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समाधि के सप्‍त द्वार–(ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–17

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प्राणिमात्र के लिए शांति—प्रवचन—सत्रहवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; रात्रि, 17 फरवरी, 1973

इसके अतिरिक्त, उन पवित्र अभिलेखों का और क्या आशय, जो तुझसे यह कहलवाते हैंः

“ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं।

“ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण-धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं। ‘

हां, आर्य-पथ पर अब तू स्रोतापन्न नहीं है, तू एक बोधिसत्व है। नदी पार की जा चुकी है। सच है कि तू “धर्मकाया’ के वस्त्र का अधिकारी हो गया है, लेकिन “संभोग काया’ निर्वाणी से बड़ा है। और उससे भी बड़े हैं “निर्माण कायावाले’–कारुणिक बुद्ध

अब ओ बोधिसत्व, अपना सिर झुका और ठीक से सुन। करुणा स्वयं बोलती हैः जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, क्या तब तक आनंद संभव है? क्या तू अकेला सुरक्षित होगा और सारा संसार रोता रहेगा?

अब तूने वह सुन लिया है, जो कहा गया था।

तू सातवें पद को उपलब्ध होगा और परम-विद्या के द्वार को पार करेगा, लेकिन क्या मात्र इसलिए कि दुख के साथ तेरा गठबंधन हो! यदि तुझे तथागत होना है, तो अपने पूववर्ती के चरण-चिह्नों पर चल और अंतहीन अंत तक अहंकारशून्य रह।

तू संबुद्ध है–अपना पथ चुन।

उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं। और चतुर्मुखी अभिव्यक्त शक्तियों से–दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधु-गंधी मिट्टी और बहती हवाओं से–प्रेम का

मधुर संगीत उदभूत हो रहा है।

जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठ कर समस्त निसर्ग की निशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती हैः आनंद मना, ओ म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से लौट आया है।

एक नए अर्हत का जन्म हुआ है।

प्राणिमात्र के लिए शांति।

आनंद पाने का एक आनंद है, लेकिन फिर उस आनंद को बांटने का और ही आनंद है। जो मिला है, वह जब तक दिया न जाए, तब तक उसकी पूरी प्रतीति, उसका पूरा रस, उसका पूरा

स्वाद भी नहीं मिलता। आनंद को बांटकर ही पता चलता है कि क्या मिला है।

जब परम स्थिति के निकट पहुंचता है साधक, शून्य होने का क्षण आ जाता

है, तब जो उसे मिलता है, वह अपार है, असीम है। उसे वह अकेला लेकर डूब सकता है, लेकिन ये सूत्र महायान के कहते हैं कि वह आनंद के अंतिम और मधुर फल से वंचित रह जाएगा। आनंद उसे पूरा मिल जाएगा, फिर भी आनंद के अंतिम मधुर फल से वंचित रह जाएगा। वह मधुर फल है आनंद को बांटने का।

एक आनंद है आनंद को पाने का, और फिर उससे भी विराटतर आनंद है–आनंद को बांटने का।

वह जो बांटना है, वह जो बिखेरना है आनंद के बीजों को, सभी बुद्ध उसे नहीं कर पाते। कुछ बुद्ध उसे कर पाते हैं, कुछ बुद्ध शून्य में खो जाते हैं। यह सूत्र इसी के संबंध में है। हम इसे समझें।

“इसके अतिरिक्त, उन पवित्र अभिलेखों का और क्या आशय है, जो तुझसे यह कहलवाते हैंः

“ॐ मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं। ‘

सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं–मधुर फल निर्वाण मार्ग का, उस फल को बांट देने में है, उसे फैला देने में है। अपने लिए पाने के लिए तो संसार में सभी लोग जीते हैं। सांसारिक सुख अपने लिए पाना चाहते हैं। फिर ऐसे ही अध्यात्म के जगत में भी आध्यात्मिक आनंद अपने लिए पाना चाहते हैं। इसमें एक अर्थ में संसार की पुरानी आदत मौजूद है–अपने लिए पाने की। मिल भी जाता है, लेकिन संसार की एक पुरानी आदत जैसे काम करती चली जाती है–मैं ही केंद्र बना रहता हूं। अहंकार मिट गया अब, आत्मा बन गई केंद्र, लेकिन फिर भी मैं केंद्र हूं। झूठा अहंकार खो गया, सच्ची आत्मा मिल गई, फिर भी केंद्र मैं ही हूं। तो संसार का एक सूत्र जैसे काम ही कर रहा है कि मैं केंद्र हूं।

सभी अर्हत, सभी उपलब्ध व्यक्ति लौटकर इस आखिरी सूत्र को नहीं तोड़ देते कि मैं केंद्र नहीं हूं, अब केंद्र दूसरे हो गए। अब यह सारा अस्तित्व केंद्र है, और मैं इस अस्तित्व के लिए समर्पित हूं।

“मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं। ‘

“ॐ मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण-धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं। ‘

सभी बुद्ध वापिस लौटकर बांटते नहीं हैं, कोई बुद्ध कभी बांटता है।

जैनों ने उन बुद्धों को तीर्थंकर कहा है, जो बांटते भी हैं। जैनों का

शब्द है तीर्थंकर, कीमती है। उस शब्द को समझने से बहुत आसानी होगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। ये चौबीस बुद्ध पुरुष–केवल चौबीस ही बुद्ध पुरुष हुए हैं, ऐसा नहीं है, ऐसे बहुत से जिन, बहुत से बुद्ध पुरुष हुए हैं। सम्यकत्व को, सम्यक ज्ञान को, अंतिम ज्ञान को, केवल-ज्ञान को उपलब्ध बहुत से अरिहंत हुए हैं। अर्हत बौद्धों का शब्द है, अरिहंत जैनों का शब्द है। अर्थ एक ही है। लेकिन तीर्थंकर चौबीस हुए हैं। अनंत-अनंत बुद्धों, जिनों, अर्हतों, अरिहंतों में से केवल चौबीस व्यक्ति लौट आए हैं। और उन्हें जो मिला है, उसे उन्होंने बांटने की कोशिश की है।

तीर्थंकर शब्द का अर्थ हैः घाट के बनानेवाले।

एक व्यक्ति जब बुद्ध होता है, तो दूसरे किनारे पहुंच गया। अगर वह लौटकर न आए वापिस उस किनारे पर, जहां संसार है, जहां उसके संगी-साथी, मित्र, शिष्य, प्रियजन, जन्मों-जन्मों के संबंधी, अनेक-अनेक यात्राओं में उसके साथ, जहां उसका बड़ा परिवार है दुख में लीन, उस तट पर अगर कोई वापिस न लौटे, तो तीर्थ निर्माण नहीं होता। उस तट पर अगर कोई वापिस लौट आए, तो वह घाट को बनाता है। अब उसे अनुभव है–दूसरे पार जाने का रास्ता कैसे जाता है और कहां से उतरें कि हम दूसरे पार सुगमता से पहुंच सकेंगे।

तो इस किनारे पर लौट कर वह घाट का निर्माण करता है, जहां से नाव दूसरे किनारे के लिए जा सके। उस घाट का नाम है तीर्थ। और उसको जो निर्माण करता है, उसका नाम है तीर्थंकर। उस किनारे गया हुआ लौटकर जब इस किनारे ऐसा घाट निर्मित करता है, जिससे दूसरे भी नाव पकड़ लें, और दूसरे तट की ओर चल पड़ें, ऐसा बुद्ध, ऐसा जिन, ऐसा अर्हत तीर्थंकर है। लेकिन सभी बुद्ध ऐसा नहीं करते, अति कठिन काम है।

उस पार का आनंद अवर्णनीय है। उस पार की शांति की कोई तुलना नहीं है। उस पार महासुख है। उस पार रंचमात्र भी पीड़ा शेष नहीं रह जाती है। वहां से इस तरफ लौटना, अति असंभव कार्य है। दुख से सुख की तरफ जाना हो तो बहुत आसान है, सुख से दुख की तरफ आना बहुत कठिन है। नरक से स्वर्ग को जाने को तो कोई भी तैयार होगा, लेकिन स्वर्ग से कौन नरक की तरफ जाना चाहेगा? उस पार से इस तरफ लौटना अति दुर्गम है। इस तरफ से उस पार जाना ही तो अति दुर्गम है, फिर उस पार से इस पार लौटना तो बहुत ही महादुर्गम है; असंभव जैसा कृत्य है।

इसलिए हमने तीर्थंकरों और बुद्धों को इतना सम्मान दिया है। उन्होंने असंभव किया हैः उस परम आनंद के अनुभव के बाद लौटना इस उत्तप्त जगत में, जहां सब जल रहा है और सब नरक है। हमें तो इसके नरक की प्रतीति ज्यादा नहीं होती; क्योंकि हम इसी में बड़े हुए हैं, इसी में जीए हैं, यह हमारी श्वास-श्वास में भरा है। हम इसे जीवन ही मानते हैं। इस नरक की प्रतीति तो उसे ही होती है इसकी पूर्णता में, जो उस पार की झलक ले आया है।

तो जितना दुख आपको मालूम होता है, आपको पता नहीं, आप सोचते होंगे कि ऐसी भी क्या तकलीफ है। थोड़ी तकलीफ है माना। ऐसी क्या तकलीफ है कि कोई उस तरफ से लौटना ही न चाहे। हमें अंदाज नहीं है।

गरीब आदमी को जो तकलीफ है, अगर अमीर आदमी गरीब की जगह खड़ा हो, तो उसे जो तकलीफ पता चलेगी, वह गरीब को कभी पता नहीं चलेगी। वह तो अमीर को जब गरीब हो जाए, तब जो दुख पता चलेगा, वह उसी झोपड़े में रहनेवाले गरीब को बिलकुल नहीं पता चलता। गरीब उसका आदी है। उसके पास तुलना का उपाय भी नहीं है। किससे तोले, किससे कहे कि यह दुख है, किस आधार पर उसको दुख कहे? यही जीवन है। कठिन है। लेकिन जिसने सुख जाना हो, उसके लिए महादुख है।

एक बार जिसने उस पार की झलक पा ली हो, उसके लिए इस पार का जगत “म्यालबा’ है। यह तिब्बती शब्द है। “म्यालबा’ का अर्थ है महा नरक। साधारण नरक नहीं, महानरक। इस महानरक की तरफ जो लौटता है, उसको तीर्थंकर, बोधिसत्व कहते हैं। स्वाभाविक है, उसको इतना सम्मान दिया गया।

“मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं।

“हां, आर्य-पथ पर अब तू स्रोतापन्न नहीं है, तू एक बोधिसत्व है। नदी पार की जा चुकी है। सच है कि तू “धर्मकाया’ के वस्त्र का अधिकारी हो गया है, लेकिन “संभोगकाया’ निर्वाणी से बड़ा है। और उससे भी बड़े हैं “निर्माणकाया’ वाले कारुणिक बुद्ध। ‘

तीन तरह की कायाओं का विचार बुद्ध चिंतना में है। तीन काया के शब्द ठीक से समझ लेना चाहिए।

एक शब्द है धर्मकाया। अभी हम एक शरीर में हैं, यह है पार्थिव स्थूल काया। इस स्थूल काया के बिना संसार में नहीं हुआ जा सकता है। संसार में होने के लिए यह शरीर जरूरी है। मोक्ष में, महा-शून्य में जब हम प्रवेश करते हैं, तो जो हमें घेरे होती है देह, उसका नाम है धर्मकाया। वह कोई शरीर नहीं है, सिर्फ प्रतीक है। जब महाशून्य में कोई प्रवेश करता है तो उसके आसपास जो आभा होती है, जो अस्तित्व की श्वास होती है उसका नाम है धर्मकाया।

धर्मकाया इसलिए कि वह हमारा स्वरूप है, धर्म है। उसे हमसे छीना नहीं जा सकता है। उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। उसको मिटाने का कोई उपाय नहीं है। वह हम ही हैं। वह हमारी आत्मा है। वह हमारा मौलिक अस्तित्व है, जिसको हम स्वभाव कहते हैं, वह आत्यंतिक स्वभाव है। उसमें से रत्ती भर अलग नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह हम ही हैं। जो भी अलग किया जा सकता है, वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव का अर्थ है जिससे हम अलग हो सकते हैं और फिर भी हो सकते हैं तो वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव तब है, जब जिससे हम अलग ही न हो सकें। अलग करने का उपाय भी न हो, तब स्वभाव है।

धर्मकाया का अर्थ हैः आत्यंतिक स्वभाव।

जब कोई शून्य में प्रवेश करता है, तो उससे सब छिन जाता है। जो भी पराया था, विजातीय था, फारेन था, जो उसका अपना नहीं था, वह सब छिन जाता है। बच रहता वही है, जो उसका

शुद्ध अस्तित्व है, प्योर एक्जिस्टेन्स। उसका नाम है, धर्मकाया। उसके नीचे की काया का नाम है, संभोगकाया। और उससे भी नीचे की काया का नाम है, निर्वाणकाया।

धर्मकाया मिली कि व्यक्ति शून्य हुआ। धर्मकाया आखिरी है, फिर लौटना संभव नहीं है; क्योंकि लौटने के सारे साधन खो गए। लौटने के लिए वाहन चाहिए।

उससे नीचे के तल पर है संभोग काया। संभोग काया वैसी ही स्थिति है–मध्य की। संभोग काया में खड़ा हुआ व्यक्ति धर्मकाया की सारी स्थिति को देख पाता है। एक कदम आगे धर्मकाया है, आखिरी है, वहां अंत होता है अस्तित्व का। वहां महाशून्य और निर्वाण शुरू होता है। उसके बाद लौटना मुश्किल है। संभोग-काया वह क्षण है, जहां से व्यक्ति देख पाता है कि अगर एक कदम और आगे बढ़ा, तो फिर लौट नहीं सकूंगा। यहां से झलक मिलती है। यहां से आगे का दिखाई पड़ता है, वह महाशून्य, स्वभाव का अनंत विस्तार, ब्रह्म-निर्वाण। वह यहां से दिखाई पड़ता है। लेकिन अगर साधक एक कदम और आगे बढ़ता है, तो वह उस निर्वाण के साथ एक हो जाएगा। आखिरी काया है, संभोगकाया। जो पराई है, वह छूट गई, तो फिर लौटा नहीं जा सकता।

जिनको बोधिसत्व होना है, उनको संभोग-काया के क्षण में ही ठहर जाना पड़ता है। जहां से दिखाई पड़ता है महाशून्य। लेकिन अभी अंतर है, अभी स्वयं महाशून्य नहीं हो गए हैं। अभी महाशून्य भी प्रतीत होता है, दिखाई पड़ता है, उसका दर्शन होता है। अभी भी हम द्रष्टा हैं। अभी भी थोड़ी-सी बारीक दूरी है। इतनी दूरी अगर बचाए रखें तो लौटना हो सकता है।

संभोग-काया से और भी पहले है एक कदम काया का, वह है निर्वाण-काया। संभोग-काया से कोई संसार में नहीं लौट सकता। अकेली संभोग-काया सिर्फ अंतराल है बीच का। जब कोई व्यक्ति निर्वाण काया में होता है, तो ही संसार के काम आ सकता है।

निर्वाण-काया, ऐसा समझ लें हम, संसार और निर्वाण के बीच का संबंध-सेतु है। निर्वाण-काया के माध्यम से कोई बुद्ध, अगर चाहे, तो जगत के उपकार में, करुणा के जगत में, जगाने में लग सकता है। निर्वाण-काया माध्यम है, जगत और निर्वाण के बीच। निर्वाण-काया और धर्म-काया के बीच में है संभोग-काया। अगर कोई निर्वाण-काया में ही रुका रहे, तो उसे धर्म-काया का अनुभव नहीं हो पाता, महाशून्य का अनुभव नहीं हो पाता–दूर है उसके एक कदम आगे बढ़कर संभोग-काया है।

संभोग-काया इसे इसलिए नाम दिया है कि स्वयं के और उस अनंत के बीच संभोग का अनुभव होता है। थोड़ा-सा फासला रह गया है, अभी बिलकुल एक नहीं हो गए हैं।

ऐसा समझें, जब एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलता है गहन–दो तो बने रहते हैं, पर एक क्षण को ऐसा लगता है कि दो नहीं रहे, एक ही रह गया। वह है संभोग का क्षण। फिर भी दो तो रहते ही हैं। ऐसा लगता है एक क्षण को प्रतीति होती है–एक हल्की सी झलक, हवा का एक ताजा झोंका और ऐसा

लगता है कि दो खो गए और एक तरंग हो गई। दो तरंगें मिल गई, दो गीत अपने में एक-दूसरे में डूब गए, दो नदियां एक-दूसरे में घुलमिल गई। एक क्षण को ऐसी जो प्रतीति होती है, उसे हम संभोग कहते हैं। इस अवस्था में संभोग-काया। इस काया को इसलिए कहा है कि इस काया में खड़े हुए व्यक्ति को, उस महाशून्य के साथ क्षण भर को एक हो जाने का अनुभव होता है, एक हो नहीं जाता। एक हो जाए, तो फिर लौटना नहीं है। एक नहीं होता है, इसलिए लौट सकता है। संभोग-काया आखिरी पड़ाव है। उसके बाद लौटना नहीं है। संभोग-काया में जो संभल गया, जहां संभोग का अनुभव हुआ अस्तित्व के साथ–दूरी कायम रही, लेकिन मिलन हो गया। जैसे प्रेमी और प्रेयसी का मिलन। यहीं से सावधान होकर कोई नीचे उतर आए तो–तो निर्वाण काया है। अभी नीचे उतरा जा सकता है। अभी संबंध नहीं टूट गए हैं। निर्वाण-काया में रह कर ही कोई बोधि, बोधिसत्व रह पाता है।

तो यह सूत्र बहुत अदभुत है। यह कहता है कि नदी पार की जा चुकी है। और सच है कि तू धर्म-काया के वस्त्र का अधिकारी हो गया। अब तू हकदार है महाशून्य के साथ एक हो जाने के लिए, लेकिन संभोग-काया निर्वाणी से बड़ा है। तू रुक, निर्वाण में डूब जाना बिलकुल सहज है, सभी डूब जाते हैं, उससे भी बड़ा कृत्य है कि तू संभोग-काया में रुक जाए। जहां एक होने के बिलकुल करीब आ गया, वहां पीठ मोड़ ले, और लौट आए।

“और उससे भी बड़े हैं निर्वाण-काया में रहनेवाले कारुणिक बुद्ध। ‘

लेकिन संभोग-काया में रह जाए तो संसार का कोई उपयोग नहीं है। उससे भी नीचे उतर आ, और जगत के आखिरी संबंध का जो सेतु है, उसको बना ले–निर्वाण-काया। और उस सेतु के माध्यम से जगत के प्रति करुणा से भरपूर कुछ करने में लग।

“अब ओ बोधिसत्व, अपना सिर झुका और ठीक से सुन। करुणा स्वयं बोलती हैः जब तक प्राणिमात्र दुख में है, क्या तब तक आनंद संभव है?’

ये बौद्ध महायान के सार सूत्र हैं और बड़े गहन हैं। यह सूत्र कहता है कि जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, तब तक क्या आनंद संभव है? तेरा दुख मिट गया, माना, लेकिन जब तक इस जगत में दुख है, क्या सच में ही तेरा दुख मिट गया? क्या तुझे इस जगत का दुख बिलकुल स्पर्श नहीं करेगा? क्या इस जगत का दुख जिसका कि तू एक हिस्सा है, इस अस्तित्व की पीड़ा जिसका कि तू एक अंग है, तुझे नहीं छुएगी? और इस पीड़ा की तरंगें तेरे हृदय में भी प्रवेश नहीं कर जाएंगी? क्या ये सच में ही संभव है, इस अस्तित्व में दुख बना रहे और तू आनंद को उपलब्ध हो जाए? तूने अपना आनंद पा लिया, पर और हैं, बहुत हैं, जो दुखी हैं, क्या यह दुख बिलकुल ही तुझे विस्मृत हो जाएगा? क्या तू भूल ही जाएगा कि अस्तित्व में दुख अभी शेष है–यह प्रश्न है।

यह प्रश्न है कि जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, क्या तब तक आनंद संभव है?

“क्या तू अकेला सुरक्षित होगा, और सारा संसार रोता रहेगा?

“अब तूने वह सुन लिया है जो कहा गया था।

“तू सातवें पद को उपलब्ध होगा और परमविद्या के द्वार को पार करेगा, लेकिन क्या मात्र इसलिए कि दुख के साथ तेरा गठबंधन न हो!’

क्या सारी यात्रा बस इतनी ही थी कि दुख से तेरा संबंध टूट जाए?

“यदि तुझे तथागत होना है, तो अपने पूववर्ती के चरण-चिह्नों पर चल और अंतहीन अंत तक अहंकार शून्य रह। ‘

“तू संबुद्ध है’ अपना पथ चुन। ‘ अब तू सिर्फ खोजने की बात मत सोच। बहुत हैं, जो दुखी हैं, उनका भी स्मरण कर। और जैसे तुझसे पहले तथागत गौतम बुद्ध ने स्वयं को रोक लिया–तब तक के लिए, जब तक यह अंतहीन संसार आनंद को उपलब्ध नहीं हो जाता, ऐसा महा-संकल्प लिया–ऐसा तू भी महा-संकल्प ले। ‘

“अब तू संबुद्ध है’–अब तू जाग गया।

“–अपना पथ चुन। ‘

अब तू सिर्फ आनंद में आकर्षित होकर मत डूब।

इसे हम ऐसा भी समझ सकते हैं, महायान की दृष्टि से ऐसा है ही कि यह आखिरी वासना है कि मैं आनंद में डूब जाऊं। मेरा आनंद मिल गया, बात समाप्त हो गई।

इसे भी तोड़ दे। मेरा भी क्या? जब तक दुख है, तब तक मेरेत्तेरे की बात ही मत कर। जब तक आनंद ही आनंद न हो जाए, और कोई भी दुख न रह जाए, तब तक तू रुक।

और तू रुक सकता है, तेरी सामर्थ्य है। क्योंकि तू संबुद्ध है, जागा

हुआ है, नियम के बाहर हो गया। अब तेरे ऊपर कोई भी जोर-जबरदस्ती नहीं। अब तू स्वयं भगवान है। अब तो कोई कारण नहीं जो तुझे धक्का दे रहा हो कि तू ऐसा कर, वैसा कर। अब तू जो करना चाहे, कर सकता है। इस क्षण में तुझे इतनी बड़ी सत्ता और शक्ति मिली है कि तू जो चाहे कर सकता है। इसका उपयोग कर।

या कि सिर्फ इसका इतना ही उपयोग करेगा कि तेरा दुख मिट जाए? तेरा दुख मिट गया, बस बात समाप्त हो गई?

“उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं। ‘

एक झलक उस स्थिति की है कि अगर तू लौट आए और पीठ फेर ले इस महाआनंद की तरफ और ध्यान करे उनका, जो दुख में हैं। यह उसकी एक झलक है। उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है।

अगर तू वापस लौट आए, तो सारा पूरब का आकाश प्रकाश से भर जाएगा, तेरे लौटते ही। जहां सदा से अंधेरा है, वहां प्रकाश का एक सूर्य उदय होगा।

“उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं। ‘

तेरा स्वागत करेगी पृथ्वी, तेरा स्वागत करेगा स्वर्ग। गलबाहें डाले खड़े हैं कि तू आ रहा है।

“और चतुर्मुखी अभिव्यक्त शक्तियों से–दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधु-गंधी मिट्टी और बहती हवाओं से–प्रेम का मधुर संगीत उदभूत हो रहा है। ‘

देख कि तू वापिस लौट रहा है उस जगत में, जहां दुख है, अंधकार है। जैसे पूरब में फिर से आध्यात्मिक अर्थों में एक सूरज का जन्म हो रहा है। स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले तेरा

स्वागत कर रहे हैं। दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधुगंधी मिट्टी और बहती हवाओं से, तेरे लिए प्रेम का संगीत उदभूत हो रहा है।

“सुन जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठ कर समस्त निसर्ग की निःशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती हैः आनंद मना, म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से वापस लौट आया है। ‘

हे महानरक के निवासियोम्यालबा का अर्थ है महानरक। हमारी पृथ्वी म्यालबा है।

“सुन जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठकर समस्त निसर्ग की निःशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती हैः आनंद मना, ओ म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से लौट आया है। ‘

“एक नए अर्हत,’ एक नए बोधिसत्व, एक नए बुद्ध का जन्म हुआ है।

“प्राणिमात्र के लिए शांति। ‘

आदमी है दुख में, सुख खोजता है। जितना सुख खोजता है, उतना दुखी होता जाता है। जब बोध जगता है कि मेरे सुख की खोज ही मेरे दुख का कारण है, तो साधना का जन्म होता

है। तब आदमी सुख नहीं खोजता, दुख से नहीं बचना चाहता, सुख-दुख दोनों से उठना चाहता है।

सांसारिक आदमी है वह, जो दुख में है, और सुख खोजता है।

संन्यासी है वह, जो समझ गया कि दुख से बचने और सुख को खोजने में ही दुख है।

तो संन्यासी है वह, जो सुख और दुख से ऊपर उठने का रास्ता, मार्ग खोजता है।

सिद्ध है वह, जो पहुंच गया उस जगह, जहां सुख और दुख के पार हो गया।

सुख दुख के पार होते ही आनंद घटित हो जाता है।

सिद्धत्व आनंद की अवस्था है।

बोधिसत्व है वह, जो इस आनंद को पाकर खो नहीं जाता, चुप नहीं हो जाता, बैठा नहीं रहता; वरन् जो दुख में हैं, उनके लिए वापस लौट आता है।

सुना है मैंने कि जापान के एक कारागृह में एक अनूठी घटना वर्षों तक घटती रही। एक फकीर बार-बार चोरी करता और सजा पाता रहता। लोग चकित थे। फकीर ऐसा साधु था असाधारण कि कोई भरोसा ही न करता था कि वह साधु और कभी चोरी करेगा। गुण उसके ऐसे थे बुद्धत्व के और चोरी की बात का कहीं तालमेल न था। और चोरी भी बहुत छोटी-मोटी! और यह जिंदगी भर चला! बूढ़ा हो गया तो उसके शिष्यों ने कहा कि अब तो बंद करो यह उपद्रव। हमारी कल्पना में भी नहीं आता कि किसलिए यह चोरी करते हो! हम मान भी नहीं सकते हैं कि तुम चोरी करते हो; लेकिन सब गवाह हो जाते हैं, सबूत हो जाते हैं, और तुम्हारी सजा हो जाती है। और तुम्हारे पीछे हम भी बदनाम हो जाते हैं कि तुम किसके शिष्य हो, वह आदमी फिर जेल में चला गया। और तुम अब आखिरी बार छूट आए हो, उम्र भी कम बची है, स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, अब तुम कृपा करके यह उपद्रव बंद करो। और तुम्हें जो चाहिए हम सदा देने को तैयार हैं; चोरी की तुम्हें जरूरत नहीं है। और तुम चोरी भी ऐसी छोटी-छोटी करते हो कि भरोसा नहीं आता कि क्या करते हो!

तो उसने कहा कि जिंदगी भर मैंने कहा नहीं, अब तुमसे कहता हूं–चोरी मैं सिर्फ इसलिए करता हूं, ताकि भीतर जाकर चोरों को बदल सकूं। उन तक पहुंचने का और कोई उपाय नहीं है। वहां बहुत चोर दुखी हो रहे हैं। वहां बहुत अपराधी और पापी हैं। उनको कौन बदले? और कैसे बदले? और अगर मैं गुरु की तरह जाकर उनको उपदेश दूं, तो उनको नहीं बदल सकता।

क्योंकि जो अपना नहीं है, उसके प्रति कोई सम्मान पैदा नहीं होता है। जो अपने ही जैसा नहीं होता है, उससे कोई संबंध निर्मित नहीं होते हैं। एक गुरु की तरह, एक साधु की तरह जाकर मैं खड़ा हो जाऊं, तो उनके मन में मेरे प्रति एक फासला और एक दूरी रहती है कि मैं साधु हूं और वह चोर है। शायद मेरी मौजूदगी उनकी निंदा भी बन जाती है। शायद मेरे कारण उनको पीड़ा और दुख भी हो। शायद अकारण मैं उनकी पीड़ा का कारण भी बन जाऊं। तो मैं चोर होकर ही जाना पसंद करता हूं। मैं फिर उनके जैसा हो गया। उनकी ही काल-कोठरियों में बंद, उनकी ही तरह जंजीर मेरे हाथ में, मैं भी एक चोर, वे भी एक चोर। फिर हम एक-दूसरे की भाषा समझ सकते हैं। और फिर उनकी ही भाषा में मैं उनको बदलने की कोशिश करता हूं। फिर तुम मुझे रोकोगे। जब तक मैं हूं, मेरा यही काम है कि वे जो पीड़ा और पाप से घिरे हैं, उन्हें बाहर लाऊं। बोधिसत्व उस किनारे से ऐसा ही व्यक्ति है लौटता हुआ इस किनारे पर। और अगर उसे यहां लौटना है, और इस किनारे के लोगों को सहायता पहुंचानी है, तो उसे इस किनारे की कुछ भाषा कायम करनी होगी। इस किनारे के लोगों से कुछ संबंध स्थापित करना होगा। निर्वाण-काया वही संबंध है इस जगत के लोगों से। और इस जगत के लोगों की भाषा क्या है? इस जगत के लोगों की भाषा वासना है।

तो बुद्ध को अगर बोधिसत्व बनना है, तो उसे अपनी करुणा को वासना बनाना पड़ेगा। उसे यह प्रगाढ़ वासना करनी पड़ेगी कि मैं दूसरों को सहयोग दे सकूं, साथ दे सकूं, मार्गदर्शन दे सकूं।

जैनों में कहा जाता है कि तीर्थंकर वही आदमी होता है, जिसने तीर्थंकर कर्म का बंधन किया हो। इसको भी कर्म कहते हैं। यह भी एक पाप है। क्योंकि दूसरों को जगाने की चेष्टा भी, दूसरों को बदलने की चेष्टा भी, दूसरों को रूपांतरित करने की चेष्टा भी, एक चेष्टा तो है, और एक वासना तो है। तो जिसने दूसरों को जगाने की वासना को बचा लिया हो, वही तीर्थंकर बन सकता है। इतनी तो उसे वासना रखनी ही पड़ेगी कि मैं दूसरों के काम आ जाऊं। इतनी वासना का धागा बना रहे, वही वासना निर्वाण-काया है। तो फिर वह हमसे जुड़ा है बहुत हल्के धागों से। कभी भी टूट सकता है धागा। कोई मजबूत जंजीर नहीं है। और फिर अपने ही हाथ से बंधा है। अगर इस तट पर किसी को रहना है, तो इस तट के साथ उसको कुछ खूंटियां, कुछ सूत्र, कुछ धागे, कुछ रस्सियां बांधनी पड़ेंगी।

मैंने सुना है कि रामकृष्ण को भोजन से अति लगाव था, अतिशय। ऐसा ज्यादा था कि रामकृष्ण के आसपास के लोग चिंतित हो जाते थे। और शारदा तो बहुत बार रामकृष्ण को झिड़कती थी कि यह बंद करो बच्चों जैसा काम। क्योंकि ब्रह्मचर्चा चलती होती और अचानक रामकृष्ण बीच से उठकर किचन में, चौके में पहुंच जाते, और वे कहते, क्या बना है? आज क्या बन रहा है? शारदा कहती कि ब्रह्मचर्चा छोड़कर यहां चौके में आकर ऐसे प्रश्न उठाना आपको शोभा नहीं देता परमहंस देव। शिष्य भी समझाते, लोगों में ऐसी खबर पहुंचती है, तो लोग कहते हैं, यह रामकृष्ण कैसा ज्ञानी है? इनको भोजन की इतनी फिकर! अज्ञानियों को भी इतनी फिकर नहीं। थाली लेकर शारदा आती तो उठकर खड़े होकर वे थाली देखने लगते, उनके चेहरे पर बड़े आनंद का भाव थाली को देख कर आ जाता!

एक दिन कोई नहीं था। शारदा तो कई बार झिड़क चुकी थी। उस दिन बहुत नाराज हो गई, और उसने कहा कि समझ के बाहर है यह बात, तुममें और भोजन के प्रति ऐसा रस। रामकृष्ण ने कहा कि आज तक छिपाए रखा कि कहने से तुम्हें कठिनाई होगी और दुख होगा। तुम नहीं मानती हो और तुम उलझती जाती हो, तो कहे देता हूंः ध्यान रखना जब तक मैं भोजन में रस ले रहा हूं, तभी तक मैं इस शरीर में हूं, जिस दिन भोजन में रस न लूं, तू समझ जाना और खबर कर देना कि तीन दिन के भीतर ही मेरा शरीर छूट जाएगा।

फिर भी किसी ने बहुत गंभीरता से न लिया, क्योंकि हम बहुत बाद में बातें गंभीरता से लेते हैं। तब शारदा ने भी सुना-अनसुना कर दिया। औरों ने भी सुना, बात आई-गई हो गई। फिर एक दिन तब याद आई वर्षों बाद, शारदा थाली लेकर आई। रामकृष्ण लेटे थे–तो उन्होंने करवट बदल ली दूसरी तरफ। यह असंभव था। भोजन में उनका रस ऐसा था कि वह करवट बदल लें और पीठ कर लें, यह असंभव था। अचानक शारदा को याद आया, हाथ से थाली छूट कर गिर पड़ी। रोने लगी, उसने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं, आपने पीठ क्यों फेर ली? रामकृष्ण ने कहा कि तुम्हीं तो सब सदा कहते थे, अब आज वही कर रहा हूं, जो तुम्हारी आकांक्षा थी। ठीक तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।

शरीर में अगर बांध कर रखना हो किसी बोधिसत्व को, तो शरीर की कोई वासना पकड़नी होगी, नहीं तो वह तत्क्षण छूट जाएगा। पर यह वासना पकड़ी जा रही है, इसमें भी वह मालिक है। यह वासना उसे नहीं पकड़ रही है। एक तो ऐसा है कि किनारे की खूंटी आपको पकड़े हुए है, और आप खूंटी के बस में हैं। और एक ऐसा है कि आपने खूंटी किनारे की पकड़ रखी है अपने हाथ से; क्योंकि आप धारा में बह जाना नहीं चाहते, इस किनारे पर कुछ काम आना चाहते हैं। जिस दिन चाहें, उस दिन, उस क्षण छोड़ सकते हैं। खूंटी की कोई पकड़ आप पर नहीं है, आप ही खूंटी को पकड़े हुए हैं।

भोजन में आपका भी रस है। आप यह मत सोचना कि आप भी रामकृष्ण जैसे हैं। रामकृष्ण और आपके भोजन के रस में भी फर्क है। यह प्रयोजित है, जाना-माना है, आयोजित है। रामकृष्ण जान रहे हैं कि इस शरीर को अगर पकड़े रखना है कि कुछ देर काम आ जाए, तो इस शरीर की भाषा में कुछ सूत्र, सेतु, मार्ग पकड़ रखना पड़ेंगे। यह मैंने उदाहरण के लिए कहा।

उस क्षण में जब कोई शून्य में खोने के करीब आ गया, तब अगर उसे जगत के साथ कोई संबंध रखना है, तो सिर्फ करुणा की वासना में अपने को रोक रखना पड़ेगा। यह सूत्र करुणा की वासना जगाने के लिए है।

अंत होता है इस पुस्तक का–“प्राणिमात्र के लिए शांति’।

बुद्ध ने निरंतर बार-बार कहा है अपने लिए शांति मत मांगना, प्राणि-मात्र के लिए मांगना। अपने लिए आनंद मत मांगना, प्राणिमात्र के लिए आनंद मांगना। अपने लिए प्रार्थना मत करना, प्राणिमात्र के लिए प्रार्थना करना। क्यों? क्योंकि इन्हीं प्रार्थनाओं, इन्हीं मांगों, इन्हीं आकांक्षाओं-अभीप्साओं से तुम्हारे भीतर वह सूत्र निर्मित होता जाएगा, जो अंतिम क्षण में, जब तुम शून्य में खोने लगोगे, तो तुम्हें वापिस खींच सकेगा।

प्राणिमात्र का स्मरण–इसे पहले से ही बुद्ध को मानने वाला साधक प्रार्थना करता है, प्रार्थना के बाद कहता है, प्राणिमात्र को शांति। जो मुझे मिला, वह प्राणिमात्र में बंट जाए; जो मैंने पाया वह अकेला मेरा न हो, सबका हो जाए। यह वह निरंतर कहता जाता है, ताकि इसकी गहन-रेखा बन जाती है भीतर। और जिस दिन महा-आनंद भी आता है, तब तत्क्षण इस पुरानी गहन-रेखा, लीक के कारण, उसके मन में भाव उदय होता है–जो मुझे मिला है, वह सब प्राणिमात्र में बंट जाए। जो शांति मुझे मिली है, वह सबकी हो जाए। जो आनंद मुझे मिला है, वह सबका हो जाए। जो शांति मुझे मिली है, वह सबकी हो जाए। जो आनंद मुझे मिला है, वह सबका हो जाए। यह स्मरण आते ही वह लौटकर जगत की तरफ देखता है, और सेतु निर्मित हो जाता है। उस सेतु का नाम है निर्वाण-काया।

अंतिम दिन है, जाने के पहले कुछ बातें और भी मैं आपसे कहना चाहूंगा।

एक, जो कि आप यहां कर रहे थे, वह केवल प्रयोग है, ताकि खयाल में आ सके कि क्या करना है। इतना मात्र कर लेने से कुछ हल न हो जाएगा, उसे जारी रखना पड़ेगा। तो लौटकर जारी रखें। अन्यथा मैं देखता हूं कि आप शिविर में कर लेते हैं, शांति मिलती है, सहजता आती है, निर्दोष थोड़ी सी झलक आती है, एक ताजी हवा का झोंका आता है, और अच्छा लगता है। फिर वापस घर लौट कर आप पुरानी आदतों में जीने लगते हैं। फिर कभी किसी शिविर में आ जाएंगे, फिर कर लेंगे। ऐसे बार-बार करेंगे और बार-बार खोते रहेंगे, तो बहुत गहरे परिणाम न होंगे। इसे तो खोदते ही जाना है। यह कुआं इतना गहरा है कि इसे अगर खोदा दो-चार दिन, फिर छोड़ दिया चार-छः महीने, फिर कूड़ा-करकट भर कर जमीन पुरानी हो जाएगी, फिर सतह वही हो जाएगी। फिर खोद लिया दो-चार हाथ, फिर छोड़ दिया। तो कुआं कभी भी न खुदेगा और वह जल जिसकी तलाश है, कभी न मिलेगा। इसे खोदते ही जाएं। बार-बार अलग जगह खोदेंगे, तो श्रम भी होगा, समय भी नष्ट होगा, शक्ति भी जाएगी, और परिणाम भी न होंगे।

रूमी ने एक दिन अपने शिष्यों को एक दफा कहा कि तुम मेरे साथ आओ, तुम कैसे हो, मैं तुम्हें बताता हूं। वह अपने शिष्यों को ले गया एक खेत में, वहां आठ बड़े-बड़े गङ्ढे खुदे थे, सारा खेत खराब हो गया था। रूमी ने कहा, देखो इन गङ्ढों को। यह किसान पागल है, यह कुआं खोदना चाहता है, यह चार-आठ हाथ गङ्ढा खोदता है, फिर यह सोच कर कि यहां पानी नहीं निकलता, दूसरा खोदता है। चार हाथ, आठ हाथ खोद कर, सोच कर कि यहां पानी नहीं निकलता, यह आठ गङ्ढे खोद चुका है। पूरा खेत भी खराब हो गया, अभी कुआं नहीं बना। अगर यह एक गङ्ढे पर इतनी मेहनत करता, जो इसने आठ गङ्ढों पर की है, तो पानी निश्चित मिल गया होता।

तो एक दफा संकल्प करें, एक जगह सतत खोदते चले जाएं, तो ही आपको जीवन के जल-स्रोत मिलेंगे। यहां जो सीखा है उसे प्रयोग करें, ताकि दूसरे शिविरों में आप आएं, तो वहीं से शुरू न करना पड़े, जहां से पहले शिविर में शुरू किया था। आप कुछ खोद कर लाएं, तो फिर हम और गहरी खुदाई कर सकें। और हर बार शिविर आपके लिए नए द्वार खोल सकता है, लेकिन आप पुराने द्वार पर काम करते रहे हों, तभी।

तो पहली बात तो यह स्मरण रखें कि ध्यान एक भीतरी खुदाई है, जिसको सतत जारी रखना जरूरी है।

दूसरी बात ध्यान रखेंः

यहां तो आसान है कर लेना। घर पर भय लगेगा, पड़ोस है, आसपास लोग हैं, हंसेंगे, चिल्लाएंगे, रोएंगे, तो क्या कहेंगे लोग? एक बात सदा खयाल रखें कि वैसे भी कोई आपके बाबत अच्छा कहता नहीं है। इस भ्रांति में आप रहना ही मत कि लोग आपके संबंध में बहुत अच्छा सोच रहे हैं। उससे ही यह तकलीफ शुरू होती है कि कहीं अपनी अच्छी प्रतिमा न गिर जाए। वह कहीं है ही नहीं। आप सोचें, आपके मन में पड़ोसी की अच्छी प्रतिमा है? आपके मन में किसकी अच्छी प्रतिमा है? किसके मन में आपकी होनेवाली है? यह नाहक की भ्रांति है, इसमें पड़ना ही मत।

और अच्छा यही होगा कि घर में लोगों को बता देना कि ऐसा प्रयोग मैं कर रहा हूं, चिंता लेने की जरूरत नहीं है। अगर आसान हो, तो पास-पड़ोस में भी जाकर बता आना कि ऐसा मैं एक प्रयोग कर रहा हूं, थोड़ी आवाज करूं, चिल्लाऊं तो आप बहुत चिंतित मत होना। तो आप हल्के होकर कर सकेंगे प्रयोग। लोग जानते हैं, दो-चार दिन में समझ जाते हैं कि ठीक है, जिन लोगों से आपको डर है, अगर आप प्रयोग करते रहे उनका भय छोड़ कर, तो महीने-दो-महीने के भीतर वे आपसे पूछेंगे कि हमें भी सिखा दें। क्योंकि दो महीने में आपकी बदलाहट हो जाएगी। अभी आपकी कोई प्रतिमा नहीं है लोगों के पास, लेकिन अगर आपने ध्यान किया, तो निश्चित आपकी प्रतिमा होगी। क्योंकि आपकी शांति की खबर मिलनी शुरू हो जाती है। फूल खिलते हैं, छिप नहीं सकते। सूरज निकलता है, तो अंधे तक को भी उसका उत्ताप पता चलने लगता है, न भी दिखाई पड़े तो भी–तो भी पक्षियों के गीत कहने लगते हैं कि सुबह हो गई।

आप ध्यान में गहरे उतरेंगे, तो आपकी शांति, आपका आनंद, आपका प्रेम, आपकी करुणा सब बढ़ेगी। आपका क्रोध, आपकी घृणा, आपकीर् ईष्या घटेगी। आप अपने पड़ोस में, अपने परिवार में, अपने संबंधियों के बीच, नए आदमी बन जाएंगे। मगर अगर अभी से आप डरते हैं कि कहीं कोई यह न समझे कि मैं पागल हूं, कहीं कोई यह न समझे कि कहीं कोई वैसा न समझ ले–इस भ्रांति को छोड़ दें।

किसी को एक तो चिंता नहीं है बहुत ज्यादा आपके संबंध में सोचने की। कभी आपने खयाल किया, सब अपने-अपने संबंध में सोचते हैं। किसको फुर्सत है कि आपके संबंध में सोचे? आप किसके संबंध में कितना सोचते हैं? और अगर पड़ोस में कोई चिल्लाने लगे जोरों से, तो एक दफा सोचेंगे, शायद दिमाग खराब हो गया है। फिर फुर्सत है कि उस पर लगे रहें? लेकिन अगर यह चिल्लाने वाला आदमी आपको दूसरे दिन इसकी शकल में फर्क दिखने ले, साल-छः महीने के भीतर यह आदमी एक शांति का स्रोत बन जाए, तो आप ही इससे पूछेंगे कि वह तरकीब क्या है चिल्लाने की, जिससे तुम शांत हो गए हो? तब जल्दी न करना, प्रतीक्षा करना, अपने में परिवर्तन की। तभी आपकी कोई प्रतिमा निर्मित होती है। अभी कोई प्रतिमा नहीं है, अभी आपको खयाल है।

तीसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है। घर पर आप अकेले होंगे, लेकिन अकेले होने की जरूरत नहीं। जिस भांति आप यहां मेरे सामने बैठ कर ध्यान कर रहे हैं, अगर इसी भांति आपने खयाल रख लिया कि मैं सामने बैठा हूं और आप ध्यान कर रहे हैं, तो आप मेरी मौजूदगी इतनी ही पाएंगे जितनी आप यहां पाते हैं। और तब निर्भय होकर आप प्रयोग कर सकते हैं। निर्भय होकर प्रयोग कर सकते हैं। और आपकी निर्भयता प्रयोग के लिए बहुत जरूरी है। आप डरें–अकेले हैं, कुछ खतरा न हो जाए–कोई खतरा न होगा। आप जाने के पहले सारे खतरे, सारे भय मेरे पास छोड़ जाएं।

और आपसे मांगता ही केवल इतना हूं जाते क्षणों में कि आपका जितना दुख, जितनी चिंता, जितनी पीड़ा, जितना संताप है, वह मुझे दे दें।

उसको साथ मत ढोए फिरें। उसको साथ रखने की कोई जरूरत नहीं है। आपसे धन नहीं मांगता, आपसे तन नहीं मांगता, आपसे कुछ और नहीं मांगता हूं। आपके पास जो भी पीड़ा है, जो भी उपद्रव है, जो भी संताप है, सब मुझे दे दें। उससे मुझे अड़चन न होगी, आप निर्भार हो जाएंगे। और आप जिस चीज से दुखी हो रहे हैं, जिस शक्ति से दुखी हो रहे हैं नासमझी के कारण–सब नासमझी मुझे दे दें। मैं आपको वही शक्ति वापिस लौटा दूंगा। वह आनंद हो जाएगी, वह शांति हो जाएगी, वह करुणा हो जाएगी।

आप घर पहुंचते हैं, तो ज्यादा समय न खोएं। यहां जो सिलसिला पैदा हुआ है, यहां जो हवा बनी है और मन को जो रुझान पैदा हुआ है, वह खो जाए, इतना समय न गंवाएं, घर जाकर तत्क्षण ध्यान में लग जाएं। एक घंटा रोज ध्यान में दे दें। जिंदगी के आखिर में आप पाएंगे, बाकी समय सब व्यर्थ गया, यह जो ध्यान में लगाया था समय, वही केवल आपके काम आया, वही बचा है, वही सार्थक हुआ है।

और मुझे स्मरण रखें, कोई भय न होगा। और भीतर जब प्रवेश करेंगे, तो कभी लगेगा कि कहीं मौत न हो जाए। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, मौत का अनुभव होना शुरू होगा। जरा भी न घबड़ाएं, घबड़ाकर वापस न लौटें। अगर मौत भी भीतर आती हो तो कहें कि ठीक है, स्वीकार है, मैं बढ़ता हूं। और मैं आपके साथ हूं।

समाप्‍त


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–27

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पंडितमरण सुमरण है—प्रवचन—सत्‍ताईसवां

सूत्र:

सरीमाहु नाव त्‍ति, जीवो वुच्‍चइ नाविओ।

संसारो अण्‍णवो वुत्‍तो, जं तरंति महेसिणो।। 146।।

धीरेण वि मरियव्‍वं, काउरिसेण वि अवस्‍समरियव्‍वं।

तम्‍हा अवस्‍समरणे, वरं खु धीरत्‍तणे मरिउं।। 147।।

इक्‍कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि।

तं मरणं मरियव्‍वं, जेण मओ सुम्‍मओ होई।। 148।।

इक्‍कं पंडियमरणं, पडिवज्‍जइ सुपुरिसो असंभंतो।

खिप्‍पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं।। 149।।

चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पासं इह मन्‍नमाणो।

लाभंतरे जीवि वूहइत्‍ता, पच्‍चा परिण्‍णाय मलावधंसी।। 150।।

तस्‍स ण कप्‍पदि भत्‍त, पइण्‍णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो।

सो मरणं पत्‍थितो, होदि हु सामण्‍णणिव्‍विणो।। 151।।

जीवन की सबसे बड़ी पहेली स्वयं जीवन में नहीं है, जीवन की सबसे बड़ी पहेली मृत्यु में है। और जिसने मृत्यु को न जाना वह जीवन से अपरिचित रह जाता है। जीवन को जानने की कुंजी मृत्यु में है।

छोटे बच्चों की कहानियां तुमने पढ़ी होंगी। कोई राजा है या रानी है, उसके जीवन की कुंजी किसी तोते में बंद है या किसी मैना में बंद है। तोते को मरोड़ दो, राजा मर जाता है। राजा को मारने में लगे रहो, राजा नहीं मरता।

जीवन को सुलझाने में लगे रहो, जीवन नहीं सुलझता। जीवन का सुलझाव मृत्यु में है।

इसलिए जगत में जो बड़े मनीषी हुए, उन्होंने मृत्यु को समझने की चेष्टा की है। साधारणजन मृत्यु से बचते हैं, भागते हैं। परिणाम में जीवन से वंचित रह जाते हैं। इस विरोधाभास को जितना ठीक से पहचान लो, उतना उपयोगी है।

मृत्यु से भागना मत। जो मृत्यु से भागा, वह जीवन से ही भाग रहा है। क्योंकि मृत्यु जीवन की पूर्णाहुति है। मृत्यु है जीवन का आत्यंतिक स्वर। जीवन मृत्यु पर समाप्त होता, पूरा होता। मृत्यु है फल। जीवन है यात्रा, मृत्यु है मंजिल।

थोड़ा सोचो, मंजिल से बचने लगो तो यात्रा कैसे होगी? और अंतिम से बचने लगो तो प्रथम से ही बचना शुरू हो जाएगा। मौत से जो डरा, मौत से जो भागा, उसके ऊपर जीवन की वर्षा नहीं होती। वह जीवन से अछूता रह जाता है। इसलिए कायर से ज्यादा दयनीय इस जगत में कोई और नहीं है।

पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक आल्बेर कामू ने अपनी एक किताब की शुरुआत इस वचन से की है कि “मेरे देखे दर्शनशास्त्र की सबसे बड़ी समस्या आत्मघात है।’

महावीर से पूछो, बुद्ध से पूछो, तो वे कहेंगे, मृत्यु। कामू कहता है आत्मघात। करीब पहुंचा, लेकिन चूक गया।

मृत्यु और आत्मघात में बड़ा फर्क है। आत्मघात का अर्थ हुआ, जीवन ने अतृप्त किया। जीवन से जो सुख मांगा था, न मिला। जो मूल्य खोजे थे, वे न पाए जा सके। जो आशा की थी, वह टूटी। जो इंद्रधनुष बांधे थे कल्पनाओं के, वे सब बिखर गए। उस हताशा में आदमी अपने को मिटा लेता है।

ऐसी मिटाने की जो वृत्ति है, यह जीवन का अंतिम शिखर नहीं है। यह संगीत की आखिरी ऊंचाई नहीं है, यह तो वीणा का टूट जाना है।

आत्मघात दूसरा छोर है; जीवन से भी नीचा। मृत्यु आत्मघात के बिलकुल विपरीत है–जीवन की आखिरी ऊंचाई, जीवन का गौरीशंकर। मृत्यु अर्जित करनी पड़ती है। मृत्यु के लिए साधना करनी पड़ती है। मृत्यु को सम्हालना पड़ता है। जो अति कुशल है, वही केवल ठीक-ठीक मृत्यु को उपलब्ध हो पाता है। और ठीक मृत्यु ही न मिली तो जीवन हाथ से बह गया। फिर तुम पाठशाला में तो रहे, लेकिन पाठ न आया। तुम विद्यालय से गए तो लेकिन उत्तीर्ण न हुए।

इसलिए पूरब कहता है, जो उत्तीर्ण न होंगे उन्हें बार-बार भेज दिया जाएगा। उचित है। जीवन से अगर मृत्यु का पाठ सीख लिया तो फिर आना नहीं है। जो होशपूर्वक, आनंदपूर्वक, उल्लासपूर्वक मरता है उसकी फिर वापसी नहीं है। यही तो पुनर्जन्म का पूरा सिद्धांत है।

तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। लेकिन तुम चाहते हो, वापसी न हो ताकि फिर-फिर न मरना पड़े। वापसी उसकी नहीं होती, जो मरना सीख लेता है। जो इस भांति मर जाता है कि मरने को फिर कुछ और बचता ही नहीं, तो दुबारा मौत नहीं होती। तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। क्योंकि वापसी होगी तो फिर मौत होगी। तुम मौत से डरे हो। जो वस्तुतः वापसी नहीं चाहता वह मौत से डरता नहीं, मौत का आलिंगन करता है।

आज के सूत्र मौत के संबंध में हैं। ये चरम सूत्र हैं। इन पर एक-एक सूत्र को बहुत ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना। क्योंकि ये तुम्हारे विपरीत भी हैं।

तुम अगर यहां आए तो जीवन की तलाश में आए हो। लोग महावीर के पास गए तो जीवन की तलाश में गए थे। जीवन में हार रहे थे तो तरकीबें खोजने गए थे, कैसे जीत जाएं। लेकिन सदगुरु तो मृत्यु का सूत्र देता है।

उस परम मृत्यु को हमने अलग-अलग नाम दिए हैं। पतंजलि कहते हैं, समाधि। इसीलिए तो जब कोई संन्यासी मरता है तो उसकी कब्र को हम समाधि कहते हैं। अर्थ हुआ कि उसका ध्यान और उसकी मृत्यु एक ही जगह पहुंच गए। साधारण आदमी मरता है तो उसकी कब्र को हम समाधि नहीं कहते, कब्र ही कहते हैं; मकबरा कहते हैं। समाधि नहीं कहते क्योंकि यह आदमी अभी फिर-फिर पैदा होगा। अभी समाधि नहीं मिली, अभी आखिरी मृत्यु नहीं मिली।

समाधि का अर्थ है आत्यंतिक मृत्यु–आखिरी, चरम। अब न कोई जन्म होगा, न मौत होगी। पाठ सीख लिया। यह व्यक्ति विद्यालय से वापिस घर की तरफ लौटने लगा। यह घर में स्वीकृत हो जाएगा। उत्तीर्ण हुआ। प्रमाणपत्र लेकर जा रहा है।

ये सूत्र तुम्हारे विपरीत होंगे। इसलिए और भी गौर से समझोगे तो ही समझ पाओगे। पहला सूत्र:

सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।

संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।।

“शरीर है नाव। जीव है नाविक। यह संसार है समुद्र, जिसे महर्षिजन तर जाते हैं।’

शरीर तो हमारे पास भी है लेकिन शरीर नाव नहीं है। “शरीर नाव है’ का अर्थ होता है, शरीर शरीर से श्रेष्ठतर के लिए साधन बने। अभी तो शरीर साध्य है। तुम भोजन जीने के लिए थोड़े ही करते हो। तुम जीते ही भोजन करने के लिए हो। तुम कपड़े थोड़े ही शरीर को बचाने के लिए पहनते हो। तुम शरीर को कपड़े पहनने के लिए बचाए रहते हो। अभी तो शरीर ऐसा लगता है, जैसे गंतव्य है। इसके पार कुछ भी नहीं।

महावीर कहते हैं, शरीर है नाव। अर्थ हुआ, शरीर से पार जाना है। शरीर है नाव। बैठना है, उतरना भी है, शरीर संक्रमण है। नाव में बैठने के पहले भी यात्री था। नाव में बैठा है तब भी है। नाव से उतर जाएगा तब भी होगा। नाव ही यात्री नहीं है। तुम शरीर में आए उसके पहले भी थे, अभी भी हो; शरीर से उतरोगे जिस दिन मौत में, तब भी होओगे। मौत तो दूसरा किनारा है। जन्म है यह किनारा, मृत्यु है वह किनारा; शरीर है नाव। और संसार है सागर।

लेकिन अधिक लोग संसार को सागर की तरह नहीं देख पाते। जब तक तुम्हारा शरीर ही नाव नहीं, तो तुम संसार को सागर की तरह न देख पाओगे। तुम इसी किनारे पर अटके रहते हो। तुम सागर में उतरते ही नहीं। सागर में तो वही उतरता है जो मृत्यु की तरफ स्वयं, स्वेच्छा से अग्रसर होने लगा। मृत्यु यानी वह दूसरा किनारा। तुम तो डर के कारण इस किनारे को पकड़कर रुके रहते हो। तुम तो सब आयोजन करते हो कि किसी तरह यह किनारा न छूट जाए। तुम तो नाव में होकर भी यात्रा नहीं करते।

इसलिए संसार कभी-कभी तो तुम कहते भी हो, संसारसागर, भवसागर। मगर तुम महावीर और बुद्ध के वचन उधार ले रहे हो। बैठे किनारे पर हो, बातें सागर की कर रहे हो। सागर का तुम्हें कोई पता नहीं। सागर में तो वही उतरता है, जीवन उसी के लिए सागर बनता है, जिसने पहले शरीर को नाव समझा और जो मौत के किनारे की तरफ अग्रसर हुआ।

हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते

इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा

कवि ने कहा है, एक नाव भी, छोटी-सी नाव ही हमने तेरे सागर में छोड़ी थी कि तेरा सागर एकदम नाराज हो गया। एकदम तूफान उठने लगे, लहरें उठने लगीं, आंधियां, बवंडर आ गए।

हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते

कुछ बड़ा किया भी न था। जरा-सी एक नाव छोड़ी थी।

इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा

और तेरा दरिया बड़ा नाराज हो गया।

जो व्यक्ति नाव उतारेगा उसी को दरिये की नाराजगी पता चलेगी। किनारे पर बैठे-बैठे दरिया का पता ही नहीं चलता। सागर का अनुभव तो माझी को होता है। जिसने अपनी छोटी-सी डोंगी को इस विराट सागर में उतार दिया…और कितनी ही बड़ी नाव हो, छोटी ही है। क्योंकि सागर बड़ा विराट है। जिसने तूफान और आंधियों से भरे इस सागर में अपनी नाव को उतार दिया, किसी ऐसे किनारे की तलाश में जो यहां से दिखाई भी नहीं पड़ता।

इसलिए नदी नहीं कहते संसार को, सागर कहते हैं। दूसरा किनारा दिखाई पड़े तो नदी। दूसरा किनारा दिखाई ही नहीं पड़ता। है तो निश्चित। इसीलिए तो हमें मौत दिखाई नहीं पड़ती। है तो निश्चित। इस जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी निश्चित नहीं है। बाकी सब अनिश्चित है। एक ही बात निश्चित है, वह मृत्यु।

किनारा तो निश्चित है। क्योंकि जिसका एक किनारा है, उसका दूसरा किनारा भी होगा ही। कितने ही दूर…कितने ही दूर। एक किनारे के होने में ही दूसरा किनारा हो गया है। अब तुम दृढ़तापूर्वक मान ले सकते हो कि दूसरा किनारा होगा ही। अनुमान की जरूरत नहीं है। यह तो सीधा गणित है। यह किनारा है तो वह किनारा भी होगा। एक छोर है तो दूसरा छोर भी होगा। जन्म हो गया तो मृत्यु भी होगी।

हम अक्सर जीवन को जन्म से ही जोड़े रखते हैं। इसलिए हम जन्मदिन मनाते हैं, मृत्युदिन नहीं मनाते। हालांकि जिसको हम जन्मदिन कहते हैं, वह एक तरफ से जन्मदिन है, दूसरी तरफ से मृत्युदिन है। क्योंकि हर एक वर्ष कम होता जाता है। मौत करीब आती जाती है। अगर ठीक से पूछो तो जन्मदिन से ज्यादा मृत्युदिन है क्योंकि जन्म तो दूर होता जाता, मौत करीब होती जाती है। जन्म का किनारा तो बहुत दूर पड़ता जाता, मौत का किनारा करीब आता जाता। लेकिन फिर भी हम पीछे मुड़कर देखते रहते हैं। हम जन्म के किनारे को ही देखते रहते हैं।

दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता इसलिए कहते हैं: भवसागर। होना निश्चित है, लेकिन दृष्टि में नहीं आता। बहुत दूर है।

“शरीर को नाव, जीव को नाविक कहा। यह संसार समुद्र है, जिससे महर्षिजन तर जाते हैं।’

और जो उस किनारे को छू लेता है, वही महर्षि है। जो जीते-जी मर जाता है वही महर्षि है। जो शरीर की नाव को खेकर उस पार पहुंच जाता है…।

पहुंचते तो तुम भी हो, बड़े बेमन से। पहुंचते तो तुम भी हो, घसीटे जाते हो तब। इसलिए तो मृत्यु की एक बड़ी दुखांत धारणा लोगों के मन में है–यमदूत, काले-कलूटे, भयावने, भैंसों पर सवार; घसीटते हैं।

यह बात बेहूदी है। यह तुम्हारे भय की खबर देती है। यह मृत्यु का चित्रण तुमने अपने भय के पर्दे से किया है। तुम भयभीत हो इसलिए भैंसे, काले-कलूटे, यमदूत…। लेकिन महर्षिजनों से पूछो। जिनकी आंख निर्मल है, उनसे पूछो। और उनकी बात ही सच होगी क्योंकि उनकी आंख निर्मल है। वे कहते हैं, मृत्यु में उन्होंने परमात्मा को पाया। यह छोटा, क्षुद्र जीवन गया, विराट जीवन मिला। सीमा टूटी, असीम से मिलन हुआ। असीम का आलिंगन है मृत्यु।

महर्षिजन से पूछो तो वे कहेंगे, परमात्मा बाहें फैलाए खड़ा है। संसार छूटता है निश्चित। पर संसार में पकड़ने जैसा भी कुछ नहीं है। मिलता है अपरिसीम, जाता है क्षुद्र। मिलता है विराट, खोता है क्षुद्र। खोता है क्षणभंगुर, मिलता है शाश्वत।

नहीं, मृत्यु का देवता यमदूत काला-कलूटा, भैंसों पर सवार नहीं है। मृत्यु से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है क्योंकि मृत्यु है विश्राम। इस जीवन में निद्रा से सुंदर तुमने कुछ जाना? गहरी निद्रा, जब कि स्वप्न भी थपेड़े नहीं देते। सब वायु-कंप रुक जाते हैं। गहरी निद्रा, जब बाहर का संसार प्रतिछवि भी नहीं बनाता, प्रतिबिंब भी नहीं बनाता। जब बाहर के संसार से तुम बिलकुल ही अलग-थलग हो जाते हो। गहरी निद्रा, जब तुम अपने में होते हो डूबे, गहरे, तल्लीन–उससे सुंदर इस जगत में कुछ जाना है?

मृत्यु उसका ही अनंतगुना रूप है। मृत्यु से सुंदर कुछ भी नहीं। मृत्यु से ज्यादा शांत कुछ भी नहीं। मृत्यु से ज्यादा शुभ और सत्य कुछ भी नहीं। लेकिन हमारे भय के कारण मृत्यु का रूप हम विकृत कर लेते हैं। हमारे भय के कारण विकृति पैदा होती है।

महावीर कहते हैं, महर्षिजन शरीर को नाव बनाकर, जन्म के किनारे को चेष्टापूर्वक छोड़ते हुए, मृत्यु के किनारे को अपने आप उपलब्ध हो जाते हैं। वे खींचे-घसीटे नहीं जाते। उनके साथ जबर्दस्ती नहीं की जाती, वे स्वेच्छा से संक्रमण करते हैं।

इसका अर्थ हुआ, ऐसे जीयो कि तुम्हारा जीना मृत्यु के विपरीत न हो। ऐसे जीयो कि तुम्हारे जीवन में भी मृत्यु का स्वाद हो। ऐसे जीयो कि जीवन का लगाव ही तुम्हारे मन को पूरा न घेर ले, जीवन का विराग भी जगा रहे।

विजय आनंद एक फिल्म बनाता था। कहानी में नायक के मरने की घड़ी आती। नायक गिर-गिर पड़ता है, मरता है, लेकिन विजय आनंद का मन नहीं भरता। तो आखिर में वह झल्लाकर, चिल्लाकर नायक से कहता है, अपने मरने में जरा और जान डालिए।

मैंने सुना तो मुझे लगा, यह सूत्र तो महत्वपूर्ण है। जरा उलटा कर लो। विजय आनंद ने कहा, अपने मरने में जरा और जान डालिए। मैं तुमसे कहता हूं, अपने जीवन में थोड़ी और मृत्यु डालिए। मृत्यु से घबड़ाइए मत। मृत्यु को काट-काट अलग मत करिए। रोज-रोज मरिए, क्षण-क्षण मरिए, प्रतिक्षण।

जैसे हम श्वास लेते हैं और प्रतिक्षण श्वास छोड़ते हैं। भीतर जाती श्वास जीवन का प्रतीक है। बाहर जाती श्वास मृत्यु का प्रतीक है। जब बच्चा पैदा होता है, तो पहली श्वास भीतर लेता है, क्योंकि जीवन का प्रवेश होता है। जब आदमी मरता, तो आखिरी श्वास बाहर छोड़ता, क्योंकि जीवन बाहर जाता।

भीतर आती श्वास नाव में बैठना है, बाहर जाती श्वास नाव से उतरना है। प्रतिपल घट रहा है। जब तुम भीतर श्वास लेते हो तो जीवन। जब तुम बाहर श्वास लेते हो तो मृत्यु।

ऐसा ही काश! तुम्हारे मन के क्षितिज पर भी उभरता रहे। प्रतिक्षण तुम मरो और जीयो। और प्रतिक्षण जन्म और मृत्यु घटते रहें, और तुम किसी को भी पकड़ो न। और तुम दोनों में संतरण करो और सरलता से बहो, तो एक दिन जब विराट मृत्यु आएगी, तुम अपने को तैयार पाओगे। तो तुम नाव में रहे। तो तुमने शरीर का नाव की तरह उपयोग कर लिया।

ध्यान रहे, प्रतिपल कुछ मर रहा है। ऐसा मत सोचना, जैसा लोग सोचते हैं कि सत्तर साल के बाद एक दिन आदमी अचानक मर जाता है। यह भी कोई गणित हुआ? मृत्यु कोई आकस्मिक थोड़े ही घटती है। इंच-इंच आती है, रत्ती-रत्ती आती है। रोज-रोज मरते हो, तब सत्तर साल में मर पाते हो। बूंद-बूंद मरते हो तब सत्तर साल में मर पाते हो। यह जीवन का घड़ा बूंद-बूंद रिक्त होता है, तब एक दिन पूरा खाली हो पाता है। ऐसा थोड़े ही कि एक दिन आदमी अचानक जिंदा था और एक दिन अचानक मर गया! सांझ सोए तो पूरे जिंदा थे, सुबह मरे अपने को पाया; ऐसा नहीं होता।

जन्म के बाद ही मरना शुरू हो जाता है। इधर जन्मे, ली भीतर श्वास कि बाहर-श्वास लेने की तैयारी हो गई। फिर जन्म से निरंतर जीवन और मरण साथ-साथ चलते हैं। समझो कि जैसे दोनों तुम्हारे दो पैर हैं; या पक्षी के दो पंख हैं। न पक्षी उड़ सकेगा दो पंखों के बिना, न तुम चल सकोगे दो पैरों के बिना।

जन्म और मृत्यु जीवन के दो पैर हैं, दो पंख हैं।

तुम एक पर ही जोर मत दो। इसीलिए तो लंगड़ा रहे हो। तुमने जिंदगी को लंगड़ी दौड़ बना लिया है। एक पैर को तुम ऐसा इनकार किए हो कि स्वीकार ही नहीं करते कि मेरा है। कोई बताए तो तुम देखना भी नहीं चाहते। कोई तुमसे कहे कि मरना पड़ेगा तो तुम नाराज हो जाते हो। तुम समझते हो यह आदमी दुश्मन है। कोई कहे कि मृत्यु आ रही है तो तुम इस बात को स्वागत से स्वीकार नहीं करते। न भी कुछ कहो तो भी इतना तो मान लेते हो कि यह आदमी अशिष्ट है। मौत भी कोई बात करने की बात है? मौत की कोई बात करता है?

इसलिए तो हम कब्रिस्तान को गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि वह दिखाई न पड़े। मेरा बस चले तो गांव के ठीक बीच में होना चाहिए। सारे गांव को पता चलना चाहिए एक आदमी मरे तो। पूरे गांव को पता चलना चाहिए। चिता बीच में जलनी चाहिए ताकि हर एक के मन पर चोट पड़ती रहे। ऐसा क्यों बाहर छिपाया हुआ गांव से बिलकुल दूर? जिनको जाना ही पड़ता है मजबूरी में, वही जाते हैं। जो भी जाते हैं, वे भी चार आदमी के कंधों पर चढ़कर जाते हैं, अपने पैर से नहीं जाते।

एक झेन फकीर मर रहा था। मरते वक्त एकदम उठकर बैठ गया और उसने अपने शिष्यों से कहा कि मेरे जूते कहां हैं? उन्होंने कहा, क्या मतलब है? जूते का क्या करियेगा? चिकित्सक तो कहते हैं, आप आखिरी क्षण में हैं और आप ने भी कहा, यह आखिरी दिन है। उसने कहा, इसीलिए तो जूते मांगता हूं। मैं चलकर जाऊंगा मरघट। बहुत हो गया यह दूसरों के कंधों पर जाना। जबर्दस्ती मैं न जाऊंगा। कहते हैं, मनुष्य जाति का पहला आदमी! उस आदमी का नाम था बोकोजू। यह झेन फकीर चलकर गया। कब्र खोदने में भी उसने हाथ बंटाया, फिर लेट गया और मर गया।

यह तो कुछ बात हुई। यह इस आदमी ने जीवन का उपयोग नाव की तरह कर लिया। खेकर गया उस पार। लेकिन इसके लिए तो बड़ी प्राथमिक, प्रथम से ही तैयारी करनी होगी। इसके लिए तो पूरे जीवन ही आयोजना करनी होगी। मृत्यु से मिलन के लिए पूरे जीवन धीरे-धीरे मरना सीखना होगा।

जीवन–धर्म की दृष्टि में–मरने की कला को सीखने का अवसर है।

“निश्चय ही धैर्यवान को भी मरना है और कापुरुष को भी मरना है। जब मरण अवश्यंभावी है तब फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है।’

धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं।

तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं।।

और जब मरना ही है, और जब मरना सुनिश्चित ही है, अवश्यंभावी है, टलने की कोई सुविधा नहीं है, कभी टला नहीं है; हालांकि आदमी अपने अज्ञान में ऐसा मानता है कि किसी और का न टला होगा, मैं टाल लूंगा। आदमी की मूढ़ता की कोई सीमा है।

जो कभी नहीं हुआ, आदमी उसको भी मानता है कि कोई तरकीब निकल आएगी, मेरे लिए हो जाएगा। आदमी का अहंकार ऐसा मदांध है कि यह बात मान लेता है कि मैं अपवाद हूं। और कोई मरता है, सदा कोई और मरता है। मैं तो मरता नहीं। इसलिए मानने में सुविधा भी हो जाती है। जब भी अर्थी तुमने देखी, किसी और की निकलते देखी है। और जब भी ताबूत सजा, किसी और का सजा। चिता जली, किसी और की जली है। तुम तो सदा देखनेवाले रहे। इसलिए लगता भी है कि शायद कोई रास्ता निकल आएगा। मौत मेरी नहीं। मुझे नहीं घटती, औरों को घटती है। ये और सब मरणधर्मा हैं। मैं कुछ अलग, अछूता, नियम के बाहर हूं।

महावीर कहते हैं मृत्यु अवश्यंभावी है; निरपवाद घटेगी। फिर जो होना ही है, उससे बचने की आकांक्षा व्यर्थ है। फिर जो होना ही है, उससे भय भी व्यर्थ है। धैर्यवान को भी मरना है, वीर पुरुष को भी मरना है, साहसी को भी मरना है, कापुरुष को भी मरना है, कायर को भी मरना है। मरण अवश्यंभावी है।

तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उचित है। तो फिर शान से मरना ही उचित है। जब जो होना ही है तो उसे प्रसादपूर्वक करना उचित है। जो होना ही है उसे शृंगारपूर्वक करना उचित है। जो होना ही है, उसे समारोहपूर्वक करना उचित है। जब मरना ही है तो फिर रोते, झीकते, चीखते-चिल्लाते अशोभन ढंग से क्यों मरना!

आदमी के हाथ में इतना ही है–मरने से बचना तो नहीं है–आदमी के हाथ में इतना ही है, वह कापुरुष की तरह मरे या एक साहसी व्यक्ति की तरह मरे, धीरपुरुष की तरह मरे। चुनाव मृत्यु और न-मृत्यु में तो है ही नहीं। चुनाव तो इतना ही हमारे हाथ में है कि शान से मरें कि रोते मरें। आंसुओं से भरे मरें या गीतों से भरे मरें। उठकर मौत को आलिंगन कर लें या चीखें-चिल्लाएं, भागें; और मृत्यु के द्वारा घसीटे जाएं।

महावीर कहते हैं, विकल्प तो यहां है–मौत को स्वीकार करके मरें या अस्वीकार करते हुए मरें।

कहावत है, वीर पुरुष एक बार मरता है। कायर अनेक बार। ठीक है कहावत। क्योंकि जितनी बार भयभीत होता है, उतनी बार ही मौत घटती है। वीर पुरुष एक बार मरता। अगर मुझसे पूछो तो कहावत बिलकुल ठीक, पूरी-पूरी ठीक नहीं है। वीर पुरुष मरता ही नहीं। कापुरुष बार-बार मरता, क्योंकि जिसने मरण को स्वीकार कर लिया उसकी मृत्यु कहां? मृत्यु तो हमारे अस्वीकार के कारण घटती है। वह तो हमारे इनकार के कारण घटती है। वह तो हम घसीटे जाते हैं इसलिए घटती है।

यह बोकोजू जो चल पड़ा जूते पहनकर मरघट की तरफ, यह मरा? इसको कैसे मारोगे? इससे मौत हार गई।

“धैर्यवान को भी मरना, कापुरुष को भी। जब मरण अवश्यंभावी है…।’ महावीर का तर्क सीधा है: “…तो फिर धीरतापूर्वक मरना उचित है।’

धीरतापूर्वक मरने का क्या अर्थ होता है? धीरतापूर्वक मरने का अर्थ होता है, मृत्यु के भय लिए जरा भी अवसर न देना। मृत्यु कंपाए न। धीरपुरुष ऐसा है, जैसे निष्कंप जल। झील शांत। निष्कंप दीये की ज्योति। हवा के कोई झोंके नहीं आते।

धीरपुरुष की वही परिभाषा है, जो गीता के स्थितप्रज्ञ की। कृष्ण से अर्जुन ने पूछा है, किसको कहते हैं आप धीरपुरुष? कौन है स्थितधी? स्थितधी का ठीक अर्थ धीरपुरुष है। कौन है जिसको आप स्थितप्रज्ञ कहते हैं? कौन है जिसकी प्रज्ञा ठहर गई? धी यानी प्रज्ञा। धी यानी आत्यंतिक बोध, अंतर्तम में जलती हुई ज्योति।

कौन है स्थितधी?

महावीर कहते हैं वही, जिसे मृत्यु विचलित नहीं करती। जिसे अपनी मृत्यु विचलित नहीं करती, उसे फिर किसी की मृत्यु विचलित नहीं करती।

वही तो कृष्ण भी अर्जुन से कहते हैं कि ये जो तेरे सामने खड़े हैं, तू यह मत सोच कि तेरे मारने से मारे जाएंगे। “न हन्यते हन्यमाने शरीरे।’ कोई मरता नहीं। लोग भय के कारण मरते हैं। कोई मारता नहीं।

तो मृत्यु असली मृत्यु नहीं है। क्योंकि मृत्यु को जिसने स्वीकार किया वह तो अमृत के दर्शन को उपलब्ध होता है। मृत्यु तभी मृत्यु मालूम होती है जब हमारा अस्वीकार होता है।

तुमने कभी खयाल किया? वही काम तुम अपनी मौज से करो और वही काम किसी की आज्ञा के कारण जबर्दस्ती करो। तुम कवि हो, और एक सिपाही तुम्हारी पीठ पर बंदूक लगाए खड़ा हो, कहता हो करो कविता। तुम अचानक पाओगे, कविता सूख गई। तुम अचानक पाओगे, रसधार बहती नहीं। तुम अचानक पाओगे, शब्द जुड़ते नहीं। तुम अचानक पाओगे, गीत उठता नहीं। न केवल यही, तुम्हारे भीतर क्रोध उठेगा, बगावत उठेगी। अगर हिम्मतवर हुए तो लड़ने लग जाओगे। अगर गैर-हिम्मतवर हुए तो झुककर तुकबंदी करने लगोगे। कविता पैदा नहीं होगी। किसी तरह शब्द जमा दोगे उधार, मुर्दा, जिनमें न कोई लय होगी, न कोई प्राण होगा, न कोई आत्मा होगी।

तुमने कविता पहले भी की है लेकिन तब तुमने अपनी मौज से की थी। दिनभर के थके-मांदे घर आए थे। शरीर की जरूरत थी कि सो जाते, लेकिन आधी रात जगते रहे। टिमटिमाते दीये की रोशनी में बैठ कागज काले करते रहे। तुम्हारे हृदय से बहती थी। उमंग और थी, उल्लास और था।

रूस में कविता मर गई। उन्नीस सौ सत्रह के बाद रूस में कोई ढंग की कविता नहीं हुई; न एक ढंग का उपन्यास लिखा गया, न ढंग की एक पेंटिंग बनी। सारा साहित्य मर गया। और रूस असाधारण देश है। क्रांति के पहले रूस ने इतने बड़े साहित्यकार दिए, जितने दुनिया के किसी देश ने नहीं दिए। तालस्ताय, चेखव, गोर्की, दोस्तोवस्की, तुर्जनेव–ऐसे नाम कि जिनका कोई मुकाबला नहीं दुनिया में। एकबारगी जिन्होंने दुनिया को फीका कर दिया। अगर उस समय के दुनिया के दस बड़े उपन्यास चुने जाएं तो पांच रूसी होंगे और पांच गैर-रूसी। सारी दुनिया आधी-आधी बांट दी।

फिर अचानक क्रांति हुई और सब मर गया। हुआ क्या? बंदूक लग गई पीछे, कविता मर गई। जो सहज और स्वतंत्र न रहा, वह जीवंत नहीं रह जाता। तो कविता लिखी जाती है, खेत-खलिहान की प्रशंसा में, फैक्ट्री इत्यादि की प्रशंसा में, लेकिन उसमें कुछ प्राण नहीं है। जबर्दस्ती लिखी जाती है, सरकारी आज्ञा से लिखी जाती है। उपन्यास भी लिखे जाते हैं। सब चलता है। किताब भी छपती हैं, किताब बिकती भी हैं, लेकिन कुछ मूल स्वर खो गया। जबर्दस्ती हो गई।

भूखे कवियों ने, सर्दी में ठिठुरते कवियों ने बेहतर कविता लिखी थी। रूस में आज कवि जितना संपन्न है उतना दुनिया के किसी कोने में नहीं। अच्छे से अच्छा मकान उसके पास है, अच्छे से अच्छी कार उसके पास है, भोजन की व्यवस्था, अच्छी से अच्छी कपड़ों की व्यवस्था, उसके बच्चों का जीवन सुरक्षित। दुनिया में मनुष्य-जाति के इतिहास में कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, उपन्यासकार, साहित्यकार कभी इतने सम्मानित और प्रतिष्ठित न थे। और न कभी इतने सुविधा-संपन्न थे, जितने रूस में हैं। लेकिन कविता मर गई। गरीबी में न मरी, भूख में न मरी, दीनता-दुर्बलता में न मरी, रोग, मृत्यु में न मरी, लेकिन सुविधा में मर गई। पीछे बंदूक लगी है। जबर्दस्ती में मर गई।

जीवन का कुछ सूत्र है कि जो तुम स्वभाव, सौभाग्य, सहजता से करते हो, उसका आनंद अलग। जो तुम जबर्दस्ती करते हो, जबर्दस्ती के कारण ही सब गलत हो जाता है।

जो लोग स्वीकारपूर्वक मरे हैं, उनसे पूछो; महर्षिजनों से पूछो। मृत्यु परमात्मा का रूप है। वह परमात्मा का संदेशवाहक है, डाकिया है।

नहीं, मृत्यु भैंसों पर सवार होकर नहीं आती। मृत्यु परियों की तरह सुंदर है। पक्षियों की तरह उड़कर आती। तुम्हें आलिंगन में ले लेती। तुम्हें गहनतम विश्राम और विराम देती। तुम्हें समाधि का सुख देती। लेकिन उसकी तैयारी करनी पड़े। उसे अर्जित करनी पड़े।

फिर मरना अवश्यंभावी है तो धीरतापूर्वक मरना उचित। धीर बनो। इसे रोज-रोज साधो। धीरता को रोज-रोज साधो।

छोटी-छोटी चीजें अधीर कर जाती हैं। एक प्याली गिरकर टूट जाती है और तुम अधीर हो जाते हो। तो थोड़ा सोचो तो, जब तुम टूटोगे तो कैसे न अधीर होओगे! एक छोटी-मोटी दुकान चलाते थे, डूब जाती है, तो अधीर हो जाते हो। तो जब तुम्हारे जीवन का पूरा व्यवसाय छीन लिया जाएगा, जीवन का पूरा व्यापार बंद होगा, पटाक्षेप होगा, पर्दा गिरेगा तो तुम कैसे बेचैन न हो जाओगे! दिवाला निकल गया, एक मित्र नाराज हो गया, और तुम अधीर हो जाते हो। किसी ने गाली दे दी, अपमान कर दिया और तुम अधीर हो जाते हो।

इस धीरज को लेकर तुम मृत्यु का सामना कर सकोगे? इसे साधो। ये सब अवसर हैं धीरज को साधने के, धैर्य को निर्मित करने के। जीवन एक गहन प्रयोगशाला है। और प्रतिपल परमात्मा अनंत अवसर देता।

कभी किसी के द्वारा गाली दिलवा देता। कभी किसी के द्वारा अपमान करवा देता। वह कहता है, साधो। धैर्य साधो। स्थितधी बनो। धीरज जगाओ। धीरता पैदा करो। यह आदमी जो गाली दे रहा है, यह तुम्हारा हिताकांक्षी है। इसे पता हो न हो, यह तुम्हारा कल्याणमित्र है।

कबीर ने तो कहा है, “निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय।’ घर के पास ही बसा लो उनको। आंगन कुटी छवा दो। अतिथि की तरह उनकी सेवा करो, पैर दबाओ। पर निंदक को दूर मत जाने दो, पास ही रखो। क्योंकि वह बार-बार तुम्हें धैर्य को जगाने का अवसर देगा।

सोचो थोड़ा इस पर। जो भी घटता है उसका सृजनात्मक उपयोग कर लो। दिवाला निकल जाए तो सृजनात्मक उपयोग कर लो। यह मौका है। इस वक्त अपने को कस लो। सफलता में तो सभी धैर्यवान मालूम पड़ते हैं। वह तो धोखा है। असफलता जब घेर ले, तभी परीक्षा है।

और ऐसी छोटी-छोटी असफलताओं में साधते-साधते, छोटी-छोटी लहरों से लड़ते-लड़ते तुम बड़े सागर में उतरने के योग्य हो जाओगे। किनारे से दूर बड़े तूफान हैं। तूफानों के पार दूसरा किनारा है।

सफलता हो तो बहुत हंसो मत। सफलता में तो रो लो तो चलेगा। विफलता में हंसना है। जब जीत आ रही हो, हंसने की जरूरत नहीं। क्योंकि जीत के साथ हंसने से किसी को कोई लाभ कभी नहीं हुआ। तब रो लो तो चलेगा। जब फूलमालाएं गले में डाली जा रही हों तो सिर नीचे झुका लो तो चलेगा। तब उदास हो जाओ तो चलेगा।

मुझे आज साहिल पर रोने भी दो

कि तूफान में मुस्कुराना भी है!

किनारे पर रो लो तो चलेगा क्योंकि तूफान में हंसने की तैयारी करनी है। जो तूफान में हंसा वही हंसा। साहिल पर तो कोई भी हंस लेता है। किनारे पर हंसने में क्या लगता है? हलदी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। कुछ लगता ही नहीं किनारे पर तो। किनारे पर तो मूढ़ भी हंस लेते हैं, कायर भी हंस लेते हैं। तूफान में हंसने की तैयारी करनी है।

मुझे आज साहिल पर रोने भी दो

कि तूफान में मुस्कुराना भी है!

सफलता में ऐसे खड़े रह जाओ, जैसे कुछ भी नहीं हुआ। तभी तुम विफलता में ऐसे खड़े रह सकोगे कि जैसे कुछ भी नहीं हुआ।

इसको कृष्ण ने कहा है, “समत्वं योग उच्चते।’ दुख में, सुख में सम हो जाओ, यही योग है। यही धीरता है।

बहुत कुछ और भी है इस जहां में

यह दुनिया महज गम ही गम नहीं है

लेकिन वह जो बहुत कुछ है, उसे जानने की कला चाहिए। साधारणतः तो आदमी को लगता है, दुख ही दुख है। क्योंकि हम केवल दुख को चुनने में कुशल हैं। हम कांटे बीनने में बड़े निष्णात हो गए हैं। फूल हमें दिखाई ही नहीं पड़ते। फूल उसी को दिखाई पड़ते हैं, जो कांटों में भी फूल देखने के लिए तैयार हो जाता है।

फूलों को कांटों में खोज लेना है। दुख में सुख की तरंग को पकड़ना है। अशांति में शांति की तरंग को पकड़ना है। विफलता में सफलता का स्वर खोजना है।

ऐसी खोज जारी रहे पूरे जीवन, तो तुम मृत्यु में महाजीवन खोज पाओगे। इन छोटी-छोटी तरंगों से जूझते-जूझते तुम मृत्यु की महातरंग से जूझने के योग्य हो जाओगे। फिर तुम्हें वह तरंग मिटा न पाएगी। जिसने धीर की अवस्था पा ली, उसे फिर कुछ भी नहीं मिटा पाता है।

इसे महावीर एक बड़ा अनूठा शब्द देते हैं। वह उन्हीं ने दिया है। इसे वे कहते हैं: पंडितमरण। यह बड़ा प्यारा शब्द है।

“एक पंडितमरण–ज्ञानपूर्वक, बोधपूर्वक मरण–सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाए।’

हम तो जीवन तक को व्यर्थ कर लेते हैं। महावीर कहते हैं, मृत्यु को भी सार्थक किया जा सकता है। इस तरह मरो कि मृत्यु भी, मरण भी सुमरण हो जाए। पंडितमरण इसे उन्होंने नाम दिया

महावीर ने जितना चिंतन मृत्यु पर किया है उतना शायद किसी मनीषी ने नहीं किया। इसलिए महावीर ने कुछ बातें कहीं हैं, जो किसी ने भी नहीं कहीं। उन्हें हम धीरे-धीरे समझें, समझ पाएंगे। पहली बात, उन्होंने मृत्यु में एक भेद किया: पंडितमरण। मरते तो सभी हैं। प्रज्ञापूर्वक मरना। पंडित शब्द बनता है प्रज्ञा से–जिसकी प्रज्ञा जाग्रत हुई। जो देखता है; होशपूर्वक है। ऐसे ही सोए-सोए नहीं मर जाता, जागा-जागा मरता है। जो मृत्यु का स्वागत नींद में नहीं करता, होश के दीये जलाकर करता है।

इक्कं पंडियमरणं छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि।

तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ।।

“ऐसे मरो कि मृत्यु सुमरण बन जाए। ऐसे मरो कि तुम्हारी मृत्यु पंडितमरण बन जाए।’

समझें हम। सीखना होगा जीवन की यात्रा में ही। क्योंकि मृत्यु तो एक बार आती है, इसलिए रिहर्सल का मौका नहीं है। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि चलो, मरने का थोड़ा अभ्यास कर लें। क्योंकि मृत्यु तो दुबारा नहीं आती, एक ही बार आती है।

तो जीवन में अभ्यास करना होगा मृत्यु का; और कोई उपाय नहीं है। मृत्यु तो जब आएगी तो बस आ जाएगी। पहले से खबर करके भी नहीं आती। कोई पूर्वसूचना नहीं देती। मृत्यु अतिथि है। आने की तिथि नहीं बताती, इसलिए अतिथि। खबर नहीं देती कि अब आती हूं, तब आती हूं। बस आ जाती है। अचानक एक दिन द्वार पर खड़ी हो जाती है। फिर क्षणभर सोचने का भी अवसर नहीं देती। तो अगर तुम तैयार ही हो तो ही तैयार रहोगे, अन्यथा विचलित हो जाओगे।

अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि मृत्यु के क्षण में सम्हाल लेंगे–अभी क्या जल्दी है? अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि ले लेंगे राम का नाम मरते क्षण में। मगर तुम ले न पाओगे। अगर तुम्हारे पूरे जीवन पर राम का नाम नहीं लिखा है, तो मृत्यु के क्षण में भी तुम ले न पाओगे। अगर पूरे जीवन काम-काम-काम चलता रहा तो मरते वक्त राम नहीं चल सकेगा। क्योंकि मरते वक्त तो सारे जीवन का जो सार-निचोड़ है वही गूंजेगा। अगर जिंदगीभर धन ही धन गिनते रहे तो मरते वक्त तुम रुपये गिनते ही मरोगे। मन में गिनते मरोगे। सोचते मरोगे कि क्या होगा, इतनी संपत्ति इकट्ठी कर ली है। अब क्या होगा, क्या नहीं होगा।

एक आदमी मर रहा था। उसने अपनी पत्नी से पूछा कि मेरा बड़ा बेटा कहां है? उसने कहा कि आप घबड़ाएं मत, वह आपके पैर के पास बैठा है। उसने कहा, और मंझला? कहा, वह भी पास बैठा है, आप विश्राम करें। और उसने कहा, सबसे छोटा? उसने कहा कि वह तो आपके दायें हाथ पर बैठा हुआ है। वह आदमी हाथ के घुटने टेककर उठने लगा। पत्नी ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं उठकर? उसने कहा, कहीं जा नहीं रहा हूं। मैं यह पूछता हूं कि फिर दुकान कौन चला रहा है? तीनों यहीं मौजूद हैं।

अब यह आदमी मर रहा है। गिर पड़ा और मर गया लेकिन दुकान चलाता रहा। जा रहा है लेकिन चिंता दुकान की बनी है। जल्दी लौट आएगा। फिर दुकान पर बैठ जाएगा। फिर बेटे होंगे बड़े, मंझले, छोटे। फिर दुकान चलेगी, फिर मरेगा। फिर घुटने, कोहनियां टेककर पूछेगा, दुकान कौन चला रहा है।

ऐसे घूमता रहता चाक जीवन का। हम पुनरुक्त करते रहते वही-वही। लेकिन एक बात याद रखना, यह धोखा कभी कोई नहीं दे पाया। यद्यपि ऐसी कथाएं लिखी हैं। अजामिल की कथा है, कि मरते वक्त–सदा का पापी–बुलाया, “नारायण, नारायण!’ नारायण उसके बेटे का नाम था। पापी अक्सर ऐसे नाम रख लेते हैं। छिपाने के लिए नाम बड़े काम देते हैं। और कहते हैं, ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। और जब अजामिल मरा तो उन्होंने समझा कि मेरा नाम बुलाया था। तो वह स्वर्ग में बैठा है।

यह जिन्होंने भी कहानी गढ़ी है, धोखेबाज लोग रहे होंगे, बेईमान रहे होंगे। अगर परमात्मा ऐसा धोखा खा जाता है तो फिर हद्द हो गई। तुम भी न खाते धोखा जब वह “नारायण, नारायण’ बुला रहा था, तो किसी ने धोखा नहीं खाया। उसकी पत्नी ने धोखा नहीं खाया, उसके लड़के ने धोखा नहीं खाया। और जब वह नारायण को बुला रहा था तो वे सभी जान रहे होंगे कि किसलिए बुला रहा है। कुछ न कुछ उपद्रव…। पुराना पापी था। मरते वक्त कुछ और करवा जाना चाहता हो।

मैंने सुना है, एक पापी मर रहा था। उसने अपने सब बेटों को इकट्ठा कर लिया, और कहा कि मेरी आखिरी बात मानोगे? वे सब डरे। बड़े तो बहुत डरे क्योंकि वे जानते थे बाप को, कि वह आखिरी बात में कहीं उलझा न जाए। जिंदगीभर उलझाया अब आखिरी बात…और जाते-जाते कोई ऐसा दंदफंद न खड़ा कर जाए। मगर छोटा बेटा जरा नया-नया था और बाप को जानता नहीं था तो वह पास आ गया और उसने कहा, आप कहें। उसने कान में कहा कि ये सब तो लुच्चे-लफंगे हैं। इन्होंने कभी मेरी सुनी नहीं और आज भी नहीं सुन रहे हैं। मैं मर रहा हूं; बाप मर रहा है। तुम बेटा कसम खाते हो कि करोगे? उसने कहा, कसम खाता हूं। आप बोलिए तो।

उसने कहा, तो ऐसा करना; जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश को टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में डाल देना और पुलिस में रिपोर्ट लिखा देना। उसने कहा, लेकिन किसलिए? उसने कहा कि मेरी आत्मा बड़ी प्रसन्न होगी, जब सब बंधे जाएंगे। मेरी आत्मा की प्रसन्नता के लिए इतना तो कर देना। फिर मैं तो मर ही गया, तो काटने में हर्जा क्या है? जिंदगीभर से यह एक आकांक्षा रही है कि इन सबको बंधा हुआ देख लूं। अब मरते बाप की यह आकांक्षा–इनकार मत करना। देख, तूने कसम भी खा ली।

तो वह जो अजामिल बुला रहा था बेटे को कि “नारायण, नारायण’, पता नहीं कौन-सा उपद्रव करवाने के लिए बुला रहा हो। कोई धोखे में नहीं था, लेकिन कथाकार कहते हैं कि ऊपर का नारायण धोखे में आ गया। ये आदमी की बेईमानियां हैं। इस धोखे में मत पड़ना। तुम इस धोखे में मत जीना।

मृत्यु के क्षण में तुम वही कर पाओगे, जो तुमने जीवनभर किया है। उसी का सार-निचोड़। उसी की निष्पत्ति। जैसे हजार-हजार गुलाब के फूलों से इत्र निकाल लिया जाता है। इत्र तो बूंदभर होता है; हजार-हजार फूलों से निचुड़ता है। ऐसे ही तुम्हारे पूरे जीवन के फूलों से–जो भी फूल रहे हों; सुगंध के कि दुर्गंध के, उनका इत्र मरते क्षण में तुम्हारे सामने होगा।

तुमने यह बात सुनी होगी। लोग कहते हैं, मरते वक्त आदमी के सामने पूरे जीवन की तस्वीर आ जाती है। उसका मतलब केवल इतना ही है कि पूरे जीवन का सार-निचोड़, सारे अनुभवों का इत्र आदमी के हाथ होता है। वही इत्र लेकर आदमी चलता है, दूसरी यात्रा पर निकलता है।

पंडितमरण का अर्थ है, व्यक्ति पूरे जीवन मरने के लिए तैयारी करता रहा। जो अवश्यंभावी है उसके लिए तैयार होता रहा।

बुद्ध के पास जब कोई संन्यासी पहली दफा दीक्षित होते थे तो वे उन्हें कहते थे, तीन महीने मरघट पर रहो। वे थोड़े चौंकते कि किसलिए? मरघट पर क्या सार है? बुद्ध कहते, पहले मृत्यु को ठीक से देखो। बैठे रहो मरघट पर। आती रहेंगी लाशें, जलती रहेंगी चिताएं, हड्डियां टूटती रहेंगी, सिर फोड़े जाते रहेंगे, राख हो जाएगी। लोग राख को बीनने आ जाएंगे। तुम यह देखते रहो तीन महीने। बस बैठे रहो मरघट पर।

तीन महीने अगर तुम भी मरघट पर बैठोगे, और कुछ देखने न मिलेगा तो मृत्यु अवश्यंभावी है यह सत्य तुम्हारा अनुभूत सत्य हो जाएगा।

और किसी न किसी दिन तीन महीनों में, जिस दिन ध्यान ठीक से पकड़ लेगा और चित्त एकाग्र होगा, चिता जल रही होगी… और रोज-रोज चिता जलते देखोगे तो किसी दिन तुम नहीं सोचते ऐसा नहीं होगा कि तुम देख लोगे, यह मैं ही जल रहा हूं! यह देह मेरी जैसी देह है। यह देह ठीक मेरी जैसी देह है और राख हुई जा रही है। मैं राख हो रहा हूं, यह तुम नहीं देख पाओगे?

यह अगर प्रतीति सघन हो जाए कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो तुम फिर तत्क्षण उसकी तैयारी में लग जाओगे। अभी तो हम जीवन की तैयार में लगे हैं–जीवन, जो कि जाएगा। उसकी तैयारी कर रहे हैं, जो कि छीना जाएगा। मृत्यु जो कि आएगी ही, उसकी कोई तैयारी नहीं है। इधर हम तैयारी कर रहे हैं; मकान बनाते, धन जोड़ते, पद-प्रतिष्ठा–सारा आयोजन करते हैं कि जीना है। मरने का आयोजन कब करोगे? और यह जीना सदा रहनेवाला नहीं है। इंतजाम लोग ऐसा करते हैं, जैसे सदा रहना है। और एक दिन अचानक इंतजाम के बीच में मौत आ धमकती है। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा। और किसी भी घड़ी संदेश आ जाता है और बंजारे को अपना तंबू उखाड़ लेना पड़ता है। चल पड़ना पड़ता है।

“पंडितमरण, ज्ञानपूर्वक मरण सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है, अतः इस तरह मरना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जाए।’

अदभुत सदगुरु रहे होंगे महावीर। सिखाते हैं मरने की कला। कहते हैं, ऐसे मरो कि मरण सुमरण हो जाए।

कैसे होगा मरण सुमरण? रोज-रोज मरो। प्रतिपल मरो। सुबह मरो, सांझ मरो। रात जब सोओ तो मर जाओ। जो दिन बीत गया उसके लिए मर जाओ। जो-जो बीतता जाता है उसके लिए मरते जाओ, उसको इकट्ठा मत करो। उसका बोझ मत ढोओ। बोझ की तरह अतीत को मत खींचो। जो गया, गया। उसे जाने दो। प्रतिपल नए हो जाओ। इधर मरे, उधर जन्म। इधर पुराने को छोड़ा, नए का आविर्भाव।

तो मौत तुम्हें ऐसी जगह नहीं पाएगी, जहां तुम्हारे पास कुछ छीनने को हो। तुम्हारे पास कुछ होगा ही नहीं। किसी क्षण मौत आएगी तो तुम तो हर वक्त अतीत के लिए मरते जाते हो। अतीत के संबंध, आसक्तियां, राग, धन, पद, प्रतिष्ठा…तुम तो मरते जाते हो। सम्मान-अपमान, सफलता-विफलता…तुम तो मरते जाते हो। सुख-दुख, विषाद…तुम तो मरते जाते हो।

मृत्यु एक दिन आएगी, तुम कोरे कागज की तरह पाए जाओगे। तुम्हारे पास पकड़ने को कुछ न होगा। तुम्हारे पास बुलाने को कुछ न होगा, चीखने-चिल्लाने को कुछ न होगा। तुम जानोगे, कोई मेरा नहीं। तुम जानोगे, कुछ मेरा नहीं। तुम खड़े हो जाओगे। तुम जूते पहनकर खड़े हो जाओगे। तुम मौत के हाथ में हाथ डाल लोगे। तुम कहोगे, मैं तैयार हूं। मैं तो सदा से तैयार था, इतनी देर क्यों लगाई? इतनी देर कहां रही तू? कबसे हम प्रतीक्षा करते। कबसे हम तैयार बैठे थे।

बस, ऐसे आदमी से मौत हार जाती है। इसको महावीर सुमरण कहते हैं।

जीवन को, जो कि क्षणभंगुर है, उसे शाश्वत मत समझो। जो जाएगा वह जा ही चुका है। जो मिटेगा वह मिट ही रहा है। जो छूटेगा, वह तुम्हारे हाथ से छूट ही रहा है। व्यर्थ अटके मत रहो। व्यर्थ मुट्ठी मत बांधो, खोलो मुट्ठी।

लेकिन हमारी तर्कदृष्टि और है। हम कहते हैं, जो छूटनेवाला है उसे जोर से पकड़ लो कि कहीं और जल्दी न छूट जाए। हम कहते हैं, जो क्षणभंगुर है उसे भोग लो। कहीं क्षण बीत न जाए। हम कहते हैं, इसके पहले मौत आए, जीवन को जी लो, निचोड़ लो रस। कहीं ऐसा न हो, कि मौत आ जाए और तुम रस ही न निचोड़ पाओ।

चांदनी की डगर पर तुम साथ हो

प्राण युगऱ्युग तक अमर यह रात हो

कल हलाहल ही पिला देना मुझे

आज मधु की रात मधु की बात हो

हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है

नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है

रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी

बस बगूले-सी भटकती धूल है

रात है, मधु है, समर्पित गात है

आज तो यह पाप भी अवदात है

सघन श्यामल केश लहराते रहें

मैं रहूं भ्रम में अभी तो रात है

चांदनी की डगर पर तुम साथ हो

प्राण युगऱ्युग तक अमर यह रात हो

–जो होना नहीं है उसकी हम आकांक्षा करते हैं।

प्राण युगऱ्युग तक अमर यह रात हो!

–कोई रात, कोई नींद, कोई सपना युगऱ्युग तक होने को नहीं है।

चांदनी की डगर पर तुम साथ हो

कौन किसके साथ है? चांदनी बड़ा झूठा सम्मोहन है। कौन किसके साथ है? लगते हैं कि लोग किसी के साथ हैं। राह पर अनजान मिल गए यात्री हैं। पलभर को साथ हो गया। नदी-नाव संयोग हैं। अभी नहीं थे साथ, अभी साथ हैं, अभी फिर बिछुड़ जाएंगे।

कल हलाहल ही पिला देना मुझे

–कल मौत आए, ठीक। कल जहर पिलाओ, ठीक।

आज मधु की रात मधु की बात हो।

तो साधारणतः हम मृत्यु को टालते हैं कि कल होगी मृत्यु। आज तो जीवन है। आज क्यों मृत्यु की बात उठाएं?

ऐसे विचारक भी हैं जगत में जो कहते हैं, मृत्यु की बात ही उठानी रुग्णता है। उनकी दृष्टि में महावीर तो मार्बिड, रुग्ण विचारक हैं। फ्रायड जैसे विचारक हैं। जो कहते हैं, मृत्यु की बात ही नहीं उठानी चाहिए। हालांकि फ्रायड खुद मृत्यु से बड़ा भयभीत होता था। वह इतना भयभीत हो जाता था कि कभी अगर कोई मौत की ज्यादा बात करे तो दो दफे तो वह बेहोश हो गया था। किसी ने मौत की चर्चा छेड़ दी और वह घबड़ाने लगा। वह फेंट ही कर गया, गिर ही गया कुर्सी से।

उसका शिष्य जुंग अपने संस्मरणों में लिखता है कि फ्रायड के साथ वह अमरीका जा रहा था जहाज पर। जुंग की बड़ी बहुत दिनों की रुचि थी, इजिप्त की ममी–ताबूतों में, मुर्दा लाशों में। उसको क्या पता कि यह फ्रायड इतना घबड़ा जाता है! सोच भी नहीं सकता था। दोनों जहाज के डेक पर खड़े थे। कुछ बात चल पड़ी, संस्मरण निकल आया, उसने इजिप्त की ममियों की बात की। उसने उनका वर्णन किया। वह तो वर्णन करता रहा, एकदम फ्रायड कंपने लगा और वह तो चारों खाने चित्त हो गया।

ऐसे व्यक्तियों से यह सदी प्रभावित हुई है। ऐसे व्यक्तियों ने इस सदी के मानस को रचा है। फ्रायड का मनोविज्ञान इस सदी की आधारभूत शिला बन गया है। और फ्रायड कहता है, जो मृत्यु की बात करते हैं, वे मार्बिड, वे रुग्णचित्त।

मगर थोड़ा सोचो। अगर फ्रायड और महावीर में चुनना हो तो कौन रुग्णचित्त मालूम होगा? महावीर मृत्यु का इतना चिंतन और चर्चा और इतना ध्यान करने के बाद जैसे महाजीवित मालूम पड़ते हैं। इधर फ्रायड, कहता है मृत्यु का चिंतन रुग्ण है। लेकिन लगता है यह रैशनलाइजेशन है। लगता है, वह इतना डरता है खुद, कि अपनी सुरक्षा कर रहा है। वह इतना भयभीत है मृत्यु से कि जो मृत्यु की बात करते हैं, उनको वह रोकने की चेष्टा कर रहा है कि यह बात ही रुग्ण है। यह बात ही मत उठाओ।

महावीर में जीवन का फूल खिला है मृत्यु के मध्य में। नहीं, महावीर रुग्ण नहीं हैं। महावीर से स्वस्थ आदमी और खोजना मुश्किल होगा।

लेकिन हम साधारणतः महावीर की बजाय फ्रायड से राजी हैं। हम कहें कुछ, चाहे हम जैन ही क्यों न हों, और जाकर मंदिर में महावीर की पूजा ही क्यों न कर आते हों, लेकिन अगर हम मन में टटोलेंगे तो हम फ्रायड के साथ राजी हैं, महावीर के साथ नहीं। अगर कोई मृत्यु की चर्चा छेड़ दे तो हम भी कहते हैं, कहां की दुखभरी बातें उठा रहे हो! छोड़ो भी।

कल हलाहल ही पिला देना मुझे

आज मधु की रात मधु की बात हो।

फिर भी हम जानते हैं–क्योंकि जो है, उसे हम कैसे झुठला सकते हैं?

हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है

नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है

रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी

बस बगूले-सी भटकती धूल है।

जानते तो हैं–

बस बगूले-सी भटकती धूल है

रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी

इस रिक्तता को, इस सूनेपन को भरने के लिए हम हजार उपाय करते हैं जिंदगी में।

महावीर कहते हैं, इस सूनेपन को तुम भर न पाओगे। तुम कितना ही ढांक लो, यह उघड़ेगा। यह उघड़कर रहेगा।

मृत्यु अवश्यंभावी है। तुम्हें अपनी इस शून्यता का साक्षात्कार करना ही होगा। तुम्हें अपने को मिटते हुए देखना ही होगा। इससे तुम बच न सकोगे। इससे कोई कभी बच नहीं पाया। तो बजाय बचने के, भागने के, मृत्यु को हम शुभ घड़ी में क्यों न बदल लें?

रात है, मधु है, समर्पित गात है

भीतर से हम जानते भी हैं, सब जा रहा, सब क्षणभंगुर। पानी का बबूला–अब फूटा, तब फूटा। मगर दोहराए जाते हैं ऊपर से–

रात है, मधु है, समर्पित गात है

आज तो यह पाप भी अवदात है

सघन श्यामल केश लहराते रहें

मैं रहूं भ्रम में अभी तो रात है

हम कितनी-कितनी भांति भ्रम को पोसते हैं। कितनी-कितनी भांति भ्रम को उखड़ने नहीं देते। एक तरफ से उखड़ता है तो ठोंक लेते हैं। दूसरी तरफ से उखड़ता है, वहां ठोंक लेते हैं। इधर पलस्तर गिरा, चूना उखड़ गया, पोत लेते हैं। टीमटाम करते रहते हैं। और यह टीमटाम करते-करते एक दिन बीत जाते; व्यतीत हो जाते हैं।

इसके पहले कि ऐसी घड़ी आए, अपने को व्यर्थ समझा-समझाकर, पानी के बबूलों से मन को मत उलझाए रखना। क्षणभंगुर को क्षणभंगुर जानना शाश्वत को जानने की पहली शर्त है। असार को असार की तरह पहचान लेना सार का द्वार खोलना है।

जी उठे शायद शलभ इस आस में

रात भर रो-रो दीया जलता रहा

थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल

सो गई जब साधना होकर विफल

जब धरा ने भी न धीरज दिया

व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया

आग तब पानी बनाने के लिए

रात भर रो-रो दीया जलता रहा

लेकिन तुम चाहे रोओ, चाहे चीखो-चिल्लाओ; जो नहीं होता, नहीं होता। आग पानी नहीं बनती।

आग तब पानी बनाने के लिए

रात भर रो-रो दीया जलता रहा

रोते रहो, आग पानी नहीं बनती।

और सब तुम पर हंसेंगे।

जब धरा ने भी न धीरज दिया

व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया

थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल

सो गई जब साधना होकर विफल

तुम जो भी कर रहे हो, वह विफल होना उसका निश्चित है। लाख उपाय करो तो भी तुम हारोगे। यह जीवन ही हारने को है। इस जीवन का अर्थ ही विफलता है। यहां कोई जीत नहीं पाता। यहां विजय होती ही नहीं। जहां मृत्यु होनी है, वहां विजय कैसी? मृत्यु में ही अगर जीते तो जीत हो सकती है।

इसलिए महावीर ने कहा है, जो मृत्यु को जीत लेता है वही जयी है, वही जिन है। जिन शब्द का अर्थ होता है, जीत लिया। तो दो तरह के विजेता हैं जगत में। एक: नेपोलियन, सिकंदर, तैमूरलंग, नादिरशाह–ये सब धोखे के विजेता हैं। मौत तो इनको बिलकुल भिखारी कर जाती है।

फिर और एक दूसरी तरह के विजेता हैं: महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट। जीवन में तो इनकी कोई विजय की कहानी नहीं है। इतिहास में तो इनके कोई चरण-चिह्न नहीं हैं। समय के भीतर तो इन्होंने कुछ जीता नहीं है, इसलिए इतिहास में इनका ठीक-ठीक उल्लेख भी नहीं है। लेकिन शाश्वत में इनने विजय की घोषणा की है। विजय की दुंदुभी बजाई है अमृत में।

अगर कहीं कोई शाश्वत का इतिहास है तो वहां तुम नादिर का, तैमूरलंग का और चंगीज का और हिटलर का और नेपोलियन और सिकंदर का नाम न पाओगे। वहां तुम्हें महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, मोहम्मद का, जरथुस्त्र का नाम मिलेगा। एक दूसरे ढंग की विजय है। वास्तविक विजय है।

“असंभ्रांत, निर्भय सत्पुरुष एक पंडितमरण को प्राप्त होता है और शीघ्र ही अनंत-मरण का–बार-बार के मरण का–अंत कर देता है।’

एक ही बार मर जाता है। पूरा-पूरा मर जाता है। कुछ रोकता नहीं, कुछ झिझकता नहीं। समग्ररूप से समर्पित हो जाता है मृत्यु को। तो पंडितमरण एक, फिर होनेवाले भविष्य के अनंत जन्म और मृत्युओं से छुटकारा हो जाता है।

जागो! तुम्हारा तो जीवन भी अभी पंडित-जीवन नहीं है। यात्रा बड़ी है। मरण को भी पंडितमरण बनाना है। ऐसी झूठी बातों में बहुत मत उलझे रहो। अपने मन को समझाते मत रहो। ये सांत्वनाएं, जो तुम दे रहे हो, बहुत काम न आएंगी।

खुद को बहलाना था आखिर, खुद को बहलाता रहा

मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा, गाता रहा

भीतर तो आग है। हृदय तो जल रहा है। हृदय में तो कोई तृप्ति नहीं, मगर खुद को बहलाना था तो खुद को बहलाता रहा।

मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा गाता रहा!

आग को भीतर छिपाए हो। मौत को भीतर छिपाए हो। ऊपर से हंसते रहते, गाते रहते। कागज के फूल चिपकाए हो।

यह धोखे की पट्टी टूटेगी। यह पर्दा उठेगा। इसके पहले कि मौत उठाए, तुम ही उठा लो, तो शोभा है; तो सम्मान है, तो गरिमा है।

जो मौत करे वह तुम ही कर दो, इसी का नाम संन्यास है। जो मौत करे वह तुम ही कर दो। जहां-जहां से मौत तुम्हें छीन लेगी, वहां-वहां तुम ही कह दो कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है। मौत पत्नी से छीन लेगी? तो जान लो मन में कि पत्नी कौन किसकी है? मौत पति से छीन लेगी? तो जान लो मन में, जाग जाओ, कौन किसका पति है? साथ हो लिए दो क्षण को। अजनबी हैं। एक-दूसरे की सेवा कर ली, बहुत। एक-दूसरे को दुख न दिया तो काफी। सुख तो कौन किसको दे पाया? एक-दूसरे के लिए फूल, बिछाए…बिछे तो नहीं, चेष्टा की बहुत। एक-दूसरे के रास्ते से थोड़े कांटे बीन लिए, पर्याप्त। इतना ही बहुत है। यह भी असंभव है। यह भी हो गया, चमत्कार है।

लेकिन कौन किसका है? अजनबी को अजनबी जानो। जो बच्चा तुम्हारे घर पैदा हुआ, वह भी अजनबी है। एक अज्ञात आत्मा न मालूम कहां से, न मालूम किन लोकों से, न मालूम किन ग्रह-नक्षत्रों से, न मालूम किन पृथ्वियों से, न मालूम किन जीवन-पथों से होकर तुम्हारे द्वार आ गई है। अपना मानने की भूल मत करो।

धन है तो ठीक, नहीं है तो ठीक। आसक्ति को थोड़ा शिथिल करो। मुट्ठी खोलो। और ऐसा मत कहो कि जब मौत आएगी तब निपट लेंगे।

तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता

तोड़ देने की नौबत तो आए

हम कयामत के खुद मुंतजिर हैं

पर किसी दिन कयामत तो आए

–आएगी मौत, तब निपट लेंगे।

तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता

तोड़ देने की नौबत तो आए

लेकिन जब नौबत आएगी तो एक पल में घट जाती है। पल के छोटे-से खंड में घट जाती है। तुम्हें अवसर न मिलेगा। तुम जाग भी न पाओगे और मौत तुम्हें उठा ले जाएगी।

नहीं, इस तरह टालो मत, स्थगित मत करो। मौत आ रही है, आ ही गई है। नौबत आ ही गई है। नौबत आती ही रही है। कयामत कल नहीं है, कयामत आज है, अभी है, यहीं है। तुम्हें जो करना हो, अभी कर लो।

चीजों को सीधा-सीधा देखो। आंखों में भ्रम मत पालो। तो जीवन भी पंडित का जीवन हो जाता है और मृत्यु भी पंडित की मृत्यु हो जाती है।

“साधक पग-पग पर दोषों की आशंका, संभावनाओं को ध्यान में रखकर चले। छोटे से छोटे दोष को भी पाप समझे; उससे सावधान रहे। नए-नए लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे।’

“जब जीवन तथा देह से लाभ होता दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।’

यह महावीर की अनूठी बात है। सिर्फ महावीर ने कही है सारे मनुष्य-जाति के इतिहास में। महावीर ने भर अपने संन्यासी को स्वेच्छा-मरण की आज्ञा दी है।

महावीर कहते हैं, जीवन तो साधन है; अपने आप में साध्य नहीं है। तुमसे कोई पूछे, किसलिए जीते? तो तुम कहोगे, जीने के लिए जीते हैं। तुमसे कोई पूछे कि सौ साल जीना चाहते हो? तुम कहोगे, जरूर जीना चाहते हैं।

क्या करोगे? सौ साल नहीं, हजार साल भी जीकर करोगे क्या? होगा क्या? तुम कहोगे, होने का सवाल कहां है? बस जीना ही बहुत है। हम लोगों को आशीर्वाद देते हैं, सौ साल जीयो। कोई फिक्र ही नहीं करता कि सौ साल जीकर यह बेचारा करेगा क्या? इसकी भी तो कुछ सोचो! तुमने तो आशीर्वाद दे दिया। तुम तो मुफ्त में देकर मुक्त हो गए, अब यह फंस गया। यह लटका रहेगा किसी अस्पताल में। हाथ-पैर उल्टे-सीधे बंधे होंगे। नाक में आक्सीजन जा रही होगी। शरीर में ग्लूकोज का इंजेक्शन लगा होगा। इसकी भी तो सोचो। तुमने तो दे दिया आशीर्वाद कि सौ साल जीयो।

सिर्फ जीना अपने आप में मूल्य थोड़े ही है! इसलिए महावीर ने इस बात को बड़ी हिम्मत से लिया। महावीर की बात आज नहीं कल दुनिया में स्वीकार करनी पड़ेगी।

पश्चिम में बड़े जोर से इस पर आंदोलन चला है। हालांकि उनको किसी को महावीर का पता नहीं क्योंकि महावीर पश्चिम के लिए बिलकुल अपरिचित हैं। पश्चिम में इसका बड़ा चिंतन चल रहा है क्योंकि पश्चिम अब, सौ साल के करीब जीने की सुविधा उसको उपलब्ध हो गई है। यहां तो हम आशीर्वाद ही देते रहे। आशीर्वाद से ही कोई जीता है? लेकिन पश्चिम के विज्ञान ने आशीर्वाद को पूरा कर दिया।

अब लोग जी रहे हैं। सौ साल के पार पहुंच गए हैं कुछ लोग। अब वे बड़ी मुश्किल में हैं। वे कहते हैं, हमें मरने का हक चाहिए। पश्चिम में बूढ़ों की जमातें हैं, जो आंदोलन चला रही हैं। जो कह रही हैं, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हमें मरना चाहिए। हमें तुम बचा नहीं सकते। हमको मरने का मौका दो।

मगर अब तक इसकी कोई दुनिया के किसी कानून में व्यवस्था नहीं है। आत्महत्या बड़ा अपराध है। बड़े मजे की बात है। अगर आत्महत्या करते हुए पकड़ लिए जाओ, तो सरकार तुमको मार डाले। यह भी कोई बात हुई? तुम खुद ही मर रहे थे। अब तुमको और मारने की क्या जरूरत है? तुम तो खुद ही अपराध भी कर रहे थे, दंड भी दे रहे थे। निपटारा हुआ जा रहा था। लेकिन अगर पकड़ लिए गए–मर गए तो ठीक, अगर अपराध कर गुजरे तो फिर कोई दंड नहीं है–लेकिन अगर करते हुए पकड़ लिए गए और अपराध पूरा न हो पाया तो दंड है।

यह अब तक तो ठीक था। हमारे नियम और कानून भी कारण से होते हैं। जीवन बड़ा मुश्किल रहा है, बड़ा असंभव रहा है। सत्तर साल, अस्सी साल जीना बड़ा मुश्किल रहा है। जितनी खोजें हुई हैं दुनिया में जमीन के नीचे पड़ी हुई मनुष्य की हड्डियों की, तो ऐसा लगता है पांच हजार साल पहले चालीस वर्ष आखिरी उम्र थी। क्योंकि पांच हजार वर्ष पहले की कोई भी हड्डी नहीं मिली है, जो चालीस वर्ष से ज्यादा पुराने आदमी की हो।

और पीछे जाने पर, कोई सत्तर और पचहत्तर हजार साल पुरानी जो पेकिंग में हड्डियां मिली हैं, वे तो बताती हैं कि आदमी मुश्किल से पच्चीस साल जीता था। तो जीवन बड़ा मुश्किल रहा है। और पच्चीस साल भी, एक घर में अगर एक दर्जन बेटे पैदा हों तो दो बच जाएं, बहुत। क्योंकि दस बच्चों में नौ बच्चे मर जाते थे।

तो जीवन की बड़ी मुश्किल थी। जीवन बड़ा न्यून था। मुश्किल से मिलता था। जीवन का बड़ा अवसर था। सभी को नहीं मिल जाता था। तो सौ साल जीने का हम आशीर्वाद देते थे, वह ठीक है। अब जीवन बड़ा सुगम है। कम से कम पश्चिम में तो सुगम हो गया है। लोग सौ साल तक पहुंच रहे हैं। सत्तर-अस्सी साल औसत उम्र हो गई है। अस्सी साल का होना कोई बहुत बूढ़ा होना नहीं है।

इसलिए हम चौंकते हैं, यहां जब अखबार में कभी खबर आती है कि नब्बे साल के बूढ़े ने विवाह कर लिया तो हम बहुत चौंकते हैं। यह भी क्या पागलपन है? नब्बे साल का बूढ़ा, और विवाह? लेकिन पश्चिम में शरीर की उम्र लंबा रही है। नब्बे साल का बूढ़ा भी विवाह करने की हालत में है।

तो एक नया सवाल उठना शुरू हुआ है कि आदमी को मरने का हक होना चाहिए। यह जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए सभी विधानों में। क्योंकि एक आदमी अगर एक सौ दस साल का हो गया और मरना चाहता है…क्योंकि करोगे क्या? रोज उठना वही, रोज सोना वही, रोज खा-पी लेना वही। फिर सब अपने संबंधी जा चुके, मित्र-प्रियजन जा चुके और एक आदमी जिंदा है। उसकी सारी दुनिया जा चुकी। वह सौ साल पहले पैदा हुआ था, वह दुनिया जा चुकी। सब बदल गया। वह बिलकुल अजनबी है। जैसे किसी और लोक में जबर्दस्ती उसको लाकर खड़ा कर दिया। बच्चों से कोई तालमेल नहीं रहा। बच्चे बिलकुल दूसरी दुनिया में जी रहे हैं। वह करे भी क्या जीकर? सार भी क्या है? कष्ट होता है, शरीर दुखता है, अर्थराइटिस है, हजार बीमारियां हैं। करे क्या जीकर?

और जी रहा है क्योंकि मेडिकल साइंस ने जीने की सुविधा जुटा दी है। जी सकता है। अब हम आदमी को खींच सकते हैं, दो सौ साल तक भी। उसको मरने ही न दें। उसको अस्पताल में रखकर हम जिंदा रख सकते हैं। अब अस्पताल में डाक्टरों की भी बड़ी कठिनाई है। क्योंकि अगर वे आक्सीजन बंद करें तो उसका मतलब है, उन्होंने इसको मारा। पुराने नियम से वे हत्यारे हैं। उनका पुराना शास्त्र कहता है, किसी को मारना नहीं, बचाने की कोशिश करना। अगर वे इसको ग्लूकोज न दें तो यह मर जाएगा। लेकिन तब मारने का जुम्मा उनके ऊपर पड़ेगा। अभी कानून इसका मौका नहीं दे रहा है, लेकिन कानून को यह मौका देना पड़ेगा।

महावीर की बात समझ में आने जैसी है। महावीर कहते हैं, जब कोई आदमी ऐसी जगह आ जाए, जहां शरीर से अब कुछ भी ध्यान में गति न होती हो, समाधि की तरफ यात्रा न होती हो; ध्यान से, धर्म से, समाधि से परमात्मा का अब कोई अनुभव में विकास न होता हो, कोई लाभ न होता हो…यह महावीर का लाभ ठीक से समझना। यह जैनियों का लाभ नहीं है कि अब कोई धन कमाने की सुविधा न रही, कि रिटायरमेंट हो गया, अब जीकर क्या करें?

महावीर जब कहते हैं, नए-नए लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे, तो वे यह कहते हैं, रोज-रोज परमात्मा का अधिकतम अंश अनुभव में आने लगे तो तो जीवन का कोई सार है। लेकिन कभी अगर ऐसा हो जाए कि जब जीवन तथा देह से लाभ होता दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।

यह शर्त सोचने जैसी है: “परिज्ञानपूर्वक।’ महावीर कहते हैं, आत्महत्या का भी अधिकार है, लेकिन परिज्ञानपूर्वक। उस शब्द में सब कुछ छिपा है। परिज्ञानपूर्वक का अर्थ होता है, जहर खाकर मत मरना, पहाड़ से कूदकर मत मरना क्योंकि वह तो क्षण में हो जाता है, भावावेश में हो जाता है। छुरा मारकर मत मरना, गोली चलाकर मत मरना।

परिज्ञानपूर्वक का अर्थ है उपवास कर लेना। पानी, भोजन बंद कर देना। नब्बे दिन लगेंगे, अगर आदमी स्वस्थ हो तो मरने में। तीन महीने तक…तीन महीने तक सतत एक ध्यान बना रहे कि मैं मरने को तैयार हूं–परिज्ञान हुआ। तीन महीने में हजार दफा…तीन महीने बहुत दूर हैं, तीन मिनट में तुम्हारा मन हजार दफा बदलेगा कि मरना कि नहीं मरना? अरे छोड़ो भी! कहां के पागलपन में पड़े हो? रात सोए, उठकर बैठ गए, जल्दी पहुंच गए फ्रिज के पास और भोजन कर लिया कि यह तो नहीं चलेगा। क्या सार है मरने में? पता नहीं आगे कुछ है या नहीं है।

और तीन महीने अगर तुम उपवास किए हुए, जल-अन्न त्यागे हुए और एक ही भाव में बने रहो, तो यह धीर की अवस्था हो गई। यह हकदार है मरने का। इसको कोई अड़चन नहीं। इसने अर्जित कर लिया। इसको महावीर कहते हैं परिज्ञानपूर्वक मरना। लेकिन वे जानते हैं कि कुछ लोग अजीब हैं। वे हर जगह से अपने लिए धोखा निकाल लेते हैं।

इसलिए दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, “किंतु जिसके सामने अपने संयम, तप आदि साधना का कोई भय या किसी तरह की क्षति की आशंका नहीं है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है।’

अगर अभी त्याग, तप और ध्यान बढ़ रहा है और तुम्हारे शरीर की कमजोरी के कारण, बुढ़ापे के कारण, दौर्बल्य के कारण तुम्हारे तप-ध्यान में कोई बाधा नहीं पड़ रही है, कोई आशंका नहीं है, तुम्हारा संयम आगे जा रहा है तो उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है।

“यदि वह फिर भी भोजन का त्याग कर मरना चाहता है तो कहना होगा, वह मुनित्व से विरक्त हो गया।’

वह च्युत हो गया। क्योंकि उसमें एक नई आकांक्षा पैदा हो गई मरने की। मरना आकांक्षा से नहीं होना चाहिए। अब कुछ लाभ नहीं रहा और हम किसी के ऊपर बोझ हो गए हैं तो क्या सार है? अब कोई गति नहीं हो रही है, जीवन में कुछ नए साध्य नहीं खुल रहे हैं, नए फूल नहीं खिल रहे, सब असार हो गया, हम किसी पर बोझ होकर बैठ गए हैं तो विदा हो जाना चाहिए।

जीवन से जब तक सार निचुड़ता हो…और सार का अर्थ है आत्मा। सार का अर्थ यह नहीं कि तुम तिजोड़ी भरते जा रहे हो, लाभ होता जा रहा है। सार से महावीर का अर्थ है, भीतर की संपदा अभी उपलब्ध हो रही है तो जीवन अभी योग्य है। अभी इस नाव का उपयोग करना है।

लेकिन कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम नाव पर गए यात्रा करने, और एक ऐसी घड़ी आयी कि नाव में छेद हो गए और नाव डूबने लगी, तो महावीर कहते हैं, छलांग लगाकर फिर तैर जाना। फिर नाव में ही मत बैठे रहना। फिर यह मत सोचना कि नाव को कैसे छोड़ दें? फिर छोड़ देना नाव को क्योंकि असली सवाल दूसरा किनारा है। अगर नाव दूसरे किनारे की तरफ अभी भी ले जाने में समर्थ हो तो चलते जाना। अगर नाव असमर्थ हो गई हो, देह कमजोर हो गई हो, जराजीर्ण हो गई हो तो छलांग लगा देना। तैरकर पार हो जाना। नाव से ही थोड़े ही दरिया पार होता है, तैरकर भी होता है, नाव के बिना भी होता है।

तो इतना स्मरण रहे। और नियम के संबंध में यह खतरा है कि नियम का लोग अक्सर गलत अर्थ ले लेते हैं।

मैंने सुना है, एक डाक्टर ने मुल्ला नसरुद्दीन को सलाह दी कि वह प्रतिदिन पांच किलोमीटर दौड़ा करे तो उसका स्वास्थ्य सुधर जाएगा। और फिर घरेलू जीवन में भी सुख-शांति संभव होगी। हफ्ते भर बाद मुल्ला ने डाक्टर को फोन किया और बताया कि वह उनके परामर्श पर ठीक-ठीक चल रहा है। डाक्टर ने पूछा, और घरेलू जीवन कैसा बीत रहा है? मुल्ला ने कहा पता नहीं। क्योंकि मैं तो अब घर से पैंतीस किलोमीटर दूर पहुंच गया हूं।

नियम को समझकर चलना जरूरी है। और नियम से नासमझी पैदा कर लेना बहुत आसान है, क्योंकि नासमझ हम हैं। हममें नियम जाते से ही तिरछा हो जाता है। और ऐसी भी संभावना है कि हम नियम का पालन भी कर लें और जो हम कर रहे थे उसमें कोई फर्क न पड़े।

ऐसा भी हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन को उसके डाक्टर ने एक बार कहा कि अब यह शराब पीने की आदत सीमा के बाहर जा रही है। इसमें कुछ सुधार करना जरूरी है। तो तुम ऐसा करो कि योगासन शुरू करो। तो उसने डाक्टर की सलाह मानकर योगासनों का अभ्यास आरंभ कर दिया और सालभर में वह योग में दक्ष हो गया। घंटों शीर्षासन में खड़ा रहता। एक दिन मुल्ला की पत्नी से डाक्टर ने पूछा, योग के कारण नसरुद्दीन में कोई परिवर्तन आया? पत्नी ने कहा, हां एक दृष्टि से तो काफी परिवर्तन आया है। अब वे सिर के बल खड़े होकर भी मजे में पूरी बोतल पी सकते हैं।

होगा! क्योंकि हम जैसे हैं, जैसे ही कोई नियम हमें मिला, हम उसे अपना रंगरूप दे देते हैं। वह नियम हमारे जैसा हो जाता है। बजाय इसके कि नियम हमें बदले, हम नियम को बदल लेते हैं।

इसलिए तो दुनिया में इतने वकील हैं। उनका कुल काम इतना है कि कानून जब बने तो वे अपराध के हिसाब से कानून को बदलने की चेष्टा करें। वे अपराध के रंग में कानून को रंगें। तो जितने कानून बढ़ते जाते हैं उतने वकील बढ़ते जाते हैं। क्योंकि अपराधी अपराध छोड़ने को राजी नहीं है। वह कहता है, कानून से तरकीब निकालो। वह कानून का ही उपयोग अपराध करने के लिए कर लेता है।

और ऐसा ही वकील तुम्हारे भीतर भी है जिसको तुम बुद्धि कहो, तर्क कहो, मन कहो। तो नियम को समझना और मन की चालबाजी से सावधान रहना।

महावीर कहते हैं, “साधक को पग-पग पर दोषों की आशंका (संभावना) को ध्यान में रखकर चलना चाहिए।’

चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पासं इह मन्नमाणो।

छोटे-छोटे दोष को भी समझपूर्वक देखना चाहिए। ऐसा न कहे कि छोटा-सा दोष है, क्या हर्ज है, चल जाएगा। क्योंकि छोटा बड़ा हो जाता है। छोटा बीज बड़ा वृक्ष हो जाता है। छोटा कांटा आखिर में नासूर बन जाता है।

छोटे दोष को छोटा न समझे। सावधान रहे।

लाभंतरे जीविय वूहइत्ता…

और जीवन का एक ही अर्थ है कि इससे महाजीवन का लाभ होता रहे।

पच्चा परिण्णाय मलावंधसी…

और अगर वह लाभ बंद हो जाए तो मौत को स्वेच्छा से स्वीकार करे। लेकिन–

तस्स ण कप्पदि भत्त-पइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो।

सो मरणं पत्थितो, होदि हु सामण्णणिव्विण्णो।।

लेकिन यदि अभी जीवन में कुछ भी संभावना शक्ति की थी, अगर जीवन में अभी एक बूंद भी रस बचा था तो उस रस को भी ध्यान में परिवर्तित करना है। उस रस को भी परमात्मा की खोज में लगाना है।

तो जल्दबाजी न करे। क्योंकि बहुत लोग भगोड़े हैं। अगर उन्हें मरने का मौका मिल जाए तो वे कोई छोटे-से कारण से ही मर जाएंगे। कोई छोटी-मोटी बात, और वे मर जाएंगे। अहंकार को लगी कोई छोटी-मोटी चोट और वे मर जाएंगे।

कल मैं पढ़ता था कि एक सर्कस के शेरों को सिखानेवाले रिंग मास्टर ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि एक शेर ने उसकी आज्ञा न मानी। अब शेर…! आदमी भी होता तो भी ठीक था! उसने आज्ञा न मानी इससे उनका बड़ा भारी, आत्मसम्मान की हानि हो गई। उन्होंने आत्महत्या कर ली। भद्द हो गई होगी क्योंकि सर्कस का मामला! वे चिल्लाते रहे होंगे, आवाज देते रहे होंगे। शेर तो शेर! वह बैठा रहा होगा कि अच्छा चलो, देते रहो आवाज।

मगर यह अहंकार को लगी चोट कोई आत्महत्या करने लायक नहीं थी। हंसकार टाल जाना था। आदमी बड़ी छोटी-छोटी बातों पर मरने को तैयार हो जाता है, यह खयाल रखना। तुमने भी कई दफे सोचा होगा कि मर ही जाओ। परीक्षा में फेल हो गए कि इंटरव्यू में न आए, मर ही जाओ।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने जीवन में कम से कम दस बार आत्महत्या का विचार न किया हो। छोटी-छोटी बात–पति से झगड़ा हो गया कि बस पत्नी सोचने लगती है, कि क्या करें? केरोसिन डाल लें, कि गैस के चूल्हे में आग लगा लें, कि बिल्डिंग से कूद पड़ें, कि ट्रेन के नीचे सो जाएं? जरा-जरा सी बात!

मैं एक घर में रहता था। और मेरे पड़ोस में ठीक दीवाल से लगे हुए एक बंगाली प्रोफेसर रहते थे। अभी नया-नया मैं आया था और दीवाल बड़ी पतली थी, जैसी आजकल के मकानों की होती है। तो उनकी सब बातें मुझे सुनाई पड़ती थीं–न सुनना चाहूं तो भी। पहले दिन…दूसरे दिन मैं थोड़ा हैरान हुआ। क्योंकि वह दूसरे दिन उन्होंने एकदम धमकी दी कि मैं जाकर मर जाऊंगा। तो मेरी कोई ज्यादा पहचान भी नहीं थी। बस थोड़ा परिचय हुआ था। अब वे तो निकल भी गए घर से अपना छाता उठाकर। बंगाली! बिना छाते के तो मरने भी नहीं जा सकते। मैं थोड़ा चिंतित हुआ। मैं गया। मैंने उनकी पत्नी से कहा कि मामला क्या है? मेरा कोई इतना परिचय नहीं है, लेकिन कोई मरने जा रहा हो तो मुझे कुछ करना चाहिए। उसने कहा, आप बिलकुल बेफिकर रहो। वे अपने आप आ जाएंगे। पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं लगेगा। मैंने कहा, गए कहां हैं। उन्होंने कहा, वे कहीं जाते-वाते नहीं। यह तो जिंदगी हो गई मुझे। ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब वे मरने न जाते हों।

जरा-जरा सी बात पर आदमी मरने को तत्पर है।

इसलिए महावीर की सावधानी ठीक है। कि तुम ऐसा मत सोच लेना कि मरना कोई धर्म है। मरना तभी सार्थक हो सकता है, जब जीवन का कोई और उपयोग न रहा। जितने दूर तक यह नाव ले जा सकती थी, ले गई। अब तैरना पड़ेगा। अब यह नाव नहीं काम आती–तो!

अन्यथा सावधानीपूर्वक जीना, सावचेत जीना। छोटी-छोटी भूल को छोटी-छोटी मत मानना। कोई भूल छोटी नहीं होती। भूल छोटी होती ही नहीं। क्योंकि एक दफा छोटी भूल समझकर जो हृदय में पड़ जाती है, वह कल बड़ी हो जाती है, फैल जाती है, विस्तीर्ण हो जाती है। सभी लोग छोटे-छोटे दोष मानकर दोष करते हैं और एक दिन उनमें ग्रसित हो जाते हैं और निकलना मुश्किल हो जाता है।

किसी मित्र ने कहा कि अरे! पी भी लो। जरा-सी शराब थी, तुमने सोचा इतनी शराब से क्या बननेवाला, बिगड़नेवाला? साढ़े छह फीट लंबा शरीर है, तीन सौ पौंड वजन है, क्या बिगड़नेवाला है? तुम पी गए। मगर वह छोटा-सा दोष धीरे-धीरे पकड़ेगा। बुराई बड़े आहिस्ता आती है। बुराई जब आती है तो जूते उतारकर आती है। आवाज ही नहीं होने देती। पैरों की भी आवाज नहीं होती।

इसलिए महावीर कहते हैं, बहुत सावधान रहना, बहुत सावचेत रहना। जीवन से एक सत्य साधना है–जीवन साधन है, साध्य नहीं–और वह सत्य है, महाजीवन। उस महाजीवन को साधने के लिए मृत्यु को सुमरण बनाना है, पंडित की मौत मरनी है, जाननेवाले की मौत मरनी है। और अज्ञानी की मौत तो हम सब बहुत बार मर चुके। उससे कुछ लाभ नहीं हुआ। उससे हम मरे ही नहीं, फिर-फिर लौट आए।

किससे महरूमिए-किस्मत की शिकायत कीजे

हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ

–अब किससे शिकायत करो भाग्य की?

किससे महरूमिए-किस्मत की शिकायत कीजे

हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ

कितनी बार तो हम मर भी चुके, फिर भी मरे नहीं। और कितनी बार हमने चाहा कि मर जाएं, वह भी नहीं हुआ।

तुम्हारी चाह से मौत नहीं घटेगी। महावीर कहते हैं, जिसको मौत का अनुभव करना हो, उसे अचाह साधनी पड़ती है–निष्काम चाह, वासनाशून्यता। क्योंकि सब वासना जीवन से जुड़ी है। जब तक वासना है तब तक तुम जीवन को पकड़े हो। जैसे ही वासना छूटती है, तुम कुछ भी नहीं मांगते, तुम मरने को तैयार हो गए। पंडितमरण की तैयारी हो गई।

और जो ज्ञानी की तरह मरता है, मृत्यु एक बड़े अभिनव, सुंदर रूप में प्रगट होती है। मृत्यु परमात्मा की तरह आती है।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–28

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रसमयता और एकाग्रता— प्रवचन—अट्ठाइसवां

प्रश्‍नसार:

1—कुछ दिन ध्‍यान में जी लगता है, कुछ दिन भजन में; लेकिन एकाग्रता कहीं नहीं होती।

2—आकस्‍मिक रूप से भगवान से मिलना हुआ और संन्‍यास भी ले लिया, क्‍या यह ध्‍यान कायम रहेगा?

3—भगवान श्री कृष्‍ण के सिर र्दद के लिए ज्ञानियों ने पैर की धूल देने से इंकार कर दिया लेकिन गोपियों ने दे दी—इसका रहस्‍य क्‍या है?

4—क्‍या ध्‍यान की मृत्‍यु और प्रेम की मृत्‍यु भिन्‍न होती है?

पहला प्रश्न:

कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, फिर कुछ दिन पूजा और भजन चलता है, लेकिन एकाग्रता कहीं भी नहीं होती। अपनी इस स्थिति से परेशान हूं। कृपा कर मुझे साधें।

मन का स्वभाव ऐसा। न यहां लगता, न वहां लगता। मन का स्वभाव है द्वंद्व। जो करोगे वहीं से उचटा हुआ लगेगा। जहां हो वहां से भागा हुआ रहेगा। जहां नहीं हो वहां का रस जन्मेगा। जो मिला, व्यर्थ हो जाता है। जो नहीं मिला, वे दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं।

मन के इस स्वभाव को समझो। न तो ध्यान काम आता, न भजन काम आता; मन के स्वभाव को समझना काम आता है।

मन की यह प्रक्रिया है। पद मिल जाए तो असंतुष्ट, पद न मिले तो असंतुष्ट। पद न मिले तो पीड़ा, पद मिल जाए तो व्यर्थता का बोध। गरीब रोता, अमीर नहीं है। अमीर रोता कि अमीर हो गया, अब क्या करूं?

जो भी तुम्हारे पास है, वह पास होने के कारण ही दो कौड़ी का हो जाता है। और जो तुमसे बहुत दूर है, दूर होने के कारण ही उसका बुलावा मालूम होता है।

मन के इस आधारभूत जाल को समझो। इसे पहचानो। यह ध्यान और भजन का ही सवाल नहीं है। भोजन करो तो मन में उपवास का रस उमगता है कि पता नहीं, उपवास करनेवाले न मालूम किस गहन शांति और आनंद को उपलब्ध हो रहे हों। उपवास करो तो भोजन की याद आती है।

जीवन के प्रत्येक पल तुम ऐसा ही पाओगे।

बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी

अब कहां ले जाके बैठें ऐसे दीवाने को हम

बगीचे में बिठाओ तो लगता नहीं। मरुस्थल में ले जाओ तो घबड़ाता है।

बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी

अब कहां ले जाके बैठें ऐसे दीवाने को हम

मन एक तरह का पागलपन है, एक तरह की विक्षिप्तता है। मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन के पार होना ही स्वस्थ होना है। तो पहली तो बात, मन के इस स्वभाव को समझने की कोशिश करो। अक्सर लोग समझने की कम कोशिश करते हैं, छुटकारा पाने की ज्यादा कोशिश करते हैं। और छुटकारा बिना समझे कभी नहीं है। तो तुम्हारी आकांक्षा यह होती है, कैसे झंझट मिटे। लेकिन बिना समझे झंझट मिटी ही नहीं। नासमझी में झंझट है।

तो तुम चाहते हो, कैसे इस मन से छुटकारा हो? लेकिन पहले इस पहचानो तो। इससे दोस्ती तो साधो। इससे परिचय तो बनाओ। इसके कोने-कांतर तो खोजो। दीया तो जलाओ कि इसके सारे स्वभाव को तुम ठीक से देख लो। उस देखने में, उस दर्शन में, उस साक्षीभाव में ही तुम पाओगे विजय की यात्रा पूरी होने लगी।

जिस दिन कोई मन को पूरा समझ लेता है, उसी दिन मन विसर्जित हो जाता है। जैसे सूरज के ऊगने पर ओसकण तिरोहित हो जाते हैं, ऐसे ही बोध के जगने पर मन तिरोहित हो जाता है। जैसे दीये के जलने पर अंधेरा नहीं पाया जाता, ऐसे समझ के, प्रज्ञा के दीये के जलने पर मन नहीं पाया जाता।

तो मन से लड़ो मत–पहली बात। लड़ने का अर्थ ही नासमझी है। लड़कर कभी कोई जीता? तुमने यही सुना है कि जो लड़े वे जीते। मैं तुमसे कहता हूं, लड़कर कोई कभी जीता? समझकर जीत होती है। लड़नेवाले तो नासमझ हैं। लड़ोगे किससे! छायाओं से लड़ रहे हो।

जैसे कोई अपनी छाया से लड़ने लगे, खींच ले तलवार, करने लगे हमला। परिणाम क्या होगा? छाया कटेगी? परिणाम यही होगा, खुद ही थकेगा। और डर है कि छाया से लड़ने में कहीं अपने हाथ-पैर न काट ले। क्रोध में, उबाल में, पागल न हो उठे। कहीं ऐसी घड़ी न आ जाए कि विक्षिप्तता में अपने को ही काट ले।

अक्सर मन के साथ लड़नेवाले ऐसी ही स्थिति में पड़ जाते हैं। मन तुम्हारा है; तुम्हारी छाया। है नहीं, बस छाया जैसा है।

रोशनी बढ़ाओ।

थोड़े जागकर मन को समझो।

जब ध्यान करो और मन कहे, भजन में, तो जरा जागकर देखो, एक तरफ खड़े होकर देखो कि मन क्या कह रहा है। जब भजन करो और मन कहे, ध्यान लगाओ, तब जागकर देखो कि मन क्या कह रहा है। इसकी चालबाजियां पहचानो। इसकी कूटनीति पहचानो। मन बड़ा राजनीतिज्ञ है। यह तुम्हें भटकाए रहता है। यह तुम्हें चलाए रहता है।

और तुमने ध्यान करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। और तुमने भजन करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। तो अब यह तो समझो कि मन कहीं लगेगा ही नहीं। मन का लगना धर्म नहीं। न लगना मन की आदत है। कहीं लगता नहीं। जो नहीं लगता वही मन है।

तो अब जब मन तुमसे कहे कि ध्यान करो, क्या भजन में पड़े हो? तो जागकर देखना कि यह फिर वही मन, जो कहीं नहीं लगता, भजन में भी नहीं लगा था; तब इसने कहा था, ध्यान करो। अब कहता है भजन करो। पहले कहा, संसार में उलझे रहो। फिर कहा, संन्यास ले लो। अब संन्यास में भी नहीं लगता; कहता है संसार में लौट चलो।

इस मन को जरा देखना। कुछ करने की बात नहीं है, सिर्फ शांत भाव से देखना। तुम्हारे देखने में ही तुम पाओगे मन गिरने लगा। तुम पर उसकी पकड़ जाने लगी। तुम पर पकड़ छूट जाए। तुम थोड़े शिथिल हो जाओ मन के पास से। तुम थोड़े बाहर सरकने लगो।

न तो ध्यान से घटती है बात, न भजन से; घटती है समझ से। इसलिए समस्त धर्मों का सार है जागरूकता।

प्रश्नकर्ता पूछता है, एकाग्रता नहीं बनती। एकाग्रता की खोज ही गलत है। जागरूकता खोजो। एकाग्रता की खोज तो फिर मन के ही सिक्कों में फंसे। यह मन ही है, जो कहता है एकाग्र बनो। यह तुम्हें असंभव चीजें करने को देता है। फिर वे नहीं होतीं तो तुम हारे-थके परेशान हो जाते हो।

एकाग्रता की कोई जरूरत ही नहीं है। थोड़ा जीवन की गणित की व्यवस्था के सूत्र समझने चाहिए।

पहला सूत्र: जब भी मन नहीं होता, तब तुम एकाग्र होते हो।

कभी अपने काम में पूरे संलग्न। चाहे बुहारी लगा रहे हो घर में, लेकिन पूरे संलग्न। अचानक तुम पाते हो, मन नहीं है। संगीत सुनते संलग्न, मन नहीं है। चित्र बनाते…किसी भी घड़ी जब तुम पाते हो कि मन नहीं है, तुम ही हो, तो एकाग्रता अपने आप घटती है।

एकाग्रता घटाई नहीं जा सकती। एकाग्रता मन की तन्मयता का परिणाम है। जब मन डूबा होता है तब तुम एकाग्र होते हो। जब मन उभर आता है तब तुम अनेकाग्र हो जाते हो। मन तुम्हें अनेक में बांट देता है; खंड-खंड कर देता है।

अब तुम चेष्टा कर रहे हो एकाग्र होने की। एकाग्र होने की चेष्टा और झंझट लाएगी क्योंकि करोगे किससे चेष्टा तुम एकाग्र होने की? मन से ही करोगे। सब चेष्टा मात्र मन से होती है।

अब तुम एक ऐसे काम में लगे हो, जैसे कोई आदमी अपने जूते के बंद खींच-खींचकर खुद को उठाने की कोशिश करे। खुद को कैसे उठाओगे जूते के बंद खींचकर? थोड़े-बहुत उछल-कूद लो, फिर बार-बार जमीन पर पड़ जाओगे। यह असंभव चेष्टा है।

मन कभी एकाग्र नहीं होता। जब एकाग्रता होती है तो मन नहीं होता। तो तुम मन के द्वारा एकाग्र होने की चेष्टा ही छोड़ो। तुम तो छोटे-छोटे कामों में रस लो। रस का परिणाम है एकाग्रता। बुहारी लगाओ तो ऐसे लगाओ, जैसे भगवान के मंदिर में लगा रहे हो। चाहे घर तुम्हारा ही हो; है तो भगवान का ही मंदिर।

भोजन करो तो ऐसे ही करो जैसे भगवान को ही भोग लगा रहे हो। भोजन तो तुम ही कर रहे हो लेकिन अंततः तो भगवान को ही लग रहा है भोग। वही तो तुम्हारे भीतर आकर भूख बना। उसी ने तो तुम्हारी भूख जगाई। वही तो तुम्हारे भीतर भूखा है। उसके लिए ही तो तुम भोजन दे रहे हो। रस जगाओ। एकाग्रता की बात मत उठाओ। रस का सहज परिणाम एकाग्रता है। जो करते हो उसे रसपूर्ण ढंग से करो। उसमें डुबकी लो। छोटे और बड़े काम नहीं हैं दुनिया में। जिस काम में तुम डुबकी ले लो, वही बड़ा हो जाता है। बुहारी लगाने में डूब जाओ, वही बड़ा हो जाता है।

कबीर कहते हैं: “खाऊं-पिऊं सो सेवा, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा।’ मेरा उठना बैठना ही उस परमात्मा की परिक्रमा है। और जो मैं खाता-पीता हूं, यही उसकी सेवा है। रस!

मेरे देखे अधिक लोगों के जीवन का कष्ट यही है कि वे जीवन में कहीं भी रस नहीं ले रहे हैं। जो भी कर रहे हैं, बेमन से कर रहे हैं। कर रहे हैं क्योंकि करना है। खींच रहे हैं। जैसे बैलगाड़ी में जुते बैल; ऐसा जीवन को खींच रहे हैं। नाचते हुए, उमंग से भरे हुए नहीं।

अगर तुम कोई ऐसे काम में लगे हो, जिसमें तुम रस ले ही नहीं सकते तो बदलो वह काम। कोई काम जीवन से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। अक्सर ऐसा हुआ है, हो रहा है कि लोग ऐसे काम में उलझे हैं जो उनमें रस नहीं जगाता। किसी को कवि होना था, वह जूते बेच रहा है, बाटा की दुकान पर बैठा है। और जिसको बाटा की दुकान पर बैठना था, वह कविता कर रहा है। तो उसकी कविता में जूते की पालिश की गंध आती। आएगी ही।

लोग वहां हैं, जहां उन्हें नहीं होना था। और यह विकृति के कारण है। क्योंकि तुमने कभी अपने सहज भाव को तो खोजा नहीं। किसी के पिता ने कहा कि दुकान करो। इसमें ज्यादा लाभ है। किसी के पिता ने कहा, डाक्टर बन जाओ। किसी की मां को खयाल था, बेटा इंजीनियर बने। परिवार को धुन थी कि बेटा नेता बने।

तो सब धक्का दे रहे हैं एक-दूसरे को कि यह बन जाओ, वह बन जाओ। कोई यह नहीं पूछता कि यह बेटा क्या बनने को पैदा हुआ है? इससे भी तो पूछो। थोड़े इसके हृदय को भी तो टटोलो। तो फिर लोग गलत जगहों पर पहुंच जाते हैं।

एक बहुत बड़ा सर्जन, जिसकी सारी जगत में ख्याति थी, जब साठ वर्ष का हुआ और उसकी साठवीं वर्षगांठ मनाई गई तो सारी दुनिया से उसके मित्र इकट्ठे हुए, उसके मरीज इकट्ठे हुए और उन्होंने उसका बड़ा स्वागत किया। लेकिन वह बड़ा उदास था। उसके स्वागत में एक नृत्य का आयोजन किया गया था। तो जब लोग नृत्य करने लगे और वह सर्जन देखता रहा तो उसकी आंख से आंसू टपकने लगे।

उसके पास बैठे उसके मित्र ने पूछा, क्या मामला है? हम सब तुम्हारी वर्षगांठ पर इकट्ठे हुए प्रसन्नता से। यह नृत्य तुम्हारे स्वागत में होता है, तुम रोते क्यों हो? तुम्हारी आंख में आंसू क्यों हैं? तुम किस पीड़ा से भीग गए हो?

उसने आंसू पोंछ लिए। उसने कहा कि नहीं, वह कोई बात नहीं है। पर मित्र ने जिद्द की। कहा कि क्या तुम्हें कोई जीवन में विफलता मिली? तुम जैसा सफल आदमी नहीं है। तुमने जो आपरेशन किया, सफल हुआ। तुम्हारे जैसा कुशल सर्जन दुनिया में नहीं। फिर क्या?

लेकिन उसने कहा, मैं कभी सर्जन होना ही नहीं चाहता था। मेरा दिल तो एक नर्तक होने का था। आज नाच को देखकर मैं रो उठा। मैं छोटा-मोटा नर्तक होता, कोई मुझे न जानता तो भी मेरी तृप्ति होती। आज मैं दुनिया का सबसे बड़ा सर्जन हूं, लेकिन मेरी कोई तृप्ति नहीं है। मेरी नियति ही मुझे न मिली। तो आज भी जब मैं किसी को नाचते देखता हूं तो बस, मुझे याद हो आती है।

तुम अपनी जिंदगी को गौर से देखो। पहली तो बात–जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करो। हो सकता है तुमने रस का अभ्यास नहीं किया। तुम्हें किसी ने सिखाया ही नहीं कि रस का अभ्यास कैसे करना।

रस के अभ्यास का पहला सिद्धांत है कि जो भी कर रहे हो, इसका परिणाम मूल्यवान नहीं है। तुम्हें यही सिखाया गया है कि परिणाम मूल्यवान है। तुम करते हो, इससे दस रुपये मिलेंगे कि हजार रुपये मिलेंगे कि लाख रुपये मिलेंगे। लाख रुपये में मूल्य है, परिणाम में मूल्य है।

रस का सिद्धांत है, जो तुम कर रहे हो, वह अपने आप में मूल्य है। अंतर्निहित है मूल्य। हजार मिलेंगे, दस हजार मिलेंगे, वह बात गौण है। करने में जो डुबकी लगेगी वही बात महत्वपूर्ण है। अगर डूब गए तो मिल गए करोड़ों। अगर न डूबे और करोड़ों भी मिले तो कुछ भी न मिला। वह समय व्यर्थ गया, जो बिना डूबे गया। वे दिन व्यर्थ ही बीते, जो बिना डूबे बीते। जब रसधार न बही तो तुम जीए न जीए बराबर। रस-विमुग्धता में ही जीवन है। तो पहली तो बात जो कर रहे हो…।

तुमसे नहीं कहता कि जल्दी बदलने में लग जाना। क्योंकि हो सकता है, तुम अपना काम भी बदल लो और रस न आए। क्योंकि रस आने की तुम्हारी आदत ही न रही हो। तुमने रस बनाने की बात ही न बनाई हो।

तो पहले तो जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करना। सौ में पचास मौके तो ऐसे हैं कि तुम उसी में रस ले पाओगे। रस लेते ही एकाग्रता हो जाएगी।

देखा, स्कूल में छोटे बच्चे पढ़ते हैं; बाहर चिड़िया गुनगुनाने लगी गीत, बच्चा एकटक होकर सुनने लगता है। शिक्षक डंडा पीटता है टेबल पर, कि यहां ध्यान दो। एकाग्रता करो। एकाग्रता बच्चा कर ही रहा है। मगर शिक्षक पर नहीं कर रहा, यह बात सच है। यह ब्लैकबोर्ड पर नहीं कर रहा। ब्लैकबोर्ड पर लिखे अक्षरों पर नहीं कर रहा। लड़का तो एकाग्रता कर ही रहा है। एकाग्रता तो हो ही रही है। वह जो चिड़िया गीत गा रही है वह उसे सुन रहा है। शिक्षक कहता है, एकाग्रता करो। मन को ऐसा विचलित मत करो।

बात बिलकुल गलत कह रहा है शिक्षक। शिक्षक उसके मन को विचलित करने की कोशिश कर रहा है। वह एकाग्र है। अगर कोई बाधा न दे, तो यह सारा संसार थोड़ी देर के लिए मिट जाएगा। वह चिड़िया की गुनगुनाहट होगी, उसका गीत होगा, इस बच्चे की भावदशा होगी। और यह एक बात सीख लेगा–रस की।

रस चूंकि उसे चिड़िया के गीत में आ रहा है, इसलिए एकाग्र हो गया है। उसी कक्षा में ऐसे बच्चे भी होंगे, जिन्हें रस गणित के सवाल में आ रहा है। वे वहां एकाग्र हो गए होंगे।

हमें लोगों को एकाग्रता नहीं सिखानी चाहिए। उनका रस देखकर उन्हें दिशा देनी चाहिए। जो बच्चा गणित को सुनकर एकाग्र हो गया है, बाहर भौंकते कुत्ते, लड़ती बिल्लियां, गीत गाती चिड़ियां, रास्ते पर बैठे मदारी की बीन–कुछ नहीं सुनाई पड़ती। यह बच्चा आइंस्टीन होने को पैदा हुआ है। इसकी एकाग्रता ही खबर देती है।

अब इस बच्चे से तुम कहो, कि चिड़ियां गीत गा रही हैं, उन पर एकाग्रता करो, यह न कर पाएगा। यह संभव नहीं होगा।

हमें देखना चाहिए कि कहां हमारी एकाग्रता है। वहीं हमारा जीवन है। मगर आज अचानक जीवन बदलने का तुम्हारे हाथ में उपाय नहीं। आज तो पहचानने का भी उपाय नहीं कि कहां तुम्हारी एकाग्रता होती है। तुम तो भूल ही गए। तुम्हारे जीवन की सारी व्यवस्था उल्टी-सीधी हो गई है। दूसरों ने तुम्हें चला दिया। दूसरों ने तुम्हें मार्ग दे दिया। दूसरों ने तुम्हें दिशा और आदर्श दे दिए। तुम्हें पूरी तरह भरमा दिया है।

पहले तो जो काम कर रहे हो उसमें रस लेने की आकांक्षा जगाओ। जो काम कर रहे हो उसे इतने भाव से करो, इतनी मगनता से करो कि उससे अतिरिक्त ऊर्जा बचे ही नहीं विघ्न-बाधा डालने को।

एकाग्रता का और क्या अर्थ होता है? एकाग्रता कोई जबर्दस्ती थोड़े ही है। एकाग्रता बड़ी स्वाभाविक घटना है।

अब तुम यहां मुझे सुन रहे हो। जिनको मेरी बात में रस आ रहा है, वे एकाग्र हैं। एकाग्रता कर थोड़े ही रहे हो, एकाग्रता हो रही है। इसे समझने की कोशिश करो। तुम्हारे करने की थोड़े ही बात है। तुम थोड़े ही बैठे हो सब मांस-पेशियों को खींचकर, आंखें मुझ पर गड़ाकर और चेष्टा कर रहे हो कि एकाग्रता! ऐसे एकाग्रता करोगे तो तुम सुन ही न पाओगे, जो मैं कह रहा हूं। एकाग्रता सहज है। तुम्हें रस आ रहा है। उसी रस के कारण तुम चले आए हो। उसी रस के कारण तुम रोज चलते आए हो। वही रस तुम्हें लाता रहा है।

रस है तो एकाग्रता है।

तो तुम रस को जगाओ, एकाग्रता की बात ही छोड़ दो। अगर रस जगे ही न तो फिर समझो, फिर हिम्मत करो, साहस करो। बदलो उस व्यवस्था को, जिसमें रस नहीं जगता। हो सकता है वह व्यवस्था तुम्हारे लिए नहीं है।

तो दरिद्र हो जाना बेहतर है समृद्ध होने की बजाय। सड़क का भिखारी हो जाना बेहतर है सम्राट होने की बजाय–अगर रस आ जाए। क्योंकि रस ही सम्राट बनाता है।

तो कभी-कभी तुम किसी भिखारी के चेहरे पर ऐसी आभा देखोगे, जो सम्राटों के चेहरों पर नहीं दिखती। रसविमुग्ध है वह। अपने काम में लीन है।

रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक भिखारी आया, पांच बजे सुबह उसका दरवाजा खटखटाने लगा। वह बड़ा नाखुश हुआ। पांच बजे सुबह नींद से भरे उसको उठाया। वह बड़ा झल्लाता हुआ बाहर आया। ऐसे वह देना पसंद करता था। दान उसका रस था। लेकिन यह कोई वक्त है?

