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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–19)

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अध्याय—उन्नीस

तर्क और विश्वास

अहं को नकारना अहं को उभारना है

समय के पहिये को कैसे रोका जाये

रोना और हँसना

 बैबून : क्षमा करें, मुर्शिद। आपका तर्क अपनी तर्कहीनता से मुझे उलझन में डाल देता है।

मीरदाद : हैरानी की बात नहीं,, कि तुम्हें ‘न्यायाधीश’ कहा गया है। किसी मामले के तर्क-संगत का विश्वास हो जाने पर ही उस पर निर्णय दे सकते हो। तुम इतने समय तक न्यायाधीश रहे हो, तो भी क्‍या अब तक यह नहीं जान पाये कि तर्क का एकमात्र उपयोग मनुष्य को तर्क से छुटकारा दिलाना और उसको विश्वास की ओर प्रेरित करना है जो दिव्य ज्ञान की ओर ले जाता है।

तर्क अपरिपक्वता है जो ज्ञान के विशालकाय पशु को फँसाने के इरादे से अपने बारीक जाल बुनता रहता है। जब तर्क वयस्क हो जाता है तो अपने ही जाल में अपना दम घोंट लेता है, और फिर बदल जाता है विश्वास में जो वास्तव में गहरा ज्ञान है।

तर्क अपाहिजों के लिये बैसाखी है; किन्तु तेज पैर वालों के लिये एक बोझ है, और पंख वालों के लिये तो और भी बड़ा बोझ।

तर्क सठिया गया विश्वास है। विश्वास वयस्क हो गया तर्क है। जब तुम्हारा तर्क वयस्क हो जायेगा,, और वयस्क वह जल्दी ही होगा, तब तुम कभी तर्क की बात नहीं।

बैनून : समय की हाल से उसकी पूरी पर आने के लिये हमें अपने आप को नकारना होगा। क्या मनुष्य अपने अस्तित्व को नकार सकता है?

मीरदाद : बेशक! इसके लिये तुम्हें उस अहं को नकारना होगा जो समय के हाथों में एक खिलौना है और इस तरह उस अहं को उभारना होगा जिस पर समय के जादू का असर नहीं होता।

बैनून : क्या एक अहं को नकारना दूसरे अहं को उभारना हो सकता है?

मीरदाद : हां, अहं को नकारना ही अहं को उभारना है। जब कोई परिवर्तन के लिये मर जाता है तो वह परिवर्तन -रहित हो जाता है। अधिकांश लोग मरने के लिये जीते हैं। भाग्यशाली हैं वे जो जीने के लिये मरते हैं।

बैनून : परन्तु मनुष्य को अपनी अलग पहचान बड़ी प्रिय है। यह कैसे सम्भव है कि वह प्रभु में लीन हो जाये और फिर भी उसे अपनी अलग पहचान का बोध रहे?

मीरदाद : क्या किसी नदी -नाले के लिए सागर में समा जाना और इस प्रकार अपने आप को सागर के रूप में पहचानने लगना घाटे का सौदा है? अपनी अलग पहचान को प्रभु के अस्तित्व में लीन कर देना वास्तव में मनुष्य का अपनी परछाईं को खो देना है और अपने अस्तित्व का परछाईं-रहित सार पा लेना है।

मिकास्तर : मनुष्य, जो समय का जीव है, समय की जकड़ से कैसे छूट सकता है?

