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समाधि के सप्‍त द्वार–(ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–17

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प्राणिमात्र के लिए शांति—प्रवचन—सत्रहवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; रात्रि, 17 फरवरी, 1973

इसके अतिरिक्त, उन पवित्र अभिलेखों का और क्या आशय, जो तुझसे यह कहलवाते हैंः

“ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं।

“ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण-धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं। ‘

हां, आर्य-पथ पर अब तू स्रोतापन्न नहीं है, तू एक बोधिसत्व है। नदी पार की जा चुकी है। सच है कि तू “धर्मकाया’ के वस्त्र का अधिकारी हो गया है, लेकिन “संभोग काया’ निर्वाणी से बड़ा है। और उससे भी बड़े हैं “निर्माण कायावाले’–कारुणिक बुद्ध

अब ओ बोधिसत्व, अपना सिर झुका और ठीक से सुन। करुणा स्वयं बोलती हैः जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, क्या तब तक आनंद संभव है? क्या तू अकेला सुरक्षित होगा और सारा संसार रोता रहेगा?

अब तूने वह सुन लिया है, जो कहा गया था।

तू सातवें पद को उपलब्ध होगा और परम-विद्या के द्वार को पार करेगा, लेकिन क्या मात्र इसलिए कि दुख के साथ तेरा गठबंधन हो! यदि तुझे तथागत होना है, तो अपने पूववर्ती के चरण-चिह्नों पर चल और अंतहीन अंत तक अहंकारशून्य रह।

तू संबुद्ध है–अपना पथ चुन।

उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं। और चतुर्मुखी अभिव्यक्त शक्तियों से–दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधु-गंधी मिट्टी और बहती हवाओं से–प्रेम का

मधुर संगीत उदभूत हो रहा है।

जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठ कर समस्त निसर्ग की निशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती हैः आनंद मना, ओ म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से लौट आया है।

एक नए अर्हत का जन्म हुआ है।

प्राणिमात्र के लिए शांति।

आनंद पाने का एक आनंद है, लेकिन फिर उस आनंद को बांटने का और ही आनंद है। जो मिला है, वह जब तक दिया न जाए, तब तक उसकी पूरी प्रतीति, उसका पूरा रस, उसका पूरा

स्वाद भी नहीं मिलता। आनंद को बांटकर ही पता चलता है कि क्या मिला है।

जब परम स्थिति के निकट पहुंचता है साधक, शून्य होने का क्षण आ जाता

है, तब जो उसे मिलता है, वह अपार है, असीम है। उसे वह अकेला लेकर डूब सकता है, लेकिन ये सूत्र महायान के कहते हैं कि वह आनंद के अंतिम और मधुर फल से वंचित रह जाएगा। आनंद उसे पूरा मिल जाएगा, फिर भी आनंद के अंतिम मधुर फल से वंचित रह जाएगा। वह मधुर फल है आनंद को बांटने का।

एक आनंद है आनंद को पाने का, और फिर उससे भी विराटतर आनंद है–आनंद को बांटने का।

वह जो बांटना है, वह जो बिखेरना है आनंद के बीजों को, सभी बुद्ध उसे नहीं कर पाते। कुछ बुद्ध उसे कर पाते हैं, कुछ बुद्ध शून्य में खो जाते हैं। यह सूत्र इसी के संबंध में है। हम इसे समझें।

“इसके अतिरिक्त, उन पवित्र अभिलेखों का और क्या आशय है, जो तुझसे यह कहलवाते हैंः

“ॐ मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं। ‘

सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं–मधुर फल निर्वाण मार्ग का, उस फल को बांट देने में है, उसे फैला देने में है। अपने लिए पाने के लिए तो संसार में सभी लोग जीते हैं। सांसारिक सुख अपने लिए पाना चाहते हैं। फिर ऐसे ही अध्यात्म के जगत में भी आध्यात्मिक आनंद अपने लिए पाना चाहते हैं। इसमें एक अर्थ में संसार की पुरानी आदत मौजूद है–अपने लिए पाने की। मिल भी जाता है, लेकिन संसार की एक पुरानी आदत जैसे काम करती चली जाती है–मैं ही केंद्र बना रहता हूं। अहंकार मिट गया अब, आत्मा बन गई केंद्र, लेकिन फिर भी मैं केंद्र हूं। झूठा अहंकार खो गया, सच्ची आत्मा मिल गई, फिर भी केंद्र मैं ही हूं। तो संसार का एक सूत्र जैसे काम ही कर रहा है कि मैं केंद्र हूं।

सभी अर्हत, सभी उपलब्ध व्यक्ति लौटकर इस आखिरी सूत्र को नहीं तोड़ देते कि मैं केंद्र नहीं हूं, अब केंद्र दूसरे हो गए। अब यह सारा अस्तित्व केंद्र है, और मैं इस अस्तित्व के लिए समर्पित हूं।

“मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं। ‘

“ॐ मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण-धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं। ‘

सभी बुद्ध वापिस लौटकर बांटते नहीं हैं, कोई बुद्ध कभी बांटता है।

जैनों ने उन बुद्धों को तीर्थंकर कहा है, जो बांटते भी हैं। जैनों का

शब्द है तीर्थंकर, कीमती है। उस शब्द को समझने से बहुत आसानी होगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। ये चौबीस बुद्ध पुरुष–केवल चौबीस ही बुद्ध पुरुष हुए हैं, ऐसा नहीं है, ऐसे बहुत से जिन, बहुत से बुद्ध पुरुष हुए हैं। सम्यकत्व को, सम्यक ज्ञान को, अंतिम ज्ञान को, केवल-ज्ञान को उपलब्ध बहुत से अरिहंत हुए हैं। अर्हत बौद्धों का शब्द है, अरिहंत जैनों का शब्द है। अर्थ एक ही है। लेकिन तीर्थंकर चौबीस हुए हैं। अनंत-अनंत बुद्धों, जिनों, अर्हतों, अरिहंतों में से केवल चौबीस व्यक्ति लौट आए हैं। और उन्हें जो मिला है, उसे उन्होंने बांटने की कोशिश की है।

तीर्थंकर शब्द का अर्थ हैः घाट के बनानेवाले।

एक व्यक्ति जब बुद्ध होता है, तो दूसरे किनारे पहुंच गया। अगर वह लौटकर न आए वापिस उस किनारे पर, जहां संसार है, जहां उसके संगी-साथी, मित्र, शिष्य, प्रियजन, जन्मों-जन्मों के संबंधी, अनेक-अनेक यात्राओं में उसके साथ, जहां उसका बड़ा परिवार है दुख में लीन, उस तट पर अगर कोई वापिस न लौटे, तो तीर्थ निर्माण नहीं होता। उस तट पर अगर कोई वापिस लौट आए, तो वह घाट को बनाता है। अब उसे अनुभव है–दूसरे पार जाने का रास्ता कैसे जाता है और कहां से उतरें कि हम दूसरे पार सुगमता से पहुंच सकेंगे।

तो इस किनारे पर लौट कर वह घाट का निर्माण करता है, जहां से नाव दूसरे किनारे के लिए जा सके। उस घाट का नाम है तीर्थ। और उसको जो निर्माण करता है, उसका नाम है तीर्थंकर। उस किनारे गया हुआ लौटकर जब इस किनारे ऐसा घाट निर्मित करता है, जिससे दूसरे भी नाव पकड़ लें, और दूसरे तट की ओर चल पड़ें, ऐसा बुद्ध, ऐसा जिन, ऐसा अर्हत तीर्थंकर है। लेकिन सभी बुद्ध ऐसा नहीं करते, अति कठिन काम है।

उस पार का आनंद अवर्णनीय है। उस पार की शांति की कोई तुलना नहीं है। उस पार महासुख है। उस पार रंचमात्र भी पीड़ा शेष नहीं रह जाती है। वहां से इस तरफ लौटना, अति असंभव कार्य है। दुख से सुख की तरफ जाना हो तो बहुत आसान है, सुख से दुख की तरफ आना बहुत कठिन है। नरक से स्वर्ग को जाने को तो कोई भी तैयार होगा, लेकिन स्वर्ग से कौन नरक की तरफ जाना चाहेगा? उस पार से इस तरफ लौटना अति दुर्गम है। इस तरफ से उस पार जाना ही तो अति दुर्गम है, फिर उस पार से इस पार लौटना तो बहुत ही महादुर्गम है; असंभव जैसा कृत्य है।

इसलिए हमने तीर्थंकरों और बुद्धों को इतना सम्मान दिया है। उन्होंने असंभव किया हैः उस परम आनंद के अनुभव के बाद लौटना इस उत्तप्त जगत में, जहां सब जल रहा है और सब नरक है। हमें तो इसके नरक की प्रतीति ज्यादा नहीं होती; क्योंकि हम इसी में बड़े हुए हैं, इसी में जीए हैं, यह हमारी श्वास-श्वास में भरा है। हम इसे जीवन ही मानते हैं। इस नरक की प्रतीति तो उसे ही होती है इसकी पूर्णता में, जो उस पार की झलक ले आया है।

तो जितना दुख आपको मालूम होता है, आपको पता नहीं, आप सोचते होंगे कि ऐसी भी क्या तकलीफ है। थोड़ी तकलीफ है माना। ऐसी क्या तकलीफ है कि कोई उस तरफ से लौटना ही न चाहे। हमें अंदाज नहीं है।

गरीब आदमी को जो तकलीफ है, अगर अमीर आदमी गरीब की जगह खड़ा हो, तो उसे जो तकलीफ पता चलेगी, वह गरीब को कभी पता नहीं चलेगी। वह तो अमीर को जब गरीब हो जाए, तब जो दुख पता चलेगा, वह उसी झोपड़े में रहनेवाले गरीब को बिलकुल नहीं पता चलता। गरीब उसका आदी है। उसके पास तुलना का उपाय भी नहीं है। किससे तोले, किससे कहे कि यह दुख है, किस आधार पर उसको दुख कहे? यही जीवन है। कठिन है। लेकिन जिसने सुख जाना हो, उसके लिए महादुख है।

एक बार जिसने उस पार की झलक पा ली हो, उसके लिए इस पार का जगत “म्यालबा’ है। यह तिब्बती शब्द है। “म्यालबा’ का अर्थ है महा नरक। साधारण नरक नहीं, महानरक। इस महानरक की तरफ जो लौटता है, उसको तीर्थंकर, बोधिसत्व कहते हैं। स्वाभाविक है, उसको इतना सम्मान दिया गया।

“मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं।

“हां, आर्य-पथ पर अब तू स्रोतापन्न नहीं है, तू एक बोधिसत्व है। नदी पार की जा चुकी है। सच है कि तू “धर्मकाया’ के वस्त्र का अधिकारी हो गया है, लेकिन “संभोगकाया’ निर्वाणी से बड़ा है। और उससे भी बड़े हैं “निर्माणकाया’ वाले कारुणिक बुद्ध। ‘

तीन तरह की कायाओं का विचार बुद्ध चिंतना में है। तीन काया के शब्द ठीक से समझ लेना चाहिए।

एक शब्द है धर्मकाया। अभी हम एक शरीर में हैं, यह है पार्थिव स्थूल काया। इस स्थूल काया के बिना संसार में नहीं हुआ जा सकता है। संसार में होने के लिए यह शरीर जरूरी है। मोक्ष में, महा-शून्य में जब हम प्रवेश करते हैं, तो जो हमें घेरे होती है देह, उसका नाम है धर्मकाया। वह कोई शरीर नहीं है, सिर्फ प्रतीक है। जब महाशून्य में कोई प्रवेश करता है तो उसके आसपास जो आभा होती है, जो अस्तित्व की श्वास होती है उसका नाम है धर्मकाया।

धर्मकाया इसलिए कि वह हमारा स्वरूप है, धर्म है। उसे हमसे छीना नहीं जा सकता है। उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। उसको मिटाने का कोई उपाय नहीं है। वह हम ही हैं। वह हमारी आत्मा है। वह हमारा मौलिक अस्तित्व है, जिसको हम स्वभाव कहते हैं, वह आत्यंतिक स्वभाव है। उसमें से रत्ती भर अलग नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह हम ही हैं। जो भी अलग किया जा सकता है, वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव का अर्थ है जिससे हम अलग हो सकते हैं और फिर भी हो सकते हैं तो वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव तब है, जब जिससे हम अलग ही न हो सकें। अलग करने का उपाय भी न हो, तब स्वभाव है।

धर्मकाया का अर्थ हैः आत्यंतिक स्वभाव।

जब कोई शून्य में प्रवेश करता है, तो उससे सब छिन जाता है। जो भी पराया था, विजातीय था, फारेन था, जो उसका अपना नहीं था, वह सब छिन जाता है। बच रहता वही है, जो उसका

शुद्ध अस्तित्व है, प्योर एक्जिस्टेन्स। उसका नाम है, धर्मकाया। उसके नीचे की काया का नाम है, संभोगकाया। और उससे भी नीचे की काया का नाम है, निर्वाणकाया।

धर्मकाया मिली कि व्यक्ति शून्य हुआ। धर्मकाया आखिरी है, फिर लौटना संभव नहीं है; क्योंकि लौटने के सारे साधन खो गए। लौटने के लिए वाहन चाहिए।

उससे नीचे के तल पर है संभोग काया। संभोग काया वैसी ही स्थिति है–मध्य की। संभोग काया में खड़ा हुआ व्यक्ति धर्मकाया की सारी स्थिति को देख पाता है। एक कदम आगे धर्मकाया है, आखिरी है, वहां अंत होता है अस्तित्व का। वहां महाशून्य और निर्वाण शुरू होता है। उसके बाद लौटना मुश्किल है। संभोग-काया वह क्षण है, जहां से व्यक्ति देख पाता है कि अगर एक कदम और आगे बढ़ा, तो फिर लौट नहीं सकूंगा। यहां से झलक मिलती है। यहां से आगे का दिखाई पड़ता है, वह महाशून्य, स्वभाव का अनंत विस्तार, ब्रह्म-निर्वाण। वह यहां से दिखाई पड़ता है। लेकिन अगर साधक एक कदम और आगे बढ़ता है, तो वह उस निर्वाण के साथ एक हो जाएगा। आखिरी काया है, संभोगकाया। जो पराई है, वह छूट गई, तो फिर लौटा नहीं जा सकता।

जिनको बोधिसत्व होना है, उनको संभोग-काया के क्षण में ही ठहर जाना पड़ता है। जहां से दिखाई पड़ता है महाशून्य। लेकिन अभी अंतर है, अभी स्वयं महाशून्य नहीं हो गए हैं। अभी महाशून्य भी प्रतीत होता है, दिखाई पड़ता है, उसका दर्शन होता है। अभी भी हम द्रष्टा हैं। अभी भी थोड़ी-सी बारीक दूरी है। इतनी दूरी अगर बचाए रखें तो लौटना हो सकता है।

संभोग-काया से और भी पहले है एक कदम काया का, वह है निर्वाण-काया। संभोग-काया से कोई संसार में नहीं लौट सकता। अकेली संभोग-काया सिर्फ अंतराल है बीच का। जब कोई व्यक्ति निर्वाण काया में होता है, तो ही संसार के काम आ सकता है।

निर्वाण-काया, ऐसा समझ लें हम, संसार और निर्वाण के बीच का संबंध-सेतु है। निर्वाण-काया के माध्यम से कोई बुद्ध, अगर चाहे, तो जगत के उपकार में, करुणा के जगत में, जगाने में लग सकता है। निर्वाण-काया माध्यम है, जगत और निर्वाण के बीच। निर्वाण-काया और धर्म-काया के बीच में है संभोग-काया। अगर कोई निर्वाण-काया में ही रुका रहे, तो उसे धर्म-काया का अनुभव नहीं हो पाता, महाशून्य का अनुभव नहीं हो पाता–दूर है उसके एक कदम आगे बढ़कर संभोग-काया है।

संभोग-काया इसे इसलिए नाम दिया है कि स्वयं के और उस अनंत के बीच संभोग का अनुभव होता है। थोड़ा-सा फासला रह गया है, अभी बिलकुल एक नहीं हो गए हैं।

ऐसा समझें, जब एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलता है गहन–दो तो बने रहते हैं, पर एक क्षण को ऐसा लगता है कि दो नहीं रहे, एक ही रह गया। वह है संभोग का क्षण। फिर भी दो तो रहते ही हैं। ऐसा लगता है एक क्षण को प्रतीति होती है–एक हल्की सी झलक, हवा का एक ताजा झोंका और ऐसा

लगता है कि दो खो गए और एक तरंग हो गई। दो तरंगें मिल गई, दो गीत अपने में एक-दूसरे में डूब गए, दो नदियां एक-दूसरे में घुलमिल गई। एक क्षण को ऐसी जो प्रतीति होती है, उसे हम संभोग कहते हैं। इस अवस्था में संभोग-काया। इस काया को इसलिए कहा है कि इस काया में खड़े हुए व्यक्ति को, उस महाशून्य के साथ क्षण भर को एक हो जाने का अनुभव होता है, एक हो नहीं जाता। एक हो जाए, तो फिर लौटना नहीं है। एक नहीं होता है, इसलिए लौट सकता है। संभोग-काया आखिरी पड़ाव है। उसके बाद लौटना नहीं है। संभोग-काया में जो संभल गया, जहां संभोग का अनुभव हुआ अस्तित्व के साथ–दूरी कायम रही, लेकिन मिलन हो गया। जैसे प्रेमी और प्रेयसी का मिलन। यहीं से सावधान होकर कोई नीचे उतर आए तो–तो निर्वाण काया है। अभी नीचे उतरा जा सकता है। अभी संबंध नहीं टूट गए हैं। निर्वाण-काया में रह कर ही कोई बोधि, बोधिसत्व रह पाता है।

तो यह सूत्र बहुत अदभुत है। यह कहता है कि नदी पार की जा चुकी है। और सच है कि तू धर्म-काया के वस्त्र का अधिकारी हो गया। अब तू हकदार है महाशून्य के साथ एक हो जाने के लिए, लेकिन संभोग-काया निर्वाणी से बड़ा है। तू रुक, निर्वाण में डूब जाना बिलकुल सहज है, सभी डूब जाते हैं, उससे भी बड़ा कृत्य है कि तू संभोग-काया में रुक जाए। जहां एक होने के बिलकुल करीब आ गया, वहां पीठ मोड़ ले, और लौट आए।

“और उससे भी बड़े हैं निर्वाण-काया में रहनेवाले कारुणिक बुद्ध। ‘

लेकिन संभोग-काया में रह जाए तो संसार का कोई उपयोग नहीं है। उससे भी नीचे उतर आ, और जगत के आखिरी संबंध का जो सेतु है, उसको बना ले–निर्वाण-काया। और उस सेतु के माध्यम से जगत के प्रति करुणा से भरपूर कुछ करने में लग।

“अब ओ बोधिसत्व, अपना सिर झुका और ठीक से सुन। करुणा स्वयं बोलती हैः जब तक प्राणिमात्र दुख में है, क्या तब तक आनंद संभव है?’

ये बौद्ध महायान के सार सूत्र हैं और बड़े गहन हैं। यह सूत्र कहता है कि जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, तब तक क्या आनंद संभव है? तेरा दुख मिट गया, माना, लेकिन जब तक इस जगत में दुख है, क्या सच में ही तेरा दुख मिट गया? क्या तुझे इस जगत का दुख बिलकुल स्पर्श नहीं करेगा? क्या इस जगत का दुख जिसका कि तू एक हिस्सा है, इस अस्तित्व की पीड़ा जिसका कि तू एक अंग है, तुझे नहीं छुएगी? और इस पीड़ा की तरंगें तेरे हृदय में भी प्रवेश नहीं कर जाएंगी? क्या ये सच में ही संभव है, इस अस्तित्व में दुख बना रहे और तू आनंद को उपलब्ध हो जाए? तूने अपना आनंद पा लिया, पर और हैं, बहुत हैं, जो दुखी हैं, क्या यह दुख बिलकुल ही तुझे विस्मृत हो जाएगा? क्या तू भूल ही जाएगा कि अस्तित्व में दुख अभी शेष है–यह प्रश्न है।

यह प्रश्न है कि जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, क्या तब तक आनंद संभव है?

“क्या तू अकेला सुरक्षित होगा, और सारा संसार रोता रहेगा?

“अब तूने वह सुन लिया है जो कहा गया था।

“तू सातवें पद को उपलब्ध होगा और परमविद्या के द्वार को पार करेगा, लेकिन क्या मात्र इसलिए कि दुख के साथ तेरा गठबंधन न हो!’

क्या सारी यात्रा बस इतनी ही थी कि दुख से तेरा संबंध टूट जाए?

“यदि तुझे तथागत होना है, तो अपने पूववर्ती के चरण-चिह्नों पर चल और अंतहीन अंत तक अहंकार शून्य रह। ‘

“तू संबुद्ध है’ अपना पथ चुन। ‘ अब तू सिर्फ खोजने की बात मत सोच। बहुत हैं, जो दुखी हैं, उनका भी स्मरण कर। और जैसे तुझसे पहले तथागत गौतम बुद्ध ने स्वयं को रोक लिया–तब तक के लिए, जब तक यह अंतहीन संसार आनंद को उपलब्ध नहीं हो जाता, ऐसा महा-संकल्प लिया–ऐसा तू भी महा-संकल्प ले। ‘

“अब तू संबुद्ध है’–अब तू जाग गया।

“–अपना पथ चुन। ‘

अब तू सिर्फ आनंद में आकर्षित होकर मत डूब।

इसे हम ऐसा भी समझ सकते हैं, महायान की दृष्टि से ऐसा है ही कि यह आखिरी वासना है कि मैं आनंद में डूब जाऊं। मेरा आनंद मिल गया, बात समाप्त हो गई।

इसे भी तोड़ दे। मेरा भी क्या? जब तक दुख है, तब तक मेरेत्तेरे की बात ही मत कर। जब तक आनंद ही आनंद न हो जाए, और कोई भी दुख न रह जाए, तब तक तू रुक।

और तू रुक सकता है, तेरी सामर्थ्य है। क्योंकि तू संबुद्ध है, जागा

हुआ है, नियम के बाहर हो गया। अब तेरे ऊपर कोई भी जोर-जबरदस्ती नहीं। अब तू स्वयं भगवान है। अब तो कोई कारण नहीं जो तुझे धक्का दे रहा हो कि तू ऐसा कर, वैसा कर। अब तू जो करना चाहे, कर सकता है। इस क्षण में तुझे इतनी बड़ी सत्ता और शक्ति मिली है कि तू जो चाहे कर सकता है। इसका उपयोग कर।

या कि सिर्फ इसका इतना ही उपयोग करेगा कि तेरा दुख मिट जाए? तेरा दुख मिट गया, बस बात समाप्त हो गई?

“उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं। ‘

एक झलक उस स्थिति की है कि अगर तू लौट आए और पीठ फेर ले इस महाआनंद की तरफ और ध्यान करे उनका, जो दुख में हैं। यह उसकी एक झलक है। उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है।

अगर तू वापस लौट आए, तो सारा पूरब का आकाश प्रकाश से भर जाएगा, तेरे लौटते ही। जहां सदा से अंधेरा है, वहां प्रकाश का एक सूर्य उदय होगा।

“उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं। ‘

तेरा स्वागत करेगी पृथ्वी, तेरा स्वागत करेगा स्वर्ग। गलबाहें डाले खड़े हैं कि तू आ रहा है।

“और चतुर्मुखी अभिव्यक्त शक्तियों से–दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधु-गंधी मिट्टी और बहती हवाओं से–प्रेम का मधुर संगीत उदभूत हो रहा है। ‘

देख कि तू वापिस लौट रहा है उस जगत में, जहां दुख है, अंधकार है। जैसे पूरब में फिर से आध्यात्मिक अर्थों में एक सूरज का जन्म हो रहा है। स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले तेरा

स्वागत कर रहे हैं। दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधुगंधी मिट्टी और बहती हवाओं से, तेरे लिए प्रेम का संगीत उदभूत हो रहा है।

“सुन जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठ कर समस्त निसर्ग की निःशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती हैः आनंद मना, म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से वापस लौट आया है। ‘

हे महानरक के निवासियोम्यालबा का अर्थ है महानरक। हमारी पृथ्वी म्यालबा है।

“सुन जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठकर समस्त निसर्ग की निःशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती हैः आनंद मना, ओ म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से लौट आया है। ‘

“एक नए अर्हत,’ एक नए बोधिसत्व, एक नए बुद्ध का जन्म हुआ है।

“प्राणिमात्र के लिए शांति। ‘

आदमी है दुख में, सुख खोजता है। जितना सुख खोजता है, उतना दुखी होता जाता है। जब बोध जगता है कि मेरे सुख की खोज ही मेरे दुख का कारण है, तो साधना का जन्म होता

है। तब आदमी सुख नहीं खोजता, दुख से नहीं बचना चाहता, सुख-दुख दोनों से उठना चाहता है।

सांसारिक आदमी है वह, जो दुख में है, और सुख खोजता है।

संन्यासी है वह, जो समझ गया कि दुख से बचने और सुख को खोजने में ही दुख है।

तो संन्यासी है वह, जो सुख और दुख से ऊपर उठने का रास्ता, मार्ग खोजता है।

सिद्ध है वह, जो पहुंच गया उस जगह, जहां सुख और दुख के पार हो गया।

सुख दुख के पार होते ही आनंद घटित हो जाता है।

सिद्धत्व आनंद की अवस्था है।

बोधिसत्व है वह, जो इस आनंद को पाकर खो नहीं जाता, चुप नहीं हो जाता, बैठा नहीं रहता; वरन् जो दुख में हैं, उनके लिए वापस लौट आता है।

सुना है मैंने कि जापान के एक कारागृह में एक अनूठी घटना वर्षों तक घटती रही। एक फकीर बार-बार चोरी करता और सजा पाता रहता। लोग चकित थे। फकीर ऐसा साधु था असाधारण कि कोई भरोसा ही न करता था कि वह साधु और कभी चोरी करेगा। गुण उसके ऐसे थे बुद्धत्व के और चोरी की बात का कहीं तालमेल न था। और चोरी भी बहुत छोटी-मोटी! और यह जिंदगी भर चला! बूढ़ा हो गया तो उसके शिष्यों ने कहा कि अब तो बंद करो यह उपद्रव। हमारी कल्पना में भी नहीं आता कि किसलिए यह चोरी करते हो! हम मान भी नहीं सकते हैं कि तुम चोरी करते हो; लेकिन सब गवाह हो जाते हैं, सबूत हो जाते हैं, और तुम्हारी सजा हो जाती है। और तुम्हारे पीछे हम भी बदनाम हो जाते हैं कि तुम किसके शिष्य हो, वह आदमी फिर जेल में चला गया। और तुम अब आखिरी बार छूट आए हो, उम्र भी कम बची है, स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, अब तुम कृपा करके यह उपद्रव बंद करो। और तुम्हें जो चाहिए हम सदा देने को तैयार हैं; चोरी की तुम्हें जरूरत नहीं है। और तुम चोरी भी ऐसी छोटी-छोटी करते हो कि भरोसा नहीं आता कि क्या करते हो!

तो उसने कहा कि जिंदगी भर मैंने कहा नहीं, अब तुमसे कहता हूं–चोरी मैं सिर्फ इसलिए करता हूं, ताकि भीतर जाकर चोरों को बदल सकूं। उन तक पहुंचने का और कोई उपाय नहीं है। वहां बहुत चोर दुखी हो रहे हैं। वहां बहुत अपराधी और पापी हैं। उनको कौन बदले? और कैसे बदले? और अगर मैं गुरु की तरह जाकर उनको उपदेश दूं, तो उनको नहीं बदल सकता।

क्योंकि जो अपना नहीं है, उसके प्रति कोई सम्मान पैदा नहीं होता है। जो अपने ही जैसा नहीं होता है, उससे कोई संबंध निर्मित नहीं होते हैं। एक गुरु की तरह, एक साधु की तरह जाकर मैं खड़ा हो जाऊं, तो उनके मन में मेरे प्रति एक फासला और एक दूरी रहती है कि मैं साधु हूं और वह चोर है। शायद मेरी मौजूदगी उनकी निंदा भी बन जाती है। शायद मेरे कारण उनको पीड़ा और दुख भी हो। शायद अकारण मैं उनकी पीड़ा का कारण भी बन जाऊं। तो मैं चोर होकर ही जाना पसंद करता हूं। मैं फिर उनके जैसा हो गया। उनकी ही काल-कोठरियों में बंद, उनकी ही तरह जंजीर मेरे हाथ में, मैं भी एक चोर, वे भी एक चोर। फिर हम एक-दूसरे की भाषा समझ सकते हैं। और फिर उनकी ही भाषा में मैं उनको बदलने की कोशिश करता हूं। फिर तुम मुझे रोकोगे। जब तक मैं हूं, मेरा यही काम है कि वे जो पीड़ा और पाप से घिरे हैं, उन्हें बाहर लाऊं। बोधिसत्व उस किनारे से ऐसा ही व्यक्ति है लौटता हुआ इस किनारे पर। और अगर उसे यहां लौटना है, और इस किनारे के लोगों को सहायता पहुंचानी है, तो उसे इस किनारे की कुछ भाषा कायम करनी होगी। इस किनारे के लोगों से कुछ संबंध स्थापित करना होगा। निर्वाण-काया वही संबंध है इस जगत के लोगों से। और इस जगत के लोगों की भाषा क्या है? इस जगत के लोगों की भाषा वासना है।

तो बुद्ध को अगर बोधिसत्व बनना है, तो उसे अपनी करुणा को वासना बनाना पड़ेगा। उसे यह प्रगाढ़ वासना करनी पड़ेगी कि मैं दूसरों को सहयोग दे सकूं, साथ दे सकूं, मार्गदर्शन दे सकूं।

जैनों में कहा जाता है कि तीर्थंकर वही आदमी होता है, जिसने तीर्थंकर कर्म का बंधन किया हो। इसको भी कर्म कहते हैं। यह भी एक पाप है। क्योंकि दूसरों को जगाने की चेष्टा भी, दूसरों को बदलने की चेष्टा भी, दूसरों को रूपांतरित करने की चेष्टा भी, एक चेष्टा तो है, और एक वासना तो है। तो जिसने दूसरों को जगाने की वासना को बचा लिया हो, वही तीर्थंकर बन सकता है। इतनी तो उसे वासना रखनी ही पड़ेगी कि मैं दूसरों के काम आ जाऊं। इतनी वासना का धागा बना रहे, वही वासना निर्वाण-काया है। तो फिर वह हमसे जुड़ा है बहुत हल्के धागों से। कभी भी टूट सकता है धागा। कोई मजबूत जंजीर नहीं है। और फिर अपने ही हाथ से बंधा है। अगर इस तट पर किसी को रहना है, तो इस तट के साथ उसको कुछ खूंटियां, कुछ सूत्र, कुछ धागे, कुछ रस्सियां बांधनी पड़ेंगी।

मैंने सुना है कि रामकृष्ण को भोजन से अति लगाव था, अतिशय। ऐसा ज्यादा था कि रामकृष्ण के आसपास के लोग चिंतित हो जाते थे। और शारदा तो बहुत बार रामकृष्ण को झिड़कती थी कि यह बंद करो बच्चों जैसा काम। क्योंकि ब्रह्मचर्चा चलती होती और अचानक रामकृष्ण बीच से उठकर किचन में, चौके में पहुंच जाते, और वे कहते, क्या बना है? आज क्या बन रहा है? शारदा कहती कि ब्रह्मचर्चा छोड़कर यहां चौके में आकर ऐसे प्रश्न उठाना आपको शोभा नहीं देता परमहंस देव। शिष्य भी समझाते, लोगों में ऐसी खबर पहुंचती है, तो लोग कहते हैं, यह रामकृष्ण कैसा ज्ञानी है? इनको भोजन की इतनी फिकर! अज्ञानियों को भी इतनी फिकर नहीं। थाली लेकर शारदा आती तो उठकर खड़े होकर वे थाली देखने लगते, उनके चेहरे पर बड़े आनंद का भाव थाली को देख कर आ जाता!

एक दिन कोई नहीं था। शारदा तो कई बार झिड़क चुकी थी। उस दिन बहुत नाराज हो गई, और उसने कहा कि समझ के बाहर है यह बात, तुममें और भोजन के प्रति ऐसा रस। रामकृष्ण ने कहा कि आज तक छिपाए रखा कि कहने से तुम्हें कठिनाई होगी और दुख होगा। तुम नहीं मानती हो और तुम उलझती जाती हो, तो कहे देता हूंः ध्यान रखना जब तक मैं भोजन में रस ले रहा हूं, तभी तक मैं इस शरीर में हूं, जिस दिन भोजन में रस न लूं, तू समझ जाना और खबर कर देना कि तीन दिन के भीतर ही मेरा शरीर छूट जाएगा।

फिर भी किसी ने बहुत गंभीरता से न लिया, क्योंकि हम बहुत बाद में बातें गंभीरता से लेते हैं। तब शारदा ने भी सुना-अनसुना कर दिया। औरों ने भी सुना, बात आई-गई हो गई। फिर एक दिन तब याद आई वर्षों बाद, शारदा थाली लेकर आई। रामकृष्ण लेटे थे–तो उन्होंने करवट बदल ली दूसरी तरफ। यह असंभव था। भोजन में उनका रस ऐसा था कि वह करवट बदल लें और पीठ कर लें, यह असंभव था। अचानक शारदा को याद आया, हाथ से थाली छूट कर गिर पड़ी। रोने लगी, उसने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं, आपने पीठ क्यों फेर ली? रामकृष्ण ने कहा कि तुम्हीं तो सब सदा कहते थे, अब आज वही कर रहा हूं, जो तुम्हारी आकांक्षा थी। ठीक तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।

शरीर में अगर बांध कर रखना हो किसी बोधिसत्व को, तो शरीर की कोई वासना पकड़नी होगी, नहीं तो वह तत्क्षण छूट जाएगा। पर यह वासना पकड़ी जा रही है, इसमें भी वह मालिक है। यह वासना उसे नहीं पकड़ रही है। एक तो ऐसा है कि किनारे की खूंटी आपको पकड़े हुए है, और आप खूंटी के बस में हैं। और एक ऐसा है कि आपने खूंटी किनारे की पकड़ रखी है अपने हाथ से; क्योंकि आप धारा में बह जाना नहीं चाहते, इस किनारे पर कुछ काम आना चाहते हैं। जिस दिन चाहें, उस दिन, उस क्षण छोड़ सकते हैं। खूंटी की कोई पकड़ आप पर नहीं है, आप ही खूंटी को पकड़े हुए हैं।

भोजन में आपका भी रस है। आप यह मत सोचना कि आप भी रामकृष्ण जैसे हैं। रामकृष्ण और आपके भोजन के रस में भी फर्क है। यह प्रयोजित है, जाना-माना है, आयोजित है। रामकृष्ण जान रहे हैं कि इस शरीर को अगर पकड़े रखना है कि कुछ देर काम आ जाए, तो इस शरीर की भाषा में कुछ सूत्र, सेतु, मार्ग पकड़ रखना पड़ेंगे। यह मैंने उदाहरण के लिए कहा।

उस क्षण में जब कोई शून्य में खोने के करीब आ गया, तब अगर उसे जगत के साथ कोई संबंध रखना है, तो सिर्फ करुणा की वासना में अपने को रोक रखना पड़ेगा। यह सूत्र करुणा की वासना जगाने के लिए है।

अंत होता है इस पुस्तक का–”प्राणिमात्र के लिए शांति’।

बुद्ध ने निरंतर बार-बार कहा है अपने लिए शांति मत मांगना, प्राणि-मात्र के लिए मांगना। अपने लिए आनंद मत मांगना, प्राणिमात्र के लिए आनंद मांगना। अपने लिए प्रार्थना मत करना, प्राणिमात्र के लिए प्रार्थना करना। क्यों? क्योंकि इन्हीं प्रार्थनाओं, इन्हीं मांगों, इन्हीं आकांक्षाओं-अभीप्साओं से तुम्हारे भीतर वह सूत्र निर्मित होता जाएगा, जो अंतिम क्षण में, जब तुम शून्य में खोने लगोगे, तो तुम्हें वापिस खींच सकेगा।

प्राणिमात्र का स्मरण–इसे पहले से ही बुद्ध को मानने वाला साधक प्रार्थना करता है, प्रार्थना के बाद कहता है, प्राणिमात्र को शांति। जो मुझे मिला, वह प्राणिमात्र में बंट जाए; जो मैंने पाया वह अकेला मेरा न हो, सबका हो जाए। यह वह निरंतर कहता जाता है, ताकि इसकी गहन-रेखा बन जाती है भीतर। और जिस दिन महा-आनंद भी आता है, तब तत्क्षण इस पुरानी गहन-रेखा, लीक के कारण, उसके मन में भाव उदय होता है–जो मुझे मिला है, वह सब प्राणिमात्र में बंट जाए। जो शांति मुझे मिली है, वह सबकी हो जाए। जो आनंद मुझे मिला है, वह सबका हो जाए। जो शांति मुझे मिली है, वह सबकी हो जाए। जो आनंद मुझे मिला है, वह सबका हो जाए। यह स्मरण आते ही वह लौटकर जगत की तरफ देखता है, और सेतु निर्मित हो जाता है। उस सेतु का नाम है निर्वाण-काया।

अंतिम दिन है, जाने के पहले कुछ बातें और भी मैं आपसे कहना चाहूंगा।

एक, जो कि आप यहां कर रहे थे, वह केवल प्रयोग है, ताकि खयाल में आ सके कि क्या करना है। इतना मात्र कर लेने से कुछ हल न हो जाएगा, उसे जारी रखना पड़ेगा। तो लौटकर जारी रखें। अन्यथा मैं देखता हूं कि आप शिविर में कर लेते हैं, शांति मिलती है, सहजता आती है, निर्दोष थोड़ी सी झलक आती है, एक ताजी हवा का झोंका आता है, और अच्छा लगता है। फिर वापस घर लौट कर आप पुरानी आदतों में जीने लगते हैं। फिर कभी किसी शिविर में आ जाएंगे, फिर कर लेंगे। ऐसे बार-बार करेंगे और बार-बार खोते रहेंगे, तो बहुत गहरे परिणाम न होंगे। इसे तो खोदते ही जाना है। यह कुआं इतना गहरा है कि इसे अगर खोदा दो-चार दिन, फिर छोड़ दिया चार-छः महीने, फिर कूड़ा-करकट भर कर जमीन पुरानी हो जाएगी, फिर सतह वही हो जाएगी। फिर खोद लिया दो-चार हाथ, फिर छोड़ दिया। तो कुआं कभी भी न खुदेगा और वह जल जिसकी तलाश है, कभी न मिलेगा। इसे खोदते ही जाएं। बार-बार अलग जगह खोदेंगे, तो श्रम भी होगा, समय भी नष्ट होगा, शक्ति भी जाएगी, और परिणाम भी न होंगे।

रूमी ने एक दिन अपने शिष्यों को एक दफा कहा कि तुम मेरे साथ आओ, तुम कैसे हो, मैं तुम्हें बताता हूं। वह अपने शिष्यों को ले गया एक खेत में, वहां आठ बड़े-बड़े गङ्ढे खुदे थे, सारा खेत खराब हो गया था। रूमी ने कहा, देखो इन गङ्ढों को। यह किसान पागल है, यह कुआं खोदना चाहता है, यह चार-आठ हाथ गङ्ढा खोदता है, फिर यह सोच कर कि यहां पानी नहीं निकलता, दूसरा खोदता है। चार हाथ, आठ हाथ खोद कर, सोच कर कि यहां पानी नहीं निकलता, यह आठ गङ्ढे खोद चुका है। पूरा खेत भी खराब हो गया, अभी कुआं नहीं बना। अगर यह एक गङ्ढे पर इतनी मेहनत करता, जो इसने आठ गङ्ढों पर की है, तो पानी निश्चित मिल गया होता।

तो एक दफा संकल्प करें, एक जगह सतत खोदते चले जाएं, तो ही आपको जीवन के जल-स्रोत मिलेंगे। यहां जो सीखा है उसे प्रयोग करें, ताकि दूसरे शिविरों में आप आएं, तो वहीं से शुरू न करना पड़े, जहां से पहले शिविर में शुरू किया था। आप कुछ खोद कर लाएं, तो फिर हम और गहरी खुदाई कर सकें। और हर बार शिविर आपके लिए नए द्वार खोल सकता है, लेकिन आप पुराने द्वार पर काम करते रहे हों, तभी।

तो पहली बात तो यह स्मरण रखें कि ध्यान एक भीतरी खुदाई है, जिसको सतत जारी रखना जरूरी है।

दूसरी बात ध्यान रखेंः

यहां तो आसान है कर लेना। घर पर भय लगेगा, पड़ोस है, आसपास लोग हैं, हंसेंगे, चिल्लाएंगे, रोएंगे, तो क्या कहेंगे लोग? एक बात सदा खयाल रखें कि वैसे भी कोई आपके बाबत अच्छा कहता नहीं है। इस भ्रांति में आप रहना ही मत कि लोग आपके संबंध में बहुत अच्छा सोच रहे हैं। उससे ही यह तकलीफ शुरू होती है कि कहीं अपनी अच्छी प्रतिमा न गिर जाए। वह कहीं है ही नहीं। आप सोचें, आपके मन में पड़ोसी की अच्छी प्रतिमा है? आपके मन में किसकी अच्छी प्रतिमा है? किसके मन में आपकी होनेवाली है? यह नाहक की भ्रांति है, इसमें पड़ना ही मत।

और अच्छा यही होगा कि घर में लोगों को बता देना कि ऐसा प्रयोग मैं कर रहा हूं, चिंता लेने की जरूरत नहीं है। अगर आसान हो, तो पास-पड़ोस में भी जाकर बता आना कि ऐसा मैं एक प्रयोग कर रहा हूं, थोड़ी आवाज करूं, चिल्लाऊं तो आप बहुत चिंतित मत होना। तो आप हल्के होकर कर सकेंगे प्रयोग। लोग जानते हैं, दो-चार दिन में समझ जाते हैं कि ठीक है, जिन लोगों से आपको डर है, अगर आप प्रयोग करते रहे उनका भय छोड़ कर, तो महीने-दो-महीने के भीतर वे आपसे पूछेंगे कि हमें भी सिखा दें। क्योंकि दो महीने में आपकी बदलाहट हो जाएगी। अभी आपकी कोई प्रतिमा नहीं है लोगों के पास, लेकिन अगर आपने ध्यान किया, तो निश्चित आपकी प्रतिमा होगी। क्योंकि आपकी शांति की खबर मिलनी शुरू हो जाती है। फूल खिलते हैं, छिप नहीं सकते। सूरज निकलता है, तो अंधे तक को भी उसका उत्ताप पता चलने लगता है, न भी दिखाई पड़े तो भी–तो भी पक्षियों के गीत कहने लगते हैं कि सुबह हो गई।

आप ध्यान में गहरे उतरेंगे, तो आपकी शांति, आपका आनंद, आपका प्रेम, आपकी करुणा सब बढ़ेगी। आपका क्रोध, आपकी घृणा, आपकीर् ईष्या घटेगी। आप अपने पड़ोस में, अपने परिवार में, अपने संबंधियों के बीच, नए आदमी बन जाएंगे। मगर अगर अभी से आप डरते हैं कि कहीं कोई यह न समझे कि मैं पागल हूं, कहीं कोई यह न समझे कि कहीं कोई वैसा न समझ ले–इस भ्रांति को छोड़ दें।

किसी को एक तो चिंता नहीं है बहुत ज्यादा आपके संबंध में सोचने की। कभी आपने खयाल किया, सब अपने-अपने संबंध में सोचते हैं। किसको फुर्सत है कि आपके संबंध में सोचे? आप किसके संबंध में कितना सोचते हैं? और अगर पड़ोस में कोई चिल्लाने लगे जोरों से, तो एक दफा सोचेंगे, शायद दिमाग खराब हो गया है। फिर फुर्सत है कि उस पर लगे रहें? लेकिन अगर यह चिल्लाने वाला आदमी आपको दूसरे दिन इसकी शकल में फर्क दिखने ले, साल-छः महीने के भीतर यह आदमी एक शांति का स्रोत बन जाए, तो आप ही इससे पूछेंगे कि वह तरकीब क्या है चिल्लाने की, जिससे तुम शांत हो गए हो? तब जल्दी न करना, प्रतीक्षा करना, अपने में परिवर्तन की। तभी आपकी कोई प्रतिमा निर्मित होती है। अभी कोई प्रतिमा नहीं है, अभी आपको खयाल है।

तीसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है। घर पर आप अकेले होंगे, लेकिन अकेले होने की जरूरत नहीं। जिस भांति आप यहां मेरे सामने बैठ कर ध्यान कर रहे हैं, अगर इसी भांति आपने खयाल रख लिया कि मैं सामने बैठा हूं और आप ध्यान कर रहे हैं, तो आप मेरी मौजूदगी इतनी ही पाएंगे जितनी आप यहां पाते हैं। और तब निर्भय होकर आप प्रयोग कर सकते हैं। निर्भय होकर प्रयोग कर सकते हैं। और आपकी निर्भयता प्रयोग के लिए बहुत जरूरी है। आप डरें–अकेले हैं, कुछ खतरा न हो जाए–कोई खतरा न होगा। आप जाने के पहले सारे खतरे, सारे भय मेरे पास छोड़ जाएं।

और आपसे मांगता ही केवल इतना हूं जाते क्षणों में कि आपका जितना दुख, जितनी चिंता, जितनी पीड़ा, जितना संताप है, वह मुझे दे दें।

उसको साथ मत ढोए फिरें। उसको साथ रखने की कोई जरूरत नहीं है। आपसे धन नहीं मांगता, आपसे तन नहीं मांगता, आपसे कुछ और नहीं मांगता हूं। आपके पास जो भी पीड़ा है, जो भी उपद्रव है, जो भी संताप है, सब मुझे दे दें। उससे मुझे अड़चन न होगी, आप निर्भार हो जाएंगे। और आप जिस चीज से दुखी हो रहे हैं, जिस शक्ति से दुखी हो रहे हैं नासमझी के कारण–सब नासमझी मुझे दे दें। मैं आपको वही शक्ति वापिस लौटा दूंगा। वह आनंद हो जाएगी, वह शांति हो जाएगी, वह करुणा हो जाएगी।

आप घर पहुंचते हैं, तो ज्यादा समय न खोएं। यहां जो सिलसिला पैदा हुआ है, यहां जो हवा बनी है और मन को जो रुझान पैदा हुआ है, वह खो जाए, इतना समय न गंवाएं, घर जाकर तत्क्षण ध्यान में लग जाएं। एक घंटा रोज ध्यान में दे दें। जिंदगी के आखिर में आप पाएंगे, बाकी समय सब व्यर्थ गया, यह जो ध्यान में लगाया था समय, वही केवल आपके काम आया, वही बचा है, वही सार्थक हुआ है।

और मुझे स्मरण रखें, कोई भय न होगा। और भीतर जब प्रवेश करेंगे, तो कभी लगेगा कि कहीं मौत न हो जाए। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, मौत का अनुभव होना शुरू होगा। जरा भी न घबड़ाएं, घबड़ाकर वापस न लौटें। अगर मौत भी भीतर आती हो तो कहें कि ठीक है, स्वीकार है, मैं बढ़ता हूं। और मैं आपके साथ हूं।

समाप्‍त


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–27

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पंडितमरण सुमरण है—प्रवचन—सत्‍ताईसवां

सूत्र:

सरीमाहु नाव त्‍ति, जीवो वुच्‍चइ नाविओ।

संसारो अण्‍णवो वुत्‍तो, जं तरंति महेसिणो।। 146।।

धीरेण वि मरियव्‍वं, काउरिसेण वि अवस्‍समरियव्‍वं।

तम्‍हा अवस्‍समरणे, वरं खु धीरत्‍तणे मरिउं।। 147।।

इक्‍कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि।

तं मरणं मरियव्‍वं, जेण मओ सुम्‍मओ होई।। 148।।

इक्‍कं पंडियमरणं, पडिवज्‍जइ सुपुरिसो असंभंतो।

खिप्‍पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं।। 149।।

चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पासं इह मन्‍नमाणो।

लाभंतरे जीवि वूहइत्‍ता, पच्‍चा परिण्‍णाय मलावधंसी।। 150।।

तस्‍स ण कप्‍पदि भत्‍त, पइण्‍णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो।

सो मरणं पत्‍थितो, होदि हु सामण्‍णणिव्‍विणो।। 151।।

जीवन की सबसे बड़ी पहेली स्वयं जीवन में नहीं है, जीवन की सबसे बड़ी पहेली मृत्यु में है। और जिसने मृत्यु को न जाना वह जीवन से अपरिचित रह जाता है। जीवन को जानने की कुंजी मृत्यु में है।

छोटे बच्चों की कहानियां तुमने पढ़ी होंगी। कोई राजा है या रानी है, उसके जीवन की कुंजी किसी तोते में बंद है या किसी मैना में बंद है। तोते को मरोड़ दो, राजा मर जाता है। राजा को मारने में लगे रहो, राजा नहीं मरता।

जीवन को सुलझाने में लगे रहो, जीवन नहीं सुलझता। जीवन का सुलझाव मृत्यु में है।

इसलिए जगत में जो बड़े मनीषी हुए, उन्होंने मृत्यु को समझने की चेष्टा की है। साधारणजन मृत्यु से बचते हैं, भागते हैं। परिणाम में जीवन से वंचित रह जाते हैं। इस विरोधाभास को जितना ठीक से पहचान लो, उतना उपयोगी है।

मृत्यु से भागना मत। जो मृत्यु से भागा, वह जीवन से ही भाग रहा है। क्योंकि मृत्यु जीवन की पूर्णाहुति है। मृत्यु है जीवन का आत्यंतिक स्वर। जीवन मृत्यु पर समाप्त होता, पूरा होता। मृत्यु है फल। जीवन है यात्रा, मृत्यु है मंजिल।

थोड़ा सोचो, मंजिल से बचने लगो तो यात्रा कैसे होगी? और अंतिम से बचने लगो तो प्रथम से ही बचना शुरू हो जाएगा। मौत से जो डरा, मौत से जो भागा, उसके ऊपर जीवन की वर्षा नहीं होती। वह जीवन से अछूता रह जाता है। इसलिए कायर से ज्यादा दयनीय इस जगत में कोई और नहीं है।

पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक आल्बेर कामू ने अपनी एक किताब की शुरुआत इस वचन से की है कि “मेरे देखे दर्शनशास्त्र की सबसे बड़ी समस्या आत्मघात है।’

महावीर से पूछो, बुद्ध से पूछो, तो वे कहेंगे, मृत्यु। कामू कहता है आत्मघात। करीब पहुंचा, लेकिन चूक गया।

मृत्यु और आत्मघात में बड़ा फर्क है। आत्मघात का अर्थ हुआ, जीवन ने अतृप्त किया। जीवन से जो सुख मांगा था, न मिला। जो मूल्य खोजे थे, वे न पाए जा सके। जो आशा की थी, वह टूटी। जो इंद्रधनुष बांधे थे कल्पनाओं के, वे सब बिखर गए। उस हताशा में आदमी अपने को मिटा लेता है।

ऐसी मिटाने की जो वृत्ति है, यह जीवन का अंतिम शिखर नहीं है। यह संगीत की आखिरी ऊंचाई नहीं है, यह तो वीणा का टूट जाना है।

आत्मघात दूसरा छोर है; जीवन से भी नीचा। मृत्यु आत्मघात के बिलकुल विपरीत है–जीवन की आखिरी ऊंचाई, जीवन का गौरीशंकर। मृत्यु अर्जित करनी पड़ती है। मृत्यु के लिए साधना करनी पड़ती है। मृत्यु को सम्हालना पड़ता है। जो अति कुशल है, वही केवल ठीक-ठीक मृत्यु को उपलब्ध हो पाता है। और ठीक मृत्यु ही न मिली तो जीवन हाथ से बह गया। फिर तुम पाठशाला में तो रहे, लेकिन पाठ न आया। तुम विद्यालय से गए तो लेकिन उत्तीर्ण न हुए।

इसलिए पूरब कहता है, जो उत्तीर्ण न होंगे उन्हें बार-बार भेज दिया जाएगा। उचित है। जीवन से अगर मृत्यु का पाठ सीख लिया तो फिर आना नहीं है। जो होशपूर्वक, आनंदपूर्वक, उल्लासपूर्वक मरता है उसकी फिर वापसी नहीं है। यही तो पुनर्जन्म का पूरा सिद्धांत है।

तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। लेकिन तुम चाहते हो, वापसी न हो ताकि फिर-फिर न मरना पड़े। वापसी उसकी नहीं होती, जो मरना सीख लेता है। जो इस भांति मर जाता है कि मरने को फिर कुछ और बचता ही नहीं, तो दुबारा मौत नहीं होती। तुम भी चाहते हो कि वापसी न हो। क्योंकि वापसी होगी तो फिर मौत होगी। तुम मौत से डरे हो। जो वस्तुतः वापसी नहीं चाहता वह मौत से डरता नहीं, मौत का आलिंगन करता है।

आज के सूत्र मौत के संबंध में हैं। ये चरम सूत्र हैं। इन पर एक-एक सूत्र को बहुत ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना। क्योंकि ये तुम्हारे विपरीत भी हैं।

तुम अगर यहां आए तो जीवन की तलाश में आए हो। लोग महावीर के पास गए तो जीवन की तलाश में गए थे। जीवन में हार रहे थे तो तरकीबें खोजने गए थे, कैसे जीत जाएं। लेकिन सदगुरु तो मृत्यु का सूत्र देता है।

उस परम मृत्यु को हमने अलग-अलग नाम दिए हैं। पतंजलि कहते हैं, समाधि। इसीलिए तो जब कोई संन्यासी मरता है तो उसकी कब्र को हम समाधि कहते हैं। अर्थ हुआ कि उसका ध्यान और उसकी मृत्यु एक ही जगह पहुंच गए। साधारण आदमी मरता है तो उसकी कब्र को हम समाधि नहीं कहते, कब्र ही कहते हैं; मकबरा कहते हैं। समाधि नहीं कहते क्योंकि यह आदमी अभी फिर-फिर पैदा होगा। अभी समाधि नहीं मिली, अभी आखिरी मृत्यु नहीं मिली।

समाधि का अर्थ है आत्यंतिक मृत्यु–आखिरी, चरम। अब न कोई जन्म होगा, न मौत होगी। पाठ सीख लिया। यह व्यक्ति विद्यालय से वापिस घर की तरफ लौटने लगा। यह घर में स्वीकृत हो जाएगा। उत्तीर्ण हुआ। प्रमाणपत्र लेकर जा रहा है।

ये सूत्र तुम्हारे विपरीत होंगे। इसलिए और भी गौर से समझोगे तो ही समझ पाओगे। पहला सूत्र:

सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।

संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।।

“शरीर है नाव। जीव है नाविक। यह संसार है समुद्र, जिसे महर्षिजन तर जाते हैं।’

शरीर तो हमारे पास भी है लेकिन शरीर नाव नहीं है। “शरीर नाव है’ का अर्थ होता है, शरीर शरीर से श्रेष्ठतर के लिए साधन बने। अभी तो शरीर साध्य है। तुम भोजन जीने के लिए थोड़े ही करते हो। तुम जीते ही भोजन करने के लिए हो। तुम कपड़े थोड़े ही शरीर को बचाने के लिए पहनते हो। तुम शरीर को कपड़े पहनने के लिए बचाए रहते हो। अभी तो शरीर ऐसा लगता है, जैसे गंतव्य है। इसके पार कुछ भी नहीं।

महावीर कहते हैं, शरीर है नाव। अर्थ हुआ, शरीर से पार जाना है। शरीर है नाव। बैठना है, उतरना भी है, शरीर संक्रमण है। नाव में बैठने के पहले भी यात्री था। नाव में बैठा है तब भी है। नाव से उतर जाएगा तब भी होगा। नाव ही यात्री नहीं है। तुम शरीर में आए उसके पहले भी थे, अभी भी हो; शरीर से उतरोगे जिस दिन मौत में, तब भी होओगे। मौत तो दूसरा किनारा है। जन्म है यह किनारा, मृत्यु है वह किनारा; शरीर है नाव। और संसार है सागर।

लेकिन अधिक लोग संसार को सागर की तरह नहीं देख पाते। जब तक तुम्हारा शरीर ही नाव नहीं, तो तुम संसार को सागर की तरह न देख पाओगे। तुम इसी किनारे पर अटके रहते हो। तुम सागर में उतरते ही नहीं। सागर में तो वही उतरता है जो मृत्यु की तरफ स्वयं, स्वेच्छा से अग्रसर होने लगा। मृत्यु यानी वह दूसरा किनारा। तुम तो डर के कारण इस किनारे को पकड़कर रुके रहते हो। तुम तो सब आयोजन करते हो कि किसी तरह यह किनारा न छूट जाए। तुम तो नाव में होकर भी यात्रा नहीं करते।

इसलिए संसार कभी-कभी तो तुम कहते भी हो, संसारसागर, भवसागर। मगर तुम महावीर और बुद्ध के वचन उधार ले रहे हो। बैठे किनारे पर हो, बातें सागर की कर रहे हो। सागर का तुम्हें कोई पता नहीं। सागर में तो वही उतरता है, जीवन उसी के लिए सागर बनता है, जिसने पहले शरीर को नाव समझा और जो मौत के किनारे की तरफ अग्रसर हुआ।

हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते

इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा

कवि ने कहा है, एक नाव भी, छोटी-सी नाव ही हमने तेरे सागर में छोड़ी थी कि तेरा सागर एकदम नाराज हो गया। एकदम तूफान उठने लगे, लहरें उठने लगीं, आंधियां, बवंडर आ गए।

हमने एक नाव जो छोड़ी भी तो डरते-डरते

कुछ बड़ा किया भी न था। जरा-सी एक नाव छोड़ी थी।

इसपे भी ची ब जबीं हो गया दरिया तेरा

और तेरा दरिया बड़ा नाराज हो गया।

जो व्यक्ति नाव उतारेगा उसी को दरिये की नाराजगी पता चलेगी। किनारे पर बैठे-बैठे दरिया का पता ही नहीं चलता। सागर का अनुभव तो माझी को होता है। जिसने अपनी छोटी-सी डोंगी को इस विराट सागर में उतार दिया…और कितनी ही बड़ी नाव हो, छोटी ही है। क्योंकि सागर बड़ा विराट है। जिसने तूफान और आंधियों से भरे इस सागर में अपनी नाव को उतार दिया, किसी ऐसे किनारे की तलाश में जो यहां से दिखाई भी नहीं पड़ता।

इसलिए नदी नहीं कहते संसार को, सागर कहते हैं। दूसरा किनारा दिखाई पड़े तो नदी। दूसरा किनारा दिखाई ही नहीं पड़ता। है तो निश्चित। इसीलिए तो हमें मौत दिखाई नहीं पड़ती। है तो निश्चित। इस जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी निश्चित नहीं है। बाकी सब अनिश्चित है। एक ही बात निश्चित है, वह मृत्यु।

किनारा तो निश्चित है। क्योंकि जिसका एक किनारा है, उसका दूसरा किनारा भी होगा ही। कितने ही दूर…कितने ही दूर। एक किनारे के होने में ही दूसरा किनारा हो गया है। अब तुम दृढ़तापूर्वक मान ले सकते हो कि दूसरा किनारा होगा ही। अनुमान की जरूरत नहीं है। यह तो सीधा गणित है। यह किनारा है तो वह किनारा भी होगा। एक छोर है तो दूसरा छोर भी होगा। जन्म हो गया तो मृत्यु भी होगी।

हम अक्सर जीवन को जन्म से ही जोड़े रखते हैं। इसलिए हम जन्मदिन मनाते हैं, मृत्युदिन नहीं मनाते। हालांकि जिसको हम जन्मदिन कहते हैं, वह एक तरफ से जन्मदिन है, दूसरी तरफ से मृत्युदिन है। क्योंकि हर एक वर्ष कम होता जाता है। मौत करीब आती जाती है। अगर ठीक से पूछो तो जन्मदिन से ज्यादा मृत्युदिन है क्योंकि जन्म तो दूर होता जाता, मौत करीब होती जाती है। जन्म का किनारा तो बहुत दूर पड़ता जाता, मौत का किनारा करीब आता जाता। लेकिन फिर भी हम पीछे मुड़कर देखते रहते हैं। हम जन्म के किनारे को ही देखते रहते हैं।

दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता इसलिए कहते हैं: भवसागर। होना निश्चित है, लेकिन दृष्टि में नहीं आता। बहुत दूर है।

“शरीर को नाव, जीव को नाविक कहा। यह संसार समुद्र है, जिससे महर्षिजन तर जाते हैं।’

और जो उस किनारे को छू लेता है, वही महर्षि है। जो जीते-जी मर जाता है वही महर्षि है। जो शरीर की नाव को खेकर उस पार पहुंच जाता है…।

पहुंचते तो तुम भी हो, बड़े बेमन से। पहुंचते तो तुम भी हो, घसीटे जाते हो तब। इसलिए तो मृत्यु की एक बड़ी दुखांत धारणा लोगों के मन में है–यमदूत, काले-कलूटे, भयावने, भैंसों पर सवार; घसीटते हैं।

यह बात बेहूदी है। यह तुम्हारे भय की खबर देती है। यह मृत्यु का चित्रण तुमने अपने भय के पर्दे से किया है। तुम भयभीत हो इसलिए भैंसे, काले-कलूटे, यमदूत…। लेकिन महर्षिजनों से पूछो। जिनकी आंख निर्मल है, उनसे पूछो। और उनकी बात ही सच होगी क्योंकि उनकी आंख निर्मल है। वे कहते हैं, मृत्यु में उन्होंने परमात्मा को पाया। यह छोटा, क्षुद्र जीवन गया, विराट जीवन मिला। सीमा टूटी, असीम से मिलन हुआ। असीम का आलिंगन है मृत्यु।

महर्षिजन से पूछो तो वे कहेंगे, परमात्मा बाहें फैलाए खड़ा है। संसार छूटता है निश्चित। पर संसार में पकड़ने जैसा भी कुछ नहीं है। मिलता है अपरिसीम, जाता है क्षुद्र। मिलता है विराट, खोता है क्षुद्र। खोता है क्षणभंगुर, मिलता है शाश्वत।

नहीं, मृत्यु का देवता यमदूत काला-कलूटा, भैंसों पर सवार नहीं है। मृत्यु से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है क्योंकि मृत्यु है विश्राम। इस जीवन में निद्रा से सुंदर तुमने कुछ जाना? गहरी निद्रा, जब कि स्वप्न भी थपेड़े नहीं देते। सब वायु-कंप रुक जाते हैं। गहरी निद्रा, जब बाहर का संसार प्रतिछवि भी नहीं बनाता, प्रतिबिंब भी नहीं बनाता। जब बाहर के संसार से तुम बिलकुल ही अलग-थलग हो जाते हो। गहरी निद्रा, जब तुम अपने में होते हो डूबे, गहरे, तल्लीन–उससे सुंदर इस जगत में कुछ जाना है?

मृत्यु उसका ही अनंतगुना रूप है। मृत्यु से सुंदर कुछ भी नहीं। मृत्यु से ज्यादा शांत कुछ भी नहीं। मृत्यु से ज्यादा शुभ और सत्य कुछ भी नहीं। लेकिन हमारे भय के कारण मृत्यु का रूप हम विकृत कर लेते हैं। हमारे भय के कारण विकृति पैदा होती है।

महावीर कहते हैं, महर्षिजन शरीर को नाव बनाकर, जन्म के किनारे को चेष्टापूर्वक छोड़ते हुए, मृत्यु के किनारे को अपने आप उपलब्ध हो जाते हैं। वे खींचे-घसीटे नहीं जाते। उनके साथ जबर्दस्ती नहीं की जाती, वे स्वेच्छा से संक्रमण करते हैं।

इसका अर्थ हुआ, ऐसे जीयो कि तुम्हारा जीना मृत्यु के विपरीत न हो। ऐसे जीयो कि तुम्हारे जीवन में भी मृत्यु का स्वाद हो। ऐसे जीयो कि जीवन का लगाव ही तुम्हारे मन को पूरा न घेर ले, जीवन का विराग भी जगा रहे।

विजय आनंद एक फिल्म बनाता था। कहानी में नायक के मरने की घड़ी आती। नायक गिर-गिर पड़ता है, मरता है, लेकिन विजय आनंद का मन नहीं भरता। तो आखिर में वह झल्लाकर, चिल्लाकर नायक से कहता है, अपने मरने में जरा और जान डालिए।

मैंने सुना तो मुझे लगा, यह सूत्र तो महत्वपूर्ण है। जरा उलटा कर लो। विजय आनंद ने कहा, अपने मरने में जरा और जान डालिए। मैं तुमसे कहता हूं, अपने जीवन में थोड़ी और मृत्यु डालिए। मृत्यु से घबड़ाइए मत। मृत्यु को काट-काट अलग मत करिए। रोज-रोज मरिए, क्षण-क्षण मरिए, प्रतिक्षण।

जैसे हम श्वास लेते हैं और प्रतिक्षण श्वास छोड़ते हैं। भीतर जाती श्वास जीवन का प्रतीक है। बाहर जाती श्वास मृत्यु का प्रतीक है। जब बच्चा पैदा होता है, तो पहली श्वास भीतर लेता है, क्योंकि जीवन का प्रवेश होता है। जब आदमी मरता, तो आखिरी श्वास बाहर छोड़ता, क्योंकि जीवन बाहर जाता।

भीतर आती श्वास नाव में बैठना है, बाहर जाती श्वास नाव से उतरना है। प्रतिपल घट रहा है। जब तुम भीतर श्वास लेते हो तो जीवन। जब तुम बाहर श्वास लेते हो तो मृत्यु।

ऐसा ही काश! तुम्हारे मन के क्षितिज पर भी उभरता रहे। प्रतिक्षण तुम मरो और जीयो। और प्रतिक्षण जन्म और मृत्यु घटते रहें, और तुम किसी को भी पकड़ो न। और तुम दोनों में संतरण करो और सरलता से बहो, तो एक दिन जब विराट मृत्यु आएगी, तुम अपने को तैयार पाओगे। तो तुम नाव में रहे। तो तुमने शरीर का नाव की तरह उपयोग कर लिया।

ध्यान रहे, प्रतिपल कुछ मर रहा है। ऐसा मत सोचना, जैसा लोग सोचते हैं कि सत्तर साल के बाद एक दिन आदमी अचानक मर जाता है। यह भी कोई गणित हुआ? मृत्यु कोई आकस्मिक थोड़े ही घटती है। इंच-इंच आती है, रत्ती-रत्ती आती है। रोज-रोज मरते हो, तब सत्तर साल में मर पाते हो। बूंद-बूंद मरते हो तब सत्तर साल में मर पाते हो। यह जीवन का घड़ा बूंद-बूंद रिक्त होता है, तब एक दिन पूरा खाली हो पाता है। ऐसा थोड़े ही कि एक दिन आदमी अचानक जिंदा था और एक दिन अचानक मर गया! सांझ सोए तो पूरे जिंदा थे, सुबह मरे अपने को पाया; ऐसा नहीं होता।

जन्म के बाद ही मरना शुरू हो जाता है। इधर जन्मे, ली भीतर श्वास कि बाहर-श्वास लेने की तैयारी हो गई। फिर जन्म से निरंतर जीवन और मरण साथ-साथ चलते हैं। समझो कि जैसे दोनों तुम्हारे दो पैर हैं; या पक्षी के दो पंख हैं। न पक्षी उड़ सकेगा दो पंखों के बिना, न तुम चल सकोगे दो पैरों के बिना।

जन्म और मृत्यु जीवन के दो पैर हैं, दो पंख हैं।

तुम एक पर ही जोर मत दो। इसीलिए तो लंगड़ा रहे हो। तुमने जिंदगी को लंगड़ी दौड़ बना लिया है। एक पैर को तुम ऐसा इनकार किए हो कि स्वीकार ही नहीं करते कि मेरा है। कोई बताए तो तुम देखना भी नहीं चाहते। कोई तुमसे कहे कि मरना पड़ेगा तो तुम नाराज हो जाते हो। तुम समझते हो यह आदमी दुश्मन है। कोई कहे कि मृत्यु आ रही है तो तुम इस बात को स्वागत से स्वीकार नहीं करते। न भी कुछ कहो तो भी इतना तो मान लेते हो कि यह आदमी अशिष्ट है। मौत भी कोई बात करने की बात है? मौत की कोई बात करता है?

इसलिए तो हम कब्रिस्तान को गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि वह दिखाई न पड़े। मेरा बस चले तो गांव के ठीक बीच में होना चाहिए। सारे गांव को पता चलना चाहिए एक आदमी मरे तो। पूरे गांव को पता चलना चाहिए। चिता बीच में जलनी चाहिए ताकि हर एक के मन पर चोट पड़ती रहे। ऐसा क्यों बाहर छिपाया हुआ गांव से बिलकुल दूर? जिनको जाना ही पड़ता है मजबूरी में, वही जाते हैं। जो भी जाते हैं, वे भी चार आदमी के कंधों पर चढ़कर जाते हैं, अपने पैर से नहीं जाते।

एक झेन फकीर मर रहा था। मरते वक्त एकदम उठकर बैठ गया और उसने अपने शिष्यों से कहा कि मेरे जूते कहां हैं? उन्होंने कहा, क्या मतलब है? जूते का क्या करियेगा? चिकित्सक तो कहते हैं, आप आखिरी क्षण में हैं और आप ने भी कहा, यह आखिरी दिन है। उसने कहा, इसीलिए तो जूते मांगता हूं। मैं चलकर जाऊंगा मरघट। बहुत हो गया यह दूसरों के कंधों पर जाना। जबर्दस्ती मैं न जाऊंगा। कहते हैं, मनुष्य जाति का पहला आदमी! उस आदमी का नाम था बोकोजू। यह झेन फकीर चलकर गया। कब्र खोदने में भी उसने हाथ बंटाया, फिर लेट गया और मर गया।

यह तो कुछ बात हुई। यह इस आदमी ने जीवन का उपयोग नाव की तरह कर लिया। खेकर गया उस पार। लेकिन इसके लिए तो बड़ी प्राथमिक, प्रथम से ही तैयारी करनी होगी। इसके लिए तो पूरे जीवन ही आयोजना करनी होगी। मृत्यु से मिलन के लिए पूरे जीवन धीरे-धीरे मरना सीखना होगा।

जीवन–धर्म की दृष्टि में–मरने की कला को सीखने का अवसर है।

“निश्चय ही धैर्यवान को भी मरना है और कापुरुष को भी मरना है। जब मरण अवश्यंभावी है तब फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है।’

धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं।

तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं।।

और जब मरना ही है, और जब मरना सुनिश्चित ही है, अवश्यंभावी है, टलने की कोई सुविधा नहीं है, कभी टला नहीं है; हालांकि आदमी अपने अज्ञान में ऐसा मानता है कि किसी और का न टला होगा, मैं टाल लूंगा। आदमी की मूढ़ता की कोई सीमा है।

जो कभी नहीं हुआ, आदमी उसको भी मानता है कि कोई तरकीब निकल आएगी, मेरे लिए हो जाएगा। आदमी का अहंकार ऐसा मदांध है कि यह बात मान लेता है कि मैं अपवाद हूं। और कोई मरता है, सदा कोई और मरता है। मैं तो मरता नहीं। इसलिए मानने में सुविधा भी हो जाती है। जब भी अर्थी तुमने देखी, किसी और की निकलते देखी है। और जब भी ताबूत सजा, किसी और का सजा। चिता जली, किसी और की जली है। तुम तो सदा देखनेवाले रहे। इसलिए लगता भी है कि शायद कोई रास्ता निकल आएगा। मौत मेरी नहीं। मुझे नहीं घटती, औरों को घटती है। ये और सब मरणधर्मा हैं। मैं कुछ अलग, अछूता, नियम के बाहर हूं।

महावीर कहते हैं मृत्यु अवश्यंभावी है; निरपवाद घटेगी। फिर जो होना ही है, उससे बचने की आकांक्षा व्यर्थ है। फिर जो होना ही है, उससे भय भी व्यर्थ है। धैर्यवान को भी मरना है, वीर पुरुष को भी मरना है, साहसी को भी मरना है, कापुरुष को भी मरना है, कायर को भी मरना है। मरण अवश्यंभावी है।

तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उचित है। तो फिर शान से मरना ही उचित है। जब जो होना ही है तो उसे प्रसादपूर्वक करना उचित है। जो होना ही है उसे शृंगारपूर्वक करना उचित है। जो होना ही है, उसे समारोहपूर्वक करना उचित है। जब मरना ही है तो फिर रोते, झीकते, चीखते-चिल्लाते अशोभन ढंग से क्यों मरना!

आदमी के हाथ में इतना ही है–मरने से बचना तो नहीं है–आदमी के हाथ में इतना ही है, वह कापुरुष की तरह मरे या एक साहसी व्यक्ति की तरह मरे, धीरपुरुष की तरह मरे। चुनाव मृत्यु और न-मृत्यु में तो है ही नहीं। चुनाव तो इतना ही हमारे हाथ में है कि शान से मरें कि रोते मरें। आंसुओं से भरे मरें या गीतों से भरे मरें। उठकर मौत को आलिंगन कर लें या चीखें-चिल्लाएं, भागें; और मृत्यु के द्वारा घसीटे जाएं।

महावीर कहते हैं, विकल्प तो यहां है–मौत को स्वीकार करके मरें या अस्वीकार करते हुए मरें।

कहावत है, वीर पुरुष एक बार मरता है। कायर अनेक बार। ठीक है कहावत। क्योंकि जितनी बार भयभीत होता है, उतनी बार ही मौत घटती है। वीर पुरुष एक बार मरता। अगर मुझसे पूछो तो कहावत बिलकुल ठीक, पूरी-पूरी ठीक नहीं है। वीर पुरुष मरता ही नहीं। कापुरुष बार-बार मरता, क्योंकि जिसने मरण को स्वीकार कर लिया उसकी मृत्यु कहां? मृत्यु तो हमारे अस्वीकार के कारण घटती है। वह तो हमारे इनकार के कारण घटती है। वह तो हम घसीटे जाते हैं इसलिए घटती है।

यह बोकोजू जो चल पड़ा जूते पहनकर मरघट की तरफ, यह मरा? इसको कैसे मारोगे? इससे मौत हार गई।

“धैर्यवान को भी मरना, कापुरुष को भी। जब मरण अवश्यंभावी है…।’ महावीर का तर्क सीधा है: “…तो फिर धीरतापूर्वक मरना उचित है।’

धीरतापूर्वक मरने का क्या अर्थ होता है? धीरतापूर्वक मरने का अर्थ होता है, मृत्यु के भय लिए जरा भी अवसर न देना। मृत्यु कंपाए न। धीरपुरुष ऐसा है, जैसे निष्कंप जल। झील शांत। निष्कंप दीये की ज्योति। हवा के कोई झोंके नहीं आते।

धीरपुरुष की वही परिभाषा है, जो गीता के स्थितप्रज्ञ की। कृष्ण से अर्जुन ने पूछा है, किसको कहते हैं आप धीरपुरुष? कौन है स्थितधी? स्थितधी का ठीक अर्थ धीरपुरुष है। कौन है जिसको आप स्थितप्रज्ञ कहते हैं? कौन है जिसकी प्रज्ञा ठहर गई? धी यानी प्रज्ञा। धी यानी आत्यंतिक बोध, अंतर्तम में जलती हुई ज्योति।

कौन है स्थितधी?

महावीर कहते हैं वही, जिसे मृत्यु विचलित नहीं करती। जिसे अपनी मृत्यु विचलित नहीं करती, उसे फिर किसी की मृत्यु विचलित नहीं करती।

वही तो कृष्ण भी अर्जुन से कहते हैं कि ये जो तेरे सामने खड़े हैं, तू यह मत सोच कि तेरे मारने से मारे जाएंगे। “न हन्यते हन्यमाने शरीरे।’ कोई मरता नहीं। लोग भय के कारण मरते हैं। कोई मारता नहीं।

तो मृत्यु असली मृत्यु नहीं है। क्योंकि मृत्यु को जिसने स्वीकार किया वह तो अमृत के दर्शन को उपलब्ध होता है। मृत्यु तभी मृत्यु मालूम होती है जब हमारा अस्वीकार होता है।

तुमने कभी खयाल किया? वही काम तुम अपनी मौज से करो और वही काम किसी की आज्ञा के कारण जबर्दस्ती करो। तुम कवि हो, और एक सिपाही तुम्हारी पीठ पर बंदूक लगाए खड़ा हो, कहता हो करो कविता। तुम अचानक पाओगे, कविता सूख गई। तुम अचानक पाओगे, रसधार बहती नहीं। तुम अचानक पाओगे, शब्द जुड़ते नहीं। तुम अचानक पाओगे, गीत उठता नहीं। न केवल यही, तुम्हारे भीतर क्रोध उठेगा, बगावत उठेगी। अगर हिम्मतवर हुए तो लड़ने लग जाओगे। अगर गैर-हिम्मतवर हुए तो झुककर तुकबंदी करने लगोगे। कविता पैदा नहीं होगी। किसी तरह शब्द जमा दोगे उधार, मुर्दा, जिनमें न कोई लय होगी, न कोई प्राण होगा, न कोई आत्मा होगी।

तुमने कविता पहले भी की है लेकिन तब तुमने अपनी मौज से की थी। दिनभर के थके-मांदे घर आए थे। शरीर की जरूरत थी कि सो जाते, लेकिन आधी रात जगते रहे। टिमटिमाते दीये की रोशनी में बैठ कागज काले करते रहे। तुम्हारे हृदय से बहती थी। उमंग और थी, उल्लास और था।

रूस में कविता मर गई। उन्नीस सौ सत्रह के बाद रूस में कोई ढंग की कविता नहीं हुई; न एक ढंग का उपन्यास लिखा गया, न ढंग की एक पेंटिंग बनी। सारा साहित्य मर गया। और रूस असाधारण देश है। क्रांति के पहले रूस ने इतने बड़े साहित्यकार दिए, जितने दुनिया के किसी देश ने नहीं दिए। तालस्ताय, चेखव, गोर्की, दोस्तोवस्की, तुर्जनेव–ऐसे नाम कि जिनका कोई मुकाबला नहीं दुनिया में। एकबारगी जिन्होंने दुनिया को फीका कर दिया। अगर उस समय के दुनिया के दस बड़े उपन्यास चुने जाएं तो पांच रूसी होंगे और पांच गैर-रूसी। सारी दुनिया आधी-आधी बांट दी।

फिर अचानक क्रांति हुई और सब मर गया। हुआ क्या? बंदूक लग गई पीछे, कविता मर गई। जो सहज और स्वतंत्र न रहा, वह जीवंत नहीं रह जाता। तो कविता लिखी जाती है, खेत-खलिहान की प्रशंसा में, फैक्ट्री इत्यादि की प्रशंसा में, लेकिन उसमें कुछ प्राण नहीं है। जबर्दस्ती लिखी जाती है, सरकारी आज्ञा से लिखी जाती है। उपन्यास भी लिखे जाते हैं। सब चलता है। किताब भी छपती हैं, किताब बिकती भी हैं, लेकिन कुछ मूल स्वर खो गया। जबर्दस्ती हो गई।

भूखे कवियों ने, सर्दी में ठिठुरते कवियों ने बेहतर कविता लिखी थी। रूस में आज कवि जितना संपन्न है उतना दुनिया के किसी कोने में नहीं। अच्छे से अच्छा मकान उसके पास है, अच्छे से अच्छी कार उसके पास है, भोजन की व्यवस्था, अच्छी से अच्छी कपड़ों की व्यवस्था, उसके बच्चों का जीवन सुरक्षित। दुनिया में मनुष्य-जाति के इतिहास में कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, उपन्यासकार, साहित्यकार कभी इतने सम्मानित और प्रतिष्ठित न थे। और न कभी इतने सुविधा-संपन्न थे, जितने रूस में हैं। लेकिन कविता मर गई। गरीबी में न मरी, भूख में न मरी, दीनता-दुर्बलता में न मरी, रोग, मृत्यु में न मरी, लेकिन सुविधा में मर गई। पीछे बंदूक लगी है। जबर्दस्ती में मर गई।

जीवन का कुछ सूत्र है कि जो तुम स्वभाव, सौभाग्य, सहजता से करते हो, उसका आनंद अलग। जो तुम जबर्दस्ती करते हो, जबर्दस्ती के कारण ही सब गलत हो जाता है।

जो लोग स्वीकारपूर्वक मरे हैं, उनसे पूछो; महर्षिजनों से पूछो। मृत्यु परमात्मा का रूप है। वह परमात्मा का संदेशवाहक है, डाकिया है।

नहीं, मृत्यु भैंसों पर सवार होकर नहीं आती। मृत्यु परियों की तरह सुंदर है। पक्षियों की तरह उड़कर आती। तुम्हें आलिंगन में ले लेती। तुम्हें गहनतम विश्राम और विराम देती। तुम्हें समाधि का सुख देती। लेकिन उसकी तैयारी करनी पड़े। उसे अर्जित करनी पड़े।

फिर मरना अवश्यंभावी है तो धीरतापूर्वक मरना उचित। धीर बनो। इसे रोज-रोज साधो। धीरता को रोज-रोज साधो।

छोटी-छोटी चीजें अधीर कर जाती हैं। एक प्याली गिरकर टूट जाती है और तुम अधीर हो जाते हो। तो थोड़ा सोचो तो, जब तुम टूटोगे तो कैसे न अधीर होओगे! एक छोटी-मोटी दुकान चलाते थे, डूब जाती है, तो अधीर हो जाते हो। तो जब तुम्हारे जीवन का पूरा व्यवसाय छीन लिया जाएगा, जीवन का पूरा व्यापार बंद होगा, पटाक्षेप होगा, पर्दा गिरेगा तो तुम कैसे बेचैन न हो जाओगे! दिवाला निकल गया, एक मित्र नाराज हो गया, और तुम अधीर हो जाते हो। किसी ने गाली दे दी, अपमान कर दिया और तुम अधीर हो जाते हो।

इस धीरज को लेकर तुम मृत्यु का सामना कर सकोगे? इसे साधो। ये सब अवसर हैं धीरज को साधने के, धैर्य को निर्मित करने के। जीवन एक गहन प्रयोगशाला है। और प्रतिपल परमात्मा अनंत अवसर देता।

कभी किसी के द्वारा गाली दिलवा देता। कभी किसी के द्वारा अपमान करवा देता। वह कहता है, साधो। धैर्य साधो। स्थितधी बनो। धीरज जगाओ। धीरता पैदा करो। यह आदमी जो गाली दे रहा है, यह तुम्हारा हिताकांक्षी है। इसे पता हो न हो, यह तुम्हारा कल्याणमित्र है।

कबीर ने तो कहा है, “निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय।’ घर के पास ही बसा लो उनको। आंगन कुटी छवा दो। अतिथि की तरह उनकी सेवा करो, पैर दबाओ। पर निंदक को दूर मत जाने दो, पास ही रखो। क्योंकि वह बार-बार तुम्हें धैर्य को जगाने का अवसर देगा।

सोचो थोड़ा इस पर। जो भी घटता है उसका सृजनात्मक उपयोग कर लो। दिवाला निकल जाए तो सृजनात्मक उपयोग कर लो। यह मौका है। इस वक्त अपने को कस लो। सफलता में तो सभी धैर्यवान मालूम पड़ते हैं। वह तो धोखा है। असफलता जब घेर ले, तभी परीक्षा है।

और ऐसी छोटी-छोटी असफलताओं में साधते-साधते, छोटी-छोटी लहरों से लड़ते-लड़ते तुम बड़े सागर में उतरने के योग्य हो जाओगे। किनारे से दूर बड़े तूफान हैं। तूफानों के पार दूसरा किनारा है।

सफलता हो तो बहुत हंसो मत। सफलता में तो रो लो तो चलेगा। विफलता में हंसना है। जब जीत आ रही हो, हंसने की जरूरत नहीं। क्योंकि जीत के साथ हंसने से किसी को कोई लाभ कभी नहीं हुआ। तब रो लो तो चलेगा। जब फूलमालाएं गले में डाली जा रही हों तो सिर नीचे झुका लो तो चलेगा। तब उदास हो जाओ तो चलेगा।

मुझे आज साहिल पर रोने भी दो

कि तूफान में मुस्कुराना भी है!

किनारे पर रो लो तो चलेगा क्योंकि तूफान में हंसने की तैयारी करनी है। जो तूफान में हंसा वही हंसा। साहिल पर तो कोई भी हंस लेता है। किनारे पर हंसने में क्या लगता है? हलदी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए। कुछ लगता ही नहीं किनारे पर तो। किनारे पर तो मूढ़ भी हंस लेते हैं, कायर भी हंस लेते हैं। तूफान में हंसने की तैयारी करनी है।

मुझे आज साहिल पर रोने भी दो

कि तूफान में मुस्कुराना भी है!

सफलता में ऐसे खड़े रह जाओ, जैसे कुछ भी नहीं हुआ। तभी तुम विफलता में ऐसे खड़े रह सकोगे कि जैसे कुछ भी नहीं हुआ।

इसको कृष्ण ने कहा है, “समत्वं योग उच्चते।’ दुख में, सुख में सम हो जाओ, यही योग है। यही धीरता है।

बहुत कुछ और भी है इस जहां में

यह दुनिया महज गम ही गम नहीं है

लेकिन वह जो बहुत कुछ है, उसे जानने की कला चाहिए। साधारणतः तो आदमी को लगता है, दुख ही दुख है। क्योंकि हम केवल दुख को चुनने में कुशल हैं। हम कांटे बीनने में बड़े निष्णात हो गए हैं। फूल हमें दिखाई ही नहीं पड़ते। फूल उसी को दिखाई पड़ते हैं, जो कांटों में भी फूल देखने के लिए तैयार हो जाता है।

फूलों को कांटों में खोज लेना है। दुख में सुख की तरंग को पकड़ना है। अशांति में शांति की तरंग को पकड़ना है। विफलता में सफलता का स्वर खोजना है।

ऐसी खोज जारी रहे पूरे जीवन, तो तुम मृत्यु में महाजीवन खोज पाओगे। इन छोटी-छोटी तरंगों से जूझते-जूझते तुम मृत्यु की महातरंग से जूझने के योग्य हो जाओगे। फिर तुम्हें वह तरंग मिटा न पाएगी। जिसने धीर की अवस्था पा ली, उसे फिर कुछ भी नहीं मिटा पाता है।

इसे महावीर एक बड़ा अनूठा शब्द देते हैं। वह उन्हीं ने दिया है। इसे वे कहते हैं: पंडितमरण। यह बड़ा प्यारा शब्द है।

“एक पंडितमरण–ज्ञानपूर्वक, बोधपूर्वक मरण–सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाए।’

हम तो जीवन तक को व्यर्थ कर लेते हैं। महावीर कहते हैं, मृत्यु को भी सार्थक किया जा सकता है। इस तरह मरो कि मृत्यु भी, मरण भी सुमरण हो जाए। पंडितमरण इसे उन्होंने नाम दिया

महावीर ने जितना चिंतन मृत्यु पर किया है उतना शायद किसी मनीषी ने नहीं किया। इसलिए महावीर ने कुछ बातें कहीं हैं, जो किसी ने भी नहीं कहीं। उन्हें हम धीरे-धीरे समझें, समझ पाएंगे। पहली बात, उन्होंने मृत्यु में एक भेद किया: पंडितमरण। मरते तो सभी हैं। प्रज्ञापूर्वक मरना। पंडित शब्द बनता है प्रज्ञा से–जिसकी प्रज्ञा जाग्रत हुई। जो देखता है; होशपूर्वक है। ऐसे ही सोए-सोए नहीं मर जाता, जागा-जागा मरता है। जो मृत्यु का स्वागत नींद में नहीं करता, होश के दीये जलाकर करता है।

इक्कं पंडियमरणं छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि।

तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ।।

“ऐसे मरो कि मृत्यु सुमरण बन जाए। ऐसे मरो कि तुम्हारी मृत्यु पंडितमरण बन जाए।’

समझें हम। सीखना होगा जीवन की यात्रा में ही। क्योंकि मृत्यु तो एक बार आती है, इसलिए रिहर्सल का मौका नहीं है। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि चलो, मरने का थोड़ा अभ्यास कर लें। क्योंकि मृत्यु तो दुबारा नहीं आती, एक ही बार आती है।

तो जीवन में अभ्यास करना होगा मृत्यु का; और कोई उपाय नहीं है। मृत्यु तो जब आएगी तो बस आ जाएगी। पहले से खबर करके भी नहीं आती। कोई पूर्वसूचना नहीं देती। मृत्यु अतिथि है। आने की तिथि नहीं बताती, इसलिए अतिथि। खबर नहीं देती कि अब आती हूं, तब आती हूं। बस आ जाती है। अचानक एक दिन द्वार पर खड़ी हो जाती है। फिर क्षणभर सोचने का भी अवसर नहीं देती। तो अगर तुम तैयार ही हो तो ही तैयार रहोगे, अन्यथा विचलित हो जाओगे।

अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि मृत्यु के क्षण में सम्हाल लेंगे–अभी क्या जल्दी है? अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि ले लेंगे राम का नाम मरते क्षण में। मगर तुम ले न पाओगे। अगर तुम्हारे पूरे जीवन पर राम का नाम नहीं लिखा है, तो मृत्यु के क्षण में भी तुम ले न पाओगे। अगर पूरे जीवन काम-काम-काम चलता रहा तो मरते वक्त राम नहीं चल सकेगा। क्योंकि मरते वक्त तो सारे जीवन का जो सार-निचोड़ है वही गूंजेगा। अगर जिंदगीभर धन ही धन गिनते रहे तो मरते वक्त तुम रुपये गिनते ही मरोगे। मन में गिनते मरोगे। सोचते मरोगे कि क्या होगा, इतनी संपत्ति इकट्ठी कर ली है। अब क्या होगा, क्या नहीं होगा।

एक आदमी मर रहा था। उसने अपनी पत्नी से पूछा कि मेरा बड़ा बेटा कहां है? उसने कहा कि आप घबड़ाएं मत, वह आपके पैर के पास बैठा है। उसने कहा, और मंझला? कहा, वह भी पास बैठा है, आप विश्राम करें। और उसने कहा, सबसे छोटा? उसने कहा कि वह तो आपके दायें हाथ पर बैठा हुआ है। वह आदमी हाथ के घुटने टेककर उठने लगा। पत्नी ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं उठकर? उसने कहा, कहीं जा नहीं रहा हूं। मैं यह पूछता हूं कि फिर दुकान कौन चला रहा है? तीनों यहीं मौजूद हैं।

अब यह आदमी मर रहा है। गिर पड़ा और मर गया लेकिन दुकान चलाता रहा। जा रहा है लेकिन चिंता दुकान की बनी है। जल्दी लौट आएगा। फिर दुकान पर बैठ जाएगा। फिर बेटे होंगे बड़े, मंझले, छोटे। फिर दुकान चलेगी, फिर मरेगा। फिर घुटने, कोहनियां टेककर पूछेगा, दुकान कौन चला रहा है।

ऐसे घूमता रहता चाक जीवन का। हम पुनरुक्त करते रहते वही-वही। लेकिन एक बात याद रखना, यह धोखा कभी कोई नहीं दे पाया। यद्यपि ऐसी कथाएं लिखी हैं। अजामिल की कथा है, कि मरते वक्त–सदा का पापी–बुलाया, “नारायण, नारायण!’ नारायण उसके बेटे का नाम था। पापी अक्सर ऐसे नाम रख लेते हैं। छिपाने के लिए नाम बड़े काम देते हैं। और कहते हैं, ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। और जब अजामिल मरा तो उन्होंने समझा कि मेरा नाम बुलाया था। तो वह स्वर्ग में बैठा है।

यह जिन्होंने भी कहानी गढ़ी है, धोखेबाज लोग रहे होंगे, बेईमान रहे होंगे। अगर परमात्मा ऐसा धोखा खा जाता है तो फिर हद्द हो गई। तुम भी न खाते धोखा जब वह “नारायण, नारायण’ बुला रहा था, तो किसी ने धोखा नहीं खाया। उसकी पत्नी ने धोखा नहीं खाया, उसके लड़के ने धोखा नहीं खाया। और जब वह नारायण को बुला रहा था तो वे सभी जान रहे होंगे कि किसलिए बुला रहा है। कुछ न कुछ उपद्रव…। पुराना पापी था। मरते वक्त कुछ और करवा जाना चाहता हो।

मैंने सुना है, एक पापी मर रहा था। उसने अपने सब बेटों को इकट्ठा कर लिया, और कहा कि मेरी आखिरी बात मानोगे? वे सब डरे। बड़े तो बहुत डरे क्योंकि वे जानते थे बाप को, कि वह आखिरी बात में कहीं उलझा न जाए। जिंदगीभर उलझाया अब आखिरी बात…और जाते-जाते कोई ऐसा दंदफंद न खड़ा कर जाए। मगर छोटा बेटा जरा नया-नया था और बाप को जानता नहीं था तो वह पास आ गया और उसने कहा, आप कहें। उसने कान में कहा कि ये सब तो लुच्चे-लफंगे हैं। इन्होंने कभी मेरी सुनी नहीं और आज भी नहीं सुन रहे हैं। मैं मर रहा हूं; बाप मर रहा है। तुम बेटा कसम खाते हो कि करोगे? उसने कहा, कसम खाता हूं। आप बोलिए तो।

उसने कहा, तो ऐसा करना; जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश को टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में डाल देना और पुलिस में रिपोर्ट लिखा देना। उसने कहा, लेकिन किसलिए? उसने कहा कि मेरी आत्मा बड़ी प्रसन्न होगी, जब सब बंधे जाएंगे। मेरी आत्मा की प्रसन्नता के लिए इतना तो कर देना। फिर मैं तो मर ही गया, तो काटने में हर्जा क्या है? जिंदगीभर से यह एक आकांक्षा रही है कि इन सबको बंधा हुआ देख लूं। अब मरते बाप की यह आकांक्षा–इनकार मत करना। देख, तूने कसम भी खा ली।

तो वह जो अजामिल बुला रहा था बेटे को कि “नारायण, नारायण’, पता नहीं कौन-सा उपद्रव करवाने के लिए बुला रहा हो। कोई धोखे में नहीं था, लेकिन कथाकार कहते हैं कि ऊपर का नारायण धोखे में आ गया। ये आदमी की बेईमानियां हैं। इस धोखे में मत पड़ना। तुम इस धोखे में मत जीना।

मृत्यु के क्षण में तुम वही कर पाओगे, जो तुमने जीवनभर किया है। उसी का सार-निचोड़। उसी की निष्पत्ति। जैसे हजार-हजार गुलाब के फूलों से इत्र निकाल लिया जाता है। इत्र तो बूंदभर होता है; हजार-हजार फूलों से निचुड़ता है। ऐसे ही तुम्हारे पूरे जीवन के फूलों से–जो भी फूल रहे हों; सुगंध के कि दुर्गंध के, उनका इत्र मरते क्षण में तुम्हारे सामने होगा।

तुमने यह बात सुनी होगी। लोग कहते हैं, मरते वक्त आदमी के सामने पूरे जीवन की तस्वीर आ जाती है। उसका मतलब केवल इतना ही है कि पूरे जीवन का सार-निचोड़, सारे अनुभवों का इत्र आदमी के हाथ होता है। वही इत्र लेकर आदमी चलता है, दूसरी यात्रा पर निकलता है।

पंडितमरण का अर्थ है, व्यक्ति पूरे जीवन मरने के लिए तैयारी करता रहा। जो अवश्यंभावी है उसके लिए तैयार होता रहा।

बुद्ध के पास जब कोई संन्यासी पहली दफा दीक्षित होते थे तो वे उन्हें कहते थे, तीन महीने मरघट पर रहो। वे थोड़े चौंकते कि किसलिए? मरघट पर क्या सार है? बुद्ध कहते, पहले मृत्यु को ठीक से देखो। बैठे रहो मरघट पर। आती रहेंगी लाशें, जलती रहेंगी चिताएं, हड्डियां टूटती रहेंगी, सिर फोड़े जाते रहेंगे, राख हो जाएगी। लोग राख को बीनने आ जाएंगे। तुम यह देखते रहो तीन महीने। बस बैठे रहो मरघट पर।

तीन महीने अगर तुम भी मरघट पर बैठोगे, और कुछ देखने न मिलेगा तो मृत्यु अवश्यंभावी है यह सत्य तुम्हारा अनुभूत सत्य हो जाएगा।

और किसी न किसी दिन तीन महीनों में, जिस दिन ध्यान ठीक से पकड़ लेगा और चित्त एकाग्र होगा, चिता जल रही होगी… और रोज-रोज चिता जलते देखोगे तो किसी दिन तुम नहीं सोचते ऐसा नहीं होगा कि तुम देख लोगे, यह मैं ही जल रहा हूं! यह देह मेरी जैसी देह है। यह देह ठीक मेरी जैसी देह है और राख हुई जा रही है। मैं राख हो रहा हूं, यह तुम नहीं देख पाओगे?

यह अगर प्रतीति सघन हो जाए कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो तुम फिर तत्क्षण उसकी तैयारी में लग जाओगे। अभी तो हम जीवन की तैयार में लगे हैं–जीवन, जो कि जाएगा। उसकी तैयारी कर रहे हैं, जो कि छीना जाएगा। मृत्यु जो कि आएगी ही, उसकी कोई तैयारी नहीं है। इधर हम तैयारी कर रहे हैं; मकान बनाते, धन जोड़ते, पद-प्रतिष्ठा–सारा आयोजन करते हैं कि जीना है। मरने का आयोजन कब करोगे? और यह जीना सदा रहनेवाला नहीं है। इंतजाम लोग ऐसा करते हैं, जैसे सदा रहना है। और एक दिन अचानक इंतजाम के बीच में मौत आ धमकती है। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा। और किसी भी घड़ी संदेश आ जाता है और बंजारे को अपना तंबू उखाड़ लेना पड़ता है। चल पड़ना पड़ता है।

“पंडितमरण, ज्ञानपूर्वक मरण सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है, अतः इस तरह मरना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जाए।’

अदभुत सदगुरु रहे होंगे महावीर। सिखाते हैं मरने की कला। कहते हैं, ऐसे मरो कि मरण सुमरण हो जाए।

कैसे होगा मरण सुमरण? रोज-रोज मरो। प्रतिपल मरो। सुबह मरो, सांझ मरो। रात जब सोओ तो मर जाओ। जो दिन बीत गया उसके लिए मर जाओ। जो-जो बीतता जाता है उसके लिए मरते जाओ, उसको इकट्ठा मत करो। उसका बोझ मत ढोओ। बोझ की तरह अतीत को मत खींचो। जो गया, गया। उसे जाने दो। प्रतिपल नए हो जाओ। इधर मरे, उधर जन्म। इधर पुराने को छोड़ा, नए का आविर्भाव।

तो मौत तुम्हें ऐसी जगह नहीं पाएगी, जहां तुम्हारे पास कुछ छीनने को हो। तुम्हारे पास कुछ होगा ही नहीं। किसी क्षण मौत आएगी तो तुम तो हर वक्त अतीत के लिए मरते जाते हो। अतीत के संबंध, आसक्तियां, राग, धन, पद, प्रतिष्ठा…तुम तो मरते जाते हो। सम्मान-अपमान, सफलता-विफलता…तुम तो मरते जाते हो। सुख-दुख, विषाद…तुम तो मरते जाते हो।

मृत्यु एक दिन आएगी, तुम कोरे कागज की तरह पाए जाओगे। तुम्हारे पास पकड़ने को कुछ न होगा। तुम्हारे पास बुलाने को कुछ न होगा, चीखने-चिल्लाने को कुछ न होगा। तुम जानोगे, कोई मेरा नहीं। तुम जानोगे, कुछ मेरा नहीं। तुम खड़े हो जाओगे। तुम जूते पहनकर खड़े हो जाओगे। तुम मौत के हाथ में हाथ डाल लोगे। तुम कहोगे, मैं तैयार हूं। मैं तो सदा से तैयार था, इतनी देर क्यों लगाई? इतनी देर कहां रही तू? कबसे हम प्रतीक्षा करते। कबसे हम तैयार बैठे थे।

बस, ऐसे आदमी से मौत हार जाती है। इसको महावीर सुमरण कहते हैं।

जीवन को, जो कि क्षणभंगुर है, उसे शाश्वत मत समझो। जो जाएगा वह जा ही चुका है। जो मिटेगा वह मिट ही रहा है। जो छूटेगा, वह तुम्हारे हाथ से छूट ही रहा है। व्यर्थ अटके मत रहो। व्यर्थ मुट्ठी मत बांधो, खोलो मुट्ठी।

लेकिन हमारी तर्कदृष्टि और है। हम कहते हैं, जो छूटनेवाला है उसे जोर से पकड़ लो कि कहीं और जल्दी न छूट जाए। हम कहते हैं, जो क्षणभंगुर है उसे भोग लो। कहीं क्षण बीत न जाए। हम कहते हैं, इसके पहले मौत आए, जीवन को जी लो, निचोड़ लो रस। कहीं ऐसा न हो, कि मौत आ जाए और तुम रस ही न निचोड़ पाओ।

चांदनी की डगर पर तुम साथ हो

प्राण युगऱ्युग तक अमर यह रात हो

कल हलाहल ही पिला देना मुझे

आज मधु की रात मधु की बात हो

हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है

नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है

रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी

बस बगूले-सी भटकती धूल है

रात है, मधु है, समर्पित गात है

आज तो यह पाप भी अवदात है

सघन श्यामल केश लहराते रहें

मैं रहूं भ्रम में अभी तो रात है

चांदनी की डगर पर तुम साथ हो

प्राण युगऱ्युग तक अमर यह रात हो

–जो होना नहीं है उसकी हम आकांक्षा करते हैं।

प्राण युगऱ्युग तक अमर यह रात हो!

–कोई रात, कोई नींद, कोई सपना युगऱ्युग तक होने को नहीं है।

चांदनी की डगर पर तुम साथ हो

कौन किसके साथ है? चांदनी बड़ा झूठा सम्मोहन है। कौन किसके साथ है? लगते हैं कि लोग किसी के साथ हैं। राह पर अनजान मिल गए यात्री हैं। पलभर को साथ हो गया। नदी-नाव संयोग हैं। अभी नहीं थे साथ, अभी साथ हैं, अभी फिर बिछुड़ जाएंगे।

कल हलाहल ही पिला देना मुझे

–कल मौत आए, ठीक। कल जहर पिलाओ, ठीक।

आज मधु की रात मधु की बात हो।

तो साधारणतः हम मृत्यु को टालते हैं कि कल होगी मृत्यु। आज तो जीवन है। आज क्यों मृत्यु की बात उठाएं?

ऐसे विचारक भी हैं जगत में जो कहते हैं, मृत्यु की बात ही उठानी रुग्णता है। उनकी दृष्टि में महावीर तो मार्बिड, रुग्ण विचारक हैं। फ्रायड जैसे विचारक हैं। जो कहते हैं, मृत्यु की बात ही नहीं उठानी चाहिए। हालांकि फ्रायड खुद मृत्यु से बड़ा भयभीत होता था। वह इतना भयभीत हो जाता था कि कभी अगर कोई मौत की ज्यादा बात करे तो दो दफे तो वह बेहोश हो गया था। किसी ने मौत की चर्चा छेड़ दी और वह घबड़ाने लगा। वह फेंट ही कर गया, गिर ही गया कुर्सी से।

उसका शिष्य जुंग अपने संस्मरणों में लिखता है कि फ्रायड के साथ वह अमरीका जा रहा था जहाज पर। जुंग की बड़ी बहुत दिनों की रुचि थी, इजिप्त की ममी–ताबूतों में, मुर्दा लाशों में। उसको क्या पता कि यह फ्रायड इतना घबड़ा जाता है! सोच भी नहीं सकता था। दोनों जहाज के डेक पर खड़े थे। कुछ बात चल पड़ी, संस्मरण निकल आया, उसने इजिप्त की ममियों की बात की। उसने उनका वर्णन किया। वह तो वर्णन करता रहा, एकदम फ्रायड कंपने लगा और वह तो चारों खाने चित्त हो गया।

ऐसे व्यक्तियों से यह सदी प्रभावित हुई है। ऐसे व्यक्तियों ने इस सदी के मानस को रचा है। फ्रायड का मनोविज्ञान इस सदी की आधारभूत शिला बन गया है। और फ्रायड कहता है, जो मृत्यु की बात करते हैं, वे मार्बिड, वे रुग्णचित्त।

मगर थोड़ा सोचो। अगर फ्रायड और महावीर में चुनना हो तो कौन रुग्णचित्त मालूम होगा? महावीर मृत्यु का इतना चिंतन और चर्चा और इतना ध्यान करने के बाद जैसे महाजीवित मालूम पड़ते हैं। इधर फ्रायड, कहता है मृत्यु का चिंतन रुग्ण है। लेकिन लगता है यह रैशनलाइजेशन है। लगता है, वह इतना डरता है खुद, कि अपनी सुरक्षा कर रहा है। वह इतना भयभीत है मृत्यु से कि जो मृत्यु की बात करते हैं, उनको वह रोकने की चेष्टा कर रहा है कि यह बात ही रुग्ण है। यह बात ही मत उठाओ।

महावीर में जीवन का फूल खिला है मृत्यु के मध्य में। नहीं, महावीर रुग्ण नहीं हैं। महावीर से स्वस्थ आदमी और खोजना मुश्किल होगा।

लेकिन हम साधारणतः महावीर की बजाय फ्रायड से राजी हैं। हम कहें कुछ, चाहे हम जैन ही क्यों न हों, और जाकर मंदिर में महावीर की पूजा ही क्यों न कर आते हों, लेकिन अगर हम मन में टटोलेंगे तो हम फ्रायड के साथ राजी हैं, महावीर के साथ नहीं। अगर कोई मृत्यु की चर्चा छेड़ दे तो हम भी कहते हैं, कहां की दुखभरी बातें उठा रहे हो! छोड़ो भी।

कल हलाहल ही पिला देना मुझे

आज मधु की रात मधु की बात हो।

फिर भी हम जानते हैं–क्योंकि जो है, उसे हम कैसे झुठला सकते हैं?

हाथ में रवि-चंद्र पग में फूल है

नृत्यमय अस्तित्व उन्मद झूल है

रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी

बस बगूले-सी भटकती धूल है।

जानते तो हैं–

बस बगूले-सी भटकती धूल है

रिक्त भीतर से मगर यह जिंदगी

इस रिक्तता को, इस सूनेपन को भरने के लिए हम हजार उपाय करते हैं जिंदगी में।

महावीर कहते हैं, इस सूनेपन को तुम भर न पाओगे। तुम कितना ही ढांक लो, यह उघड़ेगा। यह उघड़कर रहेगा।

मृत्यु अवश्यंभावी है। तुम्हें अपनी इस शून्यता का साक्षात्कार करना ही होगा। तुम्हें अपने को मिटते हुए देखना ही होगा। इससे तुम बच न सकोगे। इससे कोई कभी बच नहीं पाया। तो बजाय बचने के, भागने के, मृत्यु को हम शुभ घड़ी में क्यों न बदल लें?

रात है, मधु है, समर्पित गात है

भीतर से हम जानते भी हैं, सब जा रहा, सब क्षणभंगुर। पानी का बबूला–अब फूटा, तब फूटा। मगर दोहराए जाते हैं ऊपर से–

रात है, मधु है, समर्पित गात है

आज तो यह पाप भी अवदात है

सघन श्यामल केश लहराते रहें

मैं रहूं भ्रम में अभी तो रात है

हम कितनी-कितनी भांति भ्रम को पोसते हैं। कितनी-कितनी भांति भ्रम को उखड़ने नहीं देते। एक तरफ से उखड़ता है तो ठोंक लेते हैं। दूसरी तरफ से उखड़ता है, वहां ठोंक लेते हैं। इधर पलस्तर गिरा, चूना उखड़ गया, पोत लेते हैं। टीमटाम करते रहते हैं। और यह टीमटाम करते-करते एक दिन बीत जाते; व्यतीत हो जाते हैं।

इसके पहले कि ऐसी घड़ी आए, अपने को व्यर्थ समझा-समझाकर, पानी के बबूलों से मन को मत उलझाए रखना। क्षणभंगुर को क्षणभंगुर जानना शाश्वत को जानने की पहली शर्त है। असार को असार की तरह पहचान लेना सार का द्वार खोलना है।

जी उठे शायद शलभ इस आस में

रात भर रो-रो दीया जलता रहा

थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल

सो गई जब साधना होकर विफल

जब धरा ने भी न धीरज दिया

व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया

आग तब पानी बनाने के लिए

रात भर रो-रो दीया जलता रहा

लेकिन तुम चाहे रोओ, चाहे चीखो-चिल्लाओ; जो नहीं होता, नहीं होता। आग पानी नहीं बनती।

आग तब पानी बनाने के लिए

रात भर रो-रो दीया जलता रहा

रोते रहो, आग पानी नहीं बनती।

और सब तुम पर हंसेंगे।

जब धरा ने भी न धीरज दिया

व्यंग्य जब आकाश ने हंसकर किया

थक गया जब प्रार्थना का पुण्यबल

सो गई जब साधना होकर विफल

तुम जो भी कर रहे हो, वह विफल होना उसका निश्चित है। लाख उपाय करो तो भी तुम हारोगे। यह जीवन ही हारने को है। इस जीवन का अर्थ ही विफलता है। यहां कोई जीत नहीं पाता। यहां विजय होती ही नहीं। जहां मृत्यु होनी है, वहां विजय कैसी? मृत्यु में ही अगर जीते तो जीत हो सकती है।

इसलिए महावीर ने कहा है, जो मृत्यु को जीत लेता है वही जयी है, वही जिन है। जिन शब्द का अर्थ होता है, जीत लिया। तो दो तरह के विजेता हैं जगत में। एक: नेपोलियन, सिकंदर, तैमूरलंग, नादिरशाह–ये सब धोखे के विजेता हैं। मौत तो इनको बिलकुल भिखारी कर जाती है।

फिर और एक दूसरी तरह के विजेता हैं: महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट। जीवन में तो इनकी कोई विजय की कहानी नहीं है। इतिहास में तो इनके कोई चरण-चिह्न नहीं हैं। समय के भीतर तो इन्होंने कुछ जीता नहीं है, इसलिए इतिहास में इनका ठीक-ठीक उल्लेख भी नहीं है। लेकिन शाश्वत में इनने विजय की घोषणा की है। विजय की दुंदुभी बजाई है अमृत में।

अगर कहीं कोई शाश्वत का इतिहास है तो वहां तुम नादिर का, तैमूरलंग का और चंगीज का और हिटलर का और नेपोलियन और सिकंदर का नाम न पाओगे। वहां तुम्हें महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, मोहम्मद का, जरथुस्त्र का नाम मिलेगा। एक दूसरे ढंग की विजय है। वास्तविक विजय है।

“असंभ्रांत, निर्भय सत्पुरुष एक पंडितमरण को प्राप्त होता है और शीघ्र ही अनंत-मरण का–बार-बार के मरण का–अंत कर देता है।’

एक ही बार मर जाता है। पूरा-पूरा मर जाता है। कुछ रोकता नहीं, कुछ झिझकता नहीं। समग्ररूप से समर्पित हो जाता है मृत्यु को। तो पंडितमरण एक, फिर होनेवाले भविष्य के अनंत जन्म और मृत्युओं से छुटकारा हो जाता है।

जागो! तुम्हारा तो जीवन भी अभी पंडित-जीवन नहीं है। यात्रा बड़ी है। मरण को भी पंडितमरण बनाना है। ऐसी झूठी बातों में बहुत मत उलझे रहो। अपने मन को समझाते मत रहो। ये सांत्वनाएं, जो तुम दे रहे हो, बहुत काम न आएंगी।

खुद को बहलाना था आखिर, खुद को बहलाता रहा

मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा, गाता रहा

भीतर तो आग है। हृदय तो जल रहा है। हृदय में तो कोई तृप्ति नहीं, मगर खुद को बहलाना था तो खुद को बहलाता रहा।

मैं ब-ई-सोजे-दरू हंसता रहा गाता रहा!

आग को भीतर छिपाए हो। मौत को भीतर छिपाए हो। ऊपर से हंसते रहते, गाते रहते। कागज के फूल चिपकाए हो।

यह धोखे की पट्टी टूटेगी। यह पर्दा उठेगा। इसके पहले कि मौत उठाए, तुम ही उठा लो, तो शोभा है; तो सम्मान है, तो गरिमा है।

जो मौत करे वह तुम ही कर दो, इसी का नाम संन्यास है। जो मौत करे वह तुम ही कर दो। जहां-जहां से मौत तुम्हें छीन लेगी, वहां-वहां तुम ही कह दो कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है। मौत पत्नी से छीन लेगी? तो जान लो मन में कि पत्नी कौन किसकी है? मौत पति से छीन लेगी? तो जान लो मन में, जाग जाओ, कौन किसका पति है? साथ हो लिए दो क्षण को। अजनबी हैं। एक-दूसरे की सेवा कर ली, बहुत। एक-दूसरे को दुख न दिया तो काफी। सुख तो कौन किसको दे पाया? एक-दूसरे के लिए फूल, बिछाए…बिछे तो नहीं, चेष्टा की बहुत। एक-दूसरे के रास्ते से थोड़े कांटे बीन लिए, पर्याप्त। इतना ही बहुत है। यह भी असंभव है। यह भी हो गया, चमत्कार है।

लेकिन कौन किसका है? अजनबी को अजनबी जानो। जो बच्चा तुम्हारे घर पैदा हुआ, वह भी अजनबी है। एक अज्ञात आत्मा न मालूम कहां से, न मालूम किन लोकों से, न मालूम किन ग्रह-नक्षत्रों से, न मालूम किन पृथ्वियों से, न मालूम किन जीवन-पथों से होकर तुम्हारे द्वार आ गई है। अपना मानने की भूल मत करो।

धन है तो ठीक, नहीं है तो ठीक। आसक्ति को थोड़ा शिथिल करो। मुट्ठी खोलो। और ऐसा मत कहो कि जब मौत आएगी तब निपट लेंगे।

तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता

तोड़ देने की नौबत तो आए

हम कयामत के खुद मुंतजिर हैं

पर किसी दिन कयामत तो आए

–आएगी मौत, तब निपट लेंगे।

तोड़ लेंगे हरेक शै से रिश्ता

तोड़ देने की नौबत तो आए

लेकिन जब नौबत आएगी तो एक पल में घट जाती है। पल के छोटे-से खंड में घट जाती है। तुम्हें अवसर न मिलेगा। तुम जाग भी न पाओगे और मौत तुम्हें उठा ले जाएगी।

नहीं, इस तरह टालो मत, स्थगित मत करो। मौत आ रही है, आ ही गई है। नौबत आ ही गई है। नौबत आती ही रही है। कयामत कल नहीं है, कयामत आज है, अभी है, यहीं है। तुम्हें जो करना हो, अभी कर लो।

चीजों को सीधा-सीधा देखो। आंखों में भ्रम मत पालो। तो जीवन भी पंडित का जीवन हो जाता है और मृत्यु भी पंडित की मृत्यु हो जाती है।

“साधक पग-पग पर दोषों की आशंका, संभावनाओं को ध्यान में रखकर चले। छोटे से छोटे दोष को भी पाप समझे; उससे सावधान रहे। नए-नए लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे।’

“जब जीवन तथा देह से लाभ होता दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।’

यह महावीर की अनूठी बात है। सिर्फ महावीर ने कही है सारे मनुष्य-जाति के इतिहास में। महावीर ने भर अपने संन्यासी को स्वेच्छा-मरण की आज्ञा दी है।

महावीर कहते हैं, जीवन तो साधन है; अपने आप में साध्य नहीं है। तुमसे कोई पूछे, किसलिए जीते? तो तुम कहोगे, जीने के लिए जीते हैं। तुमसे कोई पूछे कि सौ साल जीना चाहते हो? तुम कहोगे, जरूर जीना चाहते हैं।

क्या करोगे? सौ साल नहीं, हजार साल भी जीकर करोगे क्या? होगा क्या? तुम कहोगे, होने का सवाल कहां है? बस जीना ही बहुत है। हम लोगों को आशीर्वाद देते हैं, सौ साल जीयो। कोई फिक्र ही नहीं करता कि सौ साल जीकर यह बेचारा करेगा क्या? इसकी भी तो कुछ सोचो! तुमने तो आशीर्वाद दे दिया। तुम तो मुफ्त में देकर मुक्त हो गए, अब यह फंस गया। यह लटका रहेगा किसी अस्पताल में। हाथ-पैर उल्टे-सीधे बंधे होंगे। नाक में आक्सीजन जा रही होगी। शरीर में ग्लूकोज का इंजेक्शन लगा होगा। इसकी भी तो सोचो। तुमने तो दे दिया आशीर्वाद कि सौ साल जीयो।

सिर्फ जीना अपने आप में मूल्य थोड़े ही है! इसलिए महावीर ने इस बात को बड़ी हिम्मत से लिया। महावीर की बात आज नहीं कल दुनिया में स्वीकार करनी पड़ेगी।

पश्चिम में बड़े जोर से इस पर आंदोलन चला है। हालांकि उनको किसी को महावीर का पता नहीं क्योंकि महावीर पश्चिम के लिए बिलकुल अपरिचित हैं। पश्चिम में इसका बड़ा चिंतन चल रहा है क्योंकि पश्चिम अब, सौ साल के करीब जीने की सुविधा उसको उपलब्ध हो गई है। यहां तो हम आशीर्वाद ही देते रहे। आशीर्वाद से ही कोई जीता है? लेकिन पश्चिम के विज्ञान ने आशीर्वाद को पूरा कर दिया।

अब लोग जी रहे हैं। सौ साल के पार पहुंच गए हैं कुछ लोग। अब वे बड़ी मुश्किल में हैं। वे कहते हैं, हमें मरने का हक चाहिए। पश्चिम में बूढ़ों की जमातें हैं, जो आंदोलन चला रही हैं। जो कह रही हैं, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हमें मरना चाहिए। हमें तुम बचा नहीं सकते। हमको मरने का मौका दो।

मगर अब तक इसकी कोई दुनिया के किसी कानून में व्यवस्था नहीं है। आत्महत्या बड़ा अपराध है। बड़े मजे की बात है। अगर आत्महत्या करते हुए पकड़ लिए जाओ, तो सरकार तुमको मार डाले। यह भी कोई बात हुई? तुम खुद ही मर रहे थे। अब तुमको और मारने की क्या जरूरत है? तुम तो खुद ही अपराध भी कर रहे थे, दंड भी दे रहे थे। निपटारा हुआ जा रहा था। लेकिन अगर पकड़ लिए गए–मर गए तो ठीक, अगर अपराध कर गुजरे तो फिर कोई दंड नहीं है–लेकिन अगर करते हुए पकड़ लिए गए और अपराध पूरा न हो पाया तो दंड है।

यह अब तक तो ठीक था। हमारे नियम और कानून भी कारण से होते हैं। जीवन बड़ा मुश्किल रहा है, बड़ा असंभव रहा है। सत्तर साल, अस्सी साल जीना बड़ा मुश्किल रहा है। जितनी खोजें हुई हैं दुनिया में जमीन के नीचे पड़ी हुई मनुष्य की हड्डियों की, तो ऐसा लगता है पांच हजार साल पहले चालीस वर्ष आखिरी उम्र थी। क्योंकि पांच हजार वर्ष पहले की कोई भी हड्डी नहीं मिली है, जो चालीस वर्ष से ज्यादा पुराने आदमी की हो।

और पीछे जाने पर, कोई सत्तर और पचहत्तर हजार साल पुरानी जो पेकिंग में हड्डियां मिली हैं, वे तो बताती हैं कि आदमी मुश्किल से पच्चीस साल जीता था। तो जीवन बड़ा मुश्किल रहा है। और पच्चीस साल भी, एक घर में अगर एक दर्जन बेटे पैदा हों तो दो बच जाएं, बहुत। क्योंकि दस बच्चों में नौ बच्चे मर जाते थे।

तो जीवन की बड़ी मुश्किल थी। जीवन बड़ा न्यून था। मुश्किल से मिलता था। जीवन का बड़ा अवसर था। सभी को नहीं मिल जाता था। तो सौ साल जीने का हम आशीर्वाद देते थे, वह ठीक है। अब जीवन बड़ा सुगम है। कम से कम पश्चिम में तो सुगम हो गया है। लोग सौ साल तक पहुंच रहे हैं। सत्तर-अस्सी साल औसत उम्र हो गई है। अस्सी साल का होना कोई बहुत बूढ़ा होना नहीं है।

इसलिए हम चौंकते हैं, यहां जब अखबार में कभी खबर आती है कि नब्बे साल के बूढ़े ने विवाह कर लिया तो हम बहुत चौंकते हैं। यह भी क्या पागलपन है? नब्बे साल का बूढ़ा, और विवाह? लेकिन पश्चिम में शरीर की उम्र लंबा रही है। नब्बे साल का बूढ़ा भी विवाह करने की हालत में है।

तो एक नया सवाल उठना शुरू हुआ है कि आदमी को मरने का हक होना चाहिए। यह जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए सभी विधानों में। क्योंकि एक आदमी अगर एक सौ दस साल का हो गया और मरना चाहता है…क्योंकि करोगे क्या? रोज उठना वही, रोज सोना वही, रोज खा-पी लेना वही। फिर सब अपने संबंधी जा चुके, मित्र-प्रियजन जा चुके और एक आदमी जिंदा है। उसकी सारी दुनिया जा चुकी। वह सौ साल पहले पैदा हुआ था, वह दुनिया जा चुकी। सब बदल गया। वह बिलकुल अजनबी है। जैसे किसी और लोक में जबर्दस्ती उसको लाकर खड़ा कर दिया। बच्चों से कोई तालमेल नहीं रहा। बच्चे बिलकुल दूसरी दुनिया में जी रहे हैं। वह करे भी क्या जीकर? सार भी क्या है? कष्ट होता है, शरीर दुखता है, अर्थराइटिस है, हजार बीमारियां हैं। करे क्या जीकर?

और जी रहा है क्योंकि मेडिकल साइंस ने जीने की सुविधा जुटा दी है। जी सकता है। अब हम आदमी को खींच सकते हैं, दो सौ साल तक भी। उसको मरने ही न दें। उसको अस्पताल में रखकर हम जिंदा रख सकते हैं। अब अस्पताल में डाक्टरों की भी बड़ी कठिनाई है। क्योंकि अगर वे आक्सीजन बंद करें तो उसका मतलब है, उन्होंने इसको मारा। पुराने नियम से वे हत्यारे हैं। उनका पुराना शास्त्र कहता है, किसी को मारना नहीं, बचाने की कोशिश करना। अगर वे इसको ग्लूकोज न दें तो यह मर जाएगा। लेकिन तब मारने का जुम्मा उनके ऊपर पड़ेगा। अभी कानून इसका मौका नहीं दे रहा है, लेकिन कानून को यह मौका देना पड़ेगा।

महावीर की बात समझ में आने जैसी है। महावीर कहते हैं, जब कोई आदमी ऐसी जगह आ जाए, जहां शरीर से अब कुछ भी ध्यान में गति न होती हो, समाधि की तरफ यात्रा न होती हो; ध्यान से, धर्म से, समाधि से परमात्मा का अब कोई अनुभव में विकास न होता हो, कोई लाभ न होता हो…यह महावीर का लाभ ठीक से समझना। यह जैनियों का लाभ नहीं है कि अब कोई धन कमाने की सुविधा न रही, कि रिटायरमेंट हो गया, अब जीकर क्या करें?

