होते हो। क्षमता बढ़ती है; और— और ज्यादा होती जाती है वह, ऊंचे से ऊंचे चलती जाती है वह—वह अपरिसीम होती है। और जब तुम पहुंचते हो आनंद की अपरिसीमितता तक, वही तो है परमात्मा। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जो बैठा हुआ है कहीं पर और प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी। अब तक तो वह तुम्हारी प्रतीक्षा करते—करते ऊब चुका होगा। उसने तो आत्महत्या ही कर ली होगी यदि उसमें कुछ बुद्धि हो तो—तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए।

परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। वह कोई लक्ष्य नहीं, वह एक ढंग है यहीं और अभी जीवन का आनंद मनाने का। परमात्मा एक दृष्टि है अकारण ही आनंदमय होने की। तुम बिना किसी कारण ही दुखी होते हो, यह होता है जटिल मन।

मैंने देखा एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को एक धनी व्यक्ति के मरने पर उसके शव के पीछे जाते हुए। सारा शहर पीछे—पीछे आ रहा था और मुल्ला नसरुद्दीन चीख रहा था और रो रहा था बहुत बुरी तरह से। तो मैंने पूछा उससे, ‘बात क्या है नसरुद्दीन? क्या तुम इस धनपति के कोई रिश्तेदार थे?’ वह बोला, ‘नहीं—नहीं।’ ‘तो फिर तुम रो क्यों रहे हो?’ मैंने पूछा। वह बोला, ‘क्योंकि मैं उसका रिश्तेदार नहीं था, इसीलिए तो रोता हूं।’

लोग रो रहे होते हैं क्योंकि वे संबंधित होते हैं। लोग रो रहे होते हैं क्योंकि वे संबंधित नहीं होते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि तुम तो हर अवस्था में रोना ही चाहते हो। तुम अकारण ही दुखी हो। एक भी ऐसा आदमी मेरे देखने में नहीं आया है जिसके पास सचमुच ही दुखी होने का कोई कारण हो। तुम्हीं निर्मित कर लेते हो उसे, क्योंकि बिना किसी कारण दुखी होना तो पागलपन मालूम पड़ता है। तुम्हीं बना लेते हो कोई कारण। तुम विवेचन करते, तर्क बैठाते, तुम खोज लेते, तुम आविष्कार कर लेते, तुम बहुत बड़े आविष्कारक हो और जब तुमने खोज लिया होता है कारण या कि बना लिया होता है कारण, आविष्कार कर लिया होता है किसी कारण का, तब तुम निश्चित होते हो। अब कोई नहीं कह सकता कि तुम अकारण ही दुखी हो।

वस्तुत: स्थिति यह है किसी दुख का कोई कारण नहीं और किसो आनंद का कोई कारण नहीं। वह तो केवल तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर करता है। यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो, तो तुम हो सकते हो, स्थिति जो भी हो, स्थिति अप्रासंगिक होती है। प्रसन्न होना एक क्षमता है, किसी स्थिति के बावजूद तुम प्रसन्न हो सकते हो। लेकिन यदि तुमने तय ही कर ली हो दुखी होने की बात तो किसी भी स्थिति के बावजूद तुम दुखी हो सकते हो, स्थिति अप्रासंगिक होती है। यदि स्वर्ग में भी तुम्हें प्रवेश दिया जाए, तुम्हारा स्वागत किया जाए, तो तुम दुखी ही होओगे, तुम कोई न कोई कारण खोज ही लोगे।

एक बड़े रहस्यवादी, तिब्बती संत मारपा से पूछा गया, ‘क्या आपको पूरा यकीन है कि जब आप मरेंगे, तो आप स्वर्ग को जाएंगे?’ वह बोला, ‘सुनिश्चित ही।’ वह आदमी कहने लगा, ‘लेकिन आप इतने निश्चित कैसे हो सकते हैं? आप मरे नहीं हैं और आप नहीं जानते कि परमात्मा के मन में क्या है।’ मारपा कहने लगा, ‘मुझे परमात्मा के मन की चिंता नहीं, वह उनकी अपनी बात है। मैं निश्चित हूं तो अपने ही मन के कारण। जहां कहीं मैं रहूं मैं खुश रहूंगा और वही जगह स्वर्ग होगी। तो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है कि चाहे मुझे नरक में फेंक दो या कि स्वर्ग में। वह बात अप्रासंगिक है।’

एडोल्फ हिटलर के बारे में मैंने एक बहुत सुंदर घटना सुनी है। उसे अपने मित्रों द्वारा पता चला कि एक यहूदी स्त्री है बड़ी ज्योतिषी और भविष्य के बारे में जो कुछ भी बताती रही है, वह हमेशा सच हुआ है। हिटलर कुछ हिचक रहा था क्योंकि वह स्त्री तो यहूदी थी। लेकिन फिर यह बात उसके मन को घेरे रही, कई दिनों तक वह सो न सका: ‘यदि वह स्त्री सचमुच ही भविष्यवाणी कर सकती है, तब पूछने की बात सार्थक है, चाहे वह यहूदी ही हो।’ स्त्री को गुप्त रूप से बुलाया गया। हिटलर ने पूछा, ‘क्या तुम मुझे बता सकती हो कि कब मरूंगा मैं?’ उस स्त्री ने अपनी आंखें बंद कर लीं, ध्यानपूर्वक विचार किया और बोली, ‘यहूदी छुट्टी का दिन।’ हिटलर बोला, ‘मतलब क्या है तुम्हारा, कौन—सा छुट्टी का दिन?’ वह बोली, ‘वह बात अप्रासंगिक है। जब कभी मरेंगे आप, वह यहूदियों का छुट्टी का दिन होगा।’ मारपा ने कहां था, ‘यह बात अप्रासंगिक है कि परमात्मा के मन में क्या है। जहां कहीं मैं जाऊं, वहा स्वर्ग ही होगा—क्योंकि मैं जानता हूं, बिना किसी कारण मैं प्रसन्न हूं।’

एक सादगी से भरा व्यक्ति जान लेता है कि प्रसन्नता जीवन का स्वभाव है। प्रसन्न रहने के लिए किन्हीं कारणों की जरूरत नहीं होती है। बस, तुम प्रसन्न रह सकते हो केवल इसीलिए कि तुम जीवित हो! जीवन प्रसन्नता है, जीवन आनंद है, लेकिन ऐसा संभव होता है केवल एक सहज—सादे व्यक्ति के लिए ही। वह आदमी जो चीजें इकट्ठी करता रहता है, हमेशा सोचता है कि इन्हीं चीजों के कारण उसे प्रसन्नता मिलने वाली है। आलीशान भवन, धन, सुख—साधन; वह सोचता है कि इन्हीं चीजों के कारण वह प्रसन्न होने वाला है। समस्या धन—दौलत की नहीं है, समस्या है आदमी की दृष्टि की जो धन खोजने का प्रयास करती है। दृष्टि यह होती है जब तक मेरे पास ये तमाम चीजें नहीं हो जातीं, मैं प्रसन्न नहीं हो सकता। यह आदमी सदा दुखी रहेगा। एक सच्चा सादगीपसंद आदमी जान लेता है कि जीवन इतना सीधा—सरल है कि जो कुछ भी है उसके पास, उसी में वह खुश हो सकता है। इसे किसी दूसरी चीज के लिए स्थगित कर देने की उसे कोई जरूरत नहीं है।

तब सादगी का अर्थ होगा तुम्हारी आवश्यकताओं तक आ जाओ, इच्छाएं पागल होती हैं आवश्यकताएं स्वाभाविक होती हैं। भोजन, घर, प्रेम, तुम्हारी सारी जीवन—ऊर्जा को मात्र आवश्यकताओं के तल तक ले आओ, और तुम आनंदित होओगे। और एक आनंदित व्यक्ति धार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता, और एक अप्रसन्न व्यक्ति अधार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। हो सकता है वह प्रार्थना करे, हो सकता है वह मंदिर जाए, मस्जिद जाए—उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। एक अप्रसन्न व्यक्ति कैसे प्रार्थना कर सकता है? उसकी प्रार्थना में गहरी शिकायत होगी, दुर्भाव होगा। वह एक नाराजगी होगी। प्रार्थना तो एक अनुग्रह का भाव है, शिकायत नहीं।

केवल एक प्रसन्न व्यक्ति ही अनुगृहीत हो सकता है; उसका पूरा हृदय पुकारता है एक समग्र अहोभाव में, उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं, क्योंकि परमात्मा ने उसे इतना ज्यादा दिया है बिना उसके मांगे ही। और परमात्मा ने इतना ज्यादा दिया है—तुम्हें जीवन मात्र देकर ही। एक प्रसन्न व्यक्ति प्रसन्न होता है केवल इसलिए कि वह सांस ले सकता है। वही बहुत ज्यादा है। पल भर के लिए श्वास लेना मात्र ही पर्याप्त होता है, पर्याप्त से कहीं ज्यादा। जीवन तो इतना आशीषपूर्ण है—लेकिन एक अप्रसन्न व्यक्ति इसे समझ नहीं सकता।

इसलिए ध्यान रहे, जितने ज्यादा तुम कब्जा जमाने की वृत्ति में जुड़ते हो, उतने ही कम प्रसन्न होओगे तुम। जितने कम प्रसन्न होते हो तुम, उतने ही दूर तुम हो जाओगे परमात्मा से, प्रार्थना से, अनुग्रह के भाव से। सीधे—सहज होओ। आवश्यक बातों सहित जीओ और भूल जाओ आकांक्षाओं के बारे में, वे मन की कल्पनाएं हैं, झील की तरंगें हैं। वे केवल अशांत ही करती हैं तुम्हें; वे किसी संतोष की ओर तुम्हें नहीं ले जा सकती हैं।

‘…..सहज—संयम, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण……।’

ये सब अंतर्संबंधित हैं। यदि तुम सहज होते हो तो तुम स्वयं का निरिकक्षण कर पाओगे। एक जटिल आदमी स्वयं का निरीक्षण नहीं कर सकता है, क्योंकि वह इतना बंटा हुआ होता है। उसके पास चारों ओर बहुत सारी चीजें होती हैं, बहुत सारी इच्छाएं, बहुत सारे विचार और बहुत सारी समस्याएं उठ रही होती हैं इन इच्छाओं और विचारों में से। वह निरंतर एक भीड़ में रहता है। कठिन होता है स्वाध्याय को पाना। एक सहज रूप से संयमी आदमी केवल खाता है, सोता है, प्रेम करता है और बस इतना ही। उसके पास पर्याप्त समय रहता है और बची रहती है पर्याप्त ऊर्जा निरीक्षण करने को, होने मात्र को, मात्र बैठने को और देखने को, और वह प्रसन्न रहता है। उसने खूब ठीक से खाया होता है, भूख तृप्त हो जाती है। उसने खूब अच्छी तरह से प्रेम किया होता है, उसके अंतस की ज्यादा गहरी भूख तृप्त हो जाती है। अब क्या करना? वह बैठता है, देखता है अपनी ओर। बंद कर लेता है अपनी आंखें; अपनी अंतस—सत्ता को ध्यान से देखता है। कहीं कोई भीड़ नहीं, कुछ ज्यादा करने को नहीं। चीजें इतनी सीधी—सहज होती हैं कि वह आसानी से उन्हें कर सकता है। और सहज बातो की एक गुणवत्ता होती है कि उन्हें करते हुए भी तुम स्वयं का अध्ययन कर सकते हो। जटिल चीजें मन के लिए बहुत ज्यादा हो जाती हैं। मन बहुत ज्यादा उलझ जाता है और बंटा हुआ होता है। और स्वाध्याय असंभव हो जाता है।

पतंजलि जो अर्थ करते हैं स्वाध्याय का, वही अर्थ करते हैं गुरजिएफ स्व—स्मरण का, या जिसे बुद्ध कहते हैं सम्यक—बोध, या जिसे जीसस: कहते हैं ज्यादा सजग हो जाना, या कि जो अर्थ कृष्णमूर्ति का होता है, वे जब कहे चले जाते हैं ज्यादा सजग होने की बात। जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होता कुछ ज्यादा नहीं होता करने को, दिन भर की सहज बातें समाप्त हो गईं, तो कहां सरकेगी ऊर्जा? क्या होगा तुम्हारी ऊर्जा का?

बिलकुल अभी तो तुम उथले ही रहते हो सदा, तुम्हारी कमतर ऊर्जा में, क्योंकि ऊर्जा के लिए इतनी ज्यादा व्यस्तताएं बनी रहती हैं। ऊर्जा के लिए इतनी सारी जटिलताएं बनी रहती हैं। तुम्हारे पास पर्याप्त ऊर्जा का उमडाव कभी नहीं रहता और बिना किसी ऊर्जा के जागरूक होने की कोई संभावना नहीं होती क्योंकि जागरूकता ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूपांतरण है। वह तुम्हारी ऊर्जा का परम रूप है।

यदि तुम्हारे पास पर्याप्त परिपूर्ण ऊर्जा नहीं होती, तो तुम जागरूक नहीं हो सकते। सतही ऊर्जा के बिंदु पर, निम्न ऊर्जा—तल पर, तुम जागरूक नहीं हो सकते; परिपूर्ण ऊर्जा की आवश्यकता होती है। एक सहज आदमी के पास इतनी ज्यादा ऊर्जा बची रहती है कि क्या करेगा इस ऊर्जा का? जो कुछ किया जा सकता है वह सब किया जा चुका है; दिन की समाप्ति हुई। तुम शांत बैठे हुए होते हो; ऊर्जा सरकती है सूक्ष्मतम परतो तक—वह और— और ज्यादा ऊंचे जाती है, वह संचित होती है, वह एक शिखर बन जाती है, एक ऊर्जा—स्तंभ। अब तुम स्वयं का निरीक्षण करते हो। तुम्हारे विचारों, भावनाओं, अनुभूतियों के सब से अधिक सूक्ष्म तलों पर भी तुम ध्यान कर सकते हो।

‘…..: स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण…..:।’

जब कभी तुम ध्यान करते हो, तब तुम वहां होते ही नहीं हो, तब सहज संयम ले जाता है स्वाध्याय की ओर, स्वाध्याय ले जाता निरहंकारिता की ओर, क्योंकि तुम वहां होते नहीं। जितना ज्यादा तुम जानते हो स्वयं को, उतने कम तुम होते हो। केवल अज्ञानी व्यक्ति भरे रहते हैं अपने से। प्रज्ञावान होते ही नहीं। वे होते हैं एक शून्यता की भांति, वे होते हैं विशाल आकाश की भांति। यदि तुम प्रवेश करते हो बुद्ध में तो तुम कहीं नहीं पाओगे उन्हें। तुम अपरिसीम स्थान तो पाओगे, लेकिन वहां किसी को नहीं पाओगे। यदि तुम मुझमें प्रवेश करो तो तुम मुझे नहीं पाओगे—स्व शून्यता, एक विशाल आकाश, समग्र स्वतंत्रता मौजूद होती है तुम्हारे लिए। तुम मुझसे न मिलोगे, मैं वहां नहीं होता हूं। जब तुम भीतर ज्यादा और ज्यादा होश पा लेते हो, तो तुम कम और कम बने रहते हो। ऐसा सदा एक ही अनुपात में होता है जितने ज्यादा अजागरूक तुम होते हो, उतने ज्यादा तुम मौजूद होते हो। जितने ज्यादा तुम जागरूक होते हो, उतने ही कम तुम स्वयं बने रहते हो। जब तुम संपूर्णतया जागरूक हो जाते हो, तब तुम बचते ही नहीं। संपूर्ण ऊर्जा एक जागरूकता बन गयी होती है, अहंकार के लिए कुछ बचता ही नहीं। और फिर अहंकार छूटता है, जैसे कि सांप सरक जाता है केंचुली के बाहर। अब वह वहां पड़ी हुई एक मृत चमड़ी होती है। कोई भी उसे उठा सकता है। तब घटता है परमात्मा के प्रति समर्पण। तुम नहीं कर सकते परमात्मा के प्रति समर्पण, क्योंकि तुम्हीं होते हो अड़चन।

लोग मेरे पास आते हैं, और वे कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं समर्पण करना।’ वैसा संभव नहीं। कैसे कर सकते हो तुम समर्पण? ‘तुम’ ही हो गैर—समर्पण। जब तुम नहीं होते, तब समर्पण होता है। जब तुम समाप्त होते हो—समर्पण घटता है। तो जरा ध्यान में रख लेना इसे तुम नहीं कर सकते समर्पण। यह तुम्हारी ओर से किया गया कोई प्रयास नहीं हो सकता है—वह बात असंभव होती है।

तुम केवल एक बात कर सकते हो, जिसे पतंजलि कह रहे हैं आडंबरहीन बनी, सहज—सरल हो जाओ। इतनी ज्यादा ऊर्जा बचती है तब, जो कि सहज ही, स्वयं ही एक जागरूकता बन जाती है और जागरूकता के मौजूद होते ही तुम मौजूद नहीं रहते। अचानक तुम पाते हो कि समर्पण घट गया। अचानक, तुम्हारे अपनी ओर से बिना कुछ किए ही: तुम ने नहीं किया होता है कुछ और समर्पण घटित हो जाता है। परमात्मा के प्रति समर्पण करना तुम्हारे भीतर की गैर—अहंकार की अवस्था है। यदि प्रयास होता है तो वह समर्पण नहीं होता है।

समर्पण एक बोध है। जब तुम जागरूक होते हो और बोध की ज्योति—शिखा ऊंची प्रज्वलित हो रही होती है, अचानक तुम जान लेते हो कि अंधकार वहां नहीं है। तुम समर्पित हो गए हो। वह एक उदघटित घटना होती है—एक बोध। अचानक तुम हैरान हो जाते हो! तुम अनुपस्थित हो और परमात्मा मौजूद है। तुम्हारी अनुपस्थिति में परमात्मा है, तुम्हारी उपस्थिति में केवल दुख मौजूद होता है। तुम्हारी उपस्थिति से कुछ संभव नहीं होता, तुम्हारी अनुपस्थिति में सारी अपरिसीमितता संभव हो जाती है। ये अंतर्संबंधित बातें होती हैं : सहज—संयम, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण।

क्रियायोग का अभ्यास क्लेश को घटा देता है और समाधि की ओर ले जाता है।

ये तीन चरण दुख घटाते हैं और तुम्हें समाधि की ओर ले जाते हैं, परम की ओर, जिसके बाद कोई चीज अस्तित्व नहीं रखती है। जब तुम परमात्मा के प्रति समर्पित होते हो, परमात्मा हो जाते हो; वही होती है समाधि।

दुख उत्पन्न होने के कारण हैं : जागरूकता की कमी अहंकार मोह घृणा जीवन से चिपके रहना और मृत्यु— भय।

वस्तुत: केवल अहंकार ही होता है कारण। बाकी सब बातें जो पीछे—पीछे आती हैं, वे तो मात्र परछाइयां होती हैं अहंकार की। आत्म—जागरूकता की कमी अहंकार है। तुम अनुभव करते हो कि तुम हो। क्योंकि तुम जानते नहीं। तुम अंधकार में होते हो। तुम स्वयं से कभी मिले ही नहीं; और तुम सोचते हो कि ‘तुम हो।’ यह बात सब प्रकार के दुख निर्मित करती है।

‘……अहंकार, उन चीजों के प्रति आकर्षण है जो व्यर्थ होती हैं, द्वेष, घृणा—जो कि मोह का, आकर्षण का दूसरा छोर है—जीवन से चिपकना और मृत्यु— भय।’

तुम जीवन से चिपकते हो क्योंकि तुम जानते नहीं कि जीवन क्या है। यदि तुम जानते, तो कोई चिपकना होता ही नहीं; क्योंकि जीवन शाश्वत है—क्यों चिपकना? वह चलता जा रहा है और वह कभी ठहर सकता नहीं। तुम चिपकते जाकर अनावश्यक रूप से स्वयं को तकलीफ देते हो। यह ऐसे है जैसे कि एक नदी बह रही होती है और तुम नदी को धकेल रहे होते हो समुद्र की ओर—जब कि वह बह रही होती है अपने से ही। तुम्हें धकेलने की जरा भी जरूरत नहीं। तुम बेकार ही स्वयं के लिए दुख खड़ा कर लोगे। तुम सोचोगे कि तुम एक बहादुर शहीद हो क्योंकि तुम धकेल रहे हो नदी को और ले जा रहे हो उसे सागर की ओर!

नदी तो बह रही है, अपने से ही; गड़बड़ मत करो, तुम्हें ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं। यदि तुम सागर तक पहुंचना चाहते हो, तो तुम बस एक हिस्सा बन जाओ नदी का और नदी तुम्हें ले चलेगी। लेकिन मदद मत करना नदी की, वही तो करते रहे हो तुम।

जीवन तो अपने से ही बह रहा है; किसी चीज की जरूरत नहीं। पैदा होने के लिए तुमने क्या किया? यहां होने के लिए तुमने क्या किया? जीवित रहने के लिए तुमने क्या किया? क्या ऐसी कोई चीज है जो तुमने की है? यदि नहीं तो फिर क्यों करनी फिक्र? जीवन तो अपने से ही चलता जाता है। मूढ़ लोग दुख निर्मित कर लेते हैं, अवस्था ऐसी ही है।

मैंने सुना है एक बार एक समृद्ध व्यक्ति, एक बड़ा राजा कहीं जा रहा था अपने रथ में बैठकर। उसने देखा एक गरीब ग्रामीण, एक बूढ़ा आदमी सड़क के किनारे जा रहा था सिर पर एक बड़ा बोझ उठाए हुए, और बोझ बहुत ज्यादा था। राजा को दया आ गई। वह कहने लगा, ‘तुम आओ, के बाबा, रथ में मेरे साथ बैठो। जहां कहीं तुम चाहते हो मैं तुम्हें वहां छोड़ दूंगा।’ का आदमी रथ में आ गया, लेकिन अपना बोझ अभी भी सिर पर लिए हुए था। राजा बोला, ‘क्या तुम पागल हुए हो? तुम अपना बोझ नीचे क्यों नहीं रख देते?’ वह आदमी बोला, ‘मैं रथ में हूं और यही बहुत ज्यादा बोझ है रथ के लिए और घोड़ों के लिए। मेरा बोझ ही बहुत ज्यादा होगा। धन्यवाद महाराज, अब यह बोझ तो मुझे ही उठाने दो। यह तो बहुत ज्यादा होगा घोड़ों के लिए और रथ के लिए।’

चाहे तुम अपना बोझ अपने सिर पर उठाओ या कि तुम उसे रख दो रथ में, घोड़ों के लिए सब बराबर होता है, उन्हें सब कुछ लिए चलना होता है।

जीवन स्वयं ही चल रहा है, तुम अपने बोझ क्यों नहीं छोड़ देते जीवन पर? बल्कि तुम तो चिपके रहते हो। और जब तुम चिपके रहते हो जीवन से तो मृत्यु— भय उठ खड़ा होता है। वरना तो कोई मृत्यु नहीं और भय नहीं।

जीवन अनंत है। कोई मरता नहीं है कभी; कोई मर नहीं सकता है कभी। जो कुछ अस्तित्व में रहता है वह अस्तित्व रखेगा, वह सदा रहा ही है अस्तित्व में, वह जा नहीं सकता है अस्तित्व के बाहर। कोई चीज जा नहीं सकती है अस्तित्व के बाहर, कुछ बाहर नहीं जा सकता, कुछ भीतर नहीं आ सकता। अस्तित्व समग्र होता है। हर चीज बनी रहती है— भाव—दशाएं बदलती, आकार बदलते, नाम बदलते। यही है जिसे हिंदू कहते हैं—’नामरूप’। रूपाकार और नाम बदल जाते हैं, वरना तो हर कोई बना रहता है, हर चीज बनी रहती है। तुम यहां आए हो लाखों बार, तुम यहां होओगे लाखों बार, तुम यहां रहोगे सदा ही। जीवन है सदा के लिए। निस्संदेह तुम्हारा नाम यही नहीं होगा। तुम्हारा यही चेहरा फिर नहीं हो सकता। शायद फिर तुम्हारे पास पुरुष या स्त्री की देह न हो, लेकिन उससे कुछ लेना—देना नहीं है, वह बात अप्रासंगिक है। तुम यहां होओगे जैसे कि लहरें होतीं समुद्र में—वे आती और जातीं, वे जातीं और आती। रूप बदलते, लेकिन उसी सागर में लहरें उठती—उमड़ती रहतीं।

दुख उत्पन्न होने के कारण हैं जागरूकता का अभाव अहंकार मोह घृणा जीवन से चिपके रहना और मृत्यु— भय।

चाहे वे प्रसुप्तता की क्षीणता की प्रत्यावर्तन की या फैलाव की अवस्थाओं में हो दुख के दूसरे सभी कारण क्रियान्वित होते हैं जागरूकता के अभाव द्वारा ही।

दुख के कारणों के बहुत से रूप हो सकते हैं; वे बीजों के रूप में हो सकते हैं। तुम अपना दुख उठाए चल सकते हो बीज के रूप में। वह प्रसुप्त हो सकता है, तुम्हें इसका होश न हो, लेकिन किसी एक खास स्थिति में, यदि भूमि ठीक होती है और बीज पानी और धूप पा सकता है, तो वह प्रस्फुटित हो जाएगा। तो कई बार वर्षों तक तुम अनुभव करते कि तुम्हें कोई लालच नहीं और अचानक एक दिन जब ठीक अवसर आ बनता है, तो लालच मौजूद हो जाता है। तब बीज बहुत ही क्षीण रूप में होते हैं, जिनका कि तुम्हें कुछ पता ही नहीं होता, इतने क्षीण कि जब तक तुम स्वयं के भीतर गहराई से नहीं खोजते, तुम नहीं जान पाओगे कि वे वहा हैं। या वे होते होंगे प्रत्यावर्तित रूप में कई बार तुम सुख अनुभव करते हो और कई बार तुम दुख अनुभव करते हो।

प्रेम में तुम सुख अनुभव करते हो, घृणा में तुम दुख अनुभव करते हो; लेकिन प्रेम और घृणा एक ही ऊर्जा की बारी—बारी से चली आने वाली दो घटनाएं हैं। कई बार वे होंगी उनके अपने संपूर्ण रूप में जब तुम उदास—निराश होते हो, इतने ज्यादा निराश कि तुम आत्महत्या कर लेना चाहते हो; या कई बार तुम इतने खुश होते हो कि तुम खुशी के मारे पागल होने जैसा अनुभव करते हो। इन सारे रूपों पर ध्यान करना होता है—क्योंकि पतंजलि कहते हैं, ‘ये सारे रूप अस्तित्व रखते हैं अजागरूक होने से; तुम जागरूक नहीं होते।’

पहले तो होश रखो सतही घटना का: लोभ, क्रोध, घृणा, फिर और गहरे जाओ, और तुम अनुभव कर पाओगे बार—बार दोहरायी जाने वाली घटना को। दोनों जुड़ी होती हैं। जरा और गहरे जाओ, ज्यादा सचेत होओ, और तुम अनुभव करोगे बहुत क्षीण घटना तुम्हारे भीतर है, छाया की भांति है, लेकिन तो भी किसी भी समय वह ठोस रूप पा सकती है। तो ऐसा घटता है एक धार्मिक आदमी के साथ—कि एक सुंदर स्त्री आती है और सारी पावनता तिरोहित हो जाती है; एक क्षण में ही। वह वहां थी क्षीण रूप में। या वह मौजूद रह सकती है बीज के रूप में। बीज रूप को जान लेना सबसे ज्यादा मुश्किल बात है क्योंकि वह प्रस्फुटित नहीं हुआ होता। इसके लिए चाहिए पूरा होश।

और पतंजलि की तो संपूर्ण विधि ही है जागरूकता की : ज्यादा और ज्यादा जागरूक हो जाओ। तुम ज्यादा जागरूक हो जाओगे यदि तुम सहज—संयमी हो जाते हो, सहज—सरल हो जाते हो। तुम ज्यादा होश पा जाओगे और स्व—स्मरण संभव हो जाएगा। और स्व—स्मरण से अहं गिर जाता है और व्यक्ति समर्पित अनुभव करता है और समर्पित होना सम्यक मार्ग पर होना है।

 

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(ओशो) प्रवचन–3

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ध्यान: एक अकथ कहानी—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 जून 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

झेन संत, होजेन अपने शिष्यों से कहा करते थे, कि ध्यान उस आदमी की तरह है,

जो एक ऊंची चट्टान के किनारे खड़े वृक्ष को दांत से पकड़कर लटक रहा है।

न उसके हाथ किसी डाली को थामे हैं, और न उसके पांवों को ही कोई सहारा है।

और तभी चट्टान के किनारे खड़ा दूसरा आदमी उससे पूछता है,

‘बोधिधर्म भारत से चीन क्यों आये?’

यदि वह उत्तर नहीं देता है तो वह खो जायेगा और

अगर उत्तर देता है तो वह मर जायेगा।

वह क्या करे?

और भगवान! क्या ध्यान ऐसी असंभव साधना है

कि उपनिषद उसको छुरे की धार पर चलना कहते हैं?

ध्यान की साधना तो कठिन है, लेकिन असंभव नहीं; पर ध्यान की अभिव्यक्ति असंभव है। ध्यान करना आसान है। ध्यान क्या है, यह बताना अति कठिन है; करीब-करीब असंभव। क्योंकि ध्यान इतनी भीतरी अनुभूति है, शब्द उसे प्रगट नहीं कर पाते। और जो भी शब्दों में उसे प्रगट करने की कोशिश करता है, वह अनुभव करता है कि जो कहना चाहता था, वह नहीं कहा गया। जो नहीं कहना था, वह शब्दों से प्रगट हो गया। जो कहना था वह भीतर छूट गया। खाली कोरे शब्द चले गए–मुर्दा! निष्प्राण!

ध्यान कर लेना इतना कठिन नहीं, लेकिन ध्यान से जो जाना जाता है वह उसे बता देना, जिसने कभी ध्यान न किया हो; करीब-करीब असंभव है।

यह कहानी ध्यान की कठिनाई के संबंध में नहीं है, यह कहानी ध्यान को बताने के संबंध में है।

कहानी बड़ी प्रीतिकर है। एक आदमी लटका है एक वृक्ष के पत्तों को मुंह से पकड़े हुए। मुंह ही एकमात्र सहारा है; उसी से वह वह वृक्ष से लटका है। नीचे भयंकर खड्ड है। बोला, कि गया! और वहां उससे कोई पूछता है कि बोधिधर्म भारत से चीन क्यों आया?

पहले तो इस सवाल को समझ लें कि झेन परंपरा का यह पारिभाषिक सवाल है। कोई चौदह सौ वर्ष पहले एक बहुत अनूठा आदमी भारत से चीन गया। उस अनूठे आदमी का नाम था बोधिधर्म। भारत से जो लोग बाहर गये हैं, इससे ज्यादा अनूठा आदमी कभी भारत के बाहर नहीं गया।

बोधिधर्म चीन क्यों गया?

झेन फकीर इस सवाल को पूछते हैं। यह एक पहेली है। बोधिधर्म भारत से चीन गया, बड़े गहन कारण थे उसके। उसके पास कोई संपदा थी, जो वह किसी को देना चाहता था; लेकिन लेने वाला आदमी न मिला। मजबूरी में उसे चीन जाना पड़ा खोजने, इस आशा में कि शायद कोई चीन में मिल जाये।

संपदा सभी को तो नहीं दी जा सकती। हीरे उन्हीं को दिये जा सकते हैं जो पारखी हों; अन्यथा हीरे फेंक दिए जायेंगे, खो जायेंगे। क्योंकि जो नहीं जानते उनके लिए तो हीरा पत्थर है; उनके लिए हीरा खिलवाड़ हो जायेगा और खोने में ज्यादा देर न लगेगी।

ध्यान की जो संपदा है, वह तो अदृश्य है; उसके पारखी खोजना तो बहुत मुश्किल है। और जो उसे लेने को तैयार न हों उन्हें देने का कोई उपाय नहीं है। अभी जिनके हृदय के द्वार बिलकुल खुले हों, केवल वे ही उस संपदा को संभाल पाएंगे।

तो बोधिधर्म दरवाजे खटखटाता था अनेक लोगों के लेकिन पाया उसने कि कोई आदमी खोजना मुश्किल है। आखिर भारत जैसे देश में, जहां ध्यान की इतनी लंबी परंपरा है, कि इतनी लंबी परंपरा संसार में कहीं भी नहीं; वहां बोधिधर्म को एक आदमी न मिला, जिसको वह ध्यान की संपदा दे देता? इसलिए प्रश्न पूछने जैसा है कि बोधिधर्म चीन क्यों गया?

लेकिन उसके पीछे कारण हैं। इसी कारण कि भारत के पास ध्यान की बड़ी पुरानी संपदा है, भारत ने उसे खो दिया। कुछ संपदाएं ऐसी हैं कि उन्हें अगर रोज नया न किया जाये, तो वे खो जाती हैं। कुछ संपदाएं ऐसी हैं कि अगर पुरानी हो जायें, सड़ जाती हैं। कुछ संपदाएं ऐसी हैं कि अगर आप आश्वस्त हो जायें कि वे आपके हाथ में हैं, तो आपके हाथ रिक्त हो जाते हैं।

भारत की ध्यान की परंपरा अति प्राचीन है। इतिहास के पार जाती है यात्रा; प्रागैतिहासिक है। मोहनजोदड़ो, हरप्पा जैसे पुराने अवशेष, वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई सात हजार वर्ष पुराने हैं। वहां भी मूर्तियां मिली हैं, जो ध्यानस्थ हैं। सात हजार साल पहले भी हरप्पा और खजुराहो में कोई न कोई ध्यान कर रहा था।

फिर बोधिधर्म को भारत में कोई मिल क्यों न सका ग्राहक, खरीददार? परंपरा इतनी पुरानी हो गई, और शब्द इतने रटे-रटाये हो गए, और शास्त्र इतने कंठस्थ हो गए, कि लोग ध्यान के संबंध में तो जानने लगे, ध्यान को भूल गए। और ध्यान के संबंध में जानना एक बात, ध्यान को जानना बिलकुल दूसरी बात।

प्रेम के संबंध में जानना एक बात, और प्रेम को जानना बिलकुल दूसरी बात। आप पंडित भी हो सकते हैं, प्रेम के संबंध में सारा शास्त्र पढ़ डालें। प्रेम पर शोधकार्य भी कर सकते हैं। कोई विश्वविद्यालय आपको डी. लिट. की डिग्री भी दे दे, लेकिन प्रेम करना बात और है; क्योंकि प्रेम करने में तो मिटना होता है। प्रेम तो बड़ी खतरनाक यात्रा है। वहां तो अहंकार समाप्त होता है। वहां तो बूंद खोती है सागर में।

प्रेम तो इस जगत में असंभव जैसी घटना है क्योंकि वहां आप कम महत्वपूर्ण और दूसरा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। वहां आपकी आत्मा जैसे दूसरे में समा जाती है। जैसे उसका जीवन आपका जीवन, उसकी मृत्यु आपकी मृत्यु हो जाती है। यह असंभव घटना है। दूसरे का साधन की तरह उपयोग नहीं, साध्य की तरह उपयोग–असंभव है। तो प्रेम तो बहुत कठिन है। प्रेम के संबंध में जानना बहुत आसान है। शास्त्र खरीदे जा सकते हैं। सिद्धांत कंठस्थ हो सकते हैं।

ध्यान के संबंध में भारत को इतनी बातें पता चल गईं कि लोगों ने समझा कि अब ध्यान करने की कोई जरूरत नहीं; सब मालूम है। और जब सब मालूम ही है तो अब और खोज करने को क्या रहा? बुद्ध-महावीर खो गए, बुद्ध और महावीर की वाणी हाथ में रह गई।

बोधिधर्म भटकता रहा। पंडित उसे मिले जो बड़े जानकार थे। शास्त्र जिनकी जीभ पर रखा था। सरस्वती के जो वरद-पुत्र थे और गणित में उनका कोई मुकाबला न था। तर्क उनसे करें तो हार के सिवाय आपको कुछ भी न मिलेगा। लेकिन वे आंखें न मिलीं, जो ध्यानस्थ हों। वह हृदय न मिला, जो ध्यान से भरा हो। वह व्यक्तित्व न मिला, जो ध्यान की समाधिस्थ अवस्था में हो; जिसको संपदा बोधिधर्म दे दे। पंडित मिले बहुत, आचार्य मिले बहुत, जानकार मिले बहुत, अनुभवी न मिला।

झेन फकीर पूछते हैं कि बोधिधर्म चीन क्यों गया? भारत में आदमी न मिला ध्यान करनेवाला, तो चीन जाना पड़ा?

यह प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है। क्योंकि बोधिधर्म के जाने के साथ ही भारत का अध्यात्म तिरोहित हो गया। बोधिधर्म का जाना इस बात का सूचक था कि अध्याय समाप्त हुआ। अब यहां रूखे-सूखे लोग हैं, उनमें हरियाली खो गई। अब यहां निष्प्राण कबें्र हैं। अब उनमें मंदिर का खोजना मुश्किल है। बोधिधर्म का भारत के बाहर जाना किसी ध्यानी व्यक्ति की तलाश में…भारत की गरिमा जैसे अस्त हो गई! भारत से सूर्य जैसे विदा हो गया!

लेकिन बोधिधर्म चीन ही क्यों गया? बड़ी दुनिया थी, कहीं भी जा सकता था। आखिर चीन क्यों चुना? इसलिए प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है।

भारत क्यों छोड़ा?

भारत इसलिए छोड़ा कि कोई ध्यानी न मिला, जिसको संपदा दे दे।

चीन क्यों गया?

चीन में थोड़ी आशा थी, क्योंकि भारत में अगर बुद्ध पैदा हुए तो चीन में लाओत्से पैदा हुआ। दोनों करीब-करीब एक ही समय में पैदा हुए। जब भारत में बुद्ध थे, तब चीन में लाओत्से था। और बुद्ध ने तो थोड़ा-बहुत शब्दों का भी उपयोग किया, लाओत्से ने शब्दों का बिलकुल उपयोग नहीं किया। और भारत तो पांडित्य से भर गया, लेकिन लाओत्से की जीवनधारा अभी भी बह रही थी, जो अभी पांडित्य से नहीं भरी थी। क्योंकि लाओत्से का पूरा-पूरा जोर पांडित्य के विपरीत था, जानकारी के विरोध में था, सूचनाओं से कोई सार नहीं।

लाओत्से का बुद्धत्व बुद्ध से भी ज्यादा शब्द-शून्य है।

तो जहां लाओत्से की हवा थी, सोचा बोधिधर्म ने कि शायद वहां कोई व्यक्ति मिल जाये। और अगर लाओत्से और बुद्ध का मिलन हो जाये तो जो धारा पैदा होगी, वह सदियों तक बहेगी। यह एक ‘क्रास ब्रीडिंग’ का बड़ा गहरा प्रयोग था। हम पश्चिम से सांड़ को खरीदकर लाते हैं; भारतीय गाय, पश्चिम का सांड़–तो जो बच्चे पैदा होंगे वे सबल होंगे, सक्षम होंगे, ज्यादा दूध देनेवाले होंगे।

जो हम सांड़ के साथ करते हैं, वह बोधिधर्म ने ध्यान के साथ किया। यहां बुद्ध की धारा थी, महावीरों की धारा थी, उपनिषदों की धारा थी। एक बड़ी गहरी क्रांतिकारी खोज थी लेकिन उसको संभालनेवाला नहीं मिल रहा था। संपदा इतनी बड़ी थी, कि उतना बड़ा हृदय नहीं मिल रहा था। शायद लाओत्से की धारा में कोई जिंदा हो! और अगर इन दोनों का मिलन हो जाये तो एक ऐसा नया जीवन-प्रयोग होगा कि शायद बहुत जी सके। और बोधिधर्म सही साबित हुआ।

झेन वह परंपरा है, जो बुद्ध और लाओत्से के मिलने से पैदा हुई। तो झेन न तो बौद्ध है, और न ताओवादी है, झेन दोनों का मिलन है। इसलिए झेन में जो मधुरिमा है, वह न बुद्ध की धारा में है, न लाओत्से की धारा में है। जब भी दो भिन्न धाराएं मिलती हैं तो जिस बच्चे का जन्म होता है, वह अनूठा होता है। जितने दूर की धाराएं हों, उतनी ही अद्वितीय संतति पैदा होती है।

इसलिए हम भाई-बहन को शादी नहीं करने देते क्योंकि भाई-बहन इतने करीब हैं, बच्चा बहुत अच्छा नहीं हो सकता। तनाव नहीं होगा। और जब तनाव नहीं होगा तो जीवन क्षीण होगा। अगर भाई-बहन विवाह करें तो बच्चे की उम्र ज्यादा नहीं होती। बच्चा जल्दी मर जायेगा। और बच्चे में प्रतिभा भी नहीं होगी, क्योंकि प्रतिभा के लिए बड़ी दूर की धाराओं का मिलन चाहिए। तब एक नयी चीज की उत्पत्ति होती है। भाई-बहन इतने एक जैसे हैं कि उन्हीं जैसा एक बच्चा पैदा होगा; अद्वितीय नहीं होगा, बेजोड़ नहीं होगा। इसलिए सारी दुनिया में भाई-बहन की शादी को हम रोकते हैं। संबंधियों की शादी को रोकते हैं–जितना दूर का हो…।

अगर यह तर्क ठीक से समझा जाये; और इससे जीवन-शास्त्री राजी हैं कि तर्क ठीक है। तो इसका मतलब यह हुआ कि जहां तब बन सके न केवल जाति, न केवल परिवार की निकटता को रोकना चाहिए बल्कि खून, रंग, भाषा जितनी दूर की हो, जितनी अंतर्राष्ट्रीय शादी हो, उतना बच्चा ज्यादा सप्राण पैदा होगा। और जब दूर-दूर की धाराएं मिलती हैं तब ऐसे बच्चे पैदा होते हैं…!

ऐसा और भी दफा हुआ है। बुद्ध और लाओत्से के मिलन से झेन पैदा हुआ। इस्लाम और हिंदुओं के मिलन से सूफी चिंतना पैदा हुई। ईसाइयत और यहूदियों के मिलन से हसीद पैदा हुए। और ये तीनों धाराएं सबसे ज्यादा जीवंत धाराएं हैं। इस समय पृथ्वी पर जो सबसे ज्यादा मूल्यवान है, वह यह इन तीन धाराओं में हैं–होना भी चाहिए। बुद्ध जैसा पिता और लाओत्से जैसी मां; या लाओत्से जैसा पिता और बुद्ध जैसी मां मिल सके तो जो संतति पैदा होगी, वह अप्रतिम होगी।

क्यों गया बोधिधर्म भारत से चीन?

बोधिधर्म बुद्ध जैसा था। बुद्ध भी मिल जाते तो बोधिधर्म को ठीक अपने जैसा पाते; पाते कि जैसे दर्पण में देख रहे हैं अपने को। वह लाओत्से की तलाश में गया और चीन में उसने खोज की; और आदमी खोज लिया, जिसके हृदय में यह अपने हृदय को उंड़ेल सका।

इस पर एक बड़ी जिम्मेवारी थी। महाकाश्यप को जो बुद्ध ने दिया था और महाकाश्यप के बाद जो अलग-अलग गुरुओं को सक्सेशन में मिला था, परंपरा से मिला था, वह बोधिधर्म के पास था।

ऐसा कठिन सवाल पूछ रहा है एक आदमी उससे, जो मुंह के बल लटका हुआ है खाई के ऊपर, वह उससे पूछ रहा है कि बोधिधर्म भारत से चीन क्यों गया?

कथा कहती है कि अगर यह आदमी बोले, तो मरे। क्योंकि वाणी निकली, कि इसकी जो पकड़ है वृक्ष से, वह छूट जायेगी। बोला कि मरा। न बोले तो भटक जाये; न बोले तो भटक जाये इसलिए, कि जिसके पास भी ध्यान की संपदा हो, वह अगर देने से इंकार करे तो वह संपदा खो जाये। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

इस जगत में दो तरह की संपदाएं हैं; एक तो अगर आप दें, तो खो जाती है। धन है आपके पास; अगर आप दें तो खो जायेगा। अगर बचाना है तो अपना तो देना ही मत; दूसरे का छीनना। ऐसी संपदा जो देने से खो जाती है और छीनने से बढ़ती है, उसको ही हमने पाप कहा है। और एक और संपदा है पुण्य की, जिसका नियम इसके ठीक विपरीत है। अगर रोको, मर जाती है; दे दो, बच जाती है। जितना बांटो उतना बढ़ती है, जितना बचाओ उतना सड़ती है। बाहर की संपदा छीननी पड़ती है, शोषण करना पड़ता है; भीतर की संपदा का दान करना पड़ता है। भीतर और बाहर के नियम बिलकुल अलग हैं।

यह कहानी कहती है कि अगर वह आदमी न बोले तो खो जाये। क्योंकि कोई पूछ रहा है, ध्यान क्या है? कोई पूछ रहा है, बोधिधर्म भारत से चीन क्यों गया? वह यही पूछ रहा है कि ध्यान क्या है? यह बुद्ध और लाओत्से का मिलन क्या है? इस मिलन से जो जन्म हुआ, वह क्या है? वह रहस्य क्या है? यह आदमी जानता है उस रहस्य को। बोले तो पकड़ छूटती है और खो जायेगा। न बोले तो भटक जायेगा। यह आदमी क्या करे?

यह झेन पहेली है। साधक को दी जाती है कि वह उस पर ध्यान करे, और पता लगाकर लाए कि वह आदमी क्या करे?

तुम मुश्किल में पड़ोगे, क्योंकि इसमें दोनों तरफ उपाय नहीं दिखते। बोला, तो मर जायेगा; शायद बोल भी नहीं पाएगा और मर जायेगा। क्योंकि जैसे ही पहला शब्द निकलेगा कि पकड़ छूट जायेगी, वह खाई में गिर जायेगा। शायद पूरी बात कह भी नहीं पाएगा इस आदमी से। न बोले तो भटक जायेगा। और दो ही उपाय दिखते हैं। बुद्धि की समझ में नहीं आता, अब और क्या किया जा सकता है!

तो झेन गुरु अपने साधकों को कहता है बैठो, इस पर ध्यान करो कि यह आदमी क्या करे? समझो कि तुम लटके हो; तुम क्या करोगे? भूल जाओ कहानी को। तुम ही इस स्थिति में हो, क्या तुम्हारा उत्तर होगा? क्या तुम्हारा प्रत्युत्तर होगा? बोलोगे या चुप रहोगे?

बुद्धि के साथ मजा है; कि बुद्धि के पास सदा दो विकल्प होते हैं, तीसरा नहीं होता। बुद्धि द्वंद्वात्मक है। उसका द्वंद्व है–हां और ना बस दो ही उत्तर होते हैं। और दोनों उत्तर पहले से ही बंद हैं। एक उत्तर दोगे तो खो जाओगे, दूसरा उत्तर दोगे तो भी खो जाओगे; और तीसरा उत्तर बुद्धि के पास नहीं है। अगर तुम इस पर सोचोगे-सोचोगे-सोचोगे…तो एक ऐसी घड़ी आएगी जब तीसरे उत्तर का जन्म होगा। वह बुद्धि से नहीं आएगा क्योंकि बुद्धि के पास तीसरा होता ही नहीं; उसके पास हमेशा दो होते हैं। एक दूसरे के विपरीत होते हैं। और तीसरा बिलकुल भिन्न है, गुणात्मक रूप से भिन्न है।

ऐसा हुआ, बोकूजू के एक शिष्य को उसने यह कहानी दी और कहा, इस पर ध्यान कर। उसने कई तरकीबें खोजीं क्योंकि ये दो तो उपाय थे नहीं। तो उसने कहा कि वह कुछ हाथ से इशारा करे। बुद्धि ने कुछ रास्ता खोजने की कोशिश की कि हाथ से कुछ इशारा करके बताये। तो बोकूजू ने कहा, जो शब्दों से कहना मुश्किल है, क्या हाथ के इशारे से कहा जा सकेगा? क्या उपाय है, कहकर बताओ। बोधिधर्म क्यों आया चीन, इसको हाथ के इशारे से कहकर बताओ।

यह कोई पानी पीना तो नहीं है कि तुम हाथ के इशारे से बता दो कि पानी पीना है, कि भूख लगी है। शरीर के संबंध में थोड़ी सूचनाएं हाथ के इशारे से दी जा सकती हैं क्योंकि दूसरे को भी उनकी अनुभूतियां हैं। दूसरे को भी प्यास लगी है कभी, तो तुम जब हाथ की अंजुली बनाकर इशारा करते हो, वह समझ जाता है कि प्यास लगी है। दूसरे को भी भूख लगी है तो तुम, जब हाथ की मुट्ठी बांधकर मुंह की तरफ इशारा करते हो तो वह समझ जाता है। इशारा काम का है, अगर दूसरे का भी अनुभव वैसा ही हो, जैसा तुम्हारा।

लेकिन अगर दूसरे को पता ही होता कि बोधिधर्म क्यों चीन आया, तो तुमसे पूछता क्यों?

ध्यान के संबंध में कुछ भी तो कहना मुश्किल है क्योंकि दूसरे का कोई भी अनुभव नहीं है; इसलिए भाषा असमर्थ है। अगर मैं कहूं प्रेम, तुम थोड़ा-बहुत समझ जाते हो। मैं कहूं वृक्ष, तुम थोड़ा-बहुत समझ जाते हो। मैं कहूं प्रार्थना, तुम कुछ भी नहीं समझ पाते। मैं कहूं परमात्मा, शब्द गूंजता है, खो जाता है। भीतर कोई आकार निर्मित नहीं होता, कोई अर्थ नहीं बनता। भीतर कोई सुगंध नहीं फैलती। कोई सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। परमात्मा शब्द गूंजता है, खो जाता है; जैसे हवाएं गूंजी हों वृक्षों में, थोड़ी चहल-पहल हुई हो, कुछ सूखे पत्ते गिर गए, हवाएं जा चुकीं, वृक्ष फिर मौन खड़े हैं। ऐसा ही परमात्मा गूंजता है, लेकिन भीतर कोई अर्थ निर्मित नहीं होता।

अर्थ होता ही तब निर्मित है, जब तुम भी अनुभव से गुजरे होते हो। यही कठिनाई है। अगर तुम भी अनुभव से गुजरे हो तो इशारे की भी जरूरत नहीं है। तुम अनुभव से नहीं गुजरे तो कोई इशारा काम नहीं करेगा। और जब शब्द, जो कि ज्यादा सूक्ष्म हैं, जो कि बारीक और महीन हैं, जो कि नाजुक इशारे कर सकते हैं, जब वे असमर्थ हैं तो इतना स्थूल इशारा हाथ का कैसे काम आएगा?

बोकूजू ने कहा, भाग जा यहां से; और दुबारा इस तरह के उत्तर मत लाना। ऐसे शिष्य बहुत उत्तर लाया। कभी उसने कहा कि आंख से। कभी उसने कहा कि मुंह को तो बंद रखे, लेकिन भीतर आवाज करे। उसने कई रास्ते खोजे, लेकिन कोई रास्ता स्वीकार नहीं किया जा सका। क्योंकि ध्यान को किसी इशारे से नहीं कहा जा सकता। और अगर यह आदमी ध्यान को उपलब्ध था तो इसकी आंखें तो कह ही रही थीं कि ध्यान क्या है, अब और क्या किया जा सकता है? अगर आदमी दरवाजे पर खड़ा हुआ आंखों को समझ पाता तो पूछता ही नहीं।

फिर क्या हुआ? साल बीत गया, शिष्य अनेक उत्तर लाया, सब उत्तर अस्वीकार कर दिये गए। उसकी बुद्धि चक्कर खाती रही, खाती रही, खाती रही–थक गया। फिर उसने खोज ही छोड़ दी। फिर उसे साफ दिखाई पड़ गया कि उत्तर हो ही नहीं सकता। यह स्थिति बेबूझ है। बहुत दिन तक शिष्य नहीं आया तो बोकूजू उसकी तलाश में गया कि क्या हुआ? क्योंकि वह तो दो-चार दिन में उत्तर खोजकर ले आता था। देखा एक वृक्ष के नीचे शिष्य मौन बैठा है। बोकूजू ने उसे हिलाया, शिष्य ने आंखें खोलीं–उसकी आंखें शून्य थीं: उसके भीतर कोई विचार न था। उसके मन के आकाश पर कोई बदली न थी; कोई पक्षी न उड़ता था। वह ऐसे बैठा रहा, जैसे कुछ भी नहीं हुआ है। बोकूजू आया है, यह भी जैसे कोई घटना नहीं घटी। उसकी आंखों में रत्ती भर फर्क न पड़ा। गुरु सामने खड़ा था, उसने झुककर प्रणाम भी न किया। गुरु सामने खड़ा था, जरा-सी भी झिझक उसके भीतर न आयी कि पूछेगा, कि वह सवाल…उस आदमी का क्या हुआ, वह जो वृक्ष से लटका है? उसने क्या उत्तर दिया? न सवाल उठा, न जवाब उठा, न गुरु की मौजूदगी से कोई भेद पड़ा।

बोकूजू झुका और शिष्य के चरण छुए।

वह बात फिर नहीं उठाई गई। वह सवाल फिर नहीं पूछा गया। वह बात जैसे समाप्त ही हो गई। उत्तर मिल गया।

जब तक बुद्धि उत्तर देगी, तब तक उत्तर नहीं मिलेगा। जब बुद्धि चुप हो जाती है तो उत्तर मिल जाता है। उत्तर तुम में छिपा है; वह बुद्धि के विकल्पों में नहीं है। वह बुद्धि के द्वंद्व में नहीं है, वह तुम्हारी निर्द्वंद्वता में है। और तुम कब होते हो निर्द्वंद्व, अखंड? जब बुद्धि शांत होती है। जब तुम सोचते नहीं, तब तुम इकट्ठे होते हो। जब तुम सोचते हो, तब तुम बंट जाते हो। जितने ज्यादा विचार, उतने तुम्हारे खंड हो जाते हैं। जितना निर्विचार, उतने तुम अखंड हो जाते हो। जब तुम अखंड हो, वहीं उत्तर है। यह कोई प्रश्न उत्तर पाने के लिए नहीं था, यह प्रश्न बुद्धि को थकाने के लिए था।

मैं जो भी ध्यान के प्रयोग तुमसे करने को कह रहा हूं, वे तुम्हारे शरीर और तुम्हारी बुद्धि को थकाने के प्रयोग हैं। तुमसे कह रहा हूं कि ‘दरवेश…ह्विरलिंग’। दरवेश नृत्य…तुम घूमते ही जाते हो, घूमते ही जाते हो, चकरी खाते जाते हो, थोड़ी देर में बुद्धि भी थक जाती है, शरीर भी थक जाता है। अगर तुम थकने के पहले ही गिर गए तो चूक जाओगे। अगर तुम बिलकुल थक गए, इतनी भी ऊर्जा न बची भीतर कि एक विचार निर्मित हो सके–अचानक तुम शून्य हो जाओगे।

उसी शून्य में उत्तर है कि बोधिधर्म चीन क्यों आया?

उसी शून्य में उत्तर है कि ध्यान क्या है?

ध्यान में ही उत्तर है कि ध्यान क्या है! और कोई उपाय नहीं।

क्या करे वह आदमी? वह कुछ भी न करे, वह सिर्फ ध्यान में रहे। न बोलने की जरूरत है; क्योंकि बोला तो गिरेगा। न न-बोलने की जरूरत है; क्योंकि नहीं बोला तो चूकेगा।

यह थोड़ा-सा जटिल है क्योंकि हमें लगता है यही तो दो स्थितियां हैं: बोलो, या न बोलो। एक और भी स्थिति है, जिसको कहते हैं शांत रहो; वह न बोलने से अलग है। न बोलने की स्थिति बोलने के विपरीत है। तुम बोलते हो, तुम्हें कुछ करना पड़ता है। जब तुम नहीं बोलते तब भी तुम्हें कुछ करना पड़ता है, रोकना पड़ता है। मैंने तुमसे पूछा, तुम्हारा नाम क्या है? तुम बोलो, तो तुम्हें प्रयत्न करना पड़ता है। तुम न बोलो तो तुम्हें प्रयत्न से अपने को रोकना पड़ता है क्योंकि नाम तुम्हें मालूम है। तुम्हारा नाम तुम्हें पता है। न बोलो तो तुम्हें प्रयत्न करना पड़ता है रोकने का, कि न बोलूं। बोलो तो प्रयत्न करना पड़ता है, न बोलो तो प्रयत्न करना पड़ता है। शांत होना बिलकुल तीसरी अवस्था है; वहां कोई प्रयत्न नहीं है–न बोलने का, न न-बोलने का।

वह आदमी लटका ही रहे; न तो बोले, और न न-बोले। क्योंकि दोनों में झंझट है। बोले तो गिरेगा, न बोले तो भटक जायेगा। वह बोलने की झंझट में ही न पड़े, न न-बोलने की झंझट में पड़े; वह चुनाव न करे। बोलना, न-बोलना एक-दूसरे के विपरीत है।

न बोलना, शांत होना नहीं है। न बोलने में भीतर आग जलती रहती है। न बोलने में तुम भीतर तो बोलते ही चले जाते हो। न बोलने में तुम बोलना तो चाहते थे, रोकते हो। न बोलना नकारात्मक बोलना है, वह भी बोलना है। किसी को तुम गाली दो, यह बोलना है। और फिर किसी को गाली न दो, रोको, तो गाली तो भीतर गूंजती चली जाती है।

एक तीसरी अवस्था है: गाली उठती ही नहीं। न तुम बोलते हो, न न-बोलते हो; गाली की लहर ही नहीं आती। इस तीसरी अवस्था का नाम ध्यान है।

वह जो आदमी वृक्ष से लटका है, वह लटका ही रहे; वह कुछ भी न करे। रत्तीभर भी चहल-पहल उसके भीतर न हो। इस आदमी ने पूछा कि बोधिधर्म क्यों चीन गया? इस प्रश्न से कोई भी उत्तर उसके भीतर न उठे। वह कोई उत्तर की तलाश भी न करे। तब न तो बोलना होगा–और न न-बोलना होगा। तब वह द्वंद्व के पार हो जायेगा। तब वह शांत रहेगा, जैसे किसी ने कुछ पूछा ही नहीं। जैसे किसी को कोई जवाब देना भी नहीं है। तब वह ध्यानस्थ होगा। और ध्यान का उत्तर सिर्फ ध्यान है। जब भी कोई उतनी गहरी बात पूछता है तो शब्द तो छिछले हैं, ऊपर-ऊपर हैं। इनसे उस गहराई की कोई खबर नहीं दी जा सकती। तुम्हें उस गहराई में खड़े रह जाना पड़ेगा। और अगर वह तुम्हारी गहराई न समझ पायेगा तो तुम्हारे शब्द कैसे समझेगा?

नान-इन से किसी ने पूछा कि सार बात एक शब्द में कह दो। ज्यादा न तो मेरे पास समय है, न सुविधा है। सार बात एक शब्द में कह दो। नान-इन चुप रहा। उसने कहा, ‘अगर सार ही पूछना है तो एक शब्द का भी आग्रह मत करो। अगर असार जानना है, तो जितना कहो, उतना बोल सकता हूं। लेकिन अगर सार जानना है तो एक शब्द का भी आग्रह मत करो।’

पर उस आदमी ने कहा, ‘यह जरा ज्यादा हो जाएगा। संक्षिप्त करें, लेकिन इतना संक्षिप्त नहीं। थोड़े में कहें, लेकिन इतने थोड़े में भी नहीं क्योंकि फिर मैं समझूंगा ही नहीं अगर आप चुप रह गए। एक शब्द, इशारे के लिए!’

तो नान-इन ने कहा, ‘ध्यान।’

उस आदमी ने कहा कि काफी नहीं है। थोड़ा बढ़ाएं, थोड़ी व्याख्या…।

तो नान-इन ने कहा, ‘ध्यान और ध्यान…!’

उस आदमी ने कहा, ‘यह पुनरुक्ति है। इससे कुछ विस्तार नहीं हुआ। थोड़ी और कृपा!’

तो नान-इन ने कहा, ‘ध्यान और ध्यान और ध्यान…’

वह आदमी उठकर खड़ा हो गया। और उसने कहा कि यह पागलपन की बात है। आप वही दोहराए जा रहे हैं।

नान-इन ने कहा, ‘पहली तो बात, जब तुमने शब्द का आग्रह किया तभी सब खो गया। एक शब्द मैंने किसी तरह कहा, कुछ थोड़ा उसमें बचा; अगर व्याख्या की, वह भी खो जायेगा।

ध्यान का उत्तर, ध्यान के संबंध में कुछ पूछा गया हो तो ध्यान ही है। अगर कोई तुमसे पूछे, प्रेम क्या है? तो तुम्हारा प्रेमपूर्ण होना ही उत्तर हो सकता है, और कोई उत्तर नहीं हो सकता। तुम जो भी उत्तर दोगे, वह छोटा पड़ेगा, ओछा पड़ेगा। इसलिए सभी संत पीड़ित रहे हैं कि वे कह नहीं पाते, जो कहना चाहते हैं।

रवींद्रनाथ ने अपने अंतिम दिनों में लिखा है। रवींद्रनाथ तो महाकवि हैं। कोई छह हजार गीत उन्होंने लिखे हैं। पश्चिम में शैली को बहुत बड़ा कवि कहा जाता है, उसके दो हजार गीत हैं। शैली के सभी गीत संगीत में नहीं बांधे जा सकते, रवींद्रनाथ के सभी गीत संगीतबद्ध हैं। तो और क्या उपलब्धि हो सकती है? इस पृथ्वी पर महान से महान से महान, कवि!

एक मित्र ने मरते समय उनसे कहा कि तृप्त हो तुम? संतुष्ट हो? जो पाना था, तुमने पा लिया। यश, प्रतिष्ठा, ख्याति सब तुम्हें मिला। एक पैंगंबर की तरह तुम पूजे गये। कवि की तरह नहीं, एक ऋषि की तरह तुम्हें सम्मान मिला। और तुमने इतने गीत लिखे कि शायद दोबारा कोई आदमी नहीं लिख सकेगा। और हर गीत अनूठा है, तुकबंदी नहीं है, हृदय से आया है।

रवींद्रनाथ ने कहा, बंद करो यह सब बातचीत क्योंकि मैं बड़े दुख में मर रहा हूं। जो मैं गाना चाहता था, वह तो मैं अभी तब गा नहीं पाया। अगर तुम मुझसे पूछो तो मैं मरते इन क्षणों में परमात्मा से प्रार्थना कर रहा हूं कि यह भी क्या बात हुई! बामुश्किल तो ठोंक-पीटकर साज बिठा पाया था, अब गाने का वक्त करीब आ रहा था कि पर्दा गिरने लगा। अभी तो सिर्फ ठोंक-पीट कर रहा था अपने वाद्य-यंत्रों पर कि तैयारी हो जाये तो गाऊं। अभी गा कहां पाया था? और जिसे लोगों ने संगीत समझा, वह तो केवल साज बिठा रहा था। और अब जब कि लगता है कि साज बैठने के करीब आया, संगति बंधती थी, सुर सम्हले थे, भरोसा बढ़ा था और हृदय आपूरित था कि अब बहूंगा, अब गाऊंगा, यह जाने का वक्त आ गया! यह क्या मजाक है?

जो भी जानते हैं, उन्हें यह मजाक खयाल में आयेगा ही। क्योंकि जब वे कहने में समर्थ होते हैं, तब वाणी खोने के करीब आ जाती है। जब वे बता सकते थे, तब जाने का समय आ जाता है। जबकि स्वागत होना था, समारंभ होना था उनके आने का, तब विदा का क्षण! जबकि वे पैदा होने के करीब थे, तब मौत घट जाती है।

और ऐसा सदा ही होगा। इसमें किसी परमात्मा के हाथ कोई मजाक नहीं। यह जीवन की प्रक्रिया है कि जितना गहरा तुम पाओगे, उतना ही बताना मुश्किल होता जायेगा। रवींद्रनाथ को अगर सौ साल की उम्र और दे दी जाती तो मैं कहता हूं कि सौ साल के बाद भी वे यही कहते मरते वक्त; इससे कुछ भेद न पड़ता। इससे जरा भी भेद नहीं पड़ता। शायद पीड़ा और भी बढ़ जाती क्योंकि सौ साल में वे और भी गहरे हो जाते। और जितनी भीतर गहराई बढ़ती है, उतना बाहर तक खबर लाना मुश्किल होता जाता है।

सत्य को कहा नहीं जा सकता। ध्यान को, प्रेम को बताया नहीं जा सकता; जीया जा सकता है, इसलिए जीना ही बताने का एकमात्र ढंग है।

तो उस आदमी को न तो बोलने की जरूरत है… न न-बोलने की जरूरत है। वह ध्यान का फूल बना लटका रहे।

और क्यों ऐसी कहानी चुनी होगी इन झेन फकीरों ने? क्योंकि कोई भी तो ऐसा वृक्ष के पत्तों को मुंह में पकड़कर लटका नहीं। पर मैं तुमसे कहता हूं, कहानी यही है। सभी लोग लटके हैं; क्योंकि किसी भी क्षण मौत घट सकती है। अब इतना ही सहारा है जैसे दांत से दबा रखी हो वृक्ष की शाखा। बस, इतना ही सहारा है। जरा में टूट सकता है यह धागा। यह धागा बहुत बारीक है; मकड़ी के जाल से भी ज्यादा बारीक। जरा सा इशारा–और यह टूट सकता है।

यह मतलब है कथा का। हर आदमी ऐसा ही लटका है। नीचे खाई है, किसी भी क्षण मौत घट सकती है।

महाभारत में एक मधुर घटना है। एक भिखारी भीख मांग रहा है, युधिष्ठिर के द्वार पर। पांडव, पांचों भाई अज्ञातवास में छिपे हैं। मांगनेवाले को भी पता नहीं, छिपे हुए सम्राट हैं। युधिष्ठिर सामने ही पड़ गये हैं। उन्होंने कहा, ‘कल आ जाना।’ भीम खिलखिलाकर हंसने लगा। युधिष्ठिर ने पूछा कि तू पागल तो नहीं हो गया? क्यों खिलखिला रहा है? उसने कहा कि मैं जाता हूं, गांव में डिंडोरी पीट आऊं कि मेरे बड़े भाई ने समय को जीत लिया है। एक भिखारी को उन्होंने वायदा किया है कि कल आ जाना। युधिष्ठिर दौड़े, उस भिखारी को वापस लाए और कहा कि भीम ठीक कहता है। ऐसे वह जरा बुद्धि से मंद है, लेकिन फिर भी कभी-कभी उसे झलक आती है।

कभी-कभी मंद-बुद्धि लोगों को झलकें आ जाती हैं और बहुत कुशल बुद्धि लोग चूक जाते हैं। कुशल बुद्धि अकसर पंडित हो जाते हैं। जो युधिष्ठिर को न दिखाई पड़ा…और वे धर्मराज थे, धर्म के ज्ञाता थे! लेकिन धर्म के ज्ञाता अकसर अंधे होते हैं, क्योंकि शास्त्र आंखों पर छप जाता है। फिर सत्य नहीं दिखायी पड़ता। जो है, वह नहीं दिखायी पड़ता, पर्तें शास्त्रों की इकट्ठी हो जाती हैं। इसलिए जो दिखायी नहीं पड़ा युधिष्ठिर को, वह दिखायी पड़ गया भीम को। भीम सीधा-सादा आदमी है, निष्कपट है। लड़ सकता है, क्रोधित हो सकता है, प्रेम कर सकता है, लेकिन पंडित नहीं है। जी सकता है, लेकिन शब्दों का कोई मालिक नहीं है। लेकिन उसे यह सीधी सी बात दिखाई पड़ गयी कि यह भी क्या मजाक है? कल का भरोसा नहीं है और तुम भिखारी से कहते हो, कल आ जाना? कल तुम रहोगे यहां? तुम्हें पक्का है, कल भिखारी बचेगा?

चीन में कथा है ताओ को स्वीकार करने वाले लोगों की, कि एक सम्राट नाराज हो गया अपने वजीर पर; उसे उसने जेल में डाल दिया। लेकिन जिस दिन उसको फांसी लगनेवाली थी, अचानक उसके घर के लोग तो रो रहे थे, छाती पीट रहे थे, वह घोड़े पर सवार घर वापस लौट आया। पत्नी को भरोसा न हुआ, बेटों को भरोसा न हुआ, उन्होंने कहा कि क्या हुआ? क्या चमत्कार? हम तो समझे थे कि बस, छह बजे शाम फांसी हो जानेवाली है।

वजीर ने कहा कि चमत्कार ही समझो। नियम है राज्य का, कि घंटे भर फांसी के पहले सम्राट आता है जिसकी फांसी हो रही है, उससे मिलने। वह मिलने मुझसे आया था। और जब वह मिलने मुझसे आया, मैंने सोचा कि एक दांव लगाना बुरा नहीं। मैं रोने लगा। मुझे रोते देखकर सम्राट ने पूछा कि तू और रोता है? और मैं तो सोचता था कि तू एक बहादुर आदमी है। तूने अनेक युद्ध लड़े, तू अनेक बार जीता, तू रोएगा यह मैं सोच भी नहीं सकता। मैंने कहा कि मैं इसलिए रो भी नहीं रहा हूं। मौत देखकर नहीं रो रहा हूं, तुम्हारे घोड़े को देखकर रो रहा हूं, जो तुम दरवाजे के बाहर बांध आये हो।

सम्राट हैरान हुआ; उसने कहा, घोड़े को देखकर रोने की क्या बात है?

वजीर ने कहा कि मैं एक कला सीखा था, कि मैं घोड़ों को आकाश में उड़ना सिखा सकता हूं। लेकिन एक खास जाति का घोड़ा चाहिए। उसे खोजता रहा जिंदगी भर, वह न मिला; और जिस घोड़े पर बैठकर तुम आये हो, यही उस जाति का घोड़ा है। रो रहा हूं कि सारी कला व्यर्थ गई। घंटे भर बाद तो मुझे मरना है; अब तो कुछ उपाय नहीं। जो मैं जानता था, मेरे साथ खो जायेगा।

सम्राट लोभी! स्वभावतः अगर उसके पास उड़नेवाला घोड़ा हो सके तो जगत में उसका कोई मुकाबला न हो। उसने कहा कि तू ठहर, घबड़ा मत। कितना समय चाहता है? तो वजीर ने कहा, एक साल। एक साल में इस घोड़े को उड़ना सिखा दूंगा। सम्राट ने कहा, कुछ अड़चन की बात नहीं। अगर एक साल में घोड़ा उड़ना सीख गया तो तेरी मौत तो बचेगी ही, मैं अपनी लड़की से तेरी शादी भी करूंगा और आधा राज्य भी तुझे दे दूंगा। लेकिन अगर एक साल बाद घोड़ा उड़ना नहीं सीख पाया तो तेरी फांसी हो जायेगी। हर्ज कुछ भी नहीं है।

पत्नी और जोर से छाती पीटकर रोने लगी कि यह भी तुमने क्या किया? क्योंकि मुझे भलीभांति पता है, ऐसी कोई कला तुम जानते नहीं। वजीर ने कहा, वह तो मुझे भी पता है, लेकिन साल भर में क्या भरोसा? घोड़ा मर जाये, सम्राट मर जाये, मैं मर जाऊं। साल भर इतना लंबा वक्त है! और दुनिया में चमत्कार तो घटते हैं। कौन जाने, घोड़ा सीख ही जाये! उड़ना सीख जाये! साल भर काफी है; बहुत ज्यादा है।

भीम को दिखाई पड़ गया कि एक दिन का भरोसा नहीं। कल तुम बचो न बचो, देने की हालत बचे न बचे, यह भिखारी बचे न बचे, फिर यह वचन अधूरा रह जायेगा धर्मराज! तो लोग लिखेंगे कि तुम झूठ बोले। युधिष्ठिर दौड़े, उस भिखारी को भिक्षा दी, कहा कि तू जल्दी ले जा; देर न हो जाये।

हम सब लटके हैं। किसी भी क्षण शाखा टूट सकती है। किसी भी क्षण मुंह खुल सकता है।

और क्यों यह कथा इस तरह चुनी है? क्योंकि जब भी आदमी मरता है तो अकसर मुंह खुल जाता है। इसलिए झेन फकीर कहते हैं, मुंह से पकड़कर हम रुके हैं। जब आदमी मरता है तो मुंह खुल जाता है, पकड़ छूट जाती है। हाथ वगैरह से पकड़ने का उपाय नहीं, मुंह से ही पकड़े हुए हैं।

ऐसी यह बात और भी गहराई में सच है; क्योंकि जिस श्वास के धागे से हम बंधे हैं, वह हमारे मुंह से जुड़ा है, हाथों से नहीं। श्वास कटी, हम कट गए। तो अगर जीवन को हम एक वृक्ष समझें तो श्वास के धागे से हम मुंह से उससे बंधे हैं। श्वास ही हमें रोके हुए है। श्वास गई, फिर हाथ से श्वास को पकड़ने का कोई उपाय नहीं। इसलिए फकीर जो भी कहते हैं, मतलब तो होता ही है। बेमतलब-मतलब वे कुछ कहेंगे भी नहीं। मुंह से पकड़े हुए हैं और लटके हैं।

प्रतिपल मौत है। और जीवन हर क्षण खतरे में है। जो जानता है, वह बोलेगा भी नहीं; क्योंकि बोलते से ही सब गलत हो जाता है। सत्य को बोला नहीं जा सकता। बोलते से ही सब गलत हो जाता है क्योंकि सत्य को बोला ही नहीं जा सकता।

फिर बुद्ध बोलते हैं, कृष्ण बोलते हैं, बोलते ही चले जाते हैं। तो सवाल उठता है, कि जब सत्य बोला नहीं जा सकता तो बुद्ध बोलते क्यों? चुप क्यों नहीं हो जाते?

बुद्ध जो भी बोलते हैं वह सत्य नहीं है। सत्य तो बोला ही नहीं जा सकता।

बुद्ध कुछ और बोल रहे हैं। वह ऐसा ही है, जैसे बच्चों को मिठाई बांटी जा रही हो ताकि बच्चे बैठे रहें। कुछ और घटाने का आयोजन है। मगर मिठाई न बांटी जाये, बच्चे भाग जायें। इसलिए हम मंदिर में प्रसाद बांटते हैं, मिठाई बांटते हैं। बुद्ध मिठाई बांट रहे हैं, वह प्रसाद है; क्योंकि कुछ बच्चे सिर्फ मिठाई को ही समझ सकते हैं और कोई चीज नहीं समझ सकते।

मैं तुमसे बोल रहा हूं; जो बोल रहा हूं, वह सत्य नहीं है। वह सत्य हो नहीं सकता। बोलते ही सत्य खो जाता है; अखट खाई में गिर जाता है आदमी। वहां से कुछ बोला नहीं जा सकता। एक शब्द बोले कि गए! फिर तुमसे बोल रहा हूं, वह मिठाई बांटना है। उस बोलने के बहाने तुम यहां बैठे हो। अगर मैं चुप हो जाऊं, तुम जा चुके। मेरी चुप्पी में तुम न बैठे सकोगे। बोलने के बहाने तुम बैठे हो, वह सिर्फ मिठाई है, वह प्रसाद है। तुम शायद प्रसाद लेने मंदिर आए हो, प्रार्थना करने नहीं। लेकिन प्रसाद के बहाने शायद प्रार्थना भी हो जाये, बोलने के बहाने शायद मेरे पास बैठे-बैठे तुम्हें शांति का सुर भी पकड़ जाये; शायद शून्य की झलक भी आ जाये। तो यह केवल बहाना है।

बुद्ध बोलते हैं, वह बहाना है। बुद्ध चाहते तो वह देना हैं तुम्हें, जो कि बोलकर नहीं दिया सकता। लेकिन तुम शब्द ही समझ सकते हो, इसलिए शब्द का उपयोग है। वह तुम्हारे लिए है, सत्य के लिए नहीं है। तुम्हारे कारण है, सत्य के कारण नहीं है। जो भी बोला जायेगा, वह बोलते ही असत्य हो जाता है। इसलिए सब बोलना कथा है, कहानी है।

मैं जो इतनी कहानियों का उपयोग करता हूं, उसका कारण कुल इतना है कि सब बोलना एक कहानी है; सब बोलना एक पुराण है। सत्य को तो जाना जा सकता है।

जानने की यात्रा भी कठिन तो है, असंभव नहीं। लेकिन दोनों बातें समझ लेनी जरूरी हैं। ध्यान में उतरना कठिन है, इसलिए नहीं कि ध्यान कठिन है बल्कि इसलिए, कि तुम जटिल हो।

एक आदमी नदी के किनारे खड़ा है, तैरना कठिन नहीं है, लेकिन डर के मारे वह नीचे पैर ही नहीं रख पाता। डर के मारे पानी में नहीं उतर पाता। वह डर कठिनाई पैदा कर रहा है; तैरना कठिन नहीं है। इस आदमी को फेंक दिया जाये पानी में, यह तैरना, हाथ-पैर तड़फड़ाना शुरू कर देगा। तैरने में और अनजान आदमी के हाथ-पैर तड़फड़ाने में बहुत फर्क नहीं है; शैली का फर्क है। जरा-सी व्यवस्था का फर्क है। अगर तुम्हें कोई ऐसे ही धक्का दे दे पानी में तो भी तुम तैरोगे, लेकिन तुम्हारे तैरने में संगति न होगी। यह भी हो सकता है, तुम डूब जाओ। नदी के कारण तुम न डूबोगे, उल्टा-सीधा तैरने की वजह से डूब जाओगे। तुम खुद ही उलझन खड़ी कर लोगे। जिस दिन तुम तैरना सीख जाओगे, क्या सीखोगे तुम? यही हाथ-पैर का फेंकना, तड़फड़ाना थोड़ा व्यवस्थित हो जायेगा, तुम थोड़े आश्वस्त हो जाओगे, भय कम हो जायेगा। इसलिए जो तुम्हें तैरना सिखाता है, वह तैरना नहीं सिखाता, सिर्फ तुम्हें आश्वासन सिखाता है। बाकी तैरना तुम जानते हो।

तो गुरु के पास कोई ध्यान नहीं सीखता, सिर्फ आश्वासन सीखता है क्योंकि ध्यान में उतरना छलांग लगाना है। किसी का भरोसा चाहिए। कोई कहता है, कूद जाओ, डरो मत, मैं खड़ा हूं। मैं सम्हाल लूंगा। जो लोग भी तैरना सिखाते हैं, उनकी कुल कला इतनी है कि वे अपना भरोसा दिला देते हैं कि मैं खड़ा हूं। तुम जानते हो, यह आदमी तैरना जानता है। तुमने इसे नदी पार होते देखा, कोई डर नहीं है। बस, तुम्हारे डर को कम करने की जरूरत है। गुरु तुम्हारे डर को काटता है।

गुरु भगवान नहीं दे सकता, भय को काट सकता है। भय कटा कि तुम भगवान हो। तुम्हारी हिम्मत बढ़ी, तुमने छलांग ली, कि तैरना तो तुम्हें आता ही है। तैरने को तुम कभी भूले ही नहीं हो, इसलिए एक बार तैरना आ जाये तो फिर कोई कभी नहीं भूलता। बड़ी मजे की बात है; और सब चीजें भूल जाती हैं, तैरना क्यों नहीं भूलता? तुम तीस साल तक मत तैरो, भूलोगे नहीं। तीस साल तक और कोई चीज याद रखने की कोशिश करो। तीस साल तक मां को न देखा हो तो मां का चेहरा भूल जायेगा। संदिग्ध हो जाओगे। तीस साल तक भाषा का उपयोग न किया हो, भाषा भूल जायेगी। तीस साल लंबा वक्त है। लेकिन तीस साल तैरना मत, तो भी भूलोगे नहीं। पानी में उतरे कि तैरना है।

जरूर तैरने में कुछ फर्क है। तैरने का संबंध तुम्हारी स्मृति से होता, तो तुम इसीलिए भूल जाते। तैरना तुम शायद जानते ही हो। इसका संबंध समृति से नहीं, इसे तुमने कभी सीखा नहीं। अगर सीखा होता तो भूल सकते थे। इसका सिर्फ आविष्कार हुआ है। यह मौजूद था; तुम सिर्फ पहचाने, प्रत्यभिज्ञा हुई, रिकग्नाइज किया कि मैं जानता हूं।

और जिस दिन तुम ठीक से पहचान लोगे, उस दिन तैरने की भी जरूरत नहीं पड़ती। कुशल तैराक नदी में लेट जाता है। हाथ-पैर भी नहीं तड़फड़ाता। नदी ही उसे सम्हालती है। इतनी भी जरूरत नहीं रहती क्योंकि उसका भय बिलकुल कम हो गया है। भय ही डुबाता है, नदी नहीं डुबाती। इसलिए मुर्दे को डुबाना मुश्किल है क्योंकि मुर्दे को भयभीत करना मुश्किल है। मुर्दे को छोड़ दो नदी में, वह तैरता चला जाता है। लाख नदी कोशिश करे, कितनी ही गहरी हो, नदी मुर्दे को नहीं डुबा सकती। जिंदा को डुबाती है क्योंकि जिंदा भयभीत होता है।

तब जरा सोचने जैसा है, कि नदी डुबाती है या भय डुबाता है? तैरने में कठिनाई है, या तुम्हारे भयभीत चित्त की जटिलता है? तुम्हारे भय में सारी जटिलता है।

ध्यान तो सरल है, तुम कठिन हो। तुम्हारी कठिनाई जितनी कटेगी, उतना ही ध्यान सरल होता जायेगा। जिस दिन तुम्हारे भीतर कोई कठिनाई न होगी, तुम पाओगे ध्यान इतना सरल है, जैसे श्वास लेना। तुम्हें कुछ भी नहीं करना होता।

एक अर्थ में ध्यान से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं है, क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। दूसरे अर्थ में ध्यान से कठिन कुछ भी नहीं है, क्योंकि तुम बहुत जटिल हो गए हो।

तुम्हारी जटिलता काटने में ही सारी साधना है। लेकिन यह असंभव नहीं है क्योंकि जटिल तुम ही हुए हो, जानकर हुए हो, कोशिश कर-कर के हुए हो। विपरीत यात्रा करोगे, जटिलता कट जायेगी। तुम्हारी हालत ऐसी है, जैसे कोई आदमी कमर झुकाकर चलने का अभ्यास कर ले। कमर झुकाकर चले। साल दो साल अभ्यास करना पड़े, फिर सरल हो जाये। फिर उसको सीधी कमर करना मुश्किल हो जाये। जन्मों-जन्मों तक तुम विचार के साथ चले हो, विचार ने तुम्हारी कमर तिरछी कर दी है। उसके कुछ फायदे हैं, इस वजह से।

मैंने सुना है, एक गांव में एक आदमी था। रोज राज्य में युद्ध होते रहते। जवान पकड़ लिए जाते, स्वस्थ आदमी पकड़ लिए जाते। तो उसने पहले से ही झुककर चलना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसकी कमर तिरछी हो गई। जवान पकड़े जाते, लेकिन उसे कोई कभी नहीं पकड़ता था। वह सोचता था कि यह झुककर चलने से कुछ हर्जा तो है नहीं; जब चाहेंगे, सीधे खड़े हो जायेंगे। इसमें लाभ ही लाभ था। लेकिन थोड़े दिन में उसने पाया कि अब सीधे खड़ा होना असंभव है। कमर झुक ही गई।

इन्वेस्टमेंट जब भी तुम करते हो किसी गलत चीज में तब थोड़ा होश से करना; उससे कुछ लाभ दिखाई पड़ रहा हो भला तात्कालिक, लंबे अर्सों में महंगा पड़ जायेगा। विचार का कुछ लाभ है। चिंता का कुछ लाभ है, तनाव का कुछ लाभ है; इसलिए तुम तने हो, चिंता से भरे हो, विचार से भरे हो। इस जगत में कुछ चीजें बिना चिंता के नहीं मिलतीं।

इस जगत में जो निश्चिंत है, वह कुछ चीजें तो पा ही नहीं सकता। धन कमाना बहुत मुश्किल है, जो निश्चिंत है। जो निश्चिंत है, वह दिल्ली नहीं पहुंच सकता; राजपदों पर बैठना कठिन है। जो निश्चिंत है, वह दूसरों की छाती पर सवार नहीं हो सकता। क्योंकि जब तुम दूसरों की छाती पर सवार होते हो तो चिंता पकड़ती है। क्योंकि दूसरों को भी तुम मौका देते हो कि तुम्हारी छाती पर सवार होने की कोशिश करें। कम से कम तुम्हारे छुटकारे से बाहर निकलने की चेष्टा करें। जब तुम पद की तलाश में जाते हो तो चिंता स्वाभाविक है।

एक राज्य के मुख्यमंत्री मेरे पास आते थे। वह हमेशा कहते किसी तरह से मेरी चिंता से छुटकारा दिलाएं। मैंने उनसे कहा कि एक बात साफ कर लो; अगर मुख्यमंत्री रहना है तो चिंता में कुशलता प्राप्त करो, छुटकारे की कोशिश मत करो; क्योंकि यह मुख्यमंत्री पद नहीं बचेगा, अगर चिंता से छुटकारा करना है। और अगर चिंता से ही छूटना है तो इतनी तैयारी रखो कि मुख्यमंत्री पद छूट जाये। वे बोले कि नहीं आप तो…आपकी कृपा हो तो दोनों चल सकते हैं। किसी की कृपा से दोनों नहीं चल सकते।

‘–फिर आपका आशीर्वाद चाहिए।’

मैं आशीर्वाद इसमें दे भी नहीं सकता। क्योंकि यह होने ही वाला नहीं है। चिंता न हो और मुख्यमंत्री का पद बना रहे–कैसे होगा? राकफेलर होना चाहते हैं, और भिखमंगे की तरह शान से सोना भी चाहते हो; दोनों नहीं हो सकते। भिखमंगे को कुछ तो बचने दो! इसको नींद बची है, वह भी तुम चाहते हो। भिखमंगा शांति से सो सकता है क्योंकि खोने को कुछ नहीं है, इसलिए अशांति और चिंता का कारण क्या है? तुम्हारे पास जितना खोने को होगा, उतनी अशांति और चिंता बढ़ेगी।

लेकिन आदमी इसी मूढ़ता का प्रयोग करना चाहता है जीवन में, इसी आशा में कि चिंता भी न रहे, धन भी हो, पद भी हो, प्रतिष्ठा भी हो, महत्वाकांक्षा भी पूरी हो और चिंता भी न हो। तुम असंभव की मांग कर रहे हो। यह असंभव होनेवाला नहीं है, यह स्पष्ट हो जाना जरूरी है।

चिंता जायेगी तो महत्वाकांक्षा जायेगी; तब ध्यान उत्पन्न होगा।

इसलिए बहुत लोग ध्यान में उत्सुक होते हैं, लेकिन गलत कारण से उत्सुक होते हैं। और जो धंधा करने वाले गुरु हैं, वे समझते हैं कि किस कारण से लोग ध्यान में उत्सुक होते हैं। तो महेश योगी जैसे व्यक्ति प्रचारित करते हैं: कि इस जगत में भी लाभ होगा, उस जगत में भी लाभ होगा। ध्यान करोगे–धन भी मिलेगा, धर्म भी मिलेगा।

अमरीका में अगर किसी से कहा जाये कि सिर्फ धर्म मिलेगा तो फिर वह उत्सुक ही नहीं होते। धर्म चाहता कौन है? लोग धन चाहते हैं। और धन के साथ-साथ अगर शांति भी मिलती हो तो लोग लेने को तैयार हैं। लेकिन बात ही व्यर्थ है।

चिंता का कुछ लाभ है, इसलिए तो लोग चिंतित हैं, नहीं तो लोग चिंतित क्यों होते? लोग बिना कारण चिंतित हैं? बिना लाभ के चिंतित हैं? तुम चिंता छोड़ना चाहते हो, लाभ बचा लेना चाहते हो; यही जटिलता है। जिस दिन तुम्हें यह साफ हो जायेगा, उस दिन तुम चिंता को उतारकर रख सकते हो, लेकिन साथ ही लाभ भी जाता है चिंता का। महालाभ के द्वार खुलते हैं, लेकिन उनका तुम्हें कोई पता नहीं है।

ध्यान सरल है। तुम्हारी सरलता चाहिए।

और तुम्हारी सरलता का अर्थ है, विपरीत दिशाओं में यात्रा मत करो, तुम सरल हो जाओगे। तुम विपरीत दिशाओं में चलोगे, तुम जटिल हो जाओगे।

एक आदमी ने बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत लिये हैं, वह दोनों तरफ हांक रहा है; बैलगाड़ी कहीं नहीं जा रही है। वह परेशान है, वह चीख-चिल्ला रहा है। वह कह रहा है, कोई रास्ता बताओ। उससे मैं कहता हूं, एक दिशा के बैल खोल दो। दोनों जोड़ियों को एक ही दिशा में जोत दो। यह गाड़ी अभी सरपट भागेगी। पर दोनों दिशाओं में उसके लक्ष्य हैं। इस तरफ दुकान है, इस तरफ मंदिर है; इस तरफ चिंता है, इस तरफ शांति है; इस तरफ धन है, इस तरफ ध्यान है; दोनों वह चाहता है। वह कहता है, आप कहते तो ठीक हैं, लेकिन कुछ ऐसा आशीर्वाद दो कि यह बैलगाड़ी दोनों मंजिलों पर पहुंच जाये।

इसी आशीर्वाद की तलाश में चमत्कारी गुरुओं की खोज करता है। क्योंकि मेरे जैसा आदमी तो यह आशीर्वाद दे ही नहीं सकता। क्योंकि जो देता है, वह या तो मूढ़ है, या शैतान है। इस आशीर्वाद का आश्वासन देना भी संघातक है। क्योंकि उस आदमी का जीवन नष्ट हो रहा है; उसकी ऊर्जा व्यर्थ हो रही है। विपरीत लक्ष्य एक साथ नहीं पाये जा सकते, यह तुम्हें साफ हो जाये तो तुम सरल हो जाओगे।

सरलता का अर्थ है, तुम्हारे जीवन में विपरीत खो गये, तुम्हारा जीवन एक लयबद्ध धारा हो गया, तुम एक तरफ बहना शुरू हो गये। फिर कोई अड़चन नहीं है। फिर तुम्हारी सरिता ध्यान के सागर में अपने आप गिर जायेगी। फिर तुम्हें ध्यान सीखने की भी शायद जरूरत न पड़े क्योंकि ध्यान कोई सिखा नहीं सकता। सरल व्यक्ति के जीवन में ध्यान के फूल लगना शुरू हो जाते हैं।

तो तुमसे मैं कहूंगा, सरल हो जाओ, निर्दोष हो जाओ। और ध्यान रहे, जब मैं कहता हूं निर्दोष हो जाओ तो मेरा मतलब यह नहीं कि तुम सिगरेट मत पीना, तो निर्दोष हो जाओगे; कि तुम शराब मत पीना, तो तुम निर्दोष हो जाओगे; कि तुम मांस मत खाना, तो तुम निर्दोष हो जाओगे–नहीं। हालांकि मैं जानता हूं, तुम निर्दोष हो जाओगे तो तुम सिगरेट न पी सकोगे, शराब तुम न छू सकोगे, मांसाहार असंभव होगा। लेकिन तुम शराब न पीओ, मांस न खाओ, सिगरेट न पीओ तो तुम निर्दोष हो जाओगे, यह मैं नहीं कहता।

इतना सस्ता नहीं है मामला। क्योंकि बहुत-से लोग न शराब पी रहे हैं, न मांस खा रहे हैं, न सिगरेट पी रहे हैं और निर्दोष नहीं हैं। बल्कि कई दफे तो ऐसा होता है कि ऐसे आदमी ज्यादा खतरनाक हैं।

हिटलर न शराब पीता, न मांस खाता, न सिगरेट पीता, हिटलर शुद्ध शाकाहारी है। शुद्ध शाकाहारी ही इतना उपद्रव कर सकता है, जितना हिटलर ने किया। मुसोलिनी शुद्ध शाकाहारी है। इन दो शाकाहारियों ने इस पृथ्वी पर जितना नर्क खड़ा किया, उतना कोई मांसाहारी कभी नहीं कर पाया। अगर साधुओं से पूछो तो हिटलर बिलकुल साधु मालूम पड़ेगा। न फिल्म देखता है, न संगीत में उसे रस है, न नाच देखने जाता है। एक अर्थ में करीब-करीब ब्रह्मचारी है, क्योंकि स्त्री में भी उसे रस नहीं। ब्रह्म-मुहूर्त में उठता है; और करीब-करीब अपनी कोठरी में बंद है। लेकिन बड़ा विस्फोटक आदमी सिद्ध हुआ।

तो मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम इन-इन चीजों को छोड़ दोगे तो सरल हो जाओगे। अगर तुमने सरलता के लिए इन्हें छोड़ा तो तुमने गणित तो पहले बिठा लिया। यही गणित तो तुम्हारी जटिलता है। तुमको कोई भरोसा दिला देता है कि सिगरेट मत पीओ तो मोक्ष मिल जायेगा; तो तुम छोड़ देते हो। कभी तुमने सोचा कि कितने सस्ते में तुम मोक्ष पाना चाहते हो? सिगरेट छोड़कर तुम मोक्ष पाना चाहते हो। सिगरेट छोड़कर अगर मोक्ष मिलता हो तो पाने योग्य भी नहीं है। क्योंकि कीमत कितनी! अगर शराब छोड़कर मोक्ष मिलता हो तो पाने योग्य भी नहीं है। कितना मूल्य होगा उसका, जो शराब छोड़ने से मिल जाता हो?

नहीं, तुम क्या करते हो, इससे बहुत सवाल नहीं है। तुम्हारी सरलता का संबंध है कि तुम विपरीत दिशाओं में मत बहो। तुम जो भी करो, उसमें एक संगति हो; उसमें एक आंतरिक संगीत हो; उसमें विघटन और विरोध न हो।

सरलता का अर्थ है: तुम एक तरफ प्रवाहित। और यही बुद्धिमानी का लक्षण है कि तुम बहुत तरफ न बहो, बहुत दिशाओं में यात्रा मत करो। तुम्हारी जीवन-ऊर्जा एक तीर की तरह चले, तो तुम लक्ष्य तक पहुंच जाओगे। लक्ष्य दूर नहीं है। सरल होते ही चित्त ध्यान को उपलब्ध हो जाता है।

इस कथा में ध्यान की कठिनाई नहीं बताई गई है; बताया गया है, ध्यान के संबंध में बताना कठिन है। तो एक तो कठिनाई है बुद्ध की, जब वह छह वर्ष तक ध्यान की साधना करते हैं। वह कठिनाई बड़ी नहीं है। दूसरी कठिनाई है, चालीस वर्षों तक जब वे ध्यान के संबंध में लोगों को समझाते हैं। वह दूसरी कठिनाई बड़ी है। पहली कठिनाई तो वे छह साल में पार कर गये। दूसरी कठिनाई वे चालीस साल में भी पार नहीं कर पाये। पहली कठिनाई तो सभी लोग थोड़े-बहुत दिनों में पार कर लेते हैं, दूसरी कठिनाई अब तक कोई पार नहीं कर पाया; कभी कोई पार कर भी नहीं पाएगा।

सत्य को जानना सरल है, सत्य को बताना मुश्किल है। सत्य को जीना सरल है। जीकर ही बताना एक मात्र रास्ता है।

 

आज इतना ही।

 


Filed under: बिन बाती बिन तेल--(झेन कहानियां) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–32

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संदेश्‍नशीलता, उत्‍सव और स्‍वीकार—प्रवचन—बाहरवां

प्रश्‍न—सार

1—अहंकार साथ है; कैसे समर्पण करूं?

 2—आप चेतना के शिखर है, इसलिए आप उत्‍सव मना सकते है, लेकिन एक साधारण आदमी कैसे उत्‍सव मना पायेगा?

 3—कई बार संवेदनशीलता के साथ नकारात्‍मक भाव क्‍यों उठते है?

4—संवेदनशीलता मुझे इंद्रिय—लोलुपता और भोगासक्‍ति में ले जाती है।

पहला प्रश्न:

 

आपने कल कहां कि समर्पण घटता है जब कहीं कोई अहंकार नहीं होता लेकिन हम तो अहंकार के साथ ही जीते हैं। कैसे हम समर्पण में उतर सकते हैं?

 

हंकार ही हो तुम। तुम समर्पण की ओर नहीं बढ़ सकते, तुम ही हो बाधा, इसलिए जो कुछ तुम करते हो वह गलत होगा। तुम इस विषय में कुछ नहीं कर सकते। तुम्हें तो बस, बिन कुछ किए ही, सजग रहना है। यह है भीतरी संरचना: जो कुछ भी तुम करते हो वह अहंकार द्वारा ही किया जाता है; और जब कभी तुम कुछ नहीं करते और केवल साक्षी बने रहते हो, तब तुम्हारा अहंकारशून्य हिस्सा काम करने लगता है। तुम्हारे भीतर साक्षी है निरहंकारिता, और कर्ता है अहंकार। बिना कुछ किये अहंकार अस्तित्व नहीं रख सकता। यदि तुम समर्पण करने को भी कुछ करते हो, तो उससे अहंकार ही मजबूत होगा। और तुम्हारा समर्पण फिर एक बहुत सूक्ष्म अहंकारयुक्त दृष्टिकोण बन जाएगा। तुम कहोगे, ‘मैंने समर्पण कर दिया।’ तुम ‘दावा करोगे समर्पण का, और यदि कोई कहे कि यह बात सच नहीं, तो तुम क्रोध अनुभव करोगे, आघात अनुभव करोगे। अहंकार अब भी वहा मौजूद रहता है, समर्पण करने की कोशिश करता हुआ। अहंकार कुछ भी कर सकता है; केवल एक चीज जो अहंकार नहीं कर सकता, वह है अक्रिया, साक्षीभाव।

तो जरा बैठना चुपचाप, देखना कर्ता को और किसी भी ढंग से जोड़—तोड़ करने की कोशिश मत करना। जिस क्षण तुम होशियारी से गणित बैठाना शुरू कर देते हो, अहंकार वापस आ चुका होता है। कुछ नहीं किया जा सकता है उसके लिए; व्यक्ति को बस साक्षी बने रहना होता है, उस दुख का, जिसे कि अहंकार निर्मित करता है—झूठे सुख—संतोष जिनके आश्वासन अहंकार देता है। इस संसार की क्रियाएं और उस संसार की, आध्यात्मिक संसार की क्रियाएं; ईश्वरीय हों या भौतिक, जो भी हों क्षेत्र, अहंकार ही कर्ता बना रहेगा।

तुम्हें कुछ करना नहीं है और यदि तुम कुछ करने लगते हो तो तुम सारी बात ही चूक जाओगे। केवल मौजूद रहना, देखना, समझना और कुछ मत करना। मत पूछना कि ‘ अहंकार को कैसे गिराएं?’ कौन गिराएगा उसे? कौन कैसे गिराएगा? जब तुम कुछ नहीं करते, तो अचानक साक्षी वाला हिस्सा कर्ता से अलग हो जाता है : एक अंतराल आ बनता है। कर्ता कार्य करता जाता है और देखने वाला देखता ही रहता है। अकस्मात, तुम एक नए प्रकाश से भर जाते हो, एक नयी मंगलमयता से। तुम नहीं हो अहंकार। तुम कभी रहे नहीं अहंकार। कैसी मूढ़ता है कि तुमने कभी इसमें विश्वास भी किया!

ऐसे लोग हैं जो अहंकार पूरे करने की कोशिशों में लगे हुए हैं, गलत हैं वे। ऐसे लोग हैं जो अपने— अपने अहंकार गिरा देने की कोशिश कर रहे हैं, वे गलत हैं। क्योंकि जब साक्षी का जन्म होता है तो तुम सारे खेल को देखते भर हो। कुछ पूरा करने को नहीं है और कुछ गिराने को नहीं है। अहंकार किसी ठोस वस्तु से नहीं बना हुआ है। यह उसी चीज से बना हुआ है जिससे कि स्वप्न बनते हैं। यह एक विचार मात्र है, हवा का एक बुदबुदा है—मात्र गर्म हवा तुम्हारे भीतर की, और कुछ भी नहीं। तुम्हें उसे छोड़ने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उसे छोड़ने में ही या कैसे छोड़ने की बात पूछने में ही, तुम उसमें विश्वास करते हो, तुम उससे अभी तक चिपके हुए होते हो।

ऐसा हुआ कि एक झेन गुरु एक सुबह उठा और वह अपने शिष्यों से बोला, ‘मुझे रात एक स्‍वप्‍न आया। क्या कृपा करके तुम मेरे लिए उसकी व्याख्या कर दोगे?’ वह शिष्य बोला, ‘जरा ठहरिए आप, मैं थोड़ा ठंडा पानी ले आऊं जिससे कि आप अपना चेहरा धो सकें।’ वह चला गया और पानी लेकर लौटा। गुरु ने अपना चेहरा धोया। उसी समय एक दूसरा शिष्य गुजरता था पास से और गुरु ने उसे बुलाया और कहां, ‘सुनो, मुझे रात एक स्वप्न आया। क्या कृपा करके तुम मेरे लिए उसकी व्याख्या कर दोगे?’ शिष्य ने देखा, और यह देखते हुए कि गुरु ने अपना चेहरा धो लिया था, वह बोला, ‘ठहरिए, बेहतर यही है कि मैं आपके लिए चाय का एक प्याला ले आऊं।’ वह ले आया चाय का प्याला। गुरु ने चाय पी, हंस पड़ा और आशीष दिया दोनों शिष्यों को। वह बोला, ‘तुमने ठीक किया। यदि तुमने व्याख्या कर दी होती मेरे स्वप्नों की, तो मैंने तुम्हें बाहर फेंक दिया होता आश्रम से। क्योंकि जब स्वप्न समाप्त हो जाता है और आदमी जान लेता है कि स्वप्न था, तो व्याख्या का क्या अर्थ रहा?’ उसे व्याख्यायित करना यही बताता है कि तुम अभी भी उसी में जीते हो। तुम अब भी सोचते हो कि वह वास्तविक है।

इसलिए पूरब में हमने कभी चिंता नहीं की स्वप्नों की व्याख्या करने की। ऐसा नहीं है कि हम उसकी सत्यता तक नहीं पहुंचे। फ्रायड से चार—पांच हजार वर्ष पहले, पूरब का सामना हुआ स्वप्नों की सत्यता से, इस घटना से। चेतना को तीन क्षेत्रों में बांटने वाले हम पहले थे: जागरण, स्वप्न और गहन निद्रा (सुषुप्ति)! लेकिन हमने व्याख्या करने की कभी चिंता नहीं की, क्योंकि स्वप्न तो स्वप्न है; वह वास्तविक नहीं होता है। केवल उसमें से जाग जाना होता है, बस इतना ही। और यदि तुम पहले से ही जागे हुए हो तो यह बेहतर है कि तुम चेहरा धो लो। सिग्मंड फ्रायड के सारे विश्लेषण से तो ठंडा पानी ज्यादा मदद देगा। यदि तुम जागे हुए हो, तो चाय का एक प्याला बेहतर है सारे जुंगों से। छूट जाओ पूरी बात से ही।

पहली तो बात, स्वप्न झूठा होता है। और फिर तुम व्याख्या करने लगते हो स्वप्न की। तुम्हारी व्याख्या द्वारा ही वह तुम्हारे लिए नया सत्य बनता जाता है, वह फिर वास्तविक हो जाता है। ऐसा केवल स्वप्न के साथ नहीं होता, तुम्हारे सारे जीवन के साथ ही ऐसा होता है। तुम्हारा सारा जीवन एक स्वप्न की भांति है; उसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं। इतना जानना ही पर्याप्त है कि वह एक स्वप्न है। तुम्हें उससे बाहर आना होता है।

कैसे तुम सुबह स्‍वप्‍न से बाहर आ जाते हो? क्या तुमने ध्यान से देखा है कभी? यदि तुमने ध्यान से देखा है तो तुम जान लोगे अहंकार से बाहर आना कैसे होता है। सुबह कैसे तुम स्वप्न से या नींद से बाहर आ जाते हो? कैसे बाहर आते हो तुम? एक क्षण पहले तुम गहरी नींद सोए हुए थे, और फिर अचानक तुम सुनते हो पक्षियों की आवाजें, दूध वाला दरवाजा खटखटा रहा होता है, नौकरानी आ गयी है और उसने फर्श साफ करना शुरू कर दिया है—सुबह की सारी आवाजें हैं। क्या घट रहा है? तुम ज्यादा होशपूर्ण हो रहे हो। एक क्षण पहले तुम बिना किसी होश के गहरी नींद में थे; फिर अचानक पक्षी, दूधवाला, नौकर, बच्चों से बात करती पत्नी, इनकार करते हुए बच्चे जो उठने को तैयार नहीं है। धीरे— धीरे चीजें उभरने लगती हैं चेतना में। तुम होश पा रहे होते हो। तुम शायद अभी थोड़ा ऊंघो, शायद तुम करवटें बदलो, आंखें बंद कर लो, थोड़ा ऊंघ लो, लेकिन आधे नींद में, आधे जागरण में तुम चीजों को सुने चले जाते हो। तुम जागरूक हो जाते हो और नींद फिर नहीं रहती। जितने ज्यादा जागरूक तुम होते हो, उतने ज्यादा स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं।

जब जागे हुए हो तो ऐसा ही किया जाना चाहिए; ज्यादा सुनो, ज्यादा अनुभव करो, जो कुछ भी तुम करो उसमें ज्यादा सजग रहो। यदि तुम नहा रहे हो तो तुम अपने ऊपर से बहते हुए पानी के स्पर्श को अनुभव करो, जितना कर सको उतना करो उसे। वही अनुभूति, वह जागरूकता, तुम्हें अहंकार से बाहर ले जाएगी; तुम साक्षी हो जाओगे। यदि तुम खा रहे होते हो, तो खाओ, तुम लेकिन ज्यादा स्वाद लेना, ज्यादा संवेदनशील हो जाना, ज्यादा उतर जाना तुम्हारे भोजन करने में और मन को इधर—उधर मत जाने देना। वहां बने रहो पूरी तरह सजग होकर, और धीरे— धीरे तुम देखोगे कि कुछ उठ रहा है नींद के समुद्र में से, तुम और— और ज्यादा सचेत हो रहे हो, सजग हो रहे हो।

तुम्हारी जागरूकता में कोई स्वप्न नहीं होता, कोई अहंकार नहीं होता। वही है एकमात्र ढंग। वह कुछ करने का हिस्सा नहीं है, वह हिस्सा है होश पाने का: और इस भेद को स्मरण रखना है। तुम जागरूकता को कर नहीं सकते, वह कोई क्रिया नहीं है। तुम होशपूर्ण हो सकते हो। वह तुम्हारे होने का भाग है। इसलिए ज्यादा अनुभव करो, ज्यादा सूंघो, ज्यादा सुनो, ज्यादा छूओ, और— और ज्यादा संवेदनशील होओ—और अचानक, कुछ उठता है निद्रा में से, और कोई अहंकार नहीं बना रहता, तुम समर्पित होते हो।

कोई कभी नहीं करता है समर्पण, किसी एक घड़ी में कोई अचानक पाता है कि वह समर्पित हो गया, ईश्वर के प्रति समर्पित, समग्र के प्रति समर्पित। जब तुम नहीं होते, तो तुम समर्पित होते हो। जब तुम होते हो, तो कैसे तुम समर्पित हो सकते हो? तुम नहीं कर सकते समर्पण—तुम ही हो अड़चन, तुम ही वह आधार हो जिससे अवरोध बनता है। इसलिए मुझसे मत पूछना, ‘कैसे मैं समर्पण करूं?’ यह होता है अहंकार का पूछना।

जब मैं बात करता हूं निरहंकार की या समर्पण की, तो तुम्हारा अहंकार उसके प्रति लोभ अनुभव करने लगता है। तुम सोचते हो, ‘कैसे हुआ कि मैंने अभी तक यह अवस्था उपलब्ध नहीं की? मैं—और अब तक नहीं पा सका ऐसी अवस्था? मुझे पानी ही होगी। यह समर्पण मुझसे नहीं बच सकता। मुझे कहीं, किसी तरह से इसे ले आना होगा, इसे पाना ही है। इसे खरीदना ही है!’ अहंकार को लोभ अनुभव हो रहा होता है इसके लिए और अब अहंकार पूछता है, ‘कैसे करूं इसे?’

अहंकार सबसे बड़ा टेक्निशियन है संसार में। अहंकार जीता है जानकारी पर। अहंकार सारी

टेक्यालॉजी का आधार ही है। पूरब में टेक्यालॉजी विकसित नहीं हो सकी, क्योंकि लोग अहंकार के प्रति ज्यादा और ज्यादा सचेत हो गए और असली जड़ ही कट गयी। वे जीए समर्पित जीवन।

कैसे तुम हो सकते हो टेक्यीशियन, टेक्यालॉजिस्ट, यदि तुम जीते हो समर्पित जीवन? तब तुम हर चीज छोड़ देते हो जीवन पर और तुम बहते हो। तब तुम इसकी चिंता नहीं करते कि क्या करना है और उसे कैसे करना है। पश्चिम बहुत ज्यादा कुशल हो गया है टेक्यालॉजी में। कारण यह है कि पश्चिम कोशिश करता रहा है अहंकार का संरक्षण करने की, अहंकार को पोषित करने की, और अहंकार ही आधार है भीतर टेक्यालॉजी का सारा ढांचा आधारित है अहंकार पर। यदि अहंकार गिर जाता है, टेक्यालॉजी का सारा ढांचा गिर जाता है। संसार फिर से स्वाभाविक हो जाता है, मनुष्य—निर्मित नहीं रहता। तब यह ईश्वर की सृष्टि होती है। और ईश्वर ने अभी सृष्टि—सृजन समाप्त नहीं किया है, जैसा कि ईसाई सोचते हैं। वे सोचते हैं कि उसने उसे समाप्त कर दिया एक सप्ताह में ही, वास्तव में तो छ: दिन में ही, और सातवें दिन उसने विश्राम किया!

ईश्वर ने सृजन समाप्त नहीं किया है। सृजन तो एक सातत्य है; वह निरंतर होता रहता है। वह कभी भी समाप्त नहीं होने वाला। हर क्षण ईश्वर सृजन कर रहा है। वस्तुत: यह कहना कि ईश्वर सृजन कर रहा है गलत है—ईश्वर सृजनात्मकता है। सृजनात्मकता और निरंतरता; एक अनंत सृजनात्मकता। लेकिन आदमी, अहंकार युक्त हुआ ईश्वर के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। तब आदमी प्रकृति को विजय करने की कोशिश करने लगता है। सारी टेक्यालॉजी ही एक बलात्कार है। समर्पित होकर तुम प्रेम में होते हो, टेक्यालॉजी सहित तुम बलात्कार से जुड़ते हो। तुम कोशिश कर रहे होते हो सारी प्रकृति का बलात्कार करने की, और आधार अहंकार ही है।

मत पूछना ‘कैसे?’ केवल मुझे समझने की कोशिश करना; जरा कोशिश करना सार को समझने की। कुछ ज्यादा बुद्धि की जरूरत नहीं है। हर कोई इतना बुद्धिमान होता है कि सार को समझ ले। बस, समझ लेना सार—तत्व को और कोशिश करना उसी दृष्टि के साथ, उसी समझ के साथ, उसी बोध के साथ जीने की, बस इतना ही। जरा ध्यान से देखना, अहंकार के तरीकों को, और तुम बने रहना देखने वाले; कर्ता कभी मत बनना।

यदि तुम सजग नहीं रहते तो द्रष्टा और कर्ता के बीच की दूरी कोई बहुत ज्यादा नहीं है। बिलकुल तुम्हारे साथ ही होता है कर्ता। तुम द्रष्टा से कर्ता में सरक जाते हो, और तुम होते हो अहंकार। तुम कर्ता से बाहर सरक जाते हो और पहुंच जाते हो द्रष्टा में, और तुम समर्पित हो, अब तुम अहंकार न रहे।

दूसरा प्रश्न :

 

आप चेतना के शिखर पर हैं आप उत्सव मना सकते हैं आप उत्सव मना रहे हैं। लेकिन एक साधारण आदमी कैसे आपके साथ हिस्सा ले सकता है उत्सव में?

कोई साधारण नहीं है। किसने कहां तुमसे कि तुम साधारण हो? कहां से पायी है तुमने यह अवधारणा कि तुम साधारण हो? हर कोई असाधारण है! ऐसा होना ही चाहिए। परमात्मा कभी भी साधारण आदमी निर्मित नहीं करता है। परमात्मा कैसे बना सकता है साधारण आदमी? हर कोई विशिष्ट है, असाधारण है। लेकिन ध्यान रहे, इससे पोषित मत कर लेना तुम्हारे अहंकार को। यह तुम पर निर्भर नहीं करता कि तुम असाधारण हो, यह बात परमात्मा की ओर से है।

तुम आते हो समग्र में से, तुम समग्र में बद्धमूल रहते हो, तुम तिरोहित हो जाते हो समग्र में—और समग्र असाधारण है, अद्वितीय है। तुम भी अद्वितीय हो। लेकिन सभी धर्मों ने कोशिश की है कि तुम साधारण अनुभव करो। यह एक तरकीब है तुम्हारे अहंकार को उकसाने की। इसे समझने की कोशिश करना: जिस क्षण कोई कहता है कि तुम साधारण हो, वह तुम में आकांक्षा निर्मित करता है असाधारण होने की, क्योंकि तुम हीनता अनुभव करना शुरू कर देते हो।

अभी उस दिन एक आदमी यहां था और वह पूछने लगा कि ‘जीवन का उद्देश्य क्या है? जब तक कि मेरे लिए कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता, कैसे मैं जी सकता हूं? यदि कोई विशेष उद्देश्य है, तो जीवन महत्वपूर्ण है। यदि कोई विशेष उद्देश्य नहीं है, तो जीवन अर्थहीन है।’ वह पूछ रहा था, ‘कौन से खास उद्देश्य से परमात्मा ने मुझे बनाया है? संसार में मुझे क्या करने को भेजा गया है?’ यह है अहंकार का प्रश्न। वह साधारण अनुभव करता है—कुछ विशिष्ट नहीं।’तो कैसे कोई जी सकता है?’

तुम्हें अहंकारों का शिखर होना होता है, केवल तभी जीवन अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। जीवन अर्थपूर्ण है, और उसमें कोई उद्देश्य नहीं होता। वह तो उद्देश्यहीन अर्थ होता है, गीत की भांति, या नृत्य की भांति; फूल की भाति, एकदम बिना किसी उद्देश्य के वह खिल रहा होता है, किसी विशेष के लिए नहीं खिल रहा होता वह। यदि कोई सड़क पर से गुजरता भी न हो, फूल तो खिलेगा ही, सुगंध फैल जाएगी हवाओं में। यदि कोई कभी सूंघने भी न आए उसे, वह बात, तो अप्रासंगिक होती है। वह खिलना ही अर्थपूर्ण है, कोई उद्देश्य नहीं।

लेकिन तुम्हें तो सिखाया गया है कि ‘तुम साधारण हो। बड़े कवि बनो, बड़े चित्रकार बनो, जनता के बड़े नेता बनो, बड़े राजनेता बनो, बन जाओ बडे संत।’ जैसे तुम हो, सारे धर्म निंदा करते हैं तुम्हारी।’तुम कुछ नहीं हो, जमीन पर चलते बड़े कीड़े हो! कुछ बनो। प्रमाणित करो कि परमात्मा के सामने तुम कुछ हो’—जैसे कि तुम्हारा विशिष्ट रूप प्रमाणित करना हो। लेकिन मैं कहता हूं तुमसे कि यह बिलकुल व्यर्थ है। ये धर्म बातें किए जा रहे हैं अधर्म की। तुम्हें जरूरत नहीं कुछ प्रमाणित करने की। यह घटना ही कि ईश्वर ने तुम्हें निर्मित किया, काफी है; तुम स्वीकृत हुए। ईश्वर ने ममता से तुम्हें सम्हाला, यह पर्याप्त है। और ज्यादा क्या प्रमाणित कर सकते हो तुम?

तुम्हें बड़ा चित्रकार बनने की जरूरत नहीं; तुम्हें बड़ा नेता बनने की जरूरत नहीं; तुम्हें बड़ा संत बनने की जरूरत नहीं। बड़ा बनने की कोई जरूरत ही नहीं, क्योंकि तुम बड़े हो ही। इस पर ही है मेरा जोर; तुम पहले से ही वह हो, जो कि तुम्हें होना चाहिए। शायद तुमने इसे जाना न हो, जिसे मैं जानता हू। तुमने शायद अपनी सत्यता से साक्षात्कार न किया हो, जिसे कि मैं जानता हूं। तुमने शायद अपने भीतर झांककर देखा न हो और भीतर के उस सम्राट को न देखा हो, जिसे कि मैं जानता हूं। शायद तुम सोच रहे होओगे कि तुम भिखारी हो और सम्राट होने की कोशिश कर रहे हो। लेकिन जैसे कि मैं देखता हूं? तुम पहले से ही सम्राट हो।

उत्सव को स्थगित करने की जरा भी जरूरत नहीं है। तुरंत, ठीक इसी क्षण उत्सव मना सकते हो तुम। किसी और चीज की जरूरत नहीं। उत्सव मनाने को जीवन की जरूरत होती है, और जीवन तुम्हारे पास है। उत्सव मनाने को स्व—सत्ता की जरूरत होती है और स्व—सत्ता तुम्हारे पास है। उत्सव मनाने के लिए वृक्षों और पक्षियों और सितारों की जरूरत होती है, और वे वहा हैं। और किस चीज की जरूरत है तुम्हें? यदि तुम्हें ताज पहना दिया जाए, और बंद कर दिया जाए सोने के महल में, तो क्या तुम उत्सव मनाओगे? वस्तुत: तब ऐसा ज्यादा असंभव हो जाएगा। क्या तुमने कभी किसी सम्राट को सड़क पर हंसते और नाचते और गाते देखा है? नहीं, वह तो पिंजरे में बंद है, कैद है सभ्य व्यवहार हैं, शिष्टाचार हैं।

कहीं किसी जगह, बर्ट्रेड रसल ने लिखा है कि जब पहली बार वह बीहड़ पर्वतो में बसने वाली आदिवासियों की एक आदिम जाति को देखने गया, तो उसे ईर्ष्या हुई, बहुत ज्यादा ईर्ष्या हुई। उसने अनुभव किया कि जिस ढंग से वे नृत्य कर रहे थे—वह ऐसा था जैसे कि हर कोई सम्राट हो! उनके पास ताज न थे, लेकिन उन्होंने ताज बनाए हुए थे पत्तों के और फूलों के। हर स्त्री सम्राज्ञी थी। उनके पास कोहनूर न थे, तो भी जो कुछ था उनके पास, बहुत था, पर्याप्त था। सारी रात वे नाचते रहे और फिर वे सो गए, वहीं नाच के फर्श पर। सुबह वे फिर काम पर आ गए थे। सारा दिन काम किया था उन्होंने र और फिर सांझ तक वे तैयार थे उत्सव मनाने के लिए, नृत्य करने के लिए। रसल कहता है, ‘उस दिन मैंने सचमुच ईर्ष्या अनुभव की। मैं ऐसा नहीं कर सकता।’

कुछ गलत हो गया है। कोई चीज तुम्हें भीतर हताश करती है तुम नाच नहीं सकते, तुम गा नहीं सकते, कोई चीज रोके रखती है। तुम एक अपंग जिंदगी जीते हो। अपंग होना तुम्हारा भवितव्य न था, तो भी तुम जीते हो अपंग जीवन, तुम जीते हो एक लकवा खाया हुआ जीवन। और तुम सोचते चले जाते हो कि ‘साधारण होने से कैसे तुम उत्सव मना सकते हो? कुछ विशेष नहीं है तुम में।’ लेकिन किसने कहां तुमसे कि उत्सव मनाने के लिए किसी विशेष चीज की जरूरत होती है? वस्तुत: जितने ज्यादा तुम विशेष के पीछे पड़ते हो, उतना ज्यादा और कठिन हो जाएगा तुम्हारे लिए नृत्य करना।

साधारण होओ। साधारणता के साथ कुछ गलत नहीं है, क्योंकि तुम्हारी साधारणता में तुम असाधारण होते हो। इसकी फिक्र मत लो कि स्थितिया निर्णय करेंगी कि कब तुम उत्सव मनाओगे। यदि तुम फिक्र करते हो किन्हीं खास स्थितियों को पूरा करने की, तो क्या तुम सोचते हो कि तब तुम उत्सव मनाओगे? तब तुम कभी उत्सव नहीं मनाओगे, तुम भिखारी की भाति ही मरोगे। एकदम अभी ही क्यों नहीं? किस चीज की कमी है तुम्हारे पास? मेरे देखे यदि तुम बिलकुल अभी शुरू कर सकी, तो अचानक ऊर्जा बहने लगती है। और जितना ज्यादा तुम नृत्य करते, उतनी ज्यादा वह बह रही होती, उतने ज्यादा तुम सक्षम बनते। अहंकार की फूतइr के लिए स्थितियों की जरूरत होती है, जीवन की नहीं।

पक्षी गा सकते हैं और नाच सकते हैं, साधारण पक्षी! क्या तुमने देखा कभी किन्हीं असाधारण पक्षियों को गाते और नाचते? क्या वे पूछते हैं कि उन्हें पहले रविशंकर होना है या कि यहूदी मेनुहिन? क्या वे पूछते हैं कि पहले उन्हें बड़ा गायक होना है और सीखने के लिएg संगीत महाविद्यालय जाना है और तभी वे गाएंगे? वे तो बस सहज ही नाचते और गाते हैं, किसी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं।

आदमी पैदा हुआ है उत्सव मनाने की क्षमता लिए हुए। पक्षी तक उत्सव मना सकते हैं, तो तुम क्यों न मना सकोगे? लेकिन तुम तो अनावश्यक बाधाएं बना लेते हो, तुम बना लेते हो एक बाधा—दौड़ की दशा! बाधाएं कहीं नहीं होतीं। तुम उन्हें वहां बना लेते और फिर तुम कहते, ‘जब तक हम उन्हें लांघ नहीं लेते और उन पर से कूद नहीं जाते, कैसे हम नृत्य कर सकते हैं?’ तुम अपने विरुद्ध खड़े हो जाते हो बंट कर, तुम तब अपने शत्रु हो। संसार के सारे धर्मोपदेशक कहे जाते हैं कि तुम साधारण हो, तो कैसे तुम हिम्मत कर सकते हो उत्सव मनाने की? तुम्हें प्रतीक्षा करनी है। पहले बुद्ध होओ, पहले हो जाओ जीसस, मोहम्मद और फिर तुम उत्सव मना सकते हो!

लेकिन ठीक उल्टी है अवस्था यदि तुम नृत्य कर सको, तो तुम बुद्ध हो ही, यदि तुम उत्सव मना सको, तो तुम मोहम्मद ही हो, यदि तुम आनंदित हो सको, तो तुम जीसस हो। इसके विपरीत बात सच्ची नहीं; इसके विपरीत की बात एक झूठा तर्क है। वह कहता है: पहले बुद्ध होओ, तब तुम उत्सव मना सकते हो। लेकिन उत्सव मनाए बिना कैसे तुम बुद्ध हो जाझेगे?

मैं कहता हूं तुमसे, ‘उत्सव मनाओ, भूल जाओ सारे बुद्धों के बारे में!’ तुम्हारे उत्सव में ही तुम पाओगे कि तुम स्वयं बुद्ध हो गए हो। झेन फकीर सदा कहते हैं, ‘बुद्ध एक बाधा हैं, भूल जाओ उनके बारे में।’ बोधिधर्म कहां करते थे अपने शिष्यों से, ‘जब कभी बुद्ध का नाम लो, तुरंत धो लेना अपना मुंह। वह गंदा है, वह शब्द ही गंदा है। और बोधिधर्म शिष्य थे बुद्ध के। वे ठीक कहते थे। क्योंकि वे जानते थे कि तुम प्रतिमाएं बना सकते हो, आदर्श बना सकते हो, इसी ‘बुद्ध’ शब्द में से ही। और फिर पहले तो बुद्ध हो जाने की प्रतीक्षा करोगे तुम जन्मों—जन्मों तक और फिर तुम उत्सव मनाओगे! वैसा कभी होने वाला नहीं।

एक झेन फकीर, लिंची, कहां करता था अपने शिष्यों से, ‘जब तुम ध्यान में उतरो, तो सदा स्मरण रखना कि अगर बुद्ध मिल जाएं इस मार्ग में, तो तुरंत काट देना उन्हें दो में! एक क्षण को न आने देना उन्हें। वरना वे अधिकार बना लेंगे तुम पर और वे एक रुकावट बन जाएंगे।’ शिष्य ने पूछा, ‘लेकिन मैं जब ध्यान करता हूं बुद्ध आ जाते हैं,’….. और बुद्ध आते हैं बौद्धों के पास, जैसे कि जीसस आते हैं ईसाइयों के पास, असली बुद्ध नहीं, वह कहीं हैं नहीं जो कि मिलें….. ‘तो कैसे मैं काटू उनको? कहां से मैं पाऊं तलवार?’ गुरु ने कहां, ‘तुम्हें तुम्हारे बुद्ध कहां से मिले—कल्पना से ही न? तलवार भी ले आओ वहीं से, काट दो बुद्ध को दो भागों में और बढ़ जाओ आगे।’

यह स्मरण रहे कि बुद्धों के वचन, बुद्ध और उनके सभी वचन, एक सीधे—सरल वाक्य में, एक सूत्र में उतारे जा सकते हैं और वह वाक्य है ‘तुम वही हो जो तुम हो सकते हो।’ हो सकता है बहुत से जन्म लग जाएं तुम्हें यह जानने में; वह तुम्हारे निश्चय करने की बात है। लेकिन यदि तुम जाग जाते हो, तो एक पल भी नहीं गंवाया जाता।

‘तुम वही हो’, ‘तत्त्वमसि श्वेतकेतु।’ तुम पहले से ही वही हो, कुछ हो जाने की कोई जरूरत नहीं। होना, कुछ होने की कोशिश ही भ्रामक है। तुम हो, तुम्हें कुछ होना नहीं है। लेकिन धर्मोपदेशक तुमसे कहते हैं कि तुम साधारण हो और वे तुममें इच्छा जगा देते हैं असाधारण होने की। वे तुम्हें हीन कर देते और इच्छा जगा देते उच्चतर होने की। वे बना देते हैं हीन— भावना और तब तुम उनकी पकड़ में होते हो। तब वे तुम्हें सिखाते हैं कि कैसे उच्चतर होना है। पहले वे तुम्हारी निंदा करते हैं, तुम्हारे भीतर अपराध जगा देते हैं और फिर वे तुम्हें राह दिखाते हैं पुण्यात्मा होने की।

मेरे साथ तुम सचमुच ही कठिनाई में पड़ोगे। क्योंकि तुम्हारा मन तो ऐसा ही होना चाहेगा, क्योंकि यह बात तुम्हें समय देती है और मैं तुम्हें समय नहीं देता। मैं कहता हूं तुम वह हो ही। हर चीज तैयार है। उत्सव की शुरुआत करो, उसका उत्सव मनाओ। तुम्हारा मन कहता है, ‘लेकिन मुझे तो तैयार होना है।

थोड़े समय की जरूरत है।’ इसीलिए, इस स्थगन में उपदेशक आ जाते हैं, इस अंतराल में वे प्रवेश कर जाते हैं तुम्हारे अंतस में और तुम्हें नष्ट कर देते हैं। वे कहते, ‘ही, समय की तो जरूरत है। कैसे तुम बिलकुल अभी उत्सव मना सकते हो? तैयारी करो, प्रशिक्षित करो स्वयं को। बहुत सारी चीजें बाहर हटा देनी हैं, बहुत सारी चीजों को सुधारना है। तुम्हें चाहिए एक लंबा प्रशिक्षण और अनुशासन। इसमें बहुत से जन्म लग सकते हैं—लंबे प्रशिक्षण और अनुशासन के। बहुत सारे जन्म लग सकते हैं और केवल तभी तुम उत्सव मना पाओगे। बिलकुल अभी कैसे उत्सव मना सकते हो तुम?’ वे तुम्हें जंचते हैं, क्योंकि तब तुम आराम कर सकते हो। और तुम कह सकते हो कि ठीक है तब। अगर यह लंबे समय का ही प्रश्न है तो बिलकुल अभी तो कोई समस्या ही नहीं है। जो कुछ हम कर रहे हैं उसे हम किए चले जा सकते हैं। भविष्य में किसी दिन, एक सुनहरा कल, एक इंद्रधनुषी चीज: जब वह उपलब्ध हो जाएगी, तो तुम नृत्य करोगे।

इस बीच तुम दुखी हो सकते हो, इस बीच तुम स्वयं को दुखी कर सकते हो, इस बीच तुम सुख पा सकते हो स्वयं को पीड़ा पहुंचाने का! यह तुम पर निर्भर है। यदि तुम दुख के हक में निर्णय लेते हो, तो कोई जरूरत नहीं उसके आसपास ज्यादा दर्शनशास्त्र खड़ा कर लेने की। तुम सीधे—सीधे कह सकते हो, ‘मुझे दुख में रस है!’

यह सचमुच ही आश्चर्यजनक बात है कि कोई कभी पूछता नहीं कि बिलकुल अभी मैं कैसे दुखी हो सकता हूं? अनुशासन चाहिए, प्रशिक्षण चाहिए। मुझे कई पतंजलियो के पास जाना होगा और पूछना होगा बड़े गुरुओं से और तभी मैं सीखूंगा कि कैसे दुखी होऊं।

ऐसा लगता है कि दुखी होने के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं चाहिए; तुम दुखी होने के लिए ही पैदा हुए हो। तो फिर आनंद के लिए प्रशिक्षण क्यों चाहिए? दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि तुम बिना किसी प्रशिक्षण के दुखी हो सकते हो, तो तुम आनंदित भी हो सकते हो बिना प्रशिक्षण के ही। स्वाभाविक रहो, निर्मुक्त और बस अनुभव करो चीजों को। और प्रतीक्षा मत करो—आरंभ कर दो। यदि तुम्हें लगता भी हो कि तुम नाचने का सही ढंग नहीं जानते, तो भी शुरू कर दो नर्तन।

मैं नहीं कह रहा हूं कि नर्तन तुम्हारी कला होने वाली है। कला के लिए प्रशिक्षण की जरूरत पड़ सकती है। मैं इतना ही कह रहा हूं कि नर्तन केवल एक दृष्टिकोण है। सही ढंग न जानते हुए भी तुम नृत्य कर सकते हो। और यदि तुम नृत्य कर सको, तो कौन परवाह करता है। सही पदसंचालन की! नृत्य स्वयं में पर्याप्त होता है। वह तुम्हारी ऊर्जा का अतिरिक्त उमडाव होता है। यदि वह स्वयं ही कला बन जाता है तो ठीक बात है; यदि वह नहीं बनता, तो भी ठीक है। वह पर्याप्त होता है स्वयं में, पर्याप्त से ज्यादा। किसी और चीज की जरूरत नहीं है।

इसलिए मत कहना मुझसे, ‘आप चेतना के शिखर पर हैं।’ तुम कहां हो? तुम क्या सोचते हो कि कहां हो? तुम्हारी घाटी तुम्हारे स्वप्‍नों में है। तुम्हारा अंधकार है क्योंकि तुम्हारी आंखें बंद हैं, अन्यथा तुम वहीं हो जहां मैं हूं। ऐसा नहीं है कि तुम घाटी में हो और मैं शिखर पर हूं। मैं शिखर पर हूं और तुम भी शिखर पर हो लेकिन तुम घाटी का स्वप्न देखते हो। मैं पूना में रहता हूं तुम भी पूना रहते हो। लेकिन जब तुम सो जाते हो, तो तुम स्वप्न देखने लगते लंदन के और न्यूयार्क के और कलकत्ता के, और तुम घूम आते हजारों जगह। मैं कहीं नहीं जाता; अपनी नींद में भी, मैं पूना में होता हूं। लेकिन तुम घूमते रहते हो।

तुम उसी शिखर पर हो जहां कि मैं हूं बस बात यही है कि तुम्हारी आंखें बंद हैं। तुम कहते, ‘बहुत अंधेरा है!’ मैं बात करता प्रकाश की और तुम कहते, ‘ आप जरूर कहीं और होंगे, किसी ऊंचे शिखर पर। हम अंधकार में जीने वाले साधारण लोग हैं।’ लेकिन मैं देख सकता हूं कि तुम उसी शिखर पर बैठे हो आंखें बंद किए हुए। तुम्हें तुम्हारी नींद में से बाहर ला पटकना है, झटका देकर। और तब तुम देखोगे कि घाटी का कभी अस्तित्व ही न था। अंधकार वहां नहीं था, केवल तुम्हारी ही आंखें बंद थीं। झेन गुरु ठीक करते हैं। वे कोई न कोई लट्ठनुमा चीज लिए रहते हैं और वे पीटते हैं अपने शिष्यों को। और ऐसा बहुत बार हुआ है कि जब वह लह पड़ रहा होता है शिष्य के सिर पर, तो अचानक वह अपनी आंखें खोल देता है और हंसने लगता है। वह कभी नहीं जान पाया था कि वह उसी शिखर पर है या जो कि वह देख रहा था एक स्वप्न था।

जाग जाओ। और यदि तुम जाग जाना चाहते हो, तो उत्सव बहुत ज्यादा मदद देगा। जब मैं कहता हूं ‘उत्सव मनाओ ‘, तो उससे मेरा मतलब क्या होता है? मेरा मतलब है कि जो कुछ तुम करते हो, उसे कर्तव्य की भाति मत करना, उसे तुम्हारे प्रेम के कारण करना, उसे बोझ की भांति मत करना, उसे करना उत्सव की भांति। तुम ऐसे खाना खा सकते हो जैसे कि वह तुम्हारा कर्तव्य हो उदास, बुझे हुए, मुरदा, असंवेदनशील। तुम भोजन तुम्हारे भीतर फेंक सकते हो बिना कभी चखे ही, बिना कभी उसे महसूस किए ही। यह जीवन है उसे पूरा जीओ। उसके प्रति इतने असंवेदनशील मत होओ। भारत के लोगों ने कहां है, ‘अन्न ब्रह्म’, अन्न ब्रह्म है। यह उत्सव है: तुम भोजन कर रहे हो ब्रह्म का, तुम ईश्वर को खा रहे हो भोजन के द्वारा, क्योंकि केवल ईश्वर अस्तित्व रखता है। जब तुम फव्वारे के नीचे स्नान कर रहे होते हो, तो वह ईश्वर ही बरस रहा होता है क्योंकि केवल ईश्वर का अस्तित्व है। जब तुम सुबह की सैर को जाते, तो वह ईश्वर ही होता है सैर के समय। और वह हवा का झोंका भी ईश्वर है, और वे पेडू भी ईश्वर हैं। हर चीज इतनी दिव्य है, कैसे तुम हो सकते हो उदास, मुरदा और बुझे हुए; जीवन में ऐसे चल फिर रहे हो जैसे कि तुम कोई बोझा ढो रहे हो।

जब मैं कहता हूं, ‘उत्सव मनाओ’, तो मेरा मतलब होता है कि हर चीज के प्रति और ज्यादा संवेदनशील हो जाओ। जीवन में नृत्य एक अलग बात नहीं होनी चाहिए। सारा जीवन ही एक नृत्य हो जाना चाहिए; उसे होना ही चाहिए नृत्य। तुम जा सकते हो सैर पर और कर सकते हो नृत्य।

जीवन को तुममें प्रवेश करने दो, ज्यादा खुले हो जाओ और ज्यादा संवेदनशील। ज्यादा महसूस करो, ज्यादा अनुभूतिशील होओ। ऐसी अपूर्वताओं से भरी हुई छोटी—छोटी चीजें चारों ओर पड़ी हुई हैं। जरा देखना एक छोटे बच्चे को। छोड़ दो उसे बगीचे में और बस देखो। वही होना चाहिए तुम्हारा ढंग भी। इतना अदभुत, विस्मय से भरपूर : इधर तितली को पकड़ने को दौड़ रहा, तो उधर किसी फूल को लेने भाग रहा होता, कीचड़ से खेल रहा होता, रेत पर लोट—पोट रहा होता। हर तरफ से दिव्यता छू रही होती है बच्चे को।

यदि तुम विस्मय में जी सकते हो तो तुम उत्सव मनाने में सक्षम हो जाओगे। ज्ञान में मत जीओ; विस्मय—विमुग्धता में जीओ। तुम कुछ जानते नहीं। जीवन अनोखा है हर कहीं, यह एक निरंतर आश्चर्य— जनक घटना है। आश्चर्य की भाति जीओ इसे; अनुमान के बाहर की घटना: हर पल नया है। जरा कोशिश करो, आजमाओ इसे। तुम कुछ गंवाओगे नहीं यदि तुम थोड़ी कोशिश करो इसके लिए, और तुम पा सकते हो हर चीज। लेकिन तुम तो दुख के प्रति आसक्त हो गए हो। तुम चिपके रहते हो अपने दुख से जैसे कि वह कोई बहुत कीमती चीज हो। जान लो अपनी आसक्ति को।

जैसा कि मैंने कहां तुमसे, दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं: पर—पीड़क और स्व—पीड़क। पर—पीड़क दूसरों को यातना दिए जाते हैं, स्व—पीड़क अपने को ही यातना पहुंचाए जाते हैं।

एक प्रश्न पूछा है किसी ने ‘क्यों लोग ऐसे हैं या तो दूसरों को पीड़ा देते हैं या फिर वे स्वयं को ही पीडित करते रहते हैं? जीवन में इतनी ज्यादा आक्रामकता और हिंसा क्यों है?’

ह एक नकारात्मक अवस्था होती है। तुम पीड़ा देते हो, क्योंकि तुम आनंदित नहीं हो सकते। तुम पीड़ित करते, हिंसात्मक हो जाते, क्योंकि तुम प्रेम नहीं कर सकते हो। तुम क्रूर बन जाते हो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि करुणामय कैसे हुआ जाता है। वह एक नकारात्मक अवस्था होती है। वही ऊर्जा जो कि क्रूरता होती है, करुणा बन जाएगी। सोए हुए मन के साथ ऊर्जा हिंसा बन जाती है। जागे हुए मन के साथ वही ऊर्जा करुणा बन जाती है। सोए होते हो तो वही ऊर्जा एक पीड़ा बन जाती है, या तो तुम्हारी या किसी और की। जब तुम जागे हुए होते हो, तो वही ऊर्जा प्रेम बन जाती है—तुम्हारे अपने लिए और दूसरों के लिए भी। जीवन तुम्हें अवसर देता है, लेकिन किसी चीज के गलत हो जाने के हजारों कारण होते हैं।

क्या कभी तुमने ध्यान दिया कि यदि कोई दुखी होता है, तो तुम सहानुभूति दिखाते हो, तुम बहुत प्रेम अनुभव करते हो? वह ठीक प्रकार का प्रेम नहीं होता है, तो भी तुम दिखाते हो सहानुभूति। यदि कोई प्रसन्न होता है, उत्सवमय, आनंदपूर्ण होता है तो तुम ईर्ष्या अनुभव करते हो, तुम्हें बुरा लगता है। बहुत कठिन होता है प्रसन्न व्यक्ति के साथ सहानुभूति अनुभव करना। बहुत कठिन होता है खुश आदमी के लिए भलाई अनुभव करना। तुम्हें भला लगता है, जब कोई अप्रसन्न होता है। कम से कम तुम सोच सकते हो कि तुम उतने अप्रसन्न नहीं और तुम कुछ ऊंचे हो; तुम सहानुभूति जताते हो।

एक बच्चा जन्मता है और वह बच्चा चीजें सीखने लगता है। देर— अबेर वह जान लेता है कि जब वह दुखी होता है, तो वह सारे परिवार का ध्यान आकर्षित कर लेता है। वह बन जाता है केंद्र और हर कोई उसके लिए सहानुभूति प्रकट करता है, हर कोई उससे प्रेम अनुभव करता है। जब कभी वह आनंदित होता है और स्वस्थ होता है और हर चीज ठीक होती है, तो कोई फिक्र नहीं करता उसकी—इसके विपरीत, हर कोई नाखुश जान पड़ता है। बच्चा कूद रहा हो और दौड़ रहा हो, और सारा परिवार नाखुश होता है। बच्चा बिस्तर में बीमार पड़ा हो, और सारा परिवार सहानुभूतिपूर्ण होता है। बच्चा जानना शुरू कर देता है कि किसी न किसी कारण बीमार होना, दुखी होना अच्छा ही होता है; खुश होना और नाचना और कूदना और जीवंत रहना बुरा है। वह सीख रहा होता है यह और इसी तरह ही तुमने सीखा है।

मेरे देखे, जब कोई बच्चा खुश होता है, कूद रहा होता है, तो सारे परिवार को खुश होना चाहिए और कूदना चाहिए बच्चे के साथ। और जब बच्चा बीमार होता है, तब बच्चे का ध्यान रखना चाहिए, लेकिन कोई सहानुभूति नहीं दिखानी चाहिए। ध्यान रखना ठीक है; सहानुभूति ठीक नहीं। अ—प्रेम,

तटस्थ—सतह पर तो बड़ा कठोर लगेगा? बच्चा बीमार है और तुम तटस्थ हो। ध्यान रखना, दवाई देना, लेकिन तटस्थ रहना, क्योंकि एक बड़ी सूक्ष्म घटना घट रही होती है। यदि तुम सहानुभूति और करुणा और प्रेम अनुभव करते हो और तुम इसे जता देते हो बच्चे को, तो तुम हमेशा के लिए नष्ट कर रहे होते हो बच्चे को। अब वह चिपकेगा दुख के साथ, दुख कीमती बन जाता है। और जब कभी वह कूदता है और नाचता है और खुशी में चीखता है चारों तरफ और घर में दौड़ता फिरता है, तो हर कोई चिढ़ा होता है। उस क्षण उत्सव मनाओ, डूबो उसके साथ, और सारा संसार अलग जान पड़ेगा।

लेकिन अभी तक समाज गलत ढांचों पर ही बना रहा है, और वे ढांचे स्थायित्व पा लेते हैं। इसलिए तुम दुख से चिपकते हो। तुम मुझसे पूछते हो, ‘हमारे जैसे साधारण आदमी के लिए यह कैसे संभव है कि बिलकुल अभी उत्सव मनाए—यही और अभी? नहीं, वैसा संभव नहीं है।’ किसी ने कभी तुम्हें उत्सव मनाने नहीं दिया। तुम्हारे माता—पिता तुम्हारे मन में बैठे हैं। तुम्हारी मृत्यु के क्षण तक तुम्हारे माता—पिता तुम्हारा पीछा करते हैं। निरंतर वे तुम्हारे पीछे लगे रहते हैं, चाहे वे मर भी चुके हैं। मा—बाप बहुत ज्यादा विनाशकारी हो सकते हैं, अभी तक वे ऐसे ही रहे हैं। मैं नहीं कह रहा कि तुम्हारे माता—पिता जिम्मेदार हैं, क्योंकि सवाल उनका नहीं। उनके माता—पिता ने भी यही कुछ किया था उनके साथ। सारा ढांचा—ढर्रा ही गलत है, मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है। ऐसी बातों के भी कारण होते हैं। इसलिए ऐसी गलत बात चलती ही चली जाती और उसे रोका नहीं जा सकता। वैसा करना असंभव जान पड़ता है।

निस्संदेह इसके कारण होते हैं। पिता के अपने कारण होते हैं हो सकता है वह अखबार पढ़ रहा हो और बच्चा कूदता हो और चीखता हो और हंसता हो, लेकिन तो भी एक पिता को तो ज्यादा समझदार होना चाहिए। अखबार किसी मूल्य का नहीं। यदि तुम उसे चुपचाप पढ़ भी लो, तो क्या मिलने वाला है तुम्हें उससे? फेंक दो अखबार को! लेकिन पिता तो है राजनीति में, व्यापार में, और उसे जानना है इस बारे में कि क्या घट रहा है। वह महत्वाकांक्षी है और अखबार उसकी महत्वाकांक्षा का एक हिस्सा है। यदि किसी को कोई महत्वाकांक्षा पूरी करनी होती है, कोई लक्ष्य पाने होते हैं, तो उसे जानना पड़ता है संसार को। बच्चा गड़बड़ी पैदा करने वाला जान पड़ता है।

मां भोजन पका रही होती है और बच्चा प्रश्न पूछता जाता है और कूदता जाता है और वह चिड़चिड़ा जाती है। मैं जानता हूं कि कई समस्याएं हैं, मां को भोजन पकाना होता है। लेकिन बच्चा पहले स्थान पर होना चाहिए, क्योंकि बच्चा संसार बनने वाला है, बच्चा आनेवाला कल बनने वाला है, बच्चा होने वाला है आने वाली मानवता। उसे होना चाहिए पहला, प्राथमिकता उसकी होनी चाहिए। अखबार तो बाद में भी पढ़े जा सकते हैं, और यदि न भी पढ़े जाएं, तो तुम कुछ ज्यादा नहीं गवांओगे। वही बकवास हर रोज चलती छ स्थान बदल जाते, नाम बदल जाते, लेकिन वही बकवास चलती चली जाती है। तुम्हारे अखबार तो बिलकुल विक्षिप्त हैं।

भोजन बनाने में थोड़ी देर की जा सकती है, लेकिन बच्चे की जिज्ञासा विलंबित नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि बिलकुल अभी वह एक भावदशा में था और हो सकता है वह मौज, वह तरंग फिर न आए। बिलकुल अभी वह भाव की गरिमा से भरा है और कोई बात संभव है। लेकिन क्या तुमने ऐसी माताओं को देखा है जो बच्चों के साथ नाच रही होती, कूद रही होतीं, जमीन पर लोटती हुई खेल कर आनंदित हो रही होतीं?—नहीं। माताएं तो गंभीर होती हैं, पिता बहुत गंभीर होते हैं, वे संसार भर को कंधों पर लिए फिरते हैं। और बच्चा तो बिलकुल अलग ही संसार में जीता है। तुम जबर्दस्ती करते हो कि वह तुम्हारे उदास संसार में, जीवन के प्रति दुखी दृष्टिकोण में प्रवेश करे। वह बच्चे की भांति विकसित हो सकता था, वह इस गुणधर्म को सम्हाल सकता था—आश्चर्य, विस्मय के गुणधर्म को और यहां अभी होने के, क्षण में जीने के गुणधर्म को।

इसे मैं कहता हूं सच्ची क्रांति। कोई और दूसरी क्रांति मनुष्य की मदद न करेगी—फ्रांसीसी, रूसी या चीनी, कोई क्रांति मनुष्य: की मदद न करेगी, किसी ने मदद की नहीं। माता—पिता और बच्चे के बीच मूल रूप से वही ढांचा चलता आता है। और इसका कारण होता है। तुम निर्मित कर सकते हो एक कम्युनिस्ट संसार, लेकिन वह कोई ज्यादा अलग नहीं होगा पूंजीपतियों के संसार से। लेबल केवल सतह पर ही अलग होंगे। तुम बना सकते हो समाजवादी दुनिया, तुम बना सकते हो गांधीवादी दुनिया, लेकिन वह अलग नहीं होगी। क्योंकि आधारभूत क्रांति तो होती है—माता—पिता और बच्चे के बीच। अंतर्संबंध होता है कहीं माता—पिता और बच्चे के बीच, और यदि वह अंतर्संबंध नहीं बदलता, तो संसार उसी चक्र में घूमता जाएगा।

जब मैं यह कहता हूं तो मेरा यह मतलब नहीं कि मैं तुम्हें दुखी होने का एक बहाना दे रहा हूं। मैं तो तुम्हें केवल व्याख्या देता हूं ताकि तुम जाग सकी। इसलिए अपने मन में यह कहने की कोशिश मत करना कि ‘ अब क्या किया जा सकता है? मैं चालीस या पचास या साठ का हो ही गया हूं; मेरे माता—पिता मर चुके हैं और यदि वे जीवित भी होते तो भी मैं अतीत से मुक्त कैसे हो सकता था? वह घट चुका है, इसलिए मुझे वैसे ही जीना है जैसा कि मैं हूं।’ नहीं, यदि तुम समझ लो, तो तुम इसमें से एकदम बाहर आ सकते हो। उससे चिपकने की जरूरत नहीं है।

तुम फिर से बच्चे बन सकते हो। जीसस ठीक कहते हैं, ‘जो छोटे ब च्चों की भांति हैं, केवल वही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर पाएंगे।’ बिलकुल ठीक है बात। केवल वे ही जो छोटे बच्चों की भाति हैं:! यही है क्रांति: सबको छोटे बच्चे की भांति बना देना। शरीर विकसित हो सकता है लेकिन चेतना की गुणवता निर्दोष रहनी चाहिए, एकदम ताजा, बच्चे की भांति।

तुम वहा हो ही, जहां कि तुम्हें होना चाहिए। तुम उसी स्थान पर ही हो, जिसे तुम खोज रहे हो। दुख से बनी आसक्ति से जरा बाहर आने का थोड़ा—सा प्रयास कर लो। दुख से नाता मत बनाओ, उत्सव से जुडो। तुम जीवन के प्रति एक कदम बढ़ाते हो और जीवन तुम्हारे प्रति एक हजार कदम बढ़ाता है। जरा एक कदम बाहर आ जाना दुख से बनी आसक्ति में से। मन तुम्हें पीछे ही खींचता जाएगा। बस उदासीन बने रहना मन के प्रति और कह देना मन से, ‘ठहर जाओ। मैं बहुत जी लिया तुम्हारे साथ, अब मुझे बिना मन के जीने दो।’ ऐसा ही होता है एक बालक : मन के बिना जीता है या जीता है अ—मन के साथ।

तीसरा प्रश्न :

 

कई बार संवेदनशीलता के साथ एक नकारात्मक भाव— दशा मुझ में क्यों बनने लगती है?

कारात्मक और विधायक दोनों ही भाव—दशाएं विकसित होंगी। यदि तुम बहुत ज्यादा प्रसन्न होना चाहते हो, तो साथ—साथ बहुत ज्यादा अप्रसन्न होने की क्षमता भी विकसित होगी। यदि तुम चाहते हो कि नकारात्मक नहीं विकसित होनी चाहिए, तो तुम्हें विधायक को भी काट देना पड़ता है। ऐसा ही हुआ है। तुम्हें सिखाया जाता रहा है कि क्रोध मत करना, लेकिन यदि तुम क्रोधित होने में सक्षम नहीं होते, तो करुणा का अभाव रहेगा। तब तुम करुणामय नहीं हो पाओगे। तुम्हें सिखाया जाता रहा है :कि घृणा मत करो, लेकिन फिर तो प्रेम का अभाव रहेगा; तुम प्रेम नहीं कर पाओगे—और यही है दुविधा।

प्रेम और घृणा एक साथ विकसित होते हैं। वस्तुत: वे दो चीजें नहीं हैं। भाषा तुम्हें गलत प्रभाव दे देती है। हमें प्रेम और घृणा—ये शब्द प्रयोग नहीं करने चाहिए, हमें प्रयोग करना चाहिए प्रेमघृणा : यह हुआ एक शब्द, वहां उनके बीच एक जुड़ाव—रेखा तक नहीं होनी चाहिए—प्रेमघृणा—एक हाइफन तक नहीं। क्योंकि वह भी दर्शाएगा कि वे दो हैं, लेकिन किसी तरह जुड़ गए हैं। वे एक हैं। प्रकाश— अंधकार वे एक हैं, जीवन—मृत्यु, वे एक हैं। यही सारी समस्या रही है मानव—मन की। करोगे क्या? क्योंकि यदि प्रेम विकसित होता है तो घृणा करने की क्षमता भी विकसित होती है।

इसीलिए केवल दो संभावनाएं होती हैं, या तो घृणा को विकसित होने दो प्रेम के साथ, या प्रेम को मार दो घृणा के साथ। और आज तक दूसरा विकल्प चुना गया है। सभी धर्मों ने दूसरा विकल्प चुन लिया है—घृणा को काट देना है, क्रोध को: काट देना है। इसीलिए वे: बस प्रेम का उपदेश दिए चले जाते हैं और वे सब कहते रहते हैं, ‘घृणा मत करना।’ उनका प्रेम आडंबर बन जाता है; वह केवल वार्तालाप होता है। ईसाई बात किए जाते हैं प्रेम की—वह संसार की सबसे अधिक आरोपित बात होती है।

ऐसा ही है जीवन विपरीतताए वहां साथ—साथ हैं। जीवन एक ध्रुव के साथ अस्तित्व नहीं रख सकता, उसे चाहिए दो ध्रुवताएं साथ— साथ: नकारात्मक और विधायक विद्युत— ध्रुव, पुरुष और स्त्री। क्या तुम केवल पुरुष वाले संसार की कल्पना कर सकते हो? वह एक मृत संसार होगा। पुरुष और स्त्री वे दो ध्रुव हैं, वे साथ—साथ अस्तित्व रखते हैं। वस्तुत: ‘पुरुष और स्त्री’ कहना ठीक नहीं : उनके बीच बिना कोई लकीर लाए कहना चाहिए ‘पुरुषस्त्री’, वे एक साथ अस्तित्व रखते हैं।

घृणा के साथ कुछ गलत नहीं यदि वह प्रेम का ही हिस्सा हो तो। यह मेरी देशना है। क्रोध कुछ गलत नहीं यदि वह करुणा का हिस्सा है—तो वह सुंदर है। क्या तुम पसंद नहीं करोगे कि बुद्ध तुम पर क्रोध करें? यह बात आशीष की भांति होगी, एक अनुग्रह, कि बुद्ध तुम पर क्रोध करें। करुणा के वृहत्तर संसार में क्रोध भी सुंदर हो जाता है, वह समा लिया जाता है।

प्रेम के प्रति विकसित होओ और घृणा को भी विकसित होने दो, उसे तुम्हारे प्रेम का ही हिस्सा होने दो। मैं तुमसे प्रेम को घृणा के विरुद्ध रखने को नहीं कहता हूं; नहीं। मैं तुमसे घृणा सहित प्रेम करने को कहता हूं और ऊर्जा का एक महिमावान बदलाव, एक रूपांतरण घटेगा। तुम्हारी घृणा इतनी सुंदर होगी, उसकी गुणवत्ता प्रेम की भांति ही होगी। कई बार होना पड़ता है क्रोधित और यदि तुम सचमुच ही करूणा करते हो, तो तुम क्रोध का उपयोग तुम्हारी करुणा के लिए करते हो।

सदा याद रखना कि ध्रुवता मौजूद है—इसे सामंजस्यता कैसे देनी होती है? पुराना ढंग था उन्हें अलग काट देने का : घृणा को गिराने का और बिना घृणा के प्रेममय होने की कोशिश करने का। तब प्रेम एक ढोंग हो जाता है, क्योंकि ऊर्जा वहा नहीं रहती। और तुम इतने भयभीत होते हो प्रेम से, क्योंकि तुरंत घृणा विकसित होने लगेगी। घृणा विकसित होने के भय से, प्रेम का दमन हो जाता है। तब तुम प्रेम के बारे में बोलते हो, लेकिन तुम सचमुच प्रेम नहीं करते। तब तुम्हारा प्रेम मात्र एक वार्तालाप बन जाता है, एक मौखिक बात—जीवंत और अस्तित्वगत नहीं।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जाओ और घृणा करने लगो। मैं कह रहा हूं प्रेम करो, प्रेम के साथ विकसित होओ। और निस्संदेह घृणा तो विकसित होगी उसके साथ। उसकी फिक्र मत करना। तुम प्रेम सहित विकसित होते जाना और घृणा सोख ली जाएगी प्रेम द्वारा। प्रेम इतना विशाल होता है कि वह घृणा को सोख सकता है। करुणा बड़ी होती है, इतनी विशाल कि क्रोध का अंश समाया जा सकता है उसके द्वारा। वह ठीक है। सच है, बिना क्रोध की करुणा बिना नमक के भोजन की भाति होगी। उसमें नमक न होगा, ऊर्जा न होगी। वह बेस्वाद होगी, बासी।

निस्संदेह, नकारात्मक सदा विकसित होगा विधायक के साथ। उदाहरण के लिए, यदि एक समाज अस्तित्व रखता है जो कहता है कि ‘तुम्हारे शरीर का बायां हिस्सा गलत है, इसलिए उसे विकसित मत होने दो, शरीर का केवल दायां हिस्सा ही ठीक है, इसलिए शरीर के दाएं हिस्से को विकसित होने दो और शरीर के बाएं हिस्से का दमन होने दो, उसे पूरी तरह काट दो’—तो क्या घटेगा? या तो तुम पंगु हो जाओगे, क्योंकि यदि तुम बायें को विकसित न होने दो, तो दायां विकसित न होगा, वे साथ—साथ विकसित होते हैं, या तुम अर्धविकसित रह जाओगे, जैसे कि बहुत से मनुष्य अर्धविकसित रह गए हैं, या तुम पाखंडी बन जाओगे। तुम छिपाओगे तुम्हारा बायां हिस्सा और तुम कहोगे कि तुम्हारे पास केवल दाया हिस्सा है। और तुम कहीं न कहीं सदा छिपाए रहोगे बायां हिस्सा। तुम पाखंडी हो जाओगे—नकली, अप्रामाणिक, एक झूठ, एक जीवंत झूठ—जैसे कि धार्मिक लोग होते हैं।

सौ में से निन्यानबे तथाकथित धार्मिक लोग झूठे हैं, नितांत झूठे, क्योंकि जो वे कहते हैं कि वे घृणा नहीं करते हैं, यह असंभव है। यह अस्तित्व के गणित के ही विरुद्ध है। वे झूठे ही होंगे। उनकी निजी अवस्था में कोई खोज करने की कोई जरूरत नहीं, यह प्रकृति के विरुद्ध है, यह संभव नहीं। निन्यानबे प्रतिशत पाखंडी हैं और एक प्रतिशत सीधे—सादे लोग हैं। ये निन्यानबे प्रतिशत चालाक, होशियार लोग हैं। वे बायां भाग छिपा लेते हैं। दोनों हिस्से समान रूप से विकसित होते हैं, लेकिन एकदम छिपा लेते हैं बायां भाग और बात करते हैं दाएं भाग की। संसार को तो वे दिखाते हैं दाया भाग और बायां भाग उनका निजी संसार होता है। उनके घरों में पीछे के दरवाजे होते हैं। आगे के द्वार पर वे बात कर रहे होते हैं कुछ और। एक प्रतिशत जो निर्दोष लोग हैं, सीधे—सरल, बहुत जोड़—तोड़ बैठाने वाले या बौद्धिक नहीं, चालाक नहीं, वे बुद्धिहीन बने रहते हैं। वे सचमुच ही दमन करते हैं, और जब वे दमन करते हैं बाएं का, तब दाएं का दमन हो जाता है। वे बने रह जाते हैं बुद्धिहीन।

मेरा मिलना हुआ है दो प्रकार के धार्मिक लोगों से निन्यानबे प्रतिशत पाखंडी और एक प्रतिशत बुद्धिहीन! लेकिन सारी जमात ही व्यर्थ है। सारी जमात ही बोझ है; सारी बात ही है एक मूढ़ता। मैं नहीं चाहूंगा कि तुम वैसे हो जाओ, मैं नहीं चाहूंगा कि तुम पंगु और बौने रहो, हीनता में जीयों। तुम्हें विकसित होना है तुम्हारी पूरी ऊंचाई तक। लेकिन वैसा संभव है तभी यदि नकारात्मक और विधायक दोनों को स्वतंत्रता मिले। दोनों तुम्हारे पंख हैं। कैसे पक्षी उड़ सकता है एक पंख के साथ? कैसे तुम चल सकते हो एक पैर के साथ? यह बात अस्तित्व रखती है जीवन की प्रत्येक सतह पर : दो की जरूरत होती है—विपरीतता में। वे तनाव देतीं और देतीं गति की संभावना। वे एक—दूसरे के विपरीत जान पड़ती हैं,

लेकिन वे होती हैं पूरक। वस्तुत: वे विपरीत नहीं होतीं, केवल ध्रुव विपरीत होते हैं। वे परस्पर मदद देते हैं विकसित होने में। मैं चाहूंगा कि तुम अपनी चरम ऊंचाई तक विकसित होओ, और मैं यह भी न चाहूंगा कि तुम पाखंडी बनो। तुम बनी सच्चे और स्वाभाविक।

तो तुम्हारे लिए मेरा संदेश क्या है? मेरा संदेश है : प्रेम बड़ा है, इतना बड़ा कि तुम्हें घृणा की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। घृणा को उसका हिस्सा बनने दो, उसे विकसित होने दो। वह तुम्हारे स्वाद में नमक मिलाएगी। करुणा विशाल होती है; एक छोटा—सा आकाश का टुकड़ा घृणा के नाम किया जा सकता है—उसमें कुछ बुरा नहीं। लेकिन क्रोध, करुणा का ही हिस्सा होना चाहिए। क्रोध अलग नहीं होना चाहिए, उसे करुणा का ही हिस्सा होना चाहिए। घृणा प्रेम का हिस्सा होनी चाहिए। और मृत्यु जीवन का हिस्सा होनी चाहिए। पीड़ा सुख का, दुख उत्सव का, मंगलमय आशीष का हिस्सा होना चाहिए; अंधकार को प्रकाश का हिस्सा होना चाहिए। और फिर कुछ गलत नहीं, कोई पाप नहीं। पाप को पुण्य का ही हिस्सा होना चाहिए।

विशाल बनो। उठो अपनी परम ऊंचाई तक। बौने मत बने रहो। यदि तुम बौने—बने रहे तो तुम सदा शिकायत करते रहोगे परमात्मा के खिलाफ, क्योंकि कैसे तुम परितृप्त अनुभव कर सकते हो? अपनी ऊंचाई तक उठो और भयभीत मत होओ। नकारात्मक बढ़ेगा तुम्हारे साथ, वह सुंदर है। नकारात्मक एक भाग है, पूरक है। तो भी नकारात्मक एक हिस्सा ही होना चाहिए विधायक का। ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि वह नकारात्मक है। नकारात्मक संपूर्णता नहीं बन सकता और विधायक एक हिस्सा नहीं बन सकता नकारात्मक का। इसे समझ लेना है।

जीवन कैसे एक भाग बन सकता है मृत्यु का, मृत्यु तो मात्र एक अभाव है। प्रकाश अंधकार का एक अंश कैसे हो सकता है? अंधकार और कुछ नहीं है सिवाय प्रकाश के अभाव के, लेकिन अंधकार समा सकता है प्रकाश में।

जरा बाहर देखो—सूर्य उदय हो चुका है। इतना ज्यादा प्रकाश बरस रहा है पेड़ों तले, छोटी—छोटी चीजों में, छाया के टुकड़ों में, कोई चीज गलत नहीं। एक थका हुआ यात्री आता है और बैठ जाता है वृक्ष तले और शरण पा लेता है। बाहर गर्मी है और वृक्ष के नीचे शीतल है। वृक्ष के नीचे की वह छाया, एक हिस्सा है। हर नकारात्मक चीज को विधायक का हिस्सा होने दो। और विपरीत बात संभव नहीं, क्योंकि विधायक अस्तित्व रखता है। नकारात्मक, मात्र एक अनुपस्थिति है।

ऐसा संभव है। मैं तुमसे कहता हूं ऐसा संभव है क्योंकि ऐसा घटा है मुझको। इसलिए बहुत कठिन है मुझे समझना। तुम चाहते हो, मैं एक ध्रुव होऊं—और मैं हूं दोनों। लेकिन ऐसा घटा है मुझको; ऐसा घट सकता है तुमको। और ऐसा ही घटता रहा है उन सब लोगों को जो सही दिशा की ओर चले हैं और जिन्होंने समग्र को स्वीकार किया है।

मैंने किसी चीज को अस्वीकार नहीं किया, क्योंकि बिलकुल प्रारंभ से ही यह बात मेरे लिए गहनतम निरीक्षण हो गयी थी: कि यदि तुम किसी चीज को अस्वीकार करते हो, तो तुम कभी संपूर्ण नहीं हो पाओगे। कैसे तुम संपूर्ण हो पाओगे यदि तुम कोई चीज अस्वीकार करते हो तो? उस चीज का सदा अभाव बना रहेगा। यह बात मेरे लिए एक गहन निरीक्षण बन गई कि कोई चीज अस्वीकार नहीं करनी है और हर चीज अपने में समा लेनी है।

जीवन को एक ही स्वर नहीं बनना है, बल्कि बनना है एक समस्वरता। एक ही स्वर चाहे कितना ही सुंदर क्यों न हो, उबाऊ होता है। बहुत से स्वरों का समूह, बहुत ही भिन्न, एकदम विपरीत स्वर जब एक समस्वरता में मिलते हैं, तो सौंदर्य निर्मित करते हैं। सौंदर्य न तो विधायक में है और न ही नकारात्मक में है, सौंदर्य है समस्वरता भरे संगीत में। इसे फिर से दोहरा दूं मैं: सौंदर्य न तो सत्य में है और न असत्य में हैं; सौंदर्य न तो करुणा में है और न ही क्रोध में, सौंदर्य योग में है। जहां विपरीत मिलते हैं वहीं मौजूद होता है परमात्मा का मंदिर। जहां विरोधी तत्व मिलते हैं, वहीं है शिखर, जीवन का शिखर।

अंतिम प्रश्न:

 

आपने कहां कि संवेदनशील होना धार्मिक होना है लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि संवेदनशीलता मुझे इंद्रिय— लोलुपता और भोगासक्ति में ले जाती है मेरे लिए क्या रास्ता है?

 

तो भोगो! तो हो जाओ इंद्रिय—लोलुप। तुम इतने भयभीत क्यों हो जीवन से? क्यों तुम आत्महत्या करना चाहते हो? भोगासक्ति में क्या बुराई है और इंद्रिय—लोलुप होने में ही क्या बुरा है? तुम्हें यही सिखाया गया है। और मैं यह कह रहा हूं। तब तुम संवेदनशील होने में भयभीत हो जाते हो। क्योंकि यदि तुम संवेदनशील होते हो, तो हर चीज विकसित होगी संवेनदशीलता के साथ। सुखवादिता विकसित होगी—सुंदर होती है वह। सुखवादी होने में कुछ बुरा नहीं है। एक जीवंत आदमी सुखलोलुप होगा ही। एक मुरदा आदमी और एक जीवंत आदमी में अंतर क्या होता है? मुरदा आदमी संवेदनात्मक नहीं रहता; तुम छुओ और उसे कोई अनुभूति नहीं होती। तुम चूमो उसे और वह प्रत्युत्तर नहीं देता!

मैंने पिकासो के बारे में एक कथा सुनी है। एक स्त्री पिकासो के चित्रों की प्रशंसा कर रही थी और वह बोली, ‘कल मैं गयी एक मित्र के घर और वहा मैंने तुम्हारा स्वयं का चित्र देखा। और मैंने उसे इतना ज्यादा प्यार किया, और मैं इतनी प्रभावित हुई, कि मैंने चूम लिया चित्र को।’ पिकासो ने उस स्त्री की तरफ देखा और बोला, ‘ और क्या चित्र ने उत्तर दिया? क्या प्रत्युत्तर में चित्र ने तुम्हें चूमा?’ वह स्त्री बोली, ‘कैसी नासमझी की बात है! एक चित्र कैसे जवाब दे सकता है?’ तब पिकासो कहने लगा, ‘तो मैं नहीं था। एक मरी हुई चीज थी, वह मैं कैसे हो सकता था?’

यदि तुम जीवंत होते हो तो तुम्हारी इंद्रिया अपनी समग्र क्षमता से कार्य करेंगी। और तुम सुखभोगी बनोगे। तुम्हें चाहिए भोजन और तुम स्वाद लोगे; तुम स्नान करोगे और तुम अनुभव करोगे पानी की ठंडक। तुम चलोगे बाग में और तुम सूंघोगे सुगंधि को, तुम संवेदनात्मक होओगे। एक स्त्री गुजरेगी और शीतल बयार तुम्हारे भीतर चलेगी। ऐसा ही होगा—क्योंकि तुम जीवत हो! एक सुंदर स्त्री पास से गुजरती हो और कुछ न हो तुम्हारे भीतर—तो तुम मुरदा हुए, तुमने मार लिया स्वयं को।

सुखवादिता संवेदनशील होने का एक भाग है। सुखवादिता के भय के कारण सारे धर्म भयभीत हैं संवेदनशीलता से, और संवेदनशीलता जागरूकता है। इसलिए वे जागरूक होने की बातें तो करते रहते हैं, लेकिन वे तुम्हें संवेदनशील होने नहीं देते, जिससे कि तुम जागरूक हो नहीं सकते। यह बात मात्र एक बातचीत बन जाती है। और वे सुख— भोग के लिए तुम्हें अनुमति देते नहीं। वस्तुत: उन्होंने ‘विषयासक्ति’ शब्द गढ़ लिया है। इसमें से निंदात्मक ध्वनि आती है। जिस क्षण तुम कहते ‘विषयासक्ति’, तो तुमने निंदा कर ही दी होती है।

यही है विडंबना: धार्मिक लोग भोगने की निंदा करते, और वे निर्मित कर देते भोग को। वे निंदा करते विषय—सुख की और वे निर्मित करते विषयासक्ति को। कारण क्या है ऐसा करने का? जब तुम दमन करते जाते हो तुम्हारी संवेदनाओं का, तो वही दमन ही आसक्ति निर्मित कर देता है। वरना एक सच्चा जीवंत व्यक्ति कभी भोगासक्त नहीं होता है। वह आनंदित होता है, लेकिन वह कभी भी भोगासक्त नहीं होता है। वह आदमी जो रोज खूब अच्छी तरह भोजन करता हो, भोजन के रस में ही आसक्त नहीं रह सकता। लेकिन उपवास किए जाओ, तो आसक्ति पैदा हो जाती। जो आदमी उपवास करता रहता है वह सोचता जाता है— भोजन, भोजन, भोजन की ही बात। भोजन एक मोह बन जाता है। वह खाता है चौबीसों घंटे फिर जब वह उपवास तोड़ता है, तो वह एकदम दूसरी अति में डूब जाता है। एक अति पर तो वह उपवास करता है, दूसरी अति पर वह बहुत ज्यादा खा लेगा।

अभी दो दिन पहले एक संन्यासी आया इंग्लैंड से और कहने लगा कि वह उपवास करना बहुत पसंद करता है। वह बहुत कम खाता है और वह भी एक दिन छोड्कर। मैंने कहां उससे, ‘उपवास एक खतरनाक चीज बन सकता है। कई बार इसका उपयोग किया जा सकता है, लेकिन दवाई की भाति, जीवन की एक शैली की भांति नहीं। उपवास जीवन का ढंग कभी नहीं बन सकता है।’ और मैंने बात की उससे—उपवास के मोह से उसे बाहर लाने के लिए। तीन दिन तक तो वह बिलकुल दिखाई ही नहीं पड़ा। मैंने प्रतीक्षा की।’कहां चला गया वह! क्या हुआ?’ तीन दिन के बाद वह आया और वह बोला, ‘मैं बीमार था। आप बात करते थे उपवास की और आपने कहां कि उपवास अच्छा नहीं, इसलिए मैं भोजन के रस में डूब गया। बहुत ज्यादा खा लिया मैंने।’

ऐसा सदा घटता है उपवास से तुम सरकते हो एकदम दूसरी अति की ओर। ठीक कहीं मध्य में, सम्यकत्व है। बुद्ध ने फिर—फिर हर चीज के साथ प्रयोग किया है सम्यक शब्द का ब सम्यक— भोजन, सम्यक—स्मृति, सम्यक—शान, सम्यक—प्रयास। जो कुछ भी कहां उन्होंने, सदा उसके साथ सम्यक शब्द जोड़ दिया उन्होंने। शिष्य पूछते, ‘क्यों सदा आप सम्यक शब्द जोड़ देते हैं?’ वे कहते, ‘क्योंकि तुम लोग खतरनाक हो। या तो तुम इस अति पर होते हो या दूसरी अति पर।’

यदि तुम उपवास करते हो तो भोजन में अति रस लेने की बात आ बनेगी। यदि तुम प्रयास करते हो, तो सेक्स के प्रति लोलुपता निर्मित होगी। जो कुछ भी तुम जबर्दस्ती लाद लेते हो अपने पर अंततः वह जबर्दस्ती तुम्हें ले जाएगी भोगासक्ति की ओर।

एक सच्चा संवेदनशील व्यक्ति जीवन से इतना ज्यादा आनंदित होता है कि वह आनंद ही उसे शीतल और शांत कर देता है। उसमें कोई सम्मोहित आवेश नहीं होते। वह संवेदनात्मक होता है।

और यदि तुम मुझसे पूछते हो, तो बुद्ध ज्यादा संवेदनशील हैं किसी भी अन्य व्यक्ति से। वे होंगे ही, क्योंकि वे बहुत जीवंत हैं। जब बुद्ध देखते हैं वृक्ष की तरफ, तो जितना तुम देख सकते हो, वे जरूर उससे ज्यादा रंग देख रहे होंगे, उनकी आंखें ज्यादा संवेदनशील होती हैं, ज्यादा संवेदनात्मक होती हैं। जब बुद्ध भोजन करते हैं, तो जितने कि तुम हो सकते हो, वे जरूर तुमसे ज्यादा आनंदित हो रहे होंगे क्योंकि उनके भीतर की हर चीज एकदम ठीक कार्य कर रही होती है। यदि तुम गुजरो बुद्ध के पास से, तो तुम सुन सकते हो बिलकुल ठीक कार्य कर रही संरचना की गुनगुनाहट, जैसे कि बिलकुल ठीक कार्य कर रही कार की मर्मर— ध्वनि हो। हर चीज बिलकुल ठीक हो रही होती है, जैसी कि होनी चाहिए। वे संवेदनशील होते हैं, वे सुख के प्रति संवेदनात्मक होते हैं, लेकिन कोई आसक्ति नहीं होती। कैसे हो सकती है?

भोगासक्ति एक रोग है, भोगासक्ति एक असंतुलन है। तो भी तुमसे मैं ऐसा नहीं कहता। मैं कहता हूं पूरे डूबो भोगासक्ति में और खत्म करो बात। उसे अपने सिर पर मत उठाए रहो। वह बात ज्यादा बुरी है कुछ करने से।’

डूबो! यदि तुम भोजन के रस में डूबना चाहते हो तो पूरी तरह डूबो। शायद रसविमग्नता के द्वारा तुम अपने ठीक होश तक पहुंच जाओ। शायद पूरे अनुभव द्वारा तुम परिपक्वता पा जाओ, उस प्रौढ़ता तक पहुंच जाओ जो कहती है कि यह बात मूढ़ता है।

मुझे याद है गुरजिएफ का कहना कि वह एक बेरीनुमा फल पसंद करता था। वह मिलता था काकेशस में, और वह सदा बुरा रहता उसके स्वास्थ्य के लिए। जब कभी वह खा लेता उसे, उसका पेट खराब हो जाता : दर्द होता और पीड़ा उठती और मितली—और हर तरह की चीजें! लेकिन उसे इतना ज्यादा पसंद था वह फल कि उसे न खाना असंभव होता। कुछ दिनों बाद वह खा लेता, फिर और फिर। वह कहता है, एक दिन मेरे पिता बाजार गए, मुझे अपने साथ ले गए और बहुत बड़ी मात्रा में वह फल खरीदा। मैं बहुत खुश था और हैरान था—कि क्यों खरीद रहे हैं वे इतना? वे सदा इसके विरुद्ध रहे थे। वे सदा कहते थे मुझसे कि उसे कभी न खाना। तो क्या हो गया! कैसे अच्छे पिता हैं! तब गुरजिएफ केवल नौ वर्ष का ही था, उसके पिता ने छड़ी पकड़ी हाथ में और वे बोले, ‘तुम वह सारे का सारा खा जाओ। वरना मैं तुम्हें पीट—पीट कर मार ही डालूंगा।’ और वह खतरनाक आदमी था।

आंसू बह रहे थे और गुरजिएफ खाए जा रहा था, और उसे खाना था उतना सारा। वमन कर दिया उसने, लेकिन उसका पिता बहुत ज्यादा कठोर व्यक्ति था। उसने वमन कर दिया और तीन सप्ताह तक वह बीमार पड़ा रहा पेचिश से, वमन से और बुखार से। फिर फल समाप्त हो गया। वह कहता है, ‘अभी भी जब कि मैं साठ वर्ष का हूं यदि मुझे कहीं दिखता है वह फल, तो मेरा सारा शरीर कैपने लगता है। मैं देख तक नहीं सकता उस फल की ओर!’

पूरी तरह भोग लेना गहरी समझ निर्मित कर देता है जो शरीर की जड़ों तक उतरती है। मैं कहता हूं तुमसे ‘जाओ और पूरी तरह डूबो भोग में।’ कुछ बुरा नहीं इसमें। यदि तुम सचमुच किसी चीज को भोगते हो और अपने को रोकते नहीं, तो इसमें से बाहर निकलोगे ज्यादा प्रौढ़ होकर। अन्यथा, भोगने का वह भाव, वह विचार, सदा पकड़े रहेगा—वह तुम्हें घेरे रहेगा, वह एक प्रेत बन जाएगा। जो लोग ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं, वे सदा आविष्ट रहते हैं—कामवासना के प्रेत द्वारा।

जो लोग किसी भी तरह का नियंत्रण करने की कोशिश करते हैं, वे सदा भोग के विचार से, सारे बंधन तोड्ने के विचार से, अनुशासनों और नियंत्रणों के विचार से घिरे रहते हैं, और फिर दनादन सिर के बल कूद पड़ते हैं इसमें।

जीवन को तुम्हें ले जाने दो जहां कहीं वह तुम्हें ले जाता है—और भयभीत मत होओ। भय एकमात्र ऐसी चीज है जिससे कि किसी को भयभीत होना चाहिए, और कोई ऐसी चीज नहीं। बढ़ो! हिम्मती बनो और निर्भीक बनो, और मैं कहता हूं तुमसे कि धीरे— धीरे भोगने का अनुभव ही, सुख के प्रति संवेदनशील होना ही तुम्हें शांत कर देगा। तुम केंद्रस्थ हो जाओगे।

लेकिन मैं संवेदनशीलता के हक में हूं। यदि वह भोगने का भाव भी लाए, यदि वह सुखवादिता भी लाए तो भी ठीक है। मैं भोग के भाव से और सुखवादिता से भयभीत नहीं हूं। मैं भयभीत हूं केवल एक चीज से: कि रस में डूबने और सुखवादी होने का भय तुम्हारी संवेदनशीलता को मार न दे। यदि वह मर जाती है, तो तुमने कर ली होती है आत्महत्या। संवेदनशील होते हो, तो तुम जीवंत होते हो, होशपूर्ण होते हो; जितने ज्यादा संवेदनशील होते हो, उतने ज्यादा जीवंत और होशपूर्ण होते हो। और जब तुम्हारी संवेदनशीलता समग्र हो जाती है, तो तुम प्रवेश कर चुके होते हो भगवत्ता में।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(ओशो) प्रवचन–4

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मृत शब्दों से जीवित सत्य की प्राप्ति असंभव—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक २४ सितंबर, १९७४.

श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक घुमक्कड़ साधु ने एक बूढ़ी स्त्री से तैजान का रास्ता पूछा। तैजान एक प्रसिद्ध मंदिर है और समझा जाता है कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है।

बूढ़ी स्त्री ने कहा: ‘सीधे आगे चले जाओ।’

जब साधु कुछ दूर गया था तो बुढ़िया ने स्वयं से कहा: ‘यह भी एक साधारण मंदिर जाने वाला है।’

किसी ने यह बात जोशू से कह दी।

जोशू ने कहा: ‘रुको, जब तक मैं जांच-पड़ताल न कर लूं।’

दूसरे दिन जोशू गया, उसने वही सवाल पूछा और बुढ़िया ने वही उत्तर दिया।

जोशू ने कहा: ‘मैंने उस बुढ़िया की जांच कर ली।’

 भगवान! इस पहेली जैसी झेन-कथा का अभिप्राय क्या है?