तो उसने भिखारी को कहा कि सुनो जी! यह कोई समय है? भिखारी ने कहा कि आप भी सुनो। आप बैंकिंग का धंधा करते हैं, मैं कोई सलाह तो देता नहीं। यह हमारा धंधा है। इसमें हम सलाह किसी की मानते नहीं।

रथचाइल्ड ने प्रकाश जलाया कि इस आदमी को देखना चाहिए, जो दुनिया के बड़े से बड़े करोड़पति को कह सकता है कि सुनो, तुम बैंकिंग का धंधा करते हो, हम तुम्हें कभी सलाह देते नहीं। हमारी सलाह का कोई मतलब भी नहीं, क्योंकि हमें कोई अनुभव भी नहीं। तुम हमें सलाह मत दो। हम जन्मजात भिखारी हैं।

उस आदमी के चेहरे को देखा, वह बड़ा प्रसन्न आदमी था। रथचाइल्ड ने लिखा, मैं मंत्रमुग्ध हो गया। यह हिम्मत भिखारी की नहीं, सम्राट की होती है। रथचाइल्ड को ऐसा कहना, जिसके पास भीख मांगने आए कि चुप! सलाह मत देना। मेरे धंधे को मैं भलीभांति जानता हूं।

रथचाइल्ड ने उसे खूब दिया; और कहा, मैं खुश हुआ इस बात से कि कोई आदमी अपने भिखमंगेपन की भी इतनी प्रतिष्ठा रखता है।

कभी तुम्हें राह का भिखारी भी प्रसन्न मिल सकता है। प्रसन्नता का कोई संबंध इससे नहीं कि तुम्हारे पास क्या है। जो भी तुम्हारे पास है, उसमें अगर रस है तो प्रसन्नता है। तुम अगर हाथ के भिक्षापात्र को भी गीत गुनगुनाते हुए ढो रहे हो तो आनंद है। और तुम्हारे पीछे स्वर्णरथ चल रहे हैं और तुम मुर्दा, बुझे, तो कुछ अर्थ नहीं है।

एकाग्रता मत पूछो। यद्यपि तुम्हें यही सिखाया गया है स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु भी तुम्हें यही सिखाते हैं कि–एकाग्रता। मैं तुमसे कहता हूं, रसमग्नता। वह शब्द हटा दो। क्योंकि वह शब्द सीधा काम का ही नहीं है।

एकाग्रता जरूर आती है, मगर परिणाम की तरह आती है। एकाग्रता साधन नहीं है; जहां रस लोगे वहीं घट आती है। रस के पीछे बंधी चली जाती है। रस की छाया है।

तो तुम कहीं भी रस लो। अगर मंदिर में रस न आता हो, फिक्र छोड़ो। फिर मंदिर में परमात्मा तुम्हारे लिए नहीं घटेगा। जहां रस ही नहीं है, वहां एकाग्रता नहीं होगी। एकाग्रता नहीं होगी, परमात्मा कहां होनेवाला है!

अगर तुम्हें बांसुरी के गीत में रस आता है तो वहीं तुम्हारा परमात्मा तुम्हें मिलेगा। अगर नर्तक की पायलों में तुम्हें रस आता है तो तुम्हारा परमात्मा वहीं नाचेगा।

तुम्हारे परमात्मा की खोज तुम्हारे रस से ही तय होगी। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। किसी शास्त्र ने नहीं कहा कि परमात्मा का स्वभाव एकाग्रता है। सच्चिदानंद! वह रस की बात है। तुम्हें जहां आ जाए रस, जहां आ जाए आनंद, जहां उमंग उठे, जहां तुम खिल उठो। फिर वह कुछ भी हो। चाहे खेल हो, तो प्रार्थना बन गई। और ऐसे तुम बैठे-बैठे प्रार्थना करते रहो, भजन करते रहो, ध्यान करते रहो; रस उमगे नहीं, मेघमल्हार बजे नहीं, हृदय गुनगुनाए नहीं–ऐसे तुम करते चले जाओ जबर्दस्ती, यंत्रवत, करनी चाहिए, कर्तव्यवश, लोग कहते हैं इससे रस मिलेगा इसलिए कर रहे हैं।

नहीं, जहां रस मिलता है वहीं परमात्मा आता है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई अनुशासन नहीं है। क्योंकि अनुशासन कोई भी होगा, पराया होगा, दूसरे का होगा। तुम्हें अपना अनुशासन खोजना पड़ेगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपना मार्ग खोजना पड़ेगा। मैं इशारे देता हूं। उन इशारों से तुम अपना मार्ग समझने की कोशिश करो।

कबीर ज्ञान को भी उपलब्ध हो गए तो भी कपड़ा बुनते रहे। जुलाहापन उन्होंने छोड़ा नहीं। किसी ने पूछा कि अब तो आप बंद करें। कभी सुना नहीं कि कोई बुद्धपुरुष और कपड़े बुनता रहा और जुलाहा बना रहा और बाजार में कपड़े बेचने जाता रहा। अब तो छोड़ो।

लेकिन कहते हैं, कबीर ने कहा, इसी कपड़े के बुनने ने तो मुझे परमात्मा से मिलाया। इसे कैसे छोड़ दूं? यह मेरी प्रार्थना। यह मेरी पूजा। यह मेरी अर्चना।

“झीनी झीनी बीनी रे चदरिया।’

वह जुलाहे का गीत है। कोई और दूसरा तो गा भी नहीं सकता। बुद्ध कैसे गाएंगे? बुद्ध ने कभी चदरिया बीनी नहीं। उन्हें कुछ पता भी नहीं। महावीर कैसे गाएंगे? चदरिया थी, वह भी छोड़ दी! उनसे तो पूछो कैसी छोड़ी रे चदरिया, तो बता सकते हैं।

लेकिन कबीर ने बुन-बुनकर पाया। वे ताने-बाने चादर के बुनते-बुनते उनका ध्यान फला। वहीं रसविमुग्ध हुए। पर कैसे पाया उन्होंने? क्योंकि हमें बुद्ध की बात समझ में आ जाती है कि दूर बोधिवृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे हुए हैं। कि महावीर वनों में, पर्वतों में, एकांत में, बारह वर्ष मौन में खड़े हुए। कबीर…कबीर कपड़ा बुन-बुनकर पा लिए।

रस से बुना होगा। कबीर कहते थे, राम के लिए बुन रहा हूं। सभी ग्राहकों में राम देखते थे। जब अपना कपड़ा बुनकर और काशी के बाजार में बेचने जाते, कोई मिल जाता रास्ते में और कहता, कहां जा रहे हो? तो वे कहते, राम आए होंगे। उनको जरूरत है, कपड़ा बुनकर लाया हूं। बड़ा बढ़िया बुना है। राम को देने जा रहा हूं।

जब कोई ग्राहक उनसे कपड़ा खरीदता तो वे कहते, सम्हालकर रखना राम। बड़ी मेहनत से बुना है। बड़े रस से बुना है। कपड़ा ही नहीं है, पीढ़ी दर पीढ़ी चले ऐसी मजबूती से बुना है। अपने प्राण उंडेले हैं।

तो जिसको ग्राहक में राम दिखाई पड़े, अब उसे किसी बोधिवृक्ष के नीचे जाने की जरूरत न रही। सभी लोग बोधिवृक्ष के नीचे जा भी नहीं सकते। और अच्छा है कि जाते नहीं; नहीं तो बड़ी झंझट खड़ी हो जाए। एकाध बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठता है, चलता है। एकाध महावीर मौन खड़ा हो जाता है, चलता है। लेकिन सभी ऐसे खड़े हो जाएं तो जीवन बड़ा विरस हो जाएगा।

अधिक को तो कबीर जैसा होना पड़ेगा। अधिक को तो गोरा जैसा होना पड़ेगा। गोरा कुम्हार बस घड़े बनाता रहा। और घड़े बनाते-बनाते खुद को भी बना लिया। रैदास जूते सीते-सीते, जूते बनाते-बनाते पहुंच गए।

तो तुम जो कर रहे हो, उसमें रस डालो। उंडेलो रस। वही तुम्हारा भजन, वही तुम्हारा ध्यान।

अगर तुम्हारी सारी चेष्टाएं असफल हो जाएं तो फिर साहस करो। तो फिर तुम गलत जगह हो। तुम कुछ ऐसी जगह बहने की कोशिश कर रहे हो, जो चढ़ाव पर है। तो नदी चढ़ाव पर तो नहीं बहती, ढाल पर ही बह सकती है। रसधार भी ढाल पर ही उतरकर, बहकर मिलता है।

तो फिर बदलो। इसीलिए साहस की जरूरत है। पहले सारी चेष्टा कर लो। और फिर तुम्हें लगे कि नहीं, इस ढंग से मेरे लिए परमात्मा से मिलन नहीं हो सकेगा तो बदलो। उस बदलाहट को मैं संन्यास कहता हूं। बदलने की हिम्मत रखो।

एक आदमी चालीस साल तक लंदन के बाजार में दलाल का काम करता रहा। बड़ा सफल आदमी था। खूब कमाई थी। सब तरह का सुख था। किसी ने कभी सोचा भी न था, एक रात वह घर से नदारद हो गया। पत्नी भी भरोसा न कर सकी, बेटे भी भरोसा न कर सके, मित्र भी भरोसा न कर सके, काम धंधे में जो लोगों से संबंध था वे भी भरोसा न कर सके। क्योंकि न तो वह आदमी कभी किसी और स्त्री के संग में देखा गया था, कि पत्नी सोच भी सके कि वह किसी स्त्री के साथ भाग गया। न उसके कोई धार्मिक रुझान थे कि वह कोई जाकर किसी आश्रम में संन्यासी हो गया होगा। न कोई दुख था कि आत्महत्या कर ली होगी। सब भांति सुखी-संपन्न आदमी था; जिसको हम सुखी-संपन्न कहते हैं, वैसा आदमी था। सब ठीक-ठाक था।

कोई तीन साल बाद उस आदमी का पता चला कि वह पेरिस में चित्रकला सीख रहा है। भिखमंगे की हालत हो गई है। भागे उसके मित्र। उससे कहा, तुमने यह क्या किया? तुम्हारे पास सब था, सब ठीक था। उसने कहा, वही अड़चन थी। सब ठीक था, कहीं कुछ गड़बड़ न थी। लेकिन कोई प्रफुल्लता न थी। कहीं कोई उमंग न थी। सब ठीक चल रहा था और सब ठीक मैं चला रहा था, लेकिन कोई रसधार न बह रही थी।

मेरे जीवन में सदा से आकांक्षा थी कि चित्रकार बनूं। दलाल बनना मैंने कभी चाहा न था। वह सफलता सांयोगिक थी। अब मैं खुश हूं। मेरे पास अब कुछ भी नहीं है। चित्र बनाता हूं, बिक जाते हैं तो भोजन के लायक, कपड़े के लायक इंतजाम कर पाता हूं। अपने पास रहने का छप्पर भी नहीं है। एक मित्र के कमरे में बना हूं, रह रहा हूं। लेकिन वापस मुझे जाना नहीं है। मैं प्रसन्न हूं। और जो मित्र गए थे उन्होंने देखा कि वह आदमी एक अदभुत ऊर्जा से, एक अदभुत आभा से भरा था। सूख गया था शरीर उसका, लेकिन एक रोशनी थी। उसने कहा, मैं किसी से नाराज नहीं हूं। मेरी पत्नी को कहना, मैं किसी से नाराज नहीं हूं। सब ठीक था। मैं बिलकुल, जैसा जिसको हम सुखी-संपन्न कहते हैं, वैसा आदमी था। मेरे बच्चे ठीक हैं, मेरे बेटे ठीक हैं, मेरी पत्नी ठीक है। सब ठीक था।

लेकिन सब ठीक से कहीं कुछ होता? ठीक से कुछ ज्यादा चाहिए। ठीक से क्या होगा? ऐसे तो ठीक-ठीक-ठीक, और मर जाएंगे। सुविधापूर्वक जी लिए और मर गए। नाच तो पैदा ही न हुआ। जीवन में फूल तो खिले ही नहीं।

लौटा नहीं वापस। बड़ा चित्रकार बन गया।

इसे मैं संन्यास कहता हूं। न उसने गैरिक वस्त्र पहने, न वह किसी आश्रम में गया लेकिन इसे मैं संन्यास कहता हूं। संन्यास का अर्थ हुआ, साहस इस बात का कि अगर दिखाई पड़े कि मेरा जीवन मरुस्थल में खोया जा रहा है तो अपनी राह बदल लेने की। चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े।

आदमी कमजोर है। वह सुविधा से जीता है। चाहे कुछ न मिले, लेकिन सुविधा तो है, सुरक्षा तो है। कुछ न मिले!

इसलिए ये सारे प्रश्न उठते हैं कि एकाग्रता कैसे सधे? तो पहले तो कोशिश करना। सध जाए तो शुभ। चेष्टा करने से पचास प्रतिशत मौके हैं, सध जाएगी। न सधे तो हिम्मत करना। देर मत लगाना, क्योंकि जिंदगी रोज हाथ से सरकी जाती है। जिंदगी उन्हीं की है, जो हिम्मत से जिंदगी को बदलने के लिए तैयार होते हैं। नहीं तो जिंदगी बह जाती है। चिकने घड़े के ऊपर जैसे वर्षा का जल बह जाता है, कुछ भरता-करता नहीं। या उल्टे घड़े पर जैसे वर्षा गिरती रहती है–टप-टप। बहुत आवाज, शोरगुल मचता है लेकिन घड़ा खाली का खाली रहता है। उल्टा रखा है।

तो जरा गौर से देखना। तुम्हारा घड़ा अगर भरता न हो तो कहीं उल्टा तो नहीं रखा है?

तो न तो मौलिक सवाल ध्यान का है, न भजन का है; मौलिक सवाल समझ का है। मन के स्वभाव को समझो।

एकाग्रता की बात ही मत उठाओ, रसमयता की बात उठाओ। रसमयता के पीछे-पीछे तुम पाओगो, एकाग्रता घूंघर बजाती हुई चली आती है।

दूसरा प्रश्न:

बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ यहां आ गई। इरादा था कि यहां से दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया। और अब ऐसा लगने लगा कि जैसा पहले कभी नहीं लगा था। जिस किनारे पर अब तक खड़ी थी वह किनारा ओझल हो गया है आंख से; और अब तो आप ही मेरे कृष्ण बन गए हैं, जिनकी मैं आराधना करती थी। और यह विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान मिला यहां, वह कायम रहेगा। और पुकारने पर आप सदा आते रहेंगे।

“मेरे तो रजनीश ही दूसरो न कोई।’

पूछा है त्रिवेणी ने। नई-नई महिला, नया-नया उसका आना हुआ है। लेकिन जैसे बहुत दिन का प्यासा जल के पास आ जाए, दिल खोलकर पी ले, ऐसा उसने पीया है।

तो कभी-कभी ऐसा होता है, जो मुझे बहुत सुनते रहे, वे खाली हाथ रह जाते हैं। और ऐसा भी होता है, कभी-कभी कोई नया व्यक्ति एकदम भरपूर हो उठता है। प्यास पर निर्भर है।

त्रिवेणी कोई पढ़ी-लिखी महिला नहीं है, ग्रामीण है; गैर-पढ़ी लिखी है। पर हृदय उसका बड़ा पढ़ा-लिखा मालूम होता है–“ढाई आखर प्रेम के।’ बुद्धि का कोई शिक्षण नहीं हुआ है लेकिन हृदय जीवंत है।

तो घटना बड़ी सरलता से घट गई है। पति-पत्नी दोनों यहां हैं। लक्ष्मी मुझे कहती थी कि दोनों दिनभर रसविमुग्ध बैठे रहते हैं। जाते ही नहीं आश्रम से। खोए-खोए! जैसे कुछ मिल गया है–कोई खजाना। भरोसा भी नहीं हो रहा है कि मिल गया है। इतने अचानक मिला है। विश्वास भी नहीं आता कि मिल गया है। हटते भी नहीं। कहीं जाते भी नहीं। ठगे-ठगे!

त्रिवेणी मुझे मिलने आयी थी। कुछ कहा नहीं उसने। कुछ कहने को उसके पास है भी नहीं। यह प्रश्न भी किसी दूसरे से लिखवाया होगा। यह प्रश्न भी किसी और ने तैयार किया होगा। लेकिन वह मौजूद रही, बैठी रही। और बैठे-बैठे उसने जो कहना था, कह दिया–बिना कहे। उसकी मौजूदगी से उसने अपने भाव अर्पित कर दिए। अपना भाव-सुमन चढ़ा दिया।

लोग आते हैं, बहुत बात कर जाते हैं और बिना कुछ कहे भी चले जाते हैं। आए, बकवास कर जाते हैं। त्रिवेणी आयी, बैठी रही चुपचाप एक तरफ। न कुछ बोली, न पास पैर छूने आयी। मगर उसने छू लिए पैर। गहन भाव की बात है।

यह प्रश्न कई तरह से सोचने जैसा है। पहली बात: “बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ यहां आ गई।’

ऊपर से जिसे हम उद्देश्य कहते हैं, ऊपर से जिसे हम चेष्टापूर्वक खोज कहते हैं, वह बड़ी उथली है। भीतर एक निरुद्देश्य खोज चल रही है। वह जन्मों-जन्मों से चल रही है। हमें कभी पता भी नहीं होता कि कहां किस द्वार पर हमारे लिए द्वार खुल जाएंगे! हमें पता भी नहीं होता कि कहां किस घड़ी में जीवन को शरण मिल जाएगी। शायद हम चेष्टा करके उसकी खोज भी नहीं कर रहे थे। अकस्मात घटता है। अक्सर चेष्टा करनेवाले लोग वंचित रह जाते हैं। क्योंकि चेष्टा में अहंकार है।

मेरे पास दो तरह के लोग आते हैं। एक, जो जान-बूझकर धर्म की खोज में निकले हैं। उनके साथ बड़ी अड़चन है। वे सब आश्रमों में हो आए हैं। सब गुरुओं के पास हो आए हैं, सब शास्त्र पढ़ लिए हैं। कहीं कुछ नहीं होता।

जब ऐसा व्यक्ति मेरे पास आता है तो मैं जानता हूं, होना बहुत मुश्किल है। उसकी सचेष्ट-आकांक्षा ही बाधा बन रही है। उसकी आकांक्षा के कारण ही वह बंद है।

दूसरे तरह के लोग हैं, जो कभी निरुद्देश्य आ जाते हैं। अकारण! वे ज्यादा खुले होते हैं। कुछ पाने की खोज नहीं होती। कुछ पाने की अपेक्षा नहीं होती। मन ज्यादा खुला होता है। सरलता से चीजें घट जाती हैं।

तुम इसे समझने की कोशिश करना। जो-जो तुमने उद्देश्यपूर्वक खोजा है, उसे तुम कभी न पा सकोगे। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह उद्देश्यपूर्वक खोज से नहीं मिलता। आनंद, सत्य, प्रभु, कोई भी सीधी खोज से नहीं मिलते। आकस्मिक घटते हैं। अनायास घटते हैं। प्रसादरूप मिलते हैं।

कोई मित्र तुमसे कहता है कि मैं तैरने जाता हूं नदी में, बड़ा आनंद आता है। तुम कहते हो, तो हम भी आएंगे। आनंद की तो हम भी तलाश कर रहे हैं। बस, गड़बड़ हो गई। तुम्हें न मिलेगा! क्योंकि तुम तैरोगे ही नहीं। एक हाथ मारोगे और सोचोगे, आनंद अभी तक नहीं मिला। कब मिलेगा अब? आधी नदी पार भी हो गई, अभी तक आनंद नहीं मिला? अब तुम उदास होने लगोगे।

क्योंकि आनंद मिलता है तब, जब तुम तैरने में परिपूर्ण लीन हो जाते हो। तुम भूल ही जाते हो। आनंद इत्यादि की बकवास भूल जाते हो। अचानक तुम पाते हो, मिला। क्योंकि तुम्हारे खोने में ही आनंद है। और तो कोई आनंद नहीं है। तुम नदी भी पार कर लेते हो, तैर भी जाते हो। मित्र से कहते हो, हमें तो कुछ मिला नहीं। तुम कहते थे, बड़ा आनंद मिलता है।

ऐसे कभी-कभी तुम किसी को यहां मेरे पास ले आते हो, कहते हो चलो, सुनने में बड़ा आनंद आता है। बस, तुम गड़बड़ में उसको डाल रहे हो। यह तो भूलकर कहना ही मत कि सुनने में बड़ा आनंद आता है। क्योंकि आनंद का लोभ सभी को है। वह भी सोचेगा कि चलो, आनंद की तो खोज हम भी कर रहे हैं। अगर सुनने से ही आनंद मिलता है, इतना सस्ता मिलता है, चले चलते हैं। क्या बिगड़ता है? सुन ही लें।

मगर वह पूरे समय बैठा है, देख रहा है किनारे से। जैसे तुमने देखा हो, बिल्ली बैठी रहती है, चूहे की राह देखती रहती है। ऐसे लगती है बिलकुल शांत बैठी है, ध्यान कर रही है। ऊपर से देखो तो ऐसा लगता है, बड़ी महावीर बनी बैठी है, ध्यान-मग्न; लेकिन उसकी नजर लगी है चूहे की पोल पर कि कब निकले! अभी तक नहीं निकला, अब निकले। बड़ी देर हुई जा रही है, भूख बढ़ती जा रही है।

तो वह जो आदमी आ गया है सुनने, इसलिए कि आनंद मिलेगा, वह आनंद के चूहे पर लगाए नजर बैठा है। और ध्यान रखना, बिल्ली की नजर से चूहा डरता है। निकलता ही नहीं। वह भी अंदर से देख लेता है कि कहीं कोई ध्यानमग्न तो नहीं बैठा है! अगर बैठा है तो खतरा है। चूहे भी बिल्ली के पास नहीं आते। कितना ही ध्यान करो! क्योंकि चूहे कहते हैं, सौ-सौ चूहे खाए हज को चली। इतने चूहे खा चुकी है, इसका भरोसा चूहों को नहीं आता कि यह ध्यान में बैठी होगी।

आनंद बड़ी नाजुक घटना है। तुम जब बिलकुल बेखबर होते हो, मस्त होते हो, तब तुममें प्रवेश कर जाता है। सामने के द्वार से आता ही नहीं, पीछे के द्वार से आता है। ऐसा ढोल इत्यादि बजाकर आता ही नहीं। चुपचाप, पगध्वनि भी नहीं होती ऐसे चला आता है।

तो अक्सर जो आकस्मिक रूप से आ गए हैं…।

तुमको मैं कहता हूं, अपने मित्रों को कभी मत कहना कि बड़ा आनंद मिलता है, चलो। नहीं तो तुम उसके कारण बाधा बन जाओगे। तुम ही बाधा बन जाओगे। वे आएंगे और आनंद नहीं मिलेगा तो वे कहेंगे, तुमने धोखा दिया। और तुम्हें भी क्या खाक मिलता होगा, जब हमको नहीं मिला। सुना तो हमने भी वही, सुना तुमने भी वही। हमें तो कुछ भी न मिला। तो तुम नाहक की बातें करते हो।

नहीं, त्रिवेणी को हो गया होगा। वह यहां आने के लिए आयी ही न थी। जाते थे पति-पत्नी दक्षिण की यात्रा को, पूना बीच में पड़ गया। सोचा होगा चलो, यहां भी देखते चलो। मगर कोई खोज नहीं थी। ऐसी कोई चेष्टा नहीं थी। ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं थी कि आनंद मिलेगा कि रसधार बहेगी कि बादल उमड़ेंगे-घुमड़ेंगे कि बिजली चमकेगी। ऐसा कुछ खयाल ही न था। इतनी सरलता से कोई आ जाता है तो घटना घट जाती है।

सरलता से आना मुश्किल है। क्योंकि जो सरल हैं, वे आएं क्यों? जो जटिल हैं वे आते हैं। जटिल को मिलना मुश्किल। जो खोज रहा है वह आता है। जो खोज नहीं रहा वह आता नहीं। जो खोज रहा है उसको मिलता नहीं।

तो कभी-कभी जब न खोजनेवाला आ जाता है सत्संग में, तो घटना घट जाती है।

“बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति को साथ आ गई।’

इसीलिए कुछ हो गया। अपेक्षा न हो तो जीवन में बड़ी घटनाएं घटती हैं। जो-जो तुमने अपेक्षा बांधी, वही-वही नहीं घटेगा। अपेक्षा के कारण ही घटना बंद हो जाता है।

तुमने देखा! किसी से प्रेम हो जाता है, खूब रस बहता है। लेकिन यह थोड़े दिन ही चलता है। यह हनीमून भी पूरा होतेऱ्होते चल जाएगा, संदिग्ध है। यह सुहागरात पर ही समाप्त हो जाता है। उसी स्त्री से, उसी पुरुष से बड़ा रस मिला था। फिर क्या हो जाता है?

अपेक्षा नहीं थी, जब मिला था। तब तुमने सोचा न था कि मिलेगा। तब तुम सचेत रूप से खोज नहीं रहे थे, मांग नहीं रहे थे; मिला था। फिर सचेत रूप से मांगने लगे। अब तुम कहते हो रोज-रोज मिलना चाहिए। अब तुम कहते हो, आज नहीं मिला, बात क्या है? कोई धोखा चल रहा है?

अब तुम मांग करते हो। अब तुम दावेदार बन गए। अब तुम मुकदमा लड़ने को तैयार हो। अब तुम कलह करते हो पत्नी से कि आज सुख नहीं दिया। या फिर तुम्हें संदेह होता है कि क्या पत्नी अब धोखा देने लगी? या कभी-कभी यह भी संदेह होता है क्या पहले-पहल धोखा दिया था? क्या मैं कोई सपने में खो गया था?

कुछ भी नहीं हुआ है। एक जीवन की छोटी-सी घटना तुम नहीं समझ पा रहे हो। जब पहली दफा किसी स्त्री या किसी पुरुष से मिले थे तो मिलने में कोई भी अपेक्षा न थी–निरपेक्ष। घटना आकस्मिक घट गई थी। लेकिन अब अपेक्षा है।

ऐसा हर तरफ होता है। पहली दफा ध्यान में लोगों को कभी-कभी ऐसी अनुभूति आती है। फिर कठिन हो जाता है। क्योंकि फिर दूसरे दिन ध्यान नहीं करते। फिर तो वे थोड़ा हिलते-डुलते हैं, और भीतर तैयार रहते हैं कि अब हो…अब हो…अब हो। नहीं होता। क्योंकि जब पहली दफा हुआ था तो “अब हो, अब हो’ ऐसी कोई आवाज भीतर नहीं थी। अब तुमने एक नई चीज जोड़ दी, जो बाधा बन रही है।

इधर मेरे हजारों लोगों पर ध्यान-प्रयोग करने के जो नतीजे हैं, उनमें एक नतीजा यह है कि पहली दफा जैसी झलक मिलती है, फिर बड़ी कठिन हो जाती है। फिर जब तक वह पहली झलक भूल नहीं जाती, दूसरी झलक नहीं मिलती। कभी महीनों लग जाते हैं भूलने में। जब बिलकुल हारऱ्हारकर आदमी सोचता है, कि अरे! वह भी मिली न होगी। कल्पना कर ली होगी। जब पहली झलक भूल जाती है तब दूसरी झलक मिलती है। दूसरी, तीसरी, चौथी झलक के बाद यह समझ में आना शुरू होता है कि मैं जो मांग रहा था, वह बाधा बन रही थी।

निरुद्देश्य आने से ही कुछ हुआ। अब ऐसी निरुद्देश्यता को कायम रखना। अब खतरा है। त्रिवेणी पूछती है कि घर जाकर यह ध्यान कायम रहेगा न? अब खतरा है। जो हुआ है, बिना मांगे हुआ है। अब भी क्यों मांगना? जब अभी बिना मांगे हो गया है तो फिर भी बिना मांगे होता रहेगा।

अब खतरा है। अब खतरा यह है कि जो रस उसे मालूम हुआ है, अब वह चाहेगी कि वह घर पर कायम रहे। लौट-लौटकर उसको फिर पाना चाहेगी। इस चाह से ही मर जाएगा। अब निरुद्देश्य न रही त्रिवेणी। अब त्रिवेणी को उद्देश्य मिल गया। अब दुबारा अगर वह पूना आएगी तो भी खतरा है। जरूर आएगी। आना पड़ेगा उसे। क्योंकि वह जो रस मिला, अब उसकी वासना जगेगी। अब वह बार-बार आएगी। अब मैं भी उससे डरा हूं। क्योंकि जब वह बार-बार आएगी और न पाएगी तो मुझ पर नाराज होगी।

इसलिए अभी से सावधान कर देता हूं। बात ही छोड़ो। जैसी आयी थी निरुद्देश्य, ऐसी ही घर वापस लौट जाओ। जैसे निरुद्देश्य मन से मुझे यहां चाहा, मुझे प्रेम किया, ऐसे ही घर पर भी करना। आनंद मत मांगना, ध्यान मत मांगना। मांगना ही मत कुछ। घटेगा। खूब-खूब घटेगा। जितना घटा है वह तो सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी एक झाला आया है। अभी तो मूसलाधार वर्षा होगी। मगर मांगना मत। यह तो सिर्फ शुरुआत है। और जब दुबारा यहां आओ तो अपेक्षा लेकर मत आना। फिर ऐसे ही आ जाना। कठिन होगा। क्योंकि इस बार तो निरुद्देश्य आना स्वाभाविक हुआ था। अब दूसरी बार बड़ा कठिन होगा। लेकिन अगर समझा कि पहली दफा निरुद्देश्य जाने से घट गया था तो अब उद्देश्य लेकर क्यों जाएं?

चले आना, जब आने की सुविधा बने। यह सोचकर मत आना कि वहां जाकर खूब आनंद होगा; कि वहां खूब ध्यानमग्नता आएगी; कि डूबेंगे। यह सोचकर ही मत आना। फिर ऐसे आना जैसे अजनबी हो। फिर घटेगा। जितना घटा उससे बहुत ज्यादा घटेगा। और इस सूत्र को अगर समझ लिया तो घटता ही रहेगा।

परमात्मा शुरू होता है, अंत कभी भी नहीं होता। हमारे पात्र भर जाते हैं, फिर भी बरसता रहता है। पात्र ऊपर से बहने लगते हैं, फिर भी बरसता रहता है। बाढ़ आ जाती है, बरसता ही रहता है। लेकिन अड़चन खड़ी होती है कि जैसे ही हमने अपेक्षा की कि हम सिकुड़े। हमारा पात्र बंद हुआ। हम अपात्र हुए।

“बिना किसी उद्देश्य के यहां आ गई। इरादा कुछ और था–दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया…।’

ठीक कहती है। संन्यास एक तरह का पागलपन है। संन्यास एक तरह की मस्ती है। हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर है। तर्क-वितर्क की दुनिया के बाहर है। सोच आदि को जो एक किनारे हटाकर रख देता है वही संन्यस्त होने का अधिकारी है। जो कहता है, लोक-लाज खोई। जो कहता है, अब फिक्र नहीं कि लोग क्या कहेंगे। जो कहता है, दूसरों के मत का अब कोई प्रभाव नहीं। अब हम अपने ढंग से जीएंगे। जीवन हमारा है, हम अपने ढंग से जीएंगे, अपने ढंग से नाचेंगे। न हम किसी को जोर-जबर्दस्ती करते कि वह हमारे ढंग का हो। न हम किसी को जोर-जबर्दस्ती करने देंगे कि हम उसके ढंग के हों। न हम किसी को दबाएंगे, न हम दबेंगे।

संन्यास बड़ी गहरी उदघोषणा है। वह इस बात की उदघोषणा है कि अब न तो मैं किसी पर आग्रह थोपूंगा अपना कि वह मेरे जैसा हो, और न मैं चाहूंगा कि कोई चेष्टा करे मुझे अपने जैसा बनाने की। तो न तो मैं किसी का मालिक बनूंगा, और न किसी को मालिक बनने दूंगा। न मैं किसी की स्वतंत्रता छीनूंगा, और न किसी को मेरी स्वतंत्रता छीनने दूंगा।

दोहरी उदघोषणा है संन्यास। अब जो मेरी मौज है, वैसे ही जीऊंगा। यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अपनी मौज में किसी को कष्ट दो। क्योंकि कष्ट देने का तो अर्थ हुआ, उदघोषणा इकहरी हो गई। तुम दूसरे पर अपने को थोपने लगे।

जीवन के परम रहस्यों में एक है कि न तो दूसरे के जीवन में बाधा देना और न किसी को अवसर देना कि तुम्हारे जीवन में बाधा दे। बड़ा कठित है। आसान है बात, या तो दूसरे के जीवन पर हावी हो जाओ, दूसरे की छाती पर बैठ जाओ, मूंग दलो; यह आसान है। या दूसरे को अपनी छाती पर बैठ जाने दो, वह मूंग दले, यह भी आसान है। और यही अक्सर घटता है। या तो तुम किसी की छाती पर मूंग दलोगे, या कोई तुम्हारी छाती पर मूंग दलेगा। इसलिए मैक्यावेली ने कहा है, इसके पहले कि दूसरा तुम्हारी छाती पर मूंग दले, देर मत करो; उचको, झपटो, बैठ जाओ दूसरे की छाती पर, तुम मूंग दलना शुरू करो। नहीं तो कोई न कोई तुम्हारी छाती पर दल देगा।

मैक्यावेली कहता है, रक्षा का एकमात्र उपाय आक्रमण है। इसके पहले कि कोई हमला करे, तुम हमला कर दो। राह मत देखो कि वह करेगा, फिर रक्षा कर लेंगे। क्योंकि जिसने राह देखी वह तो पिछड़ गया।

तो दुनिया में ऐसा ही हो रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। तो या तो बड़ी मछली बनो या छोटी मछली बनोगे। और क्या करोगे?

साधारण हैं दोनों बातें। यही हो रहा है। यही कलह है, यही संघर्ष है–देशों में, जातियों में, व्यक्तियों में, सारे संबंधों में। पति पत्नी पर हावी होना चाहता है कि वह मेरे ढंग से चले।

एक पत्नी मेरे पास आती है। वह कहती है पति को बस, किसी तरह शराब रुकवा दें। और कुछ भी करे, मगर शराब न पीये। मैंने पूछा उसको कि सच में तू शराब के इतने विपरीत है या अपनी चलाने का आग्रह है? क्योंकि तेरे पति को मैं जानता हूं। भला आदमी!

और शराबी अक्सर भले आदमी होते हैं। खतरा तो उनसे है, जो माला इत्यादि लिए बैठे हैं। उनमें भले आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। वे अक्सर दुष्ट प्रकृति के लोग होते हैं। शराबी तो अक्सर भले आदमी होते हैं।

तेरे पति को मैं जानता हूं, भला आदमी है। ऐसे किसी को कुछ गड़बड़ भी नहीं करता। वह कहती है, ऐसे तो कुछ गड़बड़ नहीं करते, पीकर ऐसा कुछ खराब भी नहीं करते। सिर्फ आपका प्रवचन देते हैं पीकर–दो-दो तीनत्तीन घंटे! ऐसी कोई बुरी बात भी नहीं कहते। ज्ञान की बातें करते हैं। तो मैंने कहा, हर्जा क्या है? वे मेरा ही प्रवचन देते हैं। बात तो यही कहते हैं। बात भी बिलकुल दोहराते हैं। जब वे पी जाते हैं तो शब्द शब्द दोहराते हैं, भाव-भंगिमा दोहराते हैं। तो फिर मैंने कहा, हर्ज क्या है? तू समझना कि टेप रिकार्ड लगाया है। सुन लिया कर।

नहीं, मगर वह कहती है, यह ठीक नहीं है। मैंने कहा, एक काम कर। तीन महीने…कितने दिन से तेरे पति पीते हैं? वह कहने लगी, कोई बीस साल से। मैंने कहा, बीस साल की आदत है, छूटते-छूटते छूटेगी। मगर तू एक काम कर। तू तीन महीने कहना छोड़ दे। तू तो कोई शराब नहीं पीती, सिर्फ कहती है कि मत पीयो। और बीस साल का अनुभव है कि वे सुनते नहीं। कहने में कुछ सार भी नहीं है। तीन महीने के लिए तू कहना छोड़ दे।

उसने पांच-सात दिन के बाद आकर कहा कि असंभव। मेरी भी बीस साल की आदत है। यह नहीं हो सकता। इससे मुझे बड़ी बेचैनी होती है, इसलिए नहीं कह सकती। इसकी तो आप मुझे छुट्टी दे दें।

तो मैंने कहा, अब तू सोच। तेरे पति की तो शराब की आदत है बीस साल की। कैसे छूटेगी? तुझे सिर्फ कहना रोकना है, वह भी नहीं छूटता। वह भी तेरी शराब हो गई।

और मजा तुझे अंदाज में नहीं है, अगर मैं तेरे पति को राजी कर लूं और वे शराब न पीयें तो तू दुखी हो जाएगी। क्योंकि तेरा सारा रस यही है। पति को तूने दीनऱ्हीन कर दिया है। तेरी मालकियत कायम हो गई शराब पीने के कारण। ऐसे पति सब तरह से ठीक हैं। अगर शराब छोड़ दें तो तेरी मालकियत खतम हो जाएगी। तू ऊंची हो गई है, पति को नीचा बना लिया है। पति तुझसे डरते हैं, तू डराती है। अगर तेरे पति ने शराब छोड़ी तो वे तुझे डराएंगे। इसकी तू तैयारी कर ले।

जीवन में हम या तो डरते हैं या डराए जाते हैं। हम अच्छे-अच्छे बहाने खोज लेते हैं डराने के। और हम अगर डराए जाते हैं तो भी हम अच्छे-अच्छे तर्क ले लेते हैं कि हम क्यों डर रहे हैं। हम कहते हैं कि वह बात ठीक ही है, इसलिए हम डर रहे हैं। संन्यास का अर्थ इन दोनों स्थितियों के पार जाना है। संन्यास का अर्थ है, न तो हम डराएंगे किसी को; क्योंकि हम कौन हैं? और न हम किसी से डरेंगे। न तो हम किसी को उसके मार्ग से विचलित करेंगे, न हम अपने मार्ग से विचलित होंगे।

इसका अर्थ हुआ, संसार से संबंध छोड़ा। क्योंकि संसार में दो ही तरह के संबंध हैं–या तो डराए जाओ, या डराओ। अगर तुम मेरी बात समझो तो पत्नी को छोड़कर नहीं जाना, दुकान छोड़कर नहीं जाना, घर छोड़कर नहीं जाना। संसार से संबंध छोड़ने का यह सार है कि मत डरना किसी से और मत डराना किसी को। तुम संसार के बाहर हो गए। क्योंकि इन दोनों में ही संसार बंटा है। तब तुम न बड़ी मछली रहे, न छोटी मछली रहे। तुम मछली ही न रहे। तुम संसारी न रहे।

बड़ी हिम्मत चाहिए। रास्ता कठिन होगा क्योंकि तुम अचानक अकेले पड़ जाओगे। और तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा दांव पर लग जाएगी। क्योंकि जिनने प्रतिष्ठा दी थी, वे प्रतिष्ठा खींच लेंगे वापस। उन्होंने कुछ शर्तों से प्रतिष्ठा दी थी। वे कहते थे, तुम बड़े बुद्धिमान हो, अब न कहेंगे। वे कहते थे, तुम बड़े होशियार हो, अब न कहेंगे। अब तो वे कहेंगे, तुम पागल हो गए, सम्मोहित हो गए। किसके जाल में पड़ गए! तुमने अपनी बुद्धि गंवा दी। अब तो वे तुम पर संदेह करेंगे।

तो तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा कठिनाई में पड़ जाएगी। संन्यास महंगा सौदा है। पागल ही कर सकते हैं।

त्रिवेणी ठीक कहती है कि “यहां आकर संन्यास ले लिया। ऐसी पागल हो गई कि संन्यास ले लिया। और अब आप ही मेरे कृष्ण बन गए हैं।’

जहां प्रेम हो गया वहीं कृष्ण का आविर्भाव हो जाता है। कृष्ण से थोड़े ही प्रेम होता है! जहां प्रेम होता है, वहीं कृष्ण का आविर्भाव हो जाता है। यही कठिन बात है।

अगर तुम किसी दूसरे को सिद्ध करोगे कि मुझे कृष्ण के दर्शन हो गए तो वह हंसेगा। उसका हंसना भी ठीक है। वह कहेगा, हमें तो कोई कृष्ण के दर्शन होते नहीं; तुम्हें कैसे हो गए? कुछ भ्रांति हो गई होगी।

वह भी ठीक है। क्योंकि कृष्ण के दर्शन तो प्रेम में होते हैं; प्रेम की आंख हो तो होते हैं। और प्रेम की आंख हो तो कुछ और ही होने लगता है, जो इस जगत में होता ही नहीं।

मोहब्बत में कदम रखते ही गुम होना पड़ा मुझको

निकल आयीं हजारों मंजिलें एक-एक मंजिल से

अगर प्रेम की आंख खुली, कि एक दूसरा ही लोक खुला। हजारों मंजिलें खुल जाती हैं। इधर प्रेम की आंख बंद हुई कि सब बंद हो जाता है।

कृष्ण दिखाई पड़ सकते हैं, जहां तुम्हारा प्रेम जग जाए। प्रेम कृष्ण को निर्मित करता है। प्रेम कृष्ण का आविष्कार करता है।

तो तुम्हारा प्रेम जगा, इसे स्मरण रखना। और इस प्रेम को मुझ पर ही मत रोक लेना। इसे और बढ़ाना, कि धीरे-धीरे कृष्ण सब जगह दिखाई पड़ने लगें। जो घटना तुमने मुझ पर घटा ली है, वह तुम्हारी प्रेम की आंख के कारण घटी है। इसी आंख से वृक्ष को देखना। तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं हरे-भरे। इसी आंख से पहाड़ को देखना तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं। कैसे आकाश को छूते शिखर। हिमाच्छादित! कृष्ण खड़े हैं।

तुम इसी प्रेम की आंख से देखते चले जाना, तो हर जगह कृष्ण दिखाई पड़ेंगे। यह प्रेम की आंख जो पैदा हुई है, यह बढ़ती जाए, यह मुझ पर रुके न। क्योंकि रुक जाए तो खतरा हो जाता है। रुकने से संप्रदाय बन जाता है। बढ़ने से धर्म, रुकने से संप्रदाय।

तुमने अगर यह जिद्द की कि यही आदमी कृष्ण है, और कोई कृष्ण नहीं–तो बस, जल्दी ही यह प्रेम मर जाएगा। क्योंकि प्रेम फैलता रहे तो जीता है। प्रेम बढ़ता रहे तो जीता है। प्रेम सिकुड़ जाए तो मरने लगता है। तुमने गर्दन पर फांसी लगा दी। जैसे किसी की गर्दन दबा दो और कोई मर जाए, ऐसा प्रेम को सिकोड़ना मत, अन्यथा मर जाएगा। फिर एक दिन तुम पाओगे कि मुझमें भी दिखाई नहीं पड़ेंगे कृष्ण।

इसलिए यह जो मौका मिला, यह जो पलक थोड़ी खुली, इसको और खोलते ही चले जाना।

“…अब यह विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान यहां मिला है, वह कायम रहेगा।’

यह बात छोड़कर जाओ। यह साथ लेकर मत जाओ। यह रहेगा कायम, लेकिन तुम यह बात यहीं छोड़ जाओ। तुम यह बात ही मत उठाओ। यह विश्वास खतरनाक है। यह विश्वास तो इस बात की सूचना है कि अविश्वास आना शुरू ही हो गया। डर लगने लगा मन में कि अब घर वापस जाना है। पता नहीं जो यहां हो रहा था, वह वहां होगा या नहीं होगा। तुम्हारा घर परमात्मा के उतने ही निकट है जितना यहां। सभी घर उसके हैं। सभी जगह वही है।

तुम यह विश्वास ही उठाने का मतलब हुआ कि कहीं गहरे में अविश्वास आने लगा कि अब जाती हूं घर, अब पता नहीं जो हुआ है, वह साथ जाएगा या नहीं? फिक्र छोड़ो। विश्वास की कोई जरूरत नहीं है।

तुम आनंदमग्न, नाचती, गीत गुनगुनाती वापस जाओ। तुम्हारे गीतों में बंधा हुआ, जो यहां घटा है वह तुम्हारे साथ चला आएगा। अपेक्षाशून्य! जैसे निरुद्देश्य आना यहां हुआ था, ऐसे ही निरुद्देश्य वापस चली जाओ। दूर न जा पाओगी।

याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई

काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए

कभी नहीं हो पाते दूर। प्रेम की झलक मिल जाए…।

याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई।

फिर दिल कभी भूलता ही नहीं। दिल में घट जाए, एक दफा दिल में झंकार हो जाए, फिर दिल कभी भूलता ही नहीं।

याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई

काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए

फिर तुम जाओ कितने ही दूर–पृथ्वी के किसी दूर के कोने पर भी, तो भी घर से दूर न हो पाओगे। वह घर परमात्मा है, जिससे हम कभी दूर नहीं हो पाते।

एक दफा पुलक आ जाए, झलक आ जाए। वह झलक आयी है। इसलिए विश्वास इत्यादि की बात मत उठाओ। विश्वास तो थोथी चीज है। विश्वास तो अविश्वास को ढांकने का उपाय है। विश्वास तो शंका को छिपाने की व्यवस्था है। विश्वास तो संदेह को लीपापोती करना है।

तुम जैसी निरुद्देश्य यहां आयी थीं, बिना किसी भाव के; कुछ पता न था क्या घटेगा, ऐसे ही वापस जाओ बिना कुछ पता लिए कि क्या घटेगा। बहुत कुछ घटने को है। मैं तुमसे पहले तुम्हारे घर पहुंच गया हूं।

“…जो ध्यान यहां मिला वह कायम रहेगा और पुकारने पर आप सदा आते रहेंगे?’

तुम फिक्र ही न करो। कभी-कभी बिना पुकारने पर भी आऊंगा। द्वार पर दस्तक दूं तो घबड़ाना मत। कभी अचानक सामने खड़ा हो जाऊं तो घबड़ाना मत।

प्रेम न तो समय जानता, न स्थान जानता। क्षेत्र और काल दोनों के पार है।

दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की

तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की

ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल

रोके जो रुकती नहीं आहें दिल की

दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की–वे प्रेम के रास्ते सदा ही खुले हुए हैं। अपेक्षा से बंद हो जाते हैं। द्वार बंद हो जाता, भिड़ जाता। अपेक्षा भर मत ले जाओ। प्रफुल्लता से, मग्न-भाव से जाओ।

दिन-रात खुली रहती है राहें दिल की

तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की

दिल की निगाह के लिए कोई भौतिक उपस्थिति जरूरी नहीं है। दिल की आंख दूर से देख लेती है। और दिल की आंख न हो तो पास से भी नहीं देख पाती। दिल की आंख न हो तो आदमी अंधे की तरह आता, अंधे की तरह चला जाता।

ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल

आता हूं तुम्हारे साथ। लेकिन तुम्हारी अपेक्षा रही तो न आ पाऊंगा। अपेक्षा छोड़ दो। अपेक्षा का त्याग कर दो। आता हूं तुम्हारे साथ एक तसव्वुर की तरह, एक भाव की तरह, एक भक्ति की तरह।

ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल

रोके जो रुकती नहीं आहें दिल की

रोना! अपेक्षा मत ले जाओ।

हंसना! अपेक्षा मत ले जाओ।

गाना, नाचना, चुप होकर बैठ जाना। अपेक्षा मत ले जाओ। सहज होना; सहजस्फूर्त। और फिर संबंध नहीं टूटता है।

तू सोज-ए-हकीकी है मैं परवाना हूं

तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं

तू रूह है मैं जिस्म हूं

तू अस्ल है मैं नक्ल

जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं

भक्त कहता है:

तू सोज-ए-हकीकी है, मैं परवाना हूं

तू है सत्य का दीया, मैं हूं पतिंगा, परवाना। तुझ पर जलने को आता हूं।

तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं

–तू फूलों के रंग जैसी शराब है, मैं तेरा पात्र हूं।

तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं

तू रूह है मैं जिस्म

–तू है आत्मा, मैं शरीर।

तू अस्ल है मैं नक्ल

भक्त अपने को पोंछ देता है, मिटा देता है। अपेक्षा रखोगे तो तुम रहोगे। क्योंकि अपेक्षा तुम्हारी है; तुम्हारे अहंकार की, अस्मिता की है। अपेक्षाएं हटा दो। अपेक्षाओं के गिरते ही तुम्हारा अहंकार गिर जाएगा।

तू रूह, मैं जिस्म

तू अस्ल, मैं नक्ल

तब भक्त नक्ल हो जाता है, नकल हो जाता है। वह कहता है तेरी छाया, प्रतिबिंब; दर्पण में बनी तेरी प्रतिछवि।

तू अस्ल, मैं नक्ल

जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं

ज्यादा से ज्यादा वह कहानी हूं, वह गीत हूं, जिसमें तेरा बयान है। अपने को पोंछो। अपने को हटाओ। उसी ढंग से परमात्मा के लिए जगह बनती है।

तो मैं कहता हूं, त्रिवेणी, घर जाओ–खाली, शून्यवत। कोई अपेक्षा नहीं, कोई अतीत अनुभव की स्मृति नहीं। जो हुआ है वह फिर-फिर हो, ऐसी वासना नहीं–शून्य! उस शून्य में ही उसका दीया उतर आएगा; उसकी रोशनी भरेगी।

तू वादा-ए-गुलरंग मैं पैमाना हूं

यह शून्यता ही तुम्हें पात्र बना देगी। फूलों के रंगों जैसी शराब, परमात्मा की मस्ती उसमें उतरेगी और भरेगी। तुम मिटोगे तो परमात्मा हो सकता है।

तीसरा प्रश्न:

कथा कहती है कि श्री कृष्ण भगवान ने जब सिरदर्द मिटाने के लिए भक्तों से उनकी चरणधूलि मांगी, तब सबने इंकार कर दिया, लेकिन गोपियों ने चरणधूलि दी। प्रभु, इस प्रसंग का रहस्य बताने की कृपा करें।

रहस्य बिलकुल साफ है। बताने की कोई जरूरत नहीं है। सीधा-सीधा है। दूसरे डरे होंगे। दूसरों की अस्मिता रही होगी, अहंकार रहा होगा।

अब यह बड़े मजे की बात है। अहंकार को विनम्र होने का पागलपन होता है। अहंकार को ही विनम्र होने का खयाल होता है। तो जो दूसरे रहे होंगे, उन्होंने कहा, पैर की धूल भगवान के लिए? कभी नहीं। कहां भगवान, कहां हम! हम तो क्षुद्र हैं, तुम विराट हो। हम तो ना-कुछ हैं, तुम सब कुछ हो। लेकिन इस ना-कुछ में भी घोषणा हो रही है कि हम हैं, छोटे हैं। हमारे पैर की धूल तुम्हारे सिर पर? पाप लगेगा, नर्क में पड़ेंगे।

लेकिन गोपियां जो सच में ही ना-कुछ हैं, उन्होंने कहा हमारे पैर कहां? हम कहां? हमारे पैर की धूल भी तुम्हारे ही पैर की धूल है। और यह धूल भी कहां? तुम ही हो। और फिर तुम्हारी आज्ञा हो गई तो हम बीच में बाधा देनेवाले कौन? हम कौन हैं जो कहें नहीं?

प्रेम की विनम्रता बड़ी अलग है। ज्ञान की विनम्रता थोथी है, धोखे से भरी है। ज्ञानी जब तुमसे कहता है, हम तो आपके पैर की धूल हैं, तुम मान मत लेना। जरा उसकी आंख में देखना। वह कह रहा है, समझे कि नहीं, कि हम महाविनम्र हैं!

तुम यह मत कहना कि ठीक कहते हैं आप; बिलकुल सही कहते हैं आप। तो वह नाराज हो जाएगा और फिर कभी तुम्हारी तरफ देखेगा भी नहीं। वह सुनना चाहता है कि तुम कहो, कि अरे! आप और पैर की धूल? नहीं-नहीं। आप तो पूज्यपाद! आप तो महान, आपकी विनम्रता महान। वह यह सुनना चाहता है कि तुम कहो कि आप महान।

दूसरों ने इंकार कर दिया होगा। कृष्ण के सिर में दर्द है, इससे उन्हें थोड़े ही मतलब है! उन्हें अपने नर्क की पड़ी है, कि पैर की धूल दे दें और फंस जाएं। यह भी खूब आदमी फंसाने के उपाय कर रहा है! अभी पैर की धूल दे दें, फिर फंसें खुद। तुम्हारा तो सिरदर्द ठीक हो, हम नर्क में सड़ें। नहीं, यह पाप हमसे न हो सकेगा। इनको अपनी फिक्र है। गोपियों को अपना पता ही नहीं है। इसलिए उन्होंने कहा, पैर की धूल तो पैर की धूल। इसे थोड़ा समझ लेना।

प्रेम के अतिरिक्त और कोई विनम्रता नहीं है। गोपियां तो समझती हैं सब लीला उसकी है। यह सिरदर्द उसकी लीला, यह पैर, यह पैर की धूल उसकी लीला। वही मांगता है। उसकी ही चीज देने में हमें क्या अड़चन है?

तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर

हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी

यह भगवान, जिसने दुनिया बनाई हो–यजदां, स्रष्टा; कभी-कभी हंसता तो होगा; कैसा दिलचस्प जुर्म किया! यह दुनिया बनाकर कैसा मजेदार पाप किया!

तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर

हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी

भक्त कहते हैं–हंसी उसको भी तो आती होगी कि खूब मजाक रहा!

कृष्ण खूब हंसे होंगे, जब ज्ञानियों ने धूल न दी और गोपियों ने धूल दे दी। खूब हंसे होंगे। छोटी-सी मजाक भी न समझ पाए।

ज्ञानियों से ज्यादा बुद्धू खोजना मुश्किल है। शास्त्र समझ गए, शास्त्र का सागर समझ गए, और जरा-सी मजाक न समझ पाए, जरा-सी बात न समझ पाए। परमात्मा के लिए इतना भी न कर पाए। गोपियां तो खूब खुश हुई होंगी। उन्होंने तो सोचा होगा, चलो अपराध तुम्हीं करवा रहे हो तो करेंगे। दिलचस्प हो गया अपराध, तुम्हारी आज्ञा से हो रहा है।

खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर

सजा और ऐसी सजा चाहता हूं

उन्होंने तो सोचा होगा, चलो अच्छा। अब ऐसी सजा देना कि हम और खताएं करें। अब ऐसा दंड देना कि हम और खताएं करें ताकि तुम और दंड दो। यह संबंध बना रहे। यह दोस्ती बनी रहे। यह गठबंधन बना रहे।

खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर

सजा और ऐसी सजा चाहता हूं

गोपियां तो प्रसन्नता से नर्क चली जाएंगी, अगर उनके नर्क के जाने से कृष्ण का सिरदर्द ठीक होता हो। उन्हें तो क्षणभर भी खयाल न आया होगा कि यह कोई पाप हो रहा है।

प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहां शिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है। सब शिष्टाचार के नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम महानियम है। सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है।

ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां ही अलग हैं। वे दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। जिसको हम ज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती-रत्ती हिसाब लगाता है। कर्म, कर्मफल, क्या करूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा।

भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे। पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता है। वह कहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप ही करेंगे। भक्त का समर्पण आमूल है। मदहोशी! बेहोशी! परमात्मा के हाथ में अपना हाथ पूरी तरह दे देना–बेशर्त।

वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया

वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी

धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं ने–सर जोड़कर बदनाम किया–खूब सिर मारा और बदनाम किया, तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फूलों के रंग जैसी शराब को वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न होती।

वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया

वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी

भक्त तो शराबी जैसा है। ज्ञानी हिसाबी-किताबी है। दोनों के गणित अलग-अलग हैं। भक्त तो जानता ही नहीं क्या बुरा है, क्या भला है। भक्त तो कहता है, जो भगवान करे वही भला। जो मैं करना चाहूं वह बुरा, और जो भगवान करे वह भला।

तो गोपियों ने सोचा होगा, भगवान कहते हैं अपनी चरण-रज दे दो, उन्होंने जल्दी से दे दी होगी। भगवान कराता है तो भला ही कराता होगा। उनका समर्पण समग्र है।

आखिरी प्रश्न:

ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु क्या भिन्न हैं? क्या उनकी प्रक्रियाएं भी भिन्न हैं?

मृत्यु तो एक ही है; ध्यान की हो कि प्रेम की। लेकिन प्रक्रियाएं, उस मृत्यु तक पहुंचने के मार्ग, विधियां भिन्न-भिन्न हैं। ध्यान से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। प्रेम से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। मिटना तो दोनों हालत में होता है, लेकिन दोनों के मार्ग बड़े अलग-अलग हैं।

ध्यान के पहले चरण पर तुम नहीं मिटते। ध्यान के पहले चरण पर तो तुममें जो गलत है उसको मिटाया जाता है, सही को बचाया जाता है। अशुभ को मिटाया जाता है, शुभ को बचाया जाता है। अशुद्धि जलाई जाती है, शुद्धि बचाई जाती है।

तो ज्ञान के मार्ग पर या ध्यान के मार्ग पर व्यक्ति शुद्ध होने लगता है। मिटता नहीं, परिशुद्ध होता है, लेकिन बचता है। आखिरी छलांग में परिशुद्धि ऐसी जगह आ जाती है, जहां कि शुद्धता भी अशुद्धि मालूम होने लगती है। जहां होना मात्र अशुद्धि मालूम होती है, वहां आखिरी छलांग में ध्यानी अपने को बुझा देता है। भक्त पहले कदम पर बुझाता है। वह इसका हिसाब नहीं करता–अच्छा और बुरा।

तो भक्ति छलांग है और ध्यान क्रमिक विकास है। ध्यान एक-एक कदम, धीरे-धीरे चलता है; आहिस्ता-आहिस्ता। भक्ति बिलकुल पागलपन है। वह एकदम छलांग लगा लेती है। ध्यानी ऐसे है, जैसे सीढ़ियों से उतरता है छत से–एक-एक कदम, सम्हल-सम्हलकर। सम्हलना ध्यान का सूत्र है–सावधानी।

भक्त ऐसा है, छत से छलांग लगा देता है। फिक्र ही छोड़ता है हाथ-पैर टूटेंगे, बचेंगे, मरेंगे, क्या होगा। वह छलांग लगा देता है। उसकी श्रद्धा आत्यंतिक है। वह कहता है, उसे बचाना है तो वह बचा ही लेगा। जाको राखे साइयां। उसे नहीं बचाना है तो तुम सीढ़ियों पर भी सम्हल-सम्हलकर चलो तो भी मर जाओगे, तो भी मिट जाओगे।

तो भक्त तो छलांग लगाता है–एक ही कदम। फिर एक कदम के बाद उसे कुछ करना नहीं पड़ता। फिर तो जमीन का गुरुत्वाकर्षण खींच लेता है। ऐसा थोड़े ही कि तुमने एक कदम छलांग लगाई, फिर तुम पूछते हो अब हम क्या करें छलांग लगाकर? पूछने का मौका ही नहीं है। गए! एक कदम तुमने उठाया कि जमीन खींचने लगती है। एक कदम तुम न उठाते तो जमीन की कशिश के लिए तुम उपलब्ध न थे। एक कदम उठाया कि जमीन की कशिश काम करने लगी।

तो भक्ति का शास्त्र कहता है कि तुम छलांग लो, फिर परमात्मा की कशिश बाकी काम कर देती है। तुम छोड़ो, वही कर लेगा।

ध्यानी कहता है, हम छोड़ न पाएंगे ऐसे। हम तो जो गलत है उसे छोड़ेंगे। पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं?

तो तुम्हें सोचना है अपने भीतर कि तुम्हें कौन-सी बात ठीक लगती है। अगर पागल होने की हिम्मत है तो भक्ति। अगर तर्क बहुत प्रगाढ़ है, सोच-विचार काफी निखरा हुआ है, बुद्धि बलशाली है तो भक्ति तुम्हारे काम की नहीं।

घबड़ाहाट कोई भी नहीं है। पहुंचोगे तो वहीं। जब तुम सीढ़ियां उतर रहे हो तब भी कशिश ही तुम्हें खींच रही है। तुम धीरे-धीरे उतर रहे हो, बस इतनी ही बात है। भक्त तेजी से जा रहा है, तीर की तरह जा रहा है। तुम आहिस्ता-आहिस्ता जा रहे हो, एक-एक कदम जा रहे हो। जब तुम एक कदम उतरते हो सीढ़ी से तब भी कशिश ही तुम्हें खींचती है। लेकिन तुम एक कदम उतरते हो, फिर दूसरा कदम उतरते हो। तुम पर निर्भर है।

और जल्दबाजी में ऐसा मत करना, यह मत सोचना कि चलो यह सीधा मार्ग है भक्ति का; छलांग लगा जाओ। अगर तुम्हारे मन में यह न जंचे तो छलांग लगेगी ही नहीं।

तो अपने मन को पहचानना। तुम्हें जो ठीक लगे वही तुम्हारे लिए ठीक है। और सदा ध्यान रखना जो तुम्हारे लिए ठीक है, वह जरूरी नहीं कि सभी के लिए ठीक हो। जो दूसरे के लिए ठीक है वह तुम्हारे लिए गैर-ठीक हो सकता है। जो दूसरे के लिए अमृत है, तुम्हारे लिए जहर हो सकता है।

मृत्यु तो एक ही है। मृत्युएं दो नहीं हैं। अंतिम परिणाम तो एक ही है, लेकिन चलनेवाले दो ढंग के हैं। कुछ हैं, जो होशियारी से चलते हैं, सम्हल-सम्हलकर चलते हैं। रास्ते पर देखा, कोई आदमी सम्हलकर चलता है। और शराबी को देखा, डांवांडोल चलता है।

भक्त तो शराबी जैसा है। उसने तो भक्ति की सुरा पी ली। अब वह डांवाडोल चलता है। अब गिर जाए, तो उसे फिकर नहीं। न पहुंच पाए तो उसे फिकर नहीं।

तुमने कभी एक मजे की घटना देखी है? शराबी गिर जाता है रास्ते पर, हाथ-पैर नहीं टूटते। तुम जरा गिरो!

एक बैलगाड़ी में दो आदमी बैठे थे–एक शराबी शराब पीए और एक आदमी पूरे होश में। बैलगाड़ी उलट गई। जो होश में था, उसके हाथ-पैर टूट गए। जो शराबी था उसको पता ही नहीं चला। जब उसने सुबह आंख खोली तो उसने कहा, अरे! बैलगाड़ी का क्या हुआ?

तुमने देखा, कभी-कभी छोटे बच्चे गिर पड़ते हैं छत से, चोट नहीं खाते। बड़ा आदमी गिरे तो जरूर चोट खाता है। क्या कारण होगा? शराबी जब गिरता है तो उसे पता ही नहीं चलता कि गिर रहे हैं। गिरने का पता चले तो आदमी रोकता है। रोके तो विरोध खड़ा होता है, प्रतिरोध होता है। जब होशवाला आदमी गिरता है तो वह सब तरह से अपने को रोकता है कि गिर न जाऊं। जमीन खींच रही है नीचे, वह खींच रहा है, सम्हाल रहा है अपने को जमीन के विपरीत। तो दोहरी शक्तियों में विरोध होता है। उसी में हड्डियां टूट जाती हैं।

शराबियों को गिरते देखकर और चोट लगते न देखकर चीन और जापान में एक विशेष कला विकसित हुई, उसका नाम है ज्युदो, जुजुत्सु। यह देखकर कि शराबी गिरता है रोज। पड़े हैं नाली में। फिर सुबह उठकर घर जाते हैं, फिर नहा-धोकर फिर चले दफ्तर। न उनकी हड्डी-पसली टूटी, न कहीं कुछ है। तुम सुबह पहचान भी नहीं सकते कि ये रातभर सड़क पर पड़े रहे हैं। सुबह बिलकुल ठीक मालूम पड़ते हैं। तुम तो गिरो इतना! बच्चा रोज गिरता है, दिनभर गिरता है घर में। मां-बाप तो गिरें; फौरन हड्डी-पसली टूट जाएगी।

अभी अमरीका में उन्होंने एक प्रयोग किया हार्वर्ड युनिवर्सिटी में कि एक बड़े पहलवान को, बड़े शक्तिशाली आदमी को एक छोटे बच्चे की नकल करने को कहा। आठ घंटे बच्चा जो करे वह तुम करो। वह आदमी सोचता था, मैं शक्तिशाली आदमी हूं, गुजर जाऊंगा। काफी, हजारों डालर मिलनेवाले थे। चार घंटे में चारों खाने चित्त हो गया। क्योंकि वह बच्चा कभी गिरे तो अब उसको गिरना पड़े। यह बड़ी झंझट की बात।

वह बच्चा…बच्चे को आनंद आ गया। उसने कहा कि यह मेरी नकल कर रहा है। तो वह और जोर-जोर से करने लगा। चार घंटे में वह जो पहलवान था, उसने कहा माफी करो। वे हजारों डालर रखो अपने। यह तो हमारी जान ले लेगा। आठ घंटे में हम मर ही जाएंगे। क्योंकि उचकता, कूदता, चिल्लाता, चीखता। और जो वह करे, वही उसे करना है।

मनोवैज्ञानिक प्रयोग करके देख रहे थे कि छोटे बच्चे में कितनी ऊर्जा है, फिर भी थकता नहीं। कारण क्या होगा? छोटा बच्चा अभी अपने को सम्हालता नहीं। अभी जो घटता है, उसके साथ हो लेता है। अगर बच्चा गिरता है, तो वह गिरने में सहयोग करता है। तुम गिरते हो तो विरोध करते हो। तुम्हारे विरोध के कारण हड्डी टूट जाती है। हड्डी गिरने के कारण नहीं टूटती। हड्डी तुम्हारे विरोध के कारण टूटती है।

अगर तुम गिरने में साथ हो जाओ, अगर जब तुम गिरने लगो तो गिरने से तुम्हारे बचने की कोई आकांक्षा न हो, तुम गिरने के साथ सहयोग कर लो, तुम गिरने से एक कदम आगे गिर जाओ, तुम कहो, लो राजी; तो चोट न खाओगे। तो तुम ऐसे गिर जाओगे…बिना किसी प्रतिरोध के। तुम पृथ्वी की गोद में गिर जाओगे। चोट न खाओगे।

शराबी चोट नहीं खाता। ऐसे ही भक्त भी चोट नहीं खाता। वह गिरता है; बड़ी ऊंची छलांग है उसकी। मगर वह शराबी है। उसने प्रेमरस पीया है। उसने प्रेम की सुरा पी ली।

मगर तुम अगर नहीं हो शराबी और तुम्हारा स्वभाव वैसा नहीं है तो करना मत। तुम अपनी सीढ़ियां उतरना। छोटी-छोटी सीढ़ियां-सीढ़ियां बनाकर उतरना। कोई जल्दी भी नहीं है क्योंकि दोनों तरह से लोग पहुंच जाते हैं।

तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम इसमें से एक को अपनी स्वभाव की, प्रकृति की अनुकूलता बिना देखे चुन लो। इसलिए मैं भक्ति की भी बात करता हूं, ध्यान की भी बात करता हूं। मैं दोनों की बात करता हूं क्योंकि तुममें दोनों तरह के लोग हैं। अंतिम घटना तो एक है, लेकिन उस तक पहुंचने के रास्ते बड़े भिन्न हैं।

अगर तुम्हें विचार की बड?ी पकड़ है तो तुम ध्यान से चलो। अगर तुम्हारा हृदय खुला है, तुम छोटे बच्चे हो सकते हो, या कि तुम स्त्रैण हो सकते हो, तुम प्रेम बहा सकते हो और प्रेम में बह सकते हो बिना शर्त लगाए, तो फिर प्रेम के मार्ग से उतरो।

मिटोगे तो दोनों हालत में क्योंकि जब तक तुम न मिटोगे, तब तक परमात्मा न हो सकेगा। और जिस दिन तुम मिटोगे उस दिन तुम्हें चाहे पता न भी चले कि तुम मिट गए हो, सारी दुनिया को पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। जिनके पास भी आंखें हैं उन्हें पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। तुम्हारा शून्य बड़ा मुखर होता है!

शून्य बड़ा संगीतपूर्ण होता है। शून्य का सन्नाटा सुनाई पड़ने लगता है। जो लोग भी मिट गए हैं, उनके पास लोग भागे चले आते हैं, खिंचे चले आते हैं। समझ में भी नहीं आता कि क्या आकर्षण है। आकर्षण इतना ही है कि जहां कोई मिट गया वहां शून्य पैदा हो गया।

वैज्ञानिकों से पूछो, हवा चलती है, क्यों चलती है? यह हवा अभी चल रही है, यह गुलमोहर का वृक्ष कंप रहा है। यह हवा क्यों चल रही है? तो वैज्ञानिक कहते हैं, हवा के चलने का एक कारण है, एक ही कारण है। जब कहीं जोर की गर्मी पड़ती है तो वहां की हवा विरल हो जाती है। वहां शून्य पैदा हो जाता है। उस शून्य को भरने के लिए आसपास की हवा दौड़ने लगती है। क्योंकि शून्य को प्रकृति बर्दाश्त नहीं करती। उसको भरना पड़ता है। आसपास की हवा उस शून्य को भरने के लिए दौड़ती है, इसलिए हवा चलती है। इसलिए गर्मी में बवंडर उठते हैं, तूफान उठते हैं। क्योंकि शून्य पैदा हो जाता है। सूरज की गर्मी के कारण हवा विरल हो जाती है, फैल जाती है। जगह खाली हो जाती है। उसे भरने हवा आती है।

ठीक ऐसा ही परमात्मा के आत्यंतिक लोक में भी घटता है। जब कोई व्यक्ति मिट जाता है, खाली हो जाता, तो प्रकृति या परमात्मा शून्य को बर्दाश्त नहीं करता। उस शून्य को भरने के लिए चेतना की लहरें चल पड़ती हैं।

तुम चेतना की लहरों की तरह यहां आ गए हो। जहां कहीं कोई व्यक्ति मिटा कि चेतनाएं उस तरफ सरकने लगती हैं। ऐसा व्यक्ति हिमालय पर बैठा हो तो लोग वहां रास्ता खोजते हुए, पगडंडियां बनाते हुए पहुंच जाते हैं। जाना ही पड़ेगा। शून्य को परमात्मा बर्दाश्त नहीं करता। उसे भरना ही पड़ेगा।

जहां गुरु पैदा होगा वहां शिष्य आते चले जाते हैं। गुरु के होने का एक ही अर्थ है, जहां शून्य पैदा हुआ।

मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को

कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है

प्रेम तुम्हारे जीवन में घटेगा, पता भी नहीं चलेगा तुम्हें; किसी और को भी शायद पता न चले, फिर भी सबको पता चल जाएगा। और ऐसा भी पता चलता रहता है कि मालूम नहीं हो रहा है। किसी को मालूम नहीं हो रहा है। लेकिन चुपचुप, गुपचुप, हृदय से हृदय तक खबर पहुंच जाती है।

मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को

कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है

और मृत्यु तो मोहब्बत की आखिरी घड़ी है। वह तो चरमोत्कर्ष, वह तो आखिरी उत्कर्ष, वह तो चरम स्थिति है। जहां कोई व्यक्ति बिलकुल शून्य हो जाता है, सब तरफ से परमात्मा दौड़ पड़ता है अनेक-अनेक रूपों में उसे भरने को।

इसी को हिंदू अवतरण कहते हैं। यह परमात्मा का दौड़कर किसी को भर देना अवरतण है–उतर आना। कोई खाली हो गया, परमात्मा दौड़ा उसे भरने को। ध्यानी को भी भरता है, प्रेमी को भी भरता है। लेकिन भरता तभी है, जब तुम मिटते हो।

अपने को बचाना मत। कोई भी मार्ग खोजो। अपने को मिटाने का मार्ग खोजो। संसार है अपने को बचाने की चेष्टा; धर्म है अपने को मिटाने का साहस।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–29

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त्रिगुप्‍ति और मुक्‍ति—प्रवचन—उनतीसवां

सूत्र:

जहा महातलायस्‍स सन्‍निरूद्धे जलागमे।

उस्‍सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे।वे।।

एवं तु संजयस्‍सावि पावकम्‍मनिरासवे।

भवकोडीसंचियं कम्‍मं,तवसा निज्‍जारिज्‍जइ।। 152।।

तवसा चेव ण मोक्‍खो संवरहीणस्‍स होई जिणवयणे।

ण हु सोते पविसंते, किसिणं परिसुस्‍सदि तलायं।। 153।।

ज अन्‍नाणी कम्‍मं खवेइ बहुआहिं बासकोडिहिं।

तं नाणी तिहिं गुत्‍तो, खवेइ ऊसासमित्‍तेणं।।

सेणावइम्‍मि णिहए, जहां सेणा पणस्‍सई।

एवं कम्‍माणि णस्‍संति,मोहणिज्‍जे खयं गए।। 154।।

सव्‍वे सरा नियट्टंति, तक्‍का जत्‍थ न विज्‍जइ।

मई तत्‍थ न गाहिया, ओए अप्‍पइट्ठाणस्‍स खेयन्‍ने।। 155।।

धर्म के दो रूप संभव हैं: एक विज्ञान जैसा, एक काव्य जैसा। जीवन को देखने के दो ही ढंग हैं, दो ही ढंग हो सकते हैं–या तो कवि की आंख से, या वैज्ञानिक की आंख से। दोनों सही हैं। दोनों में कोई ऊंचा-नीचा नहीं है, पर दोनों बड़े विपरीत हैं।

जो काव्य की दृष्टि से सही है, वही विज्ञान की दृष्टि से कल्पना मात्र मालूम होता है। जो विज्ञान की दृष्टि से सही है, वही काव्य की दृष्टि से अत्यंत रूखा-सूखा, गणित और तर्क मालूम होता है। जो विज्ञान की दृष्टि से सत्य है वह काव्य की दृष्टि से मुर्दा मालूम होता है। और जो काव्य की दृष्टि से सत्य है वह विज्ञान की दृष्टि से केवल सपना मालूम होता है।

इसे अगर खयाल रखा तो बड़ी सुगमता होगी। महावीर का जीवन को देखने का ढंग वैज्ञानिक का ढंग है। वे ऐसे देखते हैं, जैसे वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में निरीक्षण करता है। उनकी दृष्टि में काव्य बिलकुल नहीं है। इसलिए भक्ति का कोई उपाय महावीर के साथ नहीं है। प्रार्थना का, पूजा का कोई उपाय महावीर के साथ नहीं है।

और जिन्होंने महावीर के साथ पूजा और प्रार्थना जोड़ ली, उन्होंने बड़ा अन्याय किया है। महावीर के साथ तो परमात्मा शब्द का भी कोई अर्थ नहीं है। महावीर के लिए तो परमात्मा भी आदमी का कल्पनाजाल है। आत्मा ही सब कुछ है। आत्मा की ही श्रेष्ठतम दशा को उन्होंने परमात्मा कहा है। परमात्मा कहीं है नहीं, जिसे हमें खोजना है। परमात्मा हमें होना है। परमात्मा ऐसा कुछ नहीं है, जो भक्त के सामने खड़ा हो जाएगा। परमात्मा कुछ ऐसा है, जो भक्त के भीतर प्रगट होगा।

भक्त बीज है भगवान का।

तो जब बीज खिलता है, फूलता है तो ऐसा थोड़े ही कि बीज अपने खिले हुए फूलों को देखता है; बीज तो खो गया होता है। खिले फूल होते हैं। बीज का और वृक्ष का कभी मिलना थोड़े ही होता है। जब तक बीज है तब तक वृक्ष नहीं है, जब वृक्ष है तब बीज जा चुका।

तो भगवान का दर्शन, ऐसी कोई चीज महावीर के साथ संभव नहीं है। भक्त ही अपनी परमशुद्ध अवस्था में भगवान हो जाता है। इसलिए पूजा किसकी? अर्चना किसकी? दीये किसके नाम पर जलें? यज्ञ, हवन किसका हो?

महावीर मनुष्य-जाति के उन थोड़े-से प्राथमिक अग्रणी लोगों में से हैं, जिन्होंने धर्म को विज्ञान की शक्ल दी; जिन्होंने धर्म को गणित का आधार दिया। जो-जो कल्पना-पूर्ण था वह अलग कर लिया।

ध्यान रखना, जब मैं कह रहा हूं कल्पनापूर्ण, तो मैं नहीं कह रहा हूं असत्य, क्योंकि मेरे लिए भक्त भी उतने ही सच हैं, नारद भी उतने ही सत्य हैं और चैतन्य भी और मीरा भी। ये देखने के दो ढंग हैं।

एक वैज्ञानिक वृक्ष के पास आए तो उसे सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए नहीं कि सौंदर्य नहीं है। वृक्ष हरा है, फूल से भरा है; सूरज की रोशनी में नाचती उसकी पत्तियां हैं, हवाओं के झोंकों में प्रफुल्लित मग्न खड़ा है। लेकिन वैज्ञानिक को कुछ भी यह दिखाई नहीं पड़ता। वैज्ञानिक को दिखाई पड़ता है वृक्ष का विज्ञान–वनस्पति-विज्ञान। उसे दिखाई पड़ता है वृक्ष किन तत्वों से बना है। उसे दिखाई पड़ता है किन-किन खनिज से मिलकर बना है। पृथ्वी ने क्या-क्या दिया, हवा-पानी से क्या मिला, आकाश-सूरज ने क्या दिया। वैज्ञानिक को दिखाई पड़ता है, यह वृक्ष कैसे निर्मित हुआ है। कैसे इसका सृजन हुआ है। किन चीजों के तालमेल से यह घटना घटी।

कवि भी उसी वृक्ष के नीचे आता है। उसे इस सबकी कुछ भी याद नहीं आती। नहीं कि जो वैज्ञानिक कहता है वह गलत है। उसे खनिज, रसायन, पदार्थ, जिनसे बना है वृक्ष, उनका कोई भी बोध नहीं होता। उसे कुछ और ही बोध होता है।

उसे दिखाई पड़ती हैं सूरज की किरणें वृक्ष की पत्तियों पर नाचतीं। उसे एक सौंदर्य का, एक अपूर्व सौंदर्य का अनुभव होता है–ऐसा कि वह खुद भी नाच उठे। हवा के गुजरते हुए झोंके उसे किसी और ही लोक की खबर और संदेश दे जाते हैं। वह गुनगुनाने लगता है।

वैज्ञानिक गंभीर हो जाता है। सोचने लगता है, विचारने लगता है, विश्लेषण करने लगता है। कवि गुनगुनाने लगता है। गंभीर रहा हो तो गंभीरता गिरा देता है, नाचने लगता है।

दोनों सच हैं। सत्य इतना बड़ा है कि दोनों सच हो सकते हैं, साथ-साथ सच हो सकते हैं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना। बहुत कंजूसी हुई है इसलिए इसे मैं कहता हूं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना। ऐसा मत कहना कि मेरी दृष्टि जहां पूरी होती है वहां सत्य पूरा हो जाता है। तुम्हारी दृष्टि की सीमा है, सत्य की कोई सीमा नहीं। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी को भी समा लेता है। सत्य इतना विराट है कि विरोधाभास भी संयुक्त हो जाते हैं, परिपूरक हो जाते हैं।

अमरीका के बड़े महत्वपूर्ण कवि वाल्ट ह्विटमेन से किसी ने कहा, तुम्हारी कविताओं में बड़े विरोध हैं, बड़े विरोधाभास हैं, कंट्राडिक्शन हैं। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं दूसरी बात कहते हो। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं ठीक उससे उल्टी बात कहते हो। पता है वाल्ट ह्विटमेन ने क्या कहा? वाल्ट ह्विटमेन ने कहा, मैं बहुत विराट हूं। मेरे भीतर सभी विरोध समा जाते हैं और परिपूरक हो जाते हैं।

यह वचन तो ऋषि का हो गया। यह तो बड़ी सूझ का हो गया। यह तो बड़ी अंतर्दृष्टि का हो गया।

सत्य बड़ा विराट है। उसमें विज्ञान भी समा जाता है, उसमें काव्य भी समा जाता है। उसमें सारे तथ्य भी समा जाते हैं और सारी कल्पनाएं भी समा जाती हैं। उसमें गणित और तर्क भी समा जाता है। उसमें रस और भक्ति और प्रेम भी समा जाता है।

जब हम भक्ति की तरह देखते हैं तो हम कुछ चुनते हैं। और जब हम तर्क की तरह देखते हैं तब भी हम कुछ चुनते हैं। जो भी हम देखते हैं वह हमारा चुनाव है। इसका महावीर को बोध था।

इसलिए महावीर ने अपनी दृष्टि तो कही, साथ ही यह भी कहा कि यह दृष्टि मात्र है। और सभी दृष्टियों से जो पार हो जाता है, वही परम सत्य को जान पाता है। जो न वैज्ञानिक रह गया, न कवि रह गया। जिसके पास अपने देखने का कोई पक्षपात नहीं, कोई चश्मा नहीं। जिसकी आंख खुली, खाली, निर्दोष, कुंआरी है। जो कुंआरी आंख से देखता है।

लेकिन कुंआरी आंख से देखना बड़ा कठिन है। क्योंकि कुंआरी आंख से देखने का अर्थ है, हृदय भी सत्य जैसा विराट होना चाहिए। क्योंकि सारे विरोध समाहित करने होंगे। रात और दिन को विरोध में खड़ा न करना होगा। सुख और दुख को विरोध में खड़ा न करना होगा। जीवन और मृत्यु को विरोध में खड़ा न करना होगा। दोनों को साथ-साथ देखना होगा, विपरीत की तरह नहीं, एक-दूसरे के परिपूरक की तरह।

जैसे शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। काले ब्लैकबोर्ड पर ही लिखा जा सकता है सफेद खड़िया से। सफेद दीवाल पर लिखोगे तो दिखाई न पड़ेगा। तो काला सफेद का दुश्मन नहीं है, परिपूरक है। सफेद को उभार लाता है, सफेद को प्रगट करता है, सफेद के लिए अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना बनता है।

दुनिया से जिस दिन कविता खो जाएगी, उस दिन विज्ञान भी खो जाएगा। जिस दिन दुनिया से विज्ञान खो जाएगा, उस दिन कविता भी खो जाएगी। वे एक-दूसरे को उभारते हैं, प्रगट करते हैं। दुनिया समृद्ध है क्योंकि अनंत-अनंत दृष्टियों का यहां मेल है। दुनिया में इतने धर्म हैं, वे मनुष्य को समृद्ध करते हैं। वे अलग-अलग देखने की दृष्टियां हैं।

तुम्हें जो रुचिकर लगे, तुम्हें जो भा जाए उस पर चलना। लेकिन भूलकर भी ऐसा मत सोचना कि यही सत्य है, यही मात्र सत्य है। जिसने ऐसा सोचा, यही सत्य है, उसने अपने सत्य को असत्य कर लिया।

इसलिए महावीर ने स्यातवाद को जन्म दिया। स्यातवाद का अर्थ होता है, मैं भी ठीक, तुम भी ठीक। मैं भी ठीक, तुम भी ठीक, कोई और भी हो वह भी ठीक। जो कहा गया है वह भी ठीक, और जो अभी कहा जाएगा वह भी ठीक। जो दृष्टियां प्रगट हो गई हैं वे तो ठीक हैं ही, जो दृष्टियां भविष्य में प्रगट होंगी वे भी ठीक हैं।

लेकिन सभी दृष्टियां अधूरी हैं। कोई दृष्टि पूरी नहीं है। कोई दृष्टि पूरी हो नहीं सकती। दृष्टि मात्र अधूरी है। जहां सारी दृष्टियां शांत हो जाती हैं वहां दर्शन का जन्म होता है। लेकिन दृष्टियां तो तभी समाप्त होती हैं, जब तुम बिलकुल समाप्त हो जाते हो। जब तक तुम हो, दृष्टि बनी रहती है। तुम्हारे देखने का ढंग प्रभावित करता रहता है। तुम हिंदू हो, तुम मुसलमान हो, तुम जैन हो, तुम ईसाई हो, तो तुम्हारे देखने का ढंग प्रभावित करता रहता है। तुम जो भी देखते हो, उसे तुम रंगते जाते हो। उसे तुम अपने भाव का वस्त्र उढ़ाते जाते हो। तुम उसे अपनी वेशभूषा पहनाते जाते हो।

जब तुम बिलकुल मिट जाते हो, जब न तुम्हारे भीतर हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न ईसाई है, न आस्तिक है, न नास्तिक है; जब तुम यह भी नहीं जानते कि मैं विश्वास करता हूं कि अविश्वास करता हूं; जब तुमने सब धूल झाड़ दी, जब तुम बिलकुल निपट शून्य हो गए, निराकार हो गए तो दर्शन का जन्म होता है। तब जो जाना जाता है, उसे महावीर कहते हैं, वही सत्य है। और वैसा सत्य ही मुक्त करता है।

ये आज के सूत्र, कैसे हम उस मुक्तिदायी सत्य तक पहुचें, कैसे उस मोक्ष को पा लें, कैसे हम सभी पक्षपातों से, सभी जालों से छूट जाएं, कैसे हमारे ऊपर से सारी सीमाएं गिर जाएं और हम असीम हो जाएं, उसके सूत्र हैं।

हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया

करें तो हम भी मगर किस खुदा की बात करें

इसलिए महावीर ने खुदा की बात ही न की।

हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया

जब भी आदमी बोला, जब भी आदमी ने सोचा तो एक नए परमात्मा को जन्म दिया। जब भी आदमी ने विचार किया तो एक नए परमात्मा को गढ़ा। एक मंदिर उठा, मस्जिद उठी, गुरुद्वारा उठा। जब भी आदमी ने जगत के सत्य की खोज करनी चाही, तो उसने प्रतिमा बनाई किसी परमात्मा की–हिंदुओं का परमात्मा है, बौद्धों का, ईसाइयों का, मुसलमानों का, जैनों का। सबकी दृष्टि है। दृष्टि के अनुकूल उनका परमात्मा है।

बाइबल कहती है कि परमात्मा ने आदमी को अपनी ही शकल में बनाया। हालत ठीक उल्टी है। आदमी परमात्मा को अपनी शकल में बनाता है। तुम्हारी जो शकल है वही तुम्हारे परमात्मा की शकल होती है। उससे अन्यथा हो भी नहीं सकती। तुम्हारी शकल में ही तो तुम अपने परमात्मा को गढ़ोगे। थोड़ा सुंदर, थोड़ा सजाया-संवारा, थोड़ा निखारा, भूल-चूकें काटीं, लेकिन होगी तो तुम्हारी ही शकल। थोड़ी सुंदर नाक बनाओगे, थोड़ी सुंदर आंख बनाओगे, लेकिन होगी तो तुम्हारी ही शकल। राम हों कि कृष्ण हों, तुम्हारी ही शकल है। थोड़े सजे-संवरे! जो सुंदरतम की कल्पना हो सकती थी उस कल्पना को…लेकिन वे कल्पनाएं भी बदल जाती हैं।

हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया

वे कल्पनाएं भी बदल जाती हैं।

जब हमने कृष्ण की कल्पना की तो नीलवर्ण सुंदरतम वर्ण समझा जाता था, इसलिए कृष्ण को हमने श्याम कहा। आज तो शायद श्याम कहने को कोई राजी न होगा, अगर नया परमात्मा बनाओ। आज अगर नया परमात्मा बनाओगे तो गौरांग होगा, गोरा होगा। कविता की भाषा बदल गई। उन दिनों श्याम वर्ण की बड़ी चर्चा थी, बड़ी महिमा थी।

ऐसे श्याम वर्ण की खूबियां हैं। गोरा रंग उथला-उथला होता है; उसमें गहराई नहीं होती। श्याम वर्ण में बड़ी गहराई होती है। जैसे नदी बहुत गहरी हो तो नीली हो जाती है; उथली हो तो सफेद रहती है।

उस दिन की धारणा थी तो श्याम वर्ण। उस दिन की धारणा थी तो हमने मोर-मुकुट पहनाया। आज किसी को मोर-मुकुट पहनाओगे तो कठिनाई हो जाएगी।

राम को हमने धनुषबाण दिया। आज धनुषबाण दोगे तो राम हिंसक मालूम होंगे। हवा में अहिंसा है। बात अहिंसा की और शांति की है। आज तो कबूतर देना पड़ेगा। उड़ाओ कबूतर! आज धनुषबाण लेकर राम चलेंगे तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। खुद भी नहीं चल पाएंगे। साथ भी चलने में लोग झिझकेंगे कि धनुषबाण तो रखो महाराज! इसे साथ लेकर चलो तो आदिवासी मालूम पड़ते हो। और फिर धनुषबाण का वक्त गया।

लेकिन उस दिन शौर्य की प्रतिष्ठा थी, बल की पूजा थी, वीर्य की पूजा थी तो हमने धनुषबाण दिया था। धनुषबाण के बिना राम जंचते ही न उस दिन। उस दिन कबूतर का किसी को खयाल ही नहीं था कि शांति के कपोत उड़ाओ।

वक्त बदल जाता है, खुदा की शकल बदल जाती है। समय बदल जाता है, सोचने के ढंग बदल जाते हैं, मापदंड बदल जाते हैं, धारणाएं बदल जाती हैं। तो परमात्मा का रूप हम बदलते चले जाते हैं।

यहूदियों का परमात्मा बहुत क्रुद्ध है। जरा-सी बात पर नाराज हो जाए, जला दे, राख कर दे। ईसाइयों का परमात्मा अति दयालु है। वक्त बदल गया था। यहूदी जहां से गुजर रहे थे, वहां बड़े सख्त और कठोर परमात्मा की जरूरत थी। जहां से जीसस ने परमात्मा की कहानी को पकड़ा, वहां सख्त, कठोर परमात्मा बेहूदा मालूम होने लगा था। थोड़ा अमानवीय मालूम होने लगा था। तो प्रेमपूर्ण परमात्मा। तो जीसस ने कहा, परमात्मा प्रेम है।

ऐसी शकल बदलती जाती है। लेकिन महावीर ने कहा कि ऐसा कब तक करते रहोगे? यह तुम अपनी ही शकल को झांककर देखते रहते हो। यह बात ही बंद करो। इसमें समय मत गंवाओ। परमात्मा को खोजने की फिकर ही छोड़ो। क्योंकि वह खोज में तुम अपनी ही शकल को निर्मित करते हो। बेहतर हो, तुम अपनी ही शकल के भीतर उतरो और अपने को खोज लो।

यह महावीर का बुनियादी सूत्र है। परमात्मा की खोज आत्मखोज बननी चाहिए। क्योंकि तुम जो परमात्मा बनाओगे वह तुम्हारी ही प्रतिछवि होनेवाली है। इसलिए इसको बनाने में व्यर्थ जाल में मत पड़ो। यह तुम्हारा ही खिलौना होगा। तुम अपने भीतर जाओ। उसे खोजो, जिसने सारे परमात्मा बनाए। उसे खोजो, जिसने सारे मंदिर निर्मित किए। उसे खोजो, जिसने सारी प्रार्थनाएं गढ़ी और रचीं। वह जो तुम्हारा चैतन्य का स्रोत है, वह जो तुम्हारा मूलाधार है, उस गंगोत्री की तरफ बहो।

अपने को जान लो। अपने को बिना जाने तुम जो भी परमात्मा के संबंध में सोचोगे, तुम्हारा अज्ञान ही प्रतिफलित होगा।

यह खोज कैसे हो? और जब तक यह खोज न हो जाए तब तक अज्ञान के कारण बड़े उपद्रव होते हैं। परमात्मा के नाम पर लाभ तो कुछ हुआ दिखाई पड़ता नहीं, हानि बहुत हुई मालूम होती है। कितने दंगे-फसाद! कितना खून-खराबी! कितना रक्तपात! सारा इतिहास धर्म के नाम पर बलात्कारों से भरा पड़ा है। मस्जिद-मंदिर ने लड़वाया ही ज्यादा। आदमी काटे। सुंदर बहाने दिए गलत कामों के लिए। खूबसूरत नारे दिए वीभत्स प्रक्रियाओं को छिपा लेने के लिए।

अगर हिंदू को काटो तो पुण्य हो रहा है। अगर तुम मुसलमान हो तो हिंदुओं को काटने में पुण्य है। या हिंदुओं को जबर्दस्ती मुसलमान बना लेने में पुण्य है। अगर तुम हिंदू हो तो बात बदल जाती है। अगर तुम ईसाई हो तो येन-केन-प्रकारेण कैसे भी लोगों को ईसाई बना डालो! खरीद लो रोटी से, धन से, किसी भी उपाय से।

अब तक आदमी ने धर्म के नाम पर जो किया है वह धार्मिक तो नहीं मालूम होता। लेकिन यह स्वाभाविक है। आदमी जो भी करेगा उसमें आदमी की ही छाया पड़ेगी। अगर हम हिंसक हैं तो हमारा धर्म हिंसक होगा। अगर हम मांसाहारी हैं तो हमारे धर्म में मांसाहार के लिए हम कोई उपाय खोज लेंगे। अगर लड़ने की,र् ईष्या की, जलन की वृत्ति है, तो हम अपने धर्म के आधार बना लेंगे, जिनसे हम लड़ेंगे, झगड़ेंगे। आदमी बड़ा चालाक है, बड़ा कपट से भरा है। वह जो करना चाहता है, उस के लिए अच्छे बहाने खोज लेता है। वह बहानों की आड़ में फिर सारे बुरे काम करते चला जाता है।

ये मुसलसल आफतें, ये यूरसें, ये कत्ले-आम

आदमी कब तक रहे औहामे-बातिल का गुलाम

ये निरंतर होते धर्म के नाम पर आक्रमण, ये लगातार होते हुए अनाचार! आदमी कब तक मिथ्या भ्रमों का शिकार रहे!

अगर आज दुनिया में नई पीढ़ियां धर्म के प्रति तिरस्कार से भरी हैं तो इसका कारण नई पीढ़ियां नहीं हैं, अब तक धर्म के नाम पर जो हुआ है उसका बोध। महावीर को यह बात ढाई हजार साल पहले दिखाई पड़नी शुरू हुई कि धर्म के नाम पर जो भी हो रहा है, वह किसी दिन दुनिया में अधर्म ही लाएगा; धर्म उससे आनेवाला नहीं है। इसलिए महावीर ने कुछ सीधी-सीधी बातें कहीं, जिनका मंदिर और मस्जिद, कुरान और बाइबल से कोई लेना देना नहीं। कुछ छोटे-से सूत्र प्रगट किए, जो मनुष्य के अंतर्जीवन में जाने का विज्ञान बन सकते हैं–कैसे तुम अपने भीतर जाओ और कैसे तुम अपने को परिशुद्ध कर लो। फिर तुम जो भी करोगे वह धार्मिक होगा। इसको खयाल में लेना।

आमतौर से कहा जाता है, तुम धार्मिक हो जाओ, फिर तुम जो भी करोगे वह शुभ होगा। महावीर ने कहा, पहले तुम शुभ हो जाओ, फिर तुम जो करोगे वह धार्मिक होगा। इन बातों में बड़ा फर्क है।

हम लोगों को कहते हैं, पहले मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना करो, फिर तुम धीरे-धीरे शुभ हो जाओगे। शुभ होने का मार्ग ही यही है। लेकिन वह जो अशुभ आदमी मंदिर जाएगा, वह मंदिर को अशुभ कर आएगा। मंदिर उसे शुभ न कर पाएगा। मंदिर तो जड़ है; आदमी को न बदल सकेगा। आदमी मंदिर को बदल देता है।

इसलिए महावीर कहते हैं, पहले तुम शुभ होने लगो, फिर तुम जहां जाओगे वहीं मंदिर होगा। यह सूत्र समझना।

“जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बंद करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म, पापकर्म के प्रवेश-मार्ग को रोक देने पर, तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है, नष्ट होता है।’

महावीर कहते हैं, एक तालाब भरा है, इसे हमें सुखा लेना है। हम चाहते हैं कि जमीन वापस मिल जाए। इस तालाब को हम समाप्त करना चाहते हैं। तो हम क्या करेंगे?

तीन काम करने जरूरी हैं। एक सबसे बुनियादी, कि इस तालाब में आने का जो जलस्रोत है, वह रोक दिया जाए। अगर इस तालाब में जल के झरने पड़ते ही रहे तो हम उलीचते भी रहे तो पागलपन होगा। तुम उलीचते रहोगे और नए जल के झरने पानी को भरते रहेंगे।

इसलिए जो प्राथमिक, वैज्ञानिक कदम होगा वह यह कि पहले जल के आनेवाले झरनों को रोक दो।

दूसरा काम होगा, जो भरा हुआ जल है, वह जल के झरने रोकने से नहीं समाप्त हो जाएगा, उसे उलीचो।

और उलीचने से भी पूरा साफ न हो जाएगा। सूर्य के ताप को…सूर्य के ताप की भी सहायता लेनी होगी, ताकि कहीं भी पड़ा न रह जाए। जमीन बिलकुल सूख जाए। जमीन में दबा भी न रह जाए।

तो तीन काम महावीर कहते हैं। पहला तो मूलस्रोत को रोक दो। दूसरा, जो है उसे उलीचो। तीसरा, सूरज की खुली रोशनी को मौका दो ताकि कहीं भी छिपा हुआ, भूमि में दबा हुआ कुछ न रह जाए। सब सूख जाए।

मनुष्य तालाब जैसा है। अनंत-अनंत जन्मों के कर्म भरे पड़े हैं। न मालूम कितनी बुराइयां की हैं, न मालूम कितने धोखे दिए हैं, न मालूम कितने पाप, न मालूम कितने अशुभ, न मालूम कितनी वासनाएं की हैं, आकांक्षाएं की हैं। लोभ, काम, क्रोध–वह सब भरा हुआ पड़ा है।

अब इससे छुटकारा पाना है। इस हृदय की भूमि को मुक्त करना है। तो पहली बात, स्रोत रोको।

बहुत से लोग हैं, जो यह करना चाहते हैं लेकिन स्रोत नहीं रोकते। तो इधर एक हाथ से वे कोशिश भी करते रहते हैं और दूसरे हाथ से मिटाते भी चले जाते हैं।

तुमने भी बहुत बार सोचा होगा कि जीवन में शुभ का अवतरण हो, सत्य का पदार्पण हो, मंगल की वर्षा हो, हम भी कुछ दिव्यता में जीएं। तो कभी-कभी तुमने थोड़ी चेष्टा भी की है। कुछ अच्छा करें; दान करें, पुण्य करें, सेवा करें; कर्तव्य को निभाएं। यह तुमने थोड़ी-बहुत कोशिश भी की है, लेकिन तुम जल्दी थक जाते हो। जल्दी ही पाते हो, यह हो नहीं पाता।

क्यों? क्योंकि मूल वृत्ति तो टूटती नहीं। मूल धारा तो बहती चली जाती है। वह नदी तो गिर रही है, वह तो गिरती ही रहती है। थोड़ा-बहुत उलीचते हो। दान किया तो थोड़ा उलीचा। दान यानी थोड़ा दिया। मगर इससे क्या होगा? आदमी लाख कमाता है तो हजार का दान कर देता है। लाख कमाता तभी हजार का दान करता है; नहीं तो करता ही नहीं।

दान का मौलिक अर्थ यह है कि तुम परिग्रह मत करो। लेकिन दान वही करता है जिसके पास काफी आ रहा है। और वह सोचता है, अब करें भी क्या? थोड़ा दान भी कर लें? एक हाथ से दान करता है लेकिन दान भी ऐसी जगह करता है, इस ढंग से करता है कि आगे और आने का इंतजाम हो जाए। तो राजनेताओं को दान दे देता है, राजनैतिक पार्टियों को दान दे देता है। दान का मजा भी ले लिया और नए लाइसेंस का इंतजाम भी कर लिया।

मूल स्रोत खुला रहता है। मूल धारा गिरती चली जाती है। उसमें से थोड़ा-थोड़ा बांटता भी है। तो दानी होने का मजा भी ले लेता है, लेकिन कभी परिग्रह से मुक्त नहीं हो पाता।

तो पहले तो लोभ की वृत्ति को ही तोड़ देना पड़े। दान जिसे करना है उसे पहले लोभ छोड़ देना पड़े। दान जिसे करना है, पहले उसे वह जो लोभ की मूर्च्छा है, वह त्याग देनी पड़े।

“…वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म पापकर्म के प्रवेशमार्ग को रोक देने पर तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है, नष्ट होता है।’

तो पहले तो हमें अपने पापकर्म कहां से उदय होते हैं, इसकी तलाश करनी चाहिए।

मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं, कि आपके सामने हम कसम लेते हैं कि हम क्रोध न करेंगे। मैं उनसे कहता हूं, तुम कसम तो लेते हो, यह उलीचना तो हुआ, लेकिन अब तक तुम क्रोध करते क्यों रहे? जब तक तुम उसका मूल न खोजोगे, तुम्हारी कसम से थोड़े ही कुछ होगा? यह हो सकता है कसम से तुम दबाने लगो, रोकने लगो, क्रोध को प्रगट न करो। लेकिन क्रोध पैदा नहीं होगा ऐसा कैसे संभव है? कसम के न लेने से थोड़े ही पैदा हो रहा था, जो कसम के लेने से रुक जाएगा। क्रोध पैदा होता था किसी कारण से। उस कारण को खोजो।

क्यों क्रोध पैदा होता है? अहंकार को चोट लगती है तो क्रोध पैदा होता है। तुम्हारी प्रतिमा को कोई नीचे गिराता है तो क्रोध पैदा होता है। तुम समझते हो अपने को जैसा, वैसा कोई नहीं मानता तो क्रोध पैदा होता है। और जब तक अहंकार है भीतर, अहंकार का घाव है भीतर, तब तक क्रोध होता ही रहेगा। तुम लाख कसमें खाओ।

अब मजे की बात यह है कि अक्सर लोग अहंकार के कारण ही कसम भी खा लेते हैं। इस मनुष्य के जाल को समझना। मंदिर में गए, मुनि के पास गए, साधु के पास गए, वहां भीड़ भरी है। वहां कोई कसम खा रहा है कि अब मैं प्रतिज्ञा लेता हूं, अणुव्रत लेता हूं कि अब कभी क्रोध न करूंगा। लोग ताली बजा रहे हैं। लोग कह रहे हैं, धन्यभागी है। कितना भव्य जीव! तुम्हारे अहंकार को भी फुरफुरी लगी।

तुमने कहा, अरे! यह आदमी भव्य जीव हुआ जा रहा है। हम बैठे यहां क्या कर रहे हैं? तुम भी खड़े हो गए। तुम्हें पक्का पता भी नहीं तुम क्यों खड़े हो गए हो! लेकिन लोगों ने और तालियां बजाईं कि चलो, एक भव्य जीव और पैदा हुआ। तुमने कसम ले ली। तुमने प्रतिज्ञा ले ली। तुमने कहा कि मैं अब कभी क्रोध न करूंगा। या ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया।

लेकिन यह कोई व्रत से हल होनेवाली बात है? इतना सस्ता मामला है? तो तुम क्रोध के विज्ञान को समझ ही नहीं रहे। जो क्रोध के विज्ञान का मौलिक आधार है वही भर रहा है इस प्रतिज्ञा से भी। तुम्हारे अहंकार को मजा आ रहा है, रस आ रहा है।

इसीलिए तो लोग त्यागीत्तपस्वियों की खूब प्रशंसा करते हैं। रथयात्रा निकाल देते हैं, शोभायात्रा निकाल देते हैं। बैंडबाजे के साथ त्यागी का स्वागत कर देते हैं। अब यह जो त्यागी है, इसका अहंकार फुसलाया जा रहा है। इसका प्रभाव बढ़ रहा है। इसकी अस्मिता प्रगाढ़ हो रही है। और अस्मिता ही सारे रोगों का कारण है। वह अहंकार ही सारे लोगों का कारण है।

तो जरा त्यागी का तुम अपमान करके देखना, तब पता चलेगा। संसारी तो शायद तुम धक्का-मुक्का दे दो, उसके पैर पर पैर रख दो तो कहेगा, चलता ही रहता है। संसार में यह होता ही रहता है। जरा त्यागी के पैर पर पैर पड़ जाए, तब अड़चन हो जाएगी। तुम जैसा त्यागी को क्रोधी पाओगे वैसा तुम संसारी को क्रोधी न पाओगे। घर में एक आदमी धार्मिक होने लगे तो घर भर परेशान हो जाता है।

तुम सभी को अनुभव होगा। एकाध घर में कोई उपद्र्रवी हुआ और धार्मिक हो गया…। अब वे पूजा कर रहे हैं तो घर में कोई आवाज नहीं कर सकता, बच्चे खेल नहीं सकते, रेडियो नहीं चलाया जा सकता। उनके ध्यान में बाधा पड़ती है। वह सारे घर का दमन करने लगता है। वे भोजन करने बैठे हैं तो, वे चलें-उठें-बैठें तो।

तुम कभी किसी त्यागी के साथ रहे हो? त्यागी को दूर से देखना सुख। त्यागी के पास रहो, तुम भाग खड़े होओगे। क्योंकि वहां हर चीज बंधी-बंधी मालूम पड़ेगी। तुम भी बंधे हुए मालूम पड़ोगे। त्यागी बड़ा बोझरूप हो जाएगा। उसका अहंकार पत्थर की तरह है। वह तुम्हारी छाती पर लटक जाएगा। होना तो उल्टा चाहिए था कि त्यागी विनम्र हो जाता, कि त्यागी के साथ रहना आनंद और सौभाग्य हो जाता, कि उसके पास थोड़ी देर रहने को मिल जाता तो तुम्हारे जीवन में भी फूल खिलते। मगर ऐसा होता नहीं। लोग त्यागियों को नमस्कार करके बच निकलते हैं। वह नमस्कार भी बच निकलने की तरकीब है कि महाराज! आप यहां ठीक, हम अपनी जगह ठीक। अब आप मिल गए तो पैर छूए लेते हैं। और करें भी क्या? मगर आपने महान त्याग किया है।

खयाल रखना, आदमी को क्रोध आता है अहंकार पर चोट लगने से। और क्रोध त्याग की भी वह चेष्टा करता है अहंकार को ही भरने के लिए। तो मूल रोग तो जारी रहता है। आदमी को लोभ है, मद है, मत्सर है मूर्च्छा के कारण। उसे होश नहीं कि मैं कौन हूं। इसी बेहोशी में वह कसमें भी लेता है, संसार भी त्याग देता है। हिमालय चला जाता है। लेकिन बेहोशी तो छूटती नहीं। बेहोशी अपनी जगह बनी है।

तो महावीर कहते हैं, “यह जिनवचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता।’

“संवरविहीन मुनि…।’

जिसने मूल स्रोत को नहीं रोका है। जिसमें आने का मार्ग तो खुला ही हुआ है और जो थोड़े-बहुत उलीचने में लग गया है।

तुम एक नाव में जा रहे हो, छेद हो गए हैं नाव में, पानी भरा जा रहा है। तुम छेद तो रोकते नहीं, पानी उलीचते हो। यह नाव बहुत ज्यादा देर चलेगी नहीं, यह डूबेगी। पानी उलीचना जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है छेदों का बंद कर देना।

महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि पानी मत उलीचो। लेकिन पानी उलीचने से क्या होगा? अगर छेद नया पानी लाए चले जा रहे हैं तो तुम व्यर्थ की चेष्टा में लगे हो। पहले छेद बंद करो, फिर पानी उलीच लो तो कुछ राह बनेगी। तो नाव के उस पार पहुंचने का उपाय होगा।

छेद खोजो अपने जीवन के। बुराई को छोड़ने की उतनी चिंता मत करो। बुराई कहां से आती है इसकी खोज करो। लेकर प्रकाश, ध्यान का दीया लेकर अपने भीतर खोज करो कहां से बुराई आती है।

बुद्ध से कोई पूछता कि क्रोध कैसे छोड़ें तो बुद्ध कहते, पहले यह तो जानो कि तुम क्रोध करते कैसे हो। छोड़ने की बात पीछे। नंबर दो है, दोयम। प्रथम है, तुम क्रोध करते कैसे हो। तो अब तुम ऐसी कोशिश करो कि जब क्रोध हो तब तुम पूरी तरह जागकर देखना कि क्रोध उठता कैसे है। यह सीधी बात है।

बुद्ध एक दिन सुबह-सुबह अपने भिक्षुओं के बीच आए, बैठे; और उन्होंने एक रूमाल हाथ में लिया हुआ था, उसमें एक गांठ बांधी, दूसरी गांठ बांधी, पांच गांठें बांधीं। भिक्षु देखते रहे चौंककर कि मामला क्या है? ऐसा उन्होंने कभी किया न था।

फिर उन्होंने पूछा कि भिक्षुओ, इस रूमाल में पांच गांठें लग गईं। तुमने दोनों हालतें देखीं, जब इसमें कोई गांठ न थी और अब जब कि गांठ लग गई। क्या यह रूमाल दूसरा है या वही है? गांठ से शून्य और गांठ लगे रूमाल में कोई फर्क है या यह वही है?

एक भिक्षु ने कहा कि महाराज! आप झंझट में डालते हैं। एक अर्थ में तो यह रूमाल वही है। गांठ जरूर लग गईं लेकिन रूमाल तो वही का वही है। और दूसरे अर्थ में रूमाल वही नहीं है क्योंकि पहले रूमाल में गांठें नहीं थीं। वह गांठमुक्त था, इसमें गांठें हैं।

बुद्ध ने कहा, ऐसा ही आदमी है। आदमी परमात्मा ही है, बस गांठें लग गई हैं। फर्क इतना ही है जितना गांठ लगे रूमाल में और गैर-गांठ लगे रूमाल में है! दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। गांठ में थोड़ी उलझन बढ़ गई है, बस। गांठ खोलनी है।

तो बुद्ध ने कहा, ठीक है, गांठ खोलनी है। तो मैं तुमसे पूछता हूं, मैं क्या करूं कि जिससे गांठ खुल जाएं? और उन्होंने दोनों रूमाल के कोने पकड़कर खींचना शुरू किया। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि महाराज! इससे तो गांठें और छोटी हुई जा रही हैं। आप खींच रहे हैं, इससे तो गांठों का खुलना मुश्किल हो जाएगा। यह कोई ढंग न हुआ खोलने का। इससे तो और उलझन बढ़ जाएगी। खींचने से कहीं गांठें खुली हैं? गांठें छोटी होती जा रही हैं, और सूक्ष्म होती जा रही हैं। इतनी छोटी हो जाएंगी तो फिर खोलना मुश्किल हो जाएगा।

तो बुद्ध ने कहा, मैं क्या करूं? तो उस भिक्षु ने कहा, आप रूमाल मेरे हाथ में दें। मैं पहले देखना चाहता हूं कि गांठें किस ढंग से लगाई गई हैं। क्योंकि जब तक यह पता न हो कि लगाई कैसे गईं तब तक खोली नहीं जा सकतीं। बुद्ध ने कहा, मेरी बात तुम्हारी समझ में आ गई। इतना ही दिखाने के लिए मैंने यह रूमाल, ये गांठें और यह प्रयोग किया था।

जिस चीज को भी खोलना हो वह लगी कैसे? खोलने के लिए जल्दी मत करना। क्योंकि डर यह है कि कहीं तुम खींचनेत्तानने में गांठ को और छोटा न कर लो।

और मैं ऐसा ही देखता हूं। यही हुआ है, हो रहा है। आदमी क्रोध को छोड़ना चाहता है। और इसको बिना समझे कि क्रोध की गांठ लगी कैसे, खींचतान में पड़ जाता है। क्रोध की गांठ और छोटी हो जाती है। संसारी में क्रोध की गांठ थोड़ी फुसली-फुसली है, जल्दी खुल सकती है। त्यागी में बहुत मुश्किल है। गृहस्थ में इतनी उलझी नहीं है, जितनी संन्यासी में उलझ जाती है। घर में जो बैठा है, इसकी बड़ी मोटी-मोटी गांठ है। वह जो मुनि होकर मंदिर में बैठ गया है, उसकी बड़ी सूक्ष्म गांठ है। उसने खूब खींच ली हैं। हां, सूक्ष्म होने में एक लाभ मालूम पड़ता है–लाभ है नहीं–वह यही मालूम पड़ता है कि गांठ अगर बहुत सूक्ष्म हो जाए तो किसी को दिखाई नहीं पड़ती। मगर गांठ से छुटकारा थोड़े ही होता है! दिखाई नहीं पड़ने से छुटकारा तो नहीं होता।

तो लोग गांठों को सूक्ष्म करते जाते हैं। तुम कामवासना छोड़ना चाहते हो। ब्रह्मचर्य की चर्चा सदियों तक चली है। ब्रह्मचर्य के बड़े स्तुति में गीत गाए गए हैं। तो तुम्हारे मन में भी लोभ जगता कि हम भी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हों। अच्छा है, शुभ है भाव, लेकिन जब तक कामवासना को समझा नहीं, तब तक तुम मुक्त कैसे हो सकोगे? जब तक कामवासना को जागकर देखा नहीं कि यह गांठ लगती कैसे? इसके लगने की विधि क्या है? यह कैसे जकड़ लेती है और मन को घेर लेती है, और मन को डुबा लेती है? खींच लेती, अवश कर देती, असहाय कर देती। जहां नहीं जाना वहां खिंचे चले जाते हैं। जो नहीं करना वह फिर-फिर कर लेते हैं। इस गांठ को ठीक से जानना जरूरी है।

तो महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति संवरविहीन है…। संवर महावीर का पारिभाषिक शब्द है। संवर का अर्थ है आने का मार्ग। जिसने मूल उदगम को नहीं रोका है। कुएं से पानी उलीच रहा है और झरना नया पानी लिए चला आ रहा है। झरना भरे जा रहा है कुएं को और तुम उलीचे जा रहे हो। तुम्हारे उलीचने से कुछ लाभ नहीं है। खतरा तो यह है कि तुम्हारे उलीचने से आनेवाला झरना और गतिमान हो जाएगा।

यह तुमने खयाल किया होगा। अगर किसी कुएं का पानी वर्षों तक न भरो तो सूख भी सकता है। क्योंकि जब पानी कोई भरता ही नहीं कुएं में तो झरना धीरे-धीरे अवरुद्ध हो जाता है। धूल जम जाती है। कंकड़-पत्थर बैठ जाते हैं, मिट्टी बैठ जाती है। झरना धीरे-धीरे मुंद जाता है। झरने का काम ही नहीं रह जाता। तुम एक बाल्टी पानी निकालते हो, एक बाल्टी पानी झरने को कुएं में भरना पड़ता है। तो झरना चलता रहता है। जो झरे, वही झरना। जब झरे ही न, तो झरना बंद हो जाता है।

अगर वर्षों तक कुएं से पानी न भरा जाए तो संभव है कुआं सूख जाए। लेकिन उलीचनेवाला अगर झरने बंद न करे, तब तो कुआं कभी नहीं सूखेगा। क्योंकि कुएं के पीछे सागर छिपा है, जहां से झरने भागे चले आ रहे हैं। इधर तुम उलीचते हो, झरनों को और गति मिल जाती है। वे और तेजी से भागे चले आते हैं। उनको और काम मिल जाता है।

इसलिए जिस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य को थोपने की कोशिश की और कामवासना के झरने को रोका नहीं, कामवासना को समझा नहीं, उसके विज्ञान को पहचाना नहीं, वह और मुश्किल में पड़ जाएगा। तुम कोशिश करके देखो। जैसे-जैसे तुम ब्रह्मचर्य की चेष्टा करोगे, तुम पाओगे खोपड़ी में झरने ही झरने खुल गए, वासना ही वासना के। वही-वही विचार उठते हैं, वही-वही स्वप्न आते हैं। कहीं भी नजर डालो, तुम्हें बस वासना का ही विस्तार दिखाई पड़ेगा। तुम जो भी देखोगे वहां वासना दिखाई पड़ेगी।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोवैज्ञानिक के पास गया था। एक ऊंट निकल रहा था रास्ते पर से। तो उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा, इस ऊंट को देखकर तुम्हें किस बात की याद आती है? उसने कहा, स्त्री की। जरा मनोवैज्ञानिक भी चौंका। उसने कहा अच्छा कोई बात नहीं। यह जो घड़ी लटकी है इसको देखकर तुम्हें किसकी याद आती है? उसने कहा, स्त्री की। उसने कहा, मुझे देखकर तुम्हें किसकी याद आती है, उसने कहा, स्त्री की। उसने कहा, तुम हद्द पागल आदमी हो! उसने कहा, पागल क्या? मुझे स्त्री के सिवाय किसी की याद ही नहीं आती। इसमें ऊंट का कोई संबंध नहीं है, न घड़ी का, न तुम्हारा। मुझे याद ही स्त्री की आती है। इससे ऊंट का कोई संबंध मत जोड़ना कि ऊंट को देखकर मुझे स्त्री की याद आती है। याद ही बस एक आती है।

तुम जरा कोशिश करके देखो। जिस चीज से तुम जबर्दस्ती छूटना चाहो, उसकी याद सघन हो जाती है। एक दिन तय करके देख लो कि महीनेभर ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। महीनेभर का ही लेना, ज्यादा का मत लेना क्योंकि प्रायोगिक है। उस महीने में तुम पाओगे कि सारी जीवन-ऊर्जा बस कामवासना में ही संलग्न हो गई। दो-चार दिन उपवास करके देख लो, बस भोजन ही भोजन, भोजन ही भोजन। ऐसे विचार तुम्हें भोजन के पहले कभी भी न आते थे, वे उपवास में आते हैं। तो उल्टी घटना घट जाती है।

मैं जैनों के घरों में ठहरता रहा। उनके पर्युषण पर्व आते, दस-दस दिन का उपवास कर लेते। इधर सोहन बैठी है पीछे; वह आठ-आठ दिन के उपवास करती रही, उससे पूछो। सालभर चौके में काम करती है, भोजन बनाती है, भोजन खिलाती है–और अच्छा भोजन बनाती है–भोजन की याद ही न आएगी। अक्सर जो महिलाएं भोजन बनाती हैं उनको भोजन में रस ही खो जाता है। भोजन बनानेवाले को भोजन करने में उतना मजा नहीं आता।

लेकिन उपवास कर लो तो सब झरने खुल जाते हैं। सब तरफ से रसधार बहने लगती हैं। जैसे स्वाद ही जीवन का केंद्र बन जाता है। और इसलिए जैन पर्युषण के बाद जैसे भोजन पर टूटते हैं…! तुम जाकर साग-सब्जीवालों से पूछ सकते हो कि पर्युषण के बाद एकदम दाम बढ़ जाते हैं। मिठाई के दुकानदारों से पूछ सकते हो कि पर्युषण के बाद एकदम बिक्री बढ़ जाती है। आठ दिन, दस दिन किसी तरह सोच-सोचकर विचार कर-करके टाले रखते हैं। और दस दिन के बाद पागल होकर टूट पड़ते हैं।

जिस चीज को तुम जबर्दस्ती रोकोगे, उसको महावीर कहते हैं यह तपश्चर्या तो हुई, संवर न हुआ। अकेली तपश्चर्या से कोई मुनि मोक्ष को उपलब्ध नहीं होता। संवर पहली बात है। झरने को सुखाओ।

झरना कहां है? सभी चीजों का मौलिक झरना कहां है? वह मनुष्य की अचेतना में है। वह मनुष्य की मूर्च्छा में है। हम बेहोश हैं। हमें पता ही नहीं गांठ कैसे लगती है! रोज गांठ लगती है और हम देख नहीं पाते। क्रोध रोज उठता है और हम देख नहीं पाते कि यह गांठ हमारे रूमाल पर लगती कैसे?

तो अब जब क्रोध उठे तो उस मौके को खोना मत। वह बड़ा स्वर्ण-अवसर है। क्रोध जैसी महत्वपूर्ण घटना घट रही है। इसे तुम फिजूल की बकवास में खराब मत कर देना। जब क्रोध उठे तो द्वार-दरवाजे बंद करके बैठ जाना। और क्रोध की गांठ तुम्हारे मन पर कैसे लग रही है उसका पूरा दर्शन करना, अवलोकन करना, निरीक्षण करना, देखना, दबाना मत, क्योंकि दबाने की कोई जरूरत नहीं है। किसी पर निकालना भी मत, क्योंकि किसी पर निकालने में समय खो जाएगा। वह तो घड़ी देखने की है, साक्षात्कार की।

किसी ने गाली दी, तुम क्रोध से उबलने लगे; भागो! बंद करो अपना द्वार-दरवाजा। बैठकर कमरे में आंख बंद करके देखो। यह जो धुआं उठ रहा है क्रोध का, कहां से आ रहा है? कहां है इसका ईंधन? कहां है इसकी मूल चिनगारी?

और यह तो तभी संभव है इसको देखना, जब तुम कोई विरोध न करो। तुम यह न कहो कि यह बुरा है, गंदा है, पाप है। क्योंकि जैसे ही तुमने यह कहा, तुम्हारी आंखें बंद हो गईं। दुश्मन को हम आंख मिलाकर थोड़े ही देखते हैं! सिर्फ गहरे प्रेम में ही, मैत्री में ही किसी की आंख में आंख डालकर देखते हैं। दुश्मन से तो हम बचकर निकल जाते हैं।

अगर क्रोध को तुमने दुश्मन समझ लिया तो फिर तुम कभी क्रोध का निरीक्षण न कर पाओगे। निरीक्षण न किया तो गांठ कैसे लगती है, समझ में न आएगा। गांठ कैसे लगती है समझ में न आया तो गांठ खोलोगे कैसे? कसमें खाने से थोड़े ही गांठ खुलती है!

इसलिए मैं कहता हूं महावीर ने धर्म को वैज्ञानिक रूप दिया। धर्म को मनोविज्ञान बनाया। उसको ठीक जहां से काम शुरू होना चाहिए, वहां से इशारे किए।

पहला इशारा उनका यह है कि मूलस्रोत की पहचान; मूल उदगम की पहचान।

और तुमने खयाल किया? अगर गंगा को पकड़ना हो, वश में करना हो तो गंगोत्री पर जितना सरल है फिर आगे कहीं भी उतना सरल नहीं है। गंगोत्री पर तो ऐसे छोटा-सा झरना है गंगा। गौमुख में से गिरती है, बहुत बड़ी हो भी नहीं सकती। गंगा को अगर वश में करना हो तो गंगोत्री पर करना आसान है। प्रयाग में या काशी में अगर वश में करने गए तो तुम पागल हो जाओगे। वह वश में होनेवाली नहीं। बहुत बड़ी हो जाती है।

सभी चीजें अपने मूल उदगम पर बड़ी छोटी होती हैं, तुम्हारी सीमा के भीतर होती हैं।

तो क्रोध को वहां देखो, जहां से क्रोध उठता है। काम को वहां देखो जहां से काम उठता है। झगड़े का सवाल नहीं है। एक वैज्ञानिक अवलोकन की बात है।

“यह जिनवचन है कि संवरहीन मुनि को केवल तप करने से मोक्ष नहीं मिलता, जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता।’

तो पहली चीज, मूलस्रोत की पहचान। उस मूलस्रोत को एक ही नाम दिया जा सकता है, वह है मूर्च्छा। महावीर का शब्द है प्रमाद–सोए-सोए जीना।

हम जी तो जरूर रहे हैं, लेकिन हमारा जीना बड़ी तंद्रा से भरा हुआ है। कुछ ठीक पक्का पता नहीं है क्यों जी रहे हैं। कुछ पक्का पता नहीं कौन हैं। कुछ पक्का पता नहीं कहां जा रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। धक्कमधुक्की है, चले जा रहे हैं।

कभी भीड़ में देखा? कोई भीड़ का रेला आ रहा हो, लोग चले जा रहे हों, तुम भी चले जा रहे हो। रुकना भी मुश्किल क्योंकि भीड़ धक्के दे रही है। तुम्हें यह पक्का पता भी नहीं कहां जा रहे, कहां से ले जाए जा रहे, यह भीड़ कहां जा रही है। लेकिन यह सोचकर कि सब जा रहे हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे, आदमी चलता चला जाता है। हम पैदा भीड़ में होते हैं, और भीड़ में ही मर जाते हैं। और हमें पता ही नहीं चल पाता हमें जाना कहां था, होना क्या था। क्या होने को हम पैदा हुए थे। हमारी नियति क्या थी। हमारा स्वभाव क्या था।

यह मूर्च्छा तोड़ना पहली बात है। कैसे टूटे यह मूर्च्छा? जो भी करो, महावीर कहते हैं; विवेकपूर्वक करो।

जैन मुनि विवेक का बड़ा गलत अर्थ करते हैं। जब तुम जैन मुनि से पूछोगे कि महावीर जब कहते हैं “जयं चरे, जयं चिट्ठे’–विवेक से उठें, विवेक से बैठें, तो उनका मतलब क्या है? तो जैन मुनि कहेगा, विवेक से बैठने का मतलब जमीन झाड़कर बैठें। कोई चींटी न मर जाए। पानी छानकर पीएं कि कोई हिंसा न हो जाए। यह विवेक का अर्थ!

यह विवेक का अर्थ नहीं है। विवेक का अर्थ है, बैठने की क्रिया में मूर्च्छा न हो। जब तुम बैठो तो सिर्फ बैठो। उस वक्त तुम्हारा चैतन्य सिर्फ बैठने का ही काम करे, बस। जब तुम चलो तो सिर्फ चलने का ही काम करे, बस। तुम कुछ और हजार बातें न सोचो।

रास्ते पर तुम चल रहे हो, हजार बातें सोच रहे हो। तो चलना तो मूर्च्छित होगा ही। मन हजार जगह एक साथ थोड़े ही हो सकता है। एक ही जगह हो सकता है। भोजन तुम कर रहे हो, उस वक्त बैठे तुम दुकान पर विचार कर रहे हो। बैठे घर में, भोजन कर रहे, विचार चल रहा बाजार का।

मैंने सुना है, एक आदमी एक साधु के पास जाता था। बड़ा भक्तिभाव में रस लेता था, भजन-कीर्तन करता था। और जो लोग भी भजन-कीर्तन इत्यादि करने लगते हैं, वे चाहते हैं सभी को करवा दें। हिंसा का भाव है वह। क्योंकि तुम कौन हो सभी को करवाने वाले? वह अपनी पत्नी को भी लगाना चाहता था। दुनिया में सबसे कठिन काम वही है। पति को अगर भजन-कीर्तन करना है, पत्नी निश्चित रूप से भजन-कीर्तन नहीं करेगी। दो में से एक ही करता है। दोनों…आकस्मिक संयोग हो जाए, बात अलग। ऐसा होता नहीं।

तो वह पत्नी को बड़ी खींचतान मचाता था, बड़ा शोरगुल मचाता था कि चल, धर्म कर कुछ। समय खो रही है। जीवन जा रहा है। लेकिन पत्नी अपनी जिद्द पर थी। उसने अपने गुरु को कहा। गुरु ने कहा, मैं आऊंगा। मैं तेरी पत्नी को समझाऊंगा। कल सुबह आता हूं पांच बजे।

तो पति तो उठ जाता था चार बजे ही से। जोर से शोरगुल मचाता था। उसको ही वह भजन-कीर्तन कहता था। हालांकि मोहल्ला भर उसको गाली देता था। बच्चे घर के गाली देते थे। मगर धार्मिक आदमी जब इस तरह के काम करता है तो कोई रुकावट भी नहीं डाल सकता।

वह जब आया साधु, उसने द्वार पर दस्तक दी तो पत्नी बुहारी लगा रही थी। उसने पत्नी से कहा कि देखो, तुम्हारा पति कितना ध्यान में लीन है! उसकी पत्नी ने कहा, छोड़ो बकवास! वह इस समय बाजार गया हुआ है और एक जूते की दुकान पर जूते खरीद रहा है।

वह पति तो अंदर बैठा था। उसने यह सुना तो वह बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा हद्द हो गई! झूठ की भी एक सीमा होती है। पांच बजे रात न तो दुकानें खुलीं, और मैं इधर अपने ध्यान में लगा हूं। अब यह दिखता है कि यह सोचकर कि मैं बीच में उठ नहीं सकता…। वह निकलकर बाहर आ गया। उसने कहा, तूने समझा क्या है? मैं इधर घर में बैठा हूं। ध्यान कर रहा हूं, तुझे पता है। झूठ बोल रही है सरासर!

उसकी पत्नी ने कहा, अब तुम ईमान से कह दो। कम से कम तुम्हारे गुरु की मौजूदगी में ईमान से कह दो, कि तुम नहीं चमार की दुकान पर थे? जूते नहीं खरीद रहे थे?

वह थोड़ा चौंका। और गुरु सामने खड़ा था, एकदम झूठ बोल भी न सका। गुरु ने कहा, क्या मामला क्या है?

उसने कहा, यह बात तो ठीक कह रही है मगर इसको पता कैसे चला? क्योंकि जूते फट गए हैं मेरे, तो मैं ध्यान तो कर रहा था, लेकिन खयाल बाजार का था। और मैं जरूर पहुंच गया था चमार की दुकान पर। झगड़ा मच गया था, क्योंकि दाम वह बहुत ज्यादा बता रहा था। मोल-भाव कर रहा था। मगर इसको पता कैसे चला?

अब यह तो किसी को भी पता नहीं कि स्त्रियों को पता कैसे चलता है, मगर चल जाता है। छिपा नहीं सकते स्त्रियों से कुछ। पता चल ही जाता है।

तो तुम जब ध्यान कर रहे हो, तब ध्यान ही हो। मगर यह तभी हो पाएगा जब तुम और काम भी ध्यानपूर्वक ही करने लगो। चलो तो सिर्फ चलो। भोजन करो तो सिर्फ भोजन करो। बिस्तर पर लेटो तो बस फिर लेट ही जाओ। फिर मन न दौड़ता रहे हजार जगह! नहीं तो लेटने की क्या जरूरत? दौड़ते ही रहो।

लोग लेट जाते हैं बिस्तर पर, फिर कहते हैं नींद नहीं आती। नींद न आने का कुल कारण इतना है कि तुम लेटते ही नहीं। शरीर तो पड़ा है बिस्तर पर लाश की भांति; मन भाग रहा है दूर-दूर लोकों में; न मालूम कहां-कहां की योजनाओं में।

जब मन भागा हुआ है तो नींद नहीं घट सकती। विश्राम तो तभी संभव है जब मन और शरीर तालमेल करते हैं। मन कहीं जा रहा है, शरीर बिस्तर पर पड़ा है। दोनों में इतना खिंचाव है, तनाव है, नींद संभव नहीं है।

साधु ही सोता है। साधु ही सो सकता है। क्योंकि साधु ही जगता है। जब जगता है तो बस जगता है। जब सोता है तो बस सोता है।

महावीर का जो वचन है, विवेक, जागरूकता, अप्रमाद, यतनाचार, जतनपूर्वक जीना–उसका अर्थ जैन मुनि बड़ा क्षुद्र कर रहे हैं। हालांकि जो वे अर्थ कर रहे हैं वह मेरे अर्थ में समाविष्ट हो जाता है, लेकिन उनके अर्थ में मेरा अर्थ समाविष्ट नहीं होता।

जो व्यक्ति जागरूकता से जीएगा वह स्वभावतः देखकर चलेगा कि किसी कीड़े-मकोड़े पर पैर न पड़ जाए। इसके लिए देखकर चलने की अलग से जरूरत न रहेगी, जागकर चलना काफी है। वह तो नींद में ही, बेहोशी में ही चलते हो इसलिए ऐसी भूल हो जाती है।

जो आदमी जागकर जी रहा है उसके सारे जीवन की प्रक्रियाओं में जागरण का प्रकाश पड़ने लगेगा। उसके जीवन से हिंसा समाप्त हो जाएगी। जिसके भीतर तनाव नहीं, उसके बाहर हिंसा समाप्त हो जाती है। जिसके भीतर संघर्ष नहीं, उसके बाहर संघर्ष समाप्त हो जाता है। बाहर तो हम लड़ते इसीलिए हैं कि भीतर लड़ रहे हैं। बाहर तो हमारे जीवन में धुआं इसीलिए दिखाई पड़ता है कि भीतर हम जल रहे हैं।

बाहर के बदलने से कुछ भी न होगा, भीतर की बदलाहट होगी तो बाहर की बदलाहट अपने से हो जाती है। अंतस बदला तो आचरण अपने से बदल जाता है।

तो मेरी दृष्टि में महावीर के सूत्र का अर्थ हुआ: अंतस में दीया जला रहे।

तुम जरा कोशिश करो। बहुत कठिन मामला है। जैन मुनि जो कहता है वह सरल है; इसलिए दो कौड़ी का है। वह तो कोई भी अभ्यास कर ले सकता है। उसका कोई बहुत मतलब नहीं है।

पानी छानकर पी लेने का कोई बहुत मतलब नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा कि पानी छानकर मत पीना। लेकिन यह मत समझ लेना कि पानी छानकर पी लिया तो मोक्ष कुछ करीब आ गया। ठीक किया। हाइजनिक है, स्वास्थ्यवर्धक है। पानी छानकर पीया तो वैज्ञानिक दृष्टि से ठीक काम किया। लेकिन इससे कुछ मुक्ति करीब आ रही है ऐसा मत सोच लेना। जमीन बुहारकर बैठे, ठीक किया। जो करने योग्य था वह किया। लेकिन इससे कुछ अतिमानवीय रोशनी का जन्म नहीं हो जाएगा। इससे कुछ परमात्मा तुममें नहीं उतर आएगा।

इतने सस्ते में तुम परमात्मा को लाना चाहते हो तो तुम जरा जरूरत से ज्यादा मांग रहे हो। तुम कहते हो, हम रोज बुहारी लगाकर बैठे, रोज पानी छानकर पीया, मोक्ष कहां है? लेकिन तुम मोक्ष की कीमत कितनी आंक रहे हो? मोक्ष का मतलब हुआ: बुहारी लगाकर बैठे + पानी छानकर पीया = मोक्ष? मोक्ष दो कौड़ी का कर दिया तुमने।

नहीं, मोक्ष बड़ी घटना है। और उस बड़ी घटना की बड़ी तैयारी जरूरी है।

उस तैयारी का पहला कदम तुम उठाना शुरू करो। मैं कहता हूं कठिन है। क्योंकि अगर तुम जागकर चलना चाहोगे तो तुम पाओगे, क्षणभर भी नहीं चल पाते। अगर भोजन तुम होश से करना चाहोगे तो एकाध कौर कर लिया तो बहुत। फिर भटके, फिर भटके। लेकिन बार-बार लौटाते रहो! पकड़-पकड़कर अपने घर आते रहो। फिर जब याद आ जाए कि अरे! कहां चला गया? फिर चबाने लगे बिना होश के, फिर लौटकर आ जाओ। फिर हाथ शिथिल कर लो। फिर से अपने को जगाकर बैठ जाओ। फिर से भोजन शुरू कर दो।

राह चलते-चलते एक कदम चलोगे, होश रहेगा, दूसरे कदम पर फिर बेहोशी आ गई, फिर कोई खयाल उतर आया, फिर किसी खयाल में खो गए। जब याद आ जाए, फिर अपने को सम्हाल लो। शुरू-शुरू में तो ऐसा ही होगा। पकड़ोगे, खोओगे; पकड़ोगे, खोओगे। हाथ लगेगा धागा, छूटेगा; छूटेगा हजार बार।

तुम फिकिर मत करो। हजार बार छूटे, हजार बार पकड़ो। इससे हताश भी मत होना, क्योंकि यह बात ही ऐसी है कि सधते-सधते सधती है। यह बात इतनी मूल्यवान है कि यह एक दफा में सध जाती तो इसका कोई मूल्य ही न था। ये कोई मौसमी फूल नहीं हैं कि डाल दिए बीज और दो-चार सप्ताह में फूल आ गए। ये तो देवदार और चिनार के बड़े वृक्ष हैं, जो बहुत समय लेते हैं। बड़े होते हैं। आकाश को छूने जाते हैं।

मोक्ष से बड़ी और कोई घटना इस संसार में नहीं है, न इस संसार के बाहर है। मोक्ष महत्तम घटना है। इसलिए उसके लिए जितना भी श्रम किया जाए वह अंततः थोड़ा है। जब मोक्ष की उपलब्धि होती है तो पता चलता है, जो हमने किया था वह न कुछ था। हां, जब तक मिला नहीं है मोक्ष, तब तक ऐसा लगता है कि कितना कर रहे हैं, और कुछ भी नहीं हो रहा है…कुछ भी नहीं हो रहा है।

और बात खयाल रखना, जैसे सौ डिग्री गर्मी पर पानी भाप बनता है–निन्यानबे पर भी भाप नहीं बनता, साढ़े निन्यानबे पर भी भाप नहीं बनता, ठीक सौ डिग्री पर बनता है। ऐसे ही तुम्हारे प्रयत्न की एक डिग्री है। तुम्हारी चेष्टा की एक डिग्री है, तुम्हारे तप की एक डिग्री है। ठीक उस जगह आकर अचानक रोशनी हो जाती है, अंधकार कट जाता है। उसके एक क्षण पहले तक गहन अंधेरी रात थी।

हताश मत होना। लौट मत जाना। यह मत सोचना कि क्या फायदा! हो सकता है, तुम सनतानबे डिग्री पर थे कि अनठानबे डिग्री पर थे और लौट गए, निराश हो गए। एक कदम और–एक कदम और। लौटना ही मत। जीवन की एक ही बात को याद रखो तो महावीर का सारा सार-संचय तुम्हारे पास रहेगा। उठो जागकर, बैठो जागकर, चलो जागकर, बोलो, सुनो–जो भी करो–अपने को झकझोर कर। भीतर दीया जागने का जगा रहे।

तुम मुझे यहां सुन रहे हो, तुम इस तरह सुन सकते हो कि बैठे हैं, हजार बातें चल रही हैं खोपड़ी में, यह मेरी बात भी सुनाई पड़ रही है उन्हीं हजार बातों के बीच में। कहीं-कहीं कुछ-कुछ शब्द भीतर प्रवेश कर जाते हैं। वे हजार बातों में लिपटकर उनका अर्थ भी बदल जाता है। कुछ का कुछ सुनाई पड़ जाता है। कहा कुछ, सुन कुछ लेते हो। अर्थ कुछ था, अर्थ कुछ निकाल लेते हो। ऐसे सोए-सोए सुनकर तुम जो ले जाते हो, वह तुम्हारा ही होगा। उसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है।

जागकर सुनो। जागकर सुनने का अर्थ है, सुनते वक्त तुम कान ही कान हो जाओ। तुम्हारा पूरा शरीर कान की तरह काम करे तो जागकर सुना। भोजन करते वक्त तुम स्वाद ही स्वाद हो जाओ। तुम्हारा पूरा शरीर बस भोजन करे। चलते वक्त तुम पैर ही पैर हो जाओ। बस तुम चलो। सोचते वक्त तुम मन ही मन हो जाओ; फिर सिर्फ सोचो।

तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सोचने के लिए समय ही मत दो। घड़ी दो घड़ी निकाल लो और उस समय सिर्फ सोचो। जरूरत है उसकी भी। वह भी तुम्हारे जीवन का अंग है। उसे भी समय चाहिए। सब समय को ठीक से बांट दो। मगर एक खयाल रहे कि जो भी कृत्य हो वह मूर्च्छा में न हो।

अगर हाथ में आ-आकर होश छूट जाता हो, तो इतना ही खयाल रखना कि थोड़ी चेष्टा और।

मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल

हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद

–स्वीकार हो जाती प्रार्थना।

मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल

हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद

अगर नहीं मिलती प्रार्थना को स्वीकृति, अगर प्रार्थना पूरी नहीं होती तो इतना ही जानना कि अभी दिल की हिम्मत, दिल का साहस–अभी दिल खोलकर मांगा ही नहीं। द्वार पर दिल खोलकर दस्तक ही न दी। कुछ कमी रह गई।

इतना ही खयाल रखना कि कुछ कमी रह गई। फिर चेष्टा करना। किसी भी दिन कमी पूरी हो जाएगी। और कोई भी नहीं कह सकता, कब पूरी हो जाएगी। क्योंकि अब तक कोई थर्मामीटर नहीं बन सका, जिससे हम पता लगा सकें कि आदमी का होश समाधि के करीब आ गया या नहीं। कोई उपाय नहीं।

जैसे थर्मामीटर में हम पता लगा लेते हैं कि आदमी का बुखार ज्यादा तो नहीं हो गया? कम तो नहीं हो गया? अब तक कोई थर्मामीटर नहीं बना, कि पता चल सके कि आदमी का होश कितना है? अभी होश को मापने का कोई उपाय नहीं है।

इसलिए तुम्हें टटोल-टटोलकर ही चलना होगा। मगर एक बात पक्की है–जिन्होंने खोजा, उन्हें मिला। अगर तुम्हें न मिले तो ऐसा मत सोचना कि होश मिलता ही नहीं। अधिक लोग जल्दी ही ऐसा सोच लेते हैं कि न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है, न कोई होश है। यह कुछ होनेवाली बात नहीं है। इस तरह पस्ते-हिम्मत मत हो जाना, हताश मत हो जाना।

तपश्चर्या का यही अर्थ है, जब महावीर कहते हैं तप, तो उनका यही अर्थ है। तप का अर्थ है, अपने को तपाते जाना, गरमाते जाना। सौ डिग्री पर भाप बनोगे, छलांग लगेगी। देखा! पानी नीचे की तरफ बहता है। फिर जब भाप बन जाता है तो ऊपर की तरफ उठने लगता है। वही पानी, जो सदा नीचे की तरफ बहता था, अब अचानक ऊपर की तरफ उठने लगता है। वही पानी जो दृश्य था, अब अदृश्य होने लगता है। वही पानी जो गङ्ढों की तलाश करता था, आकाश की तलाश में निकल जाता है। बस सौ डिग्री का फर्क है!

ठीक ऐसे ही मनुष्य की चेतना साधारणतः नीचे की तरफ बहती है। इस नीचे की तरफ बहने को हम पाप कहें। जब ऊपर की तरफ बहने लगती है तो पुण्य कहें। और इन दोनों के बीच जो जोड़नेवाला सेतु है, वह तप है। तप शब्द बिलकुल ठीक है। वह ताप से ही बना है; गर्मी से ही बना है।

लेकिन कुछ नासमझ हैं, वे धूप में खड़े हो जाते हैं। वे कहते हैं, तप कर रहे हैं। कुछ नासमझ हैं, अंगीठियां लगाकर बैठ जाते हैं। वे कहते हैं तप कर रहे हैं।

आदमी के पागलपन की कोई सीमा नहीं। अंगीठियां लगाकर तुम तप करोगे? शरीर को जला लोगे, पसीने-पसीने हो जाओगे। इससे तप का कोई संबंध नहीं है। धूप में खड़े रहोगे–सिर से सूरज को ऊगने-डूबने दोगे? इससे तप का कोई संबंध नहीं है। तुम नाहक कष्ट झेलोगे।

तप है आंतरिक। खयाल करो, सूरज की किरणों में दोनों बातें हैं: ताप भी है, और प्रकाश भी है। प्रत्येक ताप के साथ प्रकाश भी जुड़ा है। प्रकाश के दो गुणधर्म हैं: एक तो चीजों को प्रकाशित करना और उत्तप्त करना।

ऐसे ही तुम्हारे भीतर चैतन्य का जब प्र्रकाश जगना शुरू होता है तो दो घटनाएं घटती हैं। एक तो तुम भीतर प्रकाशित होने लगते हो और तुम्हारी जीवन-ऊर्जा उत्तप्त होने लगती है। तो एक तरफ तो तुम सौ डिग्री की तरफ बढ़ने लगते हो, जहां छलांग लगेगी, सीमा टूटेगी। दृश्य का बंधन गिरेगा। नीचे की तरफ बहने की पुरानी आदत से छुटकारा होगा। और दूसरी तरफ जैसे-जैसे ताप सघन होता जाएगा वैसे-वैसे तुम रोशनी से मंडित होते जाओगे। तुम्हारे भीतर एक प्रभामंडल जन्मेगा। अंगीठियां जलाने की जरूरत नहीं; तुम्हारे चेहरे से, तुम्हारी आंखों से, तुम्हारे व्यक्तित्व से, तुम्हारे उठने-बैठने से, प्रकाश की झलक मिलनी शुरू होगी। तुम एक दीया बन जाओगे।

और धीरे-धीरे व्यक्ति पारदर्शी हो जाता है। तुम उसके दीये को बाहर से भी देख सकते हो। जिनके पास भी थोड़ी देखने की आंख है और सहानुभूति से भरी आंख है, वे किसी भी जीवित-जागते व्यक्ति के भीतर रोशनी को देखने में समर्थ हो जाते हैं।

तो तपश्चर्या का अर्थ तुम यह मत ले लेना कि अपने को व्यर्थ कष्ट देने हैं। तपश्चर्या का अर्थ है, जो कष्ट आ जाएं उन्हें स्वीकार करना है, देने नहीं हैं। आनेवाले कष्ट ही काफी हैं, अब और देने की क्या जरूरत है? इतने जन्मों के कर्मों का जाल है हमने बहुत-से कष्ट तो अर्जित ही कर लिए हैं; वे आ ही रहे हैं। बस उन्हें तुम सहिष्णुता से, समभाव से झेल लेना। दुखी मत होना। दुख आए तो, स्वीकार कर लेना। जो दुख आए तुम उससे परेशान और उद्विग्न मत होना, राजी हो जाना। कहना कि किसी को कभी दुख दिया होगा, वह लौट आया है। छुटकारा हुआ जाता है।

बुद्ध पर एक आदमी थूक गया तो बुद्ध बड़े प्रसन्न हो गए। उन्होंने आनंद से कहा, देख आनंद! इस आदमी पर जरूर मैंने कभी थूका होगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा है। कभी इसे कुछ दुख दिया होगा, कुछ अपमान किया होगा। आज छुटकारा हुआ। अगर यह न थूक जाता तो अटके रहते। इसके साथ उलझे रहते। यह छुटकारा होना ही था। आज खाता बंद। आज लेन-देन पूरा हो गया।

जब जीवन में दुख आए तो उसे इस भांति स्वीकार कर लेना कि अपने किए गए किसी कर्म का फल है, स्वीकार कर लिया। इससे उद्विग्न मत होना, तो नया दुख निर्मित न होगा और पुराना दुख भस्मीभूत हो जाएगा।

जिंदगी के गमों को अपनाकर

हमने दरअसल तुझको अपनाया।

वे जिसने जीवन के दुख स्वीकार कर लिये, उसने परमात्मा को स्वीकार कर लिया।

और मजे की बात है…साधारणतः हम सुख खोजते हैं और दुख पाते हैं। और जब कोई व्यक्ति दुख को स्वीकार करने लगता है तो जीवन में सुख की वर्षा होने लगती है। यह जीवन का गणित है। खोजो सुख, पाओगे दुख। मिले दुख, स्वीकार कर लो और तुम अचानक पाओगे, महत सुख उत्पन्न होने लगा। दुख के स्वीकार में ही सुख की क्षमता पैदा हो जाती है।

जरा करके देखो! जब कोई दुख आए, उसे स्वीकार करके देखो। छोटा-मोटा दुख! प्रयोग करो, स्वीकार कर लो। ऐसा सोचो ही मत कि मेरे ऊपर कोई विपदा आ गई है। ऐसा सोचो मत कि परमात्मा मेरे साथ अन्याय कर रहा है। ऐसा सोचो मत। शिकायत लाओ ही मत। गिला, शिकवा लाओ ही मत। इतना ही जानो कि मैंने कुछ दुख बोए होंगे, फल काट रहा हूं, ठीक, चलो निपटारा हुआ जाता है।

सिरदर्द आए…छोटा-सा दुख है, स्वीकार कर लो। स्वीकार में ही तुम अचानक पाओगे, एक क्रांति हो गई। जब तुम पूरे मन से स्वीकार करोगे, तुम पाओगे, सिरदर्द उतना दर्द न रहा, जितना मालूम होता था। अस्वीकार करने से दुख अनंतगुना मालूम होने लगता है। स्वीकार करने से क्षीण हो जाता है। अगर तुमने पूरी तरह स्वीकार कर लिया तो तुम अचानक पाओगे कि दर्द तो गया। इतना फासला हो जाता है तुममें और दर्द में।

अगर दर्द को भी तुमने मेहमान की तरफ स्वीकार कर लिया तो तप। अलग से दुख देने की कोई जरूरत नहीं है।

यह महावीर तो कह ही नहीं सकते कि अपने को दुख दो, क्योंकि महावीर कहते हैं, किसी को दुख मत दो; उसमें तुम भी सम्मिलित हो। यह तो बात बड़े पागलपन की हो जाएगी कि कहा जाए कि दूसरे को दुख मत दो और अपने को दुख दो। जो तुम दूसरे के साथ नहीं करते वह अपने साथ क्यों करो? दया दूसरे के साथ है तो अपने साथ भी चाहिए।

सच तो यह है कि जो अपने साथ दया करता है वही दूसरे के साथ दया कर सकता है। और जो अपने साथ कठोर है वह किसी के भी साथ कोमल नहीं हो सकता। जो अपने साथ कोमल नहीं, वह किसके साथ कोमल होगा? जो अपने से प्रेम नहीं कर सका वह किसी को प्रेम नहीं कर सकेगा। जो व्यक्ति अपने को प्रेम करता है वही दूसरों को प्रेम कर सकता है। जो घटना घटती है, पहले घर में घटती है, अपने भीतर घटती है; फिर उसकी किरणें दूसरों तक फैलती हैं।

इसलिए महावीर यह तो कह ही नहीं सकते कि तुम अपने को दुख दो। इतना ही कहा है कि जो दुख आए वह तुम्हारे दूसरों को दिए हुए दुखों का परिणाम है। उसे स्वीकार कर लो।

“अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या करोड़ों वर्षों में जितने कर्म का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक सांस में सहज कर डालता है।’

अब यह बात सीधी-साफ है, लेकिन फिर भी न मालूम कैसा दुर्भाग्य कि महावीर को माननेवाले लोग त्रिगुप्ति की तो बात भूल गए, बस वे करोड़ों वर्षोंवाली तपश्चर्या में लगे हुए हैं।

ज अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं बासकोडीहिं।

हजारों-लाखों वर्ष तक, लाखों जन्मों तक, कोटि-कोटि जन्मों तक कोई तप करे, तब कहीं बड़ा अल्प कर्म का विनाश होता है।

तं नाणी तिहिं गुत्तो…

और ज्ञानी त्रिगुप्ति के द्वारा…

खवेइ ऊसासमित्तेणं…

एक सांस में उतने कर्मों से मुक्त हो जाता है।

क्या है यह त्रिगुप्ति?