महावीर जब कहते हैं, नए-नए लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे, तो वे यह कहते हैं, रोज-रोज परमात्मा का अधिकतम अंश अनुभव में आने लगे तो तो जीवन का कोई सार है। लेकिन कभी अगर ऐसा हो जाए कि जब जीवन तथा देह से लाभ होता दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे।

यह शर्त सोचने जैसी है: “परिज्ञानपूर्वक।’ महावीर कहते हैं, आत्महत्या का भी अधिकार है, लेकिन परिज्ञानपूर्वक। उस शब्द में सब कुछ छिपा है। परिज्ञानपूर्वक का अर्थ होता है, जहर खाकर मत मरना, पहाड़ से कूदकर मत मरना क्योंकि वह तो क्षण में हो जाता है, भावावेश में हो जाता है। छुरा मारकर मत मरना, गोली चलाकर मत मरना।

परिज्ञानपूर्वक का अर्थ है उपवास कर लेना। पानी, भोजन बंद कर देना। नब्बे दिन लगेंगे, अगर आदमी स्वस्थ हो तो मरने में। तीन महीने तक…तीन महीने तक सतत एक ध्यान बना रहे कि मैं मरने को तैयार हूं–परिज्ञान हुआ। तीन महीने में हजार दफा…तीन महीने बहुत दूर हैं, तीन मिनट में तुम्हारा मन हजार दफा बदलेगा कि मरना कि नहीं मरना? अरे छोड़ो भी! कहां के पागलपन में पड़े हो? रात सोए, उठकर बैठ गए, जल्दी पहुंच गए फ्रिज के पास और भोजन कर लिया कि यह तो नहीं चलेगा। क्या सार है मरने में? पता नहीं आगे कुछ है या नहीं है।

और तीन महीने अगर तुम उपवास किए हुए, जल-अन्न त्यागे हुए और एक ही भाव में बने रहो, तो यह धीर की अवस्था हो गई। यह हकदार है मरने का। इसको कोई अड़चन नहीं। इसने अर्जित कर लिया। इसको महावीर कहते हैं परिज्ञानपूर्वक मरना। लेकिन वे जानते हैं कि कुछ लोग अजीब हैं। वे हर जगह से अपने लिए धोखा निकाल लेते हैं।

इसलिए दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, “किंतु जिसके सामने अपने संयम, तप आदि साधना का कोई भय या किसी तरह की क्षति की आशंका नहीं है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है।’

अगर अभी त्याग, तप और ध्यान बढ़ रहा है और तुम्हारे शरीर की कमजोरी के कारण, बुढ़ापे के कारण, दौर्बल्य के कारण तुम्हारे तप-ध्यान में कोई बाधा नहीं पड़ रही है, कोई आशंका नहीं है, तुम्हारा संयम आगे जा रहा है तो उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है।

“यदि वह फिर भी भोजन का त्याग कर मरना चाहता है तो कहना होगा, वह मुनित्व से विरक्त हो गया।’

वह च्युत हो गया। क्योंकि उसमें एक नई आकांक्षा पैदा हो गई मरने की। मरना आकांक्षा से नहीं होना चाहिए। अब कुछ लाभ नहीं रहा और हम किसी के ऊपर बोझ हो गए हैं तो क्या सार है? अब कोई गति नहीं हो रही है, जीवन में कुछ नए साध्य नहीं खुल रहे हैं, नए फूल नहीं खिल रहे, सब असार हो गया, हम किसी पर बोझ होकर बैठ गए हैं तो विदा हो जाना चाहिए।

जीवन से जब तक सार निचुड़ता हो…और सार का अर्थ है आत्मा। सार का अर्थ यह नहीं कि तुम तिजोड़ी भरते जा रहे हो, लाभ होता जा रहा है। सार से महावीर का अर्थ है, भीतर की संपदा अभी उपलब्ध हो रही है तो जीवन अभी योग्य है। अभी इस नाव का उपयोग करना है।

लेकिन कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम नाव पर गए यात्रा करने, और एक ऐसी घड़ी आयी कि नाव में छेद हो गए और नाव डूबने लगी, तो महावीर कहते हैं, छलांग लगाकर फिर तैर जाना। फिर नाव में ही मत बैठे रहना। फिर यह मत सोचना कि नाव को कैसे छोड़ दें? फिर छोड़ देना नाव को क्योंकि असली सवाल दूसरा किनारा है। अगर नाव दूसरे किनारे की तरफ अभी भी ले जाने में समर्थ हो तो चलते जाना। अगर नाव असमर्थ हो गई हो, देह कमजोर हो गई हो, जराजीर्ण हो गई हो तो छलांग लगा देना। तैरकर पार हो जाना। नाव से ही थोड़े ही दरिया पार होता है, तैरकर भी होता है, नाव के बिना भी होता है।

तो इतना स्मरण रहे। और नियम के संबंध में यह खतरा है कि नियम का लोग अक्सर गलत अर्थ ले लेते हैं।

मैंने सुना है, एक डाक्टर ने मुल्ला नसरुद्दीन को सलाह दी कि वह प्रतिदिन पांच किलोमीटर दौड़ा करे तो उसका स्वास्थ्य सुधर जाएगा। और फिर घरेलू जीवन में भी सुख-शांति संभव होगी। हफ्ते भर बाद मुल्ला ने डाक्टर को फोन किया और बताया कि वह उनके परामर्श पर ठीक-ठीक चल रहा है। डाक्टर ने पूछा, और घरेलू जीवन कैसा बीत रहा है? मुल्ला ने कहा पता नहीं। क्योंकि मैं तो अब घर से पैंतीस किलोमीटर दूर पहुंच गया हूं।

नियम को समझकर चलना जरूरी है। और नियम से नासमझी पैदा कर लेना बहुत आसान है, क्योंकि नासमझ हम हैं। हममें नियम जाते से ही तिरछा हो जाता है। और ऐसी भी संभावना है कि हम नियम का पालन भी कर लें और जो हम कर रहे थे उसमें कोई फर्क न पड़े।

ऐसा भी हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन को उसके डाक्टर ने एक बार कहा कि अब यह शराब पीने की आदत सीमा के बाहर जा रही है। इसमें कुछ सुधार करना जरूरी है। तो तुम ऐसा करो कि योगासन शुरू करो। तो उसने डाक्टर की सलाह मानकर योगासनों का अभ्यास आरंभ कर दिया और सालभर में वह योग में दक्ष हो गया। घंटों शीर्षासन में खड़ा रहता। एक दिन मुल्ला की पत्नी से डाक्टर ने पूछा, योग के कारण नसरुद्दीन में कोई परिवर्तन आया? पत्नी ने कहा, हां एक दृष्टि से तो काफी परिवर्तन आया है। अब वे सिर के बल खड़े होकर भी मजे में पूरी बोतल पी सकते हैं।

होगा! क्योंकि हम जैसे हैं, जैसे ही कोई नियम हमें मिला, हम उसे अपना रंगरूप दे देते हैं। वह नियम हमारे जैसा हो जाता है। बजाय इसके कि नियम हमें बदले, हम नियम को बदल लेते हैं।

इसलिए तो दुनिया में इतने वकील हैं। उनका कुल काम इतना है कि कानून जब बने तो वे अपराध के हिसाब से कानून को बदलने की चेष्टा करें। वे अपराध के रंग में कानून को रंगें। तो जितने कानून बढ़ते जाते हैं उतने वकील बढ़ते जाते हैं। क्योंकि अपराधी अपराध छोड़ने को राजी नहीं है। वह कहता है, कानून से तरकीब निकालो। वह कानून का ही उपयोग अपराध करने के लिए कर लेता है।

और ऐसा ही वकील तुम्हारे भीतर भी है जिसको तुम बुद्धि कहो, तर्क कहो, मन कहो। तो नियम को समझना और मन की चालबाजी से सावधान रहना।

महावीर कहते हैं, “साधक को पग-पग पर दोषों की आशंका (संभावना) को ध्यान में रखकर चलना चाहिए।’

चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पासं इह मन्नमाणो।

छोटे-छोटे दोष को भी समझपूर्वक देखना चाहिए। ऐसा न कहे कि छोटा-सा दोष है, क्या हर्ज है, चल जाएगा। क्योंकि छोटा बड़ा हो जाता है। छोटा बीज बड़ा वृक्ष हो जाता है। छोटा कांटा आखिर में नासूर बन जाता है।

छोटे दोष को छोटा न समझे। सावधान रहे।

लाभंतरे जीविय वूहइत्ता…

और जीवन का एक ही अर्थ है कि इससे महाजीवन का लाभ होता रहे।

पच्चा परिण्णाय मलावंधसी…

और अगर वह लाभ बंद हो जाए तो मौत को स्वेच्छा से स्वीकार करे। लेकिन–

तस्स ण कप्पदि भत्त-पइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो।

सो मरणं पत्थितो, होदि हु सामण्णणिव्विण्णो।।

लेकिन यदि अभी जीवन में कुछ भी संभावना शक्ति की थी, अगर जीवन में अभी एक बूंद भी रस बचा था तो उस रस को भी ध्यान में परिवर्तित करना है। उस रस को भी परमात्मा की खोज में लगाना है।

तो जल्दबाजी न करे। क्योंकि बहुत लोग भगोड़े हैं। अगर उन्हें मरने का मौका मिल जाए तो वे कोई छोटे-से कारण से ही मर जाएंगे। कोई छोटी-मोटी बात, और वे मर जाएंगे। अहंकार को लगी कोई छोटी-मोटी चोट और वे मर जाएंगे।

कल मैं पढ़ता था कि एक सर्कस के शेरों को सिखानेवाले रिंग मास्टर ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि एक शेर ने उसकी आज्ञा न मानी। अब शेर…! आदमी भी होता तो भी ठीक था! उसने आज्ञा न मानी इससे उनका बड़ा भारी, आत्मसम्मान की हानि हो गई। उन्होंने आत्महत्या कर ली। भद्द हो गई होगी क्योंकि सर्कस का मामला! वे चिल्लाते रहे होंगे, आवाज देते रहे होंगे। शेर तो शेर! वह बैठा रहा होगा कि अच्छा चलो, देते रहो आवाज।

मगर यह अहंकार को लगी चोट कोई आत्महत्या करने लायक नहीं थी। हंसकार टाल जाना था। आदमी बड़ी छोटी-छोटी बातों पर मरने को तैयार हो जाता है, यह खयाल रखना। तुमने भी कई दफे सोचा होगा कि मर ही जाओ। परीक्षा में फेल हो गए कि इंटरव्यू में न आए, मर ही जाओ।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने जीवन में कम से कम दस बार आत्महत्या का विचार न किया हो। छोटी-छोटी बात–पति से झगड़ा हो गया कि बस पत्नी सोचने लगती है, कि क्या करें? केरोसिन डाल लें, कि गैस के चूल्हे में आग लगा लें, कि बिल्डिंग से कूद पड़ें, कि ट्रेन के नीचे सो जाएं? जरा-जरा सी बात!

मैं एक घर में रहता था। और मेरे पड़ोस में ठीक दीवाल से लगे हुए एक बंगाली प्रोफेसर रहते थे। अभी नया-नया मैं आया था और दीवाल बड़ी पतली थी, जैसी आजकल के मकानों की होती है। तो उनकी सब बातें मुझे सुनाई पड़ती थीं–न सुनना चाहूं तो भी। पहले दिन…दूसरे दिन मैं थोड़ा हैरान हुआ। क्योंकि वह दूसरे दिन उन्होंने एकदम धमकी दी कि मैं जाकर मर जाऊंगा। तो मेरी कोई ज्यादा पहचान भी नहीं थी। बस थोड़ा परिचय हुआ था। अब वे तो निकल भी गए घर से अपना छाता उठाकर। बंगाली! बिना छाते के तो मरने भी नहीं जा सकते। मैं थोड़ा चिंतित हुआ। मैं गया। मैंने उनकी पत्नी से कहा कि मामला क्या है? मेरा कोई इतना परिचय नहीं है, लेकिन कोई मरने जा रहा हो तो मुझे कुछ करना चाहिए। उसने कहा, आप बिलकुल बेफिकर रहो। वे अपने आप आ जाएंगे। पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं लगेगा। मैंने कहा, गए कहां हैं। उन्होंने कहा, वे कहीं जाते-वाते नहीं। यह तो जिंदगी हो गई मुझे। ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब वे मरने न जाते हों।

जरा-जरा सी बात पर आदमी मरने को तत्पर है।

इसलिए महावीर की सावधानी ठीक है। कि तुम ऐसा मत सोच लेना कि मरना कोई धर्म है। मरना तभी सार्थक हो सकता है, जब जीवन का कोई और उपयोग न रहा। जितने दूर तक यह नाव ले जा सकती थी, ले गई। अब तैरना पड़ेगा। अब यह नाव नहीं काम आती–तो!

अन्यथा सावधानीपूर्वक जीना, सावचेत जीना। छोटी-छोटी भूल को छोटी-छोटी मत मानना। कोई भूल छोटी नहीं होती। भूल छोटी होती ही नहीं। क्योंकि एक दफा छोटी भूल समझकर जो हृदय में पड़ जाती है, वह कल बड़ी हो जाती है, फैल जाती है, विस्तीर्ण हो जाती है। सभी लोग छोटे-छोटे दोष मानकर दोष करते हैं और एक दिन उनमें ग्रसित हो जाते हैं और निकलना मुश्किल हो जाता है।

किसी मित्र ने कहा कि अरे! पी भी लो। जरा-सी शराब थी, तुमने सोचा इतनी शराब से क्या बननेवाला, बिगड़नेवाला? साढ़े छह फीट लंबा शरीर है, तीन सौ पौंड वजन है, क्या बिगड़नेवाला है? तुम पी गए। मगर वह छोटा-सा दोष धीरे-धीरे पकड़ेगा। बुराई बड़े आहिस्ता आती है। बुराई जब आती है तो जूते उतारकर आती है। आवाज ही नहीं होने देती। पैरों की भी आवाज नहीं होती।

इसलिए महावीर कहते हैं, बहुत सावधान रहना, बहुत सावचेत रहना। जीवन से एक सत्य साधना है–जीवन साधन है, साध्य नहीं–और वह सत्य है, महाजीवन। उस महाजीवन को साधने के लिए मृत्यु को सुमरण बनाना है, पंडित की मौत मरनी है, जाननेवाले की मौत मरनी है। और अज्ञानी की मौत तो हम सब बहुत बार मर चुके। उससे कुछ लाभ नहीं हुआ। उससे हम मरे ही नहीं, फिर-फिर लौट आए।

किससे महरूमिए-किस्मत की शिकायत कीजे

हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ

–अब किससे शिकायत करो भाग्य की?

किससे महरूमिए-किस्मत की शिकायत कीजे

हमने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ

कितनी बार तो हम मर भी चुके, फिर भी मरे नहीं। और कितनी बार हमने चाहा कि मर जाएं, वह भी नहीं हुआ।

तुम्हारी चाह से मौत नहीं घटेगी। महावीर कहते हैं, जिसको मौत का अनुभव करना हो, उसे अचाह साधनी पड़ती है–निष्काम चाह, वासनाशून्यता। क्योंकि सब वासना जीवन से जुड़ी है। जब तक वासना है तब तक तुम जीवन को पकड़े हो। जैसे ही वासना छूटती है, तुम कुछ भी नहीं मांगते, तुम मरने को तैयार हो गए। पंडितमरण की तैयारी हो गई।

और जो ज्ञानी की तरह मरता है, मृत्यु एक बड़े अभिनव, सुंदर रूप में प्रगट होती है। मृत्यु परमात्मा की तरह आती है।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–28

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रसमयता और एकाग्रता— प्रवचन—अट्ठाइसवां

प्रश्‍नसार:

1—कुछ दिन ध्‍यान में जी लगता है, कुछ दिन भजन में; लेकिन एकाग्रता कहीं नहीं होती।

2—आकस्‍मिक रूप से भगवान से मिलना हुआ और संन्‍यास भी ले लिया, क्‍या यह ध्‍यान कायम रहेगा?

3—भगवान श्री कृष्‍ण के सिर र्दद के लिए ज्ञानियों ने पैर की धूल देने से इंकार कर दिया लेकिन गोपियों ने दे दी—इसका रहस्‍य क्‍या है?

4—क्‍या ध्‍यान की मृत्‍यु और प्रेम की मृत्‍यु भिन्‍न होती है?

पहला प्रश्न:

कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, फिर कुछ दिन पूजा और भजन चलता है, लेकिन एकाग्रता कहीं भी नहीं होती। अपनी इस स्थिति से परेशान हूं। कृपा कर मुझे साधें।

मन का स्वभाव ऐसा। न यहां लगता, न वहां लगता। मन का स्वभाव है द्वंद्व। जो करोगे वहीं से उचटा हुआ लगेगा। जहां हो वहां से भागा हुआ रहेगा। जहां नहीं हो वहां का रस जन्मेगा। जो मिला, व्यर्थ हो जाता है। जो नहीं मिला, वे दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं।

मन के इस स्वभाव को समझो। न तो ध्यान काम आता, न भजन काम आता; मन के स्वभाव को समझना काम आता है।

मन की यह प्रक्रिया है। पद मिल जाए तो असंतुष्ट, पद न मिले तो असंतुष्ट। पद न मिले तो पीड़ा, पद मिल जाए तो व्यर्थता का बोध। गरीब रोता, अमीर नहीं है। अमीर रोता कि अमीर हो गया, अब क्या करूं?

जो भी तुम्हारे पास है, वह पास होने के कारण ही दो कौड़ी का हो जाता है। और जो तुमसे बहुत दूर है, दूर होने के कारण ही उसका बुलावा मालूम होता है।

मन के इस आधारभूत जाल को समझो। इसे पहचानो। यह ध्यान और भजन का ही सवाल नहीं है। भोजन करो तो मन में उपवास का रस उमगता है कि पता नहीं, उपवास करनेवाले न मालूम किस गहन शांति और आनंद को उपलब्ध हो रहे हों। उपवास करो तो भोजन की याद आती है।

जीवन के प्रत्येक पल तुम ऐसा ही पाओगे।

बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी

अब कहां ले जाके बैठें ऐसे दीवाने को हम

बगीचे में बिठाओ तो लगता नहीं। मरुस्थल में ले जाओ तो घबड़ाता है।

बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी

अब कहां ले जाके बैठें ऐसे दीवाने को हम

मन एक तरह का पागलपन है, एक तरह की विक्षिप्तता है। मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन के पार होना ही स्वस्थ होना है। तो पहली तो बात, मन के इस स्वभाव को समझने की कोशिश करो। अक्सर लोग समझने की कम कोशिश करते हैं, छुटकारा पाने की ज्यादा कोशिश करते हैं। और छुटकारा बिना समझे कभी नहीं है। तो तुम्हारी आकांक्षा यह होती है, कैसे झंझट मिटे। लेकिन बिना समझे झंझट मिटी ही नहीं। नासमझी में झंझट है।

तो तुम चाहते हो, कैसे इस मन से छुटकारा हो? लेकिन पहले इस पहचानो तो। इससे दोस्ती तो साधो। इससे परिचय तो बनाओ। इसके कोने-कांतर तो खोजो। दीया तो जलाओ कि इसके सारे स्वभाव को तुम ठीक से देख लो। उस देखने में, उस दर्शन में, उस साक्षीभाव में ही तुम पाओगे विजय की यात्रा पूरी होने लगी।

जिस दिन कोई मन को पूरा समझ लेता है, उसी दिन मन विसर्जित हो जाता है। जैसे सूरज के ऊगने पर ओसकण तिरोहित हो जाते हैं, ऐसे ही बोध के जगने पर मन तिरोहित हो जाता है। जैसे दीये के जलने पर अंधेरा नहीं पाया जाता, ऐसे समझ के, प्रज्ञा के दीये के जलने पर मन नहीं पाया जाता।

तो मन से लड़ो मत–पहली बात। लड़ने का अर्थ ही नासमझी है। लड़कर कभी कोई जीता? तुमने यही सुना है कि जो लड़े वे जीते। मैं तुमसे कहता हूं, लड़कर कोई कभी जीता? समझकर जीत होती है। लड़नेवाले तो नासमझ हैं। लड़ोगे किससे! छायाओं से लड़ रहे हो।

जैसे कोई अपनी छाया से लड़ने लगे, खींच ले तलवार, करने लगे हमला। परिणाम क्या होगा? छाया कटेगी? परिणाम यही होगा, खुद ही थकेगा। और डर है कि छाया से लड़ने में कहीं अपने हाथ-पैर न काट ले। क्रोध में, उबाल में, पागल न हो उठे। कहीं ऐसी घड़ी न आ जाए कि विक्षिप्तता में अपने को ही काट ले।

अक्सर मन के साथ लड़नेवाले ऐसी ही स्थिति में पड़ जाते हैं। मन तुम्हारा है; तुम्हारी छाया। है नहीं, बस छाया जैसा है।

रोशनी बढ़ाओ।

थोड़े जागकर मन को समझो।

जब ध्यान करो और मन कहे, भजन में, तो जरा जागकर देखो, एक तरफ खड़े होकर देखो कि मन क्या कह रहा है। जब भजन करो और मन कहे, ध्यान लगाओ, तब जागकर देखो कि मन क्या कह रहा है। इसकी चालबाजियां पहचानो। इसकी कूटनीति पहचानो। मन बड़ा राजनीतिज्ञ है। यह तुम्हें भटकाए रहता है। यह तुम्हें चलाए रहता है।

और तुमने ध्यान करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। और तुमने भजन करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। तो अब यह तो समझो कि मन कहीं लगेगा ही नहीं। मन का लगना धर्म नहीं। न लगना मन की आदत है। कहीं लगता नहीं। जो नहीं लगता वही मन है।

तो अब जब मन तुमसे कहे कि ध्यान करो, क्या भजन में पड़े हो? तो जागकर देखना कि यह फिर वही मन, जो कहीं नहीं लगता, भजन में भी नहीं लगा था; तब इसने कहा था, ध्यान करो। अब कहता है भजन करो। पहले कहा, संसार में उलझे रहो। फिर कहा, संन्यास ले लो। अब संन्यास में भी नहीं लगता; कहता है संसार में लौट चलो।

इस मन को जरा देखना। कुछ करने की बात नहीं है, सिर्फ शांत भाव से देखना। तुम्हारे देखने में ही तुम पाओगे मन गिरने लगा। तुम पर उसकी पकड़ जाने लगी। तुम पर पकड़ छूट जाए। तुम थोड़े शिथिल हो जाओ मन के पास से। तुम थोड़े बाहर सरकने लगो।

न तो ध्यान से घटती है बात, न भजन से; घटती है समझ से। इसलिए समस्त धर्मों का सार है जागरूकता।

प्रश्नकर्ता पूछता है, एकाग्रता नहीं बनती। एकाग्रता की खोज ही गलत है। जागरूकता खोजो। एकाग्रता की खोज तो फिर मन के ही सिक्कों में फंसे। यह मन ही है, जो कहता है एकाग्र बनो। यह तुम्हें असंभव चीजें करने को देता है। फिर वे नहीं होतीं तो तुम हारे-थके परेशान हो जाते हो।

एकाग्रता की कोई जरूरत ही नहीं है। थोड़ा जीवन की गणित की व्यवस्था के सूत्र समझने चाहिए।

पहला सूत्र: जब भी मन नहीं होता, तब तुम एकाग्र होते हो।

कभी अपने काम में पूरे संलग्न। चाहे बुहारी लगा रहे हो घर में, लेकिन पूरे संलग्न। अचानक तुम पाते हो, मन नहीं है। संगीत सुनते संलग्न, मन नहीं है। चित्र बनाते…किसी भी घड़ी जब तुम पाते हो कि मन नहीं है, तुम ही हो, तो एकाग्रता अपने आप घटती है।

एकाग्रता घटाई नहीं जा सकती। एकाग्रता मन की तन्मयता का परिणाम है। जब मन डूबा होता है तब तुम एकाग्र होते हो। जब मन उभर आता है तब तुम अनेकाग्र हो जाते हो। मन तुम्हें अनेक में बांट देता है; खंड-खंड कर देता है।

अब तुम चेष्टा कर रहे हो एकाग्र होने की। एकाग्र होने की चेष्टा और झंझट लाएगी क्योंकि करोगे किससे चेष्टा तुम एकाग्र होने की? मन से ही करोगे। सब चेष्टा मात्र मन से होती है।

अब तुम एक ऐसे काम में लगे हो, जैसे कोई आदमी अपने जूते के बंद खींच-खींचकर खुद को उठाने की कोशिश करे। खुद को कैसे उठाओगे जूते के बंद खींचकर? थोड़े-बहुत उछल-कूद लो, फिर बार-बार जमीन पर पड़ जाओगे। यह असंभव चेष्टा है।

मन कभी एकाग्र नहीं होता। जब एकाग्रता होती है तो मन नहीं होता। तो तुम मन के द्वारा एकाग्र होने की चेष्टा ही छोड़ो। तुम तो छोटे-छोटे कामों में रस लो। रस का परिणाम है एकाग्रता। बुहारी लगाओ तो ऐसे लगाओ, जैसे भगवान के मंदिर में लगा रहे हो। चाहे घर तुम्हारा ही हो; है तो भगवान का ही मंदिर।

भोजन करो तो ऐसे ही करो जैसे भगवान को ही भोग लगा रहे हो। भोजन तो तुम ही कर रहे हो लेकिन अंततः तो भगवान को ही लग रहा है भोग। वही तो तुम्हारे भीतर आकर भूख बना। उसी ने तो तुम्हारी भूख जगाई। वही तो तुम्हारे भीतर भूखा है। उसके लिए ही तो तुम भोजन दे रहे हो। रस जगाओ। एकाग्रता की बात मत उठाओ। रस का सहज परिणाम एकाग्रता है। जो करते हो उसे रसपूर्ण ढंग से करो। उसमें डुबकी लो। छोटे और बड़े काम नहीं हैं दुनिया में। जिस काम में तुम डुबकी ले लो, वही बड़ा हो जाता है। बुहारी लगाने में डूब जाओ, वही बड़ा हो जाता है।

कबीर कहते हैं: “खाऊं-पिऊं सो सेवा, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा।’ मेरा उठना बैठना ही उस परमात्मा की परिक्रमा है। और जो मैं खाता-पीता हूं, यही उसकी सेवा है। रस!

मेरे देखे अधिक लोगों के जीवन का कष्ट यही है कि वे जीवन में कहीं भी रस नहीं ले रहे हैं। जो भी कर रहे हैं, बेमन से कर रहे हैं। कर रहे हैं क्योंकि करना है। खींच रहे हैं। जैसे बैलगाड़ी में जुते बैल; ऐसा जीवन को खींच रहे हैं। नाचते हुए, उमंग से भरे हुए नहीं।

अगर तुम कोई ऐसे काम में लगे हो, जिसमें तुम रस ले ही नहीं सकते तो बदलो वह काम। कोई काम जीवन से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। अक्सर ऐसा हुआ है, हो रहा है कि लोग ऐसे काम में उलझे हैं जो उनमें रस नहीं जगाता। किसी को कवि होना था, वह जूते बेच रहा है, बाटा की दुकान पर बैठा है। और जिसको बाटा की दुकान पर बैठना था, वह कविता कर रहा है। तो उसकी कविता में जूते की पालिश की गंध आती। आएगी ही।

लोग वहां हैं, जहां उन्हें नहीं होना था। और यह विकृति के कारण है। क्योंकि तुमने कभी अपने सहज भाव को तो खोजा नहीं। किसी के पिता ने कहा कि दुकान करो। इसमें ज्यादा लाभ है। किसी के पिता ने कहा, डाक्टर बन जाओ। किसी की मां को खयाल था, बेटा इंजीनियर बने। परिवार को धुन थी कि बेटा नेता बने।

तो सब धक्का दे रहे हैं एक-दूसरे को कि यह बन जाओ, वह बन जाओ। कोई यह नहीं पूछता कि यह बेटा क्या बनने को पैदा हुआ है? इससे भी तो पूछो। थोड़े इसके हृदय को भी तो टटोलो। तो फिर लोग गलत जगहों पर पहुंच जाते हैं।

एक बहुत बड़ा सर्जन, जिसकी सारी जगत में ख्याति थी, जब साठ वर्ष का हुआ और उसकी साठवीं वर्षगांठ मनाई गई तो सारी दुनिया से उसके मित्र इकट्ठे हुए, उसके मरीज इकट्ठे हुए और उन्होंने उसका बड़ा स्वागत किया। लेकिन वह बड़ा उदास था। उसके स्वागत में एक नृत्य का आयोजन किया गया था। तो जब लोग नृत्य करने लगे और वह सर्जन देखता रहा तो उसकी आंख से आंसू टपकने लगे।

उसके पास बैठे उसके मित्र ने पूछा, क्या मामला है? हम सब तुम्हारी वर्षगांठ पर इकट्ठे हुए प्रसन्नता से। यह नृत्य तुम्हारे स्वागत में होता है, तुम रोते क्यों हो? तुम्हारी आंख में आंसू क्यों हैं? तुम किस पीड़ा से भीग गए हो?

उसने आंसू पोंछ लिए। उसने कहा कि नहीं, वह कोई बात नहीं है। पर मित्र ने जिद्द की। कहा कि क्या तुम्हें कोई जीवन में विफलता मिली? तुम जैसा सफल आदमी नहीं है। तुमने जो आपरेशन किया, सफल हुआ। तुम्हारे जैसा कुशल सर्जन दुनिया में नहीं। फिर क्या?

लेकिन उसने कहा, मैं कभी सर्जन होना ही नहीं चाहता था। मेरा दिल तो एक नर्तक होने का था। आज नाच को देखकर मैं रो उठा। मैं छोटा-मोटा नर्तक होता, कोई मुझे न जानता तो भी मेरी तृप्ति होती। आज मैं दुनिया का सबसे बड़ा सर्जन हूं, लेकिन मेरी कोई तृप्ति नहीं है। मेरी नियति ही मुझे न मिली। तो आज भी जब मैं किसी को नाचते देखता हूं तो बस, मुझे याद हो आती है।

तुम अपनी जिंदगी को गौर से देखो। पहली तो बात–जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करो। हो सकता है तुमने रस का अभ्यास नहीं किया। तुम्हें किसी ने सिखाया ही नहीं कि रस का अभ्यास कैसे करना।

रस के अभ्यास का पहला सिद्धांत है कि जो भी कर रहे हो, इसका परिणाम मूल्यवान नहीं है। तुम्हें यही सिखाया गया है कि परिणाम मूल्यवान है। तुम करते हो, इससे दस रुपये मिलेंगे कि हजार रुपये मिलेंगे कि लाख रुपये मिलेंगे। लाख रुपये में मूल्य है, परिणाम में मूल्य है।

रस का सिद्धांत है, जो तुम कर रहे हो, वह अपने आप में मूल्य है। अंतर्निहित है मूल्य। हजार मिलेंगे, दस हजार मिलेंगे, वह बात गौण है। करने में जो डुबकी लगेगी वही बात महत्वपूर्ण है। अगर डूब गए तो मिल गए करोड़ों। अगर न डूबे और करोड़ों भी मिले तो कुछ भी न मिला। वह समय व्यर्थ गया, जो बिना डूबे गया। वे दिन व्यर्थ ही बीते, जो बिना डूबे बीते। जब रसधार न बही तो तुम जीए न जीए बराबर। रस-विमुग्धता में ही जीवन है। तो पहली तो बात जो कर रहे हो…।

तुमसे नहीं कहता कि जल्दी बदलने में लग जाना। क्योंकि हो सकता है, तुम अपना काम भी बदल लो और रस न आए। क्योंकि रस आने की तुम्हारी आदत ही न रही हो। तुमने रस बनाने की बात ही न बनाई हो।

तो पहले तो जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करना। सौ में पचास मौके तो ऐसे हैं कि तुम उसी में रस ले पाओगे। रस लेते ही एकाग्रता हो जाएगी।

देखा, स्कूल में छोटे बच्चे पढ़ते हैं; बाहर चिड़िया गुनगुनाने लगी गीत, बच्चा एकटक होकर सुनने लगता है। शिक्षक डंडा पीटता है टेबल पर, कि यहां ध्यान दो। एकाग्रता करो। एकाग्रता बच्चा कर ही रहा है। मगर शिक्षक पर नहीं कर रहा, यह बात सच है। यह ब्लैकबोर्ड पर नहीं कर रहा। ब्लैकबोर्ड पर लिखे अक्षरों पर नहीं कर रहा। लड़का तो एकाग्रता कर ही रहा है। एकाग्रता तो हो ही रही है। वह जो चिड़िया गीत गा रही है वह उसे सुन रहा है। शिक्षक कहता है, एकाग्रता करो। मन को ऐसा विचलित मत करो।

बात बिलकुल गलत कह रहा है शिक्षक। शिक्षक उसके मन को विचलित करने की कोशिश कर रहा है। वह एकाग्र है। अगर कोई बाधा न दे, तो यह सारा संसार थोड़ी देर के लिए मिट जाएगा। वह चिड़िया की गुनगुनाहट होगी, उसका गीत होगा, इस बच्चे की भावदशा होगी। और यह एक बात सीख लेगा–रस की।

रस चूंकि उसे चिड़िया के गीत में आ रहा है, इसलिए एकाग्र हो गया है। उसी कक्षा में ऐसे बच्चे भी होंगे, जिन्हें रस गणित के सवाल में आ रहा है। वे वहां एकाग्र हो गए होंगे।

हमें लोगों को एकाग्रता नहीं सिखानी चाहिए। उनका रस देखकर उन्हें दिशा देनी चाहिए। जो बच्चा गणित को सुनकर एकाग्र हो गया है, बाहर भौंकते कुत्ते, लड़ती बिल्लियां, गीत गाती चिड़ियां, रास्ते पर बैठे मदारी की बीन–कुछ नहीं सुनाई पड़ती। यह बच्चा आइंस्टीन होने को पैदा हुआ है। इसकी एकाग्रता ही खबर देती है।

अब इस बच्चे से तुम कहो, कि चिड़ियां गीत गा रही हैं, उन पर एकाग्रता करो, यह न कर पाएगा। यह संभव नहीं होगा।

हमें देखना चाहिए कि कहां हमारी एकाग्रता है। वहीं हमारा जीवन है। मगर आज अचानक जीवन बदलने का तुम्हारे हाथ में उपाय नहीं। आज तो पहचानने का भी उपाय नहीं कि कहां तुम्हारी एकाग्रता होती है। तुम तो भूल ही गए। तुम्हारे जीवन की सारी व्यवस्था उल्टी-सीधी हो गई है। दूसरों ने तुम्हें चला दिया। दूसरों ने तुम्हें मार्ग दे दिया। दूसरों ने तुम्हें दिशा और आदर्श दे दिए। तुम्हें पूरी तरह भरमा दिया है।

पहले तो जो काम कर रहे हो उसमें रस लेने की आकांक्षा जगाओ। जो काम कर रहे हो उसे इतने भाव से करो, इतनी मगनता से करो कि उससे अतिरिक्त ऊर्जा बचे ही नहीं विघ्न-बाधा डालने को।

एकाग्रता का और क्या अर्थ होता है? एकाग्रता कोई जबर्दस्ती थोड़े ही है। एकाग्रता बड़ी स्वाभाविक घटना है।

अब तुम यहां मुझे सुन रहे हो। जिनको मेरी बात में रस आ रहा है, वे एकाग्र हैं। एकाग्रता कर थोड़े ही रहे हो, एकाग्रता हो रही है। इसे समझने की कोशिश करो। तुम्हारे करने की थोड़े ही बात है। तुम थोड़े ही बैठे हो सब मांस-पेशियों को खींचकर, आंखें मुझ पर गड़ाकर और चेष्टा कर रहे हो कि एकाग्रता! ऐसे एकाग्रता करोगे तो तुम सुन ही न पाओगे, जो मैं कह रहा हूं। एकाग्रता सहज है। तुम्हें रस आ रहा है। उसी रस के कारण तुम चले आए हो। उसी रस के कारण तुम रोज चलते आए हो। वही रस तुम्हें लाता रहा है।

रस है तो एकाग्रता है।

तो तुम रस को जगाओ, एकाग्रता की बात ही छोड़ दो। अगर रस जगे ही न तो फिर समझो, फिर हिम्मत करो, साहस करो। बदलो उस व्यवस्था को, जिसमें रस नहीं जगता। हो सकता है वह व्यवस्था तुम्हारे लिए नहीं है।

तो दरिद्र हो जाना बेहतर है समृद्ध होने की बजाय। सड़क का भिखारी हो जाना बेहतर है सम्राट होने की बजाय–अगर रस आ जाए। क्योंकि रस ही सम्राट बनाता है।

तो कभी-कभी तुम किसी भिखारी के चेहरे पर ऐसी आभा देखोगे, जो सम्राटों के चेहरों पर नहीं दिखती। रसविमुग्ध है वह। अपने काम में लीन है।

रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक भिखारी आया, पांच बजे सुबह उसका दरवाजा खटखटाने लगा। वह बड़ा नाखुश हुआ। पांच बजे सुबह नींद से भरे उसको उठाया। वह बड़ा झल्लाता हुआ बाहर आया। ऐसे वह देना पसंद करता था। दान उसका रस था। लेकिन यह कोई वक्त है?

तो उसने भिखारी को कहा कि सुनो जी! यह कोई समय है? भिखारी ने कहा कि आप भी सुनो। आप बैंकिंग का धंधा करते हैं, मैं कोई सलाह तो देता नहीं। यह हमारा धंधा है। इसमें हम सलाह किसी की मानते नहीं।

रथचाइल्ड ने प्रकाश जलाया कि इस आदमी को देखना चाहिए, जो दुनिया के बड़े से बड़े करोड़पति को कह सकता है कि सुनो, तुम बैंकिंग का धंधा करते हो, हम तुम्हें कभी सलाह देते नहीं। हमारी सलाह का कोई मतलब भी नहीं, क्योंकि हमें कोई अनुभव भी नहीं। तुम हमें सलाह मत दो। हम जन्मजात भिखारी हैं।

उस आदमी के चेहरे को देखा, वह बड़ा प्रसन्न आदमी था। रथचाइल्ड ने लिखा, मैं मंत्रमुग्ध हो गया। यह हिम्मत भिखारी की नहीं, सम्राट की होती है। रथचाइल्ड को ऐसा कहना, जिसके पास भीख मांगने आए कि चुप! सलाह मत देना। मेरे धंधे को मैं भलीभांति जानता हूं।

रथचाइल्ड ने उसे खूब दिया; और कहा, मैं खुश हुआ इस बात से कि कोई आदमी अपने भिखमंगेपन की भी इतनी प्रतिष्ठा रखता है।

कभी तुम्हें राह का भिखारी भी प्रसन्न मिल सकता है। प्रसन्नता का कोई संबंध इससे नहीं कि तुम्हारे पास क्या है। जो भी तुम्हारे पास है, उसमें अगर रस है तो प्रसन्नता है। तुम अगर हाथ के भिक्षापात्र को भी गीत गुनगुनाते हुए ढो रहे हो तो आनंद है। और तुम्हारे पीछे स्वर्णरथ चल रहे हैं और तुम मुर्दा, बुझे, तो कुछ अर्थ नहीं है।

एकाग्रता मत पूछो। यद्यपि तुम्हें यही सिखाया गया है स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु भी तुम्हें यही सिखाते हैं कि–एकाग्रता। मैं तुमसे कहता हूं, रसमग्नता। वह शब्द हटा दो। क्योंकि वह शब्द सीधा काम का ही नहीं है।

एकाग्रता जरूर आती है, मगर परिणाम की तरह आती है। एकाग्रता साधन नहीं है; जहां रस लोगे वहीं घट आती है। रस के पीछे बंधी चली जाती है। रस की छाया है।

तो तुम कहीं भी रस लो। अगर मंदिर में रस न आता हो, फिक्र छोड़ो। फिर मंदिर में परमात्मा तुम्हारे लिए नहीं घटेगा। जहां रस ही नहीं है, वहां एकाग्रता नहीं होगी। एकाग्रता नहीं होगी, परमात्मा कहां होनेवाला है!

अगर तुम्हें बांसुरी के गीत में रस आता है तो वहीं तुम्हारा परमात्मा तुम्हें मिलेगा। अगर नर्तक की पायलों में तुम्हें रस आता है तो तुम्हारा परमात्मा वहीं नाचेगा।

तुम्हारे परमात्मा की खोज तुम्हारे रस से ही तय होगी। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। किसी शास्त्र ने नहीं कहा कि परमात्मा का स्वभाव एकाग्रता है। सच्चिदानंद! वह रस की बात है। तुम्हें जहां आ जाए रस, जहां आ जाए आनंद, जहां उमंग उठे, जहां तुम खिल उठो। फिर वह कुछ भी हो। चाहे खेल हो, तो प्रार्थना बन गई। और ऐसे तुम बैठे-बैठे प्रार्थना करते रहो, भजन करते रहो, ध्यान करते रहो; रस उमगे नहीं, मेघमल्हार बजे नहीं, हृदय गुनगुनाए नहीं–ऐसे तुम करते चले जाओ जबर्दस्ती, यंत्रवत, करनी चाहिए, कर्तव्यवश, लोग कहते हैं इससे रस मिलेगा इसलिए कर रहे हैं।

नहीं, जहां रस मिलता है वहीं परमात्मा आता है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई अनुशासन नहीं है। क्योंकि अनुशासन कोई भी होगा, पराया होगा, दूसरे का होगा। तुम्हें अपना अनुशासन खोजना पड़ेगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपना मार्ग खोजना पड़ेगा। मैं इशारे देता हूं। उन इशारों से तुम अपना मार्ग समझने की कोशिश करो।

कबीर ज्ञान को भी उपलब्ध हो गए तो भी कपड़ा बुनते रहे। जुलाहापन उन्होंने छोड़ा नहीं। किसी ने पूछा कि अब तो आप बंद करें। कभी सुना नहीं कि कोई बुद्धपुरुष और कपड़े बुनता रहा और जुलाहा बना रहा और बाजार में कपड़े बेचने जाता रहा। अब तो छोड़ो।

लेकिन कहते हैं, कबीर ने कहा, इसी कपड़े के बुनने ने तो मुझे परमात्मा से मिलाया। इसे कैसे छोड़ दूं? यह मेरी प्रार्थना। यह मेरी पूजा। यह मेरी अर्चना।

“झीनी झीनी बीनी रे चदरिया।’

वह जुलाहे का गीत है। कोई और दूसरा तो गा भी नहीं सकता। बुद्ध कैसे गाएंगे? बुद्ध ने कभी चदरिया बीनी नहीं। उन्हें कुछ पता भी नहीं। महावीर कैसे गाएंगे? चदरिया थी, वह भी छोड़ दी! उनसे तो पूछो कैसी छोड़ी रे चदरिया, तो बता सकते हैं।

लेकिन कबीर ने बुन-बुनकर पाया। वे ताने-बाने चादर के बुनते-बुनते उनका ध्यान फला। वहीं रसविमुग्ध हुए। पर कैसे पाया उन्होंने? क्योंकि हमें बुद्ध की बात समझ में आ जाती है कि दूर बोधिवृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे हुए हैं। कि महावीर वनों में, पर्वतों में, एकांत में, बारह वर्ष मौन में खड़े हुए। कबीर…कबीर कपड़ा बुन-बुनकर पा लिए।

रस से बुना होगा। कबीर कहते थे, राम के लिए बुन रहा हूं। सभी ग्राहकों में राम देखते थे। जब अपना कपड़ा बुनकर और काशी के बाजार में बेचने जाते, कोई मिल जाता रास्ते में और कहता, कहां जा रहे हो? तो वे कहते, राम आए होंगे। उनको जरूरत है, कपड़ा बुनकर लाया हूं। बड़ा बढ़िया बुना है। राम को देने जा रहा हूं।

जब कोई ग्राहक उनसे कपड़ा खरीदता तो वे कहते, सम्हालकर रखना राम। बड़ी मेहनत से बुना है। बड़े रस से बुना है। कपड़ा ही नहीं है, पीढ़ी दर पीढ़ी चले ऐसी मजबूती से बुना है। अपने प्राण उंडेले हैं।

तो जिसको ग्राहक में राम दिखाई पड़े, अब उसे किसी बोधिवृक्ष के नीचे जाने की जरूरत न रही। सभी लोग बोधिवृक्ष के नीचे जा भी नहीं सकते। और अच्छा है कि जाते नहीं; नहीं तो बड़ी झंझट खड़ी हो जाए। एकाध बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठता है, चलता है। एकाध महावीर मौन खड़ा हो जाता है, चलता है। लेकिन सभी ऐसे खड़े हो जाएं तो जीवन बड़ा विरस हो जाएगा।

अधिक को तो कबीर जैसा होना पड़ेगा। अधिक को तो गोरा जैसा होना पड़ेगा। गोरा कुम्हार बस घड़े बनाता रहा। और घड़े बनाते-बनाते खुद को भी बना लिया। रैदास जूते सीते-सीते, जूते बनाते-बनाते पहुंच गए।

तो तुम जो कर रहे हो, उसमें रस डालो। उंडेलो रस। वही तुम्हारा भजन, वही तुम्हारा ध्यान।

अगर तुम्हारी सारी चेष्टाएं असफल हो जाएं तो फिर साहस करो। तो फिर तुम गलत जगह हो। तुम कुछ ऐसी जगह बहने की कोशिश कर रहे हो, जो चढ़ाव पर है। तो नदी चढ़ाव पर तो नहीं बहती, ढाल पर ही बह सकती है। रसधार भी ढाल पर ही उतरकर, बहकर मिलता है।

तो फिर बदलो। इसीलिए साहस की जरूरत है। पहले सारी चेष्टा कर लो। और फिर तुम्हें लगे कि नहीं, इस ढंग से मेरे लिए परमात्मा से मिलन नहीं हो सकेगा तो बदलो। उस बदलाहट को मैं संन्यास कहता हूं। बदलने की हिम्मत रखो।

एक आदमी चालीस साल तक लंदन के बाजार में दलाल का काम करता रहा। बड़ा सफल आदमी था। खूब कमाई थी। सब तरह का सुख था। किसी ने कभी सोचा भी न था, एक रात वह घर से नदारद हो गया। पत्नी भी भरोसा न कर सकी, बेटे भी भरोसा न कर सके, मित्र भी भरोसा न कर सके, काम धंधे में जो लोगों से संबंध था वे भी भरोसा न कर सके। क्योंकि न तो वह आदमी कभी किसी और स्त्री के संग में देखा गया था, कि पत्नी सोच भी सके कि वह किसी स्त्री के साथ भाग गया। न उसके कोई धार्मिक रुझान थे कि वह कोई जाकर किसी आश्रम में संन्यासी हो गया होगा। न कोई दुख था कि आत्महत्या कर ली होगी। सब भांति सुखी-संपन्न आदमी था; जिसको हम सुखी-संपन्न कहते हैं, वैसा आदमी था। सब ठीक-ठाक था।

कोई तीन साल बाद उस आदमी का पता चला कि वह पेरिस में चित्रकला सीख रहा है। भिखमंगे की हालत हो गई है। भागे उसके मित्र। उससे कहा, तुमने यह क्या किया? तुम्हारे पास सब था, सब ठीक था। उसने कहा, वही अड़चन थी। सब ठीक था, कहीं कुछ गड़बड़ न थी। लेकिन कोई प्रफुल्लता न थी। कहीं कोई उमंग न थी। सब ठीक चल रहा था और सब ठीक मैं चला रहा था, लेकिन कोई रसधार न बह रही थी।

मेरे जीवन में सदा से आकांक्षा थी कि चित्रकार बनूं। दलाल बनना मैंने कभी चाहा न था। वह सफलता सांयोगिक थी। अब मैं खुश हूं। मेरे पास अब कुछ भी नहीं है। चित्र बनाता हूं, बिक जाते हैं तो भोजन के लायक, कपड़े के लायक इंतजाम कर पाता हूं। अपने पास रहने का छप्पर भी नहीं है। एक मित्र के कमरे में बना हूं, रह रहा हूं। लेकिन वापस मुझे जाना नहीं है। मैं प्रसन्न हूं। और जो मित्र गए थे उन्होंने देखा कि वह आदमी एक अदभुत ऊर्जा से, एक अदभुत आभा से भरा था। सूख गया था शरीर उसका, लेकिन एक रोशनी थी। उसने कहा, मैं किसी से नाराज नहीं हूं। मेरी पत्नी को कहना, मैं किसी से नाराज नहीं हूं। सब ठीक था। मैं बिलकुल, जैसा जिसको हम सुखी-संपन्न कहते हैं, वैसा आदमी था। मेरे बच्चे ठीक हैं, मेरे बेटे ठीक हैं, मेरी पत्नी ठीक है। सब ठीक था।

लेकिन सब ठीक से कहीं कुछ होता? ठीक से कुछ ज्यादा चाहिए। ठीक से क्या होगा? ऐसे तो ठीक-ठीक-ठीक, और मर जाएंगे। सुविधापूर्वक जी लिए और मर गए। नाच तो पैदा ही न हुआ। जीवन में फूल तो खिले ही नहीं।

लौटा नहीं वापस। बड़ा चित्रकार बन गया।

इसे मैं संन्यास कहता हूं। न उसने गैरिक वस्त्र पहने, न वह किसी आश्रम में गया लेकिन इसे मैं संन्यास कहता हूं। संन्यास का अर्थ हुआ, साहस इस बात का कि अगर दिखाई पड़े कि मेरा जीवन मरुस्थल में खोया जा रहा है तो अपनी राह बदल लेने की। चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े।

आदमी कमजोर है। वह सुविधा से जीता है। चाहे कुछ न मिले, लेकिन सुविधा तो है, सुरक्षा तो है। कुछ न मिले!

इसलिए ये सारे प्रश्न उठते हैं कि एकाग्रता कैसे सधे? तो पहले तो कोशिश करना। सध जाए तो शुभ। चेष्टा करने से पचास प्रतिशत मौके हैं, सध जाएगी। न सधे तो हिम्मत करना। देर मत लगाना, क्योंकि जिंदगी रोज हाथ से सरकी जाती है। जिंदगी उन्हीं की है, जो हिम्मत से जिंदगी को बदलने के लिए तैयार होते हैं। नहीं तो जिंदगी बह जाती है। चिकने घड़े के ऊपर जैसे वर्षा का जल बह जाता है, कुछ भरता-करता नहीं। या उल्टे घड़े पर जैसे वर्षा गिरती रहती है–टप-टप। बहुत आवाज, शोरगुल मचता है लेकिन घड़ा खाली का खाली रहता है। उल्टा रखा है।

तो जरा गौर से देखना। तुम्हारा घड़ा अगर भरता न हो तो कहीं उल्टा तो नहीं रखा है?

तो न तो मौलिक सवाल ध्यान का है, न भजन का है; मौलिक सवाल समझ का है। मन के स्वभाव को समझो।

एकाग्रता की बात ही मत उठाओ, रसमयता की बात उठाओ। रसमयता के पीछे-पीछे तुम पाओगो, एकाग्रता घूंघर बजाती हुई चली आती है।

दूसरा प्रश्न:

बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ यहां आ गई। इरादा था कि यहां से दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया। और अब ऐसा लगने लगा कि जैसा पहले कभी नहीं लगा था। जिस किनारे पर अब तक खड़ी थी वह किनारा ओझल हो गया है आंख से; और अब तो आप ही मेरे कृष्ण बन गए हैं, जिनकी मैं आराधना करती थी। और यह विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान मिला यहां, वह कायम रहेगा। और पुकारने पर आप सदा आते रहेंगे।

“मेरे तो रजनीश ही दूसरो न कोई।’

पूछा है त्रिवेणी ने। नई-नई महिला, नया-नया उसका आना हुआ है। लेकिन जैसे बहुत दिन का प्यासा जल के पास आ जाए, दिल खोलकर पी ले, ऐसा उसने पीया है।

तो कभी-कभी ऐसा होता है, जो मुझे बहुत सुनते रहे, वे खाली हाथ रह जाते हैं। और ऐसा भी होता है, कभी-कभी कोई नया व्यक्ति एकदम भरपूर हो उठता है। प्यास पर निर्भर है।

त्रिवेणी कोई पढ़ी-लिखी महिला नहीं है, ग्रामीण है; गैर-पढ़ी लिखी है। पर हृदय उसका बड़ा पढ़ा-लिखा मालूम होता है–”ढाई आखर प्रेम के।’ बुद्धि का कोई शिक्षण नहीं हुआ है लेकिन हृदय जीवंत है।

तो घटना बड़ी सरलता से घट गई है। पति-पत्नी दोनों यहां हैं। लक्ष्मी मुझे कहती थी कि दोनों दिनभर रसविमुग्ध बैठे रहते हैं। जाते ही नहीं आश्रम से। खोए-खोए! जैसे कुछ मिल गया है–कोई खजाना। भरोसा भी नहीं हो रहा है कि मिल गया है। इतने अचानक मिला है। विश्वास भी नहीं आता कि मिल गया है। हटते भी नहीं। कहीं जाते भी नहीं। ठगे-ठगे!

त्रिवेणी मुझे मिलने आयी थी। कुछ कहा नहीं उसने। कुछ कहने को उसके पास है भी नहीं। यह प्रश्न भी किसी दूसरे से लिखवाया होगा। यह प्रश्न भी किसी और ने तैयार किया होगा। लेकिन वह मौजूद रही, बैठी रही। और बैठे-बैठे उसने जो कहना था, कह दिया–बिना कहे। उसकी मौजूदगी से उसने अपने भाव अर्पित कर दिए। अपना भाव-सुमन चढ़ा दिया।

लोग आते हैं, बहुत बात कर जाते हैं और बिना कुछ कहे भी चले जाते हैं। आए, बकवास कर जाते हैं। त्रिवेणी आयी, बैठी रही चुपचाप एक तरफ। न कुछ बोली, न पास पैर छूने आयी। मगर उसने छू लिए पैर। गहन भाव की बात है।

यह प्रश्न कई तरह से सोचने जैसा है। पहली बात: “बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति के साथ यहां आ गई।’

ऊपर से जिसे हम उद्देश्य कहते हैं, ऊपर से जिसे हम चेष्टापूर्वक खोज कहते हैं, वह बड़ी उथली है। भीतर एक निरुद्देश्य खोज चल रही है। वह जन्मों-जन्मों से चल रही है। हमें कभी पता भी नहीं होता कि कहां किस द्वार पर हमारे लिए द्वार खुल जाएंगे! हमें पता भी नहीं होता कि कहां किस घड़ी में जीवन को शरण मिल जाएगी। शायद हम चेष्टा करके उसकी खोज भी नहीं कर रहे थे। अकस्मात घटता है। अक्सर चेष्टा करनेवाले लोग वंचित रह जाते हैं। क्योंकि चेष्टा में अहंकार है।

मेरे पास दो तरह के लोग आते हैं। एक, जो जान-बूझकर धर्म की खोज में निकले हैं। उनके साथ बड़ी अड़चन है। वे सब आश्रमों में हो आए हैं। सब गुरुओं के पास हो आए हैं, सब शास्त्र पढ़ लिए हैं। कहीं कुछ नहीं होता।

जब ऐसा व्यक्ति मेरे पास आता है तो मैं जानता हूं, होना बहुत मुश्किल है। उसकी सचेष्ट-आकांक्षा ही बाधा बन रही है। उसकी आकांक्षा के कारण ही वह बंद है।

दूसरे तरह के लोग हैं, जो कभी निरुद्देश्य आ जाते हैं। अकारण! वे ज्यादा खुले होते हैं। कुछ पाने की खोज नहीं होती। कुछ पाने की अपेक्षा नहीं होती। मन ज्यादा खुला होता है। सरलता से चीजें घट जाती हैं।

तुम इसे समझने की कोशिश करना। जो-जो तुमने उद्देश्यपूर्वक खोजा है, उसे तुम कभी न पा सकोगे। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह उद्देश्यपूर्वक खोज से नहीं मिलता। आनंद, सत्य, प्रभु, कोई भी सीधी खोज से नहीं मिलते। आकस्मिक घटते हैं। अनायास घटते हैं। प्रसादरूप मिलते हैं।

कोई मित्र तुमसे कहता है कि मैं तैरने जाता हूं नदी में, बड़ा आनंद आता है। तुम कहते हो, तो हम भी आएंगे। आनंद की तो हम भी तलाश कर रहे हैं। बस, गड़बड़ हो गई। तुम्हें न मिलेगा! क्योंकि तुम तैरोगे ही नहीं। एक हाथ मारोगे और सोचोगे, आनंद अभी तक नहीं मिला। कब मिलेगा अब? आधी नदी पार भी हो गई, अभी तक आनंद नहीं मिला? अब तुम उदास होने लगोगे।

क्योंकि आनंद मिलता है तब, जब तुम तैरने में परिपूर्ण लीन हो जाते हो। तुम भूल ही जाते हो। आनंद इत्यादि की बकवास भूल जाते हो। अचानक तुम पाते हो, मिला। क्योंकि तुम्हारे खोने में ही आनंद है। और तो कोई आनंद नहीं है। तुम नदी भी पार कर लेते हो, तैर भी जाते हो। मित्र से कहते हो, हमें तो कुछ मिला नहीं। तुम कहते थे, बड़ा आनंद मिलता है।

ऐसे कभी-कभी तुम किसी को यहां मेरे पास ले आते हो, कहते हो चलो, सुनने में बड़ा आनंद आता है। बस, तुम गड़बड़ में उसको डाल रहे हो। यह तो भूलकर कहना ही मत कि सुनने में बड़ा आनंद आता है। क्योंकि आनंद का लोभ सभी को है। वह भी सोचेगा कि चलो, आनंद की तो खोज हम भी कर रहे हैं। अगर सुनने से ही आनंद मिलता है, इतना सस्ता मिलता है, चले चलते हैं। क्या बिगड़ता है? सुन ही लें।

मगर वह पूरे समय बैठा है, देख रहा है किनारे से। जैसे तुमने देखा हो, बिल्ली बैठी रहती है, चूहे की राह देखती रहती है। ऐसे लगती है बिलकुल शांत बैठी है, ध्यान कर रही है। ऊपर से देखो तो ऐसा लगता है, बड़ी महावीर बनी बैठी है, ध्यान-मग्न; लेकिन उसकी नजर लगी है चूहे की पोल पर कि कब निकले! अभी तक नहीं निकला, अब निकले। बड़ी देर हुई जा रही है, भूख बढ़ती जा रही है।

तो वह जो आदमी आ गया है सुनने, इसलिए कि आनंद मिलेगा, वह आनंद के चूहे पर लगाए नजर बैठा है। और ध्यान रखना, बिल्ली की नजर से चूहा डरता है। निकलता ही नहीं। वह भी अंदर से देख लेता है कि कहीं कोई ध्यानमग्न तो नहीं बैठा है! अगर बैठा है तो खतरा है। चूहे भी बिल्ली के पास नहीं आते। कितना ही ध्यान करो! क्योंकि चूहे कहते हैं, सौ-सौ चूहे खाए हज को चली। इतने चूहे खा चुकी है, इसका भरोसा चूहों को नहीं आता कि यह ध्यान में बैठी होगी।

आनंद बड़ी नाजुक घटना है। तुम जब बिलकुल बेखबर होते हो, मस्त होते हो, तब तुममें प्रवेश कर जाता है। सामने के द्वार से आता ही नहीं, पीछे के द्वार से आता है। ऐसा ढोल इत्यादि बजाकर आता ही नहीं। चुपचाप, पगध्वनि भी नहीं होती ऐसे चला आता है।

तो अक्सर जो आकस्मिक रूप से आ गए हैं…।

तुमको मैं कहता हूं, अपने मित्रों को कभी मत कहना कि बड़ा आनंद मिलता है, चलो। नहीं तो तुम उसके कारण बाधा बन जाओगे। तुम ही बाधा बन जाओगे। वे आएंगे और आनंद नहीं मिलेगा तो वे कहेंगे, तुमने धोखा दिया। और तुम्हें भी क्या खाक मिलता होगा, जब हमको नहीं मिला। सुना तो हमने भी वही, सुना तुमने भी वही। हमें तो कुछ भी न मिला। तो तुम नाहक की बातें करते हो।

नहीं, त्रिवेणी को हो गया होगा। वह यहां आने के लिए आयी ही न थी। जाते थे पति-पत्नी दक्षिण की यात्रा को, पूना बीच में पड़ गया। सोचा होगा चलो, यहां भी देखते चलो। मगर कोई खोज नहीं थी। ऐसी कोई चेष्टा नहीं थी। ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं थी कि आनंद मिलेगा कि रसधार बहेगी कि बादल उमड़ेंगे-घुमड़ेंगे कि बिजली चमकेगी। ऐसा कुछ खयाल ही न था। इतनी सरलता से कोई आ जाता है तो घटना घट जाती है।

सरलता से आना मुश्किल है। क्योंकि जो सरल हैं, वे आएं क्यों? जो जटिल हैं वे आते हैं। जटिल को मिलना मुश्किल। जो खोज रहा है वह आता है। जो खोज नहीं रहा वह आता नहीं। जो खोज रहा है उसको मिलता नहीं।

तो कभी-कभी जब न खोजनेवाला आ जाता है सत्संग में, तो घटना घट जाती है।

“बिना किसी उद्देश्य के मैं अपने पति को साथ आ गई।’

इसीलिए कुछ हो गया। अपेक्षा न हो तो जीवन में बड़ी घटनाएं घटती हैं। जो-जो तुमने अपेक्षा बांधी, वही-वही नहीं घटेगा। अपेक्षा के कारण ही घटना बंद हो जाता है।

तुमने देखा! किसी से प्रेम हो जाता है, खूब रस बहता है। लेकिन यह थोड़े दिन ही चलता है। यह हनीमून भी पूरा होतेऱ्होते चल जाएगा, संदिग्ध है। यह सुहागरात पर ही समाप्त हो जाता है। उसी स्त्री से, उसी पुरुष से बड़ा रस मिला था। फिर क्या हो जाता है?

अपेक्षा नहीं थी, जब मिला था। तब तुमने सोचा न था कि मिलेगा। तब तुम सचेत रूप से खोज नहीं रहे थे, मांग नहीं रहे थे; मिला था। फिर सचेत रूप से मांगने लगे। अब तुम कहते हो रोज-रोज मिलना चाहिए। अब तुम कहते हो, आज नहीं मिला, बात क्या है? कोई धोखा चल रहा है?

अब तुम मांग करते हो। अब तुम दावेदार बन गए। अब तुम मुकदमा लड़ने को तैयार हो। अब तुम कलह करते हो पत्नी से कि आज सुख नहीं दिया। या फिर तुम्हें संदेह होता है कि क्या पत्नी अब धोखा देने लगी? या कभी-कभी यह भी संदेह होता है क्या पहले-पहल धोखा दिया था? क्या मैं कोई सपने में खो गया था?

कुछ भी नहीं हुआ है। एक जीवन की छोटी-सी घटना तुम नहीं समझ पा रहे हो। जब पहली दफा किसी स्त्री या किसी पुरुष से मिले थे तो मिलने में कोई भी अपेक्षा न थी–निरपेक्ष। घटना आकस्मिक घट गई थी। लेकिन अब अपेक्षा है।

ऐसा हर तरफ होता है। पहली दफा ध्यान में लोगों को कभी-कभी ऐसी अनुभूति आती है। फिर कठिन हो जाता है। क्योंकि फिर दूसरे दिन ध्यान नहीं करते। फिर तो वे थोड़ा हिलते-डुलते हैं, और भीतर तैयार रहते हैं कि अब हो…अब हो…अब हो। नहीं होता। क्योंकि जब पहली दफा हुआ था तो “अब हो, अब हो’ ऐसी कोई आवाज भीतर नहीं थी। अब तुमने एक नई चीज जोड़ दी, जो बाधा बन रही है।

इधर मेरे हजारों लोगों पर ध्यान-प्रयोग करने के जो नतीजे हैं, उनमें एक नतीजा यह है कि पहली दफा जैसी झलक मिलती है, फिर बड़ी कठिन हो जाती है। फिर जब तक वह पहली झलक भूल नहीं जाती, दूसरी झलक नहीं मिलती। कभी महीनों लग जाते हैं भूलने में। जब बिलकुल हारऱ्हारकर आदमी सोचता है, कि अरे! वह भी मिली न होगी। कल्पना कर ली होगी। जब पहली झलक भूल जाती है तब दूसरी झलक मिलती है। दूसरी, तीसरी, चौथी झलक के बाद यह समझ में आना शुरू होता है कि मैं जो मांग रहा था, वह बाधा बन रही थी।

निरुद्देश्य आने से ही कुछ हुआ। अब ऐसी निरुद्देश्यता को कायम रखना। अब खतरा है। त्रिवेणी पूछती है कि घर जाकर यह ध्यान कायम रहेगा न? अब खतरा है। जो हुआ है, बिना मांगे हुआ है। अब भी क्यों मांगना? जब अभी बिना मांगे हो गया है तो फिर भी बिना मांगे होता रहेगा।

अब खतरा है। अब खतरा यह है कि जो रस उसे मालूम हुआ है, अब वह चाहेगी कि वह घर पर कायम रहे। लौट-लौटकर उसको फिर पाना चाहेगी। इस चाह से ही मर जाएगा। अब निरुद्देश्य न रही त्रिवेणी। अब त्रिवेणी को उद्देश्य मिल गया। अब दुबारा अगर वह पूना आएगी तो भी खतरा है। जरूर आएगी। आना पड़ेगा उसे। क्योंकि वह जो रस मिला, अब उसकी वासना जगेगी। अब वह बार-बार आएगी। अब मैं भी उससे डरा हूं। क्योंकि जब वह बार-बार आएगी और न पाएगी तो मुझ पर नाराज होगी।

इसलिए अभी से सावधान कर देता हूं। बात ही छोड़ो। जैसी आयी थी निरुद्देश्य, ऐसी ही घर वापस लौट जाओ। जैसे निरुद्देश्य मन से मुझे यहां चाहा, मुझे प्रेम किया, ऐसे ही घर पर भी करना। आनंद मत मांगना, ध्यान मत मांगना। मांगना ही मत कुछ। घटेगा। खूब-खूब घटेगा। जितना घटा है वह तो सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी एक झाला आया है। अभी तो मूसलाधार वर्षा होगी। मगर मांगना मत। यह तो सिर्फ शुरुआत है। और जब दुबारा यहां आओ तो अपेक्षा लेकर मत आना। फिर ऐसे ही आ जाना। कठिन होगा। क्योंकि इस बार तो निरुद्देश्य आना स्वाभाविक हुआ था। अब दूसरी बार बड़ा कठिन होगा। लेकिन अगर समझा कि पहली दफा निरुद्देश्य जाने से घट गया था तो अब उद्देश्य लेकर क्यों जाएं?

चले आना, जब आने की सुविधा बने। यह सोचकर मत आना कि वहां जाकर खूब आनंद होगा; कि वहां खूब ध्यानमग्नता आएगी; कि डूबेंगे। यह सोचकर ही मत आना। फिर ऐसे आना जैसे अजनबी हो। फिर घटेगा। जितना घटा उससे बहुत ज्यादा घटेगा। और इस सूत्र को अगर समझ लिया तो घटता ही रहेगा।

परमात्मा शुरू होता है, अंत कभी भी नहीं होता। हमारे पात्र भर जाते हैं, फिर भी बरसता रहता है। पात्र ऊपर से बहने लगते हैं, फिर भी बरसता रहता है। बाढ़ आ जाती है, बरसता ही रहता है। लेकिन अड़चन खड़ी होती है कि जैसे ही हमने अपेक्षा की कि हम सिकुड़े। हमारा पात्र बंद हुआ। हम अपात्र हुए।

“बिना किसी उद्देश्य के यहां आ गई। इरादा कुछ और था–दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया…।’

ठीक कहती है। संन्यास एक तरह का पागलपन है। संन्यास एक तरह की मस्ती है। हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर है। तर्क-वितर्क की दुनिया के बाहर है। सोच आदि को जो एक किनारे हटाकर रख देता है वही संन्यस्त होने का अधिकारी है। जो कहता है, लोक-लाज खोई। जो कहता है, अब फिक्र नहीं कि लोग क्या कहेंगे। जो कहता है, दूसरों के मत का अब कोई प्रभाव नहीं। अब हम अपने ढंग से जीएंगे। जीवन हमारा है, हम अपने ढंग से जीएंगे, अपने ढंग से नाचेंगे। न हम किसी को जोर-जबर्दस्ती करते कि वह हमारे ढंग का हो। न हम किसी को जोर-जबर्दस्ती करने देंगे कि हम उसके ढंग के हों। न हम किसी को दबाएंगे, न हम दबेंगे।

संन्यास बड़ी गहरी उदघोषणा है। वह इस बात की उदघोषणा है कि अब न तो मैं किसी पर आग्रह थोपूंगा अपना कि वह मेरे जैसा हो, और न मैं चाहूंगा कि कोई चेष्टा करे मुझे अपने जैसा बनाने की। तो न तो मैं किसी का मालिक बनूंगा, और न किसी को मालिक बनने दूंगा। न मैं किसी की स्वतंत्रता छीनूंगा, और न किसी को मेरी स्वतंत्रता छीनने दूंगा।

दोहरी उदघोषणा है संन्यास। अब जो मेरी मौज है, वैसे ही जीऊंगा। यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अपनी मौज में किसी को कष्ट दो। क्योंकि कष्ट देने का तो अर्थ हुआ, उदघोषणा इकहरी हो गई। तुम दूसरे पर अपने को थोपने लगे।

जीवन के परम रहस्यों में एक है कि न तो दूसरे के जीवन में बाधा देना और न किसी को अवसर देना कि तुम्हारे जीवन में बाधा दे। बड़ा कठित है। आसान है बात, या तो दूसरे के जीवन पर हावी हो जाओ, दूसरे की छाती पर बैठ जाओ, मूंग दलो; यह आसान है। या दूसरे को अपनी छाती पर बैठ जाने दो, वह मूंग दले, यह भी आसान है। और यही अक्सर घटता है। या तो तुम किसी की छाती पर मूंग दलोगे, या कोई तुम्हारी छाती पर मूंग दलेगा। इसलिए मैक्यावेली ने कहा है, इसके पहले कि दूसरा तुम्हारी छाती पर मूंग दले, देर मत करो; उचको, झपटो, बैठ जाओ दूसरे की छाती पर, तुम मूंग दलना शुरू करो। नहीं तो कोई न कोई तुम्हारी छाती पर दल देगा।

मैक्यावेली कहता है, रक्षा का एकमात्र उपाय आक्रमण है। इसके पहले कि कोई हमला करे, तुम हमला कर दो। राह मत देखो कि वह करेगा, फिर रक्षा कर लेंगे। क्योंकि जिसने राह देखी वह तो पिछड़ गया।

तो दुनिया में ऐसा ही हो रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। तो या तो बड़ी मछली बनो या छोटी मछली बनोगे। और क्या करोगे?

साधारण हैं दोनों बातें। यही हो रहा है। यही कलह है, यही संघर्ष है–देशों में, जातियों में, व्यक्तियों में, सारे संबंधों में। पति पत्नी पर हावी होना चाहता है कि वह मेरे ढंग से चले।

एक पत्नी मेरे पास आती है। वह कहती है पति को बस, किसी तरह शराब रुकवा दें। और कुछ भी करे, मगर शराब न पीये। मैंने पूछा उसको कि सच में तू शराब के इतने विपरीत है या अपनी चलाने का आग्रह है? क्योंकि तेरे पति को मैं जानता हूं। भला आदमी!

और शराबी अक्सर भले आदमी होते हैं। खतरा तो उनसे है, जो माला इत्यादि लिए बैठे हैं। उनमें भले आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। वे अक्सर दुष्ट प्रकृति के लोग होते हैं। शराबी तो अक्सर भले आदमी होते हैं।

तेरे पति को मैं जानता हूं, भला आदमी है। ऐसे किसी को कुछ गड़बड़ भी नहीं करता। वह कहती है, ऐसे तो कुछ गड़बड़ नहीं करते, पीकर ऐसा कुछ खराब भी नहीं करते। सिर्फ आपका प्रवचन देते हैं पीकर–दो-दो तीनत्तीन घंटे! ऐसी कोई बुरी बात भी नहीं कहते। ज्ञान की बातें करते हैं। तो मैंने कहा, हर्जा क्या है? वे मेरा ही प्रवचन देते हैं। बात तो यही कहते हैं। बात भी बिलकुल दोहराते हैं। जब वे पी जाते हैं तो शब्द शब्द दोहराते हैं, भाव-भंगिमा दोहराते हैं। तो फिर मैंने कहा, हर्ज क्या है? तू समझना कि टेप रिकार्ड लगाया है। सुन लिया कर।

नहीं, मगर वह कहती है, यह ठीक नहीं है। मैंने कहा, एक काम कर। तीन महीने…कितने दिन से तेरे पति पीते हैं? वह कहने लगी, कोई बीस साल से। मैंने कहा, बीस साल की आदत है, छूटते-छूटते छूटेगी। मगर तू एक काम कर। तू तीन महीने कहना छोड़ दे। तू तो कोई शराब नहीं पीती, सिर्फ कहती है कि मत पीयो। और बीस साल का अनुभव है कि वे सुनते नहीं। कहने में कुछ सार भी नहीं है। तीन महीने के लिए तू कहना छोड़ दे।

उसने पांच-सात दिन के बाद आकर कहा कि असंभव। मेरी भी बीस साल की आदत है। यह नहीं हो सकता। इससे मुझे बड़ी बेचैनी होती है, इसलिए नहीं कह सकती। इसकी तो आप मुझे छुट्टी दे दें।

तो मैंने कहा, अब तू सोच। तेरे पति की तो शराब की आदत है बीस साल की। कैसे छूटेगी? तुझे सिर्फ कहना रोकना है, वह भी नहीं छूटता। वह भी तेरी शराब हो गई।

और मजा तुझे अंदाज में नहीं है, अगर मैं तेरे पति को राजी कर लूं और वे शराब न पीयें तो तू दुखी हो जाएगी। क्योंकि तेरा सारा रस यही है। पति को तूने दीनऱ्हीन कर दिया है। तेरी मालकियत कायम हो गई शराब पीने के कारण। ऐसे पति सब तरह से ठीक हैं। अगर शराब छोड़ दें तो तेरी मालकियत खतम हो जाएगी। तू ऊंची हो गई है, पति को नीचा बना लिया है। पति तुझसे डरते हैं, तू डराती है। अगर तेरे पति ने शराब छोड़ी तो वे तुझे डराएंगे। इसकी तू तैयारी कर ले।

जीवन में हम या तो डरते हैं या डराए जाते हैं। हम अच्छे-अच्छे बहाने खोज लेते हैं डराने के। और हम अगर डराए जाते हैं तो भी हम अच्छे-अच्छे तर्क ले लेते हैं कि हम क्यों डर रहे हैं। हम कहते हैं कि वह बात ठीक ही है, इसलिए हम डर रहे हैं। संन्यास का अर्थ इन दोनों स्थितियों के पार जाना है। संन्यास का अर्थ है, न तो हम डराएंगे किसी को; क्योंकि हम कौन हैं? और न हम किसी से डरेंगे। न तो हम किसी को उसके मार्ग से विचलित करेंगे, न हम अपने मार्ग से विचलित होंगे।

इसका अर्थ हुआ, संसार से संबंध छोड़ा। क्योंकि संसार में दो ही तरह के संबंध हैं–या तो डराए जाओ, या डराओ। अगर तुम मेरी बात समझो तो पत्नी को छोड़कर नहीं जाना, दुकान छोड़कर नहीं जाना, घर छोड़कर नहीं जाना। संसार से संबंध छोड़ने का यह सार है कि मत डरना किसी से और मत डराना किसी को। तुम संसार के बाहर हो गए। क्योंकि इन दोनों में ही संसार बंटा है। तब तुम न बड़ी मछली रहे, न छोटी मछली रहे। तुम मछली ही न रहे। तुम संसारी न रहे।

बड़ी हिम्मत चाहिए। रास्ता कठिन होगा क्योंकि तुम अचानक अकेले पड़ जाओगे। और तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा दांव पर लग जाएगी। क्योंकि जिनने प्रतिष्ठा दी थी, वे प्रतिष्ठा खींच लेंगे वापस। उन्होंने कुछ शर्तों से प्रतिष्ठा दी थी। वे कहते थे, तुम बड़े बुद्धिमान हो, अब न कहेंगे। वे कहते थे, तुम बड़े होशियार हो, अब न कहेंगे। अब तो वे कहेंगे, तुम पागल हो गए, सम्मोहित हो गए। किसके जाल में पड़ गए! तुमने अपनी बुद्धि गंवा दी। अब तो वे तुम पर संदेह करेंगे।

तो तुम्हारी सारी प्रतिष्ठा कठिनाई में पड़ जाएगी। संन्यास महंगा सौदा है। पागल ही कर सकते हैं।

त्रिवेणी ठीक कहती है कि “यहां आकर संन्यास ले लिया। ऐसी पागल हो गई कि संन्यास ले लिया। और अब आप ही मेरे कृष्ण बन गए हैं।’

जहां प्रेम हो गया वहीं कृष्ण का आविर्भाव हो जाता है। कृष्ण से थोड़े ही प्रेम होता है! जहां प्रेम होता है, वहीं कृष्ण का आविर्भाव हो जाता है। यही कठिन बात है।

अगर तुम किसी दूसरे को सिद्ध करोगे कि मुझे कृष्ण के दर्शन हो गए तो वह हंसेगा। उसका हंसना भी ठीक है। वह कहेगा, हमें तो कोई कृष्ण के दर्शन होते नहीं; तुम्हें कैसे हो गए? कुछ भ्रांति हो गई होगी।

वह भी ठीक है। क्योंकि कृष्ण के दर्शन तो प्रेम में होते हैं; प्रेम की आंख हो तो होते हैं। और प्रेम की आंख हो तो कुछ और ही होने लगता है, जो इस जगत में होता ही नहीं।

मोहब्बत में कदम रखते ही गुम होना पड़ा मुझको

निकल आयीं हजारों मंजिलें एक-एक मंजिल से

अगर प्रेम की आंख खुली, कि एक दूसरा ही लोक खुला। हजारों मंजिलें खुल जाती हैं। इधर प्रेम की आंख बंद हुई कि सब बंद हो जाता है।

कृष्ण दिखाई पड़ सकते हैं, जहां तुम्हारा प्रेम जग जाए। प्रेम कृष्ण को निर्मित करता है। प्रेम कृष्ण का आविष्कार करता है।

तो तुम्हारा प्रेम जगा, इसे स्मरण रखना। और इस प्रेम को मुझ पर ही मत रोक लेना। इसे और बढ़ाना, कि धीरे-धीरे कृष्ण सब जगह दिखाई पड़ने लगें। जो घटना तुमने मुझ पर घटा ली है, वह तुम्हारी प्रेम की आंख के कारण घटी है। इसी आंख से वृक्ष को देखना। तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं हरे-भरे। इसी आंख से पहाड़ को देखना तो तुम पाओगे, कृष्ण खड़े हैं। कैसे आकाश को छूते शिखर। हिमाच्छादित! कृष्ण खड़े हैं।

तुम इसी प्रेम की आंख से देखते चले जाना, तो हर जगह कृष्ण दिखाई पड़ेंगे। यह प्रेम की आंख जो पैदा हुई है, यह बढ़ती जाए, यह मुझ पर रुके न। क्योंकि रुक जाए तो खतरा हो जाता है। रुकने से संप्रदाय बन जाता है। बढ़ने से धर्म, रुकने से संप्रदाय।

तुमने अगर यह जिद्द की कि यही आदमी कृष्ण है, और कोई कृष्ण नहीं–तो बस, जल्दी ही यह प्रेम मर जाएगा। क्योंकि प्रेम फैलता रहे तो जीता है। प्रेम बढ़ता रहे तो जीता है। प्रेम सिकुड़ जाए तो मरने लगता है। तुमने गर्दन पर फांसी लगा दी। जैसे किसी की गर्दन दबा दो और कोई मर जाए, ऐसा प्रेम को सिकोड़ना मत, अन्यथा मर जाएगा। फिर एक दिन तुम पाओगे कि मुझमें भी दिखाई नहीं पड़ेंगे कृष्ण।

इसलिए यह जो मौका मिला, यह जो पलक थोड़ी खुली, इसको और खोलते ही चले जाना।

“…अब यह विश्वास लेकर जाती हूं कि जो ध्यान यहां मिला है, वह कायम रहेगा।’

यह बात छोड़कर जाओ। यह साथ लेकर मत जाओ। यह रहेगा कायम, लेकिन तुम यह बात यहीं छोड़ जाओ। तुम यह बात ही मत उठाओ। यह विश्वास खतरनाक है। यह विश्वास तो इस बात की सूचना है कि अविश्वास आना शुरू ही हो गया। डर लगने लगा मन में कि अब घर वापस जाना है। पता नहीं जो यहां हो रहा था, वह वहां होगा या नहीं होगा। तुम्हारा घर परमात्मा के उतने ही निकट है जितना यहां। सभी घर उसके हैं। सभी जगह वही है।

तुम यह विश्वास ही उठाने का मतलब हुआ कि कहीं गहरे में अविश्वास आने लगा कि अब जाती हूं घर, अब पता नहीं जो हुआ है, वह साथ जाएगा या नहीं? फिक्र छोड़ो। विश्वास की कोई जरूरत नहीं है।

तुम आनंदमग्न, नाचती, गीत गुनगुनाती वापस जाओ। तुम्हारे गीतों में बंधा हुआ, जो यहां घटा है वह तुम्हारे साथ चला आएगा। अपेक्षाशून्य! जैसे निरुद्देश्य आना यहां हुआ था, ऐसे ही निरुद्देश्य वापस चली जाओ। दूर न जा पाओगी।

याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई

काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए

कभी नहीं हो पाते दूर। प्रेम की झलक मिल जाए…।

याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई।

फिर दिल कभी भूलता ही नहीं। दिल में घट जाए, एक दफा दिल में झंकार हो जाए, फिर दिल कभी भूलता ही नहीं।

याद आगाजे-मोहब्बत की दिलों से न गई

काफिले घर से बहुत दूर न होने पाए

फिर तुम जाओ कितने ही दूर–पृथ्वी के किसी दूर के कोने पर भी, तो भी घर से दूर न हो पाओगे। वह घर परमात्मा है, जिससे हम कभी दूर नहीं हो पाते।

एक दफा पुलक आ जाए, झलक आ जाए। वह झलक आयी है। इसलिए विश्वास इत्यादि की बात मत उठाओ। विश्वास तो थोथी चीज है। विश्वास तो अविश्वास को ढांकने का उपाय है। विश्वास तो शंका को छिपाने की व्यवस्था है। विश्वास तो संदेह को लीपापोती करना है।

तुम जैसी निरुद्देश्य यहां आयी थीं, बिना किसी भाव के; कुछ पता न था क्या घटेगा, ऐसे ही वापस जाओ बिना कुछ पता लिए कि क्या घटेगा। बहुत कुछ घटने को है। मैं तुमसे पहले तुम्हारे घर पहुंच गया हूं।

“…जो ध्यान यहां मिला वह कायम रहेगा और पुकारने पर आप सदा आते रहेंगे?’

तुम फिक्र ही न करो। कभी-कभी बिना पुकारने पर भी आऊंगा। द्वार पर दस्तक दूं तो घबड़ाना मत। कभी अचानक सामने खड़ा हो जाऊं तो घबड़ाना मत।

प्रेम न तो समय जानता, न स्थान जानता। क्षेत्र और काल दोनों के पार है।

दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की

तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की

ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल

रोके जो रुकती नहीं आहें दिल की

दिन-रात खुली रहती हैं राहें दिल की–वे प्रेम के रास्ते सदा ही खुले हुए हैं। अपेक्षा से बंद हो जाते हैं। द्वार बंद हो जाता, भिड़ जाता। अपेक्षा भर मत ले जाओ। प्रफुल्लता से, मग्न-भाव से जाओ।

दिन-रात खुली रहती है राहें दिल की

तकती हैं किसे रोज निगाहें दिल की

दिल की निगाह के लिए कोई भौतिक उपस्थिति जरूरी नहीं है। दिल की आंख दूर से देख लेती है। और दिल की आंख न हो तो पास से भी नहीं देख पाती। दिल की आंख न हो तो आदमी अंधे की तरह आता, अंधे की तरह चला जाता।

ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल

आता हूं तुम्हारे साथ। लेकिन तुम्हारी अपेक्षा रही तो न आ पाऊंगा। अपेक्षा छोड़ दो। अपेक्षा का त्याग कर दो। आता हूं तुम्हारे साथ एक तसव्वुर की तरह, एक भाव की तरह, एक भक्ति की तरह।

ये किसका तसव्वुर है, ये किसका है खयाल

रोके जो रुकती नहीं आहें दिल की

रोना! अपेक्षा मत ले जाओ।

हंसना! अपेक्षा मत ले जाओ।

गाना, नाचना, चुप होकर बैठ जाना। अपेक्षा मत ले जाओ। सहज होना; सहजस्फूर्त। और फिर संबंध नहीं टूटता है।

तू सोज-ए-हकीकी है मैं परवाना हूं

तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं

तू रूह है मैं जिस्म हूं

तू अस्ल है मैं नक्ल

जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं

भक्त कहता है:

तू सोज-ए-हकीकी है, मैं परवाना हूं

तू है सत्य का दीया, मैं हूं पतिंगा, परवाना। तुझ पर जलने को आता हूं।

तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं

–तू फूलों के रंग जैसी शराब है, मैं तेरा पात्र हूं।

तू वादा-ए-गुलरंग है मैं पैमाना हूं

तू रूह है मैं जिस्म

–तू है आत्मा, मैं शरीर।

तू अस्ल है मैं नक्ल

भक्त अपने को पोंछ देता है, मिटा देता है। अपेक्षा रखोगे तो तुम रहोगे। क्योंकि अपेक्षा तुम्हारी है; तुम्हारे अहंकार की, अस्मिता की है। अपेक्षाएं हटा दो। अपेक्षाओं के गिरते ही तुम्हारा अहंकार गिर जाएगा।

तू रूह, मैं जिस्म

तू अस्ल, मैं नक्ल

तब भक्त नक्ल हो जाता है, नकल हो जाता है। वह कहता है तेरी छाया, प्रतिबिंब; दर्पण में बनी तेरी प्रतिछवि।

तू अस्ल, मैं नक्ल

जिसमें है बयां तेरा, वह अफसाना हूं

ज्यादा से ज्यादा वह कहानी हूं, वह गीत हूं, जिसमें तेरा बयान है। अपने को पोंछो। अपने को हटाओ। उसी ढंग से परमात्मा के लिए जगह बनती है।

तो मैं कहता हूं, त्रिवेणी, घर जाओ–खाली, शून्यवत। कोई अपेक्षा नहीं, कोई अतीत अनुभव की स्मृति नहीं। जो हुआ है वह फिर-फिर हो, ऐसी वासना नहीं–शून्य! उस शून्य में ही उसका दीया उतर आएगा; उसकी रोशनी भरेगी।

तू वादा-ए-गुलरंग मैं पैमाना हूं

यह शून्यता ही तुम्हें पात्र बना देगी। फूलों के रंगों जैसी शराब, परमात्मा की मस्ती उसमें उतरेगी और भरेगी। तुम मिटोगे तो परमात्मा हो सकता है।

तीसरा प्रश्न:

कथा कहती है कि श्री कृष्ण भगवान ने जब सिरदर्द मिटाने के लिए भक्तों से उनकी चरणधूलि मांगी, तब सबने इंकार कर दिया, लेकिन गोपियों ने चरणधूलि दी। प्रभु, इस प्रसंग का रहस्य बताने की कृपा करें।

रहस्य बिलकुल साफ है। बताने की कोई जरूरत नहीं है। सीधा-सीधा है। दूसरे डरे होंगे। दूसरों की अस्मिता रही होगी, अहंकार रहा होगा।

अब यह बड़े मजे की बात है। अहंकार को विनम्र होने का पागलपन होता है। अहंकार को ही विनम्र होने का खयाल होता है। तो जो दूसरे रहे होंगे, उन्होंने कहा, पैर की धूल भगवान के लिए? कभी नहीं। कहां भगवान, कहां हम! हम तो क्षुद्र हैं, तुम विराट हो। हम तो ना-कुछ हैं, तुम सब कुछ हो। लेकिन इस ना-कुछ में भी घोषणा हो रही है कि हम हैं, छोटे हैं। हमारे पैर की धूल तुम्हारे सिर पर? पाप लगेगा, नर्क में पड़ेंगे।

लेकिन गोपियां जो सच में ही ना-कुछ हैं, उन्होंने कहा हमारे पैर कहां? हम कहां? हमारे पैर की धूल भी तुम्हारे ही पैर की धूल है। और यह धूल भी कहां? तुम ही हो। और फिर तुम्हारी आज्ञा हो गई तो हम बीच में बाधा देनेवाले कौन? हम कौन हैं जो कहें नहीं?

प्रेम की विनम्रता बड़ी अलग है। ज्ञान की विनम्रता थोथी है, धोखे से भरी है। ज्ञानी जब तुमसे कहता है, हम तो आपके पैर की धूल हैं, तुम मान मत लेना। जरा उसकी आंख में देखना। वह कह रहा है, समझे कि नहीं, कि हम महाविनम्र हैं!

तुम यह मत कहना कि ठीक कहते हैं आप; बिलकुल सही कहते हैं आप। तो वह नाराज हो जाएगा और फिर कभी तुम्हारी तरफ देखेगा भी नहीं। वह सुनना चाहता है कि तुम कहो, कि अरे! आप और पैर की धूल? नहीं-नहीं। आप तो पूज्यपाद! आप तो महान, आपकी विनम्रता महान। वह यह सुनना चाहता है कि तुम कहो कि आप महान।

दूसरों ने इंकार कर दिया होगा। कृष्ण के सिर में दर्द है, इससे उन्हें थोड़े ही मतलब है! उन्हें अपने नर्क की पड़ी है, कि पैर की धूल दे दें और फंस जाएं। यह भी खूब आदमी फंसाने के उपाय कर रहा है! अभी पैर की धूल दे दें, फिर फंसें खुद। तुम्हारा तो सिरदर्द ठीक हो, हम नर्क में सड़ें। नहीं, यह पाप हमसे न हो सकेगा। इनको अपनी फिक्र है। गोपियों को अपना पता ही नहीं है। इसलिए उन्होंने कहा, पैर की धूल तो पैर की धूल। इसे थोड़ा समझ लेना।

प्रेम के अतिरिक्त और कोई विनम्रता नहीं है। गोपियां तो समझती हैं सब लीला उसकी है। यह सिरदर्द उसकी लीला, यह पैर, यह पैर की धूल उसकी लीला। वही मांगता है। उसकी ही चीज देने में हमें क्या अड़चन है?

तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर

हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी

यह भगवान, जिसने दुनिया बनाई हो–यजदां, स्रष्टा; कभी-कभी हंसता तो होगा; कैसा दिलचस्प जुर्म किया! यह दुनिया बनाकर कैसा मजेदार पाप किया!

तखलीके-कायनात के दिलचस्प जुर्म पर

हंसता तो होगा आप भी यजदां कभी-कभी

भक्त कहते हैं–हंसी उसको भी तो आती होगी कि खूब मजाक रहा!

कृष्ण खूब हंसे होंगे, जब ज्ञानियों ने धूल न दी और गोपियों ने धूल दे दी। खूब हंसे होंगे। छोटी-सी मजाक भी न समझ पाए।

ज्ञानियों से ज्यादा बुद्धू खोजना मुश्किल है। शास्त्र समझ गए, शास्त्र का सागर समझ गए, और जरा-सी मजाक न समझ पाए, जरा-सी बात न समझ पाए। परमात्मा के लिए इतना भी न कर पाए। गोपियां तो खूब खुश हुई होंगी। उन्होंने तो सोचा होगा, चलो अपराध तुम्हीं करवा रहे हो तो करेंगे। दिलचस्प हो गया अपराध, तुम्हारी आज्ञा से हो रहा है।

खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर

सजा और ऐसी सजा चाहता हूं

उन्होंने तो सोचा होगा, चलो अच्छा। अब ऐसी सजा देना कि हम और खताएं करें। अब ऐसा दंड देना कि हम और खताएं करें ताकि तुम और दंड दो। यह संबंध बना रहे। यह दोस्ती बनी रहे। यह गठबंधन बना रहे।

खताओं पे जो मुझको माइल करे फिर

सजा और ऐसी सजा चाहता हूं

गोपियां तो प्रसन्नता से नर्क चली जाएंगी, अगर उनके नर्क के जाने से कृष्ण का सिरदर्द ठीक होता हो। उन्हें तो क्षणभर भी खयाल न आया होगा कि यह कोई पाप हो रहा है।

प्रेम शिष्टाचार के नियम मानता ही नहीं। जहां शिष्टाचार के नियम हैं, वहां कहीं छुपे में गहरा अहंकार है। सब शिष्टाचार के नियम अहंकार के नियम हैं। प्रेम कोई नियम नहीं मानता। प्रेम महानियम है। सब नियम समर्पित हो जाते हैं। प्रेम पर्याप्त है; किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है।

ज्ञानी और भक्त में बड़े फर्क हैं। वे दृष्टियां ही अलग हैं। वे दो अलग संसार हैं। वे देखने के बिलकुल अलग आयाम हैं। जिसको हम ज्ञानी कहते हैं, वह रत्ती-रत्ती हिसाब लगाता है। कर्म, कर्मफल, क्या करूं, क्या न करूं, किसको करने से पाप लगेगा, किसको करने से पुण्य लगेगा।

भक्त तो उन्माद में जीता। वह कहता जो तुम कराते, करेंगे। पाप तो तुम्हारा, पुण्य तो तुम्हारा। भक्त तो सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता है। वह कहता है अगर तुम्हारी मर्जी पाप कराने की है तो हम प्रसन्नता से पाप ही करेंगे। भक्त का समर्पण आमूल है। मदहोशी! बेहोशी! परमात्मा के हाथ में अपना हाथ पूरी तरह दे देना–बेशर्त।

वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया

वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी

धर्म-उपदेशकों ने, तथाकथित ज्ञानियों ने, धर्मगुरुओं ने–सर जोड़कर बदनाम किया–खूब सिर मारा और बदनाम किया, तब कहीं बेहोशी को, मदहोशी को, फूलों के रंग जैसी शराब को वे बदनाम करने में सफल हो पाए; अन्यथा कभी बदनाम न होती।

वाइजो-शेख ने सर जोड़कर बदनाम किया

वरना बदनाम न होती मय-ए-गुलफाम अभी

भक्त तो शराबी जैसा है। ज्ञानी हिसाबी-किताबी है। दोनों के गणित अलग-अलग हैं। भक्त तो जानता ही नहीं क्या बुरा है, क्या भला है। भक्त तो कहता है, जो भगवान करे वही भला। जो मैं करना चाहूं वह बुरा, और जो भगवान करे वह भला।

तो गोपियों ने सोचा होगा, भगवान कहते हैं अपनी चरण-रज दे दो, उन्होंने जल्दी से दे दी होगी। भगवान कराता है तो भला ही कराता होगा। उनका समर्पण समग्र है।

आखिरी प्रश्न:

ध्यान की मृत्यु और प्रेम की मृत्यु क्या भिन्न हैं? क्या उनकी प्रक्रियाएं भी भिन्न हैं?

मृत्यु तो एक ही है; ध्यान की हो कि प्रेम की। लेकिन प्रक्रियाएं, उस मृत्यु तक पहुंचने के मार्ग, विधियां भिन्न-भिन्न हैं। ध्यान से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। प्रेम से भी यही घटता है कि तुम मिट जाते हो। मिटना तो दोनों हालत में होता है, लेकिन दोनों के मार्ग बड़े अलग-अलग हैं।

ध्यान के पहले चरण पर तुम नहीं मिटते। ध्यान के पहले चरण पर तो तुममें जो गलत है उसको मिटाया जाता है, सही को बचाया जाता है। अशुभ को मिटाया जाता है, शुभ को बचाया जाता है। अशुद्धि जलाई जाती है, शुद्धि बचाई जाती है।

तो ज्ञान के मार्ग पर या ध्यान के मार्ग पर व्यक्ति शुद्ध होने लगता है। मिटता नहीं, परिशुद्ध होता है, लेकिन बचता है। आखिरी छलांग में परिशुद्धि ऐसी जगह आ जाती है, जहां कि शुद्धता भी अशुद्धि मालूम होने लगती है। जहां होना मात्र अशुद्धि मालूम होती है, वहां आखिरी छलांग में ध्यानी अपने को बुझा देता है। भक्त पहले कदम पर बुझाता है। वह इसका हिसाब नहीं करता–अच्छा और बुरा।

तो भक्ति छलांग है और ध्यान क्रमिक विकास है। ध्यान एक-एक कदम, धीरे-धीरे चलता है; आहिस्ता-आहिस्ता। भक्ति बिलकुल पागलपन है। वह एकदम छलांग लगा लेती है। ध्यानी ऐसे है, जैसे सीढ़ियों से उतरता है छत से–एक-एक कदम, सम्हल-सम्हलकर। सम्हलना ध्यान का सूत्र है–सावधानी।

भक्त ऐसा है, छत से छलांग लगा देता है। फिक्र ही छोड़ता है हाथ-पैर टूटेंगे, बचेंगे, मरेंगे, क्या होगा। वह छलांग लगा देता है। उसकी श्रद्धा आत्यंतिक है। वह कहता है, उसे बचाना है तो वह बचा ही लेगा। जाको राखे साइयां। उसे नहीं बचाना है तो तुम सीढ़ियों पर भी सम्हल-सम्हलकर चलो तो भी मर जाओगे, तो भी मिट जाओगे।

तो भक्त तो छलांग लगाता है–एक ही कदम। फिर एक कदम के बाद उसे कुछ करना नहीं पड़ता। फिर तो जमीन का गुरुत्वाकर्षण खींच लेता है। ऐसा थोड़े ही कि तुमने एक कदम छलांग लगाई, फिर तुम पूछते हो अब हम क्या करें छलांग लगाकर? पूछने का मौका ही नहीं है। गए! एक कदम तुमने उठाया कि जमीन खींचने लगती है। एक कदम तुम न उठाते तो जमीन की कशिश के लिए तुम उपलब्ध न थे। एक कदम उठाया कि जमीन की कशिश काम करने लगी।

तो भक्ति का शास्त्र कहता है कि तुम छलांग लो, फिर परमात्मा की कशिश बाकी काम कर देती है। तुम छोड़ो, वही कर लेगा।

ध्यानी कहता है, हम छोड़ न पाएंगे ऐसे। हम तो जो गलत है उसे छोड़ेंगे। पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं?

तो तुम्हें सोचना है अपने भीतर कि तुम्हें कौन-सी बात ठीक लगती है। अगर पागल होने की हिम्मत है तो भक्ति। अगर तर्क बहुत प्रगाढ़ है, सोच-विचार काफी निखरा हुआ है, बुद्धि बलशाली है तो भक्ति तुम्हारे काम की नहीं।

घबड़ाहाट कोई भी नहीं है। पहुंचोगे तो वहीं। जब तुम सीढ़ियां उतर रहे हो तब भी कशिश ही तुम्हें खींच रही है। तुम धीरे-धीरे उतर रहे हो, बस इतनी ही बात है। भक्त तेजी से जा रहा है, तीर की तरह जा रहा है। तुम आहिस्ता-आहिस्ता जा रहे हो, एक-एक कदम जा रहे हो। जब तुम एक कदम उतरते हो सीढ़ी से तब भी कशिश ही तुम्हें खींचती है। लेकिन तुम एक कदम उतरते हो, फिर दूसरा कदम उतरते हो। तुम पर निर्भर है।

और जल्दबाजी में ऐसा मत करना, यह मत सोचना कि चलो यह सीधा मार्ग है भक्ति का; छलांग लगा जाओ। अगर तुम्हारे मन में यह न जंचे तो छलांग लगेगी ही नहीं।

तो अपने मन को पहचानना। तुम्हें जो ठीक लगे वही तुम्हारे लिए ठीक है। और सदा ध्यान रखना जो तुम्हारे लिए ठीक है, वह जरूरी नहीं कि सभी के लिए ठीक हो। जो दूसरे के लिए ठीक है वह तुम्हारे लिए गैर-ठीक हो सकता है। जो दूसरे के लिए अमृत है, तुम्हारे लिए जहर हो सकता है।

मृत्यु तो एक ही है। मृत्युएं दो नहीं हैं। अंतिम परिणाम तो एक ही है, लेकिन चलनेवाले दो ढंग के हैं। कुछ हैं, जो होशियारी से चलते हैं, सम्हल-सम्हलकर चलते हैं। रास्ते पर देखा, कोई आदमी सम्हलकर चलता है। और शराबी को देखा, डांवांडोल चलता है।

भक्त तो शराबी जैसा है। उसने तो भक्ति की सुरा पी ली। अब वह डांवाडोल चलता है। अब गिर जाए, तो उसे फिकर नहीं। न पहुंच पाए तो उसे फिकर नहीं।

तुमने कभी एक मजे की घटना देखी है? शराबी गिर जाता है रास्ते पर, हाथ-पैर नहीं टूटते। तुम जरा गिरो!

एक बैलगाड़ी में दो आदमी बैठे थे–एक शराबी शराब पीए और एक आदमी पूरे होश में। बैलगाड़ी उलट गई। जो होश में था, उसके हाथ-पैर टूट गए। जो शराबी था उसको पता ही नहीं चला। जब उसने सुबह आंख खोली तो उसने कहा, अरे! बैलगाड़ी का क्या हुआ?

तुमने देखा, कभी-कभी छोटे बच्चे गिर पड़ते हैं छत से, चोट नहीं खाते। बड़ा आदमी गिरे तो जरूर चोट खाता है। क्या कारण होगा? शराबी जब गिरता है तो उसे पता ही नहीं चलता कि गिर रहे हैं। गिरने का पता चले तो आदमी रोकता है। रोके तो विरोध खड़ा होता है, प्रतिरोध होता है। जब होशवाला आदमी गिरता है तो वह सब तरह से अपने को रोकता है कि गिर न जाऊं। जमीन खींच रही है नीचे, वह खींच रहा है, सम्हाल रहा है अपने को जमीन के विपरीत। तो दोहरी शक्तियों में विरोध होता है। उसी में हड्डियां टूट जाती हैं।

शराबियों को गिरते देखकर और चोट लगते न देखकर चीन और जापान में एक विशेष कला विकसित हुई, उसका नाम है ज्युदो, जुजुत्सु। यह देखकर कि शराबी गिरता है रोज। पड़े हैं नाली में। फिर सुबह उठकर घर जाते हैं, फिर नहा-धोकर फिर चले दफ्तर। न उनकी हड्डी-पसली टूटी, न कहीं कुछ है। तुम सुबह पहचान भी नहीं सकते कि ये रातभर सड़क पर पड़े रहे हैं। सुबह बिलकुल ठीक मालूम पड़ते हैं। तुम तो गिरो इतना! बच्चा रोज गिरता है, दिनभर गिरता है घर में। मां-बाप तो गिरें; फौरन हड्डी-पसली टूट जाएगी।

अभी अमरीका में उन्होंने एक प्रयोग किया हार्वर्ड युनिवर्सिटी में कि एक बड़े पहलवान को, बड़े शक्तिशाली आदमी को एक छोटे बच्चे की नकल करने को कहा। आठ घंटे बच्चा जो करे वह तुम करो। वह आदमी सोचता था, मैं शक्तिशाली आदमी हूं, गुजर जाऊंगा। काफी, हजारों डालर मिलनेवाले थे। चार घंटे में चारों खाने चित्त हो गया। क्योंकि वह बच्चा कभी गिरे तो अब उसको गिरना पड़े। यह बड़ी झंझट की बात।

वह बच्चा…बच्चे को आनंद आ गया। उसने कहा कि यह मेरी नकल कर रहा है। तो वह और जोर-जोर से करने लगा। चार घंटे में वह जो पहलवान था, उसने कहा माफी करो। वे हजारों डालर रखो अपने। यह तो हमारी जान ले लेगा। आठ घंटे में हम मर ही जाएंगे। क्योंकि उचकता, कूदता, चिल्लाता, चीखता। और जो वह करे, वही उसे करना है।

मनोवैज्ञानिक प्रयोग करके देख रहे थे कि छोटे बच्चे में कितनी ऊर्जा है, फिर भी थकता नहीं। कारण क्या होगा? छोटा बच्चा अभी अपने को सम्हालता नहीं। अभी जो घटता है, उसके साथ हो लेता है। अगर बच्चा गिरता है, तो वह गिरने में सहयोग करता है। तुम गिरते हो तो विरोध करते हो। तुम्हारे विरोध के कारण हड्डी टूट जाती है। हड्डी गिरने के कारण नहीं टूटती। हड्डी तुम्हारे विरोध के कारण टूटती है।

अगर तुम गिरने में साथ हो जाओ, अगर जब तुम गिरने लगो तो गिरने से तुम्हारे बचने की कोई आकांक्षा न हो, तुम गिरने के साथ सहयोग कर लो, तुम गिरने से एक कदम आगे गिर जाओ, तुम कहो, लो राजी; तो चोट न खाओगे। तो तुम ऐसे गिर जाओगे…बिना किसी प्रतिरोध के। तुम पृथ्वी की गोद में गिर जाओगे। चोट न खाओगे।

शराबी चोट नहीं खाता। ऐसे ही भक्त भी चोट नहीं खाता। वह गिरता है; बड़ी ऊंची छलांग है उसकी। मगर वह शराबी है। उसने प्रेमरस पीया है। उसने प्रेम की सुरा पी ली।

मगर तुम अगर नहीं हो शराबी और तुम्हारा स्वभाव वैसा नहीं है तो करना मत। तुम अपनी सीढ़ियां उतरना। छोटी-छोटी सीढ़ियां-सीढ़ियां बनाकर उतरना। कोई जल्दी भी नहीं है क्योंकि दोनों तरह से लोग पहुंच जाते हैं।

तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम इसमें से एक को अपनी स्वभाव की, प्रकृति की अनुकूलता बिना देखे चुन लो। इसलिए मैं भक्ति की भी बात करता हूं, ध्यान की भी बात करता हूं। मैं दोनों की बात करता हूं क्योंकि तुममें दोनों तरह के लोग हैं। अंतिम घटना तो एक है, लेकिन उस तक पहुंचने के रास्ते बड़े भिन्न हैं।

अगर तुम्हें विचार की बड?ी पकड़ है तो तुम ध्यान से चलो। अगर तुम्हारा हृदय खुला है, तुम छोटे बच्चे हो सकते हो, या कि तुम स्त्रैण हो सकते हो, तुम प्रेम बहा सकते हो और प्रेम में बह सकते हो बिना शर्त लगाए, तो फिर प्रेम के मार्ग से उतरो।

मिटोगे तो दोनों हालत में क्योंकि जब तक तुम न मिटोगे, तब तक परमात्मा न हो सकेगा। और जिस दिन तुम मिटोगे उस दिन तुम्हें चाहे पता न भी चले कि तुम मिट गए हो, सारी दुनिया को पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। जिनके पास भी आंखें हैं उन्हें पता चल जाएगा कि तुम मिट गए हो। तुम्हारा शून्य बड़ा मुखर होता है!

शून्य बड़ा संगीतपूर्ण होता है। शून्य का सन्नाटा सुनाई पड़ने लगता है। जो लोग भी मिट गए हैं, उनके पास लोग भागे चले आते हैं, खिंचे चले आते हैं। समझ में भी नहीं आता कि क्या आकर्षण है। आकर्षण इतना ही है कि जहां कोई मिट गया वहां शून्य पैदा हो गया।

वैज्ञानिकों से पूछो, हवा चलती है, क्यों चलती है? यह हवा अभी चल रही है, यह गुलमोहर का वृक्ष कंप रहा है। यह हवा क्यों चल रही है? तो वैज्ञानिक कहते हैं, हवा के चलने का एक कारण है, एक ही कारण है। जब कहीं जोर की गर्मी पड़ती है तो वहां की हवा विरल हो जाती है। वहां शून्य पैदा हो जाता है। उस शून्य को भरने के लिए आसपास की हवा दौड़ने लगती है। क्योंकि शून्य को प्रकृति बर्दाश्त नहीं करती। उसको भरना पड़ता है। आसपास की हवा उस शून्य को भरने के लिए दौड़ती है, इसलिए हवा चलती है। इसलिए गर्मी में बवंडर उठते हैं, तूफान उठते हैं। क्योंकि शून्य पैदा हो जाता है। सूरज की गर्मी के कारण हवा विरल हो जाती है, फैल जाती है। जगह खाली हो जाती है। उसे भरने हवा आती है।

ठीक ऐसा ही परमात्मा के आत्यंतिक लोक में भी घटता है। जब कोई व्यक्ति मिट जाता है, खाली हो जाता, तो प्रकृति या परमात्मा शून्य को बर्दाश्त नहीं करता। उस शून्य को भरने के लिए चेतना की लहरें चल पड़ती हैं।

तुम चेतना की लहरों की तरह यहां आ गए हो। जहां कहीं कोई व्यक्ति मिटा कि चेतनाएं उस तरफ सरकने लगती हैं। ऐसा व्यक्ति हिमालय पर बैठा हो तो लोग वहां रास्ता खोजते हुए, पगडंडियां बनाते हुए पहुंच जाते हैं। जाना ही पड़ेगा। शून्य को परमात्मा बर्दाश्त नहीं करता। उसे भरना ही पड़ेगा।

जहां गुरु पैदा होगा वहां शिष्य आते चले जाते हैं। गुरु के होने का एक ही अर्थ है, जहां शून्य पैदा हुआ।

मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को

कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है

प्रेम तुम्हारे जीवन में घटेगा, पता भी नहीं चलेगा तुम्हें; किसी और को भी शायद पता न चले, फिर भी सबको पता चल जाएगा। और ऐसा भी पता चलता रहता है कि मालूम नहीं हो रहा है। किसी को मालूम नहीं हो रहा है। लेकिन चुपचुप, गुपचुप, हृदय से हृदय तक खबर पहुंच जाती है।

मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनिया को

कि यह मालूम होता है नहीं मालूम होती है

और मृत्यु तो मोहब्बत की आखिरी घड़ी है। वह तो चरमोत्कर्ष, वह तो आखिरी उत्कर्ष, वह तो चरम स्थिति है। जहां कोई व्यक्ति बिलकुल शून्य हो जाता है, सब तरफ से परमात्मा दौड़ पड़ता है अनेक-अनेक रूपों में उसे भरने को।

इसी को हिंदू अवतरण कहते हैं। यह परमात्मा का दौड़कर किसी को भर देना अवरतण है–उतर आना। कोई खाली हो गया, परमात्मा दौड़ा उसे भरने को। ध्यानी को भी भरता है, प्रेमी को भी भरता है। लेकिन भरता तभी है, जब तुम मिटते हो।

अपने को बचाना मत। कोई भी मार्ग खोजो। अपने को मिटाने का मार्ग खोजो। संसार है अपने को बचाने की चेष्टा; धर्म है अपने को मिटाने का साहस।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–29

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त्रिगुप्‍ति और मुक्‍ति—प्रवचन—उनतीसवां

सूत्र:

जहा महातलायस्‍स सन्‍निरूद्धे जलागमे।

उस्‍सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे।वे।।

एवं तु संजयस्‍सावि पावकम्‍मनिरासवे।

भवकोडीसंचियं कम्‍मं,तवसा निज्‍जारिज्‍जइ।। 152।।

तवसा चेव ण मोक्‍खो संवरहीणस्‍स होई जिणवयणे।

ण हु सोते पविसंते, किसिणं परिसुस्‍सदि तलायं।। 153।।

ज अन्‍नाणी कम्‍मं खवेइ बहुआहिं बासकोडिहिं।

तं नाणी तिहिं गुत्‍तो, खवेइ ऊसासमित्‍तेणं।।

सेणावइम्‍मि णिहए, जहां सेणा पणस्‍सई।

एवं कम्‍माणि णस्‍संति,मोहणिज्‍जे खयं गए।। 154।।

सव्‍वे सरा नियट्टंति, तक्‍का जत्‍थ न विज्‍जइ।

मई तत्‍थ न गाहिया, ओए अप्‍पइट्ठाणस्‍स खेयन्‍ने।। 155।।

धर्म के दो रूप संभव हैं: एक विज्ञान जैसा, एक काव्य जैसा। जीवन को देखने के दो ही ढंग हैं, दो ही ढंग हो सकते हैं–या तो कवि की आंख से, या वैज्ञानिक की आंख से। दोनों सही हैं। दोनों में कोई ऊंचा-नीचा नहीं है, पर दोनों बड़े विपरीत हैं।

जो काव्य की दृष्टि से सही है, वही विज्ञान की दृष्टि से कल्पना मात्र मालूम होता है। जो विज्ञान की दृष्टि से सही है, वही काव्य की दृष्टि से अत्यंत रूखा-सूखा, गणित और तर्क मालूम होता है। जो विज्ञान की दृष्टि से सत्य है वह काव्य की दृष्टि से मुर्दा मालूम होता है। और जो काव्य की दृष्टि से सत्य है वह विज्ञान की दृष्टि से केवल सपना मालूम होता है।

इसे अगर खयाल रखा तो बड़ी सुगमता होगी। महावीर का जीवन को देखने का ढंग वैज्ञानिक का ढंग है। वे ऐसे देखते हैं, जैसे वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में निरीक्षण करता है। उनकी दृष्टि में काव्य बिलकुल नहीं है। इसलिए भक्ति का कोई उपाय महावीर के साथ नहीं है। प्रार्थना का, पूजा का कोई उपाय महावीर के साथ नहीं है।

और जिन्होंने महावीर के साथ पूजा और प्रार्थना जोड़ ली, उन्होंने बड़ा अन्याय किया है। महावीर के साथ तो परमात्मा शब्द का भी कोई अर्थ नहीं है। महावीर के लिए तो परमात्मा भी आदमी का कल्पनाजाल है। आत्मा ही सब कुछ है। आत्मा की ही श्रेष्ठतम दशा को उन्होंने परमात्मा कहा है। परमात्मा कहीं है नहीं, जिसे हमें खोजना है। परमात्मा हमें होना है। परमात्मा ऐसा कुछ नहीं है, जो भक्त के सामने खड़ा हो जाएगा। परमात्मा कुछ ऐसा है, जो भक्त के भीतर प्रगट होगा।

भक्त बीज है भगवान का।

तो जब बीज खिलता है, फूलता है तो ऐसा थोड़े ही कि बीज अपने खिले हुए फूलों को देखता है; बीज तो खो गया होता है। खिले फूल होते हैं। बीज का और वृक्ष का कभी मिलना थोड़े ही होता है। जब तक बीज है तब तक वृक्ष नहीं है, जब वृक्ष है तब बीज जा चुका।

तो भगवान का दर्शन, ऐसी कोई चीज महावीर के साथ संभव नहीं है। भक्त ही अपनी परमशुद्ध अवस्था में भगवान हो जाता है। इसलिए पूजा किसकी? अर्चना किसकी? दीये किसके नाम पर जलें? यज्ञ, हवन किसका हो?

महावीर मनुष्य-जाति के उन थोड़े-से प्राथमिक अग्रणी लोगों में से हैं, जिन्होंने धर्म को विज्ञान की शक्ल दी; जिन्होंने धर्म को गणित का आधार दिया। जो-जो कल्पना-पूर्ण था वह अलग कर लिया।

ध्यान रखना, जब मैं कह रहा हूं कल्पनापूर्ण, तो मैं नहीं कह रहा हूं असत्य, क्योंकि मेरे लिए भक्त भी उतने ही सच हैं, नारद भी उतने ही सत्य हैं और चैतन्य भी और मीरा भी। ये देखने के दो ढंग हैं।

एक वैज्ञानिक वृक्ष के पास आए तो उसे सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए नहीं कि सौंदर्य नहीं है। वृक्ष हरा है, फूल से भरा है; सूरज की रोशनी में नाचती उसकी पत्तियां हैं, हवाओं के झोंकों में प्रफुल्लित मग्न खड़ा है। लेकिन वैज्ञानिक को कुछ भी यह दिखाई नहीं पड़ता। वैज्ञानिक को दिखाई पड़ता है वृक्ष का विज्ञान–वनस्पति-विज्ञान। उसे दिखाई पड़ता है वृक्ष किन तत्वों से बना है। उसे दिखाई पड़ता है किन-किन खनिज से मिलकर बना है। पृथ्वी ने क्या-क्या दिया, हवा-पानी से क्या मिला, आकाश-सूरज ने क्या दिया। वैज्ञानिक को दिखाई पड़ता है, यह वृक्ष कैसे निर्मित हुआ है। कैसे इसका सृजन हुआ है। किन चीजों के तालमेल से यह घटना घटी।

कवि भी उसी वृक्ष के नीचे आता है। उसे इस सबकी कुछ भी याद नहीं आती। नहीं कि जो वैज्ञानिक कहता है वह गलत है। उसे खनिज, रसायन, पदार्थ, जिनसे बना है वृक्ष, उनका कोई भी बोध नहीं होता। उसे कुछ और ही बोध होता है।

उसे दिखाई पड़ती हैं सूरज की किरणें वृक्ष की पत्तियों पर नाचतीं। उसे एक सौंदर्य का, एक अपूर्व सौंदर्य का अनुभव होता है–ऐसा कि वह खुद भी नाच उठे। हवा के गुजरते हुए झोंके उसे किसी और ही लोक की खबर और संदेश दे जाते हैं। वह गुनगुनाने लगता है।

वैज्ञानिक गंभीर हो जाता है। सोचने लगता है, विचारने लगता है, विश्लेषण करने लगता है। कवि गुनगुनाने लगता है। गंभीर रहा हो तो गंभीरता गिरा देता है, नाचने लगता है।

दोनों सच हैं। सत्य इतना बड़ा है कि दोनों सच हो सकते हैं, साथ-साथ सच हो सकते हैं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना। बहुत कंजूसी हुई है इसलिए इसे मैं कहता हूं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना। ऐसा मत कहना कि मेरी दृष्टि जहां पूरी होती है वहां सत्य पूरा हो जाता है। तुम्हारी दृष्टि की सीमा है, सत्य की कोई सीमा नहीं। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी को भी समा लेता है। सत्य इतना विराट है कि विरोधाभास भी संयुक्त हो जाते हैं, परिपूरक हो जाते हैं।

अमरीका के बड़े महत्वपूर्ण कवि वाल्ट ह्विटमेन से किसी ने कहा, तुम्हारी कविताओं में बड़े विरोध हैं, बड़े विरोधाभास हैं, कंट्राडिक्शन हैं। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं दूसरी बात कहते हो। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं ठीक उससे उल्टी बात कहते हो। पता है वाल्ट ह्विटमेन ने क्या कहा? वाल्ट ह्विटमेन ने कहा, मैं बहुत विराट हूं। मेरे भीतर सभी विरोध समा जाते हैं और परिपूरक हो जाते हैं।

यह वचन तो ऋषि का हो गया। यह तो बड़ी सूझ का हो गया। यह तो बड़ी अंतर्दृष्टि का हो गया।

सत्य बड़ा विराट है। उसमें विज्ञान भी समा जाता है, उसमें काव्य भी समा जाता है। उसमें सारे तथ्य भी समा जाते हैं और सारी कल्पनाएं भी समा जाती हैं। उसमें गणित और तर्क भी समा जाता है। उसमें रस और भक्ति और प्रेम भी समा जाता है।

जब हम भक्ति की तरह देखते हैं तो हम कुछ चुनते हैं। और जब हम तर्क की तरह देखते हैं तब भी हम कुछ चुनते हैं। जो भी हम देखते हैं वह हमारा चुनाव है। इसका महावीर को बोध था।

इसलिए महावीर ने अपनी दृष्टि तो कही, साथ ही यह भी कहा कि यह दृष्टि मात्र है। और सभी दृष्टियों से जो पार हो जाता है, वही परम सत्य को जान पाता है। जो न वैज्ञानिक रह गया, न कवि रह गया। जिसके पास अपने देखने का कोई पक्षपात नहीं, कोई चश्मा नहीं। जिसकी आंख खुली, खाली, निर्दोष, कुंआरी है। जो कुंआरी आंख से देखता है।

लेकिन कुंआरी आंख से देखना बड़ा कठिन है। क्योंकि कुंआरी आंख से देखने का अर्थ है, हृदय भी सत्य जैसा विराट होना चाहिए। क्योंकि सारे विरोध समाहित करने होंगे। रात और दिन को विरोध में खड़ा न करना होगा। सुख और दुख को विरोध में खड़ा न करना होगा। जीवन और मृत्यु को विरोध में खड़ा न करना होगा। दोनों को साथ-साथ देखना होगा, विपरीत की तरह नहीं, एक-दूसरे के परिपूरक की तरह।

जैसे शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। काले ब्लैकबोर्ड पर ही लिखा जा सकता है सफेद खड़िया से। सफेद दीवाल पर लिखोगे तो दिखाई न पड़ेगा। तो काला सफेद का दुश्मन नहीं है, परिपूरक है। सफेद को उभार लाता है, सफेद को प्रगट करता है, सफेद के लिए अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना बनता है।

दुनिया से जिस दिन कविता खो जाएगी, उस दिन विज्ञान भी खो जाएगा। जिस दिन दुनिया से विज्ञान खो जाएगा, उस दिन कविता भी खो जाएगी। वे एक-दूसरे को उभारते हैं, प्रगट करते हैं। दुनिया समृद्ध है क्योंकि अनंत-अनंत दृष्टियों का यहां मेल है। दुनिया में इतने धर्म हैं, वे मनुष्य को समृद्ध करते हैं। वे अलग-अलग देखने की दृष्टियां हैं।

तुम्हें जो रुचिकर लगे, तुम्हें जो भा जाए उस पर चलना। लेकिन भूलकर भी ऐसा मत सोचना कि यही सत्य है, यही मात्र सत्य है। जिसने ऐसा सोचा, यही सत्य है, उसने अपने सत्य को असत्य कर लिया।

इसलिए महावीर ने स्यातवाद को जन्म दिया। स्यातवाद का अर्थ होता है, मैं भी ठीक, तुम भी ठीक। मैं भी ठीक, तुम भी ठीक, कोई और भी हो वह भी ठीक। जो कहा गया है वह भी ठीक, और जो अभी कहा जाएगा वह भी ठीक। जो दृष्टियां प्रगट हो गई हैं वे तो ठीक हैं ही, जो दृष्टियां भविष्य में प्रगट होंगी वे भी ठीक हैं।

लेकिन सभी दृष्टियां अधूरी हैं। कोई दृष्टि पूरी नहीं है। कोई दृष्टि पूरी हो नहीं सकती। दृष्टि मात्र अधूरी है। जहां सारी दृष्टियां शांत हो जाती हैं वहां दर्शन का जन्म होता है। लेकिन दृष्टियां तो तभी समाप्त होती हैं, जब तुम बिलकुल समाप्त हो जाते हो। जब तक तुम हो, दृष्टि बनी रहती है। तुम्हारे देखने का ढंग प्रभावित करता रहता है। तुम हिंदू हो, तुम मुसलमान हो, तुम जैन हो, तुम ईसाई हो, तो तुम्हारे देखने का ढंग प्रभावित करता रहता है। तुम जो भी देखते हो, उसे तुम रंगते जाते हो। उसे तुम अपने भाव का वस्त्र उढ़ाते जाते हो। तुम उसे अपनी वेशभूषा पहनाते जाते हो।

जब तुम बिलकुल मिट जाते हो, जब न तुम्हारे भीतर हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न ईसाई है, न आस्तिक है, न नास्तिक है; जब तुम यह भी नहीं जानते कि मैं विश्वास करता हूं कि अविश्वास करता हूं; जब तुमने सब धूल झाड़ दी, जब तुम बिलकुल निपट शून्य हो गए, निराकार हो गए तो दर्शन का जन्म होता है। तब जो जाना जाता है, उसे महावीर कहते हैं, वही सत्य है। और वैसा सत्य ही मुक्त करता है।

ये आज के सूत्र, कैसे हम उस मुक्तिदायी सत्य तक पहुचें, कैसे उस मोक्ष को पा लें, कैसे हम सभी पक्षपातों से, सभी जालों से छूट जाएं, कैसे हमारे ऊपर से सारी सीमाएं गिर जाएं और हम असीम हो जाएं, उसके सूत्र हैं।

हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया

करें तो हम भी मगर किस खुदा की बात करें

इसलिए महावीर ने खुदा की बात ही न की।

हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया

जब भी आदमी बोला, जब भी आदमी ने सोचा तो एक नए परमात्मा को जन्म दिया। जब भी आदमी ने विचार किया तो एक नए परमात्मा को गढ़ा। एक मंदिर उठा, मस्जिद उठी, गुरुद्वारा उठा। जब भी आदमी ने जगत के सत्य की खोज करनी चाही, तो उसने प्रतिमा बनाई किसी परमात्मा की–हिंदुओं का परमात्मा है, बौद्धों का, ईसाइयों का, मुसलमानों का, जैनों का। सबकी दृष्टि है। दृष्टि के अनुकूल उनका परमात्मा है।

बाइबल कहती है कि परमात्मा ने आदमी को अपनी ही शकल में बनाया। हालत ठीक उल्टी है। आदमी परमात्मा को अपनी शकल में बनाता है। तुम्हारी जो शकल है वही तुम्हारे परमात्मा की शकल होती है। उससे अन्यथा हो भी नहीं सकती। तुम्हारी शकल में ही तो तुम अपने परमात्मा को गढ़ोगे। थोड़ा सुंदर, थोड़ा सजाया-संवारा, थोड़ा निखारा, भूल-चूकें काटीं, लेकिन होगी तो तुम्हारी ही शकल। थोड़ी सुंदर नाक बनाओगे, थोड़ी सुंदर आंख बनाओगे, लेकिन होगी तो तुम्हारी ही शकल। राम हों कि कृष्ण हों, तुम्हारी ही शकल है। थोड़े सजे-संवरे! जो सुंदरतम की कल्पना हो सकती थी उस कल्पना को…लेकिन वे कल्पनाएं भी बदल जाती हैं।

हरेक दौर का मजहब नया खुदा लाया

वे कल्पनाएं भी बदल जाती हैं।

जब हमने कृष्ण की कल्पना की तो नीलवर्ण सुंदरतम वर्ण समझा जाता था, इसलिए कृष्ण को हमने श्याम कहा। आज तो शायद श्याम कहने को कोई राजी न होगा, अगर नया परमात्मा बनाओ। आज अगर नया परमात्मा बनाओगे तो गौरांग होगा, गोरा होगा। कविता की भाषा बदल गई। उन दिनों श्याम वर्ण की बड़ी चर्चा थी, बड़ी महिमा थी।

ऐसे श्याम वर्ण की खूबियां हैं। गोरा रंग उथला-उथला होता है; उसमें गहराई नहीं होती। श्याम वर्ण में बड़ी गहराई होती है। जैसे नदी बहुत गहरी हो तो नीली हो जाती है; उथली हो तो सफेद रहती है।

उस दिन की धारणा थी तो श्याम वर्ण। उस दिन की धारणा थी तो हमने मोर-मुकुट पहनाया। आज किसी को मोर-मुकुट पहनाओगे तो कठिनाई हो जाएगी।

राम को हमने धनुषबाण दिया। आज धनुषबाण दोगे तो राम हिंसक मालूम होंगे। हवा में अहिंसा है। बात अहिंसा की और शांति की है। आज तो कबूतर देना पड़ेगा। उड़ाओ कबूतर! आज धनुषबाण लेकर राम चलेंगे तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। खुद भी नहीं चल पाएंगे। साथ भी चलने में लोग झिझकेंगे कि धनुषबाण तो रखो महाराज! इसे साथ लेकर चलो तो आदिवासी मालूम पड़ते हो। और फिर धनुषबाण का वक्त गया।

लेकिन उस दिन शौर्य की प्रतिष्ठा थी, बल की पूजा थी, वीर्य की पूजा थी तो हमने धनुषबाण दिया था। धनुषबाण के बिना राम जंचते ही न उस दिन। उस दिन कबूतर का किसी को खयाल ही नहीं था कि शांति के कपोत उड़ाओ।

वक्त बदल जाता है, खुदा की शकल बदल जाती है। समय बदल जाता है, सोचने के ढंग बदल जाते हैं, मापदंड बदल जाते हैं, धारणाएं बदल जाती हैं। तो परमात्मा का रूप हम बदलते चले जाते हैं।

यहूदियों का परमात्मा बहुत क्रुद्ध है। जरा-सी बात पर नाराज हो जाए, जला दे, राख कर दे। ईसाइयों का परमात्मा अति दयालु है। वक्त बदल गया था। यहूदी जहां से गुजर रहे थे, वहां बड़े सख्त और कठोर परमात्मा की जरूरत थी। जहां से जीसस ने परमात्मा की कहानी को पकड़ा, वहां सख्त, कठोर परमात्मा बेहूदा मालूम होने लगा था। थोड़ा अमानवीय मालूम होने लगा था। तो प्रेमपूर्ण परमात्मा। तो जीसस ने कहा, परमात्मा प्रेम है।

ऐसी शकल बदलती जाती है। लेकिन महावीर ने कहा कि ऐसा कब तक करते रहोगे? यह तुम अपनी ही शकल को झांककर देखते रहते हो। यह बात ही बंद करो। इसमें समय मत गंवाओ। परमात्मा को खोजने की फिकर ही छोड़ो। क्योंकि वह खोज में तुम अपनी ही शकल को निर्मित करते हो। बेहतर हो, तुम अपनी ही शकल के भीतर उतरो और अपने को खोज लो।

यह महावीर का बुनियादी सूत्र है। परमात्मा की खोज आत्मखोज बननी चाहिए। क्योंकि तुम जो परमात्मा बनाओगे वह तुम्हारी ही प्रतिछवि होनेवाली है। इसलिए इसको बनाने में व्यर्थ जाल में मत पड़ो। यह तुम्हारा ही खिलौना होगा। तुम अपने भीतर जाओ। उसे खोजो, जिसने सारे परमात्मा बनाए। उसे खोजो, जिसने सारे मंदिर निर्मित किए। उसे खोजो, जिसने सारी प्रार्थनाएं गढ़ी और रचीं। वह जो तुम्हारा चैतन्य का स्रोत है, वह जो तुम्हारा मूलाधार है, उस गंगोत्री की तरफ बहो।

अपने को जान लो। अपने को बिना जाने तुम जो भी परमात्मा के संबंध में सोचोगे, तुम्हारा अज्ञान ही प्रतिफलित होगा।

यह खोज कैसे हो? और जब तक यह खोज न हो जाए तब तक अज्ञान के कारण बड़े उपद्रव होते हैं। परमात्मा के नाम पर लाभ तो कुछ हुआ दिखाई पड़ता नहीं, हानि बहुत हुई मालूम होती है। कितने दंगे-फसाद! कितना खून-खराबी! कितना रक्तपात! सारा इतिहास धर्म के नाम पर बलात्कारों से भरा पड़ा है। मस्जिद-मंदिर ने लड़वाया ही ज्यादा। आदमी काटे। सुंदर बहाने दिए गलत कामों के लिए। खूबसूरत नारे दिए वीभत्स प्रक्रियाओं को छिपा लेने के लिए।

अगर हिंदू को काटो तो पुण्य हो रहा है। अगर तुम मुसलमान हो तो हिंदुओं को काटने में पुण्य है। या हिंदुओं को जबर्दस्ती मुसलमान बना लेने में पुण्य है। अगर तुम हिंदू हो तो बात बदल जाती है। अगर तुम ईसाई हो तो येन-केन-प्रकारेण कैसे भी लोगों को ईसाई बना डालो! खरीद लो रोटी से, धन से, किसी भी उपाय से।

अब तक आदमी ने धर्म के नाम पर जो किया है वह धार्मिक तो नहीं मालूम होता। लेकिन यह स्वाभाविक है। आदमी जो भी करेगा उसमें आदमी की ही छाया पड़ेगी। अगर हम हिंसक हैं तो हमारा धर्म हिंसक होगा। अगर हम मांसाहारी हैं तो हमारे धर्म में मांसाहार के लिए हम कोई उपाय खोज लेंगे। अगर लड़ने की,र् ईष्या की, जलन की वृत्ति है, तो हम अपने धर्म के आधार बना लेंगे, जिनसे हम लड़ेंगे, झगड़ेंगे। आदमी बड़ा चालाक है, बड़ा कपट से भरा है। वह जो करना चाहता है, उस के लिए अच्छे बहाने खोज लेता है। वह बहानों की आड़ में फिर सारे बुरे काम करते चला जाता है।

ये मुसलसल आफतें, ये यूरसें, ये कत्ले-आम

आदमी कब तक रहे औहामे-बातिल का गुलाम

ये निरंतर होते धर्म के नाम पर आक्रमण, ये लगातार होते हुए अनाचार! आदमी कब तक मिथ्या भ्रमों का शिकार रहे!