 स बोध कथा के पहले कुछ भूमिका समझ लेनी जरूरी है। पहली बात, झेन की दृष्टि है कि सत्य को दुहराया नहीं जा सकता। उसकी पुनरुक्ति संभव नहीं है। उसे पुनरुक्त वही करता है जो नहीं जानता। सत्य प्रतिपल नया हो रहा है। वह कभी पुराना नहीं। पुराने को दुहरा सकते हैं। प्रतिपल नये होते को कैसे दुहरायेंगे? इसलिए जिन-जिन शब्दों को हम दुहराने लगते हैं, उन-उन का सत्य से संबंध टूट जाता है। सिद्धांत दुहराये जा सकते हैं, सत्य नहीं। सत्य की उदघोषणा में यह बात अंतर्निहित ही है, कि सत्य प्रतिपल नया होगा।

एक तो सत्य की धारणा है दार्शनिकों की। उनकी धारणा है, जैसे सत्य कोई थिर वस्तु है। तुमने उसे खोज लिया, खोज लिया। दूसरी धारणा है धार्मिकों की। सत्य कोई स्टैटिक, थिर वस्तु नहीं है। सत्य तो इस जगत की जो गत्यात्मकता है, डायनेमिज्म है, वही है। सत्य कोई पत्थर की तरह नहीं, बहती हुई नदी की धार की तरह है। सत्य कोई चट्टान की तरह नहीं, खिलते हुए फूल की तरह है। सत्य जीवंत है, मुर्दा नहीं।

विज्ञान मुर्दा सत्यों को खोजता है, इसलिए एक बार खोज लिए, सदा के लिए खोज लिए। फिर बार-बार उन्हें खोजने की जरूरत नहीं। इसलिए विज्ञान की शिक्षा दी जा सकती है। जो सत्य एक बार पता चल गया–न्यूटन ने खोजा, आइंस्टीन ने खोजा, या किसी और ने खोजा, फिर अब दूसरे को खोजना नहीं है; केवल समझ लेना है। बच्चे स्कूल में पढ़ लेंगे। जिसको न्यूटन को खोजने में जीवन भर लगा होगा, बच्चे को घड़ी भर न लगेगी समझने में।

लेकिन धर्म का सत्य ऐसा नहीं है। वह रोज बदल रहा है। रोज कहना देर हो गई, प्रतिपल बदल रहा है। क्योंकि धर्म का सत्य जीवन की खोज है। इसलिए बुद्ध ने खोजा, महावीर ने खोजा, कृष्ण ने खोजा, उनके उधार शब्दों को तुम मत दुहराते रहना। वह तुम्हें खोजना पड़ेगा। तुम्हारे खोजे बिना वह तुम्हें न मिलेगा। इसलिए धर्म के सत्य को कोई किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं कर सकता, ट्रांसफर नहीं कर सकता। धर्म का सत्य अत्यंत निजी है। और हरेक को अपना ही खोजना होता है। इसलिए मैं कहता हूं, कोई राजपथ नहीं है जो तैयार हो, जिस पर तुम सब चल जाओ। और कोई नक्शा नहीं है, जो तुम्हें दे दिया जाये। जिसके अनुसार तुम परमात्मा के मंदिर तक पहुंच जाओ। तुम्हारी खोज से ही रास्ता बनेगा। खोज खोज कर, गिरकर, उठकर, हारकर, जीतकर, तुम्हारी जीवन की ऊर्जा ही उसका द्वार बनेगी। सत्य अनुभव किया जायेगा, शब्द से दिया नहीं जायेगा।

लेकिन हमने भ्रांति से धर्म को भी विज्ञान की तरह समझ लिया है। तो हम सिद्धांत सीख लेते हैं और दुहराते चले जाते हैं। जिन्होंने उन सिद्धांतों को खोजा होगा वह उनके लिए सत्य रहे होंगे, तुम्हारे लिए नहीं। तुम्हारी पुनरुक्ति ही बताती है कि तुम तोतों की भांति हो। तुम्हें ज्ञान नहीं, स्मृति है।

अगर बुद्ध आज पैदा हों और फिर सत्य को खोजें, तो वे उन्हीं शब्दों में नहीं बांधेंगे, जिनमें उन्होंने ढाई हजार साल पहले बांधा था। वे शब्द भी जा चुके हैं। गंगा का बहुत पानी बह गया तब से। उन शब्दों में अब सार न रहा। उन शब्दों का सब सार निचुड़ गया और वे शब्द तोतों के हाथ में पड़ गये। उन्होंने उनको कंठस्थ-कंठस्थ करके बिलकुल जड़ कर दिया। कीमती से कीमती शब्द बहुत बार दुहराये जाने पर अर्थहीन हो जाता है।

तुम देखो, तुम कहते हो कि आम मुझे बहुत प्रिय है। पत्नी मुझे बड़ी प्यारी है। बेटे से मेरा बड़ा प्रेम है। कार से मेरा बड़ा प्रेम है। इस मकान के पीछे तो मैं दीवाना हूं प्रेम में। तुम प्रेम शब्द को मारे डाल रहे हो। तुम्हें मिठाई भी प्रीतिकर है, पत्नी भी प्रीतिकर है, कार भी प्रीतिकर। तुम प्रेम शब्द को निचोड़े डाल रहे हो। तुम उसको इतना दुहरा रहे हो कि वह करीब-करीब अर्थहीन हो जायेगा।

‘परमात्मा’ शब्द ऐसे ही मार डाला गया। उसे इतना दुहराया लोगों ने कि अब उसमें कोई सार नहीं रहा। आज उसे कहने से कुछ भी प्रतिध्वनित नहीं होता। हृदय की वीणा का कोई तार नहीं छिड़ता। कोई कितना ही ‘परमात्मा, परमात्मा’ कहता रहे, तुम्हारे भीतर न तो हवा का कोई झोंका आता है, जो तुम्हें ताजगी से भर दे; न कोई अज्ञात की सुगंध उतरती है कि तुम पुलकित हो जाओ; न तुम्हारे पैरों में घूंघर बंध जाते हैं शब्द को सुनकर कि तुम नाचने लगो। ‘परमात्मा’ इतना बासा शब्द हो गया कि उससे कुछ भी नहीं होता। उससे तो साधारण शब्द भी ज्यादा सार्थक है। कोई कहे ‘नींबू’, तो कम से कम मुंह में थोड़ा पानी तो आता! कोई कह दे ‘आग’ तो कम से कम तुम भागते तो हो। घबड़ा तो जाते हो। लेकिन परमात्मा के साथ वैसी हालत हो गई, जैसी पुरानी बच्चों की कहानी में है।

एक गड़रिये का लड़का रोज-रोज चिल्लाने लगा, ‘भेड़िया-भेड़िया।’ पहले दिन चिल्लाया, गांव के लोग पहुंचे और वहां कोई नहीं था। वह लड़का हंसने लगा। उसने लोगों को बुद्धू बनाया था। वह मजाक कर रहा था। दो चार दिन बाद वह फिर चिल्लाया, ‘भेड़िया-भेड़िया।’ लोग गये; उतने नहीं, जितने पहली बार गये थे। लोगों ने समझा शायद मजाक करता हो। लेकिन जो निकट प्रियजन थे, परिवार के थे, उन्होंने सोचा, ‘कौन जाने आज भेड़िया आ ही गया हो!’ लेकिन लड़का फिर मजाक कर रहा था। तीसरी बार जब वह चिल्लाया तो कोई भी न गया, लेकिन भेड़िया आ गया था। शब्द अर्थहीन कर दिया उसने दुहरा कर। उसकी त्वरात्तेजी चली गई।

जिन-जिन शब्दों को हम बहुत दुहराते हैं, उनकी त्वरा और तेजी चली जाती है। उनके भीतर का प्राण ठंडा हो जाता है। यहूदियों में एक नियम है, और बहुत प्रीतिकर है, कि परमात्मा का नाम मत लेना। क्योंकि तुम्हारे होंठ उसे गंदा कर देंगे। इसलिए यहूदियों में परमात्मा का कोई नाम नहीं है। ‘याह वे’, परमात्मा का नाम नहीं है, सिर्फ प्रतीक है, इशारा है। और वे कहते हैं, परमात्मा का नाम कोई न ले। क्योंकि तुम अच्छे से अच्छे, कीमती से कीमती शब्द की बखिया उखेड़ दोगे। तुम उसे खराब कर दोगे। और तुम उसे ऐसी-ऐसी जगह दुहराओगे कि जिसका कोई हिसाब नहीं।

एक छोटा बच्चा कह रहा था, स्कूल में उससे पूछा गया, ‘परमात्मा कहां है?’ तो उसने कहा कि ‘मेरे घर के बाथरूम में।’ वह शिक्षिका बहुत हैरान हुई, ‘यह तुझे किसने बताया?’ उसने कहा कि ‘बताया किसी ने नहीं, मेरी मां रोज पूछती है। जब मेरे पिता स्नान कर रहे होते हैं, तो रोज कहती है, हे परमात्मा, क्या अभी तक स्नान चल रहा है? इससे मैं समझा कि परमात्मा मेरे घर के बाथरूम में रहता है।’

यह जो हम शब्दों का उपयोग करते हैं बिना जाने, बिना अनुभव किये, उनको सुन-सुनकर हम इतने आदी हो जायेंगे, कि उनसे हमारे भीतर कोई तरंग न उठेगी। उठ भी नहीं सकती। हर व्यक्ति को अपना परमात्मा खोजना पड़ता है, अपना शब्द खोजना पड़ता है, नये को खोजना पड़ता है जिससे हृदय नाच उठे। इसलिए दुनिया में इतने धर्मों का जन्म हुआ। अगर तुम इस बात को समझ सको, तो दुनिया में इतने धर्मों के जन्म का माौलिक कारण समझ में आ जायेगा।

महावीर पैदा हुए, हिंदुओं के शब्द मर चुके थे। वेद मुर्दा हो चुका था। लोग इतना दुहरा चुके थे, पंडित इतना कंठस्थ कर चुके थे, गलत मुंह से वेद-मंत्रों का उच्चार इतना हो चुका था, कि अब वेद उच्छिष्ट था। अब उसे कोई भी खोजी सिर पर ढोने को राजी नहीं हो सकता। अब उसमें कोई सार न था। और महावीर ने कहा, ‘छोड़ो; वेद में कुछ भी नहीं है।’ इसका यह अर्थ नहीं कि वेद में कुछ भी नहीं है। इसका कुल इतना अर्थ है कि महावीर के समय तक आते-आते वेद में कुछ न बचा। तुमने वेद मार डाला। महावीर को नये शब्द खोजने पड़े। उन नये शब्दों के कारण नया धर्म शुरू हुआ। लेकिन अब वही गति उस धर्म की हो गई। लोगों ने महावीर को मार डाला। लोग तो किसी को भी मार डालेंगे, क्योंकि लोग मुर्दा हैं। वे जिस चीज को भी छूते हैं, वह मर जाती है।

बुद्ध, महावीर के समय में ही जिंदा थे। थोड़ी ही उम्र कम थी उनकी। महावीर से कोई बीसत्तीस साल का फर्क है। लेकिन महावीर के जिंदा रहते ही लोगों ने महावीर के शब्द मार डाले। वे बासे मालूम पड़ने लगे। लोगों ने दुहरा दिया उनको बहुत। बुद्ध को नये शब्द महावीर के जिंदा रहते खोजने पड़े।

नये धर्म इसीलिए पैदा होते हैं क्योंकि सत्य रोज नया होता जाता है। पुराने धर्म पुराने शब्दों से जकड़ जाते हैं। और जहां शब्दों का जाल खड़ा होता है, वहां से सत्य बाहर हो जाता है। वह ऐसी मछली है, जिसे जालों में नहीं पकड़ा जा सकता। वह परम स्वतंत्रता का नाम है। उसे जालों में पकड़ा कैसे जायेगा?

इसलिए जहां भी तुम किसी को दुहराता हुआ पाओ, समझना कि वहां आत्मा नहीं है, केवल स्मृति है। वहां पंडित है, ज्ञानी नहीं। ज्ञानी सतत बहते हुए एक झरने की भांति है। तुम उसे कभी एक रंग में न पाओगे। तुम उसे रोज बदलता हुआ देखोगे। तुम पाओगे कि वह जीवित धारा है।

एक नदी के किनारे बैठ कर तुम अध्ययन करो नदी का, तुम उसे हर घड़ी बदलते हुए पाओगे। कभी वह मौज में बहती है, नाचती है, कभी गुरु-गंभीर हो जाती है। कभी तूफान, आंधी, बाढ़, और तब उसका रूप बड़ा विकराल हो जाता है। तांडव शुरू होता है। कभी वह इतनी धीर गंभीर होती है, कि तुम सोच ही नहीं सकते कि यह नदी और इतने तांडव में उतर जायेगी। कभी वह इतनी शांत होती है, कि एक तरंग भी नहीं, जैसे ध्यानस्थ हो। कभी गर्मियों में सूख कर नववधू जैसी हो जाती है। इतनी दुबली-पतली, क्षीणकाय! कभी वर्षा है, कभी शीत है, कभी गर्मी है, नदी बदलती रहती है।

हरमन हेस की किताब ‘सिद्धार्थ’ पढ़ने जैसी है। सिद्धार्थ एक नदी के किनारे बैठा-बैठा, नदी का अध्ययन करते-करते, ज्ञान को उपलब्ध होता गया। नदी के मूड, नदी की बदलती हुई भाव-दशायें, भाव-भंगिमायें…।

लेकिन नदी जिंदा है। एक सड़े हुए डबरे के पास तुम ये भाव-भंगिमायें न पाओगे। वह एक सा है। वही दुर्गंध वहां सदा उठती रहती है। वह सड़ता रहता है। उसके आस-पास सब जीवन सिकुड़ गया है।

एक छोटे बच्चे जैसा है सत्य, एक मरी हुई लाश जैसा नहीं। लेकिन पंडित मरी हुई लाशों के बड़े प्रेमी हैं। कारण है; क्योंकि मुर्दे के साथ तुम जो व्यवहार करना चाहो, कर सकते हो। जीवन तुम्हारी नहीं सुनता। और जीवन किन्हीं बंधन को नहीं मानता। और जीवन सीमाओं को तोड़ता है। जीवन बड़ा बगावती है।

सत्य से बड़ी कोई बगावत नहीं है।

कोई भी ढांचा तुम बनाओ, तुम पाओगे वह उसे तोड़ देता है। क्योंकि सत्य बहुत बड़ा है। तुम उसे छोटा नहीं कर पाते। और तुम्हारे ढांचे कितने ही बड़े हों, इतने बड़े नहीं होते कि सत्य को बांध सकें। तुम जो भी कपड़े बनाते हो, वे सदा छोटे पड़ जाते हैं बच्चे के लिए। मुर्दे के लिए तुम जो कपड़े बनाओगे वे कभी छोटे न पड़ेंगे।

बच्चा बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है। तुम जब कपड़े बना रहे हो, तभी बच्चा कपड़ों के बाहर हुआ जा रहा है। और पंडित कोशिश करता है बचपन में जो कपड़े सीये थे, वे जवानी में भी पहनाने की।

इसलिए धर्म जब पंडित के हाथ में पड़ता है, तो कारागृह बन जाता है। ज्ञानी के हाथ में मोक्ष, पंडित के हाथ में वही कारागृह। ज्ञानी जिसे परम स्वतंत्रता का आधार बना लेता है, पंडित उसे ही तुम्हारी कैद में परिवर्तित कर देता है। ज्ञानी का असली दुश्मन पापी नहीं है, असली दुश्मन पंडित है। यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है।

इसलिए तुम अगर ज्ञानी के पास जाओगे, कुछ पूछोगे, आज वह कुछ और कहेगा, कल उसने कुछ और कहा था, परसों कुछ और कहेगा। क्योंकि वह जो कह रहा है, वह किसी स्मृति को नहीं दुहराता। वह प्रतिपल जो संवेदित होता है उसके भीतर, सहज–वही निवेदन कर रहा है।

मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा चला और मजिस्ट्रेट ने पूछा ‘तुम्हारी उम्र क्या है नसरुद्दीन?’ उसने कहा, ‘चालीस वर्ष।’ उस मजिस्ट्रेट ने कहा, ‘हद हो गई! झूठ की भी एक सीमा है। तीन साल पहले भी तुम पर मुकदमा चला था, तब भी तुमने चालीस वर्ष ही बताया था।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘आपने सवाल भी तब यही किया था, कितनी उम्र? मैं संगत आदमी हूं; जो जवाब एक दफे दे दिया, अब अदालत में मैं झूठ न बोलूंगा। तुम हजार बार पूछो, तुम मुझे धोखे में न डाल सकोगे। मैं चालीस–जो जबाब दे चुका, दे चुका; उस पर मजबूत रहूंगा।’

ज्ञानी को तुम इस हालत में न पाओगे। पंडित सदा इसी हालत में है। तुम उससे कभी भी सवाल पूछो, उसके जवाब बंधे हुए हैं। उसके जवाब रेडीमेड हैं। वह तुम्हें जवाब नहीं देता। उसके प्रश्न-उत्तर तय हैं। तुमसे उसे मतलब नहीं है, तुम जो सामने खड़े हो–जीवित। तुमने जो सवाल पूछा है, वह अगर तोता भी पूछता तो भी यह वही जवाब देता। तुमसे उसे मतलब नहीं है। लेकिन ज्ञानी तुम्हें देखता है। और यह जरा बारीक बात है, कि चाहे शब्द एक ही हों प्रश्नों के, हर आदमी का प्रश्न अलग होगा; क्योंकि हर आदमी अलग है। तुम वही शब्द क्यों न उपयोग करो!

तुम आकर मुझसे पूछो, ‘ईश्वर है?’ और घड़ी भर पहले किसी और ने भी पूछा था, ‘ईश्वर है?’ और घड़ी भर बाद कोई और भी पूछेगा, ‘ईश्वर है?’ लेकिन ये तीनों प्रश्न एक नहीं हो सकते। तीन आदमी एक ही प्रश्न पूछ कैसे सकते हैं?

आदमी अलग हैं। शब्द एक से हैं, लेकिन उन शब्दों में जो उंडेला गया है, वह व्यक्तित्व अलग है। बोतलें समान हैं, लेकिन शराब भिन्न है। बोतल थोड़े ही शराब है! शब्द थोड़े ही प्रश्न हैं! शब्द तो खोल है, वह तो कैपसूल है। उसके भीतर की दवा तीन आदमियों की अलग-अलग है।

एक नास्तिक पूछता है कि ‘क्या ईश्वर है?’ तब उसका अर्थ और है। वह यह पूछ रहा है कि ‘है तो नहीं, लेकिन फिर भी आपका क्या खयाल है?’ वह इस तलाश में है कि तुम भी कह दो, ‘नहीं है,’ ताकि वह प्रसन्न हो। अगर तुम कहो कि ‘है’ तो वह विवाद करे।

आस्तिक भी पूछता है, ‘ईश्वर है?’ बड़ा भिन्न है। वह चाहता है, ‘कहो, हां।’ हां की अपेक्षा है उसके प्रश्न में। वह जानता तो है ही कि ईश्वर है; सिर्फ तुमसे और गवाही चाहता है। तुम भी उसके साथी हो जाओ, उसका विश्वास सघन करो, उसकी आस्था मजबूत हो। और अगर तुम कहो, ‘है’ तो वह प्रसन्न होता है। उसका अहंकार भरता है, कि जो मैं कहता था वह ठीक है। यह आदमी भी साथ है। उसने अपने भीतर के विश्वास को और बढ़ा लिया। एक गवाह और मिल गया। तुम कहो, ‘नहीं’ तो वह विवाद करेगा।

एक तीसरा आदमी है, जो न आस्तिक है, न नास्तिक है। जिसे कुछ पता नहीं कि ईश्वर है, या नहीं। वह भी पूछता है कि ‘क्या ईश्वर है?’ उसकी जिज्ञासा शुद्ध है। उसकी जिज्ञासा के पीछे कोई सिद्धांत विकृत करनेवाला नहीं है। उसकी जिज्ञासा में न आस्था है, न अनास्था है। उसकी जिज्ञासा, सिर्फ जिज्ञासा है। वह तुमसे उत्तर पाकर अपने भीतर कुछ भरने के लिए नहीं आया है। तुम्हारे उत्तर से उसे कोई अपेक्षा नहीं है।

ये बड़े भिन्न प्रश्न हैं। और ज्ञानी इन तीनों के अलग उत्तर देगा। पंडित तीनों का एक उत्तर देगा। क्योंकि पंडित प्रश्न को देखता है, ज्ञानी प्रश्नकर्ता को देखता है। ज्ञानी उसे देखता है, जो सामने खड़ा है। जिसके भीतर यह प्रश्न लगा है। इस प्रश्न को तो प्रतीक मानता है। इसके पीछे छिपा हुआ पूरा व्यक्तित्व भिन्न है। यह प्रश्न तो आखिरी चोटी है, जिससे वह कुतूहल से भर गया है। लेकिन जो कुतूहल से भरा है, उसका इतिहास अलग है। तीनों के इतिहास अलग हैं। तीनों की आत्मकथा अलग है। उनका प्रश्न एक जैसा कैसे हो सकता है? असंभव है।

आधुनिक चिकित्सा-शास्त्र इस खोज पर धीरे-धीरे आता जा रहा है, कि एक ही बीमारी हो, तो भी एक दवा काम नहीं करती। क्योंकि बीमार अलग-अलग, उनका इतिहास अलग-अलग। इसलिए बहुत बार यह होता है, कि तुम बीमार हो, वही बीमारी है, सब सिंपटम वही हैं, निदान वही है, तुम्हें भी पेनिसिलिन दी जाती है; दूसरे आदमी के भी प्रतीक, सिंपटम वही हैं, रोग वही है, तुम बिलकुल रोग की दृष्टि से एक जैसे हो। यंत्रों की जांच, एक्सरे, खून की परीक्षा, सब बराबर एक जैसी हैं। जैसे तुम एक ही मरीज हो, दो नहीं। फिर भी एक को पेनिसिलिन ठीक करती है, दूसरे को मुश्किल में डाल देती है।

पहले चिकित्सा-शास्त्र बहुत हैरानी में था कि यह मामला क्या है? धीरे-धीरे समझ में आना शुरू हुआ कि दोनों का इतिहास अलग है। बीमारी एक है, लेकिन बीमारी की आत्मकथा अलग। दोनों अलग घरों में जन्मे, अलग तरह से बड़े हुए, अलग तरह के भोजन किए, अलग तरह का वातावरण रहा, अलग तरह का वंश, खून, हड्डी, मांस, सब अलग। बीमारी एक कैसे हो सकती है?

इसलिए पुराना सूत्र था चिकित्सा का–बीमारी का इलाज। अब वे कहते हैं–बीमार का इलाज। डोंट ट्रीट द डिजीज, ट्रीट द पेशंट। बड़ा कठिन है! क्योंकि तब तो हर मरीज को अलग से अध्ययन करना पड़ेगा। बीमारी काफी नहीं है, बीमारी के पीछे छिपे हुए व्यक्ति की खोज करनी पड़ेगी। और हर मरीज को विशिष्टता से देखना पड़ेगा। क्योंकि कोई भी मनुष्य इकाई नहीं है। वह पृथक, निजी व्यक्तित्व है। वह एक स्वतंत्र अस्तित्व है। उसकी बीमारी, उसके प्रश्न, सब अलग हैं।

पंडित बीमारी देखता, प्रश्न देखता; ज्ञानी बीमार को देखता, प्रश्नकर्ता को देखता है। और उत्तर तब अलग होते हैं। इसलिए बड़ी कठिनाई है। ज्ञानियों के वचन को जब तुम इकट्ठा करोगे, तो बहुत असंगति पाओगे। क्योंकि तुम यह तो भूल ही जाओगे कि किसको ये उत्तर दिए गये थे? इसलिए तुम बुद्ध से ज्यादा असंगत आदमी न पा सकोगे। आज कुछ कहते, कल कुछ कहते, परसों कुछ कहते हैं। चालीस साल में अपने आप का इतना खंडन किया है उन्होंने कि बुद्ध के मरते ही अनेक स्कूल पैदा हो गये। अनेक संप्रदाय बन गये बुद्ध के वचनों पर। सभी ने अपने-अपने हिसाब से चुन लिए। और जो-जो बातें असंगत थीं, वे काट दीं। वे बाहर कर दीं।

मन संगति बनाता है, आत्मा स्वतंत्रता है।

संगति भी एक बंधन है। जब तुम संगति बनाते हो, तब तर्कयुक्त हो जाते हो। लेकिन जीवन चूक जाता है। इसलिये संप्रदायों में धर्म नहीं है, संप्रदायों में संगति है। धर्म बड़ा असंगत है। बड़ा पैराडाक्सिकल है। धर्म सभी अंतर्विरोधों को समाये हुए है। बुद्ध का व्यक्तित्व एक दर्पण की भांति है। तुम दर्पण से यह तो नहीं कहते कि मैं बीस साल पहले आया था तब तूने मुझे बच्चे की तरह दिखाया, अब मैं आया हूं तो तू मुझे जवान की तरह दिखा रहा है। तेरा कोई भरोसा नहीं। बीस साल बाद आऊंगा, क्या तू मुझे बूढ़े की तरह दिखायेगा?

बुद्ध दर्पण की तरह हैं। पंडित फोटोग्राफ है। तुम बीस साल बाद आओ, तब भी वह वही रहेगा। पचास साल बाद आओ, तब भी वह वही रहेगा। फोटोग्राफ मरी हुई चीज है। दर्पण जीवित है। दर्पण वही दिखलाता है, जो सामने है। अब तुम ही बदल गये तो दर्पण क्या करे? जीवन ही बदल गया।

सत्य गत्यात्मक है, डायनेमिक है, तो बुद्ध क्या करें?

कल वसंत था और फूल खिले थे, अब पतझड़ है और पत्ते गिर रहे हैं, तो अब बुद्ध क्या करें? कल नदी में बाढ़ थी और अब सब सूख गया, मरुस्थल हो गया, तो बुद्ध क्या करें? जो जीवन है उसी को वे प्रतिफलित करते हैं। वे शुद्ध दर्पण हैं।

पंडित को जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। वह लकीर का फकीर है। वह आंख बंद किए बैठा है। वह चारों तरफ देखता नहीं है कि क्या स्थिति है। वह अपने शास्त्र में खोजता है। वह वहां देखता है, जीवन में नहीं। उसकी खोज शास्त्र की है, सत्य की नहीं। इन बातों को खयाल रखें तब यह छोटी सी घटना बड़ी अर्थपूर्ण मालूम पड़ेगी।

एक घुमक्कड़ साधु ने एक बूढ़ी स्त्री से तैजान का रास्ता पूछा। तैजान एक प्रसिद्ध मंदिर है। और समझा जाता है कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है।

मंदिर वही है, जहां विवेक की उपलब्धि हो। जहां पूजा मूर्च्छा न बने; जहां पूजा जागरण बने। मंदिर का अर्थ ही वही है। अगर ऐसा न होता हो, तो वहां कुछ और होगा, मंदिर नहीं। और तुम अगर ऐसी जगह पहुंच जाओ जहां विवेक न जगता हो, तो तुम कहीं भी पहुंच गये, लेकिन मंदिर में नहीं पहुंचे। मंदिर कोई भौगोलिक, बाह्य घटना नहीं है; आंतरिक घटना है। तुम अगर वृक्ष के नीचे बैठ कर, या दूकान के छप्पर के नीचे बैठ कर भी विवेक को उपलब्ध हो जाओ, तो वहीं मंदिर है। और तुम मंदिरों में घंटे बजाते रहो, क्रियाकांड करते रहो, और विवेक उपलब्ध न हो, तो वहां भी दूकान है।

समझा जाता था कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है। बूढ़ी स्त्री से इस साधु ने पूछा, घुमक्कड़ साधु ने, कि उस मंदिर का रास्ता कहां है?

उस स्त्री ने कहा, ‘गो स्ट्रेट अहेड, बिलकुल सीधे चले जाओ।’

यह ‘गो स्ट्रेट अहेड, बिलकुल सीधे चले जाओ’ एक झेन सूत्र है। यह एक विधि है। अगर तुम बिलकुल सीधे चले जाओ, न बांये मुड़ो, न दांये; अर्थात बिलकुल मध्य में चले जाओ, न इधर देखो, न उधर; न इस अति पर, न उस अति पर, ‘म)जिम निकाय’ बन जाये तुम्हारी जीवन यात्रा, तो तुम मंदिर पहुंच जाओगे, जहां विवेक उपलब्ध होता है। ‘गो स्ट्रेट अहेड’–बिलकुल सीधे चलते चले जाओ। इसका मतलब है न बांये, न दांये; न यह, न वह, ठीक मध्य को चुन लो।

बुद्ध और महावीर दोनों ने ‘सम्यक’ शब्द पर बड़ा जोर दिया है। बुद्ध तो बिना सम्यक शब्द को लगाये किसी चीज को बोलते ही नहीं। वही सम्यक की तरफ इशारा है–गो स्ट्रेट अहेड।

सम्यक शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है। सम्यक का अर्थ है, न इस तरफ झुके, न उस तरफ झुके–सम। जैसे तराजू के जब दोनों पलड़े बराबर हो जाते हैं, न इस तरफ झुके, न उस तरफ, और बीच का कांटा सीधा नब्बे का कोण बनाता है, वह सम्यकत्व है।

उपनिषदों में कथा है, कि एक आदमी सत्य की खोज करते-करते थक गया। बहुत द्वार खटखटाये, खाली हाथ लौटा। बहुत गुरुओं के चरण दबाये, आत्मा न भरी, न भरी। बहुत शास्त्र सीखे, सिद्धांत, उल्टे-सीधे आसन लगाये, वर्षों बिताये, लेकिन जैसा खाली था, खाली ही रहा। और विषाद घना हो गया। असफलता ने और विषाद ला दिया। आशा भी मर गई। तब उसने जो उसका आखिरी गुरु था उससे पूछा कि ‘अब मैं क्या करूं?’ तो उस गुरु ने कहा कि ‘ऐसा कर! जहां तू खोज रहा है, वहां तुझे नहीं मिलेगा। क्योंकि वहां है नहीं। लेकिन इस नगर में एक वैश्य है, एक बनिया है। तुलाधर उसका नाम है। तू उसके पास चला जा।’

उस आदमी ने सिर पीट लिया। उसने कहा, ‘वह मेरा पड़ोसी है–तुलाधर। उससे ज्ञान मिलने वाला है? हद हो गई! मजाक की भी एक सीमा होती है। उसे मैं भलीभांति जानता हूं। सिवाय तराजू तौलने के उसने जिंदगी में कुछ किया नहीं, इसीलिए तो तुलाधर नाम है। बस, वही करता रहता है सुबह से रात तक। उसको क्या सत्य का पता होगा?’

उसके गुरु ने कहा, ‘तू और जगह तो खोज ही चुका, अब पड़ोसी में भी कोशिश कर ले। कई बार ऐसा हो जाता है कि जो पड़ोस में है, उसके लिए हम दूर खोजते रहते हैं। और जो भीतर है, उसके लिए हम बाहर खोजते रहते हैं। और जो निकट था, उसको हम दूर खोजने की वजह से चूक जाते हैं। तू जा; परमात्मा सदा ही पड़ोस में है।’

तुम खोते हो क्योंकि दूर खोजते हो। कहा गुरु ने, और सब और यात्रा असफल हो गई थी, तो वह आदमी गया। आंख पर उसे भरोसा न आया। अपने पर भी भरोसा न आया, कि तुलाधर के पास किसलिए जा रहा है? वह बनिया, जो दिन रात सिवाय तौलने के कुछ करता नहीं है!

फिर भी जब गुरु ने कहा, तो वह गया। बड़े संकोच से, बड़ी झिझक से; और इस आदमी की ख्याति थी कि यह बड़ा सत्य का खोजी है। तुलाधर की तो कोई ख्याति न थी। सिवाय तराजू तौलने के और कुछ था ही नहीं। वही उनका नाम हो गया था। वही उनका तादात्म्य था एक मात्र। वही उनकी पहचान थी। फिर भी यह गया जिज्ञासु भाव से। इसने बैठ कर कहा कि मेरे गुरु ने कहा है, कि तुलाधर से पूछ। तो क्या है राज?

वह तराजू तौल रहा था। उसने बस तराजू सामने कर दी और कहा, कि बस कांटा बीच में रहे। न बांये झुके, न दांये। यही राज है। और यही मैंने सीखा और ऐसा मैं बाहर भी कर रहा हूं, और ऐसा ही भीतर भी। बस, बाहर भी तराजू, भीतर भी तराजू। न बांये झुकने देता, न दांये। बस, मध्य में रहता हूं। और ज्यादा मैं नहीं जानता, मैं साधारण दूकानदार हूं। बस इतना! और इसमें मैं शांत हूं और आनंदित हूं। और जो मुझे पाना था, मिल गया।

सम्यक का अर्थ है, ‘तुलाधर’। कहीं झुकाव नहीं। अतियों में झुकाव नहीं, मध्य में थिरता। तो बुद्ध तो, कोई भी वचन बोलते हैं–अगर वे कहते हैं विवेक, तो वे कहते हैं ‘सम्यक विवेक।’ क्योंकि विवेक भी इधर-उधर ज्यादा झुक जाये, तो मुसीबत में डाल सकता है। दवा भी ज्यादा खा लो, तो जहर बन सकती है। ‘सम्यक’ हर चीज में जोड़ते हैं। बुद्ध का अष्टांग मार्ग है, तो उसमें हर शब्द के साथ सम्यक जोड़ा है।

सम्यक व्यायाम; इतना भी मत कर लेना कि थक जाओ। और खाली भी मत बैठे रहना कि आलस्य से भर जाओ। न आलस्य, न व्यायाम। दोनों के मध्य में बिंदु खोज लेना; उसका नाम सम्यक-व्यायाम।

सम्यक स्मृति। सम्यक हर चीज में लगाये जाते हैं। अंतिम सम्यक-समाधि। बुद्ध कहते हैं, वह भी सम्यक। उसमें भी अति मत कर देना। क्योंकि समाधि में भी अति हो सकती है, उससे ज्यादा स्वादिष्ट इस जगत में और कुछ भी नहीं है। और हमारा मन ऐसा लोलुप है कि समाधि लग जाये, तो फिर हम बाहर ही न आना चाहें।

तो बुद्ध वहां भी स्मरण के लिए कहते हैं कि सम्यक। भीतर जाना और बाहर आना, भीतर जाना, बाहर आना, दोनों तराजुओं को, दोनों पलड़ों को बराबर रखना। तुम मध्य में रहना। न तो बाहर से जकड़ जाना, न भीतर से जकड़ जाना। बुद्ध कहते हैं, बाहर भी सुख नहीं है, भीतर भी सुख नहीं है, मध्य में सुख है। तुम दोनों के मध्य में हो, जहां बाहर और भीतर मिलते हैं। न तो भवन के भीतर तुम हो, न भवन के बाहर तुम हो, तुम ठीक देहली पर खड़े हो। वहीं तुम हो।

नहीं तो क्या होता है कि साधक कहता है, कुछ काम न करूंगा। मैं तो आंख बंद करके बैठा रहूंगा। मैं समाधि…ऐसी समाधि भी रोग हो जायेगी। ऐसी समाधि ने हिंदुओं को मारा। क्योंकि हिंदुओं में जो भी प्रतिभावान व्यक्ति था, वह समाधि में डूब गया। जो आइंस्टीन बन सकता था वह समाधि में डूब गया। जो न्यूटन बनता, वह समाधि में डूब गया। उन सबने आंखें बंद कर लीं। बुद्धुओं के हाथ में मुल्क पड़ गया। असम्यक-समाधि ने हिंदुओं को मारा। अन्यथा हमारे पास प्रतिभा की कोई कमी न थी। हम वह सब कर लेते, जो पश्चिम में हुआ। और हम उनसे बेहतर करते, क्योंकि हमें भीतर का भी स्वाद था। हम असम्यक-समाधि से मरे।

वे असम्यक-संसार से मरे जा रहे हैं। बाहर…बाहर…बाहर…। इतने लीन हो गये हैं, कि भीतर जाने का न समय है, न सुविधा है, न खयाल है। जैसे ही बाहर से खाली होते हैं, वे पूछते हैं, ‘अब क्या करें?’ बस दौड़ रहे हैं। वे दौड़-दौड़ कर मरे जा रहे हैं, हम बैठ-बैठ कर मर गये। बुद्ध कहते हैं, मध्य में है ज्ञान। न तो बाहर से आसक्त हों और न भीतर से। न तुम्हें संसार पकड़े, न मोक्ष; तब सम्यक-समाधि। तो बुद्ध के लिए सम्यक शब्द इतना प्यारा है कि वे उसे अंत तक खींचते हैं–मोक्ष तक। वहां भी वे कहते हैं, तुम अति कर सकते हो। तुम्हारी पुरानी आदतें हैं अति की। अति कहीं मत करना। अति सर्वत्र बुद्ध वर्जित करते हैं। और मध्य को वे कहते हैं, वही स्वर्ण-मार्ग है; वही स्वर्ण-पथ है।

‘सीधे चले जाओ’, इसका अर्थ है, मध्य में चलते रहो। नाक की सीध में। दोनों तरफ खाई-खड्ड है। इधर गिरे खाई, उधर गिरे खड्ड। कोई चुनाव करने जैसा नहीं है। गो स्ट्रेट अहेड, सीधे चले जाओ। उसका अर्थ है, चुनाव रहित। जिसको कृष्णमूर्ति ने ‘च्वाइसलेसनेस’ कहा है। चुनो मत; चुना कि भटके। क्योंकि चुनोगे क्या? यह तो तलवार की धार की तरह पतला मार्ग है।

इसलिए ज्ञानी कहते हैं, खड्ग की धार। इधर तुम झुके, कि गिरे। उधर तुम झुके, कि गिरे। और क्या फर्क पड़ता है कि तुम कुंए में गिरे, कि खाई में गिरे, कि खड्ड में गिरे? नाम का फर्क है। कोई खाई में गिरता है, उसको हम कहते हैं संसारी। कोई खड्ड में गिरता है, उसको हम कहते हैं संन्यासी। नहीं, दोनों में कोई भी संन्यासी नहीं है। दोनों अतियों पर चले गये। संन्यासी तो मध्य में चलता है। इसलिए संन्यास खड्ग की धार है। वह न तो संसार को छोड़ता, न पकड़ता। न वह मोक्ष को भूलता, न मोक्ष को जकड़ता। सिर्फ मध्य में चलता है।

उस स्त्री ने वचन तो बड़ा कीमती कहा था। इसलिए जोशू को चिंता हुई कि परीक्षा कर लेनी जरूरी है। पूछने वाले ने तो साधारण सी बात पूछी थी कि वह तैजान का मंदिर कहां है? लेकिन ख्याति थी तैजान के मंदिर की, कि वहां विवेक उपलब्ध होता है। उस बूढ़ी स्त्री ने कहा, ‘चले जाओ बिलकुल सीधे। और तुम उस मंदिर में पहुंच जाओगे, जहां विवेक उपलब्ध होता है।’

वह मंदिर तैजान का हो या न हो, यह बड़ा सवाल न था। तैजान से क्या लेना-देना है? वह मंदिर चाहिए, जहां विवेक उपलब्ध हो जाये। लेकिन उस आदमी को कुछ समझ में न आया होगा कि इस स्त्री ने क्या कहा! उसने तो तैजान के मंदिर के लिए ही पूछा था। वह जो दिखाई पड़ता था मंदिर, मिट्टी-पत्थर का बना हुआ। उसने समझा कि यह कह रही है, ‘सीधे चले जाओ’, मतलब कि यही रास्ता है, वह चल पड़ा होगा। उसने धन्यवाद भी न दिया। उसने एक क्षण रुक कर सोचा भी नहीं कि स्त्री ने क्या कहा है! और इसीलिए जब वह सीधा चलने लगा बिना कुछ कहे, उसके चेहरे पर कोई रौनक, कोई झलक! इतना क्रांतिकारी वचन सुनकर भी उसके भीतर कोई झनकार न हुई, तो जब साधु कुछ दूर चला गया, तो बुढ़िया ने स्वयं से कहा कि वह भी एक साधारण मंदिर जाने वाला है।

किसी ने यह बात जोशू से कह दी।

जोशू एक निर्वाण को उपलब्ध, ज्ञान को उपलब्ध, जीवन-मुक्त, ज्ञानी था। जोशू तैजान के मंदिर के पास ही रहता था। किसी ने जोशू को कह दी।

जोशू ने कहा, ‘रुको। जब तक मैं जांच पड़ताल न कर लूं, तब तक कुछ कैसे कहूं?’

जोशू तक को लगा कि जांच पड़ताल कर लेने जैसी है। क्योंकि स्त्री ने बात तो बड़ी गजब की कही है। वह आदमी साधारण ही मंदिर जानेवाला होगा। साधारण मंदिर का ही पता पूछ रहा था। स्त्री ने कुछ और आगे का पता बता दिया।

बात तो स्त्री ने गजब की कही। क्योंकि यही तो सारभूत है, कि सीधे चले जाओ, बिना झुके यहां-वहां। आंखें अडिग हों, नाक की सीध में यात्रा हो और तुम मोक्ष पहुंच जाओगे। द्वार बिलकुल सामने है। तुम चूकते हो, क्योंकि तुम बांये झुकते हो, दांये झुकते हो। द्वार बिलकुल सामने है।

प्रतीक लेकिन बड़े कठिन हैं, क्योंकि प्रतीक को हम भूल जाते हैं। हिंदुओं ने निरंतर कहा है कि नासाग्र पर ध्यान करने से तुम वहां पहुंच जाओगे। मगर उसका भी मतलब यही है। अनेक बैठे हैं नाक पर ध्यान लगाये। लेकिन नासाग्र प्रतीक है। नासाग्र का अर्थ है कि दोनों आंखों के मध्य में होना। न बांये, न दांये। तुम्हारी दृष्टि थिर हो जाये, सम्यकत्व आ जाये, तो तुम पहुंच जाओगे। वह एक प्रतीक है–‘गो स्ट्रेट अहेड। नाक की सीध में चले जाओ।’ तुम्हारा ध्यान नाक के बिंदु पर हो।

लेकिन प्रतीक भटक जाते हैं। और कचरा हाथ में रह जाता है। सूत्र खो जाते हैं, शरीर जकड़ में, हाथ में आ जाता है। लाखों लोग बैठे हैं अपनी अपनी नाक पर ध्यान लगाये। कहीं नहीं पहुंच रहे हैं। नाक पर ध्यान लगाने से कोई कहीं पहुंचता है? तुम चूक ही गये।

तुम्हारी हालत ऐसी है कि मैंने सुना है, कि एक ईसाई मिशनरी नया-नया अफ्रीका के एक आदिवासी कबीले में गया। वह डाक्टर भी था और उनकी सेवा करना चाहता था। पहला मरीज आया, तो उसने प्रिस्क्रिप्शन लिखा, उसमें दवा का सारा–सारी जांच पड़ताल की, मेहनत की, घंटा भर लगाया। प्रिस्क्रिप्शन लिखा, प्रिस्क्रिप्शन दिया। पंद्रह दिन बाद वह बाजार में उस आदमी को देखा, तो वह हैरान हुआ। उसने कहा कि ‘यह तुमने क्या किया?’ वह प्रिस्क्रिप्शन को गले में लटकाये घूम रहा था। क्योंकि वह समझा, यह ताबीज है। जंगली आदमी! वह समझा कि यह ताबीज है। इसको गले में लटकाने से सब ठीक हो जाएगा।

ऐसे ही लोग नाक पर ध्यान लगाये बैठे हैं। प्रिस्क्रिप्शन को ताबीज बना लिए हैं।

ऐसा ही तृतीय नेत्र भी एक प्रतीक है। उसका भी मतलब यह है कि दो आंखों के मध्य में। ‘गो स्ट्रेट अहेड।’ ये दोनों आंखों में से तुम चुनोगे, तो भटकोगे। क्योंकि एक बांये ले जायेगी, एक दांये ले जायेगी। दोनों के मध्य में। और ये प्रतीक बड़े कीमती हैं। इसे थोड़ा समझ लें।

तुम्हारे पास दो मस्तिष्क हैं; एक मस्तिष्क नहीं है। इसीलिए तो सीजोफ्रेनिया जैसी बीमारी पैदा होती है। बांये में अलग मस्तिष्क है, दांया अलग मस्तिष्क है। क्योंकि शरीर में प्रत्येक चीज दो हैं। स्पेयर पार्ट्स का खयाल रखा गया है। एक गुर्दा खराब हो जाये, दूसरा गुर्दा काम करे। एक फेफड़ा काम न करे, तो दूसरा काम कर सके। एक मस्तिष्क अगर काम न करे, तो दूसरा काम कर सके। प्रकृति ने बड़ा इंतजाम किया है। वे स्पेयर पार्ट्स हैं। शरीर में सब चीजें दो हैं, ताकि एक से भी चल जाये। तो मस्तिष्क भी दो हैं। और अभी शरीर-शास्त्रियों, मनस्विदों ने बड़े प्रयोग किए हैं। अगर दोनों मस्तिष्क के बीच का जोड़ तोड़ दिया जाये, तो एक ही आदमी, दो आदमी हो जाता है। वह दो आदमी की तरह व्यवहार करने लगता है; तुम उसके बांये मस्तिष्क को जो सिखाओ, वह दांये को पता नहीं चलता। और दांये को जो सिखाओ, वह बांये का पता नहीं चलता।

कुछ बिल्ली और कुत्तों के मस्तिष्क विभाजित कर दिए गए; वे दो व्यक्ति हो गए और यही घटना सीजोफ्रेनिया जैसी बीमारी में घटती है। कई दफा ऐसा हो जाता है कि एक आदमी कभी तो अच्छा व्यवहार करता है, कभी बुरा व्यवहार करता है। कभी तो एक तरह का आदमी होता है…तुमने कई ऐसे लोग देखे होंगे कि चार-छः महीने बिलकुल शांत और अच्छे और चार-छः महीने बिलकुल अशांत और क्रोधित।

तुम्हारे भीतर भी रोज यह घटता है–छोटी मात्रा में सीजोफ्रेनिया। सुबह तुम बड़े प्रसन्न, सांझ तुम बड़े परेशान। तुम खुद ही हैरान होते हो कि क्या करें? सांझ तय करते हो, ब्रह्ममुहूर्त में उठना है। ब्रह्ममुहूर्त में तय करते हो, क्या फायदा उठने का? क्या पा लोगे? सोओ मजे से आज! ऐसा लगता है कि तुम्हारी पहली, जो तुमने निर्णय किया था, वह एक मस्तिष्क से किया था। दूसरा निर्णय तुम दूसरे मस्तिष्क से ले रहे हो। दोनों को एक दूसरे की ठीक-ठीक खबर भी नहीं है। कसम खा लेते हो कि अब झूठ नहीं बोलेंगे और दूसरे ही क्षण झूठ बोलते हो। और जब तुम झूठ बोलते हो, तब बिलकुल भूल जाते हो कि कसम खाई है। और फिर जब याद आती है, तब तुम फिर कसम खा लेते हो।

तुम्हारे भीतर दो मस्तिष्क हैं। और दोनों मस्तिष्क, एक बांया, एक दांया–उल्टे हाथों से जुड़े हैं। तुम्हारा दांया हाथ, बांये मस्तिष्क से जुड़ा है। तुम्हारा बांया हाथ, दांये मस्तिष्क से जुड़ा है। और चूंकि तुम दांये हाथ का ही उपयोग करते हो निरंतर, तुम्हारा बांये हिस्से का मस्तिष्क ही सक्रिय है। दूसरा हिस्सा निष्क्रिय पड़ा हुआ है।

इसलिए अक्सर जो लेफ्ट-हैंड के लोग हैं, जो बांये हाथ से चलाते हैं काम जिंदगी में, उनके साथ तुम्हें मेल बिठाने में बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि उनका दूसरा मस्तिष्क काम करता है, तुम्हारा दूसरा। उनके और तुम्हारे बीच तालमेल बैठना बहुत मुश्किल होगा। और वे कम नहीं हैं, काफी हैं। दस प्रतिशत तो निश्चित हैं। हर दस आदमी में एक आदमी बांये हाथ से काम चला रहा है। और स्कूल, युनिवर्सिटी और समाज चूंकि दांये हाथ वाले लोग चलाते हैं, वे बांये हाथ वाले को बचपन से ही बाधा डालते हैं। वे उससे कहते हैं, तू भी दांये हाथ से लिख। दांये हाथ से खाना खा। तो बहुत से बांये हाथ से चले होते लोग, वे भी दांये से चल रहे हैं। वे जिंदगी भर के लिए मुसीबत में पड़ गये। क्योंकि उनके पास बढ़िया मस्तिष्क बांया था, और सबने उनको जबरदस्ती करवा-करवा कर दांये हाथ से लिखवाना शुरू कर दिया, काम करवाना शुरू कर दिया। तो दांये से वे काम कर लेते हैं, लेकिन वह उनका स्पेयर पार्ट है, सेकेंडरी है। वे प्रतिभा में पिछड़ जायेंगे। वे कुछ भी कर लेंगे। पत्थर भी फेंक सकते हैं वे दांये से, लेकिन वह ताकत न आयेगी, जो बांये से आती। क्योंकि उनका बांया ही उनका दांया था।

तृतीय नेत्र का अर्थ है, दोनों मस्तिष्कों का उपयोग नहीं। तुम दोनों के मध्य में खड़े हो जाओ। वह मन के बाहर होने की तरकीब है। एक ऐसी थिर दशा में आ जाओ, जहां न बांया काम करता, न दांया। तुम दोनों के बीच में हो।

इसलिए समस्त ध्यान के जो प्रयोग हैं, उनमें दोनों हाथों को थिर कर देना है। पूरा शरीर चाहे थिर हो या न हो, लेकिन बुद्ध की प्रतिमा में जैसे दोनों हाथ रखे हैं, वैसे दोनों हाथ बिलकुल थिर कर देने हैं। तुम बड़े चकित होओगे। रास्ते चलते वक्त अगर तुम दोनों हाथ थिर करके चलो, तो तुम पाओगे मन ज्यादा शांत है। हाथ मत हिलाओ। हाथ के हिलाने की कोई जरूरत भी नहीं है; उसके बिना तुम चल सकते हो। वह तो सिर्फ शरीर की पुरानी आदत है। जब जानवर की तरह हम थे, और चारों हाथ-पैर से चलते थे। अब भी वही आदत है, बांया पैर आगे जाता है तो दांया हाथ उसके साथ आगे जाता है। वह जानवर के लिए ठीक है, अब तुम्हारे लिए कोई जरूरत नहीं है। लेकिन कोई लाखों साल की पुरानी आदत भी पीछा करती है। संस्कार हैं।

तो जब भी तुम चलोगे, अभी भी वह संस्कार काम करता है। दोनों हाथ रोक कर चलकर देखो, तुम बड़े हैरान होओगे। जैसे ही तुम दोनों हाथ रोकोगे, विचार रुक जायेगा। क्योंकि दोनों हाथ विचार को प्रभावित कर रहे हैं। हाथ जो हैं, वे मस्तिष्क के फैले हुए भाग हैं। इसलिए समस्त ध्यान की प्रक्रियाओं में दोनों हाथों का वर्तुल बना कर शांत कर देना है। अगर हाथ बिलकुल शांत हो जायें, तो मस्तिष्क शांत होने लगता है। जब तुम क्रोधित हो जाते हो, तो तुम किसी को घूंसा और थप्पड़ मारना चाहते हो। तुम्हें पता नहीं, वह मस्तिष्क है, जो क्रोध से भरा है। वह हाथ से बाहर जाना चाहता है।

तृतीय नेत्र का अर्थ है दोनों मध्यों के बीच में जो संधि है, जहां वे दोनों जुड़े हैं, तुम वहां संधि पर रुक जाओ। दोनों तराजू के पलड़ों के बीच में जहां कांटा है। तुम तुलाधर हो जाओ। पर ये प्रतीक हैं। अब कई लोग बैठे हैं, वे यही सोच रहे हैं कि एक तीसरी आंख भीतर है। वे कल्पना कर रहे हैं। तीसरी आंख भीतर है, यह प्रतीक है। तीसरी आंख का मतलब है कि ऐसा संतुलित दृष्टिकोण, जहां न बांया प्रभावित करता है, न दांया। जहां कोई खाई-खड्ड तुम्हें प्रभावित नहीं करते। जहां तुम सीधी आंख चले जाते हो।

जोशू को भी लगा कि बुढ़िया की जांच पड़ताल कर लेनी जरूरी है, क्योंकि बात उसने गजब की कही है। बात में सभी कुछ कह दिया है। जो कहने योग्य है उसने छोटी सी बात में कह दिया। और वह मंदिर जाने वाला जरूर चूक गया। और दूसरी बात भी उसने बिलकुल ठीक कही कि यह भी एक साधारण ही मंदिर जाने वाला है।

जोशू ने कहा, ‘रुको, जब तक मैं जांच पड़ताल न कर लूं।’

इससे एक बात और समझ लेनी चाहिए कि ज्ञानी पुरुष बिना जांच पड़ताल किए कोई भी निर्णय नहीं लेता। अज्ञानी, बिना जांच पड़ताल किए निर्णय लेते हैं। तुमसे किसी ने कहा, ‘फलां आदमी बुरा है।’ निर्णय ले लिया कि बुरा है। तुम कान से जीते हो। ज्ञानी पुरुष आंख से जीता है। कान बड़ी कच्ची दुनिया है। उस पर बहुत भरोसा मत करना। जिंदगी में तुम्हारी अधिक भटकन कान के कारण होती है। किसी ने कुछ कहा, मान लिया, चल पड़े। देख कर ही मानना। बिना देखे कोई निर्णय मत करना। जोशू ने कहा, ‘जांच पड़ताल न कर लूं, तब तक कुछ न कहूंगा।’

दूसरे दिन जोशू गया। उसने वही सवाल पूछा–पूछा तैजान का रास्ता–और बुढ़िया ने वही उत्तर दिया, ‘गो स्ट्रेट अहेड। बिलकुल सीधे चले जाओ।’

जोशू लौटा और उसने कहा, ‘आई हैव इनवेस्टिगेटेड दैट ओल्ड वूमन। मैंने उस बूढ़ी स्त्री की जांच पड़ताल कर ली।’

कई बातें समझने की हैं। एक तो, जोशू बुद्ध-पुरुष है। वह बुढ़िया उत्तर में फर्क न कर पाई। यह तो बिलकुल और तरह का आदमी सामने खड़ा था। यह तो खुद तैजान का मंदिर सामने खड़ा था। अगर बुढ़िया का पहला उत्तर बोध से आया था, समझ से आया था, तो वह जोशू के चरणों में सिर रख देती। वह कहती, ‘तुम खुद ही तैजान के मंदिर हो। कहां जाते हो?’ इस आदमी को वही उत्तर नहीं दिया जा सकता, जो पहले आदमी को दिया था। यह आदमी और है। लेकिन बुढ़िया का उत्तर बंधा-बंधाया था। वह ऐसा सभी को देती रही होगी। वहीं रहती होगी नीचे तैजान के मंदिर के आसपास। लोग उस रास्ते से पूछते ही रहते होंगे रोज, ‘तैजान का रास्ता कहां है?’ और वह कहती होगी, ‘सीधे चले जाओ।’ ये शब्द उसने किसी से सुन लिए होंगे। जरूर किसी ज्ञानी से ये शब्द उसको मिल गये होंगे। ये शब्द उधार थे। जोशू के पूछने पर तो उत्तर दूसरा होना चाहिए था। जोशू के पूछने पर तो…।

अगर बुढ़िया को जरा भी बोध होता कि वह जो कह रही है, उसका अर्थ क्या है, तो बात ही खतम हो गई थी। तैजान का मंदिर सामने खड़ा था। विवेक जागे, वही तो मंदिर है, वही तो ख्याति थी। यह विवेक खुद सामने खड़ा था। बुढ़िया झुक गई होती चरणों में और हंसती, और कहती कि ‘मजाक करते हो?’ बुढ़िया भागी होती, पास-पड़ोस के लोगों को चिल्लाई होती कि ‘आ जाओ। तैजान का मंदिर यहां आ गया।’ बुढ़िया ने खबर की होती लोगों को कि अब तक तैजान के मंदिर को पूछते लोग आते थे, आज तैजान का मंदिर खुद आया।

मगर बुढ़िया जोशू के तरफ देखी भी नहीं। उसने वही बंधा हुआ उत्तर दे दिया।

बंधे हुए उत्तरों का एक खतरा है कि वे तुम्हारी आंखों को अंधा कर देते हैं। चाहे किसी ज्ञानी से ही वे उत्तर क्यों न आये हों। गीता तुम्हें अंधा कर रही है, कुरान तुम्हें अंधा कर रहा है, बाइबिल तुम्हें अंधा कर रही है। महावीर और बुद्ध से तुम्हारी आंखों का निखार नहीं आया, आंखें और मंदी हो गई हैं। उन पर धूल पड़ गई है। क्योंकि तुम दुहरा रहे हो। तुम पुररुक्त कर रहे हो। तुम सत्य को भी कचरा कर लेते हो पुनरुक्त कर करके। आज बुद्ध भी तुम्हारे सामने खड़े हो जायें, तो तुम न पहचानोगे। कृष्ण तुम्हारे सामने आ जायें, तुम अपनी गीता पढ़ते रहोगे। और कृष्ण अगर बांसुरी वगैरह बजाने लगें, तुम कहोगे ‘बंद करो। गीता में बाधा मत डालो।’ तुम बिलकुल अंधे हो।

इस बुढ़िया के पास शब्द तो थे, जो कहीं से आये थे। इसने किसी ज्ञानी से सुना होगा–‘गो स्ट्रेट अहेड। सीधे चले जाओ।’ और बस, यह दुहरा रही है।

एक धनपति बहुत व्यस्त था और उस दिन चाहता था, कि किसी से मिल-जुले न। कुछ बड़ा अहम सवाल था, उलझन थी। तो उसने अपने सेक्रेटरी को कहा कि कोई भी फोन करे, कहना कि मालिक आज न मिल सकेंगे। आज असंभव। शायद कोई यह भी कहे कि बहुत आवश्यक है मेरा काम। एकदम जरूरी है। तो कहना कि सभी यही कहते हैं। कोई कहे, ‘मित्र हूं, प्रियजन हूं, फलां, ढिकां हूं, कहना कि सभी यही कहते हैं।’ फोन आया। सेक्रेटरी इनकार करता गया कि ‘नहीं, नहीं।’ लेकिन दूसरी तरफ से महिला जिद करने लगी। और उसने कहा कि मुझे मिलना ही है। और जब वह नहीं माना, तो उसने कहा कि तुम समझते नहीं हो, मैं उनकी पत्नी हूं। उसने कहा, ‘यह तो सभी कहती हैं। जो देखो वही यही कहती है।’ एक बंधा हुआ उत्तर है।

इससे तो बेहतर वह नौकर था–एक दवाई के दूकानदार को बाहर जाना पड़ा। और उसने अपने नौकर से कहा कि अगर कोई फोन आये तो जवाब दे देना। फोन आया, और किसी ने पूछा–जैसे ही फोन आया तो उसने कहा, ‘हलो।’ तो किसी ने पूछा, ‘एरोमाइसिन मिल सकेगी?’ तो उस नौकर ने कहा, ‘महानुभाव, जब मैंने कहा हलो, तब जो भी मैं जानता था, सब कह दिया। उससे ज्यादा मेरी कोई जानकारी नहीं है। जब मैंने कहा हलो, तो मैं जो भी जानता था, वह मैंने सब कह दिया।’

यह नौकर ज्यादा समझदार है। इसे अपने अज्ञान का पता है। तुम ज्ञान से भरे हो। तुम जो भी उत्तर दोगे वह भूल-चूक भरे हो जायेंगे। तुम उस पहले सेक्रेटरी की तरह हो, जिसे पता ही नहीं है। जिसके पास सिर्फ बंधा हुआ एक उत्तर है। जो सभी को देता चला जायेगा बंधा हुआ उत्तर। बिना देखे, कि किसको दे रहा है। शास्त्रीय ज्ञान की यही असुविधा है।

जोशू को भी उसने वही कह दिया है–‘गो स्ट्रेट अहेड। सीधे चले जाओ।’ उस आदमी को, जो पहुंच गया है, जिसे अब जाने को कहीं नहीं बचा। उस आदमी को, जो बिलकुल सीधा है। तुलाधर को, जिसका कि तराजू बिलकुल ठहर गया है, कांटा नब्बे का कोण बता रहा है। उस आदमी को भी यह देख न पाई।

जोशू ने लौट कर कहा कि ‘मैंने उस बूढ़ी स्त्री की जांच कर ली।’

यह भी बड़ी मजेदार बात है कि जोशू ने कुछ और नहीं कहा। बस इतना, कि उस बूढ़ी स्त्री की जांच कर ली। निर्णय नहीं दिया कि अज्ञानी है, मूढ़ है। इतना भी नहीं कहा। इतना भी क्या कहना! इतना पर्याप्त है कि जांच कर ली।

इसलिए कहानी अधूरी लगती है। तुम्हारा मन चाहेगा कि जोशू कुछ कहे तो। निर्णय दे, कि देखा, जांच किया, गलत पाया। उसे कुछ पता नहीं। किसी का सुना हुआ शब्द दुहराती होगी। तोता रटंत–इतना भी नहीं कहा। इतना ही कहा कि बस, जांच कर ली।

ज्ञानी पुरुष, हो सके तो श्रेष्ठ को स्वीकार करता है। हो सके सत्य की प्रशंसा करता है। हो सके, ज्ञान की गरिमा का गुणगान करता है। और जहां तक हो सके, विपरीत को सिर्फ इतना कहकर छोड़ देता है कि जांच पड़ताल कर ली। बस, इतना काफी है। उस विपरीत की उदघोषणा करनी भी उचित नहीं।

लेकिन तुम इससे उलटा करते हो। अगर जांच पड़ताल करने से तुम्हें पता चले कि कोई आदमी सच में ही महिमायुक्त है, तो तुम चुप रहते हो। और पता चल जाये, बिना जांच पड़ताल किए भी पता चल जाये, कि कोई आदमी निंदा योग्य है, तो तुम्हारी मुखरता का अंत नहीं। तब तुम्हें हजार पंख लग जाते हैं। तब तुम ऐसी निंदा करते हो…।

एक स्त्री किसी दूसरी स्त्री की निंदा कर रही थी। और जिस स्त्री से कर रही थी, वह रस ले रही थी। बड़ा रस ले रही थी। आधे घंटे के बाद जब निंदा का स्वर रुका, तो दूसरी स्त्री ने कहा कि और भी थोड़े विस्तार से बताओ। तो पहली स्त्री ने कहा, ‘अब यह मत पूछो। जितना मुझे पता था, उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी। अब और बताने को कुछ नहीं। जितना मैंने कहा है, उतना भी मुझे पता नहीं है। जितना पता था, उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी।’

निंदा पर तुम जल्दी से आतुर हो जाते हो। कोई किसी की बुराई कर रहा हो कि तुम्हारा मन बड़ा रस से भर जाता है। कोई किसी की प्रशंसा कर रहा हो, तो तुम बड़े विषाद से भर जाते हो। प्रशंसा सुनने में तुम्हें आनंद नहीं आता, निंदा सुनने में आनंद आता है। क्यों? क्योंकि जब भी तुम किसी की निंदा सुनते हो, तुम्हारे अहंकार को लगता है, तुम बेहतर। इससे भी सिद्ध हो गया कि तुम इससे भी बेहतर। जब तुम किसी की प्रशंसा सुनते हो, तब तुम्हें बड़ी पीड़ा होती है कि कोई तुमसे बेहतर। और ऐसा कहीं हो सकता है कि कोई तुमसे बेहतर?

इसलिए निंदा को तुम बिना विवाद स्वीकार करते हो। प्रशंसा के साथ तुम बड़ा विवाद करते हो। कोई कहे फलां आदमी पापी, तो तुम कभी नहीं पूछते कि कोई कारण? कोई प्रमाण? कोई नहीं पूछता कि कोई प्रमाण? बस, तुम जाकर दूसरे को खबर देते हो। उसमें तुम काफी मिलाते हो। जितना तुम जानते हो, उससे ज्यादा तुम कहते हो। वह भी नहीं पूछेगा।

लेकिन कोई अगर कहे कि फलां आदमी महात्मा, तो तुम हजार सवाल उठाते हो। और फिर भी भीतर संदेह बना रहता है, कहीं-न-कहीं भूल हो रही होगी। तुम्हारी नजर में पापी सभी हैं। और अगर कोई महात्मा समझा जा रहा है, तो छिपा हुआ पापी है। अभी पोल-पट्टी खुली नहीं है, इसीलिए! आज नहीं कल खुल जायेगी, तब पता चल जायेगा दुनिया को। लेकिन सब पापी हैं, यह तुम्हारा स्वीकृत सत्य है। क्योंकि यही एक तरकीब है जिससे तुम्हारा अहंकार भरता है। सब को छोटा करो, सब को बुरा करो, तो तुम्हें अच्छा लगता है। अच्छे लोग हों चारों तरफ, तो तुम्हें पीड़ा होती है।

यह जो स्थिति है अज्ञान की, इससे ठीक उलटी स्थिति होगी ज्ञान की। जोशू ने इतना ही कहा कि जांच पड़ताल कर ली। कोई निर्णय न दिया। बस, इतना ही निर्णय काफी है। क्योंकि अगर जोशू ने एक भी किरण पाई होती प्रकाश की, तो उसकी महिमा का गान करता। जरा सा भी स्वर मिल गया होता उस बूढ़ी स्त्री में, तो उसे सिंहासन पर विराजमान करता। लेकिन बड़ी उदासी से उसने इतना ही कहा कि जांच पड़ताल कर ली। कोई वक्तव्य न दिया। यह भी न कहा कि वह मूढ़ है। यह भी न कहा कि अज्ञानी है। न, इतना भी कहना उचित नहीं समझा। इसलिए कहानी हमें अधूरी लगती है। ऐसा लगता है कि कहानी में कुछ पीछे छूट गया, कुछ पूरा नहीं है। निर्णय नहीं है।

ज्ञानी पुरुष निर्णय तभी देता है, जब वह निर्णय सत्य की तरफ ले जानेवाला हो। अन्यथा वह निर्णय को रोक लेता है। क्योंकि बुरे को बुरा कहना उसे और बुरा बनाने की व्यवस्था देना है। इसे भी थोड़ा समझ लो। भले को भला कहना, उसे भले की तरफ सहारा देना है। अगर एक बुरे आदमी को भी उसका सारा समाज भला कहने लगे, तो उसे बुरा होना मुश्किल हो जायगा। अगर एक बुरे आदमी को भी तुम भला मानने लगो, तो तुम उसे बुराई से रोकते हो। क्योंकि बुरा कोई भी नहीं होना चाहता। और अगर एक आदमी भी किसी बुरे आदमी को भला मानने को मिल जाता है, तो उसके भीतर नये बीज टूटने शुरू हो जाते हैं। वह भी कोशिश करता है कि कम से कम एक आदमी की आंख में भला बना रहे। और जब तुम सभी लोग मिल कर किसी आदमी को बुरा कहने लगते हो, तब तुम उसे धक्के दे रहे हो। और धीरे-धीरे तुम उसे विश्वास दिला दोगे कि वह बुरा है। न केवल विश्वास दिला दोगे बल्कि उसे तुम आश्वस्त कर दोगे कि बुरे होने के अतिरिक्त उसका कोई उपाय भी नहीं है। और तब न केवल वह बुरा होगा, बल्कि जब कभी वह पायेगा कि बुरा नहीं; तब उसको भी बेचैनी होगी। क्योंकि तुमने जो प्रतिमा उसकी बनाई है, उस प्रतिमा के साथ वह भी तादात्म्य कर लिया है। वह भी सिद्ध करेगा कि मैं बुरा हूं।

मनस्विद कहते हैं कि जिन बच्चों को स्कूल के शिक्षक, घर में मां-बाप परिवार के लोग कहते हैं, ‘तुम गधे हो'; पचास प्रतिशत गधापन इनके वक्तव्यों से पैदा होता है। वह लड़का धीरे-धीरे मान लेता है कि ठीक है। जब सभी कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे। फिर वह गधा होने को राजी हो जाता है। फिर अगर उसे कभी समझदारी की भी कोई किरण आये, तो वह उसे दबाता है। क्योंकि यह उसकी प्रतिमा के बिलकुल विपरीत है। वह डरता है। उसका जो ढंग बन गया है, उस ढंग के बाहर की बात है यह। इस पर बहुत प्रयोग किए गये हैं।

एक मनस्विद एक ही कक्षा के पंद्रह विद्यार्थियों को एक कमरे में, पंद्रह को दूसरे में बिठाया। और पहले वर्ग को, पंद्रह के टुकड़े को, उसने एक सवाल लिखा। और कहा कि यह सवाल बहुत सरल है। यह इतना सरल है कि तुमसे नीची कक्षा के विद्यार्थी इसे हल कर सकते हैं। तुम्हें तो सिर्फ इसलिए दिया जा रहा है कि हम यह जानना चाहते हैं, कि क्या तुम पंद्रह में एकाध भी ऐसा विद्यार्थी है, जो इसे हल कर न पाये!

वही सवाल दूसरे पंद्रह विद्यार्थियों के लिए दिया गया। और उनसे उलटी बात कही गई। कहा गया कि यह सवाल बहुत कठिन है। यह इतना कठिन है, कि हमें कोई आशा नहीं है कि तुममें से एक भी इसे हल कर पायेगा। तुमसे ऊंची कक्षाओं के विद्यार्थी भी इसको हल नहीं कर पाये हैं। हम तो सिर्फ यह जानने के लिए दे रहे हैं, कि क्या यह संभव है कि तुममें से एकाध हल करने के करीब भी पहुंच सकता है या नहीं।

और तुम चकित होओगे, परिणाम बड़ी हैरानी का है! पहले पंद्रह विद्यार्थियों में से तेरह विद्यार्थियों ने हल कर लिया। दूसरे पंद्रह विद्यार्थियों में से केवल एक विद्यार्थी हल कर पाया।

तुम्हारी धारणा, तुम्हारे जीवन को बनाती है। और तुम्हारी धारणाओं को तुम्हारे आसपास के लोग बनाते हैं। अगर तुम बुद्ध-पुरुषों के पास जाओगे, तो उनके पास तुम एक ही स्वर पाओगे कि तुम्हारे भीतर परमात्मा है। इससे कम उनकी कोई उदघोषणा नहीं है। वे तुम्हें यही याद दिला रहे हैं कि तुम ब्रह्मस्वरूप हो। और यह स्मृति तुम्हारे भीतर घनी होने लगे, यह बात तुम्हारे भीतर गहरे में बैठ जाये, तो तुम हो जाओगे। तुम हो ही! सिर्फ तुम्हें किसी ने स्मरण नहीं दिलाया। और जिनने भी तुम्हें स्मरण दिलाया है, गलत स्मरण दिलाया है। किसी ने कहा कि तुम शरीर हो। किसी ने कहा कि तुम बुद्धि हो। किसी ने कहा कि तुम धन हो। किसी ने कहा तुम मकान हो। किसी ने कहा कि तुम पद, प्रतिष्ठा हो। तुम उन्हीं के साथ जुड़ गये हो। और उनमें से तुम कोई भी नहीं हो। इसलिए कितने ही जुड़े रहो, तुम पाओगे कि कुछ न कुछ गड़बड़ है।

एक दूकानदार ने; जूते के दूकानदार ने एक नये आदमी को नौकरी पर रखा। पहला ही ग्राहक आया और उस नये आदमी ने उसे जूते बांधकर दिये। मालिक ने आकर पूछा जो पीछे बैठा था कि ‘कैसा निपटा?’ क्योंकि पहला ही ग्राहक था और नौकर नया था। उस नौकर ने कहा कि ‘बिलकुल ठीक निपटा। पचास रुपये की जोड़ी थी, लेकिन उसके पास केवल बीस रुपये थे। तो मैंने बीस रुपये रख लिए डिपॉजिट की तरह और जूते उसे दे दिए।’ मालिक ने सिर पीट लिया। उसने कहा कि ‘नासमझ! अब वह कभी नहीं लौटेगा।’ उसने कहा, ‘वह लौटेगा। उसका बाप लौटेगा! क्योंकि मैंने दोनों बांये पैर के जूते बांध दिए। लौटना ही पड़ेगा।’

तुम्हें जो भी सिखाया गया है, वे दोनों बांये पैर के जूते हैं। उनसे कभी राहत न मिलेगी। मुसीबत ही बनी रहेगी। तुम शरीर नहीं हो। शरीर बहुत छोटा है, तुम बहुत बड़े हो। तुम शरीर के साथ हमेशा बेचैनी अनुभव करोगे। इतने बड़े हो तुम, और इतने से छोटे में तुम्हें बना दिया गया है कि तुम हमेशा पाओगे कि कुछ बंधा-बंधा है।

तुम्हें कितना ही धन मिल जाये, तुम्हें लगेगा कि अभी और चाहिए। क्योंकि परम-धन जब तक न मिल जाये, परमात्मा न मिल जाये, तब तक तुम गरीब ही रहोगे। उससे छोटे में कोई राजी होनेवाला नहीं है। इसलिए अमीर से अमीर आदमी भी गरीब ही रहता है। और भीतर भिखमंगा बना रहता है।

तुम शरीर को कितना ही सुंदर और स्वस्थ बना लो, तुम तृप्त न हो पाओगे। तुम्हें एक ही पैर के जूते मिल गये हैं। क्योंकि शरीर कितना ही स्वस्थ हो जाये, वह स्वास्थ्य टिकने वाला नहीं है। जिस शरीर को मरना है, वह स्वस्थ रह नहीं सकता। उसे बीमार होना ही पड़ेगा। नहीं तो मरोगे कैसे? जिस शरीर को मरना है, उसमें बीमारी घर करती ही रहेगी। शरीर तो बीमारियों का घर रहेगा ही। खींचतान कर तुम चला लोगे। एक ही पैर के जूते दोनों पैर में पहन कर थोड़ी देर चला भी सकते हो, लेकिन हमेशा जूते काटते रहेंगे। और मुसीबत बनी रहेगी और बेचैनी जारी रहेगी।

जिसे मरना है उसे परिपूर्ण स्वास्थ्य नहीं दिया जा सकता। परिपूर्ण स्वास्थ्य तो सिर्फ अमृत का ही हो सकता है। जिसकी कोई मृत्यु नहीं, वहीं परम स्वास्थ्य। इसलिए हमारा जो शब्द स्वास्थ्य है, बड़ा अदभुत है। ऐसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। उसका मतलब होता है, जो स्वयं में स्थित हो गया है। शरीर से उसका कोई संबंध ही नहीं है। स्वस्थ का अर्थ है, स्वयं में जो स्थित हो गया। तभी स्वास्थ्य है। उसके पहले तो बीमारी जारी रहेगी ही। किसी तरह सम्हाल लोगे इधर से उधर। एक बीमारी हटाओगे, दूसरी; दूसरी से बचोगे, तीसरी। इस पैर का जूता उसमें पहनोगे। उसका इसमें पहनोगे। लेकिन दोनों पैर के जूते, एक ही पैर के हैं। अड़चन जारी रहेगी। राहत मिल सकती है, बस! आनंद नहीं मिल सकता। कितने ही बड़े पद पर पहुंच जाओ, तुम पाओगे, मुसीबत जारी है। क्योंकि कोई भी पद तुम्हारे योग्य नहीं। जब तक तुम परमात्मा ही न हो जाओ, तब तक शांति का कोई उपाय नहीं।

जोशू ने कोई वक्तव्य न दिया। सिर्फ इतना ही कहा, ‘जांच पड़ताल कर ली।’ पर इतना वक्तव्य जोशू का काफी है। उसने यह कह दिया कि उस स्त्री के पास कुछ भी नहीं है। बंधे हुए शब्द हैं। किसी से सुन लिए होंगे। कहीं से उधार पा लिए, इसलिए हरेक को एक ही जवाब दिए जाती है।

ज्ञानी के जवाब हर उत्तर पूछनेवाले के साथ बदल जाते हैं। ज्ञानी कोई दार्शनिक नहीं है। उसने कोई जवाब, सवाल तय नहीं कर रखे हैं। ज्ञानी एक दर्पण है। तुम जैसे हो, वह तुम्हें वैसा ही प्रकट कर देता है। इसलिए पंडित से तुम्हें सूचनायें मिल सकती हैं। ज्ञानी से बुद्धत्व मिलता है। पंडित से जानकारी मिल सकती है, ज्ञानी से ज्ञान मिलता है।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–33

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दुःख का मूल : होश का अभाव और तादात्‍म्‍य—(प्रवचन—तैहरवां)

 योगसूत्र

(साधनापाद)

अनित्याशुचिदु:खानात्‍मसु नित्यशुचिसुखात्मख्याति: अविद्या।। 5।।

अविद्या है—अनित्य को नित्य समझना, अशुद्ध को शुद्ध जानना, पीड़ा को सुख और

अनात्म को आत्म जानना।

दृग्‍दर्शनशक्‍त्योरेकात्‍मतेवास्सिता।। 6।।

अस्‍मिता है—दृष्‍टा का दृश्‍य के साथ तादात्‍म्‍य।

सुखानुशयी राग:।। 7।।

आकर्षण और उसके द्वारा बना आसक्‍ति होती है।

उस किसी चीज के प्रति जो सुख पहुंचाती है।

दुःखानुशयी द्वेष:।। 8।।

द्वेष उपजता है किस उस चीज से जो दुःख देती है।

विद्या क्या है? इस शब्द का अर्थ है अज्ञान, लेकिन अविद्या कोई साधारण अज्ञान नहीं। इसे बहुत गहरे समझना होगा। अज्ञान है ज्ञान की कमी। अविद्या ज्ञान की कमी नहीं, बल्कि जागरूकता की कमी है। अज्ञान बहुत आसानी से मिट सकता है, तुम ज्ञान उपार्जित कर सकते हो। यह केवल स्मृति के प्रशिक्षण की ही बात होती है। शान यांत्रिक होता है, किसी जागरूकता की जरूरत नहीं होती। वह उतना ही यांत्रिक होता है जितना कि साधारण अज्ञान। अविद्या है जागरूकता की कमी। व्यक्ति को ज्यादा और ज्यादा बढ़ना होता है चेतना की ओर, न कि ज्यादा ज्ञान की ओर। केवल तभी अविद्या मिट सकती है।

अविद्या ही है जिसे गुरजिएफ ‘आध्यात्मिक निद्रा’ कहां करता था। व्यक्ति घूमता—फिरता है, जीता है, मरता है, न जानते हुए कि वह जीता क्यों है, न जानते हुए कि वह आया कहां से और किसलिए, न जानते हुए कि वह कहां बढ़ता रहा और किसलिए। गुरजिएफ इसे कहते हैं ‘निद्रा’, पतंजलि इसे कहते हैं, ‘अविद्या’। दोनों का एक ही अर्थ है। तुम नहीं जानते तुम हो क्यों! तुम यहां इस संसार में, इस देह में, इन अनुभवों में तुम्हारे होने का प्रयोजन जानते नहीं। तुम बहुत सारी चीजें करते हो बिना यह जानते हुए कि तुम उन्हें क्यों कर रहे हो, बिना जाने हुए कि तुम उन्हें कर रहे हो, बिना जाने हुए कि तुम कर्ता हो। हर चीज ऐसे चलती है जैसे गहरी निद्रा में पड़ी हो। अविद्या, यदि मुझे तुम्हारे लिए इसका अनुवाद करना पड़े, तो इसका अर्थ होगा सम्मोहन।

आदमी जीता है एक गहरे सम्मोहन में। मैं सम्मोहन पर काम करता हूं, क्योंकि सम्मोहन को समझना ही एकमात्र तरीका है व्यक्ति को सम्मोहन के बाहर लाने का। सारी जागरूकता एक तरह की सम्मोहननाशक है, इसलिए सम्मोहन की प्रक्रिया को बहुत—बहुत साफ ढंग से समझ लेना है, केवल तभी तुम उसके बाहर आ सकते हो। रोग को समझ लेना है, उसका निदान कर लेना है; केवल तभी उसका इलाज किया जा सकता है। सम्मोहन आदमी का रोग है, और सम्मोहन विहीनता होगी एक मार्ग। एक बार मैं काम करता था एक आदमी पर और वह बहुत अच्छा माध्यम था सम्मोहन के लिए। संसार के एक तिहाई लोग, तैंतीस प्रतिशत, अच्छे माध्यम होते हैं, और वे लोग बुद्धि विहीन नहीं होते हैं। वे लोग होते हैं बहुत—बहुत बुद्धिमान, कल्पनाशील, सृजन्त्रत्मक। इसी तैंतीस प्रतिशत में होते हैं सभी बड़े वैज्ञानिक, सभी बड़े कलाकार, कवि, चित्रकार, संगीतकार। यदि कोई व्यक्ति सम्मोहित हो सकता है, तो यह बात यही बताती है कि वह बहुत संवेदनशील है। इसके ठीक विपरीत बात प्रचलित है लोग सोचते हैं कि वह व्यक्ति जो थोड़ा मूर्ख होता है केवल वही सम्मोहित हो सकता है। यह बिलकुल गलत बात है। करीब—करीब असंभव ही होता है किसी मूढ़ को सम्मोहित करना, क्योंकि वह सुनेगा नहीं, वह समझेगा नहीं और वह कल्पना नहीं कर पाएगा। बड़ी तेज कल्पनाशक्ति की जरूरत होती है।

लोग सोचते कि केवल कमजोर व्यक्तित्व के लोग सम्मोहित किए जा सकते हैं। बिलकुल गलत है बात, केवल बड़े शक्तिशाली व्यक्ति सम्मोहित किए जा सकते हैं। कमजोर आदमी इतना असंगठित होता है कि उसमें कोई संगठित एकत्व नहीं होता, उसमें अपना कोई केंद्र नहीं होता। और जब तक तुम्हारे पास किसी तरह का कोई केंद्र नहीं होता, सम्मोहन कार्य नहीं करता। क्योंकि कहां से करेगा वह काम, कहां से व्याप्त होगा तुम्हारे अंतस में? और एक कमजोर आदमी इतना अनिश्चित होता है हर चीज के बारे में, इतना निश्चयहीन होता है अपने बारे में, कि उसे सम्मोहित नहीं किया जा सकता है। केवल वे ही लोग सम्मोहित किए जा सकते हैं जिनके व्यक्तित्व शक्तिशाली होते हैं।

मैंने बहुत लोगों पर काम किया है और मेरा ऐसा जानना है कि जिस व्यक्ति को सम्मोहित किया जा सकता है उसे ही सम्मोहनरहित किया जा सकता है, और वह व्यक्ति जिसे सम्मोहित नहीं किया जा सकता, वह बहुत कठिन पाता है आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ना, क्योंकि सीढ़ियां दोनों तरफ जाती हैं। यदि तुम आसानी से सम्मोहित किए जा सकते हो तो तुम आसानी से सम्मोहनरहित किए जा सकते हो। सीढ़ी वही होती है। चाहे तुम सम्मोहित हो या कि असम्मोहित, तुम एक ही सीढ़ी पर होते हो; केवल दिशाएं भेद रखती हैं।

मैं एक युवक पर बहुत वर्षों तक कार्य करता रहा था। एक दिन मैंने उसे सम्मोहित किया और जिसे सम्मोहनविद कहते हैं पोस्ट—हिप्नोटिक सजेशन, सम्मोहनोत्तर सुझाव, एक दिन वही दिया उसे। मैंने कहां उससे, ‘कल ठीक इसी समय—उस समय सुबह के नौ बजे थे—तुम मुझसे मिलने आओगे। तुम्हें आना ही होगा मुझसे मिलने। कोई स्पष्ट कारण नहीं है आने का, तो भी ठीक नौ बजे तुम्हें आना होगा।’ वह होश में न था मैंने कहां उससे, ‘जब तुम आओगे नौ बजे, ठीक नौ बजे तुम कूद पड़ोगे मेरे बिस्तर में, चूम लोगे को, आलिंगन करोगे तकिए का जैसे कि तकिया तुम्हारी प्रेमिका हो।’

निस्संदेह, अगले दिन वह पहुंच गया पीने नौ बजे, लेकिन मैं अपने बेडरूम में नहीं बैठा था, मैं बरामदे में बैठा इंतजार कर रहा था उसका। वह आया। मैंने पूछा, ‘क्यों आए हो तुम?’ उसने कंधे उचका दिए। वह कहने लगा, ‘बस इत्तफाक से मैं गुजर रहा था यहां से और एक विचार आ बना क्यों न आपके पास चलूं?’ उसे होश नहीं था कि सम्मोहन वाला सुझाव काम कर रहा था, वह ढूंढ रहा था कोई व्याख्या। वह बोला, ‘मैं बस यूं ही गुजर रहा था इस रास्ते से।’ मैंने पूछा उससे, ‘क्यों गुजर रहे थे तुम इस रास्ते से? तुम पहले कभी नहीं गुजरते, और यह रास्ता तुम्हारे रास्ते से अलग पड़ता है। जब तक कि तुम मेरे ही पास न आना चाहो, कोई तुक नहीं है शहर से बाहरी इलाके में जाने की।’ वह बोला, ‘बस सुबह की सैर के लिए ही…..’—एक तर्कसंगत व्याख्या। वह नहीं सोच सकता था कि वह अकारण आया था, वरना तो वह बहुत ही तोड़—बिखेर देने वाला अनुभव हो जाता अहंकार के लिए।’क्या पागल हुए हैं?’ वह शायद ऐसा सोचे। लेकिन वह बेचैन था, असुविधा में था। वह देख रहा था चारों तरफ कारण न जानते हुए। वह खोज रहा था तकिए को और बिस्तर को और बिस्तर था नहीं वहा पर। और जानबूझ कर मैं बैठा हुआ था बाहर जैसे—जैसे मिनट बीते वह ज्यादा और ज्यादा बेचैन हुआ। मैंने पूछा उससे, ‘क्यों तुम इतने बेचैन हो? तुम तो ठीक से बैठ भी नहीं सकते। क्यों तुम जगह बदलते जाते हो?’ वह बोला, ‘पिछली रात मैं ठीक से सो नहीं सका’—फिर भी वही बुद्धिसंगत व्याख्या। आदमी को किसी न किसी तरह कारण खोज ही लेने होते हैं। वरना तो आदमी पागल जान पड़ेगा। तो नौ बजने के कोई पाच मिनट पहले वह बोला, ‘बहुत गर्मी है यहां।’ गरमी थी नहीं क्योंकि वह सुबह की सैर के लिए निकला था और सर्दी का मौसम था।’बहुत गर्मी है यहां। क्या हम भीतर नहीं जा सकते?’ फिर वही ठीक कारण खोजने का बहाना। मैंने टालना चाहा इस बात को और मैंने कहां, ‘गरमी नहीं है।’

तब वह अचानक उठ खड़ा हुआ। नौ बजने में बस दो मिनट ही बाकी थे। उसने देखा अपनी घड़ी की ओर, खड़ा हो गया, और वह बोला, ‘मैं बीमार अनुभव कर रहा हूं।’ इससे पहले कि मैं रोक सकता, वह तो भाग। कमरे की ओर। मैं उसके पीछे आया। वह कूद पड़ा बिस्तर पर, उसने तकिए को चूमा, आलिंगन किया तकिए का— और मैं खड़ा था वहां पर, जिससे उसने बहुत परेशानी, उलझन अनुभव की। मैंने पूछा, ‘क्या कर रहे हो तुम?’ उसने रोना शुरू कर दिया। वह बोला, ‘मुझे नहीं मालूम, पर कल जब आपसे अलग हुआ तब से यह तकिया लगातार मेरे मन में बना रहा है!’ वह नहीं जानता था कि सम्मोहन में मैंने ही वैसा करने को कहां था। और वह बोला, ‘रात में भी मैं फिर—फिर स्‍वप्‍न देखता था, इसी तकिए को आलिंगन करता, अता और यह एक जरूरत बन गई, एक मोह हो गया। सारी रात मैं सो नहीं सका। अब मुझे चैन पड़ा है, पर मैं जानता नहीं क्यों?’

क्या तुम्हारा सारा जीवन इसी भांति नहीं है? हो सकता है तुम किसी तकिए को नहीं चूम रहे हो, तुम किसी स्त्री को चूम रहे होओगे, लेकिन क्या तुम्हें इसका कारण पता है? उाचानक एक स्त्री या एक पुरुष तुम्हें आकर्षक लगते हैं, लेकिन तुम्हें कारण पता नहीं कि क्यों! यह किसी सम्मोहन की भाति ही है। निस्संदेह ऐसा प्राकृतिक है, किसी ने तुम्हें सम्मोहित नहीं किया है, प्रकृति ने ही तुम्हें सम्मोहित किया है। प्रकृति की सम्मोहित करने की शक्ति ही है जिसे कि हिंदू कहते हैं ‘माया’, भ्रम की शक्ति। तुम भ्रम में होते हो, गहरी भ्रामकता में होते हो। तुम जीते हो निद्राचारी की भांति, गहरी नींद में सोए हुए तुम बातें करते चले जाते हो न जानते हुए कि क्यों; और जो कुछ कारण तुम बताते हो, वे बुद्धि के हिसाब ही होते हैं, वे सच्चे कारण नहीं होते।

तुम एक स्त्री से मिलते, तुम प्रेम में पड़ जाते, और तुम कहते, ‘मुझे प्रेम हो गया है।’ लेकिन क्या तुम कारण बता सकते हो कि क्यों? क्यों हुआ है ऐसा? तुम खोज लोगे कुछ कारण। तुम कहोगे, ‘उसकी आंखें इतनी सुंदर हैं। नाक इतनी सुघड़ है, और चेहरा है संगमरमर की प्रतिमा की भांति!’ तुम खोज लोगे कारण, लेकिन ये तो बुद्धि के तर्क हैं। वस्तुत: तुम जानते नहीं, और तुम इतने साहसी नहीं कि कह सको कि तुम जानते नहीं। साहसी बनी। जब तुम नहीं जानते, तो तुम्हें बोध होना चाहिए कि तुम नहीं जानते। वह एक आघातकारी बात होगी। तुम इस सारे भ्रम से बाहर आ सकते हो जो तुम्हें घेरे रहता है। पतंजलि इसे कहते हैं अविद्या। अविद्या का अर्थ है, जागरूकता की कमी। ऐसा घट रहा है जागरूकता की कमी के कारण।

सम्मोहन में क्या होता है? क्या तुमने कभी किसी सम्मोहनविद को ध्यान से देखा है, क्या करता है वह? पहले तो वह कहता है, ‘रिलैक्स।’ ‘शिथिल हो जाओ!’ और वह दोहराता है इसे, वह कहता जाता है, ‘रिलैक्स, रिलैक्स’—’शिथिल हो जाओ, शिथिल हो जाओ।’

रिलैक्स की लगातार ध्वनि भी बन जाती है एक मंत्र, एक ट्रान्सेन्देंटल मेडिटेशन, ऐसा ही होता है टी एम में। तुम लगातार एक मंत्र को दोहराते हो, वह नींद ले आता है। यदि तुम्हारे पास नींद न आने की समस्या हो, तो टी एम सबसे अच्छी बात है करने की। वह तुम्हें नींद देता है और इसलिए वह इतना महत्वपूर्ण हो गया है अमरीका में। अमरीका ही एक ऐसा देश है जो इतना ज्यादा पीड़ा भोग रहा है नींद न आने के रोग से। वहां महर्षि महेश योगी कोई सांयोगिक घटना नहीं हैं, वे एक आवश्यकता हैं। जब लोग अनिद्रा से पीड़ित होते हैं तो वे सो नहीं सकते। उन्हें चाहिए शामक दवाएं। और भावातीत ध्यान और कुछ नहीं सिवाय शामक दवा (ट्रैक्विलाइजर) के, वह तुम्हें शांत करता है। तुम निरंतर दोहराते जाते हो एक निश्चित शब्द ‘राम, राम, राम।’ कोई भी शब्द काम देगा, ‘कोका—कोला, कोका—कोला’ काम देगा वहां, उसका राम से कुछ लेना—देना नहीं है। ’कोका—कोला’ उतना ही बढ़िया होगा जितना कि राम, या कि उससे भी ज्यादा प्रासंगिक होता है। तुम एक निश्चित शब्द निरंतर दोहराते हो। निरंतर दोहराव एक ऊब निर्मित कर देता है, और ऊब आधार है सारी नींद का। जब तुम ऊब अनुभव करते हो, तो तुम तैयार होते हो सो जाने के लिए।

एक सम्मोहनविद दोहराता जाता है, ‘शिथिल हो जाओ।’ वह शब्द ही व्याप्त हो जाता है तुम्हारे शरीर और अंतस में। वह दोहराए जाता है उसे और वह तुमसे सहयोग देने को कहता है, और तुम सहयोग देते हो। धीरे— धीरे तुम उनींदापन अनुभव करने लगते हो। फिर वह कहता है, ‘तुम उतर रहे हो गहरी नींद में, उतर रहे हो, उतर रहे हो नींद के गहरे शून्य में—उतर रहे हो।’ वह दोहराता ही जाता है और मात्र दोहराने से तुम्हें नींद आने लगती है।

यह एक अलग प्रकार की नींद होती है। यह कोई साधारण नींद नहीं होती, क्योंकि यह पैदा की गयी होती है, किसी ने इसे बहला फुसला कर निर्मित कर दिया है तुम में। क्योंकि इसे किसी ने निर्मित किया होता है, इसकी एक अलग ही गुणवत्ता होती है। पहला और बहुत आधारभूत भेद यह है कि तुम सारे संसार के प्रति सोए हुए होओगे, लेकिन सम्मोहनविद के लिए नहीं। अब तुम किसी चीज को न सुनोगे, अब तुम किसी और चीज को न सुन पाओगे। यदि एक बम भी फट पड़ेगा तो वह तुम्हारी शांति भंग न करेगा। रेलगाड़ियां गुजर जाएंगी, हवाई जहाज ऊपर से गुजर जाएंगे, लेकिन कोई चीज तुम्हें अशांत नहीं करेगी। तुम कुछ नहीं सुन पाओगे। तुम सारे संसार के प्रति बंद होते हो, लेकिन सम्मोहनविद के प्रति खुले होते हो। यदि वह कुछ कहे तो तुम तुरंत सुन लोगे, तुम केवल उसे ही सुनोगे। केवल एक ग्राहकता बच रहती है—सम्मोहनविद, और सारा संसार बंद हो जाता है। जो कुछ वह कहता है उस पर तुम विश्वास कर लोगे क्योंकि तुम्हारी बुद्धि सोने चली गयी है। बुद्धिमत्ता कार्य नहीं करती। तुम एक छोटे बच्चे की भांति हो जाते हो—जिसके पास आस्था होती है। तो जो कुछ भी सम्मोहनविद कहता है, तुम्हें उसका विश्वास करना पड़ता है। तुम्हारा चेतन मन काम नहीं कर रहा है। केवल अचेतन मन कार्य करता है। अब किसी बेतुकी बात पर भी विश्वास आ जाएगा।

यदि सम्मोहनविद कहता है कि तुम घोड़े बन गए हो तो—तुम नहीं कह सकते, ‘नहीं’, क्योंकि कौन ‘नहीं’ कहेगा? गहरी निद्रा में विश्वास संपूर्ण होता है; तुम घोड़े बन जाओगे, तुम घोड़े की भांति अनुभव करोगे। और यदि वह कहता है अब तुम हिनहिनाओ घोड़े की भांति, तो तुम हिनहिनाओगे। यदि वह कहे, दौड़ो, कूदो—घोड़े की भाति, तो तुम कूदोगे और दौड़ने लगोगे।

सम्मोहन कोई साधारण निद्रा नहीं। साधारण निद्रा में तुम किसी से नहीं कह सकते कि तुम घोड़ा बन गए हो। पहली तो बात यदि वह तुम्हें सुनता है तो वह सोया हुआ नहीं होता। दूसरी बात यह कि यदि वह तुम्हें सुनता है तो वह सोया हुआ नहीं होता और जो तुम कह रहे हो वह उस पर विश्वास नहीं करेगा। वह आंखें खोलेगा अपनी और हंसेगा और कहेगा, ‘क्या तुम पागल हुए हो! क्या कह रहे हो तुम? मैं और एक घोड़ा?’

सम्मोहन एक उत्पन्न की हुई निद्रा होती है। निद्रा से ज्यादा तो वह किसी नशे की भांति है। तुम किसी नशे के प्रभाव में होते हो। नशीला द्रव्य साधारण रासायनिक द्रव्य नहीं होता, बल्कि वह देह में बहुत गहरे तक चला गया एक रसायन होता है। किसी एक निश्चित शब्द का दोहराव मात्र ही शरीर के रसायन को बदल देता है। इसलिए मनुष्य के सारे इतिहास में मंत्र इतने ज्यादा प्रभावकारी रहे हैं। निरंतर रूप से किसी खास शब्द का दोहराव शरीर के रसायन को बदल देता है क्योंकि एक शब्द मात्र एक शब्द ही नहीं होता; उसकी तरंगें होती हैं, वह एक विद्युत घटना है। एक शब्द निरंतर तरंगित होता है : राम, राम, राम; वह गुजरता है शरीर के सारे रसायन में से। वे तरंगें बहुत शीतलता से आती हैं; वे तुम्हारे भीतर एक मंद—मंद गुनगुनाहट बना देती हैं, उसी भांति जैसे कि मां लोरी गा रही होती है, जब बच्चा सो नहीं रहा होता। लोरी बहुत सीधी—सरल बात है। एक या दो पंक्तियां लगातार दोहरा दी जाती हैं। और यदि मा बच्चे को अपने हृदय के समीप ले जा सकती है, तब तो प्रभाव और जल्दी होगा क्योंकि हृदय की धड़कन एक और लोरी बन जाती है। हृदय की धड़कन और लोरी दोनों साथ—साथ हों, तो बच्चा गहरी नींद सो जाता है।

यही सारी तरकीब है जप की और मंत्रों की, वे तुम्हें एक बढ़िया प्रभावपूर्ण नींद में पहुंचा देते हैं। उसके बाद तुम ताजा अनुभव करते हो। लेकिन कोई आध्यात्मिक बात उसमें नहीं होती, क्योंकि आध्यात्मिक का संबंध होता है ज्यादा सजग होने से, न कि कम सजग होने से।

ध्यान से देखना किसी सम्मोहनविद को। क्या कर रहा होता है वह? प्रकृति ने वही किया है तुम्हारे साथ। प्रकृति सबसे बड़ी सम्मोहक है, उसने तुम्हें सम्मोहनकारी सुझाव दिए होते हैं। वे सुझाव पहुंचाए जाते हैं क्रोमोसोम्स द्वारा, तुम्हारे शरीर के कोशाणुओ द्वारा। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि एक कोशाणु मात्र करीब—करीब एक करोड़ संदेश ले आता है तुम्हारे लिए। वे उसी में रचे होते हैं। जब एक बच्चा गर्भ में आता है र तो दो कोशाणु मिलते हैं, एक मां की ओर से और एक पिता की ओर से। दो क्रोमोसोम्स मिलते हैं। वे ले आते हैं लाखों—लाखों संदेश। वे नक्‍शे बन जाते हैं और बच्चा उन आधारभूत नक्शो—ढांचों से जन्मता है। वे दुगुने—चौगुने होते जाते हैं। इसी भांति शरीर बढ़ता जाता है।

तुम्हारा सारा शरीर छोटे—छोटे अदृश्य कोशाणुओं से बना होता है, करोड़ों कोशाणु होते हैं। और प्रत्येक कोशाणु संदेश लिए रहता है, जैसे कि प्रत्येक बीज संपूर्ण संदेश ले आता है संपूर्ण वृक्ष के लिए : कि किस प्रकार के पत्ते उसमें उगेंगे; किस प्रकार के फूल खिलेंगे इसमें; वे लाल होंगे या नीले होंगे, या कि पीले होंगे। एक छोटा— सा बीज सारा नक्‍शा लिए रहता है वृक्ष के संपूर्ण जीवन का। हो सकता है वृक्ष चार हजार साल तक जीए। चार हजार साल तक उसकी हर चीज वह छोटा—सा बीज लिए ही रहता। वृक्ष को इसका ध्यान रखने की या चिंता करने की कोई जरूरत नहीं; हर चीज कार्यान्वित होगी। तुम भी बीज लिए रहते हो: एक बीज पिता से, एक मां से। और वे आते हैं पिछले हजारों वर्षों से, क्योंकि तुम्हारे पिता का बीज उन्हें दिया गया था उनके पिता और मां द्वारा। इस भांति प्रकृति तुममें प्रविष्ट हुई है। तुम्हारा शरीर आया है प्रकृति से, तुम आए हो कहीं और से। इस कहीं और का मतलब है, परमात्मा। तुम एक मिलन—बिंदु हो शरीर और चेतना के। लेकिन शरीर बहुत—बहुत शक्तिशाली है और जब तक तुम इस विषय में कुछ करो नहीं, तुम इसकी शक्ति के भीतर रहोगे, इसके अधिकार में रहोगे। योग एक ढंग है इससे बाहर आने का। योग ढंग है शरीर द्वारा आविष्ट न होने का और फिर से मालिक होने का। अन्यथा तुम तो गुलाम बने रहोगे।

अविद्या है गुलामी, सम्मोहन की वह गुलामी, जो प्रकृति ने तुम्हें दे दी है। योग इस गुलामी के पार हो जाना और मालिक हो जाना है। अब सूत्रों को समझने की कोशिश करें।

सूत्र का अर्थ हुआ बीज। इसे बहुत—बहुत ढंग से समझ लेना है, तभी यह तुममें समझ का वृक्ष बनेगा। सूत्र एक बहुत ही संक्षिप्त संदेश होता है। उन दिनों इसे ऐसा ही होना था, क्योंकि जब पतंजलि ने रचा योग—सूत्रों को तो कोई लिखाई न थी। उन्हें स्मरण रखना होता था। उन दिनों तुम बड़ी—बड़ी किताबें न लिख सकते थे, बस सूत्र ही लिखते। सूत्र होता है बीज जैसी चीज, जिसे आसानी से स्मरण रखा जा सके। और हजारों वर्षों तक सूत्रों को स्मरण रखा गया शिष्यों द्वारा, और फिर उनके शिष्यों द्वारा। जब इन्हें लिखा गया उसके हजारों साल बाद ही ग्रंथ रचना का अस्तित्व बना। सूत्र संकेतकारी होना चाहिए; तुम बहुत सारे शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकते; तुम्हें अल्पतम का, कम से कम शब्दों का प्रयोग करना होता है। तो जब कभी तुम किसी सूत्र को समझना चाहो तो तुम्हें उसे बढ़ाना पड़ता है। तुम्हें उसकी व्याख्याओं में उतरने के लिए सूक्ष्मदर्शक यंत्र का प्रयोग करना होता है।

अविद्या है— अनित्य को नित्य समझना अशुद्ध को शुद्ध जानना पीड़ा को सुख और अनात्म को आत्म जानना।

तंजलि कहते, अविद्या क्या है?—जागरूकता का अभाव। और जागरूकता का अभाव क्या है? तुम उसे जानोगे कैसे? लक्षण क्या होते हैं? लक्षण ये हैं: ‘अनित्य को शाश्वत समझ लेना…..।’

जरा देखो चारों तरफ—जीवन एक प्रवाह है, हर चीज गतिमय है। हर चीज निरंतर गतिमान हो रही है, निरंतर परिवर्तित हो रही है। चारों ओर सभी चीजों का स्वभाव है परिवर्तन। परिवर्तन एकमात्र स्थायी चीज—जान पड़ता है। स्वीकार करो परिवर्तन को और हर चीज बदल जाती है। यह सागर की लहरों की भांति ही होता है। वे जन्मती, थोड़ी देर को वे बनी रहती, और वे फिर घुल जातीं और मिट जातीं। ऐसा लहरों की भांति ही होता है।

तुम जाते हो सागर की ओर, तो क्या देखते हो तुम? तुम देखते हो लहरों को, मात्र सतह को। और फिर तुम वापस लौट आते हो और तुम कहते हो कि तुम देख आए समुद्र को और समुद्र सुंदर था। तुम्हारी खबर बिलकुल झूठ होती है। तुमने समुद्र को तो बिलकुल देखा ही नहीं; केवल सतह को, लहरदार सतह को देखा है। तुम तो केवल किनारे पर ही खड़े रहे। तुमने देखा समुंद्र की ओर, लेकिन वह वस्तुत: समुद्र न था। वह केवल सर्वाधिक बाहर की परत थी, केवल एक सीमा जहां हवाएं लहरों से मिल रही थीं।

जैसे कि तुम मुझसे मिलने आते और तुम देखते केवल मेरे कपड़ों को ही। फिर तुम वापस चले जाते हो और तुम कहते हो कि तुम मुझसे मिल लिए। यह ऐसा ही हुआ कि तुम मुझे देखने आए, और केवल घर भर में घूमे और बाहरी दीवारों को देखा, फिर वापस गए और कह दिया—कि तुमने जान लिया है मुझे। लहरें होती हैं समुद्र में, समुद्र होता है लहरों में, लेकिन लहरें समुद्र नहीं हैं। वे तो सब से ज्यादा बाहर की हैं, समुद्र के केंद्र से, गहराई से सर्वाधिक दूरी की घटना।

जीवन एक प्रवाह है, हर चीज बह रही है, परिवर्तित हो रही है दूसरे में। पतंजलि कहते हैं कि विश्वास करना कि यही जीवन है यह अविद्या है, यह जागरूकता का अभाव होना है। तुम बहुत बहुत दूर हो जाते हो जीवन से, केंद्र से, उसकी गहराई से। सतह पर परिवर्तन होता है, परिधि पर गति होती है, लेकिन केंद्र पर कोई चीज नहीं सरकती। कोई हलन—चलन नहीं, कोई परिवर्तन नहीं।

यह तो ऐसे है, जैसे बैलगाड़ी का पहिया। पहिया चलता जाता और चलता ही जाता और चलता ही चला जाता, लेकिन केंद्र पर कोई चीज थिर बनी रहती। उस थिर ध्रुव पर पहिया घूमता रहता। पहिया तो शायद संसार भर में घूमता रहा होगा, लेकिन वह किसी ऐसी चीज पर घूम रहा था जो कि नहीं घूम रही थी। सारी गतिमयता निर्भर करती है शाश्वत पर, अगति पर।

यदि तुमने केवल जीवन की गति देखी है, तो पतंजलि कहते हैं, ‘यह है अविद्या—जागरूकता का अभाव।’ तब तुमने पर्याप्त नहीं देखा। यदि तुम सोचते हो कि कोई व्यक्ति बालक है, फिर वह युवा है, फिर वृद्ध, फिर मर गया—तो तुमने देखा केवल चक्र को ही। तुमने देखा गति को बालक, युवा, वृद्ध, मृत, एक लाश। क्या उसको देखा तुमने जो कि थिर रहा इन सब गतियों के बीच? क्या उसे देखा तुमने जो बालक नहीं था, युवा नहीं था और वृद्ध नहीं था? क्या उसे देखा है, जिस पर ये तमाम अवस्थाएं निर्भर करती हैं? क्या उसे देखा है तुमने जो सभी को पकड़े रहता है और सदा बना रहता है वही, और वही, और वही? जो कि न तो जन्मता है और न ही मरता है? यदि तुमने उसे नहीं जाना, यदि तुमने उसका अनुभव नहीं किया, तो पतंजलि कहते हैं—तुम अविद्या में पड़े हो जागरूकता के अभाव में।

तुम पर्याप्त रूप से सजग नहीं हो, इसलिए तुम पर्याप्त रूप से जान नहीं सकते। तुम्हारे पास पर्याप्त आंखें नहीं हैं, इसलिए तुम पर्याप्त रूप से गहरे नहीं देख सकते। एक बार तुम्हें आंखें मिल जाएं, वह दृष्टि वह बोध, वह स्पष्टता और उसकी गहरे उतरने की शक्ति तो तुम तुरंत जान लोगे कि परिवर्तन मौजूद है, लेकिन वही सब कुछ नहीं। वस्तुत: यह तो केवल परिधि होती है—जो बदलती, जो कि सरकती। बहुत गहरी नींव में तो है वही शाश्वत, नित्य।

क्या तुमने जाना है शाश्वत को? यदि तुमने नहीं जाना, तो वह अविद्या है, तुम सम्मोहित हुए हो परिधि द्वारा। परिवर्तित होते दृश्यों ने तुम्हें सम्मोहित कर लिया है। तुम उसकी पकड़ में बहुत ज्यादा आ गए हो। तुम्हें जरूरत है अलगाव की, तुम्हें जरूरत है थोड़े से फासले की, तुम्हें जरूरत है थोड़े और निरीक्षण की।’ अस्थायी को स्थायी समझ लेना अविद्या है; अशुद्ध को शुद्ध समझ लेना अविद्या है।’

शुद्ध क्या है और अशुद्ध क्या? तुम्हारी साधारण नैतिकता से पतंजलि का कुछ लेना—देना नहीं है। साधारणतया नैतिकता में भेद होता है—कोई चीज भारत में पवित्र हो सकती है और चीन में अपवित्र हो सकती है। हो सकता है कोई चीज भारत में अशुद्ध हो और इंग्लैंड में शुद्ध हो। या, यहां पर भी, कोई चीज हिंदुओं के लिए शुद्ध हो सकती है और जैनों के लिए अशुद्ध। नैतिकता अलग अलग होती है। वस्तुत: यदि तुम नैतिकता की परतो को बेंधने लगो, तो वे अलग—अलग होती हैं प्रत्येक व्यक्ति में। पतंजलि नैतिकता की बात नहीं कर रहे। नैतिकता तो केवल एक समझौता है; उसकी उपयोगिता है, लेकिन उसमें कोई सत्य नहीं। और जब पतंजलि जैसा आदमी बोलता है तो वह बात करता है शाश्वत चीजों की, सीमित चीजों की नहीं। हजारों नैतिकताएं संसार में अस्तित्व रखती हैं और वे बदलती रहती हैं हर रोज स्थितियां बदलती हैं, तो नैतिकता को बदलना पड़ता है। जब पतंजलि कहते हैं ‘शुद्ध’ और ‘अशुद्ध’ तो उनका अर्थ बिलकुल ही अलग होता है।

‘शुद्धता’ से उनका मतलब है स्वाभाविक; ‘अशुद्धता’ से उनका मतलब है अस्वाभाविक। और कोई चीज तुम्हारे लिए स्वाभाविक हो सकती है या कि तुम्हारे लिए अस्वाभाविक हो सकती है, इसलिए कोई कसौटी नहीं हो सकती। अशुद्ध को शुद्ध जानने का अर्थ हुआ कि अस्वाभाविक को स्वाभाविक जानना। यही है जो तुमने किया है, जो सारी मनुष्य—जाति ने किया है। और इसलिए तुम और— और अशुद्ध हो गये हो।

स्वभाव के प्रति सदा सच्चे रहना। जरा ध्यान दो कि क्या स्वाभाविक है, खोज लो उसे। क्योंकि अस्वाभाविक के साथ तुम सदा तनावपूर्ण, असहज, बेचैन रहोगे। किसी अस्वाभाविक में, कोई भी आराम से नहीं रह सकता। और तुम तुम्हारे चारों ओर अस्वाभाविक चीजें खड़ी कर लेते हो। फिर वे बोझ बन जाती हैं और वे तुम्हें नष्ट कर देती हैं। जब मैं कहता हूं ‘अस्वाभाविक’ तो मेरा मतलब होता है—तुम्हारे स्वभाव के बाहर की कोई चीज।

इसे ऐसे समझो: एक दूध बेचने वाला आया। तुमने दूध लिया और तुम कहते हो कि वह दूषित है। क्यों तुम कहते हो कि वह दूषित है? तुम ऐसा कहते हो, क्योंकि उसने उसमें पानी मिलाया हुआ है। लेकिन यदि पानी शुद्ध था और दूध भी शुद्ध था, तो दो शुद्धताएं दुगुनी शुद्धता बना देंगी! कैसे हो सकता है कि दो शुद्धताएं मिलें और चीज अशुद्ध हो जाए? लेकिन वे अशुद्ध हो जाती हैं। शुद्ध पानी और शुद्ध दूध मिले, और दोनों हो जाएंगे अशुद्ध। पानी हो जाएगा अशुद्ध, दूध भी हो जाएगा अशुद्ध, क्योंकि कोई अलग चीज, बाहर की कोई चीज प्रवेश कर जाती हैं।

जब मैं विद्यार्थी था यूनिवर्सिटी में तो मेरे पास एक दूध बेचने वाला आता था। वह बहुत प्रसिद्ध था यूनिवर्सिटी होस्टल में। लोगों का विश्वास था कि वह बहुत साधु—स्वभाव का आदमी है और कभी भी पानी न मिलाता होगा दूध में—जैसा चलन भारत में आमतौर से है। करीब—करीब असंभव होता है शुद्ध दूध प्राप्त कर लेना, लगभग असंभव ही। वह आदमी सचमुच ही बहुत अच्छा आदमी था। वह एक वृद्ध व्यक्ति था, एक वृद्ध ग्रामीण; बिलकुल ही अनपढ़, पर बहुत भले दिल का। अपने साधु—स्वभाव के कारण सारी यूनिवर्सिटी में वह एक संत के रूप में जाना जाता था। एक दिन मैंने पूछा उससे, जब कि हम परस्पर परिचित हो चुके थे और हमारे बीच एक निश्चित मित्रता बन चुकी थी, ‘संत, क्या वास्तव में यह सच ही है कि तुम पानी और दूध कभी नहीं मिलाते?’ वह कहने लगा, ‘बिलकुल सच है।’ लेकिन फिर मैंने कहां, ‘ऐसा तो असंभव है। तुम्हारे दाम तो उतने ही हैं जितने कि दूसरे ग्वालों के, तुम्हारा तो सारा धंधा घाटे में जा रहा होगा।’ वह हंस पड़ा। वह कहने लगा, ‘ आप जानते नहीं। इसकी एक तरकीब है।’ मैं बोला, ‘बताओ मुझे वह तरकीब, क्योंकि मैंने सुना है कि तुम तो अपना हाथ भी रख देते हो रामायण पर, हिंदू बाइबल पर, यह कहते हुए कि तुम दूध में पानी कभी नहीं मिलाते।’ वह बोला ही, ऐसा भी किया है मैंने क्योंकि मैं हमेश पानी में दूध मिलाता हूं।

कानूनी तौर पर वह बिलकुल ठीक है। तुम शपथ ले सकते हो, तुम सौगंध ले सकते हो; इसमें कुछ अड़चन नहीं होगी। लेकिन चाहे तुम दूध में पानी मिलाओ या पानी में’ दूध मिलाओ बात एक ही है, क्योंकि किसी चीज का मिश्रण उसे अशुद्ध बना देता है।

जब पतंजलि कहते हैं, ‘ अशुद्ध को शुद्ध जानना अविद्या है,’ तो वे कह रहे हैं, ‘ अस्वाभाविक को स्वाभाविक जानना अविद्या है।’ और तुम बहुत—सी अस्वाभाविक चीजों को स्वाभाविक मान लिए हो, तुम पूरी तरह भूल चुके हो कि स्वाभाविक क्या है। स्वाभाविक को पा लेने के लिए तुम्हें स्वयं में गहरे उतरना होगा। सारा समाज तुम्हें अस्वाभाविक बना देता है; वह तुम पर ऐसी चीजें लादता जाता है जो कि स्वाभाविक नहीं होतीं, वह तुम्हें एक ढांचे में खलता जाता है। वह तुम्हें देता चला जाता है आदर्श, सिद्धात, पूर्वाग्रह, और तरह—तरह की नासमझियां। तुम्हें उसे स्वयं खोज लेना है जो स्वाभाविक है।

अभी कुछ दिन पहले एक युवक आया मेरे पास। वह पूछने लगा, ‘क्या मेरे लिए विवाह कर लेना ठीक है? क्योंकि मेरी आध्यात्मिक प्रवृत्ति है, मैं विवाह नहीं करना चाहता।’ मैंने पूछा उससे, ‘क्या तुमने विवेकानंद को पढ़ा है? वह बोला, ‘ही, विवेकानंद तो मेरे गुरु हैं।’ तब मैंने पूछा उससे, ‘दूसरी और कौन—सी किताबें तुम पढ़ते रहे हो!’ वह बोला, ‘शिवानंद, विवेकानंद और दूसरे कई शिक्षकों को।’ मैंने पूछा उससे, ‘विवाह न करने का विचार तुम्हारा है या विवेकानंद और शिवानंद आदि का है? यह यदि तुम्हारा है तो बिलकुल ठीक है यह।’ वह बोला, ‘नहीं, क्योंकि मेरा मन कामवासना के बारे में सोचता ही रहता है, पर विवेकानंद ही ठीक होंगे कि कामवासना से लड़ना ही चाहिए। वरना कैसे सुधरेगा कोई? व्यक्ति को आध्यात्मिकता उपलब्ध करनी है।’

यही है अड़चन। अब यह विवेकानंद दूध में मिले हुए पानी हैं। विवेकानंद के लिए ठीक रहा होगा ब्रह्मचारी रहना; यह है उनके अपने निर्णय की बात। लेकिन यदि वे प्रभावित थे बुद्ध से, रामकृष्ण से, तो वै भी अस्वाभाविक हुए, अशुद्ध हुए।

अपने अंतस का और स्वभाव का अनुसरण करना होता है, और रहना होता है बहुत सच्चा और प्रामाणिक। क्योंकि जाल बहुत बड़ा है और गड्डे लाखों हैं। सड़क बंट जाती है बहुत सारे आयामों में और दिशाओं में। तुम खो सकते हो। तुम्हारा मन सोचता है कामवासना की, विवेकानंद का शिक्षण कहता है, ‘नहीं।’ तब तुम्हें निर्णय लेना होता है। तुम्हें चलना पड़ता है तुम्हारे मन के अनुसार। मैंने कहां उस युवक से, ‘बेहतर है कि तुम विवाह कर लो।’ तब मैंने एक कथा कही उससे।

जितने सर्वाधिक पीड़ित पति हुए उनमें से एक था सुकरात। उसकी पत्नी जेनथिपे बहुत खतरनाक स्त्रियों में से एक थी। स्त्रियां खतरनाक होती हैं लेकिन वह तो सबसे ज्यादा खतरनाक स्त्री थी। वह पीटती थी सुकरात को। एक बार तो उसने सारी चायदानी उंडेल दी उसके सिर पर। उसका आधा चेहरा जला हुआ ही रहा जीवन भर। ऐसे आदमी से पूछना कि क्या करें! पूछा था एक युवक ने, ‘मुझे विवाह करना चाहिए या नहीं?’ निस्संदेह, वह आशा रखता था कि सुकरात कहेगा, ‘नहीं’—उसने बहुत दुख पाया था इस कारण। लेकिन वह तो बोला, ‘ही, तुम्हें कर लेना चाहिए विवाह।’ युवक कहने लगा, ‘लेकिन ऐसा कैसे कह सकते हैं आप? मैंने तो बहुत सारी अफवाहें सुनी हैं आपके बारे में और आपकी पत्नी के बारे में।’ वह बोला, ‘हां, मैं तो कहता हूं तुमसे कि तुम्हें विवाह कर लेना चाहिए। यदि तुम्हें अच्छी पत्नी मिलती हैं तो तुम प्रसन्न रहोगे, और प्रसन्नता द्वारा बहुत सारी चीजें विकसित होती हैं, क्योंकि प्रसन्नता स्वाभाविक होती है। यदि तुम्हें बुरी पत्नी मिलती है, तब निरासक्ति, त्याग की भावना विकसित होगी। तुम मुझ जैसे महान दार्शनिक बन जाओगे। दोनों ही अवस्थाओं में तुम्हें लाभ होगा। जब तुम मेरे पास पूछने आए हो कि विवाह करूं या नहीं, तो विवाह का विचार तुममें है, वरना तुम मेरे पास आते ही क्यों?’

मैंने कहां इस युवक से, ‘तुम मुझसे पूछने आए हो। यह आना ही बतलाता है कि विवेकानंद पर्याप्त नहीं रहे, अभी भी तुम्हारा स्वभाव डोलता रहता है। तुम्हें विवाह कर लेना चाहिए। दुखी होओ उससे, आनंदित होओ उससे; पीड़ा और सुख दोनों में से गुजरो और परिपक्व हो जाओ अनुभव द्वारा। एक बार तुम पक जाते हो, इसलिए नहीं कि विवेकानंद या कोई दूसरा ऐसा कहता है, बल्कि इसलिए कि तुम प्रौढ़ और परिपक्व हो ही चुके हो, कामवासना की मूढ़ता गिर जाती है। वह गिर जाती है, तब ब्रह्मचर्य उदित होता है, सच्चा ब्रह्मचर्य उदित होता है, शुद्ध ब्रह्मचर्य उदित होता है, लेकिन यही तो है भेद।’

सदा स्मरण रखना कि तुम तुम हो, न तो तुम विवेकानंद हो और न तुम बुद्ध हो और न ही मुझ जैसे हो। बहुत प्रभावित मत हो जाना, प्रभाव है अशुद्धता। सचेत रहो, सजग रहो, ध्यान से देखो, और जब तक कोई चीज तुम्हारे स्वाभाव के अनुरूप नहीं बैठती, मत ग्रहण करो उसे। वह तुम्हारे लिए नहीं होती या कि तुम उसके लिए तैयार ही नहीं होते। जो कुछ भी हो बात, इस क्षण तो वह चीज तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हें बढ़ना होता है तुम्हारे अपने अनुभव के द्वारा। एक परिपक्वता तक, प्रौढ़ता तक पहुंचने के लिए तुम्हें दुख की जरूरत होती है। तुम जल्दी में पड़कर कोई बात नहीं कर सकते।

जीवन अनंत है, उसमें कहीं कोई जल्दी नहीं। समय की कमी नहीं है। जीवन तो नितांत धैर्यवान है, वहां कोई अधैर्य नहीं। तुम बढ़ सकते हो, तुम्हारी अपनी गति से। शार्टकट्स की कोई जरूरत नहीं, कोई कभी सफल नहीं हुआ शार्टकट्स के द्वारा। यदि तुम जल्दबाजी का रास्ता पकड़ते हो, तो कौन तुम्हें अनुभव देगा लंबी यात्रा का? तुम उसे चूक जाओगे। और हर संभावना मौजूद है कि तुम वहीं लौट आओगे और सारी बात ही ऊर्जा और समय की क्षति बन जाएगी। शार्टकट्स सदा भ्रांतियां ही होते हैं। कभी मत चुनना शार्टकट; सदा स्वाभाविक को ही चुनना। हो सकता है इसमें ज्यादा समय लग जाए—तो लगने दो। इसी भाति तो जीवन विकसित होता है, उसे जबरदस्ती लाया नहीं जा सकता।

जब पतंजलि कहते हैं, ‘शुद्ध को अशुद्ध समझ लेना अविद्या है, जागरूकता का अभाव है’, तो शुद्धता का अर्थ होता है—तुम्हारी स्वाभाविकता, जैसे कि तुम हो—दूसरों के द्वारा प्रभावित नहीं, प्रदूषित नहीं। किसी को आदर्श मत बना लेना। बुद्ध की भांति होने की कोशिश मत करना; तुम केवल तुम्हारे जैसे हो सकते हो। यदि बुद्ध तुम जैसे होने की कोशिश करते, तो वैसा संभव न होता। कोई किसी दूसरे जैसा नहीं हो सकता। प्रत्येक का अपना होने का अनूठा ढंग होता है, और वही है शुद्धता। तुम्ह:रे अपने अस्तित्व का अनुसरण करना, तुम्हारा स्वयं जैसा हो जाना शुद्धता है। यह बहुत कठिन है, क्योंकि तुम प्रभावित हो जाते हो, क्योंकि तुम सम्मोहित हो जाते हो। ऐसा बहुत कठिन है, क्योंकि ऐसे तर्कसंगत व्यक्ति मौजूद हैं जो कि तुम्हें विश्वसनीय ढंग से प्रभावित कर देते हैं। यह बहुत कठिन है। बहुत सुंदर लोग हैं वे; उनकी सुंदरता प्रभावित करती है तुम्हें। चारों ओर बहुत बढ़िया लोग हैं, वे चुंबकीय रूप से आकर्षक हैं, उनके पास बड़ा आकर्षण है। जब तुम उनके आसपास होते हो, तो तुम खींच ही लिए जाते हो, उनके पास गुरुत्वाकर्षण होता है।

तुम्हें सचेत रहना पड़ता है, महान व्यक्तियों के प्रति ज्यादा सचेत, उनके प्रति ज्यादा सचेत जिनके पास चुंबकीय आकर्षण है, उनके प्रति ज्यादा सचेत जो प्रभावित कर सकते हैं। वे प्रभावित कर सकते हैं, और तुम्हें बदल सकते हैं, क्योंकि वे तुम्हें दे सकते हैं अशुद्धता। ऐसा नहीं है कि वे तुम्हें देना ही चाहते हैं उसे, किसी बुद्ध पुरुष ने कभी नहीं चाहा है किसी को अपने जैसा बनाना। वे नहीं चाहते ऐसा, लेकिन तुम्हारा अपना मूढ़ मन ही अनुकरण करना चाहेगा, किसी दूसरे को आदर्श बना लेना चाहेगा और उसके जैसा होने का प्रयास करेगा। यही है सबसे बड़ी अशुद्धता जो कि घट सकती है किसी व्यक्ति को।

प्रेम करो बुद्ध से, जीसस से, रामकृष्ण से, उनके अनुभवों द्वारा समृद्ध बनो, पर प्रभावित मत हो जाना। ऐसा बहुत कठिन होता है, क्योंकि भेद बहुत सूक्ष्म है। प्रेम करो, सुनो, आत्मसात करो, पर अनुकरण मत करो। ग्रहण करो जो कुछ तुम ग्रहण कर सकते हो, लेकिन सदा ग्रहण करना तुम्हारे स्वभाव के अनुसार। यदि कोई चीज अनुरूप बैठती हो तुम्हारे स्वभाव के तो ले लेना उसे—मगर इसलिए नहीं कि बुद्ध कहते हैं वैसा करने को।

बुद्ध फिर—फिर याद दिलाते अपने शिष्यों को, ‘कोई चीज मत मान लेना क्योंकि मैं कहता हूं। मानना तो केवल इसलिए यदि तुम्हें उसकी जरूरत हो तो, यदि तुम उस स्थान तक पहुंच गए जहां कि वह तुम्हारे लिए स्वाभाविक हो।’ बुद्ध, बुद्ध बनते हैं लाखों—लाखों जन्मों द्वारा, शुभ और अशुभ के, पाप और पुण्य के, नैतिकता और अनैतिकता के, दुख और सुख के लाखों अनुभवों द्वारा। स्वयं बुद्ध को गुजरना पड़ता है लाखों जन्मों से और लाखों अनुभवों से। और क्या चाहते हो तुम? बुद्ध को सुनने मात्र से, उनके द्वारा प्रभावित हो जाने से, तुम तुरंत छलांग लगाते हो और उनका अनुकरण करने लगते हो! वैसा संभव नहीं है। तुम्हें तुम्हारे अपने मार्ग से ही चलना होगा। जो कुछ तुम ले सकते हो, ले लेना, लेकिन हमेशा बढ़ना तुम्हारे अपने मार्ग पर ही।

मुझे सदा याद आ जाती है फ्रेडरिक नीत्शे की किताब ‘दस स्पेक जरथुस्त्र।’ जब जरथुस्त्र अपने शिष्यों से विदा ले रहे थे। जो अंतिम बात उन्होंने कही, बड़ी सुंदर थी। वह अंतिम संदेश था; वे कह चुके थे हर बात। उन्होंने अपना संपूर्ण हृदय दे दिया था उन्हें और जो अंतिम बात कही, वह थी, ‘ अब सुनो मुझे और ऐसी गहराई से सुनो जैसा तुमने कभी न सुना हो। मेरा अंतिम संदेश है: जरथुस्त्र से सावधान रहना! मुझसे सावधान रहना।’

यही अंतिम संदेश है सारे बुद्ध पुरुषों का, क्योंकि वे बहुत आकर्षक होते हैं, तुम प्रभाव में पड़ सकते हो। और एक बार तुमसे बाहर की चीज तुम्हारे स्वभाव में प्रवेश कर जाती है, तो तुम गलत मार्ग पर होते हो।

पतंजलि कहते हैं, ‘अशुद्ध को शुद्ध जानना, दुख को सुख जानना—जागरूकता का अभाव है, अविद्या है।’

तुम कहोगे, ‘जो कुछ पतंजलि कहते हैं सच हो सकता है। लेकिन हम इतने मूढ़ नहीं कि दुख को सुख मान लें।’ तुम मूढ़ हो। हर कोई मूढ़ है—जब तक कि कोई संपूर्णतया जागरूक नहीं हो जाता। तुमने बहुत सारी चीजें सुखकारी मान ली हैं जो कि दुखदायी हैं। तुम पीड़ा भोगते हो और तुम चीखते— चिल्लाते और रोते हो, लेकिन फिर भी तुम नहीं समझते कि तुमने कुछ ऐसी चीज की है जो कि मौलिक रूप से दुखपूर्ण है और सुख में परिवर्तित नहीं की जा सकती।

रोज मेरे पास लोग आते हैं अपने यौन—संबंधी मामलों को लेकर। वे कहते हैं कि यह तो बहुत पीड़ा से भरा है। मैंने एक भी ऐसा जोड़ा नहीं देखा, जिसने कहा हो मुझसे कि उनका यौन —जीवन वैसा ही है जैसा कि उसे होना चाहिए—श्रेष्ठ, सुंदर। बात क्या है? शुरू में वे कहते हैं कि हर चीज सुंदर है। शुरू में वह सदा ही होती है। हर किसी के लिए यौन —संबंध सुंदर होता है शुरू में, लेकिन फिर क्यों वह दुखी और कडुआ हो जाता है? क्यों थोड़े समय बाद, हनीमून के खत्म होने के पहले ही, वह हताश और कडुआ होने लगता है?

जिनके पास भी मानव चेतना पर कुछ गहराई से कहने को सत्य वचन हैं, वे कहते हैं, ‘शुरू —शुरू में जो सौंदर्य है वह एक प्राकृतिक तरकीब है तुम्हें धोखा देने की।’ एक बार तुम धोखे में आ जाते हो, फिर वास्तविकता उभर आती है। यह ऐसे है जैसे कि जब तुम मछली पकड़ने जाते हो और तुम किसी काटे का प्रयोग करते हो; शुरू में जब दो व्यक्ति मिलते हैं, तो वे सोचते हैं कि ‘ अब यह संसार का सबसे बड़ा चरम अनुभव होगा।’ वे सोचते हैं कि ‘यही स्त्री सबसे सुंदर स्त्री है।’ और स्त्री सोचती है कि ‘जो पुरुष हुए उन में से यह सब से महान पुरुष है।’ वे एक भ्रांति— का आरंभ करते हैं, वे’ प्रक्षेपित करते हैं। वे कोशिश करते हैं वह देखने की जो कुछ वे देखना चाहते हैं। वे नहीं देखते असली व्यक्ति को। वे नहीं देखते उसे जो वहा है, वे तो बस उनका अपना सपना प्रक्षेपित हुआ ही देखते हैं। दूसरा तो केवल एक परदा बन जाता है और तुम प्रक्षेपित करते हो। देर— अबेर वास्तविकता आ बनती है। और जब कामवासना की परिपूर्ति हो जाती है, जब प्रकृति के आधारभूत सम्मोहन की पूर्ति हो जाती है, तब हर चीज बेस्वाद हो जाती है।

तब तुम दूसरे को ऐसे देखने लगते हो जैसा कि वह होता है, बहुत सामान्य, कुछ विशिष्ट नहीं। शरीर में अब कोई सुगंध न रही —उससे तो पसीना बहता। चेहरा अब दिव्य न रहा—वह पशु जैसा हो गया। आंखों से अब ईश्वर नहीं देख रहा तुम्हारी ओर, बल्कि वहा एक उग्र जानवर, एक कामुक पशु है। भ्रम टूट गया, सपना बिखर गया। अब दुख प्रारंभ हुआ।

और तुमने तो वादा किया था कि तुम सदा इस स्त्री से प्रेम करते रहोगे, स्त्री ने वादा किया था कि अगले जन्मों में भी वह तुम्हारी छाया बनी रहेगी। अब तुम छले गए हो तुम्हारे अपने वादों द्वारा, जाल में उलझ गए हो। अब कैसे तुम पीछे हट सकते हो? अब तुम्हें उसे चलाए ही चलना होगा।

पाखंड, दिखावा, क्रोध प्रवेश कर जाते हैं। क्योंकि जब कभी भी तुम दिखावा करते हो, तो देर— अबेर तुम्हें गुस्सा आएगा ही, दिखावा बड़ा भारी बोझ होता है। अब तुम स्त्री का हाथ पकड़ते हो और उसे थामे रहते हो, लेकिन उससे तो बरन पसीना ही छूटता है और घटता कुछ नहीं है, कोई कविता नहीं, केवल पसीना ही। तुम उसे छोड़ना चाहते हो, लेकिन स्त्री को तो इससे चोट पहुंचेगी। वह भी हाथ छोड़ देना चाहती है, लेकिन वह भी सोचती है कि तुम्हें चोट लगेगी। और प्रेमियों को तो हाथों को थामे ही रहना है! तुम चूमते हो स्त्री को, लेकिन वहा सिवाय मुंह की बदबू के कुछ नहीं होता। हर बात असुंदर हो जाती है और तब तुम प्रतिक्रिया करते, तब तुम बदला लेते; तब तुम दूसरे पर जिम्मेदारी डाल देते, तब तुम सिद्ध करना चाहते कि दूसरा अपराधी है। उसने कुछ गलत किया है या कि उसने तुम्हें धोखा दिया है, वह ऐसा होने का दिखावा करती रही है जैसी कि वह नहीं थी! और फिर चली आती है विवाह की सारी असुंदरता।

ध्यान रहे, दुख को सुख जानना है जागरूकता का अभाव होना। आरंभ में यदि कोई चीज सुखदायी होती है और अंत में दुखदायी बन जाती है, तो ध्यान रहे कि यह बिलकुल शुरू से ही दुखपूर्ण थी; केवल जागरूकता के अभाव ने ही तुम्हें धोखा दिया है। किसी और ने धोखा नहीं दिया है तुम्हें, दिया है तो जागरूकता के अभाव ने ही। तुम्हें पर्याप्त होश न था चीजों को उस तरह देखने का जैसी कि वे थीं। अन्यथा, कैसे सुख बदल सकता था दुख में! यदि सचमुच ही सुख होता, तो जैसे—जैसे समय बीतता, तो वह और— और बड़ा सुख बन गया होता। होना तो उसे ऐसा ही चाहिए।

तुम बोते हो आम के पेडू का बीज ज्यों—ज्यों वह बढ़ता है, तो क्या वह नीम के पेडू का फल बन जाएगा, कडुआ होगा? यदि पहले ही बीज आम का था, तो बनेगा आम का पेड़, आम वःा विशाल वृक्ष। हजारों आम आएंगे उस पर। लेकिन यदि तुम लगाते हो आम का वृक्ष और अंत में वह हो जाता है नीम का पेडू, कडुआ, एकदम कडुआ, तो क्या अर्थ होता है इसका? इसका अर्थ है कि पेडू ने तुम्हें धोखा नहीं दिया, बल्कि तुमने ही नीम के पेडू के बीज को भूल से आम के पेडू का बीज जान लिया था। वरना, सुख तो और सुखदायी हो जाता है, प्रसन्नता और— और प्रसन्नता होती जाती है, अंतत: वह आनंद का उच्चतम शिखर हो जाती है। लेकिन व्यक्ति को सजग रहना होता है, जब कि वह बीज बो रहा होता है। एक बार तुम बीज बो देते हो, फिर तुम पकड़ लिए जाते हो, क्योंकि तब तुम बदल नहीं सकते। तब तुम्हें फल पाना ही होगा। और तुम फल पा रहे हो।

तुम सदा दुख की फसल पाते हो और तुम्हें कभी होश नहीं आता कि बीज के साथ ही कुछ गलत होगा। जब कभी तुम्हें दुख भोगना पड़ता है, तुम सोचने लगते हो कि कोई दूसरा तुम्हें धोखा देता रहा है—पत्नी, पति, मित्र, परिवार, पर है कोई दूसरा ही। शैतान या कोई और तुम्हारे साथ चालाकियां चल रहा है। यह है उस सच्चाई से बचना कि तुमने गलत बीज बोए—हैं।

दुख को सुख जान लेना जागरूकता का अभाव होना है। और यही है कसौटी। पूछो पतंजलि से, शंकराचार्य से, बुद्ध से; यही है कसौटी : यदि अंततः कोई बात दुख बन जाती है, तो आरंभ से ही वह दुखदायी रही होगी। अंत कसौटी है; अंतिम फल ही है कसौटी। तुम्हें वृक्ष पहचानना है फल द्वारा, दूसरा और कोई उपाय नहीं पहचानने का। यदि तुम्हारा जीवन दुख का एक वृक्ष बन गया है, तो तुम्हें जानना चाहिए कि बीज ही गलत था; तुमने कुछ गलत किया, वापस लौटो।

लेकिन तुम कभी वैसा नहीं करते। तुम फिर वही गलती दुबारा करोगे। यदि तुम्हारी पत्नी मर जाए और तुमने बहुत बार सोचा था कि यदि वह मर जाए तो अच्छा ही होगा ऐसा पति खोजना कठिन है, जिसने बहुत बार सोचा न हो कि यदि उसकी पत्नी मर जाए तो यह अच्छा होगा—’मैंने तोबा की और मुझे फिर किसी स्त्री की तरफ देखना ही नहीं है।’—लेकिन जिस क्षण पत्नी मरती है, तुरंत दूसरी पत्नी का विचार मन में आ जाता है। मन फिर सोचने लगता है, ‘कौन जाने? यह स्त्री अच्छी न हो, लेकिन दूसरी स्त्री अच्छी हो सकती है। यह संबंध सुंदर अंत तक नहीं पहुंचा, लेकिन यह बात सारे द्वार ही तो बंद नहीं कर देती, दूसरे द्वार खुले हैं।’ मन काम करने लगता है। तुम फिर से जाल में उलझ जाओगे और तुम फिर पीड़ा पाओगे। और तुम सदा ही सोचोगे, ‘शायद यह स्त्री या कि वह स्त्री…..:।’ यह स्त्री या पुरुष का सवाल नहीं, यह जागरूक होने का सवाल है।

यदि तुम्हें होश होता है, तब जो कुछ तुम करते हो, तुम अंत की ओर देखते हुए ही करोगे। तुम्हें इसका पूरा होश रहेगा कि अंत में क्या होने वाला है। तो यदि दुखमय होना चाहते हो, यदि तुम पीड़ा और दुख में जीना ही चाहते हो, तो यह चुनना तुम पर है। लेकिन तब तुम किसी दूसरे को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। तुम बिलकुल ठीक से जानते हो कि तुमने बीज बोया और अब तुम्हें उसके वृक्ष का फल पाना ही है। लेकिन कौन ऐसा मूढ़ है कि सजग, सचेत होकर वह कडुवे बीज बोएगा? किसलिए?

‘और अनात्म को आत्म जानना अविद्या है’।’

यही चीजें हैं कसौटी।

तुमने अनात्म को आत्म जान लिया है। कई बार तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। कई बार तुम सोचते हो कि तुम मन हो। कई बार तुम सोचते हो कि तुम हृदय हो। ये हैं तीन उलझाव। शरीर सबसे ज्यादा बाहरी परत है। जब तुम्हें भूख: लगती है, तब क्या तुमने सदा यही नहीं कहां है कि ‘मैं भूखा हूं?’ जागरूकता का अभाव है यह। तुम तो मात्र जानने वाले हो कि शरीर भूखा है, तुम भूखे नहीं होते हो। चेतना कैसे भूखी हो सकती है? भोजन कभी भी चेतना में प्रवेश नहीं करता है, चेतना कभी भूखी नहीं होती है। वस्तुत: जब तुम जान लेते हो चेतना को, तो तुम जान लोगे कि वह सदा परितृप्त होती है, कभी भूखी नहीं होती। वह सदा संपूर्ण होती है; उसमें किसी चीज का अभाव नहीं होता। वह है पहले से ही परमोत्कर्ष, परम शिखर, अंतिम विकास, वह भूखी नहीं होती। और चेतना कैसे भूखी हो सकती है भोजन के लिए?—उसकी आवश्यकता शरीर को है।

होशपूर्ण आदमी तो कहेगा, ‘मेरा शरीर भूखा है।’ या अगर होश ज्यादा ही गहरा चला जाता है, तो वह नहीं कहेगा ‘मेरा शरीर’, वह कहेगा, ‘यह शरीर भूखा है; शरीर है भूखा।’

एक बड़े भारतीय रहस्यवादी संत अमरीका गए। उनका नाम था रामतीर्थ। वे सदा अन्य पुरुष में बात—चीत करते थे। वे कभी नहीं कहते थे, ‘मैं।’ ऐसा अजीब लगता कि वे क्या कह रहे हैं, क्योंकि लोग उन्हें नहीं जानते थे, नहीं समझते थे। एक दिन वे लौटे उस घर में जहां कि वे अमरीका में ठहरे हुए थे। वे हंसते गए, मजे से, उनका सारा शरीर एक भरपूर हंसी हंस रहा था। सारा शरीर हिल रहा था हंसी सहित। उस परिवार के लोगों ने पूछा, ‘बात क्या है, हुआ क्या? क्यों आप इतने खुश हैं? क्यों हंस रहे हैं आप?’ वे बोले, ‘कुछ बात ही ऐसी घटी सड़क पर। कुछ शरारती लड़कों ने राम पर पत्थर फेंकने शुरू कर दिए’—राम तो उन्हीं का नाम था— ‘और मैंने कहां राम से, अब देख लो! और राम बहुत ज्यादा गुस्से में था। वह इसके लिए कुछ करना चाहता था, लेकिन मैंने सहयोग नहीं दिया, मैं खड़ा रहा एक ओर।’ परिवार के लोग कहने लगे, ‘हम नहीं समझ सके कि आपका मतलब क्या है! किसके बारे में बात कर रहे हैं आप?’ रामतीर्थ बोले, ‘मैं राम नहीं हूं; मैं चैतन्य हूं, जाता हूं। यह शरीर राम है और वे लड़के मुझ पर पत्थर नहीं फेंक सकते। कैसे पत्थर फेंका जा सकता है चेतना पर? क्या तुम पत्थर से आकाश को चोट पहुंचा सकते हो? क्या तुम पत्थर से आकाश को छू सकते हो?’

चेतना एक विशाल आकाश है, एक खुला आकाश; तुम उसे चोट नहीं पहुंचा सकते। केवल शरीर को चोट पहुंचायी जा सकती है पत्थर द्वारा, क्योंकि शरीर संबंधित है पदार्थ से, पदार्थ चोट पहुंचा सकता है उसे। शरीर पदार्थ का है, उसे भोजन की भूख लगती है। भोजन उसे तृप्त कर सकता है, भूख तो उसे मार देगी। चेतना शरीर नहीं है।

जागरूकता का अभाव होता है जब तुम अपने शरीर को ही स्वयं मान लेते हो। तुम्हारे जावन के निन्यानबे प्रतिशत दुख इसी कारण हैं; जागरूकता के अभाववश। तुम शरीर को ही ‘मैं’ मान लेते हो और तब तुम पीड़ा पाते हो। तुम स्वप्न में पीड़ा भोग रहे हो। शरीर तुम्हारा नहीं है। जल्दी ही यह तुम्हारा नहीं रहेगा। कहां थे तुम, जब तुम्हारा शरीर मौजूद न था? तुम्हारे जन्म से पहले कहां थे तुम, तब तुम्हारा चेहरा क्या था? और तुम्हारा चेहरा कैसा होगा? तुम पुरुष होओगे या स्त्री? चेतना इन दोनों में से कुछ नहीं है। यदि तुम सोचते हो कि मैं पुरुष हूं तो यह है जागरूकता का अभाव। चेतना? चेतना कैसे बांट दी जा सकती है स्त्री—पुरुष में? उसके कोई स्त्री—पुरुष के अंग नहीं होते हैं। यदि तुम सोचते कि तुम बच्चे हो या युवक या कि वृद्ध, तो फिर तुममें जागरूकता का अभाव होता है। कैसे तुम वृद्ध हो सकते हो? कैसे युवा हो सकते हो? चेतना इन दोनों में कुछ भी नहीं। वह तो शाश्वत है, वह एक ही है वह जन्मती नहीं, वह मरती नहीं और बनी रहती है—वह स्वयं ही जीवन है।

या, मन को लो—वह है दूसरी, ज्यादा गहरी परत और वह ज्यादा सूक्ष्म होती है और चेतना के ज्यादा निकट होती है। तुम स्वयं को मन ही मान लेते हो। तुम कहे जाते हो, मैं, मैं, मैं। यदि कोई तुम्हारी धारणा का विरोध करता है तो तुम कहते हो, ‘यह मेरी धारणा है’, और तुम लड़ पड़ते हो उसके लिए। सत्य के लिए कोई विवाद नहीं करता है, लोग बहस करते और वाद—विवाद करते और लड़ते हैं उनके ‘मैं’ के लिए।’मेरी धारणा का अर्थ है मैं। कैसे तुम्हें हिम्मत पड़ती है विरोध करने की? मैं सिद्ध कर दूंगा कि मैं सही हूं।’ सत्य की किसी को चिंता नहीं। कौन फिक्र करता है?—सवाल तो यह होता है कि सही कौन है सवाल यह नहीं कि सही क्या है। लेकिन फिर लोग तादात्म्य बना लेते हैं, और केवल साधारण लोग ही नहीं, वे व्यक्ति भी जो कि धार्मिक होते हैं।

एक आदमी परिवार त्याग देता है, बच्चे, बाजार, संसार छोड़ देता है और चला जाता है हिमालय की ओर। तुम पूछते हो उससे, ‘क्या तुम हिंदू हो?’ और वह कहता है, ‘ही’। यह हिंदुत्व है क्या? क्या चेतना हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है? यह है मन। जागरूकता का अभाव होता है यदि तुम अनात्म के साथ तादात्म्य बना लेते हो और सोचते हो कि वह आत्मा है।

और फिर है हृदय, चेतना के सर्वाधिक निकट, लेकिन फिर भी बहुत दूर। तीन तल हुए—शरीर, विचार और भाव। जब तुम्हें भाव की अनुभूति होती है, तो तुम्हें बहुत होश रखना होता है, यह अनुभव करने को कि वह तुम नहीं हो जिसे अनुभूति होती है। वह बात फिर यंत्र का ही हिस्सा है। निस्संदेह, वह चेतना के निकटतम है। हृदय चेतना के निकटतम है, सिर पड़ता है बीच में, और शरीर है सबसे दूर। लेकिन फिर भी, तुम हृदय नहीं हो। अनुभूति भी एक घटना है, वह आती है और चली जाती है वह एक तरंग है, वह उठती है और मर जाती है। वह एक भावदशा है। वह अस्तित्व रखती है और फिर अस्तित्व नहीं रखती है। तुम वह हो जिसका अस्तित्व सदा रहेगा—सदा—सदा, अनंतकाल तक।

‘अनात्म को आत्मा जान लेना है जागरूकता का अभाव होना।’

तो फिर जागरूकता है क्या? जागरूकता है इस बात के प्रति होश रखना कि तुम शरीर नहीं हो। इसलिए नहीं कि उपनिषद ऐसा कहते हैं या पतंजलि ऐसा कहते हैं—क्योंकि तुम, अपने मन में ऐसा पूरी

तरह बैठा सकते हो कि तुम शरीर नहीं हो। तुम हर सुबह और शाम दोहरा सकते हो, ‘मैं शरीर नहीं हूं?। उससे मदद न मिलेगी। यह दोहराने की बात ही नहीं है, यह एक गहन समझ की बात है। और यदि तुम समझते हो, तो दोहराने में सार क्या?

एक बार एक संन्यासी, एक जैन मुनि मेरे साथ ठहरे। हर सुबह वह बैठ जाते और संस्कृत के मंत्र का जप करते ‘मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं मैं शुद्धतम ब्रह्म हूं।’ वे जप करते और जप, और जप करते सुबह डेढ़ घंटे तक। तीसरे दिन मैंने कहां उनसे, ‘क्या आप जानते नहीं इसे? तो क्यों आप जप करते हैं? यदि आपने जान लिया है इसे, तो यह बात मूढ़ता की हुई। यदि आपने इसे नहीं जाना है, तो फिर मूढ़ता ही है क्योंकि मात्र दोहराते रहने से कैसे जान सकते हैं आप?’

यदि आदमी दोहराता चला जाता है, ‘मैं बड़ा क्षमतापूर्ण, कामक्षमता से भरा हुआ पुरुष हूं?, तो तुम निश्चित जान सकते हो कि वह नपुंसक है। क्यों दोहराना:, ‘मैं पुरुष हूं और बहुत सक्षम और शक्तिवान हूं?’ और यदि एक आदमी हर सुबह यह बात दोहराता है डेढ़ घंटे तक तो इसका मतलब क्या हुआ? यह बात दर्शाती है कि ठीक कुछ विपरीत मन में है; कहीं भीतर वह जानता है कि वह नपुंसक है। अब वह कोशिश कर रहा है खुद को मूर्ख बनाने की इस बात से कि मैं बड़ा बलशाली पुरुष हूं। यदि तुम हो, तो तुम हो ही। उसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं।

मैंने कहां उस जैन मुनि से, ‘इससे पता चलता है कि आपने जाना ही नहीं। यह एक पूरा संकेत हुआ कि आप अब भी शरीर के साथ तादात्म्य बनाए हुए हो। और दोहराने से कैसे आप इसके बाहर जा सकते हो? समझो कि दोहराना समझ नहीं है।’

समझने के लिए, ध्यान दो। जब भूख लगती, तब ध्यान दो कि वह शरीर में है या कि तुममें है। जब रोग होता है, तो ध्यान देना कि वह कहां होता है, शरीर में या तुममें? एक विचार उठता है, ध्यान देना कि वह कहां होता है, मन में या तुममें? एक भाव उठता है, तो देखना ध्यानपूर्वक। अधिकाधिक ध्यानपूर्ण होने में तुम जागरूकता को उपलब्ध हो जाओगे। दोहराने से किसी ने कभी नहीं पाया।

तुम होते हो तुम्हारी आंखों के पीछे, बिलकुल ऐसे खड़े हुए जैसे कि कोई खड़ा हो खिड़की के पीछे और बाहर देख रहा: हो। खिड़की से बाहर देख रहा व्यक्ति ठीक तुम जैसा ही है, आंखों में से झांक रहा है मेरी ओर। लेकिन तुम आंखों के साथ तादात्म्य बना सकते हो, तुम दृश्य के साथ तादात्म्य बना सकते हो। देखना एक क्षमता है, एक माध्यम। आंखें मात्र खिड़कियां हैं, वे तुम नहीं।

पतंजलि कहते हैं पांच इंद्रियों द्वारा तुम्हारा माध्यम के साथ, शरीर के साथ तादात्म्य बन जाता है, और इन पांचों के कारण जन्म ले लेता है अहंकार।’ अहंकार एक झूठा अस्तित्व है। अहंकार वह सब कुछ है जो तुम नहीं हो और तुम सोचते हो कि तुम हो।

खिड़की में खड़ा हुआ आदमी सोचने लगता है कि वह स्वयं खिड़की है। क्या कर रहे हो तुम आंखों के पीछे भू:—तुम तो देख रहे हो आंखों के द्वारा। आंखें खिडकिया हैं, कान झरोखे हैं; तुम सुन रहे हो कानों के द्वारा। तुम फैला देते हो तुम्हारा हाथ मेरी ओर, और मैं छू लेता हूं तुम्हें; हाथ तो बस एक माध्यम है। तुम नहीं हो हाथ और इस बात को तुम ध्यान से देख सकते हो, और इसका प्रयोग कर सकते हो।

बहुत बार ऐसा होता है कि कोई चीज घटती है ठीक तुम्हारी आंखों के सामने और तुम चूक जाते हो। कई बार तुमने पूरा पृष्ठ पढ़ लिया होता है, और अचानक तुम्हें ध्यान आता कि तुम पढ़ते रहे हो, तो भी तुमने एक शब्द तक नहीं पढ़ा। तुम्हें याद नहीं तुमने क्या पढ़ा और तुम्हें फिर से पीछे जाना पड़ता है। क्या घट गया? यदि तुम आंखें ही हो तो यह बात कैसे संभव हो सकती थी?

तुम नहीं हो आंखें। खिड़की खाली थी पृष्ठ की ओर से देखती हुई। खिड़की के पीछे चेतना मौजूद न थी, वह कहीं और व्यस्त थी। ध्यान वहां नहीं था। तुम शायद आंखें बंद किए खड़े हुए होगे खिड़की पर, या तुम्हारी पीठ थी खिड़की की तरफ, लेकिन तुम देख नहीं रहे थे खिड़की में से। ऐसा होता है हर रोज—अकस्मात तुम जानते हो कि कुछ घट गया है और तुमने देखा ही नहीं, तुमने पढ़ा ही नहीं। तुम मौजूद ही न थे, तुम कहीं और थे, किन्हीं और विचारों पर विचार कर रहे थे, किन्हीं और स्वप्नों का स्वप्न देख रहे थे, किन्हीं दूसरे संसारों में विचर रहे थे। खिड़की खाली थी वहां।

क्या तुम जानते हो खाली आंखों को? जाओ और जरा देखो पागल आदमी को, तुम देख सकते हो वहां खाली आंख। वह देखता है तुम्हारी तरफ और नहीं भी देखता। तुम जान सकते हो कि वह देखता है तुम्हारी तरफ और वह बिलकुल ही नहीं देख रहा होता तुम्हारी तरफ। उसकी आंख खाली होती है। या तुम जा सकते हो उस संत के पास जो उपलब्ध हो गया हो, फिर उसकी आंख भी खाली हांती है। वह पागल की आंख की भांति नहीं होती, लेकिन कोई चीज समान होती है उसके साथ—वह तुम्हारे आर—पार देखता है। वह तुम पर ठहर नहीं जाता, वह जाता है तुमसे पार। वह नहीं देखता है तुम्हारे शरीर को, बल्कि देखता है तुमको। वह उसके पार चला जाता है। वह एक ओर हटा देता है तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, तुम्हारा हृदय और वह लांघ जाता है तुम्हें। और तुम जानते नहीं कि तुम कौन हो।

इसीलिए एक संत की दृष्टि तुम्हारे पार जाती जान पड़ती है। वह तुम पर ठहर नहीं जाता, क्योंकि संत के लिए अहंकार नहीं हो तुम, जैसा कि तुम सोचते हो तुम वही हो। वह एक ओर छोड़ देता है अहंकार को; वह तो बस झांकता है तुममें। एक पागल आदमी खाली आंख से देखता है, क्योंकि उसकी चेतना वहां नहीं होती। एक संत भी खाली आंख से देखता जान पड़ता है, क्योंकि उसकी चेतना बिलकुल वहीं होती है। और वह बहुत गहराई से तुममें उतरता है, तुम्हारे अस्तित्व की अंतिम गहराइयों तक, जहां तुम अभी तक नहीं पहुंचे हो। इसलिए ऐसा जान पड़ता है जैसे कि वह तुम्हारी ओर नहीं देख रहा है, क्योंकि वह तुम, जिसके साथ कि तुम्हारा तादात्म्य बन गया है, उसके लिए सत्य नहीं है; बल्कि वह तुम, जिसके प्रति तुम सजग नहीं हो, सत्य है उसके लिए।

अहंकार है द्रष्टा का माध्यम के साथ, दृश्य के साथ तादात्म्य। यदि तुम माध्यम के साथ तादात्म्य गिरा देते हो, तो अहंकार गिर जाता है। और कोई दूसरा रास्ता नहीं है अहंकार गिराने का। नहीं बनाओ कोई तादात्‍म्‍य शरीर के साथ आंखों, कानों, मन, हृदय के साथ, और अचानक कोई अहंकार बच नहीं रहता। तुम होते हो तुम्हारे समग्र स्वभाव में, लेकिन कोई अहंकार वहां नहीं होता। तुम पहली बार समग्र मौजूदगी में होते हो, लेकिन कोई अहंकार नहीं बचता, मैं की कोई प्रक्रिया नहीं रहती, कोई नहीं कह रहा होता, मैं हूं।

आकर्षण और उसके द्वारा बनी आसक्ति होती है उस किसी चीज के प्रति जो सुख पहुंचाती है। द्वेष उपजता है किसी उस चीज से जो दुख देती है

ये तुम्हारे इस संसार में होने के दो ढंग हैं तुम किसी उस चीज के लिए आकर्षित होते हो जो कि तुम्हें लगता है कि सुख पहुंचाती है, तुम द्वेष अनुभव करते, घृणा करते हो उस चीज से जिससे कि तुम सोचते हो कि दुख होता है। लेकिन यदि तुम अधिकाधिक होश पा जाओ, तो तुम्हारे पास होगा समग्र रूपांतरण। तुम देख पाओगे कि जिससे सुख बनता है, उससे दुख भी बनता है— आरंभ में सुख, अंत में दुख। जो कुछ दुख देता है, वही सुख भी देता है— आरंभ में दुख, अंत में सुख। ये हैं दो ढंग संसार के। एक ढंग है गृहस्थ का। उसे समझने की कोशिश करना—वह बात बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक ढंग है गृहस्थ का। वह जीता है मोह द्वारा, आकर्षण द्वारा—जों कुछ, वह अनुभव करता है कि सुख पहुंचाता है, वह सरकता है उसकी ओर। वह चिपकता है उससे और अंततः वह पाता है दुख और कुछ भी नहीं; पीड़ा के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

ठीक इसके विपरीत ढंग है संन्यासी का, वह जिसने कि संसार त्याग दिया। वह सुख के साथ चिपकता नहीं। बल्कि इसके विपरीत, वह चिपकने लगता है दुख के साथ, कठोर तपश्चर्या के साथ पीड़ा के साथ। वह लेटता है कीटों की शय्या पर, उपवास किए जाता, वर्षों खड़ा ही रहता, महीनों तक सोता नहीं। वह ठीक विपरीत बात करता है क्योंकि वह जान गया है कि जब कभी प्रारंभ में सुख होता है, तो अंत में दुख ही होता है। उसने तर्क को उलटा बैठा दिया अब वह खोजता है दुख को, पीड़ा को। और ठीक है वह—यदि तुम ढूंढते हो दुख तो अंत में होगा सुख।

लेकिन वह व्यक्ति जो कि अभ्यास करता है दुख, पीड़ा का, वह पीड़ा की अनुभूति पाने में असमर्थ हो जाता है। वह व्यक्ति जो सुख के लिए अभ्यास करता है, असमर्थ हो जाता है छोटी चीजों से सुख पाने में। तुम नहीं समझ सकते। वह आदमी जो उपवास कर रहा हो एक महीने से, उसके लिए साधारण रोटी, मक्खन और नमक बहुत बड़ी दावत बन जाती है। एक आदमी जो लेटा रहा है काटो पर, यदि तम उसे जमीन पर ही, केवल जमीन पर ही लेटने दो, तो कोई सम्राट भी इतने सुंदर ढंग से नहीं सो सकता होगा।

लेकिन दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और दोनों गलत हैं। संन्यासी ने ठीक उलट दिया है प्रक्रिया को: वह खड़ा हुआ है शीर्षासन में, सिर के बल। लेकिन आदमी वह वही है। दोनों आसक्ति में पड़े हैं। एक की आसक्ति है सुख के साथ, दूसरे की आसक्ति है दुख के साथ।

होशपूर्ण आदमी अनासक्त होता है। वह न तो गृहस्थ होता है और न ही मुनि होता है। वह किसी मठ की ओर नहीं सरक जाता और वह नहीं चला जाता पहाड़ों की ओर। वह रहता है वहीं जहां कि वह होता है—वह तो बस भीतर की ओर मुड़ जाता है। बाहर उसके लिए कोई चुनाव नहीं बनता। वह सुख से चिपकता नहीं और वह नहीं चिपकता दुख से। वह न तो सुखवादी होता है और न ही स्वयं को पीड़ा पहुंचाने वाला। वह तो बढ़ता है भीतर की ओर, खेल देखते हुए सुख और दुख का, प्रकाश और छाया का, दिन और रात का, जीवन और मृत्यु का। वह दोनों के पार सरक जाता है। द्वैत मौजूद है वह बढ़ जाता है दोनों के पार; वह अतिक्रमण कर जाता है दोनों का। वह बस हो जाता है सजग और होशपूर्ण और उस होश में पहली बार कुछ घटता है जो कि न तो दुख है और न ही सुख, जो है आनंद। आनंद सुख नहीं; सुख तो सदा मिलाजुला रहता है दुख से। आनंद न तो दुख है और न ही सुख, आनंद दोनों से परे है।

और दोनों के पार तुम हो। जो है तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी शुद्धता, होने की तुम्हारी स्वच्छ पारदर्शी शुद्धता—एक इंद्रियातीत परम अवस्था। तुम रहते हो संसार में, लेकिन संसार गतिमान नहीं होता है तुममें।

तुम अनछुए रहते हो, जहां कहीं भी तुम होते हो। तुम हो जाते हो एक कमल।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(ओशो) प्रवचन–5

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जीवन एक वर्तुल है—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 जून 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

आज एक लोककथा जैसी दिखने वाली सूफी कहानी का अर्थ

आप हमें समझाने की कृपा करें।

एक चोर चोरी के इरादे से खिड़की की राह, एक महल में घुस रहा था।

खिड़की की चौखट के टूटने से वह जमीन पर गिर पड़ा और उसकी टांग टूट गई।

चोर ने इसके लिए महल के मालिक पर अदालत में मुकदमा कर दिया।

गृहपति ने कहा, ‘इसके लिए तो चौखट बनाने वाले बढ़ई पर मुकदमा होना चाहिए।’

बढ़ई जब बुलाया गया, तब उसने कहा, ‘राज ने खिड़की का द्वार ठीक से नहीं बनाया

इसलिये दोषी राज है।‘ और राज ने अपनी सफाई में कहा कि मेरे दोष के लिए

वह सुंदर स्त्री जुम्मेवार है, जो उसी वक्त उधर से निकली थी;

जब मैं खिड़की पर काम करता था। और उस स्त्री ने अपनी सफाई में कहा,

‘उस समय मैं एक बहुत खूबसूरत दुपट्टा ओढ़े थी। साधारणतः

तो मेरी ओर कोई ताकता नहीं है। यह इस दुपट्टे का कसूर है,

जो कि चतुराई के साथ इंद्रधनुषी रंग में रंगा गया।

इस पर न्यायपति ने कहा, ‘अब अपराधी का पता चल गया।

उस चोर की टांग टूटने के लिए यह रंगरेज जुम्मेवार है।

लेकिन जब रंगरेज पकड़ा गया, तब वह उस स्त्री का पति निकला,

और यह भी पता चला कि वही खुद चोर भी था!

 

कहानी प्रीतिकर है।

पहली बात: कि जीवन एक संयुक्त घटना है; सब जुड़ा है। ऊपर से देखते हैं तो कहानी बेबूझ मालूम पड़ती है, मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ती है। और न्यायाधीश पागल मालूम पड़ता है। लेकिन कहानी बड़ी कीमती है।

कहानी जिंदगी के संबंध में ज्यादा सच है, बजाय तुम्हारे शास्त्रों के; बजाय तुम्हारे सिद्धांतों के; क्योंकि जीवन का प्राथमिक सत्य यह है कि हम अलग-अलग नहीं हैं, इकट्ठे हैं। और अगर कहीं कोई चोरी कर रहा है, तो साधु भी जुम्मेवार है, जिसका चोरी से कोई संबंध नहीं दिखाई पड़ता। कहीं अगर युद्ध हो रहा है तो तुम–जिन्हें कि उसकी खबर भी नहीं है–तुम भी अपराधी हो। क्योंकि जीवन संयुक्त है।

यहां घटनाएं अलग-अलग कटी हुई, बंटी हुई नहीं हैं। हम सब जुड़े हैं और हम सब एक ही चेतना के भाग हैं। हम सब लहरें एक ही सागर की हैं। अगर पास में कोई लहर कंपती है, तो हमारा उसमें हाथ है।

बुद्ध ने कहा है, कि जब तक आखरी पापी मुक्त न हो जाये, तब तक मैं मुक्त कैसे हो सकूंगा? यह सिर्फ करुणा की बात नहीं, सत्य है। अगर जीवन इकट्ठा है, तो यह कैसे संभव है, कि एक व्यक्ति मुक्त हो जाये! बुद्ध ने कहा है, ‘रुकूंगा द्वार पर निर्वाण के, उस समय तक, जब तक अंतिम यात्री प्रवेश न कर जाये।’

लोगों ने समझा कि यह सिर्फ महा करुणा का वचन है। करुणा तो उसमें है ही, लेकिन कुछ और भी है। वह यह है कि आखरी पापी भी बुद्ध का ही हिस्सा है। तो जब मेरा एक हाथ पाप कर रहा हो, तो मेरी आत्मा स्वर्ग में कैसे प्रवेश कर सकेगी? जब मेरा बायां हाथ पाप करता हो तो मेरा दायां हाथ साधु कैसे हो सकेगा? पहली तो यह बात समझ लें।

और दूसरी बात यह समझें कि जीवन अगर गणित जैसा हो तो यह न्यायाधीश पागल है, और यह सूफी कथा विक्षिप्तता की है। लेकिन जीवन गणित जैसा नहीं है, साफ-सुथरा नहीं है, यहां हर चीज एक दूसरे में घुल-मिल जाती है। यहां सीमाएं बंटी हुई नहीं हैं; एक दूसरे के साथ जुड़ी हैं। वस्तुतः सीमाएं नहीं हैं। चोर साधु में पिघल रहा है, साधु चोर में पिघल रहा है। प्रतिपल तुम कभी साधु होते हो, कभी चोर हो जाते हो।

जिंदगी तरल है, ठोस नहीं है।

इसलिये खंडों में बांटने का उपाय नहीं है। सुबह जब तुम प्रार्थना में बैठे थे तो तुम परम साधु थे। फिर तुम दुकान पर पहुंच जाते हो, साधुता खो जाती है; तुम चोर हो जाते हो। फिर मंदिर, फिर प्रार्थना; फिर ध्वनि उठती है मंत्रों की, घंटनाद होता है, तुम बदल जाते हो।

आदमी तरल है।

तर्क सही हो सकता है, अगर जिंदगी ठोस होती। जिंदगी ठोस नहीं है, तरल है; इसलिये तर्क सही नहीं हो सकता।

यह कहानी बड़ी अतक्र्य है, इललाजिकल है। पर जीवन ही अतक्र्य है; उसे समझने का बुद्धि से कोई भी उपाय नहीं है। उसे समझने के लिए कोई और आंखें चाहिये, जो बुद्धि नहीं देती।

ऐसा हुआ, चीन में लाओत्से को मानने वाला उसका एक भक्त, न्यायाधीश हो गया। पहला ही मुकदमा उसके हाथ में आया। एक आदमी ने चोरी की थी, बड़ी चोरी की; चोर ने स्वीकार भी कर लिया। जिस धनपति के घर चोरी हुई थी, वह प्रसन्न था। तब न्यायाधीश ने अपना निर्णय दिया, और उसने कहा कि छह महीने की सजा चोर के लिए, और छह महीने की सजा साहुकार के लिए। जिस के घर चोरी हुई है, वह भी छह महीने के लिए जेल; और जिसने चोरी की है, वह भी छह महीने के लिए जेल। धनपति ने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो गए हो? बुद्धि तो तुम्हारी ठीक है? मेरे घर चोरी हुई, और मुझे जेल? उस न्यायाधीश ने कहा, कि तुमने इतना धन इकट्ठा कर लिया, इसलिये चोरी हुई। और जब भी कोई इतना धन इकट्ठा कर लेगा, चोरी नहीं होगी तो क्या होगा? यह चोर नंबर दो का कसूरवार है। और दया है मेरी कि तुम्हें भी छह महीने की सजा देता हूं, अन्यथा तुम छह साल के योग्य थे।

और जब तक चोर ही दंडित किया जायेगा, तब तक चोरी बंद न होगी। क्योंकि चोर सिर्फ आधा कसूरवार है। उससे भी पहले किसी ने धन इकट्ठा कर लिया, तब तो चोरी हो सकती है!

उस न्यायाधीश ने कहा, ‘पूरा गांव भूखा मर रहा है, सिर्फ तुम्हारे पास संपदा है, और इन्हीं सबसे तुमने संपदा छीनी है। वे भूखे मर रहे हैं, क्योंकि तुम्हारी तिजोरी भरी है। उनके पेट खाली हैं क्योंकि तुमने तिजोरी भर ली है। कसूरवार कौन है?’

न्यायाधीश निकाल दिया गया पद से, क्योंकि सम्राट की समझ में यह बात न आई। और सम्राट को भी डर लगा होगा कि अगर आज धनपति जाता है जेल, तो कल यह न्यायाधीश मुझे जेल भेज सकता है। इसलिये अपराधियों की सांठ-गांठ है। बड़े अपराधियों की सांठ-गांठ है। सम्राट से किसी ने पूछा कि यह बात तो ठीक मालूम पड़ती थी; यह न्यायाधीश गलत तो नहीं था। सम्राट ने कहा, ‘गलत और सही का सवाल नहीं है, अगर यह सही है तो मैं भी अपराधी हूं। यह नहीं हो सकता। इसलिये इस न्यायाधीश को गलत होना ही पड़ेगा।’

तो धनपतियों की एक सांठ-गांठ है। और उनकी सांठ-गांठ की वजह से चोरी पैदा होती है। और जब चोरी पैदा होती है तो चोरी अपराध है।

लाओत्से ने कहा है, ‘जब तक धनपति है, तब तक दुनिया से चोरी नहीं मिटाई जा सकती। और जब तक दुनिया में साधु हैं, तब तक असाधु भी रहेंगे।’

धनपति के साथ चोर का संबंध तो हम समझ भी लें; साधु के साथ असाधु का बिलकुल समझ में नहीं आता। तो हम कहेंगे ठीक है, यह बात भी समझ में आती है कि बहुत धन इकट्ठा तुम कर लोगे, तो कोई न कोई चोरी करेगा, लेकिन क्या यह बात सूक्ष्म अर्थों में साधु के साथ भी लागू नहीं है? कि जो बहुत गुण इकट्ठे कर लेगा, वह कहीं किन्हीं लोगों को दुर्गुण में छोड़ देगा। जो इतनी साधुता साध लेगा, उसकी साधुता के साधने के लिए किसी न किसी को असाधु हो जाना पड़ेगा, क्योंकि जीवन एक संतुलन है। वहां बेलेंस चाहिए, नहीं तो जीवन खो जायेगा।

तुम सोच भी तो नहीं सकते कि अगर राम अकेले हों और रावण न हों तो राम की कथा कैसे खड़ी रहेगी? तो राम की कथा में कौन नायक है–राम या रावण? जो भी कहे राम, वह गलत। जो भी कहे रावण, वह गलत। राम और रावण संयुक्त नायक हैं। क्योंकि दोनों एक साथ ही हो सकते हैं। रावण न हो तो राम नहीं हो सकते। राम न हो तो रावण नहीं हो सकते। राम-कथा गिर जायेगी, क्योंकि राम-कथा चलती है राम और रावण के संतुलन पर। पूरा खेल चलता है। जैसे नट चलता है रस्सी पर; तो कभी बायें झुकता है, कभी दायें झुकता है। जब लगता है उसे कि दायें ज्यादा झुक गया है, तो संतुलन लाने के लिए बायें झुकता है। जब लगता है अब गिर जाऊंगा बायें, तो संतुलन लाने के लिए दायें झुकता है।

समाज एक संतुलन है। वहां साधु-असाधु; गरीब-अमीर; बुद्धिमान-बुद्धिहीन एक दूसरे को संतुलित कर रहे हैं।

गुरजिएफ का एक अनूठा खयाल था कि दुनिया में बुद्धिमत्ता की भी मात्रा है। और जब एक व्यक्ति बहुत बुद्धिमान हो जाता है, तो निश्चित बहुत लोगों को बुद्धिहीन छोड़ देता है। कसूरवार कौन है? इसमें थोड़ी सचाई मालूम पड़ती है, गुरजिएफ के सिद्धांत में। और इस सिद्धांत के आधार पर बहुत-सी बातें साफ हो सकती हैं।

जैन कहते हैं, कि केवल एक कल्प में चौबीस तीर्थंकर हो सकते हैं; पच्चीस नहीं हो सकते। पर क्यों चौबीस? हिंदू कहते हैं, एक कल्प में केवल चौबीस अवतार हो सकते हैं, पच्चीस नहीं। पर क्यों चौबीस? बौद्ध कहते हैं, कि एक कल्प में बुद्ध चौबीस हो सकते हैं, ज्यादा नहीं! पर क्यों चौबीस? क्या राज है?

गुरजिएफ अगर सही हो तो राज साफ हो जायेगा। अगर एक खास मात्रा है तीर्थंकरत्व की तो सीमा निश्चित हो गई। उतने लोग ही तीर्थंकर हो सकते हैं। और मात्रा चुक जायेगी। अगर एक खास मात्रा है जल की, तो कुछ लोग ही तृप्त हो सकते हैं पानी से, बाकी प्यासे रह जायेंगे। और बात सच मालूम पड़ती है क्योंकि बुद्धि भी भौतिक है; मस्तिष्क भी भौतिक है। इसलिये मात्रा तो होनी ही चाहिए। और एक खास मात्रा से ज्यादा तीर्थंकर नहीं हो सकते।

इसका तो यह अर्थ हुआ कि तीर्थंकर भी दोषी हैं। जो लोग तीर्थंकर नहीं हो पाते उनके लिये वह उतना ही दोषी है; जैसा कि धनी उनके लिए दोषी है, जो भिखमंगे रह जाते हैं।

तो ज्ञानी भी अज्ञानी के लिए भागीदार है। सूफी इस कहानी में यही कह रहे हैं।

बड़ी मजेदार कहानी है, इसलिए बड़ी मीठी है। एक चोर घुसा है एक घर में। इरछी-तिरछी थी खिड़की। चोट खा गया, सिर टूट गया, हाथ-पैर की हड्डी टूट गई। जाकर उसने अदालत में मुकदमा कर दिया।

पहले तो हमें लगेगा कि चोर अकसर मुकदमा नहीं करते। लेकिन तुम गलती में हो। चोर सबसे पहले मुकदमा करता है। अदालतों में चोरों के अतिरिक्त और कोई मुकदमे करने जाता ही नहीं। और इसके पहले कि दूसरा चोर मुकदमा करे, होशियार चोर पहले ही मुकदमा कर देता है।

इस सत्य को थोड़ा समझने की कोशिश करो। अगर अभी यहां किसी की जेब कट जाये, तो जो आदमी जेब काटेगा वह सबसे ज्यादा शोरगुल मचाएगा; कि जेब काटना बहुत बुरा है। किसने काटा? पकड़ो, मारो! यह जरूरी है, अगर वह बुद्धिमान है। और अगर वह बुद्धू है, तो वह छिपने की कोशिश करेगा। छिपने में पकड़ा जायेगा। अगर थोड़ा भी कुशल है तो शोरगुल मचाएगा। शोरगुल से साफ हो जायेगा, किसी को यह खयाल भी नहीं आएगा कि यह आदमी और चोर हो सकता है?

बर्ट्रेंड रसल ने कहा है कि जब भी कोई शोरगुल मचाए चोरी के खिलाफ तो पहले उसे पकड़ लेना।

पापी बहुत ज्यादा पुण्य की बातें करते हैं। क्योंकि पुण्य की चर्चा, पाप को छिपाने के लिए धुआं बन जाती है। असाधु, साधुता के गुणगान गाते हैं। व्यभिचारी, ब्रह्मचर्य की पर्त खड़ी करते हैं चर्चा में; ताकि व्यभिचार छिप जाये। असल में जिसे भी छिपाना हो, उससे विपरीत की बातचीत करनी चाहिए। जिसे तुम चाहते हो प्रगट न हो जाये, उससे उल्टा प्रदर्शन करना चाहिए।

चोर अदालत जाते हैं और छोटे चोरों को पकड़ा देते हैं। बड़े चोर बाहर रह जाते हैं। छोटे पापी ही पकड़े जाते हैं, क्योंकि कानून का जाल बड़े पापियों को नहीं पकड़ पाता; क्योंकि बड़े पापी तो कानून का जाल बनाते हैं। तो जाल की डोर उनके हाथ में है। फिर छोटे पापी फंस जाते हैं, क्योंकि जाल मजबूत और छोटे पापी कमजोर। बड़े पापी मजबूत हैं, जाल तोड़कर बाहर हो जाते हैं।

तुम अगर नदी में मछलियों को पकड़ने के लिए जाल डालो, तो तुम उस मछली को न पकड़ पाओगे, जो तुम्हारे जाल से ज्यादा मजबूत हो। वह तोड़कर बाहर निकल जायेगी। सिर्फ कमजोर मछलियां पकड़ में आएंगी, जो जाल को न तोड़ सकें। तो छोटे चोर अदालतों में फंस जाते हैं, कारागृहों में सड़ते हैं। बड़े चोर…! उनका इतिहास लिखा जाता है।

नेपोलियन क्या है? सिकंदर क्या है? तैमूरलंग क्या है? बाबर, औरंगजेब, अकबर, अशोक क्या हैं? कैसे ही उनके ढंग हों ऊपर से, महाचोर हैं। उनसे बड़े लुटेरे खोजने मुश्किल हैं। पर लूट इतनी बड़ी है कि लूट जैसी मालूम नहीं होती, सम्राट मालूम होते हैं। बड़े डाकू हैं। उनसे बड़े हत्यारे खोजने मुश्किल हैं। एच. जी. वेल्स ने लिखा है, ‘अगर तुम एकाध हत्या करो तो मुश्किल में पड़ोगे। अगर तुम लाखों हत्याएं करो तो इतिहास तुम्हारे गुणगान करेगा।’ इस जगत में सिर्फ छोटा फंसता है, बड़ा बच जाता है।

चोर अदालत पहुंच गया होगा। होशियार आदमी था। इसके पहले कि कोई सवाल उठाए कि तू चोरी करने क्यों गया, उसने सवाल उठा दिया कि यह आदमी शैतान है। इसने खिड़की ऐसी बनाई कि यह किसी की जान ही ले ले। यह आदमी हत्यारा है।

और भी एक बात समझने की है कि भला तुम चोरी करने गए हो, तब भी तुम दोषी दूसरे को ही मानते हो। वह भी मन का सीधा-सा नियम है। चोर भी दोषी दूसरे को मानता है। दोष हम सदा ही दूसरे पर रखते हैं। यह खयाल ही नहीं आता कि मैं दोषी हो सकता हूं। दीये के तले हमेशा ही अंधेरा रहता है। सब तरफ रोशनी होती है, उसी में सब दिखाई पड़ता है। ‘मैं’ भर छिप जाता हूं।

इस चोर को भी यह खयाल न आया कि मैं चोरी करने गया था। सिर में लगी चोट, हाथ-पैर टूट गए, खयाल आया कि आदमी, मकान का बनाने वाला जो मालिक है, शरारती है। पहले से इसने खिड़की ऐसी बनाकर रखी, कि किसी की जान ले ले। फिर उसने अपने को समझाया होगा कि अभी मैंने कोई चोरी तो की नहीं थी, सिर्फ घुस ही रहा था। अभी घटना कोई घटी तो थी नहीं। इसलिये दोषी होने का कोई अभी सवाल नहीं है। क्योंकि चोरी हो जाये तभी दोष है।

हम कृत्य में दोष मानते हैं, विचार में दोष नहीं मानते। अगर तुम किसी की हत्या कर दो तभी दोषी हो। तुम सिर्फ सोचते हो कि हत्या कर दें, तो तो कोई अदालत तुम्हें पकड़ नहीं सकती। इस आदमी ने भी चोरी तो की नहीं थी, खिड़की पर ही था अभी; सोचा ही था। सोचने से तो कोई चोर होता नहीं। यह हमारा मन हमें समझाता है। सोचने से कोई हत्यारा नहीं होता, व्यभिचारी नहीं होता। जो पाप दुनिया में आदमी, कोई भी आदमी कर सकता है, वह सब तुम करते हो, लेकिन मन में! खिड़की पर ही थे अभी, भीतर तो गये नहीं थे।

मैंने सुना है, एक महिला ने एक बहुत विशाल समृद्ध होटल के मैनेजर को जाकर कहा बड़े क्रोध में, कि मैं तो सोचती थी कि यह एक सम्मानित होटल है। लेकिन अभी-अभी मैंने देखा कि इस होटल का एक बैरा एक स्त्री के पीछे भाग रहा है। यह अशोभन है। मैनेजर ने कहा कि उसने स्त्री को पकड़ा तो नहीं? उसने कहा, नहीं। उस ने कहा, यह होटल अभी भी सम्मानित है। जब तक वह पकड़ ही न ले, तब तक इस होटल का सम्मान खोने का कोई कारण नहीं है। जो अभी हुआ ही नहीं है, उसके लिए क्या शिकायत कर रही हो?