महावीर कहते हैं, “मन, वचन, काया, इनकी प्रवृत्तियों में जागरूक होकर जीना त्रिगुप्ति।’

ये तीन गुप्त बातें, ये तीन सीक्रेट, ये तीन कुंजियां–मन, वचन, काया। शरीर से जो भी करो, होशपूर्वक करना। मन से जो भी करो, होशपूर्वक करना। वचन से जो भी करो, होशपूर्वक करना। ये तीन कुंजियां–इनको जो साध लेता है, वह करोड़ों जन्मों में भी श्रम करके जो आदमी पाता है, उसे एक सांस में बिना श्रम के पा लेता है।

अज्ञानी आदमी कुछ भी करे तो जो भी करेगा, उसके अज्ञान से ही निकलेगा न! वह तप भी करे तो भी अज्ञान से निकलेगा। और अज्ञान से जो भी निकलेगा उससे नए कर्मबंधों का जन्म होता है। वह त्याग भी करे तो भी अज्ञान से ही करेगा।

अज्ञानी व्यक्ति का अर्थ है–यह मत सोचना कि जो शास्त्र नहीं जानता–अज्ञानी से अर्थ है, जो जागा हुआ नहीं है; जो ज्ञानपूर्वक नहीं जी रहा है।

यहीं सुविधा हो जाती है चीजों के अर्थ बदल लेने में। जब महावीर कहते हैं अज्ञानी व्यक्ति तो समझ में आ गई बात, कि ज्ञानी होना जरूरी है। पढ़ो शास्त्र, कंठस्थकरो शास्त्र, बन जाओ तोते, तो ज्ञानी हो जाओगे।

शब्द कितने ही संगृहीत हो जाएं, उससे कोई ज्ञानी नहीं होता। वह तो यंत्रवत है। पढ़ो, बार-बार पढ़ो, गुनो, याद हो जाते हैं। याद से तुम्हारे जीवन में थोड़े ही कुछ रोशनी आएगी! तुम्हारे जीवन में कोई दीया प्रगट हो, तुम्हारे जीवन में कोई अनुभव जगे, तुम्हारा अनुभव हो तो ही ज्ञान। उधार ज्ञान ज्ञान नहीं।

“मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं, क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है। वहां न तर्क का प्रवेश है, न वहां मानस-व्यापार संभव है। मोक्षावस्था संकल्प-विकल्पातीत है; साथ ही समस्त मल-कलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं है। रागातीत होने के कारण सातवें नर्क तक की भूमि का ज्ञान होने पर भी वहां किसी प्रकार का खेद नहीं है।’

पहले सूत्र में कहते हैं, अज्ञानी व्यक्ति करोड़ों जन्मों तक तपश्चर्या करे तो भी कुछ खास लाभ नहीं होता। ज्ञानी व्यक्ति क्षणभर में, श्वासभर में होश से जीए तो बहुत लाभ होता है।

इस बात को इंगित करने के लिए कि ज्ञानी से अर्थ शास्त्र को जाननेवाला नहीं है, तीसरा सूत्र बिलकुल साफ है।

महावीर कहते हैं, मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है। इसलिए शास्त्र काम न आएंगे। क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति ही नहीं है। वहां तो केवल चैतन्य का प्रवेश है, शब्दों का कोई प्रवेश नहीं है। वहां तुम तो जा सकते हो लेकिन तुम्हारी बुद्धि और तर्क नहीं जा सकता। तर्क और बुद्धि को पीछे ही छोड़ जाना पड़ता है।

जैसे कोई आदमी हिमालय पर चढ़ता है, तो जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ने लगती है, बोझ कम करने लगता है। पहले सोचा था सब सामान ले चलें। फिर जब पहाड़ चढ़ता है तो पता चलता है, इतना सामान तो ले जाना संभव न होगा। तो जो-जो काम का नहीं है, छोड़ दो। फिर और ऊंचे पहाड़ पर चढ़ता है तो पता चलता है, और भी कुछ छोड़ना पड़ेगा।

जब तेनसिंग और हिलेरी गौरीशंकर पर पहुंचे तो बिलकुल सब सामान छोड़कर पहुंचे। कुछ भी न था। उतनी ऊंचाई पर कुछ भी ले जाना संभव नहीं होता।

मोक्ष आखिरी ऊंचाई है चेतना की। वहां तो विचार भी ले जाने संभव नहीं होते, संकल्प-विकल्प भी संभव नहीं होते। इसलिए महावीर कहते हैं, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता।

इसलिए शास्त्र जो भी कहते हैं, वे सब प्राथमिक सूचनाएं हैं, अंतिम का कोई दर्शन नहीं है। शास्त्र जो भी कहते हैं, वह सब क, ख, ग, है। वह पहली, प्राथमिक पाठशाला है। शास्त्रों में जीवन का विश्वविद्यालय नहीं है, प्राथमिक शिक्षा है। शास्त्रों पर मत रुक जाना।

अनुभव ही जीवन का विश्वविद्यालय है। वहां शब्दों की कोई प्रवृत्ति नहीं है। क्योंकि जो व्यक्ति भीतर जाएगा, उसे पहले तो शरीर छोड़ना पड़ता है। क्योंकि शरीर हमारा सबसे बाहरी रूप है। जैसे कोई आदमी इस भवन में अंदर आएगा तो दरवाजा, दरवाजे से लगी हुई चारदीवारी छोड़कर आना पड़ता है।

तो पहले तो शरीर छूट जाता है। फिर जब और भीतर प्रवेश करते हैं तो मन की प्रक्रियाएं छूट जाती हैं। जब और भीतर प्रवेश करते हैं तो हृदय के भाव छूट जाते हैं। जब बिलकुल भीतर अपने घर में पहुंच जाते हैं, ठीक अंतर्गृह में, तो वहां शुद्ध चेतना बचती है, कोई भी और नहीं बचता–न शरीर, न मन, न भाव। इस शुद्ध अवस्था में मुक्ति के पहले दर्शन होते हैं।

तो महावीर कहते हैं, त्रिगुप्ति के द्वारा ऐसी मुक्ति की दशा का अनुभव तुम्हें होगा, वही ज्ञान है। वहां तर्क का प्रवेश नहीं, इसलिए कोई मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता कि है। न कोई सिद्ध कर सकता कि नहीं है। क्योंकि जो चीज सिद्ध ही नहीं की जा सकती तर्क से कि है, उसको असिद्ध भी नहीं किया जा सकता। सिर्फ अनुभव से जो लेगा स्वाद, वही जानेगा–गूंगे का गुड़। जो लेगा स्वाद, वह जानेगा कि है। लेकिन वह भी तुम्हें सिद्ध नहीं कर पाएगा।

अगर तुम गूंगे से पूछो कि तुझे स्वाद मिला, बोल! तो वह तुम्हारा हाथ खींचेगा। उस तरफ जहां उसको स्वाद मिला। तुम भी आ जाओ और तुम भी चख लो गुड़।

यही महावीर-बुद्ध, यही दुनिया के सारे सत्पुरुष कर रहे हैं। खींच रहे हैं हाथ तुम्हारा कि आओ! हम जहां गए, वहां खूब पाया। तुम भी थोड़ा स्वाद लो।

तुम कहते हो, पहले सिद्ध करो, फिर हम आएंगे। छोड़ो हाथ। ऐसे हाथ मत खींचो। हम ऐसे बुद्धिहीन नहीं हैं कि हर किसी के साथ हो लें। तुम पहले सिद्ध कर दो कि परमात्मा है, मोक्ष है, आत्मा है, तो हम आने को तैयार हैं। हम तर्कशील व्यक्ति हैं। हम सोच-विचार कर चलते हैं। हम अंधविश्वासी नहीं हैं।

तो फिर तुम कभी भी न जा सकोगे। तो तुम्हें पता नहीं तुमने किससे अपना हाथ छुड़ा लिया। तुमने उससे अपना हाथ छुड़ा लिया जो तुम्हें तुम तक पहुंचा देता। तुमने उससे अपना हाथ छुड़ा लिया जो तुम्हारे लिए जीवन में सौभाग्य की किरण होकर आया था। और तुमने जिस बात के नाम पर हाथ छुड़ा लिया उस कूड़ा-कर्कट को तुम मूल्य दे रहे हो–तर्क।

जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसके लिए कोई तर्क नहीं है। प्रेम के लिए कोई सिद्ध कर सका कि है? प्रेम जैसी सामान्य जीवन की अनुभव की घटना भी सिद्ध नहीं होती। सबको अनुभव होती है तो भी सिद्ध नहीं होती। इस जमीन पर करोड़ों लोग प्रेम करते हैं लेकिन फिर भी सिद्ध नहीं होता। खैर महावीर और बुद्ध तो कभी-कभी अपवाद रूप होते हैं। यह आत्यंतिक प्रेम, मोक्ष, परमात्मा तो कभी-कभी घटता है, इसलिए सिद्ध नहीं हो पाता; चलो। लेकिन इतने लोग तो प्रेम करते हैं–इतने लैला, इतने मजनू, इतने शीरी, इतने फरिहाद! फिर भी कुछ कह नहीं पाता कोई।

कल मैं एक गीत पढ़ता था:

कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई

दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई

और फिर खत्म हुई ऐसे कहानी अपनी

उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई

रही हरेक जगह सांस पर रही न गई

बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई

इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह

पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई

प्रेम नहीं कहते बनता। प्रेम को शब्द की पोशाक पहनाते नहीं बनती।

कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई

कौन प्रेमी नहीं कहना चाहा है? तुमने कभी प्रेम किया किसी को? तब तुम्हें अड़चन आती है, कैसे कहें कि मुझे प्रेम है? कहो, शब्द बड़े छोटे मालूम पड़ते हैं। जो है, उसके मुकाबले ना-कुछ मालूम पड़ते हैं। लाख सिर पटको, कहो कि मुझे प्रेम है तो भी तुम्हें लगता है, कह कहां पाए?

कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई

प्रेमी कितना सिर पटकते हैं, कितने उपाय करते हैं। चलो फूल का गुलदस्ता खरीद लाओ, कि हीरे-जवाहरात के हार ले आओ। मगर हीरे-जवाहरात से भी नहीं कहा जाता। फूल भी नहीं कह पाते। कुछ है, जो प्रगट नहीं हो पाता।

दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई

और फिर खत्म हुई ऐसे कहानी अपनी

सभी प्रेमियों की ऐसे ही कहानी खत्म होती है।

उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई

रही हरेक जगह सांस पर रही न गई

बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई

कह भी देते हैं तो भी रह जाती है बात। कह भी देते हैं तो भी लगता है कहां कही? कह भी देते हैं तो भी मन तड़फता रह जाता है, कह न पाए।

इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह

पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई

लगता है कह भी दिया और लगता है कह भी न पाए। लगता है हो भी गया और लगता है हो भी न पाया। ऐसी विडंबना साधारण प्रेम के साथ घट जाती है।

तो परमात्मा की तो हम बात ही छोड़ दें। वह तो आत्यंतिक घटना है, आखिरी घटना है। उसको बताने के लिए कोई शब्द आदमी की भाषा में नहीं है। उसको बताने के लिए कोई विचार आदमी के पास नहीं है। उसकी तरफ इशारा करने में हमारी कोई अंगुली काम नहीं आती। हमारी अंगुली बड़ी स्थूल और वह बड़ा सूक्ष्म। स्थूल को स्थूल से दिशा-निर्देश किया जा सकता है। स्थूल को स्थूल से कहा जा सकता है। सूक्ष्म को कैसे स्थूल से कहें? वह बड़ा जीवंत और हमारे सब शब्द मुर्दा।

इसलिए जिन्होंने जाना वे मौन रहे। महावीर ने तो अपने संन्यासी को मुनि नाम इसीलिए दिया कि जानोगे–बस चुप! मुनि कहा इसीलिए कि मौन घटेगा। मौन से ही उसे जानोगे, जानकर मौन से ही उसे कह पाओगे।

इसका यह अर्थ नहीं है कि महावीर ने कुछ कहा नहीं। बहुत कहा, लेकिन उस सारे कहने से भी बात कही न गई। शब्द की पोशाक पहनाई न गई। लाख तरह से उपाय किया होगा। इधर से हारे तो उधर से किया होगा, उधर से हारे तो और कहीं से किया होगा। इस दरवाजे से प्रवेश न हो सका तो दूसरे दरवाजे पर खटखटाया होगा। लेकिन अंतिम निर्णय में यह कहा कि वह मोक्ष कुछ ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता। तुम्हें भी अनुभव हो जाए, बस ऐसी शुभाकांक्षा की जा सकती है। या तुम हाथ देने को राजी हो जाओ हाथ में तो तुम्हें भी ले जाया जा सकता है।

सदगुरु का अर्थ यही है–जो तुम्हें ले जाए। सत्संग का अर्थ यही है, जहां तुम किसी और के हाथ में अपना हाथ देने को तैयार हो जाओ।

“मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन नहीं है…।’

सव्वे सरा नियट्टंति तक्का जत्थ न विज्जइ।

और तर्क से उसे कहा नहीं जा सकता…।

तक्का जत्थ न विज्जइ।

मई तत्थ न गाहिया…।

वहां मन का कोई व्यापार ही नहीं रह जाता। मन के पार है, मन के अतीत है।

ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने।

वह मन के बहुत पार है। वह इतने पार है मन के कि और सारी बातें तो छोड़ ही दो, आध्यात्मिक व्यक्ति में जो ओज प्रगट होता है, वह ओज भी उस जगह तक नहीं पहुंचता। वह ओज भी बाहर-बाहर रह जाता है। वहां पहुंचते-पहुंचते ओज भी खो जाता है। क्योंकि ओज के लिए भी अंधकार का सहारा चाहिए। ओज के प्रगट होने के लिए अंधकार की पृष्ठभूमि चाहिए।

इसलिए महावीर कहते हैं, “साथ ही समस्त मल-कलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं है।’

अब यह बड़ी महत्वपूर्ण बात वे कह रहे हैं। अत्यंत असाधारण बात वे कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, प्रकाश को देखने के लिए भी अंधेरे की पृष्ठभूमि चाहिए।

जब तुम दीया जलाते हो तो तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ती है। तुम सोचते हो रोशनी के कारण, तो गलती है तुम्हारा खयाल। वह जो चारों तरफ अंधेरा घिरा है, उसकी दीवाल के कारण। थोड़ा सोचो कि दुनिया से अंधेरा मिट जाए, फिर तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ेगी? फिर कैसे दिखाई पड़ेगी? फिर नहीं दिखाई पड़ेगी।

अभी मैं बोलता हूं, तुम्हें सुनाई पड़ता है क्योंकि बोलने के आसपास शून्य भी छाया हुआ है। अगर शून्य मिट जाए तो बोलना संभव न रहे। अगर बोलना मिट जाए तो शून्य का अनुभव होना मुश्किल हो जाए। शोरगुल के कारण ही शांति का अनुभव होता है, खयाल रखना। अगर बिलकुल सन्नाटा हो, कोई आवाज न होती हो तो शांति का पता ही न चलेगा।

पता चलने के लिए विपरीत चाहिए, द्वंद्व चाहिए।

महावीर कहते हैं, वह इतना आत्यंतिक एक है, वहां कोई दो नहीं बचते; कि वहां ओज तक का पता नहीं चलता। वहां इतनी रोशनी है कि रोशनी का पता नहीं चलता। अंधेरा है ही नहीं। वहां इतनी शुद्धता है कि शुद्धता का भी पता नहीं चलता। क्योंकि शुद्धता का पता होने के लिए कुछ अशुद्धि, कुछ मल-कलंक शेष रह जाना चाहिए।

तुमने कभी खयाल किया? जब स्वास्थ्य परिपूर्ण होता है तो बिलकुल पता नहीं चलता। थोड़ी बीमारी रहे तो ही पता चलता है। पैर में दर्द है तो शरीर का पता चलता है। सिर में दर्द है तो सिर का पता चलता है। जिस आदमी ने सिर का दर्द नहीं जाना उसे सिर का पता ही नहीं चलता। शरीर में कोई पीड़ा हो तो पता चलता है। बच्चों को शरीर का पता नहीं चलता, सिर्फ बूढ़ों को पता चलता है। जिस दिन शरीर का पता चलने लगे, समझना बुढ़ापा करीब आ रहा है। शरीर के पता चलने का अर्थ है कि कुछ जराजीर्ण होने लगा।

हमारे पास एक बड़ा बहुमूल्य शब्द है–वेदना। वेदना शब्द के दो अर्थ हैं। एक तो अर्थ है–ज्ञान। वेद भी उसी से बना–विद से। वेदना का अर्थ है, ज्ञान। और दूसरा अर्थ है, दुख। बड़ी अजीब-सी बात है। इस एक शब्द के दो अर्थ: ज्ञान और दुख। मगर बड़ी सार्थक बात है। दुख का ही पता चलता है। दुख का ही ज्ञान होता है। आनंद का तो पता ही नहीं चल सकता। आनंद तो लापता है। जब आनंद घटता है तो उसके विपरीत तो कुछ भी नहीं बचता इसलिए पता कैसे चलेगा?

महावीर कहते हैं, वहां तो रोशनी भी नहीं रह जाती। या इतनी रोशनी हो जाती है, रोशनी ही रोशनी हो जाती है, कि उसे किन शब्दों में कहें? इसलिए महावीर ने सच्चिदानंद शब्द का भी प्रयोग नहीं किया। उपनिषद कहते हैं: सच्चिदानंद। महावीर उसका भी प्रयोग नहीं करते। वे कहते हैं, असत रहा नहीं तो सत किसको कहें? अचित रहा नहीं तो चित किसको कहें? दुख रहा नहीं तो आनंद किसको कहें?

इसलिए महावीर ने और एक छलांग ली–सच्चिदानंद के पार। कुछ है नहीं कहने को वहां, लेकिन चल सकते हो, पहुंच सकते हो।

इस अज्ञात पर जाने की जिनमें हिम्मत है…यह अज्ञात है। इसे अगर तुमने कहा कि पहले सिद्ध हो जाए तो हम चलेंगे जरूर, लेकिन सिद्ध तो हो जाए! तो तुम कभी जा ही न सकोगे क्योंकि यह कुछ बात सिद्ध होनेवाली नहीं है। तुम जाओगे तो सिद्ध होगी। तुम्हारे अनुभव से सिद्ध होगी।

तो महावीर कहते हैं, ज्ञान की घटना ही…। और उस ज्ञान की घटना की तरफ जाना हो तो त्रिगुप्ति–मन, वचन, काया–तीनों के व्यापार में जागरण को सम्हालना।

ज्ञान की अंतिम आत्यंतिक दशा का नाम मोक्ष। जिसको हिंदू ब्रह्म कहते हैं, उसको महावीर मोक्ष कहते हैं। और निश्चित महावीर का शब्द ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि ब्रह्म से ऐसा लगता है, कहीं कोई बाहर। ईश्वर से ऐसा लगता है, कहीं कोई बाहर। मोक्ष से तो सिर्फ इतना ही पता चलता है कि हम सारे बंधन से मुक्त। हमारा होना सीमा के पार, मर्यादा के पार। सारी जंजीरें छूट गईं, कारागृह गिर गया और हम मुक्त गगन में उड़ चले। उस अनंत में खो चले, विसर्जित हो चले।

अनंत-अनंत जन्मों की अज्ञानपूर्ण चेष्टा भी वहां नहीं ले जा सकती, और ज्ञानपूर्ण एक श्वास वहां ले जा सकती है। इसलिए असली सवाल जागने का, जाग्रत होने का है।

महावीर की सारी चिंतना को एक शब्द में निचोड़कर रखा जा सकता है–उनके सारे विज्ञान को–और वह शब्द है, जागरूकता, अवेयरनेस, अप्रमत्त हो जाना।

यह बड़ा अनूठा धर्म है। यह सीधा विज्ञान का धर्म है। इसमें मंदिर की जरूरत नहीं, मूर्ति की जरूरत नहीं, पूजा-अर्चना की जरूरत नहीं, क्रिया-कांड की जरूरत नहीं, पंडित-पुरोहित की जरूरत नहीं, यज्ञ-हवन की जरूरत नहीं। इसमें कोई साधन-सामग्री की जरूरत नहीं। कुछ भी जरूरत नहीं। इसमें तुम काफी हो। बस तुम ही प्रयोगशाल हो।

तुम्हारे भीतर सब मौजूद है। वह भी मौजूद है जिसको जगाना है। बस, थोड़ा अपने को हिलाना-डुलाना है। अभी तुम गांठ-लगे रूमाल हो, बस जरा गांठ को खोल लेनी है। जो तुम्हें होना है वह तुम हो; थोड़ी-सी बाधाएं हैं, उनको गिरा देना है।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–30

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एक दीप से कोटि दीप हों—प्रवचन—तीसवां

प्रश्‍नसार:

1—जिन—धारा अनेकांत—भाव और स्‍यातवाद से भरी है, फिर भी प्रेमशून्‍य क्‍यों हो गई?

2—जीसस अपने शिष्‍यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने से कोई तुम्‍हें रोके तो उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो। प्रेमपुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा?

3—अतीत में गुरु के पास एक ही मार्ग के साधक इकट्ठे होते थे। और आपके आश्रम में सभी विपरीत मार्गों का मेला लगा हुआ है—यह कैसे?

4—त्‍वमेव माता च पिता त्‍वमेव, त्‍वमेव, बंधुश्‍च सखा त्‍वमेव

त्‍वमेव विद्या द्रविणं तवमेव, तवमेव सर्वं मम देव देवा

5—सीमार माझे असीम तुमी बाजाओ आपन सूर

आमार मध्‍ये तोमार प्रकाश ताई एतो मधुर

6—एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया; यह कौन था?

पहला प्रश्न:

जिन-धारा अनेकांत-भाव और स्यातवाद से भरी है; फिर भी प्रेम शून्य क्यों हो गई? कृपा करके समझाएं।

प्रेमशून्य होना ही थी; होना अनिवार्य था। हो गई, ऐसा नहीं। कोई भी जीवन-व्यवस्था परिपूर्ण नहीं है। प्रत्येक जीवन- व्यवस्था का कुछ लाभ है, कुछ हानि है।

जो लोग प्रेम को, प्रार्थना को, पूजा को आधार मानकर चलेंगे, खतरा है कि उनका प्रेम, उनकी पूजा, उनकी प्रार्थना उनके संसार को ही छिपाने का रास्ता बन जाए। प्रेम के पीछे राग के छिप जाने का डर है। प्रेम तो नाम ही रहे और भीतर राग खेल करने लगे। प्रेम तो नाम ही रहे, वीतरागता से बचने का उपाय हो जाए।

तो प्रेम के मार्ग का खतरा है; वैसे ही ध्यान के मार्ग का खतरा है। ध्यान के मार्ग का खतरा है कि राग को छुड़ाने में, मिटाने में प्रेम छूट जाए। राग को हटाने में प्रेम हट जाए।

मनुष्य बहुत चालबाज है। इसलिए तुम उसे जो भी दो, वह अपने ढंग से ढाल लेगा। अगर तुम ध्यान की बात कहो तो वह प्रेम को मार डालेगा। अगर तुम प्रेम की बात कहो, वह राग को बचा लेगा।

इसलिए प्रत्येक सदी में, प्रत्येक समय में, युग में जो उचित था, उस समय के लिए जो उचित था; जिससे संतुलन निर्मित होता…जब महावीर जन्मे, तब प्रेम के नाम पर बहुत उपद्रव हो चुका था। परमात्मा के नाम पर बहुत तमाशा हो चुका था। मंदिर, पूजा, पंडित, यज्ञ-हवन, बहुत खेल हो गए थे। उन सबसे छुड़ा लेना आदमी को जरूरी था।

तो महावीर, आदमी बायें तरफ बहुत झुक गया था इसलिए दायें तरफ झुके। जो थोड़े-से लोग उनकी बात को समझ सके, वे संयम को, संतुलन को उपलब्ध हो गए। लेकिन फिर पीढ़ी दर पीढ़ी लोग समझ से तो नहीं मानते, परंपरा से मानते हैं। फिर लोग दायीं तरफ बहुत झुक गए। फिर वे इतनी दायीं तरफ झुक गए कि ध्यान के नाम पर, तप के नाम पर उन्होंने प्रेम की हत्या कर दी। जीवन को रसशून्य कर डाला।

तो फिर भक्ति का पुनराविर्भाव हुआ। वल्लभ, रामानुज, चैतन्य, निम्बार्क–एक अनूठा युग आया भक्ति का। फिर भक्ति का पुनरउदभव हुआ।

यह अति हो गई थी–ध्यान की, तप की, तपश्चर्या की। इससे आदमी सूख गया। फूल खिलने बंद हो गए। फिर प्रेम को जगाना पड़ा। तो कबीर, नानक, मीरा, दादू, रैदास–अदभुत भक्त पैदा हुए। इन्होंने फिर बायें तरफ मोड़ा।

जो थोड़े-से लोग समझे, जिन्होंने जागरूक रूप से इस बात को पहचाना वे संयम को उपलब्ध हो गए। उनके जीवन में प्रेम भी रहा, राग छूटा। प्रेम बचा, राग छूटा। प्रीति बची, प्रीति के थोथे बंधन छूटे। प्रीति संसार से मुक्त हुई और परमात्मा की तरफ बही, प्रार्थना बनी। लेकिन जो नहीं समझे, जिन्होंने फिर परंपरा को पकड़ा, उन्होंने फिर बात वहीं की वहीं पहुंचा दी।

ऐसा सदा होता रहेगा। कोई मार्ग परिपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए कोई मार्ग शाश्वत नहीं हो सकता। बदलाहट करनी ही होगी। ऐसा ही समझो कि तुम मरघट किसी की अर्थी ले जाते हो तो कंधे बदल लेते हो। एक कंधा दुखने लगता है तो अर्थी दूसरे कंधे पर रख लेते हो। इसका कुछ यह मतलब नहीं है कि दूसरा कंधा कभी न दुखेगा। थोड़ी देर बाद दूसरा भी दुखेगा। फिर तुम पहले कंधे पर रख लोगे। इस कारण कि दूसरा भी दुखेगा, अगर न बदलो तो मुश्किल में पड़ जाओगे। अर्थी को मरघट तक ही न ले जा पाओगे। कंधे बदलने होते हैं। मनुष्य-जाति कंधे बदलती रहती है।

पूछा है, “जिन-धारा से प्रेम शून्य क्यों हो गया?’

जिन-धारा ध्यान की धारा है, तप की धारा है। प्रेम को साधना का अंग नहीं माना है महावीर ने, साधना की पूर्णाहुति माना है। जब कोई चलते-चलते मंजिल पर पहुंचेगा तो प्रेम प्रगट होगा। मंजिल तक कौन पहुंचता है! जो पहुंचता है उसको प्रगट होता है। महावीर पहुंचे, प्रेम प्रगट हुआ। जैनी तो मंजिल तक पहुंचे नहीं। चले ही नहीं, पहुंचने की तो बात दूर। शास्त्र लिए बैठे हैं, थोथे सिद्धांत लिए बैठे हैं। तो प्रेम तो समाप्त हो ही जाएगा।

महावीर ने परमात्मा को जगह न दी क्योंकि परमात्मा के नाम से खूब हो चुका था उपद्रव। खूब धोखाधड़ी, खूब पाखंड। बड़ी सुविधा है परमात्मा के नाम से पाखंड चलाने की, क्योंकि परमात्मा बड़ी आड़ बन जाता है। फिर तुम कुछ भी करो, सब परमात्मा की लीला है। लूटो-खसोटो तो परमात्मा की लीला है। क्या करोगे तुम? परमात्मा करवा रहा है।

तो हर चीज के लिए परमात्मा आड़ बन जाता है। महावीर ने परमात्मा को हटा दिया बीच से। तो हानियां तो बंद हो गईं, लेकिन परमात्मा को हटाने से एक खतरा है। परमात्मा हटा तो आदमी अकेला रह जाता है। प्रेमपात्र ही हट जाता है तो प्रेम के उमगने की सुविधा नहीं रह जाती। बहुत कठिन है शून्य को प्रेम करना। कोई चाहिए, जिसे तुम प्रेम कर सको।

अकेले कमरे में तुम बैठे हो। मैं तुमसे कहता हूं, भर जाओ प्रेम से। तुम कहोगे किसके प्रति? मैं कहूंगा, तुम इसकी फिकर छोड़ो। भर जाओ बस प्रेम से। इस सूने कमरे को प्रेम से भर दो। तो भी तुम क्या करोगे? तुम ज्यादा से ज्यादा सोचोगे अपनी प्रेयसी की बात, अपने बेटे की, बेटी की, मित्र की, अपने प्रियतम की। उस सोच में, उस कल्पना में ही तुम प्रेम से भर पाओगे कमरे को।

बिना कल्पना के प्रेम को जगाना बहुत थोड़े-से सिद्धपुरुषों की संभावना है। महावीर ने परमात्मा तो हटा दिया, खतरा हट गया। लेकिन खतरे के साथ-साथ लाभ भी हट गए। लाभ था कि परमात्मा के सहारे प्रेम विकसित होता है। वह हमारा परमप्रिय हो जाता है। वह हमारा प्यारा है। और अहंकार निर्मित नहीं होता।

इसलिए जैन मुनि से ज्यादा अहंकारी मुनि तुम कहीं भी न पाओगे। क्योंकि अहंकार को समर्पित करने की जगह न रही। कोई चरण न रहे, जहां जाकर अहंकार को रख दो। अपने से बड़ा कुछ भी न रहा। महावीर ने तो कहा था, तुम ही परमात्मा हो। इसलिए नहीं कहा था कि तुम्हारा अहंकार बच जाए, इसलिए कहा था ताकि तुम परमात्मा के नाम से जो जाल चल रहे हैं, उसमें कहीं उलझो न।

लेकिन परिणाम तो महावीर के हाथ में नहीं है। परमात्मा को छुड़ा दिया तुमसे; फिर तुम क्या करोगे परमात्मा के अभाव में, वह तो तुम्हारे हाथ में है। महावीर ने तो कह दी बात। कहते ही तीर निकल गया। अब उसको तरकस में वापस नहीं ले जाया जा सकता। जो कह दिया वह महावीर से छूट गया। अब तुम्हारे हाथ में है कि तुम उसमें से क्या अर्थ निकालोगे।

मैं रहीम खानखाना का जीवन पढ़ता था। अकबर के नौ रत्नों में एक थे। अकबर उनसे बड़ा खुश था और बहुत जमीन-जायदादें दीं। करोड़ों रुपया उन्हें भेंट किया। वह जैसा उनके पास पैसा आता था ऐसे ही वे लुटा भी देते थे। मरे तो भिखारी थे। करोड़ों रुपये आए-गए उनके हाथ में, लेकिन जो आया–बांटा। बांटने में कभी रुके नहीं। ऐसा बांटा कि शायद अकबर भी थोड़ार् ईष्यालु हो उठता था।

कहते हैं गंग कवि ने एक दोहा कहा। वे इतने खुश हो गए रहीम, कि छत्तीस लाख रुपये एक-दो कड़ियों के लिए बोरों में बंधवाकर चुपचाप रातोंरात गंग कवि के घर भेज दिए, किसी को पता न चले। गंग बहुत हैरान हुआ तो गंग ने एक पद लिखा।

सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन

ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन

यह देना कहां से सीखे? सीखे कहां नबाबज्यू? यह नबाबी कहां सीखी? यह सम्राट होना कहां सीखा?

सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन

देनेवाले बहुत देखे, लेकिन रात चोरी से अंधेरे में…। अंधेरे में तो लोग चुराने आते हैं, देने कोई आता है? किसी को पता न चले–ऐसी देनी देन।

ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन

देनेवाला तो अकड़कर खड़ा हो जाता है। सारे संसार को दिखलाना चाहता है। और तुम, जैसे-जैसे तुम्हारा हाथ ऊंचा होता जाता है, देने की क्षमता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आंख नीची होती जाती है।

रहीम ने इसके उत्तर में एक दोहा लिखा:

देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन

लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन

देनेवाला कोई और है, जो दिन-रात भेज रहा है और लोग शक हम पर करते हैं; इसलिए आंखें नीची हैं। इसलिए देने में संकोच है। क्योंकि लोग सोचेंगे, हमने दिया।

यह परमात्मा की धारणा का लाभ है:

देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन

परमात्मा की धारणा का यह लाभ है कि तुम अपने को किसी के चरणों में पूरा रख सकते हो। सब तरह से रख सकते हो।

देनहार कोई और है भेजत सो दिन-रैन

कोई भेजे चला जा रहा है। हमारा किया कुछ भी नहीं है। कोई कर रहा है।

लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन

इसलिए आंखें संकोच से नीची कर लेते हैं कि लोग बड़ी गलत बात सोच रहे हैं कि हम दे रहे हैं। देनेवाला कोई और है।

तो अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। परमात्मा की धारणा का लाभ है कि अहंकार न बचे।

अगर कोई ठीक से उपयोग करे तो सभी धारणाएं लाभपूर्ण हैं। और अगर कोई ठीक से उपयोग न करे तो सभी धारणाएं खतरनाक हैं। सत्यों से फांसी लग सकती है। सत्य तुम्हारे प्राण को संकट में डाल सकते हैं। सत्य जहर हो सकता है। सब पीनेवाले पर निर्भर है। समझदार तो ऐसे भी हुए हैं कि जहर को भी औषधि बनाकर पी गए। और नासमझ ऐसे हुए हैं कि अमृत को भी जहर बना लिया, विषाक्त हुए और मर गए।

महावीर ने परमात्मा का तत्व हटाया, उसके साथ बड़े जंजाल थे, वे भी हट गए। पंडित हटा, पुरोहित हटा, पूजा-प्रार्थना हटी, धोखाधड़ी, बीच के दलाल हटे लेकिन अहंकार को रखने की जगह न रह गई। महावीर तो बड़े कुशल रहे होंगे, बिना परमात्मा के अहंकार को छोड़ दिया।

लेकिन जैनों से इतनी आशा नहीं की जा सकती। परमात्मा हट गया तो अकड़ आ गई। हम ही सब कुछ हैं। कोई ईश्वर नहीं, कहीं जाकर झुकना नहीं। तो तुम मुसलमान फकीर में जैसी विनम्रता देखोगे, सूफी फकीर में जैसी विनम्रता देखोगे, वैसी तुम जैन मुनि में नहीं देख सकते। भक्त में तुम जैसी विनम्रता देखोगे, वैसी तुम जैन मुनि में नहीं देख सकते। बड़ी अकड़ है।

जैन मुनि तो श्रावक को हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकता। नमस्कार ही भूल गया। अकड़ ऐसी हो गई कि नमन की कला ही जाती रही। त्यागत्तपश्चर्या से अहंकार भरा; कटा नहीं। इसलिए मैं कहता हूं: अमृत को जहर बनाने की सुविधा है, जहर को अमृत बनाने की सुविधा है।

त्यागत्तपश्चर्या से अहंकार कटना चाहिए।

लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन

त्यागी और तपस्वी को तो यह सोचना चाहिए कि किए हुए पापों का प्रक्षालन कर रहा हूं त्यागत्तपश्चर्या करके। जो किए थे पाप, उन्हें काट रहा हूं। इसमें गौरव कहां? इसमें गरिमा क्या? पश्चात्ताप है। आंखें नीची होनी चाहिए। लेकिन त्यागी अकड़कर खड़ा हो जाता है। वह…जानते हो कितने उपवास किए? कितना धन छोड़ा? कितना बड़ा घर छोड़ा? कितना साम्राज्य छोड़ा? आंखें तो नहीं झुकतीं, आंखें अकड़कर खड़ी हो जाती हैं।

और फिर जैन तत्व में आदमी के ऊपर कोई भी नहीं है। इसलिए बड़ी अड़चन हो जाती है। कहां रखो इस बोझिल सिर को? यह पत्थर की तरह तुम्हारी आत्मा पर बैठ जाता है।

इसलिए जैन दृष्टि से धीरे-धीरे प्रेम तिरोहित हो गया। परमात्मा ही जब न हुआ तो प्रेम रखो कहां? प्रेम करो किसको? भक्ति खो गई।

मगर यह होना ही था। इसमें किसी का दोष भी नहीं है। ये जीवन के सहज नियम हैं।

मैं तुमसे जो कह रहा रहूं, तुममें से जो समझ पाएंगे उनके ही काम का है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, कहते से ही मेरे हाथ के बाहर हो गया। फिर तुम क्या उसका अर्थ करोगे, तुम पर निर्भर है। फिर मेरी उस पर कोई मालकियत भी न रही। फिर मैं यह भी नहीं कह सकता कि तुमने मेरे सत्य को बिगाड़ा। क्योंकि कहा, कि मेरा सत्य कहां रहा? तुम्हारा हो गया। सुन लिया, तुम्हारे कान में पड़ गया, तुम्हारा हो गया, अब तुम जो चाहो, सो करो। जो अर्थ निकालना हो, निकालो। जैसा अर्थ, जिस दिशा में ले जाना हो, ले जाओ। तुम मालिक हो गए। तुम्हें दिया, तुमसे बोला कि मेरी मालकियत समाप्त हो गई। अब मैं तुम पर कोई मुकदमा नहीं चला सकता।

तुम सुनोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसका उपयोग भी करोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसमें से कुछ चुन लोगे, कुछ छोड़ दोगे।

मैंन सुना है, कुरान में एक वचन आता कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा। एक मुसलमान शराब पीता था। उसके धर्मगुरु ने उससे कहा कि भाई, मैंने सुना है तुम कुरान भी पढ़ते हो। कभी-कभी तुम्हारे द्वार से निकलता हूं तो तुम्हारी आयतें सुनकर मैं भी मस्त हो जाता हूं। शराबी था, मस्ती से गाता होगा। लेकिन तुम कुरान में इतनी सी बात नहीं समझ पाए कि लिखा है कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा?

उस मुसलमान ने कहा, समझता तो भला हूं, लेकिन एक-एक कदम चल रहा हूं। अभी आधे वाक्य तक पहुंचा हूं–“जो शराब पीएगा।’ अभी यहीं तक पहुंचा हूं। अपनी-अपनी सीमा, सामर्थ्य! अभी आधे वाक्य पर नहीं पहुंचा हूं। धीरे-धीरे चल रहा हूं, कभी पहुंच जाऊंगा।

तुम अपने मतलब से चुन लोगे। तुम जो चुनना चाहते हो वही चुन लोगे।

मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा चला। गांव के एक नेताजी को किसी आदमी ने उल्लू का पट्ठा कह दिया। अब ऐसे तो सभी नेता उल्लू के पट्ठे होते हैं। नहीं तो नेता क्यों हों? आदमी अपने को तो सम्हाल ले! आदमी खुद तो चल ले! आदमी सारी दुनिया को बदलने चल पड़ता है। सारी दुनिया को ठीक करने चल पड़ता है।

पर नेता बहुत नाराज हुआ। उसने मानहानि का मुकदमा चला दिया। मजिस्ट्रेट ने पूछा मुल्ला को–मुल्ला गवाह था–कि जिस होटल में यह घटना घटी, वहां पचासों लोग आ-जा रहे थे। और जिस आदमी ने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा, उसने नाम लेकर भी नहीं कहा; सिर्फ उल्लू का पट्ठा कहा। तो इसका क्या सबूत है कि उसने नेताजी को ही कहा, किसी और को नहीं कहा? अब मुल्ला नसरुद्दीन नेता के पक्ष में गवाही देने आया था। वह बोला, इसका बिलकुल पक्का सबूत है। यद्यपि वहां सैकड़ों लोग आ-जा रहे थे, लेकिन इसने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा।

मजिस्ट्रेट ने कहा, इसका प्रमाण क्या है?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, क्योंकि वहां और दूसरा कोई उल्लू का पट्ठा मौजूद ही नहीं था।

अब करोगे क्या? पक्ष में गवाही देने आए हैं!

तुम्हारे मतलब तुम्हारे हैं। तुम पक्ष में खड़े होओ कि विपक्ष में; बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम गवाही कहां से दे रहे हो, बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम तो तुम ही हो। तुम्हारे पास आते-आते किरणें तक मैली हो जाती हैं। तुम्हारे हाथ आते-आते सोना भी कचरा हो जाता है। तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते सभी सत्य असत्य हो जाते हैं।

इसलिए तो लाओत्सु कहता है, “सत्य को कहना ही मत; क्योंकि कहा कि असत्य हुआ।’

कहा कि असत्य हुआ। किसी ने सुना कि असत्य हुआ। क्योंकि सुननेवाले को शब्द पहुंचेगा। शब्द को अर्थ तो वही चढ़ाएगा। अर्थ की खोल तो वही पहनाएगा।

मैं तो नग्न सत्य तुम्हें दे दूंगा। वस्त्र तो तुम पहनाओगे। वे वस्त्र तुम्हारे होंगे। जब सजा-संवारकर तुम सत्य को खड़ा करोगे तो वह बिलकुल ही रूपांतरित हो जाएगा।

इसलिए दुनिया में प्रतियुग में दृष्टियों को बदलना पड़ता है। कभी ध्यान की धारा प्रवाहमान होती, कभी प्रीति की धारा प्रवाहमान होती।

दोनों की जरूरत है। वे दोनों आवश्यक हैं। जब एक अति पर चली जाती है तो दूसरी धारा उसे खींचकर फिर संतुलन पर लाती है। ऐसा नहीं है कि वह संतुलन सदा रहेगा, लेकिन संतुलन के थोड़े-से क्षणों में कुछ लोग मुक्त हो जाएंगे। फिर असंतुलन हो जाएगा, फिर कोई खींचकर संतुलन को पैदा करेगा।

भक्ति और ध्यान विरोधी नहीं हैं, परिपूरक हैं। जब एक अति हो जाती है तो दूसरा उसे सुधार लेता है।

तुमने कभी रस्सी पर चलनेवाले बाजीगर को देखा? जब नट रस्सी पर चलता है तो हाथ में एक डंडा रखता है। रस्सी पर चलना खतरनाक काम है–इतना ही खतरनाक जैसा जिंदगी है। शायद इतना खतरनाक नहीं भी है, जितनी जिंदगी है। क्योंकि रस्सी से गिरे तो हाथ-पैर टूटेंगे, जिंदगी से गिरे तो मौत निश्चित है।

रस्सी पर चलनेवाला नट क्या करता? अगर वह देखता है कि बायें तरफ ज्यादा झुक गया है और खतरा गिरने का है, तो तत्क्षण अपने हाथ की लकड़ी को दायें तरफ झुका लेता है। वजन दायें तरफ डाल देता है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चल सकता। क्योंकि थोड़ी देर में ही पाता है कि अब दायें तरफ गिरने का खतरा है, तो फिर वजन बायें तरफ डाल देता है। ऐसा बायें-दायें वजन को डालता हुआ रस्सी पर अपने को सम्हालता है।

भक्ति और ज्ञान बायें और दायें हैं। और इन दोनों के बीच में मार्ग है अगर तुम मुझसे पूछो। न तो भक्ति मार्ग है, न ज्ञान मार्ग है। इनके ठीक मध्य में, जहां संतुलन है वहां मार्ग है। लेकिन अगर तुम भक्ति की तरफ ज्यादा झुक गए हो तो महावीर ज्ञान की तरफ खींचते हैं, ध्यान की तरफ खींचते हैं। तुम्हें लगता है ध्यान की तरफ खींच रहे हैं; उनका प्रयोजन केवल तुम्हें बीच में ले आना है, मध्य में ले आना है। क्योंकि मध्य में मुक्ति है।

जब महावीर जा चुके होते हैं और तुम उनकी सुन-सुनकर धीरे-धीरे ज्यादा ध्यान की तरफ झुक जाते हो–ऐसे, कि अब गिरे और खोपड़ी तोड़ लोगे, तो कोई रामानुज, कोई वल्लभ, तुम्हें भक्ति की तरफ खींचने लगता है। तुम्हें लगता है कि ये लोग दुश्मन हैं। क्योंकि एक कहता था दायें, एक कहता है बायें। एक उधर खींच गया, दूसरा इधर खींचने लगा। तुम बड़ा विरोध करते हो। जैन को भक्ति की तरफ खींचो, तो एकदम लड़ने को खड़ा हो जाएगा। किसी भक्त को ध्यान की तरफ खींचो, तप की तरफ खींचो, एकदम झगड़ने को खड़ा हो जाएगा। तुम्हें लगता है ये दुश्मन हैं।

नानक एक तरफ खींच रहे, महावीर एक तरफ खींच रहे, मीरा एक तरफ खींच रही, मोहम्मद एक तरफ खींच रहे, यह मामला क्या है? तुम तो कहते हो किसी एक से ही तय हो जाना ठीक है। ऐसे तो खिंचा-खिंचव्वल में खराबी हो जाएगी। लेकिन ये दोनों ही तुम्हें सत्य की तरफ खींच रहे हैं। सत्य संतुलन है। ठीक मध्य में, जहां न बायां रह जाता न दायां; जहां कोई अति नहीं रह जाती–निरति; वहीं समाधि है, वहीं सम्यकत्व है, वहीं समत्व है, वहीं समता का जन्म है।

सम दो अतियों के मध्य में होता है; न इधर, न उधर। लेकिन तुम बार-बार अतियों में चले जाओगे यह सुनिश्चित है। तुम एक अति से बचोगे तो दूसरी अति में चले जाओगे क्योंकि अति में जाना मन की आदत है। इसलिए फिर-फिर तुम्हें खींच लेना होगा। यह जारी रहेगा। जब तक मनुष्य है इस पृथ्वी पर, यह जारी रहेगा। ध्यान और भक्ति के बीच खींचतान जारी रहेगी। महावीर और मीरा को आते रहना पड़ेगा नए-नए रूपों में।

और अगर तुममें थोड़ी समझ हो, तुममें अगर थोड़ी भी आंख हो तुम्हारे पास तो तुम देख पाओगे, वे तुम्हें अलग-अलग नहीं खींच रहे, दोनों बीच के लिए खींच रहे हैं।

ध्यानी की अलग भाषा है। उसका अलग शास्त्र है, अलग शब्दावलि है। वह मोक्ष की बात करता है, मुक्ति की बात करता है। बंधन छोड़ने की बात करता है।

प्रेमी कि बिलकुल विपरीत भाषा है। वह प्रेम की, मिलन की, आत्यंतिक बंधन की बात करता है। वह कहता है, परमात्मा से कभी छूटना न हो।

काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह

रहिमन दाख सुहावनो जो गल प्रीतम बांह

रहीम कहते हैं, क्या करूंगा लेकर कल्पवृक्ष की छांव को और बैकुंठ को। दो कौड़ी हैं। प्यारे का हाथ मेरे गले में पड़ा हो तो बस, परमअवस्था हो गई। तो पहुंच गए उस अंगूर के तले; स्वर्ग के तले।

काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह

रहिमन दाख सुहावनो…

बैठे हैं अंगूर की छाया में।

जो गल प्रीतम बांह

अगर प्यारे का हाथ गले में है।

ज्ञानी कहेगा, प्यारे का हाथ गले में? बात क्या कर रहे हो? रहिमन दाख सुहावनो…अंगूर, शराब…क्या बातें कर रहे हो? ये तो सब बंधन की बातें हैं। ये भाषाएं अलग हैं। इनकी पद्धति अलग है।

अगर तुम बहुत ध्यान की तरफ चले गए हो तो किसी मीरा को खींच लेने का अवसर देना। अगर बहुत प्रेम की तरफ चले गए हो, और प्रेम कीचड़ बनने लगा हो और राग बनने लगा हो तो किसी महावीर को खींचने की सुविधा देना। दोनों का उपयोग कर लेना मध्य में आने को। जैसी जब जरूरत हो, वैसा उपयोग कर लेना।

असली बात न भूले कि सत्य को पाना है, कि जागना है, कि जो है, उसे जानना है।

दूसरा प्रश्न: जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने में कोई तुम्हें रोके तो तुम उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो। प्रेम के पुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा? आप तो हमें ऐसी आज्ञा नहीं देते। लेकिन यदि ऐसी समस्या हमारे सामने भी आए तो आप क्या आज्ञा देंगे–वही, जो जीसस ने दी?

मार डालो!

लेकिन तुम समझे नहीं जीसस का अर्थ, इसलिए अड़चन हो गई। बाहर थोड़े ही कोई तुम्हें रोक सकता है, रोकनेवाले भीतर हैं। पत्नी थोड़े ही तुम्हें रोक सकती है, अगर तुम जा रहे हो सत्य की तरफ। बेचारी पत्नी क्या रोकेगी! मरोगे तो कैसे रोकेगी? जब मरने में नहीं रोक सकती तो संन्यास में कैसे रोकेगी? जो होना है, अगर होना है तो पत्नी कैसे रोकेगी? अगर पत्नी भी रोक पाती है तो कहीं तुम्हारा ही भीतर डांवाडोल है। पत्नी का तुम बहाना लेते हो।

जीसस कहते हैं कि उस डांवाडोलपन को मार डालो। कोई जीसस पत्नी को मार डालने को थोड़े ही कहेंगे। इतनी अकल, जितनी तुममें है, इतनी तो उनमें भी रही होगी। कम से कम इतना तो भरोसा करो कि इतनी अकल उनमें भी रही होगी।

भीतर हैं रोकनेवाली चीजें। राग है, मोह है, लोभ है, क्रोध है। शत्रु भीतर है, बाहर नहीं। बाहर तो सिर्फ प्रक्षेपण होता है।

जब तुम कहते हो, फलां आदमी मेरा शत्रु है, मेरे राह में, मार्ग में रोड़े डाल रहा है तो वह आदमी सिर्फ पर्दा है, शत्रुता तुम्हारे भीतर है, जो तुम उसके ऊपर आरोपित कर रहे हो। शत्रुता को मार डालो, फिर देखो कौन शत्रु! और मित्रता को मार डालो, फिर देखो कौन मित्र है! राग को मिटा दो फिर देखो, कौन अपना, कौन पराया! अहंकार को छोड़ दो, फिर देखो कौन रोकता है। कैसे रोक सकता है?

एक मित्र संन्यास लेने आए थे। वे कहते हैं, लेना तो है। जब यहां पूना में आता हूं तो एकदम पक्का भाव हो जाता है। लेकिन जैसे ही अपने गांव की याद आती है, फिर घबड़ा जाता हूं कि गेरुए वस्त्र, माला! गांव में लोग पागल समझेंगे। तो गांव के कारण नहीं ले पा रहा हूं।

तो मैंने उनसे कहा, गांव का इससे क्या लेना-देना? पागल न समझे जाओ, यह है असली भय। गांव क्या करेगा? अगर पागल समझे जाने को राजी हो तो गांव क्या करेगा? अगर पागल हो ही जाओगे तो गांव क्या करेगा?

गांव क्या कर सकता है! लेकिन भीतर भाव है कि गांव में जो प्रतिष्ठा है, वह न मिट जाए। तो प्रतिष्ठा रोक रही है, गांव तो नहीं रोक रहा। सीधी बातों को सीधा न करके हम उलझाते हैं। प्रतिष्ठा का मोह रोक रहा है। गांव तो नहीं रोक रहा। प्रतिष्ठा के मोह को मार डालो।

जीसस का मतलब इतना ही है। जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने में कोई तुम्हें रोके तो उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो।

हजार बाधाएं आती हैं जीसस जैसे व्यक्ति के साथ चलने में। वे बाधाएं बाहर नहीं हैं, वे तुम्हारे भीतर हैं।

एक बहुत बड़ा धनपति, और बहुत प्रतिष्ठित विद्वान और जेरूसलम के विश्वविद्यालय का अध्यापक निकोदेमस जीसस को मिलना चाहता था। लेकिन दिन में मिलने जाने से डरता था–दिन में! क्योंकि लोगों को पता चल जाए तो वह प्रतिष्ठित आदमी था। पांच पंचों में एक था जेरूसलम के। लोग क्या कहेंगे? वह बड़ा पंडित था। उसके वचन शास्त्रों की तरह समझे जाते थे। लोग क्या कहेंगे कि तुम भी पूछने गए? तो तुम्हें भी पता नहीं है अभी?

उम्र भी उसकी ज्यादा थी। जीसस तो अभी जवान थे–कोई तीस साल की, इकतीस साल की उम्र थी।

वह उम्र में भी बड़ा था, प्रतिष्ठा में भी बड़ा था, धन में भी बड़ा था। नाम भी उसका बड़ा था। सारा देश उसे जानता था। हजारों उसके शिष्य थे, विद्यार्थी थे। वह कैसे इस आवारा आदमी के पास चला जाए दिन में? और वहां भीड़ भी आवाराओं की लगी हुई थी। वे क्या कहेंगे? लोग हंसेंगे। गांवभर में भद्द हो जाएगी। प्रतिष्ठा टूट जाएगी।

तो एक दिन आधी रात अंधेरे में, जब सारे लोग जा चुके थे तब वह अंधेरे में सरकता चुपचाप जीसस के पास पहुंचा। हिलाया उनको, कहा कि सुनो। एक बात पूछनी है। तुम्हें मिल गया? जीसस ने कहा, दिन में क्यों न आए? निकोदेमस बोला, लोगों के कारण।

जीसस ने कहा, इतने लोग आते हैं, लोगों के कारण कोई रुकता नहीं। रुकने का कारण कहीं भीतर होगा। निकोदेमस, किसे धोखा दे रहे हो? इतने बड़े पंडित और समझदार होकर इतनी-सी बात भी समझ में नहीं आ रही? रात में मिलने आए हो ताकि किसी को पता न चले? ताकि कल भरी दुपहरी में तुम कह सको कि यह जीसस आवारा है? जो जाते हैं इसके पास, नासमझ हैं, भूले-भटके हैं। यह दूसरों को भटका रहा है। ताकि तुम अपनी प्रतिष्ठा भी बचा लो निकोदेमस! और तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं, इसलिए तुम पूछने को भी तरसते हो।

हां, मुझे मिला है लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जब तक तुम मरो नहीं, तुम्हारा पुनर्जन्म न हो, तुम न पा सकोगे।

निकोदेमस भी प्रश्न पूछनेवाले की तरह गलत समझा। उसने कहा, मरो नहीं? क्या मतलब? और पुनर्जन्म से तुम क्या चाहते हो? क्या मैं फिर किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करूं? यह तो असंभव है।

जीसस ने कहा, सीधी-सीधी बात है। असंभव मत बनाओ। न तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम मरो; और न मैं यह कह रहा हूं, किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करो। मैं इतना ही कह रहा हूं कि तुम्हारा पुराना अहंकार गिरे। तुम नए हो जाओ। प्रतिष्ठा पाकर क्या मिला? देखो जीवन को सीधा-सीधा। प्रतिष्ठा है तुम्हारे पास, पद है तुम्हारे पास, तथाकथित ज्ञान का अंबार लगा है तुम्हारे पास; मिला क्या? छोड़ो उसे, जिससे नहीं मिला तो तुम उसे पाने के हकदार हो सकते हो, जिससे मिल सकता है। मैं देने को तैयार हूं। लेकिन पहले इस सबको मार आओ, मिटा आओ। पुराने को गिराओ ताकि नया निर्मित हो सके। ये घास-फूस उखाड़ो और फेंको ताकि फूलों के बीज बोए जा सकें। निकोदेमस ने कहा कि यह जरा कठिन है।

लेकिन अगर सत्य को पाना इतना भी मूल्यवान नहीं है कि तुम थोड़ी कठिनाई से गुजर सको तो तुम सत्य पाने के हकदार भी नहीं।

सीधा-सा मतलब है। वही मैं भी तुमसे कहता हूं कि जो तुम्हारे मार्ग में आए, मार डालना। लेकिन मेरा अर्थ समझ लेना। किसी को मार मत डालना। कि पत्नी बीच में आए तो उठाकर एक टेंड़पा उसका सिर तोड़ दो।

भीतर तुम्हारे जो-जो बाधाएं हैं उन्हें गिरा दो। बाहर कभी कोई बाधा नहीं है–रही ही नहीं। बाहर तो हमारी तरकीबें हैं। जो हम भीतर से करने में डरते हैं, लेकिन इतनी भी हिम्मत नहीं है कि स्वीकार कर लें अपनी कमजोरी, उनके लिए हम बाहर कारण खोजते हैं। यह बाहर का सब तर्कजाल है।

तुम कहते हो पत्नी दुखी होगी, इसलिए संन्यास नहीं ले रहे हो। लेकिन और कितने काम तुमने किए, तब तुमने पत्नी के दुखी होने की कोई फिकर न की; संन्यास में ही फिकर कर रहे हो? पत्नी तुम्हारी सुखी रही है इसका अर्थ है पूरे जीवन? अभी तक मैंने सुखी पत्नी नहीं देखी, न सुखी पति देखा। सब रोते दिखाई पड़ते हैं। पति सोचता है, पत्नी दुख दे रही है। पत्नी सोचती है, पति दुख दे रहा है। और फिर भी तुम कहते हो, पत्नी दुखी होगी। इतने दुख दिए, यही एक दुख देने में डर रहे हो?

नहीं, कहीं कुछ और बात है। शराब पीते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। जुआ खेलते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। किसी और स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। तब कहते हो क्या करें! मजबूरी है। हो गया, प्रेम हो गया; अब क्या करें?

ऐसा ही कह न सकोगे कि संन्यास हो गया, अब क्या करें? नहीं, पत्नी से किसको प्रयोजन है? और फिर दूसरे को दुख देना न देना तुम्हारे बस में है? सुख देना तुम्हारे हाथ में है?

जो तुम नहीं करना चाहते हो उसके लिए तुम बाहर कारण खोज लेते हो। जो तुम करना चाहते हो, उसके लिए भी कारण खोज लेते हो। करते तुम वही हो, जो तुम करना चाहते हो और सदा कारणों का सहारा ले लेते हो।

जब जीसस कहते हैं, मार डालो जो बाधा बने–उनका कुल प्रयोजन इतना है कि अपने भीतर से सारा जाल गिरा दो, फिर तुम्हें जो ठीक लगे, करो। तभी कोई जीसस के पीछे आ सकता है। तभी कोई मेरे साथ आ सकता है। कुछ चुकाना पड़ेगा मूल्य। सत्संग मुफ्त तो नहीं है। महंगे से महंगा सौदा है।

और संसार में सब चीजें छोटी-मोटी चीजें देने से मिल जाती हैं, यहां तो कोई अपने को पूरा दे सकेगा तो ही पा सकेगा।

कहते हो कि “प्रेम के पुजारी से ऐसी आज्ञा?’

यह प्रेम की ही आज्ञा है। यह आज्ञा बड़ी प्रेमपूर्ण है; नहीं तो दी न गई होती। जीसस तुम्हें प्रेम करते हैं इसलिए ऐसा कह सके। यह पुकार प्रेम की ही पुकार है। अन्यथा तुम्हें पीछे चलाने में कुछ जीसस को सुख मिलनेवाला नहीं है। न तुम्हें पीछे चलाते, न फांसी मिलती। तुम्हें पीछे चलाया, फांसी मिली।

अकेले बैठे रहते, कोई फांसी लगानेवाला न था। तुम्हें चलाया तो कंधे पर अपनी सूली ढोनी पड़ी। अकेले बैठे रहते, तुम्हें पीछे न चलाते तो सूली ढोने की कोई नौबत न आती।

तुम्हें साथ चलाकर जीसस को क्या मिला? फांसी मिली, सूली मिली। कोई सिंहासन तो मिल न गया। लाभ जीसस को क्या हो गया? लेकिन प्रेम था। बिना चलाए न रह सके। जो मिला था, बिना बांटे न रह सके। जो पाया था, चाहा कि तुम्हारी झोली में भी भर दें। किसी गहन प्रेम से ही पुकारा था कि आओ मेरे पीछे। किसी बड़े खजाने की खबर उनको मिल गई थी। वह खजाना इतने पास है और तुम भिखमंगे हो। तो कहा था, चले आओ मेरे पीछे। जिनको भी जीसस का खजाना समझ में आ गया, वे चल पड़े।

जीसस सुबह निकलते हैं एक झील के पास से। दो मछुए मछलियां मार रहे हैं। उन्होंने जाल फेंका है, अभी सूरज ऊगा है और जीसस पीछे आकर खड़े हो गए। और उन्होंने एक मछुए के कंधे पर हाथ रखा और कहा कि देख, मेरी तरफ देख। कब तक मछलियां पकड़ता रहेगा? अरे आ! मैं तुझे कुछ बड़ी चीजें पकड?ने का राज बताता हूं। और फिर मैं सदा यहां न रहूंगा। मेरे जाने का वक्त जल्दी ही आ जाएगा।

वह मछुआ तो चौंका होगा। यह कौन अजनबी आदमी? और कैसी अजीब-सी बातें कर रहा है! लेकिन उसने जीसस को देखा, वह सीधा भोला-भाला आदमी रहा होगा। वह कोई पंडित न था। उसे शास्त्रों का कुछ पता नहीं था। मछलियां मारने में ही जिंदगी बिताई थी। सीधा-सादा भोला-भाला आदमी था। तर्क, गणित, जाल कुछ भी न था।

उसने जीसस की आंखों में देखा–सीधे आदमी ही आंखों में आंखें डालकर देख सकते हैं–और उस के हाथ से जाल छूट गया। उसने अपने भाई को भी ललकारा, जो डोंगी में बैठकर जाल डाल रहा था कि तू भी आ। जिन आंखों की हम तलाश करते थे वे आ गईं। इस आदमी के पास कुछ है। हम इसके साथ चलेंगे। यह भी न पूछा तुम कौन हो? पता-ठिकाना? तुम्हारा अधिकार क्या? तुम्हारी आप्तता क्या? किस अधिकार के बल से बोल रहे हो कि हमारे पीछे आओ, फेंको जाल?

वे पीछे हो लिए। वे गांव के बाहर निकलते थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा कि तुम दोनों कहां जा रहे हो पागलो? तुम्हारा बाप, जो बीमार था, वह मर चुका।

उन दोनों ने जीसस से कहा, हमें तीन-चार दिन की मोहलत, सुविधा दे दें। हम जाकर अपने पिता का अंतिम संस्कार कर आएं। तो जीसस ने कहा कि जो मुर्दे गांव में हैं, काफी हैं। वे मुर्दे का संस्कार कर लेंगे। तू फिकर न कर। तुम फिकर मत करो। तुम मेरे पीछे चल पड़े तो अब लौटकर मत देखो। मरे हुए बाप को दफनाने के लिए मरे हुए लोग काफी हैं गांव में; वे फिकर कर लेंगे। मुर्दे मुर्दे को दफना लेंगे। तुम मेरे पीछे आओ।

यह हमें लगेगा बड़ी कठोर बात है। और प्रेमी, प्रेम के संदेशवाहक जीसस के मुंह से, कि दफना लेंगे मुर्दे मुर्दे को…। लेकिन मुर्दे को दफनाकर भी क्या होना है? जो जा ही चुका, जा ही चुका। अब तुम इस लाश को मिट्टी में गड़ा दो कि आग में जला दो कि पशु-पक्षियों के लिए छोड़ दो। क्या फर्क पड़ता है? कि तुम विधि-विधान पूरा करो कि मंत्र जाप करो; क्या फर्क पड़ता है? जो चुका, जा चुका। अब तो यह खोल पड़ी रह गई है। प्राण तो उड़ चुके। पिंजड़ा पड़ा रह गया है; पक्षी तो जा चुका। अब यहां कुछ भी नहीं है।

इसलिए जीसस कहते हैं, यह काम तो मुर्दे भी कर लेंगे। इसलिए तुम्हें जाने की कोई जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर मत देखो, अन्यथा मेरे साथ न चल सकोगे।

जिन्हें जीसस के साथ चलना हो, उन्हें आगे देखना चाहिए। जो जा चुका, जा चुका। अतीत न हो चुका। जो ऊग रहा सूरज, उस तरफ ध्यान देना चाहिए क्योंकि वहां जीवन है। वहां जीवन की संभावना है। वहां जीवन की नियति है। वहां भाग्य का छिपा हुआ खजाना है।

हिम्मतवर लोग रहे होंगे। यह घड़ी ऐसी थी कि कहते कि यह भी क्या बात हुई! जिस पिता ने हमें जन्म दिया वह मर गया और तुम हमें रोकते हो? लेकिन बड़े सीधे-साफ लोग रहे होंगे। उनकी बात समझ में आ गई। उन्होंने कहा, यह बात तो ठीक ही है। दफनाकर भी क्या होगा? और इतने लोग तो गांव में हैं ही, वे दफना ही लेंगे।

वे नहीं गए वापस। वे जीसस के साथ ही चलते रहे।

यह आवाज प्रेम की ही आवाज थी। यह करुणा का ही संदेश था। क्योंकि जीसस को पता है, एक बार व्यक्ति मुक्त हो जाए तो नाव ज्यादा देर इस किनारे पर नहीं टिकती। थोड़ी देर टिकती है। थोड़ी देर टिक जाए, यह भी चमत्कार है। थोड़ी देर भी चेष्टा से टिकती है। यह नाव जल्दी छूट जाएगी। अगर पीछे लौट-लौटकर देखते रहे, और व्यर्थ की बातों में उलझते रहे और व्यर्थ के बहाने खोजते रहे और कहा कि कल आएंगे, परसों आएंगे, तो तुम कभी न आ पाओगे।

इसलिए जीसस कहते हैं, जो मार्ग में आए, जो बाधा बने, उसे हटा दो, मिटा दो।

मैं भी तुमसे यही कहता हूं। जो व्यर्थ है उसके साथ संग मत जोड़ो। जो थोथा है उससे दोस्ती मत बनाओ। थोथे से दोस्ती तुम्हारे भीतर के थोथेपन का सबूत है।

ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं

तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे

रहीम कहते हैं:

ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं

ओछे से दोस्ती मत बांधो। व्यर्थ से दोस्ती मत बांधो। असार से दोस्ती मत बांधो। अंगार समझो ओछे को।

तातै जारे अंग

जब गरम होता, जलता होता तो शरीर को जलाता है।

सीरो पै कारो लगे

और जब ठंडा हो जाता है तो शरीर में कालिख लगाता है। ऐसा अंगार समझो ओछेपन को। जलाएगा या तो, अगर जीवित रहा, गरम रहा। अगर मरा, मुर्दा हुआ तो कोयला हो जाएगा, तो फिर शरीर को काला करेगा। मगर हर हालत में सताएगा।

पर ध्यान रखना, जीवन के सारे सूत्र आत्यंतिक अर्थों में अंतस के संबंध में हैं। तुम किसी ओछे आदमी से दोस्ती क्यों करते हो? दोस्ती अकारण तो नहीं होती। तुम्हारे भीतर कुछ ओछापन होता है जो उसके साथ तालमेल खाता है। तुम बुरे आदमी की दोस्ती कैसे कर लेते हो? कोई आसमान से दोस्ती थोड़े ही टपकती है!

एक अजनबी आदमी गांव में आए, जल्दी ही तुम पाओगे, दो-चार दिन के भीतर उसने अपने जैसे लोग खोज लिए। अगर वह भक्त था तो भक्तों के सत्संग में पहुंच जाएगा। गीत गुनगाएगा, नाचेगा, प्रभु का स्मरण करेगा। शराबी था तो शराबखाने पहुंच जाएगा। शराबियों के गले में हाथ पड़ जाएंगे। जुआरी था, जुआघर खोज लेगा।

भक्त वर्षों रह जाए इस गांव में, और उसे पता न चलेगा कि जुआघर कहां है। और जुआरी वर्षों रह जाए, उसे पता न चलेगा कि कहीं भजन भी हो रहा है। उसी रास्ते से गुजर जाएगा। लेकिन भजन आंख में दिखाई न पड़ेगा, कान में सुनाई न पड़ेगा। शोरगुल मालूम होगा। उससे कोई संबंध न जुड़ेगा। लेकिन कहीं पासों की खनकार सुनाई पड़ जाए तो वह सजग हो जाएगा। उसकी दुनिया आ गयी। उसके भीतर कोई चीज तालमेल खा गई।

तुम बाहर उन्हीं से दोस्ती बना लेते हो, जैसे तुम हो। इसलिए बाहर को दोष मत देना। भीतर अपने खोजना।

ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं

तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे।

तीसरा प्रश्न: आपने कहा है कि एक-दूसरे से विपरीत अनेक मार्ग हैं, जो एक परमात्मा पर ले जाते हैं। अतीत में ऐसा रहा है कि एक ही मार्ग के साधक एक गुरु के पास इकट्ठे होते थे। जैसे योगी अलग, भक्त अलग, तांत्रिक अलग, ध्यानी अलग। इससे सभी को अपने मार्ग पर चलने में सुविधा थी। परंतु आपके पास, आपके आश्रम में तो सब विपरीत मार्गों का मेला लगा हुआ है–योगी और भक्त, तांत्रिक और सूफी, कर्मयोगी और ध्यानी, सब एक साथ। ऐसा कैसे? इससे बाधाएं भी बनती हैं। इस संबंध में कुछ कहने की कृपा करें।

यह सच है। अतीत में ऐसा ही था। एक गुरु एक संकीर्ण मार्ग का उपदेष्टा होता था। उसके लाभ भी थे, हानियां भी थीं।

लाभ तो यह था कि तुम्हारे मन में कभी दुविधा पैदा न होती थी। एक ही बात…एक ही बात…एक ही बात सुनते थे। एक ही बात…एक ही बात…एक ही बात करते थे। संदेह पैदा न होता था। चुपचाप अपने मार्ग को पकड़कर चलते थे। लेकिन खतरा था। संकीर्णता पैदा होती थी। सांप्रदायिकता पैदा होती थी, कि मैं ही ठीक हूं, और सब गलत हैं। यही मार्ग ठीक है, और सब मार्ग गलत हैं।

तो लाभ था, हानि थी। और लाभ से हानि ज्यादा बड़ी सिद्ध हुई। लाभ तो बहुत थोड़े लोगों को हुआ, हानि करोड़ों को हुई। सारी दुनिया सांप्रदायिक हो गई। सारी दुनिया में यह मतांधता फैल गई कि हम ठीक और बाकी सब गलत।

जैन से पूछो, वह कहता है हमारा गुरु गुरु, बाकी सब कुगुरु। हमारा शास्त्र शास्त्र, बाकी सब कुशास्त्र। मुसलमान से पूछो, हिंदू से पूछो, ईसाई से पूछो। सब संकीर्ण हो गए, सांप्रदायिक हो गए। धर्म की तो हत्या हो गई। सुविधा तो मिली होगी थोड़े-से लोगों को, सरल-चित्त लोगों को–जिन्होंने इतना ही जाना कि हमारे लिए क्या ठीक है, हमें मिल गया और चुपचाप उस पर चल पड़े। सौ में से एक को तो सुविधा मिली होगी, निन्यानबे तो सिर्फ संकीर्ण हो गए।

मैं ठीक उल्टा प्रयोग कर रहा हूं, जैसा कभी नहीं हुआ है। मैं यह फिकर कर रहा हूं कि चाहे सुविधा थोड़ी कम हो, संकीर्णता न हो। मानना मेरा ऐसा है कि जो एक सरल आदमी पुरानी संकीर्ण सीमाओं से जा सका, वह सरल आदमी मेरे पास भी जा सकेगा। उसे दुविधा पैदा नहीं होगी यहां भी। क्योंकि सरल आदमी मुझे देखेगा। मैं क्या कहता हूं इसकी बहुत फिकर ही नहीं करता। सरल आदमी तो मुझ पर भरोसा करता है। वह कहता है वे जो कहते होंगे, ठीक कहते होंगे। उसे कोई दुविधा पैदा नहीं होती। वह मेरे विरोधाभास में भी मुझे ही देखता है। दोनों में मुझे ही देखता है। और सरल आदमी तो अपने काम की बात चुन लेता है और चल पड़ता है।

जटिल आदमियों के साथ झंझट है। लोभियों के साथ झंझट है। उन लोभियों को दुविधा पैदा होगी क्योंकि वे चाहते हैं, ध्यान भी झपट लें, प्रेम भी झपट लें। भक्ति पर भी कब्जा कर लें, ध्यान पर भी कब्जा कर लें। तपस्वी भी हो जाएं, जीवन का रस भी न खोए। त्याग का भी मजा ले लें, अहंकार का भी मजा ले लें और परमात्मा की पूजा का भी रस आ जाए।

लोभी! उसको तकलीफ होगी। सरल-चित को तो मेरे पास कोई तकलीफ नहीं है। उसको कभी कोई तकलीफ नहीं है, किसी के पास कोई तकलीफ नहीं है। सरल-चित्त आदमी तो अपने मतलब की बात खोज लेता, चल पड़ता।

तुम जाते हो नदी के किनारे। प्यासा आदमी तो अपने चुल्लू में पानी भर लेता है। पूरे नदी की थोड़े ही फिक्र करता है कि अब इसको घर ले जाएं, बांधकर रखें, क्या करें, क्या न करें। वह धन्यवाद देता है नदी को कि ठीक। अपनी चुल्लू भर ली, अपनी प्यास बुझा ली, बात खतम हो गई।

हां, अगर तुम लोभी हो तो तुम प्यास तो भूल ही जाओगे, तुम सोचोगे इस नदी पर कब्जा कैसे किया जाए। यह पूरी नदी मेरे तिजोड़ी में कैसे बंद हो जाए। इस पूरी नदी का मैं मालिक कैसे हो जाऊं। तो तुम अड़चन में पड़ोगे।

सरल तो पहले भी अड़चन में नहीं पड़ा, अब भी नहीं पड़ेगा।

मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह नया है। मैं चाहता हूं कि संसार में अब संकीर्णता न रहे, सांप्रदायिकता न रहे। संप्रदाय के नाम पर बहुत हानि हो चुकी। आदमी लड़े और कटे और मरे। आदमी निर्मित नहीं हुआ, विनष्ट हुआ। अब संप्रदाय नहीं चाहिए। अब तो दुनिया में धर्म नहीं चाहिए, धार्मिकता चाहिए। मंदिर-मस्जिद नहीं चाहिए, धर्म-भावना चाहिए। कुरान-गीता छूटें, छूटें; सदभाव न छूटे। जैन, हिंदू, मुसलमान नहीं चाहिए। अब तो भले, सीधे, सरल-चित्त लोग चाहिए। क्योंकि जैन, हिंदू, मुसलमान तो हजारों वर्षों से जमीन पर हैं। और जमीन रोज नर्क होती चली गई। इनके होने से कुछ लाभ नहीं हुआ। ये तो अब विदा लें। इनको तो हम अलविदा कहें। अब तो खाली आदमी, सूना आदमी, स्वस्थ-सरल आदमी चाहिए।

इसलिए मैं सारे धर्मों की बात कर रहा हूं। इसमें जो सरल हैं उनको तो बड़ा लाभ होगा, जो जटिल हैं उनको बड़ी दुविधा होगी। लेकिन मेरे देखे, मेरे लेखे अगर सौ आदमी पुरानी दुनिया में चलते थे धर्म के मार्ग पर तो निन्यानबे संकीर्ण हो गए, एक सरल पहुंचा। मैं तुमसे कहता हूं, वह एक सरल तो मेरे पास भी पहुंच जाएगा और निन्यानबे संकीर्ण न हो पाएंगे। और अगर निन्यानबे संकीर्ण न हों तो उनके पहुंचने की संभावना भी बढ़ गई। मैं तुम्हें विराट करना चाहता हूं। तुम्हें पूरी दृष्टि देना चाहता हूं। तुम सब देख लो। फिर तुम्हें जो रुचिकर लगे उस पर चल पड़ो। कठिनाई तो तब होगी जब तुम सभी रास्तों पर चलने की कोशिश करने लगोगे। तब अड़चन होगी।

लेकिन यह तो पागलपन है। तुम केमिस्ट की दुकान पर जाते हो, अपना प्रिस्क्रिप्शन दिखाते हो, दवा ली, चल पड़े। तुम यह नहीं कहते कि यहां लाखों दवाएं रखी हैं। तुम यह नहीं कहते कि एक ही दवा से क्या होगा? सब दवाएं दे दो। तुम अपना रोग देख लेते हो, अपनी औषधि लेकर अपने घर चले आते हो। तुम चिंता में नहीं पड़ते कि केमिस्ट की दुकान पर लाखों दवाएं रखी हैं और हम एक ही लिए जा रहे हैं? तुम लोभ में नहीं पड़ते।

मैं तुम्हारे सामने सब द्वार खोल रहा हूं। तुम्हें जो द्वार रुच जाए, तुम उससे प्रवेश कर जाना। अब तुम यह कोशिश मत करना कि सभी द्वारों से तुम प्रवेश करो; अन्यथा तुम पगला जाओगे। संकीर्ण तुम मेरे पास न हो सकोगे, लेकिन अगर लोभी हुए तो पागल हो जाओगे। लेकिन वह भी मेरे कारण नहीं, अपने लोभ के कारण।

मैं तो तुम्हें सारा दृश्य दे रहा हूं, पूरा नक्शा दे रहा हूं दुनिया का। फिर तुम्हें जो तुम्हारे भीतर धुन बजा देता हो, उसे पकड़ लो। मेरे लिए रास्ते मूल्यवान नहीं हैं, तुम मूल्यवान हो। विधियों का कोई मूल्य नहीं है, व्यक्तियों का मूल्य है। तुम्हें जो विधि रुच जाए, जिस विधि से तुम्हारे भीतर कमल खिलने लगे, वही तुम्हारा मार्ग हो गया।

लेकिन मेरे पास एक बात तुम्हें जरूर समझ में आ जाएगी: कि जो तुम्हारे लिए मार्ग है, जरूरी नहीं है सबके लिए हो। जो तुम्हारे लिए मार्ग नहीं है, हो सकता है दूसरे के लिए हो। क्योंकि तुम यहां मेरे पास देखोगे भक्ति से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां देखोगे ध्यान से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां मुसलमानों को प्रभु की तरफ बढ़ते देखोगे, जैनों को, हिंदुओं को, ईसाइयों को, यहूदियों को।

तो एक बात तो यहां तुम्हें सीख ही लेनी पड़ेगी कि सब पहुंच जाते हैं। पहुंचने की गहरी आकांक्षा हो, अभीप्सा हो। सब पहुंच जाते हैं। सब मार्गों से पहुंच जाते हैं। सभी मार्ग उस की तरफ ले जाते हैं। उस एक ही यात्रा चल रही है। वह एक ही तीर्थ है। सभी यात्राएं वहीं पहुंच जाती हैं।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुम सभी मार्गों पर दौड़ने लगो। तब तुम पगला जाओगे। तब तुम कहीं न पहुंचोगे। चलना तो एक ही मार्ग पर होगा।

देखा? गंगा बहती है पूरब की तरफ, नर्मदा बहती पश्चिम की तरफ; दोनों सागर पहुंच जाती हैं।

यह तो अच्छा हुआ कि दोनों का कहीं मिलना नहीं होता बीच में। नहीं तो गंगा कहेगी, पागल हुई? पश्चिम में कहीं सागर है? सदा से पूरब में रहा। हम सदा पूरब में मिलते रहे सागर से। तेरा दिमाग फिर गया नर्मदा? लौट आ। मेरे साथ हो ले। हमारे संप्रदाय में सम्मिलित हो जा।

और नर्मदा कहेगी, तू पागल हो गई? हम सदा से गिरते रहे सागर में। यही हमारा ढंग रहा। तुझे कुछ भ्रांति है। पूरब में कहीं सागर है? पूरब से तो हम आते हैं, पश्चिम को हम जाते हैं। पूरब में सागर होता तो हम आते ही क्यों पूरब से? पूरब में कुछ भी नहीं है। भटक जाओगी।

नदियां आपस में बात नहीं करतीं, अच्छा है। दोनों सागर पहुंच जाती हैं। सभी नदियां अंततः सागर पहुंच जाती हैं।

ऐसा ही सभी चेतनाएं अंततः परमात्मा में पहुंच जाती हैं। तुम अपना मार्ग पकड़ लो और ध्यानपूर्वक, स्मरणपूर्वक, उस पर चलो। दूसरों को उनके मार्ग पर चलने दो। आशीर्वाद दो उन्हें कि वे भी पहुंचें। प्रार्थना करो उनके लिए कि वे भी पहुंचें। इससे क्या फर्क पड़ता है कैसे पहुंचते हैं, कौन-सा वाहन लेते हैं! पहुंचें। और उनसे आशीर्वाद मांगो अपने लिए कि हम भी पहुंच जाएं, जो हमने मार्ग चुना है उससे। तो दुनिया में एक सदभाव पैदा हो। हो चुका संप्रदाय बहुत, अब सदभाव चाहिए।

चौथा प्रश्न: त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वं मम देव देव

–सरोज के वंदन।

जो मैं अभी कह रहा था। कोई ध्यान से खिल जाता, कोई प्रेम से खिल जाता।

सरोज का प्रश्न एक भक्त का प्रश्न है। भक्त के पास प्रश्न भी नहीं है, निवेदन है। शायद निवेदन कहना भी ठीक नहीं, अहोभाव की अभिव्यक्ति है। पूछने को कुछ नहीं है, धन्यवाद देने को कुछ है।

ध्यान का मार्गी पूछता है, क्या करें। प्रेम का मार्गी धन्यवाद देता है कि जो हुआ, वह बहुत है। और न हो तो चलेगा। जो हो ही गया है वह अपनी पात्रता से ज्यादा है। ऐसे ही पात्र के ऊपर से बहा जा रहा है; बाढ़ आ गई है।

यहां तुम इन प्रश्नों में भी दखोगे। अलग-अलग लोग, अलग-अलग उनकी लहरें, अलग उनकी तरंगें।

अब सरोज पूछती है–प्रश्न है ही नहीं इसमें। वह कहती है तुम ही पिता, तुम ही माता, तुम ही बंधु, तुम ही सखा। तुम ही सब कुछ। तुम ही देवताओं के देवता।

भक्त के पास एक अहोभाव है। भक्त खोज नहीं रहा है, भक्त को मिल गया है। भक्त कहता है जीवन बरस ही गया है। उत्सव चल ही रहा है। जो मिलना था वह मिल ही गया है। परमात्मा ने उसे दे ही दिया है।

ध्यानी तो खोज रहा है कि मिलेगा तब आनंदित होगा। भक्त आनंदित है। ध्यानी खोजेगा तो आनंदित होगा, भक्त आनंदित है इसलिए खोज लेगा। ध्यानी का साधन पहले है, साध्य अंत में। भक्त का साध्य पहले है, साधना अंतिम।

इसलिए भक्त और ध्यानी की भाषा में बड़े जमीन-आसमान के अंतर हैं। वे एकदम उल्टी बातें बोलते हैं। इसलिए तो ज्ञानी कहते हैं कबीर को–उलटबांसी। उल्टी बांसुरी बजा रहे हो। और कबीर भी कहते हैं, “एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागी आग।’ नदी में आग लगी देखी।

अब यह कोई सोच-विचारवाला आदमी कहेगा कि दिमाग खराब हो गया है। कबीर यही कह रहे हैं कि मैंने साध्य को पहले देखा, साधन को पीछे। मंजिल पहले पाई, मार्ग पीछे। मिलन परमात्मा से पहले हो गया तब बाद में समझ आयी कि कैसे मिलें। नदिया लागी आग, एक अचंभा मैंने देखा।

लेकिन गणित से, तर्क से, विचार से चलनेवाला आदमी कहेगा, यह तो उलटबांसी हो गई। यह तो उल्टी बात हो गई।

दोनों की भाषाएं निश्चित उल्टी हैं। लेकिन तुम ऐसा समझो कि कोई कहता है मुर्गी से अंडा होता है, और कोई कहता है अंडे से मुर्गी होती है। क्या ये सच में उल्टी बातें हैं? ये दोनों ही सच हैं। लेकिन इतनी हिम्मत चाहिए समझने की कि दोनों एक साथ सच हैं। बड़ा कठिन मालूम होता है क्योंकि हम तो संकीर्णता से सोचते हैं। हम कहते हैं, मुर्गी पहले तो अंडा बाद में। अब कोई कहता है अंडा पहले, तो हमें झगड़ा खड़ा हो जाता है। हम कहते हैं, ये दोनों बातें तो एक साथ नहीं हो सकतीं। या तो मुर्गी पहले, या अंडा पहले। दो में से कुछ एक ही पहले हो सकता है। लेकिन तुमने कभी खयाल किया? दोनों एक-दूसरे के पहले खड़े हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था। अलग-अलग मिलता था तब तो ठीक था। एक-दूसरे के सौंदर्य की बात करता, खूब चर्चा करता। दोनों स्त्रियों की भी आपस में धीरे-धीरे पहचान हो गई। उन्होंने कहा कि यह आदमी धोखा दे रहा है, इसको फांसना पड़ेगा।

एक दिन नौका-विहार के लिए दोनों ने इकट्ठा मुल्ला नसरुद्दीन को अपने साथ ले लिया। नदी पर बैठकर, पूर्णिमा की रात, बीच मझधार में मुल्ला से कहा कि नसरुद्दीन, अब कहो कौन सुंदर है? अब मुल्ला बहुत घबड़ाया। अकेले में एक स्त्री को कह दो कि तुम दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री हो; कोई हर्जा नहीं। सभी कहते हैं। कहना ही पड़ता है। फिर इससे कुछ अड़चन नहीं आती। दूसरी स्त्री को फिर अकेले में कह दो। इससे कोई तार्किक झंझट नहीं आती। अलग-अलग समय में अलग-अलग स्थान में दोनों वक्तव्य ठीक मालूम होते हैं। लेकिन दो स्त्रियां…!

और मुल्ला थोड़ा घबड़ाया क्योंकि दोनों नाराज मालूम होती हैं। नदी का मामला! मझधार! धक्का दे दें!

तो उसने कहा, यह भी कोई बात है? अरे तुम एक-दूसरे से सुंदर हो। एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर हो। एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर सुंदर हो।

अब एक दूसरे से बढ़-चढ़कर सुंदर हो, इसका मतलब क्या होता है? लेकिन शायद यही ज्यादा सच है। यह वक्तव्य बेबूझ हो जाता है लेकिन ज्यादा सच है।

अंडा मुर्गी के पहले, मुर्गी अंडे के पहले। दोनों एक-दूसरे के पहले। दोनों असल में दो नहीं हैं। मुर्गी अंडे का ही एक रूप है। अंडा मुर्गी का ही एक रूप है। मुर्गी अंडे का ही एक ढंग है और अंडे पैदा करने का। अंडा मुर्गी का ही एक ढंग है और मुर्गी पैदा करने का। ये दोनों दो हैं ऐसा सोचने से गड़बड़ खड़ी हो जाती है। ये संयुक्त घटनाएं हैं।

इसे तुम ऐसा समझो कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कौन आगे, कौन पीछे? युगपत हैं, साथ-साथ हैं। साधन और साध्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

भक्त को साध्य पहले मिलता है, फिर वह साधन खोजता है। वह परमात्मा को पहले खोज लेता है फिर उसका रास्ता खोजता है। तुम कहोगे यह बात अजीब है। क्या करें?

एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग! ऐसा होता भक्त को। पहले भगवान मिल जाता है, फिर वह उसी से पूछ लेता है अब रास्ता कहां है? अब तुम्हीं बता दो। जब मिल ही गए तो तुम्हारा पता-ठिकाना क्या?

ध्यानी पहले रास्ता खोजता है। ध्यानी ज्यादा तर्कयुक्त है, ज्यादा व्यवस्था से चलता है। उसके जीवन में एक शृंखला है। भक्त बड़ा बेबूझ है। प्रेम सदा से बेबूझ है।

यहूदियों में एक धारणा है–बड़ी प्रीतिकर धारणा। यहूदी भक्ति का ही एक मार्ग है। यहूदी कहते हैं, इसके पहले कि भक्त भगवान को खोजे, भगवान भक्त को खोज लेता है। यहूदी धर्म की बड़ी गहरी देन में से एक देन यह है। वे कहते हैं, तुम खोजना ही तब शुरू करते हो जब वह तुम्हें खोज लेता है, नहीं तो तुम शुरू ही नहीं करते। जब वह किसी तरह तुम्हारे भीतर आ ही जाता है, तभी तुम्हारे भीतर उसे पाने की आकांक्षा जगती है; नहीं तो आकांक्षा ही नहीं जगती।

यहूदी कहते हैं, तुम ही नहीं खोज रहे भगवान को, भगवान भी तुम्हें खोज रहा है। तुम ही नहीं तड़फ रहे उसके लिए, वह भी तड़फ रहा है। और मजा तो तभी है जब आग दोनों तरफ से लगे। अगर भक्त ही खोजता रहे भगवान को और भगवान को जरा भी न पड़ी हो–मिल गए तो ठीक, न मिले तो ठीक; और भगवान उपेक्षा से भरा हो तो खोज का सारा मजा ही चला गया, रस ही चला गया।

ध्यानी कहता है सत्य तुम्हें नहीं खोज सकता, तुम सत्य को खोज सकते हो। एकतरफा है उसकी खोज। वह कहता है हम खोजेंगे। सत्य कैसे खोजेगा? सत्य को तो उघाड़ना पड़ेगा।

भक्त कहता है यह कोई हमीं खोज रहे ऐसा नहीं, वह भी उघड़ने को आतुर है। यह हमीं उसका घूंघट उठाने नहीं चले हैं, वह भी घूंघट डालकर बैठा है कि आओ, उठाओ; कि बड़ी देर लगाई, कहां रहे? आओ! परमात्मा भी खोज रहा है। यह खोज दोनों तरफ से है। यह आग दोनों तरफ से है। यह यात्रा दोनों तरफ से चल रही है।

अब यह सरोज का जो प्रश्न है, एक भक्त का प्रश्न है। प्रश्न तो है ही नहीं। क्योंकि भक्त प्रश्न पूछ नहीं सकता। अहोभाव है। वह अपने हृदय की बात कह रही है कि ऐसा उसे हुआ है।

अब उसे लगता है कि गुरु ही पिता, गुरु ही माता, गुरु ही संगी, गुरु ही साथी, गुरु ही ज्ञान, गुरु ही परमात्मा।

प्रेम जहां भी पड़ता है वहीं परमात्मा की छवि देख लेता है।

तुझ से अब मिलके ताज्जुब है कि अर्सा इतना

आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गुजरा

और जब परमात्मा की उसे झलक मिलती है तो उसे भरोसा ही नहीं आता कि आज तक इतना अर्सा तुझसे बिना मिले गुजरा कैसे? यह हो ही कैसे सका? यह मैं हो कैसे सका इतने दिन तक? यह मेरे होने की संभावना ही कैसे हो सकी?

उसे भरोसा ही नहीं आता कि मैं था भी। भक्त को तो उसी दिन भरोसा आता है अपने होने पर, जब भगवान का मिलन होता है। उसी दिन भक्त होता है। उसके पहले तो सब सपना था। एक झूठी दास्तान थी। न किसी ने कही, न किसी ने सुनी, एक झूठी दास्तान थी।

तुझसे अब मिलके ताज्जुब है कि अर्सा इतना

आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गुजरा

बहुत दिनों में मोहब्बत को हो सका मालूम

जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

प्रेमी को पता चलता है धीरे-धीरे प्रेम में पगते-पगते कि:

जो तेरी हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

जो तेरे बिना गुजरी वह रात रात हुई। वह हुई, न हुई बराबर हुई। तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ।

“त्वमेव माता च पिता त्वमेव।’

तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ।

जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

इसलिए अगर किसी के हाथ में हाथ जाने से तुम्हारे जीवन में रसधार बहे तो लगेगा तुम्हीं पिता, तुम्हीं माता; क्योंकि नया जन्म हुआ। एक जन्म है, जो माता-पिता से होता है, वह शरीर का जन्म है। फिर एक जन्म है, जो सदगुरु से होता है; वह आत्मिक जन्म है, वह वास्तविक जन्म है। वह तुम्हारी चेतना का आविर्भाव है।

जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

इसलिए फिर सदगुरु सभी कुछ मालूम होने लगता है। यह भक्त का अपना ही हृदय सदगुरु में झलकता। जो उसे भीतर दिखाई पड़ता है, वही उसे सदगुरु में दिखाई पड़ता है। सदगुरु तो दर्पण है, तुम अपना ही चेहरा देख लेते हो।

और भक्त को फिर बड़ा भरोसा आ जाता है। गुरु का साथ मिला कि भरोसा आ गया। अगर गुरु है तो परमात्मा है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति है, जो तुम्हें अपने से पार दिखाई पड़ता है, जिसे देखने में तुम्हारी आंखें जमीन से आकाश की तरफ उठ जाती हैं, तो बस पर्याप्त है।

कहते हैं मंसूर को सूली लगी तो वह खिलखिलाकर हंसने लगा। वह खिलखिलाकर हंसा तो लोगों ने पूछा, तुम हंसते क्यों हो? वह कहने लगा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चलो, मुझे सूली पर लटका देखने के लिए कम से कम तुम्हारी आंखें तो ऊपर उठीं। तुम जमीन पर सरकते लोग, घसिटते लोग–तुम आकाश की तरफ आंख ही नहीं उठाते। चलो, मेरी फांसी के बहाने–वह लटका था एक बड़े ऊंचे खंभे पर–तुम्हारी आंखें तो आकाश की तरफ उठीं, इसलिए हंसा।

अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

आकाश तक पहुंचना होगा कि नहीं होगा, कहना मुश्किल है। लेकिन भक्त कहता है:

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

मैं रो ही नहीं रहा हूं, मेरे भीतर आह ही नहीं उठ रही है, मेरी उड़ान में प्रार्थना का भी बल है।

अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई

भक्त यह भी नहीं कहता कि पहुंच ही जाऊंगा। नहीं, प्रेम इस तरह के दावे नहीं करता। झिझकता है भक्त। भक्त कहता है:

अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई

पहुंचना हो कि न पहुंचना हो। लेकिन एक अर्थ में भक्त झिझकता है कि पहुंचना होगा कि नहीं, और एक अर्थ में आश्वस्त होता है कि पहुंचना तो हो ही गया।

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

मेरी उड़ान में सिर्फ आह ही नहीं है, प्यास ही नहीं है, तुझे खोजने की अभीप्सा ही नहीं है, तुझे पा लेने की प्रार्थना भी है। तुझे पा लिया इसका धन्यवाद भी।

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

फिर इस उड़ान को कोई रोक सकता नहीं। यह होकर रहेगी। यह हो ही गई है।

पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

भक्त को तो ऐसे ही लगने लगता है कि भगवान पुकार रहा है। यहां जो भक्त की तरह मेरे पास आए हैं, उन्हें मेरी हर आवाज में लगेगा–आपने मुझे पुकारा तो नहीं?

पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

उसे अपनी धड़कन की आवाज भी ऐसे लगती है कि परमात्मा के पैरों की आवाज है।

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

हर जुल्म गवारा है मगर यह भी खबर है

दिल आपकी है चीज, हमारा तो नहीं

हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले

यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं

सब तरफ उसे उसी की नजरों का इशारा दिखाई पड़ता है। फूल खिलते हैं तो लगता परमात्मा हंसा। चांद निकलता तो लगता परमात्मा निकला। चांदनी फैल जाती है तो लगता परमात्मा फैला।

पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले

यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं

भक्त को बड़ी गहरी आंख उपलब्ध हो जाती है। बिना कुछ किए, बिना मांगे, बिना प्रयास के–प्रसाद से। चाहिए दिल, जो रो सके। चाहिए दिल, जो हंस सके। चाहिए दिल, जो संदेह न करे, श्रद्धा करे।

पांचवां प्रश्न: पूछा है आनंद सागर ने।

सीमार माझे असीम

तुमी बाजाओ आपन सूर

आमार मध्ये तोमार प्रकाश

ताई एतो मधुर

कत वर्णे कत गंधे

कत गाने कत छंदे

अरूप तोमार रूपेर लीला

जागे हृदय पूर

आमार मध्ये तोमार शोभा,

एमन सुमधुर

हे भगवान रजनीश!

लहो सागरेर नमन, प्रवीणेर वंदन।

ऐसा ही लगता है प्रेमी को कि मेरी सीमा में असीम उतरा; कि मेरे आंगन में आकाश उतरा। भक्त जब सुनता है तो एक-एक शब्द अमृत बनकर बरसता है। भक्त जब सुनता है खुले हृदय से तो जो ज्ञानी को, ध्यानी को, केवल शब्द मालूम होते हैं, भक्त को सिर्फ शब्द नहीं मालूम होते; उन शब्दों में एक अनूठा जीवन, एक आभा, उन शब्दों में शून्य की झनकार…।

सीमार माझे असीम

लगता, मेरी सीमा में असीम आया। गुरु का मिलन सीमा से असीम का मिलन है। शिष्य यानी सीमा। शिष्य वही जिसे अपनी सीमा का पता चल गया और जो राजी है असीम के चरणों में अपनी सीमा को डाल देने को।

सीमार माझे असीम

तुमी बाजाओ आपन सूर

और शिष्य कहता है, बजाओ तुम अपनी वीणा। बजाओ तुम अपना स्वर। मैं राजी हूं। मैं सुनूंगा, मैं नाचूंगा। मैं घूंघर पहनकर आ गया हूं। तुम बजाओ अपना स्वर।

आमार मध्ये तोमार प्रकाश

मैं तो अंधेरा हूं, लेकिन जलाओ तुम अपना दीया। तुम्हारा प्रकाश हो मेरे मध्य

ताई एतो मधुर।

कत वर्णे कत गंधे

कहा न जा सके ऐसा रूप। कही न जा सके ऐसी गंध।

कत गाने कत छंदे

बांधा न जा सके जो छंद में। गीत में जो समाए न, अटाए न।

अरूप तोमार रूपेर लीला

तुम्हारी रूप की लीला अपूर्व है, अरूप है।

जागे हृदय पूर

जगाओ उसे मेरे हृदय में।

आमार मध्ये तोमार शोभा

मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मेरी कोई शोभा है तो तुम्हारी मौजूदगी से है। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, बस तुम हो। मैं तो शून्य हूं। तुम विराजो तो सब हो जाता है। तुम न विराजो तो रिक्त रह जाता हूं। मेरे शून्य में तुम उतर आओ तो सब है मेरे पास। तुम चले जाओ तो सब भी हो मेरे पास तो बस रिक्तता है, खालीपन है।

आमार मध्ये तोमार शोभा

एमन सुमधुर

भक्त की सारी आकांक्षा परमात्मा के लिए जगह देने की, अवकाश देने की है। भक्त जगह खाली करता है। भक्त कहता है, मैं हटता, तुम आओ। मैं चला, तुम विराजो। यह सिंहासन तुम्हारे लिए खाली करता।

ऐसा भक्त अपने को गलाता, मिटाता, शून्य करता। जैसे-जैसे शून्य होता वैसे-वैसे पूर्ण उसमें उतरता। एक दिन भक्त अचानक पाता है, एक सुबह जागकर अचानक पाता है, कि भक्त तो बचा ही नहीं, भगवान ही बचा है। एक दिन भक्त अचानक पाता है, उसकी बांह गले में पड़ गई। एक दिन भक्त अचानक पाता है उसकी अंगूर की छाया तले बैठे हैं। नहीं, भक्त को बैकुंठ की चाह नहीं, न भक्त को कल्पवृक्षों की चाह है। उसके प्रेम की वर्षा होती रहे।

भक्त मिटना चाहता है। मिटने में ही प्रेम की वर्षा है।

और जो शिष्य भक्त की तरह गुरु के पास आता है, अनायास गुरु उसके माध्यम से बहुत-से काम करने शुरू कर देता है। तुम छोड़ो भर, कि तुम उपकरण बन जाते हो। और गुरु के पास तो सिर्फ सीखना है छोड़ने की कला। अगर तुम गुरु के पास अपने को छोड़ सके तो तुमने अ, ब, स सीख लिया छोड़ने का। यही अ, ब, स काम आएगा परमात्मा के पास छोड़ने में।

परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बड़ा अदृश्य है। उपस्थित है और उपस्थिति मालूम नहीं होती। उसी का स्वर गूंज रहा है लेकिन सब सुनाई पड़ता है, वही सुनाई नहीं पड़ता।

गुरु में परमात्मा थोड़ा-सा दृश्य होता है–थोड़ा-सा। एक किरण उस सूरज की उतरती मालूम होती है। थोड़ा रूप धरता। यही तो अवतार का अर्थ है: अवतरित होता। जैसे भाप उतर आए, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी, जल की तरह दिखाई पड़ने लगी।

गुरु का इतना ही अर्थ है कि जिसके माध्यम से तुम्हें अदृश्य की याद आ जाए, तुम्हारी सीमा में असीम का आंदोलन हो उठे, तुम्हारे अंधेरे में थोड़ा प्रकाश लहरा जाए। तुम्हारे बंद पड़े जल में, तुम्हारे ठहर गए जल में; फिर से लहर आ जाए, फिर से गति आ जाए, फिर से प्रवाह आ जाए।

तो न केवल इधर तुम मिटोगे, उधर तुम होने लगोगे, तुम धीरे-धीरे अंतिम मरण का पाठ सीखोगे। तुम पाओगे, जब गुरु के पास जरा-सा झुकने से इतना मिल जाता है तो फिर पूरे ही क्यों न झुक जाएं?

पूरा जो झुका उसे परमात्मा मिल जाता है। थोड़ा जो झुका उसे गुरु मिल जाता है। और थोड़ा झुकना पूरा झुकने की प्राथमिक शिक्षा है।

एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए

गुरु के पास जो शिष्य झुकते हैं, उनके बुझे दीये जलने लगते हैं।

एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए

आंगन-आंगन खिले कल्पना सजे द्वार बंदनवारों से

उठे गीत समवेत स्वरों से पगडंडी-पथ-गलियारों से

रोम-रोम उन्मन मुंडेर का पाटल-सा मुसकाए

एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए

पोप-पोर उमगे अणुओं का बिछले दिशा-दिशा अरुणाई

पग-पग उठे किरण पुखराजी डग-डग फेनिल श्वेत जुन्हाई

कोसों तक ऊसर भूमि में नेह-बीज अकुराए

एक दीप से कोटि दीप हों अंधकार मिट जाए

अगर झुक सकते हो तो चूको मत। अगर जरा झुक सकते हो तो उतना ही झुको। उससे और झुकने की कला आएगी क्योंकि झुककर जब मिलेगा तो पता चलेगा कि नाहक अकड़े खड़े रहे। नाहक प्यासे रहे। व्यर्थ ही जीवन को रात बनाया। जो जीवन दिन बन सकता था, उसे अपने हाथ ही अंधकार में सम्हाले रहे।

आखिरी प्रश्न: तरु ने पूछा है।

एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया:

तुम मुझे यूं भुला न पाओगे

जब-जब सुनोगे गीत मेरे

संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे

तरु समझी नहीं। पागल नहीं था, मैं ही आया था। मैं ही गुनगुना गया हूं।

“तुम मुझे यूं भुला न पाओगे

जब-जब सुनोगे गीत मेरे

संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे’

और जो मैंने तुझसे कहा तरु, उसे औरों से कह। बात को फैला।

दिल ने आंखों से कही, आंखों ने उनसे कह दी

बात चल निकली है अब देखें कहां तक पहुंचे।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–31

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याद घर बुलाने लगी—प्रवचन—इकतीसवां

सूत्र:

ण वि दुक्‍खं ण वि सुक्‍खं, ण वि पीडा णेव विज्‍जदे बाहा।

णवि मरणं ण वि जणणं,तत्‍थेव य होई णिव्‍वाणं।। 156।।

ण वि इंदिय उवसग्‍गा, तत्‍थेव य होइ णिव्‍वाणं।

ण य तिण्‍हा णे व छुहा, तत्‍थेव य होइ णिव्‍वाणं।। 157।।

ण वि कम्‍मं णोकम्‍मं, ण वि चिंता णेव अट्टरूद्दाणि।

ण वि धम्‍मसुक्‍कझाणे, तत्‍थेव य होइ णिव्‍वाणं।। 158।।

णिव्‍वाणं ति अवाहंति,सिद्धीलोगाग्‍गमेव य।

खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो।। 159।।

लाउअ एरण्‍डफले, अग्‍गीधूमे उसू धणुविमुक्‍के।

गइ पुव्‍वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु।। 160।।

अव्‍वाबाहमणिंदिय—मणोवमं पुण्‍णपावणिम्‍मुक्‍कं।

पुणरागमणविरहियं, णिच्‍चं अचलं अणालंबं।। 161।।

पानी पर तिरता है आईना

आंख झिलमिलाने लगी

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी

रोक लूं मैं बादलों की घंटियां

बजने से पुरवा के पांव में

झलकने लगीं पीली बत्तियां

जले हुए दीपों के गांव में

अंधकार झूलता है पालना

याद घर बुलाने लगी

याद घर बुलाने लगी! इन थोड़े-से शब्दों में सारे धर्म का सार है–याद घर बुलाने लगी। जहां हम हैं, वहां हम तृप्त नहीं। जो हम हैं उससे हम तृप्त नहीं। एक बात निश्चित है कि हम अपने घर नहीं, कहीं परदेश में हैं। कहीं अजनबी की भांति भटक गए हैं। कहां जाना है यह भला पता न हो, लेकिन इतना सभी को पता है कि जहां हम हैं, वहां नहीं होना चाहिए।

एक बेचैनी है। कुछ भी करो, कितना ही धन कमाओ, कितनी ही पद-प्रतिष्ठा जुटाओ, कुछ कमी है, जो मिटती नहीं। कोई घाव है, जो भरता नहीं। कोई पुकार है जो भीतर कहे ही चली जाती है: यह भी नहीं, यह भी नहीं; कहीं और चलो। खोजो घर। द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे दस्तक दिए। न मालूम कितने- कितने जन्मों में, कितने-कितने ढंग से अपने घर को खोजा है।

मगर सारी खोज एक ही बात की है कि कोई ऐसा स्थान हो, जहां तृप्ति हो। कोई ऐसी भावदशा हो, जिसमें कोई वासना न उठती हो।

वासना का अर्थ ही है कि जो हम हैं, उसमें रस नहीं आ रहा, कुछ और होना चाहिए। चाह का अर्थ ही है बेचैनी। चाह उठती ही बेचैनी से। राहत नहीं है। कोई कांटा चुभ रहा है। कोई अतृप्ति सब तरफ से घेरे है। सब मिल जाता है। फिर भी अतृप्ति वैसी की वैसी बनी रहती है–अछूती, अस्पर्शित।

धर्म का जन्म मनुष्य के भीतर इस महत घटना से होता है–बेचैनी की इस घटना से होता है। जैसे परदेश में हैं, जहां न कोई अपनी भाषा समझता, न कोई अपना है। जहां सब संबंध सांयोगिक हैं। जहां सब संबंध मन के मनाये हुए हैं; वास्तविक नहीं हैं। और जहां पानी का धोखा तो बहुत मिलता है, पानी नहीं मिलता–मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता जल का स्रोत, पास आते रेत ही रेत रह जाती है।

इस भटकाव को हम कहते हैं संसार। इस भटकाव में घर की याद आने लगी तो धर्म की शुरुआत हुई।

पानी पर तिरता है आईना

आंख झिलमिलाने लगी

अगर बाहर देख-देखकर ऊब पैदा हो गई हो, देख-देखकर देख लिया हो, कुछ देखने जैसा नहीं है, आंख झपकने लगी हो, भीतर देखने का खयाल उठने लगा हो, आंख बंद करके देखने का भाव जगने लगा हो तो हो गई शुरुआत।

हाथ भर-भरके देख लिए, जब पाया तब राख से भरे पाया। कभी हीरों से भरा लेकिन हीरे राख हो गए। सोने से भरा, सोना मिट्टी हो गया। संबंधों से भरा, तथाकथित प्रेम से भरा और सब अंततः मूल्यहीन सिद्ध हुआ। और अब हाथ को और भरने की आकांक्षा न रही।

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी।

तो जिस दिन बाहर से आंख हटने लगती है, उसी दिन:

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी

तो अब घर जाने का समय करीब आ गया।

प्रार्थना, जो बाहर से घर की तरफ लौटने लगे और अभी घर नहीं पहुंचे–बीच का पड़ाव है। जो संसार में हैं उनके हृदय में प्रार्थना नहीं उठती। जो परमात्मा में पहुंच गए, उनको प्रार्थना की जरूरत नहीं रह जाती। प्रार्थना सेतु है बाहर से भीतर आने का; परदेश से स्वदेश आने का; विभाव से स्वभाव में आने का।

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी।

संसार की सांझ आ गई। और जो संसार की सांझ है वही निर्वाण की सुबह है।

रोक लूं मैं बादलों की घंटियां

बजने से पुरवा के पांव में

झलकने लगी पीली बत्तियां

जले हुए दीपों के गांव में

अंधकार झूलता है पालना

याद घर बुलाने लगी।

आज के सूत्र महावीर की अंतिम निष्पत्तियां हैं। ये सूत्र निर्वाण के हैं। ये सूत्र घर आ गए व्यक्ति का आखिरी वक्तव्य हैं। ये सूत्र ऐसे हैं, जो कहे नहीं जा सकते, जिन्हें कहने की चेष्टा भर की जा सकती है। ये सूत्र ऐसे हैं, जो अभिव्यक्त नहीं होते, भाषा छोटी पड़ती है, शब्द संकीर्ण हैं। और विराट को संकीर्ण शब्दों के सहारे लाना पड़ता है।

इसलिए इन शब्दों को बहुत कसकर मत पकड़ना। इन्हें बहुत सहानुभूति से, बहुत श्रद्धा से भाषा की असमर्थता को याद रखते हुए समझना।

एक तो गणित की भाषा होती है, जहां दो और दो चार होते हैं। बस, दो और दो चार होता और कुछ भी नहीं होता। सब सीधा-साफ होता है।

लेकिन सत्य का अनुभव ऐसा है कि उससे मिलता हुआ कोई भी अनुभव इस संसार में नहीं है। जो बाहर देखा है उससे किसी से भी जो भीतर दर्शन होते हैं, उसका तालमेल नहीं। जो परदेश में जाना है और जो स्वदेश लौटने का अनुभव होता है, उसे परदेश की भाषा में कहने का कोई उपाय नहीं।

तो यह स्वभाव को विभाव में कहने की चेष्टा है।

रहिमन बात अगम्य की कहन-सुनन की नाहीं

जे जानत ते कहत नहीं, कहत ते जानत नाहीं

कुछ बात ऐसी है अगम्य की, कि कहने-सुनने की नहीं है। जो जानते हैं, कहते नहीं। जो कहते हैं, जानते नहीं।

इसका यह अर्थ नहीं कि जाननेवालों ने नहीं कहा है; कहा है और कहकर भी कह नहीं पाया है। कहा है और फिर कहा कि कह नहीं पाए। फिर-फिर कहा है। महावीर जीवनभर निर्वाण के संबंध में अनेक-अनेक ढंगों से, अनेक-अनेक इशारों का उपयोग करके बोलते रहे, लेकिन कैसे कहो उसे? कैसे कहो उसे, जो शब्दों के शून्य हो जाने पर अनुभव होता है? कैसे कहो उसे, जो भाषा के अतिक्रमण पर अनुभव होता है? कैसे कहो उसे, जो घर के भीतर आने का अनुभव होता है?

भाषा तो सब घर के बाहर की है। भाषा तो सब बाजारू है। भाषा तो दूसरे से बोलने के लिए है। जब तुम अकेले हो, बिलकुल अकेले हो, अपने नितांत स्वरूप में आ गए, वहां कोई दूसरा नहीं है तो भाषा का कोई प्रयोजन नहीं है। वहां बोलने का कोई उपाय नहीं है। वहां तो परम मौन है।

अपने से बाहर गए, दूसरे से मिले-जुले, संबंध बनाया तो बोलना पड़ता है। तो ऐसा नहीं है कि जिन्होंने जाना, नहीं बोला, लेकिन बोल-बोलकर भी बोल नहीं पाए। बोल-बोलकर अंततः यही कहा कि क्षमा करना, हम जो कहते थे, वह कह नहीं पाए।

लेकिन फिर भी जिन्होंने कहा है उनमें महावीर का वक्तव्य अत्यधिक वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक होना कठिन है, लेकिन अगर सारे वक्तव्यों को तौला जाए तो महावीर का वक्तव्य अतिवैज्ञानिक है। सत्य को देखा जाए, तब तो बहुत दूर है सत्य से। सभी वक्तव्य दूर होते हैं। और वक्तव्यों को देखा जाए तो निकटतम है।

पहला सूत्र:

ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव विज्जदे बाहा।

ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।

“जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा, न मरण है न जन्म, वहीं निर्वाण है।’

अब यह भी कुछ कहना हुआ? यह तो “नहीं’ से कहना हुआ, नकार से कहना हुआ। क्या नहीं है वहां, यह कहा। क्या है, यह तो कहा नहीं। क्या है उसे कहा भी नहीं जा सकता।

यह तो ऐसे ही हुआ, कि किसी स्वस्थ आदमी को हमने कहा कि, न टी. बी. है, न कैंसर है उसमें, न मलेरिया लगा है, न प्लेग हुई; स्वस्थ है। स्वास्थ्य को बताया, बीमारियां नहीं हैं इससे। यह कोई स्वास्थ्य की परिभाषा हुई? बीमारियों का अभाव स्वास्थ्य है? लेकिन बस यही निकटतम परिभाषा है। स्वास्थ्य तो ज्यादा है बीमारियों के अभाव से। स्वास्थ्य की तो अपनी विधायकता है। स्वास्थ्य की तो अपनी उपस्थिति है।

खयाल किया? सिरदर्द न हो तो जरूरी नहीं है कि सिर स्वस्थ हो। जैसे सिरदर्द नकार की तरफ ले जाता है, पीड़ा की तरफ ले जाता है, ऐसा सिर का स्वास्थ्य आनंद की तरफ ले जाएगा। दर्द का न होना तो मध्य में हुआ, दोनों के मध्य में हुआ। दर्द का होना एक अति, स्वास्थ्य का होना एक अति, दोनों के मध्य में हुई इतनी-सी बात कि दर्द नहीं है।

अगर कोई तुमसे पूछे, कैसे हो? तुम कहो, दुखी नहीं हैं, तो वह भी थोड़ा चिंतित होगा। तुम यह नहीं कह रहे हो कि सुखी हो, तुम इतना ही कह रहे हो कि दुखी नहीं हूं। जरूरी नहीं कि तुम सुखी हो। दुख का न होना सुख के होने के लिए शर्त तो है लेकिन सुख के होने की परिभाषा नहीं है। पर मजबूरी है।

उस परम सत्य को हम इतना ही कह सकते हैं कि संसार नहीं है। निर्वाण संसार नहीं है। इन सारे सूत्रों में अलग-अलग ढंग से महावीर यही कहते हैं कि संसार नहीं है।

न वहां दुख, न सुख। सुख और दुख संसार है। द्वंद्व संसार है। दो के बीच सतत संघर्ष संसार है। इसलिए संन्यासी का अर्थ होता है, जिसने अकेला होना सीख लिया। इसका यह अर्थ नहीं होता कि जंगल भागकर अकेला हो गया। क्योंकि इस संसार में अकेले होने का तो कोई उपाय नहीं है।

जंगल में रहोगे तो भी अकेले नहीं हो। बैठोगे वृक्ष के नीचे, कौआ बीट कर जाएगा। संबंध जुड़ गया क्रोध का। बैठोगे वृक्ष के नीचे, वृक्ष छाया देगा। संबंध जुड़ गया राग का। फिर उसी-उसी वृक्ष के नीचे आकर बैठोगे। फिर अगर कोई लकड़हारा किसी दिन उस वृक्ष को काटने आ गया तो तुम लड़ने को तैयार हो जाओगे कि मत काटो। यह मेरा वृक्ष है।

भागोगे कहां? जहां जाओगे…संसार तो संसार है, वहां तो हमेशा दो हैं।

इसलिए संन्यास का अर्थ होता है; अकेले होने की क्षमता। अकेला होना नहीं, अकेले होने की क्षमता। जहां भी हो, यह स्मरण बना रहे कि “मैं अकेला हूं।’ तब बीच-बाजार में तुम संन्यासी हो। गृहस्थ होकर संन्यासी हो। पत्नी है, बच्चे हैं, दुकान है, बाजार है–तुम संन्यासी हो। इतनी याद बनी रहे कि “मैं अकेला हूं।’

तुम अपने को दो में बांटने की आदत छोड़ दो।

“जहां न दुख न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, वहीं निर्वाण है।’

नदियां दो-दो अपार, बहती हैं विपरीत छोर

कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूं

ओ मेरे सूत्रधार!

नौकाएं दो भारी अलग-अलग दिशा में जातीं

कब तक मैं दोनों को साथ-साथ खेता रहूं

एक देह की पतवार!

दो-दो दरवाजे हैं अलग-अलग क्षितिजों में

कब तक मैं दोनों की देहरियां लांघा करूं

एक साथ!

छोटी-सी मेरी कथा, छोटा-सा घटना क्रम

हवा के भंवर-सा पलव्यापी यह इतिहास

टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बांट दिया तुमने

ओ अदृश्य विरोधाभास!

जैसे आदमी दो नावों पर साथ-साथ सवार हो और दोनों नावें विपरीत दिशाओं में जाती हों, ऐसा है संसार। जैसे आदमी दो दरवाजों से एक साथ प्रवेश करने की कोशिश कर रहा हो और दोनों दरवाजे इतने दूर हों जैसे जमीन और आकाश, ऐसा है संसार। जैसे कोई एक ही साथ जन्मना भी चाहता हो और मरने से भी बचना चाहता हो, दो विपरीत आकांक्षाएं कर रहा हो और दोनों के बीच उलझ रहा हो, परेशान हो रहा हो, ऐसा है संसार।

हमारी सभी आकांक्षाएं विपरीत हैं। इसे थोड़ा समझना। इसकी समझ तुम्हारे भीतर एक दीये को जन्म दे देगी। एक तरफ तुम चाहते हो, दूसरे लोग मुझे सम्मान दें और दूसरी तरफ तुम चाहते हो, कोई अपमान न करे। साधारणतः दिखाई पड़ता है इन दोनों में विरोध कहां?

इन दोनों में विरोध है। यह तुम दो नौकाओं पर सवार हो गए।

इसका विश्लेषण करो: तुम चाहते हो, दूसरे मुझे सम्मान दें। ऐसा चाहकर तुमने दूसरों को अपने ऊपर बल दे दिया। दूसरे शक्तिशाली हो गए, तुम कमजोर हो गए। अपमान तो शुरू हो गया। अपमान तो तुमने अपना कर ही लिया। दूसरे जब करेंगे तब करेंगे। तुम अपमानित तो होना शुरू ही हो गए। यह कोई सम्मान का ढंग हुआ? जहां दूसरे हमसे बलशाली हो गए।

दूसरों से सम्मान चाहा इसका अर्थ है कि दूसरों के हाथ में तुमने शक्ति दे दी कि वे अपमान भी कर सकते हैं। और निश्चित ही अपमान करने में उन्हें ज्यादा रस आएगा। क्योंकि तुम्हारे अपमान के द्वारा ही वे सम्मानित हो सकते हैं। वे भी तो सम्मान चाहते हैं, जैसा तुम चाहते हो। तुम किसका सम्मान करते हो? तुम सम्मान मांगते हो। वे भी सम्मान मांग रहे हैं। वे तुम्हारा सम्मान करें तो उन्हें कौन सम्मान देगा?

प्रतिस्पर्धा है। एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो तुम। तुम जब दूसरे से सम्मान मांगते हो तब तुमने उसे क्षमता दे दी, हाथ में कुंजी दे दी कि वह तुम्हारा अपमान कर सकता है। अब सौ में निन्यानबे मौके तो वह ऐसे खोजेगा कि तुम्हारा अपमान कर दे। कभी मजबूरी में न कर पाएगा तो सम्मान करेगा। सम्मान तो लोग मजबूरी में करते हैं। अपमान नैसर्गिक मालूम पड़ता है। सम्मान बड़ी मजबूरी मालूम पड़ती है। झुकता तो आदमी मजबूरी में है। अकड़ना स्वाभाविक मालूम पड़ता है।

तो जैसे ही तुमने सम्मान मांगा, अपमान की क्षमता दे दी। और दूसरा भी सम्मान की चेष्टा में संलग्न है। वह भी चाहता है, अपनी लकीर तुमसे बड़ी खींच दे। जैसा तुम चाहते हो वैसा वह चाहता है।

अब अड़चन शुरू हुई। सम्मान देगा तो भी तुम सम्मानित न हो पाओगे क्योंकि सम्मान देनेवाला तुमसे बलशाली है और अपमान करेगा तो तुम पीड़ित जरूर हो जाओगे।

तुमने धन मांगा, तुमने अपनी निर्धनता की घोषणा कर दी। क्योंकि निर्धन ही धन मांगता है। जो हमारे पास नहीं है वही हम मांगते हैं।

मैंने सुना है, शेख फरीद से एक धनपति ने कहा, यह बड़ी अजीब बात है। मैं तुम्हारे पास आता हूं तो सदा ज्ञान की, आत्मा की, परमात्मा की बात करता हूं। तुम जब कभी आते हो तो तुम सदा धन मांगते आते हो। तो सांसारिक कौन है?

शेख फरीद ने कहा, मैं गरीब हूं इसलिए धन मांगता हूं। तुम अज्ञानी हो इसलिए ज्ञान मांगते हो। जो जिसके पास नहीं है वही मांगता है। मैं तो तुम्हारी याद ही तब करता हूं जब गांव में कोई तकलीफ होती है, मदरसा खोलना होता है, अकाल पड़ जाता है, कोई बीमार मर रहा होता उसको दवा की जरूरत होती है तो मैं आता हूं। मैं दीन हूं, दरिद्र हूं। यह मेरा गांव गरीब और दरिद्र है। स्वभावतः मैं कोई ब्रह्म और परमात्मा की बात करने तुम्हारे पास नहीं आता। वह तो हमारे पास है।

तुम जब मेरे पास आते हो तो तुम धन की बात नहीं करते क्योंकि धन तुम्हारे पास है। तुम ब्रह्म की बात करते आते हो, जो तुम्हारे पास नहीं है।

इसे थोड़ा सोचना। जिससे तुमने धन मांगा, तुमने घोषणा कर दी कि तुम निर्धन हो। धन मांगनेवाला निर्धन है। पद मांगा, घोषणा कर दी कि तुम हीन हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं पद के आकांक्षी हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं–इनफीरियारिटी काम्पलेक्स। सभी राजनीतिज्ञ हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं। होंगे ही; कोई दूसरा और उपाय नहीं है। जब तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं शक्तिशाली हूं तो तुमने अपने भीतर मान रखा है कि तुम शक्तिहीन हो। अब किसी तरह सिद्ध करके दिखा देना है कि नहीं, यह बात गलत है।

कमजोर बहादुरी सिद्ध करना चाहता है। कायर अपने को वीर सिद्ध करना चाहता है। अज्ञानी अपने को ज्ञानी सिद्ध करना चाहता है। हम जो नहीं हैं उसकी ही चेष्टा में संलग्न होते हैं। और जो हम नहीं हैं, हमारी चेष्टा से प्रगट होकर दिखाई पड़ने लगता है। पीड़ा और बढ़ती चली जाती है।

जन्म तो हम मांगते हैं, जीवन तो हम मांगते हैं, मौत से हम डरते हैं। हम चिल्लाते हैं, मौत नहीं। और सब हो, मृत्यु नहीं। मृत्यु की हम बात भी नहीं करना चाहते। लेकिन जन्म के साथ हमने मृत्यु मांग ली। क्योंकि जो शुरू होगा वह अंत होगा।

मृत्यु जन्म के विपरीत नहीं है, जन्म की नैसर्गिक परिणति है। जो शुरू होगा वह अंत होगा। जो बनेगा वह मिटेगा। जिसका सृजन किया जाएगा उसका विध्वंस होगा। तुमने एक मकान बनाया, उसी दिन तुमने एक खंडहर बनाने की तैयारी शुरू कर दी। खंडहर बनेगा। तुम जब भवन बना रहे हो तब तुम एक खंडहर बना रहे हो। क्योंकि बनाने में ही गिरने की शुरुआत हो गई। तुमने एक बच्चे को जन्म दिया, तुमने एक मौत को जन्म दिया। तुम जन्म के साथ मौत को दुनिया में ले आए।

नदियां दो-दो अपार, बहती हैं विपरीत छोर

कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूं

ओ मेरे सूत्रधार!

नौकाएं दो भारी अलग-अलग दिशा में जातीं

कब तक मैं दोनों को साथ-साथ खेता रहूं

एक देह की पतवार!

–पतवार एक, नौकाएं दो विपरीत दिशाओं में जातीं!

दो-दो दरवाजे हैं अलग-अलग क्षितिजों में

कब तक मैं दोनों की देहरियां लांघा करूं

एक साथ!

छोटी-सी मेरी कथा, छोटा-सा घटनाक्रम

हवा के भंवर-सा पलव्यापी यह इतिहास

टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बांट दिया तुमने

ओ अदृश्य विरोधाभास!

जिसे हम संसार कहते हैं वह विरोधाभास है, और विरोधाभास से जो पार हो गया वही निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है।

तो महावीर का पहला सूत्र हुआ: विरोध के पार है निर्वाण।

“जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, वहीं निर्वाण है।’

जहां विरोध नहीं, द्वंद्व नहीं; जहां दो नहीं, दुई नहीं; जहां द्वैत नहीं, जहां अद्वैत है, वहीं है निर्वाण। जहां एक ही बचता है, आत्यांतिक रूप से एक बचता है, वहीं है निर्वाण। जब तक तुम्हारे भीतर विरोध है, जब तक तुम दो की आकंाक्षा करते, जब तक तुम्हारी आकांक्षाओं में संघर्ष और द्वंद्व है तब तक तुम कैसे शांत हो सकोगे? तब तक कैसा सुख? कैसी शांति? कैसा चैन? तब तक कभी विराम नहीं हो सकता।

तुम्हारी मांग में ही भूल हुई जा रही है। नहीं, कि तुम जो मांगते हो वह नहीं मिलता है, इसलिए तुम दुखी हो। तुमने मांगा, उसी में तुमने दुख मांग लिया। अक्सर लोग संसार से ऊबते भी हैं तो उनके ऊबने का कारण गलत होता है।

एक जैन मुनि मुझे मिलने आए, कोई पांच साल हुए। मैंने उनसे पूछा, आपने संसार क्यों छोड़ दिया, उन्होंने कहा, संसार में कुछ मिलता ही नहीं। कोई सार ही नहीं।

संसार में कुछ मिलता नहीं, कुछ सार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया? तो मिलने की आकांक्षा अब मोक्ष की तरफ लगा दी। अब वहां मिलेगा। परमात्मा की तरफ लगा दी, आत्मा की तरफ लगा दी। लोभ गया नहीं, वासना गई नहीं, सिर्फ दिशा बदली। और जहां वासना है वहां संसार है।

तो यह संन्यास संसार का अतिक्रमण न हुआ, संसार का ही फैलाव हुआ। अब यह आदमी नए लोभ में परेशान है। मैंने पूछा, मेरे पास किसलिए आए हो? वे कहने लगे, शांति नहीं मिलती। मैंने कहा, जिसने संसार छोड़ दिया–छोड़ते ही शांति मिल जानी चाहिए। फिर छोड़ने के बाद अब बचा क्या है, जो अशांत करे? सांसारिक व्यक्ति कहता है मैं अशांत हूं, समझ में आता है। आप कहते हैं, अशांत हैं? तो फिर फर्क क्या हुआ?

फिर इस बात को फिर से सोचें। संसार छूटा नहीं है। द्वंद्व अभी मौजूद है। लाभऱ्हानि की दृष्टि अभी मौजूद है। मिलना चाहिए और नहीं मिलता है। जहां मिलना चाहिए का भाव आया, वहां नहीं मिलता है, इसकी छाया भी पड़ी। जहां अपेक्षा आयी वहां विफलता हाथ लगी–लग ही गई; थोड़ी देर-अबेर होगी। तुमने बीज तो बो दिए, फसल काटने में कितनी देर लगेगी? अगर संन्यासी भी अशांत है, साधु-मुनि भी अशांत हैं, तो फिर भेद क्या करते हो सांसारिक में और साधु और मुनि में? दोनों अशांत हैं।

संसार में कुछ मिलता नहीं इसलिए संसार मत छोड़ना। संसार के मांगने में भूल हो गई है। पाने में भूल नहीं हो रही है, मांगने में भूल हो गई है। भूल अपनी वासना में हो गई है, अपनी चाहत में हो गई है, अपनी चाह में हो गई है। वहीं हमने द्वंद्व मांग लिया। संसार उसी द्वंद्व का फैलाव है।

इसे ऐसा समझो, संसार के कारण वासना नहीं है। वासना के कारण संसार है। अगर तुमने सोचा संसार के कारण वासना है, तो तुम्हारा पूरा जीवन का गणित गलत हो जाएगा। तब तुम संसार को छोड़ने में लग जाओगे और वासना तो छूटेगी नहीं। ऐसा देखो कि वासना संसार है ताकि वासना छूटे। वासना छूटे तो संसार छूट जाता है।

महावीर कहते हैं:

ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हयो ण णिद्दा य।

ण य तिण्हा णेव छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।

“जहां न इंद्रियां हैं न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है न तृष्णा, न भूल, वहीं निर्वाण है।’

अब एक बात काफी सूक्ष्म है। याद न रहे तो भूल जा सकती है। महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि तुमने अगर भूख मिटा दी, तृष्णा मिटा दी, निद्रा मिटा दी तो निर्वाण हो जाएगा। इसको ऐसा मत पकड़ लेना जैसा कि जैन मुनियों ने पकड़ा है और सदियों से भटकते हैं।

महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि निद्रा छोड़ दोगे तो निर्वाण उपलब्ध हो जाएगा। महावीर यह कह रहे हैं, निर्वाण उपलब्ध हो जाए तो वहां निद्रा नहीं है। इन दोनों बातों में बड़ा फर्क है। ये एक-सी लगती हैं बातें, इसलिए भूल होनी बड़ी स्वाभाविक है। जिनसे भूल हो गई वे क्षमायोग्य हैं क्योंकि भूल बड़ी बारीक है। जरा-सा धागे भर का फासला है।

महावीर निर्वाण की परिभाषा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि निर्वाण ऐसी चित्त की दशा है, ऐसे चैतन्य की दशा है, जहां न दुख है न सुख, न नींद है, न भूख है न प्यास। क्योंकि वहां इंद्रियां नहीं, वहां देह नहीं तो देह से बंधे हुए धर्म नहीं।

लेकिन इसका तुम उल्टा अर्थ ले सकते हो। तुम यह अर्थ ले सकते हो कि महावीर निर्वाण की साधना बता रहे हैं। यह सिर्फ निर्वाण की परिभाषा है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम नींद का त्याग कर दो, भोजन का त्याग कर दो तो तुम निर्वाण को उपलब्ध हो जाओगे। अगर भोजन का त्याग किया तो सूखोगे, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाओगे। अगर निद्रा का त्याग किया तो दिनभर उनींदे बने रहने लगोगे; निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाओगे। उदास हो जाओगे, महासुख का अनुभव नहीं होगा।

अगर तुमने सुख और दुख से अपने को सब भांति तटस्थ करने की चेष्टा की तो तुम कठोर हो जाओगे। तुम्हारी संवेदनक्षमता खो जाएगी, लेकिन निर्वाण को उपलब्ध न हो जाओगे।

निर्वाण को उपलब्ध होने से ये सब बातें घटती हैं। इन बातों को घटाने में मत लग जाना। क्योंकि तब तुमने बैल को गाड़ी के पीछे बांध लिया। बैल को गाड़ी के आगे ही रखना तो गाड़ी चलेगी। अगर बैल को गाड़ी के पीछे बांध लिया तो गाड़ी तो चलेगी नहीं, बैल भी न चल पाएंगे। हालांकि कुछ ज्यादा फर्क नहीं कर रहे हो। कुछ लोग बैल को गाड़ी के आगे रखते हैं, तुमने गाड़ी को बैल के आगे रखा। ऐसा कुछ बड़ा फर्क नहीं है, जरा-सा फर्क है।

ये सारी बातें निर्वाण के परिणाम हैं, निर्वाण के साधन नहीं हैं। इन्हें निर्वाण के पीछे आने देना। इन्हें निर्वाण के आगे मत रख लेना, जैसा जैन मुनियों ने किया है। सोचते हैं उपवास करें क्योंकि महावीर कहते हैं, वहां भूख नहीं लगती। अगर वहां भूख नहीं लगती तो वहां उपवास कैसे करोगे, थोड़ा सोचो! उपवास तो वहीं हो सकता है, जहां भूख लगती है। महावीर कहते हैं वहां निद्रा नहीं आती; तो जगे रहो, खड़े रहो।

एक गांव में मैं गया तो एक संन्यासी की बड़ी धूम थी। मैंने पूछा, मामला क्या है? दस साल से खड? हैं। खड़े श्री बाबा उनका नाम। वे सोते ही नहीं। मैं उनको देखने गया, वह आदमी करीब-करीब मुर्दा हालत में है। अब दस साल से जो न सोया हो और खड़ा रहा हो–क्योंकि डरते हैं कि बैठे, लेटे, कि नींद आयी। खड़े हैं। तो पैर हाथीपांव हो गए। सारा खून शरीर का सिकुड़कर पैरों में समा गया। पैर सूज गए हैं। लकड़ियों का सहारा लिए हुए, रस्सियां बांधे हुए छत से, उनके सहारे खड़े हैं।

अब यह आदमी–फांसी लगाए हुए है।

और यह फांसी और कठिन। दस क्षण में लग जाए, खतम हुआ। यह दस साल से फांसी पर लटका हुआ है। बैठ नहीं सकता, लेट नहीं सकता। और सम्मान बहुत मिल रहा है इसलिए अहंकार खूब बढ़ रहा है।

और इसकी आंखें देखो, तो पशुओं की आंखों में भी थोड़ी-बहुत बुद्धि दिखाई पड़े, वह भी इसकी आंखों में दिखाई नहीं पड़ेगी। दिखाई पड़ भी कैसे सकती है? क्योंकि बुद्धि के लिए विश्राम चाहिए। यह आदमी विश्राम नहीं ले रहा है। इसके भीतर की तुम अवस्था ऐसे ही समझो कि जैसे शाकभाजी हो गया। अब यह आदमी कोई आदमी नहीं है, गोभी का फूल है! इसके भीतर अब कोई मस्तिष्क नहीं है। मस्तिष्क के सूक्ष्म तंतु विश्राम के न मिलने से टूट जाते हैं।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि साधुओं में प्रतिभा नहीं दिखाई पड़ती। तुम उनकी पूजा किसी और कारण से करते हो, प्रतिभा के कारण नहीं करते। उनके जीवन में कोई सृजनात्मक ऊर्जा नहीं दिखाई पड़ती; न कोई आभामंडल है।

तुम्हारी पूजा के कारण और हैं। तुम कहते हो इस आदमी ने सौ दिन का उपवास किया इसलिए पूजा करते हैं। अब सौ दिन का उपवास करने के लिए किसी बुद्धि की तो जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि जितना बुद्धू आदमी हो, उतनी आसानी से कर सकता है। जितना जड़बुद्धि हो, जिद्दी हो, दंभी हो, उतनी आसानी से कर सकता है।

बुद्धिमान आदमी तो शरीर की जरूरत को समझेगा, मन की जरूरत को समझेगा, बुद्धिपूर्वक जीयेगा, संयम से…यह तो असंयम हुआ। कुछ जड़ हैं, जो खाए चले जा रहे हैं; जो खाने के लिए ही जीते हैं। और कुछ जड़बुद्धि हैं, जो अपने को भूखा मार रहे हैं। भूखा मारने के लिए ही जीते हैं।

महावीर की बात समझना। महावीर निर्वाण की परिभाषा कर रहे हैं। ऐसा समझो कि कोई मीरा से पूछे कि प्रभु को पाकर तुझे क्या हुआ? तो वह कहे, उमंग उठी, नाच उठा, गीत उठे–पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे। तुम सोचो तो ठीक है, तो नाचना सीख लें तो प्रभु से मिलन हो जाएगा।

तो नर्तकियां तो बहुत हैं। नर्तक तो बहुत हैं। उनको कोई प्रभु तो उपलब्ध नहीं हो रहा। नाचने से अगर प्रभु उपलब्ध होता तो नर्तकियों को उपलब्ध हो गया होता, नर्तकों को उपलब्ध हो गया होता। कितने तो लोग “तात्ता थै-थै’ कर रहे हैं, कुछ भी तो नहीं हो रहा।

मीरा जो कह रही है वह परिभाषा है। मीरा कह रही है, प्रभु को पाने से हृदय खिला, नाच जन्मा, रसधार बही, गंगा चली, घूंघर बजे। यह बैलों के पीछे गाड़ी है। तुमने देखा कि अरे! तो फिर नाचना तो हम भी सीख ले सकते हैं। नाचना सीखने से प्रभु नहीं मिलता, प्रभु मिलने से नाच घटता है।

ऐसा ही महावीर की निर्वाण की परिभाषा को समझना। जैन मुनि कितनी तकलीफ झेल रहा है–अकारण। जड़ता की भर सूचना मिलती है। महावीर की प्रतिमा देखी तुमने? और जैन मुनि को साथ खड़ा करके देख लो तो तुमको समझ में आ जाएगा। महावीर की प्रतिमा का रूप ही कुछ और है, रंग ही कुछ और है। कहते हैं, महावीर जैसा सुंदर आदमी पृथ्वी पर बहुत मुश्किल से होता है। और जैन मुनि को देख लो। उसने असुंदर होने को अपनी साधना बना रखी है।

महावीर ने अपने शरीर को सताया हो ऐसा मालूम नहीं होता। शरीर के पार गए होंगे ऐसा तो मालूम होता है, लेकिन शरीर को सताया हो ऐसा नहीं मालूम होता। और जिसको तुम सताते हो उससे पार जा नहीं सकते। जिसको तुम सताते हो उसको सताने के लिए उसी के पास बने रहना पड़ता है। जरा दूर गए कि घबड़ाहट होती है कि कहीं शरीर फिर न लगाम के बाहर निकल जाए, नियंत्रण के बाहर निकल जाए।

जो आदमी कामवासना दबाएगा वह कामवासना पर ही बैठा रहेगा। उसी की छाती पर चढ़ा रहेगा। जरा उतरा कि चारों खाने चित्त! कामवासना उसकी छाती पर बैठ जाएगी। तो वह उतर ही नहीं सकता। जिसने क्रोध को दबाया वह क्रोध से इंचभर हट नहीं सकता। क्योंकि हटा कि क्रोध प्रगट हुआ। और ज्वालाएं लपट रही हैं भीतर। तो उन ज्वालाओं को किसी तरह दबाए पड़ा रहता है। क्रोध को दबानेवाला क्रोध के साथ ही खड़ा रहता है। काम को दबानेवाला काम के साथ ही खड़ा रहता है।

“जहां न इंद्रियां हैं न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है न तृष्णा, न भूख, वहीं निर्वाण है।’

महावीर यह कह रहे हैं कि जब तुम निर्वाण में पहुंचोगे तो कैसे पहचानोगे कि निर्वाण आ गया? यह उसकी पहचान बता रहे हैं। वे कह रहे हैं, वहां तुम न दुख पाओगे न सुख, वहां तुम न पीड़ा पाओगे न बाधा, वहां तुम न मरण पाओगे न जन्म–समझ लेना आ गया घर। वहां तुम इंद्रियां न पाओगे, न इंद्रियों के कष्ट, न मोह पाओगे न विस्मय, न निद्रा पाओगे न तृष्णा, न भूख–तो समझ लेना कि आ गया घर।

जब कोई व्यक्ति ध्यान की गहराइयों में उतरते-उतरते, उतरते-उतरते आत्मा के भीतर प्रवेश करता है, अचानक पाता है कि यहां न तो शरीर है…इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर छूट गया। महावीर निर्वाण को उपलब्ध होने के बाद भी चालीस साल तक शरीर में रहे। चालीस-ब्यालीस साल तक शरीर का उपयोग किया; और ऐसा उपयोग किया, जैसा किया जाना चाहिए। हम तो चालीस जन्मों में ऐसा उपयोग नहीं करते, उन्होंने चालीस वर्ष में कर लिया। उनके कारण कल्याण की धारा बही। श्रेयस पृथ्वी पर उतरा। खूब फूल खिले लोगों की आत्मा के। खूब वर्षा हुई उनके कारण; और जिनके बीज जन्मों से दबे पड़े थे, अंकुरित हुए।

निर्वाण की उपलब्धि के बाद भी चालीस-ब्यालीस साल तक भी शरीर था, इंद्रियां थीं। लेकिन महावीर कहते हैं, निर्वाण की अवस्था, आंतरिक ऐसी अवस्था है कि वहां पहुंचकर तुम्हें पता चलता है, अरे! शरीर बड़े पीछे रह गया। शरीर बड़े दूर छूट गया। शरीर परिधि पर पड़ा रह गया और तुम केंद्र पर आ गए। इंद्रियां भी वहीं पड़ी रह गईं शरीर पर। स्वभावतः जब शरीर पीछे छूट गया तो शरीर की भूख, प्यास, निद्रा, जागृति, सब पीछे छूट गई। अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर कोई चौबीस घंटे जागा हुआ चैतन्य है, जिसको निद्रा की कोई जरूरत ही नहीं है, जो कभी पहले भी नहीं सोया था। तुम्हें याद न थी। तुम्हें पहचान न थी। वह कभी भी न सोया था। वह सो ही नहीं सकता। सोना उसका गुणधर्म नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, “या निशा सर्व भूतानां, तस्यां जागर्ति संयमी।’ सब जब सोते हैं तब भी संयमी जागता है। इसका यह मतलब नहीं है कि संयमी पागल की तरह टहलता रहता है कमरे में; कि बैठा रहता है अपनी खाट पर पालथी मारे, कि संयमी सो कैसे सकता है?

हालांकि ऐसे मूढ़ संयमी भी हैं, जो नींद में उतरने से घबड़ाते हैं क्योंकि नींद में उतरे कि जो संयम किसी तरह साधा है वह टूटता है। दिनभर किसी तरह स्त्रियों की तरफ नहीं देखा, सपने में क्या करोगे? सपने में तो तुम्हारा बस नहीं। आंख बंद हुई कि जिन-जिन स्त्रियों से दिनभर आंख चुराते रहे, वे सब आयीं–और सुंदर होकर, और सजकर आ जाती हैं। जैसी सुंदर स्त्री सपने में होती है वैसी कहीं वस्तुतः थोड़े ही होती है! जैसा सुंदर पुरुष सपने में होता है, वस्तुतः थोड़े ही होता है!

तो भागोगे कहां? नींद में तो भाग भी न सकोगे। और नींद में भूल गए सब शास्त्र कि तुम जैन हो कि हिंदू हो कि मुसलमान कि संसारी कि संन्यासी–गया सब!

तो आदमी नींद से डरता है। मगर जो नींद से डर रहा है वह कोई निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाता।

महावीर कहते हैं, जो निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है वह जानता है कि नींद तो है ही नहीं। यहां तो नींद कभी घटी ही नहीं। इस गहराई के तल पर तो नींद का कभी प्रवेश ही नहीं हुआ। यह तल तो नींद से अछूता रहा है। कुंआरा है यह तल। इस पर न नींद कभी आयी, न कभी सपना उतरा। इंद्रियां यहां तक पहुंचीं नहीं। शरीर यहां तक पहुंचा नहीं। यह शरीर और इंद्रियों के पार।

यह अनुभव है और अनुभव की व्याख्या है। और तुम जब इस अनुभव में उतरोगे तो तुम्हारे लिए मील के पत्थर बना रहे हैं वे। कि तुम यहां से समझ लेना कि निर्वाण शुरू होता है। तुमसे यह नहीं कहा जा रहा है कि तुम ऐसा करना शुरू कर दो। छोड़ दो भोजन, नींद छोड़ दो, बैठ जाओ। यह तो पागलपन होगा।

जहां तुम हो शरीर पर…ऐसा समझो कि कोई आदमी अपने घर की चारदीवारी के पास ही खड़ा रहता है और सोचता है, यही घर है। धूप आती तो उसके सिर पर धूप पड़ती है, सिर फटने लगता है। वर्षा आती तो वर्षा में भीगता, शरीर कंपने लगता। लेकिन वह जानता है यहीं चारदीवारी के बाहर, यहीं मेरा घर है।

महावीर कहते हैं, तुम्हारा घर, तुम्हारा अंतर्गृह–वहां न वर्षा होती, न धूप आती। तुम जरा पीछे सरको। तुम जरा परिधि को छोड़ो और केंद्र की तरफ चलो। जैसे-जैसे तुम केंद्र की छाया में पहुंचोगे, तुम अचानक पाओगे, सुरक्षित। सभी बाधाओं से सुरक्षित। वे सभी घटनाएं परिधि पर घटती हैं।

जैसे सागर की सतह पर तूफान आते, आंधियां आतीं, लेकिन सागर की गहराई में न तो कभी कोई तूफान आता, न कोई आंधी आती। जैसे-जैसे गहरे जाने लगो…जो लोग सागर की गहराई में खोज करते हैं वे कहते हैं कि सागर की गहराई में अनूठे अनुभव होते हैं। अनूठा अनुभव होता है। एक अनुभव तो यह होता है कि वहां कोई तूफान नहीं, कोई आंधी नहीं, कोई लहर नहीं। सब परम सन्नाटा है।

जैसे-जैसे गहरे जाते हो…जैसे पैसिफिक महासागर पांच मील गहरा है। आधा मील की गहराई के बाद सूरज की किरणें भी नहीं पहुंचतीं। पांच मील की गहराई पर सूरज की किरण कभी पहुंची ही नहीं। अनंत काल से गहन अंधकार वहां सोया है। वहां सतह की कोई खबर ही नहीं पहुंची। हवा है, तूफान है, आंधी है, बादल है, बरसात है, धूप है, ताप है, शीत आयी, गर्मी आयी, कुछ वहां पता नहीं चलता। वहां कोई मौसम बदलता नहीं। वहां सदा एकरस।

पैसिफिक महासागर की जो गहराई है, वह तो कुछ भी नहीं; जब तुम अपनी गहराई में उतरोगे, वहां भूख कभी नहीं पहुंची, कोई नींद कभी नहीं पहुंची, कोई दुख, कोई सुख वहां कभी नहीं पहुंचा। ये मील के पत्थर हैं।

और आज नहीं कल इस परिधि से हटना पड़ता है, क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, मरेगा। तो जो परिधि पर खड़े हैं, कंप रहे हैं। क्योंकि मौत उन्हें कंपा रही है। यह बड़ा विस्मयकारी मामला है। तुम कभी नहीं मरते और कंप रहे हो, घबड़ा रहे हो। ऐसा ही समझो कि रस्सी देख ली अंधेरे में और भाग खड़े हुए सांप समझकर; पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। छाती धड़क रही है। रुकते ही नहीं रोके–सांप!

ऐसे ही समझो कि किसी सिनेमाघर में बैठे थे और कोई चिल्ला दिया पागल कि “आग, आग लग गई।’ और भागे। शब्द ही था, कहीं कोई आग न थी। लेकिन भीतर एक भाव समा गया कि आग। फिर तो तुम्हें कोई रोके भी तो न रुकोगे।

जिसे अभी हम अपना जीवन समझ रहे हैं वह परिधि का जीवन है–बड़ा अधूरा, बड़ा खंडित। उसी खंड को हम पूरा मान बैठे हैं। यही अड़चन है। इसलिए घबड़ाहट स्वाभाविक है। वहां मौत भी आएगी, दुख भी आएगा, बुढ़ापा आएगा, शरीर जीर्ण-जर्जर होगा, कंपोगे।

महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि इस शरीर को काट डालो, मिटा डालो। महावीर कह रहे हैं, इस शरीर का उपयोग कर लो। जैसा यह शरीर संसार में जाने के लिए वाहन बनता है, ऐसा ही यह शरीर अंतर्यात्रा के लिए भी वाहन बन जाता है। चोरी करने जाओ कि मंदिर में ध्यान करने जाओ, शरीर दोनों जगह ले जाता है। किसी की हत्या करने जाओ या किसी को प्रेम से आलिंगन करो, शरीर दोनों में वाहन बन जाता है। शरीर तो बड़ा अदभुत यंत्र है। तुमने एक ही तरकीब सीखी–इससे बाहर जाना। इसमें शरीर का कोई कसूर नहीं।

शायद तुम्हें पता हो, हेनरी फोर्ड ने जब पहली कार बनाई तो उसमें रिवर्स गेयर नहीं था। खयाल ही नहीं था कि पीछे भी ले जाना पड़ेगा। जो पहला माडल था, बस वह आगे की तरफ जाता था। मोड़ना हो तो बड़ा चक्कर लगाना पड़े। आधामील का चक्कर लगाकर आओ तब कहीं मोड़कर आ पाओ। तब उसे समझ में आया कि यह बात तो ठीक नहीं। गाड़ी पीछे भी लौटनी चाहिए। तो फिर रिवर्स गेयर आया।

तुम करीब-करीब हेनरी फोर्ड के माडल हो। बस एक ही गेयर पता है–कि चले! और ऐसा भी नहीं है कि गेयर तुम्हारे भीतर नहीं है। है, लेकिन तुम्हें लगाना नहीं आता। तुम्हें पता नहीं कि पीछे भी लौट सकता है यह यंत्र। यह अपने भीतर भी डुबकी मार सकता है। तुमने दूसरों में ही डुबकी लगाई तो उसी का अभ्यास हो गया है।

ध्यान का इतना ही अर्थ है: रिवर्स गेयर–पीछे लौटने की प्रक्रिया, अपने में जाने की प्रक्रिया।

यह शरीर तो जाएगा। इसके पहले कि यह चला जाए, इसकी लहर पर सवार होकर जरा भीतर की यात्रा कर लो। यह अश्व तो मरेगा। अश्वारोही बन जाओ। जरा भीतर की यात्रा कर लो।

क्या करोगे शब्दवेदी धुन चुकेगी जब?

तब कहां, किस छोर पर, किसके लिए

कौन से संदर्भ जाएंगे दिए?

बैजयंती आकाश टुकड़ों में बंटेगा जब

क्या करोगे तब?

एक गहरी खनक अविनीता हवाएं

शीर्षकों पर शीर्षकों की आहटें आएं न आएं

एक कोई रक्त-निचुड़ा शब्द

जिसका अर्थ हम शायद न समझें

और शायद समझ पाएं

घटाएं घिरकर न बरसें तो न बरसें

कि ऋतुएं उसी कोमल कोण से परसें न परसें

कि हम तरसें, कि हम तरसें, कि हम तरसें

किंतु सारी तरसनें भी चुक जाएंगी जब

क्या करोगे तब?

और केसर झर चुकेगी जब

क्या करोगे तब?