अगर आज दुनिया में नई पीढ़ियां धर्म के प्रति तिरस्कार से भरी हैं तो इसका कारण नई पीढ़ियां नहीं हैं, अब तक धर्म के नाम पर जो हुआ है उसका बोध। महावीर को यह बात ढाई हजार साल पहले दिखाई पड़नी शुरू हुई कि धर्म के नाम पर जो भी हो रहा है, वह किसी दिन दुनिया में अधर्म ही लाएगा; धर्म उससे आनेवाला नहीं है। इसलिए महावीर ने कुछ सीधी-सीधी बातें कहीं, जिनका मंदिर और मस्जिद, कुरान और बाइबल से कोई लेना देना नहीं। कुछ छोटे-से सूत्र प्रगट किए, जो मनुष्य के अंतर्जीवन में जाने का विज्ञान बन सकते हैं–कैसे तुम अपने भीतर जाओ और कैसे तुम अपने को परिशुद्ध कर लो। फिर तुम जो भी करोगे वह धार्मिक होगा। इसको खयाल में लेना।

आमतौर से कहा जाता है, तुम धार्मिक हो जाओ, फिर तुम जो भी करोगे वह शुभ होगा। महावीर ने कहा, पहले तुम शुभ हो जाओ, फिर तुम जो करोगे वह धार्मिक होगा। इन बातों में बड़ा फर्क है।

हम लोगों को कहते हैं, पहले मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना करो, फिर तुम धीरे-धीरे शुभ हो जाओगे। शुभ होने का मार्ग ही यही है। लेकिन वह जो अशुभ आदमी मंदिर जाएगा, वह मंदिर को अशुभ कर आएगा। मंदिर उसे शुभ न कर पाएगा। मंदिर तो जड़ है; आदमी को न बदल सकेगा। आदमी मंदिर को बदल देता है।

इसलिए महावीर कहते हैं, पहले तुम शुभ होने लगो, फिर तुम जहां जाओगे वहीं मंदिर होगा। यह सूत्र समझना।

“जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बंद करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म, पापकर्म के प्रवेश-मार्ग को रोक देने पर, तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है, नष्ट होता है।’

महावीर कहते हैं, एक तालाब भरा है, इसे हमें सुखा लेना है। हम चाहते हैं कि जमीन वापस मिल जाए। इस तालाब को हम समाप्त करना चाहते हैं। तो हम क्या करेंगे?

तीन काम करने जरूरी हैं। एक सबसे बुनियादी, कि इस तालाब में आने का जो जलस्रोत है, वह रोक दिया जाए। अगर इस तालाब में जल के झरने पड़ते ही रहे तो हम उलीचते भी रहे तो पागलपन होगा। तुम उलीचते रहोगे और नए जल के झरने पानी को भरते रहेंगे।

इसलिए जो प्राथमिक, वैज्ञानिक कदम होगा वह यह कि पहले जल के आनेवाले झरनों को रोक दो।

दूसरा काम होगा, जो भरा हुआ जल है, वह जल के झरने रोकने से नहीं समाप्त हो जाएगा, उसे उलीचो।

और उलीचने से भी पूरा साफ न हो जाएगा। सूर्य के ताप को…सूर्य के ताप की भी सहायता लेनी होगी, ताकि कहीं भी पड़ा न रह जाए। जमीन बिलकुल सूख जाए। जमीन में दबा भी न रह जाए।

तो तीन काम महावीर कहते हैं। पहला तो मूलस्रोत को रोक दो। दूसरा, जो है उसे उलीचो। तीसरा, सूरज की खुली रोशनी को मौका दो ताकि कहीं भी छिपा हुआ, भूमि में दबा हुआ कुछ न रह जाए। सब सूख जाए।

मनुष्य तालाब जैसा है। अनंत-अनंत जन्मों के कर्म भरे पड़े हैं। न मालूम कितनी बुराइयां की हैं, न मालूम कितने धोखे दिए हैं, न मालूम कितने पाप, न मालूम कितने अशुभ, न मालूम कितनी वासनाएं की हैं, आकांक्षाएं की हैं। लोभ, काम, क्रोध–वह सब भरा हुआ पड़ा है।

अब इससे छुटकारा पाना है। इस हृदय की भूमि को मुक्त करना है। तो पहली बात, स्रोत रोको।

बहुत से लोग हैं, जो यह करना चाहते हैं लेकिन स्रोत नहीं रोकते। तो इधर एक हाथ से वे कोशिश भी करते रहते हैं और दूसरे हाथ से मिटाते भी चले जाते हैं।

तुमने भी बहुत बार सोचा होगा कि जीवन में शुभ का अवतरण हो, सत्य का पदार्पण हो, मंगल की वर्षा हो, हम भी कुछ दिव्यता में जीएं। तो कभी-कभी तुमने थोड़ी चेष्टा भी की है। कुछ अच्छा करें; दान करें, पुण्य करें, सेवा करें; कर्तव्य को निभाएं। यह तुमने थोड़ी-बहुत कोशिश भी की है, लेकिन तुम जल्दी थक जाते हो। जल्दी ही पाते हो, यह हो नहीं पाता।

क्यों? क्योंकि मूल वृत्ति तो टूटती नहीं। मूल धारा तो बहती चली जाती है। वह नदी तो गिर रही है, वह तो गिरती ही रहती है। थोड़ा-बहुत उलीचते हो। दान किया तो थोड़ा उलीचा। दान यानी थोड़ा दिया। मगर इससे क्या होगा? आदमी लाख कमाता है तो हजार का दान कर देता है। लाख कमाता तभी हजार का दान करता है; नहीं तो करता ही नहीं।

दान का मौलिक अर्थ यह है कि तुम परिग्रह मत करो। लेकिन दान वही करता है जिसके पास काफी आ रहा है। और वह सोचता है, अब करें भी क्या? थोड़ा दान भी कर लें? एक हाथ से दान करता है लेकिन दान भी ऐसी जगह करता है, इस ढंग से करता है कि आगे और आने का इंतजाम हो जाए। तो राजनेताओं को दान दे देता है, राजनैतिक पार्टियों को दान दे देता है। दान का मजा भी ले लिया और नए लाइसेंस का इंतजाम भी कर लिया।

मूल स्रोत खुला रहता है। मूल धारा गिरती चली जाती है। उसमें से थोड़ा-थोड़ा बांटता भी है। तो दानी होने का मजा भी ले लेता है, लेकिन कभी परिग्रह से मुक्त नहीं हो पाता।

तो पहले तो लोभ की वृत्ति को ही तोड़ देना पड़े। दान जिसे करना है उसे पहले लोभ छोड़ देना पड़े। दान जिसे करना है, पहले उसे वह जो लोभ की मूर्च्छा है, वह त्याग देनी पड़े।

“…वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म पापकर्म के प्रवेशमार्ग को रोक देने पर तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है, नष्ट होता है।’

तो पहले तो हमें अपने पापकर्म कहां से उदय होते हैं, इसकी तलाश करनी चाहिए।

मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं, कि आपके सामने हम कसम लेते हैं कि हम क्रोध न करेंगे। मैं उनसे कहता हूं, तुम कसम तो लेते हो, यह उलीचना तो हुआ, लेकिन अब तक तुम क्रोध करते क्यों रहे? जब तक तुम उसका मूल न खोजोगे, तुम्हारी कसम से थोड़े ही कुछ होगा? यह हो सकता है कसम से तुम दबाने लगो, रोकने लगो, क्रोध को प्रगट न करो। लेकिन क्रोध पैदा नहीं होगा ऐसा कैसे संभव है? कसम के न लेने से थोड़े ही पैदा हो रहा था, जो कसम के लेने से रुक जाएगा। क्रोध पैदा होता था किसी कारण से। उस कारण को खोजो।

क्यों क्रोध पैदा होता है? अहंकार को चोट लगती है तो क्रोध पैदा होता है। तुम्हारी प्रतिमा को कोई नीचे गिराता है तो क्रोध पैदा होता है। तुम समझते हो अपने को जैसा, वैसा कोई नहीं मानता तो क्रोध पैदा होता है। और जब तक अहंकार है भीतर, अहंकार का घाव है भीतर, तब तक क्रोध होता ही रहेगा। तुम लाख कसमें खाओ।

अब मजे की बात यह है कि अक्सर लोग अहंकार के कारण ही कसम भी खा लेते हैं। इस मनुष्य के जाल को समझना। मंदिर में गए, मुनि के पास गए, साधु के पास गए, वहां भीड़ भरी है। वहां कोई कसम खा रहा है कि अब मैं प्रतिज्ञा लेता हूं, अणुव्रत लेता हूं कि अब कभी क्रोध न करूंगा। लोग ताली बजा रहे हैं। लोग कह रहे हैं, धन्यभागी है। कितना भव्य जीव! तुम्हारे अहंकार को भी फुरफुरी लगी।

तुमने कहा, अरे! यह आदमी भव्य जीव हुआ जा रहा है। हम बैठे यहां क्या कर रहे हैं? तुम भी खड़े हो गए। तुम्हें पक्का पता भी नहीं तुम क्यों खड़े हो गए हो! लेकिन लोगों ने और तालियां बजाईं कि चलो, एक भव्य जीव और पैदा हुआ। तुमने कसम ले ली। तुमने प्रतिज्ञा ले ली। तुमने कहा कि मैं अब कभी क्रोध न करूंगा। या ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया।

लेकिन यह कोई व्रत से हल होनेवाली बात है? इतना सस्ता मामला है? तो तुम क्रोध के विज्ञान को समझ ही नहीं रहे। जो क्रोध के विज्ञान का मौलिक आधार है वही भर रहा है इस प्रतिज्ञा से भी। तुम्हारे अहंकार को मजा आ रहा है, रस आ रहा है।

इसीलिए तो लोग त्यागीत्तपस्वियों की खूब प्रशंसा करते हैं। रथयात्रा निकाल देते हैं, शोभायात्रा निकाल देते हैं। बैंडबाजे के साथ त्यागी का स्वागत कर देते हैं। अब यह जो त्यागी है, इसका अहंकार फुसलाया जा रहा है। इसका प्रभाव बढ़ रहा है। इसकी अस्मिता प्रगाढ़ हो रही है। और अस्मिता ही सारे रोगों का कारण है। वह अहंकार ही सारे लोगों का कारण है।

तो जरा त्यागी का तुम अपमान करके देखना, तब पता चलेगा। संसारी तो शायद तुम धक्का-मुक्का दे दो, उसके पैर पर पैर रख दो तो कहेगा, चलता ही रहता है। संसार में यह होता ही रहता है। जरा त्यागी के पैर पर पैर पड़ जाए, तब अड़चन हो जाएगी। तुम जैसा त्यागी को क्रोधी पाओगे वैसा तुम संसारी को क्रोधी न पाओगे। घर में एक आदमी धार्मिक होने लगे तो घर भर परेशान हो जाता है।

तुम सभी को अनुभव होगा। एकाध घर में कोई उपद्र्रवी हुआ और धार्मिक हो गया…। अब वे पूजा कर रहे हैं तो घर में कोई आवाज नहीं कर सकता, बच्चे खेल नहीं सकते, रेडियो नहीं चलाया जा सकता। उनके ध्यान में बाधा पड़ती है। वह सारे घर का दमन करने लगता है। वे भोजन करने बैठे हैं तो, वे चलें-उठें-बैठें तो।

तुम कभी किसी त्यागी के साथ रहे हो? त्यागी को दूर से देखना सुख। त्यागी के पास रहो, तुम भाग खड़े होओगे। क्योंकि वहां हर चीज बंधी-बंधी मालूम पड़ेगी। तुम भी बंधे हुए मालूम पड़ोगे। त्यागी बड़ा बोझरूप हो जाएगा। उसका अहंकार पत्थर की तरह है। वह तुम्हारी छाती पर लटक जाएगा। होना तो उल्टा चाहिए था कि त्यागी विनम्र हो जाता, कि त्यागी के साथ रहना आनंद और सौभाग्य हो जाता, कि उसके पास थोड़ी देर रहने को मिल जाता तो तुम्हारे जीवन में भी फूल खिलते। मगर ऐसा होता नहीं। लोग त्यागियों को नमस्कार करके बच निकलते हैं। वह नमस्कार भी बच निकलने की तरकीब है कि महाराज! आप यहां ठीक, हम अपनी जगह ठीक। अब आप मिल गए तो पैर छूए लेते हैं। और करें भी क्या? मगर आपने महान त्याग किया है।

खयाल रखना, आदमी को क्रोध आता है अहंकार पर चोट लगने से। और क्रोध त्याग की भी वह चेष्टा करता है अहंकार को ही भरने के लिए। तो मूल रोग तो जारी रहता है। आदमी को लोभ है, मद है, मत्सर है मूर्च्छा के कारण। उसे होश नहीं कि मैं कौन हूं। इसी बेहोशी में वह कसमें भी लेता है, संसार भी त्याग देता है। हिमालय चला जाता है। लेकिन बेहोशी तो छूटती नहीं। बेहोशी अपनी जगह बनी है।

तो महावीर कहते हैं, “यह जिनवचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता।’

“संवरविहीन मुनि…।’

जिसने मूल स्रोत को नहीं रोका है। जिसमें आने का मार्ग तो खुला ही हुआ है और जो थोड़े-बहुत उलीचने में लग गया है।

तुम एक नाव में जा रहे हो, छेद हो गए हैं नाव में, पानी भरा जा रहा है। तुम छेद तो रोकते नहीं, पानी उलीचते हो। यह नाव बहुत ज्यादा देर चलेगी नहीं, यह डूबेगी। पानी उलीचना जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है छेदों का बंद कर देना।

महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि पानी मत उलीचो। लेकिन पानी उलीचने से क्या होगा? अगर छेद नया पानी लाए चले जा रहे हैं तो तुम व्यर्थ की चेष्टा में लगे हो। पहले छेद बंद करो, फिर पानी उलीच लो तो कुछ राह बनेगी। तो नाव के उस पार पहुंचने का उपाय होगा।

छेद खोजो अपने जीवन के। बुराई को छोड़ने की उतनी चिंता मत करो। बुराई कहां से आती है इसकी खोज करो। लेकर प्रकाश, ध्यान का दीया लेकर अपने भीतर खोज करो कहां से बुराई आती है।

बुद्ध से कोई पूछता कि क्रोध कैसे छोड़ें तो बुद्ध कहते, पहले यह तो जानो कि तुम क्रोध करते कैसे हो। छोड़ने की बात पीछे। नंबर दो है, दोयम। प्रथम है, तुम क्रोध करते कैसे हो। तो अब तुम ऐसी कोशिश करो कि जब क्रोध हो तब तुम पूरी तरह जागकर देखना कि क्रोध उठता कैसे है। यह सीधी बात है।

बुद्ध एक दिन सुबह-सुबह अपने भिक्षुओं के बीच आए, बैठे; और उन्होंने एक रूमाल हाथ में लिया हुआ था, उसमें एक गांठ बांधी, दूसरी गांठ बांधी, पांच गांठें बांधीं। भिक्षु देखते रहे चौंककर कि मामला क्या है? ऐसा उन्होंने कभी किया न था।

फिर उन्होंने पूछा कि भिक्षुओ, इस रूमाल में पांच गांठें लग गईं। तुमने दोनों हालतें देखीं, जब इसमें कोई गांठ न थी और अब जब कि गांठ लग गई। क्या यह रूमाल दूसरा है या वही है? गांठ से शून्य और गांठ लगे रूमाल में कोई फर्क है या यह वही है?

एक भिक्षु ने कहा कि महाराज! आप झंझट में डालते हैं। एक अर्थ में तो यह रूमाल वही है। गांठ जरूर लग गईं लेकिन रूमाल तो वही का वही है। और दूसरे अर्थ में रूमाल वही नहीं है क्योंकि पहले रूमाल में गांठें नहीं थीं। वह गांठमुक्त था, इसमें गांठें हैं।

बुद्ध ने कहा, ऐसा ही आदमी है। आदमी परमात्मा ही है, बस गांठें लग गई हैं। फर्क इतना ही है जितना गांठ लगे रूमाल में और गैर-गांठ लगे रूमाल में है! दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। गांठ में थोड़ी उलझन बढ़ गई है, बस। गांठ खोलनी है।

तो बुद्ध ने कहा, ठीक है, गांठ खोलनी है। तो मैं तुमसे पूछता हूं, मैं क्या करूं कि जिससे गांठ खुल जाएं? और उन्होंने दोनों रूमाल के कोने पकड़कर खींचना शुरू किया। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि महाराज! इससे तो गांठें और छोटी हुई जा रही हैं। आप खींच रहे हैं, इससे तो गांठों का खुलना मुश्किल हो जाएगा। यह कोई ढंग न हुआ खोलने का। इससे तो और उलझन बढ़ जाएगी। खींचने से कहीं गांठें खुली हैं? गांठें छोटी होती जा रही हैं, और सूक्ष्म होती जा रही हैं। इतनी छोटी हो जाएंगी तो फिर खोलना मुश्किल हो जाएगा।

तो बुद्ध ने कहा, मैं क्या करूं? तो उस भिक्षु ने कहा, आप रूमाल मेरे हाथ में दें। मैं पहले देखना चाहता हूं कि गांठें किस ढंग से लगाई गई हैं। क्योंकि जब तक यह पता न हो कि लगाई कैसे गईं तब तक खोली नहीं जा सकतीं। बुद्ध ने कहा, मेरी बात तुम्हारी समझ में आ गई। इतना ही दिखाने के लिए मैंने यह रूमाल, ये गांठें और यह प्रयोग किया था।

जिस चीज को भी खोलना हो वह लगी कैसे? खोलने के लिए जल्दी मत करना। क्योंकि डर यह है कि कहीं तुम खींचनेत्तानने में गांठ को और छोटा न कर लो।

और मैं ऐसा ही देखता हूं। यही हुआ है, हो रहा है। आदमी क्रोध को छोड़ना चाहता है। और इसको बिना समझे कि क्रोध की गांठ लगी कैसे, खींचतान में पड़ जाता है। क्रोध की गांठ और छोटी हो जाती है। संसारी में क्रोध की गांठ थोड़ी फुसली-फुसली है, जल्दी खुल सकती है। त्यागी में बहुत मुश्किल है। गृहस्थ में इतनी उलझी नहीं है, जितनी संन्यासी में उलझ जाती है। घर में जो बैठा है, इसकी बड़ी मोटी-मोटी गांठ है। वह जो मुनि होकर मंदिर में बैठ गया है, उसकी बड़ी सूक्ष्म गांठ है। उसने खूब खींच ली हैं। हां, सूक्ष्म होने में एक लाभ मालूम पड़ता है–लाभ है नहीं–वह यही मालूम पड़ता है कि गांठ अगर बहुत सूक्ष्म हो जाए तो किसी को दिखाई नहीं पड़ती। मगर गांठ से छुटकारा थोड़े ही होता है! दिखाई नहीं पड़ने से छुटकारा तो नहीं होता।

तो लोग गांठों को सूक्ष्म करते जाते हैं। तुम कामवासना छोड़ना चाहते हो। ब्रह्मचर्य की चर्चा सदियों तक चली है। ब्रह्मचर्य के बड़े स्तुति में गीत गाए गए हैं। तो तुम्हारे मन में भी लोभ जगता कि हम भी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हों। अच्छा है, शुभ है भाव, लेकिन जब तक कामवासना को समझा नहीं, तब तक तुम मुक्त कैसे हो सकोगे? जब तक कामवासना को जागकर देखा नहीं कि यह गांठ लगती कैसे? इसके लगने की विधि क्या है? यह कैसे जकड़ लेती है और मन को घेर लेती है, और मन को डुबा लेती है? खींच लेती, अवश कर देती, असहाय कर देती। जहां नहीं जाना वहां खिंचे चले जाते हैं। जो नहीं करना वह फिर-फिर कर लेते हैं। इस गांठ को ठीक से जानना जरूरी है।

तो महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति संवरविहीन है…। संवर महावीर का पारिभाषिक शब्द है। संवर का अर्थ है आने का मार्ग। जिसने मूल उदगम को नहीं रोका है। कुएं से पानी उलीच रहा है और झरना नया पानी लिए चला आ रहा है। झरना भरे जा रहा है कुएं को और तुम उलीचे जा रहे हो। तुम्हारे उलीचने से कुछ लाभ नहीं है। खतरा तो यह है कि तुम्हारे उलीचने से आनेवाला झरना और गतिमान हो जाएगा।

यह तुमने खयाल किया होगा। अगर किसी कुएं का पानी वर्षों तक न भरो तो सूख भी सकता है। क्योंकि जब पानी कोई भरता ही नहीं कुएं में तो झरना धीरे-धीरे अवरुद्ध हो जाता है। धूल जम जाती है। कंकड़-पत्थर बैठ जाते हैं, मिट्टी बैठ जाती है। झरना धीरे-धीरे मुंद जाता है। झरने का काम ही नहीं रह जाता। तुम एक बाल्टी पानी निकालते हो, एक बाल्टी पानी झरने को कुएं में भरना पड़ता है। तो झरना चलता रहता है। जो झरे, वही झरना। जब झरे ही न, तो झरना बंद हो जाता है।

अगर वर्षों तक कुएं से पानी न भरा जाए तो संभव है कुआं सूख जाए। लेकिन उलीचनेवाला अगर झरने बंद न करे, तब तो कुआं कभी नहीं सूखेगा। क्योंकि कुएं के पीछे सागर छिपा है, जहां से झरने भागे चले आ रहे हैं। इधर तुम उलीचते हो, झरनों को और गति मिल जाती है। वे और तेजी से भागे चले आते हैं। उनको और काम मिल जाता है।

इसलिए जिस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य को थोपने की कोशिश की और कामवासना के झरने को रोका नहीं, कामवासना को समझा नहीं, उसके विज्ञान को पहचाना नहीं, वह और मुश्किल में पड़ जाएगा। तुम कोशिश करके देखो। जैसे-जैसे तुम ब्रह्मचर्य की चेष्टा करोगे, तुम पाओगे खोपड़ी में झरने ही झरने खुल गए, वासना ही वासना के। वही-वही विचार उठते हैं, वही-वही स्वप्न आते हैं। कहीं भी नजर डालो, तुम्हें बस वासना का ही विस्तार दिखाई पड़ेगा। तुम जो भी देखोगे वहां वासना दिखाई पड़ेगी।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोवैज्ञानिक के पास गया था। एक ऊंट निकल रहा था रास्ते पर से। तो उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा, इस ऊंट को देखकर तुम्हें किस बात की याद आती है? उसने कहा, स्त्री की। जरा मनोवैज्ञानिक भी चौंका। उसने कहा अच्छा कोई बात नहीं। यह जो घड़ी लटकी है इसको देखकर तुम्हें किसकी याद आती है? उसने कहा, स्त्री की। उसने कहा, मुझे देखकर तुम्हें किसकी याद आती है, उसने कहा, स्त्री की। उसने कहा, तुम हद्द पागल आदमी हो! उसने कहा, पागल क्या? मुझे स्त्री के सिवाय किसी की याद ही नहीं आती। इसमें ऊंट का कोई संबंध नहीं है, न घड़ी का, न तुम्हारा। मुझे याद ही स्त्री की आती है। इससे ऊंट का कोई संबंध मत जोड़ना कि ऊंट को देखकर मुझे स्त्री की याद आती है। याद ही बस एक आती है।

तुम जरा कोशिश करके देखो। जिस चीज से तुम जबर्दस्ती छूटना चाहो, उसकी याद सघन हो जाती है। एक दिन तय करके देख लो कि महीनेभर ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। महीनेभर का ही लेना, ज्यादा का मत लेना क्योंकि प्रायोगिक है। उस महीने में तुम पाओगे कि सारी जीवन-ऊर्जा बस कामवासना में ही संलग्न हो गई। दो-चार दिन उपवास करके देख लो, बस भोजन ही भोजन, भोजन ही भोजन। ऐसे विचार तुम्हें भोजन के पहले कभी भी न आते थे, वे उपवास में आते हैं। तो उल्टी घटना घट जाती है।

मैं जैनों के घरों में ठहरता रहा। उनके पर्युषण पर्व आते, दस-दस दिन का उपवास कर लेते। इधर सोहन बैठी है पीछे; वह आठ-आठ दिन के उपवास करती रही, उससे पूछो। सालभर चौके में काम करती है, भोजन बनाती है, भोजन खिलाती है–और अच्छा भोजन बनाती है–भोजन की याद ही न आएगी। अक्सर जो महिलाएं भोजन बनाती हैं उनको भोजन में रस ही खो जाता है। भोजन बनानेवाले को भोजन करने में उतना मजा नहीं आता।

लेकिन उपवास कर लो तो सब झरने खुल जाते हैं। सब तरफ से रसधार बहने लगती हैं। जैसे स्वाद ही जीवन का केंद्र बन जाता है। और इसलिए जैन पर्युषण के बाद जैसे भोजन पर टूटते हैं…! तुम जाकर साग-सब्जीवालों से पूछ सकते हो कि पर्युषण के बाद एकदम दाम बढ़ जाते हैं। मिठाई के दुकानदारों से पूछ सकते हो कि पर्युषण के बाद एकदम बिक्री बढ़ जाती है। आठ दिन, दस दिन किसी तरह सोच-सोचकर विचार कर-करके टाले रखते हैं। और दस दिन के बाद पागल होकर टूट पड़ते हैं।

जिस चीज को तुम जबर्दस्ती रोकोगे, उसको महावीर कहते हैं यह तपश्चर्या तो हुई, संवर न हुआ। अकेली तपश्चर्या से कोई मुनि मोक्ष को उपलब्ध नहीं होता। संवर पहली बात है। झरने को सुखाओ।

झरना कहां है? सभी चीजों का मौलिक झरना कहां है? वह मनुष्य की अचेतना में है। वह मनुष्य की मूर्च्छा में है। हम बेहोश हैं। हमें पता ही नहीं गांठ कैसे लगती है! रोज गांठ लगती है और हम देख नहीं पाते। क्रोध रोज उठता है और हम देख नहीं पाते कि यह गांठ हमारे रूमाल पर लगती कैसे?

तो अब जब क्रोध उठे तो उस मौके को खोना मत। वह बड़ा स्वर्ण-अवसर है। क्रोध जैसी महत्वपूर्ण घटना घट रही है। इसे तुम फिजूल की बकवास में खराब मत कर देना। जब क्रोध उठे तो द्वार-दरवाजे बंद करके बैठ जाना। और क्रोध की गांठ तुम्हारे मन पर कैसे लग रही है उसका पूरा दर्शन करना, अवलोकन करना, निरीक्षण करना, देखना, दबाना मत, क्योंकि दबाने की कोई जरूरत नहीं है। किसी पर निकालना भी मत, क्योंकि किसी पर निकालने में समय खो जाएगा। वह तो घड़ी देखने की है, साक्षात्कार की।

किसी ने गाली दी, तुम क्रोध से उबलने लगे; भागो! बंद करो अपना द्वार-दरवाजा। बैठकर कमरे में आंख बंद करके देखो। यह जो धुआं उठ रहा है क्रोध का, कहां से आ रहा है? कहां है इसका ईंधन? कहां है इसकी मूल चिनगारी?

और यह तो तभी संभव है इसको देखना, जब तुम कोई विरोध न करो। तुम यह न कहो कि यह बुरा है, गंदा है, पाप है। क्योंकि जैसे ही तुमने यह कहा, तुम्हारी आंखें बंद हो गईं। दुश्मन को हम आंख मिलाकर थोड़े ही देखते हैं! सिर्फ गहरे प्रेम में ही, मैत्री में ही किसी की आंख में आंख डालकर देखते हैं। दुश्मन से तो हम बचकर निकल जाते हैं।

अगर क्रोध को तुमने दुश्मन समझ लिया तो फिर तुम कभी क्रोध का निरीक्षण न कर पाओगे। निरीक्षण न किया तो गांठ कैसे लगती है, समझ में न आएगा। गांठ कैसे लगती है समझ में न आया तो गांठ खोलोगे कैसे? कसमें खाने से थोड़े ही गांठ खुलती है!

इसलिए मैं कहता हूं महावीर ने धर्म को वैज्ञानिक रूप दिया। धर्म को मनोविज्ञान बनाया। उसको ठीक जहां से काम शुरू होना चाहिए, वहां से इशारे किए।

पहला इशारा उनका यह है कि मूलस्रोत की पहचान; मूल उदगम की पहचान।

और तुमने खयाल किया? अगर गंगा को पकड़ना हो, वश में करना हो तो गंगोत्री पर जितना सरल है फिर आगे कहीं भी उतना सरल नहीं है। गंगोत्री पर तो ऐसे छोटा-सा झरना है गंगा। गौमुख में से गिरती है, बहुत बड़ी हो भी नहीं सकती। गंगा को अगर वश में करना हो तो गंगोत्री पर करना आसान है। प्रयाग में या काशी में अगर वश में करने गए तो तुम पागल हो जाओगे। वह वश में होनेवाली नहीं। बहुत बड़ी हो जाती है।

सभी चीजें अपने मूल उदगम पर बड़ी छोटी होती हैं, तुम्हारी सीमा के भीतर होती हैं।

तो क्रोध को वहां देखो, जहां से क्रोध उठता है। काम को वहां देखो जहां से काम उठता है। झगड़े का सवाल नहीं है। एक वैज्ञानिक अवलोकन की बात है।

“यह जिनवचन है कि संवरहीन मुनि को केवल तप करने से मोक्ष नहीं मिलता, जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता।’

तो पहली चीज, मूलस्रोत की पहचान। उस मूलस्रोत को एक ही नाम दिया जा सकता है, वह है मूर्च्छा। महावीर का शब्द है प्रमाद–सोए-सोए जीना।

हम जी तो जरूर रहे हैं, लेकिन हमारा जीना बड़ी तंद्रा से भरा हुआ है। कुछ ठीक पक्का पता नहीं है क्यों जी रहे हैं। कुछ पक्का पता नहीं कौन हैं। कुछ पक्का पता नहीं कहां जा रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। धक्कमधुक्की है, चले जा रहे हैं।

कभी भीड़ में देखा? कोई भीड़ का रेला आ रहा हो, लोग चले जा रहे हों, तुम भी चले जा रहे हो। रुकना भी मुश्किल क्योंकि भीड़ धक्के दे रही है। तुम्हें यह पक्का पता भी नहीं कहां जा रहे, कहां से ले जाए जा रहे, यह भीड़ कहां जा रही है। लेकिन यह सोचकर कि सब जा रहे हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे, आदमी चलता चला जाता है। हम पैदा भीड़ में होते हैं, और भीड़ में ही मर जाते हैं। और हमें पता ही नहीं चल पाता हमें जाना कहां था, होना क्या था। क्या होने को हम पैदा हुए थे। हमारी नियति क्या थी। हमारा स्वभाव क्या था।

यह मूर्च्छा तोड़ना पहली बात है। कैसे टूटे यह मूर्च्छा? जो भी करो, महावीर कहते हैं; विवेकपूर्वक करो।

जैन मुनि विवेक का बड़ा गलत अर्थ करते हैं। जब तुम जैन मुनि से पूछोगे कि महावीर जब कहते हैं “जयं चरे, जयं चिट्ठे’–विवेक से उठें, विवेक से बैठें, तो उनका मतलब क्या है? तो जैन मुनि कहेगा, विवेक से बैठने का मतलब जमीन झाड़कर बैठें। कोई चींटी न मर जाए। पानी छानकर पीएं कि कोई हिंसा न हो जाए। यह विवेक का अर्थ!

यह विवेक का अर्थ नहीं है। विवेक का अर्थ है, बैठने की क्रिया में मूर्च्छा न हो। जब तुम बैठो तो सिर्फ बैठो। उस वक्त तुम्हारा चैतन्य सिर्फ बैठने का ही काम करे, बस। जब तुम चलो तो सिर्फ चलने का ही काम करे, बस। तुम कुछ और हजार बातें न सोचो।

रास्ते पर तुम चल रहे हो, हजार बातें सोच रहे हो। तो चलना तो मूर्च्छित होगा ही। मन हजार जगह एक साथ थोड़े ही हो सकता है। एक ही जगह हो सकता है। भोजन तुम कर रहे हो, उस वक्त बैठे तुम दुकान पर विचार कर रहे हो। बैठे घर में, भोजन कर रहे, विचार चल रहा बाजार का।

मैंने सुना है, एक आदमी एक साधु के पास जाता था। बड़ा भक्तिभाव में रस लेता था, भजन-कीर्तन करता था। और जो लोग भी भजन-कीर्तन इत्यादि करने लगते हैं, वे चाहते हैं सभी को करवा दें। हिंसा का भाव है वह। क्योंकि तुम कौन हो सभी को करवाने वाले? वह अपनी पत्नी को भी लगाना चाहता था। दुनिया में सबसे कठिन काम वही है। पति को अगर भजन-कीर्तन करना है, पत्नी निश्चित रूप से भजन-कीर्तन नहीं करेगी। दो में से एक ही करता है। दोनों…आकस्मिक संयोग हो जाए, बात अलग। ऐसा होता नहीं।

तो वह पत्नी को बड़ी खींचतान मचाता था, बड़ा शोरगुल मचाता था कि चल, धर्म कर कुछ। समय खो रही है। जीवन जा रहा है। लेकिन पत्नी अपनी जिद्द पर थी। उसने अपने गुरु को कहा। गुरु ने कहा, मैं आऊंगा। मैं तेरी पत्नी को समझाऊंगा। कल सुबह आता हूं पांच बजे।

तो पति तो उठ जाता था चार बजे ही से। जोर से शोरगुल मचाता था। उसको ही वह भजन-कीर्तन कहता था। हालांकि मोहल्ला भर उसको गाली देता था। बच्चे घर के गाली देते थे। मगर धार्मिक आदमी जब इस तरह के काम करता है तो कोई रुकावट भी नहीं डाल सकता।

वह जब आया साधु, उसने द्वार पर दस्तक दी तो पत्नी बुहारी लगा रही थी। उसने पत्नी से कहा कि देखो, तुम्हारा पति कितना ध्यान में लीन है! उसकी पत्नी ने कहा, छोड़ो बकवास! वह इस समय बाजार गया हुआ है और एक जूते की दुकान पर जूते खरीद रहा है।

वह पति तो अंदर बैठा था। उसने यह सुना तो वह बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा हद्द हो गई! झूठ की भी एक सीमा होती है। पांच बजे रात न तो दुकानें खुलीं, और मैं इधर अपने ध्यान में लगा हूं। अब यह दिखता है कि यह सोचकर कि मैं बीच में उठ नहीं सकता…। वह निकलकर बाहर आ गया। उसने कहा, तूने समझा क्या है? मैं इधर घर में बैठा हूं। ध्यान कर रहा हूं, तुझे पता है। झूठ बोल रही है सरासर!

उसकी पत्नी ने कहा, अब तुम ईमान से कह दो। कम से कम तुम्हारे गुरु की मौजूदगी में ईमान से कह दो, कि तुम नहीं चमार की दुकान पर थे? जूते नहीं खरीद रहे थे?

वह थोड़ा चौंका। और गुरु सामने खड़ा था, एकदम झूठ बोल भी न सका। गुरु ने कहा, क्या मामला क्या है?

उसने कहा, यह बात तो ठीक कह रही है मगर इसको पता कैसे चला? क्योंकि जूते फट गए हैं मेरे, तो मैं ध्यान तो कर रहा था, लेकिन खयाल बाजार का था। और मैं जरूर पहुंच गया था चमार की दुकान पर। झगड़ा मच गया था, क्योंकि दाम वह बहुत ज्यादा बता रहा था। मोल-भाव कर रहा था। मगर इसको पता कैसे चला?

अब यह तो किसी को भी पता नहीं कि स्त्रियों को पता कैसे चलता है, मगर चल जाता है। छिपा नहीं सकते स्त्रियों से कुछ। पता चल ही जाता है।

तो तुम जब ध्यान कर रहे हो, तब ध्यान ही हो। मगर यह तभी हो पाएगा जब तुम और काम भी ध्यानपूर्वक ही करने लगो। चलो तो सिर्फ चलो। भोजन करो तो सिर्फ भोजन करो। बिस्तर पर लेटो तो बस फिर लेट ही जाओ। फिर मन न दौड़ता रहे हजार जगह! नहीं तो लेटने की क्या जरूरत? दौड़ते ही रहो।

लोग लेट जाते हैं बिस्तर पर, फिर कहते हैं नींद नहीं आती। नींद न आने का कुल कारण इतना है कि तुम लेटते ही नहीं। शरीर तो पड़ा है बिस्तर पर लाश की भांति; मन भाग रहा है दूर-दूर लोकों में; न मालूम कहां-कहां की योजनाओं में।

जब मन भागा हुआ है तो नींद नहीं घट सकती। विश्राम तो तभी संभव है जब मन और शरीर तालमेल करते हैं। मन कहीं जा रहा है, शरीर बिस्तर पर पड़ा है। दोनों में इतना खिंचाव है, तनाव है, नींद संभव नहीं है।

साधु ही सोता है। साधु ही सो सकता है। क्योंकि साधु ही जगता है। जब जगता है तो बस जगता है। जब सोता है तो बस सोता है।

महावीर का जो वचन है, विवेक, जागरूकता, अप्रमाद, यतनाचार, जतनपूर्वक जीना–उसका अर्थ जैन मुनि बड़ा क्षुद्र कर रहे हैं। हालांकि जो वे अर्थ कर रहे हैं वह मेरे अर्थ में समाविष्ट हो जाता है, लेकिन उनके अर्थ में मेरा अर्थ समाविष्ट नहीं होता।

जो व्यक्ति जागरूकता से जीएगा वह स्वभावतः देखकर चलेगा कि किसी कीड़े-मकोड़े पर पैर न पड़ जाए। इसके लिए देखकर चलने की अलग से जरूरत न रहेगी, जागकर चलना काफी है। वह तो नींद में ही, बेहोशी में ही चलते हो इसलिए ऐसी भूल हो जाती है।

जो आदमी जागकर जी रहा है उसके सारे जीवन की प्रक्रियाओं में जागरण का प्रकाश पड़ने लगेगा। उसके जीवन से हिंसा समाप्त हो जाएगी। जिसके भीतर तनाव नहीं, उसके बाहर हिंसा समाप्त हो जाती है। जिसके भीतर संघर्ष नहीं, उसके बाहर संघर्ष समाप्त हो जाता है। बाहर तो हम लड़ते इसीलिए हैं कि भीतर लड़ रहे हैं। बाहर तो हमारे जीवन में धुआं इसीलिए दिखाई पड़ता है कि भीतर हम जल रहे हैं।

बाहर के बदलने से कुछ भी न होगा, भीतर की बदलाहट होगी तो बाहर की बदलाहट अपने से हो जाती है। अंतस बदला तो आचरण अपने से बदल जाता है।

तो मेरी दृष्टि में महावीर के सूत्र का अर्थ हुआ: अंतस में दीया जला रहे।

तुम जरा कोशिश करो। बहुत कठिन मामला है। जैन मुनि जो कहता है वह सरल है; इसलिए दो कौड़ी का है। वह तो कोई भी अभ्यास कर ले सकता है। उसका कोई बहुत मतलब नहीं है।

पानी छानकर पी लेने का कोई बहुत मतलब नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा कि पानी छानकर मत पीना। लेकिन यह मत समझ लेना कि पानी छानकर पी लिया तो मोक्ष कुछ करीब आ गया। ठीक किया। हाइजनिक है, स्वास्थ्यवर्धक है। पानी छानकर पीया तो वैज्ञानिक दृष्टि से ठीक काम किया। लेकिन इससे कुछ मुक्ति करीब आ रही है ऐसा मत सोच लेना। जमीन बुहारकर बैठे, ठीक किया। जो करने योग्य था वह किया। लेकिन इससे कुछ अतिमानवीय रोशनी का जन्म नहीं हो जाएगा। इससे कुछ परमात्मा तुममें नहीं उतर आएगा।

इतने सस्ते में तुम परमात्मा को लाना चाहते हो तो तुम जरा जरूरत से ज्यादा मांग रहे हो। तुम कहते हो, हम रोज बुहारी लगाकर बैठे, रोज पानी छानकर पीया, मोक्ष कहां है? लेकिन तुम मोक्ष की कीमत कितनी आंक रहे हो? मोक्ष का मतलब हुआ: बुहारी लगाकर बैठे + पानी छानकर पीया = मोक्ष? मोक्ष दो कौड़ी का कर दिया तुमने।

नहीं, मोक्ष बड़ी घटना है। और उस बड़ी घटना की बड़ी तैयारी जरूरी है।

उस तैयारी का पहला कदम तुम उठाना शुरू करो। मैं कहता हूं कठिन है। क्योंकि अगर तुम जागकर चलना चाहोगे तो तुम पाओगे, क्षणभर भी नहीं चल पाते। अगर भोजन तुम होश से करना चाहोगे तो एकाध कौर कर लिया तो बहुत। फिर भटके, फिर भटके। लेकिन बार-बार लौटाते रहो! पकड़-पकड़कर अपने घर आते रहो। फिर जब याद आ जाए कि अरे! कहां चला गया? फिर चबाने लगे बिना होश के, फिर लौटकर आ जाओ। फिर हाथ शिथिल कर लो। फिर से अपने को जगाकर बैठ जाओ। फिर से भोजन शुरू कर दो।

राह चलते-चलते एक कदम चलोगे, होश रहेगा, दूसरे कदम पर फिर बेहोशी आ गई, फिर कोई खयाल उतर आया, फिर किसी खयाल में खो गए। जब याद आ जाए, फिर अपने को सम्हाल लो। शुरू-शुरू में तो ऐसा ही होगा। पकड़ोगे, खोओगे; पकड़ोगे, खोओगे। हाथ लगेगा धागा, छूटेगा; छूटेगा हजार बार।

तुम फिकिर मत करो। हजार बार छूटे, हजार बार पकड़ो। इससे हताश भी मत होना, क्योंकि यह बात ही ऐसी है कि सधते-सधते सधती है। यह बात इतनी मूल्यवान है कि यह एक दफा में सध जाती तो इसका कोई मूल्य ही न था। ये कोई मौसमी फूल नहीं हैं कि डाल दिए बीज और दो-चार सप्ताह में फूल आ गए। ये तो देवदार और चिनार के बड़े वृक्ष हैं, जो बहुत समय लेते हैं। बड़े होते हैं। आकाश को छूने जाते हैं।

मोक्ष से बड़ी और कोई घटना इस संसार में नहीं है, न इस संसार के बाहर है। मोक्ष महत्तम घटना है। इसलिए उसके लिए जितना भी श्रम किया जाए वह अंततः थोड़ा है। जब मोक्ष की उपलब्धि होती है तो पता चलता है, जो हमने किया था वह न कुछ था। हां, जब तक मिला नहीं है मोक्ष, तब तक ऐसा लगता है कि कितना कर रहे हैं, और कुछ भी नहीं हो रहा है…कुछ भी नहीं हो रहा है।

और बात खयाल रखना, जैसे सौ डिग्री गर्मी पर पानी भाप बनता है–निन्यानबे पर भी भाप नहीं बनता, साढ़े निन्यानबे पर भी भाप नहीं बनता, ठीक सौ डिग्री पर बनता है। ऐसे ही तुम्हारे प्रयत्न की एक डिग्री है। तुम्हारी चेष्टा की एक डिग्री है, तुम्हारे तप की एक डिग्री है। ठीक उस जगह आकर अचानक रोशनी हो जाती है, अंधकार कट जाता है। उसके एक क्षण पहले तक गहन अंधेरी रात थी।

हताश मत होना। लौट मत जाना। यह मत सोचना कि क्या फायदा! हो सकता है, तुम सनतानबे डिग्री पर थे कि अनठानबे डिग्री पर थे और लौट गए, निराश हो गए। एक कदम और–एक कदम और। लौटना ही मत। जीवन की एक ही बात को याद रखो तो महावीर का सारा सार-संचय तुम्हारे पास रहेगा। उठो जागकर, बैठो जागकर, चलो जागकर, बोलो, सुनो–जो भी करो–अपने को झकझोर कर। भीतर दीया जागने का जगा रहे।

तुम मुझे यहां सुन रहे हो, तुम इस तरह सुन सकते हो कि बैठे हैं, हजार बातें चल रही हैं खोपड़ी में, यह मेरी बात भी सुनाई पड़ रही है उन्हीं हजार बातों के बीच में। कहीं-कहीं कुछ-कुछ शब्द भीतर प्रवेश कर जाते हैं। वे हजार बातों में लिपटकर उनका अर्थ भी बदल जाता है। कुछ का कुछ सुनाई पड़ जाता है। कहा कुछ, सुन कुछ लेते हो। अर्थ कुछ था, अर्थ कुछ निकाल लेते हो। ऐसे सोए-सोए सुनकर तुम जो ले जाते हो, वह तुम्हारा ही होगा। उसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है।

जागकर सुनो। जागकर सुनने का अर्थ है, सुनते वक्त तुम कान ही कान हो जाओ। तुम्हारा पूरा शरीर कान की तरह काम करे तो जागकर सुना। भोजन करते वक्त तुम स्वाद ही स्वाद हो जाओ। तुम्हारा पूरा शरीर बस भोजन करे। चलते वक्त तुम पैर ही पैर हो जाओ। बस तुम चलो। सोचते वक्त तुम मन ही मन हो जाओ; फिर सिर्फ सोचो।

तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सोचने के लिए समय ही मत दो। घड़ी दो घड़ी निकाल लो और उस समय सिर्फ सोचो। जरूरत है उसकी भी। वह भी तुम्हारे जीवन का अंग है। उसे भी समय चाहिए। सब समय को ठीक से बांट दो। मगर एक खयाल रहे कि जो भी कृत्य हो वह मूर्च्छा में न हो।

अगर हाथ में आ-आकर होश छूट जाता हो, तो इतना ही खयाल रखना कि थोड़ी चेष्टा और।

मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल

हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद

–स्वीकार हो जाती प्रार्थना।

मिल ही जाता दुआ को बाग-ए-कुबूल

हिम्मत-ए-दिल ही पस्त है शायद

अगर नहीं मिलती प्रार्थना को स्वीकृति, अगर प्रार्थना पूरी नहीं होती तो इतना ही जानना कि अभी दिल की हिम्मत, दिल का साहस–अभी दिल खोलकर मांगा ही नहीं। द्वार पर दिल खोलकर दस्तक ही न दी। कुछ कमी रह गई।

इतना ही खयाल रखना कि कुछ कमी रह गई। फिर चेष्टा करना। किसी भी दिन कमी पूरी हो जाएगी। और कोई भी नहीं कह सकता, कब पूरी हो जाएगी। क्योंकि अब तक कोई थर्मामीटर नहीं बन सका, जिससे हम पता लगा सकें कि आदमी का होश समाधि के करीब आ गया या नहीं। कोई उपाय नहीं।

जैसे थर्मामीटर में हम पता लगा लेते हैं कि आदमी का बुखार ज्यादा तो नहीं हो गया? कम तो नहीं हो गया? अब तक कोई थर्मामीटर नहीं बना, कि पता चल सके कि आदमी का होश कितना है? अभी होश को मापने का कोई उपाय नहीं है।

इसलिए तुम्हें टटोल-टटोलकर ही चलना होगा। मगर एक बात पक्की है–जिन्होंने खोजा, उन्हें मिला। अगर तुम्हें न मिले तो ऐसा मत सोचना कि होश मिलता ही नहीं। अधिक लोग जल्दी ही ऐसा सोच लेते हैं कि न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है, न कोई होश है। यह कुछ होनेवाली बात नहीं है। इस तरह पस्ते-हिम्मत मत हो जाना, हताश मत हो जाना।

तपश्चर्या का यही अर्थ है, जब महावीर कहते हैं तप, तो उनका यही अर्थ है। तप का अर्थ है, अपने को तपाते जाना, गरमाते जाना। सौ डिग्री पर भाप बनोगे, छलांग लगेगी। देखा! पानी नीचे की तरफ बहता है। फिर जब भाप बन जाता है तो ऊपर की तरफ उठने लगता है। वही पानी, जो सदा नीचे की तरफ बहता था, अब अचानक ऊपर की तरफ उठने लगता है। वही पानी जो दृश्य था, अब अदृश्य होने लगता है। वही पानी जो गङ्ढों की तलाश करता था, आकाश की तलाश में निकल जाता है। बस सौ डिग्री का फर्क है!

ठीक ऐसे ही मनुष्य की चेतना साधारणतः नीचे की तरफ बहती है। इस नीचे की तरफ बहने को हम पाप कहें। जब ऊपर की तरफ बहने लगती है तो पुण्य कहें। और इन दोनों के बीच जो जोड़नेवाला सेतु है, वह तप है। तप शब्द बिलकुल ठीक है। वह ताप से ही बना है; गर्मी से ही बना है।

लेकिन कुछ नासमझ हैं, वे धूप में खड़े हो जाते हैं। वे कहते हैं, तप कर रहे हैं। कुछ नासमझ हैं, अंगीठियां लगाकर बैठ जाते हैं। वे कहते हैं तप कर रहे हैं।

आदमी के पागलपन की कोई सीमा नहीं। अंगीठियां लगाकर तुम तप करोगे? शरीर को जला लोगे, पसीने-पसीने हो जाओगे। इससे तप का कोई संबंध नहीं है। धूप में खड़े रहोगे–सिर से सूरज को ऊगने-डूबने दोगे? इससे तप का कोई संबंध नहीं है। तुम नाहक कष्ट झेलोगे।

तप है आंतरिक। खयाल करो, सूरज की किरणों में दोनों बातें हैं: ताप भी है, और प्रकाश भी है। प्रत्येक ताप के साथ प्रकाश भी जुड़ा है। प्रकाश के दो गुणधर्म हैं: एक तो चीजों को प्रकाशित करना और उत्तप्त करना।

ऐसे ही तुम्हारे भीतर चैतन्य का जब प्र्रकाश जगना शुरू होता है तो दो घटनाएं घटती हैं। एक तो तुम भीतर प्रकाशित होने लगते हो और तुम्हारी जीवन-ऊर्जा उत्तप्त होने लगती है। तो एक तरफ तो तुम सौ डिग्री की तरफ बढ़ने लगते हो, जहां छलांग लगेगी, सीमा टूटेगी। दृश्य का बंधन गिरेगा। नीचे की तरफ बहने की पुरानी आदत से छुटकारा होगा। और दूसरी तरफ जैसे-जैसे ताप सघन होता जाएगा वैसे-वैसे तुम रोशनी से मंडित होते जाओगे। तुम्हारे भीतर एक प्रभामंडल जन्मेगा। अंगीठियां जलाने की जरूरत नहीं; तुम्हारे चेहरे से, तुम्हारी आंखों से, तुम्हारे व्यक्तित्व से, तुम्हारे उठने-बैठने से, प्रकाश की झलक मिलनी शुरू होगी। तुम एक दीया बन जाओगे।

और धीरे-धीरे व्यक्ति पारदर्शी हो जाता है। तुम उसके दीये को बाहर से भी देख सकते हो। जिनके पास भी थोड़ी देखने की आंख है और सहानुभूति से भरी आंख है, वे किसी भी जीवित-जागते व्यक्ति के भीतर रोशनी को देखने में समर्थ हो जाते हैं।

तो तपश्चर्या का अर्थ तुम यह मत ले लेना कि अपने को व्यर्थ कष्ट देने हैं। तपश्चर्या का अर्थ है, जो कष्ट आ जाएं उन्हें स्वीकार करना है, देने नहीं हैं। आनेवाले कष्ट ही काफी हैं, अब और देने की क्या जरूरत है? इतने जन्मों के कर्मों का जाल है हमने बहुत-से कष्ट तो अर्जित ही कर लिए हैं; वे आ ही रहे हैं। बस उन्हें तुम सहिष्णुता से, समभाव से झेल लेना। दुखी मत होना। दुख आए तो, स्वीकार कर लेना। जो दुख आए तुम उससे परेशान और उद्विग्न मत होना, राजी हो जाना। कहना कि किसी को कभी दुख दिया होगा, वह लौट आया है। छुटकारा हुआ जाता है।

बुद्ध पर एक आदमी थूक गया तो बुद्ध बड़े प्रसन्न हो गए। उन्होंने आनंद से कहा, देख आनंद! इस आदमी पर जरूर मैंने कभी थूका होगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा है। कभी इसे कुछ दुख दिया होगा, कुछ अपमान किया होगा। आज छुटकारा हुआ। अगर यह न थूक जाता तो अटके रहते। इसके साथ उलझे रहते। यह छुटकारा होना ही था। आज खाता बंद। आज लेन-देन पूरा हो गया।

जब जीवन में दुख आए तो उसे इस भांति स्वीकार कर लेना कि अपने किए गए किसी कर्म का फल है, स्वीकार कर लिया। इससे उद्विग्न मत होना, तो नया दुख निर्मित न होगा और पुराना दुख भस्मीभूत हो जाएगा।

जिंदगी के गमों को अपनाकर

हमने दरअसल तुझको अपनाया।

वे जिसने जीवन के दुख स्वीकार कर लिये, उसने परमात्मा को स्वीकार कर लिया।

और मजे की बात है…साधारणतः हम सुख खोजते हैं और दुख पाते हैं। और जब कोई व्यक्ति दुख को स्वीकार करने लगता है तो जीवन में सुख की वर्षा होने लगती है। यह जीवन का गणित है। खोजो सुख, पाओगे दुख। मिले दुख, स्वीकार कर लो और तुम अचानक पाओगे, महत सुख उत्पन्न होने लगा। दुख के स्वीकार में ही सुख की क्षमता पैदा हो जाती है।

जरा करके देखो! जब कोई दुख आए, उसे स्वीकार करके देखो। छोटा-मोटा दुख! प्रयोग करो, स्वीकार कर लो। ऐसा सोचो ही मत कि मेरे ऊपर कोई विपदा आ गई है। ऐसा सोचो मत कि परमात्मा मेरे साथ अन्याय कर रहा है। ऐसा सोचो मत। शिकायत लाओ ही मत। गिला, शिकवा लाओ ही मत। इतना ही जानो कि मैंने कुछ दुख बोए होंगे, फल काट रहा हूं, ठीक, चलो निपटारा हुआ जाता है।

सिरदर्द आए…छोटा-सा दुख है, स्वीकार कर लो। स्वीकार में ही तुम अचानक पाओगे, एक क्रांति हो गई। जब तुम पूरे मन से स्वीकार करोगे, तुम पाओगे, सिरदर्द उतना दर्द न रहा, जितना मालूम होता था। अस्वीकार करने से दुख अनंतगुना मालूम होने लगता है। स्वीकार करने से क्षीण हो जाता है। अगर तुमने पूरी तरह स्वीकार कर लिया तो तुम अचानक पाओगे कि दर्द तो गया। इतना फासला हो जाता है तुममें और दर्द में।

अगर दर्द को भी तुमने मेहमान की तरफ स्वीकार कर लिया तो तप। अलग से दुख देने की कोई जरूरत नहीं है।

यह महावीर तो कह ही नहीं सकते कि अपने को दुख दो, क्योंकि महावीर कहते हैं, किसी को दुख मत दो; उसमें तुम भी सम्मिलित हो। यह तो बात बड़े पागलपन की हो जाएगी कि कहा जाए कि दूसरे को दुख मत दो और अपने को दुख दो। जो तुम दूसरे के साथ नहीं करते वह अपने साथ क्यों करो? दया दूसरे के साथ है तो अपने साथ भी चाहिए।

सच तो यह है कि जो अपने साथ दया करता है वही दूसरे के साथ दया कर सकता है। और जो अपने साथ कठोर है वह किसी के भी साथ कोमल नहीं हो सकता। जो अपने साथ कोमल नहीं, वह किसके साथ कोमल होगा? जो अपने से प्रेम नहीं कर सका वह किसी को प्रेम नहीं कर सकेगा। जो व्यक्ति अपने को प्रेम करता है वही दूसरों को प्रेम कर सकता है। जो घटना घटती है, पहले घर में घटती है, अपने भीतर घटती है; फिर उसकी किरणें दूसरों तक फैलती हैं।

इसलिए महावीर यह तो कह ही नहीं सकते कि तुम अपने को दुख दो। इतना ही कहा है कि जो दुख आए वह तुम्हारे दूसरों को दिए हुए दुखों का परिणाम है। उसे स्वीकार कर लो।

“अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या करोड़ों वर्षों में जितने कर्म का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक सांस में सहज कर डालता है।’

अब यह बात सीधी-साफ है, लेकिन फिर भी न मालूम कैसा दुर्भाग्य कि महावीर को माननेवाले लोग त्रिगुप्ति की तो बात भूल गए, बस वे करोड़ों वर्षोंवाली तपश्चर्या में लगे हुए हैं।

ज अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं बासकोडीहिं।

हजारों-लाखों वर्ष तक, लाखों जन्मों तक, कोटि-कोटि जन्मों तक कोई तप करे, तब कहीं बड़ा अल्प कर्म का विनाश होता है।

तं नाणी तिहिं गुत्तो…

और ज्ञानी त्रिगुप्ति के द्वारा…

खवेइ ऊसासमित्तेणं…

एक सांस में उतने कर्मों से मुक्त हो जाता है।

क्या है यह त्रिगुप्ति?

महावीर कहते हैं, “मन, वचन, काया, इनकी प्रवृत्तियों में जागरूक होकर जीना त्रिगुप्ति।’

ये तीन गुप्त बातें, ये तीन सीक्रेट, ये तीन कुंजियां–मन, वचन, काया। शरीर से जो भी करो, होशपूर्वक करना। मन से जो भी करो, होशपूर्वक करना। वचन से जो भी करो, होशपूर्वक करना। ये तीन कुंजियां–इनको जो साध लेता है, वह करोड़ों जन्मों में भी श्रम करके जो आदमी पाता है, उसे एक सांस में बिना श्रम के पा लेता है।

अज्ञानी आदमी कुछ भी करे तो जो भी करेगा, उसके अज्ञान से ही निकलेगा न! वह तप भी करे तो भी अज्ञान से निकलेगा। और अज्ञान से जो भी निकलेगा उससे नए कर्मबंधों का जन्म होता है। वह त्याग भी करे तो भी अज्ञान से ही करेगा।

अज्ञानी व्यक्ति का अर्थ है–यह मत सोचना कि जो शास्त्र नहीं जानता–अज्ञानी से अर्थ है, जो जागा हुआ नहीं है; जो ज्ञानपूर्वक नहीं जी रहा है।

यहीं सुविधा हो जाती है चीजों के अर्थ बदल लेने में। जब महावीर कहते हैं अज्ञानी व्यक्ति तो समझ में आ गई बात, कि ज्ञानी होना जरूरी है। पढ़ो शास्त्र, कंठस्थकरो शास्त्र, बन जाओ तोते, तो ज्ञानी हो जाओगे।

शब्द कितने ही संगृहीत हो जाएं, उससे कोई ज्ञानी नहीं होता। वह तो यंत्रवत है। पढ़ो, बार-बार पढ़ो, गुनो, याद हो जाते हैं। याद से तुम्हारे जीवन में थोड़े ही कुछ रोशनी आएगी! तुम्हारे जीवन में कोई दीया प्रगट हो, तुम्हारे जीवन में कोई अनुभव जगे, तुम्हारा अनुभव हो तो ही ज्ञान। उधार ज्ञान ज्ञान नहीं।

“मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं, क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है। वहां न तर्क का प्रवेश है, न वहां मानस-व्यापार संभव है। मोक्षावस्था संकल्प-विकल्पातीत है; साथ ही समस्त मल-कलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं है। रागातीत होने के कारण सातवें नर्क तक की भूमि का ज्ञान होने पर भी वहां किसी प्रकार का खेद नहीं है।’

पहले सूत्र में कहते हैं, अज्ञानी व्यक्ति करोड़ों जन्मों तक तपश्चर्या करे तो भी कुछ खास लाभ नहीं होता। ज्ञानी व्यक्ति क्षणभर में, श्वासभर में होश से जीए तो बहुत लाभ होता है।

इस बात को इंगित करने के लिए कि ज्ञानी से अर्थ शास्त्र को जाननेवाला नहीं है, तीसरा सूत्र बिलकुल साफ है।

महावीर कहते हैं, मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है। इसलिए शास्त्र काम न आएंगे। क्योंकि वहां शब्दों की प्रवृत्ति ही नहीं है। वहां तो केवल चैतन्य का प्रवेश है, शब्दों का कोई प्रवेश नहीं है। वहां तुम तो जा सकते हो लेकिन तुम्हारी बुद्धि और तर्क नहीं जा सकता। तर्क और बुद्धि को पीछे ही छोड़ जाना पड़ता है।

जैसे कोई आदमी हिमालय पर चढ़ता है, तो जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ने लगती है, बोझ कम करने लगता है। पहले सोचा था सब सामान ले चलें। फिर जब पहाड़ चढ़ता है तो पता चलता है, इतना सामान तो ले जाना संभव न होगा। तो जो-जो काम का नहीं है, छोड़ दो। फिर और ऊंचे पहाड़ पर चढ़ता है तो पता चलता है, और भी कुछ छोड़ना पड़ेगा।

जब तेनसिंग और हिलेरी गौरीशंकर पर पहुंचे तो बिलकुल सब सामान छोड़कर पहुंचे। कुछ भी न था। उतनी ऊंचाई पर कुछ भी ले जाना संभव नहीं होता।

मोक्ष आखिरी ऊंचाई है चेतना की। वहां तो विचार भी ले जाने संभव नहीं होते, संकल्प-विकल्प भी संभव नहीं होते। इसलिए महावीर कहते हैं, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता।

इसलिए शास्त्र जो भी कहते हैं, वे सब प्राथमिक सूचनाएं हैं, अंतिम का कोई दर्शन नहीं है। शास्त्र जो भी कहते हैं, वह सब क, ख, ग, है। वह पहली, प्राथमिक पाठशाला है। शास्त्रों में जीवन का विश्वविद्यालय नहीं है, प्राथमिक शिक्षा है। शास्त्रों पर मत रुक जाना।

अनुभव ही जीवन का विश्वविद्यालय है। वहां शब्दों की कोई प्रवृत्ति नहीं है। क्योंकि जो व्यक्ति भीतर जाएगा, उसे पहले तो शरीर छोड़ना पड़ता है। क्योंकि शरीर हमारा सबसे बाहरी रूप है। जैसे कोई आदमी इस भवन में अंदर आएगा तो दरवाजा, दरवाजे से लगी हुई चारदीवारी छोड़कर आना पड़ता है।

तो पहले तो शरीर छूट जाता है। फिर जब और भीतर प्रवेश करते हैं तो मन की प्रक्रियाएं छूट जाती हैं। जब और भीतर प्रवेश करते हैं तो हृदय के भाव छूट जाते हैं। जब बिलकुल भीतर अपने घर में पहुंच जाते हैं, ठीक अंतर्गृह में, तो वहां शुद्ध चेतना बचती है, कोई भी और नहीं बचता–न शरीर, न मन, न भाव। इस शुद्ध अवस्था में मुक्ति के पहले दर्शन होते हैं।

तो महावीर कहते हैं, त्रिगुप्ति के द्वारा ऐसी मुक्ति की दशा का अनुभव तुम्हें होगा, वही ज्ञान है। वहां तर्क का प्रवेश नहीं, इसलिए कोई मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता कि है। न कोई सिद्ध कर सकता कि नहीं है। क्योंकि जो चीज सिद्ध ही नहीं की जा सकती तर्क से कि है, उसको असिद्ध भी नहीं किया जा सकता। सिर्फ अनुभव से जो लेगा स्वाद, वही जानेगा–गूंगे का गुड़। जो लेगा स्वाद, वह जानेगा कि है। लेकिन वह भी तुम्हें सिद्ध नहीं कर पाएगा।

अगर तुम गूंगे से पूछो कि तुझे स्वाद मिला, बोल! तो वह तुम्हारा हाथ खींचेगा। उस तरफ जहां उसको स्वाद मिला। तुम भी आ जाओ और तुम भी चख लो गुड़।

यही महावीर-बुद्ध, यही दुनिया के सारे सत्पुरुष कर रहे हैं। खींच रहे हैं हाथ तुम्हारा कि आओ! हम जहां गए, वहां खूब पाया। तुम भी थोड़ा स्वाद लो।

तुम कहते हो, पहले सिद्ध करो, फिर हम आएंगे। छोड़ो हाथ। ऐसे हाथ मत खींचो। हम ऐसे बुद्धिहीन नहीं हैं कि हर किसी के साथ हो लें। तुम पहले सिद्ध कर दो कि परमात्मा है, मोक्ष है, आत्मा है, तो हम आने को तैयार हैं। हम तर्कशील व्यक्ति हैं। हम सोच-विचार कर चलते हैं। हम अंधविश्वासी नहीं हैं।

तो फिर तुम कभी भी न जा सकोगे। तो तुम्हें पता नहीं तुमने किससे अपना हाथ छुड़ा लिया। तुमने उससे अपना हाथ छुड़ा लिया जो तुम्हें तुम तक पहुंचा देता। तुमने उससे अपना हाथ छुड़ा लिया जो तुम्हारे लिए जीवन में सौभाग्य की किरण होकर आया था। और तुमने जिस बात के नाम पर हाथ छुड़ा लिया उस कूड़ा-कर्कट को तुम मूल्य दे रहे हो–तर्क।

जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसके लिए कोई तर्क नहीं है। प्रेम के लिए कोई सिद्ध कर सका कि है? प्रेम जैसी सामान्य जीवन की अनुभव की घटना भी सिद्ध नहीं होती। सबको अनुभव होती है तो भी सिद्ध नहीं होती। इस जमीन पर करोड़ों लोग प्रेम करते हैं लेकिन फिर भी सिद्ध नहीं होता। खैर महावीर और बुद्ध तो कभी-कभी अपवाद रूप होते हैं। यह आत्यंतिक प्रेम, मोक्ष, परमात्मा तो कभी-कभी घटता है, इसलिए सिद्ध नहीं हो पाता; चलो। लेकिन इतने लोग तो प्रेम करते हैं–इतने लैला, इतने मजनू, इतने शीरी, इतने फरिहाद! फिर भी कुछ कह नहीं पाता कोई।

कल मैं एक गीत पढ़ता था:

कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई

दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई

और फिर खत्म हुई ऐसे कहानी अपनी

उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई

रही हरेक जगह सांस पर रही न गई

बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई

इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह

पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई

प्रेम नहीं कहते बनता। प्रेम को शब्द की पोशाक पहनाते नहीं बनती।

कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई

कौन प्रेमी नहीं कहना चाहा है? तुमने कभी प्रेम किया किसी को? तब तुम्हें अड़चन आती है, कैसे कहें कि मुझे प्रेम है? कहो, शब्द बड़े छोटे मालूम पड़ते हैं। जो है, उसके मुकाबले ना-कुछ मालूम पड़ते हैं। लाख सिर पटको, कहो कि मुझे प्रेम है तो भी तुम्हें लगता है, कह कहां पाए?

कहना चाहा तो मगर बात बताई न गई

प्रेमी कितना सिर पटकते हैं, कितने उपाय करते हैं। चलो फूल का गुलदस्ता खरीद लाओ, कि हीरे-जवाहरात के हार ले आओ। मगर हीरे-जवाहरात से भी नहीं कहा जाता। फूल भी नहीं कह पाते। कुछ है, जो प्रगट नहीं हो पाता।

दर्द को शब्द की पोशाक पहनाई न गई

और फिर खत्म हुई ऐसे कहानी अपनी

सभी प्रेमियों की ऐसे ही कहानी खत्म होती है।

उनसे सुनते न बनी हमसे सुनाई न गई

रही हरेक जगह सांस पर रही न गई

बात ऐसी थी, कही तो मगर कही न गई

कह भी देते हैं तो भी रह जाती है बात। कह भी देते हैं तो भी लगता है कहां कही? कह भी देते हैं तो भी मन तड़फता रह जाता है, कह न पाए।

इस तरह गुजरी तेरी याद में हरेक सुबह

पीर जो कोई सही तो हो मगर सही न गई

लगता है कह भी दिया और लगता है कह भी न पाए। लगता है हो भी गया और लगता है हो भी न पाया। ऐसी विडंबना साधारण प्रेम के साथ घट जाती है।

तो परमात्मा की तो हम बात ही छोड़ दें। वह तो आत्यंतिक घटना है, आखिरी घटना है। उसको बताने के लिए कोई शब्द आदमी की भाषा में नहीं है। उसको बताने के लिए कोई विचार आदमी के पास नहीं है। उसकी तरफ इशारा करने में हमारी कोई अंगुली काम नहीं आती। हमारी अंगुली बड़ी स्थूल और वह बड़ा सूक्ष्म। स्थूल को स्थूल से दिशा-निर्देश किया जा सकता है। स्थूल को स्थूल से कहा जा सकता है। सूक्ष्म को कैसे स्थूल से कहें? वह बड़ा जीवंत और हमारे सब शब्द मुर्दा।

इसलिए जिन्होंने जाना वे मौन रहे। महावीर ने तो अपने संन्यासी को मुनि नाम इसीलिए दिया कि जानोगे–बस चुप! मुनि कहा इसीलिए कि मौन घटेगा। मौन से ही उसे जानोगे, जानकर मौन से ही उसे कह पाओगे।

इसका यह अर्थ नहीं है कि महावीर ने कुछ कहा नहीं। बहुत कहा, लेकिन उस सारे कहने से भी बात कही न गई। शब्द की पोशाक पहनाई न गई। लाख तरह से उपाय किया होगा। इधर से हारे तो उधर से किया होगा, उधर से हारे तो और कहीं से किया होगा। इस दरवाजे से प्रवेश न हो सका तो दूसरे दरवाजे पर खटखटाया होगा। लेकिन अंतिम निर्णय में यह कहा कि वह मोक्ष कुछ ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता। तुम्हें भी अनुभव हो जाए, बस ऐसी शुभाकांक्षा की जा सकती है। या तुम हाथ देने को राजी हो जाओ हाथ में तो तुम्हें भी ले जाया जा सकता है।

सदगुरु का अर्थ यही है–जो तुम्हें ले जाए। सत्संग का अर्थ यही है, जहां तुम किसी और के हाथ में अपना हाथ देने को तैयार हो जाओ।

“मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन नहीं है…।’

सव्वे सरा नियट्टंति तक्का जत्थ न विज्जइ।

और तर्क से उसे कहा नहीं जा सकता…।

तक्का जत्थ न विज्जइ।

मई तत्थ न गाहिया…।

वहां मन का कोई व्यापार ही नहीं रह जाता। मन के पार है, मन के अतीत है।

ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने।

वह मन के बहुत पार है। वह इतने पार है मन के कि और सारी बातें तो छोड़ ही दो, आध्यात्मिक व्यक्ति में जो ओज प्रगट होता है, वह ओज भी उस जगह तक नहीं पहुंचता। वह ओज भी बाहर-बाहर रह जाता है। वहां पहुंचते-पहुंचते ओज भी खो जाता है। क्योंकि ओज के लिए भी अंधकार का सहारा चाहिए। ओज के प्रगट होने के लिए अंधकार की पृष्ठभूमि चाहिए।

इसलिए महावीर कहते हैं, “साथ ही समस्त मल-कलंक से रहित होने से वहां ओज भी नहीं है।’

अब यह बड़ी महत्वपूर्ण बात वे कह रहे हैं। अत्यंत असाधारण बात वे कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, प्रकाश को देखने के लिए भी अंधेरे की पृष्ठभूमि चाहिए।

जब तुम दीया जलाते हो तो तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ती है। तुम सोचते हो रोशनी के कारण, तो गलती है तुम्हारा खयाल। वह जो चारों तरफ अंधेरा घिरा है, उसकी दीवाल के कारण। थोड़ा सोचो कि दुनिया से अंधेरा मिट जाए, फिर तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ेगी? फिर कैसे दिखाई पड़ेगी? फिर नहीं दिखाई पड़ेगी।

अभी मैं बोलता हूं, तुम्हें सुनाई पड़ता है क्योंकि बोलने के आसपास शून्य भी छाया हुआ है। अगर शून्य मिट जाए तो बोलना संभव न रहे। अगर बोलना मिट जाए तो शून्य का अनुभव होना मुश्किल हो जाए। शोरगुल के कारण ही शांति का अनुभव होता है, खयाल रखना। अगर बिलकुल सन्नाटा हो, कोई आवाज न होती हो तो शांति का पता ही न चलेगा।

पता चलने के लिए विपरीत चाहिए, द्वंद्व चाहिए।

महावीर कहते हैं, वह इतना आत्यंतिक एक है, वहां कोई दो नहीं बचते; कि वहां ओज तक का पता नहीं चलता। वहां इतनी रोशनी है कि रोशनी का पता नहीं चलता। अंधेरा है ही नहीं। वहां इतनी शुद्धता है कि शुद्धता का भी पता नहीं चलता। क्योंकि शुद्धता का पता होने के लिए कुछ अशुद्धि, कुछ मल-कलंक शेष रह जाना चाहिए।

तुमने कभी खयाल किया? जब स्वास्थ्य परिपूर्ण होता है तो बिलकुल पता नहीं चलता। थोड़ी बीमारी रहे तो ही पता चलता है। पैर में दर्द है तो शरीर का पता चलता है। सिर में दर्द है तो सिर का पता चलता है। जिस आदमी ने सिर का दर्द नहीं जाना उसे सिर का पता ही नहीं चलता। शरीर में कोई पीड़ा हो तो पता चलता है। बच्चों को शरीर का पता नहीं चलता, सिर्फ बूढ़ों को पता चलता है। जिस दिन शरीर का पता चलने लगे, समझना बुढ़ापा करीब आ रहा है। शरीर के पता चलने का अर्थ है कि कुछ जराजीर्ण होने लगा।

हमारे पास एक बड़ा बहुमूल्य शब्द है–वेदना। वेदना शब्द के दो अर्थ हैं। एक तो अर्थ है–ज्ञान। वेद भी उसी से बना–विद से। वेदना का अर्थ है, ज्ञान। और दूसरा अर्थ है, दुख। बड़ी अजीब-सी बात है। इस एक शब्द के दो अर्थ: ज्ञान और दुख। मगर बड़ी सार्थक बात है। दुख का ही पता चलता है। दुख का ही ज्ञान होता है। आनंद का तो पता ही नहीं चल सकता। आनंद तो लापता है। जब आनंद घटता है तो उसके विपरीत तो कुछ भी नहीं बचता इसलिए पता कैसे चलेगा?

महावीर कहते हैं, वहां तो रोशनी भी नहीं रह जाती। या इतनी रोशनी हो जाती है, रोशनी ही रोशनी हो जाती है, कि उसे किन शब्दों में कहें? इसलिए महावीर ने सच्चिदानंद शब्द का भी प्रयोग नहीं किया। उपनिषद कहते हैं: सच्चिदानंद। महावीर उसका भी प्रयोग नहीं करते। वे कहते हैं, असत रहा नहीं तो सत किसको कहें? अचित रहा नहीं तो चित किसको कहें? दुख रहा नहीं तो आनंद किसको कहें?

इसलिए महावीर ने और एक छलांग ली–सच्चिदानंद के पार। कुछ है नहीं कहने को वहां, लेकिन चल सकते हो, पहुंच सकते हो।

इस अज्ञात पर जाने की जिनमें हिम्मत है…यह अज्ञात है। इसे अगर तुमने कहा कि पहले सिद्ध हो जाए तो हम चलेंगे जरूर, लेकिन सिद्ध तो हो जाए! तो तुम कभी जा ही न सकोगे क्योंकि यह कुछ बात सिद्ध होनेवाली नहीं है। तुम जाओगे तो सिद्ध होगी। तुम्हारे अनुभव से सिद्ध होगी।

तो महावीर कहते हैं, ज्ञान की घटना ही…। और उस ज्ञान की घटना की तरफ जाना हो तो त्रिगुप्ति–मन, वचन, काया–तीनों के व्यापार में जागरण को सम्हालना।

ज्ञान की अंतिम आत्यंतिक दशा का नाम मोक्ष। जिसको हिंदू ब्रह्म कहते हैं, उसको महावीर मोक्ष कहते हैं। और निश्चित महावीर का शब्द ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि ब्रह्म से ऐसा लगता है, कहीं कोई बाहर। ईश्वर से ऐसा लगता है, कहीं कोई बाहर। मोक्ष से तो सिर्फ इतना ही पता चलता है कि हम सारे बंधन से मुक्त। हमारा होना सीमा के पार, मर्यादा के पार। सारी जंजीरें छूट गईं, कारागृह गिर गया और हम मुक्त गगन में उड़ चले। उस अनंत में खो चले, विसर्जित हो चले।

अनंत-अनंत जन्मों की अज्ञानपूर्ण चेष्टा भी वहां नहीं ले जा सकती, और ज्ञानपूर्ण एक श्वास वहां ले जा सकती है। इसलिए असली सवाल जागने का, जाग्रत होने का है।

महावीर की सारी चिंतना को एक शब्द में निचोड़कर रखा जा सकता है–उनके सारे विज्ञान को–और वह शब्द है, जागरूकता, अवेयरनेस, अप्रमत्त हो जाना।

यह बड़ा अनूठा धर्म है। यह सीधा विज्ञान का धर्म है। इसमें मंदिर की जरूरत नहीं, मूर्ति की जरूरत नहीं, पूजा-अर्चना की जरूरत नहीं, क्रिया-कांड की जरूरत नहीं, पंडित-पुरोहित की जरूरत नहीं, यज्ञ-हवन की जरूरत नहीं। इसमें कोई साधन-सामग्री की जरूरत नहीं। कुछ भी जरूरत नहीं। इसमें तुम काफी हो। बस तुम ही प्रयोगशाल हो।

तुम्हारे भीतर सब मौजूद है। वह भी मौजूद है जिसको जगाना है। बस, थोड़ा अपने को हिलाना-डुलाना है। अभी तुम गांठ-लगे रूमाल हो, बस जरा गांठ को खोल लेनी है। जो तुम्हें होना है वह तुम हो; थोड़ी-सी बाधाएं हैं, उनको गिरा देना है।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–30

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एक दीप से कोटि दीप हों—प्रवचन—तीसवां

प्रश्‍नसार:

1—जिन—धारा अनेकांत—भाव और स्‍यातवाद से भरी है, फिर भी प्रेमशून्‍य क्‍यों हो गई?

2—जीसस अपने शिष्‍यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने से कोई तुम्‍हें रोके तो उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो। प्रेमपुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा?

3—अतीत में गुरु के पास एक ही मार्ग के साधक इकट्ठे होते थे। और आपके आश्रम में सभी विपरीत मार्गों का मेला लगा हुआ है—यह कैसे?

4—त्‍वमेव माता च पिता त्‍वमेव, त्‍वमेव, बंधुश्‍च सखा त्‍वमेव

त्‍वमेव विद्या द्रविणं तवमेव, तवमेव सर्वं मम देव देवा

5—सीमार माझे असीम तुमी बाजाओ आपन सूर

आमार मध्‍ये तोमार प्रकाश ताई एतो मधुर

6—एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया; यह कौन था?

पहला प्रश्न:

जिन-धारा अनेकांत-भाव और स्यातवाद से भरी है; फिर भी प्रेम शून्य क्यों हो गई? कृपा करके समझाएं।

प्रेमशून्य होना ही थी; होना अनिवार्य था। हो गई, ऐसा नहीं। कोई भी जीवन-व्यवस्था परिपूर्ण नहीं है। प्रत्येक जीवन- व्यवस्था का कुछ लाभ है, कुछ हानि है।

जो लोग प्रेम को, प्रार्थना को, पूजा को आधार मानकर चलेंगे, खतरा है कि उनका प्रेम, उनकी पूजा, उनकी प्रार्थना उनके संसार को ही छिपाने का रास्ता बन जाए। प्रेम के पीछे राग के छिप जाने का डर है। प्रेम तो नाम ही रहे और भीतर राग खेल करने लगे। प्रेम तो नाम ही रहे, वीतरागता से बचने का उपाय हो जाए।

तो प्रेम के मार्ग का खतरा है; वैसे ही ध्यान के मार्ग का खतरा है। ध्यान के मार्ग का खतरा है कि राग को छुड़ाने में, मिटाने में प्रेम छूट जाए। राग को हटाने में प्रेम हट जाए।

मनुष्य बहुत चालबाज है। इसलिए तुम उसे जो भी दो, वह अपने ढंग से ढाल लेगा। अगर तुम ध्यान की बात कहो तो वह प्रेम को मार डालेगा। अगर तुम प्रेम की बात कहो, वह राग को बचा लेगा।

इसलिए प्रत्येक सदी में, प्रत्येक समय में, युग में जो उचित था, उस समय के लिए जो उचित था; जिससे संतुलन निर्मित होता…जब महावीर जन्मे, तब प्रेम के नाम पर बहुत उपद्रव हो चुका था। परमात्मा के नाम पर बहुत तमाशा हो चुका था। मंदिर, पूजा, पंडित, यज्ञ-हवन, बहुत खेल हो गए थे। उन सबसे छुड़ा लेना आदमी को जरूरी था।

तो महावीर, आदमी बायें तरफ बहुत झुक गया था इसलिए दायें तरफ झुके। जो थोड़े-से लोग उनकी बात को समझ सके, वे संयम को, संतुलन को उपलब्ध हो गए। लेकिन फिर पीढ़ी दर पीढ़ी लोग समझ से तो नहीं मानते, परंपरा से मानते हैं। फिर लोग दायीं तरफ बहुत झुक गए। फिर वे इतनी दायीं तरफ झुक गए कि ध्यान के नाम पर, तप के नाम पर उन्होंने प्रेम की हत्या कर दी। जीवन को रसशून्य कर डाला।

तो फिर भक्ति का पुनराविर्भाव हुआ। वल्लभ, रामानुज, चैतन्य, निम्बार्क–एक अनूठा युग आया भक्ति का। फिर भक्ति का पुनरउदभव हुआ।

यह अति हो गई थी–ध्यान की, तप की, तपश्चर्या की। इससे आदमी सूख गया। फूल खिलने बंद हो गए। फिर प्रेम को जगाना पड़ा। तो कबीर, नानक, मीरा, दादू, रैदास–अदभुत भक्त पैदा हुए। इन्होंने फिर बायें तरफ मोड़ा।

जो थोड़े-से लोग समझे, जिन्होंने जागरूक रूप से इस बात को पहचाना वे संयम को उपलब्ध हो गए। उनके जीवन में प्रेम भी रहा, राग छूटा। प्रेम बचा, राग छूटा। प्रीति बची, प्रीति के थोथे बंधन छूटे। प्रीति संसार से मुक्त हुई और परमात्मा की तरफ बही, प्रार्थना बनी। लेकिन जो नहीं समझे, जिन्होंने फिर परंपरा को पकड़ा, उन्होंने फिर बात वहीं की वहीं पहुंचा दी।

ऐसा सदा होता रहेगा। कोई मार्ग परिपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए कोई मार्ग शाश्वत नहीं हो सकता। बदलाहट करनी ही होगी। ऐसा ही समझो कि तुम मरघट किसी की अर्थी ले जाते हो तो कंधे बदल लेते हो। एक कंधा दुखने लगता है तो अर्थी दूसरे कंधे पर रख लेते हो। इसका कुछ यह मतलब नहीं है कि दूसरा कंधा कभी न दुखेगा। थोड़ी देर बाद दूसरा भी दुखेगा। फिर तुम पहले कंधे पर रख लोगे। इस कारण कि दूसरा भी दुखेगा, अगर न बदलो तो मुश्किल में पड़ जाओगे। अर्थी को मरघट तक ही न ले जा पाओगे। कंधे बदलने होते हैं। मनुष्य-जाति कंधे बदलती रहती है।

पूछा है, “जिन-धारा से प्रेम शून्य क्यों हो गया?’

जिन-धारा ध्यान की धारा है, तप की धारा है। प्रेम को साधना का अंग नहीं माना है महावीर ने, साधना की पूर्णाहुति माना है। जब कोई चलते-चलते मंजिल पर पहुंचेगा तो प्रेम प्रगट होगा। मंजिल तक कौन पहुंचता है! जो पहुंचता है उसको प्रगट होता है। महावीर पहुंचे, प्रेम प्रगट हुआ। जैनी तो मंजिल तक पहुंचे नहीं। चले ही नहीं, पहुंचने की तो बात दूर। शास्त्र लिए बैठे हैं, थोथे सिद्धांत लिए बैठे हैं। तो प्रेम तो समाप्त हो ही जाएगा।

महावीर ने परमात्मा को जगह न दी क्योंकि परमात्मा के नाम से खूब हो चुका था उपद्रव। खूब धोखाधड़ी, खूब पाखंड। बड़ी सुविधा है परमात्मा के नाम से पाखंड चलाने की, क्योंकि परमात्मा बड़ी आड़ बन जाता है। फिर तुम कुछ भी करो, सब परमात्मा की लीला है। लूटो-खसोटो तो परमात्मा की लीला है। क्या करोगे तुम? परमात्मा करवा रहा है।

तो हर चीज के लिए परमात्मा आड़ बन जाता है। महावीर ने परमात्मा को हटा दिया बीच से। तो हानियां तो बंद हो गईं, लेकिन परमात्मा को हटाने से एक खतरा है। परमात्मा हटा तो आदमी अकेला रह जाता है। प्रेमपात्र ही हट जाता है तो प्रेम के उमगने की सुविधा नहीं रह जाती। बहुत कठिन है शून्य को प्रेम करना। कोई चाहिए, जिसे तुम प्रेम कर सको।

अकेले कमरे में तुम बैठे हो। मैं तुमसे कहता हूं, भर जाओ प्रेम से। तुम कहोगे किसके प्रति? मैं कहूंगा, तुम इसकी फिकर छोड़ो। भर जाओ बस प्रेम से। इस सूने कमरे को प्रेम से भर दो। तो भी तुम क्या करोगे? तुम ज्यादा से ज्यादा सोचोगे अपनी प्रेयसी की बात, अपने बेटे की, बेटी की, मित्र की, अपने प्रियतम की। उस सोच में, उस कल्पना में ही तुम प्रेम से भर पाओगे कमरे को।

बिना कल्पना के प्रेम को जगाना बहुत थोड़े-से सिद्धपुरुषों की संभावना है। महावीर ने परमात्मा तो हटा दिया, खतरा हट गया। लेकिन खतरे के साथ-साथ लाभ भी हट गए। लाभ था कि परमात्मा के सहारे प्रेम विकसित होता है। वह हमारा परमप्रिय हो जाता है। वह हमारा प्यारा है। और अहंकार निर्मित नहीं होता।

इसलिए जैन मुनि से ज्यादा अहंकारी मुनि तुम कहीं भी न पाओगे। क्योंकि अहंकार को समर्पित करने की जगह न रही। कोई चरण न रहे, जहां जाकर अहंकार को रख दो। अपने से बड़ा कुछ भी न रहा। महावीर ने तो कहा था, तुम ही परमात्मा हो। इसलिए नहीं कहा था कि तुम्हारा अहंकार बच जाए, इसलिए कहा था ताकि तुम परमात्मा के नाम से जो जाल चल रहे हैं, उसमें कहीं उलझो न।

लेकिन परिणाम तो महावीर के हाथ में नहीं है। परमात्मा को छुड़ा दिया तुमसे; फिर तुम क्या करोगे परमात्मा के अभाव में, वह तो तुम्हारे हाथ में है। महावीर ने तो कह दी बात। कहते ही तीर निकल गया। अब उसको तरकस में वापस नहीं ले जाया जा सकता। जो कह दिया वह महावीर से छूट गया। अब तुम्हारे हाथ में है कि तुम उसमें से क्या अर्थ निकालोगे।

मैं रहीम खानखाना का जीवन पढ़ता था। अकबर के नौ रत्नों में एक थे। अकबर उनसे बड़ा खुश था और बहुत जमीन-जायदादें दीं। करोड़ों रुपया उन्हें भेंट किया। वह जैसा उनके पास पैसा आता था ऐसे ही वे लुटा भी देते थे। मरे तो भिखारी थे। करोड़ों रुपये आए-गए उनके हाथ में, लेकिन जो आया–बांटा। बांटने में कभी रुके नहीं। ऐसा बांटा कि शायद अकबर भी थोड़ार् ईष्यालु हो उठता था।

कहते हैं गंग कवि ने एक दोहा कहा। वे इतने खुश हो गए रहीम, कि छत्तीस लाख रुपये एक-दो कड़ियों के लिए बोरों में बंधवाकर चुपचाप रातोंरात गंग कवि के घर भेज दिए, किसी को पता न चले। गंग बहुत हैरान हुआ तो गंग ने एक पद लिखा।

सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन

ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन

यह देना कहां से सीखे? सीखे कहां नबाबज्यू? यह नबाबी कहां सीखी? यह सम्राट होना कहां सीखा?

सीखे कहां नबाबज्यू ऐसी देनी देन

देनेवाले बहुत देखे, लेकिन रात चोरी से अंधेरे में…। अंधेरे में तो लोग चुराने आते हैं, देने कोई आता है? किसी को पता न चले–ऐसी देनी देन।

ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करौ त्यों-त्यों नीचे नैन

देनेवाला तो अकड़कर खड़ा हो जाता है। सारे संसार को दिखलाना चाहता है। और तुम, जैसे-जैसे तुम्हारा हाथ ऊंचा होता जाता है, देने की क्षमता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आंख नीची होती जाती है।

रहीम ने इसके उत्तर में एक दोहा लिखा:

देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन

लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन

देनेवाला कोई और है, जो दिन-रात भेज रहा है और लोग शक हम पर करते हैं; इसलिए आंखें नीची हैं। इसलिए देने में संकोच है। क्योंकि लोग सोचेंगे, हमने दिया।

यह परमात्मा की धारणा का लाभ है:

देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैन

परमात्मा की धारणा का यह लाभ है कि तुम अपने को किसी के चरणों में पूरा रख सकते हो। सब तरह से रख सकते हो।

देनहार कोई और है भेजत सो दिन-रैन

कोई भेजे चला जा रहा है। हमारा किया कुछ भी नहीं है। कोई कर रहा है।

लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन

इसलिए आंखें संकोच से नीची कर लेते हैं कि लोग बड़ी गलत बात सोच रहे हैं कि हम दे रहे हैं। देनेवाला कोई और है।

तो अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। परमात्मा की धारणा का लाभ है कि अहंकार न बचे।

अगर कोई ठीक से उपयोग करे तो सभी धारणाएं लाभपूर्ण हैं। और अगर कोई ठीक से उपयोग न करे तो सभी धारणाएं खतरनाक हैं। सत्यों से फांसी लग सकती है। सत्य तुम्हारे प्राण को संकट में डाल सकते हैं। सत्य जहर हो सकता है। सब पीनेवाले पर निर्भर है। समझदार तो ऐसे भी हुए हैं कि जहर को भी औषधि बनाकर पी गए। और नासमझ ऐसे हुए हैं कि अमृत को भी जहर बना लिया, विषाक्त हुए और मर गए।

महावीर ने परमात्मा का तत्व हटाया, उसके साथ बड़े जंजाल थे, वे भी हट गए। पंडित हटा, पुरोहित हटा, पूजा-प्रार्थना हटी, धोखाधड़ी, बीच के दलाल हटे लेकिन अहंकार को रखने की जगह न रह गई। महावीर तो बड़े कुशल रहे होंगे, बिना परमात्मा के अहंकार को छोड़ दिया।

लेकिन जैनों से इतनी आशा नहीं की जा सकती। परमात्मा हट गया तो अकड़ आ गई। हम ही सब कुछ हैं। कोई ईश्वर नहीं, कहीं जाकर झुकना नहीं। तो तुम मुसलमान फकीर में जैसी विनम्रता देखोगे, सूफी फकीर में जैसी विनम्रता देखोगे, वैसी तुम जैन मुनि में नहीं देख सकते। भक्त में तुम जैसी विनम्रता देखोगे, वैसी तुम जैन मुनि में नहीं देख सकते। बड़ी अकड़ है।

जैन मुनि तो श्रावक को हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकता। नमस्कार ही भूल गया। अकड़ ऐसी हो गई कि नमन की कला ही जाती रही। त्यागत्तपश्चर्या से अहंकार भरा; कटा नहीं। इसलिए मैं कहता हूं: अमृत को जहर बनाने की सुविधा है, जहर को अमृत बनाने की सुविधा है।

त्यागत्तपश्चर्या से अहंकार कटना चाहिए।

लोग भरम हम पे करें याते नीचे नैन

त्यागी और तपस्वी को तो यह सोचना चाहिए कि किए हुए पापों का प्रक्षालन कर रहा हूं त्यागत्तपश्चर्या करके। जो किए थे पाप, उन्हें काट रहा हूं। इसमें गौरव कहां? इसमें गरिमा क्या? पश्चात्ताप है। आंखें नीची होनी चाहिए। लेकिन त्यागी अकड़कर खड़ा हो जाता है। वह…जानते हो कितने उपवास किए? कितना धन छोड़ा? कितना बड़ा घर छोड़ा? कितना साम्राज्य छोड़ा? आंखें तो नहीं झुकतीं, आंखें अकड़कर खड़ी हो जाती हैं।

और फिर जैन तत्व में आदमी के ऊपर कोई भी नहीं है। इसलिए बड़ी अड़चन हो जाती है। कहां रखो इस बोझिल सिर को? यह पत्थर की तरह तुम्हारी आत्मा पर बैठ जाता है।

इसलिए जैन दृष्टि से धीरे-धीरे प्रेम तिरोहित हो गया। परमात्मा ही जब न हुआ तो प्रेम रखो कहां? प्रेम करो किसको? भक्ति खो गई।

मगर यह होना ही था। इसमें किसी का दोष भी नहीं है। ये जीवन के सहज नियम हैं।

मैं तुमसे जो कह रहा रहूं, तुममें से जो समझ पाएंगे उनके ही काम का है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, कहते से ही मेरे हाथ के बाहर हो गया। फिर तुम क्या उसका अर्थ करोगे, तुम पर निर्भर है। फिर मेरी उस पर कोई मालकियत भी न रही। फिर मैं यह भी नहीं कह सकता कि तुमने मेरे सत्य को बिगाड़ा। क्योंकि कहा, कि मेरा सत्य कहां रहा? तुम्हारा हो गया। सुन लिया, तुम्हारे कान में पड़ गया, तुम्हारा हो गया, अब तुम जो चाहो, सो करो। जो अर्थ निकालना हो, निकालो। जैसा अर्थ, जिस दिशा में ले जाना हो, ले जाओ। तुम मालिक हो गए। तुम्हें दिया, तुमसे बोला कि मेरी मालकियत समाप्त हो गई। अब मैं तुम पर कोई मुकदमा नहीं चला सकता।

तुम सुनोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसका उपयोग भी करोगे तुम्हारे ही ढंग से। तुम उसमें से कुछ चुन लोगे, कुछ छोड़ दोगे।

मैंन सुना है, कुरान में एक वचन आता कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा। एक मुसलमान शराब पीता था। उसके धर्मगुरु ने उससे कहा कि भाई, मैंने सुना है तुम कुरान भी पढ़ते हो। कभी-कभी तुम्हारे द्वार से निकलता हूं तो तुम्हारी आयतें सुनकर मैं भी मस्त हो जाता हूं। शराबी था, मस्ती से गाता होगा। लेकिन तुम कुरान में इतनी सी बात नहीं समझ पाए कि लिखा है कि जो शराब पीएगा वह नर्क में सड़ेगा?

उस मुसलमान ने कहा, समझता तो भला हूं, लेकिन एक-एक कदम चल रहा हूं। अभी आधे वाक्य तक पहुंचा हूं–”जो शराब पीएगा।’ अभी यहीं तक पहुंचा हूं। अपनी-अपनी सीमा, सामर्थ्य! अभी आधे वाक्य पर नहीं पहुंचा हूं। धीरे-धीरे चल रहा हूं, कभी पहुंच जाऊंगा।

तुम अपने मतलब से चुन लोगे। तुम जो चुनना चाहते हो वही चुन लोगे।

मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा चला। गांव के एक नेताजी को किसी आदमी ने उल्लू का पट्ठा कह दिया। अब ऐसे तो सभी नेता उल्लू के पट्ठे होते हैं। नहीं तो नेता क्यों हों? आदमी अपने को तो सम्हाल ले! आदमी खुद तो चल ले! आदमी सारी दुनिया को बदलने चल पड़ता है। सारी दुनिया को ठीक करने चल पड़ता है।

पर नेता बहुत नाराज हुआ। उसने मानहानि का मुकदमा चला दिया। मजिस्ट्रेट ने पूछा मुल्ला को–मुल्ला गवाह था–कि जिस होटल में यह घटना घटी, वहां पचासों लोग आ-जा रहे थे। और जिस आदमी ने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा, उसने नाम लेकर भी नहीं कहा; सिर्फ उल्लू का पट्ठा कहा। तो इसका क्या सबूत है कि उसने नेताजी को ही कहा, किसी और को नहीं कहा? अब मुल्ला नसरुद्दीन नेता के पक्ष में गवाही देने आया था। वह बोला, इसका बिलकुल पक्का सबूत है। यद्यपि वहां सैकड़ों लोग आ-जा रहे थे, लेकिन इसने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा।

मजिस्ट्रेट ने कहा, इसका प्रमाण क्या है?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, क्योंकि वहां और दूसरा कोई उल्लू का पट्ठा मौजूद ही नहीं था।

अब करोगे क्या? पक्ष में गवाही देने आए हैं!

तुम्हारे मतलब तुम्हारे हैं। तुम पक्ष में खड़े होओ कि विपक्ष में; बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम गवाही कहां से दे रहे हो, बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम तो तुम ही हो। तुम्हारे पास आते-आते किरणें तक मैली हो जाती हैं। तुम्हारे हाथ आते-आते सोना भी कचरा हो जाता है। तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते सभी सत्य असत्य हो जाते हैं।

इसलिए तो लाओत्सु कहता है, “सत्य को कहना ही मत; क्योंकि कहा कि असत्य हुआ।’

कहा कि असत्य हुआ। किसी ने सुना कि असत्य हुआ। क्योंकि सुननेवाले को शब्द पहुंचेगा। शब्द को अर्थ तो वही चढ़ाएगा। अर्थ की खोल तो वही पहनाएगा।

मैं तो नग्न सत्य तुम्हें दे दूंगा। वस्त्र तो तुम पहनाओगे। वे वस्त्र तुम्हारे होंगे। जब सजा-संवारकर तुम सत्य को खड़ा करोगे तो वह बिलकुल ही रूपांतरित हो जाएगा।

इसलिए दुनिया में प्रतियुग में दृष्टियों को बदलना पड़ता है। कभी ध्यान की धारा प्रवाहमान होती, कभी प्रीति की धारा प्रवाहमान होती।

दोनों की जरूरत है। वे दोनों आवश्यक हैं। जब एक अति पर चली जाती है तो दूसरी धारा उसे खींचकर फिर संतुलन पर लाती है। ऐसा नहीं है कि वह संतुलन सदा रहेगा, लेकिन संतुलन के थोड़े-से क्षणों में कुछ लोग मुक्त हो जाएंगे। फिर असंतुलन हो जाएगा, फिर कोई खींचकर संतुलन को पैदा करेगा।

भक्ति और ध्यान विरोधी नहीं हैं, परिपूरक हैं। जब एक अति हो जाती है तो दूसरा उसे सुधार लेता है।

तुमने कभी रस्सी पर चलनेवाले बाजीगर को देखा? जब नट रस्सी पर चलता है तो हाथ में एक डंडा रखता है। रस्सी पर चलना खतरनाक काम है–इतना ही खतरनाक जैसा जिंदगी है। शायद इतना खतरनाक नहीं भी है, जितनी जिंदगी है। क्योंकि रस्सी से गिरे तो हाथ-पैर टूटेंगे, जिंदगी से गिरे तो मौत निश्चित है।

रस्सी पर चलनेवाला नट क्या करता? अगर वह देखता है कि बायें तरफ ज्यादा झुक गया है और खतरा गिरने का है, तो तत्क्षण अपने हाथ की लकड़ी को दायें तरफ झुका लेता है। वजन दायें तरफ डाल देता है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चल सकता। क्योंकि थोड़ी देर में ही पाता है कि अब दायें तरफ गिरने का खतरा है, तो फिर वजन बायें तरफ डाल देता है। ऐसा बायें-दायें वजन को डालता हुआ रस्सी पर अपने को सम्हालता है।

भक्ति और ज्ञान बायें और दायें हैं। और इन दोनों के बीच में मार्ग है अगर तुम मुझसे पूछो। न तो भक्ति मार्ग है, न ज्ञान मार्ग है। इनके ठीक मध्य में, जहां संतुलन है वहां मार्ग है। लेकिन अगर तुम भक्ति की तरफ ज्यादा झुक गए हो तो महावीर ज्ञान की तरफ खींचते हैं, ध्यान की तरफ खींचते हैं। तुम्हें लगता है ध्यान की तरफ खींच रहे हैं; उनका प्रयोजन केवल तुम्हें बीच में ले आना है, मध्य में ले आना है। क्योंकि मध्य में मुक्ति है।

जब महावीर जा चुके होते हैं और तुम उनकी सुन-सुनकर धीरे-धीरे ज्यादा ध्यान की तरफ झुक जाते हो–ऐसे, कि अब गिरे और खोपड़ी तोड़ लोगे, तो कोई रामानुज, कोई वल्लभ, तुम्हें भक्ति की तरफ खींचने लगता है। तुम्हें लगता है कि ये लोग दुश्मन हैं। क्योंकि एक कहता था दायें, एक कहता है बायें। एक उधर खींच गया, दूसरा इधर खींचने लगा। तुम बड़ा विरोध करते हो। जैन को भक्ति की तरफ खींचो, तो एकदम लड़ने को खड़ा हो जाएगा। किसी भक्त को ध्यान की तरफ खींचो, तप की तरफ खींचो, एकदम झगड़ने को खड़ा हो जाएगा। तुम्हें लगता है ये दुश्मन हैं।

नानक एक तरफ खींच रहे, महावीर एक तरफ खींच रहे, मीरा एक तरफ खींच रही, मोहम्मद एक तरफ खींच रहे, यह मामला क्या है? तुम तो कहते हो किसी एक से ही तय हो जाना ठीक है। ऐसे तो खिंचा-खिंचव्वल में खराबी हो जाएगी। लेकिन ये दोनों ही तुम्हें सत्य की तरफ खींच रहे हैं। सत्य संतुलन है। ठीक मध्य में, जहां न बायां रह जाता न दायां; जहां कोई अति नहीं रह जाती–निरति; वहीं समाधि है, वहीं सम्यकत्व है, वहीं समत्व है, वहीं समता का जन्म है।

सम दो अतियों के मध्य में होता है; न इधर, न उधर। लेकिन तुम बार-बार अतियों में चले जाओगे यह सुनिश्चित है। तुम एक अति से बचोगे तो दूसरी अति में चले जाओगे क्योंकि अति में जाना मन की आदत है। इसलिए फिर-फिर तुम्हें खींच लेना होगा। यह जारी रहेगा। जब तक मनुष्य है इस पृथ्वी पर, यह जारी रहेगा। ध्यान और भक्ति के बीच खींचतान जारी रहेगी। महावीर और मीरा को आते रहना पड़ेगा नए-नए रूपों में।

और अगर तुममें थोड़ी समझ हो, तुममें अगर थोड़ी भी आंख हो तुम्हारे पास तो तुम देख पाओगे, वे तुम्हें अलग-अलग नहीं खींच रहे, दोनों बीच के लिए खींच रहे हैं।

ध्यानी की अलग भाषा है। उसका अलग शास्त्र है, अलग शब्दावलि है। वह मोक्ष की बात करता है, मुक्ति की बात करता है। बंधन छोड़ने की बात करता है।

प्रेमी कि बिलकुल विपरीत भाषा है। वह प्रेम की, मिलन की, आत्यंतिक बंधन की बात करता है। वह कहता है, परमात्मा से कभी छूटना न हो।

काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह

रहिमन दाख सुहावनो जो गल प्रीतम बांह

रहीम कहते हैं, क्या करूंगा लेकर कल्पवृक्ष की छांव को और बैकुंठ को। दो कौड़ी हैं। प्यारे का हाथ मेरे गले में पड़ा हो तो बस, परमअवस्था हो गई। तो पहुंच गए उस अंगूर के तले; स्वर्ग के तले।

काह करूं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह

रहिमन दाख सुहावनो…

बैठे हैं अंगूर की छाया में।

जो गल प्रीतम बांह

अगर प्यारे का हाथ गले में है।

ज्ञानी कहेगा, प्यारे का हाथ गले में? बात क्या कर रहे हो? रहिमन दाख सुहावनो…अंगूर, शराब…क्या बातें कर रहे हो? ये तो सब बंधन की बातें हैं। ये भाषाएं अलग हैं। इनकी पद्धति अलग है।

अगर तुम बहुत ध्यान की तरफ चले गए हो तो किसी मीरा को खींच लेने का अवसर देना। अगर बहुत प्रेम की तरफ चले गए हो, और प्रेम कीचड़ बनने लगा हो और राग बनने लगा हो तो किसी महावीर को खींचने की सुविधा देना। दोनों का उपयोग कर लेना मध्य में आने को। जैसी जब जरूरत हो, वैसा उपयोग कर लेना।

असली बात न भूले कि सत्य को पाना है, कि जागना है, कि जो है, उसे जानना है।

दूसरा प्रश्न: जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने में कोई तुम्हें रोके तो तुम उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो। प्रेम के पुजारी जीसस की ऐसी आज्ञा? आप तो हमें ऐसी आज्ञा नहीं देते। लेकिन यदि ऐसी समस्या हमारे सामने भी आए तो आप क्या आज्ञा देंगे–वही, जो जीसस ने दी?

मार डालो!

लेकिन तुम समझे नहीं जीसस का अर्थ, इसलिए अड़चन हो गई। बाहर थोड़े ही कोई तुम्हें रोक सकता है, रोकनेवाले भीतर हैं। पत्नी थोड़े ही तुम्हें रोक सकती है, अगर तुम जा रहे हो सत्य की तरफ। बेचारी पत्नी क्या रोकेगी! मरोगे तो कैसे रोकेगी? जब मरने में नहीं रोक सकती तो संन्यास में कैसे रोकेगी? जो होना है, अगर होना है तो पत्नी कैसे रोकेगी? अगर पत्नी भी रोक पाती है तो कहीं तुम्हारा ही भीतर डांवाडोल है। पत्नी का तुम बहाना लेते हो।

जीसस कहते हैं कि उस डांवाडोलपन को मार डालो। कोई जीसस पत्नी को मार डालने को थोड़े ही कहेंगे। इतनी अकल, जितनी तुममें है, इतनी तो उनमें भी रही होगी। कम से कम इतना तो भरोसा करो कि इतनी अकल उनमें भी रही होगी।

भीतर हैं रोकनेवाली चीजें। राग है, मोह है, लोभ है, क्रोध है। शत्रु भीतर है, बाहर नहीं। बाहर तो सिर्फ प्रक्षेपण होता है।

जब तुम कहते हो, फलां आदमी मेरा शत्रु है, मेरे राह में, मार्ग में रोड़े डाल रहा है तो वह आदमी सिर्फ पर्दा है, शत्रुता तुम्हारे भीतर है, जो तुम उसके ऊपर आरोपित कर रहे हो। शत्रुता को मार डालो, फिर देखो कौन शत्रु! और मित्रता को मार डालो, फिर देखो कौन मित्र है! राग को मिटा दो फिर देखो, कौन अपना, कौन पराया! अहंकार को छोड़ दो, फिर देखो कौन रोकता है। कैसे रोक सकता है?

एक मित्र संन्यास लेने आए थे। वे कहते हैं, लेना तो है। जब यहां पूना में आता हूं तो एकदम पक्का भाव हो जाता है। लेकिन जैसे ही अपने गांव की याद आती है, फिर घबड़ा जाता हूं कि गेरुए वस्त्र, माला! गांव में लोग पागल समझेंगे। तो गांव के कारण नहीं ले पा रहा हूं।

तो मैंने उनसे कहा, गांव का इससे क्या लेना-देना? पागल न समझे जाओ, यह है असली भय। गांव क्या करेगा? अगर पागल समझे जाने को राजी हो तो गांव क्या करेगा? अगर पागल हो ही जाओगे तो गांव क्या करेगा?

गांव क्या कर सकता है! लेकिन भीतर भाव है कि गांव में जो प्रतिष्ठा है, वह न मिट जाए। तो प्रतिष्ठा रोक रही है, गांव तो नहीं रोक रहा। सीधी बातों को सीधा न करके हम उलझाते हैं। प्रतिष्ठा का मोह रोक रहा है। गांव तो नहीं रोक रहा। प्रतिष्ठा के मोह को मार डालो।

जीसस का मतलब इतना ही है। जीसस अपने शिष्यों से कहते थे कि यदि मेरे साथ चलने में कोई तुम्हें रोके तो उसे मार डालो और मेरे साथ चल पड़ो।

हजार बाधाएं आती हैं जीसस जैसे व्यक्ति के साथ चलने में। वे बाधाएं बाहर नहीं हैं, वे तुम्हारे भीतर हैं।

एक बहुत बड़ा धनपति, और बहुत प्रतिष्ठित विद्वान और जेरूसलम के विश्वविद्यालय का अध्यापक निकोदेमस जीसस को मिलना चाहता था। लेकिन दिन में मिलने जाने से डरता था–दिन में! क्योंकि लोगों को पता चल जाए तो वह प्रतिष्ठित आदमी था। पांच पंचों में एक था जेरूसलम के। लोग क्या कहेंगे? वह बड़ा पंडित था। उसके वचन शास्त्रों की तरह समझे जाते थे। लोग क्या कहेंगे कि तुम भी पूछने गए? तो तुम्हें भी पता नहीं है अभी?

उम्र भी उसकी ज्यादा थी। जीसस तो अभी जवान थे–कोई तीस साल की, इकतीस साल की उम्र थी।

वह उम्र में भी बड़ा था, प्रतिष्ठा में भी बड़ा था, धन में भी बड़ा था। नाम भी उसका बड़ा था। सारा देश उसे जानता था। हजारों उसके शिष्य थे, विद्यार्थी थे। वह कैसे इस आवारा आदमी के पास चला जाए दिन में? और वहां भीड़ भी आवाराओं की लगी हुई थी। वे क्या कहेंगे? लोग हंसेंगे। गांवभर में भद्द हो जाएगी। प्रतिष्ठा टूट जाएगी।

तो एक दिन आधी रात अंधेरे में, जब सारे लोग जा चुके थे तब वह अंधेरे में सरकता चुपचाप जीसस के पास पहुंचा। हिलाया उनको, कहा कि सुनो। एक बात पूछनी है। तुम्हें मिल गया? जीसस ने कहा, दिन में क्यों न आए? निकोदेमस बोला, लोगों के कारण।

जीसस ने कहा, इतने लोग आते हैं, लोगों के कारण कोई रुकता नहीं। रुकने का कारण कहीं भीतर होगा। निकोदेमस, किसे धोखा दे रहे हो? इतने बड़े पंडित और समझदार होकर इतनी-सी बात भी समझ में नहीं आ रही? रात में मिलने आए हो ताकि किसी को पता न चले? ताकि कल भरी दुपहरी में तुम कह सको कि यह जीसस आवारा है? जो जाते हैं इसके पास, नासमझ हैं, भूले-भटके हैं। यह दूसरों को भटका रहा है। ताकि तुम अपनी प्रतिष्ठा भी बचा लो निकोदेमस! और तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं, इसलिए तुम पूछने को भी तरसते हो।

हां, मुझे मिला है लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जब तक तुम मरो नहीं, तुम्हारा पुनर्जन्म न हो, तुम न पा सकोगे।

निकोदेमस भी प्रश्न पूछनेवाले की तरह गलत समझा। उसने कहा, मरो नहीं? क्या मतलब? और पुनर्जन्म से तुम क्या चाहते हो? क्या मैं फिर किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करूं? यह तो असंभव है।

जीसस ने कहा, सीधी-सीधी बात है। असंभव मत बनाओ। न तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम मरो; और न मैं यह कह रहा हूं, किसी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करो। मैं इतना ही कह रहा हूं कि तुम्हारा पुराना अहंकार गिरे। तुम नए हो जाओ। प्रतिष्ठा पाकर क्या मिला? देखो जीवन को सीधा-सीधा। प्रतिष्ठा है तुम्हारे पास, पद है तुम्हारे पास, तथाकथित ज्ञान का अंबार लगा है तुम्हारे पास; मिला क्या? छोड़ो उसे, जिससे नहीं मिला तो तुम उसे पाने के हकदार हो सकते हो, जिससे मिल सकता है। मैं देने को तैयार हूं। लेकिन पहले इस सबको मार आओ, मिटा आओ। पुराने को गिराओ ताकि नया निर्मित हो सके। ये घास-फूस उखाड़ो और फेंको ताकि फूलों के बीज बोए जा सकें। निकोदेमस ने कहा कि यह जरा कठिन है।

लेकिन अगर सत्य को पाना इतना भी मूल्यवान नहीं है कि तुम थोड़ी कठिनाई से गुजर सको तो तुम सत्य पाने के हकदार भी नहीं।

सीधा-सा मतलब है। वही मैं भी तुमसे कहता हूं कि जो तुम्हारे मार्ग में आए, मार डालना। लेकिन मेरा अर्थ समझ लेना। किसी को मार मत डालना। कि पत्नी बीच में आए तो उठाकर एक टेंड़पा उसका सिर तोड़ दो।

भीतर तुम्हारे जो-जो बाधाएं हैं उन्हें गिरा दो। बाहर कभी कोई बाधा नहीं है–रही ही नहीं। बाहर तो हमारी तरकीबें हैं। जो हम भीतर से करने में डरते हैं, लेकिन इतनी भी हिम्मत नहीं है कि स्वीकार कर लें अपनी कमजोरी, उनके लिए हम बाहर कारण खोजते हैं। यह बाहर का सब तर्कजाल है।

तुम कहते हो पत्नी दुखी होगी, इसलिए संन्यास नहीं ले रहे हो। लेकिन और कितने काम तुमने किए, तब तुमने पत्नी के दुखी होने की कोई फिकर न की; संन्यास में ही फिकर कर रहे हो? पत्नी तुम्हारी सुखी रही है इसका अर्थ है पूरे जीवन? अभी तक मैंने सुखी पत्नी नहीं देखी, न सुखी पति देखा। सब रोते दिखाई पड़ते हैं। पति सोचता है, पत्नी दुख दे रही है। पत्नी सोचती है, पति दुख दे रहा है। और फिर भी तुम कहते हो, पत्नी दुखी होगी। इतने दुख दिए, यही एक दुख देने में डर रहे हो?

नहीं, कहीं कुछ और बात है। शराब पीते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। जुआ खेलते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। किसी और स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो तब नहीं सोचते कि पत्नी दुखी होगी। तब कहते हो क्या करें! मजबूरी है। हो गया, प्रेम हो गया; अब क्या करें?

ऐसा ही कह न सकोगे कि संन्यास हो गया, अब क्या करें? नहीं, पत्नी से किसको प्रयोजन है? और फिर दूसरे को दुख देना न देना तुम्हारे बस में है? सुख देना तुम्हारे हाथ में है?

जो तुम नहीं करना चाहते हो उसके लिए तुम बाहर कारण खोज लेते हो। जो तुम करना चाहते हो, उसके लिए भी कारण खोज लेते हो। करते तुम वही हो, जो तुम करना चाहते हो और सदा कारणों का सहारा ले लेते हो।

जब जीसस कहते हैं, मार डालो जो बाधा बने–उनका कुल प्रयोजन इतना है कि अपने भीतर से सारा जाल गिरा दो, फिर तुम्हें जो ठीक लगे, करो। तभी कोई जीसस के पीछे आ सकता है। तभी कोई मेरे साथ आ सकता है। कुछ चुकाना पड़ेगा मूल्य। सत्संग मुफ्त तो नहीं है। महंगे से महंगा सौदा है।

और संसार में सब चीजें छोटी-मोटी चीजें देने से मिल जाती हैं, यहां तो कोई अपने को पूरा दे सकेगा तो ही पा सकेगा।

कहते हो कि “प्रेम के पुजारी से ऐसी आज्ञा?’

यह प्रेम की ही आज्ञा है। यह आज्ञा बड़ी प्रेमपूर्ण है; नहीं तो दी न गई होती। जीसस तुम्हें प्रेम करते हैं इसलिए ऐसा कह सके। यह पुकार प्रेम की ही पुकार है। अन्यथा तुम्हें पीछे चलाने में कुछ जीसस को सुख मिलनेवाला नहीं है। न तुम्हें पीछे चलाते, न फांसी मिलती। तुम्हें पीछे चलाया, फांसी मिली।

अकेले बैठे रहते, कोई फांसी लगानेवाला न था। तुम्हें चलाया तो कंधे पर अपनी सूली ढोनी पड़ी। अकेले बैठे रहते, तुम्हें पीछे न चलाते तो सूली ढोने की कोई नौबत न आती।

तुम्हें साथ चलाकर जीसस को क्या मिला? फांसी मिली, सूली मिली। कोई सिंहासन तो मिल न गया। लाभ जीसस को क्या हो गया? लेकिन प्रेम था। बिना चलाए न रह सके। जो मिला था, बिना बांटे न रह सके। जो पाया था, चाहा कि तुम्हारी झोली में भी भर दें। किसी गहन प्रेम से ही पुकारा था कि आओ मेरे पीछे। किसी बड़े खजाने की खबर उनको मिल गई थी। वह खजाना इतने पास है और तुम भिखमंगे हो। तो कहा था, चले आओ मेरे पीछे। जिनको भी जीसस का खजाना समझ में आ गया, वे चल पड़े।

जीसस सुबह निकलते हैं एक झील के पास से। दो मछुए मछलियां मार रहे हैं। उन्होंने जाल फेंका है, अभी सूरज ऊगा है और जीसस पीछे आकर खड़े हो गए। और उन्होंने एक मछुए के कंधे पर हाथ रखा और कहा कि देख, मेरी तरफ देख। कब तक मछलियां पकड़ता रहेगा? अरे आ! मैं तुझे कुछ बड़ी चीजें पकड?ने का राज बताता हूं। और फिर मैं सदा यहां न रहूंगा। मेरे जाने का वक्त जल्दी ही आ जाएगा।

वह मछुआ तो चौंका होगा। यह कौन अजनबी आदमी? और कैसी अजीब-सी बातें कर रहा है! लेकिन उसने जीसस को देखा, वह सीधा भोला-भाला आदमी रहा होगा। वह कोई पंडित न था। उसे शास्त्रों का कुछ पता नहीं था। मछलियां मारने में ही जिंदगी बिताई थी। सीधा-सादा भोला-भाला आदमी था। तर्क, गणित, जाल कुछ भी न था।

उसने जीसस की आंखों में देखा–सीधे आदमी ही आंखों में आंखें डालकर देख सकते हैं–और उस के हाथ से जाल छूट गया। उसने अपने भाई को भी ललकारा, जो डोंगी में बैठकर जाल डाल रहा था कि तू भी आ। जिन आंखों की हम तलाश करते थे वे आ गईं। इस आदमी के पास कुछ है। हम इसके साथ चलेंगे। यह भी न पूछा तुम कौन हो? पता-ठिकाना? तुम्हारा अधिकार क्या? तुम्हारी आप्तता क्या? किस अधिकार के बल से बोल रहे हो कि हमारे पीछे आओ, फेंको जाल?

वे पीछे हो लिए। वे गांव के बाहर निकलते थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा कि तुम दोनों कहां जा रहे हो पागलो? तुम्हारा बाप, जो बीमार था, वह मर चुका।

उन दोनों ने जीसस से कहा, हमें तीन-चार दिन की मोहलत, सुविधा दे दें। हम जाकर अपने पिता का अंतिम संस्कार कर आएं। तो जीसस ने कहा कि जो मुर्दे गांव में हैं, काफी हैं। वे मुर्दे का संस्कार कर लेंगे। तू फिकर न कर। तुम फिकर मत करो। तुम मेरे पीछे चल पड़े तो अब लौटकर मत देखो। मरे हुए बाप को दफनाने के लिए मरे हुए लोग काफी हैं गांव में; वे फिकर कर लेंगे। मुर्दे मुर्दे को दफना लेंगे। तुम मेरे पीछे आओ।

यह हमें लगेगा बड़ी कठोर बात है। और प्रेमी, प्रेम के संदेशवाहक जीसस के मुंह से, कि दफना लेंगे मुर्दे मुर्दे को…। लेकिन मुर्दे को दफनाकर भी क्या होना है? जो जा ही चुका, जा ही चुका। अब तुम इस लाश को मिट्टी में गड़ा दो कि आग में जला दो कि पशु-पक्षियों के लिए छोड़ दो। क्या फर्क पड़ता है? कि तुम विधि-विधान पूरा करो कि मंत्र जाप करो; क्या फर्क पड़ता है? जो चुका, जा चुका। अब तो यह खोल पड़ी रह गई है। प्राण तो उड़ चुके। पिंजड़ा पड़ा रह गया है; पक्षी तो जा चुका। अब यहां कुछ भी नहीं है।

इसलिए जीसस कहते हैं, यह काम तो मुर्दे भी कर लेंगे। इसलिए तुम्हें जाने की कोई जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर मत देखो, अन्यथा मेरे साथ न चल सकोगे।

जिन्हें जीसस के साथ चलना हो, उन्हें आगे देखना चाहिए। जो जा चुका, जा चुका। अतीत न हो चुका। जो ऊग रहा सूरज, उस तरफ ध्यान देना चाहिए क्योंकि वहां जीवन है। वहां जीवन की संभावना है। वहां जीवन की नियति है। वहां भाग्य का छिपा हुआ खजाना है।

हिम्मतवर लोग रहे होंगे। यह घड़ी ऐसी थी कि कहते कि यह भी क्या बात हुई! जिस पिता ने हमें जन्म दिया वह मर गया और तुम हमें रोकते हो? लेकिन बड़े सीधे-साफ लोग रहे होंगे। उनकी बात समझ में आ गई। उन्होंने कहा, यह बात तो ठीक ही है। दफनाकर भी क्या होगा? और इतने लोग तो गांव में हैं ही, वे दफना ही लेंगे।

वे नहीं गए वापस। वे जीसस के साथ ही चलते रहे।

यह आवाज प्रेम की ही आवाज थी। यह करुणा का ही संदेश था। क्योंकि जीसस को पता है, एक बार व्यक्ति मुक्त हो जाए तो नाव ज्यादा देर इस किनारे पर नहीं टिकती। थोड़ी देर टिकती है। थोड़ी देर टिक जाए, यह भी चमत्कार है। थोड़ी देर भी चेष्टा से टिकती है। यह नाव जल्दी छूट जाएगी। अगर पीछे लौट-लौटकर देखते रहे, और व्यर्थ की बातों में उलझते रहे और व्यर्थ के बहाने खोजते रहे और कहा कि कल आएंगे, परसों आएंगे, तो तुम कभी न आ पाओगे।

इसलिए जीसस कहते हैं, जो मार्ग में आए, जो बाधा बने, उसे हटा दो, मिटा दो।

मैं भी तुमसे यही कहता हूं। जो व्यर्थ है उसके साथ संग मत जोड़ो। जो थोथा है उससे दोस्ती मत बनाओ। थोथे से दोस्ती तुम्हारे भीतर के थोथेपन का सबूत है।

ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं

तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे

रहीम कहते हैं:

ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं

ओछे से दोस्ती मत बांधो। व्यर्थ से दोस्ती मत बांधो। असार से दोस्ती मत बांधो। अंगार समझो ओछे को।

तातै जारे अंग

जब गरम होता, जलता होता तो शरीर को जलाता है।

सीरो पै कारो लगे

और जब ठंडा हो जाता है तो शरीर में कालिख लगाता है। ऐसा अंगार समझो ओछेपन को। जलाएगा या तो, अगर जीवित रहा, गरम रहा। अगर मरा, मुर्दा हुआ तो कोयला हो जाएगा, तो फिर शरीर को काला करेगा। मगर हर हालत में सताएगा।

पर ध्यान रखना, जीवन के सारे सूत्र आत्यंतिक अर्थों में अंतस के संबंध में हैं। तुम किसी ओछे आदमी से दोस्ती क्यों करते हो? दोस्ती अकारण तो नहीं होती। तुम्हारे भीतर कुछ ओछापन होता है जो उसके साथ तालमेल खाता है। तुम बुरे आदमी की दोस्ती कैसे कर लेते हो? कोई आसमान से दोस्ती थोड़े ही टपकती है!

