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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–18)

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अध्याय—अठारह

हिम्बल के पिता की मृत्यु

तथा जिन परिस्थितियों में उसकी मृत्‍यु उन्हें मीरदाद

दिव्य शक्ति के द्वारा जान है

वह मृत्यु की बात करता है

समय सबसे बड़ा मदारी है

समय का चक्र, उसकी हाल और उसकी धुरी

नरौंदा : एक लम्बे समय के बाद, जब बहुत—सा जल पहाड़ों से नीचे बहता हुआ समुद्र में जा मिला था, हिम्बल के सिवाय बाकी सब साथी एक बार फिर नीड़ में मुर्शिद के चारों ओर इकट्ठे हुए।

मुर्शिद प्रभु—इच्छा पर चर्चा कर रहे थे। किन्तु अकस्मात् वे रुक गये और बोले,

मीरदाद : हिम्बल संकट में है और वह सहायता के लिये हमारे पास आना चाहता है, किन्तु संकोच के कारण उसके पैर इस ओर उठ नहीं पा रहे हैं। जाओ अबिमार उसकी सहायता करो।

नरौंदा : अबिमार बाहर गया और शीघ्र ही हिम्बल को साथ लेकर लौट आया। हिम्बल की हिचकियाँ बँधी हुई थीं और चेहरा उदास था। मीरदाद : मेरे पास आओ, हिम्बल।

ओह, हिम्बल, हिम्बल। तुम्हारे पिता की मृत्यु हो गई इसलिये तुम इतने असहाय हो गये कि दुःख ने तुम्हारे हृदय को बेध दिया और तुम्हारे रक्त को आंसुओ में बदल दिया। जब तुम्हारे परिवार के सब लोगों की मृत्यु हो जायेगी तब तुम क्या करोगे? क्या करोगे तुम जब इस संसार के सब पिता और माताएँ, और सब बहनें और भाई तुम्हारे हाथों और आंखों की पहुँच से परे चले जायेंगे?

हिम्बल : हां, मुर्शिद। मेरे पिता की मृत्यु हिसापूर्ण हुई है। एक बैल ने, जिसे उन्होंने हाल ही में खरीदा था, कल शाम उनके पेट में सींग भोंक दिया और उनका सिर कुचल डाला। मुझे अभी—अभी एक सन्देशवाहक ने यह सूधना दी है। हाय, अफसोस!

मीरदाद : और उनकी मृत्यु, जान पड़ता है, ठीक उस समय हुई जब उनका भाग्योदय होने वाला था।

हिम्बल : ऐसा ही हुआ, मुर्शिद। ठीक ऐसा ही हुआ है।

मीरदाद : और उनकी मृत्यु तुम्हें इसलिये और भी अधिक दुःख दे रही है कि वह बैल उन्हीं पैसों से खरीदा गया था जो तुमने भेजे थे।

हिम्बल : यह सच है, मुर्शिद। ठीक ऐसा ही हुआ है। लगता है आप सब—कुछ जानते हैं।

मीरदाद : और वे पैसे मीरदाद के प्रति तुम्हारे प्रेम की कीमत थे। नरौंदा हिम्बल आगे कुछ न बोल सका, क्योंकि आंसुओं से उसका गला रुँध गया था।

मीरदाद : तुम्हारे पिता मरे नहीं हैं. हिम्बल। न ही उनका स्वरूप और परछाईं अभी नष्ट हुए हैं। पर वास्तव में तुम्हारे पिता के बदले हुए स्वरूप और परछाईं को देखने में तुम्हारी इन्द्रियाँ असमर्थ हैं। क्योंकि कुछ स्वरूप इतने सूक्ष्म होते हैं, और उनकी परछाईयाँ इतनी क्षीण कि मनुष्य की स्थूल आंख उन्हें देख नहीं सकती।