यह होनेवाला है। केसर तो झरेगी। यह वीणा तो रुकेगी। ये तार तो टूटेंगे। ये टूटने को बने हैं। यह वीणा बिखरने को सजी है। परिधि पर तो सब बनेगा और मिटेगा। केंद्र पर शाश्वत है। तुम परिधि में रहते-रहते केंद्र को बिलकुल ही भूल मत जाना। परिधि में रहो जरूर, केंद्र की याद करते रहो। परिधि में रहो जरूर, कभी-कभी केंद्र में सरकते रहो। परिधि में रहो जरूर, केंद्र की सुरति न भूले, स्मृति न भूले। केंद्र से संबंध न टूटे।

यह केसर तो झरेगी। क्या करोगे तब? तब बहुत पछताओगे, तब रोओगे। लेकिन रोने से कुछ आता नहीं। रोने से कुछ होता नहीं। जागो! इसके पहले कि केसर झर जाए, इसके पहले कि जीवन का दीया बुझे, तुम जीवन के उस शाश्वत दीये को देख लो जो कभी नहीं बुझता। उससे संबंध जोड़ लो। इस लहर का उपयोग कर लो। यह लहर तुम्हारी शत्रु नहीं है, यह तुम्हारी मित्र है। इसी से संसार, इसी से सत्य, दोनों की यात्राएं पूरी होती हैं।

महावीर केवल मील के पत्थर दे रहे हैं। जब तक तुमने स्वयं के भीतर के अमृत को नहीं जाना तब तक तुम मरघट में हो, कब्रिस्तान में।

इब्राहीम फकीर हुआ। उससे कोई पूछता कि गांव कहां? बस्ती कहां? तो वह कहता, बायें जाना। दायें भूलकर मत जाना बायें जाना, नहीं तो भटक जाओगे। बायें से बस्ती पहुंच जाओगे। बेचारा राहगीर चलता। चार-पांच मील चलने के बाद मरघट पहुंच जाता। वह बड़े क्रोध में आ जाता कि यह आदमी कैसा है! फकीर वहां चौरस्ते पर बैठा है। वह लौटकर आता, भनभनाता कि तुम आदमी कैसे हो जी! मुझे मरघट भेज दिया? मैं बस्ती की पूछता था।

इब्राहिम कहता, बस्ती की पूछा इसीलिए तो वहां भेजा क्योंकि जिसको लोग बस्ती कहते हैं वह तो बस उजड़ रही है, उजड़ रही है। रोज कोई मरता है। इस मरघट में जो बस गया सो बस गया। “बस्ती!’ कभी इधर किसी को उजड़ते देखा ही नहीं। इसलिए तुमने बस्ती पूछी तो मैंने कहा, बस्ती भेज दें।

कबीर कहते हैं, “ई मुर्दन के गांव।’ हमारे गांव को कहते हैं मुर्दों के गांव।

हम जब तक परिधि पर हैं, हम मुर्दे ही हैं। हमने अपने मर्त्य रूप से ही संबंध बांध रखा है तो मुर्दे हैं। और हम कंप रहे हैं और घबड़ा रहे हैं। घबड़ाहट स्वाभाविक है, मिटेगी न।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं बड़ा भय लगता है। मैं पूछता हूं, किस बात का भय? वे कहते हैं किसी बात का खास भय नहीं, बस भय लगता है। ठीक कह रहे हैं। लगेगा ही। वे कहते हैं, किसी तरह यह भय मिट जाए। यह भय ऐसे नहीं मिटेगा। यह तो तुम रूपांतरित होओगे तो ही मिटेगा। यह तो अमृत का स्वाद लगेगा तो ही मिटेगा। यह भय मौत का है।

मौत का भय है और मिटना तुम चाहते नहीं। और तुम्हें यह पता नहीं कि मिट तुम सकते नहीं। ऐसी उलझन है। जो आदमी मिटने को राजी है वह उसको पा लेता है जो कभी नहीं मिटता। उसको पाते ही से भय मिट जाता है।

मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे

कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है

परिधि पर तो मिटना होगा–

कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है।

मिटता है बीज। परिधि पर ही मिटता है। खोल टूटती है और तत्क्षण अंकुरण हो जाता–है नया जीवन। और एक बीज से करोड़ों बीज पैदा होते हैं। और जो बंद बीज था वह हजारों फूलों में खिलता और नाचता और हंसता है।

कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है

मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे

अगर कुछ होना चाहते हो तो मिटना सीखो। अगर कोई मर्तबा चाहते हो, अगर वस्तुतः चाहते हो हस्ती मिले, होना मिले, अस्तित्व मिले तो–मिटो। परिधि पर मिटो ताकि केंद्र पर हो सको। परिधि से डुबकी लगा लो और केंद्र पर उभरो। परिधि को छोड़ो और केंद्र पर सरको।

“जहां न कर्म हैं न नोकर्म, न चिंता है न आर्तरौद्र ध्यान, न धर्मध्यान है न शुक्लध्यान, वहीं निर्वाण है।’

ण वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि।

ण वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।

जहां न कर्म हैं, न कर्मों की आधारभूत शृंखलाएं–नोकर्म। न जहां कर्म है न कर्मों को बनानेवाली सूक्ष्म वासनाएं। न चिंता है, न चिंतन, न आर्तरौद्र ध्यान।

ठीक है, आर्तरौद्र ध्यान तो हो ही कैसे सकते हैं? क्रोध और दुख में भरे हुए चित्त की अवस्थाएं हैं। लेकिन महावीर कहते हैं न जहां धर्मध्यान, न शुक्लध्यान। जहां ध्यान की आत्यंतिक अवस्थाएं भी पीछे छूट गईं। सविकल्प समाधि पीछे छूट गई, निर्विकल्प समाधि पीछे छूट गई। समाधि ही पीछे छूट गई। जहां बस तुम हो शुद्ध; और कुछ भी नहीं है। कोई तरंग, कोई विकार, कुछ भी नहीं है। बस तुम हो शुद्ध निर्विकार। जहां तुम्हारा सिर्फ धड़कता हुआ जीवन है, वहीं निर्वाण है।

संसार ही नहीं छोड़ देना है, धर्म भी छोड़ देना है। महावीर कहते हैं धर्मध्यान, शुक्लध्यान। शुक्लध्यान महावीर का आत्यंतिक शब्द है ध्यान के लिए। जहां ध्यान इतना शुद्ध हो जाता है कि कोई विषय नहीं रह जाता–निर्विकल्प ध्यान। लेकिन महावीर कहते हैं वह भी छूट जाता है। वह भी कुछ है। वह भी उपाधि है। तुम कुछ कर रहे हो। ध्यान कर रहे हो। कुछ अनुभव हो रहा है। अनुभव यानी विजातीय।

इधर मैं तुम्हें देख रहा हूं तो तुम मुझसे अलग। फिर तुम भीतर ध्यान में प्रविष्ट हुए। तो धर्मध्यान में आदमी शुभ भावनाएं करता, शुभ भावनाओं का दर्शन होता है; जिसको बुद्ध ने ब्रह्मविहार कहा है, महावीर ने बारह भावनाएं कहीं, उनका अनुभव करता। लेकिन विषय अभी भी बना है। दो अभी भी हैं। फिर निर्विकल्प ध्यान में ऐसी अवस्था आ जाती है कि कोई विकल्प न रहा, लेकिन सिर्फ एक महासुख का अनुभव है। मगर फिर भी सूक्ष्म रेखा अनुभव की बनी है।

तो महावीर कहते हैं जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं, जहां केवल अनुभोक्ता रह जाता है बिना अनुभव के; जहां शुद्ध चैतन्य रह जाता है और कोई विषय नहीं बचता, सच्चिदानंद भी जहां नहीं बचता, वहीं निर्वाण है।

खयाल रखना; धन, पद, प्रतिष्ठा तो रोकती ही है; दान, दया, धर्म भी रोकता है। पद-प्रतिष्ठा छोड़कर दान-धर्म करो, फिर दान-धर्म छोड़कर भीतर चलो। बाहर तो रोकता ही है, फिर भीतर भी रोकने लगता है। पहले बाहर छोड़कर भीतर चलो, फिर भीतर को भी छोड़ो। सब छोड़ो। ऐसी घड़ी ले आओ, जहां बस तुम ही बचे। एक क्षण को भी यह घड़ी आ जाए, तो तुम्हारा अनंत-अनंत जन्मों से घिरा हुआ अंधकार क्षण में तिरोहित हो जाता है।

पहुंच सका न मैं बरवक्त अपनी मंजिल पर

कि रास्ते में मुझे राहबरों ने घेर लिया

लुटेरे तो रास्ते में लूट ही रहे हैं। रहजन तो लूट ही रहे हैं, फिर राहबर भी लूट लेते हैं।

क्रोध तो लूट ही रहा है, ध्यान भी लूटने लगता है एक दिन। हिंसा तो लूट ही रही है, एक दिन अहिंसा भी लूटने लगती है। तो खयाल रखना कि अहिंसा सिर्फ हिंसा को मिटाने का उपाय है। और ध्यान केवल मन की चंचलता को मिटाने का उपाय है। जब चंचलता मिट गई तो इस औषधि को भी लुढ़का देना कचरेघर में। इसको लिए मत चलना। जब ध्यान की भी जरूरत न रह जाए तभी वस्तुतः ध्यान हुआ। तो कांटे को कांटे से निकाल लेना, फिर दोनों कांटों को फेंक देना।

स्वभावतः यह बड़ी लंबी यात्रा है। इससे बड़ी कोई और यात्रा नहीं हो सकती। आदमी चांद पर पहुंच गया, मंगल पर पहुंचेगा, फिर और दूर के तारों पर पहुंचेगा। शायद कभी इस अस्तित्व की परिधि पर पहुंच जाए–अगर कोई परिधि है। लेकिन यह भी यात्रा इतनी बड़ी नहीं है जितनी स्वयं के भीतर जानेवाली यात्रा है। सारे अनुभव के पार, जहां सिर्फ प्रकाश रह जाता है चैतन्य का। जहां रंचमात्र भी छाया नहीं पड़ती अन्य की, अनन्यभाव से तुम्हीं होते हो बस, तुम ही होते हो।

यह धीरे-धीरे होगा। बड़े धैर्य से होगा अधीरज से नहीं होगा। तुम सारे प्रयास करते रहो तो भी सिर्फ तुम्हारे प्रयास तुमने कर लिए इससे नहीं हो जाएगा। सारे प्रयास करते-करते, करते-करते एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम्हें अपने प्रयास भी बाधा मालूम पड़ने लगते हैं। प्रयास करते-करते एक दिन प्रयास भी छूट जाते हैं तब घटता है।

धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय

माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय

कबीर का वचन है, धीरे-धीरे रे मना। धीरे-धीरे सब कुछ होता है। और सिर्फ माली सौ घड़े पानी डाल दे इससे कोई फल नहीं आ जाते।

माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय

ठीक समय पर, अनुकूल समय पर, सम्यक घड़ी में घटना घटती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि माली पानी न सींचे। क्योंकि माली पानी न सींचे तो फिर ऋतु आने पर भी फल न लगेंगे। माली पानी तो सींचे, लेकिन जल्दबाजी न करे। प्रतीक्षा करे। श्रम और प्रतीक्षा। श्रम और धैर्य।

धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय

और यह यात्रा बड़ी धीमी है क्योंकि फासला अनंत है। तुम्हारी परिधि और तुम्हारा केंद्र इस जगत में सबसे बड़ी दूरी है। तुम्हारी परिधि पर संसार है और तुम्हारे केंद्र पर परमात्मा। स्वभावतः दूरी बहुत बड़ी होने ही वाली है। तुम्हारी परिधि पर दृश्य है, तुम्हारे केंद्र पर अदृश्य। तुम्हारी परिधि पर रूप है, तुम्हारे केंद्र पर अरूप। तुम्हारी परिधि पर सगुण है, तुम्हारे केंद्र पर निर्गुण।

यात्रा बड़ी बड़ी है; काफी बड़ी है। अनंत यात्रा है। अनंत धैर्य चाहिए होगा।

“जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण है। अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है।’

णिव्वाणं ति अवाहंति सिद्धी लोगाग्गमेव य।

खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो।।

सिर्फ महर्षि ही जिस स्थान को प्राप्त करते हैं। जिन्होंने सब भांति अपने ध्यान को शुद्ध किया ऐसे ऋषि इस स्थान को प्राप्त करते हैं। जिनके ध्यान में जरा-सी भी कलुष न रही–संसार की भी नहीं, परलोक की भी नहीं।

“जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण है। अबाध है…।’

परिभाषा चल रही है। अंततः इसके पहले कि महावीर विदा हों, अपने सूत्र पूरे करें, वे अंतिम अवस्था के संबंध में दिशा-निर्देश दे रहे।

“अबाध है’–उसकी कोई सीमा नहीं।

“सिद्धि है’–वहां पहुंचकर अनुभव होता है आ गए, पहुंच गए। वहां पहुंचकर पता चलता है, अब जाने को कहीं न रहा। वहां पहुंचकर पता चलता है अरे! यात्रा समाप्त हुई। एक अहोभाव। सब पूरा हो गया, परिपूर्ण हो गया। अब कुछ भी न होने को शेष रहा, न जाने को शेष रहा। घर वापस आ गए।

“सिद्धि, लोकाग्र।’ जो व्यक्ति इस अवस्था में पहुंच गया, वह लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है। वह वहां पहुंच जाता है, जहां पहुंचने के लिए हम सदा से दौड़ते रहे–प्रथम हो जाता है।

“क्षेम’–कल्याण की अनुभूति होती है। परम स्वास्थ्य की अनुभूति होती है।

“शिव’–बड़ी शुद्धता, सुगंध, सुरभि। बड़ी गहन पावनता। जैसे कमल और कमल और हजारों कमल भीतर प्राण पर खिलते चले जाते हैं।

“और अनाबाध है।’ इस स्थिति में कोई भी बाधा नहीं पड़ती। कोई बाधा पड़ नहीं सकती। बेशर्त है। इसे कोई डिगा नहीं सकता। इसमें कोई विघ्न नहीं डाल सकता। यह विघ्नों के पार है, अनाबाध है।

“जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है।’

कभी करके देखना। तुंबी को अगर मिट्टी में लपेट दो तो जल में डूब जाएगी। मिट्टी के वजन से डूब जाएगी। जो नहीं डूबना थी, वह डूब जाएगी। तुंबी तो लोग तैरने के काम में लाते हैं। बांध लेता है आदमी। नहीं तैरना जानता है तो तुंबी के सहारे तैर जाता है। वह तुंबी जो दूसरों को तैरा देती है, खुद भी डूब जाती है, अगर मिट्टी का आवरण हो जाए।

महावीर कहते हैं शरीर के आवरण से हम डूबे। मिट्टी ने डुबाया। जो डूबने को न बने थे वे डूब गए। उबरे रहना जिनका स्वभाव था, जिनके सहारे और भी तर जाते और तैर जाते, जो तरणत्तारण थे, वे डूब गए।

तुंबी डूब जाती है मिट्टी के आवरण से।

“जैसी मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है…।’

बस, इतना ही फर्क है तुममें और सिद्धपुरुषों में। तुममें और बुद्धपुरुषों में। तुममें और जिन-पुरुषों में। इतना ही फर्क है। तुम भी वैसी ही तुंबी, जैसी वे। तुम जरा मिट्टी से लिपे-पुते पड़े, तो डूबे जल में। उन्होंने अपनी मिट्टी से अपने को दूर जान लिया, पृथक जान लिया। तादात्म्य तोड़ दिया। मिट्टी खिसक गई, तुंबी उठ गई।

जब तुंबी उठती है जल में तो जाकर अग्रभाग में स्थिर हो जाती है। पानी की सतह पर स्थिर हो जाती है। ऐसा महावीर कहते हैं, जो डूबे हैं इस संसार में वे तुंबियों की तरह हैं मिट्टी लगी–डूबे हैं। जब मिट्टी छूटती है, तादात्म्य छूटता है, यह मोह भंग होता है, तो उठी आत्मा, चली।

और इसको महावीर कहते हैं लोकाग्र्र–आत्यंतिक अवस्था। जहां लोक समाप्त होता है, उस जगह जाकर सिद्धपुरुष ठहर जाते हैं। ये तो सिर्फ प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का अर्थ ले लेना। इन प्रतीकों को लेकर नक्शे मत खींचने लगना।

“जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लगती है, अथवा जैसे एरण्ड का फूल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को जाते हैं, अथवा जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है, अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर होती है।’

तो निर्वाण की सूचना समझना कि घर पास आने लगा, जब तुम्हारी गति ऊपर की ओर होने लगे। हिंसा से अहिंसा की ओर होने लगे। क्रोध से करुणा की ओर होने लगे, बेचैनी से चैन की ओर होने लगे, पदार्थ से परमात्मा की ओर होने लगे। धन से ध्यान की ओर होने लगे, तो समझना कि गति ऊपर की तरफ शुरू हो गई। तुंबी छूटने लगी मिट्टी से। आज नहीं कल लोकाग्र में ठहर जाएगी। वहां पहुंच जाएगी, जिसके आगे और जाना नहीं है।

लाउअ एरण्डफले अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के।

गइ पुव्वपओगेणं एवं सिद्धाण वि गती तु।।

“परमात्मतत्व अव्याबाध, अतींद्रिय, अनुपम, पुण्य-पापरहित, पुनरागमन-रहित, नित्य, अचल और निरालंब होता है।’

यह जो परमात्मतत्व है, यह जो निर्वाण है, यह जो घर लौट आना है, यह कैसा तत्व है? इसके संबंध में क्या कहा जा सकता है?

इतना ही–“परमात्म तत्व अव्याबाध।’ इसमें कोई बाधा कभी नहीं पड़ती। इसके विपरीत ही कोई नहीं है, जो बाधा डाल सके। यह सबके पार है। इस तक किसी चीज की पहुंच नहीं है। सब चीजें इससे पीछे छूट जाती हैं। जिनसे बाधा पड़ सकती है वे बहुत पीछे छूट जाती हैं। अतींद्रिय है। इंद्रियों के पार है, क्योंकि देह के पार है।

“अनुपम’–यह शब्द समझना। अनुपम का अर्थ है, जैसा कभी न जाना था; जैसा कभी न देखा था। न कानों सुना, न आंखों देखा। जो कभी अनुभव में आया ही न था। बहुत अनुभव हुए सुख के, दुख के, सफलता के, विफलता के। बहुत अनुभव हुए–रस-विरस, स्वाद-बेस्वाद, सुंदर-असुंदर, लेकिन यह अनुपम है। ऐसा भी नहीं कह सकते यह सुंदर है। क्योंकि तब भ्रांति होगी कि शायद जो हमारे सुंदर के अनुभव हैं, उन जैसा है। नहीं, यह हमारे किसी अनुभव जैसा नहीं है। यह तो बस अपने जैसा है। अनुपम का अर्थ होता है अपने जैसा। इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। यह अतुलनीय है।

“पुण्य-पापरहित, पुनरागमनरहित, नित्य, अचल और निरालंब…।’

हमें तो वही शब्द समझ में आते हैं, जो हमारे अनुभव के हैं।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन शराबघर गया। शेखी मारना उसकी आदत है। शेखी मार रहा था शराबघर के मालिक के सामने कि मैं हर तरह की शराब स्वाद लेकर पहचान सकता हूं। और ऐसा ही नहीं है, अगर तुम दस-पांच शराबें भी इकट्ठी एक प्याली में मिला दो तो भी मैं बता सकता हूं कि कौन-कौन सी शराब मिलाई गई है।

मालिक ने कहा तो रुको। वह भीतर गया, मिला लाया एक ग्लास में मार्टिनी, ब्रांडी, रम, ह्विस्की–जो भी उसके पास था, सब मिला लाया। मुल्ला पी गया और एक-एक शराब का नाम उसने ले लिया कि येऱ्ये चीजें इसमें मिली हैं। चकित हो गया वह मालिक भी। उसने कहा, एक बार और। वह भीतर गया और एक गिलास में सिर्फ पानी भर लाया। मुल्ला ने पीया, बड़ा बेचैनी में खड़ा रह गया। कुछ सूझे न। शुद्ध पानी है। स्वाद ही उसे इसका याद नहीं रहा है शुद्ध पानी का।

उसने इतना ही कहा, कि यह मैं नहीं जानता यह क्या है! मगर एक बात कह सकता हूं, इसकी बिक्री न होगी।

हमारा जो भी अनुभव है वह कई तरह की शराबों का है। शुद्ध जल का तो हम स्वाद ही भूल गए हैं। बेहोशियों का है; होश का तो हम स्वाद ही भूल गए। विक्षिप्तताओं का है, स्वास्थ्य का तो हम स्वाद ही भूल गए। गर्हित, व्यर्थ, असार का है; सार का तो हम स्वाद ही भूल गए।

इसलिए महावीर कहते हैं अनुपम। हमारे अनुभव से किसी से उसका मेल नहीं है। इसलिए तुम किसी अपने अनुभव के आधार से उसके संबंध में मत सोचना। खतरा यही हो जाता है। जैसे कि कोई कहे, कोई ज्ञानी, सिद्ध–कहे महासुख; तो हमको लगता है हमारा ही सुख होगा; करोड? गुना, अरब गुना बड़ा, लेकिन है तो सुख ही। बस भूल हो गई।

उसकी मजबूरी है। वह क्या कहे? किन शब्दों में कहे? महासुख कहता है तो भी अड़चन हो जाती है। क्योंकि तुम अपने सुख को ही सोचते हो। तुम अपने सुख में ही गुणनफल करके सोच सकते हो लेकिन तुम्हारा सुख सुख ही कहां है? उसको तुम करोड़ गुना कर लो तो भी वह सुख नहीं है।

आनंद कहो तो झंझट। क्योंकि तुमने जो आनंद जाना है वे अजीब-अजीब आनंद जाने तुमने। कोई ताश ही खेल रहा है, कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। अब क्या करो? कोई शराब पी रहा है, कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। कोई वेश्या का नृत्य देख रहा है, और कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। अब कहो कि परमात्मा आनंद है तो इस आदमी के मन में कुछ ऐसे ही लगेगा, कि होगा कुछ वेश्या का नाच देखने जैसा, शराब पीने जैसा, ताश खेलने जैसा। जरा बड़ा करके सोच लो।

लेकिन जो भेद होनेवाला है इसके आनंद में और सिद्ध के आनंद में, इसकी कल्पना में, वह परिमाण का होगा, मात्रा का होगा। और सिद्धपुरुष का आनंद गुणात्मक रूप से भिन्न है। मात्रा का भेद नहीं है। यह बात ही अनुपम है।

इसलिए महावीर ठीक कहते हैं कि अनुपम है। तुम अपने किसी अनुभव से विचार मत करना। तुम्हारा कोई अनुभव मापदंड नहीं बन सकेगा।

यह निर्वाण तो जब घटता है तभी जाना जाता है। यह तो स्वाद जब मिलता है तभी पहचाना जाता है।

तो सत्पुरुषों के पास तुम सिर्फ प्यास ले लो, बस काफी है। उनकी बातें सुन, उनके जीवन को अनुभव कर, उनकी उपस्थिति से तुम सिर्फ प्यास ले लो, तो बस काफी है। उनके कारण तुम उतावले हो उठो, व्यग्र हो उठो खोजने के लिए; बस काफी है। उनसे सिद्धांत मत लेना; सिद्धांत मिल ही नहीं सकते। उनसे शास्त्र मत लेना। शास्त्र बनाया कि भूल हो गई। उनसे तो प्यास लेना जीवंत और चल पड़ना।

मेघ बजे धिन-धिन धा धमक-धमक

दामिनी गई दमक

मेघ बजे, दादुर का कंठ खुला

धरती का हृदय धुला

मेघ बजे, पंक बना हरिचंदन

फूले कदम्ब

टहनी-टहनी में कंदुक सम फूले कदम्ब,

फूले कदम्ब

जाने कबसे वह बरस रहा

ललचायी आंखों से नाहक

जाने कबसे तू तरस रहा

मन कहता है छू ले कदम्ब,

फूले कदम्ब

मेघ बजे, धिन-धिन धा धमक-धमक

दामिनी गई दमक

मेघ बजे

अगर सत्पुरुषों के पास ऐसा कुछ हो जाए–मेघ बजे, दामिनी चमके, कोई अनूठा नाद सुनाई पड़ने लगे, कोई अदृश्य की पुकार खींचने लगे, कोई चुनौती मिले तो फिर ललचायी आंखों से देखते ही मत रहना।

फूले कदम्ब

जाने कबसे वह बरस रहा

ललचायी आंखों से नाहक

जाने कबसे तू तरस रहा

मन कहता है छू ले कदम्ब,

फूले कदम्ब

जब यह चाहत उठे, यह चाहत का ज्वार उठे तो रुकना मत। तोड़त्ताड़ सारी जंजीरें चल पड़ना। छोड़-छाड़ सारा मोह-मायापाश चल पड़ना। लौटकर देखना भी मत। यह आह्वान मिल जाए सतपुरुषों से, बस इतना काफी है।

पर लोग अजीब हैं। शास्त्र लेते हैं, प्यास नहीं लेते। सिद्धांत ले लेते हैं, सत्य की चुनौती नहीं लेते।

एक अपूर्व घटना है। इस जगत की सबसे अपूर्व घटना है किसी व्यक्ति का सिद्ध या बुद्ध हो जाना। इस जगत की अनुपम घटना है किसी व्यक्ति का जिनत्व को उपलब्ध हो जाना, जिन हो जाना। उस अपूर्व घटना के पास जला लेना अपने बुझे हुए दीयों को। अवसर देना अपने हृदय को, कि फिर धड़क उठे उस अज्ञात की आकांक्षा से, अभीप्सा से। तो शायद कभी तुम जान पाओ निर्वाण क्या है। बताने का कोई उपाय नहीं।

लिखा-लिखी की है नहीं देखा-देखी बात

तुम देखोगे तो ही जानोगे। लिखा-लिखी में उलझे मत रह जाना। समय मत गंवाना। ऐसे भी बहुत गंवाया है।

महावीर के इन सूत्रों पर बात की है इसी आशा में कि तुम्हारे भीतर कोई स्वर बजेगा, तुम ललचाओगे, चाह उठेगी, चलोगे। पाना तो निश्चित है। पा तो लोगे, चलो भर। न चले तो जो सदा से तुम्हारा है, उससे ही तुम वंचित रहोगे। चले तो जो मिलेगा वह कुछ बाहर से नहीं मिलता, तुम्हारा ही था। सदा से तुम्हारा था। भूले-भटके, भूले-बिसरे बैठे थे। अपने ही खजाने की खबर मिली।

मेघ बजे धिन-धिन धा धमक-धमक

दामिनी गई दमक

मेघ बजे, दादुर का कंठ खुला

धरती का हृदय धुला

मेघ बजे, पंक बना हरिचंदन

फूले कदम्ब

टहनी-टहनी में कंदुक सम फूले कदम्ब,

फूले कदम्ब

जाने कबसे वह बरस रहा

ललचायी आंखों से नाहक

जाने कबसे तू तरस रहा

मन कहता है छू ले कदम्ब,

फूले कदम्ब।

आज इतना ही।
समाप्‍त


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गीता दर्शन (भाग–3) प्रवचन–17

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वैराग्य और अभ्यास—(अध्याय—6) प्रवचन—सत्रहवां

प्रश्न: भगवान श्री, सुबह के श्लोक में चंचल मन को शांत करने के लिए अभ्यास और वैराग्य पर गहन चर्चा चल रही थी, लेकिन समय आखिरी हो गया था, इसलिए पूरी बात नहीं हो सकी। तो कृपया अभ्यास और वैराग्य से कृष्ण क्या गहन अर्थ लेते हैं, इसकी व्याख्या करने की कृपा करें।

राग है संसार की यात्रा का मार्ग, संसार में यात्रा का मार्ग। वैराग्य है संसार की तरफ पीठ करके स्वयं के घर की ओर वापसी। राग यदि सुबह है, जब पक्षी घोंसलों को छोड़कर बाहर की यात्रा पर निकल जाते हैं, तो वैराग्य सांझ है, जब पक्षी अपने नीड़ में वापस लौट आते हैं।

वैराग्य को पहले समझ लें, क्योंकि जिसे वैराग्य नहीं, वह अभ्यास में नहीं जाएगा। वैराग्य होगा, तो ही अभ्यास होगा। वैराग्य होगा, तो हम विधि खोजेंगे–मार्ग, पद्धति, राह, टेक्नीक–कि कैसे हम स्वयं के घर वापस पहुंच जाएं? कैसे हम लौट सकें? जिससे हम बिछुड़ गए, उससे हम कैसे मिल सकें? जिसके बिछुड़ जाने से हमारे जीवन का सब संगीत छिन गया, जिसके बिछुड़ जाने से जीवन की सारी शांति खो गई, जिसके बिछुड़ जाने से, खोजते हैं बहुत, लेकिन उसे पाते नहीं; उस आनंद को किस विधि से, किस मेथड से हम पाएं? यह तो तभी सवाल उठेगा, जब वैराग्य की तरफ दृष्टि उठनी शुरू हो जाए। तो पहली तो बात, वैराग्य को समझें, फिर हम अभ्यास को समझेंगे।

वैराग्य का अर्थ है, राग के जगत से वितृष्णा, फ्रस्ट्रेशन। जहां-जहां राग है, जहां-जहां आकर्षण है, वहां-वहां विकर्षण पैदा हो जाए। जो चीज खींचती है, वह खींचे नहीं, बल्कि विपरीत हटाने लगे। जो चीज बुलाती है, बुलाए नहीं, बल्कि द्वार बंद कर ले। मालूम पड़े कि द्वार बंद कर लिया, और द्वार में प्रवेश से इनकार कर दिया।

विकर्षण हम सभी को होता है। अगर ऐसा मैं कहूं, तो आप थोड़े हैरान होंगे कि हम सभी रोज वैराग्य को उपलब्ध होते हैं। लेकिन वैराग्य को उपलब्ध होकर हम अभ्यास की तरफ नहीं जाते। वैराग्य को उपलब्ध होकर, पुराने राग तो गिर जाते हैं, हम नए राग के निर्माण में लग जाते हैं।

हम सभी वैराग्य को उपलब्ध होते हैं, रोज, प्रतिदिन। ऐसा कोई राग नहीं है, जिसके प्रति हम रोज विकर्षण से नहीं भर जाते। प्रत्येक राग के पीछे खाई छूट जाती है विषाद की; प्रत्येक राग के पीछे पश्चात्ताप गहन हो जाता है। लेकिन तब ऐसा नहीं कि हम विराग की तरफ चले जाते हों, तब सिर्फ इतना ही होता है कि हम नए राग की खोज में निकल जाते हैं।

वैराग्य कोई नई घटना नहीं है। एक स्त्री से विरक्त हो जाना सामान्य घटना है। लेकिन स्त्री से विरक्त हो जाना बहुत असामान्य घटना है। एक सुख की व्यर्थता को जान लेना सामान्य घटना है, लेकिन सुख मात्र की व्यर्थता को जान लेना बहुत असामान्य घटना है। और असामान्य इसीलिए है कि हमारे हाथ में एक ही सुख होता है एक बार में। एक सुख व्यर्थ हो जाता है, तो तत्काल मन कहता है कि नए सुख का निर्माण कर लो; दूसरे सुख की खोज में निकल जाओ। ठहरो मत; यात्रा जारी रखो। यह सुख व्यर्थ हुआ, तो जरूरी नहीं कि सभी सुख व्यर्थ हों!

ययाति की बहुत पुरानी कथा है, जिसमें ययाति सौ वर्ष का हो गया। बहुत मीठी, बहुत मधुर कथा है। तथ्य न भी हो, तो भी सच है। और बहुत बार जो तथ्य नहीं होते, वे भी सत्य होते हैं। और बहुत बार जो तथ्य होते हैं, वे भी सत्य नहीं होते।

यह ययाति की कथा तथ्य नहीं है, लेकिन सत्य है। सत्य इसलिए कहता हूं कि उसका इंगित सत्य की ओर है। तथ्य नहीं है इसलिए कहता हूं कि ऐसा कभी हुआ नहीं होगा। यद्यपि आदमी का मन ऐसा है कि ऐसा रोज ही होना चाहिए।

ययाति सौ वर्ष का हो गया, उसकी मृत्यु आ गई। सम्राट था। सुंदर पत्नियां थीं, धन था, यश था, कीर्ति थी, शक्ति थी, प्रतिष्ठा थी। मौत द्वार पर आकर दस्तक दी। ययाति ने कहा, अभी आ गई? अभी तो मैं कुछ भोग नहीं पाया। अभी तो कुछ शुरू भी नहीं हुआ था! यह तो थोड़ी जल्दी हो गई। सौ वर्ष मुझे और चाहिए। मृत्यु ने कहा, मैं मजबूर हूं। मुझे तो ले जाना ही पड़ेगा। ययाति ने कहा, कोई भी मार्ग खोज। मुझे सौ वर्ष और दे। क्योंकि मैंने तो अभी तक कोई सुख जाना ही नहीं।

मृत्यु ने कहा, सौ वर्ष आप क्या करते थे? ययाति ने कहा, जिस सुख को जानता था, वही व्यर्थ हो जाता था। तब दूसरे सुख की खोज करता था। खोजा बहुत, पाया अब तक नहीं। सोचता था, कल की योजना बना रहा था। तेरे आगमन से तो कल का द्वार बंद हो जाएगा। अभी मुझे आशा है। मृत्यु ने कहा, सौ वर्ष में समझ नहीं आई। आशा अभी कायम है? अनुभव नहीं आया? ययाति ने कहा, कौन कह सकता है कि ऐसा कोई सुख न हो, जिससे मैं अपरिचित होऊं, जिसे पा लूं तो सुखी हो जाऊं! कौन कह सकता है?

मृत्यु ने कहा, तो फिर एक उपाय है कि तुम्हारे बेटे हैं दस। एक बेटा अपना जीवन दे दे तुम्हारी जगह, तो उसकी उम्र तुम ले लो। मैं लौट जाऊं। पर मुझे एक को ले जाना ही पड़ेगा।

बाप थोड़ा डरा। डर स्वाभाविक था। क्योंकि बाप सौ वर्ष का होकर मरने को राजी न हो, तो कोई बेटा अभी बीस का था, कोई अभी पंद्रह का था, कोई अभी दस का था। अभी तो उन्होंने और भी कुछ भी नहीं जाना था। लेकिन बाप ने सोचा, शायद कोई उनमें राजी हो जाए। शायद कोई राजी हो जाए। पूछा, बड़े बेटे तो राजी न हुए। उन्होंने कहा, आप कैसी बात करते हैं! आप सौ वर्ष के होकर जाने को तैयार नहीं। मेरी उम्र तो अभी चालीस ही वर्ष है। अभी तो मैंने जिंदगी कुछ भी नहीं देखी। आप किस मुंह से मुझसे कहते हैं?

सबसे छोटा बेटा राजी हो गया। राजी इसलिए हो गया–जब बाप से उसने कहा कि मैं राजी हूं, तो बाप भी हैरान हुआ। ययाति ने कहा, सब नौ बेटों ने इनकार कर दिया, तू राजी होता है। क्या तुझे यह खयाल नहीं आता कि मैं सौ वर्ष का होकर भी मरने को राजी नहीं, तेरी उम्र तो अभी बारह ही वर्ष है!

उस बेटे ने कहा, यह सोचकर राजी होता हूं कि जब सौ वर्ष में भी तुमने कुछ न पाया, तो व्यर्थ की दौड़ में मैं क्यों पडूं! जब मरना ही है और सौ वर्ष के समय में भी मरकर ऐसी पीड़ा होती है, जैसी तुमको हो रही है, तो मैं बारह वर्ष में ही मर जाऊं। अभी कम से कम विषाद से तो बचा हूं। अभी मैंने दुख तो नहीं जाना। सुख नहीं जाना, दुख भी नहीं जाना। मैं जाता हूं।

फिर भी ययाति को बुद्धि न आई। मन का रस ऐसा है कि उसने कल की योजनाएं बना रखी थीं। बेटे को जाने दिया। ययाति और सौ वर्ष जीया। फिर मौत आ गई। ये सौ वर्ष कब बीत गए, पता नहीं। ययाति फिर भूल गया कि मौत आ रही है। कितनी ही बार मौत आ जाए, हम सदा भूल जाते हैं कि मौत आ रही है। हम सब बहुत बार मर चुके हैं। हम सब के द्वारों पर बहुत बार मौत दस्तक दे गई है।

ययाति के द्वार पर दस्तक हुई। ययाति ने कहा, अभी! इतने जल्दी! क्या सौ वर्ष बीत गए? मौत ने कहा, इसे भी जल्दी कहते हैं आप! अब तो आपकी योजनाएं पूरी हो गई होंगी?

ययाति ने कहा, मैं वहीं का वहीं खड़ा हूं। मौत ने कहा, कहते थे कि कल और मिल जाए, तो मैं सुख पा लूं! ययाति ने कहा, मिला कल भी, लेकिन जिन सुखों को खोजा उनसे दुख ही पाया। और अभी फिर योजनाएं मन में हैं। क्षमा कर, एक और मौका! पर मौत ने कहा, फिर वही करना पड़ेगा।

इन सौ वर्षों में ययाति के नए बेटे पैदा हो गए; पुराने बेटे तो मर चुके थे। फिर छोटा बेटा राजी हो गया। ऐसे दस बार घटना घटती है। मौत आती है, लौटती है। एक हजार साल ययाति जिंदा रहता है।

मैं कहता हूं, यह तथ्य नहीं है, लेकिन सत्य है। अगर हमको भी यह मौका मिले, तो हम इससे भिन्न न करेंगे। सोचें थोड़ा मन में कि मौत दरवाजे पर आए और कहे कि सौ वर्ष का मौका देते हैं, घर में कोई राजी है? तो आप किसी को राजी करने की कोशिश करेंगे कि नहीं करेंगे! जरूर करेंगे। क्या दुबारा मौत आए, तो आप तब तक समझदार हो चुके होंगे? नहीं, जल्दी से मत कह लेना कि हम समझदार हैं। क्योंकि ययाति कम समझदार नहीं था।

हजार वर्ष के बाद भी जब मौत ने दस्तक दी, तो ययाति वहीं था, जहां पहले सौ वर्ष के बाद था। मौत ने कहा, अब क्षमा करो! किसी चीज की सीमा भी होती है। अब मुझसे मत कहना। बहुत हो गया! ययाति ने कहा, कितना ही हुआ हो, लेकिन मन मेरा वहीं है। कल अभी बाकी है, और सोचता हूं कि कोई सुख शायद अनजाना बचा हो, जिसे पा लूं तो सुखी हो जाऊं!

अनंत काल तक भी ऐसा ही होता रहता है। तो फिर वैराग्य पैदा नहीं होगा। अगर एक राग व्यर्थ होता है और आप तत्काल दूसरे राग की कामना करने लगते हैं, तो राग की धारा जारी रहेगी। एक राग का विषय टूटेगा, दूसरा राग का निर्मित हो जाएगा। दूसरा टूटेगा, तीसरा निर्मित हो जाएगा। ऐसा अनंत तक चल सकता है। ऐसा अनंत तक चलता है। वैराग्य कब होगा?

वैराग्य उसे होता है, जो एक राग की व्यर्थता में समस्त रागों की व्यर्थता को देखने में समर्थ हो जाता है। जो एक सुख के गिरने में समस्त सुखों के गिरने को देख पाता है। जिसके लिए कोई भी फ्रस्ट्रेशन, कोई भी विषाद अल्टिमेट, आत्यंतिक हो जाता है। जो मन के इस राज को पकड़ लेता है जल्दी ही कि यह धोखा है। क्यों? क्योंकि कल मैंने जिसे सुख कहा था, वह आज दुख हो गया। आज जिसे सुख कह रहा हूं, वह कल दुख हो जाएगा। कल जिसे सुख कहूंगा, वह परसों दुख हो जाएगा। जो इस सत्य को पहचानने में समर्थ हो जाता है, जो इतना इंटेंस देखने में समर्थ है, जो इतना गहरा देख पाता है जीवन में…।

अब दुबारा जब मन कोई राग का विषय बनाए, तो मन से पूछना कि तेरा अतीत अनुभव क्या है! और मन से पूछना कि फिर तू एक नया उपद्रव निर्मित कर रहा है!

एक मनोवैज्ञानिक के पास एक व्यक्ति गया था। ऐसे ही एक मित्र, यहां मैं आया, उस पहले दिन ही मुझसे मिलने आ गए। उस मनोवैज्ञानिक के पास जो व्यक्ति गया था, उसने कहा कि मेरी पहली पत्नी मर गई। मनोवैज्ञानिक भलीभांति जानता था कि पहली पत्नी और उसके बीच क्या घटा था। लेकिन पति भूल चुका था मरते ही। तो मैं दूसरा विवाह कर लूं या न कर लूं?

उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, क्या तेरे मन में दूसरे विवाह का खयाल आता है? उसने कहा, आता है। आप इससे क्या नतीजा लेते हैं? उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, इससे मैं नतीजा लेता हूं, अनुभव के ऊपर आशा की विजय।

अनुभव के ऊपर आशा की विजय! एक पत्नी की कलह और उपद्रव और संघर्ष और दुख और पीड़ा से बाहर नहीं हुआ है कि वह नई पत्नी की तलाश में चित्त निकल गया। लेकिन मन कहता है कि इस स्त्री के साथ सुख नहीं बन सका, तो जरूरी तो नहीं है कि किसी स्त्री के साथ न बन सके। पृथ्वी पर बहुत स्त्रियां हैं। कोई दूसरी स्त्री सुख दे पाएगी; कोई दूसरा पुरुष सुख दे पाएगा। कोई दूसरी कार, कोई दूसरा बंगला, कोई दूसरा पद, कोई दूसरा गांव, कोई कहीं और जगह सुख होगा। यहां नहीं, कोई बात नहीं। यद्यपि इस जगह आने के पहले भी यही सोचा था। और जिस गांव में आप जाने की सोच रहे हैं, उस गांव के लोग भी यही सोच रहे हैं कि कहीं चले जाएं, तो उन्हें सुख मिल जाए!

सुना है मैंने कि एक दिन सुबह-सुबह एक आदमी भागा हुआ पागलखाने पहुंचा। जोर से दरवाजा खटखटाया। पागलखाने के प्रधान ने दरवाजा खोला। उस आदमी ने पूछा कि मैं यह पूछने आया हूं कि आपके पागलखाने से कोई निकलकर तो नहीं भाग गया? नहीं; कोई निकलकर भागा नहीं। आपको इसका शक क्यों पैदा हुआ? उसने कहा, और कोई कारण नहीं है। मेरी पत्नी को कोई लेकर भाग गया है! तो मैं अपने होश में नहीं मान सकता कि जिसमें थोड़ी भी बुद्धि होगी, वह मेरी पत्नी को लेकर भाग जाएगा! तो मैंने सोचा, पागलखाने में जाकर देख लूं कि कोई निकल तो नहीं गया।

पर उस प्रधान ने कहा कि माफ कर मेरे भाई। तेरी पत्नी के साथ मैंने तुझे कई बार रास्ते पर घूमते देखा है। मेरा तक मन बहुत बार हुआ कि तेरी पत्नी को लेकर भाग जाऊं। वह देखने में बहुत सुंदर है। उस आदमी ने कहा, उसी देखने की सुंदरता के पीछे तो मैं फंसा। फिर पीछे नरक ही निकला है!

जीवन के जो चेहरे हमें दिखाई पड़ते हैं, वे असलियत नहीं हैं। इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे, जब तुम्हें कोई चेहरा सुंदर दिखाई पड़े, तो आंख बंद करके स्मरण करना, ध्यान करना, चमड़ी के नीचे क्या है? मांस। मांस के नीचे क्या है? हड्डियां। हड्डियों के नीचे क्या है? उस सब को तुम जरा गौर से देख लेना। एक्सरे मेडिटेशन, कहना चाहिए उसका नाम। बुद्ध ने ऐसा नाम नहीं दिया। मैं कहता हूं, एक्सरे मेडिटेशन! एक्सरे कर लेना, जब मन में कोई चमड़ी बहुत प्रीतिकर लगे, तो दूर भीतर तक। तो भीतर जो दिखाई पड़ेगा, वह बहुत घबड़ाने वाला है।

मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। वहां गोली चली। चार लोगों को गोली लग गई, तो उनका पोस्टमार्टम होता था। मेरे एक मित्र, जो चमड़ी के बड़े प्रेमी हैं…।

अधिक लोग होते हैं। उपनिषद कहते हैं इस तरह के लोगों को चमार–चमड़ी के प्रेमियों को। चमड़े के जूते बनाने वाले को नहीं; जरूरी नहीं कि वह चमार हो। लेकिन चमड़ी के प्रेमी को!

तो एक चमड़ी के प्रेमी मेरे मित्र थे। मुझे मौका मिला, मैंने उनसे कहा कि चलो, डाक्टर परिचित है, मैं तुम्हें पोस्टमार्टम दिखा दूं। उन्होंने कहा, उससे क्या होगा? मैंने कहा, थोड़ा देखो भी, आदमी के भीतर क्या है, उसे थोड़ा देखो।

पोस्टमार्टम के गृह में भीतर प्रवेश किए, तो भयंकर बदबू थी, क्योंकि लाशें तीन दिन से रुकी थीं। वे नाक पर रूमाल रखने लगे। मैंने कहा, मत घबड़ाओ। जिन चमड़ियों को तुम प्रेम करते हो, उनकी यही गति है। थोड़ा और भीतर चलो। उन्होंने कहा, बहुत उबकाई आती है। वॉमिट न हो जाए! मैंने कहा, हो जाए तो कुछ हर्जा नहीं है। और भीतर आओ।

जब हम गए, तो डाक्टर ने एक आदमी, जिसके पेट में गोली लगी थी, उसके पूरे पेट को फाड़ा हुआ था। तो सारी मल की ग्रंथियां ऊपर फूटकर फैल गई थीं। वे मेरे मित्र भागने लगे। मैं उन्हें पकड़ रहा हूं, खींच रहा हूं; वे भागते हैं! कहते हैं, मुझे मत दिखाओ! उन्होंने आंखें बंद कर लीं। मैंने कहा, आंखें खोलो। ठीक से देख लो। उन्होंने कहा, मुझे मत दिखाओ, नहीं तो मेरी जिंदगी खराब हो जाएगी! तुम्हारी जिंदगी क्यों खराब हो जाएगी? उन्होंने कहा, फिर मैं किसी शरीर को प्रेम न कर पाऊंगा। जब भी शरीर को देखूंगा, तो यह सब दिखाई पड़ेगा।

बुद्ध कहते थे, जब शरीर आकर्षक मालूम पड़े, तो थोड़ा भीतर गौर करना कि है क्या वहां? तो शायद शरीर का जो राग है, वह टूट जाए और वैराग्य उत्पन्न हो।

बुद्ध को वैराग्य उत्पन्न होने की जो बड़ी कीमती घटना है, वह मैं आपसे कहूं।

बुद्ध के पिता ने बुद्ध के महल में उस राज्य की सब सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर दी थीं। रात देर तक गीत चलता, गान चलता, मदिरा बहती, संगीत होता और बुद्ध को सुलाकर ही वे सुंदरियां नाचते-नाचते सो जातीं। एक रात बुद्ध की नींद चार बजे टूट गई। एर्नाल्ड ने अपने लाइट आफ एशिया में बड़ा प्रीतिकर, पूरा वर्णन किया है।

चार बजे नींद खुल गई। पूरे चांद की रात थी। कमरे में चांद की किरणें भरी थीं। जिन स्त्रियों को बुद्ध प्रेम करते थे, जो उनके आस-पास नाचती थीं और स्वर्ग का दृश्य बना देती थीं, उनमें से कोई अर्धनग्न पड़ी थी; किसी का वस्त्र उलट गया था; किसी के मुंह से घुर्राटे की आवाज आ रही थी; किसी की नाक बह रही थी; किसी की आंख से आंसू टपक रहे थे; किसी की आंख पर कीचड़ इकट्ठा हो गया था।

बुद्ध एक-एक चेहरे के पास गए और वही रात बुद्ध के लिए घर से भागने की रात हो गई। क्योंकि इन चेहरों को उन्होंने देखा था; ऐसा नहीं देखा था। लेकिन ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। जिन चेहरों को देखा था, वे मेकअप से तैयार किए गए चेहरे थे, तैयार चेहरे थे। ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। यह शरीर की असलियत है।

लेकिन जैसी शरीर की असलियत है, वैसे ही सभी सुखों की असलियत है। और एक-एक सुख को जो एक्सरे मेडिटेशन करे, एक-एक सुख पर एक्सरे की किरणें लगा दे, ध्यान की, और एक-एक सुख को गौर से देखे, तो आखिर में पाएगा कि हाथ में सिवाय दुख के कुछ बच नहीं रहता। और जब आपको एक सुख की व्यर्थता में समस्त सुखों की व्यर्थता दिखाई पड़ जाए, और जब एक सुख के डिसइलूजनमेंट में आपके लिए समस्त सुखों की कामना क्षीण हो जाए, तो आपकी जो स्थिति बनती है, उसका नाम वैराग्य है।

वैराग्य का अर्थ है, अब मुझे कुछ भी आकर्षित नहीं करता। वैराग्य का अर्थ है, अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए मैं कल जीना चाहूं। वैराग्य का अर्थ है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए मैं कल जीना चाहूं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पाए बिना मेरा जीवन व्यर्थ है।

वैराग्य का अर्थ है, वस्तुओं के लिए नहीं, पर के लिए नहीं, दूसरे के लिए नहीं, अब मेरा आकर्षण अगर है, तो स्वयं के लिए है। अब मैं उसे जान लेना चाहता हूं, जो सुख पाना चाहता है। क्योंकि जिन-जिन से सुख पाना चाहा, उनसे तो दुख ही मिला। अब एक दिशा और बाकी रह गई कि मैं उसको ही खोज लूं, जो सुख पाना चाहता है। पता नहीं, वहां शायद सुख मिल जाए। मैंने बहुत खोजा, कहीं नहीं मिला; अब मैं उसे खोज लूं, जो खोजता था। उसे और पहचान लूं, उसे और देख लूं।

वैराग्य का अर्थ है, विषय से मुक्ति और स्वयं की तरफ यात्रा।

चित्त दो यात्राएं कर सकता है। या तो आपसे पदार्थ की तरफ, और या फिर पदार्थ से आपकी तरफ। आपसे पदार्थ की तरफ जाती हुई जो चित्त की धारा है, उसका नाम राग है। पदार्थ से आपकी तरफ लौटती हुई जो चेतना है, उसका नाम वैराग्य है।

कभी आपने ऐसा अनुभव किया, जब पदार्थ से आपकी चेतना आपकी तरफ लौटती हो? सबको छोटा-छोटा अनुभव आता है वैराग्य का। लेकिन थिर नहीं हो पाता। थिर इसलिए नहीं हो पाता कि वैराग्य का हम कोई अभ्यास नहीं करते हैं। राग का तो अभ्यास करते हैं। वैराग्य का क्षण भी आता है, तो चूंकि अभ्यास नहीं होता, इसलिए खो जाता है।

करीब-करीब ऐसे जैसे आपने कबूतर पालने वाले लोगों को देखा होगा, अपने घर पर एक छतरी लगाकर रखते हैं। कबूतर आता है, तो छतरी पर बैठ पाता है। हमारे ऊपर भी वैराग्य का कबूतर कई बार आता है, लेकिन कोई छतरी नहीं होती, जिस पर बैठ पाए। फिर उड़ जाता है। अभ्यास, छतरी का बनाना है कि जब वैराग्य का कबूतर आए, जब वैराग्य का पक्षी आए अपनी तरफ उड़कर, तो हमारे पास उसके बैठने की, बिठाने की, निवास की जगह हो।

अभ्यास वैराग्य को थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो सबके भीतर पैदा होता है, अभ्यास थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो सबके ऊपर आता है, अभ्यास उसे रोक लेने का उपाय है, उसे प्राणों में आत्मसात कर लेने का उपाय है।

अभी हमारी जैसी स्थिति है, वह ऐसी है कि राग का तो हम अभ्यास करते हैं। राग का हम अभ्यास करते है। हर राग व्यर्थ होता है, लेकिन अभ्यास जारी रहता है। और वैराग्य कभी-कभी आता है राग की असफलता में से, लेकिन उसका कोई अभ्यास न होने से वह कहीं भी ठहर नहीं पाता; हमारे ऊपर रुक नहीं पाता; वह बह जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, वैराग्य और अभ्यास।

अभ्यास क्या है? वैराग्य तो इस प्रतीति का नाम है कि इस जगत में बाहर कोई भी सुख संभव नहीं है। सुख असंभावना है। दूसरे से किसी तरह की शांति संभव नहीं है। दूसरे से सब अपेक्षाएं व्यर्थ हैं। इस प्रतीति को उपलब्ध हो जाना वैराग्य है।

लेकिन इस प्रतीति को हम सब उपलब्ध होते हैं, मैं आपसे कह रहा हूं। इससे आपको थोड़ी हैरानी होती होगी। हम सभी वैराग्य को उपलब्ध होते हैं रोज।

कामवासना मन को पकड़ती है। लेकिन आपने देखा है कि कामवासना के बाद आदमी क्या करता है? सिर्फ करवट लेकर निढाल पड़ जाता है। वैराग्य पकड़ता है।

हर कामवासना के बाद एक विषाद मन को पकड़ लेता है, एक फ्रस्ट्रेशन। फिर वही! कुछ भी नहीं, फिर वही। कुछ भी नहीं, फिर वही। और चित्त ग्लानि अनुभव करता है। चित्त को लगता है, यह मैं क्या कर रहा हूं! लेकिन तब आप चुपचाप करवट लेकर सो जाते हैं। चौबीस घंटे में फिर राग पैदा हो जाता है।

वैराग्य को स्थिर करने का आपने कोई उपाय नहीं किया। जब कामवासना व्यर्थ होती है, तब आपने उठकर ध्यान किया कुछ? तब आपने उठकर कोई अभ्यास किया कि यह वैराग्य का क्षण गहरा हो जाए! नहीं; तब आप चुपचाप सो गए।

लेकिन कामवासना के लिए आप बहुत अभ्यास करते हैं। राह चलते अभ्यास चलता है। फिल्म देखते अभ्यास चलता है। रेडियो सुनते अभ्यास चलता है। किताब पढ़ते अभ्यास चलता है। मित्रों से बात करते अभ्यास चलता है। मजाक करते अभ्यास चलता है। अगर कोई आदमी ठीक से जांच करे अपने चौबीस घंटे की, तो चौबीस घंटे में कितने समय वह कामवासना का अभ्यास कर रहा है, देखकर दंग हो जाएगा। अगर मजाक भी करता है किसी से, तो भीतर कामवासना का कोई रूप छिपा रहता है।

दुनिया की सब मजाकें सेक्सुअल हैं, निन्यानबे परसेंट। निन्यानबे प्रतिशत मजाक सेक्स से संबंधित हैं, कामवासना से संबंधित हैं। हंसता है, घूरकर देखता है, रास्ते पर चलता है; चलने का ढंग, कपड़े पहनने का ढंग, उठने का ढंग, बोलने का ढंग, अगर थोड़ा गौर करेंगे तो कामवासना से संबंधित पाएंगे।

कभी आपने खयाल किया, अगर एक कमरे में दस पुरुष बैठकर बात कर रहे हों और एक स्त्री आ जाए, तो उनके बोलने की सबकी टोन फौरन बदल जाती है; वही नहीं रह जाती। बड़े मृदुभाषी, मधुर, शिष्ट, सज्जन हो जाते हैं! क्या हो गया? क्या, हो क्या गया एक स्त्री के प्रवेश से? उनको भी खयाल नहीं आएगा कि यह अभ्यास चल रहा है। यह अभ्यास है, बहुत अनकांशस हो गया, अचेतन हो गया। इतना कर डाला है कि अब हमें पता ही नहीं चलता।

इसकी हालत करीब-करीब ऐसी हो गई है, जैसे साइकिल पर आदमी चलता है, तो उसको घर की तरफ मोड़ना नहीं पड़ता हैंडिल, मुड़ जाता है। चलता रहता है, साइकिल चलती रहती है, जहां-जहां से मुड़ना है, हैंडिल मुड़ता रहता है। अपने घर के सामने आकर गाड़ी खड़ी हो जाती है। उसे सोचना नहीं पड़ता कि अब बाएं मुड़ें कि अब दाएं। अभ्यास इतना गहरा है कि अचेतन हो गया है। साइकिल होश से नहीं चलानी पड़ती। बिलकुल मजे से वह गाना गाते, पच्चीस बातें सोचते, दफ्तर का हिसाब लगाते…चलता रहता है। पैर पैडिल मारते रहते हैं, हाथ साइकिल मोड़ता रहता है। यह बिलकुल अचेतन हो गया है। इतना अभ्यास हो गया कि अचेतन हो गया।

कामवासना का अभ्यास इतना अचेतन है कि हमें पता ही नहीं होता कि जब हम कपड़ा पहनते हैं, तब भी कामवासना का अभ्यास चल रहा है। जब आप आईने के सामने खड़े होकर कपड़े पहनकर देखते हैं, तो सच में आप यह देखते हैं कि आपको आप कैसे लग रहे हैं? या आप यह देखते हैं कि दूसरों को आप कैसे लगेंगे? और अगर दूसरों का थोड़ा खयाल करेंगे, तो अगर पुरुष देख रहा है आईने में, तो दूसरे हमेशा स्त्रियां होंगी। अगर स्त्रियां देख रही हैं, तो दोनों हो सकते हैं, पुरुष और स्त्रियां भी। क्योंकि स्त्रियों की कामवासनार् ईष्या से इतनी संयुक्त हो गई है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। पुरुष होंगे कि कोई देखकर प्रसन्न हो जाए, इसलिए; और स्त्रियों की याद आएगी कि कोई स्त्री जल जाए, राख हो जाए, इसलिए। मगर दोनों कामवासना के ही रूप हैं। दोनों के भीतर गहरे में तो वासना ही चल रही है।

यह अभ्यास चौबीस घंटे चल रहा है। तो फिर वैराग्य का जो पक्षी आता है आपके पास, कोई जगह नहीं पाता जहां बैठ सके; व्यर्थ हो जाता है। आपने जो मकान बनाया है, वह वासना के पक्षी के लिए बनाया है। इसलिए सब तरफ से उसको निमंत्रण है, निवास के लिए मौका है।

जीवन दोनों देता है आपको, वैराग्य भी और राग भी। लेकिन राग का अभ्यास है, इसलिए राग टिक जाता है। वैराग्य का अभ्यास नहीं है, इसलिए वैराग्य नहीं टिकता है। जीवन में अंधेरा भी है, उजेला भी। राग भी, विराग भी। यहां क्रोध भी आता है, पश्चात्ताप भी। लेकिन क्रोध के लिए पूरा इंतजाम है, पूरी मशीनरी है आपके पास। पश्चात्ताप की कोई मशीनरी नहीं है। आ जाता है, चला जाता है। उसकी कोई गहरी आप पर पकड़ नहीं छूट जाती।

जीवन आपको पूरे अवसर देता है। लेकिन जिस चीज का अभ्यास है, आप उसी का उपयोग कर सकते हैं। करीब-करीब ऐसा समझिए कि आप पैदल चल रहे हैं और रास्ते में आपको पड़ी हुई कार मिल जाए, बिलकुल ठीक। जरा स्विच आन करना है कि कार चल पड़े। लेकिन अगर आपका कोई अभ्यास नहीं है, तो आप पैदल ही चलते रहेंगे। और खतरा एक है कि कहीं कार का मोह पकड़ जाए, तो गले में रस्सी बांधकर, कार से बांधकर उसको खींचने की कोशिश करेंगे, उसमें और झंझट में पड़ेंगे। उससे तो पैदल ही तेजी से चल लेते।

अभ्यास जो है, वही आप कर पाएंगे। जिसका अभ्यास नहीं है, वह आप नहीं कर पाएंगे। इसलिए कृष्ण ने वैराग्य को नंबर दो पर कहा। मैंने जानकर नंबर एक पर वैराग्य आपको समझाया। कृष्ण के सूत्र में अभ्यास पहले और वैराग्य बाद में उन्होंने कहा है। उन्होंने कहा, जिसे अभ्यास और वैराग्य…।

वैराग्य को नंबर दो पर कृष्ण ने क्यों रखा? वैराग्य है तो प्रथम। क्योंकि वैराग्य न हो, तो अभ्यास नहीं हो सकता। लेकिन नंबर दो पर रखने का कारण है। और वह कारण यह है कि वैराग्य तो रोज आता है, लेकिन अभ्यास न हो तो टिक नहीं सकता। अभ्यास क्या हो वैराग्य का?

जैसे आपने कामवासना का अभ्यास किया है, वैसे ही वैराग्य का भी अभ्यास करना पड़े। जैसे आपने राग का अभ्यास किया है, वैसे ही वैराग्य का अभ्यास करना पड़े। जिस तरह आप काम का चिंतन करते हैं, उसी तरह निष्काम का चिंतन करना पड़े। ठीक वही करना पड़े, उलटे मार्ग पर। जैसे कि आप यहां तक आए अपने घर से, तो जिस रास्ते से आए हैं, उसी से वापस लौटिएगा न! और तो कोई उपाय नहीं है। मुझ तक जिस रास्ते से आप आए हैं, लौटते वक्त उसी रास्ते से वापस लौटिएगा। एक ही फर्क होगा, रास्ता वही होगा, आप वही होंगे, एक ही फर्क होगा कि आपका चेहरा उलटी तरफ होगा। और तो कोई फर्क होने वाला नहीं है।

राग का रास्ता वही है, जो वैराग्य का। सिर्फ आपका चेहरा उलटी तरफ होगा। जिन-जिन चीजों में आपने रस लिया था, उन-उन चीजों में विरस। जिन-जिन चीजों के लिए दीवाने हुए थे, उन-उन चीजों की व्यर्थता। जैसे-जैसे दौड़े थे, वैसे-वैसे विपरीत यात्रा।

किस-किस चीज में रस लिया है? किस-किस चीज में रस लिया है? उस-उस चीज के यथार्थ को देखना जरूरी है। क्योंकि यथार्थ उसके विरस को भी उत्पन्न कर देता है। किस चीज का आकर्षण है? किसी प्रियजन का हाथ बहुत प्रीतिकर लगता है, हाथ में लेने जैसा लगता है। तो लेकर बैठ जाएं, लेकिन लेकर भूलें न। हाथ हाथ में ले लें और अब थोड़ा ध्यान करें कि क्या रस मिल रहा है? सिवाय पसीने के कुछ भी मिलता नहीं है। थोड़ी ही देर में मन होगा कि अब यह हाथ छोड़ना चाहिए। वैराग्य अपने आप ही आता है!

लेकिन खुद के ही राग में किए गए वायदे दिक्कत देते हैं। राग में हम कहते हैं कि तेरा हाथ हाथ में आ जाए, तो दुनिया की कोई ताकत छुड़ा नहीं सकती। दुनिया की ताकत की बात दूर है, पांच-सात मिनट के बाद दुनिया की कोई ताकत दोनों के हाथ साथ नहीं रख सकती, इकट्ठा नहीं रख सकती। पांच-सात मिनट के बाद पसीना-पसीना ही रह जाता है! बदबू-बदबू ही छूट जाती है। पांच-सात मिनट के बाद कोई बहाना खोजकर हाथ अलग करना पड़ता है।

जरा गौर से देखना कि जब हाथ अलग करते हैं, तब मन में वैराग्य का एक क्षण है। उस क्षण को थोड़ा गहरा करने की जरूरत है, पहचानने की जरूरत है। क्योंकि नहीं तो कल फिर हाथ हाथ में लेने की आकांक्षा पैदा होगी। अभी वैराग्य का क्षण है, अभ्यास कर लें। थोड़ा गौर से देखें। और दो मिनट ज्यादा लिए रहें हाथ को, और थोड़ा गौर से सोचें कि क्या दुबारा फिर हाथ को हाथ में लेने की आकांक्षा पैदा करेगा मन? अगर करता हो, तो अब इस हाथ को जिंदगीभर हाथ में ही लिए रहें! अब जल्दी क्या है? हाथ हाथ में है, हम रुक जाएं। मन को थोड़ा मौका दें कि वह वैराग्य को भी पहचाने। जल्दी न करें। क्योंकि जल्दी खतरनाक है। जल्दी के बाद वैराग्य थिर न हो पाएगा।

भोजन बहुत अच्छा लग रहा है, तो खा लें जरा; खाते चले जाएं। फिर रुकें मत, जब तक कि प्राण संकट में न पड़ जाएं। रुकें मत। और जरा देख लें कि इस सब स्वाद का क्या फल हो सकता है! और जब स्वाद पूरा ले चुकें, तो जब मुंह में किसी चीज को, जिसकी लोग कल्पना करते हैं…। खाने वाले प्रेमी हैं…।

टाइप हैं लोगों के अलग-अलग। कुछ हैं, जिनको सब चीज छूट जाए, लेकिन भोजन का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें सब छूट जाए, लेकिन काम का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें काम, भोजन किसी चीज की चिंता नहीं। सिर्फ अहंकार का रस है, यश का। वे भूखे रह सकते हैं, जेल जा सकते हैं, लेकिन कोई पद पर बिठा दो! तो वे सब कर सकते हैं। पत्नी छोड़ सकते हैं, बच्चे छोड़ सकते हैं। सब जीवन भारी तपश्चर्या में गुजार सकते हैं। बस इतना ही पक्का कर दो कि कोई कुर्सी पर…। और ऐसा भी जरूरी नहीं है कि वे पहले ही से कहें, कुर्सी पर बिठा दो। हो सकता है, उनको भी पक्का पता न हो कि कुर्सी पर बैठने के लिए जेल जा रहे हैं। चित्त बड़ा अचेतन काम करता है। लेकिन जब जेल से छूटेंगे, तब सबको पता चल जाएगा कि वे जेल किसलिए गए थे।

जो त्यागी दिखाई पड़ते हैं, उनमें भी सौ में से मुश्किल से एकाध आदमी होता है, जो वैराग्य को उपलब्ध होता है। त्याग भी इनवेस्टमेंट की तरह काम करता है। इधर त्याग करते हैं, उधर कुछ उनकी भोग की इच्छा है। लेकिन हम पहचान नहीं पाते। यह हो सकता है कि मैं गोली खाने को राजी हो जाऊं, अगर फूलमाला मेरे ऊपर पड़ने को हो। यह हमें दिखाई नहीं पड़ेगा, कि कौन फूलमाला पड़ने के लिए गोली अपने ऊपर डलवाएगा! यह वह आदमी कह रहा है, जिसको यश की आकांक्षा और पकड़ नहीं है। जिसको है, वह पूरा जीवन इस पर दांव पर लगा सकता है।

लेकिन यह जो चित्त की व्यवस्था है, इसमें जब वैराग्य का क्षण आता है, उस वक्त ठहरने की जरूरत है। उस अंतराल में रुकने की जरूरत है। तो अभ्यास की शुरुआत हो जाएगी। जैसे समुद्र में पानी बढ़ता है, फिर गिरता है, ठीक वैसे ही चित्त में राग आता है, फिर गिरता है। जब राग आता है, तब आप बड़ा इंतजाम करते हैं। और जब वैराग्य आता है, जब गिरता है राग, तब आप कुछ नहीं करते। तब आप कोई व्यवस्था नहीं करते कि वह विराग थिर हो जाए। उस विराग को थिर करने के लिए वैराग्य के क्षणों का उपयोग करिए।

और जिंदगी में जितने क्षण राग के हैं, उतने ही विराग के हैं। जितने दिन हैं, उतनी ही रातें हैं। उसमें कोई अंतर नहीं है। वह अनुपात बराबर है। हर राग के साथ विराग आएगा ही, इसलिए अनुपात बराबर है। पर उस उतरते हुए क्षण का आप उपयोग नहीं करते हैं। उसका कैसे उपयोग करें? जैसा आपने चढ़ते हुए क्षण का उपयोग किया था। कितना रस लिया था!

अगर कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहा है, या कोई धनी कोई सौदा करने जा रहा है जिसमें लाभ होने वाला है, या कोई नेता वोटर से वोट मांगने जा रहा है, तब उनकी टपकती हुई लार देखें! तब उनके चेहरे से जो झलक रहा है, वह देखें! वह हम सबके ऊपर उतरता है वैसा ही। लेकिन जब विरक्ति का क्षण पीछे आता है, तब? तब हम विरक्ति के क्षण को जल्दी से गुजारने की कोशिश करते हैं।

अभी एक महिला मुझे मिलने आईं; उनके पति चल बसे। तो मुझसे वे कहने लगीं, हमने बहुत सुख पाया। साथ रहे। बहुत सुख पाया। अब मुझे बहुत पीड़ा है, बहुत दुख है। मुझे कुछ सांत्वना चाहिए। मैंने कहा, तुम गलत जगह आ गई हो। मैं सांत्वना नहीं दूंगा। सुख तुमने पाया, सांत्वना मैं दूं? मेरा क्या कसूर है? मेरा इसमें कोई हाथ ही नहीं है। उसने कहा, नहीं-नहीं; आपका तो कोई हाथ नहीं है। लेकिन कई संतों-महात्माओं के पास इसीलिए जा रही हूं कि सांत्वना मिल जाए। मैंने कहा, किन्हीं ने दी? उन्होंने कहा, बहुतों ने दी। तो मैंने कहा, फिर मेरे पास किसलिए आईं? अगर मिल गई, तो खतम करो अब यह बात! उसने कहा, नहीं, मिलती नहीं। मैंने कहा, मिलेगी भी नहीं। सुख तुम पाओगी, तो जब दुख का क्षण आएगा, उसे कौन पाएगा? राग तुम भोगोगी, जब विराग का क्षण आएगा, उसे कौन भोगेगा? अब तुम इस तरकीब में लगी हो कि तुमने राग तो भोग लिया, अब यह जो विराग की उतरती धारा है, इसको कोई भुलाने की तरकीब दे दे। यह नहीं होगा।

मैंने कहा, मैं तो तुमसे प्रार्थना करूंगा कि तुम एक काम करो; यह कीमती होगा। जितना पति का साथ रहना कीमती नहीं हुआ, उससे ज्यादा पति की मृत्यु कीमती हो सकती है। क्योंकि पति के साथ से कुछ मिल गया हो, ऐसा मैं नहीं मानता। तुम फिर ईमानदारी से मुझसे कहो कि सच में सुख था?

वह महिला थोड़ी बेचैन हुई। उसने कहा कि नहीं; कहने को कहते हैं। सुख तो क्या था; ठीक था, सो-सो; ऐसा ही ऐसा था! मैंने कहा, और थोड़ा गौर से सोचो। क्योंकि पहले तो तुम बिलकुल आश्वस्त थीं कि बहुत सुख पाया। अब तुम कहती हो, सो-सो, ऐसा-ऐसा। थोड़ा और जरा भीतर जाओ। उसने कहा, लेकिन आप क्यों दबे हुए घाव उघाड़ना चाहते हैं? मैं नहीं उघाड़ना चाहता। मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं कि स्थिति सच में क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब तुम कल्पना कर रही हो कि तुमने सुख भोगा। यह कल्पना, अतीत में सुख भोगने की, वैराग्य के क्षण को गंवा दोगी। ठीक से देखो कि तुमने सुख भोगा?

वह स्त्री थोड़ी डर गई। उसने आंख बंद कर ली। फिर उसने कहा कि नहीं, सुख तो नहीं भोगा। मैंने कहा, कभी तुम्हारे मन में ऐसा खयाल आया था कि इस पति के साथ विवाह न होता, तो अच्छा था? क्योंकि ऐसी पत्नी जरा खोजना मुश्किल है। उसने कहा, आप भी कैसी बात करते हैं! मैंने कहा, मैं तुम्हें एक कहानी कहता हूं।

एक चर्च में एक पादरी ने एक सांझ कहा कि जिन दंपतियों में कभी झगड़ा न हुआ हो, वे आगे आ जाएं। कोई पांच सौ लोग थे। पांच-सात जोड़े आगे आए। उस पादरी ने भगवान से कहा, हे परमात्मा, इन पक्के झूठों को आशीर्वाद दे, ब्लेस दीज डैम लायर्स! उन्होंने कहा, आप हमें झूठा कह रहे हैं?

कहने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यही जानने के लिए तुम्हें बाहर बुलाया था कि कितने झूठे आज यहां इकट्ठे हैं। उनमें से एक ने पूछा, लेकिन आपको पता कैसे चला? उसने कहा कि मैं भी दंपति हूं। मुझे भी बहुत कुछ पता है। और तुम सब अलग-अलग आकर मुझसे चर्चा कर गए हो। तुम भूल गए हो।

वे पति भी आकर चर्चा कर चुके हैं। वे उसी के सुनने वाले हैं। और ईसाइयों में कन्फेशन होता है। पादरी के पास जाकर पति भी बता आता है, किस मुसीबत में गुजर रहा है; पत्नी भी बता आती है। तुम अलग-अलग सब बता गए हो मुझे। और अब तुम जोड़े की तरह खड़े हो कि हममें कोई कलह नहीं है!

मैंने उस महिला को कहा कि ठीक से देख ले। कहीं अब यह सुख का खयाल झूठा न हो।

हम भविष्य में भी झूठे सुख निर्मित करते हैं और अतीत में भी। हम अदभुत हैं। जो सुख हमने कभी नहीं पाए, हम सोचते हैं, हमने अतीत में पाए। यह तरकीब है मन की। क्योंकि अतीत में सुख निर्मित करें, तो ही भविष्य में आशा करना आसान है। अन्यथा भविष्य में आशा करना दुरूह हो जाएगा। यह अभ्यास है काम का।

वैराग्य का अभ्यास करना है, तो अतीत के सुखों को ठीक से देखना, ताकि साफ हो जाए कि वे दुख थे। अगर पूरा अतीत दुख सिद्ध हो जाए, तो भविष्य में सुख की आशा क्षीण हो जाएगी, गिर जाएगी; क्योंकि भविष्य अतीत के प्रोजेक्शन, अतीत के फैलाव के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कल्पनाएं हमारी स्मृतियों के ही नए रूप हैं। भविष्य की योजनाएं, हमारे अतीत की ही विफल योजनाओं को फिर से सम्हालना है।

काम का अभ्यास चलता है। तो अतीत में हम सोचते हैं, कैसा सुख मिला! उस दिन भोजन किया था उस होटल में, कैसा सुख पाया था! हालांकि उस दिन बिलकुल नहीं पाया था; लेकिन आज सोच रहे हैं। आज सोच रहे हैं, ताकि कल फिर उस होटल की तरफ पैर जा सकें।

तो मैं आपसे कहूंगा कि अतीत का भी सत्य साफ है। उस महिला को मैंने कहा, ठीक से देखो। उसने हिम्मत जुटाकर कहा कि नहीं, कोई सुख तो नहीं पाया। मैंने कहा, जिसके जीवन से तुमने सुख नहीं पाया, और जिसको तुम कहती हो खुद कि मैंने कई बार सोचा कि इस आदमी से मिलना न होता, तो अच्छा; विवाह न किया होता, तो अच्छा…। क्या कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल आया था कि यह आदमी मर जाए या मैं मर जाऊं?

उस स्त्री ने कहा, अब आप जरा ज्यादा बात कर रहे हैं! मैं धीरे-धीरे आपसे कुछ बातों पर राजी होती जाती हूं, तो आप ज्यादा बात कर रहे हैं! मैंने कहा कि मैं कुछ ज्यादा नहीं कर रहा। ऐसा मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बहुत मुश्किल है कि जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनकी हत्या का या उनके मर जाने का खयाल हमें न आता हो। स्वीकार करना कठिन पड़ता है। खुद भी स्वीकार करना कठिन पड़ता है कि ऐसा कैसे! कई दफे जब मन में आता है, तो हम कहते हैं, नहीं-नहीं, यह ठीक नहीं है। इस तरह की बात बड़ी गलत है। यह मन बड़ा खराब है। जैसे कि मन दोषी है और हम निर्दोष, अलग खड़े हैं!

वह महिला ईमानदार थी और उसने कहा कि ऐसा खयाल आया। लेकिन जैसे ही उसने कहा कि ऐसा खयाल आया, जैसे उसके ऊपर से एक भार उतर गया। और उसने कहा, सच में ही मैं हैरान हूं। जिस व्यक्ति के साथ रहकर मैं सुख न पा सकी, जिस व्यक्ति के साथ रहकर मैंने कई बार सोचा कि दो में से एक समाप्त ही हो जाए तो अच्छा, आज उसकी मृत्यु पर मैं दुख क्यों पा रही हूं?

और मैंने कहा कि जो दुख पा रही हो, उससे बचने की भी कोशिश चल रही है। इस दुख को पूरा पाओ। छाती पीटो, रोओ, चिल्लाओ। जिस तरह नाची थीं शादी के वक्त, उसी तरह अब मृत्यु के वक्त छाती पीटो, तड़पो, जमीन पर लोटो। दुख भोगो। और देखो इस दुख को गौर से, ताकि यह वैराग्य का क्षण ठहर जाए, और कल फिर पुरानी आशाएं और फिर पुराने जाल फिर खड़े न हों।

लाओत्से ने लिखा है कि एक आदमी मरने के करीब था। लाओत्से गांव का बूढ़ा आदमी था, फकीर था। तो उसकी पत्नी उसे कई बार कहने आई कि मेरे पति को बचा लो। उसके बिना मैं बिलकुल न रह सकूंगी। लाओत्से ने कहा, बचाना तो मेरे हाथ में नहीं है। लेकिन तुम बिलकुल बिना उसके न रह सकोगी, इस पर भरोसा मत करना। क्योंकि मैंने कई लोगों को–मैं बूढ़ा आदमी हूं–मैंने कई लोगों को मरते और कई लोगों को यही बात करते सुना। और सब बिना उसके रह लेते हैं।

नहीं; वह नहीं मानी। उसने कहा, वे और और होंगे; मैं और हूं। हर आदमी को यही खयाल है कि मैं एक्सेप्शन हूं। वे और और होंगे, मैं और हूं। मैं मर जाऊंगी, एक क्षण न जी सकूंगी। लाओत्से ने कहा, अब तक किसी को मरते नहीं देखा। इस गांव में मैं बहुत दिन से हूं। हालांकि यही बात बहुतों को कहते सुना। और जितने जोर से तुम कहती हो, इतने ही जोर से कहते सुना। लेकिन उस स्त्री ने कहा, आप औरों की बात कर रहे हैं। मेरी बात करिए। लाओत्से ने कहा, वक्त आएगा; तो तुझसे मुलाकात करूंगा।

पति मर गया। तो उन दिनों चीन में एक प्रथा थी कि पति की कब्र पर गीली मिट्टी लगाते थे और उस पर थोड़ी दूब उगाते थे। और रिवाज यह था कि जब तक पति की कब्र की गीली मिट्टी सूखकर कड़ी न हो जाए और उस पर दूब पूरी छा न जाए, तब तक उस स्त्री को दूसरा विवाह–कम से कम तब तक–नहीं करना चाहिए।

लाओत्से ने देखा कि वह मर गया आदमी। पांच-सात दिन के बाद वह कब्रिस्तान के पास से गुजरता था, तो देखा कि वह औरत कब्र पर पंखा कर रही है! उसने सोचा कि यह औरत ठीक ही कहती थी कि यह एक्सेप्शनल है, यह विशेष। हद! मरे हुए पति को हवा कर रही है! आश्चर्य! लाओत्से ने कहा, मुझसे गलती हो गई। निश्चित गलती हो गई। जिंदा आदमियों को पत्नियां हवा नहीं करतीं, मरे हुए आदमी को पत्नी हवा कर रही है! मुझसे गलती हो गई। यह औरत निश्चित ही विशेष है।

लाओत्से पास गया और कहा कि देवी, मैं प्रणाम करता हूं। मुझे भरोसा नहीं आया कि कोई मुर्दा पति को हवा करेगा।

उसने कहा कि भरोसे की जरूरत नहीं है। हवा पति को नहीं कर रही हूं, कब्र जल्दी सूख जाए! वह एक आदमी मेरे पीछे पड़ा है, उसके मैं प्रेम में पड़ गई हूं। और यह कब्र सूखने में देर ले रही है। आकाश में बादल घिरे हैं; कहीं बरसा न हो जाए!

ऐसा है आदमी का मन! मत सोचना किसी और का! अगर किसी और का सोचा, तो राग का अभ्यास होगा। अगर जाना कि मेरा भी, तो विराग का अभ्यास होगा। फिर से दोहरा दूं। अगर सोचा कि और का होगा ऐसा, तो राग का अभ्यास कर रहे हैं आप। अगर सोचा कि मेरा भी ऐसा ही है, तो वैराग्य का अभ्यास होता है।

अभ्यास के संबंध में कुछ दोत्तीन बातें और आपसे कहूं।

एक तो यह कि कुछ लोगों का खयाल है कि परमात्मा को पाने के लिए किसी अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं है। जैसा कि जापान में कुछ झेन फकीर कहते हैं कि परमात्मा को पाने के लिए कोई भी अभ्यास की जरूरत नहीं। यद्यपि वे ऐसा कहते ही हैं, अभ्यास पूरी तरह करते हैं। पर वे उसको नाम देते हैं, अभ्यासरहित अभ्यास, एफर्टलेस एफर्ट, प्रयत्नरहित प्रयत्न।

ठीक है। उनके कहने में कुछ अर्थ है। अगर गीता का यह वचन उन्हें बताया जाए, तो वे कहेंगे, अभ्यास से नहीं मिलेगा परमात्मा। क्योंकि स्वभाव अभ्यास से नहीं मिलता। अभ्यास से आदतें मिलती हैं।

इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। स्वभाव अभ्यास से नहीं मिलता; अभ्यास से आदतें मिलती हैं। स्वभाव तो मिला ही हुआ है। और परमात्मा को पाना कोई आदत नहीं है कि आप अभ्यास कर लें।

जैसे किसी को धनुर्विद्या सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि धनुर्विद्या एक आदत है, स्वभाव नहीं। अगर न सिखाया जाए, तो आदमी कभी भी धनुर्विद न हो सकेगा। जैसा मैंने सुबह कहा, किसी को भाषा सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि भाषा एक आदत है, एक हैबिट है, स्वभाव नहीं है। लेकिन श्वास तो चलेगी आदमी की बिना अभ्यास के, कि उसका भी अभ्यास करना पड़ेगा! खून तो बहेगा बिना अभ्यास के, कि उसका भी अभ्यास करना पड़ेगा! हड्डियां तो बड़ी होती रहेंगी बिना अभ्यास के, कि उनका भी अभ्यास करना पड़ेगा!

तो झेन फकीर कहते हैं, परमात्मा को पाना तो स्वभाव को पाना है, इसलिए अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं। तो हम कह सकते हैं, हम तो कोई अभ्यास कर ही नहीं रहे, तो फिर हमको परमात्मा क्यों नहीं मिलता? झेन फकीर कहेंगे, आप नहीं कर रहे, ऐसा मत कहिए। आप परमात्मा को खोने का अभ्यास कर रहे हैं। अभ्यास आप कर रहे हैं परमात्मा को खोने का। तो झेन फकीर कहते हैं, सिर्फ परमात्मा को खोने का अभ्यास मत करिए, और आप परमात्मा को पा लेंगे।

मगर परमात्मा को खोने का अभ्यास न करना, बहुत बड़ा अभ्यास है। उसमें सारा वैराग्य साधना पड़ेगा। और सारी विधियां साधनी पड़ेंगी।

लेकिन झेन फकीर संगत हैं। उनकी बात का अर्थ है। वे यह जोर देना चाहते हैं कि जब परमात्मा आपको मिल जाए, तो आप ऐसा मत समझना कि आपके अभ्यास से मिल गया। कोई नहीं समझता ऐसा। जब परमात्मा मिलता है, तो ऐसा ही पता चलता है कि वह तो मिला ही हुआ था। मेरे गलत अभ्यासों के कारण बाधा पड़ती थी। ऐसा समझ लें कि एक झरना है, उसके ऊपर एक पत्थर रखा है। पत्थर को हटा दें, तो झरना फूट पड़ता है। झरने को फूटने के लिए कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता। लेकिन पत्थर अगर अटा रहे ऊपर, तो बाधा बनी रहती है।

तो झेन फकीर कहते हैं, आदमी की आदतें बाधाओं का काम कर रही हैं, रुकावटों का।

ऐसा समझें कि आप मकान के भीतर बैठे हैं, दरवाजा बंद करके। अगर मैं आपसे कहूं कि अगर आपको सूरज चाहिए, तो सूरज को भीतर लाने का अभ्यास करना पड़ेगा! तो आप कहेंगे, यह कहीं हो सकता है? सूरज को हम भीतर लाने का अभ्यास कैसे करेंगे?

झेन फकीर कहते हैं, भीतर लाने का कोई अभ्यास नहीं करने की जरूरत है; सिर्फ दरवाजा बंद करने का जो अभ्यास किया हुआ है, उसको छोड़िए। दरवाजा खुला करिए, सूरज भीतर आ जाएगा। सूरज भीतर लाना नहीं पड़ेगा, सूरज आ जाएगा। आप सिर्फ दरवाजा बंद मत करिए।

इसका यह मतलब हुआ कि हम चाहें तो अभ्यास से परमात्मा से वंचित हो सकते हैं। और चाहें तो अनभ्यास से, नो एफर्ट से, अभ्यास छोड़ देकर परमात्मा को पा सकते हैं। लेकिन अभ्यास को छोड़ना अभ्यास करने से कम कठिन बात नहीं है। इसलिए झेन फकीर अभ्यास की विधियां उपयोग करते हैं।

लेकिन कृष्णमूर्ति ने एक कदम और हटकर बात कही है। वे कहते हैं, अभ्यास छोड़ने के भी अभ्यास की जरूरत नहीं है। अगर गीता के इस वक्तव्य के खिलाफ इस सदी में कोई वक्तव्य है, तो वह कृष्णमूर्ति का है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, इतने भी अभ्यास की जरूरत नहीं है–अभ्यास छोड़ने के लिए भी। कोई मेथड, किसी विधि की जरूरत नहीं है।

लेकिन जो कृष्णमूर्ति को थोड़ा भी समझेंगे, वे पाएंगे, वे जिंदगीभर से एक विधि की बात कर रहे हैं। उस विधि का नाम है, अवेयरनेस। उस विधि का नाम है, जागरूकता। वह मेथड है। सिर्फ इतना ही है कि वे उसको मेथड नहीं कहते हैं। कोई हर्जा नहीं, उसको नो-मेथड कहिए। कहिए कि यह अविधि है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर जागरूकता का अभ्यास करना ही पड़ेगा। जागना पड़ेगा ही। और अगर जागरूकता का कोई अभ्यास नहीं करना है, तो कहना ही फिजूल है किसी से कि जागो।

अगर मैं आपसे कहता हूं, जागो, तो इसका मतलब यह हुआ कि मैं आपसे कह रहा हूं कि कुछ करो। वह करना कितना ही सूक्ष्म हो, लेकिन करना ही पड़ेगा। अगर मैं यह भी कहता हूं, नींद तोड़ो, तो क्या फर्क पड़ता है। गीता कहती है, राग तोड़ो। कोई कहता है, नींद तोड़ो। कोई कहता है, मूर्च्छा तोड़ो। कोई कहता है, होश लाओ। कोई कहता है, जागो। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बात तय है कि कुछ करना पड़ेगा, समथिंग इज़ टु बी डन। या यह भी अगर हम कहना चाहें, तो हम कह सकते हैं, समथिंग इज़ टु बी अनडन। लेकिन वह भी एक काम है। अगर हम यह कहें कि कुछ करना ही पड़ेगा, या अगर हम यह कहें कि कुछ नहीं ही करना पड़ेगा, तो भी कुछ करने की जरूरत है। जैसे हम हैं, वैसे ही हम स्वीकृत नहीं हो सकते।

अभ्यास का इतना ही अर्थ है कि आदमी जैसा है, ठीक वैसा परमात्मा में प्रवेश नहीं कर सकता; उसे रूपांतरित होकर ही प्रवेश होना पड़ेगा। वह रूपांतरण कैसे करता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। हजार विधियां हो सकती हैं। हजार विधियां हो सकती हैं। हजार विधियां हैं।

जैसे पर्वत पर चढ़ने के लिए हजार मार्ग हो सकते हैं। और जरूरी नहीं कि आप बने-बनाए मार्ग से ही चढ़ें। आप चाहें, थोड़ी तकलीफ ज्यादा लेनी हो, तो बिना मार्ग के चढ़ें। जहां पगडंडी नहीं है, वहां से चढ़ें। पगडंडी बचाकर चढ़ें। आपकी मर्जी। लेकिन पगडंडी बचाकर भी आप जब चढ़ रहे हैं, तब फिर एक पगडंडी का ही उपयोग कर रहे हैं; सिर्फ आप पहले आदमी हैं उसका उपयोग करने वाले; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कहीं से भी चढ़ें, पहाड़ पर हजार तरफ से चढ़ा जा सकता है, लेकिन चढ़कर एक ही पर्वत पर पहुंच जाना हो जाता है।

हजार विधियां हैं, अनंत विधियां हैं। दुनिया के सब धर्मों ने अलग-अलग विधियों का उपयोग किया है। और इन विधियों के कारण बहुत वैमनस्य पैदा हुआ है–बहुत वैमनस्य पैदा हुआ है। क्योंकि प्रत्येक विधि की एक शर्त है; वह मैं आपसे कहूं, तो बहुत उपयोगी होगी।

प्रत्येक विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस विधि का उपयोग करना हो, उसे उस विधि को एब्सोल्यूट मानना चाहिए। प्रत्येक विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस विधि पर जाना हो, उसे इस भाव से जाना चाहिए कि यही विधि सत्य है।

क्यों? क्योंकि हम इतने कमजोर लोग हैं कि अगर हमें जरा भी पता चल जाए कि बगल का रास्ता भी जाता है, उससे बगल का भी रास्ता जाता है, तो बहुत संभावना यह है कि दो कदम हम इस रास्ते पर चलें, दो कदम बगल के रास्ते पर चलें, दो कदम तीसरे रास्ते पर चलें। और जिंदगीभर रास्ते बदलते रहें, और मंजिल पर कभी न पहुंचें!

इसलिए दुनिया के प्रत्येक धर्म को डाग्मेटिक असर्सन्स करने पड़े। कुरान को कहना पड़ा, यही सही है; और मोहम्मद के सिवाय उस परमात्मा का रसूल कोई और नहीं है। एक ही परमात्मा और एक ही उसका पैगंबर है। इसका कारण यह नहीं है कि मोहम्मद डाग्मेटिक हैं। इसका यह कारण नहीं है कि मोहम्मद पागल हैं और कहते हैं कि मेरा ही मत ठीक है।

लेकिन असलियत यह है कि यह मोहम्मद उन लोगों के लिए कहते हैं, जो सुन रहे हैं। क्योंकि उनको अगर यह कहा जाए, सब मत ठीक हैं, मुझसे विपरीत कहने वाले भी ठीक हैं, उलटा जाने वाले भी ठीक हैं; इस तरफ जाने वाले, उस तरफ जाने वाले भी ठीक हैं; तो वह जो कनफ्यूज्ड आदमी है, जो भ्रमित आदमी है, जो वैसे ही भ्रमित खड़ा है, वह कहेगा, जब सभी ठीक हैं, तो शक होता है कि कोई भी ठीक नहीं है। बहुत संभावना यह है कि जब हम कहें, सभी ठीक हैं, तो आदमी को शक हो।

महावीर के साथ ऐसा ही हुआ! इसलिए दुनिया में महावीर के मानने वालों की संख्या बढ़ नहीं सकी; और कभी नहीं बढ़ सकेगी। उसका कारण है। उसके कारण महावीर हैं। आज भी महावीर के मानने वालों की संख्या–मानने वालों की, सच में जानने वालों की नहीं; मानने वालों की संख्या–पैदाइशी मानने वालों की संख्या; अब पैदाइश से मानने का कोई भी संबंध नहीं है, लेकिन पैदाइशी मानने वालों की संख्या तीस लाख से ज्यादा नहीं है। महावीर को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए हैं। अगर महावीर तीस दंपतियों को कनवर्ट कर लेते, तो तीस लाख आदमी पैदा हो जाते पच्चीस सौ साल में।

महावीर की बात कीमती है बहुत, लेकिन फैल नहीं सकी, क्योंकि महावीर ने नान-डाग्मेटिक असर्सन किया। महावीर ने कहा, यह भी ठीक, वह भी ठीक; उसके विपरीत जो है, वह भी ठीक। महावीर ने सप्तभंगी का उपयोग किया। अगर महावीर से आप एक वाक्य का उत्तर पूछें, तो वे सात वाक्यों में जवाब देते।

आप पूछें, यह घड़ा है? तो महावीर कहते हैं, हां, यह घड़ा है। कहते हैं, रुको, दूसरी भी बात सुन लो। यह घड़ा नहीं भी है; क्योंकि मिट्टी है। रुको, चले मत जाना, तीसरी बात भी सुन लो। यह घड़ा भी है, घड़ा नहीं भी है। आप भागने लगे, तो महावीर कहेंगे कि जरा रुको, चौथी बात और सुन लो। यह घड़ा है भी, यह घड़ा नहीं भी है, और यह घड़ा ऐसा है कि वक्तव्य में कहा नहीं जा सकता, रहस्य है। आप कहने लगे कि बस, अब मैं जाऊं! तो वे कहेंगे, एक वक्तव्य और सुन लो, यह घड़ा है; अवक्तव्य है। नहीं है; अवक्तव्य है। है भी, नहीं भी है; अवक्तव्य है।

अब आप घड़ा को थोड़ा-बहुत समझते भी रहे होंगे, वह भी गया! अब आप घड़े में पानी भी मुश्किल से भर पाएंगे। क्योंकि सोचेंगे, घड़ा है भी, घड़ा नहीं भी है। पानी भरना कि नहीं भरना! पानी बचेगा कि निकल जाएगा! आप दिक्कत में पड़ेंगे।

यद्यपि महावीर ने सत्य को जितनी पूर्णता से कहा जा सकता है, कहने की कोशिश की है। इतनी पूर्णता से कहने की कोशिश किसी की भी नहीं है, जितनी महावीर की है। लेकिन इतनी पूर्णता से कहकर वह किसी के काम का नहीं रह जाता। किसी के काम नहीं रह जाता। अगर वे चुप रह जाते, तो भी बेहतर था; शायद आप कुछ समझ जाते। उनकी इतनी बातों से, जो समझते थे, वह भी गड़बड़ हो गया। इसलिए महावीर को अनुगमन नहीं मिल सका।

कोई भी विधि, अगर चाहते हैं कि आपके काम पड़ जाए, तो उसे कहना पड़ेगा कि यही विधि ठीक है; कोई और विधि ठीक नहीं है। जानते हुए कि और विधियां भी ठीक हैं। इसलिए दुनिया का प्रत्येक धर्म अपनी विधि को आग्रहपूर्वक कहता है कि यह ठीक है। वह आग्रह आपके ऊपर करुणा है। आपके ऊपर करुणा है, इसलिए।

वह करीब-करीब हालत वैसी है कि डाक्टर आपके पास आए। आप उसका प्रिस्क्रिप्शन लेकर कहें कि डाक्टर साहब, यही दवा ठीक है कि और दवाएं भी ठीक हैं? वह कहे कि और भी दवाएं ठीक हैं। हकीम के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। एलोपैथ के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। आयुर्वेद के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। किसी के पास न जाओ, साईं बाबा के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। कहीं भी जाओ, ठीक हो जाओगे। तो आप उस डाक्टर से कहेंगे, फीस के बाबत क्या खयाल है! आपको दूं कि न दूं? नहीं, आपको देने का कोई कारण नहीं है।

और ध्यान रखना, वह डाक्टर कितनी ही महत्वपूर्ण दवा दे जाए, वह कचरे की टोकरी में गिर जाएगी; आपके पेट में जाने वाली नहीं है। क्योंकि यह डाक्टर भरोसे का नहीं रहा। यह डाक्टर आपके भीतर वह जो एक कनविक्शन, वह जो एक आस्था, एक निष्ठा जन्माता, इसने नहीं जन्मायी। हालांकि बेचारा ठीक कह रहा था। लेकिन निष्ठा आपके भीतर नहीं आई। यह डाक्टर की दवा कितनी ही ठीक हो, यह डाक्टर थोड़ा-सा गलत साबित हुआ। यह डाक्टर डाक्टर जैसा लगा ही नहीं। यह भरोसा पैदा नहीं करवा पाया। तब फिर दवा काम नहीं करेगी। दवा को लिया भी न जा सकेगा। उपयोग भी संदिग्ध होगा। संदिग्ध उपयोग खतरों में ले जाएगा।

इसलिए प्रत्येक धर्म अपनी विधि के बाबत आग्रहपूर्ण है। वह कहता है, यही विधि ठीक है। और जो इस आग्रहपूर्ण विधि का उपयोग करेगा, वह एक दिन जरूर उस जगह पहुंच जाता है, जहां वह जानता है, और विधियों के लोग भी पहुंच गए। लेकिन यह अंतिम अनुभव है; यह अंतिम अनुभव है।

तो मैं पसंद नहीं करता कि कोई पढ़े, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम। यह बहुत कनफ्यूजिंग है। कोई ऐसा बैठकर याद करे, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, तो गलत है। अल्लाह का अपना उपयोग है, राम का अपना उपयोग है। राम का करना हो, तो राम का करना। अल्लाह का करना हो, तो अल्लाह का करना। क्योंकि दोनों के स्वर विज्ञान हैं, और दोनों की अपनी गहरी चोट है। राम की चोट अलग है, अल्लाह की चोट अलग है।

जो आदमी कह रहा है, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, वह पालिटिक्स में कह रहा हो, तो ठीक है। धर्म की दुनिया में बात न करे, क्योंकि राम का पूरा का पूरा वैज्ञानिक रूप भिन्न है; राम की चोट भिन्न है। अलग केंद्र पर, अलग चक्रों पर उसकी चोट है। और अगर इन दोनों का एक साथ उपयोग किया, तो खतरा है कि आप पागल हो जाएं। लेकिन वे जो लोग उपयोग करते हैं, वे ऊपर-ऊपर उपयोग करते हैं। पागल भी नहीं होते, चर्खा चलाते रहते हैं, अल्लाह-ईश्वर तेरा नाम कहते रहते हैं!

अगर भीतर उपयोग करें, तो पागल हो जाएंगे। दोनों शब्दों का एक साथ उपयोग नहीं किया जा सकता। यह ठीक वैसा ही, जैसे आयुर्वेद की दवा ले लें, ठीक है। एलोपैथी की ले लें, ठीक है। लेकिन कृपा करके दोनों का मिक्सचर न बनाएं। यह मिक्सचर है। और ये नासमझों के द्वारा प्रचलित बातें हैं। जिनको धर्म की साइंस का कोई भी बोध नहीं है। तो कुरान भी ठीक, गीता भी ठीक! दोनों में से खिचड़ी इकट्ठी तैयार करो। वह किसी के काम की नहीं है। वह जहर है।

गीता अपने में पूरी ठीक है, कुरान अपने में पूरा ठीक है। गीता के ठीक होने से कुरान गलत नहीं होता। कुरान के ठीक होने से गीता गलत नहीं होती। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी सत्य को भी आत्मसात कर लेता है। सत्य इतना महान है कि अपने से विपरीत को भी पी जाता है। और सत्य के इतने द्वार हैं। लेकिन कृपा करके ऐसा मत कहो कि दोनों द्वार एक हैं। नहीं तो वह आदमी दिक्कत में पड़ेगा। न इससे निकल पाएगा, न उससे निकल पाएगा। द्वार से तो एक से ही निकलना पड़ेगा।

अगर मैं किसी मंदिर में प्रवेश करता हूं, उसके हजार द्वार हैं, तो भी दो द्वार से प्रवेश नहीं हो सकता। प्रवेश एक ही द्वार से करना पड़ेगा। हां, भीतर जाकर मैं जानूंगा कि सब द्वार भीतर ले आते हैं। लेकिन फिर भी मैं आने वालों से कहूंगा कि तुम किसी एक से ही प्रवेश करना। दो से प्रवेश करने की कोशिश में डर यह है कि दोनों दरवाजों के बीच में जो दीवाल है, उससे सिर टकरा जाए, और कुछ न हो। दो नावों पर यात्रा नहीं होती, दो धर्मों में भी यात्रा नहीं होती, दो विधियों में भी यात्रा नहीं होती।

लेकिन विधि का उपयोग अनिवार्य है। क्यों अनिवार्य है? अनिवार्य इसलिए है कि हमने जो कर रखा है अब तक, उसको काटना जरूरी है। हमने जो कर रखा है अब तक, उसे काटना जरूरी है।

एक छोटी-सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात खयाल में आ जाए, फिर हम सुबह बात करेंगे।

रामकृष्ण बहुत दिन तक साकार उपासना में थे; सगुण साकार की उपासना में लीन थे। काली के भक्त थे। मां की उन्होंने पूजा-अर्चना की थी। और मां की साकार प्रतिमा को भीतर अनुभव कर लिया था। मनुष्य के मन की इतनी सामर्थ्य है कि वह जिस पर भी अपने ध्यान को पूरा लगा दे, उसकी जीवंत प्रतिमा भीतर उत्पन्न हो जाती है। लेकिन फिर भी रामकृष्ण को तृप्ति नहीं थी। क्योंकि मन से कभी तृप्ति नहीं मिल सकती। मन के ऊपर ही संतृप्ति का लोक है। तो बहुत बेचैन थे। अब बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे। जहां तक साकार प्रतिमा ले जा सकती थी, पहुंच गए थे। लेकिन कोई तृप्ति न थी, तो तलाश करते थे कि कोई मिल जाए, जो निराकार में धक्का दे दे।

तो एक संन्यासी गुजरता था। गुजरता था कहना शायद ठीक नहीं है, रामकृष्ण की पुकार के कारण निकला वहां से। इस जगत में जब आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेते हैं, जो आपको किसी विधि के जीवन में प्रवेश करा दे, तो आप यह मत सोचना कि आपने उसे खोजा। आप न खोज पाएंगे। वही आपको खोजता है।

तोतापुरी निकले। तोतापुरी दो दिन से एहसास कर रहे थे कि किसी को मेरी बहुत जरूरत है। दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास से निकलते थे, रुक गए। किसी से पूछा कि मंदिर के भीतर कौन है? तो उन्होंने कहा कि रामकृष्ण मंदिर के भीतर साधना करते हैं। तोतापुरी भीतर गए, देखा कि रामकृष्ण को उनकी जरूरत है; कोई निराकार की यात्रा पर धक्का दे दे।

अदृश्य का जगत इतना ही बड़ा है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह बहुत कम है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह बहुत बड़ा है। न तो हम आकस्मिक किसी से मिलते हैं, न मिल सकते हैं। आकस्मिक हम किसी को सुन भी नहीं सकते। आकस्मिक किसी का शब्द भी हमारे कान में नहीं पड़ सकता। बहुत कार्य-कारणों का जाल है।

तोतापुरी ने जाकर रामकृष्ण को हिलाया। आंख खोली रामकृष्ण ने। रामकृष्ण को लगा, आ गया वह आदमी। उन्होंने नमस्कार किया और कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। दो दिन से चिल्ला रहा हूं कि भेजो किसी को जो मुझे आकार से मुक्त कर दे। आ गए आप! तोतापुरी ने कहा, आ गया मैं। लेकिन कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि तुमने इतनी मेहनत से जो साकार निर्मित किया है, उसे तोड़ना भी पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा, मेरी काली को बचने दो। मेरी प्रतिमा को बचने दो, और मुझे निराकार में जाने दो। तोतापुरी ने कहा, तो मैं लौट जाऊं। यह दोनों बात एक साथ न हो सकेगी। तुम्हें इस प्रतिमा को भीतर से तोड़ना पड़ेगा, जैसे तुमने बनाया। रामकृष्ण ने कहा, मैं तोड़ ही नहीं सकता। और तोडूंगा कैसे! भीतर कोई औजार भी तो नहीं है।

तोतापुरी ने कहा, आंख बंद करो और तोड़ने की कोशिश करो। रामकृष्ण आंख बंद करते। आनंदमग्न हो जाते। नाचने लगते। तोतापुरी रोकते और कहते, मैंने इसलिए आंख बंद करने को नहीं कहा। रामकृष्ण कहते, लेकिन जब प्रतिमा दिखाई पड़ती है, तोड़ने की बात कहां, मैं बचता ही नहीं। आनंदमग्न हो जाता हूं। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस आनंद में तृप्त हो जाओ। तृप्त भी नहीं हो पाता, किसी और महाआनंद की तलाश है। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस प्रतिमा को तोड़ो। रामकृष्ण कहने लगे, कैसे तोडूं? न कोई हथौड़ी, न कोई छेनी, कुछ भी तो नहीं है! तोतापुरी ने जो कहा, वह मैं आपसे कहता हूं।

उसने कहा, बनाई कैसे थी? छेनी थी भीतर? किस छेनी से बनाई थी प्रतिमा? उसी छेनी से तोड़ दो। रामकृष्ण ने कहा कि किस छेनी से बनाई थी! मन के ही भाव से बनाई थी। तो तोतापुरी ने कहा, एक काम करो। आंख बंद करो, और मैं एक कांच का टुकड़ा उठाकर लाता हूं बाहर से, और मैं तुम्हारे माथे पर कांच के टुकड़े से काटूंगा, और जब तुम्हें भीतर मालूम पड़े कि लहूलुहान तुम्हारा माथा हो गया तब हिम्मत करके, तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना प्रतिमा के। रामकृष्ण ने कहा, तलवार!

तोतापुरी ने कहा, जब प्रतिमा तक तुम अपने मन से बना सके, तो तलवार न बना सकोगे? बना लेना। रामकृष्ण बड़े रोते हुए, क्षमा मांगते हुए कि बड़ी मुश्किल की बात है, भीतर गए। फिर तोतापुरी ने माथे पर कांच से काट दिया। काटते वक्त उन्होंने हिम्मत की, तलवार उठाई, प्रतिमा दो टुकड़े होकर गिर गई। रामकृष्ण छः दिन के लिए गहन समाधि में खो गए। छः दिन के बाद जब वापस लौटे, तो उन्होंने कहा, अंतिम बाधा गिर गई–दि लास्ट बैरियर हैज फालेन अवे। आखिरी! वह प्रतिमा भी आखिरी बाधा बन गई थी।

जो हम निर्मित करते हैं, उसे मिटाना भी पड़ता है फिर। हमने राग की प्रतिमाएं निर्मित की हैं, तो हमें विराग की तलवारें उठानी पड़ेंगी। नहीं तो कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं। अगर राग निर्माण न किया हो, तो विराग की तलवार उठाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिसने राग निर्माण नहीं किया है, वह कृष्णमूर्ति को सुनने कहां जाता है! पूछने कहां जाता है! वह जाता नहीं। और जिसने राग निर्माण किया है, वह सुनने-पूछने जाता है। वह उससे कह रहे हैं कि कुछ न करना। कुछ करने की जरूरत नहीं है। अभ्यास व्यर्थ है।

तो वह जो रागी है, अपने अभ्यास को तो जारी रखता है राग के। बड़ा मजा यह है हमारे मन का। अगर वह यह भी मान ले कि अभ्यास व्यर्थ है, तो राग का अभ्यास भी बंद कर दे। वह तो बंद नहीं करता। उसको जारी रखता है। सिर्फ वैराग्य का अभ्यास बंद कर देता है। बंद कर देता है, कहना ठीक नहीं; शुरू नहीं करता। बंद कहां! उसने शुरू ही नहीं किया है।

लेकिन कृष्ण साधक की दृष्टि से बोल रहे हैं। वे कह रहे हैं, अभ्यास से तोड़ना पड़ेगा। राग, अभ्यास से तोड़ना पड़ेगा! अभ्यास की विधियों के संबंध में आगे वे बात करेंगे, तो धीरे-धीरे हम उनको उघाड़ेंगे और समझने की कोशिश करेंगे। समझ पूरी तो तभी आएगी, जब कोई एकाध विधि पकड़कर आप प्रयोग में लग जाएंगे। प्रयोग के अतिरिक्त और कोई समझ नहीं है।

अब हम एक विधि का उपयोग यहां भी करते हैं, अभी उसको थोड़ा गौर से देखें। यह भी एक विधि है। अगर कीर्तन में इतने लीन हो जाएं कि आपको पता ही न रहे कि कौन नाच रहा है, कि कौन देख रहा है, कि ये हाथ किसके हिल रहे हैं–मेरे या किसी और के! यह वाणी किसकी निकल रही है–मेरी या किसी और की! अगर इतनी तल्लीनता आ जाए, तो आप वैराग्य की एक स्थिति को अभी अनुभव कर सकेंगे–यहीं।

तो हमारे संन्यासी जाएंगे संकीर्तन में। उठकर कोई न जाए। और जिनको उठकर जाना होता हो, उन्हें आना ही नहीं चाहिए यहां। उन्हें आने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं जो मेहनत कर रहा हूं, वह इसलिए कि आपको कोई विधि खयाल में आ जाए। आप उन नासमझों में से हैं कि सारी बात सुनकर जब विधि की बात उठती है, तब भागने की कोशिश करते हैं! बैठ जाएं अपनी जगह पर। कोई वहां से उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन चलेगा, फिर आप जाएंगे।

और कीर्तन सिर्फ सुनें न, सम्मिलित हों। इतने लोग हैं, अगर कीर्तन जोर से हो, तो यह पूरा वायुमंडल पवित्र होगा और दूर-दूर तक उसकी किरणें पहुंच जाएंगी।

ताली बजाएं। गीत दोहराएं। अपनी जगह पर डोलें भी।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--3 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–पहला

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ध्‍यान—सूत्र

(ओशो द्वारा दिये गये नौ अमृत प्रवचनों एवं ध्‍यान निर्देशों का अप्रतिम संकलन।)

 कोई परमात्मा या कोई सत्य हमारे बाहर हमें उपलब्ध नहीं होगा, उसके बीज हमारे भीतर हैं और वे विकसित होंगे। लेकिन वे तभी विकसित होंगे जब प्यास की आग और प्यास की तपिश और प्यास की गर्मी हम पैदा कर सकें। मैं जितनी श्रेष्ठ की आकांक्षा करता हूं, उतना ही मेरे मन के भीतर छिपे हुए वे बीज, जो विराट और श्रेष्ठ बन सकते हैं, वे कंपित होने लगते हैं और उनमें अंकुर आने की संभावना पैदा हो जाती है।

जब आपके भीतर कभी यह खयाल भी पैदा हो कि परमात्मा को पाना है, जब कभी यह खयाल भी पैदा हो कि शांति को और सत्य को उपलब्ध करना है, तो इस बात को स्मरण रखना कि आपके भीतर कोई बीज अंकुर होने को उत्सुक हो गया है। इस बात को स्मरण रखना कि आपके भीतर कोई दबी हुई आकांक्षा जाग रही है। इस बात को स्मरण रखना कि कुछ महत्वपूर्ण आंदोलन आपके भीतर हो रहा है।

ओशो

प्यास और संकल्प—(प्रवचन—पहला)

 

मेरे प्रिय आत्मन्,

 

बसे पहले तो आपका स्वागत करूं–इसलिए कि परमात्मा में आपकी उत्सुकता है–इसलिए कि सामान्य जीवन के ऊपर एक साधक के जीवन में प्रवेश करने की आकांक्षा है–इसलिए कि संसार के अतिरिक्त सत्य को पाने की प्यास है।

सौभाग्य है उन लोगों का, जो सत्य के लिए प्यासे हो सकें। बहुत लोग पैदा होते हैं, बहुत कम लोग सत्य के लिए प्यासे हो पाते हैं। सत्य का मिलना तो बहुत बड़ा सौभाग्य है। सत्य की प्यास होना भी उतना ही बड़ा सौभाग्य है। सत्य न भी मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही पैदा न हो, तो बहुत बड़ा हर्ज है।

सत्य यदि न मिले, तो मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है। हमने चाहा था और हमने प्रयास किया था, हम श्रम किए थे और हमने आकांक्षा की थी, हमने संकल्प बांधा था और हमने जो हमसे बन सकता था, वह किया था। और यदि सत्य न मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही हममें पैदा न हो, तो जीवन बहुत दुर्भाग्य से भर जाता है।

और मैं आपको यह भी कहूं कि सत्य को पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना सत्य के लिए ठीक अर्थों में प्यासे हो जाना है। वह भी एक आनंद है। जो क्षुद्र के लिए प्यासा होता है, वह क्षुद्र को पाकर भी आनंद उपलब्ध नहीं करता। और जो विराट के लिए प्यासा होता है, वह उसे न भी पा सके, तो भी आनंद से भर जाता है।

इसे पुनः दोहराऊं–जो क्षुद्र के लिए आकांक्षा करे, वह अगर क्षुद्र को पा भी ले, तो भी उसे कोई शांति और आनंद उपलब्ध नहीं होता है। और जो विराट की अभीप्सा से भर जाए, वह अगर विराट को उपलब्ध न भी हो सके, तो भी उसका जीवन आनंद से भर जाता है। जिन अर्थों में हम श्रेष्ठ की कामना करने लगते हैं, उन्हीं अर्थों में हमारे भीतर कोई श्रेष्ठ पैदा होने लगता है।

कोई परमात्मा या कोई सत्य हमारे बाहर हमें उपलब्ध नहीं होगा, उसके बीज हमारे भीतर हैं और वे विकसित होंगे। लेकिन वे तभी विकसित होंगे जब प्यास की आग और प्यास की तपिश और प्यास की गर्मी हम पैदा कर सकें। मैं जितनी श्रेष्ठ की आकांक्षा करता हूं, उतना ही मेरे मन के भीतर छिपे हुए वे बीज, जो विराट और श्रेष्ठ बन सकते हैं, वे कंपित होने लगते हैं और उनमें अंकुर आने की संभावना पैदा हो जाती है।

जब आपके भीतर कभी यह खयाल भी पैदा हो कि परमात्मा को पाना है, जब कभी यह खयाल भी पैदा हो कि शांति को और सत्य को उपलब्ध करना है, तो इस बात को स्मरण रखना कि आपके भीतर कोई बीज अंकुर होने को उत्सुक हो गया है। इस बात को स्मरण रखना कि आपके भीतर कोई दबी हुई आकांक्षा जाग रही है। इस बात को स्मरण रखना कि कुछ महत्वपूर्ण आंदोलन आपके भीतर हो रहा है।

उस आंदोलन को हमें सम्हालना होगा। उस आंदोलन को सहारा देना होगा। क्योंकि बीज अकेला अंकुर बन जाए, इतना ही काफी नहीं है। और भी बहुत-सी सुरक्षाएं जरूरी हैं। और बीज अंकुर बन जाए, इसके लिए बीज की क्षमता काफी नहीं है, और बहुत-सी सुविधाएं भी जरूरी हैं।

जमीन पर बहुत बीज पैदा होते हैं, लेकिन बहुत कम बीज वृक्ष बन पाते हैं। उनमें क्षमता थी, वे विकसित हो सकते थे। और एक-एक बीज में फिर करोड़ों-करोड़ों बीज लग सकते थे। एक छोटे-से बीज में इतनी शक्ति है कि एक पूरा जंगल उससे पैदा हो जाए। एक छोटे-से बीज में इतनी शक्ति है कि सारी जमीन पर पौधे उससे पैदा हो जाएं। लेकिन यह भी हो सकता है कि इतनी विराट क्षमता, इतनी विराट शक्ति का वह बीज नष्ट हो जाए और उसमें कुछ भी पैदा न हो।

एक बीज की यह क्षमता है, एक मनुष्य की तो क्षमता और भी बहुत ज्यादा है। एक बीज से इतना बड़ा, विराट विकास हो सकता है, एक पत्थर के छोटे-से टुकड़े से अगर अणु को विस्फोट कर लिया जाए, तो महान ऊर्जा का जन्म होता है, बहुत शक्ति का जन्म होता है। मनुष्य की आत्मा और मनुष्य की चेतना का जो अणु है, अगर वह विकसित हो सके, अगर उसका विस्फोट हो सके, अगर उसका विकास हो सके, तो जिस शक्ति और ऊर्जा का जन्म होता है, उसी का नाम परमात्मा है। परमात्मा को हम कहीं पाते नहीं हैं, बल्कि अपने ही विस्फोट से, अपने ही विकास से जिस ऊर्जा को हम जन्म देते हैं, जिस शक्ति को, उस शक्ति का अनुभव परमात्मा है। उसकी प्यास आपमें है, इसलिए मैं स्वागत करता हूं।

लेकिन इससे कोई यह न समझे कि आप यहां इकट्ठे हो गए हैं, तो जरूरी हो कि आप प्यासे ही हों। आप यहां इकट्ठे हो सकते हैं मात्र एक दर्शक की भांति भी। आप यहां इकट्ठे हो सकते हैं एक मात्र सामान्य जिज्ञासा की भांति भी। आप यहां इकट्ठे हो सकते हैं एक कुतूहल के कारण भी। लेकिन कुतूहल से कोई द्वार नहीं खुलते हैं। और जो ऐसे ही दर्शक की भांति खड़ा हो, उसे कोई रहस्य उपलब्ध नहीं होते हैं। इस जगत में जो भी पाया जाता है, उसके लिए बहुत कुछ चुकाना पड़ता है। इस जगत में जो भी पाया जाता है, उसके लिए बहुत कुछ चुकाना पड़ता है। कुतूहल कुछ भी नहीं चुकाता। इसलिए कुतूहल कुछ भी नहीं पा सकता है। कुतूहल से कोई साधना में प्रवेश नहीं करता। अकेली जिज्ञासा नहीं, मुमुक्षा! एक गहरी प्यास!

कल संध्या मैं किसी से कह रहा था कि अगर एक मरुस्थल में आप हों और पानी आपको न मिले, और प्यास बढ़ती चली जाए, और वह घड़ी आ जाए कि आप अब मरने को हैं और अगर पानी नहीं मिलेगा, तो आप जी नहीं सकेंगे। अगर कोई उस वक्त आपको कहे कि हम यह पानी देते हैं, लेकिन पानी देकर हम जान ले लेंगे आपकी, यानि जान के मूल्य पर हम पानी देते हैं, आप उसको भी लेने को राजी हो जाएंगे। क्योंकि मरना तो है; प्यासे मरने की बजाय, तृप्त होकर मर जाना बेहतर है।

उतनी जिज्ञासा, उतनी आकांक्षा, जब आपके भीतर पैदा होती है, तो उस जिज्ञासा और आकांक्षा के दबाव में आपके भीतर का बीज टूटता है और उसमें से अंकुर निकलता है। बीज ऐसे ही नहीं टूट जाते हैं, उनको दबाव चाहिए। उनको बहुत दबाव चाहिए, बहुत उत्ताप चाहिए, तब उनकी सख्त खोल टूटती है और उसके भीतर से कोमल पौधे का जन्म होता है। हम सबके भीतर भी बहुत सख्त खोल है। और जो भी उस खोल के बाहर आना चाहते हैं, अकेले कुतूहल से नहीं आ सकेंगे। इसलिए स्मरण रखें, जो मात्र कुतूहल से इकट्ठे हुए हैं, वे मात्र कुतूहल को लेकर वापस लौट जाएंगे। उनके लिए कुछ भी नहीं हो सकेगा। जो दर्शक की भांति इकट्ठे हुए हैं, वे दर्शक की भांति ही वापस लौट जाएंगे, उनके लिए कुछ भी नहीं हो सकेगा।

इसलिए प्रत्येक अपने भीतर पहले तो यह खयाल कर ले, उसमें प्यास है? प्रत्येक अपने भीतर यह विचार कर ले, वह प्यासा है? इसे बहुत स्पष्ट रूप से अनुभव कर ले, वह सच में परमात्मा में उत्सुक है? उसकी कोई उत्सुकता है सत्य को, शांति को, आनंद को उपलब्ध करने के लिए?

अगर नहीं है, तो वह समझे कि वह जो भी करेगा, उस करने में कोई प्राण नहीं हो सकते; वह निष्प्राण होगा। और तब फिर उस निष्प्राण चेष्टा का अगर कोई फल न हो, तो साधना जिम्मेवार नहीं होगी, आप स्वयं जिम्मेवार होंगे।

इसलिए पहली बात अपने भीतर अपनी प्यास को खोजना और उसे स्पष्ट कर लेना है। आप सच में कुछ पाना चाहते हैं? अगर पाना चाहते हैं, तो पाने का रास्ता है।

एक बार ऐसा हुआ, गौतम बुद्ध एक गांव में ठहरे थे। एक व्यक्ति ने उनको आकर कहा कि ‘आप रोज कहते हैं कि हर एक व्यक्ति मोक्ष पा सकता है। लेकिन हर एक व्यक्ति मोक्ष पा क्यों नहीं लेता है?’ बुद्ध ने कहा, ‘मेरे मित्र, एक काम करो। संध्या को गांव में जाना और सारे लोगों से पूछकर आना, वे क्या पाना चाहते हैं। एक फेहरिस्त बनाओ। हर एक का नाम लिखो और उसके सामने लिख लाना, उनकी आकांक्षा क्या है।’

वह आदमी गांव में गया। उसने जाकर पूछा। उसने एक-एक आदमी को पूछा। थोड़े-से लोग थे उस गांव में, उन सबने उत्तर दिए। वह सांझ को वापस लौटा। उसने बुद्ध को आकर वह फेहरिस्त दी। बुद्ध ने कहा, ‘इसमें कितने लोग मोक्ष के आकांक्षी हैं?’ वह बहुत हैरान हुआ। उसमें एक भी आदमी ने अपनी आकांक्षा में मोक्ष नहीं लिखाया था। बुद्ध ने कहा, ‘हर एक आदमी पा सकता है, यह मैं कहता हूं। लेकिन हर एक आदमी पाना चाहता है, यह मैं नहीं कहता।’

हर एक आदमी पा सकता है, यह बहुत अलग बात है। और हर एक आदमी पाना चाहता है, यह बहुत अलग बात है। अगर आप पाना चाहते हैं, तो यह आश्वासन मानें। अगर आप सच में पाना चाहते हैं, तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको रोकने में समर्थ नहीं है। और अगर आप नहीं पाना चाहते, तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको देने में भी समर्थ नहीं है।

तो सबसे पहली बात, सबसे पहला सूत्र, जो स्मरण रखना है, वह यह कि आपके भीतर एक वास्तविक प्यास है? अगर है, तो आश्वासन मानें कि रास्ता मिल जाएगा। और अगर नहीं है, तो कोई रास्ता नहीं है। आपकी प्यास आपके लिए रास्ता बनेगी।

दूसरी बात, जो मैं प्रारंभिक रूप से यहां कहना चाहूं, वह यह है कि बहुत बार हम प्यासे भी होते हैं किन्हीं बातों के लिए, लेकिन हम आशा से भरे हुए नहीं होते हैं। हम प्यासे होते हैं, लेकिन आशा नहीं होती। हम प्यासे होते हैं, लेकिन निराश होते हैं। और जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा, उसका अंतिम कदम निराशा में समाप्त होगा। इसे भी स्मरण रखें, जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा, उसका अंतिम कदम भी निराशा में समाप्त होगा। अंतिम कदम अगर सफलता और सार्थकता में जाना है, तो पहला कदम बहुत आशा में उठना चाहिए।

तो इन तीन दिनों के लिए आपसे कहूंगा–यूं तो पूरे जीवन के लिए कहूंगा–एक बहुत आशा से भरा हुआ दृष्टिकोण। क्या आपको पता है, बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है आपके चित्त का कि क्या आप आशा से भरकर किसी काम को कर रहे हैं या निराशा से? अगर आप पहले से निराश हैं, तो आप अपने ही हाथ से उस डगाल को काट रहे हैं, जिस पर आप बैठे हुए हैं।

तो मैं आपको यह कहूं, साधना के संबंध में बहुत आशा से भरा हुआ होना बड़ा महत्वपूर्ण है। आशा से भरे हुए होने का मतलब यह है कि अगर इस जमीन पर किसी भी मनुष्य ने सत्य को कभी पाया है, अगर इस जमीन पर मनुष्य के इतिहास में कभी भी कोई मनुष्य आनंद को और चरम शांति को उपलब्ध हुआ है, तो कोई भी कारण नहीं है कि मैं उपलब्ध क्यों नहीं हो सकूंगा।

उन लाखों लोगों की तरफ मत देखें, जिनका जीवन अंधकार से भरा हुआ है और जिन्हें कोई आशा और कोई किरण और कोई प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। उन थोड़े-से लोगों को इतिहास में देखें, जिन्हें सत्य उपलब्ध हुआ है। उन बीजों को मत देखें, जो वृक्ष नहीं बन पाए और सड़ गए और नष्ट हो गए। उन थोड़े-से बीजों को देखें, जिन्होंने विकास को उपलब्ध किया और जो परमात्मा तक पहुंचे। और स्मरण रखें कि उन बीजों को जो संभव हो सका, वह प्रत्येक बीज को संभव है। एक मनुष्य को जो संभव हुआ है, वह प्रत्येक दूसरे मनुष्य को संभव है।

मैं आपको यह कहना चाहता हूं कि बीज रूप से आपकी शक्ति उतनी ही है जितनी बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की या क्राइस्ट की है। परमात्मा के जगत में इस अर्थों में कोई अन्याय नहीं है कि वहां कम और ज्यादा संभावनाएं दी गई हों। संभावनाएं सबकी बराबर हैं, लेकिन वास्तविकताएं सबकी बराबर नहीं हैं। क्योंकि हममें से बहुत लोग अपनी संभावनाओं को वास्तविकता में परिणत करने का प्रयास ही कभी नहीं करते।

तो एक आधारभूत खयाल, आशा से भरा हुआ होना है। यह विश्वास रखें कि अगर कभी भी किसी को शांति उपलब्ध हुई है, आनंद उपलब्ध हुआ है, तो मुझे भी उपलब्ध हो सकेगा। अपना अपमान न करें निराश होकर। निराशा स्वयं का सबसे बड़ा अपमान है। उसका अर्थ है कि मैं इस योग्य नहीं हूं कि मैं भी पा सकूंगा। मैं आपको कहूं, इस योग्य आप हैं, निश्चित पा सकेंगे।

देखें! निराशा में भी जीवनभर चलकर देखा है। आशा में इन तीन दिन चलकर देखें। इतनी आशा से भरकर चलें कि होगी घटना, जरूर घटना घटेगी। क्यूं! यह हो सकता है आप आशा से भरे हों, लेकिन बाहर की दुनिया में हो सकता है कोई काम आप आशा से भरे हों, तो भी न कर पाएं। लेकिन भीतर की दुनिया में आशा बहुत बड़ा रास्ता है। जब आप आशा से भरते हैं, तो आपका कण-कण आशा से भर जाता है, आपका रोआं-रोआं आशा से भर जाता है, आपकी श्वास-श्वास आशा से भर जाती है। आपके विचारों पर आशा का प्रकाश भर जाता है और आपके प्राण के स्पंदन में, आपके हृदय की धड़कन में आशा व्याप्त हो जाती है।

आपका पूरा व्यक्तित्व जब आशा से भर जाता है, तो भूमिका बनती है कि आप कुछ कर सकेंगे। और निराशा का भी व्यक्तित्व होता है–कण-कण रो रहा है, उदास है, थका है, डूबा हुआ है, कोई प्राण नहीं हैं। सब–जैसे कि आदमी जिंदा नाममात्र को हो और मरा हुआ है। ऐसा आदमी किसी प्रयास पर निकलेगा, किसी अभियान पर, तो क्या पा सकेगा? और आत्मिक जीवन का अभियान सबसे बड़ा अभियान है। इससे बड़ी कोई चोटी नहीं है, जिसको कोई मनुष्य कभी चढ़ा हो। इससे बड़ी कोई गहराई नहीं है समुद्रों की, जिसमें मनुष्य ने कभी डुबकी लगाई हो। स्वयं की गहराई सबसे बड़ी गहराई है और स्वयं की ऊंचाई सबसे बड़ी ऊंचाई है।

इस अभियान पर जो निकला हो, उसे बड़ी आशाओं से भरा हुआ होना चाहिए।

तो मैं आपको कहूंगा, तीन दिन आशा की एक भाव-स्थिति को कायम रखें। आज रात ही जब सोएं, तो बहुत आशा से भरे हुए सोएं। और यह विश्वास लेकर सोएं कि कल सुबह जब आप उठेंगे, तो कुछ होगा, कुछ हो सकेगा, कुछ किया जा सकेगा।

दूसरी बात मैंने कही, आशा का एक दृष्टिकोण। आशा के इस दृष्टिकोण के साथ ही यह भी आपको स्मरण दिला दूं, इन पीछे कुछ वर्षों के अनुभव से इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमारी निराशा इतनी गहरी है कि जब हमें कुछ मिलना भी शुरू होता है, तो निराशा के कारण दिखाई नहीं पड़ता।

अभी मेरे पास एक व्यक्ति आते थे। वे अपनी पत्नी को मेरे पास लाए। उन्होंने पहले दिन, जब वे आए थे, तो मुझे कहा कि मेरी पत्नी को नींद नहीं आती। बिलकुल नींद नहीं आती बिना दवा के। और दवा से भी तीन-चार घंटे से ज्यादा नींद नहीं आती। और मेरी पत्नी भयभीत है। अनजाने भय उसे परेशान किए रहते हैं। घर के बाहर निकलती है, तो डरती है। घर के भीतर होती है, तो डरती है कि मकान न गिर जाए। अगर पास में कोई न हो, तो घबड़ाती है कि अकेले में कहीं मृत्यु न हो जाए, इसलिए पास में कोई होना ही चाहिए। रात को सब दवाइयां अपने पास में रखकर सोती है कि बीच रात में कोई खतरा न हो जाए। उन्होंने मुझे अपनी पत्नी की यह भय की और निराशा की हालत बतायी।

मैंने उनको कहा कि ध्यान का यह छोटा-सा प्रयोग शुरू करिए, लाभ होगा। उन्होंने प्रयोग शुरू किया। सात दिन बाद वे मुझे मिले। मैंने उनसे पूछा, ‘क्या हुआ? कैसा है?’ वे बोले, ‘अभी कुछ खास नहीं हुआ। बस नींद भर आने लगी है।’ उन्होंने मुझसे कहा, ‘अभी कुछ खास नहीं हुआ, बस नींद भर आने लगी है।’

सात दिन बाद वे मुझे फिर मिले, मैंने उनसे पूछा, ‘क्या हुआ?’ बोले, ‘अभी कुछ खास नहीं हुआ, थोड़ा-सा भय दूर हो गया है।’ वे सात दिन बाद मुझे फिर मिले। मैंने उनसे पूछा, ‘कुछ हुआ?’ वे बोले, ‘अभी कुछ विशेष तो नहीं हुआ, यही है कि थोड़ी नींद आ जाती है, भय कम हो गया है, दवाइयां-ववाइयां अपने पास नहीं रखती। और कुछ खास नहीं हुआ।’

इसको मैं निराशा की दृष्टि कहता हूं। और ऐसे आदमी को कुछ हो भी जाए, तो उसे पता नहीं चलेगा। यह दृष्टि तो बुनियाद से गलत है। इसका तो मतलब है, इस आदमी को कुछ हो नहीं सकता, अगर हो भी जाए, तो भी–तो भी उसे कभी पता नहीं चलेगा कि कुछ हुआ। और बहुत कुछ हो सकता था, जो कि रुक जाएगा।

तो आशा के इस दृष्टिकोण के साथ-साथ प्रसंगवशात मैं आपसे यह कहूं, इन तीन दिनों में जो घटित हो, उसको स्मरण रखें; और जो घटित न हो, उसको बिलकुल स्मरण न रखें।

इन तीन दिनों में जो घटित हो, उसको स्मरण रखें। और जो घटित न हो, जो न हो पाए, उसे बिलकुल स्मरण न रखें। स्मरणीय वह है जो घटित हुआ हो। थोड़ा-सा कण भी अगर लगे शांति का, उसको पकड़ें। वह आपको आशा देगा और गतिमान करेगा। और अगर आप उसको पकड़ते हैं जो नहीं हुआ, तो आपकी गति अवरुद्ध हो जाएगी और जो हुआ है, वह भी मिट जाएगा।

तो इन तीन दिनों में यह भी स्मरण रखें कि इन ध्यान के प्रयोगों में जो थोड़ा-सा आपको अनुभव हो, उसको स्मरण रखें, उसको आधार बनाएं आगे के लिए। जो न हो, उसको आधार न बनाएं। मनुष्य जीवनभर इसी दुख में रहता है। जो उसे मिलता है, उसे भूल जाता है। और जो उसे नहीं मिलता, उसका स्मरण रखता है। ऐसा आदमी गलत आधार पर खड़ा है। वैसा आदमी बनें, जिसे जो मिला है, उसे स्मरण रखे और उस आधार पर खड़ा हो।

अभी मैं पढ़ता था, एक व्यक्ति ने किसी को कहा कि ‘मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं बहुत दरिद्र हूं।’ उस दूसरे व्यक्ति ने कहा कि ‘अगर तुम दरिद्र हो, तो एक काम करो। मैं तुम्हारी बायीं आंख चाहता हूं। इसके मैं पांच हजार रुपए देता हूं। तुम पांच हजार रुपए ले लो और बायीं आंख दे दो।’ उस आदमी ने कहा, ‘यह मुश्किल है, मैं बायीं आंख नहीं दे सकता।’ उसने कहा, ‘मैं दस हजार रुपए देता हूं, दोनों आंखें दे दो।’ उसने कहा, ‘दस हजार! फिर भी मैं नहीं दे सकता।’ उसने कहा, ‘मैं तुम्हें पचास हजार रुपए देता हूं, तुम अपनी जान मुझे दे दो।’ उसने कहा, ‘यह असंभव है। मैं नहीं दे सकता।’ तो उस आदमी ने कहा, ‘तब तो तुम्हारे पास बहुत कुछ है, जिसका बहुत दाम है। तुम्हारे पास दो आंखें हैं, जिनको तुम दस हजार में देने को राजी नहीं हो। लेकिन तुम कह रहे थे, मेरे पास कुछ भी नहीं है।’

मैं उस आदमी और उस विचार की बात आपसे कह रहा हूं। जो आपके पास है, उसको स्मरण रखें। और जो साधना में मिले थोड़ा-सा, रत्तीभर भी मिले, उसे स्मरण रखें। उसका विचार करें, उसकी चर्चा करें। उसके आधार से और मिलने का रास्ता बनेगा, क्योंकि आशा बढ़ेगी। और जो नहीं मिला…।

एक महिला मेरे पास आती थीं। पढ़ी-लिखी हैं, एक कालेज में प्रोफेसर हैं, संस्कृत की विद्वान हैं। वे मेरे पास आती थीं। एक सात दिन का प्रयोग चलता था ध्यान का, उसमें आती थीं। पहले दिन वे प्रयोग करने के बाद उठीं और बाहर जाकर मुझसे कहीं, ‘क्षमा करें, अभी मुझे आज कोई ईश्वर के दर्शन नहीं हुए!’ पहले दिन वे प्रयोग कीं और बाहर जाकर मुझसे कहीं, ‘क्षमा करें, अभी मुझे कोई ईश्वर के दर्शन नहीं हुए।’

मैंने कहा, ‘अगर ईश्वर के दर्शन हो जाते, तो ही खतरे की बात होती। क्योंकि इतना सस्ता जो ईश्वर मिल जाए, उसे फिर शायद आप किसी मतलब का भी न समझतीं।’ और मैंने उनसे कहा कि ‘जो यह आकांक्षा करे कि वह दस मिनट आंख बंद करके बैठ गया है, इसलिए ईश्वर को पाने का हकदार हो गया है, उससे ज्यादा मूढ़तापूर्ण और कोई वृत्ति और विचार नहीं हो सकता।’

तो मैं आपसे यह कहता हूं कि जो थोड़ी-सी भी शांति की किरण आपको मिले, उसे आप सूरज समझें। इसलिए सूरज समझें कि उसी किरण का सहारा पकड़कर आप सूरज तक पहुंच जाएंगे। इस अंधकार से भरे कमरे में अगर मैं बैठा हूं और एक मुझे थोड़ी-सी किरण दिखाई पड़ती हो, तो मेरे पास दो रास्ते हैं। एक तो मैं यह कहूं कि यह किरण क्या है, अंधकार इतना घना है। इस किरण से क्या होगा! अंधकार इतना ज्यादा है। एक रास्ता यह भी है कि मैं यह कहूं कि अंधकार कितना ही हो, लेकिन एक किरण मुझे उपलब्ध है। और अगर मैं इसकी दिशा में इसका अनुगमन करूं, तो मैं वहां तक पहुंच जाऊंगा, जहां से किरण पैदा हुई और जहां सूरज होगा।

तो मैं आपको अंधकार ज्यादा हो, तो भी उसे विचार करने को नहीं कहता। किरण छोटी हो, तो भी उस पर ही विचार को खड़ा करने को कहता हूं। इससे आशा की दृष्टि खड़ी होगी।

अन्यथा हमारे जीवन बड़े उलटे हैं। अगर मैं आपको एक गुलाब के फूल के पौधे के पास ले जाऊं और आपको पौधा दिखाऊं, तो शायद आप मुझसे कहें कि ‘इसमें क्या है! भगवान कैसा अन्यायी है! दो-चार तो फूल हैं, हजारों कांटे हैं।’ एक दृष्टि यह भी है कि गुलाब के पास जाकर हम यह कहें कि ‘भगवान कैसा अन्यायी है! हजारों कांटे हैं, कहीं एकाध फूल है।’

इसको कहने का एक ढंग और भी हो सकता है, एक दृष्टि और भी हो सकती है, एक और एप्रोच हो सकती है कि कोई आदमी उसी पौधे के पास जाकर यह कहे कि ‘भगवान कैसा अदभुत है कि जहां लाखों कांटे हैं, उनमें भी एक फूल खिल जाता है!’ कोई इसे यूं भी देख सकता है कि कहे कि ‘जहां लाखों कांटे हैं, उनमें भी एक फूल खिल जाता है। दुनिया अदभुत है! कांटों के बीच भी फूल के खिलने की संभावना कितनी आश्चर्यजनक है!’

तो मैं आपको दूसरी दृष्टि रखने को कहूंगा इन तीन दिनों में। छोटी-सी भी आशा की जो भी झलक आपको मिले साधना में, उसको आधार बनाएं, उसको संबल बनाएं।

तीसरी बात, साधना के इन तीन दिनों में आपको ठीक वैसे ही नहीं जीना है, जैसे आप आज सांझ तक जीते रहे हैं। मनुष्य बहुत कुछ आदतों का यंत्र है। और अगर मनुष्य अपनी पुरानी आदतों के घेरे में ही चले, तो साधना की नई दृष्टि खोलने में उसे बड़ी कठिनाई हो जाती है। तो थोड़े-से परिवर्तन करने को मैं आपसे कहूंगा।

एक परिवर्तन तो मैं आपसे यह कहूंगा कि इन तीन दिनों में आप ज्यादा बातचीत न करें। बातचीत इस सदी की सबसे बड़ी बीमारी है। और आपको पता नहीं कि आप कितनी बातें कर रहे हैं। सुबह से सांझ तक, जब तक आप जाग रहे हैं, बातें कर रहे हैं। या तो किसी से कर रहे हैं, अगर फिर कोई मौजूद नहीं है, तो अपने भीतर खुद से ही कर रहे हैं।

इन तीन दिनों में, इसका बहुत सजग प्रयास करें कि आपकी बातचीत की जो बहुत यांत्रिक आदत है, वह न चले। आदत है हमारी। यह साधक के जीवन में बहुत संघातक है।

इन तीन दिनों में मैं चाहूंगा, आप कम से कम बात करें। और जो बात भी करें, वह बात भी अच्छा हो कि आपकी वही सामान्य न हो, जो आप रोज करते हैं। आप क्या रोज बातें कर रहे हैं, उसका कोई बहुत मूल्य है? आप उसे नहीं करेंगे, तो कोई नुकसान है? जिसको आप कर रहे हैं, उसका, अगर नहीं उसे बताएंगे, कोई अहित है?

इन तीन दिनों में स्मरण रखें कि हमें किसी से कोई विशेष बात नहीं करनी है। बहुत अदभुत लाभ होगा। अगर कोई थोड़ी-बहुत बात आप करें भी, अच्छा हो कि वह साधना से ही संबंधित हो, और कुछ न हो। अच्छा तो यह है कि न ही करें। ज्यादा से ज्यादा समय मौन को रखें। वह भी जबरदस्ती मौन रखने को नहीं कहता हूं कि आप बिलकुल बोलें ही न, या लिखकर बोलें। आप बोलने के लिए मुक्त हैं, बातचीत करने को मुक्त नहीं हैं। और स्मरणपूर्वक, जितना सार्थक हो उतना बोलें, बाकी चुप रहें।

दो लाभ होंगे। एक तो बड़ा लाभ होगा कि व्यर्थ जो शक्ति व्यय होती है बोलने में, वह संचित होगी। और उस शक्ति का हम उपयोग साधना में कर सकेंगे। दूसरा लाभ यह होगा कि आप दूसरे लोगों से टूट जाएंगे और आप थोड़े एकांत में हो जाएंगे। हम यहां पहाड़ पर आए हैं। पहाड़ पर आने का कोई प्रयोजन पूरा न होगा, अगर यहां हम दो सौ लोग इकट्ठे हुए हैं और आपस में बातचीत करते रहे और बैठकर गपशप करते रहे। तो हम भीड़ के भीड़ में रहे, हम एकांत में नहीं आ पाए।

एकांत में आने के लिए पहाड़ पर जाना ही जरूरी नहीं है, यह भी जरूरी है कि आप दूसरे लोगों से अपना संबंध थोड़ा शिथिल कर लें और अकेले हो जाएं। बहुत नाममात्र को संबंध रखें। समझें कि आप अकेले हैं इस पहाड़ पर और दूसरा कोई नहीं है। और आपको इस तरह जीना है, जैसे आप अकेले आए होते–अकेले रहते, अकेले घूमने जाते, अकेले किसी दरख्त के नीचे बैठते–वैसे ही। झुंड में आप न जाएं। चार-छः मित्र बनकर न जाएं। अलग-अलग, एक-एक, इन तीन दिनों में हम इस तरह जीएं।

यह मैं आपको कहूं कि भीड़ में जीवन का कोई श्रेष्ठ सत्य न कभी पैदा होता है और न कभी अनुभव होता है। भीड़ में कोई महत्वपूर्ण बात कभी नहीं हुई है। जो भी सत्य के अनुभव हुए हैं, वे अत्यंत एकांत में और अकेलेपन में हुए हैं।

जब हम किसी मनुष्य से नहीं बोलते और जब हम सारी बातचीत बाहर और भीतर बंद कर देते हैं, तो प्रकृति किसी बहुत रहस्यमय ढंग से हमसे बोलना शुरू कर देती है। वह शायद हमसे निरंतर बोल रही है। लेकिन हम अपनी बातचीत में इतने व्यस्त हैं कि वह धीमी-सी आवाज हमें सुनाई नहीं पड़ती। हमें अपनी सारी आवाज बंद कर देनी होगी, ताकि हम उस अंतस-चेतन की आवाज को सुन सकें, जो प्रत्येक के भीतर चल रही है।

तो इन तीन दिनों में बिलकुल बातचीत को क्षीण कर दें स्मरणपूर्वक। अगर आदतवश बातचीत शुरू हो जाए और खयाल आ जाए, तो बीच में वहीं तोड़ दें और क्षमा मांग लें कि भूल हो गई। अकेले में जाएं। यहां जो हम प्रयोग करेंगे, वे तो करेंगे ही, लेकिन आप अकेले में प्रयोग करें। कहीं भी चले जाएं। किसी दरख्त के नीचे बैठें।

हम यह भी भूल गए हैं कि हमारा प्रकृति से कोई संबंध है और कोई नाता है। और हमको यह भी पता नहीं है कि प्रकृति के सान्निध्य में व्यक्ति जितनी शीघ्रता से परमात्मा की निकटता में पहुंचता है, उतना और कहीं नहीं पहुंचता।

तो इस अदभुत तीन दिन के मौके का, अवसर का, लाभ उठाएं। अकेले में चले जाएं और व्यर्थ की बातचीत न करें। वह तीन दिन के बाद फिर करने को आपको काफी समय रहेगा; उसे बाद में कर ले सकते हैं।

इस तीसरी बात को स्मरण रखें कि अधिकतर तीन दिन मौन में, एकांत में और अकेले में बिताने हैं। सब साथ हों, तो भी अकेले में ही हम बिता रहे हैं। साधना का जीवन अकेले का जीवन है। हम यहां इतने लोग हैं, हम ध्यान करने बैठेंगे, तो लगेगा कि समूह में ध्यान कर रहे हैं। लेकिन सब ध्यान वैयक्तिक हैं। समूह का कोई ध्यान नहीं होता। बैठे जरूर हम यहां इतने लोग हैं। लेकिन हर एक भीतर जब अपने जाएगा, तो अकेला रह जाएगा। जब वह आंख बंद करेगा, अकेला हो जाएगा। और जब शांति में प्रवेश करेगा, उसके साथ कोई भी नहीं होगा। हम यहां दो सौ लोग होंगे, लेकिन हर एक आदमी केवल अपने साथ होगा। बाकी एक सौ निन्यानबे के साथ नहीं होगा।

सामूहिक कोई ध्यान नहीं होता, न कोई प्रार्थना होती है। सब ध्यान, सब प्रार्थनाएं वैयक्तिक होती हैं, अकेले होती हैं। यहां भी हम अकेले रहेंगे, बाहर भी हम अकेले रहेंगे। और अधिकतर मौन में समय को व्यतीत करेंगे। नहीं बोलेंगे। इतना ही काफी नहीं है कि नहीं बोलेंगे। अंतस में भी स्मरण रखेंगे कि व्यर्थ की जो निरंतर बकवास चल रही है भीतर आपके–आप खुद ही बोल रहे हैं, खुद ही उत्तर दे रहे हैं–उसे भी शिथिल रखेंगे, उसे भी छोड़ेंगे। अगर भीतर वह शिथिल न होती हो, तो बहुत स्पष्ट भीतर आदेश दें कि बकवास बंद कर दो। बकवास मुझे पसंद नहीं है। अपने भीतर स्वयं से कहें।

यह भी मैं आपको कहूं कि साधना के जीवन में अपने से कुछ आदेश देना बहुत महत्वपूर्ण है। कभी आदेश देकर देखें। अकेले में बैठ जाएं और अपने मन को कह दें कि ‘बकवास बंद। मुझे यह पसंद नहीं है।’ और आप हैरान होंगे कि एक झटके से बातचीत भीतर टूटेगी।

तीन दिन स्मरणपूर्वक भीतर आदेश दे दें कि बातचीत मुझे नहीं करनी है। आप तीन दिन में पाएंगे कि अंतर पड़ा है और क्रमशः भीतर की बातचीत बंद हुई है।

पांचवीं बात, कुछ शिकायतें हो सकती हैं, कोई तकलीफ हो सकती है। तीन दिन उसका कोई खयाल नहीं करेगा। कोई छोटी-मोटी तकलीफ हो, अड़चन हो, उसका कोई खयाल नहीं करेगा। हम किन्हीं सुविधाओं के लिए यहां इकट्ठे नहीं हुए हैं।

अभी-अभी मैं एक चीनी साध्वी का जीवन पढ़ता था। वह एक गांव में गई थी। उस गांव में थोड़े-से मकान थे। उसने उन मकानों के सामने जाकर–सांझ हो रही थी, रात पड़ने को थी, वह अकेली साध्वी थी–उसने लोगों से कहा कि ‘मुझे घर में ठहर जाने दें।’ अपरिचित स्त्री। फिर उस गांव में जो लोग रहते थे, वह उनके धर्म के मानने वाली नहीं थी। लोगों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए। दूसरा गांव बहुत दूर था। और रात, और अकेली। उसे उस रात एक खेत में जाकर सोना पड़ा। वह एक चेरी के दरख्त के नीचे जाकर चुपचाप सो गई।

रात दो बजे उसकी नींद खुली। सर्दी थी, और सर्दी की वजह से उसकी नींद खुल गई। उसने देखा, फूल सब खिल गए हैं और दरख्त पूरा फूलों से लदा है और चांद ऊपर आ गया है। और बहुत अदभुत चांदनी है। और उसने उस आनंद के क्षण को अनुभव किया।

सुबह वह उस गांव में गई और उन-उन को धन्यवाद दिया, जिन्होंने रात्रि द्वार बंद कर लिए थे। और उन्होंने पूछा, ‘काहे का धन्यवाद!’ उसने कहा, ‘तुमने अपने प्रेमवश, तुमने मुझ पर करुणा और दया करके रात अपने द्वार बंद कर लिए, उसका धन्यवाद। मैं एक बहुत अदभुत क्षण को उपलब्ध कर सकी। मैंने चेरी के फूल खिले देखे और मैंने पूरा चांद देखा। और मैंने कुछ ऐसा देखा जो मैंने जीवन में नहीं देखा था। और अगर आपने मुझे जगह दे दी होती, तो मैं वंचित रह जाती। तब मैं समझी कि उनकी करुणा कि उन्होंने क्यों मेरे लिए द्वार बंद कर रखे हैं।’

यह एक दृष्टि है, एक कोण है। आप भी हो सकता था उस रात द्वार से लौटा दिए गए होते। तो शायद आप इतने गुस्से में होते रातभर और उन लोगों के प्रति इतनी आपके मन में घृणा और इतना क्रोध होता कि शायद आपको जब चेरी में फूल खिलते, तो दिखाई नहीं पड़ते। और जब चांद ऊपर आता, तो आपको पता नहीं चलता। धन्यवाद तो बहुत दूर था, आप यह सब अनुभव भी नहीं कर पाते।

जीवन में एक और स्थिति भी है, जब हम प्रत्येक चीज के प्रति धन्यवाद से भर जाते हैं। साधक स्मरण रखें कि उन्हें इन तीन दिनों में प्रत्येक चीज के प्रति धन्यवाद से भर जाना है। जो मिलता है, उसके लिए धन्यवाद। जो नहीं मिलता, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। उस भूमिका में अर्थ पैदा होता है। उस भूमिका में भीतर एक निश्चिंतता पैदा होती है और एक सरलता पैदा होती है।

और अंतिम रूप से एक बात और। इन तीन दिनों में हम निरंतर प्रयास करेंगे अंतस प्रवेश का, ध्यान का, समाधि का। उस प्रवेश के लिए एक बहुत प्रगाढ़ संकल्प की जरूरत है। प्रगाढ़ संकल्प का यह अर्थ है, हमारा जो मन है, उसका एक बहुत छोटा-सा हिस्सा, जिसको हम चेतन मन कहते हैं, उसी में सब विचार चलते रहते हैं। उससे बहुत ज्यादा गहराइयों में हमारा नौ हिस्सा मन और है। अगर हम मन के दस खंड करें, तो एक खंड हमारा कांशस है, चेतन है। नौ खंड हमारे अचेतन और अनकांशस हैं। इस एक खंड में ही हम सब सोचते-विचारते हैं। नौ खंडों में उसकी कोई खबर नहीं होती, नौ खंडों में उसकी कोई सूचना नहीं पहुंचती।

हम यहां सोच लेते हैं कि ध्यान करना है, समाधि में उतरना है, लेकिन हमारे मन का बहुत-सा हिस्सा अपरिचित रह जाता है। वह अपरिचित हिस्सा हमारा साथ नहीं देगा। और अगर उसका साथ हमें नहीं मिला, तो सफलता बहुत मुश्किल है। उसका साथ मिल सके, इसके लिए संकल्प करने की जरूरत है। और संकल्प मैं आपको समझा दूं, कैसा हम करेंगे। अभी यहां संकल्प करके उठेंगे। और फिर जब रात्रि में आप अपने बिस्तरों पर जाएं, तो पांच मिनट के लिए उस संकल्प को पुनः दोहराएं और उस संकल्प को दोहराते-दोहराते ही नींद में सो जाएं।

संकल्प को पैदा करने का जो प्रयोग है, वह मैं आपको समझा दूं, उसे हम यहां भी करेंगे और रोज नियमित करेंगे। संकल्प से मैंने आपको समझाया कि आपका पूरा मन चेतन और अचेतन, इकट्ठे रूप से यह भाव कर ले कि मुझे शांत होना है, मुझे ध्यान को उपलब्ध होना है।

जिस रात्रि गौतम बुद्ध को समाधि उपलब्ध हुई, उस रात वे अपने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे और उन्होंने कहा, ‘अब जब तक मैं परम सत्य को उपलब्ध न हो जाऊं, तब तक यहां से उठूंगा नहीं।’ हमें लगेगा, इससे क्या मतलब है? आपके नहीं उठने से परम सत्य कैसे उपलब्ध हो जाएगा? लेकिन यह खयाल कि जब तक मुझे परम सत्य उपलब्ध न हो जाए, मैं यहां से उठूंगा नहीं, यह सारे प्राण में गूंज गया। वे नहीं उठे, जब तक परम सत्य उपलब्ध नहीं हुआ। और आश्चर्य है कि परम सत्य उसी रात्रि उन्हें उपलब्ध हुआ। वे छः वर्ष से चेष्टा कर रहे थे, लेकिन इतना प्रगाढ़ संकल्प किसी दिन नहीं हुआ था।

संकल्प की प्रगाढ़ता कैसे पैदा हो, वह मैं छोटा-सा प्रयोग आपको कहता हूं। वह हम अभी यहां करेंगे और फिर उसे हम रात्रि में नियमित करके सोएंगे।

अगर आप अपनी सारी श्वास को बाहर फेंक दें और फिर श्वास को अंदर ले जाने से रुक जाएं, क्या होगा? अगर मैं अपनी सारी श्वास बाहर फेंक दूं और फिर नाक को बंद कर लूं और श्वास को भीतर न जाने दूं, तो क्या होगा? क्या थोड़ी देर में मेरे सारे प्राण उस श्वास को लेने को तड़फने नहीं लगेंगे? क्या मेरा रोआं-रोआं और मेरे शरीर के जो लाखों कोष्ठ हैं, वे मांग नहीं करने लगेंगे कि हवा चाहिए, हवा चाहिए! जितनी देर मैं रोकूंगा, उतना ही मेरे गहरे अचेतन का हिस्सा पुकारने लगेगा, हवा चाहिए! जितनी देर मैं रोके रहूंगा, उतने ही मेरे प्राण के नीचे के हिस्से भी चिल्लाने लगेंगे, हवा चाहिए! अगर मैं आखिरी क्षण तक रोके रहूं, तो मेरा पूरा प्राण मांग करने लगेगा, हवा चाहिए! यह सवाल आसान नहीं है कि ऊपर का हिस्सा ही कहे। अब यह जीवन और मृत्यु का सवाल है, तो नीचे के हिस्से भी पुकारेंगे कि हवा चाहिए!