एक अजनबी आदमी गांव में आए, जल्दी ही तुम पाओगे, दो-चार दिन के भीतर उसने अपने जैसे लोग खोज लिए। अगर वह भक्त था तो भक्तों के सत्संग में पहुंच जाएगा। गीत गुनगाएगा, नाचेगा, प्रभु का स्मरण करेगा। शराबी था तो शराबखाने पहुंच जाएगा। शराबियों के गले में हाथ पड़ जाएंगे। जुआरी था, जुआघर खोज लेगा।

भक्त वर्षों रह जाए इस गांव में, और उसे पता न चलेगा कि जुआघर कहां है। और जुआरी वर्षों रह जाए, उसे पता न चलेगा कि कहीं भजन भी हो रहा है। उसी रास्ते से गुजर जाएगा। लेकिन भजन आंख में दिखाई न पड़ेगा, कान में सुनाई न पड़ेगा। शोरगुल मालूम होगा। उससे कोई संबंध न जुड़ेगा। लेकिन कहीं पासों की खनकार सुनाई पड़ जाए तो वह सजग हो जाएगा। उसकी दुनिया आ गयी। उसके भीतर कोई चीज तालमेल खा गई।

तुम बाहर उन्हीं से दोस्ती बना लेते हो, जैसे तुम हो। इसलिए बाहर को दोष मत देना। भीतर अपने खोजना।

ओछे को सत्संग रहिमन तजौ अंगार ज्यूं

तातै जारे अंग सीरो पै कारो लगे।

तीसरा प्रश्न: आपने कहा है कि एक-दूसरे से विपरीत अनेक मार्ग हैं, जो एक परमात्मा पर ले जाते हैं। अतीत में ऐसा रहा है कि एक ही मार्ग के साधक एक गुरु के पास इकट्ठे होते थे। जैसे योगी अलग, भक्त अलग, तांत्रिक अलग, ध्यानी अलग। इससे सभी को अपने मार्ग पर चलने में सुविधा थी। परंतु आपके पास, आपके आश्रम में तो सब विपरीत मार्गों का मेला लगा हुआ है–योगी और भक्त, तांत्रिक और सूफी, कर्मयोगी और ध्यानी, सब एक साथ। ऐसा कैसे? इससे बाधाएं भी बनती हैं। इस संबंध में कुछ कहने की कृपा करें।

यह सच है। अतीत में ऐसा ही था। एक गुरु एक संकीर्ण मार्ग का उपदेष्टा होता था। उसके लाभ भी थे, हानियां भी थीं।

लाभ तो यह था कि तुम्हारे मन में कभी दुविधा पैदा न होती थी। एक ही बात…एक ही बात…एक ही बात सुनते थे। एक ही बात…एक ही बात…एक ही बात करते थे। संदेह पैदा न होता था। चुपचाप अपने मार्ग को पकड़कर चलते थे। लेकिन खतरा था। संकीर्णता पैदा होती थी। सांप्रदायिकता पैदा होती थी, कि मैं ही ठीक हूं, और सब गलत हैं। यही मार्ग ठीक है, और सब मार्ग गलत हैं।

तो लाभ था, हानि थी। और लाभ से हानि ज्यादा बड़ी सिद्ध हुई। लाभ तो बहुत थोड़े लोगों को हुआ, हानि करोड़ों को हुई। सारी दुनिया सांप्रदायिक हो गई। सारी दुनिया में यह मतांधता फैल गई कि हम ठीक और बाकी सब गलत।

जैन से पूछो, वह कहता है हमारा गुरु गुरु, बाकी सब कुगुरु। हमारा शास्त्र शास्त्र, बाकी सब कुशास्त्र। मुसलमान से पूछो, हिंदू से पूछो, ईसाई से पूछो। सब संकीर्ण हो गए, सांप्रदायिक हो गए। धर्म की तो हत्या हो गई। सुविधा तो मिली होगी थोड़े-से लोगों को, सरल-चित्त लोगों को–जिन्होंने इतना ही जाना कि हमारे लिए क्या ठीक है, हमें मिल गया और चुपचाप उस पर चल पड़े। सौ में से एक को तो सुविधा मिली होगी, निन्यानबे तो सिर्फ संकीर्ण हो गए।

मैं ठीक उल्टा प्रयोग कर रहा हूं, जैसा कभी नहीं हुआ है। मैं यह फिकर कर रहा हूं कि चाहे सुविधा थोड़ी कम हो, संकीर्णता न हो। मानना मेरा ऐसा है कि जो एक सरल आदमी पुरानी संकीर्ण सीमाओं से जा सका, वह सरल आदमी मेरे पास भी जा सकेगा। उसे दुविधा पैदा नहीं होगी यहां भी। क्योंकि सरल आदमी मुझे देखेगा। मैं क्या कहता हूं इसकी बहुत फिकर ही नहीं करता। सरल आदमी तो मुझ पर भरोसा करता है। वह कहता है वे जो कहते होंगे, ठीक कहते होंगे। उसे कोई दुविधा पैदा नहीं होती। वह मेरे विरोधाभास में भी मुझे ही देखता है। दोनों में मुझे ही देखता है। और सरल आदमी तो अपने काम की बात चुन लेता है और चल पड़ता है।

जटिल आदमियों के साथ झंझट है। लोभियों के साथ झंझट है। उन लोभियों को दुविधा पैदा होगी क्योंकि वे चाहते हैं, ध्यान भी झपट लें, प्रेम भी झपट लें। भक्ति पर भी कब्जा कर लें, ध्यान पर भी कब्जा कर लें। तपस्वी भी हो जाएं, जीवन का रस भी न खोए। त्याग का भी मजा ले लें, अहंकार का भी मजा ले लें और परमात्मा की पूजा का भी रस आ जाए।

लोभी! उसको तकलीफ होगी। सरल-चित को तो मेरे पास कोई तकलीफ नहीं है। उसको कभी कोई तकलीफ नहीं है, किसी के पास कोई तकलीफ नहीं है। सरल-चित्त आदमी तो अपने मतलब की बात खोज लेता, चल पड़ता।

तुम जाते हो नदी के किनारे। प्यासा आदमी तो अपने चुल्लू में पानी भर लेता है। पूरे नदी की थोड़े ही फिक्र करता है कि अब इसको घर ले जाएं, बांधकर रखें, क्या करें, क्या न करें। वह धन्यवाद देता है नदी को कि ठीक। अपनी चुल्लू भर ली, अपनी प्यास बुझा ली, बात खतम हो गई।

हां, अगर तुम लोभी हो तो तुम प्यास तो भूल ही जाओगे, तुम सोचोगे इस नदी पर कब्जा कैसे किया जाए। यह पूरी नदी मेरे तिजोड़ी में कैसे बंद हो जाए। इस पूरी नदी का मैं मालिक कैसे हो जाऊं। तो तुम अड़चन में पड़ोगे।

सरल तो पहले भी अड़चन में नहीं पड़ा, अब भी नहीं पड़ेगा।

मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह नया है। मैं चाहता हूं कि संसार में अब संकीर्णता न रहे, सांप्रदायिकता न रहे। संप्रदाय के नाम पर बहुत हानि हो चुकी। आदमी लड़े और कटे और मरे। आदमी निर्मित नहीं हुआ, विनष्ट हुआ। अब संप्रदाय नहीं चाहिए। अब तो दुनिया में धर्म नहीं चाहिए, धार्मिकता चाहिए। मंदिर-मस्जिद नहीं चाहिए, धर्म-भावना चाहिए। कुरान-गीता छूटें, छूटें; सदभाव न छूटे। जैन, हिंदू, मुसलमान नहीं चाहिए। अब तो भले, सीधे, सरल-चित्त लोग चाहिए। क्योंकि जैन, हिंदू, मुसलमान तो हजारों वर्षों से जमीन पर हैं। और जमीन रोज नर्क होती चली गई। इनके होने से कुछ लाभ नहीं हुआ। ये तो अब विदा लें। इनको तो हम अलविदा कहें। अब तो खाली आदमी, सूना आदमी, स्वस्थ-सरल आदमी चाहिए।

इसलिए मैं सारे धर्मों की बात कर रहा हूं। इसमें जो सरल हैं उनको तो बड़ा लाभ होगा, जो जटिल हैं उनको बड़ी दुविधा होगी। लेकिन मेरे देखे, मेरे लेखे अगर सौ आदमी पुरानी दुनिया में चलते थे धर्म के मार्ग पर तो निन्यानबे संकीर्ण हो गए, एक सरल पहुंचा। मैं तुमसे कहता हूं, वह एक सरल तो मेरे पास भी पहुंच जाएगा और निन्यानबे संकीर्ण न हो पाएंगे। और अगर निन्यानबे संकीर्ण न हों तो उनके पहुंचने की संभावना भी बढ़ गई। मैं तुम्हें विराट करना चाहता हूं। तुम्हें पूरी दृष्टि देना चाहता हूं। तुम सब देख लो। फिर तुम्हें जो रुचिकर लगे उस पर चल पड़ो। कठिनाई तो तब होगी जब तुम सभी रास्तों पर चलने की कोशिश करने लगोगे। तब अड़चन होगी।

लेकिन यह तो पागलपन है। तुम केमिस्ट की दुकान पर जाते हो, अपना प्रिस्क्रिप्शन दिखाते हो, दवा ली, चल पड़े। तुम यह नहीं कहते कि यहां लाखों दवाएं रखी हैं। तुम यह नहीं कहते कि एक ही दवा से क्या होगा? सब दवाएं दे दो। तुम अपना रोग देख लेते हो, अपनी औषधि लेकर अपने घर चले आते हो। तुम चिंता में नहीं पड़ते कि केमिस्ट की दुकान पर लाखों दवाएं रखी हैं और हम एक ही लिए जा रहे हैं? तुम लोभ में नहीं पड़ते।

मैं तुम्हारे सामने सब द्वार खोल रहा हूं। तुम्हें जो द्वार रुच जाए, तुम उससे प्रवेश कर जाना। अब तुम यह कोशिश मत करना कि सभी द्वारों से तुम प्रवेश करो; अन्यथा तुम पगला जाओगे। संकीर्ण तुम मेरे पास न हो सकोगे, लेकिन अगर लोभी हुए तो पागल हो जाओगे। लेकिन वह भी मेरे कारण नहीं, अपने लोभ के कारण।

मैं तो तुम्हें सारा दृश्य दे रहा हूं, पूरा नक्शा दे रहा हूं दुनिया का। फिर तुम्हें जो तुम्हारे भीतर धुन बजा देता हो, उसे पकड़ लो। मेरे लिए रास्ते मूल्यवान नहीं हैं, तुम मूल्यवान हो। विधियों का कोई मूल्य नहीं है, व्यक्तियों का मूल्य है। तुम्हें जो विधि रुच जाए, जिस विधि से तुम्हारे भीतर कमल खिलने लगे, वही तुम्हारा मार्ग हो गया।

लेकिन मेरे पास एक बात तुम्हें जरूर समझ में आ जाएगी: कि जो तुम्हारे लिए मार्ग है, जरूरी नहीं है सबके लिए हो। जो तुम्हारे लिए मार्ग नहीं है, हो सकता है दूसरे के लिए हो। क्योंकि तुम यहां मेरे पास देखोगे भक्ति से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां देखोगे ध्यान से खिलते हुए लोगों को। तुम यहां मुसलमानों को प्रभु की तरफ बढ़ते देखोगे, जैनों को, हिंदुओं को, ईसाइयों को, यहूदियों को।

तो एक बात तो यहां तुम्हें सीख ही लेनी पड़ेगी कि सब पहुंच जाते हैं। पहुंचने की गहरी आकांक्षा हो, अभीप्सा हो। सब पहुंच जाते हैं। सब मार्गों से पहुंच जाते हैं। सभी मार्ग उस की तरफ ले जाते हैं। उस एक ही यात्रा चल रही है। वह एक ही तीर्थ है। सभी यात्राएं वहीं पहुंच जाती हैं।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुम सभी मार्गों पर दौड़ने लगो। तब तुम पगला जाओगे। तब तुम कहीं न पहुंचोगे। चलना तो एक ही मार्ग पर होगा।

देखा? गंगा बहती है पूरब की तरफ, नर्मदा बहती पश्चिम की तरफ; दोनों सागर पहुंच जाती हैं।

यह तो अच्छा हुआ कि दोनों का कहीं मिलना नहीं होता बीच में। नहीं तो गंगा कहेगी, पागल हुई? पश्चिम में कहीं सागर है? सदा से पूरब में रहा। हम सदा पूरब में मिलते रहे सागर से। तेरा दिमाग फिर गया नर्मदा? लौट आ। मेरे साथ हो ले। हमारे संप्रदाय में सम्मिलित हो जा।

और नर्मदा कहेगी, तू पागल हो गई? हम सदा से गिरते रहे सागर में। यही हमारा ढंग रहा। तुझे कुछ भ्रांति है। पूरब में कहीं सागर है? पूरब से तो हम आते हैं, पश्चिम को हम जाते हैं। पूरब में सागर होता तो हम आते ही क्यों पूरब से? पूरब में कुछ भी नहीं है। भटक जाओगी।

नदियां आपस में बात नहीं करतीं, अच्छा है। दोनों सागर पहुंच जाती हैं। सभी नदियां अंततः सागर पहुंच जाती हैं।

ऐसा ही सभी चेतनाएं अंततः परमात्मा में पहुंच जाती हैं। तुम अपना मार्ग पकड़ लो और ध्यानपूर्वक, स्मरणपूर्वक, उस पर चलो। दूसरों को उनके मार्ग पर चलने दो। आशीर्वाद दो उन्हें कि वे भी पहुंचें। प्रार्थना करो उनके लिए कि वे भी पहुंचें। इससे क्या फर्क पड़ता है कैसे पहुंचते हैं, कौन-सा वाहन लेते हैं! पहुंचें। और उनसे आशीर्वाद मांगो अपने लिए कि हम भी पहुंच जाएं, जो हमने मार्ग चुना है उससे। तो दुनिया में एक सदभाव पैदा हो। हो चुका संप्रदाय बहुत, अब सदभाव चाहिए।

चौथा प्रश्न: त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वं मम देव देव

–सरोज के वंदन।

जो मैं अभी कह रहा था। कोई ध्यान से खिल जाता, कोई प्रेम से खिल जाता।

सरोज का प्रश्न एक भक्त का प्रश्न है। भक्त के पास प्रश्न भी नहीं है, निवेदन है। शायद निवेदन कहना भी ठीक नहीं, अहोभाव की अभिव्यक्ति है। पूछने को कुछ नहीं है, धन्यवाद देने को कुछ है।

ध्यान का मार्गी पूछता है, क्या करें। प्रेम का मार्गी धन्यवाद देता है कि जो हुआ, वह बहुत है। और न हो तो चलेगा। जो हो ही गया है वह अपनी पात्रता से ज्यादा है। ऐसे ही पात्र के ऊपर से बहा जा रहा है; बाढ़ आ गई है।

यहां तुम इन प्रश्नों में भी दखोगे। अलग-अलग लोग, अलग-अलग उनकी लहरें, अलग उनकी तरंगें।

अब सरोज पूछती है–प्रश्न है ही नहीं इसमें। वह कहती है तुम ही पिता, तुम ही माता, तुम ही बंधु, तुम ही सखा। तुम ही सब कुछ। तुम ही देवताओं के देवता।

भक्त के पास एक अहोभाव है। भक्त खोज नहीं रहा है, भक्त को मिल गया है। भक्त कहता है जीवन बरस ही गया है। उत्सव चल ही रहा है। जो मिलना था वह मिल ही गया है। परमात्मा ने उसे दे ही दिया है।

ध्यानी तो खोज रहा है कि मिलेगा तब आनंदित होगा। भक्त आनंदित है। ध्यानी खोजेगा तो आनंदित होगा, भक्त आनंदित है इसलिए खोज लेगा। ध्यानी का साधन पहले है, साध्य अंत में। भक्त का साध्य पहले है, साधना अंतिम।

इसलिए भक्त और ध्यानी की भाषा में बड़े जमीन-आसमान के अंतर हैं। वे एकदम उल्टी बातें बोलते हैं। इसलिए तो ज्ञानी कहते हैं कबीर को–उलटबांसी। उल्टी बांसुरी बजा रहे हो। और कबीर भी कहते हैं, “एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागी आग।’ नदी में आग लगी देखी।

अब यह कोई सोच-विचारवाला आदमी कहेगा कि दिमाग खराब हो गया है। कबीर यही कह रहे हैं कि मैंने साध्य को पहले देखा, साधन को पीछे। मंजिल पहले पाई, मार्ग पीछे। मिलन परमात्मा से पहले हो गया तब बाद में समझ आयी कि कैसे मिलें। नदिया लागी आग, एक अचंभा मैंने देखा।

लेकिन गणित से, तर्क से, विचार से चलनेवाला आदमी कहेगा, यह तो उलटबांसी हो गई। यह तो उल्टी बात हो गई।

दोनों की भाषाएं निश्चित उल्टी हैं। लेकिन तुम ऐसा समझो कि कोई कहता है मुर्गी से अंडा होता है, और कोई कहता है अंडे से मुर्गी होती है। क्या ये सच में उल्टी बातें हैं? ये दोनों ही सच हैं। लेकिन इतनी हिम्मत चाहिए समझने की कि दोनों एक साथ सच हैं। बड़ा कठिन मालूम होता है क्योंकि हम तो संकीर्णता से सोचते हैं। हम कहते हैं, मुर्गी पहले तो अंडा बाद में। अब कोई कहता है अंडा पहले, तो हमें झगड़ा खड़ा हो जाता है। हम कहते हैं, ये दोनों बातें तो एक साथ नहीं हो सकतीं। या तो मुर्गी पहले, या अंडा पहले। दो में से कुछ एक ही पहले हो सकता है। लेकिन तुमने कभी खयाल किया? दोनों एक-दूसरे के पहले खड़े हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था। अलग-अलग मिलता था तब तो ठीक था। एक-दूसरे के सौंदर्य की बात करता, खूब चर्चा करता। दोनों स्त्रियों की भी आपस में धीरे-धीरे पहचान हो गई। उन्होंने कहा कि यह आदमी धोखा दे रहा है, इसको फांसना पड़ेगा।

एक दिन नौका-विहार के लिए दोनों ने इकट्ठा मुल्ला नसरुद्दीन को अपने साथ ले लिया। नदी पर बैठकर, पूर्णिमा की रात, बीच मझधार में मुल्ला से कहा कि नसरुद्दीन, अब कहो कौन सुंदर है? अब मुल्ला बहुत घबड़ाया। अकेले में एक स्त्री को कह दो कि तुम दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री हो; कोई हर्जा नहीं। सभी कहते हैं। कहना ही पड़ता है। फिर इससे कुछ अड़चन नहीं आती। दूसरी स्त्री को फिर अकेले में कह दो। इससे कोई तार्किक झंझट नहीं आती। अलग-अलग समय में अलग-अलग स्थान में दोनों वक्तव्य ठीक मालूम होते हैं। लेकिन दो स्त्रियां…!

और मुल्ला थोड़ा घबड़ाया क्योंकि दोनों नाराज मालूम होती हैं। नदी का मामला! मझधार! धक्का दे दें!

तो उसने कहा, यह भी कोई बात है? अरे तुम एक-दूसरे से सुंदर हो। एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर हो। एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर सुंदर हो।

अब एक दूसरे से बढ़-चढ़कर सुंदर हो, इसका मतलब क्या होता है? लेकिन शायद यही ज्यादा सच है। यह वक्तव्य बेबूझ हो जाता है लेकिन ज्यादा सच है।

अंडा मुर्गी के पहले, मुर्गी अंडे के पहले। दोनों एक-दूसरे के पहले। दोनों असल में दो नहीं हैं। मुर्गी अंडे का ही एक रूप है। अंडा मुर्गी का ही एक रूप है। मुर्गी अंडे का ही एक ढंग है और अंडे पैदा करने का। अंडा मुर्गी का ही एक ढंग है और मुर्गी पैदा करने का। ये दोनों दो हैं ऐसा सोचने से गड़बड़ खड़ी हो जाती है। ये संयुक्त घटनाएं हैं।

इसे तुम ऐसा समझो कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कौन आगे, कौन पीछे? युगपत हैं, साथ-साथ हैं। साधन और साध्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

भक्त को साध्य पहले मिलता है, फिर वह साधन खोजता है। वह परमात्मा को पहले खोज लेता है फिर उसका रास्ता खोजता है। तुम कहोगे यह बात अजीब है। क्या करें?

एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग! ऐसा होता भक्त को। पहले भगवान मिल जाता है, फिर वह उसी से पूछ लेता है अब रास्ता कहां है? अब तुम्हीं बता दो। जब मिल ही गए तो तुम्हारा पता-ठिकाना क्या?

ध्यानी पहले रास्ता खोजता है। ध्यानी ज्यादा तर्कयुक्त है, ज्यादा व्यवस्था से चलता है। उसके जीवन में एक शृंखला है। भक्त बड़ा बेबूझ है। प्रेम सदा से बेबूझ है।

यहूदियों में एक धारणा है–बड़ी प्रीतिकर धारणा। यहूदी भक्ति का ही एक मार्ग है। यहूदी कहते हैं, इसके पहले कि भक्त भगवान को खोजे, भगवान भक्त को खोज लेता है। यहूदी धर्म की बड़ी गहरी देन में से एक देन यह है। वे कहते हैं, तुम खोजना ही तब शुरू करते हो जब वह तुम्हें खोज लेता है, नहीं तो तुम शुरू ही नहीं करते। जब वह किसी तरह तुम्हारे भीतर आ ही जाता है, तभी तुम्हारे भीतर उसे पाने की आकांक्षा जगती है; नहीं तो आकांक्षा ही नहीं जगती।

यहूदी कहते हैं, तुम ही नहीं खोज रहे भगवान को, भगवान भी तुम्हें खोज रहा है। तुम ही नहीं तड़फ रहे उसके लिए, वह भी तड़फ रहा है। और मजा तो तभी है जब आग दोनों तरफ से लगे। अगर भक्त ही खोजता रहे भगवान को और भगवान को जरा भी न पड़ी हो–मिल गए तो ठीक, न मिले तो ठीक; और भगवान उपेक्षा से भरा हो तो खोज का सारा मजा ही चला गया, रस ही चला गया।

ध्यानी कहता है सत्य तुम्हें नहीं खोज सकता, तुम सत्य को खोज सकते हो। एकतरफा है उसकी खोज। वह कहता है हम खोजेंगे। सत्य कैसे खोजेगा? सत्य को तो उघाड़ना पड़ेगा।

भक्त कहता है यह कोई हमीं खोज रहे ऐसा नहीं, वह भी उघड़ने को आतुर है। यह हमीं उसका घूंघट उठाने नहीं चले हैं, वह भी घूंघट डालकर बैठा है कि आओ, उठाओ; कि बड़ी देर लगाई, कहां रहे? आओ! परमात्मा भी खोज रहा है। यह खोज दोनों तरफ से है। यह आग दोनों तरफ से है। यह यात्रा दोनों तरफ से चल रही है।

अब यह सरोज का जो प्रश्न है, एक भक्त का प्रश्न है। प्रश्न तो है ही नहीं। क्योंकि भक्त प्रश्न पूछ नहीं सकता। अहोभाव है। वह अपने हृदय की बात कह रही है कि ऐसा उसे हुआ है।

अब उसे लगता है कि गुरु ही पिता, गुरु ही माता, गुरु ही संगी, गुरु ही साथी, गुरु ही ज्ञान, गुरु ही परमात्मा।

प्रेम जहां भी पड़ता है वहीं परमात्मा की छवि देख लेता है।

तुझ से अब मिलके ताज्जुब है कि अर्सा इतना

आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गुजरा

और जब परमात्मा की उसे झलक मिलती है तो उसे भरोसा ही नहीं आता कि आज तक इतना अर्सा तुझसे बिना मिले गुजरा कैसे? यह हो ही कैसे सका? यह मैं हो कैसे सका इतने दिन तक? यह मेरे होने की संभावना ही कैसे हो सकी?

उसे भरोसा ही नहीं आता कि मैं था भी। भक्त को तो उसी दिन भरोसा आता है अपने होने पर, जब भगवान का मिलन होता है। उसी दिन भक्त होता है। उसके पहले तो सब सपना था। एक झूठी दास्तान थी। न किसी ने कही, न किसी ने सुनी, एक झूठी दास्तान थी।

तुझसे अब मिलके ताज्जुब है कि अर्सा इतना

आज तक तेरी जुदाई में यह क्यों कर गुजरा

बहुत दिनों में मोहब्बत को हो सका मालूम

जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

प्रेमी को पता चलता है धीरे-धीरे प्रेम में पगते-पगते कि:

जो तेरी हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

जो तेरे बिना गुजरी वह रात रात हुई। वह हुई, न हुई बराबर हुई। तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ।

“त्वमेव माता च पिता त्वमेव।’

तुझे मिलकर जीवन शुरू हुआ।

जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

इसलिए अगर किसी के हाथ में हाथ जाने से तुम्हारे जीवन में रसधार बहे तो लगेगा तुम्हीं पिता, तुम्हीं माता; क्योंकि नया जन्म हुआ। एक जन्म है, जो माता-पिता से होता है, वह शरीर का जन्म है। फिर एक जन्म है, जो सदगुरु से होता है; वह आत्मिक जन्म है, वह वास्तविक जन्म है। वह तुम्हारी चेतना का आविर्भाव है।

जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात रात हुई

इसलिए फिर सदगुरु सभी कुछ मालूम होने लगता है। यह भक्त का अपना ही हृदय सदगुरु में झलकता। जो उसे भीतर दिखाई पड़ता है, वही उसे सदगुरु में दिखाई पड़ता है। सदगुरु तो दर्पण है, तुम अपना ही चेहरा देख लेते हो।

और भक्त को फिर बड़ा भरोसा आ जाता है। गुरु का साथ मिला कि भरोसा आ गया। अगर गुरु है तो परमात्मा है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति है, जो तुम्हें अपने से पार दिखाई पड़ता है, जिसे देखने में तुम्हारी आंखें जमीन से आकाश की तरफ उठ जाती हैं, तो बस पर्याप्त है।

कहते हैं मंसूर को सूली लगी तो वह खिलखिलाकर हंसने लगा। वह खिलखिलाकर हंसा तो लोगों ने पूछा, तुम हंसते क्यों हो? वह कहने लगा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चलो, मुझे सूली पर लटका देखने के लिए कम से कम तुम्हारी आंखें तो ऊपर उठीं। तुम जमीन पर सरकते लोग, घसिटते लोग–तुम आकाश की तरफ आंख ही नहीं उठाते। चलो, मेरी फांसी के बहाने–वह लटका था एक बड़े ऊंचे खंभे पर–तुम्हारी आंखें तो आकाश की तरफ उठीं, इसलिए हंसा।

अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

आकाश तक पहुंचना होगा कि नहीं होगा, कहना मुश्किल है। लेकिन भक्त कहता है:

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

मैं रो ही नहीं रहा हूं, मेरे भीतर आह ही नहीं उठ रही है, मेरी उड़ान में प्रार्थना का भी बल है।

अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई

भक्त यह भी नहीं कहता कि पहुंच ही जाऊंगा। नहीं, प्रेम इस तरह के दावे नहीं करता। झिझकता है भक्त। भक्त कहता है:

अर्श तक देखिये पहुंचे कि न पहुंचे कोई

पहुंचना हो कि न पहुंचना हो। लेकिन एक अर्थ में भक्त झिझकता है कि पहुंचना होगा कि नहीं, और एक अर्थ में आश्वस्त होता है कि पहुंचना तो हो ही गया।

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

मेरी उड़ान में सिर्फ आह ही नहीं है, प्यास ही नहीं है, तुझे खोजने की अभीप्सा ही नहीं है, तुझे पा लेने की प्रार्थना भी है। तुझे पा लिया इसका धन्यवाद भी।

आह के साथ दुआ भी मेरी परवाज में

फिर इस उड़ान को कोई रोक सकता नहीं। यह होकर रहेगी। यह हो ही गई है।

पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

भक्त को तो ऐसे ही लगने लगता है कि भगवान पुकार रहा है। यहां जो भक्त की तरह मेरे पास आए हैं, उन्हें मेरी हर आवाज में लगेगा–आपने मुझे पुकारा तो नहीं?

पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

उसे अपनी धड़कन की आवाज भी ऐसे लगती है कि परमात्मा के पैरों की आवाज है।

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

हर जुल्म गवारा है मगर यह भी खबर है

दिल आपकी है चीज, हमारा तो नहीं

हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले

यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं

सब तरफ उसे उसी की नजरों का इशारा दिखाई पड़ता है। फूल खिलते हैं तो लगता परमात्मा हंसा। चांद निकलता तो लगता परमात्मा निकला। चांदनी फैल जाती है तो लगता परमात्मा फैला।

पहलू में जो रह-रहकर धड़कता है मेरा दिल

क्या आपने फिर मुझको पुकारा तो नहीं?

हर ओर बहारों ने लगा रक्खे हैं मेले

यह आपकी नजरों का इशारा तो नहीं

भक्त को बड़ी गहरी आंख उपलब्ध हो जाती है। बिना कुछ किए, बिना मांगे, बिना प्रयास के–प्रसाद से। चाहिए दिल, जो रो सके। चाहिए दिल, जो हंस सके। चाहिए दिल, जो संदेह न करे, श्रद्धा करे।

पांचवां प्रश्न: पूछा है आनंद सागर ने।

सीमार माझे असीम

तुमी बाजाओ आपन सूर

आमार मध्ये तोमार प्रकाश

ताई एतो मधुर

कत वर्णे कत गंधे

कत गाने कत छंदे

अरूप तोमार रूपेर लीला

जागे हृदय पूर

आमार मध्ये तोमार शोभा,

एमन सुमधुर

हे भगवान रजनीश!

लहो सागरेर नमन, प्रवीणेर वंदन।

ऐसा ही लगता है प्रेमी को कि मेरी सीमा में असीम उतरा; कि मेरे आंगन में आकाश उतरा। भक्त जब सुनता है तो एक-एक शब्द अमृत बनकर बरसता है। भक्त जब सुनता है खुले हृदय से तो जो ज्ञानी को, ध्यानी को, केवल शब्द मालूम होते हैं, भक्त को सिर्फ शब्द नहीं मालूम होते; उन शब्दों में एक अनूठा जीवन, एक आभा, उन शब्दों में शून्य की झनकार…।

सीमार माझे असीम

लगता, मेरी सीमा में असीम आया। गुरु का मिलन सीमा से असीम का मिलन है। शिष्य यानी सीमा। शिष्य वही जिसे अपनी सीमा का पता चल गया और जो राजी है असीम के चरणों में अपनी सीमा को डाल देने को।

सीमार माझे असीम

तुमी बाजाओ आपन सूर

और शिष्य कहता है, बजाओ तुम अपनी वीणा। बजाओ तुम अपना स्वर। मैं राजी हूं। मैं सुनूंगा, मैं नाचूंगा। मैं घूंघर पहनकर आ गया हूं। तुम बजाओ अपना स्वर।

आमार मध्ये तोमार प्रकाश

मैं तो अंधेरा हूं, लेकिन जलाओ तुम अपना दीया। तुम्हारा प्रकाश हो मेरे मध्य

ताई एतो मधुर।

कत वर्णे कत गंधे

कहा न जा सके ऐसा रूप। कही न जा सके ऐसी गंध।

कत गाने कत छंदे

बांधा न जा सके जो छंद में। गीत में जो समाए न, अटाए न।

अरूप तोमार रूपेर लीला

तुम्हारी रूप की लीला अपूर्व है, अरूप है।

जागे हृदय पूर

जगाओ उसे मेरे हृदय में।

आमार मध्ये तोमार शोभा

मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मेरी कोई शोभा है तो तुम्हारी मौजूदगी से है। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, बस तुम हो। मैं तो शून्य हूं। तुम विराजो तो सब हो जाता है। तुम न विराजो तो रिक्त रह जाता हूं। मेरे शून्य में तुम उतर आओ तो सब है मेरे पास। तुम चले जाओ तो सब भी हो मेरे पास तो बस रिक्तता है, खालीपन है।

आमार मध्ये तोमार शोभा

एमन सुमधुर

भक्त की सारी आकांक्षा परमात्मा के लिए जगह देने की, अवकाश देने की है। भक्त जगह खाली करता है। भक्त कहता है, मैं हटता, तुम आओ। मैं चला, तुम विराजो। यह सिंहासन तुम्हारे लिए खाली करता।

ऐसा भक्त अपने को गलाता, मिटाता, शून्य करता। जैसे-जैसे शून्य होता वैसे-वैसे पूर्ण उसमें उतरता। एक दिन भक्त अचानक पाता है, एक सुबह जागकर अचानक पाता है, कि भक्त तो बचा ही नहीं, भगवान ही बचा है। एक दिन भक्त अचानक पाता है, उसकी बांह गले में पड़ गई। एक दिन भक्त अचानक पाता है उसकी अंगूर की छाया तले बैठे हैं। नहीं, भक्त को बैकुंठ की चाह नहीं, न भक्त को कल्पवृक्षों की चाह है। उसके प्रेम की वर्षा होती रहे।

भक्त मिटना चाहता है। मिटने में ही प्रेम की वर्षा है।

और जो शिष्य भक्त की तरह गुरु के पास आता है, अनायास गुरु उसके माध्यम से बहुत-से काम करने शुरू कर देता है। तुम छोड़ो भर, कि तुम उपकरण बन जाते हो। और गुरु के पास तो सिर्फ सीखना है छोड़ने की कला। अगर तुम गुरु के पास अपने को छोड़ सके तो तुमने अ, ब, स सीख लिया छोड़ने का। यही अ, ब, स काम आएगा परमात्मा के पास छोड़ने में।

परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बड़ा अदृश्य है। उपस्थित है और उपस्थिति मालूम नहीं होती। उसी का स्वर गूंज रहा है लेकिन सब सुनाई पड़ता है, वही सुनाई नहीं पड़ता।

गुरु में परमात्मा थोड़ा-सा दृश्य होता है–थोड़ा-सा। एक किरण उस सूरज की उतरती मालूम होती है। थोड़ा रूप धरता। यही तो अवतार का अर्थ है: अवतरित होता। जैसे भाप उतर आए, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी, जल बन जाए। भाप की तरह दिखाई न पड़ती थी, जल की तरह दिखाई पड़ने लगी।

गुरु का इतना ही अर्थ है कि जिसके माध्यम से तुम्हें अदृश्य की याद आ जाए, तुम्हारी सीमा में असीम का आंदोलन हो उठे, तुम्हारे अंधेरे में थोड़ा प्रकाश लहरा जाए। तुम्हारे बंद पड़े जल में, तुम्हारे ठहर गए जल में; फिर से लहर आ जाए, फिर से गति आ जाए, फिर से प्रवाह आ जाए।

तो न केवल इधर तुम मिटोगे, उधर तुम होने लगोगे, तुम धीरे-धीरे अंतिम मरण का पाठ सीखोगे। तुम पाओगे, जब गुरु के पास जरा-सा झुकने से इतना मिल जाता है तो फिर पूरे ही क्यों न झुक जाएं?

पूरा जो झुका उसे परमात्मा मिल जाता है। थोड़ा जो झुका उसे गुरु मिल जाता है। और थोड़ा झुकना पूरा झुकने की प्राथमिक शिक्षा है।

एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए

गुरु के पास जो शिष्य झुकते हैं, उनके बुझे दीये जलने लगते हैं।

एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए

आंगन-आंगन खिले कल्पना सजे द्वार बंदनवारों से

उठे गीत समवेत स्वरों से पगडंडी-पथ-गलियारों से

रोम-रोम उन्मन मुंडेर का पाटल-सा मुसकाए

एक दीप से कोटि दीप हों, अंधकार मिट जाए

पोप-पोर उमगे अणुओं का बिछले दिशा-दिशा अरुणाई

पग-पग उठे किरण पुखराजी डग-डग फेनिल श्वेत जुन्हाई

कोसों तक ऊसर भूमि में नेह-बीज अकुराए

एक दीप से कोटि दीप हों अंधकार मिट जाए

अगर झुक सकते हो तो चूको मत। अगर जरा झुक सकते हो तो उतना ही झुको। उससे और झुकने की कला आएगी क्योंकि झुककर जब मिलेगा तो पता चलेगा कि नाहक अकड़े खड़े रहे। नाहक प्यासे रहे। व्यर्थ ही जीवन को रात बनाया। जो जीवन दिन बन सकता था, उसे अपने हाथ ही अंधकार में सम्हाले रहे।

आखिरी प्रश्न: तरु ने पूछा है।

एक पागल द्वार पर आया था, कुछ गुनगुनाकर चला गया:

तुम मुझे यूं भुला न पाओगे

जब-जब सुनोगे गीत मेरे

संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे

तरु समझी नहीं। पागल नहीं था, मैं ही आया था। मैं ही गुनगुना गया हूं।

“तुम मुझे यूं भुला न पाओगे

जब-जब सुनोगे गीत मेरे

संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे’

और जो मैंने तुझसे कहा तरु, उसे औरों से कह। बात को फैला।

दिल ने आंखों से कही, आंखों ने उनसे कह दी

बात चल निकली है अब देखें कहां तक पहुंचे।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–31

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याद घर बुलाने लगी—प्रवचन—इकतीसवां

सूत्र:

ण वि दुक्‍खं ण वि सुक्‍खं, ण वि पीडा णेव विज्‍जदे बाहा।

णवि मरणं ण वि जणणं,तत्‍थेव य होई णिव्‍वाणं।। 156।।

ण वि इंदिय उवसग्‍गा, तत्‍थेव य होइ णिव्‍वाणं।

ण य तिण्‍हा णे व छुहा, तत्‍थेव य होइ णिव्‍वाणं।। 157।।

ण वि कम्‍मं णोकम्‍मं, ण वि चिंता णेव अट्टरूद्दाणि।

ण वि धम्‍मसुक्‍कझाणे, तत्‍थेव य होइ णिव्‍वाणं।। 158।।

णिव्‍वाणं ति अवाहंति,सिद्धीलोगाग्‍गमेव य।

खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो।। 159।।

लाउअ एरण्‍डफले, अग्‍गीधूमे उसू धणुविमुक्‍के।

गइ पुव्‍वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु।। 160।।

अव्‍वाबाहमणिंदिय—मणोवमं पुण्‍णपावणिम्‍मुक्‍कं।

पुणरागमणविरहियं, णिच्‍चं अचलं अणालंबं।। 161।।

पानी पर तिरता है आईना

आंख झिलमिलाने लगी

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी

रोक लूं मैं बादलों की घंटियां

बजने से पुरवा के पांव में

झलकने लगीं पीली बत्तियां

जले हुए दीपों के गांव में

अंधकार झूलता है पालना

याद घर बुलाने लगी

याद घर बुलाने लगी! इन थोड़े-से शब्दों में सारे धर्म का सार है–याद घर बुलाने लगी। जहां हम हैं, वहां हम तृप्त नहीं। जो हम हैं उससे हम तृप्त नहीं। एक बात निश्चित है कि हम अपने घर नहीं, कहीं परदेश में हैं। कहीं अजनबी की भांति भटक गए हैं। कहां जाना है यह भला पता न हो, लेकिन इतना सभी को पता है कि जहां हम हैं, वहां नहीं होना चाहिए।

एक बेचैनी है। कुछ भी करो, कितना ही धन कमाओ, कितनी ही पद-प्रतिष्ठा जुटाओ, कुछ कमी है, जो मिटती नहीं। कोई घाव है, जो भरता नहीं। कोई पुकार है जो भीतर कहे ही चली जाती है: यह भी नहीं, यह भी नहीं; कहीं और चलो। खोजो घर। द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे दस्तक दिए। न मालूम कितने- कितने जन्मों में, कितने-कितने ढंग से अपने घर को खोजा है।

मगर सारी खोज एक ही बात की है कि कोई ऐसा स्थान हो, जहां तृप्ति हो। कोई ऐसी भावदशा हो, जिसमें कोई वासना न उठती हो।

वासना का अर्थ ही है कि जो हम हैं, उसमें रस नहीं आ रहा, कुछ और होना चाहिए। चाह का अर्थ ही है बेचैनी। चाह उठती ही बेचैनी से। राहत नहीं है। कोई कांटा चुभ रहा है। कोई अतृप्ति सब तरफ से घेरे है। सब मिल जाता है। फिर भी अतृप्ति वैसी की वैसी बनी रहती है–अछूती, अस्पर्शित।

धर्म का जन्म मनुष्य के भीतर इस महत घटना से होता है–बेचैनी की इस घटना से होता है। जैसे परदेश में हैं, जहां न कोई अपनी भाषा समझता, न कोई अपना है। जहां सब संबंध सांयोगिक हैं। जहां सब संबंध मन के मनाये हुए हैं; वास्तविक नहीं हैं। और जहां पानी का धोखा तो बहुत मिलता है, पानी नहीं मिलता–मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता जल का स्रोत, पास आते रेत ही रेत रह जाती है।

इस भटकाव को हम कहते हैं संसार। इस भटकाव में घर की याद आने लगी तो धर्म की शुरुआत हुई।

पानी पर तिरता है आईना

आंख झिलमिलाने लगी

अगर बाहर देख-देखकर ऊब पैदा हो गई हो, देख-देखकर देख लिया हो, कुछ देखने जैसा नहीं है, आंख झपकने लगी हो, भीतर देखने का खयाल उठने लगा हो, आंख बंद करके देखने का भाव जगने लगा हो तो हो गई शुरुआत।

हाथ भर-भरके देख लिए, जब पाया तब राख से भरे पाया। कभी हीरों से भरा लेकिन हीरे राख हो गए। सोने से भरा, सोना मिट्टी हो गया। संबंधों से भरा, तथाकथित प्रेम से भरा और सब अंततः मूल्यहीन सिद्ध हुआ। और अब हाथ को और भरने की आकांक्षा न रही।

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी।

तो जिस दिन बाहर से आंख हटने लगती है, उसी दिन:

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी

तो अब घर जाने का समय करीब आ गया।

प्रार्थना, जो बाहर से घर की तरफ लौटने लगे और अभी घर नहीं पहुंचे–बीच का पड़ाव है। जो संसार में हैं उनके हृदय में प्रार्थना नहीं उठती। जो परमात्मा में पहुंच गए, उनको प्रार्थना की जरूरत नहीं रह जाती। प्रार्थना सेतु है बाहर से भीतर आने का; परदेश से स्वदेश आने का; विभाव से स्वभाव में आने का।

पात-पात डोलती है प्रार्थना

सांझ गुनगुनाने लगी।

संसार की सांझ आ गई। और जो संसार की सांझ है वही निर्वाण की सुबह है।

रोक लूं मैं बादलों की घंटियां

बजने से पुरवा के पांव में

झलकने लगी पीली बत्तियां

जले हुए दीपों के गांव में

अंधकार झूलता है पालना

याद घर बुलाने लगी।

आज के सूत्र महावीर की अंतिम निष्पत्तियां हैं। ये सूत्र निर्वाण के हैं। ये सूत्र घर आ गए व्यक्ति का आखिरी वक्तव्य हैं। ये सूत्र ऐसे हैं, जो कहे नहीं जा सकते, जिन्हें कहने की चेष्टा भर की जा सकती है। ये सूत्र ऐसे हैं, जो अभिव्यक्त नहीं होते, भाषा छोटी पड़ती है, शब्द संकीर्ण हैं। और विराट को संकीर्ण शब्दों के सहारे लाना पड़ता है।

इसलिए इन शब्दों को बहुत कसकर मत पकड़ना। इन्हें बहुत सहानुभूति से, बहुत श्रद्धा से भाषा की असमर्थता को याद रखते हुए समझना।

एक तो गणित की भाषा होती है, जहां दो और दो चार होते हैं। बस, दो और दो चार होता और कुछ भी नहीं होता। सब सीधा-साफ होता है।

लेकिन सत्य का अनुभव ऐसा है कि उससे मिलता हुआ कोई भी अनुभव इस संसार में नहीं है। जो बाहर देखा है उससे किसी से भी जो भीतर दर्शन होते हैं, उसका तालमेल नहीं। जो परदेश में जाना है और जो स्वदेश लौटने का अनुभव होता है, उसे परदेश की भाषा में कहने का कोई उपाय नहीं।

तो यह स्वभाव को विभाव में कहने की चेष्टा है।

रहिमन बात अगम्य की कहन-सुनन की नाहीं

जे जानत ते कहत नहीं, कहत ते जानत नाहीं

कुछ बात ऐसी है अगम्य की, कि कहने-सुनने की नहीं है। जो जानते हैं, कहते नहीं। जो कहते हैं, जानते नहीं।

इसका यह अर्थ नहीं कि जाननेवालों ने नहीं कहा है; कहा है और कहकर भी कह नहीं पाया है। कहा है और फिर कहा कि कह नहीं पाए। फिर-फिर कहा है। महावीर जीवनभर निर्वाण के संबंध में अनेक-अनेक ढंगों से, अनेक-अनेक इशारों का उपयोग करके बोलते रहे, लेकिन कैसे कहो उसे? कैसे कहो उसे, जो शब्दों के शून्य हो जाने पर अनुभव होता है? कैसे कहो उसे, जो भाषा के अतिक्रमण पर अनुभव होता है? कैसे कहो उसे, जो घर के भीतर आने का अनुभव होता है?

भाषा तो सब घर के बाहर की है। भाषा तो सब बाजारू है। भाषा तो दूसरे से बोलने के लिए है। जब तुम अकेले हो, बिलकुल अकेले हो, अपने नितांत स्वरूप में आ गए, वहां कोई दूसरा नहीं है तो भाषा का कोई प्रयोजन नहीं है। वहां बोलने का कोई उपाय नहीं है। वहां तो परम मौन है।

अपने से बाहर गए, दूसरे से मिले-जुले, संबंध बनाया तो बोलना पड़ता है। तो ऐसा नहीं है कि जिन्होंने जाना, नहीं बोला, लेकिन बोल-बोलकर भी बोल नहीं पाए। बोल-बोलकर अंततः यही कहा कि क्षमा करना, हम जो कहते थे, वह कह नहीं पाए।

लेकिन फिर भी जिन्होंने कहा है उनमें महावीर का वक्तव्य अत्यधिक वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक होना कठिन है, लेकिन अगर सारे वक्तव्यों को तौला जाए तो महावीर का वक्तव्य अतिवैज्ञानिक है। सत्य को देखा जाए, तब तो बहुत दूर है सत्य से। सभी वक्तव्य दूर होते हैं। और वक्तव्यों को देखा जाए तो निकटतम है।

पहला सूत्र:

ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव विज्जदे बाहा।

ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।

“जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा, न मरण है न जन्म, वहीं निर्वाण है।’

अब यह भी कुछ कहना हुआ? यह तो “नहीं’ से कहना हुआ, नकार से कहना हुआ। क्या नहीं है वहां, यह कहा। क्या है, यह तो कहा नहीं। क्या है उसे कहा भी नहीं जा सकता।

यह तो ऐसे ही हुआ, कि किसी स्वस्थ आदमी को हमने कहा कि, न टी. बी. है, न कैंसर है उसमें, न मलेरिया लगा है, न प्लेग हुई; स्वस्थ है। स्वास्थ्य को बताया, बीमारियां नहीं हैं इससे। यह कोई स्वास्थ्य की परिभाषा हुई? बीमारियों का अभाव स्वास्थ्य है? लेकिन बस यही निकटतम परिभाषा है। स्वास्थ्य तो ज्यादा है बीमारियों के अभाव से। स्वास्थ्य की तो अपनी विधायकता है। स्वास्थ्य की तो अपनी उपस्थिति है।

खयाल किया? सिरदर्द न हो तो जरूरी नहीं है कि सिर स्वस्थ हो। जैसे सिरदर्द नकार की तरफ ले जाता है, पीड़ा की तरफ ले जाता है, ऐसा सिर का स्वास्थ्य आनंद की तरफ ले जाएगा। दर्द का न होना तो मध्य में हुआ, दोनों के मध्य में हुआ। दर्द का होना एक अति, स्वास्थ्य का होना एक अति, दोनों के मध्य में हुई इतनी-सी बात कि दर्द नहीं है।

अगर कोई तुमसे पूछे, कैसे हो? तुम कहो, दुखी नहीं हैं, तो वह भी थोड़ा चिंतित होगा। तुम यह नहीं कह रहे हो कि सुखी हो, तुम इतना ही कह रहे हो कि दुखी नहीं हूं। जरूरी नहीं कि तुम सुखी हो। दुख का न होना सुख के होने के लिए शर्त तो है लेकिन सुख के होने की परिभाषा नहीं है। पर मजबूरी है।

उस परम सत्य को हम इतना ही कह सकते हैं कि संसार नहीं है। निर्वाण संसार नहीं है। इन सारे सूत्रों में अलग-अलग ढंग से महावीर यही कहते हैं कि संसार नहीं है।

न वहां दुख, न सुख। सुख और दुख संसार है। द्वंद्व संसार है। दो के बीच सतत संघर्ष संसार है। इसलिए संन्यासी का अर्थ होता है, जिसने अकेला होना सीख लिया। इसका यह अर्थ नहीं होता कि जंगल भागकर अकेला हो गया। क्योंकि इस संसार में अकेले होने का तो कोई उपाय नहीं है।

जंगल में रहोगे तो भी अकेले नहीं हो। बैठोगे वृक्ष के नीचे, कौआ बीट कर जाएगा। संबंध जुड़ गया क्रोध का। बैठोगे वृक्ष के नीचे, वृक्ष छाया देगा। संबंध जुड़ गया राग का। फिर उसी-उसी वृक्ष के नीचे आकर बैठोगे। फिर अगर कोई लकड़हारा किसी दिन उस वृक्ष को काटने आ गया तो तुम लड़ने को तैयार हो जाओगे कि मत काटो। यह मेरा वृक्ष है।

भागोगे कहां? जहां जाओगे…संसार तो संसार है, वहां तो हमेशा दो हैं।

इसलिए संन्यास का अर्थ होता है; अकेले होने की क्षमता। अकेला होना नहीं, अकेले होने की क्षमता। जहां भी हो, यह स्मरण बना रहे कि “मैं अकेला हूं।’ तब बीच-बाजार में तुम संन्यासी हो। गृहस्थ होकर संन्यासी हो। पत्नी है, बच्चे हैं, दुकान है, बाजार है–तुम संन्यासी हो। इतनी याद बनी रहे कि “मैं अकेला हूं।’

तुम अपने को दो में बांटने की आदत छोड़ दो।

“जहां न दुख न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, वहीं निर्वाण है।’

नदियां दो-दो अपार, बहती हैं विपरीत छोर

कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूं

ओ मेरे सूत्रधार!

नौकाएं दो भारी अलग-अलग दिशा में जातीं

कब तक मैं दोनों को साथ-साथ खेता रहूं

एक देह की पतवार!

दो-दो दरवाजे हैं अलग-अलग क्षितिजों में

कब तक मैं दोनों की देहरियां लांघा करूं

एक साथ!

छोटी-सी मेरी कथा, छोटा-सा घटना क्रम

हवा के भंवर-सा पलव्यापी यह इतिहास

टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बांट दिया तुमने

ओ अदृश्य विरोधाभास!

जैसे आदमी दो नावों पर साथ-साथ सवार हो और दोनों नावें विपरीत दिशाओं में जाती हों, ऐसा है संसार। जैसे आदमी दो दरवाजों से एक साथ प्रवेश करने की कोशिश कर रहा हो और दोनों दरवाजे इतने दूर हों जैसे जमीन और आकाश, ऐसा है संसार। जैसे कोई एक ही साथ जन्मना भी चाहता हो और मरने से भी बचना चाहता हो, दो विपरीत आकांक्षाएं कर रहा हो और दोनों के बीच उलझ रहा हो, परेशान हो रहा हो, ऐसा है संसार।

हमारी सभी आकांक्षाएं विपरीत हैं। इसे थोड़ा समझना। इसकी समझ तुम्हारे भीतर एक दीये को जन्म दे देगी। एक तरफ तुम चाहते हो, दूसरे लोग मुझे सम्मान दें और दूसरी तरफ तुम चाहते हो, कोई अपमान न करे। साधारणतः दिखाई पड़ता है इन दोनों में विरोध कहां?

इन दोनों में विरोध है। यह तुम दो नौकाओं पर सवार हो गए।

इसका विश्लेषण करो: तुम चाहते हो, दूसरे मुझे सम्मान दें। ऐसा चाहकर तुमने दूसरों को अपने ऊपर बल दे दिया। दूसरे शक्तिशाली हो गए, तुम कमजोर हो गए। अपमान तो शुरू हो गया। अपमान तो तुमने अपना कर ही लिया। दूसरे जब करेंगे तब करेंगे। तुम अपमानित तो होना शुरू ही हो गए। यह कोई सम्मान का ढंग हुआ? जहां दूसरे हमसे बलशाली हो गए।

दूसरों से सम्मान चाहा इसका अर्थ है कि दूसरों के हाथ में तुमने शक्ति दे दी कि वे अपमान भी कर सकते हैं। और निश्चित ही अपमान करने में उन्हें ज्यादा रस आएगा। क्योंकि तुम्हारे अपमान के द्वारा ही वे सम्मानित हो सकते हैं। वे भी तो सम्मान चाहते हैं, जैसा तुम चाहते हो। तुम किसका सम्मान करते हो? तुम सम्मान मांगते हो। वे भी सम्मान मांग रहे हैं। वे तुम्हारा सम्मान करें तो उन्हें कौन सम्मान देगा?

प्रतिस्पर्धा है। एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो तुम। तुम जब दूसरे से सम्मान मांगते हो तब तुमने उसे क्षमता दे दी, हाथ में कुंजी दे दी कि वह तुम्हारा अपमान कर सकता है। अब सौ में निन्यानबे मौके तो वह ऐसे खोजेगा कि तुम्हारा अपमान कर दे। कभी मजबूरी में न कर पाएगा तो सम्मान करेगा। सम्मान तो लोग मजबूरी में करते हैं। अपमान नैसर्गिक मालूम पड़ता है। सम्मान बड़ी मजबूरी मालूम पड़ती है। झुकता तो आदमी मजबूरी में है। अकड़ना स्वाभाविक मालूम पड़ता है।

तो जैसे ही तुमने सम्मान मांगा, अपमान की क्षमता दे दी। और दूसरा भी सम्मान की चेष्टा में संलग्न है। वह भी चाहता है, अपनी लकीर तुमसे बड़ी खींच दे। जैसा तुम चाहते हो वैसा वह चाहता है।

अब अड़चन शुरू हुई। सम्मान देगा तो भी तुम सम्मानित न हो पाओगे क्योंकि सम्मान देनेवाला तुमसे बलशाली है और अपमान करेगा तो तुम पीड़ित जरूर हो जाओगे।

तुमने धन मांगा, तुमने अपनी निर्धनता की घोषणा कर दी। क्योंकि निर्धन ही धन मांगता है। जो हमारे पास नहीं है वही हम मांगते हैं।

मैंने सुना है, शेख फरीद से एक धनपति ने कहा, यह बड़ी अजीब बात है। मैं तुम्हारे पास आता हूं तो सदा ज्ञान की, आत्मा की, परमात्मा की बात करता हूं। तुम जब कभी आते हो तो तुम सदा धन मांगते आते हो। तो सांसारिक कौन है?

शेख फरीद ने कहा, मैं गरीब हूं इसलिए धन मांगता हूं। तुम अज्ञानी हो इसलिए ज्ञान मांगते हो। जो जिसके पास नहीं है वही मांगता है। मैं तो तुम्हारी याद ही तब करता हूं जब गांव में कोई तकलीफ होती है, मदरसा खोलना होता है, अकाल पड़ जाता है, कोई बीमार मर रहा होता उसको दवा की जरूरत होती है तो मैं आता हूं। मैं दीन हूं, दरिद्र हूं। यह मेरा गांव गरीब और दरिद्र है। स्वभावतः मैं कोई ब्रह्म और परमात्मा की बात करने तुम्हारे पास नहीं आता। वह तो हमारे पास है।

तुम जब मेरे पास आते हो तो तुम धन की बात नहीं करते क्योंकि धन तुम्हारे पास है। तुम ब्रह्म की बात करते आते हो, जो तुम्हारे पास नहीं है।

इसे थोड़ा सोचना। जिससे तुमने धन मांगा, तुमने घोषणा कर दी कि तुम निर्धन हो। धन मांगनेवाला निर्धन है। पद मांगा, घोषणा कर दी कि तुम हीन हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं पद के आकांक्षी हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं–इनफीरियारिटी काम्पलेक्स। सभी राजनीतिज्ञ हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं। होंगे ही; कोई दूसरा और उपाय नहीं है। जब तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं शक्तिशाली हूं तो तुमने अपने भीतर मान रखा है कि तुम शक्तिहीन हो। अब किसी तरह सिद्ध करके दिखा देना है कि नहीं, यह बात गलत है।

कमजोर बहादुरी सिद्ध करना चाहता है। कायर अपने को वीर सिद्ध करना चाहता है। अज्ञानी अपने को ज्ञानी सिद्ध करना चाहता है। हम जो नहीं हैं उसकी ही चेष्टा में संलग्न होते हैं। और जो हम नहीं हैं, हमारी चेष्टा से प्रगट होकर दिखाई पड़ने लगता है। पीड़ा और बढ़ती चली जाती है।

जन्म तो हम मांगते हैं, जीवन तो हम मांगते हैं, मौत से हम डरते हैं। हम चिल्लाते हैं, मौत नहीं। और सब हो, मृत्यु नहीं। मृत्यु की हम बात भी नहीं करना चाहते। लेकिन जन्म के साथ हमने मृत्यु मांग ली। क्योंकि जो शुरू होगा वह अंत होगा।

मृत्यु जन्म के विपरीत नहीं है, जन्म की नैसर्गिक परिणति है। जो शुरू होगा वह अंत होगा। जो बनेगा वह मिटेगा। जिसका सृजन किया जाएगा उसका विध्वंस होगा। तुमने एक मकान बनाया, उसी दिन तुमने एक खंडहर बनाने की तैयारी शुरू कर दी। खंडहर बनेगा। तुम जब भवन बना रहे हो तब तुम एक खंडहर बना रहे हो। क्योंकि बनाने में ही गिरने की शुरुआत हो गई। तुमने एक बच्चे को जन्म दिया, तुमने एक मौत को जन्म दिया। तुम जन्म के साथ मौत को दुनिया में ले आए।

नदियां दो-दो अपार, बहती हैं विपरीत छोर

कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूं

ओ मेरे सूत्रधार!

नौकाएं दो भारी अलग-अलग दिशा में जातीं

कब तक मैं दोनों को साथ-साथ खेता रहूं

एक देह की पतवार!

–पतवार एक, नौकाएं दो विपरीत दिशाओं में जातीं!

दो-दो दरवाजे हैं अलग-अलग क्षितिजों में

कब तक मैं दोनों की देहरियां लांघा करूं

एक साथ!

छोटी-सी मेरी कथा, छोटा-सा घटनाक्रम

हवा के भंवर-सा पलव्यापी यह इतिहास

टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बांट दिया तुमने

ओ अदृश्य विरोधाभास!

जिसे हम संसार कहते हैं वह विरोधाभास है, और विरोधाभास से जो पार हो गया वही निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है।

तो महावीर का पहला सूत्र हुआ: विरोध के पार है निर्वाण।

“जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, वहीं निर्वाण है।’

जहां विरोध नहीं, द्वंद्व नहीं; जहां दो नहीं, दुई नहीं; जहां द्वैत नहीं, जहां अद्वैत है, वहीं है निर्वाण। जहां एक ही बचता है, आत्यांतिक रूप से एक बचता है, वहीं है निर्वाण। जब तक तुम्हारे भीतर विरोध है, जब तक तुम दो की आकंाक्षा करते, जब तक तुम्हारी आकांक्षाओं में संघर्ष और द्वंद्व है तब तक तुम कैसे शांत हो सकोगे? तब तक कैसा सुख? कैसी शांति? कैसा चैन? तब तक कभी विराम नहीं हो सकता।

तुम्हारी मांग में ही भूल हुई जा रही है। नहीं, कि तुम जो मांगते हो वह नहीं मिलता है, इसलिए तुम दुखी हो। तुमने मांगा, उसी में तुमने दुख मांग लिया। अक्सर लोग संसार से ऊबते भी हैं तो उनके ऊबने का कारण गलत होता है।

एक जैन मुनि मुझे मिलने आए, कोई पांच साल हुए। मैंने उनसे पूछा, आपने संसार क्यों छोड़ दिया, उन्होंने कहा, संसार में कुछ मिलता ही नहीं। कोई सार ही नहीं।

संसार में कुछ मिलता नहीं, कुछ सार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया? तो मिलने की आकांक्षा अब मोक्ष की तरफ लगा दी। अब वहां मिलेगा। परमात्मा की तरफ लगा दी, आत्मा की तरफ लगा दी। लोभ गया नहीं, वासना गई नहीं, सिर्फ दिशा बदली। और जहां वासना है वहां संसार है।

तो यह संन्यास संसार का अतिक्रमण न हुआ, संसार का ही फैलाव हुआ। अब यह आदमी नए लोभ में परेशान है। मैंने पूछा, मेरे पास किसलिए आए हो? वे कहने लगे, शांति नहीं मिलती। मैंने कहा, जिसने संसार छोड़ दिया–छोड़ते ही शांति मिल जानी चाहिए। फिर छोड़ने के बाद अब बचा क्या है, जो अशांत करे? सांसारिक व्यक्ति कहता है मैं अशांत हूं, समझ में आता है। आप कहते हैं, अशांत हैं? तो फिर फर्क क्या हुआ?

फिर इस बात को फिर से सोचें। संसार छूटा नहीं है। द्वंद्व अभी मौजूद है। लाभऱ्हानि की दृष्टि अभी मौजूद है। मिलना चाहिए और नहीं मिलता है। जहां मिलना चाहिए का भाव आया, वहां नहीं मिलता है, इसकी छाया भी पड़ी। जहां अपेक्षा आयी वहां विफलता हाथ लगी–लग ही गई; थोड़ी देर-अबेर होगी। तुमने बीज तो बो दिए, फसल काटने में कितनी देर लगेगी? अगर संन्यासी भी अशांत है, साधु-मुनि भी अशांत हैं, तो फिर भेद क्या करते हो सांसारिक में और साधु और मुनि में? दोनों अशांत हैं।

संसार में कुछ मिलता नहीं इसलिए संसार मत छोड़ना। संसार के मांगने में भूल हो गई है। पाने में भूल नहीं हो रही है, मांगने में भूल हो गई है। भूल अपनी वासना में हो गई है, अपनी चाहत में हो गई है, अपनी चाह में हो गई है। वहीं हमने द्वंद्व मांग लिया। संसार उसी द्वंद्व का फैलाव है।

इसे ऐसा समझो, संसार के कारण वासना नहीं है। वासना के कारण संसार है। अगर तुमने सोचा संसार के कारण वासना है, तो तुम्हारा पूरा जीवन का गणित गलत हो जाएगा। तब तुम संसार को छोड़ने में लग जाओगे और वासना तो छूटेगी नहीं। ऐसा देखो कि वासना संसार है ताकि वासना छूटे। वासना छूटे तो संसार छूट जाता है।

महावीर कहते हैं:

ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हयो ण णिद्दा य।

ण य तिण्हा णेव छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।

“जहां न इंद्रियां हैं न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है न तृष्णा, न भूल, वहीं निर्वाण है।’

अब एक बात काफी सूक्ष्म है। याद न रहे तो भूल जा सकती है। महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि तुमने अगर भूख मिटा दी, तृष्णा मिटा दी, निद्रा मिटा दी तो निर्वाण हो जाएगा। इसको ऐसा मत पकड़ लेना जैसा कि जैन मुनियों ने पकड़ा है और सदियों से भटकते हैं।

महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि निद्रा छोड़ दोगे तो निर्वाण उपलब्ध हो जाएगा। महावीर यह कह रहे हैं, निर्वाण उपलब्ध हो जाए तो वहां निद्रा नहीं है। इन दोनों बातों में बड़ा फर्क है। ये एक-सी लगती हैं बातें, इसलिए भूल होनी बड़ी स्वाभाविक है। जिनसे भूल हो गई वे क्षमायोग्य हैं क्योंकि भूल बड़ी बारीक है। जरा-सा धागे भर का फासला है।

महावीर निर्वाण की परिभाषा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि निर्वाण ऐसी चित्त की दशा है, ऐसे चैतन्य की दशा है, जहां न दुख है न सुख, न नींद है, न भूख है न प्यास। क्योंकि वहां इंद्रियां नहीं, वहां देह नहीं तो देह से बंधे हुए धर्म नहीं।

लेकिन इसका तुम उल्टा अर्थ ले सकते हो। तुम यह अर्थ ले सकते हो कि महावीर निर्वाण की साधना बता रहे हैं। यह सिर्फ निर्वाण की परिभाषा है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम नींद का त्याग कर दो, भोजन का त्याग कर दो तो तुम निर्वाण को उपलब्ध हो जाओगे। अगर भोजन का त्याग किया तो सूखोगे, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाओगे। अगर निद्रा का त्याग किया तो दिनभर उनींदे बने रहने लगोगे; निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाओगे। उदास हो जाओगे, महासुख का अनुभव नहीं होगा।

अगर तुमने सुख और दुख से अपने को सब भांति तटस्थ करने की चेष्टा की तो तुम कठोर हो जाओगे। तुम्हारी संवेदनक्षमता खो जाएगी, लेकिन निर्वाण को उपलब्ध न हो जाओगे।

निर्वाण को उपलब्ध होने से ये सब बातें घटती हैं। इन बातों को घटाने में मत लग जाना। क्योंकि तब तुमने बैल को गाड़ी के पीछे बांध लिया। बैल को गाड़ी के आगे ही रखना तो गाड़ी चलेगी। अगर बैल को गाड़ी के पीछे बांध लिया तो गाड़ी तो चलेगी नहीं, बैल भी न चल पाएंगे। हालांकि कुछ ज्यादा फर्क नहीं कर रहे हो। कुछ लोग बैल को गाड़ी के आगे रखते हैं, तुमने गाड़ी को बैल के आगे रखा। ऐसा कुछ बड़ा फर्क नहीं है, जरा-सा फर्क है।

ये सारी बातें निर्वाण के परिणाम हैं, निर्वाण के साधन नहीं हैं। इन्हें निर्वाण के पीछे आने देना। इन्हें निर्वाण के आगे मत रख लेना, जैसा जैन मुनियों ने किया है। सोचते हैं उपवास करें क्योंकि महावीर कहते हैं, वहां भूख नहीं लगती। अगर वहां भूख नहीं लगती तो वहां उपवास कैसे करोगे, थोड़ा सोचो! उपवास तो वहीं हो सकता है, जहां भूख लगती है। महावीर कहते हैं वहां निद्रा नहीं आती; तो जगे रहो, खड़े रहो।

एक गांव में मैं गया तो एक संन्यासी की बड़ी धूम थी। मैंने पूछा, मामला क्या है? दस साल से खड? हैं। खड़े श्री बाबा उनका नाम। वे सोते ही नहीं। मैं उनको देखने गया, वह आदमी करीब-करीब मुर्दा हालत में है। अब दस साल से जो न सोया हो और खड़ा रहा हो–क्योंकि डरते हैं कि बैठे, लेटे, कि नींद आयी। खड़े हैं। तो पैर हाथीपांव हो गए। सारा खून शरीर का सिकुड़कर पैरों में समा गया। पैर सूज गए हैं। लकड़ियों का सहारा लिए हुए, रस्सियां बांधे हुए छत से, उनके सहारे खड़े हैं।

अब यह आदमी–फांसी लगाए हुए है।

और यह फांसी और कठिन। दस क्षण में लग जाए, खतम हुआ। यह दस साल से फांसी पर लटका हुआ है। बैठ नहीं सकता, लेट नहीं सकता। और सम्मान बहुत मिल रहा है इसलिए अहंकार खूब बढ़ रहा है।

और इसकी आंखें देखो, तो पशुओं की आंखों में भी थोड़ी-बहुत बुद्धि दिखाई पड़े, वह भी इसकी आंखों में दिखाई नहीं पड़ेगी। दिखाई पड़ भी कैसे सकती है? क्योंकि बुद्धि के लिए विश्राम चाहिए। यह आदमी विश्राम नहीं ले रहा है। इसके भीतर की तुम अवस्था ऐसे ही समझो कि जैसे शाकभाजी हो गया। अब यह आदमी कोई आदमी नहीं है, गोभी का फूल है! इसके भीतर अब कोई मस्तिष्क नहीं है। मस्तिष्क के सूक्ष्म तंतु विश्राम के न मिलने से टूट जाते हैं।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि साधुओं में प्रतिभा नहीं दिखाई पड़ती। तुम उनकी पूजा किसी और कारण से करते हो, प्रतिभा के कारण नहीं करते। उनके जीवन में कोई सृजनात्मक ऊर्जा नहीं दिखाई पड़ती; न कोई आभामंडल है।

तुम्हारी पूजा के कारण और हैं। तुम कहते हो इस आदमी ने सौ दिन का उपवास किया इसलिए पूजा करते हैं। अब सौ दिन का उपवास करने के लिए किसी बुद्धि की तो जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि जितना बुद्धू आदमी हो, उतनी आसानी से कर सकता है। जितना जड़बुद्धि हो, जिद्दी हो, दंभी हो, उतनी आसानी से कर सकता है।

बुद्धिमान आदमी तो शरीर की जरूरत को समझेगा, मन की जरूरत को समझेगा, बुद्धिपूर्वक जीयेगा, संयम से…यह तो असंयम हुआ। कुछ जड़ हैं, जो खाए चले जा रहे हैं; जो खाने के लिए ही जीते हैं। और कुछ जड़बुद्धि हैं, जो अपने को भूखा मार रहे हैं। भूखा मारने के लिए ही जीते हैं।

महावीर की बात समझना। महावीर निर्वाण की परिभाषा कर रहे हैं। ऐसा समझो कि कोई मीरा से पूछे कि प्रभु को पाकर तुझे क्या हुआ? तो वह कहे, उमंग उठी, नाच उठा, गीत उठे–पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे। तुम सोचो तो ठीक है, तो नाचना सीख लें तो प्रभु से मिलन हो जाएगा।

तो नर्तकियां तो बहुत हैं। नर्तक तो बहुत हैं। उनको कोई प्रभु तो उपलब्ध नहीं हो रहा। नाचने से अगर प्रभु उपलब्ध होता तो नर्तकियों को उपलब्ध हो गया होता, नर्तकों को उपलब्ध हो गया होता। कितने तो लोग “तात्ता थै-थै’ कर रहे हैं, कुछ भी तो नहीं हो रहा।

मीरा जो कह रही है वह परिभाषा है। मीरा कह रही है, प्रभु को पाने से हृदय खिला, नाच जन्मा, रसधार बही, गंगा चली, घूंघर बजे। यह बैलों के पीछे गाड़ी है। तुमने देखा कि अरे! तो फिर नाचना तो हम भी सीख ले सकते हैं। नाचना सीखने से प्रभु नहीं मिलता, प्रभु मिलने से नाच घटता है।

ऐसा ही महावीर की निर्वाण की परिभाषा को समझना। जैन मुनि कितनी तकलीफ झेल रहा है–अकारण। जड़ता की भर सूचना मिलती है। महावीर की प्रतिमा देखी तुमने? और जैन मुनि को साथ खड़ा करके देख लो तो तुमको समझ में आ जाएगा। महावीर की प्रतिमा का रूप ही कुछ और है, रंग ही कुछ और है। कहते हैं, महावीर जैसा सुंदर आदमी पृथ्वी पर बहुत मुश्किल से होता है। और जैन मुनि को देख लो। उसने असुंदर होने को अपनी साधना बना रखी है।

महावीर ने अपने शरीर को सताया हो ऐसा मालूम नहीं होता। शरीर के पार गए होंगे ऐसा तो मालूम होता है, लेकिन शरीर को सताया हो ऐसा नहीं मालूम होता। और जिसको तुम सताते हो उससे पार जा नहीं सकते। जिसको तुम सताते हो उसको सताने के लिए उसी के पास बने रहना पड़ता है। जरा दूर गए कि घबड़ाहट होती है कि कहीं शरीर फिर न लगाम के बाहर निकल जाए, नियंत्रण के बाहर निकल जाए।

जो आदमी कामवासना दबाएगा वह कामवासना पर ही बैठा रहेगा। उसी की छाती पर चढ़ा रहेगा। जरा उतरा कि चारों खाने चित्त! कामवासना उसकी छाती पर बैठ जाएगी। तो वह उतर ही नहीं सकता। जिसने क्रोध को दबाया वह क्रोध से इंचभर हट नहीं सकता। क्योंकि हटा कि क्रोध प्रगट हुआ। और ज्वालाएं लपट रही हैं भीतर। तो उन ज्वालाओं को किसी तरह दबाए पड़ा रहता है। क्रोध को दबानेवाला क्रोध के साथ ही खड़ा रहता है। काम को दबानेवाला काम के साथ ही खड़ा रहता है।

“जहां न इंद्रियां हैं न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है न तृष्णा, न भूख, वहीं निर्वाण है।’

महावीर यह कह रहे हैं कि जब तुम निर्वाण में पहुंचोगे तो कैसे पहचानोगे कि निर्वाण आ गया? यह उसकी पहचान बता रहे हैं। वे कह रहे हैं, वहां तुम न दुख पाओगे न सुख, वहां तुम न पीड़ा पाओगे न बाधा, वहां तुम न मरण पाओगे न जन्म–समझ लेना आ गया घर। वहां तुम इंद्रियां न पाओगे, न इंद्रियों के कष्ट, न मोह पाओगे न विस्मय, न निद्रा पाओगे न तृष्णा, न भूख–तो समझ लेना कि आ गया घर।

जब कोई व्यक्ति ध्यान की गहराइयों में उतरते-उतरते, उतरते-उतरते आत्मा के भीतर प्रवेश करता है, अचानक पाता है कि यहां न तो शरीर है…इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर छूट गया। महावीर निर्वाण को उपलब्ध होने के बाद भी चालीस साल तक शरीर में रहे। चालीस-ब्यालीस साल तक शरीर का उपयोग किया; और ऐसा उपयोग किया, जैसा किया जाना चाहिए। हम तो चालीस जन्मों में ऐसा उपयोग नहीं करते, उन्होंने चालीस वर्ष में कर लिया। उनके कारण कल्याण की धारा बही। श्रेयस पृथ्वी पर उतरा। खूब फूल खिले लोगों की आत्मा के। खूब वर्षा हुई उनके कारण; और जिनके बीज जन्मों से दबे पड़े थे, अंकुरित हुए।

निर्वाण की उपलब्धि के बाद भी चालीस-ब्यालीस साल तक भी शरीर था, इंद्रियां थीं। लेकिन महावीर कहते हैं, निर्वाण की अवस्था, आंतरिक ऐसी अवस्था है कि वहां पहुंचकर तुम्हें पता चलता है, अरे! शरीर बड़े पीछे रह गया। शरीर बड़े दूर छूट गया। शरीर परिधि पर पड़ा रह गया और तुम केंद्र पर आ गए। इंद्रियां भी वहीं पड़ी रह गईं शरीर पर। स्वभावतः जब शरीर पीछे छूट गया तो शरीर की भूख, प्यास, निद्रा, जागृति, सब पीछे छूट गई। अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर कोई चौबीस घंटे जागा हुआ चैतन्य है, जिसको निद्रा की कोई जरूरत ही नहीं है, जो कभी पहले भी नहीं सोया था। तुम्हें याद न थी। तुम्हें पहचान न थी। वह कभी भी न सोया था। वह सो ही नहीं सकता। सोना उसका गुणधर्म नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, “या निशा सर्व भूतानां, तस्यां जागर्ति संयमी।’ सब जब सोते हैं तब भी संयमी जागता है। इसका यह मतलब नहीं है कि संयमी पागल की तरह टहलता रहता है कमरे में; कि बैठा रहता है अपनी खाट पर पालथी मारे, कि संयमी सो कैसे सकता है?

हालांकि ऐसे मूढ़ संयमी भी हैं, जो नींद में उतरने से घबड़ाते हैं क्योंकि नींद में उतरे कि जो संयम किसी तरह साधा है वह टूटता है। दिनभर किसी तरह स्त्रियों की तरफ नहीं देखा, सपने में क्या करोगे? सपने में तो तुम्हारा बस नहीं। आंख बंद हुई कि जिन-जिन स्त्रियों से दिनभर आंख चुराते रहे, वे सब आयीं–और सुंदर होकर, और सजकर आ जाती हैं। जैसी सुंदर स्त्री सपने में होती है वैसी कहीं वस्तुतः थोड़े ही होती है! जैसा सुंदर पुरुष सपने में होता है, वस्तुतः थोड़े ही होता है!

तो भागोगे कहां? नींद में तो भाग भी न सकोगे। और नींद में भूल गए सब शास्त्र कि तुम जैन हो कि हिंदू हो कि मुसलमान कि संसारी कि संन्यासी–गया सब!

तो आदमी नींद से डरता है। मगर जो नींद से डर रहा है वह कोई निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाता।

महावीर कहते हैं, जो निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है वह जानता है कि नींद तो है ही नहीं। यहां तो नींद कभी घटी ही नहीं। इस गहराई के तल पर तो नींद का कभी प्रवेश ही नहीं हुआ। यह तल तो नींद से अछूता रहा है। कुंआरा है यह तल। इस पर न नींद कभी आयी, न कभी सपना उतरा। इंद्रियां यहां तक पहुंचीं नहीं। शरीर यहां तक पहुंचा नहीं। यह शरीर और इंद्रियों के पार।

यह अनुभव है और अनुभव की व्याख्या है। और तुम जब इस अनुभव में उतरोगे तो तुम्हारे लिए मील के पत्थर बना रहे हैं वे। कि तुम यहां से समझ लेना कि निर्वाण शुरू होता है। तुमसे यह नहीं कहा जा रहा है कि तुम ऐसा करना शुरू कर दो। छोड़ दो भोजन, नींद छोड़ दो, बैठ जाओ। यह तो पागलपन होगा।

जहां तुम हो शरीर पर…ऐसा समझो कि कोई आदमी अपने घर की चारदीवारी के पास ही खड़ा रहता है और सोचता है, यही घर है। धूप आती तो उसके सिर पर धूप पड़ती है, सिर फटने लगता है। वर्षा आती तो वर्षा में भीगता, शरीर कंपने लगता। लेकिन वह जानता है यहीं चारदीवारी के बाहर, यहीं मेरा घर है।

महावीर कहते हैं, तुम्हारा घर, तुम्हारा अंतर्गृह–वहां न वर्षा होती, न धूप आती। तुम जरा पीछे सरको। तुम जरा परिधि को छोड़ो और केंद्र की तरफ चलो। जैसे-जैसे तुम केंद्र की छाया में पहुंचोगे, तुम अचानक पाओगे, सुरक्षित। सभी बाधाओं से सुरक्षित। वे सभी घटनाएं परिधि पर घटती हैं।

जैसे सागर की सतह पर तूफान आते, आंधियां आतीं, लेकिन सागर की गहराई में न तो कभी कोई तूफान आता, न कोई आंधी आती। जैसे-जैसे गहरे जाने लगो…जो लोग सागर की गहराई में खोज करते हैं वे कहते हैं कि सागर की गहराई में अनूठे अनुभव होते हैं। अनूठा अनुभव होता है। एक अनुभव तो यह होता है कि वहां कोई तूफान नहीं, कोई आंधी नहीं, कोई लहर नहीं। सब परम सन्नाटा है।

जैसे-जैसे गहरे जाते हो…जैसे पैसिफिक महासागर पांच मील गहरा है। आधा मील की गहराई के बाद सूरज की किरणें भी नहीं पहुंचतीं। पांच मील की गहराई पर सूरज की किरण कभी पहुंची ही नहीं। अनंत काल से गहन अंधकार वहां सोया है। वहां सतह की कोई खबर ही नहीं पहुंची। हवा है, तूफान है, आंधी है, बादल है, बरसात है, धूप है, ताप है, शीत आयी, गर्मी आयी, कुछ वहां पता नहीं चलता। वहां कोई मौसम बदलता नहीं। वहां सदा एकरस।

पैसिफिक महासागर की जो गहराई है, वह तो कुछ भी नहीं; जब तुम अपनी गहराई में उतरोगे, वहां भूख कभी नहीं पहुंची, कोई नींद कभी नहीं पहुंची, कोई दुख, कोई सुख वहां कभी नहीं पहुंचा। ये मील के पत्थर हैं।

और आज नहीं कल इस परिधि से हटना पड़ता है, क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, मरेगा। तो जो परिधि पर खड़े हैं, कंप रहे हैं। क्योंकि मौत उन्हें कंपा रही है। यह बड़ा विस्मयकारी मामला है। तुम कभी नहीं मरते और कंप रहे हो, घबड़ा रहे हो। ऐसा ही समझो कि रस्सी देख ली अंधेरे में और भाग खड़े हुए सांप समझकर; पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। छाती धड़क रही है। रुकते ही नहीं रोके–सांप!

ऐसे ही समझो कि किसी सिनेमाघर में बैठे थे और कोई चिल्ला दिया पागल कि “आग, आग लग गई।’ और भागे। शब्द ही था, कहीं कोई आग न थी। लेकिन भीतर एक भाव समा गया कि आग। फिर तो तुम्हें कोई रोके भी तो न रुकोगे।

जिसे अभी हम अपना जीवन समझ रहे हैं वह परिधि का जीवन है–बड़ा अधूरा, बड़ा खंडित। उसी खंड को हम पूरा मान बैठे हैं। यही अड़चन है। इसलिए घबड़ाहट स्वाभाविक है। वहां मौत भी आएगी, दुख भी आएगा, बुढ़ापा आएगा, शरीर जीर्ण-जर्जर होगा, कंपोगे।

महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि इस शरीर को काट डालो, मिटा डालो। महावीर कह रहे हैं, इस शरीर का उपयोग कर लो। जैसा यह शरीर संसार में जाने के लिए वाहन बनता है, ऐसा ही यह शरीर अंतर्यात्रा के लिए भी वाहन बन जाता है। चोरी करने जाओ कि मंदिर में ध्यान करने जाओ, शरीर दोनों जगह ले जाता है। किसी की हत्या करने जाओ या किसी को प्रेम से आलिंगन करो, शरीर दोनों में वाहन बन जाता है। शरीर तो बड़ा अदभुत यंत्र है। तुमने एक ही तरकीब सीखी–इससे बाहर जाना। इसमें शरीर का कोई कसूर नहीं।

शायद तुम्हें पता हो, हेनरी फोर्ड ने जब पहली कार बनाई तो उसमें रिवर्स गेयर नहीं था। खयाल ही नहीं था कि पीछे भी ले जाना पड़ेगा। जो पहला माडल था, बस वह आगे की तरफ जाता था। मोड़ना हो तो बड़ा चक्कर लगाना पड़े। आधामील का चक्कर लगाकर आओ तब कहीं मोड़कर आ पाओ। तब उसे समझ में आया कि यह बात तो ठीक नहीं। गाड़ी पीछे भी लौटनी चाहिए। तो फिर रिवर्स गेयर आया।

तुम करीब-करीब हेनरी फोर्ड के माडल हो। बस एक ही गेयर पता है–कि चले! और ऐसा भी नहीं है कि गेयर तुम्हारे भीतर नहीं है। है, लेकिन तुम्हें लगाना नहीं आता। तुम्हें पता नहीं कि पीछे भी लौट सकता है यह यंत्र। यह अपने भीतर भी डुबकी मार सकता है। तुमने दूसरों में ही डुबकी लगाई तो उसी का अभ्यास हो गया है।

ध्यान का इतना ही अर्थ है: रिवर्स गेयर–पीछे लौटने की प्रक्रिया, अपने में जाने की प्रक्रिया।

यह शरीर तो जाएगा। इसके पहले कि यह चला जाए, इसकी लहर पर सवार होकर जरा भीतर की यात्रा कर लो। यह अश्व तो मरेगा। अश्वारोही बन जाओ। जरा भीतर की यात्रा कर लो।

क्या करोगे शब्दवेदी धुन चुकेगी जब?

तब कहां, किस छोर पर, किसके लिए

कौन से संदर्भ जाएंगे दिए?

बैजयंती आकाश टुकड़ों में बंटेगा जब

क्या करोगे तब?

एक गहरी खनक अविनीता हवाएं

शीर्षकों पर शीर्षकों की आहटें आएं न आएं

एक कोई रक्त-निचुड़ा शब्द

जिसका अर्थ हम शायद न समझें

और शायद समझ पाएं

घटाएं घिरकर न बरसें तो न बरसें

कि ऋतुएं उसी कोमल कोण से परसें न परसें

कि हम तरसें, कि हम तरसें, कि हम तरसें

किंतु सारी तरसनें भी चुक जाएंगी जब

क्या करोगे तब?

और केसर झर चुकेगी जब

क्या करोगे तब?

यह होनेवाला है। केसर तो झरेगी। यह वीणा तो रुकेगी। ये तार तो टूटेंगे। ये टूटने को बने हैं। यह वीणा बिखरने को सजी है। परिधि पर तो सब बनेगा और मिटेगा। केंद्र पर शाश्वत है। तुम परिधि में रहते-रहते केंद्र को बिलकुल ही भूल मत जाना। परिधि में रहो जरूर, केंद्र की याद करते रहो। परिधि में रहो जरूर, कभी-कभी केंद्र में सरकते रहो। परिधि में रहो जरूर, केंद्र की सुरति न भूले, स्मृति न भूले। केंद्र से संबंध न टूटे।

यह केसर तो झरेगी। क्या करोगे तब? तब बहुत पछताओगे, तब रोओगे। लेकिन रोने से कुछ आता नहीं। रोने से कुछ होता नहीं। जागो! इसके पहले कि केसर झर जाए, इसके पहले कि जीवन का दीया बुझे, तुम जीवन के उस शाश्वत दीये को देख लो जो कभी नहीं बुझता। उससे संबंध जोड़ लो। इस लहर का उपयोग कर लो। यह लहर तुम्हारी शत्रु नहीं है, यह तुम्हारी मित्र है। इसी से संसार, इसी से सत्य, दोनों की यात्राएं पूरी होती हैं।

महावीर केवल मील के पत्थर दे रहे हैं। जब तक तुमने स्वयं के भीतर के अमृत को नहीं जाना तब तक तुम मरघट में हो, कब्रिस्तान में।

इब्राहीम फकीर हुआ। उससे कोई पूछता कि गांव कहां? बस्ती कहां? तो वह कहता, बायें जाना। दायें भूलकर मत जाना बायें जाना, नहीं तो भटक जाओगे। बायें से बस्ती पहुंच जाओगे। बेचारा राहगीर चलता। चार-पांच मील चलने के बाद मरघट पहुंच जाता। वह बड़े क्रोध में आ जाता कि यह आदमी कैसा है! फकीर वहां चौरस्ते पर बैठा है। वह लौटकर आता, भनभनाता कि तुम आदमी कैसे हो जी! मुझे मरघट भेज दिया? मैं बस्ती की पूछता था।

इब्राहिम कहता, बस्ती की पूछा इसीलिए तो वहां भेजा क्योंकि जिसको लोग बस्ती कहते हैं वह तो बस उजड़ रही है, उजड़ रही है। रोज कोई मरता है। इस मरघट में जो बस गया सो बस गया। “बस्ती!’ कभी इधर किसी को उजड़ते देखा ही नहीं। इसलिए तुमने बस्ती पूछी तो मैंने कहा, बस्ती भेज दें।

कबीर कहते हैं, “ई मुर्दन के गांव।’ हमारे गांव को कहते हैं मुर्दों के गांव।

हम जब तक परिधि पर हैं, हम मुर्दे ही हैं। हमने अपने मर्त्य रूप से ही संबंध बांध रखा है तो मुर्दे हैं। और हम कंप रहे हैं और घबड़ा रहे हैं। घबड़ाहट स्वाभाविक है, मिटेगी न।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं बड़ा भय लगता है। मैं पूछता हूं, किस बात का भय? वे कहते हैं किसी बात का खास भय नहीं, बस भय लगता है। ठीक कह रहे हैं। लगेगा ही। वे कहते हैं, किसी तरह यह भय मिट जाए। यह भय ऐसे नहीं मिटेगा। यह तो तुम रूपांतरित होओगे तो ही मिटेगा। यह तो अमृत का स्वाद लगेगा तो ही मिटेगा। यह भय मौत का है।

मौत का भय है और मिटना तुम चाहते नहीं। और तुम्हें यह पता नहीं कि मिट तुम सकते नहीं। ऐसी उलझन है। जो आदमी मिटने को राजी है वह उसको पा लेता है जो कभी नहीं मिटता। उसको पाते ही से भय मिट जाता है।

मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे

कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है

परिधि पर तो मिटना होगा–

कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है।

मिटता है बीज। परिधि पर ही मिटता है। खोल टूटती है और तत्क्षण अंकुरण हो जाता–है नया जीवन। और एक बीज से करोड़ों बीज पैदा होते हैं। और जो बंद बीज था वह हजारों फूलों में खिलता और नाचता और हंसता है।

कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है

मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे

अगर कुछ होना चाहते हो तो मिटना सीखो। अगर कोई मर्तबा चाहते हो, अगर वस्तुतः चाहते हो हस्ती मिले, होना मिले, अस्तित्व मिले तो–मिटो। परिधि पर मिटो ताकि केंद्र पर हो सको। परिधि से डुबकी लगा लो और केंद्र पर उभरो। परिधि को छोड़ो और केंद्र पर सरको।

“जहां न कर्म हैं न नोकर्म, न चिंता है न आर्तरौद्र ध्यान, न धर्मध्यान है न शुक्लध्यान, वहीं निर्वाण है।’

ण वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि।

ण वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।

जहां न कर्म हैं, न कर्मों की आधारभूत शृंखलाएं–नोकर्म। न जहां कर्म है न कर्मों को बनानेवाली सूक्ष्म वासनाएं। न चिंता है, न चिंतन, न आर्तरौद्र ध्यान।

ठीक है, आर्तरौद्र ध्यान तो हो ही कैसे सकते हैं? क्रोध और दुख में भरे हुए चित्त की अवस्थाएं हैं। लेकिन महावीर कहते हैं न जहां धर्मध्यान, न शुक्लध्यान। जहां ध्यान की आत्यंतिक अवस्थाएं भी पीछे छूट गईं। सविकल्प समाधि पीछे छूट गई, निर्विकल्प समाधि पीछे छूट गई। समाधि ही पीछे छूट गई। जहां बस तुम हो शुद्ध; और कुछ भी नहीं है। कोई तरंग, कोई विकार, कुछ भी नहीं है। बस तुम हो शुद्ध निर्विकार। जहां तुम्हारा सिर्फ धड़कता हुआ जीवन है, वहीं निर्वाण है।

संसार ही नहीं छोड़ देना है, धर्म भी छोड़ देना है। महावीर कहते हैं धर्मध्यान, शुक्लध्यान। शुक्लध्यान महावीर का आत्यंतिक शब्द है ध्यान के लिए। जहां ध्यान इतना शुद्ध हो जाता है कि कोई विषय नहीं रह जाता–निर्विकल्प ध्यान। लेकिन महावीर कहते हैं वह भी छूट जाता है। वह भी कुछ है। वह भी उपाधि है। तुम कुछ कर रहे हो। ध्यान कर रहे हो। कुछ अनुभव हो रहा है। अनुभव यानी विजातीय।

इधर मैं तुम्हें देख रहा हूं तो तुम मुझसे अलग। फिर तुम भीतर ध्यान में प्रविष्ट हुए। तो धर्मध्यान में आदमी शुभ भावनाएं करता, शुभ भावनाओं का दर्शन होता है; जिसको बुद्ध ने ब्रह्मविहार कहा है, महावीर ने बारह भावनाएं कहीं, उनका अनुभव करता। लेकिन विषय अभी भी बना है। दो अभी भी हैं। फिर निर्विकल्प ध्यान में ऐसी अवस्था आ जाती है कि कोई विकल्प न रहा, लेकिन सिर्फ एक महासुख का अनुभव है। मगर फिर भी सूक्ष्म रेखा अनुभव की बनी है।

तो महावीर कहते हैं जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं, जहां केवल अनुभोक्ता रह जाता है बिना अनुभव के; जहां शुद्ध चैतन्य रह जाता है और कोई विषय नहीं बचता, सच्चिदानंद भी जहां नहीं बचता, वहीं निर्वाण है।

खयाल रखना; धन, पद, प्रतिष्ठा तो रोकती ही है; दान, दया, धर्म भी रोकता है। पद-प्रतिष्ठा छोड़कर दान-धर्म करो, फिर दान-धर्म छोड़कर भीतर चलो। बाहर तो रोकता ही है, फिर भीतर भी रोकने लगता है। पहले बाहर छोड़कर भीतर चलो, फिर भीतर को भी छोड़ो। सब छोड़ो। ऐसी घड़ी ले आओ, जहां बस तुम ही बचे। एक क्षण को भी यह घड़ी आ जाए, तो तुम्हारा अनंत-अनंत जन्मों से घिरा हुआ अंधकार क्षण में तिरोहित हो जाता है।

पहुंच सका न मैं बरवक्त अपनी मंजिल पर

कि रास्ते में मुझे राहबरों ने घेर लिया

लुटेरे तो रास्ते में लूट ही रहे हैं। रहजन तो लूट ही रहे हैं, फिर राहबर भी लूट लेते हैं।

क्रोध तो लूट ही रहा है, ध्यान भी लूटने लगता है एक दिन। हिंसा तो लूट ही रही है, एक दिन अहिंसा भी लूटने लगती है। तो खयाल रखना कि अहिंसा सिर्फ हिंसा को मिटाने का उपाय है। और ध्यान केवल मन की चंचलता को मिटाने का उपाय है। जब चंचलता मिट गई तो इस औषधि को भी लुढ़का देना कचरेघर में। इसको लिए मत चलना। जब ध्यान की भी जरूरत न रह जाए तभी वस्तुतः ध्यान हुआ। तो कांटे को कांटे से निकाल लेना, फिर दोनों कांटों को फेंक देना।

स्वभावतः यह बड़ी लंबी यात्रा है। इससे बड़ी कोई और यात्रा नहीं हो सकती। आदमी चांद पर पहुंच गया, मंगल पर पहुंचेगा, फिर और दूर के तारों पर पहुंचेगा। शायद कभी इस अस्तित्व की परिधि पर पहुंच जाए–अगर कोई परिधि है। लेकिन यह भी यात्रा इतनी बड़ी नहीं है जितनी स्वयं के भीतर जानेवाली यात्रा है। सारे अनुभव के पार, जहां सिर्फ प्रकाश रह जाता है चैतन्य का। जहां रंचमात्र भी छाया नहीं पड़ती अन्य की, अनन्यभाव से तुम्हीं होते हो बस, तुम ही होते हो।

यह धीरे-धीरे होगा। बड़े धैर्य से होगा अधीरज से नहीं होगा। तुम सारे प्रयास करते रहो तो भी सिर्फ तुम्हारे प्रयास तुमने कर लिए इससे नहीं हो जाएगा। सारे प्रयास करते-करते, करते-करते एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम्हें अपने प्रयास भी बाधा मालूम पड़ने लगते हैं। प्रयास करते-करते एक दिन प्रयास भी छूट जाते हैं तब घटता है।

धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय

माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय

कबीर का वचन है, धीरे-धीरे रे मना। धीरे-धीरे सब कुछ होता है। और सिर्फ माली सौ घड़े पानी डाल दे इससे कोई फल नहीं आ जाते।

माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय

ठीक समय पर, अनुकूल समय पर, सम्यक घड़ी में घटना घटती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि माली पानी न सींचे। क्योंकि माली पानी न सींचे तो फिर ऋतु आने पर भी फल न लगेंगे। माली पानी तो सींचे, लेकिन जल्दबाजी न करे। प्रतीक्षा करे। श्रम और प्रतीक्षा। श्रम और धैर्य।

धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय

और यह यात्रा बड़ी धीमी है क्योंकि फासला अनंत है। तुम्हारी परिधि और तुम्हारा केंद्र इस जगत में सबसे बड़ी दूरी है। तुम्हारी परिधि पर संसार है और तुम्हारे केंद्र पर परमात्मा। स्वभावतः दूरी बहुत बड़ी होने ही वाली है। तुम्हारी परिधि पर दृश्य है, तुम्हारे केंद्र पर अदृश्य। तुम्हारी परिधि पर रूप है, तुम्हारे केंद्र पर अरूप। तुम्हारी परिधि पर सगुण है, तुम्हारे केंद्र पर निर्गुण।

यात्रा बड़ी बड़ी है; काफी बड़ी है। अनंत यात्रा है। अनंत धैर्य चाहिए होगा।

“जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण है। अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है।’

णिव्वाणं ति अवाहंति सिद्धी लोगाग्गमेव य।

खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो।।

सिर्फ महर्षि ही जिस स्थान को प्राप्त करते हैं। जिन्होंने सब भांति अपने ध्यान को शुद्ध किया ऐसे ऋषि इस स्थान को प्राप्त करते हैं। जिनके ध्यान में जरा-सी भी कलुष न रही–संसार की भी नहीं, परलोक की भी नहीं।

“जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण है। अबाध है…।’

परिभाषा चल रही है। अंततः इसके पहले कि महावीर विदा हों, अपने सूत्र पूरे करें, वे अंतिम अवस्था के संबंध में दिशा-निर्देश दे रहे।

“अबाध है’–उसकी कोई सीमा नहीं।

“सिद्धि है’–वहां पहुंचकर अनुभव होता है आ गए, पहुंच गए। वहां पहुंचकर पता चलता है, अब जाने को कहीं न रहा। वहां पहुंचकर पता चलता है अरे! यात्रा समाप्त हुई। एक अहोभाव। सब पूरा हो गया, परिपूर्ण हो गया। अब कुछ भी न होने को शेष रहा, न जाने को शेष रहा। घर वापस आ गए।

“सिद्धि, लोकाग्र।’ जो व्यक्ति इस अवस्था में पहुंच गया, वह लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है। वह वहां पहुंच जाता है, जहां पहुंचने के लिए हम सदा से दौड़ते रहे–प्रथम हो जाता है।

“क्षेम’–कल्याण की अनुभूति होती है। परम स्वास्थ्य की अनुभूति होती है।

“शिव’–बड़ी शुद्धता, सुगंध, सुरभि। बड़ी गहन पावनता। जैसे कमल और कमल और हजारों कमल भीतर प्राण पर खिलते चले जाते हैं।

“और अनाबाध है।’ इस स्थिति में कोई भी बाधा नहीं पड़ती। कोई बाधा पड़ नहीं सकती। बेशर्त है। इसे कोई डिगा नहीं सकता। इसमें कोई विघ्न नहीं डाल सकता। यह विघ्नों के पार है, अनाबाध है।

“जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है।’

कभी करके देखना। तुंबी को अगर मिट्टी में लपेट दो तो जल में डूब जाएगी। मिट्टी के वजन से डूब जाएगी। जो नहीं डूबना थी, वह डूब जाएगी। तुंबी तो लोग तैरने के काम में लाते हैं। बांध लेता है आदमी। नहीं तैरना जानता है तो तुंबी के सहारे तैर जाता है। वह तुंबी जो दूसरों को तैरा देती है, खुद भी डूब जाती है, अगर मिट्टी का आवरण हो जाए।

महावीर कहते हैं शरीर के आवरण से हम डूबे। मिट्टी ने डुबाया। जो डूबने को न बने थे वे डूब गए। उबरे रहना जिनका स्वभाव था, जिनके सहारे और भी तर जाते और तैर जाते, जो तरणत्तारण थे, वे डूब गए।

तुंबी डूब जाती है मिट्टी के आवरण से।

“जैसी मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है…।’

बस, इतना ही फर्क है तुममें और सिद्धपुरुषों में। तुममें और बुद्धपुरुषों में। तुममें और जिन-पुरुषों में। इतना ही फर्क है। तुम भी वैसी ही तुंबी, जैसी वे। तुम जरा मिट्टी से लिपे-पुते पड़े, तो डूबे जल में। उन्होंने अपनी मिट्टी से अपने को दूर जान लिया, पृथक जान लिया। तादात्म्य तोड़ दिया। मिट्टी खिसक गई, तुंबी उठ गई।

जब तुंबी उठती है जल में तो जाकर अग्रभाग में स्थिर हो जाती है। पानी की सतह पर स्थिर हो जाती है। ऐसा महावीर कहते हैं, जो डूबे हैं इस संसार में वे तुंबियों की तरह हैं मिट्टी लगी–डूबे हैं। जब मिट्टी छूटती है, तादात्म्य छूटता है, यह मोह भंग होता है, तो उठी आत्मा, चली।

और इसको महावीर कहते हैं लोकाग्र्र–आत्यंतिक अवस्था। जहां लोक समाप्त होता है, उस जगह जाकर सिद्धपुरुष ठहर जाते हैं। ये तो सिर्फ प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का अर्थ ले लेना। इन प्रतीकों को लेकर नक्शे मत खींचने लगना।

“जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही तैरने लगती है, अथवा जैसे एरण्ड का फूल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को जाते हैं, अथवा जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है, अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर होती है।’

तो निर्वाण की सूचना समझना कि घर पास आने लगा, जब तुम्हारी गति ऊपर की ओर होने लगे। हिंसा से अहिंसा की ओर होने लगे। क्रोध से करुणा की ओर होने लगे, बेचैनी से चैन की ओर होने लगे, पदार्थ से परमात्मा की ओर होने लगे। धन से ध्यान की ओर होने लगे, तो समझना कि गति ऊपर की तरफ शुरू हो गई। तुंबी छूटने लगी मिट्टी से। आज नहीं कल लोकाग्र में ठहर जाएगी। वहां पहुंच जाएगी, जिसके आगे और जाना नहीं है।

लाउअ एरण्डफले अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के।

गइ पुव्वपओगेणं एवं सिद्धाण वि गती तु।।

“परमात्मतत्व अव्याबाध, अतींद्रिय, अनुपम, पुण्य-पापरहित, पुनरागमन-रहित, नित्य, अचल और निरालंब होता है।’

यह जो परमात्मतत्व है, यह जो निर्वाण है, यह जो घर लौट आना है, यह कैसा तत्व है? इसके संबंध में क्या कहा जा सकता है?

इतना ही–”परमात्म तत्व अव्याबाध।’ इसमें कोई बाधा कभी नहीं पड़ती। इसके विपरीत ही कोई नहीं है, जो बाधा डाल सके। यह सबके पार है। इस तक किसी चीज की पहुंच नहीं है। सब चीजें इससे पीछे छूट जाती हैं। जिनसे बाधा पड़ सकती है वे बहुत पीछे छूट जाती हैं। अतींद्रिय है। इंद्रियों के पार है, क्योंकि देह के पार है।

“अनुपम’–यह शब्द समझना। अनुपम का अर्थ है, जैसा कभी न जाना था; जैसा कभी न देखा था। न कानों सुना, न आंखों देखा। जो कभी अनुभव में आया ही न था। बहुत अनुभव हुए सुख के, दुख के, सफलता के, विफलता के। बहुत अनुभव हुए–रस-विरस, स्वाद-बेस्वाद, सुंदर-असुंदर, लेकिन यह अनुपम है। ऐसा भी नहीं कह सकते यह सुंदर है। क्योंकि तब भ्रांति होगी कि शायद जो हमारे सुंदर के अनुभव हैं, उन जैसा है। नहीं, यह हमारे किसी अनुभव जैसा नहीं है। यह तो बस अपने जैसा है। अनुपम का अर्थ होता है अपने जैसा। इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। यह अतुलनीय है।

“पुण्य-पापरहित, पुनरागमनरहित, नित्य, अचल और निरालंब…।’

हमें तो वही शब्द समझ में आते हैं, जो हमारे अनुभव के हैं।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन शराबघर गया। शेखी मारना उसकी आदत है। शेखी मार रहा था शराबघर के मालिक के सामने कि मैं हर तरह की शराब स्वाद लेकर पहचान सकता हूं। और ऐसा ही नहीं है, अगर तुम दस-पांच शराबें भी इकट्ठी एक प्याली में मिला दो तो भी मैं बता सकता हूं कि कौन-कौन सी शराब मिलाई गई है।

मालिक ने कहा तो रुको। वह भीतर गया, मिला लाया एक ग्लास में मार्टिनी, ब्रांडी, रम, ह्विस्की–जो भी उसके पास था, सब मिला लाया। मुल्ला पी गया और एक-एक शराब का नाम उसने ले लिया कि येऱ्ये चीजें इसमें मिली हैं। चकित हो गया वह मालिक भी। उसने कहा, एक बार और। वह भीतर गया और एक गिलास में सिर्फ पानी भर लाया। मुल्ला ने पीया, बड़ा बेचैनी में खड़ा रह गया। कुछ सूझे न। शुद्ध पानी है। स्वाद ही उसे इसका याद नहीं रहा है शुद्ध पानी का।

उसने इतना ही कहा, कि यह मैं नहीं जानता यह क्या है! मगर एक बात कह सकता हूं, इसकी बिक्री न होगी।

हमारा जो भी अनुभव है वह कई तरह की शराबों का है। शुद्ध जल का तो हम स्वाद ही भूल गए हैं। बेहोशियों का है; होश का तो हम स्वाद ही भूल गए। विक्षिप्तताओं का है, स्वास्थ्य का तो हम स्वाद ही भूल गए। गर्हित, व्यर्थ, असार का है; सार का तो हम स्वाद ही भूल गए।

इसलिए महावीर कहते हैं अनुपम। हमारे अनुभव से किसी से उसका मेल नहीं है। इसलिए तुम किसी अपने अनुभव के आधार से उसके संबंध में मत सोचना। खतरा यही हो जाता है। जैसे कि कोई कहे, कोई ज्ञानी, सिद्ध–कहे महासुख; तो हमको लगता है हमारा ही सुख होगा; करोड? गुना, अरब गुना बड़ा, लेकिन है तो सुख ही। बस भूल हो गई।

उसकी मजबूरी है। वह क्या कहे? किन शब्दों में कहे? महासुख कहता है तो भी अड़चन हो जाती है। क्योंकि तुम अपने सुख को ही सोचते हो। तुम अपने सुख में ही गुणनफल करके सोच सकते हो लेकिन तुम्हारा सुख सुख ही कहां है? उसको तुम करोड़ गुना कर लो तो भी वह सुख नहीं है।

आनंद कहो तो झंझट। क्योंकि तुमने जो आनंद जाना है वे अजीब-अजीब आनंद जाने तुमने। कोई ताश ही खेल रहा है, कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। अब क्या करो? कोई शराब पी रहा है, कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। कोई वेश्या का नृत्य देख रहा है, और कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। अब कहो कि परमात्मा आनंद है तो इस आदमी के मन में कुछ ऐसे ही लगेगा, कि होगा कुछ वेश्या का नाच देखने जैसा, शराब पीने जैसा, ताश खेलने जैसा। जरा बड़ा करके सोच लो।

लेकिन जो भेद होनेवाला है इसके आनंद में और सिद्ध के आनंद में, इसकी कल्पना में, वह परिमाण का होगा, मात्रा का होगा। और सिद्धपुरुष का आनंद गुणात्मक रूप से भिन्न है। मात्रा का भेद नहीं है। यह बात ही अनुपम है।

इसलिए महावीर ठीक कहते हैं कि अनुपम है। तुम अपने किसी अनुभव से विचार मत करना। तुम्हारा कोई अनुभव मापदंड नहीं बन सकेगा।

यह निर्वाण तो जब घटता है तभी जाना जाता है। यह तो स्वाद जब मिलता है तभी पहचाना जाता है।

तो सत्पुरुषों के पास तुम सिर्फ प्यास ले लो, बस काफी है। उनकी बातें सुन, उनके जीवन को अनुभव कर, उनकी उपस्थिति से तुम सिर्फ प्यास ले लो, तो बस काफी है। उनके कारण तुम उतावले हो उठो, व्यग्र हो उठो खोजने के लिए; बस काफी है। उनसे सिद्धांत मत लेना; सिद्धांत मिल ही नहीं सकते। उनसे शास्त्र मत लेना। शास्त्र बनाया कि भूल हो गई। उनसे तो प्यास लेना जीवंत और चल पड़ना।

मेघ बजे धिन-धिन धा धमक-धमक

दामिनी गई दमक

मेघ बजे, दादुर का कंठ खुला

धरती का हृदय धुला

मेघ बजे, पंक बना हरिचंदन

फूले कदम्ब

टहनी-टहनी में कंदुक सम फूले कदम्ब,

फूले कदम्ब

जाने कबसे वह बरस रहा

ललचायी आंखों से नाहक

जाने कबसे तू तरस रहा

मन कहता है छू ले कदम्ब,

फूले कदम्ब

मेघ बजे, धिन-धिन धा धमक-धमक

दामिनी गई दमक

मेघ बजे

अगर सत्पुरुषों के पास ऐसा कुछ हो जाए–मेघ बजे, दामिनी चमके, कोई अनूठा नाद सुनाई पड़ने लगे, कोई अदृश्य की पुकार खींचने लगे, कोई चुनौती मिले तो फिर ललचायी आंखों से देखते ही मत रहना।

फूले कदम्ब

जाने कबसे वह बरस रहा

ललचायी आंखों से नाहक

जाने कबसे तू तरस रहा

मन कहता है छू ले कदम्ब,

फूले कदम्ब

जब यह चाहत उठे, यह चाहत का ज्वार उठे तो रुकना मत। तोड़त्ताड़ सारी जंजीरें चल पड़ना। छोड़-छाड़ सारा मोह-मायापाश चल पड़ना। लौटकर देखना भी मत। यह आह्वान मिल जाए सतपुरुषों से, बस इतना काफी है।

पर लोग अजीब हैं। शास्त्र लेते हैं, प्यास नहीं लेते। सिद्धांत ले लेते हैं, सत्य की चुनौती नहीं लेते।

एक अपूर्व घटना है। इस जगत की सबसे अपूर्व घटना है किसी व्यक्ति का सिद्ध या बुद्ध हो जाना। इस जगत की अनुपम घटना है किसी व्यक्ति का जिनत्व को उपलब्ध हो जाना, जिन हो जाना। उस अपूर्व घटना के पास जला लेना अपने बुझे हुए दीयों को। अवसर देना अपने हृदय को, कि फिर धड़क उठे उस अज्ञात की आकांक्षा से, अभीप्सा से। तो शायद कभी तुम जान पाओ निर्वाण क्या है। बताने का कोई उपाय नहीं।

लिखा-लिखी की है नहीं देखा-देखी बात

तुम देखोगे तो ही जानोगे। लिखा-लिखी में उलझे मत रह जाना। समय मत गंवाना। ऐसे भी बहुत गंवाया है।

महावीर के इन सूत्रों पर बात की है इसी आशा में कि तुम्हारे भीतर कोई स्वर बजेगा, तुम ललचाओगे, चाह उठेगी, चलोगे। पाना तो निश्चित है। पा तो लोगे, चलो भर। न चले तो जो सदा से तुम्हारा है, उससे ही तुम वंचित रहोगे। चले तो जो मिलेगा वह कुछ बाहर से नहीं मिलता, तुम्हारा ही था। सदा से तुम्हारा था। भूले-भटके, भूले-बिसरे बैठे थे। अपने ही खजाने की खबर मिली।

मेघ बजे धिन-धिन धा धमक-धमक

दामिनी गई दमक

मेघ बजे, दादुर का कंठ खुला

धरती का हृदय धुला

मेघ बजे, पंक बना हरिचंदन

फूले कदम्ब

टहनी-टहनी में कंदुक सम फूले कदम्ब,

फूले कदम्ब

जाने कबसे वह बरस रहा

ललचायी आंखों से नाहक

जाने कबसे तू तरस रहा

मन कहता है छू ले कदम्ब,

फूले कदम्ब।

आज इतना ही।
समाप्‍त


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गीता दर्शन (भाग–3) प्रवचन–17

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वैराग्य और अभ्यास—(अध्याय—6) प्रवचन—सत्रहवां

प्रश्न: भगवान श्री, सुबह के श्लोक में चंचल मन को शांत करने के लिए अभ्यास और वैराग्य पर गहन चर्चा चल रही थी, लेकिन समय आखिरी हो गया था, इसलिए पूरी बात नहीं हो सकी। तो कृपया अभ्यास और वैराग्य से कृष्ण क्या गहन अर्थ लेते हैं, इसकी व्याख्या करने की कृपा करें।

राग है संसार की यात्रा का मार्ग, संसार में यात्रा का मार्ग। वैराग्य है संसार की तरफ पीठ करके स्वयं के घर की ओर वापसी। राग यदि सुबह है, जब पक्षी घोंसलों को छोड़कर बाहर की यात्रा पर निकल जाते हैं, तो वैराग्य सांझ है, जब पक्षी अपने नीड़ में वापस लौट आते हैं।

वैराग्य को पहले समझ लें, क्योंकि जिसे वैराग्य नहीं, वह अभ्यास में नहीं जाएगा। वैराग्य होगा, तो ही अभ्यास होगा। वैराग्य होगा, तो हम विधि खोजेंगे–मार्ग, पद्धति, राह, टेक्नीक–कि कैसे हम स्वयं के घर वापस पहुंच जाएं? कैसे हम लौट सकें? जिससे हम बिछुड़ गए, उससे हम कैसे मिल सकें? जिसके बिछुड़ जाने से हमारे जीवन का सब संगीत छिन गया, जिसके बिछुड़ जाने से जीवन की सारी शांति खो गई, जिसके बिछुड़ जाने से, खोजते हैं बहुत, लेकिन उसे पाते नहीं; उस आनंद को किस विधि से, किस मेथड से हम पाएं? यह तो तभी सवाल उठेगा, जब वैराग्य की तरफ दृष्टि उठनी शुरू हो जाए। तो पहली तो बात, वैराग्य को समझें, फिर हम अभ्यास को समझेंगे।

वैराग्य का अर्थ है, राग के जगत से वितृष्णा, फ्रस्ट्रेशन। जहां-जहां राग है, जहां-जहां आकर्षण है, वहां-वहां विकर्षण पैदा हो जाए। जो चीज खींचती है, वह खींचे नहीं, बल्कि विपरीत हटाने लगे। जो चीज बुलाती है, बुलाए नहीं, बल्कि द्वार बंद कर ले। मालूम पड़े कि द्वार बंद कर लिया, और द्वार में प्रवेश से इनकार कर दिया।

विकर्षण हम सभी को होता है। अगर ऐसा मैं कहूं, तो आप थोड़े हैरान होंगे कि हम सभी रोज वैराग्य को उपलब्ध होते हैं। लेकिन वैराग्य को उपलब्ध होकर हम अभ्यास की तरफ नहीं जाते। वैराग्य को उपलब्ध होकर, पुराने राग तो गिर जाते हैं, हम नए राग के निर्माण में लग जाते हैं।

हम सभी वैराग्य को उपलब्ध होते हैं, रोज, प्रतिदिन। ऐसा कोई राग नहीं है, जिसके प्रति हम रोज विकर्षण से नहीं भर जाते। प्रत्येक राग के पीछे खाई छूट जाती है विषाद की; प्रत्येक राग के पीछे पश्चात्ताप गहन हो जाता है। लेकिन तब ऐसा नहीं कि हम विराग की तरफ चले जाते हों, तब सिर्फ इतना ही होता है कि हम नए राग की खोज में निकल जाते हैं।

वैराग्य कोई नई घटना नहीं है। एक स्त्री से विरक्त हो जाना सामान्य घटना है। लेकिन स्त्री से विरक्त हो जाना बहुत असामान्य घटना है। एक सुख की व्यर्थता को जान लेना सामान्य घटना है, लेकिन सुख मात्र की व्यर्थता को जान लेना बहुत असामान्य घटना है। और असामान्य इसीलिए है कि हमारे हाथ में एक ही सुख होता है एक बार में। एक सुख व्यर्थ हो जाता है, तो तत्काल मन कहता है कि नए सुख का निर्माण कर लो; दूसरे सुख की खोज में निकल जाओ। ठहरो मत; यात्रा जारी रखो। यह सुख व्यर्थ हुआ, तो जरूरी नहीं कि सभी सुख व्यर्थ हों!

ययाति की बहुत पुरानी कथा है, जिसमें ययाति सौ वर्ष का हो गया। बहुत मीठी, बहुत मधुर कथा है। तथ्य न भी हो, तो भी सच है। और बहुत बार जो तथ्य नहीं होते, वे भी सत्य होते हैं। और बहुत बार जो तथ्य होते हैं, वे भी सत्य नहीं होते।

यह ययाति की कथा तथ्य नहीं है, लेकिन सत्य है। सत्य इसलिए कहता हूं कि उसका इंगित सत्य की ओर है। तथ्य नहीं है इसलिए कहता हूं कि ऐसा कभी हुआ नहीं होगा। यद्यपि आदमी का मन ऐसा है कि ऐसा रोज ही होना चाहिए।

ययाति सौ वर्ष का हो गया, उसकी मृत्यु आ गई। सम्राट था। सुंदर पत्नियां थीं, धन था, यश था, कीर्ति थी, शक्ति थी, प्रतिष्ठा थी। मौत द्वार पर आकर दस्तक दी। ययाति ने कहा, अभी आ गई? अभी तो मैं कुछ भोग नहीं पाया। अभी तो कुछ शुरू भी नहीं हुआ था! यह तो थोड़ी जल्दी हो गई। सौ वर्ष मुझे और चाहिए। मृत्यु ने कहा, मैं मजबूर हूं। मुझे तो ले जाना ही पड़ेगा। ययाति ने कहा, कोई भी मार्ग खोज। मुझे सौ वर्ष और दे। क्योंकि मैंने तो अभी तक कोई सुख जाना ही नहीं।

मृत्यु ने कहा, सौ वर्ष आप क्या करते थे? ययाति ने कहा, जिस सुख को जानता था, वही व्यर्थ हो जाता था। तब दूसरे सुख की खोज करता था। खोजा बहुत, पाया अब तक नहीं। सोचता था, कल की योजना बना रहा था। तेरे आगमन से तो कल का द्वार बंद हो जाएगा। अभी मुझे आशा है। मृत्यु ने कहा, सौ वर्ष में समझ नहीं आई। आशा अभी कायम है? अनुभव नहीं आया? ययाति ने कहा, कौन कह सकता है कि ऐसा कोई सुख न हो, जिससे मैं अपरिचित होऊं, जिसे पा लूं तो सुखी हो जाऊं! कौन कह सकता है?

मृत्यु ने कहा, तो फिर एक उपाय है कि तुम्हारे बेटे हैं दस। एक बेटा अपना जीवन दे दे तुम्हारी जगह, तो उसकी उम्र तुम ले लो। मैं लौट जाऊं। पर मुझे एक को ले जाना ही पड़ेगा।

बाप थोड़ा डरा। डर स्वाभाविक था। क्योंकि बाप सौ वर्ष का होकर मरने को राजी न हो, तो कोई बेटा अभी बीस का था, कोई अभी पंद्रह का था, कोई अभी दस का था। अभी तो उन्होंने और भी कुछ भी नहीं जाना था। लेकिन बाप ने सोचा, शायद कोई उनमें राजी हो जाए। शायद कोई राजी हो जाए। पूछा, बड़े बेटे तो राजी न हुए। उन्होंने कहा, आप कैसी बात करते हैं! आप सौ वर्ष के होकर जाने को तैयार नहीं। मेरी उम्र तो अभी चालीस ही वर्ष है। अभी तो मैंने जिंदगी कुछ भी नहीं देखी। आप किस मुंह से मुझसे कहते हैं?

सबसे छोटा बेटा राजी हो गया। राजी इसलिए हो गया–जब बाप से उसने कहा कि मैं राजी हूं, तो बाप भी हैरान हुआ। ययाति ने कहा, सब नौ बेटों ने इनकार कर दिया, तू राजी होता है। क्या तुझे यह खयाल नहीं आता कि मैं सौ वर्ष का होकर भी मरने को राजी नहीं, तेरी उम्र तो अभी बारह ही वर्ष है!

उस बेटे ने कहा, यह सोचकर राजी होता हूं कि जब सौ वर्ष में भी तुमने कुछ न पाया, तो व्यर्थ की दौड़ में मैं क्यों पडूं! जब मरना ही है और सौ वर्ष के समय में भी मरकर ऐसी पीड़ा होती है, जैसी तुमको हो रही है, तो मैं बारह वर्ष में ही मर जाऊं। अभी कम से कम विषाद से तो बचा हूं। अभी मैंने दुख तो नहीं जाना। सुख नहीं जाना, दुख भी नहीं जाना। मैं जाता हूं।

फिर भी ययाति को बुद्धि न आई। मन का रस ऐसा है कि उसने कल की योजनाएं बना रखी थीं। बेटे को जाने दिया। ययाति और सौ वर्ष जीया। फिर मौत आ गई। ये सौ वर्ष कब बीत गए, पता नहीं। ययाति फिर भूल गया कि मौत आ रही है। कितनी ही बार मौत आ जाए, हम सदा भूल जाते हैं कि मौत आ रही है। हम सब बहुत बार मर चुके हैं। हम सब के द्वारों पर बहुत बार मौत दस्तक दे गई है।

ययाति के द्वार पर दस्तक हुई। ययाति ने कहा, अभी! इतने जल्दी! क्या सौ वर्ष बीत गए? मौत ने कहा, इसे भी जल्दी कहते हैं आप! अब तो आपकी योजनाएं पूरी हो गई होंगी?

ययाति ने कहा, मैं वहीं का वहीं खड़ा हूं। मौत ने कहा, कहते थे कि कल और मिल जाए, तो मैं सुख पा लूं! ययाति ने कहा, मिला कल भी, लेकिन जिन सुखों को खोजा उनसे दुख ही पाया। और अभी फिर योजनाएं मन में हैं। क्षमा कर, एक और मौका! पर मौत ने कहा, फिर वही करना पड़ेगा।

इन सौ वर्षों में ययाति के नए बेटे पैदा हो गए; पुराने बेटे तो मर चुके थे। फिर छोटा बेटा राजी हो गया। ऐसे दस बार घटना घटती है। मौत आती है, लौटती है। एक हजार साल ययाति जिंदा रहता है।

मैं कहता हूं, यह तथ्य नहीं है, लेकिन सत्य है। अगर हमको भी यह मौका मिले, तो हम इससे भिन्न न करेंगे। सोचें थोड़ा मन में कि मौत दरवाजे पर आए और कहे कि सौ वर्ष का मौका देते हैं, घर में कोई राजी है? तो आप किसी को राजी करने की कोशिश करेंगे कि नहीं करेंगे! जरूर करेंगे। क्या दुबारा मौत आए, तो आप तब तक समझदार हो चुके होंगे? नहीं, जल्दी से मत कह लेना कि हम समझदार हैं। क्योंकि ययाति कम समझदार नहीं था।

हजार वर्ष के बाद भी जब मौत ने दस्तक दी, तो ययाति वहीं था, जहां पहले सौ वर्ष के बाद था। मौत ने कहा, अब क्षमा करो! किसी चीज की सीमा भी होती है। अब मुझसे मत कहना। बहुत हो गया! ययाति ने कहा, कितना ही हुआ हो, लेकिन मन मेरा वहीं है। कल अभी बाकी है, और सोचता हूं कि कोई सुख शायद अनजाना बचा हो, जिसे पा लूं तो सुखी हो जाऊं!

अनंत काल तक भी ऐसा ही होता रहता है। तो फिर वैराग्य पैदा नहीं होगा। अगर एक राग व्यर्थ होता है और आप तत्काल दूसरे राग की कामना करने लगते हैं, तो राग की धारा जारी रहेगी। एक राग का विषय टूटेगा, दूसरा राग का निर्मित हो जाएगा। दूसरा टूटेगा, तीसरा निर्मित हो जाएगा। ऐसा अनंत तक चल सकता है। ऐसा अनंत तक चलता है। वैराग्य कब होगा?

वैराग्य उसे होता है, जो एक राग की व्यर्थता में समस्त रागों की व्यर्थता को देखने में समर्थ हो जाता है। जो एक सुख के गिरने में समस्त सुखों के गिरने को देख पाता है। जिसके लिए कोई भी फ्रस्ट्रेशन, कोई भी विषाद अल्टिमेट, आत्यंतिक हो जाता है। जो मन के इस राज को पकड़ लेता है जल्दी ही कि यह धोखा है। क्यों? क्योंकि कल मैंने जिसे सुख कहा था, वह आज दुख हो गया। आज जिसे सुख कह रहा हूं, वह कल दुख हो जाएगा। कल जिसे सुख कहूंगा, वह परसों दुख हो जाएगा। जो इस सत्य को पहचानने में समर्थ हो जाता है, जो इतना इंटेंस देखने में समर्थ है, जो इतना गहरा देख पाता है जीवन में…।

अब दुबारा जब मन कोई राग का विषय बनाए, तो मन से पूछना कि तेरा अतीत अनुभव क्या है! और मन से पूछना कि फिर तू एक नया उपद्रव निर्मित कर रहा है!

एक मनोवैज्ञानिक के पास एक व्यक्ति गया था। ऐसे ही एक मित्र, यहां मैं आया, उस पहले दिन ही मुझसे मिलने आ गए। उस मनोवैज्ञानिक के पास जो व्यक्ति गया था, उसने कहा कि मेरी पहली पत्नी मर गई। मनोवैज्ञानिक भलीभांति जानता था कि पहली पत्नी और उसके बीच क्या घटा था। लेकिन पति भूल चुका था मरते ही। तो मैं दूसरा विवाह कर लूं या न कर लूं?

उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, क्या तेरे मन में दूसरे विवाह का खयाल आता है? उसने कहा, आता है। आप इससे क्या नतीजा लेते हैं? उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, इससे मैं नतीजा लेता हूं, अनुभव के ऊपर आशा की विजय।

अनुभव के ऊपर आशा की विजय! एक पत्नी की कलह और उपद्रव और संघर्ष और दुख और पीड़ा से बाहर नहीं हुआ है कि वह नई पत्नी की तलाश में चित्त निकल गया। लेकिन मन कहता है कि इस स्त्री के साथ सुख नहीं बन सका, तो जरूरी तो नहीं है कि किसी स्त्री के साथ न बन सके। पृथ्वी पर बहुत स्त्रियां हैं। कोई दूसरी स्त्री सुख दे पाएगी; कोई दूसरा पुरुष सुख दे पाएगा। कोई दूसरी कार, कोई दूसरा बंगला, कोई दूसरा पद, कोई दूसरा गांव, कोई कहीं और जगह सुख होगा। यहां नहीं, कोई बात नहीं। यद्यपि इस जगह आने के पहले भी यही सोचा था। और जिस गांव में आप जाने की सोच रहे हैं, उस गांव के लोग भी यही सोच रहे हैं कि कहीं चले जाएं, तो उन्हें सुख मिल जाए!

सुना है मैंने कि एक दिन सुबह-सुबह एक आदमी भागा हुआ पागलखाने पहुंचा। जोर से दरवाजा खटखटाया। पागलखाने के प्रधान ने दरवाजा खोला। उस आदमी ने पूछा कि मैं यह पूछने आया हूं कि आपके पागलखाने से कोई निकलकर तो नहीं भाग गया? नहीं; कोई निकलकर भागा नहीं। आपको इसका शक क्यों पैदा हुआ? उसने कहा, और कोई कारण नहीं है। मेरी पत्नी को कोई लेकर भाग गया है! तो मैं अपने होश में नहीं मान सकता कि जिसमें थोड़ी भी बुद्धि होगी, वह मेरी पत्नी को लेकर भाग जाएगा! तो मैंने सोचा, पागलखाने में जाकर देख लूं कि कोई निकल तो नहीं गया।

पर उस प्रधान ने कहा कि माफ कर मेरे भाई। तेरी पत्नी के साथ मैंने तुझे कई बार रास्ते पर घूमते देखा है। मेरा तक मन बहुत बार हुआ कि तेरी पत्नी को लेकर भाग जाऊं। वह देखने में बहुत सुंदर है। उस आदमी ने कहा, उसी देखने की सुंदरता के पीछे तो मैं फंसा। फिर पीछे नरक ही निकला है!

जीवन के जो चेहरे हमें दिखाई पड़ते हैं, वे असलियत नहीं हैं। इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे, जब तुम्हें कोई चेहरा सुंदर दिखाई पड़े, तो आंख बंद करके स्मरण करना, ध्यान करना, चमड़ी के नीचे क्या है? मांस। मांस के नीचे क्या है? हड्डियां। हड्डियों के नीचे क्या है? उस सब को तुम जरा गौर से देख लेना। एक्सरे मेडिटेशन, कहना चाहिए उसका नाम। बुद्ध ने ऐसा नाम नहीं दिया। मैं कहता हूं, एक्सरे मेडिटेशन! एक्सरे कर लेना, जब मन में कोई चमड़ी बहुत प्रीतिकर लगे, तो दूर भीतर तक। तो भीतर जो दिखाई पड़ेगा, वह बहुत घबड़ाने वाला है।

मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। वहां गोली चली। चार लोगों को गोली लग गई, तो उनका पोस्टमार्टम होता था। मेरे एक मित्र, जो चमड़ी के बड़े प्रेमी हैं…।

अधिक लोग होते हैं। उपनिषद कहते हैं इस तरह के लोगों को चमार–चमड़ी के प्रेमियों को। चमड़े के जूते बनाने वाले को नहीं; जरूरी नहीं कि वह चमार हो। लेकिन चमड़ी के प्रेमी को!