इस चोर ने भी सोचा होगा कि कोई चोरी तो मैंने की नहीं। गया था, मन में खयाल था, घटना कोई घटी न थी। और यह आदमी शरारती है।

मजिस्ट्रेट जरूर बड़ी गहरी समझ का आदमी रहा होगा। क्योंकि या तो गहरी समझ के आदमी ऐसा काम कर सकते हैं, या पागल। उसने कहा, यह बात ठीक है। बुलाओ उस आदमी को; वह जुम्मेवार है, अपराधी है। वह आदमी बुलाया गया। उसने कहा, क्षमा करें; मेरा इसमें कोई कसूर नहीं है। जिसने खिड़की बनाई है, उस बढ़ई का कसूर है। बढ़ई को बुलाया गया और बढ़ई ने कहा, कि मैं क्या कर सकता हूं? राज ने इरछी-तिरछी दीवाल उठाई थी। कसूर मेरा नहीं है। राज बुलाया गया। उसने कहा, मैं क्या कर सकता हूं? जब मैं दीवाल उठा रहा था, मन मेरा डांवाडोल हो गया। एक खूबसूरत औरत वहां से निकल गई। मैं उसको देखने में लग गया। उतनी देर में सब भूल-चूक हो गई। कसूर उसी स्त्री का है। उस स्त्री ने कहा, मुझे तो कोई देखता भी नहीं। पर उस दिन मैंने एक दुपट्टा ओढ़ा था, उस दुपट्टे की सब भूल-चूक मालूम पड़ती है, बड़ा रंगीन था, सतरंगी था। सभी की आंखों का आकर्षण का केंद्र बन गया था। रंगरेज का कसूर है।

एक बात समझने जैसी है कि हर आदमी कसूर दूसरे पर टालता चला जाता है। कोई भी न्यायाधीश यह नहीं कहता कि यह क्या पागलपन है? हर आदमी कसूर दूसरे पर टाल देता है। यही सुगम है, यही आसान है। और जिंदगी जुड़ी हुई है, कसूर टाला जा सकता है। क्योंकि कोई न कोई कारण तो रहा होगा। ठीक ही कह रहा है राज कि मैं क्या कर सकता हूं! एक खूबसूरत औरत निकल गई, उसमें मेरी आंखें उलझ गयीं। मन डांवाडोल हो गया, वासना से भर गया, भूल-चूक हो गई।

यह कहानी पागलपन की लगती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक यही कहते हैं। अगर बच्चा पागल हो गया तो वे कहते हैं, मां को पकड़ो। उसने बचपन में दर्ुव्यवहार किया होगा। मां कहती है, मैं क्या कर सकती हूं? मेरी मां को पकड़ो। क्योंकि मेरे साथ बचपन में दर्ुव्यवहार हुआ होगा। किसको पकड़ियेगा?

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, शिक्षक को पकड़ो, शिक्षाशास्त्री को पकड़ो, मां-बाप को पकड़ो, समाज को पकड़ो–दोष किसी और का है। अगर आज पश्चिम में इतने जोर से युवकों में बगावत है, तो उस बगावत का नब्बे प्रतिशत कारण मनोविज्ञान की धारणायें हैं। मनोविज्ञान कहता है, कोई न कोई कसूरवार है। कसूर तुम में तो पैदा हो ही नहीं सकता, क्योंकि बच्चा तो शुद्ध पैदा होता है। कोई न कोई उसके मन को विकृत करता है। जो विकृत करता है, वही कसूरवार है। लेकिन इसका तो यह अर्थ हुआ, कि सिवाय परमात्मा के और कोई कसूरवार नहीं हो सकता; क्योंकि पकड़ते जाओ, हटते जाओ पीछे।

तो बढ़ई कहता है, राज; राज कहता है, औरत; औरत कहती है, रंगरेज।

कहानी का अंत हो सका, क्योंकि संयोग से रंगरेज उसका पति था। और इतना ही संयोग नहीं था, वही आदमी चोर था; जो अदालत के सामने मुकदमा लाया था, वही चोरी करने घुसा था।

इसलिये एक अनूठा आयाम है कहानी में। अगर हम जगत में दोषी को पकड़ने जायें, तो जब तक परमात्मा न मिल जाये, तब तक दोषी को पकड़ना असंभव है। किसको दोषी ठहराइएगा?

महावीर ने परमात्मा को इनकार किया सिर्फ इस कारण से क्योंकि अगर परमात्मा है, तो तुम दोषी नहीं हो सकते। तुम कैसे दोषी हो सकते हो? जिसने तुम्हें बनाया है, उसने बनाया इस ढंग से तुम्हें कि तुमसे भूल हो रही है; कि तुम पाप कर रहे हो, कि तुम बेईमान हो, कि तुम चोर हो। अगर एक पेंटिंग में कुछ भूल-चूक है तो पेंटिंग को तो कोई कसूरवार नहीं कह सकता, चित्रकार को ही पकड़ा जायेगा। अगर एक मूर्ति बेहूदी है, तो मूर्तिकार पकड़ा जायेगा, मूर्ति को तो सजा देने का कोई अर्थ नहीं। अगर परमात्मा स्रष्टा है तो तुम मुक्त हो गए। दोष तुम्हारा नहीं है। यह तो पाप के लिए सीधा खुला रास्ता होगा।

तो महावीर ने बड़ी हिम्मत का काम किया और कहा कि परमात्मा नहीं है, बस तुम ही हो। इसलिये दोष को कहीं तुम टाल न सकोगे। तुम्हारा ही पाप है, तुम्हारा ही पुण्य है, तुम ही जुम्मेवार हो। स्वर्ग होगा तो तुम, नरक होगा तो तुम। जहां भी तुम हो, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई आधार नहीं है। इसलिये महावीर का परमात्मा को इनकार करना बड़ा धार्मिक है; बड़ी गहरी बात है। हिंदुओं ने तो समझा, यह आदमी नास्तिक है, ईश्वर को इनकार करता है। लेकिन महावीर को अगर ठीक से समझोगे तो यही आदमी आस्तिक है। क्योंकि इसकी आस्तिकता तुम्हें जुम्मेवार ठहराती है; और तुम अगर जुम्मेवार हो तो बदलाहट हो सकती है। अगर परमात्मा जुम्मेवार है, तुम क्या करोगे?

इस कहानी में हरेक दूसरे पर कसूर टालता जाता है। यह कहानी अंतहीन चल सकती थी। वह तो कहानी को खत्म करना था, नहीं तो कहानी खत्म नहीं होती। आखिर में परमात्मा पकड़ा जाता है। लेकिन परमात्मा को पकड़ा भी नहीं जा सकता।

मनोविज्ञान ने एक उपद्रव का द्वार खोल दिया यह कहकर कि तुम जुम्मेवार नहीं हो, जुम्मेवार कोई और है। तो बस ठीक है, जब मैं जुम्मेवार नहीं हूं, तो मैं जो भी कर रहा हूं, ठीक है। और दूसरों के कारण मैं कर रहा हूं। तो मैं तो बदल नहीं सकता, जब तक दूसरे न बदल जायें।

माक्र्स और फ्रायड–दोनों ने आज की सभ्यता को बुरी तरह से रोगग्रस्त किया है। क्योंकि माक्र्स कहता है कि परिस्थितियां जुम्मेवार हैं और फ्रायड कहता है, अन्य व्यक्ति जुम्मेवार हैं। दोनों एक बात से राजी हैं कि तुम जुम्मेवार नहीं हो। अगर कोई चोर है तो वह इसलिये कि वह गरीब है। अगर कोई व्यभिचारी है तो इसलिये कि बचपन से उसको जो शिक्षा दी गई है, जो दीक्षा दी गई है, उसने व्यभिचार पैदा किया है। दोनों तुम्हें मुक्त कर देते हैं: तुम्हारा दायित्व शून्य हो जाता है।

और जिस क्षण तुम्हारा दायित्व शून्य हो जाता है, उसी क्षण तुम्हारा पतन हो जाता है। फिर तुम्हें पतन से रोकने का कोई उपाय भी नहीं है। फिर कोई मार्ग नहीं है कि तुम्हें रोका जा सके गिरने से। फिर अतल खाई है, जिसमें तुम गिरोगे। तो पश्चिम जो गिर रहा है, हर व्यक्ति जो अपनी निम्नतम स्थिति में आ रहा है, और हर व्यक्ति यह कह रहा है कि मैं क्या कर सकता हूं! मेरे वश के बाहर है; अवश हूं।

यह बड़े मजे की बात है कि पश्चिम की नास्तिकता उसी जगह ले आई, जहां पूरब की तथाकथित आस्तिकता लाई थी। पश्चिम की नास्तिकता यह कह रही है कि तुम जुम्मेवार नहीं हो, परिस्थिति जुम्मेवार है। पूरब की तथाकथित आस्तिकता ने कहा परमात्मा, भाग्य, विधि जुम्मेवार है, तुम जुम्मेवार नहीं हो। दोनों ने तुम्हें मुक्त कर दिया। पश्चिम भी पतित हो रहा है, पूरब बुरी तरह पतित पहले हो चुका है।

हिंदुओं के पास पुराने से पुराने धर्मशास्त्र हैं, लेकिन ओछी से ओछी नीति है; तुच्छ से तुच्छ नीति है। श्रेष्ठ से श्रेष्ठ ऊंचाइयां हैं उपनिषदों की, लेकिन हिंदू का आचरण? क्षुद्र है। इसलिये कभी-कभी बड़ा चकित होकर देखना पड़ता है। त्याग की इतनी महिमा है, लेकिन जिस तरह हिंदू पैसे को पकड़ता है, इस पृथ्वी पर कोई नहीं पकड़ता। जिनको हम भौतिकवादी कहते हैं, वे भी पैसे को इस पागलपन से नहीं पकड़ते। जितना लोभी हिंदू है, उतनी पृथ्वी पर कोई भी जाति खोजनी कठिन है। और अलोभ की इतनी चर्चा है! इतनी ऊंचाई विचार की और आचरण की इतनी क्षुद्रता!–क्या होगा कारण?

पश्चिम से लोग खोज करने आते हैं सत्य को पूरब, और जब यहां के लोगों को देखते हैं तब बहुत हैरान होते हैं। इनसे ज्यादा क्षुद्र वृत्ति के लोग उन्हें कहीं भी मिलने मुश्किल हैं। आत्मा-परमात्मा की बातें हैं, लेकिन इनका व्यवहार अत्यंत जमीन से बंधा हुआ है, और रुग्ण है।

क्या होगा कारण? यह है कारण: जब एक दफे यह बात साफ हो गई कि सबके लिए जुम्मेवार परमात्मा है, भाग्य है, विधि है, कुछ किया नहीं जा सकता, तो तुम जैसे हो, वैसे हो। अतल खाई खुल गई गिरने की।

जब भी कोई व्यक्ति अनुभव करता है, मैं जुम्मेवार हूं, तब उसकी चेतना सजग होगी। तब वह जागता है। तब वह श्रम करता है, चेष्टा करता है, सम्हालता है। क्योंकि तुम अपने को सम्हालोगे तो ही इस खाई में गिरने से बच सकते हो। तुमने अपने को नहीं सम्हाला तो कोई तुम्हें सम्हालने वाला नहीं है। सभी तुम्हें धक्के दे सकते हैं, लेकिन सम्हालने वाला तुम्हें कोई भी नहीं है। क्योंकि तुम्हारी ऊंचाई में किसकी उत्सुकता है? तुम्हारी शुद्धता में किसका रस है? और तुम जीवन के परम कगार बन जाओ, इसके लिए कौन मेहनत करेगा? सब अपने लिए मेहनत कर रहे हैं। जिस दिन व्यक्ति का दायित्व शून्य हो जाता है, बस उसी दिन उसके आधार समाप्त हो जाते हैं। उसके पैर के नीचे की जमीन जैसे किसी ने खींच ली।

अगर महावीर और बुद्ध ने पृथ्वी पर महानतम प्रयोग किया है और हजारों लोगों की चेतनाओं को निर्वाण तक पहुंचाया है, उस सबका आधार एक था कि उन्होंने कहा, कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई भाग्य नहीं है–तुम हो। और इसलिये अगर तुम नरक में जी रहे हो तो तुम ही कारण हो। निराश होने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि तुम ही नरक में भीतर गए हो, बाहर आ सकते हो। किसी ने तुम्हें भेजा नहीं है। यह तुम्हारा अपना निर्णय है। स्वेच्छा से तुम गए हो। जब तुम स्वेच्छा से गए हो, तो स्वेच्छा से बाहर आ सकोगे। इस पर किसी का दबाव नहीं है। न परिस्थिति तुम्हें दबा रही है, न भाग्य तुम्हें दबा रहा है, न परमात्मा तुम्हें धका रहा है, तुम अपनी ही गति से चल रहे रहो, तुम परम स्वतंत्र हो।

मनुष्य की स्वतंत्रता को पूर्ण करने के लिए महावीर को परमात्मा को इनकार कर देना पड़ा। क्योंकि अगर परमात्मा है तो तुम्हारी स्वतंत्रता परम नहीं हो सकती। तुम्हारी स्वेच्छा झूठी होगी।

तुम्हारी स्वेच्छा ऐसी होगी, जैसा मैंने सुना है कि एक स्कूल के कुछ बच्चों ने स्कूल में आग लगा दी। किसी शिक्षक से वे नाराज थे। शिक्षक कमरे के भीतर था, वह अधजला हो गया। अदालत में मुकदमा चला। लेकिन बच्चे छोटे थे, नाबालिग थे। मजिस्ट्रेट ने कहा, कि जो-जो बच्चे स्वीकार कर लेंगे अपना कसूर, वे माफ कर दिए जायेंगे। जो बच्चे स्वीकार नहीं करेंगे, उन्हें फिर दंडित करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। तो सभी मां-बाप ने अपने बच्चों को कोशिश की कि स्वीकार कर लो। एक मां अपने बेटे को लेकर अदालत में आई और उसने कहा कि महानुभाव, इसने स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया है, कि इसने आग लगाने में भाग लिया और यह क्षमा मांगता है। तो मजिस्ट्रेट ने पूछा, स्वेच्छा से तेरा क्या मतलब?

तो उस स्त्री ने कहा कि स्वेच्छा से इसने स्वीकार किया। आज पहले तो मैंने इसकी अच्छी मरम्मत की, ठीक से इसकी पिटाई की। फिर इसे आंगन में बंद किया, इसके सब कपड़े उतार लिए। ठंडी रात…और भोजन नहीं दिया। और इससे कहा कि रात भर तू यहां आंगन में ही रहेगा, सुबह फिर तेरी मरम्मत की जायेगी; अन्यथा स्वेच्छा से स्वीकार कर ले। आधा घंटे में महानुभाव, इसने स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया, कि मैंने गलती की है। और यह क्षमा मांगता है।

अगर परमात्मा है तो स्वेच्छा इसी तरह की होगी। अगर तुम बनाए गए हो तो तुम्हारी स्वेच्छा क्या हो सकती है? अगर कोई स्रष्टा है, तो तुम्हारी स्वतंत्रता क्या है? तुम कठपुतली हो, धागे किसी और के हाथ में हैं। कोई तुमसे कुछ करवा रहा है, तुम कर रहे हो। इसलिये हिंदू जाति का पतन हुआ; क्योंकि दायित्व का कोई भाव न रहा। कोई करवा रहा है, और हम कर रहे हैं; कठपुतली हैं। हिंदू कहते ही हैं, कि परमात्मा धागे खींच रहा है और हम कठपुतलियों की तरह नाच रहे हैं। वही करनेवाला है।

अगर वही करनेवाला है तो चोरी करते वक्त तुम कैसे अपने को रोकोगे? पाप करते वक्त तुम कैसे अपने को रोकोगे? तुम्हारी स्वेच्छा झूठी है। स्वेच्छा हो ही नहीं सकती।

महावीर ने एक परम दृष्टि दी, कि परमात्मा के साथ स्वतंत्रता नहीं हो सकती। इसे समझा नहीं जा सका। इसे जैन भी नहीं समझ पाए। क्योंकि जैनों को भी यह बात घबड़ाने वाली लगती है कि परमात्मा के साथ स्वतंत्रता नहीं हो सकती। और अगर महावीर को ठीक से समझा जाये तो स्वतंत्रता ही परमात्मा है। तब स्वतंत्रता परम तत्व है। इसलिये मोक्ष परम तत्व है, परमात्मा नहीं। मुक्ति परम तत्व है, परमात्मा नहीं।

तुम्हें परमात्मा नहीं होना है, तुम्हें मुक्त होना है। तुम्हें परम स्वतंत्र होना है। लेकिन परम स्वतंत्र तुम तभी हो सकोगे, जब गुलामी तुम्हारी अपने हाथ से पैदा की गई हो। अगर किसी ने तुम्हें गुलाम बनाया, तुम कैसे स्वतंत्र होओगे? वह तुम्हें फिर गुलाम बना सकता है। तब मोक्ष आत्यंतिक नहीं हो सकता। तुम मोक्ष में भी बैठे हो, परमात्मा की मर्जी बदल जाये, तो तुम्हें फिर संसार में पटक देगा। क्योंकि पहले भी उसी ने पटका था। तुम मोक्ष में ही बैठे रहे होओगे। क्योंकि पहले तुम कहां थे? वह फिर तुम्हें संसार में भेज देगा। फिर नया खेल करने लगे। फिर नयी लीला रचाए। तुमसे कहे, उठो! चलो! तुम क्या करोगे? कठपुतली के धागे को खींचकर वह स्वतंत्र कर दे, बिठा दे आकाश में, फिर धागा खींच दे, गिरा दे जमीन पर।

परमात्मा के साथ तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते। परमात्मा के साथ जगत एक लोकतंत्र नहीं है, एक तानाशाही है।

लेकिन महावीर कहते हैं कि स्वतंत्रता ही परम तत्व है, वही परमात्मा है। जिस दिन तुम परम स्वतंत्र हो गए, जानना कि तुमने परमात्मा को पा लिया। और कोई परमात्मा नहीं है।

हमारा मन सदा दूसरे पर दोष डालने का होता है। यही यह कहानी कह रही है। अदालत बुलाती गई लोगों को, और हरेक ने कहा कि मेरा इसमें कुछ मामला नहीं है, किसी और ने…

और जरा सोचें तो, उनकी बात सही भी मालूम पड़ती है। राज क्या कर सकता है, अगर एक सुंदर औरत सामने से गुजर जाये! तुम क्या करोगे? सुंदर औरत सामने से गुजरेगी तो तुम्हारा इसमें क्या कसूर है? न तुमने सुंदर औरत बनाई, न तुमने उससे गुजरने के लिए आग्रह किया। यह परिस्थिति तुम्हारे हाथ के बाहर है। न तुमने यह हृदय अपना बनाया, जो कि सुंदर औरत को देखकर डांवाडोल होता है। न तुमने यह वासना अपने हाथ से पैदा की। यह तुममें छिपी है; यह परमात्मा का दान है। यह तुम्हारी प्रकृति है। इसमें क्या कसूर है राज का, कि उसके पास आंखें थीं, सौंदर्य को देखने की क्षमता थी, रूप आकर्षित करता था! क्या कर सकता है राज? उसके हाथ में कुछ भी नहीं है, वह मूर्च्छित चल रहा है। एक बेहोशी है, जो खींचे लिए जा रही है। यह बात ठीक भी मालूम पड़ती है कि आदमी जुम्मेवार नहीं है। लेकिन अगर यह तुम्हारे मन में गहरे बैठ जाये, तो तुम पाप के अतल गर्त में गिर जाओगे, क्योंकि तुम्हारी चेतना ही तुम्हें रोकती है। तुम्हारा होश ही तुम्हें सम्हालता है। तुम दलदला जाओगे और गिर पड़ोगे। तुम जमीन पर चल रहे हो, चल पा रहे हो, पैरों पर खड़े हो, थोड़ा-सा होश है इसलिये। अगर यह राज थोड़ा-सा होशपूर्ण होता तो क्या सुंदर स्त्री इसे खींच पाती? क्योंकि सुंदर स्त्री केवल मूर्च्छा में ही खींच सकती है। सुंदर स्त्री केवल मूर्च्छा में ही वासना को पैदा कर सकती है। अगर यह होश से भरा होता, अगर यह सजग होता, अगर यह देख रहा होता कि क्या हो रहा है मेरे भीतर और क्या हो रहा है बाहर, तो सुंदर स्त्री गुजर जाती।

कुछ युवक जंगल में एक नग्न वेश्या को आमोद-प्रमोद के लिए ले आए थे। जब वे ज्यादा बेहोश हो गए शराब पीकर तो वह भाग गई। जब उन्हें आधी रात होश आया, जब ठंड बढ़ी, नशा थोड़ा कम हुआ, तब उन्होंने देखा कि वह स्त्री तो भाग गई, तो उसकी खोज में निकले–पच्चीस सौ साल पहले की घटना हैं। वृक्ष के नीचे उन्होंने बुद्ध को बैठे हुए पाया–और तो कोई था नहीं उस जंगल में। उन्होंने हिलाया बुद्ध को और कहा कि एक सुंदर स्त्री नग्न इस रास्ते से निकली थी, तुमने जरूर देखा होगा। किस तरफ वह गई है? क्योंकि तुम जहां बैठे हो, यहीं से रास्ते फूट जाते हैं दो मार्गों पर। तो हम बायें जायें कि दायें?

बुद्ध ने कहा, कोई निकला जरूर, लेकिन बताना मुश्किल है कि स्त्री थी या पुरुष! पगध्वनि मैंने जरूर सुनी है, कान चूंकि खुले हैं, पर आंख मेरी बंद थी। और कुतूहल अब मुझ में पैदा नहीं होता कि आंख खोलकर देखूं कि कौन है? कोई गुजरा जरूर; स्त्री थी या पुरुष, कहना कठिन है। कुछ वर्षों पहले यह घटना घटी होती…तो बुद्ध ने कहा, मैं जरूर बता देता कि स्त्री है या पुरुष; क्योंकि तब मेरा पुरुष भीतर मूर्च्छित था। मूर्च्छित पुरुष स्त्री की तलाश में है। हर पगध्वनि स्त्री की ही मालूम पड़ती है। इतना ही कह सकता हूं कि कोई गुजरा था। हड्डी, मांस, पिण्ड का संग्रह था। पुरुष था या स्त्री, मुश्किल है। और सुंदर की पूछते हो; तो सौंदर्य तो व्याख्या है, वासना है। अब न मुझे कुछ सुंदर है, न कुरूप।

किस चीज को तुम सुंदर कहते हो? बड़ा मजेदार मामला है। तुम सोचते हो कोई तुम्हें आकर्षित करता है क्योंकि सुंदर है। तो तुम गलत सोचते हो। कोई तुम्हें आकर्षित करता है इसलिये सुंदर मालूम पड़ता है। फिर वासना सौंदर्य को पैदा करती है, सौंदर्य वासना का जन्मदाता नहीं है। जब तुम्हारी वासना खो जाती है, तो सौंदर्य भी खो जाता है। तुम्हारे भीतर वासना है, वही सौंदर्य को पैदा करती है। तुम्हारी वासना की व्याख्या है। तुम्हारी वासना जिसको भोग योग्य पाती है, उसको सुंदर कहती है। जिसको भोग योग्य नहीं पाती, उसको असुंदर कहने लगती है। जिसको तुम भोग लेते हो, वह भी सुंदर नहीं रह जाता है। क्योंकि जब भूख चली गई, सौंदर्य कैसे बच सकता है?

इसीलिये पत्नी किसी पति को सुंदर नहीं मालूम पड़ती। अगर पत्नी पति को सुंदर मालूम पड?ती हो तो उसका अर्थ यही है कि यह संबंध वासना का नहीं, प्रेम का है। क्योंकि वासना जब भर जायेगी…जब तुम भूखे हो तब भोजन में जो गंध मालूम होती है, वह भरे पेट कैसे मालूम हो सकती है? जब तुम भूखे हो, तब थाली पर बैठकर तुम्हें जो रस मालूम होता है थाली में, जब भरे पेट हो जाओगे तो कैसे मालूम होगा? भरे पेट का अर्थ ही यह है कि भोजन का रस खो गया। और अगर कोई जबरदस्ती तुम्हें भोजन करवाए भरे पेट, तो न केवल रस मालूम नहीं होगा, विरसता आएगी; वमन करने का मन होगा। वह भोजन जो इतना आकर्षित करता था, विकर्षित करेगा।

मैंने सुना है, एक ड्राइवर रोका गया एक चौराहे पर। पुलिस के आफिसर ने उसके पास आकर उसके कागजात गाड़ी के देखना चाहे। वह एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवेश कर रहा था। कागजात सही थे। और उसने पूछा कि तुम्हारे साथ कौन है? तो उसने कहा, मेरी पत्नी। उस अधिकारी ने कहा कि और सब तो ठीक है, लेकिन तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि जिस स्त्री को तुम ले जा रहे हो, वह तुम्हारी पत्नी है? वह ड्राइवर खिड़की के बाहर झुका। आफिसर के कान में उसने कहा कि अगर तुम सिद्ध कर दो कि यह मेरी पत्नी नहीं, तो हजार रुपया नगद!

हर पति पत्नी से छुटकारा पाना चाहता है। पत्नी पति से छुटकारा पाना चाहती है। क्योंकि सौंदर्य खो गया है। या तो वासना भरपूर हो गई, या निरंतर निकट रहने से विकर्षण हो गया, पेट भर गया है। और सौंदर्य तो वासना ही पैदा करता है। इसलिये जितना दूर हो व्यक्ति, उतना सुंदर मालूम पड़ता है।

जाननेवाले तो कहते हैं कि तुम्हारे भीतर वासना है इसलिये तुम बाहर व्याख्या करते हो सौंदर्य की, कुरूपता की। तुम्हारे भीतर से वासना गई कि न कुछ सुंदर है इस जगत में, न कुछ कुरूप है; क्योंकि न कुछ भोग्य है, न कुछ अभोग्य। पर बेहोश चित्त सोचता है, सुंदर स्त्री है, उसने खींच लिया है।

लेकिन उस स्त्री ने भी बड़ी बढ़िया बात कही। और उसने मजिस्ट्रेट को कहा कि क्षमा करें, मैं तो बहुत साधारण स्त्री हूं। कोई मेरी तरफ देखता भी नहीं। यह तो इस दुपट्टे का कसूर है। यह बड़ा रंगीन है, सतरंगा है, इंद्रधनुषी है। रंगनेवाले ने गजब का काम किया है। इस दुपट्टे की वजह से इस आदमी को रस पैदा हुआ होगा।

स्त्रियां इसे भलीभांति जानती हैं, कि शरीर में उतना रस नहीं है, जितना दुपट्टों में है। इसलिये वस्त्र, आभूषण, सजावट–जिन स्त्रियों में तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ता है, उनमें अस्सी प्रतिशत सजावट है, धोखा है, दुपट्टे हैं वहां! उस स्त्री ने ठीक ही कहा कि मैं तो बहुत साधारण-सी स्त्री हूं। इस दुपट्टे का ही कसूर होना चाहिए। मेरी तरफ कोई कभी देखता नहीं। और यह आदमी इतने रस से भर गया है कि चूक हो गई इसके काम में। यह तो हो ही नहीं सकता।

सभी सौंदर्य ऊपर-ऊपर हैं–चाहे दुपट्टे का हो, चाहे शरीर का हो। शरीर भी दुपट्टा है, खूब रंगा गया है।

‘इस रंगरेज को पकड़ लो'; उसने कहा, ‘मैं क्या कर सकती हूं?’

रंगरेज पकड़ भी लिया गया, लेकिन मुसीबत यह हो गई कि वही आदमी चोर था।

इस कहानी का अर्थ यह है कि अगर तुम खोजते ही चले जाओ तो आखिर में तुम ही पकड़े जाओगे। तुम दोष किसी को भी दो, अगर तुम्हारी खोज जारी रहे, तो आखिर में तुम दोषी स्वयं को पाओगे। कितना ही लंबा वर्तुल हो, कितना ही तुम सरकाओ दोष को दूसरे पर, कितना ही दायित्व दूसरे के कंधे पर रखो; अगर तुम खोजते ही चले गए, तो आखिर में तुम पाओगे कि तुम्हारे अतिरिक्त और कोई दोषी नहीं है। चोर भी तुम हो, रंगरेज भी तुम हो। चोरी करने भी तुम ही गए थे और सिर जो तुम्हारा टूटा है, वह भी तुम्हारे कारण ही टूटा है। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है इस जगत में। तुम्हारे सारे कष्ट, तुम्हारे सारे जंजाल, जंजीरें, कांटे, तुम्हारे ही बोये हुए हैं। तुम्हारी ही फसल है, जो तुम काट रहे हो।

बड़ा मजा हुआ होगा उस दिन अदालत में; क्योंकि तब तो रंगरेज को कुछ भी कहने को नहीं बचा होगा; इसलिये कहानी खतम हो गई। क्योंकि चोरी करने भी वही गया था, और उसके ही कारण, उसके ही दुपट्टे ने, उसकी ही पत्नी ने सब भटकाव पैदा किया था।

एक वर्तुल है जीवन में। इसलिये जो बुद्धिमान हैं, वे दूसरे को दोष देते ही नहीं, वह पहले से ही स्वीकार कर लेता है कि दोषी मैं हूं–इतना लंबा चक्कर है। आखिर में दुपट्टा रंगता हुआ मैं ही पकड़ा जाऊं, इसमें कुछ अर्थ नहीं है। चोरी भी मेरी है, दुपट्टा भी मेरा ही रंगा हुआ है, सिर मेरे ही कारण टूट रहा है।

यह चक्कर कहानी में बहुत छोटा है क्योंकि कहानी तो कल्पित है। जीवन में बहुत बड़ा है, अनेक जन्मों का है, क्योंकि जीवन कोई कल्पित नहीं है। अनंत जन्मों का चक्कर है। आखिर में तुम ही पकड़े जाओगे।

ईसाई और मुसलमानों का एक सिद्धांत है: ‘दि डे ऑफ लास्ट जजमेंट’–कयामत की रात, या कयामत का दिन। जिस दिन तुम्हारे सारे चक्कर के बाद निर्णायक स्थिति आयेगी, उस दिन तुम पकड़े जाओगे।

सूफी कहते हैं कि कयामत के लिए क्यों रुकते हो? फिर उस दिन कुछ करने को न बचेगा। फिर कोई उपाय न होगा। तुम आज ही क्यों नहीं निर्णय ले लेते हो? यह निर्णय व्यक्ति के जीवन में धर्म का जन्म बन जाता है, कि मैं जुम्मेवार हूं। चाहे मन कितना ही कहे, लेकिन हर भूल के लिए अगर तुमने अपने को जुम्मेवार माना तो जल्दी ही तुम पाओगे कि भूलें समाप्त हो गईं। हर दोष के लिए अगर तुमने अपने को दोषी समझा तो तुम पाओगे कि दोष धीरे-धीरे खो गए और तुम निर्दोष हो गए। क्योंकि अगर मैं ही जुम्मेवार हूं तो काटना बहुत आसान है। अगर मैं ही कारणभूत हूं तो अड़चन क्या है? अगर मेरी ही फसल मेरे जीवन को विष से भरती है तो मैं बीज बोना बंद कर रहा हूं। कर्म का सिद्धांत, इस कहानी का आधार है। कर्म के सिद्धांत का अर्थ है, तुम जो भी फल पा रहे हो, वह तुम्हारे ही कर्मों का है। आदमी का मन कितना अदभुत है और कितना चालाक है! कर्म का सिद्धांत भाग्य के बिलकुल विपरीत है, लेकिन हिंदुओं ने कर्म के सिद्धांत का इस ढंग से व्यवहार किया है कि वह भाग्य मालूम होता है। लोग कहते हैं, क्या करें, कर्मों का चक्कर है। जैसे कि कर्म इनको चक्कर में डाल रहा है! कोई कर्म है जैसे, जो इन्हें चकरा रहा है! लोग कहते हैं, अब क्या किया जा सकता है, पिछले जन्मों का कर्मफल भोग रहे हैं। कर्मफल को उन्होंने भाग्य का पर्यायवाची बना लिया है; जबकि कर्म का सिद्धांत भाग्य के विपरीत है। इसलिये महावीर ने परमात्मा को इनकार किया, कर्म को इनकार नहीं किया।

हिंदुस्तान में तीन बड़े धर्म पैदा हुए हैं। और इनका कोई मुकाबला पृथ्वी पर कहीं भी नहीं है। बाकी सब धर्म इन धर्मों के मुकाबले फीकी छायाएं हैं। हिंदू धर्म पैदा हुआ, जैन धर्म, और बौद्ध धर्म; ये तीन महान धर्म भारत में पैदा हुए। इन तीनों में हजारों फर्क हैं, विवाद हैं; सिर्फ एक बात निर्विवाद है, वह कर्म का सिद्धांत है।

महावीर परमात्मा को नहीं मानते। हिंदुओं का सारा आधार परमात्मा पर खड़ा है। बुद्ध न परमात्मा को मानते हैं, न आत्मा को मानते हैं। जैनों का सारा आधार आत्मा पर खड़ा है। ये बड़े कठिन और कुछ इस तरह के विरोध हैं, कि इनके बीच कोई सेतु नहीं बनाया जा सकता। हिंदू मानते हैं; आत्मा, परमात्मा, संसार। जैन मानते हैं, आत्मा और संसार। और बुद्ध मानते हैं, तीनों को ही नहीं–न आत्मा, न परमात्मा, न संसार; शून्यता! लेकिन एक मामले में तीनों राजी हैं, वह कर्म का सिद्धांत है। निश्चित ही कर्म का सिद्धांत इतना गहरा है कि उस संबंध में विवाद नहीं हो सकता।

शायद कर्म का सिद्धांत भारत की गहरी से गहरी खोज है–परमात्मा से गहरी, आत्मा से गहरी, निर्वाण से गहरी; क्योंकि उस संबंध में बुद्ध, महावीर और कृष्ण में मतभेद नहीं हैं। उस संबंध में वे राजी हैं, एकमत हैं। सोचने जैसा है कि जिसमें इस तरह के तीन लोग, जो सब चीजों में विपरीत हैं एक दूसरे से राजी होते हों तो बात कुछ ऐसी है कि सिद्धांत की नहीं होगी, सत्य की होगी। कुछ जीवन के नियम की होगी। व्याख्या की नहीं होगी। व्याख्या में तो झगड़ा हो ही जायेगा।

कर्म के सिद्धांत का अर्थ है कि तुम जुम्मेवार हो।

तुम जहां हो, अपने ही कारण हो।

तुम जो हो, अपने ही कारण हो।

तुम जैसे हो, अपने ही कारण हो।

तुम अपने ही कर्मों का संघात, जोड़ हो।

जिस दिन तुम इसे पहचान लोगे, उसी दिन कहानी समाप्त हो जायेगी। उसी दिन तुम पाओगे, चोरी करने भी तुम ही गए, दुपट्टा तुमने रंगा, पत्नी को सुंदर बनाया, राज की आंखें चौकाईं, बढ़ई को मुश्किल में डाला, मकान-मालिक को फंसाया, चोरी को तुम ही गए। सब तुमने ही किया–शुरू से लेकर आखिर तक। प्रथम से लेकर अंत तक सारी कहानी में तुम ही जुम्मेवार हो।

जिस दिन किसी व्यक्ति को यह साफ हो जाता है कि मैं ही जुम्मेवार हूं, मेरे जीवन का स्रष्टा मैं हूं, उसी क्षण धर्म का जन्म होता है। जिस क्षण तुम दूसरे को जुम्मेवार ठहराना बंद कर देते हो, उसी क्षण क्रांति शुरू हो जाती है। क्योंकि अब पलायन नहीं किया जा सकता। दुख है तो मेरा, सुख है तो मेरा। मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है, जो रत्ती भर भी कुछ सुख-दुख दे रहा हो। तो अब फिर मेरे हाथ में है। अगर मैं दुख पाना चाहता हूं तो पाता रहूं; लेकिन तब रोने की कोई जरूरत नहीं। अब मेरे हाथ में है, सुख पाना हो तो दुख के बीज न बोऊं। बात बिलकुल सीधी और साफ हो जाती है। और विज्ञान की हो जाती है।

इसलिये मैं कहता हूं, कहानी मधुर है और बड़ी गहरी है। और उसे ठीक से समझना, हंसना मत। क्योंकि इस कहानी का उपयोग करीब-करीब लोग भूल ही गए हैं। यह बात ही भूल गए कि यह सूफियों की कथा है। यह तो बच्चों की किताबों में लिखी जा रही है। छोटे बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं और हंस रहे हैं, जैसे कि यह कोई व्यंग्य हो! यह कोई जोक नहीं है, यह तो बड़ी आधारभूत बात है। यह किसी पागल, विक्षिप्त मजिस्ट्रेट का झक्कीपन नहीं है, यह तुम्हारे जीवन की कथा है। यह कर्म का सिद्धांत है। देर-अबेर तुम पकड़े जाओगे और पाओगे कि तुम ही चोर हो, तुम ही रंगरेज हो।

कब तक इसे टालोगे? इन दोनों छोरों को जल्दी मिला लो, कहानी को पूरा करो। ये दोनों छोर मिले कि तुम बाहर हो सकते हो इस वर्तुल के। यह जो जीवन का चक्र है, इससे तुम कूद सकते हो। जब तक तुम इसको न समझ पाओगे, तब तक तुम इस संसार के इस चक्र में भटकते ही रहोगे। इस बात को समझना कि मैं ही चोर हूं और मैं ही रंगरेज हूं, अपनी स्वतंत्रता को समझ लेना है। अपनी शक्ति को समझ लेना है। अपनी सामर्थ्य को समझ लेना है।

तुम्हारी सामर्थ्य अपरंपार है। यह तुम्हारी सामर्थ्य का फल है कि तुमने इतना बड़ा नरक अपने आसपास निर्मित किया है। इसलिये मैं नहीं कहता कि परमात्मा ने जगत बनाया। मैं कहता हूं, तुमने बनाया। एक तरफ से दुपट्टा रंगा है और एक तरफ से चोरी करने निकल गए हो। बायें हाथ से दुपट्टा रंग रहे हो, दायें हाथ से चोरी कर रहे हो। और तुम्हारा, दोनों हाथों के बीच में तुम्हारा ही सिर फूट रहा है।

इसे समझो। इस कहानी को गुनो। इसको हंसी-मजाक मत समझना। इस तरह की बहुमूल्य कहानियां जब हंसी-मजाक बन जाती हैं…शायद वह भी हमारी तरकीब हो। शायद उस तरकीब से हम पीड़ा से बच जाते हों। उनका जो दंश है, वह अलग हो जाता है, कांटा हट जाता है। हम समझते हैं कि व्यंग्य है, हंस लिया, बात खत्म हो गई। छोटे बच्चे कहानी पढ़कर प्रसन्न हो लेते हैं। यह कहानी बूढ़ों को समझने के लिए है। और सूफियों ने इस तरह की बहुत-सी कहानियां पैदा की हैं, जिनमें बच्चे भी रस ले सकें और जिनमें बूढ़े भी क्रांति पा सकें। जिनको बच्चे भी समझ लें एक तल पर और दूसरे तल पर बूढ़ों को भी समझना मुश्किल हो जाये।

कहानी के कई तल होते हैं। एक तल तो ऊपर होता है, जो कि साफ है। और एक तल गहरा है, जो कि साफ नहीं है। उसी तल को दिखाने की कोशिश मैं कर रहा हूं। वह भी तुम्हें दिखाई पड़ जाये गहरा तल, तो यह कहानी तुम्हारे लिए कयामत की रात हो सकती है। इसे पढ़कर तुम दूसरे ही आदमी हो जाओगे। तब यह तुम्हारी साधना बन जाती है।

भगवान : …कुछ और?

भगवान! क्या हम इस कहानी को एक सिद्धांत की तरह स्वीकार करके आगे बढ़ सकते हैं…?

सिद्धांत के रूप में कोई भी चीज स्वीकार करके कभी कोई आगे नहीं बढ़ता। सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने का अर्थ ही है कि तुमने अस्वीकार कर दिया, तुम समझे नहीं। खोज करनी पड़ेगी। इस कहानी के तत्व को जीवन में खोजना होगा। खोजोगे, तो ही सिद्धांत तुम्हें मिलेगा।

सिद्धांत शब्द बड़ा अदभुत है। इसका अर्थ है, जो सिद्ध हो गया, ऐसा अंत। सिद्धांत जैसा शब्द अंग्रेजी में या दूसरी भाषाओं में नहीं है। सिद्धांत का अर्थ प्रिंसिपल नहीं है। सिद्धांत का अर्थ तो होता है कि जिसे तुमने जीवन में सिद्ध कर लिया। जो तुम्हारा अनुभव हो गया, बस वही सिद्धांत है। तुम्हारे अनुभव के बिना कोई सिद्धांत, सिद्धांत नहीं है। बातचीत है, परिकल्पना है, थियरी है, शास्त्र है; सिद्धांत नहीं है। तुम्हें तो जीवन में खोजना पड़े। किसी भी कोने से खोजो, जल्दी पहुंच जाओगे।

जब तुम्हें क्रोध आए, तत्क्षण मन कहानी में उतरेगा। और तुम कहोगे कि इसने इस तरह की बात कही इसलिए क्रोध आया है। तब जरा गौर से देखना कि क्रोध क्या कोई दूसरा तुममें पैदा कर सकता है? क्रोध तुममें होगा तो दूसरा उभार सकता है। शायद और गहरे देखोगे तो तुम यह भी पाओगे कि क्रोध भी तुममें चाहिए और उभरने की क्षमता भी चाहिए, तो ही दूसरा उभार सकता है। तब दूसरे का क्या अर्थ रहा?

तब तुम ऐसी स्थितियां भी देखना, जब कि दूसरा है ही नहीं, तब भी तुम क्रोधित हो जाते हो। अगर तुम्हें चौबीस घंटे कमरे में बंद कर दिया जाये, जहां कोई भी न हो, तुम्हें कोई बाधा न देता हो, भोजन नीचे से सरका दिया जाता हो, पानी पहुंचा दिया जाता हो, सब सुविधा हो, तब भी तुम चौबीस घंटे में पाओगे कि कभी तुम क्रोधित हो जाते हो, कभी खिन्न हो जाते हो, कभी उदास हो जाते हो, कभी तुम अचानक पाते हो कि बड़ी प्रसन्नता है, बड़ी शांति है। कोई कारण नहीं है। जैसे सभी तुम्हारे भीतर से पैदा होता है। बाहर तुम सिर्फ निमित्त खोजते हो। बाहर तुम सहारे खोजते हो। तुम दूसरों के कंधों पर हाथ रखकर उन पर जुम्मेवारी छोड़ते हो।

बहुत-से प्रयोग किए गए हैं पश्चिम में, जिसको वे सेन्स डिप्राइवेशन कहते हैं। एंद्रिक अनुभूतियों को सब तरह से रोक दिया जाता है। इस तरह की छोटी-छोटी कोठरियां बनाई गई हैं, जिनमें सब सुविधा है। भोजन भी तुम्हें उठकर नहीं करना पड़ता, वह इन्जेक्शन तुम्हारे शरीर में चला जाता है। अंधकार है; न कोई ध्वनि सुनाई पड़ती है, न कोई ध्वनि बाहर जाती है–निर्ध्वनि की स्थिति है। तुम परम सुख की अवस्था में विश्राम कर रहे हो। कोई एंद्रिक संवेदना नहीं आती। और तुम्हारे मस्तिष्क से तार जुड़े हैं, जो खबर दे रहे हैं कि तुम्हारे मन की स्थिति प्रतिपल बदल रही है; और कारण कोई भी नहीं है वहां। कारण सब बंद कर दिए गए हैं। कभी तुम क्रोधित हो जाते हो, खबर देता है तार। ग्राफ पर खबर आती है कि तुम क्रोधित हो। शायद तुम कोई सपना देख रहे हो। शायद तुमको कोई दुश्मन मिल गया सड़क पर, जिसने कोई बात कह दी। कोई मिला नहीं है, तुम अंधेरे में अकेले पड़े हो। लेकिन अब तुम कल्पना कर रहे हो।

मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं, कि अगर इक्कीस दिन किसी व्यक्ति को पूरी तरह से इंद्रियों की संवेदना से शून्य रखा जाये, तो वह सपने खुली आंख से देखना शुरू कर देता है, बंद करने की जरूरत नहीं रहती। तब कोई सपना नहीं देखता, वह अनुभव करता है कि मित्र पास बैठा है, बातचीत हो रही है, उसने कुछ बात कह दी, नाराज हो गया।

पागलों को तुम जाकर देखो, वे यही कर रहे हैं। वह पागलपन तुम्हारे भीतर भी छिपा है। पागल मित्रों से बात कर रहे हैं, झगड़ रहे हैं दुश्मनों से। और कोई भी नहीं है वहां, वे अकेले हैं। इक्कीस दिन में तुम्हारी भी यही हालत हो जाती है कि तुम पागलों जैसे हो जाते हो, हेल्युसिनेशन पैदा हो जाता है। तब तुम्हें सपना नहीं होता, तुम वस्तुतः पाते हो कि मित्र सामने बैठा है, बातचीत हो रही है। उसने कुछ नाराजगी की बात कह दी, तुम क्रोधित हो गए, तुम मारने को खड़े हो गए। अभी तुम मन में यह सब बातें करते हो।

कभी तुमने खयाल किया कि जब तुम मारने की बात सोचते हो, तब तुम्हारे भीतर क्रोध उतना ही उठ आता है, जितना कि वस्तुतः मारने में उठता है! जब तुम कामवासना से भरते हो, तब तुम्हारा शरीर उसी तरह कामोत्तेजित हो जाता है, जैसा कामवासना से होता है। स्त्री की मौजूदगी जरूरी नहीं है, सिर्फ तुम्हारी कल्पना काफी है। यह भी हो सकता है, स्त्री निकली ही न हो, सिर्फ एक डंडे पर रंगा हुआ दुपट्टा निकला हो। लेकिन दुपट्टे से खयाल आ जाये स्त्री का, तो बस काम शुरू हो गया।

मन की क्षमता सारा संसार निर्मित करने की है। बाहर का संसार तो सिर्फ बहाना है। खूंटी की तरह उसका उपयोग है। तुम अपना क्रोध टांग देते हो, प्रेम टांग देते हो, घृणा टांग देते हो, लेकिन तुम उसे तैयार भीतर रखे हो। तो पहले तो जब क्रोध आए तब देखना कि सच में क्रोध दूसरे ने पैदा किया है, या मुझ में था! तब जरा भीतर खोज करना कि मैं कहीं दूसरे की प्रतीक्षा तो नहीं कर रहा था कि कोई जरा उकसा दे, तो जुम्मेवारी मुझ पर न रहे और मैं क्रोधित हो जाऊं! और तब एकांत में देखना कि क्रोध बिना कारण भी आता है; तब क्रोध तुम्हारी भीतरी क्षमता है, बाहर से उसका कोई भी संबंध नहीं।

इस तरह तुम खोजोगे अपने जीवन के अलग-अलग आयामों में, तब तुम्हें इस कहानी का सिद्धांत खयाल में आएगा। तब यह कहानी तुम्हारे लिए सिद्धांत हो जायेगी। लेकिन सिद्धांत से मेरा अर्थ थियरी से नहीं है। तब यह तुम्हारा अनुभव, प्रयोग हो जायेगा। तब तुम जानोगे। तब तुम्हें कोई समझाने की बात न रहेगी, तब यह एक तथ्य होगा, व्याख्या नहीं।

और जीवन में जो भी क्रांति आती है, वह व्याख्याओं से नहीं आती, तथ्यों से आती है। और हम तथ्यों से बचते हैं और व्याख्याओं को पकड़ते हैं। तुम इसे पकड़ ले सकते हो व्याख्या की तरह। तब तुम कोशिश करोगे इसे ठीक बिठाने की कि हां, यह बिलकुल ठीक है। लेकिन ठीक तो हमें उसी को बिठाना पड़ता है, जो ठीक नहीं है। जो ठीक है, उसे बिठाना नहीं पड़ता, वह प्रगट होने लगता है।

इस कहानी को तुम जीवन में खोजना। पहले से ठीक मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। अभी इसे कहानी ही रहने देना। अपने जीवन में खोजना और जब तुम जीवन में पाओ कि यही जीवन में घट रहा है, तब यह कहानी तत्क्षण रूप बदल लेगी, और सिद्धांत हो जायेगी।

बुद्ध ने, महावीर ने, क्राइस्ट ने, जीवन के जो भी परम तत्व हैं, छोटी-छोटी कहानी, पेरेबल्स में कहे हैं। वे इसीलिये पेरेबल्स में कहे हैं कि तुम इसे कहानी ही मानना, जब तक यह तुम्हारे जीवन का अनुभव न बन जाये। तब तक इसे सिद्धांत समझने की जरूरत नहीं है। तब तक यह बस एक कहानी है, एक मनोरंजन है। पर इससे तुम सूत्र पकड़ लेना और जीवन में खोजने निकल जाना।

थोड़ी परख करोगे, अगर कहानी में कहीं भी कोई सिद्धांत है, तो तुम्हें खयाल में आ जायेगा। और यही फर्क है नई और पुरानी कहानी में। पुरानी कहानियों के भीतर छिपे हुए तथ्य हैं। नई कहानी सिर्फ परिकल्पना है। पुरानी कहानी के भीतर कुछ सत्य छिपे हैं, रत्तीभर असत्य उनमें नहीं है। अगर कोई असत्य भी है, तो उनके रूप में है। जैसे ही तुम रूप के भीतर घुसोगे, पाओगे कि वहां सत्य की जलती आग है।

गुरजिएफ ने कला के दो विभाजन किए हैं: एक कला को वह कहता है, आब्जेक्टिव, तथ्यगत। और एक कला को वह कहता है, सब्जेक्टिव, आत्मगत। तो कहानियां दो तरह की हैं, चित्र दो तरह के हैं, कविताएं दो तरह की हैं। एक तो ऐसे चित्र हैं, जो कि तुम्हारे मन के रोग को बाहर पर्दे पर ले आते हैं, बस! जैसे पिकासो के चित्र हैं, वह आब्जेक्टिव नहीं हैं। इस सदी का बड़े से बड़ा चित्रकार किसी उपयोग का नहीं है। उसके जो भीतरी रोग हैं, उनको वह पेंट कर देता है। वह केथारसिस का काम कर रहे हैं। उससे पिकासो हलका अनुभव करता है। उसका रोग निकल गया। लेकिन उसे देखने वाला रोगग्रस्त होगा। अगर पिकासो के चित्र पर तुम ध्यान लगाकर देखो, तो थोड़ी ही देर में तुम्हारा सिर घूमने लगेगा। और तुम्हें लगेगा कि पागल हो जाऊंगा। अगर पिकासो की पूरी प्रदर्शनी में तुम घंटे दो घंटे रह जाओ, तो तुम बहुत थके हुए, खिन्न, उदास, जैसे तुम्हारी कोई शक्ति खो गई है, वापिस लौटोगे।

आधुनिक कला विक्षिप्तता जैसी है। क्योंकि कलाकर अपना रोग निकाल रहा है। आधुनिक कविता को तुम पढ़ो, तो पढ़कर तुम्हारे भीतर कोई फूल न खिलेंगे। आधुनिक कविता को पढ़कर तुम किसी शांति और किसी आनंद में मग्न न हो जाओगे। आधुनिक कविता तुम्हें ठीक लगेगी, क्योंकि तुम्हारा भी जीवन ऐसा ही खिन्न है, जैसी आधुनिक कविता खिन्न है; उन दोनों में तालमेल मिलेगा।

गुरजिएफ कहता है कि थोड़े से पुराने चित्र, पुरानी मूर्तियां, पुरानी कहानियां तथ्यगत हैं, आब्जेक्टिव हैं। उसमें किसी ने अपना रोग नहीं निकाला है बल्कि अपने जीवन के अनुभव को समाया है।

और जिसने यह सूफी कहानी लिखी, इसने जीवन का कोई सिद्धांत खोज लिया था अनुभव से। इसने जीवन की कोई पहचान कर ली, एक साक्षात्कार इसे हुआ। उस साक्षात्कार को इसने ऐसे शब्दों में रख दिया कि बच्चा भी समझ ले और बूढ़ा भी समझना चाहे तो बड़ी कठिनाई पाये। यह आब्जेक्टिव है। और सदियों-सदियों तक यह कहानी उस सत्य को छिपाए रहेगी।

और एक मजे की बात है; सिद्धांतों की भाषा हमेशा बदल जाती है, कहानी की भाषा कभी नहीं बदलती। इसलिये अगर दो हजार साल पुरानी सिद्धांत की भाषा तुम्हारी समझ में न आए, लेकिन दो हजार साल पहले की कहानी तुम्हें समझ में आएगी।

इसलिये बुद्ध ने, महावीर ने, जरथुस्त्र ने, क्राइस्ट ने अपना महत्वपूर्ण कहानियों में डाल दिया। और सूफी तो अदभुत कथाकार हैं। सूफियों ने तो आब्जेक्टिव आर्ट को इतनी गहराई में जन्म दिया है, जिसका कोई हिसाब नहीं। मगर वह खोता जाता है। क्योंकि हम…हमारे सामने भी खड़ा हो, जैसे ताजमहल खड़ा है–ताजमहल आब्जेक्टिव आर्ट का एक नमूना है, लेकिन किसी को उससे मतलब नहीं। बाकी तो कहानी है कि मुमताज के लिए उसके प्रेमी ने बनाया है। वह तो सब कहानी है। बनाया वह भी ठीक है, उस कहानी में कुछ असत्य भी नहीं है, पर वह तो ऊपरी रूपरेखा है।

ताजमहल पर अगर कोई ध्यान करे तो तत्क्षण शांत हो जाये। उसकी बनावट, और विशेष रातों में उससे उठती हुई जो आभा है–चांद और संगमर्मर का जो मेल है, पूरे चांद की रात में ताजमहल से ज्यादा शांत कोई मकान इस पृथ्वी पर नहीं होता। लेकिन वहां लोग पूर्णिमा की रात पहुंच भी जाते हैं, तो मूंगफली खाते रहते हैं, या रेडियो खोलकर सुनते रहते हैं। रेडियो घर ही सुना जा सकता था! या फिजूल की बकवास करते हैं। या राजनीति की चर्चा करते हैं। उन्हें पता भी नहीं कि वे एक बहुत बड़ी अनूठी आब्जेक्टिव कृति, एक तथ्यगत कृति के पास खड़े हैं, जिसमें ध्यान का राज छिपा है। यह कोई मुमताज के लिए नहीं बनाया गया है। वह तो बहाना है। मुमताज तो बहाना है। सूफी फकीरों ने शाहजहां का उपयोग कर लिया है और संगमर्मर में एक कहानी खड़ी कर दी है।

लेकिन सूत्र खो गए। जैसे यह कहानी बच्चे पढ़ रहे हैं।

नहीं, इसे सिद्धांत की तरह मानकर मत चलना। मानकर चलने से ही जीवन में भ्रांति शुरू होती है। मानने की कुछ जरूरत नहीं है, खोजने की–खोजना! एक दिन तुम पाओगे, यह कहानी सत्य है। उस दिन कहानी खो जायेगी, सिद्धांत बचेगा। और वह सिद्धांत जीवन को बदलने वाला हो सकता है। बदलेगा ही, निश्चित बदलेगा; क्योंकि जब भी तुम कुछ सत्य को देख लेते हो, तब तुम वही नहीं रह सकते, जो देखने के पहले थे।

सत्य का दर्शन, तुम्हारे पुराने को नष्ट कर देता है और नये को जन्म देता है।

आज इतना ही।


Filed under: बिन बाती बिन तेल--(झेन कहानियां) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अध्‍यात्‍म–उपनिषद–प्रवचन–9

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ब्रह्म की छाया संसार है—नौवां प्रवचन

 सूत्र :

मायोपष्टिर्जगद्योंनि: सर्वज्ञत्वादिलक्षण:।

पारोक्ष्यशबल: सत्याद्यात्मकस्तत्पदत्मिधः।। 30।।

आलम्बतनया भाति योsस्मत्सत्ययशब्दये।:।

अंतःकरणसंत्मईन्नबा: एधः अ त्वपदत्मिधः।। 31।।

मायाऽविद्ये विहायैव उपाधी परजींवयो:।

अखंड सच्चिदानन्दं परं क्ल विलक्ष्मते।। 32।।

 मायारूप उपाधि वाला, जगत का उत्पत्ति स्थान, सर्वज्ञता आदि लक्षणों से युक्त, परोक्षपन से मिश्र और सत्य आदि स्वरूप वाला जो परमात्मा है, वही तत् शब्द से प्रसिद्ध है।

और जो मैं ऐसे अनुभव तथा शब्द का आश्रय जान पड़ता है, जिसका ज्ञान अंतःकरण से मिथ्या है, वह (जीव) त्वम् शब्द से पुकारा जाता है।

इस परमात्मा को माया और जीव को अविद्या—ऐसी दो उपाधि हैं, इनको त्याग करने से अखंड सच्चिदानंद परम ब्रह्म ही जान पड़ता है।’

 

श्वर को पुकारा गया है बहुत नामों से। अनेक—अनेक संबंध मनुष्य ने ईश्वर के साथ स्थापित किए हैं। कहीं ईश्वर को पिता, कहीं माता, कहीं प्रेमी, कहीं प्रेयसी भी, कहीं मित्र, कहीं कुछ और, ऐसे बहुत—बहुत संबंध आदमी ने परम सत्य के साथ स्थापित करने की कोशिश की है। लेकिन उपनिषद अकेले हैं इस पूरी पृथ्वी पर, जिन्होंने परमात्मा को सिर्फ कहा है दैट, वह; तत्। कोई संबंध स्थापित नहीं किया।

इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। यह बडी गहरी अंतर्दृष्टि है। परमात्मा को हम प्रेम से पिता, माता पुकार सकते हैं, लेकिन उस पुकारने में समझ कम और नासमझी ज्यादा है। परमात्मा से हम कोई भी संबंध स्थापित करें, वह नासमझी का है। क्यों? क्योंकि संबंध में एक अनिवार्य बात है कि दो की मौजूदगी होनी ही चाहिए; संबंध बनता ही दो से है। मैं हू मेरे पिता हैं, तो दोनों का होना जरूरी है। मैं हूं या मेरी मां है, तो दो का होना जरूरी है। परमात्मा के साथ ऐसा कोई भी संबंध सही नहीं है, ऐसा कोई भी संबंध संभव नहीं है, जिसमें हम दो रह कर संबंधित हो पाएं। उसके साथ तो खोकर ही संबंधित हुआ जा सकता है, अलग रह कर संबंधित नहीं हुआ जा सकता।

इस जगत के सारे संबंध अलग रह कर ही संबंध होते हैं। परमात्मा के साथ जो संबंध है, वह लीन होकर, खोकर, एक होकर स्थापित होता है। यह बडी उलझन की बात है। संबंध के लिए दो का होना जरूरी है। इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा से कोई संबंध कभी स्थापित नहीं हो सकता। अगर संबंध के लिए दो का होना जरूरी है, तो परमात्मा से फिर कोई संबंध स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि परमात्मा से तो मिलन ही तब होता है जब दो मिट जाते हैं और एक रह जाता है।

कबीर ने कहा है? खोजने निकला था, बहुत खोज की और तुझे नहीं पाया। खोजते —खोजते खुद खो गया, तब तू मिला। वह जो खोजने निकला था, वह जब तक था, तब तक तुझसे कोई मिलना न हुआ; और जब खोजते —खोजते तू तो न मिला, लेकिन खोजने वाला खो गया, तब तुझसे मिलना हुआ।

इसका तो मतलब यह हुआ कि मनुष्य का परमात्मा से मिलना कभी भी नहीं होता है। क्योंकि जब तक मनुष्य रहता है, परमात्मा नहीं होता। और जब परमात्मा होता है तो मनुष्य नहीं होता। दोनों का मिलना कभी नहीं होता। इसलिए इस जगत के जितने संबंध हैं, उनमें से कोई भी संबंध हम परमात्मा पर लागू करके भूल करते हैं। पिता से मिला जा सकता है बिना मिटे; मिटना कोई शर्त नहीं है। माता से मिला जा सकता है बिना मिटे, मिटना कोई शर्त नहीं है। लेकिन परमात्मा से मिलने की बुनियादी शर्त है मिट जाना। संबंध होता है दो के बीच, और परमात्मा से संबंध होता है तब, जब दो नहीं होते। इसलिए संबंध बिलकुल उलटा है।

उपनिषदों ने परमात्मा नहीं कहा, पिता नहीं कहा, माता नहीं कहा, कोई मानवीय संबंध स्थापित नहीं किए। सब मानवीय संबंध स्थापित करना, समाजशास्त्री कहते हैं, एंक्षोपोसेन्ट्रिक है, मानव—केंद्रित है। आदमी अपने को ही थोपता चला जाता है हर चीज में।

इस एंथ्रोपोसेन्ट्रिक, यह मानव—केंद्रित जो दृष्टि है, इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए, क्योंकि आधुनिक मनसशास्त्र, समाजशास्त्र इस शब्द से बहुत प्रभावित हैं और इसका बड़ा मूल्य स्वीकार करते हैं। आदमी जो कुछ भी देखता है, उसमें आदमी को आरोपित कर लेता है। चांद पर बादल घिरे हों, तो हम कहते हैं, चांद का मुखड़ा घूंघट में छिपा है। न वहा कोई मुखड़ा है और न वहा कोई घूंघट है। पर आदमी अपने अनुभव को, स्वाभाविक, स्वाभाविक, स्वभावत:, अपने अनुभव को आरोपित कर लेता है, हर चीज को! चंद्रमा पर ग्रहण लगा हो, तो हम कहते हैं, राहू—केतु ने ग्रस लिया, दुश्मन चंद्र के उसके पीछे पड़े हैं।

आदमी—आदमी की ही भाषा में सोच सकता है। इसलिए हम अपने चारों तरफ जो भी देखते हैं, उसमें हम अपने को आरोपित करते चले जाते हैं। पृथ्वी को हम माता कहते हैं; आरोपण है। आकाश को हम पिता कहते हैं, आरोपण है। और हम खोजने जाएंगे तो आदमी ने जो —जो संबंध निर्धारित किए हैं अपने जगत से, उन सब में अपने ही संबंधों को स्थापित कर दिया है।

फ्रायड कहता है कि ईश्वर की जो बात है, वह असल में पिता का सब्‍स्‍टीटयूट है, परिपूरक है। बच्चा पैदा होता है। असहाय होता है, कमजोर होता है, असुरक्षित होता है; पिता वरदहस्त बन जाता है, बचाता है, बड़ा करता है; उसकी छाया में बड़ा होता है। छोटा बच्चा अपने पिता को परम शक्ति मानता है; उससे बड़ा कोई दुनिया में नहीं। इसलिए छोटे बच्चे अक्सर विवाद करते रहते हैं कि किसका पिता बड़ा है। हर बच्चा दावा करता है, मेरा पिता बड़ा है। और हर बच्चे को लगता है कि उसके पिता से बडा और क्या हो सकता है! आखिरी, अल्टीमेट, जो आखिरी बात हो सकती है शक्ति की, वह पिता के हाथ में है।

बचपन में बच्चा सहारा लेकर बड़ा होता है पिता का। भरोसा, आस्था, आदर, सब उसका पिता के प्रति होता है। अगर पिता उसका हाथ पकड़ कर आग में भी चला जाए, तो वह मजे से हंसता हुआ चला जाएगा; क्योंकि जहा पिता जा रहा है, वहा जाने में कोई अड़चन नहीं है। अभी न कोई संदेह जगा है, न अभी कोई अनास्था पैदा हुई है; अभी पिता परम श्रद्धा का पात्र है।

लेकिन जैसे—जैसे बच्चा बड़ा होगा, यह श्रद्धा टूटने लगेगी; पिता की कमजोरियां दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी। सबसे पहली कमजोरी तो यह दिखाई पड़ेगी कि जैसे ही बच्चा थोड़ा बडा होगा और समझेगा, तो पाएगा कि सौ में नब्बे मौके पर माता ज्यादा ताकतवर है, पिता कमजोर है। सौ में नब्बे, निन्यानबे मौके पर पाएगा कि पिता की सब अकड़—धकड़, शान—शौकत, वह सब बाहर—बाहर है घर के, घर के भीतर वह दब कर आता है, डरा हुआ आता है। उसकी श्रद्धा में पहली अड़चन हो जाएगी। फिर जैसे—जैसे बड़ा होगा, समझ बढ़ेगी, देखेगा कि पिता का भी बीस है, जिसके सामने पिता बिलकुल खड़ा हुआ कंपता है।

तो बचपन में जो श्रद्धा पोसी थी पिता के प्रति, वह पिता से हट जाएगी, खाली हो जाएगी। वह खाली श्रद्धा ही आदमी—फ्रायड के हिसाब सें—परमात्मा पर थोपता है, एक कल्पित पिता पर, ताकि मन खाली न रह जाए। इसलिए आदमी परमात्मा को पिता कहते हैं, कि वह परम पिता है, महान शक्तिशाली है।

खयाल रखें, बच्चे जो—जो गुण पिता में बताते हैं, वही गुण धार्मिक लोग परमात्मा में बताते हैं। और जैसे बच्चे लड़ते हैं कि हमारा पिता बड़ा, ऐसे ही हिंदू र मुसलमान, ईसाई लड़ते हैं कि हमारा पिता बड़ा! किसका ईश्वर बड़ा? वे सब बचकानी बातें हैं। मगर ईश्वर की धारणा पर पिता का आरोपण ही बचकाना है, वह बच्चे की ही बुद्धि से पैदा हुआ है।

तो फ्रायड ने तो कहा कि जब तक बच्चों को उनके पिता के पास बड़ा किया जाता है, तब तक परमात्मा से छुटकारा बहुत मुश्किल है। वह पिता का ही रूप है।

इसमें थोड़ी सचाई मालूम पड़ती है। क्योंकि जिन समाजों में मातृ—सत्ताक व्यवस्था है, मेट्रिआकल सोसाइटी जहा है, जहा मां प्रधान है और पिता गौण है, वहा कोई परमात्मा को पिता नहीं कहता, वहा परमात्मा को माता कहा जाता है। इससे बात जाहिर होती है कि फर्क। जैसे काली के पूजक हैं, वे मां के रूप में देखते हैं परमात्मा को, पिता के रूप में नहीं। ये काली के पूजक् मातृ —सत्ताक समाज से आते हैं, जहा मा प्रधान है, जहां पिता गौण है। अभी भी समाज हैं जमीन पर, जहां मां प्रधान है और पिता गौण है। उन सभी समाजों में ईश्वर की धारणा मां की है, पिता की नहीं है।

इससे फ्रायड की बात को थोडा सहारा मिलता है कि बचपन में कोई धारणा निर्मित होती है। और बचपन बहुत कीमती क्षण हैं, क्योंकि बचपन में जो भी बन जाता है ढांचा, पैटर्न चित्त का, उसमें जब भी कमी होती है तो बेचैनी मालूम पड़ती है। उस कमी को पूरा करना जरूरी हो जाता है। और आदमी जिंदगी भर अपने बचपन में बनाए हुए ढाचे को पूरा करने की कोशिश करता रहता है।

इससे एक और मजेदार बात आपको खयाल में लेनी चाहिए। जिन समाजों में परिवार उखड़ गया है—जैसे आज अमरीका में परिवार उखड़ा हो गया है, जडें टूट गई हैं, न बच्चों को पिता की फिक्र है, न मां की, न मां और बाप को बहुत फिक्र है बच्चों की, बीच का संबंध शिथिल हो गया है—उन समाजों में ईश्वर की धारणा भी शिथिल हो जाती है। जहां परिवार डगमगाका, वहा परमात्मा भी डगमगा जाता है। वहां नास्तिकता फैल जाती है। जिन समाजों में पिता का बल बहुत प्रगाढ है और पिता की आशा सर्वोपरि है और अनुशासन सुनिश्चित है, उन समाजों में नास्तिकता पैदा नहीं होती।

तो फ्रायड इससे जो निष्कर्ष निकालता है, वे अदभुत हैं, लेकिन आधे सच हैं। उसकी इस बात में सचाई है कि परमात्मा में पिता देखना, यह मनुष्य के मानसिक अभाव को भरने की चेष्टा है। लेकिन फ्रायड कहता है, बस परमात्मा इतना ही है, यहां भूल हो जाती है।

आदमी पृथ्वी को माता कहे, यह आदमी की बात है, लेकिन पृथ्वी को माता कहने से पृथ्वी नहीं नहीं हो जाती। आदमी परमात्मा को पिता कहे, माता कहे, जो कहना चाहे कहे। यह उसके परिवार, उसके बचपन, उसके मनस का विस्तार हो सकता है, लेकिन जिस पर यह विस्तार होता है वह परमात्मा गलत नहीं हो जाता। उसको हम क्या नाम देते हैं, वह हम पर निर्भर है, लेकिन उसका होना हम पर निर्भर नहीं है।

उपनिषद को अगर फ्रायड जानता होता तो बडी मुश्किल में पड़ता, क्योंकि उपनिषद कोई संबंध ही निर्मित नहीं करता। फ्रायड ने अगर उपनिषद पढे होते तो आधुनिक मनोविज्ञान की कथा दूसरी होती, क्योंकि फ्रायड ईमानदार आदमी था। और अगर उसे यह पता भी चल जाता कि कोई एक ऐसी परंपरा भी है विचार की, चितना की, अनुभव की, जो किसी तरह का संबंध ईश्वर से निर्धारित नहीं करती, बिलकुल इम्पर्सनल शब्द का उपयोग करती है : तत्। ईश्वर यानी वह, दैट। इससे ज्यादा इम्पर्सनल संबोधन, निवैंयक्तिक संबोधन दूसरा नहीं हो सकता। तो फ्रायड को तब बड़ी मुश्किल होती कि ये कौन लोग हैं जिन्होंने वह कहा ईश्वर को! वह का मतलब कोई नाम नहीं दिया, सिर्फ इशारा किया। वह कोई नाम नहीं है, सिर्फ इशारा है, सिर्फ अंगुली—निर्देश है।

निश्चित ही, बचपन के किसी अभाव से यह बात पैदा नहीं हो सकती, वह। मां का खयाल आ सकता है। पिता का खयाल आ सकता है, लेकिन वह, इसका बचपन के मनोविज्ञान से कोई भी संबंध नहीं। सच तो यह है, इसका कोई भी संबंध मनुष्य से नहीं, इसका कोई भी संबंध मनोविज्ञान से नहीं। इसका संबंध तो मन के पार जो गए हैं, उनके अनुभव से है; मनुष्य के पार जो गए हैं, उनके अनुभव से है।

यह मनुष्य और मन शब्द को भी समझ लेना चाहिए। हमने इस मुल्क में मनुष्य कहा है आदमी को। सिर्फ इसीलिए कहा है कि जो मन से घिरा है, जो मन में ही जी रहा है, मन ही जिसका ओरिएंटेशन है, मन से ही जो रस पाता है, इसलिए हमने उसे मनुष्य कहा है। अंग्रेजी का मैन भी मन का ही रूपांतरण है, और संस्कृत के ही शब्द की यात्रा है।

मन ही मनुष्य है। जहा मन का अतिक्रमण होता है, वहां मनुष्यता का भी अतिक्रमण हो जाता है। यह उन लोगों का वक्तव्य है जो मनुष्य के पार गए, मन के पार गए, और उन्होंने इशारा किया : वह।

पर इसमें कई बातें सोच लेने जैसी हैं। पिता की पूजा हो सकती है, वह की पूजा कैसे करिएगा! पिता का मंदिर बन सकता है, मा का मंदिर हो सकता है, वह का मंदिर कैसे बनाइका! या बना सकते हैं? वह! इसका कैसे मंदिर बने? पुरुष, स्त्री, माता, पिता, इनकी शतइrयां बन सकती हैं, वह की क्या मूर्ति बनाइगा? उपनिषद से बड़े मूर्तिभंजक शास्त्र दूसरे नहीं हैं, हालांकि एक शब्द नहीं कहा है उन्होंने कि मृर्ति की पूजा मत करना।

यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। मुसलमान मूर्ति को तोड़ने में लगे रहे हैं, सिर्फ इसीलिए कि मोहम्मद ने कहा उसकी कोई स्तुतइr नहीं हो सकती। मोहम्मद की वाणी ठीक उपनषिद की बात है, कि उसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती। लेकिन जिसकी मूर्ति बन नहीं सकती, उसकी मूर्ति तोड़ी जा सकती है यह मुसलमान मानते हैं। जिसकी बन ही नहीं सकती उसकी तोड़ी क्या खाक जा सकती है! तो एक तरह के पागल बनाने में लगे हैं, दूसरी तरह के पागल मिटाने में लगे हैं!

यह बड़े मजे की बात है कि मूर्तिभंजक भी ग्रतइrपूजक ही होता है। वह जो मूर्ति को तोड़ने जाता है, वह भी मूर्ति को मानता तो है ही, कम से कम तोड़ने योग्य मेहनत तो उठाता ही है। इतना तो भरोसा उसका भी है। फर्क क्या है? एक पूजा के फूल रखने जाता है, एक जाकर हथौडे से सिर तोड़ आता है।

छैनियों और हथौड़ों से ही ये मूर्तियां बनती हैं और छैनी—हथौडों से ही तोड़ी जाती हैं। दोनों की आस्था में बहुत फर्क नहीं है। दोनों मानते हैं कि ग्रतइr में कोई महत्व है। पूजा करने वाला मानता है कि महत्व है, तोड़ने वाला भी मानता है कि महत्व है। कभी—कभी तो तोड़ने वाला ज्यादा महत्व मानता है, क्योंकि पूजा करने वाला जीवन को संकट में नहीं डालता मूर्ति के लिए, तोड़ने वाला जीवन को संकट में डालता है। जान लगा देता है अपनी उसको तोड़ने में, कुरान कहती है कि जिसकी कोई शतइr ही नहीं हो सकती। तो किसकी मूर्ति तोड़ते हो?

उपनिषद न तो मूर्तिपूजक हैं और न मूर्तिभंजक। उपनिषद की दृष्टि रूप, आकार, मूर्ति के बिलकुल पार चली गई है। कहा वह, दैट, तत्। इसकी क्या मूर्ति बन सकती है? इसकी कोई मूर्ति नहीं बन सकती। वह रूप नहीं है। वह का कोई रूप है? आकार है? वह कोई रूप नहीं है, वह निराकार है। शब्द भी निराकार है वह। उसका अगर बनाना भी चाहें कोई रूप तो बनेगा नहीं। है क्या यह वह, तत्? इशारा है, जैसे किसी ने अंगुली की और कहा दैट, वह।

विटगिन्सटीन एक बहुत अदभुत आधुनिक चिंतक हुआ। इस सदी में जो बडे से बडे तर्क के जन्मदाता हुए, उनमें विटगिन्सटीन है। विटगिन्सटीन ने अपनी बहुमूल्य, इस सदी में लिखी गई दो —चार, पांच किताबों में एक मूल्यवान किताब, टैक्टेटस लाजिकस में लिखा है, कि कुछ बातें ऐसी हैं जो कही नहीं जा सकतीं, सिर्फ उनकी तरफ इशारा किया जा सकता है। देअर आर थिंग्स व्हिच कैन नाट बी सेड, बट स्टिल दे कैन बी शोड। कहा तो नहीं जा सकता उनके बाबत कुछ, लेकिन इशारा किया जा सकता है। उपनिषद इशारा करते हैं परमात्मा की तरफ, कहते कुछ भी नहीं हैं। सिर्फ इशारा है. वह। इस इशारे में कई बातें निहित हैं, वह खयाल में ले लें।

एक तो यह बात निहित है कि उससे कोई संबंध नहीं जोड़ा जा सकता। इसलिए उपनिषद नहीं कहते, तू! उपनिषद नहीं कहते, तू; तू से संबंध बन जाता है मैं का। जहा तू है, वहा मैं भी होगा। तू बिना मैं के नहीं हो सकता। जब भी मैं किसी से कहता हूं —तुम, तू; तब मैं आ गया; तब मैं मौजूद हो गया। मेरे ही संबंध में कोई तू होता है, और किसी तू के संबंध में मैं होता हूं। मैं और तू गठजोड़ा है दोनों का; एक साथ होते हैं। वह अकेला है। उसके साथ किसी दूसरे के होने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह से कोई ध्वनि नहीं निकलती कि कोई और भी है। जब भी हम कहते हैं तू तो जिससे भी हम कहते हैं, वह हमारे ही तल पर आ जाता है। हम और वह साथ—साथ खड़े हो जाते हैं। जब हम कहते हैं वह, तो हमारे तल से उसका कोई भी संबंध नहीं जुड़ता। वह कहा है? नीचे है, ऊपर है, साथ है? कुछ पता नहीं चलता। उपनिषदों ने बहुत सोच कर तत् कहा है ब्रह्म को। इस सूत्र को हम समझें।

‘मायारूप उपाधि वाला, जगत का उत्पत्ति स्थान, सर्वज्ञता आदि लक्षणों से युक्त, परोक्षपन से मिश्र, सत्य आदि स्वरूप वाला जो परमात्मा है, वही तत् शब्द से प्रसिद्ध है।’

‘और जो मैं ऐसे अनुभव तथा शब्द का आश्रय जान पड़ता है, जिसका शान अंतःकरण से मिथ्या है, वह (जीव) त्वम् शब्द से पुकारा जाता है।’

त्वम्; दाऊ; तू।

जब भी हम किसी को कहते हैं तू त्वम्, दाऊ, वैसे ही हमने स्वीकार कर लिया सीमा को। दूसरा हमें पूरा—पूरा दिखाई पड़ रहा है। उसका आकार है, शरीर है। आप किसी अशरीरी अस्तित्व को तू नहीं कह सकते। आकाश की तरफ आख उठा कर तू कहिए तो पता चलेगा। कोई अर्थ नहीं होता। आकाश से कैसे तू कहिएगा? कोई संबंध नहीं जुड़ता। इतना विस्तार है, कोई सीमा नहीं दिखाई पडती, तू का संबंध नहीं जुड़ता। तू का संबंध वहीं जुड़ता है, जहां आकार हो। परमात्मा तो आकाश से भी विस्तीर्ण है। आकाश भी जहां एक घटना है। इस परमात्मा के साथ त्वम् का कोई संबंध नहीं जुड़ता है, तू का कोई संबंध नहीं जुड़ता है।

इसलिए भी नहीं जुड़ता है कि परमात्मा के सामने खड़े होकर मैं की कोई याद नहीं बच सकती है कि मैं हूं। जिसे अभी भी खयाल है कि मैं हूं, वह परमात्मा को देख ही नहीं पाएगा। मैं ही तो पर्दा है, मैं ही तो बाधा है। जब तक मैं है, तब तक मैं तू को ही देखूंगा सब जगह, तब तक निराकार से मेरा संबंध नहीं होगा, आकार से ही मेरा संबंध होगा।

ध्यान रहे, इसे एक सूत्र, गहरा सूत्र समझ लें कि जो मैं हूं, जैसा मैं हूं? जहा मैं हूं उसी तरह के संबंध मेरे निर्मित हो सकते हैं। अगर मैं मानता हूं मैं शरीर हूं, तो मेरे संबंध केवल उनसे ही हो सकते हैं जो शरीर हैं। अगर मैं मानता हूं कि मैं मन हूं, तो मेरे संबंध उनसे होंगे जो मानते हैं कि मन हैं। अगर मैं मानता हूं कि मैं चेतना हूं, तो मेरे संबंध उनसे हो सकेंगे जो मानते हैं कि वे चैतन्य हैं। अगर मैं परमात्मा से संबंध जोड़ना चाहता हूं तो मुझे परमात्मा की तरह ही शून्य और निराकार हो जाना पड़ेगा जहा मैं की कोई ध्वनि भी न उठती हो, क्योंकि मैं आकार देता है। वहा सब शून्य होगा तो ही मैं शून्य से जुड़ पाऊंगा। निराकार भीतर मैं हो जाऊं, तो ही बाहर के निराकार से जुड़ पाऊंगा। जिससे जुड़ना हो, वैसे ही हो जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। जिसको खोजना हो, वैसे ही बन जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।

दो शब्द : तत् और त्वम्। जीव को हम कहते हैं त्वम्; उस चेतना को जो शरीर में घिरी है, सीमित है। और उस चेतना को हम कहते हैं तत्, जो सब सीमाओं के पार विस्तीर्ण है, असीम है। बूंद को हम कहते हैं त्वम् और सागर को हम कहते हैं तत्। अणु को हम कहते हैं त्वम् और विराट को हम कहते हैं तत्। जो क्षुद्र है, उसे हम कहते हैं त्वम्; और जो विराट है, उसे हम कहते हैं तत्।

यह तत् पर, वह पर, दैट पर क्यों इतना आग्रह उपनिषदों का है? आपसे कोई अपेक्षा उपनिषद की नहीं है कि आप परमात्मा की पूजा में, प्रार्थना में लग जाएं। नहीं, उपनिषद की अपेक्षा आपसे कोई परमात्मा की भक्ति करने के लिए नहीं है। उपनिषद की अपेक्षा तो आपसे है कि आप परमात्मा हो जाएं।

इस फर्क को थोड़ा ठीक से समझ लें।

उपनिषद की महत्वाकांक्षा अंतिम है, चरम है, इससे बड़ी कोई महत्वाकांक्षा जगत में कभी पैदा नहीं हुई। आप परमात्मा की पूजा करें, प्रार्थना करें, भक्ति करें, उपनिषद इससे राजी नहीं है। उपनिषद कहता है, जब तक परमात्मा ही न हो जाएं, तब तक परम सत्य हाथ नहीं लगता है। उपनिषद मानता है कि परमात्मा हुए बिना नियति पूरी नहीं होती है। वह का मतलब है कि हम कोई पूजा का, कोई भक्ति का संबंध परमात्मा से जोड़ने नहीं जा रहे हैं, वह से संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता, हम सब संबंध छोड़ने जा रहे हैं। हम अंत में अपने को भी छोड़ देंगे, ताकि संबंधित होने वाला ही न रहे और संबंध भी न हो सके। और अंततः हम वही हो जाएंगे जिसको हमने वह कह कर पुकारा है।

इसलिए बात कठिन भी हो जाती है, क्योंकि धर्म से हमारी धारणा आमतौर से होती है भक्ति की, धारणा आमतौर से होती है पूजा —प्रार्थना की, स्तुति की। उपनिषद की धर्म से धारणा पूजा, स्तुति, प्रार्थना की बिलकुल नहीं है। उपनिषद की धारणा है प्रत्येक व्यक्ति में छिपा हुआ वह, तत्—उसको उघाड़ने, उदघाटित करने की।

उपनिषद धर्म का विज्ञान है। जैसे विज्ञान पदार्थ के भीतर छिपे हुए सत्य को खोजता है। जैसे विज्ञान पदार्थ को तोड़ता है, अणु—अणु को तोड़ता है और उसके भीतर छिपी हुई ऊर्जा का पता लगाता है, नियम की खोज करता है। किस नियम के आधार पर पदार्थ चल रहा है, इसका अन्वेषण करता है —वैसे ही उपनिषद चेतना के अणु—अणु में प्रवेश करते हैं। और चैतन्य का क्या नियम है, और चैतन्य कैसे जगत में गतिमान है, कैसे स्थिर है, कैसे छिपा है, कैसे प्रकट है, इसकी खोज करते हैं।

विज्ञान की भाषा है उपनिषद की भाषा। अगर एक वैज्ञानिक हाइड्रोजन खोज लेता है, या एक वैज्ञानिक एटामिक एनर्जी खोज लेता है, तो वह ऐसा नहीं कहता कि एटामिक एनर्जी मेरी मां है कि मेरा पिता है; कोई संबंध नहीं जोड़ता। वह! एक नियम है जो उसने खोज लिया। उससे कोई संबंध बनाने की बात नहीं है। उससे कोई राग की भाषा नहीं निर्मित करता। और विज्ञान राग की भाषा निर्मित करे तो विज्ञान न रह जाए। राग, संबंध, अवैज्ञानिक है; विकृत करेगा सत्य को। इसलिए दूर, तटस्थ खड़े रह कर संबंध से विज्ञान के सत्य को देखना होगा वैज्ञानिक को, कोई निकट जाकर अपना आत्मीय संबंध निर्मित नहीं करना है।

उपनिषद भी विज्ञान की भाषा बोलते हैं। कहते हैं. वह। कोई संबंध नहीं जोड़ते। अपने को अलग रख लेते हैं, दूर हटा लेते हैं। जब उपनिषद कहता है वह, तो हमें पता भी नहीं चलता कौन कह रहा है। जब कोई कहता है पिता, परम पिता है परमात्मा, तो हमें पता चलता है कौन कह रहा है। कोई, जिसकी पिता की वासना पूरी नहीं हुई।. कोई, जिसका पुत्रपन अधूरा रह गया। कोई, जिसे मां—बाप का प्यार न मिला हो। कोई, जिसे ज्यादा प्यार मिल गया हो और अपच हो गया हो। लेकिन कोई, जिसके संबंध में पिता और जिसके संबंध में कहीं न कहीं कोई अड़चन हो गई है, वही पुकार रहा है। लेकिन जब कोई कहता है वह, तो बोलने वाले का कोई पता नहीं चलता, कौन पुकार रहा है। उसके बाबत कोई खबर नहीं मिलती। इशारा बड़ा निवैंयक्तिक है, और इसलिए बहुमूल्य है।

और जैसे ही हम कहते हैं वह, झगड़ा समाप्त हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है। अगर ईश्वर को हम तत् कहें, तो हिंदू —मुसलमान लड़े कैसे? ईसाई के तत् में और हिंदू के तत् में क्या फर्क होगा? ईसाई कहे परमात्मा को वह, हिंदू कहे परमात्मा को वह, मुसलमान कहे परमात्मा को वह, तो तीनों में कोई भी झगड़ा नहीं हो सकता। चाहे वह के लिए कोई भी शब्द उपयोग किया जाए। तत् कहे कोई, दैट कहे कोई, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, झगड़ा नहीं हो सकता।

लेकिन जब मुसलमान कहता है उसे कुछ, हिंदू कहता है कुछ, ईसाई कहता है कुछ; जब पिता कहते हैं वे, तो पिता के साथ ही उन सबकी धारणाएं बदल जाती हैं। यह बहुत सोचने जैसी बात है। फ्रायड ने कहा है कि जब भी कोई परमात्मा को पिता कहता है, तो थोड़ा विचार करे भीतर, वह अपने परमात्मा की धारणा में अपने पिता की तस्वीर को पाएगा। पाएगा ही! जब आप कहेंगे मां, तो आपकी मां उपस्थित हो जाएगी। आपकी मां की धारणा क्या है? तो थोड़ा—बहुत परिष्कार करके, शुद्ध करके, साफ—सुथरा करके, रंग—रोगन करके, अपनी ही मां की धारणा को आप परमात्मा बना लेंगे।

दिदरो ने, एक फ्रेंच विचारक ने बहुत गहरी मजाक की है। उसने कहा है कि अगर घोड़े अपना परमात्मा बनाएं, तो उनकी शकल घोड़ों की ही होगी—परमात्मा की शकल! कोई घोड़ा आदमी की शकल का परमात्मा नहीं बना सकता, यह पक्का है। और यह हम जानते हैं। नीग्रो परमात्मा को बनाता है, तो उसके बाल घुंघराले होते हैं, होने वाले हैं। उसके ओंठ नीग्रो के ओंठ होंगे। उसकी शकल काली शकल होगी, नीग्रो की शकल होगी। चीनी परमात्मा की शकल बनाते हैं, तो गाल की हड्डिया निकली हुई होंगी ही। क्योंकि परमात्मा, और चीनी न हो, यह भी हो सकता है!

हमारी ही धारणा तो हम आरोपित करेंगे। अंग्रेज कभी कल्पना कर सकते हैं काले परमात्मा की! कोई उपाय नहीं है। हिंदुओं ने परमात्मा की जो कल्पना की है, वह आप देखते हैं! कृष्ण हैं, राम हैं, सब श्याम—वर्ण हैं! श्याम —वर्ण हिंदुओं के मन में खूब सौंदर्य का प्रतीक रहा है। रहेगा! नाक—नक्यग़ आप देखते हैं! वह जो हिंदू चित्त की धारणा है सौंदर्य की, वही राम और कृण पर रहेगी। होगी ही!

आपने राम, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद, कभी खयाल किया कि इनके कान बहुत बड़े —बडे नहीं हैं, छोटे हैं। लेकिन आपने बुद्ध, महावीर, इनकी मूर्तियां देखी हैं, कान कंधे को छूते हैं! क्योंकि जैनों और बौद्धों की धारणा है कि जो तीर्थंकर होता है, उसका कान कंधे को छूता है। इसका कुल कारण इतना ही मालूम होता है कि उनका जो पहला तीर्थंकर है जैनों का, उसके कान लंबे रहे होंगे, कंधे को छुए होंगे। फिर वह धारणा बन गई। और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि चौबीस ही तीर्थंकरों के कानों ने कंधे को छुआ होगा। लेकिन एक दफा धारणा बन जाए तो फिर मूर्तियां धारणा के अनुसार बनती हैं, व्यक्तियों के अनुसार नहीं बनतीं।

इसलिए अगर आप जैनों की चौबीस मुर्तियों को देखें तो आप बता नहीं सकते कि कौन सी मूर्ति महावीर की, कौन सी पार्श्व की, कौन सी नेमी की है। कोई नहीं बता सकते, जब तक कि नीचे का आप प्रतीक न देखें कि चिह्न किसका बना है। मुर्तियां सब एक जैसी हैं।

एक धारणा तय हो जाती है, फिर उस धारण के अनुसार हम चलते और जीते हैं। हमारे सब परमात्मा हमारी धारणाओं से निर्मित हो जाते हैं। लेकिन वह की कोई धारणा नहीं हो सकती। इसलिए जिस दिन दुनिया में कभी सार्वभौम धर्म का उदय होगा, उस दिन उपनिषद पहली दफा ठीक से समझे जाएंगे। उस दिन हम समझेंगे कि उपनिषदों ने पहली दफा वैतानिक भाषा का प्रयोग किया है और आदमी का वह जो गथोपोसेष्ट्रिक, मनुष्य—केंद्रित जो भाषा का जाल है, उसको बिलकुल छोड़ दिया है, उसको हटा दिया है। ‘इस परमात्मा को माया और जीव को अविद्या—ऐसी दो उपाधि हैं, इनको त्याग करने से अखंड सच्चिदानंद परम ब्रह्म का अनुभव होता है। ‘

यह थोड़ा कठिन सूत्र है। परमात्मा को माया की उपाधि है और जीव को अविद्या की। उपाधि कहें, बीमारी कहें। परमात्मा को माया की उपाधि है…।

यह, इस प्रत्यय में प्रवेश करना पड़ेगा। थोड़ा जटिल है और सूक्ष्म है। और मनुष्य के मन में अनेक—अनेक ऊहापोह हुए हैं। थोड़ा ऊहापोह समझ लें, फिर इसमें उतर जाएं।

एक कठिनाई सदा से रही है चिंतनशील आदमी के सामने कि अगर हम परमात्मा को मानें तो जगत को मानना बहुत मुश्किल हो जाता है, और अगर हम परमात्मा को मानें तो जगत की व्याख्या कठिन हो जाती ‘है। अब जैसे, अगर परमात्मा ने जगत बनाया तो इतनी बीमारी, इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतना पाप! अगर परमात्मा ने ही जगत बनाया तो आदमी को ऐसे अज्ञान में डालने की जरूरत क्या है? जिम्मेवार आदमी नहीं रह जाता, जिम्मेवार परमात्मा हो जाता है।

अभी एक ईसाई पादरी मुझे मिलने आए थे। मैंने उनसे पूछा कि किस काम में लगे हैं? वे बोले कि हम पाप से लड़ने में लगे हैं। मैंने कहा, पाप! यह पाप आया कहां से? उन्होंने कहा, यह शैतान ने पैदा किया है।

अभी तक वह बिलकुल आश्वस्त थे। आमतौर से कोई ज्यादा इन बातों में पूछताछ नहीं करता, क्योंकि ज्यादा पूछताछ करने में अड़चन आती है।

मैंने उनसे पूछा, और शैतान को किसने बनाया?

तब वे जरा झिझके, क्योंकि अब कठिन बात आ गई। वे डरे भी अगर कहें कि ईश्वर ने बनाया, तो मामला बड़ा खराब हो जाता है। क्योंकि ईश्वर शैतान को बनाता है, शैतान पाप को बनाता है, यह पूरा गोरखधंधा क्या है! और ईश्वर को इतनी भी बुद्धि नहीं है कि शैतान को न बनाए! और जब ईश्वर तक चूक गया शैतान को बनाने में, तो हम और आप चूक जाएं पाप करने में, तो इसमें अड़चन क्या है? और फिर पाप शैतान बनाता है और शैतान को ईश्वर बनाता है और हम पाप करते हैं, तो जिम्मेवार कौन है? हम तो विक्टिम हैं, हम तो शिकार हो गए मुफ्त! हमारा इसमें कोई संबंध ही नहीं है। परमात्मा हमको बनाता, परमात्मा शैतान को बनाता, शैतान पाप को बनाता, हम पाप करते हैं। इस पूरे वर्तुल में हमारी जिम्मेवारी कहा है? न हम परमात्मा को बनाते, न हम शैतान को बनाते, न हम पाप को बनाते, हम इन तीनों के नाहक उपद्रव को झेल रहे हैं!

वे थोड़े बेचैन हो गए। कोई उत्तर नहीं है ईसाइयत के पास। किसी के पास उत्तर खोजना मुश्किल है; क्योंकि यह बड़ी अड़चन की बात है। या कुछ लोगों ने, जैसे कि पारसी मानते हैं, जरथुस्त्र की मान्यता है कि ये दो तत्व हैं—परमात्मा और शैतान, ये दो तत्व हैं। किसी ने किसी को बनाया नहीं, दोनों शाश्वत हैं। तब और खतरा खड़ा हो जाता है! क्योंकि अगर दोनों शाश्वत हैं तो कोई भी कभी जीत नहीं सकता और कोई कभी हार नहीं सकता, शैतान और परमात्मा लड़ते रहेंगे। आप कौन हैं? आप क्षेत्र हैं, जहां वे लड़ रहे हैं, कुरुक्षेत्र! और कोई जीत नहीं सकता, कोई हार नहीं सकता, क्योंकि दोनों शाश्वत हैं।

उनकी भी कठिनाई है कि अगर शाश्वत न मानें और यह कहें कि शैतान हार सकता है, तो सवाल उठता है कि अभी तक हारा क्यों नहीं? इतना जमाना हो गया, अभी तक हारा नहीं, आगे क्या पक्का भरोसा है? हालत तो उलटी दिखती है कि शैतान रोज जीत रहा है! हारना तो बहुत दूर है, हालत यह दिखती है कि शैतान रोज जीत रहा है!

आप जान कर हैरान होंगे कि अमरीका में अभी उन्नीस सौ सत्तर में एक चर्च रजिस्टर करवाया गया है। केलिफोर्निया में एक नया चर्च रजिस्टर करवाया गया है —दि फर्स्ट चर्च ऑफ डेविल, शैतान का पहला मंदिर! और उनके अनुयायी हैं, उनका आर्च प्रीस्ट है। और उन्होंने अपनी बाइबिल छापी है। और उन्होंने कहा है कि अब हम यह घोषणा कर देते हैं कि पर्याप्त है अब समय अनुभव करने के लिए कि परमात्मा हार रहा है और शैतान जीत रहा है।

वे भी बात तो ठीक कहते हैं, अगर दुनिया को देखें तो उनकी बात एकदम गलत नहीं मालूम पड़ती। दुनिया को अगर देखें, तो शैतान का अनुयायी जीत जाता है, ईश्वर का अनुयायी मात खा जाता है। शैतान के अनुयायी पदों पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं, ईश्वर का अनुयायी इधर—उधर भटकता रहता है। कोशिश करके देखें।

इसलिए ईश्वर के अनुयायी भी ट्रिक समझ गए हैं; नाम ईश्वर का लेते हैं, काम शैतान से करवाते हैं! वे समझ गए हैं कि जीतता कौन है, आखिरी हिसाब में शैतान जीतता है। लेकिन मन में डर भी बना रहता है कि कहीं भूल —चूक कभी परमात्मा जीत जाए, तो राम—राम भी जपते रहो! दोनों नाव पर सवार रहते हैं सभी समझदार लोग। जब जरूरत होती है, शैतान से काम लेते हैं, और जब कोई जरूरत नहीं होती, फुर्सत का समय होता है, तो माला फेर लेते हैं! इससे एक समझौता बना रहता है, और एक बैलेंस। और फिर आखिर में क्या पता, कौन जईतेगा!

जगत अगर कोई खबर देता है तो शैतान के जीतने की देता है, परमात्मा की जीत तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। शुभ बढ़ता हुआ मालूम नहीं पड़ता, अशुभ कमता हुआ मालूम नहीं पड़ता। प्रकाश बढ़ता हुआ मालूम नहीं पड़ता, अंधकार कम होता हुआ मालूम नहीं पड़ता।

तो शाश्वत मानें तो अड़चन है। अगर ऐसा मानें कि शाश्वत नहीं है, शैतान अंतत: हारेगा—बीच में कितना ही जीते, आखिर में तो हारेगा ही। लेकिन इसका भरोसा क्या है? इसकी गारंटी क्या है? और जो बीच में जीतता है, वह आखिर में क्यों हारेगा? जो सदा जीतता है, वह आखिर में अचानक हार जाएगा! इसमें कोई तुक और संगति नहीं मालूम पड़ती।

यह प्रश्न सारी मनुष्य—जाति के साथ है। अलग—अलग धर्मों ने अलग—अलग उपाय किए हैं इस द्वंद्व को सुलझाने के, लेकिन कोई सुलझाव होता नहीं। इस सब में उपनिषद की धारणा कम से कम गलत मालूम पड़ती है, कम से कम गलत, एकदम सही नहीं। लेकिन और सब धारणाओं के बीच अगर तौला जाए तो उपनिषद की बात सबसे ज्यादा ठीक मालूम पड़ती है; बिलकुल ठीक नहीं, सबसे ज्यादा—तौल में, रिलेटिव, सापेक्ष।

उपनिषद कहते हैं कि संसार और परमात्मा में विरोध नहीं है, कोई शैतान नहीं है, और परमात्मा के विपरीत कोई शक्ति नहीं है। फिर यह संसार कैसे है? तो उपनिषद कहते हैं कि परमात्मा अपने किसी विरोधी को पैदा करके संसार पैदा नहीं कर रहा है, परमात्मा के होने में ही, परमात्मा की आभा में ही —जिसको वे माया कहते हैं; परमात्मा की छाया में ही—जिसको वे माया कहते हैं, संसार है। जैसे कोई आदमी खड़ा हो और उसकी छाया बने। छाया का कोई अस्तित्व तो नहीं होता —तलवार से काटें तो कट नहीं सकती, आग से जलाएं तो जल नहीं सकती, पानी में डुबाना चाहें, डूब नहीं सकती —फिर भी छाया होती है। अस्तित्व नहीं होता, फिर भी छाया तो होती है। आपके पीछे चलती है। दौड़े तो आपके पीछे दौड़ती है, रुके तो रुक जाती है।

उपनिषद कहते हैं, जब भी कोई चीज अस्तित्ववान होती है, तो उसकी छाया भी होती है; शैडो। यह जरा समझ लें। और इस पर विज्ञान और मनोविशान की आधुनिकतम खोजें भी इसका साथ देती हैं कि इस बात में सचाई है। कोई भी चीज बिना छाया के नहीं होती। जो भी चीज होती है, उसकी छाया होती है। अगर ब्रह्म है, तो उसकी छाया होगी। और उस छाया को वे कहते हैं माया।

ब्रह्म की छाया संसार है।

जुंग ने, एक बड़े मनोवैशानिक ने इस सत्य पर किसी दूसरे आयाम से काफी खोज की। और उसने पाया कि हर आदमी का एक छाया अस्तित्व भी है —ए शैडो पर्सनैलिटी। आपको भी थोड़ा समझ लेना चाहिए; आपके पास भी छाया अस्तित्व है।

आप भले आदमी हैं, क्रोध नहीं करते; शांत हैं, धैर्यवान हैं। लेकिन अचानक एक दिन कोई छोटी सी बात! बात भी इतनी बड़ी नहीं है कि क्रोध किया जाए और आप आदमी ऐसे नहीं हैं कि क्रोध करते हों; बड़ी बातों पर क्रोध नहीं करते, किसी दिन एक छोटी सी बात पर ऐसा क्रोध उबल आता है कि आपके भी समझ के बाहर हो जाता है कि क्या हो रहा है कौन कर रहा है! इसलिए लोग कहते हैं बाद में कि मेरे बावजूद हो गया, इन्सपाइट ऑफ मी। मैं कोई करना नहीं चाहता था, हो गया! क्यों? कैसे हो गया? आप नहीं करना चाहते थे, फिर कैसे हो गया?

कई बार आप कोई बात नहीं कहना चाहते और मुंह से निकल जाती है! आप कहना ही नहीं चाहते थे और मुंह से निकल गई! आप पीछे पछताते हैं कि मैंने सोचा ही नहीं था कि कहूंगा; तय ही कर लिया था कि नहीं कहने का है; फिर निकल गई!

जुंग कहता है कि आपका एक छाया व्यक्तित्व है, जिसमें जो—जो आप इनकार कर देते हैं अपने भीतर, वह इकट्ठा होता जाता है। कभी—कभी मौका पाकर, कोई कमजोर क्षण पाकर, कोई संधि पाकर, छाया व्यक्तित्व अपने को प्रकट कर देता है।

इस छाया व्यक्तित्व के कारण एक बड़ी बीमारी तक मनोविज्ञान में अध्ययन की जाती है। बड़ी बीमारी है, सारी दुनिया में फैली हुई है। उसे स्किट पर्सनैलिटी—आदमी दो टुकड़ों में टूट जाता है। कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि आदमी में दो व्यक्तित्व हो जाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि एक आदमी के भीतर दो आदमी हैं। कहता कुछ है, करता कुछ है, कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। सुबह कुछ है, सांझ कुछ है। कोई पक्का भरोसा नहीं किया जा सकता उसकी बात का, उसके होने का। वह खुद भी डरता है कि मैं क्या कर रहा हूं, क्या कह रहा हूं, तालमेल नहीं बैठता; जैसे भीतर दो आदमी हैं। कभी बड़ा शांत, कभी बड़ा अशांत, कभी मौन, कभी बड़ा मुखर; दो हिस्से हो गए हैं।

ऐसा भी हो जाता है, हजारों पागलखानों में हजारों पागल बंद हैं, उनकी बीमारी यह है कि उनका एक व्यक्तित्व अचानक खो गया और वे दूसरे व्यक्ति हो गए। कल तक वे राम थे, और अचानक कोई घटना घटी, एक्सीडेंट हो गया, कार से गिर पड़े, सिर में चोट आ गई, और रहीम हो गए! अब वे याद ही नहीं करते कि राम थे कभी; अपने पिता को नहीं पहचानते; मां को, पत्नी को नहीं पहचानते; अब वे अपने को रहीम बताते हैं। और वे सारा हिसाब ही दूसरा बताते हैं कि उनका कोई संबंध ही इस घर से नहीं है, पहचान भी नहीं है!

क्या हो गया? इस एक्सीडेंट में उनका जो प्रमुख व्यक्तित्व था वह आघात खा गया और उनका जो छाया व्यक्तित्व था वह सक्रिय हो गया। इसलिए वह दूसरा नाम और सब उन्होंने बदल लिया।

इस छाया व्यक्तित्व को ठीक भी किया जाता है—इलाज से, शॉक से। कभी—कभी वह ठीक हो जाता है तो वे फिर राम हो गए, फिर वे दूसरे आदमी हो गए; उनका सब व्यवहार बदल जाता है।

हर आदमी के भीतर छिपा हुआ यह छाया व्यक्तित्व है। इसको अगर उपनिषद की भाषा में कहें तो उपनिषद कहते हैं, व्यक्ति के साथ बंधी है अविद्या, वह उसका छाया व्यक्तित्व है; और ब्रह्म के साथ बंधी है माया, वह उसका छाया व्यक्तित्व है। ब्रह्म के विपरीत नहीं है यह माया, उसकी छाया ही है; उसके होने का अनिवार्य अंग है। यह संसार ब्रह्म का शत्रु नहीं है, ब्रह्म के होने का छाया अंग है।

इसे हम विज्ञान की भाषा से समझें तो शायद आसान हो जाए, वैसे बात आसान नहीं है।

अभी उन्नीस सौ साठ में एक आदमी को नोबल प्राइज मिली। यह नोबल प्राइज सबसे अनूठी है। इस आदमी को नोबल प्राइज मिली है एंटीमैटर की खोज पर। यह शब्द बड़ा अजीब है, एंटीमैटर। इस आदमी की खोज यह है कि पदार्थ भी है जगत में और पदार्थ के विपरीत भी एक अपदार्थ है, एंटीमैटर है।

और हर चीज के विपरीत चीजें हैं। कोई चीज इस जगत में बिना विपरीत के नहीं होती। जैसे प्रकाश है तो अंधेरा है, जीवन है, तो मृत्यु है; गर्मी है, तो सर्दी है; स्त्री है, तो पुरुष है। सारा जगत दोहरी व्‍यवस्‍था से जीता है। क्या आप सोचते हैं ऐसा कोई जगत जिसमें पुरुष न हों, स्त्रियां ही स्त्रियां हों? असंभव! क्या आप सोचते हैं ऐसा कोई जगत कि पुरुष ही पुरुष हों, स्त्रियां न हों? असंभव! तालमेल इतना गहरा है कि जब बच्चे पैदा होते हैं तो लड़के एक सौ पंद्रह पैदा होते हैं और लड़कियां सौ पैदा होती है,। लेकिन पंद्रह साल की उमर तक पंद्रह लडके समाप्त हो जाते हैं; सौ और सौ का अनुपात बराबर हो जाता है। बायोलाजिस्ट कहते हैं, चूंकि लडके लड़कियों से कमजोर हैं, इसलिए प्रकृति को ज्यादा पैदा करने पड़ते हैं, ताकि पंद्रह उमर पाते -पाते शादी की तो समाप्त हो जाएंगे।

यह जान कर आप हैरान होंगे कि बायोलाजी के हिसाब से स्त्री ताकतवर है, पुरुष कमजोर है। पुरुष की जो ताकत है वह मस्कुलर है, बड़ा पत्थर उठा सकते हैं, लेकिन बड़ा दुख नहीं झेल सकते। स्त्री की जो ताकत है, वह सहनशीलता है। इसलिए स्त्रियां बडी बीमारियां झेल लेती हैं। और जरूरी है, क्योंकि बड़ी, सबसे बड़ी बीमारी तो प्रसव है, वह झेल लेती हैं। अगर पुरुष को बच्चे पैदा करने पड़े-पुरुष कभी की आत्महत्या कर लें। इस जगत में फिर पुरुष खोजने से नहीं मिलेगा! नौ महीने एक बच्चे को ढोना! नौ दिन तो कंधे पर लेकर देखें! नौ घंटे सही! नौ मिनट सही! कठिन मामला है। और फिर प्रसव की पीडा! उतनी पीड़ा झेलने के योग्य प्रकृति स्त्री को बनाती है। मजबूत है, ताकतवर है। उसकी ताकत और ढंग की है। लड़ नहीं सकती, जोर से दौड़ नहीं सकती, इससे यह मत समझना कमजोर है। उसका आयाम अलग है, शक्ति का। सहन क्षमता उसकी ज्यादा है।

तो पंद्रह वर्ष की उम्र पर बराबर हो जाते हैं। सारी दुनिया में यह अनुपात बराबर बना रहता है।

आप जान कर हैरान होंगे, जब युद्ध होता है, तो लड़के ज्यादा कट जाते हैं! निश्चित ही, लड़के जाते हैं युद्ध के मैदान पर। स्त्रियां बढ़ जाती हैं। युद्ध के बाद के दिनों में लड़कों की पैदावार बढ़ जाती है, लड़कियों की कम हो जाती है।

कौन करता होगा यह आयोजन? और यह कैसे होता होगा?

युद्ध हो गया! दूसरा महायुद्ध हुआ, पहला महायुद्ध हुआ। तो बड़ी कठिनाई हुई कि पहले महायुद्ध में जो लाखों लोग मर गए-पुरुष। युद्ध के बाद के दो -तीन साल में लड़कों का अनुपात पैदावार का बढ़ गया और लड़कियों का एकदम कम हो गया, और अनुपात फिर घिर हो गया। तब चिंतन शुरू हुआ। दूसरे महायुद्ध में फिर वही हुआ। तब ऐसा लगा कि प्रकृति भीतर से विपरीत में संतुलन करती रहती है।

आप ऐसा मत सोचें कि इस जमीन पर कभी प्रकाश ही प्रकाश रह जाएगा, अंधेरा नहीं होगा। यह नहीं हो सकता। अंधेरा और प्रकाश संतुलित होंगे।

यह एंटीमैटर की खोज इसी आधार पर है कि जगत विरोध का संतुलन है। तो पदार्थ है, तो पदार्थ के विपरीत क्या है? वह दिखाई नहीं पडता हमें। और फिजिसिस्ट की जो धारणा है, वह बड़ी जटिल है। जैसे एक पत्थर रखा हुआ है, इस टेबल पर एक पत्थर रखा हुआ है। तो पत्थर दिखाई पड़ता है। हम पत्थर उठा लें, तो फिर तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। आप ऐसा कल्पना करें कि एक पत्थर रखा हुआ है यहां, और यहां एक छेद रखा हुआ है—छेद किया हुआ नहीं, पत्थर की जैसी खाली जगह। पत्थर को हम हटा लें, और उतनी अगर जगह खाली रह जाए जहा पत्थर रखा था, वह खाली जगह रखी हुई है पास में। उसका नाम एंटीमैटर है। अभी तक उसको किसी ने देखा नहीं। नोबल प्राइज मिल गई है। और मिलने का कारण यह है कि उस आदमी को गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि जगत में जब सभी चीजें विपरीत से भरी हैं, तो पदार्थ के होने के लिए भी उसका विपरीत होना जरूरी है, जो उसके पास ही कहीं छिपा हो। वह दिखे, न दिखे, लेकिन सैद्धांतिक रूप से उसको स्वीकार करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है।

माया, हम कहें कि ब्रह्म की छाया है। ब्रह्म भी नहीं हो सकता बिना माया के, माया भी नहीं हो सकती बिना ब्रह्म के। और बड़े विराट पैमाने पर माया है छाया ब्रह्म की—कहें एंटी ब्रह्म, तो भी चलेगा—वैसे ही व्यक्ति के छोटे से तल पर अविद्या है। अविद्या व्यक्ति के पैमाने पर माया है। आपके आस—पास अविद्या भी है। अब क्या किया जा सकता है? अविद्या है व्यक्ति के पास! अविद्या को कैसे छोड़े? और अगर यह नियति है, अगर यह विश्व की व्यवस्था है कि विपरीत होगा ही, और अगर ब्रह्म भी अब तक माया को नहीं छोड़ पाया है, अगर परम अस्तित्व भी माया से घिरा है, तो हम छोटे—छोटे क्षुद्र जन, छोटे—छोटे व्यक्ति, हम कैसे अविद्या को छोड़ पाएंगे! ब्रह्म नहीं छोड़ पाया माया को, हम अविद्या को कैसे छोड़ पाएंगे! और अगर नहीं छोड़ पा सकते, तो सारी धर्म की चेष्टा व्यर्थ हो जाती है।

नहीं; छोड़ सकते हैं। लेकिन प्रक्रिया समझ लें। हम अविद्या को तभी छोड़ सकते हैं, जब हम मिटने को राजी हो जाएं। अगर हम मिटने को राजी नहीं हैं, तो अविद्या नहीं मिट सकती, द्वंद्व जारी रहेगा। या तो दोनों रहेंगे या दोनों मिट जाएंगे। अगर मैं कहूं कि मैं तो बचना चाहता हूं और अविद्या को मिटाना चाहता हूं, तो फिर अविद्या कभी नहीं मिटेगी। वह आपकी छाया है। इसे ऐसा समझ लें कि मैं कहूं कि मैं तो रहना चाहता हूं मेरी छाया मिटाना चाहता हूं। वह कभी नहीं मिटेगी। एक ही रास्ता है कि मैं मिट जाऊं, तो मेरी छाया मिट जाए।

इसलिए अहंकार को मिटाने पर इतना जोर है। मैं मिट जाऊं तो मेरी छाया मिट जाए। और जब मैं मिट जाता हूं, मेरी छाया मिट जाती है, तो मैं ब्रह्म से लीन होकर एक हो जाता हूं। मैं की तरह नहीं, शून्य की तरह ब्रह्म में लीन हो जाता हूं। मेरी अविद्या का क्या होता होगा? जब मैं मिटता हूं, मैं ब्रह्म में लीन हो जाता हूं मेरी अविद्या माया में लीन हो जाती है। मैं खो जाता हूं ब्रह्म में, अविद्या खो जाती है माया में। जब भी मैं निर्मित होता हूं, मैं निकलता हूं ब्रह्म से, अविद्या निकलती है माया से। अविद्या, हम सबको माया का मिला हुआ भाग, छोटी —छोटी जमीन माया की हमको मिली हुई।

माया दुख देती है, अविद्या पीड़ा देती है, इसलिए हम छूटना चाहते हैं। ब्रह्म को पीड़ा नहीं देती होगी? ब्रह्म नहीं छूटना चाहता होगा? ब्रह्म से मतलब कोई व्यक्ति नहीं, यह विराट अस्तित्व। इसको पीड़ा नहीं होती होगी? यह नहीं छूटना चाहता होगा? हमें पीड़ा होती है, हम छूटना चाहते हैं, ब्रह्म नहीं छूटना चाहता होगा?

ब्रह्म के तल पर समस्त स्वीकार है। ब्रह्म के तल पर माया का होना स्वीकृत है। उसका कोई इनकार नहीं है। उसका कोई इनकार नहीं है, इसलिए कोई पीड़ा नहीं है। हमारे तल पर पीड़ा है। अगर हम भी स्वीकार कर लें तो वहा भी कोई पीड़ा नहीं है।

मेरे हाथ में चोट लगे, तो पीड़ा चोट से नहीं होती, पीड़ा होती है इस बात से कि चोट नहीं लगनी चाहिए थी। अगर मैं स्वीकार कर लूं कि चोट लगनी ही चाहिए थी, चोट होनी ही चाहिए थी, चोट होती ही, चोट होना नियति है, फिर कोई पीड़ा नहीं है। पीड़ा है विरोध में; पीड़ा है अस्वीकार में। तो हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं, इसलिए पीड़ा है। कोई हममें स्वीकार कर लेता है उसे—कोई जनक, कोई कृष्ण उसे स्वीकार कर लेता है, तो यहीं, बिना कुछ किए, अविद्या माया बन जाती है, कृष्ण ब्रह्म हो जाते हैं। कृष्ण स्वीकार कर लेते हैं उसे।

कृष्ण और बुद्ध, कृष्ण और महावीर के रास्ते में यह फर्क है। महावीर अपने को मिटाते हैं ताकि अविद्या मिट जाए। कृष्‍ण न अपने को मिटाते हैं, न अविद्या को; स्वीकार कर लेते हैं। महावीर अपने को मिटा कर अविद्या मिटाते हैं, कृष्ण स्वीकार करके ब्रह्मरूप हो जाते हैं—तत्‍क्षण। क्योंकि जब ब्रह्म माया नहीं मिटा रहा है और स्वीकार कर रहा है, तो कृष्ण भी स्वीकार कर लेते हैं।

इसलिए कृष्ण को हमने पूर्ण अवतार कहा है। कोई अस्वीकार नहीं है वहां, इसलिए पूर्णता है। जरा सा भी अस्वीकार हो, अपूर्णता हो जाती है। इसलिए हमने राम को कभी पूर्ण अवतार नहीं कहा। कह नहीं सकते; क्योंकि राम के मन में बहुत अस्वीकार हैं; बड़ी मर्यादाएं, सीमाओं की धारणा है। एक धोबी कह देता है कि सीता पर संदेह है, तो राम यह भी नहीं सह पाते। एक धोबी! अब कोई, नासमझों की कोई कमी है दुनिया में! कोई भी कुछ कह दे! और कोई राम के वक्त के धोबी बहुत समझदार होते होंगे, ऐसा तो है नहीं कुछ। पर एक धोबी भी यह कह दे कि सीता पर संदेह है। और अपनी स्त्री से कह दे कि एक रात घर के बाहर रही, भीतर न घुसने दूंगा। मैं कोई राम नहीं हूं, क्या समझा है तूने, कि इतने दिन रावण के घर सीता रह गई और वह सज्जन लेकर वापस लौट आए हैं।

मैं कोई राम नहीं हूं, यह बात पीड़ा कर गई; राम के मन में काटा चुभ गया। राम के मन में पूरी स्वीकृति नहीं है। वह यह न देख पाए, यह न सुन पाए कि मेरी नीति पर, मेरे चरित्र पर लाछन हो जाए। सीता को फेंक सके, हटा सके, लाछन को स्वीकार न कर सके। इसलिए हिंदू मन ने कभी राम को पूर्ण अवतार नहीं कहा। कहा, मर्यादा पुरुषोत्तम; मनुष्यों में इससे बड़ी मर्यादा का आदमी नहीं हुआ। लेकिन ध्यान रहे, मनुष्यों में! मर्यादा पुरुषोत्तम! लेकिन बस एक सीमा है। शुद्ध हैं बहुत, और शुद्ध का इतना आग्रह है कि अशुद्धि का डर है।

लेकिन कृष्ण और तरह के आदमी हैं; बदनामी का कोई डर ही नहीं है! जैसे बदनामी को निमंत्रण है! जैसे कितने बदनाम हो सकें, इसकी पूरी चेष्टा है! क्या मामला होगा?

कोई अस्वीकृति नहीं है। जो भी है, ठीक है। इसलिए गजब की घटना घटी कृष्ण के जीवन में। ठीक वैसी घटना घटी, जैसा ब्रह्म और माया की विराट में घट रही है। एक छोटी भूमि पर जैसे विराट छोटा होकर उतर आया और आस—पास माया की छोटी घटना घटी। पूरी स्वीकृति है।

जहां अविद्या स्वीकृत है, वहा नष्ट करने की कोई जरूरत नहीं है। जहा स्वीकृत नहीं है, वहां अविद्या नष्ट करनी पड़ेगी। लेकिन नष्ट करने का एक ही उपाय है, खुद को नष्ट करना। तो ही नष्ट हो पाएगी। इसलिए महावीर और बुद्ध का रास्ता कठिन है, काटने वाला है, अहंकार को तोड़ने वाला है, मिटाने वाला है। एक—एक जड़ से तोड़ेंगे, मिटाएंगे, तब छाया मिटेगी, छुटकारा होगा। कृष्ण का स्वीकार का है।

कहीं कोई तोड़ना नहीं है। लेकिन आसान वह भी नहीं है। लगता है आसान, शायद गहरे खोजें तो और भी ज्यादा कठिन भी हो सकता है। क्योंकि मन स्वीकार करने को राजी नहीं होता। मन कहता है यह हो, यह न हो। ऐसा हो, ऐसा न हो। मन कहता ही चला जाता है क्या न हो, क्या हो। मन बांटता ही चला जाता है। तो दो ही मार्ग हैं जगत में। एक मार्ग है, दोनों को मिटा दो। और एक मार्ग है, दोनों से राजी हो जाओ। दोनों हालत में छुटकारा हो जाता है।

‘इस परमात्मा को माया और जीव को अविद्या—ऐसी दो उपाधि हैं, इनके त्याग करने से अखंड सच्चिदानंद परम ब्रह्म ही जान पड़ता है।’

इनके त्याग करने से! त्याग के दो मार्ग मैंने आपको कहे। एक मार्ग है मिट जाएं, अविद्या मिट जाए। एक मार्ग है. राजी हो जाएं, स्वीकार कर लें, जो है उसके बाहर जाने की आकांक्षा छोड़ दें, जैसा है उसमें रत्ती भर फर्क करने का विचार न करें। तो भी, जो शेष रह जाता है वह सच्चिदानंद ब्रह्म है।

आज इतना ही


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अध्‍यात्‍म–उपनिषद–(प्रवचन–10)

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सत्‍य की यात्रा के चार चरण—(प्रवचन—दसवां)

 सूत्र :

इत्‍थं वाक्यैस्तदर्थानसंधानं श्रवणं भवेत।

युक्ता सभावितत्वा संधानं मननं तु तत्।। 33।।

ताभ्यां निर्विचिकित्‍सेकत्सेध्थें चेतस: स्थायितस्य तत्।

एकतानत्वमेतीद्ध निदिध्यासनमुच्यते।। 34।।

ध्यातृध्याने परित्यज्य क्रमाद्धयैयैकगे।चरम्।

निवातदीपवच्चितं समाधिरभिंधीयतै।। 35।।

 इस प्रकार’तत्त्वमसि‘ आदि वाक्यों द्वारा जीव—ब्रह्म की एकतारूप अर्थ का अनुसंधान करना, यह श्रवण है। और जो कुछ सुना गया है उसके अर्थ को युक्तिपूर्वक विचार करना, यह मनन है।

इस श्रवण और मनन द्वारा निस्संदेह हुए अर्थ में चित्त को स्थापित करके एकतान बनना, यह निदिध्यासन है।

फिर ध्याता तथा ध्यान का त्याग करके चित्त केवल एक ध्येय को ही विषय रूप माने और वायुरहित स्थान में रखे हुए दीए के समान निश्चल बन जाए, उसको समाधि कहते हैं।

 चार शब्दों का प्रयोग हुआ है। एक—एक शब्द अपने आप में एक—एक जगत है। वे चार शब्द हैं श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि। इन चार शब्दों में सत्य की सारी यात्रा समाहित हो जाती है। ये चार चरण जो सम्यकरूपेण, ठीक—ठीक पूरा कर ले, उसे कुछ और करने को शेष नहीं रह जाता है। इन चार शब्दों के आस—पास ही समस्त साधना विकसित हुई है। इसलिए एक—एक शब्द को बारीकी से, गहराई से, सूक्ष्मता से समझ लेना उपयोगी है।

पहला शब्द है, श्रवण। श्रवण का अर्थ मात्र सुनना नहीं है। सुनते हम सभी हैं। कान होना काफी है सुनने के लिए। सुनना एक यांत्रिक घटना है। ध्वनि हुई, कान पर आवाज पड़ी, आपने सुना। श्रवण इतना ही नहीं है। श्रवण का अर्थ है, सिर्फ कान से न सुना गया हो, भीतर जो चैतन्य है उस तक भी गंज पहुंच जाए। इसे थोड़ा समझ लें। आप रास्ते से गुजर रहे हैं; आपके घर में आग लग गई है, आप भाग रहे हैं। रास्ते पर कोई नमस्कार करता है। कान सुनेंगे, आप नहीं सुनेंगे। दूसरे दिन आप बता भी न सकेंगे कि किसी ने रास्ते पर नमस्कार किया था। घर में आग लगी थी, रास्ते पर कोई गीत गाता हो, कान सुनेंगे, आप नहीं सुनेंगे।

कान का सुनना आपका सुनना नहीं है। जरूरी नहीं है कि कान ने सुना हो तो आपने भी सुना हो। कान सुनने के लिए जरूरी है, काफी नहीं है, आवश्यक है, पर्याप्त नहीं है। कुछ और भी भीतर चाहिए। जब आपके घर में आग लगी होती है, तो नमस्कार किया गया सुनाई नहीं पड़ता; क्यों? कान का यंत्र तो वैसा का ही वैसा है। लेकिन भीतर ध्यान कान के साथ टूट गया है। ध्यान, मकान में आग लगी है, वहा चला गया है। कान सुन रहा है, लेकिन कान ने जो सुना है, उसे चैतन्य तक पहुंचाने के लिए ध्यान का जो सेतु चाहिए, वह नहीं है। वह सेतु हट गया है। वह वहा लगा है, जहां मकान में आग लगी है। इसलिए कान सुनते हैं, आप नहीं सुन पाते। आप और कान के बीच में जो संबंध है, वह टूट गया है।

श्रवण का अर्थ है, कान भी वहा हों और आप भी वहा हों। तो श्रवण घटित होता है। कठिन बात है। कान के साथ होना साधना की बात है। श्रवण का अर्थ है कि जब आप सुनते हों तो आपकी सारी चेतना कान हो जाए; सुनना ही रह जाए, बाकी कुछ भी न हो; भीतर कोई विचार न चले। क्योंकि भीतर अगर विचार चलता है, तो आपका ध्यान विचार पर चला जाता है, कान से हट जाता है।

ध्यान बड़ी सूक्ष्म, नाजुक चीज है। जरा सा विचार भीतर चल रहा हो, तो ध्यान वहां चला जाता है। पैर में चींटी काट रही हो, आप मुझे सुन रहे हैं और आपको पैर में चींटी काट रही हो—मकान में आग लगना जरूरी नहीं है, पैर में चींटी काट रही हो—तो जितनी देर के लिए आपको पता चलता है कि पैर में चींटी काट रही है, उतनी देर तक श्रवण खो जाता है, सुनना होता है। ध्यान हट गया।

ध्यान की और तकलीफ है कि ध्यान एक साथ दो चीजों पर नहीं हो सकता, एक चीज पर एकबारगी होता है। जब दूसरी चीज पर होता है, एक से तत्काल हट जाता है। आप ऐसा कर सकते हैं कि छलांग लगा सकते हैं। हम छलांग लगाते रहते हैं। पैर में चींटी ने काटा, ध्यान वहां गया; फिर वापस ध्यान लौटा, सुना। खुजली आ गई, ध्यान वहा गया, फिर सुना। तो बीच—बीच में जब ध्यान हट जाता है, तो गैप, अंतराल पड़ जाते हैं श्रवण में।

और इसलिए जो आप सुनते हैं, उसमें से बहुत अर्थ नहीं निकल पाता, क्योंकि उसमें बहुत कुछ खो जाता है। और कई बार जो अर्थ आप निकालते हैं, वह आपका ही होता है फिर, क्योंकि उसमें बहुत कुछ खो गया है। फिर जोड़ कर आप जो सोच लेते हैं, वह आपका ही है।

अभी मैं आस्पेंस्की की एक शिष्या की किताब देख रहा था। उसने लिखा है कि आस्पेंस्की के साथ जब काम शुरू किया साधना का, तो एक बात से बड़ी दिक होती थी कि आस्पेंस्की एक बात पर बहुत ही जोर देता था और वह समझ में नहीं पड़ती थी, इतने जोर देने लायक बात नहीं मालूम पड़ती थी! और आस्पेंस्की जैसा आदमी इतनी छोटी बात पर इतना जोर क्यों देता है, यह भी समझ में नहीं आता था! और आदमी इतना अदभुत है कि जोर देता है तो मतलब तो होगा ही! और बुद्धि बिलकुल पकड़ती नहीं थी, इसमें क्या मतलब है! और वह जोर यह था, वह हर बार, दिन में पचास दफे उस पर जोर देता था। जैसे कल आस्पेंस्की ने कुछ कहा, तो उसके शिष्यों में से कोई उससे आकर कहेगा कि कल आपने ऐसा कहा था। तो वह कहेगा, ऐसा मत कहो, इतना कहो कि कल आपने जो कहा था उससे मैंने ऐसा समझा था। यह कहो ही मत कि आपने ऐसा कहा था। हर वाक्य के सामने वह जोर देता था कि यह कहो कि आपने जो कहा था, उससे मैंने ऐसा समझा था, यह मत कहो सीधा कि आपने यह कहा था।

तो उसकी उस शिष्या ने लिखा है कि हम बड़े परेशान होते थे कि हर वाक्य के सामने यह लगाना कि आपने ऐसा कहा था ऐसा मैंने समझा था, आपके कहे हुए से मैंने ऐसा समझा था, इसकी क्या जरूरत है? आपने कहा था, बात खतम हो गई।

धीरे छलांग धीरे उसे समझ में आया कि ये दो बातें अलग हैं।

जो कहा गया है उसे तो वही समझ सकता है जो श्रवण को उपलब्ध हो। जो कहा गया है, अगर आप सिर्फ सुन रहे हैं, तो आप वही समझेंगे जो आप समझते हैं, समझ सकते हैं—वह नहीं, जो कहा गया है। क्योंकि बीच में बहुत कुछ खो जाएगा। और वह जो खो जाएगा, उसको आप भर देंगे अपने से, क्योंकि खाली जगह भर दी जाती है।

आप सुनते हैं, बीच—बीच में जहां—जहां ध्यान हट जाता है, वहां—वहां खाली जगह कौन भरेगा? वह खाली जगह आप भर देंगे। आपका मन, आपकी स्मृति, आपकी जानकारी, आपका ज्ञान, अनुभव, वह उसमें समा जाएगा। फिर जो अंतिम रूप बनेगा, उसके निर्माता आप ही हैं—जो सुना था, वह नहीं जिसने कहा था वह जिम्मेवार नहीं है।

श्रवण का अर्थ है, कान के पास ही चेतना आ जाए। विचार कोई भीतर न चलता हो, कोई चिंतन न चलता हो, कोई तर्क न चलता हो।

इसका यह मतलब नहीं कि जो कहा जाए उसको आप बिना समझे स्वीकार कर लें। श्रवण में स्वीकार का कोई अर्थ नहीं है। श्रवण का अर्थ है सिर्फ सुन लें, स्वीकार—अस्वीकार बाद की बात है; जल्दी न करें।

हम क्या करते हैं? सुनते हैं, उसी वक्त स्वीकार— अस्वीकार करते रहते हैं। लोगों के सिर हिलते रहते हैं! कोई ही भरता रहता है कि बिलकुल ठीक, कोई कहता है कि नहीं, जंच नहीं रहा! वह उनको भी पता नहीं कि उनका सिर हिल रहा है, मैं देख रहा हूं, कि बिलकुल ठीक।

इसका मतलब यह कि आप, जो मैंने कहा, उसे सुनने के साथ निर्णय भी ले रहे हैं भीतर। तो जितनी देर आप निर्णय लेंगे उतनी देर श्रवण चूक जाएगा। आपको भी पता नहीं कि आपका सिर हिला। मगर भीतर सहमति हुई, उसकी वजह से सिर हिला। जब मैं कोई बात कहता हूं जो आपको नहीं जंच रही, तो आपका सिर हिलता रहता है कि नहीं, जंच नहीं रही। वह सिर ही नहीं हिल रहा है, भीतर ध्यान हिल रहा है। उस ध्यान की वजह से सिर हिल रहा है। उतने कंपन में आपका श्रवण खो गया।

जब हम कहते हैं कि श्रवण करते दफे सोचें मत, तो उसका यह मतलब नहीं है कि जो भी कहा जाए उसे आंख बंद करके गटक लें। नहीं, अभी स्वीकार—अस्वीकार का सवाल ही नहीं है। अभी तो यही सुन लेना है कि क्या कहा गया, ठीक से वही सुन लेना है जो कहा गया। तब तो आप निर्णय कर सकेंगे पीछे कि स्वीकार करूं या अस्वीकार करूं?

तो स्वीकार—अस्वीकार की प्रक्रिया को सुनते समय बीच में ले आना, श्रवण से चूक जाना है। सुनना यानी सिर्फ सुनना।

अभी हम सुन रहे हैं। अभी हम साथ—साथ सोचते हुए न चलेंगे। मन दो काम नहीं कर सकता। सुनें या सोचें! जो सोचते हैं वे सुन नहीं पाते, जो सुनते हैं उन्हें सोचने के लिए उस समय कोई उपाय नहीं है। मगर जल्दी भी नहीं है कोई, सोचना बाद में हो सकता है।

और यही न्यायसंगत भी है कि पहले सुन लिया जाए, फिर सोचा जाए। क्योंकि सोचेंगे किस पर आप? अगर आपने ठीक से सुना ही नहीं है, या जो सुना है उसमें अपना जोड दिया है, या जो सुना है उसमें बीच—बीच में अंतराल रह गए हैं, तो आप सोचेंगे क्या खाक! जो आप सोचेंगे, उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता। सम्यक सुना न गया हो तो सोचना व्यर्थ हो जाता है।

इसलिए पहली सीढ़ी ऋषियों ने कही है, श्रवण।

बुद्ध के पास कोई आता तो वे बहुत जोर देते, महावीर के पास कोई आता तो वे पहले कहते कि तुम ठीक से श्रावक बनो। श्रावक का मतलब है सुनने वाले बनो। अभी भी जैनी वही विभाजन किए जाते हैं : साधु—साध्वी, श्रावक—श्राविका। न कोई श्रावक है, न कोई श्राविका है। क्योंकि श्रावक— श्राविका का अर्थ है श्रवण। सुनने की कला जिसे आ गई हो वह श्रावक है। तो न श्रावक— श्राविका हैं, न कोई सुनने वाला है, न कोई सुनने का कोई कारण है।

मंदिरों में जाकर देखें श्रावक—श्राविकाओं को। अक्सर सोए हुए पाएंगे, सुनना तो बहुत दूर की बात है। दिन भर के थके—मांदे वहां विश्राम करते हैं, सोते हैं। अगर नहीं भी सोते, तो सुनते नहीं हैं, अपने ऊहापोह में, अपने सोच—विचार में लगे रहते हैं।

आपका मन बिलकुल रुक जाना चाहिए, उसकी धारा रुक जानी चाहिए, तो श्रवण घटित होता है। और श्रवण पहली सीढ़ी है। और जितनी महत्वपूर्ण बात हो, उतना ही श्रवण प्रगाढ़ हो, तभी समझी जा सकेगी। इसलिए यह सूत्र कहता है.

‘तत्त्वमसि आदि वाक्यों द्वारा जीव—ब्रह्म की एकतारूप अर्थ का अनुसंधान करना, यह श्रवण है।’

महावाक्य है तत्त्वमसि। दो—चार ही महावाक्य हैं जगत में, लेकिन इससे बड़ा महावाक्य कोई भी नहीं है। तत्त्वमसि का अर्थ है—तू भी वही है, दैट आर्ट दाऊ।

वह जिसकी हम कल बात कर रहे थे तत्, कह रहे थे परमात्मा का नाम है तत्—वह। यह तत्त्वमसि का अर्थ है, वह कोई दूर अलग चीज नहीं है, तू ही है। वह जिसे हमने कहा था तत्, वह। उससे ऐसा लगता है कि कहीं दूर, वह, कहीं दूर का इशारा है।

तत्त्वमसि का अर्थ है, वह तू ही है। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। यह महावाक्य है। महावाक्य का अर्थ होता है कि अगर इस एक वाक्य को भी पकड़ कर कोई पूरा अनुसंधान कर ले, तो जीवन की परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं। फिर किसी शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं है, और किसी वेद और किसी कुरान और बाइबिल की कोई जरूरत नहीं है। तत्त्वमसि पर्याप्त वेद है। इस एक वाक्य का कोई ठीक से श्रवण कर ले, मनन कर ले, निदिध्यासन कर ले, समाधि कर ले, तो किसी और शास्त्र की कोई जरूरत नहीं है।

महावाक्य का अर्थ है. पुंजीभूत, जिसमें सब आ गया हो। जैसे कि केमिस्ट्री में फार्मूले होते हैं। या जैसे आइंस्टीन की रिलेटिविटी का फार्मूला है। बस दो—तीन शब्दों में पूरी बात आ जाती है। यह महावाक्य आध्यात्मिक केमिस्ट्री का फार्मूला है। इसमें तीन बातें कही हैं तत्, वह, त्वम्, तू; दोनों एक हैं—तीन बातें हैं। वह और तू एक हैं, बस इतना ही यह सूत्र है। लेकिन सारा वेदांत, सारा अनुभव ऋषियों का, इन तीन में आ जाता है। यह जो गणित जैसा सूत्र है वह—अस्तित्व, परमात्मा—और तू वह जो भीतर छिपी चेतना है वह, ये दो नहीं हैं, ये एक हैं। इतना ही सार है समस्त वेदों का, फिर बाकी सब फैलाव है।

इसलिए इस तरह के वाक्य को उपनिषदों में महावाक्य कहा गया है। इस एक से सारे जीवन की चितना, साधना, अनुभूति, सब निकल सकती है। इस तरह के वाक्य पूर्ण मौन में सुने जाने चाहिए। इस तरह के वाक्य ऐसे नहीं सुने जाने चाहिए, जैसे कोई फिल्मी गाने को सुन लेता है। सुनने की क्वालिटी, सुनने की गुणवत्ता और होनी चाहिए, तभी ये वाक्य भीतर प्रवेश करेंगे। रास्ते पर चलते आप बातें सुन लेते हैं, ये वाक्य उस तरह नहीं सुने जा सकते।

इसलिए हजारों साल तक भारत में ऋषियों का आग्रह रहा कि जो परम शान है, वह लिखा न जाए। उनका आग्रह बड़ा कीमती था। लेकिन उसे पूरा करना असंभव था। लिखना पड़ा। हजारों साल तक यह आग्रह रहा कि जो परम ज्ञान है, वह लिखा न जाए।

बहुत लोग, विशेषकर भाषाशास्त्री, लिंग्विस्ट सोचते हैं कि चूंकि लिपि नहीं थी, लिखने का उपाय नहीं था, इसलिए बहुत दिन तक वेद और उपनिषद नहीं लिखे गए।

वे गलत सोचते हैं। क्योंकि जो तत्त्वमसि जैसा अनुभव उपलब्ध कर सकते थे, जो इस महावाक्य को अनुभव में ला सकते थे, वे लिखने की कला न खोज लेते, यह असंभव मालूम पड़ता है। जिनकी प्रतिभा ऐसी ऊंचाई के शिखर छू लेती थी, वे लिखने जैसी साधारण बात भी न खोज पाते, यह उचित नहीं मालूम पड़ता।

लिखने की कला तो थी, लेकिन वे लिखने को राजी नहीं थे। क्यों? क्योंकि ऐसे महावाक्य लिख दिए जाएं, तो हर कोई हर किसी हालत में पढ़ लेता है। और पढ कर इस भ्रांति में पड़ जाता है कि समझ गए। इन वाक्यों को सुनने और पढ़ने के लिए जो एक मनोदशा चाहिए, वह मनोदशा के बिना भी पढ़ा जा सकता है। तत्त्वमसि पढ़ने में क्या दिक्कत है! पहली क्लास का बच्चा पढ़ सकता है। और पढ कर इस भ्रांति में भी पड जाएगा कि मैं समझ लिया कि ठीक है, मैं भी वही हूं। यह मतलब हो गया इस वाक्य का। बात खतम हो गई। फिर इसको कंठस्थ कर लेता है। फिर जीवन भर दोहराए चला जाता है। चूक गई बात। बात ही चूक गई! वह जो असली बिंदु था, खो गया।

ये वाक्य किसी विशेष गुण, किसी विशेष अवस्था, चित्त की कोई विशेष परिस्थिति में ही सुनने योग्य हैं। तभी ये प्राणों में प्रवेश करते हैं। हर कभी सुन लेने पर खतरा है। खतरे दो हैं एक तो यह याद हो जाएगा, और लगेगा मैंने जान लिया, और दूसरा खतरा यह है कि इस जानकारी के कारण आप शायद ही कभी उस मनःस्थिति को बनाने की तैयारी करें, जिसमें इसे सुना जाना चाहिए था। बीज डालने का वक्त होता है, समय होता है, मौसम होता है, घड़ी होती है, मुहूर्त होता है। और ये बीज तो महाबीज हैं, इन्हें हर कहीं नहीं। इसलिए गुरु इन्हें शिष्य के कान में.।

थोड़ा समझना, हम सब सुनते हैं कि मंत्र कान में दिया जाता है। और हम यही समझते हैं कि कान के पास लाकर मंत्र फुसफुसा देता होगा। नासमझी की बात है।

गुरु शिष्य के कान में इन महाबीजों को देता था। उसका मतलब कि जब शिष्य बिलकुल कान हो जाता था, उसका सारा व्यक्तित्व जब सुनने के लिए तैयार हो जाता था, जब वह कान से ही नहीं सुनता था, रोआं—रोआं सुनता था, जब उसका पूरा प्राण कान के पीछे इकट्ठा हो जाता था, जब उसकी सारी आत्मा सारी इंद्रियों से हट कर कान में नियोजित हो जाती थी, तब गुरु उसे कान में दे देता था। कहता वह यही था तत्त्वमसि। शब्द यही थे। इन शब्दों में कोई फर्क नहीं पडता था। लेकिन जो शिष्य था सामने, उसकी चैतन्य का गुण, उसकी चैतन्य की क्षमता और थी। कान फूंक देने का मतलब।

अभी भी न मालूम कितने नासमझ न मालूम कितने नासमझों के कान फूंकते रहते हैं! कान में मंत्र दे देते हैं! बिना इसकी फिक्र किए कि कान का मतलब क्या है!

जो कान आपकी खोपड़ी में लगे हैं, उनसे बहुत मतलब नहीं है। कान से मतलब है, आपके व्यक्तित्व का एक ढंग। आपके व्यक्तित्व का एक खुलाव। एक शांति भीतर, एक मौजूदगी, सुनने की एक तैयारी, आतुर प्यास, अभीप्सा; सारे प्राण तैयार हैं सुनने को। तब गुरु कान में इन महावाक्यों को डाल देता था।

और कभी—कभी ऐसा होता था कि इस वाक्य का पहुंचना ही घटना हो जाती थी।

बहुत लोग हैं जो केवल सुन कर ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, बाकी तीन चरणों की जरूरत भी नहीं पड़ी। यह जान कर आपको हैरानी होगी! बाकी तीन चरणों की जरूरत भी नहीं पड़ी; केवल सुन कर भी ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं!

लेकिन आसान मामला नहीं है, आप सोचेंगे अगर ऐसा होता हो कि सुन कर ही और शान को हम उपलब्ध हो जाएं, तो फिर काहे दूसरे उपद्रव में पड़े! क्यों? सुना दें और हम जान को उपलब्ध हो जाएं!

सुन कर ज्ञान को वही उपलब्ध हो सकता है, जिसकी समग्रता सुनने में नियोजित हो गई हो। एक रत्ती भर हिस्सा पीछे न रह गया हो खड़ा। सुनने वाला बचा ही न हो, सुनने की किया ही रह गई हो। ऐसा खयाल भी न रहा हो भीतर कि मैं सुनने वाला हूं। मैं हूं यह भी न रहा हो, बस सुनना ही हो गया हूं; सुनने की प्रक्रिया ही रह गई हो। सब मौन हो गया भीतर, शून्य हो गया! उस शून्य में इतनी सी चोट—तत्त्वमसि, प्राणों का विस्फोट कर देती है। इतनी सी चोट!

मगर एक बात और इसमें ध्यान रखने जैसी है कि शिष्य की, सीखने वाले की, साधक की, इतनी तैयारी चाहिए कि वह शून्य हो। लेकिन हर कोई उसके कान में तत्त्वमसि कह दे तो भी काम नहीं चलेगा। कोई भी कह सकता है। आदमी की भी जरूरत नहीं है, टेपरिकार्ड पर लिख कर रख लिया—टाइप—वह कान में गज जाएगा। उससे भी काम नहीं चलेगा। क्योंकि शब्दों की भी शक्ति है। और शक्ति होती है बोलने वाले पर निर्भर, शब्दों में नहीं होती। कितने गहरे से शब्द आते हैं; और उन शब्दों में कितने प्राण समाविष्ट हैं, और उन शब्दों में कितना अनुभव का रस भरा है, और उन शब्दों को जो कह रहा है, वह भी कहते समय मिट गया हो, हो ही न कहने वाला, सिर्फ आत्मा से गूंज उठी हो तत्त्वमसि। और सुनने वाला भी न हो, सिर्फ आत्मा तक गंज गई हो तत्त्वमसि—वह तू ही है। तो इस मिलन के बिंदु पर बिना कुछ किए भी—काफी करना हो गया यह—क्रांति घटित हो जाती है, विस्फोट हो जाता है, वह जो अज्ञानी था, अचानक ज्ञानी हो जाता है।

ऐसी घटनाएं हैं इतिहास में, जब कि केवल सुन कर बात हो गई। हमें भरोसा नहीं आता, क्योंकि हम बहुत करते हैं तब भी वह बात नहीं होती, बहुत उपाय करते हैं, तब भी लगता है कुछ नहीं हो रहा।

मिलन दो ऐसी चेतनाओं का कि बोलने वाला मौजूद न हो और वाणी प्रकट हो, और सुनने वाला मौजूद न हो और वाणी प्रवेश करे, तो श्रवण से भी यात्रा पूरी हो जाती है।

लेकिन ऐसा संयोग खोजना कठिन है। ऐसा संयोग मिल भी जाए तो उसका उपयोग करना कठिन है। बहुत बारीक है संयोग। इसलिए शिष्य वर्षों तक गुरु के पास रहता था, इस संयोग की प्रतीक्षा में—कब मौका आ जाए? कब तैयारी हो? तो वर्षों तक, वर्षों तक चुप रहने की ही साधना चलती थी। श्वेतकेतु अपने गुरु के पास गया। तो वर्षों तक गुरु ने पूछा ही नहीं, कैसे आए हो? श्वेतकेतु ने कहा कि जब गुरु पूछेगा, तब बता देंगे। वर्षों तक गुरु ने पूछा ही नहीं! बड़ी मीठी कथा है कि गुरु की जो सुबह से यश की अग्नि जलती थी, हवन जलता था, वह हवनकुंड भी अधैर्य से भर गया!,

बड़ी मीठी कथा है कि श्वेतकेतु आया, हवनकुंड को भी दया आने लगी श्वेतकेतु पर कि कितने वर्ष हो गए इसे आए और अब तक गुरु ने यह भी नहीं पूछा कि कैसे आए हो! वह लाकर लकड़ी काटता, आग जलाता, दूध दुहता, गुरु के पैर दाबता। रात हो जाती, वहीं गुरु के चरणों में सो जाता। सुबह उठ कर फिर काम में लग जाता! वह जो हवन जलता रहता चौबीस घंटे, उस अग्नि को भी दया आने लगी कि अब यह क्या होगा? यह श्वेतकेतु अपनी तरफ से कहता नहीं कि मैं किसलिए आया हूं, और यह उद्दालक है कि पूछता नहीं कि किसलिए आए हो!

ऐसी प्रतीक्षा, ऐसा धैर्य, इतनी चुप्पी अपने आप श्रावक बना देती थी। धीरे—धीरे—धीरे—धीरे— धीरे गुरु की वाणी तो दूर, गुरु की श्वास भी सुनाई पड़ने लगती थी। उसकी हृदय की धड़कन भी—इतनी प्रतीक्षा में, इस मौन में—सुनाई पड़ने लगती थी। वह कुछ कहे, यह जरूरी भी न था, उसका हिलना—डुलना भी सुनाई पड़ने लगता था। और जब ठीक क्षण आता, तो वह कह देता। जब ठीक क्षण आता, तो कहने की घटना घट जाती, न तो गुरु को चेष्टा करनी पड़ती थी कहने की और न शिष्य को चेष्टा करनी पड़ती थी कुछ जानने की; ठीक क्षण में घटना घट जाती थी।

श्रवण बड़ा कीमती चरण है। आपके लिए दो—तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। एक, सुनते समय सुनना ही हो जाएं। सुनने वाला भूल जाए, कान ही रह जाएं; फैल जाएं कान। आपका सारा शरीर कान बन जाए; सब तरफ से सुनने लगें, और भीतर कोई चिंतन न हो। सारा चित्त एकाग्र रूप से सुनने में डूब जाए। तो भीतर कोई विचार न चलाएं।

हम सबको डर लगता है कि अगर विचार न करेंगे तो पता नहीं, न मालूम कोई गलत बात हमारे भीतर डाल दे! न मालूम कोई हमारी मान्यताओं को खंडित कर दे! तो हम सुरक्षा में लगे रहते हैं कि क्या तुम कह रहे हो, जांच—पड़ताल करके भीतर जाने देंगे; अपने मतलब का होगा तो जाने देंगे, अपने मतलब का नहीं होगा तो नहीं जाने देंगे।

आप जान कर हैरान होंगे कि मनसविद कहते हैं कि आपसे अगर सौ बातें कही जाएं, तो आपका मन पांच बातों को मुश्किल से भीतर जाने देता है! पंचानबे को बाहर लौटा देता है—घुसने ही नहीं देता। क्यों? क्योंकि आपकी मान्यताएं अतीत की निर्भर हैं, तय हैं। कोई मुसलमान है, कोई हिंदू है, कोई जैन है, कोई ईसाई है—वह भीतर है, वह बैठा है वहा भीतर आपका मन अतीत में संगृहीत किया हुआ। वह पूरे वक्त जांच—पड़ताल रखता है कि अपने से कुछ मेल खाता हो, अपने को कोई मजबूत करता हो, तो उसे भीतर ले लो। अपने से मेल न खाता हो, अपने को मजबूत न करता हो, तो उसे भीतर आने ही मत दो, उसे बाहर ही रोक दो। इस तरह सुन लो किं जैसे सुना ही नहीं, या सुन कर भी तत्काल उसका विरोध कर दो, ताकि भीतर प्रवेश न कर सके।

आप जरा अपने मन का खयाल करना कि क्या आप पूरे वक्त भीतर ही और न कहते रहते हैं? कौन कह रहा है यह हां और न? आप नहीं कह रहे हैं, यह आपका मन है, जो आपने इकट्ठा किया है। तो मन अपने अनुकूल को चुनता है और प्रतिकूल को छोड़ देता है। तब बड़ी कठिनाई है! इसी मन को मिटाना है; और यह अनुकूल को चुनता है और प्रतिकूल को सुनता नहीं, यह मिटेगा कैसे? यही मन है दुश्मन और यही है आपका नियंता; इसी को मिटाने चले हैं और इसी के सहारे मिटाने चले हैं; तो कभी न मिटा पाएंगे। तो जरा सी एक बात आपको खटक जाए, कि यह बात नहीं जंचती आपकी मान्यताओं में, बस मन आपका द्वार बंद कर लेता है कि सुनो ही मत अब, अनसुना कर दो या विरोध करते जाओ भीतर। हम सुरक्षा में लगे हैं अपनी, जैसे कोई संघर्ष चल रहा है। श्रवण नहीं हो पाएगा फिर। फिर एक कलह चल रही है।

मगर श्रवण का अर्थ कोई अंधा स्वीकार नहीं है। श्रवण का स्वीकार से कोई संबंध ही नहीं है। श्रवण का संबंध सिर्फ इस बात को ठीक से सुन लेने से है कि क्या कहा गया है।

दूसरा चरण है, मनन।

जो कहा गया है उसे सुन कर मनन करना है, जो कहा गया है उसकी प्रामाणिकता में सुन कर मनन करना है। यह मनन की पहली शर्त है। आपने अपने मतलब का चुन लिया, उस पर मनन किया, वह मनन नहीं है, वह धोखा है।

तो मनन की पहली शर्त. सुन लिया, बिना ही—न किए। निंदा, प्रशंसा, स्वीकार—अस्वीकार—कुछ भी नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं, कोई निर्णय नहीं—पक्ष न विपक्ष; मौन, तटस्थ सुन लिया, क्या कहा है। उसे उतर जाने दिया हृदय के आखिरी कोने तक, ताकि उससे परिचय हो जाए। जिससे परिचय है, उसी का तो मनन हो सकता है।

यही चिंतन और मनन का फर्क है। चिंतन हम उसका करते हैं, जिसका कोई ठीक से परिचय ही नहीं है। चिंतन है अपरिचित के साथ बुद्धि की प्रक्रिया, व्यायाम। मनन है परिचित के साथ—जिसे आत्मसात किया, डुबा लिया अपने में भीतर, उस पर विचार।

दोनों में बड़ा फर्क है। चिंतन में कलह है, मनन में सहानुभूति है। चिंतन में द्वंद्व है, मनन में विमर्श है। ये बड़े फर्क हैं। चिंतन का मतलब है, आप लड़ रहे हैं किसी चीज से। अगर न जीत पाए, तो मान लेंगे। लेकिन मानने में पीडा रहेगी।

इसलिए जब आप किसी से विवाद करते हैं, और उससे तर्क नहीं कर पाते, और आपको मानना पड़ता है, तो आपको पता है, भीतर कैसी पीड़ा होती है! मान लेते हैं, क्योंकि अब तर्क नहीं कर सकते हैं; लेकिन भीतर? भीतर तैयारी रहती है कि आज नहीं कल, उखाड़ कर फेंक देंगे यह सब, आज नहीं कल, अस्वीकार कर देंगे।

इसलिए इस दुनिया में किसी भी आदमी को तर्क से रूपांतरित नहीं किया जा सकता; क्योंकि तर्क का मतलब है, पराजय। अगर उसको तर्क से कोई चीज सिद्ध भी कर दी, तो वह हारा हुआ अनुभव करेगा, बदला हुआ नहीं। हारा हुआ अनुभव करेगा कि ठीक है, मैं कुछ जवाब नहीं दे पा रहा हूं, तर्क नहीं खोज पा रहा हूं; जिस दिन तर्क खोज लूंगा, देखूंगा। हारा हुआ अनुभव करेगा।

और ध्यान रहे, हारा हुआ आदमी कभी भी बदला हुआ आदमी नहीं होता। तो आप किसी को चुप कर सकते हैं तर्क से, रूपांतरित नहीं कर सकते। और बात भी ठीक है, तर्क से रूपांतरित किसी को होना भी नहीं चाहिए। क्योंकि जब दो व्यक्ति विवाद करते हैं, तो जो हार जाता है, जरूरी नहीं है कि वह गलत रहा हो, जो जीत जाता है, जरूरी नहीं है कि सही रहा हो। इतना ही जरूरी है कि जो जीत गया है, वह ज्यादा तर्क कर सकता था; जो हार गया है, वह कम तर्क कर सकता था। इससे ज्यादा कुछ भी पक्का नहीं है। तो स्वाभाविक है कि तर्क से कोई कभी बदलता नहीं; क्रांति कोई घटित नहीं होती। तर्क से आघात लगता है अहंकार को, और अहंकार बदला लेना चाहता है। तर्क एक संघर्ष है।

चिंतन में एक संघर्ष है भीतर। जो भी आप चिंतन करते हैं, उससे आप जूझते हैं, लड़ते हैं; एक भीतरी लडाई चलती है। आप अपनी सारी अतीत की स्मृति और सारे अतीत के विचारों को उसके खिलाफ खड़ा कर देते हैं। फिर भी अगर हार जाते हैं, तो मान लेते हैं; लेकिन मानने में एक पीड़ा, एक दंश, एक कांटा चुभता रहता है। वह मानना मजबूरी का है। उस मानने में कोई प्रफुल्लता घटित नहीं होती। उस मानने से आपका फूल खिलता नहीं है, मुर्झाता है।

तो चिंतन, विचारक जो करते रहते हैं सारी दुनिया में, इसलिए विचारकों के चेहरे पर बुद्ध की प्रफुल्लता नहीं दिखाई पड़ेगी। क्या फर्क है? महावीर का प्रमुदित व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ेगा विचारकों में। विचारकों के चेहरे पर चिंतन की रेखाएं दिखाई पड़ेगी, मनन के फूल नहीं दिखाई पड़ेंगे। विचारक के माथे पर धीरे—धीरे झुर्रिया पड़ती जाएंगी; एक—एक रेखा खिंच जाएगी, उसने जिंदगी भर जो मेहनत की है उसकी! लेकिन वह जो बुद्ध या किसी महावीर के भीतर घटित होता है, वह जो खिलावट है, वह दिखाई नहीं पड़ेगी। विचार बोझ दे जाएगा; कमर झुक जाएगी। विचारक चिंतित मालूम पड़ने लगेगा।

चिंतन और चिंता में कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। सब चिंतन चिंता का ही रूप है। बेचैनी है उसमें छिपी हुई; एक तनाव है। क्योंकि एक भीतरी संघर्ष है, कलह है, लड़ाई है एक। इसलिए विचारक का होते—होते, होते—होते, झुक जाता है बोझ से! विचार के ही बोझ से झुक जाता है।

बुद्ध और महावीर के साथ उलटी घटना घटती है। जैसे—जैसे ये के होते हैं, भीतर जैसे कुछ युवा होता जाता है; कोई ताजगी! यह मनन है।

मनन और चिंतन का फर्क है। चिंतन शुरू होता है तर्क से, मनन शुरू होता है श्रवण से। चिंतन शुरू होता है संघर्ष से, मनन शुरू होता है श्रवण से। श्रवण ग्राहकता है, कोई संघर्ष नहीं है। तो मनन और चिंतन का पहला फर्क।

स्वभावत:, चिंतन चूंकि कलह से शुरू होता है, इसलिए तर्कणा उसका आधार है, सहानुभूति वहां नहीं है। विरोध, शत्रुता वहां आधार है, विवाद। मनन शुरू ही होता है श्रवण से, इसलिए सहानुभूति वहा आधार है।

सहानुभूति का क्या अर्थ है? सहानुभूतिपूर्ण विचारणा! जो हम सोच रहे हैं, जिस संबंध में हम सोच रहे हैं, बड़े सहानुभूति से और बड़े प्रेम से सोच रहे हैं।

क्या फर्क पड़ता होगा क्वालिटी में चिंतन की, मनन की?

जब आप किसी चीज को सहानुभूति से सोचते हैं, तो आपकी पूरी आंतरिक आकांक्षा यह होती है कि जो मैं सुना हूं वह सही हो सकता है; और सही हो, तो मेरे लाभ का हो सकता है। इसलिए आप खोजते हैं पहले वे बिंदु, जो सही हों। जब आप चिंतन करते हैं, तो आप यह मान कर चलते हैं कि जो सुना है, वह गलत है। खोजते हैं पहले वे बिंदु, जो गलत हों।

ऐसा समझें कि कोई आदमी गुलाब के वृक्ष के पास, फूलों की क्यारी के पास खड़ा है। अगर वह चिंतन कर रहा है तो पहले वह कांटे गिनेगा, अगर वह मनन कर रहा है तो पहले वह फूल गिनेगा। और इससे बुनियादी फर्क पड़ता है. कहां से आप शुरू करते हैं?

क्योंकि जो आदमी पहले काटे गिनेगा, उसका विरोधी रुख जाहिर है। पहले वह कांटे गिनेगा, हजारों काटे निकलेंगे। और कांटे गिनने में हाथ में कांटे चुभेंगे भी, खून भी निकलेगा। वह काटो का चुभना और कीटों की संख्या और खून का बह जाना फूलों की खिलाफत के लिए आधार बन जाएगा। और फिर जब लाख कांटे गिन लेगा और एकाध—दो फूल दिखाई पड़ेंगे, तो मन कहेगा कि ये फूल धोखे के हैं, ये सच नहीं हो सकते। क्योंकि जहां इतने काटे हैं, वहां फूल हो कैसे सकते हैं इतने कोमल! मैं कोई धोखा खा रहा हूं। स्वाभाविक, यह उचित मालूम होगा। इतने काटे जहां हैं, जहा लहू बहा देने वाले कांटे हैं, वहां ये कोमल फूल खिल कैसे सकते हैं! यह असंभव मालूम पडता है। और फिर अगर मान भी लेगा कि फूल हैं भी, तो वह कहेगा, कोई मूल्य नहीं है। लाख काटो में एक फूल का मूल्य भी क्या है? बल्कि ऐसा लगता है, यह कीटों का षड्यंत्र है, ताकि एक फूल के बहाने लाख काटे दुनिया में बने रहें। यह धोखा है। यह फूल जो है, काटो को छिपाए हुए है। यह उनके षड्यंत्र का भागीदार है।

जो आदमी फूल से शुरू करेगा—मनन, फूल से शुरू करेगा—पहले फूलों को छुएगा, फूलों की सुवास उसके हाथों में भर जाएगी; फूलों का रंग उसकी आंखों में उतर जाएगा; फूलों की कोमलता उसके स्पर्श में लीन होने लगेगी, फूल का सौंदर्य उसे आच्छादित कर लेगा। फिर वह काटो के पास आएगा—फूलों को देखने के बाद, फूलों को जानने, जीने के बाद; प्रेम में गिर गया वह उस झाड़ी के— अब वह कांटों के पास आएगा। इसकी दृष्टि में काटे और ही तरह के होंगे।

जो आदमी फूलों को समझ कर काटो के पास जाएगा, वह समझेगा कि काटे फूलों की रक्षा के लिए हैं। फूलों के दुश्मन नहीं है; फूलों के विपरीत नहीं हैं। जो रस फूलों में बह रहा है, वही रस कीटों में बह रहा है, और काटे फूल की रक्षा के लिए हैं। और जिसको फूल दिखाई पड़ गए हैं—एक फूल भी जिसे दिखाई पड़ गया है ठीक से—लाख काटे बेकार हो जाएंगे। क्योंकि एक फूल का होना भी काफी है लाख काटो को बेकार करने के लिए। और अगर इतने काटो के बीच फूल खिल सकता है, तो असंभव चमत्कार है! असंभव भी हो सकता है! और जब इतने काटो के बीच फूल खिल सकता है, तो इस आदमी को दिखाई पड़ेगा कि मैं जरा और खोज करूं, और खोज करूं, शायद काटे भी फूल ही सिद्ध हों!

तो मनन सहानुभूति से शुरू होता है; चिंतन विरोध से शुरू होता है। श्रवण की शर्त पूरी हो जाए तो सहानुभूति जग जाती है। सहानुभूति जग जाए तो चिंतन की धारा ही विपरीत हो जाती है, मनन बन जाती है। मनन का अर्थ भी अंधे होकर स्वीकार कर लेना नहीं है।

इसलिए ऋषि ने कहा है’जो सुना गया है, श्रवण हुआ है उसके अर्थ को युक्तिपूर्वक विचार करना, यह मनन है।’

तो कोई यह न सोचे कि मनन का अर्थ अंधे होकर स्वीकार कर लेना है। न तो श्रवण का अर्थ स्वीकार कर लेना है, न मनन का अर्थ स्वीकार कर लेना है, युक्ति का उपयोग करना है। लेकिन युक्ति का उपयोग भी बदल जाता है। युक्ति अपने आप में तटस्थ है। जैसे एक तलवार मेरे हाथ में है, तलवार तो तटस्थ है। चाहूं किसी की जान ले लूं, चाहूं किसी की जान बचा लूं; तलवार तटस्थ है। युक्ति तटस्थ है। अलग—अलग ढांचे में युक्ति का अर्थ बदल जाता है। अगर दुश्मनी से, विरोध से, संघर्ष से भरा हुआ चित्त हो, तो तर्क हिंसात्मक हो जाता है। अगर सहानुभूति से, श्रवण से, प्रेम से, सत्य की खोज और अभीप्सा से भरा चित्त हो, तो युक्ति रक्षा करने वाली तलवार बन जाती है। युक्ति अपने में बुरी नहीं है।

इसलिए हमने इस देश में दो तरह के तर्क माने हैं : एक को तर्क कहा और एक को कुतर्क कहा। कुतर्क भी तर्क है। और कभी—कभी तो कुतर्क तर्क से भी ज्यादा तर्कपूर्ण मालूम पड़ता है, क्योंकि उसमें धार होती है, और पैनी धार होती है, और काटने के लिए, मारने के लिए सक्षम होती है। तो कुतर्क कभी—कभी बिलकुल ही गहरा तर्क मालूम पड़ता है। फर्क कैसे करेंगे कि क्या कुतर्क है और क्या तर्क है?

यही फर्क है कि अगर तर्क शुभ की, सत्य की खोज के लिए है, सहानुभूति से भय है, फूलों से शुरू करता है, फिर कांटों पर जाता है..।

कोई बात मैं आपसे कहता हूं, आप कहां से शुरू करते हैं, इस पर खयाल करना। कई दफे मैं हैरान होता हूं! एक घंटे बोला, पीछे कोई आदमी मेरे पास आता है। घंटे भर में जो मैंने कहा, उसे कुछ खयाल में नहीं आया, कोई एक बात की खिलाफत उसको पकड़ जाती है। वह एक बात को चुन लेता है, वह उसकी खिलाफत करने आ जाता है। वह जो घंटे भर में और कहा, उससे उसे कोई संबंध नहीं रह जाता। बस, उतनी बात! और वह बात भी तोड़ लेता है सारे संदर्भ से, क्योंकि संदर्भ में उसका और अर्थ था। अलग तोड़ कर वह बिलकुल कोई और अर्थ ले लेती है। पर उसने सुना उसी को। उसकी तैयारी वही रही होगी। वह तैयार ही होकर आया होगा कि कुछ गलत खोज लिया जाए। अगर आप गलत खोजने को ही सुन रहे हों, तो आप कभी भी मनन न कर पाएंगे।

और ध्यान रहे, कितना ही गलत खोज डालें आप, गलत की खोज आपके भीतरी विकास में कोई तरह का सहारा नहीं बनेगी। आप कितना ही तय कर लें, कहां—कहां गलत है, आप सारी दुनिया की सारी गलतियां जान लें, फिर भी आपकी कोई इनर ग्रोथ, कोई आंतरिक विकास उससे नहीं होगा।

तो जो खोज में लगा है और अपने विकास में उत्सुक है, वह इसकी चिंता नहीं करता कि क्या गलत है, वह इसकी चिंता करता है कि क्या ठीक है। ठीक से शुरू करता है। और जो ठीक से शुरू करता है, किसी दिन जो उसे गलत दिखाई पड़ता था, शायद उस जगह पहुंच जाए कि जहां ठीक से शुरू करने के बाद उसे पता लगे कि उसका भी कोई अर्थ है, उसका भी कोई मूल्य है। और वह जो पहले गलत मालूम पड़ता था, वह पीछे ठीक मालूम पड़ सके। एस्फेसिस, जोर का फर्क है।

कुतर्क गलत को खोजता है, वहीं से यात्रा शुरू करता है। युक्ति, तर्क—सुतर्क कहें—ठीक से शुरू करता है।

एक आदमी को कुरान दे दें पढ़ने को। अगर वह हिंदू है, तो कुरान में जो—जो महत्वपूर्ण है, वह उसको दिखाई ही नहीं पड़ेगा, जो—जो गलत है, वह अंडरलाइन करके ले आएगा कि यह देखो, यह लिखा हुआ है! हम पहले ही कहते थे कि कुरान भी कोई धर्मशास्त्र है! मुसलमान को गीता दे दें। बराबर निकाल लाएगा कि क्या—क्या गलत है! और अगर यह कला सीखनी हो, आर्यसमाजियों से सीख लेनी चाहिए! कहा—कहां क्या—क्या गलत है, उसमें जैसे वे कुशल हैं, उतना कोई भी कुशल नहीं है!

मन को आर्यसमाजी बनने से बचाना, तो ही मनन हो सकेगा; नहीं तो मनन नहीं हो सकता, क्योंकि खोज ही गलत को रहे हैं। तो गलत काफी मिल जाएगा। काटो की कोई कमी है! पर काटो से प्रयोजन क्या है? कोई काटो की मालाएं बनानी हैं न: गले में डालनी हैं? प्रयोजन फूलों से है, काटो से प्रयोजन क्या है?

तो अगर युक्ति हो, तो कुरान में से भी फूल चुन लिए जाएंगे, और वे फूल किसी गीता से कम फूल नहीं हैं। अगर युक्ति हो, तो गीता में से भी वे फूल चुन लिए जाएंगे, वे फूल किसी कुरान, किसी बाइबिल से कम नहीं हैं। मनन करने वाला व्यक्ति फूलों की खोज में है; चिंतन करने वाला व्यक्ति काटो की खोज में है। वह आपको तय कर लेना चाहिए। एक बात खयाल रखना कि जो आप खोजेंगे, उसी से घिर जाएंगे। काटे खोजेंगे, काटो से घिर जाएंगे; फूल खोजेंगे, फूलों से घिर जाएंगे।

तो ध्यान रखना कि काटे खोज कर आप किसी और का अहित नहीं कर रहे हैं, अपना ही अहित कर रहे हैं; क्योंकि जो खोजेंगे, वही मिलेगा। हम सब काटो के खोजी हैं। कोई भी आदमी मिले, तो उसमें क्या भूल है, उसकी खोज की कुशलता का कोई अंत ही नहीं है, तत्काल वह दिखाई पड़ती है। फिर

धीरे—धीरे सबमें हम भूलें देख लेते हैं, उन्हीं के बीच रहना पड़ता है, जगत नर्क हो जाता है। क्योंकि सब गलत आदमी चारों तरफ मालूम पड़ते हैं, ठीक आदमी कोई दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए नहीं कि ठीक आदमी नहीं हैं, बल्कि इसलिए कि आपकी खोज ही गलत आदमी की है।

किसी से कहो कि फलां आदमी बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है। वह कहेगा, क्या बांसुरी बजाएगा? चोर! बेईमान! वह क्या बांसुरी बजाएगा?

अब चोर और बेईमान से बांसुरी बजाने का क्या विरोध है? होगा बेईमान, लेकिन बेईमान बांसुरी नहीं बजाता यह किसने कहा? कि नहीं बजा सकता यह किसने कहा? किसने यह संबंध जोड़ा? चोर में भी तो फूल खिल सकता है बांसुरी बजाने का। चोरी काटा होगी, बांसुरी बजाना फूल होगा। जब काटो में फूल खिल सकते हैं, तो चोर बांसुरी क्यों नहीं बजा सकता?

लेकिन नहीं, यह मानने में बड़ी पीड़ा होती है कि कोई कुछ भी अच्छा कर सकता है। फौरन कह देंगे कि चोर है, बेईमान है, वह क्या बांसुरी बजाएगा!

मनन वाले आदमी की वृत्ति दूसरी होगी। अगर आप कहेंगे उससे कि फला आदमी चोर है, बेईमान है। वह कहेगा, होगा, लेकिन बांसुरी गजब की बजाता है।

यह चुनाव का फर्क है। और जब कोई आदमी बांसुरी गजब की बजाता है, तो उसका चोर होना और बेईमान होना भी संदिग्ध होने लगता है। और जब कोई आदमी चोर और बेईमान गजब का होता है, तो उसका बांसुरी बजाना संदिग्ध होने लगता है। जो हम पकड़ते हैं, उससे दूसरी बात पर प्रभाव पड़ता है।

क्या जरूरत है कि वह चोर है या बेईमान है! हम अपने पड़ोसी को चोर और बेईमान चाहते हैं? तो हमें वही खोजना चाहिए। हम अपने पड़ोसी को सुगंधित बांसुरी बजाने वाला चाहते हैं, तो हमें वही खोजना चाहिए। जिंदगी में दोनों हैं। वहा रात भी है और दिन भी, और वहा बुरा भी है और भला भी। आप यह मत सोचना कि स्वर्ग कहीं और है जमीन से और नर्क कहीं और है, आपकी दृष्टि में निर्भर है। इसी जमीन पर लोग स्वर्ग में रहते हैं और इसी जमीन पर लोग नर्क में रहते हैं। आप क्या खोजते हैं, वही आपका जगत बन जाता है।

मनन फूलों से यात्रा शुरू करता है; सहानुभूति से। गलत पर जल्दी से हमला नहीं करता, सही को पहले आत्मसात कर लेता है। और जब सही पूरी तरह आत्मसात हो जाता है, तो ही जो पहले गलत जैसा दिखा था, उस पर सोचता है।

और ध्यान रहे, इस दृष्टि के रूपांतरण के बुनियादी अंतर बाद में दिखाई पड़ने शुरू होते हैं। ऐसा आदमी धीरे—धीरे विकसित होता है, अंकुरित होता है, सही को आत्मसात करते—करते सही हो जाता है। और गलत की खोज करते—करते, गलत को आत्मसात करते—करते गलत हो जाता है। जो आदमी दूसरों में बेईमानी और चोरी और गलत ही देखता है, ज्यादा दिन तक ईमानदार नहीं रह सकता। सच तो यह है कि पहले से ही ईमानदार नहीं हो सकता।

असल में कोई चोर किसी दूसरे आदमी को मान नहीं सकता कि चोर नहीं है। या कि मान सकता है? चोर यह मान ही नहीं सकता कि दूसरे लोग अचोर हैं। चोर के सोचने का सारा ढंग चोरी का हो जाता है। वह दूसरों में भी तत्काल चोरी खोजता है, देखता है। व्यभिचारी यह नहीं मान सकता कि कोई चरित्रवान है। मान ही नहीं सकता। उसका अनुभव बाधा बनता है मानने में।

यह बड़ी मजेदार बात है। व्यभिचारी मान नहीं सकता कि कोई ब्रह्मचारी है—मान ही नहीं सकता! यह बात ठीक है। अगर कोई सच में ही ब्रह्मचारी है, तो वह भी नहीं मान सकता कि कोई व्यभिचारी है! लेकिन यह बड़े मजे की बात है व्यभिचारी तो कभी नहीं मानते कि कोई ब्रह्मचारी है और ब्रह्मचारी भी नहीं मानते कि कोई ब्रह्मचारी है!

तब बड़ी झंझट की बात है। व्यभिचारी का न मानना तो तर्कसंगत है कि कोई ब्रह्मचारी हो नहीं सकता, जब मैं ही नहीं हो सका, तो कौन हो सकता है! लेकिन ब्रह्मचारी भी मानने को तैयार नहीं होता कि कोई दूसरा ब्रह्मचारी है। तब मामला संदिग्ध है, तब वह भी ब्रह्मचारी नहीं है; क्योंकि उसका भी भीतरी अनुभव यह है कि ब्रह्मचर्य वगैरह सब ऊपर—ऊपर है, भीतर व्यभिचार है। वह भी नहीं मानता।

इसलिए अगर आपको कोई साधु मिले जो दूसरों को असाधु मानता हो, तो समझ लेना कि अभी साधु साधु हो नहीं पाया है। साधु होने का मतलब ही यह है कि सारा जगत तत्‍क्षण साधु हो जाएगा। सारी बात ही बदल गई, क्योंकि देखने का ढंग बदल गया। एक आदमी जब भीतर साधु हो जाता है तो सारे जगत में उसे साधुता दिखाई पड़ने लगती है, क्योंकि जो भीतर है, वही बाहर दिखाई पड़ता है। अगर आपको सब में असाधुता दिखाई पड़ती हो, चोर, बेईमान, बदमाश दिखाई पड़ते हों, तो उनकी फिक्र छोड़ कर अपनी फिक्र में लगना। जो दिखाई पड़ता है, वह आपके भीतर है। वही आपको दिखाई पड़ता है। वही तत्काल दिखाई पड़ता है, क्योंकि उसकी संगति बैठ जाती है, भीतर से तत्काल संगति बैठ जाती है।

मनन, जीवन का जो सुध, शुक्ल पक्ष है, उससे शुरू होता है। चिंतन, जीवन का जो कृष्ण, अंधेरा पक्ष है, उससे शुरू होता है। यह ध्यान में रहे तो फिर युक्ति का बड़ा मजा है। विचार, तर्क बड़े सहयोगी हैं। तब पूरी निष्ठा से युक्ति की जा सकती है। और युक्ति से फिर नुकसान नहीं होता। फिर युक्ति सहयोगी बन जाती है, मित्र बन जाती है।

इस श्रवण। और मनन द्वारा निस्संदेह हुए अर्थ में चित्त को स्थापित करके एकतान बनाना

सुना महावाक्य तत्त्वमसि—तू ब्रह्म है। सुना पूरे प्राणों से, फिर सहानुभूति से सोचा, विमर्श किया, खोजा इस वाक्य के अर्थ को, इसकी अनेक— अनेक निष्पत्तियों को, अंतर्निहित गहराइयों को अनेक— अनेक मार्गों से टटोला, स्पर्श किया, स्वाद लिया, डुबाया अपने में, मनन किया—और फिर पाया कि सही है। पाया ही जाएगा कि सही है, क्योंकि जिन्होंने कहा, उन्होंने पाकर कहा है। ये कोई विचारकों के निष्कर्ष नहीं हैं, अनुभवियों की वाणी है। यह जिन्होंने सोचा, और सोच—सोच कर कुछ तय किया, उनकी बात नहीं है, जिन्होंने जाना, जीया, डूबे, पाया, उनकी खबरें हैं। पाएंगे ही। अगर मनन, श्रवण ठीक चला, तो पाएंगे ही कि ठीक है यह बात। अगर ठीक है, तो फिर इस ठीक से एकतान हो जाना निदिध्यासन है। अगर यह ठीक है कि मैं ब्रह्म ही हूं, तो फिर ब्रह्म जैसे ही होकर जीने लगना निदिध्यासन है। आचरण, व्यवहार, सब तरफ एकतान हो जाना। फिर कोशिश करना कि जो ठीक है, उसमें और मुझमें भेद न रह जाए। क्योंकि अगर यह वाक्य ठीक है, तो फिर मैं गलत हूं। दो ही बातें हो सकती हैं. या तो मैं सही हूं? तो यह वाक्य गलत है, अगर यह वाक्य सही है, तो फिर मैं गलत हूं।

हम सबकी कोशिश क्या है? इसे थोड़ा समझ लें। हमारी सदा यह कोशिश है कि मैं सही हूं! यही हमारा उपद्रव है। हमारे जीवन की सबसे बड़ी झंझट, सबसे बड़ी परेशानी और संताप यही है कि हम मान कर चलते हैं कि मैं सही हूं। यह तो हमारी शुरुआत है हर बात में कि मैं सही हूं। इसी से हम कसते हैं। यह हमारा निकष है, कसौटी है, कि मैं सही हूं। अब जो मेरे अनुकूल न पड़े वह गलत है।

इसको तय कर लेना चाहिए; साधक को यह तय कर लेना चाहिए कि यह मूढ़तापूर्ण विचार प्रस्थान न बने कि मैं सही हू। अगर आप सही ही हैं, तो अब खोज की कोई जरूरत ही नहीं है।

यह बहुत मजेदार है! कल एक महिला मेरे पास आईं। उन्होंने कहा कि मैं कोई बीस वर्ष पहले किसी स्वामी से दीक्षा ली हूं कुंडलिनी मेरी जाग्रत हो गई है। लेकिन चैन बिलकुल नहीं है, बड़ी बेचैनी है।

कुंडलिनी जाग्रत हो गई हो तो यह बेचैनी कैसे है? और अगर बेचैनी है तो कृपा करके कुंडलिनी को मानो कि सोई है, अभी जगी नहीं है। मगर नहीं, दोनों बात चलती हैं!