इस क्षण की स्थिति में, जब कि पूरे प्राण हवा को मांगते हों, तब आप अपने मन में यह संकल्प सतत दोहराएं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। उन क्षणों में, जब आपके पूरे प्राण श्वास मांगते हों, तब आप अपने मन में यह भाव दोहराते रहें कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। यह मेरा संकल्प है कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। उस वक्त आपका मन यह दोहराता रहे। उस वक्त आपके प्राण श्वास मांग रहे होंगे और आपका मन यह दोहराएगा। जितनी गहराई तक प्राण कंपित होंगे, उतनी गहराई तक आपका यह संकल्प प्रविष्ट हो जाएगा। और अगर आपने पूरे प्राण-कंपित हालत में इस वाक्य को दोहराया, तो यह संकल्प प्रगाढ़ हो जाएगा। प्रगाढ़ का मतलब यह है कि वह आपके अचेतन, अनकांशस माइंड तक प्रविष्ट हो जाएगा।

इसे हम रोज ध्यान के पहले भी करेंगे। रात्रि में सोते समय भी आप इसे करके सोएंगे। इसे करेंगे, फिर सो जाएंगे। जब आप सोने लगेंगे, तब भी आपके मन में यह सतत ध्वनि बनी रहे कि मैं ध्यान में प्रविष्ट होकर रहूंगा। यह मेरा संकल्प है कि मुझे ध्यान में प्रवेश करना है। यह वचन आपके मन में गूंजता रहे और गूंजता रहे, और आप कब सो जाएं, आपको पता न पड़े।

सोते समय चेतन मन तो बेहोश हो जाता है और अचेतन मन के द्वार खुलते हैं। अगर उस वक्त आपके मन में यह बात गूंजती रही, गूंजती रही, तो यह अचेतन पर्तों में प्रविष्ट हो जाएगी। और आप इसका परिणाम देखेंगे। इन तीन दिनों में ही परिणाम देखेंगे।

संकल्प को प्रगाढ़ करने का उपाय आप समझें। उपाय है, सबसे पहले धीमे-धीमे पूरी श्वास भर लेना, पूरे प्राणों में, पूरे फेफड़ों में श्वास भर जाए, जितनी भर सकें। जब श्वास पूरी भर जाए, तब भी मन में यह भाव गूंजता रहे कि मैं संकल्प करता हूं कि ध्यान में प्रविष्ट होकर रहूंगा। यह वाक्य गूंजता ही रहे।

फिर श्वास बाहर फेंकी जाए, तब भी यह वाक्य गूंजता रहे कि मैं संकल्प करता हूं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। यह वाक्य दोहरता रहे। फिर श्वास फेंकते जाएं बाहर। एक घड़ी आएगी, आपको लगेगा, अब श्वास भीतर बिलकुल नहीं है, तब भी थोड़ी है, उसे भी फेंकें और वाक्य को दोहराते रहें। आपको लगेगा, अब बिलकुल नहीं है, तब भी है, आप उसे भी फेंकें।

आप घबराएं न। आप पूरी श्वास कभी नहीं फेंक सकते हैं। यानि इसमें घबराने का कोई कारण नहीं है। आप पूरी श्वास कभी फेंक ही नहीं सकते हैं। इसलिए जितना आपको लगे कि अब बिलकुल नहीं है, उस वक्त भी थोड़ी है, उसको भी फेंकें। जब तक आपसे बने, उसे फेंकते जाएं और मन में यह गूंजता रहे कि मैं संकल्प करता हूं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा।

यह अदभुत प्रक्रिया है। इसके माध्यम से आपके अचेतन पर्तों में विचार प्रविष्ट होगा, संकल्प प्रविष्ट होगा और उसके परिणाम आप कल सुबह से ही देखेंगे।

तो एक तो संकल्प को प्रगाढ़ करना है। उसको अभी हम जब अलग होंगे यहां से, तो उस प्रयोग को करेंगे। उसको पांच बार करना है। यानि पांच बार श्वास को फेंकना और रोकना है, और पांच बार निरंतर उस भाव को अपने भीतर दोहराना है। जिनको कोई हृदय की बीमारी हो या कोई तकलीफ हो, वे उसे बहुत ज्यादा तेजी से नहीं करेंगे, उसे बहुत आहिस्ता करेंगे; जितना उनको सरल मालूम पड़े और तकलीफ न मालूम पड़े।

यह जो संकल्प की बात है, इसको मैंने कहा कि रोज रात्रि को इन तीन दिनों में सोते समय करके सोना है। सोते वक्त जब बिस्तर पर आप लेट जाएं, इसी भाव को करते-करते क्रमशः नींद में विलीन हो जाना है।

यह संकल्प की स्थिति अगर हमने ठीक से पकड़ी और अपने प्राणों में उस आवाज को पहुंचाया, तो परिणाम होना बहुत सरल है और बहुत-बहुत आसान है।

ये थोड़ी-सी बातें आपको आज कहनी थीं। इनमें जो प्रासांगिक जरूरतें हैं, वह मैं समझता हूं, आप समझ गए होंगे। जैसा मैंने कहा कि बातचीत नहीं करनी है। स्वाभाविक है कि आपको अखबार, रेडियो, इनका उपयोग नहीं करना है। क्योंकि वह भी बातचीत है। मैंने आपसे कहा, मौन में और एकांत में होना है। इसका स्वाभाविक मतलब हुआ कि जहां तक बने साथियों से दूर रहना है। जितनी देर हम यहां मिलेंगे, वह अलग। भोजन के लिए जाएंगे, वह अलग। वहां भी आप बड़े मौन से और बड़ी शांति से भोजन करें। वहां भी सन्नाटा हो, जैसे पता न चले कि आप वहां हैं। यहां भी आएं, तो सन्नाटे में और शांति में आएं।

देखें, तीन दिन शांत रहने का प्रयोग क्या परिणाम लाता है! रास्ते पर चलें, तो बिलकुल शांत। उठें-बैठें, तो बिलकुल शांत। और अधिकतर एकांत में चले जाएं। सुंदर कोई जगह चुनें, वहां चुपचाप बैठ जाएं। अगर कोई साथ है, तो वह भी चुपचाप बैठे, बातचीत न करे। अन्यथा पहाड़ियां व्यर्थ हो जाती हैं। सौंदर्य व्यर्थ हो जाता है। जो सामने है, वह दिखाई नहीं पड़ता। आप बातचीत में सब समाप्त कर देते हैं। अकेले में जाएं।

और इसी भांति ये थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं आपके लिए जो-जो जरूरी है और हर एक के लिए। अगर आपके भीतर प्यास नहीं मालूम होती बिलकुल, तो उस प्यास को कैसे पैदा किया जाए, उसके संबंध में कल मुझसे प्रश्न पूछ लें। अगर आपको ऐसा नहीं लगता है, कि मुझे कोई आशा नहीं मालूम होती है; तो आशा कैसे पैदा हो, उसके संबंध में कल सुबह मुझसे प्रश्न पूछ लें। अगर आपको लगता है कि मुझे कोई संकल्प करने में कठिनाई है, या नहीं बन पाता, या नहीं होता, तो सारी कठिनाइयां मुझसे सुबह पूछ लें।

कल सुबह ही तीन दिन के लिए जो भी कठिनाइयां आ सकती हैं, वह आप मुझसे पूछ लें, ताकि तीन दिन में कोई भी समय व्यय न हो। अगर प्रत्येक व्यक्ति की कोई अपनी वैयक्तिक तकलीफ और दुख और पीड़ा है, जिससे वह मुक्त होना चाहता है, या जिसकी वजह से वह ध्यान में नहीं जा सकता, या जिसकी वजह से उसे ध्यान में प्रवेश करना मुश्किल होता है, समझ लें। अगर आपको कोई एक विशेष चिंता है, जो आपको प्रविष्ट नहीं होने देती शांति में, तो आप उसके लिए अलग से पूछ लें। अगर आपको कोई ऐसी पीड़ा है, जो आपको नहीं प्रविष्ट होने देती, उसको आप अलग से पूछ लें। वह सबके लिए नहीं होगी सामूहिक। वह आपकी वैयक्तिक होगी, उसके लिए आप अलग प्रयोग करेंगे। और जो भी तकलीफ हो, वह स्पष्ट सुबह रख दें, ताकि हम तीन दिन के लिए व्यवस्थित हो जाएं।

ये थोड़ी-सी बातें मुझे आपसे कहनी थीं। आपकी एक भाव-दृष्टि बने। और फिर जो हमें करना है, वह हम कल से शुरू करेंगे और कल से समझेंगे।

अभी हम सब थोड़े-थोड़े फासले पर बैठ जाएंगे। हॉल तो बड़ा है, सब फासले पर बैठ जाएंगे, ताकि हम संकल्प का प्रयोग करें और फिर हम यहां से विदा हों।

…ऐसे झटके से नहीं, बहुत आहिस्ता-आहिस्ता, पूरा फेफड़ा भर लेना है। जब आप फेफड़े को भरेंगे, तब आप स्वयं अपने मन में दोहराते रहेंगे कि मैं संकल्प करता हूं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। इस वाक्य को आप दोहराते रहेंगे। फिर जब श्वास पूरी भर जाए आखिरी सीमा तक, तब उसे थोड़ी देर रोकें और अपने मन में यह दोहराते रहें। घबड़ाहट बढ़ेगी। मन होगा, बाहर फेंक दें। तब भी थोड़ी देर रोकें। और इस वाक्य को दोहराते रहें। फिर श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालें। तब भी वाक्य दोहरता रहे। फिर सारी श्वास बाहर निकालते जाएं, आखिरी सीमा तक लगे, तब भी निकाल दें, तब भी वाक्य दोहरता रहे। फिर अंदर जब खाली हो जाए, उस खालीपन को रोकें। श्वास को अंदर न लें। फिर दोहरता रहे वाक्य, अंतिम समय तक। फिर धीरे-धीरे श्वास को अंदर लें। ऐसा पांच बार। यानि एक बार का मतलब हुआ, एक दफा अंदर लेना और बाहर छोड़ना। एक बार। इस तरह पांच बार। क्रमशः धीरे-धीरे सब करें।

जब पांच बार कर चुकें, तब बहुत आहिस्ता से रीढ़ को सीधा रखकर ही फिर धीमे-धीमे श्वास लेते रहें और पांच मिनट विश्राम से बैठे रहें। ऐसा कोई दस मिनट हम यहां प्रयोग करें। फिर चुपचाप सारे लोग चले जाएंगे। बातचीत न करने का स्मरण रखेंगे। अभी से उसको शुरू कर देना है। शिविर शुरू हो गया है इस अर्थों में। सोते समय फिर इस प्रयोग को पांच-सात दफा करें, जितनी देर आपको अच्छा लगे। फिर सो जाएं। सोते समय सोचते हुए सोएं उसी भाव को कि मैं शांत होकर रहूंगा, यह मेरा संकल्प है। और नींद आपको पकड़ ले और आप उसको सोचते रहें।

तो लाइट बुझा दें। जब आपका पांच बार हो जाए, तो आप चुपचाप अपना-अपना बैठकर थोड़ी धीमी श्वास लेते हुए बैठे रहेंगे। रीढ़ सीधी कर लें। सारे शरीर को आराम से छोड़ दें। रीढ़ सीधी हो और शरीर आराम से छोड़ दें। आंख बंद कर लें। बहुत शांति से श्वास को अंदर लें। और जैसा मैंने कहा, वैसा प्रयोग पांच बार करें।

मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। मेरा संकल्प है कि ध्यान में प्रवेश होगा। मेरा संकल्प है कि ध्यान में प्रवेश होगा। पूरे प्राणों को संकल्प करने दें कि ध्यान में प्रवेश होगा। पूरे प्राण में यह बात गूंज जाए। यह अंतस-चेतन तक उतर जाए।

पांच बार आपका हो जाए, तो फिर बहुत आहिस्ता से बैठकर शांति से रीढ़ को सीधा रखे हुए ही धीमे-धीमे श्वास को लें, धीमे छोड़ें और श्वास को ही देखते रहें। पांच मिनट विश्राम करें। उस विश्राम के समय में, जो संकल्प हमने किया है, वह और गहरे अपने आप डूब जाएगा। पांच बार संकल्प कर लें, फिर चुपचाप बैठकर श्वास को देखते रहें पांच मिनट तक। और बहुत धीमी श्वास लें फिर।

आज इतना ही।

 



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ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–दूसरा

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शरीर-शुद्धि के अंतरंग सूत्र—(प्रवचन—दूसरा)

 मेरे प्रिय आत्मन्,

रात्रि को साधना की प्रारंभिक भूमिका कैसे बने, उस संबंध में थोड़ी-सी बातें आपसे कही हैं। साधना की जो दृष्टि मेरे मन में है, वह किन्हीं शास्त्रों पर, किन्हीं ग्रंथों पर, किसी विशेष संप्रदाय पर आधारित नहीं है। जैसा मैंने अपने भीतर चलकर जाना है, उन रास्तों की बात भर आपसे कर रहा हूं। इसलिए मेरी बात कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। उस पर जब मैं आपसे कह रहा हूं कि आप चलें और देखें, तो मुझे रत्तीभर भी ऐसा खयाल नहीं है कि आप चलेंगे, तो जो पाने की आपकी कल्पना है, उसे आप नहीं पा सकेंगे। इसलिए यह आश्वासन और विश्वास है कि जिन रास्तों पर मैंने प्रवेश करके देखा है, केवल उनकी ही आपसे बात कर रहा हूं।

एक बहुत पीड़ा और संताप के समय को मैंने गुजारा। बहुत चेष्टा के, बहुत प्रयत्न के समय को गुजारा। उस समय बहुत कोशिश, बहुत प्रयत्न करता था अंतस प्रवेश के। बहुत रास्तों से, बहुत पद्धतियों से उस तरफ जाने की बड़ी संलग्न चेष्टा की। बहुत पीड़ा के दिन थे और बहुत दुख और परेशानी के दिन थे। लेकिन सतत प्रयास से, और जैसे पर्वत से कोई झरना गिरता हो और गिरता ही चला जाए, तो नीचे की चट्टानें भी टूट जाती हैं, वैसे ही सतत प्रयास से किसी क्षण में कोई प्रवेश हुआ। उस प्रवेश को जिस रास्ते से मैंने संभव पाया, सिर्फ उसी रास्ते की आपसे बात कर रहा हूं। और इसलिए बहुत आश्वासन और बहुत विश्वास से आपको कह सकता हूं कि यदि प्रयोग किया, तो परिणाम सुनिश्चित है। तब एक दुख था, तब एक पीड़ा थी, अब वैसा कोई दुख और वैसी कोई पीड़ा मेरे भीतर नहीं है।

कल मुझे कोई पूछता था कि इतनी समस्याएं लोग आपके सामने रखते हैं, तो आप परेशान नहीं होते? मैंने उन्हें कहा, समस्या अपनी न हो, तो परेशानी का कोई कारण नहीं होता। समस्या दूसरे की हो, तो कोई परेशानी नहीं होती है। समस्या अपनी हो, तो परेशानी शुरू हो जाती है। मेरी कोई समस्या इस अर्थों में नहीं है। लेकिन एक नए तरह का दुख अब जीवन में प्रविष्ट हो गया। और वह दुख यह है कि मैं अपने चारों तरफ जिन लोगों को भी देखता हूं, उन्हें इतनी परेशानी में और इतनी पीड़ा में अनुभव करता हूं, जब कि मुझे लगता है, उनके हल इतने आसान हैं! जब कि मुझे लगता है कि वे द्वार खटखटाएंगे और द्वार खुल जाएगा; और वे द्वार पर खड़े ही रो रहे हैं! तो एक बहुत नए किस्म के दुख और पीड़ा का अनुभव होता है।

एक छोटी-सी पारसी कहानी मैं पढ़ता था। एक अंधा आदमी और उसका एक मित्र एक रेगिस्तान को पार करते थे। वे दोनों अलग-अलग यात्रा पर निकले थे, रास्ते में मिलना हो गया और वह आंख वाला आदमी उस अंधे आदमी को अपने साथ ले लिया। वे कुछ दिन साथ-साथ चले, उनमें मैत्री घनी हो गयी।

एक दिन सुबह अंधा आदमी पहले उठ गया, सुबह उसकी नींद पहले खुल गयी। उसने टटोलकर अपनी लकड़ी ढूंढी। मरुस्थल की रात थी और ठंड के दिन थे। लकड़ी तो उसे नहीं मिली, एक सांप पड़ा हुआ था, जो ठंड के मारे एकदम सिकुड़कर कड़ा हो गया था। उसने उसे उठा लिया। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि मेरी लकड़ी तो खो गयी, लेकिन उससे बहुत ज्यादा बेहतर, बहुत चिकनी और बहुत सुंदर लकड़ी मुझे तुमने दे दी। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तुम बड़े कृपालु हो। उसने उसी लकड़ी से अपने आंख वाले मित्र को धक्का दिया और उठाने की कोशिश की कि उठो, सुबह हो गयी है।

वह आंख वाला मित्र उठा। देखकर घबड़ा गया और उसने कहा कि ‘तुम यह क्या हाथ में पकड़े हुए हो? इसे एकदम छोड़ दो। यह सांप है और जीवन के लिए खतरनाक हो जाएगा।’ वह अंधा आदमी बोला, ‘मित्र,र् ईष्या के वश तुम मेरी इस सुंदर लकड़ी को सांप बता रहे हो! चाहते हो कि मैं इसे छोड़ दूं, तो तुम इसे उठा लो। अंधा जरूर हूं, लेकिन इतना नासमझ नहीं हूं।’

उस आंख वाले आदमी ने कहा, ‘पागल हो गए हो? उसे एकदम छोड़ दो। वह सांप है और जीवन का खतरा है।’ अंधा आदमी हंसा और बोला, ‘तुम इतने दिन मेरे साथ रहे, लेकिन यह न समझ पाए कि मैं भी समझदार हूं। मेरी लकड़ी खो गयी है और परमात्मा ने एक बहुत सुंदर लकड़ी मुझे दे दी है, तो तुम उसे सांप बता रहे हो।’

वह अंधा आदमी गुस्से में, मित्र की इसर् ईष्या और जलन को देखकर, अपने रास्ते पर चल पड़ा। थोड़ी देर में सूरज निकला और उस सांप की सिकुड़न समाप्त हो गयी, उसकी सर्दी मिट गयी। उसमें फिर प्राण का संचार हुआ और उसने उस अंधे आदमी को काट लिया।

मैं जिस दुख की आपको बात कह रहा हूं, वह वही दुख है, जो उस सुबह उस आंख वाले आदमी को उस अंधे मित्र के प्रति हुआ होगा। वैसे ही एक दुख, हमें चारों तरफ जो लोग दिखायी पड़ते हैं, उनके प्रति मुझे अनुभव होता है। वे हाथ में जो लिए हैं, वह लकड़ी नहीं है। वे हाथ में जो लिए हैं, वह सांप है। लेकिन अगर मैं उनको कहूं कि यह सांप है, तो शायद उनके मन में हो, न मालूम किसर् ईष्या के वश, न मालूम किस कारण हमारी लकड़ियों को सांप बताया जा रहा है।

यह मैं किसी और के लिए नहीं कह रहा हूं, यह मैं आपके लिए कह रहा हूं। ऐसा मत सोचना कि आपके पड़ोस में जो बैठे हैं, उनके लिए कह रहा हूं। बिलकुल आपके लिए कह रहा हूं। और आपके सबके हाथों में मुझे सांप दिखायी पड़ते हैं। और आप जिनको भी सहारे समझे हुए हैं और लकड़ियां समझे हुए हैं, वे कोई सहारे नहीं हैं और कोई लकड़ियां नहीं हैं।

लेकिन इसके पहले कि आप रास्ता छोड़कर चले जाएं और समझें कि मैंनेर् ईष्यावश आपकी लकड़ी छीनने के लिए कोई बात कही है, इसलिए एकदम उसे सांप नहीं कहता हूं। आहिस्ता-आहिस्ता आपको समझाने की कोशिश करता हूं कि जो आप पकड़े हुए हैं, वह गलत है। बल्कि यह भी नहीं कहता हूं कि जो पकड़े हुए हैं, गलत है। यही कहता हूं कि कुछ और भी श्रेष्ठ है, जो पकड़ा जा सकता है। किसी और विराट आनंद को पकड़ा जा सकता है। जीवन में किन्हीं और बड़े सत्यों को पकड़ा जा सकता है। जो आप पकड़े हैं, वह आपको डुबाने का कारण हो जाएगा।

जीवनभर हम जो करते हैं, वही हमें डुबा देता है, सारे जीवन को नष्ट कर देता है। और जब जीवन नष्ट हो जाता है, समाप्त हो जाता है, तब हमें जो पीड़ा और परेशानी पकड़ती है मृत्यु के क्षण में, अंतिम दिनों में जो मनुष्य को कष्ट पकड़ लेता है, जो संताप पकड़ लेता है, वह यही होता है कि एक बहुत अदभुत जीवन को मैंने व्यर्थ खो दिया।

तो आज की सुबह मैं सबसे पहले तो यह बात कहूं कि जिस प्यास के लिए मैंने रात को आपको कहा था, वह तभी पैदा होगी आपमें, जब आपको यह दिखाई पड़े और यह अनुभव हो कि जिस जीवन को आप जी रहे हैं, वह एकदम गलत है। उस प्यास का जन्म तभी होगा, जब आप समझें कि आप जिस जीवन को जी रहे हैं, वह गलत है और सार्थक नहीं है।

और क्या यह बहुत कठिन बात है समझ लेना? क्या आप सोचते हैं, जो आप इकट्ठा कर रहे हैं, वह सच में संपत्ति है? क्या आप सोचते हैं कि जो आप इकट्ठा कर रहे हैं, उससे आपको जीवन उपलब्ध होगा? क्या आप सोचते हैं कि जो श्रम आप कर रहे हैं, जिन दिशाओं में, उन दिशाओं में आप रेत पर और पानी पर महल खड़े कर रहे हैं या कि किसी चट्टान पर नींव रख रहे हैं? इसे थोड़ा विचारना, इस पर थोड़ा मनन करना जरूरी है।

जो लोग भी थोड़ा-सा चिंतन और मनन करेंगे जीवन के संबंध में, उनकी प्यास जगनी शुरू हो जाएगी। सत्य की प्यास चिंतन और मनन से पैदा होती है। हममें से बहुत कम लोग जीवन के संबंध में सोचते हैं–बहुत कम लोग। अधिक लोग इस तरह जीते हैं, जैसे कोई लकड़ी के टुकड़े को नदी में बहा दे और वह बहा चला जाए। और लहरें उसे जहां ले जाएं, वहां चला जाए। किनारों पर ले जाएं, तो किनारों पर चला जाए; और मझधार में ले आएं, तो मझधार में आ जाए, जिसका अपना कोई जीवन नहीं होता। एक लकड़ी के टुकड़े की तरह हममें से अधिक लोग जीते हैं। समय और परिस्थितियां जहां ले जाती हैं, हम चले जाते हैं।

जीवन पर मनन और चिंतन इस बात की सूचना बनेगा कि क्या आपको एक लकड़ी के टुकड़े की तरह होना है, जो नदी में बहे? क्या आपको एक सूखे हुए पत्ते की तरह होना है, जिसे हवाएं जहां ले जाएं, वहां चला जाए? या आपको एक व्यक्ति बनना है, एक इंडिविजुअल, एक व्यक्ति और एक सचेतन व्यक्ति, जिसकी अपनी जीवन की दिशा है, जिसने तय किया कि कहां जाना और कहां पहुंचना; और जिसने तय किया कि क्या बनना और क्या होना। जिसने अपने जीवन को अपने हाथ में लिया है और उसके निर्माण को अपने हाथ में लिया है।

मनुष्य की सबसे बड़ी कृति स्वयं मनुष्य है। और मनुष्य का सबसे बड़ा सृजन स्वयं का निर्माण है। और आप कुछ भी बनाएं, वह बनाना किसी काम का नहीं है। वह सब पानी पर खींची गयी लकीरों की तरह एक दिन मिट जाएगा। जो आप अपने भीतर निर्मित करेंगे और अपने को बनाएंगे, तो आप एक चट्टान पर, एक लोहे की चट्टान पर कुछ लिख रहे हैं, जिसके कि फिर निशान कभी मिटते नहीं हैं; जो कि अमिट रूप से आपके साथ होगा।

तो अपने जीवन के बाबत यह विचार करें, आप एक लकड़ी के टुकड़े तो नहीं हैं, जो नदी में बह रहा है? आप दरख्त से पतझड़ में गिर गए एक पत्ते तो नहीं हैं, जो हवाओं में उड़ रहा है? और आप विचार करेंगे, तो आपको दिखायी पड़ेगा, आप एक लकड़ी के टुकड़े हैं; और आपको दिखायी पड़ेगा, पतझड़ में गिर गए एक पत्ते हैं, जिसे हवाएं कहीं भी उड़ा रही हैं। अभी सड़कें उन पत्तों से भरी हुई हैं। और वे पत्ते, जहां भी हवाएं आती हैं, वहीं सरक जाते हैं। आपने जिंदगी में सचेतन विकास किया है, या केवल हवा के धक्कों पर उड़ते रहे हैं? और अगर हवा के धक्कों पर उड़ते रहे हैं, तो क्या कहीं पहुंच सकेंगे? क्या कोई कभी इस तरह पहुंचा है?

जीवन में एक सचेतन लक्ष्य न हो, तो कोई कहीं पहुंचता नहीं। सचेतन लक्ष्य की प्यास इस बात से पैदा होगी कि आप चिंतन करें और मनन करें और विचार करें।

बुद्ध के बाबत आपने सुना होगा। उन्हें जिस बात से विराग हुआ, जिस बात से वे विराग के जीवन में प्रविष्ट हुए, जिस बात से उन्हें सत्य की आकांक्षा पैदा हुई, वह कहानी बड़ी प्रचलित है, बड़ी अर्थपूर्ण है। उनके मां-बाप ने, बचपन में ही उनको कहा गया कि यह व्यक्ति या तो बहुत बड़ा सम्राट होगा, चक्रवर्ती होगा या बहुत बड़ा संन्यासी होगा। उनके पिता ने सारी व्यवस्था की उनकी सुख-सुविधा की कि उन्हें कोई दुख दिखायी भी न पड़े, जिससे कि संन्यास पैदा हो। उनके पिता ने उनके लिए मकान बनवाए, उस समय की सारी कला और कौशल सहित। उन्होंने सारी व्यवस्था की बगीचों की। हर मौसम के लिए अलग भवन बनाया और आज्ञा दी परिचारकों को कि एक कुम्हलाया हुआ फूल भी गौतम को दिखायी न पड़े, सिद्धार्थ को दिखायी न पड़े। उसे यह खयाल न आ जाए कहीं कि फूल मुर्झा जाता है, कहीं मैं तो न मुर्झा जाऊंगा?

तो रात उनके बगीचे से सारे कुम्हलाए फूल और पत्ते अलग कर दिए जाते थे। जो दरख्त थोड़े भी कमजोर हो जाते, वे उखाड़कर अलग कर दिए जाते थे। उनके आस-पास युवक और युवतियां इकट्ठी थीं, कोई वृद्ध नहीं प्रवेश पाता था; कहीं सिद्धार्थ को यह विचार न उठ आए कि लोग बूढ़े हो जाते हैं, कहीं मैं तो बूढ़ा न हो जाऊंगा? जब तक वे युवा हुए, उन्हें पता नहीं था कि मृत्यु भी होती है। उन तक कोई खबर मृत्यु की नहीं पहुंचायी जाती थी। उनके गांव में लोग मरते भी हैं, इससे उन्हें बिलकुल अपरिचित रखा गया; कहीं उन्हें यह चिंतन पैदा न हो जाए कि लोग मरते हैं, तो मैं भी तो नहीं मर जाऊंगा?

मैं चिंतन का मतलब समझा रहा हूं। चिंतन का मतलब यह है कि चारों तरफ जो घटित हो रहा है, उस पर विचार करिए। मृत्यु घटित हो रही है, तो सोचिए कि मैं तो नहीं मर जाऊंगा? बुढ़ापा घटित हो रहा है, तो सोचिए कि मैं तो बूढ़ा नहीं हो जाऊंगा?

चिंतन न पैदा हो जाए बुद्ध में, इसलिए उनके पिता ने सारा उपाय किया। और मैं चाहता हूं कि आप सारा उपाय करें कि चिंतन पैदा हो जाए। उन्होंने उपाय किया कि चिंतन पैदा न हो जाए, लेकिन चिंतन पैदा हुआ।

एक दिन बुद्ध गांव से निकले और राह पर उन्होंने देखा, एक बूढ़ा आदमी चला आता है। उन्होंने अपने सारथी को पूछा, ‘इस आदमी को क्या हो गया है? ऐसा आदमी भी होता है?’ सारथी ने कहा, ‘झूठ मैं कैसे बोलूं? हर आदमी अंत में ऐसा ही हो जाता है।’ बुद्ध ने तत्क्षण पूछा, ‘मैं भी?’ उस सारथी ने कहा, ‘भगवन, झूठ मैं कैसे कहूं? कोई भी अपवाद नहीं है।’ बुद्ध ने कहा, ‘वापस लौट चलो। मैं बूढ़ा हो गया।’ बुद्ध ने कहा, ‘वापस लौट चलो, मैं बूढ़ा हो गया। अगर कल हो ही जाना है, तो बात समाप्त हो गयी।’

इसको मैं चिंतन कहता हूं।

लेकिन सारथी ने कहा, ‘हम एक युवक महोत्सव में जा रहे हैं। सारे गांव के लोग प्रतीक्षा करेंगे, इसलिए चलें।’ बुद्ध ने कहा, ‘अब चलने में कोई रस न रहा। युवक महोत्सव व्यर्थ है, क्योंकि बुढ़ापा आता है।’ लेकिन वे गए। और आगे बढ़े और उन्होंने देखा, एक अर्थी लिए जाते हैं लोग, कोई मर गया है। बुद्ध ने पूछा, ‘यह क्या हुआ? ये लोग क्या करते हैं? ये कंधों पर किस चीज को लिए हैं?’ सारथी ने कहा, ‘कैसे कहूं! आज्ञा नहीं। लेकिन असत्य न बोल सकूंगा। यह आदमी मर गया। एक आदमी मर गया है, उसे लोग लिए जाते हैं।’ बुद्ध ने पूछा, ‘मरना क्या है?’ और उन्हें पहली दफा पता चला, एक दिन जीवन की सरिता सूख जाती है और आदमी मर जाता है। बुद्ध ने कहा, ‘अब बिलकुल वापस लौट चलो। मैं मर गया। यह आदमी नहीं मरा, मैं मर गया।’

इसको मैं चिंतन कहता हूं। वह आदमी चिंतन और मनन में समर्थ हुआ है, जिसने दूसरे पर जो घटा है, उससे समझा और जाना है कि वह उस पर भी घटित होगा। वे लोग अंधे हैं, जो चारों तरफ जो घटित हो रहा है, उसे नहीं देख रहे हैं। और इस अर्थ में हम सब अंधे हैं। और इसलिए मैंने वह कहानी कही, अंधे आदमी की, जो सांप को हाथ में लिए चलता है।

इसलिए आपके लिए पहली जो बहुत महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि आंख खोलकर चारों तरफ देखिए, क्या घटित हो रहा है! और उस घटित होने से चिंतन पैदा होगा, मनन पैदा होगा। और वह मनन प्यास देगा और किसी विराट सत्य को जानने की।

यह, इस पीड़ा को बहुत मैंने अनुभव किया। वह पीड़ा गयी; और उसके जाने में जिन सीढ़ियों को मुझे दिखायी पड़ना शुरू हुआ, उन सीढ़ियों में पहली सीढ़ी की आज मैं चर्चा करूंगा।

ऐसा मुझे दिखायी पड़ता है कि परम जीवन या परमात्मा या आत्मा या सत्य को पाने के लिए दो बातें जरूरी हैं। एक बात तो जरूरी है, जो परिधि की जरूरत है। समझें, साधना की परिधि। और एक बात जरूरी है, जिसको हम कहेंगे साधना का केंद्र। साधना की परिधि और साधना का केंद्र। या साधना का शरीर और साधना की आत्मा। साधना की परिधि पर आज मैं चर्चा करूंगा; और कल साधना की आत्मा पर या साधना के केंद्र पर; और परसों साधना के परिणाम पर। ये तीन ही बातें हैं–साधना की परिधि, साधना का केंद्र और साधना का परिणाम। या यूं कह सकते हैं कि साधना की भूमिका, साधना और साधना की सिद्धि।

साधना की भूमिका या साधना की परिधि में आपकी जो परिधि है, वही संबंधित होती है। आपके व्यक्तित्व की परिधि आपका शरीर है। साधना की परिधि भी आपका शरीर है। साधना का बिलकुल प्रारंभिक चरण आपके शरीर पर रखना होता है।

इसलिए एक बात स्मरण रखें कि शरीर के संबंध में अगर सुनी-सुनायी कोई बुरी भावना मन में हो, उसे फेंक दें। शरीर मात्र साधन है, संसार का भी और सत्य का भी। शरीर न शत्रु है, न मित्र है; शरीर मात्र साधन है। आप चाहें तो उससे पाप करें और चाहें तो पुण्य करें। चाहें तो संसार में प्रविष्ट हो जाएं और चाहें तो परमात्मा में प्रवेश पा लें। शरीर मात्र साधन है। उसके संबंध में कोई दुर्भाव मन में न रखें। ऐसी बहुत-सी बातें प्रचलित हो गयी हैं कि शरीर दुश्मन है, और शरीर पाप है, और शरीर बुरा है, और शत्रु है, और इसका दमन करना है। वे मैं आपको कहूं, गलत हैं। न शरीर शत्रु है, न शरीर मित्र है। आप उसका जैसा उपयोग करते हैं, वही वह साबित हो जाता है। और इसलिए शरीर बड़ा अदभुत है! शरीर बड़ा अदभुत है। दुनिया में जो भी बुरा हुआ है, वह भी शरीर से हुआ है; और जो भी शुभ हुआ है, वह भी शरीर से हुआ है। शरीर केवल एक उपकरण है, एक यंत्र है।

साधना भी जरूरी है कि शरीर से शुरू हो, क्योंकि बिना इस यंत्र को व्यवस्थित किए आगे कोई भी नहीं बढ़ सकता। शरीर को बिना व्यवस्थित किए कोई आगे नहीं बढ़ सकता। तो पहला चरण है, शरीर-शुद्धि। शरीर जितना शुद्ध होगा, उतना अंतस में प्रवेश में सहयोगी हो जाएगा।

शरीर-शुद्धि के क्या अर्थ हैं? शरीर-शुद्धि का पहला तो अर्थ है, शरीर के भीतर, शरीर के संस्थान में, शरीर के यंत्र में कोई भी रुकावट, कोई भी ग्रंथि, कोई भी कांप्लेक्स न हो, तब शरीर शुद्ध होता है।

समझें, शरीर में कैसे कांप्लेक्स और ग्रंथियां पैदा होती हैं। अगर शरीर बिलकुल निर्ग्रंथ हो, उसमें कोई ग्रंथि न हो, उसमें कोई उलझन न हो, शरीर में कहीं कोई अटकाव न हो, तो शरीर शुद्ध स्थिति में होता है और अंतस प्रवेश में सहयोगी हो जाता है। अगर आप बहुत क्रुद्ध होंगे, क्रोध करेंगे और क्रोध को प्रकट न कर पाएंगे, तो उस क्रोध की जो ऊष्मा और गर्मी पैदा होगी, वह शरीर के किसी अंग में ग्रंथि पैदा कर देगी।

आपने देखा होगा, क्रोध में हिस्टीरिया आ सकता है, क्रोध में कोई बीमारी आ सकती है। भय में कोई बीमारी आ सकती है। अभी जो सारे प्रयोग चलते हैं स्वास्थ्य के ऊपर, उनसे ज्ञात होता है कि सौ बीमारियों में कोई पचास बीमारियां शरीर में नहीं होतीं, मन में होती हैं। लेकिन मन की बीमारियां शरीर में ग्रंथि पैदा कर देती हैं। और शरीर में अगर ग्रंथियां पैदा हो जाएं, शरीर में अगर गांठें पैदा हो जाएं, तो शरीर का संस्थान जकड़ जाता है और अशुद्ध हो जाता है।

तो शरीर-शुद्धि के लिए सारे योग ने, सारे धर्मों ने बड़े अदभुत और क्रांतिकारी प्रयोग किए हैं। और उन प्रयोगों को थोड़ा समझना जरूरी है। और अगर अपने शरीर पर आप करते हैं, तो आप थोड़े ही दिनों में हैरान हो जाएंगे, यह शरीर तो बड़ी अदभुत जगह है, बड़ी अदभुत बात है। और तब यह आपको शत्रु न मालूम होगा, बल्कि मंदिर मालूम होगा, जिसके भीतर परमात्मा विराजमान है। तब यह दुश्मन नहीं मालूम होगा, यह बड़ा साथी मालूम होगा और आप इसके प्रति अनुगृहीत होंगे। क्योंकि शरीर आपका नहीं है, पदार्थ से बना है। आप भिन्न हैं और शरीर भिन्न है। फिर भी आप इसका अदभुत उपयोग कर सकते हैं। और तब आप शरीर के प्रति बड़ा ग्रेटिटयूड, बड़ी कृतज्ञता अनुभव करेंगे कि शरीर इतना साथ दे रहा है!

तो शरीर में ग्रंथियां पैदा न हों, यह शरीर-शुद्धि के लिए पहला चरण है। पर शरीर में हमारे बहुत ग्रंथियां हैं। अब जैसे मैं आपको कहूं, अभी कुछ दिन हुए, एक व्यक्ति मेरे पास आए। वे मुझसे बोले कि ‘मैं बहुत दिन से कुछ किसी धर्म की साधना करता हूं। मन बड़ा शांत हो गया है।’ मैंने उनसे कहा कि ‘मुझे आपका मन शांत दिखायी नहीं पड़ता।’ वे बोले, ‘आप कैसे कह सकते हैं?’ मैंने उनसे कहा कि ‘जितनी देर से आप आए हैं, आपके दोनों पैर इतने हिल रहे हैं।’ वे दोनों पैरों को, बैठे हैं और जोर से हिला रहे हैं। मैंने उनसे कहा, ‘यह असंभव है कि मन शांत हो और पैर इस भांति हिलें।’

शरीर में जो भी कंपन हैं, वे मन के कंपन से पैदा होते हैं। मन का कंपन जितना कम होने लगता है, शरीर उतना थिर मालूम होने लगेगा। ये बुद्ध और महावीर की मूर्तियां, जो बिलकुल पत्थर जैसी मालूम होती हैं, ये आदमी भी बैठे होते, तो भी ऐसे ही मालूम होते थे। ये मूर्तियां ही पत्थर जैसी नहीं मालूम होतीं, इन आदमियों को भी आपने देखा होता, तो ये बिलकुल पत्थर जैसे मालूम होते। हमने इनकी पत्थर की मूर्तियां व्यर्थ ही नहीं बनायीं, उसके पीछे कारण था। ये बिलकुल पत्थर जैसे ही मालूम होने लगे थे। इनके भीतर कंपन विलीन हो गए थे। या कि कंपन सार्थक थे, जब उनकी जरूरत थी, होते थे; अन्यथा वे विलीन थे।

आप जब पैर हिला रहे हैं, तो आपके भीतर अशांति से जो एनर्जी पैदा हो रही है, जो शक्ति पैदा हो रही है, उसे निकालने का कोई रास्ता न पाकर, पैर में कंपित होकर वह निकल रही है। जब एक आदमी क्रोध में होता है, उसके दांत भिंच जाते हैं और मुट्ठियां बंध जाती हैं। क्यों? उसकी आंखों में खून उतर आता है। क्यों? आखिर मुट्ठियां बंधने से क्या प्रयोजन है? अगर आप अकेले में भी किसी पर क्रुद्ध होंगे, तो भी मुट्ठियां बंध जाएंगी। वहां तो कोई मारने को भी नहीं, जिसको आप मारें। लेकिन जो शक्ति क्रोध से पैदा हो रही है, उसका निष्कासन कैसे होगा? हाथ के स्नायु खिंचकर उस शक्ति को व्यय कर देते हैं।

सभ्यता ने बहुत दिक्कत पैदा कर दी है। असभ्य आदमी का शरीर हमसे ज्यादा शुद्ध होता है। एक जंगली आदमी का शरीर हमसे बहुत शुद्ध होता है, उसमें ग्रंथियां नहीं होतीं, क्योंकि उसके भावावेग वह सहज प्रकट कर देता है। लेकिन हम अपने भावावेगों को दबा लेते हैं।

समझ लीजिए, आप दफ्तर में हैं और मालिक ने कुछ कहा। आपको क्रोध तो आया, लेकिन आप मुट्ठियां नहीं भींच सकते। वह जो शक्ति पैदा हुई है, उसका क्या होगा? शक्ति नष्ट नहीं होती, स्मरण रखिए। कोई शक्ति नष्ट नहीं होती। अगर आपने मुझे गाली दी और मुझे क्रोध आ गया, लेकिन यहां इतने लोग थे कि मैं उसे प्रकट नहीं कर सका, न मैं दांत भींच सका, न मैं हाथ खींच सका, न मैं गाली बक सका, न मैं गुस्से में कूद सका, न मैं पत्थर उठा सका। तो उस शक्ति का क्या होगा, जो मेरे भीतर पैदा हो गयी? वह शक्ति मेरे शरीर के किसी अंग को क्रिपल्ड कर देगी। और उसको क्रिपल्ड करने में, उसको विकृत करने में व्यय हो जाएगी। एक ग्रंथि पैदा होगी।

शरीर की ग्रंथियों का मेरा मतलब यह है। शरीर में हमारे बहुत ग्रंथियां पैदा हो जाती हैं। और आप शायद हैरान होंगे, आप कहेंगे, ऐसी तो हमें कुछ ग्रंथियां पता नहीं हैं! तो मैं आपको एक प्रयोग करने को कहता हूं। आप देखें, फिर आपको पता चलेगा कि कितनी ग्रंथियां हैं।

क्या आपने कभी खयाल किया है कि अकेले किसी कमरे में आप जोर से दांत बिचकाने लगे हैं, या आईने में जीभ दिखाने लगे हैं, या गुस्से से आंख फाड़ने लगे हैं! और आप अपने पर भी हंसे होंगे कि यह मैं क्या कर रहा हूं! हो सकता है, स्नानगृह में आप नहा रहे हैं और आप अचानक कूदे हैं। आप हैरान होंगे कि मैं क्यों कूदा हूं? या मैंने आईने में देखकर दांत क्यों बिचकाए हैं? या मेरा जोर से गुनगुनाने का मन क्यों हुआ है?

मैं आपको कहूं, किसी दिन आधा घंटे को सप्ताह में एक एकांत कमरे में बंद हो जाएं और आपका शरीर जो करना चाहे, करने दें। आप बहुत हैरान होंगे। हो सकता है, शरीर आपका नाचे। जो करना चाहे, करने दें। आप उसे बिलकुल न रोकें। और आप बहुत हैरान होंगे। हो सकता है, शरीर आपका नाचे। हो सकता है, आप कूदें। हो सकता है, आप चिल्लाएं। हो सकता है, आप किसी काल्पनिक दुश्मन पर टूट पड़ें। यह हो सकता है। और तब आपको पता चलेगा कि यह क्या हो रहा है! ये सारी ग्रंथियां हैं, जो दबी हुई हैं और मौजूद हैं और निकलना चाहती हैं, लेकिन समाज नहीं निकलने देता है और आप भी नहीं निकलने देते हैं।

ऐसा शरीर बहुत-सी ग्रंथियों का घर बना हुआ है। और जो शरीर ग्रंथियों से भरा हुआ है, वह शरीर शुद्ध नहीं होता, वह भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। तो योग का पहला चरण होता है, शरीर-शुद्धि। और शरीर-शुद्धि का पहला चरण है, शरीर की ग्रंथियों का विसर्जन। तो नयी ग्रंथियां तो बनाएं नहीं और पुरानी ग्रंथियां विसर्जन करने का उपाय करें। और उसके उपाय के लिए जरूरी है कि महीने में एक बार, दो बार अकेले कमरे में बंद हो जाएं और शरीर जैसा करना चाहे, करने दें। अगर कपड़े फेंककर और नग्न नाचने का मन हो, तो नाचें और सारे कपड़े फेंक दें।

और आप हैरान होंगे, आधा घंटे की उस उछलकूद के बाद आप बहुत रिलैक्स्ड, बहुत शांत, बहुत स्वस्थ अनुभव करेंगे। यह बात बहुत अजीब लगेगी, लेकिन आप बहुत शांत अनुभव करेंगे। और आपको बहुत हैरानी होगी कि यह शांति कैसे आ गयी? आप जो व्यायाम करते हैं, या घूमने चले जाते हैं, उसके बाद जो आपको हलकापन लगता है, उसका कारण क्या है? उसका कारण यह है कि बहुत-सी ग्रंथियां उसमें विसर्जित होती हैं।

आपको पता है, आपका लड़ने का जो मन होता है लोगों से, उलझने का जो मन होता है, उसका कारण क्या है? आपके भीतर बहुत-सी शक्तियां ग्रंथियों की तरह मौजूद हैं, वे विसर्जित होना चाहती हैं। इसलिए आप बिलकुल उत्सुक होते हैं कि कोई मिल जाए और कुछ हो जाए!

जब युद्ध का समय आता है–पिछले दो महायुद्ध हुए, उन महायुद्धों में आप जो सुबह से अखबार पढ़ते हैं बहुत उत्सुकता से। और सारी दुनिया में बड़ी खूबियों की बातें घटित होती हैं। युद्ध के समय दो बातें घटित हुईं। दुनिया में आत्महत्याएं एकदम कम हो गयी थीं; आपको शायद पता नहीं होगा। पिछला महायुद्ध हुआ, उसके पहले पहला महायुद्ध हुआ, मनोवैज्ञानिक बहुत हैरान हुए कि आत्महत्याएं कम क्यों हो गयीं? एकदम आत्महत्याएं कम हो गयीं। जब तक युद्ध चला, आत्महत्याएं नहीं हुईं। सारी दुनिया में उनका अनुपात एकदम गिर गया। इसका कारण क्या था? और मनोवैज्ञानिक बहुत परेशान हुए! उन दिनों खून भी नहीं हुए, आत्महत्याएं भी नहीं हुईं; और एक बड़ी बात हुई, मानसिक बीमारों की संख्या कम रही युद्ध के समय में।

तो अंततः यह समझ में आया कि युद्ध की जो खबरें थीं, जो जोश-खरोश था, उसमें मनुष्य की बहुत-सी ग्रंथियां विसर्जित हुईं और उतनी ग्रंथियों ने उसको बचाया। जैसे कि युद्ध की खबरें आप सुनते हैं, तो आप किसी न किसी तरह उसमें संलग्न हो जाते हैं। आपका क्रोध–समझ लीजिए, आप गुस्से में आ गए हैं, अगर आप हिटलर के प्रति गुस्से में आ गए हैं, तो लोग हिटलर की मूर्ति बनाकर जला देंगे, नारे लगाएंगे, चिल्लाएंगे, घर में बैठकर हिटलर को गालियां देंगे। एक काल्पनिक दुश्मन! हिटलर तो मौजूद नहीं है आपके सामने। और उसमें आपकी बहुत-सी ग्रंथियां विसर्जित होंगी। और उसका परिणाम यह होगा कि आपको मानसिक स्वास्थ्य मिलेगा।

इसलिए आप हैरान होंगे, हम चाहते हैं कि युद्ध न हो, लेकिन भीतर से हमारा कोई मन चाहता है कि युद्ध हो। युद्ध के वक्त लोग काफी खुश नजर आते हैं! हालांकि खतरा बहुत उपद्रव का होता है, लेकिन लोग खुश नजर आते हैं।

अभी हिंदुस्तान पर चीन का हमला हुआ। आपमें एकदम से जो शक्ति का संचार हुआ था, आप समझते हैं, उसका कारण क्या था? उसका कारण था, आपकी बहुत-सी ग्रंथियां जो शरीर में बंधी थीं, वे उस गुस्से में निकलीं और आप हलके हुए।

और जब तक दुनिया में ऐसे लोग हैं, जिनके शरीर अशुद्ध हैं, तब तक युद्ध से नहीं बचा जा सकता। युद्ध तब समाप्त होंगे, जब लोगों के शरीर इतने शुद्ध होंगे कि उनके पास कोई ग्रंथियां युद्ध में विसर्जित करने को नहीं होंगी। यानि आपको मैं यह कह रहा हूं, यह बहुत अजीब-सा लगेगा, लेकिन जब तक लोगों के शरीर शुद्ध स्थिति में नहीं हैं, दुनिया से युद्ध बंद नहीं हो सकते। कोई कितनी ही कोशिश करे, युद्ध का मजा रहेगा।

आपको भी लड़ने में मजा आता है। इसे जरा विचार करना। आपको लड़ने में मजा आता है। वह लड़ाई चाहे किसी तल की हो, चाहे श्वेतांबर दिगंबर जैन से लड़ता हो और चाहे हिंदू मुसलमान से लड़ता हो, वह लड़ाई का कोई तल हो।

आप हैरान होंगे। आप देखते हैं कि एक-एक छोटा धर्म बनता है, उसमें बीस-बीस संप्रदाय बन जाते हैं! फिर एक-एक संप्रदाय में छोटे-छोटे संप्रदाय बन जाते हैं! क्या कारण है?

लोगों के शरीर अशुद्ध हैं और ग्रंथियों से भरे हैं। और उनको लड़ने के लिए कोई भी बहाना चाहिए। वे कोई छोटा-सा बहाना लेंगे और लड़ेंगे। और लड़ने से उनको राहत मिलेगी, उनको हलकापन आएगा।

शरीर-शुद्धि प्राथमिक चरण है साधना का। तो आपके लिए मैं दो बातें कहता हूं। पुरानी जो ग्रंथियां हैं, उनको विसर्जित करने का तो उपाय यह है कि आप एकांत में बिलकुल जंगली हो जाएं। यानि छोड़ दें सारा खयाल, कमरा बंद कर लें। और सारी पर्तें, जो आपने जबरदस्ती अपने ऊपर लाद रखी हैं, वे सब छोड़ दें। और फिर होने दें; शरीर क्या करता है, उसे देखें आप। वह नाचता है, कूदता है, गिरकर पड़ा रह जाता है, घूंसे तानता है, किसी काल्पनिक दुश्मन को मारता है, छुरी मारता है, गोली चलाता है; क्या करता है, उसे देखें और चुपचाप उसे करने दें।

आप एक दो महीने के प्रयोग में बहुत हैरान हो जाएंगे। आप पाएंगे, आपके शरीर ने एक अदभुत सरलता, सात्विकता और शुद्धि को उपलब्ध किया है। उसका विसर्जन होगा। पुरानी ग्रंथियों की निर्जरा होगी।

जो पुराने साधक जंगलों में चले जाते थे और एकांत पसंद करते थे और नहीं चाहते थे कि भीड़ में आएं, उसका कुल सबसे बड़े कारणों में एक कारण यह भी था। उन एकांत में आपको पता नहीं, महावीर ने क्या किया! आपको पता नहीं है, बुद्ध ने क्या किया! आपको पता नहीं, मोहम्मद ने क्या किया! कोई किताबें नहीं कहतीं कि उन्होंने क्या किया। उन पहाड़ों पर जब वे थे, तो वे क्या कर रहे थे? तो मैं आपको कहता हूं कि यह हो नहीं सकता है कि उन्होंने यह न किया हो कि उन्होंने शरीर की ग्रंथियां विसर्जित न की हों। महावीर को तो हम निर्ग्रंथ कहते हैं। और उसका मैं जो अर्थ करता हूं, यही करता हूं, सारी ग्रंथियां क्षीण जिसकी हो गयी हैं।

और सारी ग्रंथियों का प्रारंभिक चरण शरीर है। तो शरीर की ग्रंथियां जो पीछे पकड़ी हैं, उनको विसर्जित करना है। आपको पहले अजीब-सा लगेगा। अगर आपको जोर से हंसी आए अपने इस काम पर कि मैं यह क्या पागलपन कर रहा हूं कि कूद रहा हूं, तो जोर से हंसिए। अगर आपको खूब रोना आए, तो जोर से रोइए।

आप बहुत हैरान होंगे। अगर आपको अभी मैं यहां कह दूं कि आप बिलकुल छोड़ दें अपना खयाल, तो आपमें से कई लोग रोने लगेंगे और कई लोग जोर से हंसने लगेंगे। कभी कोई रुदन, जो आना चाहा होगा, वह भीतर दबा रह गया है, वह निकलेगा। और कभी कोई हंसी, जो फूट पड़नी चाही थी लेकिन रोक ली गयी है, वह कहीं ग्रंथि बनकर रुकी हुई है, वह अब निकलेगी। बहुत एब्सर्ड मालूम होगा कि यह क्या हो रहा है, लेकिन यह होगा। इसका, इसका एकांत में प्रयोग करें शरीर-शुद्धि के लिए। जो पुरानी हमारे ऊपर ग्रंथियां हैं, वे हलकी होंगी।

दूसरी बात, नयी ग्रंथियां न बनें, इसका प्रयोग करें। यह तो पुरानी ग्रंथियों के विसर्जन के लिए मैंने कहा। नयी ग्रंथियां हम रोज बनाए चले जा रहे हैं। आपको मैंने कोई एक अपशब्द कह दिया और आपको क्रोध उठा, लेकिन सभ्यता और शिष्टता आपको उस क्रोध को प्रकट नहीं करने देगी। एक शक्ति का पुंज आपके भीतर घूमेगा। वह कहां जाएगा? वह किन्हीं नसों को सिकोड़कर, इरछा-तिरछा करके बैठ जाएगा। इसलिए क्रोधी आदमी के चेहरे में, आंखों में और शांत आदमी के चेहरे में और आंखों में फर्क होता है। क्योंकि वहां किसी क्रोध के वेग ने किसी चीज को विकृत नहीं किया है। और शरीर तब अपने परिपूर्ण सौंदर्य को उपलब्ध होता है, जब उसमें कोई ग्रंथियां नहीं होती हैं। यानि शरीर के सौंदर्य का कोई और मतलब ही नहीं है। आंखें तब बड़ी सुंदर हो जाती हैं। तब कुरूप से कुरूप शरीर भी सुंदर दिखने लगता है।

गांधी का शरीर कुरूप था, जब वे युवा थे। लेकिन जैसे-जैसे वे बूढ़े होते गए, उनमें एक अभिनव सौंदर्य आया, जो बहुत अदभुत था। वह सौंदर्य शरीर का नहीं था, वह ग्रंथियों के क्षीण होने का था। उसे कम लोग पहचाने और समझे होंगे। गांधी कुरूप थे, इसमें कोई शक नहीं है। तो गांधी का शरीर किसी भी सौंदर्य के मापदंड से सुंदर नहीं था। और अगर आप उनके पुराने चित्र देखेंगे, तो बचपन उनका कुरूप है, जवानी उनकी कुरूप है। लेकिन जैसे-जैसे वे बूढ़े होते हैं, वे कुछ सुंदर होते जाते हैं! बुढ़ापे में तो आदमी और असुंदर होता है, पर वे सुंदर होते जा रहे हैं।

और अगर जीवन का ठीक विकास हो, तो जवानी उतनी सुंदर नहीं होती, जितना बुढ़ापा होता है। क्योंकि जवानी में बड़े वेग होते हैं, बुढ़ापा बड़ा निरावेग हो जाता है। अगर ठीक से विकास हो, तो बुढ़ापा सुंदरतम क्षण है जीवन का, क्योंकि उस वक्त सारे वेग क्षीण हो जाते हैं। और सारी ग्रंथियां विलीन होनी चाहिए, अगर ठीक विकास हो।

इसलिए अगर आप खयाल करेंगे, कैसे यह हमारी विकृति इकट्ठी होती है शरीर के वेग की? मैंने आपको अपमानजनक शब्द कहा, आपमें क्रोध उठा। एक शक्ति पैदा हुई। और शक्ति नष्ट नहीं होती। कोई शक्ति नष्ट नहीं होती। अब उसका कोई उपयोग होना चाहिए। अगर उसका उपयोग नहीं होगा, तो वह आपको विकृत करके नष्ट हो जाएगी। तो उपयोग करिए। कैसे उपयोग करिएगा?

अगर समझ लीजिए, आपको क्रोध आ रहा है और आप दफ्तर में बैठे हुए हैं, और आपको बहुत जोर से क्रोध आया है और आप उसको प्रकट नहीं कर सकते, आप एक काम करिए। उस शक्ति को, जो पैदा हुई है, एक क्रिएटिव ट्रांसफार्मेशन करिए उसका। अपने दोनों पैरों को जोर से सिकोड़िए। वे पैर किसी को दिखायी नहीं पड़ रहे हैं। आप उन दोनों पैरों की सारी मसल्स को जोर से सिकोड़िए, जितना सिकोड़ सकें; स्टिफ करिए, पूरा खींचते जाइए। जब आपकी बिलकुल सामर्थ्य के बाहर हो जाए खींचना, तब उनको एकदम से रिलैक्स कर दीजिए।

आप हैरान होंगे, क्रोध निष्कासित हो गया है। और आपके पैर की मसल्स सुंदर हो जाएंगी, व्यायाम भी हो गया। वह जो क्रोध का वेग उठा था, उसने कुछ विकृत नहीं किया, बल्कि आपके पैर को सुंदर करके चला गया। तो आपके शरीर के जो अंग कमजोर हों, उनको क्रोध के माध्यम से सुंदर कर लीजिए, स्वस्थ कर लीजिए। क्योंकि वह जो एनर्जी पैदा हुई है, उसका क्रिएटिव, उसका सृजनात्मक उपयोग हो जाएगा।

अगर आपके हाथ कमजोर हैं, आप दोनों हाथों को जोर से भींचिए। वह सारी शक्ति जो क्रोध की पैदा हुई है, उन हाथों में लगेगी। अगर आपका पेट कमजोर है, तो सारी पेट की आंतों को अंदर सिकोड़िए। और उस क्रोध की शक्ति को, भावों में कल्पित करिए कि वह जाकर पेट की सारी नसों को सिकोड़ने में व्यय हो रही है। और आप हैरान होंगे, आप एक दो मिनट बाद पाएंगे कि क्रोध विलीन है और शक्ति उपयुक्त हो गयी है, शक्ति का प्रयोग हो गया।

शक्ति हमेशा तटस्थ है। यानि क्रोध की जो शक्ति पैदा हो रही है, वह बुरी नहीं है, उसका क्रोध की तरह उपयोग हो रहा है। उसका दूसरा उपयोग करिए। और जो उसका दूसरा उपयोग नहीं करेगा, वह शक्ति तो काम करेगी ही। वह शक्ति तो बिना काम के नहीं जाने वाली है। वह शक्ति तो काम करेगी ही। अगर हम उसका उपयोग सीख लेंगे, तो वह हमारे जीवन को क्रांति दे देगी।

तो पुरानी ग्रंथियों की निर्जरा और नयी ग्रंथियों का सृजनात्मक उपयोग शरीर-शुद्धि के लिए दो प्राथमिक चरण हैं। ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। सारे योग के आसन मूलतः शरीर के सृजनात्मक उपयोग के लिए हैं। प्राणायाम शरीर की शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग करने के लिए है।

जो व्यक्ति अपने शरीर की शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग नहीं करेगा, वे शक्तियां, जो कि वरदान हो सकती थीं, उसके लिए अभिशाप हो जाएंगी। हम सब अपनी ही शक्तियों से पीड़ित हैं–अगर आप समझें–हम सब अपनी ही शक्तियों से पीड़ित हैं। यानि हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पास शक्तियां हैं।

जीसस क्राइस्ट के जीवन में एक उल्लेख है। वे एक गांव से निकले। उन्होंने एक आदमी को एक छत पर जोर से गालियां बकते, अश्लील बातें बकते हुए देखा। वे सीढ़ियां चढ़कर उसके पास गए और उन्होंने उससे कहा कि ‘मेरे मित्र, यह तुम क्या कर रहे हो? और अपने जीवन को इस अश्लील बकवास में क्यों खर्च कर रहे हो? प्रतीत होता है, तुमने शराब पी ली है।’ उस आदमी ने आंख खोली, उसने ईसा को पहचाना। उसने उठकर ईसा के हाथ जोड़े। और उसने कहा कि ‘मेरे प्रभु, मैं तो बिलकुल बीमार था, मैं तो बिलकुल मरणासन्न था। तुमने अपने आशीर्वाद से मुझे ठीक कर दिया था। क्या तुम भूल गए? और अब मैं परिपूर्ण स्वस्थ हूं, लेकिन इस स्वास्थ्य का क्या करूं? तो शराब पी लेते हैं।’ ईसा बहुत हैरान हुए। उसने कहा कि ‘अब मैं परिपूर्ण स्वस्थ हूं। इस स्वास्थ्य का क्या करूं? तो अब शराब पी लेते हैं। जो बनता है, वह करते हैं।’

ईसा बहुत दुखी नीचे उतरे। वे गांव में अंदर गए, तो एक आदमी को उन्होंने एक वेश्या के पीछे भागते हुए देखा। तो उन्होंने उसे रोका और उन्होंने कहा कि ‘मित्र, अपनी आंखों का यह क्या उपयोग कर रहे हो?’ उसने ईसा को पहचाना और उसने कहा, ‘आप भूल गए? मैं तो अंधा था, आपने हाथ रखकर मेरी आंखें एक दफा ठीक कर दी थीं। अब इन आंखों का क्या करूं?’

ईसा बहुत दुखी मन उस गांव से वापस लौटते थे। एक आदमी गांव के बाहर छाती पीटकर रो रहा था। ईसा ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा कि ‘क्यों रो रहे हो? जीवन में बहुत आनंद है। जीवन रोने के लिए नहीं है।’ उसने ईसा को पहचाना और उसने कहा, ‘अरे, भूल गए! मैं मर गया था और कब्र में लोग मुझे ले जा रहे थे, तुमने अपने जादू से मुझे जिंदा कर दिया था। अब इस जीवन का मैं क्या करूं?’

यह कहानी बिलकुल काल्पनिक और झूठी-सी मालूम होती है, लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम इस जीवन का क्या कर रहे हैं? हमारे पास जीवन में जो भी शक्तियां मिली हैं, उन सबसे हम स्वयं अपना डिस्ट्रक्शन, उनसे हम स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं।

जीवन के दो ही रास्ते हैं। जो शक्तियां आपके शरीर और मन में हैं, उनका विनाश कर लें, यही नर्क का रास्ता है। और जो शक्तियां और ऊर्जाएं, जो एनर्जीज आपके भीतर हैं, उनका सृजनात्मक उपयोग कर लें, यही स्वर्ग का रास्ता है। सृजन स्वर्ग है और विनाश नर्क है। अपनी शक्तियों का जो सृजनात्मक, सारी शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग कर ले, उसने स्वर्ग की तरफ चरण रखने शुरू कर दिए। और जो अपनी शक्तियों का विनाशात्मक उपयोग कर ले, वह नर्क की तरफ जा रहा है। और कोई मतलब नहीं है।

आप अपने से पूछें, आप क्या कर रहे हैं? जब एक आदमी क्रोध से भरता है, तो आप समझते हैं, कितनी शक्ति, कितनी डायनेमिक फोर्स उसमें पैदा होती है? क्या आपको पता है, एक कमजोर आदमी भी क्रोध में आकर एक ऐसी चट्टान उठा सकता है, जो कि वह कभी शांत क्षणों में उठाने की कल्पना नहीं कर सकता था? क्या आपको पता है, एक क्रुद्ध आदमी अपने से बहुत बलिष्ठ शांत आदमी को क्षणों में परास्त कर सकता है?

एक दफा जापान में ऐसा हुआ। वहां एक वर्ग होता है समुराई, वहां के क्षत्रिय हैं वे। उनका धंधा तलवार है। और जीवन-मरना वही उनका शौक है। एक समुराई बहुत बड़ा सैनिक था, बहुत बड़ा सेनापति था। उसकी पत्नी से, उसके घर में जो नौकर था, उसका प्रेम हो गया। वहां यह रिवाज था कि अगर किसी की पत्नी से किसी का प्रेम हो जाए, तो वह उसे द्वंद्व-युद्ध के लिए ललकारे। तो दो में से एक मर जाएगा, जो शेष रहेगा, पत्नी से उसका विवाह हो जाएगा या पत्नी उसकी होगी। उसके नौकर का समुराई, एक बहुत बड़े सेनापति की पत्नी से प्रेम हो गया।

सेनापति ने कहा, पागल, अब द्वंद्व-युद्ध के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। अब हम लड़ेंगे। अब तू कल तलवार लेकर सुबह आ जा। वह तो बड़ा घबराया। वह तो तलवार का मास्टर था, वह तो अदभुत कुशल आदमी था, जो मालिक था। यह बेचारा नौकर, घर में झाडू-बुहारी लगाता था, यह क्या तलवार चलाता! इसने तलवार कभी छुई नहीं थी। इसने उससे कहा कि ‘मैं कैसे तलवार उठाऊंगा?’ लेकिन उसने कहा, ‘अब इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। अब रास्ता यही है कि तुम कल तलवार लेकर आ जाओ।

वह घर गया, उसने रातभर सोचा। इसके सिवाय कोई रास्ता ही नहीं था। उसने सुबह तलवार उठायी। उसने कभी इसके पहले जिंदगी में तलवार नहीं उठायी थी। उसने सुबह तलवार उठायी, वह तलवार लेकर पहुंचा। लोग देखकर दंग रह गए। वह तो जैसे आग का अंगारा था, जब वह तलवार लेकर वहां पहुंचा। वह सेनापति थोड़ा घबराया। और उसने पूछा कि ‘तुम तलवार उठाना भी जानते हो?’ वह बिलकुल गलत ही पकड़े हुए था। उसने कहा, ‘अब कोई सवाल नहीं है। अब मरना ही है। और मरना ही है, तो मारने की एक कोशिश करेंगे। तो मरना तय है, अब एक मारने की कोशिश करेंगे।’

और वह बड़ा अजीब द्वंद्व-युद्ध हुआ। उसमें सेनापति मारा गया और वह नौकर जीता। उसमें इस वजह से कि अब मरना ही है और कोई रास्ता नहीं है, अदभुत ऊर्जा और शक्ति पैदा हुई। वह तलवार चलाना बिलकुल नहीं जानता था। उसने बिलकुल ही गलत वार किए। बिलकुल ही गलत! जो कि उसके ही विपरीत थे। लेकिन उसके वार देखकर, उसके क्रोध को और उसकी स्थिति को देखकर, सेनापति पीछे हटने लगा। उसकी सारी कुशलता व्यर्थ हो गयी। क्योंकि वह बिलकुल शांत लड़ रहा था। उसे कोई–कोई खास बात नहीं थी। उसके लिए लड़ाई बिलकुल साधारण-सी बात थी। वह पीछे हटने लगा। और उस ऊर्जा में उसकी मृत्यु हुई, उसे मरना पड़ा। और वह आदमी जीता, जो कि बिलकुल ही नासमझ था, जो उस कला को भी नहीं जानता था।

क्रोध में या ऐसे किसी भी वेग में आपके भीतर बहुत शक्ति उत्पन्न होती है। आपके सारे कण, आपके शरीर में जितने लिविंग सेल्स हैं, जितने जीवित कोष्ठ हैं, वे सबके सब अपनी शक्ति का दान करते हैं। और आपके शरीर में बहुत-से संरक्षित कोश हैं शक्ति के। वे हमेशा सुरक्षा के लिए, सेफ्टी मेजर्स हैं, वे सामान्यतया काम में नहीं आते।

अगर आपको हम कहें, दौड़िए प्रतियोगिता में, आप कितने ही तेज दौड़िए, आप उतने तेज कभी नहीं दौड़ सकते, जितना एक आदमी आपके पीछे बंदूक लेकर लगा हो, तब आप दौड़ेंगे। तो सवाल यह है कि आप अपनी चेष्टा से बहुत दौड़े प्रतियोगिता में, लेकिन आप उतने कभी नहीं दौड़ सकते, जब एक आदमी बंदूक लेकर लगा हो। उस वक्त जो सेफ्टी मेजर्स हैं आपके भीतर, आपके शरीर में जो ग्रंथियां शक्ति को रखे हुए हैं जरूरत के लिए, वे अपनी शक्ति को खून में छोड़ देती हैं। उस वक्त आपका शरीर बड़ी शक्ति से आप्लावित हो जाता है। अगर उस शक्ति का उपयोग सृजनात्मक न हो, तो वह शक्ति आपको ही खंडित करेगी और आपको ही तोड़ देगी।

इस दुनिया में अशक्त लोग पाप नहीं करते हैं, शक्तिशाली लोग पाप करते हैं। और मजबूरी में! उनकी शक्ति उन्हें पाप करवाती है। इस दुनिया में अशक्त लोग बुरे काम नहीं करते। इस दुनिया में शक्तिशाली लोग बुरे काम करने को मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि शक्ति का सृजनात्मक उपयोग उन्हें पता नहीं है। इसलिए जितने अपराधी हैं, जितने पापी हैं, उन्हें आप शक्ति का स्रोत समझिए। और अगर उन्हें संपर्क मिल जाए, तो उनकी सारी शक्तियां अदभुत रूप से परिवर्तित हो जाती हैं।

इसलिए आपको पता होगा, धार्मिक इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जब कि पापी क्षणभर में पुण्यात्मा हो गए हैं। और उसका कुल कारण इतना है कि शक्तियां बहुत थीं, केवल ट्रांसफार्मेशन की बात थी, एक जादू का संपर्क चाहिए था और सब बदल जाएगा।

अंगुलीमाल ने इतनी हत्याएं कीं। उसने एक हजार लोगों की हत्या करने का व्रत लिया था। उसने नौ सौ निन्यानबे लोगों की हत्या करके माला पहन ली थी। उसे आखिरी आदमी चाहिए था। जिस जगह खबर हो जाती थी कि अंगुलीमाल है, वहां रास्ते निर्जन हो जाते थे, क्योंकि वहां कौन चलता! वह तो देखता ही नहीं था, विचार ही नहीं करता था। जो आया, उसकी हत्या करता था। खुद बादशाह प्रसेनजित जो था बिहार का, वह डरता था। उसकी छाती कंप जाती थी अंगुलीमाल का नाम सुनकर। उसने बड़े सैनिक वहां भेजे, लेकिन अंगुलीमाल पर कोई कब्जा नहीं हुआ।

बुद्ध उस पहाड़ से निकलते थे। लोगों ने, गांव के लोगों ने कहा, ‘इधर मत जाइए। आप एक निहत्थे भिक्षु हैं, अंगुलीमाल हत्या कर देगा!’ बुद्ध ने कहा, ‘हम तो जो रास्ता चुनते हैं, उस पर चलते हैं। और किसी की वजह से उसको नहीं बदलते हैं। और अगर अंगुलीमाल यहां है, तो हमारी और भी जरूरत हो गयी है कि हम वहां जाएं। अब देखना यह है कि अंगुलीमाल हमें मारता है या हम अंगुलीमाल को मारते हैं।’ तो लोगों ने कहा, ‘बड़ी पागलपन की बात है। आपके पास कुछ भी नहीं है, आप अंगुलीमाल को मारिएगा? निहत्थे, कमजोर बुद्ध और अंगुलीमाल बड़ा बिलकुल दैत्य जैसा आदमी!’ बुद्ध ने कहा, ‘अब देखना यह है कि अंगुलीमाल बुद्ध को मारता है या बुद्ध अंगुलीमाल को मारते हैं। और हम तो जो रास्ता चुनते हैं, उस पर चलते हैं। और यह और भी सौभाग्य कि अंगुलीमाल से मिलना हो जाएगा। अनायास यह मौका आ गया!’

बुद्ध वहां गए। अंगुलीमाल ने अपनी टेकरी पर से देखा कि एक निहत्था भिक्षु शांत रास्ते पर चला आ रहा है। उसने वहीं से चिल्लाकर कहा कि ‘देखो, यहां मत आओ। सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि तुम संन्यासी हो। वापस लौट जाओ। इतनी दया आ गयी तुम्हारी चाल देखकर। धीमे-धीमे चले आ रहे हो। तुम लौट जाओ, आगे मत बढ़ो। क्योंकि हम किसी पर दया करने के आदी नहीं हैं, हत्या कर देंगे।’ बुद्ध ने कहा, ‘हम भी किसी की दया करने के आदी नहीं हैं।’ बुद्ध ने कहा, ‘हम भी किसी की दया करने के आदी नहीं हैं। और जहां चुनौती हो, वहां तो संन्यासी पीछे कैसे लौटेगा? तो हम तो आते हैं, तुम भी आओ।’

अंगुलीमाल बहुत हैरान हुआ। यह आदमी पागल है! उसने अपना फरसा उठाया और वह नीचे उतरा। जब वह बुद्ध के पास पहुंचा, तो बुद्ध से उसने कहा कि ‘अपने हाथ से अपनी मृत्यु मोल ले रहे हो!’ बुद्ध ने कहा, ‘इसके पहले कि तुम मुझे मारो, एक छोटा-सा काम करो। यह जो सामने वृक्ष है, इसके चार पत्ते तोड़ दो।’ उसने अपने फरसे को मारा, एक डगाल तोड़ दी। और उसने कहा, ‘ये रहे चार क्या, चार हजार!’

बुद्ध ने कहा, ‘अब एक छोटा काम और करो। इसके पहले कि तुम मुझे मारो, इनको वापस इसी दरख्त में जोड़ दो।’ वह आदमी बोला कि ‘यह तो मुश्किल है।’ तो बुद्ध ने कहा, ‘तोड़ना तो बच्चा भी कर देता। जोड़ना! तोड़ना तो बच्चा भी कर देता; जोड़ना जो कर सके, उसमें पुरुष है, उसमें पुरुषार्थ है। तुम बहुत कमजोर आदमी हो। तुम सिर्फ तोड़ सकते हो। तुम यह खयाल छोड़ दो कि तुम बड़े शक्तिशाली हो। एक पत्ता नहीं जोड़ सकते!’

उसने एक क्षण गौर से सोचा। उसने कहा, ‘यह तो जरूर है। क्या पत्ता जोड़ने का भी कोई रास्ता हो सकता है?’ बुद्ध ने कहा, ‘है। हम उसी रास्ते पर चल रहे हैं।’ उसने गौर से देखा और उसके स्वाभिमान को पहली दफा यह पता चला, मारने में कोई मतलब नहीं है। मारना कमजोर भी कर सकता है। तो उसने कहा, ‘मैं तो कमजोर नहीं हूं। मैं अब क्या करूं?’ बुद्ध ने कहा, ‘मेरे पीछे आओ।’

वह उस दिन भिक्षा मांगने गांव में गया। भिक्षु हो गया वह, गांव में भिक्षा मांगने गया। लोगों ने–सब लोग डर के मारे अपने मकानों पर चढ़ गए और उसको पत्थर मारे। वह नीचे गिर पड़ा लहूलुहान। उस पर पत्थर पड़ रहे हैं। बुद्ध उसके पास आए और उससे कहा, ‘अंगुलीमाल, ब्राह्मण अंगुलीमाल, उठो! आज तुमने पुरुषार्थ को सिद्ध कर दिया। जब उनके पत्थर तुम्हारे ऊपर पड़ रहे थे, तो तुम्हारे हृदय में जरा भी क्रोध नहीं आया। और जब तुम्हारे शरीर से लहू गिरने लगा और तुम जमीन पर गिर गए, तब भी तुम्हारे हृदय में उनके प्रति प्रेम ही भरा हुआ था। तुमने अपने पुरुष को सिद्ध कर दिया। और तुम ब्राह्मण हो गए।’

प्रसेनजित को खबर लगी, तो वह मिलने आया बुद्ध से कि अंगुलीमाल परिवर्तित हुआ है! वह आकर बैठा। उसने कहा, ‘हम सुनते हैं कि अंगुलीमाल साधु हो गए हैं। क्या मैं उनके दर्शन कर सकता हूं?’ बुद्ध बोले, ‘जो बगल में भिक्षु मेरे बैठे हुए हैं, वह अंगुलीमाल हैं।’ प्रसेनजित ने सुना, उसके हाथ-पैर कंप गए। नाम तो पुराना था और डर वही था उस आदमी का। अंगुलीमाल ने कहा, ‘मत डरो। वह आदमी गया। वह शक्ति जो उस आदमी की थी, परिवर्तित हो गयी। अब हम दूसरे रास्ते पर हैं। अब तुम हमें मार डालो, तो हमारे मन से तुम्हारे प्रति कोई–कोई अशुभ आकांक्षा नहीं उठेगी।’

जब बुद्ध से लोगों ने पूछा कि इतना बड़ा पापी कैसे परिवर्तित हुआ! तो बुद्ध ने कहा, ‘पाप और पुण्य का प्रश्न नहीं है, शक्ति के परिवर्तन का प्रश्न है।’

इस दुनिया में कोई बुरा नहीं है और इस दुनिया में कोई भला नहीं है; केवल शक्ति की दिशाएं हैं। हमारे भीतर बहुत शक्ति है इस शरीर में। इस शरीर की शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग!

तो एक तो मैंने कहा कि जब भावावेश उठे, तो आप शरीर के किसी अंग से उस भावावेश का उपयोग कर लें, उसे एक्सरसाइज में उपयोग कर लें। दूसरी बात, अपने जीवन में कुछ सृजनात्मक काम सीखें। हम सब गैर सृजनात्मक हैं।

पुराने दिन थे–कल मैं बात करता था रात–पुराने दिन थे, एक गांव में एक आदमी जूता बनाता था। और कोई उसके जूते को पहनता था, तो वह गौरव से कहता था, मेरा बनाया हुआ जूता है। एक सृजन का आनंद था। एक आदमी गाड़ी का चाक बनाता था, तो मेरा बनाया हुआ है।

आज दुनिया में सृजन का कोई आनंद नहीं रह गया है। आपका बनाया हुआ कुछ भी नहीं है। आपका बनाया हुआ कुछ भी नहीं है। यह दुनिया जैसी है, उसमें आदमी का बनाया हुआ अब कुछ भी नहीं रह जाएगा। उसका परिणाम यह हुआ है कि जो सृजनात्मक आनंद था आपका, वह विलीन हो गया है। और अगर वह विलीन हो जाएगा, तो शक्तियों का क्या होगा? वे विनाश की तरफ उत्सुक होंगी। स्वाभाविक शक्ति का कुछ न कुछ होगा, या तो विनाश होगा या सृजन होगा।

तो जीवन में कोई सृजनात्मक काम भी करें। सृजनात्मक मतलब, जो सिर्फ आप अपने आनंद के लिए निर्मित कर रहे हैं। एक मूर्ति बनाएं, तो कोई हर्ज नहीं। एक गीत लिखें, एक गीत गाएं, एक सितार को बजाएं, तो कोई हर्ज नहीं। उसे करें सिर्फ आनंद के लिए, व्यवसाय के लिए नहीं। जीवन में एक काम चुनें, जो आपका आनंद है, जो आपका व्यवसाय नहीं है। तो आपकी बहुत-सी शक्तियों का विनाशात्मक रुख परिवर्तित होगा और वे सृजन में लगेंगी।

भावावेशों को रोकने के लिए मैंने कहा। और यह सामान्य जीवन को सृजनात्मक दृष्टि दें। कोई फिक्र नहीं, घर में एक बगिया लगाएं और उन फूलों को प्रेम करें और उनका आनंद लें। कोई फिक्र नहीं, एक पत्थर को घिसकर छोटी-सी मूर्ति बनाएं। हर आदमी जो समझदार है, आजीविका के अतिरिक्त कुछ समय सृजन के लिए देगा। और जो नहीं देगा, वह गलती में पड़ जाएगा, उसका जीवन खराब हो जाएगा।

एक छोटा-सा गीत लिखें। कोई फिक्र नहीं, एक अस्पताल में जाएं और कुछ मरीजों को दो-दो फूल दे आएं। कोई फिक्र नहीं है, रास्ते पर कोई भिखमंगा मिल जाए, दो क्षण उसे गले लगा लें। कोई फिक्र नहीं है, कुछ सृजनात्मक करें, जो सिर्फ आनंद है आपका और जिसमें आपको कुछ लेना नहीं है, कुछ देना नहीं है। जिसे कर लेना ही आपका आनंद है।

तो जीवन में कुछ एक बिंदु चुनें, जिसे सिर्फ कर लेना आपका आनंद है। आपकी सारी शक्तियां उस तरफ उन्मुख होंगी और विनाश के लिए आपके पास शक्तियां नहीं बचेंगी। जो आदमी जितना सृजनात्मक होगा, उतना ही उसका क्रोध, उसका सेक्स विलीन हो जाएगा। ये असृजनात्मक आदमी के लक्षण हैं। आपके पास बहुत शक्ति है, वह कहां जाएगी? वह सेक्स से निकलेगी, कामवासना से निकलेगी। निकलना जरूरी है।

जो दुनिया में बहुत बड़े-बड़े सृजनात्मक मूर्तिकार, चित्रकार या कवि हुए हैं, उनके अविवाहित रह जाने का और कोई रहस्य नहीं है। कुल इतना ही रहस्य है कि वह सारी शक्ति उनकी सृजन में विलीन हो गयी, वह ट्रांसफार्म हो गयी, सब्लिमेट हो गयी। अगर वह वहां सब्लिमेट न होती, तो बहुत निम्नतल के सृजन में व्यय होती, संतति के सृजन में। तो वह बच्चे पैदा करने में व्यय होती। वही शक्ति, जो कि किन्हीं अमर काव्यों के, अमर चित्रों के निर्माण में व्यय हो गयी।

तो जीवन में शक्ति का सब्लिमेशन, उसका उद्दातीकरण बहुत जरूरी है। तो एक यह स्मरण रखें। शरीर की संपूर्ण शुद्धि के लिए जीवन में कुछ सृजनात्मक होने की चेष्टा करें। सृजनात्मक मनुष्य ही केवल धार्मिक हो सकता है; और कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता।

शरीर-शुद्धि के लिए ये बुनियादी बातें मैंने आपसे कहीं, बहुत बुनियादी। अब बहुत गौण बातें। ये बहुत बुनियादी बातें हैं। इनको जो सम्हालता है, गौण बातें अपने आप सम्हल जाएंगी। बहुत गौण बातों में यह है, जिसको हम अपने मुल्क में आहार कहते हैं, वह शरीर-शुद्धि में उपयोगी है। आपका शरीर तो बिलकुल भौतिक संस्थान है। उसमें आप जो डालते हैं, उसके परिणाम होने स्वाभाविक हैं। अगर मैं शराब पी लूंगा, तो मेरे शरीर के सेल बेहोश हो जाएंगे। यह बिलकुल स्वाभाविक है। और अगर शरीर मेरा बेहोश है, तो उस बेहोशी का परिणाम मेरे मन पर पड़ेगा।

मन और शरीर बहुत अलग-अलग नहीं हैं, बहुत संयुक्त हैं। हमारा जो व्यक्तित्व है, वह शरीर और मन, ऐसा अलग-अलग नहीं है। शरीर-मन ऐसा इकट्ठा। वह साइकोसोमैटिक है। उसमें हमारा शरीर और मन इकट्ठा है। शरीर का ही अत्यंत सूक्ष्म हिस्सा मन है और मन का ही अत्यंत स्थूल हिस्सा शरीर है। इसे यूं समझिए, ये दोनों बिलकुल अलग-अलग चीजें नहीं हैं।

इसलिए जो शरीर में घटित होगा, उसके परिणाम मन में प्रतिध्वनित होते हैं। और जो मन में घटित होता है, उसके परिणाम शरीर तक आ जाते हैं। अगर मन बीमार है, शरीर ज्यादा देर स्वस्थ नहीं रहेगा। अगर शरीर बीमार है, तो मन ज्यादा देर स्वस्थ नहीं रह सकेगा। ये खबरें एक-दूसरे में सुनी और समझी जाती हैं। इसलिए जो लोग मन को स्वस्थ रखने का उपाय समझ लेते हैं, वे शरीर के बाबत मुफ्त में बहुत-सा स्वास्थ्य उपलब्ध कर लेते हैं। जिसके लिए वे कोई कमाते नहीं हैं, जिसके लिए वे कोई प्रयास नहीं करते हैं।

शरीर और मन संयुक्त घटना है। शरीर पर जो होगा, वह मन पर होगा। इसलिए आपके अपने आहार में, आपके भोजन में आपको थोड़ा विवेकपूर्ण होना जरूरी है।

पहली बात, वह इतना ज्यादा न हो कि शरीर उसके कारण आलस्य से भरता हो। आलस्य अशुद्धि है। वह ऐसा न हो कि शरीर उत्तेजना से भरता हो। उत्तेजना अशुद्धि है। क्योंकि उत्तेजना ग्रंथियां पैदा करेगी। वह ऐसा न हो कि शरीर क्षीण होता हो, क्योंकि क्षीणता कमजोरी है। और शक्ति अगर उत्पन्न न होगी, तो परमात्मा की तरफ विकास भी नहीं हो सकता। शक्ति पैदा हो, लेकिन शक्ति उत्तेजक न हो, ऐसा आहार होना चाहिए। शक्ति पैदा हो, लेकिन वह इतनी न हो कि शरीर उसके कारण आलस्य से भर जाए।

अगर आपने जरूरत से ज्यादा भोजन किया है, तो सारे शरीर की शक्ति उसको पचाने में लग जाती है, शरीर में आलस्य छा जाता है। शरीर में आलस्य छाने का और कोई मतलब नहीं है। सारी शक्ति पचाने में लगती है, तो शरीर आलस्य से भर जाता है। आलस्य इस बात की सूचना है कि भोजन जरूरत से ज्यादा हो गया।

भोजन के बाद आलस्य नहीं, स्फूर्ति आनी चाहिए। यानि स्वाभाविक है। भूख लगी थी, फिर भोजन किया, तो स्फूर्ति आनी चाहिए, क्योंकि शक्ति उत्पन्न होने का स्रोत भीतर गया। लेकिन आपको तो आलस्य आता है। आलस्य इस बात का मतलब है कि आपने इतना भोजन कर लिया कि अब शरीर की सारी शक्ति उसको पचाएगी, तो शरीर अपनी सारी शक्ति को खींचकर पेट में ले जाएगा और सब तरफ से शक्ति क्षीण होने से आलस्य आ जाएगा।

तो भोजन स्फूर्ति दे, तब सम्यक है। भोजन उत्तेजना न दे, तब सम्यक है। भोजन मादकता न दे, तब सम्यक है।

तो तीन बातें स्मरण रखें: भोजन सुस्ती न दे, तो वह शुद्ध है; भोजन उत्तेजना न दे, तो वह शुद्ध है; और भोजन मादकता न दे, तो वह शुद्ध है। ये मोटी बातें हैं। और आपको इतना नासमझ मैं नहीं मानता कि इनके विस्तार में चर्चा करने की जरूरत है। इनको आप समझेंगे और अपने ढंग से इनको व्यवस्थित करेंगे।

दूसरी बात गौण बातों में, शरीर के लिए थोड़ा-सा व्यायाम अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि शरीर जिन तत्वों से मिलकर बना है, वे तत्व व्यायाम के समय में विस्तार पाते हैं। व्यायाम का मतलब, विस्तार। संकोच के विपरीत है व्यायाम शब्द। व्यायाम का अर्थ है विस्तार। जब आप दौड़ते हैं, तो आपके सारे कण और सारे लिविंग सेल्स, पूरे जीवित कोष्ठ विस्तृत होते हैं, फैलते हैं। और जब वे फैलते हैं, तो आपको स्वास्थ्य का अनुभव होता है। जब वे सिकुड़ते हैं, तो बीमारी का अनुभव होता है। जब आपकी श्वास पूरे के पूरे प्राण के फेफड़े को खोलती है और सारे कार्बन डाइआक्साइड को बाहर फेंकती है, तो आपकी खून की गति बढ़ती है। और खून की गति बढ़ती है, तो शरीर की सारी अशुद्धियां दूर होती हैं। इसलिए योग ने शरीर-शौच को, शरीर की परिपूर्ण शुद्धि को बहुत अनिवार्य नियमों के अंतर्गत रखा है। तो थोड़ा व्यायाम।

अति विश्राम नुकसान करता है, अति व्यायाम भी नुकसान करता है। इसलिए अति व्यायाम को नहीं कह रहा हूं। अति व्यायाम नहीं, थोड़ा, सम्यक व्यायाम कि जिससे आपको स्वास्थ्य का बोध हो। और अति विश्राम नहीं, थोड़ा विश्राम भी। जितना व्यायाम, उतना विश्राम।

इस सदी में व्यायाम भी नहीं है और विश्राम भी नहीं है। हम बहुत अजीब हालत में हैं। आप व्यायाम तो करते नहीं, आप विश्राम भी नहीं करते। जिसको आप विश्राम कहते हैं, वह विश्राम नहीं है। आप पड़े हैं, करवटें बदल रहे हैं, वह विश्राम नहीं है। एक गहरी प्रगाढ़ निद्रा! जिसमें कि सारा शरीर सो जाए और उसके सारे काम का जो भी बोझ और भार उस पर पड़ा है, वह सब विलीन हो जाए।

क्या आपने कभी खयाल किया, अगर आप सुबह बहुत अस्वस्थ उठे हैं और तबियत ताजी नहीं है, तो आपका व्यवहार स्वस्थ नहीं होता! अगर आपको नींद अच्छी नहीं हुई और सुबह एक भिखारी आपसे भीख मांगने आया है, बहुत असंभव है कि आप उसे भीख दे सकें। और अगर आप रात बहुत गहरी नींद सोए हैं और किसी ने हाथ बढ़ाए हैं, तो बहुत असंभव है कि आप अपने हाथ को देने से रोक सकें।

इसलिए भिखारी सुबह आपके घर मांगने आते हैं, शाम को नहीं आते हैं। क्योंकि सुबह संभावना मिलने की है, शाम को कोई संभावना नहीं है। यह बहुत मनोवैज्ञानिक है। भिखारी यूं ही नहीं सुबह आपके घर आ रहा है। शाम को नहीं आता है। शाम को कोई मतलब नहीं है। शाम को आप इतने थके और शरीर इतना गलत हालत में होगा कि आप शायद ही किसी को कुछ दे सकें। इसलिए वह सुबह आता है। अभी सूरज ऊग रहा है, आप नहाए होंगे, किसी ने घर में प्रार्थना की होगी। और वह बाहर आकर बैठा है। अभी इनकार करना बहुत मुश्किल होगा।

शरीर को ठीक विश्राम मिले, तो आपका व्यवहार बदलता है। इसलिए हमने आहार और विहार को संयुक्त माना है हमेशा से। जैसा आहार होगा, जैसा विहार होगा, अगर उन दोनों में सात्विकता होगी, तो जीवन में बड़ी गति और बड़ा आंतरिक प्रवेश होना शुरू होता है।

स्वास्थ्य की एक भूमिका बहुत जरूरी है। और उसके लिए सम्यक आहार, सम्यक व्यायाम और सम्यक विश्राम, इनको आप बुनियादी हिस्से मानें।

विश्राम भी करने के लिए कुछ समझ चाहिए, जैसा व्यायाम करने के लिए कुछ समझ चाहिए। विश्राम करने के लिए समझ चाहिए, शरीर को छोड़ने की समझ चाहिए। वह हम रात्रि को जब ध्यान करेंगे, तो उससे आपको समझ में आएगा कि उस ध्यान के बाद अगर आप विश्राम करते हैं, तो विश्राम वास्तविक होगा।

हो सकता है, यहां कुछ मित्र हों, जो शारीरिक रूप से बहुत व्यायाम न कर सकते हों, न जा सकते हों जंगल और पहाड़ न चढ़ सकते हों, उनके लिए मैं एक दूसरा प्रयोग कहता हूं। वे केवल पंद्रह मिनट को सुबह उठकर स्नान करने के बाद एकांत कमरे में लेट जाएं, आंख बंद कर लें और कल्पना करें कि मैं पहाड़ियां चढ़ रहा हूं और दौड़ रहा हूं। सिर्फ कल्पना करें, कुछ न करें। वृद्ध हैं, वे नहीं जा सकते हैं। या ऐसी जगह हैं कि वहां घूमने नहीं जा सकते हैं। तो एकांत कमरे में लेट जाएं, आंख बंद कर लें और कल्पना करें कि मैं जा रहा हूं, एक पहाड़ चढ़ रहा हूं और दौड़ रहा हूं। धूप तेज है और मैं भागा चला जा रहा हूं। मेरी श्वास जोर से बढ़ रही है।

और आप हैरान होंगे, आपकी श्वास बढ़ने लगेगी। और आपकी इमेजिनेशन, आपकी कल्पना जितनी प्रगाढ़ होती जाएगी, आप पंद्रह मिनट में पाएंगे कि जो घूमने का फायदा था, वह मिल गया है। आप पंद्रह मिनट बाद बिलकुल ताजे, व्यायाम करके उठ आएंगे। जरूरी नहीं है कि आप व्यायाम करने जाएं। शरीर के अणुओं को पता चलना चाहिए कि व्यायाम हो रहा है, तो वे तैयार हो जाते हैं। यानि वे उसी स्थिति में आ जाते हैं, जिस स्थिति में वस्तुतः आप चले होते तब आते। वे उसी स्थिति में आ जाते हैं।

क्या आपने कभी खयाल नहीं किया, स्वप्न में घबड़ा गए हों, तो उठने के बाद भी हृदय कंपता रहता है। क्यों? स्वप्न की घबड?ाहट तो बड़ी झूठी थी, लेकिन हृदय क्यों कंप रहा है? जागने पर भी क्यों कंप रहा है? हृदय तो कंप गया, हृदय को बिलकुल पता नहीं है कि यह स्वप्न में घटना घटी कि सच में घटना घटी। हृदय को तो पता है कि घटना घटी, बस।

तो अगर आप इमेजिनेशन में भी व्यायाम करते हैं, तो फायदा उतना ही हो जाता है, जितना कि वस्तुतः व्यायाम करिए। कोई भेद नहीं पड़ता। इसलिए जो बहुत समझदार थे इस मामले में, उन्होंने बड़ी अदभुत तरकीबें निकाल ली थीं। अगर उन्हें आप एक जेल में भी बंद कर दें, तो उनके स्वास्थ्य को कोई नुकसान नहीं पड़ेगा। क्योंकि वे पंद्रह मिनट विश्राम करके और व्यायाम कर लेंगे।

तो इसको भी करके देखें। जो नहीं जा सकते हैं, नहीं जाने की स्थितियों में हैं, वे इसका प्रयोग करें। और निद्रा के लिए रात्रि का जो ध्यान है, उसके बाद निद्रा करें। शरीर ऐसे शुद्ध होगा। और शरीर शुद्ध होगा, तो शरीर की शुद्धि भी अपने आप में एक अदभुत आनंद है। और उस आनंद में फिर और अंतस प्रवेश होता है। यह पहला चरण हुआ।

दूसरे दो चरण हैं भूमिका के, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि। उनकी मैं बात करूंगा।

तीन चरण होंगे परिधि के–शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि, भाव-शुद्धि। और तीन चरण होंगे केंद्र के–शरीर-शून्यता, विचार-शून्यता और भाव-शून्यता। ये छः चरण जब पूरे होते हैं, तो समाधि घटित होती है। तो उनकी हम क्रमशः इन तीन दिनों में बात करेंगे। यह बात काफी होगी। इस पर आप विचार करेंगे, समझेंगे और इसका प्रयोग करेंगे। क्योंकि मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह सब प्रयोग करने की बात है। प्रयोग करेंगे, तो ही उसका अर्थ खुलेगा, अन्यथा मेरी बातचीत से उसका कोई अर्थ नहीं खुलता।

अब हम सुबह का ध्यान करेंगे और फिर विदा होंगे। सुबह के ध्यान के लिए थोड़ी-सी बात आपको कह दूं। सुबह के ध्यान का पहला चरण तो वही होगा, जिसको हमने रात्रि में संकल्प कहा। पांच बार हम संकल्प की स्थिति करेंगे। उसके बाद, जब संकल्प हम कर चुके होंगे, दो मिनट तक धीमी श्वास लेकर बैठे रहेंगे। उसके बाद हम भावना करेंगे। पहले संकल्प, फिर भावना और फिर ध्यान। ऐसे तीन चरण होंगे सुबह के लिए।

संकल्प, रात्रि को जैसा मैंने कहा, वैसा। श्वास को पूरा गहरा अंदर ले जाएंगे। जब श्वास अंदर जाने लगेगी, तब मन में यह भाव करेंगे कि मैं संकल्प करता हूं कि मेरा ध्यान में प्रवेश होकर रहेगा। मैं ध्यान में प्रविष्ट होऊंगा। इस भाव को करते रहेंगे, जब श्वास अंदर जाएगी और पूरे फेफड़ों में भरेगी। पूरी भर लेनी है, जितनी आपसे बन सके। फिर उसे एक सेकेंड, दो सेकेंड, जितनी देर आप रोक सकें, रोके रखना है। जब श्वास को आप ले जाते हैं, पूरा ले जाएं, फिर उसे थोड़ी देर रोकें। जिन्हें योग ने पूरक, कुंभक और रेचक कहा है, वही प्रक्रिया है। श्वास को पूरा अंदर ले जाएं, फिर उसे रोकें और इस पूरे वक्त संकल्प करते रहें, मन में वही संकल्प गूंजता रहे। फिर पूरी श्वास को बाहर फेंकें, मन में वही संकल्प गूंजता रहे। फिर थोड़ा रुकें और मन में वही संकल्प गूंजता रहे।

इस भांति आपके पूरे अंतस चेतन मन तक, अंतःकरण तक यह संकल्प प्रविष्ट हो जाएगा। आपके पूरे व्यक्तित्व को पता चल जाएगा कि निर्णय हुआ है कि ध्यान में प्रवेश करना है। तो आपको पूरे व्यक्तित्व का सहयोग मिलेगा। अन्यथा आप ऊपर ही घूमते रहेंगे, उससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा बहुत।

तो पहले तो संकल्प, फिर भावना। संकल्प के बाद भावना–जो मैंने कल आपको कही–आशा, आनंद, विश्वास, वह दो मिनट तक करेंगे। दो मिनट तक अपने सारे शरीर को अनुभव करेंगे कि आप बहुत स्वास्थ्य से भरे हुए हैं, बहुत आनंद का अनुभव कर रहे हैं, सारे शरीर के कण-कण प्रफुल्ल हो गए हैं और बड़ी आशा की स्थिति है। कुछ होगा।

संकल्प। फिर यह भावना कि मेरे चारों तरफ अत्यंत शांति है, मेरे भीतर अत्यंत आनंद है, मेरे भीतर अत्यंत आशा है और मेरे शरीर का कण-कण उन्मुख है और उत्सुक है और प्रफुल्ल है, इसका भाव करेंगे। उसके बाद फिर सुबह का ध्यान करेंगे।

सुबह के ध्यान में रीढ़ को सीधा रखना है। बिना हिले-डुले आराम से बैठ जाना है। सारे शरीर के कंपन को छोड़ देना है, रीढ़ को सीधा कर लेना है। आंख को बंद कर लेना है। फिर धीमी श्वास लेनी है, बहुत आहिस्ता श्वास लेनी है और आहिस्ता ही श्वास छोड़ देनी है। श्वास को देखना है। भीतर आंख बंद किए हुए श्वास को देखते रहना है, वह भीतर गई और बाहर गई।

श्वास को देखने के दो उपाय हैं। एक तो है एबडोमेन पर देखना, जहां पेट ऊंचा-नीचा होता है। और दूसरा है नाक के पास, जहां श्वास छूती है, वहां देखना। जिसको जहां सुविधाजनक मालूम पड़े, वहां देखे।

अधिक लोगों को सुविधाजनक पड़ेगा कि वे नाक के पास देखें। श्वास अंदर प्रविष्ट होगी, नाक को लगती है, फिर निकलेगी, फिर लगती है। उसी स्थान को आप देखें कि श्वास लगी, अंदर गयी; श्वास लगी, बाहर गयी। जो लोग पीछे प्रयोग किए हैं नाभि का, उनको नाभि का सुविधाजनक मालूम पड़ता हो, वे नाभि के पास देखें कि पेट ऊपर उठा, नीचे गिरा। जहां जिसको ठीक लगे, वहां उस प्रयोग को कर ले। सिर्फ दस मिनट तक श्वास को देखता रहे।

तो अब हम बैठें सुबह के प्रयोग के लिए। सब लोग फासले पर हो जाएं। एक-दूसरे का बोध मिट जाए, छूना मिट जाए, सब इतने फासले पर हो जाएं।

आज इतना ही।


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ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–3

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चित्त-शघक्तयों का रूपांतरण—(प्रवचन—तीसरा)

मेरे प्रिय आत्मन्,

सबसे पहले एक प्रश्न पूछा है कि साधक को प्रकाश की किरण मिले, उसको सतत बनाए रखने के लिए क्या किया जाए?

 मैंने सुबह कहा, जो अनुभव हो आनंद का, जो शांति का, आनंद का अनुभव हो, उसे हम सतत चौबीस घंटे अपने भीतर बनाए रखें। कैसे बनाए रखेंगे?

दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो है कि हम उस चित्त-स्थिति को, जो ध्यान में अनुभव हुई, उसका जब भी हमें अवसर मिले, पुनः स्मरण करें। जैसे ध्यान के समय शांत श्वास ली है। जब भी दिन में समय मिले, जब आप कोई विशेष काम में नहीं लगे हैं, उस समय श्वास को धीमा कर लें और नाक के पास जहां श्वास का कंपन हो, उसका थोड़ा-सा स्मरण करें। उस स्मरण के साथ ही उस भाव को फिर से आरोपित कर लें कि आप आनंदित हैं, प्रफुल्लित हैं, शांत हैं, स्वस्थ हैं। उस भाव को पुनः स्मरण कर लें। जब भी स्मरण आ जाए–सोते समय, उठते समय, रास्ते पर जाते समय–जहां भी स्मरण आ जाए, उस भाव को पुनः आवर्तित कर लें।

उसका परिणाम होगा कि दिन में अनेक बार वह स्मृति, वह स्मरण आपके भीतर आघात करेगा और कुछ समय में आपको उसे अलग से याद करने की जरूरत न रह जाएगी। वह आपके साथ वैसे ही रहने लगेगा, जैसे श्वासें आपके साथ हैं।

एक तो इस भाव-स्थिति को बार-बार स्मरण करना। जब भी खयाल मिल जाए–बिस्तर पर लेट गए हैं, स्मरण आया है, ध्यान की स्थिति को वापस दोहराने का भाव कर लें। रास्ते पर घूमने गए हैं, रात्रि को चांद के नीचे बैठे हैं, किसी दरख्त के पास बैठे हैं, कोई नहीं है, कमरे में अकेले बैठे हैं, पुनः स्मरण कर लें। बस में सफर कर रहे हैं, या ट्रेन में सफर कर रहे हैं, अकेले बैठे हैं, आंख बंद कर लें, उस भाव-स्थिति को पुनः स्मरण कर लें। दिन के व्यस्त काम-काज में भी, दफ्तर में भी, दो मिनट के लिए कभी उठ जाएं, खिड़की के पास खड़े हो जाएं, गहरी श्वास ले लें, उस भाव-स्थिति को स्मरण कर लें।

दिन में ऐसा अगर दस-पच्चीस बार, मिनट आधा मिनट को भी उस स्थिति को स्मरण किया, तो उसका सातत्य घना होगा और कुछ दिनों में आप पाएंगे, उसे स्मरण नहीं करना होता है, वह स्मरण बना रहेगा। तो यह एक रास्ता, ध्यान में जो अनुभव हो, उसे इस भांति निरंतर विचार के माध्यम से स्वयं की स्मृति में प्रवेश दिलाने का है।

दूसरा रास्ता, रात्रि को सोते समय, जैसे अभी मैंने आपको संकल्प करने के लिए कहा है, जब संकल्प आपका प्रगाढ़ जिस रास्ते से होता है, उसी रास्ते से ध्यान की स्मृति को भी कायम रखा जा सकता है। जब ध्यान का एक अनुभव आने लगे, तो रात्रि को सोते समय वही प्रक्रिया करें और उस वक्त यह भाव मन में दोहराएं कि ध्यान में मुझे जो भी अनुभव होगा, उसकी स्मृति मुझे चौबीस घंटे बनी रहेगी। जो मैंने संकल्प के लिए प्रयोग बताया है–श्वास को बाहर फेंक कर संकल्प करने का या श्वास को भीतर लेकर संकल्प करने का–जब आपको कुछ अनुभव आने लगे शांति का, तो इसी प्रक्रिया के माध्यम से यह संकल्प मन में दोहराएं कि ध्यान में मुझे जो भी अनुभव होगा, वह मुझे चौबीस घंटा, एक सतत अंतःस्मरण उसका मेरे भीतर बना रहेगा।

इसको दोहराने से आप पाएंगे कि आपको बिना किसी कारण के अचानक दिन में कई बार ध्यान की स्थिति का खयाल आ जाएगा। ये दोनों संयुक्त करें, तो और भी ज्यादा लाभ होगा। फिर अभी हम विचार और भाव की शुद्धि के संबंध में जब बात करेंगे, तो इस संबंध में और बहुत-सी बातें चर्चा हो सकेंगी। लेकिन इन दोनों बातों का प्रयोग किया जा सकता है।

बहुत-सा समय चौबीस घंटे का हमारे पास व्यर्थ होता है, जिसका हम कोई उपयोग नहीं करते। उस व्यर्थ के समय में अगर ध्यान की स्मृति को दोहराते हैं, तो बहुत अंतर पड़ेगा।

इसको कभी इस तरह खयाल करें। अगर आपको दो वर्ष पहले किसी व्यक्ति ने गाली दी थी, दो वर्ष पहले आपका किसी ने अपमान किया था, दो वर्ष पहले कहीं आपके साथ कोई दुर्घटना घटी थी, अगर आप आज भी उसे स्मरण करने बैठेंगे, तो उस पूरी घटना को स्मरण करते-करते आप यह भी हैरान हो जाएंगे कि घटना को स्मरण करते-करते आपके शरीर की और चित्त की अवस्था भी उसी छाप को ले लेगी, जो दो वर्ष पहले घटित हुआ होगा। अगर दो वर्ष पहले आपका कोई भारी अपमान हुआ था, आप आज बैठकर अगर उसका स्मरण करेंगे कि वह घटना कैसे घटी थी और कैसे अपमान हुआ था, तो आप स्मरण करते-करते हैरान होंगे कि आपका शरीर और आपका चित्त उसी अवस्था में पुनः पहुंच गया है और आप जैसे फिर से अपमान को अनुभव कर रहे हैं।

हमारे चित्त में संग्रह है और वह विलीन नहीं होता। जो भी अनुभव होते हैं, वे संगृहीत हो जाते हैं। अगर उनकी स्मृति को फिर से पुकारा जाए, तो वे अनुभव जगाए जा सकते हैं और हम दुबारा उन्हीं अनुभूतियों में प्रवेश पा सकते हैं। मनुष्य के मन से कोई भी स्मृति नष्ट नहीं होती है।

तो अगर आज सुबह आपको ध्यान में अच्छा लगा हो, तो दिन में दस-पांच बार उसका पुनर्स्मरण बहुत महत्वपूर्ण होगा। उस भांति वह स्मृति गहरी होगी। और बार-बार स्मरण आ जाने से वह चित्त के स्थायी स्वभाव का हिस्सा बनने लगेगी। इसे, यह जो प्रश्न पूछा है, इस भांति अगर इस पर प्रयोग हुआ, तो लाभ होगा। और यह करना चाहिए।

अक्सर मनुष्य की भूल यह है कि जो भी गलत है, उसका तो वह स्मरण करता है; और जो भी शुभ है, उसका स्मरण नहीं करता। मनुष्य की बुनियादी भूलों में से एक यह है कि जो भी नकारात्मक है, निगेटिव है, उसका वह स्मरण करता है; और जो भी विधायक है, उसका स्मरण नहीं करता। आपको शायद ही वे क्षण याद आते हों, जब आप प्रेम से भरे हुए थे; शायद ही वे क्षण याद आते हों, जब आपने स्वास्थ्य की कोई बहुत अदभुत अनुभूति की थी; शायद ही वे क्षण याद आते हों, जब आप बहुत शांत हो गए थे। लेकिन आपको वे स्मरण रोज आते हैं, जब आप क्रोधित हुए थे, जब आप अशांत हुए थे; जब किसी ने आपका अपमान किया था, या आपने किसी से बदला लिया था। आप उन-उन बातों को निरंतर स्मरण करते हैं, जो घातक हैं; और उनका स्मरण शायद ही होता हो, जो कि आपके जीवन के लिए विधायक हो सकती हैं।

विधायक अनुभूतियों का स्मरण बहुत बहुमूल्य है। उन-उन अनुभूतियों को निरंतर स्मरण करने से दो बातें होंगी। सबसे महत्वपूर्ण तो यह होगा कि अगर आप विधायक अनुभूतियों को स्मरण करते हैं, तो उन अनुभूतियों के वापस पैदा होने की संभावना आपके भीतर बढ़ जाएगी। जो आदमी घृणा की बातों को बार-बार याद करता हो, बहुत संभावना है, आज भी घृणा की कोई घटना उससे घटेगी। जो आदमी उदासी की बातों को बार-बार स्मरण करता हो, बहुत संभव है, आज वह फिर उदास होगा। क्योंकि उसके एक तरह के झुकाव पैदा हो जाते हैं और वही बातें उसमें पुनरुक्त हो जाती हैं। ये, ये जो भाव हैं, स्थायी बन जाते हैं और जीवन में उन-उन भावों का बार-बार पैदा हो जाना आसान हो जाता है।

इसको अपने भीतर विचार करें कि आप किस तरह के भावों को स्मरण करने के आदी हैं। हर आदमी स्मरण करता है। किस तरह के भावों को आप स्मरण करने के आदी हैं? और यह स्मरण रखें कि अतीत के जिन भावों को आप स्मरण करते हैं, भविष्य में आप उन्हीं भावों को, बीजों को बो रहे हैं और उनकी फसल को काटेंगे। अतीत का स्मरण भविष्य के लिए रास्ता बन जाता है।

स्मरणपूर्वक, जो व्यर्थ है, जिसका कोई उपयोग नहीं है, उसे याद न करें। उसका कोई मूल्य नहीं है। अगर उसका स्मरण भी आ जाए, तो रुकें और उस स्मरण को कहें कि बाहर हो जाओ, तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। कांटों को भूल जाएं और फूलों को स्मरण रखें। कांटे जरूर बहुत हैं, लेकिन फूल भी हैं। जो फूलों को स्मरण रखेगा, उसके जीवन में कांटे क्षीण होते जाएंगे और फूल बढ़ जाएंगे। और जो कांटों को स्मरण रखेगा, उसके जीवन में हो सकता है, फूल विलीन हो जाएं और केवल कांटे रह जाएं।

हम क्या स्मरण करते हैं, वही हम बनते चले जाते हैं। जिसका हम स्मरण करते हैं, वही हम हो जाते हैं। जिसका हम निरंतर विचार करते हैं, वह विचार हमें परिवर्तित कर देता है और हमारा प्राण हो जाता है। इसलिए शुभ, सद, जो भी आपको श्रेष्ठ मालूम पड़े, उसे स्मरण करें। और जीवन में–इतना दरिद्र जीवन कोई भी नहीं है कि उसके जीवन में कोई शांति के, आनंद के, सौंदर्य के, प्रेम के क्षण न घटित हुए हों। और अगर आप उनके स्मरण में समर्थ हो गए, तो यह भी हो सकता है कि आपके चारों तरफ अंधकार हो, लेकिन आपकी स्मृति में प्रकाश हो और इसलिए चारों तरफ का अंधकार भी आपको दिखायी न पड़े। यह भी हो सकता है, आपके चारों तरफ दुख हो, लेकिन आपके भीतर कोई प्रेम की, कोई सौंदर्य की, कोई शांति की अनुभूति हो और आपको चारों तरफ का दुख भी दिखायी न पड़े। यह संभव है, यह संभव है कि बिलकुल कांटों के बीच में कोई व्यक्ति फूलों में हो। इसके विपरीत भी संभव है। और यह हमारे ऊपर निर्भर है।

यह मनुष्य के ऊपर निर्भर है कि वह अपने को कहां स्थापित कर देता है, वह अपने को कहां बिठा देता है। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम स्वर्ग में रहते हैं या नर्क में रहते हैं। मैं आपको कहना चाहूंगा, स्वर्ग और नर्क कोई भौगोलिक स्थान नहीं हैं। वे मानसिक, मनोवैज्ञानिक स्थितियां हैं। हममें से अधिकतर लोग दिन में कई बार नर्क में चले जाते हैं और कई बार स्वर्ग में आ जाते हैं। और हममें से कई लोग दिनभर नर्क में रहते हैं। और हममें से कई लोग स्वर्ग में वापस लौटने का रास्ता ही भूल जाते हैं। लेकिन ऐसे लोग भी हैं, जो चौबीस घंटे स्वर्ग में रहते हैं। इसी जमीन पर, इन्हीं स्थितियों में ऐसे लोग हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं। आप भी उनमें से एक बन सकते हैं। कोई बाधा नहीं है, सिवाय कुछ वैज्ञानिक नियमों को समझने के।

एक स्मरण मुझे आया। बुद्ध का एक शिष्य था, पूर्ण। उसकी दीक्षा पूरी हुई, उसकी साधना पूरी हुई। पूर्ण ने कहा कि ‘अब मैं जाऊं और आपके संदेश को उनसे कह दूं, जिनको उसकी जरूरत है।’ बुद्ध ने कहा, ‘तुम्हें मैं जाने की आज्ञा तो दूं, लेकिन एक बात पूछ लूं: तुम कहां जाना चाहोगे?’ बिहार में एक छोटा-सा हिस्सा था ‘सूखा’। पूर्ण ने कहा, ‘मैं सूखा की तरफ जाऊं। अब तक कोई भिक्षु वहां नहीं गया। और वहां के लोग आपके अमर संदेश से वंचित हैं।’

बुद्ध ने कहा, ‘वहां कोई नहीं गया, इसके पीछे कारण था। वहां के लोग बहुत बुरे हैं। हो सकता है, तुम वहां जाओ, वे तुम्हारा अपमान करें। वे तुम्हें गालियां दें, तुम्हें परेशान करें, तो तुम्हारे मन में क्या होगा?’ पूर्ण ने कहा, ‘मैं उन्हें धन्यवाद दूंगा। धन्यवाद दूंगा कि वे केवल गालियां देते हैं, अपमान करते हैं, लेकिन मारते नहीं।’ उसने कहा, ‘मैं उन्हें धन्यवाद दूंगा कि वे गालियां देते हैं, अपमान करते हैं, लेकिन मारते नहीं हैं। मार भी सकते थे।’ बुद्ध ने कहा, ‘यह भी हो सकता है कि उनमें से कोई तुम्हें मारे, तो तुम्हारे मन को क्या होगा?’ उसने कहा, ‘मैं धन्यवाद दूंगा कि वे मारते हैं, लेकिन मार ही नहीं डालते हैं। वे मार भी डाल सकते थे।’

बुद्ध ने कहा, ‘मैं अंतिम एक बात और पूछता हूं। यह भी हो सकता है, कोई तुम्हें मार ही डाले, तो तुम्हारे मन को क्या होगा?’ उसने कहा, ‘मैं धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने मुझे उस जीवन से छुटकारा दिला दिया, जिसमें कोई भूल हो सकती थी।’ उस पूर्ण ने कहा, ‘मैं धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने मुझे उस जीवन से छुटकारा दिला दिया, जिसमें कोई भूल हो सकती थी। मैं उनका अनुग्रह मानूंगा।’ बुद्ध ने कहा, ‘तब तुम कहीं भी जाओ। अब इस जमीन पर सब जगह तुम्हारे लिए परिवार है, क्योंकि जिसके हृदय की यह स्थिति है, उसके लिए इस जमीन पर कोई कांटे नहीं हैं।’

कल मैं बात करता था रास्ते में। महावीर के लिए कहा जाता है–बड़ी झूठी बात लगेगी–महावीर के लिए कहा जाता है कि वे जब रास्तों पर चलते थे, तो कांटे अगर सीधे पड़े हों, तो वे उलटे हो जाते थे। यह बात कितनी झूठ है! कोई कांटे को क्या मतलब कि कौन चलता है? किसी कांटे को क्या प्रयोजन कि महावीर चलते हैं या कौन चलता है? और कांटे कैसे सीधे पड़े हों तो उलटे हो जाएंगे? और मैंने सुना है कि मोहम्मद के बाबत कहा जाता है कि जब वे अरब के गर्म रेगिस्तानों में चलते थे, तो एक बदली उनके ऊपर छाया किए रहती थी। यह कितनी झूठी बात है! बदलियों को क्या प्रयोजन कि नीचे कौन चलता है? मोहम्मद चलते हैं या कौन चलता है, वे कैसे छायाएं करेंगी?

लेकिन मैं आपसे कहूं, ये बातें सच हैं। कोई कांटे उलटकर उलटे नहीं होते और कोई बदलियां नहीं चलतीं, लेकिन इनमें हमने कुछ सचाइयां जाहिर की हैं। हमने कुछ सचाइयां जाहिर की हैं, इन बातों में हमने कुछ प्रेम भरी बातें कहीं हैं। हमने यह कहना चाहा है कि जिस आदमी के हृदय में कोई कांटा नहीं रह गया, इस जगत में उसके लिए कोई कांटा सीधा नहीं है। और हमने यह कहा है कि जिस आदमी के हृदय में उत्ताप नहीं रह गया, इस जगत में उसके लिए हर जगह एक छायादार बदली है और उसे कहीं कोई धूप नहीं है। हमने यह कहना चाहा है। और यह बड़ी सच बात है।

हमारे चित्त की स्थिति हम जैसी बनाए रखेंगे, यह दुनिया भी ठीक वैसी बन जाती है। न मालूम कौन-सा चमत्कार है कि जो आदमी भला होना शुरू होता है, यह सारी दुनिया उसे एक भली दुनिया में परिवर्तित हो जाती है। और जो आदमी प्रेम से भरता है, इस सारी दुनिया का प्रेम उसकी तरफ प्रवाहित होने लगता है। और यह नियम इतना शाश्वत है कि जो आदमी घृणा से भरेगा, प्रतिकार में घृणा उसे उपलब्ध होने लगेगी। हम जो अपने चारों तरफ फेंकते हैं, वही हमें उपलब्ध हो जाता है। इसके सिवाय कोई रास्ता भी नहीं है।

तो चौबीस घंटे उन क्षणों का स्मरण करें, जो जीवन में अदभुत थे, ईश्वरीय थे। वे छोटे-छोटे क्षण, उनका स्मरण करें और उन क्षणों पर अपने जीवन को खड़ा करें। और उन बड़ी-बड़ी घटनाओं को भी भूल जाएं, जो दुख की हैं, पीड़ा की हैं, घृणा की हैं, हिंसा की हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है। उन्हें विसर्जित कर दें, उन्हें झड़ा दें। जैसे सूखे पत्ते दरख्तों से गिर जाते हैं, वैसे जो व्यर्थ है, उसे छोड़ते चले जाएं; और जो सार्थक है और जीवंत है, उसे स्मरणपूर्वक पकड़ते चले जाएं। चौबीस घंटे इसका सातत्य रहे। एक धारा मन में बहती रहे शुभ की, सौंदर्य की, प्रेम की, आनंद की।

तो आप क्रमशः पाएंगे कि जिसका आप स्मरण कर रहे हैं, वे घटनाएं बढ़नी शुरू हो गयी हैं। और जिसको आप निरंतर साध रहे हैं, उसके चारों तरफ दर्शन होने शुरू हो जाएंगे। और तब यही दुनिया बहुत दूसरे ढंग की दिखायी पड़ती है। और तब ये ही लोग बहुत दूसरे लोग हो जाते हैं। और ये ही आंखें और ये ही फूल और ये ही पत्थर एक नए अर्थ को ले लेते हैं, जो हमने कभी पहले जाना नहीं था। क्योंकि हम कुछ और बातों में उलझे हुए थे।

तो मैंने जो कहा, ध्यान में जो अनुभव हो–थोड़ा-सा भी प्रकाश, थोड़ी-सी भी किरणें, थोड़ी-सी भी शांति–उसे स्मरण रखें। जैसे एक छोटे-से बच्चे को उसकी मां सम्हालती है, वैसे जो भी छोटी-छोटी अनुभूतियां हों, उन्हें सम्हालें। उन्हें अगर नहीं सम्हालेंगे, वे मर जाएंगी। और जो जितनी मूल्यवान चीज होती है, उसे उतना सम्हालना होता है।

जानवरों के भी बच्चे होते हैं, उनको सम्हालना नहीं होता। और जितने कम विकसित जानवर हैं, उनके बच्चों को उतना ही नहीं सम्हालना होता, वे अपने आप सम्हल जाते हैं। जैसे-जैसे विकास की सीढ़ी आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे आप पाते हैं–अगर मनुष्य के बच्चे को न सम्हाला जाए, वह जी ही नहीं सकता। मनुष्य के बच्चे को न सम्हाला जाए, वह जी नहीं सकता। उसके प्राण समाप्त हो जाएंगे। जो जितनी श्रेष्ठ स्थिति है जीवन की, उसे उतने ही सम्हालने की जरूरत पड़ती है।

तो जीवन में भी जो अनुभूतियां मूल्यवान हैं, उनको उतना ही सम्हालना होता है। उतने ही प्रेम से उनको सम्हालना होता है। तो छोटे-से भी अनुभव हों, उन्हें सम्हालें; वैसे ही जैसे…। आपने पूछा, कैसे सम्हालें? अगर मैं आपको कुछ हीरे दे दूं, तो आप उन्हें कैसे सम्हालेंगे? अगर आपको कोई बहुमूल्य खजाना मिल जाए, उसे आप कैसे सम्हालेंगे? उसे आप कैसे सम्हालेंगे? उसे आप कहां रखेंगे? उसे आप छिपाकर रखना चाहेंगे; उसे अपने हृदय के करीब रखना चाहेंगे।

एक भिखमंगा मरता था एक अस्पताल में। और जब पादरी उसके पास गया और डाक्टरों ने कह दिया कि वह मरने को है। और पादरी उसके पास गया अंतिम भगवान की प्रार्थना करवाने के लिए। उससे कहा, ‘तुम हाथ जोड़ो।’ उसने एक ही हाथ उठाया। एक हाथ की मुट्ठी बंद थी। पादरी ने कहा, ‘दोनों हाथ जोड़ो।’ उसने कहा, ‘क्षमा करें, दूसरा मैं नहीं खोल सकता हूं।’

वह आदमी मरने को है और दूसरा हाथ नहीं खोल रहा है! वह मर गया दो क्षण बाद। हाथ खोला गया। कुछ गंदे सिक्के वह इकट्ठे किए हुए था, जिस पर उसने मुट्ठी बांधी हुई थी। कुछ गंदे सिक्के! उसे पता है, मर रहा है, लेकिन मुट्ठी बंधी हुई है!

साधारण सिक्कों को हम सम्हालना जानते हैं, सब जानते हैं। और जो श्रेष्ठतम सिक्के हैं, उन्हें सम्हालने का हमें कुछ पता नहीं है। और हम उसी भिखमंगे की तरह हैं, जो एक दिन मुट्ठी बंद किए हुए पाए जाएंगे। और जब उनकी मुट्ठी खोली जाएगी, तो कुछ गंदे सिक्कों के सिवाय वहां कुछ भी नहीं मिलेगा।

उन अनुभूतियों को सम्हालें, वे ही असली सिक्के हैं, जिन्होंने आपके जीवन को स्फुरणा दी हो, प्रेरणा दी हो, आपके भीतर कुछ परिवर्तित किया हो, कुछ कंपित हुआ हो, कुछ श्रेष्ठ की तरफ आपके भीतर लपट पैदा हुई हो। और उन्हें इस भांति सम्हालें। ये दो रास्ते मैंने कहे। क्रमशः प्रयोग करने से बात समझ में आ सकेगी।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति है। पति-पत्नी के संबंध में उसका क्रिएटिव उपयोग कैसे किया जाए?

ह बड़ी बहुमूल्य बात पूछी है। शायद ही ऐसे लोग होंगे, जो इस तरह के, जिनके लिए इस तरह का प्रश्न उपयोगी न हो, सार्थक न हो। दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे लोग हैं, जो सेक्स की, काम की शक्ति से पीड़ित हैं। और एक वे लोग हैं, जिन्होंने काम की शक्ति को प्रेम की शक्ति में परिणत कर लिया है।

आप जानकर हैरान होंगे, प्रेम और काम, प्रेम और सेक्स विरोधी चीजें हैं। जितना प्रेम विकसित होता है, सेक्स क्षीण हो जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी। और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।

सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबाकर कोई पागल हो सकता है। और दुनिया में जितने पागल हैं, उसमें से सौ में से नब्बे संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है। और यह भी शायद आपको पता होगा कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है। सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! और इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता है। वह दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियां पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है।

सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है। ढेर साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। और उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी। जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम का प्रकाश बन जाएंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है। जीवन को प्रेम से भरें।

आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूं, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।

छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है, उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।

इसे थोड़ा विचार करके देखना आप अपने मन के भीतर। आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा। चाहते हैं, कोई प्रेम करे। और जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को फांसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है। इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे आटा खिलाएंगे, फिर…।

और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा प्रेम प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे! और थोड़ी देर बाद उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है और तब संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी।

दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है। सारे झगड़े के पीछे बुनियादी कारण इतना ही है। और कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था बने, जब तक जो मैं कह रहा हूं अगर नहीं होगा, तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के संबंध अच्छे नहीं हो सकते। उनके अच्छे होने का एक ही रास्ता है कि हम यह समझें कि प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया।

अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। और जितना वे प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे, उतना ही–अदभुत जगत की व्यवस्था है–उन्हें प्रेम मिलेगा। और उतना ही वे अदभुत अनुभव करेंगे–जितना वे प्रेम देंगे, उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा।

गांधी जी पीछे वहां लंका में थे। वे कस्तूरबा के साथ लंका गए। वहां जो व्यक्ति था, जिसने उनका परिचय दिया पहली सभा में, उसने समझा कि बा आयी हैं साथ, शायद ये गांधी जी की मां होंगी। बा से उसने समझा कि गांधी जी की मां भी साथ आयी हुई हैं। उसने परिचय में गांधी जी के कहा कि ‘यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गांधी जी भी आए हैं और उनकी मां भी आयी हुई हैं।’

बा तो बहुत हैरान हो गयीं। गांधी जी के सेक्रेटरी जो साथ थे, वे भी बहुत घबड़ा गए कि भूल तो उनकी है, उनको बताना चाहिए था कि कौन साथ है। वे बड़े घबड़ा गए कि शायद बापू डांटेंगे। शायद कहेंगे कि ‘यह क्या भद्दी बात करवायी!’ लेकिन गांधी जी ने जो बात कही, वह बड़ी अदभुत थी। उन्होंने कहा कि ‘मेरे इन भाई ने मेरा जो परिचय दिया, उसमें भूल से एक सच्ची बात कह दी है। कुछ वर्षों से बा मेरी पत्नी नहीं है, मेरी मां हो गयी है।’ उन्होंने कहा, ‘कुछ वर्षों से बा मेरी पत्नी नहीं है, मेरी मां हो गयी है!’

सच्चा संन्यासी वह है, जिसकी एक दिन पत्नी मां हो जाए; पत्नी को छोड़कर भाग जाने वाला नहीं। सच्चा संन्यासी वह है, जिसकी एक दिन पत्नी मां बन जाए। सच्ची संन्यासिनी वह है, जो एक दिन अपने पति को अपने पुत्र की तरह अनुभव कर पाए।

पुराने ऋषि सूत्रों में एक अदभुत बात कही गयी है। पुराना ऋषि कभी आशीर्वाद देता था कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए।’ बड़ी अदभुत बात थी। ये आशीर्वाद देते थे वधु को विवाह करते वक्त कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, तुम्हारा ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए।’ यह अदभुत कौम थी और अदभुत विचार थे। और इसके पीछे बड़ा रहस्य था।

अगर पति और पत्नी में प्रेम बढ़ेगा, तो वे पति-पत्नी नहीं रह जाएंगे, उनके संबंध कुछ और हो जाएंगे। और उनसे सेक्स विलीन हो जाएगा और वे संबंध प्रेम के होंगे। जब तक सेक्स है, तब तक शोषण है। सेक्स शोषण है! और जिसको हम प्रेम करते हैं, उसका शोषण कैसे कर सकते हैं? सेक्स एक व्यक्ति का, एक जीवित व्यक्ति का अत्यंत गर्हित और निम्न उपयोग है। अगर हम उसे प्रेम कर सकते हैं, तो हम उसके साथ ऐसा उपयोग कैसे कर सकते हैं? एक जीवित व्यक्ति का हम ऐसा उपयोग कैसे कर सकते हैं अगर हम उसे प्रेम करते हैं? जितना प्रेम गहरा होगा, वह उपयोग विलीन हो जाएगा। और जितना प्रेम कम होगा, वह उपयोग उतना ज्यादा हो जाएगा।

इसलिए जिन्होंने यह पूछा है कि सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति कैसे बने, उनको मैं यह कहूंगा कि सेक्स बड़ी अदभुत शक्ति है। शायद इस जमीन पर सेक्स से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। मनुष्य जिस चीज से क्रियमाण होता है, मनुष्य के जीवन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा जिस चक्र पर घूमता है, वह सेक्स है; वह परमात्मा नहीं है। वे लोग तो बहुत कम हैं, जिनका जीवन परमात्मा की परिधि पर घूमता है। अधिकतर लोग सेक्स के केंद्र पर घूमते और जीवित रहते हैं।

सेक्स सबसे बड़ी शक्ति है। यानि अगर हम ठीक से समझें, तो मनुष्य के भीतर सेक्स के अतिरिक्त और शक्ति ही क्या है, जो उसे गतिमान करती है, परिचालित करती है। इस सेक्स की शक्ति को, इस सेक्स की शक्ति को ही प्रेम में परिवर्तित किया जा सकता है। और यही शक्ति परिवर्तित होकर परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग बन जाती है।

इसलिए यह स्मरणीय है कि धर्म का बहुत गहरा संबंध सेक्स से है। लेकिन सेक्स के दमन से नहीं–जैसा समझा जाता है–सेक्स के सब्लिमेशन से है। सेक्स के दमन से धर्म का संबंध नहीं है। ब्रह्मचर्य सेक्स का विरोध नहीं है, ब्रह्मचर्य सेक्स की शक्ति का उदात्तीकरण है। सेक्स की ही शक्ति ब्रह्म की शक्ति में परिवर्तित हो जाती है। वही शक्ति, जो नीचे की तरफ बहती थी, अधोगामी थी, ऊपर की तरफ गतिमान हो जाती है। सेक्स ऊर्ध्वगामी हो जाए, तो परमात्मा तक पहुंचाने वाला बन जाता है। और सेक्स अधोगामी हो, तो संसार में ले जाने का कारण होता है।

वह प्रेम से परिवर्तन होगा। प्रेम करना सीखें। और प्रेम करने का मतलब, अभी हम जब आगे भावनाओं के संबंध में बात करेंगे, तो आपको पूरी तरह समझ में आ सकेगा कि प्रेम करना कैसे सीखें। लेकिन इतना मैं अभी फिलहाल कहूं।

एक मित्र ने पूछा है कि संत या साधु मिल-जुलकर एक टीम के रूप में काम क्यों नहीं करते?

हुत अच्छा पूछा है कि संत लोग, वे लोग जिन्हें सत्य उपलब्ध हुआ है, एक साथ मिल-जुल कर काम क्यों नहीं करते? मैं आपको कहूं कि संतों ने आज तक मिल-जुलकर ही काम किया है। और मैं आपको यह भी कहूं कि न केवल जीवित संतों ने मिल-जुलकर काम किया है, लेकिन पच्चीस सौ वर्ष पहले जो संत मर गए हैं, वे भी उनके साथ आज काम कर रहे हैं, जो जिंदा हैं। यानि न केवल समसामयिक रूप से कंटेंप्रेरी संत साथ काम करते हैं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से, ट्रेडीशनल रूप से संतों का काम एक साथ है।

मैं जो कह रहा हूं, अगर वह सच है, तो उसके पीछे बुद्ध और महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट के हाथ हैं। अगर जो मैं कह रहा हूं, वह सच है, तो उनकी आवाज उसमें मिली-जुली है। और अगर मेरी आवाज में कोई ताकत मालूम होती है, तो वह मेरी अकेले की नहीं हो सकती; वह उन सारे लोगों की है, जिन्होंने कभी भी उन शब्दों को कहा होगा।

लेकिन जो संत नहीं हैं, वे जरूर कभी साथ मिलकर काम नहीं कर सकते। और ऐसे बहुत-से संत हैं, जो संत नहीं हैं, लेकिन संत मालूम होते हैं। उस हालत में दुर्जन लोग मिलकर काम कर सकते हैं, लेकिन वैसे तथाकथित साधु मिलकर काम नहीं कर सकते। क्यों नहीं कर सकते हैं? उनका संतत्व अहंकार के विसर्जन से पैदा नहीं हुआ है, उनका संतत्व भी अहंकार की तृप्ति का एक माध्यम है। और जहां अहंकार है, वहां मिलन नहीं होता। और जहां अहंकार है, वहां कोई मिलन हो ही नहीं सकता। क्योंकि अहंकार हमेशा ऊपर होना चाहता है।

मैं एक जगह था। वहां बहुत-से साधु आमंत्रित थे। एक बहुत बड़ा जलसा था। बहुत बड़े-बड़े साधु आमंत्रित थे। नाम उनके नहीं लूंगा, क्योंकि किसी को दुख हो। मुल्क के बहुत बड़े-बड़े लोग वहां थे। जिन्होंने आयोजन किया था, उनकी बड़ी आकांक्षा थी कि सारे लोग एक ही मंच पर बैठकर बोलें। लेकिन वे ‘संत’ राजी नहीं हुए! क्योंकि उन्होंने कहा कि ‘कौन नीचे बैठेगा, कौन ऊपर बैठेगा?’ क्योंकि उन्होंने कहा कि ‘हम ऊपर बैठेंगे, नीचे नहीं बैठ सकते।’ उन्होंने कहा या कहलवाया। और कहने वाला तो फिर भी सरल होता है, कहलाने वाला और भी जटिल और कपटी होता है। उन्होंने कहलवाया कि वे कोई एक साथ नहीं बैठ सकते।

उनका मंच व्यर्थ गया। वहां एक-एक आदमी को बैठकर बोलना पड़ा। बड़ा मंच बनाया था कि सौ लोग बैठ सकें। लेकिन सौ साधु एक साथ कैसे बैठ सकते हैं? उसमें कोई शंकराचार्य थे, जो कि बिना अपने सिंहासन के नीचे नहीं बैठ सकते। और अगर वे नीचे नहीं बैठ सकते हैं, तो उनके सिंहासन के बगल में दूसरे संत कैसे बैठ सकते हैं नीचे!

और तब बड़ी हैरानी होगी, जिनको अभी कुर्सियों में भी ऊंचाइयां और नीचाइयां हैं और जिन्हें अभी इसमें भी मापत्तौल है कि कौन कितना ऊंचा बैठा है और कौन कितने नीचे बैठा है, इनके चित्त कहां बैठे होंगे, यह पता चल सकता है।

दो साधु इसलिए आपस में मिल नहीं सकते कि पहले कौन नमस्कार करेगा! क्योंकि पहले कौन हाथ जोड़ेगा? क्योंकि जो हाथ जोड़ेगा, वह नीचा हो जाएगा। हद आश्चर्य की बात है! हम मानते रहे हैं सदा से कि जो पहले हाथ जोड़ ले, वह ऊंचा है। लेकिन वे संत समझते हैं कि जो पहले हाथ जोड़ेगा, वह नीचा हो जाएगा!

मैं एक बड़े साधु के सत्संग में था। एक बहुत बड़े राजनीतिज्ञ भी वहां गए हुए थे। उन साधु को तो ऊपर तख्त पर बिठाया गया था, हम सारे लोग नीचे बैठे थे। सत्संग शुरू हुआ। उन राजनीतिज्ञ ने कहा कि ‘मैं सबसे पहले यह पूछूं कि हम नीचे बैठे हैं, आप ऊपर क्यों बैठे हैं? अगर आप भाषण भी कर रहे होते, तब भी ठीक था। यह तो सत्संग है। वार्ता होगी। और आप इतने ऊपर चढ़े हैं कि बातचीत मुश्किल ही होगी। आप कृपा करके नीचे आ जाएं।’ लेकिन वे साधु नीचे नहीं आ सके। और उस राजनीतिज्ञ ने पूछा, ‘अगर नीचे न आ सकते हों, कोई ऐसा कारण हो, तो हमें समझाएं कि ऊपर बैठने का कारण क्या है?’

वे खुद तो नहीं बोल सके, बहुत घबड़ा गए। उनके एक साधु ने उत्तर दिया कि ‘यह परंपरागत है कि वे ऊपर बैठें।’ उस राजनीतिज्ञ ने कहा कि ‘ये आपके गुरु होंगे। लेकिन हमारे गुरु नहीं हैं!’ उस राजनीतिज्ञ ने यह भी कहा, ‘हमने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, आपने हाथ नहीं जोड़े, आपने हमको आशीर्वाद दिया। अगर समझ लीजिए, कोई दूसरा साधु मिलने आया होता और आप आशीर्वाद देते, तो झगड़ा हो जाता। आपको भी हाथ जोड़ने चाहिए।’ उत्तर मिला कि ‘वे हाथ नहीं जोड़ सकते हैं, क्योंकि यह परंपरागत नहीं है।’ वह बात इतनी खराब हो गयी कि वह गोष्ठी आगे चल ही नहीं सकती थी।

मैंने उन साधु को कहा कि ‘मुझे आज्ञा दें कि मैं इन राजनीतिज्ञ को थोड़ी-सी बातें कहूं।’ उन्होंने मुझे आज्ञा दी। वे चाहे कि चलो यह निपटारा हुआ। बात आगे बढ़े। यहां से खत्म हो। मैंने उन राजनीतिज्ञ को कहा, ‘आपको सबसे पहले आकर यह क्यों दिखायी पड़ा कि वे ऊपर बैठे हुए हैं? सबसे पहले आपको यह कैसे दिखायी पड़ा कि वे ऊपर बैठे हुए हैं?’ और मैंने कहा कि ‘अब मैं कृपा करके यह पूछूं, आपको यह दिखायी पड़ा कि वे ऊपर बैठे हैं या आपको यह दिखायी पड़ा कि मैं नीचे बिठाया गया हूं? क्योंकि यह भी हो सकता था, आप भी ऊपर बिठाए गए होते, तो मैं नहीं समझता कि आपने यह प्रश्न पूछा होता। हम सारे लोग नीचे होते और आप भी उनके साथ ऊपर होते, तो मैं नहीं समझता कि यह प्रश्न आपने पूछा होता। इसलिए दिक्कत उनके ऊपर बैठने से नहीं है, दिक्कत आपके नीचे बैठने से है।’

उन राजनीतिज्ञ ने मेरी तरफ देखा। वे उन दिनों बड़ी हुकूमत में थे और हिंदुस्तान के अग्रणी लोगों में से थे। उन्होंने मेरी तरफ बड़े गौर से देखा और उन्होंने बड़ी सरलता जाहिर की। उन्होंने कहा कि ‘मैं स्वीकार करता हूं, मुझे यह कभी किसी ने कहा नहीं, मुझमें बहुत अहंकार है।’

साधु बहुत प्रसन्न हुए। और जब हम विदा होने लगे, साधु ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘आपने अच्छा मुंहतोड़ जवाब दिया।’ मैंने उनको कहा कि ‘वह जवाब उनके लिए नहीं था, वह आपके लिए भी था।’ और मैंने उनको कहा कि ‘मुझे दुख है, वह आदमी ज्यादा सरल साबित हुआ और आप उतने सरल भी साबित नहीं हुए। उसने स्वीकार किया कि मेरा अहंकार है, लेकिन आपने यह भी स्वीकार नहीं किया, उलटे आपने अपने अहंकार का पोषण कर लिया मेरे उत्तर से!’

ऐसे जो संत हैं, ऐसे जो साधु हैं, वे मिलकर काम नहीं कर सकते हैं। उनका तो सारा काम किसी की दुश्मनी में है। उनका तो सारा जोश किसी की दुश्मनी में है। अगर कोई दुश्मन न हो, तो वे कुछ कर ही नहीं सकते। उनकी तो सारी क्रिया किसी की घृणा और विरोध से निकल रही है। इतने जितने संप्रदाय हैं, इतने जितने धर्म हैं, इनके नामों से जो साधु खड़े हैं, उनको कोई नासमझ ही साधु कह सकता है। क्योंकि साधु का पहला लक्षण तो यह होगा कि वह किसी धर्म का नहीं रह जाएगा। साधु का पहला लक्षण तो यह होगा, उसकी कोई सीमा नहीं रह जाएगी, उसका कोई संप्रदाय नहीं होगा। उसका कोई घेरा नहीं होगा। वह सबका होगा। और उसका पहला लक्षण यह होगा, उसकी अहंता मिट गयी होगी, उसकी अस्मिता विलीन हो गयी होगी।

लेकिन ये सब तो अहंकार को बढ़ाने और पोषण करने के उपाय हैं। स्मरण रखिए, बहुत धन से भी अहंकार तृप्त होता है। बहुत त्याग मैंने किया है, इससे भी तृप्त होता है। बहुत ज्ञान मेरे पास है, इससे भी तृप्त होता है। मैंने सब लात मार दिया दुनिया पर, इससे भी तृप्त होता है। और इनकी जिनकी तृप्तियां हैं, वे कभी साथ नहीं हो सकते। अहंकार अकेला विभाजक तत्व है और निरहंकारिता अकेला जोड़ने वाला तत्व है। तो जहां निरहंकार है, वहां जोड़ है।

एक बार कबीर जहां रहते थे, उनके गांव के पास से एक मुसलमान फकीर था फरीद, उसका निकलना हुआ। उसके कुछ साथी और वह यात्रा पर निकले थे। उसके साथियों ने फरीद से कहा कि ‘बड़ा सुयोग है, रास्ते में कबीर का भी निवास पड़ता है। उनकी कुटी पर हम दो दिन रुकें। और आप दोनों की चर्चा होगी, तो हमें बहुत आनंद होगा। आप दोनों मिलेंगे और बातें करेंगे, तो हम सुनकर बहुत लाभान्वित होंगे।’ फरीद ने कहा, ‘जरूर रुकेंगे, मिलेंगे भी; लेकिन चर्चा शायद ही हो।’ उन्होंने कहा, ‘क्यों?’ फरीद ने कहा, ‘चलें रुकें। मिलेंगे भी, रुकेंगे भी; चर्चा शायद ही हो।’

कबीर के शिष्यों को पता चला, तो उन्होंने कहा कि ‘यहां से फरीद निकलने को हैं। हम उन्हें रोक लें। बहुत आनंद होगा। दो दिन आपकी बातें होंगी।’ कबीर ने कहा, ‘मिलेंगे जरूर। जरूर रोको, बहुत आनंद होगा।’

फरीद रोका गया। फरीद और कबीर गले मिले। वे दोनों खुशी में रोए। लेकिन दो दिन उनमें कोई बात नहीं हुई। वे दोनों विदा हो गए। शिष्य बहुत निराश हुए। जब वे दोनों विदा हो गए, दोनों के शिष्यों ने पूछा, ‘आप कुछ बोले नहीं!’ उन्होंने कहा, ‘हम क्या बोलते! जो वे जानते हैं, वही हम जानते हैं।’ फरीद ने कहा, ‘जो मैं जानता हूं, वही कबीर जानते हैं। हम बोलते क्या? और हम दो भी कहां हैं, जो हम बोलते। कोई तल है, जहां हम एक हैं।’

वहां बोलने तक का विरोध नहीं है संतों में–बोलने तक का! डायलाग भी संभव नहीं है। वह भी एक विरोध है। उस तल पर संतों का सनातन काम एक ही हो रहा है। उसमें कोई प्रश्न ही नहीं है विरोध का। वे किसी हिस्से में पैदा हुए हों, किसी कौम में और किसी ढंग से रहे हों, उनमें कोई विरोध नहीं है। लेकिन जो संत नहीं हैं, स्वाभाविक है, उनमें विरोध हो। इसलिए स्मरण रखें, संतों में कोई विरोध नहीं है। और जिनमें विरोध हो, इसे कसौटी समझें कि वे संत नहीं होंगे।

एक और मित्र ने पूछा है कि आपका अंतिम ध्येय या लक्ष्यांत क्या है? मुझसे पूछा है कि मेरा क्या लक्ष्य है?

 

मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। इसलिए कोई लक्ष्य नहीं है…। इसे थोड़ा समझना जरूरी है। जीवन में दो तरह की क्रियाएं होती हैं। एक क्रिया होती है, जो वासना से उदभूत होती है। एक क्रिया होती है, जो वासना से उदभूत होती है; उसमें लक्ष्य होता है। और एक क्रिया होती है, जो प्रेम से या करुणा से उदभूत होती है; उसमें कोई लक्ष्य नहीं होता। अगर किसी मां से कोई पूछे कि तुम अपने बच्चे को प्रेम करती हो, इसमें लक्ष्य क्या है? तो मां क्या कहेगी? मां कहेगी, लक्ष्य का कोई पता नहीं। बस हम प्रेम करते हैं और प्रेम करना आनंद है। यूं भी नहीं कि आज प्रेम करेंगे, तो कल आनंद मिलेगा। प्रेम किया, वह आनंद था।

तो एक तो क्रिया होती है, जो वासना से उदभूत होती है। मैं यहां बोल रहा हूं। मैं इसलिए बोल सकता हूं कि इस बोलने से मुझे कुछ मिलेगा। फिर चाहे वह मिलना रुपए के सिक्कों में हो, यश के सिक्कों में हो, आदर के सिक्कों में हो, प्रतिष्ठा के रूप में हो–वह मिलना किसी रूप में हो–मैं इस कारण से बोल सकता हूं कि मुझे कुछ मिलेगा। तो वह लक्ष्य होगा।

मैं केवल इस कारण से बोल सकता हूं कि मैं बिना बोले नहीं रह सकता, कुछ हुआ है भीतर और वह बंटने को उत्सुक है। मैं इसलिए बोल सकता हूं, जैसे कि फूल खिल जाते हैं और अपनी गंध फेंक देते हैं। उनसे कोई पूछे, लक्ष्य क्या है? कोई भी लक्ष्य नहीं है।

वासना से कुछ क्रियाएं उदभूत होती हैं, तब उनमें लक्ष्य होता है। करुणा से भी कुछ क्रियाएं उदभूत होती हैं, तब उनमें कोई लक्ष्य नहीं होता। और इसीलिए वासना से जो क्रियाएं उदभूत होती हैं, उनसे कर्म-बंध होता है। और करुणा से जो क्रियाएं उदभूत होती हैं, उनसे कर्म-बंध नहीं होता। जिस क्रिया में लक्ष्य होगा, उसमें बंध होगा; और जिस क्रिया में कोई लक्ष्य नहीं होगा, उसमें बंध नहीं होगा।

और यह जानकर आप हैरान होंगे, आप बुरा काम बिना लक्ष्य के नहीं कर सकते हैं। यह एक अदभुत बात है। पाप में हमेशा लक्ष्य होगा, पुण्य में कोई लक्ष्य नहीं होता है। और जिस पुण्य में भी लक्ष्य हो, वह पाप का ही रूप है। पाप में हमेशा लक्ष्य होता है, बिना लक्ष्य के कोई पाप नहीं कर सकता। लक्ष्य के रहते भी करने में मुश्किल पड़ती है, बिना लक्ष्य के तो कर ही नहीं सकता। मैं आपकी बिना लक्ष्य के हत्या नहीं कर सकता हूं। क्यों करूंगा? पाप बिना लक्ष्य का कभी नहीं हो सकता। क्योंकि पाप करुणा से कभी नहीं हो सकता। पाप हमेशा वासना से होगा। वासना में हमेशा लक्ष्य होगा; कुछ पाने की आकांक्षा होगी।

कुछ क्रियाएं हैं, जिनमें पाने की कोई आकांक्षा नहीं होती है। महावीर को कैवल्य उत्पन्न हुआ, उसके बाद वे चालीस-पैंतालीस वर्षों तक सक्रिय थे। पूछा जा सकता है, उतने दिनों उन्होंने क्रिया की, उसका बंध क्यों नहीं हुआ? उतने दिन तक वे काम तो कर ही रहे थे–भोजन भी करते थे, जाते भी थे, आते भी थे, बोलते भी थे, बताते भी थे–चालीस-पैंतालीस वर्षों तक निरंतर सक्रिय थे, तो उस क्रिया का उन पर फल क्यों नहीं हुआ? बुद्ध को निर्वाण उपलब्ध हुआ, उसके बाद वे भी चालीस वर्षों तक सक्रिय थे। उसका बंध क्यों नहीं हुआ? क्योंकि उस सक्रियता में कोई लक्ष्य नहीं था। लक्ष्य-शून्य क्रियाएं थीं वे और मात्र करुणा थीं।

मैं कई दफा सोचता हूं कि मैं आपसे क्यों बोल रहा हूं? इसमें क्या प्रयोजन हो सकता है? मुझे कोई प्रयोजन खोजे नहीं मिलता, सिवाय इसके कि मुझे कुछ दिखायी पड़ रहा है और यह एक मजबूरी है कि उसे बिना कहे नहीं रहा जा सकता है। क्योंकि उसे बिना कहे केवल वही रह सकता है, जिसमें हिंसा शेष रह गयी हो। वह हिंसा होगी।

मैंने सुबह आपको एक कहानी कही। अगर आपके हाथ में एक सांप को लिए हुए मैं देखूं और आपसे बिना कुछ कहे अपने रास्ते चला जाऊं कि मेरा लक्ष्य क्या है! तो यह तभी संभव है, जब मेरे भीतर अति हिंसा हो, अति क्रूरता हो। अन्यथा मैं कहूंगा कि ‘यह सांप है, इसे छोड़ दें।’ और कोई अगर मुझसे पूछे कि ‘आप क्यों कह रहे हैं कि यह सांप है, इसे छोड़ दें? आपका क्या लक्ष्य है?’ तो मैं कहूंगा, ‘कोई भी लक्ष्य नहीं है, सिवाय इसके कि मेरी अंतरात्मा को संभव नहीं है कि इस स्थिति में बिना कहे रह जाए।’ यानि उत्प्रेरणा बाहर नहीं है कि कोई लक्ष्य हो, प्रेरणा आंतरिक है, जिसका कोई लक्ष्य नहीं होता।

हैरान होंगे आप, जब भी लक्ष्य होता है, तो प्रेरणा कहीं बाहर होती है। और जब कोई लक्ष्य नहीं होता, तो प्रेरणा कहीं भीतर होती है। यानि कुछ चीजें होती हैं, जो हमें खींचती हैं, तब लक्ष्य होता है। और कुछ चीजें होती हैं, जो हमें भीतर से धकाती हैं, तब कोई लक्ष्य नहीं होता।

करुणा और प्रेम हमेशा लक्ष्य-शून्य हैं और वासना और इच्छा हमेशा लक्ष्यपूर्ण हैं। इसलिए ज्यादा ठीक होता है कहना कि वासना खींचती है, खींचती है बाहर से, जैसे मैं रस्सी बांधकर आपको खींचूं। यह खींचना है। वासना खींचती है, जैसे रस्सी की तरह कोई बांध ले और खींचे।

इसलिए वासना जिसके भीतर है, उसे हमारे ग्रंथ ‘पशु’ कहते हैं। पशु का अर्थ है, जो पाश से बंधा है; जो किसी चीज से बंधा है और खींचा जा रहा है। पशु का मतलब जानवर, एनीमल नहीं है। पशु का मतलब है, जो किसी पाश से बंधा है और खींचा जा रहा है।

तो जब तक हमें कोई लक्ष्य खींच रहा है कोई वासना का, तब तक हम पाश से बंधे हैं और पशु हैं और मुक्त नहीं हैं। मुक्ति जो है, पशु का विरोधी शब्द है। मोक्ष जो है, पशुता का विरोधी शब्द है। क्योंकि पशु का अर्थ है, बंधन में बंधे हुए खिंचे जाना। और मुक्त का अर्थ है, किसी बंधन से न खिंचना, अपने भीतर से गति को उत्पन्न कर लेना।

मुझे कोई लक्ष्य नहीं है। इसलिए अगर इसी वक्त मेरा प्राण निकल जाए, तो मुझे एक क्षण को भी ऐसा नहीं लगेगा कि कोई काम अधूरा रह गया है। अगर इसी वक्त मर जाऊं यहीं बैठे-बैठे, तो एक क्षण को भी यह खयाल नहीं आएगा कि जो बात मैं कह रहा था, वह अधूरी रह गयी। क्योंकि कोई काम तो था ही नहीं उसमें; कुछ पूरा करने का कोई प्रश्न नहीं था। जब तक श्वास थी, वह काम पूरा हुआ। नहीं श्वास रही, तो वह काम वहीं रह गया। उसमें कोई प्रयोजन नहीं था, कुछ अधूरा नहीं रहा।

तो कोई लक्ष्य नहीं है, सिवाय इसके कि एक अंतःप्रेरणा है, एक आंतरिक मजबूरी है, एक आंतरिक विवशता है। और उससे जो कुछ होगा, वह होगा। ऐसी स्थिति को हम अपने मुल्क में यह कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति ने अपने को ईश्वर के हाथ में सौंप दिया। अब ईश्वर की जो मर्जी हो, उससे करा ले। उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं है। यह कहने का ढंग भर है कि ईश्वर की मर्जी जो हो, उससे करा ले। इसका मतलब केवल इतना ही है कि उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं रहा। उसने अनंत सत्ता के हाथ में अपने जीवन को छोड़ दिया है। अब जो होगा, वह होगा। वह अनंत सत्ता की जिम्मेवारी है, उसकी अपनी कोई जिम्मेवारी नहीं है।

यह जो आपने पूछा, यह अच्छा ही पूछा। इस माध्यम से मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि जीवन को वासना से करुणा में परिणत करें। एक ऐसा जीवन बनाएं, जिसमें लक्ष्य तो न रह जाए, एक अंतःप्रेरणा प्रविष्ट हो जाए। एक ऐसा जीवन बनाएं, जिसमें कुछ पाने की तो आकांक्षा न रह जाए, कुछ देने की आकांक्षा प्रबल हो जाए। जिसको मैंने प्रेम कहा–पाना नहीं, देना। और प्रेम में कोई लक्ष्य नहीं होता, सिवाय इसके कि हम देते हैं। जिसको मैंने प्रेम कहा, उसको ही मैंने दूसरे शब्दों में करुणा कहा। तो आप कह सकते हैं–कह सकते हैं कि कोई लक्ष्य नहीं है, सिवाय इसके कि प्रेम है। और प्रेम का कोई लक्ष्य नहीं होता, क्योंकि प्रेम स्वयं अपना लक्ष्य है।

एक अंतिम प्रश्न क्रोध के संबंध में है कि क्रोध आने पर मन में विपरीत परिणाम होता है और उसका पूरे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति में शरीर में किस ग्रंथि का निर्माण होता है?

 

सुबह मैंने बात की है। मैं आपको यह कहा हूं–क्रोध तो केवल एक उदाहरण के लिए लिया था–सारे भावावेग शक्तियां हैं। और अगर उन शक्तियों का कोई सृजनात्मक उपयोग न हो, तो वे शरीर के किसी अंग को, चित्त की किसी स्थिति को विकृत करके अपनी शक्ति को व्यय कर लेते हैं। शक्ति का व्यय होना जरूरी है। जो शक्ति बिना व्यय की हुई भीतर रह जाएगी, वह ग्रंथि बन जाएगी। ग्रंथि का मतलब, वह गांठ बन जाएगी, वह बीमारी बन जाएगी।

समझें। क्रोध की ही बात नहीं है। अगर मेरे भीतर प्रेम देना हो और मैं प्रेम न दे पाऊं किसी को, तो प्रेम गांठ बन जाएगा। अगर मेरे भीतर क्रोध हो और मैं क्रोध न कर पाऊं, तो क्रोध गांठ बन जाएगा। अगर मेरे भीतर भय पैदा हो और मैं भय प्रकट न कर पाऊं, तो भय गांठ बन जाएगा। सारे भावावेश भीतर एक शक्ति को उत्पन्न करते हैं। उस शक्ति का निष्कासन चाहिए।

निष्कासन दो तरह से हो सकता है। एक निगेटिव रास्ता है, एक नकारात्मक रास्ता है। जैसे एक आदमी को क्रोध आया, नकारात्मक रास्ता यह है कि वह गया और उसने पत्थर चलाए, लकड़ी मारी, गालियां बकीं। यह नकारात्मक इसलिए है कि इसकी शक्ति तो व्यय हुई, लेकिन फल इसे कुछ भी नहीं मिला। फल यह मिलेगा कि जिसको यह गाली देगा, वह दुगुनी वजन की गाली इसको लौटाएगा। जिसको यह पत्थर मारेगा, उसके भीतर भी क्रोध पैदा होगा। और वह भी सामान्य आदमी है, उसका भी नकारात्मक ढंग होगा क्रोध को प्रकट करने का। वह भी लकड़ी उठाएगा। अगर आपने किसी को पत्थर मारा है, तो वह बड़ा पत्थर आपको मारेगा।

क्रोध का नकारात्मक उपयोग और क्रोध को पैदा करेगा। शक्ति व्यय होगी। फिर से क्रोध पैदा होगा और नकारात्मक आदत फिर क्रोध करवाएगी। फिर शक्ति व्यय होगी, फिर विपरीत उत्तर में फिर क्रोध पैदा होगा। क्रोध की शृंखला अनंत होगी, उसमें केवल शक्ति ही व्यय होती जाएगी, परिणाम कुछ भी नहीं होगा।

क्रोध की शृंखला को तभी आप तोड़ सकते हैं, जब आप क्रोध का कोई सक्रिय उपयोग कर लें, कोई सृजनात्मक उपयोग कर लें। इसलिए महावीर ने कहा है, जो घृणा करता है, वह घृणा उत्तर में पाता है। जो क्रोध करता है, वह क्रोध को पैदा करता है। जो वैर करता है, वह वैर को जन्म देता है। और इस शृंखला का कोई अंत नहीं है। और इसमें केवल शक्ति ही व्यय हो सकती है। परिणाम क्या हो सकता है? समझ लें, मैं क्रोध करूं, आप उत्तर में मुझे क्रोध दें, मैं फिर पुनः क्रोध करूं, आप फिर उत्तर में मुझे क्रोध दें–परिणाम क्या होगा? हर क्रोध मुझे क्षीण करेगा और मेरी शक्ति को व्यय कर जाएगा। इस वजह से सभ्यता ने नियम बनाया है कि क्रोध मत करो। इस वजह से सभ्यता ने नियम बनाया कि किसी पर क्रोध जाहिर मत करो।

यह नियम तो अच्छा है। इससे क्रोध जाहिर तो नहीं होगा, शृंखला तो नहीं बनेगी, लेकिन वह शक्ति, मेरे भीतर वह शक्ति का वेग घूमेगा। वह कहां जाएगा? वह कहां जाएगा?

पशुओं की आंख आपने देखी है! खूंखार से खूंखार पशु की आंख आपसे ज्यादा निर्मल होती है। एक हिंसक पशु की आंख भी मनुष्य की आंख से ज्यादा निर्मल होती है। क्या बात है? वहां दमित वेग कुछ भी नहीं है। क्रोध आता है, तो उसे प्रकट करता है। चिल्लाता है, आवाज करता है, हमला करता है, निकाल देता है। वह सभ्य नहीं है। उसको जो होता है, निकाल देता है।

बच्चों की आंखों में जो निर्मलता होती है, उसका क्या कारण है? उनको जो होता है, उसे वे निकाल देते हैं। उनकी कोई ग्रंथियां पैदा नहीं होतीं। अगर उन्हें क्रोध आता है, तो क्रोध निकाल देते हैं। अगरर् ईष्या होती है, तोर् ईष्या निकाल देते हैं। अगर किसी बच्चे का खिलौना छीनना है, तो उसको छीन लेते हैं। दमन नहीं है बच्चे के जीवन में, इसलिए सरलता मालूम होती है। और आपके जीवन में दमन है, इसलिए जटिलता शुरू हो जाती है।

ग्रंथि का अर्थ है, कांप्लेक्सिटी। कुछ भीतर होता है, कुछ आप बाहर दिखाते हैं। वह जो शक्ति नहीं निकल पाती है, वह कहां जाएगी? वह ग्रंथि बन जाती है। ग्रंथि का मेरा मतलब है, वह गांठ की तरह आपके चित्त में या आपके शरीर में अवरुद्ध हो जाती है। जैसे नदी में कोई पानी का हिस्सा बर्फ के टुकड़े बनकर बहने लगे, तो जितने बड़े-बड़े टुकड़े होते जाएंगे, नदी की धार उतनी कुंठित होती जाएगी। अगर सब बर्फ हो जाए, तो नदी जमकर वहीं समाप्त हो जाएगी।

तो हम उन नदियों की तरह हैं, जिनके भीतर बड़े-बड़े बर्फ के टुकड़े बह रहे हैं। उनको पिघलाना जरूरी है। वह ग्रंथियों से मेरा मतलब है कि वे जो बर्फ के बड?े-बड़े टुकड़े हमारे जीवन में बह रहे हैं। हमारे घृणा के, हमारे क्रोध के, हमारे सेक्स के जो दमित वेग थे, उन्होंने हमारे भीतर बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े पैदा कर दिए हैं। अब वे हमारी धार को बहने नहीं देते हैं। कुछ की तो धारें ऐसी हैं कि सब बर्फ ही बर्फ हो गया है, वहां कोई धार ही नहीं है।

उसको पिघलाने की जरूरत है। और उसको पिघलाने के लिए मैंने कहा, सृजनात्मक उपयोग करना चाहिए। और सृजनात्मक उपयोग के लिए मैंने दो रास्ते बताए, एक तो पिछले वेग को कैसे विसर्जित करें और नए वेग का कैसे सृजनात्मक उपयोग करें।

अब ये देखिए आप, छोटे बच्चे हैं, उनमें बड़ा वेग होता है, बड़ी शक्ति होती है। अगर उनको आप घर में छोड़ते हैं, तो वे इस चीज को उठाते हैं, उसको पटकते हैं; यह चीज तोड़ते हैं, वह चीज फोड़ते हैं। आप उनको कहते हैं, यह मत करो, यह मत करो। आप उनसे यह तो कहते हैं कि यह मत करो, लेकिन आप यह कभी नहीं कहते कि फिर क्या करो। और आपको यह पता नहीं है कि जब एक बच्चा एक गिलास को उठाकर पटक रहा है, तो क्यों पटक रहा है! उसके भीतर शक्ति है और शक्ति निकास मांगती है। अब कुछ नहीं मिलता, तो एक गिलास को पटक रहा है। उस गिलास को पटकने से उसकी शक्ति निकसित होती है, निकलती है।

लेकिन आपने कहा, ‘गिलास मत तोड़ देना।’ और वह गिलास तोड़ने से रुक गया। वह बाहर गया, उसने फूल तोड़ना चाहा। आपने कहा, ‘देखो, फूल मत छू देना।’ वह फूल भी नहीं छू पाया। वह अंदर गया, उसने किताब उठायी। आप बोले, ‘देखो, किताब खराब मत कर देना।’ तो आपने उसे यह तो बताया कि क्या मत करना, आपने यह उसे नहीं बताया कि अब क्या करो। यह बच्चे में ग्रंथियां शुरू हो गयीं, कांप्लेक्सेस पैदा होने शुरू हो गए। अब इसमें गांठें पड़ती चली जाएंगी। यह एक दिन गांठ ही गांठ रह जाएगा। इसके भीतर यह न करो, वह न करो, यह सब रहेगा। क्या करो, इसे कुछ समझ में नहीं आएगा।

मेरा कहना यह है सृजनात्मक उपयोग का कि इसे यह बताओ कि क्या करो। अगर यह गिलास उठाकर पटक रहा है, तो इसका मतलब है कि इसके पास शक्ति है और कुछ करना चाहता है। आपने कह दिया, यह मत करो। इससे बेहतर था, आप इसे मिट्टी देते और कहते, एक गिलास बनाओ। इसी गिलास की तरह एक गिलास बनाओ। तो यह सृजनात्मक उपयोग होता। मेरी आप बात समझे? यह फूल तोड़ने गया था। इसे आप कागज पकड़ा देते और कहते कि इसी तरह का फूल बनाओ, तो यह सृजनात्मक उपयोग होता। यह किताब फाड़ रहा था या किताब उठाया था, इसे आपको कुछ देना चाहिए था कि उस शक्ति का उपयोग करता।

अभी शिक्षा बिलकुल ही असृजनात्मक है, क्रिएटिव नहीं है, इसलिए बच्चों का जीवन बचपन से खराब हो जाता है। और हम सब बिगड़े हुए बच्चे हैं। हम सब बिगड़े हुए बच्चे हैं। हम बड़े हो गए हैं, बस इतनी भूल है। बाकी हम बिगड़े हुए बच्चे हैं, जिनका बचपन से सब बिगड़ा हुआ है। और फिर हम जीवनभर वही बिगड़ा हुआ सब करते चले जाते हैं।

तो मैंने जो कहा, क्रिएटिविटी, सृजनात्मकता, उससे मेरा मतलब यह है कि जब भी शक्ति का उदय हो, उसका कोई सृजनात्मक उपयोग करिए, जिससे कुछ बन जाए, कुछ निर्मित हो जाए। कुछ विनष्ट न हो।

अब एक आदमी जो निरंतर निंदा करता है किसी की, हो सकता था, वह कोई गीत लिखता। और आप जानते हैं, जो गीत नहीं लिख पाते, कविता नहीं लिख पाते, वे आलोचक हो जाते हैं। वह वही शक्ति है। वे जो क्रिटिक्स हैं, वे जो आलोचक हैं; वह वही शक्ति है, जो गीत लिख सकती थी, कविता बना सकती थी। लेकिन उन्होंने उसका सृजनात्मक उपयोग नहीं किया। वे केवल यह कर रहे हैं कि वे दूसरों की आलोचना कर रहे हैं कि कौन गलत लिख रहा है, कौन क्या कर रहा है!