मीरदाद : जिस प्रकार मृत्यु तुम्हें मृत्यु से छुटकारा दिलायेगी और जीवन जीवन से, उसी प्रकार समय तुम्हें समय से मुक्ति दिलायेगा।

मनुष्य परिवर्तन से इतना ऊब जायेगा कि उसका पूरा अस्तित्व परिवर्तन से अधिक शक्तिशाली वस्तु के लिये तरसेगा कभी मन्द न पड़ने वाली तीव्रता के साथ तरसेगा। और निश्चय ही वह उसे अपने अन्दर प्राप्त करेगा।

भाग्यशाली हैं वे जो तरसते हैं, क्योंकि वे स्वतन्त्रता की देहरी पर पहुँच चुके हैं। उन्हीं की मुझे तलाश है, और उन्हीं के लिये मैं उपदेश देता हूँ। क्या तुम्हारी व्याकुल पुकार सुन कर ही मैंने तुम्हें नहीं चुना है? पर अभागे हैं वे जो समय के चक्र के साथ घूमते हैं और उसी में अपनी स्वतन्त्रता और अपनी शान्ति ढूँढने की कोशिश करते हैं। वे अभी जन्म पर मुसकराते ही हैं कि उन्हें मृत्यु पर रोना पड़ जाता है। वे अभी भरते ही हैं कि उन्हें खाली कर जाता है। वे अभी शान्ति के कपोत को पकड़ते ही हैं कि उनके हाथों में ही उसे युद्ध के गिद्ध में बदल दिया जाता है। अपनी समझ में वे जितना अधिक जानते हैं, वास्तव में वे उतना ही कम जानते हैं। जितना वे आगे बढ़ते हैं, उतना ही पीछे हट जाते हैं। जितना वे ऊपर उठते हैं, उतना ही नीचे गिर जाते हैं।

उनके लिये मेरे शब्द केवल एक अस्पष्ट और उत्तेजक फुसफुसाहट होंगे; पागलखाने में की गई प्रार्थना के समान होंगे, और होंगे अश्वों के सामने जलाई गई मशाल के समान। जब तक वे भी स्वतन्त्रता के लिये तरसने नहीं लगेंगे, मेरे शब्दों की ओर ध्यान नहीं देंगे।

हिम्बल : (रोते हुए) आपने केवल मेरे कान ही नहीं खोल दिये, मुर्शिद, बल्कि मेरे हृदय के द्वार भी खोल दिये हैं। कल के बहरे और अन्धे हिम्बल को क्षमा करें।

मीरदाद : अपने आंसुओं को रोको, हिम्बल। समय और स्थान की सीमाओं से परे के क्षितिजों को खोजने वाली आँख में आंसू शोभा नहीं देते।

जो समय की चालाक अंगुलियों द्वारा गुदगुदाये जाने पर हँसते हैं, उन्हें समय के नाखूनों द्वारा अपनी चमड़ी के तार-तार किये जाने पर रोने दो।

जो यौवन की कान्ति के आगमन पर नाचते और गाते हैं, उन्हें बुढ़ापे की झुर्रियों के आगमन पर लड़खड़ाने और कराहने दो।

समय के उत्सवों में आनन्द मनाने वालों को समय की अन्‍त्येष्टियों में अपने सिर पर राख डालने दो।

किन्तु तुम सदा शान्त रही। परिवर्तन के बहुरूपदर्शी दर्पण में केवल परिवर्तन -मुका को खोजो।

समय में कोई वस्तु इस योग्य नहीं कि उसके लिये आंसू बहाये जायें। कोई वस्तु इस योग्य नहीं कि उसके लिये मुसकराया जाये। हँसता हुआ चेहरा और रोता हुआ चेहरा समान रूप से अशोभनीय और विकृत होते हैं।

क्या तुम आंसुओं के खारेपन से बचना चाहते हो? तो फिर हँसी की कुरूपता से बचो।

आँसू जब भाप बन कर उड़ता है तो हँसी का रूप धारण कर लेता है, हँसी जब सिमटती है तो आंसू बन जाती है।

ऐसे बनो कि तुम न हर्ष में फैल कर खो जाओ, और न शोक में सिमट कर अपने अन्दर घुट जाओ। बल्कि दोनों में तुम समान रहो, शान्त रहो।

 

 


Filed under: ओशो की प्रिय पुस्‍तके..... Tagged: अदविता नियति, ओशो, डेरा बाबा जैमलसिंह सेक्रेटरी, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

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