तो एक चमड़ी के प्रेमी मेरे मित्र थे। मुझे मौका मिला, मैंने उनसे कहा कि चलो, डाक्टर परिचित है, मैं तुम्हें पोस्टमार्टम दिखा दूं। उन्होंने कहा, उससे क्या होगा? मैंने कहा, थोड़ा देखो भी, आदमी के भीतर क्या है, उसे थोड़ा देखो।

पोस्टमार्टम के गृह में भीतर प्रवेश किए, तो भयंकर बदबू थी, क्योंकि लाशें तीन दिन से रुकी थीं। वे नाक पर रूमाल रखने लगे। मैंने कहा, मत घबड़ाओ। जिन चमड़ियों को तुम प्रेम करते हो, उनकी यही गति है। थोड़ा और भीतर चलो। उन्होंने कहा, बहुत उबकाई आती है। वॉमिट न हो जाए! मैंने कहा, हो जाए तो कुछ हर्जा नहीं है। और भीतर आओ।

जब हम गए, तो डाक्टर ने एक आदमी, जिसके पेट में गोली लगी थी, उसके पूरे पेट को फाड़ा हुआ था। तो सारी मल की ग्रंथियां ऊपर फूटकर फैल गई थीं। वे मेरे मित्र भागने लगे। मैं उन्हें पकड़ रहा हूं, खींच रहा हूं; वे भागते हैं! कहते हैं, मुझे मत दिखाओ! उन्होंने आंखें बंद कर लीं। मैंने कहा, आंखें खोलो। ठीक से देख लो। उन्होंने कहा, मुझे मत दिखाओ, नहीं तो मेरी जिंदगी खराब हो जाएगी! तुम्हारी जिंदगी क्यों खराब हो जाएगी? उन्होंने कहा, फिर मैं किसी शरीर को प्रेम न कर पाऊंगा। जब भी शरीर को देखूंगा, तो यह सब दिखाई पड़ेगा।

बुद्ध कहते थे, जब शरीर आकर्षक मालूम पड़े, तो थोड़ा भीतर गौर करना कि है क्या वहां? तो शायद शरीर का जो राग है, वह टूट जाए और वैराग्य उत्पन्न हो।

बुद्ध को वैराग्य उत्पन्न होने की जो बड़ी कीमती घटना है, वह मैं आपसे कहूं।

बुद्ध के पिता ने बुद्ध के महल में उस राज्य की सब सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर दी थीं। रात देर तक गीत चलता, गान चलता, मदिरा बहती, संगीत होता और बुद्ध को सुलाकर ही वे सुंदरियां नाचते-नाचते सो जातीं। एक रात बुद्ध की नींद चार बजे टूट गई। एर्नाल्ड ने अपने लाइट आफ एशिया में बड़ा प्रीतिकर, पूरा वर्णन किया है।

चार बजे नींद खुल गई। पूरे चांद की रात थी। कमरे में चांद की किरणें भरी थीं। जिन स्त्रियों को बुद्ध प्रेम करते थे, जो उनके आस-पास नाचती थीं और स्वर्ग का दृश्य बना देती थीं, उनमें से कोई अर्धनग्न पड़ी थी; किसी का वस्त्र उलट गया था; किसी के मुंह से घुर्राटे की आवाज आ रही थी; किसी की नाक बह रही थी; किसी की आंख से आंसू टपक रहे थे; किसी की आंख पर कीचड़ इकट्ठा हो गया था।

बुद्ध एक-एक चेहरे के पास गए और वही रात बुद्ध के लिए घर से भागने की रात हो गई। क्योंकि इन चेहरों को उन्होंने देखा था; ऐसा नहीं देखा था। लेकिन ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। जिन चेहरों को देखा था, वे मेकअप से तैयार किए गए चेहरे थे, तैयार चेहरे थे। ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। यह शरीर की असलियत है।

लेकिन जैसी शरीर की असलियत है, वैसे ही सभी सुखों की असलियत है। और एक-एक सुख को जो एक्सरे मेडिटेशन करे, एक-एक सुख पर एक्सरे की किरणें लगा दे, ध्यान की, और एक-एक सुख को गौर से देखे, तो आखिर में पाएगा कि हाथ में सिवाय दुख के कुछ बच नहीं रहता। और जब आपको एक सुख की व्यर्थता में समस्त सुखों की व्यर्थता दिखाई पड़ जाए, और जब एक सुख के डिसइलूजनमेंट में आपके लिए समस्त सुखों की कामना क्षीण हो जाए, तो आपकी जो स्थिति बनती है, उसका नाम वैराग्य है।

वैराग्य का अर्थ है, अब मुझे कुछ भी आकर्षित नहीं करता। वैराग्य का अर्थ है, अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए मैं कल जीना चाहूं। वैराग्य का अर्थ है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए मैं कल जीना चाहूं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पाए बिना मेरा जीवन व्यर्थ है।

वैराग्य का अर्थ है, वस्तुओं के लिए नहीं, पर के लिए नहीं, दूसरे के लिए नहीं, अब मेरा आकर्षण अगर है, तो स्वयं के लिए है। अब मैं उसे जान लेना चाहता हूं, जो सुख पाना चाहता है। क्योंकि जिन-जिन से सुख पाना चाहा, उनसे तो दुख ही मिला। अब एक दिशा और बाकी रह गई कि मैं उसको ही खोज लूं, जो सुख पाना चाहता है। पता नहीं, वहां शायद सुख मिल जाए। मैंने बहुत खोजा, कहीं नहीं मिला; अब मैं उसे खोज लूं, जो खोजता था। उसे और पहचान लूं, उसे और देख लूं।

वैराग्य का अर्थ है, विषय से मुक्ति और स्वयं की तरफ यात्रा।

चित्त दो यात्राएं कर सकता है। या तो आपसे पदार्थ की तरफ, और या फिर पदार्थ से आपकी तरफ। आपसे पदार्थ की तरफ जाती हुई जो चित्त की धारा है, उसका नाम राग है। पदार्थ से आपकी तरफ लौटती हुई जो चेतना है, उसका नाम वैराग्य है।

कभी आपने ऐसा अनुभव किया, जब पदार्थ से आपकी चेतना आपकी तरफ लौटती हो? सबको छोटा-छोटा अनुभव आता है वैराग्य का। लेकिन थिर नहीं हो पाता। थिर इसलिए नहीं हो पाता कि वैराग्य का हम कोई अभ्यास नहीं करते हैं। राग का तो अभ्यास करते हैं। वैराग्य का क्षण भी आता है, तो चूंकि अभ्यास नहीं होता, इसलिए खो जाता है।

करीब-करीब ऐसे जैसे आपने कबूतर पालने वाले लोगों को देखा होगा, अपने घर पर एक छतरी लगाकर रखते हैं। कबूतर आता है, तो छतरी पर बैठ पाता है। हमारे ऊपर भी वैराग्य का कबूतर कई बार आता है, लेकिन कोई छतरी नहीं होती, जिस पर बैठ पाए। फिर उड़ जाता है। अभ्यास, छतरी का बनाना है कि जब वैराग्य का कबूतर आए, जब वैराग्य का पक्षी आए अपनी तरफ उड़कर, तो हमारे पास उसके बैठने की, बिठाने की, निवास की जगह हो।

अभ्यास वैराग्य को थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो सबके भीतर पैदा होता है, अभ्यास थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो सबके ऊपर आता है, अभ्यास उसे रोक लेने का उपाय है, उसे प्राणों में आत्मसात कर लेने का उपाय है।

अभी हमारी जैसी स्थिति है, वह ऐसी है कि राग का तो हम अभ्यास करते हैं। राग का हम अभ्यास करते है। हर राग व्यर्थ होता है, लेकिन अभ्यास जारी रहता है। और वैराग्य कभी-कभी आता है राग की असफलता में से, लेकिन उसका कोई अभ्यास न होने से वह कहीं भी ठहर नहीं पाता; हमारे ऊपर रुक नहीं पाता; वह बह जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, वैराग्य और अभ्यास।

अभ्यास क्या है? वैराग्य तो इस प्रतीति का नाम है कि इस जगत में बाहर कोई भी सुख संभव नहीं है। सुख असंभावना है। दूसरे से किसी तरह की शांति संभव नहीं है। दूसरे से सब अपेक्षाएं व्यर्थ हैं। इस प्रतीति को उपलब्ध हो जाना वैराग्य है।

लेकिन इस प्रतीति को हम सब उपलब्ध होते हैं, मैं आपसे कह रहा हूं। इससे आपको थोड़ी हैरानी होती होगी। हम सभी वैराग्य को उपलब्ध होते हैं रोज।

कामवासना मन को पकड़ती है। लेकिन आपने देखा है कि कामवासना के बाद आदमी क्या करता है? सिर्फ करवट लेकर निढाल पड़ जाता है। वैराग्य पकड़ता है।

हर कामवासना के बाद एक विषाद मन को पकड़ लेता है, एक फ्रस्ट्रेशन। फिर वही! कुछ भी नहीं, फिर वही। कुछ भी नहीं, फिर वही। और चित्त ग्लानि अनुभव करता है। चित्त को लगता है, यह मैं क्या कर रहा हूं! लेकिन तब आप चुपचाप करवट लेकर सो जाते हैं। चौबीस घंटे में फिर राग पैदा हो जाता है।

वैराग्य को स्थिर करने का आपने कोई उपाय नहीं किया। जब कामवासना व्यर्थ होती है, तब आपने उठकर ध्यान किया कुछ? तब आपने उठकर कोई अभ्यास किया कि यह वैराग्य का क्षण गहरा हो जाए! नहीं; तब आप चुपचाप सो गए।

लेकिन कामवासना के लिए आप बहुत अभ्यास करते हैं। राह चलते अभ्यास चलता है। फिल्म देखते अभ्यास चलता है। रेडियो सुनते अभ्यास चलता है। किताब पढ़ते अभ्यास चलता है। मित्रों से बात करते अभ्यास चलता है। मजाक करते अभ्यास चलता है। अगर कोई आदमी ठीक से जांच करे अपने चौबीस घंटे की, तो चौबीस घंटे में कितने समय वह कामवासना का अभ्यास कर रहा है, देखकर दंग हो जाएगा। अगर मजाक भी करता है किसी से, तो भीतर कामवासना का कोई रूप छिपा रहता है।

दुनिया की सब मजाकें सेक्सुअल हैं, निन्यानबे परसेंट। निन्यानबे प्रतिशत मजाक सेक्स से संबंधित हैं, कामवासना से संबंधित हैं। हंसता है, घूरकर देखता है, रास्ते पर चलता है; चलने का ढंग, कपड़े पहनने का ढंग, उठने का ढंग, बोलने का ढंग, अगर थोड़ा गौर करेंगे तो कामवासना से संबंधित पाएंगे।

कभी आपने खयाल किया, अगर एक कमरे में दस पुरुष बैठकर बात कर रहे हों और एक स्त्री आ जाए, तो उनके बोलने की सबकी टोन फौरन बदल जाती है; वही नहीं रह जाती। बड़े मृदुभाषी, मधुर, शिष्ट, सज्जन हो जाते हैं! क्या हो गया? क्या, हो क्या गया एक स्त्री के प्रवेश से? उनको भी खयाल नहीं आएगा कि यह अभ्यास चल रहा है। यह अभ्यास है, बहुत अनकांशस हो गया, अचेतन हो गया। इतना कर डाला है कि अब हमें पता ही नहीं चलता।

इसकी हालत करीब-करीब ऐसी हो गई है, जैसे साइकिल पर आदमी चलता है, तो उसको घर की तरफ मोड़ना नहीं पड़ता हैंडिल, मुड़ जाता है। चलता रहता है, साइकिल चलती रहती है, जहां-जहां से मुड़ना है, हैंडिल मुड़ता रहता है। अपने घर के सामने आकर गाड़ी खड़ी हो जाती है। उसे सोचना नहीं पड़ता कि अब बाएं मुड़ें कि अब दाएं। अभ्यास इतना गहरा है कि अचेतन हो गया है। साइकिल होश से नहीं चलानी पड़ती। बिलकुल मजे से वह गाना गाते, पच्चीस बातें सोचते, दफ्तर का हिसाब लगाते…चलता रहता है। पैर पैडिल मारते रहते हैं, हाथ साइकिल मोड़ता रहता है। यह बिलकुल अचेतन हो गया है। इतना अभ्यास हो गया कि अचेतन हो गया।

कामवासना का अभ्यास इतना अचेतन है कि हमें पता ही नहीं होता कि जब हम कपड़ा पहनते हैं, तब भी कामवासना का अभ्यास चल रहा है। जब आप आईने के सामने खड़े होकर कपड़े पहनकर देखते हैं, तो सच में आप यह देखते हैं कि आपको आप कैसे लग रहे हैं? या आप यह देखते हैं कि दूसरों को आप कैसे लगेंगे? और अगर दूसरों का थोड़ा खयाल करेंगे, तो अगर पुरुष देख रहा है आईने में, तो दूसरे हमेशा स्त्रियां होंगी। अगर स्त्रियां देख रही हैं, तो दोनों हो सकते हैं, पुरुष और स्त्रियां भी। क्योंकि स्त्रियों की कामवासनार् ईष्या से इतनी संयुक्त हो गई है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। पुरुष होंगे कि कोई देखकर प्रसन्न हो जाए, इसलिए; और स्त्रियों की याद आएगी कि कोई स्त्री जल जाए, राख हो जाए, इसलिए। मगर दोनों कामवासना के ही रूप हैं। दोनों के भीतर गहरे में तो वासना ही चल रही है।

यह अभ्यास चौबीस घंटे चल रहा है। तो फिर वैराग्य का जो पक्षी आता है आपके पास, कोई जगह नहीं पाता जहां बैठ सके; व्यर्थ हो जाता है। आपने जो मकान बनाया है, वह वासना के पक्षी के लिए बनाया है। इसलिए सब तरफ से उसको निमंत्रण है, निवास के लिए मौका है।

जीवन दोनों देता है आपको, वैराग्य भी और राग भी। लेकिन राग का अभ्यास है, इसलिए राग टिक जाता है। वैराग्य का अभ्यास नहीं है, इसलिए वैराग्य नहीं टिकता है। जीवन में अंधेरा भी है, उजेला भी। राग भी, विराग भी। यहां क्रोध भी आता है, पश्चात्ताप भी। लेकिन क्रोध के लिए पूरा इंतजाम है, पूरी मशीनरी है आपके पास। पश्चात्ताप की कोई मशीनरी नहीं है। आ जाता है, चला जाता है। उसकी कोई गहरी आप पर पकड़ नहीं छूट जाती।

जीवन आपको पूरे अवसर देता है। लेकिन जिस चीज का अभ्यास है, आप उसी का उपयोग कर सकते हैं। करीब-करीब ऐसा समझिए कि आप पैदल चल रहे हैं और रास्ते में आपको पड़ी हुई कार मिल जाए, बिलकुल ठीक। जरा स्विच आन करना है कि कार चल पड़े। लेकिन अगर आपका कोई अभ्यास नहीं है, तो आप पैदल ही चलते रहेंगे। और खतरा एक है कि कहीं कार का मोह पकड़ जाए, तो गले में रस्सी बांधकर, कार से बांधकर उसको खींचने की कोशिश करेंगे, उसमें और झंझट में पड़ेंगे। उससे तो पैदल ही तेजी से चल लेते।

अभ्यास जो है, वही आप कर पाएंगे। जिसका अभ्यास नहीं है, वह आप नहीं कर पाएंगे। इसलिए कृष्ण ने वैराग्य को नंबर दो पर कहा। मैंने जानकर नंबर एक पर वैराग्य आपको समझाया। कृष्ण के सूत्र में अभ्यास पहले और वैराग्य बाद में उन्होंने कहा है। उन्होंने कहा, जिसे अभ्यास और वैराग्य…।

वैराग्य को नंबर दो पर कृष्ण ने क्यों रखा? वैराग्य है तो प्रथम। क्योंकि वैराग्य न हो, तो अभ्यास नहीं हो सकता। लेकिन नंबर दो पर रखने का कारण है। और वह कारण यह है कि वैराग्य तो रोज आता है, लेकिन अभ्यास न हो तो टिक नहीं सकता। अभ्यास क्या हो वैराग्य का?

जैसे आपने कामवासना का अभ्यास किया है, वैसे ही वैराग्य का भी अभ्यास करना पड़े। जैसे आपने राग का अभ्यास किया है, वैसे ही वैराग्य का अभ्यास करना पड़े। जिस तरह आप काम का चिंतन करते हैं, उसी तरह निष्काम का चिंतन करना पड़े। ठीक वही करना पड़े, उलटे मार्ग पर। जैसे कि आप यहां तक आए अपने घर से, तो जिस रास्ते से आए हैं, उसी से वापस लौटिएगा न! और तो कोई उपाय नहीं है। मुझ तक जिस रास्ते से आप आए हैं, लौटते वक्त उसी रास्ते से वापस लौटिएगा। एक ही फर्क होगा, रास्ता वही होगा, आप वही होंगे, एक ही फर्क होगा कि आपका चेहरा उलटी तरफ होगा। और तो कोई फर्क होने वाला नहीं है।

राग का रास्ता वही है, जो वैराग्य का। सिर्फ आपका चेहरा उलटी तरफ होगा। जिन-जिन चीजों में आपने रस लिया था, उन-उन चीजों में विरस। जिन-जिन चीजों के लिए दीवाने हुए थे, उन-उन चीजों की व्यर्थता। जैसे-जैसे दौड़े थे, वैसे-वैसे विपरीत यात्रा।

किस-किस चीज में रस लिया है? किस-किस चीज में रस लिया है? उस-उस चीज के यथार्थ को देखना जरूरी है। क्योंकि यथार्थ उसके विरस को भी उत्पन्न कर देता है। किस चीज का आकर्षण है? किसी प्रियजन का हाथ बहुत प्रीतिकर लगता है, हाथ में लेने जैसा लगता है। तो लेकर बैठ जाएं, लेकिन लेकर भूलें न। हाथ हाथ में ले लें और अब थोड़ा ध्यान करें कि क्या रस मिल रहा है? सिवाय पसीने के कुछ भी मिलता नहीं है। थोड़ी ही देर में मन होगा कि अब यह हाथ छोड़ना चाहिए। वैराग्य अपने आप ही आता है!

लेकिन खुद के ही राग में किए गए वायदे दिक्कत देते हैं। राग में हम कहते हैं कि तेरा हाथ हाथ में आ जाए, तो दुनिया की कोई ताकत छुड़ा नहीं सकती। दुनिया की ताकत की बात दूर है, पांच-सात मिनट के बाद दुनिया की कोई ताकत दोनों के हाथ साथ नहीं रख सकती, इकट्ठा नहीं रख सकती। पांच-सात मिनट के बाद पसीना-पसीना ही रह जाता है! बदबू-बदबू ही छूट जाती है। पांच-सात मिनट के बाद कोई बहाना खोजकर हाथ अलग करना पड़ता है।

जरा गौर से देखना कि जब हाथ अलग करते हैं, तब मन में वैराग्य का एक क्षण है। उस क्षण को थोड़ा गहरा करने की जरूरत है, पहचानने की जरूरत है। क्योंकि नहीं तो कल फिर हाथ हाथ में लेने की आकांक्षा पैदा होगी। अभी वैराग्य का क्षण है, अभ्यास कर लें। थोड़ा गौर से देखें। और दो मिनट ज्यादा लिए रहें हाथ को, और थोड़ा गौर से सोचें कि क्या दुबारा फिर हाथ को हाथ में लेने की आकांक्षा पैदा करेगा मन? अगर करता हो, तो अब इस हाथ को जिंदगीभर हाथ में ही लिए रहें! अब जल्दी क्या है? हाथ हाथ में है, हम रुक जाएं। मन को थोड़ा मौका दें कि वह वैराग्य को भी पहचाने। जल्दी न करें। क्योंकि जल्दी खतरनाक है। जल्दी के बाद वैराग्य थिर न हो पाएगा।

भोजन बहुत अच्छा लग रहा है, तो खा लें जरा; खाते चले जाएं। फिर रुकें मत, जब तक कि प्राण संकट में न पड़ जाएं। रुकें मत। और जरा देख लें कि इस सब स्वाद का क्या फल हो सकता है! और जब स्वाद पूरा ले चुकें, तो जब मुंह में किसी चीज को, जिसकी लोग कल्पना करते हैं…। खाने वाले प्रेमी हैं…।

टाइप हैं लोगों के अलग-अलग। कुछ हैं, जिनको सब चीज छूट जाए, लेकिन भोजन का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें सब छूट जाए, लेकिन काम का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें काम, भोजन किसी चीज की चिंता नहीं। सिर्फ अहंकार का रस है, यश का। वे भूखे रह सकते हैं, जेल जा सकते हैं, लेकिन कोई पद पर बिठा दो! तो वे सब कर सकते हैं। पत्नी छोड़ सकते हैं, बच्चे छोड़ सकते हैं। सब जीवन भारी तपश्चर्या में गुजार सकते हैं। बस इतना ही पक्का कर दो कि कोई कुर्सी पर…। और ऐसा भी जरूरी नहीं है कि वे पहले ही से कहें, कुर्सी पर बिठा दो। हो सकता है, उनको भी पक्का पता न हो कि कुर्सी पर बैठने के लिए जेल जा रहे हैं। चित्त बड़ा अचेतन काम करता है। लेकिन जब जेल से छूटेंगे, तब सबको पता चल जाएगा कि वे जेल किसलिए गए थे।

जो त्यागी दिखाई पड़ते हैं, उनमें भी सौ में से मुश्किल से एकाध आदमी होता है, जो वैराग्य को उपलब्ध होता है। त्याग भी इनवेस्टमेंट की तरह काम करता है। इधर त्याग करते हैं, उधर कुछ उनकी भोग की इच्छा है। लेकिन हम पहचान नहीं पाते। यह हो सकता है कि मैं गोली खाने को राजी हो जाऊं, अगर फूलमाला मेरे ऊपर पड़ने को हो। यह हमें दिखाई नहीं पड़ेगा, कि कौन फूलमाला पड़ने के लिए गोली अपने ऊपर डलवाएगा! यह वह आदमी कह रहा है, जिसको यश की आकांक्षा और पकड़ नहीं है। जिसको है, वह पूरा जीवन इस पर दांव पर लगा सकता है।

लेकिन यह जो चित्त की व्यवस्था है, इसमें जब वैराग्य का क्षण आता है, उस वक्त ठहरने की जरूरत है। उस अंतराल में रुकने की जरूरत है। तो अभ्यास की शुरुआत हो जाएगी। जैसे समुद्र में पानी बढ़ता है, फिर गिरता है, ठीक वैसे ही चित्त में राग आता है, फिर गिरता है। जब राग आता है, तब आप बड़ा इंतजाम करते हैं। और जब वैराग्य आता है, जब गिरता है राग, तब आप कुछ नहीं करते। तब आप कोई व्यवस्था नहीं करते कि वह विराग थिर हो जाए। उस विराग को थिर करने के लिए वैराग्य के क्षणों का उपयोग करिए।

और जिंदगी में जितने क्षण राग के हैं, उतने ही विराग के हैं। जितने दिन हैं, उतनी ही रातें हैं। उसमें कोई अंतर नहीं है। वह अनुपात बराबर है। हर राग के साथ विराग आएगा ही, इसलिए अनुपात बराबर है। पर उस उतरते हुए क्षण का आप उपयोग नहीं करते हैं। उसका कैसे उपयोग करें? जैसा आपने चढ़ते हुए क्षण का उपयोग किया था। कितना रस लिया था!

अगर कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहा है, या कोई धनी कोई सौदा करने जा रहा है जिसमें लाभ होने वाला है, या कोई नेता वोटर से वोट मांगने जा रहा है, तब उनकी टपकती हुई लार देखें! तब उनके चेहरे से जो झलक रहा है, वह देखें! वह हम सबके ऊपर उतरता है वैसा ही। लेकिन जब विरक्ति का क्षण पीछे आता है, तब? तब हम विरक्ति के क्षण को जल्दी से गुजारने की कोशिश करते हैं।

अभी एक महिला मुझे मिलने आईं; उनके पति चल बसे। तो मुझसे वे कहने लगीं, हमने बहुत सुख पाया। साथ रहे। बहुत सुख पाया। अब मुझे बहुत पीड़ा है, बहुत दुख है। मुझे कुछ सांत्वना चाहिए। मैंने कहा, तुम गलत जगह आ गई हो। मैं सांत्वना नहीं दूंगा। सुख तुमने पाया, सांत्वना मैं दूं? मेरा क्या कसूर है? मेरा इसमें कोई हाथ ही नहीं है। उसने कहा, नहीं-नहीं; आपका तो कोई हाथ नहीं है। लेकिन कई संतों-महात्माओं के पास इसीलिए जा रही हूं कि सांत्वना मिल जाए। मैंने कहा, किन्हीं ने दी? उन्होंने कहा, बहुतों ने दी। तो मैंने कहा, फिर मेरे पास किसलिए आईं? अगर मिल गई, तो खतम करो अब यह बात! उसने कहा, नहीं, मिलती नहीं। मैंने कहा, मिलेगी भी नहीं। सुख तुम पाओगी, तो जब दुख का क्षण आएगा, उसे कौन पाएगा? राग तुम भोगोगी, जब विराग का क्षण आएगा, उसे कौन भोगेगा? अब तुम इस तरकीब में लगी हो कि तुमने राग तो भोग लिया, अब यह जो विराग की उतरती धारा है, इसको कोई भुलाने की तरकीब दे दे। यह नहीं होगा।

मैंने कहा, मैं तो तुमसे प्रार्थना करूंगा कि तुम एक काम करो; यह कीमती होगा। जितना पति का साथ रहना कीमती नहीं हुआ, उससे ज्यादा पति की मृत्यु कीमती हो सकती है। क्योंकि पति के साथ से कुछ मिल गया हो, ऐसा मैं नहीं मानता। तुम फिर ईमानदारी से मुझसे कहो कि सच में सुख था?

वह महिला थोड़ी बेचैन हुई। उसने कहा कि नहीं; कहने को कहते हैं। सुख तो क्या था; ठीक था, सो-सो; ऐसा ही ऐसा था! मैंने कहा, और थोड़ा गौर से सोचो। क्योंकि पहले तो तुम बिलकुल आश्वस्त थीं कि बहुत सुख पाया। अब तुम कहती हो, सो-सो, ऐसा-ऐसा। थोड़ा और जरा भीतर जाओ। उसने कहा, लेकिन आप क्यों दबे हुए घाव उघाड़ना चाहते हैं? मैं नहीं उघाड़ना चाहता। मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं कि स्थिति सच में क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब तुम कल्पना कर रही हो कि तुमने सुख भोगा। यह कल्पना, अतीत में सुख भोगने की, वैराग्य के क्षण को गंवा दोगी। ठीक से देखो कि तुमने सुख भोगा?

वह स्त्री थोड़ी डर गई। उसने आंख बंद कर ली। फिर उसने कहा कि नहीं, सुख तो नहीं भोगा। मैंने कहा, कभी तुम्हारे मन में ऐसा खयाल आया था कि इस पति के साथ विवाह न होता, तो अच्छा था? क्योंकि ऐसी पत्नी जरा खोजना मुश्किल है। उसने कहा, आप भी कैसी बात करते हैं! मैंने कहा, मैं तुम्हें एक कहानी कहता हूं।

एक चर्च में एक पादरी ने एक सांझ कहा कि जिन दंपतियों में कभी झगड़ा न हुआ हो, वे आगे आ जाएं। कोई पांच सौ लोग थे। पांच-सात जोड़े आगे आए। उस पादरी ने भगवान से कहा, हे परमात्मा, इन पक्के झूठों को आशीर्वाद दे, ब्लेस दीज डैम लायर्स! उन्होंने कहा, आप हमें झूठा कह रहे हैं?

कहने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यही जानने के लिए तुम्हें बाहर बुलाया था कि कितने झूठे आज यहां इकट्ठे हैं। उनमें से एक ने पूछा, लेकिन आपको पता कैसे चला? उसने कहा कि मैं भी दंपति हूं। मुझे भी बहुत कुछ पता है। और तुम सब अलग-अलग आकर मुझसे चर्चा कर गए हो। तुम भूल गए हो।

वे पति भी आकर चर्चा कर चुके हैं। वे उसी के सुनने वाले हैं। और ईसाइयों में कन्फेशन होता है। पादरी के पास जाकर पति भी बता आता है, किस मुसीबत में गुजर रहा है; पत्नी भी बता आती है। तुम अलग-अलग सब बता गए हो मुझे। और अब तुम जोड़े की तरह खड़े हो कि हममें कोई कलह नहीं है!

मैंने उस महिला को कहा कि ठीक से देख ले। कहीं अब यह सुख का खयाल झूठा न हो।

हम भविष्य में भी झूठे सुख निर्मित करते हैं और अतीत में भी। हम अदभुत हैं। जो सुख हमने कभी नहीं पाए, हम सोचते हैं, हमने अतीत में पाए। यह तरकीब है मन की। क्योंकि अतीत में सुख निर्मित करें, तो ही भविष्य में आशा करना आसान है। अन्यथा भविष्य में आशा करना दुरूह हो जाएगा। यह अभ्यास है काम का।

वैराग्य का अभ्यास करना है, तो अतीत के सुखों को ठीक से देखना, ताकि साफ हो जाए कि वे दुख थे। अगर पूरा अतीत दुख सिद्ध हो जाए, तो भविष्य में सुख की आशा क्षीण हो जाएगी, गिर जाएगी; क्योंकि भविष्य अतीत के प्रोजेक्शन, अतीत के फैलाव के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कल्पनाएं हमारी स्मृतियों के ही नए रूप हैं। भविष्य की योजनाएं, हमारे अतीत की ही विफल योजनाओं को फिर से सम्हालना है।

काम का अभ्यास चलता है। तो अतीत में हम सोचते हैं, कैसा सुख मिला! उस दिन भोजन किया था उस होटल में, कैसा सुख पाया था! हालांकि उस दिन बिलकुल नहीं पाया था; लेकिन आज सोच रहे हैं। आज सोच रहे हैं, ताकि कल फिर उस होटल की तरफ पैर जा सकें।

तो मैं आपसे कहूंगा कि अतीत का भी सत्य साफ है। उस महिला को मैंने कहा, ठीक से देखो। उसने हिम्मत जुटाकर कहा कि नहीं, कोई सुख तो नहीं पाया। मैंने कहा, जिसके जीवन से तुमने सुख नहीं पाया, और जिसको तुम कहती हो खुद कि मैंने कई बार सोचा कि इस आदमी से मिलना न होता, तो अच्छा; विवाह न किया होता, तो अच्छा…। क्या कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल आया था कि यह आदमी मर जाए या मैं मर जाऊं?

उस स्त्री ने कहा, अब आप जरा ज्यादा बात कर रहे हैं! मैं धीरे-धीरे आपसे कुछ बातों पर राजी होती जाती हूं, तो आप ज्यादा बात कर रहे हैं! मैंने कहा कि मैं कुछ ज्यादा नहीं कर रहा। ऐसा मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बहुत मुश्किल है कि जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनकी हत्या का या उनके मर जाने का खयाल हमें न आता हो। स्वीकार करना कठिन पड़ता है। खुद भी स्वीकार करना कठिन पड़ता है कि ऐसा कैसे! कई दफे जब मन में आता है, तो हम कहते हैं, नहीं-नहीं, यह ठीक नहीं है। इस तरह की बात बड़ी गलत है। यह मन बड़ा खराब है। जैसे कि मन दोषी है और हम निर्दोष, अलग खड़े हैं!

वह महिला ईमानदार थी और उसने कहा कि ऐसा खयाल आया। लेकिन जैसे ही उसने कहा कि ऐसा खयाल आया, जैसे उसके ऊपर से एक भार उतर गया। और उसने कहा, सच में ही मैं हैरान हूं। जिस व्यक्ति के साथ रहकर मैं सुख न पा सकी, जिस व्यक्ति के साथ रहकर मैंने कई बार सोचा कि दो में से एक समाप्त ही हो जाए तो अच्छा, आज उसकी मृत्यु पर मैं दुख क्यों पा रही हूं?

और मैंने कहा कि जो दुख पा रही हो, उससे बचने की भी कोशिश चल रही है। इस दुख को पूरा पाओ। छाती पीटो, रोओ, चिल्लाओ। जिस तरह नाची थीं शादी के वक्त, उसी तरह अब मृत्यु के वक्त छाती पीटो, तड़पो, जमीन पर लोटो। दुख भोगो। और देखो इस दुख को गौर से, ताकि यह वैराग्य का क्षण ठहर जाए, और कल फिर पुरानी आशाएं और फिर पुराने जाल फिर खड़े न हों।

लाओत्से ने लिखा है कि एक आदमी मरने के करीब था। लाओत्से गांव का बूढ़ा आदमी था, फकीर था। तो उसकी पत्नी उसे कई बार कहने आई कि मेरे पति को बचा लो। उसके बिना मैं बिलकुल न रह सकूंगी। लाओत्से ने कहा, बचाना तो मेरे हाथ में नहीं है। लेकिन तुम बिलकुल बिना उसके न रह सकोगी, इस पर भरोसा मत करना। क्योंकि मैंने कई लोगों को–मैं बूढ़ा आदमी हूं–मैंने कई लोगों को मरते और कई लोगों को यही बात करते सुना। और सब बिना उसके रह लेते हैं।

नहीं; वह नहीं मानी। उसने कहा, वे और और होंगे; मैं और हूं। हर आदमी को यही खयाल है कि मैं एक्सेप्शन हूं। वे और और होंगे, मैं और हूं। मैं मर जाऊंगी, एक क्षण न जी सकूंगी। लाओत्से ने कहा, अब तक किसी को मरते नहीं देखा। इस गांव में मैं बहुत दिन से हूं। हालांकि यही बात बहुतों को कहते सुना। और जितने जोर से तुम कहती हो, इतने ही जोर से कहते सुना। लेकिन उस स्त्री ने कहा, आप औरों की बात कर रहे हैं। मेरी बात करिए। लाओत्से ने कहा, वक्त आएगा; तो तुझसे मुलाकात करूंगा।

पति मर गया। तो उन दिनों चीन में एक प्रथा थी कि पति की कब्र पर गीली मिट्टी लगाते थे और उस पर थोड़ी दूब उगाते थे। और रिवाज यह था कि जब तक पति की कब्र की गीली मिट्टी सूखकर कड़ी न हो जाए और उस पर दूब पूरी छा न जाए, तब तक उस स्त्री को दूसरा विवाह–कम से कम तब तक–नहीं करना चाहिए।

लाओत्से ने देखा कि वह मर गया आदमी। पांच-सात दिन के बाद वह कब्रिस्तान के पास से गुजरता था, तो देखा कि वह औरत कब्र पर पंखा कर रही है! उसने सोचा कि यह औरत ठीक ही कहती थी कि यह एक्सेप्शनल है, यह विशेष। हद! मरे हुए पति को हवा कर रही है! आश्चर्य! लाओत्से ने कहा, मुझसे गलती हो गई। निश्चित गलती हो गई। जिंदा आदमियों को पत्नियां हवा नहीं करतीं, मरे हुए आदमी को पत्नी हवा कर रही है! मुझसे गलती हो गई। यह औरत निश्चित ही विशेष है।

लाओत्से पास गया और कहा कि देवी, मैं प्रणाम करता हूं। मुझे भरोसा नहीं आया कि कोई मुर्दा पति को हवा करेगा।

उसने कहा कि भरोसे की जरूरत नहीं है। हवा पति को नहीं कर रही हूं, कब्र जल्दी सूख जाए! वह एक आदमी मेरे पीछे पड़ा है, उसके मैं प्रेम में पड़ गई हूं। और यह कब्र सूखने में देर ले रही है। आकाश में बादल घिरे हैं; कहीं बरसा न हो जाए!

ऐसा है आदमी का मन! मत सोचना किसी और का! अगर किसी और का सोचा, तो राग का अभ्यास होगा। अगर जाना कि मेरा भी, तो विराग का अभ्यास होगा। फिर से दोहरा दूं। अगर सोचा कि और का होगा ऐसा, तो राग का अभ्यास कर रहे हैं आप। अगर सोचा कि मेरा भी ऐसा ही है, तो वैराग्य का अभ्यास होता है।

अभ्यास के संबंध में कुछ दोत्तीन बातें और आपसे कहूं।

एक तो यह कि कुछ लोगों का खयाल है कि परमात्मा को पाने के लिए किसी अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं है। जैसा कि जापान में कुछ झेन फकीर कहते हैं कि परमात्मा को पाने के लिए कोई भी अभ्यास की जरूरत नहीं। यद्यपि वे ऐसा कहते ही हैं, अभ्यास पूरी तरह करते हैं। पर वे उसको नाम देते हैं, अभ्यासरहित अभ्यास, एफर्टलेस एफर्ट, प्रयत्नरहित प्रयत्न।

ठीक है। उनके कहने में कुछ अर्थ है। अगर गीता का यह वचन उन्हें बताया जाए, तो वे कहेंगे, अभ्यास से नहीं मिलेगा परमात्मा। क्योंकि स्वभाव अभ्यास से नहीं मिलता। अभ्यास से आदतें मिलती हैं।

इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। स्वभाव अभ्यास से नहीं मिलता; अभ्यास से आदतें मिलती हैं। स्वभाव तो मिला ही हुआ है। और परमात्मा को पाना कोई आदत नहीं है कि आप अभ्यास कर लें।

जैसे किसी को धनुर्विद्या सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि धनुर्विद्या एक आदत है, स्वभाव नहीं। अगर न सिखाया जाए, तो आदमी कभी भी धनुर्विद न हो सकेगा। जैसा मैंने सुबह कहा, किसी को भाषा सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि भाषा एक आदत है, एक हैबिट है, स्वभाव नहीं है। लेकिन श्वास तो चलेगी आदमी की बिना अभ्यास के, कि उसका भी अभ्यास करना पड़ेगा! खून तो बहेगा बिना अभ्यास के, कि उसका भी अभ्यास करना पड़ेगा! हड्डियां तो बड़ी होती रहेंगी बिना अभ्यास के, कि उनका भी अभ्यास करना पड़ेगा!

तो झेन फकीर कहते हैं, परमात्मा को पाना तो स्वभाव को पाना है, इसलिए अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं। तो हम कह सकते हैं, हम तो कोई अभ्यास कर ही नहीं रहे, तो फिर हमको परमात्मा क्यों नहीं मिलता? झेन फकीर कहेंगे, आप नहीं कर रहे, ऐसा मत कहिए। आप परमात्मा को खोने का अभ्यास कर रहे हैं। अभ्यास आप कर रहे हैं परमात्मा को खोने का। तो झेन फकीर कहते हैं, सिर्फ परमात्मा को खोने का अभ्यास मत करिए, और आप परमात्मा को पा लेंगे।

मगर परमात्मा को खोने का अभ्यास न करना, बहुत बड़ा अभ्यास है। उसमें सारा वैराग्य साधना पड़ेगा। और सारी विधियां साधनी पड़ेंगी।

लेकिन झेन फकीर संगत हैं। उनकी बात का अर्थ है। वे यह जोर देना चाहते हैं कि जब परमात्मा आपको मिल जाए, तो आप ऐसा मत समझना कि आपके अभ्यास से मिल गया। कोई नहीं समझता ऐसा। जब परमात्मा मिलता है, तो ऐसा ही पता चलता है कि वह तो मिला ही हुआ था। मेरे गलत अभ्यासों के कारण बाधा पड़ती थी। ऐसा समझ लें कि एक झरना है, उसके ऊपर एक पत्थर रखा है। पत्थर को हटा दें, तो झरना फूट पड़ता है। झरने को फूटने के लिए कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता। लेकिन पत्थर अगर अटा रहे ऊपर, तो बाधा बनी रहती है।

तो झेन फकीर कहते हैं, आदमी की आदतें बाधाओं का काम कर रही हैं, रुकावटों का।

ऐसा समझें कि आप मकान के भीतर बैठे हैं, दरवाजा बंद करके। अगर मैं आपसे कहूं कि अगर आपको सूरज चाहिए, तो सूरज को भीतर लाने का अभ्यास करना पड़ेगा! तो आप कहेंगे, यह कहीं हो सकता है? सूरज को हम भीतर लाने का अभ्यास कैसे करेंगे?

झेन फकीर कहते हैं, भीतर लाने का कोई अभ्यास नहीं करने की जरूरत है; सिर्फ दरवाजा बंद करने का जो अभ्यास किया हुआ है, उसको छोड़िए। दरवाजा खुला करिए, सूरज भीतर आ जाएगा। सूरज भीतर लाना नहीं पड़ेगा, सूरज आ जाएगा। आप सिर्फ दरवाजा बंद मत करिए।

इसका यह मतलब हुआ कि हम चाहें तो अभ्यास से परमात्मा से वंचित हो सकते हैं। और चाहें तो अनभ्यास से, नो एफर्ट से, अभ्यास छोड़ देकर परमात्मा को पा सकते हैं। लेकिन अभ्यास को छोड़ना अभ्यास करने से कम कठिन बात नहीं है। इसलिए झेन फकीर अभ्यास की विधियां उपयोग करते हैं।

लेकिन कृष्णमूर्ति ने एक कदम और हटकर बात कही है। वे कहते हैं, अभ्यास छोड़ने के भी अभ्यास की जरूरत नहीं है। अगर गीता के इस वक्तव्य के खिलाफ इस सदी में कोई वक्तव्य है, तो वह कृष्णमूर्ति का है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, इतने भी अभ्यास की जरूरत नहीं है–अभ्यास छोड़ने के लिए भी। कोई मेथड, किसी विधि की जरूरत नहीं है।

लेकिन जो कृष्णमूर्ति को थोड़ा भी समझेंगे, वे पाएंगे, वे जिंदगीभर से एक विधि की बात कर रहे हैं। उस विधि का नाम है, अवेयरनेस। उस विधि का नाम है, जागरूकता। वह मेथड है। सिर्फ इतना ही है कि वे उसको मेथड नहीं कहते हैं। कोई हर्जा नहीं, उसको नो-मेथड कहिए। कहिए कि यह अविधि है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर जागरूकता का अभ्यास करना ही पड़ेगा। जागना पड़ेगा ही। और अगर जागरूकता का कोई अभ्यास नहीं करना है, तो कहना ही फिजूल है किसी से कि जागो।

अगर मैं आपसे कहता हूं, जागो, तो इसका मतलब यह हुआ कि मैं आपसे कह रहा हूं कि कुछ करो। वह करना कितना ही सूक्ष्म हो, लेकिन करना ही पड़ेगा। अगर मैं यह भी कहता हूं, नींद तोड़ो, तो क्या फर्क पड़ता है। गीता कहती है, राग तोड़ो। कोई कहता है, नींद तोड़ो। कोई कहता है, मूर्च्छा तोड़ो। कोई कहता है, होश लाओ। कोई कहता है, जागो। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बात तय है कि कुछ करना पड़ेगा, समथिंग इज़ टु बी डन। या यह भी अगर हम कहना चाहें, तो हम कह सकते हैं, समथिंग इज़ टु बी अनडन। लेकिन वह भी एक काम है। अगर हम यह कहें कि कुछ करना ही पड़ेगा, या अगर हम यह कहें कि कुछ नहीं ही करना पड़ेगा, तो भी कुछ करने की जरूरत है। जैसे हम हैं, वैसे ही हम स्वीकृत नहीं हो सकते।

अभ्यास का इतना ही अर्थ है कि आदमी जैसा है, ठीक वैसा परमात्मा में प्रवेश नहीं कर सकता; उसे रूपांतरित होकर ही प्रवेश होना पड़ेगा। वह रूपांतरण कैसे करता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। हजार विधियां हो सकती हैं। हजार विधियां हो सकती हैं। हजार विधियां हैं।

जैसे पर्वत पर चढ़ने के लिए हजार मार्ग हो सकते हैं। और जरूरी नहीं कि आप बने-बनाए मार्ग से ही चढ़ें। आप चाहें, थोड़ी तकलीफ ज्यादा लेनी हो, तो बिना मार्ग के चढ़ें। जहां पगडंडी नहीं है, वहां से चढ़ें। पगडंडी बचाकर चढ़ें। आपकी मर्जी। लेकिन पगडंडी बचाकर भी आप जब चढ़ रहे हैं, तब फिर एक पगडंडी का ही उपयोग कर रहे हैं; सिर्फ आप पहले आदमी हैं उसका उपयोग करने वाले; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कहीं से भी चढ़ें, पहाड़ पर हजार तरफ से चढ़ा जा सकता है, लेकिन चढ़कर एक ही पर्वत पर पहुंच जाना हो जाता है।

हजार विधियां हैं, अनंत विधियां हैं। दुनिया के सब धर्मों ने अलग-अलग विधियों का उपयोग किया है। और इन विधियों के कारण बहुत वैमनस्य पैदा हुआ है–बहुत वैमनस्य पैदा हुआ है। क्योंकि प्रत्येक विधि की एक शर्त है; वह मैं आपसे कहूं, तो बहुत उपयोगी होगी।

प्रत्येक विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस विधि का उपयोग करना हो, उसे उस विधि को एब्सोल्यूट मानना चाहिए। प्रत्येक विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस विधि पर जाना हो, उसे इस भाव से जाना चाहिए कि यही विधि सत्य है।

क्यों? क्योंकि हम इतने कमजोर लोग हैं कि अगर हमें जरा भी पता चल जाए कि बगल का रास्ता भी जाता है, उससे बगल का भी रास्ता जाता है, तो बहुत संभावना यह है कि दो कदम हम इस रास्ते पर चलें, दो कदम बगल के रास्ते पर चलें, दो कदम तीसरे रास्ते पर चलें। और जिंदगीभर रास्ते बदलते रहें, और मंजिल पर कभी न पहुंचें!

इसलिए दुनिया के प्रत्येक धर्म को डाग्मेटिक असर्सन्स करने पड़े। कुरान को कहना पड़ा, यही सही है; और मोहम्मद के सिवाय उस परमात्मा का रसूल कोई और नहीं है। एक ही परमात्मा और एक ही उसका पैगंबर है। इसका कारण यह नहीं है कि मोहम्मद डाग्मेटिक हैं। इसका यह कारण नहीं है कि मोहम्मद पागल हैं और कहते हैं कि मेरा ही मत ठीक है।

लेकिन असलियत यह है कि यह मोहम्मद उन लोगों के लिए कहते हैं, जो सुन रहे हैं। क्योंकि उनको अगर यह कहा जाए, सब मत ठीक हैं, मुझसे विपरीत कहने वाले भी ठीक हैं, उलटा जाने वाले भी ठीक हैं; इस तरफ जाने वाले, उस तरफ जाने वाले भी ठीक हैं; तो वह जो कनफ्यूज्ड आदमी है, जो भ्रमित आदमी है, जो वैसे ही भ्रमित खड़ा है, वह कहेगा, जब सभी ठीक हैं, तो शक होता है कि कोई भी ठीक नहीं है। बहुत संभावना यह है कि जब हम कहें, सभी ठीक हैं, तो आदमी को शक हो।

महावीर के साथ ऐसा ही हुआ! इसलिए दुनिया में महावीर के मानने वालों की संख्या बढ़ नहीं सकी; और कभी नहीं बढ़ सकेगी। उसका कारण है। उसके कारण महावीर हैं। आज भी महावीर के मानने वालों की संख्या–मानने वालों की, सच में जानने वालों की नहीं; मानने वालों की संख्या–पैदाइशी मानने वालों की संख्या; अब पैदाइश से मानने का कोई भी संबंध नहीं है, लेकिन पैदाइशी मानने वालों की संख्या तीस लाख से ज्यादा नहीं है। महावीर को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए हैं। अगर महावीर तीस दंपतियों को कनवर्ट कर लेते, तो तीस लाख आदमी पैदा हो जाते पच्चीस सौ साल में।

महावीर की बात कीमती है बहुत, लेकिन फैल नहीं सकी, क्योंकि महावीर ने नान-डाग्मेटिक असर्सन किया। महावीर ने कहा, यह भी ठीक, वह भी ठीक; उसके विपरीत जो है, वह भी ठीक। महावीर ने सप्तभंगी का उपयोग किया। अगर महावीर से आप एक वाक्य का उत्तर पूछें, तो वे सात वाक्यों में जवाब देते।

आप पूछें, यह घड़ा है? तो महावीर कहते हैं, हां, यह घड़ा है। कहते हैं, रुको, दूसरी भी बात सुन लो। यह घड़ा नहीं भी है; क्योंकि मिट्टी है। रुको, चले मत जाना, तीसरी बात भी सुन लो। यह घड़ा भी है, घड़ा नहीं भी है। आप भागने लगे, तो महावीर कहेंगे कि जरा रुको, चौथी बात और सुन लो। यह घड़ा है भी, यह घड़ा नहीं भी है, और यह घड़ा ऐसा है कि वक्तव्य में कहा नहीं जा सकता, रहस्य है। आप कहने लगे कि बस, अब मैं जाऊं! तो वे कहेंगे, एक वक्तव्य और सुन लो, यह घड़ा है; अवक्तव्य है। नहीं है; अवक्तव्य है। है भी, नहीं भी है; अवक्तव्य है।

अब आप घड़ा को थोड़ा-बहुत समझते भी रहे होंगे, वह भी गया! अब आप घड़े में पानी भी मुश्किल से भर पाएंगे। क्योंकि सोचेंगे, घड़ा है भी, घड़ा नहीं भी है। पानी भरना कि नहीं भरना! पानी बचेगा कि निकल जाएगा! आप दिक्कत में पड़ेंगे।

यद्यपि महावीर ने सत्य को जितनी पूर्णता से कहा जा सकता है, कहने की कोशिश की है। इतनी पूर्णता से कहने की कोशिश किसी की भी नहीं है, जितनी महावीर की है। लेकिन इतनी पूर्णता से कहकर वह किसी के काम का नहीं रह जाता। किसी के काम नहीं रह जाता। अगर वे चुप रह जाते, तो भी बेहतर था; शायद आप कुछ समझ जाते। उनकी इतनी बातों से, जो समझते थे, वह भी गड़बड़ हो गया। इसलिए महावीर को अनुगमन नहीं मिल सका।

कोई भी विधि, अगर चाहते हैं कि आपके काम पड़ जाए, तो उसे कहना पड़ेगा कि यही विधि ठीक है; कोई और विधि ठीक नहीं है। जानते हुए कि और विधियां भी ठीक हैं। इसलिए दुनिया का प्रत्येक धर्म अपनी विधि को आग्रहपूर्वक कहता है कि यह ठीक है। वह आग्रह आपके ऊपर करुणा है। आपके ऊपर करुणा है, इसलिए।

वह करीब-करीब हालत वैसी है कि डाक्टर आपके पास आए। आप उसका प्रिस्क्रिप्शन लेकर कहें कि डाक्टर साहब, यही दवा ठीक है कि और दवाएं भी ठीक हैं? वह कहे कि और भी दवाएं ठीक हैं। हकीम के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। एलोपैथ के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। आयुर्वेद के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। किसी के पास न जाओ, साईं बाबा के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। कहीं भी जाओ, ठीक हो जाओगे। तो आप उस डाक्टर से कहेंगे, फीस के बाबत क्या खयाल है! आपको दूं कि न दूं? नहीं, आपको देने का कोई कारण नहीं है।

और ध्यान रखना, वह डाक्टर कितनी ही महत्वपूर्ण दवा दे जाए, वह कचरे की टोकरी में गिर जाएगी; आपके पेट में जाने वाली नहीं है। क्योंकि यह डाक्टर भरोसे का नहीं रहा। यह डाक्टर आपके भीतर वह जो एक कनविक्शन, वह जो एक आस्था, एक निष्ठा जन्माता, इसने नहीं जन्मायी। हालांकि बेचारा ठीक कह रहा था। लेकिन निष्ठा आपके भीतर नहीं आई। यह डाक्टर की दवा कितनी ही ठीक हो, यह डाक्टर थोड़ा-सा गलत साबित हुआ। यह डाक्टर डाक्टर जैसा लगा ही नहीं। यह भरोसा पैदा नहीं करवा पाया। तब फिर दवा काम नहीं करेगी। दवा को लिया भी न जा सकेगा। उपयोग भी संदिग्ध होगा। संदिग्ध उपयोग खतरों में ले जाएगा।

इसलिए प्रत्येक धर्म अपनी विधि के बाबत आग्रहपूर्ण है। वह कहता है, यही विधि ठीक है। और जो इस आग्रहपूर्ण विधि का उपयोग करेगा, वह एक दिन जरूर उस जगह पहुंच जाता है, जहां वह जानता है, और विधियों के लोग भी पहुंच गए। लेकिन यह अंतिम अनुभव है; यह अंतिम अनुभव है।

तो मैं पसंद नहीं करता कि कोई पढ़े, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम। यह बहुत कनफ्यूजिंग है। कोई ऐसा बैठकर याद करे, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, तो गलत है। अल्लाह का अपना उपयोग है, राम का अपना उपयोग है। राम का करना हो, तो राम का करना। अल्लाह का करना हो, तो अल्लाह का करना। क्योंकि दोनों के स्वर विज्ञान हैं, और दोनों की अपनी गहरी चोट है। राम की चोट अलग है, अल्लाह की चोट अलग है।

जो आदमी कह रहा है, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, वह पालिटिक्स में कह रहा हो, तो ठीक है। धर्म की दुनिया में बात न करे, क्योंकि राम का पूरा का पूरा वैज्ञानिक रूप भिन्न है; राम की चोट भिन्न है। अलग केंद्र पर, अलग चक्रों पर उसकी चोट है। और अगर इन दोनों का एक साथ उपयोग किया, तो खतरा है कि आप पागल हो जाएं। लेकिन वे जो लोग उपयोग करते हैं, वे ऊपर-ऊपर उपयोग करते हैं। पागल भी नहीं होते, चर्खा चलाते रहते हैं, अल्लाह-ईश्वर तेरा नाम कहते रहते हैं!

अगर भीतर उपयोग करें, तो पागल हो जाएंगे। दोनों शब्दों का एक साथ उपयोग नहीं किया जा सकता। यह ठीक वैसा ही, जैसे आयुर्वेद की दवा ले लें, ठीक है। एलोपैथी की ले लें, ठीक है। लेकिन कृपा करके दोनों का मिक्सचर न बनाएं। यह मिक्सचर है। और ये नासमझों के द्वारा प्रचलित बातें हैं। जिनको धर्म की साइंस का कोई भी बोध नहीं है। तो कुरान भी ठीक, गीता भी ठीक! दोनों में से खिचड़ी इकट्ठी तैयार करो। वह किसी के काम की नहीं है। वह जहर है।

गीता अपने में पूरी ठीक है, कुरान अपने में पूरा ठीक है। गीता के ठीक होने से कुरान गलत नहीं होता। कुरान के ठीक होने से गीता गलत नहीं होती। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी सत्य को भी आत्मसात कर लेता है। सत्य इतना महान है कि अपने से विपरीत को भी पी जाता है। और सत्य के इतने द्वार हैं। लेकिन कृपा करके ऐसा मत कहो कि दोनों द्वार एक हैं। नहीं तो वह आदमी दिक्कत में पड़ेगा। न इससे निकल पाएगा, न उससे निकल पाएगा। द्वार से तो एक से ही निकलना पड़ेगा।

अगर मैं किसी मंदिर में प्रवेश करता हूं, उसके हजार द्वार हैं, तो भी दो द्वार से प्रवेश नहीं हो सकता। प्रवेश एक ही द्वार से करना पड़ेगा। हां, भीतर जाकर मैं जानूंगा कि सब द्वार भीतर ले आते हैं। लेकिन फिर भी मैं आने वालों से कहूंगा कि तुम किसी एक से ही प्रवेश करना। दो से प्रवेश करने की कोशिश में डर यह है कि दोनों दरवाजों के बीच में जो दीवाल है, उससे सिर टकरा जाए, और कुछ न हो। दो नावों पर यात्रा नहीं होती, दो धर्मों में भी यात्रा नहीं होती, दो विधियों में भी यात्रा नहीं होती।

लेकिन विधि का उपयोग अनिवार्य है। क्यों अनिवार्य है? अनिवार्य इसलिए है कि हमने जो कर रखा है अब तक, उसको काटना जरूरी है। हमने जो कर रखा है अब तक, उसे काटना जरूरी है।

एक छोटी-सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात खयाल में आ जाए, फिर हम सुबह बात करेंगे।

रामकृष्ण बहुत दिन तक साकार उपासना में थे; सगुण साकार की उपासना में लीन थे। काली के भक्त थे। मां की उन्होंने पूजा-अर्चना की थी। और मां की साकार प्रतिमा को भीतर अनुभव कर लिया था। मनुष्य के मन की इतनी सामर्थ्य है कि वह जिस पर भी अपने ध्यान को पूरा लगा दे, उसकी जीवंत प्रतिमा भीतर उत्पन्न हो जाती है। लेकिन फिर भी रामकृष्ण को तृप्ति नहीं थी। क्योंकि मन से कभी तृप्ति नहीं मिल सकती। मन के ऊपर ही संतृप्ति का लोक है। तो बहुत बेचैन थे। अब बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे। जहां तक साकार प्रतिमा ले जा सकती थी, पहुंच गए थे। लेकिन कोई तृप्ति न थी, तो तलाश करते थे कि कोई मिल जाए, जो निराकार में धक्का दे दे।

तो एक संन्यासी गुजरता था। गुजरता था कहना शायद ठीक नहीं है, रामकृष्ण की पुकार के कारण निकला वहां से। इस जगत में जब आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेते हैं, जो आपको किसी विधि के जीवन में प्रवेश करा दे, तो आप यह मत सोचना कि आपने उसे खोजा। आप न खोज पाएंगे। वही आपको खोजता है।

तोतापुरी निकले। तोतापुरी दो दिन से एहसास कर रहे थे कि किसी को मेरी बहुत जरूरत है। दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास से निकलते थे, रुक गए। किसी से पूछा कि मंदिर के भीतर कौन है? तो उन्होंने कहा कि रामकृष्ण मंदिर के भीतर साधना करते हैं। तोतापुरी भीतर गए, देखा कि रामकृष्ण को उनकी जरूरत है; कोई निराकार की यात्रा पर धक्का दे दे।

अदृश्य का जगत इतना ही बड़ा है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह बहुत कम है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह बहुत बड़ा है। न तो हम आकस्मिक किसी से मिलते हैं, न मिल सकते हैं। आकस्मिक हम किसी को सुन भी नहीं सकते। आकस्मिक किसी का शब्द भी हमारे कान में नहीं पड़ सकता। बहुत कार्य-कारणों का जाल है।

तोतापुरी ने जाकर रामकृष्ण को हिलाया। आंख खोली रामकृष्ण ने। रामकृष्ण को लगा, आ गया वह आदमी। उन्होंने नमस्कार किया और कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। दो दिन से चिल्ला रहा हूं कि भेजो किसी को जो मुझे आकार से मुक्त कर दे। आ गए आप! तोतापुरी ने कहा, आ गया मैं। लेकिन कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि तुमने इतनी मेहनत से जो साकार निर्मित किया है, उसे तोड़ना भी पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा, मेरी काली को बचने दो। मेरी प्रतिमा को बचने दो, और मुझे निराकार में जाने दो। तोतापुरी ने कहा, तो मैं लौट जाऊं। यह दोनों बात एक साथ न हो सकेगी। तुम्हें इस प्रतिमा को भीतर से तोड़ना पड़ेगा, जैसे तुमने बनाया। रामकृष्ण ने कहा, मैं तोड़ ही नहीं सकता। और तोडूंगा कैसे! भीतर कोई औजार भी तो नहीं है।

तोतापुरी ने कहा, आंख बंद करो और तोड़ने की कोशिश करो। रामकृष्ण आंख बंद करते। आनंदमग्न हो जाते। नाचने लगते। तोतापुरी रोकते और कहते, मैंने इसलिए आंख बंद करने को नहीं कहा। रामकृष्ण कहते, लेकिन जब प्रतिमा दिखाई पड़ती है, तोड़ने की बात कहां, मैं बचता ही नहीं। आनंदमग्न हो जाता हूं। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस आनंद में तृप्त हो जाओ। तृप्त भी नहीं हो पाता, किसी और महाआनंद की तलाश है। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस प्रतिमा को तोड़ो। रामकृष्ण कहने लगे, कैसे तोडूं? न कोई हथौड़ी, न कोई छेनी, कुछ भी तो नहीं है! तोतापुरी ने जो कहा, वह मैं आपसे कहता हूं।

उसने कहा, बनाई कैसे थी? छेनी थी भीतर? किस छेनी से बनाई थी प्रतिमा? उसी छेनी से तोड़ दो। रामकृष्ण ने कहा कि किस छेनी से बनाई थी! मन के ही भाव से बनाई थी। तो तोतापुरी ने कहा, एक काम करो। आंख बंद करो, और मैं एक कांच का टुकड़ा उठाकर लाता हूं बाहर से, और मैं तुम्हारे माथे पर कांच के टुकड़े से काटूंगा, और जब तुम्हें भीतर मालूम पड़े कि लहूलुहान तुम्हारा माथा हो गया तब हिम्मत करके, तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना प्रतिमा के। रामकृष्ण ने कहा, तलवार!

तोतापुरी ने कहा, जब प्रतिमा तक तुम अपने मन से बना सके, तो तलवार न बना सकोगे? बना लेना। रामकृष्ण बड़े रोते हुए, क्षमा मांगते हुए कि बड़ी मुश्किल की बात है, भीतर गए। फिर तोतापुरी ने माथे पर कांच से काट दिया। काटते वक्त उन्होंने हिम्मत की, तलवार उठाई, प्रतिमा दो टुकड़े होकर गिर गई। रामकृष्ण छः दिन के लिए गहन समाधि में खो गए। छः दिन के बाद जब वापस लौटे, तो उन्होंने कहा, अंतिम बाधा गिर गई–दि लास्ट बैरियर हैज फालेन अवे। आखिरी! वह प्रतिमा भी आखिरी बाधा बन गई थी।

जो हम निर्मित करते हैं, उसे मिटाना भी पड़ता है फिर। हमने राग की प्रतिमाएं निर्मित की हैं, तो हमें विराग की तलवारें उठानी पड़ेंगी। नहीं तो कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं। अगर राग निर्माण न किया हो, तो विराग की तलवार उठाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिसने राग निर्माण नहीं किया है, वह कृष्णमूर्ति को सुनने कहां जाता है! पूछने कहां जाता है! वह जाता नहीं। और जिसने राग निर्माण किया है, वह सुनने-पूछने जाता है। वह उससे कह रहे हैं कि कुछ न करना। कुछ करने की जरूरत नहीं है। अभ्यास व्यर्थ है।

तो वह जो रागी है, अपने अभ्यास को तो जारी रखता है राग के। बड़ा मजा यह है हमारे मन का। अगर वह यह भी मान ले कि अभ्यास व्यर्थ है, तो राग का अभ्यास भी बंद कर दे। वह तो बंद नहीं करता। उसको जारी रखता है। सिर्फ वैराग्य का अभ्यास बंद कर देता है। बंद कर देता है, कहना ठीक नहीं; शुरू नहीं करता। बंद कहां! उसने शुरू ही नहीं किया है।

लेकिन कृष्ण साधक की दृष्टि से बोल रहे हैं। वे कह रहे हैं, अभ्यास से तोड़ना पड़ेगा। राग, अभ्यास से तोड़ना पड़ेगा! अभ्यास की विधियों के संबंध में आगे वे बात करेंगे, तो धीरे-धीरे हम उनको उघाड़ेंगे और समझने की कोशिश करेंगे। समझ पूरी तो तभी आएगी, जब कोई एकाध विधि पकड़कर आप प्रयोग में लग जाएंगे। प्रयोग के अतिरिक्त और कोई समझ नहीं है।

अब हम एक विधि का उपयोग यहां भी करते हैं, अभी उसको थोड़ा गौर से देखें। यह भी एक विधि है। अगर कीर्तन में इतने लीन हो जाएं कि आपको पता ही न रहे कि कौन नाच रहा है, कि कौन देख रहा है, कि ये हाथ किसके हिल रहे हैं–मेरे या किसी और के! यह वाणी किसकी निकल रही है–मेरी या किसी और की! अगर इतनी तल्लीनता आ जाए, तो आप वैराग्य की एक स्थिति को अभी अनुभव कर सकेंगे–यहीं।

तो हमारे संन्यासी जाएंगे संकीर्तन में। उठकर कोई न जाए। और जिनको उठकर जाना होता हो, उन्हें आना ही नहीं चाहिए यहां। उन्हें आने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं जो मेहनत कर रहा हूं, वह इसलिए कि आपको कोई विधि खयाल में आ जाए। आप उन नासमझों में से हैं कि सारी बात सुनकर जब विधि की बात उठती है, तब भागने की कोशिश करते हैं! बैठ जाएं अपनी जगह पर। कोई वहां से उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन चलेगा, फिर आप जाएंगे।

और कीर्तन सिर्फ सुनें न, सम्मिलित हों। इतने लोग हैं, अगर कीर्तन जोर से हो, तो यह पूरा वायुमंडल पवित्र होगा और दूर-दूर तक उसकी किरणें पहुंच जाएंगी।

ताली बजाएं। गीत दोहराएं। अपनी जगह पर डोलें भी।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--3 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

गीता दर्शन–(भाग–3) प्रवचन–18

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तंत्र और योग (अध्याय—6) प्रवचन—अठारहवां

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।36 ।।

मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है अर्थात प्राप्त होना कठिन है और स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन करने से प्राप्त होना सहज है, यह मेरा मत है।

कृष्ण ने दोत्तीन बातें इस सूत्र में कही हैं, जो समझने जैसी हैं।

एक, मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग की उपलब्धि अति कठिन है; असंभव नहीं कहा। बहुत मुश्किल है; असंभव नहीं कहा। नहीं ही होगी, ऐसा नहीं कहा। होनी अति कठिन है, ऐसा कहा है। तो एक तो इस बात को समझ लेना जरूरी है।

दूसरी बात कृष्ण ने कही, मन को वश में कर लेने वाले के लिए सरल है, सहज है उपलब्धि योग की।

और तीसरी बात कही, ऐसा मेरा मत है। ऐसा नहीं कहा, ऐसा सत्य है। ऐसा कहा, दिस इज़ माइ ओपीनियन, ऐसा मेरा मत है। ये तीन बातें इस श्लोक में खयाल ले लेने जैसी हैं।

पहली बात तो यह, जो बहुत अजीब मालूम पड़ेगी कि कृष्ण ऐसा कहें। कहना था कि मन को जो वश में नहीं करता, उसके लिए योग की उपलब्धि असंभव है, इंपासिबल है; नहीं होगी। लेकिन कृष्ण कहते हैं, कठिन है, असंभव नहीं। इसका अर्थ? इसका अर्थ यह हुआ कि कठिन हो, लेकिन किसी स्थिति में, किसी व्यक्ति के लिए, मन को वश में बिना किए भी उपलब्धि संभव हो सकती है। कठिन है, लेकिन संभव हो सकती है। अति कठिन है, लेकिन फिर भी हो सकती है।

मन को वश में करने वाला कैसे उपलब्धि को प्राप्त होता है, उसकी हमने बात की। अब थोड़ा हम उस थोड़े-से अल्पवर्ग के संबंध में बात कर लें, जिसकी वजह से कृष्ण असंभव न कह सके।

बहुत ही छोटा वर्ग है। कभी करोड़ में एकाध आदमी ऐसा होता है, जो मन को बिना वश में किए योग को उपलब्ध हो जाता है। बहुत रेयर फिनामिनन है; बहुत करीब-करीब न घटने वाली घटना है; लेकिन घटती है। खुद कृष्ण भी उन्हीं लोगों में से एक हैं।

इसलिए कृष्ण ने जानकर कहा है यह, बहुत समझकर कहा है। खुद कृष्ण भी उन्हीं लोगों में से एक हैं। क्योंकि अर्जुन जरूर ही पूछ लेता कि हे मधुसूदन, आपको कभी आसन लगाए नहीं देखा! आपको कभी प्राणायाम करते नहीं देखा। आपको कभी प्रभु-स्मरण करते नहीं देखा। आपको किसी तपश्चर्या में से गुजरते नहीं देखा। जिस योग-साधना की आप बात कर रहे हैं, जिस अभ्यास की आप बात कर रहे हैं, वह कभी आपके आस-पास दिखाई नहीं पड़ा। और जिस वैराग्य की आप बात कर रहे हैं, उसका तो आपके आस-पास कोई भी अंदाज नहीं मिलता, अनुमान नहीं लगता। मोर पंख बांधकर, बांसुरी बजाकर आप नाचते हैं। सुंदरतम बृज की गोपियां आपके चारों तरफ रास करती हैं। वैराग्य कहीं दिखाई नहीं पड़ता, मधुसूदन!

अर्जुन निश्चित ही ऐसा पूछता। लेकिन अर्जुन को पूछने का उपाय कृष्ण ने नहीं छोड़ा। इसलिए अर्जुन ने नहीं पूछा। क्योंकि कृष्ण ने कहा, बहुत कठिन है अर्जुन, असंभव नहीं है।

तो उस थोड़े-से वर्ग, जिसमें कृष्ण भी आते हैं और कभी एकाध-दो आदमी आ पाते हैं सदियों में, उस छोटे-से वर्ग की भी हम बात कर लें, क्योंकि उसका भी खतरा बड़ा है। क्योंकि जो उस वर्ग में नहीं आता, वह अगर सोच ले कि यह होगा कठिन, लेकिन हम कठिन मार्ग से ही जाएंगे, तो बहुत डर यह है कि वह कभी नहीं पहुंचेगा, भटकेगा, व्यर्थ समय और जीवन को कर लेगा।

ऐसा हुआ इस देश में। इस देश ने बड़े गहरे प्रयोग किए हैं। तंत्र उन प्रयोगों में से है, जो उनके लिए है वस्तुतः, जो मन को वश में न करें। इसलिए तंत्र जब इसोटेरिक था, कुछ थोड़े-से लोग उस पर प्रयोग करते थे, तब वह बड़ी अदभुत प्रक्रिया थी। लेकिन और लोगों को भी लगा कि यह तो बहुत अच्छा है। मन को वश में भी न करना पड़े और योग उपलब्ध हो जाए!

तंत्र के तो सभी सूत्र उलटे हैं।

यह जो थोड़ी-सी जगह छोड़ी है कृष्ण ने, वह तंत्र के लिए छोड़ी है। उसकी बात करनी उन्होंने उचित नहीं समझी है, क्योंकि उसकी बात करनी सदा ही खतरे से भरी है। क्योंकि हम सबका मन ऐसा होगा कि अपने को अपवाद मान लें। और हम सबका मन ऐसा होगा कि जब मन को बिना वश में किए हो सकता है, तो होगा लंबा मार्ग, लेकिन यही ज्यादा आनंदपूर्ण रहेगा। मन को वश में भी न करेंगे और पहुंच भी जाएंगे योग को। दूसरे न पहुंचते होंगे, हम तो पहुंच ही जाएंगे!

इसलिए तंत्र जब व्यापक फैला, तो अति कठिनाई उसने पैदा की। हजारों लोग यह सोचकर कि ठीक है, क्योंकि तंत्र कहता है…। तंत्र के पंच मकार प्रसिद्ध हैं। वह कहता है, पांच म का जो सेवन करेगा–सेवन, त्याग नहीं–वही योग को उपलब्ध होगा। मदिरा का त्याग नहीं, सेवन। मैथुन का त्याग नहीं, सेवन। मांस का त्याग नहीं, सेवन। जो उसको भोगेगा, वही योग को उपलब्ध होगा। यह बहुत ही छोटा-सा अल्पवर्ग है, जिसके लिए यह बात बिलकुल सही है।

और ध्यान रहे, वह अल्पवर्ग अति कठिन मार्ग से गुजरता है। दिखता सरल पड़ता है कि शराब पीने से ज्यादा सरल और क्या हो सकता है! शराबी सड़कों पर पीकर रास्तों पर पड़े हैं। शराब पीने से ज्यादा सरल क्या होगा? लेकिन तंत्र की प्रक्रिया बहुत कठिन है, अति दूभर है।

तंत्र कहता है, शराब पीना, लेकिन बेहोश मत होना। यह साधना है। शराब पीए जाना और बेहोश होना मत। अगर बेहोश हो गए, तो साधना का सूत्र टूट गया। तो शराब पीना और बेहोश मत होना, शराब पीना और होश को कायम रखना।

हम तो होश बिना शराब पीए कायम नहीं रख पाते। शराब पीकर कायम रख पाएंगे? बिना ही पीए पीए-सी हालत रहती है दिन-रात! जरा में होश खो जाता है। तंत्र कहता है, शराब पीना, उसकी मनाही नहीं है। लेकिन होश कायम रखना।

तो तंत्र की अपनी विधि है, कि जब शराब पीयो, कितनी मात्रा में पीयो, कहां रुक जाओ; होश को कायम रखो। फिर धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाते जाओ। वर्षों की लंबी यात्रा में वह घड़ी आती है कि कितनी ही शराब कोई पी जाए, होश कायम रहता है। फिर तो तंत्र को यहां तक करना पड़ा कि कोई शराब काम नहीं करती, तो सांप पालने पड़ते थे। अभी भी आसाम में कुछ तांत्रिक सांप पालते हैं और जीभ पर सांप से कटाएंगे। और साधना की आखिरी कसौटी यह होगी कि सांप काट ले, और होश कायम रहे।

है प्रक्रिया अदभुत, पर बड़ी दूभर है। शराब छोड़ने को तंत्र नहीं कहता। तंत्र बहुत साहसियों का मार्ग है। वे कहते हैं, हम छोड़ेंगे नहीं। अगर कीचड़ में से कमल हो सकता है, तो हम शराब में से होश पैदा करेंगे। और बेहोशी में अगर होश न रह सका, तो होश की कीमत कितनी है! और अगर शराब पीकर सारी बुद्धि नष्ट हो जाए, तो ऐसी बुद्धि को बचाने में भी कितना सार है!

तंत्र कहता है, मैथुन का हम त्याग न करेंगे; ब्रह्मचर्य हम न साधेंगे। हम तो मैथुन में प्रवेश करेंगे, और वीर्य को अस्खलित रखेंगे।

बहुत कठिन है मामला। पर तंत्र ने इसके प्रयोग किए। पर इसोटेरिक थे, गुप्त थे। साधारणतः वे समूह में नहीं किए जा सकते थे। पर धीरे-धीरे खबर तो फैलनी शुरू हुई। और उनको भी पता चल गया, जो शराब पीकर नालियों में पड़े रहते थे। उन्होंने सोचा कि हम भी तंत्र की साधना क्यों न करें? यह तो बहुत ही उचित है। फिर कोई यह भी नहीं कह सकता कि शराब पीना पाप है। फिर तो शराब पीना पुण्य हो गया।

तो नाली में शराब पीकर जो पड़ा था, उसने जब शराब पीकर तंत्र की साधना शुरू की, तो मंदिर में नहीं पहुंचा, वह और नाली में, और नाली में चला गया। और मैथुन तो सारा जगत कर रहा है। तंत्र ने जब कहा कि मैथुन में ही उपलब्धि हो जाएगी परमात्मा की, कहीं भागने की जरूरत नहीं, त्यागने की जरूरत नहीं। तो लोगों ने कहा, फिर ठीक ही है। कहीं कुछ करने की जरूरत नहीं। मैथुन तो हम कर ही रहे हैं। लेकिन तंत्र की शर्त है।

एक घटना मुझे याद आती है। एक तांत्रिक के पास एक त्यागी साधु गया। वहां बड़ी-बड़ी मटकियों में भरी हुई शराब रखी थी और एक युवा तांत्रिक बैठकर ध्यान कर रहा था। साधु बहुत घबड़ाया। शराब की बास चारों तरफ थी। उस साधु ने कहा कि मटके-मटके भरकर शराब कौन पीता है यहां? उस तांत्रिक गुरु ने कहा कि यह जो युवक बैठा है, इसके लिए रखी है। एक मटका तो यह एक ही गटक में पी जाता है, एक सांस में। उस आदमी ने कहा कि मुझे भरोसा नहीं आता। फिर इसकी हालत क्या होती है? उसके गुरु ने कहा कि हालत वही रहती है, जो थी। शराब अछूती गुजर जाती है। आर-पार निकल जाती है, बीच में नहीं पहुंचती है, केंद्र को नहीं छूती है। उसने कहा, मैं मानूंगा नहीं, मैं देखना चाहूंगा। एक सांस में पानी की एक मटकी पीना मुश्किल है, और शराब…!

उस तांत्रिक गुरु ने युवक को कहा कि एक मटकी शराब पी जा। उसने कहा कि एक मिनट का मुझे मौका दें, मैं अभी आया। गुरु थोड़ा हैरान हुआ कि एक मिनट का मौका उसने क्यों मांगा? एक मिनट बाद वह आया और एक मटकी उठाकर पी गया। वह साधु भी चकित हुआ। एक सांस में!

साधु के जाने पर गुरु ने उससे पूछा कि एक मिनट का समय तूने क्यों मांगा था? उसने कहा कि मैंने कभी एक दफे में पीया नहीं था, तो मैं अंदर जाकर अभ्यास करके आया, एक मटकी अंदर पीकर, कि मैं पी पाऊंगा कि नहीं पी पाऊंगा। कभी मैंने एकदम से ऐसा किया नहीं था, इसलिए जरा अभ्यास के लिए अंदर गया। एक मटकी पीकर देखी, कि ठीक है; हो जाएगा।

यह जो वर्ग था साधकों का, यह बहुत कठिन वर्ग है। मैथुन हो, स्खलन नहीं। और मैथुन की यात्रा पर आदमी निकलता ही इसलिए है कि स्खलन हो। तो आप यह मत सोचना कि तंत्र मैथुन के पक्ष में है। तंत्र तो मैथुन के अतिक्रमण की बात है।

मैथुन के लिए जाता ही आदमी इसलिए है कि स्खलन हो। जो बोझ उसके चित्त पर और शरीर पर है, वह फिंक जाए। और तंत्र कहता है, मैथुन सही, स्खलन नहीं। और अगर कोई व्यक्ति मैथुन की स्थिति में अस्खलन को उपलब्ध हो जाए, तो इससे बड़ा ब्रह्मचर्य और क्या होगा? उन ब्रह्मचारियों से, जो कि स्त्री को देखने में डरते हैं, इस आदमी के ब्रह्मचर्य की बात ही और है।

मगर यह मार्ग है अति संकीर्ण, इसलिए कृष्ण ने उसकी सिर्फ निगेटिव खबर देकर सूत्र छोड़ दिया।

कुछ लोग हैं, जो मन को बिना किसी तरह वश में किए, मन को पूरी छूट दे देते हैं। पूरी छूट! मन से कहते हैं, जो तुझे करना है कर, लेकिन उस करने में वे पार खड़े हो जाते हैं। मन को नहीं रोकते, लगाम नहीं पकड़ते मन की। घोड़ों को कह देते हैं, दौड़ो, जहां दौड़ना है। लेकिन दौड़ते हुए घोड़ों में, भागते हुए रथ में, गङ्ढों में, खाई में, खड्ड में, वह जो ऊपर रथ पर बैठा है वह, वह अकंप बैठा रहता है।

तंत्र कहता है कि लगाम सम्हालकर और आप अकंप बैठे रहे, तो कुछ मजा नहीं है। छोड़ दो लगाम; घोड़ों को दौड़ने दो; रथ को खड्डों में, खाइयों में गिरने दो; और तुम अकंप रथ पर बैठे रहो, तो ही असली मालकियत है।

पर वह मालकियत बहुत थोड़े-से लोगों का मार्ग है। भूलकर आप लगाम छोड़कर मत बैठ जाना, नहीं तो पहले ही गङ्ढे में प्राणांत हो जाएगा! दूसरे संतुलन के लिए नहीं बचेंगे आप।

इसलिए कृष्ण ने असंभव नहीं कहा। असंभव नहीं है, कृष्ण भलीभांति जानते हैं। और कृष्ण से बेहतर कोई भी नहीं जानता। यह असंभव नहीं है, बिलकुल संभव है। लेकिन बहुत ही थोड़े-से लोगों के लिए है, अत्यल्प, न के बराबर; उन्हें गिनती के बाहर छोड़ा जा सकता है। और उनकी गिनती करनी ठीक भी नहीं है, क्योंकि गिनती करने का कोई फायदा नहीं है। अपवाद को बाहर छोड़ा जा सकता है।

नियम की बात कर रहे हैं वे अर्जुन से। और अर्जुन उन लोगों में से नहीं है, जो कि तंत्र के मार्ग पर जा सके। इसीलिए कहा, दुष्प्राप्य है। बड़ी कठिनाई से मिलने वाला है; मिल सकता है। यह वैज्ञानिक चिंतक का लक्षण है। वैज्ञानिक चिंतक अल्प भी शेष हो कुछ मार्ग की सुविधा, उसे छोड़कर चलता है। उसे छोड़कर चलता है।

दूसरी बात कृष्ण ने कही, सरल है उसके लिए, जो मन को वश में कर ले। कठिन है उसके लिए, जो मन को बिना वश में किए यात्रा करे। सरल है उसके लिए, जो मन को वश में कर ले।

सरल इसलिए है मन को वश में कर लेने के बाद, कि मन ही व्यवधान डालता है। वह व्यवधान डालने वाला अब आपके काबू में है। आप सरलता से उसका अतिक्रमण कर सकते हैं, बाधाएं आपके काबू में हैं।

करीब-करीब ऐसा समझें कि कोई चाहे तो मकान की सीढ़ियों से नीचे उतर सकता है, कोई चाहे तो छलांग भी लगाकर मकान से नीचे उतर सकता है। छलांग लगाने में खतरा है। हाथ-पैर टूट जाने का खतरा है। जब तक कि हाथ-पैरों की ऐसी कुशलता न हो, जैसी कि होती नहीं है, हाथ-पैर टूटने को सदा तैयार रहते हैं। और जब आप मकान पर से कूदते हैं और आपके हाथ-पैर टूटते हैं, तो न तो मकान की लंबाई तुड़वाती है हाथ-पैर, न जमीन तुड़वाती है; आपके ही हाथ-पैर का ढंग हाथ-पैर को तुड़वा देता है।

कभी आपने खयाल किया होगा कि एक बैलगाड़ी में अगर आप बैठकर जा रहे हों, साथ में एक शराबी धुत बैठा हो, और आप होश में बैठे हों। और गाड़ी उलट जाए, तो आपको चोट लगे, धुत शराबी को न लगे। आप समझते हैं! कोई आसान बात है! शराबी रोज नालियों में गिरता है, लेकिन न कहीं चोट है, न हड्डी टूटती, न फ्रैक्चर होता! बात क्या है? आप जरा गिरकर देखें! शराबी के पास कौन-सी तरकीब है, जिससे कि गिरता है और चोट नहीं खाता?

तरकीब शराबी के पास नहीं है। असल में शरीर जब भी गिरने के करीब होता है, तो रेसिस्टेंट हो जाता है, अकड़ जाता है। अकड़ी हुई हड्डी टूट जाती है। वह शराबी बेहोश है, वह रेसिस्ट नहीं करता। उसको पता ही नहीं कि कब गाड़ी उलट गई। जब उलट गई, तब भी वे गाड़ी में ही बैठे हुए हैं! तब भी वे हांक रहे हैं नाली में पड़े हुए। उनको पता ही नहीं, गाड़ी कब उलट गई। शरीर को मौका नहीं मिलता है कि अकड़ जाए। अकड़ न पाए, तो जमीन चोट नहीं पहुंचा पाती। चोट पहुंचती है अकड़ी चीज पर।

इसलिए बच्चे इतने गिरते हैं और चोट नहीं खाते। आप जरा बच्चों की तरह गिरकर देखें, तब आपको पता चलेगा। एक दफे गिर गए, तो फैसला हुआ! और बच्चा दिनभर गिर रहा है और उठकर फिर चल पड़ा है। बात क्या है? बच्चे के पास सीक्रेट क्या है?

सीक्रेट इतना ही है कि जब वह गिरता है, तब शरीर को इस बात का कोई पक्का पता ही नहीं चलता कि गिर रहे हैं, सम्हल जाएं। सम्हलता नहीं, इसलिए चोट नहीं खाता है। सम्हलेगा, तो चोट खा जाएगा। सम्हलने में ही चोट खा जाता है आदमी।

मकान से उतरना हो, तो सीढ़ियां ही ठीक हैं। सम्हलता है जो आदमी, उसको सीढ़ियां ही ठीक हैं। क्योंकि सीढ़ियों पर सम्हलकर उतर सकते हैं। सम्हलकर छलांग लगाई तो खतरा है।

छलांग तो वह लगा सकता है, जो गैर-सम्हले लगाता है। जो गिरता हो मकान से जमीन की तरफ, लेकिन इतना भी न अकड़े कि गिर रहा हूं। शरीर पर जिसके पता ही न चले। जो ऐसा ही गिरे मकान से, जैसा छत पर खड़ा था, ठीक वैसा ही गिरे, जरा फर्क न पड़े। शराब पी जाए, और वैसा ही रहे, जैसा शराब पीने के पहले था। मैथुन कर जाए, और चित्त वैसा ही रहे, जैसा मैथुन करने के पहले था। क्रोध कर जाए, और क्रोध के बीच वैसा ही रहे, जैसा क्रोध करने के पहले था। जरा अंतर न पड़े। तो फिर वह जो छोटा-सा संकीर्ण मार्ग है, यात्रा की जा सकती है।

लेकिन वह कभी जनपथ नहीं बन सकता; वह पब्लिक हाई-वे नहीं है। वह बहुत, अति संकीर्ण है। जनपथ पर, जहां सबको चलना है, वहां सीढ़ियां हैं।

कभी आपने खयाल किया है कि सीढ़ियों पर भी आप छलांग ही लगाते हैं, उतरते नहीं हैं। उतर तो कोई सकता ही नहीं। चाहे पूरे मकान की छलांग लगाएं, चाहे सीढ़ी पर। सीढ़ी पर कोई आप उतर सकते हैं? एक सीढ़ी से दूसरी पर छलांग लगाते हैं। एक आदमी एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर लगाता है। बड़ी सीढ़ी है, और कोई फर्क नहीं है। लेकिन छोटी सीढ़ी होने की वजह से आपको अड़चन नहीं आती, आप सम्हलकर उतर आते हैं। इतना ही फर्क पड़ता है।

मन को वश में करना सीढ़ियों वाला मार्ग है। और मन को निरंकुश छोड़कर छलांग लगा जाना गैर-सीढ़ियों वाला मार्ग है।

जापान में बौद्ध धर्म की दो शाखाएं हैं। एक शाखा को कहते हैं, सोटो झेन। और एक शाखा का नाम है, रिंझाई झेन। एक शाखा है, जो मानती है कि सडेन एनलाइटेनमेंट, अचानक निर्वाण की उपलब्धि। वह छलांग वाला रास्ता है। दूसरी मानती है, ग्रेजुअल एनलाइटेनमेंट; वह क्रमशः, एक-एक क्रम, एक-एक सीढ़ी चलने वाला मार्ग है।

मोझर्ट के पास एक आदमी गया। और उस आदमी ने मोझर्ट से पूछा कि जिस भांति तुमने सात वर्ष की उम्र में संगीत की समस्त कला उपलब्ध कर ली थी, मैं भी किस भांति उसको उपलब्ध करूं, उसी तरह? मोझर्ट ने कहा, तुम्हारी उम्र कितनी है? उस आदमी ने कहा, मेरी उम्र तो पैंतालीस पार कर गई है। उसने कहा, तुमको सात वर्ष में आना चाहिए था, एक। और दूसरी बात ध्यान रखना, यह तुमसे न हो सकेगा। उसने कहा, लेकिन क्यों न हो सकेगा? तुमसे हो सका, मुझसे क्यों न हो सकेगा? मोझर्ट ने कहा, इसलिए कि मैं किसी से कभी पूछने नहीं गया। तुम पूछने आए हो!

पूछने वाला तो सीढ़ियां ही चढ़ सकता है। पूछने वाला सडेन नहीं हो सकता। पूछने का मतलब ही है कि सीढ़ियां पूछने गया है कि सम्हलकर कैसे चढ़ जाएं, उतर जाएं। न पूछने वाला छलांग लगाता है।

मोझर्ट ने कहा, मुझमें तुममें फर्क है। मैं किसी से पूछने नहीं गया। तुम पूछने आए हो।

पूछने वाले को सीढ़ियां बतानी पड़ेंगी। जो लोग छलांग लगा सकते हैं, वे बिना गुरु के यात्रा कर सकते हैं। लेकिन जिसको गुरु की जरूरत हो, वह छलांग नहीं लगा सकता।

बिना गुरु के वही आदमी चल सकता है, जो छलांग लगा सकता हो। क्योंकि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। हम न कोई मार्ग पूछ रहे हैं, न हम कोई सीढ़ियां पूछ रहे हैं। सीढ़ियां और मार्ग पूछने का मतलब यह है कि कुशलता से, बिना तकलीफ के, बिना अड़चन के, सरलता से, बिना किसी झंझट के, बिना किसी उपद्रव में पड़े, बिना किसी खतरे में पड़े, मैं कैसे निकल जाऊं? गुरु ढूंढ़ने का यही मतलब है।

इसलिए छलांग लगाने वाले के लिए मार्ग बताने की कोई जरूरत नहीं है। जो छलांग लगाने वाला है, वह लगा जाता है।

यही तो झंझट होती है। कृष्णमूर्ति के पास लोग जाते हैं और पूछते हैं, हाउ टु बी अवेयर? और कृष्णमूर्ति कहते हैं, डोंट आस्क मी हाउ। मत पूछो, कैसे!

नहीं, कृष्णमूर्ति को पता नहीं है कि जो पूछता नहीं है कैसे, वह आएगा काहे के लिए आपके पास! वह जो आया है, वह कैसे पूछने वाला ही है। असल में कैसे पूछने के लिए ही तो कोई आता है। नहीं तो आने की कोई जरूरत नहीं। आप जहां हैं, वहीं से छलांग लगा जाएं, पूछने की जरूरत क्या है, किस दिशा में लगाएं? कैसे लगाएं? जिसने पूछा, किस दिशा में, कैसे, किस विधि से, वह आदमी सीढ़ियां उतरेगा।

मन को वश में करना सीढ़ियों वाला उपाय है। एक-एक कदम उठाया जा सकता है। धीरे-धीरे अभ्यास किया जा सकता है। छलांग लगाने वाला मामला बहुत उलटा है। कभी-कभी कोई आदमी छलांग लगा पाता है।

बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि बुद्ध एक गांव से गुजरते हैं। लोग कहते हैं, मत जाओ, आगे एक डाकू है, वह हत्या कर रहा है लोगों की। रास्ता निर्जन हो गया है। वह अंगुलिमाल किसी को भी मार देता है। तुम मत जाओ इस रास्ते से। बुद्ध कहते हैं, अगर मुझे पता न होता, तो शायद मैं दूसरे रास्ते से भी चला जाता। लेकिन अब जब कि मुझे पता है, इसी रास्ते से जाना होगा। लोग कहते हैं, लेकिन किसलिए? बुद्ध कहते हैं, इसलिए कि वह बेचारा प्रतीक्षा करता होगा। लोग मिल न रहे होंगे; उसको बड़ी तकलीफ होती होगी। कोई गर्दन तो मिलनी चाहिए गर्दन काटने वाले को! और अपनी गर्दन का इतना भी उपयोग हो जाए कि किसी को थोड़ी शांति मिल जाए, तो बुरा क्या है! बुद्ध आगे बढ़ जाते हैं।

अंगुलिमाल देखता है, कोई आ रहा है दूर से, तो अपने पत्थर पर, अपने फरसे पर धार रखने लगता है। बहुत दिन हो गए, जंग खा गया फरसा। कोई निकलता ही नहीं रास्ते से। उसने कसम खा ली है कि एक हजार लोगों की गर्दन काटकर, उनकी अंगुलियों का हार बनाना है, इसलिए वह अंगुलिमाल उसका नाम पड़ गया। उसने नौ सौ निन्यानबे आदमी मार दिए, एक की ही दिक्कत है। उसी में वह अटका हुआ है। कोई निकलता ही नहीं! रास्ता करीब-करीब बंद हो गया है! किसी को आते देखकर, अति प्रसन्न होकर वह अपने फरसे पर धार रखता है।

लेकिन जैसे-जैसे बुद्ध करीब आते हैं, और जैसे-जैसे वह साफ देख पाता है, उसको थोड़ा लगता है कि निरीह आदमी, सीधा-सादा आदमी, शांत आदमी! इस बेचारे को शायद पता नहीं है कि यहां अंगुलिमाल है और रास्ता निर्जन हो गया है। इसको एक चेतावनी दे देनी चाहिए। इसको एक दफा कह देना चाहिए कि तू खतरनाक रास्ते पर आ रहा है।

अंगुलिमाल के पास जब बुद्ध पहुंच जाते हैं, तो वह चिल्लाता है कि हे भिक्षु! लौट जा वापस। शायद तुझे पता नहीं, तू भूल से आ गया है। इस मार्ग पर कोई आता नहीं। और तेरी शांत मुद्रा को देखकर, तेरी धीमी गति को देखकर, तेरे संगीतपूर्ण चलने को देखकर मुझे लगता है कि तुझे माफ कर दूं। तू लौट जा। एक शर्त, अगर तू लौट जाए, तो मैं फरसा न उठाऊं। लेकिन अगर एक कदम भी आगे बढ़ाया, तो तू अपने हाथ से मरने जा रहा है। फिर मेरा कोई जिम्मा नहीं है।

लेकिन बुद्ध आगे बढ़े चले जाते हैं। अंगुलिमाल और हैरान होता है। ठिठके भी नहीं वे। एक दफे उसकी बात के लिए रुककर सोचा भी नहीं कि विचार कर लें। वे आगे ही बढ़ते चले आते हैं। अंगुलिमाल कहता है कि देखो, सुना? समझे कि नहीं? बहरे तो नहीं हो!

बुद्ध कहते हैं, भलीभांति सुनता हूं, समझता हूं। अंगुलिमाल कहता है, रुक जाओ। मत बढ़ो! बुद्ध कहते हैं, अंगुलिमाल, मैं बहुत पहले रुक गया। तब से मैं चल ही नहीं रहा हूं। मैं तुझसे कहता हूं, अंगुलिमाल, तू रुक जा, मत चल। अंगुलिमाल बोला कि बहरे तो नहीं हो, लेकिन पागल मालूम होते हो। मैं खड़ा हुआ हूं। मुझ खड़े हुए को कहते हो कि रुक जाओ! तुम चल रहे हो। चलते हुए को कहते हो कि खड़े हो!

तो बुद्ध ने कहा, मैंने जब से जाना कि मन ही चलता है, और जब मन रुक जाता है, तो सब रुक जाता है। तेरा मन बहुत चल रहा है। इतनी दूर से तू मुझे देख रहा है, और तेरा मन चल रहा है। फरसे पर धार रख रहा है, तेरा मन चल रहा है। अभी तू सोच रहा है, तेरा मन चल रहा है। मारूं, न मारूं। यह आदमी लौट जाए, आए। तेरा मन चल रहा है। तेरे मन के चलने को मैं कहता हूं, अंगुलिमाल, तू रुक जा।

अंगुलिमाल ने कहा, मेरी किसी की बात मानने की आदत नहीं है। तो ठीक है। तुम आगे बढ़ो, मैं भी फरसे पर धार रखता हूं। वह फरसे पर धार रखता है; बुद्ध आगे आ जाते हैं। बुद्ध सामने खड़े हो जाते हैं। वह अपना फरसा उठाता है।

बुद्ध कहते हैं, लेकिन मरते हुए आदमी की एक बात पूरी कर सकोगे? अंगुलिमाल ने कहा, बोलो। कोई बात पूरी करने के लिए तो हजार आदमी मैंने काटे! तुम बोलो; बात पूरी करूंगा। मेरे वचन का भरोसा कर सकते हो। बुद्ध ने कहा, वह मैं जानता हूं। कोई दिया गया वचन ही हजार आदमी मारने के लिए उसको मजबूर किया है। तो बुद्ध ने कहा, इसके पहले कि मैं मरूं, एक छोटी-सी बात जानना चाहता हूं। यह सामने जो वृक्ष लगा है, इसके दो-चार पत्ते मुझे काटकर दे दो।

उसने फरसा वृक्ष में मारा। दो-चार पत्ते क्या, दो-चार शाखाएं कटकर नीचे गिर गईं। बुद्ध ने कहा, यह आधी बात तुमने पूरी कर दी। अब इनको वापस जोड़ दो! उस अंगुलिमाल ने कहा, तुम निश्चित पागल हो। तोड़ना संभव था, जोड़ना संभव नहीं है।

तो बुद्ध ने कहा, अंगुलिमाल, तोड़ना तो बच्चे भी कर सकते हैं। अगर जोड़ सको, तो कुछ हो, अन्यथा कुछ भी नहीं। तोड़ना तो बच्चे भी कर सकते हैं। अगर जोड़ सको, तो कुछ हो। हजार गर्दन भी काट ली, तो मैं कहता हूं, कुछ भी नहीं हो। एक गर्दन जोड़ दो, तो मैं समझूंगा, कुछ हो।

अंगुलिमाल ने फरसा नीचे पटक दिया। वह बुद्ध के पैरों पर गिर गया। और बुद्ध ने कहा, अंगुलिमाल, तू आज से उपलब्ध हुआ। तू आज से ब्राह्मण हुआ। तू आज से संन्यासी हुआ।

बुद्ध के भिक्षु पीछे खड़े थे। उन्होंने कहा कि हम वर्षों से आपके साथ हैं। हम से कभी आपने ऐसे वचन नहीं बोले कि तुम ब्राह्मण हुए, कि तुम उपलब्ध हुए, कि तुम पा गए। और अंगुलिमाल हत्यारे से, जो अभी क्षणभर पहले गर्दन काटने को तैयार था, और फरसा फेंककर सिर्फ पैर पर गिरा है, उससे आप ऐसे वचन बोल रहे हैं!

बुद्ध ने कहा, यह उन थोड़े-से लोगों में से है, जो छलांग लगा सकते हैं। यह छलांग लगा गया है। और जब अंगुलिमाल को उठाकर खड़ा किया, तो लोग उसका चेहरा भी न पहचान सके। वह क्रूर हत्यारा न मालूम कहां विदा हो गया था। उन आंखों में जहां आग जलती थी, वहां फूल खिल गए थे। वह व्यक्ति, जिसके हाथ में फरसा था, कोई भरोसा न कर सकता था कि इस हाथ में कभी फरसा रहा होगा। इस हाथ ने कभी फूल भी तोड़े होंगे, इतनी भी इस हाथ में कठोरता नहीं है।

लेकिन बुद्ध के भिक्षुओं को तोर् ईष्या होनी स्वाभाविक थी। आज का नया आदमी एकदम सीनियर हो गया। एकदम सीनियर! सब छलांग लगा गया! सब व्यवस्था तोड़ दी! अंगुलिमाल बुद्ध के बगल में चलने लगा। गांव में प्रवेश किया। भिक्षुर् ईष्या से भर गए। उन्होंने कहा, यह अंगुलिमाल हत्यारा है।

बुद्ध ने कहा, थोड़ा ठहरो। उस आदमी को तुम नहीं जानते हो। वह उन थोड़े-से लोगों में से है, जो छलांग लगा लेते हैं। वह हत्या कर-करके हत्या से मुक्त हो गया। और तुम हत्या बिना किए हत्या से मुक्त नहीं हो पाए हो। मैं तुमसे पूछता हूं भिक्षुओ, तुम्हारे मन में अंगुलिमाल की हत्या का खयाल तो नहीं उठता?

एक भिक्षु जो पीछे था, वह घबड़ाकर हट गया। उसने कहा, आपको कैसे पता चला? मेरे मन में यह खयाल आ रहा था कि इसको तो खतम ही कर देना चाहिए। नहीं तो मुफ्त, यह नंबर दो का आदमी हो गया! बुद्ध के बाद ऐसा लगता है कि यही आदमी है! और अभी-अभी आया!

तो बुद्ध ने कहा कि मैं तुमसे कहता हूं, तुम हत्या छोड़-छोड़कर भी नहीं छोड़ पाए। यह हत्या कर-करके भी मुक्त हो गया। इसके लिए मन को वश में करने की कोई प्रक्रिया नहीं है। और जब गांव में गए, तो बुद्ध ने कहा, अब तुम्हें अभी, जल्दी ही प्रमाण मिल जाएगा। थोड़ी प्रतीक्षा करो, जल्दी प्रमाण मिल जाएगा।

गांव में जब सब भिक्षु गए, तो बुद्ध ने कहा, अंगुलिमाल, भिक्षा मांगने जा।

सम्राट भी डरते थे। अंगुलिमाल का नाम कोई ले दे, तो उनको भी कंपन हो जाता था। सारे गांव में खबर फैल गई कि अंगुलिमाल भिक्षु हो गया। लोगों ने दरवाजे बंद कर लिए। क्योंकि भरोसा क्या, कि वह आदमी एकदम किसी की गर्दन दबा दे! दरवाजे बंद हो गए। दुकानें बंद हो गईं। गांव बंद हो गया। लोग अपनी छतों पर, छप्परों पर चढ़ गए।

अंगुलिमाल जब नीचे भिक्षा का पात्र लेकर भिक्षा मांगने निकला, तो कोई भिक्षा देने वाला नहीं था। हां, लोगों ने ऊपर से पत्थर जरूर फेंके। और इतने पत्थर फेंके कि अंगुलिमाल सड़क पर लहूलुहान होकर गिर पड़ा। और जब लोगों ने पत्थर फेंके, तो अंगुलिमाल ने सिर्फ अपने भिक्षा-पात्र में पत्थर झेलने की कोशिश की। न उसने एक दुर्वचन कहा, न एक क्रोध से भरी आंख उठाई।

और जब वह लहूलुहान, पत्थरों में दबा हुआ नीचे पड़ा था, बुद्ध उसके पास गए। और उन्होंने कहा, अंगुलिमाल, इन लोगों के इतने पत्थर खाकर तेरे मन में क्या होता है? तो अंगुलिमाल ने कहा, मेरे मन में यही होता है कि जैसा नासमझ मैं कल तक था, वैसे ही नासमझ ये हैं। परमात्मा, इनको क्षमा कर। और मेरे मन में कुछ भी नहीं होता। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि इसको देखो, यह बिना विधि के छलांग लगा गया है।

कृष्ण इसलिए उस छोटे-से हिस्से में छोड़ देते हैं, दुष्प्राप्य कहते हैं, असंभव नहीं कहते हैं। सरल कहते हैं उसको, जिसने मन को वश में किया, क्योंकि मन को इंच-इंच वश में किया जा सकता है। अगर हजार घोड़े हैं आपके मन के रथ में, तो आप एक-एक घोड़े को धीरे-धीरे लगाम पहना सकते हैं। एक-एक घोड़े को धीरे-धीरे ट्रेन कर सकते हैं, प्रशिक्षित कर सकते हैं। और एक दिन ऐसा आ सकता है कि रथ ऐसा चलने लगे कि आप समता को उपलब्ध हो जाएं।

विपरीत के बीच समता को उपलब्ध होना कठिन है, सानुकूल के बीच समता को उपलब्ध होना आसान है। अनुकूल के बीच समता को उपलब्ध होना आसान है, प्रतिकूल के बीच समता को उपलब्ध होना अति कठिन है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मन को वश में करके, अनुकूल स्थिति बनाकर, शांत हो जाना सरल है।

अगर चारों तरफ हरियाली भरे वृक्ष हों, पक्षियों के मधुर गीत हों, सुबह की ताजी हवा हो, सूरज का उठता हुआ, जागता हुआ नया रूप हो, तो उसके बीच बैठकर ध्यान करना आसान है। बाजार हो, चारों तरफ उपद्रव चल रहा हो, आग लगी हो, उसके बीच बैठकर, प्रतिकूल के बीच ध्यान में उतरना कठिन है।

लेकिन असंभव नहीं है। ऐसे लोग हैं, जो मकान में आग लगी हो, और ध्यान में उतर सकते हैं। ऐसे लोग हैं, जो बीच बाजार में बैठकर ध्यान में उतर सकते हैं।

कृष्ण उन लोगों में से ही हैं। नहीं तो कृष्ण युद्ध के मैदान पर जाने को राजी न होते। राजी हो जाते हैं, क्योंकि कोई अड़चन नहीं है। वहां भी चित्त वैसा ही रहेगा। युद्ध होगा, लाशें पट जाएंगी, खून की धाराएं बहेंगी–चित्त वैसा ही रहेगा। इसीलिए तो वे अर्जुन को कह पाते हैं कि अर्जुन, तू बेफिक्री से काट, कोई कटता ही नहीं। बस, तू एक खयाल छोड़ दे कि तू काटने वाला है, बस। कटने वाला कोई भी नहीं है यहां। तेरी भ्रांति भर तू छोड़ दे कि मैं किसी को मार डालूंगा, कि कोई मेरे द्वारा मार डाला जाएगा, कि मेरे द्वारा किसी को दुख पहुंच जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, दुख सदा अपने ही द्वारा पहुंचता है, किसी और के द्वारा नहीं। तू भर यह खयाल छोड़ दे कि तेरे द्वारा! अन्यथा तेरा यह खयाल तुझे दुख पहुंचा जाएगा, और कुछ नहीं होगा। सब अपने ही कारण से मरते हैं, निमित्त कुछ भी बन जाए। तू निमित्त से ज्यादा नहीं होगा, कर्ता नहीं होगा। इसलिए तू मारने-काटने की फिक्र छोड़ दे। और फिर कौन कब कटता है! शरीर ही कटता है। वह जो भीतर है, अनकटा रह जाता है। उसे तो शस्त्र भी नहीं छेद पाते; उसे तो कोई काट नहीं पाता। आग जला नहीं पाती, पानी डुबा नहीं पाता।

यह जो कृष्ण ऐसा कह सकते हैं, ऐसा जानते हैं इसलिए। इसलिए युद्ध के मैदान पर खड़े हो सके हैं। ये वे थोड़े-से जो लोग हैं करोड़ों में, उनमें से एक आदमी युद्ध के मैदान पर खड़ा हो सकता है। नहीं तो अहिंसावादी भागेगा युद्ध के मैदान से। सिर्फ वही अहिंसावादी युद्ध के मैदान पर भी खड़ा होकर अहिंसक हो सकता है, जिसने मन को वश में करने की विधि से पार नहीं पाया, मन को स्वच्छंद छोड़कर पाया है। जिसने मन को वश में किया है, वह अहिंसावादी युद्ध से दूर भागेगा। वह कहेगा, कहीं कोई मेरी लगाम टूट जाए! युद्ध का उपद्रव, कोई घोड़ा छूट जाए! कोई झंझट हो जाए! तो मेरी सारी व्यवस्था बनी बनाई, कभी भी विशृंखल हो सकती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सरल है। और सरल से ही जाना उचित है। सरल का अर्थ ही यही है कि जो अधिकतम लोगों के लिए सुगम पड़ेगा, अनुकूल पड़ेगा, स्वभाव के साथ पड़ेगा। सहज है।

लेकिन तीसरी बात, और महत्वपूर्ण, कृष्ण कहते हैं, यह मेरा मत है। ऐसा कहने की क्या जरूरत है कृष्ण को कि यह मेरा मत है? कह सकते थे, यह सत्य है। सत्य और मत का थोड़ा फर्क समझ लें।

ट्रुथ का मतलब होता है, ऐसा है, मैं कहूं या न कहूं। कोई जाने न जाने; कोई माने न माने–ऐसा है। मत का अर्थ होता है, जैसा है, उसके बाबत मेरा विचार, ओपीनियन अबाउट दि ट्रुथ, सत्य के संबंध में मेरा विचार। सत्य नहीं, मेरा विचार। विचार में भूल-चूक हो सकती है। विचार में कमी भी हो सकती है। विचार में अभिव्यक्ति-दोष भी हो सकता है। विचार में भाषा के कारण, जो कहा गया, वह अन्यथा भी समझा जा सकता है। शब्द बोलते ही आपके हाथ में चला जाता है। मैंने शब्द बोला, तो आपके हाथ में चला जाता है। व्याख्या आप करेंगे।

इसलिए कृष्ण बहुत ही ठीक बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, यह मेरा मत है अर्जुन। मत का अर्थ है कि जैसे ही सत्य को शब्द दिया गया, वह मत हो जाता है, सत्य नहीं रह जाता। सत्य जब निःशब्द होता है, तभी सत्य होता है।

इसलिए जो लोग शब्दों में सत्य का आग्रह करते हैं, उनको सत्य का कोई भी पता नहीं है। शब्दों में जो सत्य का आग्रह करता है, उसे सत्य का कोई भी पता नहीं है। शब्दों में ज्यादा से ज्यादा, बस मत की बात कही जा सकती है, कि मेरा ओपीनियन है अर्जुन।

फर्क है बहुत। अगर कहें कि सत्य है यह, तो मानने का आग्रह वजनी हो जाता है। मत है यह, तो मानो न मानो, स्वतंत्रता कायम रहती है। सत्य को तो मानना ही पड़ेगा। मत को अस्वीकार भी किया जा सकता है।

फिर और भी कारण हैं। जैसे ही सत्य को हम प्रकट करते हैं, वह मत हो जाता है। इसलिए सभी शास्त्र मत हैं, ओपीनियन का संग्रह हैं। कोई शास्त्र सत्य का संग्रह नहीं है, न हो सकता है।

काश, दुनिया के सभी धर्म यह समझ पाएं कि उनका जो शास्त्र है, वह एक मत है, सत्य नहीं है, तो झगड़ा न हो। क्योंकि सत्य के संबंध में हजार मत हो सकते हैं। हजार सत्य नहीं हो सकते। लेकिन चूंकि प्रत्येक शास्त्र दावा करता है सत्य का, इसलिए दो सत्यों में–दो सत्य कैसे मानें–कलह खड़ी हो जाती है।

मत है! अर्जुन को कहा गया कृष्ण का यह वक्तव्य बड़ा कीमती है, यह मेरा मत है। कृष्ण जैसा आदमी कहे कि यह मेरा मत है, अदभुत है। क्योंकि कृष्ण जैसा आदमी सहज ही कह पाता है, यह सत्य है। बिना फिक्र किए, बिना सोचे-समझे उससे निकलता है, यह सत्य है, क्योंकि वह सत्य को जानता है। यह बहुत कंसीडर्ड वक्तव्य है, बहुत सोचकर कहा गया कि यह मत है अर्जुन। इसको तुम ऐसा मत समझ लेना कि यही सत्य है। अन्यथा शब्दों पर गांठ बन जाएगी और शब्दों की व्याख्या तुम करोगे।

अगर मत है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि सत्य तुम्हें पाना पड़ेगा, इस मत से सत्य नहीं मिलेगा। मत से सिर्फ सूचना मिलती है कि मुझे सत्य मिला। अगर तुम्हें भी सत्य पाना है, तो तुम्हें भी चेष्टा और श्रम और अभ्यास और साधना करनी पड़ेगी, तब तुम सत्य पाओगे। अगर मैं कहूं कि जो मैं कह रहा हूं, यही सत्य है, तो आपको शब्द से ही सत्य मिल गया। अब साधना की और क्या जरूरत रह गई है! साधना की सुविधा बनी रहे। अर्जुन को पता रहे कि सत्य अभी पाना है। जो मिला है, वह मत है। भगवान भी बोले, तो जो मिलेगा, वह मत होगा, सत्य नहीं होगा। साधना के लिए उपाय शेष रहेगा ही।

फिर साथ में यह भी जरूरी है समझ लेना कि मत को विचारा जा सकता है। इसलिए जब तक जो आदमी विचार में पड़ा है, उससे मत की ही बात की जा सकती है, सत्य की बात नहीं की जा सकती है। क्योंकि वह इस पर सोचेगा। अर्जुन जो सुनेगा, उस पर सोचेगा भी, उसका अर्थ भी निकालेगा, व्याख्या भी करेगा। और अर्थ और व्याख्याएं! अर्थ और व्याख्याएं हमारी होती हैं।

जब अर्जुन अर्थ निकालेगा, तो वह कृष्ण का नहीं होगा, वह अर्जुन का होगा। हां, अगर अर्जुन इस हालत में आ जाए कि सोचना छोड़ दे, व्याख्या करना छोड़ दे, अर्थ निकालना छोड़ दे, सिर्फ सुन सके; इतना शून्य और खाली हो जाए कि अपने मन को विदा कर दे–तो फिर मत सत्य की तरह प्रवेश कर सकता है। लेकिन ऐसा अति कठिन है। ऐसा अति कठिन है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह मत है।

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 37।।

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।। 38।।

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।। 39।।

इस पर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, योग से चलायमान हो गया है मन जिसका, ऐसा शिथिल यत्न वाला श्रद्धायुक्त पुरुष, योग-सिद्धि को अर्थात भगवत-साक्षात्कार को न प्राप्त होकर, किस गति को प्राप्त होता है।

और हे महाबाहो, क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भांति दोनों ओर से अर्थात भगवतप्राप्ति और सांसारिक भोगों से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है।

हे कृष्ण, मेरे इस संशय को संपूर्णता से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवाय दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है।

सुना अर्जुन ने कृष्ण की बात को; जो उठना चाहिए था संशय, वही उसके मन में उठा। अर्जुन बहुत प्रेडिक्टेबल है। अर्जुन के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है कि उसके मन में क्या उठेगा। जो मनुष्य के मन में उठता है सहज, वह उठा उसके मन में।

उठा यह सवाल कि योग से चलायमान हो जाए जिसका चित्त, प्रभु-मिलन से जो विचलित हो गया है, खो चुका है जो उस निधि को–यद्यपि श्रद्धायुक्त है, चाहता भी है कि पा ले, कोशिश भी करता है कि पा ले, फिर भी मन थिर नहीं होता–तो ऐसे व्यक्ति की गति क्या होगी?

यह डर स्वाभाविक है। तत्काल पीछे पूछता है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि जैसे कभी आकाश में वायु के झोंकों में बादल छितर-बितर होकर नष्ट हो जाता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि दोनों ही छोरों को खो गया आदमी! यहां संसार को छोड़ने की चेष्टा करे कि परमात्मा को पाना है, और वहां मन थिर न हो पाए और परमात्मा मिले नहीं! तो कहीं ऐसा तो न होगा कि राम और काम दोनों खो जाएं और वह आदमी एक बादल की तरह हवाओं के दोनों तरफ के झोंकों में छितर-बितर होकर नष्ट हो जाए। कहीं ऐसा तो न होगा?

संसार को छोड़ते समय मन में यह सवाल उठता ही है कि कहीं ऐसा तो न हो कि मैं संसार की तरफ वैराग्य निर्मित कर लूं, तो संसार भी छूट जाए, और परमात्मा को पा न सकूं, क्योंकि मन बड़ा चंचल है। तो संसार भी छूट जाए और परमात्मा भी न मिले; तो मैं घर का न घाट का; धोबी के गधे जैसा न हो जाऊं!

अभी कहीं तो हूं, संसार में सही। अभी कुछ तो मेरे पास है। माना कि भ्रामक है, माना कि सपने जैसा है, फिर भी है तो। सपना ही सही, झूठा ही सही, फिर भी भरोसा तो है कि मेरे पास कुछ है। कोई मेरा है। पत्नी है, पति है, बेटा है, बेटी है, मित्र हैं, मकान है। माना कि झूठा है। कल मौत आएगी, सब छीन लेगी। लेकिन मौत जब तक नहीं आई है, तब तक तो है। और माना कि कल सब राख में गिर जाएगा। लेकिन जब तक नहीं गिरा, तब तक तो है; तब तक तो सांत्वना है।

कहीं ऐसा तो न होगा, हे महाबाहो, कि इसे भी छोड़ दे आदमी, और जिसकी तुम बात करते हो, उस राम को पाने की वासना से मोहित हो जाए, तुम्हारा आकर्षण पकड़ ले। और तुम जैसे आदमी खतरनाक भी हैं। उनकी बातें आकर्षण में डाल देती हैं। मोह पैदा हो जाता है कि पा लें इस ब्रह्म को, पा लें इस आनंद को, मिले यह समाधि, हो जाए निर्वाण हमारा भी, हम भी पहुंचें उस जगह, जहां सब शून्य है और सब मौन है, और जहां परम सत्य का साक्षात्कार है। तुम्हारे मोह में पड़ा, तुम्हारी बात के आकर्षण में पड़ा आदमी संसार को छोड़ दे, खूंटी तोड़ ले यहां से, और नई खूंटी न गाड़ पाए। यह तट भी छूट जाए संसार का, उस तट की कोई खबर नहीं। नाव कमजोर है, हवा के झोंके तेज हैं, कंपती है बहुत। पतवार कमजोर, हाथ चलते नहीं, और दूसरे किनारे भी न पहुंच पाएं, तो कहीं दोनों किनारों से भटक गई नौका की तरह, हवा के तूफानी थपेड़ों में नाव डूब तो न जाए! कहीं ऐसा तो न हो कि यह भी छूटे और वह भी न मिले!

धर्म की यात्रा पर निकले हुए आदमी को यह सवाल उठता ही है। उठेगा ही। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जब भी हम कुछ छोड़ते हैं, तो यह सवाल उठता है कि यह छूटता है, दूसरा मिलेगा या नहीं? एक सीढ़ी से पैर उठाते हैं, तो भरोसा पक्का कर लेते हैं कि दूसरी सीढ़ी पर पैर पड़ेगा या नहीं? दूसरी सीढ़ी पक्की हो जाए, तो हम उस पर पैर रख लें। कि जब भरोसा है पूरा, तब पहले से उठाते हैं।

इसलिए अर्जुन कहता है, हे कृष्ण, मेरे संशय को पूर्ण रूप से छेद डालें। मुझे पक्का करवा दें आश्वासन, कि मिल ही जाएगा दूसरा तट, ताकि मैं निःसंशय इस तट को छोड़ सकूं। छेद कर दें, छेद डालें मेरे इस संदेह को। जरा भी बाकी न रहे। यह अगर जरा भी बाकी रहा, तो तट छोड़ने में मुझे कठिनाई होगी। एकाध जंजीर को मैं तट से बांधे ही रहूंगा। एकाध लंगर नाव का मैं डाले ही रहूंगा। दूसरे तट पर जाने की मेरी हिम्मत कमजोर होगी। डर लगेगा कि पता नहीं, पता नहीं दूसरा किनारा है भी या नहीं! होगा भी, तो मिलेगा भी या नहीं! और जैसा मन मेरा है, उसे मैं भलीभांति जानता हूं। और जो शर्तें तुमने कहीं, वे भी मैंने ठीक से सुन लीं कि मन बिलकुल थिर हो जाए। और मैं भलीभांति जानता हूं कि क्षण को मन थिर होता नहीं। सब घोड़े वश में आ जाएं! और मैं भलीभांति जानता हूं कि एक भी घोड़ा वश में आता नहीं। सब इंद्रियों के मैं पार चला जाऊं! और भलीभांति जानता हूं कि इंद्रियों के अतिरिक्त मेरा कोई पार का अनुभव नहीं है।

तो कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी शर्तें! और कल तुम तो कह दोगे कि शर्तें तुमने पूरी नहीं कीं, तो तुम्हें किनारा नहीं मिला। लेकिन मेरा क्या होगा? यह तट भी छूट जाए, वह तट भी न मिले, तो कहीं बिखर तो न जाऊंगा! टूट ही तो न जाऊंगा! गति क्या होगी मेरी? इस संशय को पूरा ही छेद डालो कृष्ण! पूरा ही।

और कृष्ण से वह कहता है, तुम जैसा आदमी दूसरा मिलना मुश्किल है। संभव नहीं कि तुम जैसा आदमी मैं फिर पा सकूं, जो मेरे इस संशय को छेद डाले।

ऐसा अर्जुन ने क्यों कहा होगा?

संशय को वही छेद सकता है, जिसकी आंखों में स्वयं संशय न हो। जो असंदिग्धमना हो, जो निःसंशय हो, जो अपने ही भीतर इतने भरोसे से भरपूर हो कि उसका भरोसा ओवरफ्लो करता हो, बाहर बहता हो। जिसके रोएं-रोएं से पता चलता हो कि उस आदमी के मन में कोई संशय, कोई प्रश्न नहीं हैं।

कृष्ण जैसे आदमी प्रश्न नहीं पूछते कभी। कृष्ण जैसे आदमी कभी किसी के पास शंका निवारण के लिए नहीं जाते। अर्जुन भलीभांति जानता है कि कृष्ण कभी किसी के पास शंका निवारण को नहीं गए। भलीभांति जानता है, इनके मन में कभी प्रश्न नहीं उठा। भलीभांति जानता है कि ये बिलकुल निःसंशय में जीते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, कठिन है। सदियां बीत जाती हैं, तब कभी ऐसा आदमी उपलब्ध होता है।

जिसके मन में कोई संशय नहीं है, वही तो दूसरे के संशय को काट पाएगा। जिसके मन में स्वयं ही बहुत तरह के संशय हैं, वह दूसरे के संशय को काटने भला जाए, और जड़ों को पानी सींचकर लौट आएगा।

हम सब यही करते हैं। हम सब एक-दूसरे का संशय काटते हैं। बेटे का संशय बाप काट रहा है; और बाप खुद संदिग्ध है! उसे खुद पता नहीं कि मामला क्या है! बेटा पूछता है, यह पृथ्वी किसने बनाई? बाप कहता है, भगवान ने। और भीतर-भीतर डरता है कि बेटा अब आगे न पूछे कि भगवान किसने बनाए? और कहीं बेटा जोर से न पूछ ले कि भगवान कहां है? देखा है? क्योंकि बेटे आमतौर से नहीं पूछते, इसलिए बाप अपने झूठ कहे चले जाते हैं।

लेकिन थोड़े ही दिन में बेटा जवान होगा और जान लेगा कि बाप को भी पता नहीं है। लेकिन वह यह भी जान लेगा कि बेटों के सामने जानने का मजा लिया जा सकता है। अपने बेटों के सामने वह भी लेगा। और ऐसा चलता है। गुरु असंदिग्ध भाव से जवाब देता मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर संदेह खड़ा होता है।

कृष्ण जैसा आदमी अर्जुन को मिले, तो स्वाभाविक है उसका कहना कि हे महाबाहो, तुम जैसा आदमी फिर नहीं मिलेगा। तुम काट ही डालो। अगर तुम न काट पाए मेरे संदेह को, तो फिर मैं आशा नहीं करता कि कुछ हो सकता है। फिर मैं होपलेस हालत में हो जाऊंगा, बिलकुल आशारहित। फिर मेरी कोई आशा नहीं है। क्योंकि जैसा मैं अपने को जानता हूं, वैसा तो मैं इसी किनारे से बंधा रहूंगा। कम से कम कुछ तो मुट्ठी में है। और जो तुम कह रहे हो, वह बात जंचती है, लेकिन मेरे संशय को काट डालो।

यहां दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।

एक तो बात यह खयाल में ले लेनी जरूरी है कि सांसारिक मन का यह लक्षण है कि वह किसी चीज को छोड़ सकता है किसी चीज के पाने के भरोसे। सहज नहीं छोड़ सकता। पाने का भरोसा हो, तो छोड़ सकता है किसी चीज को। त्याग करने में सांसारिक मन मुश्किल नहीं पाता, लेकिन त्याग इनवेस्टमेंट होना चाहिए। त्याग कुछ और पाने के लिए सिर्फ व्यवस्था बनाना चाहिए।

और जब त्याग किसी और को पाने के लिए होता है, तो त्याग नहीं होता, सिर्फ सौदा होता है। इसलिए सांसारिक मन त्याग को समझ ही नहीं पाता, सिर्फ बार्गेनिंग समझता है, सौदा समझता है। वह कहता है कि ठीक है; पक्का है कि मैं यहां कुछ दान करूं, तो स्वर्ग में उत्तर मिल जाएगा? पक्का है कि यहां एक मंदिर बना दूं, तो भगवान के मकान के पास ही ठहरने की जगह मिलेगी? पक्का है? तो मैं कुछ त्याग कर सकता हूं।

सांसारिक मन, पाने का पक्का हो जाए, तो छोड़ सकता है। पाने के लिए ही छोड़ सकता है। बड़ा अदभुत है यह। बड़ा कंट्राडिक्टरी है यह। यह हो नहीं सकता। अगर पाने के लिए ही छोड़ रहे हैं, तो छोड़ना नहीं हो सकता। और कठिनाई यह है कि जो छोड़ता है, वही पाता है।

अब इस वक्तव्य को, इस पैराडाक्स को, इस उलटबांसी को ठीक से समझ लेना चाहिए।

कबीर के पास लोग जाते थे, तो वे उलटबांसियां कहते थे। कोई उनसे पूछता था कि उलटी-सीधी बातें आप कहते हैं, हमारी कुछ समझ में नहीं पड़तीं! तो वे कहते, तुम जाओ। क्योंकि फिर आगे की जिस यात्रा पर मुझे तुम्हें ले जाना है, वे सब उलटबांसियां हैं। उलटबांसी का मतलब होता है, पैराडाक्स।

जैसे कबीर के पास कोई जाएगा और पूछेगा, परमात्मा है? तो कबीर उसको इसका उत्तर न देंगे। वे कहेंगे, समुंद लागी आगि, नदियां जल भईं राख। वह आदमी कहेगा, आप क्या कह रहे हैं! समुद्र में आग लग गई है और नदियां जलकर राख हो गई हैं? कबीर कहेंगे, तू जा। अगर राजी हो, तो रुक। क्योंकि आगे फिर और उपद्रव होगा।

कोई आकर पूछेगा, आत्मा क्या है? और कबीर कहेंगे, जाग कबीरा जाग। माछी चढ़ गई रूख! मछली जो है, वह झाड़ पर चढ़ गई है; कबीर जाग! वह आदमी कहेगा, मैं आत्मा के संबंध में समझने आया। कहां की मछलियां! कहां के रूख! कभी मछलियां झाड़ों पर चढ़ी हैं? कबीर कहेंगे, तू जा। क्योंकि आगे की बातें और कठिन हैं।

यह जो कृष्ण से अर्जुन पूछ रहा है, उसका उत्तर, उसकी दुविधा असल में यही है। दुविधा त्याग की यही है कि त्याग बिना पाने की आशा के किया जाए, तो होता है। और जो बिना पाने की आशा के त्याग करता है, वह बहुत पाता है। जो पाने की आशा से त्याग करता है, वह पाने की आशा से करता है, इसलिए त्याग नहीं हो पाता। और चूंकि त्याग नहीं हो पाता, इसलिए वह कुछ भी नहीं पाता है।

जिसे पाना हो, उसे पाने की बात छोड़ देनी चाहिए। जिसे न पाना हो, उसे पाने की बात करते चले जाना चाहिए। सांसारिक मन नहीं समझ पाएगा यह, वह कहेगा कि पाने की बात छोड़ दूं! अच्छा छोड़े देते हैं। लेकिन पाना क्या सच में छोड़ने से हो जाएगा? उसका भीतरी, भीतरी जो सांसारिक मन की बनावट है, जो इनर स्ट्रक्चर है, जो मेकेनिज्म है, वह यह है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम ध्यान बहुत करते हैं, शांति नहीं मिलती। तो मैं उनसे कहता हूं, तुम शांति की फिक्र छोड़ दो। तुम शांति चाहो ही मत। फिर तुम ध्यान करो। और शांति मिल जाएगी, बट दैट विल बी ए कांसिक्वेंस। वह परिणाम होगा सहज। तुम मत मांगो। डोंट मेक इट ए रिजल्ट, इट बिल बी ए कांसिक्वेंस। तुम फल मत बनाओ उसे, वह परिणाम होगा। वह हो ही जाएगा; उसकी तुम फिक्र न करो। वे कहते हैं, तो फिर हम शांति का खयाल छोड़ दें, फिर शांति मिल जाएगी?