आप अगर सही हैं, तो फिर तो कुछ बची ही नहीं खोज, बात खतम हो गई। हर आदमी यह मान कर चलता है मैं सही हूं और फिर कहता है मुझे सत्य की खोज करनी है! सत्य की खोज करनी है तो निर्णय स्पष्ट हो जाना चाहिए चेतना के सामने कि मैं गलत हू। तो ही खोज हो सकती है। जब मैं गलत हूं, तब किसी सत्य में प्रवेश हो सकता है; मैं पहले से ही सही हू र तो सत्य ही गलत मालूम पड़ेगा। क्योंकि जब गलत आदमी अपने को सही मान रहा हो, तो सही को सही कभी नहीं देख सकता।

मन की व्यवस्था यही है मान कर चलने का कि मैं सही हूं। मेरा विचार, मेरी दृष्टि, मेरा धर्म, मेरा शास्त्र, मैं सही हूं—यहां से अगर शुरू करना है तो शुरू करने की कोई जरूरत नहीं, आप मंजिल पर पहुंच ही गए हैं, अब नाहक मेहनत कर रहे हैं। पाएंगे भी कहां मंजिल; मंजिल पर आप खड़े ही हैं। आप खुद ही मंजिल हैं।

यह साफ कर लेना चाहिए। अगर ऐसा पागलपन आ गया हो कि मैं सही हूं, तो खतम हो गई बात फिर कुछ खोज—बीन नहीं करनी चाहिए। खोज—बीन का मतलब ही है कि मैं गलत हूं। दुख है, संताप है पीड़ा है, तनाव है, परेशान हू बीमार हूं; और सब तरह से घिर गया हूं अपनी बीमारियों से। इन्हीं सब बीमारियों का जोड़ मैं हूं—ऐसा जो मान कर चले। और यही सच है। आप बीमारी का जोड़ हैं, ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। एक बंडल है, जिसमें सब तरह की बीमारियां हैं, अनेक—अनेक तरह की बीमारियां हैं। और हर आदमी आविष्कारक है, निजी बीमारियां खोज लेता है। और इन बीमारियों के बीच में भी यह भाव बनाए रखता है कि मैं सही हूं।

निदिध्यासन का अर्थ है, यह महावाक्य दिखाई पड़ा कि सही है। सुना, सोचा, देखा कि सही है। चित्त को उसका सही होना दिखाई पड़ गया, चेतना को प्रतीति होने लगी उसके सही होने की। अब व्यक्तित्व को भी उसी के अनुकूल ढाल देना निदिध्यासन है, जो दिखा हो सही, फिर उसी को जीना शुरू कर देना।

और ध्यान रहे, दिख जाए सही, तो जीने में कोई कठिनाई नहीं है। दिखते ही जीना शुरू हो जाता है। कौन आग में हाथ डालता है जान कर? अज्ञान में ही हाथ डाले जाते हैं आग में। कौन बुरा करता है जान कर? अज्ञान में ही बुरा किया जाता है। कौन विक्षिप्तता ओढ़ता है जान कर? अज्ञान में ही विक्षिप्तता ओढ़ी जाती है। जब दिखाई पड़ने लगे कि सही क्या है, उसकी दिखाई पड़ने की झलक ही आपको भीतर से बदलने लगेगी। आपकी सारी तरंगें, अब धीरे—धीरे जो आपको दिखाई पड़ा है, उसके साथ तालमेल बिठाने लगेंगी।

इस एकतानता, इस हार्मनी का नाम निदिध्यासन है।

फिर अगर, फिर अगर एकतानता न बने, कठिन मालूम पड़े, तो भी साधक जानता है कि यह मेरी ही कठिनाई है। तो अपने को पिघलाता है। अगर जटिल मालूम पड़े यात्रा, तो समझता है कि यह जटिलता, काप्लेक्सिटी मेरी है। तो अपने को सुलझाता है। लेकिन जो आदमी अपने को ठीक मान कर चलता है, अगर दो कदम चले, और कोई यात्रा में फल आता न दिखाई पड़े, तो वह समझता है कि यह, यह जो सोचा था तत्त्वमसि, यह ही गलत है, छोड़ो!

मेरे पास लोग आते हैं। कल एक मित्र आए; कल ही पहली दफा ध्यान किया। कल ही आए हैं और पहली दफा ध्यान किया। और कल ही मेरे पास पहुंच गए कि कुछ हुआ नहीं!

आदमी की मूढ़ता की भी कोई सीमा है! इस जगत में ब्रह्म और मूढ़ता, दो ही चीजें असीम मालूम पड़ती हैं! इनका कोई अंत नहीं मालूम पड़ता।

कल ही आए हैं पहली दफा! सुबह थोड़ा उछल—कूद लिए होंगे! दोपहर पहुंच गए, कि अभी तक कुछ हुआ नहीं है! कहने लगे, इस पद्धति में कोई सार नहीं दिखाई पडता। अभी तक कुछ हुआ नहीं! मैंने पूछा कि कितने जन्मों से कर रहे हैं इस पद्धति को? बोले, जन्म वगैरह नहीं, आज ही आया हूं! थोड़ा तो मौका दो पद्धति को! थोड़ी कृपा करो पद्धति पर, थोड़ा मौका दो!

आदमी अपने को सही ही मान कर चल रहा है! इसलिए जहां भी अड़चन आती है, दूसरी चीज ही गलत होगी, वह अपने सहीपन को कायम रख कर यात्रा पर निकल जाता है। भटकेंगे फिर तो जन्मों—जन्मों तक, कभी भी कोई बात बैठ नहीं पाएगी। क्योंकि एकतान करना श्रम है, एकदम नहीं हो जाएगा। क्योंकि जन्मों—जन्मों के संस्कार हैं पीछे, उनको तोड़ना पड़ेगा। आज आपको दिखाई भी पड जाए एकदम, एक क्षण में, साफ कि क्या सही है, तो भी आपके पैरों की चलने की आदत है, शरीर की आदत है, मन की आदत है। उन आदतों का बड़ा जाल है, वह जाल एकदम आज नहीं छूट जाएगा। उस जाल को तोड़ने का श्रम करना पड़ेगा। सवाल पद्धतियों का नहीं है, सवाल आपका है, पद्धति तो कोई भी काम कर सकती है। पर आप!

खयाल करें, जीवन हमारा आदत है। छोटी—छोटी बातों से लेकर बड़ी—बड़ी बातों तक सब आदत है। उस आदत की लंबी रेखा है। और हमारी चेतना उसी रेखा को बांध कर, पकड कर बहने की आदी हो गई है। आज अचानक दिख भी जाता है कि यह रास्ता गलत है, तो दूसरा रास्ता पकड़ने में रास्ता बनाना पड़ेगा। और ध्यान रहे, पिछली जो आदत थी, उससे ज्यादा गहरा रास्ता बनाना पड़ेगा। तभी यह पानी की धार उस यात्रा—पथ को छोड़ कर नए यात्रा—पथ को ग्रहण करेगी। मगर बस आपने सोच लिया कि बस ठीक है, तो इससे कुछ हल नहीं हो जाने वाला।

निदिध्यासन का अर्थ है जो सुना, जो समझा कि ठीक है, उसके अनुकूल जीवन को रूपांतरित करना। उसके अनुकूल, वक्त लगेगा। मन अड़चन डालेगा, शरीर बाधाएं खड़ी करेगा, सब होगा, लेकिन जब ठीक दिखाई पड़ गया हो, तो फिर सब भांति उस ठीक की यात्रा पर अपने को झोंक देना—यह हिम्मत आवश्यक है। फिर बैठने से काम नहीं चल पड़ेगा।

दिख गया हो तारा—बहुत दूर हो, लेकिन दिख गया तारा—तो फिर यात्रा पर निकल जाना। और यह मत सोचना कि एक कदम बढ़ाया, अभी तो तारे तक पहुंचे नहीं! दो कदम उठा लिए, अभी तक तारे तक नहीं पहुंचे! कोई फिक्र नहीं, दो कदम पहुंचे, इतना भी कुछ कम नहीं है। दो कदम चले, इतना भी कुछ कम नहीं है। क्योंकि अनेक तो हैं, बैठे ही हैं जन्मों से; वे उठे ही नहीं; वे यह भूल ही गए हैं कि उठना भी होता है, चलना भी होता है!

बुद्ध ने कहा है, तुम चलो। कितनी ही भूल करो, चिंता नहीं है; चले, इतना ही काफी है। चले, भूल की, भूल सुधार लेंगे। भटके, कोई फिक्र नहीं। पैरों में गति आ गई। आज भटकाव की तरफ गए, कल ठीक की तरफ आ जाओगे। एक ही भूल है, बुद्ध ने कहा कि तुम चलो ही न और बैठे रहो।

यद्यपि जो बैठा रहता है उससे कोई भूल नहीं होती। बैठे ही हैं तो भूल क्या होगी? दुनिया में भूल तो उससे होती है, जो चलता है। भूल तो उससे होती है, जो कुछ करता है। उनसे कहीं कोई भूल होती है जो कुछ करते ही नहीं और बैठे हैं! बिलकुल निर्मूल होते हैं वे। लेकिन एक ही भूल है दुनिया में, बैठे रहना।

उठ कर चल पड़ना, जो ठीक लगे उसकी यात्रा पर। अगर वह कल गलत भी सिद्ध हुआ, तो भी कम से कम एक लाभ तो होगा कि चलना आ जाएगा। वह जो चलना आ जाएगा, तो कल ठीक दिशा भी पकड़ी जा सकती है। असली चीज दिशा नहीं है, असली चीज गत्यात्मकता है; वह चलने की क्षमता है।

निदिध्यासन प्रयास है एकतान होने का। यह शब्द बहुत अदभुत है।

‘श्रवण और मनन द्वारा निस्संदेह हुए अर्थ में चित्त को स्थापित करके एकतान बनाना, यह निदिध्यासन है।’

फिर जो दिखाई पड़ रहा है, उसके साथ चित्त का तालमेल हो जाए। वह हमारी झलक न रह जाए सिर्फ, हमारा चित्त ही बन जाए। वह ऐसा न लगे कि एक विचार है हमारा, बल्कि ऐसा हो जाए कि यही हमारा मन है अब।

जैसे एक आदमी ने संन्यास लिया, तो संन्यास एक विचार की तरह भी लिया जा सकता है कि ठीक लगता है, समझ में आता है—ले लिया। पर एक विचार है मन में, और हजार विचार हैं। तो एकतानता पैदा नहीं होगी अभी। धीरे—धीरे— धीरे—धीरे—धीरे, यह जो एक विचार की तरह प्रवेश किया था, इसका रंग हमारे सब विचारों पर फैल जाए। सब विचारों पर फैलने का मतलब यह है कि भोजन करते वक्त भी एक संसारी के भोजन और एक संन्यासी के भोजन में अंतर पड़ जाना चाहिए; वह रंग जो संन्यास का है, भोजन करने की क्रिया पर भी फैल जाए। संन्यासी ऐसे भोजन करे, जैसे मैं भोजन नहीं कर रहा हूं; संन्यासी ऐसे चले, जैसे मैं नहीं चल रहा हूं संन्यासी ऐसे उठे कि मैं नहीं उठ रहा हूं सारा कर्तृत्व छोड़ दे।

तो एक तो संन्यास एक विचार की तरह ले लिया, और एक फिर पूरे जीवन की एकतानता साधी; फिर चित्त ही संन्यासी हो गया।

तो बुद्ध ने कहा है कि भिक्षु सोए भी, एक भिक्षु सो रहा हो और एक गृहस्थ सो रहा हो, तो देखने वाला बता सके कि कौन भिक्षु है, कौन गृहस्थ है। सोने की क्वालिटी, सोने का ढंग भिक्षु का बदल जाना चाहिए, संन्यासी का बदल जाना चाहिए। क्योंकि जिसका चित्त बदल गया हो पूरा, उसकी सभी क्रियाओं में उसकी छाया, और रंग, और ध्वनि फैल जानी चाहिए। फैल ही जाएगी।

तो एक विचार की तरह नहीं, एकतानता की तरह निदिध्यासन। और—

‘फिर ध्याता तथा ध्यान का त्याग करके, चित्त केवल एक ध्येय को ही विषय रूप माने और वायुरहित स्थान में रखे हुए दीए के समान निश्चल बन जाए, उसको समाधि कहते हैं।’

समाधि परम घटना है। ये तीन उसकी तरफ पहुंचने के चरण हैं, चौथा चरण समाधि है। उसके पार शब्द का जगत नहीं है। उसके पार, कहा जा सके, उसका जगत नहीं है। समाधि तक की बात कही जा सकती है। उस तरफ, उस तरफ जो है, उसके बाबत कभी कुछ कहा नहीं गया, और कभी कुछ कहा नहीं जा सकेगा।

पर समाधि के द्वार पर जो खड़ा हो जाता है, वह उसे देख लेता है, जो दिखाई नहीं पड़ता; उसे जान लेता है, जिसे जानना असंभव है, उससे उसका मिलन हो जाता है, जिसके बिना मिले ही सारा दुख सारी पीड़ा, सारा संताप है। वह जो अज्ञेय है, वह ज्ञेय बन जाता है। और वह जो रहस्य है, खुल जाता है प्रकट हो जाता है। सब ग्रंथियां टूट जाती हैं। खुले आकाश की भांति सत्य के बीच, सत्य में एक हो जाता है चैतन्य।

समाधि निदिध्यासन के बाद की बात है। जिसने अपने चित्त को ऐसे महावाक्यों के साथ—तत्त्वमसि अहं ब्रह्मास्मि, सोऽहम्—ऐसे महावाक्यों के साथ एकतान कर लिया, जिसका चरित्र और जिसका चित्त इनकी अभिव्यक्ति बन गया। जो उठता है तो उसके उठने में स्वर है तत्त्वमसि का, उसके उठने में भी वह मुद्रा और वह गेस्चर और वह खबर है कि वह ब्रह्म के साथ एक होकर डोल रहा है, ऐसा व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो पाता है।

ध्याता और ध्यान, दोनों ही खो जाएं, सिर्फ ध्येय रह जाए—यह समाधि है।

इसे समझ लें। तीन शब्द हैं ध्याता, ध्यान, ध्येय। उदाहरण के लिए, तत्त्वमसि, तू वही है—यह ध्येय है। इसी’महावाक्य को हम समझ रहे हैं। यह ध्येय है। यह पाने जैसा है। यही पाने जैसा है। यही है लक्ष्य। यही अंतिम गंतव्य है। फिर मैं हूं—जो ध्याता है, जो इस ध्येय को सोच रहा है, इस ध्येय को विचार रहा है, इस ध्येय की अभीप्सा कर रहा है, इस ध्येय के लिए प्यासा है, आतुर है—कैसे इस ध्येय तक पहुंच जाए!

ध्येय है वह मैं ही हूं। यह मैं हूं, ध्याता; इस ध्येय की तरफ जा रही चेतना। और जब ध्याता ध्येय की तरफ दौड़ने लगता है; और सारी तरफ दौड़ बंद हो जाती है, बस एक ही दौड़ रह जाती है चेतना की, ध्येय की तरफ, तो उस दौड का नाम ध्यान है। जब चेतना की सारी धारा ध्येय की तरफ एकजुट होकर बहने लगती है, अलग— अलग पच्चीस धाराओं में नहीं बहती; सभी तरफ से चेतना इकट्ठी होकर एक ही धार बन जाती है और ध्येय की तरफ तीर की तरह बहने लगती है, सतत—इस बहती हुई चेतना का नाम ध्यान है।

समाधि, उपनिषद कहता है कि जब यह ध्यान सारे के सारे प्राणों को उलीच कर ध्येय में डूब जाए और जब ध्याता कीं—वह जो ध्यान कर रहा था—ध्याता की, मेडिटेटर की सारी ऊर्जा, सारी चेतना, इस ध्यान की विधि में यात्रा करके ध्येय के साथ एक हो जाए, और ऐसी घड़ी आ जाए कि ध्याता को पता न रहे कि मैं हूं—आती है—पता न रहे कि मैं हूं, ध्याता को यह भी पता न रहे कि ध्यान है, सिर्फ तत्त्वमसि, वह जो ध्येय है, वही मात्र रह जाए, उसको उपनिषद ने कहा समाधि। एक ही रह जाए, तीन न रहें; ध्याता ध्यान, ध्येय—तीन न रहें, एक ही रह जाए।

इसे थोड़ा समझ लें। क्योंकि अलग—अलग साधना—पद्धतियों ने, कौन एक रह जाए, इसका अलग—अलग चुनाव किया है।

उपनिषद कहते हैं, ध्येय रह जाए, ध्याता और ध्यान खो जाएं। महावीर कहते हैं, ध्याता रह जाए, ध्यान और ध्येय खो जाएं; आत्म भर रह जाए; शुद्ध मैं रह जाऊं। विपरीत मालूम पड़ता है। सांख्य कहता है, ध्याता और ध्येय दोनों खो जाएं, ध्यान रह जाए; सिर्फ चैतन्य रह जाए, सिर्फ बोध, सिर्फ अवेयरनेस। लगता है कि बड़ी विपरीत बातें हैं। जरा भी विपरीत नहीं हैं, और पंडित बड़ा विवाद करते रहे हैं! पंडितों के विवाद बड़े हास्यास्पद हैं, हंसने योग्य हैं। बड़ा विवाद करते रहे हैं; विवाद होगा भी। जो शब्द को ही समझते हैं, वे विवाद करेंगे कि ये तीनों तो विपरीत बातें हैं। उपनिषद कहते हैं ध्येय रह जाए, कोई कहता है ध्यान रह जाए, कोई कहता है ध्याता रह जाए, तो समाधि क्या है फिर? यह तो तीन तरह की समाधि हो गई! और अगर ध्येय रह जाए यह समाधि है, तो ध्याता रह जाए वह फिर कैसे समाधि होगी? तो तय करना पड़ेगा, सही समाधि कौन सी है। दो गलत होंगी, एक ठीक होगी।

पंडित शब्दों में जीता है, अनुभवों में नहीं। अनुभव का बड़ा मजा और है। ये तीनों एक ही बात हैं। क्यों? क्योंकि ये तीनों के साथ एक मजा है कि दो खो जाएं—कोई भी दो खो जाएं—एक बच जाए, तो उस एक का नाम देना बिलकुल कृत्रिम है। वह कौन सा नाम आप देते हैं, आप पर निर्भर है।

ये तीन हैं अभी. ध्याता है, ध्यान है, ध्येय है। साधक के लिए, निदिध्यासन वाले साधक के लिए ये तीन हैं। जब इन तीनों का खोना हो जाता है और एक बचता है, तो इन तीन में से वह कोई भी एक नाम चुनता है। वह चुनाव बिलकुल निजी है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसको क्या नाम आप देते हैं। चाहें तो उसको चौथा नाम भी चुन सकते हैं। अनेक उपनिषदों ने उसको चौथा ही नाम दे दिया, तीनों ही खो जाते हैं; झगड़ा नहीं रखा। कि इन तीन में से चुनेंगे, तो लगेगा कि वह कोई पक्षपात है. दो छोड़े और एक बचा। तो उन्होंने कहा, तुरीय—दि फोर्थ। उन्होंने चौथे को भी सिर्फ चौथा ही नाम दिया। उसको नाम भी नहीं दिया ताकि झंझट खड़ी हो कोई। कहा, चौथा।

लेकिन झंझट करने वालों को कोई अड़चन नहीं है। वे कहते हैं, तीन थे, चौथा आया कहां से? यह चौथा कौन है? उन तीन में से कौन है? या कि वे तीनों ही खो गए, यह चौथा बिलकुल अलग है? या कि तीनों का जोड़ है? यह चौथा क्या है?

उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, जिसको विवाद करना है, उसके लिए कोई भी चीज विवाद शुरू करने के लिए काफी है। जिसको साधना करनी है, उसकी यात्रा बिलकुल अलग है।

इन तीन में से एक नाम उपनिषदों ने चुन लिया, ध्येय बच जाता है। महावीर ने चुना, ध्याता बच जाता है। सांख्य ने कहा, ध्यान बच जाता है। ये सिर्फ नाम हैं। एक बच जाता है, यह तय है। तीन नहीं रह जाते, एक रह जाता है, यह तय है। नाम कृत्रिम हैं, कोई भी नाम दे दें। इतना ही याद रखें कि जब एक बच जाता है, तो समाधि है! जब तक दो बचे हैं, तब तक जानना कि तीन बचे हैं। क्योंकि दो जब तक बचते हैं, दोनों को जोड़ने वाला एक तीसरा बीच में खड़ा रहता है।

दो अकेले नहीं बच सकते। दो का मतलब सदा तीन होता है। इसलिए जो लोग बहुत गणित की भाषा में सोचते हैं, वे जगत को द्वैत नहीं कहते, वे त्रैत कहते हैं। जो बहुत व्यवस्था में सोचते हैं और गणित के ढंग से सोचते हैं, वे जगत को कहते हैं, जगत है त्रैत—द्वैत नहीं। क्योंकि दो होंगे तो तीसरा होगा ही। क्योंकि दो को जोड़ेगा कौन? या दो को अलग कौन करेगा? दो के बीच तीसरा अनिवार्य हो जाता है। तीन अस्तित्व का ढंग है।

इसलिए हमने त्रिमूर्ति बनाई। वह त्रैत की सूचक है, कि जगत तीन से मिल कर बना है। लेकिन तीन चेहरे बनाए हैं एक ही आदमी के; वह है चौथा। ये तीनों चेहरों के भीतर से कहीं से भी प्रवेश करें, भीतर जब पहुंचेंगे तो तीनों चेहरे न रह जाएंगे। लेकिन साधक जहां से प्रवेश करेगा, वहा से पसंद करेगा। कोई विष्णु के मुंह से प्रवेश करे भीतर, कोई ब्रह्मा के, कोई महेश के। तो जहां से वह प्रवेश करेगा, वही नाम वह जो भीतर पहुंचेगा, तो दे देगा चौथे को; कहेगा कि विष्णु, कहेगा कि महेश, कहेगा कि ब्रह्मा। मगर भीतर पहुंच कर तीनों चेहरे खो जाते हैं। भीतर कोई चेहरा नहीं है, भीतर एक है।

यह त्रिमूर्ति सिर्फ मूर्ति नहीं है, यह हमारी परम साधना की निष्पत्ति है।

तीन हैं आखिरी छलांग के पहले, तीन बच जाते हैं : ध्याता, ध्यान, ध्येय। और इन तीन में से जिसने छलांग लगाई—एक बच जाता है। उसे जो नाम देना चाहें, मर्जी; नाम से कोई अंतर नहीं पड़ता। न देना चाहें, मर्जी। चौथा कहना चाहें, सुंदर। कुछ न कहना चाहें, चुप रह जाएं, उससे बेहतर कुछ भी नहीं।

सुनें, सुनने को श्रवण बनाएं। सोचें, सोचने को मनन बनाएं। मनन करें, निष्पत्ति लें, निष्पत्ति को निदिध्यासन बनने दें, एकतानता लाएं। एकतानता—एकतानता ही न रहे, अंत में ऐक्य बन जाए।

फर्क समझ लें। एकतानता का अर्थ है, अभी दो बाकी हैं और दोनों के बीच तालमेल बैठ गया है; लेकिन दो बाकी हैं। ऐक्य का अर्थ’दो खो गए, तालमेल ही रह गया।

एकतानता है निदिध्यासन और एकता है समाधि।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–प्रवचन–6

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प्रेम मृत्यु से महान है—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 जून 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

किसी जमाने में एक शरीफ की बेटी थी–सौंदर्य में अप्रतिम।

रूप में ही नहीं, गुण-शील में भी उसका जोड़ नहीं था।

वह ब्याहने के योग्य हुई तब रूप-गुण में श्रेष्ठ

तीन युवकों ने उससे ब्याह का प्रस्ताव रखा।

यह देखकर कि तीनों युवक समान योग्यता के हैं,

पिता ने लड़की पर ही चुनाव का भार छोड़ दिया।

लेकिन महीनों तक लड़की कुछ तय नहीं कर पाई।

इस बीच वह अचानक बीमार पड़ी और मर गई।

बहुत शोकपूर्वक तीनों युवकों ने अपनी प्रेमिका को दफनाया।

एक युवक ने लड़की की कब्र को ही अपना घर बनाया।

दूसरा फकीर होकर सफर पर निकल गया।

और तीसरा लड़की के शोकातुर पिता के पास ठहर गया।

फकीर युवक घूमते-घूमते एक ऐसे व्यक्ति के घर मेहमान हुआ, जो मंत्रत्तंत्र का ज्ञाता था।

जब मेजवान के साथ भोजन के लिये बैठा, तभी एक छोटा बच्चा रोने लगा;

वह मेजवान का पोता था। तांत्रिक ने उस बच्चे को उठाकर भाड़ में फेंक दिया।

यह देखकर युवक चीख उठा और बोला, ‘राक्षस! मैंने दुनिया के सब दुख देखे हैं,

लेकिन ऐसा दुख कहीं नहीं देखा।

मेजवान बोला, ‘अज्ञान के कारण तुम्हें ऐसा लग रहा है।’

उसने एक मंत्र पढ़ा, डंडा हिलाया और बच्चा हंसता हुआ आग से निकल आया।

युवक ने मंत्र याद कर लिया, डंडा लिया और सीधे अपनी प्रेमिका की कब्र पर चला गया।

और पलक मारते ही उसकी प्रेमिका जीवंत उसके सामने खड़ी थी।

वह अपने बाप के घर गई। तीनों युवक उस पर अपने-अपने दावे बताने लगे,

जो जोरदार थे। लेकिन लड़की ने कहा, ‘जिसने मुझे जिलाया, वह रहमवर था।

जिसने मेरे पिता की सेवा की, उसके पास बेटे का दिल था।

लेकिन जो मेरी कब्र पर रहा, वह प्रेमी था। मैं उससे ही ब्याह करूंगी।’

ह कथा एक प्रतीक कथा है। सूफियों ने दिल खोलकर इसका प्रयोग किया है। ऊपर से साधारण-सी दिखती है, भीतर बहुत असाधारण है। कुछ प्राथमिक बातें समझ लें, फिर हम कथा में प्रवेश करें।

पहली बात, कि सूफी मानते हैं, प्रेम के अतिरिक्त सत्य का कोई द्वार नहीं है। प्रेमी ही पहुंच पाता है; ज्ञानी भटक जाता है। क्योंकि जानना तो सदा ऊपर-ऊपर है; प्रेम ही भीतर प्रवेश करता है। जानना तो सतह का है, हृदय तो केवल प्रेम से ही उघड़ता है। और सत्य सतह पर होता, तो विज्ञान उसे पा लेता। सत्य गहरे में है। और जीवन के हृदय में जिसे प्रवेश करना हो, केंद्र तक जिसे जाना हो, वह ज्ञान से नहीं, प्रेम से ही वहां तक पहुंच सकता है।

ज्ञान की कुंजी बहुत द्वार खोलती है, लेकिन उनमें से कोई भी द्वार अंतर्गृह तक नहीं जाता। सिर्फ प्रेम की कुंजी ही उस द्वार को खोलती है, जिसका नाम हृदय है। और सूफी कहते हैं, परमात्मा परम हृदय है। संसार उसकी परिधि है, परमात्मा उसका केंद्र है। और जब एक साधारण से व्यक्ति में भी प्रवेश संभव नहीं है बिना प्रेम के, तो उस परम हृदय में बिना प्रेम के कैसे प्रवेश होगा?

तो प्रेम सूफियों का मार्ग है। और इस वजह से सूफियों ने परमात्मा की बड़ी अनूठी कल्पना की है, जैसी किसी ने भी कभी नहीं की है। सिर्फ सूफी अकेले हैं पृथ्वी पर, जो परमात्मा को प्रेयसी के रूप में देखते हैं, प्रेमिका के रूप में। वह पुरुष नहीं है क्योंकि पुरुष के पास इतना गहरा हृदय कहां? वह प्रेयसी है। परमात्मा एक प्रेमिका है और भक्त उसका प्रेमी है।

परमात्मा को पिता के रूप में लोगों ने देखा है–ईसाई, यहूदी, मुसलमान। परमात्मा को प्रेमी के रूप में भी लोगों ने देखा है। हिंदुओं की बड़ी पुरानी परंपरा है परमात्मा को प्रेमी के रूप में देखने की–कृष्ण के रूप में; तब भक्त गोपी बन जाता है।

बंगाल में एक संप्रदाय है भक्तों का; ‘सखी संप्रदाय’ उस संप्रदाय का नाम है। प्रेम की बड़ी गहरी खोज उन्होंने भी की है। परमात्मा प्रेमी है, वे उसकी सखियां हैं। इसलिये पुरुष भी सखी संप्रदाय का अपने को स्त्री ही मानता है। प्रार्थना-पूजा के दिन स्त्री के कपड़े पहनता है। रात जैसे कोई अपने प्रेमी को पास लेकर सोए, ऐसा कृष्ण की प्रतिमा को लेकर सोता है। लेकिन धारणा यह है कि कृष्ण पति है, वह पत्नी है।

सूफी अकेले हैं, जिन्होंने बड़ी हिम्मत की। खुद को प्रेमी और परमात्मा को प्रेयसी माना है।

इस बात में सचाई होने की संभावना ज्यादा है क्योंकि पुरुष का चित्त ज्ञान के आसपास घूमता है। स्त्री का समग्र भाव प्रेम के आसपास घूमता है। पुरुष अगर प्रेम भी करता है तो भी उसका एक अंश ही प्रेमी बन पाता है। स्त्री जब भी प्रेम करती है तो उसका समग्र हृदय प्रेम बन जाता है। स्त्री पूरी की पूरी प्रेमिका बन जाती है। परमात्मा खंडित तो नहीं हो सकता। अगर वह प्रेमी है तो वह स्त्री जैसा होगा। अखंड उसका प्रेम होगा। पुरुष का प्रेम बदल भी जाता है। पुरुष का चित्त, मन; बड़ी तरंगों से भरा हुआ है; बड़े ऊपर के आकर्षण उसे खींचते हैं, आंदोलित करते हैं। स्त्री अनन्य भाव से एक की पूजा में रत रह पाती है। इसलिये स्त्रियां तो सती हो सकीं, एक भी पुरुष सती नहीं हो सका। एक प्रेमी मर गया तो स्त्री के जीवन का सारा सार खो जाता है। दूसरे पुरुष में उसी सार को खोजना स्त्री के लिए अकल्पनीय हैं। और जहां भी स्त्रियां दूसरे पुरुष में उस सार को खोजेंगी, वहां उनका स्त्रैण क्षीण हो जायेगा। उनकी गहरी गरिमा नष्ट हो जायेगी।

पश्चिम की स्त्री छिछली होती जाती है। उसका अस्तित्व परिधि पर होता जाता है। स्त्री की पूरी गरिमा तो पूरब ने खोजी थी। पर अनन्य भाव, एक के प्रति समग्र समर्पण?–समर्पण ऐसा कि अगर वह मर जाये तो वह उसकी मृत्यु मेरी भी मृत्यु बन जाये। प्रेमी का जीवन ही जीवन; प्रेमी की मृत्यु–मृत्यु!

पुरुष सती नहीं हो सकता। पुरुष उच्छृंखल है। क्योंकि पुरुष की सारी पकड़ मन से है, बुद्धि से है। और बुद्धि का अनन्य भाव नहीं होता। बुद्धि में भक्ति होती ही नहीं, श्रद्धा होती ही नहीं, संदेह होता है। पुरुष जब प्रेम भी करता है तब भी संदिग्ध रहता है। पता नहीं ठीक है या गलत! पता नहीं यही स्त्री प्रेमिका होने की पात्र है या नहीं! और यह संदेह सदा पीछा करता है।

स्त्री श्रद्धा है। हृदय में कोई संदेह की तरंग नहीं उठती। इसलिये सूफियों ने परमात्मा को स्त्री माना है। वह शुद्ध हृदय है, वहां विचार की कोई तरंग नहीं है। वह शुद्ध प्रेम है। और वह प्रेम अनन्य भाव से बरस रहा है।

भक्त पुरुष है क्योंकि वहां संदेह है। गहरे से गहरे भक्त में भी संदेह बना रहता है–मजबूरी है! क्योंकि हमारा व्यक्तित्व खंड-खंड है, बंटा है, द्वंद्व में है। एक हिस्सा श्रद्धा करता है, दूसरा अश्रद्धा करता है। एक से हम भाव बनाते हैं, दूसरा भाव को नष्ट करता है। सूफी कहते हैं, भक्त पुरुष जैसा है, परमात्मा स्त्री जैसा है।

और जिस दिन भक्त परिपूर्ण रूप से परमात्मा में लीन हो जाये, उस दिन उसके पास भी स्त्री जैसा हृदय होगा।

तो स्त्री का हृदय परम द्वार है। प्रेम मार्ग है, विचार नहीं है।

दुनिया के धर्म दो मार्ग खोजे हैं। एक मार्ग है, ध्यान; और एक मार्ग है, प्रेम। दो ही मार्ग हैं। बुद्ध, महावीर, पतंजलि ध्यान को मार्ग मानते हैं। इसलिये उन तीनों ने प्रेम को काटने का सारा उपाय किया है। क्योंकि जब तक तुम प्रेम में पड़े हो, तब तक तुम कैसे ध्यान करोगे? ध्यान का अर्थ है–अकेले होने की क्षमता। ध्यान का अर्थ है–केवल भाव! एकांत! मैं ही हूं, कोई दूसरा नहीं। और मैं अपने से राजी हूं। कोई तड़फन नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई विरह नहीं, कोई पाने की आकांक्षा, वासना नहीं। धन की ही नहीं, परमात्मा को भी पाने की वासना नहीं; तभी ध्यान होगा।

इसलिये बुद्ध-महावीर कहते हैं, परमात्मा है ही नहीं। और पतंजलि कहते हैं, आवश्यक नहीं है। कोई न मान सके तो ठीक है, परमात्मा को मान ले, लेकिन जरूरी नहीं है। योगी के लिए परमात्मा की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि योगी की सारी साधना दूसरे से मुक्त होने की है। ध्यान का अर्थ है–दूसरे से मुक्त होने का प्रयास। इसलिये ध्यानी कभी भी प्रेम को जगह नहीं दे सकता। इसलिये बुद्ध के पास या महावीर के पास जाकर अगर प्रेम की चर्चा करें तो वे कहेंगे, तुम नासमझ हो।

कल ही मैं पश्चिम के एक बहुत बड़े नास्तिक विचारक एपीकुरस के वचन पढ़ रहा था। एपीकुरस नास्तिक है; ईश्वर को मानता नहीं। ठीक बुद्ध-महावीर जैसा ही है। बड़ी अदभुत बात उसने लिखी है। उसने ज्ञानी के लक्षण लिखे हैं, उसमें एक लक्षण है कि ज्ञानी कभी प्रेम नहीं करेगा। यह लक्षण बिलकुल ठीक है। ज्ञानी कैसे प्रेम कर सकता है? एपीकुरस कहता है, सिर्फ अज्ञानी ही प्रेम में पड़ सकता है, ज्ञानी कैसे प्रेम में पड़ेगा? ज्ञानी विवाह भला कर ले, लेकिन प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि विवाह एक संस्थागत बात है, एक व्यावहारिक, औपचारिक बात है। पत्नी की जरूरत है सेवा के लिए, भोजन के लिए, घर सम्हालने के लिए। तो ज्ञानी विवाह कर ले क्योंकि विवाह की उपयोगिता है। लेकिन ज्ञानी प्रेम में नहीं पड़ सकता। ‘ए वाइज़ मैन कैन नाट फाल इन लव।’ और एपीकुरस कहता है कि अगर बुद्धिमान प्रेम में पड़ जाये तो फिर निर्बुद्धि में और बुद्धिमान में भेद क्या? बुद्धिमानों ने ही प्रेम में ‘गिरने’ शब्द का उपयोग किया है। ‘फालिंग इन लव'; उसमें पतन है, इसलिये फालिंग; इसलिये गिरने का भाव है। इसका मतलब, तुम अपनी बुद्धिमता से गिर गये।

प्रेमी पागल जैसा मालूम पड़ता है बुद्धिमानों को–और है भी। क्योंकि बुद्धि से तो जीता नहीं है, हृदय से जीता है। हृदय के पास कोई तर्क तो नहीं है; भाव है। भाव अंधा है। या फिर भाव के पास ऐसी आंखें हैं, जिनको बुद्धि नहीं पहचान पाती।

तो बुद्ध, महावीर, पतंजलि तीनों ही प्रेम को काटते हैं, ताकि ध्यान पूर्ण हो सके। इसलिये सभी की साधना विराग की साधना है। प्रेम है राग, काटना है प्रेम को। प्रेम को इतना काट देना है कि दूसरा बचे ही न; तुम अकेले बचो। दूसरे की स्मृति भी न आये, दूसरे का विचार भी न उठे। जिस दिन तुम बिलकुल अकेले हो और यह सारा जगत खो गया और इसमें कोई दूसरा न बचा, जिससे तुम्हारे संतोष का कोई भी संबंध है, जिससे तुम्हारे सुख का कोई भी सेतु है, जिस पर तुम किसी भी तरह निर्भर हो; जिस दिन तुम परिपूर्ण स्वतंत्र हो गये। परिपूर्ण स्वतंत्र तो तुम तभी होओगे, जब प्रेम बिलकुल कट जाये। क्योंकि प्रेम तो एक तरह की परतंत्रता है। दूसरा उसमें जरूरी है। और दूसरे का सुख तुम्हारे सुख का आधार है। दूसरा दुखी हो तो तुम दुखी हो जाते हो। तो प्रेमी तो कैसे ध्यानी हो सकता है?

एक तो मार्ग ध्यानियों का है। बुद्ध, महावीर, पतंजलि उसके शिखर हैं।

एक मार्ग प्रेमियों का है। और प्रेमी कहते हैं कि जब तक तुम्हारे जीवन में प्रेम का पागलपन न आया, प्रेम की मस्ती न आई, तब तक तुम्हारा अहंकार मिटेगा कैसे? ध्यानी का जोर है कि दूसरे पर तुम निर्भर रहो तो तुम परतंत्र हो। प्रेमी का जोर है कि अगर तुम बिलकुल स्वतंत्र होने की कोशिश किए तो तुम्हारा अहांकर कैसे मिटेगा ? तुम ही बच रहोगे आखिर में, वही तुम्हारा शुद्ध अहंकार होगा। और अहंकार ही बाधा है। प्रेम की कीमिया में ही अहंकार पिघलता है। प्रेम की आग में ही अहंकार जलता है। प्रेमी कहते हैं, दूसरे का उपयोग तुम निर्भरता के लिए क्यों करते हो? दूसरे का उपयोग समर्पण के लिए करो। दूसरे पर निर्भर होने का सवाल ही नहीं, दूसरे में खो जाने का सवाल है। और जब तुम बचोगे ही नहीं तो कौन निर्भर? कौन परतंत्र?

इसे जरा समझ लें। मिटाते दोनों हैं–ध्यानी दूसरे को मिटाता है, प्रेमी अपने को मिटाता है। प्रेमी कहता है, दूसरा ही बचेगा। एक घड़ी आयेगी, जब मैं रहूंगा ही नहीं। फिर किसकी परतंत्रता? किसका बंधन? फिर कौन दुख में? दो हैं अभी, एक बचना चाहिए। ध्यानी दूसरे को मिटाकर अपने को बचा लेता है; प्रेमी अपने को मिटाकर दूसरे को बचा लेता है। जिस दिन एक बच जाता है, उसी दिन सत्य उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि सत्य यानी एक। सत्य यानी अद्वैत।

अब इस अद्वैत को पाने के दो ढंग हो सकते हैं: या तो मैं मिटूं, या तुम मिटो। तू ना रहे, या मैं ना रहूं। दोनों मार्ग हैं। मेरे देखे दोनों सही हैं। दोनों तरफ से लोग पहुंचे हैं। सूफी हैं, कृष्ण-भक्त हैं, मीरा है, चैतन्य है, ये प्रेम के रास्ते से पहुंचे। और इनकी ऊंचाई बुद्ध, महावीर और पतंजलि से जरा भी कम नहीं; इंच भर भी कम नहीं। क्योंकि जब एक बचता है तो फर्क ही नहीं रह जाता, कौन बचा! उसे हम क्या कहें? उसे आत्मा कहें? ध्यानी उसे आत्मा कहता है; प्रेमी उसे परमात्मा कहता है। इसलिये ध्यानी परमात्मा की बात को छोड़ते हैं क्योंकि परमात्मा में दूसरा आ जाता है। सिर्फ आत्मा! इसलिये महावीर कहते हैं, आत्मा ही परमात्मा है। और प्रेमी कहता है, तू ही मैं हूं।

जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध कविता है।

प्रेमी आया और उसने अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी।

भीतर से पूछा गया, ‘कौन? कौन आया?’

उसने कहा, ‘मैं। क्या मेरी दस्तक तू नहीं पहचानी? क्या मेरे चरण की आवाज तू न पहचानी? मैं तो सोचता था तू मुझे पहचान गई; इसलिये हवा का झोंका भी मेरा तुझे खबर दे देगा। मैं तेरा प्रेमी।’

लेकिन फिर भीतर से कोई आवाज न आई। दरवाजे भी न खुले। प्रेमी ने बहुत सिर मारा तो भीतर से केवल इतनी खबर आई कि जब तक ‘तू’ है, तब तक दरवाजा कैसे खुल सकता है? प्रेम का दरवाजा ‘मैं’ के लिए कैसे खुल सकता है? तो जब तू तैयार हो जाये तब लौट आना।’

अनेक दिन आये और गये, अनेक चांदत्तारे बीते; तब फिर वर्षों बाद प्रेमी उसके द्वार पर आया। उसने दस्तक दी।

भीतर से वही सवाल! प्रेम सदा वही पूछता है, ‘कौन?’

उसने कहा, ‘अब तो तू ही है।’

तो रूमी कहते हैं, दरवाजा उस दिन खुल गया।

यह सूफियों का सार है। मिटना है दो को; और बनना है एक। पर प्रक्रिया दोनों की बड़ी अलग हो जायेगी। क्योंकि ध्यानी को दूसरे को भुलाना है और प्रेमी को अपने को भुलाना है। ध्यानी को दूसरे से मुक्त होना है, प्रेमी को अपने से मुक्त होना है। ध्यानी हत्यारे की भांति है, और प्रेमी आत्मघाती की भांति। ध्यानी काटता है दूसरे को, अकेला बच जाये। प्रेमी काटता है अपने को कि मैं न बचूं, वही बच जाये।

दोनों रास्तों से लोग पहुंचे हैं। दोनों से लोग सदा पहुंचते रहेंगे। मेरे लिए कोई चुनाव नहीं है, विकल्प नहीं है। मुझे इन दोनों में कोई भेद नहीं है। इसलिये पतंजलि पर भी मुझे बोलने में सुख है और सूफियों पर भी बोलने में सुख है।

और जब मैं तुमसे कहता हूं तो तुमसे कोई मार्ग चुनने को नहीं कह रहा हूं। तुम अपने को पहचानना। अपने भाव को पहचानना। तुम्हें फिर जो सरल लगे, उससे चले जाना। जो सरल, वही तुम्हारे लिए मार्ग है। मार्गों का चुनाव नहीं करना है तुम्हें, अपनी पहचान करनी है। अगर प्रेम ही तुम्हारे जीवन की धारा हो तो तुम अपने को मिटाना और परमात्मा को बचाना। अगर तुम पाओ कि प्रेम तुम्हारे जीवन में उठता ही नहीं; खींचते हो तो भी बैठ-बैठ जाता है। हृदय धड़कता ही नहीं, भाव पकड़ता ही नहीं; विचार ही दौड़ते हैं, तर्क ही पकड़ता है; श्रद्धा गहरी नहीं होती, संदेह ही गहरा है, तो फिर ध्यान ही तुम्हारा मार्ग है। और कोई ऊंचा-नीचा नहीं है।

अब हम इस कहानी को लें।

कहानी कहती है, युवती है एक सुंदर। तीन हैं उसके प्रेमी। प्रेयसी एक, प्रेमी तीन।

पहली बात समझ लेनी जरूरी है। परमात्मा एक, प्रेमी अनेक। अनंतता प्रेमियों की है; प्रेयसी की अनंतता नहीं है, प्रेयसी एक है।

कहानी कहती है कि युवती को बड़ी कठिनाई है, कैसे चुनें! तीनों समान गुणधर्मा हैं। समान बुद्धिमान हैं, सुंदर हैं, स्वस्थ हैं। गुणों की तरफ से तौलने का कोई उपाय नहीं है। तीनों का प्रेम है उसकी तरफ। अगर गुणों में कमी-बेशी होती तो चुनाव आसान हो जाता। लेकिन वे तीनों समान गुणधर्मा हैं।

इसे थोड़ा समझना चाहिए। असल में प्रेम के लिए गुणों का सवाल ही नहीं है। जहां गुण का सवाल है, वहां बुद्धि प्रवेश कर जाती है।

बुद्धि सोचती है कि किसका गुण ज्यादा, किसका कम। बुद्धि तुलना करती है। बुद्धि हिसाब बिठाती है। तो सच नहीं है यह बात, कि तीनों समान गुणधर्मा थे; क्योंकि हो नहीं सकते। ऐसा युवती को दिखाई पड़ता है, तीनों समान गुणधर्मा हैं। तीनों हो नहीं सकते समान गुणधर्मा; क्योंकि दो समान होते ही नहीं। थोड़े से गणित को खोजने की जरूरत थी और पता चल जाता कि कोई गुण में ज्यादा है, कोई गुण में कम है। क्योंकि इस जगत में समान वस्तुएं होती ही नहीं। दो कंकड़ एक जैसे नहीं होते तो दो व्यक्ति तो एक जैसे कैसे हो सकते हैं? लेकिन यह सवाल बुद्धि का है। बुद्धि तौल करती है, माप करती है। बुद्धि का अर्थ है माप; मेज़रमैंट। तौल हो जाती है; थोड़ा बारीक तराजू खोजना पड़ता बस, लेकिन तौल हो जाती है।

लेकिन हृदय बुद्धि से सोचता ही नहीं। इसलिये जब परमात्मा के निकट हजारों प्रेमियों की प्रार्थनायें होती हैं तो तुम यह मत सोचना कि मैं ज्यादा बुद्धिमान हूं इसलिये मेरी प्रार्थना पहले सुन ली जायेगी; कि मैं ज्यादा धनी हूं इसलिये मेरी आवाज पहले पहुंच जायेगी; कि मैं बड़ा चित्रकार हूं, मूर्तिकार हूं, या राजनीतिज्ञ हूं, इसलिये पंक्ति में मुझे पहले खड़े होने का मौका मिल जायेगा। नहीं, तुम्हारे गुणों का कोई सवाल नहीं। बल्कि तुम गुणों पर अगर निर्भर रहे तो यही तुम्हारा योग्यता का आधार होगा। तुम्हारा हृदय जांचा जायेगा। तुम्हारे गुणों का कोई सवाल नहीं है। तुम्हारी टेलेन्ट्स का कोई सवाल नहीं है। तुम्हारे परीक्षा-पत्र और तुम्हारी उपाधियां काम न पड़ेंगी। तुम्हारा हृदय ही काम आयेगा।

युवती के सामने तीनों थे, उसे तीनों समान दिखते थे। प्रेम से भरा हुआ हृदय बुद्धि से सोचता नहीं। इसलिये अगर कभी तुम्हारा हृदय सच में ही प्रेम से भर जाये तो तुम भी मापत्तौल में मुश्किल अनुभव करोगे।

एक मां के लिए उसके सात बेटे हैं, जरा भी भेद नहीं होता। उसमें कोई ज्यादा बुद्धिमान, कोई बुद्धू, कोई स्वस्थ, कोई अस्वस्थ, कोई सुंदर, कोई कुरूप, लेकिन मां को सातों बेटे एक जैसे दिखाई पड़ते हैं। और अगर सवाल उठ जाये कि इन सातों में से छह को बचा ले और एक को मर जाने दे तो मां मुश्किल में पड़ जायेगी कि किसको छोड़ूं। क्योंकि अगर बुद्धि से सोचे तो तर्क साफ हो जायेगा कि जो सबसे ज्यादा बेकार है उसे। हृदय इस भांति नहीं सोचता, हृदय के सोचने के ढंग ही अलग हैं।

उस युवती को तीनों समान दिखाई पड़े। प्रेम को सदा तीनों समान दिखाई पड़ेंगे। प्रेम तुलना करता ही नहीं। और चूंकि यह कथा तो मूलतः परमात्मा की है, इसलिये परमात्मा को भक्त समान दिखाई पड़ेंगे। उनके गुणों से कोई भेद नहीं पड़ता। एक भक्त काशी से पांडित्य लेकर आया है और एक भक्त गांव का अज्ञानी है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। काशी का पंडित यह दावा नहीं कर सकता कि मेरे पास पांडित्य अतिरिक्त है। भक्ति के साथ कुछ और भी मेरे पास है, इसलिये पहले मौका मुझे मिलना चाहिए। ना, कोई गुणों का सवाल नहीं है। हृदय के भाव का ही सवाल है। लेकिन भाव को तौलना बड़ा मुश्किल है। गुण तौले जा सकते हैं, परीक्षा हो सकती है, भाव नहीं तौला जा सकता है। भाव इतना निगूढ़ है, इतना रहस्यपूर्ण है, उसके लिए कोई तराजू निर्मित नहीं हो सके।

पश्चिम में मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि को तौलने के उपाय खोज लिए हैं। फ्रांस में बहुत बड़ा विचारक मनोवैज्ञानिक हुआ, बेनेट; उसने बुद्धि-अंक खोज लिया: ‘आइ-क्यू’। तो बुद्धि नापी जा सकती है कि कितनी बुद्धि तुममें है; उसका भी तराजू है अब। सामान्य है, सामान्य से कम है, या ज्यादा है, या प्रतिभाशाली हो, तौला जा सकता है; कोई अड॒न नहीं है। पंद्रह मिनट में पता चल जाता है। लेकिन प्रेम को तौलने का कोई उपाय अब तक नहीं खोजा जा सका। ‘इन्टेलिजेन्स कोशियेन्ट’ खोज लिया गया, ‘लव कोशियेन्ट’ नहीं खोजा जा सका। बुद्धि-अंक तो पता चल जाता है, लेकिन प्रेम का अंक बिलकुल पता नहीं चलता। प्रेम को मापना मुश्किल है। कैसे हम मापें कि प्रेम है, या प्रेम नहीं है, या कितना है? बुद्धि से तो प्रश्न पूछे जा सकते हैं, बुद्धि उत्तर देगी; उत्तरों से पता चल जायेगा। प्रेम से कोई प्रश्न नहीं पूछे जा सकते।

प्रेम तो सिर्फ परिस्थिति में पता चलेगा। इसे थोड़ा समझ लें। प्रेम तो किसी घटना से पता चलेगा। प्रेम तो किसी ऐसी अवस्था में पता चलेगा, जो मौजूद हो जाये। तीन व्यक्ति तुम्हें प्रेम करते हैं और तुम डूब रहे हो नदी में, उस वक्त पता चलेगा कि उन तीन में से कौन अपनी जान को जोखिम पर लगाता है? कौन छलांग लेता है? कौन तुम्हें बचाने जाता है? परिस्थिति चाहिए। जीवंत परिस्थिति चाहिए तो ही प्रेम का पता चलेगा। इसलिये कहानी बड़ी साफ है।

कहानी कहती है, लड़की तय न कर पाई कि किसको चुनें। तीनों समान गुणधर्मा मालूम हुए और तीनों का प्रेम मालूम होता था। अब कोई परिस्थिति ही प्रगट कर सकती है।

परिस्थिति सूफियों ने जो चुनी है, वह मौत। प्रेम का ठीक पता मौत के क्षण में ही चलता है, उसके पहले नहीं। यह बड़ी अजीब बात है। जीवन में प्रेम की जांच नहीं हो पाती, मौत में प्रेम की जांच होती है। क्योंकि जीवन में तो हम धोखा दे सकते हैं, इसलिये जो स्त्रियां अपने प्रेमियों के लिए मर गईं आग में जलकर उन्होंने खबर दी, कि प्रेम था। जिंदा में तो सभी स्त्रियां अपने पतियों से कहती हैं कि तुम्हारे बिना न जी सकूंगी, मर जाऊंगी। यह सवाल नहीं है। कौन मरता है! यह कोई उत्तर की बात हो तो सभी पत्नियां यही कहती हैं कि तुम्हारे बिना मर जाऊंगी, तुम्हारे बिना क्षण भर न जी सकूंगी। लेकिन कोई मरता नहीं। पति मर जाता है, थोड़ा रोना-धोना होता है, फिर जिंदगी शुरू हो जाती है। घाव भर जाते हैं। फिर नये प्रेमी मिल जाते हैं।

मृत्यु ही प्रेम की जांच बन सकती है, क्योंकि मृत्यु से गहरी कोई घटना नहीं है। इसलिये प्रेम को जांचने के लिए उससे छोटी कोई चीज काम नहीं आयेगी।

प्रेम इतना गहरा है, जितनी मृत्यु।

इसलिये जो जानते हैं, वे जानते हैं कि प्रेम और मृत्यु समान हैं, उनमें एक गहरा पर्याय है। दोनों एक जैसे हैं और उनकी गहराई बराबर एक जैसी है। प्रेम का अर्थ है, तुम्हारे केंद्र तक छिद जाये तीर। मृत्यु में भी केंद्र तक तो तीर छिदता है। मृत्यु में शरीर तो छिन जाता है, परिधि छिन जाती है, सिर्फ तुम रह जाते हो केंद्र की भांति। और प्रेम में भी सब छिन जाता है। सिर्फ तुम बचते हो, तुम्हारा केंद्र बचता है। तुम्हारा अस्तित्व मात्र बचता है, बाकी सब छिन जाता है।

तो प्रेम भी उतना ही गहरा जाता है, जितनी मृत्यु। इसलिये प्रेमी वही हो सकता है, जो मरने को तैयार हो। उससे कम की कोई परीक्षा काम नहीं देगी। जीने के लिये तो सभी तैयार हैं। मरने की जब तैयारी हो तो प्रेम का आविर्भाव होता है। और अगर मरने की तैयारी न हो तो प्रेम का धोखा चलता है, तब प्रेम का व्यवसाय चलता है।

कहानी कहती है, वह युवती मर गई अचानक। इसके सिवाय कोई मार्ग भी न था। जानने का बस एक ही उपाय था कि मृत्यु के बाद क्या व्यवहार है प्रेमियों का। उनमें से तीनों बड़े दुखी हुए, रोये, पीटे, खिन्न हुए, उदास हुए। जीवन से अर्थ खो गया। एक कब्र पर ही रह गया। दूसरा विपन्न पिता की सेवा में लग गया। लड़की मर गई और पिता बहुत दुखी और बूढ़ा। और तीसरा विरागी हो गया, संन्यस्त हो गया, घर छोड़कर फकीर हो गया।

तीनों ने जो भी व्यवहार किया, वह प्रेमपूर्ण है। क्योंकि विपन्न पिता की सेवा में लग जाना…इस पिता से तो कोई संबंध न था, सिर्फ प्रेयसी का पिता था। और प्रयेसी मर गई, अब क्या संबंध था? मरते ही हमारे सब संबंध टूट जाते हैं। क्योंकि सेतु ही मिट गया तो अब इस पिता से क्या लेना-देना था! लेकिन यह पिता दुखी था, मरी हुई प्रेयसी का पिता था। एक युवक पिता की सेवा में लग गया।

दूसरे के जीवन में अर्थ खो गया। जब प्रेयसी ही मर गई अब कुछ पाने को न बचा, वह फकीर हो गया। वह परमात्मा की तलाश पर निकल गया। तीसरे ने जैसे होश-हवास खो दिया। न कुछ करने को बचा, न कुछ खोजने को बचा। फकीरी तक व्यर्थ मालूम पड़ी। वह वहीं कब्र पर घर बनाकर रहने लगा। वह कब्र ही उसका घर हो गयी।

तीनों ने प्रेमपूर्ण व्यवहार किया लेकिन तीनों के प्रेम बड़े अलग-अलग मालूम पड़ते हैं। भेद शुरू हो गया। परिस्थिति ने भेद साफ कर दिया। जो युवक पिता के पास रहने लगा, उसका प्रेम दया, करुणा, सहानुभूति जैसा था। परिस्थिति ने उघाड़ा हृदय को; और कोई जांचने का उपाय न था। उसके प्रेम में दया थी। लेकिन ध्यान रहे, दया और प्रेम बड़ी अलग बातें हैं। और प्रेमी दया नहीं मांगता, और अगर तुम प्रेमी को दया करो तो दुखी होता है। क्योंकि दया तो सदा अपने से नीचे पर की जाती है। प्रेम समान है; वह किसी को नीचे नहीं रखता। प्रेम दूसरे को समकक्ष मानता है। दया तो नीचे के प्रति की जाती है। दया में तुम ऊपर हो जाते हो। और दया का पात्र नीचा हो जाता है। दया तो भिक्षा जैसी है। प्रेम और दया पर्यायवाची नहीं हैं।

बहुत से लोगों ने यहां भूल की हुई है। और वे दया को प्रेम समझ रहे हैं। और उसके कारण उनके जीवन में प्रेम का फूल नहीं खिल पाता। पति दया करता है पत्नी पर, लेकिन पत्नी तृप्त नहीं होती क्योंकि पत्नी प्रेम चाहती है, दया नहीं। दया का तो अर्थ है, तुमने दूसरे को भिखारी बना दिया। दया का अर्थ है, तुम धनी हो गये, तुम दाता हो गये। दूसरा भिक्षा-पात्र लिए खड़ा हो गया। दया तो बहुत अहंकार की घटना है। प्रेम दया नहीं मांगता। क्योंकि दया में दूसरे को तुम दे रहे हो। प्रेम में भी दूसरे को तुम देते हो; इसलिये समानता मालूम पड़ती है। लेकिन प्रेम में तुम दूसरे को इसलिये देते हो कि देने में आनंद है। दया में तुम दूसरे को इसलिये देते हो कि दूसरा दुखी है। दया एक कर्तव्य है, एक ‘डयूटी’ है।’

वह जो पहला युवक पिता की सेवा में लग गया, कर्तव्यनिष्ठ था। नैतिक बुद्धि उसके भीतर थी। अब प्रेयसी तो मर गई है, अब एक कर्तव्य बचा है, जिसे पूरा करना है।

कर्तव्य और प्रेम बड़े विपरीत हैं। तुम अगर अपनी मां की सेवा इसलिये करते हो कि यह कर्तव्य है क्योंकि वह तुम्हारी मां है, तुम्हारी मां कभी तृप्त न होगी। क्योंकि मतलब साफ है कि यह एक बोझ है। कर्तव्य सदा बोझ है; वह प्रेम नहीं है। मां भी चाहती थी प्रेम। तुम इसलिये करते सेवा कि तुम आनंदित होते थे सेवा करके, तब बात अलग थी। सेवा तुम्हारा आनंद थी। लेकिन अभी तुम इसलिए सेवा करते कि दूसरा दुखी है, करना जरूरी है। एक कर्तव्य है, जो पूरा करना होगा। एक नैतिक बुद्धि काम कर रही है, लेकिन हृदय का भाव खो गया।

दया और प्रेम पर्यायवाची नहीं हैं।

प्रेम बड़ी अनूठी घटना है। दया बड़ी साधारण बात है। दया तो कोई भी बुद्धिमान आदमी कर लेगा–करनी चाहिए। लेकिन दया निष्प्राण है। वह ऐसा पक्षी है जो मर चुका, जिसमें तुमने भुसा भरकर घर पर रख दिया है, दूर से जीवित दिखाई पड़ता है।

प्रेम उड़ता हुआ पक्षी है आकाश में–जीवंत! दया मरा हुआ पक्षी है, जिसमें भूसा भरके रख दिया है। देखने में जीवंत से भी ज्यादा स्वस्थ मालूम पड़ सकता है–बस देखने में। भीतर वहां प्राण नहीं है।

एक युवक निष्ठावान था; दया और करुणा से सेवा में लग गया।

सूफी फकीर कहते हैं कि दया तुम्हें परमात्मा तक नहीं पहुंचायेगी। दया नैतिक है, प्रेम धर्म है। इसलिये तुम गरीबों की सेवा करो, भूमिहीनों को भूमि दिलवाओ, बीमारों का हाथ-पैर दाबो। अगर यह कर्तव्य है तो तुम चूक गये।

ईसाइयत दया के कारण चूकती चली गई है। क्योंकि जीसस ने ‘सर्विस’ पर, सेवा पर बड़ा जोर दिया। लेकिन जीसस की सेवा प्रेम का पर्यायवाची थी। ईसाई मिशनरी सेवा कर रहा है, क्योंकि सेवा सीढ़ी है परमात्मा तक जाने की। गरीब चाहिए, बे-पढ़े-लिखे लोग चाहिए, आदिवासी चाहिए, भूखे-नंगे लोग चाहिए; उनकी सेवा करो। क्योंकि सेवा ही रास्ता है, उससे ही तुम पहुंच सकोगे। जिस दिन दुनिया में सभी सुखी होंगे और सेवा करने को कोई न बचेगा, उस दिन ईसाई मिशनरी के लिए स्वर्ग जाने का रास्ता बंद। तो बहुत बहरे में ईसाई मिशनरी चाहेगा नहीं कि दुनिया सुखी हो जाये।

एक हिंदू विचारक हैं करपात्री; उन्होंने एक किताब लिखी है रामराज्य और समाजवाद पर। समाजवाद के खिलाफ उन्होंने बड़ी से बड़ी दलील दी है, वह यह है कि अगर समाजवाद में सभी लोग समान हो गये तो दान असंभव हो जायेगा। और दान के बिना तो मोक्ष नहीं है। हिंदू धर्म कहता है कि दान के बिना मोक्ष नहीं। तो करपात्री कहते हैं, गरीब का रहना तो जरूरी है। दान कौन लेगा? दान देगा कौन? और जब हिंदू शास्त्र कहते हैं, दान के बिना मोक्ष नहीं तो अगर दान की व्यवस्था ही कट गई, समाजवाद हो गया तो मोक्ष खो जायेगा। तो करपात्री के मोक्ष के लिए गरीब का होना जरूरी है। गरीब एक सीढ़ी है, जिसके सिर पर पैर रखकर मोक्ष तक जाना है। यह सेवा किस तरह की सेवा है? यह दान किस तरह का दान है? इसमें प्रेम जरा भी नहीं है।

और अगर ऐसी सेवा से मोक्ष मिलता हो तो सूफी कहते हैं, ऐसा मोक्ष झूठा होगा। प्रेम से मिलता है मोक्ष। प्रेम हर हालत में किया जा सकता है। दया हर हालत में नहीं की जा सकती है। दया के लिए दूसरे का विपन्न होना जरूरी है। प्रेम सुखी से भी किया जा सकता है, दया केवल दुखी से की जा सकती है। इसे थोड़ा समझ लें।

यह लड़का बाप की सेवा करने आया और पाता कि बाप सितार बजाकर आनंदित हो रहा है। और यह उससे कहता है कि तुम्हारी लड़की मर गई और तुम आनंदित हो रहे हो! वह कहता है कि कौन मरता, कौन जीता! और सितार बजाता रहता। यह लड़का छोड़कर चला जाता। इसकी क्या सेवा करनी! यह दुखी ही नहीं है।

तुम जब भी किसी की सेवा करने जाते हो और अगर तुम पाओ कि वह दुखी नहीं, तो तुम दुखी लौटते हो। तुम दुखी की तलाश में निकले थे। किसी के घर कोई मर गया है, तुम जाते हो शोक-संवेदना प्रगट करने, लेकिन वहां जाकर पाते हो कि वहां कोई शोक-संवेदना का सवाल ही नहीं है, तब तुम उदास लौटते हो। तुम न केवल उदास लौटते हो, बल्कि नाराज लौटते हो।

च्वांगत्से की पत्नी मर गई। च्वांगत्से तो ख्याति नाम संत था। सम्राट संवेदना प्रगट करने आया। तो सम्राट तैयार करके आया होगा।

जब भी संवेदना प्रगट करने कोई जाता है तो रिहर्सल कर लेता है, क्या कहना! क्योंकि संवेदना का क्षण इतना नाजुक, कि कहीं कुछ गलत बात न निकल जाये! तो हम तैयारी करके जाते हैं, क्या कहेंगे, कैसे कहेंगे। और संवेदना का क्षण बड़ा ही अटपटा। किसी के घर कोई मर जाये और तुम्हें जाना पड़ता है तो कैसी मुसीबत मालूम पड़ती है कि क्या करें! इसलिये लोग अकेले नहीं जाते, दस-पांच लोग जाते हैं। उसमें बोझ बंट जाता है। बातचीत चल जाती है। यहां-वहां की बातचीत करके तुम दुख प्रगट करके वापिस लौट आते हो।

सम्राट आया तो उदास चेहरा करके आया था। लेकिन यहां देखा कि फकीर च्वांगत्से एक झाड़ के नीचे बैठकर खंजड़ी बजा रहा है। सम्राट को थोड़ी चोट लगी। जब खंजड़ी बजाना बंद हुआ, उसने च्वांगत्से की तरफ देखा। वह प्रसन्न है, जैसा सदा था। तो सम्राट ने कहा कि यह जरा सीमा के बाहर है। दुखी मत होओ, चलेगा; लेकिन कम से कम खंजड़ी तो मत बजाओ। मत रोओ, चलेगा, लेकिन यह उत्सव मनाने का तो क्षण नहीं है!

च्वांगत्से ने कहा, या तो रोओ या उत्सव मनाओ। दो के बीच कोई जगह नहीं है। या तो ऊर्जा आंसू बनेगी, या ऊर्जा मुस्कुराहट बनेगी। दो के बीच कोई जगह नहीं है, जहां तुम खड़े हो जाओ।

तुमने कभी जीवन में ऐसी कोई जगह जानी है–दो के बीच? या तो तुम उदास होते तो या प्रसन्न; दो के मध्य क्या है? और कभी अगर तुम खयाल भी करते हो कि मैं मध्य में हूं तो तुम गौर से देखना, तुम उदास हो। मध्य में कोई होता ही नहीं। मध्य में कोई जगह ही नहीं है। या तो ऊर्जा बहती है आनंद की तरफ, या दुख की तरफ।

च्वांगत्से ने कहा, ‘मध्य में कोई जगह नहीं है। या तो खंजड़ी बजेगी, या आंसू बहेंगे। और आंसू बहाने की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि न कोई मरता है, न कोई कभी पैदा होता है। और फिर यह जो मेरी पत्नी थी, इसने मुझे इतना सुख दिया, इसे अगर मैं सुखपूर्वक बिदा भी न दे सकूं तो और मैं क्या कर सकता हूं!’

सम्राट बिना बोले वापिस लौट गया। दुबारा कभी च्वांगत्से को देखने नहीं आया। क्योंकि वह जो सब तैयार करके आया था, इसने सब गड़बड़ कर दिया।

तुम दुखी आदमी की तलाश में हो क्योंकि तुम्हें सेवा का मौका मिलता है, दया का मौका मिलता है। और दया में ऐसा मजा है अहंकार को, जिसका कोई हिसाब नहीं। तुम चाहते हो कि कोई मौका मिले, जब तुम दया कर सको। इसलिये तुम खयाल करो कि जब तुम पर कोई दया करता है तो तुम अच्छा अनुभव नहीं करते। जब तुम पर कोई दया बरसाता है तो तुम्हें भीतर पीड़ा होती है, तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है। तुम भी परमात्मा से प्रार्थना करते हो, कोई मौका देना कि मैं भी दया कर सकूं इस पर। इसलिये तुम किसी को चोट पहुंचाओ, वे तुम्हें भला माफ कर दें, लेकिन तुमने जिस पर दया की है, वह तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा।

एक धनपति मेरे पास आते थे। बड़े अहंकारी हैं, शुद्ध अहंकारी हैं। आदमी भले हैं। भले आदमी ही शुद्ध अहंकारी होते हैं, बुरे नहीं। किसी को चोट नहीं पहुंचाते, किसी को नुकसान नहीं करते। और जितना भी बन सके, लोगों की सहायता करते हैं। वह मुझसे पूछे कि एक बात मेरी समझ में नहीं आती, मैंने अपने सब रिश्तेदारों को धनपति बना दिया। जितना मैं दे सकता था, उससे ज्यादा मैंने उन्हें दिया, लेकिन कोई भी मुझसे प्रसन्न नहीं है। और सब मेरे दुश्मन हैं। जिसकी मैं सहायता करता हूं, वही आज नहीं कल दुश्मन हो जाते हैं।

मैंने उनसे कहा कि होगा ही। उनको भी दया करने का कभी मौका दें, वह आपने कभी नहीं दिया। आप दुश्मन पैदा कर रहे हैं क्योंकि दया कभी भी क्षमा नहीं की जा सकती। और आप इतने सुविधा में हैं कि आप उनको कोई मौका नहीं देते कि वे भी आप पर कभी दया कर सकें। आपका मित्र तो कोई हो ही नहीं सकता। उनको बात पहले तो समझ में नहीं पड़ी, धीरे-धीरे समझ में आई।

दया करना भी दूसरे के अहंकार को चोट पहुंचाना है। प्रेम दया नहीं कर सकता। एक बार प्रेम क्रोध भला करे, लेकिन प्रेम दया नहीं कर सकता है। दया तो तभी होती है, जब प्रेम तिरोहित हो गया होता है। दया तो राख है। जब प्रेम जल चुका होता है, तब राख बचती है।

दूसरा युवक संन्यस्त हो गया, विरागी हो गया। उसका प्रेम भी बहुत गहरा न रहा होगा, उथला रहा होगा। तभी तो मृत्यु ने सारी बदलाहट कर दी। जहां राग था, वहां विराग आ गया। प्रेम अगर गहरा होता तो इतना आसान परिवर्तन नहीं था। छोड़कर, फकीर होकर चल पड़ा। देखने में तो हमें लगेगा कि बड़ा प्रेमी था। सब छोड़ दिया! लेकिन प्रेम अगर गहरा हो तो देख ही नहीं पाता कि प्रेयसी मर सकती है।

प्रेम सदा अमृत को देखता है।

यह कोई प्रेमी नहीं था, यह इस स्त्री को भोगने को उत्सुक था। और जब स्त्री मर गई, भोग का द्वार बंद हो गया तो खिन्न और उदास! इसका जो संन्यास है, वह भी वास्तविक नहीं है; वह खिन्नता से पैदा हुआ है, उदासी से पैदा हुआ है, निराशा से पैदा हुआ है। और इस फर्क को ठीक से समझ लेना।

अगर तुम्हारा धर्म संसार की निराशा से पैदा हुआ है तो तुम्हारा धर्म वास्तविक नहीं हो सकता। क्योंकि निराशा से सत्य का कहीं जन्म हुआ है? और दुख से कहीं मोक्ष मिला है? दुख से जो बीज खिलेगा, उसमें दुख के ही बीज लगेंगे।

अगर तुम्हारा संन्यास संसार के अनुभव से पैदा हुआ हो, तब बात दूसरी है। अगर तुम्हारा संन्यास संसार के सुख से पैदा हुआ हो और संसार के सुख ने तुम्हें इशारा किया हो कि और महासुख की संभावना है, और तुम परमात्मा की खोज में गये हो, यह बात बिलकुल अलग है। यह एक विधायक तत्व है।

संसार में दुख है, व्यर्थता है, इसलिये तुम परमात्मा की खोज पर गये हो। तुम संसार से थके हो। तुम्हारी हालत वैसी ही है, जैसी ईसप की लोमड़ी की–जिसने छलांग बहुत मारी और अंगूर न पा सकी, तो वापस लौटकर गई और अपने मित्रों को कहा कि अंगूर खट्टे हैं।

संसार खट्टा है, तो परमात्मा बहुत मीठा नहीं हो सकता। संसार खट्टा इसीलिये है कि तुम संसार के फल चख नहीं पाये। और जब तुम संसार के फल नहीं चख पाये तो परमात्मा के फल तो तुम कैसे चख पाओगे? क्योंकि संसार के फल भी लंबी छलांग से न मिल सके, तो परमात्मा तो और भी लंबी छलांग है। संसार के फल तो बहुत निकट थे; यह अंगूर तो बहुत पास थे; लोमड़ी ने थोड़ी कोशिश की होती तो मिल ही गये होते।

ऐसा क्या है इस संसार में जो न मिल जाये? जरा-सी कोशिश की जरूरत है और मिल ही जाता है। जो तुम्हें नहीं मिल रहा है, वह तुम्हारी छलांग की कमी है और कुछ भी नहीं है। लेकिन अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता कि मेरी छलांग छोटी है। अहंकार एक तरकीब खोजता है कि अंगूर खट्टे हैं इसलिये मैं छलांग की कोशिश ही कहां कर रहा हूं! सब असार है।

तुम्हें जीवन में बहुत से उदास लोग मिलेंगे जो कहेंगे, संसार में कोई सुख नहीं है। उसका कारण यह नहीं है कि उन्होंने संसार के फल चखे हैं। उसका कुल कारण इतना ही है, वे फलों तक भी नहीं पहुंच पाये। गरीब अकसर कहता मिलेगा, धन में क्या रखा है! पद-हीन अकसर कहता मिलेगा, पदों में क्या है! बड़े-बड़े सिकंदर आये और चले गये। लेकिन उसके भीतर गौर से झांकना, यह उसकीर् ईष्या का परिणाम है। यह कोई अनुभव नहीं है।

र्ा जहां नहीं पहुंच पाती है, वहां कहती है, अंगूर खट्टे हैं।

यह युवक दुख से संन्यस्त हुआ। इसकी फकीरी सच्ची नहीं है। इसकी फकीरी अनुभव-प्रेरित नहीं है। इसकी फकीरी एक रोग से आई है। यह परमात्मा में उत्सुक नहीं है। यह प्रेयसी में अनुत्सुक हो गया क्योंकि वह मर गई। यह प्रेयसी से दूर जा रहा है–मर गई प्रेयसी से; परमात्मा के पास नहीं जा रहा है। और इसमें बड़ा फर्क है।

तुम संसार से भाग रहे हो, या परमात्मा की तरफ भाग रहे हो, ये दोनों भिन्न बातें हैं। अगर तुम संसार से भाग रहे हो, तुम परमात्मा तक कभी न पहुंचोगे। क्योंकि तुम्हारा ध्यान अभी भी संसार में लगा है। लेकिन तुम परमात्मा की तरफ भाग रहे हो, तब बात बिलकुल अलग है। संसार से तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं है। तुम कोई पलायनवादी नहीं हो। तुम खोजी हो।

यह युवक पलायनवादी था। और जो प्रेम पलायन बन जाये वह वास्तविक नहीं था। लेकिन एक स्थिति में ही इसका उदघाटन हो सकता है।

तीसरा युवक वहीं रुक गया। प्रेयसी मरी, कुछ भी न बचा, परमात्मा भी न बचा। प्रेयसी के अतिरिक्त कोई भी न था। संसार तो खो ही गया, परमात्मा भी न बचा, जिसकी खोज करनी हो। जैसे प्रेयसी ही परमतत्व थी। इसका राग, विराग नहीं बना। इसका राग शीर्षासन करके खड़ा नहीं हुआ। न यह उदास हुआ, न यह दुखी हुआ। कब्र ही इसका घर हो गया। प्रेयसी का जीवन, जीवन था। प्रेयसी की मृत्यु, मृत्यु हो गई। इसने प्रेयसी को उसके जीवन में ही नहीं चाहा था; प्रेयसी को चाहा था जीवित या मृत। यह चाह पूरी थी। इस चाह में कोई शर्त न थी। इस चाह में ऐसा भाव न था कि जब तक तुम जीवित हो, तब तक। तुम्हारा होना चाहे शरीर में हो, चाहे शरीर के बाहर हो, रूप रहे कि खो जाये; आकार बचे कि मिट जाये।

इस युवक को कहीं जाने को कोई जगह न बची। कब्र ही इसका घर हो गया। यह कब्र को ही प्रेम करने लगा। यह उत्तीर्ण हुआ। स्थिति इसको मिटा न पाई। मृत्यु से कोई फर्क न पड़ा।

इसे थोड़ा समझ लें। जिन-जिन चीजों में मृत्यु से फर्क पड़ जाये, वह प्रेम नहीं है। जिस-जिस को मृत्यु छीन ले, मिटा दे, वह सब पार्थिव है। और प्रेम तो अपार्थिव है।

सूफी कहते हैं कि प्रेम को मृत्यु नहीं मार सकती। बस एक चीज को मृत्यु नहीं मार सकती, वह प्रेम है। इसलिये वे कहते हैं, प्रेम परमात्मा तक ले जायेगा। धन नहीं ले जायेगा, क्योंकि मृत्यु धन को छीन लेगी। बुद्धि नहीं ले जायेगी, क्योंकि बुद्धि मृत्यु के इसी तरफ पड़ी रह जायेगी। पद-सम्मान नहीं ले जायेगा, क्योंकि मृत्यु सबको पोंछ डालती है। सिर्फ प्रेम ले जायेगा, क्योंकि प्रेम को मृत्यु नहीं पोंछ सकती।

प्रेम मृत्यु से बड़ा है। प्रेम अमृत है।

यह युवक प्रेमी था–उस अर्थ में, जिसको सूफी प्रेमी कहते हैं। इसका प्रेम अनन्य था। इसका प्रेम बेशर्त था, अनकंडीशनल था। तुम्हारा प्रेम…आज पत्नी सुंदर है, आज प्रेयसी के पास रूप है तो तुम्हारा प्रेम है। कल प्रेयसी बूढ़ी हो जायेगी, तुम्हारा प्रेम खो जायेगा। मृत्यु तो बहुत दूर है, बुढ़ापा भी दूर है। कल प्रेयसी बीमार पड़ जाये, अपंग हो जाये, कुरूप हो जाये, लंगड़ी हो जाये, अंधी हो जाये, प्रेम खो जायेगा।

मैंने सुना है, एक नवविवाहित जोड़ा हनीमून पर था। दूसरे या तीसरे दिन पत्नी ने पूछा कि तुम मुझे सदा ही प्रेम करोगे? अगर मैं कुरूप हो जाऊं तब भी? बूढ़ी हो जाऊं तब भी? यह रूप, यह सौंदर्य न रह जाये, तब भी? उस युवक ने कहा कि देख, मैंने कसम खाई है, सुख-दुख में साथ देने की, मगर इसकी तो कोई चर्चा ही चर्च में न उठी थी। पादरी ने कहा था, ‘सुख-दुख में साथ देना।’ सुख-दुख में साथ दूंगा, बाकी यह बात मत उठाना। इसकी तो कोई चर्चा ही नहीं उठी थी।

थोड़ा मन में सोचना, कि जिसे तुम प्रेम करते हो, उसे कुरूप अवस्था में भी प्रेम कर पाओगे? तुम्हारे भीतर सोचकर ही डावांडोल होने लगेगा भाव। नहीं, यह संभव नहीं हो सकता। क्योंकि प्रेम तुमने आकृति को किया है, शरीर को किया है; प्रेम तुमने व्यक्ति को तो किया ही नहीं। जब आकार बदल जायेगा तो जिसे तुमने प्रेम किया था वह बचा ही नहीं। यह दूसरा ही व्यक्ति है।

युवक रुक गया। कब्र उसका घर हो गई। यह बड़ी मीठी बात है। मृत्यु उसका आवास बन गया। प्रेयसी खोई नहीं। जैसे प्रेयसी कहीं गई नहीं। जैसे विवाह हो ही गया। सिर्फ शरीर न रहा, लेकिन अशरीरी प्रेयसी–प्रेम बरकरार रहा, उसकी धारा बहती रही।

जो फकीर हो गया था, वह एक दिन एक तांत्रिक को मिल गया। और अकसर जो फकीर हो जाते हैं, वे किसी न किसी दिन तांत्रिक को मिल जाते हैं।

तांत्रिक से मतलब है, ऐसा व्यक्ति जो सत्य की खोज में नहीं, शक्ति की खोज में है।

इसलिये जो लोग भी संन्यास लेते हैं, उन्हें सावधान रहना चाहिए, कि ऐसे व्यक्ति से मिलना न हो जाये, जो शक्ति की खोज में है। क्योंकि अहंकार हर मौका खोजता है खड़े हो जाने का।

देखा कि उस तांत्रिक को क्रोध आ गया बेटे पर; उसने उसको उठाकर जलती आग में फेंक दिया। चीख उठा यह युवक। उसने कहा कि ऐसा दुख तो मैंने कभी नहीं देखा। ऐसा भयंकर हत्यारा मैंने नहीं देखा। यह कसूर भी कुछ न था, बच्चा जरा रोता था; उसमें मार डालने की क्या जरूरत थी? वह तांत्रिक हंसा, उसने मंत्र पढ़ा और बच्चा हंसता हुआ वापिस आ गया।

सभी मंत्र आकार से संबंधित हैं, निराकार से नहीं। इसलिये मंत्र की सिद्धि हो तो आकार खो भी सकता है; आकार बन भी सकता है। पर आकार का मतलब है, संसार। आकार का मतलब है, खेल की दुनिया, माया।

युवक भागा, जैसे ही मंत्र उसने सुना। मंत्र कंठस्थ किया। प्रेयसी फिर याद आ गई। संबंध जीवन का था, मरण का नहीं था। फिर विराग, राग बन गया। जो राग विराग बन सकता है, वह किसी भी दिन पुनः राग बन सकता है। क्योंकि तुम सिर्फ शीर्षासन कर रहे हो। तुममें कोई फर्क नहीं पड़ा। पहले तुम पैर के बल खड़े थे, अब तुम सिर के बल खड़े हो। जैसे ही मंत्र देखा, यह बच्चे का लौटना देखा आग से–भागा! फकीरी गई। वह फकीरी कोई वास्तविक न थी। वह केवल खिन्नता से पैदा हुई थी। संसार के दुख से आदमी संन्यासी हुआ था।

कोई मिल जाये, जो कह दे संसार में दुख नहीं है; और कोई एक सीढ़ी दे दे कि सीढ़ी ले जाओ, अंगूरों तक पहुंच जाओगे। फिर यह भूल जायेगा कि मैं कह रहा था कि अंगूर खट्टे हैं। इसने चखे तो कभी थे नहीं। बिना चखे लौट आया था। अपने को समझा रहा था। मंत्र क्या मिला, सीढ़ी मिल गई। भागा वृक्ष की तरफ, जहां अंगूर खट्टे थे और छोड़ आया था। प्रेयसी फिर अर्थपूर्ण हो गई। वासना फिर हरी हो गई। लहलहा उठा। सब फकीरी धुल गई एक क्षण में। आकर मंत्र पढ़ा, प्रेयसी जीवित हो उठी।

सूफी इस कहानी को गढ़े हैं सिर्फ यह कहने के लिए, कि मृत्यु की परिस्थति ने प्रेम की जांच का मौका दिया।

युवती ने कहा कि तीनों भले हैं। पहले में करुणा है, दया है, सभ्यता है, शिष्टता है, लेकिन वह पुत्र होने योग्य है; पति होने योग्य नहीं।

थोड़ा समझने की बात है। पिता पुत्र को प्रेम करता है; लेकिन पुत्र सदा कर्तव्य निभाता है, क्योंकि प्रेम की धारा उलटी नहीं बहती, आगे की तरफ बहती है।

एक घर में मैं मेहमान था और ऐसा मुझे बहुत घरों में अनुभव हुआ है; क्योंकि सभी जगह रोग एक है, बीमारी एक है, तकलीफ एक है। घर के बूढ़े गृहपति ने मुझे कहा कि हमने इतना प्रेम किया इन लड़कों को, हमारी तरफ कोई देखता भी नहीं। मैंने उनसे पूछा कि अगर ये तुम्हारी तरफ देखें, तो इनके लड़कों की तरफ कौन देखेगा? और फिर मैं तुमसे यह भी पूछता हूं तुमने अपने लड़कों को प्रेम किया, तुमने अपने बाप को प्रेम किया था? जो तुमने किया, वही ये कर रहे हैं। तुम्हारे बाप भी यही शिकायत करते हुए मरे होंगे। वह आदमी बोला आपको कैसे पता चला? पता चलने की कोई बात ही नहीं, सीधा गणित है।

प्रेम आगे की तरफ जा रहा है। क्योंकि यह जिसको हम प्रेम कहते हैं, केवल बायोलाजिकल है। यह केवल जीवशास्त्रीय है। और जीवन आगे की तरफ जा रहा है। बाप को तो बचना नहीं है, बेटों को बचना है। जीवन की फिक्र बूढ़ों को बचाने की नहीं, बच्चों को बचाने की है। तब बाप की तरफ प्रेम डालना तो फिजूल है; सूखे हुए वृक्ष पर पानी डालना है। वह सूख ही रहा है। वह जो नया अंकुरित हो रहा है, पानी वहां जायेगा। और जीवन बड़ा इकानामिकल है। प्रकृति बड़ी इकानामिकल है, बड़ी अर्थशास्त्रीय है। न्यूनतम शक्ति से अधिकतम काम लेना है, और फिजूल कुछ नहीं जाने देना है।

तो बाप का बेटे की तरफ प्रेम होता है; बेटे का बाप की तरफ कर्तव्य होता है। वह कर्तव्य निभा ले, उतना काफी है। उतना भी काफी है। प्रेम तो हो नहीं सकता। दुश्मनी न हो, यह भी बहुत है। घृणा न हो, यह भी बहुत है।

फ्रायड तो कहता है कि बेटों के मन में घृणा होती है बाप के प्रति। लड़कियां मां को घृणा करती हैं। इसमें सचाइयां हैं। क्योंकि जिनके साथ हम बड़े होते हैं, जो हमें बड़ा करता है, जीवन कुछ ऐसा है, कि अनेक बार उनके कारण हमारे अहंकार को चोट लगती है। पहली तो इसलिये चोट लगती है कि वे ताकतवर होते हैं, हम कमजोर होते हैं।

बच्चा आपके घर में पैदा हुआ, वह कमजोर है, आप ताकतवर हैं। फिर उसको चलाने में, बड़ा करने में, हर तरह से व्यवस्था देने में, आपको न मालूम कितनी आज्ञायें देनी पड़ती हैं। कठोर होना पड़ता है। हर बार उसे चोट लगती है। वे सब चोटें इकट्ठी होती जाती हैं। वह चोटों का जो अंबार है, वह घृणा बन जाता है। इतना भी काफी है कि बेटा कर्तव्यवश बाप की सेवा करे। प्रेम की तो असंभावना है। प्रेम तो ऐसा होगा कि जैसे कि गंगा गंगोत्री की तरफ बहे–यह तो नहीं हो सकता–नीचे की तरफ, सागर की तरफ बहेगी!

तो उस युवती ने कहा कि यह बेटा पुत्र होने योग्य है। जैसा पुत्र होना चाहिए वैसा है, लेकिन पति होने योग्य नहीं। क्योंकि पति होकर यह कर्तव्य निभायेगा, दया करेगा, सेवा करेगा। एकदम अच्छा है। सब सुव्यवस्था दे देगा, लेकिन प्रेम की जो ऊंचाई है, जो तरंग है, जो समाधि है, वह इससे मिलने वाली नहीं है। दुख में साथी होगा, लेकिन यह सुख का साथी नहीं हो सकता।

और प्रेम है सुख का साथ। प्रेम है, दो उत्सव जहां मिलते हैं, जहां दो जीवन तरंगें अपनी आखिरी उछाल में मिलती हैं, वह शिखर का मिलन है।

यह कर्तव्य का मिलन समतल भूमि पर है। दुख होगा तो यह काम का है, सुख में यह किसी काम का नहीं है। इससे प्रेम नहीं हो सकता। इससे नाता-रिश्ता हो सकता है कर्तव्य का–समतल भूमि पर चलेगा; होशियार है। भाव इसका अच्छा है; काफी नहीं है।

दूसरा युवक, जिसने प्रेयसी को उठाया–कोई भी साधारणतः सोचेगा कि चुनना था उसे, जिसने फिर से जीवन दिया। पर युवती ने कहा, यह पिता जैसा है, क्योंकि जन्म दिया। इसकी उत्सुकता मुझमें कम है, जीवन में ज्यादा है। मृत्यु थी तो यह हट गया था, जीवन है तो यह आ गया। जन्म देने में इसका रस है। और इसने मुझे जन्म दिया, मेरे पिता जैसा है। लेकिन पति नहीं हो सकता।

पति तो यह तीसरा युवक है। न तो इसे कर्तव्य का कोई भाव है, न इसे दया का कोई भाव है, न नीति-आचरण का कोई हिसाब है। इसमें प्रेम का पागलपन है। इसे पता ही नहीं चला कि जैसे मेरे मरने और जीने में कोई फर्क है। इसका प्रेम मौत से ज्यादा गहरा है। कब्र इसका घर हो गई। जैसे यह मेरे साथ ही था। मृत्यु से कोई रत्ती भर भेद न पड़ा। जिस प्रेम में मृत्यु से भेद पड़ जाये, वह प्रेम नहीं है।

अगर मुझे पिता चुनना हो तो इस युवक को चुनूंगी, जो मंत्र लाया; जिसने इतनी मेहनत की, मुझे जिलाया। लेकिन इसका प्रेम जीवन से बंधा है। यह सुख का साथी हो सकता है, दुख का साथी नहीं हो सकता। जीवन में साथ चल सकता है, मृत्यु में साथ नहीं चल सकता। यह मृत्यु में अकेला छोड़ देगा। और जो मृत्यु में साथ जाने को राजी न हो, उसके जीवन का साथ एक औपचारिकता है। अभी राग, अभी विराग; फिर विराग हो सकता है। इसकी बदलाहट हो सकती है।

प्रेम इतना चंचल नहीं है। प्रेम एक थिर भाव है; एक समाधिस्थ दशा है, जहां कोई कंपन नहीं होता।

ये तीसरे युवक को चुनती हूं मैं। मृत्यु परीक्षा बन गई।

अर्थ क्या है? अर्थ यह है कि परमात्मा की भक्ति में परमात्मा केवल उसी को वरण करेगा, जो बेशर्त हो। परमात्मा के मंदिर में तीनों तरह के लोग पूजा करने जा रहे हैं। एक तो वे लोग हैं, जो परमात्मा के मंदिर में कर्तव्यवश पूजा करने जा रहे हैं। क्योंकि सदा जैसा होता रहा है…

मैंने सुना है कि एक सुबह-सुबह एक आदमी अभी दुकान के दरवाजे भी नहीं खुले थे, और अपने लड़के को बुला रहा था कि उठ गये या नहीं?

तो लड़के ने कहा, ‘उठ गया हूं।’

तो कहा, ‘आटे में रद्दी आटा मिला दिया या नहीं?’

तो उसने कहा, ‘मिला दिया पिता जी।’

‘और मिर्चों में लाल कंकड़ डाल दिये या नहीं?’

उसने कहा, ‘डाल दिये पिता जी।’

‘और गुड़ में गोबर मिलाया या नहीं?’

उसने कहा, ‘डाल दिया पिता जी। सब कर दिया, सब हो गया है जी।’

तो उसने कहा, ‘चल, फिर मंदिर हो आयें।’

यह मंदिर है? यह जिंदगी है? वहां गोबर गुड़ में मिलाया जा रहा है। और जब सब काम निपट गया तो मंदिर हो आयें। वह एक कर्तव्य है। एक रविवारीय धर्म है, कि रविवार को सुबह चर्च हो आयें। वह एक सामाजिक उपचार है; एक शिष्टाचार है। एक नियम, जिसको पूरा करना उचित है। और जिसके लाभ हैं; जिसकी सामाजिक प्रतिष्ठा है, उपयोगिता है। एक तो वह भी मंदिर जा रहा है, लेकिन उसकी प्रार्थना कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच पायेगी क्योंकि उसने कभी प्रार्थना की ही नहीं है।

एक वह भी वहां जा रहा है, जो संसार से परेशान हो गया है, जो दुखी हो गया है; जो जीवन का अनुभव नहीं ले पाया। इतना समर्थ नहीं पाया अपने को, साहस नहीं जुटा पाया। जीवन से वंचित हो गया है, या वंचित रह गया है। वह भी आ रहा है थका-हारा। उस थके-हारे की प्रार्थना भी नहीं सुनी जा सकेगी। क्योंकि जो संसार को भी अनुभव करने में समर्थ नहीं है वह सत्य को अनुभव करने में कैसे समर्थ हो पायेगा? जो सपने में भी पूरा नहीं उतर सकता, वह सत्य में कैसे पूरा उतरेगा? जो व्यर्थ को नहीं समझ पाता, वह सार्थक को नहीं समझ पायेगा। वह तो और बड़ी छलांग है।

ऐसा आदमी निरंतर ईश्वर से कहता है कि तू तो मुझे स्वीकार है, तेरा संसार स्वीकार नहीं। यह स्वीकृति अधूरी है, क्योंकि अगर ईश्वर मुझे स्वीकार है तो सब मुझे स्वीकार है; क्योंकि सभी उसका है।

स्वीकृति पूरी ही हो सकती है; तब उसका संसार भी स्वीकृत है। वह मुझे नर्क में भी डाल दे तो वह भी मुझे स्वीकृत है। नर्क में भी डाले जाने पर भक्त के हृदय से धन्यवाद ही निकलेगा कि धन्यवाद! तूने मुझे नर्क दिया। स्वर्ग की आकांक्षा से ही धन्यवाद निकलता हो, तब हमारा चुनाव है। तब हम सुख में तो कहेंगे धन्यवाद और दुख में शिकायत करेंगे।

जिस हृदय से शिकायत उठती है, उसकी प्रार्थना नहीं सुनी जा सकती। उसकी प्रार्थना खुशामद है। उसकी प्रार्थना के पीछे शिकायत छिपी है। ना, वह भक्त नहीं है। उसकी श्रद्धा पूरी नहीं है। वैसा ही आदमी मंदिर में प्रार्थना कर रहा है। उसे वापिस जाना होगा। उसे संसार में भटकना होगा। अभी यात्रा अधूरी है। अभी उसे और-और जन्म लेने होंगे। उसे जानना ही होगा कि अंगूर खट्टे हैं–अपने अनुभव से–या मीठे हैं। सिर्फ सांत्वना के लिए इस तरह की बातें काम नहीं करेंगी। उसे संसार के अनुभव से गुजरकर परिपक्व होना पड़ेगा। जैसे पके फल वृक्षों से गिरते हैं, ऐसा ही पका अनुभव प्रार्थना बनता है; उसके पहले नहीं।

और तीसरा वह प्रेमी भी मंदिर आ रहा है, जिसका जीवन भी वहीं है, जिसकी मृत्यु भी वहीं है। मंदिर ही उसका घर है। वह बाहर भी जाता है, तो मंदिर से बाहर नहीं जा पाता। मंदिर उसके साथ ही चल रहा है। मंदिर उसके जीवन की धारा है; उसकी श्वास-श्वास का स्वर है। और कुछ भी हो, जीवन हो या मृत्यु हो, उसने मंदिर को चुना है। वह चुनाव पूरा है। वह छोड़ेगा नहीं। वह चुनाव बेशर्त है।

मैंने सुना है, एक सूफी फकीर जुन्नैद को किसी ने कहा कि तू प्रार्थना किए ही चला जाता है, पहले यह पक्का तो कर ले कि परमात्मा है या नहीं? क्योंकि बहुत लोग संदिग्ध हैं। जुन्नैद ने कहा, ‘परमात्मा से क्या मतलब! मुझे मतलब प्रार्थना से है।’ परमात्मा न भी हो यह पक्का भी हो जाये तो जुन्नेद की प्रार्थना चलेगी।

‘मुझे मतलब प्रार्थना से है।’ और जुन्नैद ने कहा, ‘मैं तुझसे कहता हूं, अगर मेरी प्रार्थना सही है तो परमात्मा को होना पड़ेगा। मैं इसलिये प्रार्थना नहीं कर रहा हूं कि परमात्मा है। मेरी प्रार्थना जिस दिन सच होगी, उस दिन परमात्मा होगा।’

परमात्मा के कारण प्रार्थना नहीं चलती सच्चे भक्त की, प्रार्थना के कारण परमात्मा पैदा होता है।

प्रेम, प्रेमपात्र को निर्मित करता है। प्रेम सृजनात्मक है। इस जगत में प्रेम से बड़ी कोई सृजनात्मक शक्ति नहीं है। इसलिये प्रेम मृत्यु को तो स्वीकार कर ही नहीं सकता; वह घटती ही नहीं।

अगर तुम प्रेम करते हो किसी को, तो वह मरेगा नहीं; मर नहीं सकता। प्रेमी कभी नहीं मरता। प्रेमी मृत्यु को जानता ही नहीं। प्रेम अमृत है।

और सूफी कहते हैं, प्रेम द्वार है।

यह कथा प्रार्थना की कथा है। इसे साधारण प्रेम की कथा मत समझ लेना। सूफी कहते हैं, दो तरह के प्रेम हैं। एक प्रेम लौकिक, एक प्रेम अलौकिक। यह अलौकिक प्रेम की तरफ इशारा है। इसलिये दो प्रेमी, जो किसी तरह लौकिक थे, वंचित रह गये। उनमें एक ही अलौकिक था। क्योंकि अलौकिक की पहचान यही है कि मृत्यु के पार भी अलौकिक प्रेम चलता रहेगा। उसका कोई अंत नहीं है।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(झेन कथा) प्रवचन–7

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मनुष्य की जड़: परमात्मा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जून 1974(प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

किसी आदमी ने एक दिन एक पेड़ को काट लिया।

एक सूफी फकीर ने, जो यह सब देख रहे थे, कहा, ‘

इस ताजा डाल को तो देखो!

वह रस से भरा है और खुश है।

क्योंकि वह अभी नहीं जानता है कि काट डाला गया है।

हो सकता है यह इस भारी घाव से अनजान हो,

जो अभी-अभी इसे लगा है।

लेकिन थोड़े ही समय में वह जान जायेगा।

इस बीच तुम इसके साथ तर्क भी नहीं कर सकते।

सी ही दशा मनुष्य की है। उसे पता भी नहीं कि उसकी जड़ें टूट गई हैं। उसे पता भी नहीं कि परमात्मा से उसका संबंध विच्छिन्न हो गया। उसे पता भी नहीं कि जीवन के स्रोत से उसकी सरिता अलग हो गई है। जल्दी ही सब सूख जायेगा। लेकिन अभी सूखने में देर है। और जब तक वह पूरा ही न सूख जाये, तब तक तर्क से उसे समझाने का कोई उपाय नहीं।

यह सूफी फकीर ठीक कह रहा है।

किसी ने वृक्ष को काट गिराया है। वृक्ष कट गया है, लेकिन अभी हरा है। अभी भी फूल खिले हैं; मुरझाने में समय लगेगा। उसे पता नहीं कि जड़ों से संबंध टूट गया है। उसे पता नहीं कि अब जमीन से कोई नाता न रहा। कोई उपाय भी तो नहीं है उसे समझाने का। और जब समझाने का उपाय होगा तब समझाने का कोई अर्थ न रह जायेगा। जब वह सूख ही जायेगा तभी उसकी बुद्धि को समझ में आयेगा। लेकिन जब सूख ही गये तो कुछ करने को नहीं बचता।

आदमी तभी समझ पाता है, जब करने को समय ही नहीं रह जाता। अकसर लोग मरने के समय समझ पाते हैं कि जीवन व्यर्थ गया। इसके पहले उन्हें समझाने की कितनी ही कोशिश करो, उनकी समझ में नहीं आता। क्योंकि क्षुद्र में ही वे सार देखते रहते हैं। और उन्हें यह भी भरोसा नहीं आता कि मौत आने वाली है। क्योंकि बुद्धि कहे जाती है–और दूसरे मरते होंगे, तुम तो कभी पहले मरे नहीं! और जो कभी नहीं हुआ, वह क्यों होगा? और जीवन को भरोसा नहीं आता कि मैं मृत्यु कैसे बन सकता हूं। प्रकाश माने भी तो कैसे माने कि मैं अंधकार हो जाऊंगा! अमृत को समझायें भी तो कैसे समझायें कि तू भी जहर हो सकता है!

आप जब भी किसी को मरते हुए देखते हैं तो ऐसा लगता है, कोई दुर्घटना हो गई। जैसे कोई दुर्घटना हो गई, न कि कोई जीवन का सत्य! मृत्यु ऐसी लगती है, जैसे होनी न थी और हो गई। लगनी तो ऐसी चाहिए कि आश्चर्य तो यही है कि इतनी देर क्यों न हुई!

जिस दिन जन्मे, उसी दिन जड़ें टूट गईं। जिस दिन जन्मे, उसी दिन पृथ्वी से नाता विच्छिन्न हो गया। जिस दिन जन्मे, उसी दिन परमात्मा से दूर जाने की यात्रा शुरू हो गई। उसी दिन हम पृथक हो गये। पृथकता का अर्थ समझ लेना चाहिए।

बच्चा जब पैदा होता है, एक क्षण पहले मां का अंग था। अंग कहना भी ठीक नहीं क्योंकि उसे यह भी पता नहीं था कि मैं अंग हूं। वह मां के साथ एक था। यह भी हम सोचकर कहते हैं, उसे यह भी पता नहीं था कि मैं एक हूं। क्योंकि एक होने का भी पता तब ही चलता है, जब हम दो हो गये हों। दो हुए बिना एक का भी तो खयाल नहीं आता। बच्चा सिर्फ था। होना परिपूर्ण था। उस होने में कोई भी द्वैत नहीं था। फिर बच्चा पैदा हुआ, मां से विच्छिन्न हुआ, जड़ें टूटीं, जैसे किसी ने पौधा काट डाला।

जिसको हम जन्म कहते हैं, वह मां से दूर हटने की प्रक्रिया है। और फिर जिसको हम जीवन कहते हैं, वह रोज-रोज दूर हटते जाने का नाम है। पहले बच्चा मां के पेट से अलग होता है। लेकिन तब भी मां के स्तनों से उसका संबंध जुड़ा रहता है। फिर वह संबंध भी टूट जायेगा। फिर भी वह मां के आसपास घूमता रहेगा। लेकिन जल्दी ही वह संबंध भी टूट जायेगा। फिर भी मां से एक नाता बना रहेगा। क्योंकि वही स्त्री सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगी। फिर वह नाता भी टूट जायेगा। वह किसी प्रेम में पड़ेगा; कोई स्त्री, और स्त्री महत्वपूर्ण हो जायेगी। तब मां की तरफ पूरी पीठ हो जायेगी।

ऐसे वह दूर जा रहा है। और जितना दूर जायेगा उतना अहंकार मजबूत होगा। क्योंकि जितना मां के पास था, उतना निरअहंकार भाव था। जब मां के गर्भ में था, एक था, तो कोई अहंकार न था।

पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां से दूर होने में ही व्यक्तित्व का निर्माण है। व्यक्तित्व का अर्थ है, अहंकार। व्यक्तित्व का अर्थ है, कि मैं अलग हूं, पृथक हूं, भिन्न हूं, विशिष्ट हूं, व्यक्ति हूं। यह सब जो चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है, इसके साथ मैं एक नहीं हूं, अलग हूं। यह अलग होने की भावना अस्मिता है। यह अहंकार मरेगा। थोड़ी देर डाल हरी रहेगी कट करके। वह थोड़ी देर चाहे सत्तर साल क्यों न हों! वह थोड़ी ही देर है। सत्तर साल का क्या मूल्य है इस अस्तित्व में?

वैज्ञानिक कहते हैं, इस पृथ्वी को बने कोई चार अरब वर्ष हुए। लेकिन पृथ्वी बड़ा ही नया ग्रह है। इससे पुराने ग्रह हैं। सत्तर वर्ष का क्या अर्थ है? इस विराट के फैलाव में सत्तर वर्ष क्षण से भी तो ज्यादा नहीं!

टूट गई डाल वृक्ष से, कुछ घड़ी हरी रहेगी, कुछ घड़ी फूल खिले रहेंगे। यह भी हो सकता है कि जो कली खिल रही थी वह अभी और खिलती चली जाये। क्योंकि अभी भी रस दौड़ रहा है। अभी भी वृक्ष भीतर हरा है। यह स्रोत नया बंद हुआ, लेकिन पुराना जितना रस दौड़ गया था वह तो अपनी यात्रा पूरी करेगा। पुराना मोमेन्टम कायम है। अभी घड़ी कुछ देर टिक-टिक करेगी, हृदय धड़केगा। लेकिन जो जानते हैं वे कहते हैं, जन्म का दिन ही मृत्यु का दिन है। उसी दिन मौत घट गई। तुम्हें खबर सत्तर साल बाद पता चलेगी। कुल्हाड़ी से काट दिया वृक्ष को, उस वृक्ष को पता चलने में घड़ी दो घड़ी, दिन दो दिन लग जायेंगे। लेकिन तब तक उसे समझाने का भी उपाय नहीं।

अगर मैं तुमसे अभी कहूं कि तुम मर गये हो, तुम मेरी मानोगे नहीं; तुम हंसोगे। तुम कहोगे कि अभी हम भलीभांति जिंदा है, यह क्या पागलपन की बात है! लेकिन तुम मर गये उसी दिन, जिस दिन जन्म हुआ। उसी दिन कट गये। उसी दिन अस्तित्व से तुम्हारा नाता टूट गया।

धर्म की सारी खोज इस अनुभव से शुरू होती है कि मैं कट गया हूं, जुड़ कैसे जाऊं? जड़ें उखड़ गई हैं, फिर से मेरी जड़ें कैसे फैल जायें? अस्तित्व से अलग हो गया हूं, फिर से एक कैसे हो जाऊं?

इस एकता की खोज ही धर्म है।

और भिन्नता की खोज संसार है। कैसे और अलग हो जाऊं, कैसे और भिन्न हो जाऊं, इसकी तलाश सांसारिक है।

संसार में हम करते ही यही हैं। अगर तुम्हारे पास धन कम है, तो तुम बहुत ज्यादा अलग नहीं हो सकते। तुम्हारे पास धन ज्यादा है, तो तुम ज्यादा अलग हो सकते हो। जिसके पास बहुत धन है, उसे समाज में जाने की जरूरत भी नहीं रह जाती। उसे लोगों के सामने झुकने का सवाल ही नहीं रह जाता। सम्राट एक शिखर पर रहने लगता है, जहां कोई भी पहुंच नहीं सकता; जहां वह अकेला है। एक भिखमंगा अकेला नहीं हो सकता। उसको भीख मांगने दूसरों के पास जाना ही पड़ेगा। उसे निर्भर रहना पड़ेगा दूसरों पर। उसका अहंकार बहुत मजबूत नहीं हो सकता। एक सम्राट अहंकार से भर सकता है कि मैं बिलकुल पृथक हूं, और पूर्ण स्वतंत्र हूं, और किसी पर…मेरी कोई परतंत्रता, कोई निर्भरता नहीं है।

बड़े पदों की लोग तलाश करते हैं। क्योंकि बड़ा पद शिखर की भांति है। तो जैसे पिरामिड होता है–नीचे बहुत चौड़ा, और ऊपर संकरा होता चला जाता है। आखिर में राष्ट्रपति, सम्राट, प्रधानमंत्री बचते हैं। नीचे जनता का बड़ा विस्तार है। उस भीड़ में अगर तुम खड़े हो, तुम अकेले नहीं हो। इसलिए हर एक कोशिश कर रहा है कि पिरामिड के शिखर पर कैसे पहुंच जाये! जहां वह बिलकुल अकेला होगा, सबके कंधों पर होगा और उसके कंधे पर कोई नहीं। पद की खोज अगर बहुत गहरे में देखो, तो अहंकार स्वतंत्रता की खोज कर रहा है: कैसे मैं अकेला हो जाऊं! कैसे मैं किसी पर निर्भर न रहूं, मुझ पर सब निर्भर हों। मैं किसी पर निर्भर न रहूं। तभी तो मैं कह सकूंगा, मैं हूं–अप्रतिम, अद्वितीय और सबसे ऊपर! और मेरे ऊपर कोई और नहीं।

धर्म की तलाश बिलकुल विपरीत है। धर्म की तलाश, अहंकार विसर्जन की तलाश है। कैसे मुझे पता चले कि मैं हूं ही नहीं। कैसे मैं मिटूं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है, जैसे बर्फ पिघलता है और पानी होकर सरिता के साथ एक हो जाता है, ऐसे कैसे मेरा अहंकार पिघले और एक हो जाये! अहंकार बर्फ की तरह है, जमा हुआ। जमा है इसलिए सीमा मालूम होती है। पिघल जाये, सीमा खो जाती है। और अगर वाष्पीभूत हो जाये तो आकाश के साथ एक हो जाता है। सभी सीमायें खो जाती हैं।

तो तीन स्थितियां हैं मनुष्य के अस्तित्व की। एक है बर्फ की भांति जमा हुआ–फ्रोझन; तब सीमा है। और सीमा साफ है। फिर दूसरी अवस्था है जल की भांति–पिघला; सीमा तरल हो गई। सीमा अभी भी है लेकिन उतनी साफ न रही, धुंधली हो गई। दूसरे से मिलना शुरू हो गया। और फिर एक तीसरी अवस्था है वाष्पीभूत–भाप की भांति। थोड़ी देर तो भाप में भी सीमा लगती है, लेकिन जल्दी ही सीमा खो जाती है और भाप आकाश के साथ एक हो जाती है।

धार्मिक व्यक्ति है वाष्पीभूत, अधार्मिक व्यक्ति है बर्फ की भांति।

और तुम्हारी आकांक्षा क्या है? क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारी सीमा हो साफ? तुम दूसरों से पृथक और भिन्न, अलग मालूम पड़ो? तो तुम जो भी खोज रहे हो, उस खोज से दुख ही निकलेगा। और उस खोज से मौत आयेगी। लेकिन तुम्हें समझाना मुश्किल है कि तुम मर गये हो। तुम्हारी बुद्धि तो यही कहती है, दूसरे मरते हैं सदा। तुमने दूसरों को मरते देखा है, खुद को मरते तुमने कभी देखा भी नहीं, देख भी न सकोगे। क्योंकि खुद को मरते देखने का कोई भी तो उपाय नहीं है। तुम जब भी देखोगे, अपने को जिंदा देखोगे। तुम्हारा अनुभव यही है। और बुद्धि तुम्हारे अनुभव से चलती है। इसलिए बुद्धि का तर्क ठीक है, कि कौन कहता है जड़ें टूट गई हैं! और कौन कहता है कि हम कट गये हैं? हम हैं, भलीभांति हैं। अभी सत्तर वर्ष लगेंगे तुम्हें सूखने में। समझोगे तुम भी, लेकिन जब समझोगे तब कुछ करने को न बचेगा।

मृत्यु के क्षण में अकसर लोगों के जीवन में वैराग्य आ जाता है। पर तब समय नहीं बचता। सारा समय संसार में खो दिया, संन्यास के लिए कोई समय नहीं बचता। मृत्यु के क्षण में ऐसा लगता है, जो भी था स्वप्न जैसा खो गया। स्वप्न भी नहीं, बल्कि एक दुख-स्वप्न, एक ‘नाईट मेयर।’ क्या पाया, कुछ समझ नहीं पड़ता। हाथ खाली दिखाई पड़ते हैं। नग्न जाने की तैयारी हो रही है। और जहां जा रहे हैं, जो भी कमाया था, उपलब्धि की थी, वह कोई भी साथ न जा सकेगी। लेकिन यह उस समय समझ में आता है…पूरा जीवन दुहर जाता है आंख के सामने से।

तुमने सुना होगा–और वह घटना सही है–अगर कोई पानी में डूबकर मरे, तो उस डूबने के क्षण भर में पूरा जीवन फिल्म की भांति आंखों के सामने से गुन जाता है, उतर जाता है। फिर से दुहर जाता है पूरा जीवन, एक क्षण में! और सारा असार, जहां कुछ भी पाया नहीं, कुछ सार न निकला, जैसे रेत को निचोड़ते रहे और तेल हाथ न लगा; वहां खोजते रहे खजाना, जहां खजाना न था। उस दिशा में चलते रहे, जहां रास्ता तो बहुत लंबा था; लेकिन मंजिल कोई आती न थी। या शायद गोल वर्तुलाकार रास्ता था, जिस पर घूमते तो बहुत थे; जैसे कोल्हू का बैल घूमता है–घूमता रहता है; शायद सोचता हो, कहीं पहुंच रहे हैं…कहीं पहुंच रहे हैं। आंखों पर पट्टी बांध देते हैं कोल्हू के बैल को, ताकि उसे दिखाई न पड़े। उसे सिर्फ सामने दिखाई पड़ता है, आजू-बाजू दिखाई नहीं पड़ता। सामने सदा रास्ता मालूम पड़ता है, चलता जाता है। आजू-बाजू दिखाई पड़े तो उसे पता चल जाये कि मैं गोल-गोल घूम रहा हूं, कहीं पहुंचूंगा नहीं। व्यर्थ घूम रहा हूं।

आदमी की आंखों पर भी पट्टी है। तुम भी आजू-बाजू नहीं देख पाते। तुम भी सिर्फ सामने देखते हो। न तुम पीछे लौटकर देखते हो, न तुम आजू-बाजू देखते हो। वासना सदा आगे देखती है। वासना पट्टी है। वासना सदा देखती है–कल। कल क्या मिलेगा? आंखें वहां लगी रहती हैं कल पर, वह आगे की तरफ तुम जा रहे हो। और तुम कभी नहीं सोचते कि कल भी तुम वही देख रहे थे, परसों भी तुम वही देख रहे थे। जब से तुम पैदा हुए, जब से तुमने सोचना शुरू किया था, तुम इसी रास्ते पर घूम रहे हो। वही कामवासना, वही क्रोध, वही लोभ, रोज-रोज वही है। नया कुछ भी नहीं है। तुम पहले भी उसी वासना में उतरे हो बहुत बार, अब भी उसमें उतरने की आकांक्षा कर रहे हो। बहुत बार क्रोध किया, वही क्रोध फिर करने की कोशिश कर रहे हो। बहुत लोभ किया, वही लोभ फिर दुहरा रहे हो।

आदमी एक पुनरुक्ति है, कोल्हू का बैल है। आगे दिखाई पड़ता है इसलिए खयाल में नहीं आता कि वर्तुलाकार घूम रहा हूं। इस वर्तुलाकार घूमने से मंजिल आयेगी नहीं, मौत ही आयेगी। बैल थकेगा, गिरेगा, मरेगा। शायद मरते क्षण में आसपास देखे, क्योंकि तब आगे देखने को कुछ भी न बचेगा। कल तो है नहीं। जब आदमी मरता है तो कल तो बचता नहीं। कल समाप्त हुआ। आज ही रह जाता है। शायद उस दिन आसपास देखे, शायद उस दिन पीछे लौटकर देखे। और तब पाये कि मैं एक ही गोल वर्तुल में सत्तर वर्ष घूमता रहा।

यह थोड़ा समझने जैसा है कि जीवन की सारी यात्रायें वर्तुलाकार हैं। चांद वर्तुल में घूम रहा है, पृथ्वी वर्तुल में घूम रही है, सूरज वर्तुल में घूम रहा है, ऋतुएं वर्तुल में घूम रही हैं, सारा जगत वर्तुल में घूम रहा है। तुम्हारा जीवन भी वर्तुल में ही घूम रहा होगा; क्योंकि यहां सारी यात्रायें वर्तुलाकार हैं। तुम्हारी यात्रा अलग नहीं हो सकती। कहां पहुंचेगा चांद घूम-घूमकर? कहीं भी नहीं पहुंचेगा, सिर्फ मरेगा। कहां पहुंचेगी पृथ्वी घूम-घूमकर? कहीं भी नहीं पहुंचेगी, सिर्फ टूटेगी और बिखरेगी। तुम भी टूटोगे और बिखरोगे। जड़ें तुम्हारी टूट ही चुकी हैं।

सूफी फकीर ठीक कहता है कि इस कटी हुई शाखा को समझाना मुश्किल है कि तू मर चुकी है; तेरी जड़ें टूट गई हैं, कि तेरा आगे अब कोई जीवन नहीं है। क्योंकि वह शाखा कहेगी, अभी मैं हरी हूं, अभी मैं जवान हूं। अभी फूल खिल रहे हैं, कलियां अभी खिलती जा रही हैं, अभी पत्ते मुरझाये भी नहीं हैं; पागलपन की बात है! तर्क डाल का कहेगा, नहीं मैं जिंदा हूं।

बुद्धि भी समझेगी, लेकिन जब समझेगी, तब समय जा चुका होगा। इसलिए बुद्धिमान वह है, जो समय के पहले समझ जाये। तुम उस डाल की भांति व्यवहार मत करना। और जब कोई फकीर तुमसे कहे कि तुम टूट गये हो तो उसकी बात पर सोचना। और जब कोई बुद्ध तुमसे कहे कि तुम मर ही चुके हो, तब जल्दी मत करना इनकार करने की, क्योंकि तुम्हारी सांस चल रही है। सांस चलने से जीवन का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। सांस चलती रह सकती है।

मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीने से बेहोश है। सांस चल रही है, कोमा में पड़ी है। और डाक्टरों ने मुझे कहा कि कोई तीन साल तक यह कोमा में रह सकती है। इंजेक्शन दिए जा रहे हैं, आक्सीजन दी जा रही है, सांस चल रही है, हृदय धड़क रहा है, खून बह रहा है। शरीर सब काम कर रहा है, लेकिन वह बेहोश पड़ी है। वह कभी होश में आयेगी नहीं।

तुम्हारी सांस चल रही है, हृदय धड़क रहा है, खून बन रहा है, तुम भी तो कहीं बेहोश नहीं हो? वह स्त्री तो साफ मालूम पड़ती है कि बेहोश पड़ी है। लेकिन क्या उस स्त्री को पता होगा कि वह बेहोश है? अगर वह एक सपना देख रही होगी, तो हो सकता है सपने में वह घर बना रही हो, विवाह कर रही हो, प्रेम कर रही हो, गृहस्थी सजा रही हो। और उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि सपना है यह, क्योंकि तीन साल तक उसका सपना चलता रहेगा। तुम्हें पता चल जाता है क्योंकि सुबह तुम जागोगे, रात का सपना टूट जायेगा। लेकिन क्या कभी तुमने सोचा कि सपने में तुम्हें सपना, सपने जैसा मालूम नहीं पड़ता? सपने में तो लगता है यही सत्य है। सुबह जागकर पता चलता है कि सपना था। लेकिन रात जब तुम फिर सो जाओगे, तो जिसे तुमने दिन में जागरण समझा था वह भी सपना हो जाता है। सपने की तो सुबह थोड़ी-बहुत याद भी रह जाती है, दिन की तो रात में उतनी भी याद नहीं रह जाती। सब भूल जाता है, कि तुम कौन थे।

सुना है मैंने, एक चीनी सम्राट अपने बेटे के पास बैठा था, जो मरण-शैय्या पर था। उसका एक ही बेटा था। वही आंखों का तारा था। उस पर ही सब निर्भर था, बड़ा साम्राज्य था। सम्राट बूढ़ा था। बुढ़ापे में यह बेटा पैदा हुआ, वह भी मरण-शैय्या पर था। चिकित्सकों ने कहा, बच न सकेगा। बीमारी कुछ इलाज-योग्य न थी, मृत्यु निश्चित थी। तो सम्राट जग रहा है, बैठा है। कभी भी किसी भी क्षण बेटा मर सकता है। तीन रात जगता रहा, चौथी रात सम्राट को झपकी लग गई–थका-मांदा! झपकी में उसने देखा कि वह और भी बड़ा सम्राट है। सारी पृथ्वी पर उसका राज्य है। चक्रवर्ती है। सभी उसके अंतर्गत हैं और उसके बारह जवान बेटे हैं। सुंदर, स्वस्थ, प्रतिभाशाली, एक से एक बेजोड़, एक से एक बढ़कर। वह बड़ा प्रसन्न था, वह बड़ा आनंदित था। स्वर्ण का महल है, सभी कुछ है। दुख की कोई खबर नहीं। जरा-सा भी कांटा नहीं है उसके जीवन-रास्ते पर।

तभी बेटा, जो सामने सोया था, मर गया। पत्नी छाती पीटकर रोई, चीखी। सम्राट की आंख खुली। सम्राट जोर से खिल-खिलाकर हंसने लगा। पत्नी समझी कि शायद विक्षिप्तता आ गई है बेटे की मौत देखकर।

उसने कहा, ‘यह तुम क्या करते हो?’

सम्राट ने कहा, ‘मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं इस बेटे के लिए रोऊं या उन बारह बेटों के लिए, जिन्हें मैं अभी-अभी देखता था। और इस राज्य के लिए रोऊं जिसका मालिक मर गया, या उस राज्य के लिए, जो बड़ा विराट था? सारी पृथ्वी उस राज्य के अंतर्गत थी। इस मिट्टी के, पत्थर के महल के लिए सोचूं, या स्वर्ण के महल जिसको मैं अभी-अभी छोड़कर आ रहा हूं। और मैं बड़े संदेह में पड़ गया हूं कि क्या सच है! इसलिए हंसता हूं। पागल नहीं हुआ हूं।’ सम्राट ने कहा, ‘अगर तू ठीक से समझे तो पहली दफा मेरा पागलपन टूटा है, मैं होश में आ गया हूं।’

न यह संसार सच है, न वह संसार सच है। दोनों ही सपने मालूम पड़ते हैं। एक दिन का सपना है; एक रात का सपना है।

इसलिए हिंदू कहते हैं, यह जगत माया है, स्वप्न से ज्यादा नहीं। जागती आंख का सपना है। और जब तक तुम सोये हुए हो, तुम सपने के अतिरिक्त कुछ देख भी न सकोगे। चाहे आंख खुली हो और चाहे आंख बंद हो; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम भीतर बेहोश हो। तुम्हें इतना भी तो होश नहीं है कि मैं कौन हूं! तुम्हारे होश का क्या अर्थ हो सकता है? तुम्हें इतना भी तो होश नहीं है कि किस गहरे स्रोत से मेरा जीवन आता है। तुम भीतर कभी गये ही नहीं हो। तुम्हारा अपने से कोई परिचय नहीं। तुम कैसे कहते हो कि तुम होश में हो?

बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट होश का एक ही अर्थ करते हैं; जिसे आत्मज्ञान हुआ है।

तुम्हें रास्ते पर एक आदमी मिल जाये और तुम उससे पूछो कि तू कौन है? और वह कहे, क्षमा करें, मुझे कुछ पता नहीं। तुम उससे पूछो, तू कहां से आ रहा है और वह कहे कि माफ करें, मुझे कुछ पता नहीं! और तुम उससे पूछो कि कहां जा रहा है और वह कहे माफ करें, मुझे कुछ पता नहीं कि मैं कहा जा रहा हूं; तो क्या समझोगे तुम? यह आदमी या तो बेहोश है, या नशे में है, या पागल है। लेकिन तुम्हारी भी जीवन के रास्ते पर इससे भिन्न तो कोई दशा नहीं है।

तुमसे कोई पूछे कौन हो? तो क्या है जवाब?

कहां से आते हो?–क्या है जवाब?

कहां जाते हो?–क्या है जवाब?

क्यों हो?–कुछ भी पता नहीं!

मैंने सुना है, एक आदमी वर्षों तक धंधा करता रहा एक साझीदार के साथ लंदन में। साझेदारी भले ढंग से चलती थी, क्योंकि दोनों सीधे-सादे आदमी थे और दोनों विवाद में भरोसा न करते थे, इसलिए कभी कोई विवाद भी नहीं होता था। एक दूसरे से राजी रहते थे, काम ठीक चलता था। फिर उन्होंने काफी कमा लिया। फिर सोचा कि अब हमने इतना अर्जन कर लिया कि हम थोड़ा पहाड़ों में जायें, और थोड़ी छुट्टी बितायें। थोड़ा विश्राम का दिन आ गया।

तो दोनों पहाड़ पर गये। पहली ही रात रास्ता भटक गये। दोनों अलग-अलग हो गये। एक आदमी, जो घने जंगल में पड़ गया, बहुत डरने लगा। बहुत भयभीत होने लगा। जोर से चिल्लाकर कहने लगा जंगल में, मैं रास्ता खो गया हूं। शायद कोई सुन ले! फिर उसने चिल्लाकर कहा, कि मैं रास्ता खो गया हूं। किसी ने तो न सुना, सिर्फ एक उल्लू एक वृक्ष पर बैठा था। तो उल्लू ने जोर से हुंकार भरी–‘हू।’ उस आदमी ने समझा कि यह पूछ रहा है, ‘कौन?’ तो उसने कहा, ‘मैं–मेरा नाम विल्सन।’

उल्लू ने फिर कहा, ‘हू।’

तो उस आदमी ने कहा कि ‘कहा नहीं, मेरा नाम विल्सन! विल्सन एंड जानसन कंपनी में साझेदार हूं।’

उल्लू ने फिर कहा, ‘हू।’

तो उस आदमी ने कहा, ‘नेवर माइंड! आई विल फाइंड माई ओन वे। यू आर आस्किंग टू मच।’ मैं पा लूंगा अपना रास्ता। खुद ही खोज लूंगा। आप परेशान मत हों। जरूरत से ज्यादा पूछ रहे हैं। इससे ज्यादा तो मुझे ही पता नहीं है। इतना ही मालूम है कि विल्सन मेरा नाम है, विल्सन एंड जानसन कंपनी में साझेदार हूं। इससे ज्यादा न कभी किसी ने पूछा है, न उत्तर देने का कोई सवाल उठा है।

आपको इससे ज्यादा मालूम है? उल्लू भी तीन बार पूछ ले, तो आपका आत्मज्ञान खतम हो जाये! तो ज्ञानी की तो बात छोड़ें, कोई फकीर पूछे उसकी तो बात छोड़ें, उल्लू पूछ ले ‘हू’ तो आत्मज्ञान खो जाता है। इसको होश कहिएगा? यह कैसा होश है? कितना होश है इसमें? इसमें कुछ होश नहीं है। होश के नाम पर आप धोखे में हैं।

गुरजिएफ कहता था, तुम सोये हुए हो। तुम्हारी नींद दो तरह की है; एक नींद जब तुम आंख बंद कर लेते हो, और एक नींद जब तुम सुबह आंख खोल लेते हो। पर इससे तुम्हारी नींद नहीं टूटती। तुम्हारी नींद जारी रहती है। नींद तुम्हारी दशा है। गुरजिएफ से कोई पूछता कि मैं क्या करूं? मैं भला होना चाहता हूं। शुभ होना चाहता हूं, मैं शुद्ध होना चाहता हूं, पवित्र होना चाहता हूं। गुरजिएफ कहता, बकवास मत करो! पहले जागो। क्योंकि बिना जागे, तुम कैसे शुभ हो सकोगे? तुम्हें यही पता नहीं कि तुम कौन हो? किसको स्नान करवाओगे? किसकी शुद्धि करोगे? कौन करेगा ध्यान?

बुद्ध से किसी ने रास्ते पर टोका और पूछा कि मैं लोगों की सेवा करना चाहता हूं, कैसे करूं? बुद्ध ने उसे गौर से देखा और कहा कि मुझे बड़ी दया आती है। तुम कैसे सेवा करोगे? तुम अभी हो ही नहीं।

गुरजिएफ से मिलने आस्पेंस्की जब पहली दफा गया, वह बड़ा लेखक था, उसने बड़ी किताबें लिखी थीं। जैसे तथाकथित ज्ञानी होते हैं, ऐसा ज्ञानी था। शास्त्रों पर उसकी पकड़ थी, बड़ा गणितज्ञ था। बड़ा तर्कशास्त्री था। गुरजिएफ ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और कहा कि इसके पहले कि हम कोई बातचीत शुरू करें, यह कागज लो, बगल में कमरा है वहां चले जाओ और इस कागज पर लिख लाओ, जो-जो तुम जानते हो; क्योंकि उस संबंध में फिर हम बात न करेंगे। और वह लिख लाओ, जो-जो तुम नहीं जानते हो। बस उसी संबंध में बात हो सकती है। जब तुम जानते ही हो, तो बात व्यर्थ!

आस्पेंस्की थोड़ा बेचैनी में पड़ा। गुरजिएफ पढ़ लिया होगा उसकी हालत देखकर कि वह बहुत जानता है। अकड़, जानने वाले की अलग ही होती है। आया होगा तब अकड़कर आया होगा। कागज लेकर गया दूसरे कमरे में, लिखने बैठा तो हाथ कांपने लगा। सोचने लगा, क्या जानता हूं? किताबें उसने लिखी थीं। परमात्मा की बातें की थीं, लेकिन परमात्मा को मैं जानता हूं? सोचा तो होश आया पहली दफा, कि जानता तो नहीं हूं। तो भीतर भय भी लगा कि जिसको मैं जानता नहीं, उस संबंध में मैंने लिखा क्यों? और तब यह भी लगा कि जिस संबंध में मैं नहीं जानता, उस संबंध में लिखकर मैंने दूसरों का अहित किया। क्योंकि जब मैं ही नहीं जानता तो मेरा लिखा हुआ पढ़कर दूसरे कहां जायेंगे? पसीना-पसीना हो गया। ठंडी सुबह थी।

घंटे भर बाद वापिस आया, कोरा कागज गुरजिएफ को वापिस दिया, और कहा, ‘क्षमा करें, पहली दफा मुझे होश आया कि मैं जानता कुछ भी नहीं।’

ऐसा तुम्हें होश कब आयेगा? और जब तुम नहीं कुछ जानते हो, तभी तुम्हें कुछ समझाया जा सकता है; उसके पहले नहीं। अन्यथा तुम्हारा तर्क कहेगा, यह बात मानने की नहीं, अभी मैं जीवित हूं। और मैं तुमसे कहूं कि तुम मर गये हो। तुम जिंदा नहीं हो। सिर्फ मरने की खबर पहुंचने में तुम्हें थोड़ी देर लगेगी, समय लगेगा। मर तुम उसी दिन गये, जिस दिन तुम पैदा हुए।

बुद्ध ने कहा है, जन्म में मृत्यु छिपी है। जैसे बीज में अंकुर छिपा हो, ऐसे जन्म में मृत्यु छिपी है। गर्भ ही तो कब्र है। शुरुआत अंत है। इसलिए बुद्ध ने कहा है, जो जुड़ा है, वह बिखर जायेगा। जो बना है, वह मिट जायेगा। लेकिन क्या तुम्हें अपने भीतर ऐसी किसी चीज का पता है, जो कभी बनाया नहीं गया–अनबना है? असृष्ट, अनक्रियेटेड है! अगर उसका तुम्हें कोई पता नहीं, तो तुम्हारी जड़ें उखड़ी हुई हैं। तुम अपरूटेड हो। और जब तक तुम इस बात को न समझ लो…यह पहला होश है; फर्स्ट अवेयरनेस–कि तुम कुछ भी जानते नहीं। अगर यह तुम्हें खयाल न आये तो तुम तर्क करोगे। तुम पच्चीस सवाल उठाओगे। और तुम कोई जवाब स्वीकार न करोगे। श्रद्धा तुममें उत्पन्न न होगी।

यह सूफी यही कह रहा है कि इस वृक्ष को अगर मैं कहूं कि तू टूट गया, तो इसके मन में श्रद्धा पैदा होने वाली नहीं। यह मुझे ही कहेगा कि तुम अंधे हो। देखो मेरी हरियाली। अभी मैं जवान हूं, अभी फूल खिल रहे हैं, अभी पत्ते हरे हैं। कौन कहता है कि मैं मर गया हूं? तुम कुछ गलत-फहमी में पड़ गये हो। या तुम मुझे कुछ धोखा देना चाहते हो। यह कटा हुआ वृक्ष मानने को राजी न होगा।

श्रद्धा तो तभी पैदा होती है, जब तुम्हें अपनी जानकारी का भ्रम टूट जाता है। तुम्हारी जानकारी के भ्रम से तर्क पैदा होता है। तुम्हारा जानकारी का भ्रम गया कि तर्क खो जाता है।

तब यह सुनेगा इस फकीर को गौर से। तब इसके भीतर तर्क का जाल नहीं उठेगा। तब यह फकीर की बात मानकर देखेगा अपने चारों तरफ कि सच में मेरी जड़ें टूट तो नहीं गईं? मैं काट तो नहीं दिया गया हूं? घाव मुझे दिखाई न पड़ रहा हो क्योंकि घाव की खबर पहुंचने में भी समय लगता है।

तुम्हारे पैर में भी चोट लगती है तो उसी वक्त थोड़े ही तुम्हारी बुद्धि को पता चलता है। समय लगता है। समय चाहे थोड़ा-सा ही लगता हो, लेकिन समय लगता है। और अगर तुम्हारी बुद्धि व्यस्त हो तो बहुत समय भी लग सकता है। अगर तुम खेल के मैदान पर हॉकी खेल रहे हो और तुम्हारे पैर में चोट लग गई, नाखून उखड़ गया, खून बहने लगा, तुम्हें पता नहीं चलेगा। खेल बंद होगा आधे घंटे बाद, तब अचानक तुम्हें पता चलेगा। तुम्हारा मस्तिष्क व्यस्त था। तो यह द्वार तक तुम्हारे मस्तिष्क के पहुंच गई खबर, दस्तक देती रही, लेकिन द्वार बंद थे, तुम उलझे थे। पता नहीं चलेगा।

घर में आग लगी हो, और तुम्हारे सिर में दर्द हो जाये, और तुम्हें पता नहीं चले। जब घर की आग बुझ जायेगी, तब तुम्हें पता चलेगा कि सिर भारी है और दर्द से भरा है। युद्ध के मैदान पर सैनिकों को बहुत बार पता नहीं लगता। ऐसी घटनायें घटी हैं कि जो भरोसे की नहीं हैं।

अभी अमरीका में एक सैनिक जो दूसरे महायुद्ध में था, अचानक उसकी पीठ में दर्द उठा। दूसरे महायुद्ध को हुए तो बहुत वक्त हो गया। अब तो वह आदमी बूढ़ा है। दर्द उठा तो खोजबीन की गई, उसकी पीठ में एक गोली पाई गई, जिसका उसे पता ही नहीं है। कारतूस पाया गया, जिसका उसे पता ही नहीं है कि कब लगा! बिना लगे तो कारतूस भीतर नहीं जा सकता। लेकिन वह इतना व्यस्त रहा होगा युद्ध के मैदान पर, कि कारतूस भीतर चला गया। छोटा-मोटा घाव समझा होगा, भर गया होगा, वह भूल गया बात। अब बुढ़ापे में जाकर दर्द उठा। और यह कोई एक घटना नहीं है, ऐसी बहुत सी घटनाएं हर युद्ध में घटती हैं। अनेक सैनिकों को भूल जाता है कि उनके शरीर में कारतूस पड़ा है। बाद में, वर्षों बाद किसी पीड़ा, दर्द के समय में उसका पता चलता है।

किस अवस्था में कारतूस शरीर में चला जाता होगा और पता न चलता होगा? अगर मस्तिष्क बहुत व्यस्त हो तो खबर न मिलेगी। और तुम्हारा मस्तिष्क बहुत व्यस्त है।

तुम्हारी जड़ें भी कट जायें, तुम्हें पता नहीं चलेगा। और तुम्हारी जड़ें अदृश्य हैं। वृक्ष की जड़ें तो दृश्य हैं। तुम चलते हुए वृक्ष हो। तुम्हारी जड़ें कहीं जमीन में गपी नहीं हैं। तुम्हारी जड़ें अदृश्य में हैं। वृक्ष की जड़ें तो स्थूल हैं, तुम्हारी जड़ें सूक्ष्म हैं। इसलिए कब टूट गईं, तुम्हें पता नहीं चलता। वर्षों लग जाते हैं। कोई तुमसे कहे तो भरोसा नहीं आता।

अगर मैं तुमसे कहूं कि तुम परमात्मा से उखड़ गये हो तो ज्यादा संभावना इसकी है कि तुम कहो कैसा परमात्मा! कौन परमात्मा! कहां है परमात्मा? बजाय इसके कि तुम अपनी स्थिति की खोज-बीन करो, तुम परमात्मा पर सवाल उठाओगे। बजाय इसके कि तुम जांच-पड़ताल करो कि हो सकता है, मैं इतना दुखी हूं, इतना पीड़ित हूं, यह इसी कारण हूं, कि मेरी जड़ें कहीं शिथिल हो गई हैं। मेरे जीवन में सिवाय संताप के कुछ भी नहीं है। कहीं आनंद नहीं है। कहीं कोई उत्सव नहीं फलता। कहीं कोई उत्साह नहीं है। तो कहीं सच ही न हो यह बात कि मैं परमात्मा से टूट गया हूं!

और परमात्मा का क्या अर्थ है? कोई व्यक्ति नहीं; यह जो समग्र का विस्तार है, यह जो विराट फैला हुआ है सब दिशाओं में; इसी का, इसी टोटलिटी का, इसी का नाम परमात्मा है।

तुम इससे विच्छिन्न हो। तुम्हारे संबंध शिथिल हो गये हैं। थोड़ी बहुत श्वास जुड़ी है इसीलिए तुम जी रहे हो, लेकिन वह भी टूट जायेगी। तुम निन्यान्नवे प्रतिशत टूट गये हो। शायद एकाध जड़ पड़ी है, जिससे श्वास चलती जाती है। जरा सा धक्का…वह जड़ भी टूट जायेगी। अगर तुम तर्क न करो…और सारे धर्म कहते हैं तर्क मत करो। इसलिए बुद्धिमान आदमी को धर्म में रस नहीं मालूम पड़ता क्योंकि बुद्धिमान आदमी तर्क करना चाहता है।

मेरे पास लोग आते हैं। एक युवक कुछ दिनों पहले आया और उसने कहा कि आप ईश्वर के पक्ष में जो भी तर्क दे सकते हों दें, और मैं भी जो ईश्वर के विपक्ष में तर्क दे सकता हूं, दूंगा। अगर आपने मुझे कनविंस किया, अगर आपने मुझे राजी कर लिया तर्क से, तो मैं आपका शिष्य हो जाऊंगा।

मैंने उस युवक को कहा कि जो व्यक्ति तर्क से परमात्मा की खोज पर जाता है, पहली तो बात, उसे कभी कनविंस नहीं किया जा सकता, राजी नहीं किया जा सकता। क्योंकि तर्क के माध्यम से परमात्मा तक कोई रास्ता ही नहीं जाता। यह तो ऐसा है, जैसा एक आदमी कहे कि मैं आंख बंद रखूंगा और तुम सिद्ध करो कि प्रकाश है। जब सिद्ध हो जायेगा, तब मैं आंख खोलूंगा। तो हम उससे कहेंगे, आंख बंद आदमी के सामने कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि प्रकाश है?

श्रद्धा है आंख का खुलना, तर्क है आंख का बंद रहना।

और तर्क कहता है कि पहले सिद्ध करो। बात बिलकुल ठीक लगती है कि जब तक सिद्ध न हो जाये तब तक मैं कैसे स्वीकार करूंगा? लेकिन आंख खुले बिना प्रकाश कैसे सिद्ध हो सकता है? प्रकाश को सिद्ध करने का और कोई उपाय नहीं है। सिर्फ एक ही उपाय है कि आंख खुली हो। लेकिन तर्कनिष्ठ व्यक्ति कहता है, मैं आंख खोलूं क्यों, जब तक कि सिद्ध न हो जाये कि परमात्मा है, प्रकाश है? कोई उपाय नहीं।

मैंने उस युवक को कहा, हम व्यर्थ मेहनत में न पड़ें। तू अपने रास्ते पर जा और तर्क से जी। लेकिन तू आया ही क्यों है? निश्चित ही तेरे तर्क ने तुझे कहीं कठिनाई में डाला है। उसने कहा कि नहीं, तर्क से मुझे कोई…और कोई कठिनाई नहीं। वैसे मैं दुखी हूं, अशांत हूं, तो मैं चाहता हूं कि कोई सिद्ध करे परमात्मा है, ध्यान का कोई मूल्य है; तो मैं करूंगा। मैं संन्यास भी लेने को राजी हूं, लेकिन कोई सिद्ध करे!

‘तू और थोड़ा भटक, और थोड़ा दुखी हो, और थोड़ा परेशान हो। तेरी परेशानी ही तेरे तर्क को तोड़ेगी और कोई उपाय नहीं है। जब तू इतना दुखी हो जायेगा, तभी तू संदेह करेगा कि शायद मेरा तर्क ही तो मेरे दुख का कारण नहीं है? और जिस दिन तुझे ऐसा बोध हो, उस दिन वापिस आना।’

आनंद, खबर है कि तुम ठीक चल रहे हो। दुख–खबर है कि तुम गलत चल रहे हो। आनंद खबर है कि तुम्हारी यात्रा ठीक दिशा में हो रही है। दुख खबर है कि तुम गलत दिशा में यात्रा कर रहे हो। आनंद इस बात की खबर है कि तुम स्रोत के निकट पहुंच रहे हो। और दुख इस बात की खबर है कि तुम स्रोत से दूर जा रहे हो। दुख इस बात की खबर है कि तुम्हारी जड़ें टूट गई हैं, टूटती जा रही हैं। आनंद इस बात की खबर है तुमने फिर से जड़ें फैला लीं, तुम पृथ्वी में पैर जमाकर खड़े हो गये हो–रस के स्रोत फिर से बहने शुरू हो गये हैं। तुम अलग नहीं हो, तुम अस्तित्व के साथ एक हो।

वृक्ष को जरा उखाड़कर रख दो और देखो, वृक्ष में क्या घटता है! वह जो अभी हरा था, भरा था, लहलहा रहा था, हवायें आती थीं तो मस्ती से नाचता था, आकाश में बादल आते थे तो गीत गुनगुनाता था, उसे उखाड़कर रख दो। उसके सब गीत थोड़ी देर में खो जायेंगे। उसकी हरियाली थोड़ी देर में मुर्झा जायेगी। पत्ते लटक जायेंगे। उत्साह नहीं रह जायेगा। आकाश में बादल उठेंगे, तो भी उसके प्राणों में कोई गीत नहीं गूंजेगा। वही तुम्हारी दशा है।

वृक्ष की पृथ्वी है; तुम्हारी पृथ्वी परमात्मा है।

वह सूफी फकीर ठीक कह रहा है, लेकिन तर्क से तुम्हें समझाने का कोई उपाय नहीं। बुद्ध तुम्हें कोई तर्क नहीं देते और न क्राइस्ट तुम्हें कोई तर्क देते हैं। तर्क की जगह वे केवल अपने आपको तुम्हारे सामने मौजूद करते हैं। अगर उनकी खुशी तुम्हें पकड़ ले, अगर उनके जीवन की लहलहाहट तुम्हारे खयाल में आ जाये, अगर उनकी मस्ती तुम्हारे हृदय को छू ले, अगर उनकी समाधिस्थ दशा तुम्हें घेर ले और प्रफुल्लित कर जाये!

बुद्ध खुद तर्क है। अस्तित्व खुद तर्क है।

मैंने उस युवक को कहा: तू दुखी है, मैं दुखी नहीं हूं। और जिस दिन तुझे आनंद सीखना हो, उस दिन तू आ जाना। लेकिन तर्क का कोई सवाल नहीं है।

तर्क में पड़ते ही नासमझ हैं। समझदार की फिक्र नहीं होती है कि क्या सही है, क्या गलत है! समझदार की फिक्र होती कि क्या आनंद है और क्या दुख है! सही और गलत का हिसाब करके क्या करोगे? हिसाब भी कर लिया तो हाथ में क्या आयेगा? हिसाब करना, आनंद का और दुख का; कितना दुख है, कितना आनंद है! और जहां आनंद की झलक पाओ, समझना कि वहां स्रोत है। सूखी नदी को देखकर तुम समझ जाते हो कि स्रोत नहीं है। भरी नदी को, बहती नदी को, जीवंत, नाचती जाती सागर की तरफ, नदी को देखकर तुम समझ जाते हो, स्रोत है–वही तर्क है। नदी और क्या कहे? उसका बहाव, उसकी लहरें, उसका यह नृत्यपूर्ण यात्रा-पथ! यह उसकी तीर्थयात्रा…यही उसका तर्क है।

अस्तित्व किसी तर्क, छोटे तर्क को नहीं मानता। और तर्क उठते ही इसलिए हैं कि हमें अस्तित्व के बड़े तर्क का कोई पता नहीं।

हमारी छोटी-सी बुद्धि से हम बड़े हिसाब लगाते हैं। और हिसाब में हम हारते हैं। क्योंकि यह विराट इतना बड़ा है और बुद्धि इतनी छोटी है! जैसे कोई चम्मच लेकर सागर के किनारे बैठकर और सागर को नाप रहा हो। सागर नपेगा इसकी तो संभावना नहीं है; यह आदमी मरेगा। यह यहीं ढेर हो जायेगा चम्मच हाथ में लिए। इसका जीवन व्यर्थ हो जायेगा। बुद्धि शायद चम्मच से भी छोटी है।

अमरीका में एक बहुत बड़ा वनस्पतिशास्त्री हुआ, जिसने मूंगफली के संबंध में बड़ी खोंजें कीं, और मूंगफली के बड़े नये-नये रूप और प्रकार पैदा किए। वह अपने ऊपर मजाक किया करता था। और अपने ऊपर मजाक वे ही लोग कर सकते हैं, जो बड़े बुद्धिमान हैं। दूसरे का मजाक तो मूढ़ भी कर सकते हैं; मूढ़ ही करते हैं।

सिर्फ बुद्धिमान अपने पर हंस सकता है।

तो वह वनस्पतिशास्त्री कहा करता था लोगों से, कि पहले मैं सारे जगत को समझना चाहता था और मैं परमात्मा से प्रार्थना करता था, इस जगत का रहस्य मेरे लिए खोल! बहुत मैंने प्रार्थना की, लेकिन मेरी कोई प्रार्थना सुनी न गई। तब मैंने सोचा कि जगत शायद बहुत बड़ा है, मैं शायद बहुत छोटा हूं। तो मैंने एक दिन परमात्मा से कहा कि छोड़ जगत को। यह मूंगफली की मैं खेती करता हूं, इसका ही रहस्य खोल दे। तो परमात्मा की आवाज मुझे सुनाई पड़ी कि अब ठीक है। मूंगफली ठीक तेरे ही साईज की है। इसका रहस्य खोला जा सकता है। जगत का रहस्य जरा बड़ा था, तू काफी छोटा पड़ता था। और चम्मच से सागर नहीं तौले जा सकते। यह रहस्य तुझे मैं खोल दूंगा।

और वह वनस्पतिशास्त्री कहता था कि उसी ने रहस्य खोला। और इसलिए मैं मूंगफली के अनेक प्रकार, और नये-नये ढंग, और नये-नये स्वाद पैदा कर सका हूं। लेकिन जब मैंने ठीक सवाल पूछा, जो कि ठीक मेरी आकृति और मेरे रूप और मेरी सीमाओं के भीतर था, तब मुझे उत्तर मिला।

ध्यान रखना इसे। जब तक तुम अपने से बड़े सवाल पूछोगे, उत्तर नहीं मिलेंगे। जिस दिन तुम अपने योग्य सवाल पूछोगे, उसी क्षण उत्तर मिल जायेगा। और जितने उत्तर तुम्हें मिलते जायेंगे, उतना ही तुम्हारा आकार बड़ा होता जाता है। उतने ही बड़े प्रश्न पूछने में तुम समर्थ होते जाते हो। लोग जब ईश्वर के संबंध में सीधा-सीधा पूछते हैं, तभी व्यर्थ हो जाती है बात। बुद्धि बड़ी छोटी है। मगर छोटे का हमें बड़ा गर्व है। छोटे पर हम बड़े इतराये हैं।

ऐसा हुआ कि साक्रेटीज़ के पास एक आदमी मिलने आया। वह एक बड़ा धनपति था। और ‘एथेन्स’ में उससे बड़ा कोई धनपति नहीं था। उसकी अकड़ स्वाभाविक थी। रास्ते पर भी चलता था, तो उसकी चाल अलग थी। बात करता था, लोगों की तरफ देखता था, तो उसका ढंग अलग था। हर जगह उसका अहंकार था। वह साक्रेटीज़ से मिलने आया।

साक्रेटीज़ ने उसे बिठाकर कहा कि बैठो, मैं अभी आया, भीतर गया और दुनिया का एक नक्शा ले आया और उससे पूछने लगा इस दुनिया के नक्शे पर यूनान कहां है?–छोटा सा यूनान! उस आदमी ने बताया, पर उसने कहा, यह पूछते क्यों हो? वह थोड़ा बेचैन हुआ। साक्रेटीज़ ने कहा और मुझे बताओ कि यूनान में एथेन्स कहां है? बस, एक छोटा-सा बिंदु था। पर उस आदमी ने कहा, यह पूछते क्यों हो? साक्रेटीज़ ने कहा, बस एक सवाल और! इस एथेन्स में तुम्हारा महल कहां है? तो तुम क्यों अब इतने अकड़े हो?

और यह पृथ्वी का नक्शा सब कुछ नहीं है। कोई चार अरब सूर्य हैं और इन चार अरब सूर्यों की अपनी-अपनी पृथ्वियां हैं। और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि ये चार अरब भी हम जहां तक जान पाते हैं, वहां तक! आगे विस्तार का कोई अंत नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर मनुष्य जैसा जीवन होना चाहिए, मगर यह कोई अंत नहीं है, क्योंकि अंत की हमें कोई खबर नहीं है। जितना हमारे दूरबीन सशक्त होते जाते हैं, उतनी ही बड़ी सीमा होती जाती है। सीमा का कोई अंत नहीं मालूम होता।

तुम उसमें कहां हो? लेकिन बुद्धि बड़ी अकड़ी है। छोटा-सा सिर है, उस सिर में छोटी-सी बुद्धि है। कोई डेढ़ किलो वजन है खोपड़ी का। उस डेढ़ किलो वजन में सारा सब कुछ है। पर बड़ी अकड़ है; बड़े तर्क हैं।

जिन लोगों ने सत्य की खोज की है, उन्होंने कहा, जब तक तुम्हारा सिर न गिर जाये, तब तक तुम सत्य को न पा सकोगे। तुम्हारा सिर ही बाधा है। जब तक तुम सिर-सहित हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे।

क्योंकि तुम्हारा सिर तर्क खड़े करता है। और तुम्हारे तर्क बेहूदे हैं। मगर तुम्हारा सिर कहता है कि सब ठीक हैं ये तर्क।

संन्यासी बिना सिर के जीना शुरू करता है। उसका अस्तित्व तर्कहीन है। उसका होना हार्दिक है, बौद्धिक नहीं। उसके होने में बुद्धि प्रधान नहीं है। उसके होने में बुद्धि भी एक अंग है। जैसे मांस-मज्जा है, पित्ती है, हृदय है, फेफड़े हैं, वैसे बुद्धि भी एक अंग है।

बुद्धि से कोई सत्य खोजा नहीं जाता। बुद्धि तो राडार है। उससे थोड़ी-सी झलक आसपास की मिलती है, ताकि तुम सम्हलकर चल सको। बुद्धि मालिक नहीं है, सेवक है। लेकिन कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि मालिक सेवक बन जाता है; सेवक, मालिक बन जाते हैं। तुम्हारे भीतर यही हुआ है। बुद्धि मालिक हो गई है, तुम सेवक हो गये हो। तुम पहले बुद्धि से पूछते हो, क्या सही, क्या गलत। फिर तुम चलते हो।

बुद्धिमान आदमी बुद्धि से नहीं पूछता; बुद्धि का उपयोग करता है। बुद्धिमान आदमी बुद्धि का उपयोग करता है, एक साधन की तरह। जहां जरूरत होती है, उसको आवाज देता है। जहां जरूरत नहीं होती, उसे छोड़ देता है। लेकिन जरूरत, गैर-जरूरत तुम्हारा सवाल नहीं। बुद्धि चलती ही जाती है। तुम जाग रहे हो, सो रहे हो, बैठे हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि चलती जाती है। और बुद्धि कहे जाती है यह करो, यह करो, वह करो; और तुमसे करवाये चली जाती है।

ध्यान का अर्थ है, बुद्धि के इस नियंत्रण से छुटकारा। बुद्धि की इस मालकियत से मुक्ति। ध्यान का अर्थ है, बुद्धि की गुलामी से स्वतंत्रता। ध्यान एक बगावत है, एक क्रांति है।

अगर वह वृक्ष की शाखा ध्यानपूर्ण होती तो फकीर की बात समझ लेती। लेकिन वृक्ष की शाखा तर्क खड़ा करेगी और फकीर से कहेगी, सिद्ध करो।

तुम उस शाखा की भांति मत होना। अन्यथा फकीर का कुछ भी न जायेगा, तुम्हारा सब कुछ खो जायेगा। तुम्हारी बुद्धिमानी में ही तुम बुद्धिहीन सिद्ध होओगे।

कभी तुम ऐसे व्यक्ति के करीब आ जाओ, जो तुम्हें सचेत कर सकता हो, तो जहां तुम जूते छोड़ आते हो द्वार के बाहर, वहीं अपने सिर को भी रख आना। वहीं अपनी बुद्धि को भी रख आना। तो ही तुम बुद्धों का लाभ ले सकोगे। अन्यथा बुद्धों से वंचित हो जाना बहुत आसान है। जरा-सा तर्क–और हजारों मील का फासला हो जाता है। इंच भर तर्क–और स्वर्ग और नर्क में जितना फासला है, उतना फासला हो जाता है। इंच भर भी तर्क लेकर वहां मत आना। अगर बुद्धों से कुछ पाना हो तो सिर लेकर वहां जाना ही मत।

इसलिए पूरब के मुल्कों में गुरु के चरणों में सिर झुकाते हैं, वह सिर्फ प्रतीक है। वह प्रतीक इस बात का है कि हम तर्क को झुकाते हैं। अब हम सुनने को श्रद्धा से राजी हैं। अब हम विवाद न खड़ा करेंगे। अब हम संवाद को उत्सुक हैं। अब हम कुछ जानना चाहते हैं। हम कोई तार्किक निष्पत्ति नहीं चाहते। हम कोई जीवन की क्रांति चाहते हैं। वह सिर झुकाना प्रतीक है। लेकिन तुम सिर भी झुका देते हो, फिर भी तर्क से भरे रहते हो। वह प्रतीक झूठा हो गया।

जहां तुम्हारा सिर झुके, वहां तुम तर्क को रख देना, और तर्क-शून्य होकर सुनना और समझना। तब अस्तित्व तुम्हें घेर लेगा। तब बुद्धत्व तुम्हें बदल देगा। तब यह सूफी फकीर की बात वह वृक्ष भी समझ सकता था।

भगवान : …कुछ और?

भगवान! आपने दो तरह की नींद की चर्चा की। एक तो साधारण नींद है, जिससे हम सुबह जागते हैं जब वह नींद पूरी हो जाती है। दूसरी नींद, जिसे हम आध्यात्मिक नींद कहते हैं; जिसमें हम सब सोये हैं, दिन में भी सोये हैं, उससे जागने के लिए भी क्या जरूरी है, कि वह नींद पूरी हो जाये?

निश्चित ही एक नींद है, जो सुबह पूरी हो जाती है। क्योंकि वह नींद शरीर की है। शरीर की सीमा है। शरीर थकता है। रात आप सो जाते हैं, थकान पूरी हो जाती है सुबह। शरीर बड़ा छोटा है। आत्मा की कोई सीमा नहीं है। आत्मा कोई छोटी घटना नहीं है। इसलिए आत्मा की नींद कभी भी पूरी न होगी, जब तक कि तुम चेष्टा न करोगे उसे तोड़ने की। वह अनंत हो सकती है।

दूसरी बात भी समझ लो। शरीर का जागरण भी सांझ चुक जाता है। शरीर का दीया तेल-बाती वाला है। सुबह नींद चुक जाती है, तुम जग आते हो। शाम होते-होते जागरण चुक जाता है, तुम सो जाते हो। शरीर का सब कुछ सीमित है। दस-बारह घंटा बहुत है। दीया जल गया। तेल चुक गया, बाती नष्ट हो गई, फिर विश्राम चाहिए।

न तो आत्मा की नींद का कोई अंत है और न आत्मा के जागरण का। एक बार तुम जागे, तो फिर तुम थकोगे नहीं। पर एक बार तुम जागे ही नहीं, तो तुम सोये ही रहोगे। अनंत जन्मों तक तुम सो सकते हो। क्योंकि आत्मा की कोई सीमा नहीं है। वह बिन बाती बिन तेल है। वह रोशनी तुम्हें दिखाई पड़ गई एक दफा तो सदा दिखाई पड़ती रहेगी। जब तक दिखाई नहीं पड़ी, तब तक तुम चूकते रहोगे। यह चूकना अंतहीन हो सकता है। तुम सदा से हो। तुम कोई आज तो नहीं हो गये हो। तुम कल भी थे, तुम परसों भी थे। तुम सदा से हो, लेकिन अब तक तुम चूकते गये हो। अब तक तुम सोये हो। ऐसा ही तुम आगे भी चूकते जा सकते हो।

आत्मा के साथ किसी भी चीज की कोई सीमा नहीं है, शरीर के साथ सब चीजों की सीमा है। शरीर की वासनाओं की सीमा है, शरीर की तृप्तियों की सीमा है, शरीर की शक्ति की सीमा है, शरीर की अशक्ति की सीमा है। शरीर के साथ सब क्षणभंगुर है। शरीर बड़ा छोटा दीया है। लेकिन आत्मा के साथ सब विराट है। वहां किसी चीज की कोई सीमा नहीं है। अगर तुम भटको तो तुम अनंत तक भटक सकते हो। अगर तुम जाग जाओ तो तुम अनंत के लिए जाग गये। वहां सभी कुछ विराट और अनंत है।

तुम्हारे प्रयास की जरूरत पड़ेगी। लेकिन बड़ा जटिल सवाल है कि सोया आदमी कैसे प्रयास करे जागने का? एक आदमी सोया है, जब वह सोया ही है तो वह जागने का प्रयास कैसे करे? अगर वह जागने का प्रयास करे तो उसका अर्थ है कि वह जाग ही रहा था। धर्म की मूल गुत्थी यहीं है कि सोया आदमी कैसे प्रयास करे जागने का?

इसलिए पूरब कहता है, गुरु के बिना जागना नहीं होगा। जब तुम सो रहे हो तो कोई जागने वाला ही तुम्हें जगा सकता है। इसीलिए तुम पहरेदार को रात कहकर सो जाते हो कि पांच बजे मुझे उठा देना, या तुम टेलिफोन कंपनी को खबर कर देते हो कि पांच बजे घंटी बजा देना। क्योंकि तुम जब सो रहे हो, तब कोई जागा हुआ तुम्हें उठा सकेगा। और या तुम घड़ी में अलार्म भर देते हो।

एक सदगुरु, जो जागा हुआ है, वह सोये हुए को हिला सकता है, जगा सकता है; हालांकि तुम सदगुरु को भी धोखा दे जाते हो। उससे कहते हो, बस! उठता हूं। करवट लेकर, आंख बंद करके, फिर सो जाते हो। अकेले तो तुम्हारा जागना करीब-करीब असंभव है।

इसलिए पुराने ही दिनों से जागरण की प्रक्रिया में स्कूल का बड़ा महत्व है। गुरजिएफ कहता था, बिना स्कूल के कोई भी जाग नहीं सकता। इसीलिए संप्रदाय पैदा हुए। संप्रदाय बहुमूल्य है, अगर समझपूर्वक चला जाये। संप्रदाय का अर्थ है, एक परंपरा, जिसमें दूसरे तुम्हें जगाने की कोशिश करते रहेंगे। एक जागा हुआ अनेकों को जगा सकता है। फिर वे अनेक जागे हुए दूसरों को जगाते जायेंगे।

यह एक कैसे जागता है प्रथम? कोई परिस्थिति, कभी-कभी तुम्हें बिना जगाने वाले के भी जगा दे सकती है। वह सांयोगिक है; जैसे बुद्ध को हुआ।

बुद्ध का जन्म हुआ, ज्योतिषियों ने कहा कि यह युवक होकर या तो संन्यासी हो जायेगा, और या महाप्रतापी सम्राट होगा। पिता बहुत चिंतित हुए। महाप्रतापी सम्राट हो यह तो पिता चाहे, लेकिन पिता…यह तो दुखद घटना बने अगर यह संन्यासी हो जाये। संन्यासी के चरण छूना आसान है, लेकिन तुम्हारा बेटा संन्यासी होना चाहे तो बड़ी पीड़ा होती है। दूसरे का बेटा संन्यासी हो तो तुम पैर भी छू आते हो। पिता बहुत परेशान हुए। ज्योतिषियों से कहा कि फिर क्या उपाय है कि यह संन्यासी न हो? उन्होंने कहा एक ही उपाय है, कि इसकी नींद में जरा भी दखल न पड़े। क्योंकि कभी-कभी दखल पड़ने से आदमी जग जाता है।

जरूरी नहीं है कि अलार्म से ही तुम जगो, क्योंकि अलार्म भी सिर्फ दखल है। आकाश में बादल गरजें और तुम्हारी नींद टूट जाये। कोई परिस्थिति इतनी प्रगाढ़ कांटे की तरह चुभे कि तुम्हारी नींद खुल जाये। कोई दुख इतना बड़ा आ जाये कि तुम्हारी नींद खुल जाये। पर ये घटनायें सांयोगिक हैं। इनकी साधना नहीं बनाई जा सकती। क्योंकि बादल कब आयेंगे, दुख कब घना होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। जो लोग स्वयं जागते हैं, उनके जागने का कारण हमेशा सांयोगिक, एक्सीडेंटल होता है।

तो बुद्ध के पिता को उन्होंने कहा, तुम ऐसा इंतजाम करो कि यह कोई दुर्घटना से जग न जाये, सोया रहे। फिर यह सम्राट हो जायेगा, चक्रवर्ती हो जायेगा। लेकिन अगर यह जग गया, तो मुश्किल होगा। तो पिता ने सारा इंतजाम किया; वही इंतजाम मुश्किल हो गया। पिता ने इंतजाम किया, चार महल बनाये। अलग-अलग मौसम में रहने की अलग-अलग व्यवस्था की। क्योंकि कहीं ज्यादा गर्मी में नींद न टूट जाये, कि ज्यादा सर्दी में नींद न टूट जाये, कि ज्यादा वर्षा में नींद न टूट जाये। अति न हो, सब चीजों में सम रहे, ताकि यह व्यक्ति मूर्च्छित रहे। सुंदरतम जो स्त्रियां उपलब्ध हो सकती थीं, जब बुद्ध जवान होने लगे तो उन्होंने सारे राज्य से सुंदरतम कुंवारियां इकट्ठी कर दीं।

बुद्ध के पिता ने अगर मुझसे सलाह ली होती तो मैं कहता, तुम यह सब उपद्रव, गलती कर रहे हो। इसी से जगेगा यह। जब सभी सुदर स्त्रियां वहां उपलब्ध हो गईं तो बहुत जल्दी सौंदर्य में रस चला गया। भोग निश्चित त्याग में ले जाता है। तुम नहीं पहुंच पाते त्याग में क्योंकि एकाध स्त्री तुम्हें मिलती है और हजारों स्त्रियां अनमिली रह जाती हैं। तो जो स्त्री तुम्हें मिल जाती है, उसमें तो रस खो जाता है, लेकिन जो तुम्हें नहीं मिलीं, उनमें रस बना रह जाता है। उसकी वजह से नींद जारी रहती है। बुद्ध को जो भी सुंदरतम स्त्रियां संभव थीं, सब मिल गईं। आगे कोई रस न रहा। अगर तुम्हें सब मिल जाये, तुम्हारा रस टूट जायेगा। बुद्ध को इतना सुख दिया कि जरा-सा दुख दुर्घटना हो गया। अगर कोई आदमी दुख में ही रखा जाये, तो उसको दुख झेलने की क्षमता बढ़ जाती है। जैसे एक आदमी रेलवे स्टेशन पर ही सोता है तो रेलें गुजरती रहें, कोई नींद में बाधा नहीं पड़ती। हड़ताल हो जाये तो नींद टूटती है। क्योंकि वह जो आवाज की आदत हो गई वह संगीत है, जिसमें उन्हें नींद आती है। तो जो लोग रेलवे स्टेशन पर सोते हैं, रेल की खड़-खड़ उनको बड़ा संगीतपूर्ण वातावरण बनाती है। वह न हो तो बेचैनी होती है।

शिकागो के पास से एक ट्रेन गुजरती थी रोज रात तीन बजे। उससे पूरे शिकागो में शोरगुल मचता था। उसकी सीटी की आवाज…पुराने दिनों की बात! तो अधिकारियों ने सोचा कि यह डिस्टरबेंस है, उसका समय बदल दिया। तीन बजे रात की बजाय वह सुबह सात बजे गुजरने लगी। तो अनेक शिकायतें आईं, कि तीन बजे अनेक लोगों को शिकागो में ऐसा लगा, कि नींद टूट जाती है, कि कुछ गड़बड़ हो रही है। वह जो तीन बजे उपद्रव मचता था रोज, वह नहीं मच रहा; तो उसका अभाव खला। लोग तो हैरान हुए। अधिकारी हैरान हुए, कि हमने तो इसीलिए किया कि नींद ठीक से लगे लोगों की, लेकिन तीन बजे वर्षों की आदत हो गई थी। उससे नींद नहीं टूटती थी, वह नींद का हिस्सा हो गया था। अचानक वह खो गया। खाली जगह हो गई। अनेक लोगों की नींद टूट गई।

बुद्ध अगर दुख में रखे गये होते और बचपन से ही उन्हें सब तरह के दुख दिए गये होते, फिर उनकी नींद टूटना बहुत मुश्किल था। लेकिन सब सुख दिया। इतना सुख दिया कि कभी कोई कांटा न चुभा। बुद्ध के पिता ने बगीचे में इंतजाम किया था, कोई सूखा हुआ पत्ता भी बुद्ध को दिखाई न पड़े। क्योंकि कौन जाने सूखे पत्ते को देखकर बुद्ध सवाल उठा दें! मुरझाया फूल दिखाई न पड़े। कौन जानता है मुरझाया फूल को देखकर वह कह दे कि मैं तो नहीं मुरझा जाऊंगा? कहीं जीवन का सवाल न उठ जाये। कहीं मृत्यु दिखाई न पड़ जाये। तो रात बगीचा साफ कर दिया जाता था ताकि जीवन ही जीवन दिखाई पड़े। इसी से मुसीबत हुई, क्योंकि कितना छिपाओगे? कितना बचाओगे? आज नहीं कल बुद्ध महल के बाहर जायेंगे। बुद्ध को महल के बाहर जाना पड़ा। और जब उन्होंने पहली दफा एक आदमी की लाश को निकलते देखा, सब नींद टूट गई। सारथी से पूछा, क्या हो गया इस आदमी को? सारथी डरा क्योंकि खबर थी पिता की तरफ से, कि कभी मृत्यु की कोई चर्चा उठे तो कुछ कहना मत।

कहानी बड़ी मधुर है। देवताओं ने देखा कि सारथी डर रहा है, और एक क्षण आया है कि एक आदमी जग सकता है तो देवता सारथी में प्रवेश कर गये और उन्होंने सत्य कह दिया। यह तो कहानी है लेकिन बात ठीक ही है। देवता प्रवेश किए हों या न किए हों, सारथी में देवत्व भाव आ गया होगा कि यह बात तो सच ही कहनी चाहिए। क्यों झूठ बोलना? और कब तक छिपेगा झूठ? मौत तो है! तो सारथी ने कहा कि मैं कैसे कहूं? लेकिन यह आदमी मर गया। झूठ मैं नहीं बोल सकता। बुद्ध ने तत्क्षण पूछा कि क्या मैं भी मर जाऊंगा? सारथी ने कहा कि यह और कठिन सवाल है। मैं कैसे कहूं कि आप मर जायेंगे, लेकिन अपवाद कोई भी नहीं है। बुद्ध ने कहा, तब रथ वापिस लौटा लो; अब मुझे आगे नहीं जाना है। वे जा रहे थे एक महोत्सव में भाग लेने। एक युवक महोत्सव, यूथ फेस्टिवल था। सारे राज्य के युवक इकट्ठे हुए थे, बुद्ध को उसका उदघाटन करना था। वापिस लौटा लो, क्योंकि अब युवक महोत्सव में जाने का कोई अर्थ नहीं रहा। मैं मर ही गया। जब मरना ही है थोड़े दिन बाद, तो यह सब राग-रंग व्यर्थ है। उसी रात बुद्ध घर छोड़कर भाग खड़े हुए। यह परिस्थिति के कारण हुआ।

बुद्ध के पिता ने सोचा तर्क से। ठीक ही सोचा था, लेकिन जिंदगी तर्क को नहीं मानती। जिंदगी तर्क से बड़ी बड़ी है। बुद्ध के पिता ने व्यवस्था की तर्क से सब; कि दुख न हो, असुविधा न हो, मृत्यु का दर्शन न हो, इसी वजह से एक दुर्घटना घट गई। बुद्ध के पिता के लिए दुर्घटना बनी, बुद्ध के लिए तो इससे बड़ा अहोभाग्य दूसरा न था।

तो कभी-कभी ऐसा हुआ है कि कोई संयोगवश जाग गया है और तब उसने दूसरों को जगाना शुरू कर दिया है। लेकिन सामान्यतः सौ में निन्यान्नवे मौकों पर तुम्हें गुरु की जरूरत है। तुम्हें कोई जगायेगा, तभी तुम जाग सकोगे। तब भी डर है कि तुम शायद न जागो! तब भी भय है कि तुम करवट ले लो और सो जाओ। क्योंकि मैं तुम्हें रोज करवट लेते और फिर से सो जाते देखता हूं। इसलिए अनुभव से कहता हूं। तुम्हें किसी तरह परेशान करके थोड़ा बहुत हिलाया-डुलाया, तुम थोड़ी-सी आंख खोलते हो, लेकिन आंख के भीतर नींद छाई रहती है। उस छाई हुई नींद से तुम थोड़ा-सा देखते हो, फिर करवट लेकर सो जाते हो; सोचते हो कि अभी दो घड़ी और सो लें, इतनी जल्दी क्या है? अभी सुबह हुई भी नहीं। तुम हजार बहाने खोजकर फिर सो जाते हो।

गुरु भी तुम्हें जगा नहीं पाता; इसलिए बिना गुरु के तुम जगोगे इसकी संभावना ना के बराबर है।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, कृष्णमूर्ति ने ठीक बात कहकर भी बहुत लोगों का अहित किया है–अनजाने में। बात तो ठीक ही है कि तुम्हें कोई दूसरा कैसे जगायेगा? अगर तुम सोना ही चाहते हो, कोई जगा नहीं सकता। तुम जब जागना चाहोगे, तभी जागोगे। गुरु भी क्या करेगा?

इसलिए कृष्णमूर्ति ठीक ही कहते हैं कि तुम जागना चाहो तो जाग सकते हो। गुरु की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिनसे वे कह रहे हैं, वे तो नींद के लिए सब तर्क खोज रहे हैं। जब वे सुनते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं तो अलार्म घड़ी को फेंक आते हैं। वे कहते हैं, जब जगना है तो जग ही जायेंगे। अलार्म की क्या जरूरत? अलार्म से भी वे जगते नहीं थे। पर उससे एक संभावना थी; उसे भी फेंक आते हैं। तब वे निश्चिंत होकर सोते हैं। अब कोई डर भी न रहा कि कोई जगायेगा। अब वे गुरु के पास भी नहीं जाते। अब कहीं कोई गुरु मिल भी जाये तो वे कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं।

नानक ने, कबीर ने व्यर्थ ही नहीं कहा था कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं होगा। उन्होंने तुम सोये हुए लोगों को देखकर कहा था। ज्ञान तो गुरु के बिना हो सकता है। क्योंकि ज्ञान तुम्हारी भीतरी संपदा है। कोई तुम्हें देने वाला नहीं। लेकिन तुम इतने जालसाज हो, तुम इतने षडयंत्रकारी हो, अपने साथ तुम ऐसा खेल खेल रहे हो, कि तुम अपने को धोखा दे लोगे। कोई चाहिए जो तुम्हें जगाये, हिलाये, झकझोरे।

आस्पेंस्की ने अपनी किताब ‘इन सर्च आफ द मिरैकुलस’, गुरजिएफ को भेंट की है। समर्पण में लिखा है; ‘गुरजिएफ को, जिसने मेरी नींद तोड़ दी।’

गुरु का एक ही अर्थ है: जो तुम्हारी नींद तोड़ दे। इसलिए तुम गुरु से बचोगे, भागोगे क्योंकि नींद बड़ी सुखद है। और नींद का टूटना हमेशा दुखद है। जो भी तुम्हारी नींद तोड़ेगा, उस पर तुम नाराज होओगे क्योंकि वह तुम्हें बेचैनी में डाल रहा है। तुम नींद से व्यवस्थित हो गये हो। सब ठीक चल रहा था, सपना भी अच्छा था, सब ठीक था। कोई आ गया, उसने नींद झकझोर दी। अब सब अस्त-व्यस्त होगा। अब पुराना सब जायेगा और नया फिर से संयोजन करना होगा। इसलिए गुरु शुरू में तो कष्टदायी मालूम पड़ता है, दुखदायी मालूम पड़ता है।

इसलिए जो गुरु तुम्हें शुरू से सांत्वना देता हो, समझना कि वह नींद की दवा होगा; गुरु नहीं है। जो तुम्हें पुचकारता, थपकारता हो और कहता हो सब ठीक है, उससे बचना। वह गुरु नहीं है। जब तुम सो रहे होओगे, वह तुम्हारी जेब काट लेगा; और कुछ इससे ज्यादा होने वाला नहीं है।

जब भी तुम गुरु के पास जाओगे तो वह कहेगा, कुछ भी ठीक नहीं है, तुम बिलकुल गलत हो। तुम पागल हो। तुम नींद में हो। तुम अस्वस्थ हो। वह तुम्हारे अहंकार को कोई तृप्ति न देगा। वह सब तरफ से तुम्हें तोड़ेगा, मिटायेगा, जलायेगा।

गुरु तो मृत्यु जैसा है। और मृत्यु से ही गुजरकर अमृत उपलब्ध होता है।

आज इतना ही।


Filed under: बिन बाती बिन तेल--(झेन कहानियां) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अधायत्‍म–उपनिषद–(प्रवचन–11)

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धर्म—मेध समाधि—ग्‍यारहवां प्रवचन

 सूत्र :

वृत्तयस्तु तदानीमप्यज्ञाता आत्मगोचरह:।

स्मरणादनुम।ईयन्ते व्युइप्प्थतस्य समुइप्प्थता:।। 36।।

अनादाविह संसारे संचिता: कर्मकोटय:।

अनेन विलयं यान्‍ति शुद्धो धर्मोऽभिवर्धते।। 37।।

धर्ममेधमिमं प्राहु: समाधि यप्तोवित्तम।:।

वर्षत्येष यथा धमर्त्मृतधारा: सहसश:।। 38।।

अमुना वासनाजाले निःशेष प्रीवलायिते।

समूलोन्मूलिते. पुण्यपापाख्ये कर्मसंचये।। 39।।

वाक्यस्मृतिबद्धं सत् प्राक् परोक्षावमासते।

करामलकवद्बोधमपरोक्षं      प्रसूयते।। 40।।

इस समाधि के समय वृत्तियां केवल आत्मरूप विषय वाली होती हैं, इससे जान नहीं पड़ती, पर समाधि में से उठे हुए साधक की वे उत्थान पाई हुई वृत्तियां स्मरण से अनुमान की जाती हैं।

इस अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठा कर लिए जाते हैं, पर इस समाधि द्वारा वे नष्ट हो जाते हैं और शुद्ध धर्म बढ़ते हैं।

उत्तम योगवेत्ता इस समाधि को धर्म—मेघ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ की तरह धर्मरूप हजार धाराओं की वर्षा करती है।

इस समाधि द्वारा वासनाओं का समूह पूर्णत: लय को प्राप्त होता है और पुण्य—पाप नाम के कर्मों का समूह जड़ से उखड़ जाता है, तब यह तत्त्वमसि वाक्य प्रथम परोक्ष ज्ञानरूप में प्रकाशित होता है, और फिर हाथ में रखे आमला की तरह अपरोक्ष ज्ञान को उत्पन्न करता है।

 

 

श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि, इन चार चरणों के संबंध में सुबह हमने बात की। समाधि संसार का अंत और सत्य का प्रारंभ है। समाधि मन की मृत्यु और आत्मा का जन्म है। इस ओर से देखें तो समाधि अंतिम, चरण है, उस ओर से देखें तो समाधि पहला चरण है।

श्रवण, मनन, निदिध्यासन, इनसे मन क्षीण होता चलता है, लीन होता चलता है; समाधि में पूरी तरह लीन हो जाता है। और जहां मन पूरी तरह लीन हो जाता है, वहां उसका अनुभव शुरू होता है, जो वस्तुत: हम हैं। इस समाधि के संबंध में यह सूत्र है। और इस सूत्र में कुछ बहुत गहरी बातें हैं।

‘समाधि के समय वृत्तियां केवल आत्मरूप विषय वाली होती हैं, इससे जान नहीं पड़ती, पर समाधि में से उठे हुए साधक की वे उत्थान पाई हुई वृत्तियां स्मरण से अनुमान की जाती हैं।’

यह पहली बात काफी खयाल से समझ लें। जो साधना में लगे हैं, उनके लिए, आज नहीं कल काम की होगी।

समाधि में कोई अनुभव नहीं होता। सुन कर कठिनाई होगी। समाधि में कोई अनुभव हो भी नहीं सकता। और समाधि परम अनुभव भी है। यह विरोधाभासी वक्तव्य है, उलटा दिखाई पडता है। लेकिन कुछ कारण से उलटा दिखाई पड़ता है। समाधि में परम आनंद का अनुभव होता है, लेकिन समाधि में डूबे हुए साधक को कोई भी पता नहीं चलता; क्योंकि साधक और आनंद एक हो गए होते हैं, पता चलने के लिए दूरी नहीं रहती।

हमें पता उन्हीं चीजों का चलता है जिनसे हम भिन्न हैं, अलग हैं, दूर हैं। समाधि में आनंद की जो प्रतीति होती है, जो अनुभव होता है, उसका कोई पता समाधि में नहीं चलता। जब साधक समाधि से वापस लौटता है, तब अनुमान करता है कि आनंद हुआ था; पीछे से स्मरण करता है कि परम आनंद हुआ था, अमृत बरसा था; जीए थे किसी और ढंग में और जीवन की कोई गहन स्थिति अनुभव की थी—यह पीछे से स्मरण आता है, जब मन लौट आता है।

इसे हम ऐसा समझें कि श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि, ये चार सीढ़ियां हैं। इनसे साधक समाधि के द्वार पर जाकर अनुभव करता है। अगर समाधि में ही साधक रह जाए और वापस न लौट सके, तो अपने अनुभव को कभी भी न कह सकेगा। अपने अनुभव को बताने का फिर कोई उपाय नहीं है। लेकिन जो साधक समाधि को उपलब्ध हो जाता है, वह वही का वही वापस कभी नहीं लौटता, नया ही होकर लौटता है। लौट कर सारे संबंध उसके मन से बदल जाते हैं; लेकिन लौटता है मन में।

पहले जब मन में था तो गुलाम था मन का, कोई मालकियत न थी अपनी। मन जो चाहता था, करा लेता था, मन जो बताता था, वही मानना पड़ता था, मन जहां दौड़ाता था, वहीं दौडना पड़ता था। मन की गुलामी थी, मन के हाथ में लगाम थी आत्मा की।

समाधि के द्वार से लौटता है साधक जब वापस मन में, तो मालिक होकर लौटता है। लगाम उसकी अब अपने हाथ में होती है। अब मन को जहां ले जाना चाहता है, वहा ले जाता है। नहीं ले जाना चाहता तो नहीं ले जाता। चलाना चाहता है तो चलाता है, नहीं चलाना चाहता तो नहीं चलाता है। मन की अब अपनी कोई सामर्थ्य नहीं रह जाती। लेकिन समाधि को उपलब्ध साधक जब मन में लौटता है—मालिक होकर—तभी वह स्मरण कर सकता है। क्योंकि स्मरण मन की क्षमता है। तभी वह पीछे लौट कर देख सकता है मन के द्वारा कि क्या हुआ था!