जगल में किसी देवदार की परछाईं वैसी नहीं होती जैसी परछाईं उसी देवदार से बने जहाज के मस्तूल, या मन्दिर के स्तम्भ, या फाँसी के तख्ते की होती है। न ही उस देवदार की परछाईं धूप में वैसी होती है जैसी चाँद या सितारों के प्रकाश में, या भोर की सिन्दूरी धुन्ध में होती है.। किन्तु वह देवदार, चाहे वह कितना ही बदल गया हो, देवदार के रूप में जीवित रहता है, यद्यपि जंगल के देवदार अब पहचान नहीं पाते कि वह बीते दिनों में उनका भाई था।

पत्ते पर बैठा रेशम का कीड़ा क्या रेशमी खोल में पल रहे कीड़े में अपने भाई की कल्पना कर सकता है ‘ या खोल में पल रहा कीड़ा उड़ते हुए रेशम के पतंगे में अपना भाई देख सकता है ‘

क्या धरती के अन्दर पड़ा गेहूँ का दाना धरती के ऊपर खड़े गेहूँ के डण्ठल से अपना नाता समझ सकता है?

क्या हवा में उड़ती भाप या सागर का जल पर्वत की दरार में लटक रहे हिमलम्बों को भाई—बहनों के रूप में स्वीकार कर? सकता है?

क्या धरती अन्तरिक्ष की गहराइयों में से अपनी ओर फेंके गये टूटे तारे में एक भाई तारा देख सकती है?

क्या बरगद का वृक्ष अपने बीज के अन्दर अपने आप को देख सकता है?

क्योंकि तुम्हारे पिता अब एक ऐसे प्रकाश में हैं जिसे देखने की तुम्हारी आँख अभ्यस्त नहीं है, और ऐसे रूप में हैं जिसे तुम पहचान नहीं सकते, तुम कहते हो कि तुम्हारे पिता अब नहीं हैं। किन्तु मनुष्य का भौतिक अस्तित्व, चाहे वह कहीं भी पहुँच गया हो, कितना ही बदल गया हो, एक परछाईं जरूर फेंकेगा जब तक वह मनुष्य के ईश्वरीय प्रकाश में पूरी तरह विलीन नहीं हो जाता।

लकड़ी का एक टुकड़ा, चाहे वह आज पेडू की हरी शाखा हो और कल दीवार में गडी खूँटी, लकड़ी ही रहता है और अपना रूप तथा परछाईं बदलता रहता है जब तक वह अपने अंदर छिपी आप में जल कर भस्म नहीं हो जाता। इसी तरह मनुष्य, जीते हुए और मर कर भी मनुष्य ही रहेगा जब तक उसके अन्दर का प्रभु उसे पूरी तरह अपने में समा न ले, अर्थात् जब तक वह उस एक के साथ अपने एकत्व का अनुभव न कर ले। परन्तु ऐसा आँख के उस एक निमेष में नहीं हो जाता जिसे मनुष्य जीवन—काल का नाम देता है।

सम्पूर्ण समय जीवन—काल है, मेरे साथियो।

समय में कोई आरम्भ या पड़ाव नहीं हैं। न ही उसमें कोई सराय हैं जहाँ यात्री जल—पान और विश्राम के लिये रुक सकें।

समय एक निरन्तरता है जो अपने आप में सिमटती जाती है। इसका पिछला छोर इसके अगले छोर के साथ जुड़ा हुआ है। समय में कुछ भी समाप्त और विसर्जित नहीं होता, कुछ भी आरम्भ तथा पूर्ण नहीं होता।

समय इन्द्रियों के द्वारा रचित एक चक्र है, और इन्द्रियों के द्वारा ही उसे स्थान के शून्यों में घुमा दिया जाता है।

तुम ऋतुओं के चकरा देने वाले परिवर्तन का अनुभव करते हो और इसलिये विश्वास करते हो कि सब—कुछ परिवर्तन की जकड़ में है। परन्तु साथ ही तुम यह भी मानते हो कि ऋतुओं को प्रकट और विलीन करने वाली शक्ति एक रहती है, सदैव वही रहती है।