वे शांति का खयाल भी छोड़ने को राजी हैं, एक ही शर्त पर, कि शांत मिल जाएगी?

अब शांति की तलाश अशांति है। इसलिए शांति का तलाशी कभी शांति नहीं पा सकता। तलाश अशांति है। और शांति की तलाश महा अशांति है।

ऐसा है। दिस इज़ दि फैक्टिसिटी, यह ऐसा तथ्य है, ऐसा अस्तित्व है, इसमें कोई उपाय नहीं है। इस अस्तित्व की शर्तों को मानें तो ठीक, न मानें तो दुख भोगना पड़ता है। इस अस्तित्व की शर्त ही यह है। उस पार जाने की शर्त यह है कि यह किनारा छोड़ो। और यह भी शर्त है कि उस किनारे की बात मत करो।

अर्जुन कहता है, मुझे निःसंदिग्ध कर दें। हे महाबाहो, तुम्हारी बांहें बड़ी विशाल हैं। तुम दूर के तट छू लेते हो। तुम असीम को भी पा लेते हो। तुम मुझे कह दो, भरोसा दिला दो।

लेकिन सच ही क्या कृष्ण का भरोसा अर्जुन के लिए भरोसा बन सकता है? क्या कृष्ण यह कह दें कि हां, मिलेगा दूसरा किनारा, तो भी क्या संदेह करने वाला मन चुप हो जाएगा? क्या वह मन नया संदेह नहीं उठाएगा? कि अगर कृष्ण के कहने से नहीं मिला, तो? फिर कृष्ण जो कहते हैं, वह मान ही लिया जाए, जरूरी क्या है? फिर हम कृष्ण की मानकर चले भी गए और कल अगर खो गए, तो किससे शिकायत करेंगे? कहीं बादल की तरह बिखर गए, तो फिर किससे कहेंगे? और अगर गति बिगड़ गई, तो कौन होगा जिम्मेवार? कृष्ण होंगे जिम्मेवार?

अजीब है आदमी का मन। असल बात यह है कि संदेह करने वाला मन संदेह करता ही चला जाएगा। ऐसा नहीं है कि एक संदेह का निरसन हो जाए, तो निरसन हो जाएगा। एक संदेह का निरसन होते ही दूसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। दूसरे का निरसन होते ही तीसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। फिर कृष्ण क्यों संदेहों को तृप्त करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या इस आशा में कि संदेह तृप्त हो जाएंगे?

नहीं, सिर्फ इस आशा में कृष्ण अर्जुन के संदेह दूर करने की कोशिश करेंगे कि धीरे-धीरे हर संदेह के निरसन के बाद भी जब नया संदेह खड़ा होगा, तो अर्जुन जाग जाएगा, और समझ पाएगा कि संदेहों का कोई अंत नहीं है।

खयाल रखिए, संदेह के निरसन से संदेह का निरसन नहीं होता। लेकिन बार-बार संदेह के निरसन करने से आपको यह स्मृति आ सकती है कि कितने संदेह तो निरसन हो गए, मेरा संदेह तो वैसा का वैसा ही खड़ा हो जाता है! यह तो रावण का सिर है। काटते हैं, फिर लग जाता है। काटते हैं, फिर लग जाता है! काटते हैं, फिर लग जाता है! कृष्ण अथक काटते चले जाएंगे।

पूरी गीता संदेह के सिर काटने की व्यवस्था है। एक-एक संदेह काटेंगे, जानते हुए कि संदेह से संदेह होता है। संदेह किसी भी भरोसे, आश्वासन से कटता नहीं है। लेकिन अर्जुन थक जाए कट-कटकर, और हर बार खड़ा हो-होकर गिरे, और फिर खड़ा हो जाए। संदेह मिटे, और फिर बन जाए; जवाब आए, और फिर प्रश्न बन जाए। ऐसा करते-करते शायद अर्जुन को यह खयाल आ जाए कि नहीं, संदेह व्यर्थ है; और आश्वासन की तलाश भी बेकार है। किसी क्षण यह खयाल आ जाए, तो तट छूट सकता है।

मगर अर्जुन की प्यास बिलकुल मानवीय है, टू ह्यूमन, बहुत मानवीय है। इसलिए कृष्ण नाराज न हो जाएंगे। जानते हैं कि मनुष्य जैसा है, तट से बंधा, उसकी भी अपनी कठिनाइयां हैं।

किसी का सपना हम तोड़ दें। सुखद सपना कोई देखता हो; माना कि सपना था, पर सुखद था; तोड़ दें। तो वह आदमी पूछे कि सपना तो आपने मेरा तोड़ दिया, लेकिन अब? अब मुझे कहां! अब मैं क्या देखूं? अभी जो देख रहा था, सुखद था। आप कहते हैं, सपना था, इसलिए तुड़वा दिया। अब मैं क्या देखूं?

कुछ देखने की उसकी प्यास स्वाभाविक है। मगर उस प्यास में बुनियादी गलती है। आदमी के होने में ही बुनियादी गलती है। प्यास मानवीय है, लेकिन मानवीय होने में ही कुछ गलती है। वह गलती यह है कि सपना देखने वाला कहता है कि मैं सपना तभी तोडूंगा, जब मुझे कोई और सुंदर देखने की चीज विकल्प में मिल जाए।

और कृष्ण जैसे लोगों की चेष्टा यह है कि हम सपना भी तोड़ेंगे, विकल्प भी न देंगे, ताकि तुम उसको देख लो, जो सबको देखता है। देखने को बंद करो। दृश्य को छोड़ो। तुम एक दृश्य की जगह दूसरा दृश्य मांगते हो। अगर कृष्ण की भाषा में मैं आपसे कहूं, तो कृष्ण कहेंगे, दूसरा किनारा है ही नहीं। यह किनारा भी झूठ है; और झूठ के विकल्प में दूसरा किनारा नहीं होता। अगर यह किनारा सच होता, तो दूसरा किनारा सच हो सकता था। एक किनारा झूठ और एक सच नहीं हो सकता। दोनों ही किनारे सच होंगे, या दोनों ही झूठ होंगे।

आप समझते हैं! एक नदी का एक किनारा सच और एक झूठ हो सकता है? या तो दोनों ही झूठ होंगे, या दोनों ही सच होंगे। अगर दोनों झूठ होंगे, तो नदी भी झूठ होगी। अगर दोनों ही सच होंगे, तो नदी भी सच होगी। अब ऐसा समझ लें कि तीनों ही सच होंगे, या तीनों ही झूठ होंगे। तीसरा उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता कि नदी सच हो और किनारे झूठे हों। तो नदी बहेगी कैसे? और ऐसा भी नहीं हो सकता कि एक किनारा सच और दूसरा झूठा हो। नहीं तो दूसरे झूठे किनारे का सहारा न मिलेगा। तीनों सच होंगे, या तीनों झूठ होंगे।

अब अर्जुन कहता है, यह किनारा तो झूठ है। कृष्ण, मैं समझ गया, तुम्हारी बातें कहती हैं। तुम पर मैं भरोसा करता हूं। और मेरी जिंदगी का अनुभव भी कहता है, यह किनारा झूठ है। दुख ही पाया है इस किनारे पर, कुछ और मिला नहीं। इस वासना में, इस मोह में, इस राग में पीड़ा ही पाई, नर्क ही निर्मित किए। मान लिया, समझ गया। लेकिन दूसरा किनारा सच है न!

कृष्ण क्या कहेंगे? अगर वे कह दें, दूसरा किनारा भी नहीं है, तो अर्जुन कहेगा, इसी को पकड़ लूं। कम से कम जो भी है, सांत्वना तो है, आशा तो है कि कल कुछ मिलेगा। तुम तो बिलकुल निराश किए देते हो।

बुद्ध जैसे व्यक्ति ने यही उत्तर दिया कि दूसरा किनारा भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है। बड़ी कठिन बात हो गई फिर। मोक्ष भी नहीं है! और संसार छोड़ने को कहते हो, और मोक्ष भी नहीं है! धन भी छोड़ने को कहते हो, और धर्म भी नहीं है! तो फिर कहते किसलिए हो?

इसलिए बुद्ध बिलकुल सही कहे, लेकिन काम नहीं पड़ा वह सत्य। दूसरा किनारा भी नहीं है, तो लोगों ने कहा, फिर हमें पकड़े रहने दो।

दूसरा किनारा नहीं है, जोर इस बात पर है कि मझधार में डूब जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात हो गई। मझधार में डूब जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात हो गई, वह पैराडाक्स हो गया। किनारा तो हम कहते हैं, जो मझधार में कभी नहीं होता। किनारा तो किनारे पर होता है।

लेकिन यह किनारा भी छोड़ दो, वह किनारा भी छोड़ दो, बीच में कौन रह जाएगा? दोनों किनारे जहां छूट गए–संसार भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है–फिर वासना की धारा को बहने का उपाय नहीं रह जाएगा। वासना की नदी फिर बह न सकेगी, और कामना की नावें फिर तैर न सकेंगी, और अहंकार के सेतु फिर निर्मित न हो सकेंगे। तब एक तरह की डूब, एक तरह का विसर्जन, एक तरह की मुक्ति, एक तरह का मोक्ष, एक तरह की स्वतंत्रता फलित होती है। और वही उपलब्धि है।

लेकिन अर्जुन कैसे समझे उसे? कृष्ण कोशिश करेंगे। वे अभी, दूसरा किनारा है, सही है, पहुंचेगा तू, आश्वासन देता हूं मैं–इस तरह की बातें करेंगे। यह किनारा तो छूटे कम से कम; फिर वह किनारा तो है ही नहीं। और जिसका यह छूट जाता है, उसका वह भी छूट जाता है।

कई बार एक झूठ छुड़ाने के लिए दूसरा झूठ निर्मित करना पड़ता है, इस आशा में कि झूठ छोड़ने का अभ्यास तो हो जाएगा कम से कम। फिर दूसरे को भी छुड़ा लेंगे।

और दो तरह के शिक्षक हैं पृथ्वी पर। एक, जो कहते हैं, जो तुम्हारे हाथ में है, वह झूठ है। और हम तुम्हारे हाथ में कुछ देने को राजी नहीं। क्योंकि कुछ भी हाथ में होगा, झूठ होगा। ऐसे शिक्षक सहयोगी नहीं हो पाते।

दूसरे शिक्षक ज्यादा करुणावान हैं। वे कहते हैं, तुम्हारे हाथ में जो झूठ है, उसे छोड़ दो। हम तुम्हारे लिए सच्चा हीरा देते हैं। हालांकि कोई सच्चा हीरा नहीं है। हीरा मिलता है उस मुट्ठी को, जो खुल जाती है और कुछ भी नहीं पकड़ती, अनक्लिंगिंग। खुली मुट्ठी कुछ नहीं पकड़ती, उसको हीरा मिलता है। जो कुछ भी पकड़ती है, वह पत्थर ही पकड़ती है। पकड़ना ही–पत्थर आता है पकड़ में। हीरा तो खुले हाथ से पकड़ में आता है। अब खुले हाथ की पकड़–उलटबांसी हो जाती है। जाग कबीरा जाग, माछी चढ़ गई रूख। समुंद लागी आग, नदियां जल भईं राख।

कृष्ण कबीर की भाषा कभी-कभी बोलते हैं बीच-बीच में, जांचने के लिए, कि शायद अर्जुन राजी हो। नहीं तो फिर वे अर्जुन की भाषा बोलने लगते हैं।

अभी इतना। फिर हम सांझ…।

अब थोड़ी देर–जाग कबीरा जाग, मछली चढ़ गई रूख!


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गीता दर्शन-(भाग–3) प्रवचन–19

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यह किनारा छोड़ें (अध्याय—6) प्रवचन—उन्नीसवां

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।। 40।।

हे पार्थ, उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है, क्योंकि हे प्यारे, कोई भी शुभ कर्म करने वाला अर्थात भगवत-अर्थ कर्म करने वाला, दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।

अर्जुन ने पूछा है कृष्ण से कि यदि न पहुंच पाऊं उस परलोक तक, उस प्रभु तक, जिसकी ओर तुमने इशारा किया है, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; साधना न कर पाऊं पूरी, मन न हो पाए थिर, संयम न सध पाए, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं इसे भी खो दूं और उसे भी खो दूं! तो कृष्ण उसे उत्तर में कह रहे हैं; बहुत कीमती दो बातें इस उत्तर में उन्होंने कही हैं।

एक तो उन्होंने यह कहा कि शुभ हैं कर्म जिसके, वह कभी भी दुर्गति को उपलब्ध नहीं होता है। और चैतन्य है जो, प्रभु की ओर उन्मुख चैतन्य है जो, इस लोक में या परलोक में, उसका कोई भी नाश नहीं है। इन दो बातों को ठीक से समझ लें।

पहली बात, चेतना का इस लोक में या उस लोक में, कोई नाश नहीं है। क्यों?

चेतना विनष्ट होती ही नहीं। चेतना के विनाश का कोई उपाय नहीं है। विनाश केवल उन्हीं चीजों का होता है, जो संयोग होती हैं, कंपाउंड होती हैं। सिर्फ संयोग का विनाश होता है, तत्व का विनाश नहीं होता।

इसे ऐसा समझें कि जो चीज किन्हीं चीजों से जुड़कर बनती है, वह विनष्ट हो सकती है। लेकिन जो चीज बिना किसी के जुड़े है, वह विनष्ट नहीं होती। हम सिर्फ जोड़ तोड़ सकते हैं और जोड़ बना सकते हैं।

इसे ऐसा भी समझ लें कि तत्व का कोई निर्माण नहीं होता; निर्माण केवल संयोगों का होता है। एक बैलगाड़ी हम बनाते हैं या एक मशीन बनाते हैं, एक कार बनाते हैं, एक साइकिल बनाते हैं। साइकिल बनती है, साइकिल नष्ट हो जाएगी। जो भी बनेगा, वह नष्ट हो जाएगा। जिसका प्रारंभ है, उसका अंत भी निश्चित है। प्रारंभ में ही अंत निश्चित हो जाता है। और जन्म में ही मृत्यु की मुहर लग जाती है।

लेकिन हम पदार्थ को नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि पदार्थ को हम बना भी नहीं सकते हैं। हम केवल संयोग बना सकते हैं। हम पानी को बना सकते हैं। हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, तो पानी बन जाएगा। फिर हाइड्रोजन आक्सीजन को अलग कर दें, तो पानी विनष्ट हो जाएगा। लेकिन आक्सीजन? आक्सीजन को हम न बना सकेंगे। या हो सकता है, किसी दिन हम बना सकें। किसी दिन यह हो सकता है–जिसकी संभावना बढ़ती जाती है–कि हम आक्सीजन को भी बना सकें। जिस दिन हम बना सकेंगे, उस दिन आक्सीजन एलिमेंट नहीं रहेगी, कंपाउंड हो जाएगी। उस दिन आक्सीजन तत्व नहीं कही जा सकेगी, संयोग हो जाएगी। किसी दिन हम आक्सीजन को बना लेंगे इलेक्ट्रान्स से, न्यूट्रान्स से, और भी जो अंतिम विघटन हो सकता है पदार्थ का, उससे। लेकिन इलेक्ट्रान को फिर हम न बना सकेंगे।

तत्व वह है, जिसे हम न बना सकेंगे। इस देश ने तत्व की परिभाषा की है, वह जिसे हम पैदा न कर सकेंगे और जिसे हम नष्ट न कर सकेंगे। अगर किसी तत्व को हम नष्ट कर लेते हैं, तो सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि हमने गलती से उसे तत्व समझा था; वह तत्व था नहीं। अगर किसी तत्व को हम बना लेते हैं, तो उसका मतलब इतना ही हुआ कि हम गलती से उसे तत्व कह रहे हैं; वह तत्व है नहीं।

दो तत्व हैं जगत में। एक, जो हमें चारों तरफ फैला हुआ जड़ का विस्तार दिखाई पड़ता है, मैटर का। वह एक तत्व है। और एक जीवन चैतन्य, जो इस जगत में फैले विस्तार को देखता और जानता और अनुभव करता है। वह एक तत्व है, चैतन्य, चेतना। इन दो तत्वों का न कोई निर्माण है और न कोई विनाश है। न तो चेतना नष्ट हो सकती है और न पदार्थ नष्ट हो सकता है।

हां, संयोग नष्ट हो सकते हैं। मैं मर जाऊंगा, क्योंकि मैं सिर्फ एक संयोग हूं; आत्मा और शरीर का एक जोड़ हूं मैं। मेरे नाम से जो जाना जाता है, वह संयोग है। एक दिन पैदा हुआ और एक दिन विसर्जित हो जाएगा। कोई छाती में छुरा भोंक दे, तो मैं मर जाऊंगा। आत्मा नहीं मरेगी, जो मेरे मैं के पीछे खड़ी है; और शरीर भी नहीं मरेगा, जो मेरे मैं के बाहर खड़ा है। शरीर पदार्थ की तरह मौजूद रहेगा, आत्मा चेतना की तरह मौजूद रहेगी, लेकिन दोनों के बीच का संबंध टूट जाएगा। वह संबंध मैं हूं। वह संबंध मेरा नाम-रूप है। वह संबंध विघटित हो जाएगा। वह संबंध निर्मित हुआ, विनष्ट हो जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, चेतना का कोई विनाश नहीं है, इसलिए तू निर्भय हो। पापी चेतना का भी कोई विनाश नहीं है, इसलिए पुण्यात्मा चेतना के विनाश का तो कोई सवाल नहीं है। चेतना का ही विनाश नहीं है।

अर्जुन ने पूछा है, कहीं ऐसा तो न होगा कि हवाओं के झोंके में जैसे कोई छोटी-सी बदली बिखर जाए और खो जाए अनंत आकाश में, कहीं ऐसा तो न होगा कि इस कूल से छूटूं और वह किनारा न मिले, और मैं एक बदली की तरह बिखरकर खो जाऊं!

तो कृष्ण कह रहे हैं, इस भांति होना असंभव है, क्योंकि चेतना अविनश्वर है, तत्व है, वह नष्ट नहीं होती। तो पापी की चेतना भी नष्ट नहीं होती। नष्ट होने का उपाय नहीं है। विनाश की कोई संभावना नहीं है। तो पहली बात तो वे यह कहते हैं कि चेतना ही नष्ट नहीं होती, न इस लोक में, न परलोक में, कहीं भी। चेतना का कोई विनाश नहीं है।

लेकिन हमें शक पैदा होगा। हम एक आदमी को एनेस्थेसिया का इंजेक्शन दे देते हैं, वह बेहोश हो जाता है। एक आदमी के सिर पर चोट लग जाती है, वह बेहोश होकर गिर जाता है। लोग कहते हैं, उसकी चेतना चली गई। चेतना नहीं जाती। लोग कहते हैं, अचेतन हो गया। अचेतन भी कोई नहीं होता है। जब बेहोश होता है कोई, तब फिर, न तो आत्मा बेहोश होती है और न शरीर बेहोश होता है। क्योंकि शरीर तो बेहोश हो नहीं सकता, उसके पास कोई होश नहीं है। आत्मा बेहोश नहीं हो सकती, क्योंकि वह पूर्ण होश है। फिर होता क्या है? जब एक आदमी के सिर पर चोट लगती है और वह बेहोश पड़ जाता है, तब होता क्या है? तब फिर वही बीच का संबंध शिथिल होता है। शरीर तक आत्मा से जो चेतना आती थी, उसका प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है।

समझ लें कि मैंने बटन दबा दी है और बिजली का बल्ब बुझ गया। तो क्या आप कहेंगे, बिजली बुझ गई? इतना ही कहिए कि बिजली के बल्ब तक वह जो बिजली की धारा आती थी, अब नहीं आती है। बिजली नहीं बुझ गई, बल्ब बुझ गया। बटन फिर आप आन कर देते हैं, बल्ब फिर जल उठता है। अगर बिजली बुझ गई होती, तो फिर बल्ब नहीं जल सकता था। और अगर आपका मेन स्विच भी बस्ती का आफ हो गया हो, तब भी बल्ब ही बुझते हैं, बिजली नहीं बुझती। और अगर आपका पूरा का पूरा बिजलीघर भी ठप्प होकर बंद हो गया हो, तब भी बिजलीघर ही बंद होता है, बिजली नहीं बुझती। बिजली तो ऊर्जा है। ऊर्जा नष्ट नहीं होती।

भीतर ऊर्जा है जीवन की, चेतना की। शरीर तक आने के रास्ते हैं। मन उसका रास्ता है, जिससे शरीर तक आती है। जब सिर पर कोई डंडा मारता है, तो आपका मन बुझ जाता है; बीच का सेतु टूट जाता है; खबर आनी बंद हो जाती है। भीतर आप उतने ही चेतन होते हैं, जितने थे; और शरीर उतना ही अचेतन होता है, जितना सदा था। सिर्फ आत्मा से जो चेतना शरीर में प्रतिबिंबित होती थी, वह प्रतिबिंबित नहीं होती है।

चेतना के बुझने का, नष्ट होने का कोई सवाल नहीं है। पापी की चेतना का भी सवाल नहीं है। पापी भी कितना ही पाप करे और कितना ही बुरा कर्म करे और कितना ही संसार को पकड़े रहे, कुछ भी करे, चेतना नहीं मिटेगी। हां, चेतना विकृत, दुखद, संतापों से घिर जाएगी; नर्कों में जीएगी; पीड़ा में, कष्ट में, गहन से गहन संताप में गिरती चली जाएगी–नष्ट नहीं होगी। नष्ट होने का कोई उपाय नहीं है। ठीक ऐसे ही, जैसे आप एक रेत के टुकड़े को नष्ट नहीं कर सकते। कोई उपाय नहीं है।

वैज्ञानिक कितना काम कर पा रहे हैं! एटामिक एनर्जी खोज ली है, चांद पर पहुंच सकते हैं, पांच मील गहरे प्रशांत महासागर में डुबकी ले सकते हैं, सब कर सकते हैं, लेकिन एक रेत का छोटा-सा कण नहीं बना सकते। नहीं बना सकते, इसलिए नहीं कि वैज्ञानिक कमजोर हैं। नहीं बना सकते हैं इसलिए कि पदार्थ न तो निर्माण होता है, न विनष्ट होता है। वैज्ञानिक किसी दिन मनुष्य की आत्मा भी नहीं बना सकेंगे। यद्यपि इस तरफ काफी काम चलता है। और रोज खबरें आती हैं कि कुछ और खोज लिया गया, जिससे संभावना बनती है कि इस सदी के पूरे होते-होते आदमी की आत्मा को वैज्ञानिक पैदा कर लेगा।

अभी जो आदमी का जेनेटिक, जो उसका प्रजनन का मूल कोष्ठ है, उसको भी तोड़ लिया गया। जैसे अणु तोड़ लिया गया और परमाणु की शक्ति उपलब्ध हुई, वैसे ही अब मनुष्य के जीवकोष्ठ को भी तोड़ लिया गया है, और उस जीवकोष्ठ का भी मूल रासायनिक रहस्य समझ में आ गया है। और अब इस बात की पूरी संभावना है कि हम आज नहीं कल प्रयोगशाला में मनुष्य के शरीर को जन्म दे सकेंगे।

अभी एक वैज्ञानिक पत्रिका में, जो मनुष्य के जीवन के संबंध में ही समस्त शोध छापती है, एक बहुत बड़ा कार्टून छापा है। वह कार्टून मुझे बहुत प्रीतिकर लगा। इस सदी के पूरे होने के समय का कार्टून है। दो हजारवां वर्ष आ गया है। एक लड़का एक प्रयोगशाला के पास से गुजर रहा है, उस प्रयोगशाला के पास से, जिसके टेस्ट-टयूब में वह पैदा हुआ था। टेस्ट-टयूब प्रयोगशाला के दरवाजे से दिखाई पड़ रही है। वह लड़का रास्ते से कहता है, डैडी! नमस्कार! मैं स्कूल जा रहा हूं।

दो हजारवें वर्ष में इस बात की करीब-करीब संभावना है– शायद दस साल और पहले यह घटित हो जाएगा–कि हम बच्चे के शरीर को प्रयोगशाला की परखनली में पैदा कर लेंगे। तब जो साधारण बुद्धि के आत्मवादी हैं, बड़ी मुश्किल में–अभी पड़ गए हैं वे मुश्किल में–बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। अगर किसी दिन प्रयोगशाला में आदमी का शरीर पैदा हो गया, तो फिर आत्मा का क्या होगा? और अगर वह आदमी हमारे ही जैसा आदमी हुआ, और वैज्ञानिक कहते हैं, हम से बेहतर होगा, क्योंकि वह ठीक से कल्टिवेटेड होगा। हमारी पैदाइश तो बिलकुल ही अवैज्ञानिक है। उसमें कोई नियम और गणित और कोई व्यवस्था तो नहीं है। उसमें सारी व्यवस्था होगी।

वैज्ञानिक कहते हैं कि वह जो शरीर हम निर्मित करेंगे, हम जानेंगे कि इसे कितने वर्ष की जिंदगी देनी है। सौ वर्ष की? तो वह ठीक सौ वर्ष की गारंटी का सर्टिफिकेट लेकर पैदा होगा। क्योंकि हम उतना रासायनिक तत्व उसमें डालेंगे, जो सौ वर्ष तक स्वस्थ रह सके। अगर हम चाहते हैं कि वह आइंस्टीन जैसा बुद्धिमान हो, तो बुद्धि के तत्व की उतनी ही मात्रा उसमें होगी। अगर हम चाहते हैं कि वह मजदूर का काम करे, तो उस तरह की मसल्स उसमें होंगी। अगर हम चाहते हैं कि वह संगीतज्ञ का काम करे, तो उसके गले और उसकी आवाज का सारा रासायनिक क्रम वैसा होगा।

और फिर वे यह भी कहते हैं कि हम हर बच्चे को बनाते वक्त उसकी एक डुप्लीकेट कापी भी बना लेंगे। क्योंकि कभी भी जिंदगी में किसी की किडनी खराब हो गई, तो उसको बदलने की दिक्कत पड़ती है। तो उस डुप्लीकेट कापी से उसकी किडनी निकालकर बदल देंगे। किसी की आंख खराब हो गई! तो एक डुप्लीकेट कापी उस शरीर की जिंदा, प्रयोगशाला में रखी रहेगी। डीप फ्रीज, काफी गहरी ठंडक में रखी रहेगी, कि सड़ न जाए। और जब भी आपमें कोई गड़बड़ होगी, तो पार्ट्स बदले जा सकेंगे।

उनका कहना है कि जब एक दफे हमें सूत्र मिल गया, तो हम एक जैसे हजार शरीर भी पैदा कर सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। फिर क्या होगा! आत्मवादियों का क्या होगा?

जिन्हें आत्मा का कोई पता नहीं है, ऐसे बहुत-से आत्मवादी हैं। सच तो यह है कि आत्मवादियों में बहुत-से ऐसे हैं, जिन्हें आत्मा का कोई पता नहीं। वे ऐसी बातें सुनकर बड़े बेचैन हो जाते हैं। उनका एक ही उत्तर होता कि यह कभी हो नहीं सकता। मैं उनसे कहता हूं, वे समझ लें, यह होगा। और आपके कहने से कि यह कभी हो नहीं सकता, सिर्फ इतना ही पता चलता है कि आपको कुछ पता नहीं है। यह होगा। पर बड़ी घबड़ाहट होती है कि अगर यह हो जाएगा, तो फिर आत्मा का क्या हुआ?

मैं आपसे कहता हूं, इससे आत्मा पर कोई आंच नहीं आती है। इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि मां-बाप के शरीर जो काम करते थे गर्भ में शरीर के निर्माण करने का, वह वैज्ञानिक प्रयोगशाला में वैज्ञानिक कर देंगे। आत्मा जैसे मां-बाप के गर्भ में प्रवेश करती थी, वैसे ही वैज्ञानिक प्रयोगशाला के शरीर में प्रवेश करेगी। इससे आत्मा का कोई संबंध नहीं है। इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता।

आज से हजार साल पहले हम बिजली नहीं जला सकते थे; हमारे पास पंखे नहीं थे, बल्ब नहीं थे। लेकिन आकाश में तो बिजली चमकती थी। आकाश में बिजली चमकती थी। बिजली सदा से थी। आज हमने बल्ब जला लिए, तो क्या हम सोचते हैं, जो बिजली हमारे बल्बों में चमक रही है, वह कोई दूसरी है? वह वही है, जो आकाश में चमकती थी। हमने अभी भी बिजली नहीं बनाई है! अभी भी हमने बिजली को प्रकट करने के उपाय ही बनाए हैं। बिजली हम कभी न बना सकेंगे। सिर्फ जहां-जहां बिजली अप्रकट है, वहां से हम प्रकट होने के उपाय खोज लेते हैं।

अगर किसी दिन हमने आदमी का शरीर बना लिया, जो कि बना ही लिया जाएगा, तो उस दिन भी हम आदमी को नहीं बना रहे हैं, सिर्फ शरीर को बना रहे हैं। और जिस तरह आत्माएं गर्भ के शरीर में प्रवेश करती रही हैं, वे आत्माएं मनुष्य द्वारा निर्मित शरीर में भी प्रवेश कर पाएंगी। इसमें कोई अड़चन नहीं है, इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है। शरीर विज्ञान से निर्मित हुआ कि प्रकृति से निर्मित हुआ, कोई भेद नहीं पड़ता। आत्मा अप्रकट चेतना है। प्रकट होने का माध्यम मिल जाए, आत्मा प्रकट हो जाती है।

लेकिन न तो चेतना का कोई निर्माण हो सकता है और न कोई विनाश हो सकता है। जब आप किसी की छाती में छुरा भोंकते हैं, तब भी आत्मा नहीं मरती। और जिस दिन प्रयोगशाला की लेबोरेटरी में हम परखनली में आदमी का शरीर बना लेंगे, उस दिन भी आत्मा नहीं बनती।

कृष्ण को पता नहीं था, तो उन्होंने इतना ही कहा, नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। उन्होंने कहा कि शस्त्र छेद देने से आत्मा नहीं मरती है। अब अगर गीता फिर से लिखनी पड़े, तो उसमें यह भी जोड़ देना चाहिए कि परखनली में शरीर बनाने से आत्मा नहीं बनती है। दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। एक ही तर्क के दो छोर हैं। न तो मारने से मरती है आत्मा, और न शरीर को बनाने से बनती है आत्मा।

यह जो अनिर्मित, अजन्मी, अजात, अमृत आत्मा है, कृष्ण कहते हैं, इसका कभी कोई विनाश नहीं है अर्जुन। यह तो वे एक सामान्य सत्य कहते हैं। पापी की आत्मा का भी कोई विनाश नहीं है।

दूसरी बात वे कहते हैं, लेकिन जिसने शुभ कर्म किए!

ध्यान रहे, अर्जुन ने पूछा है कि मैं कोशिश भी करूं और सफल न हो पाऊं, श्रद्धायुक्त कोशिश करूं और असफल हो जाऊं, क्योंकि मैं मेरे मन को जानता हूं; कितनी ही श्रद्धा से करूं, मन की चंचलता नहीं जाती है। श्रद्धा से भरा हुआ असफल हो जाए मेरा कर्म, तो मैं बिखर तो न जाऊंगा बादलों की भांति! मेरी नाव डूब तो न जाएगी किनारे को खोकर, दूसरे किनारे को बिना पाए!

कृष्ण कहते हैं, शुभ कर्म जिसने किया!

जरूरी नहीं कि शुभ कर्म सफल हुआ हो। किए की बात कर रहे हैं, इसको ठीक से समझ लेना आप। शुभ कर्म जिसने किया–जरूरी नहीं कि सफल हो–ऐसे व्यक्ति की कोई दुर्गति नहीं है। सफलता की बात नहीं है।

एक आदमी ने शुभ कर्म करना चाहा, एक आदमी ने शुभ कर्म करने की कोशिश की, एक आदमी ने शुभ की कामना की, एक आदमी के मन में शुभ का बीज अंकुरित हुआ, कोई हर्जा नहीं कि अंकुर न बना, कोई हर्जा नहीं कि वृक्ष न बना, कोई हर्जा नहीं कि फल कभी न आए, फूल कभी भी न लगे। लेकिन जिस आदमी ने शुभ का बीज भी बोया, अनअंकुरित, अंकुर भी न उठा हो, उस आदमी के भी जीवन में कभी दुर्गति नहीं होती है।

कृष्ण बहुत अदभुत बात कह रहे हैं। शुभ कर्म सफल हो, तब तो दुर्गति होती ही नहीं अर्जुन, लेकिन तू जैसा कहता है, अगर ऐसा भी हो जाए, कि तू शुभ की यात्रा पर निकले और तेरा मन साथ न दे; तेरी श्रद्धा तो हो, लेकिन तेरी शक्ति साथ न दे; तेरा भाव तो हो, लेकिन तेरे संस्कार साथ न दें; तू चाहता तो हो कि दूसरे किनारे पर पहुंच जाऊं, लेकिन तेरी पतवार कमजोर हो; तेरी आकांक्षा तो दृढ़ हो कि निकल जाऊं उस पार, लेकिन तेरी नाव ही छिद्र वाली हो और तू बीच में डूब भी जाए; तो भी मैं तुझसे कहता हूं कि शुभ कर्म जिसने किया, उसकी दुर्गति कभी नहीं होती है।

शुभ कर्म जिसका सफल हो जाए, उसकी तो दुर्गति का सवाल ही नहीं है। लेकिन शुभ कर्म जिसका सफल भी न हो पाए, उसकी भी दुर्गति नहीं होती। इससे दूसरी बात भी आपको कह दूं, तो जल्दी खयाल में आ जाएगा।

अशुभ कर्म जिसने किया, सफल न भी हो पाए, तो भी दुर्गति हो जाती है। मैंने आपकी हत्या करनी चाही, और नहीं कर पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, इसका यह मतलब नहीं कि मैंने आपकी गर्दन दबाई और न दब पाई। नहीं, आपकी गर्दन तक भी नहीं पहुंच पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, इसका यह मतलब नहीं कि मैंने आपसे कहा कि हत्या कर दूंगा, और नहीं की। नहीं, मैं आपसे कह भी नहीं पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। भीतर उठा विचार भी अशुभ का दुर्गति की यात्रा पर पहुंचा देता है। बीज बो दिया गया।

गलत विचार भी काफी है दुर्गति के लिए। सही विचार भी काफी है दुर्गति से बचने के लिए। क्यों? क्योंकि अंततः हमारा विचार ही हमारे जीवन का फल बन जाता है। फल कहीं बाहर से नहीं आते। हमारे ही भीतर उनकी ग्रोथ, उनका विकास होता है।

बुद्ध ने धम्मपद में कहा है कि तुम जो हो, वह तुम्हारे विचारों का फल हो। अगर दुखी हो, तो अपने विचारों में तलाशना, तुम्हें वे बीज मिल जाएंगे, जिन्होंने दुख के फल लाए। अगर पीड़ित हो, तो खोजना; तुम्हीं अपने हाथों को पाओगे, जिन्होंने पीड़ा के बीज बोए। अगर अंधकार ही अंधकार है तुम्हारे जीवन में, तो तलाश करना; तुम पाओगे कि तुम्हीं ने इस अंधकार का बड़ी मेहनत से निर्माण किया। हम अपने नर्कों का निर्माण बड़ी मेहनत से करते हैं! दोनों ही बातें सोच लेना।

बुरा कर्म असफल भी हो जाए, तो भी बुरा फल मिलता है। कहेंगे आप, फिर उसको असफल क्यों कहते हैं?

बुरा कर्म असफल भी हो जाए, पूरा न हो पाए, घटित न हो पाए, वस्तु के जगत में न आ पाए, घटना के जगत में उसकी कोई प्रतिध्वनि न हो पाए, सिर्फ आपमें ही खो जाए, सिर्फ स्वप्न बनकर ही शून्य हो जाए, तो भी, तो भी फल हाथ आता है–दुखों का, पीड़ाओं का, कष्टों का। दुर्गति हो जाती है। अच्छे कर्म का खयाल सफल न भी हो पाए…।

बुद्ध एक कथा कहा करते थे। एक व्यक्ति आया। राजकुमार था। बुद्ध से उसने दीक्षा ली।

और बुद्ध के समय दीक्षा ने जो शान देखी दुनिया में, वह फिर पृथ्वी पर दुबारा नहीं हो सकी। बुद्ध और महावीर के वक्त बिहार ने जो स्वर्णयुग देखा संन्यास का, वह पृथ्वी पर फिर कभी नहीं हुआ। उसके पहले भी कभी नहीं हुआ था।

अदभुत दिन रहे होंगे। बुद्ध चलते थे, तो पचास हजार संन्यासी बुद्ध के साथ चलते थे। जिस गांव में बुद्ध ठहर जाते थे, उस गांव की हवाओं का रुख बदल जाता था! पचास हजार संन्यासी जिस गांव में ठहर जाएं, उस गांव में बुरे कर्म होने बंद हो जाते थे, कठिन हो जाते थे, मुश्किल हो जाते थे। इतने शुभ धारणाओं से भरे हुए लोग!

कथाएं कहती हैं कि बुद्ध जहां से निकल जाएं, वहां चोरियां बंद हो जातीं, वहां हत्याएं कम हो जातीं। आज तो कथा लगती है बात, लेकिन मैं कहता हूं कि ऐसा हो जाता है। क्योंकि हत्याएं करता कौन है? आदमी करता है। आदमी है क्या सिवाय विचारों के जोड़ के! और बुद्ध जैसी कौंध बिजली की पास से गुजर जाए, तो आप वही के वही रह सकते हैं जो थे? आप नहीं रह सकते हैं वही के वही। इतनी बिजली कौंध जाए अंधेरे में, तो फिर आप वही नहीं रह जाते, जो आप थे।

थोड़ी भी झलक मिल जाती है रास्ते की, तो आदमी सम्हलकर चलता है। अंधेरी रात है अमावस की, और बिजली चमक गई एक क्षण को, फिर घुप्प अंधेरा हो गया, तो भी फिर आप उतनी ही भूल-चूक से नहीं चलते, जितना पहले चल रहे थे। अंधेरा फिर उतना ही है, लेकिन एक झलक मिल गई मार्ग की।

बुद्ध जैसा आदमी पास से गुजरे, तो बिजली कौंध जाती है। और जिस गांव में पचास हजार भिक्षु और संन्यासी…। महावीर के साथ भी पचास हजार भिक्षु और संन्यासी चलते। और दोनों करीब-करीब समसामयिक थे। पूरा बिहार संन्यास से भर गया। उसको नाम ही बिहार इसलिए मिल गया। बिहार का मतलब है, भिक्षुओं का विहार-पथ। जहां संन्यासी गुजरते हैं, ऐसी जगह। जहां संन्यासी गुजरते हैं, ऐसे रास्ते। जहां संन्यासी विचरते हैं, ऐसा स्थान। इसलिए तो उसका नाम बिहार हो गया।

बुद्ध एक गांव में ठहरे हैं। उस गांव के सम्राट के बेटे ने आकर दीक्षा ली। उस सम्राट के लड़के से कभी किसी ने न सोचा था कि वह दीक्षा लेगा। लंपट था, निरा लंपट था। बुद्ध के भिक्षु भी चकित हुए। बुद्ध के भिक्षुओं ने कहा, इस निरा लंपट ने दीक्षा ले ली? इस आदमी से कोई आशा नहीं करता था। यह हत्या कर सकता है, मान सकते हैं। यह डाका डाल सकता है, मान सकते हैं। यह किसी की स्त्री को उठाकर ले जा सकता है, मान सकते हैं। यह संन्यास लेगा, यह कोई सपना नहीं देख सकता था! इसने ऐसा क्यों किया? बुद्ध से लोग पूछने लगे।

बुद्ध ने कहा, मैं तुम्हें इसके पुराने जन्म की कथा कहूं। एक छोटी-सी घटना ने आज के इसके संन्यास को निर्मित किया है–छोटी-सी घटना ने। उन्होंने पूछा, कौन-सी है वह कथा? तो बुद्ध ने कहा…।

और बुद्ध और महावीर ने उस साइंस का विकास किया पृथ्वी पर, जिससे लोगों के दूसरे जन्मों में झांका जा सकता है; किताब की तरह पढ़ा जा सकता है।

तो बुद्ध ने कहा कि यह व्यक्ति पिछले जन्म में हाथी था, आदमी नहीं था। और तब पहली दफा लोगों को खयाल आया कि इसकी चाल-ढाल देखकर कई दफा हमें ऐसा लगता था कि जैसे हाथी की चाल चलता है। अभी भी, इस जन्म में भी उसकी चाल-ढाल, उसका ढंग एक शानदार हाथी का, मदमस्त हाथी का ढंग था।

बुद्ध ने कहा, यह हाथी था पिछले जन्म में। और जिस जंगल में रहता था, हाथियों का राजा था। तो जंगल में आग लगी। गर्मी के दिन थे, भयंकर आग लगी आधी रात को। सारे जंगल के पशु-पक्षी भागने लगे, यह भी भागा। यह एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने को एक क्षण को रुका। भागने के लिए एक पैर ऊपर उठाया, तभी एक छोटा-सा खरगोश वृक्ष के पीछे से निकला और इसके पैर के नीचे की जमीन पर आकर बैठ गया। एक ही पैर ऊपर उठा, हाथी ने नीचे देखा, और उसे लगा कि अगर मैं पैर नीचे रखूं, तो यह खरगोश मर जाएगा। यह हाथी खड़ा-खड़ा आग में जलकर मर गया। बस, उस जीवन में इसने इतना-सा ही एक महत्वपूर्ण काम किया था, उसका फल आज इसका संन्यास है।

रात वह राजकुमार सोया। जहां पचास हजार भिक्षु सोए हों, वहां अड़चन और कठिनाई स्वाभाविक है। फिर वह बहुत पीछे से दीक्षा लिया था, उससे बुजुर्ग संन्यासी थे। जो बहुत बुजुर्ग थे, वे भवन के भीतर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे भवन के बाहर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे रास्ते पर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे और मैदान में सोए। उसको तो बिलकुल आखिर में, जो गली राजपथ से जोड़ती थी बुद्ध के विहार तक, उसमें सोने को मिला। रात भर! कोई भिक्षु गुजरा, उसकी नींद टूट गई। कोई कुत्ता भौंका, उसकी नींद टूट गई। कोई मच्छर काटा, उसकी नींद टूट गई। रातभर वह परेशान रहा। उसने सोचा कि सुबह मैं इस दीक्षा का त्याग करूं। यह कोई अपने काम की बात नहीं।

सुबह वह बुद्ध के पास जाकर, हाथ जोड़कर खड़ा हुआ। बुद्ध ने कहा, मालूम है मुझे कि तुम किसलिए आए हो। उसने कहा कि आपको नहीं मालूम होगा कि मैं किसलिए आया हूं। मैं कोई साधना की पद्धति पूछने नहीं आया। क्योंकि कल मैंने दीक्षा ली, आज मुझे साधना की पद्धति पूछनी थी; उसके लिए मैं नहीं आया। बुद्ध ने कहा, वह मैं तुझसे कुछ नहीं पूछता। मुझे मालूम है, तू किसलिए आया। सिर्फ मैं तुझे इतनी याद दिलाना चाहता हूं कि हाथी होकर भी तूने जितना धैर्य दिखाया, क्या आदमी होकर उतना धैर्य न दिखा सकेगा?

उस आदमी की आंखें बंद हो गईं। उसको कुछ समझ में न आया कि हाथी होकर इतना धैर्य दिखाया! यह बुद्ध क्या कहते हैं, पागल जैसी बात! उसकी आंख बंद हो गई।

लेकिन बुद्ध का यह कहना, जैसे उसके भीतर स्मृति का एक द्वार खुल गया। आंख उसकी बंद हो गई। उसने देखा कि वह एक हाथी है। एक घने जंगल में आग लगी है। एक वृक्ष के नीचे वह खड़ा है। एक खरगोश उसके पैर के नीचे आकर बैठ गया। इस डर से वह भागा नहीं कि मेरा पैर नीचे पड़े, तो खरगोश मर जाए। और जब मैं भागकर बचना चाहता हूं, तो जैसा मैं बचना चाहता हूं, वैसा ही खरगोश भी बचना चाहता है। और खरगोश यह सोचकर मेरे पैर के नीचे बैठा है कि शरण मिल गई। तो इस भोले से खरगोश को धोखा देकर भागना उचित नहीं। तो मैं जल गया।

उसने आंख खोली, उसने कहा कि माफ कर देना, भूल हो गई। रात और भी कोई कठिन जगह हो सोने की, तो मुझे दे देना। अब मैं याद रख सकूंगा। उतना छोटा-सा, उतना छोटा-सा काम, क्या मेरे जीवन में इतनी बड़ी घटना बन सकता है?

सब छोटे बीज बड़े वृक्ष हो जाते हैं। चाहे वे बुरे बीज हों, चाहे वे भले बीज हों, सब बड़े वृक्ष हो जाते हैं–सब बड़े वृक्ष हो जाते हैं।

हमें चूंकि कोई पता नहीं होता कि जीवन किस प्रक्रिया से चलता है, इसलिए कठिनाई होती है। हमें कोई पता नहीं होता कि किस प्रक्रिया से चलता है।

अभी यहां एक घटना घटी। एक मित्र और उनकी पत्नी संन्यास लेना चाहते थे। वे काफी सोच-विचार में पड़े हैं। घर में बातचीत चलती थी, उनके दामाद ने सुन ली। वे अभी सोच ही रहे हैं, दामाद आकर संन्यास ले गया! उससे मैंने पूछा कि तूने कब सोचा? उसने कहा, मैंने सोचा नहीं। मेरे सास और ससुर बात करते हैं तीन दिन से कि संन्यास लेना है। आपसे मिल भी गए हैं। सोच-विचार चलता है। मैं उनकी सुन-सुनकर, न मालूम क्या हुआ मुझे कि मैं चलकर ले लूं। वह आकर संन्यास ले भी गया! अभी सास-ससुर सोचते ही हैं!

क्या हुआ? और फिर इस व्यक्ति का मुझसे कोई ज्यादा संबंध नहीं। फिर इस व्यक्ति की मेरे विचारों से ज्यादा पहचान नहीं। इसके सास-ससुर ही मुझसे ज्यादा परिचित और मेरे विचारों के ज्यादा निकट हैं। इसको क्या हुआ? यह संन्यास का फूल इसकी जिंदगी में अचानक कैसे खिल गया?

यह बीज पिछले जन्मों का है। यह कहीं पड़ा रहता है, चुपचाप प्रतीक्षा करता है। जैसे बीज गिर जाता है, फिर वर्षा की प्रतीक्षा करता है। महीनों बीत जाते हैं धूल में, धंवास में उड़ते, हवाओं की ठोकरें खाते, फिर वर्षा की प्रतीक्षा चलती है। फिर कभी वर्षा आती है। शायद इन आठ महीनों में बीज भी भूल गया होगा कि मैं कौन हूं। बीज को पता भी कैसे होगा कि मेरे भीतर क्या पैदा हो सकता है। फिर वर्षा आती है, बीज जमीन में दब जाता है और टूटकर अंकुर हो जाता है, तभी बीज को पता चलता है। बीज भी चौंकता होगा; चौंककर कहता होगा कि मैं सूखा-साखा सा, मुझमें इतनी हरियाली छिपी थी! मैं सूखा-साखा सा, कंकड़-पत्थर मालूम पड़ता था देखने पर, मुझमें ऐसे-ऐसे फूल छिपे थे! बीज को भी भरोसा न आता होगा।

हम भी सब बीज हैं और लंबी यात्राओं के बीज हैं।

तो कृष्ण कहते हैं, शुभ का इरादा भी, शुभ कर्म की श्रद्धा भी, दुर्गति में नहीं ले जाती है, कभी नहीं ले जाती है। सिर्फ श्रद्धा भी! जरूरी नहीं कि एक आदमी ने अच्छा काम किया हो; इतना भी काफी है कि सोचा हो; इतना भी काफी है कि कोई सोचता हो, तो उसे सहयोग दिया हो। इतना भी काफी है कि कोई कर रहा हो, तो प्रशंसा से उसकी तरफ देखा हो, तो भी वह आदमी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है।

महावीर जब किसी को दीक्षा देते थे, तो कुछ बातें कहलवाते थे। वे कहते थे कि तुम आश्वासन दो कि बुरा कर्म नहीं करोगे। वे कहते थे, तुम आश्वासन दो कि कोई बुरा कर्म करता होगा, तो तुम उसे प्रोत्साहन नहीं दोगे। आश्वासन दो कि कोई बुरा कर्म करता होगा, तो तुम उसकी तरफ प्रशंसा से देखोगे भी नहीं।

वह आदमी पूछता, मैं बुरा कर्म नहीं करूंगा। लेकिन ये दूसरी बातें क्या हैं, कि मैं प्रोत्साहन भी न दूंगा! कि मैं प्रशंसा से देखूंगा भी नहीं!

एक आदमी रास्ते पर किसी को पीट रहा है। आप नहीं पीट रहे; आपका कोई संबंध नहीं। आप सिर्फ रास्ते से गुजरते हैं। लेकिन आपकी आंख की एक झलक उस पीटने वाले को कह जाती है कि मेरी पीठ थपथपाई गई। बस, पाप हो गया, बीज बो दिया गया।

ठीक महावीर ऐसे ही कहते थे, अच्छा कर्म करना। कोई अच्छा कर्म करता हो, तो प्रोत्साहन देना। कोई अच्छा कर्म करता हो, कुछ न बन सके, तो अपनी आंख से, अपने इशारे से सहारा देना।

लेकिन एक आदमी को संन्यास लेना हो, तो आप सब मिलकर क्या करेंगे? आप कहेंगे, क्या कर रहे हो! पागल हो गए हो? बुद्धि ठिकाने है? आपको पता नहीं कि वह आदमी तो संन्यास की भावना करके भी न भी ले पाए, तो भी सदगति की व्यवस्था कर रहा है। और आप अकारण, आप कोई न थे बीच में, आप कह रहे हैं, पागल हो गए हो? दिमाग खराब हो गया? बुद्धि खो दी? आपको पता भी नहीं है कि आप व्यर्थ ही बीज बो रहे हो, जो आपको भटकाने का कारण हो जाएंगे।

लेकिन हमें खयाल ही नहीं होता कि हम क्या कर रहे हैं! हमें खयाल ही नहीं होता।

एक मित्र संन्यास लेना चाहते हैं। रातभर रोते रहे हैं कल पत्नी के चरणों में बैठकर। लेकिन पत्नी सख्त है। वह कहती है कि मर जाओ, वह बेहतर। सास कहती है, मर जाओ, वह बेहतर। शराब पीने लगो, जुआ खेलो, कुछ भी करो–चलेगा; संन्यास का नाम मत लेना। और इस संन्यास में न वे घर छोड़कर जा रहे हैं, न वे पत्नी को छोड़कर जा रहे हैं, न वे बच्चों को छोड़कर जा रहे हैं। सिर्फ संन्यास के भाव को ही तो ले रहे हैं, और क्या कर रहे हैं? कोई जंगल नहीं जा रहे हैं, कोई पहाड़ नहीं जा रहे हैं। किसी को छोड़ नहीं रहे, किसी को नंगा नहीं छोड़ रहे, भूखा नहीं छोड़ रहे; काम-धंधा करेंगे।

पुराने संन्यास से नया संन्यास कठिन है। क्योंकि संन्यासी भी हो जाएंगे; पति भी होंगे, पिता भी होंगे, सारी जिम्मेवारी होगी, सारा दायित्व होगा। कोई दायित्व तोड़ना नहीं है। क्योंकि मैं मानता हूं, वह भी हिंसा है। क्योंकि मैं मानता हूं, किसी को बीच में छोड़कर जाना, वह भी दुख देना है। उतना भी क्यों देना? उसको खेल समझकर पूरा कर देना कि ठीक है। उसको नाटक समझकर पूरा कर देना। संन्यास को भीतर साधते चले जाना, संसार को बाहर पूरा कर देना।

लेकिन पत्नी कहती है, और कुछ भी कर लो, चलेगा। यह नहीं चल सकता। क्या, मामला क्या है? हमें पता ही नहीं कि वह व्यक्ति तो रातभर रोकर उतना फायदा ले लिया, जितना कि संन्यासी को मिलना चाहिए। लेकिन इस पत्नी ने क्या किया? इसका तो कुछ लेना-देना न था! इसने करीब-करीब एक संन्यासी की हत्या से जो भी पुण्य मिल सकता है–पुण्य कह रहा हूं, ताकि पत्नी नाराज न हो जाए। यहीं कहीं मौजूद होगी! उसने नाहक पुण्य बटोर लिया। जमाने बदले। वक्त बहुत अदभुत थे कभी। महावीर का एक संस्मरण आपसे कहूं।

एक युवक बैठा है स्नानगृह में। उसकी पत्नी उबटन लगाती है। उबटन लगाते वक्त, स्नान करवाते वक्त, अपने पति को वह कहती है कि मेरे भाई ने संन्यास लेने का विचार किया है। वह पति पूछता है, कब लेगा तुम्हारा भाई संन्यास? उसकी पत्नी कहती है, एक महीने बाद का तय किया है। वह पति ऐसे ही मजाक में पूछता है कि एक महीना जीएगा, पक्का है? पत्नी कहती है, किस तरह की अपशकुन की बातें बोलते हो अपने मुंह से! यह शोभा नहीं देता। ऐसा सोचते ही क्यों हो? उसने कहा, सोचता नहीं हूं, लेकिन एक महीना जीएगा, यह पक्का है? ये ढंग संन्यास लेने के नहीं हैं। क्योंकि जो आदमी स्थगित करता है, उसके भीतर वह जो संन्यास-विरोधी कर्मों का भार है, भारी है।

वह युवक ऐसे ही कह रहा है। तो उसकी पत्नी ने सिर्फ मजाक में और व्यंग्य में कहा कि अगर तुमको संन्यास लेना हो, तो क्या करोगे? आधी उबटन लगी थी शरीर पर, आधी धुल गई थी। वह युवक नग्न था, खड़ा हो गया। पत्नी ने कहा, कहां जाते हो? उसने दरवाजा खोला। पत्नी ने कहा, कहां निकलते हो? लोग क्या कहेंगे? नग्न हो तुम! वह दरवाजे के बाहर हो गया। पत्नी ने कहा, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न! पर उसने कहा, मैंने संन्यास ले लिया। बात खतम हो गई।

महावीर उसकी कथा जगह-जगह कहते थे।

उसने कहा कि संन्यास भी कहीं पोस्टपोन किया जाता है! कल लेंगे? अगर जो आदमी मौत को पोस्टपोन कर सकता हो, उसको संन्यास पोस्टपोन करने का हक है; बाकी किसी को हक नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, सदभाव भी! करने की कामना भी!

अभी बंबई में एक वृद्ध महिला को संन्यास लेना था। एक दिन पहले मरने के वह मुझसे मिलकर गई और उसने कहा कि अगले जन्मदिन पर मैं ले लूं, तो हर्ज तो नहीं? मैंने कहा, मुझे कोई हर्ज नहीं। पर मेरा क्या पक्का कि मैं बचूंगा। उससे मैंने नहीं कहा; वह नाराज हो जाए! उसने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसी आप क्यों बात करते हैं! आप तो जरूर बचेंगे। मैंने कहा, समझ लो कि मैं बच भी गया, लेकिन तुम बचोगी, इसका कोई पक्का? उसने कहा, अभी हुआ ही क्या है! अभी मेरी सत्तर साल की ही तो उम्र है। सत्तर की तो मेरी उम्र ही है, उसने कहा। अभी तो मैं सब तरह से स्वस्थ हूं! मैंने कहा, मान लो यह भी हुआ कि तुम भी बच गईं, मैं भी बच गया, लेकिन तुम संन्यास लोगी ही सालभर बाद, तुम्हारा मन संन्यास लेने का रहेगा, इसका कुछ पक्का? उसने कहा, क्यों नहीं रहेगा? मैंने कहा, मान लो तुम्हारा भी रहा, मेरा देने का न रहा, तो तुम क्या करोगी? उसने कहा, आप भी कहां की बातें करते हैं! अगले जन्मदिन का पक्का रहा। मैंने कहा, अगर अगला जन्मदिन पक्का है, तो ठीक।

लेकिन दूसरे दिन सुबह ही, मेरी सभा में ही आते हुए, सभा-भवन के सामने ही कार से टकराकर बेहोश हो गई। आठ-दस घंटे बाद होश में आई, तो मैं उसे देखने अस्पताल गया। मैंने कहा, होश में आ गईं, तो अच्छा हुआ। क्या खयाल है संन्यास के बाबत? उसने कहा, मुझे ठीक तो हो जाने दो। आप भी कैसे आदमी हो! यह भी नहीं पूछा कि चोट कहां लगी! एकदम पूछते हैं, संन्यास! मैंने कहा, क्या पता, जब तक मैं पूछूं, तुम चली जाओ। क्योंकि कल तो कोई पक्का न था इस एक्सिडेंट का। यह हो गया न आज! जन्मदिन अब उतना पक्का है, जितना कल था? उसने कहा, संदिग्ध मालूम होता है! फिर मैंने कहा, कितनी देर करनी है? उसने कहा कि कम से कम चौबीस घंटे। मैं जरा ठीक हो जाऊं, तो फिर आपसे कहूं। मैंने कहा, जैसी तेरी मर्जी। पर मैंने कहा कि एक काम करना, चौबीस घंटे सोचती रहना कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना है।

वह तो मर गई छः घंटे बाद। चौबीस घंटे पूरे नहीं हुए। उसकी बहू मेरे पास दौड़ी आई कि अब क्या होगा! वह तो मर गई! तो मैंने कहा कि मैं उसे मरी हुई हालत में संन्यास देता हूं। उसने कहा, यह कैसा संन्यास है? मैंने कहा कि उसके मन में अगर जरा भी भाव रह गया होगा, जरा भी भाव मरते क्षण में कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना है–तो भाव ही तो सब कुछ है। तो बीज तो निर्मित हो गया। उसकी आगे की यात्रा पर उसके फल कभी भी आ सकते हैं।

कृष्ण कहते हैं, सदकर्म की, शुभ कर्म की दिशा में किया गया विचार भी, शुभ कर्म की दिशा में उठाया गया एक कदम भी; शुभ कर्म की दिशा, चाहे पूरी हो पाए या न हो पाए, तो भी कभी दुर्गति, कभी बुरी गति नहीं होती है।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।। 41।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।

एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।। 42।।

किंतु वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादिक उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक वास करके, शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।

अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है; परंतु इस प्रकार का जो यह जन्म है संसार में, निःसंदेह अति दुर्लभ है।

योग-भ्रष्ट पुरुष! अर्जुन जो पूछ रहा है, वह योग-भ्रष्ट के लिए ही पूछ रहा है। वह कह रहा है कि संसार को मैं छोड़ दूं, भोग को मैं छोड़ दूं और योग सध न पाए। या सधे भी, तो बिखर जाए; थोड़ा बने भी, तो हाथ छूट जाए। थोड़ा पकड़ भी पाऊं और खो जाए सहारा हाथ से, भ्रष्ट हो जाऊं बीच में। तो फिर मैं टूट तो न जाऊंगा? खो तो न जाऊंगा? नष्ट तो न हो जाऊंगा?

कृष्ण कहते हैं उसे, योग-भ्रष्ट हुए पुरुष की आगे की गति के संबंध में दोत्तीन बातें कहते हैं। वे कीमती हैं। और एक बहुत गहरे विज्ञान से संबंधित हैं। थोड़ा-सा समझें।

एक, कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति, वैसी चेतना, जो थोड़ा साधती है योग की दिशा में, लेकिन पूर्णता को नहीं उपलब्ध होती…। पूर्णता को उपलब्ध हो जाए, तो मुक्त हो जाती है। पूर्णता को उपलब्ध न हो पाए, तो अपरिसीम सुखों को उपलब्ध होती है। इस अपरिसीम सुखों की जो संभावनाओं का जगत है, उसका नाम स्वर्ग है। बहुत सुखों को उपलब्ध होती है।

लेकिन ध्यान रहे, सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख समाप्त हो जाने वाले हैं। और कितने ही बड़े सुख हों, और कितने ही लंबे मालूम पड़ते हों, जब वे चुक जाते हैं, तो क्षण में बीत गए, ऐसे ही मालूम पड़ते हैं।

तो वैसी चेतना बहुत सुखों को उपलब्ध होती है अर्जुन! लेकिन फिर वापस संसार में लौट आती है, जब सुख चुक जाते हैं।

एक विकल्प यह है कि बहुत-से सुखों को पाए वैसी चेतना, और वापस लौट आए उस जगत में, जहां से गई थी। दूसरी संभावना यह है कि वैसी चेतना उन घरों में जन्म ले ले, जहां ज्ञान का वातावरण है। उन घरों में जन्म ले ले, जहां योग की हवा है, मिल्यू, योग का विचारावरण है। जहां तरंगें योग की हैं, और जहां साधना के सोपान पर चढ़ने की आकांक्षाएं प्रबल हैं। और जहां चारों ओर संकल्प की आग है, और जहां ऊर्ध्वगमन के लिए निरंतर सचेष्ट लोग हैं, उन परिवारों में, उन कुलों में जन्म ले ले। तो जहां से छूटा पिछले जन्म में योग, अगले जन्म में उसका सेतु फिर जुड़ जाए।

दो विकल्प कृष्ण ने कहे। एक तो, स्वर्ग में पैदा हो जाए। स्वर्ग का अर्थ है, उन लोकों में, जहां सुख ही सुख है, दुख नहीं है। इन दोनों बातों में कई रहस्य की बातें हैं। एक तो यह कि जहां सुख ही सुख होता है, वहां बड़ी बोर्डम, बड़ी ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए देवताओं से ज्यादा ऊबे हुए लोग कहीं भी नहीं हैं। जहां सुख ही सुख है, वहां ऊब पैदा हो जाती है।

इसलिए कथाएं हैं कि देवता भी जमीन पर आकर जमीन के दुखों को चखना चाहते हैं, जमीन के सुखों को भोगना चाहते हैं, क्योंकि यहां दुख मिश्रित सुख हैं। अगर मीठा ही मीठा खाएं, तो थोड़ी-सी नमक की डिगली मुंह पर रखने का मन हो आता है। बस, ऐसा ही। सुख ही सुख हों, तो थोड़ा-सा दुख करीब-करीब चटनी जैसा स्वाद दे जाता है। स्वर्ग एकदम मिठास से भरे हैं, सुख ही सुख हैं। जल्दी ऊब जाता है। लौटकर संसार में वापस आ जाना पड़ता है। दुर्गति तो नहीं होती, लेकिन समय व्यर्थ व्यतीत हो जाता है।

सुखों में गया समय, व्यर्थ गया समय है। उपयोग नहीं हुआ उसका, सिर्फ गंवाया गया समय है। हालांकि हम सब यही समझते हैं कि सुख में बीता समय, बड़ा अच्छा बीता। दुख में बीता समय, बड़ा बुरा गया। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि दुख में बीता समय क्रिएटिव भी हो सकता है, सृजनात्मक भी हो सकता है; उससे जीवन में कोई क्रांति भी घटित हो सकती है। लेकिन सुख में बीता समय, सिर्फ नींद में बीता हुआ समय है, उससे कभी कोई क्रांति घटित नहीं होती। सुख में बीते समय से कभी कोई क्रिएटिव एक्ट, कोई सृजनात्मक कृत्य पैदा नहीं होता।

दुख तो मांज भी देता है, और दुख निखार भी देता है, और दुख भीतर साफ भी करता है, शुद्ध भी करता है; सुख तो सिर्फ जंग लगा जाता है। इसलिए सुखी लोगों पर एकदम जंग बैठ जाती है। इसलिए सुखी आदमी, अगर ठीक से देखें, तो न तो बड़े कलाकार पैदा करता, न बड़े चित्रकार पैदा करता, न बड़े मूर्तिकार पैदा करता। सुखी आदमी सिर्फ बिस्तरों पर सोने वाले लोग पैदा करता। कुछ नहीं, नींद! वक्त काट देने वाले लोग पैदा करता है। शराब पीने वाले, संगीत सुनकर सो जाने वाले, नाच देखकर सो जाने वाले–इस तरह के लोग पैदा करता है।

अगर हम दुनिया के सौ बड़े विचारक उठाएं, तो दोत्तीन प्रतिशत से ज्यादा सुखी परिवारों से नहीं आते। क्या बात है? क्या सुख जंग लगा देता है चित्त पर?

लगा देता है। उबा देता है। और सुख ही सुख, तो कहीं गति नहीं रह जाती; ठहराव हो जाता है, स्टेगनेंसी हो जाती है।

स्वर्ग एक स्टेगनेंट स्थिति है।

बर्ट्रेंड रसेल ने तो कहीं मजाक में कहा है कि स्वर्ग का जो वर्णन है, उसे देखकर मुझे लगता है कि नर्क में जाना ही बेहतर होगा। कोई पूछ रहा था रसेल को कि क्यों? तो उसने कहा, नर्क में कुछ करने को तो होगा; स्वर्ग में तो कहते हैं, कल्पवृक्ष हैं; करने को भी कुछ नहीं है! करना भी चाहेंगे, तो न कर सकेंगे। सोचेंगे, और हो जाएगा! तो वहां कुछ अपने लायक नहीं दिखाई पड़ता है। नर्क में कुछ तो करने को होगा! दुख से लड़ तो सकेंगे कम से कम। दुख से लड़ेंगे, तो भी तो कुछ निखार होगा। और वहां तो सुख सिर्फ बरसता रहेगा ऊपर से, तो थोड़े दिन में सड़ जाएंगे।

कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग चला जाता है वैसा व्यक्ति, जो योग से भ्रष्ट होता है अर्जुन। सुखों की दुनिया में चला जाता है। शुभ करना चाहा था, नहीं कर पाया, तो भी इतना तो उसे मिल जाता है कि सुख मिल जाते हैं। लेकिन वापस लौट आना पड़ता है, वहीं चौराहे पर।

संसार चौराहा है। अगर वहां से मोक्ष की यात्रा शुरू न हुई, तो वापस-वापस लौटकर आ जाना पड़ता है। वह क्रास रोड्स पर हैं हम। जैसे कि मैं एक रास्ते के चौराहे पर खड़ा होऊं। अगर बाएं चला जाऊं, तो फिर दाएं जाना हो, तो फिर चौराहे पर वापस आ जाना पड़े। संसार चौराहा है। अगर स्वर्ग चला जाऊं, फिर मोक्ष की यात्रा करनी हो, तो चौराहे पर वापस आ जाना पड़े।

तो वे लोग, जिन्होंने योग की साधना भी सुख पाने के लिए ही की हो, स्वर्ग चले जाते हैं। लेकिन जिन्होंने योग की साधना मुक्त होने के लिए की हो, लेकिन असफल हो गए हों, भ्रष्ट हो गए हों, वे उन घरों में जन्म ले लेते हैं, जहां इस जीवन में छूटा हुआ क्रम अगले जीवन में पुनः संलग्न हो जाए। वे उन योग के वातावरणों में पुनः पैदा हो जाते हैं, जहां से पिछली यात्रा फिर से शुरू हो सके।

इसलिए अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, तू आश्वासन रख। तू भयभीत न हो। यदि मोक्ष न भी मिला, तो स्वर्ग मिल सकेगा। अगर स्वर्ग भी न मिला, तो कम से कम उस कुल में जन्म मिल सकेगा, जहां से तूने छोड़ी थी पिछली यात्रा, तू पुनः शुरू कर सके। भयभीत न हो। घबड़ा मत। इस किनारे को छोड़ने की हिम्मत कर। अगर वह किनारा न भी मिला, तो भी इस किनारे से बुरा नहीं होगा। और कुछ भी हो जाए, यह किनारा वापस मिल जाएगा, इसलिए घबड़ा मत। इसको छोड़ने में भय मत कर।

मैंने कहा सुबह आपसे कि कृष्ण जैसा शिक्षक अर्जुन की बुद्धि को समझकर बात करता है। अगर अर्जुन ने बुद्ध से पूछा होता कि अगर मैं भ्रष्ट हो जाऊं, तो कहां पहुंचूंगा? तो पता है आपको, बुद्ध क्या कहते? जहां तक संभावना तो यह है कि बुद्ध कुछ कहते ही नहीं, तू जान। लेकिन अगर हम बहुत ही खोजबीन करें बुद्ध साहित्य में, तो सिर्फ एक घटना मिलती है। बुद्ध की नहीं मिलती, बोधिधर्म की मिलती है, बुद्ध के एक शिष्य की।

वह चीन गया। चीन के सम्राट ने उसका स्वागत किया। और चीन के सम्राट ने उसका स्वागत करके कहा, बोधिधर्म, हे महाभिक्षु, तुमसे मैं कुछ बातें जानना चाहता हूं। मैंने हजारों बुद्ध के मंदिर बनाए, लाखों प्रतिमाएं स्थापित कीं। मुझे इसका क्या फल मिलेगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। सम्राट ने कहा, कुछ भी नहीं! आप समझे, मैंने क्या कहा? मैंने अरबों रुपए खर्च किए, इसका फल मुझे क्या मिलेगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। क्योंकि तूने फल की आकांक्षा की, उसी में तूने सब खो दिया। वह सब व्यर्थ हो गया तेरा किया हुआ। दो कौड़ी का हो गया तेरा किया हुआ। उसने कहा, क्या बातें कर रहे हैं? मैंने इतना पवित्र कार्य किया, सच होली वर्क, ऐसा पवित्र कार्य! बोधिधर्म ने कहा, तू मूढ़ है। देअर इज़ नथिंग ऐज होली, एवरीथिंग इज़ जस्ट एंप्टी–कोई पवित्र-अवित्र नहीं है; सब खाली है, सब शून्य है।

सम्राट ने कहा, आप कृपा करके किसी और राज्य में पदार्पण करें। क्योंकि या तो आप ऐसी बात कह रहे हैं, जो हमारी बुद्धि में नहीं पड़ती; और या फिर आपकी बुद्धि ही ठीक नहीं है। आप न मालूम क्या कह रहे हैं! बोधिधर्म ने कहा, मैं लौट जाता हूं। लेकिन ध्यान रख, आखिर में मैं ही काम पडूंगा।

वह लौट गया। नौ-दस वर्ष बाद जब सम्राट वू की मृत्यु हो रही थी, तब उसे बड़ी घबड़ाहट होने लगी। उसे लगा, अब मेरा क्या होगा? मैंने इतने मंदिर बनाए जरूर; मैंने इतने भिक्षुओं को भोजन कराया जरूर; मैंने इतनी मूर्तियां बनाईं जरूर; मैंने इतने शास्त्र छपवाए जरूर; लेकिन मेरी आकांक्षा तो यही थी कि लोग कहें कि तू कितना महान धर्मी है! मेरे अहंकार के सिवाय और तो मैंने कुछ न चाहा! ये सारे मंदिर, ये सारे तीर्थ, ये सारी मूर्तियां, मेरे अहंकार के आभूषण से ज्यादा कहां हैं? तब वह घबड़ाया। मौत करीब आने लगी, तब वह घबड़ाया। तब वह चिल्लाया, हे बोधिधर्म! अगर तुम कहीं हो, तो लौट आओ; क्योंकि शायद तुम्हीं ठीक कहते थे। अगर मैं तुम्हारी सुन लेता, तो शायद मैं कुछ कर सकता, जो मुझे मुक्त कर देता। ये तो मैंने नए बंधन ही निर्मित किए हैं।

अगर बुद्ध होते, तो अर्जुन को ऐसा न कहते। लेकिन बुद्ध और अर्जुन की मुलाकात नहीं हो सकती थी। वह इंपासिबल है, वह असंभव है। क्योंकि बुद्ध को युद्ध के मैदान पर नहीं लाया जा सकता था। और अर्जुन बुद्ध के बोधिवृक्ष के नीचे हाथ जोड़कर, नमस्कार करके, जिज्ञासा करने नहीं जा सकता था। वे टाइप अलग थे। अर्जुन जंगल में किसी गुरु के पास जिज्ञासा करने जाता, इसकी संभावना कम थी। अगर जाता भी कहीं बुद्ध के पास, तो वृक्ष के ऊपर बैठकर पूछता, नीचे नहीं।

कृष्ण को भी उसके अहंकार को बीच-बीच में तृप्ति देनी पड़ती है। कहते हैं, हे महाबाहो, हे विशाल बाहुओं वाले अर्जुन! तो अर्जुन बड़ा फूलता है। ठीक है। कृष्ण से भी सुनने को राजी हो गया इसीलिए कि कृष्ण सारथी हैं उसके, मित्र हैं, सखा हैं; कंधे पर हाथ रख सकता है; चाहे तो कह सकता है कि सब व्यर्थ की बातें कर रहे हो! इसलिए सुनने को राजी हो गया।

तो बुद्ध और अर्जुन की मुलाकात नहीं हो सकती थी, वह असंभव दिखती है। अर्जुन जाता न बुद्ध के पास, और बुद्ध को युद्ध के मैदान पर न लाया जा सकता था।

इसलिए कृष्ण अर्जुन को जो कह रहे हैं, पूरे वक्त अर्जुन को देखकर कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, बहुत सुख मिलेंगे अर्जुन, अगर तू अच्छे काम करते हुए मर जाता है असफल, तो स्वर्गों में पैदा हो जाएगा।

अगर बुद्ध से वह कहता कि स्वर्गों में पैदा होऊंगा, तो वे कहेंगे, स्वर्ग सपने हैं। स्वर्ग कहीं हैं ही नहीं। भटकना मत। जिसने स्वर्ग चाहा, वह नरक में पहुंच गया। स्वर्ग की चाह नरक में ले जाने का मार्ग है, बुद्ध कहते, यह बात ही मत कर। अर्जुन का तालमेल नहीं बैठ सकता था बुद्ध से।

कृष्ण एक-एक कदम अर्जुन को…इसको कहते हैं, परसुएशन। अगर गीता में हम कहें कि इस जगत में परसुएशन की, फुसलाने की, एक व्यक्ति को इंच-इंच ऊपर उठाने की जैसी मेहनत कृष्ण ने की है, वैसी किसी शिक्षक ने कभी नहीं की है। सभी शिक्षक सीधे अटल होते हैं। वे कहते हैं, ठीक है, यह बात है। खरीदना है? नहीं खरीदना, बाहर हो जाओ।

शिक्षक सख्त होते हैं। शिक्षक को मित्र की तरह पाना बड़ा मुश्किल है। अर्जुन को शिक्षक मित्र की तरह मिला है, सखा की तरह मिला है। उसके कंधे पर हाथ रखकर बात चल रही है। इसलिए कई दफा वह भूल में भी पड़ जाता है और व्यर्थ के सवाल भी उठाता है।

एक फायदा होता, बुद्ध जैसा आदमी मिलता, अगर बोधिधर्म जैसा मिलता, तो बोधिधर्म तो हाथ में डंडा रखता था। वह तो अर्जुन को एकाध डंडा मार देता खोपड़ी पर, कि तू कहां की फिजूल की बकवास कर रहा है!

लेकिन कृष्ण उसकी बकवास को सुनते हैं, और प्रेम से उसे फुसलाते हैं, और एक-एक इंच उसे सरकाते हैं। वे कहते हैं, कोई फिक्र न कर, अगर नहीं भी मिला वह किनारा, तो बीच में टापू हैं स्वर्ग नाम के, उन पर तू पहुंच जाएगा। वहां बड़ा सुख है। खूब सुख भोगकर, नाव में बैठकर वापस लौट आना। अगर तुझे सुख न चाहिए हो, तो बीच में गुरुजनों के टापू हैं, जिन पर गुरुजन निवास करते हैं; उनके गुरुकुल हैं; तू उनमें प्रवेश कर जाना। वहां तू अपनी साधना को आगे बढ़ा लेना।

लेकिन एक आकांक्षा कृष्ण की है कि तू यह किनारा तो छोड़, फिर आगे देख लेंगे। नहीं कोई टापू हैं, नहीं कोई बात है। तू किनारा तो छोड़। एक दफे तू किनारा छोड़ दे, किसी भी कारण को मानकर अभी जरा साहस जुट जाए, तू भरोसा कर पाए और यात्रा पर निकल जाए–तो आगे की यात्रा तो प्रभु सम्हाल लेता है।

रामकृष्ण जगह-जगह कहे हैं, तुम नाव तो खोलो, तुम पाल तो उड़ाओ। हवाएं तो ले जाने को खुद ही तत्पर हैं। लेकिन तुम नाव ही नहीं खोलते हो, तुम पाल ही नहीं खोलते! तुम किनारे से ही जंजीरें बांधे हुए, नाव को बांधे हुए पड़े हो और चिल्ला रहे हो, उस पार कैसे पहुंचूंगा? उस पार कैसे पहुंचूंगा? क्या है विधि? क्या है मार्ग? जरा नाव तो खोलो, तुम जरा पाल तो खोलो। हवाएं तत्पर हैं तुम्हें ले जाने को।

प्रभु तो प्रत्येक को मोक्ष तक ले जाने को तत्पर है। लेकिन हम किनारा इतने जोर से पकड़ते हैं! लोग कहते हैं कि प्रभु जो है, वह ओम्नीपोटेंट है, सर्वशक्तिशाली है। मुझे नहीं जंचता। हम जैसे छोटी-छोटी ताकत के लोग भी किनारे को पकड़कर पड़े रहते हैं, हमको खींच नहीं पाता। हमारी पोटेंसी ज्यादा ही मालूम पड़ती है।

नहीं, लेकिन उसका कारण दूसरा है। असल में जो ओम्नीपोटेंट है, जो सर्वशक्तिशाली है, वह शक्ति का उपयोग कभी नहीं करता। शक्ति का उपयोग सिर्फ कमजोर ही करते हैं। सिर्फ कमजोर ही शक्ति का उपयोग करते हैं। जो पूर्ण शक्तिशाली है, वह उपयोग नहीं करता। वह प्रतीक्षा करता है कि हर्ज क्या है! आज नहीं कल; इस युग में नहीं अगले युग में; इस जन्म में नहीं अगले जन्म में; कभी तो तुम नाव खोलोगे, कभी तो तुम पाल खोलोगे, तब हमारी हवाएं तुम्हें उस पार ले चलेंगी। जल्दी क्या है? जल्दी भी तो कमजोरी का लक्षण है। इतनी जल्दी क्या है? समय कोई चुका तो नहीं जाता!

लेकिन परमात्मा का समय भला न चुके, आपका चुकता है। वह अगर जल्दी न करे, चलेगा। उसके लिए कोई भी जल्दी नहीं है, क्योंकि कोई टाइम की लिमिट नहीं है, कोई सीमा नहीं है। लेकिन हमारा तो समय सीमित है और बंधा है। हम तो चुकेंगे। वह प्रतीक्षा कर सकता है अनंत तक, लेकिन हमारी तो सीमाएं हैं, हम अनंत तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं।

लेकिन बड़ा अदभुत है। हम भी अनंत तक प्रतीक्षा करते हुए मालूम पड़ते हैं। हम भी कहते हैं कि बैठे रहेंगे। ठीक है। जब तू ही खोल देगा नाव, जब तू ही पाल को उड़ा देगा, जब तू ही झटका देगा और खींचेगा…।

और कई दफे तो ऐसा होता है कि झटका भी आ जाए, तो हम और जोर से पकड़ लेते हैं, और चीख-पुकार मचाते हैं कि सब भाई-बंधु आ जाओ, सम्हालो मुझे। कोई ले जा रहा है! कोई खींचे लिए जा रहा है!

कृष्ण अर्जुन को देखकर ये उत्तर दिए हैं, यह ध्यान में रखना। धीरे-धीरे वे ये उत्तर भी पिघला देंगे, गला देंगे। वह राजी हो जाए छलांग के लिए, बस इतना ही।

आज इतना। कल सुबह हम बात करेंगे।

लेकिन अभी जाएंगे नहीं। पांच मिनट, एक छलांग के लिए आप भी राजी हों। थोड़ा-सा किनारा छोड़ें। थोड़ी ये कीर्तन की हवाएं आएंगी, आपकी नाव के पाल में भी भर जाएं और आपको भी दूसरे किनारे की तरफ थोड़ा-सा ले जाएं, तो अच्छा है।

साथ भी दें। ताली भी बजाएं। गीत भी गाएं। डोलें भी। आनंदित हों। पांच मिनट के लिए सब भूल जाएं।


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गीता दर्शन -(भाग–3) प्रवचन–20

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आंतरिक संपदा (अध्याय—6) प्रवचन—बीसवां

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।। 43।।

और वह पुरुष वहां उस पहले शरीर में साधन किए हुए बुद्धि के संयोग को अर्थात समत्वबुद्धि योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। और हे कुरुनंदन, उसके प्रभाव से फिर अच्छी प्रकार भगवत्प्राप्ति के निमित्त यत्न करता है।

जीवन में कोई भी प्रयास खोता नहीं है। जीवन समस्त प्रयासों का जोड़ है, जो हमने कभी भी किए हैं। समय के अंतराल से अंतर नहीं पड़ता है। प्रत्येक किया हुआ कर्म, प्रत्येक किया हुआ विचार, हमारे प्राणों का हिस्सा बन जाता है। हम जब कुछ सोचते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं; जब कुछ करते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं। वह रूपांतरण हमारे साथ चलता है।

हम जो भी हैं आज, हमारे विचारों, भावों और कर्मों का जोड़ हैं। हम जो भी हैं आज, वह हमारे अतीत की पूरी शृंखला है। एक क्षण पहले तक, अनंत-अनंत जीवन में जो भी किया है, वह सब मेरे भीतर मौजूद है।

कृष्ण कह रहे हैं, इस जीवन में जिसने साधा हो योग, लेकिन सिद्ध न हो पाए अर्जुन, तो अगले जीवन में अनायास ही, जो उसने साधा था, उसे उपलब्ध हो जाता है। अनायास ही! उसे पता भी नहीं चलता। उसे यह भी पता नहीं चलता कि यह मुझे क्यों उपलब्ध हो रहा है। इसलिए कई बार बड़ी भ्रांति होती है। और इस जगत में सत्य अनायास मिल सकता है, इस तरह के जो सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं, उनके पीछे यही भ्रांति काम करती है।

कोई व्यक्ति अगर पिछले जन्म में उस जगह पहुंच गया है, जहां पानी निन्यानबे डिग्री पर उबलने लगे, और एक डिग्री कम रह गया है, वह अचानक कोई छोटी-मोटी घटना से इस जीवन में परम ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। आखिरी तिनका रह गया था ऊंट पर पड़ने को और ऊंट बैठ जाता है। पर एक छोटा-सा तिनका, अगर आप कभी वजन तौलते हैं तराजू पर रखकर, तो आपको पता है, एक छोटा-सा तिनका कम हो, तो तराजू का पलड़ा ऊपर रहता है। एक तिनका बढ़ा, तो तराजू का पलड़ा नीचे बैठ जाता है; दूसरा ऊपर उठ जाता है। एक तिनके की भी प्रतिष्ठा होती है। एक तिनके का क्या मूल्य है! इसे ऐसा समझने की कोशिश करें।

एक साध्वी, झेन साध्वी वर्षों तक अपने गुरु के पास थी। सब तरह के प्रवचन सुने, सब तरह के शास्त्र समझे, सब तरह के सिद्धांतों को जान लिया। लेकिन बस, कहीं कोई चीज अटकी थी और द्वार नहीं खुलते थे। ऐसा लगता था, चाबी हाथ में है, फिर भी ताला अनखुला ही रह जाता था। ऐसा लगता था कि मैं जानती हूं, फिर भी कुछ अंतराल था, कोई बाधा थी, कुछ दीवाल थी। कितनी ही बारीक और महीन पर्त थी, पर उस पार नहीं निकल पाती थी।

गुरु से बार-बार पूछती है कि कौन-सी बाधा है? कैसे टूटेगी?

गुरु कहता है, तू प्रतीक्षा कर। बहुत ही छोटी-सी बाधा है, अनायास ही टूट जाएगी। और बाधा इतनी छोटी है कि तू प्रयास शायद न कर पाए। बाधा बहुत छोटी है, अनायास ही टूट जाएगी। थोड़ी प्रतीक्षा कर; थोड़ी प्रतीक्षा कर।

वर्ष पर वर्ष बीत गए। वह वृद्ध भी हो गई। फिर एक दिन उसने कहा कि कब टूटेगी वह बाधा? गुरु ने आकाश की तरफ देखा और कहा कि इस पखवाड़े में शायद चांद के पूरे होने तक टूट जाए। पांच-सात दिन बचे थे चांद की पूरी रात आने को, पूर्णिमा आने को। और पूर्णिमा की रात बाधा टूटी। और ऐसी अनायास टूटी कि झेन फकीरों के इतिहास में वह कहानी बन गई।

सांझ सूरज डूब गया। चांद निकल आया। रोशनी उसकी फैलने लगी। गुरु ने, कोई दस बजे होंगे रात, उस साध्वी को कहा, मुझे प्यास लगी है, तू जाकर कुएं से पानी ले आ। जैसा जापान में करते हैं, यहां भी करते हैं। एक बांस की डंडी पर दोनों तरफ बर्तन लटका देते हैं और कुएं से पानी लाते हैं।

बांस की डंडी पर लटके हुए मिट्टी के बर्तनों को लेकर कुएं पर पानी भरने गई। पानी भरकर लौटती थी। सोचती थी कि पूर्णिमा भी आ गई। चांद भी पूरा हो गया। आधी रात भी हुई जाती है। और गुरु ने कहा था कि शायद इस बार चांद के पूरे होते-होते बात हो जाए। अभी तक हुई नहीं। और कोई आशा भी नहीं दिखाई पड़ती! और अब तो सोने का वक्त भी आ गया। अब गुरु को पानी पिलाकर, और मैं सो जाऊंगी। कब घटेगी यह बात!

और तभी अचानक उसकी बांस की डंडी टूट गई। उसके दोनों बर्तन जमीन पर गिरे; फूट गए; पानी बिखर गया। और घटना घट गई। उसने एक गीत लिखा है कि जब बर्तन नीचे गिरा, तब मैं बर्तन में देखती थी कि चांद का प्रतिबिंब बन रहा है–पानी में। फिर मिट्टी का घड़ा था; गिरा, फूटा। घड़ा भी फूट गया। पानी बिखर गया। चांद का प्रतिबिंब कहां खो गया, कुछ पता न चला। और घड़े के फूटते ही कोई चीज मेरे भीतर फूट गई। और जैसे चांद का प्रतिबिंब खो गया, ऐसे ही मैं खो गई। घड़े के फूटते ही, कुछ मेरे भीतर भी फूट गया। और जैसे चांद का प्रतिबिंब खो गया पानी में, ऐसे ही मैं खो गई। ऊपर देखा तो चांद था, भीतर देखा तो परमात्मा था। घड़े के बर्तन का प्रतिबिंब टूट गया, चांद नहीं टूट गया।

हम परमात्मा के प्रतिबिंब से ज्यादा नहीं हैं। और हमारे अहंकार का घड़ा है, और राग का पानी है, उसमें सब प्रतिबिंब बनता है वहां।

दौड़ी हुई गुरु के पास पहुंची, और कहा, कभी सोचा भी न था कि घड़े के फूटने से ज्ञान होगा! गुरु ने कहा, घड़े के फूटने से ही होता है। घड़ा कैसे फूटेगा, यही सवाल है। और तेरा घड़ा तो बहुत कमजोर था, फूटने को फूटने को ही था। कभी भी फूट सकता था। कोई ऐसे निमित्त की जरूरत थी, जिसमें कि वह जो तेरे भीतर आखिरी तिनका रखना है, वह पड़ जाए। वजन तो पूरा था, पलड़ा नीचे बैठने को था। बस, आखिरी तिनका, वह एक घड़े के फूटने से हो गया।

बहुत लोगों के जीवन में अनायास घटना घटती है।

एक बहुत अदभुत साधक और मिस्टिक, एडमंड बक ने एक किताब लिखी है, कास्मिक कांशसनेस। वह बड़ा हैरान है। न उसने कभी कुछ साधा, न कभी कोई प्रार्थना की, न कभी कोई पूजा की, न प्रभु में विश्वास करता है। अचानक एक दिन रात, अंधेरी रात में जंगल से निकल रहा है। एकांत है, झींगुरों की आवाज के सिवाय कोई आवाज नहीं है। धीमी सी चांदनी है। हवा के झोंके वृक्षों में आवाज कर रहे हैं।

अचानक, घड़ा भी नहीं फूटा–इस महिला के मामले में तो घड़ा फूटा, इसलिए घटना घटी–अचानक, बक ने लिखा है कि बस, न मालूम क्या हुआ। मेरी समझ में न पड़ा कि क्या हुआ, लगा कि जैसे मैं मर रहा हूं। बैठ गया। एक क्षण को ऐसा लगा, सिंकिंग, जैसे कोई पानी में डूब रहा हो, ऐसा डूबता जा रहा हूं। बहुत घबड़ाहट हुई। चिल्लाने की कोशिश की। लेकिन जैसा कभी-कभी सपने में हम सबको हो जाता है। चिल्लाने की कोशिश करते हैं, आवाज नहीं निकलती। हाथ उठाने की कोशिश करते हैं, हाथ नहीं उठता। तो बक ने लिखा है, न हाथ उठे, न चिल्लाने की आवाज निकले। फिर यह भी खयाल आया, कोई सुनने को भी झींगुरों के अतिरिक्त वहां है नहीं। आवाज करने से भी क्या होगा? कब आंखें बंद हो गईं। कब मैं नीचे गिर पड़ा। लगा कि मर गया।

कब मुझे होश आया, कोई आधी रात हो गई, और मैंने देखा कि मैं दूसरा आदमी हूं। वह आदमी जा चुका जो कल तक था। वह संदेह करने वाला, वह अश्रद्धालु, वह अविश्वासी, वह नास्तिक नहीं है। कोई और ही मेरे भीतर आ गया है। वृक्ष के पत्ते-पत्ते में परमात्मा दिखाई पड़ रहा है। झींगुरों की आवाज ब्रह्मनाद हो गई। और बक जीवनभर कहता रहा कि मेरी समझ के बाहर है कि उस दिन क्या हुआ! अनायास!

कृष्ण कहते हैं, पिछले जन्मों की यात्रा, अगर थोड़ी-बहुत अधूरी रह गई हो, कहीं हम चूक गए हों, तो किसी दिन अनायास, किसी जन्म में अनायास बीज फूट जाता है; दीया जल जाता है; द्वार खुल जाता है। और कई बार ऐसा होता है कि इंचभर से ही हम चूक जाते हैं। और इंचभर से चूकने के लिए कभी-कभी जन्मों की यात्रा करनी पड़ती है।

कोलेरेडो में अमेरिका में जब पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो एक बहुत अदभुत घटना घटी, मुझे प्रीतिकर रही है। जब पहली दफा सोना मिला अमेरिका के कोलेरेडो में–और आज सबसे ज्यादा सोना कोलेरेडो में है, सबसे ज्यादा सोने की खदानें हैं–तो किसानों को ऐसे ही खेत में काम करते हुए सोना मिलना शुरू हो गया। पहाड़ों पर लोग चढ़ते, और सोना मिल जाता। लोगों ने जमीनें खरीद लीं और अरबपति हो गए।

एक आदमी ने सोचा कि छोटी-मोटी जमीन क्या खरीदनी है; एक पूरा पहाड़ खरीद लिया। सब जितना पैसा था, लगा दिया। कारखाने थे, बेच दिए। पूरा पहाड़ खरीद लिया। खरबपति हो जाने की सुनिश्चित बात थी। जब छोटे-छोटे खेत में से खोदकर लोग सोना निकाल रहे थे, उसने पूरा पहाड़ खरीद लिया।

लेकिन आश्चर्य, पहाड़ पर खुदाई के बड़े-बड़े यंत्र लगवाए, लेकिन सोने का कोई पता नहीं! वह पहाड़ जैसे सोने से बिलकुल खाली था। एक टुकड़ा भी सोने का नहीं मिला। कोई तीन करोड़ रुपया उसने लगाया था पहाड़ खरीदने में, बड़ी मशीनरी ऊपर ले जाने में। लोग कुदालियों से खोदकर सोना निकाल रहे थे कोलेरेडो में। सारी दुनिया कोलेरेडो की तरफ भाग रही थी। और वह आदमी बर्बाद हो गया कोलेरेडो में जाकर। उसकी हालत ऐसी हो गई कि मशीनों को पहाड़ से उतारकर नीचे लाने के पैसे पास में न बचे कि मशीनें बेच सके। ठप्प हो गया।

अखबारों में खबर दी उसने कि मैं पूरा पहाड़ मय मशीनरी के बेचना चाहता हूं। उसके मित्रों ने कहा, कौन खरीदेगा! सारे अमेरिका में खबर हो गई है कि उस पहाड़ पर कुछ नहीं है। पर उसने कहा कि शायद कोई आदमी मिल जाए, जो मुझसे ज्यादा हिम्मतवर हो। कोई इतना पागल नहीं है, लोगों ने कहा। लेकिन उसने कहा, एक कोशिश कर लूं। क्योंकि मैं सोचता हूं, कोई मुझसे हिम्मतवर मिल सकता है।

और एक आदमी मिल गया, जिसने तीन करोड़ रुपए दिए और पूरा पहाड़ और पूरी मशीनरी खरीदी। जब उसने खरीदी, तो उसके घर के लोगों ने कहा कि तुम बिलकुल पागल हो गए हो। दूसरा आदमी बर्बाद हो गया; अब तुम बर्बाद होने जा रहे हो! उस आदमी ने कहा, जहां तक पहाड़ खोदा गया है, वहां तक सोना नहीं है, यह साफ है। इसलिए मामला काफी हो चुका है। अब सोना नीचे हो सकता है। जहां तक खोदा गया है, वहां तक नहीं है। हम भी इस झंझट से बचे। वह आदमी मेहनत कर चुका, जो बेकार मेहनत थी। अब आगे मेहनत करनी है। बहुत-सा तो कट चुका है पहाड़। कौन जाने नीचे सोना हो! लोगों ने कहा कि इस झंझट में मत पड़ो। और जमीनें बहुत हैं, जिन पर ऊपर ही सोना है। पर उस आदमी ने वह पहाड़ खरीद ही लिया।

और आश्चर्य की बात कि पहले दिन की खुदाई में ही कोलेरेडो की सबसे बड़ी सोने की खदान मिली–सिर्फ एक फुट मिट्टी की पर्त और। एक फुट मिट्टी की पर्त और! और कोलेरेडो का सबसे बड़ा सोने का भंडार उस पहाड़ पर मिला। और वह आदमी कोलेरेडो का सबसे बड़ा खरबपति हो गया।

एक फुट! कभी-कभी एक इंच से भी चूक जाते हैं। कभी-कभी आधा इंच से भी चूक जाते हैं।

तो कृष्ण कहते हैं, भय न करना अर्जुन! कितना ही चूक जाओ, जो तूने किया है, वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, वह अगले जन्म में पुनः वहीं से यात्रा शुरू होगी। समय का व्यवधान जरूर पड़ जाएगा। शायद तू समझ भी न पाए, जब अनायास घटना घटे। शायद तुझे प्रतीति भी न हो सके कि यह क्या हो रहा है। लेकिन जो तेरे साथ है, जो तेरा किया हुआ है, वह तेरे साथ होगा।

योग की दिशा में किया गया कोई भी प्रयत्न कभी खोता नहीं। प्रभु की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। उतनी यात्रा हो जाती है। हम दूसरे हो जाते हैं। प्रभु की दिशा में सोचा गया विचार भी व्यर्थ नहीं जाता है, हम उतने तो आगे बढ़ ही जाते हैं।

आश्वासन दे रहे हैं अर्जुन को कि तू इन बातों में मत पड़। तू इस भांति मत सोच कि कहीं पूरा न हो सका, तो क्या होगा! जितना भी होगा, उसकी भी अपनी अर्थवत्ता है। जितना भी तू कर लेगा, उतना भी काफी है।

एक मित्र मेरे पास आए। वे कहते हैं कि उनका नब्बे प्रतिशत मन संन्यास लेने का है, दस प्रतिशत मन संन्यास लेने का नहीं है। तो मैंने कहा, फिर क्या खयाल है? उन्होंने कहा कि तो अभी नहीं लेता हूं। तो मैंने कहा कि थोड़ा सोच रहे हैं, कि न लेना भी एक निर्णय है। और दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय ले रहे हैं, और नब्बे प्रतिशत के पक्ष में निर्णय नहीं ले रहे हैं।

वे कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत संन्यास लेने का मन है, दस प्रतिशत संदेह मन को पकड़ता है, तो अभी नहीं लेता हूं। पर उनको पता नहीं है कि यह भी निर्णय है। न लेना भी निश्चित निर्णय है। यह निर्णय दस प्रतिशत मन के पक्ष में लिया जा रहा है। और नब्बे प्रतिशत मन के पक्ष में जो निर्णय है, वह नहीं लिया जा रहा है। यह नब्बे प्रतिशत मन, मालूम होता है, उनका नहीं है; दस प्रतिशत मन उनका है।

मेरा मतलब समझे! यह नब्बे प्रतिशत मन, मालूम पड़ता है, उनका नहीं है, कम से कम इस जन्म का नहीं है। अन्यथा यह कैसे हो सकता था कि आदमी नब्बे प्रतिशत को छोड़े और दस प्रतिशत को पकड़े! दस प्रतिशत उनका है, इस जन्म का है। नब्बे प्रतिशत उनके पिछले जन्मों की यात्रा का है। उससे उन्हें कोई कांशस संबंध नहीं मालूम पड़ता कि वह मेरा है। वह ऐसा लगता है कि कोई मेरे भीतर नब्बे प्रतिशत कह रहा है कि ले लो। लेकिन मैं रुक रहा हूं। मैं दस प्रतिशत के पक्ष में हूं। वे ज्यादा देर न रुक पाएंगे, क्योंकि वह नब्बे प्रतिशत धक्के मारता ही रहेगा। और दस प्रतिशत कितनी देर जीत सकता है? कैसे जीतेगा?

लेकिन समय का व्यवधान पड़ जाएगा। जन्म भी खो सकते हैं। और वह नब्बे प्रतिशत प्रतीक्षा करेगा; और हर जन्म में धक्का देगा। हर दिन, हर रात, हर क्षण वह धक्के मारेगा। क्योंकि वह नब्बे प्रतिशत आपका बड़ा हिस्सा है, जिसे आप नहीं पहचान पा रहे हैं कि आपका है। और यह दस प्रतिशत, जिसको आप कह रहे हैं मेरा, यह सिर्फ इस जन्म का संग्रह है।

ध्यान रहे, पिछले जन्मों और इस जन्म के बीच में जो संघर्ष है, उसी के कारण मनुष्य के कांशस और अनकांशस में फासला पड़ता है। फ्रायड को अंदाज नहीं है, जुंग को अंदाज नहीं है। क्योंकि जुंग और फ्रायड की बहुत गहरी पकड़ नहीं है। बहुत ऊपर-ऊपर उनकी खोज है। फ्रायड के पास जो उत्तर है, वह बहुत साफ नहीं है, कि मनुष्य के चेतन और अचेतन में फर्क क्यों पड़ता है? व्हाइ देअर इज़ डिस्टिंक्शन? यह चेतन और अचेतन जैसे दो हिस्से क्यों हैं मनुष्य के मन के?

फ्रायड इतना ही कह सकता है कि अचेतन वह हिस्सा है, जिसको हमने दबा दिया। लेकिन क्यों दबा दिया? और फ्रायड यह भी जानता है कि वह अचेतन हिस्सा नौ गुना बड़ा है चेतन से। तो एक हिस्सा नौ गुने को दबा सकेगा? इसमें बड़ी भूल मालूम पड़ती है। फ्रायड कहता है कि अचेतन नौ गुना बड़ा है। अनकांशस नौ गुना बड़ा है कांशस से। जैसे कि बर्फ का टुकड़ा पानी में तैरता हो, तो जितना नीचे डूब जाता है, उतना अचेतन है, नौ गुना ज्यादा। जरा-सा ऊपर निकला रहता है, उतना चेतन है। अगर नौ गुना अचेतन वही हिस्सा है जो आदमी ने दबा दिया है, तो बड़े आश्चर्य की बात है कि चेतन छोटी-सी ताकत बड़ी ताकत को दबा पाती है?

नहीं; फ्रायड की थोड़ी भूल मालूम पड़ती है। यह बात सच है, यह दमन की बात में थोड़ी सच्चाई है। लेकिन अचेतन असल में वह हिस्सा है मन का, जो हमारे अतीत जन्मों से निर्मित होता है; और चेतन वह हिस्सा है हमारे मन का, जो हमारे इस जन्म से निर्मित होता है।

इस जन्म के बाद हमने जो अपना मन बनाया है, शिक्षा पाई है, संस्कार पाए हैं, धर्म, मित्र, प्रियजन, अनुभव, उनका जो जोड़ है, वह हमारा मन है, कांशस माइंड है। और उसके पीछे छिपी हुई जो अंतर्धारा है हमारे अचेतन की, अनकांशस माइंड की, वह हमारा अतीत है। वह हमारे अतीत जन्मों का समस्त संग्रह है।

निश्चित ही, वह ज्यादा ताकतवर है, लेकिन ज्यादा सक्रिय नहीं है। इन दोनों बातों में फर्क है। ज्यादा ताकत से जरूरी नहीं है कि सक्रियता ज्यादा हो। कम ताकत भी ज्यादा सक्रिय हो सकती है। असल में जो हमने इस जन्म में बनाया है, वह ऊपर है; वह हमारे मन का ऊपरी हिस्सा है, जो हमने अभी बनाया है। और जो हमारे अतीत का है, वह उतना ही गहरा है। जो हमने जितने गहरे जन्मों में बनाया है, उतना ही गहरा दबा है।

जैसे कोई आदमी के घर में धूल की पर्त जमती चली जाए वर्षों तक, तो आज सुबह जो धूल उसके घर में आएगी, वह ऊपर होगी, दिखाई पड़ेगी। और अगर हवा का झोंका आएगा, तो वर्षों की नीचे जो जमी धूल है, उसको पता भी नहीं चलेगा। ऊपर की हवा ही सक्रिय होती दिखाई पड़ेगी, ऊपर की ही धूल उड़ने लगेगी। नीचे की धूल तो निश्चिंत विश्राम करेगी। वह बहुत गहरी बैठ गई है; बहुत गहरी; अब वहां कोई झोंका नहीं पहुंचता है। कभी-कभी कोई झोंका वहां तक पहुंच जाता है। जब हम कहते हैं कि कोई विचार हमारे जीवन में प्रवेश करता है, कोई प्रेरणा, कोई इंसपेरेशन, कोई घटना, कोई व्यक्ति, कोई शब्द, कोई ध्वनि, कोई चोट जब हमारे जीवन में गहरी प्रवेश करती है और हमारी पर्तों को फाड़कर भीतर चली जाती है, तब उस भीतर की आवाज आती है।

उन मित्र को नब्बे प्रतिशत की जो आवाज आ रही है, वह किसी गहरी चोट के कारण से आ रही है। लेकिन वे चोट को झुठलाने में लगे हैं। वे बड़े दुख में पड़ गए हैं। दुख भारी है। और मन में विचार आता है कि आत्महत्या कर लें।

ध्यान रहे, जब किसी आदमी के जीवन में आत्महत्या का विचार आता है, वही क्षण संन्यास में रूपांतरित किया जा सकता है। तत्काल! क्योंकि संन्यास का अर्थ है, आत्मरूपांतरण।

जब आदमी आत्महत्या करना चाहता है, तो उसका मतलब यह है कि इस आत्मा से ऊब गया है, इससे ऊब गया है, इसको खतम कर दूं। इसके दो ढंग हैं। या तो शरीर को काट दो; इससे आत्मा खतम नहीं होती, सिर्फ धोखा पैदा होता है। वही आत्मा नए शरीर में प्रवेश करके यात्रा शुरू कर देगी। दूसरा जो सही रास्ता है, वह यह है कि इस आत्मा को ट्रांसफार्म करो, रूपांतरित करो, नया कर लो। शरीर को मारने से कुछ न होगा, आत्मा को ही बदल डालो, वह योग है।

इसलिए एक बहुत मजे की बात आपको कहूं, जिस देश में ज्यादा संन्यासी होते हैं, उस देश में आत्महत्याएं कम होती हैं। और जिस देश में संन्यासी कम होते हैं, उसमें उतनी ही मात्रा में आत्महत्याएं बढ़ जाती हैं।

आप जानकर यह हैरान होंगे कि अगर अमेरिका और भारत की आत्महत्या और संन्यासियों का आंकड़ा बिठाया जाए, तो बराबर अनुपात होगा, बराबर, एक्जेक्ट! जितने लोग यहां ज्यादा मात्रा में संन्यास लेते हैं, उतने ज्यादा लोग वहां आत्महत्या करते हैं। क्योंकि आत्महत्या का क्षण दो तरफ जा सकता है। वह एक क्राइसिस है, एक संकट है। या तो शरीर को मिटाओ, या स्वयं को मिटाओ। और ये दो दिशाएं हैं।

शरीर को मिटाने से कुछ भी नहीं होता। सिर्फ तीस-पैंतीस साल के बाद आप वहीं फिर खड़े हो जाएंगे। एक व्यर्थ की लंबी यात्रा होगी। गर्भाधारण होगा। फिर बच्चे बनेंगे। फिर शिक्षा होगी। फिर उपद्रव सब चलेगा। और फिर एक दिन आप पाएंगे कि ठीक यही क्षण आ गया, आत्महत्या का। हां, तीस-चालीस साल बाद आएगा। यह इतना समय व्यर्थ जाएगा।

संन्यास का अर्थ है, आ गई वह घड़ी, जहां हम जैसे हैं, उससे हम तृप्त न रहें। जैसे हम हैं, अब उसी को आगे खींचने में कोई प्रयोजन न रहा। उसमें बदलाहट जरूरी है। तो स्वयं को बदल डालो।

लेकिन नब्बे प्रतिशत मन कहता है, बदल डालो। पर वह पर्त गहरी है, नीचे की है, उसको आप अपनी नहीं मान पाते। वह जो ऊपर की पर्त है, उससे आपकी पहचान है। अभी ताजी है। वह आपको अपनी लगती है। मन का ऐसा नियम है।

मन का ऐसा नियम है, जो ऊपर है, वह अपना मालूम पड़ता है। क्योंकि मन ऊपर-ऊपर जीता है, सतह पर, लहरों पर। जो गहरा है, वह अपना नहीं मालूम पड़ता है।

इसलिए बहुत दफे भ्रांति होती है। जब बहुत गहरे से आवाज आती है–वह स्वयं के ही भीतर से आती है–जब बहुत गहरे से आवाज आती है, तो साधक को लगता है, कोई ऊपर से बोल रहा है। परमात्मा बोल रहा है।

परमात्मा कभी नहीं बोलता। परमात्मा तो पूरा अस्तित्व है, वह कभी नहीं बोलता, वह सदा मौन है। लेकिन स्वयं के ही इतने भीतर से आवाज आती है कि वह लगती है, किसी और की आवाज है, इतने दूर से आती मालूम पड़ती है। हम ही अपने से इतने दूर चले गए हैं। अपने घर से हम इतने दूर चले गए हैं कि अपने ही घर के भीतर से आई हुई आवाज कहीं दूर, किसी और की आवाज मालूम पड़ती है। वह अपनी ही आवाज है, अपनी ही गहरे की आवाज है, अपनी ही गहराइयों की आवाज है। पर हमारी आइडेंटिटी, हमारा तादात्म्य होता है ऊपर की पर्त से, उसको हम कहते हैं, मैं।

कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू भयभीत न हो। जो तू कर सकता है इस जीवन में, कर। अगले जीवन में वह तुझे अनायास मिल जाएगा।

इसलिए भी कहते हैं, यह भी मैं आपको याद दिला दूं, कि अगर कृष्ण जैसा आदमी यह बात कह दे, तो यह बहुत गहरे प्रवेश कर जाती है। और संभावना यह है–और इसका एक नियम और एक सूत्र और एक व्यवस्था और एक तकनीक है। कृष्ण क्यों कहते हैं यह बात? महावीर क्यों कहते हैं? बुद्ध क्यों कहते हैं? क्यों दोहराते हैं ये सारे लोग कि तुम जितना करोगे, वह अगले जन्म में अनायास तुम्हें मिल जाएगा?

वे इसलिए कहते हैं कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण जैसे व्यक्ति के संपर्क में आपके मन की जो ऊपरी पर्त है, वह खुल जाती है और भीतर तक आप सुन पाते हैं। उनकी मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का काम करती है। उनकी मौजूदगी में, आपके भीतर जो दरवाजे आप नहीं खोल पाते, खुल जाते हैं। उनकी मौजूदगी आपको बल दे जाती है, शक्ति दे जाती है, साहस दे जाती है, भरोसा दे जाती है।

तो कृष्ण जब यह कह रहे हैं कि इस जन्म का जो है अगले जन्म में अनायास मिल जाएगा, यह बात अगर अर्जुन के मन में बैठ जाए, तो अगले जन्म में जब अनायास मिलेगा, तो उसे याद भी आ जाएगी। इसलिए भी यह बात कही जाती है। तब अगले जन्म में वह याद कर सकेगा कि निश्चित ही, आज अनायास यह घट रहा है, यह कृष्ण ने कहा था। वह पहचान पाएगा; ये शब्द उसके भीतर बैठ जाएंगे।

शब्दों की भी गहराइयां हैं। व्यक्तियों की गहराइयों के साथ शब्दों की गहराइयां बढ़ती हैं। जब कोई आदमी कंठ से बोलता है, तो आपके कान से गहरा कभी नहीं जाता है। जब कोई आदमी हृदय से बोलता है, तो आपके हृदय तक जाता है। जब कोई आदमी प्राण से बोलता है, तो आपके प्राण तक जाता है। जब कोई आदमी आत्मा से बोलता है, तो आपकी आत्मा तक जाता है। और जब कोई व्यक्ति अपने परमात्मा से बोलता है, तो आपके परमात्मा तक जाता है।

गहराई उतनी ही होती है आपके भीतर, जितनी कि बोलने वाले की गहराई होती है। बोलने वाले की गहराई से ज्यादा आपके भीतर नहीं जा सकता। हां, बोलने वाले की गहराई तक भी न जाए, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि कोई आत्मा से बोले, लेकिन आपके कानों तक जाए, क्योंकि आपके कानों के आगे मार्ग ही बंद है।

तो ध्यान रखना, बोलने वाले की गहराई से ज्यादा गहरा आपके भीतर नहीं जा सकता, लेकिन बोलने वाले की गहराई से कम गहरा आपके भीतर जा सकता है।

इसलिए पुराने दिनों में एक व्यवस्था थी कि गुरु के पास शिष्य बहुत निकट में रहे। निकट में रखने का और कोई कारण न था; सिर्फ यही कारण था कि किसी क्षण में, किसी मोमेंट में शिष्य जब इतने तालमेल में आ जाए गुरु से, इतनी हार्मनी और टयूनिंग में आ जाए कि गुरु अपनी गहरी से गहरी बात उससे कह सके। वह क्षण कब आएगा, कहा नहीं जा सकता।

आप चौबीस घंटे प्रेम के क्षण में नहीं होते। चौबीस घंटे में कोई क्षण होता है, जब आपको लगता है, आप ज्यादा प्रेमपूर्ण हैं। चौबीस घंटे में कई क्षण ऐसे होते हैं, जब आपको लगता है कि आप ज्यादा क्रोधपूर्ण हैं।

भिखारी सुबह आपके दरवाजे पर भीख मांगते हैं, वे जानते हैं कि सुबह दया की ज्यादा संभावना है सांझ की बजाय। सांझ को भिखारी भीख मांगने नहीं आता, क्योंकि वह जानता है कि सांझ तक आप दिनभर भीख मांगकर खुद इतने परेशान हो गए हैं कि आपसे कोई आशा नहीं की जा सकती है। सुबह आप आ रहे हैं एक दूसरे लोक से, स्वयं के भीतर की गहराइयों से, जहां मालिक का निवास है, जहां प्रभु रहता है। सुबह-सुबह के क्षण में आपमें भी थोड़ी मालकियत होती है, थोड़ा स्वामित्व होता है। आप भी भिखारी नहीं होते। सांझ तक, बाजार के धक्के, दफ्तर की दौड़, सड़कों की चोट, सब उपद्रव सहकर आप भिखारी की हालत में पहुंच जाते हैं। सांझ आपकी हैसियत नहीं होती कि दे सकें।

इसलिए सांझ, दुनिया में किसी कोने में भीख नहीं मांगी जाती। भिखारी भी समझ गए हैं लंबे अनुभव से मनसविज्ञान, कि आदमी की बुद्धि कब काम कर सकती है दया के लिए।

ठीक ऐसे ही गहराई के क्षण भी होते हैं। इसलिए गुरु, पुराना गुरु चाहता था कि शिष्य निकट रहे, बहुत निकट रहे। ताकि किसी ऐसे क्षण में, जब भी उसे लगे कि अभी द्वार खुला है, वह कुछ डाल दे। और वह भीतर की गहराई तक पहुंच जाए।

कृष्ण को लगा है कि यह क्षण अर्जुन का गहरा है। क्यों? क्योंकि अर्जुन पहली दफा उत्सुक हो रहा है कुछ करने को। भय उसका उत्सुकता की वजह से ही है। अगर उत्सुक न होता, तो वह यह भी न पूछता कि कहीं मैं बिखर तो न जाऊंगा! कहीं ऐसा तो न होगा कि मेरी नाव रास्ते में ही डूब जाए! इसका पक्का अर्थ यह है कि दूसरी तरफ जाने की पुकार उसके मन में आ गई। दूसरे किनारे की खोज का आह्वान मिल गया। चुनौती कहीं स्वीकार कर ली गई है। इसीलिए तो भय उठा रहा है। इसीलिए भय उठा रहा है। नहीं तो भय भी नहीं उठाता। वह कहता कि ठीक है, आप जो कहते हैं, बिलकुल ठीक है।

अक्सर जो लोग एकदम से कह देते हैं कि बिलकुल ठीक है, वे वे ही लोग होते हैं, जिन्हें कोई मतलब नहीं होता। मतलब हो, तो एकदम से नहीं कह सकते कि ठीक है। क्योंकि तब प्राणों का सवाल है, कमिटमेंट है। फिर तो एक गहरा कमिटमेंट है। आदमी कहता है, बिलकुल ठीक है। घर चला जाता है। अक्सर जो लोग कहते हैं, बिलकुल ठीक है बिना सोचे-समझे, बिना भयभीत हुए–और यह मामला ऐसा है कि भयभीत होगा ही कोई। यह पूरी जिंदगी के बदलने का सवाल है। यह जिंदगी और मौत का दांव है, और भारी दांव है।

अर्जुन जब चिंतित हो गया, यह चिंतित होना शुभ लक्षण है। यह चिंता शुभ लक्षण है। इसलिए कृष्ण ने समझा कि अभी वह द्वार खुला है, अब वे उससे कह दें। कह दें उससे कि घबड़ा मत। भरोसा रख। जो तू करेगा, वह अगले जन्म में तुझे मिल जाएगा, अगर यात्रा पूरी भी न हुई तो। कुछ खोता नहीं। अगले जन्म में सुगति मिल जाती है। वैसा वातावरण मिल जाता है, जहां वह फूल अनायास खिल जाए। वैसे लोग मिल जाते हैं।

तिब्बत में एक बहुत पुरानी योगियों की कहावत है, डू नाट सीक दि मास्टर, गुरु को खोजो मत। व्हेन दि डिसाइपल इज़ रेडी, दि मास्टर एपियर्स। जब शिष्य तैयार है, तो गुरु मौजूद हो जाता है। बहुत पुरानी, कोई छः हजार वर्ष पुरानी किताब में यह सूत्र है इजिप्त की। खोजना मत गुरु को। जब शिष्य तैयार है, तो गुरु मौजूद हो जाता है।

क्योंकि जीवन के बहुत अंतर्नियम हैं, जिनका हमें खयाल भी नहीं होता, जिनका हमें पता भी नहीं होता। वे नियम काम करते रहते हैं। आपकी जितनी योग्यता होती है, उस योग्यता की व्यवस्था के लिए परमात्मा सदा ही साधन जुटा देता है।

हां, आप ही उनका उपयोग न करें, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि आप कहें कि नहीं, अभी नहीं। आपका ही वह जो ऊपर का मन है, बाधा डाल दे। आपके भीतर के मन को देखकर तो अस्तित्व ने व्यवस्था जुटा दी, लेकिन आपका ऊपर का मन बाधा डाल सकता है। बुद्ध आपके गांव से गुजरें और आप कहें कि आज तो मुश्किल है। आज तो दुकान पर ग्राहकों की भीड़ ज्यादा है।

कैसे आश्चर्य की बात है! ऐसा हुआ है। बुद्ध गांव से गुजरे हैं। पूरा गांव सुनने नहीं आया है। आखिरी वक्त; बुद्ध के पास एक आदमी भागता हुआ पहुंचा, सुभद्र। बुद्ध अपने भिक्षुओं से विदा ले चुके थे। और उन्होंने कहा कि अब मैं शांत होता हूं, शून्य होता हूं, निर्वाण में प्रवेश करता हूं। अब मैं समाधि में जाता हूं। तुम्हें कुछ पूछना तो नहीं है?

भिक्षु इकट्ठे थे, कोई लाख भिक्षु इकट्ठे थे। उन्होंने कहा, हमने इतना पाया, हम उसको ही नहीं पचा पाए। हमने इतना समझा, हम उसको ही कहां कर पाए! अब हम विदा होते आपको और कष्ट न देंगे। हमें कुछ पूछना नहीं है। आपने सब बिना पूछे दिया है। बिना मांगे आपने बरसाया है। सलाह नहीं मांगी थी, तो भी सलाह दी है। आपके हम सिर्फ ऋणी हैं, अनुगृहीत हैं। हम सिर्फ रो सकते हैं, और कुछ कह नहीं सकते।

बुद्ध ने तीन बार पूछा। बुद्ध का नियम था, हर बात तीन बार पूछते थे। अनुकंपा अदभुत है बुद्ध लोगों की। वे तीन बार पूछते थे। पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तो भी बुद्ध कहते, पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तो भी बुद्ध कहते, पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तब बुद्ध कहते, अब तू ही जिम्मेवार होगा अपनी नहीं का। तीन बार बहुत हो गया। तीन बार पूछकर बुद्ध वृक्ष के पीछे चले गए। आंखें बंद करके वे अपने प्राणों को विसर्जित करने लगे।

जो लोग भी स्वयं को जान लेते हैं, उनके लिए मृत्यु अपने ही हाथ का खेल है। वे मृत्यु में ऐसे ही प्रवेश करते हैं, जैसे आप किसी पुराने मकान को छोड़कर नए मकान में प्रवेश करते हैं। आप नहीं करते ऐसा। आपको तो एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु में घसीटकर ले जाना पड़ता है, बड़ी मुश्किल से। क्योंकि आप पुराने मकान को ऐसा जोर से पकड़ते हैं कि छोड़ते ही नहीं। हालांकि वह मकान बेकार हो चुका है; सड़ चुका है; अब उसमें जीवन संभव नहीं है। मृत्यु आती ही तभी है, जब जीवन एक मकान में असंभव हो जाता है।

लेकिन आप कहते हैं, चाहे असंभव हो जाए, चाहे मुझे अस्पताल में उलटा-सीधा लटका दो; चाहे मेरी आंख बंद रहे, नलियां मेरी नाक में पड?ी रहें आक्सीजन की, लेकिन मुझे बचाओ। देखा है अस्पताल में! लटके हैं लोग! सिर नीचा है, पैर ऊपर हैं। वजन बंधे हैं, नाक में नलियां लगी हैं। इंजेक्शन दिए जा रहे हैं। मगर वे कहते हैं कि बचाओ। मकान सड़ गया है बिलकुल; बचने के योग्य नहीं। मौत कृपा करती है कि चलो, ले चलें। तुम्हें नया मकान दे दें। वे कहते हैं, पुराना मकान। पता नहीं पुराना भी छूट जाए और नया न मिले! बेहोश पड़े रहेंगे, लेकिन बचाओ। मरना नहीं है।

जो आदमी जान लेता है, वह अपने को सहज, सहज, मकान पूरा हुआ तो वह मौत को खुद कहता है, अब ले चल। यह मकान बेकार हो गया।

तो बुद्ध अपने को विसर्जित करने लगे। नए मकान में अब वे जाने को नहीं हैं, क्योंकि अब नए मकान का कोई सवाल नहीं रहा। मकानों की जरूरत मन को रहती है। अब मन विसर्जित हो चुका है। अब बुद्ध परिनिर्वाण में प्रवेश कर रहे हैं। महाशून्य में, अस्तित्व में उनकी यात्रा हो रही है। सरिता सागर में गिर रही है, सदा के लिए।

तब सुभद्र नाम का आदमी भागा हुआ पहुंचा और उसने कहा कि बुद्ध कहां हैं? वे दिखाई नहीं पड़ते? लोग रो रहे हैं। क्या उनका अंत हो गया? एक भिक्षु ने कहा, अंत तो नहीं हुआ है। लेकिन वे अंत में प्रवेश कर रहे हैं। पर, सुभद्र ने कहा, मुझे कुछ पूछना है। उन लोगों ने कहा, तूने बड़ी देर कर दी सुभद्र! और जहां तक हमें याद है, बुद्ध तेरे गांव से कम से कम तीन या चार बार गुजरे होंगे, तब तू नहीं आया!

उसने कहा, दुकान पर बड़ी भीड़ थी। बुद्ध आते थे जरूर, लेकिन कभी ग्राहक होते; कभी पत्नी बीमार पड़ जाती; कभी बेटे को कुछ काम आ जाता; कभी शादी हो जाती। कभी तो ऐसा भी होता कि बहुत धूप होती, तो सोचता कि कौन जाए इतनी धूप में; कभी शीतकाल में आएंगे, तब चला जाऊंगा। फिर कभी शीतकाल में भी आए, तो इतनी सर्दी होती कि घर में बिस्तर में पड़े रहने का मन होता। सोचता कि कौन जाए। अब की दफा जब धूप में आएंगे, तब चला जाऊंगा। ऐसे ही तीस साल बुद्ध मेरे गांव से निकले जरूर। मेरे गांव के पास से निकले। मैं उन गांवों से निकला जिनमें बुद्ध ठहरे हुए थे। लेकिन नहीं; मैंने सोचा, फिर, फिर मिल लेंगे। आज मुझे खबर मिली कि बुद्ध तो विसर्जित हो रहे हैं। तो मैं भागा हुआ आया हूं। मुझे पूछ लेने दें।

भिक्षुओं ने कहा, सुभद्र, इसमें किसका कसूर है?

लेकिन बुद्ध की अनुकंपा, कि बुद्ध वृक्ष के पास से उठकर बाहर आ गए। और उन्होंने कहा कि मेरे जीते जी कोई आदमी खाली हाथ लौट जाए, पूछने आए और लौट जाए! अभी मैं सुन सकता था। तो मेरे ऊपर सदा के लिए एक इल्जाम रह जाएगा कि कोई जानने आया था, और मेरे पास था, जो मैं उसे कह देता। कोई हर्ज नहीं सुभद्र, तीस साल में भी आया, तो जल्दी आ गया। कुछ लोग तीस जन्मों में भी नहीं आते!