इसका मतलब यह हुआ कि मन केवल संसार की ही घटनाओं को अंकित नहीं करता है, जब साधक समाधि में पहुंचता है, और जो घट रहा होता है, वह भी मन अंकित करता है। मन दोहरा दर्पण है। उसमें बाहर का जगत भी प्रतिबिंबित होता है, उसमें भीतर का जगत भी प्रतिबिंबित होता है। तो जब साधक लौटता है मन में तभी अनुभव कर पाता है कि क्या घटा! तो फिर वह तीन सीढ़ियों से लौटे, तो ही अभिव्यक्ति कर सकता है।

पहली सीढ़ी होगी साधक की समाधि से लौटते वक्त, निदिध्यासन। निदिध्यासन में उसको अनुभव होना शुरू होगा, समाधि में जो उसने जाना था सूक्ष्म में, गहन तल में, अपने आत्यंतिक केंद्र पर, वह निदिध्यासन की सीढी पर आकर उसको अपने आचरण में झलकता हुआ दिखाई पड़ेगा। वह पैर उठाएगा, तो पैर पुराना नहीं मालूम पड़ेगा। इस पैर में कोई नृत्य की ध्वनि समा गई! वह आंख उठा कर देखेगा, तो यह पुरानी आंख नहीं मालूम पड़ेगी, ताजी हो गई, जैसे सुबह की ओस! उठेगा तो निर्भार मालूम पड़ेगा, जैसे आकाश में उड़ सकता है! भोजन करेगा तो दिखाई पड़ेगा कि भोजन शरीर में जा रहा है और मैंने कभी भी भोजन नहीं किया है।

अब वह जो कुछ भी करेगा—समाधि से लौटा हुआ साधक—निदिध्यासन की पहली सीढ़ी पर अपने आचरण में समाधि का प्रतिफलन देखेगा; सब जगह उसका आचरण दूसरा हो जाएगा। वह कल जो आदमी था, मर गया। वह जो समाधि के पहले निदिध्यासन की सीमा में खड़ा आदमी था, यह वही नहीं है। सीडी वही है, आदमी उतरता हुआ दूसरा है। यह कुछ जान कर लौटा है। और ऐसी बात जान कर लौटा है कि इसका पूरा जीवन रूपातरित हो गया है। वह जानने में पुराना मर गया है और नए का जन्म हो गया है।

निदिध्यासन में उसे झलक दिखाई पड़ेगी, जो समाधि में घटा है, रस जो बहा है भीतर, वह अब उसके रोएं—रोएं, व्यवहार में सब तरफ बहता हुआ मालूम पड़ेगा।

महाकाश्यप बुद्ध से बार—बार जाकर पूछता था, कब होगी समाधि? तो बुद्ध कहते थे, तू फिक्र मत कर, मुझसे पूछने न आना पड़ेगा। जब हो जाएगी तो तू पहचान लेगा। और तू ही क्यों पहचान लेगा, जो भी तुझे देखेंगे, वे भी पहचान लेंगे, अगर उनके पास थोड़ी सी भी आंख है। क्योंकि जब भीतर वह क्रांति घटती है, तो उसकी किरणें तन—प्राण, सभी को पार करके बाहर आ जाती हैं।

निदिध्यासन की सीढ़ी पर साधक को पता चलेगा कि मैं दूसरा हो गया; मैं नया हूं मेरा दूसरा जन्म हो गया। साधक को पता चलेगा कि जो मैं गया था समाधि में, वही लौटा नहीं हूं। कोई और गया था कोई और लौटा है।

निदिध्यासन से नीचे है मनन। जब साधक निदिध्यासन से और नीचे उतरेगा मन में, तो मनन का क्षण आएगा। अब साधक सोच सकेगा, क्या हुआ? अब वह लौट कर विचार कर सकेगा, क्या हुआ? क्या मैंने देखा? क्या मैंने जाना? क्या मैं जीया? अब वह विचार में, शब्द में, प्रत्यय में अनुभव को बांधने की कोशिश करेगा।

जो लोग मनन की सीढी पर आकर अनुभव को बांध सके हैं, उनसे ही निकले हैं वेद, उपनिषद बाइबिल, कुरान। बहुत लोग समाधि तक गए हैं, लेकिन जो जाना है, उसे मनन तक वापस लौटाना बड़ा कठिन काम है।

ध्यान रखना, पहली यात्रा इतनी कठिन नहीं थी जो हमें बहुत कठिन मालूम पड़ रही है। इस दूसरी यात्रा से तुलना करें तो पहली यात्रा बहुत सरल थी। यह दूसरी यात्रा अति कठिन है।

लाखों लोग समाधि तक पहुंचते हैं। उनमें से कुछ थोड़े से लोग वापस निदिध्यासन में खड़े हो पाते हैं। उनमें से भी कुछ थोड़े से लोग मनन तक उतर पाते हैं। और उनमें से भी बहुत थोडे लोग पहली सीढी, जिसको हम श्रवण कहते हैं—उसका नाम लौटते वक्त बदल जाता है, वह मैं आपसे बात करूंगा—हजारों लोग पहुंचते हैं समाधि तक, एकाध आदमी बुद्ध हो पाता है। समाधि तो हजारों लोगों को लगती है, एकाध आदमी बुद्ध हो पाता है। बुद्ध का मतलब यह कि जो वापस इन चार सीढ़ियों को उतर कर, जो जाना है उसने, जगत को दे पाता है।

मनन का अर्थ है लौटते वक्त विचार में बांधना उसको जो निर्विचार है।

इस जगत में असंभव से असंभव घटना यही है। जो नहीं बोला जा सकता, नहीं सोचा जा सकता उसे शब्द की सीमा में रखना, बांधना।

आप भी देखते हैं, सुबह का सूरज ऊगता है। कभी कोई चित्रकार, कभी, उस ऊगते सूरज को पकड़ पाता है। सूरज को पकड़ लेना बहुत कठिन नहीं है। बहुत से चित्रकार बना लेंगे सूरज को, लेकिन ऊगते सूरज को पकड़ना कठिन है। वह जो ऊगने की घटना है, वह जो गुण है विकास का, वह जो उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ है, वह भी चित्र में अंकित हो जाए, और चित्र देख कर ऐसा लगे कि सूरज अब बढ़ा आगे अब ऊगा, अब ऊगा।

वृक्ष को पकड़ लेना कठिन नहीं है, लेकिन जीवंतता को पकड़ लेना कठिन है। ऐसा लगे कि पत्ते अब हिल जाएंगे, हवा का जरा सा झोंका और फूल झर जाएंगे। वह बहुत कठिन है। वह बहुत कठिन है। और वही फर्क है फोटोग्राफी में और पेंटिंग में। फोटोग्राफी कितना ही पकड़ ले, मुर्दा ही पकड़ पाती है। कभी कोई पिकासो, कोई वानगॉग, कोई सीजां पकड़ पाता है, वह जो जीवंतता है, उसको।

मगर सूरज, पौधे, फूल आम जीवन के अनुभव हैं, इन्हें पकड़ा जा सकता है। समाधि असाधारण अनुभव है। करोड़ों—करोड़ों में कभी एकाध को होता है। और वहां जो होता है, सारी इंद्रिया असमर्थ हो जाती हैं खबर देने में। कान वहां सुनते नहीं, आंखें वहा देख नहीं सकतीं, हाथ वहा छू नहीं सकते, और अनुभव होता है अपरिसीम। विराट जैसे टूट पड़े आपके छप्पर पर, सारा आकाश आ जाए आपके आयन में, तो जैसी मुसीबत हो जाए और कुछ सूझ—समझ न पड़े, वैसा समाधि के क्षण में होता है। छोटा सा चेतना का अपना घेरा, उसमें सारा सागर उतर जाता है।

कबीर ने कहा है कि पहले तो मैं समझा था कि बूंद सागर में गिर गई। जब होश आया, तब पाया कि बात उलटी हुई है सागर बूंद में गिर गया है। तो कबीर ने कहा है कि पहले तो सोचे थे कि कुछ न कुछ बता ही देंगे लौट कर। वह भी कठिन मालूम पड़ा था। बूंद जब सागर में गिर जाएगी तो लौटेगी कैसे? वह भी कठिन मालूम पडा था। कठिन है ही। कबीर का वचन है.

हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बुंद समानी समुद में, सो कत हेरी जाई।।

वह जो गिर गई बूंद समुद्र में, अब उसे कैसे बाहर निकालें? ताकि वह खबर दे सके कि क्या हुआ। यह तो कठिन था ही। लेकिन कबीर ने बाद में दूसरी पंक्तिया लिखीं और पहली पंक्तियों को रह कर दिया। और कहा कि भूल हो गई जल्दी में। अनुभव नया था, ठीक से समझ न पाए क्या हुआ; आदत पुरानी थी, उसकी वजह से उलटा दिखाई पड़ गया। दूसरी पंक्तियां लिखीं हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

समुद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।।

वह समुद्र जो है, वह बूंद में समा गया है। बूंद को तो किसी तरह खोज भी लेते समुद्र में गिर गई थी तो। यह उलटा हो गया है समुद्र पूरा का पूरा आकर बूंद में गिर गया है। अब इस बूंद को हम खोजने भी जाएं तो कहां जाएं! इस बूंद का अब कोई पता नहीं चल सकता।

तो समाधि के क्षण में जो जाना गया है, संसार में जो हमने जाना है, उसको पकड़ने के सारे उपकरण व्यर्थ हो जाते हैं। हम ही व्यर्थ हो जाते हैं। हमारा होना ही बिखर जाता है। और कोई बड़ा होना, जिसकी कोई सीमा नहीं, हम पर टूट पड़ता है—आकस्मिक। मर जाते हैं हम।

समाधि महामृत्यु है, मृत्यु से बड़ी। क्योंकि मृत्यु में तो मरती है केवल देह, मन बचा रह जाता है। समाधि में मर जाता है मन। पहली दफे हमारा सारा संबंध मन से टूट जाता है। पहली दफा हम मन के सारे धागों से विच्छिन्न और अलग हो जाते हैं। और हमारा सारा शान मन का था। इसलिए पहली दफा समाधि में हम परम अज्ञानी होकर खड़े होते हैं।

इसे फिर से दोहरा दूं : समाधि में हमारा जान काम नहीं आता; क्योंकि ज्ञान सब सीखा था मन ने। वह मन रह गया बहुत पीछे, बहुत दूर! हम निकल गए मन से आगे। जो जानता था, वह साथी नहीं है वहा। जो सब बातें समझता था, शब्द का, सिद्धात का जिसे बोध था; शास्त्र जिसे रच—पच गए थे, वह बहुत पीछे छूट गया। वस्त्र ही नहीं छूट जाते, शरीर ही नहीं छूट जाता, मन छूट जाता है। जो हमारा गहरे से गहरा अनुभव है, वह सब पीछे पड़ा रह गया। मन से उछाल लगा कर साधक द्वार पर खड़ा हो गया समाधि के। अब जानने का उसके पास कुछ उपाय नहीं।

समाधि के द्वार पर जो भी खड़ा होता है, वह परम अज्ञानी की तरह खड़ा हो जाता है—परम अज्ञानी की तरह! कुछ भी जानने का उपाय नहीं, जानने की व्यवस्था नहीं, जानने के साधन नहीं, सिर्फ जानना मात्र खड़ा रह जाता है। फिर लौट कर खबर देना बड़ी मुश्किल है। कौन खबर दे? कौन खबर लाए?

लेकिन खबर दी गई है। कुछ लोगों ने अथक चेष्टा की है। वे ही परम कारुणिक हैं इस जगत में जिन्होंने समाधि के द्वार से लौट कर खबर दी है। क्यों? क्योंकि समाधि से लौटने का भी भाव नहीं उठता है। समाधि से लौटना ऐसे ही है, जैसे आप, जो चाहते थे वह मिल गया, सब इच्छा पूरी हो गई; हिलने—डुलने का भी कोई कारण न रहा, गति का कोई सवाल न रहा; वहा से लौटना।

कहते हैं बुद्ध को समाधि हुई तो सात दिन तक वे नहीं लौटे। बड़ी मीठी कथा है। कथा है कि सारे देवता उनके चरणों में इकट्ठे हो गए, और इंद्र रोने लगा, और ब्रह्मा ने चरणों पर सिर पटका, और कहा कि ऐसा मत करें! क्योंकि हम देवता भी तरसते हैं उस बात के लिए, जो समाधि को जानने वाला लौट कर देता है। और कितने जन्मों से कितने—कितने लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई हो जाए बुद्ध, लौट कर खबर दे, लौट कर बोले, बताए जो जाना हो। आप चुप न रहें, आप बोलें!

लेकिन बुद्ध ने कहा, बोलने वाला नहीं रहा, बोलने की कोई इच्छा नहीं रही। और फिर जो देखा है वह बोला जा सकता है, यह खुद ही भरोसा नहीं आता, तो सुनने वाले क्या समझ सकेंगे!

देवता नहीं माने तो बुद्ध ने कहा कि नहीं मानते हो तो मैं कहूं, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि ये बातें जो मैं किसी से कहूंगा, अगर जानने के पहले मुझसे कोई कहता, तो मैं नहीं समझता। तो कोई क्या समझेगा! और फिर बुद्ध ने कहा, इस अनुभव से यह भी अनुभव आ गया है कि जो मेरी बात को समझ सकेंगे, वे मेरे बिना भी वहा पहुंच सकते हैं, और जो मेरी बात नहीं समझ सकेंगे, उनके सामने सिर धुनने से कुछ बहुत प्रयोजन नहीं है।

लेकिन देवताओं ने एक बड़ी मीठी दलील दी। और उन्होंने कहा, हम जानते हैं, यह बात सच है कि जो लोग समझ सकेंगे, वे—वे ही लोग हैं, जो किनारे पर ही खड़े हैं—जो आपकी आवाज सुन लें, एक कदम का फासला है—वे आपके बिना भी किसी न किसी तरह एक कदम पार कर जाएंगे। नहीं, उनके लिए हम नहीं कहते कि आप बोलें। और यह भी हम मानते हैं कि ऐसे भी लोग हैं जो एक कदम भी नहीं चले हैं, उन तक आपकी आवाज भी नहीं पहुंचेगी, वे समझेंगे भी नहीं। उनके लिए भी हम नहीं कहते हैं कि आप बोलें। पर ऐसे भी लोग हैं, जो दोनों के बीच में हैं। जो आप न बोलेंगे तो शायद न समझ सकेंगे जो आप बोलेंगे तो शायद समझ सकते हैं।

शायद ही, देवताओं ने कहा। लेकिन उन्होंने एक बात और बुद्ध को कही कि ये जो शायद हैं—शायद समझ लें, शायद न समझें—अगर आप न बोले और एक भी समझ सकता व्यक्ति, वह अगर इस कारण चूक गया, तो आप सोच लें। पीडा आपकी ही है, पीड़ा आपको ही रहेगी। और ऐसा बुद्धों ने कभी किया है।

समाधि के क्षण में ऐसा लगना बिलकुल स्वाभाविक है कि अब—अब कहीं कुछ कहना, सुनना बताना, व्यर्थ हो गया। किसको बताना है? किसको कहना है? किसको सुनना है? फिर भी कुछ लोग मनन की सीढ़ी पर आकर ऐसे लोगों को बड़ी दुरूह घटना घटती है। और इसलिए महानतम कलाकार वे हैं—वे नहीं जो छंद और गीत रच लेते हैं, कलाकार हैं, वे भी नहीं जो चित्र—मूर्तियां बना लेते हैं, कलाकार हैं—लेकिन महा कलाकार वे हैं, जो समाधि के बिलकुल अगोचर, अदृश्य अनुभव को गोचर और दृश्य शब्दों में मनन की सीढ़ी पर बांधते हैं, चेष्टा करते हैं कि किसी तरह कुछ इशारे पैदा किए जा सकें, कुछ उपाय रचते हैं, कुछ विचार की श्रृंखला निर्मित करते हैं, कुछ विचार की व्यवस्था बनाते हैं जहां से आपको भी थोड़ी सी झलक, कम से कम मन के तल पर ही थोड़ी सी चोट, पुलक का अनुभव हो सके।

लेकिन मनन भी बहुत लोग कर लेते हैं। वह आखिरी सीढ़ी जो है, जिसे हमने पहली दफे जाते वक्त श्रवण कहा था, वही सीढ़ी लौटते वक्त प्रवचन बन जाती है। वही सीडी है। सुनना, बोलना। जाते वक्त जो सुनना था, राइट लिसनिंग थी, ठीक—ठीक सुनना था, श्रवण था, लौटते वक्त वही राइट स्पीकिंग, ठीक—ठीक बोलना बन जाता है।

और ध्यान रहे, पहली सीढ़ी पर होता है शिष्य और इस लौटती हुई आखिरी सीढ़ी पर होता है गुरु, और इन दोनों के बीच जो मिलन है, वह उपनिषद है। जहा सुनने वाला ठीक—ठीक मौजूद है, और जहां बोलने वाला ठीक—ठीक मौजूद है, इन दोनों के बीच जो मिलन की घटना है, वह उपनिषद है।

उपनिषद शब्द का अर्थ है. गुरु के पास रह कर जिसे जाना, गुरु के पास बैठ कर जिसे सुना, पास होकर जो अनुभव में आया, निकटता में जिसकी ध्वनि मिली, सामीप्य में जिसका स्पर्श हुआ।

उपनिषद का अर्थ है पास बैठ कर, पास होकर, निकटता पाकर।

तो शिष्य हो कान, सुनना और गुरु रह जाए सिर्फ वाणी। सुनने वाला न हो, बोलने वाला न हो। यहां हो सिर्फ वाणी, वहा हो सिर्फ सुनने की क्षमता। तब उपनिषद घटता है।

यह सूत्र कहता है ’समाधि में वृत्तियां केवल आत्मरूप विषय वाली होती हैं।’

आनंद का अनुभव हो, मौन का अनुभव हो, शांति का अनुभव हो, शून्य का अनुभव हो, मुक्ति का अनुभव हो, लेकिन ये कोई अनुभव समाधि में सीधे पकड़े नहीं जा सकते।

‘इससे जान नहीं पड़ती हैं।’

ये वृत्तियां जान नहीं पड़ती हैं।

‘पर समाधि में से उठे हुए साधक की वे उत्थान पाई हुई वृत्तियां स्मरण से अनुमान की जाती हैं।’

तो बुद्ध भी ऐसा नहीं कह सकते कि ऐसा ही है समाधि में। वे भी इतना ही कहते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है कि समाधि में ऐसा है। इसलिए महावीर तो अपनी वाणी में स्वात लगा कर ही बोलते हैं। वे कहते हैं, स्वात वहां आनंद है।

इससे कोई यह न समझ ले कि महावीर को पता नहीं है। वाणी से ऐसा ही लगता है कि महावीर भी अगर कहते हैं कि स्वात, तो इनको अभी संदेह है कुछ?

संदेह के कारण नहीं, अत्यंत सत्यनिष्ठा के कारण। महावीर की सत्यनिष्ठा इतनी अछूती और इतनी कुंवारी है कि वैसी सत्यनिष्ठा खोजनी मुश्किल है।

तो महावीर यह कहते हैं कि जिस मन से मैं अब यह जान रहा हूं, वह मन वहां मौजूद नहीं था। यह दूर से सुनी हुई खबर है मन के लिए। घटना जहा घटी थी, वहां मन मौजूद न था। मन चश्मदीद गवाह नहीं है। दूर था, अनुमान किया है इसने, इनफर किया है, सोचा है; घटना घटी थी दूर। जैसे हम यहां बैठे हों और गौरीशंकर के शिखर पर जमी हुई बर्फ को हम देख सकते हैं यहीं बैठे। मन बहुत दूर था। और गौरीशंकर के शिखर पर जो शीतलता बरसी थी, उसका उसने अनुमान किया है।

इसलिए महावीर स्वात ही का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, स्वात वहा परम आनंद है। यह अत्यधिक सत्यनिष्ठा के कारण। क्योंकि अनुमान ही है यह मन का। मन का! महावीर के लिए अनुमान नहीं है। महावीर ने जाना है। लेकिन जिसने जाना है, जानते क्षण में इतनी एकता हो जाती है कि अनुभव नहीं होता। जान कर जब महावीर वापस लौटते हैं मन में.।

ऐसा समझ लें कि आप जाएं गौरीशंकर के शिखर पर, और शीतलता के साथ एक हो जाएं; आप भी शीतलता हो जाएं। या बर्फ के साथ एक हो जाएं, आप भी बर्फ की तरह जम जाएं। तो वहा कोई अनुभव न हो, क्योंकि अनुभोक्ता अलग न हो। फिर आप उतरें और नीचे जमीन पर आकर अपनी दूरबीन उठा कर फिर गौरीशंकर को देखें।

तो वह जो गूंजता हुआ अनुभव रह गया है भीतर, जो जाना था, लेकिन निकटता इतनी थी कि जानने लायक दूरी न होने से जाना नहीं जा सका था। अब इस दूरी पर पर्सपैक्टिव, परिप्रेक्ष मिल गया। अब अपनी दूरबीन मन की उठा कर वापस देखा है। अब अनुमान होता है कि परम शीतलता थी! कि परम शुभ्र बर्फ का विस्तार था! कि कैसी ऊंचाई थी! कि सारा गुरुत्वाकर्षण खो गया था! कि उड़ जाते आकाश में ऐसे पंख लग गए थे! कि कितना शुद्ध था आकाश! कि कैसी नीलिमा थी! कि बादल भी सब नीचे छूट गए थे! निरभ्र शून्य आकाश रह गया था! लेकिन यह सब जमीन पर खड़े होकर पुनर्विचार है।

इसलिए सूत्र कहता है ’स्मरण से अनुमान की जाती हैं।’

‘इस अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठा कर लिए जाते हैं, पर इस समाधि द्वारा वे नष्ट हो जाते हैं, और शुद्ध धर्म बढ़ते हैं।’

इस दूसरे सूत्र में दो शब्द बड़े कीमत के हैं कर्म और धर्म। जो हम करते हैं वह कर्म है, और जो हम हैं वह धर्म है। धर्म का अर्थ है हमारा स्वभाव, और कर्म का अर्थ है जो हम करते हैं। कर्म का अर्थ है हमारा स्वभाव अपने से बाहर जाता है। कर्म का अर्थ है, हम अपने से बाहर जगत में उतरते हैं। कर्म का अर्थ है, हम अपने से अतिरिक्त किसी दूसरे से जुड़ते हैं। स्वभाव का अर्थ है, दूसरे से पृथक, जगत में बिना गए, जो मैं हूं; मेरा जो भीतरी होना है। मेरे करने से उसका कोई संबंध नहीं। मैं क्या करता हूं, इससे वह निर्मित नहीं होता, वह मेरे सब करने के पहले मौजूद है। वह जो मेरा स्वभाव है।

कर्म में भूल हो सकती है, धर्म में कोई भूल नहीं होती। कर्म में चूक हो सकती है, धर्म में कोई चूक नहीं होती। ध्यान रखना, धर्म का अर्थ यहां मजहब या रिलीजन नहीं है। यहां धर्म का अर्थ है गुण स्वभाव। वह जो हमारा आंतरिक स्वभाव है, हमारा होना है, बीइंग है।

तो हम जितने कर्म करते हैं, उतना ही आच्छादित होता चला जाता है स्वभाव। हम जो—जो करते हैं उससे हमारा होना दबता जाता है। और धीरे—धीरे कर्म की इतनी पर्तें हो जाती हैं कि हम यह भूल ही जाते हैं कि कर्मों के अतिरिक्त भी हमारा कोई होना है।

अगर कोई आपसे पूछे, आप कौन हैं? तो आप जो भी उत्तर देते हैं वह कर्मों के बाबत है, आपके धर्म के बाबत नहीं। आप कहते हैं मैं इंजीनियर हूं, आप कहते हैं मैं डाक्टर हूं, आप कहते हैं मैं व्यापारी हूं। आपने खयाल किया, व्यापार कर्म है। आप व्यापारी नहीं हैं, व्यापार करते हैं। कोई आदमी डाक्टर कैसे हो सकता है? डाक्टरी कर सकता है। कोई आदमी इंजीनियर कैसे होगा? आदमी और इंजीनियर हो जाए! तो आदमी खतम ही हो गया। आदमी इंजीनियरी करता है। वह उसका कर्म है, उसका होना नहीं है।

आप जो भी अपना परिचय देते हैं, अगर गौर से देखेंगे तो पाएंगे आप सदा अपने कर्म का परिचय देते हैं, कभी अपने होने की खबर नहीं देते। दे भी नहीं सकते। उसकी खबर आपको ही नहीं है। आप इतना ही जानते हैं, जो आप करते हैं। करने का आपको पता है कि मैं क्या करता हूं, क्या कर सकता हूं। मैंने पीछे क्या किया है, और आगे मैं क्या करने के योग्य हूं, यही आप खबर देते हैं। जो सर्टिफिकेट लेकर आप घूमते हैं, आप क्या कर सकते हैं, उसकी खबर देते हैं। आप क्या हैं, उसकी नहीं। अगर आप कहते हैं मैं साधु हूं, तो उसका मतलब यह है कि आप साधुता करते हैं। कोई कहता है मैं चोर हूं उसका मतलब वह चोरी करता है। एक का कर्म साधुता है, एक का कर्म चोरी है।

लेकिन होना क्या है? आपके भीतर क्या है? जब आप पैदा नहीं हुए थे मा के पेट से, तब साधु क्या था न: चोर क्या था? इंजीनियर क्या था? डाक्टर क्या था? मां के पेट में अगर इनसे कोई पूछता, कौन हो? तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाते! क्योंकि इंजीनियर थे नहीं तब, डाक्टर थे नहीं तब, व्यापार कुछ किया नहीं था। मां के पेट में अगर कोई पूछता, कौन हो भीतर? तो कोई उत्तर नहीं आ सकता था, कि आ सकता था? कोई उत्तर नहीं आ सकता था। मगर थे आप मां के पेट में। उत्तर नहीं आ सकता था।

आज तो ब्रेनवाश, मस्तिष्क को धो डालने के बहुत उपाय खोज लिए गए हैं। आप कहते हैं मैं इंजीनियर हूं आपका मस्तिष्क धोया जा सकता है, साफ किया जा सकता है। क्लीनिंग ठीक से हो जाए, फिर आपसे पूछें, कौन हो? आप खाली रह जाएंगे। क्योंकि वह जो इंजीनियर होना था, वह स्मृति में था। पढ़े थे, लिखे थे, सर्टिफिकेट पाया था, कुछ किया था। यश पाया था, अपयश पाया था, वह स्मृति में था, वह धो दी गई। अब आप कोई उत्तर नहीं दे सकते कि कौन हैं। लेकिन हैं। होना नष्ट नहीं किया जा सकता है स्मृति के धोने से, लेकिन कर्म की रेखाएं साफ की जा सकती हैं।

यह सूत्र कहता है’ अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठा कर लिए जाते हैं।’

स्वभावत:! प्रतिदिन, प्रतिपल कर्म इकट्ठे किए जा रहे हैं। उठते हैं, बैठते हैं, श्वास लेते हैं—कर्म हो रहा है। सोते हैं, स्वप्न देखते हैं—कर्म हो रहा है। कोई आदमी कर्म छोड़ कर भाग नहीं सकता, क्योंकि भागना भी कर्म है। कहां जाइएगा? जंगल में बैठ जाएंगे जाकर? बैठना भी कर्म है। आंख बंद कर लेंगे? आंख बंद करना भी कर्म है। कुछ भी करिए; जहां करना है, वहां कर्म है।

तो प्रतिपल न मालूम कितने कर्म किए जा रहे हैं! उनकी छाया, उनकी स्मृति, उनकी रेखा, उनका संस्कार, भीतर छूटता जा रहा है। जो भी आप कर रहे हैं, वह आपके होने पर इकट्ठा होता जा रहा है। जैसे कि रिकार्ड पर ग्रव बन जाते हैं। फिर ग्रामोफोन की सुई लगा कर चलाएं, तो जो—जो भर गया है रिकार्ड की रेखाओं में, वह पुनरुज्जीवित होकर प्रकट होने लगता है। ठीक आपका मन आपके सब कर्मों की संगृहीत संहिता है, सब इकट्ठा है। जो—जो आपने किया है, उस सबकी आपके ऊपर रेखाएं खिंच गई हैं। और ये रेखाएं अनंत जन्मों की हैं। यह भार बड़ा है। और आप करीब—करीब उसी—उसी को फिर—फिर दोहराते रहते हैं। करीब—करीब आपकी हालत घिसे रिकार्ड जैसी है, कि सुई फंस गई, चलाए जा रहे हैं! वही लकीर दोहर रही है बार—बार!

क्या कर रहे हैं आप? कल भी वही किया, आज भी वही किया, परसों भी वही किया था, कल भी वही करिएगा। वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही काम, वही सब का सब—घिसे रिकार्ड! फंस गई सुई, निकल नहीं पाती गड्डे से, वही आवाज बार—बार दिए जाती है!

इसलिए तो जिंदगी में इतनी ऊब है, इतनी बोरडम है। होगी ही! क्योंकि नया कुछ होता नहीं। सुई आगे बढ़ती ही नहीं। लौट कर देखें आपकी तीस—चालीस साल की जिंदगी! क्या किया है आपने? एक ही रिकार्ड बजा रहे हैं! वही रोज दोहरता जाता है, पुनरुक्त होता चला जाता है। इसी को भारत के मनीषियों ने आवागमन कहा है। वही फिर, फिर वही। इस जन्म में वही, अगले जन्म में वही, उसके अगले जन्म में वही; अतीत की कथा वही, भविष्य की कथा वही। वही कामवासना है, वही प्रेम, वही क्रोध, वही घृणा, वही मित्रता, वही शत्रुता, वही धन का कमाना, वही मकान बनाना, और फिर सब करके एक दिन पाना कि हवा का झोंका आया, और वह जो ताश का महल बनाया था, हरि गया!

मगर जैसे बच्चे तत्काल फिर से पत्तों को इकट्ठा करके मकान बनाने लगते हैं, वैसे ही हम फिर तत्काल नया जन्म लेकर फिर पत्तों का मकान बनाने में लग जाते हैं। अब की दफे और मजबूत बनाने की कोशिश करते हैं। मगर मकान वही है, ढांचा वही है, मन वही है। फिर हम वही कर लेते हैं और फिर उसी तरह अस्त होते रहते हैं। यह सूरज ही नहीं है जो रोज सांझ डूब कर सुबह फिर ऊग आता है। आप भी ऐसे ही डूबते—ऊगते रहते हैं। एक वर्तुलाकार है, एक व्हील। संसार शब्द का अर्थ होता है चाक, व्हील, जो घूमता रहता है एक ही धुरी पर।

यह जो अनंत— अनंत कर्म इकट्ठे कर लिए जाते हैं, इस समाधि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।

यह थोड़ा समझने जैसा है। क्योंकि अनेक लोग सोचते हैं कि अगर कर्म बुरे इकट्ठे हो गए हैं तो अच्छे कर्म करके उनको नष्ट कर दें, वे गलती में हैं। बुरे कर्मों को अच्छे कर्म करके नष्ट नहीं किया जा सकता। बुरे कर्म बने रहेंगे और अच्छे कर्म और इकट्ठे हो जाएंगे, बस इतना ही होगा। वे काटते नहीं हैं एक—दूसरे को। काटने का कोई उपाय नहीं है। एक आदमी ने चोरी की, फिर वह पछताया और साधु हो गया। तो साधु होने से वह चोरी का कर्म और उसके जो संस्कार उसके भीतर पड़े थे, वे कटते नहीं हैं। कटने का कोई उपाय नहीं है। साधु होने का अलग कर्म बनता है, अलग रेखा बनती है। चोर की रेखा पर से साधु की रेखा गुजरती ही नहीं है। चोर से साधु का क्या लेना—देना!

आप चोर थे, आपने एक तरह की रेखाएं खींची थीं, आप साधु हुए, ये रेखाएं उसी स्थान पर नहीं खिंचती हैं जहां चोर की रेखाएं खिंची थीं। क्योंकि साधु होना मन के दूसरे कोने से होता है, चोर होना मन के दूसरे कोने से होता है। तो होता क्या है, आपके चोर होने की रेखा पर साधु होने की रेखाएं और आच्छादित हो जाती हैं, कुछ कटता नहीं। तो चोर के ऊपर साधु सवार हो जाता है, बस। उसका मतलब? चोर—साधु, ऐसा आदमी पैदा होता है। साधुता चोरी को नहीं काट सकती। चोर तो बना ही रहता है भीतर। इम्पोजीशन हो जाता है। एक और सवारी उसके ऊपर हो गई।

तो चोर भी ठीक था एक लिहाज से और साधु भी ठीक था एक लिहाज से, यह जो चोर और साधु की खिचड़ी निर्मित होती है, यह भारी उपद्रव है। यह एक सतत आंतरिक कलह है। क्योंकि वह चोर अपनी कोशिश जारी रखता है, और यह साधु अपनी कोशिश जारी रखता है।

और हम इस तरह न मालूम कितने—कितने रूप अपने भीतर इकट्ठे कर लेते हैं, जो एक—दूसरे को काटते नहीं, जो पृथक ही निर्मित होते हैं।

इसलिए यह सूत्र कहता है कि समाधि के द्वारा वे सब कट जाते हैं।

कर्म से कर्म नहीं कटता, अकर्म से कर्म कटता है। इसको ठीक से समझ लें। कर्म से कर्म नहीं कटता, कर्म से कर्म और भी सघन हो जाता है, अकर्म से कर्म कटता है। और अकर्म समाधि में उपलब्ध होता है, जब कि कर्ता रह ही नहीं जाता। जब हम उस चेतना की स्थिति में पहुंचते हैं जहां सिर्फ होना ही है, जहां करना बिलकुल नहीं है, जहा करने की कोई लहर भी नहीं उठी है कभी; जहा मात्र होना, अस्तित्व ही रहा है सदा, जहां बीइंग है, डूइंग नहीं—उस होने के क्षण में अचानक हमें पता चलता है कि कर्म जो हमने किए थे, वे हमने किए ही नहीं थे। कुछ कर्म थे जो शरीर ने किए थे—शरीर जाने। कुछ कर्म थे जो मन ने किए थे—मन जाने। और हमने कोई कर्म किए ही नहीं थे।

इस बोध के साथ ही समस्त कर्मों का जाल कट जाता है। आत्मभाव समस्त कर्मों का कट जाना है। आत्मभाव के खो जाने से ही वहम होता है कि मैंने किया।

एक आदमी चोरी कर रहा है। या तो शरीर करवाता है, या मन करवाता है। कुछ लोगों के शरीर इस हालत में हो जाते हैं कि चोरी करनी पड़ती है। एक भूखा आदमी है, शरीर चोरी करवा देता है। आत्मा कभी कोई चोरी नहीं करती। भूख है, पीड़ा है, परेशानी है, बच्चा मर रहा है और दवा नहीं है, और एक आदमी चोरी कर लेता है। यह शरीर के कारण हुई चोरी है। अभी तक हम फर्क नहीं कर पाए, शरीर के चोर और मन के चोरों में। क्योंकि शरीर का चोर अपराधी नहीं है। शरीर के चोर का मतलब है कि समाज अपराधी है। मन का चोर अपराधी है। मन का चोर अलग चीज है। कोई जरूरत नहीं है, घर में तिजोरी भरी है, लेकिन एक पैसा सड़क पर पड़ा हुआ मिला जाए, तो उठा कर जेब में रख लेता है।

यह जो आदमी है, यह मन का चोर है। मतलब इनकी कोई शारीरिक, शरीर इनसे नहीं कह रहा है चोरी करो, इनका लोभ! इस एक पैसे से इनका कुछ बढ़ेगा भी नहीं, लेकिन फिर भी, कुछ तो बढ़ेगा ही। एक पैसा भी बढ़ेगा। करोड़ों रुपए हों और एक पैसे को भी उठाने की नियत बनी रहे, यह है असली अपराधी। लेकिन यह पकड़ में नहीं आता, पकड़ में वह शरीर का अपराधी आ जाता है। यह है असली अपराधी। क्योंकि कोई कारण नहीं है शरीर के तल पर भी कि यह चोरी करे, लेकिन यह चोरी कर रहा है। चोरी करना इसकी आदत है। चोरी में इसका रस है।

मनोविज्ञान एक बीमारी की बात करता है, क्लेप्टोमैनिया। एक बीमारी होती है मन की, अधिक लोग उसके बीमार हैं। कुछ लोगों को मनोविज्ञान पकड़ता है, जो बहुत ज्यादा बीमार हो जाते हैं।

मैं एक प्रोफेसर को जानता रहा हूं। पैसे वाले थे, सुविधा—संपन्न थे, सब कुछ था। एक ही लड़का था, वह लड़का क्लेप्टोमैनियाक था। उसको चोरी की बीमारी थी। तो वह कुछ भी चुरा लेता था। इससे कोई संबंध नहीं था कि वह क्या है। आपके घर में गया, एक बटन टूटी पड़ी है, फौरन वह खीसे में रख लेगा! उसका कोई उपयोग नहीं है। एक सुई मिल जाए पड़ी, वह मार लेगा। किताब देख रहा है आपकी, एक पन्ना ही फाड़ कर खीसे में रख लेगा! उन्होंने मुझे कहा कि क्या करना इसका? और कोई ऐसी भी चोरी करके नहीं लाता है कि लगे कि भई कोई चोरी कर रहा है! कुछ भी ले आता है! और लड़का एम ए. में पढ़ता था। होशियार लडका था।

तो मैं उस लड़के से थोड़ा संबंध बनाया। तो उसने मुझे ले जाकर अपनी अलमारी दिखाई। उस अलमारी में उसने जो—जो चीजें कभी चुराई, सब रखी हुई थीं। उन पर साथ—साथ चिट्ठियां लगी हुई थीं. कि किसको धोखा दिया, किसके घर से मार कर लाए। इस बात का अभी तक पता नहीं चल सका किसी को। वह इसका रस ले रहा था। बटन उठा लाया आपके घर की, उस पर लिखा हुआ था, कागज पर, कि यह फलां आदमी के घर से बटन लाया हूं। और वह आदमी सामने ही बैठा था, लेकिन अंदाज भी नहीं हुआ कि ले गया। अब यह रस और तरह का है, इसका शरीर से कोई लेना—देना नहीं है।

या तो शरीर की चोरी है या मन की चोरी है, आत्मा की कोई चोरी नहीं है। तो जिस दिन आप आत्मा में प्रवेश करते हैं, उसी दिन अचानक आप पाते हैं कि वह चोरी तो मैंने कभी की ही नहीं थी; वे कर्म मैंने किए नहीं, मैं उन कर्मों में केवल मौजूद था। यह सच है कि मेरे बिना वे कर्म नहीं हो सकते थे। यह भी सच है कि मैंने वे कर्म नहीं किए थे।

तो विज्ञान एक शब्द का प्रयोग करता है, वह कीमती है। विज्ञान में एक शब्द प्रयोग किया जाता है कैटेलेटिक एजेंट। अगर आप पानी को तोड़े, तो उसमें से उदजन और आक्सीजन मिलती है, और कुछ नहीं मिलता। एच टू ओ उसका फार्मूला है। दो परमाणु उदजन के, एक आक्सीजन का, उनसे मिल कर पानी बनता है। तो आप दो अनुपात में उदजन और एक अनुपात में आक्सीजन मिला कर पानी बनाना चाहें, तो भी बनेगा नहीं। यह बड़े मजे की बात है। अगर पानी को तोड़े तो दो अनुपात उदजन, एक अनुपात आक्सीजन मिलती है। स्वभावत:, अगर आप दो अनुपात उदजन और एक अनुपात आक्सीजन को मिलाएं तो पानी बनना चाहिए, लेकिन पानी बनता नहीं।

तो एक और चीज है जिसकी मौजूदगी की जरूरत पड़ती है। वह भीतर प्रवेश नहीं करती, लेकिन सिर्फ उसकी मौजूदगी में घटना घटती है। वह है बिजली। इसलिए आकाश में जब बिजली चमकती है वह कैटेलेटिक एजेंट है। उसकी वजह से पानी बनता है। जो बिजली चमकती है, उसकी मौजूदगी जरूरी है। वह कुछ करती नहीं, वह पानी में प्रवेश नहीं होती।

हाइड्रोजन और आक्सीजन को आप रख दें, और बीच में बिजली कौंधा दें, पानी बन जाएगा। फिर पानी को तोड़े, तो बिजली नहीं निकलेगी, सिर्फ हाइड्रोजन और आक्सीजन निकलेगी। उसका मतलब यह हुआ कि बिजली भीतर प्रवेश नहीं करती पानी के निर्माण में, लेकिन पानी निर्मित नहीं हो सकता बिजली की बिना मौजूदगी के। इस खास घटना को विज्ञान कहता है, कैटेलेटिक एजेंट। ऐसी उपस्थिति जिसके बिना घटना नहीं घटेगी, फिर भी वह वस्तु घटना में भीतर प्रवेश नहीं करती।

तो आप चोरी नहीं कर सकते हैं बिना आत्मा के। आत्मा कैटेलेटिक एजेंट है। उसकी मौजूदगी जरूरी है। शरीर अकेला, लाश कहीं कोई चोरी करने नहीं जाती। लाश के खीसे में भी पैसा रख दें, तो भी हम उसको चोरी नहीं कहेंगे। लाश का चोरी से क्या संबंध! क्योंकि लाश कर्म ही नहीं कर सकती।

अकेला मन भी चोरी करने नहीं जाता। अकेला मन कितना ही सोचे, चोरी नहीं कर सकता। और अगर भीतर आत्मा न हो तो सोच भी नहीं सकता। आत्मा की मौजूदगी जरूरी है, तब चोरी घटती है। लेकिन फिर भी जिस दिन आदमी आत्मा में पहुंचता है, उस दिन पाता है कि मौजूदगी में घटी थी, लेकिन आत्मा चोरी में प्रवेश नहीं थी; आत्मा सिर्फ मौजूद थी। उसकी मौजूदगी इतनी शक्तिशाली है कि घटनाएं घटनी शुरू हो जाती हैं।

एक चुंबक पड़ा है, लोहे के टुकड़े खिंच रहे हैं। आप शायद सोचते होंगे, चुंबक खींच रहा है! तो आप गलती में हैं। चुंबक का होना ही काफी है। चुंबक को खींचना नहीं पड़ता, खींचने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता; कोई अस्थि, मांस—पेशियां सिकोड़नी नहीं पड़ती, कि खींचो। चुंबक को कुछ पता ही नहीं चलता। चुंबक का होना ही, लोहे के टुकड़े खिंचना शुरू हो जाते हैं।

आत्मा की मौजूदगी, और कर्म शुरू हो जाते हैं; शरीर सक्रिय हो जाता है, मन सक्रिय हो जाता है, कर्म की यात्रा शुरू हो जाती है।

जिस दिन आप इस आत्मा में पुन: प्रवेश करते हैं समाधि में, उस दिन सारे कर्म से छुटकारा हो जाता है। इसलिए नहीं कि उन्होंने आपको बांधा था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने कभी बांधा ही नहीं था। और आप अपने तक कभी पहुंचे नहीं थे कि समझ पाते कि मैं अनबंधा हूं।

यह जो उपनिषद की दृष्टि है, एक अर्थ में बड़ी नीति—विरुद्ध है। और इसलिए उपनिषदों का बड़ा विरोध भीतर गहरे मन में रहा है। जो भी नीतिवादी है, वह कहेगा कि बुरे कर्म को अच्छे कर्म से काटो; अच्छे कर्म करो, बुरे कर्म मत करो। उपनिषद कहते हैं, कर्म करते हो, यही बुरा है। अच्छा करते हो कि बुरा करते हो, यह तो गौण बात है। कर्म करने का तुम्हें खयाल है, तुम कर्ता हो; बस यही बुराई है।

तो बुराई दो तरह की है. बुरी बुराई, अच्छी बुराई, बाकी दोनों बुराई हैं। क्योंकि तुम कर्म करते हो, यही भ्रांति है। तुम सिर्फ मौजूद हो और कर्म हो रहा है। तुम्हारी मौजूदगी में कर्म हो रहा है। तुम सिर्फ साक्षी हो, कर्ता नहीं हो।

जिस दिन इस मौजूदगी को तुम इसकी मौजूदगी में ही समझ लोगे—कर्ता की तरह नहीं, साक्षी की तरह—उसी दिन तुम पाओगे कि जो भी हुआ, वह मेरे आस—पास हुआ, जो भी हुआ, मैंने नहीं किया, मेरे आस—पास हुआ; वह घटना घटी थी, मेरे आस—पास घटी थी, लेकिन मैं फिर भी अछूता और दूर रह गया।

रात जैसे आप स्वप्न देखते हैं और सुबह जाग कर कहते हैं, स्वप्न घटा और आप अछूते रह जाते हैं। स्वप्न में हो सकता है चोरी की हो, और स्वप्‍न में यह भी हो सकता है कि जेलखाने में चले गए हों; स्वप्न में यह भी हो सकता है रिश्वत देकर बच गए हों, जेलखाने न गए हों। स्वप्न में कुछ भी हो सकता है। लेकिन सुबह जब आप जागते हैं, तो स्वप्न ऐसे ही तिरोहित हो जाता है, जैसे हुआ ही न हो। सुबह उठ कर आप अपने को चोर अनुभव नहीं करते।

लेकिन क्या कभी आपने खयाल किया, आपके बिना स्वप्न हो सकता था? आप थे तो ही स्वप्न हो सका। आप न होते तो मुर्दे को, लाश को सपना नहीं आता। आप थे तो स्वप्न घटा। आपकी मौजूदगी जरूरी थी। फिर भी सुबह उठ कर आप ऐसा अनुभव नहीं करते कि अब क्या करें? रात चोरी कर ली! व्रत करें? उपवास करें? कोई दान, त्याग करें? क्या करें? कुछ भी अनुभव नहीं करते। जागने के बाद दो मिनट से ज्यादा स्वप्न याद भी नहीं रहता, खो जाता है धुएं की रेखा की तरह।

ठीक समाधि की स्थिति में पूरा जीवन स्वप्नवत मालूम होता है। जो—जो जीया—एक जीवन नहीं, अनंत जीवन में जो—जो जीया—समाधि की अवस्था में पहुंचते ही जैसे आप सुबह नींद से जागने में पहुंचते हैं, ऐसे ही इस तथाकथित जागने से जब आप समाधि में पहुंचते हैं, तब पीछे का सारा का सारा वर्तुल, सब धुआं, स्वप्न हो जाता है।

समाधि में पहुंचा हुआ पहली दफा जानता है, मैं सिर्फ हूं; कर्म मेरे पास घटे स्वप्न जैसे। और उनकी जरा भी चिंता और पश्चात्ताप नहीं रह जाता, न उनकी कोई आत्म—प्रशंसा और आत्म—स्तुति रह जाती है कि मैंने कैसे बड़े—बड़े कर्म किए, कि मैंने कैसे छोटे—छोटे कर्म किए। नहीं, वे सब खो जाते हैं।

रात सपने में आप सम्राट थे, कि रात सपने में आप एक परम संन्यासी थे, कि रात सपने में चोर—हत्यारे थे, सुबह चाय पीते वक्त स्वाद में तीनों बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता, तीनों व्यर्थ हो जाते हैं। सुबह ऐसा नहीं कि सम्राट रहे रात तो बड़ी अकड़ से चाय पी रहे हैं! सपने के ही सम्राट थे। कि रात चोर रहे, बेईमान रहे, हत्या की, तो चाय में बिलकुल स्वाद नहीं आ रहा, बड़ा अपराधी मन है, तिक्त—तिक्त मालूम हो रही है! कि रात साधु रहे, तो कैसे चाय पीए, ऐसा भी सुबह नहीं होता। रात भर साधु रहे, और सुबह से चाय पी रहे हैं, कैसा जघन्य कृत्य! नहीं, सुबह आप जब चाय पीते हैं, तब सपने सब खो गए।

सुना है मैंने, बड़ा फकीर था जापान में, रिंझाई। एक सुबह उठा और अपने एक शिष्य से—जैसे ही वह उठा, उसका शिष्य पास खड़ा था—उससे उसने कहा कि रात मैंने एक सपना देखा है, तुम व्याख्या करोगे, तो मैं सपना बोलूं।

उसके शिष्य ने कहा, दो मिनट रुके, जरा मैं हाथ—मुंह धोने के लिए आपके लिए पानी ले आऊं। वह हाथ—मुंह धोने के लिए पानी ले आया। रिंझाई ने हाथ—मुंह धो लिया, मुस्कुराया। तब तक एक दूसरा शिष्य आ गया। रिंझाई ने कहा कि मैंने रात एक सपना देखा, मैं इस नंबर एक के शिष्य को कहने जा रहा था कि बताऊं तुझे सपना, तू व्याख्या करेगा? लेकिन मेरे बिना बताए इसने व्याख्या कर दी। तुझे बताऊं?

उसने कहा, रुके! जरा एक गरम चाय की प्याली ले आऊं, फिर हो जाए।

चाय की प्याली पीकर रिंझाई हंसा और कहा कि मैं खुश हूं, अब कोई सपना बताने की जरूरत नहीं है। तीसरा एक व्यक्ति मौजूद सब यह देख रहा था। नासमझी की हद हो गई! उसने कहा कि सीमा की भी कोई बातें होती हैं! वह सपना बताया ही नहीं गया है, व्याख्याएं भी हो चुकी हैं, और सब हल भी हो गया है! उसने कहा कि महाराज, कम से कम सपने का तो पता चल जाए, सपना क्या था?

रिंझाई ने कहा कि इनकी परीक्षा कर रहा था। अगर ये आज सपने की व्याख्या करने की तैयारी दिखाते, तो इन्हें मैं बाहर कर देता आश्रम के। सपने की कोई व्याख्या करनी होती है! सपना ही था, बात खतम हो गई। इसने ठीक किया, इसने कहा कि अभी भी कुछ सपने की मदहोशी बाकी है, जरा हाथ—मुंह धो लो। इस दूसरे ने भी ठीक ही किया कि मालूम होता है हाथ—मुंह धोने से भी काम नहीं हुआ, सपना अभी भी कुछ धूमिल—धूमिल सरक रहा है, जरा गरम—गरम चाय पी लो, फिर। जरा जाग जाओ, यही सपने की व्याख्या है। सपने की कोई और व्याख्या हो सकती है? जाग जाओ, सपना व्यर्थ हो जाता है, व्याख्या क्या करनी है! व्यर्थ की तो कोई व्याख्या नहीं करता है।

समाधि में, जिनको हमने बड़े—बड़े कर्म, छोटे कर्म, अच्छे कर्म, बुरे कर्म—कितने—कितने बांटे थे, विभाजन किए थे, नीति और अनीति, सदाचार और अनाचार—सब के सब बेमानी हो जाते हैं, व्यर्थ हो जाते हैं। जाग कर समाधि में पता चलता है कि एक बड़ा स्वप्न था—लंबा, अनंतकालीन, अनादि—लेकिन स्वप्न था, और मैं सिर्फ मौजूद था, मैं प्रविष्ट नहीं हुआ था, बाहर ही खड़ा था।

इसलिए सब कट जाता है कर्म, और धर्म का उदय होता है।

जब कर्म कट जाता है—जो हम करते थे, वह कट जाता है—तब हमें पता चलता है, जो हम हैं, जो हमारा होना है, स्वभाव है। स्वभाव है धर्म।

‘उत्तम योगवेत्ता इस समाधि को धर्म—मेघ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ की तरह धर्मरूप हजार धाराओं की वर्षा करती है।’

धर्म—मेघ बड़ा प्यारा शब्द है। मेघ तो हमने देखे हैं। आषाढ़ आता है और मेघ घिर जाते हैं आकाश में। लेकिन पूरी घटना का हमें खयाल नहीं है। वे जो आकाश में मेघ घिर जाते हैं आषाढ़ में, और मोर नाचने लगते हैं। और जमीन, जगह—जगह दरारें बन जाती हैं, ओंठ खोल देती है अपने; अपने हृदय तक पानी की बूँदों को पी जाने के लिए अपने द्वार तोड़ देती है सब तरफ से। और प्यासी धरती बहुत दिन से प्रतीक्षा में थी, प्यासे वृक्ष तड़फ रहे थे मछलियों की तरह—जैसे रेत में किसी ने उनको फेंक दिया हो। फिर घिरते हैं बादल, और फिर उन काले मेघों की छाया में वर्षा शुरू हो जाती है, और एक नृत्य सारी प्रकृति पर और एक गीत सारी प्रकृति पर छा जाता है।

धर्म—मेघ ऐसी ही आषाढ़ की भीतर घटी घटना है। ऐसी कि जन्मों—जन्मों से प्राण प्यासे थे, दरारें पड गई थीं, कोई प्यास बुझाने वाला पानी न मिला था। पीते थे पानी, उससे प्यास केवल बढ़ती थी, बुझती नहीं थी। बहुत पानी पीए, और बहुत घाटों की यात्रा की, और न मालूम क्या—क्या खोजा और पकड़ा, लेकिन सब बार आशा निराशा हुई, हाथ कुछ लगा नहीं। वह धरती पूरे प्राणों की फटी—प्यासी, अभीप्सा से भरी, समाधि के क्षण में पहली दफा उसके ऊपर मेघ घिरते हैं, समाधि के क्षण में पहली दफा आषाढ़ आता है भीतर और अमृत की एक वर्षा—सिर्फ प्रतीक है—अमृत की एक वर्षा भीतर होने लगती है, आत्मा नहा जाती है, और अनंत— अनंत धाराओं में उन मेघों से अमृत गिरने लगता है।

यह सिर्फ प्रतीक है। घटना इससे बहुत बड़ी है। न तो अमृत कहने से कुछ पता चलता है उसके बाबत, लेकिन फिर भी थोड़ी सी सूचना मिलती है, कि मेघ घिर गए ऊपर, और उनसे वर्षा होने लगी, और जो प्यासी थी आत्मा जन्मों—जन्मों से वह तृप्त हो गई।

‘उत्तम योगवेत्ता इस समाधि को धर्म—मेघ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ की तरह धर्मरूप हजार धाराओं की वर्षा करती है।’

लेकिन धर्म—मेघ क्यों कहते हैं?

क्योंकि स्वभाव की वर्षा पहली दफा स्वयं पर होती है। धर्म यानी स्वभाव। अब तक जो भी जाना, पर—भाव था। कभी सौंदर्य दिखा, तो किसी और में; कभी प्रेम पाया, तो किसी और से; सुख मिला, दुख मिला, सदा किसी और से, सब जानकारी किसी और की थी, अपना कोई अनुभव न था। पहली दफा अपनी ही वर्षा अपने ऊपर! अब तक सारी वर्षा दूसरे की थी—कोई और, कोई और, कोई और—हमेशा दि अदर, वह दूसरा ही महत्वपूर्ण था। पहली दफा दूसरा हट गया और स्वयं की ही वर्षा स्वयं पर होने लगी। जैसे अपना ही झरना टूटा, जैसे अपनी ही धारा फूटी, जैसे अपने ही स्रोत को पा लिया, और अपने पर ही अपनी वर्षा होने लगी।

धर्म—मेघ का अर्थ है, स्वभाव बरसने लगा। खुद उसमें नहा गए, डूब गए, ताजे हो गए, नए हो गए। सारे कर्म, सारे कर्मों की धूल, अनंत— अनंत यात्राओं का उपद्रव, सारा कचरा जो ऊपर इकट्ठा हो गया था, सब बह गया। रह गई सहजता, स्पांटेनिटी; रह गए स्वयं, और कुछ भी न बचा।

एक लिहाज से इसे हम कह सकते हैं, परम धन्यता। एक लिहाज से हम कह सकते हैं, यही है परम संपदा। और एक लिहाज से कह सकते हैं, यही है परम दरिद्रता। अगर संसार को सोचें, तो यह आदमी संसार से बिलकुल दरिद्र हो गया। अगर परमात्मा को सोचें, तो यह आदमी परम धन को पा गया।

जीसस ने इसी धर्म—मेघ समाधि के लिए कहा है, पावर्टी ऑफ स्पिरिट। जब कोई इस जगह पहुंचता है तो सब भांति दरिद्र हो जाता है। उसके पास कुछ भी नहीं है अब सिवाय अपने के; सिवाय स्वयं के और कुछ भी न बचा। इसको ही कहेंगे दरिद्रता।

इसी वजह बुद्ध ने अपने संन्यासियों को स्वामी नहीं कहा, भिक्षु कहा। यह धर्म—मेघ समाधि की वजह से। बुद्ध ने कहा कि मैं नहीं कहूंगा अपने संन्यासियों को स्वामी, मैं कहूंगा भिक्षु। पर दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं। अगर संसार की तरफ से देखें तो हो गए भिखारी, भिक्षु, और अगर परमात्मा की तरफ से देखें तो हो गए स्वामी, सम्राट।

हिंदू उपयोग कर रहे थे स्वामी का उस दूसरी तरफ से, कि समाधि पाकर व्यक्ति हो जाता है सम्राट, मालिक—पहली दफा। अब तक भिखारी था। अब तक मांगता फिर रहा था, हाथ जोड़े था, भिक्षापात्र फैलाए था। अब तक उसकी आत्मा सिवाय भिक्षापात्र के और कुछ भी न थी। उसमें जो भी टुकड़े कोई फेंक देता था, वही उसकी संपदा थी। झूठे, उधार, बासे, दूसरों की टेबल से गिरे हुए टुकड़े, वह सब इकट्ठे कर लेता था। उसी को मानता था कि मेरी संपदा है। अब तक भिखारी था।

इसलिए हिंदुओं ने इस धर्म—मेघ समाधि को उपलब्ध करने वाले संन्यासी को कहा स्वामी।

लेकिन बुद्ध ने कहा कि जो भी था अब तक—सारा संसार, साम्राज्य, धन—सब छूट गया, कुछ भी न बचा पराया, खुद ही बचे। दीनता आखिरी आ गई।

जब आप अकेले ही हों, और कुछ भी न हो—कपड़ा—लता भी नहीं, मकान भी अपना नहीं, जमीन भी अपनी नहीं, कुछ भी अपना नहीं, सिर्फ खुद ही बचे। इससे ज्यादा दरिद्र। भिखारी के पास भी खुद से कुछ ज्यादा होता है। थोड़ा होता होगा, लेकिन होता है, खुद से कुछ ज्यादा। एक लंगोटी सही, लेकिन वह भी संपदा होती है। एक भिखारी भी इतना भिखारी नहीं है कि अकेला ही हो, कुछ भी न हो।

बुद्ध ने अपने भिक्षु को कहा कि संसार इस तरह छूट जाए तुमसे कि कुछ भी न बचे, ससार की रेखा भी न बचे; तुम बिलकुल भिखारी हो जाओ संसार की दृष्टि में।

पर ये दोनों बातें एक हैं। संसार की तरफ से जो हो जाए भिखारी, आत्मा की तरफ से हो जाता है स्वामी; आत्मा की तरफ से जो हो जाए स्वामी, संसार की तरफ से हो जाता है भिखारी। इसीलिए भिक्षु को हमने इतना आदर दिया जितना हमने किसी स्वामी को कभी नहीं दिया। हमने भिक्षु को उस सिंहासन पर बिठा दिया जहां हमने किसी सम्राट को कभी नहीं बिठाया। भिक्षु आदृत हो गया शब्द। कभी—कभी भाषा में भी..।

अब भिक्षु शब्द का मतलब तो भिखारी ही होता है। और किसी को भिखारी कह दो, झगड़ा हो जाए। लेकिन बुद्ध ने अपने परम धन्य शिष्यों को भिक्षु कहा। और जिसको भिक्षु कह दिया, वह धन्यभागी हो गया। कभी—कभी भाषा में ऐसे लोग बड़ी अड़चनें डाल जाते हैं। बुद्ध जैसे लोग भाषा को अस्तव्यस्त कर जाते हैं। भिखारी का मतलब साफ था। खराब कर दिया। नया ही अर्थ दे दिया। भिक्षु हो गया सम्राट। सम्राट भिक्षु के पैरों में गिरे हैं। तो यह भिक्षु—परम गरिमा हो गई।

धर्म—मेघ समाधि एक तरफ से बना देगी भिखारी, एक तरफ से बना देगी सम्राट।

‘इस समाधि द्वारा वासनाओं का समूह पूर्णत: लय को प्राप्त होता है और पुण्य—पाप नाम के कर्मों का समूह जड़ से उखड़ जाता है।’

ध्यान रखना, पुण्य—पाप दोनों। यहीं उपनिषद की चितना की गहराई है। पुण्य—पाप दोनों का समूह। वह जो अच्छा किया था वह भी, जो बुरा किया था वह भी, दोनों का समूह जड़ से कट जाता है।

यह मत सोचना कि परमात्मा के पास जब पहुंचेंगे, तो अपने पुण्य का बैंक बैलेंस साथ लिए रहेंगे। कि धर्मशाला बनवाई थी एक, क्या हिसाब रखा उसका? कि एक मंदिर बनवा दिया था! कि इतने ब्राह्मणों को भोजन करवा दिया था! उसका हिसाब अगर लेकर पहुंच गए, तो दरवाजे पर भला स्वर्ग लिखा हो, भीतर नर्क ही पाएंगे, कोई स्वर्ग मिलने वाला नहीं है।

पाप और पुण्य इस जगत की भाषा में ऊंच—नीच हैं। पाप बुरा है, पुण्य अच्छा है। समाज की दृष्टि से ठीक है, लेकिन उस परम दृष्टि में पाप—पुण्य दोनों ही व्यर्थ हैं, क्योंकि वहां कर्ता होना पाप है, अकर्ता होना पुण्य है। वहां तो सीधी बात है एक कि वहां जो अकर्ता है, निरहकारी है, वही प्रवेश कर पाएगा। वहा तो वही प्रवेश कर पाएगा जो है ही नहीं; जो मिट गया और शून्य होकर जा रहा है। अगर थोड़े से भी आप हैं, तो रास्ता बहुत संकरा है, आप प्रवेश न कर पाएंगे।

जीसस का वचन है, उसका आध्यात्मिक अर्थ कभी भी नहीं किया गया। असल में पश्चिम के पास आध्यात्मिक अर्थों की खोज करने की क्षमता नहीं है। इसलिए जो भी अर्थ होता है, वह सांसारिक हो जाता है। जीसस का वचन है कि सुई के छेद से ऊंट निकल जाए, लेकिन धनी आदमी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न कर पाएगा।

लेकिन पूरी ईसाइयत के दो हजार साल, और एक बार भी किसी ने इस वाक्य की ठीक व्याख्या नहीं की। दो हजार साल लंबा वक्त है। सारी व्याख्या यह हुई कि धनी आदमी स्वर्ग नहीं जा सकता। ऊंट के निकल जाने की संभावना है सुई के छेद से, जो कि नहीं हो सकता। सुई के छेद से ऊंट कैसे निकलेगा? जो नहीं निकल सकता, वह भी जीसस कहते हैं, हो सकता है निकल जाए; कोई तरकीब खोज ले, कोई रास्ता बन जाए, कि सुई के छेद से ऊंट निकल जाए, लेकिन धनी आदमी स्वर्ग के द्वार में प्रवेश नहीं पा सकेगा। इसका सीधा—सीधा अर्थ जो हो सकता था, वह ईसाइयत ने लिया। वह इसका अर्थ नहीं है। धनी आदमी से अर्थ है उस आदमी का, जिसे थोड़ा भी लगता है कि मेरे पास कुछ है। जिसे लगता है कि मेरे पास कुछ है, वह धनी आदमी है। जिसको खयाल है कि मेरे पास कुछ है, वह धनी आदमी है।

तो अगर किसी को लगता है कि मैंने पुण्य कमाया है, यह धनी आदमी है। किसी को लगता है मैं साधु था, संयमी था, तपस्वी था, यह धनी आदमी है। धनी आदमी का मतलब हुआ कि जो कहता है मेरे अलावा भी मेरे पास कुछ है, वह धनी आदमी है। अगर यह कहता है मैंने इतनी प्रार्थनाएं की, इतने उपवास किए, इतने दिन धूप में खड़ा रहा, पैर पर ही खड़ा रहता था, बैठता भी नहीं था वर्षों तक, मैंने दरिद्रों की इतनी सेवा की, इतने अस्पतालों में गया—यह किया, वह किया—अगर इसके पास कुछ भी कहने को है कि मेरे पास इतना है, तो यह आदमी धनी आदमी है।

अब सूत्र को फिर सुन लें. ऊंट गुजर जाए सुई के छेद से, लेकिन धनी आदमी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकेगा।

निर्धन कौन है? ईश्वर के सामने खड़ा होकर जिसके पास कहने को कुछ भी नहीं है कि मेरे पास कुछ है, कि मेरे पास ध्यान है, कि मेरे पास पुण्य है, कि मेरे पास धर्म है। जो ईश्वर के सामने खड़ा हो जाता है शून्यवत, और कहता है मेरे पास कुछ भी नहीं है, अकेला मैं हूं—या जो कुछ भी हूं, जो तुमने ही मुझे दिया है, वही मैं हूं उसके अतिरिक्त मेरी कोई भी कमाई नहीं है; मेरा होना ही मेरा सब कुछ है, मेरे पास कर्म का कोई भी लेखा—जोखा नहीं है—ऐसा शून्यवत जो उस द्वार पर खड़ा होता है, वह है दरिद्र आदमी। वह है बुद्ध का भिक्षु, जीसस का दरिद्र आदमी। वही प्रवेश कर पाता है।

तो दरिद्रता का ठीक अर्थ हुआ कि जो बिलकुल शून्य है। जो शून्य है, वही प्रवेश कर पाता है। और इसीलिए ऊंट की बात कही। सुई का छेद बहुत छोटा है, इससे ऊंट के निकलने का कोई उपाय नहीं है। मोक्ष का द्वार सुई के छेद से भी बहुत छोटा है; उसमें से सिर्फ शून्य ही निकल सकता है। अगर जरा सा भी पदार्थ आपके पास है, जरा सा भी मैं—अटक जाएगा। ऊंट लेकर जा रहे हैं आप सुई के छेद में से निकलने। ऊंट छोड़ दें।

लेकिन सवारियां छोड़नी बडी मुश्किल होती हैं, क्योंकि सवारियों पर हम ऊंचे मालूम पड़ते हैं। ऊंट इसीलिए जीसस को खयाल में आ गया होगा। जो भी अहंकार पर बैठे हैं, ऊंट पर बैठे हैं। और जानते हैं कि ऊंट की सवारी कैसी दुखद है। ऊंट की सवारी है अहंकार की सवारी, काफी दचके खाने पड़ते हैं ऊंचा—नीचा होता रहता है पूरे वक्त। लेकिन फिर भी ऊंचे तो मालूम पड़ते हैं!

ऊंट से नीचे उतरना पड़े। जो भी आपके पास है, वह कर्म से मिला है—जो भी। कर्म से जो भी मिला है, उसकी सीमा मन है। आत्मा तक कर्म से मिला हुआ कुछ भी नहीं पहुंचता।

‘समस्त समूह वासना का हो जाता है नष्ट, पुण्य—पाप नाम के कर्म जड़ से उखड़ जाते हैं, तब यह तत्त्वमसि वाक्य परोक्ष ज्ञानरूप में प्रकाशित होता है।’

तब पहली दफा अनुभव होता है कि क्या है यह ऋषि—वचन, तत्त्वमसि—वह तू ही है, दैट आर्ट दाऊ—यह क्या है। इसका पहली दफा परोक्ष अनुभव होता है। परोक्ष! अभी भी यह साफ—साफ दिखाई नहीं पड़ता। अभी भी लगता है, स्पर्श होता है, अनुमान होता है; अभी भी सीधा साक्षात्कार नहीं होता। यह धर्म—मेघ की जब वर्षा हो जाती है ऊपर, जब चित्त बिलकुल शून्य हो जाता है और दरिद्रता परम हो जाती है, और आदमी भीतर एक शून्य हो जाता है, तब पहली दफा इस तत्त्वमसि महावाक्य का, कि तू ब्रह्म ही है, परोक्ष अनुभव होता है।

गजब के लोग हैं उपनिषद के ऋषि! अभी वे कहते हैं, अभी भी सीधा साक्षात्कार नहीं होता। अभी भी ऐसा होता है कि जैसे हम आंख बंद किए बैठे हों और किसी के पैरों की ध्वनि सुनाई पड़े, और हमें लगे कि कोई आता है; यह परोक्ष है। दिखाई न पड़ता हो, अंधेरा हो, और किसी के गीत की कड़ी गज जाए, और हमें लगे कि कोई गाता है—दिखाई न पड़े—तो परोक्ष।

परोक्ष का मतलब है : अभी ठीक आमना—सामना नहीं हुआ, अभी पास ही कहीं प्रतीति हो रही है। धर्म—मेघ की वर्षा के बाद जो पहली घटना होती है, वह है तत्त्वमसि वाक्य की परोक्ष प्रतीति—कि ठीक कहा है ऋषियों ने, कि ठीक कहा है उपनिषद ने। कि वह जो वचन सुना था; वह जो श्रवण में सुना था मौन में सोचा था, निदिध्यासन में साधा था, समाधि में एकता पाई थी, अब धर्म—मेघ की वर्षा पर पता लगता है—ठीक ही कहा था।

ठीक ही कहा था, यह परोक्ष है, किसी ने कहा था। आज पता चलता है, उसका स्वाद आता है, लगता है—ठीक ही कहा था।

‘परोक्ष ज्ञानरूप में प्रकाशित होता है, और फिर।’

जब यह परोक्ष जान थिर हो जाता है, और इसमें किसी तरह की कहीं कोई जरा सी भी लहर नहीं रह जाती विपरीत की; बिलकुल निस्संदिग्ध ठहर जाता है, आस्था बन जाती है, तब—

‘फिर हाथ में रखे आवले की तरह अपरोक्ष ज्ञान को उत्पन्न करता है।’

और जब यह परोक्ष ज्ञान बिलकुल थिर हो जाता है, प्राणों की पूरी शक्ति कहती है, अनुभव करती है, कि ठीक कहा था ऋषियों ने तत्त्वमसि—वह तू ही है—जब इसमें कहीं भी कोई लहर भी इसके विपरीत नहीं रह जाती, जब पूरा—पूरा यह असंदिग्ध मालूम होने लगता है, लेकिन परोक्ष, तब जैसे हाथ में कोई फल को रख दे आवले के, ऐसा यह तत्त्वमसि वाक्य प्रत्यक्ष हो जाता है; अपरोक्ष हो जाता है। तब फिर ऐसा व्यक्ति यह नहीं कहता कि ऋषियों ने जो कहा, ठीक। ऐसा व्यक्ति तब कहता है, अब मैं कहता हूं, तत्त्वमसि।

परोक्ष ज्ञान में यह आदमी कहता है कि ऋषियों ने कहा है, इसलिए मैं कहता हूं कि ठीक है; प्रत्यक्ष शान में यह आदमी कहेगा, मैं कहता हूं यह ठीक है, इसलिए ऋषियों ने भी ठीक ही कहा होगा। इस फर्क को ठीक से खयाल में ले लें।

परोक्ष जान में प्रमाण था—वेद, ऋषि, ज्ञान, शास्त्र। उससे ही श्रवण से शुरू की थी यात्रा। गुरु ने कहा था, इसलिए ठीक ही कहा होगा, इस आस्था से खोज चली थी। परोक्ष था तब तक, जब तक गुरु ने कहा है, ठीक ही कहा होगा। और जो गुरु को जानता है, वह निश्चित ही स्वीकार कर लेता है कि ठीक ही कहा होगा।

बुद्ध के पास कोई रहा हो, और बुद्ध कहें, तत्त्वमसि। जिसने बुद्ध को जाना है, वह सोच भी नहीं सकता, उसे कुछ भी पता नहीं है कि यह वाक्य ठीक है या नहीं, लेकिन बुद्ध को जानता है। इसलिए बुद्ध जो कहते हैं, वह प्रमाण हो जाता है। बुद्ध से कुछ अप्रमाण निकल सकता है, इसकी कोई बात ही नहीं बनती, इसका कोई खयाल ही नहीं आता।

जो गुरु के पास रहा है, गुरु को जाना है, गुरु का वचन उसे प्रमाण है। लेकिन गुरु का ही वचन प्रमाण है। यह परोक्ष है। दूसरे के द्वारा आया है। पहली प्रतीति तो यही होगी, जब बुद्ध. का साधक पहुंचेगा समाधि में, तो हाथ जोड़ कर बुद्ध के चरणों में सिर झुकाएगा, कहेगा ठीक कहा था, जो कहा था वह जाना। लेकिन जब यह प्रतीति और गहरी होगी, और डूबेगा, और डूबेगा, तो स्थिति बिलकुल बदल जाएगी। तब वह कहेगा कि मैं जानता हूं कि मैं वही हूं। और अब मैं कहता हूं कि चूंकि मेरा अनुभव कहता है कि ठीक है, इसलिए गुरु ने जो कहा था, वह ठीक है।

अब प्रमाण बन जाता है व्यक्ति स्वयं, और व्यक्ति बन जाता है स्वयं शास्त्र। ऐसे व्यक्तियों को हमने बुद्ध, तीर्थंकर, अवतार कहा है। जो व्यक्ति स्वयं प्रमाण है। जो यह नहीं कहते कि ऐसा वेद में लिखा है, इसलिए सही, जो कहते हैं, ऐसा मैंने जाना, इसलिए सही। और अगर वेद भी ऐसा कहते हों, तो मरे जानने के कारण वेद भी सही; और अगर ऐसा न कहते हों तो वेद गलत। अगर ऐसा न कहते हों तो वेद गलत। अब कसौटी अपना ही अनुभव है। अब अपना ही निकष उपलब्ध हो गया है।

यह सिद्धावस्था है। समाधि जब परोक्ष शान से अपरोक्ष ज्ञान में प्रवेश करती है, तो सिद्धावस्था हो जाती है। ऐसी अवस्था को पाया हुआ व्यक्ति ही अगर लौटे समाधि, निदिध्यासन, मनन, प्रवचन तक, तो हमें खबर मिलती है उस जगत की। इसलिए अगर हमने शास्त्रों को इतना आदर दिया है तो उसका कारण यही है कि वे उन लोगों के वचन हैं, जिनके पास रहने वाले लोगों ने उनसे वचन सुने थे और पाया था कि यह जो आदमी कहता है, गलत कह ही नहीं सकता। फिर भी ऐसे लोग कहते नहीं कि हम जो कहें, मान लो।

बुद्ध कहते हैं, सोचना, विचारना, मनन करना, निदिध्यासन करना, साधना, और फिर तुम्हें अनुभव में आए तो ही मानना। बुद्ध कहते हैं, मैं कहता हूं इसलिए मत मानना, बुद्ध कहते हैं इसलिए मत मानना; शास्त्र कहते हैं इसलिए मत मानना—खोजना। और जब स्वयं का अनुभव बन जाए, तो गवाह बन जाना। समाधि को उपलब्ध व्यक्ति साक्षी हो जाता है समस्त शास्त्रों का। ताता नहीं, साक्षी। पंडित जाता होता है, समाधिस्थ साक्षी होता है। पंडित कहता है कि शास्त्र ठीक कहते हैं, क्योंकि तर्क में जंचती है बात। समाधिस्थ कहता है, शास्त्र ठीक कहते हैं, क्योंकि मेरा भी अनुभव यही है।

आज इतना ही।


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अध्‍यात्‍म उपनिषद–प्रवचन–12

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वैराग्‍य आनंद का द्वार है—बारहवां प्रवचन

 सूत्र :

वासनाsनुदयो भोग्ये वैरण्यस्य तदाsविधि:।

अहंभावावोदयभावो बोधक्य परमावधि:।। 41।।

लीनवृत्तेरनुत्पीत्तर्मर्यादोपरतेस्तु    सा।

स्थिऋज्ञो यतिरयं य: सदानन्दमश्नुते।। 42।।

ब्रह्मण्‍येव विलीनात्मा निर्विकारो विनिक्रिय:।

ब्रह्मात्‍मनो    शोधितयोरेकभावावगाहिनी।। 43।।

निर्विकल्पा व चिन्मात्रा वृत्तिःप्रज्ञेति कथ्यते।

सा सर्वदा भवेद्यस्य स जीवन्मुक्त इष्यते।। 44।।

देहेन्द्रियेच्छंभाव        इदंभावस्तदन्यके।

यस्य नो भवत: क्यापि स जींवन्मुक्त इष्‍यते।। 45।।

भोगने लायक पदार्थ के ऊपर वासना जाग्रत न हो, तब वैराग्य की अवधि जान लेनी; और अहं—भाव का उदय न हो, तब ज्ञान की परम अवधि समझना।

इसी प्रकार लय को प्राप्त हुई वृत्तियां फिर से उत्पन्न न हों, वह उपरति की अवधि है। ऐसा स्थितप्रज्ञ यति सदा आनंद को पाता है।

जिसका मन ब्रह्म में ही लीन हुआ हो, वह निर्विकार और निष्‍क्रिय रहता है। ब्रह्म और आत्मा (जीव ) शोधा हुआ और दोनों के एकत्व में लीन हुई वृत्ति विकल्परहित और मात्र चैतन्य रूप बनती है, तब वह प्रज्ञा कहलाती है।

यह प्रज्ञा जिसमें सर्वदा होती है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।

देह तथा इंद्रियों पर जिसको अहं—भाव न हो, और इनके सिवाय अन्य पदार्थों पर यह मेरा है, ऐसा भाव जिसको न हो, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।

 

भोगने लायक पदार्थ पर वासना जाग्रत न हो, तब समझना वैराग्य की अवधि, और अहं— भाव का उदय न हो, तब समझना ज्ञान की परम अवस्था।’

वैराग्य से साधारणत: लोग समझते हैं, विराग। राग है, उसके विपरीत विराग है।

राग का अर्थ है, वस्तुओं को देख कर भोगने की आकांक्षा का जगना। सौंदर्य दिखाई पड़े, स्वादिष्ट वस्तु दिखाई पड़े, सुखद परिस्थिति दिखाई पड़े, तो उसे भोग लेने का, उसमें डूबने का, लीन होने का जो मन पैदा होता है, वह है राग। राग का अर्थ है जुड़ जाने की इच्छा, अपने को खोकर किसी वस्तु में डूब जाने की इच्छा। अपने से बाहर कोई सुख दिखाई पड़े, तो अपने को सुख में डुबा देने की आकांक्षा राग है। विराग का अर्थ है, कोई वस्तु दिखाई पडे भोगने योग्य, तो उससे विकर्षण का पैदा हो जाना; उससे दूर हटने का मन पैदा हो जाना; उसकी तरफ पीठ कर लेने की इच्छा हो जाए।

आकर्षण है राग, विकर्षण है विराग— भाषा की दृष्टि से। जिसकी तरफ जाने का मन हो, वह है राग, और जिससे दूर हटने का मन हो, वह है विराग। विराग का अर्थ हुआ विपरीत राग। एक में खिंचते हैं पास, दूसरे में हटते हैं दूर। विराग राग से पूरी तरह मुक्ति नहीं है, उलटा राग है। कोई धन की तरफ पागल है, धन मिल जाए तो सोचता है सब मिल गया। कोई सोचता है धन छोड़ दूं तो सब मिल गया! लेकिन दोनों की दृष्टि धन पर है। कोई सोचता है पुरुष में सुख हैं, स्त्री में सुख है; कोई सोचता है स्त्री—पुरुष के त्याग में सुख है। बाकी दोनों का केंद्र स्त्री या पुरुष का होना है। कोई सोचता है संसार ही स्वर्ग है और कोई सोचता है संसार नर्क है, लेकिन दोनों का ध्यान संसार पर है।

भाषा की दृष्टि से विराग राग का उलटा रूप है, लेकिन अध्यात्म के नेजी के लिए वैराग्य राग का उलटा रूप नहीं, राग का अभाव है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। शब्दकोश में देखेंगे तो राग का उलटा विराग है, अनुभव में उतरेंगे तो राग का उलटा विराग नहीं है, राग का अभाव, एब्सेंस, विराग है। फर्क थोड़ा बारीक है।

स्त्री के प्रति आकर्षण है, यह राग हुआ। स्त्री के प्रति विकर्षण पैदा हो जाए, कि स्त्री को पास सहना मुश्किल हो जाए, स्त्री से दूर भागने की वृत्ति पैदा हो जाए, स्त्री से दूर—दूर रहने का मन होने लगे, यह हुआ विराग— भाषा, शब्द, शास्त्र के हिसाब से। अनुभव, समाधि के हिसाब से यह भी राग है।

समाधि के हिसाब से विराग तब है, जब स्त्री में न आकर्षण हो, न विकर्षण हो, न खिंचाव हो और न विपरीत। स्त्री का होना और न होना बराबर हो जाए, पुरुष का होना, न होना बराबर हो जाए। गरीबी और समृद्धि बराबर हो जाए; चुनाव न रहे, अपना कोई आग्रह न रहे कि यह मिलेगा तो स्वर्ग, यह छूटेगा तो स्वर्ग; बाहर के मिलने और छूटने से कोई संबंध ही न रह जाए सुख का, सुख अपना ही हो जाए; बाहर कोई मिले, न मिले—ये दोनों बातें गौण, ये दोनों बातें व्यर्थ हो जाएं—तब वैराग्य।

वैराग्य का अर्थ यह हुआ कि हमारी दृष्टि ही पर पर जानी बंद हो जाए न अनुकूल, न प्रतिकूल; न आकर्षण में, न विकर्षण में। दूसरे से पूरा छुटकारा वैराग्य है। दूसरे से दो तरह के बंधन हो सकते हैं मित्र मिलता है तो सुख होता है, शत्रु मिलता है तो दुख होता है; शत्रु जब छूट जाता है तो सुख होता है, मित्र छूट जाता है तो दुख होता है।

बुद्ध ने कहा है—बड़ा गहरा मजाक किया है—बुद्ध ने कहा है कि शत्रु भी सुख देते हैं, मित्र भी दुख देते हैं। मित्र जब छूटते हैं तब दुख देते हैं, शत्रु जब मिलते हैं तब दुख देते हैं। फर्क क्या है?

लेकिन शत्रु से भी हमारा लगाव रहता है, मित्र से भी लगाव रहता है। शत्रु मर जाए आपका, तो भी आपके भीतर कुछ टूट जाता है, खाली हो जाती है जगह। कई बार तो मित्र से भी ज्यादा खाली जगह हो जाती है शत्रु के मरने से, क्योंकि उससे भी एक राग था—उलटा राग था, उसके होने से भी आप जुड़े थे। मित्र से भी जुड़े हैं, शत्रु से भी जुड़े हैं। तो जिन चीजों से आपका विरोध हो गया है, उनसे भी संबंध है।

वैराग्य का अर्थ है, संबंध ही न रहा, असंग हो गए, असंबंधित हो गए। तो वैराग्य की परम अवधि की परिभाषा की है इस सूत्र में कि भोगने लायक पदार्थ के ऊपर वासना जाग्रत न हो।

भाषा में, शब्द में जो विराग का अर्थ है, उसका अर्थ है भोगने लायक पदार्थ को छोड़ कर चले जाना। वैराग्य का अर्थ है, भोगने लायक पदार्थ हो, मौजूद हो, निकट हो, तो भी उसके भोगने की आकांक्षा न कानी। भोग भी रहे हों तो भी भोग की आकांक्षा न जगनी। जनक रह रहे हैं अपने महल में, सब कुछ वहा है भोगने योग्य, लेकिन भोगने की वासना नहीं है। आप जंगल भाग जाएं; कुछ भी नहीं है भोगने योग्य वहा, लेकिन भोगने की वासना सपने बनेगी, वृत्तियां उठाएगी, मन दौड—दौड़ कर वहा जाएगा जहां भोगने योग्य पदार्थ होंगे।

तो भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति या गैर—उपस्थिति का सवाल नहीं है, वासना का सवाल है। और यह बड़े मजे की बात है कि जहां पदार्थ न हों, वहां वासना ज्यादा प्रखर रूप से मालूम पड़ती है, जहा पदार्थ हों वहां उतनी प्रखर मालूम नहीं पड़ती। अभाव में और भी ज्यादा खटक पैदा हो जाती है।

यह सूत्र कहता है कि जो आदमी सब छोड़ कर चला आया हो, सब छोड़ दिया हो उसने, यह भी वैराग्य की परम अवधि नहीं है, यह भी वैराग्य का चरम रूप नहीं है, क्योंकि हो सकता है राग भीतर रहा हो। यह भी हो सकता है कि छोड़ कर भागना राग का ही एक अंग रहा हो।

तो परम परिभाषा क्या होगी? सब भोगने योग्य मौजूद हो और भीतर भोगने की वासना न हो।

कौन तय करेगा यह? यह व्यक्ति को स्वयं ही निर्णय करना है। दूसरों के निर्णय की बात नहीं है, आप अपने निर्णायक हैं। भीतर वासना न जगती हो, भोगने योग्य पदार्थ मौजूद हों और भीतर कोई वासना न दौड़ती हो—पक्ष में या विपक्ष में; इधर या उधर मन भागता ही न हो; आप डावाडोल न होते हों, आप वैसे ही हों, जैसे बाहर कुछ भी नहीं है; पदार्थ हो बाहर, और भीतर प्रतिबिंब किसी तरह का रस या विरस पैदा न करता हो—तो वैराग्य की अवधि।

हमारे लिए अति कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि हम सबने विराग का राग से विपरीत रूप समझ रखा है। एक आदमी अपने पत्नी—बच्चे, घर—परिवार को छोड़ कर भाग जाता है, हम कहते हैं विरागी है। लेकिन भागता है, उससे खबर देता है कि राग अभी जुड़ा था। कोई भागता है तो मकान से डर कर नहीं भागता, अपने भीतर की वासना से ही डर कर भागता है। मकान क्या भगाएगा! और अगर मकान अभी भगा सकता है, तो अभी आत्म—स्थिति बनी नहीं है। एक आदमी खोज रहा है मकान बड़े, और मकान उसे भगा रहा है, दौड़ा रहा है। और एक आदमी मकान से डर कर जंगलों में भाग रहा है, मकान उसे भी दौड़ा रहा है। पीठ मकान की तरफ है, लेकिन जुड़ा मकान से ही है।

न, एक आदमी को वस्तुएं भगाना बंद कर देती हैं, दौड़ाना बंद कर देती हैं। वस्तुओं की कोई भी चुनौती आदमी के ऊपर नहीं रह जाती। वह वस्तुओं की चुनौती ही स्वीकार नहीं करता है। तब तो वैराग्य का अर्थ हुआ आत्म—स्थिति; अपने में ठहर गया जो।

हम में से कोई भी अपने में ठहरा हुआ नहीं है। पुरानी कहानियां हैं, बच्चों की कहानियों में अभी भी उस तरह की घटना घटती है, कि कोई राजा है, उसके प्राण किसी तोते में बंद हैं। राजा को मारो, मरेगा नहीं, जब तक कि तोते को न मार दो। तो प्राण तोते में छिपा रखे हैं। जब तक तोता बचा है, राजा बचा रहेगा। यह कहानी नहीं है सिर्फ, हम सबके भी प्राण कहीं और बंद हैं। आपकी तिजोड़ी में हो सकते हैं आपके प्राण बंद हों, तोते में न हों। तिजोड़ी चली जाए..।

उन्नीस सौ तीस में, इकतीस में अमरीका में वाल स्ट्रीट के अमरीका के बड़े—बड़े करोड़पतियों में से कई ने आत्महत्या कर ली—एकदम से! क्योंकि अमरीका में हास हुआ मुद्रा का। इतना तीव्रता से हुआ कि सटोरिए और बड़े करोड़पति एकदम दीन—हीन हो गए। उनके बैंक बैलेंस एकदम खाली हो गए। तो पचास मंजिल से, साठ मंजिल से कूद कर उन्होंने तत्काल आत्महत्या कर ली। क्या हुआ इन व्यक्तियों को? क्या घटना घटी कि अचानक इनको मरने के सिवाय कोई रास्ता न सूझा?

इनके प्राण तिजोरियों में बंद थे; तिजोरी में प्राण थे। तिजोरी मर गई, ये मर गए। यह जो कूदना था, कुछ और नहीं हुआ था, दुनिया सब वैसी थी; लेकिन बैंक में कुछ आंकड़े खो गए। आंकड़े! किसी के नाम पर दस के आंकड़े थे, वे दो के रह गए। जहा बड़ी लंबी कतार थी आंकड़ों की, वहां शून्य हो गया। यह सब बैंक में हुआ। यह सब कागज पर हुआ। पर इनके प्राण वहां बंद थे। वही इनका प्राण था। इनको मार डालते, ये न मरते। तिजोरी खाली हो गई, ये मर गए!

किसी का किसी से प्रेम है। प्रेमी मर जाए, प्राण निकल गए।

हम सब अगर अपनी खोज करें तो हमारे प्राण कहीं न कहीं, किन्हीं न किन्हीं तोतों में बंद हैं। जब तक आपके प्राण कहीं और बंद हैं, तब तक आप आत्म—स्थित नहीं हैं। आपके प्राण वहां नहीं हैं जहां होने चाहिए। आपके भीतर होने चाहिए, वहा नहीं हैं, कहीं और हैं।

यह कहीं और होना बहुत तरह का हो सकता है। एक आदमी सोचता है कि उसकी आत्मा उसको शरीर है, तो यह भी कहीं और है। कल यह का होने लगेगा, तो पीड़ित होगा, दुखी होगा, क्योंकि शरीर दीन—हीन होने लगा, झुर्रियां पड़ने लगीं, कुरूप होने लगा—रुग्ण, जीर्ण। यह मरने के पहले मरा हुआ अनुभव करेगा। क्योंकि इसने जिस जवान शरीर में अपने प्राण रखे थे वह जा रहा है।

कहां आप अपने प्राण रख लिए हैं, इसमें भेद हो सकता है, लेकिन कहीं आपके प्राण हैं, बाहर, तो आप रहा में जी रहे हैं। राग का मतलब है. आत्मा अपनी जगह नहीं, कहीं और है। फिर इसके उलटे भी आप भाग सकते हैं, लेकिन आत्मा कहीं और है।

आत्मा अपने भीतर है, मैं अपने में ठहरा हुआ हूं, कोई चीज खींचती नहीं और मेरे भीतर किसी तरह की तरंगें पैदा नहीं करती, वैराग्य की यही परिभाषा है। इसलिए वैराग्य आनंद का द्वार है। क्योंकि जो अपने में ठहर गया, उसे दुखी करने का कोई उपाय नहीं।

और ध्यान रहे, वे कहानियां बच्चों की ठीक कहती हैं। जो अपने में ठहर गया, जिसके प्राण अपने में आ गए, उसे मारने का भी कोई उपाय नहीं है। प्राण नहीं मरते कभी भी, तोते मर जाते हैं। जहां—जहां रखते हैं, वे चीजें खिसक जाती हैं, वे मर जाती हैं। इसलिए खुद आदमी अपने को मरा हुआ अनुभव करता है। आत्मा तो अमृत है, लेकिन हम उसे मृत वस्तुओं के साथ जोड़ देते हैं। वे मृत वस्तुएं, आज नहीं कल, बिखरेगी। वह उनका स्वभाव है। जब वे बिखरेगी तब यह भ्रम पैदा होगा कि मैं भी मर गया। यह स्वयं का मर जाना एक भ्रम है, जो पैदा होता है मरणधर्मा वस्तुओं से स्वयं को जोड़ लेने से।

वैराग्य का अर्थ है, जिसने सारे संबंध तोड़ कर उसको जान लिया, जो सदा सबंधित होता रहा था। ‘ भोगने लायक पदार्थ के ऊपर वासना जाग्रत न हो।’

विपरीत वासना जाग्रत हो नहीं, वासना ही जाग्रत न हो, किसी भी अर्थ की। तब वैराग्य की अवधि जान लेना। यह खुद के लिए सूत्र दिया जा रहा है। इससे दूसरे की जांच करने मत जाना।

हम सब बहुत होशियार हैं! हमें परिभाषाएं मिल जाएं तो हम दूसरे की जांच करने जाते हैं कि अच्छा, तो फलां आदमी विरागी है या नहीं?

आपका कोई प्रयोजन नहीं है, दूसरे से आपका कोई लेना—देना नहीं है; राग मे होगा तो दुख भोगेगा, विराग में होगा तो आनंद भोगेगा; आपका कोई भी संबंध नहीं है।

लेकिन हम इतने कुशल हैं स्वयं के साथ धोखा करने में, कि अगर हमारे हाथ में कोई परिभाषा, कोई कसौटी लगे, तो हम दूसरों को कसने निकल जाते हैं, खुद को कसने की फिक्र नहीं करते।

अपने को कसना, यह सूत्र आपके लिए है। यह सूत्र किसी और पर चिंतन करने के लिए नहीं है : कि महावीर विरागी हैं या नहीं? कि कृष्ण विरागी हैं या नहीं?

होंगे या न होंगे, कुछ भी लेना—देना नहीं है। यह उनकी अपनी बात है। होंगे विरागी तो आनंद पाएंगे, नहीं होंगे तो दुख पाएंगे, आप कहीं बीच में आते नहीं हैं।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, कैसे पता चले कि कोई आदमी वस्तुत: ज्ञान को उपलब्ध हो गया? जरूरत क्या है कि कोई आदमी वस्तुत: ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, इसका आपको पता चले? आप हुए हैं कि नहीं, इतना पता चलता रहे, काफी है। दूसरा हो भी गया हो, तो उसके होने से आप नहीं हो जाते। दूसरा न भी हुआ हो, तो उसके न होने से आपको कोई बाधा नहीं पड़ती।

लेकिन क्यों हम ऐसा सोचते हैं? उसके कारण हैं। हम पक्का कर लेना चाहते हैं कि कोई वैराग्य को उपलब्ध नहीं हुआ। उससे हमको राहत मिलती है कि फिर कोई हर्ज नहीं, हम भी न हुए, तो कोई हर्ज नहीं, कोई उपलब्ध नहीं हुआ! इससे मन को सांत्वना मिलती है, इससे मन को आधार मिलता है कि हम जैसे हैं, ठीक हैं, क्योंकि कोई कभी उपलब्ध नहीं हुआ, हम भी नहीं हो रहे हैं!

इसीलिए हमारा मन कभी मानने का नहीं करता कि कोई वैराग्य को उपलब्ध हुआ। हम खोजते हैं तरकीब कि पता चल जाए कि नहीं हुआ। अगर कोई वैराग्य को उपलब्ध हुआ है तो हमें अड़चन होती है भीतरी। वह अड़चन यह है कि कोई और हो गया उपलब्ध, तो मैं भी हो सकता हूं, लेकिन हो नहीं पा रहा। इससे ग्लानि पैदा होती है।

इसलिए दुनिया में कोई भी आदमी दूसरे का ठीक होना स्वीकार नहीं करता। दूसरे से कोई मतलब नहीं है। दूसरे के ठीक होना स्वीकार न करने से अपनी बुराई को स्वीकार करने में आसानी होती है। अगर सारी दुनिया चोर है, तो आपको चोर होने में कोई आत्मग्लानि नहीं होती। अगर सारी दुनिया बुरी है, तो आपका बुरा होना भी सहज मालूम पड़ता है। अगर सारी दुनिया भली है, तो फिर आपका बुरा होना आपको काटे की तरह गड़ने लगता है। फिर एक आत्मदंश शुरू होता है; ग्लानि पैदा होती है, अपराध मालूम पड़ता है, और लगता है कि जो होना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है। और आपके जीवन में बेचैनी पैदा होती है।

वह बेचैनी पैदा न हो, हम नींद में गहरे सोए रहें, इसलिए हम कभी दूसरे में भला नहीं देखते। अगर कोई आकार कहे कि फलां आदमी वैराग्य को उपलब्ध हुआ, आप कहेंगे कि नहीं, वैराग्‍य को उपलब्ध नहीं हुआ। आप पच्चीस आधार खोज लेंगे कि नहीं हुआ। यह हमारे मन के गहरे जाल का एक हिस्सा है। इसके प्रति सावधान होना जरूरी है। दूसरे से कोई प्रयोजन ही नहीं है।

एक मित्र तीन दिन से मेरे पास पहुंचते थे। समय ज्यादा वे चाहते थे। कहते थे, संन्यास तो मुझे लेना है, लेकिन संन्यास के पहले कोई दो—तीन जरूरी सवाल पूछने हैं।

सोचा कि जरूरी सवाल होंगे। एक भी सवाल जरूरी नहीं था। सवाल दूसरों के संबंध में थे, उनके संबंध में न थे। संन्यास उन्हें लेना था, सवाल दूसरे के संबंध में थे कि क्या कृष्ण वस्तुत: शान को उपलब्ध हुए हैं? तो फिर जैनों ने उनको नर्क में क्यों डाला हुआ है?

जैनों ने कृष्ण को नर्क में डाला हुआ है अपने शास्त्रों में, क्योंकि जैनों की अपनी व्याख्या और परिभाषा है वैराग्य की; उसमें कृष्ण नहीं आते। छोड़ कर जाना चाहिए सब, वह उनकी परिभाषा है। और कृष्ण तो कुछ छोड़ कर गए नहीं! इसलिए अड़चन है।

कृष्ण की परिभाषा यही है कि अगर छोड़ कर ही भागते हो, तो अभी विरागी नहीं हुए। इसलिए हिंदुओं ने अपने शास्त्रों में महावीर का उल्लेख भी नहीं किया। कोई उल्लेख करने योग्य बात नहीं मानी। कम से कम जैनियों ने थोड़ा प्रेम दर्शाया है कृष्ण के प्रति; नर्क में डाला है! हिंदुओं ने उल्लेख ही नहीं किया महावीर का। बात ही करने लायक नहीं समझी। नर्क में भी डाला, तो थोड़ी फिक्र तो ली है! वे कृष्य को एकदम छोड़ नहीं सके, कुछ न कुछ वक्तव्य, कृष्ण के लिए कोई न कोई जगह बनानी पड़ी है। नर्क ही सही! लेकिन महावीर को हिंदुओं ने नर्क में तक नहीं डाला! बात ही छोड़ दी। क्योंकि अगर कृष्ण की परिभाषा को कोई पकड़ कर चले, तो अड़चन हो जाती है।

लेकिन ध्यान रहे, सब परिभाषाएं आपके लिए हैं, साधक के लिए हैं, ताकि वह अपने भीतर खोज—बीन करता रहे। एक निकष हाथ में रहे, कसौटी, तौलता रहे। और हम सब होशियार हैं, उस कसौटी पर हम दूसरों को कसने जाते हैं! दूसरों से कोई लेना—देना नहीं है। कृष्ण नर्क में होंगे तो वे समझें, इससे किसी को क्या लेना—देना है! आप कोई कृष्ण की जगह नर्क में पड़ने को तैयार हो नहीं सकते, कि हम जगह लिए लेते हैं आपकी, आप मोक्ष चले जाओ! और कृष्ण मोक्ष में होंगे तो आपका मोक्ष निर्मित नहीं होता है। आपके अतिरिक्त आपकी सारी चितना दूसरे के संबंध में व्यर्थ है।

एक दूसरे मित्र आए थे पूछने कि अगर आपको और कृष्णमूर्ति को मिलने की व्यवस्था की जाए, तो क्या आप मिलने को राजी हैं?

अब यह मेरे और कृष्‍णमूर्ति के बीच की बात है! इसमें इन मित्र को क्या प्रयोजन हो सकता है?

फिर उन्होंने पूछा हुआ था कि अगर आप दोनों का मिलना हो तो नमस्कार कौन पहले करेगा?

अब यह भी मेरे और कृष्णमूर्ति के बीच का मामला है!

चित्त दूसरों के चिंतन में लगा है। चित्त अपना चिंतन कर ही नहीं रहा है। साधक को निर्णय कर लेना चाहिए कि ये सब व्यर्थ की चितनाएं हैं। मेरे अतिरिक्त, और मेरे भीतरी विकास के अतिरिक्त, सब बातें साधक के लिए नहीं हैं। व्यर्थ हैं। उन जिज्ञासाओं में, कुतूहल में उलझना ही नहीं चाहिए। उससे कुछ भी लेना—देना नहीं है। उससे कुछ आपके जीवन में होगा भी नहीं।

तो यह ध्यान रखें, ये परिभाषाएं आपके लिए हैं। और अपने भीतर आप तौलते रहें, इसलिए उपनिषद ने आपको मापदंड दिए हैं, ताकि भीतर के अगम रास्ते पर आपको कठिनाई न हो। अपने भीतर देखते रहना, जब तक वस्तुओं को देख कर वासना जगती हो, तब तक समझना कि वैराग्य उपलब्ध नहीं हुआ है। और वैराग्य के सतत श्रम में लगना, उस श्रम की हम धीरे— धीरे बात कर रहे हैं।

‘अहं—भाव का उदय न हो तब शान की परम अवधि समझना।’

बड़े अजीब लोग हैं उपनिषद के ऋषि! वे यह नहीं कहते कि परमात्मा का दर्शन हो जाए तो जान की अवधि समझना। परमात्मा तक के दर्शन की बात को उन्होंने शान की अवधि नहीं कहा, कि आपके बिलकुल सब चक्र खुल जाएं और कुंडलिनी जाग्रत हो जाए और सहस्र दल कमल खिल जाए तो ज्ञान की परम अवधि समझना। नहीं! कि आप सातों स्वर्ग चढ़ जाएं—और न मालूम कितने हिसाब जारी है—कि सारे चौदह खंडों की यात्रा पूरी हो जाए और सच—खंड में प्रवेश हो जाए, तो भी उपनिषद कहते हैं कि इस सबसे कोई मतलब नहीं है। कसौटी की बात एक है कि अहं— भाव का उदय न हो।

कुंडलिनी से भी अहं— भाव का उदय होता है। साधक को लगता है कि हमारी कुंडलिनी जाग्रत हो गई! अब हम कोई साधारण आदमी नहीं! किसी को लगता है कि हमारा आज्ञाचक्र जग गया, ज्योति के दर्शन होने लगे, हम कोई साधारण आदमी नहीं! किसी को लगता है कि हृदय में नीलमणि प्रकट हो गई, नीली ज्योति दिखाई पड़ने लगी, अब हम मुक्त हो गए, अब हमारे लिए कोई संसार नहीं!       ध्यान रहे, जिस चीज से भी मैं निर्मित होता हो वह अज्ञान का ही हिस्सा है, चाहे नाम आप कुछ भी देते चले जाएं। उपनिषद कहते हैं, अहं— भाव जब तक पैदा हो—कारण कोई भी हो—जब तक ऐसा लगे कि मैं कुछ हो गया, तब तक जानना कि अभी शान पका नहीं, अभी ज्ञान में फूल नहीं खिले, अभी ज्ञान का विस्फोट नहीं हुआ। एक ही सूत्र दिया है कि अहं— भाव पैदा न हो।

तो यह भी हो सकता है कि दुकान पर बैठा हुआ आदमी—न जिसकी कुंडलिनी जगी हो, और न जिसने नील—ज्योति देखी हो, और न सच—खंडों की यात्रा की हो—कुछ भी न किया हो, सीधा दुकान पर बैठ कर अपना काम कर रहा हो, लेकिन अहं—भाव न जगता हो, तो वह भी शान की परम अवधि को पहुंच गया। और बडा योगी हो, और हिमालय के ऊंचे शिखर पर खड़ा हो; और जितना हिमालय का ऊंचा शिखर हो, उतना ही भीतर अहंकार का भी शिखर हो; और सोचता हो कि मैं पहुंच गया और कोई नहीं पहुंचा, सोचता हो मैंने पा लिया और किसी ने नहीं पाया—तो समझना कि अभी ज्ञान की घटना नहीं घटी है। एक ही कसौटी है कि ऐसी घड़ी आ जाए भीतर, कि कोई भी चीज अहं—भाव को निर्मित न करती हो। कुछ भी होता रहे—खुद परमात्मा सामने आकर खड़ा हो जाए—तो भी यह भाव पैदा न हो कि अहोभाग्य मेरे, पा लिया परमात्मा को भी! यह परमात्मा सामने खड़े हैं, दर्शन हो रहा है।

मैं की वृत्ति निर्मित न हो तो शान की परम अवधि समझना।

इसको भी भीतर खोजते रहना, नहीं तो हर चीज से अकड़ आनी शुरू हो जाती है—हर चीज से! मन बड़ा कुशल है, और हर चीज में से अहं— भाव को निकाल लेता है; इतना कुशल है कि विनम्रता तक में से अहं— भाव को निकाल लेता है! कि एक आदमी कहने लगता है कि मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं! मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं! मगर वह मुझसे ज्यादा कोई भी नहीं। वह कुछ भी हो—चाहे धन हो, चाहे यश हो, चाहे पद हो, चाहे शान हो, चाहे मुक्ति हो, चाहे विनम्रता हो—मुझसे ज्यादा कोई भी नहीं। वह जो मैं है, निर्मित होता चला जाता है।

तो भीतर जांचते रहना, खोजते रहना, नहीं तो आध्यात्मिक तलाश भी सांसारिक तलाश हो जाती है। आध्यात्मिक और सांसारिक खोज में वस्तुओं का भेद नहीं है, आध्यात्मिक और सांसारिक खोज में अहंकार का भेद है। एक आदमी संसार में धन के ढेर लगा लेता है तो अहंकार मजबूत होता है। एक दूसरा आदमी सारे धन का त्याग कर देता है और त्याग से अहंकार को मजबूत कर लेता है। दोनों की यात्रा सांसारिक है। आध्यात्मिक यात्रा तो शुरू होती है अहंकार के विसर्जन से। एक ही त्याग है करने जैसा, और वह मैं का त्याग है। बाकी सब त्याग फिजूल हैं, क्योंकि उन त्याग से भी मैं भर लेता है।

कल ही एक सज्जन मुझे मिलने आए थे। वे कहते हैं कि चौदह साल से मैंने अन्न नहीं लिया! और उनकी अकड़ देखने लायक थी। अन्न लेने से भी इतनी अकड़ पैदा नहीं होती, जितनी उनको अन्न न लेने से पैदा हो गई है! तो यह अन्न का न लेना तो जहर हो गया। उनकी अकड़ ही और थी! चौदह साल से अन्न नहीं लिया, होने ही वाली है अकड़। अब किस पर कृपा की है आपने अन्न नहीं लिया तो? न लें! लेकिन इसको वे बताते फिर रहे हैं कि चौदह साल से अन्न नहीं लिया! अब यही अहंकार बन रहा है। अन्न से भी अहंकार इतना नहीं भरता, यह न अन्न से भरा जा रहा है!

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम दूध ही ले रहे हैं वर्षों से! दूध उनके लिए जहर मालूम हो रहा है। वे जमीन पर नहीं चल रहे हैं, क्योंकि वे दूध ले रहे हैं। क्या फर्क कर रहे हैं आप? कौन सी बड़ी क्रांति हुई जा रही है कि दूध ले रहे हैं?

मगर उसका कारण है। क्योंकि उन्हें लगता है, वे कुछ विशेष कर रहे हैं जो दूसरे नहीं कर रहे हैं। बस जहां विशेष का खयाल आया, अहंकार निर्मित होना शुरू हो जाता है, फिर वह कोई भी विशेष हो। किसी भी कारण से आप विशिष्टता पैदा कर लें अपने लिए, तो अहंकार निर्मित होता है।

तो साधक का क्या अर्थ हुआ? साधक का अर्थ हुआ कि अपने भीतर से विशेषता पैदा करना बंद करता जाए; धीरे—धीरे ऐसा हो जाए कि नोबडी, कोई भी नहीं वह। धीरे—धीरे इतना सामान्य हो जाए भीतर, कि यह भाव ही पैदा न हो कि मैं भी कुछ हूं; ना—कुछ हो जाए। जिस दिन साधक ना—कुछ हो जाता है, ज्ञान की परम अवधि आ जाती है। ज्ञान के संग्रह से नहीं, अहंकार के विसर्जन से।

जानकारी के संग्रह से नहीं, मैं की मृत्यु से।

‘इसी प्रकार लय को प्राप्त हुई वृत्तियां फिर से उत्पन्न न हों, वह उपरति की अवधि है। ऐसा स्थितप्रज्ञ यति सदा आनंद को पाता है।’

‘लय को प्राप्त हुई वृत्तियां फिर से उत्पन्न न हों।’

बहुत बार वृत्तियां लय हो जाती हैं, बहुत बार। लेकिन वह लय होना, वापस—वापस लौट आता है। एक दिन लगता है कि मन बिलकुल शांत हो गया, दूसरे दिन फिर अशांत हो जाता है। एक दिन लगता है बड़ा आनंद है, दूसरे दिन फिर दुख में घिर जाते हैं।

मन के कुछ नियम हैं, वे समझने चाहिए। एक नियम तो मन का यह है कि वह सतत एक जैसा कभी नहीं रहता, परिवर्तन उसका स्वभाव है। तो जो शांति मिले और खो जाए, समझना कि वह आध्यात्मिक शांति नहीं है, मन की ही शांति थी—एक बात। जो आनंद मिले और खो जाए, समझना कि वह आध्यात्मिक आनंद न था, मन का ही आनंद था। जो भी बने और बिखर जाए, वह मन का है। जो आए और चला जाए, वह मन का है। जो आए और फिर कभी न जाए; जो आए तो बस आ जाए, और जाने का कोई उपाय न रहे; आप चेष्टा भी करें और उसे हटा न पाएं। खयाल रखें फर्क मन में शांति आ जाए, तो आप लाख चेष्टा करें कि बनी रहे, बनी नहीं रहेगी, बदलेगी ही, और आत्मिक शांति आ जाए, तो आप लाख चेष्टा करें उसे नष्ट करने का, तो भी आप नष्ट नहीं कर सकते, वह बनी ही रहेगी। मन में प्रयास से भी सातत्य नहीं रह सकता, और आत्मा में प्रयास से भी सातत्य तोड़ा नहीं जा सकता।

तो जो वृत्तियां उठनी बंद हो जाएं, जल्दी मत करना, यह मत सोच लेना कि पहुंच गए। प्रतीक्षा करना कि वे दुबारा तो नहीं उठती हैं। अगर दुबारा उठती हैं तो समझना कि कम अभी मन के तल पर ही चल रहा है। और मन की शांति का क्या मूल्य है? वह तो आएगी और चली जाएगी और फिर अशांति आ जाएगी। मन में तो प्रतिपल विपरीत की तरफ गति होती रहती है। जब आप अशांत होते हैं तो मन शांति की तरफ गति करता है, और जब शांत होते हैं तो अशांति की तरफ गति करता है। मन द्वंद्व है। इसलिए विपरीत हमेशा मौजूद रहेगा और गति करता रहेगा।

कैसे अनुभव करेंगे कि जो हो रहा है वह मन का है न:

अगर मन शांत हो, तो एक बुनियादी खयाल रखना जब मन शांत हो—जब मन ही शांत हो और भीतर के तल पर शांति न पहुंची हो—तो शांत होते ही एक वासना पैदा हो जाएगी कि यह शांति बनी रहे, मिट न जाए। अगर यह वासना पैदा हो तो समझना कि यह मन का मामला है, क्योंकि मिटने का डर मन में ही होता है। शांति आ जाए और यह डर न आए कि मिट तो नहीं जाएगी, तो समझना कि यह मन की नहीं है।

दसरी बात मन हर चीज से ऊब जाता है—हर चीज से! दुख से ही नहीं, सुख से भी ऊब जाता है। यह मन का यह दूसरा नियम है कि मन किसी भी थिर चीज से ऊब जाता है। अगर आप दुख में हैं तो दुख से ऊबा रहता है और कहता है सुख चाहिए। पर आपको पता नहीं है कि यह मन का नियम है कि सुख मिल जाए, तो सुख से ऊब जाता है। और तब भीतरी दुख की मांग करने लगता है।

ऐसा मैं निरंतर, इतने लोगों पर प्रयोग चलते हैं तो देखता हू, कि उनको अगर सुख भी ठहर जाए थोड़े दिन, तो वे बेचैन होने लगते हैं, अगर शांति भी थोड़े दिन ठहर जाए, तो वे बेचैन होने लगते हैं, क्योंकि उससे भी ऊब पैदा होती है।

मन हर चीज से ऊब जाता है। मन सदा नए की मांग करता रहता है। नए की मांग से ही सब उपद्रव पैदा होता है। मन के बाहर—आत्मिक तल पर—नए की कोई मांग नहीं है; पुराने की कोई ऊब नहीं है : जो है, उसमें इतनी लीनता है, कि उसके अतिरिक्त किसी की कोई भाग नहीं है।

सूत्र कहता है कि लय को प्राप्त हुई वृत्तियां फिर से उत्पन्न न हों, तो उपरति की अवधि है। तो समझना कि विश्राम मिला। वे फिर—फिर पैदा होती रहें, तो समझना कि सब मन का ही जाल है।

क्यों, इसको सोच रखने की जरूरत क्यों है? क्योंकि मन के साथ हमारा इतना गहरा संबंध है कि हम मन की ही शांति को अपनी शांति समझ लेते हैं। उससे बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि वह खो जाती है। क्या करें हम? साक्षी के सूत्र का प्रयोग करना उपयोगी है। तो मन के बाहर जाने का रास्ता बनता है और परम उपरति उपलब्ध होती है।

करते क्या हैं हम? जब मन अशांत होता है तो हम उससे हटना चाहते हैं, और जब मन शांत होता है तो हम उससे जुड़ना चाहते हैं। शांति को हम बचा रखना चाहते हैं, अशांति को हटाना चाहते हैं। जब मन दुखी होता है, तो हम मन को फेंक देना चाहते हैं कि कैसे छुटकरा हो जाए मन से! और जब मन सुखी होता है, तो हम उसका आलिंगन कर लेते हैं और उसको बचा लेना चाहते हैं। तब तो आप मन से कभी न छूट पाएंगे, क्योंकि यह तो मन की व्यवस्था ही है कि दुख से छूटो, सुख को पकड़ो।

मन से छूटने का उपाय यह है कि जब सुख मन दे रहा हो, तब भी साक्षी बने रहना और उसको पकड़ना मत। जैसे आप यहां ध्यान कर रहे हैं, ध्यान में कभी अचानक शांति का झरना फूट पड़ेगा। तो उस वक्त उसको आलिंगन मत कर लेना, खड़े देखते रहना दूर, कि शांति घट रही है, मैं साक्षी हूं। सुख का झरना टूट पड़ेगा, भीतर रोएं—रोएं में सुख व्याप्त हो जाएगा किसी क्षण, तो उसको भी दूर खड़े होकर ही देखते रहना, उसको पकड़ मत लेना जोर से कि ठीक आ गई मुक्ति, उसको खड़े होकर साक्षी— भाव से देखते रहना, कि मन में सुख घट रहा है, पकडूगां नहीं।

मजे की बात यह है कि जो सुख को नहीं पकड़ता, उसके दुख समाप्त हो जाते हैं; जो शांति को नहीं पकड़ता, उसकी अशांति सदा के लिए मिट जाती है। शांति को पकड़ने में ही अशांति का बीजारोपण है, और सुख को पकड़ने में ही दुख का जन्म है। पकड़ना ही मत। पकड़ का नाम मन है। क्लिगिंग, पकड़ का नाम मन है। कुछ न पकड़ना। खुली मुट्ठी! और आप मन के पार हट जाएंगे और उसमें प्रवेश हो जाएगा, जहां से फिर वृत्तियां दुबारा जन्म नहीं पातीं; परम लय हो जाता है। उस परम लय को कहा है उपरति, विश्राम।

‘ऐसा स्थितप्रज्ञ यति सदा आनंद को पाता है।’

स्थितप्रज्ञ बड़ा मीठा शब्द है। अर्थ है उसका जिसकी प्रज्ञा अपने में ठहर गई, जिसका बोध अपने में रुक गया, जिसकी चेतना स्वयं को छोड़ कर कहीं भी नहीं जाती। ठहर गई चेतना जिसकी, ऐसा यति, ऐसा साधक, ऐसा संन्यासी, सदा आनंद को पाता रहता है।

मन के तल पर है सुख और दुख, द्वंद्व; शांति—अशांति, द्वंद्व; अच्छा—बुरा, द्वंद्व, जन्म—मृत्यु, द्वंद्व; मन के पीछे हटते ही निर्द्वंद्व है, आनंद है। आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है, वह द्वंद्व के बाहर है। और जो द्वंद्व के बाहर है, ऐसा यति सदा आनंद को पाता रहता है।

हमारी बड़ी तकलीफ है! हमारी तकलीफ यह है कि आनंद तो हम भी पाना चाहते हैं। और इस तरह की बातें सुन कर हमारा लोभ जगता है कि अगर आनंद सदा मिले, तो फिर हम भी पाना चाहते हैं। कोई रास्ता बता दे, तो सदा आनंद को हम भी पा लें।

लेकिन ध्यान रखना, यह जो परिभाषा है, यह केवल स्थिति—सूचक है। अगर इससे वासना का जन्म होता है तो आप इस स्थिति को कभी न पाएंगे। इसका फर्क ठीक से समझ लें।

एक मित्र मेरे पास आए. जल्दी से मुक्ति हो जाए; ध्यान लग जाए; समाधि आ जाए—जल्दी से! तो मैंने उनको कहा कि जितनी जल्दी करिएगा, उतनी देर हो जाएगी। क्योंकि जल्दी करने वाला मन शांत हो ही नहीं सकता। जल्दी ही तो अशांति है।

और हम सब अनुभव करते हैं कि कभी—कभी जल्दी में कैसी मुश्किल हो जाती है। ट्रेन पकड़नी है और जल्दी में हैं। तो जो काम दो मिनट में हो सकता था वह पांच मिनट लेता है! कोट के बटन उलटे लग जाते हैं! फिर खोलो, फिर लगाओ। चश्मा हाथ में उठाते हैं, छूट जाता है, टूट जाता है! चाबी बंद कर रहे हैं सूटकेस की, चाबी ताले में ही नहीं जाती! जल्दी! जल्दी में तो निरंतर ही देर हो जाती है। क्योंकि जल्दी का मतलब यह है कि चित्त बहुत अस्तव्यस्त है, और भूल—चूक हो जाएगी। तो जब छोटी—छोटी चीजों में जल्दी देर करवा देती है, तो इस विराट की यात्रा पर तो जल्दी बहुत देर करवा देगी।

तो उन मित्र से मैंने कहा कि जल्दी मत करो, नहीं तो देर हो जाएगी। यहां तो तैयारी रखो कि अनंत काल में कभी भी हो जाएगा तो हम राजी हैं, कोई जल्दी नहीं, तो शायद जल्दी भी हो जाए। तो उन्होंने कहा, ऐसा! अगर हम अनंत काल के लिए तैयारी रखें, तो जल्दी हो जाएगी न?

यहां मन दिक्कत देता है। वे तैयार हैं इसके लिए भी! लेकिन जल्दी के लिए ही। यह भी उपयोग कर रहे हैं वे। अब इनको कैसे समझाया जाए? वे कहते हैं, हम प्रतीक्षा करने को भी राजी हैं, मगर आप भरोसा दिलाते हैं कि इससे जल्दी हो जाएगी न? तब यह प्रतीक्षा झूठी हो जाएगी। और जल्दी का क्या मतलब रहा फिर?

प्रतीक्षा अगर आप अनंत करेंगे, तो जल्दी परिणाम है, आप जल्दी की वासना नहीं बना सकते। इस फर्क को समझ लें। अगर आप प्रतीक्षा करने को तैयार हैं तो जल्दी होगी, लेकिन वह प्रतीक्षा करने वाले चित्त का परिणाम है। अगर आप कहते हैं कि इसीलिए हम प्रतीक्षा करेंगे कि जल्दी हो जाए, तो आप प्रतीक्षा कर ही नहीं रहे, और जल्दी कभी नहीं होगी। जल्दी की वासना से प्रतीक्षा कैसे निकल सकती है? यही तकलीफ रोज—रोज की है। हम सबको लगता है कि आनंद तो हमें भी चाहिए। तो हम कैसे आनंद को पा लें! कैसे आनंद को पा लेने का जो विचार और वासना है, वह तो बाधा है आनंद के लिए। आनंद परिणाम है। उसको आप वासना मत बनाएं। वह घटेगा। आप मौन चुपचाप यात्रा करते जाएं, वह घटेगा।

इसलिए बड़ी कठिनाई घटती है, और वह यह, कि इन सूत्रों को पढ़ कर अनेक लोग वासनाग्रस्त हो जाते हैं आनंद की। न मालूम कितने लोग सदियों से इस तरह के सूत्रों को पढ़ कर वासना से भर जाते हैं! और ये सूत्र जो हैं वासनामुक्ति के लिए हैं। और नई वासना पकड़ लेती है कि कैसे मिले आनंद? कैसे हो जाएं स्थितप्रज्ञ? कैसे आ जाए उपरति? कैसे आ जाए वैराग्य? इस वासना से भर जाते हैं। और तब वे दौड़ते रहते हैं जन्मों—जन्मों, और कभी यह घटना नहीं घटती उनके जीवन में। तब उन्हें संदेह होने लगता है। तब उन्हें संदेह होने लगता है कि कहीं ये सब बातें झूठी तो नहीं हैं, क्योंकि कहा तो था कि आनंद आ जाएगा, वह अभी तक नहीं आया!

इस संदर्भ में आपको एक बात बता दूं। रोज हम दुनिया को अधार्मिक होते हुए देखते हैं, रोज। लोग ज्यादा से ज्यादा अधार्मिक होते चले जाते हैं और उनकी निष्ठा धर्म पर कम होती चली जाती है। कारण आपको पता है? कारण इस सूत्र में है। आप में से हर एक ने आनंद की, मोक्ष की, परमात्मा की कई जन्मों में वासना कर ली है—और आनंद नहीं मिला, मोक्ष नहीं मिला, परमात्मा नहीं मिला। उसका जो परिणाम होना था, वह हो गया है। वह परिणाम यह हुआ है कि अब आपको लगता है कि ये कोई मिलने वाली चीजें ही नहीं हैं। आपकी वासना निष्फल चली गई। इन सूत्रों पर से भरोसा उठ गया है।

दस हजार साल से ये सूत्र आदमी को पता हैं। इस दस हजार साल में सभी लोगों ने करीब—करीब, कोई बुद्ध के पास, कोई कृष्ण के पास, कोई क्राइस्ट के पास, कोई मोहम्मद के पास—सभी लोगों ने करीब—करीब इस पृथ्वी पर, यह आनंद की वासना कर ली है, इसके लिए प्रयास कर लिए हैं; कभी ध्यान किया, कभी योग किया, कभी तंत्र साधा, कभी मंत्र साधा, सब कर चुके हैं। जब मैं लोगों को उनके भीतरी तल पर देखता हूं, तो मुझे ऐसा आदमी अब तक नहीं मिला, जो किसी न किसी जन्म में कुछ न कुछ न कर चुका हो। हर आदमी किसी न किसी जन्म में साधना के पथ पर चल चुका है—लेकिन वासनाग्रस्त होकर। उस वासना के कारण ही साधना निष्फल चली गई है, और भीतर गहरी चेतना में वह असफलता बैठ गई है। उसका कारण है कि सारी दुनिया में अधर्म बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है। क्योंकि धर्म अधिक लोगों के लिए असफल हो गया है।

आपको याद भी नहीं है, लेकिन आप धर्म को असफल कर चुके हैं अपने भीतर। और कारण आप हैं। क्योंकि आपने, जिसकी वासना नहीं की जा सकती, उसकी वासना करके भूल कर ली है। ये परिणाम हैं। आप साधना से गुजरेंगे तो ये परिणाम घटते हैं। इनकी आपको चिंता नहीं करनी है, न इनका विचार करना है, और न इनकी आकांक्षा करनी है, और न जल्दी करनी है कि ये घट जाएं। उस जल्दी से ही सब विपरीत हो जाता है।

दुनिया में अधर्म तब तक बढ़ता ही चला जाएगा, जब तक हम धर्म की भी वासना करते हैं। और आप कोई नए नहीं हैं। इस जमीन पर कोई भी नया नहीं है। सब इतने पुराने और प्राचीन हैं, जिसका हिसाब नहीं। और सब इतने—इतने रास्तों पर, इतने—इतने मार्गों पर चल चुके हैं, जिसका हिसाब नहीं। और उन सबमें असफलता पाकर आप निराश और हताश हो गए हैं। वह हताशा प्राणों में गहरे बैठ गई है। उस हताशा को तोड़ना ही आज सबसे बड़ी कठिनाई की बात हो गई है। और अगर कोई तोड़ना चाहे, तो एक ही उपाय दिखता है कि फिर आपकी वासना को कोई जोर से जगाए, और कहे कि इससे यह हो जाएगा, तभी आप थोड़ा हिम्मत जुटाते हैं। लेकिन वही, वासना का जगाना ही तो सारे उपद्रव की जड़ है।

बुद्ध ने एक अनूठा प्रयोग किया था। और बुद्ध के समय में भी हालत यही थी, जो आज हो गई है। यह हमेशा हो जाती है। और जब भी दुनिया में बुद्ध या महावीर जैसे लोग पैदा होते हैं तो उनके पीछे हजारों साल तक एक छाया का काल व्यतीत होता है। होगा ही। जब बुद्ध या कृष्ण जैसा कोई व्यक्ति पैदा होता है, तो उसको देख कर, उसके अहसास में, उसके संपर्क में, उसकी हवा में हजारों लोग वासना से भर जाते हैं धर्म की। और उनको लगता है कि हो सकता है। भरोसा जगता है देख कर, कि जब बुद्ध को हो सकता है, तो हमें भी हो सकता है। और अगर इन्होंने भूल कर ली और इस होने को वासना बना लिया, तो बुद्ध के बाद ये व्यक्ति हजारों साल तक उस वासना के कारण धीरे—धीरे परेशान होकर अधार्मिक हो जाएंगे।

शर्त समझ लें! आनंद उपलब्ध हो सकता है, लेकिन आप उसको लक्ष्य न बनाएं। वह लक्ष्य नहीं है। परम शांति हो सकती है, लेकिन लक्ष्य न बनाएं। वह लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तो बनाएं आप ज्ञान को, समझ को; लक्ष्य तो बनाएं आप ध्यान को, लक्ष्य तो बनाएं आप अपने भीतर थिरता को, लक्ष्य बनाएं रुक जाने को, अपने भीतर आ जाने कों—परिणाम में आनंद चला आएगा। वह उसके पीछे आ ही जाता है। उलटा न करें; आनंद को लक्ष्य न बनाएं। जिसने आनंद को लक्ष्य बनाया, बस वह मुश्किल में पड़ गया।

परिणाम—परिणाम हैं—लक्ष्य नहीं हैं।

ऐसा समझें, सामान्य जीवन से कोई उदाहरण ले लें, तो आसानी हो जाए। आप कोई खेल खेलते हैं। फुटबाल खेलते हैं, हाकी खेलते हैं, टेनिस खेलते हैं—कुछ भी खेलते हैं, कबड्डी खेलते हैं—कोई खेल खेलते हैं, बड़ा आनंद अनुभव होता है। किसी से आप कहें कि कबड्डी खेलता हूं, टेनिस खेलता हूं, बड़ा आनंद आता है! वह आदमी कहे, आनंद तो हमें भी चाहिए, कल हम भी आकर देखेंगे खेल कर कि आनंद आता है कि नहीं। वह आदमी खेलने आए, और सतत इस बात का खयाल रखे, कि आनंद आ रहा है कि नहीं? तो आनंद आ रहा है कि नहीं, इस खयाल की वजह से पहली तो बात यह कि खेल में लीन ही नहीं हो पाएगा; खेल हो जाएगा गौण, आनंद हो जाएगा प्रमुख। हर बार जब वह तू—तू करके कबड्डी में प्रवेश करेगा, तो वह तू—तू रह जाएगी गौण, भीतर खोजता रहेगा अभी तक आनंद आया नहीं! यह आनंद आ नहीं रहा, यह मैं क्या कर रहा हूं तू—तू? इससे क्या होने वाला है? अभी तक आनंद आया नहीं! खेल के बाद वह सिर्फ थकेगा और कहेगा कि कुछ आनंद वगैरह मिलता नहीं, यह क्या है?

आनंद जो खेल में पाने जाएगा—खेल भी खराब हो जाएगा, आनंद तो मिलेगा नहीं। आनंद है बाइ—प्रॉडक्ट। खेल में पूरे लीन हो जाएं, तो आनंद घटता है। आनंद का ही खयाल बना रहे तो लीन नहीं हो पाते। लीन नहीं हो पाते तो आनंद कैसे घटेगा!

यह पूरा जीवन ऐसा है। यहां सब चीजें बाइ—प्रॉडक्ट हैं। जो भी महत्वपूर्ण है, वह चुपचाप घटता है। जो भी गहरा है, उसका लक्ष्य नहीं बनाना होता। लक्ष्य बनाने से ही उसका द्वार बंद हो जाता है। अनायास घटता है आनंद, आकस्मिक घटता है आनंद। सचेत कोई बैठा रहे, तो वह सचेत बैठने में ही इतना तनाव हो जाता है कि द्वार बंद हो जाते हैं, दीवाल बन जाती है तनाव की, और आनंद नहीं घटता है।

इस सूत्र पर खयाल रखना, यह सूत्र खतरनाक है। यह सूत्र सभी शास्त्रों में है। और जिन—जिन ने उन शास्त्रों को पढ़ा है, उनकी वासना जग गई है। और वे खोज में लगे हैं कि कैसे हथिया लें मोक्ष को! मोक्ष हथियाए नहीं जाते; लीन होकर मोक्ष मिलता है। कैसे पा लें आनंद को! कैसे आनंद नहीं पाया जाता। कुछ करें, जिसमें इतने डूब जाएं कि अपनी भी खबर न रहे, आनंद की भी खबर न रहे—और अचानक जाग कर पाया जाता है कि आनंद ही आनंद रह गया है, आप जो खोजते थे, जो खोज—खोज कर नहीं मिलता था, वह मिल गया है।

बुद्ध के जीवन में बड़ी साफ बात है। बुद्ध छह साल तक कोशिश करते रहे—अथक—मिल जाए मोक्ष, मिल जाए शांति, मिल जाए सत्य। नहीं मिला। सब गुरुओं के चरणों को टटोल आए। गुरु भी उनसे थक गए। क्योंकि वे आदमी तलाशी थे, पक्के थे, क्षत्रिय की जिद्द थी, कि खोज कर रहूंगा, क्षत्रिय का अहंकार था, कि ऐसी क्या चीज हो सकती है जो हो और न मिले! असंभव नहीं मानता है क्षत्रिय। वही क्षत्रिय का अर्थ है। तो जिन—जिन गुरुओं के पास गए, वे भी उनसे मुसीबत में पड़ गए। क्योंकि गुरु जो भी कहते, बुद्ध तत्काल करके दिखा देते। कितना ही कठिन हो, कितना ही शीर्षासन करना पड़े, कितना धूप—वर्षा में खड़ा रहना हो, कितना उपवास करना हो—जो भी कोई कहता—पूरा करके बता देते और कुछ भी न होता! वे गुरु भी थक गए। उन्होंने कहा, हम भी क्या करें!

गुरु साधारण शिष्य से नहीं थकता; क्योंकि साधारण शिष्य कभी मान कर चलता ही नहीं। इसलिए कभी ऐसी नौबत नहीं आती कि गुरु को यह कहना पडे अब हम क्या करें, जो हम कर सकते थे, कर चुके! बुद्ध जैसा शिष्य मिले तो बहुत मुश्किल खड़ी हो जाती है; क्योंकि बुद्ध, जो भी गुरु कहता, पूरा करते। उसमें गुरु भी भूल नहीं निकाल सकता था। और कुछ होता नहीं! आखिर एक गुरु कहता है कि अब मैं जो कर सकता था, जो बता सकता था, मैंने बता दिया, इसके आगे मुझे भी पता नहीं है, अब तुम कहीं और चले जाओ!

सब गुरु उनसे ऊब गए! और वे जिद्दी पक्के थे। छह वर्ष तक, जिसने जो कहा—सही, गलत संगत, असंगत—सब उन्होंने पूरा किया, और बडी निष्ठा से पूरा किया। एक भी गुरु यह नहीं कह सका कि तुम पूरा नहीं कर रहे, इसलिए नहीं हो रहा है। क्योंकि वे इतना पूरा कर रहे थे कि गुरुओं तक ने उनसे क्षमा मांगी. कि जब तुम्हें हो जाए कुछ और ज्यादा, हमको भी खबर करना। क्योंकि जो भी हम जानते थे, वह पूरा बता दिया है। कुछ भी नहीं हो रहा है!

ऐसा नहीं था कि जो बताया था, उससे उन गुरुओं को नहीं हुआ था, उससे उनको हुआ था। किया बराबर बुद्ध भी वही कर रहे थे, जो गुरु ने की थी और पाया था। तो गुरु भी मुश्किल में था, कि यही क्रिया पूरी कर रहे हो, मुझसे भी ज्यादा पूरी कर रहे हो, इतनी निष्ठा से मैंने भी कभी नहीं किया था, फिर क्यों नहीं हो रहा!

पर कारण था। उस गुरु को हुआ होगा, क्योंकि उसने क्रिया की थी बिना किसी लक्ष्य के खयाल के। बुद्ध को लक्ष्य प्रगाढ़ था। कर रहे थे वे, लेकिन नजर लक्ष्य पर थी कि कब सत्य, कब आनंद, कब मोक्ष मिले! तो क्रिया पूरी कर देते थे, लेकिन वह जो लक्ष्य था, वह बाधा बन रहा था।

आखिर बुद्ध भी थक गए। छह वर्ष के बाद एक दिन उन्होंने सब छोड़ दिया। संसार तो पहले ही छोड़ चुके थे, फिर संन्यास भी छोड़ दिया। भोग तो पहले ही छोड़ चुके थे, ये छह साल योग में बर्बाद किए थे, फिर योग भी छोड़ दिया। और एक रात उन्होंने तय कर लिया कि अब कुछ भी नहीं करना; अब खोजना ही नहीं। समझ लिया कि कुछ है नहीं मिलने वाला। तनाव पर पहुंच गए थे आखिरी खोज के। श्रम, प्रयास चरम हो गया था; छोड़ दिया। उस रात वृक्ष के नीचे सो गए।

वह पहली रात थी अनेक—अनेक जन्मों में, जब बुद्ध ऐसे सोए कि सुबह करने को कुछ भी बाकी नहीं था। कुछ था ही नहीं बाकी करने को! राज्य छोड़ चुके थे, घर छोड़ चुके थे, संसार की सारी आयोजना छोड़ चुके थे, दूसरी योजना पकड़ी थी, वह भी व्यर्थ हो गई थी, अब कोई हाथ में था ही नहीं काम सुबह। कल उठें तो ठीक, न उठें तो ठीक, जन्म रहे तो बराबर, मृत्यु हो जाए तो बराबर—अब कोई अंतर न था, कल सुबह करने को कुछ बचा ही नहीं था; कल का कोई मतलब ही नहीं था।

और जब कोई रात ऐसे सो जाता है कि जिस रात में सुबह की कोई योजना न हो, तो समाधि घटित हो जाती है। सुषुप्ति समाधि बन जाती है; क्योंकि सुबह की कोई वासना ही न थी, कोई लक्ष्य शेष न रहा था, कुछ पाने को नहीं था, कहीं जाने को नहीं था, सुबह होगी तो क्या करेंगे—यह सवाल था। अब तक करना था, करना था, करना था। अब करना बिलकुल नहीं था। बुद्ध रात ऐसे सोए कि सुबह उठेंगे तो क्या करेंगे? सूरज ऊगेगा, पक्षी गीत गाएंगे, मैं क्या करूंगा? शून्य था उत्तर।

लक्ष्य जब नहीं होते, भविष्य नष्ट हो जाता है। लक्ष्य जब नहीं होते, समय व्यर्थ हो जाता है। लक्ष्य जब नहीं होते, योजनाएं टूट जाती हैं, मन की यात्रा बंद हो जाती है। क्योंकि मन की यात्रा के लिए योजना चाहिए; मन की यात्रा के लिए लक्ष्य चाहिए; मन की यात्रा के लिए कुछ पाने का बिंदु चाहिए; मन की यात्रा के लिए भविष्य चाहिए, समय चाहिए। सब नष्ट हो गया।

बुद्ध उस रात सो गए, जैसे कोई आदमी जिंदा जी मर गया हो। जीते थे, मौत घट गई। सुबह पाच बजे आंख खुली। तो बुद्ध ने कहा है, मैंने आंख नहीं खोली। क्या करेंगे आंख खोल कर भी? न कुछ देखने को बचा, न कुछ सुनने को बचा, न कुछ पाने को बचा, क्या करेंगे आंख खोल कर भी? इसलिए बुद्ध ने कहा, मैंने आंख नहीं खोली, आंख खुली। थक गई बंद रहते—रहते, रात भर बंद थी, विश्राम पूरा हो गया, पलक खुल गई। शून्य था भीतर। जब भविष्य नहीं होता, भीतर शून्य हो जाता है। उस शून्य में बुद्ध ने रात का आखिरी तारा डूबता हुआ देखा। और उस आखिरी तारे को डूबते देख कर बुद्ध परम जान को उपलब्ध हो गए। उस डूबते तारे के साथ बुद्ध का सब अतीत डूब गया। उस डूबते तारे के साथ सारी यात्रा डूब गई, सारी खोज डूब गई।

बुद्ध ने कहा है कि मैंने पहली दफा निष्प्रयोजन आकाश में डूबते तारे को देखा—निष्प्रयोजन। कोई प्रयोजन नहीं था। न देखते तो चलता, देखते तो चलता। इस तरफ, उस तरफ चुनने की भी कोई बात न थी। आंख खुली थी, इसलिए तारा दिख गया। डूब रहा था, डूबता रहा। उधर तारा डूबता रहा, उधर आकाश तारों से खाली हो गया, इधर भीतर मैं बिलकुल खाली था, दो खाली आकाशों का मिलन हो गया। और बुद्ध ने कहा है जो खोज—खोज कर न पाया, वह उस रात बिना खोजे मिल गया। दौड़ कर जो न मिला, उस रात बैठे—बैठे मिल गया, पड़े—पड़े मिल गया। श्रम से जो न मिला, उस रात विश्राम से मिल गया।

पर क्यों मिल गया वह? आनंद, जब आप भीतर शून्य होते हैं, उसका सहज परिणाम है। आनंद के लिए जब आप दौड़ते हैं, शून्य ही नहीं हो पाते, वह आनंद ही दिक्कत देता रहता है, शून्य ही नहीं हो पाते, इसलिए सहज परिणाम घटित नहीं होता है।

‘जिसका मन ब्रह्म में लीन हुआ हो, वह निर्विकार और निष्‍क्रिय रहता है। ब्रह्म और आत्मा शोधा हुआ, और दोनों के एकत्व में लीन हुई वृत्ति विकल्परहित और मात्र चैतन्य रूप बनती है, तब प्रज्ञा कहलाती है। यह प्रज्ञा जिसमें सर्वदा होती है, वह जीवनमुक्‍त है।

ऐसा जब भीतर का आकाश बाहर के आकाश में एक हो जाता है, जब भीतर का शून्य बाहर के शून्य से मिल जाता है, तब सब निर्विकार और निष्‍क्रिय हो जाता है। विकार उठ ही नहीं सकते बिना विचार के; विचार ही विकार है। और विचार उठता ही इसलिए है कि कुछ करना है, ध्यान रखना!

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि विचार से छुटकारा नहीं होता।

विचार से होगा नहीं छुटकारा। आपको कुछ करना है। कुछ करना है तो विचार से छुटकारा कैसे होगा? वह कुछ करना है, उसकी योजना विचार है। अगर आपको विचार से छुटकारा भी करना है, तो भी छुटकारा नहीं होगा; क्योंकि वह उसकी योजना में विचार लगा रहेगा।

लोग मुझसे कहते हैं कि हम बैठते हैं, बड़ी कोशिश करते हैं कि निर्विचार हो जाएं।

निर्विचार होने की योजना विचार के लिए मौका है। तो मन यही सोचता रहता है, कैसे निर्विचार हो जाएं? अभी तक निर्विचार नहीं हुए! कब होंगे? होंगे कि नहीं होंगे?

ध्यान रखिए, वासना है कोई भी—स्वर्ग की, मोक्ष की, प्रभु की—तो विचार जारी रहेगा। विचार का कोई कसूर नहीं है। विचार का तो इतना ही मतलब होता है कि आप जो वासना करते हैं, मन उसका चिंतन करता है कि कैसे पूरा करे। जब तक कुछ भी पाने को बाकी है, विचार जारी रहेगा। जिस दिन आप राजी हैं इस बात के लिए कि मुझे कुछ पाना ही नहीं—निर्विचार भी नहीं पाना—आप अचानक पाएंगे कि विचार विदा होने लगे; उनकी कोई जरूरत न रही। जब भीतर सब शून्य हो जाता है, कोई योजना नहीं रहती, कुछ पाने को नहीं बचता, कहीं जाने को नहीं रहता, सब यात्रा व्यर्थ मालूम पड़ने लगती है। और चेतना बैठ जाती है रास्ते के किनारे, मंजिल—वंजिल की बात छोड़ देती है—मंजिल मिल जाती है।

‘ब्रह्म में लीन हुआ निर्विकार और निष्‍क्रिय रहता है।’

फिर ऐसा व्यक्ति निर्विकार और निष्‍क्रिय रहता है। उसके भीतर कुछ भी नहीं उठता। दर्पण खाली रहता है। उस पर कुछ भी बनता नहीं। और निष्‍क्रिय रहता है। करने की कोई वृत्ति नहीं रहती।

इसका यह मतलब नहीं है कि वह कोई मुर्दे की तरह पड़ा रहता है। क्रियाएं घटित होती हैं; लेकिन क्रियाओं की कोई योजना नहीं होती।

इस फर्क को ठीक से समझ लें।

यहां मैं आया। उपनिषद के इस सूत्र पर मुझे बोलना है। अगर इसकी मैं योजना करके आऊं, सोच कर आऊं कि क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है, तो चित्त में विचार चलेगा और विकार होगा; और चित्त में क्रिया चलेगी। आ जाऊं; सूत्र को देख लूं र और बोलने लग; और जो भी निकल जाए, उससे राजी रहूं; तो यह क्रिया क्रिया नहीं है।

फिर बोल कर चला जाऊं; फिर रास्ते में यह खयाल आए कि जो बोला वह ठीक नहीं था, अच्छा होता कि यह बोल देता, या वह बोल देता; अच्छा होता कि यह छोड़ देता; तो विकार है। बोल कर चला जाऊं; और जैसे ही बोलना बंद हो जाए, भीतर उस बोलने के संबंध में कुछ और न रह जाए, कोई धारा न चले, तो निर्विकार है।

सुना है मैंने अब्राहम लिंकन के बाबत। लौटता था एक रात अपनी पत्नी के साथ, एक व्याख्यान देकर। घर लौटा तो बच्चों ने लिंकन को पूछा कि व्याख्यान कैसा रहा? तो लिंकन ने कहा, कौन सा व्याख्यान? जो देने के पहले मैंने तैयार किया, वह? या जो मैंने दिया, वह? या देने के बाद जो मैंने सोचा कि देना चाहिए था, वह? कौन सा व्याख्यान? तीन दे चुका हूं। एक तो जीने के पहले जो दे रहा था अपने मन ही मन में। और फिर एक वस्तुत: जो दिया। और फिर एक जो पीछे पछताता रहा और सोचता रहा कि यह कहना था, और यह कहना था, और यह छोड़ दिया।

तो यह व्याख्यान क्रिया हो गई। व्याख्यान में क्रिया नहीं है, उसकी आयोजना में।

तो अगर चित्त तय करता है पहले से, चित्त लौट कर विचार करता है, तो विकार है। क्रिया अगर घटित होती है—न तो पूर्व आयोजित होती है, और न पश्चात चिंतन होता है—तो निष्‍क्रिय से निकलती है क्रिया। क्रिया तो जारी रहेगी। बुद्ध बुद्ध हो गए, फिर भी जारी रहेगी। लेकिन फर्क पड़ गया। कृष्ण कृष्ण हो गए, फिर भी जारी रहेगी। लेकिन फर्क पड़ गया।

गीता इसी अर्थ में कीमती है कि गीता में जो भी कृष्ण ने कहा है, वह एकदम सहज है। युद्ध के मैदान पर कोई व्याख्यान की तैयारी करके जाता भी नहीं। सोचा भी नहीं होगा, कृष्ण को कभी खयाल भी न होगा कि इस मुसीबत में पड़ेंगे युद्ध के मैदान पर। कल्पना में भी नहीं हो सकता। कोई योजना नहीं हो सकती। अचानक, अनायास एक घटना, आकस्मिक, और कृष्य के झरने का फूट पड़ना।

यह बोलना नहीं है, यह अबोल से निकला हुआ बोलना है। यह क्रिया नहीं है, यह निष्‍क्रिय से जन्मी हुई क्रिया है। इसीलिए गीता इतनी कीमती हो गई। इतनी आकस्मिक थी, इसलिए इतनी कीमती हो गई। दुनिया में बहुत शास्त्र हैं, लेकिन गीता जैसी आकस्मिक परिस्थिति किसी शास्त्र की नहीं है। युद्ध का मैदान है, शंख बज चुके हैं, योद्धा तैयार हैं मरने—मारने को, वहां ब्रह्मचर्चा! कोई, कहीं कोई संगति नहीं बैठती। गीता किसी आश्रम में, किसी गुरुकुल में दी गई होती, समझ में आती थी। चूंकि इतनी सहज है, इसीलिए इतनी गहरी भारतीय मन में उतर गई। निष्‍क्रिय से निकली है। बिना आयोजना के निकली है। इसीलिए हमने उसे भगवत् गीता कहा है, उसे हमने कहा, प्रभु का गीत। उसमें कोई योजना आदमी की नहीं है। उसमें कृष्ण आदमी जैसे व्यवहार ही नहीं कर रहे हैं। गहरी भगवत्ता से निकला हुआ संदेश है।

तो जब सारी क्रियाएं भीतर की निष्‍क्रियता से जन्मती हों, और विचार भी निर्विचार से आता हो, और शब्द भी मौन में जन्म लेता हो, ऐसा व्यक्ति जीवनमुक्‍त कहलाता है।

एक तो— भारत में दो तरह की मुक्ति की धारणा है—एक तो मुक्त है जीवनमुक्‍त, जो जीते जी मुक्त है। और एक है मुक्त, जो मृत्यु के साथ मुक्त होता है। ये दोनों घटनाएं घटती हैं।

एक व्यक्ति जीवन भर खोज करता है, खोज करता है, खोज करता है। जैसे मैंने बुद्ध का कहा; खोज करते हैं, करते हैं, करते हैं—और थक जाते हैं एक दिन खोज से और घटना घट जाती है। ऐसा कभी—कभी ऐसा होता है कि आदमी जीवन भर खोज करता है—छह साल नहीं, जीवन भर—और थकता नहीं और खोजता जाता है, खोजता जाता है। और जब मौत आती है, तभी उसे अनुभव होता है कि सब खोज व्यर्थ गई, कुछ पाया नहीं। और मौत के क्षण में सारी खोज शिथिल हो जाती है।

मरने के पहले अगर सारी खोज शिथिल हो जाए, और सारी योजना बंद हो जाए, और भविष्य न रहे, तो जो बुद्ध को घटना घटी बोधि—वृक्ष के नीचे, वह मृत्यु के वृक्ष के नीचे घट जाती है। तब मृत्यु और मुक्ति एक साथ घटित हो जाती है। क्योंकि मृत्यु बहुत रिलैक्स कर सकती है, अगर खोज व्यर्थ हो गई हो। अगर आपको यह अनुभव आ गया हो पक्का कि सब खोजना बेकार है, कहीं कुछ मिला नहीं—न संसार में कुछ पाया, न साधना में कुछ पाया—कुछ भी नहीं पाया, अगर यह बिलकुल साफ हो जाए, और मन में कोई मन न रह जाए आगे के लिए, कि अब आगे भी जीवन चाहिए कुछ पाने को; यह भी भाव न रह जाए कि अभी न मरूं, दो दिन बच जाऊं तो कुछ कर लूं—मौत आती है, राजी हो जाएं।

अगर सब व्यर्थ हो गया, तो आदमी मौत के लिए राजी हो जाता है। जैसे बुद्ध उस सांझ सो गए, सुबह क्या करेंगे, यह भी सवाल न रहा। ऐसे ही अगर कोई मरते क्षण में मर जाए, बिना यह सोचे कि अब मर गए, कुछ काम अधूरे रह गए, कुछ करने को पूरा था, वह पूरा नहीं हुआ, दो दिन बच जाते तो कुछ पूरा कर लेते—ऐसा कोई भाव न हो, मृत्यु सहज उतर आए, जैसे सांझ उतर आती है और आदमी सो जाता है—तो मृत्यु भी मुक्ति बन जाती है। ऐसे व्यक्ति को मुक्त कहा है।

लेकिन यह घटना कभी जीवन के बीच में भी घटती है, और आदमी मुक्ति के बाद भी बच जाता है। बचना अलग कारणों पर निर्भर है।

जब आप पैदा होते हैं तो शरीर एक सीमित जीवन लेकर पैदा होता है। सत्तर साल चलेगा, अस्सी साल चलेगा, लेकिन अगर चालीस साल की उम्र में वह घटना घट जाए, तो वे जो चालीस साल बच गए हैं, वह शरीर तो पूरा करेगा। आप तो मर गए चालीस साल में, लेकिन शरीर तो अस्सी साल में मरेगा। आप तो खतम हो गए चालीस साल में, लेकिन शरीर चालीस साल और चलेगा। वह उसकी अपनी योजना है, उसके अपने अणुओं की अपनी व्यवस्था है। वह जन्म के साथ अस्सी साल चलने की क्षमता लेकर पैदा हुआ, वह अस्सी साल चलेगा।

तो बुद्ध मर गए, महावीर मर गए चालीस साल में, और चालीस साल शरीर और चला। भीतर तो चलना बंद हो गया, लेकिन शरीर चलता रहा। ऐसे ही, जैसे कि आपके हाथ पर घड़ी बंधी है, आपने उसमें चाबी भर दी है, वह सात दिन चलने वाली है। और आप जंगल में भटक गए और गिर गए और मर गए—आप मर गए और घड़ी चलती रही। घडी में सात दिन की चाबी थी, आपके मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। घड़ी चलती रही और टिक—टिक करती रही।

आपका शरीर तो एक यंत्र है। आप अगर परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं तो आज ही मर गए, लेकिन शरीर टिक—टिक करता रहेगा। चालीस साल तक वह जो शरीर टिक—टिक करता रहेगा और भीतर की चेतना ऐसे हो गई जैसे नहीं है, ऐसी अवस्था को जीवनमुक्‍त कहा है।

‘ब्रह्म और आत्मा शोधा हुआ, और दोनों के एकत्व में लीन हुई वृत्ति विकल्परहित और मात्र चैतन्य रूप बनती है, तब प्रज्ञा कहलाती है।’

जब बुद्धि किसी और के संबंध में नहीं सोचती, सोचती ही नहीं, असोच हो जाती है, जब विचार गिर जाते हैं और केवल विचारणा की शक्ति भीतर रह जाती है, जब बुद्धि किसी विषय के साथ नहीं जुडती, शुद्ध! जैसे कि कोई दीया जल रहा हो, और दीए से कोई चीज प्रकाशित न होती हो, बस अकेला शून्य में दीया जल रहा हो—ऐसी जब चेतना हो जाती, तो उसके लिए भारतीय शब्द है प्रज्ञा। तब आप वास्तविक शान की ज्योति को उपलब्ध हुए। और जिसमें ऐसी प्रज्ञा सदा जलती रहती है, वह जीवनमुक्‍त है।

‘देह तथा इंद्रियों पर जिसको अहं— भाव न हो, और इनके सिवाय अन्य पदार्थों पर यह मेरा है, ऐसा भाव न हो, वह जीवनमुक्‍त कहलाता है।’

ये भाव तो गिर ही जाएंगे। मेरा, मैं, ये तो कब के गिर गए। अहंकार के गिरने के साथ ही तो ज्ञान हुआ। अब उसे कुछ मेरा, कुछ मैं से जुड़ा हुआ नहीं मालूम होता। ऐसा चैतन्य यह भी नहीं कहता है कि

मैं आत्मा हूं। मैं की कहीं भी कोई वृत्ति नहीं जोड़ता; होना ही शेष रह जाता है। हम कहते हैं मैं हूं ऐसा व्यक्ति कहता है हूं। मैं गिर जाता है। बस होना, शुद्ध होना, प्योर एमनेस, हूं—यही स्थिति रह जाती है। इस हूं—पन को, इस एमनेस को, जीवनमुक्‍त अवस्था कहा है। मैं तो मिट जाए और होना रह जाए, तो आप जीते जी मोक्ष को उपलब्ध हो गए।

प्रयास इस दिशा में वासनारहित हो, तो अभी यह घटना घट सकती है; वासनापूर्ण हो, तो देर लगती है।

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(झेन कथा) प्रवचन–8

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बेईमानी : संसार के मालकियत की कुंजी—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 जून 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

एक बदमाश था, जिसे गांव के लोगों ने पकड़ा और एक पेड़ से बांध लिया।

और उससे कहा कि तुम्हें आज शाम तक हम समुद्र में डुबो देंगे।

यह कहकर वे लोग अपने काम पर चले गये। इस बीच एक गड़रिया आया

और उसने बदमाश से पूछा कि क्यों यहां बंधे पड़े हो?

चालाक बदमाश ने कहा, ‘कुछ लोगों ने मुझे इसलिये बांध दिया कि

मैंने उनके रुपये लेने से इनकार कर दिया।

हैरत में आकर गड़रिये ने पूछा, ‘वे तुम्हें रुपये क्यों देना चाहते थे?

और तुमने रुपये लेने से इनकार क्यों किया?’

बदमाश बोला, ‘मैं धार्मिक आदमी हूं और वे लोग हैं अधार्मिक;

और वे मुझे पथ-भ्रष्ट करना चाहते हैं।

गड़रिये ने कहा कि ‘मैं तुम्हारी जगह यहां बैठता हूं; तुम मुक्त हुए।’

दोनों ने जगह बदल ली। शाम के समय गांव के लोग आये,

उन्होंने गड़रिये को बोरे में बंद किया और उसे जाकर समुद्र में डुबो दिया।

दूसरे दिन प्रातःकाल गांव वाले यह देखकर हैरान हुए कि

वही बदमाश भेड़ों का एक झुंड लिये गांव में हंसता प्रवेश कर रहा है।

उनके पूछने पर बदमाश ने बताया, ‘समुद्र में बड़े दयावान जीव रहते हैं,

वे उन सबको पुरस्कृत करते हैं, जो समुद्र में कूदकर डूब जाते हैं।’

फिर क्या था, गांव के लोग भागे और समुद्र में जा डूबे।

और वह बदमाश गांव का अब मालिक बन बैठा।

हम आपसे यह कहानी समझना चाहते हैं।

 

से ही बदमाश सारे संसार के मालिक बन बैठे हैं। संसार की संपदा पानी हो तो सरलता बाधा है। संसार को जीतना हो तो ईमानदारी मार्ग नहीं; बेईमानी गणित है।

यह कहानी आदमियों की कहानी है। इस संसार में ठीक ऐसा ही हो रहा है। बुद्धिमानी का उपयोग लोग जीवन के सत्य को पाने के लिये नहीं, बुद्धिमानी का उपयोग लोग दूसरे का शोषण करने के लिये; बुद्धिमानी का उपयोग स्वयं के अनुभव को पाने के लिये नहीं, सृजनात्मक नहीं, विध्वंसात्मक करते हैं। इसलिये जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे बेईमानी बढ़ती जाती है।

विचारक हमेशा से परेशान रहे हैं कि दुनिया जितनी शिक्षित होती है उतनी बुरी क्यों हो जाती है? अशिक्षित आदमी में थोड़ी भलाई भी हो, शिक्षित आदमी में भलाई की सारी जड़ें टूट जाती हैं। और जैसे-जैसे हम शिक्षा को सुलभ बनाते हैं, वैसे-वैसे लोग साधु नहीं होते, असाधु होते चले जाते हैं।

पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक डी. एच. लारेन्स ने एक सुझाव दिया था कि अगर दुनिया से बेईमानी, बदमाशी मिटानी हो तो कम से कम सौ वर्षों के लिये हमें सभी विद्यालय, सभी विद्यापीठ बंद कर देने चाहिये।

आदमी के पास जितनी बुद्धि बढ़ती है, उतनी बुराई करने की क्षमता बढ़ती है। होना उल्टा चाहिये कि बुद्धि प्रज्ञा बने; समझ आत्मज्ञान की तरफ ले जाये; लेकिन यह होता नहीं। समझ दूसरे के विनाश की तरफ ले जाती है। शायद जिसे हम समझ कहते हैं वह समझ नहीं है, समझ का धोखा है। पूरे मनुष्य जाति का इतिहास इस बात का गवाह है, कि जैसे ही मनुष्य ने आदिम सरलता खोई, वैसे ही जीवन में कष्ट और तकलीफें बढ़ गईं।

और यह तो उस गांव में एक बदमाश था, इसने इतना उपद्रव किया, पूरे गांव को विनष्ट कर दिया। तुम्हारे गांव में तो सभी बदमाश हैं। पूरी पृथ्वी बदमाशों से भरी है।

आदिम मनुष्य का भोलापन इतनी सरलता से क्यों खो जाता है? जरा-सी शिक्षा तुम्हें नष्ट क्यों कर देती है?

कुछ बातें समझनी चाहिये। पहली बात, आदिम मनुष्य का जो भोलापन है, वह वस्तुतः भोलापन नहीं है, वह केवल अभाव है। आदिम मनुष्य बेईमानी नहीं कर सकता क्योंकि बेईमानी करने के लिये एक तरह की कुशलता चाहिये, जो उसके पास नहीं है। इसलिये गांव में जो भोला आदमी दिखाई पड़ता है, वह वस्तुतः भोला नहीं है। उसको मौका मिले तो वह भी उतना ही शैतान सिद्ध होगा, जितना बड़े नगरों के लोग शैतान सिद्ध होते हैं। और अकसर तो वह ज्यादा शैतान सिद्ध होता है। अगर गांव का आदमी शिक्षित हो जाये, थोड़ा कुशल हो जाये तो शहर के आदमी से ज्यादा उपद्रवी सिद्ध होता है। क्योंकि उसके उपद्रव ऐसे हैं, जैसे कोई जमीन बहुत दिन तक बंजर पड़ी रही हो, उसमें कोई फसल न ली गई हो, फिर उसमें फसल ली जाये तो वह बहुत फसल दे। क्योंकि दूसरी जमीन तो अब शोषित हो चुकी है, उसकी जमीन बिलकुल खाली पड़ी है। गांव का सीधा-साधा आदमी जब भी शिक्षित हो जाता है, कुशल हो जाता है तो उसमें बदमाशी की बड़ी फसल लगती है। वह शहर के आदमियों को पराजित कर देता है। उसका भोलापन झूठा है।

तो दो तरह के भोलापन हैं: एक तो भोलापन है, जो संत का है। संत का भोलापन अनुभव से आया है। उसने जीवन में गुजरकर देखा है और पाया कि बेईमानी चाहे तत्क्षण कुछ भी देती मालूम पड़ती हो, अंततः सब कुछ छीन लेती है। उसने अनुभव से पाया कि दूसरे को नुकसान पहुंचाना भला पहले दिखाई पड़ता हो कि दूसरे को नुकसान पहुंचा रहे हैं, लेकिन अंततः अपने ही हाथ-पैर कट जाते हैं। उसने जीवंत अनुभव से यह सीख ली कि जो गङ्ढा तुम दूसरे के लिये खोदते हो, आखिर में तुम पाओगे कि वह तुम्हारी ही कब्र बन जाती है। इस अनुभव के कारण वह बेईमानी छोड़ता है।

कुशल नहीं है ऐसा नहीं, बेईमानी नहीं कर सकता है ऐसा नहीं; कर सकता है, लेकिन अनुभव ने उसे बताया कि बेईमानी हितकर नहीं है। स्वयं के हित में भी नहीं है। दूसरे को तो नुकसान पहुंचाती है अभी, और स्वयं को नुकसान पहुंचाती है अंततः, इसलिये वह भोला हो गया है, वह सरल हो गया है।

यह सरलता बड़ी कीमती है, गंभीर है, गहरी है। यह सरलता बड़ी समृद्ध है क्योंकि अनुभव का आधार है। एक गांव का ग्रामीण है, या एक छोटा बच्चा है; छोटे बच्चे गांव के ग्रामीण जैसे हैं। छोटा बच्चा भोला मालूम पड़ता है लेकिन भोला है नहीं, तैयारी कर रहा है। अभी शरारत के बीज अंकुरित नहीं हुए हैं, जल्दी ही अंकुरित होंगे। गांव का आदिम आदमी तैयारी कर रहा है, प्रतीक्षा कर रहा है। जब कुशल हो जायेगा, तब उसके खेत में बड़ी बुराई की फसल आयेगी।

हर बच्चा देवता जैसा पैदा होता है और शैतान जैसा मरता है। बच्चों की शक्ल देखें, सभी बच्चे प्यारे मालूम होते हैं। कोई बच्चा कुरूप नहीं मालूम होता, सभी बच्चे सुंदर होते हैं। फिर यह सारे सुंदर बच्चे कहां खो जाते हैं? लोगों को देखें तो लोग कुरूप मालूम होते हैं। जब वे बच्चे थे खुद, तब बड़े सुंदर थे। यह पृथ्वी सौंदर्य से भर जानी चाहिये। इतने सुंदर बच्चे पैदा होते हैं! लेकिन जैसे ही समझ बढ़ती है, जैसे ही कुशलता आती है, वैसे ही विकृति शुरू हो जाती है।

तो दो उपाय हैं आपके भी भोले होने के। एक तो उपाय है कि समझ को आने ही मत देना। एक तो उपाय है कि शिक्षित होना ही मत। एक तो उपाय है सभ्य बनना ही मत। परिस्थिति से दूर ही रहना।

गांधी जैसे विचारक इसी उपाय की सलाह देते हैं। वे कहते हैं, दुनिया से बड़े उद्योग समाप्त करो। शिक्षालय बंद करो। ट्रेनें, हवाई-जहाजें मत चलाओ। यांत्रिकता हटाओ। आदमी को वापस जंगल की तरफ ले चलो। क्योंकि जंगल का आदमी बड़ा भोला था।

उनका तर्क बहुत गहरा नहीं है क्योंकि जंगल का आदमी अगर सच में ही भोला था तो यह सारी बेईमानी फिर किससे पैदा हुई? कहां से आई? एक तो ऐसा आदमी है, जो इतना कमजोर है कि चोरी नहीं कर सकता, इसलिये साधु मालूम पड़ता है। एक आदमी इतना अशिक्षित है कि झूठ बोलने में झंझट है। झूठ बोलने के लिये थोड़ी बुद्धि चाहिये। और झूठ बोलने के लिये अच्छी याददाश्त चाहिये। अगर स्मृति कमजोर हो तो आप झूठ नहीं बोल सकते। क्योंकि घड़ी भर बाद आपको याद ही न रहेगा, किससे क्या कहा!

तो एक आदमी इसलिये सच बोलता है, क्योंकि झूठ बोलने के लिये जितनी कुशलता चाहिये, वह उसमें नहीं है। जो तकनीक बेईमानी के लिये चाहिये, वह उसमें नहीं है। लेकिन चाहता तो वह भी बेईमान होना है। तो वह प्रतीक्षा कर रहा है। जब सुविधा मिलेगी, तब वह भी बेईमान हो जायेगा। बीज पड़ा है जमीन में, वर्षा की प्रतीक्षा कर रहा है। जब बादल घिरेंगे और बरसेंगे तो बीज अंकुरित हो जायेगा।

तो गांधी जैसे विचारक सलाह देते हैं कि बादलों को बरसने ही मत दो। न बरसेंगे बादल, न बीज अंकुरित होगा। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। लेकिन यह कोई बड़ी गहरी समझ की बात नहीं है। क्योंकि बांसुरी भला न बजे, उसके स्वर तो भीतर गूंजते ही रहेंगे। बेईमानी भला बाहर न आये असमर्थता के कारण, लेकिन गहरे में बीज तो विषाक्त करता ही रहेगा। मैं इस तरह के विचारकों से राजी नहीं हूं।

मैं तो कहता हूं, अनुभव से गुजरकर जो सरलता आये वही वास्तविक है। आग से गुजरकर जो सोना बचे, वही असली सोना है। इस डर से कि कहीं जल न जाये, हम आग के बाहर ही रख लें तो वह सोना असली नहीं है। और भय बता रहा है कि कचरे का डर है।

शिक्षित तो होना ही होगा। बच्चे को जवान होना ही होगा। बच्चे को बच्चे में कैसे रोका जा सकता है? आदिम आदमी सभ्य बनेगा, गांव मिटेंगे, महानगर बसेंगे। इससे बचने का कोई भी उपाय नहीं है। पीछे जाना संभव भी नहीं है। जैसे जवान बच्चा नहीं हो सकता फिर से, वैसे ही शहर के आदमी को गांव नहीं ले जाया जा सकता।

तो गांधी कितना ही कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग सुन लेते हैं, सिर हिला देते हैं, लेकिन उनका जीवन जिस ढांचे में है, वैसा ही चलता जाता है। और गांधी कितना ही कहें, उनकी खुद की जीवन-व्यवस्था भी आधुनिक यंत्रों पर ही निर्भर होती है। ट्रेन में यात्रा करनी पड़ती है, मोटर में बैठना पड़ता है। गांधी की बात का प्रचार भी करना हो तो भी बड़े प्रेस का उपयोग करना पड़ता है, लाऊडस्पीकर पर बोलना पड़ता है। इस सभ्यता के खिलाफ भी बोलना हो तो इसी सभ्यता का उपयोग करना पड़ता है। और जिसका हम उपयोग करते हैं, उसको हम नष्ट कैसे करेंगे? वह हमारे उपयोग से मजबूत होती है, बढ़ती है।

और गांधी कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं, रूसो ने, टॉलस्टॉय ने, रस्किन ने, सभी ने पीछे लौटने की बात की है। गांधी पर रस्किन, थोरो और इमर्सन का बड़ा प्रभाव है। लेकिन कोई भी पीछे लौट नहीं सकता। पीछे लौटने का कोई मार्ग ही नहीं है। सब मार्ग आगे की तरफ जाते हैं; इसलिये मेरा सुझाव गांधी से बिलकुल विपरीत है।

मेरा सुझाव है, जितनी जल्दी हो सके अनुभव से गुजरो, लेकिन अनुभव से होश पूर्वक गुजरो ताकि अनुभव तुम्हें उसकी पूर्णता में दिखाई पड़ जाये। बीज से लेकर अंत तक, प्रथम से लेकर अंत तक तुम अनुभव को देख लो। जो व्यक्ति भी अनुभव को पूरा देख लेंगे, उनके जीवन से बेईमानी मिट जायेगी।

अब हम इस कहानी को समझने की कोशिश करें। कहानी बड़ी साफ है। कुछ रहस्यपूर्ण नहीं है कहानी में। एक बदमाश की कहानी है–यह समझें कि तथाकथित बुद्धिमान की। और तथाकथित बुद्धिमान सभी बदमाश होते हैं। बदमाश होने के लिये थोड़ा-बहुत बुद्धिमान होना जरूरी भी है। पूरे बुद्धिमान नहीं होते, लेकिन थोड़े बुद्धिमान होते हैं।

और ध्यान रहे, कभी-कभी आधा ज्ञान पूरे अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है। थोड़ा ज्ञान सदा ही खतरनाक होता है क्योंकि थोड़ी दूर तक देखता है, पूरे को नहीं देख पाता।

गांव के लोग इस बदमाश से परेशान रहे होंगे और गांव के लोगों ने एक दिन तय किया कि इस बदमाश का अंत ही कर दो। एक वृक्ष से बांध दिया।

बदमाश होने के लिये थोड़ी बुद्धिमत्ता चाहिये, तर्क चाहिये, समझ चाहिये। दूसरे को धोखा देना आसान नहीं है क्योंकि दूसरा भी तुम्हें धोखा देने को तैयार है। जब भी तुम दूसरे को धोखा देते हो, उसका अर्थ है, कि तुमने ज्यादा बुद्धिमानी दिखाई दूसरे से।

एक गड़रिया पास से गुजरा–गांव का आदिम आदमी–उसने पूछा कि क्या हुआ? क्यों बंधे हुए हो इस वृक्ष से? इस बदमाश ने कहा कि बड़ी मुसीबत में पड़ गया हूं। गांव के लोग मुझे धन देना चाहते हैं, मैं लेना नहीं चाहता। वे नाराज हो गये।

गड़रिया निश्चित ही गांव का आदिम आदमी रहा होगा–जहां चाहते हैं रूसो, टालस्टॉय, गांधी लोगों को वापस ले जाना। लेकिन तब कोई भी बदमाश उन आदिम लोगों को शरारत से परेशान करेगा। पीछे लौटो कितने ही इतिहास में, चंगेज, तैमूर सदा मौजूद हैं। वे गांव के गड़रियों का शोषण कर रहे हैं। लेकिन शोषण वे बड़े ढंग से करते हैं, बड़ी बुद्धिमत्ता से करते हैं। इसीलिये हजारों साल तक दुनिया में कोई बगावत न हुई। लुटेरों, डाकुओं, हत्यारों को लोगों ने परमात्मा का अवतार समझा।

सम्राट, परमात्मा का प्रतिनिधि समझा जाता था पृथ्वी पर; कि वह परमात्मा की तरफ से राज्य कर रहा है। इसलिये सिंहासन के प्रति बगावत करना परमात्मा के प्रति बगावत थी। राजाओं ने अपने को तादात्म्य कर लिया था–सम्राट ने परमात्मा के साथ लोगों को समझा दिया था कि मैं उसका प्रतिनिधि हूं और लोग मान गये थे।

गांधी जैसे विचारक जिस दुनिया में लोगों को ले जाना चाहते हैं, उसमें फिर चंगेज और तैमूर लोगों का शोषण करेंगे। वह दुनिया कोई बहुत अच्छी दुनिया नहीं थी, उसमें बगावत हो ही नहीं सकती थी। और जिस दुनिया में बगावत न हो सके, उस दुनिया से मुर्दा और दुनिया खोजनी कठिन है।

यहां हिंदुओं ने क्या किया? हजारों साल से लाखों-करोड़ों लोगों को शूद्र बना रक्खा और उनको समझा दिया कि तुम्हारे कर्मों के कारण ही तुम शूद्र हो। और उन्होंने मान लिया। यह बदमाश बुद्धिमानी है। यह शोषण की बड़ी कुशल तरकीब है। और उनको इस भांति समझा दिया कि बगावत का एक स्वर नहीं उठा भारत में। हजारों साल की यात्रा में शूद्रों ने एक दफे नहीं कहा कि यह क्या फिजूल की बात हमें समझाई जा रही है? यह प्रचार इतना गहरा गया…

और यह तुम्हारे ही हित में है, क्योंकि अगर तुम शांति से अपनी शूद्रता को स्वीकार कर लेते हो, तो अगले जन्मों में तुम ऊंचे वर्णों में पैदा हो जाओगे। ब्राह्मण ब्राह्मण घर में पैदा हुआ है क्योंकि उसने अच्छे कर्म किये हैं। तुम शूद्र घर में पैदा हुए हो क्योंकि तुमने बुरे कर्म किये हैं। अगर बगावत की तो और बुरे कर्म हो जायेंगे, तुम और महाशूद्र हो जाओगे, और नर्क में पड़ोगे। स्वीकार कर लो।

मनु की स्मृति पढ़ने जैसी है। मनु की स्मृति से ज्यादा अन्यायपूर्ण शास्त्र खोजना कठिन है, क्योंकि कोई न्याय जैसी चीज ही नहीं है। मनुस्मृति हिंदुओं का आधार है–उनके सारे कानून, समाज-व्यवस्था का। अगर एक ब्राह्मण एक शूद्र की लड़की को भगाकर ले जाये तो कुछ भी पाप नहीं है। यह तो सौभाग्य है शूद्र की लड़की का। लेकिन अगर एक शूद्र, ब्राह्मण की लड़की को भगाकर ले जाये तो महापाप है। और हत्या से कम, इस शूद्र की हत्या से कम दंड नहीं। यह न्याय है! और इसको हजारों साल तक लोगों ने माना है।

जरूर मनाने वाले ने बड़ी कुशलता की होगी। कुशलता इतनी गहरी रही होगी, जितनी कि फिर दुनिया में पृथ्वी पर दुबारा कहीं नहीं हुई। ब्राह्मणों ने जैसी व्यवस्था निर्मित की भारत में, ऐसी व्यवस्था पृथ्वी पर कहीं कोई निर्मित नहीं कर पाया, क्योंकि ब्राह्मणों से ज्यादा बुद्धिमान आदमी खोजने कठिन हैं। बुद्धिमानी उनकी परंपरागत वसीयत थी। इसलिये ब्राह्मण शूद्रों को पढ़ने नहीं देते थे क्योंकि तुमने पढ़ा कि बगावत आई। स्त्रियों को पढ़ने की मनाही रखी क्योंकि स्त्रियों ने पढ़ा कि बगावत आई।

स्त्रियों को ब्राह्मणों ने समझा रखा था, पति परमात्मा है। लेकिन पत्नी परमात्मा नहीं है! यह किस भांति का प्रेम का ढंग है? कैसा ढांचा है? इसलिये पति मर जाये तो पत्नी को सती होना चाहिये, तो ही वह पतिव्रता थी। लेकिन कोई शास्त्र नहीं कहता कि पत्नी मर जाये तो पति को उसके साथ मर जाना चाहिये, तो ही वह पत्नीव्रती था। ना, इसका कोई सवाल ही नहीं।

पुरुष के लिये शास्त्र कहता है कि जैसे ही पत्नी मर जाये, जल्दी से दूसरी व्यवस्था विवाह की करें। उसमें देर न करें। लेकिन स्त्री के लिये विवाह की व्यवस्था नहीं है। इसलिये करोड़ों स्त्रियां या तो जल गईं और या विधवा रहकर उन्होंने जीवन भर कष्ट पाया। और यह बड़े मजे की बात है, एक स्त्री विधवा रहे, पुरुष तो कोई विधुर रहे नहीं; क्योंकि कोई शास्त्र में नियम नहीं है उसके विधुर रहने का।

तो भी विधवा स्त्री सम्मानित नहीं थी, अपमानित थी। होना तो चाहिये सम्मान, क्योंकि अपने पति के मर जाने के बाद उसने अपने जीवन की सारी वासना पति के साथ समाप्त कर दी। और वह संन्यासी की तरह जी रही है। लेकिन वह सम्मानित नहीं थी। घर में अगर कोई उत्सव-पर्व हो तो विधवा को बैठने का हक नहीं था। विवाह हो तो विधवा आगे नहीं आ सकती। बड़े मजे की बात है; कि जैसे विधवा ने ही पति को मार डाला है! इसका पाप उसके ऊपर है। जब पत्नी मरे तो पाप पति पर नहीं है, लेकिन पति मरे तो पाप पत्नी पर है! अरबों स्त्रियों को यह बात समझा दी गई और उन्होंने मान लिया। लेकिन मानने में एक तरकीब रखनी जरूरी थी कि जिसका भी शोषण करना हो, उसे अनुभव से गुजरने देना खतरनाक है और शिक्षित नहीं होना चाहिये। इसलिये शूद्रों को, स्त्रियों को शिक्षा का कोई अधिकार नहीं।

तुलसी जैसे विचारशील आदमी ने कहा है कि ‘शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधकारी।’ इनको अच्छी तरह दंड देना चाहिये। इनको जितना सताओ, उतना ही ठीक रहते हैं। ‘शूद्र, ढोल, पशु, नारी…’ ढोल का भी उसी के साथ–जैसे ढोल को जितना पीटो, उतना ही अच्छा बजता है; ऐसे जितना ही उनको पीटो, जितना ही उनको सताओ उतने ही ये ठीक रहते हैं। यही धारा थी। इनको शिक्षित मत करो, इनके मन में बुद्धि न आये, विचार न उठे। अन्यथा विचार आया, बगावत आई। शिक्षा आई, विद्रोह आया।

विद्रोह का अर्थ क्या है? विद्रोह का अर्थ है, कि अब तुम जिसका शोषण करते हो उसके पास भी उतनी ही बुद्धि है, जितनी तुम्हारे पास। इसलिये उसे वंचित रखो।

उस बदमाश ने बड़ी बढ़िया बात कही। उसने कहा कि लोग मुझे धन देना चाहते हैं और धन मैं लेना नहीं चाहता और इसलिये मुझे बांध दिया है।

गड़रिया निश्चित आदिम रहा होगा, अनुभव से शून्य रहा होगा। बुद्धिमान नहीं था, भोला-भाला था। और भोलापन बुद्धूपन के जैसा था। क्योंकि जो भोलापन अनुभव से न आया हो, वह बुद्धूपन जैसा होता है। उसे सिम्पल नहीं कह सकते, सिम्पलटन! सीधा-सादा, संत नहीं है, वह सीधा-सादा बुद्धू है। क्योंकि इस जगत में कौन है, जो धन नहीं चाहता? और इस जगत में कौन है, जो आपको धन देने के लिये इतना मजबूर करे कि वृक्ष से बांधे? गड़रिया बिलकुल आदिम रहा होगा। गांधीवादी आदिमता रही होगी। न शिक्षित, न धन का कोई पता, न लोगों के जीवन-व्यवहार की कोई प्रतीति–मान लिया उसने।

फिर भी उसे भी थोड़ा शक उठा। उसने कहा कि लोग धन देना चाहते हैं और तुम लेना नहीं चाहते; तुम लेना क्यों नहीं चाहते? क्योंकि इतना तो उसको भी समझ में आया कि अगर मुझे कोई धन दे तो मैं लेना चाहूंगा। यह आदमी क्यों नहीं लेना चाहता?

बदमाश निश्चित ही बुद्धिमान था। उसने कहा, मैं एक धार्मिक आदमी हूं। बात साफ हो गई, कि धार्मिक आदमी धन नहीं लेना चाहता। लेकिन उस गड़रिये को खयाल न आया कि जब भी कोई धार्मिक आदमी धन नहीं लेना चाहता तो लोग उसे बांधते नहीं, उसके पैर पकड़कर पूजा करते हैं।

यही तो हो रहा है। अगर लोगों से पूजा चाहिये हो, धन भर मत लेना, तो लोग पूजेंगे। क्योंकि लोग धन की आकांक्षा से भरे हैं और जब भी वे अपने से विपरीत किसी को देखते हैं तो उसकी पूजा करते हैं। जिसको भी पूजा चाहनी हो, उसे सौदा तय कर लेना पड़ेगा–या तो धन, या पूजा। और समझदार जो हैं, वे पूजा में ज्यादा धन देखते हैं।

उस गड़रिये को यह खयाल न आया कि यह गांव के लोग इसकी पूजा क्यों नहीं करते? इसे मारने के लिये वृक्ष से क्यों बांध रखा है? न, इतनी बुद्धि न थी। इतने विचार न उठे। अन्यथा एक ही अर्थ हो सकता था कि गांव के लोग और भी महा धार्मिक हैं। वे इसको धन भी देना चाहते हैं और न ले तो दंड देने को राजी हैं, मगर धन देकर रहेंगे। गड़रिये की वासना ने उसे पकड़ा। इसे थोड़ा समझ लें।

बुद्धि भला न हो पास, लेकिन वासना तो होती है। यही खतरा है। वासना तो जन्म से मिलती है, बुद्धि शायद शिक्षा से मिल जाती हो, समाज से मिलती हो। वासना तो जन्म से मिलती है। तो बुद्धू से बुद्धू आदमी के पास भी उतनी ही वासना है, जितनी बुद्धिमान के पास। वासना में कोई अंतर नहीं। वासना की दृष्टि से हम सब समान हैं। बुद्धिमान अपनी वासना को पूरा करने के लिये तर्क का उपयोग करता है। बुद्धू उसका उपयोग नहीं कर पाता है, इसलिये शोषित होता है।

इसलिये माक्र्स ठीक कहता है कि जब तक सभी लोग शिक्षित नहीं हो गए हैं, तब तक शोषण जारी रहेगा क्योंकि जो शिक्षित हैं, वे अशिक्षित का शोषण करेंगे। लेकिन एक दूसरी बात माक्र्स को दिखाई नहीं पड़ती। अगर सभी शिक्षित हो जायें तो शोषण बंद नहीं हो जायेगा, सभी शोषण करना चाहेंगे और समाज एक अराजकता होगी, जब तक कि सभी संत न हो जायें। और संत का अर्थ है, सिर्फ निर्बुद्धि रह जाना नहीं, बल्कि बुद्धिमत्ता का पूरा हो जाना।

वह गड़रिया लोभ से भर गया और उसने कहा, अगर ऐसा है तो मुझे बांध दो। मैं धन भी चाहता हूं और तुम धन चाहते नहीं; तो मैं तुम्हें छोड़े देता हूं।

जब भी शोषण करना हो किसी का तो उसे प्रलोभन देना जरूरी है। इसलिये जहां भी प्रलोभन हो, वहां थोड़े सावधान हो जाना। क्योंकि प्रलोभन के बिना तुम्हारा शोषण नहीं किया जा सकता। फिर प्रलोभन बहुत ढंग के हैं। पुरोहित कहते हैं कि अगर तुम दान दोगे तो स्वर्ग मिलेगा। सिर्फ दान देने को कहें तो तुम दान देने वाले नहीं हो। स्वर्ग मिलेगा उसके लिये तुम सौदा कर सकते हो; तब तुम दान दे सकते हो। लेकिन कभी तुमने सोचा, कि दान का अर्थ ही यह होता है कि उसके पीछे कोई मांग न हो।

जो स्वर्ग के लिये दान कर रहा है, वह दान तो कर ही नहीं रहा, सिर्फ सौदा कर रहा है। वहां दान नहीं है। दान का अर्थ तो देना है और मांगना नहीं। दान का अर्थ तो फल की आकांक्षा के बिना देना है। लेकिन यह पुरोहित तरकीब लगा रहा है। यह कह रहा है दान दो, स्वर्ग मिले! गंगा के तट पर लोग समझाते हैं नासमझ गांव के ग्रामीण लोगों को, कि यहां एक पैसा दो, वहां एक करोड़ मिलते हैं। एक करोड़ गुना मिलता है उस पार। यहां दो, उससे एक करोड़ गुना मिलता है।

लोभी का मन डावांडोल हो जाता है–एक करोड़ गुना! और वह है उस पार। वहां से लौटकर कोई कहता नहीं कि वहां मिलता है, या एक पैसा भी हाथ से चला जाता है। चूंकि वहां से कोई लौटकर नहीं कहता, इसलिये शोषण का बड़ा सुगम उपाय है।

जब भी किसी का शोषण करना हो तो उसे प्रलोभन देना जरूरी है। और जहां भी प्रलोभन हो, सावधान हो जाना।

धर्म भी प्रलोभन दे रहा है इसलिये वह धर्म नहीं हो सकता। मंदिर, चर्च, पुजारी, पुरोहित, पोप प्रलोभन दे रहे हैं।

एक दिन मैं एक रास्ते से गुजर रहा था। एक सुशिक्षित पढ़ी-लिखी महिला ने मुझे एक छोटी-सी पुस्तिका दी। देखा मैं, खयाल में भी नहीं आया कि यह ईसाइयत के प्रचार की पुस्तिका होगी क्योंकि सामने कोई ईसाइयत का सवाल नहीं था। न ईसू का कोई चित्र था, न क्रॉस था, न कोई चर्च था। सामने एक खूबसूरत बंगला था एक बगीचे में, और ऊपर लिखा था: ‘क्या आप भी ऐसा बंगला चाहते हैं?’ मैं थोड़ा हैरान हुआ कि यह क्या है? उसको उलटकर देखा तो उसमें पहले बंगले का वर्णन, बगीचे का, सुंदर आकाश का; और अंत में यह है कि इस तरह का बंगला स्वर्ग में उपलब्ध है लेकिन केवल उन्हीं को, जो जीसस के अनुयायी हैं!