तुम वस्तुओं के विकास तथा क्षय को देखते हो, और निराशापूर्वक घोषणा करते हो कि सभी विकासशील वस्तुओं का अन्त क्षय होता है। परन्तु साथ ही तुम यह भी स्वीकार करते हो कि विकसित और क्षीण करने वाली शक्ति स्वय न विकसित होती है न क्षीण।

तुम बयार की तुलना में वायु के वेग का अनुभव करते हो, और कह देते हो कि दोनों में से वायु अधिक वेगवान है। किन्तु इसके बावजूद तुम स्वीकार करते हो कि वायु को गति देने वाला और बयार को गति देने वाला एक ही है, और वह न तो वायु के साथ वेग से दौडता है और न ही बयार के साथ ठुमकता है।

कितनी आसानी से विश्वास कर लेते हो तुम। कितनी आसानी से तुम इन्द्रियों के हर धोखे में आ जाते हो। कहीं है तुम्हारी कल्पना? क्योंकि उसी के द्वारा तुम यह देख सकते हो कि जो परिवर्तन तुम्हें चकरा देते हैं, वे केवल हाथ की सफाई हैं।

वायु बयार से तेज कैसे हो सकती है? क्या बयार ही वायु को जन्म नहीं देती ‘ क्या वायु बयार को अपने साथ लिये नहीं फिरती?

ऐ धरती पर चलने वालो, तुम अपने पैरों द्वारा तय की गई दूरियों को कदमों और कोसों में क्यों नापते हो? तुम चाहे धीरे—धीरे टहलो या सरपट दौड़ो, क्या धरती की गति तुम्हें उन अन्तरिक्षों और मण्डलों में नहीं ले जाती जहाँ स्वयं धरती को ले जाया जाता है? इसलिये तुम्हारी चाल क्या वही नहीं जो धरती की चाल है? और फिर, क्या धरती को अन्य पिण्ड अपने साथ नहीं ले जाते, और उसकी गति को अपनी गति के बराबर नहीं कर लेते?

हां, धीमा ही वेगवान को जन्म देता है। वेगवान धीमे का वाहक है। धीमे और वेगवान को समय और स्थान के किसी भी बिन्दु पर एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

तुम यह कैसे कहते हो कि विकास विकास है और क्षय क्षय है, और वे—एक दूसरे के बैरी हैं। क्या कभी किसी वस्तु का उद्गम क्षीण हो चुकी किसी वस्तु के अतिरिक्त और कहीं से हुआ है?

और क्या कभी किसी वस्तु में क्षय का आगमन विकसित हो रही किसी वस्तु के अतिरिक्त और कहीं से हुआ है?

क्या तुम निरन्तर क्षीण होकर ही विकसित नहीं हो रहे हो? क्या तुम निरन्तर विकसित होकर ही क्षीण नहीं हो रहे हो?

जो जीवित हैं, मृतक क्या उनके लिये मिट्टी की निचली परत नहीं हैं? और जो मृतक हैं, जीवित क्या उनके लिये अनाज के गोदाम नहीं है?

यदि विकास क्षय की सन्तान है और क्षय विकास की; यदि जीवन मृत्यु की जननी है, और मृत्यु जीवन की, तो वास्तव में वे समय और स्थान के प्रत्येक बिन्दु पर एक ही हैं। और जीने तथा विकसित होने पर तुम्हारी प्रसन्नता वास्तव में उतनी ही बड़ी मूर्खता है जितनी मरने और क्षीण होने पर तुम्हारा शोक।

तुम यह कैसे कहते हो कि केवल पतझड़ ही अगर की ऋतु है? मैं कहता हूँ कि अगर शीत ऋतु में भी पका होता है जब वह बेल के अन्दर अदृश्य रूप में स्पन्दित हो रहा और सपने देख रहा केवल सुप्त रस होता है; और वह पका होता है बसन्त ऋतु में भी, जब वह हरे रंग के छोटे—छोटे मनकों के कोमल गुच्छों के रूप में प्रकट होता है, और ग्रीष्म ऋतु में भी, जब गुच्छे फैल जाते हैं, मनके फूल उठते हैं और उनके गाल सूर्य के स्वर्ण में रँग जाते हैं।