कृष्ण एक शुभ क्षण देखकर अर्जुन को कहते हैं कि उसके भीतर चली जाए यह बात। नहीं; कुछ नष्ट नहीं होगा अर्जुन! तू जो भी कमाएगा, वह तेरी संपत्ति बन जाएगी।

और ध्यान रहे, और सब तरह की संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं, सिर्फ योग में कमाई गई संपत्ति अगले जन्म में यात्रा करती है। और सब संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं। कमाया हुआ धन छूट जाएगा। बनाए हुए मकान छूट जाएंगे। इज्जत, यश छूट जाएगा। लेकिन जो बहुत गहरे तल पर किए गए कर्म हैं, शुभ या अशुभ; योग के पक्ष में या योग के विपक्ष में–पक्ष में, तो संपत्ति बन जाएगी; विपक्ष में, तो विपत्ति बन जाएगी। अगर योग के विपक्ष में जीए हैं, तो दिवालिया निकलेंगे और अगले जन्म में अनायास पाएंगे कि दिवालिया हैं। और योग के पक्ष में कुछ किया है, तो एक महासंपत्ति के मालिक होकर गुजरेंगे और अगले जन्म में पाएंगे कि सम्राट हैं।

भिखारी के घर में भी योग की संपत्ति वाला आदमी पैदा हो, तो सम्राट मालूम होता है। और सम्राट के घर में भी योग की संपत्ति से हीन आदमी पैदा हो, तो भिखारी मालूम होता है। एक आंतरिक संपदा, उसकी ही बात कृष्ण ने कही है और अर्जुन को भरोसा दिलाया है।

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।। 44।।

और वह विषयों के वश में हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही, निःसंदेह भगवत की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समत्वबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल का उल्लंघन कर जाता है।

दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। वे कहते हैं कि पिछले जन्मों में जिसने थोड़ी-सी भी यात्रा प्रभु की दिशा में की हो, वह उसकी संपदा बन गई है। अगले जन्मों में विषय और वासना में लिप्त हुआ भी प्रभु की कृपा का पात्र बन जाता है।

अगले जन्म में विषय-वासना में लिप्त हुआ भी–वैसा व्यक्ति जिसके पिछले जन्मों की यात्रा में योग का थोड़ा-सा भी संचय है, जिसने थोड़ा भी धर्म का संचय किया, जिसका थोड़ा भी पुण्य अर्जन है–वह विषय-वासनाओं में डूबा हुआ भी, प्रभु की कृपा का पात्र बना रहता है। वह उतना-सा जो उसका किया हुआ है, वह दरवाजा खुला रहता है। बाकी उसके सब दरवाजे बंद होते हैं। सब तरफ अंधकार होता है, लेकिन एक छोटे-से छिद्र से प्रभु का प्रकाश उसके भीतर उतरता है।

और ध्यान रहे, गहन अंधकार में अगर छप्पर के छेद से भी रोशनी की एक किरण आती हो, तो भी भरोसा रहता है कि सूरज बाहर है और मैं बाहर जा सकता हूं! अंधकार आत्यंतिक नहीं है, अल्टिमेट नहीं है। अंधकार के विपरीत भी कुछ है।

एक छोटी-सी किरण उतरती हो छिद्र से घने अंधकार में, तो वह छोटी-सी किरण भी उस घने अंधकार से महान हो जाती है। वह घना अंधकार उस छोटी-सी किरण को भी मिटा नहीं पाता; वह छोटी-सी किरण अंधकार को चीरकर गुजर जाती है।

कितना ही विषय-वासनाओं में डूबा हो वैसा आदमी अगले जन्मों में, लेकिन अगर छोटे-से छिद्र से भी, जो उसने निर्मित किया है, प्रभु की कृपा उसको उपलब्ध होती रहे, तो उसके रूपांतरण की संभावना सदा ही बनी रहती है। वह सदा ही प्रभु-कृपा को पाता रहता है। जगह-जगह, स्थान-स्थान, स्थितियों-स्थितियों से प्रभु की कृपा उस पर बरसती रहती है। न मालूम कितने रूपों में, न मालूम कितने आकारों में, न मालूम कितने अनजान मार्गों और द्वारों से, और न मालूम कितनी अनजान यात्राएं प्रभु की कृपा से उसकी तरफ होती रहती हैं। बाहर वह कितना ही उलझा रहे, भीतर कोई कोना प्रभु का मंदिर बना रहता है। और वह बहुत बड़ा आश्वासन है।

कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वह छोटा-सा छिद्र भी अगर निर्मित हो जाए, तो तेरे लिए बड़ा सहारा होगा।

और एक दूसरी बात, और भी क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी बात कहते हैं। कहते हैं, योग का जिज्ञासु भी, जस्ट एन इंक्वायरर; योग का जिज्ञासु भी–मुमुक्षु भी नहीं, साधक भी नहीं, सिद्ध भी नहीं–मात्र जिज्ञासु; जिसने सिर्फ योग के प्रति जिज्ञासा भी की हो, वह भी वेद में बताए गए सकाम कर्मों का उल्लंघन कर जाता है, उनसे पार निकल जाता है।

वेद में कहा है कि यज्ञ करो, तो ये फल होंगे। ऐसा दान करो, तो ऐसा स्वर्ग होगा। इस देवता को ऐसा नैवेद्य चढ़ाओ, तो स्वर्ग में यह फल मिलेगा। ऐसा करो, ऐसा करो, तो ऐसा-ऐसा फल होता है सुख की तरफ। वेद में बहुत-सी विधियां बताई हैं, जो मनुष्य को सुख की दिशा में ले जा सकती हैं। कारण है बताने का।

वेद अर्जुन जैसे स्पष्ट जिज्ञासु के लिए दिए गए वचन नहीं हैं। वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। समस्त लोगों के लिए, जितने तरह के लोग पृथ्वी पर हो सकते हैं, सब के लिए सूत्र वेद में उपलब्ध हैं। गीता तो स्पेसिफिक टीचिंग है, एक विशेष शिक्षा है। एक विशेष व्यक्ति द्वारा दी गई; विशेष व्यक्ति को दी गई। वेद किसी एक व्यक्ति के द्वारा दी गई शिक्षा नहीं है; अनेक व्यक्तियों के द्वारा दी गई शिक्षा है। एक व्यक्ति को दी गई शिक्षा नहीं, अनेक व्यक्तियों को दी गई शिक्षा है।

और वेद विश्वकोश है। क्षुद्रतम व्यक्ति से श्रेष्ठतम व्यक्ति के लिए वेद में वचन हैं। क्षुद्रतम व्यक्ति से! उस आदमी के लिए भी वेद में वचन हैं, जो कहता है कि हे प्रभु, हे देव, हे इंद्र! बगल का आदमी मेरा दुश्मन हो गया है; तू कृपा कर और इसकी गाय के दूध को नदारद कर दे। उसके लिए भी प्रार्थना है! कुछ ऐसा कर कि इस पड़ोसी की गाय दूध देना बंद कर दे।

सोच भी न पाएंगे। दुनिया का कोई धर्मग्रंथ इतनी हिम्मत न कर पाएगा कि इसको अपने में सम्मिलित कर ले। लेकिन वेद उतने ही इनक्लूसिव हैं, जितना इनक्लूसिव परमात्मा है।

जब परमात्मा इस आदमी को अपने में जगह दिए हुए है, तो वेद कहते हैं, हम भी जगह देंगे। जब परमात्मा इनकार नहीं करता कि इस आदमी को हटाओ, नष्ट करो; यह आदमी क्या बातें कर रहा है! यह कह रहा है कि हे इंद्र, मैं तेरी पूजा करता हूं, तेरी प्रार्थना, तेरी अर्चना, तेरे नैवेद्य चढ़ाता हूं, तेरे लिए यज्ञ करता हूं, तो कुछ ऐसा कर कि पड़ोसी के खेत में इस बार फसल न आए। दुश्मन के खेत जल जाएं, हमारे ही खेत में फसलें पैदा हों। दुश्मनों का नाश कर दे। जैसे बिजली गिरे किसी पर और वज्राघात होकर वह नष्ट हो जाए, ऐसा उस दुश्मन को नष्ट कर दे।

धर्मग्रंथ, और ऐसी बात को अपने भीतर जगह देता है! शोभन नहीं मालूम पड़ता। कृष्ण को भी शोभन नहीं मालूम पड़ा होगा। इसलिए कृष्ण ने कहा है कि वेदों में जिन सकाम कर्मों की–सकाम कर्म का अर्थ है, किसी वासना से किया गया पूजा-पाठ, हवन, विधि; किसी वासना से, किसी कामना से, कुछ पाने के लिए किया गया–जो भी वेदों में दी गई व्यवस्था है, जो कर्मकांड है, उसको कर-करके भी आदमी जहां पहुंचता है, योग की जिज्ञासा मात्र करने वाला, उसके पार निकल जाता है। सिर्फ जिज्ञासा मात्र करने वाला! इसका ऐसा अर्थ हुआ, अकाम भाव से जिज्ञासा मात्र करने वाला, सकाम भाव से साधना करने वाले से आगे निकल जाता है।

अकाम का इतना अदभुत रहस्य, निष्काम भाव की इतनी गहराई और निष्काम भाव का इतना शक्तिशाली होना, उसे बताने के लिए कृष्ण ने यह कहा है।

कृष्ण भी वेद से चिंतित हुए, क्योंकि वेद इस तरह की बातें बता देता है। वेद से बुद्ध भी चिंतित हुए। सच तो यह है कि हिंदुस्तान में वेद की व्यवस्थाओं के कारण ही जैन और बौद्ध धर्मों का भेद पैदा हुआ, अन्यथा शायद कभी न पैदा होता। क्योंकि तीर्थंकरों को, जैनों के तीर्थंकरों को भी लगा कि ये वेद किस तरह की बातें करते हैं!

महावीर कहते हैं कि दूसरे के लिए भी वैसा ही सोचो, जैसा अपने लिए सोचते हो; और वेद ऐसी प्रार्थना को भी जगह देता है कि दुश्मन को नष्ट कर दो! बुद्ध कहते हैं, करुणा करो उस पर भी, जो तुम्हारा हत्यारा हो। और वेद कहते हैं, पड़ोसी के जीवन को नष्ट कर दे हे देव! और इसको जगह देते हैं। बुद्ध या कृष्ण या महावीर, सभी वेद की इन व्यवस्थाओं से चिंतित हुए हैं।

लेकिन मैं आपसे कहूं, वेद का अपना ही रहस्य है। और वह रहस्य यह है कि वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। विश्वकोश का अर्थ होता है, जो भी धर्म की दिशा में संभव है, वह सभी संगृहीत है। माना कि यह आदमी दुश्मन को नष्ट करने के लिए प्रार्थना कर रहा है, लेकिन प्रार्थना कर रहा है। और प्रार्थना संकलित होनी चाहिए। यह भी आदमी है; माना बुरा है, पर है। तथ्य है, तथ्य संगृहीत होना चाहिए। और जब परमात्मा इसे स्वीकार करता है, सहता है, इसके जीवन का अंत नहीं करता; श्वास चलाता है, जीवन देता है, प्रतीक्षा करता है इसके बदलने की, तो वेद कहते हैं कि हम भी इतनी जल्दी क्यों करें! हम भी इसे स्वीकार कर लें।

वेद जैसी किताब नहीं है पृथ्वी पर, इतनी इनक्लूसिव। सब किताबें चोजेन हैं। दुनिया की सारी किताबें चुनी हुई हैं। उनमें कुछ छोड़ा गया है, कुछ चुना गया है। बुरे को हटाया गया है, अच्छे को रखा गया है। धर्मग्रंथ का मतलब ही यही होता है। धर्मग्रंथ का मतलब ही होता है कि धर्म को चुनो, अधर्म को हटाओ। वेद सिर्फ धर्मग्रंथ नहीं है; मात्र धर्मग्रंथ नहीं है। वेद पूरे मनुष्य की समस्त क्षमताओं का संग्रह है। समस्त क्षमताएं!

जान्सन ने, डाक्टर जान्सन ने अंग्रेजी का एक विश्वकोश निर्मित किया। विश्वकोश जब कोई निर्मित करता है, तो उसे गंदी गालियां भी उसमें लिखनी पड़ती हैं। लिखनी चाहिए, क्योंकि वे भी शब्द तो हैं ही और लोग उनका उपयोग तो करते ही हैं। उसमें गंदी, अभद्र, मां-बहन की गालियां, सब इकट्ठी की थीं।

बड़ा कोश था। लाखों शब्द थे। उसमें गालियां तो दस-पच्चीस ही थीं, क्योंकि ज्यादा गालियों की जरूरत नहीं होती, एक ही गाली को जिंदगीभर रिपीट करने से काम चल जाता है। गालियों में कोई ज्यादा इनवेंशन भी नहीं होते। गालियां करीब-करीब प्राचीन, सनातन चलती हैं। गाली, मैं नहीं देखता, कोई नई गाली ईजाद होती हो। कभी-कभी कोई छोटी-मोटी ईजाद होती है; वह टिकती नहीं। पुरानी गाली टिकती है, स्थिर रहती है।

एक महिला भद्रवर्गीय पहुंच गई जान्सन के पास। खोला शब्दकोश उसका और कहा कि आप जैसा भला आदमी और इस तरह की गालियां लिखता है! अंडरलाइन करके लाई थी! जान्सन ने कहा, इतने बड़े शब्दकोश में तुझे इतनी गालियां ही देखने को मिलीं! तू खोज कैसे पाई? मैं तो सोचता था, कोई खोज नहीं पाएगा। तू खोज कैसे पाई? जान्सन ने कहा, मुझे गाली और पूजा और प्रार्थना से प्रयोजन नहीं है। आदमी जो-जो शब्दों का उपयोग करता है, वे संगृहीत किए हैं।

वेद आल इनक्लूसिव है। इसलिए वेद में वह क्षुद्रतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास न मालूम कौन-सी क्षुद्र आकांक्षा लेकर गया है। वह श्रेष्ठतम आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास कोई आकांक्षा लेकर नहीं गया है। वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास जाने की हर कोशिश करता है और नहीं पहुंच पाता। और वेद में वह आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा की तरफ जाता नहीं, परमात्मा खुद उसके पास आता है। सब मिल जाएंगे।

इसलिए वेद की निंदा भी करनी बहुत आसान है। कहीं भी पन्ना खोलिए वेद का, आपको उपद्रव की चीजें मिल जाएंगी। कहीं भी। क्यों? क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत आदमी तो उपद्रव है। और वेद इसलिए बहुत रिप्रेजेंटेटिव है, बहुत प्रतिनिधि है। ऐसी प्रतिनिधि कोई किताब पृथ्वी पर नहीं है। सब किताबें क्लास रिप्रेजेंट करती हैं, किसी वर्ग का। किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं सब किताबें। वेद प्रतिनिधि है मनुष्य का, किसी वर्ग का नहीं, सबका। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके अनुकूल वक्तव्य वेद में न मिल जाए।

इसीलिए उसे वेद नाम दिया गया है। वेद का अर्थ है, नालेज। वेद का अर्थ और कुछ नहीं होता। वेद शब्द का अर्थ है, ज्ञान, जस्ट नालेज। आदमी को जो-जो ज्ञान है, वह सब संगृहीत है। चुनाव नहीं है। कौन आदमी को रखें, किसको छोड़ दें, वह नहीं है।

कृष्ण, बुद्ध, महावीर सबको इसमें अड़चन रही है। अड़चन के भी अपने-अपने रूप हैं। कृष्ण ने वेद को बिलकुल इनकार नहीं किया, लेकिन तरकीब से वेद के पार जाने वाली बात कही। कृष्ण ने कहा कि ठीक है वेद भी; सकाम आदमी के लिए है। लेकिन निष्काम की जिज्ञासा करने वाला भी, इन हवन और यज्ञ करने वाले लोगों से पार चला जाता है। महावीर और बुद्ध ने तो बिलकुल इनकार किया, और उन्होंने कहा कि वेद की बात ही मत चलाना। वेद की बात चलाई, कि नर्क में पड़ोगे। इसलिए वेद के विरोध में अवैदिक धर्म भारत में पैदा हुए, बुद्ध और महावीर के।

पर, मेरी समझ यह है कि वेद को ठीक से कभी भी नहीं समझा गया, क्योंकि इतनी आल इनक्लूसिव किताब को ठीक से समझा जाना कठिन है। क्योंकि आपके टाइप के विपरीत बातें भी उसमें होंगी, क्योंकि आपका विपरीत टाइप भी दुनिया में है। इसलिए वेद को पूरी तरह प्रेम करने वाला आदमी बहुत मुश्किल है। वह वही आदमी हो सकता है, जो परमात्मा जैसा आल इनक्लूसिव हो, नहीं तो बहुत मुश्किल है। उसको कोई न कोई खटकने वाली बात मिल जाएगी कि यह बात गड़बड़ है। वह आपके पक्ष की नहीं होगी, तो गड़बड़ हो जाएगी।

वेद में कुरान भी मिल जाएगा। वेद में बाइबिल भी मिल जाएगी। वेद में धम्मपद भी मिल जाएगा। वेद में महावीर के वचन भी मिल जाएंगे। वेद इनसाइक्लोपीडिया है। वेद को प्रयोजन नहीं है।

इसलिए महावीर को कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर के विपरीत टाइप का भी सब संग्रह वहां है। और वह विपरीत टाइप को भी कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर वाला संग्रह भी वहां है। और अड़चन सभी को होगी।

इसलिए वेद के साथ कोई भी बिना अड़चन में नहीं रह पाता। और अड़चन मिटाने के जो उपाय हुए हैं, वे बड़े खतरनाक हैं। जैसे दयानंद ने एक उपाय किया अड़चन मिटाने का। वह अड़चन मिटाने का उपाय यह है कि वेद के सब शब्दों के अर्थ ही बदल डालो। और इस तरह के अर्थ निकालो उसमें से कि वेद विश्वकोश न रह जाए, धर्मशास्त्र हो जाए; एक संगति आ जाए, बस।

यह ज्यादती है लेकिन। वेद में संगति नहीं लाई जा सकती। वेद असंगत है। वेद जानकर असंगत है, क्योंकि वेद सबको स्वीकार करता है, असंगत होगा ही।

शब्दकोश संगत नहीं हो सकता। विश्वकोश, इनसाइक्लोपीडिया संगत नहीं हो सकता। इनसाइक्लोपीडिया को अपने से विरोधी वक्तव्यों को भी जगह देनी ही पड़ेगी।

लेकिन कभी ऐसा आदमी जरूर पैदा होगा एक दिन पृथ्वी पर, जो समस्त को इतनी सहनशीलता से समझ सकेगा, सहनशीलता से, उस दिन वेद का पुनर्आविर्भाव हो सकता है। उस दिन वेद में दिखाई पड़ेगा, सब है। कंकड़-पत्थर से लेकर हीरे-जवाहरातों तक, बुझे हुए दीयों से लेकर जलते हुए महासूर्यों तक, सब है।

तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं–वह उनका अर्थ है कहने का और कारण है–वे कहते हैं कि वेदों की समस्त साधना भी तू कर डाल, सब यज्ञ कर ले, हवन कर ले, फिर भी इतना न पाएगा, जितना सिर्फ योग की जिज्ञासा से पा सकता है। और योग को साधे, तब तो बात ही अलग है। तब तो प्रश्न ही नहीं उठता। अर्जुन को भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण की चेष्टा सतत है।

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।। 45।।

अनेक जन्मों से अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न से अभ्यास करने वाला योगी, संपूर्ण पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर उस साधन के प्रभाव से परम गति को प्राप्त होता है अर्थात परमात्मा को प्राप्त होता है।

इस सूत्र में दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। जैसे-जैसे अर्जुन, उन्हें प्रतीत होता है कि समझ पाएगा, समझ पाएगा, वैसे-वैसे वे कुछ और जोड़ देते हैं। दो बातें कहते हैं। वे कहते हैं, शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है।

शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है। क्या शुद्ध होना काफी नहीं है? कठिन सवाल है। जटिल बात है। क्या शुद्ध होना काफी नहीं है? और साधन की भी जरूरत पड़ेगी? इतना ही उचित न होता कहना कि शुद्ध हुआ जिसका अंतःकरण, वह परम गति को उपलब्ध होता है?

लेकिन कृष्ण कहते हैं, अनंत जन्मों में भी शुद्ध हुआ अंतःकरण वाला व्यक्ति साधन की सहायता से परम गति को उपलब्ध होता है। मेथड, विधि की सहायता से। साधारणतः हमें लगेगा, जो शुद्ध हो गया पूरा, अब और क्या जरूरत रही साधन की? क्या परमात्मा उसे बिना किसी साधन के न मिल जाएगा?

एक छोटी-सी बात समझ लें, तो खयाल में आ जाएगी। जो शुद्ध हो जाए सब भांति और साधन का प्रयोग न किया हो, तो एक ही खतरा है, जो अंतिम बाधा बन जाता है। पायस ईगोइज्म, एक पवित्र अहंकार भीतर निर्मित होता है।

अपवित्र अहंकार तो होते ही हैं। एक आदमी कहता है कि मुझसे ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। कि मैं छाती में छुरा भोंक दूं, तो हाथ नहीं धोता और खाना खा लेता हूं। अब इसके भी दावे करने वाले लोग हैं! यह असात्विक अहंकार की घोषणा है।

ध्यान रखना कि आमतौर से हम समझते हैं कि सभी अहंकार असात्विक होते हैं, तो गलत समझते हैं। सात्विक अहंकार भी होते हैं। और सात्विक अहंकार सटल, सूक्ष्म हो जाता है।

एक आदमी कहता है, मुझसे दुष्ट कोई भी नहीं; एक आदमी कहता है, मैं तो आपके चरणों की धूल हूं। अब जो आदमी कहता है, मैं आपके चरणों की धूल हूं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं। इसका भी अहंकार है; बहुत सूक्ष्म। इसका भी दावा है। बहुत दावा शून्य मालूम पड़ता है, लेकिन दावा है। कोई दावा दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि यह भी कोई दावा हुआ कि मैं आपके चरणों की धूल हूं!

लेकिन उस आदमी की आंखों में झांकें। अगर आप उससे कहें कि तुम तो कुछ भी नहीं हो, तुमसे भी ज्यादा चरणों की धूल मैंने देखी है एक आदमी में। एक आदमी मैंने देखा, तुमसे भी ज्यादा। तुम कुछ भी नहीं हो उसके सामने। तो आप देखना कि उसके भीतर अहंकार तड़पकर रह जाएगा; बिजली कौंध जाएगी। उसकी आंखों में झलक आ जाएगी। वही झलक, जो आदमी कहता है कि मुझसे ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। मैं छाती में छुरा भोंक देता हूं, और बिना हाथ धोए पानी पीता हूं। वही झलक!

अहंकार बहुत चालाक है, दि मोस्ट कनिंग फैक्टर। बहुत चालाक तत्व है हमारे भीतर। वह हर चीज से अपने को जोड़ लेता है, हर चीज से! वह कहता है, धन है तुम्हारे पास, तो अकड़कर खड़े हो जाओ, और कहो कि जानते हो, मैं कौन हूं! मेरे पास धन है। अब तुमने अगर सोचा कि धन की वजह से अहंकार है। छोड़ दो धन। तो वह अहंकार कहेगा, तेरे से बड़ा त्यागी कोई भी नहीं। घोषणा कर दे कि मैं त्यागी हूं, महान!

आपको पता नहीं कि वही अहंकार, जो धन के पीछे छिपा था, अब त्याग के पीछे छिप गया है; त्याग को ओढ़ लिया है। और ध्यान रहे, धन वाला अहंकार तो बहुत स्थूल होता है, सबको दिखाई पड़ता है। त्याग वाला अहंकार सूक्ष्म हो जाता है और दिखाई नहीं पड़ता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, सब भांति शुद्ध हुआ व्यक्ति भी, साधन की सहायता से प्रभु को उपलब्ध होता है।

अब ये साधन की इसलिए जरूरत पड़ी। शुद्धि हो जाए, सत्व आ जाए, सब अंतःकरण बिलकुल पवित्र मालूम होने लगे, लेकिन यह प्रतीति एक चीज को बचा रखेगी, वह है मैं। उस मैं को बिना साधन के काटना असंभव है। उस मैं को साधन से काटना पड़ेगा।

और योग की जो परम विधियां हैं, वे इस मैं को काटने की विधियां हैं, जिनसे यह मैं कटेगा। बहुत तरह की विधियां योग उपयोग करता है, जिनसे कि यह मैं काटा जाए। अलग-अलग तरह के व्यक्ति के लिए अलग-अलग विधि उपयोगी होती है, जिससे यह मैं कट जाए। एक-दो घटनाएं मैं आपसे कहूं, तो खयाल में आ जाए।

सूफी फकीर हुआ बायजीद। बायजीद के पास, जिस राजधानी में वह ठहरा था, उस राजधानी का जो सबसे बड़ा धनपति था, नगर सेठ था, वह आया। उसने आकर लाखों रुपए बायजीद के चरणों में डाल दिए और कहा बायजीद, मैं सब त्याग करना चाहता हूं। स्वीकार करो! बायजीद ने कहा कि अगर तू त्याग को त्याग करना चाहे, तो मैं स्वीकार करता हूं। त्याग को स्वीकार नहीं करूंगा। त्याग को भी त्याग करना चाहे, तो स्वीकार करता हूं। उस आदमी ने कहा, मजे की बात कर रहे हैं आप। धन तो त्यागा जा सकता है; त्याग को कैसे त्यागेंगे! त्याग क्या कोई चीज है?

बायजीद ने कहा, साधन का उपयोग करेंगे; त्याग को भी त्याग करवा देंगे। उस आदमी ने कहा, करो साधन का उपयोग, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता। यह त्याग तो है ही नहीं! समझिए कि एक कमरे में मैं मौजूद हूं, तो मुझे बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन अगर मैं मौजूद नहीं हूं, तो मेरी गैर-मौजूदगी को कैसे बाहर निकाला जा सकेगा!

बायजीद ने कहा, प्यारे, जिसे तू गैर-मौजूदगी कह रहा है, वह गैर-मौजूदगी नहीं है। वह सिर्फ जो प्रकट अहंकार था, उसका अप्रकट हो जाना है। तू टेबल-कुर्सी के नीचे छिप गया है; गैर-मौजूद नहीं है। हम निकालेंगे। साधन का उपयोग करेंगे।

उसने कहा, अच्छा भाई। मैं तो सोचता था कि सब धन छोड़कर–अंतःकरण इस धन की वजह से अशुद्ध होता है–अशुद्धि के बाहर हो जाऊंगा। तुम कहते हो कि और! और क्या चाहते हो तुम?

उस फकीर ने कहा कि तू कल से एक काम कर। रोज सुबह सड़क पर बुहारी लगा, कचरे को ढो। फिर जब जरूरत होगी, आगे साधन का उपयोग करेंगे।

बड़ा कष्ट हुआ उस आदमी को। धन छोड़ देने में कष्ट न हुआ था। यह सड़क पर बुहारी लगाने में बहुत कष्ट हुआ। कई दफा मन में खयाल आता कि क्या सड़क पर बुहारी लगाना, यह कोई योग है? यह कोई साधन है? कई दफा आता बायजीद के पास, पूछने का मन होता। बायजीद कहता कि रुक, रुक। अभी पूछ मत। थोड़ा और बुहारी लगा।

बुहारी लगाते-लगाते एक महीना बीत गया, तब बायजीद एक दिन सड़क के किनारे से निकल रहा था। वह धनपति इतने आनंद से बुहारी लगा रहा था कि जैसे प्रभु का गीत गा रहा हो। उसने उसके कंधे पर हाथ रखा। उसने लौटकर भी नहीं देखा बायजीद को। वह अपनी बुहारी लगाता रहा। बायजीद ने कहा, मेरे भाई, सुनो भी! उसने कहा, व्यर्थ मेरे भजन में बाधा मत डालो। बायजीद ने कहा, चल, अब बुहारी लगाने की कोई जरूरत न रही। बुहारी लगाना भजन बन गया। एक साधन का उपयोग हुआ।

योग हजार विधियों का प्रयोग करता है। योग ने जब पहली दफा संन्यासियों को कहा कि तुम भिक्षा मांगो, तो उसका कारण सिर्फ साधन था। भिखारी बनाने के लिए नहीं था। बुद्ध खुद सड़क पर भिक्षा मांगने जाते हैं। बुद्ध को भिक्षा मांगने की क्या जरूरत थी? और जब बुद्ध के पास बड़े से बड़ा सम्राट भी दीक्षित होता है, तो वे कहते हैं, भिक्षा मांग। कई बार लोग कहते भी थे कि भिक्षा की क्या जरूरत है, हमारे घर से इंतजाम हो जाएगा! बुद्ध कहते, जिस घर को छोड़ दिया, उससे इंतजाम लेगा, तो साधन न हो पाएगा। उससे इंतजाम मत ले। तू तो सड़क पर भीख मांग। वह आदमी कहता कि कई दफा लोग ऐसा हाथ का इशारा कर देते हैं, आगे जाओ, तो बड़ा दुख होता है। बुद्ध कहते, जिस दिन दुख न हो, उस दिन तेरी भिक्षा छुड़वा देंगे। साधन हो गया।

इसलिए बुद्ध ने अपने संन्यासियों को भिक्खु कहा; भिक्षु, मांगने वाले। और अधिकतर बड़े परिवार के लोग थे बुद्ध के भिक्षुओं में, क्योंकि सम्राट वे खुद थे। उनके सारे संबंधी, उनके सब मित्र, उनकी पत्नी के संबंधी, वे सब दीक्षित हुए थे। उन सबको भीख मंगवाई रास्तों पर।

बुद्ध जब खुद अपने गांव में आए और भीख मांगने निकले, तो उनके पिता ने उनको जाकर रोका और कहा कि अब हद हुई जाती है! क्या कमी है तेरे लिए? कम से कम इस गांव में तो भीख मत मांग! मेरी इज्जत का तो कुछ खयाल कर। बुद्ध ने कहा, मैं अपनी इज्जत तो गंवा चुका। तुम्हारी भी गंवा दूं, तो साधन हो जाए। इसे कहां तक बचाए रखोगे? इसको छोड़ो! बुद्ध के पिता ने फिर भी नहीं समझा। बुद्ध के पिता ने कहा कि नासमझ, तुझे पता नहीं है।

उस बुद्ध को बुद्ध के पिता नासमझ कह रहे हैं, जिससे समझदार आदमी इस जमीन पर मुश्किल से कभी कोई होता है! लेकिन बाप का अहंकार बेटे को समझदार कैसे माने! लाखों लोग उसको समझदार मान रहे हैं। लाखों लोग उसके चरणों में सिर रख रहे हैं लेकिन बुद्ध के बाप अकड़कर खड़े हैं।

कहा, नासमझ, हमारे परिवार में, हमारी कुल-परंपरा में कभी किसी ने भीख नहीं मांगी। बुद्ध ने कहा, आपकी कुल-परंपरा में न मांगी होगी। लेकिन जहां तक मैं याद करता हूं अपने पिछले जन्मों को, मैं सदा का भिखारी हूं। मैं सदा ही भीख मांगता रहा हूं। उसी भीख मांगने की वजह से तुम्हारे घर में पैदा हो गया था; और कोई कारण न था। मगर पुरानी आदत, मैंने फिर अपना भिक्षा-पात्र उठा लिया।

जब बुद्ध अपने घर पहली बार गए बारह वर्ष के बाद, तो उनकी पत्नी ने बहुत क्रोध से अपने बेटे को कहा कि मांग ले बुद्ध से! ये तेरे पिता हैं। देख तेरे बेशर्म पिता को, ये सब छोड़कर भाग गए हैं। ये मुझे छोड़कर भाग गए हैं। ये मुझसे बिना पूछे भाग गए हैं। तू एक दिन का था, तब ये भाग गए हैं। ये तेरे पिता हैं, इनसे अपनी वसीयत मांग ले। गहरा व्यंग्य कर रही थी पत्नी। पत्नी को पता नहीं कि किससे व्यंग्य कर रही है। वह आदमी अब मौजूद ही नहीं है। शून्य में यह व्यंग्य खो जाएगा। लेकिन पत्नी को तो अभी भी पुराना पत्नी का भाव मौजूद था। उसे बुद्ध दिखाई नहीं पड़ रहे थे। वह जो सामने खड़ा था सूर्य की भांति, वह उसकी अंधी आंखों में नहीं दिखाई पड़ सकता था।

राग अंधा कर देता है; सूर्य भी नहीं दिखाई पड़ता है। बुद्ध भी बुद्ध की पत्नी को नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। पत्नी अपने बेटे से व्यंग्य करवा रही है कि मांग। हाथ फैला। बुद्ध से मांग ले कि संपत्ति क्या है? मेरे लिए क्या छोड़े जा रहे हैं? गहरा व्यंग्य था। बुद्ध के पास तो कुछ भी न था।

लेकिन उसे पता नहीं। बुद्ध के बेटे ने, राहुल ने, हाथ फैला दिए। बुद्ध ने अपना भिक्षा-पात्र उसके हाथ में रख दिया, और कहा, मैं तुझे भिक्षा मांगने की वसीयत देता हूं, तू भिक्षा मांग।

पत्नी रोने-चिल्लाने लगी कि आप यह क्या करते हैं? बाप घबड़ा गए और कहा कि तू गया, अब घर का एक ही दीया बचा, उसे भी बुझाए देता है! बुद्ध ने कहा, मैं इसी के लिए आया हूं इतनी दूर। इसकी संभावनाओं का मुझे पता है। इसकी पिछली यात्राओं का मुझे अनुभव है। तुम इसे जानते हो कि छोटा-सा बच्चा है, मैं नहीं जानता। मैं जानता हूं कि इसकी अपनी यात्रा है, जो काफी आगे निकल गई है। जरा-सी चोट की जरूरत है।

बाप नहीं समझ पाए; पत्नी नहीं समझ पाई; पर बारह साल का राहुल भिक्षा-पात्र लेकर भिक्षुओं में सम्मिलित हो गया। बहुत मां ने बुलाया; बहुत पिता ने कहा कि बेटे, तू लौट आ। इस बात में मत पड़। पर राहुल ने कहा, बात पूरी हो गई। मेरी दीक्षा हो गई।

साधन का अर्थ है, वह जो सात्विक होने का भी अहंकार बच रहेगा, उसे भी काटना पड़ता है।

अगर कोई सिर्फ शुद्ध होने की कोशिश करे, सिर्फ नैतिक होने की, तो उसको साधन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन अगर कोई योग के साथ शुद्ध होने की कोशिश करे, तो फिर साधन की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि योग का साधन साथ ही साथ विकसित होता चला जाता है।

आज इतना ही। फिर शेष हम सांझ बात करेंगे। अब थोड़ी देर साधन में प्रवेश करें।

कीर्तन भी एक साधन है। जो कर पाते हैं, उनके भीतर का अहंकार गिरेगा, टूटेगा। और आप नहीं कर पाते हैं, तो और कोई कारण नहीं; वह अहंकार भीतर बैठा है। वह कहता है, मैं पढ़ा-लिखा आदमी, युनिवर्सिटी से शिक्षित हूं, बड़ी नौकरी पर हूं, मैं ताली बजाऊं, मैं नाचूं! यह ग्रामीणों जैसा काम, मैं करूं!

वह बैठा है, साधन से टूटेगा। नहीं तो वह बड़ा होता जाएगा।

सम्मिलित हों कीर्तन में। जब सारे संन्यासी नाच रहे हैं, गीत गा रहे हैं, तब उनके साथ जुड़ें; आनंदित हों; सम्मिलित हों; गीत दोहराएं।


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गीता दर्शन–(भाग–3) प्रवचन–21

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श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है (अध्याय—6) प्रवचन—इक्कीसवां

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। 46।।

योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो।

तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है।

तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतर्साधना, और तपश्चर्या है बहिर्साधना।

अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता है–सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका इत्र-फुलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही है; दोनों का केंद्र एक ही है–भोगी का भी शरीर है और तथाकथित तपस्वी का भी शरीर है।

हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू करता है अंतस से।

योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके।

त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में लीन है।

पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही होती है, जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा?

लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है।

रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं आंख मोड़ लूं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या मैं भाग खड़ा होऊं और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूंगा नहीं, तो भी आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा।

योग अंतर-रूपांतरण है।

भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है।

लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा, या जो बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे–योगी कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान में आएगा।

तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग शरीर पर है। योगी का सारा प्रयोग अंतसचेतना पर है।

तप दिखाई पड़ने से क्या प्रयोजन है? तपस्वी को बाजार में खड़ा होने की जरूरत ही क्या है? यह प्रश्न तो अपना और परमात्मा के बीच है; यह मेरे और आपके बीच नहीं है। आप मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह सवाल नहीं है। मैं आपके संबंध में क्या कहता हूं, यह सवाल नहीं है। मेरे संबंध में परमात्मा क्या कहता है, वह सवाल है। मेरे संबंध में मैं क्या जानता हूं, वह सवाल है।

योगी की समस्त साधना, अंतर्साधना है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से महान है योगी, अर्जुन। ऐसा कहने की जरूरत पड़ी होगी, क्योंकि तपस्वी सदा ही महान दिखाई पड़ता है। जो आदमी रास्तों पर कांटे बिछाकर उन पर लेट जाए, वह स्वभावतः महान दिखाई पड़ेगा उस आदमी से, जो अपनी आरामकुर्सी में लेटकर ध्यान करता हो। महान दिखाई पड़ेगा। आरामकुर्सी में बैठना कौन-सी महानता है?

लेकिन मैं आपसे कहता हूं, कांटों पर लेटना बड़ी साधारण सर्कस की बात है, बड़ा काम नहीं है। कांटों पर, कोई भी थोड़ा-सा अभ्यास करे, तो लेट जाएगा। और अगर आपको लेटना हो, तो थोड़ी-सी बात समझने की जरूरत है, ज्यादा नहीं!

आदमी की पीठ पर ऐसे बिंदु हैं, जिनमें पीड़ा नहीं होती। अगर आपकी पीठ पर कोई कांटा चुभाए, तो कई, पच्चीस जगह ऐसी निकल आएंगी, जब आपको कांटा चुभेगा, और आप न बता सकेंगे कि कांटा चुभ रहा है। आपकी पीठ पर पच्चीसत्तीस ब्लाइंड स्पाट्स हैं, हरेक आदमी की पीठ पर। आप घर जाकर बच्चे से कहना कि जरा पीठ में कांटा चुभाओ! आपको पता चल जाएगा कि आपकी पीठ पर ब्लाइंड स्पाट्स हैं, जहां कांटा चुभेगा, लेकिन आपको पता नहीं चलेगा। बस, उन्हीं ब्लाइंड स्पाट्स का थोड़ा-सा अभ्यास करना पड़ता है। व्यवस्थित कांटे रखने पड़ते हैं, जो ब्लाइंड स्पाट्स में लग जाएं। फिर पीठ पर लेटे हुए आदमी को कांटे का पता नहीं चलता है। यह तो फिजियोलाजी की सीधी-सी ट्रिक है, इसमें कुछ मामला नहीं है।

लेकिन कांटे पर कोई आदमी लेटा हो, तो चमत्कार हो जाएगा, भीड़ इकट्ठी हो जाएगी। लेकिन कोई आदमी अगर आरामकुर्सी पर बैठकर ध्यान को शांत कर रहा हो, तो कोई भीड़ इकट्ठी नहीं होगी, किसी को पता भी नहीं चलेगा। यद्यपि ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है। ध्यान को एकाग्र करना कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है, अति कठिन काम है। क्योंकि ध्यान पारे की तरह हाथ से छिटक-छिटक जाता है। पकड़ा नहीं, कि छूट जाता है। पकड़ भी नहीं पाए, कि छूट जाता है। एक क्षण भी नहीं रुकता एक जगह। इस ध्यान को एक जगह ठहरा लेना योग है।

तपस्वी दिखाई पड़ता है; बहुत गहरी बात नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या न होगी। जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन में तपश्चर्या होगी। लेकिन जो आदमी तपश्चर्या कर रहा है, उसके जीवन में योग होगा, यह जरा कठिन मामला है। इसको खयाल में ले लें।

जो आदमी योग करता है, उसके जीवन में एक तरह की आस्टेरिटी, एक तरह की तपश्चर्या आ जाती है। वह तपश्चर्या भी सूक्ष्म होती है। वह तपश्चर्या बड़ी सूक्ष्म होती है। वह आदमी एक गहरे अर्थों में सरल हो जाता है। वह आदमी गहरे अर्थों में दुख को झेलने के लिए सदा तत्पर हो जाता है। वह आदमी सुख की मांग नहीं करता। उस आदमी पर दुख आ जाएं, तो वह चुपचाप उनको संतोष से वहन करता है। उसके जीवन में तपश्चर्या होती है। लेकिन तपश्चर्या कल्टिवेटेड नहीं होती, इतना फर्क होता है।

दुख आ जाए, तो योगी दुख को ऐसे झेलता है, जैसे वह दुख न हो। सुख आ जाए, तो ऐसे झेलता है, जैसे वह सुख न हो। योगी सुख और दुख में सम होता है।

तपस्वी? तपस्वी दुख आ जाए, इसकी प्रतीक्षा नहीं करता; अपनी तरफ से दुख का इंतजाम करता है, आयोजन करता है। अगर एक दिन भूख लगी हो और खाना न मिले, तो योगी विक्षुब्ध नहीं हो जाता; भूख को शांति से देखता है; सम रहता है। लेकिन तपस्वी? तपस्वी को भूख भी लगी हो, भोजन भी मौजूद हो, शरीर की जरूरत भी हो, भोजन भी मिलता हो, तो भी रोककर, हठ बांधकर बैठ जाता है कि भोजन नहीं करूंगा। यह आयोजित दुख है।

ध्यान रहे, भोगी सुख की आयोजना करता है, तपस्वी दुख की आयोजना करता है। अगर भोगी सिर सीधा करके खड़ा है, तो तपस्वी शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। लेकिन दोनों आयोजन करते हैं।

योगी आयोजन नहीं करता। वह कहता है, प्रभु जो देता है, उसे सम भाव से मैं लेता हूं। वह आयोजन नहीं करता। वह अपनी तरफ से न सुख का आयोजन करता, न दुख का आयोजन करता। जो मिल जाता है, उस मिल गए में शांति से ऐसे गुजर जाता है, जैसे कोई नदी से गुजरे और पानी न छुए। ऐसे गुजर जाता है, जैसे कमल के पत्ते हों पानी पर खिले; ठीक पानी पर खिले, और पानी उनका स्पर्श न करता हो। लेकिन आयोजन नहीं है।

ध्यान रहे, किसी भी चीज का आयोजन करके मन को राजी किया जा सकता है–किसी भी चीज का आयोजन करके। दुख का आयोजन करके भी दुख में सुख लिया जा सकता है।

वैज्ञानिक जानते हैं, मनोवैज्ञानिक जानते हैं उन लोगों को, जिनका नाम मैसोचिस्ट है। दुनिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है ऐसे लोगों का, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं। दूसरे को सताने में सभी मजा लेते हैं; करीब-करीब सभी। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में भी मजा लेते हैं।

आप कहेंगे, ऐसा तो आदमी नहीं होगा, जो अपने को सताने में मजा लेता हो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी बढ़ी प्रगाढ़ मात्रा में है, जो अपने को सताने में मजा लेता है। अगर उसको खुद को सताने का मौका न मिले, तो वह मौका खोजता है। वह ऐसी तरकीबें ईजाद करता है कि दुख आ जाए। जहां वह छाया में बैठ सकता था, वहां धूप में बैठता है। जहां उसे खाना मिल सकता है, वहां भूखा रह जाता है। जहां सो सकता था, वहां जगता है। जहां सपाट रास्ता था, वहां न चलकर कांटे-कबाड़ में चलता है! क्यों?

क्योंकि खुद को दुख देने से भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। खुद को दुख देकर भी पता चलता है कि मैं कुछ हूं। तुम कुछ भी नहीं हो मेरे सामने! मैं दुख झेल सकता हूं।

यह जो स्वयं को दुख देने की वृत्ति है, यह दूसरे को दुख देने की वृत्ति का ही उलटा रूप है। चाहे दूसरे को दुख दें, चाहे अपने को दुख दें, असली रस दुख देने में है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से योगी बहुत ऊपर है।

क्योंकि तपस्वी स्वयं को दुख देने की प्रक्रिया में लगा रहता है। मनोविज्ञान की भाषा में वह मैसोचिस्ट है।

मैसोच नाम का एक लेखक हुआ, जो अपने को ही कोड़े न मार ले, तब तक उसको नींद न आती थी। बिस्तर में कांटे न डाल ले, तब तक उसको नींद न आए। भोजन में जब तक थोड़ी-सी नीम न मिला ले, तब तक उससे भोजन न किया जाए। अगर हमारे मुल्क में मैसोच पैदा हुआ होता, तो हम कहते, बड़ा महात्मा है!

गांधीजी को भी नीम की चटनी भोजन के साथ खाने की आदत थी। जो भी लोग देखते थे, कहते थे, बड़ी ऊंची बात है! स्वभावतः। लुई फिशर गांधीजी को मिलने आया, तो उन्होंने लुई फिशर की भी थाली में एक बड़ी मोटी पिंडी नीम की चटनी की रखवा दी। जो भी मेहमान आता था, उसको खिलाते थे, क्योंकि खुद खाते थे। जो आदमी अपने को दुख देना सीख जाता है, वह दूसरे को भी दुख देने की चेष्टाएं करता है।

लुई फिशर ने देखा कि क्या है! और गांधीजी इतने रस से खा रहे हैं! तो उसने भी चखकर देखा, तो सब मुंह जहर हो गया। उसने सोचा कि बड़ा मुश्किल हो गया। उसके साथ रोटी लगाकर खानी, मतलब रोटी भी खराब हो जाए; सब्जी मिलाकर खाओ, सब्जी भी खराब हो जाए! पर उसने सोचा कि न खाएंगे, तो गांधीजी क्या सोचेंगे, कि मैंने इतने प्रेम से चटनी दी और न खाई। भला आदमी। उसने सोचा, इसको इकट्ठा ही गटक जाना बेहतर है सब भोजन खराब करने की बजाय। और अशुभ भी मालूम न पड़े, अशिष्टाचार भी मालूम न पड़े, इसलिए इसे एकदम एक दफा में गटक लेना अच्छा है। फिर पूरा भोजन तो खराब न हो। तो वह पूरी की पूरी चटनी गटक गया। गांधीजी ने रसोइए को कहा कि देखो, चटनी कितनी पसंद आई! और ले आओ!

लुई फिशर पर जो गुजरी होगी, वह हम समझ सकते हैं।

गांधीजी के आश्रम में एक सज्जन थे, अभी भी हैं, प्रोफेसर भंसाली। अभी उनका जन्मदिन मनाया गया। महा संत की तरह, गांधीजी के मानने वाले, भंसाली को मानते हैं। पक्के तपस्वी हैं। छः महीने तक गाय का गोबर खाकर ही रहे। तपस्वी पक्के हैं, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं! लेकिन मैसोचिस्ट हैं। इलाज होना चाहिए दिमाग का। पागलखाने में कहीं न कहीं इलाज होना चाहिए। गाय का गोबर खाना! ऐसे तो मौज है आदमी की; जो उसे खाना हो, खाए। लेकिन यह तपश्चर्या बन जाती है। आस-पास के लोग कहते हैं, क्या महान तपस्वी! गाय का गोबर खाकर जीता है! हम तो नहीं जी सकते। नहीं जी सकते, तो फिर हम कुछ भी नहीं हैं; यह बहुत महान है। यह मैसोचिज्म है।

आज मनोविज्ञान जिसको पहचानता है कि खुद को सताने की वृत्ति बीमार है, रुग्ण है। यह स्वस्थ चित्त का लक्षण नहीं है। कृष्ण हजारों साल पहले पहचानते थे। वे अर्जुन से, जो आज का मनोविज्ञान कह रहा है, वह कह रहे हैं कि तपस्वी से ऊंचा है योगी।

क्यों? क्योंकि तपस्वी तो सिर्फ, जिसको हम कहें, ऊपरी तरकीबों और ऊपरी व्यर्थ की बातों में, और अपने को कष्ट देकर रस लेता है। और चूंकि कोई आदमी खुद को कष्ट देकर रस लेता है, बाकी लोग भी उसको आदर देते हैं। क्यों आदर देते हैं? अगर एक आदमी सड़क पर खड़े होकर अपने को कोड़े मार रहा है, तो आपको आदर देने का क्या कारण है?

अगर मनसविद से पूछेंगे, गहरा जो गया है आदमी के मन में, उससे पूछेंगे, तो वे कहेंगे, इसका कारण है कि आप सैडिस्ट हैं, वह मैसोचिस्ट है। वह अपने को सताने में मजा ले रहा है, और आप दूसरे को सताने में मजा ले रहे हैं। आपने चाहा होता कि किसी को कोड़े मारें; उस तकलीफ से भी आपको बचा दिया। वह खुद ही कोड़े मार रहा है। आप भीड़ लगाकर देख रहे हैं, और चित्त प्रसन्न हो रहा है। आप दुष्ट प्रकृति के हैं, इसलिए आप उसमें रस ले रहे हैं।

अब एक आदमी गोबर खा रहा है। जो दुष्ट प्रकृति के लोग हैं, वे कहे रहे हैं, महात्मा! आप बड़ा महान कार्य कर रहे हैं। उनका वश चले, तो दूसरों को भी गोबर खिला दें। ये अपने हाथ से खाने को राजी हैं, तो उसके चरणों में सिर रखकर कह रहे हैं कि तुम बड़े अदभुत आदमी हो। और जब अहंकार को इस तरह तृप्ति दी जाए, तो वह जो स्वयं को दुख देना वाला आदमी है, वह और दुख देने लगता है। फिर यह विशियस सर्किल है; इसका कोई अंत नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगी श्रेष्ठ है तपस्वी से। फिर कहते हैं कि शास्त्र को जो जानता है, उससे योगी श्रेष्ठ है।

क्योंकि शास्त्र को जानने से सिवाय शब्दों के और क्या मिल सकता है! सत्य तो नहीं मिल सकता; शब्द ही मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, फिलासफी मिल सकती है। और सारे सिद्धांत सिर में घुस जाएंगे और मक्खियों की तरह गूंजने लगेंगे, लेकिन कोई अनुभूति उससे नहीं मिलेगी। हजार शास्त्रों को निचोड़कर कोई पी जाए, तो भी रत्तीभर, बूंदभर अनुभव उससे पैदा नहीं होगा।

कृष्ण इतनी हिम्मत की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी श्रेष्ठ है शास्त्र को जानने वाले से।

क्यों? योगी श्रेष्ठ क्यों है? ऐसा योगी भी श्रेष्ठ है, जो शास्त्र को बिलकुल न जानता हो, तो भी श्रेष्ठ है। योग ही श्रेष्ठ है।

कबीर बिलकुल नहीं जानता शास्त्र को। अगर कोई उससे पूछे, तो वह कहता है कि कागज में क्या लिखा है, हमें कुछ पता नहीं। हम तो वही जानते हैं, जो आंखन देखी है। आंख से जो देखा है, वही जानते हैं। कागज में क्या लिखा है, वह हमें पता नहीं। हम बेपढ़े-लिखे गंवार हैं। हमें कुछ पता नहीं कि कागज में क्या-क्या लिखा है। तुम्हारे वेद, तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे आगम, तुम्हारे पुराण, तुम सम्हालो। हम तो उसकी खबर देते हैं, जो हमने आंख से देखा है। मैं तो कहता आंखन देखी, कबीर कहते हैं, तू कहता है कागद लेखी। किसी पंडित से कह रहे होंगे, तू कहता है कागज की लिखी हुई, और मैं कहता हूं, आंख की देखी हुई।

शास्त्र-ज्ञान में और योगी में यही फर्क है। शास्त्र-ज्ञान का मतलब है, कागज में जो लिखा है, उसे जान लिया। उसे जान लेने से जानने का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान पैदा नहीं होता। ज्ञान तो पैदा होता है, स्वयं के दर्शन से। और दर्शन की विधि योग है। शुद्धतम चेतना शुद्ध होते-होते न्यू डायमेंशंस आफ परसेप्शन, दर्शन के नए आयाम को उपलब्ध होती है, जहां दर्शन होता है, जहां साक्षात्कार होता है, जहां हम देख पाते हैं, जहां हम जान पाते हैं।

शास्त्र-ज्ञान प्रमाण बन सकता है, सत्य नहीं। शास्त्र-ज्ञान विटनेस हो सकता है, साक्षी हो सकता है, ज्ञान नहीं। जिस दिन कोई जान लेता है, उस दिन अगर गीता को पढ़े, तो वह कह सकता है कि ठीक। गीता वही कह रही है, जो मैंने जाना। वेद को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान वही कहता है, जो मैंने जाना।

और ध्यान रहे, जो हम नहीं जानते, उसे हम कभी भी गीता में न पढ़ पाएंगे। हम वही पढ़ सकते हैं, जो हम जानते हैं। इसलिए गीता जब आप पढ़ते हैं, तो उसका अर्थ दूसरा होता है। जब आपका पड़ोसी पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जब और दूसरा पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जितने लोग पढ़ते हैं, उतने अर्थ होते हैं। होंगे ही, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही पढ़ सकता है, जो उसकी क्षमता है।

हम जब कुछ समझते हैं, तो वह व्याख्या है, वह हमारी व्याख्या है। और शब्दों से बड़ी भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। कोई कुछ समझता है, कोई कुछ समझता है। एक ही शब्द से हजार अर्थ निकलते हैं।

अभी मैं विनोद भट्ट की एक कथा पढ़ रहा था चार-छः दिन पहले। पढ़ रहा था कि एक गांव के नेता बहुत मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि कोई नया आंदोलन पकड़ में नहीं आ रहा था। और नेता का तो धंधा मर जाए, सीजन मर जाए, अगर कोई नया आंदोलन हाथ में न आए। फिर उन्होंने बहुत सोचा, फिर माथापच्ची की और उनको खयाल आया कि पहले भूमिदान आंदोलन चला, तो वह सफल नहीं हुआ। फिर भूमि-छीनो आंदोलन चला, वह भी सफल नहीं हुआ। हम पत्नी-छीनो आंदोलन क्यों न चलाएं! जिसके पास दो पत्नियां हैं, उसकी एक छीनकर उसको दे दी जाए, जिसके पास एक भी नहीं है।

पूरा गांव राजी हो गया। कई लोगों के पास पत्नियां नहीं थीं। लोगों ने कहा, यह तो बिलकुल समाजवादी प्रोग्राम है; यह तत्काल पूरा होना चाहिए। और गांव में कई लोग थे, जिनके पास दो-दो पत्नियां थीं। गांव का जमींदार था, जिसके पास दो पत्नियां थीं। सबकी नजरें उन पत्नियों पर थीं। उन्होंने कहा, कुछ न हो, हमको न भी मिली तो कोई हर्जा नहीं; जमींदार की तो छूट जाएगी। कोई फिक्र नहीं; आंदोलन चले।

आंदोलन चल पड़ा। जमींदार गांव के बाहर गया था। वह एक पत्नी को उठाकर आंदोलनकारी ले गए।

चल रहा है जुलूस। नारे लग रहे हैं। जमींदार भागा हुआ आया! नेता का पैर पकड़ लिया, और कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हो मेरे ऊपर। नेता ने कहा, अन्याय कुछ भी नहीं। अन्याय तुमने किया है। दो-दो पत्नियां रखे हो, जब कि गांव में कई लोगों के पास एक भी पत्नी नहीं है, आधी भी पत्नी नहीं है। दो-दो रखे हुए हो तुम? यह नहीं चलेगा। उसने कहा कि नहीं, आप समझ नहीं रहे हैं, बहुत अन्याय कर रहे हैं मेरे ऊपर। हाथ-पैर जोड़ता हूं। मुझ पर थोड़ा ध्यान धरो। मेरा थोड़ा खयाल करो। रोने लगा, गिड़गिड़ाने लगा।

और फिर इस भीड़ में, जब पत्नी को उठाकर लाए थे, तब तक तो सोचा था कि दो पत्नियां हैं जमींदार के पास। जब लाए तो इस बीच में देखा कि साधारण सी औरत है; नाहक परेशान हो रहे हैं। फिर जब वह इतना गिड़गिड़ाने लगा, तो नेताओं ने कहा कि झंझट भी छुड़ाओ। इस स्त्री को कोई लेने को भी राजी न होगा।

तो कहा, अच्छा तू नहीं मानता है, तो ले जा अपनी पत्नी को; हम छोड़े देते हैं।

जमींदार बोला कि आप बिलकुल गलत समझ रहे हैं। मेरा मतलब यह नहीं कि इसको लौटा दो। मेरा मतलब, दूसरी को क्यों छोड़ आए? बड़ा अन्याय कर रहे हैं। उसको भी ले जाओ।

अब जब उसने कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हैं, तो बहुत कठिन था कि नेता समझ पाता कि यह कह रहा है कि दूसरी को भी ले जाओ। मुश्किल था मामला। वह यही समझा स्वभावतः, कि इस पत्नी को छोड़ दो।

शब्द का अपने आप में अर्थ नहीं है। शब्द की व्याख्या निर्मित होती है। जब गीता में से कुछ आप पढ़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि कृष्ण जो कहते हैं, वह आप समझते हैं। आप वही समझते हैं, जो आप समझ सकते हैं। सत्य का अनुभव हो, तो गीता में सत्य का उदघाटन होता है। सत्य का अनुभव न हो और अज्ञानी के हाथ में गीता हो, तो सिवाय अज्ञान के गीता में से कोई अर्थ नहीं निकलता; निकल सकता नहीं।

शास्त्र-ज्ञान दूसरी कोटि का ज्ञान है। प्रथम कोटि का ज्ञान तो अनुभव है, स्वानुभव है। पहली कोटि का ज्ञान हो, तो शास्त्र बड़े चमकदार हैं। और पहली कोटि का ज्ञान न हो, तो शास्त्र बिलकुल रद्दी की टोकरी में, उनका कोई मूल्य नहीं है।

गीता पढ़ने अगर योगी जाएगा, तो गीता में सागर है अमृत का। और गीता पढ़ने अगर बिना योग के कोई जाएगा, तो सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। कोरे खाली शब्द हैं, ऐसे जैसे कि चली हुई कारतूस होती है। चली हुई कारतूस! कितना ही चलाओ, कुछ नहीं चलता। उठा लो सूत्र श्लोक एक गीता का, कर लो कंठस्थ! खाली कारतूस लिए घूम रहे हो; कुछ होगा नहीं। प्राण तो अपने ही अनुभव से आते हैं।

और कृष्ण खुद कहते हैं अर्जुन को, शास्त्र-ज्ञान भी नहीं है उतना श्रेष्ठ। शास्त्र-ज्ञान से भी ज्यादा श्रेष्ठ है योग।

और तीसरी बात कहते हैं, सकाम कर्मों से–किसी आशा से की गई कोई भी प्रार्थना, कोई भी पूजा, कोई भी यज्ञ–उससे योग श्रेष्ठ है। क्यों? क्योंकि योग की साधना का आधारभूत नियम, उसकी पहली कंडीशन यह है कि तुम निष्काम हो जाओ। आशा छोड़ दो, अपेक्षा छोड़ दो, फल की आकांक्षा छोड़ दो, तभी योग में प्रवेश है।

तब यज्ञ तो बहुत छोटी-सी बात हो गई, सांसारिक बात हो गई। किसी के घर में बच्चा नहीं हो रहा है, किसी के घर में धन नहीं बरस रहा है, किसी को पद नहीं मिल रहा है, किसी को कुछ नहीं हो रहा है, तो यज्ञ कर रहा है, हवन कर रहा है।

वासना और कामना से संयोजित जो भी आयोजन हैं, योग उनसे बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि योग की पहली शर्त है, निष्काम हो जाओ।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू योगी बन। तू योग को उपलब्ध हो। योग से कुछ भी नीचे, इंचभर नीचे न चलेगा। और उन्होंने अब तक योग की ही शिलाएं रखीं, आधारशिलाएं रखीं। योग की ही सीढ़ियां बनाईं। और अब वे अर्जुन से कहते हैं कि योग की यात्रा पर निकल अर्जुन। तेरा मन चाहेगा कि सकाम कोई भक्ति में लग जा, युद्ध जीत जाए, राज्य मिल जाए। लेकिन मैं कहता हूं कि सकाम होना धर्म की दिशा में सम्यक यात्रा-पथ नहीं है। तेरा मन करेगा कि योग के इतने उपद्रव में हम क्यों पड़ें! शास्त्र पढ़ लेंगे, सत्य उसमें मिल जाएगा। सरल, शार्टकट; कोई चेष्टा नहीं, कोई मेहनत नहीं। एक किताब खरीद लाते हैं। किताब को पढ़ लेते हैं। भाषा ही जाननी काफी है। सत्य मिल जाएगा। तेरा मन तुझे कहेगा, शास्त्र पढ़ लो, सत्य मिल जाएगा। कहां जाते हो योग की साधना को? पर तू सावधान रहना। शास्त्र से शब्द के अलावा कुछ भी न मिलेगा। असली शास्त्र तो तभी मिलेगा, जब सत्य तुझे मिल चुका है। उसके पूर्व नहीं, उससे अन्यथा नहीं। और तेरा मन शायद करने लगे…।

जानकर अर्जुन से ऐसा कहा है। क्योंकि अर्जुन कह रहा है कि दूसरों को मैं क्यों मारूं? दूसरे मर जाएंगे, तो बहुत दुख होगा जगत में। इससे बेहतर है, मैं अपने को ही क्यों न सता लूं! छोड़ दूं राज्य, भाग जाऊं जंगल, बैठ जाऊं झाड़ के नीचे।

अर्जुन ऐसे सैडिस्ट है। क्षत्रिय जिसको भी होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में निष्णात होना चाहिए, नहीं तो क्षत्रिय नहीं हो सकता। क्षत्रिय जिसे होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में सामर्थ्य होनी चाहिए। तो क्षत्रिय तो दूसरे को सताएगा ही। पर अगर क्षत्रिय दूसरे को सताने से किसी कारण से भी बेचैन हो जाए, तो अपने को सताना शुरू कर देगा।

इसलिए ध्यान रहे, ब्राह्मणों ने इतने तपस्वी पैदा नहीं किए, जितने क्षत्रियों ने पैदा किए इस भारत में। तपस्वियों का असली वर्ग क्षत्रियों से आया, ब्राह्मणों से नहीं। और बड़े मजे की बात है कि ब्राह्मण तो सदा दुख में जीए, दीनता में, दरिद्रता में। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने कभी भी स्वयं को दुख देने के बहुत आयोजन नहीं किए। क्षत्रियों ने किए स्वयं को दुख देने के आयोजन। बड़े से बड़े तपस्वी क्षत्रियों ने पैदा किए हैं।

उसका कारण है। और वह कारण यह है कि क्षत्रिय की तो पूरी की पूरी साधना ही होती है दूसरे को सताने की। अगर वह किसी दिन दूसरे को सताने से ऊब गया, तो वह करेगा क्या? जिस तलवार की धार आपकी तरफ थी, वह अपनी तरफ कर लेगा। अभ्यास उसका पुराना ही रहेगा। कल वह दूसरे को काटता, अब अपने को काटेगा। कल वह दूसरे को मारता, अब वह अपने को मारेगा। ब्राह्मण ने कभी भी स्वयं को सताने का बहुत बड़ा आयोजन नहीं किया है।

इसलिए जब तक ब्राह्मण इस देश में बहुत प्रतिष्ठा में थे, तब तक इस देश में तपस्वी नहीं थे, योगी थे। जब तक ब्राह्मण इस देश में प्रतिष्ठा में थे, तो तपस्वियों की कोई बहुत महत्ता न थी, योगियों की महत्ता थी।

लेकिन तपस्वियों ने योगियों की महत्ता को बुरी तरह नीचे गिराया, क्योंकि योग तो दिखाई नहीं पड़ता था। तपस्वियों ने कहना शुरू किया कि ये ब्राह्मण? ये कहते तो हैं कि हम गुरुकुल में रहते हैं, लेकिन इनके पास हजार-हजार गाएं हैं, दस-दस हजार गाएं हैं। इनके पास दूध-घी की नदियां बहती हैं। इनके पास सम्राट चरणों में सिर रखते हैं, हीरे-जवाहरात भेंट करते हैं। यह कैसा योग? यह तो भोग चल रहा है!

और बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन गुरुकुलों में, जिन वानप्रस्थ आश्रमों में ब्राह्मणों के पास आती थी संपत्ति, निश्चित ही आती थी, लेकिन उस संपत्ति के कारण उनका योग नहीं चल रहा था, ऐसी कोई बात न थी। बल्कि सच तो यह है कि वह संपत्ति इसीलिए आती थी कि जिनको भी उनमें योग की गंध मिलती थी, वे उनकी सेवा के लिए तत्पर हो जाते थे। लेकिन भीतर महायोग चल रहा था।

पर तपस्वियों ने कहा, यह कोई योग है? ये कैसे ऋषि? नहीं; ये नहीं। धूप में खड़ा हुआ, योगी होगा। भूखा, उपवास करता, योगी होगा। शरीर को गलाता, सताता, योगी होगा। रात-दिन अडिग खड़ा रहने वाला योगी होगा।

क्षत्रिय ऐसा कर सकते थे; ब्राह्मण ऐसा कर भी न सकते थे।

ब्राह्मणों के पास बहुत डेलिकेट सिस्टम थी, उनके पास शरीर तो बहुत नाजुक था। उनका कभी कोई शिक्षण तलवार चलाने का, और युद्धों में लड़ने का, और घोड़ों पर चढ़कर दौड़ने का, उनका कोई शिक्षण न था। क्षत्रियों का था। तपश्चर्या में वे उतर सकते थे सरलता से। अगर उन्हें खड़े रहना है चौबीस घंटे, तो वे खड़े रह सकते थे। ब्राह्मण तो सुखासन बनाता है। वह तो ऐसा आसन खोजता है, जिसमें सुख से बैठ जाए। वह तो नीचे आसन बिछाता है। वह तो ऐसी जगह खोजता है, जहां मच्छड़ न सताएं उसे।

क्षत्रिय खड़ा हो सकता था अधिक मच्छड़ों के बीच में। क्योंकि जिसका अभ्यास धनुष-बाणों को झेलने का हो, मच्छड़ उसको कुछ परेशान कर पाएंगे? और जिसको मच्छड़ परेशान कर दें, वह युद्ध की भूमि पर धनुष-बाण, बाण छिदेंगे जब छाती में, तो झेल पाएगा? सारी अभ्यास की बात थी।

इसलिए जब क्षत्रियों ने धर्म की साधना में गति शुरू की, तो उन्होंने तत्काल तपस्वी को प्रमुख कर दिया और योगी को पीछे कर दिया।

लेकिन कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, योग ही श्रेष्ठ है अर्जुन। क्योंकि अर्जुन के लिए भी तपश्चर्या सरल थी। अर्जुन भी तपस्वी बन सकता था आसानी से। योगी बनना कठिन था। इसलिए कृष्ण ने तीनों बातें कहीं; सकाम भी तू बन सकता है सरलता से; युद्ध तुझे जीतना, राज्य तुझे पाना। शास्त्र भी पढ़ सकता है तू आसानी से, शिक्षित है, सुसंस्कृत है। शास्त्र पढ़ने में कोई अड़चन नहीं; सत्य मुफ्त में मिलता हुआ मालूम पड़ता है। स्वयं को सताने वाला तपस्वी भी बन सकता है तू। तू क्षत्रिय है; तुझे कोई अड़चन न आएगी। लेकिन मैं कहता हूं तुझसे कि योग श्रेष्ठ है इन तीनों में। अर्जुन, तू योगी बन!

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।। 47।।

और संपूर्ण योगियों में भी, जो श्रद्धावान योगी मेरे में लगे हुए अंतरात्मा से मेरे को निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।

अंतिम श्लोक इस अध्याय का श्रद्धा पर पूरा होता है। कृष्ण कहते हैं, और श्रद्धा से मुझमें लगा हुआ योगी परम अवस्था को उपलब्ध होता है, वह मुझे सर्वाधिक मान्य है।

दो तरह के योगी हो सकते हैं। एक बिना किसी श्रद्धा के योग में लगे हुए। पूछेंगे आप, बिना किसी श्रद्धा के कोई योग में क्यों लगेगा?

बिना श्रद्धा के भी लग सकता है। बिना श्रद्धा के लगने का अर्थ यह है कि जीवन के दुखों से जो पीड?ित हो गया; जीवन के दुखों से जो छिन्न-भिन्न हो गया जिसका अंतःकरण; जीवन के दुख जिसके प्राणों में कांटे से चुभ गए; जीवन की पीड़ा से मुक्त होने के लिए कोई चेष्टा कर सकता है योग की। यह निगेटिव है। जीवन के दुख से हटना है। लेकिन जीवन के पार कोई परमात्मा है, इसकी कोई पाजिटिव श्रद्धा, इसकी कोई विधायक श्रद्धा उसमें नहीं है। इतना ही हो जाए तो काफी है कि जीवन के दुख से मुक्ति हो जाए। नहीं पाना है कोई परमात्मा, नहीं कोई मोक्ष, नहीं कोई निर्वाण। कोई श्रद्धा नहीं है कि ऐसी कोई चीज होगी। इतना ही हो जाए, तो काफी कि जीवन के दुख से छुटकारा हो जाए। जीवन के दुख से छुटकारा जिसको चाहिए, मात्र जीवन के दुख से छुटकारा जिसे चाहिए, जीवन की ऊब से भागा हुआ, जो अपने को किसी सुरक्षित अंतःस्थल में पहुंचा देना चाहता है; वह बिना परमात्मा में श्रद्धा के भी योग में संलग्न हो सकता है।

क्या वह परमात्मा को नहीं पा सकेगा? पा सकेगा, लेकिन यात्रा बहुत लंबी होगी। क्योंकि परमात्मा जो सहायता दे सकता है, वह उसे न मिल सकेगी। यह फर्क समझ लें।

इसलिए कृष्ण उसे कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लीन है, मेरी आत्मा से अपनी आत्मा को मिलाए हुए है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं। क्यों?

एक बच्चा चल रहा है रास्ते पर। कई बार बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़ना पसंद नहीं करता। उसके अहंकार को चोट लगती है। वह बाप से कहता है, छोड़ो हाथ। मैं चलूंगा। बच्चे को बड़ी पीड़ा होती है कि तुम मुझे चलने तक के योग्य नहीं मानते! मैं चल लूंगा; तुम छोड़ो मुझे। बाप छोड़ दे या बेटा झटका देकर हाथ अलग कर ले, तो भी बेटा चलना सीख जाएगा, लेकिन लंबी होगी यात्रा। भूल-चूक बहुत होगी। हाथ-पैर बहुत टूटेंगे। और जरूरी नहीं है कि इसी जन्म में चलना सीख पाए। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं।

तो बेटा चलना तो चाहता है, लेकिन अपने से अन्य में कोई श्रद्धा का भाव नहीं है। खुद के अहंकार के अतिरिक्त और किसी के प्रति कोई भाव नहीं है।

तो कृष्ण कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लगा है।

क्या फर्क पड़ेगा? यह फर्क पड़ेगा कि जो मुझमें श्रद्धा से लगा है, वह श्रम तो करेगा, लेकिन अपने ही श्रम को कभी पर्याप्त नहीं मानेगा, नाट इनफ। मेहनत पूरी करेगा, और फिर भी कहेगा कि प्रभु तेरी कृपा हो, तो ही पा सकूंगा। इसमें फर्क है। अहंकार निर्मित न हो पाएगा, श्रद्धा में जिसका जीवन है। वह कहेगा, मेहनत मैं पूरी करता हूं, लेकिन फिर भी तेरी कृपा के बगैर तो मिलना नहीं होगा। मेरी अकेले की मेहनत से क्या होगा? चलूंगा मैं जरूर, कोशिश मैं जरूर करूंगा, लेकिन मैं गिर जाऊंगा। तेरे हाथ का सहारा मुझे बना रहे। और आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह का जो चित्त है, उसका द्वार सदा ही परम शक्ति को पाने के लिए खुला रहेगा।

जो श्रद्धावान नहीं है, उसका द्वार क्लोज्ड है, उसका मन बंद है। वह कहता है, मैं काफी हूं।

लीबनिज ने कहा है, कुछ लोग ऐसे हैं, जैसे विंडोलेस कोई मकान हो, खिड़की रहित कोई मकान हो; सब द्वार-दरवाजे बंद, अंदर बैठे हैं।

श्रद्धावान व्यक्ति वह है, जिसके द्वार-दरवाजे खुले हैं। सूरज को भीतर आने की आज्ञा है। हवाओं को भीतर प्रवेश की सुविधा है। ताजगी को निमंत्रण है कि आओ। श्रद्धा का और कोई अर्थ नहीं होता। श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे भी विराट शक्ति मेरे चारों तरफ मौजूद है, मैं उसके सहारे के लिए निरंतर निवेदन कर रहा हूं। बस, और कुछ अर्थ नहीं होता।

मैं अकेला काफी नहीं हूं। क्योंकि मैं जन्मा नहीं था, तब भी वह विराट शक्ति मौजूद थी। और आज भी मेरे हृदय की धड़कन मेरे द्वारा नहीं चलती, उसके ही द्वारा चलती है। और आज भी मेरा खून मैं नहीं बहाता, वही बहाता है। और आज भी मेरी श्वास मैं नहीं लेता, वही लेता है। और कल जब मौत आएगी, तो मैं कुछ न कर सकूंगा। शायद वही मुझे अपने में वापस बुला लेगा। तो जो मुझे जन्म देता, जो मुझे जीवन देता, जो मुझे मृत्यु में ले जाता, जिसके हाथ में सारा खेल है, मैं अकड़कर यह कहूं कि मैं ही चल लूंगा, मैं ही सत्य तक पहुंच जाऊंगा, तो थोड़ी-सी भूल होगी। द्वार बंद हो जाएंगे व्यर्थ ही। विराट शक्ति मिल सकती थी सहयोग के लिए, वह न मिल पाएगी।

इसलिए अंतिम सूत्र कृष्ण कहते हैं, योग की इतनी लंबी चर्चा के बाद श्रद्धा की बात!

योग का तो अर्थ है, मैं करूंगा कुछ; श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे अकेले से न होगा। योग और श्रद्धा विपरीत मालूम पड़ेंगे। योग का अर्थ है, मैं करूंगा–विधि, साधन, प्रयोग, साधना। और श्रद्धा का अर्थ है, करूंगा जरूर; लेकिन मैं काफी नहीं हूं, तेरी भी जरूरत पड़ती रहेगी। और जहां मैं कमजोर पड़ जाऊं, तेरी शक्ति मुझे मिले। और जहां मेरे पैर डगमगाएं, तेरा बल मुझे सम्हाले। और जहां मैं भटकने लगूं, तू मुझे पुकारना। और जहां मैं गलत होने लगूं, तू मुझे इशारा करना।

और मजे की बात यह है कि जो इस भाव से चलता है, उसे इशारे मिलते हैं, सहारे मिलते हैं; उसे बल भी मिलता है, उसे शक्ति भी मिलती है। और जो इस भरोसे नहीं चलता, उसे भी मिलता है इशारा, लेकिन उसके द्वार बंद हैं, इसलिए वह नहीं देख पाता। उसे भी मिलती है शक्ति, लेकिन शक्ति दरवाजे से ही वापस लौट जाती है। उसे भी मिलता है सहारा, लेकिन वह हाथ नहीं बढ़ाता, और बढ़ा हुआ परमात्मा का हाथ वैसा का वैसा रह जाता है।

ऐसा मत समझना आप कि श्रद्धा का यह अर्थ हुआ कि जो परमात्मा में श्रद्धा करते हैं, उनको ही परमात्मा सहायता देता है। नहीं, परमात्मा तो सहायता सभी को देता है। लेकिन जो श्रद्धा करते हैं, वे उस सहायता को ले पाते हैं। और जो श्रद्धा नहीं करते, वे नहीं ले पाते हैं।

श्रद्धा का अर्थ है, ट्रस्ट। मैं एक बूंद से ज्यादा नहीं हूं इस विराट जीवन के सागर में। इस अस्तित्व में एक छोटा-सा कण हूं। इस विराट अस्तित्व में मेरी क्या हस्ती है?

योग तो कहता है कि तू अपनी हस्ती को इकट्ठा कर और श्रम कर। और श्रद्धा कहती है, अपनी हस्ती को पूरा मत मान लेना। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन हवाएं तो उसकी ही ले जाएंगी तेरी नाव को। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन नदी की धार तो उसी की है, वही ले जाएगी। नाव को खोलना जरूर, लेकिन तेरे हृदय की धड़कन भी उसी की है, वही पतवार चलाएगी। यह सदा स्मरण रखना कि कर रहा हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही करता है। चलता हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही चलता है।

ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा दीया भी सूरज की शक्ति का मालिक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा अणु भी परम ब्रह्मांड की शक्ति के साथ एक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो फिर हम अकेले नहीं हैं, फिर परमात्मा सदा साथ है।

एक छोटी-सी घटना, और मैं अपनी बात पूरी करूं।

संत थेरेसा, एक ईसाई फकीर औरत हुई। वह एक बहुत बड़ा चर्च बनाना चाहती थी; बहुत बड़ा, कि जमीन पर इतना बड़ा कोई चर्च न हो। उसके शिखर आकाश को छुएं, और उसके शिखर स्वर्णमंडित हों, और स्वर्ण में हीरे जड़े हों। वह दिन-रात उसी की कल्पना करती थी। फिर एक दिन उसने गांव में आकर कहा कि मुझे कोई कुछ दान कर दो। मैं एक बहुत बड़ा चर्च, मंदिर बनाना चाहती हूं प्रभु के लिए।

लेकिन जैसे कि सब गांव के लोग होते हैं, वैसे ही उस गांव के लोग भी थे। उसने बहुत, अगर उसके पास डब्बा रहा होगा, तो बहुत बजाया। तीन नए पैसे लोगों ने दिए। लेकिन थेरेसा नाचने लगी, और लोगों से बोली कि अब चर्च बन जाएगा। लोगों ने कहा, डब्बा तो इतना छोटा है, चर्च बहुत बड़ा। क्या डब्बा पूरा भर गया? तो भी क्या होगा?

डब्बा खोला। भरा तो क्या था, कुल तीन पैसे थे! फिर भी संत थेरेसा ने कहा कि नहीं, बन जाएगा चर्च। लोगों ने कहा, तू पागल तो नहीं हो गई। तीन पैसे में उतना बड़ा चर्च बनाने का इरादा रखती है! एक ईंट भी न आएगी! तू है दुबली-पतली गरीब औरत, और ये तीन पैसे हैं। तू + तीन पैसे! कितना बड़ा चर्च बनाने का इरादा है? हिसाब क्या है?

संत थेरेसा ने कहा, तुम एक और मौजूद है हम दोनों के बीच, उसे नहीं देख रहे हो। मैं, परमात्मा, तीन पैसे–जोड़ो। चर्च बन जाएगा। जोड़ो! मुझमें तो कुछ भी नहीं है; मुझसे क्या होगा! तीन पैसे में क्या रखा है, उससे क्या होगा! लेकिन हम दोनों की जितनी ताकत थी, वह हमने पूरी लगा दी। अब परमात्मा बीच में है, वह सम्हाल लेगा।

और जिस जगह पर संत थेरेसा ने यह कहा था, उस जगह पर संत थेरेसा का कैथेड्रल है–जमीन पर श्रेष्ठतम मंदिरों में से एक। वह अब भी खड़ा है। उस चर्च के नीचे पत्थर पर यह लिखा है कि हम हार गए इस गांव के लोग इस गरीब औरत से, जिसने कहा, तीन पैसे, मैं और धन एक और, जो तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, मुझे दिखाई पड़ता है।

श्रद्धा का इतना ही अर्थ है। श्रम आपका, शक्ति आपकी, लेकिन काफी नहीं; तीन पैसे से ज्यादा नहीं पड़ेगी। योग आपका, लेकिन तीन पैसे से ज्यादा का नहीं हो पाएगा।

इसलिए योग की इतनी चर्चा करने के बाद कृष्ण ने जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह है कि श्रद्धायुक्त जो मुझमें है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं।

इतना ही इस बार।

अब थोड़ी देर, वह जो अदृश्य है, उस अदृश्य के गीत में ये संन्यासी संलग्न होंगे। आप भी संलग्न हों। कौन जाने किस क्षण उसकी वीणा का स्वर आपके भीतर भी बजने लगे; कोई नहीं जानता।

रोकें मत। आज तो आखिरी दिन है। यह पूरा का पूरा स्थान गूंज उठे आनंद से।


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महावरी वाण्‍ाी–भाग–1 प्रवचन–1

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महावीर—वाणी (भाग—1)

ओशो

प्रथम एवं द्वितीय पर्युषण व्‍याख्‍यामाला के अंतर्गत दिनांक 18 अगस्‍त से 4 सितम्‍बर 1971 एवं 4 सितम्‍बर से 12 सितम्बर 1972 तक भगवान श्री द्वारा दिए गए 27 प्रवचनों का संकलन।

 

जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्‍यक्‍तियों में महावीर है। बड़ी है चढ़ाई। जमीन पर खड़े होकर भी गौरीशंकर के हिमाच्‍छादित शिखर को देखा जा सकता है। लेकिन जिन्‍हें चढ़ाई करनी हो और शिखर पर पहुंच कर ही शिखर को देखना हो, उन्‍हें बड़ी तैयारी की जरूरत है। दूर से भी देख सकते है महावीर को, लेकिन दूर से जो परिचय होता है वह वास्‍तिक परिचय नहीं है। महावीर में तो छलांग लगाकर ही वास्‍तविक परिचय पाया जा सकता है।

आदमी जो आज जानता है वह पहली बार जान रहा है, ऐसी भूल में पड़ने का अब कोई कारण नहीं है। आदमी बहुत बार जान लेता है और भूल जाता है। बहुत बार शिखर छू लिए गये है। और खो गये है। सभ्‍यताएं उठती है और विलीन हो जाती है।

महावीर एक बहुत बड़ी संस्‍कृति के अंतिम व्‍यक्‍ति है, जिस संस्‍कृति का विस्‍तार कम से कम दस लाख वर्ष है। महवीर जैन विचार और परंपरा और अंतिम तीर्थंकर है—चौबीसवें। शिखरकी, लहर की आखिरी ऊँचाई और महावीर के बाद वह लहर और वह सभ्‍यता और वह संस्‍कृति सब बिखर गयी। आज उन सूत्रों को समझना इसलिए कठिन है, क्‍योंकि वह पूरा का पूरा मिल्‍यू, वह वातावरण जिसमें वे सूत्र सार्थकथे आज कहीं भी नहीं है।

ओशो

मंत्र: दिव्‍य—लोक की कुंजी—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 18 अगस्‍त, 1971;

प्रथम पर्युषण व्‍याखानमाला,

पाटकर हाल बम्‍बई।

पंच—नमोकार—सूत्र

नमो अरिहंताणं।

नमो सिद्धाण।

नमो आयरियाण।

नमो उवज्झायाण।

नमो लोए सब्बसाहूणं।

एसो पंच नमुक्कारो, सब्बपावप्पणासणो।

मंगलाण च सब्बेसिं, पडमं हवइ मंगलं।।

अरिहंतों (अर्हतों) को नमस्कार। सिद्धों को नमस्कार। आचार्योंको नमस्कार। उपाध्यायों को नमस्कार। लोक संसार में सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पांच नमस्कार सर्व पापों के नाशक हैं और सर्व मंगलों में प्रथम मंगल रूप हैं।

जैसे सुबह सूरज निकले और कोई पक्षी आकाश में उड़ने के पहले अपने घोंसले के पास परों को तौले, सोचे, साहस जुटाये; या जैसे कोई नदी सतर में गिरने के करीब हो, स्वयं को खोने के निकट, पीछे लौटकर देखे, सोचे क्षण भर, ऐसा ही महावीर की वाणी में प्रवेश के पहले दो क्षण सोच लेना जरूरी है।

जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्यक्तियों में महावीर हैं। बड़ी है चढ़ाई। जमीन पर खड़े होकर भी गौरीशंकर के हिमाच्छादित शिखर को देखा जा सकता है। लेकिन जिन्हें चढ़ाई करनी हो और शिखर पर पहुंचकर ही शिखर को देखना हो, उन्हें बड़ी तैयारी की जरूरत है। दूर से भी देख सकते हैं महावीर को, लेकिन दूर से जो परिचय होता है वह वास्तविक परिचय नहीं है। महावीर में तो छलांग लगाकर ही वास्तविक परिचय पाया जा सकता है। उस छलांग के पहले जो जरूरी है वे कुछ बातें आपसे कहूं।

बहुत बार ऐसा होता है कि हमारे हाथ में निष्पत्तिया रह जाती हैं, कन्‍क्‍लूज़ंस रह जाते हैं — प्रक्रियाएं खो जाती हैं। मंजिल रह जाती है, रास्ते खो जाते हैं। शिखर तो दिखाई पड़ता है, लेकिन वह पगडंडी दिखाई नहीं पड़ती जो वहां तक पहुंचा दे। ऐसा ही यह नमोकार मंत्र भी है। यह निष्पत्ति है। इसे पच्चीस सौ वर्ष से लोग दोहराते चले आ रहे हैं। यह शिखर है, लेकिन पगडंडी जो इस नमोकार मंत्र तक पहुंचा दे, वह न मालूम कब की खो गयी है।

इसके पहले कि हम मंत्र पर बात करें, उस पगडंडी पर थोड़ा—सा मार्ग साफ कर लेना उचित होगा। क्योंकि जब तक प्रक्रिया न दिखाई पड़े तब तक निष्पत्तिया व्यर्थ हैं। और जब तक मार्ग न दिखाई पड़े, तब तक मंजिल बेबूझ होती है। और जब तक सीढ़ियां न दिखाई पड़े, तब तक दूर दिखते हुए शिखरों का कोइ भी मूल्य नहीं — वे स्वप्रवत हो जाते हैं। वे हैं भी या नहीं, इसका भी निर्णय नहीं किया जा सकता। कुछ दो—चार मार्गों से नमोकार के रास्ते को समझ लें.।

1937 में, तिब्बत और चीन के बीच बोकान पर्वत की एक गुफा में सात सौ सोलह पत्थर के रिकार्ड मिले हैं — पत्थर के। और वे हैं महावीर से दस हजार साल पुराने यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल पुराने। बड़े आश्रर्य के हैं, क्योंकि वे रिकार्ड ठीक वैसे ही हैं जैसे ग्रामोफोन का रिकार्ड होता है। ठीक उनके बीच में एक छेद है, और पत्थर पर पूब्ज हैं — जैसे कि ग्रामोफोन के रिकार्ड पर होते हैं। अब तक राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाये जा सकेंगे। लेकिन एक बात तय हो गयी है — रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डा. सर्जिएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित किया है कि वे हैं तो रिकार्ड ही। किस यंत्र पर और किस सुई के माध्यम से वे पुनरुज्जीवित हो सकेंगे, यह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता था। सात सौ सोलह हैं। सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हैं। सब पर गूब्ज हैं और उनकी पूरी तरह सफाई, धूल— धवांस जब अलग कर दी गयी और जब विद्युत यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई तब बड़ी हैरानी हुई, उनसे प्रतिपल विद्युत की किरणें विकीर्णित हो रही हैं

लेकिन क्या आदमी के पास आज से बारह हजार साल पहले ऐसी कोई व्यवस्था थी कि वह पत्थरों में कुछ रिकार्ड कर सके? तब तो हमें सारा इतिहास और ढंग से लिखना पड़ेगा।

जापान के एक पर्वत शिखर पर पच्चीस हजार वर्ष पुरानी मूर्तियों का एक समूह है। वे मूर्तियां ‘डोबू कहलाती हैं। उन मूर्तियों ने बहुत हैरानी खड़ी कर दी, क्योंकि अब तक उन मूर्तियों को समझना संभव नहीं था — लेकिन अब संभव हुआ। जिस दिन हमारे यात्री अंतरिक्ष में गये उसी दिन डोबू मूर्तियों का रहस्थ खुल गया; क्योंकि डोबू मूर्तियां उसी तरह के वस्त्र पहने हुए हैं जैसे अंतरिक्ष का यात्री पहनता है। अंतरिक्ष में यात्रियों ने, रूसी या अमरीकी एस्ट्रोनाट्स ने जिन वस्तुओं का उपयोग किया है, वे ही उन मूर्तियों के ऊपर हैं, पत्थर में खुदे हुए। वे मूर्तियां पच्चीस हजार साल पुरानी हैं। और अब इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है मानने का कि पच्चीस हजार साल पहले आदमी ने अंतरिक्ष की यात्रा की है या अंतरिक्ष के किन्हीं और ग्रहों से आदमी जमीन पर आता रहा है।

आदमी जो आज जानता है, वह पहली बार जान रहा है, ऐसी भूल में पड़ने का अब कोई कारण नहीं है। आदमी बहुत बार जान लेता है और भूल जाता है। बहुत बार शिखर छू लिये गये हैं और खो गये हैं। सभ्यतायें उठती हैं और आकाश को छूती हैं लहरों की तरह और विलीन हो जाती हैं। जब भी कोई लहर आकाश को छूती है तो सोचती है : उसके पहले किसी और लहर ने आकाश को नहीं छुआ होगा।

महावीर एक बहुत बड़ी संस्कृति के अंतिम व्यक्ति हैं, जिस संस्कृति का विस्तार कम से कम दस लाख वर्ष है। महावीर जैन विचार और परंपरा के अंतिम तीर्थंकर हैं — चौबीसवें। शिखर की, लहर की आखिरी ऊंचाई। और महावीर के बाद वह लहर और वह सभ्यता और वह संस्कृति सब बिखर गई। आज उन सूत्रों को समझना इसीलिए कठिन है; क्योंकि वह पूरा का पूरा ‘मिल्‍यू, वह वातावरण जिसमें वे सूत्र सार्थक थे, आज कहीं भी नहीं है।

ऐसा समझें कि कल तीसरा महायुद्ध हो जाए, सारी सभ्यता बिखर जाए, फिर भी लोगों के पास याद्दाश्त रह जाएगी कि लोग हवाई जहाज में उड़ते थे। हवाई जहाज तो बिखर जाएंगे, याद्दाश्त रह जाएगी। वह याद्दाश्त हजारों साल तक चलेगी और बच्चे हंसेंगे, वे कहेंगे कि कहां है हवाई जहाज, जिनकी तुम बात करते हो? ऐसा मालूम होता है कहानियां हैं, पुराण—कथाएं हैं, ‘मिथ’ हैं।

जैन चौबीस तीर्थंकरों की ऊंचाई — शरीर की ऊंचाई — बहुत काल्पनिक मालूम पड़ती है। उनमें महावीर भर की ऊंचाई आदमी की ऊंचाई है, बाकी तेईस तीर्थंकर बहुत ऊंचे हैं। इतनी ऊंचाई हो नहीं सकती; ऐसा ही वैज्ञानिकों का अब तक का खयाल था, लेकिन अब नहीं है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, जैसे—जैसे जमीन सिकुड़ती गयी है, वैसे—वैसे जमीन पर ग्रेवीटेशन, गुरुत्वाकर्षण भारी होता गया है। और जिस मात्रा में गुरुत्वाकर्षण भारी होता है, लोगों की ऊंचाई कम होती चली जाती है। आपकी दीवाल की छत पर छिपकली चलती है, आप कभी सोच नहीं सकते कि छिपकली आज से दस लाख साल पहले हाथी से बड़ा जानवर थी। वह अकेली बची है, उसकी जाति के सारे जानवर खो गये।

उतने बड़े जानवर अचानक क्यों खो गये? अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जमीन के गुरुत्वाकर्षण में कोई राज छिपा हुआ मालूम पड़ता है। अगर गुरुत्वाकर्षण और सघन होता गया तो आदमी और छोटा होता चला जाएगा। अगर आदमी चांद पर रहने लगे तो आदमी की ऊंचाई चौगुनी हो जाएगी, क्योंकि चांद पर चौगुना कम है गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी से। अगर हमने कोई और तारे और ग्रह खोज लिये जहां गुरुत्वाकर्षण और कम हो तो ऊंचाई और बड़ी हो जाएगी। इसलिए आज एकदम कथा कह देनी बहुत कठिन है।

नमोकार को जैन परंपरा ने महामंत्र कहा है। पृथ्वी पर दस—पांच ऐसे मंत्र हैं जो नमोकार की हैसियत के हैं। असल में प्रत्येक धर्म के पास एक महामंत्र अनिवार्य है, क्योंकि उसके इर्द—गिर्द ही उसकी सारी व्यवस्था, सारा भवन निर्मित होता है।

ये महामंत्र करते क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है, इनसे क्या फलित हो सकता है? आज साउंड—इलेक्ट्रानिक्स, ध्वनि—विज्ञान बहुत से नये तथ्यों के करीब पहुंच रहा है। उसमें एक तथ्य यह है कि इस जगत में पैदा की गई कोई भी ध्वनि कभी भी नष्ट नहीं होती — इस अनंत आकाश में संग्रहीत होती चली जाती है। ऐसा समझें कि जैसे आकाश भी रिकार्ड करता है, आकाश पर भी किसी सूक्ष्म तल पर ग्रूव्‍ज बन जाते हैं। इस पर रूस में इधर पंद्रह वर्षों से बहुत काम हुआ है। उस काम पर दो—तीन बातें खयाल में ले लेंगे तो आसानी हो जाएगी।

अगर एक सदभाव से भरा हुआ व्यक्ति, मंगल—कामना से भरा हुआ व्यक्ति आंख बंद करके अपने हाथ में जल से भरी हुई एक मटकी ले ले और कुछ क्षण सदभावों से भरा हुआ उस जल की मटकी को हाथ में लिए रहे — तो रूसी वैज्ञानिक कामेनिएव और अमरीकी वैज्ञानिक डा. रुडोल्फ किर, इन दो व्यक्तियों ने बहुत से प्रयोग करके यह प्रमाणित किया है कि वह जल गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाता है। केमिकली कोई फर्क नहीं होता। उस भली भावनाओं से भरे हुए, मंगल—आकांक्षाओं से भरे हुए व्यक्ति के हाथ में जल का स्पर्श जल में कोई केमिकल, कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं करता, लेकिन उस जल में फिर भी कोई गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। और वह जल अगर बीजों पर छिड़का जाए तो वे जल्दी अंकुरित होते हैं, साधारण जल की बजाय। उनमें बड़े फूल आते हैं, बड़े फल लगते हैं। वे पौधे ज्यादा स्वस्थ होते हैं, साधारण जल की बजाय।

कामेनिएव ने साधारण जल भी उन्हीं बीजों पर वैसी ही भूम में छिड़का है और यह विशेष जल भी। और रुग्ण, विक्षिप्त, निगेटिव—इमोशंस से भरे हुए व्यक्ति, निषेधात्मक—भाव से भरे हुए व्यक्ति, हत्या का विचार करनेवाले, दूसरे को नुकसान पहुंचाने का विचार करनेवाले, अमंगल की भावनाओं से भरे हुए व्यक्ति के हाथ में दिया गया जल भी बीजों पर छिड़का है — या तो वे बीज अंकुरित ही नहीं होते, या अंकुरित होते हैं तो रुग्ण अंकुरित होते हैं।

पंद्रह वर्ष हजारों प्रयणोएं के बाद यह निष्पत्ति ली जा सकी कि जल में अब तक हम सोचते थे ‘केमिस्ट्री’ ही सब कुछ है, लेकिन ‘केमिकली’ तो कोई फर्क नहीं होता, रासायनिक रूप से तीनों जलों में कोई फर्क नहीं होता, फिर भी कोई फर्क होता है; वह फर्क क्या है? और वह फर्क जल में कहां से प्रवेश करता है? निश्रित ही वह फर्क, अब तक जो भी हमारे पास उपकरण हैं, उनसे नहीं जांचा जा सकता। लेकिन वह फर्क होता है, यह परिणाम से सिद्ध होता है। क्योंकि तीनों जलों का आत्मिक रूप बदल जाता है। ‘केमिकल’ रूप तो नहीं बदलता, लेकिन तीनों जलों की आआ में कुछ रूपांतरण हो जाता है।

अगर जल में यह रूपांतरण हो सकता है तो हमारे चारों ओर फैले हुए आकाश में भी हो सकता है। मंत्र की प्राथमिक आधारशिला यही है। मंगल भावनाओं से भरा हुआ मंत्र, हमारे चारों ओर के आकाश में गुणात्मक अंतर पैदा करता है। ‘कालिटेटिव ट्रांसफामेंशन’ करता है। और उस मंत्र से भरा हुआ व्यक्ति जब आपके पास से भी गुजरता है, तब भी वह अलग तरह के आकाश से गुजरता है। उसके चारों तरफ शरीर के आसपास एक भिन्न तरह का आकाश, ‘ए डिफरेंट कालिटी आफ स्पेस’ पैदा हो जाती है।

एक दूसरे रूसी वैज्ञानिक किरलियान ने ‘हाई फ्रिकेंसी फोटोग्राफी’ विकसित की है। वह शायद आने वाले भविष्य में सबसे अनूठा प्रयोग सिद्ध होगा। अगर मेरे हाथ का चित्र लिया जाए, ‘हाई फ्रिकेंसी फोटोग्राफी’ से, जो कि बहुत संवेदनशील प्लेट्स पर होती है, तो मेरे हाथ का चित्र सिर्फ नहीं आता, मेरे हाथ के आसपास जो किरणें मेरे हाथ से निकल रही हैं, उनका चित्र भी आता है। और आश्रर्य की बात तो यह है कि अगर मैं निषेधात्मक विचारों से भरा हुआ हूं तो मेरे हाथ के आसपास जो विद्युत—पैटर्न, जो विद्युत के जाल का चित्र आता है, वह रुग्ण, बीमार, अस्वस्थ और ‘केआटिक’, अराजक होता है — विक्षिप्त होता है। जैसे किसी पागल आदमी ने लकीरें खींची हों। अगर मैं शुभ भावनाओं से, मंगल—भावनाओं से भरा हुआ हूं आनंदित हूं ‘पाजिटिव’ हूं प्रफुल्लित हूं प्रभु के प्रति अनुग्रह से भरा हुआ हूं तो मेरे हाथ के आसपास जो किरणों का चित्र आता है, किरलियान की फोटोग्राफी से, वह ‘रिद्मिमक’, लयबब्द, सुन्दरल, ‘सिमिट्रिकल ‘, सानुपातिक, और एक और ही व्यवस्था में निर्मित होता है।

किरलियान का कहना है — और किरलियान का प्रयोग तीस वर्षों की मेहनत है — किरलियान का कहना है कि बीमारी के आने के छह महीने पहले शीघ्र ही हम बताने में समर्थ हो जायेंगे कि यह आदमी बीमार होनेवाला है। क्योंकि इसके पहले कि शरीर पर बीमारी उतरे, वह जो विद्युत का वर्तुल है उस पर बीमारी उतर जाती है। मरने के पहले, इसके पहले कि आदमी मरे, वह विद्युत का वर्तुल सिकुड़ना शुरू हो जाता है और मरना शुरू हो जाता है। इसके पहले कि कोई आदमी हत्या करे किसी की, उस विद्युत के वर्तुल में हत्या के लक्षण शुरू हो जाते हैं। इसके पहले कि कोई आदमी किसी के प्रति करुणा से भरे, उस विद्युत के वर्तुल में करुणा प्रवाहित होने के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं।

किरलियान का कहना है कि केंसर पर हम तभी विजय पा सकेंगे जब शरीर को पकड़ने के पहले हम केंसर को पकड़ लें। और यह पकड़ा जा सकेगा। इसमें कोई विधि की भूल अब नहीं रह गयी है। सिर्फ प्रयोगों के और फैलाव की जरूरत है। प्रत्येक मनुष्य अपने आसपास एक आभामंडल लेकर, एक अति लेकर चलता है। आप अकेले ही नहीं चलते, आपके आसपास एक विद्युत—वर्तुल, एक ‘इलेक्ट्रो—डायनेमिक—फील्ड ‘ प्रत्येक व्यक्ति के आसपास चलता है। व्य क्ति के आसपास ही नहीं, पशुओं के आसपास भी, पौधों के आसपास भी। असल में रूसी वैज्ञानिकों का कहना है कि जीव और अजीव में एक ही फर्क किया जा सकता है, जिसके ‘ आसपास आभामंडल है वह जीवित है और जिसके पास आभामंडल नहीं है, वह मृत है।

जब आदमी मरता है तो मरने के साथ ही आभामंडल क्षीण होना शुरू हो जाता है। बहुत चकित करनेवाली और संयोग की बात है कि जब कोई आदमी मरता है तो तीन दिन लगते हैं उसके आभामंडल के विसर्जित होने में। हजारों साल से सारी दुनिया में मरने के बाद तीसरे दिन का बड़ा मूल्य रहा है। जिन लोगों ने उस तीसरे दिन को — तीसरे को इतना मूल्य दिया था, उन्हें किसी न किसी तरह इस बात का अनुभव होना ही चाहिए, क्योंकि वास्तविक मृत्यु तीसरे दिन घटित होती है। इन तीन दिनों के बीच, किसी भी दिन वैज्ञानिक उपाय खोज लेंगे, तो आदमी को पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। जब तक आभामंडल नहीं खो गया, तब तक जीवन अभी शेष है। हृदय की धड़कन बन्द हो जाने से जीवन समाप्त नहीं होता। इसलिए पिछले महायुद्ध में रूस में छह व्यक्तियों को हृदय की धड़कन बंद हो जाने के बाद पुनरुज्जीवित किया जा सका। जब तक आभामंडल चारों तरफ है, तब तक व्यक्ति सूक्ष्म तल पर अभी भी जीवन में वापस लौट सकता है। अभी सेतु कायम है। अभी रास्ता बना है वापस लौटने का।

जो व्यक्ति जितना जीवंत होता है, उसके आसपास उतना बड़ा आभामंडल होता है। हम महावीर की मूर्ति के आसपास एक आभामंडल निर्मित करते हैं — या कृष्ण, या राम, क्राइस्ट के आसपास — तो वह सिर्फ कल्पना नहीं है। वह आभामंडल देखा जा सकता है। और अब तक तो केवल वे ही देख सकते थे जिनके पास थोड़ी गहरी और सूक्ष्म—दृष्टि हो — मिस्टिक्स, संत, लेकिन 193० में एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने अब तो केमिकल, रासायनिक प्रक्रिया निर्मित कर दी है जिससे प्रत्येक व्यक्ति — कोई भी — उस माध्यम से, उस यंत्र के माध्यम से दूसरे के आभामंडल को देख सकता है।

आप सब यहां बैठे है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी आभामंडल है। जैसे आपके अंगूठे की छाप निजी—निजी है वैसे ही आपका आभामंडल भी निजी है। और आपका आभामंडल आपके संबंध में वह सब कुछ कहता है जो आप भी नहीं जानते। आपका आभामंडल आपके संबंध में बातें भी कहता है जो भविष्य में घटित होंगी। आपका आभामंडल वे बातें भी कहता है जो अभी आपके गहन अचेतन में निर्मित हो रही हैं, बीज की भांति, कल खिलेगी और प्रगट होंगी।

मंत्र आभामंडल को बदलने की आमूल प्रक्रिया है। आपके आसपास की स्पेस, और आपके आसपास का ‘इलेक्ट्रो—डायनेमिक—फील्ड ‘ बदलने की प्रक्रिया है। और प्रत्येक धर्म के पास एक महामंत्र है। जैन परम्परा के पास नमोकार है — आश्रर्यकारक घोषणा — एसो पंच नमुकारो, सब्बपावप्पणासणो। सब पाप का नाश कर दे, ऐसा महामंत्र है नमोकार। ठीक नहीं लगता। नमोकार से कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? नमोकार से सीधा पाप नष्ट नहीं होता, लेकिन नमोकार से आपके आसपास ‘इलेक्ट्रो— डायनेमिक—फील्ड ‘ रूपांतरित होता है और पाप करना असंभव हो जाता है। क्योंकि पाप करने के लिए आपके पास एक खास तरह का आभामंडल चाहिए। अगर इस मंत्र को सीधा ही सुनेंगे तो लगेगा कैसे हो सकता है? एक चोर यह मंत्र पढ लेगा तो क्या होगा? एक हत्यारा यह मंत्र पढ लेगा तो क्या होगा? कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? पाप नष्ट होता है इसलिए, कि जब आप पाप करते हैं, उसके पहले आपके पास एक विशेष तरह का, पाप का आभामंडल चाहिए — उसके बिना आप पाप नहीं कर सकते — वह आभामंडल अगर रूपांतरित हो जाए तो असंभव हो जाएगी बात, पाप करना असंभव हो जाएगा।

यह नमोकार कैसे उस आभामंडल को बदलता होगा? यह नमस्कार है, यह नमन का भाव है। नमन का अर्थ है समर्पण। यह शाब्दिक नहीं है। यह नमो अरिहंताणं, यह अरिहंतों को नमस्कार करता हूं यह शाब्दिक नहीं है, ये शब्द नहीं हैं, यह भाव है। अगर प्राणों में यह भाव सघन हो जाए कि अरिहंतों को नमस्कार करता हूं तो इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है, जो जानते हैं उनके चरणों में सिर रखता हूं। जो पहुंच गए हैं, उनके चरणों में समर्पित करता हूं। जो पा गए हैं, उनके द्वार पर मैं भिखारी बनकर खड़ा होने को तैयार हूं।

किरलियान की फोटोग्राफी ने यह भी बताने की कोशिश की है कि आपके भीतर जब भाव बदलते हैं तो आपके आसपास का विद्युत—मंडल बदलता है। और अब तो ये फोटोग्राफ उपलब्ध हैं। अगर आप अपने भीतर विचार कर रहे हैं चोरी करने का, तो आपका आभामंडल और तरह का हो जाता है — उदास, रुग्ण, खूनी रंगों से भर जाता है। आप किसी को, गिर गये को उठाने जा रहे हैं — आपके आभामंडल के रंग तत्काल बदल जाते हैं।

रूस में एक महिला है, ‘नेल्या माइखालावा। इस महिला ने पिछले पंद्रह वर्षों में रूस में आमूल क्रांति खड़ी कर दी है। और आपको यह जानकर हैरानी होगी कि मैं रूस के इन वैज्ञानिकों के नाम क्यों ले रहा हूं। कुछ कारण हैं। आज से चालीस साल पहले अमरीका के एक बहुत बड़े प्रोफेट एडगर केयसी ने, जिसको अमरीका का ‘स्लीपिंग प्रोफेट’ कहा जाता है; जो कि सो जाता था गहरी तंद्रा में, जिसे हम समाधि कहें, और उसमें वह जो भविष्यवाणियां करता था वह अब तक सभी सही निकली हैं। उसने थोड़ी भविष्यवाणियां नहीं कीं, दस हजार भविष्यवाणियां कीं। उसकी एक भविष्यवाणी चालीस साल पहले की है — उस वक्त तो सब लोग हैरान हुए थे — उसने यह भविष्यवाणी की थी कि आज से चालीस साल बाद धर्म का एक नवीन वैज्ञानिक आविर्भाव रूस से प्रारंभ होगा। रूस से? और एडगर केयसी ने चालीस साल पहले कहा, जबकि रूस में तो धर्म नष्ट किया जा रहा था, चर्च गिराये जा रहे थे, मंदिर हटाये जा रहे थे, पादरी—पुरोहित साइबेरिया भेजे जा रहे थे। उन क्षणों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि रूस में जन्म होगा। रूस अकेली भूमि थी उस समय जमीन पर जहां धर्म पहली दफे व्यवस्थित रूप से नष्ट किया जा रहा था, जहां पहली दफा नास्तिकों के हाथ में सत्ता थी। पूरे मनुष्य जाति के इतिहास में जहां पहली बार नास्तिकों ने एक संगठित प्रयास किया था — आस्तिकों के संगठित प्रयास तो होते रहे है। और केयसी की यह घोषणा कि चालीस साल बाद रूस से जन्म होगा!

असल में जैसे ही रूस पर नास्तिकता अति आग्रहपूर्ण हो गयी तो जीवन का एक नियम है कि जीवन एक तरह का संतुलन निर्मित करता है। जिस देश में बड़े नास्तिक पैदा होने बंद हो जाते हैं, उस देश में बड़े आस्तिक भी पैदा होने बंद हो जाते हैं। जीवन एक संतुलन है। और जब रूस में इतनी प्रगाढ़ नास्तिकता थी तो ‘ अंडरग्राउंड’, छिपे मार्गों से आस्तिकता ने पुन: आविष्कार करना शुरू कर दिया। स्टेलिन के मरने तक सारी खोजबीन छिपकर चलती थी, स्टेलिन के मरने के बाद वह खोजबीन प्रगट हो गयी। स्टेलिन खुद भी बहुत हैरान था। वह मैं बात आपसे करूंगा।

यह माइखालोवा पंद्रह वर्ष से रूस में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। क्योंकि माइखालोवा सिर्फ ध्यान से किसी भी वस्तु को गतिमान कर पाती है। हाथ से नहीं, शरीर के किसी प्रयोग से नहीं। वहां दूर, छह फीट दूर रखी हुई कोई भी चीज माइखालोवा सिर्फ उस पर एकाग्र चित्त होकर उसे गतिमान — या तो अपने पास खींच पाती है, वस्तु चलना शुरू कर देती है, या अपने से दूर हटा पाती है, या ‘मैगनेटिक नीडल ‘ लगी हो तो उसे घुमा पाती है, या घड़ी हो तो उसके कांटे को तेजी से चक्कर दे पाती है, या घड़ी हो तो बंद कर पाती है — सैकड़ों प्रयोग। लेकिन एक बहुत हैरानी की बात है कि अगर माइखालोवा प्रयोग कर रही हो और आसपास संदेहशील लोग हों तो उसे पांच घंटे लग जाते हैं, तब वह हिला पाती है। अगर आसपास मित्र हों, सहानुभूतिपूर्ण हों, तो वह आधे घंटे में हिला पाती है। अगर आसपास श्रद्धा से भरे लोग हों तो पांच मिनट में। और एक मजे की बात है कि जब उसे पांच घंटे लगते है किसी वस्तु को हिलाने में तो उसका कोई दस पौंड वजन कम हो जाता है। जब उसे आधा घंटा लगता है तो कोई तीन पौंड वजन कम होता है। और जब पांच मिनट लगते हैं तो उसका कोई वजन कम नहीं होता है।

ये पंद्रह सालों के बड़े वैज्ञानिक प्रयोग किये गये हैं। दो नोबल प्राइज़ विनर वैज्ञानिक डा. वासीलिएव और कामेनिएव और चालीस और चोटी के वैज्ञानिकों ने हजारों प्रयोग करके इस बात की घोषणा की है कि माइखालोवा जो कर रही है, वह तथ्य है। और अब उन्होंने यंत्र विकसित किये हैं जिनके द्वारा माइखालोवा के आसपास क्या घटित होता है, वह रिकार्ड हो जाता है। तीन बातें रिकार्ड होती हैं। एक तो जैसे ही माइखालोवा ध्यान एकाग्र करती है, उसके आसपास का आभामंडल सिकुड़र एक धारा में बहने लगता है — जिस वस्तु के ऊपर वह ध्यान करती है, जैसे लेसर रे की तरह, एक विद्युत की किरण की तरह संग्रहीत हो जाता है। और उसके चारों तरफ किरलियान फोटोग्राफी से, जैसे कि समुद्र में लहरें उठती हैं, ऐसा उसका आभामंडल तरंगित होने लगता है। और वे तरंगें चारों तरफ फैलने लगती हैं। उन्हीं तरंगों के धक्के से वस्तुएं हटती हैं या पास खींची जाती है। सिर्फ भाव मात्र — उसका भाव कि वस्तु मेरे पास आ जाए, वस्तु पास आ जाती है। उसका भाव कि दूर हट जाए, वस्तु दूर चली जाती है।

इससे भी हैरानी की बात जो तीसरी है वह यह कि रूसी वैज्ञानिकों का खयाल है कि यह जो एनर्जी है, यह चारों तरफ जो ऊर्जा फैलती है, इसे संग्रहीत किया जा सकता है, इसे यंत्रों में संग्रहीत किया जा सकता है। निश्रित ही जब एनर्जी है तो संग्रहीत की जा सकती है। कोई भी ऊर्जा संग्रहीत की जा सकती है। और इस प्राण—ऊर्जा का, जिसको योग ‘प्राण’ कहता है, यह ऊर्जा अगर यंत्रों में संग्रहीत हो जाए, तो उस समय जो मूलभाव था व्यक्ति का, वह गुण उस संग्रहीत शक्ति में भी बना रहता है।

जैसे, माइखालोवा अगर किसी वस्तु को अपनी तरफ खींच रही है, उस समय उसके शरीर से जो ऊर्जा गिर रही है — जिसमें कि उसका तीन पौंड या दस पौंड वजन कम हो जाएगा — वह ऊर्जा संग्रहीत की जा सकती है। ऐसे रिसेप्‍टिव यंत्र तैयार किये गये हैं कि वह ऊर्जा उन यंत्रों में प्रविष्ट हो जाती है और संग्रहीत हो जाती है। फिर यदि उस यंत्र को इस कमरे में रख दिया जाए और

आप कमरे के भीतर आएं तो वह यंत्र आपको अपनी तरफ खींचेगा। आपका मन होगा उसके पास जाएं — यंत्र के, आदमी वहां नहीं है। और अगर माइखालोवा किसी वस्तु को दूर हटा रही थी और शक्ति संग्रहीत की है, तो आप इस कमरे में आएंगे और तत्काल बाहर भागने का मन होगा।

क्या भाव शक्ति में इस भांति प्रविष्ट हो जाते हैं?