सब तरह से प्रलोभन दिये जा रहे हैं। और जहां भी प्रलोभन है वहां समझ लेना कि धर्म नहीं हो सकता। इस बदमाश ने बड़ी कुशलता का काम किया। उसने यह भी न कहा कि मुझे खोलो। गड़रिये ने खुद ही उसे खोल दिया होगा और खुद वृक्ष के पास खड़ा हो गया होगा कि मुझे बांध दो। जब तुम प्रलोभन से भरते हो तो तुम अंधे हो जाते हो। तब तुम्हें होश नहीं होता, तुम क्या कर रहे हो।

सांझ को गांव के लोग इकट्ठे हुए जो बांध गये थे बदमाश को, कि सांझ को पोटली में बंद करके सागर में फेंक देंगे। सांझ के अंधेरे में उन्होंने पोटली बांधी। बेचारे गड़रिये को तो कुछ समझ में भी नहीं आया, क्या हो रहा है! वह समुद्र में फेंक दिया गया।

सुबह भोर होते बदमाश गड़रिये की भेड़ों को लेकर गांव में प्रविष्ट हुआ, गीत गाता। गांव के लोग चकित हुए। उन्होंने कहा कि क्या हुआ? तुम कैसे वापिस?

उसने कहा कि वापिस का क्या पूछते हो? तुम्हारी बड़ी कृपा कि तुमने मुझे समुद्र में फेंक दिया। वहां बड़े प्रेमी और दयालु लोग हैं। उन्होंने खूब स्वागत-सत्कार किया। ये भेड़ें मुझे दे दीं और कहा कि जाओ, और आनंद करो।

जो तरकीब उस बदमाश ने उस गड़रिये के साथ की थी, अब वह उस तरकीब का पूरा उपयोग पूरे गांव के ऊपर किया। फिर देर न लगी होगी। लोग अपने आप ही जाकर समुद्र में कूद गये।

लोभ, मृत्यु बन जाता है।

और हम सबके लिये भी लोभ ही मृत्यु बन रहा है। हम सब भी लोभ के कारण ही समुद्रों में कूद रहे हैं और मर रहे हैं और मिट रहे हैं। और हमारी पूरी शिक्षण की व्यवस्था सिर्फ लोभ सिखाती है और कुछ भी नहीं। महत्वाकांक्षा सिखाती है। ज्यादा से ज्यादा कैसे तुम पा सको, इसकी कला सिखाती है।

बिना इसकी चिंता किये कि लोभ मृत्यु में ले जा सकता है, गांव के लोग समुद्र में कूद गये और मर गये। यह बदमाश पूरे गांव का मालिक हो गया। कहानी यहां पूरी हो जाती है क्योंकि इसके आगे कहानी को ले जाना खतरनाक है। लेकिन असली हिस्सा कहानी का छोड़ दिया गया है, ताकि आप कहानी को पढ़ें और असली हिस्से को खुद खोजें।

सभी महत्वपूर्ण कहानियां आधी छोड़ दी जाती हैं क्योंकि अगर बात पूरी कह दी जाये तो आपको खोजने को कुछ भी नहीं बचता। दूसरा हिस्सा महत्वपूर्ण है कि जब कोई भी न बचे और आप गांव के मालिक हो जायें, उस मालकियत का क्या मूल्य है? जब सभी मर गये हों तो उस मरघट के आप मालिक हो जायें, इसका क्या मूल्य है?

वह हिस्सा छोड़ दिया है। सूफी फकीरों ने ठीक ही किया है। उस हिस्से को छुआ नहीं। उसको कहने की जरूरत ही नहीं। कहानी पढ़कर उसे समझने की जरूरत है। जो महत्वपूर्ण है, उसे कहा नहीं जाता। और अगर आप में थोड़ी भी बुद्धि है तो वह दिखाई पड़ जायेगा। और अगर बुद्धि न हो तो वह कहने से भी सुनाई नहीं पड़ेगा। ये कहानियां आपके भीतर विचार को पैदा करने के लिये हैं। ये कहानियां आपके भीतर एक संवेदना जगाने के लिए हैं। एक सत्य की प्रतिध्वनि उठाने के लिये हैं।

क्या अर्थ है, अगर सारा गांव मर जाये और तुम मालिक हो जाओ इसका? क्या मूल्य है? वह आदमी बदमाश तो था, होशियार भी था, लेकिन बहुत बुद्धिमान नहीं था।

अर्जुन ने कृष्ण से यही बात गीता में पूछी है कि ये सारे लोग मर जायेंगे, फिर मैं मालिक भी हो जाऊंगा तो उसका मूल्य क्या है? ये मेरे प्रियजन हैं, सगे-संबंधी हैं, मित्र हैं, इनके साथ मैं बड़ा हुआ, इनके साथ खेला, और अगर मेरे जीवन में कोई सफलता की खुशी भी है तो इनकी मौजूदगी में ही हो सकती है। ये सब मर जायेंगे, इनकी लाशें पड़ी होंगी कुरुक्षेत्र में और मैं विजेता हो जाऊंगा। उस विजय का क्या मूल्य है? वह विजय किसके लिये है? कौन उसको देखकर प्रसन्न होगा? कौन मेरी पीठ ठोकेगा और कहेगा कि ठीक, तुम सफल हुए।

इसमें कई बातें समझ लेने जैसी जरूरी हैं। अकेले में हमारे सम्राट होने का कोई भी अर्थ नहीं है। अकेले में तुम सम्राट हो ही नहीं सकते। अकेले में सिर्फ संन्यासी हो सकते हो। सम्राट को समाज चाहिये। संन्यासी समाज को छोड़ सकता है। इसलिए सम्राट होना दूसरों पर निर्भर है, संन्यासी होना आत्मनिर्भरता है। इसलिये संन्यासियों ने कहा है कि सम्राट गुलामों के भी गुलाम हैं। बात ठीक है, क्योंकि बिना गुलामों के वह सम्राट नहीं हो सकता।

मैंने सुना है कि जुन्नैद एक गांव से गुजर रहा था–एक सूफी। उसके शिष्य उसके साथ थे। वह बीच रास्ते पर खड़ा हो गया। एक आदमी एक गाय को बांधकर गुजर रहा था, जुन्नैद ने अपने शिष्यों से कहा कि बेटो! एक सवाल। यह आदमी इस गाय को बांधे हुए है कि यह गाय इस आदमी को बांधे हुए है? जुन्नैद के शिष्यों ने कहा, आप भी क्या फिजूल की बात पूछते हैं! यह तो साफ है कि आदमी गाय को बांधे हुए है, गाय आदमी को नहीं बांधे हुए।

तो जुन्नैद ने कहा, दूसरा सवाल। अगर यह गाय छूटकर भाग जाये तो यह आदमी उसके पीछे भागेगा, या यह आदमी गाय को छोड़कर भाग जाये तो गाय इसके पीछे भागेगी?

तब जरा शिष्य चौंके। उन्होंने कहा, तब जरा कठिन बात है। अगर यह बीच की रस्सी टूट जाये तो यह आदमी गाय के पीछे भागेगा। यह गाय आदमी के पीछे भागने वाली नहीं। तो जुन्नैद ने कहा, तुम फिर से सोचो, गुलाम कौन किसका है? गुलाम मालिक के पीछे भागेगा। गाय धेला भर भी फिक्र नहीं करेगी कि वह आदमी कहां गया? लेकिन गाय अगर भागे तो वह आदमी पीछा करेगा। गाय उस आदमी के बिना जी सकती है, वह आदमी बिना गाय के नहीं जी सकता। बंधा कौन किससे है? ऊपर से ऐसे ही दिखाई पड़ता है, आदमी गाय को बांधे खींच रहा है। जो लोग भीतर देखेंगे, उन्हें दिखाई पड़ेगा, गाय आदमी को बांधे खींच रही है।

ऊपर से देखने पर सम्राट मालिक; और गुलाम, गुलाम। भीतर से देखने पर सम्राट गुलामों के भी गुलाम। नेताओं को देखें! लगते हैं वे आगे चल रहे हैं। आप गलती में हैं। उनको अनुयायियों के सदा पीछे चलना पड़ता है। बस, वे दिखते हैं आगे चलते। नेता सदा पीछे लौट-लौटकर देखता रहता है, अनुयायी किस तरफ जा रहे हैं! जिस तरफ अनुयायी जा रहे हैं, उसको जल्दी से उसी तरफ मुड़ जाना चाहिये। रहना चाहिये आगे, लेकिन अनुयायियों का रुख देखते रहना चाहिये।

इसलिये कुशल नेता वही है, जो अनुयायी का रुख पहचानता है। अकुशल मुश्किल में पड़ जाता है। अगर नेता को यह भ्रम आ गया कि लोग मेरे पीछे चल रहे हैं, जल्दी ही वह नेता नहीं रह जायेगा। अगर अपनी मौज से उसने चलना शुरू कर दिया और रास्ते चुनने लगा तो भीड़ कहीं और चली जायेगी। नेता होने का सूत्र यही है कि भीड़ के हृदय में जो बात बन रही हो, उसको पहले ताक लेना। भीड़ जिस तरफ जाना चाहती हो, उस तरफ भीड़ के पहले मुड़ जाना। अभी भीड़ को भी पता न हो कि हम कहां जाना चाहते हैं। नेता उसी तरफ जायेगा, जहां भीड़ का अचेतन उसे ले जाना चाहता है।

नेता की कला भीड़ के अचेतन को पहचानने में है।

मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में बड़ी प्रसिद्ध कथा है। वह अपने गधे पर बैठा हुआ गुजर रहा है। बाजार में बहुत लोग खड़े हैं। गधा तेजी से भागा जा रहा है। लोगों ने पूछा कि नसरुद्दीन कहां जा रहे हो इतनी तेजी से?

उसने कहा, मुझसे मत पूछो, इस गधे से पूछो। क्योंकि इसका मालिक रहना हो तो इसका अनुयायी रहना पड़ता है। अगर जरा ही मैंने इसको मोड़ने-माड़ने की कोशिश की कि यह अकड़कर खड़ा हो जाता है! उसी वक्त पता चल जाता है बीच बाजार में, कि मालिक हम नहीं हैं। और बेइज्जती होती है, फजीहत होती है। तो मैं समझ गया हूं कि बाजार से जब भी निकलो, जहां यह जाये, बस बैठे रहो। बाजार के बाहर मैं कोशिश भी करता हूं, लेकिन बाजार में कभी कोशिश नहीं करता; क्योंकि वहां यह फजीहत करवा देता है, अकड़कर खड़ा हो जाता है, बैठ जाता है, लोटने लगता है। वहां पक्का पता चल जाता है कि कौन ताकतवर है। बहुत अनुभव से मैंने यह सीख लिया है कि जिस तरफ यह जाये वहीं अपनी मंजिल है। उसमें हम कम से कम मालिक मालूम होते हैं।

नेता अनुयायी का मालिक मालूम पड़ता है एक कुशलता के कारण–वह कहां जा रहा है! भीड़ का अचेतन कहे कि ‘समाजवाद’! इसके पहले कि भीड़ के मुंह से आवाज निकले, नेता को कहना चाहिये, ‘समाजवाद।’ भीड़ का अचेतन जो कहे, नेता को भीड़ के अचेतन की आवाज होना चाहिये। तत्क्षण नारा दे दे। अगर वह नारा मेल न खाया अचेतन से, नेता जल्दी ही भीड़ में खो जायेगा। नेता नहीं रह सकेगा। नेता अनुयायी का अनुयायी है।

अकेले में तुम नेता नहीं हो सकते। अकेले में तुम सम्राट नहीं हो सकते। अकेले में तुम धनी नहीं हो सकते। और जो तुम अकेले में नहीं हो सकते, उसमें होने में कुछ भी सार नहीं। इस अनुभव का नाम संन्यास है। जो तुम अकेले में हो सकते हो, वही तुम्हारा है। जो तुम अकेले में नहीं हो सकते, वह दूसरों का है। तुम्हें सिर्फ खयाल है कि तुम्हारा है।

तुम जंगल में अकेले बैठे हो, कोहिनूर का ढेर लगा हुआ है, तुम उसके ऊपर बैठे हो। कोहिनूर की कितनी कीमत है जंगल में, जहां तुम अकेले हो? पत्थर से ज्यादा नहीं। कोई भी पत्थर पर बैठे रहो, या कोहिनूर पर बैठे रहो, कोई फर्क नहीं पड़ता। कोहिनूर का मूल्य समाज में है। नोटों की गड्डियों का ढेर लगा है, तुम उसी पर सोये हो शैया बनाकर–क्या अर्थ है अकेले में? क्योंकि नोट का मूल्य समाज की मान्यता में है।

महावीर जंगल चले जाते हैं। बुद्ध, मोहम्मद, जीसस जंगल चले जाते हैं इसलिये–इस बात की खोज करने, कि जंगल में जाकर जो चीजें व्यर्थ हो जाती हैं वे व्यर्थ थी हीं; भीड़ की वजह से पता नहीं चलता था। जंगल में भी जो चीज सार्थक रहती है, वही बचाने योग्य है। फिर भीड़ में भी वापिस लौट आते हैं, लेकिन अब उसी को बचाते हैं, जो जंगल में भी सार्थक थी। वही तुम्हारी आत्मा है।

यह बदमाश बुद्धिमान तो था लेकिन आधा ही बुद्धिमान था। अगर यह पूरा बुद्धिमान होता तो इस तरह की नासमझी न करता। यह तो आत्मघात हो गया। जब सारा गांव ही कूदकर मर गया सागर में तो अब तुम सम्राट कैसे? सारे मकान तुम्हारे हैं, लेकिन करोगे क्या?

बड़ी मुसीबत में पड़ा होगा। इस बदमाश का थोड़ा सोचें। अगर इसकी कहानी हम आगे बढ़ाएं–बड़ी मुसीबत में पड़ा होगा। इतने सब मकानों की साफ-सफाई रखो। और कोई सार नहीं, और कोई देखने वाला नहीं। इस धन की सुरक्षा रखो और इसका कोई प्रयोजन नहीं; क्योंकि न इससे कुछ खरीद सकते, न कुछ बेच सकते। वे हट गये लोग, जिनके बीच इसका मूल्य था। क्या किया होगा इस बदमाश ने? जहां तक मैं सोच पाता हूं, यह भी कूदकर समुद्र में मर गया होगा और कोई उपाय नहीं इसके लिये बचता। लेकिन अब पूरा गांव ही मर गया तो अब यह क्या करेगा? इसलिये बदमाशी अंततः आत्मघात बन जाती है।

तुम सोचते हो, तुम दूसरे को नुकसान पहुंचा रहे हो। अंततः वह तुम्हें ही नुकसान पहुंचता है। तुम सोचते हो, तुम दूसरे के लिये जहर घोल रहे हो; अंततः वह जहर तुम्हारे ही जीवन में फैल जाता है। क्योंकि यहां कोई दूसरा है नहीं, तुम्हारा ही विस्तार है। तुम जो दूसरों के साथ करते हो, वही तुम अपने साथ कर रहे हो। फासला दिखता है। तुम अलग हो, मैं अलग हूं। लेकिन तुम्हारे गाल पर मैं चांटा मारूं, वह जिनको दिखाई पड़ता है, उनको दिखाई पड़ता है कि वह अपने हाथ से अपने ही गाल पर चांटा मार लिया, क्योंकि तुम मेरे ही फैलाव हो। अगर तुम सब मर जाओगे, तो मैं जी नहीं सकता। अगर तुम सब खो जाओगे तो मैं खो जाऊंगा; क्योंकि हम संयुक्त हैं।

इमेन्युएल कांट ने एक सूत्र बनाया है, जो बड़ा कीमती है। वह सूत्र यह है…नीति का आधार, कांट ने कहा है इस सूत्र को। कांट कहता है कि जो नियम मानने से सार्वभौम न हो सके, यूनिवर्सल न हो सके, वह नियम नैतिक नहीं है। वही नियम नैतिक है, जो सार्वभौम हो सके। इसका अर्थ? इसका अर्थ है कि अगर मैं तुमसे झूठ बोलूं तो क्या मैं कह सकता हूं कि मैं चाहता हूं, सभी लोग एक दूसरे से झूठ बोलें? झूठ बोलने वाला भी यह चाहता है कि तुम उससे झूठ न बोलो। वह भी झूठ में मानता नहीं। झूठ बोलने वाला भी झूठ पकड़ ले तो नाराज होता है कि तुम क्यों झूठ बोले? वह भी मानता है कि सत्य बोलना नीति है। झूठ बोलना अनीति है।

चोर भी आपस में एक दूसरे की चोरी नहीं करते। चोरी को वह नियम नहीं मानते। और अगर सारे लोग झूठ बोलते हों तो झूठ बोलना मुश्किल है। अगर सारे लोग झूठ में भरोसा करते हों तो बोलना ही मुश्किल है। क्योंकि कोई भी कुछ बोले, दूसरा जानता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। तुम कुछ भी बोलो, दूसरा जानता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। झूठ चलता है क्योंकि कुछ लोग सच बोलते हैं। झूठ के पैर सच में हैं। झूठ जी नहीं सकता बिना सच के। उसका सहारा सच में है।

इसका अर्थ यह हुआ कि अगर सारे लोगों की हत्या करने को हम नियम मान लें तो यह नैतिक नहीं हो सकता। यह नियम सार्वभौम नहीं हो सकता। इसलिये कांट ने एक बहुत अदभुत बात कही, जो हिंदुओं को बिलकुल समझ में नहीं आती, लेकिन बात उसकी सही है।

कांट कहता है, ब्रह्मचर्य नैतिक नियम नहीं हो सकता, क्योंकि अगर सभी लोग ब्रह्मचारी हो जायें तो ब्रह्मचर्य पालने वाला भी नहीं बचेगा। ब्रह्मचारी होने के लिये भी किसी का अब्रह्मचारी होना जरूरी है। तुम्हारे माता-पिता का कम से कम अब्रह्मचारी होना जरूरी था इसलिये तुम पैदा हुए हो।

तो ब्रह्मचर्य नैतिक नियम नहीं हो सकता–कांट कहता है। उसकी बात बड़ी सच है और बड़ी गहरी है। वह कहता है कि जैसे चोरी नियम नहीं हो सकता, झूठ नियम नहीं हो सकता, वैसे ही ब्रह्मचर्य नियम नहीं हो सकता, क्योंकि चोरी के लिये कुछ लोगों का अचोर होना जरूरी है। झूठ के लिये कुछ लोगों का सच बोलना जरूरी है। ब्रह्मचर्य के लिये कुछ लोगों का अब्रह्मचारी होना जरूरी है। जिस ब्रह्मचर्य के होने के लिये कुछ लोगों का अब्रह्मचारी होना जरूरी हो, जिसके आधार में अब्रह्मचर्य हो, वह कैसे नियम हो सकता है? वह नियम नहीं हो सकता। वह सार्वभौम, यूनिवर्सल नहीं हो सकता। और जो सत्य सबको स्वीकृत न हो सके, और सब के स्वीकार से भी जिसमें जीवन का पौधा बढ़ता रहे, वह सत्य सत्य ही नहीं है।

इस बदमाश ने सोचा तो होगा कि मैंने बड़ा गजब का काम कर लिया; सारा गांव डूब गया। लेकिन देर न लगी होगी इसे समझने में कि यह आत्महत्या हो गई।

क्यों? अगर यह बदमाश साधु होता तो अकेला भी जी सकता था। यह बदमाश साधु नहीं था। इसके जीने के लिये उन सबका होना जरूरी था। इसलिये बदमाश अगर उसकी बदमाशी सफल हो जाये, तो भी पायेगा कि असफल हुआ। अगर उसकी बदमाशी असफल हो तो भी पायेगा कि असफल हुआ। बदमाश कभी सफल होता ही नहीं। वह सदा असफल होता है।

समझो; अगर यह गांव के लोग तरकीब समझ जाते और उसकी पिटाई करते और कहते तू झूठ बोल रहा है तो वह असफल हुआ। गांव के लोगों ने उसको मान लिया और नदी में कूदकर, समुद्र में कूदकर मर गये तो भी वह असफल हुआ।

इससे मैं एक बहुत गहरी बात आपसे कहना चाहता हूं: साधु सदा सफल होता है–चाहे असफल हो, चाहे सफल हो। बदमाश सदा असफल होता है–चाहे सफल हो, चाहे असफल हो। साधु की कोई असफलता नहीं है; हो नहीं सकती। असाधु की कोई सफलता नहीं है; हो नहीं सकती।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कैसा संसार है! यहां असाधु सफल हो रहा है, साधु असफल हो रहे हैं। लोग मुझसे आकर कहते हैं, ‘मैं ईमानदार हूं और भूखों मर रहा हूं और बेईमान महलों में रह रहे हैं।’

मैं उनसे कहता हूं, ‘यह हो नहीं सकता। भला बेईमान महलों में रह रहे हों, लेकिन महलों में रह नहीं सकते। महलों में घिरे होंगे, लेकिन रह नहीं सकते। क्योंकि महलों में रहनेवाले लोगों को मैं जानता हूं। ना वे सो सकते हैं, ना वे ठीक से खाना खा सकते हैं, ना वे प्रेम कर सकते हैं। महल उनके लिये कारागृह हैं–अपने ही बनाये हुए। किसी और ने उन्हें कारागृह में नहीं डाला है, अपने ही कारण कारागृह में पड़े हैं।

जैसे वह सुबह गड़रिया अपने ही हाथों वृक्ष के पास खड़े होकर बंध गया था। उस गड़रिये को जब वह दिन भर बंधा रहा होगा, क्या ऐसा लगा होगा कि किसी ने मुझे बांधा है? नहीं, वह स्वेच्छा से बंधा था। क्या दिन में उसने ऐसा अनुभव किया होगा कि मैं कारागृह में पड़ा हूं? नहीं, वह तो बड़े आनंद में रहा होगा क्योंकि सांझ धन की वर्षा हो जाने वाली है। जब वासना कहती है कि आनेवाले भविष्य में काफी सुख मिलने वाला है तो तुम कारागृह में भी रहने को राजी हो। तुम अपना कारागृह खुद ही बना लेते हो।

दुनिया में दो तरह के कारागृह हैं। एक, जिन्हें दूसरे तुम्हारे लिये बनाते हैं; और एक, जो तुम खुद अपने लिये बनाते हो। वह धनपति, जो रह रहा है महलों में, न सो सकता है, न खा सकता है, न किसी को प्रेम कर सकता है। वह बिलकुल बंद है, सड़ गया है, मर गया है। वह एक लाश है, जो किसी तरह जी रही है। जैसे-जैसे धन बढ़ता है, वैसे-वैसे नींद खो जाती है। जैसे-जैसे धन बढ़ता है, वैसे-वैसे भूख खो जाती है।

यह बड़े मजे की बात है। जब भूख होती है तो लोगों के पास भोजन नहीं होता और जब भोजन होता है तब भूख नहीं होती। और जब सोने को बिस्तर नहीं होता तो बड़ी गहरी नींद आती है। और जब तक बिस्तर का इंतजाम कर पाते हैं, तब तक नींद खो जाती है। और भूख न हो तो भोजन व्यर्थ है। और नींद न हो तो बढ़िया से बढ़िया शैया भी किस काम की है? गरीब आत्महत्या नहीं करते, अमीर आत्महत्या करते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं, इससे तो हमारा भारत ही अच्छा। अमेरिका में इतनी आत्महत्यायें हो रही हैं। मैं उनसे कहता हूं कि इसका कुल मतलब इतना है कि तुम अभी गरीब हो; अभी आत्महत्या के करीब नहीं पहुंचे। अमेरिका अमीर है, आत्महत्या बढ़ रही है। जिस दिन पूरा मुल्क अमीर हो जायेगा, अपने आप लोग समुद्र में कूदकर मर जायेंगे। सभी नहीं मर रहे हैं, इसका मतलब अभी भी काफी गरीब वहां हैं।

गरीब को आशा रहती है, कल कुछ होगा और जीवन में सुख आयेगा। अमीर की आशा टूट जाती है, सब उसके पास है और सुख आया नहीं; अब वह क्या करे? लोगों को लगता है, महलों में रहनेवाले लोग सुखी हैं क्योंकि वे महलों में नहीं हैं, वे झोपड़ों में हैं। जिस दिन महल में पहुंचेंगे उस दिन पता चलेगा, कि सुख की सारी क्षमता ही खो गई। अगर किसी को लगता है, कि मैं नैतिक हूं और दुखी हूं तो इससे एक ही बात सिद्ध होती है कि वह नैतिक नहीं है। क्योंकि नैतिक तो कभी दुखी हो नहीं सकता।

अगर किसी को लगता है, मैं धार्मिक हूं और असफल हूं तो एक बात तय है: कि वह धार्मिक नहीं है क्योंकि धार्मिक कभी असफल नहीं हो सकता। मिले तो जीतता है, हारे तो जीतता है। धार्मिक की जीत बड़ी अदभुत है। उसे हराने का उपाय ही नहीं है। असफलता हो ही नहीं सकती। क्योंकि धार्मिक का अर्थ है, जो भी हो, उसमें वह संतुष्ट है; इसलिये उसे तुम कैसे असफल करोगे?

लाओत्से बार-बार कहता है कि तुम मुझे हरा न सकोगे क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता। तुम मुझे हराओगे कैसे? जो जीतना चाहता है, वह हराया जा सकता है। लाओत्से कहता है, तुम मुझे पराजित न कर सकोगे क्योंकि विजय की मेरी कोई आकांक्षा नहीं। लाओत्से कहता है, जब मैं सभा में जाता हूं तो मैं सब से अंत में बैठता हूं, जहां लोग जूते उतारते हैं क्योंकि वहां से और नीचे उतारे जाने का कोई उपाय नहीं। तुम मुझे वहां से न भगा सकोगे। और तुम भगा भी दो तो मेरा क्या खोयेगा? क्योंकि मैं कोई राज सिंहासन पर नहीं बैठा था। मैं वहां बैठा था, जहां जूते रखे थे। लाओत्से कहता है, मैं अंतिम खड़ा होता हूं ताकि तुम मुझे धक्का न दे सको।

धार्मिक आदमी असंतुष्ट नहीं हो सकता क्योंकि धर्म का सार-सूत्र यही है कि जो भी हो, वह संतुष्ट है। तुम उसे हरा नहीं सकते। हरा भी दो तो वह विजय का उत्सव मनाता हुआ चलेगा। धार्मिक आदमी का प्रतिपल विजय का पल है क्योंकि जीतने की आकांक्षा उसने छोड़ दी। यह विरोधाभासी दिखने वाली बातें, गहरे में सोचने और समझ लेने जैसी हैं।

बुरा आदमी सदा हारता है। सफल हो जाये तो हारता है, असफल हो जाये तो हारता है।

यह बदमाश असफल होता तो हारता। यह बदमाश पूरी तरह सफल हो गया तो भी हार गया। सांझ, रात इसने भी समुद्र में कूदकर आत्महत्या कर ली होगी। जब लोग न हों तो बदमाशी किसके साथ करियेगा? इसकी सारी कुशलता बेकार हो गई।

साधुता अकेले हो सकती है। क्योंकि साधुता ऐसा दीया है, जो बिन बाती बिन तेल जलता है। असाधुता अकेले नहीं हो सकती। उसके लिये दूसरों का तेल और बाती और सहारा सब कुछ चाहिये। असाधुता एक सामाजिक संबंध है। साधुता असंगता का नाम है। वह कोई संबंध नहीं है, वह कोई रिलेशनशिप नहीं है। वह तुम्हारे अकेले होने का मजा है।

इसलिये साधु एकांत खोजता है, असाधु भीड़ खोजता है। असाधु एकांत में भी चला जाये तो कल्पना से भीड़ में होता है। साधु भीड़ में भी खड़ा रहे तो भी अकेला होता है। क्योंकि एक सत्य उसे दिखाई पड़ गया है कि जो भी मेरे पास मेरे अकेलेपन में है, वही मेरी संपदा है। जो दूसरे की मौजूदगी से मुझमें होता है, वही असत्य है; वही माया है। वह वास्तविक नहीं है; उसे मैं ले जा नहीं सकता।

तुम मेरे पास आते हो और मुझे प्रेम जगता है, यह प्रेम झूठा है। क्योंकि तुम चले जाते हो, यह प्रेम चला जाता है। यह प्रेम तुम लाये थे, तुम्हीं ले गये। यह प्रेम ऐसा था, जैसे मेरे दर्पण में तुम्हारा चेहरा दिखाई पड़ा। तुम हट गये, चेहरा खो गया। यह प्रेम मेरा नहीं है। अगर यह मेरा होता तो तुम आते या न आते इससे कोई भेद न पड़ता। तुम न आते तो भी यह प्रेम जलता रहता। जैसे एकांत में दीया जलता हो, उसकी रोशनी जलती है।

कोई निकले या न निकले, अकेले रास्ते पर फूल खिलता है, उसकी सुगंध फैलती रहती है। लेकिन तुम पास आये और फूल में सुगंध आ गई; और तुम गये और फूल की सुगंध खो गई, तो यह सुगंध झूठी है। तुमने इत्र लगाया होगा। फूल धोखे में पड़ा है।

तुम मेरे पास आओ और मेरा प्रेम जगे तो वह प्रेम तुम लेकर आये और तुम ही उसे ले जाओगे। इसलिये हम प्रेमियों के निर्भर हो जाते हैं। तुम्हारी प्रेयसी नहीं होती, तुम्हारे जीवन का रस खो जाता है। वह रस तुम्हारा है ही नहीं। और बड़े मजे की बात यह है कि तुम्हारी प्रेयसी का भी तुम खो जाओ तो रस खो जाता है; उसके भीतर भी रस नहीं है। और जब दोनों के भीतर रस नहीं है तो तुम दोनों पास आकर रस पैदा कैसे करते हो?

मैं निरंतर कहता हूं, यह ऐसे है, जैसे दो भिखारी एक-दूसरे के सामने अपना भिक्षापात्र किये खड़े हों–इस आशा में कि दूसरा कुछ देगा। आशा ही है। क्योंकि दूसरा भी भिक्षापात्र लिये खड़ा है। वह भी देनेवाला नहीं है, वह भी मांगने ही आया है। दोनों धोखे में हो। और जब भी धोखा टूटता है तब तुम एक-दूसरे से नाराज होते हो कि क्यों मेरा इतना समय खराब किया? पहले क्यों न बता दिया कि तुम भी भिक्षापात्र लिये हो?

प्रेमी अकसर दुख में पड़ते हैं। जिस दिन भी भिक्षापात्र दिखाई पड़ते हैं उस दिन प्रेमी सोचता है, प्रेयसी ने धोखा दिया; प्रेयसी सोचती है, प्रेमी ने धोखा दिया। तब वे दूसरे प्रेमी और प्रेयसियों की तलाश में निकल जाते हैं। लेकिन बुनियादी बात फिर भी वही रहेगी। नया भिखारी थोड़ी देर धोखा देगा, क्योंकि भिक्षापात्र छिपायेगा, लेकिन कब तक छिपायेगा? वह भी तुम्हारे पास इसीलिये आया है, तुम भी उसके पास इसीलिये गये हो। तुम भी भिक्षापात्र छिपाओगे। जब आश्वस्त हो जाओगे कि अब यह भागनेवाला नहीं, तब भिक्षापात्र निकालोगे; लेकिन तभी विषाद घेर लेगा।

तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी खुशी, सब दूसरे पर निर्भर है। घर कोई मित्र मिलने नहीं आता तुम उदास हो जाते हो। मित्र आ जाते हैं, तुम बड़े उत्सव में हो जाते हो। यह उत्सव झूठा है, ऊपर-ऊपर है, रंगरोगन किया हुआ है। यह तुम्हारे हृदय का नृत्य नहीं है। यह तुम्हारी धड़कनों से नहीं आता। यह तुम्हारे प्राणों का स्वर-संगीत नहीं है।

साधु का अर्थ है, इस सत्य को खोज लेना–जितने जल्दी हो सके। तब फिर समाज पर तुम निर्भर नहीं हो। समाज में रहो या छोड़ दो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तब तुम उसी संपदा की खोज करते हो, जो तुम्हारी है। जो किसी के भी हटने से छिनेगी नहीं। सब चले जायेंगे, सब सागर में कूद जायेंगे, तो भी तुम्हारी बांसुरी बजती रहेगी।

वह बदमाश बांसुरी बजा नहीं सकता क्योंकि बदमाश दूसरे पर निर्भर है। जितना ज्यादा बदमाश, उतना दूसरे पर ज्यादा निर्भर। उस असाधु को आत्महत्या करनी होगी। काश, वह साधु होता तो एकांत महोत्सव हो जाता! यह कहानी सीधी साफ है।

तीन सूत्र खयाल रख लें।

एक, अगर दूसरे को धोखा देने निकले–असफल हुए तो भी असफल होओगे; अगर पूरे सफल हुए तो भी असफल होओगे।

दूसरा, बुद्धिमानी का उपयोग दूसरे को गङ्ढे में गिराने के लिये मत करना। दूसरे के लिये गङ्ढा मत खोदना। क्योंकि आखिर में पाओगे कि अपनी ही कब्र खुद गई।

और तीसरी बात, संपदा जो दूसरे के विनाश से मिलती हो, दूसरे की मृत्यु से आती हो, या दूसरे के जीवन से आती हो, दूसरे पर निर्भर हो, उसे संपदा मत मानना। अन्यथा जिस दिन तुम सफल होओगे, उस दिन आत्महत्या के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा। उसको खोजना जो तुम्हारा है और सदा तुम्हारा है; स्वतंत्र है; किसी पर निर्भर नहीं है, ताकि तुम मालिक हो सको।

तुम उसी दिन आत्मवान बनोगे, जिस दिन तुम्हारा दीया बिन बाती बिन तेल जलेगा। न तुम तेल मांगने जाओगे, न तुम बाती मांगने जाओगे। सब खो जाये–थोड़ा सोचना–सब खो जाये, तो भी तुम्हारे होने में रत्ती भर फर्क न पड़े–बस, तुम जिन हो गये। तुम बुद्ध हो गये। वह जो बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हैं, उनको हमने परमात्मा कहा है, भगवान कहा है, सिर्फ इसीलिये कि उस क्षण में उन्होंने उसको पहचान लिया, जो अब सबके खो जाने से, सब नष्ट हो जाने से भी नष्ट नहीं होगा। उन्होंने समाज-मुक्त को पहचान लिया। उन्होंने दूसरे से स्वतंत्र को पहचान लिया–वह, जो दूसरे की सीमा के बाहर है, जो दूसरे से मिलता नहीं। उन्होंने ‘बिन बाती बिन तेल’ जलने वाले दीये की पहली झलक पा ली।

वह दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है, लेकिन जब तक तुम्हारी आंखें दूसरों पर लगी रहेंगी, तब तक तुम उस दीये से परिचित नहीं हो सकते। तुम्हारी आंख भीतर मुड़नी चाहिये, दूसरों से मुक्त होनी चाहिये। दूसरों से मुक्त होना संन्यास है–दूसरों को छोड़ना नहीं, दूसरों से मुक्त होना। छोड़ने वाला शायद मुक्त नहीं होता क्योंकि वह भाग जाये जंगल, तो भी दूसरे की ही सोचता रहता है। जिसको छोड़ आया है उसकी याद आती है; अकसर ज्यादा आती है।

पत्नी को मायके भेज दो, उसकी याद ज्यादा आती है। फिर उसके दुर्गुण दिखाई नहीं पड़ते, सदगुण दिखाई पड़ने लगते हैं। इसलिये पत्नी को कभी-कभी मायके भेजना बिलकुल जरूरी है। अगर तलाक बचाना हो, तो साल में दोत्तीन महीने पत्नी को मायके भेज देना बिलकुल जरूरी है। वह भी ताजी होकर आ जायेगी, तुम्हारे गुण देखने लगेगी। तुम भी ताजे होकर उसके गुण देखने लगोगे। तीन महीने बाद फिर से ‘हनीमून’ हो सकता है। एक दो दिन चलेगा। फिर दुर्गुण दिखाई पड़ने शुरू हो जायेंगे।

जंगल तुम भाग जाओ तो और भी याद आयेगी। जंगल भागे संन्यासी मेरे पास आते हैं, तो वे कहते हैं, बड़ी मुश्किल है। सिवाय स्त्री के कुछ याद नहीं आता। स्त्री ही चक्कर काटती है। मस्तिष्क पूरा का पूरा कामुकता से भर जाता है–भरेगा; क्योंकि समाज छोड़कर भागने का सवाल नहीं है, समाज से मुक्त होने का सवाल है।

मुक्ति बड़ी और बात है। मुक्ति तो इस अनुभव से आयेगी कि तुम धीरे-धीरे उस संपदा की खोज करो अपने भीतर, जो तुम्हारी है; जो तुम लेकर पैदा हुए और जो तुम मरते वक्त साथ ले जाओगे; जो जन्म के पहले भी थी और मृत्यु के बाद भी होगी। जिसको तुमने किसी से लिया नहीं है, जो उधार नहीं है। जो तुम्हारा अपना होना है, तुम्हारी अपनी संपदा है, वही आत्मा है।

आज इतना ही।

 


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–34

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मन का मिटना और स्‍वभाव की पहचान—(प्रवचन—चौहदवां)

 प्रश्‍नसार:

1—पश्चिम में चल रहे मन और स्‍वप्‍नों के विश्‍लेषण—कार्य को

   आप ज्यादा महत्व क्यों नहीं देते?

 2—आपने कहा कि सब आरोपित प्रभावों से मुक्त हो जाना है।

   तो धार्मिक होने के लिए क्‍या सभ्‍यता और संस्‍कृति से भी मुक्‍त होना होगा?

3—आपके व्‍यक्‍तित्‍व और शब्‍दो से प्रभावित हुए बिना

   कोई खोजी आपका शिष्‍य कैसे हो सकता है?

 4—अहंकार के शिकार होने से बचकर कैसे अपने स्‍वभाव को पहचाने?

5—यदि शार्टकट की बात गलत है, तो फिर आप छलांग की बात क्‍यों करते है?

 

पहला प्रश्न:

 

परसों आपका एक उत्तर सुन कर मुझे ऐसा लगा कि पश्चिम में जागरण की एक विधि की तरह जो स्वप्नों का उपयोग किया जाता है उसको आप अधिक मूल्य नहीं देते। मैं विशेषकर ला की विधि की सोच रहा हूं उसके आत्म— साक्षात्कार के मनोविज्ञान के अंतर्गत।

 

हां ‘मैं ज्यादा मूल्य नहीं देता फ्रायड को, का को, एडलर या असागोली को। फ्रायड, जुग, एडलर और ऐसे दूसरे लोग, समय की रेत पर खेलते हुए बच्चे ही हैं। उन्होंने सुंदर कंकड़ —पत्थर इकट्ठे कर लिए हैं, सुंदर रंगीन पत्थर, लेकिन यदि तुम परम शिखर की ओर देखते हो, तो वे कंकड़ों और पत्थरों से खेलते हुए मात्र बच्चे हैं। वे पत्थर सच्चे हीरे नहीं होते हैं। और जो कुछ उन्होंने पाया है, वह बहुत ज्यादा अपरिष्कृत, आदिम है। इसे समझने को तुम्हें मेरे साथ बहुत धीरे — धीरे चलना होगा।

कोई आदमी शारीरिक रूप से बीमार हो सकता है, तब वैद्य की, डाक्टर की जरूरत होती है। व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार हो सकता है, तब फ्रायड और जुग और कईयों द्वारा थोड़ी मदद की जा सकती है। लेकिन जब व्यक्ति अस्तित्वगत रूप से बीमार होता है, तो न तो डाक्टैर और न ही मनोवैज्ञानिक कोई मदद दे सकता है। अस्तित्वगत रोग आध्यात्मिक होता है। वह न तो शरीर का होता है और न ही मन का होता है, वह समग्र का होता है— और समग्र सभी हिस्सों के पार का होता है। समग्र का कोई संघटन मात्र ही नहीं होता है; वह हिस्सों का संघटन नहीं है। वह हिस्सों के पार की कोई ब! त होती है। वह कुछ ऐसी बात है जो कि सारे हिस्सों को स्वयं में पकड़ रखती है। वह हर चीज के परे होती है।

और रोग अस्तित्वगत है। व्यक्ति आध्यात्मिक रोग से पीड़ित होता है। स्वप्न किसी काम के न होंगे। वस्तुत: स्वप्न कर क्या सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा वे तुम्हारे अचेतन को थोड़ा और समझने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं। स्वप्न अचेतन की भाषा हैं, प्रतीक हैं, लक्षण हैं, इशारे हैं और अचेतन के संकेत हैं; चेतन के प्रति अचेतन का संदेश हैं। स्वप्नों की व्याख्या करने में मनोविश्लेषक तुम्हारी मदद कर सकते हैं। वे माध्यम बन सकते हैं, वे तुम्हें बता सकते हैं कि तुम्हारे स्वप्नों का अर्थ क्या है। निस्संदेह, यदि तुम अपने स्वप्न का अर्थ समझ सको, तो तुम थोड़ा और निकट आ जाओगे तुम्हारे अचेतन के। यह बात तुम्हें मदद देगी तुम्हारे अचेतन के साथ और ज्यादा अनुकूलित होने में। तुम्हें थोड़ी मदद मिलेगी। तुम्हारे दोनों हिस्से, चेतन और अचेतन, बहुत ज्यादा दूर नहीं रहेंगे; वे थोड़े और निकट होंगे। तुम पहले की तरह उतने विखंडित न रहोगे। थोड़ा एकत्व, एक प्रकार का एकत्व तुममें बना रहेगा। तुम ज्यादा सामान्य हो जाओगे, लेकिन सामान्य होने में कुछ नहीं है। सामान्य होना तो बात करने जैसी बात भी नहीं है। सामान्य होने का तो मतलब हुआ कि तुम वैसे हो जैसे कि तुम्हें साधारणतया होना चाहिए; कुछ और नहीं घटा है, पार का कुछ तुममें उतरा ही नहीं है। समाज में भी तुम ज्यादा अनुकूलित व्यक्ति बन जाओगे। निस्संदेह, तुम थोड़े बेहतर पति बन जाओगे, थोड़ी बेहतर मां, थोड़े बेहतर मित्र, लेकिन केवल थोड़े से ही

लेकिन यह कोई आत्म—साक्षात्कार नहीं है। और जब हा बात करता है आत्म—साक्षात्कार की स्वप्न के विश्लेषण द्वारा, तो वह बहुत नासमझी भरी बात करता है। यह आत्म—साक्षात्कार नहीं है, क्योंकि आत्म —साक्षात्कार केवल तभी होता है जब मन नहीं बचता। व्याख्यायित स्वप्न, व्याख्यायित नहीं होते, वे मन से संबंधित होते हैं, वे मन का हिस्सा होते हैं। और पश्चिम का कोई मनोविज्ञान—सिवाय गुरजिएफ, इकहार्ट और जेकब बोहमे के—पश्चिम का कोई मनोविज्ञान मन के पार नहीं जाता। और ये थोड़े से लोग, जेकब बोहमे, इकहार्ट और गुरजिएफ, वस्तुत: पश्चिम से संबंधित ही नहीं हैं, वे संबंधित हैं पूरब से। उनका सारा दृष्टिकोण ही पूरब का है। वे पैदा हुए हैं पश्चिम में, लेकिन उनका दृष्टिकोण, उनके जीवन का ढंग, उनकी पूरी समझ पूरब की है। जब मैं कहता हूं ‘पूरब की’ तो सदा याद रखना कि भौगोलिक रूप से मैं अर्थ नहीं करता।

मेरे देखे, पूरब एक दृष्टि है। पश्चिम भी एक दृष्टि है। भूगोल से मेरा कोई संबंध नहीं। पश्चिम तो चीजों को देखने का एक ढंग है, पूरब भी एक ढंग है चीजों को देखने का। जब पूरब देखता है चीजों को तो वह देखता है समग्र की ओर, और जब पश्चिम देखता है चीजों को, वह सदा देखता है एक हिस्से की ओर। पश्चिमी दृष्टि विश्लेषणात्मक है—वह विश्लेषण करती है। पूर्वीय दृष्टि संश्लेषणात्मक है—वह संश्लेषण करती है, वह अनेक में एक को खोजने का प्रयास करती है। पश्चिमी दृष्टि एक में अनेक को खोजने का प्रयास करती है।

पश्चिमी दृष्टि विश्लेषण करने में, चीर—फाड़ करने में, चीजों को अलग— अलग करने में बहुत होशियार हो गई है। असागोली की साइकोसिन्थसिस जैसी कार्यविधि भी सच्चा संश्लेषण नहीं है, क्योंकि असली दृष्टि का ही अभाव है। पहले फ्रायड और का ने चीजों को अलग किया है, उन्होंने समग्र को तोड़ा है, और अब असागोली कोशिश कर रहा है किसी तरह उन हिस्सों को जोड्ने की।

तुम आदमी की चीर—फाड कई हिस्सों में कर सकते हो, जब वह जीवंत था; जब तुम उसकी चीर—फाड़ कर देते हो, तो फिर वह जीवंत नहीं रहता। अब तुम फिर से हिस्सों को वापस रख सकते हो, लेकिन— जीवन नहीं लौटेगा। वहां मृत लाश होगी। और हिस्सों को भी फिर से मिलाकर रख दिया जाए तो वह समग्र नहीं बन जाएगा। फ्रायड और कं ने जो किया, असागोली उसके लिए पछता ही रहा है। वह हिस्सों को फिर से मिला रहा है, लेकिन वह होती है लाश। उसमें कोई संश्लेषण नहीं होता।

तुम्हें देखना होता है समग्र को, और समग्र एक बिलकुल ही अलग चीज है। अब तो जीव —शास्त्री भी जान गए हैं, चिकित्सा—शास्त्र भी हर रोज अधिकाधिक बोध पा रहा है इस बात का कि जब तुम आदमी का रक्त लेते हो परखने को, तो वह वही रक्त नहीं रहता जो कि आदमी में. बह रहा था, क्योंकि अब वह मृत होता है। तुम किसी और ही चीज का परीक्षण कर रहे होते हो। जो रक्त घूम—फिर रहा होता है आदमी में वह जीवंत होता है। वह संबंध रखता है समग्र से, एक सुव्यवस्थित कम से, वह बहता है उसमें से। वह उतना ही जीवंत होता है जितना कि शरीर का हाथ। तुम काट दो हाथ को, तो फिर वही हाथ नहीं रहता। जब कि तुम उसे शरीर में से निकाल लेते हो तो रक्त वैसा ही कैसे रह सकता है? लैबर में ले जाओ उसे और परीक्षण करो उसका, फिर वह वही रक्त नहीं रहता।

जीवन समग्र इकाई की भाति अस्तित्व रखता है, और पश्चिमी दृष्टि है चीर—फाड़ करने की, हिस्सों में जाने की, हिस्से को समझने की और हिस्से के द्वारा समग्र को समझने, जोड्ने की कोशिश करने की। तुम सदा चूकोगे। यदि तुम असागोली की भांति जोड़—जाड़ भी कर सको, तो वह समाविष्ट करने का बोध लाश की भांति ही होगा. जो किसी तरह इकट्ठा तो किया हुआ होता है, लेकिन कोई जीवंत एकत्व उसमें नहीं होता।

फ्रायड और जुग स्वप्नों पर काम करते थे। पश्चिम में वह एक आविष्कार था, एक तरह से बहुत बड़ा आविष्कार, क्योंकि पश्चिमी मन बिलकुल भूल ही चुका था नींद के बारे में, स्वप्नों के बारे में। पश्चिम का आदमी कम से कम तीन हजार वर्ष जीया स्वप्नों और नींद के बारे में बिना कुछ विचार किए। पश्चिम का आदमी सोचता रहा जैसे कि केवल जागने का समय ही जीवन है, लेकिन जागने के घंटे तो केवल दो तिहाई भाग में ही होते हैं। यदि तुम साठ वर्ष तक जीते हो, तो तुम सोए रहोगे बीस वर्ष तक। एक तिहाई जीवन होगा स्वप्नों में और निद्रा में। यह एक बड़ी घटना है, यह तुम्हारे जीवन का एक तिहाई भाग ले लेती है। इसे यूं ही अलग नहीं निकाल दिया जाएगा, कोई चीज घट रही है वहां’। वह तुम्हारा हिस्सा है, और कोई छोटा हिस्सा नहीं बल्कि एक बड़ा हिस्सा। फ्रायड और का यह अवधारणा लौटा लाए कि आदमी को समझना होगा उसके स्वप्नों और उसकी निद्रा सहित, और बहुत कुछ कार्य किया गया है इसी विषय पर। लेकिन जब का सोचने लगता है कि यह कोई आत्म—साक्षात्कार जैसी चीज है, तो बहुत दूर की सोच बैठता है।

यह अच्छा है। मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के लिए यह बात सहायक हो सकती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य अस्तित्वगत स्वास्थ्य नहीं होता है।

शारीरिक रूप से तुम स्वस्थ हो सकते हो, तुम मनोवैशानिक रूप से स्वस्थ हो सकते हो, तो भी तुम शायद अस्तित्वगत रूप से बिलकुल स्वस्थ न होओ। बल्कि इसके विपरीत, जब तुम मनोवैज्ञानिक रूप से और शारीरिक रूप से स्वस्थ होते हो तो पहली बार तुम अस्तित्वगत जिज्ञासा के विषय में सचेत होते हो, भीतर की व्यथा का बोध होता है। इससे पहले तो तुम शरीर, मन और रोग के साथ ही इतने जुड़े हुए थे कि आंतरिक सत्ता की ओर देख ही न सकते थे। जब हर चीज ठीक बैठ जाती है, शरीर ठीक कार्य करता है, मन किसी अड़चन में नहीं रहता, अकस्मात तुम संसार की सबसे बड़ी जिज्ञासा के प्रति सजग हो जाते हो—जो अस्तित्वगत है, आध्यात्मिक है। अचानक. तुम पूछने लगते हो—इस सबका मतलब क्या है? मैं यहां क्यों हूं? किसलिए हूं? इस बात का खयाल किसी बीमार व्यक्ति को कभी नहीं आता, क्योंकि वह बीमारी से बहुत घिरा हुआ होता है। पहले तो उसे ध्यान रखना पड़ता है शरीर का, फिर वह कुछ और सोचेगा। फिर उसे ध्यान रखना पड़ता है मन का, फिर वह कुछ और सोचेगा। शरीर और मन यदि स्वस्थ हों, तो पहली बार वे तुम्हें वास्तविक तकलीफ में उतरने देंगे। और वह तकलीफ होगी आध्यात्मिक।

जब जुग आत्म—साक्षात्कार तक पहुंचने की विधि की तरह अपने विश्लेषणपरक मनोविज्ञान की बात करता है, तो उसे पता नहीं कि वह क्या कह रहा है। वह स्वयं आत्म—साक्षात्कार को उपलब्ध व्यक्ति नहीं है। का के जीवन में, फ्रायड के जीवन में गहरे उतरो, और तुम उन्हें साधारण मनुष्यों की भाति ही पाओगे। फ्रायड उनकी भांति ही क्रोध करता था, साधारण मनुष्यों से भी ज्यादा ही क्रोध करता था। वह उन्हीं की भाति घृणा करता था। वह ईर्ष्या करता था, इतनी ज्यादा कि जब उसे ईर्ष्या का दौरा पड़ता तो वह जमीन पर गिर पड़ता और बेहोश हो जाता। ऐसा बहुत बार हुआ फ्रायड के जीवन में। जब कभी ईर्ष्या उस पर चढ़ बैठती, वह इतना बेचैन हो जाता कि उसे गश आ जाता, मूर्च्छा आ जाती। यह आदमी और आत्म—साक्षात्कार को उपलब्ध? तो फिर बुद्ध का क्या होगा? तब तुम बुद्ध को कहा रखोगे?

फ्रायड जीया साधारण मानवीय आकांक्षा सहित; एक राजनैतिक मन। वह कोशिश कर रहा था मनोविश्लेषण को साम्यवाद की ही भांति एक आंदोलन बना देने की, और उसने कोशिश की उस पर नियंत्रण करने की। उसने किसी लेनिन और स्टालिन की भांति ही उस पर नियंत्रण करने की कोशिश की, कुछ ज्यादा ही सत्तापूर्ण। उसने तो का को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया था। और जरा जुग के चित्रों को देखो। जब कभी कं का चित्र मेरे सामने पड़ता है, मैं सदा बहुत ध्यान से देखता हूं; वह बहुत असाधारण चीज है। हमेशा गौर से देखना जुग के चित्रों को, तुम हर बात चेहरे पर लिखी पाओगे एक अहंकार! उसकी नाक को देखना, आंखों को, चालाकी है, क्रोध है; हर बीमारी चेहरे पर लिखी है। वह जीता है साधारण, भयग्रस्त आदमी की भांति ही। वह बहुत भयभीत था प्रेतों से, और बहुत ईर्ष्यालु था, प्रतिस्पर्धा से भरा था। विवादी, झगड़ालु था।

वस्तुत: पश्चिम जानता नहीं कि आत्म—साक्षात्कार क्या है, इसलिए कोई भी चीज आत्म—साक्षात्कार बन जाती है। पश्चिम जानता नहीं कि आत्म—साक्षात्कार का क्या अर्थ होता है। उसका अर्थ है इतनी परम शाति जो किसी चीज से बिगाड़ी न जा सके। ऐसा परम अन— अस्तित्व। मालकियत, महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या कैसे बनी रह सकती है उसमें? अ—मन के साथ कैसे तुम अधिकार जमा सकते हो, कैसे तुम शासन जमाने की कोशिश कर सकते हो न: आत्म—साक्षात्कार का अर्थ है—अहंकार का संपूर्ण तिरोहित हो जाना। और अहंकार के साथ, हर चीज तिरोहित हो जाती है।

ध्यान रहे, अहंकार स्वप्नों की व्याख्या द्वारा तिरोहित नहीं हो सकता है। इसके विपरीत, अहंकार ज्यादा मजबूत हो सकता है, क्योंकि चेतन और अचेतन के बीच का अंतराल कम होगा। तुम्हारा अहंकार मजबूत हो जाएगा। जितनी कम तकलीफ होती है मन में, उतना ज्यादा मजबूत हो जाएगा मन। अहंकार के लिए तुम्हारे पास नई भूमि होगी, तो मनोविश्लेषण तुम्हारे लिए ऐसा कर सकता है कि तुम्हारा अहंकार ज्यादा जड़ पकड़ ले, ज्यादा केंद्र में आ जाए; तुम्हारा अहंकार ज्यादा मजबूत हो जाए; तुम ज्यादा निश्चयपूर्ण हो जाओ। निस्संदेह पहले की अपेक्षा तुम संसार में बेहतर ढंग से जी पाओगे, क्योंकि संसार अहंकार में विश्वास रखता है। जीवित रहने के संघर्ष में लड़ने के लिए तुम ज्यादा सक्षम हो जाओगे। तुम्हारे स्वयं के बारे में तुम ज्यादा आश्वस्त हो जाओगे, कम घबडाओगे।

यदि तुम भीतर तकलीफ में हो और अचेतन भीतर निरंतर एक संघर्ष में हो, तो उस स्थिति की अपेक्षा अब तुम कुछ महत्वाकांक्षाओं को ज्यादा आसानी से पूरा कर पाओगे। लेकिन यह आत्म— साक्षात्कार नहीं है। इसके विपरीत यह तो अहंकार—साक्षात्कार है।

पश्चिम का अब तक का सारा मनोविज्ञान निर— अहंकार के तत्व तक नहीं पहुंचा है। वह अब भी अहंकार की भाषा में ही सोचता रहा है, कि अहंकार को और ज्यादा मजबूत कैसे बनाया जाए; केंद्र में कैसे लाया जाए; अहंकार को कैसे ज्यादा पोषित, स्वाभाविक, समायोजित किया जाए। पूरब तो स्वयं अहंकार को ही एक रोग की भांति समझता है, सारा मन ही एक रोग है; उस के लिए कुछ चुनाव नहीं चेतन और अचेतन दोनों को जाने देना होता है। उन्हें चले ही जाना चाहिए और इसीलिए पूरब ने व्याख्या करने की कोशिश नहीं की है। क्योंकि यदि किसी चीज को जाना ही है तो क्यों उसकी व्याख्या की चिंता करनी; क्यों समय गंवाना; उसे हटाया जा सकता है। जरा भेद की ओर ध्यान देना, पश्चिम किसी न किसी भांति चेतन और अचेतन का समायोजन करने की और अहंकार को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है, ताकि तुम समाज के ज्यादा अनुकूलित सदस्य बन जाओ, और भीतर भी ज्यादा अनुकूलित व्यक्ति बन जाओ। दरार जुड़ जाने से तुम्हें मन का मिल जाएगा। पूरब कोशिश करता मन को हटा देने की, उसके पार जाने की। यह समाज के. साथ अनुकूलित होने का प्रश्न नहीं है, यह स्वयं अस्तित्व के ही साथ समायोजित होने का प्रश्न है। यह चेतन और अचेतन के बीच के समायोजन का प्रश्न नहीं है; यह प्रश्न है उन सारे हिस्सों के समायोजन का जो तुम्हारी सारी सत्ता को बनाते हैं।

स्वप्न महत्वपूर्ण होते हैं। यदि आदमी बीमार होता है, तो स्वप्न महत्वपूर्ण होते हैं —वे बीमारी के लक्षणों को दिखा देते हैं। लेकिन तुम उस व्यक्ति के बारे में नहीं जानते जिसके पास स्वप्न नहीं। स्वप्न अपने में एक रोगशास्त्र हैं, स्वप्न स्वयं एक रोग है। बुद्ध ने कभी स्वप्न नहीं देखे। फ्रायड ने क्या किया होता? यदि फ्रायड उस समय होता, तो उसने क्या किया होता बुद्ध के साथ? उनके विषय में उसने कौन सी व्याख्या की होती? व्याख्या करने को कुछ था ही नहीं। यदि फ्रायड बुद्ध के भीतर गया होता, तो उसने कोई चीज न पाई होती व्याख्या करने को। उसका सारा मनोविज्ञान बिलकुल ही व्यर्थ हो चुका होता।

ऐसा हुआ कि अमरीका में एक व्यक्ति था जो कि बहुत ज्यादा कुशल था दूसरे व्यक्तियों के विचारों को पढ़ने में —मन को पढ़ लेता था। वह सदा सौ प्रतिशत सच ही कहता था। वह बैठ जाता तुम्हारे सामने, तुम आंखें बंद कर लेते और सोचने लगते, और वह आदमी अपनी आंखें बंद कर लेता और सोचने लगता कि तुम क्या सोच रहे हो। उस पल जो कुछ तुम सोचो वह विचार संप्रेषित हो जाता और वह उसे ग्रहण कर लेता। यह एक कला होती है। बहुत लोग जानते हैं इसे। यह सीखी जा सकती है, तुम पा सकते हो इसे, क्योंकि विचार एक सूक्ष्म तरंग है। यदि तुम ग्राहक होते हो तो दूसरा मस्तिष्क प्रसारण—केंद्र बन जाता है, तुम ग्रहणकर्ता बन जाते हो। विचार एक प्रसारण है, क्योंकि व्यक्ति के चारों ओर की विद्युत में तरंगें उठती हैं, यदि तुम पर्याप्त रूप से शात होते हो, ग्राहक होते हो, तुम उन्हें पकड़ लोगे।

जब मेहर बाबा अमरीका में थे, तो कोई ले आया उसी आदमी को मेहर बाबा के पास जो बहुत वर्षों तक रहे थे मौन में। वह आदमी बैठ गया मेहर बाबा के सामने, अपनी आंखें मूंद लीं और ध्यान ही ध्यान करता गया। फिर—फिर वह आंखें खोल लेता अपनी, और देख लेता मेहर बाबा को। इसमें बहुत देर होती गई, लोग चिंतित हो उठे। वे बोले, ‘तुमने इतना समय तो कभी नहीं लिया।’वह आदमी बोला, ‘हा, तो क्या करूं? यह आदमी तो बिलकुल सोच ही नहीं रहा है। कोई विचार मौजूद नहीं।’

यदि फ्रायड या का बुद्ध के पास होते, या यदि वे मेरे पास आ गए होते तो उन्होंने कुछ भी न पाया होता व्याख्यायित करने को, उन्होंने कोई विचार न पाया होता पकड़ने को।

पूरब कहता है, ‘स्वप्न स्वयं एक रोग है।’ वह एक प्रकार की बीमारी है; वह एक अव्यवस्था है। जब तुम सचमुच ही मौन होते हो तो दिन का सोचना तिरोहित हो जाता है और रात के स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं। विचार और स्वप्न एक ही चीज के दो पहलू हैं. दिन में जब कि तुम जागे हुए होते हो, तब विचार चलते रहते हैं, और रात को जब कि तुम सोए हुए होते हो, तो स्वप्‍न होते हैं। स्वप्न सोचने का एक आदिम ढंग है, चित्रों के रूप में सोचना, जैसा कि बच्चे सोचते हैं। इसलिए बच्चों की किताबों में हमें बहुत से रंगीन चित्र बनाने पड़ते हैं, बच्चे शब्दों के साथ बहुत ज्यादा नहीं बढ़ सकते। धीरे— धीरे ही वे बढ़ेंगे। तुम्हें एक बड़ा—सा आम चित्रित करना पड़ता है, और लिखना पड़ता है छोटे—छोटे अक्षरों में ‘ आम ‘। पहले वे देखेंगे चित्र को, और फिर वे जुड़ जाएंगे शब्द के साथ। धीरे— धीरे, चित्र छोटा और छोटा होता जाएगा और तिरोहित हो जाएगा। तब आम शब्द ही काम देगा।

एक अपरिष्कृत मन चित्रों की भाषा में सोचता है जैसा कि बच्चे करते हैं। जब तुम सोए हुए होते हो, तुम आदिम होते हो। सारी सभ्यता तिरोहित हो जाती है, संस्कृति तिरोहित हो जाती है, समाज तिरोहित हो जाता है। अब तुम समकालीन संसार के हिस्से नहीं रहते, तुम आदिम मनुष्य जैसे होते हो एक गुफा में। क्योंकि अचेतन मन अपरिष्कृत रहता है, तुम चित्रों की भाषा में सोचना शुरू कर देते हो। स्वप्न और विचार दोनों एक ही होते हैं। जब स्वप्न थम जाते हैं, तो विचार थम जाते हैं, जब विचार थम जाते हैं, तो स्वप्न थम जाते हैं। पूरब का सारा प्रयास यही रहा है। सारी बात ही किसी तरह गिरा दें। हम इसकी चिंता नहीं करते कि कैसे उसे अनुकूलित करें या कि कैसे उसकी व्याख्या करें, बल्कि यह कि कैसे उसे गिरा दें। और यदि यह गिरायी जा सकती है, तो क्यों चिंता करनी किसी व्याख्या की? क्यों व्यर्थ करना समय?

देर—अबेर पश्चिम इसे जान ही लेगा, क्योंकि अब ध्यान की विधियां पश्चिम में फैल रही हैं। ध्यान ढंग है स्वप्नों को, सोचने को, मन की सारी जटिलता को गिरा देने का। और एक बार वे गिर जाती हैं तो तुम मन की स्वस्थता को ही उपलब्ध नहीं होते, तुम किसी ऐसी चीज को उपलब्ध कर लेते हो, बिलकुल अभी तो जिसकी तुम्हारे मन में कोई कल्पना भी नहीं। तुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते वह किस तरह की अवस्था होगी जब तुम कुछ सोचते ही नहीं, जब तुम स्वप्न नहीं देखते, जब तुम्हारा होना मात्र ही होगा।

मनोविश्लेषण या दूसरी प्रचलित प्रणालियां बहुत लंबा समय लेती हैं. पांच वर्ष, तीन वर्ष, बस स्वप्नों की व्याख्या करते हैं। सारी बात इतनी उबाऊ जान पड़ती है, और केवल बहुत थोड़े लोग इसे अपना सकते हैं। और वे भी जो कि इसे क्रियान्वित कर सकते हैं, क्या पाते हैं इससे?

बहुत लोग आए हैं मेरे पास जो मनोविश्लेषण से गुजरे हैं; कोई आत्म—ज्ञान घटित नहीं हुआ है। बहुत वर्ष वे मनोविश्लेषण में जीए। न ही केवल उनका मनोविश्लेषण हुआ, उन्होंने बहुत से दूसरे लोगों का भी मनोविश्लेषण किया और कुछ घटित नहीं हुआ; वे वैसे ही हैं, अहंकार वही है। इसके विपरीत, वे कुछ ज्यादा दृढ़ हुए हैं, मजबूत हुए हैं। और अस्तित्वगत चिंताएं बनी रहती हैं।

हां, मैं कोई बहुत ज्यादा मूल्य नहीं मानता फ्रायड और जुग का, क्योंकि मेरा दृष्टिकोण है : मन को कैसे गिराना? वह गिराया जा सकता है और उसे गिराने में कम समय लगता है, उसे गिराना कहीं ज्यादा आसान है। वस्तुत: उसे गिराया जा सकता है बिना किसी की मदद के भी।

पूरब ने इस सत्य को पा लिया था कोई पांच हजार वर्ष पहले। उन्होंने व्याख्या की होगी, क्योंकि पूरब की पुरानी पुस्तकों में स्वप्नों की व्याख्या है। अब तक मेरे सामने एक भी ऐसी नई खोज नहीं आई जो पहले से ही कहीं अतीत में पूरब द्वारा न खोज ली गई हो। फ्रायड और जूंग तक भी कोई नए नहीं। यह तो फिर से पुराने क्षेत्र को पुनराविष्कृत करने के जैसा ही है। पूरब में उन्होंने जरूर इसका आविष्कार कर लिया होगा, लेकिन साथ ही उन्होंने खोजा था कि तुम मन की व्याख्या किए चले जा सकते हो और उसका कोई अंत नहीं। वह स्वप्न देखता ही जाता है, वह फिर—फिर नए स्वप्न निर्मित करता चला जाता है।

वस्तुत: कोई मनोविश्लेषण कभी संपूर्ण नहीं होता है। पांच वर्षों के बाद भी वह पूरा नहीं होता। कोई मनोविश्लेषण कभी पूरा हो नहीं सकता, क्योंकि मन नए स्वप्न बुनता चलता है। तुम व्याख्या किए जाते हो, वह नए स्वप्न बुनता जाता है। उसके प्रास असीम क्षमता होती है, वह बहुत सृजनात्मक होता है, बहुत कल्पनाशील। वह केवल जीवन के साथ ही समाप्त होता है या ध्यान के साथ ही तुम छलांग लगा लेते हो और तुम अपने से मर जाते हो तब वह खत्म होता है।

मन को मिटने की आवश्यकता है, मनोविश्लेषण की नहीं। और यदि मृत्यु संभव है तो विश्लेषण में क्या सार? ये दो नितांत अलग— अलग चीजें हैं और तुम्हें जागरूक रहना होता है। जुंग और फ्रायड भटक गए; प्रतिभाशाली हैं, बड़े बौद्धिक, लेकिन अपना समय खराब कर रहे हैं। और समस्या यह है कि उन्होंने मन के विषय में इतनी सारी चीजें खोजी हैं, लेकिन तो भी स्वयं उसका प्रयोग नहीं कर सकते —और यही होनी चाहिए कसौटी।

यदि मैं खोजता हूं ध्यान की कोई विधि और मैं स्वयं ध्यान नहीं कर सकता, तो मेरी खोज क्या अर्थ रख सकती है? लेकिन पूरब और पश्चिम में वह बात भी गलत है। पश्चिम में वे कहते हैं, ‘डाक्टर शायद स्वयं को ठीक नहीं कर सकता, लेकिन वह तुम्हें ठीक कर सकता है।’ पूरब में हम सदा कह रहे हैं, ‘ अरे वैद्य, पहले स्वयं को स्वस्थ करो।’ वही बात कसौटी बनेगी कि तुम वैसा दूसरों के प्रति कर सकते हो या नहीं। पश्चिम में वे पूछते नहीं, वे वैसी बात पूछते नहीं। पश्चिम में विज्ञान अपने से चलता है। निजी प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं, क्योंकि विज्ञान को एक वस्तुगत अध्ययन माना जाता है, आत्मपरकता से उसका कोई संबंध नहीं होता। —ऐसा हो सकता है विज्ञान के साथ, लेकिन मनोविज्ञान एकदम वस्तुगत नहीं हो सकता है। उसे आत्मगत (सब्जेक्टिव) भी होना पड़ता है, क्योंकि मन आत्मपरक होता है।

पहली बात जो का के विषय में पूछनी चाहिए वह है, क्या आपने अपने को जान लिया है? लेकिन वह सचमुच ही बहुत अहंकारी था। वह सोच रहा था, उसने जान लिया। वह भारत में आने से हिचकता था। केवल एक बार आया वह, और वह हिचकता था किसी संन्यासी के पास जाकर उससे मिलने से। यहां तक कि रमण महर्षि जैसे संत पुरुष से मिलने में भी हिचकता था। उसकी मर्जी न थी, वह नहीं गया। उसके लिए वहा सीखने को क्या था? उसके पास पहले से ही सब मौजूद था। और वह कुछ नहीं जानता था, कुछ स्वप्नों के कुछ टुकड़े मात्र थे जिनकी व्याख्या उसने की—और उसने सोचा कि उसने जीवन की व्याख्या कर दी।

तुम स्वप्नों की व्याख्या किए चले जाते हो, और तुम सोचते हो कि स्वप्न वास्तविकता हैं। पूरब में हमारा दृष्टिकोण एकदम विपरीत है। हम जीवन में झांकते रहे हैं और हमने पाया कि जीवन स्वयं एक सपना है। तुम सोचते हो कि स्वप्नों की व्याख्या करके तुम सत्य की व्याख्या कर देते हो। ठीक इसके विपरीत, हमने झांका है जीवन में और पाया है कि वह स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

और यह हिचकिचाहट क्यों? का के लिए पूरब एक भय था। वह भयभीत था पूरब से और कारण था इसका कुछ। वह था भयभीत पूरब से क्योंकि पूरब उदघाटित कर देता उसकी अपनी समझ की सच्चाई को—कि वह झूठ था। यदि वह गया होता रमण के पास, यदि वह गया होता पूरब के किसी और संत के पास, तो वह तुरंत जान गया होता कि जो कुछ उपलब्ध किया है उसने, वह कुछ नहीं था। वह तो मात्र मंदिर की सीढ़ियों पर था। अभी वह प्रविष्ट नहीं हुआ था मंदिर में। लेकिन पश्चिम में कोई भी चीज चल जाती है। बिना उसके जाने कि आत्म—ज्ञान क्या है, वे उसे आत्म—ज्ञान कह देते हैं। तुम उसे कुछ भी कह सकते हो, वह तुम पर निर्भर करता है।

आत्म—ज्ञान है अनात्म तक चले आना, भीतर के नितांत शून्य तक आ पहुंचना, उस बिंदु तक आ पहुंचना जहां तुम नहीं होते। बूंद समुद्र में खो जाती है और केवल समुद्र का अस्तित्व होता है। तो कौन देखता है स्वप्न? तो कौन बचता है वहां स्वप्न देखने को? घर खाली होता है, वहां कोई नहीं बचता।

दूसरा प्रश्न—

 

आपने कहा कि किसी प्रकार की नकल बुद्ध की भी नकल शुद्ध चेतना के लिए प्रतिकूल होती है। लेकिन हम देखते कि हमारा सांस्कृतिक जीवन नकल के अतिरिक्त और कुछ नहीं उस अवस्था में क्या स्वयं संस्कृति ही प्रतिकूल है धर्म के लिए?

हां, संस्कृति, समाज, सभ्यता, सभी कुछ प्रतिकूल है धर्म के लिए। धर्म एक क्रांति है, तुम्हारी सांस्कृतिक संस्कार—बद्धताओं के लिए एक क्रांति, तुम्हारी सामाजिक अनुकूलन की क्रांति, वे सारे जीवन— क्षेत्र जिन्हें तुमने जीया और तुम जी रहे हो उनमें आयी एक क्रांति।

हर समाज धर्म के विरुद्ध होता है। मैं तुम्हारे मंदिरों और मसजिदों और चर्चों की बात नहीं कर रहा हूं जिन्हें कि समाज ने निर्मित किया होता है। वे तो चालाकियां हैं। वे तुम्हें मूर्ख बनाने की बातें हैं। वे धर्म के झूठे परिपूरक हैं, वे धर्म नहीं। वे तुम्हें दिग्भ्रमित करने के लिए हैं। तुम्हें चाहिए धर्म, वे कहते हैं, ‘ही, आओ मंदिर में, चर्च में, गुरुद्वारे में—यहां है धर्म। तुम आओ और प्रार्थना करो और उपदेशक है वहा जो कि सिखाएगा तुम्हें धर्म।’ यह एक चालाकी होती है। समाज ने झूठे धर्म बना दिए हैं वे धर्म हैं—ईसाइयत, हिंदुत्व, जैन। लेकिन कोई बुद्ध, कोई महावीर या जीसस या मोहम्मद, सदा समाज के बाहर अस्तित्व रखते हैं। और समाज सदा उनसे झगड़ता है। जब वे नहीं रहते, तब समाज उन्हें पूजने लगता है, तब समाज मंदिर निर्मित करता है। और तब कुछ नहीं बचता; सत्य जा चुका होता है, ज्योति विलीन हो चुकी होती है। बुद्ध अब नहीं रहे बुद्ध की मूर्ति में। मंदिरों में तुम पाओगे समाज को, संस्कृति को, पर धर्म को नहीं पाओगे। तो फिर धर्म है क्या?

पहली बात, धर्म एक निजी घटना है। वह कोई सामाजिक घटना नहीं है। तुम अकेले उतरते हो उसमें, तुम समूह के साथ नहीं उतर सकते उसमें। कैसे तुम किसी दूसरे को साथ लेकर समाधि में उतर सकते हो? तुम्हारे एकदम निकट का भी, तुम्हारा बिलकुल समीपतम भी तुम्हारे साथ न होगा। जब तुम भीतर की ओर बढ़ते हो, तो हर चीज छूट जाएगी. समाज, संस्कृति, सभ्यता, शत्रु, प्रेमी, प्रेमिकाएं, बच्चे, पत्नी, पति—हर चीज छूट जाती है धीरे — धीरे। और एक घड़ी आती है जब तुम भी छूट जाओगे। केवल तभी होती है परम खिलावट, तभी होता है रूपांतरण। क्योंकि तुम भी समाज का एक हिस्सा हो, समाज के सदस्य हो : हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि ईसाई हो; भारतीय हो, चीनी हो, जापानी हो। पहले, दूसरे छूट जाएंगे; फिर धीरे — धीरे, अपने लोग छूट जाएंगे, ज्यादा निकट के छूट जाएंगे। अंततः तुम स्वयं तक आ पहुंचोगे। वह भी समाज का एक हिस्सा है। समाज द्वारा प्रशिक्षित हुआ, समाज द्वारा संस्कारित हुआ तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारा मन, तुम्हारा अहंकार —समाज द्वारा दिया हुआ। उसे भी मंदिर के बाहर छोड़ देना है। तब तुम अपने परम स्वात में प्रवेश करते हो। कोई नहीं होता वहां, तुम भी नहीं।

धर्म आत्मगत होता है। और धर्म क्रांतिमय होता है। धर्म एकमात्र क्रांति है संसार की। दूसरी सारी क्रांतिया झूठी होती हैं, नकली होती हैं, खेल; वे क्रांतिया नहीं होतीं। वस्तुत: उन्हीं क्रांतियों के कारण, सच्ची क्रांति सदा स्थगित हो जाती है। वे प्रति —क्रांतिया होती हैं।

एक साम्यवादी आता है और वह कहता है, ‘कैसे तुम स्वयं को बदल सकते हो, जब तक कि सारा समाज ही न बदल जाए?’ और तुम अनुभव करते हो कि ‘ठीक है, कैसे मैं स्वयं को बदल सकता हूं? कैसे मैं अस्वतंत्र समाज में एक स्वतंत्र जीवन जी सकता हूं?’ तर्क तो संगत जान पड़ता है। एक दुखी समाज में तुम सुखी कैसे हो सकते हो? कैसे तुम आनंद पा सकते हो जब कि हर कोई पीड़ित है? साम्यवादी चोट करता है, वह आकर्षित करता है।’हा’, तुम कहते, ‘जब तक कि सारा समाज सुखी न हो जाए, मैं कैसे सुखी हो सकता हूं?’ फिर एक साम्यवादी कहता है, ‘आओ पहले तो हम क्रांति लाएं समाज में।’ फिर तुम कूच करना शुरू करते मोर्चा, घेराव सभी प्रकार की नासमझिया। तुम पकड़ लिए गए एक जाल में। अब तुम बदलने ही वाले हो सारे संसार को!

लेकिन क्या तुम भूल गए कि कितने दिन जीने वाले हो तुम? और जब सारा संसार बदल जाता है, तो उस समय तक तुम नहीं रहोगे यहां। तुम खो चुके होओगे तुम्हारा जीवन। बहुत से मूर्ख लोग अपना सारा जीवन गंवा रहे हैं, इस या उस बात के विरुद्ध अभियान चला कर। इसकी या उसकी खातिर; सारे संसार को रूपांतरित करने की कोशिश कर रहे हैं और उस एकमात्र रूपांतरण को स्थगित कर रहे हैं जो कि संभव है, और जो है आत्म—रूपांतरण।

और मैं कहता हूं तुमसे, तुम अस्वतंत्र समाज में स्वतंत्र हो सकते हो, तुम सुखी हो सकते हो दुखी संसार में। दूसरों की ओर से कोई बाधा नहीं है, तुम रूपांतरित हो सकते हो। कोई तुम्हें नहीं रोक रहा, सिवाय तुम्हारे स्वय के। कोई व्यक्ति कोई बाधा नहीं बना रहा है। समाज की और संसार की फिक्र मत करो। क्योंकि संसार तो चलता रहेगा। और वह ऐसा ही बना हुआ है हमेशा—हमेशा से। बहुत —सी क्रांतियां आती हैं और चली जाती हैं और संसार वैसा ही बना रहता है।

यदि सारे क्रांतिकारी अपनी कब्रों में से फिर जीवित किए जा सकते—लेनिन और मार्क्स —वे विश्वास न कर पाते कि संसार वैसा ही बना हुआ है और क्रांति घट चुकी है। रूस में या कि अमरीका में कोई अंतर नहीं, बस एक औपचारिक —सा अंतर है। रूप भेद रखते हैं; आधारभूत सत्य वैसा ही बना रहता है, मनुष्य की मौलिक पीड़ा वैसी ही बनी रहती है। समाज कभी नहीं पहुंचेगा किसी आदर्श तक। वह शब्द ‘यूटोपिएया’ बहुत सुंदर है। इस शब्द का अर्थ ही है : कि जो कभी नहीं आता। शब्द यूटोपिया का अर्थ होता है : कि जो कभी न आए। वह सदा आ रहा होता है, लेकिन वह आता कभी नहीं, वचन सदा होता है लेकिन चीजें कभी पहुंचाई नहीं जातीं। और यह ऐसा ही रहेगा। ऐसा ही रहा है। केवल एक संभावना है. तुम परिवर्तित हो सकते हो।

राजनीति सामाजिक है, धर्म व्यक्तिगत होता है। और जब कभी धर्म सामाजिक बनता है, वह राजनीति का हिस्सा होता है; वह धर्म नहीं रह जाता। इसलाम और हिंदू और जैन धर्म, वे राजनीतिया हैं। वे अब धर्म नहीं रहे; वे समाज हो गए हैं।

यह एक व्यक्तिगत समझ होती है।

तुम तुम्हारे गहनतम अंतर में जानते हो कि परिवर्तन की आवश्यकता है, जैसे तुम हो, तुम गलत हो; जैसे तुम हो, तुम नरक बना रहे हो तुम्हारे चारों ओर, जैसे तुम हो, तुम बीज ही हो दुख का। तुम इसे जानते हो तुम्हारी सत्ता के गहनतम गर्भ में, और वह जानना ही एक परिवर्तन बन जाता है। तुम गिरा देते हो बीज को; तुम बढ़ते हो एक अलग दिशा में। यह बात व्यक्तिगत होती है, यह कोई सांस्कृतिक बात नहीं होती।

और इसीलिए तुम्हारे लिए बहुत कठिन होता है धार्मिक होना। तुम चाहोगे समाज तुम्हें सिखाए। यदि धर्म सिखाया जा सकता है, तो तुम सभी धार्मिक हो गए होते। लेकिन धर्म सिखाया नहीं जा सकता है। वह कोई शिक्षा नहीं, वह छलांग है अज्ञात में। उसके लिए साहस की आवश्यकता है, सीखने की नहीं। और कौन सिखा सकता है तुम्हें साहस? और साहस सिखाया कैसे जा सकता है? या तो वह तुम्हारे पास होता है या वह तुम्हारे पास नहीं होता। इसलिए पता लगा लेना कि साहस तुम्हारे पास है भी? और तुम पता लगाने की कोशिश करो तो हर कोई पाएगा कि उसमें कहीं न कहीं बड़ी विशाल संभावना छिपी रहती है साहस की। क्योंकि साहस के बगैर जीवन संभव नहीं।

प्रतिपल जीवन एक जोखम होता है। बिना साहस के तुम कैसे रह सकते हो? बिना साहस के तुम सांस कैसे ले सकते हो? साहस होता है मौजूद, लेकिन तुम्हें पता नहीं होता। साहस को खोज लो, व्यक्तिगत प्रतिबद्धता की जिम्मेदारी जानो। संसार को और आदर्श मान्यताओं को भूल जाओ, और स्वयं को बदलो। और यही है सौंदर्य यदि तुम बदलते हो स्वयं को तो तुमने संसार को बदलना शुरू ही कर दिया होता है। क्योंकि तुम्हारे बदलाव के साथ संसार का एक हिस्सा बदल चुका होता है। तुम संसार के अंग हो। यदि एक भी हिस्सा बदलता है, तो वह संपूर्ण को प्रभावित करेगा क्योंकि संपूर्ण एक है, हर चीज संबंधित है।

यदि मैं बदलता हूं; तो मैं एक ढंग से सारे संसार को बदलता हूं। संसार फिर कभी वैसा ही न होगा। क्योंकि एक हिस्सा—करोड़वां भाग, पर फिर भी एक हिस्सा—बदल ही चुका है, बिलकुल अलग बन गया है; अब वह इस संसार का नहीं रहा। एक दूसरा संसार मेरे द्वारा व्याप्त हो चुका है। शाश्वतता समय में प्रवेश कर चुकी है। परमात्मा उतरा है, मानव शरीर में बसने को; कुछ भी वैसा ही नहीं रह सकता, हर चीज बदल जाएगी मेरे द्वारा।

इसे याद रखना और यह भी याद रखना कि धर्म कोई नकल नहीं है। तुम धार्मिक व्यक्ति की नकल नहीं कर सकते। यदि तुम नकल करते हो तो यह छद्य— धर्म होगा—नकली, झूठा। तुम कैसे मेरी नकल कर सकते हो? और यदि तुम नकल करते हो तो कैसे तुम स्वयं के प्रति सच्चे रह सकते हो? तुम स्वयं के प्रति झूठे हो जाओगे। तुम यहां मेरे जैसे होने को नहीं हुए हो। तुम यहां हो बिलकुल तुम्हारे जैसे होने को। मेरे जैसे होने को तुम यहां नहीं हो; तुम यहां हो बिलकुल अपने जैसे होने के लिए—अपने ही जैसे।

मैंने सुना है एक यहूदी फकीर जोसिया के बारे में। वह मर रहा था और किसी ने कहा, ‘जोसिया मोजेज की प्रार्थना करो और मांगो उनसे कि तुम्हारी मदद करें।’जोसिया ने कहा, ‘भूल जाओ मोजेज के बारे में। क्योंकि जब मैं मर जाऊंगा, तो परमात्मा मुझसे यह न पूछेगा कि मैं मोजेज जैसा क्यों न हुआ। वह पूछेगा, मैं जोसिया जैसा क्यों नहीं हुआ। वह नहीं पूछेगा मुझसे कि तुम मोजेज जैसे क्यों नहीं? वह मेरी जिम्मेदारी नहीं, मोजेज जैसा होना। यदि परमात्मा मेरा होना मोजेज जैसा चाहता, तो उसने मुझे मोजेज बना दिया होता। वह पूछेगा मुझसे, जोसिया तुम जोसिया जैसे क्यों नहीं? और यही है मेरी मुसीबत. सारी जिंदगी मैं किसी दूसरे की भांति होने का प्रयास करता रहा। लेकिन कम से कम अब अंतिम घड़ी मुझे अकेला छोड़ दो, मुझे मुझ जैसा ही रहने दो, क्योंकि वही चेहरा मुझे परमात्मा को दिखाना चाहिए। और केवल वही चेहरा है जिसके लिए परमात्मा प्रतीक्षा कर रहा होगा।

प्रामाणिक रूप से स्वयं जैसे हो जाओ। तुम नकल नहीं कर सकते। धर्म प्रत्येक को अद्वितीय बना देता है। कोई भी गुरु जो कि सच्चा गुरु है इस पर जोर नहीं देगा कि तुम उसकी नकल करो। वह तुम्हें स्वयं जैसा होने में तुम्हारी मदद करेगा, वह उसी के जैसा होने के लिए तुम्हारी मदद नहीं करेगा।

और सारी सभ्यता एक नकल है। सारा समाज नकल करने वाला है। इसीलिए सारा समाज सत्य की अपेक्षा एक नाटक की भाति है। हिंदू इसे कहते हैं, ‘माया’ —एक खेल, एक खेल—तमाशा, पर सत्य नहीं। माता—पिता बच्चों को उन्हीं के जैसा होने की सीख दे रहे हैं। हर कोई हर दूसरे को अपने जैसा करने के लिए धकेल रहा है और खींच रहा है —चारों ओर पूरी अराजकता बनी है।

मैं ठहरा हुआ था एक परिवार क़े साथ, और मैं बैठा था लॉन पर। घर का स्व छोटा बच्चा आया, और मैं पूछने लगा, ‘तुम अपने जीवन में क्या बनने की सोचते हो?’ वह बोला, ‘कहना मुश्किल है, क्योंकि मेरे पिता मुझे डाक्टर बनाना चाहते हैं। मेरी मां चाहती हैं कि मैं इंजीनियर बनूं; मेरे चाचा, वे चाहते हैं मैं एडवोकेट बनूं क्योंकि वे एक एडवोकेट हैं। और मैं उलझन में हूं। मैं नहीं जानता कि मैं क्या बनूंगा।’ मैंने पूछा उससे, ‘तुम क्या बनना चाहते हो?’ वह बोला, ‘पर यही तो मुझसे किसी ने पूछा ही नहीं।’ मैंने कहा उससे, ‘तुम सोचो इस बारे में। कल तुम मुझे बताना।’ अगले दिन वह आया और वह बोला, ‘मैं एक नृत्यकार होना चाहूंगा, लेकिन मेरी मां ऐसा न होने देगी, मेरे पिता ऐसा न होने देंगे।’वह कहने लगा मुझसे, ‘मेरी मदद कीजिए, वे आपकी सुनेंगे।’

हर बच्चा धकेला जा रहा है और खींचा जा रहा है कुछ और ही बनाये जाने के लिए। इसीलिए इतनी ज्यादा असुंदरता है चारों ओर। कोई स्वयं जैसा नहीं। यदि तुम संसार के सबसे बड़े इंजीनियर भी बन जाओ, तो वह बात भी कोई परितृप्ति न देगी, यदि वह तुम्हारी अपने मन की बात न रही हो। और मैं कहता हूं तुमसे, तुम शायद संसार के सबसे बड़े बेकार नृत्यकार होओगे, उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। यदि वह तुम्हारी अपनी अंतःप्रेरणा थी, तो तुम प्रसन्न और परितृप्त रहोगे।

मैंने सुना है एक बड़े वैज्ञानिक के बारे — में जिसे कि नोबल पुरस्कार मिला था। वह संसार के जाने —माने बड़े —बड़े शल्यचिकित्सकों में से एक था। और जिस दिन उसे नोबल पुरस्कार मिला, किसी ने कहा, ‘आपको तो खुश होना चाहिए। आप इतने उदास क्यों लग रहे हैं? यह सबसे बड़ा पुरस्कार है; सबसे बड़ा’ इनाम जिसे कि संसार तुम्हें दे सकता है; सबसे बड़ा सम्मान। आप खुश क्यों नहीं हो? और आप तो संसार के सबसे बड़े शल्यचिकित्सकों में से हैं।’वह बोला, ‘सवाल यह नहीं है, जब नोबल पुरस्कार मुझे दिया गया था, तो मैं अपने बचपन की बात सोच रहा था। मैं कभी भी सर्जन नहीं बनना चाहता था। जबरदस्ती यह बात मुझ पर लादी गई। मेरी सारी जिंदगी एक व्यर्थ बात रही है। क्या करूंगा मैं इस नोबल पुरस्कार को लेकर? मैंने चाहा था नृत्यकार बनना। चाहे सबसे बेकार नृत्यकार ही सही, उससे काम चल गया होता, मैं परितृप्त हो गया होता। वह मेरी अंतर की पुकार थी।’

याद रखना इसे, क्यों तुम इतना असंतुष्ट अनुभव करते हो, तुम क्यों सदा बिलकुल ही किसी कारण के बिना इतना असंतोष अनुभव करते हो?—यदि सारी बात ठीक भी चल रही हो। कुछ चूक रहा होता है। क्या चूक रहा होता है?—तुमने अपनी अंतस सत्ता को कभी नहीं सुना। किसी दूसरे ने तुम्हें होशियारी से संचालित किया है, तुम्हें प्रभावित किया है, किसी दूसरे ने तुम्हें शासित किया होता है, किसी दूसरे ने तुम्हें जिंदगी के ऐसे ढांचे में बैठा दिया है जो कि तुम्हारा कभी न था, जिसे तुमने कभी न चाहा था। मैं कहता हूं तुमसे, यदि ऐसा घट भी जाए कि तुम भिखारी बन जाओ, तो फिक्र मत करना यदि वह भी हो तुम्हारी अंतःप्रेरणा। अंतस की पुकार का पता लगा लेना और उसी का अनुसरण करना, क्योंकि ईश्वर नहीं पूछेगा, ‘तुम महावीर क्यों नहीं हो, तुम मोहम्मद क्यों नहीं हो, या कि तुम जरथुस्त्र क्यों नहीं हो?’ वह पूछेगा ‘जोसिया, तुम जोसिया क्यों नहीं हो?

तुम्हें कुछ होना है, और सारा समाज एक बड़ी नकल है, एक झूठा दिखावा। इसीलिए इतनी ज्यादा असंतुष्टि है हर चेहरे पर। मैं देखता हू तुम्हारी आंखों में और मैं पाता हूं—असंतोष, अतृप्ति। हवा का एक झोंका भी तुम तक नहीं आता जो कि तुम्हें प्रसन्नता दे जाए, आनंद दे जाए, ऐसा संभव नहीं। और आनंद संभव होता है। वह एक सरल घटना है स्वाभाविक हो जाओ और निर्मुक्त हो जाओ और तुम्हारी अपनी अंत:रुचि का अनुसरण करो।

मैं यहां हूं, तुम्हारे स्वयं जैसा हो जाने में तुम्हारी मदद करने ‘ को। जब तुम शिष्य हो जाते हो, जब मैं तुम्हें दीक्षा देता हूं, तो मैं तुम्हें अनुकरणकर्ता होने की दीक्षा नहीं दे रहा होता हूं। मैं तो तुम्हारी मदद कर रहा होता हूं तुम्हारे स्वयं के अस्तित्व का पता लगाने में, तुम्हारे अपने प्रामाणिक अस्तित्व का पता लगाने में—क्योंकि तुम इतने ज्यादा भ्रमित हो, तुम्हारे इतने ज्यादा चेहरे हैं कि तुम भूल ही गए हो कि कौन—सा चेहरा मौलिक है। तुम नहीं जानते तुम्हारी असली अंतःप्रेरणा क्या है।

समाज ने तुम्हें बिलकुल उलझा दिया है, तुम्हें दिग्भ्रमित कर दिया है। अब तुम्हें इसका कुछ पक्का पता नहीं कि तुम कौन हो। जब मैं तुम्हें दीक्षा देता हूं तो जो एकमात्र बात मैं करना चाहता हूं, वह यह कि तुम्हारे अपने घर तक आ जाने में तुम्हारी मदद करूं। एक बार जब तुम अपनी अंतस सत्ता में केंद्रित हो जाते हो, तो मेरा कार्य समाप्त हो जाता है। तब तुम आरंभ कर सकते हो। वस्तुत: एक गुरु को उसे अनकिया करना पड़ता है जो कि समाज ने किया होता है। गुरु को वह अनकिया करना पड़ता है जिसे संस्कृति ने क्रियान्वित किया होता है। उसे तुम्हें फिर से एक कोरा कागज बना देना होता है।

यही है गुरु द्वारा तुम्हें पुनर्जीवन दिए जाने का अर्थ फिर से तुम बच्चे बन गए; तुम्हारा अतीत साफ हो गया, तुम्हारी स्लेट धुल गई। कैसे तुम उस पहली जगह पहुंच सकते हो, जहां से तुम इस संसार में प्रविष्ट हुए थे, चालीस, पचास वर्ष पहले? और समाज ने तुम्हें पकड़ लिया, तुम्हें फीस लिया, तुम्हें भटकाया गया। पचास वर्ष तक तुम भटके—और अब अचानक तुम मेरे पास आ गए हो। मुझे केवल एक ही बात करनी है : उसे धोकर साफ कर देना है जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ है; तुम्हें अपने बचपन तक ले आना है, उस आरंभिक अवस्था तक, जहां से तुमने यात्रा शुरू की थी, और यात्रा को फिर से शुरू होने देने में तुम्हारी मदद करनी है।

तीसरा प्रश्न :

 

आपने कहा कि किसी के द्वारा प्रभावित हो जाना अशुद्ध और अस्वाभाविक हो जाना है। लेकिन आपके व्यक्तित्व और शब्दों द्वारा प्रभावित हुए बिना कोई खोजी आपका शिष्य कैसे?

दि तुम शब्दों द्वारा और व्यक्तित्व द्वारा प्रभावित होते हो तो तुम कभी भी शिष्य नहीं हो सकते; तुम नकल करने वाले बन जाओगे। और एक शिष्य नकल करने वाला नहीं होता है। लेकिन मैं समझता हूं तुम्हारी तकलीफ—तुम जुड्ने का केवल एक ही ढंग जानते हो, और वह है —प्रभावित हो जाना। यही कुछ किया है समाज ने तुम्हारे साथ। यदि तुम प्रभावित होते हो, तो तुम सोचते हो कि तुम जुड़े हुए हो। तो तुम नहीं जानते कि शिष्य कैसे हुआ जाए। तुम केवल यही जानते हो कि विद्यार्थी कैसे बना जाए—स्व छाया घटना।

जब तुम सुनते हो मुझे, तो भूल जाना प्रभावित होने के बारे में। जब तुम सुनते हो मुझे, तो बस केवल सुनो। मेरे साथ रहो, खुले हुए; किसी भी ढंग से निर्णय देने की कोशिश मत करना। जो कुछ कह रहा हूं मैं, तुम तो बस खुले रहो और सुनो, उसे आने दो, मुझे तुममें व्यापने दो, लेकिन निर्णय मत दो। मत कहना कि ‘ही, यह ठीक है।’ क्योंकि तब तुम प्रभावित हुए। यदि तुम कहते हो, ‘नहीं, यह ठीक नहीं है’, तब तुम प्रभावित न होने की कोशिश कर रहे होते हो। एक तो विधायक प्रभाव है, दूसरा नकारात्मक प्रभाव, और दोनों प्रकार गलत होंगे। मुझे ‘ही’ मत कहना, मुझे ‘ना’ मत कहना। बिना ही या ना कहे, तुम बस यहां मौजूद क्यों नहीं हो सकते? सुनो, देखो, चीजों को घटने दो। यदि तुम कहते हो, ‘ही’, उस ‘ही’ का अर्थ होता है : अब तुम अनुकरण करने को तैयार हो। यदि तुम ‘ना’ कहते हो तो इसका अर्थ होता है : नहीं, तुम मेरा अनुकरण नहीं करोगे, तुम कहीं जा रहे हो किसी दूसरे का अनुकरण करने को। तुम्हारा कोई और गुरु है; कोई और ही है गुरु जिसका अनुकरण तुम करोगे। यह व्यक्ति तुम्हारे लिए नहीं। तुम किसी उसको खोज रहे हो जो कि तुम्हारे लिए एक आदर्श बन सके, और तुम बन सको एक छाया। और तुम बहुतों को पा सकते हो —बहुत से हैं जो आदर्श बनकर आनंदित होते हैं, क्योंकि अहंकार बहुत ज्यादा अच्छा महसूस करता है। जब बहुत से लोग एक व्यक्ति का अनुकरण करते हैं, तो अहंकार को यह बात बड़ी सुखद मालूम पड़ती है—’मैं आदर्श हूं इतने सारे लोगों का! मैं बिलकुल ठीक होऊंगा, वरना क्यों इतने सारे लोग मेरा अनुसरण कर रहे हैं?’ जितनी ज्यादा भीड़ आदमी के पीछे होती है, अहंकार उतना ज्यादा मजबूत होता है।

तो ऐसे लोग हैं, जो चाहेंगे कि तुम अनुकरण करो, लेकिन मैं उनमें से नहीं हूं; मैं ठीक विपरीत हूं। मैं तुम्हारे अनुकरण करने से खुश नहीं होता। जब कभी तुम ऐसा करने लगते हो, मुझे तुम पर बहुत अफसोस होने लगता है। मैं हर ढंग से इसे अनुत्साहित करने की कोशिश करता हूं। मेरा अनुकरण मत करो। केवल देखो, सुनो, अनुभव करो। इसे सुनने में, देखने में, अनुभव करने में, यहां मेरे साथ मात्र जागरूक होने से ही, धीरे — धीरे तुम्हारी ऊर्जा तुम्हारे अपने केंद्र पर उतरने लगेगी। क्योंकि मुझे सुनने से मन ठहर जाता है, देखने से मन ठहर जाता है। मन के उस ठहरने में ही, घटना घट रही होती है —तुम अपने अस्तित्व के स्रोत तक लौट रहे होते हो, तुम अपने केंद्र में उतर रहे होते हो। मन की अव्यवस्था वहां नहीं रहती; अचानक तुम एक संतुलन पा लेते हो, तुम केंद्रित हो जाते हो।

और यही मैं चाहूंगा। तुम्हारे अपने स्रोत और केंद्र में उतरने से तुम्हारा जीवन उदित होगा। लेकिन यह मेरे प्रभाव के कारण न होगा, मैं कोई प्रभाव छोड़ना नहीं चाहता। और यदि वे छूट जाते हैं, तो मैं जिम्मेदार नहीं। तुमने स्वयं ही कुछ किया होगा। तुम चिपकते रहे होओगे उन शब्दों से, प्रभावों से। यह सूक्ष्म होता है बिना निर्णय दिए ही रहना, केवल सुनते रहना, देखते रहना, मौजूद रहना, मेरे साथ बैठे रहना।

मेरा बोलना और कुछ नहीं है सिवाय मेरे साथ बैठने में तुम्हारी मदद करने के, यहां मेरे साथ होने में तुम्हारी मदद करने के। मैं जानता हूं क्योंकि मैं तो मौन में बैठ सकता हूं, लेकिन तब तुम्हारा मन बातचीत करेगा। तुम मौन नहीं रहोगे। इसलिए मुझे बोलना पड़ता है, ताकि तुम्हारे मन को न बोलने दिया जाए। तुम सुनने में तल्लीन हो जाते हो, संलग्न हो जाते हो, मन ठहर जाता है। उस अंतराल में तुम अपने स्रोत तक पहुंच जाते हो।

मैं हूं तुम्हारे केंद्र को खोजने में तुम्हारी मदद करने को, और यही है सच्चा शिष्यत्व। यह बात सचमुच ही नितांत अलग है उससे जिसे कि लोग शिष्यत्व समझते हैं। यह अनुसरण नहीं, यह गुरु को आदर्श बना लेने की बात नहीं। यह उस तरह की बात ही नहीं। यह है तुम्हारे अपने केंद्र तक उतरने में गुरु को तुम्हारी मदद करने देना।

चौथा प्रश्न—

 

आप कहते हैं वही करो जो तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुकूल पड़ता हो। लेकिन मेरे लिए यह जानना कठिन है कि जो मैं करता हूं वह मेरे स्वभाव के अनुकूल है या मेरे अहंकार के कैसे कोई अहंकार के बहुत— से स्वरों के बीच अपने स्वभाव के स्वर को पहचान लेता है?

 

ब कभी तुम अहंकार की आवाज को सुनते हो, तो देर — अबेर मुसीबत तो होगी। तुम दुख के जाल में जा पड़ोगे। इस पर तुम्हें ध्यान देना है अहंकार सदा दुख में ले जाता है, सदा ही, बिना शर्त, सदा ही सुनिश्चित रूप से, बिलकुल ही। और जब कभी तुम स्वभाव की सुनते हो, यह बात तुम्हें स्वास्थ्य की ओर ले जाती है —संतोष की ओर, मौन की ओर, आनंद की ओर। तो यही होनी चाहिए कसौटी। तुम्हें बहुत—सी गलतियां करनी होंगी; और दूसरा कोई उपाय नहीं। तुम्हें ध्यान देना होगा तुम्हारे अपने चुनाव पर, कि कहां से आ रही है आवाज, और फिर तुम्हें देखना होगा कि क्या घटता है—क्योंकि फल ही कसौटी है।

जब तुम कुछ करते हो तो ध्यान देना, सजग रहना, और यदि वह बात दुख की ओर ले जाती हो, तब तुम भलीभांति जानते कि वह तो अहंकार था। तब अगली बार सजग रहना, उस आवाज को सुनना ही मत। यदि वह स्वाभाविक हो, तो वह तुम्हें मन की आनंदमयी अवस्था तक ले जाएगी। स्वभाव सदा सुंदर होता है, अहंकार सदा असुंदर होता है। दूसरा कोई और उपाय नहीं सिवाय परीक्षण के और गलती के। मैं तुम्हें कोई कसौटी नहीं दे सकता जिससे कि तुम हर चीज पर निर्णय दे सको, नहीं। जीवन सूक्ष्म है और जटिल है और सारी कसौटियां छोटी पड़ती हैं। निर्णय देने को तुम्हें अपने से ही प्रयास करने होंगे। तो जब कभी तुम कुछ करो, भीतर की आवाज को सुन लेना। उस पर ध्यान देना किं वह कहां ले जाती है। यदि वह पीड़ा की ओर ले जाती है, तो निश्चित ही अहंकार से आयी थी।

यदि तुम्हारा प्रेम पीड़ा में ले जाता है, तो वह अहंकार द्वारा आया था। यदि तुम्हारा प्रेम सुंदर मंगलमयता की ओर ले जाता है, एक धन्यता की ओर ले जाता है, तो वह स्वभावगत था। यदि तुम्हारी मित्रता, यहां तक कि तुम्हारा ध्यान भी, तुम्हें पीड़ा मैं ले जाता है तो वह तुम्हारा अहंकार ही था। यदि बात स्वभावगत होती है तो हर चीज अनुकूल बैठेगी, हर चीज समस्वरता से भरी होगी। स्वभाव बहुत अच्छा होता है, स्वभाव सुंदर होता है, लेकिन तुम्हें उसे समझना होगा।

सदा इस पर ध्यान देना कि तुम क्या कर रहे हो और वह बात तुम्हें कहां ले जाती है। धीरे — धीरे तुम जान जाओगे कि अहंकार क्या चीज है, और स्वभाव क्या चीज है; कौन—सी चीज असली है और कौन—सी चीज नकली है। इसमें समय लगेगा और सजगता की, ध्यान देने की जरूरत पड़ेगी। और स्वयं को धोखा मत देना—क्योंकि पीड़ा की ओर अहंकार ही ले जाता है, और कोई चीज नहीं। किसी दूसरे पर जिम्मेदारी मत फेंक देना; दूसरा तो अप्रासंगिक होता है। तुम्हारा अहंकार पीड़ा में ले जाता है, कोई और दूसरा तुम्हें पीड़ा में नहीं ले जाता है। अहंकार नरक का द्वार है, और स्वाभाविक, प्रामाणिक, सच्ची बात जो तुम्हारे केंद्र से आती है, स्वर्ग का द्वार है। तुम्हें उसे खोजना होगा और उसे कार्यान्वित करना होगा।

यदि तुम उसे बहुत ध्यानपूर्वक समझते हो, तो जल्दी ही तुम्हें बिलकुल निश्चित हो जाएगा कि स्वभावगत क्या है, और अहंकार से क्या आया है। तब अहंकार के पीछे मत चल देना।

वस्तुत: तब तुम स्वयं ही अहंकार का अनुसरण नहीं कर रहे होओगे। प्रयास करने की कोई आवश्यकता ही न रहेगी; तुम तो बस स्वाभाविक चीज के पीछे ही चल रहे होओगे। स्वाभाविक बात दिव्य होती है। और स्वभाव में परम स्वभाव छिपा होता है। यदि तुम स्वभाव का अनुसरण करते हो तो बाद में, धीरे— धीरे, बिना कोई शोर किए ही अचानक एक दिन स्वभाव तिरोहित हो जाएगा और परम स्वभाव प्रकट हो जाएगा। स्वभाव ले जाता है परमात्मा की ओर, क्योंकि परमात्मा छिपा है स्वभाव में।

पहले तो स्वाभाविक हो जाओ। तब तुम स्वभाव की नदी में बह रहे होओगे। और एक दिन नदी उतर जाएगी परम स्वभाव के सागर में।

पांचवां प्रश्न—

आपने कहा शार्टकट लेने की कोई जरूरत नहीं होती। क्या आपके ध्यान शार्टकट नहीं हैं? क्योकि इधर पहले आपने कहा कि आपके ध्यान तुरंत छलांग लगा देने वाले हैं।

तुरंत छलांग लगाना सबसे लंबा मार्ग है। क्योंकि तुरंत छलांग के लिए तैयार होने में बहुत वर्ष लगेंगे; यहां तक कि बहुत से जीवन लग जाएंगे इसके लिए तैयार होने में। तो जब मैं कहता हूं ‘तुरंत छलांग’, तो क्या तुम तुरंत लगाते हो उसे? मेरे कहने मात्र से ही तुमने ऐसा किया नहीं होता। मैं कहता हूं तुरंत, लेकिन तुम्हारी दृष्टि से तुरंत में बहुत सारे जन्म लग सकते हैं।

छलांग कभी भी शार्टकट नहीं होती, क्योंकि छलांग मार्ग नहीं है। लंबे मार्ग हैं और छोटे मार्ग हैं। छलांग बिलकुल नहीं है मार्ग; वह एक अचानक हुई घटना है। छलांग के लिए तैयार होने का अर्थ है—मरने के लिए तैयार होना। छलांग लगाने को तैयार होने का अर्थ है—अज्ञात में, असुरक्षा में अपरिचित में छलांग लगाने को तैयार होना। इस तैयारी में बहुत से वर्ष लगेंगे।

मत सोचना कि तुरंत छलांग कोई शार्टकट है—ऐसा नहीं है। शार्टकट्स होते हैं जब कोई तुमसे कहता है, ‘मंत्र ले लो, मंत्र का जप सुबह पंद्रह मिनट करो और शाम को पंद्रह मिनट करो, और फिर तुम्हें कोई और चीज करने की जरूरत नहीं। पंद्रह दिन के भीतर तुम ध्यानी हो जाओगे।’

पश्चिम में लोग समय के प्रति इतने सचेत होते हैं कि वे सदा इस बात के शिकार होते हैं। कोई आता है और कहता है, ‘यही है शार्टकट। मेरा रास्ता बैलगाड़ी का रास्ता नहीं बल्कि जेट का रास्ता है।’जैसा कि महर्षि महेश योगी कहते हैं। वे कहते हैं, ‘मैं तुम्हें शार्टकट देता हूं। बस एक मंत्र जिसका जप तुम प्रात: पंद्रह मिनट करो और शाम को पंद्रह मिनट करो। और दो सप्ताह के भीतर तुम संबोधि पा ही लेते हो!’

पश्चिम में लोगों को इतनी जल्दी है वे चाहते हैं इंस्टैंट काफी; वे चाहते हैं इंस्टैंट सेक्स, वे चाहते हैं इंस्टैंट परमात्मा; शार्टकट, सजे पैकेट में रखा हुआ, कि हर चीज पहले से ही गढ़ी हुई हो। पश्चिमी दिमाग पर समय बहुत ज्यादा सवार है, बहुत ज्यादा, और वे भीतर बहुत सारे तनाव बनाए जा रहे हैं। कोई भी आ सकता है और कह सकता है, ‘यही है रामबाण और हर चीज सुलझायी जा सकती है पंद्रह मिनट के भीतर ही।’ और तुम क्या करते हो?—तुम बैठ जाते हो और जप किए ही जाते हो मंत्र का।

पूरब लाखों वर्षों से मंत्रों का जप करता रहा है और कुछ घटित नहीं हुआ। और टी एम. शिक्षण के दो सप्ताहों में, तुम प्रज्ञावान हो जाते हो? इस तरह की मूढ़ताएं चलती जाती हैं, क्योंकि तुम जल्दी में हो। कोई न कोई तुम्हारा शोषण करेगा।

अभी एक रात मैं एक किताब पढ़ रहा था, रिचर्ड चर्च के लघु निबंधों का एक संग्रह। पुस्तक का नाम है— ‘ए स्ट्रोल बिफोर दि डार्क।’ उस पुस्तक में वह एक घटना याद करता है जो कि उसके एक मित्र के साथ घटी।

एक मित्र जिस पर कि समय का भूत सवार था रेलगाड़ी से यात्रा कर रहा था। अचानक उसे ध्यान आया कि वह अपनी हाथघडी तो भूल ही आया, तो बहुत चिंतित हो गया वह। रेलगाड़ी एक छोटे से स्टेशन पर ठहरी। मित्र ने खिड़की से झांका तो कुली गुजर रहा था वहां से। उसने कुली से समय के विषय में पूछा। कुली ने कहा, ‘मुझे नहीं पता।’ वह मित्र बोला, ‘क्या! तुम एक रेलवे के आदमी और तुम नहीं जानते कि समय कितना हुआ? क्या तुम्हारे यहां स्टेशन पर घड़ी नहीं है?’ कुली बोला, ‘हां, घड़ी तो है। लेकिन मैं क्यों परेशान होऊं समय को लेकर? क्यों मैं परेशान होऊं समय को लेकर, घड़ी है, उससे मुझे क्या लेना—देना!’

यह बात अदभुत है, कुली का यह कहना, ‘क्यों मैं परेशान होऊं समय के संबंध में?’ लोग समय के लिए कष्ट पाते हैं और पश्चिम में तो बहुत ज्यादा कष्ट पाते हैं—समय और समय और समय। वे कहते कि समय धन है, और समय बह रहा है, लगातार हाथ से निकला जा रहा है, इसलिए शार्टकट की जरूरत है। कोई तुरंत मांग की पूर्ति कर देता है।

समय कम नहीं पड़ रहा है। समय शाश्वत है, कहीं कोई जल्दी नहीं। अस्तित्व बहुत आराम—पसंद ढंग से चलता है। अस्तित्व बहुत धीमे चलता है। जैसे कि गंगा बहती मैदान में — धीमी, जैसे कि बिलकुल बह ही न रही हो। फिर भी पहुंचती है सागर तक।

समय थोड़ा नहीं है, भगदड़ में मत पड़ो। समय पर्याप्त है। तुम आराम से रहो। यदि तुम शात रहते हो, तो सबसे लंबा मार्ग भी सबसे छोटा हो जाएगा। यदि तुम बदहवास हो, जल्दबाजी में होते हो, तो छोटा मार्ग भी बहुत लंबा हो जाएगा—क्योंकि जल्दबाजी में ध्यान असंभव हो जाता है। जब तुम भाग —दौड़ मचाते हो, जल्दी में होते हो तो वह जल्दी ही बाधा हो जाती है। जब मैं कहता हूं, ‘छलांग लगा दो’ — और तुम तुरंत लगा सकते हो छलांग—तों मैं शार्टकट या लांगकट की बात नहीं कर रहा। मैं मार्ग की तो बिलकुल बात ही नहीं कर रहा, क्योंकि छलांग कोई मार्ग नहीं। छलांग की घड़ी एक साहसिक घड़ी होती है —वह एक अचानक घटना है।

लेकिन मेरा यह मतलब नहीं कि तुम बिलकुल अभी ऐसा कर सकते हो। मैं जोर देता रहूंगा, ‘तुरंत छलांग लगा दो, जितनी जल्दी संभव हो।’यह जोर इसके लिए तैयार होने में तुम्हारी मदद देने को ही है। किसी दिन शायद तुम तैयार हो जाओ। कोई बिलकुल अभी तैयार हो सकता है —क्योंकि तुम नए नहीं हो, बहुत जन्मों से तुम कार्य कर ही रहे हो। जब मैं कहता हूं, ‘तुरंत लगा दो छलांग’, तो हो सकता है कोई ऐसा हो जो बहुत जन्मों से कार्य कर रहा हो, और बस किनारे पर ही खड़ा हुआ हो, विशाल शून्य के किनारे, और भयभीत हो। वह साहस कर सकता है और लगा सकता है छलांग। कोई जो बहुत दूर होता है, सोचता है कि तुरंत छलांग संभव है, वह आशा से भर जाएगा और चलने लगेगा।

जब मैं कुछ कहता हूं तो वह एक उपाय होता है —कई प्रकार की स्थितियों में पड़े कई प्रकार के लोगों के लिए। लेकिन तो भी मेरा मार्ग शार्टकट नहीं है। क्योंकि कोई मार्ग हो नहीं सकता है शार्टकट। यह शब्द ही धोखा—धड़ी का है। जीवन किसी शार्टकट्स से परिचित नहीं होता क्योंकि जीवन का कोई आरंभ नहीं। परमात्मा किन्हीं शार्टकट्स को नहीं जानता। परमात्मा को कोई जल्दी नहीं—शाश्वतता का अस्तित्व है।

तुम धीरे — धीरे इस पर काम कर सकते हो। और जितने ज्यादा धैर्य से, जितने धीरे से, जितने ज्यादा अशीघ्र —रूप से तुम काम करते हो, उतने ज्यादा जल्दी तुम पहुंचोगे। यदि तुम इतने धैर्यवान हो सकते हो, इतने असीम रूप से धैर्यवान कि तुम्हें बिलकुल चिंता ही नहीं पहुंचने की, तो तुम बिलकुल अभी पहुंच सकते हो।

 

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–35

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प्रतिप्रसव: पुरातन प्राइमल थैरेपी——(प्रवचन—पद्रंहवां)

    योगसूत्र

(साधनापाद)

स्‍वस्‍सवाही विदुषोउपि तथारूढोउभिनिवेश:।। 9।।

जीवन में से गुजरते हुए मृत्यु— भय है, जीवन से चिपकाव है।

यह बात सभी में प्रबल है—विद्वानों में भी।

ते प्रतिप्रसवहेया: सूक्ष्‍मा:।। 10।।

पांचों क्लेशों के मूल कारण मिटाये जा सकते

है, उन्‍हें पीछे की और उनके उद्गम तक विसर्जित कर देने से।

ध्‍यानहेयास्‍तद्वृत्‍तय:।। 11।।

पांचों दुखों की बह्म अभिव्‍यक्‍तियां तिरोहित हो जाती है—ध्‍यान के द्वारा।

दु:खों की एक अंतहीन शृंखला जान पड़ता है यह जीवन। जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति पीड़ा और पीड़ा ही भोगता है, फिर भी व्यक्ति जीना चाहता है। वह निरंतर जीवन से चिपका रहता है। आल्वेयर कामू ने कहीं कहा है, और बहुत ठीक ही कहा है, ‘आत्महत्या एकमात्र आध्यात्मिक समस्या है।’तुम आत्महत्या क्यों नहीं करते? यदि जीवन इतना दुखदायी है, इतनी निराशाजनक अवस्था है, तो क्यों नहीं तुम कर लेते आत्महत्या? जीते ही क्यों हो? क्यों ‘नहीं’ नहीं हो जाते? गहरे तल पर, यही है वास्तविक आध्यात्मिक समस्या। लेकिन मरना कोई नहीं चाहता। वे लोग भी जो कि आत्महत्या करते हैं, इसी आशा में आत्महत्या करते कि वे एक बेहतर जीवन पा लेंगे, लेकिन जीवन से आसक्ति बनी रहती है। मृत्यु के साथ भी, वे आशा कर रहे हैं।

मैंने सुना है एक यूनानी दार्शनिक के बारे में जिसने अपने शिष्यों को मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ नहीं सिखाया। निस्संदेह, किसी ने उसका अनुसरण तो कभी नहीं किया। लोग सुनते थे, वह बहुत ढंग से बोलने वाला आदमी था। आत्महत्या तक के बारे में उससे सुनना सुंदर लगता था, सुनने लायक लगता था— अनुसरण नहीं किया किसी ने उसका। वह स्वयं जीया नब्बे वर्ष की संपूर्ण अवस्था तक। उसने स्वयं नहीं की आत्महत्या। जब वह मृत्यु —शय्या पर था, किसी ने उससे पूछा, ‘ आपने निरंतर आत्महत्या की बात सिखायी। आपने स्वयं क्यों न कर ली आत्महत्या?’ उस वृद्ध, मरणासन्न दार्शनिक ने अपनी आंखें खोलीं और बोला, ‘मुझे यहां बने रहना था लोगों को शिक्षा देने के लिए ही।’

जीवन से आसक्ति बहुत गहरी बात है। पतंजलि इसे कहते हैं, ‘अभिनिवेश’, जीवन के लिए ललक। यह क्यों होती है यदि इतनी ज्यादा पीड़ा मौजूद है तो? लोग मेरे पास आते हैं, और बहुत गहरी व्यथा लिए वे अपनी पीड़ाओं की बात करते हैं, लेकिन वे जीवन छोड़ने को तैयार नहीं दिखते। जीवन की तमाम पीड़ाओं के साथ भी, जीवन जीने लायक जान पड़ता है। कहां से चली आती है यह आशा? यह एक विरोधाभास है। और इसे समझना है।

वस्तुत: तुम जीवन से ज्यादा चिपकते हो यदि तुम दुखी होते हो तो। जितने ज्यादा तुम दुखी होते हो, उतने ज्यादा तुम चिपकते हो। वह व्यक्ति जो कि प्रसन्न होता है जीवन से चिपकता नहीं है। ऊपर सतह पर तो यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी, लेकिन यदि तुम गहराई में उतरो, तो समझोगे कि बात क्या होती है। लोग जो पीड़ित हो रहे होते हैं, वे सदा आशावान होते हैं, आशावादी। वे सदा आशा करते हैं कि कल कुछ न कुछ घटने वाला है। लोग जो गहरे दुख में और नरक में जीए उन्होंने स्वर्ग का, स्वर्ग की धारणा का निर्माण कर लिया। वह सदा आने वाले कल में ही होता है; वह आता कभी नहीं। वह सदा कहीं भविष्य में रहता है, एक प्रलोभन की १गति, तुम्हारे सामने झलकता रहता।

यह मन की एक चालाकी होती है। स्वर्ग—मन की सबसे बड़ी चालाकी है। मन कह रहा होता है ‘ आज की चिंता मत करो, कल स्वर्ग है। बस किसी न किसी तरह आज से गुजर जाओ। उस प्रसन्नता की तुलना में जो कि कल के लिए तुम्हारी प्रतीक्षा में है, यह कुछ भी नहीं।’ और वह कल इतना करीब जान पड़ता है। निस्संदेह वह कभी नहीं आता, वह आ नहीं सकता। कल एक अनस्तित्वमयी बात है। जो कुछ भी आता है वह सदा आज ही होता है, और आज नरक है। लेकिन मन सांत्वना देता है, उसे सांत्वना देनी ही पड़ती है, अन्यथा करीब—करीब असंभव ही होगा सहना—पीड़ा असहनीय होती है। उसे सहना पड़ता है।

कैसे बरदाश्त कर सकते हो तुम? एकमात्र तरीका है आशा, सभी आशाओं के विपरीत भी आशा, स्वप्नों से भरी हुई आशा। स्वप्न ही एक सांत्वना बन जाता है। स्वप्न तुम्हारे दुखों को आज धुंधला कर देता है। स्वप्न तो शायद पूरा न हो, बात इसकी नहीं, लेकिन कम से कम आज तुम स्वप्न तो देख सकते हो और उस मौजूद पीड़ा को सह सकते हो। तुम स्थगित कर सकते हो। तुम्हारी इच्छाएं अपूर्ण बनी भविष्य में झूलती ही जा सकती हैं। लेकिन यह आशा ही कि कल आ रहा होगा और .हर चीज ठीक हो जाएगी, तुम्हारे जीने में, बने रहने में तुम्हारी मदद करती है।

जितना ज्यादा दुखी होता है आदमी, उतना ज्यादा आशावान होता है; जितना ज्यादा प्रसन्न होता है आदमी उतना ज्यादा निराश होता है। इसीलिए भिखारी कभी नहीं त्यागते संसार को। कैसे त्याग सकते हैं वे? केवल बुद्ध, महावीर—महलों में पैदा हुए राजकुमार—संसार त्याग देते हैं। वे निराश होते हैं; आशा करने को उनके पास कुछ है नहीं, हर चीज मौजूद है और फिर भी दुख है। एक भिखारी आशा कर सकता है क्योंकि उसके पास कुछ है नहीं।’जब हर चीज होती है तो स्वर्ग ही स्वर्ग होगा और हर चीज प्रसन्नता बन जाएगी।’उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है और कल के घटित होने के लिए आयोजन करने पड़ते हैं। बुद्ध के लिए तो कुछ बचा ही नहीं। हर चीज उपलब्ध है; वह सब जो संभव है पहले से मौजूद ही है। तो आशा कैसे करें? किसके लिए आशा करें?

इसीलिए मैं फिर— फिर जोर देता हूं कि केवल एक समृद्ध समाज में ही धर्म की संभावना होती है। एक दरिद्र समाज धार्मिक नहीं हो सकता है। दरिद्र समाज तो साम्यवादी बनेगा ही, क्योंकि साम्यवाद कम्मुनिज्म कल की ही, स्वर्ग की ही आशा है ‘कल हर चीज समान रूप से बंटने वाली है। कल तो ऐसा होगा ही कि कोई अमीर न होगा और कोई गरीब न होगा, कल होगी क्रांति। सूर्य उदय होगा और चीज सुंदर हो जाएगी। अंधेरा तो केवल आज ही है। तुम्हें इसे सहना है और कल के लिए लड़ना है।’ दरिद्र समाज कम्युनिस्ट होगा ही।

केवल एक धनी समाज ही निराशा अनुभव करने लगता है। और जब तुम जीवन के प्रति निराशा अनुभव करने लगते हो, तो सच्ची आशा की संभावना बनती है। जब तुम जीवन के प्रति इतने हताश हो जाते हो कि तुम आत्महत्या करने के किनारे पर ही होते हो। तुम तैयार होते हो इस सारे दुख को छोड़ने के लिए। संकट की उस घड़ी में ही रूपांतरण संभव होता है।

आत्मघात और साधना दो विकल्प हैं। जब तुम आत्मघात तक करने को तैयार होते हो, तभी तुम रूपांतरित होने को तैयार होते हो—उससे पहले बिलकुल नहीं। जब तुम सारे जीवन को और उसकी सारी पीड़ाओं को छोड़ने के लिए राजी होते हो, केवल तभी होती है इसकी संभावना कि तुम स्वयं को रूपांतरित करने के लिए तैयार हो सकते हो। रूपांतरण सच्चा आत्मघात है। यदि तुम अपने शरीर को मारते हो, तो वह सच्चा आत्मघात नहीं। तुम फिर एक और शरीर पा लोगे, क्योंकि मन तो पुराना ही बना रहता है। मन को मारना ही सच्ची आत्महत्या है, और योग इसी की तो बात करता है मन को मारना, परम आत्महत्या को उपलब्ध करना है। वहां से फिर लौटना नहीं होता।

लेकिन आदमी तो चिपका रहता है जीवन से क्योंकि आदमी दुखी है। तुमने दूसरी ही बात सोची होगी, कि किसी दुखी आदमी को जीवन से नहीं चिपकना चाहिए। ऐसा है ही क्या जो जीवन ने दिया है उसे? क्यों चिपकेगा वह? बहुत बार ऐसा विचार आया होगा तुम्हें, किसी भिखारी को सड़क पर देख गंदे नाले में पड़ा हुआ, अंधा, कोढ़ से पीड़ित, अपंग, यह देख तुम्हारे मन में जरूर ऐसा विचार आया होगा, यह आदमी क्यों जीवन से चिपका जा रहा है? अब वहां बचा ही क्या है? यह आत्महत्या क्यों नहीं कर सकता और खत्म ही क्यों नहीं हो जाता?’

मुझे याद है मेरे बचपन में एक भिखारी आया करता था, जिसकी टांगें नहीं थीं। वह एक छोटे से ठेले, एक हाथगाड़ी में पड़ा रहता जिसे उसकी पत्नी चलाती थी। वह अंधा था, सारा शरीर ही एक बदबू भरी लाश था। तुम उसके पास न आ सकते थे। वह असाध्य कोढ़ से पीड़ित था—लगभग मृत, निन्यानबे प्रतिशत मरा ही हुआ था, केवल एक प्रतिशत जीवित था, फिर भी किसी तरह सांस ले रहा था। मैं उसे कुछ— न—कुछ दिया करता। एक दिन मैंने पूछा उससे, मात्र जिज्ञासावश ही, ‘क्यों जी रहे हो तुम? किसलिए? तुम आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते, और इतने दुखी जीवन से छुटकारा ही क्यों नहीं पा लेते?’ निस्संदेह वह तो क्रोध में आ गया। वह बोला, ‘क्या कह रहे हैं?’ क्रोध में था वह। वह मुझे मारना चाहता था अपने हाथ में आयी किसी भी चीज से।

ऐसा लग सकता है तुम्हें कि एक दुखी आदमी को आत्महत्या कर लेनी चाहिए, या कम—से —कम सोचना तो चाहिए ही जीवन समाप्त करने के बारे में। लेकिन कभी नहीं—दुखी आदमी कभी नहीं सोचता इस बारे में। वह सोच ही नहीं सकता। दुख अपनी क्षतिपूर्ति कर लेता है, दुख अपना प्रतिकारक बना लेता है। स्वर्ग है प्रतिकारक— ‘कल हर चीज बिलकुल ठीक हो जाने वाली है। यह तो केवल थोड़े से और धैर्य की बात ही है।’

भिखारी सदा भविष्य में ही रहता। और तुम भिखारी हो यदि तुम भविष्य में रहते हो तो। यही है निर्णय करने की कसौटी कि कोई आदमी सम्राट है या भिखारी : यदि तुम भविष्य में रहते हो तो तुम भिखारी हुए; यदि तुम रहते हो बिलकुल यहीं, अभी तो तुम एक सम्राट हुए।

वह आदमी जो आनंदित होता है, यहीं और अभी जीता है। वह भविष्य की फिक्र नहीं करता। भविष्य का तो अर्थ होता है ना —कुछ; भविष्य का उसके लिए कोई अर्थ नहीं। यही क्षण है एकमात्र अस्तित्व। लेकिन यह संभव है केवल आनंदपूर्ण व्यक्ति के लिए। दुखी व्यक्ति के लिए यही क्षण एकमात्र अस्तित्व कैसे हो सकता है? तब तो यह बहुत दूभर होगा—असहनीय, असंभव। उसे निर्मित करना पड़ता है भविष्य। उसे कहीं—न—कहीं, किसी तरह स्वप्न निर्मित करना पड़ता है, दुख का प्रतिकार करने के लिए।

जितना ज्यादा गहरा होता है दुख, उतनी ज्यादा होती है आशा। आशा एक क्षतिपूर्ति है। एक दुखी व्यक्ति कभी नहीं करता आत्महत्या, और एक दुखी आदमी कभी नहीं आता धर्म के पास। दुखी आदमी चिपकता है जीवन से। जितने ज्यादा प्रसन्न तुम होते हो, उतने ज्यादा तुम तैयार रहोगे किसी भी क्षण जीवन छोड़ने को —किसी भी क्षण बिना किसी जुड़ाव —चिपकाव के तुम उतार सकते हो अपने जीवन को पुराने पड़ गए कपड़ों की भांति ही, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।

केवल इतना ही नहीं, यदि तुम सचमुच ही प्रसन्नता से भरे होते हो और मृत्यु द्वार खटखटाती है, तो तुम उसका स्वागत करोगे। तुम आलिंगन में लोगे मृत्यु को, और उसी बात से तुम पार हो जाओगे मृत्यु के। मुझे फिर से कहने दो मृत्यु आती है और खटखटाती है तुम्हारा द्वार और यदि तुम भयभीत होते हो और तुम किन्हीं कोनों में जा छुपते हो, अलमारियों में, और तुम रोते —चिल्लाते हो और तुम थोड़ा और जीना चाहते हो, तो तुम शिकार हुए। तुम्हें बहुत बार मरना पड़ेगा। एक भयभीत आदमी हजारों बार मरता है। लेकिन यदि तुम द्वार खोल सको, मृत्यु का स्वागत करो मित्र की भांति, मृत्यु का आलिंगन करो, उसी में तुम पार हो गए मृत्यु के। अब तुम मृत्यु विहीन हुए। पहली बार अब तुम उस जीवन को उपलब्ध करते हो जिसमें दुख नहीं, वह जीवन जिसकी बात जीसस करते हैं समृद्ध जीवन; वह जीवन जिसकी बात बुद्ध कहते हैं आनंदमय जीवन, निर्वाणमय जीवन; वह जीवन जिसकी बात पतंजलि कह रहे हैं : शाश्वत, समय और स्थान के पार का, कालातीत।

दुख अपना प्रतिकारक निर्मित करता है। एक बार तुम जाल में पकड़ लिए जाते हो, तो और ज्यादा तुम चिपकोगे जीवन से, और ज्यादा ही दुखी हो जाओगे तुम। क्योंकि चिपके रहना स्वयं ही दुख निर्मित करता है, चिपके रहना ज्यादा हताशाएं निर्मित करता है।

जब तुम किसी चीज से नहीं चिपकते, तब यदि वह खो जाती है तो तुम दुखी नहीं होते हो। जब तुम चिपकते हो किसी चीज से और वह खो जाए, तो तुम पागल हो जाते हो। जितना ज्यादा तुम चिपकते हो जीवन से और— और तुम पाओगे हर दिन कि तुम दुखी हो रहे हो।. पोड़ा और जुड़ती जा रही है तुम्हारे अस्तित्व से। एक घड़ी आती जब तुम और कुछ नहीं होते सिवाय पीड़ा के, एक चीखती हुई पीड़ा। और जब ऐसा घटता है, तो तुम ज्यादा चिपकते हो। यह एक दुश्चक्र होता है।

जरा सारी घटना पर ध्यान देना। क्यों चिपक रहे होते हो तुम? तुम चिपक रहे होते हो क्योंकि तुम अभी तक जी नहीं पाए हो। जीवन के साथ चिपकना ही दर्शाता है कि तुम अभी जीए ही नहीं, तुमने एक मुरदा जीवन जीया है, अभी तक तुम जीवन के वरदान का आनंद मनाने योग्य नहीं हुए; तुम असंवेदनशील रहे हो, तुमने एक बंद जीवन जीया है। तुम छू नहीं पाए फूलों को, आकाश को, पक्षियों को। तुम जीवन की नदिया के संग बह नहीं पाए, तुम रुके हो। क्योंकि तुम जम गए और तुम जी नहीं सकते, तो तुम दुखी हो। तुम्हारे दुखी होने के कारण तुम मृत्यु से भयभीत हो क्योंकि यदि मृत्यु बिलकुल अभी आ जाए तो —और तुमने अभी तक जीवन जीया ही न हो, तो तुम मारे गए।

एक पुरानी कथा है। उपनिषदों के काल में एक बड़ा राजा हुआ, ययाति। उसका मृत्यु—काल आ गया। वह सौ वर्ष का था। जब मौत आ गई तो वह रोने —चीखने लगा। मृत्यु ने कहा, ‘यह बात तुम्हें शोभा नहीं देती, एक बड़े सम्राट हो, बहादुर आदमी हो। क्या कर रहे हो तुम? क्यों तुम एक बच्चे की भांति रो रहे हो, चीख रहे हो? क्यों तेज अंधड़ में कंपते पत्ते जैसे कंप रहे हो? क्या हुआ है तुम्हें?’

ययाति ने कहा, ‘तुम आ गई हो और मैं तो अभी तक जी नहीं पाया। कृपया मुझे थोड़ा समय और दो ताकि मैं जी सकूं। मैंने बहुत चीजें कीं, मैं बहुत से युद्धों में लड़ा। मैंने बहुत धन इकट्ठा किया, मैंने बड़ा राज्य बना लिया। मैंने अपने पिता की संपत्ति ज्यादा बढ़ा दी, लेकिन मैं तो जीया नहीं। वास्तव में, जीने के लिए समय ही न रहा था, और तुम आ गईं। नहीं, यह तो अन्याय हुआ। तुम मुझे थोड़ा और समय दो।’ मृत्यु ने कहा, ‘लेकिन मुझे किसी न किसी को तो ले जाना ही है। ठीक है कोई इंतजाम कर दो। यदि तुम्हारे बेटों में से कोई तुम्हारे लिए मरने को राजी है, तो मैं ले जाऊंगी उसे।’

ययाति के सौ बेटे थे, हजारों पत्नियां थीं। उसने बुला भेजा अपने बेटों को। बड़े बेटों ने तो बात ही नहीं सुनी। वे स्वयं ही चालाक हो गए थे और वे उसी फंदे में पड़े थे। एक, जो सबसे बड़ा था, सत्तर वर्ष का था। वह कहने लगा, ‘लेकिन मैं भी तो नहीं जीया। मेरा क्या होगा? आप कम से कम सौ साल तो जीए, मैं तो केवल सत्तर वर्ष जीया। मुझे थोड़ा और अवसर मिलना चाहिए।’ सब से छोटा, जो अभी सोलह या सत्रह साल का ही था, वह आया, उसने अपने पिता के पांव छुए और वह बोला, ‘मैं तैयार हूं।’ मृत्यु तक को करुणा आयी इस लड़के पर। मृत्यु जानती थी कि वह निर्दोष था, संसार के रंग—ढंग की होशियारी नहीं, नहीं जानता कि वह क्या कर रहा था। मृत्यु लड़के के कान में फुसफुसा कर कहने लगी, ‘क्या कर रहे हो तुम? अरे मूड, अपने पिता की ओर देख। सौ साल की आयु में मरने को तैयार नहीं है वह और तुम तो केवल सत्रह वर्ष के हो! तुमने तो अभी जीवन का स्पर्श तक नहीं किया।’ लड़का कहने लगा, ‘जीवन समाप्त हो गया! क्योंकि मेरे पिता सौ वर्ष की अवस्था में अनुभव करते हैं कि अभी भी वे जी नहीं पाए हैं, तो सार ही क्या? यदि मैं भी सौ वर्ष जी लूं तो बात वही होने वाली है। बेहतर है कि मैं उन्हें मेरा जीवन जीने दूं। यदि वे सौ वर्षों में नहीं जी सके, तब तो सारी बात ही व्यर्थ हुई।’

बेटा मर गया और पिता सौ वर्ष और जीया। फिर मौत ने द्वार खटखटाया और उसने रोना—चिल्लाना शुरू कर दिया। वह कहने लगा, ‘मैं तो बिलकुल भूल ही गया था। मैं तो फिर धन —दौलत बढ़ा रहा था, राज्य बढ़ा रहा था, और सौ साल बीत गए जैसे स्वप्न में ही। तुम फिर से यहां आ गई हो और मैं जीया ही नहीं।’ और यह बात चलती चली गई।

मौत फिर —फिर आती और वह एक न एक बेटे को ले जाती। ययाति एक हजार वर्ष और जीया।

सुंदर है कहानी, लेकिन वह बात फिर घटी। हजार वर्ष बीत गए और मृत्यु आ गई। ययाति कांप रहा था और रो रहा था और चीख रहा था। मृत्यु बोली, ‘लेकिन अब तो बहुत हुआ। तुम हजार वर्ष जी लिए और तुम फिर कहते हो कि तुम जी ही नहीं पाए!’ ययाति ने कहा, ‘कोई कैसे अभी और यहीं जी सकता है? मैं सदा स्थगित करता हूं : कल और कल। और कल? —अकस्मात तुम मौजूद हो जाती हो।’ जीवन को स्थगित करना एकमात्र पाप है जिसे कि मैं पाप कह सकता हूं। स्थगित मत करो। यदि तुम जीना चाहते हो, तो अभी और यहीं जीयो। भूल जाओ अतीत को; भूल जाओ भविष्य को. यह एकमात्र क्षण है, यही है एकमात्र अस्तित्वमय क्षण—जीयो इसे। एक बार खोया तो यह दुबारा नहीं पाया जा सकता, तुम फिर इसे नहीं मांग सकते।

यदि तुम वर्तमान में जीने लगो, तो तुम भविष्य की नहीं सोचोगे और तुम जीवन से नहीं चिपकोगे। जब तुम जीते हो तो तुमने जान लिया होता है जीवन को, तुम संतुष्ट होते, परितृप्त होते। तुम्हारी पूरी अंतस सत्ता धन्यभागी अनुभव करती है। किसी और पूर्ति की कोई जरूरत नहीं रहती। मृत्यु को सौ वर्ष

बाद आने की जरूरत नहीं रहती। और तुम्हें कंपते हुए और रोते हुए और चीखते हुए देखने की कोई जरूरत नहीं रहती। यदि मृत्यु बिलकुल अभी भी आ जाए तो तुम तैयार होओगे तुम जी लिए, तुम आनंदित हुए, तुमने उत्सव मना लिया। सचमुच जीवंत होने का एक क्षण पर्याप्त है, और झूठी जिंदगी के एक हजार साल पर्याप्त नहीं हैं। जो न जीयी गई हो उसके हजार या लाख वर्ष किसी काम के नहीं होते हैं; और मैं कहता हूं तुमसे, जीए हुए अनुभव का एक क्षण स्वयं शाश्वतता है। वह समय के पार होता है, तुम जीवन की आत्मा को ही छू लेते हो और फिर कहीं कोई मृत्यु नहीं होती, कोई चिंता नहीं, कोई चिपकाव नहीं। तुम किसी क्षण जीवन त्याग सकते हो और तुम जानते हो कि कुछ बचा नहीं है। तुम इससे संपूर्णतया अंतिम कोर तक आनंदित हुए। तुम इससे लबालब भरे हो, तुम तैयार हुए।

जो आदमी गहरी उत्सवमयी भावदशा में मरने को तैयार हो, वह वही आदमी होता है जो कि सचमुच ही जीया होता है। जीवन से चिपकना दर्शाता है कि तुम जी नहीं पाए हो। मृत्यु का आलिंगन जीवन के ही एक अंश की तरह करना दर्शाता है कि तुम ठीक से जीए हो। तुम संतुष्ट हो। अब पतंजलि के सूत्र को सुनो। यह सर्वाधिक गहन और बहुत ज्यादा अर्थवान है तुम्हारे लिए।

जीवन में से गुजरते हुए मृत्यु—भय है जीवन से चिपकाव है और यह बात सभी में प्रबल है—विद्वानों में भी।

वह जीवन के भीतर ही गतिमान हो रहा है। यदि तुम अपने मन पर ध्यान दो, यदि तुम स्वयं का निरीक्षण करो, तो तुम पाओगे कि चाहे सजग हो या नहीं, मृत्यु का भय निरंतर वहां मौजूद रहता है। जो कुछ भी करो तुम, मृत्यु— भय वहा होता है। कैसा भी आनंद मनाओ, बस कहीं कोने में ही मृत्यु की छाया सदा होती है। वहां डटी रहती है। वह तुम्हारा पीछा करती है। जहां कहीं, तुम उसके साथ ही जाते हो। वह तुम्हारे भीतर की ही कोई चीज है। तुम उसे बाहर नहीं छोड़ सकते, तुम उससे बच नहीं सकते, मृत्यु—भय तुम्हीं हो।

मृत्यु का यह भय आता कहां से है? क्या तुमने पहले कभी जाना है मृत्यु को? यदि तुमने पहले नहीं जाना है मृत्यु को, तो तुम उससे भयभीत क्यों हो, किसी उस चीज से भयभीत हो जिसे तुम जानते नहीं। यदि तुम पूछो मनोविश्लेषकों से तो वे कहेंगे, ‘भय प्रासंगिक है, यदि तुम जानते हो कि मृत्यु क्या है। यदि तुम पहले मर चुके हो, तो भय प्रासंगिक जान पड़ता है। ‘ लेकिन तुम तो जानते नहीं मृत्यु को। तुम नहीं जानते कि वह दर्दनाक होगी या वह आनंदपूर्ण होगी। तो फिर भयभीत क्यों हो तुम?

नहीं, मृत्यु— भय वास्तव में मृत्यु का भय नहीं है, क्योंकि कैसे तुम किसी उस चीज से भयभीत हो सकते हो जो कि अज्ञात है, जो कि बिलकुल ही ज्ञात नहीं? कैसे तुम किसी उस चीज से भयभीत हो सकते हो जो कि तुम्हारे लिए बिलकुल अज्ञात है? मृत्यु— भय वास्तव में मृत्यु का भय नहीं है। मृत्यु— भय वास्तव में जीवन से चिपकना ही है।

जीवन मौजूद है और तुम खूब जानते हो कि तुम उसे जी नहीं रहे हो, वह तुम्हारे बाहर—बाहर चलता चला जा रहा है। नदी तुम्हारे पास से गुजरती जा रही है, तुम किनारे पर खड़े हुए हो, और वह निरंतर तुम्हारे हाथों से निकली जा रही है। मृत्यु का भय, मौलिक रूप से यह भय है कि तुममें जीने की सामर्थ्य नहीं और जीवन बीता जा रहा है। जल्दी ही, कोई समय बचा न रहेगा, और तुम प्रतीक्षा करते रहे हो और तुम सदा तैयारी करते रहे हो। तुम तैयारियों से घिरे रहे हो।

मैंने सुना है एक जर्मन विद्वान के बारे में जिसने दुनिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरियों में से एक का संग्रह किया, सारे देशों से, सारी भाषाओं से। वह कभी एक किताब तक न पढ़ पाया, क्योंकि वह सदा संचय ही करता रहा चीन चला जाता, मानव त्वचा पर लिखी कोई असाधारण पुस्तक पाने के लिए; फिर दौड़ता बर्मा की ओर, फिर आ जाता भारत में, फिर लंका, फिर अफगानिस्तान की और जिदगी भर यही कुछ। जब वह सत्तर वर्ष का हुआ, उसने पुस्तकों का, विरल पुस्तकों का एक बड़ा संग्रह संचित कर लिया था। वह सदा स्थगित करता रहा यह सोच कर कि वह उन्हें पढ़ लेगा जब लाइब्रेरी पूरी हो जाएगी। और मृत्यु आ पहुंची। जब वह मर रहा था, तो आंसू बहने लगे उसकी आंखों से। उसने पूछा एक मित्र से, ‘ अब क्या करूं? कोई समय बचा नहीं। लाइब्रेरी तैयार है, लेकिन मेरा जीवन बीत चुका है। कुछ करो, कोई भी किताब उठाओ लाइब्रेरी से, उसमें से कुछ पढ़ो जिससे कि मैं कुछ समझ सकूं। कम से कम मैं थोड़ा संतुष्ट तो हो सकूं।’ मित्र गया लाइब्रेरी में, एक किताब लेकर लौट आया—लेकिन विद्वान तो मर गया था।

ऐसा सभी के साथ घटता है, करीब—करीब सभी के साथ, तुम जिंदगी की तैयारी किए चले जाते हो। तुम सोचते हो कि पहले लाखों तैयारियां कर लेनी हैं और फिर तुम आनंद मनाओगे, और फिर तुम जीयोगे, लेकिन उस समय तक जीवन जा चुका होता है। तैयारियां हो जाती हैं, लेकिन कोई मौजूद नहीं रहता उनसे आनंदित होने को। यही होता है डर, तुम इसे तुम्हारे अंतस्तल में गहरे रूप से जानते हो, तुम इसे अनुभव करते हो. कि जीवन बहा जा रहा है, हर क्षण तुम मरते हो, हर क्षण तुम मर ही रहे हो।

यह भय मृत्यु का नहीं जो कहीं भविष्य में आने वाली है और तुम्हें नष्ट करने वाली है। यह तो हर क्षण घट रहा है। जीवन सरकता जा रहा है और तुम बिलकुल ही अक्षम हो और बंद हो। तुम पहले ही मर रहे हो। जिस दिन तुम पैदा हुए, तुमने मरना शुरू कर दिया। जीवन की प्रत्येक घड़ी मृत्यु की भी घड़ी है। भय किसी अज्ञात मृत्यु का नहीं है, जो कहीं भविष्य में प्रतीक्षा कर रही है, भय तो बिलकुल अभी ही है। जीवन हाथ से निकला जा रहा है और तुम असमर्थ जान पड़ते हो; तुम कुछ नहीं कर सकते। मृत्यु का भय मौलिक रूप से भय है जीवन का जो कि तुम्हारे हाथों से निकला जा रहा है।

तब भयभीत होकर तुम जीवन से चिपकते हो, लेकिन चिपकना कभी उत्सव नहीं बन सकता है। चिपकना आक्रामक है। जितना ज्यादा तुम जीवन से चिपकते हो, उतने ज्यादा तुम असमर्थ हो जाओगे। उदाहरण के लिए. तुम किसी स्त्री से प्रेम करते हो, तुम चिपक जाते हो उससे। जितने ज्यादा तुम चिपकते हो, उतना ज्यादा तुम बाध्य करोगे स्त्री को तुमसे दूर हो जाने में, क्योंकि तुम्हारा पीछे —पीछे लगे रहना उस पर एक बोझ हो जाएगा। जितना ज्यादा तुम उस पर कब्जा करने की कोशिश करोगे, उतना ज्यादा वह सोचेगी कि कैसे मुक्त हो, कैसे तुमसे दूर हो। मैं कहता हूं तुमसे जिंदगी एक स्त्री है। उससे चिपकना मत। वह उनके पीछे आती है, जो उससे चिपकते नहीं। वह बहुत ज्यादा मिलती है उन्हें जो उससे चिपकते नहीं। यदि तुम चिपकते हो, तो वह चिपकाव ही जीवन को स्थगित कर देता है। तुम्हारा भिखमंगापन ही जीवन पर रोक लगा देता है। सम्राट होओ, मालिक होओ। जीवन जीयो, लेकिन उससे चिपको मत। किसी चीज से मत चिपको। चिपकाव तुम्हें असुंदर और आक्रामक बना देता है। चिपकाव तुम्हें एक भिखारी बना देता है और जीवन उनके लिए है जो सम्राट हैं, उनके लिए नहीं जो कि भिखारी हैं। यदि तुम भीख मांगते हो, तो तुम कुछ नहीं पाओगे। जीवन उन्हें बहुत ज्यादा देता है जो कभी मांगते नहीं हैं। जीवन उनके लिए एक आशीष बन जाता है जो उससे चिपकते नहीं। जीयो उसे, आनंदित होओ उससे, उत्सव मनाओ उसका; लेकिन कंजूसी कभी मत करना, उससे चिपकना मत। जीवन के प्रति यह चिपकाव ही तुम्हें मृत्यु का भय देता है, क्योंकि जितने ज्यादा तुम चिपकते हो उतने ज्यादा तुम समझ जाते हो कि जीवन वहा नहीं है—वह जा रहा है, वह चला जा रहा है। तब मृत्यु का भय आ खड़ा होता है।

जीवन में से गुजरते हुए मृत्यु— भय है जीवन से चिपकाव है और यह बात सभी में प्रबल है— विद्वानों में भी।

 

क्योंकि तुम्हारे विद्वान बिलकुल तुम्हारे जैसे ही मूढ़ हैं। पंडितों ने कुछ नहीं जाना। वस्तुत: उन्होंने चीजें स्मरण कर ली हैं। बड़े विद्वान हैं, पंडित हैं, वे जीवन के बारे में बहुत कुछ जानते हैं, लेकिन वे जीवन को नहीं जानते। वे सदा किसी चीज के आस— पास को, घेरे को ही जानते हैं। वे आसपास ही चक्कर काटते रहते हैं—केंद्र में कभी नहीं उतरते। वे उतने ही भयभीत होते हैं—शायद तुमसे भी ज्यादा—क्योंकि उन्होंने अपने जीवन शब्दों में व्यर्थ गंवाए हैं। शब्द तो बुदबुदे मात्र हैं। उन्होंने बहुत शान इकट्ठा कर लिया है, लेकिन जीवन के मुकाबले शान की क्या हस्ती?

तुम प्रेम के विषय में बहुत—सी बातें जान सकते हो बिना प्रेम को जाने हुए। वस्तुत: यदि तुम प्रेम को जानते हो, तो प्रेम के विषय में जानने की क्या जरूरत है? तुम परमात्मा के विषय में बहुत—सी बातें जान सकते हो बिना परमात्मा को जाने हुए। वास्तव में, यदि तुम परमात्मा को जानते हो, तो परमात्मा के विषय में जानने की क्या जरूरत है?—वह मूढ़ता होगी, नासमझी। सदा याद रखना कि किसी विषय में जानना कोई जानना नहीं होता। किसी विषय के बारे में जानना, केंद्र को कभी भी न छूते हुए, मात्र चक्कर में ही घूमते जाना है।

पतंजलि कहते हैं विद्वान भी, जो शास्त्र— निपुण हैं, तत्वज्ञान के ज्ञाता हैं, बहस कर सकते है उनके सारे जीवन भर वाद—विवाद कर सकते है, वे बातें ही बातें किए जा सकते हैं, और लाखों चीजों के बारे में तर्क कर सकते हैं, लेकिन इस बीच जीवन बहा जा रहा है। जीवन की प्याली का तो स्वाद ही नहीं लिया उन्होंने। वे नहीं जानते जीवन क्या है। वे शब्दों में जीए हैं, भाषागत खेलों में। वे भी भयभीत होंगे। तो ध्यान रहे, वेद और बाइबिल मदद न देंगे। जहां तक जीवन का संबंध है, ज्ञान किसी काम का नहीं। तुम चाहे बड़े वैज्ञानिक हो जाओ या बड़े दार्शनिक या कि बड़े गणितज्ञ, लेकिन उसका यह अर्थ नहीं कि तुम जीवन को जानते हो। जीवन को जानना एक संपूर्णतया अलग आयाम है।

जीवन को जानने का अर्थ है : उसे जीना, निर्भय हो कर असुरक्षाओं में जीना क्योंकि जीवन एक असुरक्षित घटना है, अज्ञात में सरकना क्योंकि जीवन हर क्षण अज्ञात है, वह सदा बदल रहा है, और नया हो रहा है, अज्ञात के यात्री हो जाओ और जीवन के साथ बढ़ना जहां कहीं वह ले जाए; एक घुमक्कड़ हो जाना।

मेरे देखे संन्यास का यही अर्थ है ज्ञात को और शात की सुविधाओं को छोड़ने के लिए सदा तैयार रहना और अज्ञात में बढ़ते जाना। निस्संदेह, अज्ञात के साथ असुरक्षाएं लगी हैं, तकलीफें हैं, असुविधाएं हैं। अज्ञात में सरकने का अर्थ है खतरे में सरकना। जीवन एक खतरा है। वह खतरों और बाधाओं से भरा हुआ है। इसी कारण, लोग स्वयं को बंद करने लगते हैं। वे कैदी में, कोठरियों में जीते —अंधेरे में, लेकिन फिर भी सुविधापूर्ण। इससे पहले कि मृत्यु आए, वे मर ही गए होते हैं।

स्मरण रखना, यदि तुम सुविधा को चुनते हो, यदि .तुम सुरक्षा को चुनते हो, यदि परिचित को चुनते हो, तो तुम जीवन को न चुनोगे। जीवन एक अज्ञात घटना है। तुम जी सकते हो उसे, लेकिन तुम उसे मुट्ठियों में नहीं कस सकते, तुम उससे चिपक नहीं सकते। जहां कहीं वह ले जाए, तुम सरक सकते हो उसके साथ। तुम्हें शुद्ध बादल की भांति हो जाना होता है, जहां कहीं उसे हवा ले जाए उसके साथ चलना होता है न जानते हुए कि वह कहां जा रहा है।

जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता। यदि तुम किसी एक निश्चित उद्देश्य की खोज में हो तो तुम जी नहीं पाओगे। जीवन उद्देश्यविहीन है। इसीलिए वह असीम है, इसीलिए यात्रा अंतहीन है। अन्यथा उद्देश्य पर पहुंच जाओगे, और फिर क्या करोगे तुम जब उद्देश्य मिल चुका होगा?

जीवन का कोई उद्देश्य नहीं। तुम एक उद्देश्य पा लेते, हो और हजारों उद्देश्य आगे होते हैं। तुम एक शिखर पर पहुंच जाते और तुम सोच रहे होते कि ‘यह अंतिम है, मैं आराम करूंगा।’ लेकिन जब तुम पहुंचते हो शिखर पर तो बहुत से और शिखर उदघाटित हो जाते हैं, ज्यादा ऊंचे शिखर अभी भी वहां जाने को हैं। यह सदा ऐसा ही होता है, तुम अंत तक कभी नहीं पहुंचते। यही अर्थ है परमात्मा के असीम होने का, जीवन के अंतहीन होने का कोई आरंभ नहीं और कोई अंत नहीं। भयभीत, स्वयं में बंद हुए, तुम चिपकोगे, और फिर तुम पीड़ित होओगे।

जीवन में से गुजरते हुए मृत्यु—भय है जीवन से चिपकाव है और यह बात सभी में प्रबल है—विद्वानों में भी।

मृत्यु को जाने बिना ही तुम भयभीत होते हो। कोई बात वहा भीतर गहरे में जरूर है, और बात यही है : तुम्हारा अहंकार एक झूठी घटना है। वह कुछ निश्चित चीजों का एक संयोजन है; उसमें कोई तत्व नहीं, कोई केंद्र नहीं। अहंकार मृत्यु से भयभीत है। यह तो वैसा ही है जैसे जब कोई छोटा बच्चा ताश के पत्तों का घर बना लेता है और बच्चा डरा हुआ होता है, भीतर आ रही हवा से डरा होता है। बच्चा भयभीत होता है कि शायद दूसरा बच्चा घर के पास आ जाएगा। वह स्वयं से भयभीत होता है, क्योंकि यदि वह कुछ करता है, तो घर तुरंत गिर सकता है।

तुम रेत में घर बनाते हो; तुम सदा भयभीत रहोगे, ठोस चट्टान वहां है नहीं उसकी नींव में। तूफान आते हैं और तुम कंपते हो क्योंकि तुम्हारा सारा घर कंपता है; किसी क्षण वह गिर सकता है। अहंकार ताश के पत्तों का घर है, और तुम डरे हुए हो। यदि तुम सचमुच ही जानते हो कि तुम कौन हो, तो भय तिरोहित हो जाता है, क्योंकि अब तुम असीम की, मृत्युहीनता की चट्टान पर होते हो।

अहंकार मरने ही वाला है क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ है। उसका अपना कोई जीवन नहीं; वह केवल तुम्हारे जीवन को प्रतिबिंबित करता है। वह होता है दर्पण की भाति। तुम्हारा अस्तित्व शाश्वत है। पंडित—विद्वान तक भी, सत्य से इसलिए भयभीत हैं, क्योंकि पांडित्य द्वारा तुम नहीं जान सकते अपनी अंतस सत्ता को, वह जाना जाता है अनसीखे द्वारा, सीखे हुए द्वारा नहीं। तुम्हें अपना मन पूरी तरह खाली करना पड़ता है। तुम्हारी ‘मैं’ की अनुभूति से भी पूरी तरह रिक्त, शून्य होकर, अकस्मात उस शून्यता में तुम अंतस सत्ता को पहली बार अनुभव करते हो, वह शाश्वत है। उसकी कोई मृत्यु नहीं हो सकती। केवल वह सत्ता ही आलिंगन कर सकती है मृत्यु का, और उसी में जानती है कि तुम मृत्यु विहीन हो। अहंकार तो भयभीत रहता है।

पतंजलि कहते हैं:

 

पांचों क्लेशों के मूल कारण मिटाए जा सकते हैं उन्हें पीछे की ओर उनके उदगम तक विसर्जित कर देने से

प्रति—प्रसव? यह एक बहुत —बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है—प्रति—प्रसव की प्रक्रिया। यह प्रक्रिया है कारण में फिर से समावेश होना, कार्य को कारण तक लौटा लाना, प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया। तुमने सुना होगा जैनोव का नाम, वह आदमी जिसने प्राइमल थैरेपी का फिर से आविष्कार किया है। प्राइमल चिकित्सा प्रति—प्रसव का ही एक हिस्सा है। यह पतंजलि की प्राचीनतम विधियों में से एक है। प्राइमल चिकित्सा में, जैनोव लोगों को सिखाता है उनके बचपन तक आना। यदि कोई बात होती है मुश्किल, तो फिर तुम लौट आना उसके मूल स्रोत तक जहां से कि वह आरंभ हुई। क्योंकि तुम समस्या को सुलझाने की कोशिश किए जा सकते हो, लेकिन जब तक कि तुम जड़ तक ही न उतरो, वह सुलझायी नहीं जा सकती है। परिणाम सुलझाए नहीं जा सकते हैं; उन्हें कारण तक लौटाया जा सकता है। यह ऐसा होता जैसे कि एक वृक्ष है और तुम नहीं चाहते उसका होना, लेकिन तुम टहनियां काटते जाते हो, पत्तों को काटते जाते हो, और फिर और टहनियां फूट पड़ती हैं। तुम एक पत्ता काटते हो, तो तीन पत्ते आ जाते हैं। तुम्हें जाना पड़ता है जड़ों तक।

उदाहरण के लिए, एक आदमी है जो स्त्री से भयभीत है। बहुत से लोग आते हैं मेरे पास। वे कहते हैं कि उन्हें भय आता है स्त्री से, बहुत भय। उसी भय के कारण, वे कोई सार्थक संबंध नहीं बना सकते, वे संबंधित नहीं हो सकते; भय सदा ही रहता है। जब तुम भयभीत होते हो, तो संबंध दूषित हो जाएंगे भय द्वारा। तुम समग्ररूप से बढ़ न पाओगे। तुम आधे — आधे मन से जुडोगे, सदा भयभीत होकर; अस्वीकृत होने का भय, यह भय कि शायद ‘ स्त्री न ही कह दे। और दूसरे भय होते हैं। यदि यह आदमी एमिल कूए के ढंग की विधियों को आजमाता है। यदि वह दोहराए जाता है, ‘मैं स्त्रियों से भयभीत नहीं, और हर रोज मैं बेहतर हो रहा हूं?, यदि वह ऐसी बातें आजमाता है तो वह अस्थायी रूप से भय का दमन कर सकता है, लेकिन भय बना रहेगा। और फिर —फिर आता रहेगा।

प्राइमल— थैरेपी में, उसे पीछे फेंक देना पड़ता है। वह व्यक्ति जो भयभीत है स्त्रियों से, दर्शाता है कि उसका मां के साथ कोई ऐसा अनुभव रहा होगा जिसके कारण भय बना, क्योंकि मां होती है पहली स्त्री। तुम्हारी सारी जिंदगी में तुम्हारा शायद बहुत —सी स्त्रियों के साथ संबंध जुड़े—पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में, पुत्री के रूप में, मित्र के रूप में, लेकिन मां की छवि बनी रहेगी। वह तुम्हारा पहला अनुभव है स्त्रियों के साथ संबंध का। तुम्हारा सारा ढांचा उसी नींव पर आधारित होगा, और वह नींव है तुम्हारी मां के साथ तुम्हारा संबंध। इसलिए यदि कोई व्यक्ति भयभीत होता है स्त्रियों से, तो उसे पीछे ले जाना होता है, उसे पीछे कदम रखना पड़ता है स्मृति में। उसे पीछे लौटना पड़ता है और पता लगाना होता है उस मूल स्रोत का जहां से कि भय प्रारंभ हुआ। वह शायद कोई साधारण घटना रही हो, बहुत छोटी। वह शायद बिलकुल भूल चुका हो उसे। यदि वह पीछे जाता है तो वह कहीं न कहीं घाव ढूंढ लेगा।

तुम चाहते थे मां तुम्हें प्रेम करे, जैसा कि हर बच्चा चाहता है। लेकिन मां को कोई दिलचस्पी न थी। वह एक व्यस्त स्त्री थी। उसे भाग लेना था बहुत संस्थानों में, क्लबों में, इसमें और उसमें। वह तुम्हें दूध पिलाने को राजी न थी क्योंकि वह चाहती थी बहुत अनुपातमय शरीर। वह अपने स्तन जवान बनाए रखना चाहती थी। और तुम्हारे द्वारा नष्ट नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए तुम्हें स्तन का दूध देने से इनकार करती थी, या उसके दिमाग में और दूसरी समस्याएं रही होंगी। तुम स्वीकृत बच्चे न थे, बोझ की भाति तुम आए। पहली बात तो यह कि तुम्हारी कभी आवश्यकता ही न थी। लेकिन गोली ने काम किया नहीं और तुम पैदा हो गए। या वह घृणा करती थी पति से कैर तुम्हारा चेहरा पति जैसा था —एक गहरी घृणा, या थी कोई न कोई और बात लेकिन तुम्हें पीछे जाना पड़ता है और तुम्हें फिर से बच्चा बनना पड़ता है।

ध्यान रहे, जीवन की कोई अवस्था कभी गुम नहीं होती। तुम्हारा वह बच्चे का रूप अभी भी भीतर है। ऐसा नहीं है कि बच्चा युवा हो जाता है, नहीं। बच्चा भीतर बना रहता है, युवा उस पर आरोपित हो गया होता है, फिर वृद्ध ऊपर से और आरोपित हो जाता है युवा व्यक्ति पर, पर्त —दर—पर्त। बच्चा कभी नहीं बनता युवा व्यक्ति। बच्चा मौजूद रहता है, युवा व्यक्ति की पर्त उसके ऊपर आ जाती है। युवा व्यक्ति कभी नहीं होता का, एक और पर्त वृद्धावस्था की, उसके ऊपर आ जाती है। तुम प्याज की भाति बन जाते —बहुत सारी पर्तें —और यदि तुम उसमें उतरो, तो सारी पर्तें अभी भी वहां मौजूद होती हैं, संपूर्ण रूप से।

प्राइमल — थैरेपी में जैनोव लोगों की मदद करता है पीछे लौटने में और फिर से बच्चे बन जाने में। वे हाथ —पैर मारते, वे चिल्लाते, वे रोते, वे चीखते, और वह चीख अब वर्तमान की नहीं होती। बिलकुल अभी वह व्यक्ति से संबंधित नहीं होती, वह संबंध रखती है उस बच्चे से जो पीछे छिपा हुआ है। जब वह चीख, वह आदिम चीख आती है तो बहुत सारी चीजें तुरंत रूपांतरित हो जाती हैं।

यह प्रति—प्रसव की विधि का एक हिस्सा है। जैनोव को शायद ध्यान न हो कि पतंजलि ने करीब पांच हजार वर्ष पहले, एक ढंग सिखाया जिसमें कि प्रत्येक कार्य को ले जाना ही होता था कारण तक। केवल कारण को तोड़ा जा सकता है। तुम काट सकते हो जड़ों को और फिर वृक्ष मर जाएगा। लेकिन तुम शाखाओं को काट कर तो आशा नहीं रख सकते कि वृक्ष मर जाएगा; वृक्ष तो ज्यादा फले —फूलेगा। प्रति —प्रसव एक सुंदर शब्द है, प्रसव का अर्थ हुआ जन्म। जब बच्चा जन्मता है तो होता है प्रसव। प्रति—प्रसव का अर्थ है. तुम फिर स्मृति में उत्पन्न हुए तुम जन्म तक लौट गए, उस प्रघात तक जब किं तुम उत्पन्न हुए थे, और तुम उसे फिर से जीते हो। याद रहे तुम उसे याद ही नहीं करते, तुम उसे जीते हो, तुम उसे फिर से जीते हो।

स्मृति अलग बात होती है। तुम स्मरण कर सकते हो, तुम मौन बैठ सकते हो, लेकिन तुम वही

आदमी रहते जो तुम हो। तुम याद करते कि तुम बच्चे थे और तुम्हारी मा ने तुम्हें जोर से मारा। वह घाव मौजूद होता है, लेकिन फिर भी यह स्मरण करना ही हुआ। तुम एक घटना को याद कर रहे हो, जैसे कि चह किसी दूसरे के साथ घटी हो। उसे फिर से जीना प्रति—प्रसव है। उसे फिर से जीने का अर्थ हुआ कि तुम फिर से बच्चे बन जाते हो। ऐसा नहीं कि तुम याद करते हो, तुम बच्चे बन जाते हो। फिर से तुम उस बात को जीते हो। मां तुम्हारी स्मृति में चोट नहीं पहुंचा रही होती, मा बिलकुल अभी फिर से चोट देती है तुम्हें। वह घाव, वह क्रोध, वह प्रतिरोध, तुम्हारी अनिच्छा, अस्वीकार और तुम्हारी प्रतिक्रिया, जैसी कि सारी बात ही फिर घट रही होती है। यह है प्रतिक्रिया और यह केवल प्राइमल— थैरेपी के ही रूप में नहीं है बल्कि एक व्यवस्थित विधि है हर खोजी के लिए जो समृद्ध जीवन की, सत्य की खोज में लगा है।

ये पाच क्लेश हैं अविद्या—जागरूकता का अभाव, अस्मिता—अहंकार की अनुभूति; राग—आसक्ति, द्वेष —घृणा, और अभिनिवेश—जीवन की लालसा। ये पांच दुख हैं।

पांचों क्लेशों के मूल कारण मिटाए जा सकते हैं उन्हें पीछे की ओर उनके उदगम तक विसर्जित कर देने से।

अंतिम है अभिनिवेश, जीवन की लालसा; प्रथम है अविद्या—जागरूकता का अभाव। अंतिम को विसर्जित होना है प्रथम तक, अंतिम को ले आना है प्रथम तक। अब पीछे की ओर चलो. तुममें लालसा है जीवन की; तुम चिपकते हो जीवन से। क्यों? पतंजलि कहते हैं, ‘पीछे की ओर जाओ।’ क्यों चिपकते हो तुम जीवन से?—क्योंकि तुम दुखी होते हो। और दुख निर्मित होता है द्वेष से, घृणा से। दुख निर्भित होता है द्वेष से —हिंसा, ईर्ष्या, क्रोध से —घृणा से। कैसे तुम जी सकते हो यदि इतनी नकारात्मक चीजें तुम्हारे आसपास होती हैं? इन्हीं नकारात्मकताओ द्वारा, जहां कहीं भी तुम देखते हो, जीवन जीने जैसा नहीं लगता है। जहां कहीं तुम देखते हो नकारात्मक द्वारा, हर चीज अंधेरी, निराश, नर्क जान पड़ती है। जीवन की लालसा का पीछे की ओर ले जाकर समाधान करना पड़ता है, तो तुम पाओगे द्वेष। यदि तुम नीचे उतरो, पीछे की ओर जीवन के प्रति चिपकाव सहित, उसके पीछे तुम पाओगे घृणा की पर्त। इसीलिए तुम जी नहीं पाए हो। सारे समाज, सभ्यताएं, वे बहुत घृणा लाद देती हैं तुम पर।

यदि तुम पढ़ो हिंदू शास्त्र या कि जैन शास्त्र, तो वे घृणा सिखाते हैं। वे कहते हैं कि यदि तुम किसी स्त्री के प्रेम में हो, तो पहले देख—समझ लेना स्त्री क्या है। क्या होती है स्त्री? —मात्र एक ढांचा हड्डियों का, मांस, रक्त, श्लेष्मा, असुंदर चीजों का। स्त्री के भीतर झांक लेना; सौंदर्य तो ऊपर होता है। और त्वचा के पीछे हर चीज असुंदर होती है, अरुचिकर होती है।

यदि तुम ऐसे लोगों द्वारा सिखाए—पढ़ाए जाते हो, तो जब कभी तुम प्रेम में पड़ते हो, तो तुम प्रेम न कर पाओगे स्त्री को क्योंकि घृणा आ पहुंचेगी। तुम अनुभव करोगे, अरुचि उठ रही है। और प्रेम कैसे संभव हो सकता है घृणा के साथ? और यदि तुम शिक्षित किए गये हो इन बाहरी तत्वों द्वारा जो जीवन के स्रोतों को ही विषमय बना देते हैं, तो तुम दुखी हो जाओगे। बिना प्रेम के कैसे तुम प्रसन्न रह सकते हो? तुम दुखी होओगे। जब तुम दुखी होते हो तो तुम चिपकते हो जीवन से।

इसलिए पतजिल कहते हैं, ‘जीवन से चिपकना सबसे ऊपरी पर्त है। गहरे जाओ; उसके पीछे, तुम पाओगे, घृणा की, द्वेष की पर्त।’

लेकिन क्यों करते हो तुम घृणा? ज्यादा गहरे उतरो और तुम पाओगे आसक्ति। तुम आकर्षित होते हो किसी चीज की ओर। और यदि तुम आकर्षित होते हो, केवल तभी तुम घृणा कर सकते हो। यदि तुम आकर्षित नहीं हो सकते तो घृणा नहीं कर सकते। आकर्षण निर्मित कर सकता है अनाकर्षण को, अनाकर्षण दूसरा छोर है आकर्षण का। ज्यादा गहरे जाओ—दूसरी पर्त तुम पाओगे अस्मिता की, अहंकार की, अनुभूति कि मैं हूं। और यह ‘मैं’ अस्तित्व रखता है आसक्ति और द्वेष के द्वारा। यदि राग और द्वेष, आकर्षण और अनाकर्षण दोनों गिर जाएं तो ‘मैं’ वहां खड़ा नहीं रह सकता।’मैं’ गिर जाएगा उसके साथ ही।

तुम और तुम्हारा अहंकार अस्तित्व रखता है अच्छे और बुरे की तुम्हारी धारणाओं के द्वारा, प्रेम और घृणा की धारणाएं, क्या सुंदर है और क्या असुंदर, इसकी धारणाएं। द्वैत अहंकार को निर्मित करता है। तो राग और द्वेष के द्वैत के पीछे तुम पाओगे अहंकार को। क्यों बना रहता है अहंकार? पतंजलि कहते हैं, ‘और भी ज्यादा गहरे में जाओ और तुम पाओगे—जागरूकता का अभाव। जीवन के सारे दुख का मूलभूत कारण है जागरूकता का अभाव। यही है कारण, सारी बात का मुख्य कारण। तुम नहीं पा सकते इस कारण को अभिनिवेश में, जीवन की लालसा में, वह तो फूल है, फल है; अंतिम घटना है। वस्तुत: वह कारण नहीं है। पीछे जाओ।’

पांचों क्लेशों के मूल कारण मिटाए जा सकते हैं उन्हें पीछे की ओर उनके उदगम विसर्जित कर देने से।

एक बार तुम जान लेते हो कारण को, फिर हर चीज का समाधान हो जाता है। और कारण है जागरूकता का अभाव। करोगे क्या? मत लड़ना अपनी पकड़ से, मत लड़ना अपनी आसक्ति से और तुम्हारी अपनी घृणा से, अहंकार से भी मत लड़ना। बस ज्यादा और ज्यादा जागरूक हो जाना। केवल ज्यादा और ज्‍यादा सचेत हो जाना, ध्यानी, बोधपूर्ण हो जाना। ज्यादा—ज्यादा स्मरण रखना और सजग रहना। वही सजगता ही हर चीज तिरोहित कर देगी। एक बार कारण विलीन हो जाता है, तो कार्य तिरोहित हो जाते हैं

साधारण नैतिकता तुम्हें सतह पर के परिवर्तन सिखाती है। तथाकथित धर्म तुम्हें सिखाते हैं कि कैसे परिणामों से लड़ना होता है। पतंजलि तुम्हें दे रहे हैं धर्म का सच्चा विज्ञान — मूल कारण ही विलीन हो सकता है। तुम्हें ज्यादा सजग होना होता है। जीवन को जीयो सजगता के साथ : वही है कुल संदेश। सोए हुए मनुष्य की भाति मत जीयो, या कि सम्मोहन में जी रहे शराबी की भांति मत जीयो। जो कुछ तुम कर रहे हो उसके प्रति होश रखो। करो उसे, लेकिन करना उसे पूरे होश सहित। अकस्मात तुम पाओगे बहुत सारी चीजें तिरोहित हो जाती हैं।

एक चोर आया एक बौद्ध रहस्यदर्शी नागार्जुन के पास। चोर कहने लगा, ‘देखिए, मैं बहुत सारे शिक्षकों और गुरुओं के यहां हो आया। वे सब मुझे जानते हैं, क्योंकि मैं एक प्रसिद्ध चोर हूं इसलिए मैं सब जगह जाना जाता छू। जिस क्षण पहुंचता हूं उनके पास वे कहते हैं, पहले तो तुम्हें चोरी छोड़ देनी है, लोगों को लूटना छोड़ना है। पहले तुम्हारे जीवन का ढंग गिरा दो और फिर कुछ घट सकता है। इसीलिए बात जहां की तहां समाप्त हो जाती है। अब मैं आया हूं आपके पास। आप क्या कहते हैं?’