यदि हर ऋतु अपने भीतर अन्य तीनों ऋतुओं को धारण किये हुए है, तो निस्संदेह सब ऋतुएँ समय और स्थान के प्रत्येक बिन्दु पर एक ही हैं।

हां, समय सबसे बड़ा मदारी है, और मनुष्य धोखे का सबसे बड़ा शिकार।

पहिये की हाल पर दौड़ती गिलहरी की तरह ही मनुष्य. जिसने स्वयं ही समय के पहिये को गति दी है, पहिये की गति पर इतना मोहित है, उससे इतना प्रभावित है कि अब उसे विश्वास नहीं होता कि उसे घुमाने वाला वह स्वयं है, न ही वह समय की गति को रोकने के लिये ‘समय निकाल पाता’ है।

और उस बिल्ली की तरह ही जो इस विश्वास में कि जो रक्त वह चाट रही है वह पत्थर में से रिस रहा है सान को चाटने में अपनी जीभ घिसा देती है मनुष्य भी इस विश्वास में कि यह समय का रक्त और मांस है समय की हाल पर गिरा अपना ही रक्त चाटता जाता है और समय के आरों द्वारा चीर डाला गया अपना ही मांस चबाये जाता है।

समय का पहिया स्थान के शून्य में घूमता है। इसकी हाल पर ही वे सब वस्तुएँ हैं जिनका इन्द्रियाँ अनुभव कर सकती हैं, लेकिन वे केवल समय और स्थान की सीमा के अन्दर ही किसी वस्तु का अनुभव कर सकती हैं। इसलिये वस्तुएँ प्रकट और लुप्त होती रहती हैं। जो वस्तु एक— के लिये समय और स्थान के एक बिन्दु पर लुप्त होती है, वह दूसरे के लिये किसी दूसरे बिन्दु पर प्रकट हो जाती है। जो एक के लिये ऊपर हो, वह दूसरे के लिये नीचे है। जो एक के लिये दिन हो, वह दूसरे के लिये रात है, और यह निर्भर करता है देखने वाले के ‘कब’ और ‘कहाँ’ पर।

समय के पहिये की हाल पर जीवन और मृत्यु का रास्ता एक ही है, साधुओं। क्योंकि गोलाई में हो रही गति कभी किसी अन्त पर नहीं पहुँच सकती, न ही वह कभी खत्म होकर रुक सकती है। और संसार में हो रही प्रत्येक गति गोलाई में हो रही गति है।

तो क्या मनुष्य अपने आप को समय के अन्तहीन चक्र से कभी मुका नहीं करेगा?

करेगा. अवश्य करेगा, क्योंकि मनुष्य प्रभु की दिव्य स्वतन्त्रता का उत्तराधिकारी है।

समय का पहिया घूमता है, किन्तु इसकी धुरी सदा स्थिर है।

प्रभु समय के पहिये की धुरी है। यद्यपि सब वस्तुएँ समय और स्थान में प्रभु के चारों ओर घूमती हैं, फिर भी प्रभु सदैव समय—मुक्त, स्थान—मुक्त और स्थिर है। यद्यपि सब वस्तुएँ उसके शब्द से उत्पन्न होती हैं, फिर भी उसका शब्द उतना ही समय—मुक्त और स्थान—मुक्त है जितना वह स्वयं।

धुरी में शान्ति ही शान्ति है, हाल पर अशान्ति ही अशान्ति है। तुम कहाँ रहना पसन्द करोगे?

मैं तुमसे कहता हूँ, तुम समय की हाल पर से सरक कर उसकी धुरी पर आ जाओ और अपने आप को गति की बेचैनी से बचा लो। समय को अपने चारों ओर घूमने दो; पर समय के साथ खुद मत घूमो।


Filed under: ओशो की प्रिय पुस्‍तके..... Tagged: अदविता नियति, ओशो, डेरा बाबा जैमलसिंह सेक्रेटरी, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

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