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Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–29)

अज्ञात की यात्रा—(अध्‍याय—उन्‍नतीसवां) ओशो अज्ञात की पुकार हैं। सच में देखा जाए तो यह पता ही नहीं चलता कि आखिर ओशो के साथ हम जा कहां रहे हैं। ओशो स्वयं हमें अनेक बार अज्ञात की ओर ले चलने की बात करते...

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सपना यह संसार–(प्रवचन–18)

मुझे दोष मत देना!—(प्रवचन—अठारहवां) दिनांक; २८ जुलाई १९७९; श्री रजनीश आश्रम, पूना। प्रश्‍नसार: 1—भगवान, मैं प्रभु को पुकारता हूं, वर्षों से पुकारता हूं, नियमित प्रार्थना करता हूं, लेकिन मेरी पुकारों का...

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तंत्र–सूत्र–(भाग–4) प्रवचन–62

आरंभ से आरंभ करो—(प्रवचन—बाष्‍ठवां)       प्रश्‍नसार: 1—मंजिल को पाने की ‘जल्‍दी’ और प्रयत्‍न—रहित खेल’ में संगति कैसे बिठाएं?       2—अपने शत्रु को भी अपने में समाविष्‍ट करने की शिक्षा क्‍या दमन पर...

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सपना यह संसार–(प्रवचन–19)

मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना—(प्रवचन—उन्‍नीसवां) दिनांक; रविवार, 26 जुलाई 1979; श्री रजनीश आश्रम, पूना सूत्र: हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये। अपनी बुद्धि नसाय सवेरे भागिये।। सरबस वह जो देइ तो...

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सपना यह संसार–(प्रवचन–20)

ज्ञान से शून्य होने में ज्ञान से पूर्ण होना है—(प्रवचन—बीसवां) दिनांक; सोमवार, 30 जुलाई 1979; श्री रजनीश आश्रम, पूना। प्रश्‍नसार: 1—भगवान, क्या प्रभु—मिलन में विरह—अवस्था से गुजरना आवश्यक है? 2—भगवान,...

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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–30)

देर हो गई—(अध्‍याय—तीसवां) ओशो से बहुत शुरू में ही मिलना हो गया। खूब सान्निध्य भी मिला। अनेकानेक प्रवचनों में ओशो के सामने बैठे। धीरे— धीरे तो जीवन मानो ओशो का ही होकर रह गया। ओशो के अलावा कुछ भी ऐसा...

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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–31)

ओशो का अमरीका प्रवास—(अध्‍याय—इक्‍क्‍तिीसवां) पुणे शहर के नजदीक ही स्थित प्रकृति के सुंदर माहौल में सासवड की लंबी— चौड़ी जमीन आश्रम के लिए बहुत उपयुक्त थी। हम सभी मित्र इस स्थल को सुंदर से सुंदर और...

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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–32)

ओशो के जाने के बाद पुणे आश्रम—(अध्‍याय—बत्‍तीसवां) जब ओशो ने पुणे आश्रम छोड़ दिया तो जैसे—जैसे मित्रों को पता लगता गया सभी अपने—अपने देश या घर लौटने लगे। जिस जगह पर ओशो के आसपास दुनिया भर से आए...

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तंत्र–सूत्र–(भाग–4) प्रवचन–63

परमात्‍मा को जन्‍म देना है—(प्रवचन—तेरष्‍ठवां) सूत्र: 90—आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है। और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।       91—हे दयामयी, अपने रूप के...

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सुनो भई साधो—(कबीरदास)

कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए...

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सुन भई साधाे–(प्रवचन–01)

माया महाठगिनी हम जानी—(प्रवचन—पहला) दिनांक: 11 नवम्बर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना. सूत्र: माया महाठगिनी हम जानी। निरगुन फांस लिए डोलै, बोलै मधुरी बानी।। केसव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी। पंडा के...

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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(मा धर्मज्‍योति)

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(मा धर्मज्‍योति) (मेरे प्‍यारे सदगुरू ओशो को समर्पित जिन्‍हें मैंने प्रेम करूणा, प्रज्ञा, सत्‍य और परम स्‍वतंत्रता के साकार रूप की तरह जाना)    प्रस्‍तावना: आज के...

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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–01)

(अध्‍याय—एक) मैं छब्बीस वर्ष की हूँ। 21 जनवरी 1968, —रविवार का दिन है और आज शाम 4 बजे ओशो बंबई के षण्मुखानंद हॉल में बोलने वाले हैं। मेरी एक मित्र, जो सत्य की मेरी खोज से परिचित है, शे उन्हें सुनने के...

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सुन भई साधो–(प्रवचन–02)

मन गोरख मन गोविन्दौ—(प्रवचन—दूसरा) दिनांक: 12 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना. सूत्र: मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय। तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।। बेढ़ा दीन्हों खेत को, बेढ़ा खेतहि खाय। तीन...

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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–33)

मेरी रानीशपुरम की यात्रा—(अध्‍याय—तेतीसवां) ओशो से मिलने के बाद। अपना सारा काम छोड़ कर उनके कार्य में पूरी तरह से संलग्न होने के बाद, कुछ भी ऐसा शेष नहीं बचा जिसके बारे में सोचूं या उसे समय दूं। ओशो व...

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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–34)

ओशो की गिरफ्तारी—(अध्‍याय—चौतीसवां) जो व्यक्ति पृथ्वी ग्रह के हर मनुष्य को सभी आयामों से, हर जंजीर से मुक्त करने का भरसक प्रयास कर रहा हो। जिसने दुनिया भर में फैले सभी तरह के धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक,...

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सुन भई साधो–(प्रवचन–03)

अपन पौ आपु ही बिसरो—(प्रवचन—तीसरा) दिनांक: 13 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना. सूत्र: अपन पौ आपु ही बिसरो। जैसे श्वान कांच मंदिर मह, भरमते भुंकि मरो।। जौं केहरि बपु निरखि कूपजल, प्रतिमा देखि परो।...

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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–02)

(अध्‍याय—दो) मैं उनकी पुस्तकें पढ़ना शुरू कर देती हूँ और अपने आपको उधार ज्ञान से पूरी तरह मुक्त होता हुआ अनुभव करती हूँ। उनके शब्द मुझे नितांत खालीपन में अकेला छोड़ जाते हैं। मेरा हृदय उनसे मिलने की...

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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–03)

(अध्‍याय—तीसरा) सुबह आठ बजे उनके प्रवचन के लिए हम सब फिर से उसी स्थान पर इकट्ठे होते हैं—आज वे प्रश्नों का उत्तर देंगे तथा लोग कागज पर अपने प्रश्न लिख—लिखकर उनके सचिव को पकड़ा रहें हैं। मैं भी साहस...

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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–04)

(अध्‍याय—चार) दोपहर दो बजे मैं उस बंगले पर पहुंचती हूं जहां वे ठहरे हुए हैं। वहां बहुत से लोग पहले ही उनसे मिलने के लिए आए हुए है और उनका इंतजार खर रहे हैं। उनके सचिव आते हैं और लोग एक—एक करके उनसे...

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