नागार्जुन ने कहा, ‘तब तुम जरूर चोरों के पास गए होओगे, गुरुओं के पास नहीं। तुम्हारे चोरी करने या न करने की फिक्र गुरु को क्यों करनी? मेरा कुछ लेना—देना नहीं। तुम एक काम करो. ‘तुम चोरी किए जाओ, लोगों को लूटते जाओ, लेकिन सजगता सहित ही लूटना उन्हें।’ उस चोर ने कहा, ‘ ऐसा मैं कर सकता हू।’ और वह पकड़ाई में आ गया, फंस गया।

दो सप्ताह गुजरने के बाद, वह लौट कर आया नागार्जुन के पास और बोला, ‘ आप धोखेबाज हो, आपने चालाकी की मेरे साथ। कल रात मैं पहली बार राजा के महल में जा घुसा, लेकिन आपकी वजह से मैंने सजग रहने की कोशिश की। मैंने खजाना खोला। हजारों बहुमूल्य हीरे वहां पड़े थे, लेकिन आपके कारण मुझे खाली हाथ ही महल से बाहर आना पड़ा।’ नागार्जुन ने कहा, ‘मुझे बताओ कि हुआ क्या?’ चोर ने कहा, ‘जब भी मैं सजग हुआ और मैंने उन हीरों को उठाने की कोशिश की, तो हाथ हिलता ही नहीं था। यदि हाथ हिलता, तो फिर मैं सजग न रहता था। दो —तीन घंटे मैंने संघर्ष किया। मैंने कोशिश की सजग होने की और उन हीरों को उठाने की, लेकिन फिर मैं सजग न रहता था। इसीलिए मुझे उन्हें वापस वहीं रखना पड़ता था। जब भी सजग हुआ, तो हाथ न हिलता था।’ नागार्जुन ने कहा, ‘यही होती है सारी बात। तुमने सार को समझ लिया है।’

बिना सजगता के तुम क्रोधित, आक्रामक, सत्तात्मक, ईर्ष्यालु हो सकते हो। ये पत्ते और शाखाएं हैं, न कि जड़ें। सजगता के साथ तुम क्रोधित नहीं हो सकते, तुम आक्रामक, हिंसात्मक, लोभी नहीं हो सकते। साधारण नैतिकता तुम्हें सिखाती है लोभी न बनो, क्रोधी न होओ। वह साधारण नैतिकता होती है। वह कुछ ज्यादा मदद नहीं देती। ज्यादा से ज्यादा एक क्षुद्र दमित व्यक्तित्व निर्मित हो जाता है। लोभ बना रहता है, क्रोध बना रहता है, केवल तुम थोड़ी सामाजिक नैतिकता तो पा सकते हो। यह बात समाज में एक होशियार भागीदार के रूप में तो मदद कर सकती है, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं घटता है।

पतंजलि साधारण नैतिकता नहीं सिखा रहे हैं। पतंजलि बता रहे हैं सभी धर्मों के सच्चे मूल को ही, धर्म का असली विज्ञान। वे कहते हैं, ‘प्रत्येक कार्य को कारण तक ले आओ। और कारण सदा होता है असचेतनता, अजागरूकता, अविद्या। सजग हो जाओ, और हर चीज तिरोहित हो जाती है।

पांचों दुखों की बाह्य अभिव्यक्तियां तिरोहित हो जाती हैं ध्यान के द्वारा।

तुम्हें उनकी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, बस तुम ध्यान ज्यादा करो, ज्यादा सजग हो जाओ। पहले तो बाहरी अभिव्यक्तियां : क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, आकर्षण मिट जाते हैं। पहले बाहरी अभिव्यक्तियां मिट जाती हैं, तो भी बीज बने रहते हैं तुममें। तब व्यक्ति को बहुत ज्यादा गहरे में जाना होता है, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम क्रोधित होते हो केवल जब तुम्हें क्रोध आता है। यह बात सच नहीं है, क्रोध की एक अंतर्धारा चलती रहती है, तब भी जब कि तुम क्रोधित नहीं होते। अन्यथा, यथा समय कहां से पाओगे तुम क्रोध? कोई तुम्हारा अपमान कर देता है और अचानक तुम्हें क्रोध आ जाता है। क्षण भर पहले तुम प्रसन्न थे, मुस्कुरा रहे थे और फिर चेहरा बदल जाता है; तुम खूनी बन जाते हो। कहां से पाया तुमने इसे? यह जरूर मौजूद रहा होगा, एक अंतर्धारा तुममें सदा मौजूद रहती है। जब कभी आवश्यकता आ बनती है, अवसर बन जाते हैं, तो अचानक क्रोध भभक उठता है।

पहले, ध्यान तुम्हारी मदद करेगा। बाहरी अभिव्यक्ति तिरोहित हो जाएगी। लेकिन उसी से संतुष्ट मत हो जाना, क्योंकि मूलरूप से यदि अंतर्धारा बनी रहती है, तो किसी समय उसके लिए संभावना होती है, उपद्रव भभक सकता है। किसी निश्चित स्थिति में अभिव्यक्ति फिर से चली आ सकती है। कभी भी संतुष्ट मत हो जाना उस बाहरी अभिव्यक्ति के तिरोहित हो जाने से, बीज को जलना ही होता है। ध्यान का पहला भाग तुम्हारी मदद करता है बाहरी अभिव्यक्ति को मूलाधार तक लाने में। बाहरी तल पर तुम शात हो जाते हो, लेकिन भीतर चीजें चलती रहती हैं। तब ध्यान को और भी ज्यादा गहरे में उतरना होता है। यह है पतंजलि का फर्क समाधि और ध्यान के बीच। ध्यान प्रथम अवस्था है। ध्यान वह पहली अवस्था है जिसके साथ बाह्य अभिव्यक्तियां तिरोहित हो जाती हैं; और समाधि अंतिम अवस्था है, वह परम ध्यान जहां बीज जल जाते हैं। तुम जीवन और अंतससत्ता के आत्यंतिक स्रोत तक पहुंच चुके होते हो। तब तुम किसी चीज से चिपकते नहीं। तब तुम्हें मृत्यु का भय नहीं रहता।

तब वस्तुत: तुम होते ही नहीं, तब तुम बचते ही नहीं। तब परमात्मा तुममें आ बसता है। और तुम कह सकते हो, ‘अहं ब्रह्मस्मि'; मैं ही हूं परमात्मा, आत्यंतिक आधार अस्तित्व का।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अध्‍यात्‍म उपनिषद–प्रवचन–13

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जीवन्‍मुक्‍त है संत—तेरहवां प्रवचन

 सूत्र :

 न प्रत्यग्ब्लणोभेदं कथधिद च्छसर्गयो:।

प्रज्ञथा यो विजानाति स जीवन्मुक्ल इष्यते।। 46।।

साधुभि: पूज्यमनेsस्मिन् पीड्यमानेऽपि दुर्जनै:।

सक्यावो भवेद्यस्य स जीवमुक्‍त इष्‍यते।। 47।।

विज्ञातब्रह्मतत्वस्य यथापूर्व न संसृति:।

अस्ति चेन्‍न स विज्ञातब्रह्माभावो बहिर्मुख:।। 48।।

सुखाद्यनुभवो यावत् तावत् प्रारख्यीमष्यते।

फलोदय: क्रियापूर्वो निकियो न हि कुत्रचित्।। 49।।

अहं ब्रह्मोति विज्ञानात् कल्पकोटिशतर्जितम्।

संचितं विलयं याति प्रबोधान् स्वप्नकर्मयत्।। 50।।

 जीवात्मा तथा ब्रह्म का भेद और ब्रह्म तथा सृष्टि का भेद बुद्धि द्वारा जो कभी नहीं जानता, वह जीवनमुक्‍त कहलाता है।

सज्जन सत्कार करें और दुर्जन दुख दें, तो भी जिसको सदैव सबके ऊपर सम—भाव रहे, वह जीवनमुक्‍त कहा जाता है।

जिसने ब्रह्म तत्व को जान लिया है, उसकी दृष्टि में संसार पहले जैसा नहीं रहता, इसलिए अगर वह संसार को पूर्ववत ही देखता है तो मानना पड़ेगा कि उसने अभी तक ब्रह्म—भाव को जाना ही नहीं है और वह बहिर्मुख है।

जहां तक सुख वगैरह का अनुभव होता है, वहा तक यह प्रारब्ध कर्म है, ऐसा माना गया है, क्योंकि प्रत्येक फल का उदय क्रियापूर्वक ही होता है, किया बिना किसी स्थान पर कोई फल होता ही नहीं।

जिस प्रकार जग जाने से स्वप्न की क्रिया नाश को प्राप्त होती है, वैसे ही मैं ब्रह्म हूं ऐसा शान होने से करोड़ों और अरबों जन्म से इकट्ठा किया संचित कर्म नाश पाता है।

जीवनमुक्‍त की आंतरिक दशा के लिए कुछ और निर्देश।

जीवनमुक्‍त है वह व्यक्ति, जिसने जीते जी मृत्यु को जान लिया है। मृत्यु तो सभी जानते हैं, मरते समय ही जानते हैं। उसे भी जानना नहीं कह सकते, क्योंकि ठीक मरने के क्षण में ही चित्त बेहोश हो जाता है, मूर्च्‍छित हो जाता है।

तो मृत्यु हम अपनी कभी नहीं जानते हैं, हम सदा दूसरे की मृत्यु जानते हैं। आपने दूसरे को मरते देखा है, अपने को कभी भी नहीं। मृत्यु का ज्ञान तक हमारा उधार है। और जब दूसरा मरता है तो हम क्या जानते हैं? हम जानते हैं कि वाणी खो गई, कि आंखें बंद हो गईं, कि नाड़ी खो गई, कि हृदय बंद हो गया—शरीर का तंत्र अब काम नहीं करता, इतना ही हम जानते हैं। भीतर जो तंत्र के छिपा था, उस पर क्या बीती, क्या हुआ—वह बचा, नहीं बचा, वह था भी वहां, या कभी नहीं था—इस संबंध में हम कुछ भी नहीं जानते।

मृत्यु घटती है भीतर, हम केवल बाहर उसके परिलक्षण देख पाते हैं। दूसरे को मरते देख कर कैसे मृत्यु का पता चलेगा? मरे हम भी बहुत बार हैं, लेकिन अपने को मरते हम कभी नहीं देख पाए। मरने के पहले बेहोश हो गए हैं, मूर्च्छित हो गए हैं। इसीलिए, कितने ही लोगों को आप मरते देखें, आपको भीतर भरोसा नहीं आता कि आप भी मरेंगे। कभी आपको यह भरोसा आया है कि मैं भी मरूंगा? कितने ही रोज लोग मरें, मरघट भर जाए, महामारी फैल जाए, प्रतिपल जहां दिखे लाश दिखे, फिर भी सदा ऐसा लगता है दूसरे ही मरते रहेंगे, ऐसा कभी भी भीतर भाव नहीं आता कि मैं मरूंगा। आता भी हो तो ऊपर—ऊपर ही होता है, गहरे में प्रवेश नहीं कर पाता।

क्यों? क्योंकि अपनी मृत्यु तो कभी देखी नहीं; उसका कोई अनुभव नहीं है; उसकी कोई याद नहीं है। कितना ही सोचो पीछे लौट कर, पता ही नहीं चलता कि कभी मरे हों! तो जो कभी नहीं हुआ, वह आगे भी कैसे होगा?

मन का तो सारा का सारा हिसाब अतीत पर निर्भर है। मन तो भविष्य को भी सोचता है तो अतीत के ही शब्दों में सोचता है। जो कल हुआ है वही आने वाले कल में हो सकता है; थोड़ा—बहुत हेर—फेर होगा। लेकिन जो कभी नहीं हुआ है वह कल भी कैसे होगा! इसीलिए मन कभी मृत्यु को मान नहीं पाता। और जब अपनी मृत्यु घटती है, तब मन बेहोश हो गया होता है।

इसलिए जीवन के दो बड़े अनुभव, जन्म का और मृत्यु का अनुभव हमें होता ही नहीं। जन्मते भी हम हैं, मरते भी हम हैं। और अगर इन दो बड़ी घटनाओं का अनुभव नहीं होता, तो इनके बीच में जो जीवन की धारा है, उसका भी हमें क्या अनुभव होगा, कैसे होगा? जो जीवन के शुरुआत को नहीं जान पाता, अंत को नहीं जान पाता, वह मध्य को भी कैसे जान पाएगा? जन्म और मृत्यु के बीच में जो धारा है, वही है जीवन। न शुरू का हमें पता है, न अंत का हमें पता है, तो बीच भी अपरिचित ही रह जाएगा। धुंधली— धुंधली खबर होगी—जैसे दूर सुनी गई कोई बात हो, कोई देखा गया स्वप्न हो। लेकिन जीवन से भी हमारा सीधा संस्पर्श नहीं हो पाता।

जीवनमुक्‍त का अर्थ है कि जिसने जीवन में ही, जागते, होशपूर्वक मृत्यु को जान लिया। यह शब्द बड़ा अदभुत है। जीवनमुक्‍त का अर्थ है बहुत तरह का। एक अर्थ हम कर सकते हैं कि जो जीवन में मुक्त हो गया, दूसरा अर्थ हम कर सकते हैं कि जो जीवन से मुक्त हो गया। दूसरा अर्थ ज्यादा गहरा है। असल में पहला अर्थ दूसरे अर्थ के बाद ही उपयोगी है। जो जीवन से मुक्त हो गया, वही जीवन में मुक्त हो सकता है।

जीवन से कौन मुक्त होगा? जीवन से वही मुक्त हो सकता है, जिसने जान लिया हो कि समस्त जीवन मृत्यु है, जिसे दिखाई पड़ा हो कि जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मृत्यु की एक लंबी यात्रा है। जन्म के बाद मरने के सिवाय हम कुछ और करते नहीं। कुछ भी करते रहें, मरने की क्रिया जारी रहती है—हर पल। सुबह से सांझ हो गई, आप मर गए बारह घंटे और। सांझ से फिर सुबह होगी, आप मर गए बारह घंटे और। जीवन चुकता जाता है, बूंद—बूंद समय रिक्त होता जाता है।

तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह वस्तुत: मरने की एक लंबी प्रक्रिया है। जन्म के बाद और कोई कुछ भी करे, सब एक काम जरूर करते हैं, वह है मरने का—मरते रहने का। जन्मे नहीं कि मरना शुरू हो गया। बच्चे ने पहली सांस ली, अंतिम सांस की व्यवस्था हो गई। अब मौत से बचने का कोई उपाय नहीं। जो जन्म गया, वह मरेगा। देर— अबेर, समय का अंतर हो सकता है, लेकिन मौत सुनिश्चित हो गई।

जीवन को जो मृत्यु की लंबी प्रक्रिया की भांति देख लेता है—समझ लेता है, नहीं कह रहा हूं—देख लेता है! क्योंकि समझ तो आप भी सकते हैं कि ठीक है, इससे जीवन्‍मुक्‍त नहीं हो जाएंगे। जो देख लेता है, इसका साक्षी हो जाता है, यह उसको दर्शन हो जाता है, कि मैं मर रहा हूं—प्रतिपल।

एक तो हमें पता ही नहीं चलता कि हम मरेंगे; मैं मरूंगा, यह पता नहीं चलता। दूसरे मरते हैं सदा। दूसरी बात, हमें सदा, अगर हम कभी सोचते हैं, अनुमान भी करते हैं दूसरों के मरने से अपनी मृत्यु का, तो मृत्यु कभी भविष्य में घटित होगी, उसे अभी टाला जा सकता है। वह अभी घटित नहीं हो रही है, आज नहीं घटित हो रही है। बिस्तर पर मरणासन्न पड़ा हुआ आदमी भी यह नहीं सोचता कि मृत्यु आज घटित हो रही है, इस क्षण में आ रही है—कल! टालता है, स्थगित करता है। टाल कर हम बच जाते हैं। जीवन होता है अभी और मौत होती है कभी दूर।

जिसे दिखाई पड़ जाता है कि पूरा जीवन मृत्यु है, उसे यह भी दिखाई पड़ जाता है कि मृत्यु कल नहीं है, अभी है, इसी क्षण है—इसी क्षण मैं मर ही रहा हूं। यह जो मरने की घटना मेरी घट रही है इसी क्षण इसकी प्रतीति कैसे हो? इसे कैसे हम देख पाएं? देख पाएं, तो आदमी फिर जीवन की वासना नहीं करता। बुद्ध ने कहा है, जो जीवेषणा नहीं करता, वह जीवनमुक्‍त है। जो माग नहीं करता कि मुझे जीवन और मिले; जो और जीना नहीं चाहता; जिसकी जीने की अब कोई इच्छा नहीं रह गई है, कोई वासना नहीं रह गई है, मृत्यु आए तो सहजता से स्वीकार कर लेगा, एक क्षण भी मौत से न कहेगा रुको, ठहरो, मैं थोड़ा निपट लूं। तैयार ही रहेगा। प्रतिपल तैयार रहेगा।

जीवेषणा जिसकी समाप्त हो गई हो, वह जीवन से मुक्त हो सकता है। जो जीवन से मुक्त हो जाता है, वह जीवनमुक्‍त हो जाता है। फिर वह जीवन में ही मुक्त हो जाता है। फिर यहीं और अभी वह हमारे साथ होता है, लेकिन हमारे जैसा नहीं होता। वह भी उठता है, बैठता है, खाता है, पीता है, चलता है सोता है। लेकिन उसका सोना, उठना, बैठना, सब का गुण, सब की क्वालिटी रूपांतरित हो जाती है। हमारे जैसे काम करते हुए भी वह हमारे जैसे काम नहीं करता है। यह संसार जैसा हमें दिखाई पड़ता है ऐसा ही रहता है, लेकिन उसे किसी और भांति दिखाई पड़ने लगता है। उसकी दृष्टि बदल जाती है, देखने वाला केंद्र बदल जाता है, सारा जगत रूपांतरित हो जाता है।

इस जीवनमुक्‍त की परिभाषा और निर्देश इस सूत्र में हैं। इन्हें एक—एक कर गौर से समझ लेना है।

‘जीवात्मा तथा ब्रह्म का भेद..।’

कुछ मित्रों को ज्यादा खांसी आती हो, एकदम यहां से चले जाएं। या अपनी खांसी रोक कर बैठ जाएं। ये दोनों काम नहीं चलेंगे।

‘जीवात्मा तथा ब्रह्म का भेद और ब्रह्म तथा सृष्टि का भेद बुद्धि द्वारा जो कभी नहीं जानता, वह जीवनमुक्‍त कहलाता है।’

पहली लक्षणा। स्वयं के और परम के बीच—वह जो भीतर छिपा जीव है वह, और वह जो विराट में छिपा हुआ ब्रह्म है वह—दोनों के बीच जिसे कोई भी भेद बुद्धि के द्वारा दिखाई नहीं पड़ता, वह जीवनमुक्‍त कहलाता है। दो बातें हैं कोई भेद दिखाई नहीं पड़ता, बुद्धि के द्वारा।

सभी भेद बुद्धि के द्वारा दिखाई पड़ते हैं। बुद्धि ही भेद को देखने की व्यवस्था है। जैसे पानी में हम लकड़ी को डाल दें तो लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। लकडी को बाहर खींच लें, लकड़ी फिर सीधी दिखाई पड़ने लगती है। फिर पानी में डालें, फिर तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। लकड़ी तिरछी होती नहीं पानी में, सिर्फ दिखाई पड़ती है, क्योंकि पानी और पानी के बाहर किरणों की यात्रा का पथ बदल जाता है। पानी के माध्यम में किरणें तिरछी यात्रा करती हैं, इसलिए लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगती है।

पानी के माध्यम में कोई भी चीज सीधी डालें, वह तिरछी दिखाई पडेगी। वह तिरछी होती नहीं है सिर्फ दिखाई पड़ती है। और मजा यह है कि आपको बिलकुल पक्का पता है कि तिरछी होती नहीं, तो भी तिरछी दिखाई पड़ती है। हजार दफे निकाल कर बाहर देख लें, फिर पानी में डाल दें, तो ऐसा नहीं है कि आप हजार बार देख चुके, परख चुके, पानी के अंदर हाथ डाल कर भी लकड़ी को देख लें तो वह सीधी मालूम पड़ती है—हाथ को, लेकिन आंख को तिरछी ही दिखाई पड़ती है, क्योंकि पानी का माध्यम और हवा का माध्यम किरणों के लिए यात्रा—पथ बदल देता है।

इसे ऐसा समझें, आपने प्रिज्म देखा हो कांच का—खास तरह का बना हुआ टुकडा होता है त्रिकोण। उसमें से सूरज की किरणें निकलें, तो सात हिस्सों में टूट जाती है सूरज की किरण। इंद्रधनुष देखते हैं आप? वह प्रिज्म का ही खेल है। जब आप इंद्रधनुष देखते हैं तो होता क्या है? सूरज की किरणें तो हमेशा आकाश से आ रही हैं जमीन पर। लेकिन जब कभी पानी की बूंदें हवा में होती हैं, छोटी बूंदें, तो पानी की छोटी बूंदें प्रिज्म का काम करती हैं, काच के टुकडे का काम करने लगती हैं। उनमें किरण प्रवेश करती है, तत्काल सात हिस्सों में टूट जाती है। वे सात रंग आपको इंद्रधनुष जैसे दिखाई पड़ते हैं। इंद्रधनुष पानी की बूंदों से गुजरी हुई सूरज की किरण ही है। इसलिए सूरज न हो तो भी इंद्रधनुष दिखाई नहीं पड़ेगा। आकाश में बादल न हों और हवा में पानी के कण न लटके हों, तो भी इंद्रधनुष दिखाई नहीं पड़ेगा।

प्रिज्म, कांच का टुकड़ा, या पानी की बूंद, सूरज की किरण को सात हिस्सों में तोड़ देती है; माध्यम! अगर आप पानी की बूंद से सूरज को देखेंगे तो सात रंग दिखाई पड़ेंगे। अगर पानी के बाहर सूरज की किरण को देखेंगे तो वह सफेद है, सफेद कोई रंग नहीं है। सफेद कोई रंग नहीं है, सफेद रंग का अभाव है। बुद्धि भी ऐसा ही एक माध्यम है। जैसे पानी में लकड़ी तिरछी हो जाए, और प्रिज्य में सूरज की सात किरणें हो जाएं, एक के सात टुकड़े हो जाएं, ऐसा ही बुद्धि, विचार सूक्ष्म माध्यम है। इससे जिस चीज को भी हम देखते हैं वह दो में टूट जाती है, भेद निर्मित हो जाता है। जहा भी बुद्धि को देखेंगे, बुद्धि से देखेंगे, वहा चीजें दो हो जाएंगी, भेद निर्मित हो जाएगा।

बुद्धि भेद निर्मात्री है। कोई भी चीज को बुद्धि से देखें। दृष्टांत के लिए, समझने के लिए, प्रकाश को बुद्धि से देखें, तो तत्काल दो हिस्से हो जाते हैं अंधेरा और उजाला। वस्तुत: अस्तित्व में प्रकाश और अंधेरे में कोई भी फर्क नहीं है, वह एक ही चीज का क्रमिक विस्तार है। इसीलिए तो अंधेरे में भी कुछ पक्षी देखते हैं। अंधेरा बिलकुल अंधेरा होता, तो उल्लू भी रात को देख नहीं सकता था। उल्लू देखता है रात में, इसीलिए देख पाता है कि अंधेरा भी प्रकाश है, सिर्फ आपकी आंख उसको पकड़ने में समर्थ नहीं, उल्लू की आंख पकड़ने में समर्थ है। सूक्ष्म प्रकाश है अंधेरा भी।

आपके पास से बहुत बड़ा प्रकाश भी गुजरता है, वह आपको दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि आपकी आंख की देखने की एक क्षमता है, उसके नीचे भी दिखाई नहीं पड़ता, उसके ऊपर भी नहीं दिखाई पड़ता; दोनों तरफ अंधेरा हो जाता है। कभी आपने खयाल किया है कि अगर आपकी आंख एकदम महाप्रकाश के सामने आ जाए तो अंधेरा छा जाएगा; क्योंकि उतना प्रकाश आंख देख नहीं पाती है।

तो अंधेरे दो तरह के हैं। जितने दूर तक आपकी आंख की क्षमता है देखने की, उधर प्रकाश—उसके उस पार भी अंधेरा, इस पार भी अंधेरा। आपकी आंख की क्षमता बड़ी हो जाए, तो अंधेरा प्रकाश हो जाता है; आपकी आंख की क्षमता छोटी हो जाए, तो प्रकाश अंधेरा हो जाता है। अंधे आदमी की क्षमता बिलकुल नहीं है, इसलिए सभी अंधेरा है, कोई प्रकाश है ही नहीं उसके लिए। पर प्रकाश और अंधेरा अस्तित्व में एक हैं, बुद्धि के कारण दो दिखाई पड़ते हैं।

बुद्धि हर चीज को दो में बांट देती है। बुद्धि के देखने का ढंग ऐसा है कि बिना बंटे कोई चीज रह नहीं सकती। बुद्धि है विश्लेषण, बुद्धि है भेद, बुद्धि है विभाजन, डिवीजन। इसीलिए हमें जन्म और मृत्यु दो दिखाई पड़ते हैं, बुद्धि से देखने के कारण, अन्यथा दो नहीं हैं। जन्म शुरुआत है, मृत्यु उसी का अंत है; दो छोर हैं एक ही चीज के। हमें सुख और दुख अलग दिखाई पड़ते हैं, बुद्धि के कारण, वे दो नहीं हैं।

इसीलिए तो दुख सुख बन जाते हैं, सुख दुख बन जाते हैं। आज जो सुख मालूम पड़ता है, सुबह दुख हो सकता है। सुबह तो बहुत दूर है, अभी मालूम होता था सुख, अभी दुख हो सकता है।

यह असंभव होना चाहिए। अगर सुख और दुख दो चीजें हैं अलग— अलग, तो सुख कभी दुख नहीं होना चाहिए, दुख कभी सुख नहीं होना चाहिए। पर हर घड़ी यह बदलाहट चलती रहती है। अभी प्रेम है, अभी घृणा हो जाती है। अभी लगाव लगता था, अभी विकर्षण हो जाता है। अभी मित्रता लगती थी, अभी शत्रुता हो जाती है। ये दो चीजें नहीं हैं, नहीं तो रूपातरण असंभव होना चाहिए। जो अभी जिंदा था, अभी मर गया! तो जीवन और मृत्यु ये अलग चीजें नहीं होनी चाहिए, नहीं तो—नहीं तो जीवित आदमी मर जाए! कैसे? जीवन मृत्यु में कैसे बदल जाएगा?

हमारी भूल है कि हमने दो में बांट रखा है। हमारी भूल है कि हमने दो में बांट रखा है! हमारे देखने का ढंग ऐसा है कि चीजें दो में बंट जाती हैं। इस देखने के ढंग को जो एक तरफ रख देता है, बुद्धि को जो हटा देता है अपनी आंख के सामने से और बिना बुद्धि के जगत को देखता है, तो सारे भेद तिरोहित हो जाते हैं। अद्वैत का अनुभव उन्हीं लोगों का अनुभव है, वेदांत का सार— अनुभव उन्हीं लोगों का अनुभव है, जिन्होंने बुद्धि को एक तरफ रख कर जगत को देखा। फिर जगत जगत नहीं, ब्रह्म हो जाता है। और तब जो भीतर जीव मालूम पड़ता था और वहां ब्रह्म मालूम पड़ता था, वे भी एक चीज के दो छोर रह जाते हैं। जो मैं यहां हूं भीतर, और जो वहां फैला है सब ओर वह, दोनों एक ही हो जाते हैं तत्त्वमसि। तब अनुभव होता है कि मैं वही हूं, उसका ही एक छोर हूं। वह जो आकाश बहुत दूर तक चला गया है, वही आकाश यहां मेरे हाथ को भी छू रहा है। वही हवा का विस्तार जो सारी पृथ्वी को घेरे हुए है, वही मेरी श्वास बन कर भीतर प्रवेश कर रहा है। इस सारे अस्तित्व के प्राण कहीं धड़क रहे हैं, जिनसे यह सारा जीवन है—तारे चलते हैं और सूरज ऊगता है, और चांद में रोशनी है, और वृक्षों में फल लगते हैं, और पक्षी गीत गाते हैं, और आदमी जीता है—सब के भीतर छिपा हुआ जो प्राण धड़क रहा होगा कहीं विश्व के केंद्र में, और मेरे शरीर में जो हृदय की धीमी— धीमी धड़कन है, वे एक ही चीज के दो छोर हैं। वे दो नहीं हैं।

लेकिन बुद्धि को अलग करके जब कोई देखेगा, तभी। बुद्धि को अलग करके देखना बड़ी मुश्किल की बात है, क्योंकि जब भी हम देखते हैं, बुद्धि से ही देखते हैं। हमारी आदत सुनिश्चित हो गई है। बुद्धि के अतिरिक्त आप देखिएगा कैसे? कोई भी चीज देखिएगा, विचार बीच में आ जाएगा।

एक फूल के पास खड़े हो जाएं। देख भी नहीं पाएंगे फूल कि बुद्धि कहेगी, गुलाब का फूल है; बड़ा सुंदर है! देखें, सुवास कितनी अच्छी है! आप देख भी नहीं पाए फूल को अभी, अभी फूल भीतर पहुंच भी नहीं पाया, अभी उसकी खबर, उसकी भनक आत्मा तक लगी भी नहीं, कि बुद्धि ने खबर दी, कि गुलाब का फूल है—अतीत के स्मरण से, अनुभव से। सुवासित है, सुंदर है—ये सब वक्तव्य बुद्धि ने दे डाले। उसने एक जाल फैला दिया बीच में। फूल बाहर रह गया, आप भीतर रह गए, बीच में बुद्धि के विचारों का जाल तन गया। इस जाल के भीतर से ही आप फूल को देखते हैं।

हमारा सभी देखना ऐसा है। तो बुद्धि के पार उठने के लिए तो गहन अभ्यास की जरूरत पड़ेगी। फूल के पास बैठे हैं, बुद्धि को न उठने दें, सिर्फ फूल को देखें सीधा, मन में यह विचार भी न उठने दें कि फूल है, कि गुलाब है, कि सुंदर है, शब्द को ही न बनने दें। थोड़ा अभ्यास करें, तो कभी—कभी क्षण भर को झलक मिलेगी कि उधर रह जाएगा फूल, इधर रह जाएंगे आप, बीच में एक क्षण को विचार नहीं होंगे। और तब आपको उस फूल में उस लोक का दर्शन होगा, जिसको आपने कभी भी जाना नहीं।

टेनिसन ने कहा है, एक फूल को भी कोई देख ले पूरा, तो सारा जगत देख लिया, कुछ देखने को बच नहीं जाता है। बच भी नहीं जाता, क्योंकि एक फूल में सारा जगत समाया हुआ है। वह जिसे हम क्षुद्र कहते हैं, वह विराट की ही अनुकृति है, जिसे हम छोटा कहते हैं, वह बड़े का ही छोटा रूप है। जैसे एक छोटे से दर्पण में सारा आकाश झलक जाए, एक छोटी सी आंख में आकाश के करोड़ों तारे झलक जाएं, ऐसे एक छोटे से फूल में सारा ब्रह्मांड।

लेकिन वह तभी होता है, जब बुद्धि बीच में खड़ी न हो। तो इसका अभ्यास करते रहें। खाली बैठे हैं, पक्षी गीत गा रहा है, तो बुद्धि को बीच में न आने दें, सिर्फ कान बन जाएं—सुनें, और सोचें मत।

पहले बड़ी मुश्किल होगी—सिर्फ आदत के कारण, नहीं तो कोई मुश्किल नहीं है। धीरे—धीरे, धीरे—धीरे झलकें मिलनी शुरू होंगी। पक्षी गाता रहेगा, बुद्धि का कोई स्वर न होगा, आप सुनते रहेंगे, आप और पक्षी के बीच एक सीधा संबंध स्थापित हो जाएगा, बीच में कोई माध्यम न होगा। और तब आप बहुत हैरान हो जाएंगे! यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि आप गा रहे हैं कि पक्षी गा रहा है! आप सुन रहे हैं कि पक्षी सुन रहा है! जैसे ही बुद्धि बीच से हटती है, आप और पक्षी का गीत एक ही चीज के दो हिस्से हो जाते हैं। वह जो पक्षी का कंठ है वह एक छोर, और आपका जो कान है वह दूसरा छोर, और गीत बीच में जोड़ हो जाता है।

फिर वह जो फूल खिल रहा है वहा, और यह जो हृदय है भीतर, यह जो चैतन्य है भीतर—यह; ये एक ही घटना के हिस्से हो जाते हैं। और बीच में जो तरंगें दौड़ रही हैं, वे इन दोनों के बीच, दो के बीच जोड़ने का सेतु बन जाती हैं। और तब ऐसा नहीं लगता कि फूल वहां दूर खिल रहा है, और मैं यहां दूर खड़ा देख रहा हूं तब ऐसा लगता है कि मैं फूल में खिल रहा हूं और फूल मुझ में खड़ा देख रहा है।

लेकिन यह भी उस क्षण नहीं लगता, यह भी जब हम उस क्षण के बाहर निकल आते हैं, तब लगता है। उस क्षण तो इतना भी पता नहीं चलता; क्योंकि जिसे पता चलता है, सोच—विचार होता है, वह बुद्धि एक तरफ रख दी गई है। और तब प्रतिपल का अनुभव ब्रह्म का अनुभव बन जाता है। प्रतिपल का अनुभव ब्रह्म का अनुभव बन जाता है!

बोकोजू को किसी ने पूछा है कि तुम्हारे ब्रह्म का अनुभव क्या है?

तो बोकोजू कहता है, ब्रह्म? ब्रह्म का मुझे कोई भी पता नहीं।

करते क्या रहते हो? पूछने वाले ने पूछा, फिर तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा है कि जब कुएं से—उस वक्त वह कुएं से पानी भर रहा था—तो उसने कहा है कि कुएं से जब मैं पानी भरता हूं तो मुझे ठीक—ठीक पता नहीं लगता कि कुआ मुझे भर रहा है कि मैं कुएं से भर रहा हूं। और जब मेरी बालटी आवाज करती कुएं में उतरती है तो मुझे ऐसा नहीं लगता कि यह बालटी उतरी कि मैं ही उतर गया हूं! और जब पानी भर कर ऊपर आने लगता है, तब भरोसा मानो, मुझे कुछ साफ नहीं रहता कि क्या क्या है, क्या हो रहा है! यह तुम पूछते हो, इसलिए तुमसे सोच कर कहता हूं। तुमने पूछा, इसलिए मैंने सोचा और कहा, अन्यथा मैं खो गया हूं। ब्रह्म का मुझे कोई पता नहीं है। मुझे अपना ही पता नहीं रहा है!

जब अपना ही पता नहीं रहता है, तभी तो जिसका पता चलता है, वही ब्रह्म है। अपना पता कब खोता है? जब आपके पास कोई बुद्धि प्रत्येक चीज के साथ विचार चिपकाने को नहीं रह जाती। बुद्धि का काम है विचार चिपकाना, हर चीज को लेबल लगाना, हर चीज को शब्द देना, नाम देना, रूप देना।

बच्चा पैदा होता है। बच्चे की आंख खुलती है। बुद्धि नहीं होती बच्चे के पास उस समय। बुद्धि धीरे—धीरे विकसित होगी, बनेगी, शिक्षित होगी, संस्कारित होगी। तो वैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चा जब आंख खोलता है, तब उसे कुछ भेद दिखाई नहीं पड़ता। लाल रंग उसे भी लाल ही दिखाई पड़ेगा, लेकिन वह यह अनुभव नहीं कर सकता कि यह लाल है। क्योंकि लाल शब्द तो अभी सीखना पड़ेगा। हरा रंग उसे भी हरा ही दिखाई पड़ेगा, क्योंकि आंखें तो रंग देखती हैं, तो हरा दिखाई पड़ेगा। लेकिन बच्चा यह नहीं कह सकता कि यह हरा है। बच्चा यह भी नहीं कह सकता कि यह रंग है। और बच्चा यह भी नहीं कह सकता कि कहां लाल समाप्त होता है, कहां हरा शुरू होता है, क्योंकि लाल और हरे का उसे कोई भी बोध नहीं है। बच्चे की दृष्टि में जगत एक इकट्ठी घटना की तरह दिखाई पड़ता है, जहां सब चीजें एक—दूसरे में मिली हुई हैं, और किसी चीज को अभी भिन्न नहीं किया जा सकता, अलग नहीं किया जा सकता। एक सागर—अनुभव का, अविभाज्य। पर यह भी हमारा अनुमान है, बच्चे को क्या होता है, कहना मुश्किल है।

लेकिन संतों को, जो कि पुन: बच्चे हो गए हैं, जो कि फिर वैसे ही सरल हो गए हैं जब बुद्धि नहीं थी, जो अब फिर वैसे ही निर्दोष और अबोध हो गए हैं जब बुद्धि नहीं थी, ऐसा अनुभव होता है कि सब चीजें एक हो जाती हैं। एक चीज दूसरे से जुड़ जाती है, दूसरी तीसरे से जुड़ जाती है। चीजें दिखाई देनी बंद हो जाती हैं, भीतर का जोड़ ही दिखाई पड़ने लगता है।

हमारी स्थिति ऐसी है कि हमें माला के मनके दिखाई पड़ते हैं, भीतर जोड़ा हुआ धागा दिखाई नहीं पड़ता। बुद्धि मनके देखती है। और जब बुद्धि हट जाती है, तो वह जो चैतन्य है, बुद्धि से मुक्त, वह भीतर अनुस्यूत धागे को देखता है। उस एकता को देख लेता है जो सब में घिरी है, सब में जुडी है, जो सबके भीतर छिपी है, और जो आधार है।

बुद्धि जहा भी काम करती है, वहां विभाजन करती है। विज्ञान बुद्धि की व्यवस्था है। इसलिए विज्ञान तोड़ता है, एनालिसिस, विश्लेषण करता है। और परमाणु पर पहुंच गया तोड़ ते—तोड़ते, आखिरी जगह। उसे जहां भी दिखाई पड़ता है—टुकडे, खंड। एकता बिलकुल दिखाई नहीं पड़ती।

बुद्धि को छोड़ता है धर्म। तो उलटी प्रक्रिया शुरू होती है, चीजें जुड़ती जाती हैं और एक होती जाती हैं। विज्ञान पहुंच गया परमाणु पर, और धर्म पहुंचता है परमात्मा पर। परमाणु है छोटे से छोटा हिस्सा, जो हम तोड़ सके हैं। और तोड़ लेंगे तो दूसरा, और तोड़ लेंगे तो तीसरा, तोड़ती जाएगी बुद्धि। और परमात्मा है बड़े से बड़ा हिस्सा, जो हम बिना बुद्धि के जोड़ सके हैं। बुद्धि से तोड़ा है तो परमाणु हाथ आया है, परमाणु विज्ञान की शक्ति है। और बुद्धि के बिना देखा है तो परमात्मा अनुभव में आया है, परमात्मा धर्म की शक्ति है।

इसलिए ध्यान रहे, जो धर्म तोड़ ता हो वह धर्म नहीं है—कहीं भी तोड़ ता हो, किसी भी तल पर। अगर हिंदू मुसलमान से अलग हो जाता हो, तो समझना कि ये दो तरह की राजनीतियां हैं, धर्म नहीं हैं। अगर जैन हिंदू से अलग मालूम पडता हो, तो समझना कि ये दो तरह की समाज व्यवस्थाएं हैं, धर्म नहीं हैं। और समझ लेना कि इनके पीछे बुद्धि ही काम कर रही है, जो तोड़ने की व्यवस्था रखती है; इनके पीछे वह बुद्धि का अतिक्रमण कर गई चेतना का अनुभव नहीं है, जहा सब चीजें जुड़ जाती हैं और एक हो जाती हैं।

‘जीवात्मा तथा ब्रह्म का भेद और ब्रह्म तथा सृष्टि का भेद बुद्धि द्वारा जो कभी नहीं जानता, वह जीवनमुक्‍त कहलाता है।’

‘सज्जन सत्कार करें और दुर्जन दुख दें, तो भी जिसको सदैव सब के ऊपर सम— भाव रहे, वह जीवनमुक्‍त कहलाता है।’

सम—भाव! पहली बात. अद्वैत। दूसरी बात : समत्व, समता, सम— भाव। यह थोड़ा शब्द कठिन है, इसका जो हम व्यवहार करते हैं उसके कारण।

एक आदमी आपको गाली दे जाए, और एक आदमी आपके चरण स्पर्श कर जाए, तो सम— भाव का क्या अर्थ होगा? क्या आप अपने को सम्हाल कर सम— भाव रखें? कि नहीं, गाली दे गया, उस पर क्रोध नहीं करना, सम्मान कर गया, उस पर प्रसन्न नहीं होना—ऐसी चेष्टा करें? अगर चेष्टा करें तो सम— भाव नहीं है। फिर आयोजित संयम है। फिर व्यवस्था दी गई है; अनुशासन है; अपने को सम्हाल लिया है। लेकिन सम— भाव का यह अर्थ है कि कोई गाली दे, कि कोई सम्मान करे, भीतर दोनों से कोई भी प्रतिक्रिया पैदा न हो। कोई भी प्रतिक्रिया पैदा न हो। भीतर कुछ हो ही न। गाली भी बाहर घूमे, सम्मान भी बाहर घूमे, भीतर कुछ प्रवेश ही न हो।

यह कब होगा? यह तभी होता है जब भीतर साक्षी हो। जब कोई गाली देता है तो हममें प्रतिक्रिया क्यों होती है? क्योंकि गाली देते ही तत्काल हमें लगता है, मुझे दी गई गाली। बस कष्ट शुरू हो जाता है। सम्मान कोई करता है तो सुख मिलता है, क्योंकि लगता है, मुझे दिया गया सम्मान! सुख शुरू हो जाता है। इसका मतलब हुआ, मेरे साथ जो भी किया जाता है, उसके साथ मैं अपना तादात्म्य जोड़ लेता हूं। उस से ही सुख—दुख पैदा होता है। और वैषम्य पैदा होता है, संतुलन खो जाता है।

नैतिक व्यक्ति भी समता की चेष्टा करता है। लेकिन नैतिक व्यक्ति की समता आरोपित होती है, कल्टीवेटेड होती है। वह भी अपने को समझाता है कि ठीक है, किसी ने गाली दी तो क्या हर्ज! और किसी ने सम्मान किया तो ठीक है, उसकी मर्जी! मैं दोनों में सम— भाव रखूंगा।

यह सम— भाव ऊपर—उफ रहेगा, यह बहुत गहरे जाने वाला नहीं है। क्योंकि इस व्यक्ति को अभी तक साक्षी का कोई भी पता नहीं है। इसका सम— भाव चरित्रगत होगा। तो कभी मौके—बेमौके, जब यह जरा होश में न होगा, इसको छेड़ा जा सकता है। और कभी मौके—बेमौके चरित्र में संधि मिल जाए, तो इसके भीतर का वैषम्य प्रकट हो सकता है।

चरित्रगत समता का मूल्य नहीं है उपनिषद की नजर में। उपनिषद की नजर में मूल्य है आत्मगत समता का। आत्मगत समता का अर्थ हुआ कि चाहे कुछ भी बाहर होता रहे, मैं साक्षी से ज्यादा नहीं हूं। राम को न्यूयार्क में कुछ लोगों ने गालियां दीं, कुछ लोगों ने पत्थर मारे, तो राम नाचते हुए वापस लौटे। शिष्यों ने कहा, क्या हुआ? आप बड़े खुश हैं! तो राम ने कहा, खुशी की बात है। आज राम बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे। कुछ लोग गाली देने लगे, कुछ पत्थर मारने लगे, मजाक उड़ाने लगे। राम को फंसा देख कर बड़ा मजा आया कि बुरे फंसे। देखो, अब फंसे।

जो साथ थे, उन्होंने पूछा, आप किसके बाबत बात कर रहे हैं? कौन राम?

तो राम ने कहा, यह राम। छाती पर हाथ रखा और कहा, यह राम। ये बड़े फंस गए थे, और हम खड़े देखते रहे। हमने उनको भी देखा जो गाली दे रहे थे, और इन सज्जन को भी देखा जो फंस गए थे और गाली खा रहे थे। हम खड़े देखते रहे।

यह तीसरा बिंदु आपको मिल जाए तो समता। अगर दो ही हैं आपके बिंदु, तो समता नहीं हो सकती है। कोई गाली दे रहा है और आप गाली खा रहे हैं, तो आप चेष्टा कर सकते हैं भाव अच्छा बनाने का, सज्जन का लक्षण वह है, करनी चाहिए। चेष्टा कर सकते हैं कि नहीं, कोई हर्जा नहीं, गाली दे दी, हमारा क्या बिगड़ा! यह समझाना है। आपको लग रहा है कि कुछ बिगड़ तो गया, इसीलिए समझा रहे हैं कि क्या बिगड़ा। और उसने अपनी जबान खराब की, हमारा क्या गया! लेकिन कुछ गया। यह कंसोलेशन है, यह सांत्वना है।

सज्जन सांत्वना में जीता है। वह सोचता है कि ठीक है, गाली दी, अपना—अपना कर्म, अपना— अपना फल पाएगा वह आदमी। हम क्यों कुछ कहें? गाली दी है, दुख पाएगा, नरक जाएगा, पाप किया है। वह सांत्वना कर रहा है अपने मन में। वह जो खुद नहीं कर पा रहा है नर्क उसके लिए पैदा, वह सोच रहा है भगवान करेगा। अपना काम वह भगवान से ले रहा है। बाकी अपने को समझा रहा है। वह कह रहा है कि जो बुरा बोएगा, वह बुरा काटेगा; जो अच्छा बोएगा, वह अच्छा काटेगा। हम अच्छा ही बोएगे, ताकि अच्छा काटें। यह बुरा बो रहा है, अपने आप काटे बुरा।

यहां तक भी वह कर सकता है कि जो तोहे कांटा बुवे, वाहे बो तू फूल। वह यह भी कर सकता है कि यह हमें कांटे बो रहा है, हम इसके लिए फूल बोए। क्योंकि यह काटे ही काटेगा और हम फूल काटेंगे। बाकी है यह गणित दुकानदार का, व्यवसायी का, सौदा है इसमें। समझदारी का सौदा है, बाकी समता नहीं है।

समता कहां है? समता तो तभी होती है जब यह दो बिंदु के पार तीसरा बिंदु दिखाई पड़ना शुरू हो जाए। जब मुझे लगे कि यह रहा गाली देने वाला, यह रहा मेरा रूप, मेरा नाम, गाली खाने वाला, और यह तीसरा रहा मैं देखने वाला। इन दोनों से मेरी दूरी बराबर होनी चाहिए तो समता। जो गाली दे रहा है उससे भी मैं उतना ही दूर, और जिसको गाली दी जा रही है उससे भी मैं उतना ही दूर। अगर इस दूरी में जरा भी फर्क है और जरा भी कमी है, और गाली देने वाला मुझे ज्यादा दूर मालूम पड़ता है और गाली खाने वाला कम दूर मालूम पड़ता है मुझसे, तो समता डोल गई, तो विषमता आ गई।

समता का मतलब है कि तराजू के पलड़े दोनों के दोनों सम हो जाएं, और मैं तराजू के तीर की तरह बीच में तीसरा हो जाऊं, और जरा भी अंतर न दिखाऊं—गाली खाने वाले की तरफ न झुकुं गाली देने वाले की तरफ न झुकूं—मैं पार ही खड़ा रहूं? मैं दूर ही खड़े होकर देखता रहूं।

यह साक्षी का भाव समता है। और जीवनमुक्‍त समता में जीएगा, क्योंकि जीवन्मूक्ति आती ही साक्षित्व से है।

यह दूसरा सूत्र ध्यान रखें सांत्वना से सज्जन पैदा होगा, साक्षी से संत पैदा होता है। संत और सज्जन में बड़ा फर्क है। सज्जन ऊपर—ऊपर संत होता है, भीतर उसमें और दुर्जन में कोई फर्क नहीं होता। दुर्जन बाहर—भीतर दुर्जन होता है, सज्जन बाहर सज्जन होता है, भीतर दुर्जन होता है।

संत में और सज्जन में बड़ा फर्क है। एक अर्थ में तो संत में और दुर्जन में एक समानता है। दुर्जन बाहर भी दुर्जन होता है, भीतर भी दुर्जन होता है। सज्जन भीतर दुर्जन होता है, बाहर सज्जन होता है। संत बाहर भी सज्जन होता है, भीतर भी सज्जन होता है। एक अर्थ में दुर्जन से समानता है। वह समानता यह है कि दुर्जन भी एकरूप होता है बाहर— भीतर और संत भी एकरूप होता है बाहर— भीतर, रूप अलग हैं, बाकी एकरूप होता है। सज्जन दोनों के बीच में अटका होता है।

इसलिए सज्जन के कष्ट का कोई अंत नहीं है, क्योंकि सज्जन का मन तो होता है दुर्जन जैसा और आचरण होता है संत जैसा। इसलिए सज्जन बड़ी दुविधा में जीता है। और सज्जन के मन में सदा द्वंद्व बना रहता है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कभी बुरा नहीं किया, कभी चोरी नहीं की, बेईमानी नहीं की, और इतना कष्ट पा रहे हैं हम! और जिन्होंने चोरी की, बेईमानी की, मजा कर रहे हैं! तो इस जगत में न्याय नहीं है। या सज्जन अपने मन में समझा लेता है कि कुछ भी हो, प्रभु का नियम है कुछ. देर है, अंधेर नहीं है। समझाता है अपने मन को कि थोड़ी देर लग रही है, अभी बेईमान बीच में सफल हुए जा रहे हैं, आखिर में तो हम ही सफल होंगे! देर है, अंधेर नहीं है—यह समझा रहा है अपने को।

लेकिन एक तो बात साफ है कि देर दिखाई पड़ रही है। और शक अंधेर का भी हो रहा है कि कुछ गड़बड़ तो नहीं है! कि हम दोनों तरफ से तो नहीं चूक गए—न माया मिली, न राम! कहीं ऐसा न हो कि अभी माया खो रहे हैं और आखिर में पता चले कि राम थे ही नहीं! तो वह जो जीत गया माया में, वह आखिरी में भी जीता हुआ मालूम पड़े।

‘सज्जन को सदा पीड़ा बनी रहती है। और जिसको पीड़ा बनी रहे अपनी सज्जनता से, उसका अर्थ साफ हुआ कि उसका भाव तो दुर्जन का है। भीतर से चाहता तो वह भी वही है जो दुर्जन कर रहा है, और दुर्जन पा रहा है, लेकिन सज्जनता का आचरण उसने बना रखा है। उसके दोहरे लोभ हैं। उसकी गाड़ी के बैल दो तरफ जूते हैं, और दोनों तरफ गाड़ी खींची जा रही है। उसका लोभ यह भी है कि धन भी मिल जाए, यश भी मिल जाए, अहंकार की भी तृप्ति हो। दुर्जन के जो लोभ हैं, वे उसके लोभ हैं। उसका लोभ यह भी है कि परमात्मा भी मिल जाए, आत्मा भी मिल जाए, मोक्ष भी मिल जाए, शांति और आनंद भी मिल जाए। जो संत की अभीप्सा है, वह भी उसका लोभ है। उसके दोहरे लोभ हैं। और उन दोनों लोभों के बीच वह परेशान है। और इसलिए अक्सर सज्जन बड़ी ही अशांति में उपलब्ध होगा।

अगर सज्जन शांत हो, तो संत हो जाता है। और सज्जन अगर अशांत बना रहे, तो आज नहीं कल, दुर्जन हो जाता है। ज्यादा देर टिक नहीं सकता। वह मध्य की कड़ी या तो नीचे गिरे, या ऊपर जाए, बीच में कोई उपाय नहीं है ठहरने का।

जीवनमुक्‍त है संत। वह इसलिए नहीं दूसरे के साथ बुराई कर रहा है कि बुराई करने से खुद का बुरा होगा कभी। नहीं, वह बुराई कर नहीं सकता है, क्योंकि वह तीसरे बिंदु पर खड़ा है जिसके साथ कभी कोई बुराई की नहीं गई।

सिकंदर एक संन्यासी को ले जाना चाहता था भारत से। ददामी उस संन्यासी का नाम था। जाने को ददामी राजी’ नहीं था। तो सिकंदर ने तलवार खींच ली और कहा, काट कर टुकड़े—टुकड़े कर दूंगा, चलो मेरे साथ! मैं अगर हिमालय को भी आज्ञा दूं तो जाना पड़ेगा।

तो ददामी ने कहा, हो सकता है कि हिमालय को जाना पड़े, लेकिन तुम मुझे न ले जा सकोगे।

सिकंदर की कुछ समझ में न पड़ा कि एक दुबला—पतला फकीर, नग्न खड़ा था नदी की रेत में, यह इतनी हिम्मत की बातें कर किस बलबूते पर रहा है? उसने तलवार खींच ली और अपने सिपाहियों को कहा कि घेर लो! नंगी तलवारों से ददामी घेर लिया गया। ददामी खिलखिला कर हंसा और उसने कहा, लेकिन तुम मुझे नहीं घेर रहे हो, तुम उसे घेर रहे हो जो मैं नहीं हूं। और तुम्हारी कोई सामर्थ्य नहीं कि तुम मुझे घेर लो, क्योंकि मेरा घेरा उस विराट घेरे के साथ एक हो गया है।

सिकंदर ने कहा कि मैं दर्शन की, तत्वज्ञान की बातें नहीं जानता हूं। मैं सिर्फ तलवार जानता हूं; गर्दन अभी कट कर गिर जाएगी! तो ददामी ने कहा, बड़ा आनंद आएगा! तुम भी देखोगे कि गर्दन कट कर गिर गई, और मैं भी देखूंगा कि गर्दन कट कर गिर गई, हम दोनों ही देखेंगे।

यह तीसरा बिंदु है कि मैं भी देखूंगा कि गर्दन कट कर गिर गई। अगर आप अपनी गर्दन को कट कर गिरता हुआ देख सकें, तो उसका मतलब सिर्फ एक हुआ कि इस शरीर से आपका तादात्म्य न रहा, इसके आप साक्षी हो गए; आप दूर खड़े हो गए, बाहर खड़े हो गए—अपने से ही। इस बिंदु पर ही संतत्व का जन्म है, और यह बिंदु ही जीवनमूक्‍त है।

‘जिसने ब्रह्म तत्व को जान लिया, उसकी दृष्टि में संसार पहले जैसा नहीं रहता। इसलिए अगर वह संसार को पूर्ववत ही देखता हो, तो मानना पड़े कि उसने अभी भी ब्रह्म— भाव को जाना नहीं और वह बहिर्मुख है।’

संसार तो यही रहेगा, आपके बदलने से संसार नहीं बदलेगा, लेकिन आपके बदलने से आपका संसार बदल जाएगा। जैसा मैंने पहले कहा, हम सबके अपने— अपने संसार हैं। मैं अज्ञानी हूं, तो भी ये आबू के पर्वत ऐसे ही हैं, मैं ज्ञानी हो जाऊं, तो भी आबू के पर्वत ऐसे ही होंगे। आकाश ऐसा ही होगा, चांद ऐसा ही होगा, जमीन ऐसी ही होगी। यह संसार तो ऐसा ही होगा। लेकिन जब मैं अज्ञानी हूं, तो मैं इस संसार को जिस ढंग से देखता हूं, जिस ढंग से चुनता हूं जो मुझे दिखाई पडता है—हो सकता है यह पहाड़ मेरा है, जब मैं अज्ञानी हूं। पहाड़ पहाड़ है। मेरा है!

ज्ञान के क्षण में, जीवन—मुक्ति के अनुभव में, पहाड़—पहाड़ रहेगा, मेरा नहीं रह जाएगा। वह जो मेरा इस पर आरोपित था, वह तिरोहित हो जाएगा। और मेरे के हटते ही पहाड़ का सौंदर्य पूरा प्रकट होगा। वह जो मेरा ममत्व था, जो मेरा राय था, वही मेरा दुख था, वही मेरी पीडा थी। वही मेरी बुद्धि थी जो बीच में खड़ी हो जाती थी। जब भी इस पहाड़ को देखता था, लगता था मेरा पहाड़ है। वह मेरा बीच में आता था और मैं पर्दे से देखता था। अब पहाड़ पहाड़ है, मैं–मैं हूं।

जापान में झेन फकीरों ने दस चित्र निर्मित किए हैं। वे चित्र सदियों से चले आते हैं और ध्यान करने के काम में आते हैं। वे चित्र समझने जैसे हैं। इस सूत्र को समझने में उपयोगी होंगे।

पहले चित्र में कुछ दिखाई नहीं पड़ता, गौर से देखें तो समझ में आता है कि पहाड़ है, वृक्ष हैं, और वृक्ष की आडू से किसी बैल का सिर्फ पीछे का हिस्सा, दो पैर और पूंछ दिखाई पड़ रही है। बस इतना ही। दूसरे चित्र में इतना है और साथ में बैल को खोजने वाला आकर खड़ा हो गया है, और वह चारों तरफ देख रहा है कि बैल कहां है। अभी उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है; धुंधलका है सांझ का। वृक्ष हैं, लताएं हैं, उनमें बैल छिपा खड़ा है, जरा सी पूंछ और दो पैर पीछे के दिखाई पड़ते हैं; वह भी रेखाएं गौर से देखें तो।

तीसरे चित्र में उसे दिखाई पड़ गया है। दूसरे चित्र में वह उदास खड़ा था, चारों तरफ देखता मालूम पड़ता था, कोई झलक न थी उसकी आंखों में। तीसरे चित्र में उसकी आंखों में झलक आ गई, पैर में गति आ गई, बैल उसे दिखाई पड़ गया है। चौथे चित्र में पूरा बैल प्रकट हो गया है और खोजने वाला बैल के पास पहुंच गया है। पांचवें चित्र में उसने बैल की पूंछ पकड़ ली है। छठवें चित्र में उसने बैल के सींग पकड़ लिए हैं। सातवें चित्र में उसने बैल को घर की तरफ मोड़ लिया है। आठवें चित्र में वह बैल के ऊपर सवारी कर रहा है। नौवें चित्र में वह बैल को अपने लगाम में बांध कर, कब्जे में करके घर की तरफ लौट रहा है। और दसवें चित्र में कुछ भी नहीं है। न बैल है, न उसका मालिक उस पर सवार है। जंगल रह गया, पहाड़ रह गया; न बैल है, न उसका मालिक है, वे दोनों नदारद हो गए हैं।

ये दस चित्र झेन परंपरा में ध्यान के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। ये आत्मा की खोज के चित्र हैं।

पहले चित्र में कुछ पता नहीं खोजी का, कहां है। दूसरे चित्र में खोजी जगा है; आकांक्षा जगी है आत्मा को पाने की, खोजने की। तीसरे चित्र में थोड़ी सी झलक आत्मा की मिलनी शुरू हुई है। चौथे चित्र में पूरी झलक आत्मा की मिल गई है। पांचवें चित्र में झलक ही नहीं मिल गई है, आत्मा की पूंछ हाथ में पकड़ आ गई है, एक कोने से आत्मा पर अधिकार हो गया है। बाद के चित्र में पीछे से नहीं, सामने से, आमना—सामना हो गया है, आत्मा के सींग पकड़ लिए गए हैं। बाद के चित्र में सींग ही नहीं पकड़ लिए गए हैं, आत्मा को घर की तरफ वापस—घर की तरफ, ब्रह्म की तरफ मोड़ दिया गया है। बाद के चित्र में मोड़ ही नहीं दिया गया है, खोजी स्वयं पर सवार होकर घर की तरफ चल पड़ा है। और आखिरी चित्र में दोनों खो गए हैं; न खोजी है, न खोज है, जगत शून्य रह गया है। पहाड़ अब भी खड़े हैं, वृक्ष अब भी खड़े हैं, लेकिन वे दोनों खो गए हैं।

यही है अनुसंधान। जब खोजने निकले हैं, तो यह जगत जैसा आज दिखाई पड़ रहा है, वैसा दिखाई खुद जाग जाने पर नहीं पड़ेगा। सारा ममत्व क्षीण हो जाएगा। सारी संगृहीत धारणाएं क्षीण हो जाएंगी। जगत के साथ जो—जो प्रोजेक्यान, प्रक्षेपण थे अपने, वे भी नष्ट हो जाएंगे। जगत से जो अपेक्षाएं थीं, वे भी गिर जाएंगी। जो मांग थी, वह भी नहीं रह जाएगी। जगत में जो सुख को देखने का खयाल था, वह भी चला जाएगा। जगत से दुख मिलता है, यह भ्रांति भी टूट जाएगी। जगत से हमारा कोई लेन—देन भी है, यह भी समाप्त हो जाएगा।

तो सूत्र कहता है :’जिसने जान लिया ब्रह्म को, उसकी दृष्टि में संसार पहले जैसा नहीं रहता।’

संसार तो रहता है, पहले जैसा नहीं रहता। और अगर अब भी पहले जैसा रह जाए, तो जानना कि उसने अभी जाना नहीं है। यह खुद की परीक्षा के लिए है। यह खुद ही देखते चलना है।

पत्नी है, मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि पत्नी है, बच्चे हैं, कलह है, परिवार है, धंधा है, कुछ हो नहीं सकता इसमें, हम छोड़ कर भाग जाएं!

मैं उनसे कहता हूं, छोड़ कर मत भागो। भाग कर जाओगे भी कहा? संसार सब जगह है। और तुम अगर जैसे हो वैसे ही रहे, तो कोई दूसरी तुम्हारी पत्नी बन जाएगी, कोई दूसरा घर बस जाएगा, कोई दूसरा धंधा शुरू हो जाएगा। धंधे बहुत तरह के हैं, धार्मिक किस्म के धंधे भी हैं। नहीं खोली दुकान, एक मठ खोल लेंगे। कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा। करोगे क्या! वह जो आदमी भीतर बैठा है, वह अगर वैसा ही है, तो वह जानता जो है, वही तो करेगा!

भागो मत, वहीं रह कर डूबते चले जाओ, खोजते चले जाओ। खोज उस दिन पूरी समझ लेना, जिस दिन बाजार में बैठे रहो और बाजार भी रहे, और तुम्हारे लिए बाजार न रह जाए। पत्नी पास बैठी हो, पत्नी के मन में पत्नी ही रहेगी, रही आए। तुम्हारे लिए पहले तो पत्नी न रह जाए। वह जो मेरे होने का भाव है, वह विसर्जित हो जाए। स्त्री रह जाएगी। पर स्त्री भी तभी तक दिखाई पड़ेगी जब तक कामवासना है। फिर ध्यान और गहरा हो, कामवासना भी क्षीण हो जाए, तो फिर वह स्त्री भी न रह जाएगी; फिर वह देह भी न रह जाएगी। और जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर कुछ टूटता जाएगा, वैसे—वैसे बाहर तुम्हारा जो प्रक्षेपण था, उस स्त्री के ऊपर तुम्हारे जो भाव थे—पत्नी के, स्त्री के—वे भी विलीन होते चले जाएंगे। एक दिन ऐसा आएगा कि तुम जहा बैठे हो, वहीं शून्य हो जाओगे। चारों तरफ संसार वही होगा, लेकिन तुम वही नहीं रहोगे। इसलिए तुम्हारी दृष्टि बदल जाएगी।

इसे खोजते रहना है निरंतर कि मुझे कहीं वैसा ही तो नहीं है सब? सब वैसा ही तो नहीं चल रहा है? नाम बदल जाते हैं, वस्तुएं बदल जाती हैं, लेकिन ढंग भीतर का अगर वही चल रहा है, और सब वैसा ही दिखाई पड़ रहा है, तो फिर तो फिर समझना कि जीवनमुक्‍ति बहुत दूर है, सत्य की झलक बहुत दूर है।

सत्य की झलक का अर्थ ही है कि तुम्हारे और तुम्हारे संसार के बीच में संबंध बदल जाए; संसार तो वही रहेगा। संबंध भी तभी बदलेगा, जब मैं बदल जाऊं।

‘जहां तक सुख का अनुभव होता है—या दुख का—वहां तक प्रारब्ध कर्म है, ऐसा माना गया है। क्योंकि प्रत्येक फल का उदय क्रियापूर्वक होता है, क्रिया बिना किसी स्थान पर कोई फल नहीं।’

‘पर जिस प्रकार जग जाने से स्वप्न की क्रिया नाश को प्राप्त होती है, वैसे ही मैं ब्रह्म हूं, ऐसा ज्ञान होने से करोड़ों और अरबों जन्म से इकट्ठा किया हुआ संचित कर्म नाश पाता है।’ सुख और दुख होते हैं कर्मों के कारण। तो जो जीवनमुक्‍त हो गया है, ऐसा मत सोचना कि उसे दुख या सुख होने बंद हो जाएंगे।

रमण को मरते समय कैंसर हो गया। बड़ी पीडा थी। कैंसर की पीड़ा स्वाभाविक थी। नासूर था गहरा, और बचने का कोई उपाय न था। बहुत डाक्टर आते, रमण को देखते तो बड़े हैरान होते, क्योंकि सारा शरीर पीड़ा से जर्जर हो रहा था, पर आंखों में कहीं कोई पीड़ा की झलक न थी। आंखों में तो वही शांत झील थी, जो सदा से थी। आंखों से तो साक्षी ही जागता था, वही देखता था, वही झांकता था।

डाक्टर कहते कि आपको बहुत पीड़ा हो रही होगी? तो रमण कहते, पीड़ा तो बहुत हो रही है, लेकिन मुझे नहीं हो रही। पीडा तो बहुत हो रही है, लेकिन मुझे नहीं हो रही, मुझे सिर्फ पता चल रहा है कि पीड़ा हो रही है। शरीर पर बड़ी पीड़ा हो रही है, मुझे सिर्फ पता चल रहा है। मैं देख रहा हूं; मुझे नहीं हो रही। बहुत लोगों के मन में सवाल उठता है कि रमण जैसा ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, जीवनमुक्‍त, उसको कैंसर क्यों हो गया?

इस सूत्र में उसका उत्तर है। जीवनमुक्‍त को भी सुख—दुख आते रहेंगे, क्योंकि सुख—दुखों का संबंध उसके पिछले कर्मों से है, संस्कारों से है। उसने जो किया है, जागने के पहले उसने जो किया है..।

समझ लें कि जागने के पहले, और मैंने बीज बो दिए हैं अपने खेत में। तो मैं जाग जाऊं, वे बीज तो फूटेंगे और अंकुर बनेंगे। सोया रहता तो भी अंकुर बनते, फूलते, फल लगते। अब भी अंकुर बनेंगे, फूलेंगे, फल लगेंगे। एक ही फर्क पड़ेगा सोया रहता, तो सोचता मेरी फसल है और छाती से संभाल कर रखता। अब जाग गया हूं, तो समझूंगा जो बीज बोए थे, वे अपनी नियति को उपलब्ध हो रहे हैं, मेरा इसमें कुछ भी नहीं है, देखता रहूंगा। अगर सोया रहता, तो इस फसल को काटता और बीजों को संभाल कर रखता, ताकि अगले वर्ष फिर बो सकूं। जाग गया हूं, इसलिए देखता रहूंगा, बीज फूटेंगे, अंकुरित होंगे, फल लगेंगे, अब मैं उन्हें इकट्ठा नहीं करूंगा। वे फल लगेंगे और वहीं से गिर जाएंगे और नष्ट हो जाएंगे; मेरा उनसे संबंध टूट जाएगा। मेरा संबंध उनसे बोने का था, अब मैं उन्हें दुबारा नहीं बोऊंगा। मुझसे उनका आगे कोई संबंध नहीं बनेगा।

तो जीवनमुक्‍त को भी सुख—दुख आते रहेंगे। पर जीवनमुक्‍त जानेगा कि यह पिछले कर्मों की श्रृंखला का हिस्सा है, मेरा कुछ लेन—देन नहीं। वह देखता रहेगा। जब रमण को कोई चरणों में जाकर फूल चढ़ा आता है, तब भी वे बैठे देखते रहते हैं कि किसी पिछली कर्म— श्रृंखला का हिस्सा होगा कि यह आदमी मुझे सुख देने आया है। मगर वे सुख लेते नहीं, यह आदमी देता है, वे लेते नहीं। अगर वे ले लें, तो नए कर्म की यात्रा शुरू हो जाती है। इसे वे रोकते भी नहीं कि तू मत दे—ये फूल मत चढ़ा, ये पैर मत छू—वे रोकते भी नहीं, क्योंकि रोकना भी कर्म है और फिर श्रृंखला शुरू हो जाती है।       इसे थोड़ा समझ लें। यह आदमी फूल रखने आया है, यह एक हार गले में डाल गया है, इसने चरणों पर सिर रख दिया है, रमण बैठे क्या कर रहे होंगे भीतर? वे देख रहे हैं कि इस आदमी से कुछ लेन—देन होगा, कोई प्रारब्ध कर्म होगा; यह अपना पूरा कर रहा है। लेकिन अब सौदा पूरा कर लेना है, अब आगे सिलसिला नहीं करना है। यह बात यहीं समाप्त हो गई, अब इसमें से आगे कुछ नहीं निकालना है। तो वे बैठे रहेंगे, वे यह भी नहीं कहेंगे कि मत कर। क्योंकि मत करने का मतलब क्या होता है? इसका मतलब होता है, एक तो आप अपना पिछला किया हुआ लेने को राजी नहीं हैं, जो कि लेना ही पड़ेगा। और दूसरा उसका मतलब यह हुआ कि अब इस आदमी से आप एक और संबंध जोड़ रहे हैं इसे रोक कर, कि मत कर। यह संबंध कब पूरा होगा? एक नया कर्म कर रहे हैं, आप एक प्रतिक्रिया कर रहे हैं।

न, रमण देखते रहेंगे, चाहे आदमी फूल लेकर आए, और चाहे कैंसर आ जाए। तो वे कैंसर को भी देखते रहेंगे।

रामकृष्ण भी मरते वक्त कैंसर से मरे। गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि आप, आप कह क्यों नहीं देते काली को, मां को? एक क्षण की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा! तो रामकृष्ण हंसते, कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण ने कहा, तू समझता नहीं। जो अपना किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर आना पड़ेगा। तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है। तो विवेकानंद ने कहा कि न इतना कहें, इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे जीते जी कि पानी जा सके, भोजन जा सके! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है। तो रामकृष्ण ने कहा, आज मैं कहूंगा।

और सुबह जब वे उठे, तो बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा, बड़ी मजाक रही। मैंने मां को कहा, तो मां ने कहा कि इसी गले से कोई ठेका है? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है? तो रामकृष्ण ने कहा कि तेरी बात में आकर मुझे तक बुद्ध बनना पड़ा है! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था। और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हू। फिर रामकृष्ण बहुत हंसते थे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती! रामकृष्ण ने कहा, हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है!

व्यक्ति कैसी ही परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए, शरीर के साथ अतीत बंधा हुआ है, वह पूरा होगा। सुख—दुख आते रहेंगे, लेकिन जीवनमुक्‍त जानेगा, वह प्रारब्ध है। और ऐसा जान कर उनसे भी दूर खड़ा रहेगा; और उसके साक्षीपन में उनसे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। उसका साक्षी— भाव थिर है।

‘और जिस प्रकार जग जाने से स्वप्न की क्रिया नाश को प्राप्त होती है, वैसे ही मैं ब्रह्म हूं? ऐसा शान होने से करोडों और अरबों जन्मों से इकट्ठा किया हुआ संचित कर्म नाश पाता है।’

इस संबंध में हमने पीछे बात की है। जैसे स्वप्‍न से जाग कर स्वप्न खो जाता है, ऐसा ही जाग कर, जो भी मैंने किया, वह मैंने कभी किया ही नहीं था, खो जाता है। लेकिन मेरे यह जान लेने पर भी मेरे शरीर को कोई शान नहीं होता है। मेरा शरीर तो अपनी यंत्रवत प्रक्रिया में घूमता है और अपनी नियति को पूरा करता है। जैसे हाथ से तीर छूट गया हो, वह वापस नहीं लौटाया जा सकता, और ओंठ से शब्द निकल गया हो, उसे भुलाया नहीं जा सकता, लौटाया नहीं जा सकता—ऐसे ही शरीर तो एक यंत्र—व्यवस्था है, उसमें जो हो गया, वह जब तक पूरा न हो जाए, तीर जब तक अपने लक्ष्य पर न पहुंच जाए, और शब्द जब तक आकाश के अंतिम छोर को न छू ले, तब तक विनाश को उपलब्ध नहीं होता।

तो शरीर तो झेलेगा ही। और एक बात इस संदर्भ में कह देनी उचित है। खयाल में आ गया होगा आपको भी कि यह बात थोड़ी अजीब सी है कि रामकृष्ण को भी कैंसर! रमण को भी कैंसर! इतनी बुरी बीमारियां? बुद्ध की मृत्यु हुई जहरीले भोजन से विषाक्त हो जाने से रक्त के। महावीर की मृत्यु हुई भयंकर पेचिस हो जाने से, छह महीने तक पेट की असह्य पीड़ा से, जिसका कोई इलाज न हो सका। तो खयाल में उठना शुरू होता है कि इतनी महान, शुद्धतम आत्माओं को ऐसी जघन्य बीमारियां पकड़ लेती हैं! क्या होगा कारण? हमें पकड़े, अज्ञानी—जन को पकड़े, पापी—जन को पकड़े—समझ में आता है कि फल है, भोगते हैं अपना। महावीर को, बुद्ध को, रमण को या रामकृष्ण को ऐसा हो, तो चितना आती है मन में कि क्या बात है?

उसका कारण है। जो व्यक्ति जीवनमुक्‍त हो जाता है, उसके जीवन की आगे की यात्रा तो समाप्त हो गई, यही जन्म आखिरी है। आपकी तो आगे की लंबी यात्रा है। समय बहुत है आपके पास। आप सारे दुख रत्ती—रत्ती करके झेल लेंगे। समय बहुत है आपके पास। बुद्ध, महावीर या रमण के पास समय बिलकुल नहीं है। दस, बीस, पच्चीस, तीस साल का वक्त है। आपके पास जन्मों—जन्मों का भी हो सकता है। इस छोटे से समय में सारे कर्म, सारे संस्कार इकट्ठे, संगृहीत होकर फल दे जाते हैं।

इसलिए दोहरी घटनाएं घटती हैं। महावीर को एक तरफ तीर्थंकर का सम्मान मिलता है, वह भी सारे सुखों का इकट्ठा अनुभव है, और दूसरी तरफ असह्य पीड़ा भी झेलनी पड़ती है, वह भी सारे दुखों का इकट्ठा संघात है। रमण को एक तरफ हजारों—हजारों लोगों के मन में अपरिसीम सम्मान है। वह सारा सुख इकट्ठा हो गया। और फिर कैंसर जैसी बीमारी है, सारा दुख इकट्ठा हो गया। समय थोड़ा है। सब संगृहीत और जल्दी और शीघ्रता में पूरा होता है।

इसलिए ऐसे व्यक्ति परम सुख और परम दुख दोनों को एक साथ भोग लेते हैं। समय कम होने से सभी चीजें संगृहीत और एकाग्र हो जाती हैं। लेकिन भोगनी पडती हैं। भोगने के सिवाय कोई उपाय नहीं है।

(मां आनंद मधु ने खड़े होकर एक प्रश्न पूछा।)

 

प्रश्न : जिसके पास ज्यादा समय हो वह यह बीमारी को ले सकता है कि नहीं? ले सकता है तो उपाय क्या?

नहीं, कोई उपाय नहीं, और लिया भी नहीं जा सकता। क्योंकि बीमारी लेने का तो मतलब यह होगा कि मेरे किए हुए का फल किसी दूसरे को मिल सकता है। तो सारी अव्यवस्था हो जाएगी। और अगर मेरे किए का फल दूसरे को मिल सकता है, तो इस जगत में फिर कोई नियम, कोई ऋत नहीं रह जाएगा। तब तो मेरी स्वतंत्रता भी किसी को मिल सकती है और मेरी जीवनमुक्‍ति भी किसी को मिल सकती है। मेरा दुख, मेरा सुख, मेरा ज्ञान, मेरा अनुभव, मेरा आनंद, फिर तो कोई भी चीज ट्रासफरेबल हो जाती है, हस्तांतरित हो जाती है।

नहीं, इस जगत में कोई भी चीज हस्तांतरित नहीं होती। होने का कोई उपाय नहीं है। कोई उपाय नहीं है। और उचित है कि उपाय नहीं है। ही, मन में ऐसा भाव पैदा होता है, वह भी उचित है और शुभ है। रमण को कोई प्रेम करने वाला चाह सकता है कि कैंसर आपका मैं ले लूं। यह चाह सुखद है। और इस चाह से इस व्यक्ति को पुण्य का फल मिलेगा। यह कर्म हो गया इसकी तरफ से।

समझ लें इसको। रमण मर रहे हैं और कैंसर है। कोई कह सकता है कि कैंसर मुझे मिल जाए, पूरे भाव से। तो भी मिल नहीं जाएगा। लेकिन इसने यह भाव किया है इतना, अपने ऊपर लेने का, यह कर्म हो गया; यह एक पुण्य हो गया। और इसका सुख इसे मिलेगा।

यह बड़ी अजीब बात है मागा था दुख, लेकिन दुख मांगने वाला एक अदभुत पुण्य कर्म कर रहा है। इसे इसका सुख मिलेगा। लेकिन रमण से इसकी तरफ कुछ भी नहीं आ सकता। यह जो कर रहा है भाव, यह इसका ही कर्म बन रहा है। यह कर्म इसे लाभ देगा।

(किसी अन्य ने खड़े होकर दूसरा प्रश्न पूछना चाहा। )

 

प्रश्न अरविंद के बारे में

न, यह आदत खराब की मधु शुरू। यह तो नुकसान होगा।

यह मेरा इरादा है।

तुम्हारे इरादे अलग हैं, ये इतने लोग यहां बैठे हैं! इस तरह नहीं शुरू करो, नहीं तो मुश्किल होगा। वह सारी बात को अव्यवस्था हो जाएगी।


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बिन बाती बिन तेल (सूफी कहानी) प्रवचन–9

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जहां वासना, वहां विवाद—(प्रवचन—नौवां)

 दिनांक 29 जून 1974 (प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

 भगवान!

 एक आदमी था, जो जानवरों की भाषा समझता था।

वह एक दिन किसी रास्ते से जा रहा था।

वहां एक गधा और एक कुत्ता आपस में बड़े जोर-जोर से झगड़ रहे थे।

कुत्ता कह रहा था, ‘बंद करो ये घास और चारागाह की बातें!

कुछ खरगोश या हड्डियों के संबंध में कहो। मैं तो उकता गया हूं।

उस आदमी से न रहा गया और वह बोला,

‘सूखी घास का उपयोग भी तो किया जा सकता है; जो गोश्त जैसा ही होगा।’

वे दोनों जानवर उसकी ओर मुड़े; उसके शब्द न सुनाई पड़े

इसलिये कुत्ता पूरी ताकत से भोंकने लगा, और गधे ने जोर से लात मारकर

उस आदमी को बेहोश कर दिया। और फिर वे अपने झगड़े में उलझ गये।

भगवान! मजनू कलंदर की इस बेबूझ कहानी का अर्थ क्या है?

जनू कलंदर ने जीवन के बहुत अनुभवों के बाद इस कहानी को लिखा होगा। कहानी की एक-एक पर्त को उघाड़ना जरूरी है।

पहली बात: संसार हमारे लिए उतना ही है जितनी हमारी वासना है, जैसी हमारी वासना है। हम पूरे संसार को नहीं देख पाते क्योंकि हमारी आंख पर हमारी वासना का चश्मा है। वही हमारी सीमा है।

लोग कहते हैं, संसार सीमित है और परमात्मा असीम है; लेकिन परमात्मा क्या इस सीमित संसार के बाहर है? वह यहीं छिपा है, यहीं तुम्हारे पड़ोस में बैठा है। फिर संसार सीमित कैसे होगा, जब असीम ने उसे निर्मित किया? और जब असीम उसमें छाया है, छिपा है तो संसार भी सीमित नहीं हो सकता। सीमित दिखाई पड़ता है क्योंकि हमारी वासना पूरे को नहीं देखती। हमारी वासना उतने को ही देखती है, जितने से हमारी वासना का संबंध है। गधे को संसार घास से ज्यादा नहीं। कुत्ते को संसार हड्डी और मांस में है। तुम अपनी वासना से पूछो तो तुम्हें पता चल जायेगा, तुम्हारा संसार कितना बड़ा है।

मजनू कलंदर ने इस तरह की बहुत सी कहानियां कहीं हैं। यह आदमी अनूठा था। उसने लिखा है कि एक दिन मैंने सुना कि एक बिल्ली और कुत्ते में विवाद हो रहा था। और कुत्ता कह रहा था, कि रात मैंने ऐसा अदभुत सपना देखा, जैसा कि कहानियों में भी खोजना मुश्किल है। बड़ा अनूठा सपना था। वर्षा हो रही है, लेकिन वर्षा पानी की नहीं हो रही है, हड्डियां बरस रही हैं, मांस के टुकड़े बरस रहे हैं। ऐसा गजब का सपना था।

बिल्ली ने कहा, छोड़ो बकवास! शास्त्रों से मेरा परिचय है। इतिहास की मैं जानकार हूं। यह तो हमने सुना है कि कभी-कभी वर्षा में चूहे बरसते हैं, लेकिन हड्डी और मांस कभी बरसते न सुना है, न देखा है।

बिल्ली जिस संसार को देखती है, वहां वह चूहे की तलाश कर रही है; वही उसका सपना है। बिल्ली और कुत्तों के सपने एक नहीं हो सकते क्योंकि उनकी वासनायें अलग हैं। और बिल्ली का संसार चूहे पर समाप्त हो जाता है; चूहा उसकी सीमा है।

तुम्हारा संसार भी तुम्हारी वासना पर समाप्त हो जाता है। इसलिये बुद्धों ने कहा है, जब तक तुम्हारी सब वासनाएं न गिर जायें, तब तक तुम सत्य को न देख सकोगे। तब तक तुम सत्य को उतना ही देखोगे, जितना तुम्हारी वासना के लिये जरूरी है। वह अधूरा होगा। और अधूरे सत्य असत्य से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। अधूरे सत्य मालूम तो होते हैं सत्य हैं, लेकिन चूंकि वे अधूरे होते हैं, और अधूरों को हमारा मन पूरा मान लेता है; वहीं भ्रांति हो जाती है।

संसार परमात्मा से अलग नहीं है, संसार परमात्मा का उतना हिस्सा है, जितना तुम्हारी वासना देखती है। इसलिये कुत्ते का संसार अलग है, बिल्ली का संसार अलग है, तुम्हारा संसार अलग है। एक पुरुष का संसार अलग है, एक स्त्री का संसार अलग है क्योंकि उनकी दोनों की वासनायें बड़ी भिन्न हैं। जो पुरुष को दिखाई पड़ता है, वह स्त्री को दिखाई नहीं पड़ता। जो स्त्री को दिखाई पड़ता है, वह पुरुष को दिखाई नहीं पड़ता।

एक स्त्री का गला खराब था, खांसी-सर्दी-जुकाम था और दोत्तीन दिन से वह निरंतर खांस रही थी। पति रात सो भी नहीं सकता था। सुबह उसने कहा, अब तुम चिंता न करो, आज तुम्हारे गले के लिए कुछ ले ही आऊंगा। उसने कहा कि जरूर ले आना। वही जड़ाऊं हार, जो देखा था दुकान पर।

संसार अलग है। गले के लिये दवा पति ले आयेगा, यह तो खयाल ही पत्नी को नहीं आया। आया खयाल, हार–जड़ाऊ हार जो बहुत दिन पहले देखा था। और हो सकता है उसी जड़ाऊ हार की वजह से रातभर खांसना पड़ रहा हो। और यह भी हो सकता है, जड़ाऊ हार दवा से ज्यादा उपयोगी सिद्ध हो। शायद दवा हार भी जाये खांसी मिटाने में, लेकिन जड़ाऊ हार खांसी को मिटा देगा।

हम वही देखते हैं, जो हम चाहते हैं। चाह हमारे देखने का द्वार है। चाह से देखा गया सत्य संसार है। अ-चाह से देखा गया संसार सत्य है। इसलिये जब तक चाह न गिर जाये तब तक तुम वह न देख सकोगे जो है: ‘दैट विच इज़’। तब तक तुम वही देखते रहोगे, जो तुम चाहते हो।

इसलिये इस दुनिया में एक संसार नहीं है, यहां जितनी वासनायें हैं, उतने ही संसार हैं। और हर व्यक्ति अपने ही वासना के संसार में जीता है। तुम उसी से दबे, उसी से घिरे; जैसे कंबल लपेटा हो तुम्हारे चारों तरफ, वैसे तुम्हारी वासनायें तुम्हारे चारों तरफ लपटी हैं, वही तुम्हारा संसार है।

यह कहानी कलंदर की बड़ी अर्थपूर्ण है। यह कह रही है कि गधे की अपनी दुनिया है, कुत्ते की अपनी दुनिया है। और जब भी दो दुनियाओं का मिलन होगा तो विवाद होगा। विवाद इसलिये नहीं कि एक को सत्य का पता चल गया है, विवाद इसलिये है कि दोनों की चाह भिन्न हैं, दोनों के देखने के ढंग भिन्न हैं।

दुनिया में जितने विवाद हैं, वह कोई सत्य की उपलब्धि के कारण नहीं हैं, वह चाहों की भिन्नता के कारण हैं।

दूसरी बात यह समझ लेनी जरूरी है कि जिसने सत्य पा लिया उसका विवाद समाप्त हो गया।

महावीर से कोई जाकर कहता है कि ईश्वर है? तो महावीर कहते हैं ‘स्यात्।’ कोई कहता है ईश्वर नहीं है, तो भी महावीर कहते हैं, ‘स्यात्।’ न तो महावीर ‘हां’ कहते हैं, न ‘ना’ क्योंकि महावीर देख रहे हैं कि सत्य इतना बड़ा है कि सभी की आकांक्षाएं उसमें समा जाती हैं।

वह जो आदमी कह रहा है, ईश्वर है, यह भी आकांक्षा है। इसे हम समझें। वह जो आदमी कह रहा है कि ईश्वर नहीं है, यह भी आकांक्षा है। कुछ आकांक्षायें हैं, जो कि ईश्वर के होने से पूरी नहीं हो सकतीं। कुछ आकांक्षायें हैं जो ईश्वर हो तो ही पूरी हो सकती हैं। तुम्हारा ईश्वर भी तुम्हारी आकांक्षाओं का उपकरण है; तुम्हारी वासनाओं का दास है।

जब तुम प्रार्थना करते हो मंदिरों-मस्जिदों में तो तुम क्या कह रहे हो? तुम परमात्मा से कह रहे हो, कि मेरी सेवा में संलग्न हो जाओ। यह मैं चाहता हूं, यह मुझे मिलना चाहिए। तुम्हारी प्रार्थनायें तुम्हारी मांग हैं। तुम्हारी प्रार्थनायें तुम्हारी वासनायें हैं। और प्रार्थना वासना कैसे हो सकती है? वासना प्रार्थना कैसे बनेगी? इसलिये मंदिरों में तुम कभी नहीं जाते, तुम दुकानों में ही जाते हो। कुछ दुकानों का नाम तुमने मंदिर रख छोड़ा है, यह बात अलग। जो तुम्हें बाजार में नहीं मिल सकता, उसे तुम खरीदने मंदिर में जाते हो। जिसके लिये तुम संसार में हार गये, थक गये, उसके लिये तुम मंदिर में तलाश करने लगते हो।

मेरे पास अनेक लोग आते हैं; उनकी अनेक आकांक्षायें हैं। उनकी आकांक्षायें देखकर मैं हैरान होता हूं। एक आदमी आया और उसने कहा कि मेरी एक प्रार्थना मैंने की है, अगर तीन सप्ताह के भीतर पूरी हो गई तो मैं मान लूंगा कि ईश्वर है; और अगर नहीं पूरी हुई तो सब बकवास है। उसके बेटे को नौकरी मिल जाये, तीन सप्ताह के भीतर। तो उसने तय किया है कि मंदिर में एक नारियल चढ़ायेगा, प्रसाद बांटेगा। परमात्मा भी सिद्ध होगा तुम्हारी वासना के पूरे होने से! तो कुछ लोग हैं, जो परमात्मा का सहारा ले रहे हैं वासना पूरा करने के लिये और कुछ लोग हैं, सोचते हैं अगर परमात्मा है तो वासना पूरा करना बहुत मुश्किल पड़ेगा। इसलिये वे इनकार करते हैं कि परमात्मा है ही नहीं।

हिटलर जैसा व्यक्ति कैसे स्वीकार करे कि परमात्मा है? क्योंकि हिटलर जो आकांक्षा पूरी करना चाहता है, वह परमात्मा के होने से पूरी न हो सकेगी। इसलिये हिटलर को स्वीकार ही करना चाहिए कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है। एक दफा यह बात साफ हो जाये कि न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है, तो हिटलर फिर लाखों लोगों की हत्या आसानी से कर सकता है। अगर परमात्मा है, आत्मा है, तो एक चींटी को भी मारना मुश्किल है। क्योंकि तब चींटी की पीड़ा भी अर्थ रखती है और आखिरी हिसाब में वह भी जुड़ जायेगा।

हिटलर मौज से काट सका लोगों को। कोई लाखों यहूदी हिटलर ने काटे। चिंता की रेखा भी न आई। रात नींद में दखल भी न पड़ी। इतनी चीखें-पुकारें जगत में कभी किसी एक आदमी ने इसके पहले पैदा नहीं की थीं। और इतना सुनियोजित हत्या का आयोजन भी किसी ने कभी नहीं किया था। बड़ी-बड़ी भट्टियां बनाईं बिजली की। जिनमें एक-एक भट्टी में दस हजार लोग एक साथ जलकर राख हो जायें–एक सेकेंड में! ऐसा कभी भी न हुआ था। चंगीज को भी मारना पड़े तो एक-एक आदमी को मारने में काफी वक्त लगता था। हिटलर ने भट्टियां बनाईं। सीधे लोग प्रवेश कर जायें, बटन दबाई कि राख हो गये। ये भट्टियां चौबीस घंटे काम करती थीं। चौबीस घंटे हजारों की संख्या में लोग भीतर जाते और तिरोहित हो जाते। लेकिन यह हिटलर कर सका क्योंकि आत्मा और ईश्वर नहीं है।

नीत्से ने हिटलर के पहले कहा था कि ‘गॉड इज़ डेड;’ ‘ईश्वर मर चुका है।’ इसको हिटलर ने अपना सूत्र बना लिया। नीत्से उसका गुरु हो गया। इस धारणा के आधार पर सारी दुनिया को मिटाने में फिर कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि मिट्टी ही गिरती है। कोई भीतर चेतना होती तो दुख भी अनुभव करती। कोई दुख नहीं। और पाप, अपराध का कोई भाव पैदा नहीं होता।

जो आदमी महावीर के पास आया और जिसने कहा कि ईश्वर है? महावीर ने झांककर उसमें देखा होगा कि वह क्यों चाहता है कि ईश्वर हो। क्योंकि तुम ईश्वर को भी मुफ्त स्वीकार नहीं करोगे। कोई कारण होगा। जिस दिन तुम बिना कारण ईश्वर को स्वीकार कर लोगे, उस दिन तो बिन बाती बिन तेल की ज्योति उपलब्ध हो जायेगी। लेकिन यह आदमी किसी मतलब से कह रहा है कि ईश्वर है। ईश्वर का कोई उपयोग करना चाहता है। इसकी कोई वासना बिना ईश्वर के पूरी नहीं होती। इसलिये कमजोर अकसर ईश्वर को स्वीकार करते हैं, शक्तिशाली अकसर अस्वीकार करते हैं। क्योंकि कमजोर को सहारा चाहिए और शक्तिशाली को ऊपर नियंत्रण नहीं चाहिए। कमजोर को सहारा चाहिए और शक्तिशाली को कोई सहारा नहीं चाहिए; बल्कि कोई बाधा डालने वाला ऊपर न हो। तो ईश्वर को शक्तिशाली अकसर इनकार करता है।

अब यह बड़े मजे की बात है; नीत्से ने दो तरह की नीतियां कही हैं। एक नीति है, मालिकों की और एक नीति है, गुलामों की। गुलाम हमेशा ईश्वर को स्वीकार करते हैं, और मालिक हमेशा अस्वीकार करते हैं। अगर वे स्वीकार भी करते हैं तो सिर्फ गुलामों के लिए। भीतर वे जानते हैं कि कोई ईश्वर नहीं है। अगर वे मंदिर भी जाते हैं तो गुलामों के लिये, ताकि लोग मानते रहें कि ईश्वर है। क्योंकि लोग ईश्वर को मानते रहें तो बगावत न करेंगे। लोग ईश्वर को मानते रहें तो तंत्र को तोड़ेंगे नहीं। लोग ईश्वर को मानते रहें तो सम्राट को प्रतिनिधि मानेंगे। लोग ईश्वर को नहीं मानेंगे तो ज्यादा देर नहीं लगेगी, सम्राट भी विदा हो जायेगा।

जीवन में एक शृंखला है सिद्धांतों की। जब तक ईश्वर है, तब तक सम्राट रह सकता है। ईश्वर गया कि सम्राट ज्यादा देर नहीं टिकेगा, क्योंकि जब ईश्वर तक सिंहासन से उतर जाता है तो सम्राट की क्या हैसियत है? वह भी उतारा जायेगा। एक बार यह पता चल जाये कि जनता के हाथ में है सिंहासनों से उतारना-चढ़ाना; फिर कोई सिंहासन पर नहीं हो सकता; फिर अतंतः अराजकता होगी। लोकतंत्र तो बीच का पड़ाव है। तानाशाही…? ईश्वर सिंहासन पर है, तो सम्राट उसके प्रतिनिधि हैं। ईश्वर हटा तो प्रतिनिधि व्यर्थ हो गये। लोकतंत्र बीच का पड़ाव बन जाता है। और लोकतंत्र सभी जगह मुश्किल में है क्योंकि यह बीच का पड़ाव है; अंत तक जाना होगा। अराजकता अंतिम पड़ाव होगी।

नीत्से कहता है, गुलामों को तो समझाना कि ईश्वर है। इस भूल में कभी मत पड़ना उनको समझाने की, कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि उनके लिये ईश्वर एक सुरक्षा भी है। उनके लिये ईश्वर एक आश्वासन भी है। उनके लिये ईश्वर भविष्य का भरोसा भी है। आज तो उनकी जिंदगी में कुछ भी नहीं है। कल का भरोसा भी छिन जाये तो वे बगावत कर उठेंगे।

माक्र्स ने कहा है कि दुनिया के सर्वहाराओ, इकट्ठे हो जाओ! क्योंकि तुम्हारे पास सिवाय जंजीरों के और कुछ खोने को है भी नहीं। अगर तुम सब खो भी दोगे तो सिवाय जंजीरों के कुछ भी न खोएगा।

इसलिये माक्र्स ने दूसरी बात भी कही है कि ईश्वर गरीब के लिये अफीम है। क्योंकि जब तक ईश्वर है, तब तक गरीब बगावत नहीं करेगा। क्योंकि वह भरोसा करता है कि आज दुख है, कोई हर्ज नहीं, कल सुख होगा। आज ईश्वर परीक्षा ले रहा है, आज दुख दे रहा है, कल सुख देगा। अगर मैं परीक्षा में ठीक से उत्तीर्ण हो जाऊं, आज्ञाकारी की भांति उत्तीर्ण हो जाऊं, तो मेरे सुख के दिन ज्यादा दूर नहीं हैं। एक कमजोर की नीति है, जो ईश्वर को मानती है।

एक शक्तिशाली की नीति है कि अगर ईश्वर हो तो उसे बाधा पड़ती है, क्योंकि उसका अर्थ हुआ कि ऊपर कोई निर्णायक है। मैं क्या कर रहा हूं, इसका भी कोई निर्णय करने वाला होगा। कोई और बड़ी अदालत है, जहां मैं भी खड़ा होऊंगा। मैं उत्तरदायी हूं किसी के प्रति। इसलिये शक्तिशाली ईश्वर को मानना नहीं चाहता। अगर मानता है तो वह सिर्फ धोखा देता है।

महावीर क्या करें? एक आदमी पूछता है, ईश्वर है! महावीर कहते हैं, ‘स्यात्’ हो! एक आदमी पूछता है, ‘ईश्वर’ नहीं है? महावीर कहते हैं, ‘स्यात्’ न हो! क्योंकि महावीर की अपनी कोई वासना नहीं बची, कोई चश्मा नहीं बचा। महावीर अब उसे देख रहे हैं, जो है। और यह लोग अपनी-अपनी वासनाएं देख रहे हैं। इनसे क्या कहो?

महावीर ने सप्तभंगि न्याय को जन्म दिया। महावीर एक प्रश्न का उत्तर सात ढंग से देने लगे। तुम किसी से पूछो ईश्वर है, तो तुम चाहते हो, ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब हो। महावीर सात उत्तर देंगे क्योंकि महावीर कहते हैं, प्रत्येक दृष्टि अधूरी है और सात तरह की दृष्टियां हो सकती हैं। आदमी सात ढंग से देख सकता है। तो महावीर ने अपने उत्तरों में सातों ढंग इकट्ठे कर दिये ताकि सातों दृष्टियां जुड़ जायें, तो पूरे का दर्शन हो सके। दृष्टि मात्र अंश है।

वह जो गधे और कुत्ते में विवाद है, दृष्टियों का विवाद है। सभी विवाद दृष्टियों के विवाद हैं।

महावीर से तुम विवाद न कर सकोगे; क्योंकि महावीर सभी दृष्टियों को स्वीकार करते हैं। तुम उनसे जो भी कहोगे, वे कहेंगे हां, यह भी सच है। महावीर कहते हैं, यह तो कभी कहना ही मत–यही सच है; क्योंकि यहीं भूल हो जाती है। इतना ही कहना, यह भी सच है, ताकि विपरीत के सच होने की सुविधा बनी रहे।

तुम्हारी वासनाएं द्वंद्वात्मक हैं। हर वासना की विपरीत वासना तुम्हारे भीतर है। आज तुम एक वासना से देखते हो, स्त्री सुंदर मालूम पड़ती है। कल तुम इसी स्त्री को दूसरी वासना से देखोगे, यही स्त्री कुरूप हो जायेगी। आज लोभ से देखते हो, धन बड़ा बहुमूल्य मालूम पड़ता है। कल त्याग से देखोगे, धन निर्मूल्य हो जाएगा।

चीन में एक बहुत बड़ा धनपति हुआ। उसने बहुत धन इकट्ठा किया, फिर उसे व्यर्थता भी दिखाई पड़ी। जब बहुत इकट्ठा हो जाये तो व्यर्थता दिखाई पड़ती ही है। सब उसके पास था और लगा कि कुछ पाया नहीं। धन के ढेर लग गये और भीतर की गरीबी न मिटी। भिक्षापात्र भरता गया लेकिन बड़ा होता गया। उसके भरने की कोई सीमा ही न मालूम पड़ी। थक गया, ऊब गया। जिंदगी मौत के करीब आ गई। लोभ छूटा, त्याग का जन्म हुआ। तो उसने अपने सारे बहुमूल्य हीरे-जवाहरात, स्वर्ण की अशर्फियां, बड़ी नावों में भरवाईं और जाकर बीच सागर में उनको डुबवा दिया। बौद्ध भिक्षु उससे कहने आये कि यह तुमने क्या किया? यह तो बुद्ध ने भी नहीं किया। अगर तुम्हें व्यर्थ हो गया था धन, तो नदी में डुबाने की क्या जरूरत थी? अभी बहुत लोग हैं, जिन्हें व्यर्थ नहीं हुआ, उन्हें बांट देते।

वह आदमी हंसने लगा और उसने कहा, कि जो भूल मैंने की, वही भूल दूसरे भी करें, इसकी मैं व्यवस्था न करूंगा। एक दिन लगता था मुझे धन सार्थक है तो मैंने चारों तरफ पहरा लगाया था। लोहे की तिजोरियां बनवाई थीं। अब लगता है कि धन निरर्थक है, तो समुद्र में उड़ेलने के सिवाय मेरे पास कोई उपाय नहीं। मैं इसे बांटूंगा नहीं, क्योंकि जो मुझे गलत हो गया, उसे मैं किसे दूं? और जो मेरे लिये व्यर्थ हो गया, उसे मैं किसी के सिर पर क्यों बोझ बनाऊं?

एक लोभ की वृत्ति है, वह भी एक दृष्टि है; फिर एक त्याग की वृत्ति है, वह भी एक दृष्टि है। यह आदमी अनूठा मालूम पड़ता है। यह लोभ से त्याग में नहीं गया, इसने दोनों दृष्टियां छोड़ दीं। नहीं तो यह मजा ले लेता धन को बांटने का, त्याग का। वाहवाही होती, लोग स्वागत-समारंभ करते और कहते, धन्य है! ऐसा महात्यागी! लेकिन जो त्याग धन बांटने से आता हो…जब धन से कुछ भी नहीं आया तो त्याग और धन्यभाग और अहोभाव धन से कैसे आ सकता है? यह आदमी अनूठा था। इसने जाकर नदी में डुबा दिया। जो व्यर्थ था, वह डुबाने योग्य था।

इस आदमी की जिंदगी में बड़ी अदभुत कथायें हैं। वह गया। जब सब नदी में डुबा दिया तो वह गया अपने गुरु के पास। गुरु ने कहा, अब संन्यास ले लो। उसने कहा, जब संसार ही छोड़ दिया है तो अब संन्यास कैसे लें? उसने बड़ी अदभुत बात कही कि जब संसार ही छोड़ दिया, तो अब संन्यास कैसे लें? जब तक संसारी था, तब तक मन में संन्यास की बात भी उठती थी। वह उसी का विरोध है। जब संसार ही छूट गया तो अब संन्यास कैसे लूं? क्योंकि संसार के विपरीत भाव उठता था। संसार गया, उसका विपरीत भाव भी गया। वैसे तुम कहो तो जो कहो मैं करने को राजी हूं, बाकी अब लेना-देना न बचा।

उसके गुरु ने कहा कि नहीं, तुझे फिर कुछ करने की जरूरत नहीं। हम अभी भी संन्यासी हैं, उससे जाहिर होता है कि कहीं संसार छिपा है। तेरा संसार बिलकुल ही चला गया। तेरी दृष्टि अब शून्य हो गई। एक संसारी की दृष्टि है, एक संन्यासी की दृष्टि है।

फिर इस आदमी की मौत करीब आई। इसकी पत्नी, इसका बेटा, इसकी बेटी, सभी इसके साथ इस नई दुनिया में डूब गये। इसकी मौत करीब आई तो उसने अपनी बेटी से पूछा कि जरा उठकर देख, चांद निकल आया या नहीं? क्योंकि मैं सदा सोचता रहा कि जब चांद निकल आये, तभी शरीर को छोड़ना। लड़की द्वार पर गई और उसने कहा, हां, पिताजी! चांद निकल आया है, और बड़ा सुंदर है। इसके पहले कि आप शरीर छोड़ें, एक बार द्वार पर आकर झांककर चांद को देख लें। पिता द्वार पर गया, लड़की जहां पिता बैठा था, जिस कुर्सी पर, उस पर बैठ गई, उसने शरीर छोड़ दिया। पिता लौटकर देखा और उसने कहा, ‘मैं जानता था कि तुम मुझसे एक कदम आगे हो।’

उसकी पत्नी पड़ोस में किसी को मिलने गई थी, वहां खबर पहुंची। उसका बेटा पत्नी के साथ था। उसकी पत्नी ने कहा कि बूढ़ा तो नासमझ था ही, यह लड़की भी नासमझ निकली। लड़का जैसा खड़ा था, वहीं खड़े-खड़े उसने शरीर छोड़ दिया। यह सुनते ही उसकी मां ने उसके सिर पर एक धक्का मारा और कहा कि नासमझ! तू भी चला? और वह खिल-खिलाकर हंसी।

लोग उससे पूछते कि तुमने इनका पीछा क्यों न किया? क्योंकि पति चला गया, लड़की चली गई, लड़का चला गया। तो वह कहती कि आना और जाना कैसा! जो है, वह सदा है। इसलिये तो कहा कि नासमझ, इन खेलों को बंद करो।

न तो कभी आत्मा आती है और न कभी जाती है। न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। न शरीर का पकड़ना है, न छोड़ना है। तब दृष्टि-शून्यता पैदा होगी। और जब तुम्हारी कोई दृष्टि नहीं, जब तुम्हारी कोई आंख नहीं, जब देखने की तुम्हारी कोई शैली नहीं, जब देखने वाले की कोई आकांक्षा नहीं, तब तुम्हें दिखाई पड़ता है, जो है।

और जो है, वही परमात्मा है।

गधों को परमात्मा नहीं दिखाई पड़ सकता। और जिन्हें नहीं दिखाई पड़ता है, वे किसी न किसी भांति के गधे होंगे। गधे का मतलब, कि उसकी एक दृष्टि है। वह घास की ही चर्चा किये जाता है।

तुम भी क्या चर्चा करते हो? अगर तुम्हारी चर्चा खोजी जाये तो या तो सेक्स से संबंधित होती है, या भोजन से संबंधित होती है। तुम्हारी चर्चा इन दो से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। दोनों भोजन हैं, भोजन तुम्हें बचाता है, सेक्स जाति को बचाता है, समाज को बचाता है। भोजन के बिना तुम मर जाओगे, सेक्स के बिना समाज मर जायेगा। दोनों भोजन हैं, दोनों सर्वायवल हैं, बचने के उपाय हैं। तुम भोजन करते हो तो तुम बचते हो और तुम काम-भोग करते हो, इससे समाज बचता है।

तो गधा अगर चर्चा कर रहा है घास की…सभी गधे घास की चर्चा कर रहे हैं! प्रकार-प्रकार के गधे हैं। लेकिन अगर उनकी तुम चर्चा सुनो, तो चर्चा लोग क्या कर रहे हैं? या तो भोजन की, या काम वासना की! ये दो ही चर्चायें हैं। इस चर्चा के माध्यम से देखने वाली चेतना, कैसे सत्य को देख पायेगी?

और कुत्ते उनसे विवाद करेंगे; क्योंकि उनकी वासना भिन्न है। घास में कुत्ते को जरा भी रस नहीं। कभी-कभी कुत्ता घास में रस लेता है; जब उसे वमन करना होता है, जब उसे उल्टी करनी होती है। घास उसका भोजन नहीं है; उल्टी की औषधि है। जब कुत्ते के पेट में कोई तकलीफ होती है, कुछ उल्टा-सीधा खा लिया होता है, तो वह जाकर घास खा जाता है। घास खाते ही से वमन हो जाता है।

इसीलिये कलंदर ने कुत्ते और गधे की बात करवाई क्योंकि उन दोनों के भोजन विपरीत हैं। घास गधे के लिए स्वर्ग है, कुत्ते के लिये वमन का उपाय है। तो अगर कुत्ता नाराज हो जाये कि बंद करो यह बकवास! क्योंकि घास की चर्चा उसे नाशिया पैदा करती होगी। घास ही घास! गधा है कि उसी की चर्चा किये जाता है। इतना सुंदर घास! इतना ऊंचा घास! इतना हरा घास! आज गजब हो गया!

कुत्ते को गधे की ये बातें सुनकर गुस्सा आता होगा, चिढ़ पैदा होती होगी और वमन करने का मन होता होगा। तो वह कहता है, ‘बंद करो यह बकवास! अगर बात ही करनी है तो हड्डी की, मांस की कुछ बात करो; कि कुछ रस आये, कि जीभ से कुछ स्वाद मिले, कि सपना जगे, कि भीतर कुछ आह्लाद पैदा हो’।

जहां भी विवाद है, वहां वासनाओं का विवाद है।

अनेक-अनेक लोगों को गहरे में देखकर इस नतीजे पर मैं पहुंचा हूं कि जहां भी विवाद है, वहां तुम्हारी वासनाएं भिन्न हैं। पति पत्नियों में निरंतर विवाद है। दोनों की वासनाओं की भिन्नता है। पत्नी सुरक्षा चाहती है, पति नवीनता चाहता है। पुरुष आक्रामक है, स्त्री ग्राहक है। स्त्री कमजोर है–कमजोर इस अर्थों में कि उसके व्यक्तित्व में आक्रमण की, हिंसा की क्षमता नहीं है। सहने की क्षमता पुरुष से ज्यादा है। दुख सह लेने की क्षमता पुरुष से ज्यादा है, लेकिन दूसरे को दुख देने की क्षमता पुरुष से बहुत कम है। आक्रामक नहीं है। उसका पूरा व्यक्तित्व ग्राहक है क्योंकि उसके पूरे व्यक्तित्व को गर्भ बनना है। और जिसको गर्भ बनना है, उसकी ग्राहकता, रिसेप्टीविटी गहरी होनी चाहिए। पुरुष आक्रामक है क्योंकि उसे गर्भ ढोना नहीं है, किसी को गर्भ देना है।

तो पुरुष का काम-संभोग आक्रामकता है, एग्रेशन है। स्त्री का काम-संभोग एक पैसिविटी है, एक ग्राहकता है, एक समर्पण है। ये दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं इसलिये एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। लेकिन वहीं विवाद खड़ा हो जाता है क्योंकि स्त्री चाहती है कि जो परिचित है, पुराना है, जाना-माना है उसके साथ रुके। सुरक्षा है उसमें। पुरुष चाहता है जो परिचित है, जाना-माना है, उससे छुटकारा हो क्योंकि उसमें आक्रमण का कोई रस ही नहीं है। जब नये पर तुम आक्रमण करते हो, एक नई स्त्री को जीतने निकलते हो तब रस आता है। इसलिये पति उदास हो जाते हैं, पति होते ही उदास हो जाते हैं।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा था–एक ट्रेन में वह बैठा यात्रा कर रहा था। एक आदमी उससे कुछ, पड़ोसी उससे कुछ पूछ रहा है, ‘कहां रहते हो? क्या करते हो?’ आखिर उस आदमी ने पूछा कि क्या शादी-शुदा हो? नसरुद्दीन ने उसकी तरफ देखा और कहा, ‘मैं वैसे ही दुखी हूं। तुम यह मत सोचो कि मैं कोई शादी-शुदा हूं। मैं वैसे ही दुखी हूं’।

पति दुखी हो जाता है। तुम पहचान सकते हो कि पति अपनी पत्नी के साथ रास्ते पर चल रहा है कि किसी और की पत्नी के साथ–दूर से देखकर भी! अपनी पत्नी के साथ वह उदास चलता है क्योंकि पत्नी पूरे वक्त निरीक्षण कर रही है कि वह कोई नया आक्रमण तो नहीं कर रहा है! तो अपनी पत्नी के साथ वह डरा-डरा चलता है, भयभीत चलता है। पत्नी पति के साथ बड़ी प्रफुल्लित चलती है क्योंकि सुरक्षा साथ है। कोई भय नहीं है। पति डरा-डरा चलता है क्योंकि पत्नी चौबीस घंटे का नियंत्रण है और आक्रमण की, नये अभियान की, एडवेन्चर की कोई सुविधा नहीं। वह देख भी नहीं सकता दूसरी स्त्री की तरफ, क्योंकि उससे उपद्रव ही खड़ा होगा।

दोनों की आकांक्षाएं भिन्न हैं इसलिये विवाद है। दोनों के देखने का ढंग भिन्न है, इसलिये विवाद है। पत्नी स्थायित्व चाहती है, पति परिवर्तन चाहता है। यह बड़ा मजा है कि इसीलिये ही आकर्षण है; क्योंकि दोनों विपरीत हैं। समान में आकर्षण नहीं होता। ऋण विद्युत धन विद्युत को खींचती है। धन विद्युत धन विद्युत को नहीं खींचती। इसलिये दो स्त्रियों में परिचय हो सकता है, मैत्री नहीं होती। दो पुरुषों में परिचय हो सकता है, लेकिन प्रेम नहीं होता। विपरीत चाहिए। विपरीत खींचता है। लेकिन दूसरा खतरा छिपा है कि वह विपरीत है, इसलिये उसकी सारी आकांक्षाएं विपरीत हैं, उसके देखने का ढंग विपरीत है। और तब विवाद है।

जहां-जहां विवाद है, वहां समझना कि जीवन को देखने के ढंग भिन्न हैं।

गधे और कुत्ते का विवाद है। कलंदर ठीक कह रहा है कि कुत्ता बहुत परेशान है गधे की बकवास सुन-सुनकर। और वह रोज वही चर्चा किये चला जाता है।

एक स्त्री का पति मरा। मरते वक्त उसने पति से आश्वासन लिया कि तुम मुझे वचन दो। क्योंकि दोनों ही स्पिरिच्युअलिस्ट हैं, दोनों ही अध्यात्मवादी थे–तो तुम मुझे वचन दो! अगर तुम पहले मर जाओगे तो तुम पूरी कोशिश करोगे मुझसे संबंध बनाने की, या मैं पहले मर गई तो मैं तुमसे संबंध बनाने की कोशिश करूंगी ताकि निश्चित हो सके, आत्मा शरीर के बाद बचती है या नहीं।

पति मरा। मरने के बाद पत्नी ने बड़ी कोशिश की। बड़े मीडियम्स पर उसने पति को बुलाने की कोशिश की। आखिर एक दिन सफल हो गई। कोई दो साल बाद सफलता मिली। पति बोला माध्यम से।

पत्नी ने कहा, ‘तुम वहां प्रसन्न तो हो?’

उसने कहा, ‘मैं बहुत प्रसन्न हूं। इतना प्रसन्न मैं कभी भी न था।’ पत्नी ने कहा कि तुम उससे भी ज्यादा प्रसन्न हो, जितने तुम मेरे साथ थे? अब पति को कोई डर तो था नहीं! पुराने जमाने की बात होती, जब वह जिंदा था तो यह कभी भूलकर नहीं कह सकता था। उसने कहा, ‘उससे भी ज्यादा प्रसन्न हूं, जितना मैं तुम्हारे साथ था।’

स्वभावतः पत्नी ने कहा, ‘तो फिर और स्वर्ग के संबंध में बताओ।’

पति ने कहा, ‘यह किसने कहा कि मैं स्वर्ग में हूं? मैं नर्क में हूं।’

पति नर्क में भी ज्यादा प्रसन्न होगा बजाय पत्नी के साथ होने के!

पुरुष विवाह में उत्सुक ही नहीं है। पुरुष विवाह में फंसता है। स्त्री प्रेम में सीधी उत्सुक नहीं है। उसकी उत्सुकता विवाह में है। प्रेम चूंकि विवाह तक पहुंचाता है, इसलिये वह प्रेम में उतरती है। स्त्री की उत्सुकता स्थायित्व में है, पुरुष की उत्सुकता नवीनता में है। ये बड़ी कठिन बातें हैं। इनका हल होना मुश्किल है।

दो ही उपाय हैं: या तो स्त्री की बात मानकर पुरुष को दबाया जाये, जैसा कि अतीत सदियों में हुआ। हमने विवाह का आयोजन कर लिया, स्त्री की बात मान ली, पुरुष को दबा दिया। प्रेम शाश्वत है। और फिर बच्चों का भी सवाल है, फिर समाज की भी व्यवस्था है। स्त्री उसमें ज्यादा सहयोगी मालूम पड़ी क्योंकि स्थिरता लाती है। लेकिन पुरुष सब तरफ उदास हो गया। उसने हजारों तरह की वेश्यायें पैदा कर लीं। न मालूम कितनी तरह की अनीति पैदा हुई सिर्फ इसलिये, कि यह पुरुष के स्वभाव के अनुकूल नहीं पड़ा।

एक तो उपाय यह था, जो कि आज असफल हो गया है। अब दूसरा उपाय पश्चिम कर रहा है कि पुरुष की मान लो, कि स्थायित्व की फिक्र छोड़ दो, विवाह को जाने दो। या विवाह ज्यादा से ज्यादा एक सांयोगिक घटना है। जितनी देर चले, ठीक; जिस दिन न चले, समाप्त। जैसे विवाह कोई जीवन भर का निर्णय नहीं है, एक तात्कालिक क्षण की बात है। जब तक सुख दे ठीक, जिस दिन सुख बंद हो, समाप्त! इससे स्त्री दुखी होगी और स्त्री शोषित हो रही है क्योंकि उसकी तृप्ति नहीं होती। और दुनिया भर के मनसशास्त्री परेशान हैं कि क्या उपाय किया जाये! क्योंकि पुरुष तभी सुखी होंगे जब उन्हें पति न बनना पड़े और स्त्रियां तभी सुखी होंगी जब वे पत्नी बन जायें। अब इस विरोध को कैसे हल किया जाये? और एक दुखी होता है तो अंततः दूसरा भी दुखी हो जायेगा। दोनों ही सुखी हों तो ही सुखी हो सकते हैं। इसलिये अब तक कोई समाज सुखी नहीं हो पाया।

हां, पुरुष सुखी हो सकता है, अगर वह पुरुष की वासनाओं को गिरा दे। स्त्री सुखी हो सकती है, अगर वह स्त्री की वासनाओं को गिरा दे। लेकिन ऐसे लोग अकसर विवाह नहीं करते क्योंकि कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। अगर बुद्ध जैसे लोग विवाह करें तो विवाह परम आनंद का होगा। लेकिन बुद्ध जैसे लोग विवाह नहीं करते। और जो विवाह करते हैं, उनके लिये विवाह नर्क का आधार बन जाता है।

जब तक मनुष्य की चेतना परिवर्तित न हो और उसकी चाहों की सीमाएं न गिरें, तब तक जीवन एक विवाद और संघर्ष ही होगा। प्रेम के नाम पर ही कलह ही पैदा होती है। और जब प्रेम के नाम पर कलह होती है तो और किस चीज के नाम पर हम जीवन में आशा करें कि कलह पैदा न होगी।

इसे ठीक से समझें। अगर आपका किसी से भी विवाद है और कलह है तो उसका अर्थ यही हुआ कि आपकी आकांक्षायें भिन्न हैं, उसकी आकांक्षायें भिन्न हैं। या तो आप उसे दबा लें या वह आपको दबा लें। लेकिन जब भी तुम किसी को दबाओगे तभी तुम भी दुखी हो जाओगे क्योंकि दबाना सुखद नहीं है। और कोई तुम्हारे पास चौबीस घंटे दुखी बैठा हो तो तुम सुखी कैसे हो सकते हो?

इसलिये फ्रायड जैसे लोग तो इस स्थिति को देखकर कहते हैं कि मनुष्य आनंदित हो सके यह असंभव है। और फ्रायड सोचकर कह रहा है, अनुभव से कह रहा है। चालीस-पचास साल अनंत-अनंत प्रकारों से मनुष्य के मन की उसने खोज की है। और उसके जीवन का आखिरी निष्कर्ष यह है कि मनुष्य की बनावट ऐसी है कि वह सुखी हो ही नहीं सकता।

लेकिन हमारे निष्कर्ष भिन्न हैं। बुद्ध, महावीर, कृष्ण के निष्कर्ष भिन्न हैं। मेरा निष्कर्ष भिन्न है। मैं आपसे कहता हूं, सुखी आप हो सकते हैं। लेकिन सुखी आप तभी हो सकते हैं, जब चाह के दरवाजे गिर जायें। चाह की सीमाएं, चाह की खिड़कियां गिरा दें और खुले आकाश में आ जायें।

खुला आकाश अचाह का आकाश है।

इसलिये उलटी बात मालूम पड़ेगी। बुद्ध और महावीर कहते हैं कि जिसने चाह छोड़ दी, वह आनंद को उपलब्ध हुआ। फ्रायड कहता है, आदमी कभी भी आनंद को उपलब्ध नहीं होगा क्योंकि वह सोच ही नहीं सकता कि आदमी चाह छोड़ सकता है। चाह तो कैसे छूटे? फ्रायड कहता है, चाह तो आदमी की जड़ में है। वासना तो रहेगी।

दोनों सही हैं। अगर वासना रहेगी तो फ्रायड बिलकुल सही है। और सौ में निन्यान्नबे आदमियों के लिये फ्रायड सही मालूम पड़ेगा क्योंकि वासना मिटती नहीं। कभी-कभी कोई अद्वितीय आदमी पैदा होता है, जिसकी वासना मिटती है। पर वासना मिटते ही आनंद घटित होता है।

जहां विवाद नहीं, जहां कलह नहीं, जहां संघर्ष नहीं, वहीं आनंद के फूल खिलते हैं। सब जगह गधे और कुत्तों में विवाद चल रहा है। स्त्री और पुरुष में ही नहीं है, अनुयायी और नेता में, गुरु और शिष्य में, विद्यार्थी और शिक्षक में–सब तरफ विवाद चल रहा है क्योंकि सबकी आकांक्षाएं विपरीत हैं। और जहां आकांक्षा विपरीत है, वहां तत्क्षण कलह शुरू हो जाती है। आज सारी दुनिया में अराजकता है। ऐसी कोई जगह खोजनी कठिन है, जहां निर्विवाद शांति हो। सब तरफ विपरीत लोग खड़े हैं। गधे और कुत्ते चर्चा कर रहे हैं।

इस सब में सबसे बड़ी कठिनाई न तो गधे की है और न कुत्ते की है; बड़ी कठिनाई कलंदर कहता है उस आदमी की है, जो उनकी भाषा समझता है। यह कहानी का तीसरा पहलू। एक आदमी है, जो दोनों की भाषा समझता है। सबसे बड़ी कठिनाई उसकी है। गधा अपने गधेपन में है, कुत्ता अपने कुत्तेपन में है। न कुत्ता गधेपन को पहचानता है, न गधा कुत्तेपन को पहचानता है। उनके दरवाजे बंद हैं। वे अपने ढंग से जीते हैं। और सुनिश्चित है कि मेरा ढंग ठीक है। घास की बात व्यर्थ, हड्डियों की बात ठीक है। और गधा भी सुनिश्चित है।

यह बड़ी सोचने जैसी बात है कि सिर्फ गधे ही बहुत सुनिश्चित होते हैं, सरटेन होते हैं। बुद्धिमान आदमी ‘हेज़ीटेट’ करता है। बुद्धिमान आदमी थोड़ा सोचता-विचारता है। बुद्धिमान आदमी कुछ भी कहता है तो वह कहता है, स्यात्…परहेप्स! लेकिन गधा जब कहता है कुछ भी, तो वह कहता है, बिलकुल ऐसा है; इसमें रत्ती भर संदेह नहीं।

हिटलर जैसे लोगों को इसीलिये मैं बुद्धिमान नहीं कहता क्योंकि वे निस्संदिग्ध घोषणा करते हैं। मगर आम आदमी निस्संदिग्ध घोषणाओं से प्रभावित होता है क्योंकि आम आदमी के भीतर भी गधापन गहरा है। जब भी कोई आदमी जोर से टेबल पीटकर कहता है, ऐसा है–जितने जोर से कहता है, उतना ही सत्य मालूम पड़ता है। कोई आदमी धीरे से कहे तो तुम समझते हो कि कुछ गलती होगी; इसीलिये इतने धीरे बोल रहा है। कोई कान में फुसफुसाये तो तुम पक्का समझ लोगे कि झूठ बोल रहा है; नहीं तो कान में क्यों बोल रहा है? खुले जाहिर में कहो!

इसलिये जो होशियार हैं, जो झूठ को सच की तरह चलाना चाहते हैं, वे हमेशा जोरदार आवाज में कहते हैं, टेबल पीटकर कहते हैं; तुम्हें हिला कर कहते हैं। उनकी आवाज तुम्हारे हृदय के कोने-कोने को झकझोर देती है। तब झूठ भी सच जैसा मालूम होने लगता है। नहीं तो तुम्हें सच भी झूठ जैसा मालूम होगा।

महावीर बहुत अनुयायी न पा सके क्योंकि उन्होंने कान में फुसफुसाकर कहा। और इतना सोच-विचारकर कहा कि हर चीज में स्यात् लगा दिया क्योंकि विपरीत भी सही हो सकता है। तुमने पूछा, ‘रात है?’ उन्होंने कहा, ‘स्यात्।’ अब ऐसे आदमी का तुम अनुगमन करोगे, जिसको इसका भी पक्का पता नहीं है कि दिन है कि रात? लेकिन महावीर ने कहा कि ‘स्यात्’…! क्योंकि हर रात से दिन पैदा हो जाता है। इसलिए रात बिलकुल रात नहीं हो सकती, उसमें दिन छिपा है। थोड़ी देर में दिखाई पड़ेगा लेकिन मौजूद तो है। तुमने पूछा ‘दिन?’ महावीर ने कहा, ‘स्यात्।’ क्योंकि जब तुम पूछ रहे हो तब दिन रात में बदल रहा है; इसलिये एकदम निश्चित नहीं कहा जा सकता कि दिन दिन है, रात रात है! क्योंकि रात दिन में बदल जाती है, और दिन रात में बदल जाता है। अंधेरी रात में सुबह छिपी है। भरी दुपहरी में अंधेरा छिपा है।

और महावीर पूरा देख रहे हैं, इसलिये महावीर की वाणी स्यात् हो जाती है; जैसे कान में कोई फुसफुसाता हो। ऐसे आदमी के पीछे तुम न चलोगे। इसलिये जैन धर्म का कोई बहुत विस्तार न हो सका। फुसफुसाकर कही गई बातें बहुत लोगों को प्रभावित नहीं कर सकतीं। हिटलर ज्यादा अनुयायी खोज लेता है, जितने महावीर नहीं खोज पाते हैं क्योंकि हिटलर जोर से चिल्लाकर कहता है।

तुम इस बात को ठीक से समझ लेना कि जितना तुम सुनिश्चित आदमी को पाओ, जितने जल्दी हो सके उससे भागना; क्योंकि उस आदमी को कुछ पता नहीं है। वह अपनी ही चाह में निश्चित हो गया है। बस, वही उसका संसार है। उसे पूरे का पता नहीं है, अंश के साथ वह ठहर गया है, ‘फिक्सेशन’ हो गया है। वह जड़ हो गया है।

मुसीबत तो उस आदमी की है, जो दोनों की भाषा समझता है। मुसीबत मेरी है; गधे की भाषा भी समझता हूं, और कुत्ते की भाषा भी समझता हूं। और कुत्ता भी सही मालूम होता है अपनी तरफ से, और गधा भी सही मालूम होता है अपनी तरफ से; और दोनों गलत हैं। इसलिये कलंदर ने बड़ा अच्छा अंत करवाया कहानी का।

तो उस आदमी ने कहा कि ठहरो! तुम व्यर्थ विवाद मत करो। वह आदमी यह कहने जा रहा होगा कि गधा भी ठीक कह रहा है उसकी तरफ से। वह भी एक पक्ष है, वह भी एक भंगि है, एक दृष्टि है। और कुत्ता भी ठीक कह रहा है अपनी तरफ से; क्योंकि वह भी एक दृष्टि है। दोनों ही ठीक कह रहे हैं, तुम विवाद बंद करो। वह आदमी बीच में आ गया होगा कि किसी तरह सुलझा दे।

लेकिन न तो कुत्ते ने उसकी आवाज सुनी, न गधे ने उसकी आवाज सुनी; बल्कि वे दोनों बड़े नाराज हुए कि यह आदमी क्यों बीच में आ रहा है? विवाद इतनी सुगमता से चल रहा था और यह उपद्रवी कहां बीच में आ रहा है? यह आदमी समझता था कुत्ते और गधे की भाषा, कुत्ते और गधे तो इसकी भाषा नहीं समझते थे। कुत्ता भोंका और झपटा और गधे ने दुलत्ती झाड़ी। और वह आदमी जमीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया।

यही तो बुद्धों के साथ होता रहा है। कुत्ते भोंकते हैं, गधे दुलत्ती मारते हैं। कलंदर की दृष्टि बड़ी गहरी है। यही तो जीसस के साथ होता है, मंसूर के साथ होता है। यह कलंदर के साथ खुद हुआ है।

यह कहानी अनुभव से कही है और गधे और कुत्ते के रूपक में कही है ताकि तुम नाराज न होओ। सीधी-सीधी कही जाये तो शायद तुम कहानी पढ़ने को भी राजी न होओ। सीधी-सीधी कहे तो अभी तुम दुलत्ती झाड़ो; इसलिये थोड़ा घुमाकर कही है। गधा तो प्रतीक है गधेपन का। कुत्ता तो प्रतीक है, कुत्तेपन का।

कुत्तेपन का एक रस है: भोंकना। वैज्ञानिक भी अभी तक खोज नहीं पाये कि कुत्ते भोंकते क्यों हैं? जरूर उनके गले में कुछ न कुछ संयोजन है कि भोंकने से उन्हें राहत मिलती है। बिना भोंके उनसे नहीं रहा जाता।

जिब्रान की एक प्रसिद्ध कहानी है कि एक कुत्ता गुरु हो गया और उसने बाकी कुत्तों को समझाना शुरू कर दिया कि तुम कब तक भोंकते रहोगे? भोंकने की वजह से हमारी जाति का ह्नास हुआ है। सब शक्ति भोंकने में चली जाती है। नहीं तो हम अब तक दुनिया में राज्य कर रहे होते। रोको, नियंत्रण करो, संयम साधो। कुत्ते सुनते उसकी बात, जंचती भी, लेकिन गले में जब भोंकने का खयाल उठता और जब गले में सुरसुरी दौड़ती, तो फिर सिद्धांत काम न आते, कुत्ते भोंक लेते। गुरु समझाता रोज। और गुरु को वे बड़ा महान व्यक्ति मानते क्योंकि गुरु कभी भोंकता हुआ नहीं पाया गया, इसलिये आचरण और सिद्धांत में समानता थी।

और इसी को लोग कहते हैं कि जब तुम खोजने जाओ तो सिद्धांत और आचरण में समानता पाओ; समझना कि यही आदमी है–गुरु। इतना सस्ता नहीं है मामला। इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि लोग सिद्धांत और आचरण में समानता बिठा सकते हैं। और ऐसा ही हुआ था। वह कुत्ता भी जो गुरु हो गया था, भोंकना चाहता था; लेकिन भोंकने लायक ताकत ही नहीं बचती थी। समझाने में ही भोंकना निकल जाता था। दिन भर सुबह से सांझ, रात, गांव भर में घूमता जगह-जगह कुत्ते भोंकते मिलते, वहीं टोकता, रुको! तो उसका गला ही थक जाता।

आखिर कुत्ते भी गुरु से परेशान हो गये और उन्होंने कहा कि बेचारा अब थका जाता है, बूढ़ा हो गया है। हम कभी इसकी मानते भी नहीं। इसकी बात ठीक भी मालूम पड़ती है, बुद्धि को, लेकिन जब गले में खुसखुसाहट उठती है और जब गले में रस आता है भोंकने का, तो फिर हमसे नहीं रहा जाता। यह हमारी प्रकृति है। और यह ऊंची बातें कर रहा है परमात्मा की। यह ठीक कह रहा है कि भोंकना बंद कर दो, तो तुम ध्यानी हो जाओ!

एक दिन लेकिन उन्होंने कहा कि अब यह बूढ़ा हो गया है, और मरने के करीब है। एक दिन तो हम इसकी मान लें। तो सारे गांव के कुत्तों ने तय किया कि आज रात चाहे कुछ भी हो जाये, कितनी ही मुसीबत हो, कितना ही हमें लोटना-पोटना पड़े–करेंगे, लेकिन भोंकेंगे नहीं। अपने मुंह पर नियंत्रण रखेंगे। संयम साधेंगे।

ऐसी ही दशा बहुत से संन्यासियों की हो जाती है। ब्रह्मचर्य साधेंगे, संयम साधेंगे, लोटेंगे-पोटेंगे, लेकिन संयम न तोड़ेंगे।

बड़ी मुसीबत हुई। कुत्ते बड़ी मुसीबत में पड़े। एक-एक कोने में पड़ गये गलियों में जाकर। बड़ी बेचैनी भीतर से आने लगी। रोज का वक्त पैदा हो गया, भोंकने का समय आ गया। कभी पुलिसवाला निकल जाता और दिल भोंकने का होता। कभी पोस्टमैन आ जाता और दिल भोंकने का होता। चारों तरफ वासना को जगाने वाले उपकरण थे, लेकिन उस दिन तय ही किया था कुत्तों ने। और हर कुत्ते ने कहा कि जब तक कोई दूसरा न भोंके, तब तक तो हम रहेंगे ही संयम साधे।

कोई नहीं भोंका। कुत्ते चुप ही रहे। लेकिन आधी रात को एक कुत्ते ने भोंकना शुरू किया, फिर संयम नहीं रुक सका। फिर उन्होंने कहा, जब टूट ही गई बात तो हम क्यों नाहक तड़फें, पूरा गांव एकदम भयंकर…क्योंकि इकट्ठे कुत्ते कई घंटे से चुप थे। ऐसा भोंकना कभी हुआ ही नहीं था। पूरा गांव जग गया।

ऐसा ही होता है। जब धार्मिक समाज भ्रष्ट होता है तो ऐसा ही होता है। बहुत दिन तक साधा हुआ संयम जब टूटता है तो ऐसा ही होता है। यह भारत की ऐसी दशा है कि कोई दोत्तीन हजार साल से बड़ा संयम, ब्रह्मचर्य साध-साधकर लोग बैठे हैं अपने-अपने कोनों में। भोंक नहीं रहे हैं। फिर उन्होंने भोंकना शुरू किया तो सारा…।

क्रिश्चियनिटी के साथ यही हुआ। पश्चिम में, दो हजार साल तक लोगों को भोंकना रुकवा दिया। अब वे एकदम से भोंक रहे हैं, तो सब नियम टूट गए हैं। साधारण नियम भी शिष्टाचार के टूट गये हैं, और जीवन एक उच्छृंखल, पाश्विक स्थिति में खड़ा हो गया है।

जैसे ही वे भोंके, चकित हुए! क्योंकि इतनी देर, बारह बजे रात तक नेता का कोई पता न चला। गुरु कहां था, पता ही न चला। अचानक जैसे ही भोंके, गुरु आ गया और उसने कहा कि देखो, इसी के कारण हमारा पतन हुआ है। कितना तुम्हें समझाया, लेकिन तुम बाज नहीं आते। कब तुम छोड़ोगे यह अज्ञान? कब तुम्हें ज्ञान होगा?

खलील जिब्रान कहता है, और राज की बात यह है कि सांझ से गुरु घूमा गांव में, लेकिन सब कुत्ते सन्नाटा साधे थे। उसे बोलने का मौका ही नहीं आया क्योंकि चुप ही थे, कहना क्या? किससे कहो कि चुप हो जाओ? बारह बजे तक वह घबड़ा गया और बारह बजे तक न बोलने के कारण उसके गले में सरसरी दौड़ने लगी। आखिर उससे न रहा गया। और फिर वह हिस्सा भी नहीं था निर्णय का। सारे लोगों ने निर्णय किया था–सारे कुत्तों ने; वह तो निर्णय के बाहर था। उसे पता भी नहीं था कि मामला क्या है! एक गली के अंधेरे में जाकर वह जोर से भोंका–वही पहला कुत्ता था! फिर जब उसका भोंकना हो गया तो सारा गांव भोंकने लगा। जब सारा गांव भोंका, गुरु फिर आ गया समझाने कि देखो, इसी से हमारा पतन हुआ है। कब तुम रुकोगे?

तुम भी जब बोलते हो तो वह बोलना रोग है, या तुम्हारी शून्यता से, तुम्हारे मौन से निकलता है? वह तुम्हारी बीमारी है, रेचन है। कचरा तुम फेंक रहे हो अपने बाहर, हल्का कर रहे हो अपने को, या तुम्हारे पास कुछ बहुमूल्य है, जो तुम देना चाहते हो? बोलो तभी, जब तुम्हारे बोलने में कुछ हीरे हों, जो तुम बांटना चाहते हो। दूसरे के सिर पर कचरा क्यों डाल रहे हो? व्यर्थ की बातें क्यों बोल रहे हो?

उस आदमी ने सुना कि कुत्ता और गधे में बड़ा विवाद है। वह दोनों की बात समझा, दोनों की दृष्टि समझा, इसलिये मुसीबत में पड़ गया। वह दोनों को समझाने बीच में गया, लेकिन कुत्ते और गधे को उसकी बात समझ में न आई।

बुद्धों की बात कभी भी तो समझ में नहीं आई है। तुम्हारी सारी बात बुद्ध को समझ में आती है। तुम्हारी हर वासना की आवाज समझ में आती है क्योंकि तुम जहां हो, वहां से वे भी गुजरे हैं। वे भी कभी भोंकते थे। वे भी कभी घास की बात करते थे। तुम जहां हो वहां वे थे; इसलिये तुम्हारी भाषा उन्हें समझ में आती है। तुम्हें उनकी भाषा समझ में नहीं आती क्योंकि जहां वे हैं, वहां तुम्हें अभी पहुंचना है।

लेकिन जब बुद्ध समझाते हैं तुम्हें, तो तुम्हें क्रोध आता है। क्रोध इस बात से आता है कि वे कहते हैं, तुम दोनों ठीक हो। तुम्हारा अहंकार कहता है, मैं ठीक हूं, दूसरा गलत है। और जब बुद्ध कहते हैं, तुम दोनों ठीक हो, तो दोनों ही नाराज हो जाते हो।

पहले वे आपस में लड़ रहे थे, अब वे बुद्ध से लड़ने को दोनों साथ हो जाते हैं। गधा दुलत्ती मारता है, कुत्ता भोंककर चीखने दौड़ता है कि यह आदमी कैसे बीच में उपद्रव करने आ गया? ऐसे ही काफी कलह चल रही थी और यह एक और उपद्रव! और फिर इसकी भाषा भी समझ में नहीं आती। जीसस को सूली लगी। जीसस की भाषा यहूदी समझ न सके। मंसूर को लोगों ने काटकर मार डाला क्योंकि मंसूर की भाषा लोग समझ न सके।

एक तो वासना की भाषा है, जिसे हम समझते हैं; और एक करुणा की भाषा है, जिससे हमारा कोई परिचय नहीं। और यह आदमी बेचारा इन दोनों को शांत करने आया था। यह आदमी चाहता था कि इनकी कलह मिट जाये। और यह आदमी चाहता था कि यह एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझ लें।

दुनिया में चाहे छोटे झगड़े हो रहे हों चाहे बड़े, चाहे बड़े युद्ध हो रहे हों, और चाहे घर की छोटी कलह हो रही हो, सब विवाद दूसरे की दृष्टि को न समझने के कारण हैं।

जब तक मैं दूसरे के जूते में खड़ा न हो जाऊं और दूसरों के कपड़ों में खड़ा होकर न देखूं, जहां से दूसरा देखता है, वहां से न देखूं, तब तक कलह और युद्ध नहीं मिट सकेंगे। मैं अपनी जगह ठीक मालूम पड़ता हूं, दूसरा अपनी जगह गलत ‘मुझे’ मालूम पड़ता है। खुद को वह ठीक मालूम पड़ता है।

अगर रूस में और अमेरिका में कोई विवाद है, चीन में और भारत में कोई विवाद है, या भारत और पाकिस्तान में कोई विवाद है, सब विवाद ऐसे ही हैं; क्योंकि दूसरे की जगह खड़े होने की हमारे पास कोई कुशलता नहीं। हम इतने तरल नहीं हैं कि दूसरे की जगह खड़े हो जायें। और वही व्यक्ति शांत हो सकेगा जो इतना तरल हो कि सबकी दृष्टियों को समझ पाये। लेकिन उसकी बड़ी कठिनाई है। ज्ञानी की बड़ी मुसीबत है क्योंकि उसे रहना पड़ता है अज्ञानियों के बीच।

मेरे मित्र पागल हो गये। उन्हें पागलखाने भेज दिया गया। वे मुझसे कहते थे कि तीन साल मैं पागलखाने में रहा, आखिरी छह महीने मुसीबत के हुए। बाकी ढाई साल तो बड़े मजे से कट गये क्योंकि मैं पागल था। आखिरी छह महीने मुसीबत के हो गये क्योंकि अपने पागलपन में एक दिन उन्होंने, फिनाइल का डिब्बा रखा हुआ था, वह पूरा पी लिया। फिनाइल के पीने से उन्हें सैकड़ों दस्त लग गये और उन दस्तों के साथ न मालूम क्या हुआ, कि पागलपन चला गया। गर्मी निकल गई शरीर की। वे बिलकुल कमजोर हो गये, लेकिन बुद्धि वापिस आ गई। एक शॉक ट्रीटमेंट हो गया।

जब बुद्धि वापस आ गई तो सजा तो उनको तीन साल की हुई थी पागलखाने में रहने के लिये और छह महीने पहले वे ठीक हो गये। तो उन्होंने जाकर अधिकारियों को कहना शुरू किया कि मैं बिलकुल ठीक हूं। अधिकारी हंसते और वे कहते, सभी कहते हैं! वह बहुत समझाते कि आप सुनो भी तो! तो वे कहते, किस किसकी सुनें? सभी पागल कहते हैं, कि हम ठीक हैं। तो वे मुझे कहते थे, मैंने बहुत उपाय किये मगर मैं इतनी बात न समझा पाया कि मैं ठीक हूं! वे कोई सुनने को राजी नहीं क्योंकि सभी पागल यह कहते हैं कि ठीक हैं! जाओ, अपना काम करो। और उन छह महीने में वे कहते हैं कि मेरी जो मुसीबत और फजीहत हुई…! क्योंकि चारों तरफ पागल और मैं अकेला होश में! कोई मेरी टांग खींच रहा है, कोई मेरे सिर को मालिश कर रहा है। ढाई साल तक मुझे पता ही नहीं चला क्योंकि मैं भी यही कर रहा था।

बुद्ध की मुसीबत तुम समझ सकते हो, वे छह महीने पहले तुमसे होश में आ गये! उस आदमी को कुत्ते ने काटा और गधे ने दुलत्तियां मारीं। वह बेहोश गिर पड़ा।

सभी बुद्ध तुमसे यही व्यवहार पाये हैं। यह स्वाभाविक है। इसमें तुम्हारा कोई कसूर भी नहीं। लेकिन अगर तुम्हें खयाल आ जाये, तुम थोड़े से भी विचार से भर जाओ, यह कहानी अगर तुम्हें थोड़ी सी भी प्रेरणा दे दे सोचने की, तो शायद तुम बुद्ध को दुलत्ती मारने से बच सको। अगर तुम रुक भी जाओ दुलत्ती मारने से, तो भी बुद्ध को मौका मिले कि अपनी बात तुम तक पहुंचा दें। तुम अगर भोंकने से थोड़े शांत हो जाओ तो शायद उनकी आवाज तुम्हें सुनाई पड़ जाये। तुम्हारे चुप होने में, तुम्हारे ठहर जाने में, तुम्हारे कुछ न करने में शायद संबंध जुड़ जाये, सेतु बन जाये।

कलंदर ठीक कहता है। इस कहानी को तुम अपनी ही कहानी समझना। इसे बार-बार सोचना। तुम्हारा मन बहुत बार दुलत्ती मारने, बहुत बार भोंकने का होगा। उस वक्त अपने को रोकना और बुद्धों की वाणी को समझने की कोशिश करना। तुम थोड़ी सी कोशिश करो तो कुछ समझ में आयेगा। एक सीढ़ी तुम चलोगे, फिर दूसरी सीढ़ी साफ होगी। और हजारों मील की यात्रा भी करनी हो तो एक-एक कदम से पूरी होती है। कोई हजार कदम तो एक साथ चलता नहीं। एक बार एक कदम। पर एक कदम चले कि दूसरा कदम साफ हो जाता है और तुम दूसरा कदम उठाने के योग्य हो जाते हो।

भगवान : …कुछ और?

भगवान! बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे सभी प्रश्न पुराने और बासी होते हैं, और आपके उत्तर इतने नये और ताजा होते हैं। इसका राज क्या है?

चूंकि आप प्रश्न सोचते हैं। जो भी सोच से आयेगा, वह बासा हो जायेगा। क्योंकि सोचना सिर्फ पुराने का हो सकता है, नये का कोई सोचना नहीं हो सकता। नये को तुम सोचोगे कैसे? जिसे तुमने जाना ही नहीं, जिससे तुम्हारी कोई पहचान नहीं, उसका रूप तुम्हारे मन में बनेगा कैसे? तुम स्मृति से खोजते हो। तुम थोड़ा रंगरोगन भी करो तो भी तुम्हारे प्रश्न नये नहीं हो सकते, वे पुराने ही रहेंगे क्योंकि मन से जो भी पैदा होता है, वह पुराना होता है। मन पुराने का नाम है। मन का अर्थ है, मरा हुआ। मन का अर्थ है, बीत गया। मन का अर्थ है, अनुभव हो गया।

तो जो भी तुमने अनुभव किया है, सुना है, पढ़ा है, सोचा है, वह मन का संग्रह है। उसी में से तुम प्रश्न खोजते हो इसलिये वे पुराने और बासे होंगे।

मैं जब तुम्हें कोई उत्तर दे रहा हूं तो मन से कोई लेना-देना नहीं है। मैं तुम्हारा उत्तर सोचता नहीं, बस देता हूं। तुमने पूछा प्रश्न, मैंने दिया उत्तर। तुम्हारे पूछने में और मेरे देने में, बीच में कोई विचार नहीं है। उधर तुमने पूछा, इधर मैंने दिया। इन दोनों के बीच में रत्ती भर जगह नहीं है। तुम पूछो और मैं आंख बंद करके सोचूं, तो जो उत्तर होगा, वह बासा हो जायेगा। सोचा कि बासा हुआ। बिना सोचे जो आता है, वह ताजा है।

अनसोचे जो आता है, वह सदा नया है। क्योंकि जब तुम नहीं सोचते तभी तुम्हारे भीतर मन के जो पार है, वह बोलता है।

तो मैं भी मन का उपयोग करता हूं, लेकिन मन का उपयोग मैं सोचने के लिये नहीं करता। मन का उपयोग वह जो मन के पार है, उसके उपकरण की तरह करता हूं। तुम पार को मौका ही नहीं देते। तुम मन में ही प्रश्न खोजते हो, प्रश्न रख देते हो।

तुम्हें डर है, कहीं प्रश्न गलत न हो जाये। मुझे कोई डर नहीं है कि प्रश्न का उत्तर गलत न हो जाये। गलत हो कि सही, इसका मुझे प्रयोजन ही नहीं है। मैं कोई परीक्षा नहीं दे रहा हूं। तुम क्या सोचोगे मेरे उत्तर से, यह निष्प्रयोजन है। तुम उसे ठीक पाओगे, गलत पाओगे, राजी होओगे, नाराजी होओगे, यह सब व्यर्थ है। अगर मैं यह सोचूं तो बासा हो जायेगा।

इसलिये पंडित के पास जाओगे, उसका उत्तर बासा होगा क्योंकि पहले वह सोचता है, जो मैं उत्तर दूं, वह शास्त्र सम्मत है या नहीं? वेद भी यही कहते हैं या नहीं? गीता में भी यही है या नहीं? क्योंकि कृष्ण के विरोध में बोलने की हिम्मत वह न कर सकेगा। अगर वह मुसलमान है तो कुरानों में तजवीज करेगा कि मेल खा जाये। उसकी एक परंपरा है, उससे बाहर न जायेगा।

मेरी कोई परंपरा नहीं, मेरा कोई वेद नहीं, कोई कुरान नहीं; या सभी वेद, कुरान मेरे हैं। इसकी मुझे कोई चिंता नहीं कि मेरा उत्तर कृष्ण के विपरीत पड़ेगा कि पक्ष में पड़ेगा। इससे मुझे कोई लेना-देना नहीं कि यह विचार हिंदू के अनुकूल होगा कि मुसलमान के अनुकूल होगा।

क्या इसका परिणाम होगा अगर तुमने सोचा, तो उत्तर भी बासा हो जायेगा। जो परिणाम की सोचेगा, उसके वक्तव्य बासे हो जायेंगे। मैं तुम्हें सिर्फ दे रहा हूं। तुमने पूछा प्रश्न, मैंने दिया उत्तर। इसमें कोई सोच-विचार नहीं है। यह तुम्हारे प्रश्न का सीधा-सहज उत्तर है। सीधा–मैं दे रहा हूं; सहज–बिना सोचकर दे रहा हूं। इसलिये तुम्हारी बड़ी कठिनाई है।

अगर मैं तुम्हें बंधे और बासे उत्तर दूं, तुम्हें बड़ी सुगमता होगी। क्योंकि तुम एक तो मेरे उत्तर पहले से ही पहचान जाओगे। तुम्हें जगने की जरूरत न होगी, तुम सो सकते हो। क्योंकि तुम्हें पता ही है, उत्तर क्या होगा। तुम्हें सुगमता होगी क्योंकि तुम्हें अनुकरण आसान होगा, क्योंकि तुम जानते हो मेरा उत्तर क्या है! अभी तुम्हें अनुकरण बड़ा मुश्किल है, असंभव है क्योंकि कल मैं बदल जाऊंगा। परसों तुम जब तक तैयारी करके आओगे अनुकरण करने की, तब तक मैं कुछ और कहूंगा। तुम मेरा अनुकरण न कर सकोगे। और मैं चाहता भी नहीं कि तुम मेरा अनुकरण करो क्योंकि अनुकरण किया कि तुम मरे। अनुकरण कब्र है। मैं रोज बदलता रहूंगा, ताकि तुम अनुकरण न कर पाओ और तुम सो भी न पाओ।

तुम्हें जागकर सुनना होगा क्योंकि उत्तर तुम्हें पता नहीं है कि मैं क्या दूंगा? मुझे भी पता नहीं है। देने के बाद तुम्हें पता चलेगा, तभी मुझे भी पता चलेगा कि यह उत्तर दिया। फिर न तो मैं संगति वेद से खोज रहा हूं और न अपने अतीत से कि कल मैंने क्या कहा था–उससे भी संगति नहीं खोज रहा हूं।

दार्शनिक हैं तो वे सोचकर चलते हैं कि कल जो कहा था, उससे भिन्न न कहा जाये; नहीं तो लोग कहेंगे, असंगत है। मैंने वह सब चिंता छोड़ दी है। तुम असंगत कहो, संगत कहो; तुम कहो, कल जो कहा था, आज का वक्तव्य उलटा है। तो मैं कहूंगा, होगा। वह कल का वक्तव्य था, यह आज का वक्तव्य है। मैं कोई संगति, कोई कन्सिस्टेन्सी कल से आज में नहीं बना रहा हूं। एक ही संगति है कि कल का उत्तर भी मुझ से आया था, आज का उत्तर भी मुझसे आ रहा है, बस! इससे ज्यादा कोई संगति नहीं है।

जब तक तुम उत्तर में खोजोगे, तुम्हें विरोधाभास दिखाई पड़ेंगे। जब तुम उत्तर को हटाकर मुझे खोजोगे, तब तुम्हें एक संगति की शृंखला का दर्शन होगा। इसलिये तुम्हारे प्रश्न बासे हो जाते हैं। तुम सोचते हो! सोचोगे, सब बासा हो जाता है।

मन बासापन है।

मन के पार जो है, वह सदा ताजा है, सदा युवा है। वहां सब नया है, सब निर्दोष है! स्वच्छ…वहां कभी कुछ मरता नहीं, वहां शाश्वत जीवन है।

आज इतना ही।

 


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–36

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पश्‍चिम को जरूरत है बुद्धो की—प्रवचन—सौहलवां

प्रश्‍न—सार: 

 1—जीवन की लिप्सा, जीवेषणा का कारण क्या है? और यह जीवन का आनंद मनाने में बाधा क्यों है?

 2—पश्चिम के अस्‍तित्‍ववादी विचारों ने जीवन की अर्थहीनता जान ली है। लेकिन वे आनंद की खोज क्‍यों नहीं करते?

 3—बुद्धपुरुषों में शारीरिक आवश्‍यकता, कामवासना क्‍यों कर तिरोहित हो जाती है?

4—फ्रायड, जुंग और जेनोव आदि लोग स्‍वयं पर प्रयोग क्‍यों नहीं करते?

 

पहला प्रश्न:

 

पतंजलि कहते हैं ‘जीवन से चिपको मत: और यह बात आसान है समझने के लिए और अनुसरण करने के लिए। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि ‘जीवन के प्रति लालायित मत होओ ‘ क्या हमें वर्तमान में आनंदित नहीं होना है उस सबसे जो प्रकृति के पास है हमें देने को भोजन प्रेम सौदर्य कामवासना आदि? और यदि यह ऐसा है तो क्या यह जीवन का लोभ नहीं है?

 

तंजलि कहते हैं कि जीवन का लोभ एक बाधा है, जीवन का आनंद मनाने में एक बाधा है, सचमुच जीवंत रहने में एक बाधा है, क्योंकि लोभ सदा भविष्य के लिए होता है, वह वर्तमान के लिए कभी नहीं होता। वे आनंद मनाने के विरोध में नहीं हैं। जब तुम किसी चीज से आनंदित हुए क्षण मात्र में उपस्थित होते हो, तो उसमें कोई लोभ नहीं होता। लोभ है भविष्य के लिए ललकना, और इस बात को समझ लेना है।

वे लोग जो अपने जीवन से वर्तमान में आनंदित नहीं होते, उन्हें कहीं भविष्य में जीवन के लिए लालसा होती है। जीवन के लिए लालसा सदा भविष्य में ही होती है। यह बात एक स्थगन है। वे कह रहे होते हैं कि ‘हम आज आनंद नहीं मना सकते, इसलिए हम आनंद मनाएंगे कल।’ वे कह रहे होते हैं, ‘बिलकुल इसी क्षण हम उत्सव नहीं मना सकते, इसलिए कल को आने दो ताकि हम उत्सव मना सकें।’ भविष्य उदित होता है तुम्हारे दुख में से, तुम्हारे उत्सव में से नहीं। एक सच्चे उत्सवमय व्यक्ति के पास कोई भविष्य नहीं होता है, वह इसी क्षण में जीता है, वह इसे समग्र रूप से जीता है। उस समग्र रूप से जीए जाने में से ही उदित होता है अगला क्षण, लेकिन ऐसा किसी लालसा के कारण नहीं होता है। निस्संदेह, जब उत्सव में से अगला क्षण जन्मता है, तो उसमें ज्यादा क्षमता होती है तुम्हें आशीष देने की। जब उत्सव में से भविष्य जन्मता है, तो वह और — और ज्यादा समृद्ध होता जाता है। एक घड़ी आती है जब क्षण इतना समग्र हो जाता है, इतना संपूर्ण कि समय पूरी तरह तिरोहित हो जाता है।

समय दुखी मन की जरूरत है। समय सर्जना है दुख की। यदि तुम प्रसन्न होते हो तो कहीं कोई समय नहीं बचता—समय तिरोहित हो जाता है।

इसे दूसरे आयाम से देखना। क्या तुमने ध्यान दिया कि जब कभी तुम दुखी होते हो, समय बहुत धीमी गति से सरकता है। कोई मर रहा होता है, कोई जिसे तुम प्रेम करते हो, कोई जिसके लिए तुम चाहोगे वह जीए, और तुम पास में बैठे हुए होते हो। सारी रात तुम बिस्तर के किनारे बैठे रहते और रात ऐसी जान पड़ती जैसे कि वह कोई अनंतकाल हो। उसका बिलकुल कोई अंत दिखाई ही नहीं पड़ता, वह। यही है जीवन के प्रति लिप्सा का अर्थ ज्यादा समय के लिए लिप्सा।

बढ़ती जाती और आगे, आगे। दीवार पर छ. बहुत ज्यादा धीमी चल रहीं जान पड़ती है, दुख में समय धीमे चलता है। जब तुम प्रसन्न होते हो—तुम्हारी प्रेमिका के साथ होते हो, तुम्हारे मित्र के साथ तो तुम उस क्षण को संजो रहे होते हों—समय तेज चलता है। सारी रात गुजर जाती है और ऐसा जान पड़ता है कि कुछ मिनट या कुछ पल ही बीते हैं। ऐसा क्यों होता है?—क्योंकि दीवार पर लगी घड़ी इसकी चिंता नहीं करती कि तुम सुखी हो या दुखी, वह अपने से चलती रहती है। वह तुम्हारी भावदशाओं के साथ कभी तेज नहीं चलती। वह सदा एक ही गति से चल रही होती है, लेकिन तुम्हारी व्याख्याएं भेद रखती हैं। दुख में समय ज्यादा बड़ा हो जाता है, सुख में समय ज्यादा छोटा हो जाता है। जब कभी कोई आनंदपूर्ण मनोदशा में होता है तो समय बिलकुल तिरोहित ही हो जाता है।

ईसाइयत कहती है कि जब तुम नरक में फेंक दिए जाते हो, तो नरक अनंत हो जाता है, अंतहीन। बर्ट्रेड रसल ने एक किताब लिखी है ‘व्हाई आई एम नाट ए क्रिश्चियन’—’मैं ईसाई क्यों नहीं हूं।’ वह बहुत सारे कारण बताता है। उनमें से एक यह है : ‘जो पाप मैंने किए हैं, उससे ऐसा सोचना असंभव है कि अनंत सजा न्यायपूर्ण हो सकती है। मैंने शायद बहुत से पाप किए होंगे। तुम. मुझे नरक में फेंक देते हो पचास वर्ष सौ वर्ष के लिए, पचास जन्म, सौ जन्म, हजार जन्‍म तक, लेकिन अनंत सजा न्यायपूर्ण नहीं हो सकती है।’ शाश्वत सजा तो अन्यायपूर्ण ही जान पड़ती है, और ईसाइयत केवल एक जन्म में ही विश्वास रखती है। इतने सारे पाप कोई व्यक्ति एक जन्म में कैसे कर सकता है, मात्र साठ या सत्तर वर्ष के जीवन में जिससे कि वह अनंतकाल तक सजा पाने लायक हो जाए! यह बात तो एकदम बेतुकी जान पड़ती है। रसल कहते हैं ‘जो कोई पाप मैंने किए हैं और जिन्हें मैं करने की सोच रहा हूं लेकिन जिन्हें अभी तक किया नहीं है —यदि मैं अपने सारे पापों को—किए— अनकिए, कल्पित, स्वप्‍नगत पापों को स्वीकार कर लूं फिर भी कठोर से कठोर न्यायाधीश भी मुझे पांच वर्षों से ज्यादा सजा नहीं दे सकता है।’

और ठीक कहता है वह लेकिन सार की बात चूक जाता है वह। ईसाई धर्मशास्त्री उत्तर नहीं दे पाए हैं। नरक शाश्वत है इस कारण नहीं कि वह शाश्वत है, बल्कि इस कारण ऐसा है क्योंकि वह सबसे बड़ा दुख है —समय सरकता ही नहीं है। ऐसा जान पड़ता है कि वह अंतहीन है। यदि आनंद में समय तिरोहित हो जाता है तो गहनतम दुख में, जो कि नरक है, समय इतना धीमे चलता है जैसे कि बिलकुल चल ही न रहा हो। नरक का एक क्षण भी अनंत होता है। तुम्हें ऐसा जान पड़ेगा कि वह समाप्त नहीं हो रहा, समाप्त ही नहीं हो रहा, समाप्त हो ही नहीं रहा।

अंतहीन नरक का सिद्धात सुंदर है, बहुत मनोवैज्ञानिक है। यह इतना ही दिखाता कि समय मन पर निर्भर करता है, समय एक मनोगत घटना है। तुम दुखी होते हो, तो समय का अस्तित्व होता है; तुम सुखी होते हो तो कोई समय नहीं बचता। जीवन की लिप्सा है ज्यादा समय की लिप्सा। वह दिखाती है कि जो कुछ तुमने पाया है, पर्याप्त नहीं है; तुम अभी तक परितृप्त नहीं हुए।’मुझे और ज्यादा समय दो, ताकि मैं परितृप्त हो सकूं। मुझे और जीवन दो, और भविष्य, बढ़ने को और जगह, क्योंकि मेरी सारी आकांक्षाए अभी अपूर्ण हैं।’ वह व्यक्ति जो जीवन की लिप्सा लिए रहता है यही प्रार्थना किए जाता है : हे ईश्वर मुझे और समय दे दो, क्योंकि मेरी सारी इच्छाएं अभी भी मौजूद हैं। कोई चीज तृप्तिकारक नहीं रही मैं संतुष्ट नहीं मैं परितृप्त नहीं हूं और समय तो तेजी से बहा जा रहा है। मुझे और समय दे दो। यही है जीवन के प्रति लिप्‍सा का अर्थ : ज्यादा समय के लिए लिप्‍सा।

जीवन सेतुम्हारा क्या अर्थ है? जीवन का अर्थ है: भविष्य से जुड़ा ज्यादा समय। मृत्यु से तुम्हारा क्या अर्थ होता है? मृत्यु का अर्थ होता, कहीं कोई भविष्य नहीं। यदि मृत्यु बिलकुल अभी आ जाए, तो भविष्य समाप्त हो जाता है, समय समाप्त हो जाता है। इसलिए तुम भयभीत हो मृत्यु से, क्योंकि वह तुम्हें समय न देगी और सारी तुम्हारी इच्छाएं अपूर्ण हैं।

जीवन के विरोध में नहीं हैं पतंजलि। वस्तुत: वे जीवन के विरोध में नहीं हैं, इसीलिए वे जीवन के प्रति लिप्सा के विरोध में हैं। यदि तुम जीवन को जीते हो उसकी समग्रता सहित, उसका आनंद मनाते हो उसकी गहनतम संभावना तक, उसे घटित होने देते हो—तब जीवन के प्रति कहीं कोई लिप्सा न बचेगी। ज्यादा संवेदनशील हो जाओ, जीवंत, सजग हो जाओ, और तब तुम समय के प्रति लालायित न होओगे। वस्तुत: वह व्यक्ति जो जीवन से परितृप्त होता है, उसे मृत्यु विश्राम की भाति दिखाई पड़ती है, एक बड़ी विश्रांति की भांति, जीवन की समाप्ति नहीं। वह उससे भयभीत नहीं रहता, वह उसका स्वागत करता है, एक पूरा समृद्ध जीवन जीया हो, तो मृत्यु होती है रात्रि, रात्रि की भांति आती। दिन भर तुमने काम किया, अब तुम शय्या सजाते और विश्राम करने लगते हो।

ऐसे लोग हैं जो रात्रि से भयभीत होते हैं। मैं कलकत्ता में ठहरा करता था बहुत संपन्न व्यक्ति के पास जो रात्रि से ऐसे भयभीत रहता जैसे कि लोग मृत्यु से भयभीत रहते हैं। वह सो न सकता था क्योंकि वह सारा दिन विश्राम कर रहा होता था। तो कैसे वह आशा कर सकता था निद्रा की? वह धनी व्यक्ति था, उसके पास हर चीज थी, इसलिए कुछ नहीं करता था वह। केवल निर्धन लोग पैदल चलते हैं, केवल निर्धन लोग काम करते हैं!

कहीं किसी जगह कामू लिखता है कि एक समय आएगा भविष्य में जब सचमुच लोग इतने धनवान हो जाएंगे कि वे प्रेम भी न करेंगे। वे अपने नौकर को भेज देंगे ऐसा करने के लिए! वस्तुत: एक धनी व्यक्ति को प्रेम करना ही नहीं चाहिए। सारे प्रयास की चिंता ही क्यों करनी?—तुम भेज सकते हो नौकर को। यही तो कर रहे हैं धनी व्यक्ति नौकरों को भेजना पड़ता है जीवन जीने को, और वे विश्राम करते हैं।

जब तुम सारा दिन विश्राम करते हो तो तुम कैसे सो सकते हो रात में? आवश्यकता निर्मित नहीं होती। एक व्यक्ति सारा दिन कार्य करता है, जीता है, और रात होने तक वह तैयार हो जाता है विस्मृति में, अंधकार में उतरने को। ऐसा ही घटता है यदि तुमने एक सच्चा जीवन जीया होता है। यदि तुमने उसे सचमुच ही जीया होता है, तो मृत्यु विश्राम ही है। शाम आती, रात उतर आती, और तुम तैयार होते, तुम लेट जाते और तुम प्रतीक्षा करते। जब तुम ठीक प्रकार से जीते हो तो तुम और अधिक जीवन की मांग नहीं करते, क्योंकि अधिकता पहले से ही है; जितना तुम मांग सकते हो, उससे ज्यादा पहले से ही मौजूद है; जितने की तुम कल्पना कर सको, उससे ज्यादा तुम्हें दिया ही जा चुका है। यदि तुम प्रत्येक क्षण को उसकी संपूर्ण प्रगाढ़ता तक जीते हो, तो तुम सदा ही तैयार होते हो मरने के लिए।

यदि बिलकुल अभी मृत्यु आ जाती है मेरे पास तो मैं तैयार हूं, क्योंकि कोई चीज अधूरी नहीं है। भविष्य के लिए मैंने कुछ भी स्थगित नहीं किया है। मैंने सुबह स्नान किया और उसका पूरा आनंद लिया। भविष्य की खातिर मैंने किसी चीज को स्थगित नहीं किया, इसलिए यदि मौत आ जाती है तो कहीं कोई समस्या नहीं। मृत्यु आ सकती है और बिलकुल अभी ले जा सकती है मुझे। भविष्य की एक हल्‍की—सी धारणा तक भी न होगी क्योंकि कुछ भी अधूरा नहीं है।

और तुम्हारे लिए?—हर चीज अधूरी है। सुबह का स्नान तक तुम ठीक से नहीं कर सके, क्योंकि तुम्हें सुनने आना था मुझे; तुम उसे चूक गए। तुम बढ़ते हो भविष्य के अनुसार और फिर तुम चूकते चले जाते हो। यदि यह चूकने की बात एक आदत बन जाती है, और वह बन जाती है, तो तुम मेरे प्रवचन को भी चूक जाओगे। क्योंकि तुम वही आदमी हो जो चूक गया सुबह का स्नान, जो चूक गया सुबह की चाय, जिसने किसी तरह उसे समाप्त तो किया लेकिन अधूरा बना रहा। वह बात तुम्हारे सिर के चारों ओर मंडराती रहती है। वह सब जिसे कि तुमने अधूरा छोड़ दिया अभी भी तुम्हारे चारों ओर मक्खी—सा भिनभिना रहा है। अब इसकी आदत हो जाती है। तुम सुनोगे मुझे लेकिन तैयार तो तुम हो रहे होते आफिस जाने के लिए, या दुकान पर जाने के लिए, या कि बाजार जाने के लिए; तुम सरक ही चुके’ हो। तुम केवल शारीरिक रूप से यहां बैठे हुए होते हो। तुम्हारा मन भविष्य में सरक चुका होता है। तुम कहीं न हो पाओगे। जहां कहीं भी तुम होते हो, तुम कहीं किसी और जगह सरक ही रहे होते हो। यह अधूरा जीवन निर्मित कर देता है जीवन के प्रति लोभ। तुम्हें बहुत सारी चीजों को पूरा करना होता है।

कैसे तुम बिलकुल इसी क्षण मरना सह सकते हो? मैं इसे सह सकता हूं मैं आनंदित हो सकता हूं —हर चीज पूरी है। इसे जरा खयाल में ले लेना, पतंजलि, बुद्ध, जीसस—कोई भी जीवन के विरोध में नहीं हैं। वे जीवन के हक में हैं, पूरी तरह जीवन के हक में, लेकिन वे जीवन के लोभ के विरुद्ध हैं क्योंकि जीवन का लोभ उस आदमी का लक्षण है जो कि जीवन चूक रहा है।

दूसरा प्रश्न:

 

पश्चिम के बहुत से अस्तित्ववादी विचारक— सार्त्र कामू आदि— हताशा निराशा और जीवन की अर्थहीनता को जान गए हैं लेकिन उन्होंने पतंजलि की आनंदमयता को नहीं जाना है। क्यों? कौन— सी बात चूक रही है? इस बात पर पतंजलि क्या कहते पश्चिम से?

हां, पश्चिम में कुछ चीजों का अभाव रहा है जिनका भारत में बुद्ध के लिए अभाव नहीं रहा था। बुद्ध भी उसी स्थल तक पहुंचे जहां कि सार्त्र है? अस्तित्ववादी निराशा, व्यथा, यह अनुभूति कि सब व्यर्थ है, कि जीवन अर्थहीन है, तो एक नया प्रारंभ मौजूद था भारत में; सड़क का अंत नहीं थी वह बात। वस्तुत: वह मात्र अंत थी एक सड़क का लेकिन दूसरी तो तुरंत खुल गई थी; एक द्वार का बंद होना लेकिन दूसरे का खुल जाना। यही है भेद आध्यात्मिक संस्कृति और भौतिक संस्कृति के बीच।

एक भौतिकवादी कहता है, ‘यही है सब कुछ; जीवन में और कुछ नहीं है।’ एक भौतिकवादी कहता है कि वह सब जो तुम देखते हो वही है सारी सच्चाई। यदि वह अर्थहीन बन जाती है, तो कहीं कोई द्वार खुला नहीं है। एक अध्यात्मवादी कहता है, ‘यही सब नहीं है, दृश्य ही सब कुछ नहीं, स्थूल ही सब कुछ नहीं। जब यह समाप्त हो जाता है, तो अचानक एक नया द्वार खुलता है और यह भी अंत नहीं है। जब यह समाप्त हो जाता है, तो दूसरे आयाम की ओर एक’ प्रारंभ है यह बात।

जीवन की भौतिकवादी अवधारणा और जीवन की आध्यात्मिक अवधारणा के बीच यही एकमात्र अंतर होता है —विश्वदृष्टियों का अंतर। बुद्ध उत्पन्न हुए थे आध्यात्मिक विश्वदृष्टिकोण के बीच। वह सब कुछ जो हम करते हैं उसकी अर्थहीनता उन्होंने भी जान ली थी, क्योंकि मौत आती है और मौत खत्म कर देती हर चीज, तो सार क्या है कुछ करने में या न करने में? चाहे तुम करते हो या नहीं करते, मौत आती है और हर चीज को समाप्त कर देती है। चाहे तुम प्रेम करो या नहीं, वृद्धावस्था आती और तुम जर्जर हो जाते, हड्डियों का पिंजर बन जाते। चाहे तो निर्धनता का जीवन जीयों या कि समृद्धि का, मृत्यु दोनों को मिटा देती है; वह इसकी परवाह नहीं करती कि तुम कौन हो? तुम एक संत हो सकते हो, तुम एक पापी हो सकते हो—मृत्यु को इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। मृत्यु एकदम कम्युनिस्ट है; वह हर किसी से बराबर का व्यवहार करती है। संत और पापी दोनों मिट्टी में मिल जाते हैं —मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है। बुद्ध इस बात को जान गए थे, लेकिन आध्यात्मिक विश्वदृष्टि मौजूद थी, वातावरण अलग था।

मैंने कही न तुमसे बुद्ध की वह कथा! वे देखते हैं एक के आदमी को, तो वे जान लेते हैं कि युवावस्था एक अस्थायी, एक क्षणिक घटना है उठती और गिरती एक तरंग सागर की, स्थायित्व की कोई बात उसमें नहीं होती; शाश्वत का कुछ उसमें नहीं होता; वह स्वप्न की भाति होती है —एक बुदबुदा, किसी भी क्षण फटने को तैयार। फिर वे देखते हैं कि एक मृत व्यक्ति को ले जाया जा रहा है। पश्चिम में तो कथा यहीं समाप्त हो गयी होती का आदमी, मरा हुआ आदमी। लेकिन भारतीय कथा में, मृत व्यक्ति के बाद वे देखते हैं एक संन्यासी कों—वही है द्वार। और तब वे अपने रथवाहक से पूछते हैं, ‘कौन है यह आदमी, और क्यों यह गैरिक वस्त्रों में है? क्या हुआ है इसे? किस तरह का आदमी है यह?’ रथवाहक कहता है, ‘इस आदमी ने भी जान लिया है कि जीवन मृत्यु की ओर ले जाता है और वह उस जीवन की तलाश में है जो मृत्युविहीन है।’

यही था वातावरण. जीवन मृत्यु के साथ ही समाप्त नहीं हौ जाता है। बुद्ध की कहानी दर्शाती है कि मृत्यु को देखने के बाद, जब जीवन अर्थहीन अनुभव होता है, तो अचानक एक नया आयाम उदित होता है, एक नयी दृष्टि—संन्यास; जीवन के अधिक गहरे रहस्य में उतरने का प्रयास; दृश्य में ज्यादा गहरे उतरना अदृश्य तक पहुंचने के लिए; पदार्थ में इतने ज्यादा गहरे उतरना कि पदार्थ तिरोहित हो जाता है और तुम मौलिक सत्य तक आ पहुंचते हो, आध्यात्मिक ऊर्जा का सत्य, वह ब्रह्म। सार्त्र, कामू और हाइडेगर के साथ तो कथा समाप्त हो जाती है मृत व्यक्ति पर ही। संन्यासी नहीं मिलता, वही है एक लुप्त कड़ी।

यदि तुम मुझे समझ सको, वही तो कर रहा हूं मैं : इतने सारे संन्यासियों का सृजन कर रहा हूं, उन्हें भेज रहा हूं सारे संसार में, ताकि जब कभी ऐसा व्यक्ति हो जो कि सार्त्र की भांति इस समझ तक .पहुंच जाए कि जीवन अर्थहीन है, तो कोई संन्यासी जरूर होना चाहिए वहां अनुसरण किये जाने के लिए, एक नयी दृष्टि देने के लिए कि जीवन मृत्यु के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता है। एक स्थिति समाप्त होती है, लेकिन स्वयं जीवन ही समाप्त नहीं हो जाता है।

वस्तुत:, जीवन केवल तभी आरंभ होता है, जब मृत्यु आ जाती है। क्योंकि मृत्यु तो केवल तुम्हारा शरीर ही समाप्त करती है, तुम्हारे अंतस्तल की सत्ता नहीं। शरीर का जीवन केवल एक भाग है, एक बड़ा सतही भाग, बाहरी भाग।

पश्चिम में, भौतिकवाद एक व्यापक दृष्टि ही बन गया है। पश्चिम के तथाकथित धार्मिक व्यक्ति भी पूरे भौतिकवादी हैं। वे जाते होंगे चर्च, वे विश्वास रखते होंगे ईसाइयत में, लेकिन वह हल्का —सा सतही विश्वास भी नहीं है। वह एक सामाजिक औपचारिकता है। उनको जाना पड़ता है रविवार को चर्च में, वह एक करने जैसी बात होती है —दूसरों की दृष्टि में ‘ठीक व्यक्ति’ बने रहने के लिए कुछ करने की ठीक बात। तुम ठीक बातें करने वाले ठीक व्यक्ति होते हो—एक सामाजिक औपचारिकता। लेकिन भीतर हर कोई भौतिकवादी हो गया है।

भौतिकवादी विश्वदृष्टि कहती है कि मृत्यु के साथ ही हर चीज समाप्त हो जाती है। यदि यह बात सच है तब तो रूपांतरण की कोई संभावना ही न रही। और यदि हर चीज समाप्त हो जाती है मृत्यु के साथ तो फिर जीने में कोई सार नहीं। तब तो आत्महत्या ही है एक सही उत्तर।

यह एक मजे की बात है, सार्त्र का जीए चला जाना। उसे तो बहुत—बहुत पहले आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी, क्योंकि उसने सचमुच ही जान लिया था कि जीवन अर्थहीन है, तो फिर बात ही क्या बची? या तो उसने ऐसा जान लिया या वह अब भी आशा रख रहा है इसके विरुद्ध और इसे नहीं जान पाया। सारी बात को हर रोज फिर —फिर किए चले जाने में, रोज बिस्तर से उठने में सार क्या है? यदि तुमने सचमुच ही अनुभव कर लिया है कि जीवन अर्थहीन है, तो कैसे तुम बिस्तर से उठ सकते हो अगली सुबह, किसलिए? उसी पुरानी नासमझी को फिर से दोहराने के लिए? —अर्थहीन बात, तुम्हें सांस ही क्यों लेनी चाहिए?

यह मेरी समझ है यदि तुमने सचमुच ही जान लिया हो कि जीवन अर्थहीन है, तो सांस तुरंत ठहर जाएगी। सार क्या है? तुम दिलचस्पी खो दोगे सांस लेने में, तुम कोई प्रयास न करोगे। लेकिन सार्त्र तो जीए ही चला जाता है और लाखों चीजें करता रहता है! अर्थहीनता सचमुच बहुत गहरे में नहीं उतरी है। वह एक फिलासफी है, जीवन अभी भी नहीं है, भीतर की एक आंतरिक घटना अभी भी नहीं है, मात्र एक फिलासफी ही है। वरना, पूरब तो खुला है; सार्त्र क्यों न आए? पूरब कहता है, ‘ही, जीवन अर्थहीन है, लेकिन तब द्वार खुलता है।’ तो उसे आने दो पूरब में और द्वार का पता लगाने की कोशिश करने दो। और यही नहीं कि किसी ने केवल ऐसा कहा ही है; करीब दस हजार वर्षों से बहुतों ने इस बात का साक्षात्कार किया है, और तुम इस बारे में स्वयं को बहका नहीं सकते। बुद्ध एक भी दुखी क्षण के बिना आनंदमग्न जीए चालीस वर्ष। कैसे तुम दिखावा कर सकते हो? कैसे तुम चालीस वर्ष जिंदगी जी सकते हो ऐसा अभिनय करते हुए जैसे कि तुम आनंदमग्न हो? और अभिनय करने में सार क्या है? और केवल बुद्ध एक नहीं —हजारों बुद्ध उत्पन्न हुए हैं पूरब में, और उन्होंने सर्वाधिक आनंदमय जीवन जीए, जहां दुख की एक लहर न उठी।

जो पतंजलि कह रहे हैं, वह कोई दर्शन शास्त्र नहीं, वह एक जाना हुआ सत्य है, वह एक अनुभव है। सार्त्र पर्याप्त रूप से साहसी नहीं, अन्यथा तो दो विकल्प होते : या तो आत्महत्या कर लो, अपने दर्शन के प्रति सच्चे बनो, या मार्ग खोजो जीवन का, नए जीवन का; दोनों ढंग से तुम पुराने को छोड़ देते हो। इसीलिए मैं जोर देता हूं कि जब कभी कोई आदमी आत्महत्या की स्थिति तक पहुंचता है, केवल तभी द्वार खुलता है। तब दो ही विकल्प होते हैं; आत्मघात या आत्मरूपांतरण।

सार्त्र .साहसी नहीं। वह बात करता है साहस की, प्रामाणिकता की, लेकिन इनमें से बात है कुछ नहीं। यदि तुम प्रामाणिक हो, तो फिर या तो आत्महत्या कर लो या कोई रास्ता खोजो दुख में से निकलने का 1 यदि तुम्हारा दुख अंतिम और समग्र होता है, तो फिर क्यों तुम जीते रहते हो? तब तो तुम्हारे दर्शन के प्रति सच्चे बने रहना। ऐसा जान पड़ता है कि यह निराशा, व्यथा, अर्थहीनता भी शाब्दिक है, तार्किक है, लेकिन अस्तित्वगत नहीं।

मेरा यह जानना है कि पश्चिम का अस्तित्ववाद वास्तव में अस्तित्ववादी नहीं है, वह फिर एक विचार ही है। अस्तित्ववादी होने का अर्थ होता है कि अनुभूति होनी चाहिए, विचार नहीं। सार्त्र एक बड़ा विचारक हो सकता है—वह है, लेकिन उसने बात को अनुभव नहीं किया, उसने जीया नहीं है उसे। यदि तुम जीते हो निराशा को, तो तुम एक ऐसे स्थल तक पहुंचोगे ही जहां कुछ करना पड़ता है, आमूल रूप से ही कुछ करना पड़ता है। रूपांतरण अत्यंत जरूरी बात बन जाता है, तुम्हारी एकमात्र दिलचस्पी बन जाता है।

तुमने यह भी पूछा है, ‘क्या चूक रहा है?’ वही दृष्टिकोण, आध्यात्मिक दृष्टि का अभाव है पश्चिम में। अन्यथा बहुत सारे बुद्ध उत्पन्न हो सकते थे। समय तो तैयार है —निराशा, अर्थहीनता अनुभव की गयी है, वह फिजी में घुली है। समाज ने उपलब्ध किया है समृद्धि को और पाया है उसे अभावयुक्त। धन होता, शक्ति होती और गहरे तल पर मनुष्य समग्र रूप से असमर्थ अनुभव करता है। स्थिति पक गयी है, लेकिन दृष्टि का अभाव रहा है।

पश्चिम में जाओ और संदेश दो। खबर पहुंचा दो आध्यात्मिक दृष्टिकोण की, ताकि जो इस जीवन में अपनी यात्राओं के अंत तक पहुंच गये हैं उन्हें अनुभव नहीं होना चाहिए कि यही है अंत—स्व नया द्वार खुल जाता है। जीवन अनंत है। बहुत बार तुम अनुभव करते कि हर चीज समाप्त हो गयी और अचानक कोई चीज फिर शुरू हो जाती है। आध्यात्मिकता की व्यापक विश्वदृष्टि का अभाव है। एक बार वह दृष्टि आ बनती है, तो बहुत से बढ़ने लगेंगे उस पर।

तकलीफ यह है कि बहुत से तथाकथित पूरब के शिक्षक पश्चिम में जा रहे हैं, और वे तुमसे ज्यादा भौतिकवादी हैं। वे केवल धन के कारण ही जाते हैं वहां। वे तुम्हें आध्यात्मिकता की विश्व —दृष्टि नहीं दे सकते। वे बेचने का धंधा करते हैं। उन्होंने खोज लिया है बाजार, क्योंकि समय परिपक्व हो चुका है।

लोग किसी चीज के लिए ललक रहे हैं, न जानते हुए कि किसके लिए। इस तथाकथित जीवन से लोग ऊब चुके हैं; हताश हैं, किसी अज्ञात, अभी तक न जीयी गयी चीज में छलांग लगाने को तैयार हैं। बाजार तैयार है लोगों का शोषण करने को, और पूरब के बहुत व्यापारी मौजूद हैं। वे महर्षि कहला सकते हैं, उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, बहुत से व्यापारी, विक्रेता जा रहे हैं पश्चिम की ओर। वे वहां जाते हैं बस धन के लिए।

सच्चे सद्गुरु के साथ तो ऐसा है कि तुम्हें आना होता है उस तक, तुम्हें करने पड़ते हैं प्रयास। एक सच्चा सद्गुरु नहीं जा सकता है पश्चिम, क्योंकि जाने से सारी बात ही खो जाएगी, पश्चिम को ही आना है उसके पास। और पश्चिमी लोगों के लिए ज्यादा सरल होगा आंतरिक अनुशासन को, जागरण को सीखने के लिए पूरब तक आना, और फिर पश्चिम में चले जाना और नयी हवा को फैला देना। पश्चिमी लोगों के लिए ज्यादा सरल होगा पूरब में सीखना, यहां आध्यात्मिक गुरु के सन्निधिपूर्ण वातावरण में होना और फिर वापस ले जाना संदेश कों—क्योंकि तुम भौतिकवादी नहीं होओगे यदि तुम जाते हो और फैला देते हो इस खबर को पश्चिम में। तुम नहीं होओगे भौतिकवादी क्योंकि तुमने पर्याप्त जीया है, तुम्हारे लिए खत्म हो गयी बात।

जब पूरब के निर्धन व्यक्ति पश्चिम में जाते हैं तो निस्संदेह वे धन इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं।

यह बात सीधी—साफ है। पूरब दरिद्र है और अब पूरब आध्यात्मिकता के लिए ललक नहीं रहा है। वह ज्यादा धन के लिए, ज्यादा भौतिक उपकरणों के लिए, ज्यादा इंजीनियरिंग तथा अणु—विज्ञान के लिए ललक रहा है। यदि बुद्ध भी उत्पन्न हो जाएं तो उनकी बात कोई नहीं करेगा पूरब में। लेकिन एक छोटा खिलौना, स्मृतनिक भारत द्वारा छोड़ दिया जाता है और सारा देश पगला जाता है और खुशिर्या मनाता है। कितनी मूढ़ता है। एक छोटा —सा आणविक विस्फोट और भारत बहुत प्रसन्नता और गर्व अनुभव करता है, क्योंकि वह पांचवीं आणविक शक्ति बन जाता है।

पूरब दरिद्र है और पूरब अब भौतिकता की भाषा में सोच रहा है। एक दरिद्र मन सदा सोचता है भौतिकता के बारे में और भौतिकता जो सब दे सकती है उसके बारे में। पूरब आध्यात्मिकता की खोज में नहीं है। पश्चिम धनवान है और अब पश्चिम तैयार है खोजने के लिए।

लेकिन जब कभी सद्गुरु मौजूद हो तो व्यक्ति को खोजना पड़ता है उसे। इसी खोजने के द्वारा ही बहुत —सी बातें घटती हैं। यदि मैं आता हूं तुम्हारे पास, तो तुम नहीं समझ पाओगे मुझे। यदि मैं आता हूं और खटखटाता हूं तुम्हारा द्वार, तो तुम सोचोगे मैं तुमसे कोई चीज मांगने आया हू; वह बात हो जाएगी तुम्हारा हृदय बंद कर देने की। नहीं, मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा और नहीं खटखटाऊंगा। मैं तुम्हारे आने की और दस्तक देने की प्रतीक्षा करूंगा। और केवल दस्तक ही नहीं, मैं तुम्हें बाध्य भी करूंगा प्रतीक्षा करो को —क्योंकि वही है एकमात्र तरीका जिससे कि तुम्हारा हृदय खोला जा सकता है।

मैं नहीं जानता कि पतंजलि ने क्या कहा होता पश्चिम से। कैसे जान सकता हूं मैं? पतंजलि पतंजलि हैं; मैं नहीं हूं पतंजलि। लेकिन मैं यही कहना चाहूंगा पश्चिम उस जगह आ पहुंचा है जहां या तो आत्मघात या फिर आध्यात्मिक क्रांति घटेगी। यही दो विकल्प हैं। मैं ऐसा किन्हीं विशेष लोगों, विशिष्ट व्यक्तियों के लिए नहीं कह रहा हूं। ऐसा सारे पश्चिम के साथ ही है। या तो पश्चिम आत्मघात कर लेगा आणविक युद्ध द्वारा जिसके लिए कि वह तैयार हो रहा है, या फिर आध्यात्मिक जागरण घटेगा। और कोई बहुत ज्यादा समय बचा नहीं है। इसी शताब्दी में, मात्र पच्चीस वर्ष ही हैं और, पश्चिम या तो आत्मघात कर लेगा या फिर पश्चिम जानेगा उस सब से बड़े आध्यात्मिक जागरण को जो कि कभी न घटा होगा मानव —इतिहास में। बहुत कुछ लगा है दाव पर।

लोग आते हैं मेरे पास और वे कहते हैं कि ‘आप संन्यास दिए चले जाते हैं बिना इस बात पर ध्यान दिए कि व्यक्ति उसके योग्य है या नहीं।’ मैं कहता हू उनसे कि समय कम है, और मैं चिंता भी नहीं करता इस बारे में। यदि मैं संन्यास देता हूं पचास हजार लोगों को और केवल पचास सच्चे प्रमाणित होते हैं, तो उतने पर्याप्त होंगे

पश्चिम को जरूरत है संन्यासियों की। वहां कथा उस जगह तक पहुंच गयी है, जहां मृत व्यक्ति ढोया जा रहा है। अब संन्यासी को प्रकट होना है पश्चिम में। और संन्यासी को होना चाहिए पश्चिम का, पूरब का नहीं, क्योंकि पूरब का संन्यासी तो देर— अबेर शिकार हो जाएगा, उस सब का जो —जो तुम दे सकते हो। वह बेचने लगेगा, वह विक्रेता बन जाएगा क्योंकि वह आया होता है भूखे मर रहे दरिद्र पूरब से। धन है उसका परमात्मा।

संन्यासी को पश्चिम का होना चाहिए; वह जो आया हो पश्चिम की भूमि से, जो जानता हो जीवन की अर्थहीनता; जो भौतिकवाद के सारे प्रयास की हताशा को जानता हो; जो मार्क्सवाद की, साम्यवाद की और सारे भौतिकवादी दर्शनों की व्यर्थता को जानता हो। अब यह हताशा पश्चिम के आदमी के खून में है। एकदम हड्डियों में धंसी है।

इसलिए मेरी सारी रुचि है जितना संभव हो उतना पश्चिमी लोगों को संन्यासी बनाने में और उन्हें वापस घर भेज देने में। बहुत से सार्त्र प्रतीक्षा कर रहे हैं वहां। उन्होंने देखा है मृत्यु को। वे प्रतीक्षा कर रहे हैं गैरिक वस्त्रों को देखने की, और गैरिक वस्त्रों सहित उस आनंदमयता की जो कि पीछे —पीछे ही चली आती है।

तीसरा प्रश्न:

 

बुद्ध जीते हैं सबसे ऊंची संवेदनशीलता सहित और इससे वे पूरी अनुभूति पाते है अपनी सारी शारीरिक आवश्यकताओं की। क्या कामवासना भी एक शारीरिक आवश्यकता नहीं है रूप तो फिर क्यों वह तिरोहित हो जाती हैं बुद्ध में?