यह विनाशात्मक उपयोग है। दुनिया बहुत बेहतर दुनिया हो जाए, अगर हम अपनी शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग करें, और हर शक्ति का। और शक्ति बुरी और भली नहीं होती, स्मरण रखिए। क्रोध की शक्ति भी बुरी और भली नहीं है। उसके उपयोग की बात है। आप यह मत सोचिए कि क्रोध की शक्ति बुरी है। शक्ति कोई बुरी-भली नहीं होती।

अब एटामिक एनर्जी है; न बुरी है, न भली है। उससे विनाश हो सकता है सारे जगत का, उससे सारे जगत का निर्माण हो सकता है। सब शक्तियां न्यूट्रल होती हैं। कोई शक्ति बुरी और भली नहीं होती। विनाशात्मक उपयोग हो, तो बुरी हो जाती है; और सृजनात्मक उपयोग हो, तो भली हो जाती है।

अपने क्रोध को, अपने काम को, अपने सेक्स को, अपनी घृणा को, सबको बदलिए और सृजनात्मक उपयोग करिए। जैसे कोई खाद को लाता है, तो उसमें गंध और बास उठती है, दुर्गंध उठती है। उस खाद को माली बगीचे में डालता है, पानी सींचता है और बीज डालता है। फिर उन बीजों से होकर वही खाद पौधा बन जाती है। और उन पौधों की नसों में से पार होकर वही खाद की गंदगी फूलों की सुगंध बन जाती है। वही गंदगी, वही खाद, जो दुर्गंध फेंकती थी, फूल में आकर सुगंध फेंकती है। यह ट्रांसफार्मेशन आफ एनर्जी है। यह शक्ति का उदात्तीकरण है।

जो-जो आपमें दुर्गंध दे रहा है, वही-वही आपमें सुगंध देने का कारण बन सकता है–वही। क्योंकि जो दुर्गंध देता है, केवल वही सुगंध दे सकता है। इसलिए कभी बुरा मत मानिए कि आप क्रोधी हैं। यह शक्ति है और आपका सौभाग्य है। और कभी बुरा मत मानिए कि आप सेक्सुअल हैं कि आप कामुक हैं। यह शक्ति है और आपका सौभाग्य है। दुर्भाग्य यह होता कि आप सेक्सुअल न होते। दुर्भाग्य यह होता कि आपमें क्रोध ही न होता, तो आप इम्पोटेंट होते; तो आप पुंसत्वहीन होते, तो आप किसी मतलब के न होते। क्योंकि आपमें कोई शक्ति न होती, जिससे कुछ किया जा सके। तो शक्ति के लिए सौभाग्य मानिए। और आपके भीतर जो भी शक्तियां हों, सबका धन्यवाद मानिए, क्योंकि वे शक्तियां हैं। अब यह आपके हाथ में है कि आप उनका क्या उपयोग करते हैं!

दुनिया के जितने महापुरुष हुए हैं, सब एक्सट्रीम सेक्सुअलिस्ट थे। जितने दुनिया के महापुरुष हुए हैं, सब अति कामुक थे। यह असंभव है, अगर न रहे हों। अगर अति कामुक न होते, महापुरुष नहीं हो सकते थे।

गांधी जी को आप जानते हैं, अति कामुक थे। और जिस दिन उनके पिता की मृत्यु हुई, डाक्टरों ने कह दिया कि पिता मरने को हैं, वे उस रात भी अपने पिता के पास नहीं बैठ सके। जब उनके पिता मरे, तो वे अपनी पत्नी के पास सोए हुए थे। और डाक्टर कहे कि पिता मरने को हैं और उस रात भी वे पिता के पास नहीं बैठ सके। वे मरने को थे रात में, यह जाहिर ही था। गांधी जी को बहुत धक्का लगा इस बात से कि मैं कैसा आदमी हूं! मैं आदमी कैसा हूं!

लेकिन धन्यभाग था उनका कि वे इतने कामुक थे। वही कामुकता उनका ब्रह्मचर्य बन गयी–वही कामुकता। अगर वे उस रात पिता के पास बैठे रहते, तो पक्का मानिए, गांधी पैदा नहीं होता दुनिया में। हममें से अधिक बैठे ही रहते। रात क्या, दो रात बैठे रहते, पर गांधी पैदा नहीं होता। वह जो उस दिन दुर्गंध मालूम हुई होगी उनके चित्त को, वही बाद में उनके जीवन की सारी सुगंध बन गयी।

तो किसी शक्ति का अनादर मत करिए। अपने भीतर उठी किसी भी शक्ति का अनादर मत करिए। सौभाग्य मानिए और उसको परिवर्तित करने में लगिए। हर शक्ति बदल जाती है और हर शक्ति समपरिवर्तित हो जाती है। और जो आपमें बुरा दिखता है, वही सुगंध में और फूलों में परिणत हो जाता है।

ये थोड़े-से प्रश्नों की मैंने चर्चा की। दो-चार छूट गए हैं, उनको कल विचार कर लेंगे।

आज इतना ही।



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ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–4

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विचार-शुद्धि के सूत्र—(प्रवचन—चौथा)

मेरे प्रिय आत्मन् ,

हले चरण की बात सुबह मैंने कही। शरीर की शुद्धि कैसे संभव है, उस पर थोड़ी-सी बातें आपको बतायीं। दूसरी पर्त मनुष्य के व्यक्तित्व की, उसके विचार की है। शरीर शुद्ध हो, विचार शुद्ध हो–तीसरी पर्त भाव की है–और भाव शुद्ध हो, तो साधना की परिधि तैयार होती है। ये तीन बातें भी सध जाएं, तो जीवन में बहुत अभिनव आनंद का, शांति का जन्म हो जाता है। ये तीन बातें भी सध जाएं, तो जीवन का नया जन्म हो जाता है।

लेकिन यह परिधि की साधना है। एक अर्थ में यह बहिरंग साधना है। अंतरंग साधना और भी गहरी है। उसमें शरीर को, विचार को और भाव को हम शून्य करते हैं; शुद्ध करते हैं, उसमें शून्य करते हैं। अभी शरीर को शुद्ध करते हैं, उसमें शरीर का त्याग ही करते हैं। उसमें शरीर नहीं है, इस अवस्था में प्रवेश करते हैं। विचार नहीं है, इस अवस्था में प्रवेश करते हैं। भाव नहीं है, इस अवस्था में प्रवेश करते हैं। पर उसके पूर्व, परिधि के रूप में अशुद्ध का त्याग करते हैं।

शरीर के संबंध में मैंने आपको कहा। अब विचार के संबंध में विचार करें। विचार की अशुद्धि क्या है? विचार भी तरंगों की भांति हैं। और विचार भी मनुष्य के चित्त पर अपना प्रभाव शुभ या अशुभ के लिए छोड़ते हैं। जो व्यक्ति जिन विचारों से आंदोलित होता है, उसका व्यक्तित्व वैसा ही निर्मित हो जाता है। जो व्यक्ति जिन विचारों से आंदोलित होता है, उसका व्यक्तित्व वैसा ही निर्मित हो जाता है। जो व्यक्ति सौंदर्य का विचार करेगा, जिस व्यक्ति की चेतना निरंतर सौंदर्य के निकट चिंतन और मनन करेगी, उसके व्यक्तित्व में एक सौंदर्य का जन्म हो जाना बिलकुल स्वाभाविक है। जो व्यक्ति शिवत्व के संबंध में, शुभ के संबंध में विचार करेगा और उसकी चेतना उस केंद्र पर परिभ्रमण करेगी, उसके जीवन में शुभ का पैदा हो जाना आश्चर्यजनक नहीं है। जो सत्य का चिंतन करेगा, सत्य का मनन करेगा, उसके जीवन में सत्य का अवतरण हो जाना सहज संभव है।

तो इस संबंध में मैं आपसे यह कहूं कि आप अपने बाबत विचार करें, आप किस चीज पर निरंतर चिंतन करते हैं? किस चीज के संबंध में आप निरंतर चिंतन करते हैं?

हममें से अधिक लोग या तो धन के संबंध में विचार करते हैं, या यश के संबंध में विचार करते हैं, या काम के संबंध में विचार करते हैं।

चीन में बहुत समय हुआ, एक राजा हुआ। वह अपने समुद्रत्तट के राज्य की सीमा को देखने गया। वह अपने वजीर को भी साथ ले गया था। वे दोनों पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर दूर तक फैले समुद्र को देखने लगे। अनेक-अनेक जहाज उस समुद्र में चल रहे थे, आ रहे थे, जा रहे थे। उस राजा ने कहा अपने मंत्री को, ‘कितने जहाज आ रहे हैं और कितने जहाज जा रहे हैं!’ उस मंत्री ने कहा, ‘राजन, अगर सत्य पूछें, तो केवल तीन जहाज आ रहे हैं और तीन ही जहाज जा रहे हैं।’ राजा ने पूछा, ‘तीन? अनेक दिखायी पड़ते हैं। क्या तुम्हें दिखायी नहीं पड़ते?’ उसने कहा, ‘मैंने तीन ही जहाज जाने हैं–एक यश का जहाज है, एक धन का जहाज है, एक काम का जहाज है। और इन तीन जहाजों पर सबकी यात्रा चलती है।’

यह सच है। हमारे विचार की यात्रा इन तीन जहाजों पर ही चलती है। और जो इन तीन पर चल रहा है, वह अशुद्ध विचार में है। जो इन तीन से नीचे उतर आए, वह शुद्ध विचार में प्रवेश करता है।

तो यह प्रत्येक के लिए विचारणीय है कि उसका केंद्रीय चिंतन क्या है? उसका घाव क्या है मन का, जहां सारी चीजें घूमती हैं? क्योंकि चौबीस घंटे में जिस बात पर उसका चित्त बार-बार लौट आता हो, वह उसकी केंद्रीय कमजोरी होगी। तो यह हरेक सोचे, क्या धन पर लौट आता है? क्या सेक्स पर लौट आता है? क्या यश पर लौट आता है? क्या आपका चिंतन इनमें से किसी एक पर लौट आता है? क्या असत्य पर लौट आता है? बेईमानी पर लौट आता है? धोखा देने पर लौट आता है? ये सब उनके गौण हिस्से हैं। तीन केंद्र तो वही हैं। उन तीन पर अगर आपका चित्त चिंतन करता है, तो आप अशुद्ध विचार की स्थिति में हैं। इसे अशुद्ध हम इसलिए कह रहे हैं कि इस भांति का विचार करके आप जीवन-सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकेंगे।

शुद्ध विचार का अर्थ होगा, जिसको हम अपने देश में सत्यम् शिवम् सुंदरम् कहते हैं। जिसे हम कहते हैं सत्य, शिव और सुंदर। ये तीन ही शुभ विचार के केंद्र हैं। काम, यश और धन, ये अशुभ विचार के केंद्र हैं। सत्य, शिव और सुंदर, ये शुद्ध विचार के केंद्र हैं।

कितना आप सत्य के संबंध में चिंतन करते हैं? करते हैं चिंतन सत्य के संबंध में? कभी सोचते हैं, सत्य क्या है? किन्हीं एकांत क्षणों में आपका मन इससे आंदोलित होता है? कभी यह बात आपके मन को पीड़ित करती है कि सत्य क्या है? कभी आपके मन को होता है, जानें कि सुंदर क्या है? कभी आपके मन को होता है कि जानें कि शुभ क्या है?

अगर ये विचार आपके मन को आंदोलित नहीं करते हैं, तो आपकी विचार-स्थिति अशुद्ध है और उस अशुद्ध विचार-स्थिति में समाधि में प्रवेश नहीं होगा।

अशुद्ध विचार बाहर ले जाता है और शुद्ध विचार भीतर लाता है। अशुद्ध विचार की दिशा बहिर्गामी है और अधोगामी है। और शुभ विचार या शुद्ध विचार की दिशा अंतर्गामी है और ऊर्ध्वगामी है। यह असंभव है कि कोई व्यक्ति सत्य का विचार करे, सुंदर का विचार करे, शुभ का विचार करे–यह असंभव है कि वह इनका विचार करे, तो विचार करते-करते ही उसके जीवन में इनकी छाप, इनका अंकन और इसकी छाया न पड़ने लगे।

गांधी जी जेल में पीछे बंद थे। वे निरंतर सोचते थे सत्य के संबंध में, अपरिग्रह के संबंध में, अनासक्ति के संबंध में। उन दिनों सुबह के नाश्ते में वे दस खजूर फुलाकर लेते थे। उसको पानी में डालकर दस खजूर लेते थे। वल्लभ भाई पटेल उनके साथ जेल में थे। उन्होंने देखा, दस खजूर भी कोई नाश्ता हुआ? इतने से क्या होगा? तो उन्होंने–वे ही फुलाते थे उन खजूरों को–उन्होंने एक दिन पंद्रह खजूर फुला दिए। और उन्होंने कहा, ‘पता भी क्या चलेगा इस बूढ़े आदमी को कि कितने थे, दस थे कि पंद्रह थे! ऐसे खा लेंगे।’

गांधी जी ने देखा कि कुछ खजूर ज्यादा हैं। उन्होंने कहा कि ‘वल्लभ भाई, इनकी गिनती करो।’ गिनती की, तो वे पंद्रह थे। गांधी जी ने कहा, ‘ये तो पंद्रह हैं।’ वल्लभ भाई ने कहा, ‘अरे दस और पंद्रह में क्या फर्क है?’ गांधी जी दो क्षण आंख बंद करके बैठ गए और सोचते रहे। उन्होंने कहा, ‘वल्लभ भाई, तुमने मुझे बड़ा सूत्र दे दिया। तुमने कहा, दस और पंद्रह में क्या फर्क है? मेरी समझ में आ गया कि दस और पांच में भी कोई फर्क नहीं है। आज से हम पांच ही लेंगे।’ गांधी जी ने कहा, ‘आज से हम पांच ही लेंगे। तुमने गजब की बात कह दी कि दस और पंद्रह में कोई फर्क नहीं है। तो पांच और दस में भी कोई फर्क नहीं है। आज से हम पांच ही लेंगे।’

वल्लभ भाई तो घबरा गए। उन्होंने कहा, ‘हम तो इसलिए कि थोड़ा नाश्ता ज्यादा हो जाएगा आपका। यह हमें खयाल न था कि इस तरह आप सोचेंगे।’ गांधी जी ने कहा, ‘जो निरंतर अपरिग्रह पर सोच रहा है, उसको बुद्धि ऐसे ही सूझेगी। जो निरंतर यह सोच रहा है कि कितना कम से कम हो जाए, उसकी बुद्धि ऐसा ही उत्तर देगी। जो निरंतर सोच रहा है, ज्यादा से ज्यादा कैसे हो जाए, उसे दस और पंद्रह में फर्क नहीं होगा। जो सोच रहा है, कम से कम कैसे हो जाए, उसे पांच और दस में फर्क नहीं होगा।’

तो आप जो चिंतन करते हैं, वह आपकी छोटी-छोटी जीवनचर्या में प्रकट होना शुरू हो जाएगा। एक और घटना आपको कहूं।

गांधी जी सुबह पानी गर्म करके उसमें नीबू और शहद डालकर लेते थे। महादेव देसाई उनके निकट थे। वह एक दिन पानी में शहद और नीबू डालकर उन्होंने रखा। वह गर्म पानी था। उबलती हुई उससे भाप निकलती थी। जब गांधी जी आए, तो कोई पांच मिनट बाद उनको पीने को दिया। गांधी जी उसे दो क्षण देखते रहे और फिर उन्होंने कहा, ‘अच्छा हुआ होता, इसे ढंक देते।’ महादेव देसाई ने कहा, ‘पांच मिनट में क्या बिगड़ता है। और फिर मैं देख ही रहा हूं, इसमें कुछ भी नहीं गिरा।’ गांधी जी ने कहा, ‘कुछ गिरने का प्रश्न नहीं है। इससे गर्म भाप उठ रही है, कुछ न कुछ कीटाणुओं को व्यर्थ ही नुकसान पहुंचा होगा।’ गांधी जी ने कहा, ‘ढंकने का और गिर जाने का उतना प्रश्न नहीं है। लेकिन इससे गर्म भाप निकल रही है। वायु के बहुत-से कीटाणुओं को व्यर्थ ही नुकसान पहुंचा होगा। कोई कारण न था, उसे हम बचा सकते थे।’

जो अहिंसा पर निरंतर चिंतन कर रहा है, यह स्वाभाविक है कि उसको यह वृत्ति और बोध आ जाए। यानि मैं यह कह रहा हूं कि आप जब किन्हीं चीजों पर निरंतर चिंतन करेंगे, तो आप जीवनचर्या में छोटी-छोटी बातों में पाएंगे कि फर्क हो जाता है।

सुबह यहां एक मित्र ने आपको खबर दी। उन्होंने कहा, ‘यह बहुत दुख की बात है कि बहुत-से लोगों को हम दो बार कह चुके, फिर भी वे अभी तक नहीं आए हैं और दस मिनट की देर हो गई।’ उन्होंने कहा कि यह बहुत दुख की बात है कि कुछ लोगों को हम दो बार कह चुके हैं, लेकिन वे अभी तक नहीं आए हैं। अगर मुझे यह बात कहनी पड़े, तो मैं यह कहूंगा, ‘यह बहुत खुशी की बात है कि दो ही बार कहने से इतने लोग आ गए हैं।’ और मैं यह कहूंगा कि ‘यह और भी ज्यादा खुशी की बात होगी कि जो नहीं आए हैं, वे भी आ जाएं।’ यह अहिंसात्मक ढंग होगा और वह हिंसात्मक ढंग था। उसमें हिंसा है।

तो मैं यह कह रहा हूं कि अगर आप विचार करेंगे, शुद्ध चिंतन के थोड़े-से केंद्र बनाएंगे, तो आप पाएंगे, आपकी छोटी-छोटी चीजों में अंतर पड़ना शुरू हो जाएगा। आपकी वाणी तक अहिंसक हो जाएगी। आपका उठना-बैठना अहिंसक हो जाएगा। आपके चिंतन के केंद्र आपके जीवन को प्रभावित करेंगे। यह स्वाभाविक है। जो जैसा विचारता है, वैसा हो जाता है।

विचार बड़ी अदभुत शक्ति है। तो आप क्या विचार रहे हैं निरंतर, इस पर बहुत कुछ निर्भर है। अगर आप निरंतर धन के संबंध में विचार रहे हैं और समाधि के प्रयोग कर रहे हैं, तो दिशा विपरीत है। वह ऐसा ही है, जैसे हमने एक ही बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत दिए हों। तो वह बैलगाड़ी टूट जाएगी उन बैलों के खींचने से, लेकिन आगे नहीं बढ़ेगी।

विचार की दिशा शुद्ध हो, तो आप पाएंगे, बड़ी छोटी-छोटी चीजों में अंतर पड़ना शुरू हो जाता है। बहुत बड़ी-बड़ी बातें नहीं हैं जीवन में; जीवन बड़ी छोटी-छोटी बातों से बनता है। जीवन बड़ी छोटी-छोटी घटनाओं से बनता है। आप कैसे उठते हैं, कैसे बैठते हैं, कैसे बोलते हैं, क्या बोलते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर होता है। बहुत कुछ निर्भर होता है! और इन सारी बातों का जो केंद्र है, जहां से इन सबका जन्म होता है, वह विचार है।

तो विचार को सत्योन्मुख, शिवोन्मुख और सौंदर्योन्मुख होना चाहिए। निरंतर जीवन में यह स्मरण बना रहे कि हम सत्य का चिंतन करें। समय जब मिले, तो हम सत्य पर थोड़ा विचार करें, सौंदर्य पर थोड़ा विचार करें, शुभ पर थोड़ा विचार करें। और इसके पहले कि हम कोई काम करने में प्रवृत्त हों, एक क्षण रुक जाएं और सोचें कि हम जो करेंगे, वह सत्य, सुंदर और शुभ के अनुकूल होगा या प्रतिकूल होगा? जब कोई विचार मन में चलने लगे, तो हम सोचें कि यह जो धारा चल रही है, यह विचार की धारा शुभ के, सत्य के, सुंदर के अनुकूल है या कि प्रतिकूल है?

यदि यह प्रतिकूल है, तो इस धारा को खंडित कर दें। इसका साथ छोड़ें, यह धारा लाभ की नहीं है। यह जीवन को गङ्ढे में ले जाएगी। यह जीवन को नीचे ले जाएगी। तो इसको स्मरणपूर्वक देखें कि आपकी विचार की पर्तों की धारा कैसी है! और उसे साहस से, प्रयास से और श्रम से और संकल्पपूर्वक शुभ और सत्य की ओर उन्मुख करें।

अनेक बार ऐसा लगेगा कि हम तय भी नहीं कर पाएंगे कि सत्य क्या है? अनेक बार ऐसा लगेगा कि हम तय भी नहीं कर पाएंगे कि शुभ क्या है? हो सकता है, आप तय न कर पाएं। लेकिन आपने विचार किया, तय करने की चेष्टा की, यह भी काफी मूल्यवान है और आपमें फर्क लाएगा। और जो निरंतर चिंतन करेगा, वह धीरे-धीरे उस दिशा को अनुभव कर लेता है कि उसे पता चले कि शुभ क्या है, या सत्य क्या है।

प्रत्येक विचार को, प्रत्येक वाणी को, प्रत्येक क्रिया को करने के पूर्व एक क्षण रुक जाएं, इतनी जल्दी कुछ भी नहीं है। और देखें कि मैं जो कर रहा हूं, उससे क्या प्रकट हो रहा है? उसमें क्या जाहिर हो रहा है? उसमें कौन-सी घटना घट रही है? इसका सतत चिंतन साधक को जरूरी है।

तो मैं पहली तो बुनियादी जो विचार-शुद्धि की बात है, वह यह है कि हमारी दिशा के केंद्र क्या हैं चिंतन के! अगर वे केंद्र आपमें नहीं हैं, जिनकी मैं बात कर रहा हूं, तो उन केंद्रों को जगाना होगा।

आप जानकर हैरान होंगे, अगर सत्य, शिव या सुंदर में से एक भी केंद्र आपमें जग जाए, तो दो केंद्र अपने आप जगने शुरू हो जाएंगे। और यह भी मैं आपको उल्लेख कर दूं कि तीन तरह के लोग होते हैं जगत में। एक वे लोग होते हैं, जिनके भीतर सत्य के केंद्र के विकसित होने की शीघ्र संभावना होती है। एक वे लोग होते हैं, जिनके भीतर शुभ के केंद्र के विकसित होने की शीघ्र संभावना होती है। और एक वे लोग होते हैं, जिनके भीतर सौंदर्य के विकसित होने की शीघ्र संभावना होती है।

यह हो सकता है, आपमें से सबके केंद्र अलग हों। लेकिन अगर एक केंद्र भी जग जाए, तो दो अपने आप जगने शुरू हो जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति सौंदर्य को ठीक से प्रेम करने लगे, तो असत्य नहीं बोल सकता। क्योंकि असत्य बोलना बड़ी असुंदर बात है, बड़ी कुरूप बात है। अगर कोई व्यक्ति सुंदर को ठीक से प्रेम करने लगे, तो अशुभ कृत्य नहीं कर सकता है, क्योंकि अशुभ कृत्य कुरूप होता है। यानि वह इसलिए चोरी नहीं कर सकता है कि चोरी करना बड़ा कुरूप कृत्य है। तो अगर उसकी सौंदर्य के प्रति भी पूरी आकांक्षा पैदा हो जाए, तो भी बहुत कुछ हो जाएगा।

एक बार गांधी जी रवीन्द्रनाथ के यहां मेहमान थे। रवीन्द्रनाथ बूढ़े हो गए थे। वे तो सौंदर्य के साधक थे। सत्य से और शुभ से उन्हें कोई मतलब न था। इस अर्थ में मतलब नहीं था कि वे उनकी सीधी दिशा नहीं थे। वे सौंदर्य के साधक थे। गांधी जी वहां मेहमान थे। संध्या को दोनों घूमने निकलने को थे, तो रवीन्द्रनाथ ने कहा, ‘दो क्षण रुकें, मैं थोड़ा बाल संवारकर आया।’

गांधी जी ने कहा, क्या बेहूदी बात! बाल संवारना! गांधी जी उनको साफ ही कर चुके थे, इसलिए संवारने की झंझट ही खतम हो गयी। और इस बुढ़ापे में बाल संवारना! यह तो बड़ी अजीब और गांधी जी के लिए बड़ी असोचनीय बात थी। वे बड़े गुस्से में खड़े रहे, लेकिन अब रवीन्द्रनाथ को कुछ कह भी नहीं सकते थे।

रवीन्द्रनाथ भीतर गए। दो मिनट बीते, पांच मिनट बीते, दस मिनट बीते। गांधी जी हैरान हुए कि ये कैसे बाल संवारे जा रहे हैं! उन्होंने खिड़की से झांका, तो वे आदमकद आईने के सामने खड़े हैं और बाल संवारे ही चले जाते हैं। गांधी जी की बरदाश्त के बाहर हुआ। उन्होंने कहा कि ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं, यह आप क्या कर रहे हैं? घूमने का वक्त निकला जा रहा है। और बाल भी क्या संवारने? और इस बुढ़ापे में बाल क्या संवारने?’

रवीन्द्रनाथ बाहर आए। और रवीन्द्रनाथ ने कहा, ‘जब मैं युवा था, तो बिना संवारे भी चल जाता था; और अब मैं हो गया बूढ़ा, अब बिना संवारे नहीं चलेगा।’ रवीन्द्रनाथ ने कहा, ‘जब मैं युवा था, तो बिना बाल संवारे भी चल जाता था; अब मैं हो गया बूढ़ा, इसलिए बिना संवारे नहीं चलेगा। और यह न सोचें कि मैं सुंदर होने को उत्सुक हूं। केवल इतना ही है कि किसी को कुरूप दिखकर उसको दुख देने का कारण न बनूं।’ रवीन्द्रनाथ ने कहा कि ‘यह न सोचें कि मैं सुंदर दिखने को उत्सुक हूं। यह देह जिसको मैं सुंदर बनाकर घूम रहा हूं, कल राख हो ही जाने वाली है। कल यह चिता पर चढ़ेगी और जल जाएगी, वह मैं जानता हूं। लेकिन किसी की आंख में कुरूपता खटके न, किसी को दुख का कारण न बन जाऊं, इसलिए यह सारी उत्सुकता है।’

यह सौंदर्य का साधक, यूं सोचेगा। कुरूपता दूसरे के लिए प्रतिहिंसा है। फिर वह कुरूपता किसी भी तरह की हो, फिर चाहे वह व्यवहार की हो और चाहे वाणी की हो और चाहे कैसी हो।

तो मैं आपको यह कहूंगा कि अगर आपमें सुंदर होने की उत्सुकता है, तो पूरी तरह सुंदर हो जाइए। पूरी तरह सुंदर हो जाइए कि सर्वांग जीवन सुंदर हो जाए। तो मैं यह नहीं कहता कि जो बाल संवार रहे हैं, वे बुरा कर रहे हैं। नहीं, मैं उनसे यही कहता हूं कि बाल जरूर संवारें, और भी बहुत कुछ है जो संवार लें। मैं नहीं कहता, आप आभूषण पहनकर निकले हैं, तो बुरा कर रहे हैं। मैं यह कहता हूं, आभूषण पहने हैं, यह तो अच्छा किया, लेकिन सच्चे आभूषण भी पहन लें। मैं यह नहीं कहता कि आप शुभ्र वस्त्र पहनकर आए हैं, तो बुरा किया। बहुत अच्छा किया। शुभ्र वस्त्र पहने, यह तो ठीक ही किया, शुभ्र अंतस भी हो जाए।

तो सुंदर को पूरा साधें, तो आप पाएंगे कि सत्य और शुभ उसमें अपने आप समाविष्ट हो जाएंगे। जो शिवत्व को साधेगा, वह भी सुंदर को और सत्य को उपलब्ध हो जाएगा। जो सत्य को साधेगा, वह भी दोनों को उपलब्ध हो जाएगा। वह भी दोनों को उपलब्ध हो जाएगा।

इन तीन में से कोई भी आपकी दिशा हो, कोई भी आपकी रुचि का केंद्र बनता हो, उसको केंद्र बना लें और अपने विचार को उसकी परिधि पर घूमने दें और उससे अंतःप्रभावित होने दें। एक केंद्र चुनें इन तीन में से और उसे साधें। और जीवन की सर्वांगीण–सर्वांगीण–विधियों में, व्यवहारों में, आचार में और व्यवहार में उसे साधें। तो आप धीरे-धीरे एक अदभुत बात अनुभव करेंगे, जैसे-जैसे वह केंद्र सधने लगेगा, वैसे-वैसे आपके जीवन की विकृतियां और अशुद्ध विचार विलीन होने लगेंगे।

मैं आपको यह नहीं कहता हूं बहुत जोर से कि आप धन का चिंतन छोड़ें। मैं आपसे यह कहता हूं, आप शुभ का, सुंदर का और सत्य का चिंतन प्रारंभ करें। जब आप सुंदर का चिंतन प्रारंभ करेंगे, तो आप धन का चिंतन नहीं कर सकेंगे, क्योंकि धन के चिंतन से ज्यादा कुरूप और कोई स्थिति नहीं है। जब आप सुंदर का चिंतन करेंगे, तो आप सेक्स का चिंतन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उससे ज्यादा कुरूप चित्त की और कोई स्थिति नहीं है।

तो मैं पाजिटिवली, विधायक रूप से यह कहता हूं कि शुभ, शुद्ध विचार के किसी केंद्र पर अपनी ऊर्जा को और अपनी शक्ति को संलग्न होने दें। आप पाएंगे, आपकी शक्ति व्यर्थ के केंद्रों से सरकती चली आ रही है, उसने वहां से हाथ छोड़ दिए हैं।

स्मरणपूर्वक जो अशुद्ध है, उसे छोड़ना और स्मरणपूर्वक जो शुद्ध है, उस पर अपने को थिर करना और स्थापित करना है। विचार शुद्ध होगा, तो जीवन में फिर बहुत गहरी गति होगी। यह विचार की मूल बात है। विचार-शुद्धि के लिए विचार की यह मूल बात है। फिर कुछ और बातें हैं, जो गौण हैं। वह भी मैं आपको स्मरण दिला दूं।

विचार के शुद्ध होने के लिए महत्वपूर्ण है कि आप यह जानें कि आपके भीतर सारे विचार बाहर से आते हैं। कोई विचार आपके भीतर नहीं होता। सारे विचार आपके पास बाहर से आते हैं। विचार की खूंटियां भीतर होती हैं, विचार बाहर से आते हैं। यह जरा समझ लें। विचार बाहर से आते हैं, खूंटियां भीतर होती हैं।

अगर किसी व्यक्ति ने धन का चिंतन किया है, तो धन के विचार तो बाहर से आते हैं, केवल धन के विचार करने की जो कामना है, उसकी खूंटी भर भीतर होती है। विचार बाहर से आकर उस खूंटी पर टंग जाते हैं। जो सेक्स का चिंतन करता है, सेक्स की खूंटी तो भीतर होती है, विचार बाहर से आकर उस पर टंग जाते हैं। जो जिस बात का चिंतन करता है, उसकी सिर्फ खूंटी भीतर होती है, विचार हमेशा बाहर से आकर टंग जाते हैं। आपके पास जितने विचार हैं, वे सब बाहर से आए हुए हैं।

विचार की शुद्धि के लिए यह जानना जरूरी है कि विचार, जो बाहर से हमारे भीतर आ रहे हैं, वे अविवेकपूर्ण रीति से भीतर न आएं। हम सजग हों और जिसको भीतर आने देना चाहते हों, वही हमारे भीतर आए। शेष को हम बाहर फेंक दें।

मैं अभी पीछे कहता था, अगर मेरे घर में कोई कचरा फेंक देगा, तो मैं उससे झगड़ने जाऊंगा; लेकिन मेरे दिमाग में अगर कोई कचरा फेंकता है, तो मैं झगड़ने नहीं जाता। अगर आप रास्ते पर मुझे मिलें और मैं एक फिल्म की कहानी आपको सुनाने लगूं, तो आपको कोई दिक्कत नहीं होती। और अगर मैं घर में जाकर आपके थोड़ा कचरा फेंक आऊं, तो आप कहेंगे, आपने यह क्या किया? कानून के विपरीत है। और मैं आपके दिमाग में कचरा डालूं, एक फिल्म की कहानी सुनाऊं, तो आप बड़े मजे से बैठकर सुनते रहते हैं!

अभी हमको यह पता नहीं है कि दिमाग में भी कचरे फेंके जा सकते हैं। और हम सारे लोग एक-दूसरे के ऐसे दुश्मन हैं कि एक-दूसरे के दिमाग में कचरा फेंकते रहते हैं। जिनको आप मित्र समझते हैं, वे आपके साथ क्या कर रहे हैं? उनसे बड़ा दर्ुव्यवहार और कोई नहीं कर सकता। इससे दुश्मन बेहतर; कम से कम आपके दिमाग में कुछ नहीं फेंकता, क्योंकि आपसे मिलता-जुलता नहीं है।

हम सब एक-दूसरे के दिमाग में कचरा डाल रहे हैं। और हम इतने सोए हुए लोग हैं कि हमें पता ही नहीं होता कि हम क्या ले रहे हैं। हम सबको स्वीकार कर लेते हैं। हम धर्मशालाओं की तरह हैं, जिनमें कोई रखवाला नहीं है और जिन पर कोई द्वारपाल नहीं बैठा हुआ है कि कौन ठहरे और कौन न ठहरे। उसमें जो भी आए–आदमी या जानवर, या चोर या बेईमान–वह सब ठहरे। और जब उसका मन हो, तब चला जाए; और न मन हो, तो बराबर रहा आए।

मन को धर्मशाला नहीं होना चाहिए। अगर मन धर्मशाला होगा, सुरक्षित नहीं होगा, तो अशुद्ध विचार से छुटकारा मुश्किल है। तो स्मरणपूर्वक मन के ऊपर पहरा होना चाहिए। शुद्ध विचार के लिए दूसरी जरूरत है कि मन पर पहरा हो, एक वाचफुलनेस हो। हम जागे, सजग पहरेदार हों कि हमारे भीतर क्या आता है! जो व्यर्थ है, उसे इनकार कर दें।

मैं अभी एक सफर में था। मैं था और मेरे साथ मेरे कंपार्टमेंट में एक सज्जन और थे। वे मुझसे कुछ बातचीत करना चाहते होंगे। जैसे ही मैं बैठा, उन्होंने सिगरेट निकालकर मुझे दी। मैंने कहा, ‘क्षमा करें, मैं नहीं लूंगा।’ उन्होंने सिगरेट अंदर रख ली। फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने पान निकाला और मुझसे कहा, ‘लीजिए।’ मैंने कहा, ‘माफ करें। मैं नहीं लूंगा।’ वे फिर पान रखकर बैठ गए। फिर उन्होंने अपना अखबार उठाया, बोले, ‘इसको पढ़िएगा?’ मैंने कहा, ‘क्षमा करें, मैं नहीं पढूंगा।’ वे बोले, ‘बड़ा मुश्किल है। हम आपको कुछ भी देते हैं, आप नहीं लेते हैं!’ वे मुझसे बोले, ‘हम आपको कुछ भी देते हैं, आप कुछ भी नहीं लेते!’ मैंने कहा कि ‘जो कुछ भी ले लेते हैं, वे नासमझ हैं। और आप जो दे रहे हैं, मैं कोशिश करूंगा कि आपसे भी छिन जाए। मैं तो उसे नहीं लूंगा, आपसे भी छिन जाए, यह कोशिश करूंगा।’

आप क्या करते हैं, अगर खाली बैठे हैं? अखबार उठाकर पढ़ने लगेंगे, क्योंकि खाली बैठे हैं! तो खाली बैठे रहना बेहतर है, बजाय कचरा इकट्ठा करने से। खाली बैठे रहना बुरा नहीं है। कुछ ऐसे पागल हैं, जो यह कहते हैं कि कुछ न कुछ करना न करने से अच्छा है। यह गलत है। कुछ भी गलत करने से न करना हमेशा बेहतर है। कुछ हैं, जो कहते हैं कि कुछ न कुछ करते रहना कुछ भी न करने से बेहतर है। मैं आपसे कहता हूं, कुछ भी न करना कुछ भी गलत-सलत करने से हमेशा बेहतर है। क्योंकि उस वक्त कम से कम आप कुछ खो तो नहीं रहे। उस वक्त कम से कम कुछ व्यर्थ तो इकट्ठा नहीं कर रहे हैं।

तो इसकी एक सजगता। विचार के आंतरिक संक्रमण में हम सजग हों, तो विचार को शुद्ध रखना कठिन नहीं है। अशुद्ध विचार को पहचान लेना कठिन नहीं है। वे विचार, जो आपके भीतर जाकर उत्तेजना पैदा करते हों, अशुद्ध हैं। वे विचार, जो आपके भीतर जाकर शांति के झरने पैदा करते हों, शुद्ध हैं। वे विचार, जो आपके भीतर जाकर आनंदोन्मुख करते हों, शुभ हैं। वे विचार, जो आपके भीतर जाकर किसी तरह की बेचैनी, चिंता, एंग्जाइटी पैदा करते हों, वे अशुभ हैं। तो उन विचारों से अपने को बचाएं। और अपने मन के सजग पहरेदार बनें, तो विचार-शुद्धि की तरफ संक्रमण होता है।

और तीसरी बात–इस जगत में जैसे अशुभ विचार के आवर्तन बाहर चल रहे हैं और अशुभ विचार की आंधियां बाहर बह रही हैं, और अशुभ विचार का धुआं आपके चित्त में प्रवेश करता है और आपको घेर लेता है; बहुत ज्यादा अशुभ विचार हैं इस जगत में, बहुत उनकी आंधियां हैं; लेकिन यह न भूलें, कुछ छोटे-छोटे शुभ विचार के दीए भी हैं, वे भी टिमटिमा रहे हैं। कुछ शुद्ध विचार की छोटी-छोटी लहरें हैं, वे भी जीवित हैं। इस पूरे अंधकार के विराट सागर में कुछ प्रकाश की किरणें भी हैं। उनका सान्निध्य खोजें। उसको हम सत्संग कहते हैं।

इस बहुत अंधेरे से भरी हुई दुनिया में बिलकुल अंधेरा नहीं है, कुछ दीए हैं–मिट्टी के ही सही। और छोटी उनकी लौ हो, तो भी सही। लेकिन वे भी हैं। उनका हम सान्निध्य खोजें। क्योंकि जो जलते हुए दीयों के करीब अपने बुझे दीए को ले जाएगा, बहुत संभव है, उसकी ज्योति जो कि बुझी-बुझी है, उन दूसरे दीयों के सान्निध्य में पुनरुज्जीवित हो जाए। बहुत संभव है कि वह अपने धुओं को खो दे और लपट बन जाए।

सान्निध्य खोजें उन किरणों का, जो कि सत्य के लिए, शुभ के लिए और सुंदर के लिए हैं। उसके सान्निध्य में अपने को ले जाएं। उन विचारों के, उन विचार पुरुषों के, उन वैचारिक तरंगों के आवर्त में अपने को ले जाएं, जहां यह संभव हो।

यह तीन प्रकार से संभव हो सकता है: शुभ और सदविचारों के करीब; शुभ और सदपुरुषों के करीब; और सबसे ज्यादा और सबसे महत्वपूर्ण, प्रकृति के सान्निध्य में।

प्रकृति कोई अशुभ विचार नहीं देती है। अगर आप आकाश को बैठकर देखें, सिर्फ देखते रहें, आकाश आपमें कुछ अशुभ पैदा नहीं करेगा, बल्कि आपका सारा कचरा थोड़ी देर में क्षीण हो जाएगा और आप पाएंगे कि आप आकाश को देखते-देखते आकाश के साथ एक हो गए हैं। एक पहाड़ से गिरते हुए झरने को देखते-देखते आप पाएंगे कि आप पहाड़ का झरना हो गए हैं। एक हरियाली से भरे हुए वन को देखते-देखते आप पाएंगे कि आप भी एक दरख्त हो गए हैं।

एक साधु हुआ। उससे एक व्यक्ति ने जाकर पूछा कि ‘मैं सत्य को जानना चाहता हूं, कैसे जानूं?’ उसने कहा, ‘अभी बहुत लोग हैं। कभी अकेले में आना।’ वह दिनभर नहीं आया, वह सांझ को आया, जब कोई भी नहीं था। दीए जल गए थे, रात हो गयी थी, साधु अकेला था, अपना दरवाजा बंद करने को था। उस आदमी ने कहा, ‘ठहरें, अब कोई भी नहीं है। आप आए हुए लोगों को विदा करके दरवाजा बंद कर रहे हैं। मैं बाहर ही रुका था कि जब सब विदा हो जाएंगे, मैं भीतर प्रवेश करूंगा। अब मैं आ गया। अब मैं पूछना चाहता हूं, मैं शांत कैसे हो जाऊं और परमात्मा को कैसे उपलब्ध हो जाऊं?’

उसने कहा, ‘बाहर आओ। यह झोपड़े के भीतर नहीं हो सकेगा। क्योंकि यहां जो दीया जलाया है, वह आदमी का जलाया हुआ है। और यह झोपड़ी के भीतर नहीं हो सकेगा, क्योंकि यह जो झोपड़ी है, आदमी की बनायी हुई है। बाहर आएं। एक बड़ी दुनिया भी है, जो किसी की बनायी हुई नहीं है या कि परमात्मा की बनायी हुई है। बाहर आएं, वहां मनुष्य का सृजन कुछ भी नहीं है। वहां मनुष्य की कोई छाप नहीं है।’

और आप स्मरण रखें, अकेला मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो अशुभ छापें छोड़ता है। और कोई अशुभ छापें नहीं छोड़ता।

वे बाहर आए। वहां बांस के दरख्त थे और चांद ऊपर खिला हुआ था, ऊपर ऊगा हुआ था। वह साधु उन दरख्तों के पास जाकर खड़ा हो गया–एक मिनट, दो मिनट, दस मिनट, पंद्रह मिनट। उस आदमी ने पूछा, ‘कुछ बोलिए भी तो! आप चुपचाप खड़े हैं, इससे हम क्या समझेंगे!’ उसने कहा, ‘अगर तुम समझ सकते, तो समझ जाते। तुम भी चुपचाप खड़े हो जाओ। और हम बांस का एक दरख्त हो गए हैं और तुम भी हो जाओ।’ वह बोला, ‘यह तो बड़ा मुश्किल है।’

उस साधु ने कहा, ‘यही हमारी साधना है। बांसों के पास खड़े-खड़े हम थोड़ी देर में भूल जाते हैं कि हम अलग हैं। और हम बांस ही हो जाते हैं। और चांद को देखते-देखते हम थोड़ी देर में भूल जाते हैं कि हम अलग हैं और हम चांद ही हो जाते हैं।’

और प्रकृति के सान्निध्य में जो इतना तादात्म्य खोज लेता है, उसके विचार अदभुत रूप से शुद्ध होने लगते हैं। उसके विचार की अशुद्धि विलीन होने लगती है। तो तीन रास्ते हैं। सदविचार, और सदविचारों की अनंत धाराएं हैं। और सदपुरुष। वे कभी समाप्त नहीं हैं, वे हमेशा मौजूद हैं।

लेकिन हम कुछ ऐसे अंधे हैं कि हम केवल मुरदों के पूजने के आदी हैं। और हम ऐसे अंधे हैं कि जीवित कोई व्यक्ति हमारे लिए कभी सद हो ही नहीं सकता। सिर्फ मुरदे हमारे लिए सद होते हैं। और मुरदों से सत्संग बड़ा मुश्किल है। और दुनिया में जितने धर्म हैं, वे सब मुरदों के पूजक हैं। जीवित का पूजक करीब-करीब कोई भी नहीं है। और वे सब मरे हुओं को पूजते हैं। और सबको यह भ्रम है कि जितने सदपुरुष होने थे, वे सब हो चुके, आगे कोई भी नहीं होगा। और सबको यह भ्रम है कि जो जीवित हो, वह सद कैसे हो सकता है!

हमेशा जमीन पर सदपुरुष उपलब्ध हैं। वे जगह-जगह मौजूद हैं। आंखें हों, तो पहचाने जा सकते हैं। और फिर बड़ी बात तो यह है कि अगर वे पूरे सद न भी हों आपकी तुलना में और आपकी कल्पना में, तो भी आपको उनके असद से क्या लेना है?

एक फकीर था। उसने कहा कि ‘मैंने आज तक जिनके पास भी गया, सबसे सीखा।’ किसी ने पूछा, ‘यह कैसे हो सकता है? एक चोर से क्या सीखिएगा?’ उसने कहा, ‘एक बार ऐसा हुआ, हम एक चोर के घर में मेहमान थे। और ऐसा हुआ कि उस चोर के घर हम एक महीना मेहमान थे। वह रोज रात को चोरी करने निकलता और तीन बजे, चार बजे वापस लौटता। हम उससे पूछते, कहो कुछ हुआ? वह हंसकर कहता, आज तो कुछ नहीं हुआ, शायद कल हो। एक महीना वह चोरी नहीं कर पाया। कभी दरवाजे पर सैनिक मिल गया, कभी लोग घर में जगे थे, कभी ताला नहीं तोड़ पाया, कभी भीतर भी घुसा, खजाने तक नहीं पहुंच पाया। और वह चोर रोज रात को थका हुआ लौटता और हम उससे पूछते कि कहो, कुछ हुआ? वह कहता, आज तो नहीं हुआ, लेकिन कल शायद हो। हमने उससे यह सीख लिया। हमने सीख लिया कि जब आज न हो, तो फिक्र मत करना। याद रखना कि कल हो सकता है।’

‘और एक चोर जो चोरी करने गया है, निपट खराब काम करने गया है, वह भी इतनी आशा से भरा है।’ तो उस फकीर ने कहा, ‘उन दिनों हम परमात्मा की तलाश में थे, हम परमात्मा की चोरी में लगे थे। हम भी वहां दीवालें खटखटा रहे थे और दरवाजे टटोल रहे थे, कोई रास्ता नहीं मिलता था। हम थक गए थे और निराश हो गए थे और हमने सोचा था, फिजूल है सब, छोड़ें। लेकिन उस चोर ने हमको बचा लिया। और उसने कहा, आज नहीं हुआ, कल शायद होगा। और हमने यह सूत्र बना लिया कि आज नहीं होगा, तो कल शायद होगा। और फिर वह दिन आया कि बात घटित हुई। चोर ने चोरी कर ली और हमने भी परमात्मा चुरा लिया।’

तो सवाल यह नहीं है कि आप सदपुरुष से ही सीखेंगे। सवाल यह है कि सीखने की बुद्धि और समझ हो, तो इस सारे जगत में सदपुरुष भरे हुए हैं। और अगर वह न हो, तो महावीर के करीब से भी लोग निकले हैं, जिन्होंने समझा कि यह कोई लफंगा है, कोई नंगा है। न मालूम कौन है! पागल है। महावीर के करीब से लोग निकले हैं। और आप जो सुनते हैं, लोग कहते हैं, फलां आदमी नंगा-लुच्चा है, यह सबसे पहले महावीर के लिए प्रयुक्त हुआ शब्द है। क्योंकि वे नंगे थे और केश लुंच करते थे, इसलिए नंगे-लुच्चे कहलाते थे। लोग कहते थे, ‘नंगा-लुच्चा है।’ अब वह शब्द गाली है आज। अगर आपसे कोई कह देगा, आप गुस्से में आ जाएंगे। लेकिन वह नग्न और केश लुंच करने वाले साधु महावीर के लिए सबसे पहले प्रयुक्त हुआ था।

तो महावीर के करीब से निकलने वाले लोग थे, जिन्होंने समझा कि न मालूम कौन फालतू आदमी है! ऐसे लोग थे, जिन्होंने उनको मारा, ठोंका और समझा कि यह कोई बेईमान है, कोई ठग है, कोई जासूस है।

ऐसे लोग हुए, जो महावीर को नहीं समझ सके। ऐसे लोग हुए, जिन्होंने क्राइस्ट को सूली पर लटका दिया, यह समझकर कि यह तो झूठ बातें बोलता है। ऐसे लोग हुए, जिन्होंने सुकरात को जहर पिला दिया। और वे लोग उस दिन हुए, ऐसा मत सोचना, वे सब आपके भीतर मौजूद हैं। ये ही लोग थे। अभी आपको मौका मिल जाए, तो सुकरात को जहर पिला देंगे; और मौका मिल जाए, तो क्राइस्ट को सूली पर लटका देंगे; और मौका मिल जाए, तो महावीर को देखकर आप हंसने लगेंगे कि यह कैसा पागल आदमी है! लेकिन चूंकि वे मर गए, मुरदों को आप पूज लेते हैं, उनसे कोई दिक्कत नहीं है। जो जिंदा हैं, उनको पूजना बड़ा मुश्किल है; उनको मानना, उनको समझना बड़ा मुश्किल है।

तो अगर सद की खोज हो, तो यह सारा जगत सदपुरुषों से हमेशा भरा हुआ है। ऐसा कभी नहीं हुआ है, न कभी होगा। और जिस दिन यह हो जाएगा कि सदपुरुषों की परंपरा खंडित हो जाएगी, उस दिन आगे कोई सदपुरुष नहीं हो सकेगा। क्योंकि वह धारा ही टूट जाएगी, वह रेगिस्तान में विलीन हो जाएगी। मोटी और पतली हमेशा बह रही है वह धारा। उससे परिचित होना, संबंधित होना। और उसके लिए रास्ता यह नहीं है कि आपको कोई जब बिलकुल ही परम व्यक्ति मिलेगा, तब आप समझेंगे। आपकी आंख खुली रखें। छोटी-छोटी घटनाओं में समझना हो सकता है।

एक बात मैं पढ़ता था एक साधु के बाबत। वे साठ वर्ष की उम्र तक व्यवसाय करते रहे। उनका नाम, घर का नाम राजा बाबू था। वृद्ध हो गए, तो भी लोग उन्हें राजा बाबू कहते। एक दिन सुबह-सुबह वे घूमने निकले थे। सुबह अभी सूरज नहीं ऊगा है, वे गांव के बाहर घूमने गए हैं। एक स्त्री अपने घर में एक बच्चे को जगा रही है। वह उससे कह रही है कि ‘राजा बाबू! कब तक सोए रहोगे? अब सुबह हो गयी, उठो।’ वे बाहर छड़ी लिए हुए चले जा रहे थे, उन्हें सुनायी पड़ा कि ‘राजा बाबू! कब तक सोए रहोगे? अब तो सुबह हो गयी, अब तो उठो।’ और उन्होंने यह सुना और वे वापस लौट आए और उन्होंने घर जाकर कहा कि ‘अब मुश्किल है, आज उपदेश मिल गया। आज सुनायी पड़ गया कि राजा बाबू, कब तक सोए रहोगे! अब तो सुबह भी हो गयी, अब उठो।’ तो उन्होंने कहा, ‘आज तो बस बात समाप्त हो गयी।’

अब यह किसी स्त्री ने न मालूम किस बच्चे को सुबह उठाने के लिए कहा था, लेकिन जिसके पास आंख थी, उसके लिए उपदेश बन गया। और यह हो सकता है कि कोई आपको ही उपदेश दे रहा हो और आपके पास कान और आंख न हों, और आप बैठे सुनते रहें, और समझें कि शायद किसी और से कहता होगा।

तो सद का संपर्क, सद की आकांक्षा, सद की तलाश, अन्वेषण और सदविचारों का जीवन में प्रवेश, प्रकृति का सान्निध्य, ये सदविचार के लिए, शुद्ध विचार के लिए उपयोगी शर्तें और भूमिकाएं हैं।

ये थोड़ी-सी बातें मैंने विचार-शुद्धि के लिए कहीं, इसको एक अनिवार्य अंग समझकर प्रयोग करना है जीवनभर। कोई आज और कल की बात नहीं है। कोई धर्मों के शिविर नहीं हो सकते कि तीन दिन में बात आयी और समाप्त हो गयी। धर्मों की कोई ऐसी ट्रेनिंग नहीं हो सकती कि तीन दिन हम मिले और मामला खतम हो गया। अधर्म ऐसी बीमारी है कि जीवनभर चलती है, इसलिए धर्म का शिविर भी जीवनभर ही चलाना पड़ेगा। कोई रास्ता नहीं है। तो उसे जीवनभर प्रयोग करना होगा।

भाव के संबंध में कल मैं बात करूंगा कि भाव-शुद्धि के लिए हम क्या करें। अब रात्रि के ध्यान के लिए थोड़ी-सी बात समझ लें और फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।

रात्रि के ध्यान के लिए सबसे पहले तो हम संकल्प करेंगे, जैसा सुबह के ध्यान में किया। पांच बार संकल्प करेंगे। फिर पांच बार के बाद थोड़ी देर तक जैसे सुबह भाव किया, वैसा भाव करेंगे। उसके बाद सब लोग लेट जाएंगे। सब लोग पहले ही से लेट जाएंगे। अपनी-अपनी जगह पर चुपचाप लेट जाएंगे। लेटने के बाद अंधकार हो जाएगा। फिर हम अपने शरीर को शिथिल करेंगे। पीछे जो शिविर में थे, वहां हमने शरीर को इकट्ठा शिथिल किया था। हो सकता है, कुछ लोगों का इकट्ठा शिथिल नहीं हो पाता है, इसलिए उनके लिए और सरल रास्ता मैं सुझाता हूं।

शरीर में योग की दृष्टि से सात चक्र होते हैं। शरीर में योग की दृष्टि से सात चक्र होते हैं। उन सात चक्रों में से पांच का प्रयोग हम इस ध्यान के लिए करेंगे। सबसे जो प्राथमिक चक्र है, वह मूलाधार कहलाता है, वह जननेंद्रिय के करीब होता है। वह पहला चक्र है, जिसका हम प्रयोग करेंगे अभी इस रात्रि के ध्यान में। दूसरा चक्र है, स्वाधिष्ठान चक्र। वह नाभि के करीब मान ले सकते हैं। अभी कल्पना में समझ लें। जननेंद्रिय के करीब जो चक्र है, उसका नाम मूलाधार। नाभि के पास जो चक्र है, उसका नाम स्वाधिष्ठान। और ऊपर चलें, हृदय के पास जो चक्र है, उसका नाम अनाहत। और ऊपर चलें, माथे के पास जो चक्र है, उसका नाम आज्ञा। और ऊपर चलें, चोटी के पास जो चक्र है, उसका नाम सहस्रार।

इन पांच का हम उपयोग करेंगे। यूं चक्र तो सात हैं, और भी ज्यादा हैं। इन पांच का हम उपयोग करेंगे और इनके उपयोग के साथ हम शरीर को शिथिलता की तरफ ले जाएंगे। और आप हैरान होंगे, मूलाधार जो चक्र है, उसका नियंत्रण आपके पैरों पर है। हम सुझाव देंगे मूलाधार चक्र को। जब आप लेट जाएंगे, तो मैं कहूंगा, मूलाधार चक्र पर ध्यान को ले जाइए। तो आप अपने भीतर जननेंद्रिय के करीब मूलाधार चक्र के पास ध्यान को ले जाएंगे, वहां बोध रखेंगे। फिर मैं कहूंगा, मूलाधार चक्र को शिथिल छोड़ दीजिए और उसके साथ ही दोनों टांगों को शिथिल छोड़ दीजिए। आप भीतर भाव करेंगे कि मूलाधार चक्र शिथिल हो रहा है, मूलाधार चक्र शिथिल हो रहा है और पैर शिथिल होते जा रहे हैं। आप थोड़ी ही देर में पाएंगे कि पैर दोनों मुरदे की तरह लटककर शिथिल हो गए हैं।

जब पैर शिथिल हो जाएंगे, तो हम ऊपर की तरफ बढ़ेंगे, दूसरे चक्र स्वाधिष्ठान को नाभि के पास। मैं कहूंगा, ध्यान को नाभि के पास ले आएं, तो आप अपनी कल्पना में नाभि के पास भीतर ध्यान को लाएंगे। और हम वहां कहेंगे कि स्वाधिष्ठान चक्र शिथिल हो रहा है और पेट का सारा यंत्र शिथिल हो रहा है। उसको अनुभव करते ही वह सारा यंत्र धीरे-धीरे शिथिल हो जाएगा।

फिर हम और ऊपर बढ़ेंगे और हृदय के पास आएंगे और मैं कहूंगा, अनाहत चक्र शिथिल हो रहा है। तब आप हृदय को शिथिल छोड़ेंगे और अनाहत पर ध्यान रखेंगे, उस जगह, हृदय के पास और भावना करेंगे कि अनाहत शिथिल हो रहा है, तो छाती का पूरा का पूरा यंत्र और संस्थान शिथिल हो जाएगा।

फिर हम ऊपर आएंगे और माथे के पास दोनों आंखों के बीच में आज्ञा चक्र है, उसका अंदर भाव करेंगे कि आज्ञा के पास हमारा ध्यान है, दृष्टि है। और मैं कहूंगा, आज्ञा चक्र शिथिल हो रहा है और मस्तिष्क शिथिल हो रहा है। उसके साथ सारा मस्तिष्क, गर्दन, सारे सिर का हिस्सा एकदम शिथिल हो जाएगा। तब आपको सिर्फ चोटी के पास थोड़ी-सी धक-धक और भार मालूम पड़ेगा, सारा शरीर शिथिल हो जाएगा। सिर्फ चोटी के पास आपको थोड़ा-सा भार और धक-धक मालूम पड़ेगा।

अंतिम रूप से मैं कहूंगा, सहस्रार चक्र–तब आप सिर के ऊपर ध्यान ले जाएंगे चोटी के पास–वह शिथिल हो रहा है। और उसके साथ सारा मस्तिष्क शिथिल हो रहा है। तब भाव करने से आप पाएंगे कि भीतर भी सब शिथिल हो जाएगा।

इसको लंबी प्रक्रिया में किया, ताकि यह हरेक के लिए हो ही जाए कि उसका शरीर बिलकुल मृत हो जाए। इन पांच चक्रों पर सुझाव दूंगा। और जब यह सब शिथिल हो जाएगा, तब मैं आपसे कहूंगा कि अब शरीर बिलकुल मुरदा हो गया, अब उसको छोड़ दें, तो उसे बिलकुल छोड़ दें। शरीर मुरदा हो गया है। फिर मैं कहूंगा, श्वास आपकी शिथिल हो रही है, शांत हो रही है। थोड़ी देर उसका सुझाव दूंगा। उसके बाद सुझाव दूंगा कि मन बिलकुल शून्य हो रहा है। ये तीन सुझाव देंगे–पहले चक्रों के लिए, दूसरा प्राण-श्वास के लिए और तीसरा विचार के लिए।

इस पूरी प्रक्रिया में करने के बाद आपसे कहूंगा, दस मिनट के लिए सब शून्य हो गया। उस शून्य में आप भीतर पड़े हुए, सिर्फ बोध मात्र आपका रहेगा, एक ज्योति जलती रहेगी बोध की और आप चुपचाप पड़े रहेंगे। सिर्फ वह बोध मात्र रहेगा, सिर्फ होश भर रहेगा कि मैं पड़ा हूं। इसमें यह हो सकता है कि शरीर जब बिलकुल मुरदा-सा मालूम होने लगे–जो कि मालूम होगा, क्योंकि चक्रों के प्रयोग के साथ शरीर एकदम मुरदा होगा–तो घबराना नहीं है किसी को। अगर ऐसा लगने लगे कि शरीर बिलकुल मुरदा है, तो घबराना नहीं है। यह बड़ा शुभ है। यह बहुत शुभ है। जो जीते जी अपने शरीर के मुरदा होने को अनुभव कर लेगा, वह धीरे-धीरे मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। तो उसमें घबराना नहीं है। कोई भी अनुभूति मालूम हो, कोई प्रकाश, आलोक मालूम हो, शांति मालूम हो, उसको चुपचाप देखते रहना है और शांत शून्य में पड़े रहना है। यह अनिवार्य है, इन तीन प्रक्रियाओं में–संकल्प, भाव और फिर ध्यान–यह रात्रि का ध्यान होगा।

मैं समझता हूं, आप मेरी बात समझ गए होंगे। तो अब सब इतने दूर बैठ जाएं लोग कि पहले तो हम अपनी जगह बना लें कि आप लेट सकेंगे। सब इतने दूर बैठ जाएं। सारी जगह का उपयोग कर लें। कोई बैठा हुआ नहीं रहेगा।

आज इतना ही।



Filed under: ध्‍यान--सूत्र (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–5

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भाव-शुद्धि की कीमिया—(प्रवचन—पांचवां)

 मेरे प्रिय आत्मन्,

साधना की परिधि भूमिका के संबंध में हमने दो चरणों पर बातें की हैं, शरीर-शुद्धि और विचार-शुद्धि। शरीर और विचार से भी गहरा तल भाव का, भावनाओं का है। भाव की शुद्धि सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। परिधि की भूमिका और साधना में शरीर और विचार दोनों से ज्यादा भाव की शुद्धि की उपयोगिता है।

यह इसलिए कि मनुष्य विचार से बहुत कम जीता है, मनुष्य भाव से ज्यादा जीता है। यह कहा जाता है कि मनुष्य एक रैशनल एनिमल है, एक बौद्धिक प्राणी है। यह बात उतनी सच नहीं है। आप अपने जीवन में विचार करके बहुत कुछ, बहुत कुछ नहीं करते हैं। आप अधिक जो करते हैं, वह भाव से प्रभावित होता है। आप जो घृणा करते हैं, आप जो क्रोध करते हैं, आप जो प्रेम करते हैं, वह सब भावनाओं से संबंधित होता है, विचारों से संबंधित नहीं।

जीवन की अधिकतर चर्या भाव के जगत से उदभूत होती है, विचार के जगत से नहीं। इसलिए यह भी आपने देखा होगा कि आप विचार कुछ करते हैं, लेकिन समय पर काम कुछ और कर जाते हैं। उसका कारण विचार और भाव में भिन्न होना होता है। आप तय करते हैं कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। आप विचार करते हैं कि क्रोध बुरा है। लेकिन जब क्रोध आपको पकड़ता है, तो आपका विचार एक तरफ पड़ा रह जाता है और क्रोध हो जाता है।

जब तक भाव के जगत में परिवर्तन न हो, केवल विचार के जगत में सोच-विचार से कोई क्रांति जीवन में नहीं होती है। इसलिए बहुत आधारभूत, परिधि-साधना में जो सबसे आधारभूत बिंदु है, वह भावनाओं का है, वह भावों का है। भाव की शुद्धि या शुद्ध भावों का प्रवर्तन कैसे हो, इस संबंध में आज सुबह हम विचार करें।

भाव की जो विभिन्न दिशाएं हैं, उनमें चार पर मैं सर्वाधिक जोर देना पसंद करूंगा। चार तत्वों की बात करूंगा, जिनके माध्यम से भाव शुद्ध हो सकते हैं। वे ही चार तत्व विपरीत होकर अशुद्ध भावों के जन्मदाता बन जाते हैं। वे चार भाव; उनमें प्रथम है मैत्री, द्वितीय है करुणा। प्रथम मैत्री, द्वितीय करुणा, तृतीय प्रमुदिता और चौथा कृतज्ञता।

इन चार भावों को अगर कोई व्यक्ति जीवन में साधे, तो भाव-शुद्धि उपलब्ध होती है। इन चार के विपरीत–मैत्री के विपरीत घृणा और वैर; करुणा के विपरीत क्रूरता, हिंसा और अदया; प्रमुदिता, प्रफुल्लता के विपरीत उदासी, विषाद, संताप, चिंता; और कृतज्ञता के विपरीत अकृतज्ञता–इनके विपरीत जिसकी जीवन और भाव स्थिति हो, वह अशुद्ध भाव में है। इन चार में जो प्रतिष्ठित हो, वह शुद्ध भाव में प्रतिष्ठित है।

यह हम विचार करें कि हमारी भाव की परिधि किन बातों से प्रभावित होती है और संचालित होती है। क्या हमारे जीवन में मैत्री की जगह वैर, वैमनस्य ज्यादा प्रमुख है? क्या हम मैत्री की बजाय दुश्मनी से, शत्रुता से ज्यादा संचालित होते हैं? क्या हम ज्यादा प्रभावित होते हैं? क्या हम ज्यादा सक्रिय हो जाते हैं? क्या हमारे भीतर शक्ति का उदभव ज्यादा होता है?

जैसा मैंने पीछे कहा, क्रोध में शक्ति है। लेकिन मैत्री में भी शक्ति है। और जो केवल क्रोध की ही शक्ति को पैदा करना जानता है, वह जीवन के एक बहुत बड़े हिस्से से वंचित है। जिसने मैत्री की शक्ति को जगाना नहीं जाना, जो केवल शत्रुता में ही शक्तिमान होता है और मैत्री की अवस्था में शिथिल हो जाता है…।

यह आपको पता होगा, दुनिया के सारे राष्ट्र शांति के दिनों में कमजोर हो जाते हैं और युद्ध के दिनों में शक्तिशाली हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि मैत्री की शक्ति पैदा करना हमें पता नहीं है। शांति हमारे लिए शक्ति नहीं है, अशक्ति है। और यही वजह है कि भारत जैसे मुल्क, जिन्होंने शांति की बहुत चर्चा की, प्रेम की बहुत चर्चा की, वे शक्तिहीन हो गए। क्योंकि शक्ति पैदा करने का सामान्यतया एक ही रास्ता है, शत्रुता।

हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, अगर किसी राष्ट्र को शक्तिमान बनाना है, तो या तो सच्चे दुश्मन या झूठे दुश्मन पैदा करो। अपने मुल्क को समझाओ कि दुश्मन आस-पास हैं, चाहे वे न हों। और जब उनको यह बोध होगा कि दुश्मन आस-पास हैं, शक्ति का और ऊर्जा का जन्म होगा। इसलिए हिटलर ने बिलकुल झूठे दुश्मन खड़े किए, यहूदी, जिनसे कोई मतलब न था। और दस वर्ष उसने प्रचार किया और सारे मुल्क को समझा दिया कि यहूदी दुश्मन हैं और इनसे बचाव करना है, और शक्ति पैदा हो गयी।

जर्मनी की सारी शक्ति वैमनस्य से पैदा हुई। जापान की सारी शक्ति वैमनस्य से पैदा हुई। आज सोवियत रूस की या अमेरिका की सारी शक्ति वैमनस्य पर है। अभी तक मनुष्य का इतिहास केवल शत्रुता की शक्ति को पैदा करना जानता है। मित्रता की शक्ति का हमें पता नहीं।

महावीर और बुद्ध ने और क्राइस्ट ने मित्रता की शक्ति की पहली बुनियादें रखी हैं। और उन्होंने जो कहा, अहिंसा शक्ति है, या क्राइस्ट ने कहा कि प्रेम शक्ति है, या बुद्ध ने कहा कि करुणा शक्ति है, यह हम सुनते हैं, लेकिन हमें पता नहीं।

तो मैं आपको कहूं, अपने जीवन में विचार करें, आप कब शक्तिशाली अनुभव करते हैं? जब आप किसी से शत्रुता में होते हैं तब? या जब आप किसी के प्रति शांत और प्रेम से भरे होते हैं तब? तो आपको ज्ञात होगा, आप शत्रुता की स्थिति में शक्तिशाली होते हैं; और जब आप शांत, अवैर की स्थिति में होते हैं, तो आप अशक्त और कमजोर हो जाते हैं।

इसका अर्थ है कि आप एक अशुद्ध भाव से प्रभावित होते हैं। यह अशुद्ध भाव की जितनी प्रगाढ़ता हमारे भीतर होगी, उतना हम भीतर प्रवेश नहीं कर सकेंगे। क्यों भीतर प्रवेश नहीं कर सकेंगे? बड़ा महत्वपूर्ण है यह बिंदु समझ लेना।

शत्रुता हमेशा बहिर्केंद्रित होती है। यानि कोई व्यक्ति बाहर होता है, उससे शत्रुता होती है। अगर बाहर कोई व्यक्ति न हो, तो आपमें शत्रुता नहीं हो सकती। और मैं आपको यह कहूं, प्रेम बहिर्केंद्रित नहीं होता। अगर बाहर कोई भी न हो, तो भी भीतर प्रेम हो सकता है। प्रेम अंतःकेंद्रित होता है, मैत्री अंतःकेंद्रित होती है। और शत्रुता पर-केंद्रित होती है, वह दूसरे से संबंधित होती है। घृणा बाहर से परिचालित होती है, प्रेम भीतर से उदभावित होता है। प्रेम के झरने भीतर से बहते हैं। घृणा की प्रतिक्रिया बाहर से पैदा होती है। अशुद्ध भाव बाहर से परिचालित होते हैं, शुद्ध भाव भीतर से बहते हैं। अशुद्ध और शुद्ध भाव के भेद को ठीक से समझ लें।

जो भाव बाहर से परिचालित होते हैं, वे शुद्ध नहीं हैं। तो वह प्रेम, वह पैशन, जिसको हम प्रेम कहते हैं, शुद्ध नहीं है, क्योंकि वह बाहर से परिचालित है। वही प्रेम शुद्ध है, जो भीतर से प्रवाहित है, बाहर से परिचालित नहीं। इसलिए हम अपने मुल्क में प्रेम को और मोह को अलग कर देते हैं। पैशन को, वासना को और प्रेम को हम अलग कर देते हैं। वासना बाहर से परिचालित है।

बुद्ध के या महावीर के हृदय में वासना तो नहीं है, लेकिन प्रेम है।

क्राइस्ट एक गांव से निकलते थे। दोपहर थी घनी। और वे काफी थके-मांदे थे और धूप बहुत तेज थी। वे एक बगीचे में एक दरख्त के नीचे विश्राम करने को रुके। वह भवन और वह बगीचा एक वेश्या का था। उस वेश्या ने क्राइस्ट को उस दरख्त के नीचे विश्राम करते देखा। ऐसा व्यक्ति कभी उसके बगीचे में विश्राम नहीं किया था। और ऐसे व्यक्ति को कभी उसने देखा नहीं था। उसने बहुत सुंदर लोग देखे थे, उसने बहुत स्वस्थ लोग देखे थे। लेकिन यह सौंदर्य कुछ और था और यह स्वास्थ्य कुछ और था। वह आकर्षित बंधी हुई कब उस दरख्त के पास आ गयी, उसे पता नहीं चला। वह जब पास आकर क्राइस्ट को देखने लगी, उनकी आंख खुली, वे उठकर जाने को हुए। क्राइस्ट ने उसे धन्यवाद दिया कि ‘धन्यवाद इस छाया के लिए, जो तुम्हारे इस दरख्त ने मुझे दी, अब मैं जाऊं। और मेरा रास्ता लंबा है।’

उस वेश्या ने कहा, ‘दो क्षण को अगर मेरे भवन के भीतर न गए, तो मेरे मन का बहुत अपमान होगा। दो क्षण रुको।’ और उस वेश्या ने कहा, ‘यह पहला मौका है कि मैं किसी को आमंत्रित कर रही हूं। लोग मेरे द्वार आते हैं और वापस लौटा दिए जाते हैं। यह पहला मौका है जीवन में, मैं किसी को आमंत्रित कर रही हूं।’ क्राइस्ट ने कहा, ‘तुमने कहा तो समझो कि मैं आ ही गया। लेकिन रास्ता मेरा लंबा है, मुझे जाने दो।’ क्राइस्ट ने कहा, ‘तुमने कहा तो समझो कि मैं आ ही गया।’ उस वेश्या ने कहा, ‘इससे मुझे बड़ी पीड़ा होगी। इसका अर्थ होगा, आप इतना भी प्रेम नहीं दिखा सकते कि मेरे भवन में भीतर चल सकें!’ क्राइस्ट ने कहा, ‘स्मरण रखना, मैं अकेला आदमी हूं, जो तुम्हें प्रेम कर सकता है। और जितने लोग तुम्हारे द्वार आए, वे कोई प्रेम नहीं करते हैं।’ क्राइस्ट ने कहा, ‘मैं अकेला आदमी हूं, जो तुम्हें प्रेम कर सकता है। और जो तुम्हारे द्वार आए, वे तुम्हें कोई प्रेम नहीं करते हैं। क्योंकि उनके पास प्रेम नहीं है, वे तुम्हारे कारण आए हैं। और मेरे भीतर प्रेम है।’

प्रेम दीए के प्रकाश की भांति है। अगर कोई भी यहां न हो, तो प्रकाश शून्य में गिरता रहेगा और कोई निकलेगा तो उस पर पड़ जाएगा। और वासना और मोह प्रकाश की भांति नहीं हैं। वे किसी से प्रभावित होंगे, तो खिंचते हैं। इसलिए वासना एक तनाव है, एक टेंशन है। प्रेम तनाव नहीं है, प्रेम में कोई तनाव नहीं है। प्रेम अत्यंत शांत स्थिति है।

अशुद्ध भाव वे हैं, जो बाहर से प्रभावित होते हैं। अशुद्ध भाव वे हैं, जिनकी तरंगें बाहर की हवाएं आपमें पैदा करती हैं। और शुद्ध भाव वे हैं, जो आपसे निकलते हैं; बाहर की हवाएं जिन्हें प्रभावित नहीं करतीं।

महावीर को और बुद्ध को कभी हम इस भाषा में नहीं सोचते हैं कि वे प्रेम करते थे। मैं आपको यह कहूं, वे ही अकेले लोग हैं, जो प्रेम करते हैं। लेकिन उस प्रेम में और आपके प्रेम में फर्क है। आपका प्रेम एक संबंध है किसी व्यक्ति से। उनका प्रेम संबंध नहीं है, स्टेट आफ माइंड है, स्टेट आफ रिलेशनशिप नहीं है। उनका प्रेम कोई संबंध नहीं है किसी से। उनका प्रेम उनके चित्त की अवस्था है। यानि वे प्रेम करने को मजबूर हैं, क्योंकि उनके पास कुछ और करने को नहीं है।

लोग कहते हैं, महावीर को लोगों ने अपमानित किया, पत्थर मारे, कान में खीले ठोंके और उन्होंने सब कुछ क्षमा कर दिया। मैं कहता हूं, वे गलत कहते हैं। महावीर ने किसी को क्षमा नहीं किया। क्योंकि क्षमा वे लोग करते हैं, जो क्रुद्ध हो जाते हैं। और महावीर ने उन पर कोई दया नहीं की। क्योंकि दया वे लोग करते हैं, जो क्रूर होते हैं। और महावीर ने कोई सोच-विचार नहीं किया कि मैं इनके साथ बुरा व्यवहार न करूं। क्योंकि यह सोच-विचार वे लोग करते हैं, जिनके मन में बुरे व्यवहार का खयाल आ जाता है।

फिर महावीर ने क्या किया? महावीर मजबूर हैं, प्रेम के सिवाय उनके पास देने को कुछ भी नहीं है। आप कुछ भी करो, उत्तर में प्रेम ही आ सकता है। आप एक फलों से लदे हुए दरख्त को पत्थर मारो, उत्तर में फल ही गिर सकते हैं। और कोई रास्ता नहीं है। इसमें दरख्त कुछ भी नहीं कर रहा है, यह मजबूरी है। और आप जल से भरे हुए झरने में कैसी ही बाल्टियां फेंको, वे गंदी हों या सुंदर हों, या स्वर्ण की हों या लोहे की हों, इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है कि झरना आपको पानी दे दे। इसमें झरने की कोई खूबी नहीं है; मजबूरी है। तो जब प्रेम चित्त की अवस्था होती है, तब वह एक विवशता होती है, उसे देना ही पड़ेगा, उसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है।

तो वे भाव, जो भीतर से निकलते हैं, जिनको आप बाहर से खींचते नहीं, जिन्हें आप बाहर से नहीं खींच सकते हैं, वे भाव शुद्ध हैं। और वे भाव, जो बाहर के तूफान आपमें लहरों की तरह पैदा करते हैं, वे अशुद्ध हैं। जो बाहर से पैदा किए जाएंगे, वे आपमें बेचैनी और परेशानी पैदा करेंगे; और जो भीतर से निकलेंगे, वे आपको बहुत आनंद से भर जाएंगे।

शुद्ध और अशुद्ध भाव के लिए पहली बात यह स्मरण रखें। शुद्ध भाव चित्त की अवस्था है। अशुद्ध भाव चित्त की विकृति है, अवस्था नहीं। अशुद्ध भाव चित्त पर बाहर का परिणाम है; शुद्ध भाव चित्त पर अंतस का विकास है। तो अपने जीवन में यह विचार करें कि मैं जिन भावनाओं से संचालित होता हूं, वे मेरे भीतर से आते हैं या दूसरे लोग मुझमें पैदा करते हैं?

मैं रास्ते पर जा रहा हूं और आप मुझे एक गाली देते हैं, और अगर मुझे क्रोध पैदा हुआ है, यह अशुद्ध भाव है। क्योंकि आपने मुझमें पैदा किया। मैं रास्ते से जा रहा हूं और आप मुझे आदर करते हैं, और मैं प्रसन्न हुआ। यह अशुद्ध भाव है। क्योंकि यह आपने मुझमें पैदा किया है। मैं रास्ते से जा रहा हूं, आप गाली देते हैं या कि आप मेरी प्रशंसा करते हैं और मेरी अवस्था वही बनी रहती है जो कि थी, गाली देने के पहले या प्रशंसा करने के पहले, वह शुद्ध भाव है। क्योंकि आपने उसे पैदा नहीं किया है; वह मेरा है।

जो मेरा है, वह शुद्ध है। जो मेरा है, वह शुद्ध है; और जो बाहर से आता है, वह अशुद्ध है। बाहर से जो आता है, वह रिएक्शन है, वह प्रतिध्वनि है।

हम वहां एक इकोप्वाइंट देखने गए थे पीछे। और वहां आवाज करिए, तो वहां से पहाड़ उसको दोहरा देते थे। मैंने कहा कि हममें से अधिक लोग इकोप्वाइंट हैं। आप कुछ कहिए, वे दोहरा देते हैं। उनके पास अपना कुछ नहीं है, वे खाली पहाड़ हैं। आप कुछ चिल्लाइए, वहां से भी चिल्लाहट लौटती है। वह उनकी नहीं है। वह आपने पैदा की थी। और आपने जो पैदा की थी, वह आपकी नहीं थी; वह किसी दूसरे ने आपमें पैदा की थी।

हम सब इकोप्वाइंट हैं। और हमारे पास अपनी कोई आवाज नहीं है और अपना कोई जीवन नहीं है, अपना कोई भाव नहीं है। हमारे सब भाव अशुद्ध हैं, क्योंकि वे दूसरों के हैं, उधार हैं।

यह स्मरण रखें पहला सूत्र कि भाव मेरे हों, वे प्रतिक्रियाएं न हों, वे मेरे चित्त की अवस्थाएं हों। ऐसी चित्त की अवस्थाओं को चार भागों में मैंने विभाजित किया। पहला, मैत्री।

मैत्री साधनी होगी। मैत्री इसलिए साधनी होगी, क्योंकि मैत्री का जो शक्ति बिंदु है हमारे भीतर, उसके विकसित होने के जीवन बहुत कम मौके देता है। वह अविकसित पड़ा रहता है, वह बीज की तरह हमारे मनोभूमि में पड़ा रहता है, विकसित नहीं हो पाता। शत्रुता का बीज एकदम विकसित हो जाता है। क्यों? उसके भी प्राकृतिक कारण हैं, वह भी जरूरत है। वह जरूरत जरूर है, लेकिन जीवनभर की संगी और साथी होने की जरूरत नहीं है। उसकी एक दिन जरूरत है, एक दिन उसे छोड़ देने की भी जरूरत है।

बच्चा जब पैदा होता है, पैदा होते से ही वह जो अनुभव करता है, पैदा होते से जो उसे अनुभव होता है, वह प्रेम का नहीं होता। बच्चे को पैदा होते से ही जो अनुभव होता है, वह भय का, फियर का होता है। और स्वाभाविक है, एक छोटा-सा बच्चा, जो मां के पेट में बड़ी व्यवस्था और सुविधा में था, जहां कोई अड़चन न थी, कोई परेशानी न थी। भोजन कमाने की, पानी पीने की कोई चिंता न थी। वहां वह बड़ी ही सुखद निद्रा में सोया हुआ था और जी रहा था। जब वह मां के पेट के बाहर आता है, एक छोटा-सा बच्चा, सब तरह से कमजोर, उसे जो पहला अनुभव, जो पहला आघात होता है, वह भय का होता है। और अगर भय का आघात हो, तो जिनको वह देखता है, उनके प्रति प्रेम पैदा नहीं होता, उनसे डर पैदा होता है। और जिनसे डर पैदा होता है, उनके प्रति घृणा पैदा होती है।

इसे नियम समझ लें। भय कभी प्रेम नहीं पैदा करता है। किसी ने अगर कहा हो कि भय के बिना प्रीति नहीं होती, तो बिलकुल गलत कहा है। भय हो तो प्रीति हो ही नहीं सकती। भय में कभी प्रीति नहीं होती। और ऊपर से प्रीति अगर दिखायी भी जाए, तो भीतर अप्रीति होती है।

इस दुनिया में जितनी प्रीति हम देखते हैं, वह अधिकतर भय पर खड़ी हुई है। और भय पर जो प्रीति खड़ी हुई है, वह झूठी है। इसलिए ऊपर से प्रीति रहती है और भीतर से घृणा सरकती रहती है। हम जिन-जिन को प्रेम करते हैं, उन्हीं को घृणा भी करते हैं। क्योंकि प्रीति ऊपर होती है, घृणा नीचे होती है, क्योंकि हम उनसे भयभीत होते हैं।

स्मरण रखें, जो व्यक्ति किसी को भयभीत कर रहा है, वह अपने प्रेम पाने के अवसर खो रहा है। अगर पिता अपने पुत्र को भयभीत कर रहा है, वह उसके प्रेम को नहीं पा सकेगा। अगर पति अपनी पत्नी को भयभीत कर रहा है, वह उसके प्रेम को नहीं पा सकेगा। वह प्रेम का अभिनय पा सकता है, प्रेम नहीं पा सकेगा। क्योंकि प्रेम केवल अभय में विकसित होता है, भय में विकसित नहीं होता।

बच्चे का जैसे ही जन्म होता है, वह भय को अनुभव करता है। और इसलिए उसकी शत्रुता के बिंदु तो सक्रिय हो जाते हैं, प्रेम के बिंदु सक्रिय नहीं हो पाते। प्रेम के बिंदु अधिकतर लोगों के जीवनभर बिना सक्रिय हुए ही समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि जीवन उनका कोई मौका नहीं देता। जिसे आप प्रेम करके जानते हैं, वह भी प्रेम नहीं है, वह भी केवल कामवासना है। वह भी केवल कामवासना है, वह भी प्रेम नहीं है। प्रेम तो केवल साधना से विकसित होता है।

इसलिए मैत्री का और प्रेम का हमारे भीतर जो बिंदु है, उसे विकसित करना होगा, सारी प्रकृति के खिलाफ विकसित करना होगा, क्योंकि प्रकृति उसे विकसित होने का मौका नहीं देती है। जो आप जीवन पाते हैं, वह उसे मौका नहीं देता। उसमें केवल शत्रुता विकसित होती है। और जिसको हम मैत्री कहते हैं, वह मैत्री केवल औपचारिकता होती है और शिष्टाचार होती है। वह मैत्री केवल एक व्यवस्था होती है शत्रुता से बचने की, शत्रुता को पैदा न कर लेने की। लेकिन वह मैत्री नहीं होती। मैत्री बड़ी अलग बात है।

उस बिंदु को कैसे विकसित करें? कैसे हमारे भीतर मैत्री का भाव पैदा होना शुरू हो? उसका भाव करना होगा। मैत्री का सतत भाव करना होगा। जो भी हमारे चारों तरफ लोग हैं, उनके प्रति मैत्री का संदेश भेजना होगा, मैत्री की किरणें भेजनी होंगी। और अपने भीतर उस मैत्री के बिंदु को निरंतर सचेष्ट करना होगा और सक्रिय करना होगा।

जब आप नदी के किनारे बैठे हों, तो नदी की तरफ प्रेम भेजिए। इसलिए नदी का नाम ले रहा हूं कि किसी आदमी की तरफ प्रेम भेजने में थोड़ी दिक्कत हो सकती है। एक दरख्त के प्रति प्रेम भेजिए। इसलिए दरख्त की बात कह रहा हूं कि एक आदमी की तरफ भेजने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है। सबसे पहले प्रकृति की तरफ प्रेम भेजिए। प्रेम का बिंदु सबसे पहले प्रकृति की तरफ विकसित हो सकता है। क्यों? क्योंकि प्रकृति आप पर कोई चोट नहीं कर रही है।

पुराने दिनों में, अदभुत लोग थे, सारे जगत के प्रति प्रेम का संदेश भेजते थे। सुबह सूरज ऊगता था, तो हाथ जोड़कर उसे नमस्कार कर लेते थे। और उसे कहते कि ‘धन्य हो। और तुम्हारी करुणा अपार है कि तुम हमें प्रकाश देते और तुम हमें रोशनी देते।’

यह पूजा कोई पैगेनिज्म नहीं था, यह पूजा कोई नासमझी नहीं थी। इसमें अर्थ थे, इसमें बड़े अर्थ थे। जो व्यक्ति सूरज के प्रति प्रेम से भर जाता था, जो व्यक्ति नदी को मां कहकर प्रेम से भर जाता था, जो जमीन को माता कहकर उसके स्मरण से प्रेम से भर जाता था, यह असंभव था कि वह आदमियों के प्रति अप्रेम से भरा हुआ ज्यादा दिन रह जाए। यह असंभव है। अदभुत लोग थे, उन्होंने सारी प्रकृति की तरफ प्रेम के संदेश भेजे थे। और सब तरफ पूजा और प्रेम और भक्ति को विकसित किया था।

जरूरत है इसकी। अगर प्रेम का अंकुर भीतर पैदा करना है, तो सबसे पहले उसका संदेश प्रकृति की तरफ भेजना होगा। हम तो ऐसे अजीब लोग हैं कि रात पूरा चांद भी ऊपर खड़ा रहेगा और हम नीचे बैठकर ताश खेलते रहेंगे और रमी खेलते रहेंगे। और हम हिसाब-किताब लगाते रहेंगे कि एक रुपया हार गए हैं या एक रुपया जीत गए हैं! और चांद ऊपर खड़ा रहेगा और प्रेम का एक इतना अदभुत अवसर व्यर्थ खो जाएगा।

चांद आपके उस केंद्र को जगा सकता था। अगर चांद के पास दो क्षण मंत्रमुग्ध बैठकर आपने प्रेम का संदेश भेजा होता, तो उसकी किरणों ने आपके भीतर कोई बिंदु सक्रिय कर दिया होता, कोई तत्व, और आप प्रेम से भर गए होते।

चारों तरफ मौके हैं। चारों तरफ मौके हैं, यह पूरी प्रकृति बहुत अदभुत चीजों से भरी हुई है। उनकी तरफ प्रेम करिए। और प्रेम का कोई भी मौका आ जाए, उसे खाली मत जाने दीजिए, उसका उपयोग कर लीजिए। उसका उपयोग इसलिए कि अगर रास्ते से आप जा रहे हैं और एक पत्थर पड़ा है, तो उसे हटा दीजिए। यह बिलकुल मुफ्त में मिला हुआ उपयोग है, जो आपके जीवन को बदल देगा। यह बिलकुल सस्ता-सा काम है। इससे सस्ती और साधना क्या होगी कि आप रास्ते से निकले हैं और एक पत्थर पड़ा था और आपने उठाकर उसे किनारे रख दिया है। न मालूम कौन अपरिचित वहां से निकलेगा! और न मालूम कौन अपरिचित उस पत्थर से चोट खाएगा! आपने प्रेम का एक कृत्य किया है।

मैं आपको इसलिए कह रहा हूं, बड़ी छोटी-छोटी बातें जिंदगी में प्रेम के तत्व को विकसित करती हैं, बहुत छोटी-छोटी बातें। एक रास्ते पर एक बच्चा रो रहा है। आप चले जाते हैं। आप खड़े होकर दो क्षण उसके आंसू नहीं पोंछ सकते!

अब्राहिम लिंकन एक सीनेट की बैठक में अपनी जा रहा था, बीच में एक सूअर फंस गया एक नाली में। वह भागा हुआ गया और उसने कहा कि ‘सीनेट को थोड़ी देर रोकना। मैं अभी आया।’ यह बड़ी अजीब बात थी। अमेरिका की संसद शायद ही कभी रुकी हो इस तरह से। वह वापस लौटा, उसने सूअर को निकाला। उसके सब कपड़े मिड़ गए कीचड़ में। उसे नाली से बाहर निकालकर उसने रखा, फिर वह अंदर गया। लोगों ने पूछा, ‘क्या बात थी? इतने आप घबराए हुए काम रोककर बाहर क्यों गए!’ तो उसने कहा, ‘एक प्राण संकट में था।’

यह प्रेम का कितना सरल-सा कृत्य था, लेकिन कितना अदभुत है। और ये छोटी-छोटी बातें…। अब मैं देखता हूं, ऐसे लोग हैं, जो इसलिए पानी छानकर पीएंगे कि कोई कीड़ा न मर जाए, लेकिन उनके मन में प्रेम नहीं है। तो उनका पानी छानना बेकार है। वह उनके लिए बिलकुल ही मेकेनिकल हैबिट की बात है कि वे पानी छानकर पीते हैं; कि वे रात को खाना नहीं खाते, क्योंकि कोई कीड़ा न मर जाए। लेकिन उनके हृदय में प्रेम नहीं है, तो इससे कोई मतलब नहीं है।

मतलब इससे नहीं है कि पानी छानकर पीते हैं, कि रात को खाना नहीं खाते हैं; कि मांसाहार नहीं करते हैं, इससे भी मतलब नहीं है। एक ब्राह्मण या एक जैन या एक बौद्ध मांसाहार नहीं करेगा, तो यह मत समझना कि उसका मन प्रेम से भरा हुआ है। यह केवल आदत की बात है, यह केवल वंश-परंपरागत सुनी हुई बात है, समझी हुई बात है। लेकिन उसके मन में प्रेम नहीं है।

हां, अगर यह आपके प्रेम से विकसित हो, तो यह अदभुत बात हो जाएगी। अहिंसा तब परम धर्म है, जब वह प्रेम से विकसित हो। अगर वह ग्रंथों को पढ़कर और किसी संप्रदाय को मानकर विकसित हो जाए, वह कोई धर्म ही नहीं है।

तो जीवन में बड़े छोटे-छोटे काम हैं, बड़े छोटे-छोटे काम हैं। और हम भूल ही गए हैं। यानि मैं आपसे यह कहता हूं, जब आप किसी के कंधे पर हाथ रखते हैं, तो अपने सारे हृदय के प्रेम को अपने हाथ से उसके पास भेजें। अपने सारे प्राण को, अपने सारे हृदय को उस हाथ में संकलित होने दें और जाने दें। और आप हैरान होंगे, वह हाथ जादू हो जाएगा। और जब आप किसी की आंख में झांकते हैं, तो अपनी आंखों में अपने सारे हृदय को उंडेल दें। और आप हैरान हो जाएंगे, वे आंखें जादू हो जाएंगी और वे किसी के भीतर कुछ हिला देंगी। न केवल आपका प्रेम जागेगा, बल्कि हो सकता है कि दूसरे के प्रेम जगने के भी आप उपाय और व्यवस्था कर दें। जब कोई एक ठीक से प्रेम करने वाला आदमी पैदा होता है, तो लाखों लोगों के भीतर प्रेम सक्रिय हो जाता है।

ये मैत्री और प्रेम के बिंदु को उठाने के लिए जो भी आपको मौका मिले, उसे मत खोएं। और उसके मौका मिलने के लिए एक सूत्र याद रखें। नियमित चौबीस घंटे में यह स्मरण रखें कि एक-दो काम ऐसे जरूर करें, जिनके बदले में आपको कुछ भी नहीं लेना है। चौबीस घंटे हम काम कर रहे हैं। उन कामों को हम इसलिए कर रहे हैं कि बदले में हम कुछ चाहते हैं। चौबीस घंटे में नियमपूर्वक कुछ काम ऐसे करें, जिनके बदले में आपको कुछ भी नहीं लेना है। वे काम प्रेम के होंगे और आपके भीतर प्रेम को पैदा करेंगे। अगर एक व्यक्ति दिन में एक काम भी ऐसा करे जिसके बदले में उसकी कोई आकांक्षा नहीं है, उसका उसे बहुत बड़ा बदला मिल जाएगा, क्योंकि उसके भीतर प्रेम का केंद्र सक्रिय हो जाएगा और विकसित होगा।

तो कुछ करें, जिसके बदले में आपको कुछ भी नहीं चाहिए; कुछ भी नहीं चाहिए। उससे मैत्री धीरे-धीरे विकसित होगी। एक घड़ी आएगी कि आप केवल उनके प्रति मैत्रीपूर्ण हो पाएंगे, जो आपके प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं हैं। फिर और विकास होगा और एक घड़ी आएगी, आप उनके प्रति भी मैत्रीपूर्ण हो सकेंगे, जो आपके प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। और एक घड़ी आएगी, कि आपको समझ में नहीं आएगा कि कौन मित्र है और कौन शत्रु है।

महावीर ने कहा है, ‘मित्ति मे सब्ब भुएषु वैरं मज्झ न केवई। सब मेरे मित्र हैं और किसी से मेरा वैर नहीं है।’

यह कोई विचार नहीं है, यह भाव है। यानि यह कोई सोच-विचार नहीं है, यह भाव की स्थिति है कि कोई मेरा शत्रु नहीं है। और कोई मेरा शत्रु नहीं, यह कब होता है? जब मैं किसी का शत्रु नहीं रह जाता हूं। यह तो हो सकता है कि महावीर के कुछ शत्रु रहे हों, लेकिन महावीर कहते हैं, कोई मेरा शत्रु नहीं है। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है, मैं किसी का शत्रु नहीं। और महावीर कहते हैं, मेरा वैर किसी के प्रति नहीं है। कितने आनंद की घटना नहीं घटी होगी!

आप एक व्यक्ति को प्रेम कर लेते हैं, कितना आनंद उपलब्ध होता है। और जिस व्यक्ति को सारे जगत को प्रेम करने की संभावना खुल जाती होगी, उसके आनंद का कोई ठिकाना है! यह सौदा महंगा नहीं है। आप खोते कुछ नहीं हैं और पा बहुत लेते हैं।

इसलिए मैं महावीर को, बुद्ध को त्यागी नहीं कहता हूं। इस जगत में सबसे बड़ा भोग उन्हीं लोगों ने किया है। इस जगत में सबसे बड़ा भोग उन्हीं लोगों ने किया है। त्यागी आप हो सकते हैं, वे नहीं। आनंद के इतने अपरिसीम अनंत द्वार उन्होंने खोले। इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम था, जो भी सुंदर था, जो भी शुभ था, सबको उन्होंने पीया और जाना। और आप क्या जान रहे हैं? सिवाय जहर के आप कुछ भी नहीं जान रहे हैं। और उन्होंने अमृत को जाना।

तो मैं आपको यह कहूं कि प्रेम की वह अंतिम चरम घड़ी, जब हम सारे जगत के प्रति प्रेम को विस्तीर्ण कर पाते हैं और हमारे हृदय से किरणें बहती रहती हैं, उसके लिए जीवन को साधना होगा। कोई कृत्य प्रेम का रोज जरूर करें, सचेत करें। और सारे दिन हजार मौके हैं, जब आप प्रेम जाहिर कर सकते हैं। लेकिन आदतें हमारी खराब हैं। प्रेम जाहिर करने के सारे मौके हम खो देते हैं और घृणा जाहिर करने का एक भी मौका नहीं खोते! घृणा जाहिर करने के जितने मौके खो सकें, उतना शुभ है। और प्रेम जाहिर करने के जितने मौके पकड़ सकें, उतना शुभ है। घृणा के मौके को खाली जाने दें। एकाध मौके को सचेत होकर खाली जाने दें और प्रेम के एकाध मौके को सचेत होकर पकड़ें। इससे साधना में अदभुत गति आएगी।

तो पहला सूत्र है, मैत्री। दूसरा सूत्र है, करुणा। करुणा मैत्री का ही एक रूप है। उसे अलग इसलिए कह रहे हैं कि उसमें कुछ अलग भाव भी हैं। अलग भावों से मतलब है, इस जगत में अगर आप अपने आस-पास के लोगों पर थोड़ा विचार करेंगे, तो आप उनके प्रति बहुत करुणा से भर जाएंगे।

अब हम यहां इतने लोग बैठे हुए हैं। नहीं कह सकता, सांझ इनमें से कोई समाप्त हो जाए। एक सांझ तो सब समाप्त हो ही जाएंगे। एक न एक दिन हममें से हर आदमी चुक जाएगा। अगर मुझे यह खयाल हो कि जो लोग मेरे सामने बैठे हैं, हो सकता है, इनमें से कोई चेहरे मैं दुबारा नहीं देख पाऊंगा, तो क्या मेरे हृदय में उनके प्रति करुणा पैदा नहीं होगी?

एक बगीचे में अभी-अभी मैं गया। और वहां फूल खिले हैं, सांझ वे मुर्झा जाएंगे। छोटी-सी घड़ी है उनके जीवन की। अभी खिले हैं सुबह, सांझ मुर्झा जाएंगे। क्या इस बात का स्मरण कि ये फूल जो अभी मुस्कुरा रहे हैं, सांझ गिर जाएंगे और धूल में मिल जाएंगे, उनके प्रति करुणा को पैदा नहीं कर देगा? क्या यह खयाल कि रात में जो तारे हैं, उनमें से कोई टूट जाता है और बिखर जाता है, क्या तारों के प्रति करुणा को पैदा नहीं कर देगा? अगर बोध हो, तो चारों तरफ देखने पर हरेक के प्रति करुणा मालूम होगी, बहुत दया मालूम होगी। इतना थोड़ा यह मिलन है, इतना मुश्किल यह जीवन है, इतनी दुर्लभ यह घटना है, और इतनी वासनाएं और इतनी तृष्णाएं और इतनी पीड़ाएं हैं हरेक के भीतर! फिर भी हम किसी तरह जीते हैं और किसी तरह प्रेम करते हैं और किसी तरह दो सुंदर कृतियां बनाते हैं। यह कितनी करुणा नहीं पैदा कर देगा!

बुद्ध के ऊपर एक दफा एक आदमी ने आकर थूक दिया। इतने गुस्से में आ गया, उनके ऊपर थूक दिया। उन्होंने उसको पोंछ लिया और उस आदमी से कहा, ‘कुछ और कहना है?’ उनके पास जो भिक्षु था आनंद, उसने कहा, ‘आप क्या बात कर रहे हैं? उसने कुछ कहा है? हमें आज्ञा दें, हम उसे ठीक करें। यह तो हद्द हो गयी कि वह आपके ऊपर थूक दे।’ बुद्ध ने कहा, ‘वह कुछ कहना चाहता है। अब भाषा असमर्थ है।’ बुद्ध ने कहा, ‘वह कुछ कहना चाहता है, भाषा असमर्थ है, वेग तीव्र है। कह नहीं सका, क्रिया से प्रकट किया है।’

इसको मैं कहता हूं करुणा। बुद्ध उस पर दया खाए कि कितनी भाषा असमर्थ है। वह कुछ कहना चाहता है, कोई बड़ी क्रोध की बात है, उसे प्रकट करना चाहता है। शब्द नहीं मिल रहे, थूककर जाहिर किया है।

जब कोई मेरे पास प्रेम से आकर मेरे हाथ पर हाथ रख लेता है, तो कितनी करुणा मालूम होती है। वह कुछ कहना चाहता है, भाषा असमर्थ है, हाथ पर हाथ रखकर कुछ कहने की कोशिश करता है। जब कोई किसी से गले से गले मिलता है, भाषा असमर्थ है, आदमी कितना कमजोर है, कुछ कहना चाहता है। हृदय को हृदय के करीब ले आता है, कोई रास्ता नहीं मिलता।

कल मैं यहां से जाता था। कुछ लोग मेरे पैर पड़ने लगे और मुझे बड़ी करुणा आयी, आदमी कितना असमर्थ है! कुछ कहना चाहता है और नहीं कह पाता है और पैर पकड़ लेता है। मेरे पीछे मेरे एक प्रिय मित्र थे। वे विचारशील हैं। उन्होंने कहा, ‘न-न, यह मत करो।’ उन्होंने भी ठीक कहा। कितना बुरा हुआ है जगत में! पैर पड़ने वाले तो ठीक थे, पैर पड़ाने वाले पैदा हो गए हैं। तो उन्होंने ठीक ही कहा कि, ‘न-न, यह मत करो।’ मुझे उनकी बात ठीक लगी, लेकिन ठीक नहीं भी लगी। ठीक उन्होंने कहा, यह गलत है कि दुनिया में कोई किसी से पैर पड़वाए। लेकिन वह दुनिया भी गलत होगी, जिसमें ऐसे लोग न रह जाएं, जिनके पैर पड़ने का मन हो। और वह दुनिया भी गलत होगी, जहां ऐसे हृदय न रह जाएं, जो किसी के पैर में झुक जाएं। और वह दुनिया गलत होगी, जब कि हममें ऐसे भाव न उठें, जो बिना पैर पकड़े जाहिर नहीं हो सकते हैं।

मेरी आप बात समझते हैं? वह दुनिया गलत होगी, जब हममें ऐसे भाव न उठें, जो कि बिना पैर पकड़े जाहिर नहीं हो सकते हैं। आदमी बहुत सूखा और बेमानी हो जाएगा।

और फिर मैं यह भी आपको स्मरण दिलाऊं; मैं हैरान हुआ हूं, जब मैंने किसी को अपने पैर में झुकते देखा है, तो मैंने पाया, वह मेरे पैर नहीं पकड़े हुए है। उसे मेरे पैर में कुछ दिख रहा है; वह शायद परमात्मा के ही पैर पकड़े हुए है। और जब भी कोई किसी के पैर में झुका है आज तक–झुकाया न गया हो वह–जब भी कोई किसी के पैर में झुका है, वह सिर्फ परमात्मा के पैर में झुका है, वह किसी के पैरों में नहीं झुका है। आखिर किसी के पैरों में क्या है, जिसमें झुकने जैसा हो? लेकिन कोई भाव है भीतर, जिसके लिए रास्ता नहीं मिलता।

कल मुझे प्रेम करने वाला कोई मेरे पास था कमरे में। और सांझ जब नहाने जाने लगा और मैंने बल्ब जलाया, तो उसने कहा कि ‘प्रकाश हो गया, मुझे अपने पैर पकड़ लेने दें।’ मैं बहुत हैरान हुआ। और उन्होंने मेरे पैर पकड़ लिए। और मैंने उनकी आंखों में जो आंसू देखे, उन आंसुओं से सुंदर जमीन पर कुछ भी नहीं है। इस जमीन पर उन आंसुओं से सुंदर न कोई कविता है, न कोई गीत है, जो किसी प्रेम की घड़ी में उत्पन्न होते हैं। और अगर इनके प्रति बोध हो और अगर इनका स्मरण हो, अगर ये दिखाई पड़ते हों, तो आपको कितनी करुणा नहीं मालूम होगी!

लेकिन आप क्या देख रहे हैं? आप लोगों में वह देख रहे हैं, जिनसे करुणा तो नहीं पैदा होती, निंदा पैदा होती है। आप लोगों में वह देख रहे हैं, जिनसे करुणा तो पैदा नहीं होती, क्रूरता पैदा होती है। आप लोगों में वह देख रहे हैं, जो उनका असली हिस्सा नहीं है, जो उनका हृदय नहीं है, जो उनकी मजबूरियां हैं। एक आदमी मुझे गाली देता है। यह कोई हृदय है उसका? यह उसकी मजबूरी होगी। बुरे से बुरे आदमी के भीतर एक हृदय है, जिस तक अगर हमारी पहुंच हो पाए, तो हम बहुत करुणा से भर जाएंगे, बहुत करुणा से भर जाएंगे।

बुद्ध ने उस सुबह कहा था, ‘दया आती है। दया आती है, भाषा कमजोर है आनंद। आदमी का हृदय बहुत कुछ कहना चाहता है, नहीं कह पाता है।’ उससे कहा, ‘कुछ और कहना है?’ वह आदमी और क्या कहता! अब तो कहना मुश्किल हो गया। वह लौट गया। रात वह बहुत पछताया। वह दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। वह पैरों में गिर गया और रोने लगा। बुद्ध ने कहा, ‘देखते हो आनंद, भाषा कमजोर है। अब भी वह कुछ कहना चहता है और नहीं कह पा रहा है। कल भी उसने कुछ कहना चाहा था और नहीं कह पाया था। तब भी उसने कोई कृत्य किया था, अब भी कोई कृत्य कर रहा है। भाषा बहुत कमजोर है आनंद, और आदमी बड़ा दया योग्य है।’

और चार दिन का यह जीवन है। और चार दिन का भी हम कहते हैं, चार घड़ी का भी क्या है? और इस चार घड़ी के मिलन में अगर हम करुणा से न भर जाएं एक-दूसरे के प्रति, तो हम आदमी ही न थे। हमने जीवन को जाना भी नहीं, हम पहचाने नहीं।

तो अपने चारों तरफ करुणा को फेंकें, अपने चारों तरफ परिचित हों। कितने दुखी हैं लोग! उनके दुख में और दुख को मत बढ़ाएं। आपकी करुणा उनके दुख को कम करेगी। एक करुणा से भरा हुआ शब्द उनके दुख को कम करेगा। उनके दुख को और मत बढ़ाएं।

हम सब एक-दूसरे के दुख को बढ़ा रहे हैं। हम सब एक-दूसरे को दुख देने में सहयोगी हैं। एक-एक आदमी के पीछे अनेक-अनेक लोग पड़े हुए हैं दुख देने को। अगर करुणा का बोध होगा, तो आप किसी को दुख पहुंचाने के सारे रास्ते अलग कर लेंगे। और अगर किसी के जीवन में कोई सुख दे सकते हैं, तो उसे देने का उपाय करेंगे।

और एक बात स्मरण रखें, जो दूसरे को दुख देता है, वह अंततः दुखी हो जाता है। और जो दूसरे को सुख देता है, वह अंततः बहुत सुख को उपलब्ध होता है। इस वजह से यह कह रहा हूं कि जो सुख देने की चेष्टा करता है, उसके भीतर सुख के केंद्र विकसित होते हैं; और जो दुख देने की चेष्टा करता है, उसके भीतर दुख के केंद्र विकसित होते हैं।

फल बाहर से नहीं आते हैं, फल भीतर पैदा होते हैं। हम जो करते हैं, उसी की रिसेप्टिविटी हमारे भीतर विकसित हो जाती है। जो प्रेम चाहता है, प्रेम को फैला दे। और जो आनंद चाहता है, वह आनंद को लुटा दे। और जो चाहता है, उसके घर पर फूलों की वर्षा हो जाए, वह दूसरों के आंगनों में फूल फेंक दे। और कोई रास्ता नहीं है।

तो करुणा का एक भाव प्रत्येक को विकसित करना जरूरी है साधना में प्रवेश के लिए।

तीसरी बात है, प्रमुदिता, उत्फुल्लता, प्रसन्नता, आनंद का एक बोध, विषाद का अभाव। हम सब विषाद से भरे हैं। हम सब उदास लोग, थके लोग हैं। हम सब हारे हुए, पराजित, रास्तों पर चलते हैं और समाप्त हो जाते हैं। हम ऐसे चलते हैं, जैसे आज ही मर गए हैं। हमारे चलने में कोई गति और प्राण नहीं है। हमारे उठने-बैठने में कोई प्राण नहीं है। हम सुस्त हैं, और उदास हैं, और टूटे हुए हैं, और हारे हुए हैं। यह गलत है। जीवन कितना ही छोटा हो, मौत कितनी ही निश्चित हो, जिसमें थोड़ी समझ है, वह उदास नहीं होगा।

सुकरात मरता था, उसको जहर दिया जा रहा था और वह हंस रहा था। और उसके एक शिष्य क्रेटो ने पूछा, ‘हंसते हैं! हमारी आंखें आंसुओं से भरी हुई हैं। और मौत करीब है और यह विषाद का क्षण है।’ सुकरात ने कहा, ‘विषाद कहां है? अगर मरा और बिलकुल ही मर गया, तो विषाद क्या? क्योंकि दुख को अनुभव करने को कोई बचेगा नहीं। और अगर मरा और बचा रहा, तो दुख क्या? जो खोया, वह अपन न थे, जो अपन थे वह बचे हुए हैं।’ तो उसने कहा, ‘मैं खुश हूं। मौत दो ही काम कर सकती है। या तो बिलकुल मिटा देगी। बिलकुल मिटा देगी, तो खुश हूं, क्योंकि बचूंगा ही नहीं दुख अनुभव करने को। और अगर बचा देगी मुझको, तो खुश हूं। क्योंकि जो मेरा नहीं है, वह नष्ट हो जाएगा, मैं तो बचूंगा। मौत दो ही काम कर सकती है, इसलिए हंसने जैसी है।’

सुकरात ने कहा, ‘मैं प्रसन्न हूं, क्योंकि मौत क्या छीन लेगी? या तो बिलकुल ही मिटा देगी, तो क्या छीना? क्योंकि अब जिससे छीना, वह भी नहीं है, तो दुख का कोई अनुभव नहीं होगा। और अगर मैं बच रहा, तो सब बच रहा। मैं बच रहा, तो सब बच रहा। जो छीन लिया, वह मेरा नहीं था।’ तो इसलिए सुकरात ने कहा, ‘मैं खुश हूं।’

जो मौत के सामने खुश है–और हम हैं कि हम जिंदगी को पाए हुए दुखी बैठे हुए हैं। हम हैं कि हम जिंदगी में दुखी बैठे हुए हैं और लोग ऐसे भी हुए हैं कि जो मौत के सामने भी खुश थे!

मंसूर को वे सूली दे रहे थे। उसके पैर काट दिए, उसके हाथ काट दिए, उसकी आंखें फोड़ दीं। दुनिया में उससे कठोर यातना कभी किसी को नहीं दी गयी। क्राइस्ट को जल्दी मार डाला गया, गांधी को जल्दी गोली मार दी गयी, सुकरात को जहर दे दिया गया। मंसूर मनुष्य के इतिहास में सबसे ज्यादा पीड़ा से मारा गया। पहले उसके पैर काट दिए। जब उसके पैरों से खून बहने लगा, तो उसने खून को लेकर अपने हाथों पर लगाया। भीड़ इकट्ठी थी, लोग पत्थर फेंक रहे थे। उन्होंने पूछा, ‘यह क्या कर रहे हो?’ उसने कहा, ‘वजू करता हूं।’ मुसलमान नमाज के पहले हाथ धोते हैं। उसने अपने खून से अपने हाथ धोए। उसने कहा, ‘वजू करता हूं।’ और उसने कहा, ‘याद रहे मंसूर का यह वचन कि जो प्रेम की वजू है असली, वह खून से की जाती है, पानी से नहीं की जाती। और जो अपने खून से वजू करता है, वही नमाज में प्रवेश करता है।’

लोग बहुत हैरान हुए कि पागल है। उसके पैर काट दिए गए, फिर उसके हाथ काट दिए गए। फिर उसकी उन्होंने आंखें फोड़ दीं। और एक लाख लोग इकट्ठे हैं और पत्थर मार रहे हैं और उसका एक-एक अंग काटा जा रहा है। और जब उसकी आंखें फोड़ दी गयीं, तब वह चिल्लाया कि ‘हे परमात्मा, स्मरण रखना। मंसूर जीत गया।’

लोगों ने पूछा, ‘क्या बात है? किस बात में जीत गए?’ उसने कहा, ‘परमात्मा को कह रहा हूं। परमात्मा स्मरण रखना, मंसूर जीत गया। मैं डरता था कि शायद इतनी शत्रुता में प्रेम कायम नहीं रह सकेगा। तो स्मरण रखना परमात्मा कि मंसूर जीत गया। प्रेम मेरा कायम है। इन्होंने जो मेरे साथ किया है, मेरे साथ नहीं कर पाए। इन्होंने जो मेरे साथ किया है, मेरे साथ नहीं कर पाए। प्रेम कायम है।’ और उसने कहा, ‘यही मेरी प्रार्थना है और यही मेरी इबादत है।’

मंसूर उस वक्त भी हंस रहा था, उस वक्त भी मस्त था। लोग मौत के सामने खुश रहे हैं और हंसते रहे हैं। और हम जिंदगी के सामने उदास और रोते हुए बैठे हैं। यह गलत है। कोई उदास रास्ते, कोई विषाद से भरा हुआ चित्त कोई बड़े अभियान नहीं कर सकता है। अभियान के लिए उत्फुल्लता, अभियान के लिए बड़े आनंद से भरा हुआ चित्त।

तो चौबीस घंटे उत्फुल्लता को साधिए। ये सिर्फ आदतें हैं। उदासी एक आदत है, जिसको आपने बना लिया है। उत्फुल्लता एक आदत है, उसको बना सकते हैं। उत्फुल्लता को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि जिंदगी का वह हिस्सा देखिए, जो प्रकाशित है; वह हिस्सा नहीं, जो अंधेरे से भरा है।

मैं अगर आपको कहूं कि ‘मेरा कोई मित्र है और यह बहुत अदभुत गीत गाता है या बहुत अदभुत बांसुरी बजाता है।’ आप मुझसे कहेंगे, ‘होगा। यह क्या बांसुरी बजाएगा! इसको हमने शराबखाने में शराब पीते देखा है!’ मैं अगर आपसे कहूं कि ‘मेरा मित्र है और बहुत अदभुत बांसुरी बजाता है।’ तो आप कहेंगे, ‘यह क्या बांसुरी बजाएगा! हमने इसे शराबखाने में शराब पीते देखा है।’ यह अंधेरा देखना है।

अगर मैं आपसे कहूं कि ‘ये मेरे मित्र हैं, शराब पीते हैं।’ और आप मुझसे कहें, ‘होगा। लेकिन ये तो अदभुत बांसुरी बजाते हैं!’ तो यह जिंदगी के प्रकाशित पक्ष को देखना है।

जिसको खुश होना है, वह प्रकाश को देखे। जिसको खुश होना है, वह यह देखे कि दो दिनों के बीच में एक रात है। और जिसको उदास होना है, वह यह देखे कि दो रातों के बीच में एक दिन है। हम कैसा देखते हैं जिंदगी को, वैसा हमारे भीतर कुछ विकसित हो जाता है। तो जिंदगी के अंधेरे पक्ष को न देखें। जिंदगी के उजाले पक्ष को देखें।

मैं छोटा था और मेरे पिता गरीब थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक अपना मकान बनाया। गरीब भी थे और नासमझ भी थे, क्योंकि कभी उन्होंने मकान नहीं बनाए थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक मकान बनाया। वह मकान नासमझी से बना होगा। वह बना और हम उस मकान में पहुंचे भी नहीं और वह पहली ही बरसात में गिर गया। हम छोटे थे और बहुत दुखी हुए। वे गांव के बाहर थे। उनको मैंने खबर की कि मकान तो गिर गया और बड़ी आशाएं थीं कि उसमें जाएंगे। वे तो सब धूमिल हो गयीं। वे आए और उन्होंने गांव में प्रसाद बांटा और उन्होंने कहा, ‘परमात्मा का धन्यवाद! अगर आठ दिन बाद गिरता, तो मेरा एक भी बच्चा नहीं बचता।’ हम आठ दिन बाद ही उस घर में जाने को थे। और वे उसके बाद जिंदगीभर इस बात से खुश रहे कि मकान आठ दिन पहले गिर गया। आठ दिन बाद गिरता, तो बहुत मुश्किल हो जाती।

यूं भी जिंदगी देखी जा सकती है। और जो ऐसे देखता है, उसके जीवन में बड़ी प्रसन्नता, बड़ी प्रसन्नता का उदभव होता है। आप जिंदगी को कैसे देखते हैं, इस पर सब निर्भर है। जिंदगी में कुछ भी नहीं है। आपके देखने पर, आपका एटीटयूड, आपकी पकड़, आपकी समझ, आपकी दृष्टि सब कुछ बनाती और बिगाड़ती है।

आप अपने से पूछें कि आप क्या देखते हैं? क्या आपने एक भी ऐसा बुरे से बुरा आदमी देखा है, जिसमें कुछ ऐसा न हो, जो साधुओं में भी मुश्किल होता है? क्या आपने ऐसा बुरे से बुरा आदमी भी देखा है, जिसमें एक भी चीज ऐसी न मिल जाए, जो साधुओं में मुश्किल होती है? और अगर आपको मिल सकती है, तो उसे देखें। वह उस आदमी का असली हिस्सा है। और जिंदगी में चारों तरफ खोजें किरण को, प्रकाश को। उससे आपके भीतर किरण और प्रकाश पैदा होगा।

इसको कहते हैं प्रमुदिता। तीसरा भाव है कि हम प्रसन्न हों। हम इतने प्रसन्न हों कि हम मौत को और दुख को गलत कर दें। हम इतने आनंदित हों कि मौत और दुख सिकुड़कर मर जाएं। पता भी न चले कि मौत और दुख भी हैं।

जो इतनी प्रफुल्लता और आनंद को अपने भीतर संजोता है, वह साधना में गति करता है। साधना की गति के लिए यह बहुत जरूरी है, बहुत जरूरी है।

एक साधु हुआ। वह जीवनभर इतना प्रसन्न था कि लोग हैरान थे। लोगों ने कभी उसे उदास नहीं देखा, कभी पीड़ित नहीं देखा। उसके मरने का वक्त आया और उसने कहा कि ‘अब मैं तीन दिन बाद मर जाऊंगा। और यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि तुम्हें स्मरण रहे कि जो आदमी जीवन भर हंसता था, उसकी कब्र पर कोई रोए नहीं। यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि जब मैं मर जाऊं, तो इस झोपड़े पर कोई उदासी न आए। यहां हमेशा आनंद था, यहां हमेशा खुशी थी। इसलिए मेरी मौत को एक उत्सव बनाना। मेरी मौत को दुख मत बनाना, मेरी मौत को एक उत्सव बनाना।’

लोग तो दुखी हुए, बहुत दुखी हुए। वह तो अदभुत आदमी था। और जितना अदभुत आदमी हो, उतना उसके मरने का दुख घना था। और उसको प्रेम करने वाले बहुत थे, वे सब तीन दिन से इकट्ठे होने शुरू हो गए। वह मरते वक्त तक लोगों को हंसा रहा था और अदभुत बातें कह रहा था और उनसे प्रेम की बातें कर रहा था। सुबह मरने के पहले उसने एक गीत गाया। और गीत गाने के बाद उसने कहा, ‘स्मरण रहे, मेरे कपड़े मत उतारना। मेरी चिता पर मेरे पूरे शरीर को चढ़ा देना कपड़ों सहित। मुझे नहलाना मत।’

उसने कहा था, आदेश था। वह मर गया। उसे कपड़े सहित चिता पर चढ़ा दिया। वह जब कपड़े सहित चिता पर रखा गया, लोग उदास खड़े थे, लेकिन देखकर हैरान हुए। उसके कपड़ों में उसने फुलझड़ी और फटाखे छिपा रखे थे। वे चिता पर चढ़े और फुलझड़ी और फटाखे छूटने शुरू हो गए। और चिता उत्सव बन गयी। और लोग हंसने लगे। और उन्होंने कहा, ‘जिसने जिंदगी में हंसाया, वह मौत में भी हमको हंसाकर गया है।’

जिंदगी को हंसना बनाना है। जिंदगी को एक खुशी और मौत को भी एक खुशी। और जो आदमी ऐसा करने में सफल हो जाता है, उसे बड़ी धन्यता मिलती है और बड़ी कृतार्थता उपलब्ध होती है। और उस भूमिका में जब कोई साधना में प्रवेश करता है, तो गति वैसी होती है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। तीर की तरह विकास होता है।

बोझिल मन से जो जाता है, उसने तीर में पत्थर बांध दिए हैं। बोझिल मन से जो जाता है, उसने तीर में पत्थर बांध दिए, तीर कहां जाएगा? जितनी तीव्र गति चाहिए हो, उतना हलका और भारहीन मन चाहिए। जितने तीर को दूर पहुंचाना हो, उतना तीर में वजन कम चाहिए। और जिसे जितने ऊंचे पहाड़ चढ़ने हों, उतना बोझ उसे नीचे छोड़ देना पड़ता है। और सबसे बड़ा बोझ दुख का और विषाद का है, उदासी का है। इससे बड़ा कोई बोझ नहीं है।

क्या आप लोगों को देखते हैं? वे दबे चले जा रहे हैं, जैसे भारी बोझ उनके सिर पर रखा हुआ है। इस बोझ को नीचे फेंक दें और उत्फुल्लता की एक हुंकार करें और सिंहनाद करें और यह बता दें पूरे जीवन को कि जीवन कैसा ही हो, उसमें भी खुशी और जिंदगी गीत बनायी जा सकती है। जिंदगी एक संगीत हो सकती है। इस तीसरी प्रमुदिता को स्मरण रखें।

और चौथा मैंने कहा, कृतज्ञता। कृतज्ञता बहुत डिवाइन, बहुत दिव्य बात है। हमारी सदी में अगर कुछ खो गया है, तो कृतज्ञता खो गयी है, ग्रेटीटयूड खो गया है।

आपको पता है, आप जो श्वास ले रहे हैं, वह आप नहीं ले रहे हैं। क्योंकि श्वास जिस क्षण नहीं आएगी, आप उसे नहीं ले सकेंगे। आपको पता है, आप पैदा हुए हैं? आप पैदा नहीं हुए हैं। आपका कोई सचेतन हाथ नहीं है, कोई निर्णय नहीं है। आपको पता है, यह जो छोटी-सी देह आपको मिली है, यह बड़ी अदभुत है। यह सबसे बड़ा मिरेकल है इस जमीन पर। आप थोड़ा-सा खाना खाते हैं, आपका यह छोटा-सा पेट उसे पचा देता है। यह बड़ा मिरेकल है।

अभी इतना वैज्ञानिक विकास हुआ है, अगर हम बहुत बड़े कारखाने खड़े करें और हजारों विशेषज्ञ लगाएं, तो भी एक रोटी को पचाकर खून बना देना मुश्किल है। एक रोटी को पचाकर खून बना देना मुश्किल है। यह शरीर आपका एक मिरेकल कर रहा है चौबीस घंटे। यह छोटा-सा शरीर, थोड़ी-सी हड्डियां, थोड़ा-सा मांस। वैज्ञानिक कहते हैं, मुश्किल से चार रुपए, पांच रुपए का सामान है इस शरीर में। इसमें कुछ ज्यादा मूल्य की चीजें नहीं हैं। इतना बड़ा चमत्कार चौबीस घंटे साथ है, उसके प्रति कृतज्ञता नहीं है, ग्रेटीटयूड नहीं है!

कभी आपने अपने शरीर को प्रेम किया है? कभी अपने हाथों को चूमा है? कभी अपनी आंखों को प्रेम किया है? कभी यह खयाल किया है कि क्या अदभुत घटित हो रहा है? शायद ही आपमें कोई हो, जिसने अपनी आंख को प्रेम किया हो, जिसने अपने हाथों को चूमा हो और जिसने कृतज्ञता अनुभव की हो कि यह अदभुत बात, यह अदभुत घटना घट रही है और हमारे बिलकुल बिना जाने। और हम इसमें बिलकुल भागीदार भी नहीं हैं।

अपने शरीर के प्रति सबसे पहले कृतज्ञ हो जाएं। जो अपने शरीर के प्रति कृतज्ञ है, वही केवल दूसरों के शरीरों के प्रति कृतज्ञ हो सकता है। और सबसे पहले अपने शरीर के प्रति प्रेम से भर जाएं। क्योंकि जो अपने शरीर के प्रति प्रेम से भरा हुआ है, वही केवल दूसरों के शरीरों के प्रति प्रेम से भर जाता है।

वे लोग अधार्मिक हैं, जो आपको अपने शरीर के खिलाफ बातें सिखाते हों। वे लोग अधार्मिक हैं, जो कहते हों कि शरीर दुश्मन है और दुष्ट है, और ऐसा है और वैसा है, शत्रु है। शरीर कुछ भी नहीं है। शरीर बड़ा चमत्कार है। और शरीर अदभुत सहयोगी है। इसके प्रति कृतज्ञ हों। इस शरीर में क्या है? जो इस शरीर में है, वह इन पंचमहाभूतों से मिला है। इस शरीर के प्रति कृतज्ञ हों, इन पंचमहाभूतों के प्रति कृतज्ञ हों।

एक दिन सूरज बुझ जाएगा, तो आप कहां होंगे! वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार वर्षों में सूरज बुझ जाएगा। वह काफी रोशनी दे चुका है, वह खाली होता जाएगा। और एक दिन आएगा कि वह बुझ जाएगा। अभी हम रोज इसी खयाल में हैं कि रोज सूरज ऊगेगा। एक दिन वक्त आएगा कि लोग सांझ को इस खयाल से सोएंगे कि कल सुबह सूरज ऊगेगा, और वह नहीं ऊगेगा। और फिर क्या होगा?

सूरज ही नहीं बुझेगा, सारा प्राण बुझ जाएगा, क्योंकि प्राण उससे उपलब्ध है। क्योंकि सारी ऊष्मा और सारा उत्ताप उससे उपलब्ध है।

समुद्र के किनारे बैठते हैं। कभी खयाल किया, आपके शरीर में सत्तर परसेंट समुद्र है, पानी है! और मनुष्य का जन्म इस जमीन पर, कीटाणु का जो पहला जन्म हुआ, वह समुद्र में हुआ था। और आप यह भी जानकर हैरान होंगे, आपके शरीर में भी नमक और पानी में वही अनुपात है, जो समुद्र में है–अभी भी। और उस अनुपात से जब भी शरीर इधर-उधर हो जाएगा, बीमार हो जाएगा।

कभी समुद्र के करीब बैठकर आपने अनुभव किया है कि मेरे भीतर भी समुद्र का एक हिस्सा है। और मेरे भीतर जो हिस्सा है समुद्र का, उसके लिए मुझे समुद्र का कृतज्ञ होना चाहिए। और सूरज की रोशनी मेरे भीतर है, उसके प्रति मुझे कृतज्ञ होना चाहिए। और हवाएं मेरे प्राण को चलाती हैं, उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। और आकाश और पृथ्वी, वे मुझे बनाते हैं, उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

इस ग्रेटीटयूड को मैं दिव्य कहता हूं। इस कृतज्ञता के बिना कोई आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। अकृतज्ञ मनुष्य क्या धार्मिक होंगे! इस कृतज्ञता को अनुभव करें निरंतर और आप हैरान हो जाएंगे, यह आपको इतनी शांति से भर देगी कृतज्ञता और इतने रहस्य से! और तब आपको एक बात का पता चलेगा कि मेरी क्या सामर्थ्य थी कि ये सारी चीजें मुझे मिलें! और ये सारी चीजें मुझे मिली हैं। इसके लिए आपके मन में धन्यवाद होगा। इसके प्रति आपके मन में धन्यवाद होगा, जो आपको मिला है, उसके प्रति कृतार्थता का बोध होगा।

तो कृतज्ञता को ज्ञापित करने का, कृतज्ञता को विकसित करने का उपाय करें; उससे साधना में गति होगी। और न केवल साधना में, बल्कि जीवन बहुत भिन्न हो जाएगा। जीवन बहुत भिन्न हो जाएगा, जीवन बहुत दूसरा हो जाएगा।

क्राइस्ट को सूली पर लटकाया। तो क्राइस्ट जब मरने लगे तो उन्होंने कहा, ‘हे परमात्मा, इन्हें क्षमा कर देना। इन्हें क्षमा कर देना और दो कारणों से क्षमा कर देना। एक तो ये जानते नहीं कि क्या कर रहे हैं।’ इसमें तो उनकी करुणा थी। ‘और एक इस कारण से कि मेरे और तेरे बीच जो फासला था, वह इन्होंने गिरा दिया। परमात्मा के और मेरे बीच जो फासला था, इन्होंने गिरा दिया। इसके लिए इनके प्रति कृतज्ञता है।’

तो जीवन में सतत कृतज्ञता का स्मरणपूर्वक व्यवहार करें। आप पाएंगे कि जीवन बहुत अदभुत हो जाएगा।

तो चार बातें मैंने कहीं शुद्ध भाव के लिए: मैत्री, करुणा, प्रमुदिता और कृतज्ञता। और बहुत बातें हैं। लेकिन ये चार काफी हैं। अगर इनका विचार करें, तो शेष सब इनके पीछे अपने आप चली आएंगी। इस भांति भाव शुद्ध होगा।

मैंने आपको बताया, शरीर कैसे शुद्ध होगा, विचार कैसे शुद्ध होगा, भाव कैसे शुद्ध होगा। अगर ये तीन ही हो जाएं, तो भी आप अदभुत लोक में प्रवेश कर जाएंगे। अगर ये तीन ही हो जाएं, तो भी बहुत कुछ हो जाएगा।

तीन जो केंद्रीय तत्व हैं, उनकी हम आगे बात करेंगे। उन तीन तत्वों में हम शरीर-शून्यता, विचार-शून्यता और भाव-शून्यता का विचार करेंगे। अभी हमने शुद्धि का विचार किया, फिर हम शून्यता का विचार करेंगे। और जब शुद्धि और शून्यता का मिलन होता है, तो समाधि उत्पन्न हो जाती है। जब शुद्धि और शून्यता का मिलन होता है, तो समाधि उत्पन्न हो जाती है। और समाधि परमात्मा का द्वार है। उसकी हम बात करेंगे।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठें। सुबह का ध्यान मैं आपको समझा ही दिया हूं। प्रारंभ में पांच बार हम संकल्प करेंगे। फिर उसके बाद थोड़ी देर तक हम भाव करेंगे। फिर उसके बाद श्वास-प्रश्वास को, रीढ़ को सीधी रखकर, आंख को बंद करके, नाक के पास जहां से श्वास भीतर आता-जाता है, उसको स्मरणपूर्वक देखेंगे।

सारे लोग दूर-दूर हो जाएं, ताकि कोई किसी को छूता हुआ मालूम न पड़े।

आज इतना ही।



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ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–6

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सम्यक रूपांतरण के सूत्र—(प्रवचन—छठवां)

 मेरे प्रिय आत्मन्,

कुछ प्रश्न हैं। प्रश्न तो बहुत-से हैं, उन सबका संयुक्त उत्तर ही देने का प्रयास करूंगा। कुछ हिस्सों में उनको बांट लिया है।

पहला प्रश्न है, वैज्ञानिक युग में धर्म का क्या स्थान है? और धर्म का राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में क्या उपयोग है?

 विज्ञान से अर्थ ज्ञान की उस पद्धति का है, जो पदार्थ में छिपी हुई अंतस शक्ति को खोजती है। धर्म से अर्थ उस ज्ञान की पद्धति का है, जो चेतना के भीतर छिपी हुई अंतस शक्ति को खोजती है। धर्म और विज्ञान का कोई विरोध नहीं है, वरन धर्म और विज्ञान परिपूरक हैं।

जो युग मात्र वैज्ञानिक होगा, उसके पास सुविधा तो बढ़ जाएगी, लेकिन सुख नहीं बढ़ेगा। जो युग मात्र धार्मिक होगा, उसके कुछ थोड़े-से लोगों को सुख तो उपलब्ध हो जाएगा, लेकिन अधिकतर लोग असुविधा से ग्रस्त हो जाएंगे। विज्ञान सुविधा देता है, धर्म शांति देता है। सुविधा न हो, तो बहुत कम लोग शांति को उपलब्ध कर सकते हैं। शांति न हो, तो बहुत लोग सुविधा को उपलब्ध कर सकते हैं, लेकिन उसका उपयोग नहीं कर सकेंगे।

अब तक मनुष्य ने जिन सभ्यताओं को जन्म दिया है, वे सब सभ्यताएं अधूरी और खंडित थीं। पूरब ने जिस संस्कृति को जन्म दिया था, वह संस्कृति विशुद्ध धर्म पर खड़ी थी। विज्ञान का पक्ष उसका अत्यंत कमजोर था। परिणाम में पूरब परास्त हुआ, दरिद्र हुआ, पराजित हुआ। पश्चिम ने जो संस्कृति पैदा की है, वह दूसरी अति, दूसरी एक्सट्रीम पर है। उसकी बुनियादें विज्ञान पर रखी हैं और धर्म का उससे कोई संबंध नहीं है। परिणाम में पश्चिम जीता है। धन, समृद्धि, सुविधा उसने इकट्ठी की है। लेकिन मनुष्य की अंतरात्मा को खो दिया है।

भविष्य में जो संस्कृति पैदा होगी, अगर वह संस्कृति मनुष्य के हित में होने को है, तो उस संस्कृति में धर्म और विज्ञान का संतुलन होगा। उस संस्कृति में धर्म और विज्ञान का समन्वय होगा। वह संस्कृति वैज्ञानिक या धार्मिक, ऐसी नहीं होगी। वह संस्कृति वैज्ञानिक रूप से धार्मिक होगी या धार्मिक रूप से वैज्ञानिक होगी।

ये दोनों प्रयोग असफल हो गए हैं। पूरब का प्रयोग असफल हो गया है। पश्चिम का प्रयोग भी असफल हो गया है। और अब एक मौका है कि हम एक जागतिक, यूनिवर्सल प्रयोग करें, जो पूरब का भी न हो, पश्चिम का भी न हो। और जिसमें धर्म और विज्ञान संयुक्त हों।

तो मैं आपको कहूंगा, धर्म और विज्ञान का कोई विरोध नहीं है, जैसे शरीर और आत्मा का कोई विरोध नहीं है। जो मनुष्य केवल शरीर के आधार पर जीएगा, वह अपनी आत्मा खो देगा। और जो मनुष्य केवल आत्मा के आधार पर जीने के प्रयास करेगा, वह भी ठीक से नहीं जी पाएगा, क्योंकि शरीर को खोता चला जाएगा।

जिस तरह मनुष्य का जीवन शरीर और आत्मा के बीच एक संतुलन और संयोग है, उसी तरह परिपूर्ण संस्कृति विज्ञान और धर्म के बीच संतुलन और संयोग होगी। विज्ञान उसका शरीर होगा, धर्म उसकी आत्मा होगी।

लेकिन यह मैं आपसे कह दूं, अगर कोई मुझसे यह पूछे कि अगर विकल्प ऐसे हों कि हमें धर्म और विज्ञान में से चुनना है, तो मैं कहूंगा कि हम धर्म को चुनने को राजी हैं। अगर कोई मुझसे यह कहे कि विज्ञान और धर्म में से चुनाव करना है, दोनों नहीं हो सकते, तो मैं कहूंगा, हम धर्म को लेने को राजी हैं। हम दरिद्र रहना और असुविधा से रहना पसंद करेंगे, लेकिन मनुष्य की अंतरात्मा को खोना पसंद नहीं करेंगे।

उन सुविधाओं का क्या मूल्य है, जो हमारे स्वत्व को छीन लें! और उस संपत्ति का क्या मूल्य है, जो हमारे स्वरूप से हमें वंचित कर दे! वस्तुतः न वह संपत्ति है, न वह सुविधा है।

मैं एक छोटी-सी कहानी कहूं, मुझे बहुत प्रीतिकर रही। मैंने सुना है, एक बार यूनान का एक बादशाह बीमार पड़ा। वह इतना बीमार पड़ा कि डाक्टरों ने और चिकित्सकों ने कहा कि अब वह बच नहीं सकेगा। उसकी बचने की कोई उम्मीद न रही। उसके मंत्री और उसके प्रेम करने वाले बहुत चिंतित और परेशान हुए। गांव में तभी एक फकीर आया और किसी ने कहा, ‘उस फकीर को अगर लाएं, तो लोग कहते हैं, उसके आशीर्वाद से भी बीमारियां ठीक हो जाती हैं।’

वे उस फकीर को लेने गए। वह फकीर आया। उसने आते ही उस बादशाह को कहा, ‘पागल हो? यह कोई बीमारी है? यह कोई बीमारी नहीं है। इसका तो बड़ा सरल इलाज है।’ वह बादशाह, जो महीनों से बिस्तर पर पड़ा था, उठकर बैठ गया। और उसने कहा, ‘कौन-सा इलाज? हम तो सोचे कि हम गए! हमें बचने की कोई आशा नहीं रही है।’ उसने कहा, ‘बड़ा सरल-सा इलाज है। आपके गांव में से किसी शांत और समृद्ध आदमी का कोट लाकर इन्हें पहना दिया जाए। ये स्वस्थ और ठीक हो जाएंगे।’

वजीर भागे, गांव में बहुत समृद्ध लोग थे। उन्होंने एक-एक के घर जाकर कहा कि हमें आपका कोट चाहिए, एक शांत और समृद्ध आदमी का। उन समृद्ध लोगों ने कहा, ‘हम दुखी हैं। कोट! हम अपना प्राण दे सकते हैं; कोट की कोई बात नहीं है। बादशाह बच जाए, हम सब दे सकते हैं। लेकिन हमारा कोट काम नहीं करेगा। क्योंकि हम समृद्ध तो हैं, लेकिन शांत नहीं हैं।’

वे गांव में हर आदमी के पास गए। वे दिनभर खोजे और सांझ को निराश हो गए और उन्होंने पाया कि बादशाह का बचना मुश्किल है, यह दवा बड़ी महंगी है। सुबह उन्होंने सोचा था, ‘दवा बहुत आसान है।’ सांझ उन्हें पता चला, ‘दवा बहुत मुश्किल है, इसका मिलना संभव नहीं है।’ वे सब बड़े लोगों के पास हो आए थे। सांझ को वे थके-मांदे उदास लौटते थे। सूरज डूब रहा था। गांव के बाहर, नदी के पास एक चट्टान के किनारे एक आदमी बांसुरी बजाता था। वह इतनी संगीतपूर्ण थी और इतने आनंद से उसमें लहरें उठ रही थीं कि उन वजीरों में से एक ने कहा, ‘हम अंतिम रूप से इस आदमी से और पूछ लें, शायद यह शांत हो।’

वे उसके पास गए और उन्होंने उससे कहा कि ‘तुम्हारी बांसुरी की ध्वनि में, तुम्हारे गीत में इतना आनंद और इतनी शांति मालूम होती है कि क्या हम एक निवेदन करें? हमारा बादशाह बीमार है और एक ऐसे आदमी के कोट की जरूरत है, जो शांत और समृद्ध हो।’ उस आदमी ने कहा, ‘मैं अपने प्राण दे दूं। लेकिन जरा गौर से देखो, मेरे पास कोट नहीं है।’ उन्होंने गौर से देखा, अंधकार था, वह आदमी नंगा बांसुरी बजा रहा था।

उस बादशाह को नहीं बचाया जा सका। क्योंकि जो शांत था, उसके पास समृद्धि नहीं थी। और जो समृद्ध था, उसके पास शांति नहीं थी। और यह दुनिया भी नहीं बचायी जा सकेगी, क्योंकि जिन कौमों के पास शांति की बातें हैं, उनके पास समृद्धि नहीं है। और जिन कौमों के पास समृद्धि है, उनके पास शांति का कोई विचार नहीं है। वह बादशाह मर गया, यह कौम भी मरेगी मनुष्य की।

इलाज वही है, जो उस बादशाह का इलाज था। वह इस मनुष्य की पूरी संस्कृति का भी इलाज है। हमें कोट भी चाहिए और हमें शांति भी चाहिए। अब तक हमारे खयाल अधूरे रहे हैं। अब तक हमने मनुष्य को बहुत अधूरे ढंग से सोचा है और हमारी आदतें एक्सट्रीम पर चले जाने की हैं। मनुष्य के मन की सबसे बड़ी बीमारी अति है, एक्सट्रीम है।

कनफ्यूशियस एक गांव में ठहरा हुआ था। वहां किसी ने कनफ्यूशियस को कहा, ‘हमारे गांव में एक बहुत विद्वान, बहुत विचारशील आदमी है। आप उसके दर्शन करेंगे?’ कनफ्यूशियस ने कहा, ‘पहले मैं यह पूछ लूं कि आप उसे बहुत विचारशील क्यों कहते हैं? फिर मैं उसके दर्शन को जरूर चलूंगा।’ उन लोगों ने कहा, ‘वह इसलिए विचारशील है कि वह किसी भी काम को करने के पहले तीन बार सोचता है–तीन बार!’ कनफ्यूशियस ने कहा, ‘वह आदमी विचारशील नहीं है। तीन बार थोड़ा ज्यादा हो गया। एक बार कम होता है, तीन बार ज्यादा हो गया। दो बार काफी है।’ कनफ्यूशियस ने कहा, ‘वह आदमी विचारशील नहीं है। तीन बार थोड़ा ज्यादा हो गया, एक बार थोड़ा कम होता है। दो बार काफी है। बुद्धिमान वे हैं, जो बीच में रुक जाते हैं। नासमझ अतियों पर चले जाते हैं।’

एक नासमझी यह है कि कोई आदमी अपने को शरीर ही समझ ले। दूसरी नासमझी और उतनी ही बड़ी नासमझी यह है कि कोई आदमी अपने को केवल आत्मा समझ ले। मनुष्य का व्यक्तित्व एक संयोग है। मनुष्य की संस्कृति भी एक संयोग होगी।

और हमें सीख लेना चाहिए। हमारे इतिहास की दरिद्रता और हमारे मुल्क की पराजय और पूरब के मुल्कों का पददलित हो जाना अकारण नहीं है; वह अति, धर्म की अति उसका कारण है। और पश्चिम के मुल्कों का आंतरिक रूप से दरिद्र हो जाना अकारण नहीं है, विज्ञान की अति उसका कारण है। भविष्य सुंदर होगा, अगर विज्ञान और धर्म संयुक्त होंगे।

यह जरूर स्पष्ट है कि विज्ञान और धर्म के संयोग में धर्म केंद्र होगा और विज्ञान परिधि होगा। यह स्पष्ट है कि विज्ञान और धर्म के मेल में धर्म विवेक होगा और विज्ञान उसका अनुचर होगा। शरीर मालिक नहीं हो सकता है, विज्ञान भी मालिक नहीं हो सकता है। मालिक तो धर्म होगा। और तब हम एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकेंगे।

इसलिए यह न पूछें कि वैज्ञानिक युग में धर्म का क्या उपयोग है? वैज्ञानिक युग में ही धर्म का उपयोग है, क्योंकि विज्ञान एक अति है और वह अति खतरनाक है। धर्म उसे संतुलन देगा। और उस अति और उस खतरे से मनुष्य को बचा सकेगा।

इसलिए सारी दुनिया में धर्म के पुनरुत्थान की एक घड़ी बहुत करीब है। यह स्वाभाविक ही है, यह सुनिश्चित ही है, यह एक अनिवार्यता है कि अब धर्म का पुनरुत्थान हो, अन्यथा विज्ञान मृत्यु का कारण बन जाएगा। इसलिए मैं कहूं, विज्ञान के युग में धर्म की क्या आवश्यकता है, यह पूछना तो व्यर्थ है ही। विज्ञान के युग में ही धर्म की सर्वाधिक आवश्यकता है।

उसी से संबद्ध उन्होंने पूछा है कि राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में क्या उपयोग है?

मैं समझता हूं, मेरी इस बात से वह भी आपके खयाल में आया होगा। क्योंकि जिस बात का उपयोग एक मनुष्य के लिए है, उस बात का उपयोग अनिवार्यतया पूरे राष्ट्र और पूरे समाज के लिए होगा। क्योंकि राष्ट्र और समाज क्या हैं? वे मनुष्यों के जोड़ के अतिरिक्त और क्या हैं? तो कोई इस भ्रम में न रहे कि कोई राष्ट्र धर्म के अभाव में जी सकता है।

भारत में यह दुर्भाग्य हुआ। हम कुछ शब्दों को भूल समझ गए। हमने धर्म-निरपेक्ष राज्य की बातें शुरू कर दीं। हमें कहना चाहिए था संप्रदाय-निरपेक्ष और हम कहने लगे धर्म-निरपेक्ष! संप्रदाय-निरपेक्ष होना एक बात है और धर्म-निरपेक्ष होना बिलकुल दूसरी बात है। कोई भी समझदार आदमी संप्रदाय-निरपेक्ष होता है और केवल नासमझ ही धर्म-निरपेक्ष हो सकते हैं।

संप्रदाय-निरपेक्ष होने का मतलब है, हमें जैन से कोई मतलब नहीं है, हमें हिंदू से, हमें बौद्ध से, हमें मुसलमान से कोई मतलब नहीं है। संप्रदाय-निरपेक्ष होने का मतलब यह है। लेकिन धर्म-निरपेक्ष होने का मतलब है कि हमें सत्य से और अहिंसा से और प्रेम से और करुणा से कोई मतलब नहीं है। कोई राष्ट्र धर्म-निरपेक्ष नहीं हो सकता। और जो होगा, उसका दुर्भाग्य है। राष्ट्र को तो धर्मप्राण होना पड़ेगा, धर्म-निरपेक्ष नहीं। हां, संप्रदाय-निरपेक्ष होना बहुत जरूरी है।

दुनिया में धर्म को सबसे ज्यादा नुकसान नास्तिकों ने नहीं पहुंचाया है। दुनिया में धर्म को सबसे ज्यादा नुकसान भौतिकवादी वैज्ञानिकों ने नहीं पहुंचाया है। दुनिया में सबसे बड़ा धर्म को नुकसान धार्मिक सांप्रदायिकों ने पहुंचाया है। उन लोगों ने, जिनका आग्रह धर्म पर कम है, जैन पर ज्यादा है; उन लोगों ने, जिनका आग्रह धर्म पर कम है, हिंदू पर ज्यादा है; जिनका आग्रह धर्म पर कम है और इस्लाम पर ज्यादा है। उन लोगों ने इस दुनिया को धर्म से वंचित किया है। संप्रदाय, जो कि धर्म के शरीर होने चाहिए थे, धर्म के हत्यारे साबित हुए हैं।

और इसलिए धर्म का तो बहुत उपयोग है, संप्रदायों का कोई उपयोग नहीं है। संप्रदाय और सांप्रदायिकता जितनी क्षीण हो, उतना अर्थपूर्ण होगा, उतनी उपयोगिता होगी।

और यह असंभव है कि कोई कौम या कोई राष्ट्र या कोई समाज धर्म के आधारों के बिना खड़ा हो जाए। यह कैसे संभव है? क्या यह संभव है कि हम प्रेम के आधारों के बिना खड़े हो जाएं? क्या कोई राष्ट्र राष्ट्र बन सकता है प्रेम के आधारों के बिना? और क्या कोई राष्ट्र सत्य के आधारों के बिना राष्ट्र बन सकता है? या कि कोई राष्ट्र त्याग, अपरिग्रह, अहिंसा, अभय, इनके आधारों के बिना राष्ट्र बन सकता है?

ये तो बुनियादें हैं आत्मा की। इनके अभाव में कोई राष्ट्र नहीं होता, न कोई समाज होता है। और अगर वैसा समाज हो और वैसा राष्ट्र हो, तो उसमें जिसमें थोड़ा भी विवेक है, वह उसे मनुष्यों का यांत्रिक समूह कहेगा, वह उसे राष्ट्र नहीं कह सकेगा।

राष्ट्र बनता है अंतर्संबंधों से, इंटर-रिलेशनशिप से। मेरा जो आपसे संबंध है, आपका जो आपके पड़ोसी से संबंध है, उन सारे अंतर्संबंधों का नाम राष्ट्र है। वे अंतर्संबंध जितने सत्य पर, प्रेम पर, अहिंसा पर, परमात्मा पर खड़े होंगे, उतने राष्ट्र के जीवन में सुवास होगी; उतने राष्ट्र के जीवन में आलोक होगा; उतने राष्ट्र के जीवन में अंधकार कम होगा।

तो मैं कहूं, राष्ट्र और समाज, उनके प्राण धर्म पर ही प्रतिष्ठित हो सकते हैं। धर्म-निरपेक्ष शब्द से थोड़ा-सा सावधान होने की जरूरत है। पूरे राष्ट्र को सावधान होने की जरूरत है। उस शब्द की आड़ में बहुत खतरा है। उस शब्द की आड़ में हो सकता है, हम समझें, धर्म की कोई जरूरत नहीं है। धर्म की ही एकमात्र जरूरत है मनुष्य के जीवन में। और सारी बातें गौण हैं और छोड़ी जा सकती हैं। धर्म अकेली ऐसी कुछ चीज है, जो नहीं छोड़ी जा सकती है।

यह मैं समझता हूं, आपके प्रश्न को हल करने में सहयोगी होगी बात।

एक और मित्र ने पूछा है, साधना में ध्यान किसका करना है?

 

सामान्य रूप से ध्यान के संबंध में जो भी विचार प्रचलित हैं, उसमें हम ध्यान को ‘किसी के ध्यान’ के रूप में खयाल करते हैं। किसी का ध्यान करेंगे। इसलिए स्वाभाविक यह प्रश्न उठता है कि ध्यान किसका? प्रार्थना किसकी? आराधना किसकी? प्रेम किससे?

मैंने सुबह आपको एक बात कही। एक प्रेम है, जिसमें हम पूछते हैं, प्रेम किससे? और एक प्रेम है, जिसमें हम यह पूछते हैं, प्रेम मेरे भीतर है या नहीं? किससे कोई संबंध नहीं है।

तो मैंने कहा, प्रेम की दो अवस्थाएं हैं। एक, लव एज ए रिलेशनशिप, प्रेम एक संबंध की तरह। और एक प्रेम, एज ए स्टेट आफ माइंड, प्रेम मनोस्थिति की तरह। पहले प्रेम में हम पूछते हैं, ‘किससे?’ अगर मैं आपसे कहूं, मैं प्रेम करता हूं; तो आप पूछेंगे, ‘किससे?’ और मैं अगर यह कहूं कि ‘किससे का कोई सवाल नहीं। मैं बस प्रेम करता हूं।’ तो आपको दिक्कत होगी। लेकिन दूसरी बात ही समझने की है।

वही आदमी प्रेम करता है, जो बस प्रेम करता है और किसका कोई सवाल नहीं है। क्योंकि जो आदमी ‘किसी से’ प्रेम करता है, वह शेष से क्या करेगा? वह शेष के प्रति घृणा से भरा होगा। जो आदमी ‘किसी का ध्यान’ करता है, वह शेष के प्रति क्या करेगा? शेष के प्रति मूर्च्छा से घिरा होगा। हम जिस ध्यान की बात कर रहे हैं, वह किसी का ध्यान नहीं है, ध्यान की एक अवस्था है। अवस्था का मतलब यह है। ध्यान का मतलब, किसी को स्मरण में लाना नहीं है। ध्यान का मतलब, सब जो हमारे स्मरण में हैं, उनको गिरा देना है; और एक स्थिति लानी है कि केवल चेतना मात्र रह जाए, केवल कांशसनेस मात्र रह जाए, केवल अवेयरनेस मात्र रह जाए।

यहां हम एक दीया जलाएं और यहां से सारी चीजें हटा दें, तो भी दीया प्रकाश करता रहेगा। वैसे ही अगर हम चित्त से सारे आब्जेक्ट्स हटा दें, चित्त से सारे विचार हटा दें, चित्त से सारी कल्पनाएं हटा दें, तो क्या होगा? जब सारी कल्पनाएं और सारे विचार हट जाएंगे, तो क्या होगा? चेतना अकेली रह जाएगी। चेतना की वह अकेली अवस्था ध्यान है।

ध्यान किसी का नहीं करना होता है। ध्यान एक अवस्था है, जब चेतना अकेली रह जाती है। जब चेतना अकेली रह जाए और चेतना के सामने कोई विषय, कोई आब्जेक्ट न हो, उस अवस्था का नाम ध्यान है। मैं ध्यान का उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूं।

जो हम प्रयोग करते हैं, वह ठीक अर्थों में ध्यान नहीं, धारणा है। ध्यान तो उपलब्ध होगा। जो हम प्रयोग कर रहे हैं–समझ लें, रात्रि को हमने प्रयोग किया चक्रों पर, सुबह हम प्रयोग करते हैं श्वास पर–यह सब धारणा है, यह ध्यान नहीं है। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी, श्वास भी विलीन हो जाएगी। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी कि शरीर भी विलीन हो जाएगा, विचार भी विलीन हो जाएंगे। जब सब विलीन हो जाएगा, तो क्या शेष रहेगा? जो शेष रहेगा, उसका नाम ध्यान है। जब सब विलीन हो जाएंगे, तो जो शेष रह जाएगा, उसका नाम ध्यान है। धारणा किसी की होती है और ध्यान किसी का नहीं होता।

तो धारणा हम कर रहे हैं, चक्रों की कर रहे हैं, श्वास की कर रहे हैं। आप पूछेंगे कि बेहतर न हो कि हम ईश्वर की धारणा करें? बेहतर न हो कि हम किसी मूर्ति की धारणा करें?

वह खतरनाक है। वह खतरनाक इसलिए है कि मूर्ति की धारणा करने से वह अवस्था नहीं आएगी, जिसको मैं ध्यान कह रहा हूं। मूर्ति की धारणा करने से मूर्ति ही आती रहेगी। और जितनी मूर्ति की धारणा घनी होती जाएगी, उतनी मूर्ति ज्यादा आने लगेगी।

रामकृष्ण को ऐसा हुआ था। वे काली के ऊपर ध्यान करते थे, धारणा करते थे। फिर धीरे-धीरे उनको ऐसा हुआ कि काली के उनको साक्षात होने लगे अंतस में। आंख बंद करके वह मूर्ति सजीव हो जाती। वे बड़े रसमुग्ध हो गए, बड़े आनंद में रहने लगे। फिर वहां एक संन्यासी का आना हुआ। और उस संन्यासी ने कहा कि ‘तुम यह जो कर रहे हो, यह केवल कल्पना है, यह सब इमेजिनेशन है। यह परमात्मा का साक्षात नहीं है।’ रामकृष्ण ने कहा, ‘परमात्मा का साक्षात नहीं है? मुझे साक्षात होता है काली का।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘काली का साक्षात परमात्मा का नहीं है।’

किसी को काली का होता है, किसी को क्राइस्ट का होता है, किसी को कृष्ण का होता है। ये सब मन की ही कल्पनाएं हैं। परमात्मा के साक्षात का कोई रूप नहीं है। और परमात्मा का कोई चेहरा नहीं है, और परमात्मा का कोई ढंग नहीं है, और कोई आकार नहीं है। जिस क्षण चेतना निराकार में पहुंचती है, उस क्षण वह परमात्मा में पहुंचती है।

परमात्मा का साक्षात नहीं होता है, परमात्मा से सम्मिलन होता है। आमने-सामने कोई खड़ा नहीं होता कि इस तरफ आप खड़े हैं, उस तरफ परमात्मा खड़े हुए हैं! एक घड़ी आती है कि आप लीन हो जाते हैं समस्त सत्ता के बीच, जैसे बूंद सागर में गिर जाए। और उस घड़ी में जो अनुभव होता है, वह अनुभव परमात्मा का है।

परमात्मा का साक्षात या दर्शन नहीं होता। परमात्मा के मिलन की एक अनुभूति होती है, जैसे बूंद को सागर में गिरते वक्त अगर हो, तो होगी।

तो उस संन्यासी ने कहा, ‘यह तो भूल है। यह तो कल्पना है।’ और उसने रामकृष्ण से कहा कि ‘अपने भीतर जिस भांति इस मूर्ति को आपने खड़ा किया है, उसी भांति इसको दो टुकड़े कर दें। एक कल्पना की तलवार उठाएं और मूर्ति के दो टुकड़े कर दें।’

रामकृष्ण बोले, ‘तलवार! वहां कैसे तलवार उठाऊंगा?’ उस संन्यासी ने कहा, ‘जिस भांति मूर्ति को बनाया, वह भी एक धारणा है। तलवार की भी धारणा करें और तोड़ दें। कल्पना से कल्पना खंडित हो जाए। जब मूर्ति गिर जाएगी और कुछ शेष न रह जाएगा–जगत तो विलीन हो गया है, अब एक मूर्ति रह गयी है, उसको भी तोड़ दें–जब खाली जगह रह जाएगी, तो परमात्मा का साक्षात होगा।’ उसने कहा, ‘जिसको आप परमात्मा समझे हैं, वह परमात्मा नहीं है। परमात्मा को पाने में लास्ट हिंड्रेंस, वह आखिरी अवरोध है, उसको और गिरा दें।’

रामकृष्ण को बड़ा कठिन पड़ा। जिसको इतने प्रेम से संवारा, जिस मूर्ति को वर्षों साधा, जो मूर्ति बड़ी मुश्किल से जीवित मालूम होने लगी, उसको तोड़ना! वे बार-बार आंख बंद करते और वापस लौट आते और वे कहते कि ‘यह कुकृत्य मुझसे नहीं हो सकेगा!’ उस संन्यासी ने कहा, ‘नहीं हो सकेगा, तो परमात्मा का सान्निध्य नहीं होगा।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘परमात्मा से तुम्हारा प्रेम थोड़ा कम है। एक मूर्ति को तुम परमात्मा के लिए हटाने के लिए राजी नहीं हो!’ उसने कहा, ‘परमात्मा से तुम्हारा प्रेम थोड़ा कम है। एक मूर्ति को तुम परमात्मा के लिए हटाने को राजी नहीं हो!’