हुत सारी चीजें समझ लेनी होंगी।

पहली कामवासना भोजन की भांति कोई सामान्य जरूरत नहीं है। वह बहुत असामान्य होती है। यदि भोजन तुम्हें नहीं दिया जाता है तो तुम मर जाओगे, लेकिन बिना कामवासना के तुम जी सकते हो। यदि पानी तुम्हें नहीं दिया जाता है तो शरीर मर जाएगा, लेकिन बिना कामवासना के तुम जी सकते हो। यदि वायु तुम्हें नहीं मिलती है तो तुम मर जाओगे कुछ पलों के भीतर ही, लेकिन बिना कामवासना के तुम जी सकते हो तुम्हारी जिंदगी भर।

यह पहला भेद है, और क्यों है ऐसा? क्योंकि कामवासना बुनियादी तौर से व्यक्ति की जरूरत नहीं है, यदि कामवासना पर रोक लगा दी जाए तो जाति मर जाएगी, लेकिन तुम तो नहीं मरोगे। मानव मर जाएगा, वह व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक है। कामवासना जाति की आवश्यकता है, किसी व्यक्ति की नहीं। यदि हर कोई ब्रह्मचारी बन जाए, तो मनुष्यता तिरोहित हो जाएगी, लेकिन तुम जीयोगे। तुम सत्तर वर्ष या और भी ज्यादा जीयोगे, क्योंकि तुम ज्यादा ऊर्जा बचा लोगे। वह व्यक्ति जिसे सत्तर वर्ष जीना था शायद सौ वर्ष जी सके बिना कामवासना के, क्योंकि उसकी ऊर्जा सुरक्षित रखी रह जाएगी। लेकिन कामवासना के बिना जाति मर जाएगी।

यह पहला भेद है. भोजन की आवश्यकता होती है तुम्हारे लिए, कामवासना की आवश्यकता होती है दूसरों के लिए। कामवासना की जरूरत है भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए। तुम तो आ ही चुके हो, इसलिए कोई समस्या नहीं। तुम्हारे आने के लिए तुम्हारे माता —पिता को जरूरत थी कामवासना की। यदि वे ब्रह्मचारी रहे होते, तो तुम यहां नहीं होते, लेकिन वे तो जी लिए होते हैं, उनके लिए यह कोई समस्या नहीं रही होती। वे तो ज्यादा बेहतर ढंग से ही जी लिए होते, क्योंकि तुमने बना दी उनके लिए बहुत सारी तकलीफ।

इसलिए प्रकृति ने तुम्हें कामवासना के लिए इतना गहरा सम्मोहन दिया है, वरना मनुष्यता तो तिरोहित हो जाएगी। प्रकृति ने तुम्हें कामवासना के प्रति पूरी तरह सम्मोहित कर दिया है —वह तुम्हें धक्के देती है। तुम जाल से बच निकलने की कोशिश करते हो, और तुम जाल में फंसा हुआ अनुभव करते हो। जो कुछ तुम करते, जहां कहीं भी तुम जाते, कामवासना तुम्हारा पीछा करती है। प्रकृति तुम्हें निकलने नहीं दे सकती। वरना कामवासना स्वयं में इतनी असुंदर क्रिया है कि यदि तुम्हें स्वतंत्रता दे दी जाए, तब मैं नहीं समझता कि कोई चुनेगा उसे। वह जबरदस्ती लादी हुई होती है।

क्या तुमने कभी स्वयं के संभोग करने के बारे में सोचा है? —कितनी असुंदर लगती है यह बात! इसीलिए लोग स्वयं को छिपा लेते हैं, जब वे संभोग करते हैं। वे एकांत चाहते हैं, ताकि कोई देखे नहीं उनकी तरफ। लेकिन जरा सोचो, स्वयं की कल्पना करो संभोग करते हुए। सारी बात बेतुकी, मूढ़ता भरी मालूम पड़ती है। क्या कर रहे होते हो तुम? यदि तुम्हारे भीतर उसे करने का कोई सम्मोहन नहीं होता तो कोई न करता वैसा। लेकिन तुम्हें प्रकृति ऐसा नहीं करने दे सकती, इसलिए प्रकृति ने इसके लिए तुम्हें एक गहन सम्मोहन दे दिया है। यह रासायनिक होता है, यह हार्मोनल होता है। खून की धारा में खास हार्मोन्स बह रहे हैं, जो तुम्हें मजबूर कर देते हैं।

अब जीवशास्त्री कहते हैं कि यदि वे हार्मोन्स तुममें से निकाले जा सकें, तो कामवासना तिरोहित हो जाएगी। तुम्हें उन हार्मोन्स के इंजेक्यान दिए जा सकते हैं और काम—आकांक्षा बहुत शक्तिशाली हो जाती है। सत्तर या अस्सी वर्ष के वृद्ध व्यक्ति में भी, जिसका कि शरीर अब कामवासना में उतरने के योग्य भी नहीं रहा होता, हार्मोन्स के इंजेक्यान दिए जा सकते हैं और वह किसी मूढ़ युवा व्यक्ति की भांति व्यवहार करना शुरू कर देगा। वह पीछे पड़ जाएगा स्त्रियों के। वह शायद होगा व्हीलचेयर में, लेकिन तो भी वह पीछे जाएगा स्त्रियों के। ऐसा नहीं है कि व्यक्ति पीछा कर रहा होता है। वह तो शरीर के हार्मोन्स का रासायनिक—तंत्र ही वैसा कर रहा होता है।

एक बच्चा उत्पन्न होता है, हामोंन्स तैयार नहीं होते, वे समय लेंगे तैयार होने में। करीब चौदहवें वर्ष में वह कामवासना का आवेग पाने में सक्षम हो जाएगा। उस समय तक कोई समस्या नहीं। सेक्स— हार्मोन्स परिपक्य हो रहे होते हैं; ग्रंथिया तैयार हो रही होती हैं। अकस्मात चौदहवें वर्ष में फूट पड़ती हैं और बच्चा पगला जाता है। वह नहीं समझ सकता कि क्या हो रहा है!

चौदहवें और अठारहवें के बीच की आयु सबसे ज्यादा नाजुक होती है। बच्चा समझ नहीं सकता कि क्या हो रहा है? किसी चीज ने उस पर कब्जा कर लिया होता है। वह एक आधिपत्य होता है। प्रकृति ने अधिकार जमा लिया होता है। अब तुम तैयार होते हो; अब शरीर तैयार होता है, अब प्रकृति तुम्हें बाध्य करती है प्रजनन करने को। कल्पनाओं की लहरें उठ खड़ी होतीं, स्वप्न होते, तुम बच नहीं सकते। जहां कहीं तुम देखते, यदि तुम पुरुष हो तो तुम केवल स्त्री को देख सकते हो, यदि तुम स्त्री होते हो, तो केवल पुरुष को देख सकते हो। यह एक तरह का पागलपन होता है। निस्संदेह, प्रकृति को निर्मित करना पड़ता है इसे, वरना कोई प्रजनन ही न होगा।

तुम्हारा व्यक्तिगत जीवन दाव पर नहीं लगता है यदि तुम ब्रह्मचारी हो जाते हो। नहीं, कोई चीज दाव पर नहीं लगती। इसके विपरीत, तुम ज्यादा गहन रूप से जीयोगे, ज्यादा आसानी से। क्योंकि ऊर्जा संरक्षित होगी।

इसलिए पूरब के लोगों ने इसकी खोज की : उन्होंने खोज लिया कि कामवासना मृत्यु ज्यादा जल्दी ले आती है। इसलिए वे लोग जो ज्यादा दिन जीना चाहते थे, उनके अपने कारणों से, उन्होंने कामवासना को बिलकुल ही गिरा दिया। उदाहरण के लिए, हठयोगी जो ज्यादा जीना चाहते हैं, क्योंकि उनके पास बड़ी धीमी गति से चलने वाली विधियां होती हैं, बैलगाड़ी की रफ्तार की विधियां। उन्हें पूरा करने के लिए उनको बहुत लंबा समय चाहिए, उन्हें लंबा समय चाहिए उनके योग को पूरा करने के लिए। उन्होंने कामवासना को गिरा दिया पूरी तरह से। और कैसे उन्होंने गिरा दिया उसे? उन्होंने निर्मित की विशेष मुद्राएं जो शरीर के हार्मोन्स के प्रवाह को बदल देती हैं। उन्होंने निर्मित किए विशेष शारीरिक व्यायाम जिसमें वीर्य फिर से रक्त में मिल जाता है। उन्होंने बड़ी अदभुत बातें की शरीर के विषय में; विमुक्त हुआ वीर्य भी फिर से समाविष्ट किया जा सकता था शरीर में।

उन्होंने बहुत सारी विधियां निर्मित कीं काम—ऊर्जा को आत्मसात करने की, क्योंकि काम—ऊर्जा जीवन—ऊर्जा होती है, बच्चा जन्मता है इसके कारण। यदि तुम ऊर्जा को वापस अपने शरीर में समाविष्ट कर सकते हो, तो तुम बहुत ज्यादा सक्षम हो जाओगे। तुम ज्यादा देर जी सकते हो। वस्तुत: वृद्धावस्था एकदम गिरायी ही जा सकती है। तुम बिलकुल अंतिम समय तक युवा रह सकते हो।

भेद अस्तित्व रखते हैं। भोजन एक व्यक्तिगत आवश्यकता है। यदि तुम इसे बंद करोगे तो तुम मरोगे। कामवासना कोई व्यक्तिगत जरूरत नहीं है, यह एक आधिपत्य है। यदि तुम रोक दो तो तुम इस कारण बहुत कुछ पाओगे। लेकिन रोकना तीन प्रकार का हो सकता है तुम दमन कर सकते हो इच्छा का; उससे मदद न मिलेगी—तुम्हारी काम—ऊर्जा विकृत हो जाएगी। इसलिए मैं कहता हूं कि विकृत हो जाने से स्वाभाविक होना बेहतर है। जैन मुनि, बौद्ध भिक्षु, ईसाई, कैथेलिक साधु, जो सब जीए होते हैं मात्र—पुरुष —समाजों में, पुरुष —समूहों में, सौ में से नब्बे प्रतिशत या तो हस्तमैथुन करने वाले होते हैं या फिर होमोसेक्यूअल, समलैंगिक। ऐसा होगा ही, क्योंकि कहां जाएगी ऊर्जा? और वे केवल दमन करते रहे हैं, उन्होंने हार्मोन्स के तंत्र को, शरीर के रसायन को रूपांतरित नहीं किया। वे नहीं जानते क्या करना है इसलिए वे केवल दमन ही करते हैं। दमन बन जाता है एक विकृति। मैं पहले प्रकार की विधियों के विरोध में हूं स्वाभाविक होना बेहतर है विकृत हो जाने से, क्योंकि विकार—ग्रसित व्यक्ति गिर रहा होता है स्वाभाविक से नीचे, वह पार नहीं जा रहा होता।

फिर एक दूसरा प्रकार है जिसने शरीर के हार्मोन्स के तरीके को बदलने का प्रयत्न किया है हठयोग, योग आसन। और शरीर के रसायन को बदलने के बहुत ढंग होते हैं। दूसरी विधियां बेहतर, हैं पहले से, लेकिन फिर भी मैं उनके पक्ष में नहीं हूं। क्यों? क्योंकि यदि तुम बदलते हो अपने शरीर को, तो तुम नहीं बदलते हो। एक नपुंसक व्यक्ति ब्रह्मचारी होता है। लेकिन यह बात व्यर्थ है। हठयोग की विधियों द्वारा तुम नपुंसक हो जाओगे, हार्मोन्स वहां कार्य न कर रहे होंगे, या ग्रंथियाँ बिगड़ जाएंगी और वे क्रियान्वित न हो सकेंगी, लेकिन यह कोई आध्यात्मिक विकास नहीं। तुमने एक ढांचे को, तंत्र को नष्ट कर दिया होता है, तुम उसके पार नहीं गए होते हो।

और यह बात भी जीवन की दूसरे प्रकार की समस्याओं की ओर ले जा सकती है। तुम स्त्री से भयभीत होओगे, क्योंकि जिस क्षण वह निकट आती है तुम्हारा बदला हुआ रसायन फिर से धारण कर लेगा पुराना ढांचा, एक प्रवाह। स्त्री की खास ऊर्जा होती है, स्त्री—ऊर्जा चुंबकीय होती है, और बदल देती है तुम्हारे शरीर की ऊर्जा को। इसलिए हठयोगी तो भयभीत हो गए स्त्रियों से। वे भाग गए हिमालय की तरफ और गुफाओं की तरफ। भय अच्छी चीज नहीं है। और यदि तुम भयभीत होते हो, तो तुम उसमें जा पड़ते हो। यह ऐसा है जैसे—एक आदमी अंधा हो जाता ताकि वह देख नहीं सके स्त्री को, लेकिन कोई ज्यादा मदद न मिलेगी उस बात से।

तीसरे प्रकार की विधि है? ज्यादा सजग हो जाना। शरीर को मत बदलना—जैसा कि वह है, अच्छा है वह। उसे स्वाभाविक बना रहने दो, तुम ज्यादा सजग हो जाओ। जो कुछ घटता है मन में और शरीर में तुम सजग होओ। स्थूल और सूक्ष्म पर्तों पर ज्यादा से ज्यादा होशपूर्ण हो जाओ। बस होशपूर्ण होने से, साक्षी होने से, तुम और ऊंचे और ऊंचे और ऊंचे उठते जाते हो —और एक क्षण आता है, जब मात्र तुम्हारी ऊंचाई के कारण, मात्र तुम्हारी शिखर चेतना के कारण, घाटी बनी रहती है वहा, लेकिन तुम अब नहीं रहते घाटी के हिस्से, तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। शरीर कामवासनामय बना रहता है, लेकिन तुम वहा नहीं रहते उसका सहयोग देने को। शरीर तो बिलकुल स्वाभाविक बना रहता है, लेकिन तुम उसके पार जा चुके होते हो। वह कार्य नहीं कर सकता है बिना तुम्हारे सहयोग के। ऐसा घटा बुद्ध को।

इस शब्द ‘बुद्ध’ का अर्थ है—वह व्यक्ति जो कि जागा हुआ है। यह केवल गौतम बुद्ध से संबंध नहीं रखता है। बुद्ध कोई व्यक्तिगत नाम नहीं है, वह चेतना की गुणवत्ता है। क्राइस्ट बुद्ध हैं, कृष्ण बुद्ध हैं, और हजारों बुद्धों का अस्तित्व रहा है। यह चेतना की एक गुणवत्ता है—और यह गुणवत्ता क्या है?—जागरूकता। ज्यादा ऊंची, और ज्यादा ऊंची जाती है जागरूकता की लौ और एक क्षण आ जाता है जब शरीर मौजूद होता है—पूरी तरह क्रियान्वित और स्वाभाविक, संवेदनशील, सवेगवान, जीवंत, लेकिन तुम्हारा सहयोग वहां नहीं होता। तुम अब साक्षी होते हो, कर्ता नहीं—कामवासना तिरोहित हो जाती है।

भोजन तिरोहित नहीं हो जाएगा, बुद्ध को भी आवश्यकता होगी भोजन की, क्योंकि यह एक निजी आवश्यकता होती है, कोई सामाजिक आवश्यकता, कोई जातिगत आवश्यकता नहीं। निद्रा तिरोहित नहीं होगी, वह एक व्यक्तिगत आवश्यकता है। वह सब जो व्यक्तिगत है, मौजूद रहेगा, वह सब जो जातिगत है, तिरोहित हो जाएगा—और इस तिरोभाव का एक अपना ही सौंदर्य होता है।

यदि तुम देखो किसी हठयोगी की ओर तो तुम देखोगे एक अपंग प्राणी को। उसके चेहरे से आ रही किसी आभा को नहीं देख सकते हो तुम। उसने नष्ट कर दिया है अपना रसायन, वह सुंदर नहीं है। यदि तुम देखते हो दमन से भरे मुनि को, वह तो और भी असुंदर होता है क्योंकि उसकी आंखों से और चेहरे से तुम देखोगे सब प्रकार की कामुकता चारों ओर गिरते हुए। उसके आस—पास कामवासनामय वातावरण होगा—असुंदर और गंदा। स्वाभाविक आदमी बेहतर होता है, कम से कम वह स्वाभाविक तो होता है। लेकिन विकृत आदमी बीमार होता है और वह बीमारी लिए रहता है अपने चारों ओर।

मैं तीसरे के पक्ष में हूं, लेकिन इस बीच तुम स्वाभाविक बने रहो। दमन करने की कोई जरूरत नहीं, शरीर को अपंग करने वाली किन्हीं विधियों को आजमाने की जरूरत नहीं—कोई जरूरत नहीं। स्वाभाविक हो जाओ और अपने बुद्धत्व के लिए साधना जारी रखो। स्वाभाविक हो जाओ और ज्यादा से ज्यादा सचेत और सजग हो जाओ। एक क्षण आ जाएगा जब कामवासना बिलकुल तिरोहित हो जाती है। जब वह अपने से तिरोहित हो जाती है, वह अपने पीछे बड़ी आभा, बड़ा प्रसाद, बड़ा सौंदर्य छोड़ जाती है। तिरोहित होने के लिए उसे विवश मत करना, वरना वह पीछे सारे घाव छोड़ जाएगी और तुम सदा उन्हीं घावों के साथ रहते रहोगे। उसे स्वयं ही जाने दो। केवल द्रष्टा बने रहो और जल्दी मत करो। स्वाभाविक बात अच्छी होती है : तुम स्वाभाविक बने रहो। जब तक कि तुम स्वभाव के पार नहीं चले जाते, लड़ना मत प्रकृति के साथ। उच्चतर को आते रहने देना।

और यही है मेरा दृष्टिकोण हर चीज के प्रति : निम्नतर के साथ संघर्ष मत करो, उच्चतर के लिए प्रार्थना करो। उच्चतर के लिए कार्य करो और निम्नतर को अनछुआ ही छोड़ दो। यदि तुम निम्न के साथ लड़ना शुरू कर देते हो तो तुम्हें वहीं रहना होगा निम्न के साथ; तुम वहां से सरक नहीं सकते। स्वाभाविक हो जाओ ताकि प्रकृति तुम्हें अड़चन न दे और तुम अलग छोड़ दिए जाओ ज्यादा ऊंचे उठने को। उच्चतर के लिए प्रार्थना करना, उच्चतर के लिए ध्यान करना, उच्चतर के लिए प्रयत्न करना और प्रकृति को उसी तरह छोड़ देना जैसी कि वह होती है। जल्दी ही पराप्रकृति उदित होगी। प्रकृति में से आती पराप्रकृति, और फिर वहां होता है प्रसाद, फिर वहा होता है सौंदर्य, तब वहा होती है अपार धन्यता।

तुम्हारे लिए अच्छा होगा एक और दूसरे आयाम से इसे समझना कामवासना संबंध रखती है शरीर से, प्रेम संबंधित होता है सूक्ष्म शरीर से, प्रार्थना संबंध रखती है केंद्र से, एकदम तुम्हारी सत्ता के मूल से ही। कामवासना का संबंध होता है परिधि से, प्रार्थना जुड़ी होती है केंद्र से, और केंद्र तथा परिधि के बीच है प्रेम। बुद्ध प्रार्थनामयी करुणा हैं, वे पहुंच चुके केंद्र तक। इससे पहले कि तुम केंद्र तक पहुंचो, जब तुम परिधि और केंद्र के बीच गति कर रहे हो, तब तुम प्रेमपूर्ण हो —बहुत ज्यादा गहरे रूप से प्रेममय। परिधि पर तुम कामपूर्ण रहोगे, तुम कामवासना युक्त रहोगे। और यह वही ऊर्जा होती है। परिधि पर कामवासना एक जरूरत होती है, परिधि और केंद्र के बीच प्रेम होता है एक जरूरत। ऊर्जा वही होती है लेकिन तुम बदल चुके होते हो, अत: आवश्यकता बदलती है। केंद्र पर प्रार्थना, करुणा है आवश्यकता, ऊर्जा वही होती है। तो बुद्ध को भूख नहीं कामवासना की, वही ऊर्जा करुणा बन चुकी है। प्रेम से भरा व्यक्ति कामवासना का भूखा नहीं होता है, वही ऊर्जा प्रेम बन चुकी होती है। इसलिए आवश्यकताओं के विषय को समझ लेना है।

आवश्यकता अस्तित्व रखती है शरीर में, लेकिन यदि तुम सरकते हो शरीर से ज्यादा गहरे में, तो आवश्यकता बदल जाती है। आवश्यकता तुम्हारा ही पीछा करती है। यदि तुम बहुत ज्यादा भरे हुए होते हो कामयुक्त प्रतिछवियों से, कल्पनाओं से, तो यह बात केवल यही दर्शाती है कि तुम जीते हो परिधि पर। सरको वहां से। तुम परिधि पर ही कार्य किए जाते हो! लाखों जन्मों से तुम वही कार्य कर रहे हो और आवश्यकता पूरी नहीं हुई है। वह पूरी हो नहीं सकती है। कोई जरूरत नहीं हो सकती है —इस बात को याद रखना। तुम खाते हो, आठ घंटे, छ: घंटे बाद तुम्हें फिर भूख लगती है। कोई जरूरत पूरी नहीं हो सकती है। वह तो एक अस्थायी परिपूर्ति होती है। तुम संभोग करते हो, कुछ घंटों बाद तुम फिर तैयार हो जाते हो। आवश्यकताएं पूरी हो नहीं सकतीं, क्योंकि वे एक चक्र में घूमती हैं।

तुम्हारी आवश्यकताओं से ज्यादा ऊंचे सरको। मैं नहीं कह रहा कि आवश्यकताओं से लड़ो; आने दो उन्हें; आनंदित होओ उनसे जब कि तुम वहां हो। लड़ना क्यों?—आनंद मनाओ उसका जब तुम उसमें हो। यदि तुम प्रेम करते हो, तुम कामवासना में उतरते हो, तो आनंद मनाना उसका। अपराधी मत अनुभव करना, और पापी मत अनुभव करना। ठीक से पाप कर लेना। यदि तुम पाप कर ही रहे हो तो कम से कम कुशल तो होओ।

मुझे याद आ गई लूथर की। पेक्का फॉर्टीलर नामक एक शिष्य ने पूछा लूथर से, ‘क्या करूं? मैं पाप करना बंद नहीं कर सकता।’ लूथर ने कहा, ‘ज्यादा शक्तिशाली पाप करो।’ बिलकुल ठीक ही है बात। मैंने लूथर के विचारों के साथ कभी कोई बहुत ज्यादा सहानुभूति अनुभव नहीं की, लेकिन इस बारे में बिलकुल उसके साथ हूं अधिक सशक्त, अधिक समर्थ पाप करो। यदि तुम रुक नहीं सकते तो फिर क्यों करनी चिंता? अधिक सशक्त पाप करो, क्योंकि चरम पर रूपांतरण संभव होता है। कुनकुने लोग कभी रूपांतरित नहीं होते।

कुनकुने मत होना। मूढ़ता केवल यही है जिसे तुम किए चले जा सकते हो। क्योंकि जब तुम सौ प्रतिशत उबल रहे होते हो केवल तभी वाष्पीकरण घटता है। कुनकुने होते हो, तो तुम बने रह सकते हो कुनकुने बहुत—बहुत जन्मों तक और कुछ नहीं घटेगा। चरम की ओर बढ़ जाना। यदि तुम कामवासना में उतरते हो तो उसमें सरक जाना समग्र रूप से। कोई संघर्ष मत बना लेना, कोई चीज रोक मत लेना और इसी बीच कार्य किए जाना। कामवासना को वहां अपने से मौजूद रहने दो। तुम काम करते जाओ जागरूकता पर। और ज्यादा—ज्यादा ध्यान करो और धीरे — धीरे तुम जानोगे कि वही ऊर्जा बदल रही है, रूपांतरित हो रही है।

जब तुम बदलते हो, तो ऊर्जा बदलती है, क्योंकि ऊर्जा का संबंध तुमसे है। जब तुम्हारा दृष्टिकोण बदलता है, तो ऊर्जा को बदलना पड़ता है उसका तल। जब तुम्हारी अंतस—सत्ता का धरातल बदलता है, तब ऊर्जा को तुम्हारा अनुसरण करना पड़ता है। वह तुम्हारी ऊर्जा है।

जब तुम केंद्र की ओर बढ़ते हो, धीरे — धीरे तुम अचानक जान लोगे कि कामवासना तिरोहित हो रही है और प्रेम शक्ति पा रहा है। तुम और ज्यादा प्रेममय हो रहे हो। अब प्रेम कोई कामुकता नहीं। प्रेम अग्नि की भांति नहीं होता, वह बहुत शीतल प्रकाश होता है। कामवासना ज्वलंत होती है, वह आग होती है। वह तपे हुए सूर्य की भांति होती है। प्रेम शीतल चंद्रमा की भांति होता है; वह तुम्हें प्रकाश देता है, लेकिन बहुत शीतल, शात। एक शाति घेर लेती है प्रेम को। फिर धीरे — धीरे कामवासना हो जाएगी दूर, और दूर, और दूर और वही ऊर्जा सरक रही होगी प्रेम में। तुम भूखा अनुभव नहीं करोगे। बल्कि, इसके विपरीत तुम ज्यादा परितृप्त अनुभव करोगे, क्योंकि प्रेम ज्यादा परितृप्त करता है। वह कामवासना का उच्चतर रूप है, और हर बार जब तुम ज्यादा ऊंचे जाते हो, तुम ज्यादा परितृप्त अनुभव करते हो क्योंकि उच्चतर रूप ज्यादा सूक्ष्म ऊर्जाएं हैं। वे स्थूल नहीं होतीं, वे ज्यादा सूक्ष्म होती हैं। वे परिपूर्ति करती हैं, वे तुम्हें और ज्यादा देती हैं। तो उठते जाना जागरूकता में। एक दिन आता है, जब अचानक तुम केंद्र में बद्धमूल होते हो —केंद्रस्थ। अब प्रेम भी नए आयाम धारण कर लेता है; वह बन जाता है करुणा।

भेद क्या होता है? कामवासना में तुम संबंधित होते हो स्वयं के साथ, दूसरे से बिलकुल ही संबंधित नहीं होते। तुम तो बस उपयोग करते हो दूसरे का। इसीलिए कामवासना से जुड़े साथी निरंतर लड़ते हैं, क्योंकि एक अंत—अनुभूति वहा होती है कि दूसरा मेरा इस्तेमाल कर रहा है। कामवासनायुक्त साथी आंतरिक समस्वरता के बिंदु तक नहीं आ सकते। उन्हें फिर—फिर लड़ना होगा, क्योंकि स्त्री सोचती है कि पुरुष उसका उपयोग कर रहा है—और ठीक सोचती है वह। इसमें कुछ गलत नहीं। और पुरुष सोचता है कि स्त्री उसका उपयोग कर रही है।

और जब कभी कोई तुम्हारा उपयोग करता है साधन की भांति, तो तुम्हें चोट लगती है। यह बात शोषण जैसी मालूम पड़ती है। पुरुष संबंध रखता है उसकी अपनी कामवासना से, स्त्री संबंध रखती है उसकी अपनी कामवासना से—दोनों में से कोई गतिमान नहीं हो रहा होता दूसरे की तरफ! गति वहा होती ही नहीं। वे दो स्वार्थी व्यक्ति होते हैं? स्वकेंद्रित, एक—दूसरे का शोषण करनेवाले। यदि वे बात करते हैं प्रेम के बारे में और उसके गीत गाते हैं और काव्यात्मक होते हैं, तो वह बात होती है मात्र एक विमोह, विश्वास पैदा करने की कोशिश, एक प्रलोभन—लेकिन उन्हें दूसरे से कुछ लेना—देना नहीं होता है। एक बार जब पुरुष ने उपयोग कर लिया होता है स्त्री का, वह करवट बदल लेता है और सो जाता है; खत्म हो जाती है बात—चीज इस्तेमाल कर ली गई और फेंक दी गई।

अमरीका में उन्होंने बनायी हैं प्लास्टिक की स्त्रियां और प्लास्टिक के पुरुष। वे खूब संपूर्णता से काम करते हैं। प्लास्टिक की स्त्री, यदि तुम छुओ उसके स्तनों को, तो स्तन जीवंत हो जाते हैं, वे उत्तप्त हो जाते हैं। तुम प्रेम कर सकते हो प्लास्टिक की स्त्री से और वह वैसा ही तृप्तिदायी होता है, जैसा किसी स्त्री का—कुछ ज्यादा ही, क्योंकि कोई लड़ाई नहीं, कोई संघर्ष नहीं। समाप्ति पर तुम फेंक सकते हो स्त्री को और सो सकते हो। यही कुछ है जो लोग कर रहे हैं। चाहे स्त्री प्लास्टिक की होती है या वास्तविक होती है इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है। और स्त्री उपयोग किए चली जाती है पुरुष का!

जब कभी तुम दूसरे का उपयोग करते हो साधन की भांति तो वह बात अनैतिक होती है। दूसरा स्वयं में साध्य होता है। लेकिन दूसरा स्वयं में साध्य बनता है तुम्हारे अस्तित्व की दूसरी अवस्था में ही—जब तुम प्रेम करते हो। तब तुम प्रेम करते दूसरे के लिए। तब तुम उपयोग नहीं कर रहे होते। तब दूसरा महत्वपूर्ण होता है, अर्थवान। स्त्री हो कि पुरुष, दूसरा स्वयं में साध्य होता है। तुम अनुगृहीत होते हो। प्रेम में कोई शोषण संभव नहीं होता है, तुम मदद करते हो दूसरे की। वह कोई सौदा नहीं होता है। तुम आनंद मना रहे होते हो मदद देने में, तुम बांटने से आनंदित होते हो और तुम अनुगृहीत होते हो कि दूसरा तुम्हें बांटने का अवसर देता है।

प्रेम सूक्ष्म होता है। कामवासना वाला स्थूल क्षेत्र छूट जाता है। दूसरा साध्य बन जाता है। लेकिन फिर भी अभी आवश्यकता मौजूद होती है, एक सूक्ष्म आवश्यकता। क्योंकि जब तुम प्रेम करते हो किसी व्यक्ति को तो एक सूक्ष्म अपेक्षा, चाहे अचेतन तौर पर हो, छिपी रहती है कहीं न कहीं कि दूसरा भी तुम्हें प्रेम करे। यह बात छाया की भांति पीछे चलती है कि दूसरा भी तुम्हें प्रेम करे। अभी भी प्रेम पाने की आवश्यकता मौजूद होती है। यह कामवासना से बेहतर होती है, लेकिन फिर भी एक अपेक्षा तो होती है। और वही अपेक्षा एक कर्कश सुर होगा प्रेम में। वह अभी परिशुद्ध न हुआ।

करुणा प्रेम की उच्चतम गुणवत्ता होती है, उच्चतम शुद्धता। अब अपेक्षा भी नहीं रहती वहा। दूसरा साधन नहीं होता, दूसरा साध्य होता है। और अब तुम किसी चीज की अपेक्षा नहीं करते। तुम तो बस दे देते जो कुछ तुम दे सकते हो। अपेक्षा पूरी तरह जा चुकी होती है। बुद्ध संपूर्ण दाता हैं। वे दिए चले जाते हैं, वे आनंदित होते हैं देने से। वह सहज बाटना हुआ। अब वह बन चुकी है करुणा—वही ऊर्जा और वही आवश्यकता—अंतस सत्ता के विभिन्न धरातलों पर। इसलिए कामवासना तिरोहित हो जाती है बुद्ध में, क्योंकि वह पुन: प्रकट होती है करुणा के रूप में।

चौथा प्रश्न :

 

आप हा और फ्रायड के जीवन के बारे में बोले और मैने सुना है कि जैनोव ने उसकी अपनी विधियों को नहीं आजमाया है और वह जान पड़ता है बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी। क्या आप उसकी विधियों पर चर्चा कर सकते हैं और यह कि उसने स्वयं को स्वस्थ किया भी है या नहीं?

 

ही है समस्या पश्चिम के सभी विचारकों की—उन्होंने अपनी विधियों को नहीं आजमाया है। वस्तुत:, वे उन विधियों से अपनी आध्यात्मिक खोज के किसी अंश के रूप में नहीं टकराए हैं। अपने रोगियों पर कार्य करते हुए वे जा मिले उन विधियों से।

फ्रायड जा टकराया मनोविश्लेषण से, और मैं कहता हूं जा टकराया, क्योंकि वह बात सांयोगिक थी। वह तो बस टटोल रहा था अंधकार में। वह कार्य कर रहा था रोगियों पर —वह एक डाक्टर था मदद करने की कोशिश करता था। धीरे — धीरे वह जान गया कि ऐसी बहुत—सी बीमारियां हैं जो शारीरिक नहीं होतीं, तो शारीरिक रूप से तुम उनकी कितनी ही चिकित्सा किए जाओ और कुछ होता नहीं। फिर वह रुचि लेने लगा सम्मोहन में, क्योंकि कुछ किया जा सकता था सम्मोहन के द्वारा। सम्मोहन के द्वारा उसने काम करना शुरू कर दिया। अपने शिक्षक के साथ काम करते हुए और लोगों की मदद करते हुए वह सम्मोहनविद बना रहा बहुत वर्षों तक। फिर, धीरे — धीरे वह सजग हो गया इस बारे में कि वस्तुत: सम्मोहन ने मदद नहीं की। कोई जरूरत न थी कि व्यक्ति को सम्मोहित किया जाए। यदि कोई व्यक्ति पूरी तरह होश में भी हो, उसे बतलाने लगे जो कुछ भी आता हो उसके मन में, जो कुछ भी बहता हो अचेतन से चेतन तक, यदि वह उसे बताता ही चला जाए तो यह बात एक मुक्ति देगी। वह कोशिश करने लगा इस बात के लिए। इस तरह पैदा हुआ मनोविश्लेषण : विचारों का मुक्त साहचर्य। उसने स्वयं के विषय में किसी बात के लिए कभी कोई कोशिश न की थी। वह वही आदमी बना रहा, उसने कोई परिपक्वता नहीं पायी।

ऐसा ही घटा दूसरों के साथ, और जैनोव के साथ भी। वह काम करता रहा था रोगियों पर और जा टकराया इस तथ्य से कि यदि रोगी जा सके पीछे की ओर जन्म के आघात तक ही, जब कि बच्चा पैदा होता है और वह चीख कर रो पड़ता है पहली बार—वह होती है आदिम चीख—यदि कोई व्यक्ति जा सके पीछे की ओर बिलकुल उसी बिंदु तक जब कि वह बाहर आता है गर्भ से और पहली सांस लेता है तो बहुत सारी चीजों का बिलकुल निराकरण हो जाता है, बहुत सारी समस्याएं तिरोहित हो जाती हैं। मात्र उन्हें फिर से जीने द्वारा, वे तिरोहित हो जाती हैं। उसने वह बात आजमायी नहीं स्वयं पर। वह स्वास्थ्य को उपलब्ध व्यक्ति नहीं है।

फ्रायड बहुत महत्वाकांक्षी था। उसने स्वयं को एक पैगंबर जाना जो कि प्रारंभ कर रहा था दुनिया के एक बड़े आंदोलन का। और वह ईर्ष्यालु था, जैसे कि राजनेता ईर्ष्यालु होते हैं सदा, षड्यंत्रकारी। वह जासूसी करता अपने शिष्यों की और सहयोगियों की, निरंतर भयभीत होता कि कोई उसके आंदोलन को नष्ट करने ही वाला है, आंदोलन पर कब्जा करने ही वाला है, नेता होने वाला है; फ्रायड सदा भयभीत रहता था।

और यही बात जुड़ी थी जुग के साथ। यदि तुम झांकते हो का की आंखों में —हा की एक तस्वीर ले आओ, वह अध्ययन करने योग्य है। उसके चश्मे के पीछे बहुत चालाक आंखें हैं, वह चेहरा ही अहंकारी है।

जैनोव बहुत महत्वाकांक्षी है और उसकी नयी किताबें साफ दिखा देती हैं उसकी महत्वाकांक्षा को। संयोग है कि वह जा टकराया है एक विधि से जो कोई पूरी चीज नहीं है, मात्र एक अंश है, तो भी अब वह सोचता है कि उसने एक पूरा सत्य खोज लिया है। अब वह सोचता है. यह प्राइमल— थैरेपी ही है वह सब कुछ जिसकी जरूरत है, कि यह प्रत्येक को ले जाएगी उस परम निर्वाण तक। यह मूढ़ता है। यह है महत्वाकांक्षा।

वे सारे पश्चिमी विचारक जो वहां प्रभावशाली बने हैं, उनके बारे में याद रखने की दूसरी बात यह है कि वे काम करते रहे हैं बीमार व्यक्तियों के साथ, रोगियों के साथ। उन्हें स्वस्थ लोग कहीं नहीं मिले। तो जो भी हैं उनकी खोजें, वे आधारित हैं रोग — अध्ययन पर। एक स्वस्थ व्यक्ति नितांत अलग होता है अस्वस्थ व्यक्ति से। फ्रायड का कभी सामना नहीं हुआ किसी स्वस्थ व्यक्ति से। इसका प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि एक स्वस्थ व्यक्ति कभी नहीं जाता वैद्य के पास या डाक्टर के पास। क्यों जाएगा कोई न: यदि तुम मानसिक रूप से बीमार नहीं हो, तो क्यों जाओगे तुम किसी मनोचिकित्सक के यहां? इसकी कोई जरूरत नहीं होती। तुम जाते हो केवल इसलिए क्योंकि तुम बीमार होते हो। तो केवल बीमार मनुष्य जाते हैं इन लोगों के पास—फ्रायड, का, कि एडलर, कि जैनोव। उन बीमार लोगों पर वे आधारित करते हैं अपने दर्शन —सिद्धात को।

यह बात होगी ही असंतुलित, और केवल असंतुलित ही नहीं, बल्कि एक खास ढंग से बहुत खतरनाक भी, क्योंकि वे बीमार प्राणी मानव —जाति के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं हैं। वे बीमार हैं। यह तो ऐसा ही है जैसे तुम्हें केवल अंधे आदमी मिलते हैं क्योंकि तुम आंखों के डाक्टर हो, इसलिए केवल अंधे लोग आते हैं तुम्हारे पास और फिर तुम आदमी का विचार करते अंधे के रूप में ही। मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति आते हैं तुम्हारे पास। तब तुम मनुष्य का विचार करते मानसिक रोगी के रूप में। यह बात गलत होती है क्योंकि जब तक स्वस्थ व्यक्ति अस्तित्व नहीं रखते, रोग की संभावना होती है।

सारे पश्चिमी मनोविज्ञान आधारित हैं रोग —विज्ञान पर, और वास्तविक मनोविज्ञान की जरूरत है जो कि आधारित होता है स्वस्थ व्यक्ति पर। संपूर्ण मनोवीशान को आधारित होना चाहिए बुद्ध जैसे व्यक्तियों पर, मात्र सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों पर नहीं।

तो तीन प्रकार के मनोविज्ञान होते हैं। एक, रोगात्मक, सारे पश्चिमी मनोविज्ञान रोगात्मक होते हैं। केवल अभी — अभी इधर कुछ समग्रतावादी धारणाएं मजबूती पा रही हैं जो कि स्वस्थ व्यक्ति के बारे में सोचती हैं, लेकिन वे एकदम प्रारंभ पर ही हैं। पहले कदम भी नहीं उठाए गए हैं। दूसरे प्रकार के मनोविज्ञान हैं, जो सोचते हैं स्वस्थ व्यक्ति के विषय में, जो आधारित हैं स्वस्थ मन पर—वे हैं पूरब के मनोविज्ञान। बौद्ध धर्म बहुत ज्यादा गहरे उतरने वाला मनोविज्ञान है; पतंजलि का अपना मनोविज्ञान है। वे आधारित हैं स्वस्थ व्यक्तियों पर; स्वस्थ व्यक्ति को स्वस्थ होने में मदद देने के लिए हैं; स्वस्थ व्यक्ति को ज्यादा स्वास्थ्य पाने में मदद देने के लिए हैं। रोगात्मक मनोविज्ञान बीमार व्यक्तियों की मदद करते हैं स्वस्थ होने में।

फिर है एक तीसरा प्रकार। जिसे गुरजिएफ परम मनोविज्ञान कहा करता था, वह अभी भी अविकसित है। उस प्रकार को निर्भर करना पड़ता है बुद्धों पर। वह अभी विकसित नहीं हुआ है, क्योंकि कहां जाओगे बुद्ध का अध्ययन करने को, और कैसे करोगे बुद्ध का अध्ययन? और केवल एक बुद्ध से क्या होगा?

तुम्हें बहुतों का अध्ययन करना होगा। केवल तभी निष्कर्षों तक पहुंच सकते हो। लेकिन किसी दिन वह मनोविज्ञान घटेगा; उसे घटना होगा; उसे होना ही होगा क्योंकि वही तुम्हें दे सकता है मानवीय चेतना का समग्र बोध।

फ्रायड, का, जैनोव —वे सभी बीमार बने रहते हैं। उन्होंने अपनी बात खुद अपने पर कभी न आजमायी। अंधकार में ठोकर खाते हुए, अंधकार में टटोलते हुए, वे कुछ टुकड़ों तक पहुंच जाते हैं और फिर वे सोचते हैं कि वे टुकड़े संपूर्ण पद्धति हैं। जब कभी अंश का दावा किया जाता है संपूर्ण के रूप में, तो वह झूठ बन जाता है। अंश तो अंश ही होता है।

पूरब के मनोविज्ञान स्वस्थ व्यक्तियों के लिए हैं, तुम्हें ज्यादा संपूर्ण होने में मदद देने के लिए हैं। और मेरा प्रयास होगा तीसरे प्रकार के मनोविज्ञान पर कार्य करने का, बुद्धों का मनोविज्ञान, क्योंकि वह तुम्हें संपूर्ण मानवीय चेतना में एक परिपूर्ण प्रवेश दिलाएगा।

रोग — अध्ययनों पर आधारित मनोविज्ञान अच्छे होते हैं, वे मदद करते हैं बीमार लोगों की। लेकिन वह बात ध्येय कभी नहीं बन सकती। वह अच्छी होती है, मगर मात्र स्वस्थ हो जाना, ‘सामान्य’ हो जाना कोई ज्यादा बड़ी बात नहीं। मात्र सामान्य होना कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि हर कोई सामान्य है। बीमार होना बुरा है क्योंकि तुम पीड़ित होते हो। लेकिन सामान्य होना भी कोई ज्यादा अच्छा नहीं क्योंकि सामान्य व्यक्ति लाखों क्या से पीड़ा भोग रहे हैं। वस्तुत: सामान्य होने का केवल इतना ही अर्थ है कि समाज के साथ अनुकूलित हो जाना। समाज स्वयं तो शायद अस्वाभाविक ही होगा, सारा समाज शायद स्वय ही बीमार होगा। उसके साथ अनुकूलित होने का केवल यही अर्थ होता है कि तुम स्वाभाविक रूप से अस्वाभाविक हो, बस इतना ही।

उससे कुछ ज्यादा लाभ नहीं होता। तुम्हें सामाजिक सामान्यता के पार जाना पड़ता है। तुम्हें पार चले जाना होता है सामाजिक पागलपन के। केवल तभी, पहली बार तुम स्वस्थ होते हो।

पूरब के मनोविज्ञान : योग, झेन, सूफीवाद, सभी स्वस्थ व्यक्तियों की मदद करते हैं—ज्यादा स्वस्थ और विशुद्ध होने में। तीसरे प्रकार के मनोविज्ञान की जरूरत है, बहुत जल्दी जरूरत है, क्योंकि बिना उसके तुम्हारे पास कोई ध्येय, निश्चित अंत का कोई बोध नहीं है। उस पर कार्य करना होगा। गुरजिएफ ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की, लेकिन सफल न हो सका। समय परिपक्व न था। मैं फिर उसी के लिए कोशिश कर रहा हू। कठिन है उसमें सफल होना, लेकिन संभावना है, उसकी ओर प्रयत्न करते रहना है। यदि थोड़ा —सा और प्रकाश भी मानव के उस संपूर्ण, उस अंतिम, परम मनोविज्ञान पर डाला जाए, तो वह अच्छा है, बहुत सहायक है।

 

आज इतना ही।


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बिन बाती बिन तेल–(सूफी कथा) प्रवचन–10

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भक्त की पहचान: शिकायत-शून्य हृदय—(प्रवचन—दसवां)

 दिनांक 30 जून 1974(प्रातः),

श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

 एक बार मूसा ने भगवान से कहा, ‘मुझे आपके किसी भक्त को देखने की इच्छा है।’

इस पर एक आवाज आई कि फलां घाटी में चले जाओ, वहां तुम्हें वह मिलेगा

जो भगवान को प्यारा है, जो भगवान को प्रेम करता है और जो सत्पथ पर चलता है।

मूसा वहां गये और उन्होंने देखा कि वह आदमी तो चीथड़ों से लिपटा पड़ा है।

और तरहत्तरह के कीड़े-मकोड़े उसके शरीर पर रेंग रहे हैं।

मू्सा ने पूछा, ‘क्या मैं तुम्हारे लिये कुछ कर सकता हूं?’

उस आदमी ने कहा, ‘एक प्याला पानी ला दो, मैं बहुत प्यासा हूं।’

जब मूसा पानी लेकर वापस मुड़े तब उन्होंने देखा कि वह व्यक्ति मरा पड़ा है।

वे फिर गये कि उसके कफन के लिये कुछ कपड़े ले आएं,

लेकिन लौटे तब शेर उसके शरीर को खा चुका था। मू्सा बेहद दुखी हुए और चीख उठे,

‘मिट्टी से मनुष्य बनाने वाले हे सर्वशक्तिमान! हे सर्वज्ञ!

कोई स्वर्ग जाता है और कोई भयानक यातना झेलता है। कोई सुखी है और कोई दुखी है।

यही पहेली है, जो कोई समझ नहीं पाता।’

भगवान! हजारों वर्ष पूर्व मूसा ने जो प्रश्न पूछा था,

उसे ही हम आज फिर आपके सामने रख रहे हैं।

 

मूसा की कहानी समझने जैसी है। मूसा उन थोड़े से लोगों में एक हैं, जिन्होंने जीवन के परम रहस्य को गहराई से खोजा। और जो भी जीवन के रहस्य को खोजने चलेगा, उसके सामने यह सवाल उठने ही वाला है कि बनाने वाला एक, लेकिन कुछ कहां पहेली उलझ गई है कि कुछ दुखी हैं, कुछ सुखी हैं, कोई स्वर्ग में जीते हैं, कोई नर्क में। दोनों का बनाने वाला अगर एक है, अगर पिता एक है तो संतान इतने विभिन्न जीवन अनुभवों से कैसे गुजरती है? बनाने वाले ने सुख ही क्यों न बनाया? और बनाने वाला सिर्फ स्वर्ग ही बना सकता था, नर्क के बनाने की जरूरत क्या थी? परमात्मा अगर सच में दयालु है तो दुख नहीं होना चाहिये, कोई पीड़ा नहीं होनी चाहिये।

सभी धर्मों के सामने यह सवाल रहा है। संसार में दुख को देखकर लगता है कि परमात्मा हो नहीं सकता। और अगर परमात्मा पर भरोसा हो, तो दुख पहेली हो जाता है कि दुख क्यों है? बहुत तरह से इस पहेली को सुलझाने की कोशिश की गई है, लेकिन पहेली सुलझती मालूम नहीं पड़ती।

पश्चिम में बहुत से प्रयोग हुए हैं, पूरब में बहुत से प्रयोग हुए हैं। बुद्धि से जितने भी सिद्धांत आविष्कृत हुए वे सभी असफल हो गये, पहेली उनसे सुलझती नहीं। लेकिन अनुभव से, ध्यान की गहराई से उत्तर आता है जिससे पहेली मिट जाती है। उसे हम थोड़ा समझ लें, फिर कहानी में प्रवेश करें।

दुख और सुख, स्वतंत्रता और परतंत्रता, स्वर्ग और नर्क एक साथ ही बनाये जा सकते हैं; अकेले-अकेले नहीं। रात और दिन एक साथ ही बनाये जा सकते हैं, अकेले-अकेले नहीं। अगर अकेला प्रकाश हो और अंधकार बिलकुल न हो तो प्रकाश भी न हो सकेगा। अगर अकेला जीवन हो और मृत्यु न हो तो जीवन भी न हो सकेगा। होने का ढंग द्वंद्व है। किसी भी चीज को होना हो तो विपरीत के साथ ही हो सकती है।

विद्युतशास्त्री को पूछें, वह कहेगा अकेली ऋण विद्युत नहीं हो सकती, अकेली धन विद्युत नहीं हो सकती। दोनों साथ हो सकते हैं; क्योंकि ऋण और धन दो छोर हैं। जन्म और मरण दो छोर हैं। अकेला जन्म नहीं हो सकता। हमारी आकांक्षा चाहती है कि अकेला जन्म हो, लेकिन अकेला जन्म नहीं हो सकता। बिना मृत्यु के जन्म होगा कैसे? अगर कोई मरता ही न होगा तो कोई पैदा कैसे होगा? पुराने वृक्ष गिरेंगे इसीलिए तो नये अंकुर फूटेंगे। पुराना आदमी विदा होगा तो नये बच्चे जीयेंगे। पुराने को हटना होगा ताकि नये के लिये जगह हो सके। अगर पुराना जमा ही रहे तो नये के जन्म का कोई उपाय न होगा। जीवन विपरीत से जीता है।

थोड़ी देर को सोचें कि अगर सिर्फ सुख हो, हमारी आकांक्षा है कि सिर्फ सुख हो; लेकिन क्या तुम उस सुख को भोग सकोगे? अगर अकेला सुख हो और दुख का कोई स्वाद न हो तो यह भी तो पता न चलेगा कि सुख है। उस आदमी को स्वास्थ्य का पता नहीं चलता जो कभी बीमार न पड़ा हो। अगर सच में ही तुम कभी बीमार नहीं पड़े तो तुम्हें स्वास्थ्य के स्वाद का अनुभव कैसे होगा? तुम कैसे जानोगे कि तुम स्वस्थ हो? तुम्हें स्वास्थ्य का कोई भी पता न चलेगा। अगर नर्क न हो तो स्वर्ग नहीं हो सकता। नर्क की मौजूदगी स्वर्ग के लिये जरूरी है।

परमात्मा कठोर है इस कारण दुख है ऐसा नहीं, लेकिन विपरीत के बिना होने का कोई उपाय ही नहीं है। लोग कहते हैं परमात्मा सर्वशक्तिमान है, लेकिन कुछ बातें हैं, जो परमात्मा भी नहीं कर सकता। जैसे कि अकेला सुख हो और दुख न हो, यह परमात्मा भी नहीं कर सकता है। कितनी ही कोशिश करे, यह हो नहीं सकता।

जैसे ही सुख पैदा होगा उसके साथ ही दुख पैदा हो जाएगा। इसलिए एक बहुत गहरी बात समझ लेनी चाहिये: जितना ज्यादा सुख बढ़ेगा, उतना ही ज्यादा दुख भी बढ़ेगा। इसलिए जो लोग बहुत सुखी होंगे, वे ही लोग बहुत दुखी भी होंगे। अगर अमेरिका में आज बहुत दुख है तो उसका कारण? उसका कारण है कि बहुत सुख है। जहां सुख की सीमा बढ़ती है, उसी के साथ दुख की सीमा भी बढ़ती है; उनमें एक अनुपात है। इसलिए गरीब आदमी उतना दुखी कभी नहीं होता, जितना अमीर आदमी दुखी होता है।

अमीर को लगता है कि गरीब दुख में है। यह अमीर का खयाल है। यह अमीर की व्याख्या है। गरीब इतने दुख में कभी भी नहीं होता। इसलिए गरीब के चेहरे पर कभी मुस्कुराहट भी दिख जाए, कभी वह मस्त होकर नाच भी लेता है। कभी वृक्ष के नीचे सड़क पर सोये हुए उसको देखें। न, इतना दुख नहीं है गरीब को जितना अमीर को लगता है कि गरीब को दुख है।

वह लगने में अमीर अपने लिये सोच रहा है, अगर मुझे वृक्ष के नीचे सोना पड़े तो मैं, जो कि अच्छी शैया पर भी नहीं सो पाता हूं, वृक्ष के नीचे कैसे सो पाऊंगा? जहां कि शैया में थोड़ा-सा भी आड़ा-टेढ़ापन हो तो मेरी नींद टूट जाती है। तो इस कंकड़-पत्थर से भरी हुई जमीन पर मैं कैसे सो पाऊंगा? श्रेष्ठ से श्रेष्ठ भोजन भी मुझे पचता नहीं, तो यह गरीब जो सूखी रोटी खा रहा है, यह तो पत्थर जैसी है; यह मुझे कैसे पचेगी?

एक यहूदी फकीर हुआ बालसेन। एक दिन एक धनपति उससे मिलने आया। वह उस गांव का सबसे बड़ा धनपति था, यहूदी था। और बालसेन से उसने कहा कि कुछ शिक्षा मुझे भी दो। मैं क्या करूं?

बालसेन ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा, वह आदमी तो धनी था लेकिन कपड़े चीथड़े पहने हुए था। उसका शरीर रूखा-सूखा मालूम पड़ता था। लगता था, भयंकर कंजूस है। तो बालसेन ने पूछा कि पहले तुम अपनी जीवन-चर्या के संबंध में कुछ कहो। तुम किस भांति रहते हो? तो उसने कहा कि मैं इस भांति रहता हूं जैसे एक गरीब आदमी को रहना चाहिये। रूखी-सूखी रोटी खाता हूं। बस नमक, चटनी और रोटी से काम चलाता हूं। एक कपड़ा जब तक जार-जार न हो जाए तब तक पहनता हूं। खुली जमीन पर सोता हूं, एक गरीब साधु का जीवन व्यतीत करता हूं।

बालसेन एकदम नाराज हो गया और कहा, नासमझ! जब भगवान ने तुझे इतना धन दिया तो तू गरीब की तरह जीवन क्यों बिता रहा है? भगवान ने तुझे धन दिया ही इसलिए है कि तू सुख से रह, ठीक भोजन कर। खा कसम कि आज से ठीक भोजन करेगा, अच्छे कपड़े पहनेगा, सुखद शैया पर सोयेगा, महल में रहेगा।

धनपति भी थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि मैंने तो सुना है कि यही साधुता का व्यवहार है। पर बालसेन ने कहा कि मैं तुझसे कहता हूं कि यह कंजूसी है, साधुता नहीं है। काफी समझा-बुझाकर कसम दिलवा दी। वह आदमी जरा झिझकता तो था, क्योंकि जिंदगी भर का कंजूस था। जिसको वह साधुता कह रहा था वह साधुता थी नहीं, सिर्फ कृपणता थी। लेकिन लोग कृपणता को भी साधुता के आवरण में छिपा लेते हैं। कृपण भी अपने को कहता है कि मैं साधु हूं इसलिए ऐसा जीता हूं। पर बालसेन ने उसे समझा-बुझाकर कसम दिलवा दी।

जब वह चला गया तो बालसेन के शिष्यों ने पूछा कि यह तो हद्द हो गई। उस आदमी की जिंदगी खराब कर दी। वह साधु की तरह जी रहा था। और हमने तो सदा यही सुना है कि सादगी से जीना ही परमात्मा को पाने का मार्ग है। यही तुम हमसे कहते रहे। और इस आदमी के साथ तुम बिलकुल उल्टे हो गये। क्या इसको नरक भेजना है?

बालसेन ने कहा, ‘यह आदमी अगर रूखी रोटी खायेगा तो यह कभी समझ ही न पायेगा कि गरीब का दुख क्या है! यह आदमी रूखी रोटी खायेगा तो समझेगा कि गरीब तो पत्थर खाये तो भी चल जाएगा। इसे थोड़ा सुखी होने दो ताकि यह दुख को समझ सके; ताकि जितने लोग इसके कारण गरीब हो गये हैं इस गांव में, उनकी पीड़ा भी इसको खयाल में आये। लेकिन यह सुखी होगा तो ही उनका दुख दिखाई पड़ सकता है। अगर यह खुद ही महादुख में जी रहा है, इसको किसी का दुख नहीं दिखाई पड़ेगा। कोई गरीब इसके द्वार पर भीख मांगने नहीं जा सकता, क्योंकि यह खुद ही भिखारी की तरह जी रहा है। यह किसी की पीड़ा अनुभव नहीं कर सकता।

जब अमीर को गरीब में दुख दिखाई पड़ता है तो वह उसकी व्याख्या है। गरीब उतना दुखी नहीं है। और गरीब तो तभी दुखी होगा जब एक बार अमीर हो जाए। इसलिए जो लोग अमीरी के बाद गरीबी देखते हैं उनके दुख का हिसाब नहीं।

विपरीत का अनुभव चाहिये। अगर सुख ही सुख हो संसार में तो तुम्हें सुख का पता ही न चलेगा। और तुम सुख से इस बुरी तरह ऊब जाओगे जितने कि तुम दुख से भी नहीं ऊबे हो। और तुम उस सुख का त्याग कर देना चाहोगे।

देखो पीछे लौटकर इतिहास में। महावीर और बुद्ध जैसे त्यागी गरीब घरों में पैदा नहीं होते; हो नहीं सकते। क्योंकि सुख से ऊब पैदा होनी चाहिये, तब त्याग होता है। बुद्ध के जीवन में इतना सुख है कि उस सुख का स्वाद मर गया। जिसने रोज सुस्वादु भोजन किये हों, तो स्वाद मर जाए। कभी-कभी उपवास जरूरी है भूख का रस लेने के लिये। अगर भूख का मौका ही न मिले और रोज उत्सव चलता रहे घर में, और मिष्ठान्न बनते रहें तो जल्दी ही स्वाद मर जाएगा। भूख ही मर जाएगी।

इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि गरीबों के धार्मिक उत्सव सदा भोजन के उत्सव होते हैं। और अमीरों के धार्मिक उत्सव सदा उपवास के होते हैं। अगर जैनों का धार्मिक पर्व उपवास का है, तो उसका अर्थ है। लेकिन एक मुसलमान, एक गरीब हिंदू–जब उसका धार्मिक दिन आता है तो ताजे और नये कपड़े पहनता है। अच्छे से अच्छा भोजन बनाता है। हलवा और पूड़ी उस दिन बनाता है। वह धार्मिक दिन है। जिसके तीन सौ चौंसठ दिन भूख से गुजरते हों, उसका धार्मिक दिन उपवास का नहीं हो सकता। होना भी नहीं चाहिये; वह अन्याय हो जाएगा। लेकिन जो तीन सौ चौंसठ दिन उत्सव मनाता हो भोजन का, उसका धार्मिक दिन उपवास का ही होना चाहिये।

हम अपने स्वाद को विपरीत से पाते हैं। इसलिए जब जैनों का पर्युषण होता है, तभी पहली दफा उन्हें भूख का अनुभव होता है। और पर्युषण के बाद पहली दफा दो चार दिन खाने में मजा आता है, और खाने के संबंध में सोचने में मजा आता है। और पर्युषण के दिनों में ही सपने देखते हैं वे खाने के, बाकी दिन नहीं देखते क्योंकि सपनों की कोई जरूरत नहीं है। बाकी दिन वे सलाह लेते हैं चिकित्सक से कि भूख मर गई है।

जिन मुल्कों में भी धन बढ़ जाता है, वहीं उपवास को मानने वाले संप्रदाय पैदा हो जाते हैं। यह जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका में आज उपवास का बड़ा प्रभाव है। गरीब मुल्कों में उपवास का प्रभाव हो भी नहीं सकता। लोग वैसे ही उपवासे हैं। लेकिन अमेरिका में लोग महीनों के उपवास के लिए जाते हैं। नेचरोपेथी के क्लिनिक हैं, चिकित्सालय हैं, जहां कुल काम इतना है कि लोगों को उपवास करवाना।

अगर सुख ही सुख हो और दुख का उपाय न हो तो तुम ऊब जाओगे सुख से। एक बड़े मजे की बात है कि दुख से आदमी कभी नहीं ऊबता, क्योंकि दुख में आशा बनी रहती है। आज दुख है, कल सुख होगा। सपना जिंदा रहता है। मन कामना करता रहता है और कल पर हम आज को टालते रहते हैं। दुखी आदमी कभी नहीं ऊबता। सुखी आदमी ऊबता है; क्योंकि उसकी कोई आशा नहीं बचती। सुख तो आज उसे मिल गया, कल के लिये कुछ बचा नहीं।

तुम्हें पता नहीं है कि महावीर और बुद्ध क्यों संन्यासी हुए? जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे क्यों हैं, हिंदुओं के सब अवतार राजपुत्र क्यों हैं? बात जाहिर है, साफ है। गणित सीधा है। सुख इतना था कि वे ऊब गये। और ज्यादा पाने का कोई उपाय नहीं था। जितना हो सकता था वह था, वह पहले से मिला था।

इसलिए जिस दिन महावीर नग्न होकर रास्ते पर भिखमंगे की तरह चले, उन्हें जो आनंद मिला है, तुम भूल मत करना नग्न चलकर रास्ते पर; तुम्हें वह न मिलेगा। क्योंकि तुम गणित ही चूक रहे हो। उसके पहले राजा होना जरूरी है। वस्त्रों से जब कोई इतना ऊब गया हो कि वे बोझिल मालूम होने लगे तब कोई नग्न खड़ा हो जाए रास्ते पर तो स्वतंत्रता का अनुभव होगा–मुक्ति! उसे लगेगा कि मोक्ष मिला। जो भोजन से इतना पीड़ित हो गया हो, वह जब पहली दफा उपवास करेगा तो शरीर फिर से जीवंत होगा; फिर से भूख जगेगी। और जो महलों में रह-रहकर कारागृह में बंद हो गया हो, जब वह खुले आकाश के नीचे, वृक्ष के नीचे सोयेगा तब उसे पहली दफा पता चलेगा कि जीवन का आनंद क्या है!

महावीर की बात सुनकर कई साधारण-जन भी त्यागी हो जाते हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं क्योंकि जो आनंद महावीर को मिला, वह उन्हें मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। तो वे सोचते हैं शायद अपनी कोई साधना में भूल है। साधना में कोई भूल नहीं, शुरुआत में ही भूल है।

महावीर उतरते हैं राज-सिंहासन से। राज-सिंहासन से ऊब गये हैं इसलिए उतरते हैं; क्योंकि उसके आगे और कोई सीढ़ी नहीं है। वे आखिरी सीढ़ी पर थे; और कोई विकास का उपाय न था। आकांक्षा को जाने की जगह न थी। नीचे उतरते हैं। सिंहासन से नीचे उतरकर जीवन में फिर से उमंग आती है। फिर से रस आता है। फिर से खोज शुरू होती है।

तुम्हारे जीवन में यह नहीं हो सकता। जिसने भोगा ही नहीं है, वह त्याग कैसे करेगा? और जिसके पास है ही नहीं, वह छोड़ेगा कैसे? जो तुम्हारे पास है, वही तुम छोड़ सकते हो। जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे तुम कैसे छोड़ोगे? उस भ्रांति में पड़ना ही मत।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, जो संसार से ऊब जाते हैं, सत्य उन्हें ही उपलब्ध होता है। लेकिन तुम ऊबे नहीं हो। तुम जो ऊब गये हैं उनकी बातें सुनकर, उनका अनुकरण करने में लग जाते हो। अनुकरण से कोई कभी सत्य को उपलब्ध नहंी होता। उससे तुम धोखे में पड़ोगे। वह आत्म-प्रवंचना है।

संसार को ठीक से पा लेना, ताकि छोड़ सको। वासना को ठीक से अनुभव कर लेना, ताकि वासना मुक्ति हो सके। धन को ठीक से भोग लेना, ताकि धन व्यर्थ हो जाए। जहां भी रस हो, वहां पूरे चले जाना ताकि आगे जाने की कोई जगह न बचे और तुम पीछे वापिस लौट सको।

अधूरे अनुभव कहीं भी नहीं ले जाते। वृक्ष जब अपने फल को पूरा पका लेता है, तब फल खुद ही टूट जाता है और गिर जाता है। कच्चे फल नहीं गिरते। अधूरा अनुभव कच्चा फल है; पूरा अनुभव पका हुआ फल है।

इसलिए पहली बात खयाल में ले लें; संसार के होने का ढंग जैसा है, इससे अन्यथा नहीं हो सकता। यहां विपरीत होगा ही–एक बात।

दूसरी बात: परमात्मा तुम्हें दुख नहीं देता, न परमात्मा तुम्हें सुख देता है। सुख और दुख दो विकल्प हैं। चुनने को तुम सदा स्वतंत्र हो। चुनाव तुम्हारे हाथ में है। परमात्मा तुम्हें नर्क में धक्के नहीं देता और न स्वर्ग में तुम्हारा स्वागत करता है। स्वर्ग और नर्क दोनों के द्वार खुले हैं। चुनाव तुम्हारा है। तुम जहां जाना चाहो। और यह उचित है कि द्वार खुले हैं क्योंकि स्वतंत्रता के बिना सत्य की कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। तुम स्वतंत्र हो दुख भोगने को। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। तुम स्वतंत्र हो सुख भोगने को और तुम स्वतंत्र हो मार्ग बदल लेने को। तुम्हारी स्वतंत्रता में कोई भी बाधा नहीं है।

इस बात को ठीक से समझ लेना। इसलिए अगर तुम दुख भोगते हो तो यह तुम्हारा चुनाव है। अगर तुम सुख भोगते हो तो यह भी तुम्हारा चुनाव है। अगर तुम जहां हो वहां से नहीं हटते हो, तो भी तुम्हारा चुनाव है। वहां से हटते हो तो भी तुम्हारा चुनाव है। तुम्हारी चेतना पर कोई नियंत्रण नहीं है।

जैसे घर में एक चूल्हा जला दिया है, आग जल रही है और दूसरी तरफ वृक्षों में फूल खिले हैं। तुम स्वतंत्र हो; चाहे फूल तोड़कर अपनी झोली फूलों से भर लो और चाहे आग में हाथ डालकर अंगारों में जल जाओ। कोई तुम्हें धक्के नहीं दे रहा है। आग जल रही है, फूल खिले हैं।

परमात्मा सृष्टि को बनाता है, तुम्हें नहीं। इसे थोड़ा समझ लेना चाहिये। परमात्मा सृष्टि को बनाता है, इसका अर्थ है: परिस्थितियां बनाता है, विकल्प बनाता है। द्वार–स्वर्ग और नर्क, सुख और दुख बनाता है, तुम्हें नहीं।

तुम तो परमात्मा हो। तुम तो उसके ही अंश हो। वह तुम्हें बना नहीं सकता। और अगर तुम बनाये गये हो तो तुम दो कौड़ी के हो गये। फिर तुम्हारा कोई मोक्ष नहीं हो सकता। अगर तुम बनाई गई कठपुतली हो तो जिस दिन उसका दिल बदल जाए तुम्हें मिटा दे। वह तुम्हें बनाया भी नहीं, तुम्हें मिटा भी नहीं सकता। तुम तो वही हो। तुम परमात्मा हो। और यह चारों तरह जो खेल है, वह तुम्हारा ही बनाया हुआ है। और विकल्प तुम्हारे सामने दोनों मौजूद हैं। तुम जो चुनना चाहो, चुन सकते हो।

यह कहानी हम समझने की कोशिश करें। मूसा ने पूछा परमात्मा से कि तेरा कोई परम भक्त, कोई अनन्य भक्त, कोई जिसकी श्रद्धा तुझमें अखंड हो; कोई जो उपलब्ध हो गया हो, जो तेरे हृदय का मालिक हो गया हो, जिसमें और तुझमें जरा भी रत्तीभर फासला न रहा हो, उसके मैं दर्शन करना चाहता हूं।

लेकिन मूसा क्यों दर्शन करना चाहते हैं उस आदमी के?

पहली तो बात यह, कि मूसा सोचते होंगे, वैसा आदमी परम आनंदित होगा। क्योंकि जो परम भक्त है, परमात्मा ने उसके ऊपर आनंद की वर्षा कर दी होगी। हमारी भक्ति भी हमारी वासना है। हम उसके द्वारा भी परमात्मा से कुछ पाना चाहते हैं। तो मूसा पूछते हैं कि मैं उसे देखना चाहता हूं, जो पहुंच चुका है तेरे हृदय के पास। अब जिसमें रत्तीभर फासला नहीं रहा।

मूसा सोचते होंगे, मिलेगा किसी सिंहासन पर। होगा कोई सम्राट। सब उसे उपलब्ध होगा। रत्तीभर भी कमी न होगी। वासना की कोई जरूरत न होगी। सभी अकांक्षाएं उठते ही पूरी हो जाती होंगी। जो परमात्मा के हृदय के निकट है उसको क्या पाने को रह जाता है? और इसीलिए शायद मूसा उसको पूछना भी चाहते हैं, देखना भी चाहते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं, वे मुझसे कहते हैं, आपके शिष्यों में हमें कोई ऐसा आदमी बताएं जो पहुंच गया हो; जिसने पा लिया हो। हम उसे देखना चाहते हैं। वह उनकी वासना पूछ रही है। वे उसे देखकर तय करेंगे कि रास्ते पर चलना कि नहीं! वह उस आदमी को देखकर तय करेंगे कि अगर यह आनंदित है तो फिर हम भी चलें इस रास्ते पर।

लेकिन परमात्मा सदा खेल खेलता है। परमात्मा को धोखा देना आसान नहीं। मूसा पूछते तो थे कुछ और, कुछ और चाहते कुछ और थे। पूछा तो यह था कि तेरे परम भक्त का दर्शन करना है, लेकिन भीतरी आकांक्षा यह थी कि उसको देख लूं तो फिर चलूं इस रास्ते पर, कि तू पाने योग्य भी है या नहीं? अगर तेरा परम भक्त ही सड़ रहा हो कहीं नर्क में तो हम इस झंझट में क्यों पड़ें? इतनी मेहनत! इतना श्रम! संसार भी खोएं, और तुझे पाकर नर्क मिले! हम परमात्मा को पाना भी नहीं चाहते। हम तो परमात्मा की सीढ़ी से स्वर्ग में जाना चाहते हैं।

आवाज आई कि मूसा! फलां घाटी में जा; वहां मेरा परम भक्त मौजूद है।

मूसा बड़ी आशाओं से भरकर गये होंगे। कैसे-कैसे विचार, कैसे-कैसे सपने नहीं उठे होंगे कि कैसा होगा यह परम भक्त! परम ज्योतिर्मय! आनंद में नाचता हुआ, स्वर्ण चारों तरफ बरसता हुआ। वह घाटी धन्य होगी, जहां यह परम भक्त है। और जब वे पहुंचे तो कितने निराश न हुए होंगे!

एक भिखमंगा था यह आदमी। साधारण भिखमंगा भी नहीं था चीथड़े-चीथड़े थे। भिखमंगों में भी भिखमंगा था। और इतना ही नहीं था, सारे शरीर पर न मालूम किस-किस तरह के कीड़े-मकोड़े रेंग रहे थे। गंदा था। अधमरी हालत में था; सड़ रहा था।

मूसा की श्रद्धा को बड़ा धक्का लगा होगा। क्योंकि श्रद्धा कहीं न कहीं वासना को छिपाये है। और मूसा के मन में चीख उठी होगी कि यह क्या हुआ? इसको ही पाने के लिये हम साधना कर रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं? मंदिरों में इसी के लिये घंटे बजाये जा रहे हैं, पूजा की जा रही है, यह स्थिति पाने के लिये? अगर यह उपलब्धि है, तो संसार में जो भटक रहे हैं, वे भटक नहीं रहे, वे इससे बच रहे हैं। फिर संसार बेहतर है।

परमात्मा की पहेली को समझने में जरा कठिनाई है। क्योंकि तुम्हारी वासना जहां भी खड़ी हो जाए, वहीं परमात्मा को समझना असंभव हो जाता है। अगर मूसा बिना वासना के पूछे होते, तो किसी दूसरी घाटी में भेजे गये होते। तब उन्होंने कुछ और रूप देखा होता। लेकिन वासना से भरकर पूछा है इसलिए यह रूप देखना पड़ा। यह रूप मूसा की वासना से पैदा हो रहा है। जरूरी है। ताकि मूसा की स्थिति साफ हो जाए कि तेरी श्रद्धा सही है, या केवल तेरी श्रद्धा एक छिपा हुआ रूप है वासना का? तेरी प्रार्थना सही है? तू परमात्मा को ही भज रहा है या कुछ और भज रहा है? परमात्मा का शोषण, उपयोग करना चाहता है?

उस रात मूसा प्रार्थना न कर पाये होंगे। उस दिन परमात्मा इतने दूर मालूम हुआ होगा, जितना कभी मालूम न हुआ था। अगर यह परम भक्त की दशा है तो परम भक्त होने की हिम्मत टूट गई होगी। उस क्षण मूसा का हृदय रेगिस्तान की तरह हो गया होगा, जहां प्रार्थना के सब वृक्ष सूख गये।

और उस आदमी ने आंख खोली और कहा कि मैं बहुत प्यासा हूं, थोड़ा पानी ले आओ।

स्वर्ग तो दूर, यह आदमी प्यासा है और पानी देनेवाला भी कोई नहीं है। और यह परम भक्त है। और परमात्मा इतना भी नहीं कर रहा है कि इसके ऊपर पानी की वर्षा कर दे। यह कैसी सुरक्षा है? परमात्मा कुछ भी नहीं दे रहा और इस आदमी ने सब दे दिया!

संदेह उठा होगा, नास्तिकता घनी हो गई होगी। यह मूसा की परीक्षा का क्षण रहा होगा।

ऐसी परीक्षा के क्षण तुम्हारे जीवन में भी आएंगे। और इस परीक्षा से गुजर जाए जो, उसकी ही श्रद्धा सही है। यह श्रद्धा के लिये अग्नि जैसा है। सोना आग से गुजरे तो ही पता चलता है कि कितना सही था, कितना गलत था! कितना खरा था, कितना खोटा था!

मूसा अहोभाव से नहीं भर सके इस आदमी को देखकर। पानी लेने गये, लेकिन लौटकर आये तो देखा कि वह आदमी मरा पड़ा है। वह प्यासा ही मर गया। परमात्मा का अनन्य भक्त! पानी तो परमात्मा ने दिया ही नहीं, मूसा पानी लेने गये थे इतनी देर भी उस आदमी की सांस न चलने दी कि वह पानी पीकर मर जाए। यह तो भयंकर नर्क की अवस्था है।

यह सोचकर कि इस आदमी को ठीक से दफना दूं, तो वे लकड़ी इत्यादि का इंतजाम करने गये, लौटकर देखा कि एक शेर उसे खा गया है। उसका अंतिम संस्कार भी न हो सका। यह परम भक्त की दशा?

तुम अगर रहे होते मूसा की जगह तो फिर तुमने लौटकर परमात्मा का नाम न लिया होता। फिर दुबारा तुमने उसके मंदिर की तरफ न देखा होता। तुम सदा के लिये नास्तिक हो गये होते।

अगर तुम नास्तिकों से पूछो तो सौ में से निन्यान्नबे नास्तिक यही कहते हैं कि परमात्मा है या नहीं इसका सबूत–संसार में दुख है या नहीं, इससे मिलेगा। अगर संसार में इतना दुख है तो परमात्मा नहीं हो सकता।

बट्रर्ड रसेल–इस सदी के बड़े से बड़े महा नास्तिक ने यही सवाल उठाया है। बर्टें्रड रसेल ने कहा, कि एक छोटा सा बच्चा पैदा होता है, पैदा होता है लकवा लगा हुआ। परमात्मा है, तो यह बच्चा लकवा लगा क्यों पैदा हो रहा है? यह जिंदगी भर सड़ेगा, बिस्तर पर पड़ा रहेगा। एक बच्चा पैदा होता है, पैदा नहीं हो पाता, सांस नहीं ले पाता कि मर जाता है। यह कैसा परमात्मा है? यह बच्चे के साथ क्या खेल खेला जा रहा है? यह लीला बड़ी कठोर मालूम पड़ती है। और यह परमात्मा पिता तो नहीं हो सकता, कोई जल्लाद हो सकता है।

तो रसेल कहता है, ऐसे जल्लाद परमात्मा में मानने से तो यही बेहतर है कि कोई परमात्मा नहीं। इस उलझन में पड़ना क्यों? ताकि हम जो कुछ कर सकें, दुख मिटाने के लिये करें। यह परमात्मा की वजह से हम दुख भी नहीं मिटा पाते, क्योंकि हम प्रार्थना में समय लगा देते हैं। हम पूजा में समय गंवाते हैं। और हम सोचते हैं, उसकी कृपा होगी तो सब ठीक हो जाएगा। और उसकी कृपा से अब तक कुछ भी ठीक नहीं हुआ है। सब गलत है।

तो ज्यादा उचित यही मालूम होता है बुद्धिपूर्ण आदमी को, कि अच्छा हो कि कोई परमात्मा नहीं है; यह अराजकता है। हम ही को व्यवस्था करनी है तो जितने कम दुख की व्यवस्था हम कर सकें, अच्छा। जितने ज्यादा सुख की व्यवस्था कर सकें, उतना अच्छा। मंदिर-मस्जिदों को स्कूलों और अस्पतालों में बदल दो। यह व्यर्थ का आभूषण है, जो बोझ है और यह महंगा है क्योंकि पेट जहां भूखा है, इतने महंगे आभूषण नहीं ढोये जा सकते।

रसेल कहता है कि संसार का दुख देखकर बात साफ हो जाती है कि यहां कोई हृदय नहीं हो सकता इस संसार में। इस संसार को चलाने वाला कोई हृदय नहीं हो सकता है। या तो यह संसार यांत्रिक चल रहा है, और या एक अराजकता है, लेकिन इसका कोई मालिक नहीं है। और अगर कोई मालिक है तो वह मालिक भी बुद्ध और महावीर जैसा नहीं हो सकता। वह मालिक भी हिटलर और मुसोलिनी जैसा होगा। अगर वैसा कोई मालिक है तो पूजा करने की जरूरत नहीं, उसकी हत्या करने की जरूरत है। उसको मिटा देने की जरूरत है, क्योंकि जब तक वह न मिट जाए, तब तक यह जाल, उपद्रव दुख का नहीं मिटेगा।

और रसेल ने कहा है कि धर्म तब तक रहेगा, जब तक दुख है। या तो हम धर्म को मिटा दें, तो हमारे कदम दुख को मिटाने में लग जाएंगे। और या हम दुख को मिटा दें तो धर्म अपने आप मिट जाएगा। रसेल कहता है जब सभी लोग सुखी होंगे तो कौन प्रार्थना करने जाएगा? उसकी बात में थोड़ी सचाई है क्योंकि तुम सदा दुख के कारण ही प्रार्थना करने जाते हो।

तो वह कहता है अगर सभी लोग सुखी हो जाएं तो मंदिर अपने आप तिरोहित हो जाएंगे। चर्च खाली हो जाएंगे। पूजागृह में कोई जाएगा नहीं; क्योंकि लोग दुख के कारण वहां जाते हैं, इस आशा में कि शायद परमात्मा उनका दुख मिटाये। सुखी आदमी प्रार्थना नहीं करेगा।

रसेल को ऐसे ही टाला नहीं जा सकता। उसकी बात में कुछ सचाईयां हैं। पहली तो सचाई यह है कि तुम्हारी प्रार्थना सदा दुख से उठती है। लेकिन ऐसी प्रार्थना को कभी बुद्ध, महावीर, कृष्ण ने प्रार्थना कहा ही नहीं। जो प्रार्थना सुख से उठे, अहोभाव से उठे, तृप्ति से उठे, जिसमें सुगंध संतोष की हो, वही प्रार्थना है। प्रार्थना धन्यवाद है, मांग नहीं। तुम परमात्मा को धन्यवाद देते हो कि तुमने जो दिया है, वह मेरी पात्रता से बहुत ज्यादा है। वह एक अहोभाव की अभिव्यक्ति है।

एक तो मूसा देख रहे हैं उस आदमी को पड़ा हुआ–प्यासा, भूखा, सड़ रहा है, कीड़े-मकोड़े शरीर पर तैर रहे हैं। इतना कमजोर है कि उन कीड़ों को हटा भी नहीं सकता। वे उसे खाये जा रहे हैं। वह प्यासा है, आंख खोलकर पानी मांगता है।

यह तो बाहर से देखा गया। काश! मूसा इस आदमी को भीतर से भी देख लेते तो उन्हें पता चलता कि परम भक्त की क्या दशा है! मूसा चूक गये क्योंकि भक्ति बाहर से पहचानी नहीं जा सकती। बाहर जैसे कोई महल के चारों तरफ चक्कर लगाकर आ जाए, उसे महल के अंतःपुर का कुछ भी पता न चले। ये कीड़े रेंगते थे, लेकिन इस आदमी की भीतरी दशा क्या थी, यह मूसा न जान सके। कीड़ों में उलझ गये।

एक सूफी फकीर हुआ, सरमद। उसके छाती में नासूर हो गया और कीड़े पड़ गये थे। तो मस्जिद में जब वह नमाज करने को झुकता था तो कीड़े गिर जाते थे तो उन्हें उठाकर वापिस रख लेता था। लोगों ने कहा कि सरमद क्या तुम पागल हो गये हो?

तो सरमद हंसा और उसने कहा, ‘सवाल है मुझ खुद को बचाऊं, कीड़ों को बचाऊं? और मैं तो उसकी, परमात्मा की प्रार्थना में लीन हूं तो बच ही जाऊंगा; इन कीड़ों को प्रार्थना का कोई भी पता नहीं है। इनका बचना ज्यादा जरूरी है। मेरे भटकने का तो कोई उपाय नहीं है क्योंकि उसकी, परमात्मा की प्रार्थना में लीन हूं। मैं तो पहुंच ही गया। इन कीड़ों की यात्रा अभी शुरुआत है। और इनमें भी जीवन है–वैसा ही, जैसा मुझमें। और मेरे तो जीवन की अंत घड़ी करीब आ गई क्योंकि अब मैं दुबारा पैदा होने वाला नहीं हूं। अभी इनकी यात्रा लंबी है, इनको जितना साथ दे सकूं।’

फिर आखिर में तो सरमद ने प्रार्थना करनी बंद कर दी क्योंकि झुकने से कीड़े कभी-कभी मर जाते थे गिरकर। तो उसने नमाज पढ़नी बंद कर दी। लोगों ने कहा, ‘सरमद! बुढ़ापे में पागल हो गये हो?’ उसने कहा, ‘इन कीड़ों को बचाना ज्यादा बड़ी प्रार्थना है। नमाज शरीर का ही झुकना है, भीतर तो मैं झुकता ही रहता हूं। कीड़ों को कष्ट देना उचित नहीं। और जिसने कीड़े भेजे हैं, यही उसकी प्रार्थना है कि उसके कीड़ों को जितनी सुरक्षा दे सकूं। यह उसी का दिया हुआ जीवन है। और जब वह इन को संभाल रहा है तो मैं कौन बाधा देने वाला हूं?’

लेकिन मूसा चूक गये। यह आदमी सरमद जैसा रहा होगा, जिसके शरीर पर कीड़े चल रहे थे और जो कीड़ों को हटा भी नहीं रहा था। क्योंकि जिसका शरीर है, उसी के कीड़े हैं। और उसके भीतर…भीतर कोई विरोध, कोई अस्वीकृति नहीं थी। इसके कपड़े फटे-पुराने थे, भिखमंगा था, दुख में पड़ा था, लेकिन इसके भीतर सुख का एक सागर था, जो मूसा को नहीं दिखाई पड़ सका।

और जब भी कोई व्यक्ति उस परम सुख के करीब पहुंचता है तो बाहर सब तरह के दुख पैदा हो जाते हैं क्योंकि वही परीक्षा है। इसलिये फकीरों ने कहा है कि तुम जब उसके करीब पहुंचोगे, तुम्हारी बड़ी परीक्षाएं ली जाएंगी। यह स्वाभाविक है कि परीक्षाएं ली जाएं, क्योंकि उन्हीं परीक्षाओं से गुजरकर तुम्हारा सोना निखरेगा। यह इसकी प्रार्थना का आखिरी क्षण था, जहां प्रार्थना पूरी होगी, जहां प्रार्थना में फूल आयेंगे। जब सब तरह का दुख–भूख, प्यास, पानी भी नहीं, मौत करीब…

और जब उसने कहा मूसा को कि प्यास लगी है, तब भी मूसा उसके भीतर न देख पाये। तब भी वह आदमी सिर्फ शरीर के संबंध में कह रहा था कि प्यास लगी है, भीतर तो उसकी प्यास सदा के लिये बुझ गई थी।

जीसस एक गांव से गुजर रहे हैं। एक औरत पानी भर रही है, लेकिन वह गांव कुछ छोटी जाति के लोगों का गांव है और जीसस प्यासे हैं। तो उन्होंने किनारे कुएं के पाट पर खड़े होकर कहा कि मुझे पानी पिला। मैं बहुत प्यासा हूं। उस स्त्री ने कहा कि क्षमा करें, हम छोटी जाति के लोग हैं और मैं आपको कैसे पानी पिलाऊं? तो जीसस ने कहा, तू फिक्र मत कर; तू मुझे पानी पिला, मैं तुझे पानी पिलाऊंगा। और तेरा पानी सदा के लिये प्यास न बुझा सकेगा, लेकिन मेरा पानी तेरी प्यास सदा के लिये बुझा देगा। यह सौदा सस्ता है। तू कर ले।

यह आदमी जो मरते समय बोला कि मुझे प्यास लगी है, तब भी उसकी आंखों में वह तृप्ति थी, जहां सब प्यास बुझ गई है।

मूसा उसे न देख पाये क्योंकि हम वही देख पाते हैं जो हम देख सकते हैं और जो हम देखना चाहते हैं। मूसा तो इतने से ही व्यग्र और उद्विग्न हो गये–इस आदमी की दशा देखकर। परमात्मा की जो धुन उनके भीतर थोड़ी बहुत रही होगी, वह टूट गई। वह सितार बंद हो गया। यह प्रार्थना-पूजा व्यर्थ हो गई। इस आदमी को देखते ही उनकी आंखें बंद हो गईं, वे अंधे हो गये। ठीक ही किया परमात्मा ने कि जब वे लौटे तो वह आदमी मर चुका था।

परमात्मा का अनन्य भक्त आखिरी क्षणों में बाहर से सब भांति प्यासा और भीतर से सब भांति तृप्त होगा। तो ही स्वर्ग का द्वार खुलता है, तो ही मुक्ति का द्वार खुलता है। अगर बाहर की प्यास उसे खींच ले और भीतर की तृप्ति डूब जाए तो फिर संसार शुरू हो जाए। आखिरी विकल्प होगा ही अंतिम क्षण में।

जब बाहर गहन प्यास थी, तब भी वह भीतर तृप्त था। वह तृप्त ही मरा, लेकिन मूसा को लगा कि प्यासा मर गया। भागे, कि अंतिम संस्कार कर दें इस परमात्मा के भक्त का। लेकिन जिसकी फिक्र परमात्मा कर रहा हो, उसका अंतिम संस्कार करने का खयाल भी अहंकार से भरा है।

रिंझाई मरने के करीब था तो उसके शिष्यों ने पूछा, हम क्या करें? मर जाने पर हम तुम्हें जलाएं? दफनाएं? तुम्हारे शरीर को बचाने की कोशिश करें? क्या करें? तुम कैसे चाहोगे?

रिंझाई ने कहा, कि तुम मुझे दफनाओगे तो उसके कीड़े मुझे खाएंगे। तुम मुझे जमीन पर छोड़ दोगे तो उसके जानवर मुझे खाएंगे। जाना मुझे उसके पेट में ही है। तुम क्या करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए इस चिंता में तुम मत पड़ो, मुझे मर तो जाने दो। जमीन में दबाओगे, उसके कीड़े मुझे खाएंगे–‘उसके’ कीड़े! अब वे कीड़े नहीं हैं, अब वही है। जमीन के ऊपर छोड़ दोगे तो उसके पशु-पक्षी मुझे खा जाएंगे–‘उसके’ पशु-पक्षी। अब वे भी दुश्मन नहीं हैं, उनके भीतर भी वही आयेगा।

इधर मूसा तैयारी करके आए अंतिम संस्कार की, उधर देखा कि एक शेर तो उस आदमी को खा ही चुका है।

तुम पहुंचो, उसके पहले परमात्मा सदा पहुंच जाता है। लेकिन मूसा को तकलीफ हुई होगी कि यह तो हद्द हो गई! यह तो भक्त के साथ दर्ुव्यवहार की सीमा हो गई। अगर यह भक्तों के साथ हो रहा है तो जो भक्त नहीं हैं, उनके साथ क्या होगा! यह तो आखिरी बात हो गई कि इस आदमी को अंतिम संस्कार भी हम न दे पाये कि इसका कोई क्रियाकर्म न हो सका। शेर खा गया। यह तो बड़ी दुखद बात है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं यह पारसियों का मृतकों को कुएं पर रख देना बड़ा बेहूदा है। यह बंद होना चाहिये। कभी-कभी तो नई समझ के पारसी भी यह कहते हैं कि यह बंद होना चाहिये, यह बहुत बुरा है। लेकिन क्यों यह बुरा है? बुरा इसलिए है कि हम ‘उसको’ नहीं देख पाते। वे जो गिद्ध आकर शरीर को खा जाएंगे, इससे हम ‘उसको’ नहीं देख पाते। बड़े मजे की बात है, कि तुम्हारे भीतर वह है और गिद्धों के भीतर वह नहीं है? अगर तुम्हारे भीतर वह है तो उनके भीतर भी वह है।

और एक लिहाज से पारसियों की व्यवस्था सब से ज्यादा संगत है। हिंदू जला देते हैं, मुसलमान जमीन में दफना देते हैं। पारसी शरीर को, मरे हुए शरीर को भोजन बना देते हैं। सबसे ज्यादा संगत, इकोलाजिकल, प्राकृतिक उनकी ही व्यवस्था मालूम पड़ती है। क्योंकि जिंदगी भर तुमने भोजन किया। वृक्ष से तुमने फल तोड़े, पशु-पक्षियों से तुमने मांस लिया, मुर्गियों से अंडे लिये, जिंदगी भर तुमने न मालूम कितने जीवन से भोजन इकट्ठा किया! इस भोजन को जलाने का तुम्हें हक क्या है? इसको, भोजन को फिर भोजन बन जाने दो ताकि वर्तुल पूरा हो जाए। ताकि तुमने जो लिया था, वह वापिस लौट जाए। जिनसे लिया था, उनमें चला जाए। ताकि वर्तुल बीच में खंडित न हो। यह जलाना तो बात गलत है। तुमने दूसरों का अन्न बनाया था, अब तुम दूसरों के लिये अन्न बन जाओ ताकि यात्रा पूरी हो जाए। तुमने सबका तो इस तरह व्यवहार किया कि वह तुम्हारे भोजन हैं, और तुम खुद को इस भांति बचा रहे हो, जैसे तुम किसी के भोजन नहीं।

ठीक ही किया कि इसके पहले कि मूसा इंतजाम करते आदमी के अंतिम संस्कार का, परमात्मा झपटा और शेर की भांति उसे ले गया और खा गया।

जिससे हम पैदा हुए हैं, उसी में हमें लीन हो जाना है। जहां से हमने पाया है, वहीं हमें वापस लौटा देना है।

पारसियों की अंतिम संस्कार-विधि वैज्ञानिक है, प्राकृतिक है। ऐसी विधि किसी की भी इतनी वैज्ञानिक और प्राकृतिक नहीं है, चाहे हमें कितनी ही कठोर मालूम पड़े। लेकिन जब तुम फल तोड़ते हो तब तुम्हें कठोर नहीं लगता। जब तुम मुर्गी का अंडा खाते हो तब तुम्हें कठोर नहीं लगता। जब तुम मुर्गी की गरदन काटते हो तब तुम्हें कठोर नहीं लगता, लेकिन जब गिद्ध तुम्हारी गरदन पर बैठते हैं, तब तुम्हें कठोर लगता है। तो तुम अपने को बड़ा विशिष्ट समझ रहे हो! सारे पशु जीते हैं, मरते हैं, खो जाते हैं; आदमी अंतिम संस्कार करता है। अहंकार की हद्द है। अहंकार जीते जी भी अपने को विशेष मानता है, मरकर भी विशेष मानता है। जब तुम मर गये तब कुछ भी न बचा। खाली देह पड़ी रह गई। उस खाली देह में तुम जरा भी नहीं हो, लेकिन अब भी तुम्हारे चारों तरफ संगमरमर के चबूतरे खड़े किये जाएंगे, उन पर नाम खोदे जाएंगे। वह जो बचा ही नहीं, उसको भी सम्हालने की कोशिश की जाएगी।

अहंकार मरकर भी अपनी सुरक्षा करने की कोशिश करता है।

मूसा बहुत व्यथित हो गये। और चिल्लाकर उन्होंने कहा कि हे परमात्मा! यह क्या हो रहा है?–यह शिकायत थी–यह क्या हो रहा है, इतना दुख! और उसे, जिसे तूने कहा कि परम भक्त है?

ध्यान रहे, अगर बुद्धि से हम सोचेंगे तो सिर्फ शिकायत उठेगी, प्रार्थना नहीं। बुद्धि शिकायत करना जानती है, प्रार्थना करना नहीं। बुद्धि जो-जो गलत है, वह दिखाती है; जो-जो ठीक है, वह नहीं।

मूसा ने बुद्धि से देखा, लेकिन परमात्मा के भक्त को कोई कभी बुद्धि से देख सका है? उसे देखने के लिये श्रद्धा का हृदय चाहिये। सोच-विचार से उसे कोई कभी नहीं देख सका। उसे देखने के लिये निर्विचार चित्त चाहिये। वह तो रहा दूर, उसके भक्त को भी देखना हो तो भी ध्यानस्थ भाव चाहिये।

काश! मूसा वहां चुपचाप आंख बंद करके बैठ गया होता। तो इस कहानी का अंत दूसरा होता; लेकिन मूसा विचारक हैं। काश! वह बैठ गया होता आंख बंद करके; उसने स्वीकार किया होता, कि जब परमात्मा ने भेजा इस घाटी में, तो जरूर कोई राज होगा। मैं जल्दी न करूं। चुपचाप बैठूं इस भक्त के पास, इसके भीतर क्या घट रहा है, उसकी थोड़ी सी भी झलक लेने की कोशिश करूं।

शायद तब हालत बिलकुल और हुई होती। भक्त के भीतर की गंध इसे छू लेती, तो शायद भक्त के शरीर पर रेंगते कीड़े-मकोड़े विलीन हो गये होते–वह वहां थे भी नहीं; भक्त के लिये थे ही नहीं–तो शायद भक्त का प्यासापन समाप्त हो गया होता। वह भक्त के लिये था भी नहीं। वह जैसे भक्त से परमात्मा ही कह रहा था कि मैं प्यासा हूं और मूसा पानी लेने चला गया; वहीं भूल हो गई। मूसा को अगर दिखाई पड़ता तो मूसा कहता, यह हो ही नहीं सकता कि परमात्मा का भक्त, और प्यासा हो। बात वहीं बदल जाती। मूसा को दिखाई पड़ता कि भीतर तो तृप्ति है, कैसी प्यास? और जब जंगली जानवर खा गया होता तो भी मूसा ने धन्यवाद दिया होता।

हृदय सदा धन्यवाद देता है, बुद्धि सदा शिकायत करती है। हृदय ने कभी शिकायत जानी नहीं, बुद्धि ने कभी धन्यवाद नहीं जाना। तो जब भी तुम्हारे मन में शिकायत उठे, समझना कि तुम विचार कर रहे हो; और जब भी धन्यवाद उठे, समझना कि ध्यान कर रहे हो।

धन्यवाद का भाव गहरी से गहरी बात है भक्त की। वह भक्त प्यासा था तो भी धन्यवाद उठ रहा था। वह भक्त मर रहा था तो भी धन्यवाद उठ रहा था।

मंसूर को काटा गया। जब मंसूर को काटने की तैयारी चल रही थी तो उसके आसपास भीड़, लाखों लोग इकट्ठे हो गये थे। एक फकीर, शिवली नाम का फकीर भी वहां खड़ा था। मंसूर ने कहा, ‘शिवली, तेरी प्रार्थना करने की चटाई तेरे पास है या नहीं?’

मंसूर को काटने की तैयारी चल रही है, तलवारों पर धार रखी जा रही है, शूली तैयार की गई है। और मंसूर की सूली ईसा से भी ज्यादा भयंकर थी, क्योंकि ईसा के तो हाथों में खीलें ठोंककर मार डाला गया, मंसूर के एक-एक अंग काटे गये, अलग-अलग। और मंसूर जिंदा था। पहले पैर काटे, फिर हाथ काटे, फिर आंखें फोड़ीं, फिर जीभ काटी, ऐसा एक-एक अंग काट कर मारा।

इधर मरने की तैयारी चल रही है और मंसूर एक फकीर को देखकर भीड़ में कहता है कि तेरी प्रार्थना की चटाई है या नहीं शिवली तेरे पास! शिवली ने कहा कि हां, मेरे पास प्रार्थना की चटाई है। उसने कहा, ‘दे, क्योंकि मैं नमाज पढ़ लूं।’ यहां मौत की तैयारी हो रही है, यहां मंसूर नमाज पढ़ रहा है। लेकिन हत्यारे गुस्से में आ गये, जब उन्होंने यह देखा कि मंसूर नमाज पढ़ने की बात कर रहा है। तो उन्होंने गुस्से में उसके दोनों पैर काट डाले। जब वह बैठा था नमाज की चटाई पर मुड़ा हुआ, तो उसके दोनों पैर काट डाले। मंसूर ने कहा, ‘धन्यवाद परमात्मा! क्योंकि मैं सोच ही रहा था कि वजू कैसे करूं? पानी नहीं है। खून मिल गया। और तेरी वजू इसके पहले पानी से करता रहा उसके लिये क्षमा करना। मुझे यह पता ही नहीं था, कि खून से ही असली वजू हो सकती है।’ तो उसने खून अपने हाथों पर लगा लिया, जैसा कि मुसलमान हाथ धोते हैं पानी से। फिर उसकी आंखें फोड़ दी गईं। लेकिन उसकी मुस्कुराहट जिंदा थी। तुम मुस्कुराहट को तो नहीं काट सकते। तुम प्रेम को तो नहीं काट सकते।

हत्यारों को भी दया आ गयी और आखिरी क्षण में उन्होंने कहा कि अब तेरा आखिरी क्षण है और हम तेरी जबान काटने जा रहे हैं, तुझे कुछ कहना तो नहीं? तो उसने कहा, जिससे मुझे कहना है उससे तो बिना जबान के भी कह सकता हूं। और तुमसे कहने को तो कुछ बचा नहीं है। तुमसे कह-कहकर तो यह हालत खड़ी हो गई कि तुम सदा उलटा समझे। लेकिन ताकि तुम भी सुन लो, उसने अपनी अंधी आंखें जो कि फूट गई थीं, जिनमें से खून बह रहा था ऊपर आकाश की तरफ उठाईं और कहा कि परमात्मा! इनको माफ कर देना, क्योंकि यह नहीं जानते, यह क्या कर रहे हैं। और मेरी तरफ से इनकी कोई भी शिकायत नहीं है। ये सिर्फ नासमझ हैं, इनको तू माफ कर देना।

हृदय ने कभी शिकायत जानी नहीं। हृदय कभी प्यासा नहीं हुआ। हृदय ने कभी कुछ मांगा नहीं। हृदय सदा परिपूर्ण है–आप्तकाम!

लेकिन मूसा चूक गये। चूकना निश्चित था, क्योंकि परमात्मा से जो पूछता है कि तेरा परम भक्त कहां, वह बुद्धि से ही जी रहा है। अन्यथा यह पूछने की जरूरत क्या थी? यह परम भक्त को खोजने की जरूरत क्या थी? यह बुद्धि ही तलाश कर रही है। तर्क गणित बिठा रहा है: इस रास्ते पर चलने जैसा है या नहीं?

कहानी मधुर है। और तुम भी निर्णय लेने की कभी जल्दी मत करना, क्योंकि यहां सम्राट कभी-कभी भिखारियों में मिल जाते हैं। कभी-कभी परम स्वस्थ आदमी महारोग में घिरा होता है। कभी-कभी जहां तृप्ति का दीया जल रहा है, वहां चारों तरफ प्यास की लपटें उठती हैं। और आखिरी क्षण में तो परीक्षा है। और प्रार्थना जब आखिरी क्षण को पार कर जाती है, जबकि शिकायत करने को सब कुछ था, और प्रार्थना शिकायत नहीं करती, तभी द्वार की कुंजी हाथ में आती है।

जब शिकायत करने को कुछ भी न हो, तब तुम शिकायत न करो तो इसमें कुछ गुण गौरव नहीं है। लेकिन जब शिकायत करने को सब कुछ हो और शिकायत न उठे, तभी जानना कि कसौटी पूरी हुई। तुम खरे सोने साबित हुए। और जल्दी मत करना। और बाहर से मत देखना। अगर कहीं भी तुम्हें खबर मिले…और बहुत दफे तुम्हें खबर मिलती है, तुम भी बाहर से देखकर लौट आते हो; जैसा मूसा के साथ हुआ। अगर तुम्हें जरा-सी भी खबर मिले कि कोई भक्त है, तो उसके पास बुद्धि को अलग करके बैठ जाना। इसको हमने सत्संग कहा है।

सत्संग का अर्थ है: जो पहुंच गया है या पहुंचने के करीब है, उसके पास बिना सोचे बैठ जाना। क्योंकि जब तुम सोचते हो तो तुम्हारे और उसके बीच दीवाल खड़ी हो जाती है। जब तुम नहीं सोचते तब बीच की दीवाल गिर जाती है और वह जो परम भक्त को मिला है, वह तुम में भी रिस-रिसकर बहने लगता है। उसकी धारा तुम्हारे पास आने लगती है। वह धीरे-धीरे अपने को तुममें उंड़ेल देता है। इसको हमने सत्संग कहा है।

मूसा को जरूरत थी सत्संग की। कितनी मुश्किल से तो उस घाटी में मूसा पहुंचा होगा! और वहां भी बुद्धि को लेकर पहुंच गया। वहां भी सोचने लगा, विचार करने लगा कि यह क्या हो रहा है? शिकायत करने लगा। तो घाटी में पहुंचा, फिर भी न पहुंच पाया। पूछा परमात्मा से, इशारा भी मिला, फिर भी चूक गया। तुम भी इस भांति मत चूक जाना। बहुत बार तुम भी इस भांति चूके हो। कोई क्षुद्र-सी बात शिकायत बन जाती है।

गुरजिएफ के पास लोग जाते थे, तो गुरजिएफ कहता, ‘कितने पैसे हैं तुम्हारे पास? निकालो।’ बस, इतने में ही उपद्रव हो जाता। क्योंकि पैसे पर हमारी इतनी पकड़ है! तो गुरजिएफ कहता, ‘पहले रुपये निकालकर रख दो।’ हम सोचते हैं, ‘संत और कैसा रुपया?’

गुरजिएफ पहले पैसा मांगता। एक सवाल का जवाब देता तो कहता, सौ रुपये। बहुत लोग भाग जाते, क्योंकि संतों से हमने मुफ्त पाने की आदत बना ली है। लेकिन मुफ्त तुम्हें वही मिलेगा, जो मुफ्त के योग्य था। असली पाना हो तो तुम्हें चुकाना ही पड़ेगा। चाहे धन से, चाहे ध्यान से; चुकाना पड़ेगा। कुछ तुम्हें छोड़ना पड़ेगा तो ही तुम असली को पा सकोगे।

ऐसा हुआ एक बार कि एक महिला आई और गुरजिएफ ने कहा कि तेरे जितने भी हीरे-जवाहरात हैं–पहने हुई थी, काफी धनी महिला थी–ये तू सब उतारकर रख दे। उस महिला ने आने के पहले यह सुना था, गुरजिएफ ऐसा करता है। तो बुद्धि इंतजाम कर लेती है; उसने जरा आसपास चर्चा की, गुरजिएफ के पुराने शिष्यों से पूछा।

एक महिला ने उसे कहा कि डरने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि जब मैं गई थी, तब भी उसने मेरी अंगूठी और गले का हार उतरवा लिया था। लेकिन दूसरे ही दिन वापिस कर दिये। तू डर मत! मैंने निष्कपट भाव से दे दिया था, कि जब वे मांगते हैं तो ठीक ही मांगते होंगे। दूसरे दिन बुलाकर उन्होंने मेरी पूरी पोटली वापस कर दी। और जब मैंने घर आकर पोटली खोली, तो उसमें कुछ चीजें ज्यादा थीं, जो मैंने दी नहीं थीं।

लोभ पकड़ा इस नयी स्त्री को, कि यह तो बड़ी अच्छी बात है। वह गई, वह प्रतीक्षा ही करती रही कि कब गुरजिएफ कहें! और गुरजिएफ ने कहा कि अच्छा, अब तू सब दे दे। उसने जल्दी से निकालकर रूमाल में बांधकर दे दिये। पंद्रह दिन प्रतीक्षा करती रही होगी, पोटली नहीं लौटी, नहीं लौटी, नहीं लौटी। आखिर वह उस स्त्री के पास गई। उसने कहा, मैं भी क्या कर सकती हूं?

गुरजिएफ से किसी ने पूछा कि यह आप कभी-कभी लौटा देते हैं, कभी नहीं लौटाते। तो गुरजिएफ ने कहा, ‘जो देता है, उसको मैं लौटा देता हूं। जो देता ही नहीं, उसको मैं लौटाऊं कैसे? मैं लौटा तभी सकता हूं, जब कोई दे। इस स्त्री ने दिया ही नहीं था। इसकी नजर लौटाने पर लगी थी, अब यह कभी लौटने वाला नहीं।

कभी-कभी तुम पहुंच भी जाओ गुरिजएफ जैसे लोगों के पास, तो तुम चूक जाओगे। कोई छोटी-सी बात तुम्हें चुका देगी। क्योंकि बुद्धि क्षुद्र को देखती है। उसका जाल बड़ा छोटा है। छोटी-छोटी मछलियां पकड़ती है। जितनी क्षुद्र मछली हो, उतनी जल्दी पकड़ती है। विराट उससे चूक जाता है। हृदय का जाल बहुत बड़ा है, उसमें सिर्फ विराट ही पकड़ में आता है।

तो जब तुम विराट को पकड़ने जाओ तो छोटा जाल लेकर मत जाना। यही मूसा से भूल हो गई। छोटा-सा जाल डाला। परम भक्त को पकड़ने गये थे, छोटी-मोटी मछलियां पकड़कर वापस लौट आये। तुम मूसा की भूल मत करना।

भगवान : …कुछ और?

भगवान! आपने मंसूर की कहानी कही। मंसूर के बारे में यह भी कथा है कि उनके शत्रु जब उनके हाथ-पांव काटते रहे, आंखें निकाल लीं, तब तक उनके होठों पर हंसी खेलती थी। लेकिन भीड़ से किसी उनके एक भक्त ने जब उन पर एक फूल फेंक दिया, तो उन्हें चोट लग गई और उनकी हंसी खो गई।

ऐसा हुआ, लाख लोगों की भीड़ थी और जब मंसूर के हाथ-पैर काटे जा रहे थे तो लोग पत्थर उन पर फेंक रहे थे। वह भीड़ उनके विरोधियों की थी।

मंसूर का कसूर क्या था? मंसूर का कसूर था कि उसने यह घोषणा कर दी कि मैं ब्रह्म हूं: अनल्हक। ‘अहं ब्रह्मास्मि’–यह उसने घोषणा कर दी। मुसलमान इसे बर्दाश्त न कर सके। क्योंकि मुसलमान कहते हैं कि भक्त, भक्त ही रहेगा, भगवान नहीं हो सकता।

भगवान होने की हिम्मत तो सिर्फ हिंदुओं ने की है। इसलिए हिंदुओं का धर्म जिस ऊंचाई पर पहुंचा, दुनिया का कोई धर्म नहीं पहुंचा। एक कदम कम रह जाता है। लेकिन उसका भी कारण है क्योंकि इस्लाम ने कहा कि अगर भक्त भगवान होने का दावा करे, तो सौ में निन्यान्नबे मौके ये हैं कि सिर्फ अहंकार की घोषणा हो। इस अहंकार को हम नहीं चलने देंगे। भक्त को तो इतना मिट जाना है कि वह कभी भूलकर भी नहीं कह सके कि मैं भगवान हूं। और भक्त कितनी ही ऊंचाई पर पहुंचे, कितना ही निकट पहुंचे, लेकिन भगवान भगवान रहेगा, भक्त भक्त रहेगा। भगवान का प्यारा हो जाएगा, उसके हृदय का शृंगार हो जाएगा, लेकिन फासला कायम रहेगा।

इस्लाम द्वैतवादी है। इस द्वैतवाद के पीछे वजह है क्योंकि बहुत अहंकारी चित्त को मन होता है घोषणा कर देने का, कि मैं भगवान हूं। और यह घोषणा अहंकार की हो सकती है; यह तुम्हारा अनुभव न हो।

हिंदुस्तान में ऐसा हुआ है। हजारों लोग इस घोषणा को कर देते हैं कि वे ब्रह्म को उपलब्ध हो गये, वे ब्रह्म हो गये और यह सिर्फ उनके अहंकार का ही खेल होता है। वे कहीं पहुंचे नहीं होते। वहीं जीते हैं, जहां दूसरे संसारी जी रहे हैं, उसमें कोई रत्ती भर फर्क नहीं होता। कोई गहराई नहीं, कोई ऊंचाई नहीं। इस घोषणा के कारण नुकसान होता है।

तो इस्लाम ने इस पर रोक लगा दी। इस्लाम की रोक सार्थक है एक अर्थ में, क्योंकि सौ मौकों पर निन्यान्नबे मौके पर तो गलत लोग घोषणा करते हैं। एकाध आदमी कभी ठीक घोषणा करता है। लेकिन इस्लाम कहता है, वह आदमी भी घोषणा से चुप रहे क्योंकि उसकी घोषणा के कारण निन्यान्नबे गलत आदमियों के लिये रास्ता खुल जाता है। तो इस्लाम सख्त है इस संबंध में।

और जब मंसूर ने घोषणा की, ‘अनल्हक’ की; कि मैं परमात्मा हूं; भक्त मिट गया, अब मैं भगवान हूं; निकटता इतनी हो गई कि अब कोई दूरी नहीं है, अद्वैत हो गया है; तो इस्लाम को मानने वाले लोग नाराज हुए। उन्होंने मंसूर को पकड़ लिया। भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग पत्थर फेंक रहे हैं, हाथ-पैर काटे जा रहे हैं, मंसूर लहूलुहान फांसी पर लटका है। लेकिन उसके होठों की मुस्कुराहट कायम है। वह हंस रहा है।

और तभी एक फकीर जो भीड़ में खड़ा था, जिस फकीर का मैंने नाम लिया शिवली, जिससे उसने प्रार्थना की चटाई मांगी थी। सब तो पत्थर फेंक रहे थे, शिवली ने एक फूल फेंका। और कहते हैं, मंसूर की मुस्कुराहट खो गई और उसकी फूटी आंखों से आंसू गिरे।

शिवली तो बहुत घबड़ा गया। सामने ही खड़ा था और शिवली उसे प्रेम करता था। शिवली खुद भी एक कीमती आदमी था इसलिए उसने फूल भी फेंका था। मगर यह देखकर बड़ा हैरान हुआ कि पत्थरों की चोट से आंसू न आये, मुस्कुराहट न खोई, और यह फूल से सब मुस्कुराहट खो गई, आंसू आ गये!

शिवली के पास एक दूसरा फकीर जुन्नैद खड़ा था, उसने पूछा कि यह मेरी समझ के बाहर है मंसूर! जाने के पहले जवाब दे जाओ। पत्थर बरस रहे हैं और तुम मुस्कुरा रहे हो! शिवली ने सिर्फ एक फूल फेंका, और तुम्हें इतनी चोट लगी कि तुम्हारी मुस्कुराहट खो गई और तुम्हारी आंखों से आंसू गिरे?

मंसूर ने कहा, और बाकी लोग तो नासमझ हैं। उनके पत्थर भी क्षमा किये जा सकते हैं। लेकिन शिवली जानता है कि उसका फूल भी क्षमा नहीं हो सकता। शिवली भलीभांति जानता है, मैं कौन हूं। शिवली मुझे पहचानता है, फिर भी फूल फेंक रहा है। और कारण इसका सिर्फ यह है कि वह भीड़ में अपने को छिपाना चाहता है ताकि कोई यह न समझे कि मेरा कोई मित्र खड़ा है या मेरा कोई जानने वाला प्रेमी खड़ा है। भीड़ में छुपाना चाहता है। भीड़ को ऐसा लगे कि यह भी फेंक रहा है। भीड़ तो पागल है।

और जब बाद में जुन्नैद ने शिवली से पूछा कि क्या सचाई है? तो उसने कहा कि मंसूर ने पकड़ लिया। मैं सिर्फ अपने को छिपाना चाहता था कि भीड़ को यह पता न चले कि मैं उसका भक्त हूं। इसलिए ऐसा न लगे कि मैं बिना कुछ फेंके खड़ा हूं, नहीं तो लोग पहचान लेंगे। और लोगों ने पहचान लिया तो जो गति मंसूर की हुई, वही गति मेरी होगी। इस भीड़ से बाहर निकलना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए मैं फूल छिपाकर ले गया था कि जब भीड़ पत्थर फेंकेगी तो मैं भी कुछ फेंकता रहूंगा, ताकि लोगों को लगे कि मैं भी फेंक रहा हूं; मैं भी कोई मंसूर का साथी नहीं हूं।

मंसूर लेकिन पहचान गया। अंधा मंसूर पहचान गया। अंधे मंसूर ने देख लिया कि फूल शिवली की तरफ से आता है। अंधे मंसूर की समझ में पड़ गया कि पत्थर और फूल में फर्क है।

मंसूर जैसे लोग अंधे होते ही नहीं। तुम उनकी आंखें फोड़ सकते हो, उनके देखने को नहीं छीन सकते। और साधारण आदमी अंधा ही होता है। सिर्फ आंख होती है, लेकिन उससे कुछ दिखाई नहीं पड़ता।

मंसूर की मुस्कुराहट का खो जाना और आंख से आंसू का आना बड़ा कीमती है। वह यह कह रहा है कि शिवली, अभी भी भीड़ के साथ अपने को एक करने की आकांक्षा है? अभी भी भीड़ से इतना भय है? इसलिए रो रहा है कि तू इतना पहुंचकर भटक रहा है, वापस लौट रहा है।

संन्यासी अगर समाज से मुक्त न हो तो उसके संन्यास की कीमत क्या है?

मंसूर अपने लिये नहीं रो रहा है, शिवली के लिये रो रहा है। उसकी मुस्कुराहट खो गई, क्योंकि एक व्यक्ति जो पहुंच रहा था शिखर पर, वह वापस गिर गया। और उसने झांककर देख लिया शिवली के भीतर, कि समाज के भय की वजह से, भीड़ के भय की वजह से…।

ठीक ऐसी घटना जीसस के जीवन में घटती है। जिस रात जीसस को पकड़ा गया, पकड़ने के पहले जीसस ने उन सारे मित्रों को इकट्ठा किया और उनसे कहा कि अब तुम सुन लो, यह रात आखिरी है। रात पूरे होने के पहले मैं पकड़ लिया जाऊंगा। एक शिष्य ने खड़े होकर कहा कि यह कभी नहीं होगा, जब तक हम जिंदा हैं। जीसस ने कहा कि तू सुबह होने के पहले तीन बार इनकार कर देगा कि जीसस से मेरा कोई संबंध है। सुबह होने के पहले तीन बार, मुर्गा बांग दे उसके पहले तू तीन बार इनकार कर देगा कि तेरा जीसस से कोई संबंध है। और तू कह रहा है, यह कभी नहीं होगा? यह तेरे अहंकार की आवाज है, तेरे हृदय की नहीं। पर उस शिष्य ने कहा कि आप गलत समझ रहे हैं। आप मुझे समझ ही नहीं पाये। आप देख लेना। जान चली जाए, लेकिन तुम पकड़े न जा सकोगे।

और आधी रात जीसस ने कहा कि मैं अपनी आखिरी प्रार्थना कर लूं; और उस युवक को, जिसने कहा था कि मेरे जिंदा रहते…। जीसस ने कहा कि आखिरी रात है, मैं प्रार्थना कर लूं। तू पहरे पर खड़ा हो जा। देख, सो मत जाना। क्योंकि दुश्मन करीब हैं, और जल्दी ही मैं पकड़ा जाऊंगा।

जीसस आधी प्रार्थना करके पीछे आये, देखा, वह आदमी खर्राटे ले रहा है। जीसस ने उसे हिलाया कि तू सो गया? तू जीवन देने को तैयार है लेकिन आधा घड़ी की नींद देने को तैयार नहीं। उस आदमी ने कहा, झपकी लग गई। कुछ होश ही न रहा; अब मैं जागूंगा। फिर थोड़ी देर बाद जीसस आये, वह आदमी फिर सोया है। जीसस की पूरी प्रार्थना होने के पहले वह आदमी तीन दफे सो चुका। और जीसस ने कहा कि तू इतना बेहोश है कि जाग भी नहीं सकता घड़ी भर, और तू जीवन को देने की बातें करता है! उसने फिर भी कहा कि आप मानो, जान लगा दूंगा। मेरी लाश पर से ही तुम्हें कोई ले जा सकता है।

और फिर भोर होने के पहले जीसस पकड़ लिये गये। दुश्मन उन्हें ले जाने लगे। वह युवक, जिसने कहा था, वह भी भीड़ में साथ हो लिया। रात अंधेरी थी, लोग मशालें जलाये थे, और जीसस को पकड़कर कारागृह की तरफ ले जा रहे थे। मशालों की रोशनी में लोगों को लगा कि कोई अजनबी भी है। अपना आदमी नहीं है। तो किसी ने उसे टोककर पूछा कि तू कौन है? तू यहां कैसे आया? क्या तू जीसस का साथी है? उसने कहा कि नहीं, कौन जीसस? मैं तो उन्हें पहचानता भी नहीं। मैं तो एक यात्री हूं। रास्ते से गांव की तरफ जा रहा हूं, रोशनी देखकर तुम्हारे साथ हो लिया हूं।

जीसस ने पीछे मुड़कर कहा कि देख, अभी मुर्गे ने बांग नहीं दी। लेकिन कोई भी न समझ पाया सिवाय उसके कि क्या मतलब था कि ‘देख, अभी मुर्गे ने बांग भी नहीं दी!’ और निश्चित ऐसा ही हुआ कि तीन बार मुर्गे की बांग देने के पहले उस आदमी को बार-बार लोगों ने पूछा कि तू सच बता। उसने कहा कि सच बताता हूं कि मैं एक अजनबी हूं। मैं नहीं जानता, कौन जीसस? कैसा जीसस? मन में वह यही सोच रहा था कि इस भांति छिपाकर मैं जीसस के पीछे जा रहा हूं उनकी सुरक्षा के लिए!

मन बड़ा धोखेबाज है। यह बड़ी अजीब व्याख्याएं खोजता है। यह आदमी यह नहीं समझ पा रहा है कि मुझमें साहस नहीं है। जीसस का साथी बताने का साहस नहीं है क्योंकि उस साहस का मतलब सूली होगी।

शिवली भी बता नहीं पा रहा है कि मैं साथी हूं। पत्थर तो नहीं फेंकना चाहता क्योंकि मंसूर से इसका प्रेम है। लेकिन बिना फेंके भी नहीं रह सकता क्योंकि भीड़ का डर है। इसलिए उसने फूल चुन लिये हैं। यह मन की तरकीब है। ताकि मंसूर को लगे कि फूल फेंके गये हैं और मंसूर खुश हो कि शिवली, मेरा प्रेमी फूल फेंक रहा है। और भीड़ समझे कि पत्थर फेंके जा रहे हैं। उस उपद्रव में, शोर-गुल में कौन देखता है? वह दो तरफा काम कर रहा है। भीड़ को राजी रखना चाहता है और मंसूर को भी विदा देना चाहता है आखिरी क्षण में, ताकि वह इस भाव से जाएं कि कोई भी जब मेरा साथी नहीं था, तब भी शिवली मेरा साथी था।

लेकिन मंसूर को धोखा देना मुश्किल है। मन को धोखा दिया जा सकता है। जिनके पास मन नहीं, उन्हें धोखा देना असंभव है। अगर तुम धोखा भी दोगे तो वह खुद को ही दिया गया धोखा सिद्ध होगा।

मंसूर देख लिए शिवली की इस तरकीब को, इस वंचना को। उनकी फूटी आंखों से आंसू बहे। उनकी मुस्कुराहट खो गई। और उन्होंने कहा, औरों के पत्थर भी क्षम्य हैं, क्योंकि वे नहीं जानते क्या कर रहे हैं। लेकिन शिवली, तेरे फूल भी क्षमा नहीं किये जा सकते हैं। क्योंकि तू जान-बूझकर कर रहा है। तुझसे ऐसी आशा नहीं थी। तू पतित हो रहा है।

लेकिन वे आंसू शिवली के लिए हैं। उसके दुख में कि आदमी जरा-सी प्रतिष्ठा, समाज का मोह, शरीर का बचाव, इसके लिये कितना खो रहा है! किसको धोखा दे रहा है? एक मरते हुए बुद्ध को धोखा दे रहा है। जिंदा में तो हम बुद्धों को धोखा देते हैं, लेकिन मरते क्षण में तो थोड़ा होश आना चाहिये। वहां भी धोखा दे रहा है।

मंसूर की घोषणा ने उसे मुसीबत में डाला। और मंसूर भी जानता था कि मुसीबत होगी क्योंकि इस्लाम को मानने वाले लोगों के बीच यह घोषणा करनी कि मैं परमात्मा हूं, सबसे बड़ा कुफ्र, सबसे बड़ा पाप है। मंसूर की घोषणा के पहले उसके मित्रों ने बहुत बार कहा था कि तुम ऐसी घोषणा मत करो। मंसूर ने कहा, मैं जानता हूं कि लोग इसे समझ न पाएंगे। यह भी मैं जानता हूं कि नासमझी होगी। और यह भी मैं जानता हूं कि यह खतरनाक है। लेकिन सत्य को तो बोलना ही होगा; उसके चाहे कोई भी परिणाम हों। परिणामों के कारण असत्य को तो नहीं बोला जा सकता। मैं कर भी क्या सकता हूं! मैं ब्रह्म हूं, ऐसा मैंने जाना है, ऐसा मेरा अनुभव है। इस अनुभव के विपरीत मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। इसके जो भी परिणाम हों।

जब भी कोई व्यक्ति अनुभव को उपलब्ध होता है तो उससे विपरीत कुछ भी नहीं कर सकता।

यह शिवली बौद्धिक रूप से ही फकीर रहा होगा। यह इसका अनुभव न था। यह फकीरी इसके भीतर खिली नहीं थी, उधार थी। इसने फकीरों के साथ-साथ रहकर फकीरी सीख ली होगी। यह रंग किसी दूसरों के कपड़ों से लग गया था। यह धब्बे की तरह था। यह रंग भीतर से नहीं आया था। यह लाली अपनी नहीं थी, उधार थी, बासी थी। जरा-सी वर्षा हुई कि धुल गई। इसलिए मंसूर रोने लगा।

मंसूर के हंसने को भी ठीक से समझना और मंसूर के रोने को भी। क्योंकि मंसूर जैसे व्यक्ति हंसते हैं तो भी उसमें बड़ा अर्थ होता है, रोते हैं तो भी बड़ा अर्थ होता है। मंसूर जैसे व्यक्ति जो भी करते हैं, उसके बड़े गहरे अभिप्राय हैं, जिनको उघाड़ने में सदियां लग जाती हैं।

आज इतना ही।


Filed under: बिन बाती बिन तेल--(झेन कहानियां) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अध्‍यात्‍म–उपनिषद–प्रवचन–14

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आकाश के समान असंग है जीवन्‍मुक्‍त–चौदहवां प्रवचन

 सूत्र:

स्यमसंगमुदासीनं परिज्ञाय नत्रो यथा।

न श्लिष्यते यति: किंचित् कदाचिद्भाविकर्मभि:।। 51।।

न नभो घटोयोगेन सुरणन्धेन लिप्यते।

तथऽऽत्मोपाधियोगेन तद्धमैंनेव लिप्यते।। 52।।

ज्ञानोदयात् पुराऽऽरब्‍धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति।

यदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्टवाणवत्।। 53।।

व्याघ्रबुद्धया विनिर्मुक्तो वाण: पश्चातु गोमतै।।

न तिष्ठति भिनत्येव लक्ष्मं वेगेन निर्भरम्।। 54।।

अजरोऽस्टयमरोऽध्स्मीति व आत्मानं प्रयद्यते।

तदात्मना तिष्ठतोध्स्य कुत: प्रारब्ध कल्पना।। 55।।

आकाश के समान अपने को असंग तथा उदासीन जान कर योगी भविष्य के कर्मों में लेशमात्र लिप्त नहीं होता।

जिस प्रकार मदिरा के घड़ों में रहा हुआ आकाश मदिरा की गंध से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा उपाधि का संयोग होने पर भी उसके धर्मों से लिप्त नहीं होता।

जिस प्रकार लक्ष्य को उद्देश्य करके छोड़ा बाण लक्ष्य को बींधे बिना नहीं रहता, वैसे ही शान के उदय होने के पहले किया गया कर्म, जान का उदय होने के बाद भी उसका फल दिए बिना नहीं रहता। (अर्थात, किए हुए कर्म का फल तो ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भी भोगना पड़ता है। ज्ञान द्वारा कर्म का नाश नहीं हो सकता। )

बाघ समझ कर छोड़ा हुआ बाण, छूटने के बाद, यह बाघ नहीं है वरन गाय है, ऐसी बुद्धि होने पर भी रुक नहीं सकता, पर वेगपूर्वक लक्ष्य को पूर्ण तरह बेधता ही है। इसी प्रकार किया हुआ कर्म ज्ञान हो जाने के बाद भी फल प्रदान करता है।

मैं अजर हूं, मैं अमर हूं—इस प्रकार जो अपने को आत्मारूप स्वीकार करता है तो वह आत्मारूप ही रहता है, अर्थात उसको प्रारब्ध कर्म की कल्पना कहां से हो? (अर्थात ज्ञानी को प्रारब्ध कर्म का संबंध नहीं रहता।)

 

चैतन्य के स्वरूप के संबंध में कुछ गहरे इशारे हैं। जीवनमुक्‍त ही इन अनुभवों से गुजरता है। जीवनमुक्‍त ही जान पाता है इन सूत्रों को। क्योंकि हमें चैतन्य का सीधा कोई अनुभव नहीं है। जो भी हम चेतना के संबंध में जानते हैं, वे भी मन में पड़े हुए प्रतिबिंब ही हैं। इस बात को पहले समझ लें, फिर हम सूत्रों में प्रवेश करें।

मन एक अदभुत यंत्र है। और अब तो इस बात को वैज्ञानिक आधार भी मिल गए हैं कि मन यंत्र से ज्यादा नहीं है। अब तो कंप्यूटर मन से भी ज्यादा कुशल काम करता है। आदमी को चांद पर भेजने की जरूरत नहीं है, एक यंत्र भी भेजा जा सकता है। रूस ने यंत्र भेजे हुए हैं, वे कंप्यूटर हैं। वे चांद के संबंध में सूचनाएं इकट्ठी करके रूस को भेज देते हैं। यंत्र मात्र है, लेकिन मन जैसा ही सूक्ष्म है और आस—पास जो भी घटित होता है उसको संगृहीत कर लेता है।

मैंने पीछे आपको कहा कि जब समाधि से लौटता है जीवनमुक्‍त वापस, तो एक मित्र पूछने आए थे कि जब समाधि में जाती है चेतना, तो मन तो पीछे छूट जाता है, और मन ही स्मृति रखता है, तो जो अनुभव चेतना को घटित होते हैं, जब चेतना मन में लौटती है, तो किसे उनका स्मरण आता है? क्योंकि चेतना गई थी अनुभव में, और चेतना कोई स्मृति रखती नहीं, चेतना पर कोई रेखा छूटती नहीं, और मन गया नहीं अनुभव में, मन पीछे रह गया था, तो स्मरण किसको आता है? फिर कौन पीछे लौट कर देखता है?

मन अनुभव में नहीं गया, लेकिन अनुभव के द्वार पर ही छूट गया था। लेकिन द्वार से ही जो भी घटना घट रही है उसे पकड़ता है। मन तो यंत्र है, और उसका उपयोग दोतरफा है बाहर के जगत में जो घट रहा है उसे भी मन पकड़ता है, भीतर के जगत में जो घट रहा है उसे भी मन पकडता है। मन तो दोनों तरफ, उसकी परिधि में जो भी घटता है, उसे पकड़ता है। इससे कोई संबंध नहीं है कि मन जाए। वहां दूर कैमरा रखा हो, तो यहां जो घट रहा है वह कैमरा पकड़ता रहेगा। वहां दूर टेपरिकार्डर रखा हो, यहां जो मैं बोल रहा हूं, पक्षी गीत गाएंगे, हवाएं गुजरेंगी वृक्षों से, पत्ते गिरेंगे, वह टेपरिकार्डर उन्हें पकड़ता रहेगा।

मन को ठीक से समझ लें कि मन सिर्फ एक यंत्र है, मन में कोई चेतना नहीं है, मन में कोई आत्मा नहीं है, मन प्रकृति के द्वारा विकसित जीव—यंत्र है, जैविक यंत्र है, बायोलाजिकल मशीन है। मन, हमारी आत्मा और जगत के बीच में है। यह यंत्र जो है, शरीर में छिपा है और जगत और आत्मा के बीच में है। जगत में जो घटता है मन उसे भी पकड़ता है। इसे पकड़ने के लिए उसने पांच इंद्रियों के द्वार खोले हुए हैं।

इंद्रियां आपके मन के द्वार हैं। जैसे कि टेपरिकार्डर है, तो उसका माइक मेरे पास लगा हुआ है। टेपरिकार्डर हजारों मील दूर रख दें, यह माइक पकड़ता रहेगा और टेपरिकार्डर तक खबर पहुंचती रहेगी।

आपकी इंद्रियां माइक की तरह हैं मन के। पांच इंद्रियां मन के पांच द्वार हैं। रंग के जगत में, प्रकाश के जगत में, रूप के जगत में कुछ भी घटित होता है, तो मन ने शरीर तक आंख पहुंचाई हुई है, वह आंख पकड़ती रहती है। आंख का कैमरा घूमता रहता है, वह पकड़ता रहता है। ध्वनि के जगत में कुछ घटित होता है, संगीत होता है, शब्द होता है, मौन होता है, तो कान पकड़ता रहता है। और प्रतिपल जो पकड़ा जा रहा है, वह मन को सवांदित किया जा रहा है। मन उसे संगृहीत करता रहता है। हाथ छूता है, जीभ स्वाद लेती है, नाक गंध लेती है, वह सब मन तक पहुंच रहे हैं।

आपकी सारी इंद्रियां मन के द्वार हैं। ये पांच इंद्रियां मन के द्वार हैं। एक और इंद्रिय है, जिसका नाम आपने सुना होगा, लेकिन कभी इस भांति नहीं सोचा होगा, वह है अंतःकरण। वह इंद्रिय, भीतर जो भी घटित होता है, उसको पकड़ती है। वह भी इंद्रिय है। भीतर जो भी घटित होता है, जब एक आदमी समाधि में डूब जाता है, तो अंतःकरण पकड़ता रहता है—क्या घट रहा है! शांत , मौन, आनंद, परमात्मा की प्रतीति—क्या हो रहा है!

अंतःकरण भीतर की तरफ खुला हुआ माइक है। वह भीतर की तरफ गई रिसेप्टिविटी है। और वहां एक की ही जरूरत है, वहां पांच की जरूरत नहीं है। पांच की तो जरूरत इसलिए है कि पंच महाभूत हैं बाहर और हर महाभूत को पकड़ने के लिए एक अलग इंद्रिय चाहिए। भीतर तो एक ब्रह्म ही है, इसलिए पांच इंद्रियों की कोई जरूरत नहीं, एक ही अंतःकरण भीतर के अनुभव को पकड़ लेता है।

तो छह इंद्रियां हैं आदमी की पांच बहिर्मुखी, एक अंतर्मुखी। और मन यंत्र है बीच में खड़ा हुआ; एक शाखा भीतर गई है, वह पकड़ती रहती है। भीतर कुछ भी घटित हो, मन पर सब अंकन हो जाते हैं। मन के जाने की जरूरत नहीं है। और इसीलिए जब समाधि से साधक लौटता है मन में, तो मन ही अपने रिकार्ड उसे दे देता है कि यह—यह भीतर हुआ। तुम जब यहां नहीं थे, तब यह—यह भीतर हुआ।

आप यहां चले जाएं अपने टेपरिकार्डर को छोड़ कर, घंटे भर बाद आप लौटें, टेपरिकार्डर आपको बता देगा यहां क्या—क्या शब्द बोले गए, क्या—क्या ध्वनि हुई। टेपरिकार्डर का जीवंत होना जरूरी नहीं है। मन भी जीवंत नहीं है, मन भी पदार्थ है और सूक्ष्म यंत्र है। यह जो पदार्थ यंत्र है, यह दोनों तरफ से संगृहीत करता चला जाता है। इसलिए समाधि से लौटा हुआ साधक मन के द्वारा ही अनुमान करता है, मन से ही जानता है।

तो जितना परिशुद्ध मन हो, उतनी मन की खबर सही होती है; और जितना अशुद्ध मन हो, उतनी गलत होती है। जैसे कि टेपरिकार्डर आपका बिगड़ा हो, तो जो कहा जाए वह रिकार्ड तो करे, लेकिन पीछे समझ में न आए कि क्या कहा गया। रूप बिगड़ जाए, आकार बिगड़ जाए, ध्वनि बिगड़ जाए—कुछ समझ में आए, कुछ समझ में न आए।

तो सूफी कहेगा फना, हिंदू कहेगा समाधि, बौद्ध कहेगा निर्वाण। ये शब्द तो मन के पास हैं। तो मन तत्काल अपनी भाषा में अनुवादित कर लेगा; जो भी भीतर घटित होगा, मन का यंत्र अनुवादित कर लेगा। हमें कठिनाई लगती है कि यंत्र कैसे अनुवादित करता होगा?

तो आपको यंत्रों के संबंध में बहुत पता नहीं है, इसलिए कठिनाई लगती है। नवीनतम जो यंत्रों की शोध है, वह बहुत अदभुत है। जो मन कर सकता है, वह काम सभी यंत्र कर सकता है। ऐसा कोई भी काम मन का नहीं है, जो यंत्र न कर सके। इससे एक बड़ी खतरनाक बात हो गई कि अगर मन का सारा काम यंत्र कर लेता है तो मन तो यांत्रिक हो गया। तो जो लोग मानते हैं कि मन के पार कोई आत्मा नहीं है, उनके लिए आदमी यंत्र हो गया, फिर उसमें कुछ बचा नहीं। अगर यह सच है कि कोई आत्मा नहीं है, तो आदमी सिर्फ एक यंत्र है। और बहुत कुशल यंत्र भी नहीं, उससे ज्यादा कुशल यंत्र हो सकते हैं। यू. एन. ओ. में पांच भाषाओं में यंत्र अनुवाद कर देते हैं। मैं यहां बोल रहा हूं हिंदी में, तो पांच भाषाओं में अनुवाद करने की व्यवस्था यू. एन. ओ में की गई है, पांच बड़ी भाषाओं में तत्काल अनुवाद हो जाता है। कोई अनुवादक नहीं करता, यंत्र ही। मैं यहां कहता हूं प्रेम, तो अंग्रेजी में अनुवाद करने वाला यंत्र तत्काल लव कर देता है। यह प्रेम की जो चोट पड़ती है भीतर यंत्र पर, यंत्र वैद्युतिक रूप से इसको दूसरी चोट में बदल देता है, जो लव का उदघोष कर देती है।

तो यंत्र अनुवाद करते हैं; यंत्र गणित करते हैं, यंत्र स्मृति रखते हैं, यंत्र सभी काम करने लगे हैं जो मनुष्य का मन करता है। इसलिए जब पहली दफा योगियों ने, उपनिषदों ने, तांत्रिकों ने कहा था कि मन एक यंत्र है, तो दुनिया की समझ में नहीं आया था। लेकिन अब तो विज्ञान ने यंत्र बना दिए हैं, और कोई अड़चन नहीं है।

यह मन दोतरफा संग्रह करता है—समाधि का भी, संसार का भी। संसार की खबर भी मन से मिलती है और ब्रह्म की खबर भी मन से मिलती है।

अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें। जिसको यह अनुभव हो जाता है कि सारे प्रतिबिंब मन पर निर्मित होते हैं, जिसे यह अनुभव हो जाता है कि जितने भीतर मैं प्रवेश करता हूं, केंद्र पर जाकर, मेरे ऊपर कोई भी संस्कार निर्मित नहीं होते हैं, सारे संस्कार मन पर ही निर्मित होते हैं, स्वयं पर नहीं—तब यह सूत्र समझ में आएगा। ‘ आकाश के समान अपने को असंग तथा उदासीन जान कर योगी भविष्य के कर्मों में लेशमात्र लिप्त नहीं होता।’

बहुत बातें हैं इसमें समझने की।

‘आकाश के समान अपने को असंग तथा उदासीन जान कर……।’

आकाश को हम देखते हैं रोज। एक पक्षी आकाश में उड़ता है, कोई चिह्न पीछे नहीं छूट जाते। जमीन पर चलते हैं, पदचिह्न छूट जाते हैं। गीली जमीन हो, और ज्यादा छूट जाते हैं। पत्थर की जमीन हो, हलके छूटते हैं। लेकिन कोशिश करके गहरे किए जा सकते हैं। लेकिन आकाश में पक्षी उड़ता है तो कोई पदचिह्न नहीं छूटते। पक्षी उड़ जाता है, आकाश वैसा का वैसा होता है, जैसा पहले था पक्षी के उड़ने के। कोई उपाय नहीं है पता लगाने का कि यहां से पक्षी उड़ा है। आकाश में बादल घिरते हैं, आते हैं, चले जाते हैं, आकाश वैसा ही बना रहता है जैसा था।

आकाश को अशुद्ध करने का, संस्कारित करने का, आकाश में निशान बनाने का कोई उपाय नहीं है। पानी में हम बनाते हैं लकीरें, बनती हैं, बनते ही मिट जाती हैं। पत्थर पर बनाते हैं, बनती हैं, मिटने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। आकाश में लकीर ही नहीं खिंचती। बनती ही नहीं, मिटने का कोई सवाल नहीं है। फर्क को समझ लें? आकाश में लकीर बनती ही नहीं। मैं अपनी अंगुली खींचता हूं आकाश में, अंगुली खिंच जाती है, लकीर नहीं बनती, मिटने का कोई सवाल नहीं है।

जिस दिन कोई व्यक्ति मन के पार उठता है, जिस दिन चेतना मन के पीछे सरक जाती है, उस दिन अनुभव होता है कि इस आत्मा पर आकाश की भांति अब तक कोई भी—कोई भी—निशान निर्मित नहीं हुआ है, यह सदा से शुद्ध, और सदा से बुद्ध, इस पर कोई विकृति घटित नहीं हुई है।

‘आकाश की तरह अपने को असंग।’

असंग बड़ा कीमती शब्द है। असंग का अर्थ है, सबके साथ है और फिर भी साथ नहीं है। आकाश सब तरफ मौजूद है। वृक्ष को भी आकाश ने घेरा है, आपको भी आकाश ने घेरा है, साधु को भी आकाश घेरे हुए है, असाधु को भी आकाश घेरे हुए है, अच्छा कर्म हो रहा हो तो भी आकाश मौजूद है, बुरा कर्म हो रहा हो तो भी आकाश मौजूद है, पाप करो, पुण्य करो, जीयो, मरो, आकाश मौजूद है, लेकिन असंग। आपके साथ मौजूद है, लेकिन संगी नहीं है आपका। आपसे कोई संबंध नहीं बनाता। मौजूद है, लेकिन मौजूदगी असंग है। हमेशा मौजूद है, फिर भी आपसे कोई दोस्ती नहीं बनती, कोई संबंध निर्मित नहीं होता। असंग का अर्थ है असंबंधित। है तो, लेकिन कोई संबंध नहीं है। आप हट जाएं, तो आकाश को पता भी नहीं चलता कि आप कभी थे।

कितनी पृथ्वियां बनती हैं और खो जाती हैं! कितने लोग जन्मते हैं और मर जाते हैं! कितने महल खड़े होते हैं, धूल—धूसरित हो जाते हैं! कितना हो चुका है, आकाश के पास कोई भी हिसाब नहीं है। आकाश से पूछो, आकाश के पास कोई इतिहास नहीं है, सब खाली है। जैसे कभी कुछ न हुआ हो, आकाश ऐसा ही है। लौट कर पीछे देखें, अरबों—खरबों वर्ष! कहते हैं पृथ्वी को ही हुए चार अरब वर्ष हो गए! इस चार अरब वर्ष में इस छोटी सी पृथ्वी पर कितना नहीं घटा है, कितने युद्ध, कितने प्रेम, कितनी मित्रताएं, कितनी शत्रुताएं, कितनी जीत, कितनी हार, कितने लोग। आकाश के पास कोई हिसाब नहीं। जैसे कभी कुछ न हुआ हो, कोई रेखा नहीं छूट गई।

भारतीयों ने इतिहास नहीं लिखा। पश्चिम के लोग बहुत हैरान होते हैं कि भारत के पास ऐतिहासिक बुद्धि क्यों नहीं है! हमें कुछ पक्का पता नहीं कि राम कब हुए। हमें कुछ पक्का हिसाब नहीं कि कृष्ण की जन्मतिथि सच में, ऐतिहासिक रूप से क्या है। कोई पक्का नहीं है। कथाएं हमारे पास हैं, लेकिन ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं।

इतिहास को मनुष्य की दुनिया में प्रवेश कराने का श्रेय ईसाइयत को है। जीसस जिस अर्थ में ऐतिहासिक हैं, उस अर्थ में बुद्ध, कृष्ण, परशुराम ऐतिहासिक नहीं हैं। जीसस के साथ दुनिया दो हिस्सों में बंट जाती है। पहली दुनिया, उसके पहले की दुनिया गैर—ऐतिहासिक हो जाती है, प्रि—हिस्टारिकल, पूर्व—ऐतिहासिक; और जीसस के बाद की दुनिया ऐतिहासिक हो जाती है, हिस्टारिकल हो जाती है। इसलिए उचित ही है कि सन जीसस का चले। ईसवी सन चले, यह उचित ही है, क्योंकि जीसस के साथ जगत में इतिहास प्रवेश करता है। इसलिए हम कहते हैं जीसस के पूर्व और जीसस के बाद—रेखा खिंच जाती है।

भारत ने कभी इतिहास नहीं लिखा है, उसका कारण है। उसका एक कारण बुनियादी यही है कि भारत ने यह अनुभव किया है कि जिसके भीतर सब घटता है—जिस आकाश के भीतर—वही कोई हिसाब नहीं रखता, तो हम व्यर्थ का हिसाब क्यों रखें? जिसके भीतर सब घटता है, उसके पास ही कोई हिसाब नहीं रहता, तो हम फिजूल पंचायत में क्यों पड़े हिसाब रखने की कौन कब पैदा हुआ और कौन कब मरा!

तो हमने इतिहास नहीं रखा, हमने पुराण निर्मित किया। पुराण भारतीय घटना है। पुराण भारतीय घटना है, इतिहास नहीं। पुराण का मतलब कुछ और होता है। पुराण का मतलब हमने तिथि, तारीखें, जन्मदिन, मृत्युदिन, इनकी फिक्र नहीं की। हमने तो जो सार था—राम हुए, हमने इसकी फिक्र नहीं की कि कब हुए, किस सन में हुए, कब पैदा हुए, कब पढ़ने गए, कब विवाह हुआ, इस सबकी हमने फिक्र नहीं की, क्योंकि इसका तो कोई हिसाब रखने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ा। लेकिन राम के होने की जो भीतरी घटना घटी—कि एक व्यक्ति राम हो गया, एक दीया जल उठा और प्रकाशित हो गया—हमने बस उतना स्मरण रख लिया। हमने बाकी खोल का, शरीर का कोई हिसाब नहीं रखा। हमने इतना स्मरण रख लिया कि बुझा हुआ दीया जल सकता है, प्रकाशित हो सकता है। मनुष्य का जीवन दुर्गंध ही नहीं है, वहां सुगंध भी घटी है—बस इतना हमने हिसाब रख लिया। फिर, फिर हमने बाकी सब व्यर्थ की बातें छोड़ दी हैं, हमने उनका कोई हिसाब नहीं रखा।

तो हम यह जरूरी नहीं मानते कि राम हुए ही हों, इससे भी कोई प्रयोजन नहीं है। राम हो सकते हैं, बस इतना काफी है। राम के होने की घटना घट सकती है, हमने इतना स्मरण रखा है। यह स्मरण काफी है। कृष्ण हो सकते हैं। हुए हैं, नहीं हुए हैं, यह गौण है। हुए को भी हम खयाल रखते हैं तो सिर्फ इसीलिए ताकि याद रहे कि हो सकते हैं, यह हमारे भीतर भी यह फूल खिल सकता है, और हमारे भीतर भी यह आनंद का झरना घट सकता है। इसलिए हमने पुराण—पुराण का मतलब, वह जो सारभूत है, उतना ही। चैतन्य में प्रवेश करके पता लगता है कि आकाश में कोई रेखा नहीं छूटती, लेकिन आपका जो सार है वह छूट जाता है। इसे थोड़ा समझ लें. आकाश में कोई रेखा नहीं छूटती, लेकिन आपकी जो सार—सुगंध है वह छूट जाती है। और वह इसीलिए छूट जाती है कि उसका आकाश से कोई विजातीय मामला नहीं है, वह स्वयं ही आकाश है आपके भीतर। आप जब मरते हैं, तो आपके भीतर का आकाश ही केवल आकाश में छूट जाता है, बाकी सब खो जाता है। उस भीतरी आकाश को हम आत्मा कहते हैं।

एक विस्तार है बाहर, एक विस्तार भीतर भी है। बाहर के आकाश में भी बादल घिरते हैं और आच्छादित मालूम पड़ता है आकाश। वर्षा के दिन में आषाढ़ के सांझ में, सब ढंक जाता है। और कोई सोच भी नहीं सकता कि वह नीला आकाश कभी था, या वह नीला आकाश फिर कभी मिलेगा। जब काले बादल घेर लेते हैं आकाश को, तो आकाश बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, बादल ही दिखाई पड़ते हैं।

बाहर का आकाश भी बादलों से घिरता है, भीतर का आकाश भी बादलों से घिरता है। भीतर के आकाश के जो बादल हैं, उनको ही विचार, विकल्प, विकार—जो भी हम नाम देना चाहें—वे भीतर घिर जाते हैं। जब भीतर के आकाश पर भी बादल घिर जाते हैं, तो वहां भी ऐसा लगता है कि पीछे कोई निरभ्र आकाश नहीं है। इन बादलों को हटाना ही साधना है। इन बादलों को हटा कर ही नीले आकाश में झांक लेना, असंग आकाश में झांक लेना उपलब्धि है, सिद्ध—अवस्था है।

यह सूत्र कहता है’ आकाश के समान अपने को असंग और उदासीन।’

आकाश न आपके साथ हंसता है, न आपके साथ रोता है। आप मरें, तो आकाश से आंसू की बूंद नहीं टपकती, आप जीएं, प्रफुल्लित हों, तो आकाश आपकी खुशी में नूपुर बांध कर नाचता नहीं। आकाश बिलकुल उदासीन है। क्या घट रहा है, इस पर आकाश कोई वक्तव्य ही नहीं देता। मुर्दे को मरघट की तरफ ले जा रहे हैं तो, नए जन्मे बच्चे की खुशी में बैंड—बाजा बजा रहे हैं तो, विवाह हो गया है और घर को फूलों से सजा लिया है तो, प्रियजन खो गया है और जीना व्यर्थ मालूम पड रहा है तो—आकाश उदासीन है। क्या घट रहा है, इससे कोई संबंध नहीं है।

जैसे ही कोई भीतर के अंतर— आकाश में प्रवेश करता है, वह भी ऐसा ही उदासीन हो जाता है। क्या हो रहा है, इससे कोई संबंध नहीं रह जाता। आकाश की तरह देखने लगता है जगत को।

आकाशी—भाव आ जाए, तो ही जानना कि जीवन्मूक्ति हुई। आकाश की तरह भीतर कोई रेखा न खिंचे, कुछ भी हो जाए बाहर, सब नाटक रह जाए; सब परिधि पर होने लगे, केंद्र पर कोई भी स्पर्श न पहुंचे। मन के पीछे हटते ही, ऐसा हो ही जाता है।

‘ आकाश के समान अपने को असंग, उदासीg जान कर योगी भविष्य के कर्मों में लेशमात्र लिप्त नहीं होता।’

यह दूसरा हिस्सा इस सूत्र का। जब कोई जान लेता है कि अतीत का कोई भी कर्म मुझे स्पर्श नहीं कर सका—हारा, तो मेरी आत्मा हारी नहीं, और जीता, तो मेरी आत्मा जीती नहीं, सम्मान हुआ, तो मेरी आत्मा में कुछ बढ़ा नहीं, अपमान हुआ, तो मेरी आत्मा में कुछ घटा नहीं—ऐसी जिसकी प्रतीति हो जाए, स्वभावत:, भविष्य के कर्म उसके लिए व्यर्थ हो जाएंगे। जब अतीत के कोई कर्म मुझे छू नहीं सके तो भविष्य के भी कोई कर्म मुझे छू नहीं सकेंगे। इसलिए भविष्य की योजना बंद हो जाएगी। फिर वह नहीं सोचेगा कि मैं सफल हो जाऊं। फिर वह नहीं सोचेगा कि कहीं मैं असफल न हो जाऊं! फिर वह नहीं सोचेगा कि मेरी प्रतिष्ठा रहे। फिर वह नहीं सोचेगा कि कहीं कोई अप्रतिष्ठित न कर दे, कोई अपमान न कर जाए! जिसने देख लिया स्वयं को, देखते ही सारा अतीत असंबंधित हो गया, उसी क्षण सारा भविष्य भी असंबंधित हो गया।

भविष्य अतीत का ही विस्तार है। जो—जो हमने भविष्य में जाना है—सुखद पाया है, दुखद पाया है—उसको ही हम भविष्य में पुन:—पुन: आयोजन करते हैं। जिसे सुखद पाया है, उसकी चाह करते हैं भविष्य में, और जिसे दुखद पाया है, उसे भविष्य में भोगना न पड़े, इसकी चाह करते हैं। हमारा भविष्य क्या है? अतीत का ही प्रतिफलन है, अतीत का ही थोड़ा सुधारा हुआ रूप है। कल कुछ किया था, उसमें दुख पाया, तो हम कल उसे नहीं करना चाहते हैं। कल कुछ किया था, सुख पाया, तो हम उसे कल और ज्यादा मात्रा में करना चाहते हैं।

अगर पूरा अतीत ऐसा दिखाई पड़ जाए कि सुख और दुख, शुभ और अशुभ, कोई भी नहीं छू सके मुझे, मैं आकाश की तरह खाली का खाली हूं, शून्य का शून्य, कोई रेखा नहीं खिंची मुझ पर, असंस्कारित, अनकंडीशड रह गया हूं—सारी की सारी यात्रा हो गई इतनी और मैं भीतर अस्पर्शित कुंआरा का कुंआरा रह गया हूं—तो फिर भविष्य व्यर्थ हो गया।

ध्यान रहे, जीवनमुक्‍त का कोई भविष्य नहीं है। और अगर आपका थोड़ा सा भी भविष्य बाकी है, तो समझना कि अभी अंतर—आकाश का अनुभव नहीं हुआ है। अगर कोई योगी अभी भी सोच रहा है कि मोक्ष कैसे पाऊं? अभी भी सोच रहा है कि कैसे परमात्मा का दर्शन हो? तो अभी जानना कि अंतर—आकाश का अनुभव नहीं हुआ है। यह सब योजना है—भविष्य की योजना है। अभी भविष्य है। जरा सा इंच भर भी भविष्य है तो काफी भविष्य है। इंच भर भी भविष्य इस बात की खबर देता है कि अभी यह अनुभव नहीं हुआ कि आत्मा को कोई भी कर्म छूता नहीं है। मोक्ष भी नहीं छुएगा, ईश्वर भी नहीं छुएगा। असल में यह अछूतापन, यह शाश्वत अछूतापन ही मोक्ष है। यह शाश्वत अस्पर्शित रह जाना ही भगवत्ता है; यही भगवान होना है, कुछ और भगवान का अर्थ नहीं है।

कृष्ण को अगर हम भगवान कहते हैं, या महावीर को भगवान कहते हैं, या बुद्ध को भगवान कहते हैं, तो क्या अर्थ है? कोई बुद्ध ने दुनिया बनाई है, इसलिए भगवान? क्या भगवान का अर्थ है? बुद्ध को भी बीमारी आती है, बुद्ध भी जीर्ण होते हैं, बुद्ध भी मरते हैं, शरीर बिखरता है—कैसे भगवान? दुख आता है, बीमारी आती है, जीर्ण होते हैं, मरते हैं। भगवान को तो मरना नहीं चाहिए; भगवान को तो वृद्ध नहीं होना चाहिए; भगवान को तो बीमारी नहीं लगनी चाहिए। बुद्ध को भी भूख लगती है, प्यास लगती है, चाकू मार दें तो खून बहता है। कैसे भगवान? क्या अर्थ भगवान का?

भगवान का यही अर्थ है कि यह सब होता है, और भीतर जो छिपा है वह जानता है कि कुछ भी नहीं छूता। यह सब होता है। हाथ काट दो तो खून बहता है, भूख लगती है, प्यास लगती है, बुढ़ापा आता है, मृत्यु आती है—लेकिन भीतर जो अंतर— आकाश है बुद्ध के, वह जानता है कि कुछ भी छूता नहीं। न मौत छूती है, न जीवन छूता है। जीवन भी निकल जाता है, मौत भी निकल जाती है; जवानी भी, बुढ़ापा भी; और भीतर वह जो कुंआरापन है, वह अछूता, अस्पर्शित रह जाता है। उसमें कोई भंग नहीं होता, वहां कोई खबर ही नहीं पहुंचती कि बाहर क्या हो गया है। इस अनुभव का नाम भगवत्ता है।

तो कोई आदमी अगर भगवान के दर्शन की तलाश कर रहा है, तो उसका भविष्य है। जिसका भविष्य है, उसका भगवान से कभी कोई मिलन नहीं है। भविष्य यानी संसार। भविष्य का अर्थ है अतीत का सत्य अभी दिखाई नहीं पड़ा, अभी यह अनुभव में नहीं आया कि मैं आकाशवत हूं।

इसलिए यह सूत्र कहता है कि योगी के लिए भविष्य के कर्मों में लेशमात्र रस नहीं रह जाता। कल योगी के लिए है ही नहीं, बस आज है। आज भी बड़ा है, कहना चाहिए यही क्षण है—पल मात्र। अभी और यहीं उसका होना है। उसकी कोई दौड़ आगे की तरफ नहीं है।

‘जिस प्रकार मदिरा के घड़ों में रहा हुआ आकाश मदिरा की गंध से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा उपाधि का संयोग होने पर भी उसके धर्मों से लिप्त नहीं होती।’

घडा है, शराब भरी है। तो घड़ा तो प्रभावित हो जाता है शराब से। घड़े की मिट्टी तो शराब को पी जाती है। घड़े के रोएं—रोएं में शराब भर जाती है। और अगर बहुत पुराना घड़ा हो और बहुत शराब रही हो, तो घड़े की मिट्टी भी खा जाएं तो नशा चढ़ सकता है। तो घड़े की मिट्टी तो आच्छादित हो जाती है शराब से, भर जाती है। क्यों? मिट्टी पोरस है। समझ लें थोड़ा। मिट्टी में छिद्र हैं’। उन छिद्रों में शराब भर जाती है और छिप जाती है। घड़ा शराब पी लेता है और शराबी हो जाता है। घड़ा भी मतवाला हो जाता है पीकर। लेकिन घड़े में एक और तत्व भरा हुआ है—आकाश, घड़े का खालीपन।

अब यह बड़े मजे की बात है कि घड़े की मिट्टी में शराब भरी नहीं जाती, शराब तो भरी जाती है घड़े के भीतर के खालीपन में। शराब तो भरती है—घड़े में नहीं—घड़े के भीतर जो आकाश है, उसमें। शराब को जब हम भरते हैं, तो किस में भरते हैं, मिट्टी में? नहीं, मिट्टी तो केवल उस आकाश को चारों तरफ से बांधने का उपाय है। आकाश है बडा, और शराब है थोड़ी, पूरे आकाश को आप भर न सकेंगे, इसलिए छोटे से आकाश को चुनते हैं। मिट्टी की दीवाल बनाते हैं, छोटा सा आकाश चुन लेते हैं भीतर, उसमें शराब भरते हैं।

शराब भरी जाती है आकाश में, मिट्टी में नहीं। मगर मजा यह है कि मिट्टी दीवानी हो जाती है और पागल, और जिसमें भरी जाती है, आकाश, वह अछूता रह जाता है। शराब बाहर निकाल लें घड़े के, तो वह जो खाली जगह है, उसमें जरा भी शराब की गंध नहीं होती। मिट्टी में होती है। मिट्टी तो सन्निधि से भी दीवानी हो जाती है। सिर्फ सत्संग का परिणाम पड़ जाता है। और आकाश में भरा हुआ है सब, और वह अस्पर्शित रह जाता है।

तो जो भी आपने किया है, वह सब आपके शरीर को छुआ है, बस। वह आपकी मिट्टी में गया है। जो भी आपने किया है, वह आपके भीतर के आकाश, आपकी आत्मा को नहीं छुआ है। किए हों पाप, किए हों पुण्य; किया हो अच्छा, किया हो बुरा, जो भी किया है, वह आपकी मिट्टी में, आपके घड़े में समा गया है। मन भी आपकी मिट्टी है और आपका शरीर भी। इन दोनों के बीच में जो रिक्त है, शून्य है, वह है आपकी आत्मा। वहां तक कुछ भी नहीं पहुंचा है। कभी नहीं पहुंचा है। ऐसा जान लेना, ऐसा अनुभव कर लेना, तो उपाधि से मुक्त हो जाना है। उपाधि कभी आपको है ही नहीं, सब उपाधियां शरीर, मन की हैं।

लेकिन जो शरीर पी गया है, वह शरीर भोगेगा। आत्मज्ञानी का शरीर भी वह भोगेगा, जो शरीर पी गया है। अच्छा है, बुरा है, सुख है, दुख है; जो किया है, जो घटा है, अतीत रोएं—रोएं में समाया है। तो जिस दिन यह परम ज्ञान की घटना भी घटती है और व्यक्ति जाग कर आकाशवत हो जाता है, उस दिन भी शरीर में जो होता रहा है, उसकी यात्रा पूरी होगी।

यह करीब—करीब ऐसा कि आप साइकिल चला रहे हैं, और आपने पैडल मारने बंद कर दिए, आपको समझ में आ गया, यात्रा व्यर्थ है, कहीं जाना नहीं है। लेकिन साइकिल में एक मोमेंटम है, हजारों मील से आप चलाते चले आ रहे थे, तो साइकिल ने गति अर्जित कर ली है। आपने पैडल बंद कर दिए तो साइकिल अभी नहीं रुक जाएगी। साइकिल तो थोड़ा चलेगी, बिना पैडल के चलेगी। आप नहीं चला रहे हैं तो भी चलेगी; क्योंकि साइकिल ने गति अर्जित कर ली है। वह गति साइकिल के भीतर भर गई है। वह गति जब तक पूरी न निकल जाए, तब तक साइकिल चलेगी। फिर गिरेगी, जब पूरी गति निकल जाएगी। अगर आप गति देते चले जाएं, तो कभी नहीं गिरेगी। आप गति बंद कर लें तो उसी वक्त नहीं गिरेगी, थोड़ा समय लेगी।

तो हम तो जन्मों—जन्मों से शरीर पर सवार हैं, और जन्मों—जन्मों से मन की यात्रा कर रहे हैं। आज अगर जाग कर अलग भी हो जाएंगे, तो इसी वक्त मन और शरीर नहीं गिर जाएगा। मन और शरीर ने तो जो गति अर्जित कर ली है, मोमेंटम, उसको पूरा करेगा।

‘जिस प्रकार लक्ष्य को उद्देश्य करके छोड़ा गया बाण लक्ष्य को बींधे बिना नहीं रहता, वैसे ही ज्ञान के उदय होने के पहले किया गया कर्म, ज्ञान के उदय होने के बाद भी उसका फल दिए बिना नहीं रहता।’

तो चाहे बुद्ध हों, और चाहे कृष्ण हों, और चाहे कोई हो, वह जो पीछे किया है, उसका फल, उसकी पूर्ण निष्पत्ति होगी, उसका परिपाक होगा।

‘अर्थात किए हुए कर्म का फल तो ज्ञान उत्पन्न हो जाने के बाद भी भोगना ही पड़ता है। ज्ञान द्वारा कर्म का नाश नहीं होता। ‘

शान द्वारा अनुभव होता है कि मैं कर्ता नहीं हूं, लेकिन ज्ञान द्वारा कर्म का नाश नहीं होता। वह जो कर्म किया है, वह पूरा होगा। उदाहरण लिया है कि जैसे तीर छोड़ दिया, निशाना लगाया, तीर छोड़ दिया। छोड़ते ही तीर खयाल आया, बोध आया कि यह मैं हिंसा कर रहा हूं, न करूं। तो भी अब कुछ होगा नहीं, तीर अपनी यात्रा पूरी करेगा।

एक शब्द मैंने बोला, और बोलते ही मुझे लगा कि नहीं बोलना था, लेकिन अब शब्द अपनी यात्रा पूरी करेगा। बोलते ही जो गति शब्द को मिल गई है, जब तक वह गति समाप्त न हो जाएगी, तब तक शब्द चलता रहेगा। एक पत्थर हम फेंकते हैं, तो पत्थर जब हम फेंकते हैं तो अपनी शक्ति पत्थर को दे देते हैं। उसी शक्ति के सहारे पत्थर जाता है, जहां तक शक्ति रहती है वहां तक यात्रा करता है, फिर गिर जाता है। हमें बीच में खयाल भी आ जाए कि नहीं फेंकना था, तो भी अब उसे लौटाने का कोई उपाय नहीं है। कर्म छूटे हुए बाण हैं। बीच में स्मरण आने से कुछ भी न होगा, वे अपनी यात्रा पूरी करके ही गिरेंगे। और जब तक उनकी पूरी, सारे कर्मों की यात्रा पूरी नहीं हो जाती, तब तक जीवगक्ति रहेगी, मोक्ष नहीं होगा। इसे समझ लें। तब तक व्यक्ति मुक्त — भाव में रहेगा, लेकिन उसके आस—पास शरीर और मन का कर्मजाल चलता रहेगा। नया पोषण नहीं होगा अब, लेकिन पुराना जो पोषण है, वह जब तक रिक्त, चुक न जाए, तब तक चलता रहेगा।

ऐसा समझें कि अगर आप उपवास करके जीवन छोड़ देना चाहें, तो आज आप उपवास करेंगे तो आज ही नहीं मर जाएंगे। तीन महीने लगेंगे, कम से कम, ज्यादा भी लग सकते हैं, लेकिन तीन महीने तो लगेंगे ही। नब्बे दिन के उपवास के बाद ही मृत्यु घटित हो सकती है।

क्यों? आपने आज उपवास किया, आज ही मर जाना चाहिए! लेकिन आपके शरीर के पास अर्जित मांस है, वह जो आपने पीछे इकट्ठा कर लिया है। तीन महीने लग जाएंगे उस मास के पचने में। तीन महीने में आपकी हड्डी—हड्डी रह जाएगी। आपका अर्जित भोजन जो शरीर में इकट्ठा था, वह आप पचा लेंगे। इसलिए एक दिन आप उपवास करते हैं तो एक पौंड वजन कम हो जाता है। तो जितना मोटा आदमी हो, उतनी देर टिक जाएगा। संग्रह है उसके पास ज्यादा। संग्रह उसके पास ज्यादा है, वह उसको एक—एक पौंड पचाता जाएगा। जब तक उसका संगृहीत नहीं पच जाता तब तक शरीर से छुटकारा नहीं होगा, शरीर नहीं टूटेगा। तीन महीने लगेंगे।

ठीक ऐसे ही, जब चेतना जाग जाती है पूरी, उसी वक्त मोक्ष हो जाना चाहिए, पर नहीं होता। कभी—कभी हुआ है। बहुत, बहुत न्यून घटनाएं हैं, न के बराबर, कि शान के साथ और मोक्ष हो गया है। उसका मतलब यह हुआ कि कोई ऐसा आदमी हो बिलकुल हड्डी—हड्डी, कुछ अर्जित ही न हो, कि पहले ही दिन उपवास करे और प्राणांत हो जाएं। उसका मतलब हुआ कि भीतर बिलकुल हो ही न कुछ, मरने को तैयार ही थे। पर ऐसा आदमी खोजना कठिन है। भिखारी से भिखारी के पास भी थोड़ी संपदा रहती है। भूखे से भूखा आदमी भी थोड़ा सा अर्जित कोष रखता है। वह इमरजेंसी के लिए जरूरी है। इसलिए उसको बचाए रखता है।

संयोग से कभी ऐसा हो सकता है कि किसी व्यक्ति के कर्मों की भी समाप्ति उसी क्षण में हो, जिस क्षण में उसको बोध हो। लेकिन यह बहुत मुश्किल मामला है; बहुत, कभी ऐसा हुआ है। साधारणत: तो—चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे कोई और—रुका है, जीया है, ज्ञान के बाद वर्षों तक। वह जीने का कारण, मुक्ति तो घटित हो गई, लेकिन अतीत के कर्मों का बोझ, और अतीत की शक्ति शरीर को धकाए लिए जाती है यात्रा में। जब वह शक्ति चुक जाएगी, उस वक्त जीवन्यूक्ति मोक्ष बन जाएगी।

पर जरूरी भी है, और उपयोगी भी है, क्योंकि जीवनमुक्‍त अगर उसी वक्त मोक्ष को उपलब्ध हो जाए, तो जीवनमुक्‍त ने जो जाना है, वह हमें बता भी नहीं पाएगा। जीवनमुक्‍त हमें बता पाता है इसीलिए कि उसकी मुक्ति और मोक्ष के बीच अंतर है, समय है। चालीस साल बुद्ध जीए, चालीस साल महावीर जीए। ये चालीस साल ही हमारे काम पड़े। इन चालीस साल में जो उन्होंने जाना है, जो अनुभव किया है, वह उनका मन हम तक सवादित कर सका।

‘बाघ समझ कर छोड़ा हुआ बाण भी छूटने के बाद, यह बाघ नहीं है वरन गाय है, ऐसी बुद्धि आ जाने पर भी रुक नहीं सकता, वेगपूर्वक लक्ष्य को पूर्ण तरह बेधेगा ही। इसी प्रकार किया हुआ कर्म ज्ञान हो जाने के बाद भी फल प्रदान करता है।’

इसलिए अगर आपको कभी ज्ञानी भी कई तरह के दुख में पड़ता हुआ दिखाई पड़े, तो आप यह मत सोचना कि इतना जानी, इतना सात्विक, फिर परमात्मा इसको क्यों सता रहा है! कोई किसी को सता नहीं रहा है। क्योंकि कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, अज्ञान की लंबी यात्रा तो पीछे है ही। ज्ञानी होने का मतलब ही यह है कि काफी अज्ञान में यात्रा हो गई है। उस यात्रा में जो धूल— धवांस इकट्ठी हो गई है उसे तो भोगना ही पड़े। पर ज्ञानी उसे भोगता है आकाश— भाव से। ही, उसके आस—पास जो लोग इकट्ठे होते हैं, वे आकाश— भाव से नहीं भोग पाते।

रामकृष्ण को कैंसर हुआ तो विवेकानंद तो रोते ही थे। अभी विवेकानंद को आकाश— भाव उत्पन्न नहीं हुआ था। रमण को कैंसर हुआ तो पूरा आश्रम तो दुखी होगा ही, क्योंकि जो इकट्ठे थे उनका तो कोई आकाश—भाव नहीं है।

रमण ने मरते वक्त, जैसे ही वे श्वास छोड़ रहे थे, किसी ने पूछा, अब हमारा क्या होगा? तो रमण ने कहा, क्या होगा! मैं यहीं रहूंगा—आई विल बी हियर, मैं यहीं रहूंगा।

आश्वासन आ गया। आंसू रुक गए रोने वालों के कि भरोसा उन्होंने दे दिया कि मैं यहीं रहूंगा, मतलब वे नहीं मरने वाले हैं। और वे मर गए! समझ में भूल हो गई। वे जो कह रहे थे, मैं यहीं रहूंगा, वे उस आकाश की बात कर रहे थे जो घड़े के फूट जाने पर भी कहां जाएगा! घडा ही फूटता है।

रमण कहते हैं, मैं यहीं रहूंगा। किसलिए रोते हो!

पर यह आकाश का वचन है मैं यहीं रहूंगा। यह घड़े का वचन नहीं है। पर जो आस—पास थे उन्होंने समझा घड़े का वचन है, घड़ा यहीं रहेगा। फिर घड़ा फूट गया। फिर वे सोचने लगे कि क्या रमण धोखा दे गए? क्या हमको समझाने को कहा था? क्या सांत्वना थी यह?

यह सांत्वना नहीं थी, यह सत्य था। लेकिन अब इस आकाशवत रमण को अनुभव करने का उपाय आपके पास तब तक नहीं है, जब तक आप अपने आकाश को अनुभव न कर लें। जब तक आप अपने को घड़ा ही समझते हैं, तब तक रमण तो गए।

रामकृष्ण मरने लगे, तो उनकी पत्नी शारदा रोने लगी, छाती पीटने लगी। तो रामकृष्ण ने कहा, तू क्यों रोती है? तू तो सधवा ही रहेगी, तू विधवा नहीं होगी।

खुश हो गई होगी शारदा। और रामकृष्ण मर गए। पर कह गए कि तू सधवा ही रहेगी; मैं कहीं मरने वाला हूं! पर शारदा अदभुत स्त्री थी। रामकृष्ण मर गए, रामकृष्ण दफना दिए गए, लेकिन शारदा की आंख से आंसू न टपका। बंगाल का जैसा रिवाज था, लोग आ गए चूइड्यां तोड़ने। शारदा ने कहा, रहने दो, क्योंकि मैं सधवा हूं। लोगों ने कहा, अब सफेद कपड़े पहन लो। शारदा ने कहा, बात ही मत करना। क्योंकि जिसने कहा है, उसके वचन का मुझे भरोसा है। वह कोई सांत्वना के लिए नहीं कहा था।

तो बड़ी मीठी कथा घटी है। शारदा जितने दिन जिंदा रही, उसने माना ही नहीं कभी स्वप्न में भी कि रामकृष्ण मर गए हैं। लोग हैरान होते थे कि या तो शारदा पागल हो गई है। लेकिन पागल नहीं थी। क्योंकि पागल का कोई और लक्षण न था। बल्कि सच तो यह है कि जिस दिन से रामकृष्ण मरे, और जिस दिन से रामकृष्ण की मृत्यु को शारदा ने स्वीकार नहीं किया, उसी दिन से वह स्वयं अमृतधर्मा हो गई। उस दिन से वह स्वयं ही आकाशवत हो गई। वह अनुभव, रामकृष्ण की मृत्यु का, सिर्फ घड़े के मिटने का अनुभव रहा। और घड़े से तो कुछ लेन—देन भी न था। यह रामकृष्ण और शारदा का विवाह असाधारण विवाह था। इसमें घड़ों का तो कभी कोई संपर्क ही नहीं हुआ था। रामकृष्ण तो शारदा को मां की तरह ही मानते रहे थे। इसमें शरीर का तो कोई लेन—देन ही न था। यह तो दो आकाश का ही मिलन था।

मीठी है बात, बड़ी अदभुत, वर्षों शारदा जीयी रामकृष्ण के मरने के बाद। लेकिन जैसे रोज वह भोजन बनाती थी और रामकृष्ण के पलंग के पास जाकर कहती थी कि परमहंसदेव, भोजन तैयार है। यह सब ऐसा ही जारी रहा, भोजन बनता रहा। शारदा रोज जाती पलंग के पास। कोई भी नहीं, किसी को रामकृष्ण लोग रोते शारदा की बात सुन कर कि वह कहती, परमहंसदेव, भोजन तैयार है। फिर जैसे रामकृष्ण के लिए रुकी रहती, जैसा वह सदा रुकती थी। फिर वह उठते। जब तक वे उठते न, तब तक वह खड़ी रहती। फिर रामकृष्ण आगे जाते तो वह पीछे जाती। यह उसी को दिखाई पड़ता, यह किसी और को दिखाई नहीं पड़ता। फिर वह थाली पर बिठाती, फिर वह पंखा झलती रहती, फिर वह रोज उन्हें सुलाती, फिर रोज सुबह उठाती। वह सब क्रम वैसा ही चलता रहा।

किसी ने शारदा से पूछा है कि किसको उठाती हो? किसको सुलाती हो? किसको खिलाती हो? यह सब क्या है? तो शारदा ने कहा, जिसको पहले सुलाती थी, वही। अब देह खो गई है, अब सिर्फ आकाश रह गया है। जिसे खिलाती थी, उसे ही।

शारदा सधवा ही बनी रही! पूरे मनुष्य—जाति के इतिहास में यह अकेली घटना है। किसी पत्नी ने पति के मर जाने पर सधवा रहने का जो अनूठा अनुभव किया है, वह अकेली घटना है। इसलिए शारदा जैसी स्त्री खोजनी बहुत मुश्किल है।

कर्म तो पूरे होते हैं ज्ञान हो जाने पर भी, पर जिसे अनुभव हो गया भीतर के शून्य का वह देखता रहता है साक्षी—भाव से, जो भी होता है। अब उसकी कोई मर्जी और इच्छा नहीं है कि ऐसा हो और ऐसा न हो, जो होता है, वह स्वीकार कर लेता है। साक्षी अर्थात तथाता। अब जो हो रहा है, ठीक है। नहीं हो रहा है, वह भी ठीक है। और कुछ भी मेरे भीतर कभी नहीं हुआ है और कभी नहीं हो सकता है, यह अनुभव में निष्ठा बनी रहती है।

‘मैं अजर हूं, मैं अमर हूं, इस प्रकार जो अपने को आत्मारूप स्वीकार करता है, तो वह आत्मारूप ही रहता है। अर्थात उसको प्रारब्ध कर्म की कल्पना कहां से हो? अर्थात ज्ञानी को प्रारब्ध कर्म का संबंध नहीं रहता।’

इसे समझ लें। यह सूत्र विपरीत सा दिखाई पड़ेगा। विपरीत नहीं है। कर्म तो रहते हैं, लेकिन तानी को उनसे संबंध नहीं रहता। जो जान लेता है मैं आकाशवत हूं—अजर और अमर, सदा अलिप्त, असंग, उदासीन, तटस्थ; कभी अपने बाहर नहीं गया, कभी कोई मेरे भीतर नहीं आया, न जन्मा हूं, न मरूंगा, सिर्फ होना मात्र ही मेरी अवस्था है—ऐसा जो अनुभव कर लेता है, उसे कर्म घटित होते रहते हैं अतीत की श्रृंखला से, लेकिन उसका संबंध उनसे टूट जाता है।

दुख आता है, शरीर में पीड़ा होती है, बुढापा आता है, तो वह ऐसा नहीं कहता कि मैं का हो रहा हूं; वह ऐसा ही कहता है कि मैं देखता हूं, शरीर का हो रहा है। बीमारी आती है तो वह कहता है, मैं देखता हूं कि शरीर बीमार हो रहा है। दुख आता है तो वह कहता है, मैं देखता हूं दुख आया। और सुख आता है तो वह कहता है, मैं देखता हूं सुख आया। वह अपने देखने में ही घिर होता है, वह जुड़ता नहीं। और जब कोई कर्म से नहीं जुड़ता, तो कर्म अपनी गति को पूरा करके लीन हो जाते हैं, शरीर अपनी यात्रा पूरी करके गिर जाता है; मन अपने संचित वेग को दौड़—दौड़ कर तोड़ लेता है, नष्ट हो जाता है; और साक्षी शून्य आकाश के साथ एक हो जाता है।

जब तक शरीर है, तब तक जीवनमुक्‍ति, जब शरीर भी गिर जाता है, तो मोक्ष।

आज इतना ही।


Filed under: उपनिषद--अध्‍यात्‍म Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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