हमारा भी परमात्मा से प्रेम बहुत कम है। हम भी बीच में मूर्तियां लिए हुए हैं, और संप्रदाय लिए हुए हैं, और ग्रंथ लिए हुए हैं। और कोई उनको हटाने को राजी नहीं है।

उसने कहा कि ‘तुम बैठो ध्यान में और मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। और जब तुम्हें भीतर लगे कि मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट रहा हूं, एक हिम्मत करना और दो टुकड़े कर देना।’ रामकृष्ण ने वह हिम्मत की और जब उनकी हिम्मत पूरी हुई, उन्होंने मूर्ति के दो टुकड़े कर दिए। तो लौटकर उन्होंने कहा, ‘आज पहली दफा समाधि उपलब्ध हुई। आज पहली दफा जाना कि सत्य क्या है। आज पहली दफे कल्पना से मुक्त हुए और सत्य में प्रविष्ट हुए।’

तो इसलिए मैं किसी कल्पना करने को नहीं कह रहा हूं। कल्पना का मतलब यह, किसी ऐसी कल्पना को करने को नहीं कह रहा हूं, जो कि बाधा हो जाए। और जो थोड़ी-सी बातें मैंने कही हैं–जैसे चक्रों की, जैसे श्वास की–इनसे कोई बाधाएं नहीं, क्योंकि इनसे कोई प्रेम पैदा नहीं होता। और इनसे कोई मतलब नहीं है। ये केवल कृत्रिम उपाय हैं, जिनके माध्यम से भीतर प्रवेश हो जाएगा। और ये बाधाएं नहीं हो सकते हैं।

तो केवल उन कल्पनाओं के प्रयोग की बात कर रहा हूं, जो अंततः ध्यान में प्रवेश होने में बाधा न बन जाएं। इसलिए मैंने किसी का ध्यान करने को आपको नहीं कहा है, सिर्फ ध्यान में जाने को कहा है। ध्यान करने को नहीं, ध्यान में जाने को कहा है। किसी का ध्यान नहीं करना है, अपने भीतर ध्यान में पहुंचना है। इसे थोड़ा स्मरण रखेंगे, तो बहुत-सी बातें साफ हो सकेंगी।

एक मित्र ने पूछा है, आत्मिक शक्तियां उच्च होते हुए भी सांसारिक रुचियों के सम्मुख परास्त क्यों हो जाती हैं?

 

ज तक नहीं हुईं। आज तक आध्यात्मिक रुचियां सांसारिक रुचियों के सामने कभी परास्त नहीं हुई हैं। आप कहेंगे, गलत कह रहा हूं, क्योंकि आपको अपने भीतर रोज पराजय मालूम होती होगी। लेकिन मैं आपको कहूं, आपको आध्यात्मिक रुचि है? जो पराजित होती है, वह है ही नहीं, सिर्फ एक आध्यात्मिक विचार है सुना हुआ। कोई अगर यह कहे कि हीरों की मौजूदगी में भी, कंकड़ों के सामने हीरे पराजित हो जाते हैं, तो हम क्या कहेंगे! हम कहेंगे, हीरे वहां होंगे ही नहीं। हीरे काल्पनिक होंगे और कंकड़ असली होंगे। तो हीरे हार जाएंगे और कंकड़ जीत जाएंगे। और हीरे अगर वास्तविक हुए, तो कंकड़ों के सामने कैसे हार जाएंगे?

आप सोचते होंगे कि हमारे जीवन में तो सांसारिक वृत्तियां हमारी सब आध्यात्मिक वृत्तियों को पराजित कर देती हैं। आध्यात्मिक वृत्तियां कहां हैं? तो जो पराजय मालूम होती है, वह केवल काल्पनिक है। दूसरा पक्ष मौजूद ही नहीं है।

आप निरंतर सोचते होंगे कि घृणा जीत जाती है और प्रेम हार जाता है। लेकिन प्रेम है कहां? आप सोचते होंगे, धन को पाने की आकांक्षा जीत जाती है और परमात्मा को पाने की आकांक्षा हार जाती है; वह है कहां? अगर वह हो, तो कोई आकांक्षा उसके सामने जीत नहीं सकती। वह अगर हो, तो कोई आकांक्षा टिक भी नहीं सकती, जीतने का तो प्रश्न ही नहीं है।

अगर कोई कहने लगे कि प्रकाश तो है, लेकिन अंधेरा जीत जाता है। तो हम कहेंगे, आप पागल हैं। अगर प्रकाश हो, तो अंधेरा प्रवेश ही नहीं कर सकता। लड़ाई आज तक प्रकाश और अंधेरे में हुई ही नहीं है। आज तक प्रकाश और अंधकार में कोई लड़ाई नहीं हुई, क्योंकि प्रकाश के होते ही अंधेरा मौजूद ही नहीं रह जाता है। यानि वह कभी दूसरा पक्ष नहीं है लड़ाई का, तो जीतेगा क्या? और जीतता वह तभी है, जब प्रकाश मौजूद ही नहीं होता। यानि उसकी जीत प्रकाश की गैर-मौजूदगी में ही है केवल। प्रकाश की मौजूदगी में कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि वह तो विलीन हो जाता है, वह होता ही नहीं है।

जिनको आप सांसारिक वृत्तियां कह रहे हैं, वे अगर आत्मिक वृत्तियां पैदा हो जाएं, तो विलीन हो जाती हैं, पायी नहीं जाती हैं। इसलिए मेरी जो चेष्टा है पूरी, वह यह है कि मैं आपको सांसारिक वृत्तियां विलीन करने पर उतना जोर नहीं दे रहा हूं, जितना मैं जोर इस बात पर दे रहा हूं कि आपमें आत्मिक वृत्ति पैदा हो। यह पाजिटिवली आपके भीतर पैदा हो।

जब विधायक रूप से आत्मवृत्ति पैदा होती है, तो सांसारिक वृत्तियां क्षीण हो जाती हैं। जिसके भीतर प्रेम पैदा होता है, उसके भीतर घृणा विलीन हो जाती है। घृणा और प्रेम में टक्कर कभी नहीं हुई; अभी तक नहीं हुई। जिसके भीतर सत्य पैदा होता है, उसके भीतर असत्य विलीन हो जाता है। असत्य और सत्य में टक्कर आज तक नहीं हुई। जिसके भीतर अहिंसा पैदा होती है, उसकी हिंसा विलीन हो जाती है। अहिंसा-हिंसा में टक्कर आज तक नहीं हुई। पराजय का तो प्रश्न ही नहीं है, मुकाबला ही नहीं होता। हिंसा इतनी कमजोर है कि अहिंसा के आते ही क्षीण हो जाती है। अधर्म बहुत कमजोर है, संसार बहुत कमजोर है, अत्यंत कमजोर है।

इसलिए हमारा मुल्क संसार को माया कहता रहा। माया का मतलब है कि जो इतना कमजोर है कि जरा-सा ही छुआ कि विलीन हो जाए। मैजिकल है। जैसे किसी ने झाड़ बता दिया आपको कि यह आम का झाड़ लगा हुआ है। लेकिन वह जादू का झाड़ है। आप पास गए, पाया, वह नहीं है। कहीं रात को एक रस्सी लटकी हुई देखी और आपने समझा सांप है। और आप पास गए और पाया, सांप नहीं है। तो वह जो रस्सी में सांप दिखायी पड़ा था, वह माया था। वह सिर्फ दिख रहा था, था नहीं।

इसलिए हमारा मुल्क इस संसार को माया कहता है, क्योंकि जो इसके करीब जाएगा, वह पाएगा सत्य को देखते ही से कि संसार है ही नहीं। जिसको हम संसार कह रहे हैं, उसने आज तक सत्य का मुकाबला नहीं किया है।

इसलिए जब आपको लगता है कि हमारी आध्यात्मिक वृत्तियां हार जाती हैं, तो एक बात स्मरण रखें, वे वृत्तियां आपकी काल्पनिक होंगी, किताबों में पढ़कर सीख ली होंगी। वे आपके भीतर हैं नहीं।

बहुत लोग हैं! एक व्यक्ति मेरे पास आए। वे मुझसे पूछते थे कि ‘पहले ऐसा होता था कि मुझे भगवान का अनुभव होने लगा था, अब मुझे नहीं होता!’ मैंने उनसे कहा, ‘वह कभी नहीं हुआ होगा। यह आज तक कभी हुआ है कि भगवान का अनुभव होने लगे और फिर वह न हो?’ मुझे अनेक लोग आते हैं, वे कहते हैं, ‘पहले हमारा ध्यान लग जाता था, अब नहीं लगता।’ मैंने कहा, ‘वह कभी नहीं लगा होगा। क्योंकि यह असंभव है कि वह लग गया हो और फिर न लगा हो जाए।’

जीवन में श्रेष्ठ सीढ़ियां पायी जा सकती हैं, खोयी नहीं जा सकती हैं। इसको स्मरण रखें। जीवन में श्रेष्ठ सीढ़ियां पायी जा सकती हैं, खोयी नहीं जा सकतीं। खोने का कोई रास्ता नहीं है। ज्ञान लिया जा सकता है, उपलब्ध किया जा सकता है, खोया नहीं जा सकता। यह असंभव है

पर होता क्या है, हमारे भीतर शिक्षा से, संस्कारों से कुछ धार्मिक बातें पैदा हो जाती हैं। उनको हम धर्म समझ लेते हैं। वे धर्म नहीं हैं, वे केवल संस्कार मात्र हैं। संस्कार और धर्म में भेद है। बचपन से आपको सिखाया जाता है कि आत्मा है। आप भी सीख जाते हैं। रट लेते हैं। याद हो जाता है। यह आपकी मेमोरी का, स्मृति का हिस्सा हो जाता है। बाद में आप भी कहने लगते हैं, आत्मा है। और आप समझते हैं कि हम जानते हैं कि भीतर आत्मा है।

आप बिलकुल नहीं जानते। एक सुना हुआ खयाल है, एक झूठी बात है, जो दूसरे लोगों ने आपको सिखा दी है। आपको बिलकुल पता नहीं है। फिर अगर यह आत्मा आपकी वासना के सामने हार जाए, तो आप कहेंगे, ‘बड़ी कमजोर है आत्मा कि वासना के सामने हार जाती है!’

यह आत्मा आपके पास है ही नहीं। सिर्फ एक खयाल आपके भीतर है। और वह खयाल समाज ने पैदा कर दिया है, वह भी आपका नहीं है। अपने अनुभव से जब आत्मिक शक्तियों की ऊर्जा जागती है, तो संसार की शक्तियां तिरोहित हो जाती हैं। वे फिर नहीं पकड़ती हैं।

इसे स्मरण रखें। और जब तक पराजय होती हो, तब तक समझें कि जिसे आपने धर्म समझा है, वह सुना हुआ धर्म होगा, जाना हुआ धर्म नहीं है। किसी ने बताया होगा, आपने अनुभव नहीं किया है। मां-बाप से सुना होगा। परंपराओं ने आपसे कहा है, आपके भीतर घटित नहीं हुआ है। यानि प्रकाश, आप सोचते हैं कि है; है नहीं, इसलिए अंधकार जीत जाता है। और जब प्रकाश होता है, उसका होना ही अंधकार की पराजय है। अंधकार से प्रकाश लड़ता नहीं है, उसका होना ही, उसका एक्झिस्टेंस मात्र, उसकी सत्ता मात्र अंधकार की पराजय है।

इसे स्मरण रखें। और जो थोथी धार्मिक प्रवृत्तियां, आध्यात्मिक प्रवृत्तियां हारती हों, उन्हें थोथा समझकर बाहर फेंक दें। उनका कोई मतलब नहीं है। वास्तविक वृत्तियों को पैदा करने की समझ तभी आपमें आएगी, जब थोथी वृत्तियों को फेंकने की समझ आ जाए।

हममें से बहुत-से लोग अत्यंत काल्पनिक चीजों को ढोते रहते हैं, जो उनके पास नहीं हैं। यानि हम ऐसे भिखमंगों में से हैं, जो अपने को बादशाह समझे रहते हैं, जो कि हम नहीं हैं। इसलिए जब खीसे में हाथ डालते हैं और पैसे नहीं पाते हैं, तो हम कहते हैं, ‘यह बादशाहत कैसी है!’ वह बादशाहत है ही नहीं। भिखमंगों को एक शौक होता है, बादशाह के सपने देख लेने का। और सभी भिखमंगे जमीन पर बादशाह होने के सपने देखते रहते हैं।

तो जितने हम सांसारिक होते हैं, उतने ही धार्मिक होने के सपने भी देखते हैं। सपनों की कई तरकीबें हैं। सुबह मंदिर हो आते हैं। कभी कुछ थोड़ा दान-दक्षिणा भी करते हैं। कभी व्रत-उपवास भी रख लेते हैं। कभी कोई गीता, कुरान, बाइबिल भी पढ़ लेते हैं। तो यह भ्रम पैदा होता है कि हम धार्मिक हैं। ये सब धार्मिक होने का भ्रम पैदा करने के रास्ते हैं। और फिर जब ये धार्मिक प्रवृत्तियां जरा-सी सांसारिक प्रवृत्ति के सामने हार जाती हैं, तो बड़ा क्लेश होता है, बड़ा पश्चात्ताप होता है। और हम सोचते हैं, ‘धार्मिक प्रवृत्तियां कितनी कमजोर हैं और सांसारिक प्रवृत्तियां कितनी प्रबल हैं!’ आपमें धार्मिक प्रवृत्तियां हैं ही नहीं। धार्मिक होने का आप धोखा अपने को दे रहे हैं।

तो जो प्रवृत्ति हारती हो वासना के समक्ष, उसे जानना कि वह मिथ्या है। यह कसौटी है। जो आध्यात्मिक प्रवृत्ति सांसारिक प्रवृत्ति के सामने हारती हो, इसे कसौटी समझना कि वह मिथ्या है, वह झूठी है। जिस दिन कोई ऐसी प्रवृत्ति भीतर पैदा हो जाए कि जिसके मौजूद होते ही सांसारिक प्रवृत्तियां विलीन हो जाएं, खोजे से न मिलें, उस दिन समझना कि कुछ घटित हुआ है; किसी धर्म का अवतरण हुआ है।

सुबह सूरज ऊग आए और अंधेरा वैसे ही का वैसा बना रहे, तो हम समझेंगे कि सपने में देख रहे हैं कि सूरज ऊग आया है। जब सूरज ऊगता है, अंधकार अपने आप विलीन हो जाता है। आज तक सूरज का अंधकार से मिलना नहीं हुआ है। अभी तक सूरज को पता नहीं है कि अंधकार भी होता है। उसको पता हो भी नहीं सकता है। आज तक आत्मा को पता नहीं है कि वासना होती भी है। जिस दिन आत्मा जागती है, वासना पायी नहीं जाती। उनकी अभी तक मुलाकात नहीं हुई है।

इसे स्मरण रखें। इसे कसौटी की तरह स्मरण रखें। वह कसौटी उपयोगी होगी।

एक मित्र ने पूछा है कि साधना में तपश्चर्या की जरूरत है या नहीं?

मैं जो आपको कह रहा हूं–शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि, भाव-शुद्धि, शरीर-शून्यता, विचार-शून्यता, भाव-शून्यता–यह तपश्चर्या है।

तपश्चर्या से लोग क्या समझते हैं? कोई आदमी धूप में खड़ा है, तपश्चर्या कर रहा है! कोई आदमी कांटों में लेटा हुआ है, तपश्चर्या कर रहा है! कोई आदमी भूखा बैठा हुआ है, तपश्चर्या कर रहा है! तपश्चर्या की हमारी दृष्टियां अत्यंत मैटीरियलिस्टिक हैं, बहुत शारीरिक हैं, हमारी दृष्टि तपश्चर्या की जो है। तपश्चर्या का अर्थ हमारे लिए शरीर-कष्ट है। शरीर को कोई कष्ट दे रहा है, तो तपश्चर्या कर रहा है। जब कि तपश्चर्या का कोई संबंध शरीर के कष्ट से नहीं है। तपश्चर्या बड़ी अदभुत बात है। तपश्चर्या कुछ बात ही और है।

एक आदमी उपवास कर रहा है। हम समझते हैं, तपश्चर्या कर रहा है। वह केवल भूखा मर रहा है। और मैं तो यह भी कहता हूं कि वह उपवास कर ही नहीं रहा है। वह केवल अनाहार है। अनाहार रहना, भोजन न करना एक बात है। उपवास में रहना बिलकुल दूसरी बात है।

उपवास का मतलब है, परमात्मा के निकट निवास। उपवास का अर्थ है, आत्मा के निकट होना। उपवास का अर्थ है, आत्मा के सान्निध्य में होना। और अनाहार का क्या मतलब है? अनाहार का मतलब है, शरीर के सान्निध्य में होना। वे विपरीत बातें हैं।

भूखा आदमी शरीर के सान्निध्य में होता है, आत्मा के सान्निध्य में नहीं। उससे तो पेट भरा हुआ आदमी कम सान्निध्य में होता है शरीर के। क्योंकि भूखा आदमी पूरे वक्त भूख की और पेट की और शरीर के संबंध में सोचता है। उसके चिंतन की धारा शरीर होती है। उसका आंतरिक सान्निध्य शरीर से और रोटी से होता है।

अगर भूखा रहना कोई सदगुण होता, तो दरिद्रता गौरव हो जाती। अगर भूखे मरना कोई आध्यात्मिकता होती, तो दरिद्र मुल्क आध्यात्मिक हो जाते। लेकिन आपको पता है, कोई दरिद्र मुल्क कभी आध्यात्मिक नहीं होता। आज तक नहीं हुआ है। जब कोई कौम समृद्ध होती है, तब वह धार्मिक हो पाती है।

जिन दिनों का आपको स्मरण है, जब ये पूरब के मुल्क धार्मिक थे, भारत धार्मिक था, वे बड़े समृद्धि के, बड़े सुख के, बड़े सौभाग्य के दिन थे। महावीर और बुद्ध राजाओं के पुत्र थे, जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र थे, यह आकस्मिक नहीं है। अभी तक किसी दरिद्र घर में कोई तीर्थंकर क्यों पैदा नहीं हुआ?

पीछे कारण है। अत्यंत समृद्धि में पहली बार तपश्चर्या शुरू होती है। दरिद्र तो शरीर के निकट होता है, समृद्ध शरीर से मुक्त होने लगता है। इस अर्थों में मुक्त होने लगता है कि उसकी जरूरतें तो शरीर की पूरी हो गयी होती हैं और नयी जरूरतों का उसे पहली दफा बोध होता है, जो आत्मा की हैं।

इसलिए मैं भूखे मरने के पक्ष में नहीं हूं, न किसी को भूखे मारने के पक्ष में हूं और न गरीबी को अध्यात्मवाद कहता हूं। जो लोग ऐसा कहते हैं, वे धोखे में हैं और दूसरों को धोखे में डाल रहे हैं। और वे केवल गरीबी का समर्थन कर रहे हैं और संतोष के झूठे रास्ते निकाल रहे हैं।

भूखे रहने का कोई मूल्य नहीं है, उपवास का मूल्य है। हां, यह हो सकता है कि उपवास की हालत में भोजन का स्मरण न रहे और अनाहार हो जाए। यह बिलकुल दूसरी बात है।

महावीर तपश्चर्या करते थे, तो भूखे रहने की नहीं करते थे, उपवास की कर रहे थे। उपवास का मतलब है, वे निरंतर कोशिश कर रहे थे कि आत्मा के सान्निध्य में पहुंच जाऊं। किसी घड़ी जब वे आत्मा के सान्निध्य में पहुंच जाते थे, शरीर का बोध भूल जाता था। ये घड़ियां लंबी हो सकती हैं। एक दिन, दो दिन, महीना भी बीत सकता है।

महावीर के बाबत कहा जाता है, बारह वर्षों की तपश्चर्या में उन्होंने केवल तीन सौ पचास दिन भोजन लिया। महीने और दो-दो महीने भी बिना भोजन के बीते। आप सोचते हैं, भूखे अगर रहते, तो दो महीने बीत सकते थे? भूखा आदमी तो मर जाता। लेकिन महावीर नहीं मरे, क्योंकि शरीर का बोध ही नहीं था उन क्षणों में। आत्मा की इतनी निकटता थी, इतना सान्निध्य था कि शरीर है, इसका भी पता नहीं था।

और यह बड़े रहस्य की बात है। अगर आपको शरीर है, इसका पता न रह जाए, तो शरीर बिलकुल दूसरी व्यवस्था से काम करने लगता है और उसे भोजन की जरूरत नहीं रह जाती। अब यह एक बड़ी वैज्ञानिक बात है। अगर आपको बिलकुल शरीर का बोध न रह जाए, तो शरीर बहुत दूसरी व्यवस्था से काम करने लगता है और उसे भोजन की उतनी जरूरत नहीं रह जाती। और जितना व्यक्ति आत्मिक जीवन में प्रविष्ट होता है, उतना ही वह भोजन से बहुत सूक्ष्म, बहुत सूक्ष्म शक्ति को उत्पन्न करना संभव उसके लिए हो जाता है, जो कि सामान्य व्यक्ति को संभव नहीं होता।

तो महावीर जब भूखे रहे, उसका कुल कारण इतना है कि वे आत्मा के इतने निकट थे कि उन्हें याद नहीं रहा। पीछे संभवतः एक घटना घटी।

एक संन्यासी मेरे पास थे, वे मुझसे एक दिन बोले कि ‘मैं आज उपवास किया हूं।’ मैंने कहा, ‘अनाहार किया होगा, उपवास क्या किया होगा!’ वे बोले, ‘अनाहार और उपवास में क्या फर्क है?’ मैंने कहा, ‘अनाहार में यह है कि हम भोजन छोड़ देते हैं और भोजन का चिंतन करते हैं। और उपवास का अर्थ यह है कि हमें भोजन से कोई मतलब ही नहीं होता, हम आत्मा के चिंतन में होते हैं और भोजन भूल जाता है।’

उपवास तो तपश्चर्या है और अनाहार शरीर-कष्ट है, शरीर-दमन है। अनाहार अहंकारी लोग करते हैं, उपवास निरहंकारी करते हैं। अनाहार में दंभ की तृप्ति होती है, मैं इतने दिन अनाहार रहा! चारों तरफ प्रशंसा और सुख सुनने में आता है। चारों तरफ धार्मिक होने की खबर फैलती है। थोड़े-से शरीर-कष्ट में इतने दंभ की तृप्ति होती है। तो जो बहुत दंभी होते हैं, वे इतना करने को राजी हो जाते हैं।

यह मैं आपसे स्पष्ट कहूं, ये अहंकार की ही वृत्तियां हैं। ये धर्म की वृत्तियां नहीं हैं। धार्मिक व्यक्ति जरूर उपवास करते हैं, अनाहार नहीं करते। उपवास का मतलब यह है कि वे सतत संलग्न होते हैं इस चेष्टा में कि आत्मा की निकटता मिल जाए। और जब वे आत्मा के निकट होने लगते हैं, तो कभी ऐसे मौके आते हैं कि भोजन भूल जाता है, स्मरण नहीं होता।

इसे मैं हर तरह से आपको कहूं, यानि न केवल यह इस मामले में, बल्कि हर मामले में सही है। कल पीछे मैं सेक्स की और प्रेम की बात आपसे कर रहा था या कोई और बात हो। जो आदमी सेक्स के दमन में लगा है, वह हमको तपस्वी मालूम होगा, जब कि वह तपस्वी नहीं है। तपस्वी वह है, जो प्रेम के विकास में लगा है। और प्रेम के विकास से सेक्स अपने आप विलीन हो जाएगा। परमात्मा की निकटता जैसे-जैसे मिलने लगेगी, शरीर के बाबत बहुत-से परिवर्तन हो जाएंगे। शरीर की दृष्टि बदल जाएगी; देह-दृष्टि परिवर्तित हो जाएगी।

तपश्चर्या मैं उस विज्ञान को कहता हूं, जिसके माध्यम से व्यक्ति, ‘मैं देह हूं’, इसे भूलकर, ‘मैं आत्मा हूं’, इसे जानता है। तपश्चर्या एक टेक्नीक की बात है। तपश्चर्या एक टेक्नीक है, एक सेतु है, एक रास्ता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति मैं देह हूं, इसको भूल जाता है और उसे इस बोध का जन्म होता है कि मैं आत्मा हूं।

लेकिन भ्रांत तपश्चर्याएं सारी दुनिया में चली हैं और उन भ्रांत तपश्चर्याओं ने बड़े खतरे पैदा किए हैं। उनसे कुछ दंभियों का दंभ तो तृप्त होता है, लेकिन जन-मानस को नुकसान पहुंचता है। क्योंकि जन-मानस समझता है, यही तपश्चर्या है, यही साधना है, यही योग है। ये कुछ साधनाएं नहीं हैं, कुछ योग नहीं हैं।

और एक बात आपको कह दूं, जो लोग इस तरह से शरीर-दमन में उत्सुक होते हैं, वे कुछ न्यूरोटिक होते हैं, थोड़े-से विक्षिप्त होते हैं। और भी मैं आपको एक बात कहूं कि जो लोग अपने शरीर को कष्ट देने में मजा लेते हैं, ये वे ही लोग हैं, जिन्होंने किसी दूसरे के शरीर को कष्ट देने में मजा लिया होता। और यह केवल परिवर्तन की बात है कि जो कष्ट इन्होंने दूसरों को देने में मजा लिया होता, ये अपने ही शरीर को देकर ले रहे हैं। ये हिंसक लोग हैं। यह आत्महिंसा है। यह अपने साथ हिंसा है।

और यह भी मैं आपको स्मरण दिला दूं, मनुष्य के भीतर दो तरह की वृत्तियां होती हैं। एक उसमें जीवन की वृत्ति होती है कि मैं जीवित रहूं। आपको यह शायद पता न हो, उसमें एक मृत्यु की वृत्ति भी होती है कि मैं मर जाऊं। अगर मृत्यु की वृत्ति न हो, तो दुनिया में आत्महत्याएं नहीं हो सकती हैं। मृत्यु की एक सोयी हुई वृत्ति, एक डेथ इंस्टिंक्ट हर आदमी के भीतर है। ये दोनों उसके साथ बैठी हुई हैं।

वह जो मृत्यु की वृत्ति है, वह अनेक बार आदमी को अपनी ही हत्या करने के लिए उत्सुक करती है। उसमें भी रस आना शुरू हो जाता है। कई लोग एकदम आत्महत्या कर लेते हैं, कुछ लोग धीरे-धीरे करते हैं। जो धीरे-धीरे करते हैं, वे हमें लगते हैं, तपस्वी हैं। जो एकदम कर लेते हैं, हम कहते हैं, उन्होंने आत्महत्या कर ली। जो धीरे-धीरे करते हैं, वे हमें लगते हैं, तपस्वी हैं।

तपश्चर्या आत्महत्या नहीं है। तपश्चर्या का मृत्यु से संबंध नहीं है, अनंत जीवन से संबंध है। तपश्चर्या मरने को नहीं और पूर्ण जीवन को पाने को उत्सुक होती है।

तो तपश्चर्या की मेरी दृष्टि, जो मैंने अभी तीन सूत्र आपसे कहे हैं और तीन सूत्र की और हम चर्चा करेंगे, उन छः सूत्रों से है। उन छः सूत्रों में जो प्रवेश करता है। क्या आप नहीं सोचते, क्या यह तपश्चर्या है कि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को छोड़कर भाग जाए? हम इसको तपश्चर्या कहेंगे, हम इसको संन्यासी कहेंगे! जब कि यह हो सकता है, यह पत्नी को छोड़कर भाग गया हो और पत्नी का चिंतन करता हो। तपश्चर्या यह है कि पत्नी पास बैठी रहे और भूल जाए। तपश्चर्या यह है कि पत्नी पास बैठी रहे और भूल जाए, तपश्चर्या यह नहीं है कि हम भाग जाएं दूर और चिंतन उसका चलता रहे।

और स्मरण रखिए, जो लोग जिन चीजों को छोड़कर भागते हैं, वे लोग उन्हीं चीजों का चिंतन करते रहते हैं। यह असंभव है कि उनको उन्हीं चीजों का चिंतन न चले। क्योंकि अगर वे ऐसे लोग होते कि उन चीजों का चिंतन उन्हें नहीं चलेगा, तो उनकी मौजूदगी में भी नहीं चलता।

और मैं आपको यह भी कहूं, चीजें जब मौजूद होती हैं, तो उनका चिंतन नहीं चलता है; जब वे मौजूद नहीं रह जाती हैं, तब चिंतन चलता है। क्या आपको खुद इसका अनुभव नहीं है? जो मौजूद है, उसका चिंतन नहीं चलता। चिंतन, जो मौजूद नहीं रह जाता, उसका चलता है। जिनको आप प्रेम करते हैं, अगर वे आपके निकट हैं, तो आप उनको भूल जाते हैं; जब वे दूर होते हैं, तो वे याद आने लगते हैं। वे जितने दूर होते हैं, उतनी प्रगाढ़ उनकी स्मृति घनी होने लगती है।

संन्यासी जिनको हम कहते हैं, उनके कष्ट का आपको पता नहीं है। और अगर दुनिया के सारे संन्यासी ईमानदार हों, तो संन्यासी होने का भ्रम टूट जाए। और अगर वे ईमान से अपनी आत्मव्यथा को कह दें, जो उनके भीतर घटित होता है और जो वेदनाएं वे सहते हैं और जिन वासनाओं से वे ग्रसित होते हैं और जो वासनाएं उन्हें पीड़ा देती हैं और जो शैतान उन्हें सताता हुआ मालूम होता है, अगर वे उस सबको खोल दें, तो आपको पता चले कि नर्क जमीन पर और कहीं नहीं हो सकता है। यह मैं इसलिए आपको विश्वास से कह रहा हूं कि नर्क जमीन पर और कहीं नहीं हो सकता है, उस आदमी का जीवन नर्क है, जिसने वृत्तियों का समपरिवर्तन, ट्रांसफार्मेशन तो नहीं किया और जो भाग खड़ा हुआ है।

तपश्चर्या भागना नहीं है, ट्रांसफार्मेशन है। तपश्चर्या रिनंसिएशन नहीं है, ट्रांसफार्मेशन है। तपश्चर्या त्याग नहीं है, समपरिवर्तन है। उस समपरिवर्तन से जो भी घटित हो, वह ठीक है। भागने से, त्यागने से जो भी घटित हो, वह ठीक नहीं है। और काश, हमें यह समझ में आ जाए, तो बहुत लाभ हो सकता है।

लाखों जीवात्माएं कष्ट भोग रही हैं। उनका मजा एक ही है, वह सिर्फ दंभ की तृप्ति का है। वह भी उनमें से थोड़ों का तृप्त हो पाता है, सभी का तृप्त नहीं हो पाता। उसमें जो बहुत प्रतिभाशाली होते हैं किसी कारण से, उनका दंभ तो तृप्त हो जाता है, शेष सिर्फ कष्ट भोगते हैं। लेकिन इस आशा में कि शायद स्वर्ग मिलेगा, शायद नर्क से बच जाएंगे, शायद मोक्ष मिलेगा। वही लोभ जो आपको पकड़े हुए है, उन्हें पकड़े रहता है। और लोभ बहुत-से कष्ट सहने की सामर्थ्य दे देता है। एक साधारण आदमी भी लोभ में बहुत कष्ट सह लेता है। एक साधारण धन का कामी भी कितने कष्ट सहता है धन को पाने में! स्वर्ग के लोभी भी सह लेते हैं।

जब क्राइस्ट को लोग हत्या के लिए सूली पर ले जाने लगे, तो उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘यह तो बता दें, हमने आपके लिए यह सब छोड़ा, भगवान के राज्य में हमारे साथ क्या व्यवहार होगा?’ उसने कहा, ‘हमने आपके लिए सब छोड़ा, भगवान के राज्य में हमारे लिए क्या स्थान होगा? क्या व्यवहार होगा?’ क्राइस्ट ने उसे बहुत दया से देखा होगा और शायद दयावश या मजाक में, पता नहीं उन्होंने क्यों कहा, उन्होंने कहा, ‘भगवान के पास ही तुम्हारे लिए भी स्थान रहेगा।’ वह आदमी खुश हो गया। उसने कहा, ‘तब ठीक है।’

इस आदमी को त्यागी कहिएगा? इससे बड़े लोभी खोजने जमीन पर मुश्किल हैं। जिसने पूछा कि ‘हमने सब छोड़ा और वहां क्या मिलेगा?’ जिसको मिलने का खयाल है, उसने कुछ छोड़ा ही नहीं। इसलिए यह सारी तपश्चर्या वाली जो बातें हैं, इन तपश्चर्या की बात करने वाले हरेक साथ में प्रलोभन भी देते हैं कि इस तपश्चर्या के साथ यह मिलेगा।

वह तपश्चर्या झूठी है, जिसमें मिलने का खयाल है। क्योंकि वह तपश्चर्या ही नहीं है, वह लोभ का एक रूप है। इसलिए जितनी तपश्चर्याएं हैं, आपको सब में साथ लगा हुआ मिलेगा पीछे ही कि इस तपश्चर्या को करने से यह मिलेगा। और जिन-जिन ने यह तपश्चर्या की पीछे इतिहास में, उनको यह-यह मिला है। ये सब ग्रीड के, लोभ के रूप हैं।

तपस्वी वह है, सिर्फ एक ही तपश्चर्या है और वह यह है कि वह स्वयं को जानने में लगे। इस वजह से नहीं कि स्वयं को जानने से कोई स्वर्ग में जगह मिल जाएगी, कोई बहिश्त में जगह मिल जाएगी, कोई बड़ा सुख होगा, बल्कि इसलिए कि स्वयं को न जानना जीवन को ही नहीं जानना है। और स्वयं को न जानना–जिसमें थोड़ा भी बोध है, उसे स्वयं को जानने की वृत्ति का और विचार का पैदा न हो जाना असंभव है। उसे हो ही जाएगा कि वह जाने कि मैं कौन हूं, कि वह परिचित हो कि मेरे भीतर यह जीवन-शक्ति क्या है।

तपश्चर्या जीवन-सत्य को जानने का उपाय है। तपश्चर्या शरीर-दमन नहीं है। हां, यह हो सकता है कि तपस्वी को बहुत-सी बातें घटित होती हों, जो आपको लगती हों कि वह देह-दमन कर रहा है, जब कि वह नहीं कर रहा है।

महावीर की मूर्तियां देखी हैं! उन मूर्तियों से क्या ऐसा लगता है कि इस आदमी ने देह-दमन की होगी? वैसी देहें दिखायी पड़ती हैं?

और फिर महावीर के पीछे चलने वाले संन्यासी देखे हैं! उन्हें देखकर ही लगेगा कि इन्होंने देह-दमन किया है। रूखे, सूख गए उनके प्राणस्रोत हैं। उदास और शिथिल उनकी काया है, वैसा ही चित्त भी शिथिल है। सिर्फ एक लोभ के वश खींचे चले जा रहे हैं। वह आनंद कहां है, वह शांति कहां है, जो महावीर की मूर्ति में दिखायी पड़ती है?

यह थोड़ा विचारणीय है। महावीर के शरीर पर जो भी परिणाम हुए होंगे…। महावीर ने वस्त्र छोड़ दिए। हम सोचे, उन्होंने वस्त्र छोड़ दिए, क्योंकि उन्होंने सोचा कि वस्त्र का त्याग करना चाहिए। नहीं, क्योंकि उन्होंने जाना कि नग्न होने का भी आनंद है।

मैं आपको यह बहुत एम्फेटिकली, बहुत जोर से कहना चाहता हूं। महावीर ने वस्त्र इसलिए नहीं छोड़े कि वस्त्र छोड़ने में कोई आनंद है, वस्त्र इसलिए छोड़े कि नग्न होने में कोई आनंद है। नग्न होना इतना आनंद है कि वस्त्र पहनना कष्ट हो गया। नग्न होना इतना आनंद अनुभव हुआ कि वस्त्र का होना कष्ट हो गया। वस्त्र फेंक दिए।

उनके पीछे चलने वाला संन्यासी जब वस्त्र छोड़ता है, तब उसे वस्त्र छोड़ने में आनंद नहीं होता, वस्त्र छोड़ने में कष्ट होता है। और कष्ट मानकर वह समझता है, मैं तपश्चर्या कर रहा हूं। जैसे-जैसे वस्त्र छोड़ता है, वह समझता है, मैं तपश्चर्या कर रहा हूं। महावीर के लिए वह तपश्चर्या नहीं है, केवल एक आनंद का कृत्य है। उनके पीछे अगर कोई चल रहा हो, बिना उन्हें समझे, उनकी आत्मा को समझे, वह केवल वस्त्र छोड़ेगा। वस्त्र छोड़ना उसके लिए कष्ट होगा, इसलिए इसको वह तपश्चर्या कहेगा।

तपश्चर्या कष्ट नहीं है। तपश्चर्या से बड़ा कोई आनंद नहीं है। लेकिन जो उसे बाहर से पकड़ेंगे, उन्हें वह कष्ट दिखाई पड़ेगी, उन्हें वह पीड़ा मालूम पड़ेगी। और उतनी पीड़ा उठाने के बदले वे अपने दंभ को तृप्त करेंगे जमीन पर और लोभ को तृप्त करेंगे परलोक में। मैं उसको तपश्चर्या नहीं कहता हूं।

तपश्चर्या मन का, देह का सहयोग लेकर अंतस में प्रवेश की विधि है। वह भी इस अर्थों में दुर्गम और दुरूह है कि उसके लिए बहुत संकल्प की जरूरत है।

आप थोड़ा सोचें, अगर मैं बरसात भर भी बाहर खड़ा रहूं, तो क्या उसमें ज्यादा तपश्चर्या है या इसमें कि जब मुझे कोई गाली दे तो मेरे भीतर क्रोध न उठे? मैं कांटों पर लेटा रहूं, उसमें ज्यादा तपश्चर्या है या इसमें कि जब मुझे कोई पत्थर मारे तो मेरे हृदय से भीतर उसको पत्थर मारने की कल्पना न उठे? किस में तपश्चर्या है?

कांटों पर लेटना सर्कस में भी कोई कर सकता है। धूप में खड़ा होना केवल एक अभ्यास है। और थोड़े दिन अभ्यास करने के बाद उसमें कोई मतलब नहीं है। वह बड़ा आसान है। वह बिलकुल आसान है। नग्न रहना एक अभ्यास है। आखिर जमीन पर सारे आदिवासी नग्न रहते हैं। लेकिन उसको हम तपश्चर्या नहीं कहते। और हम जाकर उनके पैर नहीं पड़ते कि आप नग्न हैं, तो आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं! हम जानते हैं, यह उनका अभ्यास है। यह उनके लिए सहज है। इसमें कोई अड़चन नहीं है, कोई कठिनाई नहीं है।

तपश्चर्या मात्र अभ्यास नहीं है कि किसी चीज का अभ्यास कर लिया। लेकिन हम अधिकतर जिनको तपस्वी कहेंगे, उनमें से सौ में से निन्यानबे लोगों की हालत ऐसी है। मुश्किल से कभी कोई वह आदमी मिलेगा, जिसकी तपश्चर्या उसके आनंद का फल है। और जब आनंद का फल होती है तपश्चर्या, तभी वह सत्य होती है। और जब वह दुख की आराधना होती है, तब वह सुसाइडल इंस्टिंक्ट, वह आत्महत्या की वृत्ति का रूपांतर होती है और कुछ भी नहीं होती। वह धार्मिक नहीं है, वह न्यूरोटिक है; वह विक्षिप्त होने की बात है।

और दुनिया में अगर समझ बढ़ेगी, तो ऐसे संन्यासी को हम चिकित्सालय भेजेंगे, मंदिर नहीं। और यह वक्त आएगा जल्दी कि यह समझ पैदा होगी। और हमें ऐसे आदमी का इलाज करवाना पड़ेगा, जो अपने को कष्ट देने में रस ले रहा है।

अगर शरीर के द्वारा भोगने में कोई रस आ रहा है किसी को, वह भी एक बीमार है। और अगर शरीर को दुख देने में किसी को रस आ रहा है, वह उलटे छोर पर वह भी बीमार है। शरीर के माध्यम से अगर भोगने में रस आ रहा है, यह एक बीमारी है, यह भोगी की बीमारी है। और अगर शरीर को कष्ट देने में किसी को रस आ रहा है, यह भी एक बीमारी है, यह विरागी की बीमारी है।

बीमारी से मुक्त वह है, जो शरीर का उपयोग कर रहा है। शरीर से न तो रस ले रहा है, न उसके भोग से, न उसके त्याग से। शरीर केवल एक उपकरण है। उसको दबाकर या उसको फुलाकर, उस पर जिसका न कोई सुख आधारित है, न कोई दुख आधारित है; जिसके आनंद शरीर पर निर्भर नहीं हैं, जिसके आनंद आत्मा पर निर्भर हैं, वह आदमी संन्यास की तरफ गतिमान है। और जिसके आनंद शरीर पर निर्भर हैं…।

तो दो तरह के लोग हैं, जिनके आनंद शरीर पर निर्भर हैं। एक वे लोग, जो ज्यादा खाकर आनंद लेते हैं। एक वे लोग, जो अनाहार रहकर आनंद लेते हैं। लेकिन दोनों शरीर का आनंद ले रहे हैं। यानि अगर उनका कोई भी रस है, तो वह शरीर से बंधा हुआ है।

इसलिए भोगी और इस तल के संन्यासी, दोनों को मैं भौतिकवादी और शरीरवादी कहता हूं। धर्म के इस शरीरवादी रूपांतर से बहुत अहित हुआ है। धर्म को वापस, उसके आत्मिक रूपों को प्रतिष्ठापित करने की जरूरत है।

इसी संबंध में एक अंतिम प्रश्न और। किसी ने पूछा है कि राग और विराग और वीतराग में क्या भेद है?

जो मैंने अभी बात कही, उसे अगर समझेंगे, तो राग का अर्थ है, किसी चीज में आसक्ति; विराग का अर्थ है, उस आसक्ति का विरोध। एक व्यक्ति धन इकट्ठा करता है, यह राग है। और एक आदमी धन को लात मारकर भाग जाता है, यह विराग है।

लेकिन दोनों की दृष्टि धन पर लगी है। जो इकट्ठा कर रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। जो छोड़कर जा रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। एक उसे इकट्ठा करके मजा ले रहा है कि मेरे पास इतना है। इतना है, इससे उसका दंभ परिपूरित हो रहा है। दूसरा इससे दंभ को परिपूरित कर रहा है कि मैंने इतने को छोड़ा है।

आप हैरान होंगे, जिनके पास धन है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना है। और जिन्होंने छोड़ा है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना छोड़ा है। साधुओं और संन्यासियों की फेहरिस्तें निकलती हैं कि उन्होंने कितने उपवास किए हैं! कितने-कितने प्रकार के उपवास किए हैं, सबका हिसाब-किताब रखते हैं। क्योंकि त्याग का भी हिसाब होता है, भोग का भी हिसाब होता है। राग भी हिसाब करता है, विराग भी हिसाब करता है। क्योंकि दोनों की नजर एक है, दोनों का बिंदु एक है, दोनों की पकड़ एक है।

वीतराग का अर्थ विराग नहीं है। वीतराग का अर्थ राग और विराग दोनों से मुक्त होना है। वीतराग का अर्थ है, चित्त की वह स्थिति कि न हम आसक्त हैं, न हम अनासक्त हैं। हमें कोई मतलब ही नहीं है। एक व्यक्ति के पास धन पड़ा हो, उसे कोई मतलब ही नहीं।

कबीर का एक लड़का था, कमाल। कबीर को अत्यंत विराग की आदत थी। कमाल की आदतें उन्हें पसंद नहीं थीं। कमाल को कोई भेंट कर जाता कुछ, तो कमाल रख लेता। कबीर ने उसे कई बार कहा कि ‘किसी की भेंट स्वीकार मत करो। हमें धन की कोई जरूरत नहीं।’ उसने कहा, ‘अगर धन बेकार है, तो नहीं कहने की भी क्या जरूरत है? अगर धन बेकार है, तो हम उसको मांगने नहीं गए, क्योंकि बेकार है। फिर कोई यहां पटकने आ गया, तो हम उसे नहीं भी नहीं करते, क्योंकि बेकार है।’

कबीर को पसंद नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि ‘तुम अलग रहो।’ उनका विराग इससे खंडित होता था। कमाल अलग कर दिया गया। वह अलग झोपड़े में रहने लगा।

काशी के नरेश मिलने जाते थे। उन्होंने पूछा, ‘कमाल दिखाई नहीं पड़ता!’ कबीर ने कहा, ‘उसके ढंग मुझे पसंद नहीं। आचरण शिथिल है। अलग किया है। अलग रहता है।’ पूछा, ‘क्या कारण है?’ कहा, ‘धन पर लोभ है। कोई कुछ देता है, तो ले लेता है।’

वह राजा गया। उसने एक बहुत बहुमूल्य हीरा जाकर उसके पैर में रखा और नमस्कार किया। कमाल ने कहा, ‘लाए भी तो एक पत्थर लाए!’ कमाल ने कहा, ‘लाए भी तो एक पत्थर लाए!’ राजा को हुआ कि कबीर तो कहते थे कि उसका मोह है। और वह तो कहता है कि लाए भी तो एक पत्थर लाए! तो वह उठाकर उसे रखने लगा। तो कमाल ने कहा, ‘अगर पत्थर है, तो अब वापस ढोने का कष्ट मत करो।’ कमाल ने कहा, ‘अगर पत्थर है, तो वापस ढोने का कष्ट मत करो। नहीं तो अब भी तुम उसको हीरा समझ रहे हो।’ राजा बोला, ‘यह तो कुछ चालाकी की बात है।’ फिर उसने कहा कि ‘मैं इसे कहां रख दूं?’ कमाल ने कहा, ‘अगर पूछते हो कि कहां रख दूं, तो फिर पत्थर नहीं मानते। कहां रख दूं पूछते हो, तो फिर पत्थर नहीं मानते। डाल दो। रखने की क्या बात है!’ फिर उसने झोपड़े में खोंस दिया सनोलियों में। वह चला गया। उसने सोचा कि यह तो बेईमानी की बात है। मैं मुड़ा और वह निकाल लिया जाएगा।

वह छः महीने बाद वापस पहुंचा। उसने जाकर कहा कि ‘कुछ समय पहले मैं कुछ भेंट कर गया था।’ कमाल ने कहा, ‘बहुत लोग भेंट कर जाते हैं। और अगर उनकी भेंटों में मतलब होता, तो या तो हम उत्सुकता से उनको रखते या उत्सुकता से लौटाते।’ उसने कहा, ‘अगर उनकी भेंटों में कोई मतलब होता, तो या तो उत्सुकता से हम रखते या उत्सुकता से लौटाते। लेकिन भेंट बेमानी है, इसलिए कौन हिसाब रखता है! जरूर दे गए होगे। तुम कहते हो, तो जरूर दे गए होगे।’ उसने कहा, ‘वह भेंट ऐसी आसान नहीं थी; बहुत बहुमूल्य थी। कहां है वह पत्थर जो मैं दे गया था?’ कमाल ने कहा, ‘यह तो मुश्किल हो गयी। तुम कहां रख गए थे?’

उसने देखा झोपड़े में जाकर, जहां उसने खोंसा था, वह पत्थर वहीं रखा हुआ था। वह हैरान हुआ। उसकी आंख खुली।

यह आदमी अदभुत था। इसके लिए वह पत्थर ही था। इसको मैं वीतरागता कहूंगा। यह विराग नहीं है। यह विराग नहीं है, यह वीतरागता है।

राग है किसी को पकड़ने में रस। विराग है उसी को छोड़ने में रस। वीतरागता का मतलब है, उसका अर्थहीन हो जाना; उसका मीनिंगलेस हो जाना। वीतरागता ही लक्ष्य है। वीतरागता ही लक्ष्य है। जो उसे उपलब्ध होते हैं, वे परम आनंद को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि बाहर से उनके सारे बंधन क्षीण हो जाते हैं।

एक और प्रश्न इस संबंध में है कि मैंने जो साधना की भूमिका कही है, शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि की, क्या उसके बिना ध्यान असंभव है?

नहीं, उसके बिना भी ध्यान संभव है, लेकिन बहुत कम लोगों को संभव है। उसके बिना भी ध्यान संभव है, लेकिन बहुत कम लोगों को संभव है। अगर ध्यान में परिपूर्ण संकल्प से प्रवेश हो, तो इनमें से किसी को भी शुद्ध किए बिना ध्यान में प्रवेश हो सकता है। और प्रवेश होते ही ये सब शुद्ध हो जाएंगे। लेकिन अगर यह संभव न हो, इतना संकल्प जुटाना आसान न हो–बहुत मुश्किल है इतना संकल्प जुटाना–तो फिर क्रमशः इनको शुद्ध करना पड़ेगा।

इनके शुद्ध होने से ध्यान नहीं मिलेगा, इनके शुद्ध होने से संकल्प की प्रगाढ़ता मिलेगी। इनके शुद्ध होने से इनकी अशुद्धि में जो शक्ति व्यय होती है, वह बचेगी और वह शक्ति संकल्प में परिणत होगी और ध्यान में प्रवेश होगा। ये सहयोगी हैं, अनिवार्य नहीं हैं।

तो जिनको भी संभव न मालूम पड़े कि ध्यान में सीधा प्रवेश हो सकता है, उनके लिए अनिवार्य हैं, अन्यथा उनका ध्यान में प्रवेश ही नहीं हो सकेगा। लेकिन अनिवार्य इसलिए नहीं हैं कि अगर किसी में बहुत प्रगाढ़ संकल्प हो, तो एक क्षण में भी बिना कुछ किए ध्यान में प्रवेश हो सकता है। एक क्षण में भी! अगर कोई अपने पूरे प्राणों को इकट्ठा पुकारे और कूद जाए, तो कोई वजह नहीं है कि उसे कोई रोकने को है। कोई रोकने को नहीं है, कोई अशुद्धि रोकने को नहीं है। लेकिन उतने पुरुषार्थ को पुकारना कम लोगों का सौभाग्य है। उतने साहस को जुटा लेना कम लोगों का सौभाग्य है। उतना साहस वे ही लोग जुटा सकते हैं, जैसे मैं एक कहानी कहूं।

एक आदमी था, उसने सोचा कि दुनिया का अंत जरूर कहीं होगा। तो वह खोजने निकला। वह दुनिया का अंत खोजने निकला। वह गया। वह चला। हजारों मील चलना पड़ा। और लोगों से पूछता रहा कि ‘मुझे दुनिया का अंत खोजना है।’

आखिर में एक मंदिर आया और उस मंदिर के वहां लिखा था, ‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड।’ वहां एक तख्ती लगी थी, उस पर लिखा था, ‘यहां दुनिया समाप्त होती है।’ वह बहुत घबरा गया। तख्ती आ गयी। थोड़ी ही दूर में दुनिया समाप्त होती है। नीचे तख्ती के लिखा था, ‘आगे मत जाना।’

लेकिन उसे दुनिया का अंत देखना था, वह आगे गया। थोड़े ही फासले पर जाकर दुनिया समाप्त हो जाती थी। एक किनारा था और नीचे खड्ड था अनंत। उसने जरा ही आंख की, और उसके प्राण कंप गए। वह लौटकर भागा। वह पीछे लौटकर भी नहीं देख सकता। वहां अनंत खड्ड था। छोटे खड्ड घबरा देते हैं; अनंत! दुनिया का अंत था। खड्ड अंतिम था। और फिर उस खड्ड के नीचे कुछ भी नहीं था। उसने देखा और वह भागा।

वह घबराहट में मंदिर के अंदर चला गया और उसने पुजारी से कहा, ‘यह अंत तो बड़ा खतरनाक है।’ उस पुजारी ने कहा, ‘अगर तुम कूद जाते, तो जहां दुनिया समाप्त होती है, वहीं परमात्मा मिल जाता है।’ उसने कहा, ‘अगर तुम कूद ही जाते उस खड्ड में, तो जहां दुनिया समाप्त होती है, वहीं परमात्मा मिल जाता है।’

लेकिन उतना साहस जुटाना कि अनंत खड्ड में कोई कूद जाए, जब तक न हो, तब तक ध्यान के लिए भूमिकाएं जरूरी हैं। और अनंत खड्ड में कूदने के लिए जो राजी है, उसके लिए कोई भूमिका नहीं है। कोई भूमिका होती है क्या? कोई भूमिका नहीं है। इसलिए इन भूमिकाओं को हम बहिरंग साधन कहे हैं। ये बाहर के साधन हैं, थोड़ी सहायता देंगे। साहस जिसमें हो, वह सीधा कूद जाए। न साहस हो, सीढ़ियों का उपयोग करे। यह स्मरण रखेंगे।

ये प्रश्न, इतने ही आज चर्चा हो सकेंगे। फिर कुछ शेष होंगे, उन पर कल हम विचार करेंगे।

आज इतना ही।


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ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–7

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शुद्धि और शून्यता से समाधि फलित—(प्रवचन—सातवां)

 मेरे प्रिय आत्मन्,

साधना की भूमिका के परिधि बिंदुओं पर हमने बात की है। अब हम उसके केंद्रीय स्वरूप पर भी विचार करें।

शरीर, विचार और भाव, इनकी शुद्धि और इनका शुद्ध स्वरूप उपलब्ध करना प्राथमिक भूमिका है। उतना भी हो, तो जीवन में बहुत आनंद फलित होता है। उतना भी हो, तो जीवन में बहुत दिव्यता आती है। उतना भी हो, तो हम अलौकिक से संबंधित हो जाते हैं।

लेकिन वह अलौकिक से संबंध है, अलौकिक में मिलन नहीं। वह अलौकिक से संबंधित होना है, लेकिन अलौकिक से एक हो जाना नहीं। वह परमात्मा को जानना है, लेकिन परमात्मा से सम्मिलित हो जाना नहीं। शुद्धि की भूमिका परमात्मा की तरफ उन्मुख करती है और परमात्मा पर दृष्टि को ले जाती है। उसके बाद शून्य की दृष्टि परमात्मा से मिलन कराती है और परमात्मा से एक कर देती है।

पहली परिधि पर हम सत्य को जानते हैं, दूसरे केंद्र पर हम सत्य हो जाते हैं। अब हम उस दूसरी बात का विचार करें। पहले तत्व को मैंने शुद्धि कहा, दूसरे तत्व को शून्य कह रहा हूं। शून्य के भी तीन चरण होंगे–शरीर पर, विचार पर और भाव पर।

शरीर की शून्यता शरीरत्तादात्म्य का विरोध है। शरीर के साथ हमारा तादात्म्य है, एक आइडेंटिटी है। हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हमारा शरीर है। किसी तल पर हमें प्रतीत होता रहता है, मैं शरीर हूं। मैं शरीर हूं, यह भाव विलीन हो जाए, तो शरीर-शून्यता घटित होगी। शरीर के साथ मेरा तादात्म्य टूट जाए, तो शरीर-शून्यता घटित होगी।

सिकंदर जब भारत से वापस लौटता था, तो उसने चाहा कि वह एक फकीर को भारत से ले जाए, ताकि वह यूनान में दिखा सके कि फकीर, भारतीय फकीर कैसा होता है। यूं तो बहुत फकीर जाने को राजी थे, उत्सुक थे। सिकंदर आमंत्रित करे, शाही सम्मान से ले जाए, तो कौन जाना पसंद न करेगा! लेकिन जो-जो उत्सुक थे, सिकंदर ने उन्हें ले जाना ठीक न समझा। क्योंकि जो उत्सुक थे, इससे ही जाहिर था कि वे फकीर नहीं थे। सिकंदर उस फकीर की कोशिश में रहा, जिसे ले जाना अर्थ का हो।

जब वह सीमांत प्रदेशों से वापस लौटता था, तो एक फकीर का पता चला। लोगों ने कहा, ‘एक साधु है नदी के तट पर, अरण्य में, उसे ले जाएं।’ वह गया। उसने पहले अपने सैनिक भेजे और उस फकीर को कहलवाया। सैनिकों ने जाकर कहा कि ‘तुम्हारा धन्यभाग है। सैकड़ों ने निवेदन किया सिकंदर से कि हमें ले चलो, उसने अभी किसी को चुना नहीं है। और महान सिकंदर की कृपा तुम्हारे ऊपर हुई है और उसने चाहा है कि तुम चलो। शाही सम्मान से तुम्हें यूनान ले जाएं।’ उस फकीर ने कहा, ‘फकीर को ले जाने की ताकत किसी में भी नहीं है।’

सैनिक हैरान हुए। विजेता सिकंदर के सैनिक थे, और एक नंगा फकीर ऐसा कहे! उन्होंने कहा, ‘भूलकर ऐसे शब्द दुबारा मत निकालना, अन्यथा जीवन से हाथ धो बैठोगे।’ उस फकीर ने कहा, ‘जिस जीवन को हम छोड़ चुके, उससे अब छुड़ाने वाला कोई भी नहीं है। और जाकर अपने सिकंदर को कहो, उसको जाकर कहो कि तुम्हारी ताकतें सब जीत लें, उसे नहीं जीत सकती हैं, जिसने अपने को जीत लिया हो।’ उसने कहा, ‘जाकर कहो कि तुम्हारी ताकतें सब जीत लें, लेकिन उसे नहीं जीत सकती हैं, जिसने अपने को जीत लिया हो।’

सिकंदर हैरान हुआ। ये बातें अजीब थीं, लेकिन एक अर्थ में अर्थपूर्ण भी थीं, क्योंकि फकीर से मिलना हो गया था। ऐसे आदमी की तलाश भी थी। सिकंदर खुद गया। उसके हाथ में नंगी तलवार थी। और उसने जाकर उस फकीर को कहा कि ‘अगर नहीं गए, तो शरीर से हम सिर को अलग कर देंगे।’ उसने कहा, ‘कर दो। जिस भांति तुम देखोगे कि तुमने शरीर से सिर अलग कर दिया, उसी भांति हम भी देखेंगे कि शरीर से सिर अलग कर दिया गया है।’ उसने कहा, ‘हम भी देखेंगे और हम भी दर्शक होंगे उस घटना के। लेकिन तुम हमें नहीं मार सकोगे, क्योंकि हम तो केवल दर्शक हैं।’ उसने कहा, ‘हम भी देखेंगे कि शरीर से सिर अलग कर दिया गया है। लेकिन इस भूल में मत रहना कि तुमने हमारा कुछ बिगाड़ा। जहां तक कोई कुछ बिगाड़ सकता है, वहां तक हमारा होना नहीं है।’

इसलिए कृष्ण ने कहा कि जिसे अग्नि न जला सके और जिसे बाण छेद न सकें और जिसे तलवार तोड़ न सके, वैसी कोई सत्ता, वैसी कोई अंतरात्मा हमारे भीतर है। जिसे अग्नि न जला सके और जिसे बाण न बेध सकें, वैसी कोई अविच्छेद सत्ता हमारे भीतर है।

उस सत्ता का बोध और शरीर से तादात्म्य का टूट जाना; यह भाव टूट जाना कि मैं देह हूं, शरीर की शून्यता है। इसे तोड़ने के लिए कुछ करना होगा। इसे तोड़ने के लिए कुछ साधना होगा। और शरीर जितना शुद्ध होगा, उतनी आसानी से शरीर से संबंध विच्छिन्न हो सकता है। शरीर जितनी शुद्ध स्थिति में होगा, उतनी शीघ्रता से यह जाना जा सकता है कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए वह शरीर-शुद्धि भूमिका थी, शरीर-शून्यता उसका चरम फल है।

कैसे हम साधेंगे कि मैं शरीर नहीं हूं? यह अनुभव हो जाए। एक बात, उठते-बैठते, सोते-जागते अगर हम थोड़ा स्मरणपूर्वक देखें, अगर थोड़ी राइट माइंडफुलनेस हो, अगर थोड़ी स्मृति हो शरीर की क्रियाओं के प्रति, तो पहला चरण शून्यता लाने का क्रमशः विकसित होता है।

जब आप रास्ते पर चलते हैं, तो जरा अपने भीतर गौर से देखें, वहां कोई ऐसा भी है, जो नहीं चल रहा है! आप चल रहे हैं, आपके हाथ-पैर चल रहे हैं। आपके भीतर कोई ऐसा तत्व भी है, जो बिलकुल नहीं चल रहा है! जो मात्र आपके चलने को देख रहा है। जब हाथ-पैर में दर्द हो, पैर पर चोट लग गयी हो, तो जरा भीतर सजग होकर देखें, चोट आपको लग गयी है या चोट देह को लगी है और आप चोट को जान रहे हैं! जब कोई पीड़ा हो शरीर पर, तो जरा सजग होकर देखें कि पीड़ा आपको हो रही है या आप केवल पीड़ा के साक्षी हैं, पीड़ा के दर्शक हैं! जब भूख लगे, तो स्मरणपूर्वक देखें, भूख आपको लगी है या देह को लगी है और आप केवल दर्शक हैं! और जब कोई खुशी आए, तो उसको भी देखें और अनुभव करें कि वह खुशी कहां घटित हुई है!

जीवन के उठते-बैठते, चलते-सोते-जागते जो भी घटनाएं हैं, उन सबमें एक स्मृतिपूर्वक इस बात का विवेक और इस बात की निरंतर चेष्टा देखने की कि घटनाएं कहां घट रही हैं? वे मुझ पर घट रही हैं या मैं केवल देखने वाला हूं?

हमारी आदतें तादात्म्य की घनी हैं। अगर आप एक फिल्म भी देखते हों, एक नाटक देखते हों, तो यह हो सकता है कि आप फिल्म या नाटक देखते हुए रोने लगें। यह हो सकता है कि आप हंसने लगें। यह हो सकता है कि जब प्रकाश जले भवन में, तो आप चोरी से अपने आंसू पोंछ लें कि कोई देख न ले। आप रोए, एक चित्र को देखकर आपने तादात्म्य किया। चित्र के किसी नायक से, किसी पात्र से आपने तादात्म्य कर लिया। उस पर पीड़ा घटी होगी, वह पीड़ा आप तक संक्रमित हो गयी और आप रोने लगे।

मनुष्य के अंतस जीवन में भी शरीर पर जो घटित हो रहा है, चेतना उसे ‘मुझ पर हो रहा है’, ऐसा मानकर दुखी और पीड़ित है। सारे दुख का एक ही कारण है कि हमारा शरीर से तादात्म्य है। और सारे आनंद का भी एक ही कारण है कि शरीर से तादात्म्य विच्छिन्न हो जाए, हमें यह स्मरण आ जाए कि हम देह नहीं हैं।

तो उसके लिए सम्यक स्मृति, देह की क्रियाओं के प्रति सम्यक स्मृति, राइट अवेयरनेस, देह की क्रियाओं का सम्यक दर्शन, सम्यक निरीक्षण प्रक्रिया है। देह-शून्यता आएगी देह के प्रति सम्यक निरीक्षण से।

यह निरीक्षण करना जरूरी है। जब रात्रि बिस्तर पर सोने लगें, तो यह स्मरणपूर्वक देखना जरूरी है कि मैं नहीं, मेरी देह बिस्तर पर जा रही है। और जब सुबह बिस्तर से उठने लगें, तो स्मृतिपूर्वक यह स्मरण रखना जरूरी है कि मैं नहीं, मेरी देह बिस्तर से उठ रही है। नींद मैंने नहीं ली है, नींद केवल देह ने ली है। और जब भोजन करें, तो जानें कि भोजन केवल देह ने किया है। और जब वस्त्र पहनें, तो जानें कि वस्त्र केवल देह को ढंकते हैं, मुझे नहीं। और जब कोई चोट करे, तो स्मरणपूर्वक आप जान सकेंगे कि चोट देह पर की गयी है, मुझे नहीं। इस भांति सतत बोध को जगाते-जगाते किसी क्षण विस्फोट होता है और तादात्म्य टूट जाता है।

आप जानते हैं, जब आप स्वप्न में होते हैं, तो आपको अपनी देह की स्मृति नहीं रह जाती है। और आप जानते हैं, जब आप गहरी निद्रा में जाते हैं, तो आपको अपनी देह का पता रह जाता है? क्या आपको अपना चेहरा याद रह जाता है?

आप अपने भीतर जितने गहरे जाते हैं, उतने ही अनुपात में देह भूलती चली जाती है। स्वप्न में देह का पता नहीं होता। और प्रगाढ़ निद्रा में, सुषुप्ति में देह का बिलकुल ही पता नहीं होता है। जब वापस होश आना शुरू होता है, क्रमशः देह का तादात्म्य जागता है। किसी दिन सुबह जब नींद खुल जाए, तो एक क्षण अंदर देखना, आप देह हैं? तो आपको धीरे-धीरे दिखायी पड़ेगा स्पष्ट, देह का तादात्म्य जग रहा है, पैदा हो रहा है।

इस देह के तादात्म्य को तोड़ने के लिए एक प्रयोग है, जो अगर महीने में एक-दो बार आप करते रहें, तो देह के तादात्म्य के तोड़ने में सहयोगी होगा। उस प्रयोग को थोड़ा-सा समझ लें।

जिस भांति हम रात्रि का ध्यान कर रहे हैं, उसी भांति सारे शरीर को शिथिल छोड़कर, प्रत्येक चक्र पर सुझाव देकर शरीर को शिथिल छोड़कर, अंधकार करके कमरे में, ध्यान में प्रवेश करें। जब शरीर शिथिल हो जाए, जब श्वास शिथिल हो जाए और जब चित्त शांत हो जाए, तो एक भावना करें कि आप मर गए हैं, आपकी मृत्यु हो गयी है। और स्मरण करें अपने भीतर कि अगर मैं मर गया हूं, तो मेरे कौन से प्रियजन मेरे आस-पास इकट्ठे हो जाएंगे! उनके चित्रों को अपने आस-पास उठते हुए देखें। वे क्या करेंगे, उनमें कौन रोएगा, कौन चिल्लाएगा, कौन दुखी होगा, उन सबको बहुत स्पष्टता से देखें। वे सब आपको दिखायी पड़ने लगेंगे।

फिर देखें कि मुहल्ले-पड़ोस के और सारे प्रियजन इकट्ठे हो गए और उन्होंने लाश को आपकी उठाकर अब अर्थी पर बांध दिया है। उसे भी देखें। और देखें कि अर्थी भी चली और लोग उसे लेकर चले। और उसे मरघट तक पहुंच जाने दें। और उन्हें उसे चिता पर भी रखने दें।

यह सब देखें। यह पूरा इमेजिनेशन है, यह पूरी कल्पना है। इस पूरी कल्पना को अगर थोड़े दिन प्रयोग करें, तो बहुत स्पष्ट देखेंगे। और फिर देखें, उन्होंने चिता पर आपकी लाश को भी रख दिया। और लपटें उठी हैं और आपकी लाश विलीन हो गयी।

जब यह कल्पना इस जगह पहुंचे कि लाश विलीन हो गयी और धुआं उड़ गया आकाश में और लपटें हवाएं हो गयी हैं और राख पड़ी है, तब एकदम से सजग होकर अपने भीतर देखें कि क्या हो रहा है! उस वक्त आप अचानक पाएंगे, आप देह नहीं हैं। उस वक्त तादात्म्य एकदम टूटा हुआ हो जाएगा।

इस प्रयोग को अनेक बार करने पर जब आप उठ आएंगे प्रयोग करने के बाद भी, चलेंगे, बात करेंगे, और आपको पता लगेगा, आप देह नहीं हैं। इस अवस्था को हमने विदेह कहा है–इस अवस्था को। इस प्रक्रिया के माध्यम से जो जानता है अपने को, वह विदेह हो जाता है।

अगर यह चौबीस घंटे सध जाए और आप चलें, उठें-बैठें, बात करें और आपको स्मरण हो कि आप देह नहीं हैं, तो देह शून्य हो गयी। तो यह देह शून्य हो जाना अदभुत है। यह अदभुत है, इससे अदभुत कोई घटना नहीं है। देह का तादात्म्य टूट जाना सबसे अदभुत है।

देह-शुद्धि, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि के बाद जब देह की शून्यता का यह प्रयोग करेंगे, तो यह निश्चित सफल हो जाता है। और तब जीवन में बड़े अदभुत परिवर्तन होने शुरू हो जाते हैं। आपकी सारी भूलें और सारे पाप देह से बंधे हुए हैं। आपने जीवन में एक भी भूल और एक भी पाप नहीं किया होगा, जो देह से बंधा हुआ न हो। और अगर आपको स्मरण हो जाए कि आप देह नहीं हैं, तो जीवन से कोई भी विकृति के उठने की संभावना शून्य हो जाएगी।

तब अगर कोई आपको तलवार भोंक दे, तो आप देखेंगे, उसने देह में तलवार भोंक दी और आपको कुछ भी पता नहीं चलेगा कि आपको कुछ हुआ। आप अस्पर्शित रह जाएंगे। उस वक्त आप कमल के पत्ते की तरह पानी में होंगे। उस वक्त, जब देह-शून्यता का बोध होगा, तब आप स्थितप्रज्ञ की भांति जीवन में जीएंगे। तब बाहर के कोई आवर्त और बाहर के कोई तूफान और आंधियां आपको नहीं छू सकेंगी, क्योंकि वे केवल देह को छूती हैं। उनके संघात केवल देह तक होते हैं, उनकी चोटें केवल देह तक पड़ती हैं। लेकिन भूल से हम समझ लेते हैं कि वे हम पर पड़ीं, इसलिए हम दुखी और पीड़ित और सुखी और सब होते हैं।

यह आंतरिक साधना का, केंद्रीय साधना का पहला चरण है। हम देह-शून्यता को साधें। यह सध जाना कठिन नहीं है। जो प्रयास करते हैं, वे निश्चित सफल हो जाते हैं।

दूसरा तत्व आंतरिक साधना का विचार-शून्यता है। जिस भांति मैंने कहा कि सम्यक निरीक्षण से देह के देह-शून्यता घटित होती है, उसी तरह विचार के सम्यक निरीक्षण से विचार-शून्यता घटित होती है। इस आंतरिक साधना का मूल तत्व सम्यक निरीक्षण है, राइट आब्जर्वेशन है। इन तीनों चरणों में–शरीर पर, विचार पर और भाव पर–सम्यक स्मरण और सम्यक निरीक्षण, देखना।

विचार की जो धाराएं हमारे चित्त पर दौड़ती हैं, कभी उनके मात्र निरीक्षक हो जाएं। जैसे कोई नदी के किनारे बैठा हो और नदी की भागती हुई धार को देखे; सिर्फ किनारे बैठा हो और देखे। या जैसे कोई जंगल में बैठा हो, पक्षियों की उड़ती हुई कतार को देखे; सिर्फ बैठा हो और देखे। या कोई वर्षा के आकाश को देखे और बादलों की दौड़ती हुई, भागती पंक्तियों को देखे। वैसे ही अपने मन के आकाश में विचार के दौड़ते हुए मेघों को, विचार के उड़ते हुए पक्षियों को, विचार की बहती हुई नदी को चुपचाप तट पर खड़े होकर देखना है। जैसे हम किनारे पर बैठे हैं और विचार को देख रहे हैं। विचार को उन्मुक्त छोड़ दें, विचार को बहने दें और भागने दें और दौड़ने दें और आप चुप बैठकर देखें। आप कुछ भी न करें। कोई छेड़छाड़ न करें। कोई रुकाव न डालें। कोई दमन न करें। कोई विचार आता हो, तो रोकें न; न आता हो, तो लाने की चेष्टा न करें। आप मात्र निरीक्षक हों।

उस मात्र निरीक्षण में दिखायी पड़ता है, अनुभव होता है, विचार अलग हैं और मैं अलग हूं। क्योंकि बोध होता है कि जो विचारों को देख रहा है, वह विचारों से पृथक होगा, अलग होगा, भिन्न होगा। और जब यह बोध होता है, तो अदभुत शांति घनी होने लगती है। क्योंकि तब कोई चिंता आपकी नहीं है। आप चिंताओं के बीच में हो सकते हैं, चिंता आपकी नहीं है। आप समस्याओं के बीच में हो सकते हैं, समस्या आपकी नहीं है। आप विचारों से घिरे हो सकते हैं, विचार आप नहीं हैं।

और अगर यह खयाल आ जाए कि मैं विचार नहीं हूं, तो विचारों के प्राण टूटने शुरू हो जाते हैं, विचार निर्जीव होने लगते हैं। विचारों की शक्ति इसमें है कि हम यह समझें कि वे हमारे हैं। जब आप किसी से विवाद करने पर उतर जाते हैं, तो आप कहते हैं, ‘मेरा विचार!’ कोई विचार आपका नहीं है। सब विचार अन्य हैं और भिन्न हैं, आपसे अलग हैं। उनका निरीक्षण।

एक कहानी कहूं, समझ में आए। बुद्ध के पास ऐसा हुआ था। एक राजकुमार दीक्षित हुआ था। पहले दिन ही वह भिक्षा मांगने गया था। उसने, जिस द्वार पर बुद्ध ने भेजा था, भिक्षा मांगी। उसे भिक्षा मिली। उसने भोजन किया, वह भोजन करके वापस लौटा। लेकिन उसने बुद्ध को जाकर कहा, क्षमा करें, वहां मैं दुबारा नहीं जा सकूंगा। बुद्ध ने कहा, ‘क्या हुआ?’

उसने कहा कि ‘यह हुआ कि जब मैं गया, दो मील का फासला था, रास्ते में मुझे वे भोजन स्मरण आए, जो मुझे प्रीतिकर हैं। और जब मैं उस द्वार पर गया, तो उस श्राविका ने वे ही भोजन बनाए थे। मैं हैरान हुआ। मैंने सोचा, संयोग है। लेकिन फिर यह हुआ कि जब मैं भोजन करने बैठा, तो मेरे मन में यह खयाल आया कि रोज अपने घर था, भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करता था। आज कौन विश्राम करने को कहेगा! और जब मैं यह सोचता था, तभी उस श्राविका ने कहा, भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण रुकेंगे और विश्राम करेंगे, तो अनुग्रह होगा, तो कृपा होगी, तो मेरा घर पवित्र होगा। तो मैं हैरान हुआ था। फिर भी मैंने सोचा कि संयोग होगा कि मेरे मन में खयाल आया और उसने भी कह दिया। फिर मैं लेटा और विश्राम करने को था कि मेरे मन में यह खयाल उठा कि आज न अपनी कोई शय्या है, न कोई साया है। आज दूसरे का छप्पर और दूसरे की दरी पर, दूसरे की चटाई पर लेटा हूं। और तभी उस श्राविका ने पीछे से कहा, भिक्षु, न शय्या आपकी है, न मेरी है। और न साया आपका है, न मेरा है। और तब मैं घबरा गया। अब संयोग बार-बार होने मुश्किल थे। मैंने उस श्राविका को कहा, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरे भीतर चलने वाली विचारधाराएं तुम्हें परिचित हो जाती हैं? उस श्राविका ने कहा, ध्यान को निरंतर करते-करते अपने विचार शून्य हो गए हैं और अब दूसरों के विचार भी दिखायी पड़ते हैं। तब मैं घबरा गया और मैं भागा हुआ आया हूं। और मैं क्षमा चाहता हूं, कल मैं वहां नहीं जा सकूंगा।’

बुद्ध ने कहा, ‘क्यों?’ उसने कहा कि ‘इसलिए कि…कैसे कहूं, क्षमा कर दें और न कहें वहां जाने को।’ लेकिन बुद्ध ने आग्रह किया और उस भिक्षु को बताना पड़ा। उस भिक्षु ने कहा, ‘उस सुंदर युवती को देखकर मेरे मन में विकार भी उठे थे, वे भी पढ़ लिए गए होंगे। मैं किस मुंह से वहां जाऊं? कैसे मैं उस द्वार पर खड़ा होऊंगा? अब दुबारा मैं नहीं जा सकता हूं।’ बुद्ध ने कहा, ‘वहीं जाना होगा। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। इस भांति तुम्हें विचारों के प्रति जागरण पैदा होगा और विचारों के तुम निरीक्षक बन सकोगे।’

मजबूरी थी, उसे दूसरे दिन फिर जाना पड़ा। लेकिन दूसरे दिन वही आदमी नहीं जा रहा था। पहले दिन वह सोया हुआ गया था रास्ते पर। पता भी न था कि मन में कौन-से विचार चल रहे थे। दूसरे दिन वह सजग गया, क्योंकि अब डर था। वह होशपूर्वक गया। और जब उसके द्वार पर गया, तो क्षणभर ठहर गया सीढ़ियां चढ़ने के पहले। अपने को उसने सचेत कर लिया। उसने भीतर आंख गड़ा ली। बुद्ध ने कहा था, भीतर देखना और कुछ मत करना। इतना ही स्मरण रहे कि अनदेखा कोई विचार न हो, अनदेखा कोई विचार न हो। बिना देखे हुए कोई विचार निकल न जाए, इतना ही स्मरण रखना बस।

वह सीढ़ियां चढ़ा, अपने भीतर देखता हुआ। उसे अपनी सांस भी दिखायी पड़ने लगी। उसे अपने हाथ-पैर का हलन-चलन भी दिखायी पड़ने लगा। उसने भोजन किया, एक कौर भी उठाया, तो उसे दिखायी पड़ा। जैसे कोई और भोजन कर रहा था और वह देखता था।

जब आप दर्शक बनेंगे अपने ही, तो आपके भीतर दो तत्व हो जाएंगे, एक जो क्रियमाण है और एक जो केवल साक्षी है। आपके भीतर दो हिस्से हो जाएंगे, एक जो कर्ता है और एक जो केवल द्रष्टा है।

उस घड़ी उसने भोजन किया। लेकिन भोजन कोई और कर रहा था और देख कोई और रहा था। और हमारा मुल्क कहता है–और सारी दुनिया के जिन लोगों ने जाना है, वे कहते हैं–कि जो देख रहा है, वह आप हैं; और जो कर रहा है, वह आप नहीं हैं।

उसने देखा, वह हैरान हुआ। वह नाचता हुआ वापस लौटा। और उसने बुद्ध को जाकर कहा, ‘धन्य है, मुझे कुछ मिल गया। दो अनुभव हुए हैं; एक तो यह अनुभव हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग हो जाता था, तो विचार बंद हो जाते थे।’ उसने कहा, ‘एक अनुभव तो यह हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग होकर देखता था भीतर, तो विचार बंद हो जाते थे। दूसरा अनुभव यह हुआ कि जब विचार बंद हो जाते थे, तब मैंने देखा, कर्ता अलग है और द्रष्टा अलग है।’ बुद्ध ने कहा, ‘इतना ही सूत्र है। जो इसे साध लेता है, वह सब साध लेता है।’

विचार के द्रष्टा बनना है, विचारक नहीं। स्मरण रहे, विचारक नहीं, विचार के द्रष्टा।

इसलिए हम अपने ऋषियों को द्रष्टा कहते हैं, विचारक नहीं। महावीर विचारक नहीं हैं, बुद्ध विचारक नहीं हैं। ये द्रष्टा हैं। विचारक तो बीमार आदमी है। विचार वे करते हैं, जो जानते नहीं हैं। जो जानते हैं, वे विचार नहीं करते, वे देखते हैं। उन्हें दिखायी पड़ता है, उन्हें दर्शन होता है। और दर्शन की पद्धति अपने भीतर विचार का निरीक्षण है। उठते-बैठते, सोते-जागते, अपने भीतर जो भी विचार की धारा चलती हो, उसे देखें। और किसी भी विचार के साथ तादात्म्य न करें कि इस विचार के साथ मैं एक हो गया। विचार को अलग चलने दें, आप अलग चलें। आपके भीतर दो धाराएं होनी चाहिए।

साधारण आदमी के भीतर एक धारा होती है, मात्र विचार की। साधक के भीतर दो धाराएं होती हैं, विचार की और दर्शन की। साधक के भीतर दो पैरेलल, दो समानांतर धाराएं होती हैं, विचार की और दर्शन की। सामान्य आदमी के भीतर एक धारा होती है, मात्र विचार की। और सिद्ध के भीतर भी एक ही धारा होती है, मात्र दर्शन की। इसे समझ लें।

साधारण आदमी के भीतर एक धारा होती है, विचार की। दर्शन सोया हुआ होता है। साधक के भीतर दो धाराएं होती हैं समानांतर, विचार की और दर्शन की। सिद्ध के भीतर भी एक ही धारा रह जाती है, दर्शन की; विचार मृत हो जाता है।

तो हमें विचार से दर्शन तक पहुंचना है, तो हमें विचार और दर्शन की समानांतर साधना करनी होगी। अगर विचार से दर्शन तक पहुंचना है, तो हमें विचार की और दर्शन की समानांतर साधना करनी होगी। उसको मैं सम्यक निरीक्षण कह रहा हूं, उसको सम्यक स्मृति कह रहा हूं। उसको महावीर ने विवेक कहा है। विचार और विवेक। जो विचार को भी देखता है, वह विवेक है। विचारक मिल जाने तो बहुत आसान हैं। जिनका विवेक जाग्रत हो, वैसे लोग बहुत कठिन हैं।

विवेक को जगाएं। कैसे जगाएंगे, वह मैंने कहा, स्मरणपूर्वक विचार को देखने से। शरीर की क्रियाओं को देखेंगे, शरीर शून्य हो जाएगा। और विचार की दौड़ को देखेंगे, विचार की प्रक्रिया को, थाट प्रोसेस को देखेंगे, तो विचार शून्य हो जाएगा। और अगर भाव का अंतर्निरीक्षण करेंगे, तो भाव शून्य हो जाएगा।

अभी मैंने कहा कि घृणा की जगह प्रेम को आने दें और द्वेष की जगह मैत्री को आने दें भाव-शुद्धि में। अब मैं कहूंगा, इस सत्य को भी जानें कि जो प्रेम कर रहा है, जो घृणा कर रहा है, उसके भी पीछे एक तत्व है, जो केवल जान रहा है; जो न घृणा करता है और न प्रेम करता है। वह केवल साक्षी है। उसने देखा था कि कभी घृणा की गयी, अब वह देख रहा है कि प्रेम किया जा रहा है। लेकिन वह केवल साक्षी है, वह केवल देख रहा है।

जब मैं किसी को घृणा करता हूं, तो क्या मेरे भीतर किसी बिंदु को यह पता नहीं चलता कि मैं घृणा कर रहा हूं? और जब मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो क्या मेरे भीतर किसी को यह पता नहीं चलता कि मैं प्रेम कर रहा हूं? जिसको पता चलता है, वह प्रेम से पीछे है, घृणा से पीछे है। वही हमारी आत्मा है, जो शरीर के और विचार के और भाव के, सबके पीछे है।

इसलिए पुराने ग्रंथ उसे कहते हैं, नेति-नेति। न वह देह है, न वह विचार है, न वह भाव है। वह कुछ भी नहीं है। जहां कुछ भी नहीं शेष रह जाता, वहीं केवल वह दर्शक, वह द्रष्टा, वह साक्षी चैतन्य हमारी आत्मा है।

तो भाव की धारा के प्रति भी द्रष्टा बोध रखना है। आखिर में उसको बचा लेना है, जो केवल दर्शन है। जो शुद्ध दर्शन मात्र है, उसे बचा लेना है। वही शुद्ध दर्शन प्रज्ञा है। उसी शुद्ध दर्शन को हमने ज्ञान कहा है। उसी शुद्ध दर्शन को हम आत्मा कहते हैं। योग का और धर्मों का चरम लक्ष्य वही है।

अंतरंग साधना में मूल तत्व है, सम्यक निरीक्षण–देह की क्रियाओं का, विचार की प्रक्रियाओं का, भाव की अंतरंग धाराओं का। इन तीनों पर्तों को जो पार करके साक्षी को पकड़ लेता है, उसे किनारा मिल गया। उसे किनारा क्या, उसे लक्ष्य मिल गया। और जो इन तीन में से किसी से बंधा रहता है, वह किनारे से बंधा हुआ है। उसे अभी लक्ष्य नहीं मिला।

एक कहानी मैंने पढ़ी थी, सुनी थी। एक रात, पूर्णिमा की रात थी–जैसे आज है–और चांद पूरा था और बहुत सुंदर रात थी। और कुछ मित्रों को हुआ कि वे नौका-विहार को निकलें। वे आधी रात गए नौका-विहार को गए। और आनंद मनाने गए थे, तो उन्होंने नाव में प्रवेश के पहले खूब शराब पी। फिर वे नाव में बैठे। फिर उन्होंने पतवारें उठायीं और नाव को उन्होंने चलाना शुरू किया। फिर उन्होंने बहुत नाव को चलाया।

फिर सुबह का वक्त आने लगा और ठंडी हवाएं आ गयीं और उनका नशा उखड़ा और उन्होंने सोचा, ‘हम कितने चले आए होंगे! रातभर नाव चलायी है!’ और उन्होंने गौर से देखा, वे उसी तट के किनारे खड़े थे, जहां वे रात आए थे। और तब उन्होंने जाना कि वे भूल गए थे। पतवार तो उन्होंने बहुत चलायी थी, लेकिन नाव को नदी के किनारे से छोड़ना भूल गए थे। और जिसने अपनी नाव नदी के किनारे से नहीं छोड़ ली है, वह अनंत परमात्मा के सागर में कितना ही तड़फे, कितना ही चिल्लाए, उसकी कोई गति नहीं होगी।

आपकी चेतना की नाव कहां बंधी है? देह से बंधी है, विचार से बंधी है, भाव से बंधी है। आपकी चेतना की नाव देह से बंधी है, विचार से बंधी है, भाव से बंधी है, यह आपका किनारा है। और नशे में आप कितनी ही पतवार चलाते रहें, एक जन्म, अनंत जन्म। और अनंत जन्मों के बाद भी जब ठंडी हवाएं लगेंगी किसी सत विचार की, किसी सत दर्शन की, किसी प्रकाश किरण का जब धक्का लगेगा और आप जागकर देखेंगे, तो पाएंगे, अनंत जन्मों की पतवार चलाना व्यर्थ चला गया। हम उसी किनारे खड़े हैं, हम वहीं बंधे हैं, जहां हमने शुरू किया था। और तब एक बात दिखायी पड़ेगी, नाव को खोलना भूल गए थे।

नाव को खोलना सीखना जरूरी है। पतवार चलाना बहुत आसान, नाव को खोल लेना बहुत कठिन है। साधारणतया नाव को खोल लेना बहुत आसान होता है और पतवार चलाना थोड़ा कठिन होता है। बाकी जीवन की धारा में नाव को खोल लेना नदी से बहुत कठिन है, पतवार चलाना बहुत सरल है। बल्कि अगर हम यूं कहें–रामकृष्ण ने एक दफा कहा था, ‘तुम अपनी नाव तो खोलो, अपने पाल तो खोल दो। और परमात्मा की हवाएं तुम्हें ले जाएंगी, तुम्हें पतवार भी नहीं चलानी होगी।’

यह ठीक ही कहा था। अगर हम नाव ही खोल लें, तो हवाएं बह रही हैं परमात्मा की, और वे हमें ले जाएंगी, और उन दूर-दिगंत के गंतव्यों तक पहुंचा देंगी, जहां पहुंचे बिना कोई आदमी आनंद को उपलब्ध नहीं होता। लेकिन नाव को खोल लेना।

अंतरंग साधना में हम नाव खोलते हैं। उस रात वे मित्र नाव खोल क्यों नहीं सके? उस रात वे नशे में थे, मूर्च्छा में थे। सुबह जब ठंडी हवाएं लगीं और मूर्च्छा गयी, तो उन्होंने पाया कि नाव बंधी है। मैंने कहा, सम्यक निरीक्षण। सम्यक निरीक्षण मूर्च्छा का विरोध है। हम मूर्च्छा में हैं, इसलिए नाव को बांधे हुए हैं शरीर से, विचार से और भाव से। अगर सम्यक निरीक्षण की ठंडी हवाएं लगें और हम सजग हो जाएं, तो नाव को खोल लेना कठिन नहीं है। मूर्च्छा नाव को बांधे हुए है। अमूर्च्छा नाव को छोड़ देगी। अमूर्च्छा का उपाय है सम्यक निरीक्षण, राइट अवेयरनेस, समस्त क्रियाओं की।

अंतरंग साधना एक ही है, सम्यक स्मरण, सम्यक स्मृति, सम्यक विवेक, सम्यक होश, अमूर्च्छा। इसे स्मरण रखें। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। और इसका सतत प्रयोग करें। और इसका निरंतर प्रयोग करें।

तीन शुद्धियां, तीन शून्यताएं यदि घटित हो जाएं…। तीन शुद्धियां तीन शून्यता को लाने में सहयोगी हैं। तीन शून्यताएं आ जाएं, तो परिणाम में समाधि उत्पन्न होती है। समाधि द्वार है सत्य का, स्वयं का, परमात्मा का। जो समाधि में जागता है, उसे संसार मिट जाता है।

मिट जाने का अर्थ यह नहीं है कि ये दीवारें मिट जाएंगी और आप मिट जाएंगे। मिट जाने का यह अर्थ, ये दीवारें दीवारें न रह जाएंगी और आप आप न रह जाएंगे। मिट जाने का यह अर्थ, जब पत्ता हिलेगा, तो पत्ता ही नहीं, वह प्राण भी दिखेगा, जो पत्ते को हिलाता है। और जब हवाएं बहेंगी, तो हवाएं ही नहीं दिखेंगी, वे सत्ताएं भी दिखेंगी, जो हवाओं को बहाती हैं। और तब मिट्टी में, कण-कण में भी केवल मृण्मय ही नहीं दिखेगा, चिन्मय के भी दर्शन होंगे। संसार मिट जाएगा इस अर्थों में कि परमात्मा प्रकट हो जाएगा।

परमात्मा संसार को बनाने वाला नहीं है। आज कोई मुझसे पूछता था, किसने बनाया? हम पहाड़ के पास थे वहां घाटियों के और कोई पूछता था, ये घाटियां और ये दरख्त, ये किसने बनाए? यह हम तब तक पूछेंगे कि किसने बनाए, जब तक हम जानते नहीं। और जब हम जानेंगे, तब हम यह न पूछेंगे कि किसने बनाए; हम जानेंगे, यह स्वयं बनाने वाला है। क्रिएटर कोई भी नहीं है, स्रष्टा कोई भी नहीं है। सृष्टि ही स्रष्टा है। जब दर्शन होता है, जब दिखायी पड़ता है, तो यह क्रिएशन ही क्रिएटर हो जाता है। यह जो चारों तरफ विराट जगत है, यही परमात्मा हो जाता है। संसार के विरोध में परमात्मा नहीं मिलता, संसार का बोध विसर्जित होता है और परमात्मा उपलब्ध होता है।

उस समाधि की अवस्था में सत्य का बोध होगा, आवृत सत्य का, जो ढंका है। और ढंका किससे है? किसी और से नहीं, हमारी ही मूर्च्छा से ढंका है। सत्य पर पर्दे नहीं हैं, हमारी आंख पर पर्दे हैं। इसलिए जो अपनी आंख के पर्दों को गिरा देगा, वह सत्य को जान लेता है। और आंख के पर्दे कैसे गिराए जाएं, उसकी मैंने चर्चा की है। तीन शुद्धियां और तीन शून्यताएं आंख के पर्दों को गिरा देंगी। जब आंख बिना पर्दे की होती है, उसको हम समाधि कहते हैं। वह शुद्ध दृष्टि जो बिना पर्दे की होती है, उसको हम समाधि कहते हैं।

समाधि चरम लक्ष्य है धर्मों का–समस्त धर्मों का, समस्त योगों का। यह हमने विचार किया। इस पर चिंतन करेंगे, इस पर मनन करेंगे, इस पर निदिध्यासन करेंगे। इसे सोचेंगे, इसे विचारेंगे, इसे प्राणों में उतारेंगे। जो माली की तरह बीज को बोएगा, वह फिर एक दिन खुश होकर देखेगा कि उसमें फूल खिल गए हैं। और जो श्रम करेगा और खदानों को तोड़ेगा, वह एक दिन पाएगा, हीरे-जवाहरात उपलब्ध हो गए हैं। और जो पानी में डूबेगा और गहराइयों तक जाएगा, वह एक दिन पाएगा कि वह मोतियों को ले आया है।

जिनकी भी आकांक्षा हो और जिनके भी पुरुषार्थ को लगता हो कि कोई चुनौती है, उनके प्राण कंपित होंगे, आंदोलित होंगे और वे अग्रसर होंगे। किसी पहाड़ पर चढ़ना उतनी बड़ी चुनौती नहीं है, स्वयं को जान लेना सबसे बड़ी चुनौती है। और जो ठीक अर्थों में पुरुष हैं, जो ठीक अर्थों में जिनके भीतर कोई भी शक्ति और ऊर्जा है, उनका यह अपमान है कि बिना स्वयं को जाने वे समाप्त हो जाएं।

प्रत्येक के भीतर यह संकल्प भर जाना चाहिए कि मैं सत्य को जानकर रहूंगा, स्वयं को जान कर रहूंगा, समाधि को जानकर रहूंगा। इस संकल्प को साधकर और इन भूमिकाओं को प्रयोग करके आप भी सफल हो सकते हैं, कोई भी सफल हो सकता है। यह बात आप विचार करेंगे।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। रात्रि के ध्यान के संबंध में फिर थोड़ा-सा आपको कह दूं। कल मैंने आपको बताया, शरीर में पांच चक्रों की बात कही। उन पांच चक्रों से बंधे हुए अंग हैं। उन चक्रों को यदि हम शिथिल करें और शिथिल होने का भाव करें, तो वे-वे अंग उनके साथ-साथ शिथिल हो जाते हैं।

पहला चक्र है मूलाधार। जननेंद्रिय के निकट मूलाधार की धारणा करेंगे कि मूलाधार चक्र है और उस चक्र को हम शिथिल होने का आदेश देंगे कि मूलाधार, शिथिल हो जाओ। पूरे मन से और पूरी आज्ञा देनी चाहिए कि मूलाधार, शिथिल हो जाओ।

आप सोचेंगे, हमारे कहने से क्या होगा? आप सोचते होंगे, हम कहेंगे, पैर शिथिल हो जाओ, पैर शिथिल कैसे हो जाएंगे! हम कहेंगे कि शरीर जड़ हो जाओ, शरीर जड़ कैसे हो जाएगा!

आप थोड़े सोच-समझ के अगर हों, तो इतना आपको खयाल नहीं आता! जब आप कहते हैं, हाथ रूमाल उठाओ, तो हाथ रूमाल कैसे उठाता है? और जब आप कहते हैं, पैर चलो, तो पैर चलते कैसे हैं? और जब आप कहते हैं कि पैर मत चलो, तो पैर रुक कैसे जाते हैं? यह शरीर का अणु-अणु आपकी आज्ञा मानता है। अगर यह आज्ञा न माने, तो शरीर चल ही नहीं सकता। आप आंखों से कहते हैं, बंद हो जाओ, तो आंखें बंद हो जाती हैं। भीतर विचार होता है कि आंख बंद हो जाए और आंख बंद हो जाती है। क्यों? विचार में और आंख में कोई संबंध नहीं होगा? नहीं तो आप भीतर बैठे सोच ही रहे हैं कि आंख बंद हो जाओ और आंख बंद नहीं हो रही है! और आप सोच रहे हैं कि पैर चलो, और पैर बैठे हुए हैं!

मन जो कहता है, वह तत्क्षण शरीर तक पहुंच जाता है। अगर हमको थोड़ी समझ हो, तो हम शरीर से कुछ भी करवा सकते हैं। यह जो हम करवा रहे हैं, केवल प्राकृतिक है। लेकिन क्या आपको पता है कि यह भी एकदम प्राकृतिक नहीं है, इसमें भी सुझाव काम कर रहे हैं। क्या आपको पता है, अगर एक आदमी के बच्चे को जानवरों के बीच पाला जाए, तो वह सीधा खड़ा होगा? वैसी घटनाएं घटी हैं।

वहां पीछे लखनऊ के पास जंगलों में एक घटना घटी। एक लड़का पाया गया, जिसे भेड़ियों ने पाला। भेड़ियों का शौक है कि बच्चों को गांव से उठा ले जाना और कभी-कभी भेड़िए उनको पाल भी लेते हैं। ऐसी जमीन पर कई घटनाएं घटी हैं। अभी पीछे चार वर्ष पहले जंगल से एक चौदह-पंद्रह वर्ष का लड़का लाया गया, जो भेड़ियों ने पाला है। छोटे बच्चे को गांव से उठा ले गए और फिर उन्होंने उसको दूध पिलाया और पाल लिया।

वह चौदह वर्ष का लड़का बिलकुल भेड़िया था। वह चार हाथ-पैर से चलता था, सीधा खड़ा नहीं होता था। और वह भेड़ियों की तरह आवाज निकालता था और खूंखार था और खतरनाक था। और आदमी को पा जाए, तो कच्चा खा सकता था। लेकिन वह कोई भाषा नहीं बोलता था।

पंद्रह वर्ष का बच्चा भाषा क्यों नहीं बोलता? और अगर आप उससे कहें कि बोलो, बोलने की कोशिश करो, तो भी क्या करेगा! और पंद्रह वर्ष का बच्चा सीधा खड़ा क्यों नहीं होता? उसे सुझाव नहीं मिले सीधे खड़े होने के, उसे खयाल नहीं मिला सीधा खड़े होने का।

जब आपके घर में एक छोटा बच्चा पैदा होता है, आपको सबको चलते देखकर उसे यह सुझाव मिलता है कि चला जा सकता है। उसे यह खयाल मिलता है कि दो पैर पर सीधा खड़ा हुआ जा सकता है। यह विचार उसको मिल जाता है, यह उसके अंतस-चेतन में प्रविष्ट हो जाता है। और तब वह चलने की हिम्मत करता है और कोशिश करता है। और सब तरफ लोगों को चलते देखता है, तो हिम्मत बढ़ती है और वह धीरे-धीरे चलना शुरू कर देता है। दूसरों को बोलते देखता है, तो उसे खयाल होता है कि बोला जा सकता है। और फिर वह चेष्टा करता है। और उसकी वे ग्रंथियां, जो बोल सकती हैं, सक्रिय हो जाती हैं।

हमारे भीतर बहुत-सी ग्रंथियां हैं, जो सक्रिय नहीं हैं। अभी मनुष्य का पूरा विकास नहीं हुआ है, स्मरण रखें। जो शरीर के विज्ञान को जानते हैं, वे यह कहते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क का बहुत छोटा-सा हिस्सा सक्रिय है। शेष हिस्सा बिलकुल इनएक्टिव पड़ा हुआ है। उसकी कोई क्रिया नहीं है। और वैज्ञानिक असमर्थ हैं यह जानने में कि वह शेष हिस्सा किस काम के लिए है। उसका कोई काम ही नहीं है अभी। आपकी खोपड़ी का बहुत-सा हिस्सा बिलकुल बंद पड़ा हुआ है। योग का कहना है कि वह सारा हिस्सा सक्रिय हो सकता है।

और नीचे उतरें आदमी से, तो जानवर का और भी थोड़ा हिस्सा सक्रिय है, उसका और ज्यादा हिस्सा निष्क्रिय है। और नीचे उतरें, तो जितने नीचे उतरते हैं, उतने ही जानवर जितने नीचे तबके के हैं, उनके मस्तिष्क का उतना ही हिस्सा निष्क्रिय पड़ा हुआ है।

काश, हम महावीर और बुद्ध का दिमाग खोल पाते, तो हम पाते कि उनका सारा हिस्सा सक्रिय है, उसमें निष्क्रिय कुछ भी नहीं है। उनका पूरा मस्तिष्क काम कर रहा है, पूरा। और हमारा छोटा-छोटा टुकड़ा काम कर रहा है।

अब जो शेष काम नहीं कर रहा है, उसके लिए उसे सजग करना होगा, सुझाव देने होंगे, चेष्टा करनी होगी। योग ने चक्रों के माध्यम से मस्तिष्क के उसी हिस्से को सक्रिय करने के उपाय किए हैं। योग विज्ञान है और एक वक्त आएगा कि दुनिया का सबसे बड़ा विज्ञान योग ही होगा।

यह जो पांच चक्रों की मैंने बात कही, इन पांच चक्रों पर ध्यान को केंद्रित करके सुझाव देने से वे-वे अंग तत्क्षण शिथिल हो जाएंगे। मूलाधार को हम सुझाव देंगे और साथ में भाव करेंगे कि पैर शिथिल हो रहे हैं। पैर शिथिल हो जाएंगे। फिर ऊपर बढ़ेंगे। नाभि के पास स्वाधिष्ठान चक्र को सुझाव देंगे और नाभि के आस-पास का सारा यंत्र-जाल शिथिल हो जाएगा। फिर और ऊपर बढ़ेंगे और हृदय के पास अनाहत को, अनाहत चक्र को सुझाव देंगे, हृदय का सारा संस्थान शिथिल हो जाएगा। फिर और ऊपर बढ़ेंगे और आंखों के बीच आज्ञा चक्र को सुझाव देंगे, तो चेहरे के सारे स्नायु शिथिल हो जाएंगे। और ऊपर बढ़ेंगे और चोटी के पास सहस्रार चक्र को सुझाव देंगे, तो मस्तिष्क की सारी अंतस की, अंदरूनी सारा का सारा यंत्र शिथिल होकर शांत हो जाएगा।

इसको जितनी परिपूर्णता से भाव करेंगे, उतनी परिपूर्णता से यह बात घटित होगी और कुछ दिन निरंतर अभ्यास करने से परिणाम आने शुरू होंगे।

अगर जल्दी परिणाम न आएं, तो घबराना नहीं। अगर बहुत जल्दी कुछ घटित न हो, तो कोई बेचैन होने की बात नहीं है। साधारण-सी चीजें हम सीखते हैं, वर्षों लग जाते हैं; जो आत्मा को सीखने को उत्सुक हो, उसे जन्म भी लग जाएं, तो थोड़ा समय है। तो बहुत संकल्प से, बहुत प्रतीक्षा से और बहुत शांति से प्रयोग करने से परिणाम अवश्यंभावी है।

इन पांच चक्रों को सुझाव देकर शरीर को शिथिल करेंगे। फिर श्वास को शिथिल करने के लिए मैं कहूंगा, तो उसे ढीला छोड़ देंगे। और मैं कहूंगा, श्वास शांत हो रही है, तो भाव करेंगे। फिर अंत में मैं कहूंगा, विचार शून्य हो रहे हैं, मन शून्य हो रहा है।

यह तो प्रयोग होगा ध्यान का। इस ध्यान के पहले दो मिनट भाव करेंगे और दो मिनट भाव करने के पहले संकल्प करेंगे पांच बार।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। इस ध्यान में सबको सो जाना है, लेट जाना है, लेटकर ही उसे करना है। इसलिए अपना स्थान बना लें। बैठकर संकल्प करेंगे, भाव करेंगे और फिर लेटेंगे।

आज इतना ही।


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ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–8

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समाधि है द्वार—(प्रवचन—आठवां)

 मेरे प्रिय आत्मन्,

सत्य क्या है? क्या उसकी प्राप्ति अंशतः संभव है? और यदि नहीं, तो मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए क्या कर सकता है? क्योंकि हरेक मनुष्य संत होना संभव नहीं है। यह पूछा है।

हली बात तो यह, संत होना हरेक मनुष्य की संभावना है। संभावना को कोई वास्तविकता में परिणत न करे, यह दूसरी बात है। यह दूसरी बात है कि कोई बीज वृक्ष न बन पाए, लेकिन हर बीज वृक्ष होने के लिए अपने अंतस से निर्णीत है। यानि हर बीज की यह संभावना है, यह पोटेंशियलिटी है कि वह वृक्ष बन सकता है। न बने, यह बिलकुल दूसरी बात है। खाद न मिले और भूमि न मिले, और पानी न मिले और रोशनी न मिले, तो बीज मर जाए यह हो सकता है, लेकिन बीज की संभावना जरूर थी।

संत होना प्रत्येक मनुष्य की संभावना है। इसलिए पहले तो अपने मन से यह खयाल निकाल दें कि संतत्व कुछ लोगों का विशेष अधिकार है। संतत्व कुछ विशेष लोगों का अधिकार नहीं है। और जिन लोगों ने प्रचलित की है यह धारणा, वह केवल अपने अहंकार के परिपोषण के लिए है। क्योंकि इस बात से अहंकार को परिपोषण मिलता है कि अगर मैं कहूं कि संत होना बड़ा दुरूह है और बहुत थोड़े-से लोगों के लिए संभव है। और फिर मैं यह कहूं कि बहुत थोड़े-से लोग ही संत हो सकते हैं। यह कुछ लोगों की अहंता की तृप्ति का मार्ग भर है, अन्यथा संत होना सबकी संभावना है। क्योंकि सत्य को उपलब्ध करने के लिए सबके लिए सुविधा और गुंजाइश है।

मैंने कहा कि यह दूसरी बात है कि आप उपलब्ध न हो सकें। उसके लिए सिर्फ आप ही जिम्मेवार होंगे, आपकी संभावना नहीं जिम्मेवार होगी। हम सारे लोग यहां बैठे हैं। उठकर चलने की हम सबकी शक्ति है, लेकिन हम न चलें और बैठे रहें! शक्तियां तो उन्हें सक्रिय करने से ज्ञात होती हैं; जब तक सक्रिय न करें, ज्ञात नहीं होतीं।

अभी आप यहां बैठे हैं, हमको ज्ञात भी नहीं हो सकता कि आप चल सकते हैं। और आप भी अगर अपने भीतर खोजेंगे, तो चलने की शक्ति कहां मिलेगी आपको! एक बैठा हुआ आदमी अपने भीतर खोजे कि मेरे भीतर चलने की शक्ति कहां है? तो उसे कैसे पता चलेगी! उसे पता भी नहीं चलेगी, वह सोचेगा कि चलने की शक्ति कहां है! बैठा हुआ आदमी कितना ही अपने भीतर तलाशे, उसे कोई स्थान न मिलेगा, जिसको वह कह सके कि यह मेरी चलने की शक्ति है, जब तक कि वह चलकर न देखे। चलकर देखने से पता चलेगा कि चलने की शक्ति है या नहीं और संत बनने की प्रक्रिया से गुजरकर देखना होगा कि वह हमारी संभावना है या नहीं। जो उसे प्रयोग ही नहीं करेंगे, उन्हें जरूर वह संभावना ऐसी प्रतीत होगी कि कुछ लोगों की है।

यह गलत है। तो पहली तो यही बात समझें कि सत्य को पाने के लिए सबका अधिकार है; वह सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। उसमें किसी के लिए कोई विशेष अधिकार नहीं है।

दूसरी बात, पूछा है कि सत्य क्या है? और क्या उसे अंशतः पाया जा सकता है?

त्य को अंशतः नहीं पाया जाता। क्योंकि सत्य अखंड है और उसके टुकड़े नहीं हो सकते हैं। यानि ऐसा नहीं हो सकता है कि किसी आदमी को अभी थोड़ा-सा सत्य मिल गया है, फिर थोड़ा और मिलेगा, फिर थोड़ा और मिलेगा। ऐसा नहीं होता। सत्य तो इकट्ठा ही उपलब्ध होता है। यानि वह क्रम से, ग्रेजुअल नहीं मिलता। वह तो पूरा मिलता है, विस्फोट से मिलता है। लेकिन अगर यह बात मैं कहूंगा कि वह इकट्ठा ही मिलता है, तो बहुत घबराहट मालूम होगी। क्योंकि हम इतने कमजोर लोग, हम उसे इकट्ठा कैसे पा सकेंगे!

एक आदमी छत पर चढ़ने को जाता है। छत तो इकट्ठी ही मिलती है जब वह छत पर पहुंचता है, लेकिन सीढ़ियां वह क्रम से चढ़ लेता है। लेकिन किसी भी सीढ़ी पर वह छत पर नहीं होता है। पहली सीढ़ी पर जब होता है, तब भी छत पर नहीं है; और अंतिम सीढ़ी पर जब होता है, तब भी छत पर नहीं होता। छत के करीब तो होने लगता है, लेकिन छत पर नहीं होता।

सत्य के करीब तो क्रम से हुआ जा सकता है, लेकिन सत्य जब उपलब्ध होता है, तो पूरा उपलब्ध होता है। यानि सत्य की निकटता तो क्रम से मिलती है, लेकिन सत्य की उपलब्धि पूर्णता होती है, वह कभी खंड में नहीं होती, टुकड़ों में नहीं होती। इसे स्मरण रखें।

तो जो मैंने भूमिका कही है साधना की, वे सीढ़ियां हैं, उनसे सत्य नहीं मिलेगा, सत्य की निकटता मिलेगी। और जब अंतिम सीढ़ी पर आकर–जिसको मैंने भाव की शून्यता कहा है–जब भाव की शून्यता को कोई छलांग लगा जाता है, तो वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। तब सत्य पूरा ही मिलता है, इन टोटेलिटी, वह समग्रता में उपलब्ध होता है।

परमात्मा के खंडित अनुभव नहीं होते; परमात्मा का अनुभव अखंड होता है। लेकिन परमात्मा तक पहुंचने का रास्ता जो है, वह बहुत खंडों में विभाजित है। इसे स्मरण रखें। सत्य तक पहुंचने का रास्ता क्रमिक है और खंडों में विभाजित है, लेकिन सत्य विभाजित नहीं है। इसलिए ऐसा न सोचें कि हम कमजोर लोग पूरे सत्य को कैसे पा सकेंगे! अगर वह थोड़ा-थोड़ा मिलता होता, तो शायद हम पा भी लेते!

नहीं, हम भी उसे पा सकेंगे, क्योंकि रास्ता थोड़ा-थोड़ा ही चलना होता है। कोई भी रास्ता इकट्ठा नहीं चला जाता है। कोई भी रास्ता इकट्ठा नहीं चला जाता है, रास्ता थोड़ा-थोड़ा ही चला जाता है। लेकिन मंजिल हमेशा इकट्ठी मिलती है, मंजिल थोड़ी-थोड़ी नहीं मिलती। इसे स्मरण रखेंगे।

और फिर पूछा कि सत्य क्या है?

उसे शब्दों में बताने का कोई उपाय नहीं है। आज तक मनुष्य की वाणी से नहीं कहा जा सका है। और ऐसा नहीं है कि भविष्य में कहा जा सकेगा। ऐसा नहीं है कि पीछे मनुष्य के पास भाषा इतनी समृद्ध न थी कि वह नहीं कह सका और आगे कह सकेगा। कभी नहीं कहा जा सकेगा।

उसका कारण है। मनुष्य की जो भाषा विकसित हुई है, वह उसके लोक-व्यवहार के लिए हुई है। भाषा का जन्म लोक-व्यवहार के लिए हुआ है, भाषा का जन्म सत्य को प्रकट करने के लिए नहीं हुआ। और जिन लोगों ने भाषा बनायी है, उनमें से शायद ही कोई सत्य को जानता है। इसलिए सत्य के लिए कोई शब्द भी नहीं है। और जिन लोगों ने सत्य को पाया है, उन्होंने भाषा से नहीं पाया, मौन होकर पाया है। यानि उन्हें जब सत्य उपलब्ध हुआ है, तब वे परिपूर्ण मौन थे और वहां कोई शब्द नहीं था। इसलिए बड़ी कठिनाई है, जब वे लौटकर कहना शुरू करते हैं, तो एक स्थान खाली रह जाता है जो कि सत्य का है। उसके लिए कोई शब्द देना संभव नहीं होता। या जब वे शब्द देते हैं, तब शब्द अधूरे पड़ जाते हैं और छोटे पड़ जाते हैं।

और उन्हीं शब्दों पर झगड़े शुरू हो जाते हैं। उन्हीं शब्दों पर! क्योंकि सब शब्द अधूरे रहते हैं, वे सत्य को प्रकट नहीं कर पाते। वे इशारों की तरह हैं। जैसे कोई चांद को अंगुली दिखाए और हम उसकी अंगुली को पकड़ लें कि यही चांद है, तो दिक्कत शुरू हो जाएगी। अंगुली चांद नहीं है, अंगुली केवल इशारा है। और जो इशारे को पकड़ लेगा, वह दिक्कत में पड़ जाएगा।

इशारे को छोड़ना पड़ता है, ताकि वह दिखायी पड़ सके, जिसकी तरफ इशारा है। शब्दों को छोड़ देना होता है, तब सत्य का थोड़ा-सा अनुभव होता है। जो शब्दों को पकड़ लेता है, वह सत्य के अनुभव से वंचित हो जाता है।

इसलिए कोई रास्ता नहीं है कि मैं आपको कहूं कि सत्य क्या है। और अगर कोई कहता हो, तो वह आत्मवंचना में है। अगर कोई कहता हो, तो वह खुद धोखे में है और दूसरों को धोखे में डाल रहा है। सत्य को कहने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन हां, सत्य को कैसे पाया जा सकता है, इसे कहने का उपाय है। मेथड तो बताया जा सकता है सत्य को पाने का, उसकी पद्धति तो बतायी जा सकती है, लेकिन सत्य क्या है, यह नहीं बताया जा सकता।

सत्य को जानने की पद्धतियां हैं, सत्य की कोई परिभाषाएं नहीं हैं। सत्य को जानने की पद्धतियां हैं, लेकिन परिभाषाएं नहीं हैं। उस पद्धति की हमने इन तीन दिनों में चर्चा की है। यह जरूर लगेगा कि हम सत्य को बिलकुल छोड़ रहे हैं। सत्य को बहुत दफा कहा, लेकिन कुछ बताया नहीं कि सत्य क्या है।

उसे नहीं बताया जा सकता, उसे जाना जा सकता है। सत्य को बताया नहीं जा सकता है, जाना जा सकता है। उसे आप जानेंगे। पद्धति बतायी जा सकती है। सत्य का अनुभव आपका होगा। सत्य का अनुभव हमेशा वैयक्तिक है। उसका कोई कम्युनिकेशन, कोई संवाद एक-दूसरे को संभव नहीं है।

तो इसलिए यह तो मैं नहीं कहूंगा कि सत्य क्या है। इसलिए नहीं कि उसे रोकना चाहता हूं, बल्कि इसलिए कि उसे कहा नहीं जा सकता है। जब कभी, बहुत पीछे अतीत में एक दफा ऐसा हुआ। उपनिषदों के समय में एक ऋषि से किसी ने जाकर पूछा, ‘सत्य क्या है?’ उस ऋषि ने बहुत गौर से उस आदमी को देखा। उसने दुबारा पूछा कि ‘सत्य क्या है?’ उसने तीसरी बार पूछा कि ‘सत्य क्या है?’ उस ऋषि ने कहा, ‘मैं बार-बार कहता हूं, लेकिन तुम समझते नहीं।’ वह व्यक्ति बोला, ‘आप कैसी बात कर रहे हैं! मैंने तीन बार पूछा, आप तीनों ही बार चुप थे। और आप कहते हैं, मैं बार-बार कहता हूं!’ उसने कहा, ‘काश, तुम मेरे चुप होने को देख पाते, तो तुम समझते कि सत्य क्या है। काश, तुम मेरे साइलेंस को, मेरे मौन को देख पाते, तो समझते कि सत्य क्या है।’

वही रास्ता है उसे कहने का। जिन्होंने जाना है, वे चुप हो जाते हैं। और जब सत्य की बात की जाती है, तो वे मौन हो जाते हैं।

अगर आप भी मौन हो सकें, तो उसे जान सकते हैं। अगर आप मौन न हों, तो उसे नहीं जान सकते हैं। सत्य को आप जान सकते हैं, लेकिन जना नहीं सकते। तो इसलिए मैं नहीं कहूंगा कि सत्य क्या है, क्योंकि नहीं कहा जा सकता है।

फिर पूछा है कि जन्म-जन्मांतरों से कर्मों के फलस्वरूप ही मनुष्य का कर्म-जीवन बंधा हुआ है। तो फिर इस जन्म में मनुष्य के अधिकार में क्या है? पूछा है कि अतीत के जीवन और अतीत के कर्म और अतीत में किए हुए जो भी जीवन के संस्कार हैं, यदि हम उनसे ही परिचालित होते हैं, तो अब हम क्या कर सकते हैं?

ह बहुत ही ठीक पूछा है। अगर यह बात सच हो कि मनुष्य बिलकुल अतीत के कर्मों से बंधा है, तो उसके हाथ में वर्तमान में करने को क्या रह जाएगा? और अगर यह सच हो कि मनुष्य अतीत के कर्मों से बिलकुल नहीं बंधा है, तो करने का फायदा क्या रह जाएगा? क्योंकि अगर अतीत के कर्मों से नहीं बंधा है, तो अभी जो करेगा, कल उनसे बंधा नहीं रह जाएगा। तो अगर आज शुभ करेगा, तो कल उसे शुभ के मिलने की संभावना नहीं होनी चाहिए। अगर अतीत के कर्मों से बंधा हो पूरी तरह, तो करने में कोई अर्थ नहीं होगा। क्योंकि कर ही नहीं सकता कुछ, पूरी तरह बंधा है। और अगर पूरी तरह स्वतंत्र हो, तो करने में कोई अर्थ नहीं होगा। क्योंकि वह कर लेगा और कल उससे मुक्त हो जाएगा, उसके साथ उसका किया हुआ नहीं होगा। इसलिए मनुष्य न तो पूरी तरह बंधा हुआ है और न पूरी तरह मुक्त है। उसका एक पैर बंधा है और एक खुला है।

एक दफा हजरत अली से किसी ने पूछा, ठीक यही बात पूछी। हजरत अली से किसी ने पूछा कि ‘मनुष्य स्वतंत्र है या परतंत्र है अपने कर्मों में?’ अली ने कहा, ‘अपना एक पैर ऊपर उठाओ!’ अली ने कहा, अपना एक पैर ऊपर उठाओ। वह आदमी स्वतंत्र था, बायां उठाए या दायां उठाए। उसने अपना बायां पैर ऊपर उठाया। अली ने कहा, ‘अब दूसरा भी उठा लो।’ वह बोला, ‘आप पागल हैं! दूसरा अब नहीं उठा सकता हूं!’ अली ने कहा, ‘क्यों?’ उसने कहा, ‘एक उठाने को स्वतंत्र था।’ अली ने कहा, ‘ऐसा ही मनुष्य का जीवन है। उसमें हमेशा दो पैर हैं आपके पास, और एक उठाने को आप हमेशा स्वतंत्र हैं, एक हमेशा बंधा हुआ है।’

इसलिए संभावना है कि जो बंधा है उसे मुक्त कर सकें उसके द्वारा जो कि अभी उठने को स्वतंत्र है। और यह भी संभावना है कि उसे भी बांध सकें उसके द्वारा जो कि बंधा है।

अतीत में आपने जो किया है, वह आपने किया है। आप स्वतंत्र थे करने को; आपने किया है। आपका एक हिस्सा जड़ हो गया है और परतंत्र हो गया है। लेकिन आपका एक हिस्सा अभी भी स्वतंत्र है, उसके विपरीत करने को आप मुक्त हैं। उसके विपरीत करके आप उसको खंडित कर सकते हैं। उससे भिन्न को करके आप उसे विनष्ट कर सकते हैं। उससे श्रेष्ठ को करके आप उसको विसर्जित कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में है कि वह अतीत-संस्कारों को भी धो डाले।

आपने कल तक क्रोध किया था, तो क्रोध करने को आप स्वतंत्र थे। निश्चित ही, जो आदमी बीस वर्षों से रोज क्रोध करता रहा है, वह क्रोध से बंध जाएगा। बंध जाने का मतलब यह है कि एक आदमी, जिसने बीस साल से क्रोध किया है निरंतर, वह एक दिन सुबह सोकर उठता है और अपने बिस्तर के पास अपनी चप्पलें नहीं पाता, एक यह आदमी है; और एक वह आदमी है जिसने बीस सालों से क्रोध नहीं किया, वह भी सुबह उठता है और बिस्तर के पास अपनी चप्पलें नहीं पाता; किस में इस बात से क्रोध के पैदा होने की संभावना अधिक है?

उस आदमी में, जिसने बीस साल से क्रोध किया, क्रोध पैदा होगा। इस अर्थों में वह बंधा है, क्योंकि बीस साल की आदत तत्क्षण उसमें क्रोध पैदा कर देगी कि जो उसने चाहा था, वह नहीं हुआ। इस अर्थों में वह बंधा है कि बीस साल का एक संस्कार उसे आज भी वैसे ही काम करने को प्रेरित करेगा कि करो, जो तुमने निरंतर किया है। लेकिन क्या वह इतना बंधा है कि क्रोधित न हो, यह उसकी संभावना नहीं है?

इतना कोई कभी नहीं बंधा है। अगर वह इसी वक्त सचेत हो जाए, तो रुक सकता है। और क्रोध को न आने दे, यह उसकी संभावना है। आए हुए क्रोध को परिणत कर ले, यह उसकी संभावना है। और अगर वह यह करता है, तो बीस साल की आदत थोड़ी दिक्कत तो देगी, लेकिन पूरी तरह नहीं रोक सकती है। क्योंकि जिसने आदत बनायी थी, अगर वह खिलाफ चला गया है, तो वह तोड़ने के लिए स्वतंत्र है। दस-पांच दफे के प्रयोग करके वह उससे मुक्त हो सकता है।

कर्म बांधते हैं, लेकिन बांध ही नहीं लेते। कर्म जकड़ते हैं, लेकिन जकड़ ही नहीं लेते। उनकी जंजीरें हैं, लेकिन सब जंजीरें टूट जाती हैं। ऐसी कोई जंजीर नहीं है, जो न टूटे। और जो न टूटे, उसको जंजीर भी नहीं कह सकेंगे। जंजीर बांधती है, लेकिन सब जंजीरें खुलने की क्षमता रखती हैं। अगर ऐसी कोई जंजीर हो, जो फिर खुल ही न सके, तो उसको जंजीर भी नहीं कह सकिएगा। जंजीर वही है, जो बांध भी सके और खोल भी सके। कर्म बंधन है, इसी अर्थों में, कि निर्बंधन भी हो सकता है। और हमारी चेतना हमेशा स्वतंत्र है। हमने जो कदम उठाए हैं, हम जिस रास्ते पर चलकर आए हैं, उस पर लौटने को हम हमेशा स्वतंत्र हैं।

तो अतीत आपको बांधे हुए है, लेकिन भविष्य आपका मुक्त है। एक पैर बंधा है और एक खुला है। अतीत का एक पैर बंधा हुआ है, भविष्य का एक पैर खुला हुआ है। आप चाहें, तो इस भविष्य के पैर को भी उसी दिशा में उठा सकते हैं, जिसमें आपने अतीत के पैर को बांधा है। आप बंधते चले जाएंगे। आप चाहें, तो इस भविष्य के पैर को अतीत की दिशा से विपरीत उठा सकते हैं। आप खुलते चले जाएंगे। यह आपके हाथ में है। उस स्थिति को हम मोक्ष कहते हैं, जहां दोनों पैर खुल जाएं। और उस स्थिति को हम परिपूर्ण निम्नतम नर्क कहेंगे, जहां दोनों पैर बंध जाएं।

इस वजह से, अतीत से घबराने की जरूरत नहीं है, न पिछले जन्मों से घबराने की जरूरत है। जिसने वे कदम उठाए थे, वह अब भी कदम उठाने को स्वतंत्र है।

और पूछा है, साक्षी होकर कौन विचार करता है?

ब आप साक्षी होते हैं, तो विचार नहीं होता। विचार आपने किया कि आप साक्षी नहीं रह जाएंगे। मैं एक बगीचे में खड़ा हूं और एक फूल का साक्षी हो जाऊं, तो मैं फूल को देखूंगा। सिर्फ देखूंगा, तो साक्षी हूं। और अगर मैंने सोचना शुरू किया, तो फिर मैं साक्षी नहीं हूं। जिस घड़ी मैं सोचूंगा, उस घड़ी फूल मेरी आंख से हट जाएगा। सोचने का पर्दा बीच में आ जाएगा। जब मैं एक फूल को देखकर कहूंगा, फूल सुंदर है, तो जिस घड़ी मेरा मन कह रहा है, फूल सुंदर है, उस वक्त फूल देख नहीं रहा हूं मैं। क्योंकि मन दो काम एक साथ नहीं करता है। एक झीना-सा पर्दा बीच में आ जाएगा। और अगर मैं सोचने लगा कि ‘इस फूल को मैंने पहले भी देखा है और यह फूल परिचित है’, तो फूल मेरी आंख से ओझल हो गया है। अब मैं भ्रम में हूं कि मैं देख रहा हूं।

अपने एक मित्र को, दूर से आए हुए, मैं एक बार नदी पर नौका-विहार के लिए ले गया था। वे बहुत दूर के देशों से लौटे थे। उन्होंने बहुत नदियां और बहुत झीलें देखी थीं। वे सब उनके खयालों से भरे हुए थे। जब मैं पूरे चांद की रात में उनको नौका पर ले गया, तो वे स्विटजरलैंड की झीलों की बातें करते रहे और कश्मीर की झीलों की बातें करते रहे। जब हम घंटेभर बाद वापस लौटे, तो उन्होंने रास्ते में मुझसे कहा कि ‘जहां आप ले गए थे, वह जगह बड़ी रम्य थी।’

मैंने कहा, ‘आप बिलकुल झूठ बोलते हैं। उसको आपने देखा भी नहीं। क्योंकि मैंने पूरे वक्त अनुभव किया कि आप स्विटजरलैंड में हो सकते हैं, कश्मीर में हो सकते हैं, जिस नाव में हम बैठे थे, वहां आप नहीं थे।’

‘और तब मैं आपसे अब यह भी कहना चाहता हूं,’ मैंने उनको निवेदन किया कि ‘जब आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे, तो आप कहीं और रहे होंगे। और जब आप कश्मीर में रहे होंगे, तो आप उस झील पर न रहे होंगे, जिसकी आप बातें कर रहे हैं।’ तो मैंने उनसे कहा कि ‘न केवल मैं यह कहता हूं कि जिस झील पर मैं ले गया था, उसको आपने नहीं देखा। मैं आपको यह कहता हूं, आपने कोई झील नहीं देखी है।’

आपके खयाल के पर्दे आपको साक्षी नहीं होने देते। आपका विचार आपको द्रष्टा नहीं होने देता। जब हम विचार को छोड़ते हैं, जब विचार को हम अलग करते हैं, तब हम साक्षी होते हैं। विचार की निर्जरा से साक्षी हुआ जाता है।

तो जब मैं कह रहा हूं, हम साक्षी हो रहे हैं, तो पूछा जाए कि कौन विचार कर रहा है?

नहीं, कोई विचार नहीं कर रहा है, मात्र साक्षी रह गया। और वह मात्र साक्षी जो है हमारा, वही हमारी अंतरात्मा है। अगर आप परिपूर्ण साक्षी की स्थिति में रह जाएं कि कोई विचार की तरंग नहीं उठती है, कोई विचार की लहर नहीं उठती है, तो आप अपने में प्रवेश करेंगे। वैसे ही जैसे किसी सागर पर कोई लहर न उठती हो, कोई लहर न उठती हो, कोई कंपन न आता हो, तो उसकी सतह शांत हो जाए और हम उसकी सतह में झांकने में समर्थ हो जाएं।

विचार तरंग है और विचार बीमारी है और विचार एक उत्तेजना है। विचार की उत्तेजना को खोकर हम साक्षी को उपलब्ध होते हैं। तो जब हम साक्षी होते हैं, तब विचार कोई भी नहीं करता है। अगर हम विचार करते हैं, तब हम साक्षी नहीं रह जाते। विचार और साक्षी में विरोध है।

इसलिए हमने पूरा प्रयास किया इस ध्यान की पद्धति को समझने में, हम असल में विचार छोड़ने का प्रयोग किए हैं। और जो हम प्रयोग कर रहे हैं, उसमें हम विचार को क्षीण करके छोड़ रहे हैं। ताकि वह स्थिति रह जाए, जब विचार तो नहीं हैं और विचारक है। यानि विचारक से मेरा मतलब, जो विचार करता था, वह तो मौजूद है, लेकिन विचार नहीं कर रहा है। जब वह विचार नहीं करेगा, तो उसमें दर्शन होगा। यह समझ लें।

विचार और दर्शन विपरीत बातें हैं। इसलिए मैंने पीछे कहा कि केवल अंधे लोग विचार करते हैं, जिनकी आंखें हैं, वे विचार नहीं करते हैं। समझें, अगर मेरे पास आंखें नहीं हैं और मुझे इस मकान से बाहर निकलना है, तो मैं विचार करूंगा कि दरवाजा कहां है! अगर मेरे पास आंखें नहीं हैं और मुझे इस भवन से बाहर निकलना है, तो मैं विचार करूंगा कि दरवाजा कहां है! और अगर मेरे पास आंखें हैं, तो क्या मैं विचार करूंगा? मैं देखूंगा और निकल जाऊंगा। यानि सवाल यह है कि अगर मेरे पास आंखें हैं, तो मैं देखूंगा और निकल जाऊंगा। मैं विचार क्यों करूंगा?

जिनके पास जितनी आंखें कम हैं, उतने वे ज्यादा विचार करते हैं। दुनिया उनको विचारक कहती है। और हम उनको अंधा कहेंगे। और जिनके पास जितनी ज्यादा आंखें हैं, वे उतना कम विचार करते हैं।

महावीर और बुद्ध विचारक नहीं थे। मैं सुनता हूं, बड़े-बड़े समझदार लोग भी उनको कहते हैं कि महान विचारक थे। यह बिलकुल झूठी बात है। वे बिलकुल भी विचारक नहीं थे, क्योंकि वे अंधे नहीं थे। हम उनको अपने मुल्क में द्रष्टा कहते हैं।

इसलिए हम अपने मुल्क में, हम अपने मुल्क में इस पद्धति का जो शास्त्र है, उसको दर्शन कहते हैं। दर्शन का मतलब, देखना। हम उसको फिलासफी नहीं कहते। फिलासफी और दर्शन पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। सामान्यतया फिलासफी से हम दर्शन का अर्थ कर लेते हैं, वह गलत है। भारत के दर्शन को ‘इंडियन फिलासफी’ कहना बिलकुल गलत है। वह फिलासफी है ही नहीं। फिलासफी का मतलब है, चिंतन, विचार, मनन। और दर्शन का मतलब है, चिंतन, विचार, मनन सबका छोड़ देना।

पश्चिम में विचारक हुए हैं, पश्चिम की फिलासफी है। उन्होंने विचार किया है कि सत्य क्या है? वे इसका विचार करते हैं। हमारे मुल्क में हम इसका विचार नहीं करते कि सत्य क्या है। हम इसका विचार करते हैं कि सत्य का दर्शन कैसे हो सकता है? यानि हम इस बात का विचार करते हैं कि आंखें कैसे खुलें? इसलिए हमारी पूरी प्रक्रिया आंख खोलने की है। हमारी पूरी प्रक्रिया चक्षु खोलने की है।

जहां विचार होता है, वहां तर्क विकसित होता है। और जहां दर्शन होता है, वहां योग विकसित होता है। विचार का अनुबंध, संबंध तर्क से है। और दर्शन का अनुबंध और संबंध योग से है।

पूरब में कोई तर्क विकसित नहीं हुआ। लाजिक को हमने कोई प्रेम नहीं किया है। हमने उसको खेल समझा है, बच्चों का खेल समझा है। हमने कुछ और बात खोजी, हमने दर्शन खोजा और दर्शन के लिए योग को। योग पद्धति है, जिससे आपकी आंख खुलेगी और आप देखेंगे। उस देखने के लिए साक्षी का प्रयोग है। जैसे-जैसे आप साक्षी होंगे, विचार क्षीण होगा, और एक घड़ी आएगी निर्विचार की–विचारहीनता की नहीं कह रहा हूं–निर्विचार की।

विचारहीन और निर्विचार में बहुत भेद है। विचारहीन विचारक से नीचे है और निर्विचार विचारक के बहुत ऊपर है। निर्विचार का अर्थ है, उसके चित्त में तरंगें नहीं हैं और चित्त शांत है। और देखने की क्षमता उस शांति में पैदा होती है। और विचारहीन का मतलब है कि उसे सूझता ही नहीं कि क्या करे।

तो मैं विचारहीन होने को नहीं, निर्विचार होने को कह रहा हूं। विचारहीन वह है, जिसको सूझता नहीं। निर्विचार वह है, जिसको सिर्फ सूझता भर है; जिसे दिखायी पड़ता है। तो साक्षी आपको ज्ञान की तरफ ले जाएगा, स्वयं की आत्मा की तरफ ले जाएगा।

यह जो हमने प्रयोग श्वास के या ध्यान के, साक्षी को जगाने के लिए किए हैं, यह मात्र इसलिए, ताकि किसी भी भांति हम उस क्षण का अनुभव कर सकें, जब हम तो होते हैं और विचार नहीं होता है। अगर एक क्षण को भी वह निर्मल क्षण उपलब्ध हो जाए, जब हम तो हैं और विचार नहीं हैं, तो आप जीवन में किसी बड़ी अदभुत संपत्ति को उपलब्ध हो जाएंगे।

उस तरफ चलें और उसके लिए चेष्टा करें और अपनी समग्र शक्ति को जोड़कर उस घड़ी की आकांक्षा करें, जब चेतना तो होगी, लेकिन विचार नहीं होगा।

जब चेतना विचार-शून्य होती है, तब सत्य का दर्शन होता है। और जब चेतना विचार से भरी होती है और दबी होती है, तब सत्य का दर्शन नहीं होता। जैसे आकाश मेघाच्छन्न हो, तो सूरज छिप जाता है, ऐसे जब चित्त विचारों से आच्छन्न होता है, तो स्वयं की सत्ता छिप जाती है। और सूरज को देखना हो, तो मेघों को वितरित और विसर्जित कर देना होगा और उनको हटा देना होगा, ताकि सूरज झांक सके। वैसे ही विचारों को हटा देना होगा, ताकि स्वयं की सत्ता की प्रतीति और अनुभव हो सके।

सुबह जब मैं भवन से निकलता था, तो किसी ने मुझसे पूछा कि ‘क्या इस समय में केवल-ज्ञान संभव है?’ मैंने उनसे कहा, ‘संभव है।’ वे प्रश्न पूछे हैं कि ‘अगर केवल-ज्ञान इस समय संभव है, तो क्या मैं बता सकता हूं कि वे कौन-सा प्रश्न मुझ से पूछना चाहते हैं?’

अगर वे केवल-ज्ञान का अर्थ यह समझे हों कि दूसरा क्या प्रश्न पूछना चाहता है, यह बता दिया जाए, तो वे बड़ी गलती में हैं, वे किसी मदारी से भी धोखा खा जाएंगे। वे सड़क पर किसी दो पैस में खेल दिखाने वाले से भी धोखा खा जाएंगे। यह तो दो पैसे का खेल दिखाने वाला बता सकता है कि आपके मन के भीतर क्या है। और अगर कभी कोई केवल-ज्ञानी भी इसके लिए राजी हो जाए, तो वह केवल-ज्ञानी नहीं होगा।

केवल-ज्ञान का यह मतलब नहीं है कि आपके मन में क्या चल रहा है, उसको बता दिया जाए। आप केवल-ज्ञान का अर्थ ही नहीं समझे। केवल-ज्ञान का अर्थ है चेतना की वह स्थिति, जहां कोई ज्ञेय नहीं रह जाता, जहां कोई ज्ञाता नहीं रह जाता, मात्र ज्ञान की शक्ति भर रह जाती है। केवल-ज्ञान शब्द से ही वह प्रगट है, जहां केवल ज्ञान मात्र रह जाता है।

अभी जब भी हम कुछ जानते हैं, तो जानने में तीन चीजें होती हैं–जानने वाला होता है, वह ज्ञाता होता है; जिसको जानते हैं, वह होता है, वह ज्ञेय होता है; और इन दोनों के बीच जो संबंध होता है, वह ज्ञान होता है। तो ज्ञान जो है, ज्ञाता और ज्ञेय से दबा रहता है, उनसे बंधा रहता है। केवल-ज्ञान का अर्थ है कि ज्ञेय विलीन हो जाए, आब्जेक्ट विलीन हो जाए। और अगर ज्ञेय विलीन हो जाएगा, तो फिर ज्ञाता कहां रहेगा! वह तो ज्ञेय से बंधा हुआ था। जब ज्ञेय विलीन हो जाएगा, तो ज्ञाता विलीन हो जाएगा। तब क्या शेष रह जाएगा? तब मात्र ज्ञान शेष रह जाएगा। उस ज्ञान की घड़ी में मुक्ति का बोध होता है और स्वतंत्रता का बोध होता है।

तो केवल-ज्ञान का अर्थ है, शुद्ध ज्ञान को अनुभव कर लेना। जिसको मैंने समाधि कहा है, वह शुद्ध ज्ञान का अनुभव है। यह अलग-अलग संप्रदायों के अलग-अगल सत्य हैं। जिसे पतंजलि ने समाधि कहा है, उसे जैनों ने केवल-ज्ञान कहा है, उसे बुद्ध ने प्रज्ञा कहा है।

केवल-ज्ञान का मतलब यह नहीं है कि आपके सिर में क्या चल रहा है, उसे बता दें। वह तो बहुत आसान-सी बात है। वह तो साधारण-सी टेलीपैथी है, वह तो थाट-रीडिंग है, उसका केवल-ज्ञान से कोई मतलब नहीं है। और अगर आप उत्सुक ही हों जानने को कि आपके दिमाग में क्या चल रहा है, तो मैं आपको रास्ता बता सकता हूं कि आपके बगल के आदमी के दिमाग में क्या चल रहा है, उसे आप जान सकते हैं। मैं तो नहीं बताऊंगा कि आपके दिमाग में क्या चल रहा है, लेकिन मैं आपको रास्ता बता सकता हूं कि आप जान सकें कि दूसरे के दिमाग में क्या चल रहा है, वह ज्यादा आसान होगा।

मैंने आपको पीछे जो अभी संकल्प का प्रयोग कहा कि सारी श्वास को बाहर फेंक दें और एक क्षण रुक जाएं, श्वास न लें। आप घर लौटकर दो-चार दिन किसी छोटे बच्चे पर प्रयोग कर लेंगे, तो आपको समझ में आ जाएगा। अपनी सारी श्वास बाहर फेंक दें; उस बच्चे को सामने बिठा लें; और जब श्वास भीतर न रह जाए, तब पूरे जोर से संकल्प करें और यह आंख बंद करके देखने की कोशिश करें कि इसके दिमाग में क्या चल रहा है। और उस बच्चे को कह दें कि कोई छोटी चीज तुम सोचना, कोई फूल का नाम सोचना। उसको बताएं न, उससे कह दें, कोई फूल का नाम सोचना। और आंख बंद करके और श्वास को बाहर फेंककर आप यह संकल्प प्रगाढ़ करें कि इसके दिमाग में क्या चल रहा है।

आप दोत्तीन दिन में जानना शुरू कर देंगे। और अगर आपने एक शब्द भी जान लिया, तो फिर कोई फर्क नहीं पड़ता, फिर वाक्य जाने जा सकते हैं। वह लंबी प्रक्रिया है। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि आप केवल-ज्ञानी हो गए! इससे केवल-ज्ञान का कोई मतलब नहीं है। यह मन-पर्याय-ज्ञान है, दूसरे के मन में क्या चल रहा है, उसे पढ़ लेना। और इसके लिए धार्मिक होने की भी कोई जरूरत नहीं है और साधु होने की भी कोई जरूरत नहीं है।

पश्चिम में काफी जोर से काम चला हुआ है। वहां ढेर साइकिक सोसाइटीज बनी हुई हैं, जो टेलीपैथी पर और थाट-रीडिंग पर काम कर रही हैं। और वैज्ञानिक रूप से सब नियम बनाए जा रहे हैं। सौ-पचास वर्षों में हर डाक्टर उसका प्रयोग करेगा, हर शिक्षक उसका प्रयोग करेगा। हर दुकानदार उसका प्रयोग कर सकेगा कि ग्राहक क्या पसंद करेगा, इसको जान सकेगा। और उस सबका शोषण में उपयोग होगा। और वह केवल-ज्ञान बिलकुल नहीं है, वह केवल एक टेक्नीक है। वह टेक्नीक अभी अधिक लोगों को ज्ञात नहीं है, इसलिए आपको ऐसा मालूम होता है। थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो आप हैरान हो जाएंगे, कुछ समझ में आ सकता है। पर वह केवल-ज्ञान नहीं है। केवल-ज्ञान बड़ी दूर की बात है।

केवल-ज्ञान का तो मतलब है, शुद्ध ज्ञान की चरम स्थिति को अनुभव कर लेना। उस अवस्था में अमृत का, और जिसे मैंने सच्चिदानंद कहा, उसका बोध होता है।

और एक मित्र ने पूछा है, समाधि के सिवाय क्या परमात्मा का मिलन संभव है?

 

हीं संभव है। समाधि तो केवल द्वार है। जैसे कोई कहे कि क्या बिना द्वार के इस मकान के अंदर आना संभव है? तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, नहीं संभव है। और अगर वह कहीं से दीवार तोड़कर भी आ जाए, तो हम कहेंगे, वह द्वार हो गया। तो द्वार क्या है? अगर हम कहें कि इस मकान में द्वार से आने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है और वह किसी दीवार को तोड़कर अंदर आ जाए, तो हम कहेंगे, वह रास्ता हो गया, वह द्वार हो गया। लेकिन इस मकान में बिना द्वार के आना संभव नहीं है। किसी भी भांति आएं, द्वार से आएंगे। समझदार होंगे, तो सीधे चले आएंगे। नासमझ होंगे, कहीं दीवार तोड़ेंगे।

समाधि के बिना कोई रास्ता नहीं है। समाधि तो द्वार है परमात्मा के प्रति, सत्य के प्रति। और बिना द्वार के मैं नहीं समझता कि कैसे जाएंगे! बिना द्वार के कभी कोई कहीं नहीं गया है।

इसे स्मरण रखें, ऐसा न सोचें कि बिना समाधि के भी संभव हो जाएगा। मन हमारा ऐसा होता है कि और भी कोई सस्ता रास्ता हो। यानि मतलब यह कि ऐसा रास्ता हो, जिसमें चलना ही न पड़े। लेकिन सब रास्तों पर चलना होता है। चलने का मतलब ही है, तब वे रास्ते होते हैं। लेकिन हम चाहते हैं, ऐसा द्वार हो, जिसमें प्रवेश ही न करना पड़े और पहुंच जाएं। ऐसा कोई द्वार नहीं होता, जिसमें प्रवेश बिना किए आप पहुंच जाएं।

पर हमारे मन की कमजोरियां हैं बहुत। और हमारे मन की कमजोरियां ये हैं कि हम कुछ भी नहीं करना चाहते और कुछ पाना चाहते हैं। विशेषतया परमात्मा के संबंध में तो हमारी धारणा यह ही है कि अगर वह बिना किए मिल जाए, तो विचारणीय है। बल्कि हो सकता है कि अगर कोई आपको बिना किए भी देने को राजी हो जाए, तो भी आप विचार करें कि लेना या नहीं लेना!

एक बार ऐसा हुआ, वहां श्रीलंका में एक साधु था। वह रोज मोक्ष की और निर्वाण की और समाधि की बातें करता। कुछ लोग उसे वर्षों से सुनते थे। एक आदमी ने एक दिन खड़े होकर पूछा कि ‘मैं यह पूछना चाहता हूं, आपको इतने लोग इतने दिन से सुनते हैं, इनमें से किसका निर्वाण हुआ और किसकी समाधि हुई?’ उस साधु ने कहा, ‘तुम्हारा विचार है, तो आज ही समाधि हो जाए। राजी हो? अगर तुम राजी हो, तो आज यह मेरा सच है कि तुम्हें समाधि लगवा दूंगा।’ वह आदमी बोला, ‘आज!’ उसने कहा, ‘थोड़ा विचार करें, किसी…। आज ही?’ उसने कहा, ‘थोड़ा विचार करें। मैं फिर आकर आपको बताऊं।’

और आपसे भी कोई कहे कि मैं आज ही इसी वक्त आपको परमात्मा से मिला सकता हूं, तो मैं नहीं समझता कि आपका दिल एकदम से कहेगा, हां। आपका दिल बहुत सोच-विचार करने लगेगा। मैं सच आपसे कह रहा हूं, आपका दिल बहुत सोच-विचार करने लगेगा कि मिलना या नहीं मिलना! मुफ्त में भी परमात्मा मिले, तो भी हम विचार करेंगे! तो कीमत देकर तो लेने में विचार करना बहुत स्वाभाविक है। मन यही होता है कि मुफ्त में मिल जाए।

हम मुफ्त में उस चीज को पाना चाहते हैं, जिसका हमारे मन में कोई मूल्य नहीं है। यानि हम निर्मूल्य उसे पाना चाहते हैं, जिसका हमारे मन में कोई मूल्य नहीं है। मूल्य से हम उसे पाना चाहते हैं, जिसका हमारे मन में मूल्य है।

अगर परमात्मा के प्रति थोड़ा भी खयाल पैदा होगा, तो आप पाएंगे कि आप अपना सब देने को राजी हैं। अपना सब देने को राजी हैं और सब देकर भी अगर उसकी एक झलक मिलती है, तो लेने को राजी हो जाएंगे।

यह जो पूछा है कि ‘समाधि के बिना हो सकता है?’ नहीं हो सकता है। श्रम के बिना नहीं हो सकता है। अध्यवसाय के बिना नहीं हो सकता है। आपके पूरे संकल्प और साधना के बिना नहीं हो सकता है।

लेकिन इस तरह के जो कमजोर लोग हैं, वे कमजोर लोग कुछ समझदार लोगों को शोषण का मौका देते हैं। सारी दुनिया में एक तरह का रिलीजस एक्सप्लायटेशन चलता है, एक तरह का धार्मिक शोषण चलता है। चूंकि आप बिना कुछ किए पाना चाहते हैं, इसलिए लोग खड़े हो जाते हैं, जो कहते हैं, हमारी कृपा से मिल जाएगा। हमें पूजो, हमारे पैर पड़ो, हमारा नाम स्मरण करो, हम पर श्रद्धा रखो, मिल जाएगा। और जो कमजोर लोग हैं, वे इस वजह से उनकी श्रद्धा करते हैं और पैर छूते हैं और जीवन गंवाते हैं।

कुछ भी नहीं मिलेगा, यह सिर्फ एक शोषण है। यह सिर्फ एक शोषण है। कोई गुरु परमात्मा नहीं दे सकता। परमात्मा तक जाने का मार्ग दे सकता है, लेकिन मार्ग पर खुद चलना होता है। कोई गुरु आपके लिए नहीं चल सकता है। इस दुनिया में कोई आदमी किसी दूसरे के लिए नहीं चल सकता है। अपने पैर ही चलाते हैं। अपने पैरों पर ही चलना होता है। और अगर कोई कहता हो, और ऐसे कहने वाले अनेक हैं, जो कहते हैं, ‘हम एक ही बात आपसे मांगते हैं कि हम पर श्रद्धा करो, और शेष सब हम कर देंगे।’ वे आपका शोषण कर रहे हैं। और आप चूंकि कमजोर हैं, आप शोषण का मौका देते हैं।

दुनिया में जितने धार्मिक पाखंड चलते हैं, उसका कारण पाखंडी कम हैं, आपकी कमजोरियां ज्यादा हैं। अगर आप कमजोर न हों, तो दुनिया में कोई धार्मिक पाखंड खड़ा नहीं होगा। क्योंकि अगर कोई आदमी थोड़ा भी पुरुषार्थवान है, अगर थोड़ा भी उसे अपने जीवन का गौरव और गरिमा है, और कोई उससे कहेगा कि मैं अपनी कृपा से तुमको परमात्मा दिलाए देता हूं! वह कहेगा, क्षमा करें; इससे बड़ा मेरा और क्या अपमान हो सकता है! यानि वह कहेगा, क्षमा करें; इससे बड़ा मेरा और क्या अपमान हो सकता है कि परमात्मा मैं आपकी कृपा से पाऊं!

और जो दूसरे की कृपा से मिलेगा, क्या वह दूसरे की नाराजगी से छीन नहीं लिया जा सकता है? क्या जो दूसरे की कृपा से मिलेगा, वह दूसरे की नाराजगी से छीना नहीं जा सकता? जो कृपा से मिलता है, वह कृपा के हटने से छिन भी सकता है। वह सिर्फ धोखा होगा, जो परमात्मा मिले और छीन लिया जाए और जिसे कोई दूसरा दे सके।

कोई दुनिया में किसी दूसरे को सत्य और परमात्मा नहीं दे सकता है। अपने ही श्रम से और अपनी ही साधना से उसे पाना होता है। इसलिए क्षणभर को भी, रत्तीभर को भी मन में कभी यह खयाल न देना, यह कमजोरी घातक साबित होती है। और इस कमजोरी की वजह से आप तो टूटते हैं, आप पाखंड को, धोखों को, झूठी गुरुडमों को फैलने का मौका देते हैं। वे असत्य हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है। और वे घातक हैं और विषाक्त हैं।

एक प्रश्न है कि अहंकार की शक्ति को किस में परिणत किया जाए?

मैंने पीछे आपको बताया कि अगर क्रोध की शक्ति पैदा हो, तो उसे हम समपरिवर्तित कर सकते हैं सृजनात्मक रूप से। मैंने आपको यह भी बताया कि अगर सेक्स की शक्ति है, तो वह भी समपरिवर्तित की जा सकती है। अहंकार उस अर्थों में शक्ति नहीं है, जिस अर्थों में क्रोध, सेक्स, लोभ इत्यादि शक्तियां हैं। अहंकार उस अर्थों में शक्ति नहीं है।

क्रोध कभी पैदा होता है, सेक्स का भाव भी कभी प्रबल होता है, लोभ भी कभी चेतना को पकड़ता है। अहंकार कभी नहीं, जब तक समाधि उत्पन्न न हो, सदा आपके साथ होता है। वह शक्ति नहीं है, वह आपकी स्थिति है। समझें इस फर्क को।

अहंकार शक्ति नहीं है, वह आपकी स्थिति है। वह कभी पैदा नहीं होता, वह है आपके साथ। वह आपके सब कामों के पीछे खड़ा हुआ है। वह आपकी स्थिति है। उसके कारण बहुत-सी चीजें पैदा होती हैं, लेकिन वह पैदा नहीं होता।

अहंकार के कारण क्रोध पैदा हो सकता है। अगर आप अहंकारी हैं, तो आप ज्यादा क्रोधी होंगे। अगर आप अहंकारी हैं, तो आप ज्यादा यश-लोलुप होंगे, लोभी होंगे, पद-लोलुप होंगे। अगर आप अहंकारी हैं, तो ये सारी बातें आपमें पैदा होंगी। अहंकार के कारण ये शक्तियां पैदा होंगी आपके भीतर, लेकिन अहंकार आपके चित्त की एक स्थिति है। और जब तक अज्ञान है, तब तक अहंकार होता है। और जब ज्ञान आता है, तो अहंकार विलीन हो जाता है और उसकी जगह आत्मा का दर्शन होता है।

अहंकार आत्मा को घेरे हुए एक आच्छन्न पर्दा है। आत्मा को घेरे हुए अहंकार एक पर्दा है। वह शक्ति नहीं है, अज्ञान है। उसके द्वारा बहुत-सी शक्तियां पैदा होती हैं–उस अज्ञान के द्वारा। और अगर उनका हम विनाशात्मक उपयोग करें, तो अहंकार की स्थिति और मजबूत होती चली जाती है। और अगर उन पैदा हुई शक्तियों का हम सृजनात्मक और क्रिएटिव उपयोग करें, तो अहंकार की शक्ति क्षीण होती चली जाती है; अहंकार की स्थिति क्षीण होती चली जाती है। अगर सारी पैदा की हुई शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग हो, तो एक दिन अहंकार विलीन हो जाता है। और जब अहंकार का धुआं विलीन हो जाता है, तो नीचे पता चलता है, आत्मा की लौ है।

अहंकार का धुआं घेरे हुए है आत्मा की लौ को। जब निर्धूम होता है चित्त, सारा धुआं अहंकार का दूर होता है, जब ‘मैं’ भाव की सारी पर्तें दूर हो जाती हैं, जब यह स्मरण भी नहीं आता है कि ‘मैं भी हूं’, तब गहराई में उपलब्धि होती है।

रामकृष्ण कहा करते थे कि एक बार ऐसा हुआ, एक नमक का पुतला समुद्र के किनारे एक मेले में गया। एक मेला लगा और एक नमक का पुतला मेले को देखने समुद्र के किनारे गया। और समुद्र के किनारे उसने देखा, बड़ा अथाह सागर है। कोई रास्ते में पूछने लगा, ‘कितना गहरा होगा?’ उस पुतले ने कहा कि ‘मैं अभी खोजकर आता हूं।’ और वह नमक का पुतला पानी में कूद पड़ा। और बहुत दिन बीते और बहुत वर्ष बीते, वह पुतला अब तक वापस नहीं लौटा है। उसने कहा था, मैं अभी खोजकर आता हूं, लेकिन वह नमक का पुतला था और सागर में कूदते ही नमक पिघल गया और विलीन हो गया और वह सागर की तलहटी को नहीं पा सका।

वह जो ‘मैं’ खोजने निकला था परमात्मा को या सागर की गहराई को, वह खोजने में ही विलीन हो जाता है। वह केवल नमक का पुतला है, वह कोई शक्ति नहीं है।

तो अगर आप परमात्मा को खोजने निकले हैं, तो जब आप खोजने निकलते हैं, तब यही खयाल होता है कि मैं परमात्मा को खोजने निकल रहा हूं। लेकिन जब जैसे-जैसे आप प्रवेश करते हैं, पाते हैं, परमात्मा तो नहीं मिल रहा है, ‘मैं’ विलीन होता चला जा रहा है। एक घड़ी आती है, जब ‘मैं’ बिलकुल शून्य होता है, तब आप पाते हैं कि परमात्मा मिल गया है।

इसका मतलब यह हुआ कि ‘मैं’ को कभी परमात्मा का मिलन नहीं होगा। जब ‘मैं’ नहीं होगा, तब परमात्मा मिलेगा। और जब तक ‘मैं’ होगा, तब तक परमात्मा नहीं मिलेगा।

इसलिए कबीर ने कहा है, ‘प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाय। प्रेम की गली बहुत संकरी है, उसमें दो नहीं बन सकते। या तो तुम बन सकते हो या परमात्मा बन सकता है। और जब तक तुम हो, तब तक परमात्मा नहीं बन सकता। और जहां तुम विलीन हो गए, तब परमात्मा है।

यह जो हमारा अहंकार है, यह केवल हमारा अज्ञान है। इस अज्ञान के कारण हमारे जीवन की बहुत-सी शक्तियों का दुरुपयोग होता है। अगर हम उनका सदुपयोग करें, तो अहंकार को पोषण नहीं मिलेगा और अहंकार धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगा।

तो जिसको मैंने जीवन-शुद्धि के लिए तीन प्रयोग कहे हैं, अगर वे तीन प्रयोग चलें– शरीर-शुद्धि का, विचार-शुद्धि का और भाव-शुद्धि का–तो उन तीनों प्रयोगों को करते-करते पता चलेगा, अहंकार विलीन हो गया। क्रोध विलीन नहीं होगा इस अर्थों में, अहंकार विलीन हो जाएगा। क्रोध की शक्ति नए रूपों में मौजूद रहेगी। अहंकार की कोई शक्ति मौजूद नहीं रह जाएगी। जब अहंकार विलीन होगा, तो कुछ पीछे, रेसिडयू जिसको कहें, पीछे कुछ बचा हुआ कुछ भी नहीं रहेगा। क्रोध या सेक्स विलीन नहीं होते इस अर्थों में, ट्रांसफार्म होते हैं। दूसरी शक्ल में वे मौजूद रहेंगे। क्रोध की शक्ति कायम रहेगी। दूसरा प्रयोग करती रहेगी। हो सकता है, करुणा बन जाए, लेकिन शक्ति वही रहेगी।

और इस जगत में जो बहुत क्रोधी हैं, अगर उनकी शक्ति परिवर्तित हो, तो उतनी ही करुणा से भर सकते हैं, क्योंकि शक्ति नया रूप ले लेगी। शक्ति नष्ट नहीं होती, नए रूप ले लेती है। जैसा मैंने कहा कि जो बहुत कामुक हैं, बहुत सेक्सुअल हैं, वे ही लोग ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हैं। क्योंकि वह जो सेक्स की उनकी शक्ति है, वही समपरिवर्तित होकर उनके लिए ब्रह्मचर्य बन जाती है।

लेकिन अहंकार जब विलीन होता है, तो किसी में परिणत नहीं होता। क्योंकि वह केवल अज्ञान था। उसकी परिणति का कोई सवाल नहीं, वह केवल भ्रम था। जैसे अंधेरे में किसी ने रस्सी को सांप समझा हो। और जब पास जाकर देखे कि रस्सी है, सांप नहीं है, और हम पूछें कि सांप का क्या हुआ? तो हम कहेंगे, सांप का कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि सांप था ही नहीं। उसके परिवर्तन का कोई सवाल नहीं है। वैसे ही अहंकार आत्मा को भ्रांत रूप से समझने का परिणाम है। वह आत्मा की भ्रांति है, आत्मा का इलूजरी, भ्रामक दर्शन है। जैसे रस्सी में सांप दिख जाए, ऐसा आत्मा में अहंकार दिख रहा है। जब हम आत्मा के करीब पहुंचेंगे, तो हम पाएंगे, अहंकार तो नहीं है। वह किसी चीज में परिणत नहीं होगा। परिणति का कोई सवाल ही नहीं था, वह था ही नहीं। वह केवल भ्रम था और दिखायी पड़ता था।

अहंकार अज्ञान है, शक्ति नहीं है। लेकिन अज्ञान अगर हो, तो शक्तियों का दुरुपयोग करवा देता है। क्योंकि अज्ञान में क्या होगा? अज्ञान शक्तियों का दुरुपयोग करवा सकता है।

तो यह स्मरण रखें, अहंकार का कोई परिवर्तन नहीं होगा, न कोई परिणति होगी। अहंकार बस विलीन हो जाएगा। वह उस अर्थ में शक्ति नहीं है।

एक प्रश्न और अंतिम रूप से। आत्मा को परमात्मा में विलीन होने की क्या आवश्यकता है, पूछा है। पूछा है, आत्मा को परमात्मा में विलीन होने की क्या आवश्यकता है?

च्छा होता, पूछा होता, आत्मा को आनंद में विलीन होने की क्या आवश्यकता है? अच्छा होता, पूछा होता, आत्मा को स्वस्थ होने की क्या आवश्यकता है? अच्छा होता, पूछा होता, आत्मा को अंधकार के बाहर प्रकाश में जाने की क्या आवश्यकता है?

आत्मा को परमात्मा में विलीन होने की आवश्यकता इतनी ही है कि जीवन दुख और वेदना से तृप्त नहीं होता है। यानि किसी भी स्थिति में जीवन दुख को स्वीकार नहीं कर पाता है और आनंद का आकांक्षी होता है। परमात्मा से अलग होकर जीवन दुख है। परमात्मा में होकर वह आनंद हो जाता है। प्रश्न परमात्मा का नहीं, प्रश्न आपके भीतर दुख से आनंद में उठने का है। आपके भीतर, अंधकार से आलोक में उठने का है। और अगर आपको कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, तो बिलकुल दुख में निश्चिंत रह सकते हैं।

लेकिन कोई दुख में निश्चिंत नहीं रह सकता। दुख स्वरूपतः अपने से दूर हटाता है और आनंद स्वरूपतः अपने प्रति खींचता है। दुख हटाता है, आनंद खींचता है। संसार दुख है, परमात्मा आनंद है। परमात्मा से मिलन की आवश्यकता कोई धार्मिक आवश्यकता नहीं है। परमात्मा से मिलन की आवश्यकता स्वरूपगत आवश्यकता है।

इसलिए दुनिया में यह हो सकता है कि कोई परमात्मा को इनकार करता हो, लेकिन आनंद को कोई इनकार नहीं करेगा। इसलिए मैं यह कहना शुरू किया हूं कि जगत में कोई भी नास्तिक नहीं है। नास्तिक केवल वही हो सकता है, जो आनंद को अस्वीकार करता हो। जगत में प्रत्येक व्यक्ति आस्तिक है। इस अर्थों में आस्तिक है कि प्रत्येक आनंद का प्यासा है।

दो तरह के आस्तिक हैं, एक सांसारिक आस्तिक, एक आध्यात्मिक आस्तिक। एक, जिनकी आस्था संसार में है कि इसके द्वारा आनंद मिलेगा। एक, जिनकी आस्था इस बात में है कि आध्यात्मिक जीवन के विकास से आनंद मिलेगा। जिनको आप नास्तिक कहते हैं, वे संसार के प्रति आस्तिक हैं। पर उनकी तलाश भी आनंद की है। वे भी आनंद को खोज रहे हैं। और आज नहीं कल, उन्हें जब दिखायी पड़ेगा कि संसार में कोई आनंद नहीं है, तो सिवाय परमात्मा के प्रति उत्सुक होने के कोई रास्ता नहीं रह जाएगा।

आपकी खोज आनंद की है। परमात्मा की खोज किसी की भी नहीं है। आपकी खोज आनंद की है। आनंद को ही हम परमात्मा कहते हैं। पूर्ण आनंद की स्थिति को हम परमात्मा कहते हैं। आप जिस घड़ी पूर्ण आनंद की स्थिति में होंगे, उस घड़ी परमात्मा हैं। यानि मतलब यह कि जिस घड़ी आपकी कोई आवश्यकता शेष न रह जाएगी, उस घड़ी आप परमात्मा हैं। पूर्ण आनंद का मतलब, जब कोई आवश्यकता शेष नहीं है। अगर कोई शेष है, तो दुख शेष रहेगा। जब आपकी कोई आवश्यकता शेष नहीं है, तब आप पूर्ण आनंद में हैं और तभी आप परमात्मा में हैं।

पूछा है कि परमात्मा में होने की आवश्यकता क्या है?

इसको मैं ऐसा कहूं, आवश्यकताएं हैं, इसलिए परमात्मा में होने की आवश्यकता है। जिस दिन कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी, उस दिन परमात्मा में होने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी, आप परमात्मा हो जाएंगे। हर आदमी आवश्यकताओं से मुक्त होना चाहता है। तो अगर ऐसी स्वतंत्रता की घड़ी चाहता है, जहां कोई आवश्यकता का बंधन न हो, जहां वह हो, अखंड हो और पूर्ण हो और उसके पार पाने को कुछ शेष न रह जाए, कुछ हटाने को, छोड़ने को शेष न रह जाए, वैसी अखंड और पूर्ण स्थिति परमात्मा है।

परमात्मा से मतलब नहीं है कि कहीं कोई ऊपर बैठे हुए हैं सज्जन, और उनके आपको दर्शन होंगे, और वे आप पर कृपा करेंगे। और आप उनके चरणों में बैठेंगे और जाकर वहां स्वर्ग में मजे करेंगे। ऐसा कोई परमात्मा कहीं नहीं है। और अगर ऐसे परमात्मा की तलाश में हों, तो भ्रम में हैं। ऐसा परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। आज तक किसी को नहीं मिला है।

परमात्मा चित्त की अंतिम आनंद की अवस्था है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, अनुभूति है। यानि परमात्मा का साक्षात नहीं होता। साक्षात इस अर्थों में नहीं होता कि एनकाउंटर हो जाए; कि आप गए और मुठभेड़ हो गयी उनसे! वे आपके सामने खड़े हैं और आप उनको देख रहे हैं, निहार रहे हैं।

ये सब कल्पनाएं हैं, जो आप निहार रहे हैं। जब सारी कल्पनाएं चित्त छोड़ देता है और सारे विचार छोड़ देता है, तब वह अचानक उसे उदघाटन होता है कि इस सारे विश्व अखंड का, इस पूरे जगत का, ब्रह्मांड का, वह एक जीवित हिस्सा मात्र है। उसका स्पंदन इस सारे जगत के स्पंदन से एक हो जाता है। उसकी श्वास इस सारे जगत से एक हो जाती है। उसके प्राण इस सारे जगत के साथ आंदोलित होने लगते हैं। उनमें कोई भेद, कोई सीमा नहीं रह जाती।

उस घड़ी वह जानता है, ‘अहं ब्रह्मास्मि।’ उस घड़ी वह जानता है कि जिसे मैंने ‘मैं’ करके जाना था, वह तो सारे ब्रह्मांड का अनिवार्य हिस्सा है। ‘मैं ब्रह्मांड हूं’, उस अनुभूति को हम परमात्मा कहते हैं।

ये आपके प्रश्न पूरे हुए। उसके बाद थोड़े समय के लिए, जो लोग उत्सुक हैं दो-चार मिनट अकेले में मिलने को, वे अकेले में मिल लें। उन्हें कुछ जो अकेले में पूछना हो, वे अकेले में पूछ लें।

आज इतना ही।


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ध्‍यान–सूत्र (ओशो) प्रवचन–9

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आमंत्रण–एक कदम चलने का—(प्रवचन—नौवां)

 मेरे प्रिय आत्मन्,

न तीन दिवसों में बहुत प्रेम की, और बहुत शांति की, आनंद की वर्षा हमारे हृदयों में रही। और मैं तो उन पक्षियों में से हूं, जिनका कोई नीड़ नहीं होता। और मुझे आपने अपने हृदयों में जगह दी, मेरे विचारों को और मेरे हृदय से निकले हुए उदगारों को आपने चाहा, उन्हें मौन से सुना, उनको समझने की कोशिश की और उनके प्रति बहुत प्रेम प्रकट किया, उस सबके लिए मैं अनुगृहीत हूं। आपकी आंखों में, आपकी खुशी में, और आपकी खुशी में आ गए आंसुओं में मुझे जो दिखायी पड़ा, उसके लिए भी अनुगृहीत हूं।

मैं बहुत आनंदित हुआ, इस बात से आनंदित हुआ कि आपके भीतर आनंद के लिए एक प्यास जगाने में सफल हो जाऊं। इससे आनंदित हुआ कि आपको असंतुष्ट करने में सफल हो जाऊं। यही जीवन में दिखायी पड़ता है कि यही काम होगा कि जो चुपचाप हैं और संतुष्ट हैं, उन्हें मैं असंतुष्ट कर दूं। और जो चुपचाप चल रहे हैं, उन्हें जगा दूं और उनसे कहूं कि जो जीवन है, वह जीवन नहीं है। और जिसे वे जीवन समझे हुए हैं, वह धोखा है और मृत्यु है। जिस जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु पर हो जाए, उसे जीवन नहीं मानना है। जो जीवन और विराट जीवन में ले जाए, वही सच्चा होता है।

तो इन तीन दिनों में हमने सच्चे जीवन को जीने की, उस तरफ आंखें उठाने की कोशिश की है। अगर संकल्प हमारा प्रगाढ़ होगा और हमारी आकांक्षा गहरी होगी, तो यह असंभव नहीं है कि जिस प्यास से हम संतृप्त हुए हैं, उसकी परितृप्ति तक हम न पहुंच जाएं।

आज के दिन इस आखिरी रात में, विदा की रात में कुछ थोड़ी-सी बातें और आपको कहूं। पहली बात तो यह कि यदि परमात्मा को पाने का खयाल आपके भीतर एक लपट बन गया हो, तो उस खयाल को जल्दी कार्य में लगा देना। जो शुभ को करने में देर करता है, वह चूक जाता है। और जो अशुभ को करने में जल्दी करता है, वह भी चूक जाता है। शुभ को करने में जो देर करता है, वह चूक जाता है। और अशुभ को करने में जो जल्दी करता है, वह चूक जाता है।

जीवन का सूत्र यही है कि अशुभ को करते समय रुक जाओ और देर करो, और शुभ को करते समय देर मत करना और रुक मत जाना।

अगर कोई शुभ विचार खयाल में आ जाए, तो उसे तत्क्षण शुरू कर देना उपयोगी है। क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं है। आने वाले क्षण का कोई भरोसा नहीं है। हम होंगे या नहीं होंगे, नहीं कहा जा सकता। इसके पहले कि मृत्यु हमें पकड़ ले, हमें निर्णायक रूप से यह सिद्ध कर देना है कि हम इस योग्य नहीं थे कि मृत्यु ही हमारा भाग्य हो। इसके पूर्व कि मृत्यु हमें पकड़ ले, हमें यह सिद्ध कर देना है कि हम इस योग्य नहीं थे कि मृत्यु ही हमारा भाग्य हो। मृत्यु से ऊपर का कुछ पाने की क्षमता हमने विकसित की थी, यह मृत्यु के आने तक तय कर लेना है। और वह मृत्यु कभी भी आ सकती है, वह किसी भी क्षण आ सकती है। अभी बोल रहा हूं और इसी क्षण आ सकती है। तो मुझे उसके लिए सदा तैयार होने की जरूरत है। प्रतिक्षण मुझे तैयार होने की जरूरत है।

तो कल पर न टालना। अगर कोई बात ठीक प्रतीत हुई हो, तो उसे आज से शुरू कर देना जरूरी है। कल रात मैं वहां कहता था, झील पर हम बैठे थे और कल रात मैंने वहां कहा कि तिब्बत में एक साधु हुआ। उससे कोई व्यक्ति मिलने गया था, और सत्य के संबंध में पूछने गया था। वहां तिब्बत में रिवाज था कि साधु की तीन परिक्रमाएं करो और फिर उसके पैर छुओ और फिर जिज्ञासा करो। वह युवक गया, उसने न तो परिक्रमा की और न पैर छुए। उसने जाते से ही पूछा कि ‘मेरी कोई जिज्ञासा है, उत्तर दें।’ उस साधु ने कहा, ‘पहले जो औपचारिक नियम है, उसे तो पूरा करो!’ वह युवक बोला कि ‘तीन तो क्या, मैं तीन हजार चक्कर लगाऊं। लेकिन अगर तीन ही चक्करों में मेरे प्राण निकल गए और सत्य को मैं न जान पाया, तो जिम्मा किसका होगा? मेरा या आपका? इसलिए पहले मेरी जिज्ञासा पूरी कर दें, फिर मैं चक्कर पूरे कर दूंगा।’ उसने कहा कि ‘क्या पता कि मैं तीन चक्कर लगाऊं और समाप्त हो जाऊं!’

तो सबसे बड़ा महत्वपूर्ण बोध मृत्यु का बोध है साधक को। उसे प्रतिक्षण ज्ञात होना चाहिए कि कोई भी क्षण मौत हो सकती है। आज सांझ मैं सोऊंगा, हो सकता है, यह आखिरी सांझ हो और सुबह हम न उठें। तो मुझे आज रात सोते समय इस भांति सोना चाहिए कि मैंने अपने जीवन का सारा हिसाब निपटा लिया है और अब मैं निश्चिंत सो रहा हूं। अगर मौत आएगी, तो उसका स्वागत है।

तो कल पर किसी श्रेष्ठ बात को मत टाल देना। और अश्रेष्ठ बात को जितना बन सके, उतना टालना। हो सकता है, मौत बीच में आ जाए, और उस अश्रेष्ठ को करने से हम बच जाएं। अगर कोई बुराई करने का मन हो, उसे जितना बने उतना टाल देना। मौत को बहुत फासला नहीं है। अगर कोई आदमी कुछ बुराइयों को दस-बीस साल टालने भर में सफल हो जाए, तो जीवन परमात्मा हो सकता है। मौत का बहुत लंबा फासला नहीं है। थोड़े-से वर्ष अगर बुराइयां टालने में कोई सफल हो जाए, तो जीवन शुद्ध हो सकता है। और मौत का कोई फासला नहीं है, जो शुभ को ठहराए रखेगा देर तक, उसके जीवन में कुछ उपलब्ध न होगा।

इसलिए शुभ को करने में जितनी शीघ्रता हो, उसका स्मरण दिलाना चाहता हूं। और अगर कोई बात शुभ मालूम हुई हो, तो उसे शुरू ही कर देना। यह मत सोचना कि कल करेंगे। जो आदमी सोचता है, कल करेंगे, वह करना नहीं चाहता है। जो आदमी सोचता है, कल करेंगे, वह करना नहीं चाहता है। ‘कल करना’ टालने का एक उपाय है। अगर न करना हो, तो उसका भी स्पष्ट बोध होना चाहिए कि मुझे नहीं करना है। वह अलग बात है। लेकिन कल पर टालना खतरनाक है। जो कल पर टालता है, वह अक्सर हमेशा के लिए टाल देता है। जो कल पर छोड़ता है, वह अक्सर हमेशा के लिए छोड़ देता है।

यदि कोई बात जीवन में ठीक लगती हो, तो जिस क्षण ठीक लगे, वही क्षण उसे करने का क्षण भी है। उसे उसी क्षण प्रारंभ कर देना है।

तो इस बात को स्मरण रखेंगे कि शुभ को करने में शीघ्रता और अशुभ को करने में रुक जाना। और यह भी स्मरण रखेंगे कि शुभ को साधने के, सत्य को साधने के जो सूत्र मैंने कहे हैं, वे सूत्र कोई बौद्धिक सिद्धांत की बातें नहीं थे। यानि मुझे कोई रस नहीं है कि मैं कोई सिद्धांत आपको समझाऊं। कोई एकेडेमिक रस मेरे मन में नहीं है। वे मैंने इसलिए कहे हैं कि अगर आप करने को राजी हो जाएं, अगर आप उन सूत्रों को करने को राजी हो जाएं, तो वे सूत्र आपके लिए कुछ करेंगे।

अगर आप उनको करने को राजी हुए, तो वे सूत्र आपके लिए कुछ करेंगे। और अगर आपने उनका उपयोग किया, तो वे सूत्र आपको परिवर्तित कर देंगे। वे सूत्र बहुत जीवित हैं। वे जीवित अग्नि की तरह हैं। अगर थोड़ा ही उसे जगाया, तो आप नए व्यक्ति का अपने भीतर जन्म अनुभव कर सकते हैं।

एक जन्म हमें मां-बाप से मिलता है। वह कोई जन्म नहीं है। वह एक और नयी मृत्यु का आगमन है। वह एक और चक्कर है, जिसमें अंत में मृत्यु आएगी। वह कोई जन्म नहीं है, वह केवल एक और नए शरीर का धारण है। एक और भी जन्म है, जो मां-बाप से नहीं मिलता, जो साधना से मिलता है, वही वास्तविक जन्म है। उसी को पाकर व्यक्ति द्विज होता है, दुबारा जन्म पाता है। वह जन्म प्रत्येक को स्वयं देना होता है, अपने को देना होता है।

तो तब तक शांति और चैन अनुभव न करें, जब तक कि आप अपने भीतर दूसरे जन्म को उपलब्ध न हो जाएं। तब तक आपके भीतर कोई भी शक्ति व्यर्थ न पड़ी रहे। सारी शक्तियों को इकट्ठा कर लें और संलग्न हो जाएं।

तो जो थोड़े-से सूत्र मैंने कहे हैं, अगर श्रमपूर्वक और संकल्पपूर्वक उन पर काम किया, तो आप बहुत जल्दी पाएंगे कि आपके भीतर एक नए व्यक्ति का जन्म हो रहा है, एक बिलकुल अभिनव व्यक्ति का जन्म। और जिस मात्रा में आपके भीतर नए व्यक्ति का जन्म होगा, उसी मात्रा में यह दुनिया नयी हो जाती है, दूसरी हो जाती है।

बहुत आनंद है इस जगत में, और बहुत आलोक है, और बहुत सौंदर्य है। काश, हमारे पास देखने की आंखें हों और ग्रहण करने वाला हृदय हो। तो वह ग्रहण करने वाला हृदय और देखने वाली आंख पैदा हो सकती है। उसके लिए ही तीन दिन बहुत-सी बातें आपसे कहा हूं।

एक अर्थ में वे बातें, बहुत-सी नहीं भी हैं; थोड़ी ही हैं। दो ही बातें कहा हूं, जीवन शुद्ध हो और चित्त शून्य हो। दो ही बातें कहा हूं, जीवन शुद्ध हो और चित्त शून्य हो। एक ही बात कहा हूं यूं तो, चित्त शून्य हो। जीवन की शुद्धि उसकी भूमिका मात्र है।

चित्त शून्य हो, तो उस शून्य से वह आंख मिलती है, जो जगत में छिपे रहस्य को खोल देती है। और तब पत्तों में पत्ते नहीं दिखते, बल्कि पत्तों का जो प्राण है, उसका दर्शन होने लगता है। और सागर की लहरों में लहरें नहीं दिखतीं, बल्कि लहरों को जो कंपाता है, उसके दर्शन होने लगते हैं। और मनुष्यों में तब देहें नहीं दिखतीं, बल्कि देहों के भीतर जो प्राण स्पंदित है, उसका अनुभव होने लगता है। और तब कैसे आश्चर्य का और कैसे चमत्कार का अनुभव होता है, उसे कहने का कोई उपाय नहीं है।

उस रहस्य के लिए आमंत्रित किया है और आह्वान किया है। और उस रहस्य तक पहुंचने के छोटे-से सूत्र आपको कहे हैं। वे सूत्र सनातन हैं। वे सूत्र मेरे या किसी और के नहीं हैं। वे सूत्र सनातन हैं। और जब से मनुष्य है और जब से मनुष्य में दिव्य की जिज्ञासा है, तब से सक्रिय हैं। उन सूत्रों का किसी धर्म से कोई वास्ता नहीं है, किसी ग्रंथ से कोई वास्ता नहीं है, वे शाश्वत हैं। और जब कोई ग्रंथ न थे और कोई धर्म न थे, तब भी वे थे। और अगर कल सारे धर्मग्रंथ नष्ट हो जाएं और सारे मंदिर-मस्जिद गिर जाएं, तब भी वे होंगे।

धर्म शाश्वत है; संप्रदाय बनते हैं और मिट जाते हैं। धर्म शाश्वत है; शास्त्र बनते हैं और मिट जाते हैं। धर्म शाश्वत है; तीर्थंकर और पैगंबर पैदा होते हैं और विलीन हो जाते हैं।

यह हो सकता है, एक वक्त आए कि हम भूल जाएं कि कभी कृष्ण हुए, महावीर हुए, क्राइस्ट हुए, बुद्ध हुए। लेकिन धर्म नष्ट नहीं होगा। धर्म तब तक नष्ट नहीं होगा, जब तक मनुष्य के भीतर आनंद की प्यास और जिज्ञासा है, जब तक मनुष्य दुख से ऊपर उठना चाहता है।

यदि आप दुखी हैं, यदि आपको बोध होता है कि दुख है, तो उस दुख को झेलते मत चले जाइए, उस दुख को सहते मत चले जाइए। उस दुख के विरोध में खड़े होइए और उस दुख को विसर्जित करने का उपाय करिए।

साधारण मनुष्य दुख को पाकर जो काम करता है वह, और साधक जो काम करता है वह, दोनों में बहुत थोड़ा-सा भेद है। जब साधारण व्यक्ति के सामने दुख खड़ा होता है, तो वह दुख को भुलाने का उपाय करता है। और जब साधक के सामने दुख खड़ा होता है, तो वह दुख को मिटाने का उपाय करता है।

दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे लोग, जो दुख को भुलाने का उपाय कर रहे हैं। और एक वे लोग, जो दुख को मिटाने का उपाय कर रहे हैं। परमात्मा करे, आप पहली पंक्ति में न रहें और दूसरी पंक्ति में आ जाएं।

दुख को भुलाने का उपाय एक तरह की मूर्च्छा है। आप चौबीस घंटे दुख को भुलाने का उपाय कर रहे हैं। आप लोगों से बातें कर रहे हैं, या संगीत सुन रहे हैं, या शराब पी रहे हैं, या ताश खेल रहे हैं, या जुए में लगे हुए हैं, या किसी और उपद्रव में लगे हुए हैं, जहां कि अपने को भूल जाएं, ताकि आपको स्मरण न आए कि भीतर बहुत दुख है।

हम चौबीस घंटे अपने को भुलाने के उपाय में लगे हुए हैं। हम नहीं चाहते कि दुख दिखाई पड़े। अगर हमें दुख दिखाई पड़ेगा, तो हम घबरा जाएंगे। तो हम दुख को भुलाने के और विलीन करने के उपाय में लगे हुए हैं। दुख भुलाने से मिटता नहीं है। दुख भुलाने से मिटता नहीं है, कोई घाव छिपा लेने से मिटता नहीं है। और अच्छे कपड़ों से ढांक लेने से कोई अंतर नहीं पड़ता है, वरन अच्छे कपड़ों से ढांक लेने से और घातक और विषाक्त हो जाता है।

तो घावों को छिपाएं न। उन्हें उघाड़ लें और अपने दुख का साक्षात करें। और उसे भुलाएं मत, उसे उघाड़ें और जानें और उसे मिटाने के उपाय में संलग्न हों। वे ही लोग जीवन के रहस्य को जान पाएंगे, जो दुख को मिटाने में लगते हैं, दुख को भुलाने में नहीं।

और मैंने कहा, दो ही तरह के लोग हैं। उन लोगों को मैं धार्मिक कहता हूं, जो दुख को मिटाने का उपाय खोज रहे हैं। और उन लोगों को अधार्मिक कहता हूं, जो दुख को भुलाने का उपाय खोज रहे हैं। आप स्मरण करें कि आप क्या कर रहे हैं? दुख को भुलाने का उपाय खोज रहे हैं? क्या आप सोचते हैं, अगर आपके सारे उपाय छीन लिए जाएं, तो आप बहुत दुखी नहीं हो जाएंगे?

एक राजा को ऐसा एक बार हुआ। उसके एक वजीर ने, उसके एक मंत्री ने उसको कहा कि ‘अगर किसी आदमी को हम बिलकुल अकेला बंद कर दें, तो वह तीन महीने में पागल हो जाएगा।’ राजा ने कहा, ‘कैसे हो जाएगा? हम उसे अच्छे खाने की व्यवस्था देंगे, अच्छे वस्त्र देंगे, फिर भी?’ उस वजीर ने कहा, ‘वह हो जाएगा। क्यों? क्योंकि उस अकेलेपन में अपने दुख को न भुला सकेगा।’ राजा ने कहा, ‘हम देखेंगे। और गांव में जो सबसे स्वस्थ आदमी हो और सबसे युवा और सबसे प्रसन्न, उसको पकड़ लिया जाए।’

गांव में एक युवक था, जिसके सौंदर्य की, जिसके स्वास्थ्य की चर्चा थी। उस युवक को पकड़ लिया गया और उसे एक कोठरी में बंद कर दिया गया। उसे सारी सुख-सुविधा दी गई, अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, लेकिन उसे समय को भुलाने का कोई उपाय नहीं दिया गया। वह खाली दीवारें और कमरा! और पहरे पर जो आदमी था, वह भी ऐसा रखा कि उसकी भाषा न समझे। उसे रोटी पहुंचा दी जाती। भोजन पहुंचा दिया जाता। पानी पहुंचा दिया जाता। और वह बंद था।

एक-दो दिन वह बहुत चिल्लाया कि मुझे क्यों बंद किया गया है? उसने बहुत हाथ-पैर फटकारे। एक-दो दिन उसने खाना भी नहीं खाया। लेकिन धीरे-धीरे खाना भी खाने लगा और उसने चिल्लाना भी बंद कर दिया। पांच-सात दिन के बाद देखा गया कि वह आदमी बैठा हुआ अकेले अपने से ही बातें कर रहा है।

वजीर ने उस बादशाह को खिड़की से दिखलाया, ‘देखते हैं, अब वह भुलाने का अंतिम उपाय कर रहा है, अपने से ही बातें कर रहा है!’

जब कोई नहीं होता आपके पास, तो आप अपने से ही बातें करने लगते हैं। और जैसे-जैसे लोग वृद्ध होने लगते हैं, वे बहुत अपने से बातें करने लगते हैं। युवा होते हैं, तब तक तो उनके होंठ भी बंद होते हैं। जब वे वृद्ध होने लगते हैं, तो उनके होंठ भी फड़कने लगते हैं। वे अपने से बातें करते हैं। रास्ते पर चलते हुए लोग आपने देखे होंगे। वे क्या कर रहे हैं? वे अपने को भुलाने का उपाय कर रहे हैं।

तीन माह तक वह युवक बंद था। तीन महीने के बाद जब उसे निकाला गया; वह पागल हो चुका था। पागल का मतलब क्या है? पागल का मतलब है, उसने अपने को भुलाने के लिए एक बिलकुल काल्पनिक दुनिया खड़ी कर ली थी। मित्र थे, दुश्मन थे, उनसे लड़ता था, बातें करता था। पागल का मतलब क्या है? असली दुनिया उपलब्ध न थी वहां, किससे लड़े, किससे बोले, किसके साथ बातें करे, तो उसने एक काल्पनिक दुनिया खड़ी कर ली थी। अब उसे इस दुनिया से कोई मतलब न था। अब उसकी अपनी एक दुनिया थी, उसमें वह अपने को भूल गया।

वह युवक पागल हो गया। आपमें से कोई भी पागल हो जाएगा। अगर आपको सुबह से दुकान पर और काम पर न जाना पड़े; और सुबह से उठकर लोगों से लड़ना-झगड़ना न पड़े; और सुबह से उठकर आपको व्यर्थ की बकवास में पलायन न मिले और व्यर्थ के कामों में आप अपने को न उलझा पाएं; अगर चौबीस घंटे आपको उलझाव न हो और आप खाली छोड़ दिए जाएं, आप पागल हो जाएंगे। क्योंकि उलझाव की वजह से, जो दुख आपके भीतर है, वह आपको दिखाई नहीं पड़ता। अगर वह पूरा दुख दिखाई पड़ेगा, तो आप आत्मघात कर लेंगे और या फिर आप उपाय खोज लेंगे काल्पनिक पागल हो जाने के, जिसमें अपने दुख को भूल जाएं।

धार्मिक व्यक्ति वह है, जिसे अगर बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाए, बिलकुल अकेला, तो भी उसे कोई दुख नहीं होगा; वह कोई उपाय नहीं खोजेगा।

जर्मनी में एक साधु था, इकहार्ट। वह एक दिन वन में गया हुआ था और एक दरख्त के नीचे अकेले में बैठा हुआ था। उसके कुछ मित्र भी वन-विहार को गए थे। उन्होंने देखा, इकहार्ट अकेला है। वे उसके पास गए और उन्होंने उससे कहा कि ‘मित्र! हमने देखा तुम अकेले बैठे हो, सोचा चलो तुम्हें कंपनी दें, तुम्हें साथ दें।’

इकहार्ट ने उनकी तरफ देखा और कहा कि ‘मित्रो! इतनी देर तक मैं परमात्मा के साथ था। तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया।’ इकहार्ट ने कहा, ‘इतनी देर मैं परमात्मा के साथ था, क्योंकि अपने साथ था। तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया।’ अदभुत उसने बात कही।

हम उसके विपरीत हैं। हम चौबीस घंटे किसी के साथ हैं कि कहीं अपना साथ न हो जाए। हम चौबीस घंटे किसी न किसी के साथ हैं कि कहीं अपना साथ न हो जाए। अपने से हम डरे हुए हैं। इस जगत में सब लोग अपने से डरे हुए हैं। यह अपने से डरा हुआ होना खतरनाक है।

मैंने जो सूत्र कहे, वे आपको अपने से परिचित कराएंगे और अपने भय को मिटाएंगे। और आप उस स्थिति में खड़े होंगे कि अगर आप इस जमीन पर बिलकुल अकेले हों, बिलकुल अकेले कि इस जमीन पर कोई भी न हो, तो भी आप उतने ही आनंद में होंगे, जितने कि तब, जब कि यह जमीन भरी हुई है। आप अकेले में उतने ही आनंद में होंगे, जितने कि तब, जब कि आप भीड़ में हैं। वही आदमी केवल मृत्यु से नहीं डरेगा, जिसने अकेले होने का आनंद लिया है। क्योंकि मृत्यु अकेला कर देती है; और क्या करती है! आप मृत्यु से इतने डरते हैं, उसका कुल कारण इतना है कि आप तो थे ही नहीं, भीड़ थी। और मौत भीड़ छीन लेगी, सारे संबंध छीन लेगी और आप अकेले हो जाएंगे। अकेलापन भय देता है।

इन तीन दिनों में हमने जो ध्यान की बात की है, वह मूलतः बिलकुल अकेले में, टोटल लोनलीनेस में जाने के प्रयोग हैं, एकदम अकेले में अपने भीतर जाने के प्रयोग हैं। उस केंद्र पर जाना है, जहां आप ही हो और कोई भी नहीं है।

और वह केंद्र अदभुत है। उस केंद्र को जो अनुभव कर लेता है, वह अनुभव करता है उन गहराइयों को जो समुद्र के नीचे होती हैं। हम केवल समुद्र की लहरों पर तैर रहे हैं। और हमें पता नहीं कि इन लहरों के नीचे अनंत गहराइयां छिपी हुई हैं, जहां कभी कोई लहर नहीं गई, जहां कभी किसी लहर ने कोई प्रवेश नहीं किया है।

अपने ही भीतर बहुत गहराइयां हैं। अकेलेपन में, जितने आप दूसरे लोगों से दूर होकर अकेले में चलेंगे, अपने में चलेंगे, दूसरों को छोड़ेंगे और स्वयं में चलेंगे, उतनी ही ज्यादा गहराई में, उतनी ही ज्यादा गहराई में आप पहुंचेंगे। और यह बड़ा रहस्य है कि आपके भीतर आप जितनी गहराई में पहुंचेंगे, आपका बाहर जीवन उतनी ही ऊंचाई को उपलब्ध हो जाएगा।

यह गणित का नियम है। यह जीवन के गणित का नियम है, आप अपने भीतर जितनी गहराई पा लेंगे, उतने ही आपके जीवन में बाहर ऊंचाई उपलब्ध हो जाएगी। जो अपने भीतर जितना कम गहरा होगा, वह बाहर उतना ही नीचा होगा। जो अपने भीतर बिलकुल गहरा नहीं होगा, बाहर उसकी कोई ऊंचाई नहीं होगी। हम उनको महापुरुष कहते हैं, हम उनको महापुरुष कहते हैं, जिनके भीतर गहराई होती है और उस गहराई के परिमाण में उनके बाहर ऊंचाई हो जाती है।

तो अगर जीवन में ऊंचाई चाहिए, तो स्वयं में गहराई चाहनी होगी। स्वयं में गहराई का उपाय समाधि है। समाधि अंतिम गहराई है। उस समाधि के लिए कैसे हम चरण रखें और कैसे अपने को साधें और सम्हालें और कैसे वे बीज बोएं, जो कि परमात्मा के फूलों में परिणत हो सकते हैं, उनकी बहुत थोड़ी-सी बातें आपसे कही हैं। पर यदि उन थोड़ी-सी बातों में से भी कुछ आपकी स्मृति को पकड़ लें और कोई बीज आपके हृदय की भूमि में पड़ जाए, तो कोई कारण नहीं है कि उसमें अंकुर आ जाए और आप एक नए जीवन को अनुभव कर सकें।

जिस जीवन को आप जीते रहे हैं, उसे वैसा ही जीए जाने की आकांक्षा को छोड़ दें। उसमें कोई अर्थ नहीं है। उसमें कुछ नए को जगह दें, कुछ नवीन को जगह दें। जैसे आप जीते रहे हैं, अगर वैसे ही जीते जाएंगे, तो सिवाय मृत्यु के और कोई परिणाम नहीं होगा।

यह आकांक्षा और यह अतृप्ति पैदा हो सके, उसके सिवाय और मेरा कोई मन नहीं है। साधारणतः लोग कहते हैं, धर्म संतोष है। और मैं कहता हूं, धार्मिक लोग बड़े असंतुष्ट लोग होते हैं। समस्त जीवन से उनके मन में असंतोष होता है और तभी वे धर्म की तरफ उत्सुक होते हैं।

तो मैं आपको संतोष करने को नहीं कहता हूं। नहीं कहता हूं कि आप संतोष करें। मैं आपसे कहूंगा कि असंतुष्ट हो जाएं, परिपूर्ण आत्मा से असंतुष्ट हो जाएं, आपके प्राण और मन का कण-कण असंतुष्ट हो जाए। असंतुष्ट हो जाए दिव्य के लिए, असंतुष्ट हो जाए सत्य के लिए। उस असंतोष की अग्नि में आपका नया जन्म होगा।

इस नए जन्म के लिए एक क्षण भी न खोएं। और इस नए जन्म के लिए समय का कोई व्यवधान न डालें। और इस नए जन्म के लिए यह भी स्मरण रखें…।

कल कोई मुझसे पूछता था कि क्या इस तरह की साधना करके हमें संसार से दूर चला जाना होगा? क्या हमें संन्यासी हो जाना होगा? क्या हम यह शून्य साधेंगे, तो हमारे संसार का क्या होगा? हमारे परिवार का क्या होगा?

 

स संबंध में भी जरूरी है कि इस अंतिम दिन मैं आपसे कुछ कहूं। मैं आपको यह कहूं कि धर्म परिवार का और संसार का विरोधी नहीं है। धर्म परिवार और संसार का विरोधी नहीं है। और यह जो बात हमारे दिमाग में पैदा हो गई है पिछले वर्षों में, पिछली सदियों में, उसने हमें और हमारे धर्म को बहुत नुकसान पहुंचाया है।

धर्म संसार का विरोधी नहीं है। धर्म परिवार का विरोधी नहीं है। धर्म का संबंध सब छोड़कर भाग जाने से नहीं है। धर्म तो आत्मिक परिवर्तन है। परिस्थिति से उसका कोई वास्ता नहीं है; मनःस्थिति से उसका वास्ता है। वह मन को बदलने की बात है, परिस्थिति को बदलने की बात नहीं है। आप अपने को बदलें।

बाहर जो दुनिया है, उसे छोड़कर भागने से थोड़े ही कोई बदलता है। अगर मैं घृणा से भरा हुआ हूं, तो मैं जंगल में जाकर क्या करूंगा? मैं वहां भी घृणा से भरा रहूंगा। अगर मैं अहंकार से भरा हुआ हूं, तो मैं पर्वतों पर जाकर क्या करूंगा? मैं वहां भी अहंकार से भरा रहूंगा। एक खतरा हो सकता है। समाज में था, भीड़ में था, तो अहंकार का रोज-रोज पता चल जाता था। हिमालय की ठंडक में, पहाड़ पर बैठकर, वहां लोग मौजूद न होंगे, अहंकार का पता न चलेगा। अहंकार का पता न चलना एक बात है और अहंकार का मिट जाना बिलकुल दूसरी बात है।

एक साधु के संबंध में मैंने सुना है, वे तीस वर्ष तक हिमालय पर थे। और उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ उन तीस वर्षों में कि वे परिपूर्ण शांत हो गए हैं; अहंकार विलीन हो गया है। फिर उनके कुछ शिष्यों ने एक बार उनसे कहा कि ‘नीचे मेला है और आप मेले में चलें।’

वे नीचे मेले में आए। और जब वे भीड़ में मेले की प्रविष्ट हुए और किसी अनजान आदमी का पैर उनके पैर पर पड़ गया, तो उन्हें तत्क्षण पता चला कि उनका अहंकार और क्रोध वापस जाग गया है। वे तो हैरान हुए। तीस साल हिमालय जिसे न दिखा सका, एक आदमी के पैर पर पैर रखने से उसके दर्शन हो गए!

तो भागने से कोई भेद नहीं पड़ता है। भागना नहीं है, बदलना है। तो भागने को सूत्र न समझें जीवन का, बदलने को सूत्र समझें। धर्म जब से भागने पर निर्भर हो गया है, तभी से धर्म निष्प्राण हो गया है। जब धर्म वापस बदलने पर निर्भर होगा, तब उसमें फिर पुनः प्राण आएंगे।

इसको स्मरण रखें, आपको अपने को बदलना है, अपनी जगह को नहीं बदलना है। जगह को बदलने का कोई मतलब नहीं है। जगह को बदलने में धोखा है, क्योंकि जगह को बदलने से यह हो सकता है कि आपको कुछ बातें पता न चलें। नए वातावरण में, शांत वातावरण में आपको धोखा हो कि आप शांत हो गए हैं।

जो शांति प्रतिकूल परिस्थितियों में न टिके, वह कोई शांति नहीं है। इसलिए जो समझदार हैं, वे प्रतिकूल परिस्थितियों में ही शांति को साधते हैं। क्योंकि जो प्रतिकूल में साध लेते हैं, अनुकूल में तो उसे हमेशा उपलब्ध कर ही लेते हैं।

इसलिए जीवन से भागने की बात नहीं है। जीवन को परीक्षा समझें। और इसे स्मरण रखें कि आपके आस-पास जो लोग हैं, वे सब सहयोगी हैं। वह आदमी भी आपका सहयोगी है, जो सुबह आपको गाली दे जाए। उसने एक मौका दिया है आपको। चाहें तो अपने भीतर प्रेम को साध सकते हैं। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर क्रोध को प्रकट करे। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आपकी निंदा कर जाए। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर कीचड़ उछालता हो। वह आदमी भी आपका सहयोगी है, जो आपके रास्ते पर कांटे बिछा दे। क्योंकि वह भी एक मौका है और परीक्षा है। और चाहें और उसे पार हो जाएं, तो आपके मन में उसके प्रति इतना ऋण होगा, जिसका हिसाब नहीं है। साधु जो नहीं सिखा सकते हैं इस जगत में, शत्रु सिखा सकते हैं।

मैं पुनः कहूं, साधु जो नहीं सिखा सकते हैं इस जगत में, शत्रु सिखा सकते हैं। अगर आप सजग हैं और सीखने की समझ है, तो आप जिंदगी के हर पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैं। और नहीं तो नासमझ, सीढ़ियों को भी पत्थर समझ लेते हैं और उनसे ही रुक जाते हैं। अन्यथा हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है, अगर समझ हो। अगर समझ हो, तो हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है।

इसे थोड़ा विचार करें। आपको अपने घर में, परिवार में जो-जो बातें पत्थर मालूम होती हों कि इनकी वजह से मैं शांत नहीं हो पाता, उन्हीं को साधना का केंद्र बनाएं और देखें कि वे ही आपको शांत होने में सहयोगी हो जाएंगी। कौन-सी बात आपको नहीं बनाती? परिवार में क्या अड़चन है? कौन-सी बात आपको रोकती है? जो बात आपको रोकती हो, जरा विचार करें, क्या कोई रास्ता उसे सीढ़ी बनाने का हो सकता है? बराबर रास्ते हो सकते हैं। और अगर विचार करेंगे और विवेक करेंगे, तो रास्ता दिखाई पड़ेगा।

कौन-सा कारण है, जो आपको कहता है कि परिवार छोड़ें, तब आप शांत होंगे और सत्य को उपलब्ध होंगे? कोई भी वास्तविक कारण नहीं है। अपने जीवन को, अपने चित्त को ठीक से समझें और अपने आस-पास की पूरी परिस्थितियों का उपयोग करें।

हम क्या करते हैं! परिस्थितियों का उपयोग नहीं करते, बल्कि परिस्थितियां ही हमारा उपयोग कर लेती हैं। हम पूरे जीवन इसलिए घाटे में रह जाते हैं कि हम परिस्थितियों का उपयोग नहीं करते, परिस्थितियां हमारा उपयोग कर लेती हैं। और हम घाटे में इसलिए रह जाते हैं कि हम केवल प्रतिकर्म करते रहते हैं, रिएक्शंस करते रहते हैं, हम कोई कर्म कभी नहीं करते।

आपने मुझे गाली दी, तो मैं तत्क्षण उससे वजनी गाली आपको देकर रहूंगा। आपने मुझे एक गाली दी, मैं उससे वजनी गाली या दो गालियां आपको दूंगा। और मैं यह न सोचूंगा कि यह मैंने केवल एक प्रतिकर्म किया, एक रिएक्शन किया। एक गाली दी गई थी, मैंने दो लौटा दी हैं। यह कोई कर्म नहीं है।

आप अगर अपने चौबीस घंटे के जीवन को देखें, तो आप पाएंगे, उसमें सब प्रतिकर्म हो रहे हैं। कोई कुछ कर रहा है, आप उसके उत्तर में कुछ कर रहे हैं। मैं आपसे पूछूं, आप ऐसा भी कुछ कर रहे हैं क्या जो किसी का उत्तर नहीं है? कोई काम आप ऐसा भी कर रहे हैं क्या जो किसी का उत्तर नहीं है? जो किसी का उत्तर न हो, जो किसी के कारण रिएक्शन में पैदा न हुआ हो, जो प्रतिक्रिया न हो, वह कर्म है। और वह कर्म ही साधना है।

इसको जरा विचार करेंगे, तो आप देखेंगे कि आप चौबीस घंटे प्रतिकर्म कर रहे हैं। दूसरे कुछ कर रहे हैं, उनके उत्तर में आप कुछ कर रहे हैं। आपने कुछ किया है अभी तक, जो सिर्फ आपने किया हो? जो आपसे पैदा हुआ और आपसे आया हो? उसे थोड़ा देखें। और उसे साधें, तो ठीक परिवार में और घर में और संसार के बीच संन्यास फलित हो जाए।

संसार का विरोध संन्यास नहीं है, संसार की शुद्धि संन्यास है। अगर संसार में आप शुद्ध होते चले जाएं, एक दिन आप पाएंगे कि आप संन्यासी हो गए हैं। संन्यासी होना कोई वेश-परिवर्तन नहीं है कि हमने कपड़े बदल लिए और हम संन्यासी हो गए। संन्यास तो पूरे अंतस का परिवर्तन है, एक विकास है। संन्यास एक ग्रोथ है। बड़े आहिस्ता, बहुत आहिस्ता एक विकास है।

अगर कोई व्यक्ति ठीक से अपने जीवन का उपयोग करे, जैसी भी परिस्थितियां हों, उनका उपयोग करे, तो क्रमिक रूप से धीरे-धीरे पाएगा, उसके भीतर संन्यासी का जन्म हो रहा है। वृत्तियों पर विचार करने की और वृत्तियों को शुद्ध और शून्य करने की बात है।

देखें अपने भीतर, आपकी कौन-सी वृत्तियां हैं, जो आपको संसारी बनाए हुए हैं? स्मरण रखें, कोई दूसरे लोग आपको संसारी नहीं बनाए हुए हैं। मैं जिस घर में हूं, उस घर में मेरे पिता मुझे संसारी नहीं बनाए हुए हैं। मेरे पिता मुझे कैसे बनाएंगे? मेरा पिता के प्रति जो मोह होगा, वह बना सकता है। आप जिस घर में हैं, आपकी पत्नी आपको संसारी कैसे बनाएगी? पत्नी के प्रति आपके जो भाव होंगे, वे आपको संसारी बनाए हुए हैं।

पत्नी को छोड़कर भागने से क्या होगा? वे भाव तो आपके साथ चले जाएंगे। कोई भावों को छोड़कर नहीं भाग सकता कहीं। अगर भावों को छोड़कर हम भाग सकते, दुनिया बड़ी आसान हो जाती। आप भागते हैं; जैसे छाया आपके पीछे जाती है, वैसे आपके सारे भाव आपके साथ चले जाते हैं। वे दूसरी जगह नया आरोपण कर लेंगे और आप दूसरी जगह नयी गृहस्थी बना लेंगे।

बड़े से बड़े संन्यासी बड़ी-बड़ी गृहस्थियां बना लेते हैं। उनकी गृहस्थियां बन जाती हैं, और उनके मोह पैदा हो जाते हैं, और उनकी आसक्तियां बन जाती हैं, और उनके सुख-दुख हो जाते हैं। क्योंकि वे उन भावों को साथ ले आए थे, वे नयी जगह खड़े हो जाएंगे। इससे कोई भेद नहीं पड़ता! आदमी बदल जाएंगे, चीजें वही रहेंगी।

तो मैं आपको यह नहीं कहता कि आप चीजों को छोड़कर भाग जाएं। मैं आपको कहता हूं, आप भावों को छोड़ दें। चीजें जहां हैं, वे वहीं होंगी; भाव बीच से गिर जाएंगे और आप मुक्त हो जाएंगे।

जापान में एक राजा हुआ। उस राजा के गांव के बाहर ही एक संन्यासी बहुत दिन तक रहता था। वह एक झाड़ के नीचे पड़ा रहता। अदभुत संन्यासी था। बड़ी उसकी गौरव-गरिमा थी। बड़ी उसकी ज्योति थी। बड़ा उसका प्रकाश था। बड़ी उसके जीवन में सुगंध थी। वह राजा भी उस आकर्षण से खिंचा हुआ धीरे-धीरे उसके पास पहुंचा। उसने उसे अनेक दिन वहां पड़े देखा। अनेक बार उसके चरणों में जाकर बैठा। उसका प्रभाव उस पर घना होता गया। और एक दिन उसने उससे कहा, ‘क्या अच्छा न हो कि इस झाड़ को छोड़ दें और मेरे साथ महल में चलें!’ उस संन्यासी ने कहा, ‘जैसा मन, चाहें वहीं चल सकते हैं।’

राजा थोड़ा हैरान हुआ। इतने दिन के आदर को थोड़ा धक्का लगा। उसने सोचा था, संन्यासी कहेगा, ‘महल! हम संन्यासी, हम महल में क्या करेंगे!’ संन्यासी की बंधी भाषा यही है। अगर संन्यास सीखा हुआ हो, तो यही उत्तर आएगा कि हम संन्यासी, हमको महल से क्या मतलब! हम लात मार चुके। लेकिन उस संन्यासी ने कहा, ‘जैसा मन, वहीं चल सकते हैं।’

राजा को धक्का लगा। सोचा, संन्यासी कैसे हैं! लेकिन खुद आमंत्रण दिया था, इसलिए वापस भी न ले सके। संन्यासी को ले जाना पड़ा। संन्यासी गया। राजा ने उसके लिए सारी व्यवस्था की, अपने ही जैसी। संन्यासी मौज से उसमें रहने भी लगा। उसके लिए बड़े तख्त बिछाए गए, उन पर वह सोया। बड़े कालीन बिछाए गए, उन पर वह चला। बड़े सुस्वादु भोजन दिए गए, उनको उसने किया। राजा का तो संदेह संदेह न रहा, निश्चित हो गया। राजा को लगा, यह कैसा संन्यासी है! एक बार भी इसने न कहा कि इन गद्दों पर हम न सो सकेंगे; हम तो फट्टों पर ही सोते हैं। एक बार भी इसने न कहा कि इतनी ऊंची चीजें हम न खा सकेंगे; हम तो रूखा-सूखा खाते हैं। राजा को बड़ा मुश्किल पड़ने लगा उसका रहना।

दो-चार-दस दिन ही बीते कि उसने उससे कहा कि ‘क्षमा करें, मन में मेरे एक संदेह होता है।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘अब क्या होता है, वह उसी दिन हो गया था।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘अब क्या होता है, वह उसी दिन हो गया था। फिर भी कहें, क्या संदेह है?’ राजा ने कहा, ‘संदेह यह होता है कि आप कैसे संन्यासी हैं? और मुझ संसारी में और आप संन्यासी में फर्क क्या है?’

उस संन्यासी ने कहा, ‘अगर फर्क देखना है, तो मेरे साथ गांव के बाहर चलें।’

राजा ने कहा, ‘मैं तो जानना ही चाहता हूं। संदेह से मन बड?ा व्यथित है, मेरी नींद तक खराब हो गई है। आप झाड़ के नीचे थे, तो अच्छा था, मेरे मन में आदर था। और आप यहां महल में हैं, तो मेरा तो आदर चला गया।’

वह संन्यासी राजा को लेकर गांव के बाहर गया। जब नदी पार हुई, जो कि सीमा थी गांव की, वे उस तरफ हुए, तो उस राजा ने कहा, ‘अब बोलें।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘और थोड़ा आगे चलें।’ धूप बढ़ने लगी। दोपहर हो गई। सूरज ऊपर आ गया। उस राजा ने कहा, ‘अब तो बता दें! अब तो बहुत आगे निकल आए।’ संन्यासी ने कहा, ‘यही बताना है कि अब हम पीछे लौटने को नहीं, आगे ही जाते हैं। तुम साथ चलते हो?’ उस राजा ने कहा, ‘मैं कैसे जा सकता हूं! पीछे मेरा परिवार है, मेरी पत्नी है, मेरा राज्य है!’ संन्यासी ने कहा, ‘अगर फर्क दिखे, तो देख लेना। हम आगे जाते हैं और पीछे हमारा कुछ भी नहीं है। और जब हम उस तुम्हारे महल में थे, तब भी हम तुम्हारे महल में थे, लेकिन तुम्हारा महल हमारे भीतर नहीं था। हम तुम्हारे महल के भीतर थे, लेकिन तुम्हारा महल हमारे भीतर नहीं था। इसलिए हम अब जाते हैं।’

उस राजा ने पैर पकड़ लिए। उसका भ्रम टूटा। उसका संदेह मिटा। उसने कहा, ‘क्षमा करें, मुझे बहुत पश्चात्ताप होगा जीवनभर, लौट चलें।’ संन्यासी ने कहा, ‘अब भी लौट चलूं, लेकिन संदेह फिर आ जाएगा।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘हमको क्या है, इधर न गए, इधर लौट चले। फिर लौट चलूं, लेकिन तुम्हारा संदेह फिर लौट आएगा। तुम पर कृपा करके अब मैं सीधा ही जाता हूं।’ उसने जो वचन कहा, स्मरणीय है। उसने कहा, ‘तुम पर कृपा करके अब मैं सीधा ही जाता हूं। मेरी करुणा कहती है कि अब मुझे सीधा जाने दें।’

और मैं आपको स्मरण दिलाता हूं कि महावीर के नग्न होने में उनके नग्न होने का आग्रह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। और संन्यासी का जंगल में पड़े रहने में, जो सच में संन्यासी है, उसका जंगल से मोह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। और नग्न द्वार-द्वार भिक्षा मांगने में भिक्षा मांगने का आग्रह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। अन्यथा वह बिना भिक्षा मांगे आपके घर भी ले सकता है। और बाहर सड़क पर पड़े रहने की बजाय महल में भी सो सकता है। संन्यासी को कोई भेद नहीं पड़ता है। हां, झूठे संन्यासी को पड़ता होगा।

संन्यासी को कोई भेद नहीं पड़ता है। भेद इसलिए नहीं पड़ता है कि उसके चित्त में कुछ प्रविष्ट नहीं होता है। चीजें अपनी जगह हैं, महल की दीवारें अपनी जगह हैं, गद्दियां जिन पर हम बैठे हैं, वे अपनी जगह हैं। वे अगर मेरे चित्त में प्रवेश न करें, तो मैं उनसे अछूता हूं और दूर हूं।

तो आप जहां हैं, उसे छोड़ने को मैं नहीं कहता हूं। आप जो हैं, उसको बदलने को कहता हूं। आप जहां हैं, वहां से भागने को नहीं कहता हूं। कमजोर भागते होंगे, आपको तो मैं बदलने को कहता हूं। और बदलना असली बात है।

सजग हों अपनी चित्त-स्थिति के प्रति और उसे बदलने में लग जाएं। कोई एक बिंदु पकड़ लें और उसे बदलने में लग जाएं। बूंद-बूंद करके, बूंद-बूंद करके सागर भर सकता है। बूंद-बूंद चलकर परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। एक-एक बूंद चलें, ज्यादा चलने को नहीं कहता। एक-एक बूंद चलें। और बूंद-बूंद चलकर परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। बहुत मत सोचें कि मेरी सामर्थ्य ज्यादा नहीं है, मैं कैसे पहुंचूंगा!

कोई मुझसे कहता था, कमजोर हैं हम, सामर्थ्य हमारी कम है, हम कैसे पहुंचेंगे?

कितने ही कमजोर हों, एक कदम चलने योग्य सबकी सामर्थ्य है। और क्या मैं आपको पूछूं कि बड़े से बड़े समर्थ भी एक कदम से ज्यादा कभी एक बार में चले हैं? बड़े से बड़े समर्थ भी एक कदम से ज्यादा एक बार में कभी नहीं चले हैं। और एक कदम चलने योग्य सामर्थ्य सबकी है और सदा है।

तो एक कदम चलें। और फिर एक कदम चलें। और फिर एक कदम चलें। एक ही कदम चलना है सदा। पर एक ही कदम जो चलता चला जाता है, वह अनंत फासले पूरे कर लेता है। और जो यह सोचकर कि ‘एक कदम चलने वाले हम कहां पहुंचेंगे’ रुक जाता है, वह कहीं भी नहीं पहुंच पाता है।

तो उस एक कदम चलने के लिए मैं आमंत्रण देता हूं। और इन दिनों इतने प्रेम से मेरी बातों को सुना है, इतनी शांति से उनको सुना है, उससे कितने आनंद को, कितने अनुग्रह को मैंने अनुभव किया है। बहुत अनुगृहीत हुआ हूं। हृदय में जो जगह दी है, उससे बहुत अनुगृहीत हुआ हूं। उसके लिए बहुत-बहुत, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और मेरे प्रेम को स्वीकार करें।

अब हम आज के अंतिम ध्यान के प्रयोग के लिए बैठेंगे। और उसके बाद विदा होंगे। इस आशा से विदा करता हूं कि जब हम दुबारा मिलेंगे, तो मैं पाऊंगा, आपकी शांति बढ़ी है और आपका आनंद बढ़ा है। और मैं पाऊंगा कि जिस कदम को उठाने के लिए मैंने कहा था, वह आपने उठाया है। और मैं पाऊंगा कि कुछ अमृत की बूंदें आपके करीब आयी हैं और आप कुछ अमृत के करीब पहुंचे हैं।

परमात्मा करे, एक कदम, कम से कम एक कदम उठाने की सामर्थ्य आपको दे। शेष कदम उसके बाद अपने आप उठ जाते हैं।

रात्रि के ध्यान के बाद हम चुपचाप चलेंगे, सुबह शायद मैं आपको नहीं मिल सकूंगा, पांच बजे चला जाऊंगा। इसलिए मेरी अंतिम विदा इसे मान लें। और हर एक व्यक्ति अपने भीतर बैठे हुए परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार कर ले। मेरे प्रणाम स्वीकार करें!

आज इतना ही।


Filed under: ध्‍यान--सूत्र (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिंदगी तुझे यूं हीगुजरने नहीं देंगे–कविता

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जिन्‍दगी तुझे यूं ही गुजरने नहीं देंगे—(कविता)

जिन्दगी तुझे यूँ ही नहीं गुजरने देंगे,

भर देंगे तेरी सुनी मांग में आनंद का सिंदूर,

और तुझे सज़ा-संवारकर बनाए फिर दुलहन,

करेंगे तेरा फिर वहीं सिंगार,

लोट आयेगा तुम्‍हारा वहीं पुराना रूप यौवन,

तेरे सूखे होठों पर ज़मीं उस हंसी को,

बना भागीरथी करेंगे गंगोतरी का उद्गम।

वो हंसी-खुशी बन कर गंगा के जल की तरह सीचेगी

उस उन शुष्‍क और मायूस ह्रदयो को,

जो भूल चूके उत्‍सव और अल्‍हाद,

कण-कण में भर देंगे अमन-मुस्कान,

और उन वीरान चमन फिर लोट आएगी फिर से बहार,

चाहे उसे हमे मांगना क्‍यों न पड़े उधार,

या कोई भी कीमत को देने को हम है तैयार।

और इंद्र धनुष के सब रंग को

हम भर उन्‍हें देंगे तेरे सपनों में।

जब तू फैली देखेगी चारों तरफ बहार।

तू छोड़ मायूसी को और बांध लेगी पैरो में मीरे के धुँघरू,

उन सुने पड़ें पथों पर

गुंज उठे गे फिर से मधुर गान,

जो उन थके मुसाफ़िरों में भर देंगे,

नया जीवन और की ताजगी,

सूखे प्राणों में फिर लोट आयेगा,

प्रेम सहसा और अहसास,

वो जड़वत हुए पैर

फिर थिरक उंठेंगे,

फिर चल पड़ेगे मदमस्‍त उसी मार्ग पर

जिसे वो थक हार कर छोड़ चुके थे…

ऐ जिन्दगी तुझे हम थकनें न देंगे,

यू रूकने नहीं देंगे।

तुझे यू हीं मिटने न देंगे

भर देंगे जरूर तुझ में कुछ तो नया पन……..

स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘मानस’

 


Filed under: मेरी कविताएं-- Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, मनसा स्‍वामी आनंद प्रसाद

हां मैं स्‍वार्थी हूं……कविता

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हां  मैं स्‍वार्थी हूं….

आपने सही सूना.

क्योंकि मैं अपने होने को जानना चाहता हूं।

और चल पडा हूं स्‍वार्थी हो के मार्ग पर,

और हो रहा हूं धीरे से अग्रसर स्‍वार्थी होने की तरफ,

हां शायद धीरे-धीरे में भी एक दिन पूरा स्‍वार्थी बन जाऊँ।

स्वंय में डूब जाऊँ, और खो जाऊँ आपने स्‍वयं में।

जो स्‍वयं को नहीं जानता, वह स्‍वार्थी कैसे हो सकता है?

स्‍वयं को जानना ही स्‍वार्थ है, स्‍वार्थी ही परमार्थी है।

जो अपने को नहीं जानता वो दूसरें को कैसे जान सकता है।

जो अपना भला नहीं कर सकता,

वो दूसरों का भल करने का भ्रम जरूर पाल लेता है।

क्‍योंकि मैं स्‍वार्थी हूं….स्‍वार्थी हूं.. हां मैं स्‍वार्थी हूं।.

और हो जाऊँ एक दिन संपूर्ण स्‍वार्थी।

हां मैं चाहता हूं सब मुझे स्‍वार्थी कहें ,

और मैं हो जाऊँ धन्‍य, उस परम शब्‍द से,

नहीं लगता स्‍वार्थी शब्‍द मुझे गाली जैसा,

जब कोई कहता है स्‍वार्थी मुझको]

मुझे लगती एक उपाधि, पुरस्‍कार,

हां मुझे कहो बार-बार स्‍वार्थी,

की देखो वो जा रहा स्‍वार्थी ।

भ्रम पालता है, और नाहक दुःख उठाता है।

जब दूसरे उसे धिक्कार ते है,

और वो खड़ा हो जाता अचंभित सा,

देखो मैंने तो तुम्हारा भला चहा,

और तुमने मुझे क्‍या दिया,

इस लिए जानते थे पुराने लोग,

जब हम करते है किसी पर अहसान

उस के अहंकार को लगती है चोट,

नेकी कर ओर कुएँ में डाल,

स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’


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जीवन—दर्पण—(कविता)

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जीवन—दर्पण—(कविता)

 जीवन के धुँधलें दर्पण में,

परछाई जब रही सुकड़ कर।

जरजर मिटटी होती काया को

हम क्‍यों बैठे हे उसे पकड़ कर।

लेकिन फिर भी कुछ जीवत है,

सूखे होते ठूंठ वृक्ष पर

पल्‍लवित वल्लरी चढ़ रही उतंग पर,

मेरा ये मन क्‍यों आज नवयौवना सा

देख रहा है नया दर्पण फिर,

नहीं देखता मिटते तन को

नहीं मानता किसी विघटन को

कायर भीरू सा बन कर मैं,

देख रहा हूं चिर हरण को

सोच रहा था इन वासनाओं को

थका सकूंगा समय सिहर तक

पर नहीं हो सकी चाहत पूरी

रह गई वासनाएं सभी अधूरी

वो तड़प-झिड़क कर खड़ी हुई है,

शायद अब वो फिर नई हुई है।

वो सूखे तन पर मचल रही है,

तूफ़ानों सी उछल रही है।

में जब पकड़ रहा था छाया,

वो मांग रही है सुकोमल काया,

जिस दर्पण में सज़े और सँवरे

ऐसी लहरों को खोज रही है।

में बेबस और लाचार खड़ा हूं

तूफ़ानों में फसी नाव सा

ले जाएगी किस और कहां पर

नहीं जानता में पर बस सा

थका मुसाफिर क्‍या चाहेगा

कब होगा रूकना इस अंत ही डगर का

क्‍या कभी किनारा पा जाऊँगा

नहीं जानता….नहीं जानता…..

स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘मानस’

 

 

 


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महावीर वाणी (भाग–1) प्रवचन–4

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धर्म : स्‍वभाव में होना—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 21 अगस्‍त; 1971

प्रथम पर्युषण व्‍याख्‍यानमाला, पाटकर हाल बम्‍बई।

धम्म-सूत्र

धम्मो मंगलमुक्किट्ठं,

           अहिंसा संजमो तवो।

देवा वि तं नमंसन्ति,

जस्स धम्मे सया मणो ।।

धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन-सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।

 र्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है — तो अमंगल क्या है, दुख क्या है, मनुष्य की पीड़ा और संताप क्या है? उसे न समझें तो “धर्म मंगल है, शुभ है, आनंद है’– इसे भी समझना आसान न होगा। महावीर कहते हैं– धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। जीवन में जो भी आनंद की संभावना है, वह धर्म के द्वार से ही प्रवेश करती है। जीवन में जो भी स्वतंत्रता उपलब्ध होती है वह धर्म के आकाश में ही उपलब्ध होती है। जीवन में जो भी सौंदर्य के फूल खिलते हैं वे धर्म की जड़ों से ही पोषित होते हैं। और जीवन में जो भी दुख है वह किसी न किसी रूप में धर्म से च्युत हो जाने में, या अधर्म में संलग्न हो जाने में है। महावीर की दृष्टि में धर्म का अर्थ है– जो मैं हूं, उस होने में ही जीना है। जो मैं हूं, उससे जरा भी, इंच-भर भी च्युत न होना है।

जो मेरा होना है, जो मेरा अस्तित्व है उससे जहां मैं बाहर जाता हूं, सीमा का उल्लंघन करता हूं। जहां मैं विजातीय से संबंधित होता हूं, जहां मैं उससे संबंधित होता हूं जो मैं नहीं हूं, वहीं दुख का प्रारंभ हो जाता है। और दुख का प्रारंभ इसलिए हो जाता है कि जो मैं नहीं हूं, उसे मैं कितना ही चाहूं, वह मेरा नहीं हो सकता। जो मैं नहीं हूं, उसे मैं कितना ही बचाना चाहूं, उसे मैं बचा नहीं सकता। वह खोयेगा ही। जो मैं नहीं हूं, उस पर मैं कितना ही श्रम और मेहनत करूं, अंततः मैं पाऊंगा वह मेरा नहीं सिद्ध हुआ। श्रम हाथ लगेगा, चिंता हाथ लगेगी, जीवन का अपव्यय होगा और अंत में मैं पाऊंगा कि मैं खाली का खाली रह गया हूं। मैं केवल उसे ही पा सकता हूं जिसे मैंने किसी गहरे अर्थ में सदा से पाया ही हुआ है। मैं केवल उसका ही मालिक हो सकता हूं जिसका मैं जानूं न जानूं, अभी भी मालिक हूं। मृत्यु जिसे मुझसे नहीं छीन सकेगी, वही केवल मेरा है। देह मेरी गिर जाएगी तो भी जो नहीं गिरेगा, वही केवल मेरा है। रुग्ण हो जाएगा सब कुछ, दीन हो जाएगा सब कुछ, नष्ट हो जाएगा सब कुछ– फिर भी जो नहीं म्लान होगा, वही मेरा है। गहन अंधकार छा जाए, अमावस आ जाए जीवन में चारों तरफ– फिर भी जो अंधेरा नहीं होगा वही मेरा प्रकाश है।

लेकिन हम सब, जो मैं नहीं हूं, वहां खोजते हैं स्वयं को। वहीं से विफलता, वहीं से फ्रसटरेशन, वहीं से विषाद जन्मता है। जो भी हम चाहते हैं, वह स्वयं को छोड़कर सब हम चाहते हैं। हैरानी की बा त है, इस जगत में बहुत कम लोग हैं जो स्वयं को चाहते हैं। शायद आपने इस भांति नहीं सोचा होगा कि आपने स्वयं को कभी नहीं चाहा, सदा किसी और को चाहा।

वह और, कोई व्यक्ति भी हो सकता है; वस्तु भी हो सकती है, कोई पद भी हो सकता है, कोई स्थिति भी हो सकती है; लेकिन सदा कोई और है, अन्य है– दि अदर। स्वयं को हममें से कोई भी कभी नहीं चाहता। और केवल एक ही संभावना है जगत में कि हम स्वयं को पा सकते हैं, और कुछ पा नहीं सकते। सिर्फ दौड़ सकते हैं। जिसे हम पा नहीं सकते और केवल दौड़ सकते हैं,

उससे दुख आएगा। उससे डिसइल्युजनमेंट होगा, कहीं न कहीं भ्रम टूटेगा और ताश के पत्तों का घर गिर जाएगा। और कहीं न कहीं नाव डूबेगी, क्योंकि वह कागज की थी। और कहीं न कहीं हमारे स्वप्न बिखरेंगे और आंसू बन जाएंगे। क्योंकि वे स्वप्न थे।

सत्य केवल एक है, और वह यह कि मैं स्वयं के अतिरिक्त इस जगत में और कुछ भी नहीं पा सकता हूं। हां, पाने की कोशिश कर सकता हूं। पाने का श्रम कर सकता हूं, पाने की आशा बांध सकता हूं, पाने के स्वप्न देख सकता हूं। और कभी-कभी ऐसा भी अपने को भरमा सकता हूं कि पाने के बिलकुल करीब पहुंच गया हूं। लेकिन कभी पहुंचता नहीं, कभी पहुंच नहीं सकता हूं।

अधर्म का अर्थ है, स्वयं को छोड़कर और कुछ भी पाने का प्रयास। अधर्म का अर्थ है, स्वयं को छोड़कर “पर’ पर दृष्टि। और हम सब “दि अदर ओरिएंटेड’ हैं। हमारी दृष्टि सदा दूसरे पर लगी है। और कभी अगर हम अपनी शक्ल भी देखते हैं तो वह भी दूसरे के लिए। अगर आइने के सामने खड़े होकर भी अपने को देखते हैं तो वह किसी के लिए– कोई जो हमें देखेगा– उसके लिए हम तैयारी करते हैं। स्वयं को हम सीधा कभी नहीं चाहते। और धर्म तो स्वयं को सीधे चाहने से उत्पन्न होता है। क्योंकि धर्म का अर्थ है स्वभाव — दि अल्टीमेट नेचर। वह जो अंततः, अंततोगत्वा मेरा, मेरा होना है, जो मैं हूं।

सार्त्र ने बहुत कीमती सूत्र कहा है। कहा है– दि अदर इज हैल। वह जो दूसरा है, वही नरक है हमारा। सार्त्र ने किसी और अर्थ में कहा है। लेकिन महावीर भी किसी और अर्थ में राजी हैं। वे भी कहते हैं कि दि अदर इज हैल, बट दि इंफेसिस इज नाट आन दि अदर ऐज हैल, बट आन वनसेल्फ ऐज दि हैवन। दूसरा नरक है, यह महावीर नहीं कहते हैं क्योंकि इतना कहने में भी दूसरे को चाहने की आकांक्षा और दूसरे से मिली विफलता छिपी है। महावीर कहते हैं– “स्वयं होना मोक्ष है। धर्म है मंगल’।

सार्त्र के इस वचन को थोड़ा समझ लें। सार्त्र का जोर है यह कहने में कि दूसरा नर्क है। लेकिन दूसरा नर्क क्यों मालूम पड़ता है, यह शायद सार्त्र ने नहीं सोचा। दूसरा नर्क इसीलिए मालूम पड़ता है कि हमने दूसरे को स्वर्ग मानकर खोज की। हम दूसरे के पीछे गये, जैसे वहां स्वर्ग है। वह चाहे पत्नी हो, चाहे पति, चाहे बेटा हो, चाहे बेटी। चाहे मित्र, चाहे धन, चाहे यश। वह कुछ भी हो दूसरा, जो मुझसे अन्य है। सार्त्र को कहने में आता है कि दूसरा नर्क है क्योंकि दूसरे में स्वर्ग खोजने की कोशिश की गई है।अगर स्वर्ग नहीं मिलता तो नरक मालूम पड़ता है। महावीर नहीं कहते कि दूसरा नरक है। महावीर कहते हैं– “धम्मो मंगलमुक्किट्ठं’– धर्म मंगल है। अधर्म अमंगल है, ऐसा भी नहीं कहते। कि यह “दूसरा’ नरक है, ऐसा भी नहीं कहते हैं। स्वयं का होना मुक्ति है, मोक्ष है, मंगल है, श्रेयस है।

इसमें फर्क है। इसमें फर्क यही है कि दूसरे नरक हैं यह जानना दूसरे में स्वर्ग को मानने से दिखाई पड़ता है। अगर मैंने दूसरे से कभी सुख नहीं चाहा तो मुझे दूसरे से कभी दुख नहीं मिल सकता। हमा री अपेक्षाएं ही दुख बनती हैं — ऐक्सपेक्टेशन्स डिसइल्यूजन्ड। अपेक्षाओं का भ्रम जब टूटता है तो विपरीत हाथ लगता है। दूसरा नरक नहीं है। अगर महावीर को ठीक समझें तो सार्त्र से कहना पड़ेगा कि दूसरा नरक नहीं है। लेकिन तुमने चूंकि दूसरे को स्वर्ग माना इसलिए दूसरा नरक हो जाता है। लेकिन तुम स्वयं स्वर्ग हो।

और स्वयं को स्वर्ग मानने की जरूरत नहीं है। स्वयं का स्वर्ग होना स्वभाव है। दूसरे को स्वर्ग मानना पड़ता है और इसलिए फिर दूसरे को नरक जानना पड़ता है। वह हमारे ही भाव हैं। जैसे कोई रेत से तेल निकालने में लग गया हो, तो उसमें रेत का तो कोई कसूर नहीं है। और जैसे कोई दीवार को दरवाजा मानकर निकलने की कोशिश करने लगे तो दीवार का तो कोई दोष नहीं है। और अगर दीवार दरवाजा सिद्ध न हो और सिर टूट जाए और लहूलुहान हो जाए तो क्या आप नाराज होंगे? और कहेंगे कि दीवार दुष्ट है? सार्त्र वही कह रहा है। वह कह रहा है, दूसरा नरक है। इसमें दूसरे का कंडेम्नेशन है, इसमें दूसरे की निंदा है और दूसरे पर क्रोध छिपा है।

महावीर यह नहीं कहते। महावीर का वक्तव्य बहुत पाजिटिव है। महावीर कहते हैं– धर्म मंगल है, स्वभाव मंगल है, स्वयं का होना मोक्ष है और स्वयं को मानने की जरूरत नहीं है कि मोक्ष है। ध्यान रहे, मानना हमें वही पड़ता है, जहां नहीं होता। समझना हमें वहीं पड़ता है, जहां नहीं होता। कल्पनाएं हमें वहीं करनी होती हैं जहां कि सत्य कुछ और है। स्वयं को सत्य या स्वयं को धर्म या स्वयं को आनंद मानने की जरूरत नहीं है। स्वयं का होना आनंद है। लेकिन हम जो दूसरे पर दृष्टि बांधे जीते हैं, उन्हें पता भी कैसे चले कि स्वयं कहां है? हमें वही पता चलता है जहां हमारा ध्यान होता है। ध्यान की धारा, ध्यान का फोकस, ध्यान की रोशनी जहां पड़ती है वही प्रगट हो जा ता है। दूसरे पर हम दौड़ते हैं, दूसरे पर ध्यान की रोशनी पड़ती है; नरक प्रगट होता है।स्वयं पर ध्यान की रोशनी पड़े तो स्वर्ग प्रगट होता है। दूसरे में मानना पड़ता है और इसलिए एक दिन भ्रम टूटता है– टूटता ही है। कोई कितनी देर भ्रम को खींच सकता है, यह उसकी अपने भ्रम को खींचने की क्षमता पर निर्भर है। बुद्धिमान है, क्षण-भर में टूट जाता है। बुद्धिहीन है, देर लगा देता है। और एक से छूटता है भ्रम हमारा तो तत्काल हम दूसरे की तलाश में लग जाते हैं।

लेकिन यह खयाल ही नहीं आता कि एक “दूसरे’ से टूटा हुआ भ्रम का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे “दूसरे’ से मिल जाएगा स्वर्ग। जन्मों-जन्मों तक यही पुनरुक्ति होती है। स्वयं में है मोक्ष, यह तब दिखाई पड़ना शुरू होता है जब ध्यान की धारा दूसरे से हट जाती है और स्वयं पर लौट आती है। “धर्म मंगल है’– यह जानना हो तो जहां- जहां अमंगल दिखाई पड़े वहां से विपरीत ध्यान को ले जाना। दि अपोजिट इज दि डायरेक्शन, वह जो विपरीत है। धन में अगर न दिखाई पड़े, मित्र में अगर न दिखाई पड़े, पति-पत्नी में यदि न दिखाई पड़े, बाहर अगर दिखाई न पड़े, दूसरे में अगर दिखाई न पड़े तो सबसटीटयूट खोजने मत लग जाना। कि इस पत्नी में नहीं मिलता है तो दूसरी पत्नी में मिल सकेगा। इस मकान में नहीं बनता स्वर्ग, तो दूसरे मकान में बन सकेगा। इस वस्त्र में नहीं मिलता तो दूसरे वस्त्र में मिल सकेगा। इस पद पर नहीं मिलता तो थोड़ा और दो सीढ़ियां चढ़कर मिल सकेगा। ये सबसटीटयूट हैं।

यह एक कागज की नाव डूबती नहीं है कि हम दूसरे कागज की नाव पर सवा र होने की तैयारी करने लगते हैं, बिना यह सोचे हुए कि जो भ्रम का खंडन हुआ है वह इस नाव से नहीं हुआ, वह कागज की नाव से हुआ है। वह इस पत्नी से नहीं हुआ, वह पत्नी-मात्र से हो गया है। वह इस पुरुष से नहीं हुआ, वह पुरुष-मात्र से हो गया है। वह इस “पर’ से नहीं हुआ, वह “पर-मात्र’ से हो गया है। महावीर की घोषणा कि धर्म मंगल है, कोई हाइपोथिटिकल, कोई प िरकल्पनात्मक सिद्धांत नहीं है, और न ही यह घोषणा कोई फिलासफिक, कोई दार्शनिक वक्तव्य है। महावीर कोई दार्शनिक नहीं हैं। पश्चिम के अर्थ में– जिस अर्थ में हीगल या कांट या बट्रैंड रसैल दार्शनिक हैं, उस अर्थे में महावीर दार्शनिक नहीं हैं। महा वीर का यह वक्तव्य सिर्फ एक अनुभव, एक तथ्य की सूचना है। ऐसा महावीर सोचते नहीं कि धर्म मंगल है, ऐसा महावीर जानते हैं कि धर्म मंगल है। इसलिए यह वक्तव्य बिना कारण के दिये गये वक्तव्य हैं।

और जब पहली बार पूरब के मनुष्यों के विचार पश्चिम में अनूदित हुए तो उन्हें बहुत हैरानी हुई क्योंकि पश्चिम के सोचने का जो ढंग था– अरस्तू से लेकर आज तक– अभी भी वही है। वह यह है कि तुम जो कहते हो, उसका कारण भी तो बताओ। इस वक्तव्य में कहा है कि “धम्मो मंगल मुक्किट्ठम’– धर्म मंगल है। अगर पश्चिम में किसी दार्शनिक ने यह कहा होता तो दूसरा वक्तव्य होता– क्यों, व्हाय? लेकिन महावीर का दूसरा वक्तव्य व्हाय नहीं है, व्हाट है। महावीर कहते हैं, धर्म मंगल है। (कौन-सा धर्म?) “अहिंसा संजमो तवो।’ वे यह नहीं कहते, क्यों? अगर पश्चिम में अरस्तू ऐसा कहता तो अरस्तू तत्काल बताता कि क्यों मैं कहता हूं कि धर्म मंगल है। महावीर कहते हैं कि मैं कहता हूं, धर्म मंगल है। कौन- सा धर्म? यह अहिंसा, संयम और तप वाला धर्म मंगल है। कोई कारण नहीं दिया जा रहा है, कोई कारण नहीं बता या जा रहा है। कोई प्रमाण नहीं दिया जा रहा है। अनुभूति के लिए कोई प्रमाण नहीं होता, सिद्धांतों के लिए प्रमाण होते हैं। सिद्धांतों के लिए तर्क होते हैं, अनुभूति स्वयं ही अपना तर्क है। अनुभूति को जानना हो कि वह सही है या गलत, तो अनुभूति में उतरना पड़ता है। सिद्धांत को जानना हो कि सही है या गलत, तो सिद्धांत के सिलौसिज्म में, सिद्धांत की जो तर्कसरणी है, उसमें उतरना पड़ता है। और हो सकता है, तर्कसरणी बिलकुल सही हो और सिद्धांत बिलकुल गलत हो। और हो सकता है, प्रमाण बिलकुल ठीक मालूम पड़े, और जिसके लिए दिये गये हैं, वह बिलकुल ठीक न हो। गलत बातों के लिए भी ठीक प्रमाण दिये जा सकते हैं। सच तो यह है कि गलत बातों के लिए ही हमें ठीक प्रमाण खोजने पड़ते हैं। क्योंकि गलत बातें अपने पैर से खड़ी नहीं हो सकतीं। उनके लिए ठीक प्रमाणों की सहायता की जरूरत पड़ती है।

महावीर जैसे लोग प्रमाण नहीं देते, सिर्फ वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं– ऐसा है। उनके वक्तव्य वैसे ही वक्तव्य हैं जैसे कि किसी आइंस्टीन के या किसी और वैज्ञानिक के। आइंस्टीन से अगर हम पूछें कि पानी हाइड्रोजन और आक्सीजन से क्यों मिलकर बना है, तो आइंस्टीन कहेगा, क्यों का कोई सवाल नहीं है– बना है। इट इज सो। यह हम नहीं जानते कि क्यों बना है। हम इतना ही कह सकते हैं कि ऐसा है। और जिस भांति आइंस्टीन कह सकता है कि पानी का अर्थ है, एच टू ओ– हाइड्रोजन के दो अणु और आक्सीजन का एक अणु, इनका जोड़ पानी है। वैसे महावीर कहते हैं कि धर्म– अहिंसा, संयम, तप– इनका जोड़ है। यह “अहिंसा संजमो तवो’, यह वैसा ही सूत्र है जैसे एच-टू-ओ। यह ठीक वैसा ही वक्तव्य है, वैज्ञानिक का। विज्ञान दूसरे के, पर के संबंध में वक्तव्य देता है,धर्म स्वयं के संबंध में वक्तव्य देता है। इसलिए अगर वैज्ञानिक के वक्तव्य को जांचना हो तो तर्क से नहीं जांचा जा सकता, उसकी प्रयोगशाला में जाना पड़ेगा। स्वभावतः उसकी प्रयोगशाला बाहर है क्योंकि उसके वक्तव्य पर के संबंध में हैं। और अगर महावीर जैसे व्यक्ति का वक्तव्य जांचना हो तो भी प्रयोगशाला में जाना पड़े। निश्चित ही महावीर की प्रयोगशाला बाहर नहीं है, वह प्रत्येक व्यक्ति के अपने भीतर है। लेकिन थोड़ा बहुत हम जानते हैं कि महावीर जो कहते होंगे, ठीक कहते होंगे। हमें यह तो पता नहीं है कि धर्म मंगल है, लेकिन हमें यह भलीभांति पता है कि अधर्म अमंगल है– कम-से-कम इतना हमें पता है। यह भी कुछ कम पता नहीं है। और अगर बुद्धिमान आदमी हो तो इतने ज्ञान से परमज्ञान तक पहुंच सकता है। हमें यह तो पता नहीं है कि धर्म मंगल है, लेकिन हमें यह पूरी तरह पता है कि अधर्म अमंगल है। क्योंकि अधर्म हमने किया है। अधर्म को हम जानते हैं।

इसे थोड़ा सोचें। क्या आपको पता है, जब भी आपके जीवन में कोई दुख आता है तो दूसरे के द्वारा आता है? दूसरे के द्वारा आता हो या न आता हो, आपके लिए सदा दूसरे के द्वारा आता मालूम पड़ता है। क्या आपके जीवन में जब कोई चिंता आती है तो कभी आपने खयाल किया है कि चिंता भीतर से नहीं, बाहर से आती मालूम पड़ती है। क्या कभी आप भीतर से चिंतित हुए हैं? सदा बाहर से चिंतित हुए हैं। सदा चिंता का के*नदर कुछ और रहा है, आपको छोड़कर। वह धन हो, वह बीमार मित्र हो, वह डूबती हुई दुकान हो, वह खोता हुआ चुनाव हो, वह कुछ भी हो, दूसरा है– सदा दूसरा है। कुछ और, आपको छोड़कर आपके दुख का कारण बनता है।

लेकिन एक भ्रांति हमारे मन में है जो टूट जानी जरूरी है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि दूसरा सुख का भी कारण बनता है। उसी से सब उपद्रव जारी रहता है। ऐसा तो लगता है कि दूसरा दुख का कारण बनता है, लेकिन ऐसा भी लगता है कि दूसरा सुख का कारण बनता है। चिंता तो दूसरे से आती है, दुख भी दूसरे से आता है, लेकिन सुख भी दूसरे से आता हुआ मालूम पड़ता है। ध्यान रखें, वह जो दूसरे से दुख आता है वह इसीलिए आता है कि आप इस भ्रांति में जीते है कि दूसरे से सुख आ सकता है। ये संयुक्त बातें हैं। और अगर आप आधे पर ही समझते रहे कि दूसरे से दुख आता है और यह मानते चले गए कि दूसरे से सुख आता है तो दूसरे से दुख आता चला जाएगा। दूसरे से दुख आता ही इसलिए है कि दूसरे से हमने एक भ्रांति का संबंध बना रखा है कि सुख आ सकता है। आता कभी नहीं। आ सकता है, इसकी संभावना हमारे आ सपास खड़ी रहती है। आ सकता है, इसकी संभावना हमारे आसपास खड़ी रहती है। आ सकता है, सदा भविष्य में होता है। इसे भी थोड़ा खोजें तो आपके अनुभव के कारण मिल जाएंगे।

कभी किसी क्षण में आपने जाना कि दूसरे से सुख आ रहा है — सदा ऐसा लगता है, आएगा। आता कभी नहीं। जिस मकान को आप सोचते हैं, मिल जाने से सुख आएगा, वह जब तक नहीं मिला है तब तक “आएगा’ है। वह जिस दिन मिल जाएगा उसी दिन आप पाएंगे कि उस मकान की अपनी चिंताएं हैं, अपने दुख हैं, वे आ गए। और सुख अभी नहीं आया। और थोड़े दिन में आप पाएंगे कि आप भूल ही गए यह बात कि इस मकान से कितना सुख सोचा था कि आएगा, वह बिलकुल नहीं आया।

लेकिन मन बहुत चालाक है, वह लौटकर नहीं देखता। वह रिट्रोस्पेक्टिवली कभी नहीं सोचता कि जिन-जिन चीजों से हमने सोचा था कि सुख आएगा, उनमें से कुछ आ गयी, लेकिन सुख नहीं आया। इस लिए, अगर किसी दिन पृथ्वी पर ऐसा हो सका कि आप जो-जो सुख चाहते हैं, आपको तत्काल मिल जाएं तो पृथ्वी जितनी दुखी हो जाएगी, उतनी उसके पहले कभी नहीं थी। इसलिए जिस मुल्क में जितने सुख की सुविधा बढ़ती जाती है उसमें उतना दुख बढ़ता जाता है। गरीब मुल्क कम दुखी होते हैं, अमीर मुल्क ज्यादा दुखी होते हैं। गरीब आदमी कम दुखी होता है, जब मैं यह कहता हूं तो आपको थोड़ी हैरानी होगी क्योंकि हम सब मानते हैं कि गरीब बहुत दुखी होता है। पर मैं आपसे कहता हूं, गरीब कम दुखी होता है। क्योंकि अभी उसकी आशाओं का पूरा का पूरा जाल जीवित है। अभी वह आशाओं में जी सकता है।अभी वह सपने देख सकता है। अभी कल्पना नष्ट नहीं हुई है, अभी कल्पना उसे संभाले रखती है। लेकिन जब उसे सब मिल जाए, जो-जो उसने चाहा था, तो सब आशाओं के सेतु टूट गए। भविष्य नष्ट हुआ।

और वर्तमान में सदा दुख है, दूसरे के साथ। दूसरे के साथ सिर्फ भविष्य में सुख होता है। तो अगर सारा भविष्य नष्ट हो जाए, जो-जो भविष्य में मिलना चाहिए वह आपको अभी मिल जाए, इसी क्षण, तो आ प सिवाय आत्महत्या करने के और कुछ भी नहीं कर सकेंगे। इसलिए जितना सुख बढ़ता है उतनी आत्महत्याएं बढ़ती हैं। जितना सुख बढ़ता है उतनी विक्षिप्तता बढ़ती है। जितना सुख बढ़ता है — बड़ी उल्टी बात है क्योंकि सब वैज्ञानिक कहते हैं कि साधन बढ़ जाएंगे तो आदमी बहुत सुखी हो जाएगा।लेकिन अनुभव नहीं कहता। आज अमेरिका जितना दुखी है, उतना कोई भी देश दुखी नहीं है। और महावीर अपने घर में जितने दुखी हो गए, महावीर के घर के सामने जो रोज भीख मांगकर चला जाता भिखारी होगा , वह भी उतना दुखी नहीं था। महावीर का दुख पैदा हुआ है इस बात से कि जो भी उस युग में मिल सकता था, वह मिला हुआ था। महावीर के लिए कोई भविष्य न बचा, नोफयूचर। और जब भविष्य न बचे तो सपने कहां खड़े करिएगा? जब भविष्य न बचे तो कागज की नाव किस सागर में चलाइएगा? भविष्य के सागर में ही चलती है कागज की नाव। अगर भविष्य न बचे तो किस भूमि पर ताशों का भवन बनाइएगा? अगर ताशों का भवन बनाना हो तो भविष्य की नींव चाहिए। तो महावीर का जो त्याग है, वह त्याग असल में भविष्य की समाप्ति से पैदा होता है। नोफयूचर, कोई भविष्य नहीं है, तो महावीर अब कहां जाए, किस पद पर चढ़ें जहां सुख मिलेगा? किस स्त्री को खोजें जहां सुख मिलेगा? किस धन की राशि पर खड़े हो जाएं जहां सुख होगा? वह सब है।

महावीर के फ्रस्टेशन को, महावीर के विषाद को हम सोच सकते हैं। और हम उन नासमझों की बात भी सोच सकते हैं जो महावीर के पीछे दूर तक गांव के बाहर गए और समझाते रहे कि इतना सुख छोड़कर कहां जा रहे हो? ये वे लोग थे जिनका भविष्य है। वे कह रहे थे कि पागल हो गए हो! जिस महल के लिए हम दीवाने हैं और सोचते हैं, किसी दिन मिल जाएगा तो मोक्ष मिल जाएगा — उसे छोड़कर जा रहे हो! दिमाग तो खराब नहीं हो गया है! सभी सयाने लोगों ने महावीर को समझाया, मत जाओ छोड़कर। लेकिन महावीर और उनके बीच भाषा का संबंध टूट गया। वे दोनों एक ही भाषा अब नहीं बोल सकते हैं, क्योंकि उनका भविष्य अभी बाकी है और महावीर का कोई भविष्य न रहा।

हमें भी अनुभव है, लेकिन हम पीछे लौटकर नहीं देखते हैं। हम आगे ही देखे चले जाते हैं। जो आदमी आगे ही देखे चला जाता है, वह कभी धार्मिक नहीं हो सकेगा। क्योंकि अनुभव से वह कभी ला भ नहीं ले सकेगा। भविष्य में कोई अनुभव नहीं है, अनुभव तो अतीत में है। जो आदमी पीछे लौट कर देखेगा — लेकिन पीछे लौटकर देखने में भी हम यह भूल जाते हैं कि हमने पीछे जब हम खड़े थे उस स्थानों पर, तब क्या सोचा था? वह भी हम भूल जाते हैं।

आदमी की स्मृति भी बहुत अदभुत है। आपको खयाल ही नहीं रहता कि जो कपड़ा आज आप पहने हुए हैं, कल वह कपड़ा आपके पास नहीं था और रात आपकी नींद खराब हो गयी — किसी और के पास था, या किसी दुकान पर था या किसी शो-विंडो में था और आप रातभर नहीं सो सके थे। और न-मालूम कितनी गुदगुदी मालूम पड़ी थी भीतर कि कल जब यह कपड़ा आपके शरीर पर होगा तो न-मालूम दुनिया में कौन-सी क्रांति घटित हो जाएगी! और कौन-सा स्वर्ग उतर आएगा। आप भूल ही गये हैं बिलकुल। अब वह कपड़ा आपके शरीर पर है। कोई स्वर्ग नहीं उतरा है, कोई क्रांति घटित नहीं हुई। आप उतने के उतने दुखी हैं। हां, अब दूसरे दुकान की शो-विंडो में आपका सुख लटका हुआ है।अभी भी वहीं हैं। कहीं किसी दूसरी दुकान की शो-विंडो अब आपकी नींद खराब कर रही है।

पीछे लौटकर अगर देखें तो आप पाएंगे, जिन-जिन सुखों को सोचा था, सुख सिद्ध होंगे– वे सभी दुख सिद्ध हो गये। आप एक भी ऐसा सुख न बता सकेंगे जो आपने सोचा था कि सुख सिद्ध होगा और सुख सिद्ध हुआ हो। फिर भी आश्चर्य कि आदमी फिर भी वही पुनरुक्त किये चला जाता है। और कल के लिए फिर योजनाएं बनाता है। कल की बीती सब योजनाएं गिर गयीं, लेकिन कल के लिए फिर वही योजनाएं बनाता है। अगर महावीर ऐसे व्यक्तियों को मूढ़ कहें तो तथ्य की ही बात कहते हैं। हम मूढ़ हैं! मूढ़ता और क्या होगी? कि मैं जिस गङ्ढे में कल गिरा था, आज फिर उसी गङ्ढे की तलाश करता हूं किसी दूसरे रास्ते पर। और ऐसा नहीं कि कल ही गिरा था, रोज-रोज गिरा हूं। फिर भी वही!

सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक रात ज्यादा शराब पीकर घर लौटा । टटोलता था रास्ता घर का, मिलता नहीं था। एक भले आदमी ने, देखकर कि बेचारा राह नहीं खोज पा रहा है, हाथ पकड़ा। पूछा कि इसी मकान में रहते हो?

मुल्ला ने कहा– हां। “किस मंजिल पर रहते हो?’

उसने कहा– दूसरी मंजिल पर।

उस भले आदमी ने बामुश्किल करीब-करीब बेहोश आदमी को किसी तरह सीढ़ियों से घसीटते- घसीटते दूसरी मंजिल तक लाया। फिर यह सोचकर कि कहीं मुल्ला की पत्नी का सामना न करना पड़े, नहीं तो वह सोचे कि तुम भी संगी-साथी हो, कहीं उपद्रव न हो, पूछा — यही तेरा दरवाजा है?

मुल्ला ने कहा — हां।

उसने दरवाजे के भीतर धक्का दिया और सीढ़ियों से नीचे उतर गया। नीचे जाकर बहुत हैरान हुआ कि ठीक वैसा ही आदमी, थोड़ी और बुरी हालत में, फिर दरवाजा टटोलता है। ठीक वैसा ही आदमी! थोड़ा चकित हुआ। अपनी ही आंखों पर हाथ फेरा कि मैं तो कोई नशा नहीं किये हूं। थोड़ी बुरी हालत में ठीक वैसा ही आदमी। फिर से टटोल रहा है तो जाकर पूछा कि भाई तुम भी ज्यादा पी गये हो?

उस आदमी ने कहा– हां।

“इसी मकान में रहते हो?’ उसने कहा– हां। “किस मंजिल पर रहते हो?’

उसने कहा– दूसरी मंजिल पर। (हैरानी!)

पूछा– जाना चाहते हो? बामुश्किल, इस बार और कठिनाई हुई क्योंकि वह आदमी और भी लस्त-पस्त था। उसे ऊपर जाकर, पहुंचाकर पूछा– इसी दरवाजे में रहते हो? उसने कहा– हां।

वह आदमी बहुत हैरान हुआ कि क्या नशेड़ियों के साथ थोड़ी-सी देर में मैं भी नशे में हूं? फिर धक्का दिया और नीचे उतरकर आया। देखा कि तीसरा आदमी और भी थोड़ी बुरी हालत में है। सड़क के किनारे पड़ा रास्ता खोज रहा है। लेकिन ठीक वैसा ही। उसे डर भी लगा कि भाग जाना चाहिए। यह झंझट की बात मालूम पड़ती है। यह कब तक चलेगा? यह आदमी वही मालूम पड़ता है। वही कपड़े हैं, ढंग वही है। थोड़ा और परेशान पूछा कि भाई इसी मकान में रहते हो? उसने कहा– हां।

“किस मंजिल पर?’

“दूसरी मंजिल पर।’

“ऊपर जाना चाहते हो?’

उसने कहा– हां।

उसने कहा– बड़ी मुसीबत है। अब इसको और पहुंचा दें। ले जाकर दरवा जे पर धक्का दिया। भागकर नीचे आया कि चौथा न मिल जाए, लेकिन चौथा आदमी नीचे मौजूद था। अब उसमें हिलने-चलने की गति भी नहीं थी। लेकिन जैसे ही उसे पास आकर देखा, वह आदमी चिल्लाया कि “मुझे बचाओ। यह आदमी मुझे मार डालेगा ।’

“मैं तुझे मार डालने की कोशिश नहीं कर रहा हूं । तू है कौन?’

उसने कहा– तू मुझे बार-बार जाकर लिफट के दरवाजे से धक्का देकर नीचे पटक रहा है।

उस आदमी ने पूछा– “भले आदमी! तीन बार पटक चुका, तुमने कहा क्यों नहीं?’

उसने सोचा कि शायद अब की बार न पटके यह सोचकर। नसरुद्दीन ने कहा– कौन जाने, अब की बार न पटके!

लेकिन दूसरा पटकता हो तो हम इतना हंस रहे हैं। हम अपने को ही पटकते चले जाते हैं। वही का वही आदमी, दूसरी बार और थोड़ी बुरी हालत होती है। और कुछ नहीं होता है। जिंदगीभर ऐसा चलता है। आखिर में दुख के घाव के अतिरिक्त हमारी कोई उपलब्धि नहीं होती। ये घाव ही घाव रह जाते हैं, पीड़ा ही पीड़ा रह जाती है।

इतना हम जानते हैं, कि अधर्म अमंगल है। और अधर्म से मतलब समझ लेना — अधर्म से मतलब है, दूसरे में सुख को खोजने की आकांक्षा। वह दुख है, वह अमंगल है, और कोई अमंगल नहीं है। जब भी दुख आपको मिले तो जानना कि आपने दूसरे से कहीं सुख पाना चाहा। अगर मैं अपने शरीर से भी सुख पाना चाहता हूं तो भी मैं दूसरे से सुख पाना चाहता हूं। मुझे दुख मिलेगा। कल बीमारी आएगी, कल शरीर रुग्ण होगा, कल बूढ़ा होगा, परसों मरेगा। अगर मैंने इस शरीर से — जो इतना निकट मालूम होता है, फिर भी पराया है — महावीर से अगर हम पूछने जाएं तो वे कहेंगे कि जिससे भी दुख मिल सकता है, जानना कि वह और है। इसे क्राइटेरियन, उसे मापदंड समझ लेना कि जिससे भी दुख मिल सके, जानना कि वह और है, वह तुम नहीं हो। तो जहां-जहां

दुख मिले, वहां-वहां जानना कि “मैं’ नहीं हूं।

सुख अपरिचित है क्योंकि हमारा सारा परिचय “पर’ से है, “दूसरे’ से है। सुख सिर्फ कल्पना में है, दुख अनुभव है। लेकिन दुख, जो कि अनुभव है, उसे हम भुलाये चले जाते हैं। और सुख जो कि कल्पना में है, उसके लिए हम दौड़ते चले जाते हैं। महावीर का यह सूत्र इस पूरी बात को बदल देना चाहता है। वे कहते हैं– धम्मो मंगल मुक्किट्ठं।धर्म मंगल है। आनंद की तलाश स्वभाव में है। कभी-कभी अगर आपके जीवन में आनंद की कोई किरण छोटी-मोटी उतरी होगी, तो वह तभी उतरती है जब आप अनजाने- जाने किसी भांति एक क्षण को स्वयं के संबंध में पहुंच जाते हैं — कभी भी। लेकिन हम ऐसे भ्रांत हैं कि वहां भी हम दूसरे को ही कारण समझते हैं।

सागर के तट पर बैठे हैं। सांझ हो गयी है, सूर्यास्त होता है। ढलते सूरज में सागर की लहरों की आवाजों में एकांत में अकेले तट पर बैठे हैं। एक क्षण को लगता है जैसे सुख की कोई किरण कहीं उतरी। तो मन होता है कि शायद इस सागर, इस डूबते सूरज में सुख है। कल फिर आकर बैठेंगे। फिर उतनी नहीं उतरेगी। परसों फिर आकर बैठेंगे। अगर रोज आकर बैठते रहे तो सागर का शोरगुल सुनायी पड़ना बंद हो जाएगा। सूरज का डूबना दिखायी न पड़ेगा।

वह जो पहले दिन अनुभव हमें आया था वह सागर और सूरज की वजह से नहीं था। वह तो केवल एक अजनबी स्थिति में आप पराये से ठीक से संबंधित न हो सके और थोड़ी देर को अपने से संबंधित हो गये। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। इसीलिए परिवर्तन अच्छा लगता है एक क्षण को। क्योंकि परिवर्तन का, एक संक्रमण का क्षण, जो ट्रांजिशन का क्षण है, उस क्षण में आप दूसरे से संबंधित होने के पहले और पिछले से टूटने के पहले बीच में थोड़े से अंतराल में अपने से गुजरते हैं। एक मकान को बदलकर दूसरे मकान में जा रहे हैं। इस मकान को बदलने में और दूसरे मकान में एडजेस्ट होने के बीच एक क्षण को अव्यवस्थित हो जाएंगे। न यह मकान होगा, न वह मकान होगा। और बीच में क्षण भर को उस मकान में पहुंच जाएंगे जो आपके भीतर है।

वह क्षणभर को उस बीच जो थोड़ी-सी सुख की झलक मिलेगी — वह शायद आप सोचेंगे, इस नये मकान में आने से मिली है, इस पहाड़ पर आने से मिली है, इस एकांत में आने से मिली है, इस संगीत की कड़ी को सुनने से मिली है, इस नाटक को देखने से मिली है। आप भ्रांति में हैं। अगर इस नाटक को देखने से वह मिला है तो फिर रोज इस नाटक को देखें, जल्दी ही पता चल जाएगा। कल नहीं मिलेगा, क्योंकि कल आप एडजेस्ट हो चुके होंगे, ना टक परिचित हो चुका होगा। परसों नाटक तकलीफ देने लगेगा। और दो-चार दिन देखते गये तो ऐसा लगेगा, अपने साथ हिंसा कर रहे हैं। एक पत्नी को बदलकर दूसरी पत्नी के साथ जो क्षणभर को सुख दिखायी पड़ रहा है, वह सिर्फ बदलाहट का है। और बदलाहट में भी सिर्फ इसलिए कि दो चीजों के बीच में क्षणभर को आपको अपने भीतर से गुजरना पड़ता है। बस, और कोई कारण नहीं है।

अनिवार्य है, जब मैं एक से टूटूं और दूसरे से जुडूं तो एक क्षण को मैं कहां रहूंगा? दूटने और जुड़ने के बीच में जो गैप है, जो अंतराल है, उसमें मैं अपने में रहूंगा। वही अपने में रहने का क्षण प्रितफलित होगा और लगेगा कि दूसरे में सुख मिला। सभी बदलाहट अच्छी लगती है। बस बदलाहट, चेंज का जो सुख है, वह अपने से क्षणभर को अचानक गुजर जाने का क्षण है। इसलिए आदमी शहर से जंगल भागता है। जंगल का आदमी शहर आता है। भारत का आदमी यूरोप जाता है, यूरोप का आदमी भारत आता है। दोनों को वही क्षण परिवर्तन का भारतीय को हैरानी होती है, पश्चिमी को देखकर अपने बीच में कि इधर आये हो सुख की तलाश में! इधर हम जैसा सुख पा रहे हैं, हम ही जानते हैं। पाश्चात्य को, भा रतीय को वहां देखकर हैरानी होती है कि तुम यहां आये हो,

सुख की तलाश में! यहां जो सुख मिल रहा है, उससे हम किस तरह बचें, हम इसकी चेष्टा में लगे हैं। पर कारण हैं, दोनों को क्षणभर

को सुख मिलता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि नयी कोई भी चीज से व्यवस्थित होने में थोड़ा अंतराल पड़ता है। एक रिदम है हमारे जीवन की।

गोकलिन ने एक किताब लिखी है, “दि काज्ँमिक क्लाक’। लिखा है कि सा रा अस्तित्व एक घड़ी की तरह चलता है। अदभुत किताब है, वैज्ञानिक आधारों पर। और मनुष्य का व्यक्तित्व भी एक घड़ी की तरह चलता है। जब भी कोई परिवर्तन होता है तो घड़ी डगमगा जाती है। अगर आप पूरब से पश्चिम की तरफ यात्रा कर रहे हैं तो आपके व्यक्तित्व की पूरी घड़ी गड़बड़ा जाती है। क्योंकि सब बदलता है। सूरज का उगने का समय बदल जाता है, सूरज के डूबने का समय बदल जाता है। वह इतनी तेजी से बदलता है कि आपके शरीर को पता ही नहीं चलता। इसलिए भीतर एक अराजकता का क्षण उपस्थित हो जाता है। सभी बदलाहटें आपके भीतर एक ऐसी स्थिति ला देती हैं कि आपको अनिवार्यरूपेण कुछ देर को अपने भीतर से गुजरना पड़ता है। उसका ही रिफलेक्शन, उसका ही प्रतिबिंब आपको सुख मालूम पड़ता है। और जब क्षणभर को अनजाने गुजरकर भी सुख मालूम पड़ता है, तो जो सदा अपने भीतर जीने लगता है — अगर महावीर कहते हैं, वे मंगल को, परम मंगल को, आनंद को उपलब्ध हो जाते हैं– तो हम नाप सकते हैं, हम अनुमान कर सकते हैं।

यह हमारा अनुभव अगर प्रगाढ़ होता चला जाए कि जिसे हमने जीवन समझा है वह दुख है, जिस चीज के पीछे हम दौड़ रहे हैं वह सिर्फ नरक में उतार जाती है। अगर यह हमें स्पष्ट हो जाए तो हमें महा वीर की वाणी का आधा हिस्सा हमारे अनुभव से स्पष्ट हो जाएगा। और ध्यान रहे, कोई भी सत्य आधा सत्य नहीं होता — कोई भी सत्य — आधा सत्य नहीं होता। सत्य तो पूरा ही सत्य होता है। अगर उसमें आधा भी सत्य दिखाई पड़ जाए, तो शेष आधा आज नहीं कल दिखाई पड़ जाएगा। और अनुभव में आ जाएगा।

आधा सत्य हमारे पास है कि “दूसरा’ दुख है। कामना दुख है, वासना दुख है। क्योंकि कामना और वासना सदा दूसरे की तरफ दौड़ने वाले चित्त का नाम है। वासना का अर्थ है दूसरे की तरफ दौड़ती हुई चेतन धारा। वासना का अर्थ है, भविष्य की ओर उन्मुख जीवन की नौका। अगर “दूसरा’ दुख है, तो दूसरे की तरफ ले जानेवाला जो सेतु है वह नरक का सेतु है। उसको “वासना’, महावीर कहते हैं। उसको बुद्ध “तृष्णा’ कहते हैं। उसे हम कोई भी नाम दें। दूसरे को चाहने की जो हमारे भीतर दौड़ है, हमारी ऊर्जा का जो वर्तन है दूसरे की तरफ, उसका नाम वासना है, वह दुख है।

और मंगल, जो आनंद, जो धर्म है, जो स्वभाव है, निश्चित ही वह उस क्षण में मिलेगा जब हमारी वासना कहीं भी न दौड़ रही होगी। वासना का न दौड़ना आत्मा का हो जाना है। वासना का दौड़ना आत्मा का खो जाना है। आत्मा उस शक्ति का नाम है जो नहीं दौड़ रही है, अपने में खड़ी है। वासना उस आत्मा का नाम है जो दौड़ रही है अपने से बाहर, किसी और के लिए। इसलिए इसी सूत्र के दूसरे हिस्से में महावीर कहते हैं–कौन-सा धर्म? अहिंसा, संयम और तप। यह अहिंसा, संयम और तप दौड़ती हुई ऊर्जा को ठहराने की विधियों के नाम हैं। वह जो वासना दौड़ती है दूसरे की तरफ, वह कैसे रुक जाए, न दौड़े दूसरे की तरफ? और जब रुक जाएगी, न दौड़ेगी दूसरे की तरफ–तो स्वयं में रमेगी, स्वयं में ठहरेगी, स्थिर होगी। जैसे कोई ज्योति हवा के कंप में कंपे न, वैसी। उसका उपाय महावीर कहते हैं।

तो धर्म स्वभाव है, एक अर्थ। धर्म विधि है, स्वभाव तक पहुंचने की, दूसरा अर्थ। तो धर्म के दो रूप हैं–धर्म का आत्यंतिक जो रूप है वह है स्वभाव, स्वधर्म। और धर्म तक, इस स्वभाव तक–क्योंकि हम इस स्वभाव से भटक गये हैं, अन्यथा कहने की कोई जरूरत न थी। स्वस्थ व्यक्ति तो नहीं पूछता चिकित्सक को कि मैं स्वस्थ हूं या नहीं। अगर स्वस्थ व्यक्ति भी पूछता है कि मैं स्वस्थ हूं या नहीं, तो वह बीमार हो चुका है। असल में, बीमारी न आ जाए तो स्वास्थ्य का खयाल ही नहीं आता।

लाओत्से के पास कंफयूशियस गया था और उसने कहा कि धर्म को लाने का कोई उपाय करें। तो कंफयूशियस से लाओत्से ने कहा कि धर्म को लाने का उपाय तभी करना होता है जब अधर्म आ चुका होता है। तुम कृपा करके अधर्म को छोड़ने का उपाय करो, धर्म आ जाएगा। तुम धर्म को लाने का उपाय मत करो। इसलिए स्वास्थ्य को लाने का कोई उपाय नहीं किया जा सकता है, सिर्फकेवल बीमारियों को छोड़ने का उपाय किया जा सकता है। जब बीमारियां छूट जाती हैं तो जो शेष रह जाता है–दि रिमेनिंग।

तो धर्म का आखिरी सूत्र तो यही है, परम सूत्र तो यही है कि स्वभाव। लेकिन वह स्वभाव तो चूक गया है। वह तो हमने खो दिया है। तो हमारे लिए धर्म का दूसरा अर्थ महावीर कहते हैं–जो प्रयोगात्मक है, प्रक्रिया का है, साधन का है–पहली परिभाषा साध्य की, अंत की, दूसरी परिभाषा साधन की, मीन्स की। तो महावीर कहते हैं–कौन-सा धर्म?” अहिंसा, संजमो, तवो’। इतना छोटा सूत्र शायद ही जगत में किसी और ने कहा हो जिसमें सारा धर्म आ जाए। अहिंसा, संयम, तप–इन तीन की पहले हम व्यवस्था समझ लें, फिर तीन के भीतर हमें प्रवेश करना पड़ेगा।

अहिंसा धर्म की आत्मा है, कहें के*नदर है धर्म का, सेंटर है। तप धर्म की परिधि है, सरकम्फेरेंस है। और संयम के*नदर और परिधि को जोड़ने वाला बीच का सेतु है। ऐसा समझ लें, अहिंसा आत्मा है, तप शरीर है और संयम प्राण है। वह दोनों को जोड़ता है– श्वास है। श्वास टूट जाए तो शरीर भी होगा, आत्मा भी होगी, लेकिन आप न होंगे। संयम टूट जाए, तो तप भी हो सकता है, अहिंसा भी हो सकती है–लेकिन धर्म नहीं हो सकता। वह व्यक्तित्व बिखर जाएगा। श्वास की तरह संयम है। इसे थोड़ा सोचना पड़ेगा। इसकी पहले हम व्यवस्था को समझ लें, फिर एक-एक की गहराई में उतरना आ सान होगा।

अहिंसा आत्मा है महावीर की दृष्टि से। अगर महावीर से हम पूछें कि एक ही शब्द में कह दें कि धर्म क्या है? तो वे कहेंगे अहिंसा। कहा है उन्होंने– अहिंसा परम धर्म है।अहिंसा पर क्यों महा वीर इतना जोर देते हैं? किसी ने नहीं कहा, ऐसा अहिंसा को। कोई कहेगा, परमात्मा; कोई कहेगा, आत्मा। कोई कहेगा, सेवा; कोई कहेगा, ध्यान। कोई कहेगा, समाधि; कोई कहेगा, योग। कोई कहेगा, प्रार्थना; कोई कहेगा, पूजा। महावीर से अगर हम पूछें, उनके अंतरतम में एक ही शब्द बसता है और वह है अहिंसा। क्यों? तो जिसको महावीर के माननेवाले अहिंसा कहते हैं, अगर इतनी ही अहिंसा है तो महावीर गलती में हैं। तब बहुत क्षुद्र बात कही जा रही है। महावीर को माननेवाला अहिंसा से जैसा मतलब समझता है, उससे ज्यादा बचकाना, चाइल्डिश कोई मतलब नहीं हो सकता। उससे वह मतलब समझता है– दूसरे को दुख मत दो। महावीर का यह अर्थ नहीं है। क्योंकि धर्म की परिभाषा में दूसरा आये, यह महावीर बरदाश्त न करेंगे। इसे थोड़ा समझें।

धर्म की परिभाषा स्वभाव है, और धर्म की परिभाषा दूसरे से करनी पड़े कि दूसरे को दुख मत दो, यही धर्म है। तो यह धर्म भी दूसरे पर ही निर्भर और दूसरे पर ही केंनदरित हो गया है। महावीर यह भी न कहेंगे कि दूसरे को सुख दो, यही धर्म है। क्योंकि फिर वह दूसरा तो खड़ा ही रहा। महावीर कहते हैं– धर्म तो वहां है, जहां दूसरा है ही नहीं।इसलिए दूसरे की व्याख्या से नहीं बनेगा। दूसरे को दुख मत दो– यह महावीर की परिभाषा इसलिए भी नहीं हो सकती, क्योंकि महावीर मानते नहीं कि तुम दूसरे को दुख दे सकते हो, जब तक दूसरा लेना न चाहे। इसे थोड़ा समझना। यह भ्रांति है कि मैं दूसरे को दुख दे सकता हूं और यह भ्रांति इसी पर खड़ी है कि मैं दूसरे से दुख पा सकता हूं, मैं दूसरे से सुख पा सकता हूं, मैं दूसरे को सुख दे सकता हूं। ये सब भ्रांतियां एक ही आधार पर खड़ी हैं। अगर आप दूसरे को दुख दे सकते हैं तो क्या आ प सोचते हैं, आप महावीर को दुख दे सकते हैं? और अगर

आप महावीर को दुख दे सकते हैं तो फिर बात खत्म हो गयी। नहीं, आप महावीर को दुख नहीं दे सकते। क्योंकि महावीर दुख लेने को तैयार ही नहीं हैं। आप उसी को दुख दे सकते हैं जो दुख लेने को तैयार है। और आप हैरान होंगे कि हम इतने उत्सुक हैं दुख लेने को, जिसका कोई हिसाब नहीं। आतुर हैं, प्रार्थना कर रहे हैं कि कोई दुख दे। दिखाई नहीं पड़ता दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन खोजें अपने को। अगर एक आदमी आपकी चौबीस घंटे प्रशंसा करे, तो आपको सुख न मिलेगा, और एक गाली दे दे तो जन्म भर के लिए दुख मिल जाएगा। एक आदमी आपकी वर्षो सेवा करे, आपको सुख न मिलेगा, और एक दिन आपके खिलाफ एक शब्द बोल दे और आपको इतना दुख मिल जाएगा कि वह सब सुख व्यर्थ हो गया। इससे क्या सिद्ध होता है?

इससे यह सिद्ध होता है कि आप सुख लेने को इतने आतुर नहीं दिखाई पड़ते हैं जितना दुख लेने को आतुर दिखाई पड़ते हैं। यानी आपकी उत्सुकता जितनी दुख लेने में है उतनी ही सुख लेने में नहीं है। अगर मुझे किसी ने उन्नीस बार नमस्कार किया और एक बार नमस्कार नहीं किया, तो उन्नीस बार नमस्कार से मैंने जितना सुख नहीं लिया है, एक बार नमस्कार न करने से उतना दुख ले लूंगा। आश्चर्य है! मुझे कहना चाहिए था, कोई बात नहीं है, हिसाब अभी भी बहुत बड़ा है। कम से कम बीस बार न करे तब बराबर होगा। मगर वह नहीं होता है। तब भी बराबर होगा, तब भी दुख लेने का कोई कारण नहीं है, मामला तब तराजू में तुल जाएगा। लेकिन नहीं, जरा सी बात दुख दे जाती है।

हम इतने सैंसिटिव हैं दुख के लिए, उसका कारण क्या है? उसका कारण यही है कि हम दूसरे से सुख चाहते हैं इतना ज्यादा कि वही चाह, उससे हमें दुख मिलने का द्वार बन जाती है, और तब दूसरे से सुख तो मिलता नहीं– मिल नहीं सकता। फिर दुख मिल सकता है, उसको हम लेते चले जाते हैं। महावीर नहीं कह सकते कि अहिंसा का अर्थ है दूसरे को दुख न देना। दूसरे को कौन दुख दे सकता है, अगर दूसरा लेना न चाहे। और जो लेना चाहता है उसको कोई भी न दे तो वह ले लेगा। यह भी मैं आपसे कह देना चाहता हूं। कोई वह आपके लिए रुका नहीं रहेगा कि आपने नहीं दिया तो दुख कैसे लें। लोग आसमान से दुख ले रहे हैं। जिन्हें दुख लेना है, वे बड़े इन्वेन्टिव हैं । वे इस-इस ढंग से दुख लेते हैं, इतना आविष्कार करते हैं कि जिसका हिसाब नहीं है। वे आपके उठने से दुख ले लेंगे, आपके बैठने से दुख ले लेंगे, आपके चलने से दुख ले लेंगे, किसी चीज से दुख ले लेंगे। अगर आप बोलेंगे तो दुख ले लेंगे, अगर आप चुप बैठेंगे तो दुख ले लेंगे कि आप चुप क्यों बैठे हैं, इसका क्या मतलब?

एक महिला मुझसे पूछती थी कि मैं क्या करूं, मेरे पति के लिए। अगर बोलती हूं तो कोई विवाद, उपद्रव खड़ा होता है। अगर नहीं बोलती हूं तो वे पूछते हैं, क्या बात है? न बोलने से विवाद खड़ा होता है। अगर न बोलूं तो वे समझते हैं कि नाराज हूं। अगर बोलूं तो नाराजगी थोड़ी देर में आने ही वाली है, वह कुछ न कुछ निकल आएगा। तो मैं क्या करूं? बोलूं कि न बोलूं? अब मैं उसको क्या सलाह दूं?

जितने दुख आपको मिल रहे हैं उसमें से निन्यानबे प्रतिशत आपके आविष्कार हैं। निन्यानबे प्रतिशत! जरा खोजें कि किस-किस तरह आप आविष्कार करते हैं, दुख का। कौन-कौन सी तरकीबें आपने बिठा रखी हैं! असल में बिना दुखी हुए आप रह नहीं सकते। क्योंकि दो ही उपाय हैं, या तो आदमी सुखी हो तो रह सकता है, या दुखी हो तो रह सकता है। अगर दोनों न रह जाएं तो जी नहीं सकता। दुख भी जीने के लिए काफी बहाना है। दुखी लोग देखते हैं आप, कितने रस से जीते हैं? इसको जरा देखना पड़ेगा। दुखी लोग कितने रस से जीते हैं? वह अपने दुख की कथा कितने रस से कहते हैं? दुखी आदमी की कथा सुनें, कैसा रस लेता है। और कथा को कैसा मैग्निफाई करता है, उसको कितना बड़ा करता है। सुई लग जाए तो तलवार से कम नहीं लगती है उसे।

कभी आपने खयाल किया है कि आप किसी डाक्टर के पास जाएं और वह आ पसे कह दे कि नहीं, आप बिलकुल बीमार नहीं हैं, तो कैसा दुख होता है! वह डाक्टर ठीक नहीं मालूम पड़ता । किसी और बड़े एक्सपर्ट को खोजना पड़ता है, इससे काम नहीं चलेगा। यह कोई डाक्टर है! आप जैसे बड़े आदमी, और आपको कोई बीमारी ही नहीं है। या कोई छोटी- मोटी बीमारी बता दे, कि कह दे, गर्म पानी पी लेना और ठीक हो जाओगे। तो भी मन को तृप्ति नहीं िमलती। इसलिए डाक्टरों को, बेचारों को अपनी दवाइयों के नाम लैटिन में रखने पड़ते हैं, चाहे उसका मतलब होता हो अजवाइन का सत। लेकिन लैटिन में जब नाम होता है, तब मरीज अकड़ कर घर लौटता है, प्रिसिकरप्शन लेकरकि ये कुछ काम हुआ! जिएंगे कैसे, अगर दुख न हो तो जिएंगे कैसे! या तो आनंद होतो जीने की वजह होती है। आनंद न हो तो दुख तो हो ही!

मार्क ट्वेन ने कहा है, और अनुभवी था आदमी और मन के गहरे में उतरने की क्षमता और दृष्टि थी। उसने कहा है, तुम चाहे मेरी प्रशंसा करो, या चाहे मेरा अपमान करो, लेकिन तटस्थ मत रहना। उससे बहुत पीड़ा होती है। तुम चाहो तो गाली ही दे देना, उससे भी तुम मुझे मानते हो कि मैं कुछ हूं। लेकिन तुम मुझे बिना देखे ही निकल जाओ, तुम न मुझे गाली दो, न तुम मेरा सम्मान करो, तब तुम मुझे ऐसी चोट पहुंचाते हो संघातक कि मैं उसका बदला लेकर रहूंगा। उपेक्षा का बदला लोग जितना लेते हैं उतना दुख का नहीं लेते। आपने भी अपने पर खयाल करेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि आपको सबसे ज्यादा पीड़ा वह आदमी पहुंचाता है जो आपकी उपेक्षा करता है, इनडिफरैंट है। इसलिए अगर महा वीर या जीसस जैसे लोगों को हमने बहुत सताया तो उसका एक कारण उनका इनडिफरैंस था, बहुत गहरा कारण। वे इनडिफरैंट थे। आप उनको पत्थर भी मार गये तो वे ऐसे खड़े रहे कि चलो कोई बात नहीं। तो उससे बहुत दुख होता है, उससे बहुत पीड़ा होती है।

नीत्से ने; जो कि मनुष्य के इतिहास में बहुत थोड़े-से लोग आदमी के भीतर जितनी गहराई में उतरते हैं, वैसा आदमी; नीत्से ने कहा है कि जीसस, मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे तो तुम दूसरा गाल उसके सामने मत करना, उससे उसको बहुत चोट लगेगी। जब कोई आदमी तुम्हारे गाल पर एक चांटा मा रे, जीसस, तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम दूसरा गाल उसके सामने मत करना। तुम उसे एक करारा चांटा देना। उससे उसे इज्जत मिलेगी। जब तुम दूसरा गाल उसके सामने कर दोगे, वह कीड़ा- मकोड़ा जैसा हो जाएगा। इतना अपमान मत करना। इसे हम न सह सकेंगे। इसीलिए तुम्हें सूली पर लटकाया गया।

यह कभी हम सोच नहीं सकते, लेकिन है यह सच। और सच ऐसे स्‍टरेंज होते हैं कि हम कल्पना भी न कर पाएं, इतने विचित्र होते हैं। अगर कोई आपकी उपेक्षा करे तो वह शत्रु से भी ज्यादा शत्रु मालूम पड़ता है। क्योंकि शत्रु आपकी उपेक्षा नहीं करता। वह आपको काफी मान्यता देता है।

हम दुख के लिए भी उत्सुक हैं– कम से कम दुख तो दो, अगर सुख न दे सको। कुछ तो दो, दुख भी दोगे तो चलेगा, लेकिन दो। इसलिए हम आतुर हैं चारों तरफ, और संवेदनशील हैं। हम अपनी सारी इंन्‍दिरयों को चारों तरफ सजग रखते हैं, एक ही काम के लिए कि कहीं से दुख आ रहा हो तो चूक न जाएं। तो उसे जल्दी से ले लें। कहीं कोई और न ले ले; कहीं चूक न जाएं; कहीं अवसर न खो जाए। यह दुख हमारे रहने की वजह है, जीने की वजह है।

तो महावीर की अहिंसा का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे को दुख मत देना, क्योंकि महावीर तो कहते ही यह हैं कि दूसरे को न कोई दुख दे सकता है और न कोई सुख दे सकता है। महावीर की अहिंसा का यह भी अर्थ नहीं है कि दूसरे को मारना मत, मार मत डालना। क्योंकि महावीर भलीभांति जानते हैं कि इस जगत में कौन किसको मार सकता है, मार डाल सकता है। महावीर से ज्यादा बेहतर और कौन जानता होगा यह कि मृत्यु असंभव है। मरता नहीं कुछ। तो महावीर का यह मतलब तो कतई नहीं हो सकता कि मारना मत, मार मत डालना किसी को। क्योंकि महावीर तो भलीभांति जानते हैं। और अगर इतना भी नहीं जानते तो महावीर के महावीर होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

लेकिन महावीर के पीछे चलने वाले बहुत साधारण….साधारण परिभाषाओं का ढेर इकट्ठा कर दिये हैं। कहते हैं, अहिंसा का अर्थ यह है कि मुंह पर पट्टी बांध लेना। कि अहिंसा का अर्थ यह है कि संभलकर चलना कि कोई कीड़ा न मर जाए, कि रात पानी मत पी लेना, कि कहीं कोई हिंसा न हो जाए। यह सब ठीक है। मुंह पर पट्टी बांधना कोई हर्जा नहीं है, पानी छानकर पी लेना बहुत अच्छा है। पैर संभालकर रखना, यह भी बहुत अच्छा है, लेकिन इस भ्रम में नहीं कि आप किसी को मार सकते थे। इस भ्रम में नहीं। मत देना किसी को दुख, बहुत अच्छा है। लेकिन इस भ्रम में नहीं कि आप किसी को दुख दे सकते थे।

मेरे फर्क को आप समझ लेना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप जाना और मारना और काटना; क्योंकि मार तो कोई सकते ही नहीं हैं यह मैं नहीं कह रहा हूं! महावीर की अहिंसा का अर्थ ऐसा नहीं है। महावीर की अहिंसा का अर्थ ठीक वैसा है जैसे बुद्ध के तथाता का। इसे थोड़ा समझ लें। महावीर की अहिंसा का अर्थ वैसा ही है जैसे बुद्ध के तथाता का। तथाता का अर्थ होता है टोटल एक्सेप्टेबिलिटी, जो जैसा है वैसा ही हमें स्वीकार है। हम कुछ हेर-फेर न करेंगे।

अब एक चींटी चल रही है रास्ते पर, हम कौन हैं जो उसके रास्ते में किसी तरह का हेर-फेर करने जाएं? अगर मेरा पैर भी पड़ जाए तो मैं उसके मार्ग पर हेर-फेर करने का कारण और निमित्त तो बन जाता है। और मार्ग बहुत है। वह चींटी अभी जाती थी। अपने बच्‍चों के लिए शायद भोजनजूटाने जा रही थी। पता नहीं उसकी अपनी योजनाओ का जगत हे। मैं उसके बीच में न आ जाऊं। ऐसा नहीं है कि न आने से मैं बच जाऊंगा। फिर भी आ सकता हूं। लेकिन महवीर कहते है मैं उसकी तरफ से बीच में न आऊं। किताबें हटा सकती है। रेडियो बंद कर सकती है। और पति बेचारा इसलिए रेडियो खोले है, अखबार आड़ा किये हुए है कि कृपा करके तुम्हारी उपस्थिति अनुभव न हो। हम सब इस चेष्टा में लगे हैं कि मेरी उपस्थिति दूसरे को अनुभव हो और दूसरे की उपस्तरफ से बीच में न आऊं। जरूरी नहीं है कि मैं ही चींटी पर पैर रखूं, तब वह मरे। चींटी खुद मेरे पैर के नीचे आकर मर सकती है। वह चींटी जाने, वह उसकी योजना जाने। महावीर जानते हैं कि यह जीवन के पथ पर प्रत्येक अपनी योजना में संलग्न है। वह योजना छोटी नहीं है। वह योजना बड़ी है, जन्मों- जन्मों की है। वह कर्मो का बड़ा विस्तार है उसका। उसका अपने कमो* की, फलों की लंबी यात्रा है। मैं किसी की यात्रा पर किसी भी कारण से बाधा न बनूं। मैं चुपचाप अपनी पगडंडी पर चलता रहूं। मेरे कारण निमित्त के लिए भी किसी के मार्ग पर कोई व्यवधान खड़ा न हो। मैं ऐसा हो जाऊं, जैसे हूं ही नहीं।

अहिंसा का महावीर का अर्थ है कि मैं ऐसा हो जाऊं, जैसे मैं हूं ही नहीं। यह चींटी यहां से ऐसे ही गुजर जाती है जैसे कि मैं इस रास्ते पर चला ही नहीं था, और ये पक्षी इन वृक्षों पर ऐसे ही बैठे रहते हैं जैसे कि मैं इन वृक्षों के नीचे बैठा ही नहीं था। ये लोग, इस गांव के, ऐसे ही जीते रहते जैसे मैं इस गांव से गुजरा ही नहीं था । जैसे मैं नहीं हूं। महावीर का गहनतम जो अहिंसा का अर्थ है, वह है एब्सेंस, जैसे मैं नहीं हूं। मेरी प्रजेंस कहीं अनुभव न हो, मेरी उपस्थिति कहीं प्रगाढ़ न हो जाए, मेरा होना कहीं किसी के होने में जरा-सा भी अड़चन, व्यवधान न बने। मैं ऐसे हो जाऊं जैसे नहीं हूं। मैं जीते जी मर जाऊं मैं जीते जी मर जाऊं।

हमारी सबकी चेष्टा क्या है? अब इसे थोड़ा समझें तो हमें खयाल में आ सानी से आ जाएगा, पर बहुत से आयाम से समझना पड़ेगा। हम सबकी चेष्टा क्या है कि हमारी उपस्थिति अनुभव हो, दूसरा जाने कि मैं हूं, मौजूद हूं। हमारे सारे उपाय हैं कि हमारी उपस्थिति प्रतीत हो। इसलिए राजनीति इतनी प्रभावी हो जाती है। क्योंकि राजनीतिक ढंग से आपकी उपस्थिति जितनी प्रतीत हो सकती है और किसी ढंग से नहीं हो सकती है। इसलिए राजनीति पूरे जीवन पर छा जाती है। अगर हम राजनीति का ठीक-ठीक अर्थ करें तो उसका अर्थ है, इस बात की चेष्टा कि मेरी उपस्थिति अनुभव हो। मैं कुछ हूं, मैं नाकुछ नहीं हूं। लोग जानें, मैं चुभूं, मेरे कांटे जगह-जगह अनुभव हों, लोग ऐसे न गुजर जाएं कि जैसे मैं नहीं था। और महावीर कहते हैं कि मैं ऐसे गुजर जाऊं कि पता चले कि मैं नहीं था, था ही नहीं।

अब अगर हम इसे ठीक से समझें– उपस्थिति अनुभव करवाने की कोशिश का नाम हिंसा है, वायलेंस है। और जब भी हम किसी को कोशिश करवाते हैं अनुभव करवाने की कि मैं हूं, तभी हिंसा होती है। चाहे पति अपनी पत्नी को बतला रहा हो कि समझ ले कि मैं हूं, चाहे पत्नी समझा रही हो कि क्या तुम समझ रहे हो कि कमरे में अखबार पढ़ रहे हो तो तुम अकेले हो! मैं यहां हूं। पत्नी अखबार की दुश्मन हो सकती है क्योंकि अखबार आड़ बन सकता है, उसकी अनुपस्थिति हो जाती है। अखबार को फाड़कर फेंक सकती है। किताबें हटा सकती है। रेडियो बंद कर सकती है। और पति बेचारा इसलिए रेडियो खोले है, अखबार आड़ा किये हुए है कि कृपा करके तुम्हारी उपस्थिति अनुभव न हो। हम सब इस चेष्टा में लगे हैं कि मेरी उपस्थिति दूसरे को अनुभव हो और दूसरे की उपस्थिति मुझे अनुभव न हो। यही हिंसा है। और यह एक ही िसक्के के दो पहलू हैं। जब मैं चाहूंगा कि मेरी उपस्थिति आपको पता चले, तो मैं यह भी चाहूंगा कि आपकी उपस्थिति मुझे पता न चले क्योंकि दोनों एक साथ नहीं हो सकते। मेरी उपस्थिति आपको पता चले, वह तभी पता चल सकती है जब आपकी उपस्थिति को मैं ऐसेमिटा दूं, जैसे है ही नहीं। हम सबकी कोशिश यह है कि दूसरे की उपस्थिति मिट जाए और हमारी उपस्थिति सघन, कंडेंस्ड हो जाए। यही हिंसा है।

अहिंसा इसके विपरीत है। दूसरा उपस्थित हो और इतनी तरह उपस्थित हो कि मेरी उपस्थिति से उसकी उपस्थिति में कोई बाधा न पड़े। मैं ऐसे गुजर जाऊं भीड़ से कि किसी को पता भी न चले कि मैं था। अहिंसा का गहन अर्थ यही है — अनुपस्थित व्यक्तित्व। इसे हम ऐसा कह सकते हैं और महावीर ने ऐसा कहा है — अहंकार हिंसा है और निरहंकारिता अहिंसा है। मतलब वही है — वह दूसरे को अपनी उपस्थिति प्रतीत करवाने की जो चेष्टा है। कितनी कोशिश में हम लगे हैं, शायद सारी कोशिश यही है — ढंग कोई भी हों। चाहे हम हीरे का हार पहनकर खड़े हो गये हों और चाहे हमने लाखों के वस्त्र डाल रखे हों और चाहे हम नग्न खड़े हो गये हों — कोशिश यही है, क्या, कि दूसरा अनुभव करे कि मैं हूं। मैं चैन से न बैठने दूंगा। तुम्हें मानना ही पड़ेगा कि मैं हूं।

छोटे-छोटे बच्चे भी इस हिंसा में निष्णात होना शुरू हो जाते हैं। कभी आपने खयाल किया होगा कि छोटे-छोटे बच्चे भी अगर घर में मेहमान हों तो ज्यादा गड़बड़ शुरू कर देते हैं। घर में कोई न हो तो अपने बैठे रहते हैं, क्यों? आपको हैरानी होती है कि बच्चा ऐसे तो शांत बैठा था, घर में कोई आ गया तो वह पच्चीस सवाल उठाता है, बार-बार उठकर आता है, कोई चीज गिराता है। वह कर क्या रहा है? वह सिर्फ अटेंशन प्रवोक कर रहा है। वह कह रहा है, हम भी हैं यहां। मैं भी हूं। और आप उससे कह रहे हैं, शांत बैठो। आप यह कोशिश कर रहे हैं कि तुम नहीं हो। वह बूढ़ा भी वही कर रहा है, बच्चा भी वही कर रहा है। आप कहते हैं, शांत बैठो। वह बच्चा भी हैरान होता है कि जब घर में कोई नहीं होता है तो बाप नहीं कहता कि शांत बैठो। अभी कुछ नहीं कहता, कितने चिल्लाओ, घूमो-फिरो, चुप बैठा रहता है। घर में कोई मेहमान आते हैं तभी यह कहता है, शांत बैठो। क्याबात क्या है? घर में जब मेहमान आते हैं तभी तो वक्त है शांत न बैठने का ।

दोनों के बीच जो संघर्ष है वह इस बात का है कि बच्चा असर्ट करना चाहता है। वह भी घोषणा करना चाहता है कि मैं भी यहां हूं। महाशय, यहां मैं भी हूं। इसलिए कभी-कभी बच्चा मेहमानों के सा मने ऐसी जिद पकड़ जाता है कि मां-बाप हैरान होते हैं कि ऐसी जिद उसने कभी नहीं पकड़ी थी। उनके सामने वह दिखाना चाहता है कि इस घर में मालिक कौन है, किसकी चलती है, आखिर में कौन निर्णायक है। छोटे-छोटे बच्चे भी पालिटिक्स भलीभांति सीखने लगते हैं। उसका कारण है कि हमारा पूरा का पूरा आयोजन, हमारा पूरा समाज, हमारी पूरी संस्कृति अहंकार की संस्कृति है, अधर्म की। सारी दुनिया में वही है। आदमी अब तक धर्म की संस्कृति विकसित ही नहीं कर पाया। अब तक हम यह कोशिश ही जाहिर न कर पाये और हम सुनते नहीं महावीर वगैरह की, जो कि इस तरह की संस्कृति के स्रोत बन सकते थे। वे कहते हैं कि नहीं, उपस्थिति तुम्हारी जितनी पता न चले, उतना ही मंगल है। तुम्हारे लिए भी, दूसरे के लिए भी। तुम ऐसे हो जाओ जैसे हो ही नहीं।

महावीर घर छोड़कर जाना चाहते थे तो मां ने कहा– “मत जाओ, मुझे दुख होगा’। महावीर नहीं गये, क्योंकि इतनी भी जाने की जिद से होने का पता चलता है। आग्रह था कि नहीं, जाऊंगा। अगर महावीर की जगह कोई भी होता तो उसका त्याग और जोश मारता– क्या कहते हैं गुजराती में आप, जुस्सा। उसका जोश और बढ़ता। वह कहता, कौन मां, कौन पिता? सब संबंध बेकार हैं। यह सब संसार है। जितना समझाते, उतना वे शिखर पर चढ़ते। अधिक संन्यासी, अधिक त्यागी आपके समझाने की वजह से हो गये हैं। भूल से मत समझाना। कोई कहे “जाते हैं’, कहना, “नमस्कार’। तो वह आदमी जाने के पहले पच्चीस दफे सोचेगा कि जाना कि नहीं जाना। आप घेरा बांधकर खड़े हो गये, आपने अटेंशन देनी शुरू कर दिया। आपने कहा कि उनको जाना महत्वपूर्ण हो गया। जरूरी हो गया। अब यह व्यक्तित्व की लड़ाई हो गई। अब सिद्ध करना पड़ेगा। इतने त्यागी न हों दुनिया में अगर आसपास के लोग इतना आग्रह न करें– तो त्यागी एकदम कम हो जाएंगे। इसमें नब्बे प्रतिशत तो बिलकुल ही न हों और तब दुनिया का हित हो। क्योंकि जो दस प्रतिशत बचे उनके त्याग की एक गरिमा हो। उनका एक अर्थ हो। लेकिन आप रोकते हैं, वही कारण बन जाता है।

महावीर रुक गये, मां भी थोड़ी चकित हुई होगी, ऐसा कैसा त्याग! फिर महावीर ने दुबारा न कहा कि एक दफा और निवेदन करता हूं कि जाने दो। बात ही छोड़ दी। मां के मरने तक फिर बोले ही नहीं। कहा ही नहीं कुछ। मां ने भी सोचा होगा, जरूर सोचा होगा कि यह कैसा त्याग! क्योंकि त्यागी तो एकदम जिद बांधकर खड़ा हो जाता है। मां मर गयी। घर लौटते वक्त अपने बड़े भाई को महावीर ने कहा– कब्रिस्तान से लौटते वक्त, मरघट से, कि अब मैं जा सकता हूं? क्योंकि वह मां कहती थी, उसे दुख होगा। तो बात समाप्त हो गयी, अब वह है ही नहीं।

भाई ने कहा, तू आदमी कैसा है! इधर इतना बड़ा दुख का पहाड़ टूट पड़ा हमारे ऊपर, कि मां मर गई, और तू अभी छोड़कर जाने की बात करता है! भूलकर ऐसी बात मत करना।

महावीर चुप हो गये। फिर दो वर्ष तक भाई भी हैरान हुआ कि यह त्याग कैसा! क्योंकि वे तो अब चुप ही हो गये। उन्होंने फिर दोबारा बात न कही। इतनी उपस्थिति को हटा लेने का नाम अहिंसा है।

दो वर्ष में घर के लोगों को खुद चिंता होने लगी कि कहीं हम ज्यादती तो नहीं कर रहे हैं। भाई को पीड़ा होने लगी, क्योंकि देखा कि महावीर घर में हैं तो, लेकिन करीब-करीब ऐसे जैसे न हों– एक घोस्ट एग्जिसटेंस रह गया, शैडो एग्जिसटेंस। कमरे से ऐसे गुजरते हैं कि पैर की आवाज न हो। घर में किसी को कुछ कहते नहीं कि किसी को पता चले कि मैं भी हूं। कोई सलाह नहीं देते, कोई उपदेश नहीं देते। बैठे देखते रहते हैं, जो हो रहा है–हो रहा है! उसमें वे उसके साक्षी हो गये हैं। कई-कई दिनों तक घर के लोगों को खयाल ही न आता कि महावीर कहां हैं। बड़ा महल था। फिर खोजबीन करते कि महावीर कहां हैं तो पता चलता। खोजबीन करने से पता चलता।

तो भाई ने और सबने बैठकर सोचा कि हम कहीं ज्यादती तो नहीं कर रहे हैं, कहीं हम भूल तो नहीं कर रहे हैं। हम सोचते हैं कि हम रोकते हैं इसलिए रुक जाता है। लेकिन हमें ऐसा लगता है कि इसलिए रुक जाता है कि नाहक, इतनी भी उपस्थिति हमें क्यों अनुभव हो, हमें इतनी भी पीड़ा क्यों हो कि हमारी बात तोड़कर गया है। लेकिन लगता हमें ऐसा है कि वह जा चुका है, अब वह घर में है नहीं। उन सबने मिलकर कहा– यह पृथ्वी पर घटी हुई अकेली घटना है– उन सबने, घर के लोगों ने मिलकर कहा कि आप तो जा ही चुके हैं, एक अर्थ में। अब ऐसा लगता है कि पार्थिव देह पड़ी रह गई है, आप इस घर में नहीं हैं। तो हम आपके मार्ग से हट जाते हैं क्योंकि हम अकारण आपको रोकने का कारण न बनें। महावीर उठे और चल पड़े।

यह अहिंसा है। अहिंसा का अर्थ है, गहनतम अनुपस्थिति। इसलिए मैंने कहा कि बुद्ध का जो तथाता का भाव है, वही महावीर की अहिंसा का भाव है। तथाता का अर्थ है — जैसा है, स्वीकार है। अहिंसा का भी यही अर्थ है कि हम परिवर्तन के लिए जरा भी चेष्टा न करेंगे। जो हो रहा है ठीक है, जो हो जाए ठीक है। जीवन रहे तो ठीक है, मृत्यु आ जाए तो ठीक है। हमारी हिंसा किस बात से पैदा होती है? जो हो रहा है वह नहीं, जो हम चाहते हैं वह हो। तो हिंसा पैदा होती है। हिंसा है क्या? इसलिए युग में जितना ज्यादा परिवर्तन की आकांक्षा भरती है, युग उतने ही हिंसक होते चले जा ते हैं । आदमी जितना चाहता है, ऐसा हो, उतनी हिंसा बढ़ जाएगी।

महावीर की अहिंसा का अर्थ अगर हम गहरे में खोलें, गहरे में उघाड़ें, उसकी डेप्थ में, तो उसका यह अर्थ है कि जो है उसके लिए हम राजी हैं। हिंसा का कोई सवाल नहीं है, कोई बदलाहट नहीं है, कोई बदलाहट नहीं करनी है। आपने चांटा मार दिया, ठीक है। हम राजी हैं, हमें अब और कुछ भी नहीं करना है, बात समाप्त हो गयी। हमारा कोई प्रत्युत्तर नहीं। इतना भी नहीं जितना जीसस का है। जीसस कहते हैं, दूसरा गाल सामने कर दो। महावीर इतना भी नहीं कहते कि जो चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने करना, क्योंकि यह भी एक उत्तर है। एक “सार्ट आफ आंसर’ है। है तो उत्तर– चांटा मारना भी एक उत्तर है, दूसरा गाल कर देना भी एक उत्तर है। लेकिन तुम राजी न रहे, बात जितनी थी उतने से तुमने कुछ न कुछ किया।

महावीर कहते हैं– करना ही हिंसा है, कर्म ही हिंसा है। अकर्म अहिंसा है। चांटा मार दिया है, ठीक है जैसे एक वृक्ष से सूखा पत्ता गिर गया है। ठीक है, आप अपनी राह चले गये। एक आदमी ने चांटा मार दिया, आप अपनी राह चले गये। एक आदमी ने गाली दी, आपने सुनी और आगे बढ़ गये। क्षमा भी करने का सवाल नहीं है क्योंकि वह भी कृत्य है। कुछ करने का सवाल नहीं है। पानी में उठी लहर और अपने-आप बिखर जाती है। ऐसा ही चा रों तरफ लहरें उठती रहेंगी कर्म की, बिखरती रहेंगी। तुम कुछ मत करना। तुम चुपचाप गुजरते जाना। पानी में लहर उठती है, मिटानी तो नहीं पड़ती, अपने से आप मिट जाती है।

इस जगत में जो तुम्हारे चारों तरफ हो रहा है, उसे होते रहने देना है, वह अपने से उठेगा और गिर जाएगा। उसके उठने के

नियम हैं, उसके गिरने के नियम हैं, तुम व्यर्थ बीच में मत आना। तुम चुपचाप दूर ही रह जाना। तुम तटस्थ ही रह जाना। तुम ऐसा ही जानना कि तुम नहीं थे। जब कोई चांटा मारे तब तुम ऐसे हो जाना कि तुम नहीं हो, तो उत्तर कौन देगा। गाल भी कौन करेगा, गाली कौन देगा, क्षमा कौन करेगा ? तुम ऐसा जानना कि तुम नहीं हो। तुम्हारी एब्सेंस में, तुम्हारी अनुपस्थिति में जो भी कर्म की धारा उठेगी वह अपने से पानी में उसकी लहर की तरह खो जाएगी। तुम उसे छूने भी मत जाना। हिंसा का अर्थ है, मैं चाहता हूं, जगत ऐसा हो।

उमर खैयाम ने कहा है– मेरा वश चले और प्रभु तू मुझे शक्ति दे तो तेरी सारी दुनिया को तोड़कर दूसरी बना दूं। अगर आपका भी वश चले तो दुनिया को आप ऐसी ही रहने देंगे जैसी है? दुनिया! दुनिया तो बहुत बड़ी चीज है, कुछ भी आप ऐसा न रहने देंगे, छोटा- मोटा भी जैसा है। उमर खैयाम के इस वक्तव्य में सारे मनुष्यों की कामना तो प्रगट हुई ही है, और हिंसा भी। अगर महावीर से कहा जाए, अगर आपको पूरी शक्ति दे दी जाए कि यह दुनिया कैसी हो, तो महावीर कहेंगे, जैसी है, वैसी हो — एज इट इज। मैं कुछ भी न करूंगा।

लाओत्से ने कहा है– श्रेष्ठतम सम्राट वह है जिसका प्रजा को पता ही नहीं चलता ।श्रेष्ठतम सम्राट वह है जिसका प्रजा को पता ही नहीं चलता, वह है भी या नहीं। महावीर की अहिंसा का अर्थ है कि ऐसे हो जाओ कि तुम्हारा पता ही न चले और हमारी सारी चेष्टा ऐसी है कि हम इस भांति कैसे हो जाएं कि कोई न बचे जिसे हमारा पता न हो। कोई न बचे, जिसे हमारा पता न हो। सारी अटेंशन हम पर फोकस हो जाए। सारी दुनिया हमें देखे, हम हों आंखों के बीच में, सब आंखें हम पर मुड़ जाएं। यही हिंसा है। और यही हिंसा है कि हम पूरे वक्त चाहते रहें कि ऐसा हो, ऐसा न हो। हम पूरे वक्त चाह रहे हैं। क्यों चाह रहे हैं? चाहने का कारण है। वह जो धर्म की व्याख्या में मैंने आपसे कहा– दौड़ रहे हैं, वह मकान मिले, वह धन मिले, वह पद मिले, तो हिंसा से गुजरना पड़ेगा। वासना हिंसा के बिना नहीं हो सकती। किसी वासना की दौड़ हिंसा के बिना नहीं हो सकती। हम ऐसा समझ सकते हैं कि वासना के लिए जिस ऊर्जा की जरूरत पड़ती है वह हिंसा का रूप ले लेती है। इस लिए जितना वासनाग्रस्त आदमी है उतना वायलेंट, उतना हिंसक होगा। जितना वासनामुक्त आदमी उतना अहिंसक होगा।

इसलिए जो लोग समझते हैं कि महावीर कहते हैं कि अहिंसा इसलिए है कि तुम मोक्ष पा लोगे, वे गलत समझते हैं। क्योंकि अगर मोक्ष पाने की वासना है तो आपकी अहिंसा भी हिंसक हो जाएगी। और बहुत से लोगों की अहिंसा हिंसक है। अहिंसा भी हिंसक हो सकती है। आप इतने जोर से अहिंसा के पीछे पड़ सकते हैं कि आपका पड़ना बिलकुल हिंसक हो जाए। लेकिन जो मोक्ष की वासना से अहिंसा के पीछे जाएगा उसकी अहिंसा हिंसक हो जाएगी। इसलिए तथाकथित अहिंसक साधकों को अहिंसक नहीं कहा जा सकता। वे इतने जोर से लगे हैं उसके पीछे, पाकर ही रहेंगे। सब दांव पर लगा देंगे, लेकिन पाकर रहेंगे। वह जो पाकर रहने का भाव है उसमें बहुत गहरी हिंसा है।

महावीर कहते हैं, पाने को कुछ भी नहीं है जो पाने योग्य है वह पाया ही हुआ है।बदलने को कुछ भी नहीं है क्योंकि यह जगत अपने ही नियम से बदलता रहता है। क्रांति करने का कोई कारण नहीं, क्रांति होती ही रहती है। कोई क्रांति-व्रांति करता नहीं, क्रांति होती रहती है। लेकिन क्रांतिकारी को ऐसा लगता है, वह क्रांति कर रहा है। उसका लगना वैसा ही है जैसे सागर में एक बड़ी लहर उठे और एक बहता हुआ तिनका लहर के मौके पर पड़ जाए और ऊपर चढ़ जाए और ऊपर चढ़कर वह कहे कि लहर मैंने ही उठायी है। बस, वैसा ही है।

सुना है मैंने कि जगन्नाथ का रथ निकलता था तो एक बार एक कुत्ता रथ के आगे हो लिया।बड़े फूल बरसते थे, बड़ी नमस्कार होती थी। लोग लोट-लोटकर जमीन पर प्रणाम करते थे।और कुत्ते की अकड़ बढ़ती चली गयी। उसने कहा, आश्चर्य! न केवल लोग नमस्कार कर रहे हैं, मेरे पीछे स्वर्ण-रथ भी चलाया जा रहा है। मैं ऐसा हूं ही, इसमें कोई कारण भी नहीं है। हम सबका चित्त भी ऐसा ही है।

रूस में चीजैवस्की को स्टेलिन ने कारागृह में डलवा दिया और मरवा डा ला। क्योंकि उसने यह कहा कि क्रांतियां आदमियों के किये नहीं होतीं, सूरज के प्रभाव से होती हैं। और उसके कहने का का रण ज्योतिष का वैज्ञानिक अध्ययन था। उसने हजारों साल की क्रांतियों के सारे ब्यौरे की जांच -पड़ताल की और सूरज के ऊपर होने वाले परिवर्तनों की जांच-पड़ताल की। उसने कहा– हर साढ़े ग्यारह वर्ष में सूरज पर इतना बड़ा परिवर्तन होता है वैद्युतिक कि उसके परिणाम पर पृथ्वी पर रूपांतर होते हैं। और हर नब्बे वर्ष में सूरज पर इतना बड़ा परिवर्तन होता है कि उसके परिणाम में पृथ्वी पर क्रांतियां घटित होती हैं। उसने सारी क्रांतियां, सारे उपद्रव, सारे युद्ध सूरज पर होने वाले कास्मिक परिणामों से सिद्ध किये।

और सारी दुनिया के वैज्ञानिक मानते हैं कि चीजैवस्की ठीक कह रहा था। लेकिन स्टेलिन कैसे माने। अगर चीजैवस्की ठीक कह रहा था तो १९१७ की क्रांति सूरज पर हुई किरणों के फर्क से हुई है, तो फिर लेनिन और स्टेलिन और ट्राटस्की इनका क्या होगा? चीजैवस्की को मरवा डालने जैसी बात थी। लेकिन स्टेलिन के मरने के बाद चीजैवस्की का फिर रूस में काम शुरू हो गया। और रूस के ज्योतिष-विज्ञानी कह रहे हैं कि वह ठीक कहता है। पृथ्वी पर जो भी रूपांतरण होते हैं, उनके कारण कास्मिक हैं, उनके का रण जागतिक हैं। सारे जगत में जो रूपांतरण होते हैं, उनके कारण जागतिक हैं। आप जानकर हैरान होंगे कि एक बहुत बड़ी प्रयोगशाला प्राग में, चेक गवर्नमेंट ने बनायी है, जो एसट्ररानामिकल बर्थ कंट्रोल पर काम कर रही है। और उनके परिणाम ९८ प्रतिशत सही आये। और जो आदमी मेहनत कर रहा है वहां, उस आदमी का दावा है कि आने वाले पंद्रह वर्षो में किसी तरह की गोली, किसी तरह के और कृत्रिम साधन की बर्थ-कंट्रोल के लिए जरूरत नहीं रहेगी, गर्भ-निरोधक के लिए। स्त्री जिस दिन पैदा हुई है और जिस दिन उसका स्वयं का गर्भाधारण हुआ था, इसकी तारीखें, और सूर्य पर और चांद ता रों पर होने वाले परिवर्तनों के हिसाब से वह तय कर लेता है कि यह स्त्री किन-किन दिनों में गर्भधारण कर सकती है। वे दिन छोड़ दिये जाएं संभोग के लिए तो पूरे जीवनकाल में कभी गर्भधारण नहीं होगा। अंठान्नबे प्रतिशत दस हजार स्त्रियों पर किये गये प्रयोग में सफल हुआ है। वह यह भी कहता है कि स्त्री अगर चाहे कि बच्चा लड़का पैदा हो या लड़की तो उसकी भी तारीखें तय की जा सकती हैं। क्योंकि वह भी कास्मिक प्रभावों से होता है, वह भी आपसे नहीं हो रहा है। ज्योतिष के बड़े जोर से वापस लौट आने की संभावना है।

महावीर कहते हैं– घटनाएं घट रहीं हैं, तुम नाहक उनको घटाने वाले मत बनो। तुम यह मत सोचो कि मैं यह करके रहूंगा। तुम इतना ही करो तो काफी है कि तुम न करने वाले हो जाओ।

अहिंसा का अर्थ है– अकर्म। अहिंसा का अर्थ है– मैं कुछ न बदलूंगा, मैं कुछ न चाहूंगा। मैं अनुपस्थित हो जाऊंगा। अहिंसा पर थोड़ी और बात करनी पड़े, कलबात करेंगे!

आज इतना ही।

पर कोई जाए न, थोड़ा इस आनंद!


Filed under: महावीर वाणी--भाग--1 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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