मंत्र की यही मूल आधारशिला है। शब्द में, विचार में, तरंग में भाव संग्रहीत और समाविष्ट हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है— नमो अरिहंताणं, मैं उन सबको जिन्होंने जीता और जाना अपने को, उनकी शरण में छोड़ता हूं तब उसका अहंकार तत्काल विगलित होता है। और जिन—जिन लोगों ने इस जगत में अरिहंतों की शरण में अपने को छोड़ा है, उस महाधारा में उसकी शक्ति सम्मिलित होती है। उस गंगा में वह भी एक हिस्सा हो जाता है। और इस चारों तरफ आकाश में, इस अरिहंत के भाव के आसपास जो ग्रुब्ज निर्मित हुए हैं, जो स्पेस में, आकाश में जो तरंगें संग्रहीत हुई हैं, उन संग्रहीत तरंगों में आपकी तरंग भी चोट करती है। आपके चारों तरफ एक वर्षा हो जाती है जो आपको दिखाई नहीं पड़ती। आपके चारों ओर एक और दिव्यता का, भगवत्ता का लोक निर्मित हो जाता है। इस लोक के साथ, इस भाव लोक के साथ आप दूसरे तरह के व्यक्ति हो जाते हैं।

महामंत्र स्वयं के आसपास के आकाश को, स्वयं के आसपास के आभामंडल को बदलने की कीमिया है। और अगर कोई व्यक्ति दिन—रात जब भी उसे स्मरण मिले, तभी नमोकार में डूबता रहे, तो वह व्यक्ति दूसरा ही व्यक्ति हो जाएगा। वह वही व्यक्ति नहीं रह सकता, जो वह था।

पांच नमस्कार हैं। अरिहंत को नमस्कार। अरिहंत का अर्थ होता है : जिसके सारे शत्रु विनष्ट हो गये; जिसके भीतर अब कुछ ऐसा नहीं रहा जिससे उसे लड़ना पड़ेगा। लड़ाई समाप्त हो गयी। भीतर अब क्रोध नहीं है जिससे लड़ना पड़े, भीतर अब काम नहीं है, जिससे लड़ना पड़े, अज्ञान नहीं है। वे सब समाप्त हो गये जिनसे लड़ाई थी।

अब एक ‘नान—कानल्‍फिक्‍ट’, एक निर्द्वंद्व अस्तित्व शुरू हुआ। अरिहंत शिखर है, जिसके आगे यात्रा नहीं है। अरिहंत मंजिल है, जिसके आगे फिर कोई यात्रा नहीं है। कुछ करने को न बचा जहां, कुछ पाने को न बचा जहां, कुछ छोड़ने को भी न बचा जहां — जहां सब समाप्त हो गया — जहां शुद्ध अस्तित्व रह गया, ‘प्योर एग्जिस्टेंस ‘ जहां रह गया, जहां ब्रह्म मात्र रह गया, जहां होना मात्र रह गया, उसे कहते हैं अरिहंत।

अदभुत है यह बात भी कि इस महामंत्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है — महावीर का नहीं, पार्श्वनाथ का नहीं, किसी का नाम नहीं है। जैन परंपरा का भी कोई नाम नहीं। क्योंकि जैन परंपरा यह स्वीकार करती है कि अरिहंत जैन परंपरा में ही नहीं हुए हैं और सब परंपराओं में भी हुए हैं। इसलिए अरिहंतों को नमस्कार है — किसी अरिहंत को नहीं है। यह नमस्कार बड़ा विराट है। संभवत: विश्व के किसी धर्म ने ऐसा महामंत्र — इतना सर्वांगीण, इतना सर्वस्पर्शी — विकसित नहीं किया है। व्यक्तित्व पर जैसे खयाल ही नहीं है, शक्ति पर खयाल है। रूप पर ध्यान ही नहीं है, वह जो अरूप सत्ता है, उसी का खयाल है — अरिहंतों को नमस्कार।

अब महावीर को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए महावीर को नमस्कार; बुद्ध को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए बुद्ध को नमस्कार; राम को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए राम को नमस्कार— पर यह मंत्र बहुत अनूठा है। यह बेजोड है। और किसी परंपरा में ऐसा मंत्र नहीं है, जो सिर्फ इतना कहता है — अरिहंतों को नमस्कार; सबको नमस्कार जिनकी मंजिल आ गयी है। असल में मंजिल को नमस्कार। वे जो पहुंच गये, उनको नमस्कार।

लेकिन अरिहंत शब्द निगेटिव है, नकारात्मक है। उसका अर्थ है — जिनके शत्रु समाप्त हो गये। वह पाजिटिव नहीं है, वह विधायक नहीं है। असल में इस जगत में जो श्रेष्ठतम अवस्था है उसको निषेध से ही प्रगट किया जा सकता है, ‘नेति—नेति’ से, उसको विधायक शब्द नहीं दिया जा सकता। उसके कारण हैं। सभी विधायक शब्दों में सीमा आ जाती है, निषेध में सीमा नहीं होती। अगर मैं कहता हूं — ‘ऐसा है’, तो एक सीमा निर्मित होती है। अगर मैं कहता हूं — ‘ऐसा नहीं है’, तो कोई सीमा नहीं निर्मित होती। नहीं की कोई सीमा नहीं है, ‘है’ की तो सीमा है। तो ‘है’ तो बहुत छोटा शब्द है। ‘नहीं’ है बहुत विराट। इसलिए परम शिखर पर रखा है अरिहंत को। सिर्फ इतना ही कहा है कि जिनके शत्रु समाप्त हो गये, जिनके अंतर्द्वंद्व विलीन हो गये — नकारात्मक — जिनमें लोभ नहीं, मोह नहीं, काम नहीं — क्या है, यह नहीं कहा, क्या नहीं है जिनमें, वह कहा।

इसलिए अरिहंत बहुत वायवीय, बहुत ‘एब्सट्रेक्ट ‘ शब्द है और शायद पकड़ में न आये, इसलिए ठीक दूसरे शब्द में ‘पाजिटिव’ का उपयोग किया है — नमो सिद्धाणं। सिद्ध का अर्थ होता है वे, जिन्होंने पा लिया। अरिहंत का अर्थ होता है वे, जिन्होंने कुछ छोड दिया। सिद्ध बहुत ‘पाजिटिव’ शब्द है। सिद्धि, उपलब्धि, ‘अचीवमेंट’, जिन्होंने पा लिया। लेकिन ध्यान रहे, उनको ऊपर रखा है जिन्होंने खो दिया। उनको नंबर दो पर रखा है जिन्होंने पा लिया। क्यों? सिद्ध अरिहंत से छोटा नहीं होता — सिद्ध वहीं पहुंचता है जहां अरिहंत पहुंचता है, लेकिन भाषा में पाजिटिव नंबर दो पर रखा जाएगा। ‘नहीं ‘, ‘शून्य’ प्रथम है, ‘होना’ द्वितीय है, इसलिए सिद्ध को दूसरे स्थल पर रखा। लेकिन सिद्ध के संबंध में भी सिर्फ इतनी ही सूचना है. पहुंच गये, और कुछ नहीं कहा है। कोई विशेषण नहीं जोड़ा। पर जो पहुंच गये, इतने से भी हमारी समझ में नहीं आएगा। अरिहंत भी हमें बहुत दूर लगता है — शून्य हो गये जो, निर्वाण को पा गये जो, मिट गये जो, नहीं रहे जो। सिद्ध भी बहुत दूर हैं। सिर्फ इतना ही कहा है, पा लिया जिन्होंने। लेकिन क्या? और पा लिया, तो हम कैसे जानें? क्योंकि सिद्ध होना अनभिव्यक्त भी हो सकता है, ‘अनमेनिफेस्ट’ भी हो सकता है।

बुद्ध से कोई पूछता है कि आपके ये दस हजार भिक्षु — हां, आप बुद्धत्व को पा गये —इनमें से और कितनों ने बुद्धत्व को पा लिया है? बुद्ध कहते हैं : बहुतों ने। लेकिन वह पूछनेवाला कहता है — दिखाई नहीं पड़ता। तो बुद्ध कहते हैं. मैं प्रगट होता हूं वे अप्रगट हैं। वे अपने में छिपे हैं, जैसे बीज में वृक्ष छिपा हो। तो सिद्ध तो बीज जैसा है, पा लिया। और बहुत बार ऐसा होता है कि पाने की घटना घटती है और वह इतनी गहन होती है कि प्रगट करने की चेष्टा भी उससे पैदा नहीं होती। इसलिए सभी सिद्ध बोलते नहीं, सभी अरिहंत बोलते नहीं। सभी सिद्ध, सिद्ध होने के बाद जीते भी नहीं। इतनी लीन भी हो सकती है चेतना उस उपलब्धि में कि तत्क्षण शरीर छूट जाए। इसलिए हमारी पकड़ में सिद्ध भी न आ सकेगा। और मंत्र तो ऐसा चाहिए जो पहली सीढ़ी से लेकर आखिरी शिखर तक, जहां जिसकी पकड़ में आ जाए, जो जहां खड़ा हो वहीं से यात्रा कर सके। इसलिए तीसरा सूत्र कहा है, ‘आचार्यों को नमस्कार’।

आचार्य का अर्थ है : वह जिसने पाया भी और आचरण से प्रगट भी किया। आचार्य का अर्थ : जिसका जान और आचरण एक है। ऐसा नहीं है कि सिद्ध का आचरण ज्ञान से भिन्न होता है। लेकिन शून्य हो सकता है। हो ही न, आचरण—शून्य ही हो जाए। ऐसा भी नहीं है कि अरिहंत का आचरण भिन्न होता है, लेकिन अरिहंत इतना निराकार हो जाता है कि आचरण हमारी पकड में न आएगा। हमें फ्रेम चाहिए जिसमें पकड़ में आ जाए। आचार्य से शायद हमें निकटता मालूम पड़ेगी। उसका अर्थ है : जिसका ज्ञान आचरण है। क्योंकि हम ज्ञान को तो न पहचान पाएंगे, आचरण को पहचान लेंगे।

इससे खतरा भी हुआ। क्योंकि आचरण ऐसा भी हो सकता है जैसा ज्ञान न हो। एक आदमी अहिंसक न हो, अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी अहिंसक हो तो हिंसा का आचरण नहीं कर सकता— वह तो असंभव है — लेकिन एक आदमी अहिंसक न हो और अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी लोभी हो और अलोभ का आचरण कर सकता है। उलटा नहीं है, ‘द वाइस वरसा इज नाट पासिबल’। इससे एक खतरा भी पैदा हुआ। आचार्य हमारी पकड़ में आता है, लेकिन वहीं से खतरा शुरू होता है; जहां से हमारी पकड़ शुरू होती है, वहीं से खतरा शुरू होता है। तब खतरा यह है कि कोई आदमी आचरण ऐसा कर सकता है कि आचार्य मालूम पड़े। तो मजबूरी है हमारी। जहां से सीमाएं बननी शुरू होती हैं, वहीं से हमें दिखाई पड़ता है। और जहां से हमें दिखाई पड़ता है, वहीं से हमारे अंधे होने का डर है।

पर मंत्र का प्रयोजन यही है कि हम उनको नमस्कार करते हैं जिनका ज्ञान उनका आचरण है। यहां भी कोई विशेषण नहीं है। वे कौन? वे कोई भी हों।

एक ईसाई फकीर जापान गया था और जापान के एक झेन भिक्षु से मिलने गया। उसने पूछा झेन भिक्षु को कि जीसस के संबंध में आपका क्या खयाल है? तो उस भिक्षु ने कहा, मुझे जीसस के संबंध में कुछ भी पता नहीं, तुम कुछ कहो ताकि मैं खयाल बना सकूं। तो उसने कहा कि जीसस ने कहा है, जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। तो उस झेन फकीर ने कहा : आचार्य को नमस्कार। वह ईसाई फकीर कुछ समझ न सका। उसने कहा, जीसस ने कहा है कि जो अपने को मिटा देगा, वही पाएगा। उस झेन फकीर ने कहा : सिद्ध को नमस्कार। वह कुछ समझ न सका। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं? उस ईसाई फकीर ने कहा कि जीसस ने अपने को सूली पर मिटा दिया, वे शून्य हो गये, मृत्यु को उन्होंने चुपचाप स्वीकार कर लिया वे निराकार में खो गये। उस झेन फकीर ने कहा : अरिहंत को नमस्कार।

आचरण और ज्ञान एक हैं जहां, उसे हम आचार्य कहते हैं। वह सिद्ध भी हो सकता है, वह अरिहंत भी हो सकता है। लेकिन हमारी पकड़ में वह आचरण से आता है। पर जरूरी नहीं है, क्योंकि आचरण बड़ी सूक्ष्म बात है और हम बड़ी स्कूल बुद्धि के लोग हैं। आचरण बड़ी सूक्ष्म बात है! तय करना कठिन है कि जो आचरण है… अब जैसे महावीर को खदेड़ कर भगाया गया, गांव—गांव महावीर पर पत्थर फेंके गये। हम ही लोग थे, हम ही सब यह करते रहे। ऐसा मत सोचना कोई और। महावीर की नग्नता लोगों को भारी पड़ी, क्योंकि लोगो ने कहा यह तो आचरणहीनता है। यह कैसा आचरण? आचरण बड़ा सूक्ष्म है। अब महावीर का नग्न हो जाना इतना निर्दोष आचरण है, जिसका हिसाब लगाना कठिन है। हिम्मत अदभुत है। महावीर इतने सरल हो गये कि छिपाने को कुछ न बचा। अब महावीर को इस चमड़ी और हड्डी की देह का बोध मिट गया और वह जो, जिसको रूसी वैज्ञानिक ‘इलेक्ट्रोमैग्रेटिक—फील्ड ‘ कहते हैं, उस प्राण—शरीर का बोध इतना सघन हो गया कि उस पर तो कोई कपड़े डाले नहीं जा सकते, कपड़े गिर गये। और ऐसा भी नहीं कि महावीर ने कपड़े छोड़े, कपड़े गिर गये।

एक दिन गुजरते हुए एक राह से चादर उलझ गयी है एक झाडी में तो झाड़ी के फूल न गिर जाएं पत्ते न टूट जाएं कांटों को चोट न लग जाए, तो आधी चादर फाड़कर वहीं छोड़ दी। फिर आधी रह गयी शरीर पर। फिर वह भी गिर गयी। वह कब गिर गयी उसका महावीर को पता न चला। लोगों को पता चला कि महावीर नग्न खड़े हैं। आचरण सहना मुश्किल हो गया।

आचरण के रास्ते सूक्ष्म हैं, बहुत कठिन हैं। और हम सब के आचरण के संबंध में बंधे—बंधाये खयाल हैं। ऐसा करो — और जो ऐसा करने को राजी हो जाते हैं, वे करीब—करीब मुर्दा लोग हैं। जो आपकी मानकर आचरण कर लेते हैं, उन मुर्दों को आप काफी पूजा देते हैं। इसमें कहा है, आचार्यों को नमस्कार। आप आचरण तय नहीं करेंगे, उनका ज्ञान ही उनका आचरण तय करेगा। और ज्ञान परम स्वतंत्रता है। जो व्यक्ति आचार्य को नमस्कार कर रहा है, वह यह भाव कर रहा है कि मैं नहीं जानता क्या है ज्ञान, क्या है आचरण, लेकिन जिनका भी आचरण उनके ज्ञान से उपजता और बहता है, उनको मैं नमस्कार करता हूं।

अभी भी बात सूक्ष्म है; इसलिए चौथे चरण में, उपाध्यायों को नमस्कार। उपाध्याय का अर्थ है — आचरण ही नहीं, उपदेश भी। उपाध्याय का अर्थ है — ज्ञान ही नहीं, आचरण ही नहीं, उपदेश भी। वे जो जानते हैं, जानकर वैसा जीते हैं; और जैसा वे जीते हैं और जानते हैं, वैसा बताते भी हैं। उपाध्याय का अर्थ है— वह जो बताता भी है। क्योंकि हम मौन से न समझ पाएं। आचार्य मौन हो सकता है। वह मान सकता है कि आचरण काफी है। और अगर तुम्हें आचरण दिखाई नहीं पड़ता तो तुम जानो। उपाध्याय आप पर और भी दया करता है। वह बोलता भी है, वह आपको कहकर भी बताता है।

ये चार सुस्पष्ट रेखाएं हैं। लेकिन इन चार के बाहर भी जानने वाले छूट जाएंगे। क्योंकि जानने वालों को बांधा नहीं जा सकता ‘कैटेगरीज़’ में। इसलिए मंत्र बहुत हैरानी का है। इसलिए पांचवें चरण में एक सामान्य नमस्कार है — ‘नमो लोए सव्वसाहूणं’। लोक में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जगत में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जो उन चार में कहीं भी छूट गये हों, उनके प्रति भी हमारा नमन न छूट जाए। क्योंकि उन चार में बहुत लोग छूट सकते हैं। जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है, कैटेगराइज़ नहीं किया जा सकता, खांचों में नहीं ‘ बांटा जा सकता। इसलिए जो शेष रह जाएंगे, उनको सिर्फ साधु कहा — वे जो सरल हैं। और साधु का एक अर्थ और भी है। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि उपदेश देने में भी संकोच करे। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि आचरण को भी छिपाये। पर उसको भी हमारे नमस्कार पहुंचने चाहिए।

सवाल यह नहीं है कि हमारे नमस्कार से उसको कुछ फायदा होगा, सवाल यह है कि हमारा नमस्कार हमें रूपांतरित करता है। न अरिहंतों को कोई फायदा होगा, न सिद्धों को, न आचार्यों को, न उपाध्यायों को, न साधुओं को — पर आपको फायदा होगा। यह बहुत मजे की बात है कि हम सोचते हैं कि शायद इस नमस्कार में हम सिद्धों के लिए, अरिहंतों के लिए कुछ कर रहे हैं, तो इस भूल में मत पड़ना। .आप उनके लिए कुछ भी न कर सकेंगे, या आप जो भी करेंगे उसमें उपद्रव ही करेंगे। आपकी इतनी ही कृपा काफी है कि आप उनके लिए कुछ न करें। आप गलत ही कर सकते हैं। नहीं, यह नमस्कार अरिहंतों के लिए नहीं है, अरिहंतों की तरफ है, लेकिन आपके लिए है। इसके जो परिणाम हैं, वह आप पर होने वाले हैं। जो फल है, वह आप पर बरसेगा।

अगर कोई व्यक्ति इस भांति नमन से भरा हो, तो क्या आप सोचते हैं उस व्यक्ति में अहंकार टिक सकेगा? असंभव है।

लेकिन नहीं, हम बहुत अदभुत लोग हैं। अगर अरिहंत सामने खड़ा हो तो हम पहले इस बात का पता लगाएंगे कि अरिहंत है भी? महावीर के आसपास भी लोग यही पता लगाते—लगाते जीवन नष्ट किये — अरिहंत है भी? तीर्थंकर है भी? और आपको पता नहीं है, आप सोचते हैं कि बस तय हो गया, महावीर के वक्त में बात इतनी तय न थी। और भी भीड़ें थीं, और भी लोग थे जो कह रहे थे — ये अरिहंत नहीं हैं, अरिहंत और हैं। गोशालक है अरिहंत। ये तीर्थंकर नहीं हैं, यह दावा झूठा है।

महावीर का तो कोई दावा नहीं था। लेकिन जो महावीर को जानते थे, वे दावे से बच भी नहीं सकते थे। उनकी भी अपनी कठिनाई थी। पर महावीर के समय पर चारों ओर यही विवाद था। लोग जांच करने आते कि महावीर अरिहंत हैं या नहीं, वे तीर्थंकर हैं या नहीं, वे भगवान हैं या नहीं। बड़ी आश्रचर्य की बात है, आप जांच भी कर लेंगे और सिद्ध भी हो जाएगा कि महावीर भगवान नहीं हैं, आपको क्या मिलेगा? और महावीर भगवान न भी हों और आप अगर उनके चरणों में सिर रखें और कह सकें, नमो अरिहंताणं, तो आपको मिलेगा। महावीर के भगवान होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

असली सवाल यह नहीं है कि महावीर भगवान हैं या नहीं, असली सवाल यह है कि कहीं भी आपको भगवान दिख सकते हैं या नहीं — कहीं भी — पत्थर में, पहाड़ में। कहीं भी आपको दिख सके तो आप नमन को उपलब्ध हो जाएं। असली राज तो नमन में है, असली राज तो झुक जाने में है — असली राज तो झुक जाने में है। वह जो झुक जाता है, उसके भीतर सब कुछ बदल जाता है। वह आदमी दूसरा हो जाता है। यह सवाल नहीं है कि कौन सिद्ध हैं और कौन सिद्ध नहीं हैं — और इसका कोई उपाय भी नहीं है कि किसी दिन यह तय हो सके — लेकिन यह बात ही ‘इरेलेवेंट’ है, असंगत है। इससे कोई संबंध ही नहीं है। न रहे हों महावीर, इससे क्या फर्क पड़ता है। लेकिन अगर आपके लिए झुकने के लिए निमित्त बन सकते हैं तो बात पूरी हो गयी। महावीर सिद्ध हैं या नहीं, यह वे सोचें और समझें, वह अरिहंत अभी हुए या नहीं यह उनकी अपनी चिंता है, आपके लिए चिंतित होने का कोई भी तो कारण नहीं है। आपके लिए चिंतित होने का अगर कोई कारण है तो एक ही कारण है कि कहीं कोई कोना है इस अस्तित्व में जहां आपका सिर झुक जाए। अगर ऐसा कोई कोना है तो आप नये जीवन को उपलब्ध हो जाएंगे।

यह नमोकार, अस्तित्व में कोई कोना न बचे, इसकी चेष्टा है। सब कोने जहां—जहां सिर झुकाया जा सके — अज्ञात, अनजान, अपरिचित — पता नहीं कौन साधु है, इसलिए नाम नहीं लिये। पता नहीं कौन अरिहंत है। पर इस जगत में जहां अज्ञानी हैं, वहां ज्ञानी भी हैं। क्योंकि जहां अंधेरा है, वहां प्रकाश भी है। जहां रात, सांझ होती है, वहां सुबह भी होती है। जहां सूरज अस्त होता है, वहां सूरज उगता भी है। यह अस्तित्व द्वंद्व की व्यवस्था है। तो जहां इतना सघन अज्ञान है, वहां इतना ही सघन ज्ञान भी होगा ही। यह श्रद्धा है। और इस श्रद्धा से भरकर जो ये पांच नमन कर गाता है, वह एक दिन कह पाता है कि निश्रय ही मंगलमय है यह सूत्र। इससे सारे पाप विनष्ट हो जाते हैं।

ध्यान ले लें, मंत्र आपके लिये है। मंदिर में जब मूर्ति के चरणों में आप सिर रखते हैं र तो सवाल यह नहीं है कि वे चरण परमात्मा के हैं या नहीं, सवाल इतना ही है कि वह जो चरण के समक्ष झुकने वाला सिर है वह परमात्मा के समक्ष झुक रहा है या नहीं। वे चरण तो निमित्त हैं। उन चरणों का कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो आपको झुकने की कोई जगह बनाने के लिए व्यवस्था की है। लेकिन झुकने में पीड़ा होती है। और इसलिए जो भी वैसी पीड़ा दे, उस पर क्रोध आता है। जीसस पर या महावीर पर या बुद्ध पर जो क्रोध आता है, वह भी स्वाभाविक मालूम पड़ता है। क्योंकि झुकने में पीड़ा होती है। अगर महावीर आएं और आपके चरण पर सिर रख दें तो चित्त बड़ा प्रसन्न होगा। फिर आप महावीर को पत्थर न मारेंगे! फिर आप महावीर के कानों में कीले न ठोंकेंगे कि ठोंकेंगे? लेकिन महावीर आपके चरणों में सिर रख दें तो आपको कोई लाभ नहीं होता। नुकसान होता है। आपकी अकड़ और गहन हो जाएगी।

महावीर ने अपने साधुओं को कहा है कि वह गैर—साधुओं को नमस्कार न करें। बड़ी अजीब सी बात है! साधु को तो विनम्र होना चाहिए। इतना निरहंकारी होना चाहिए कि सभी के चरणों में सिर रखे। तो साधु गैर—साधु को, गृहस्थ को नमस्कार न करे — यह तो महावीर की बात अच्छी नहीं मालूम पड़ती। लेकिन प्रयोजन करुणा का है। क्योंकि साधु निमित्त बनना चाहिए कि आपका नमस्कार पैदा हो। और साधु आपको नमस्कार करे तो निमित्त तो बनेगा नहीं, आपकी अस्मिता और अहंकार को और मजबूत कर देगा। कई बार दिखती है बात कुछ और, होती है कुछ और। हालांकि, जैन साधुओं ने इसका ऐसा प्रयोग किया है, यह मैं नहीं कह रहा हूं। असल में साधु का तो लक्षण यही है कि जिसका सिर अब सबके चरणों पर है। साधु का लक्षण तो यही है कि जिसका सिर अब सबके चरणों पर है। फिर भी साधु आपको नमस्कार नहीं करता है। क्योंकि निमित्त बनना चाहता है। लेकिन अगर साधु का सिर आप सबके चरणों पर न हो और फिर वह आपको अपने चरणों में झुकाने की कोशिश करे तब वह आत्महत्या में लगा है। पर फिर भी आपको चिंतित होने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि आत्महत्या का प्रत्येक को हक है। अगर वह अपने नरक का रास्ता तय कर रहा है तो उसे करने दें। लेकिन नरक जाता हुआ आदमी भी अगर आपको स्वर्ग के इशारे के लिए निमित्त बनता हो तो अपना निमित्त लें, अपने मार्ग पर बढ़ जाएं। पर नहीं, हमें इसकी चिंता कम है कि हम कहां जा रहे हैं, हमें इसकी चिंता ज्यादा है कि दूसरा कहां जा रहा है।

नमोकार नमन का सूत्र है। यह पांच चरणों में समस्त जगत में जिन्होंने भी कुछ पाया है, जिन्होंने भी कुछ जाना है, जिन्होंने भी कुछ जीया है, जो जीवन के अंतर्तम गढ़ रहस्य से परिचित हुए हैं, जिन्होंने मृत्यु पर विजय पायी है, जिन्होंने शरीर के पार कुछ पहचाना है उन सबके प्रति — समय और क्षेत्र दोनों में। लोक दो अर्थ रखता है। लोक का अर्थ : विस्तार में जो हैं वे, स्पेस में, आकाश में जो आज हैं वे — लेकिन जो कल थे वे भी और जो कल होंगे वे भी। लोक — सब्ब लोए. सर्व लोक में, सब्बसाहूणं : समस्त साधुओं को। समय के अंतराल में पीछे कभी जो हुए हों वे, भविष्य में जो होंगे वे, आज जो हैं वे, समय या क्षेत्र में कहीं भी जब भी कहीं कोई ज्योति ज्ञान की जली हो, उस सबके लिए नमस्कार। इस नमस्कार के साथ ही आप तैयार होंगे। फिर महावीर की वाणी को समझना आसान होगा। इस नमन के बाद ही, इस झुकने के बाद ही आपकी झोली फैलेगी और महावीर की संपदा उसमें गिर सकती है।

नमन है ‘रिसेटिविटी’, ग्राहकता। जैसे ही आप नमन करते हैं, वैसे ही आपका हृदय खुलता है और आप भीतर किसी को प्रवेश देने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि जिसके चरणों में आपने सिर रखा, उसको आप भीतर आने में बाधा न डालेंगे, निमंत्रण देंगे। जिसके प्रति आपने श्रद्धा प्रगट की, उसके लिए आपका द्वार, आपका घर खुला हो जाएगा। वह आपके घर, आपका हिस्सा होकर जी सकता है। लेकिन ट्रस्ट नहीं है, भरोसा नहीं है, तो नमन असंभव है। और नमन असंभव है तो समझ असंभव है। नमन के साथ ही ‘अंडरस्टेंडिंग’ है, नमन के साथ ही समझ का जन्म है।

इस ग्राहकता के संबंध में एक आखिरी बात और आपसे कहूं। मास्को यूनिवर्सिटी में 1966 तक एक अदभुत व्यक्ति था. डा. वार्सिलिएव। वह ग्राहकता पर प्रयोग कर रहा था। ‘माइंड की रिसेटिविटी’, मन की ग्राहकता कितनी हो सकती है। करीब—करीब ऐसा हाल है जैसे कि एक बड़ा भवन हो और हमने उसमें एक छोटा—सा छेद कर रखा हो और उसी छेद से हम बाहर के जगत को देखते हैं। यह भी हो सकता है कि भवन की सारी दीवारें गिरा दी जाएं और हम खुले आकाश के नीचे समस्त रूप से ग्रहण करने वाले हो जाएं। वार्सिलिएव ने एक बहुत हैरानी का प्रयोग किया — और पहली दफा। उस तरह के बहुत से प्रयोग पूरब में — विशेषकर भारत में, और सर्वाधिक विशेषकर महावीर ने किये थे। लेकिन उनका ‘डायमेंशन’, उनका आयाम अलग था। महावीर ने जाति—स्मरण के प्रयोग किये थे कि प्रत्येक व्यक्ति को आगे अगर ठीक यात्रा करनी हो तो उसे अपने पिछले जन्मों को स्मरण और याद कर लेना चाहिए। उसको पिछले जन्म याद आ जाएं तो आगे की यात्रा आसान हो जाए।

लेकिन वार्सिलिएव ने एक और अनूठा प्रयोग किया। उस प्रयोग को वे कहते हैं : ‘आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन’। ‘आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन’, कृत्रिम पुनर्जन्म या कृत्रिम पुनरुज्जीवन — यह क्या है? वार्सिलिएव और उसके साथी एक व्यक्ति को बेहोश करेंगे, तीस दिन तक निरंतर सम्मोहित करके उसको गहरी बेहोशी में ले जाएंगे, और जब वह गहरी बेहोशी में आने लगेगा, और अब यह यंत्र हैं — ई़ ई जी. नाम का यंत्र है, जिससे जांच की जा सकती है कि नींद की कितनी गहराई है। अल्फा नाम की वेब्स पैदा होनी शुरू हो जाती हैं, जब व्यक्ति चेतन मन से गिरकर अचेतन में चला जाता है। तो यंत्र पर, जैसे कि कार्डियोग्राम पर माफ बन जाता है, ऐसा ई ई जी. भी माफ बना देता है, कि यह व्यक्ति अब सपना देख रहा है, अब सपने भी बन्द हो गए, अब यह नींद में हैं, अब यह गहरी नींद में है, अब यह अतल गहराई में डूब गया। जैसे ही कोई व्यक्ति अतल गहराई में डूब जाता है, उसे सुझाव देता था वार्सिलिएव। समझ लें कि वह एक चित्रकार है, छोटा—मोटा चित्रकार है, यह चित्रकला का विद्यार्थी है, तो वार्सिलिएव उसको समझाएगा कि तू माइकल एंगइजलो है, पिछले जन्म का, या वानगाग है। या कवि है तो वह समझाएगा कि तू शेक्सपीयर है, या कोई और। और तीस दिन तक निरंतर गहरी अल्फा बेक की हालत में उसको सुझाव दिया जाएगा कि वह कोई और है, पिछले जन्म का। तीस दिन में उसका चित्त इसको ग्रहण कर लेगा।

तीस दिन के बाद बड़ी हैरानी के अनुभव हुए, कि वह व्यक्ति जो साधारण सा चित्रकार था, जब उसे भीतर भरोसा हो गया कि मैं माइकल एंजिलो हूं तब वह विशेष चित्रकार हो गया — तत्काल। वह साधारण—सा तुकबन्द था, जब उसे भरोसा हो गया कि मैं शेक्सपीयर हूं तो शेक्सपीयर की हैसियत की कविताएं उस व्यक्ति से पैदा होने लगीं।

हुआ क्या? वर्सिलिएव तो कहता था — यह ‘आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन’ है। वार्सिलिएव कहता था कि हमारा चित्त तो बहुत बड़ी चीज है। छोटी—सी खिड़की खुली है, जो हमने अपने को समझ रखा है कि हम यह हैं, उतना ही खुला है, उसी को मानकर हम जीते हैं। अगर हमें भरोसा दिया जाए कि हम और बड़े हैं, तो खिड़की बड़ी हो जाती है। हमारी चेतना उतना काम करने लगती है।

वार्सिलिएव का कहना है कि आने वाले भविष्य में हम जीनियस निर्मित कर सकेंगे। कोई कारण नहीं है कि जीनियस पैदा ही न हों। सच तो यह है कि वार्सेलिएव कहता है, सौ में से कम से कम नब्बे बच्चे प्रतिभा की, जीनियस की क्षमता लेकर पैदा होते हैं, हम उसकी खिड़की छोटी कर देते हैं। मां—बाप, स्कूल, शिक्षक, सब मिल—जुलकर उनकी खिड़की छोटी कर देते हैं। बीस—पच्चीस साल तक हम एक साधारण आदमी खड़ा कर देते हैं, जो कि क्षमता बड़ी लेकर आया था, लेकिन हम उसका द्वार छोटा करते जाते हैं, छोटा करते जाते हैं। वार्सिलिएव कहता है, सभी बच्चे जीनियस की तरह पैदा होते हैं। कुछ जो हमारी तरकीबों से बच जाते हैं वह जीनियस बन जाते हैं, बाकी नष्ट हो जाते हैं। पर वार्सिलिएव का कहना है — असली सूत्र है ‘रिसोइएविटी’। इतना गाहक हो जाना चाहिए चित्त कि जो उसे कहा जाए, वह उसके भीतर गहनता में प्रवेश कर जाए।

इस नमोकार मंत्र के साथ हम शुरू करते हैं महावीर की वाणी पर चर्चा। क्योंकि गहन होगा मार्ग, सूक्ष्म होंगी बातें। अगर आप ग्राहक हैं — नमन से भरे, श्रद्धा से भरे — तो आपके उस अतल गहराई में बिना किसी यंत्र की सहायता के — यह भी यंत्र है, इस अर्थ में, नमोकार — बिना किसी यंत्र की सहायता के आप में अल्फा वेब्स पैदा हो जाती हैं। जब कोई श्रद्धा से भरता है तो अल्फा वेक पैदा हो जाती हैं — यह आप हैरान होंगे जानकर कि गहन सम्मोहन में, गहरी निद्रा में, ध्यान में या श्रद्धा में ईईजी. की जो मशीन है वह एक—सा माफ बनाती है। श्रद्धा से भरा हुआ चित्त उसी शांति की अवस्था में होता है जिस शांति की अवस्था में गहन ध्यान में होता है, या उसी शांति की अवस्था में होता है, जैसा गहन निद्रा में होता है, या उसी शांति की अवस्था में होता है, जैसा कि कभी भी आप जब बहुत ‘रिलैक्स’ और बहुत शांत होते हैं।

जिस व्यक्ति पर वार्सिलिएव काम करता था, वह है निकोलिएव नाम का युवक, जिस पर उसने वर्षों काम किया। निकोलिएव को दो हजार मील दूर से भी भेजे गये विचारों को पकड़ने की क्षमता आ गयी है। सैक्सों प्रयोग किए गये हैं जिसमें वह दो हजार मील दूर तक के विचारों को पकड़ पाता है। उससे जब पूछा जाता है कि उसकी तरकीब क्या है तो वह कहता है — तरकीब यह है कि मैं आधा घण्टा पूर्ण ‘रिलैक्स’, शिथिल होकर पड़ जाता हूं और ‘णइक्टविटी’ सब छोड़ देता हूं भीतर सब सक्रिया छोड़ देता है ‘पैसिव’ हो जाता हूं। पुरुष की तरह नहीं सी की तरह हो जाता हूं। कुछ भेजता नहीं कुछ आता हो तो लेने को राजी हो जाता हूं। और आधा घण्टे में ई. ई. जी. की मशीन जब बता देती है कि अल्फा वेक शुरू हो गयीं, तब वह दो हजार मील दूर से भेजे गये विचारों को पकड़ने में समर्थ हो जाता है। लेकिन जब तक वह इतना रिसेप्‍टिव नहीं होता, तब तक यह नहीं हो पाता।

वार्सिलिएव और दो कदम आगे गया। उसने कहा — आदमी ने तो बहुत तरह से अपने को विकृत किया है। अगर आदमी में यह क्षमता है तो पशुओं में और भी शुद्ध होगी। और इस सदी का अनूठे—से—अनूठा प्रयोग वार्सिलिएव ने किया कि एक मादा चूहे को, चुहिया को ऊपर रखा और उसके आठ बच्चों को पानी के भीतर, पनडुब्बी के भीतर हजारों फीट नीचे सागर में भेजा। पनडुब्बी का इसलिए उपयोग किया कि पानी के भीतर पनडुब्बी से कोई रेडियो—वेब्स बाहर नहीं आतीं, न बाहर से भीतर जाती हैं। अब तक जानी गयी जितनी वेब्स वैज्ञानिकों को पता हैं, जितनी तरंगें, वे कोई भी पानी के भीतर इतनी गहराई तक प्रवेश नहीं करतीं। एक गहराई के बाद सूर्य की किरण भी पानी में प्रवेश नहीं करती।

तो उस गहराई के नीचे पनडुब्बी को भेज दिया गया, और इस चुहिया की खोपड़ी पर सब तरफ इलेक्ट्रोड्स लगाकर ई. ई. जी. से जोड़ दिये गए — मशीन से, जो चुहिया के मस्तिष्क में जो वेब्स चलती हैं उसको रिकार्ड करे। और बड़ी अदभुत बात हुई। हजारों फीट नीचे, पानी के भीतर एक—एक उसके बच्चे को मारा गया खास — खास मोमेंट पर नोट किया गया — जैसे ही वहां बच्चा मरता, वैसे ही यहां उसकी ई. ई. जी. की वेब्स बदल जातीं — दुर्घटना घटित हो गयी। ठीक छह घण्टे में उसके बच्चे मारे गये — खास—खास समय पर, नियत समय पर। उस नियत समय का ऊपर कोई पता नहीं है। नीचे जो वैज्ञानिक है उसको छोड़ दिया गया है कि इतने समय के बीच वह कभी— भी, पर नोट करले मिनट और सैकष्ठ। जिस मिनट और सैकष्ठ पर नीचे चुहिया के बच्चे मारे गये, उस मां ने उसके मस्तिष्क में उस वक्त धक्के अनुभव किए। वार्सिलिएव का कहना है कि जानवरों के लिए टैलिपैथिक सहज—सी घटना है। आदमी भूल गया है, लेकिन जानवर अभी— भी टैलिपैथिक जगत में जी रहे हैं।

मंत्र का उपयोग है, आपको वापस टैलिपैथिक जगत में प्रवेश — अगर आप अपने को छोड़ पायें, हृदय से, उस गहराई से कह पायें जहां कि आपकी अचेतना में डूब जाता है सब — ‘ ‘नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवस्कृायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं, यह भीतर उतर जाए तो आप अपने अनुभव से कह पायेंगे. ‘सब्बपावप्पणासणो, ‘ यह सब पापों का नाश करने वाला महामंत्र है।

आज इतनी ही बात।

फिर अब इस महामंत्र का हम उदघोष करेंगे। इसमें आप सम्मिलित हों — नहीं, कोई जाएगा नहीं। कोई जाएगा नहीं। जिन मित्रों को खड़े होकर सम्मिलित होना हो, वे कुसियों के किनारे खड़े हो जाएं क्योंकि संन्यासी नाचेंगे और इस मंत्र के उदघोष में डूबेंगे। इस मंत्र को अपने प्राणों में उतारकर ही यहां से जायें। जिनको बैठकर साथ देना हो वे बैठकर ताली बजायेंगे और उदघोष करेंगे।


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महावीर वाणी (भाग–1) प्रवचन–2

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मंगल व लोकात्‍तम की भावना—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 19 अगस्‍त, 1971;

प्रथम पर्युषण व्‍याख्‍यानमाला,

पाटकर हाल, बम्‍बई।

मंगल—भाव—न्त

अरिहता मंगल।

सिद्धा मंगल।

साहू मंगल।

केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगल।।

अरिहता लोगुत्तमा।

सिद्धा लोद्यमा।

साहू लोद्यमा।

केवलिपन्नत्तो धम्मो लोद्यमो।।

अरिहंत मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं। साधु मंगल हैं। केवलीप्ररूपित अर्थात आत्मज्ञकथित धर्म मंगल है। अरिहंत लोकोत्तम हैं। सिद्ध लोकोत्तम हैं। साधु लोकोत्तम हैं। केवलीप्ररूपित अर्थात आत्मशकथित धर्म लोकोत्तम है।

हावीर ने कहा है — जिसे पाना हो उसे देखना शुरू करना चाहिए। क्योंकि हम उसे ही पा सकते हैं जिसे हम देखने में समर्थ हो जाएं। जिसे हमने देखा नहीं, उसे पाने का भी कोई उपाय नहीं। जिसे खोजना हो, उसकी भावना करनी प्रारंभ कर लेनी चाहिए। क्योंकि इस जगत में हमें वही मिलता है, जो मिलने के भी पहले, जिसके लिए हम अपने हृदय में जगह बना लेते हैं। अतिथि घर आता हो तो हम इंतजाम कर लेते हैं उसके स्वागत का। अरिहंत को निर्मित करना हो स्वयं में, सिद्ध को पाना हो कभी, किसी क्षण स्वयं भी केवली बन जाना हो तो उसे देखना, उसकी भावना करनी, उसकी आकांक्षा और अभीप्सा की तरफ चरण उठाने शुरू करने जरूरी हैं।

महावीर से ढाई हजार साल पहले चीन में एक कहावत प्रचलित थी। और वह कहावत थी — लाओत्से के द्वारा कही गयी और बाद में संग्रहीत की गयी चिंतन की धारा का पूरा का पूरा सार — वह कहावत थी — ‘द सुपीरियर फिजिशियन क्योर्स द इलनेस बिफोर इट इज मैनिफैस्टेड’ — जो श्रेष्ठ चिकित्सक है वह बीमारी के प्रगट होने के पहले ही उसे ठीक कर देता है। ‘द इनफीरियर फिजिशियन ओनली केयर्स फार द इलनेस व्हिच ही वाज नाट एबल टु प्रिवेंट’ — और, जो साधारण चिकित्सक है वह केवल बीमारी को दूर करने में थोड़ी बहुत सहायता पहुंचाता है, जिसे वह रोकने में समर्थ नहीं था।

हैरान होगे जानकर आप यह बात कि महावीर से ढाई हजार साल पहले, आज से पांच हजार साल पहले चीन में चिकित्सक को बीमारी के ठीक करने के लिए कोई पुरस्कार नहीं दिया जाता था। उल्टा ही रिवाज था, या हम समझें कि हम जो कर रहे हैं वह उल्टा है। चिकित्सक को पैसे दिये जाते थे इसलिए कि वह किसी को बीमार न पड़ने दे। और अगर कभी कोई बीमार पड़ जाता तो चिकित्सक को उल्टे उसे पैसे चुकाने पड़ते थे। तो हर व्यक्ति नियमित अपने चिकित्सक को पैसे देता था ताकि वह बीमार न पड़े। और बीमार पड़ जाए तो चिकित्सक को उसे ठीक भी करना पड़ता और पैसे भी देने पड़ते। जब तक वह ठीक न हो जाता, तब तक बीमार को फीस मिलती चिकित्सक के द्वारा। यह जो चिकित्सा की पद्धति चीन में थी उसका नाम है — ऐसुपंक्चर। इस चिकित्सा की पद्धति को नया वैज्ञानिक समर्थन मिलना शुरू हुआ है।

रूस में वे इस पर बड़े प्रयोग कर रहे हैं और उनकी दृष्टि है कि इस सदी के पूरे होते—होते रूस में चिकित्सक को बीमार को बीमार न पड़ने देने की तनख्वाह देनी शुरू कर दी जाएगी। और जब भी कोई बीमार पड़ेगा तो चिकित्सक जिम्मेवार और अपराधी होगा। ऐसुपंक्चर मानता है कि शरीर में खून ही नहीं बहता, विद्युत ही नहीं बहती — एक और तीसरा प्रवाह है, प्राण है — ऊर्जा का, एलन वाइटल का — वह प्रवाह भी शरीर में बहता है। सात सौ स्थानों पर शरीर के अलग—अलग वह प्रवाह है, चमड़ी को स्पर्श करता है। इसलिए ऐसुपंक्चर में चमड़ी पर जहां—जहां प्रवाह अव्यवस्थित हो गया है, वहीं सुई चोभकर प्रवाह को संतुलित करने की कोशिश की जाती है। बीमारी के आने के छह महीने पहले उस प्रवाह में असंतुलन शुरू हो जाता है। यह जानकर आपको हैरानी होगी कि नाड़ी की जानकारी भी वस्तुत: खून के प्रवाह की जानकारी नहीं है। नाड़ी के द्वारा भी उसी जीवन—प्रवाह को समझने की कोशिश की जाती रही है। और छह महीने पहले नाड़ी अस्त—व्यस्त होनी शुरू हो जाती है — बीमारी के आने के छह महीने पहले।

हमारे भीतर जो प्राण—शरीर है उसमें पहले बीज रूप में चीजें पैदा होती हैं और फिर वृक्ष रूप में हमारे भौतिक शरीर तक फैल जाती हैं। चाहे शुभ को जन्म देना हो, चाहे अशुभ को। चाहे स्वास्थ्य को जन्म देना हो, चाहे बीमारी को। सबसे पहले प्राण शरीर में बीज आरोपित करने होते हैं। यह जो मंगल की स्तुति है कि अरिहंत मंगल हैं, यह प्राण—शरीर में बीज डालने का उपाय है। क्योंकि जो मंगल है उसकी कामना स्वाभाविक हो जाती है। हम वही चाहते हैं जो मंगल है। जो अमंगल है वह हम नहीं चाहते। इसमें चाह की तो बात ही नहीं की गयी है, सिर्फ मंगल का भाव है।

अरिहंत मंगल हैं, सिद्ध मंगल हैं, साहू मंगल हैं। केवलीपन्नत्तो धम्मो मंगल — वह जिन्होंने स्वयं को जाना और पाया, उनके द्वारा विरूपित धर्म मंगल है — सिर्फ मंगल का भाव।

यह जानकर हैरानी होगी कि मन का नियम है, जो भी मंगल है, ऐसा भाव गहन हो जाए तो उसकी आकांक्षा शुरू हो जाती है। आकांक्षा को पैदा नहीं करना पड़ता। मंगल की धारणा को पैदा करना पड़ता है। आकांक्षा मंगल की धारणा के पीछे छाया की भांति चली आती है।

धारणा पतंजलि योग के आठ अंगों में कीमती अंग है जहां से अंतर्यात्रा शुरू होती है— धारणा, ध्यान, समाधि— छठवां सूत्र है धारणा, सातवां ध्यान, आठवां समाधि। यह जो मंगल की धारणा है, यह पतंजलि योग—सूत्र का छठवां सूत्र है, और महावीर के योग—सूत्र का पहला। क्योंकि महावीर का मानना यह है कि धारणा से सब शुरू हो जाता है। धारणा जैसे ही हमारे भीतर गहन होती है, हमारी चेतना रूपांतरित होती है। न केवल हमारी, हमारे पड़ोस में जो बैठा है उसकी भी। यह जानकर आपको आश्रचर्य होगा कि आप अपनी ही धारणाओं से प्रभावित नहीं होते, आपके निकट जो धारणाओं के प्रवाह बहते हैं उनसे भी प्रभावित होते हैं। इसलिए महावीर ने कहा है — अज्ञानी से दूर रहना मंगल है, ज्ञानी के निकट रहना मंगल है। चेतना जिसकी रुग्ण है उससे दूर रहना मंगल है। चेतना जिसकी स्वस्थ है उसके निकट, सान्निध्य में रहना मंगल है। सत्संग का इतना ही अर्थ है कि जहां शुभ धारणाएं हों, उस मित्थू में, उस वातावरण में रहना मंगल है।

रूस के एक विचारक, जो ऐक्‍युपंक्‍चंर पर काम कर रहे हैं — डा. सिरोव, उन्होंने यांत्रिक आविष्कार किये हैं जिनसे पड़ोसी की धारणा आपको कब प्रभावित करती है और कैसे प्रभावित करती है, उसकी जांच की जा सकती है। आप पूरे समय पड़ोस की धारणाओं से इम्पोज किये जा रहे हैं। आपको पता ही नहीं है कि आपको जो क्रोध आया है, जरूरी नहीं है कि आपका ही हो। वह आपके पड़ोसी का भी हो सकता है। भीड़ में बहुत मौकों पर आपको खयाल नहीं है— भीड़ में एक आदमी जम्हाई लेता है और दस आदमी, उसी क्षण, अलग—अलग कोनों में बैठे हुए जम्हाई लेने शुरू कर देते हैं। सिरोव का कहना है कि वह धारणा एक के मन में जो पैदा हुई उसके वर्तुल आसपास चले गये और दूसरों को भी उसने पकड़ लिया। अब इसके लिए उसने यंत्र निर्मित किये हैं, जो बताते हैं कि धारणा आपको कब पकड़ती है और कब आप में प्रवेश कर जाती है। अपनी धारणा से तो व्यक्ति का प्राण—शरीर प्रभावित होता ही है, दूसरे की धारणा से भी प्रभावित होता है। कुछ घटनाएं इस संबंध में आपको कहूं तो बहुत आसान होगा।

191० में जर्मनी की एक ट्रेन में एक पन्द्रह—सोलह वर्ष का युवक बैंच के नीचे छिपा पड़ा है। उसके पास टिकिट नहीं है। वह घर से भाग खड़ा हुआ है। उसके पास पैसा भी नहीं है। फिर तो बाद में वह बहुत प्रसिद्ध आदमी हुआ और हिटलर ने उसके सिर पर दो लाख मार्क की घोषणा की कि जो उसका सिर काट लाये। वह तो फिर बहुत बड़ा आदमी हुआ और उसके बड़े अदभुत परिणाम हुए, और स्टेलिन और आइंस्टीन और गांधी सब उससे मिलकर आनंदित और प्रभावित हुए। उस आदमी का बाद में नाम हुआ — बुल्‍फ मैसिंग। उस दिन तो उसे कोई नहीं जानता था, 191० में।

बुक मैसिंग ने अभी अपनी आत्मकथा लिखी है जो रूस में प्रकाशित हुई है और बड़ा समर्थन मिला है। अपनी आत्मकथा उसने लिखी है — ‘अबाउट माईसेल्फ’। उसमें उसने लिखा है कि उस दिन मेरी जिंदगी बदल गई। उस ट्रेन में नीचे फर्श पर छिपा हुआ पड़ा था बिना टिकिट के कारण। मैसिंग ने लिखा है कि वे शब्द मुझे कभी नहीं भूलते — टिकिट चेकर का कमरे में प्रवेश, उसके जूतों की आवाज और मेरी श्वास का ठहर जाना और मेरी घबराहट और पसीने का छूट जाना, ठंडी सुबह, और फिर उसका मेरे पास आकर पूछना — यंगमैन, यौर टिकिट?

मैसिंग के पास तो टिकिट थी नहीं। लेकिन अचानक पास में पड़ा हुआ एक कागज का टुकड़ा— अखबार की रही का टुकड़ा मैसिंग ने हाथ में उठा लिया। आंख बंद की और संकल्प किया कि यह टिकिट है, और उसे उठाकर टिकिट चैकर को दे दिया। और मन में सोचा कि हे परमात्मा, उसे टिकिट दिखाई पड़ जाए। टिकिट चेकर ने उस कागज को पंक्रर किया, टिकिट वापिस लौटायी और कहा — व्हेन यू हैव गाट दि टिकिट, व्हाई यू आर लाइंग अंडर दि सीट? पागल हो! जब टिकिट तुम्हारे पास है तो नीचे क्यों पड़े हो? मैसिंग को खुद भी भरोसा नहीं आया। लेकिन इस घटना ने उसकी पूरी जिंदगी बदल दी। इस घटना के बाद पिछली आधी सदी में पचास वर्षों में जमीन पर सबसे महत्वपूर्ण आदमी था जिसे धारणा के संबंध में सवाधिक अनुभव थे।

मैसिंग की परीक्षा दुनिया में बड़े—बड़े लोगों ने ली। 194० में एक नाटक के मंच पर जहां वह अपना प्रयोग दिखला रहा था— लोगों में विचार संक्रमित करने का — अचानक पुलिस ने आकर मंच का परदा गिरा दिया और लोगों से कहा कि यह कार्यक्रम समाप्त हो गया। क्योंकि मैसिंग गिरफ्तार कर लिया गया। मैसिंग को तत्काल बंद गाड़ी में डाल कर क्रेमलिन ले जाया गया और स्टेलिन के सामने मौजूद किया गया। स्टेलिन ने कहा — मैं मान नहीं सकता कि कोई किसी दूसरे की धारणा को सिर्फ आतरिक धारणा से प्रभावित कर सके। क्योंकि अगर ऐसा हो सकता है तो फिर आदमी सिर्फ पदार्थ नहीं रह जाता। तो मैं तुम्हें इसलिए पकड़कर बुलाया हूं कि तुम मेरे सामने सिद्ध करो।

मैसिंग ने कहा — आप जैसा भी चाहें। स्टेलिन ने कहा कि कल दो बजे तक तुम यहां बंद रहो। दो बजे आदमी तुम्हें ले जाएंगे मास्को के बड़े बैंक में। तुम क्लर्क को एक लाख रुपया सिर्फ धारणा के द्वारा निकलवाकर ले आओ।

पूरा बैंक मिलिट्री से घेरा गया। दो आदमी पिस्तौलें लिये हुए मैसिंग के पीछे, ठीक दो बजे उसे बैंक में ले जाया गया। उसे कुछ पता नहीं था कि किस काउंटर पर उसे ले जाया जाएगा। जाकर ट्रेजरर के सामने उसे खड़ा कर दिया गया। उसने एक कोरा कागज उन दो आदमियों के सामने निकाला। कोरे कागज को दो क्षण देखा। ट्रेजरर को दिया, और एक लाख रूबल। ट्रेजरर ने कई बार उस कागज को देखा, चश्मा लगाया, वापस गौर से देखा और फिर एक लाख रुपया, एक लाख रूबल निकालकर मैसिंग को दे दिये। मैसिंग ने बैग में वे पैसे अंदर रखे। स्टेलिन को जाकर रुपये दिये। स्टेलिन को बहुत हैरानी हुई! वापस मैसिंग लौटा। जाकर क्लर्क के हाथ में वह रुपये वापस दिये और कहा — मेरा कागज वापस लौटा दो। जब क्लर्क ने वापस कागज देखा तो वह खाली था। उसे हार्ट अटैक का दौरा पड़ गया और वह वहीं नीचे गिर पड़ा। वह बेहोश हो गया। उसकी समझ के बाहर हो गयी बात कि क्या हुआ।

लेकिन स्टेलिन इतने से राजी न हुआ। कोई जालसाजी हो सकती है। कोई क्लर्क और उसके बीच तालमेल हो सकता है। तो क्रेमलिन के एक कमरे में उसे बंद किया गया। हजारों सैनिकों का पहरा लगाया गया और कहा कि ठीक बारह बजकर पांच मिनिट पर वह सैनिकों के पहरे के बाहर हो जाए। वह ठीक बारह बजकर पांच मिनिट पर बाहर हो गया। सैनिक अपनी जगह खड़े रहे, वह किसी को दिखाई नहीं पड़ा। वह स्टेलिन के सामने जाकर मौजूद हो गया।

इस पर भी स्टेलिन को भरोसा नहीं आया। और भरोसा आने जैसा नहीं था, क्योंकि स्टेलिन की पूरी फिलासफी, पूरा चिंतन, पूरे कमुनिज़म की धारणा, सब बिखरती है। यही एक आदमी कोई धोखा— धड़ी कर दे और सारा का सारा मार्क्स चिंतन का आधार गिर जाए। लेकिन स्टेलिन प्रभावित जरूर इतना हुआ कि उसने तीसरे प्रयोग के लिए और प्रार्थना की।

उसकी दृष्टि में जो सर्वाधिक कठिन बात हो सकती थी, वह यह थी — उसने कहा कि कल रात बारह बजे मेरे कमरे में तुम मौजूद हो जाओ, बिना किसी अनुमति पत्र के। यह सवांधिक कठिन बात थी। क्योंकि स्टेलिन जितने गहन पहरे में रहता था उतना पृथ्वी पर दूसरा कोई आदमी कभी नहीं रहा। पता भी नहीं होता था कि स्टेलिन किस कमरे में है क्रेमलिन के। रोज कमरा बदल दिया जाता था ताकि कोई खतरा न हो, कोई बम न फेंका जा सके, कोई हमला न किया जा सके। सिपाहियों की पहली कतार जानती थी कि पांच नंबर कमरे में है, दूसरी कतार जानती थी कि छह नंबर कमरे में है, तीसरी कतार जानती थी कि आठ नंबर कमरे में है। अपने ही सिपाहियों से भी बचने की जरूरत थी स्टेलिन को। कोई पता नहीं होता था कि स्टेलिन किस कमरे में है। स्टेलिन की खुद पत्नी भी स्टेलिन के कमरे का पता नहीं रख सकती थी। क्रेमलिन के सारे कमरे, जिनमें स्टेलिन अलग—अलग होता था, करीब—करीब एक जैसे थे, जिनमें वह कहीं भी किसी भी क्षण हट सकता था। सारा इंतजाम हर कमरे में था।

ठीक रात बारह बजे पहरेदार पहरा देते रहे और मैसिंग जाकर स्टेलिन की मेज के सामने जाकर खड़ा हो गया, स्टेलिन भी कैप गया। और स्टेलिन ने कहा— तुमने यह किया कैसे? यह असंभव है!

मैसिंग ने कहा — मैं नहीं जानता। मैंने कुछ ज्यादा नहीं किया मैंने सिर्फ एक ही काम किया कि मैं दरवाजे पर आया और मैंने कहा कि आई एम बैरिया। बैरिया रूसी पूलिस का, सबसे बड़ा आदमी था, स्टेलिन के बाद नंबर दो की ताकत का आदमी था। बस मैंने सिर्फ इतना ही भाव किया कि मैं बैरिया हूं और तुम्हारे सैनिक मुझे सलाम बजाने लगे और मैं भीतर आ गया।

स्टेलिन ने सिर्फ मैसिंग को आज्ञा दी कि वह रूस में घूम सकता है, और प्रामाणिक है। 194० के बाद रूस में इस तरह के लोगों की हत्या नहीं की जा सकी तो वह सिर्फ मैसिंग के कारण। 194० तक रूस में कई लोग मार डाले गये थे जिन्होंने इस तरह के दावे किये थे। कार्ल आटोविस नाम के एक आदमी की 1937 में रूस में हत्या की गई, स्टेलिन की आज्ञा से। क्योंकि वह भी जो करता था वह ऐसा था कि उससे कमुनिज़म की जो मैटिरियलिस्ट— भौतिकवादी धारणा है, वह बिखर जाती है।

अगर धारणा इतनी महत्वपूर्ण हो सकती है तो स्टेलिन ने आशा दी अपने वैज्ञानिकों को कि मैसिंग की बात को पूरा समझने की कोशिश करो, क्योंकि इसका युद्ध में भी उपयोग हो सकता है। और जो आदमी मैसिंग का अध्ययन करता रहा, उस आदमी ने, नामोव ने कहा है कि जो अल्टीमेट वैपन है युद्ध का, आखिरी जो अस्त्र सिद्ध होगा, वह यह मैसिंग के अध्ययन से निकलेगा। क्योंकि जिस राष्ट्र के हाथ में धारणा को प्रभावित करने के मौलिक सूत्र आ जाएंगे, उस राष्ट्र को अणु की शक्ति से हराया नहीं जा सकता। सच तो यह है कि जिनके हाथ में अणुबम हों उनको भी धारणा से प्रभावित किया जा सकता है कि वह अपने ऊपर ही फेंक दें। एक हवाई जहाज बम फेंकने जा रहा हो उसके पायलट को प्रभावित किया जा सकता है कि वापस लौट जाए, अपनी ही राजधानी पर गिरा दे।

नामोव ने कहा है कि दि अल्टीमेट वैपन इन वार इज गोइंग टु बी साइकिक पावर। यह धारणा की जो शक्ति है, यह आखिरी अस्त्र।ग्नद्ध हणो। इस पर रोज काम बढ़ता चला जाता है। स्टेलिन जैसे लोगों की उत्सुकता तो निश्रित ही विनाश की तरफ होगी। महावीर ?ंाए रो लोगों की उत्सुकता निर्माण और सृजन की ओर है। इसलिए मंगल की धारणा, महावीर ने कहा है — भूलकर भी स्वप्र में भी कोई भरी धारणा मत करना, क्योंकि वह परिणाम ला सकती है।

आप राह से गुजर रहे हैं, आप सोचते हैं, मैंने कुछ किया भी नहीं। एक मन में खयाल भर आ गया कि इस आदमी की हत्या कर ‘या। आपने कुछ किया नहीं। कि इस दुकान से फलां चीज चुरा लूं आप चोरी करने नहीं भी गये। लेकिन क्या आप निश्रित हो सकते पृ!’ कि राह पर किसी चोर ने आपकी धारणा न पकड़ ली होगी?

मास्को में एक हवा पिछले दो साल में प्रचलित हुई है कि कोई भी आदमी अपनी गर्दन खुजलाने के पहले चारों तरफ देख लेता है। क्‍योंकि यह प्रयोग चल रहा है दो साल से। मानेन नाम का वैज्ञानिक सड्कों पर प्रयोग कर रहा है। वह आपके पीछे आकर कहेगा, ‘आपकी गर्दन पर कीड़ा चढ़ रहा है’ — मन में अपने — ‘गर्दन खुजला रही है, खुजलाओ जल्दी’ और लोग खुजलाने लगते हैं। अब तो यह ‘खबर इतनी फैल गयी है क्योंकि उसने हजासें लोगों पर प्रयोग किया है — राह के चौरस्तों पर खड़े होकर, होटल में बैठकर, ट्रेन, में चढ़कर। और मानेन इतना सफल हुआ है कि नाइनटी एट परसेंट, अट्ठान्नबे प्रतिशत सही होता है। जिसके पीछे खड़े होकर, वह भावना करता है कि गर्दन खुजला रही है, कीड़ा चढ़ रहा है, जल्दी खुजलाओ। वह जल्दी खुजलाता है। अब तो लोगों को पता चल गया है। सच में ”भी कीड़ा चढ़ा हो तो लोग पहले देख लेते हैं कि वह मानेन नाम का आदमी आसपास तो नहीं है! जब से मानेन का प्रयोग सफल हुआ है तब से मस्तिष्क के बाबत एक नयी जानकारी मिली है। और वह यह कि मस्तिष्क सामने से जितनी शक्ति रखता है, उससे चौगुनी शक्ति मस्तिष्क के पीछे के हिस्से में है।

तो पीछे से व्यक्ति को जल्दी प्रभावित किया जा सकता है। सामने सिर्फ एक हिस्सा है, चार गुना पीछे है। और जो लोग, जैसे कि मैसिंग, या कल मैंने आपको कहा नेल्या नाम की महिला, जो वस्तुओं को सरका सकती है — इनके मस्तिष्क के अध्ययन से पता चलता है कि इनका मस्तिष्क पीछे पचास गुनी शक्ति से भरा हुआ है — सामने एक तो पीछे पचास। योग की निरंतर धारणा रही है कि मनुष्य ‘हा असली मस्तिष्क छिपा हुआ पीछे पड़ा है। और जब तक वह सक्रिय नहीं होता तब तक मनुष्य अपनी पूर्ण गरिमा को उपलब्ध नहीं होगा।

यह भी हैरानी की बात है कि अगर आप कोई बुरा विचार करते हैं, तो प्रकृति का अदभुत नियम है कि आप मस्तिष्क के अगले हिस्से से करते हैं। मस्तिष्क का प्रत्येक हिस्सा अलग—अलग काम करता है। अगर आपको हत्या करनी है तो उसका विचार आपके मस्तिष्क। के ऊपरी, सामने के हिस्से में चलता है। और अगर आपको किसी की सहायता करनी है तो पीछे, अंतिम हिस्से में चलता है।

प्रकृति ने इंतजाम किया हुआ है कि शुभ की ओर आपको ज्यादा शक्ति दी हुई है, अशुभ की ओर कम शक्ति दी हुई है। लेकिन शुभ जगत में दिखाई नहीं पड़ता और अशुभ जगत में बहुत दिखाई पड़ता है। हम शुभ की कामना ही नहीं करते। या अगर हम कामना भी करते है, तो हम तत्काल विपरीत कामना करके उसे काट देते हैं। जैसे एक मां अपने बच्चे के जीने की कितनी कामना करती है— बड़ा हो जीये। लेकिन किसी क्षण क्रोध में कह देती है : तू तो होते से ही मर जाता तो बेहतर था। उसे पता नहीं है कि चार दफा उसने कामना की हो शुभ की और यह एक दफा अशुभ की, तो भी विषाक्त हो जाता है सब, कट जाती है कामना।

महावीर अपने साधुओं को कहते थे कि मंगल की कामना में डूबे रहो चौबीस घंटे — उठते, बैठते, श्वास लेते, छोड़ते। स्वभावत: मंगल की कामना शिखर से शुरू करनी चाहिए इसलिए वे कहते हैं— ‘अरिहंत मंगल हैं’। वे जिनके आंतरिक समस्त रोग समाप्त हो गये, वे मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं, साधु मंगल हैं, और जाना जिन्होंने — जैन परंपरा केवली उन्हें कहती है जो जानने की दिशा में उस जगह पहुंच गये जहां जाननेवाला भी नहीं रह जाता, जानी जानेवाली वस्तु भी नहीं रह जाती, सिर्फ जानना रह जाता है, सिर्फ केवल ज्ञान मात्र रह जाता है— औनली नोइंग। केवली, जैन परंपरा उसे कहती है जो केवल ज्ञान को उपलब्ध हो गया। मात्र ज्ञान रह गया है जहां। जहां कोई जाननेवाला न बचा, जहां मैं का कोई भाव न बचा, जहां कोई ज्ञेय न बचा, जहां कोई तू न बचा। जहां सिर्फ जानने की शुद्ध क्षमता, प्योर कैपेसिटी टु नो।

इसे ऐसा समझें कि हम एक कमरे में दीया जलाए। दीये की बाती है, तेल है, दीया है। फिर कमरे में दीये का प्रकाश है और उस प्रकाश से प्रकाशित होती चीजें हैं— कुर्सी है, फनीर्चर है, दीवार है, आप हैं। अगर हम ऐसी कल्पना कर सकें कि कमरा शून्य हो गया— न दीवार है, न फनीर्चर है, कुछ भी नहीं है। दीये में तेल भी न रहा, दीये की देह भी न रही — सिर्फ ज्योति रह गयी, प्रकाश मात्र रह गया, न कोई दीया बचा और न प्रकाशित वस्तुएं बची— मात्र प्रकाश रह गया। आलोक, स्रोतरहित, कोई तेल नहीं, कोई बाती नहीं। और ऐसा आलोक जो किसी पर नहीं पड़ रहा है, शून्य में फैल रहा है। ऐसी धारणा है जैन चिंतन की केवली के संबंध में। जो परम ज्ञान को उपलब्ध होता है वहां ज्ञान अकारण हो जाता है, कोई सोर्स नहीं होता। क्योंकि बात बहुत कीमती है। जैन परंपरा कहती है कि जिस चीज का भी सोर्स होता है वह कभी न कभी चुक जाती है। चुक ही जाएगी। कितना ही बड़ा स्रोत क्यों न हो। सूर्य भी चुक जाएगा एक दिन — बड़ा है स्रोत, अरबों वर्षों से रोशनी दे रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं — अभी और अन्दाजन चार हजार, पांच हजार साल रोशनी देगा, लेकिन चुक जाएगा। कितना ही बड़ा स्रोत हो, स्रोत की सीमा है — चुक जाएगा।

महावीर कहते हैं—यह जो चेतना है, यह अनंत है, यह कभी चुक नहीं सकती। यह स्रोतरहित है इसमें जो प्रकाश है वह किसी मार्ग से नहीं आता, वह बस ‘है ‘ — इट जस्ट इज। कहीं से आता नहीं, अन्यथा एक दिन चुक जाएगा। कितना ही बड़ा हो, चुक जाएगा। महासागर भी चम्मचों से उलीचकर चुकाए जा सकते हैं—कितना ही लंबा समय लगे। महासागर भी चम्मचों से उलीचकर चुकाए जा सकते हैं। एक चम्मच थोड़ा तो कम कर ही जाती है। फिर और ज्यादा कम होता जाएगा। महावीर कहते हैं — यह जो चेतना है, यह स्रोतरहित है। इसलिए महावीर ने ईश्वर को मानने से इनकार कर दिया। क्योंकि अगर ईश्वर को मानें तो ईश्वर स्रोत हो जाता है। और हम सब उसी के स्रोत से जलने वाले दीये हो जाते हैं तो हम चुक जाएंगे।

सच यह है कि महावीर से ज्यादा प्रतिष्ठा आत्मा को इस पृथ्वी पर और किसी व्यक्ति ने कभी नहीं दी है। इतनी प्रतिष्ठा कि उन्होंने कहा कि परमात्मा अलग नहीं, आत्मा ही परमात्मा है। इसका स्रोत अलग नहीं है, यह ज्योति ही स्वयं स्रोत है। यह जो भीतर जलने वाला जीवन है, यह कहीं सै शक्ति नहीं पाता यह स्वयं ही शक्तिवान है। यह किसी के द्वारा निर्मित नहीं है, नहीं तो किसी के द्वारा नष्ट हो जाएगा। यह किसी पर निर्भर नहीं है, नहीं तो मोहताज रहेगा। यह किसी से कुछ भी नहीं पाता, यह स्वयं में समर्थ और सिद्ध है। जिस दिन ज्ञान इस सीमा पर पहुंचता है, जहां हम स्रोतरहित प्रकाश को उपलब्ध होते हैं, सोर्सलेस — उसी दिन हम मूल को उपलब्ध होते हैं। जैन परंपरा ऐसे व्यक्ति को केवली कहती है। वह व्यक्ति कहीं भी पैदा हो — वे क्राइस्ट हो सकते हैं, वे बुद्ध हो सकते हैं, वे कृष्ण हो सकते हैं, वे लाओत्से हो सकते हैं। इसलिए इस सूत्र में यह नहीं कहा गया — महावीर मंगल, कृष्ण मंगल — ऐसा नहीं कहा। ‘जैन धर्म मंगल है ‘, ऐसा नहीं कहा। ‘हिन्दू धर्म मंगल है’, ऐसा नहीं कहा। ‘केवली पन्नत्तो धम्मो मंगल’ — वे जो केवल—ज्ञान को उपलब्ध हो गये, उनके द्वारा जो भी प्ररूपित धर्म है, वह मंगल है। वह कहीं भी हो, जिन्होंने भी शुद्ध ज्ञान को पा लिया, उन्होंने जो कहा है, वह मंगल है।

यह मंगल की धारणा गहन प्राणों के अतल में बैठ जाए तो अमंगल की संभावना कम होती चली जाती है। जैसी जो भावना करता है, धीरे— धीरे वैसा ही हो जाता है। जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही हम हो जाते हैं। जो हम मांगते हैं, वह मिल जाता है।

लेकिन हम सदा गलत मांगते हैं, वही हमारा दुर्भाग्य है। हम उसी की तरफ आंख उठाकर देखते हैं जो हम होना चाहते हैं। अगर आप एक राजनैतिक नेता के आसपास भीड़ लगाकर इकट्ठे हो जाते हैं, तो यह भीड़ सिर्फ इसकी ही सूचना नहीं है कि राजनैतिक नेता आया है। गहन रूप से इस बात की सूचना है कि आप कहीं राजनैतिक पद पर होना चाहते हैं। हम उसी को आदर देते हैं जो हम होना चाहते हैं, जो हमारे भविष्य का माडल मालूम पड़ता है। जिसमें हमें दिखाई पड़ता है कि काश, मैं हो जाऊं। हम उसी के आसपास इकट्ठे हो जाते हैं। अगर सिने—अभिनेता के पास भीड़ इकट्ठी हो जाती है तो वह आपकी भीतरी आकांक्षा की खबर देती है— आप भी वही हो जाना चाहते हैं।

अगर महावीर ने कहा है कि कहो — ‘अरिहता मंगल, सिद्धा मंगल, साहू मंगल’ तो वे यह कह रहे हैं कि यह तुम कह ही तब पाओगे जब तुम अरिहंत होना चाहोगे। या तुम जब यह कहना शुरू करोगे, तो तुम्हारे अरिहंत होने की यात्रा शुरू हो जाएगी। और बड़ी से बड़ी यात्रा बड़े छोटे से कदम से शुरू होती है। और पहले कदम से कुछ भी पता नहीं चलता। धारणा पहला कदम है।

कभी आपने सोचा कि आप क्या होना चाहते हैं? नहीं भी सोचा होगा सचेतन रूप से तो भी अचेतन में चलता है कि आप क्या होना चाहते हैं। जो आप होना चाहते हैं उसी के प्रति आपके मन में आदर पैदा होता है। न केवल आदर, जो आप होना चाहते हैं उसी के संबंध में आपके मन में चिंतन के वर्तुल चलते हैं, वही आपके स्वप्‍नों में उतर आता है; वही आपकी सांसों में समा जाता है; वही आपके खून में प्रवेश कर जाता है। और जब मैं कहता हूं — खून में प्रवेश कर जाता है, तो मैं कोई साहित्यिक बात नहीं कह रहा हूं — मैं मेडिकल, मैं बिलकुल शारीरिक तथ्य की बात कह रहा हूं।

इधर प्रयोग किये गये हैं और चकित करने वाले सूचन मिले हैं। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डिलावार प्रयोगशाला में विचार का खून पर क्या प्रभाव पड़ता है — दूसरे की धारणा का भी, आपकी धारणा तो छोड़ दें, आपकी धारणा का तो पडेगा ही —दूसरे की धारणा का भी, अप्रगट धारणा का भी आपके खून पर क्या प्रभाव पड़ता है? अगर आप ऐसे व्यक्ति के पास जाते हैं जिसके हृदय से बहती करुणा और मंगल की भावना है, जो आपके लिए शुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं सोच पाता — तो डिलावार लेबोरेटरी के प्रयोगों का दस वर्षों का निष्कर्ष यह है कि आपके खून में—ऐसे व्यक्ति के पास जाते ही, जो आपके प्रति मंगल की भावना रखता है—सफेद कण, पंद्रह सौ की तादाद में तत्काल बढ़ जाते हैं, इमीजियेटली। दरवाजे के बाहर आपके खून की परीक्षा की जाए और फिर आप भीतर आ जाएं और मंगल की कामना से भरे हुए व्यक्ति के पास बैठ जाएं और फिर आपके खून की परीक्षा की जाए, आपके खून में सफेद, व्हाइट बल्‍ड सैल्‍स — सफेद जो कोश हैं खून के — वे पंद्रह सौ बढ़ जाते हैं। जो व्यक्ति आपके प्रति दुर्भाव रखता है उसके पास जाकर सोलह सौ कम हो जाते हैं— तत्काल, इमीजियेटली।

और मेडिकल साइंस कहती है कि आपके स्वास्थ्य की रक्षा का मूल आधार सफेद कणों की अधिकता है। वे जितने ज्यादा आपके शरीर में होते हैं उतना आपका स्वास्थ्य सुरक्षित है। वे आपके पहरेदार हैं। आपने देखा होगा, खयाल नहीं किया होगा, चोट लग जाती है तो चोट लगकर जो आपको मवाद पड़ जाती है वह मवाद सिर्फ रक्षक है, आपके शरीर के खून के सफेद कण। वे भागकर फौरन एक पर्त पहरेदारी की खड़ी कर देते हैं। जिसको आप मवाद समझते हैं वह मवाद नहीं है, वे आपके दुश्मन नहीं हैं, वे खून के सफेद कण हैं जो तत्काल दौडकर घाव को चारों तरफ से घेर लेते हैं, जैसे कि पूलिस ने पहरा लगा दिया हो। क्योंकि उनके पर्त को पार करके कोई भी कीटाणु शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता है। वे रक्षक हैं।

डिलावार प्रयोगशाला में किये गये प्रयोगों ने चकित कर दिया है वैज्ञानिकों को कि क्या शुभ की भावना से भरे व्यक्ति का इतना परिणाम हो सकता है कि दूसरे के खून का अनुपात बदल जाए! आयतन बदल जाए! खून की गति बदल जाए! हृदय की गति बदल जाए! रक्तचाप बदल जाए! यह संभव है? अब तो इनकार करना कठिन है।

डा. जगदीशचन्द्र बसु के बाद दूसरा एक बड़ा नाम एक अमरीकन का है, क्लीब बैक्स्‍टर का। जगदीशचन्द्र ने तो कह। था कि पौधों में प्राण हैं। बैक्स्‍टर ने सिद्ध किया है — सिद्ध हो गया है कि पौधों में भावना भी है। और पौधे अपने मित्रों को पहचानते हैं और शत्रुओं को भी। पौधा अपने मालिक को भी पहचानता है और अपने माली को भी। और अगर मालिक मर जाता है तो पौधे की प्राण— धारा क्षीण हो जाती है, वह बीमार हो जाता है। पौधों की स्मृति को भी बैक्सर ने सिद्ध किया है कि उनकी भी मैमोरी है। और आप जब अपने गुलाब के पौधे के पास जाकर प्रेम से खड़े हो जाते हैं तब वह कल फिर आपकी उसी समय प्रतीक्षा करता है। वह याद रखता है कि आज आप नहीं आये। या जब आप पौधे के पास प्रेम से भरकर खड़े हो जाते हैं, फिर अचानक एक फूल तोड़ लेते हैं तो पौधे को बडी हैरानी होती है, बड़ा कंफ्यूजन होता है। इस सबकी प्राणधाराओं को रिकार्ड करने वाले यंत्र तैयार किये हैं बैक्स्‍टर ने कि पौधा एकदम कंफ्यूज्ड हो जाता है, उसकी समझ में नहीं आता कि जो आदमी इतने प्रेम से खड़ा था, उसने फूल कैसे तोड़ लिया। वह ऐसे ही कंफ्यूज्ड हो जाता है जैसे कोई बच्चा आपके पास खड़ा हो, प्रेम करते—करते एकदम गर्दन तोड़ लें कि चेहरा बहुत अच्छा लगता है। पौधे की समझ में बिलकुल नहीं आता कि यह हो क्या गया! उसके भीतर बड़ा कंफ्यूजन पैदा होता है।

बैक्स्‍टर कहता है — हमने हजारों पौधों को कंफ्यूज किया, उनको हम बड़ी परेशानी में डाले हुए हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि यह हो क्या रहा है! जिसको मित्र की तरह अनुभव कर रहे थे वह एकदम शत्रु की तरह हो जाता है। बैक्सर का यह भी कहना है कि जिन पौधों को हम प्रेम करते हैं वे हमारी तरफ बड़ी पाजिटिव भावनाएं छोड़ते हैं।

और बैक्सर ने सुझाव दिया है अमरीकन मेडिकल एसोसिएशन को कि शीघ्र ही हम विशेष तरह के मरीजों को विशेष पौधों के पास ले जाकर ठीक करने में समर्थ हो जाएंगे— अगर उन पौधों को हमने इतना प्राणवान कर दिया —प्रेम से, भाव से, संगीत से, प्रार्थना से, ध्यान से। उनको इतना प्राण—शक्ति से भर दिया है तो उनके पास विशेष तरह के मरीज ले जाने से फायदा होगा। फिर हर पौधे में अपनी—अपनी प्राण—ऊर्जा की विशेषताएं हैं। जैसे रेड रोज़, लाल जो गुलाब है, वह क्रोधी लोगों के लिए बड़े फायदे का है। हो सकता है पंडित नेहरू को इसीलिए उससे प्रेम रहा हो। क्रोध के लिए रेड रोज़ बहुत फायदे का है बैक्सटर के हिसाब से। वह क्रोध को कम करता है, वह अक्रोध की धारणा को अपने चारों तरफ फैलाता है। उसका भी अपना आभामंडल है।

पौधों के पास भी हृदय है। माना कि वे अशिक्षित हैं, लेकिन उनके पास हृदय है। आदमी बहुत शिक्षित होता चला जाता है लेकिन हृदय खोता चला जाता है।

यह धारणा, हृदय को जन्माने का आधार बन सकती है — मंगल की धारणा, निशित ही मंगल की धारणा। हम इतने कमजोर हैं और अमंगल हमें इतना सहज है कि हम अरिहंत पर भी मंगल की धारणा कर पाएं तो चमत्कार है। हम यह भी कह पाएं कि अरिहंत मंगल हैं तो भी मिरेकल है। पत्थर मंगल है, इसके लिए तो कठिनाई पड़ेगी। दुश्मन मंगल है, इसके लिए तो बहुत कठिनाई पड़ेगी। शत्रु मंगल है, इसके लिए तो बहुत कठिनाई पड़ेगी। महावीर आपको भलीभांति जानते हैं। जो श्रेष्ठतम है, उस पर भी आपको कठिनाई पड़ेगी, मंगल की धारणा करने में। उससे शुरू करते हैं — अरिहंत, सिद्ध, साधु और जिन्होंने जाना उनके द्वारा प्ररूपित धर्म।

‘ धर्म’ का जैन परंपरा में वैसा अर्थ नहीं है जैसा अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ का है या उर्दू के ‘मज़हब’ का है। और वैसा अर्थ भी नहीं है

जैसा हिन्दू ‘धर्म’ का। जैन परंपरा में धम्म का जो अर्थ है वह समझ लेना चाहिए — वह बहुत खूबी का है, विशिष्ट है और जैन दृष्टि को एक नये आयाम में फैलाता है। मजहब का अर्थ तो होता है — क्रीड, एक मत, एक पंथ। अंग्रेजी के रिलीजन शब्द का अर्थ होता है करीब—करीब वही जो योग का अर्थ होता है। वह जिस सूत्र से बना है रिलीगेयर, उसका अर्थ होता है जोड़ना, आदमी को परमात्‍मा से जोड़ना। योग का भी वही अर्थ होता है, आदमी को परमात्मा से जोड़ना।

लेकिन जैन चिंतन परमात्मा के लिए जगह ही नहीं रखता। इसलिए आप यह जानकर हैरान होंगे कि जैन योग का अच्छा अर्थ नहीं मानते। जैन कहते हैं — केवली अयोगी होता है— अयोगी, योगी नहीं। इसलिए महावीर को कुछ नासमझ, कुछ भूल से भरे लोग महायोगी कहते हैं, वे गलत कहते हैं। जैन परंपरा के शब्द का उन्हें पता नहीं। महावीर कहते हैं— जुड़ना नहीं है किसी से, जो गलत है उससे टूटना है, अलग होना है। अयोग— संसार से अयोग, तो स्वरूप उपलब्ध हो जाता है। योग कहता है — परमात्मा से मिलन, तो स्वरूप उपलब्ध होता है। महावीर कहते हैं — स्वरूप उपलब्ध ही है। जो हमें पाना है, वह हमें मिला ही हुआ है। सिर्फ हम गलत चीजों से चिपके खड़े हैं, इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा है। गलत को छोड़ दें, अयुक्त हो जाएं अलग हो जाएं। इसलिए जैन परंपरा में अयोग का वही मूल्य है जो हिन्दू परंपरा में योग का है। धर्म का बड़ा अनूठा अर्थ जैनों का है। महावीर कहते हैं कि वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है, नेचर। धर्म का महावीर का वही अर्थ है जो लाओत्से के ताओ का।

वस्तु का जो स्वभाव है, जो उसकी स्वयं की अपनी परिणति है— अगर कोई व्यक्ति बिना किसी से प्रभावित हुए सहज वरण—चरण कर पाए तो धर्म को उपलब्ध हो जाता है — अगर कोई व्यक्ति बिना प्रभावित हुए। इसलिए प्रभाव को महावीर अच्छी बात नहीं मानते। किसी से भी प्रभावित होना बंधना है। सब इंप्रेशंस बांधने वाले हैं। पूर्णतया अप्रभावित हो जाना निज हो जाना है, स्वयं हो जाना है। इस निजता को, इस स्वयं होने को वे धर्म कहते हैं। केवली प्ररूपित धर्म का अर्थ होता है, जब कोई व्यक्ति केवल ज्ञान पात्र रह जाता है, चेतना मात्र रह जाता है। तब वह जैसे जीता है वही धर्म है। उसका जीवन, उसका उठना, उसका बैठना, उसका हलन—चलन, उसका सोना— वह जो भी करता है— उसकी आंख की पलक का उठना और हिलना, उसकी समस्त अस्तित्व में प्रकट होती हुई जो भी किरणें हैं— वही धर्म है।

जैसे अग्‍नि अपने शुद्ध रूप में जलती हो तो धुआं पैदा नहीं होता। आप कहेंगे — अग्नि तो जहां भी जलती है, वहां धुआं पैदा होता है। और तर्क की किताब में लिखा हुआ है— जहां—जहां धुआं, वहां—वहां अग्नि। इसलिए जहां धुआं दिखे, मान लेना कि अग्‍नि है। लेकिन धुआं अग्नि से पैदा नहीं होता, केवल ईंधन के गीलेपन से पैदा होता है। अग्‍नि से उसका कोई लेना—देना नहीं है। ‘तार ईधन बिलकुल गीला न हो तो धुआं पैदा नहीं होता। धुआं अग्‍नि का स्वभाव नहीं है, ईधन का प्रभाव है— जब ईधन गीला होता है तब पैदा होता है। तो कहना चाहिए — वह पानी से पैदा होता है, वह अग्‍नि से पैदा नहीं होता— धुआं। अगर बिलकुल राखा ईधन है, जिसमें पानी जरा भी नहीं है तो धुआं पैदा नहीं होगा। और अगर पैदा होता है तो जानना कि थोड़ा—बहुत ईधन गीला [रे। अग्‍नि जब अपने शुद्ध रूप में होती है, जब उसमें कोई दूसरा विजातीय, फारिन एलीमेंट नहीं होता— तब उसमें कोई धुआं नहीं ओता।

महावीर कहते हैं— तब अग्‍नि अपने धर्म में है, जब कोई धुआं नहीं है। जब चेतना बिलकुल शुद्ध होती है और पदार्थ का कोई प्रभाव नहीं होता, शरीर का पता भी नहीं होता—जब चेतना इतनी शुद्ध होती है कि शरीर का पता भी नहीं होता है। तब महावीर कहते हैं कि, जानना कि चेतना अपने धर्म में है। इसलिए महावीर कहते हैं—प्रत्येक का अपना धर्म है —अग्‍नि का अपना है; जल’ का अपना है; पदार्थ का अपना है; चेतना का अपना है। शुद्ध हो जाना अपने धर्म में— आनन्द है; अशुद्ध रहना अपने धर्म में दुःख है। तो धर्म का यहां अर्थ है, स्वभाव। अपने स्वभाव में चले जाना धार्मिक हो जाना है, और अपने स्वभाव के बाहर भटकते रहना अधार्मिक बने रहना है।

लोक में इन चारों को उत्तम भी इस सूत्र में कहा है। अरिहंत उत्तम हैं लोक में, सिद्ध उत्तम हैं लोक में, साधु उत्तम है लोक में, केवली प्ररूपित धर्म उत्तम है लोक में। मंगल कह देने के बाद उत्तम कहने की क्या जरूरत है? कारण है हमारे भीतर। ये सारे सूत्र हमारे मनस के ऊपर आधारित हैं। यह हमारे मन की गहराइयों के अध्ययन पर आधारित है। मंगल कहने के बाद भी हम इतने नासमझ हैं कि जो उत्तम नहीं है उसे भी हम मंगलरूप मान सकते हैं। हमारी वासनाएं ऐसी हैं कि जो निकृष्ट है लोक में उसी की तरफ बहती हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि वासना का अर्थ ही यही होता है— नीचे की तरफ बहाव। जो निकृष्ट है उसी की तरफ।

रामकृष्ण कहा करते थे कि चील आकाश में भी उड़े तो तुम यह मत समझना कि उसका ध्यान आकाश में होता है। वह आकाश में उड़ती है, लेकिन उसकी नजर नीचे, कहीं कूड़े—कबाड़ पर, किसी कचरेघर पर पड़े हुए मांस पर, किसी सड़ी मछली पर, उस पर लगी रहती है। उड़ती आकाश में है और उसकी दृष्टि तो नीचे कहीं किसी मांस के टुकडे पर लगी रहती है। तो रामकृष्ण कहते थे— भूल में मत पड़ जाना कि चील आकाश में उड़ रही है इसलिए आकाश में ध्यान होगा। ध्यान तो उसका नीचे लगा रहता है। इसलिए दूसरे सूत्र में महावीर का यह जो मंगल सूत्र है, यह तत्काल जोड़ता है— ‘अरिहंत लोद्यमा!’ अरिहंत उत्तम हैं। यह सिर्फ इशारे के लिए है। ‘सिद्ध उत्तम हैं, साधु उत्तम हैं। ‘उत्तम का अर्थ है कि शिखर हैं जीवन के— श्रेष्ठ हैं, पाने योग्य हैं, चाहने योग्य हैं, होने योग्य हैं।

किसी ने पूछा है श्वीत्सर को— क्या है पाने योग्य? क्या है आनंद? तो श्वीत्सर ने कहा— ‘टु बी मोर एंड मोर, टु बी डीप एंड डीप, टु बी इन एंड इन, एंड कास्टेंटली टर्निंग इन टु समथिंग मोर एंड मोर। ‘कुछ ज्यादा में रूपांतरित होते रहना, कुछ श्रेष्ठ में बदलते रहना, कुछ गहरे और गहरे जाते रहना, कुछ ज्यादा और ज्यादा होते रहना।

लेकिन हम ज्यादा तभी हो सकते हैं जब ज्यादा की, श्रेष्ठ की, उत्तम की धारणा हमारे निकट हो। शिखर दिखाई पड़ता हो तो यात्रा भी हो सकती है। शिखर ही न दिखाई पड़ता हो तो यात्रा का कोई सवाल नहीं। भौतिकवाद कहता है— कोई आत्मा नहीं है। शिखर को तोड़ देता है। और जब कोई आत्मा नहीं है, ऐसा कोई मान लेता है— तो आत्मा को पाना है, इसका तो कोई सवाल ही नहीं रह जाता।

फ्रायड यदि कह देता है कि आदमी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है— तो आदमी तो वासना है ही — वह तत्काल मान लेता है। फिर वह कहता है जब वासना के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं तब बात खत्म हो गयी, बात समाप्त हो गयी।

एक व्यक्ति कह रहा था किसी को कि मैं बहुत परेशान था, क्योंकि मेरी काशियेंस मुझे बहुत पीड़ा देती थी, मेरा अंतःकरण बहुत पीड़ा देता था— झूठ बोलूं तो, चोरी करूं तो, किसी सी की तरफ देखूं तो— बड़ी पीड़ा होती थी। तो फिर मैं मनोचिकित्सक के पास गया। और मैंने इलाज करवाया और दो साल में मैं बिलकुल ठीक हो गया।

तो उसके मित्र ने पूछा— क्या अब चोरी का भाव नहीं उठता? सी को देखकर वासना नहीं जगती? सुंदर को देखकर पाने का भाव पैदा नहीं होता?

उसने कहा — नहीं—नहीं, तुम मुझे गलत समझे। दो साल में मनोचिकित्सक ने मुझे मेरी काशियेंस से छुटकारा दिला दिया। अब पीड़ा नहीं होती, अब चिंता नहीं होती, अब अपराध अनुभव नहीं करता हूं।

पिछले पचास सालों में पश्रिम का मनोचिकित्सक लोगों को अपराध से मुक्त नहीं करवा रहा है, अपराध के भाव से मुक्त करवा रहा है। वह कह रहा है— यह तो स्वाभाविक है, यह तो बिलकुल स्वाभाविक है, यह तो होगा ही। अगर आज पश्‍चिम में जीवन ऐसे नीचे तल पर सरक रहा है— चल रहा है कहना ठीक नहीं, सरक रहा है, जैसे सांप सरकता है— तो उसका बड़े से बड़ा जिम्मा पश्‍चिम के मनोवैज्ञानिकों को है क्योंकि वह निकृष्ट को कहता है कि यही स्वभाव है। और कठिनाई यह है कि निकृष्ट को स्वभाव मान लेना हमें आसान है, क्योंकि हम परिचित हैं, और वह दलील ठीक लगती है।

जब महावीर कहते हैं, ‘अरिहता लोगुत्तमा’, तो समझ में नहीं पड़ता कि ऐसे लोग होते हैं। अरिहंत को हम जानते नहीं, सिद्ध को हम जानते नहीं। कौन हैं ये? हमारे भीतर तो हमने सिद्ध जैसा कभी कोई क्षण अनुभव नहीं किया; अरिहंत जैसी हमने कभी कोई लहर नहीं जानी; साधु जैसा हमने कभी कोई भाव नहीं जाना; केवली—प्ररूपित धर्म में हमने. कभी प्रवेश नहीं किया। क्या हवा की बातें है?

तो अगर हम मान भी लें तो मजबूरी में मानते हैं और उस मजबूरी का नाम हमने धर्म रखा हुआ है। किसी घर में पैदा हो गये, जैन, मजबूरी है, आपका कोई कृत्य नहीं है। पर्युषण है तो मजबूरी है। तो आप जाते हैं मंदिर में, नमस्कार करते हैं। साधु को नमस्कार करते हैं, उपवास कर लेते है, व्रत कर लेते हैं— मजबूरी है। किसी का कसूर नहीं, आप पैदा हो गये जैन घर में। इसमें किसी का कोई हाथ तो है नहीं। खोपड़ी में बचपन से सुनाया जा रहा है वह भर गया है, उसको निपटा लेते हैं। बाकी कहीं स्फुरणा नहीं है उसमें। कहीं कोई ऐसा सहज भाव नहीं है।

क्या आपने खयाल किया है मंदिर जाते वक्त आपके पैर और सिनेमागृह में जाते वक्त आपके पैरों की गति में बुनियादी भेद होता है— गुणात्मक, क्यालिटेटिव। मंदिर जैसे आप घसीटे जाते हैं, सिनेमागृह जैसे आप जाते हैं। मंदिर जैसे एक मजबूरी है, एक काम है। प्रफुल्लता नहीं है चरण में, नृत्य नहीं है चरण में जाते समय। किसी तरह पूरा कर देना है — लेकिन निकृष्ट जीवन है, पूरा — नहीं, कर देना है।

सुना है मैंने मुल्ला नसरुद्दीन जिस दिन मरा, उस दिन पुरोहित उसे परमाआ की प्रार्थना कराने आये और कहा कि मुल्ला! पश्रात्ताप करो, रिपेन्ट। पश्रात्ताप करो उन पापों का, जो तुमने किये हैं। मुल्ला ने आंख खोली और कहा कि मैं दूसरा ही पश्रात्ताप कर रहा हूं। जो पाप मैं नहीं कर पाया, उनका पक्षात्ताप कर रहा हूं। अब मर रहा हूं और कुछ पाप करने का मेरा मन था, वे नहीं कर पाया।

वह पुरोहित फिर भी नहीं समझ पाया, क्योंकि पुरोहितों से कम समझदार आदमी आज जमीन पर दूसरे नहीं हैं। उसने कहा— मुल्ला, यह क्या तुम कहते हो? अगर तुम्हें दुबारा जन्म मिले तो क्या तुम वही पाप करोगे? वैसा ही जियोगे, जैसा अभी जिये? मुल्ला ने कहा कि नहीं, बहुत फर्क करूंगा। मैंने इस जिंदगी में पाप बड़ी देर से शुरू किये, अगली जिंदगी में जरा जल्दी शुरू कर दूंगा।

यह मुल्ला हम सब मनुष्यों के बाबत खबर दे रहा है। यह व्यंग्य है, यह आदमी पूरा व्यंग्य है हम सब पर। यह हमारी मनोदशा है। मरते वक्त हमें भी पश्रात्ताप होगा। पश्रात्ताप होगा उन औरतों का जो नहीं मिलीं। पक्षात्ताप होगा उस धन का जो नहीं पाया। पश्रात्ताप होगा उन पदों का जो चूक गये। पक्षात्ताप होगा उस सबका जो निकृष्ट था, जो पाने योग्य ही नहीं था। लेकिन क्या मरते वक्त पश्रात्ताप होगा कि अरिहंत न मिले? सिद्ध न मिले? केवली—प्ररूपित धर्म में प्रवेश न मिला?

नहीं, हो सकता है नमोकार आपके आसपास पढ़ा जा रहा होगा, लेकिन आपके भीतर उसका कोई प्रवेश नहीं हो पाएगा। क्योंकि जिन्होंने जीवनभर उसके प्रवेश की तैयारी नहीं की, वे अगर सोचते हों कि क्षणभर में उसका प्रवेश हो जाएगा तो वे नासमझ हैं। जिन्होंने जीवनभर उस मेहमान के आने के लिए इंतजाम नहीं किया, वे सोचते हैं— अचानक वह मेहमान भीतर आ जाएगा तो वे गलती पर हैं। वे दुराशाएं कर रहे हैं, वे हताश होंगे।

लेकिन जो व्यक्ति निरंतर, ‘अरिहंत मंगल हैं, लोक में उत्तम हैं, श्रेष्ठ हैं’, वही जीवन में पाने का, ऐसा सूत्र खयाल में रखता है— और कभी—कभी न भी समझ में आता हो फिर भी रिचुअल रिपीटीशन करता है; न भी समझ में आता हो, न भी खयाल में आता हो, ऐसे ही दोहराये चला जाता है; तो भी तो स्व बनते हैं। ऐसे भी दोहराये चला जाता है तो भी चित्त पर निशान बनते हैं। वे निशान किसी भी— क्षण, किसी प्रकाश के क्षण में सक्रिय हो सकते हैं। जिसने निरंतर कहा है कि अरिहंत लोक में उत्तम हैं, उसने अपने भीतर एक धारा प्रवाहित की है— कितनी ही क्षीण। लेकिन अब वह अरिहंत होने के विपरीत जाने लगेगा तो उसके भीतर कोई उससे कहेगा कि तुम जो कर रहे हो वह उत्तम नहीं है, वह लोक में श्रेष्ठ नहीं है।

जिसने कहा है, ‘सिद्ध लोक में श्रेष्ठ हैं’, जब वह अपने को खोने जा रहा होगा तब कोई उसके भीतर स्वर कहेगा कि सिद्ध तो अपने को पाते हैं, तुम अपने को खोते हो, बेचते हो। जिसने कहा है, ‘साधु लोकोत्तम हैं’, उसको किसी क्षण असाधु होते वक्त यह स्मरण रोकनेवाला बन सकता है। जानकर, समझकर किया गया, तब तो परिणामदायी है ही। न जानकर, न समझकर किया हुआ भी परिणामदायी हो जाता है। क्योंकि रिचुअल रिपीटीशन भी, सिर्फ पुनरुक्ति भी, हमारे चित्त में रेखाएं छोड़ जाती है— मृत, लेकिन फिर भी छोड़ जाती है। और किसी भी क्षण वे सक्रिय हो सकती है। यह नियमित पाठ के लिए है, यह नियमित भाव के लिए है, यह नियमित धारणा के लिए है।

इसमें अंतिम बात थोड़ा और ठीक से समझ लें। महावीर ने जिस परंपरा और जिस स्कूल, जिस धारा का उपयोग किया है उसमें श्रेष्ठतम पर मनुष्य की ही शुद्ध आला को रखा है। मनुष्य की ही शुद्ध आत्मा परमात्‍मा मानी है। इसलिए महावीर के हिसाब से इस जगत में जितने लोग हैं उतने भगवान हो सकते हैं। जितने लोग हैं— लोग ही नहीं, जितनी चेतनाएं हैं वे सभी भगवान हो सकती हैं। महावीर की दृष्टि में भगवान का एक होने का जो खयाल है वह नहीं है। अगर ठीक से समझें तो दुनिया के सारे धर्मों में भगवान की जो धारणा है वह अरिस्टोक्रेटिक है, एक की है। सिर्फ महावीर के धर्म में वह डेमोक्रेटिक है, सब की है।

प्रत्येक व्यक्ति स्वभाव से भगवान है। वह जाने न जाने; वह पाये न पाये; वह जन्म—जन्म भटके; अनंत जन्म भटके; फिर भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह भगवान है। और किसी न किसी दिन वह जो उसमें छिपा है, प्रकट होगा। और किसी न किसी दिन जो बीज है वह वृक्ष होगा। जो संभावना है वह सत्य बनेगा।

महावीर अनंत भगवत्ताओं में मानते हैं— अनंत भगवत्ताओं में, इनफिनिट डिवाइन है। एक—एक आदमी डिवाइन है। और जिस दिन सारा जगत अरिहंत तक पहुंच जाए, उस दिन जगत में अनंत भगवान होंगे।

महावीर का अर्थ ‘भगवान’ से है— जिसने अपने स्वभाव को पा लिया। स्वभाव भगवान है। भगवान की यह बहुत अनूठी धारणा है। जगत को बनानेवाले का सवाल नहीं है भगवान से, जगत को चलानेवाले का सवाल नहीं है भगवान से। महावीर कहते हैं— कोई बनानेवाला नहीं है, क्योंकि महावीर कहते हैं— बनाने की धारणा ही बचकानी है। और बचकानी इसलिए है कि उससे कुछ हल नहीं होता है। हम कहते हैं जगत को भगवान ने बनाया। फिर सवाल खड़ा हो जाता है कि भगवान को किसने बनाया? सवाल वहीं का वहीं बना रहता है। एक कदम और हट जाता है। जो कहता है ‘ भगवान ने जगत को बनाया’, वह कहता है, भगवान को किसी ने नहीं बनाया। महावीर कहते है— जब भगवान को किसी ने नहीं बनाया, ऐसा मानना ही पड़ता है कि कुछ है जो अनबना है, अनक्रियेटेड है, तो इस सारे जगत को ही अनक्रियेटेड मानने में कौन सी अड़चन है? अड़चन तो एक ही थी मन को कि बिना बनाये कोई चीज कैसे बनेगी?

इसलिए यह समझ लेने जैसा है कि महावीर के पास नास्तिक के लिए जो उत्तर है वह तथाकथित ईश्वरवादी के पास नहीं है। क्योंकि नास्तिक ईश्वरवादी से यही कहता है कि तुम्हारे भगवान ने क्यों बनाया? बड़ी कठिनाई खड़ी होती है। और बड़ी कठिनाई यह खड़ी होती है कि ईश्वरवादी को मानना पड़ता है कि उसमें वासना उठी जगत को बनाने की। जब भगवान तक में वासना उठती है तो आदमी को वासना से मुक्त करने का फिर कोई उपाय नहीं है। भगवान ने चाहा, ही डिज़ायर्ड। जब भगवान भी चाहता है, और भगवान भी बिना चाह के शांत नहीं रह सकता, तो फिर आदमी को अचाह में कैसे ले जाओगे? क्या भगवान परेशान— था, जगत नहीं था, तो? कोई पीड़ा होती थी? वैसी ही जैसे एक चित्रकार को चित्र न बने, तो होती है? एक कवि को कविता निर्मित न हो पाये, तो होती है? क्या ऐसा ही परेशान और चिंतित होता था? क्या उसमें भी चिंता और तनाव घर करते हैं? ईश्वरवादी दिक्कत में रहा है। उसको स्वीकार करना पड़ता है कि भगवान ने चाहा।

और तब बहुत बेहूदी बातें उसको स्वीकार करनी पड़ती हैं। उसे स्वीकार करना पड़ता है—ब्रह्मा ने सी को जन्म दिया और फिर उसी को चाहा। क्योंकि उसे ब्रह्मा और चाह में कोई तालमेल बिठाना पड़ेगा। तो एक बहुत एब्सर्ड घटना घटी। और वह यह कि ब्रह्मा ने जिसे पैदा किया वह तो उसका पिता हो गया। फिर उसने अपनी बेटी को चाहा। फिर वह संभोग के लिए आतुर हो गया, और फिर वह अपनी बेटी के पीछे भागने लगा। फिर बेटी उससे बचने के लिए गाय बन गयी, तो वह बैल हो गया। फिर बेटी उससे बचने के लिए कुछ और हो गयी, तो वह कुछ और हो गया। वह बेटी जो—जो होती चली गयी, वह ब्रह्मा फिर वही—वही जीव का नर होता चला गया। तो अगर ब्रह्मा भी ऐसा चाह में भाग रहा हो, तो आप जब सिनेमागृह जाते हैं तो बिलकुल ब्रह्मस्वरूप हैं। बिलकुल ठीक चले जा रहे हैं। आपको कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए। आप उचित ही कर रहे हैं। वह सी फिल्म अभिनेत्री हो गयी तो आप फिल्म—दर्शक हो गये— आप चले जा रहे हैं। तब फिर सारा जगत वासना का फैलाव हो जाता है।

महावीर ने इसे जड़ से काट दिया। महावीर ने कहा कि नहीं, अगर भगवत्ता की तरफ ले जाना है लोगों को तो भगवान को शून्य करो। बड़ी अजीब बात है। अगर लोगों को भगवान बनाना है तो यह भगवान की धारणा को अलग करो। बहुत अजीब, क्योंकि महावीर ने कहा— भगवान में ही चाह को रख दोगे पहले, डिजायर को रख दोगे पहले— क्योंकि उसके बिना तो जगत का निर्माण न होगा। तो फिर आदमी से चाह को शून्य करने का कारण क्या बचेगा? तो महावीर ने कहा— जगत अनिर्मित है, अनक्रियेटेड है। किसी ने बनाया नहीं है— ‘है’। और विज्ञान के लिए भी यही लाजिकल, तर्कयुक्त मालूम पड़ता है। क्योंकि इस जगत में कोई चीज बनायी हुई नहीं मालूम पड़ती— है ही। और न इस जगत में कोई चीज नष्ट होती मालूम पड़ती है, न कोई चीज निर्मित होती मालूम पड़ती है— सिर्फ रूपांतरित होती मालूम पडती है।

इसलिए महावीर ने जो परिभाषा की है पदार्थ की, वह इस जगत में की गयी सर्वाधिक वैज्ञानिक परिभाषा है। अदभुत शब्द महावीर ने खोजा है— पुदगल — मैटर के लिए। और ऐसा शब्द जगत की किसी भाषा में नहीं है। पदार्थ के लिए महावीर ने पदार्थ नहीं कहा, नया शब्द गढ़ा— पुदगल। गुलाल का अर्थ है — जो बनता और मिटता रहता है और फिर भी है। जो प्रतिपल बन रहा है और मिट रहा है, और है। जैसे नदी प्रतिपल भागी जा रही है, चली जा रही है, हुई जा रही है और फिर भी है। ओझा एंड इज़, बह रही है और है। महावीर ने कहा कि जो चीज बन रही है, मिट रही है, न बनकर सृजन होता है उसका, न मिटकर समाप्त होती है— बिकमिंग। गुलाल का अर्थ है—बिकमिंग। नैवर बीइंग एंड आलवेज बिकमिंग। कभी ‘है’ की स्थिति में भी नहीं आती पूरी, कि ठहर जाए। बस होती रहती है। तो महावीर ने कहा—पुदगल वह है जो प्रतिपल जन्म रहा, प्रतिपल मर रहा, फिर भी कभी निर्मित नहीं होता, फिर भी कभी समाप्त नहीं होता, चलता रहता है — गत्यात्‍मक।

पदार्थ—डैड कंसेप्‍ट है। अंग्रेजी का मैटर भी डैड वर्ड है, मरा हुआ शब्द है। अपेजी के मैटर का कुल मतलब होता है जो नापा जा सके। वह मेजर से बना हुआ शब्द है। संस्कृत या हिन्दी के पदार्थ का अर्थ होता है—जो अर्थवान है, अस्तित्ववान है, ‘है’। पुदगल का अर्थ होता है— जो हो रहा है, इन द प्रोसेस। प्रोसेस का नाम पुदगल है, क्रिया का नाम पुदगल है। जैसे आप चल रहे हैं। एक कदम उठाया, दूसरा रखा। दोनों कभी आप ऊपर नहीं उठाते। एक उठता है तो दूसरा रख जाता है। इधर एक बिखरता है तो उधर दूसरा तत्काल निर्मित हो जाता है। प्रोसेस चलती रहती है। पदार्थ का एक कदम हमेशा बन रहा है, और एक कदम हमेशा मिट रहा है।

आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं वह मिट रही है। नहीं तो पचास साल बाद राख कैसे हो जाएगी। जिस शरीर में आप बैठे हैं, वह मिट रहा है। लेकिन बन भी रहा है। चौबीस घंटे आप उसको खाना दे रहे हैं, वायु दे रहे हैं। वह निर्मित हो रहा है। निर्मित होता चला जा रहा है और बिखरता भी चला जा रहा है। लाइफ एंड डेथ बोथ साइमलटेनियस, जीवन और मरण एक साथ दो पैर की तरह चल रहे हैं। महावीर ने कहा— यह जगत गुलाल है। इसमें सब चीजें सदा से हैं— बन रही हैं, मिट रही हैं। ट्रांसफामेंशन चलता रहता है। न कोई चीज कभी समाप्त होती है, न कभी निर्मित होती है। इसलिए निर्माता का कोई सवाल नहीं है। इसलिए परमात्मा में वासना की कोई जरूरत नहीं है।

सारे धर्म परमात्मा को जगत के पहले रखते हैं। महावीर परमात्मा को जगत के अंत में रखते हैं। इसका फर्क समझ लें। सारे धर्म परमात्मा को कहते हैं— काज, कारण है। महावीर कहते हैं — इफेक्ट, परिणाम। महावीर का अरिहंत अंतिम मंजिल है। भगवान तब होता है व्यक्ति, जब वह सब पा लिया। पहुंच गया वहां जिसके आगे और कोई यात्रा नहीं। दूसरे धर्मों का भगवान बिगनिंग में है, दुनिया जब शुरू होती है, वहां। जहां दुनियां समाप्त होती है, महावीर की भगवत्ता की धारणा वहां है। तो वे—सब कहते हैं कि दुनियां को बनानेवाला भगवान है—महावीर कहते हैं— दुनिया को पार कर जानेवाला भगवान है, वन हू गोज बियांड। महावीर प्रथम नहीं रखते, अंतिम रखते हैं। काज नहीं इफेक्ट, कारण नहीं कार्य।

दुनिया का भगवान बीज की तरह है, महावीर का भगवान फूल की तरह है। दुनियां कहती है— भगवान से सब पैदा होता है। महावीर कहते हैं— जहां जाकर सब खुल जाता है और प्रगट हो जाता है, खिल जाता है, वहां। तो महावीर के जो अरिहंत की, सिद्ध की, भगवान की, भगवत्ता की धारणा है वह चेतना के पूरे खिल जाने की, फ्लावरिग की है, जहां सब खिल जाता है। इस खिले हुए फूल से जो झरती है सुवास, इस खिले हुए फूल से ‘केवलिपन्नत्तो धम्मो ‘, इसको उन्होंने कहा। इस खिले हुए फूल से जो झरती है सुवास, इस खिले हुए फूल से जो आनंद प्रगट होता है, इस खिले हुए फूल का जो स्वभाव है वह केवली द्वारा प्ररूपित धर्म है। और उसे वे कहते हैं— वह लोक में उत्तम है, वह जो फूल की तरह अंत में खिलता है— क्लाइमेक्स, शिखर।

शास्त्र में लिखा हुआ धर्म लोक में उत्तम है, ऐसा महावीर नहीं कहते। नहीं तो वे कहते— शास्त्र प्ररूपित धर्म लोकोत्तम है। वेद को माननेवाला कहता है, वेद में जो प्ररूपित धर्म है वह लोक में उत्तम है। बाईबल को माननेवाला कहता है, बाईबल में जो धर्म प्ररूपित है वह उत्तम है। कुरान को माननेवाला कहता है, कुरान में जो धर्म प्ररूपित है वह उत्तम है। गीता को माननेवाला कहता है, गीता में जो धर्म की प्रारूपना हुई है, वह उत्तम है। महावीर कहते हैं— केवलिपन्नत्तो धम्मो— नहीं, शास्त्र में कहा हुआ नहीं —केवल ज्ञान के क्षण में जो झरता है वही, जीवंत। लिखे हुए का क्या मूल्य है? लिखा हुआ पहले तो बहुत सिकुड़ जाता है। शब्द में बांधना पड़ता है।

जीवंत धर्म— अब इसके बहुत अर्थ होंगे। लेकिन केवली प्ररूपित जो धर्म है वह शाख में लिख लिया गया है। तो जैन अब उस शास्त्र को सिर पर ढोये चले जाते हैं, वैसे ही जैसे कुरान को कोई ढोता है, गीता को कोई ढोता है। यह महावीर के साथ ज्यादती है। ज्यादती इसलिए है कि महावीर ने कभी कहा नहीं कि शास्त्र में प्ररूपित धर्म। ऐसा भी नहीं कहा कि मेरे शास्त्र में कहा हुआ धर्म। लेकिन बड़ी कठिनाई है। और महावीर ने खुद कोई शास्त्र निर्मित नहीं किया। महावीर ने कुछ लिखवाया भी नहीं। महावीर के मरने के सैकड़ों वर्ष बाद महावीर के वचन लिखे गये। महावीर ने लिखवाया नहीं, लिखा नहीं।

और भी कठिन बात है और वह यह कि महावीर ने कहा नहीं। वह जरा कठिन है। वह जरा कठिन है कि महावीर ने कहा नहीं। महावीर तो मौन रहे। महावीर तो बोले नहीं। तो महावीर की जो वाणी है, वह कही हुई नहीं, सुनी हुई है। महावीर का जो धर्म का प्ररूपण है वह मौन, टैलिपैथिक ट्रांसमिशन है। और इसलिए बहुत पुराण जैसी लगती है बात, आपसे कहूं— कथा जैसी, लेकिन जल्दी ही सही वैज्ञानिक आधार उसको मिलते चले जाते हैं। महावीर जब बोलते, तो बोलते नहीं थे— बैठते। उनको.. अंतर आकाश में जरूर ध्वनि गूंजती। ओंठ का भी उपयोग न करते, कंठ का भी उपयोग न करते।

अगर मैसिंग, एक साधारण व्यक्ति, जो कोई अरिहंत नहीं है— अगर एक कागज के टुकड़े को सिर्फ अंतर्वाणी के द्वारा कह सकता है — ‘यह टिकिट है’ — बोला तो नहीं, कहा तो नहीं, लेकिन टिकिट कलेक्टर ने तो, चेकर ने तो जाना, सुना कि टिकिट है। अगर एक कोरे कागज पर एक लाख रुपया दिए जा सकते हैं, तो पढ़ा तो गया, लिखा नहीं गया। ट्रेजरर ने पढ़ा तो कि लाख रुपये देने हैं। तो महावीर ने टैलिपैथिक कम्‍यूनिकेशन का गहन प्रयोग किया। बोले नहीं, सुने गये। ही वाज हर्ड। मौन बैठे, पास लोग बैठे उन्होंने सुना। और इसीलिए जो जिस भाषा में समझ सकता था उसने उस भाषा में सुना। इसमें भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि हम जो भाषा नहीं समझते उसमें कैसे सुनेंगे? और जानवर भी इकट्ठे थे, पशु भी इकट्ठे थे और पौधे भी खड़े थे, और कथा कहती है— उन्होंने भी सुना।

तो अगर बैक्सर कहता है कि पौधों के भाव हैं, और वे समझते हैं आपकी भावनाएं। आप जब दुखी होते हैं— पौधों को प्रेम करनेवाला व्यक्ति जब दुखी होता है तब वे दुखी हो जाते हैं। जब घर में उत्सव मनाया जाता है तो वे प्रफुल्लित हो जाते हैं। जब उनके पास खड़े होते हैं तो आनंद की धाराएं बहती हैं। जब घर में कोई मर जाता है तब वे भी मातम मनाते हैं। इसके जब अब वैज्ञानिक प्रमाण हैं तब क्या बहुत कठिनाई है कि महावीर के हृदय का संदेश पौधों की स्मृति तक न पहुंच जाए!

अभी सारी दुनिया में जो प्रयोग किये जा रहे हैं, अनकांशस पर, अचेतन पर, उनसे सिद्ध होता है कि हम अचेतन में कोई भी भाषा समझ सकते हैं— कोई भी भाषा।

जैसे आपको बेहोश किया जाए, हिप्‍नोटाइज किया जाए गहन। इतना बेहोश किया जाए कि आपको अपना कोई पता न रह जाए तो फिर आपसे किसी भी भाषा में बोला जाए, आप समझेंगे।

अभी एक चेक वैज्ञानिक डा. राज डेक इस पर काम करता है— भाषा और अचेतन पर। तो वह एक महिला पर, जो चेक भाषा नहीं जानती, उसको बेहोश करके बहुत दिन तक, उससे चेक भाषा में बातें करता था, और वह समझती थी। जब वह बेहोश होती है, उससे वह चेक भाषा में कहता है— उठकर वह पानी का गिलास ले आओ, तो वह ले आती है। बड़ी हैरानी की बात है। जब वह होश में आती, तब उससे कहे तो वह नहीं सुनती, समझ में नहीं आता। उसने उस महिला से पूछा कि बात क्या है? जब तू बेहोश होती है तब तू पूरा समझती है, जब तू होश में आती है तब तू कुछ भी नहीं समझती।

उस महिला ने कहा— मुझे भी थोड़ा— थोड़ा खयाल रहता है बेहोशी का, कि मैं समझती थी। लेकिन जैसे—जैसे मैं होश में आती हूं तो मुझे सुनाई पड़ता है, चा, चा, चा, चा और कुछ समझ में नहीं आता। तुम जो बोलते हो, उसमें चा, चा, चा, चा मालूम पड़ता है, और कुछ नहीं मालूम पड़ता। लेकिन बेहोशी में मुझे भी थोड़ी स्मृति रहती है कि तुम जो बोलते हो, मैं समझती हूं।

राज डेक कर कहना है कि आदमी की भाषा का अध्ययन उसके अचेतन के अध्ययन से यह खबर लाता है कि हम महासागर में निकले हुए छोटे—छोटे द्वीपों की भांति हैं। ऊपर से अलग—अलग, नीचे उतर जाएं तो जमीन से जुड़े हुए। ऊपर हमारी सबकी भाषाएं अलग—अलग, जितने गहरे उतर जाएं उतनी एक। आदमी की ही नहीं, और गहरे उतर जाएं तो पशु की भी एक। और गहरे उतर जाएं तो पशु की ही नहीं, पौधों की भी एक। और कोई नहीं कह सकता कि और गहरे उतर जाएं तो पत्थर की भी एक। जितने हम अपने नीचे गहरे उतरते हैं, उतने हम जुडे हुए हैं— एक महा काटिनेंट से, एक महाद्वीप से जीवन के, और वहां हम समझते हैं।

तो महावीर का यह जो प्रयोग था— निःशब्द विचार—संचरण का, टैलिपैथी का, यह आने वाले बीस वर्षों में विज्ञान कहेगा कि पुराण कथा नहीं है। इस पर काम तेजी से चलता है और स्पष्ट होती जाती हैं बहुत सी अंधेरी गलियां, बहुत से गलियारे जो साफ नहीं थे। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हमें किसी व्यक्ति को दूसरी भाषा सिखानी हो तो राज डेक कहता है कि चेतन रूप से सिखाने में व्यर्थ कठिनाई हम उठाते हैं। इसलिए राज डेक ने एक संस्था खोली है। और एक दूसरा वैज्ञानिक है बलोरिया में डा. लौरेंजोव। उसने एक इंस्टीट्यूट खोली है— लौरेंजोव के इंस्टीट्यूट का नाम है— इंस्टीट्यूट आफ सजैस्टोलाजी। अगर हम उसे ठीक अनुवाद करें तो उसका अर्थ होगा—मंत्र महाविद्यालय। सजैस्टोलाजी का अर्थ होता है मंत्र। आप जानते हैं न! सलाह देने वालों को हम मंत्री कहते हैं। सुझाव देने वाले को मंत्री कहते हैं। मंत्र का अर्थ है सुझाव, सजैशन। लोरंजोव की इंस्टीट्यूट सरकार के द्वारा स्थापित है और बलगेरियन सरकार कम्‍यूनिष्‍ट है। इसमें तीस मनोवैज्ञानिक लोरंजोव के साथ काम कर रहे हैं।

और लोरंजोव का कहना है कि दो साल का कोर्स हम बीस दिन में पूरा करवा देते हैं, कोई भी दो साल का कोर्स। जो भाषा आप दो साल में सीखेंगे चेतन रूप से, वह लोरंजोव आपको सम्मोहित— रेस्ट हालत में छोड्कर बीस दिन में सिखा देता है। और एक नयी शिक्षा की पद्धति लौरेंजोव ने विकसित की है जो कि जल्दी सारी दुनिया को पकड़ लेगी और वह बिलकुल उलटी है जो अभी आप करवा रहे हैं। और उसके हिसाब से— और मैं मानता हूं कि वह ठीक है— मेरे हिसाब से भी, हम जिसको शिक्षा कह रहे हैं वह शिक्षा नहीं है, निपट नासमझी है।

लोरंजोव ने जो स्कूल खोला है उस स्कूल में बच्चों के बैठने के लिए आराम—कुर्सियां हैं— कुर्सियां नहीं, आराम—कुर्सियां हैं— जैसा कि हवाईजहाज में होती हैं, जिन पर वे आराम से लेट जाते हैं। डिफ्यूज कर दिया जाता है प्रकाश, जैसा कि हवाई जहाज उड़ता है, तब कर दिया जाता है— तेज रोशनी नहीं। और विशेष संगीत कमरे में बजता रहता है। कोई स्कूल रहा यह! मामला सब खराब हो गया। पूरे वक्त संगीत बजता रहता है। और विद्यार्थियों से कहा जाता है कि आंख चाहे तो आधी बंद कर लो, चाहे पूरी बंद कर लो, और संगीत पर ध्यान दो — संगीत पर। और शिक्षक पढ़ा रहा है, उस पर ध्यान मत दो। डोंट हवि एनी अटेंशन टु द टीचर। शिक्षक पढ़ा रहा है, उस पर भूलकर ध्यान मत देना, उसी से गड़बड़ हो जाती है। तुम तो संगीत सुनते रहना, तुम शिक्षक को सुनना ही मत।

यह तो उलटा हो गया। क्योंकि शिक्षक, यहीं तो बेचारा परेशान है कि हमको सुन’ नहीं रहे हैं तो वह डंडा बजा रहा है पूरे वक्त कि हमें सुनो। लड़के कहीं बाहर देख रहे हैं, कहीं पक्षियों को सुन रहे है, कहीं कुछ और कर रहे हैं, और शिक्षक कह रहा है, हमें सुनो। वह तो सारा, तीन हजार साल का शिक्षक और विद्यार्थी का झगड़ा है जो अब अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है कि हमें सुनो। और लोरंजोव कहता है कि इसीलिए तो दो साल लग जाते हैं सिखाने में। क्योंकि जब कोई व्यक्ति सचेतन रूप से सुनता है, तो उसका ऊपरी मन सुनता है। तो वह कहता है, ऊपरी मन को तो लगा दो संगीत सुनने में। तब उसका भीतरी मन का द्वार सुनता रहेगा। और दो साल का कोर्स वह बीस दिन में पूरा कर लेता है किसी भी भाषा का। और बीस दिन में आदमी उतना कुशल हो जाता है दूसरी भाषा बोलने में, जितना दो साल में नहीं हो पाता है।

बात क्या है? बात कुल इतनी ही है कि नीचे गहरे में हमारी बडी क्षमताएं छिपी हैं। आप अपने घर से यहां तक आये हैं। अगर आप पैदल चलकर आये हैं तो क्या आप बता सकते हैं कि रास्ते पर कितने बिजली के खंभे पड़े थे? आप कहेंगे कि मैं कोई पागल हूं! मैं उनकी गिनती नहीं करता। लेकिन आपको बेहोश करके पूछा जाए तो आप संख्या बता सकते हैं, ठीक संख्या। आप जब चले आ रहे थे इधर, तब आपका ऊपरी मन तो इधर आने में लगा था। हार्न बज रहा था, उसमें लगा था। कोई टकरा न जाए उसमें लगा था। लेकिन आपके नीचे का मन सब कुछ रिकार्ड कर रहा है, रास्ते पर पड़े हुए लैंप पोस्ट भी, लोग निकले वह भी हार्न बजा वह भी, कार का नंबर दिखाई पड़ गया वह भी— वह सब नोट कर रहा है। वह सब आपको याद हो गया है। आपके चेतन को कोई पता नहीं है। कहना चाहिए आपको कोई पता नहीं। वह जो पानी के ऊपर निकला हुआ द्वीप, आईलैंड है उसको कुछ पता नहीं। लेकिन नीचे जो जुड़ी हुई भूइम का विस्तार है, वहां सब पता है।

तो महावीर बोले नहीं, चुपचाप बैठे हैं। और इसीलिए यही कारण है कि महावीर का धर्म बहुत व्यापक नहीं हो पाया। बहुत लोगों तक नहीं पहुंच पाया। क्योंकि महावीर बोलते तो सबकी समझ में आता। महावीर नहीं बोले तो उनकी ही समझ में आया जो उतने गहरे जाने को तैयार थे। इसलिए महावीर का धर्म बहुत सिलेक्टिव, बहुत ‘चूजन फ्यू के लिए है। जो उस जगत में महावीर के वक्त श्रेष्ठतम लोग थे, वे ही महावीर को सुन पाये। वे श्रेष्ठतम चाहे पौधों में हों और चाहे पशुओं में और चाहे आदमियों में। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर को सुनने के पहले बड़े प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता था। ध्यान की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता ताकि जब आप महावीर के सामने बैठें तब आपका जो वाचाल मन है, वह जो निरंतर उपद्रव से ग्रस्त बीमार मन है वह शांत हो जाए और आपकी जो गहन आत्मा है, वह महावीर के सामने आ जाए। संवाद हो सके उस आत्मा से।

इसलिए महावीर की वाणी को पांच सौ वर्ष तक फिर रिकार्ड नहीं किया गया। तब तक रिकार्ड नहीं किया गया, जब तक ऐसे लोग मौजूद थे जो महावीर के शरीर के गिर जाने के बाद भी महावीर से संदेश लेने में समर्थ थे। जब ऐसे लोग भी समाप्त होने लगे, तब घबराहट फैली, और तब संग्रहीत करने की कोशिश की गयी। इसलिए जैनों का एक वर्ग दिगंबर महावीर की किसी भी वाणी को आथेंटिक नहीं मानता।

उसका मानना है कि चूंकि वह उन लोगों के द्वारा संग्रहीत की गयी है जो दुविधा में पड़ गये थे और जिन्हें शक पैदा हो गया था कि महावीर से अब संबंध जोड़ना संभव है या नहीं, इसलिए वह प्रामाणिक नहीं कही जा सकती। इसलिए दिगंबर जैनों के पास महावीर का कोई शाख नहीं है— कोई शास्त्र ही नहीं है। वे कहते हैं, सब खो गया। श्वेतांबरों के पास जो शास्त्र है वह भी पूर्ण नहीं है। क्योंकि जिन्होंने संग्रहीत किया उन्होंने कहा—हम थोड़ी सी बातें भर प्रामाणिक लिख सकते हैं। बाकी और सब अंग खो गये हैं। उनको जानने वाले अब कोई भी नहीं हैं। इसलिए वह भी अधूरा है।

लेकिन महावीर की पूरी वाणी को कभी भी पुन: पाया जा सकता है और उसके पाने का ढंग यह नहीं होगा कि महावीर के ऊपर जो किताबें लिखी रखी हैं उनमें खोजा जाए। उसके पुन: पाने का ढंग यही होगा कि वैसा युप, वैसा स्कूल, वैसे थोड़े से लोग जो चेतना की उस गहराई तक जा सकें जहां से महावीर से आज भी संबंध जोड़ा जा सकता है। इसलिए महावीर ने कहा— ‘केवलिपन्नत्तो धम्म’ — शास्त्र नहीं। वही धर्म उत्तम है जो तुम केवली से संबंधित होकर जान सको, बीच में शाख से संबंधित होकर नहीं। और केवली से कभी भी संबंधित हुआ जा सकता है। लेकिन शाख बाजार में मिल जाते हैं। केवली से संबंधित होना हो तो बडी गहरी कीमत चुकानी पड़ती है। फिर स्वयं के भीतर बहुत कुछ रूपांतरित करना पड़ता है। महावीर कहते थे— बिना कीमत चुकाये कुछ भी नहीं मिलता है। और जितनी बड़ी चीज पानी हो, उतनी बड़ी कीमत चुकानी चाहिए।

इसलिए आखिरी बात

जब वे बार—बार कहते हैं कि अरिहंत उत्तम हैं, सिद्ध उत्तम हैं, साधु उत्तम हैं, केवली—प्ररूपित धर्म उत्तम है; तब वे यह भी कह रहे हैं कि इतने उत्तम को पाने के लिए तैयारी रखना सब कुछ चुकाने की। क्योंकि मूल्य है, मुक्त नहीं मिल सकेगा। हम सब मुक्त लेने के आदी हैं। हम कुछ भी चुकाने को तैयार नहीं हैं। सड़ी—गली चीज को खरीदने के लिए हम सब कुछ चुकाने को तैयार हैं। धर्म मुफ्त मिलना चाहिए। असल में इससे पता चलता है— हम मुफ्त उसी चीज को लेने को तैयार होते हैं जिसको हम लेने को आग्रहशील नहीं हैं। जिसको हम कहते हैं कि मुक्त देते हैं तो दे दें वरना क्षमा करें। महावीर कहते हैं—जो इतना उत्तम है, लोक में जो सर्वश्रेष्ठ है, उसे चुकाने को सब कुछ खोना पड़ेगा, स्वयं को। और जब भी कोई स्वयं को खोने को तैयार है तो वह केवलीप्ररूपित धर्म से सीधा, डायरेक्ट संबंधित, संयुक्त हो जाता है। वही धर्म, जो जाननेवाले से सीधा मिलता हो, बिना मध्यस्थ के, वही श्रेष्ठ है।

आज इतना ही।

बैठेंगे पांच—सात मिनिट………!


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महावीर वाणी (भाग–1) प्रवचन–3

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शराणगति: धर्म का मूल आधार—(प्रवचन—तीसरा)

 

दिनांक 20 अगस्‍त, 1971;

प्रथम पर्युषण व्‍याख्‍यानमाल, बम्‍बई।

शरणागति—स्प

अरिहते सरण पवज्जामि।

सिद्धे सरण पवज्जामि।

सादू सरण पवज्जामि।

केवलिपन्नत्त धम्म सरण पवज्जामि।

अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूं। साधुओं की शरण स्वीकार करता हूं। केवली प्ररूपित अर्थात आत्मज्ञ—कथित धर्म की शरण स्वीकार करता हूं।

 

कृष्‍ण ने गीता में कहा है — ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं वज’..…. अर्जुन, तू सब धर्मों को छोड्कर मुझ एक की शरण में आ।

कृष्ण जिस युग में बोल रहे थे, वह युग अत्यंत सरल, निर्दोष, श्रद्धा का युग था। किसी के मन में ऐसा नहीं हुआ कि कृष्ण कैसे अहंकार की बात कह रहे हैं कि तू सब छोड्कर मेरी शरण में आ। अगर कोई घोषणा अहंकारग्रस्त मालूम हो सकती है तो इससे ज्यादा अहंकारग्रस्त घोषणा दूसरी मालूम नहीं होगी — अर्जुन को यह कहना कि छोड़ दे सब और आ मेरी शरण में। पर वह युग अत्यंत श्रद्धा का युग रहा होगा, जब कृष्ण बेझिझक, सरलता से ऐसी बात कह सके और अर्जुन ने सवाल भी न उठाया कि क्या कहते हैं आप? आपकी शरण में और मैं आऊं? अहंकार से भरे हुए मालूम पड़ते हैं।

लेकिन बुद्ध और महावीर तक आदमी की चित्त दशा में बहुत फर्क पड़े। इसलिए जहां हिन्दू चिंतन ‘मामेकं शरणं वज’ पर केन्द्र मानकर खड़ा है वहीं बुद्ध और महावीर की दृष्टि में आमूल परिवर्तन करना पड़ा। महावीर ने नहीं कहा कि तुम सब छोड्कर मेरी शरण में आ जाओ, न बुद्ध ने कहा। दूसरे छोर से पकड़ना पड़ा सूत्र को। तो बुद्ध का सूत्र है, वह साधक की तरफ से है। महावीर का सूत्र है, वह भी साधक की तरफ से है, सिद्ध की तरफ से नहीं। अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूं साधु की शरण स्वीकार करता हूं केवली प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूं— यह दूसरा छोर है शरण और गति का। दो ही छोर हो सकते हैं। या तो सिद्ध कहे कि मेरी शरण में आ जाओ, या साधक कहे कि मैं आपकी शरण में आता हूं।

हिन्दू और जैन विचार में मौलिक भेद यही है। हिन्दू विचार में सिद्ध कह रहा है, आ जाओ मेरी शरण में; जैन विचार में साधक कहता है, मैं आपकी शरण में आता हूं। इससे बहुत बातों का पता चलता है। पहली तो यही बात पता चलती है कि कृष्ण जब बोल रहे थे तब बड़ा श्रद्धा का युग था और जब महावीर बोल रहे हैं तब बड़े तर्क का युग है। महावीर कहें— मेरी शरण आ जाओ तत्काल लोगों को लगेगा, बड़े अहंकार की बात हो गई।

दूसरे छोर से शुरू करना पड़ेगा। पर बुद्ध और महावीर… बुद्ध के परंपरा में भी सूत्र है— बुद्धं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि, धम्म शरणं गच्छामि — बुद्ध की शरण जाता हूं संघ की शरण जाता हूं धर्म की शरण जाता हूं। लेकिन महावीर और बुद्ध के सूत्र में भी थोड़ा सा फर्क है, वह खयाल में ले लेना जरूरी है। ऊपर से देखें तो दोनों एक—से मालूम पड़ते हैं —गच्छामि हो कि पवज्जामि हो, शरण जाता हूं या शरण स्वीकार करता हूं— एक से ही मालूम पड़ते हैं, पर उनमें भेद है। जब कोई कहता है, बुद्धं शरणं गच्छामि — बुद्ध की शरण जाता हूं तो यह शरण जाने की शुरुआत है, पहला कदम है। और जब कोई कहता है, ‘ अरिहंत सरण पवज्जामि’ — तब यह शरण जाने की अंतिम स्थिति है। शरण स्वीकार करता हूं अब इसके आगे और कोई गति नहीं है। जब कोई कहता है— शरण जाता हूं तब वह पहला कदम उठाता है और जब कोई कहता है— शरण स्वीकार करता हूं तब वह अंतिम कदम उठाता है। जब कोई कहता है— शरण जाता हूं तो बीच से लौट भी सकता है। और शरण तक न पहुंचे, यह भी हो सकता है। यात्रा का प्रारंभ है, यात्रा पूरी न हो, यात्रा के बीच में व्यवधान आ जाए। यात्रा के मध्य में ही तर्क समझाये और लौटा दे। क्योंकि तर्क शरण जाने के नितांत विरोध में है। बुद्धि शरण जाने के नितांत विरोध में है। बुद्धि कहती है— तुम! और किसी की शरण! बुद्धि कहती है— सबको अपनी शरण में ले आओ। तुम और किसी की शरण में जाओगे! तो अहंकार को पीड़ा होती है।

महावीर का सूत्र है— अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। इससे लौटना नहीं हो सकता। यह ‘प्याइंट आफ नो रिटर्न’ है। इसके पीछे लौटने का उपाय नहीं है। यह टोटल, यह समग्र छलांग है। शरण जाता हूं तो अभी काल का व्यवधान होगा, अभी समय लगेगा, शरण तक पहुंचते—पहुंचते। अभी बीच में समय व्यतीत होगा। और आज जो कहता है— शरण जाता हूं हो सकता है, न—मालूम कितने जन्मों के बाद शरण में पहुंच सके। अपनी—अपनी गति पर निर्भर होगा और अपनी—अपनी मति पर निर्भर होगा। लेकिन पवज्जामि के सूत्र की खूबी यह है कि वह ‘सडन जंप’ है। उसमें बीच में फिर समय का व्यवधान नहीं है। स्वीकार करता हूं। और जिसने शरण स्वीकार की, उसने स्वयं को तत्काल अस्वीकार किया। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। तो अगर आप अपने को स्वीकार करते हैं तो शरण को स्वीकार न कर सकेंगे। अगर आप शरण को स्वीकार करते हैं तो अपने को अस्वीकार कर सकेंगे— करना ही होगा। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

शरण की स्वीकृति अहंकार की हत्या है। धर्म का जो भी विकास है चेतना में, वह अहंकार के विसर्जन से शुरू होता है। चाहे सिद्ध कहे कि मेरी शरण आ जाओ— जब युग होते हैं श्रद्धा के तो सिद्ध कहता है मेरी शरण आ जाओ, और जब युग होते हैं अश्रद्धा के तो फिर साधक को ही कहना पड़ता है कि मैं आपकी शरण स्वीकार करता हूं। महावीर बिलकुल चुप हैं। वे यह भी नहीं कहते कि तुममें जो मेरी शरण आए हो तो मैं तुम्हें अंगीकार करता हूं। वे यह भी नहीं कहते। क्योंकि खतरा तर्क के युग में यह है कि अगर महावीर इतना भी कहें, सिर भी हिला दें कि हां, स्वीकार करता हूं तो वह दूसरे का अहंकार फिर खड़ा हो जाता है, कि अच्छा…! यह तो अहंकार हो गया। महावीर चुप ही रह जाते हैं। यह एकतरफा है, साधक की तरफ से।

निश्रित ही बड़ी कठिनाई होगी। इसलिए जितना आसान कृष्ण के युग में सत्य को उपलब्ध कर लेना है, उतना आसान महावीर के युग में नहीं रह जाता। और हमारे युग में तो अत्याधिक कठिनाई खड़ी हो जाती है। न सिद्ध कह सकता है, मेरी शरण आओ, न साधक कह सकता है कि मैं आपकी शरण आता हूं। महावीर चुप रह गये। आज अगर साधक किसी सिद्ध की शरण में जाए, और सिद्ध इनकार न करे कि नहीं—नहीं, किसी की शरण में जाने की जरूरत नहीं; तो साधक समझेगा, अच्छा, तो मौन सम्मति का लक्षण है, तो आप शरण में स्वीकार करते हैं।

तर्क अब और भी रोगग्रस्त हुआ। आज महावीर अगर चुप भी बैठ जाएं और आप जाकर कहें कि अरिहंत की शरण आता हूं— और महावीर चुप रहें, तो आप घर लौटकर सोचेंगे कि यह आदमी चुप रह गया। इसका मतलब, रास्ता देखता था कि मैं शरण आऊं, प्रतीक्षा करता था। मौन तो सम्मति का लक्षण है। तो यह आदमी तो अहंकारी है तो अरिहंत कैसे होगा? नहीं, अब एक कदम और नीचे उतरना पड़ता है। और महावीर को कहना पडेगा कि नहीं, तुम किसी की शरण मत जाओ। महावीर जोर देकर इनकार करें कि नहीं, शरण आने की जरूरत नहीं, तो ही वह साधक समझेगा कि अहंकारी नहीं है। लेकिन उसे पता नहीं, इस अस्वीकार में साधक के सब द्वार बंद हो जाते हैं।

कृष्णमूर्ति की अपील इस युग में इसीलिए है। न वे कहते— सब धर्म छोड्कर मेरी शरण आओ, न कोई साधक कहे उनसे कि मैं आता हूं तुम्हारी शरण। तो वे इनकार करते। वे कहते— मेरे पैर में मत गिर जाना, दूर रहो। और तब अहंकारी साधक बड़ा प्रसन्न होता है कि.. पर उसकी अस्मिता घनी होती है। और उसे सहयोग नहीं पहुंचाया जा सकता। हमारा युग आध्यात्मिक दृष्टि से किसी को सहयोग पहुंचाना हो तो बड़ी कठिनाई का युग है। बुलाकर सहयोग देना तो कठिन, जैसा कृष्ण देते हैं; आये हुए को सहयोग देना भी कठिन, जैसा कि महावीर देते हैं। और कुछ आश्रर्य न होगा कि और थोड़े दिनों बाद सिद्ध को कहना पड़े साधक से, आपकी शरण में आता हूं स्वीकार करें! शायद तभी साधक मानें कि ठीक, यह आदमी ठीक है। यह आध्‍यात्‍मिक विकृति है। शरण का इतना मूल्य क्या है— इसे हम दो—तीन दिशाओं से समझने की कोशिश करें।

पहले तो शरीर से ही समझने की कोशिश करें। मैं कल आपको बलोरियन डा. लौरेंजोव के इंस्टीट्यूट आफ सजैस्टोलाजी की बात कर रहा था। यह जानकर आपको आश्रचर्य अनुभव होगा कि लोरंजोव ने शिक्षा पर यह जो अनूठे प्रयोग किये हैं, उससे जब पिछले एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पूछा गया कि तुम्हें इस अदभुत क्रांतिकारी शिक्षा के आयाम का कैसे स्मरण आया, किस दिशा से तुम्हें संकेत मिला? तो लौरेंजोव ने कहा कि मैं योग के— भारतीय योग के शवासन का प्रयोग करता था, और उसी से मुझे यह दृष्टि मिली।

शवासन से! शवासन की खूबी क्या है? शवासन का अर्थ है पूर्ण समर्पित शरीर की दशा, जब आपने शरीर को बिलकुल छोड दिया। पूरा रिलेक्स छोड़ दिया। जैसे ही आप शरीर को पूरा रिलेक्स छोड़ देते हैं— और शरीर को अगर पूरा रिलेक्स छोड़ना हो तो जमीन पर जो भारतीयों की पुरानी पद्धति है साष्टांग प्रणाम की, उस स्थिति में पड़कर ही छोड़ा जा सकता है। वह शरणागति की स्थिति है शरीर के लिए। अगर आप भूमि पर सीधे पड़ जाएं सब हाथ—पैर ढीले छोड्कर सिर रख दें, सारे अंग भूमि को छूने लगें तो यह सिर्फ नमस्कार की एक विधि नहीं है, यह बहुत ही अदभुत वैज्ञानिक सत्यों से भरा हुआ प्रयोग है।

लौरेंजोव कहता है कि रात निद्रा में हमें जो विश्राम मिलता है और शक्ति मिलती है, उसका मूल कारण हमारा पृथ्वी के साथ समतुल लेट जाना है। लोरंजोव कहता है— जब हम समतल पृथ्वी के साथ समानान्तर लेट जाते हैं तो जगत की शक्तियां हममें सहज ही प्रवेश कर पाती हैं। जब हम खड़े होते हैं तो शरीर ही खड़ा नहीं होता, भीतर अहंकार भी उसके साथ खड़ा होता है। जब हम लेट जाते हैं तो शरीर ही नहीं लेटता— उसके साथ अहंकार भी लेट जाता है। हमारे डिफेंस गिर जाते हैं, हमारे सुरक्षा के जो आयोजन हैं, जिनसे हम जगत को रेजिस्ट कर रहे हैं, वे गिर जाते हैं।

चेक यूनिवर्सिटी प्राग का एक व्यक्ति अनूठे प्रयोगों पर पिछले दस वर्षों से अनुसंधान करता है। वह व्यक्ति है— राबर्ट पावलिटा। थके हुए आदमियों को पुन: शक्ति देने के उसने अनूठे प्रयोग किये हैं। आदमी थका है— आप बिलकुल थके टूटे पड़े हैं तो आपको एक स्वस्थ गाय के नीचे लिटा देता है, जमीन पर। पांच मिनट आपसे कहता है— सब छोड्कर पड़े रहें और भाव करें कि स्वस्थ गाय से आपके ऊपर शक्ति गिर रही है। पांच मिनट में यंत्र बताना शुरू कर देते हैं कि उस आदमी की थकान समाप्त हो गयी। वह ताजा होकर गाय के नीचे से बाहर आ गया। पावलिटा से बार—बार पूछा गया कि अगर हम गाय के नीचे बैठें तो? पावलिटा ने कहा कि जो काम लेटकर क्षण भर में होगा वह बैठकर घंटों में भी नहीं हो पाएगा। वृक्ष के नीचे लिटा देता है। पावलिटा कहता है— जैसे ही आप लेटते हैं, आपका जो रेजिस्टेंस है आपके चारों ओर, आपने अपने व्यक्तित्व की जो सुरक्षा की दीवारें खड़ी कर रखी हैं, वे गिर जाती हैं।

वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई उसके खड़े होने से। यह सच है। सभी पशु पृथ्वी के समानांतर जीते हैं, आदमी भर वर्टिकल खडा हो गया। सभी पशु पृथ्वी की धुरी से समानांतर होते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का पैर पर खड़ा हो जाना ही उसकी तथाकथित बुद्धि का विकास है। लेकिन साथ ही— यह बुद्धि तो जरूर विकसित हो गयी, लेकिन साथ ही जीवन के अंतरतम से कास्मिक, जागतिक शक्तियों से उसके और गहरे सब संबंध शिथिल और क्षीण हो गये। उसे वापस लेटकर वे संबंध पुनर्स्थापित करने पड़ते हैं। इसलिए अगर मंदिरों में मूर्तियों के सामने, गिरजाघरों में, मस्जिदों में, लोग अगर झुककर जमीन में लेटे जा रहे हैं तो उसका वैज्ञानिक अर्थ है। झुककर लेटते ही डिफैंस टूट जाते हैं।

इसलिए फ्रायड ने जब पहली बार मनोचिकित्सा शुरू की तो उसने अनुभव किया कि अगर बीमार को बैठकर बात की जाए तो बीमार अपने डिफेंस मेजर नहीं छोड़ता। इसलिए फ्रायड ने कोच विकसित की, मरीज को एक कोच पर लिटा दिया जाता है। वह डिफेंसलेस हो जाता है। फिर फ्रायड ने अनुभव किया कि अगर उसके सामने बैठा जाए तो लेटकर भी वह थोड़ा अकड़ा रहता है। एक परदा डालकर फ्रायड परदे के पीछे बैठ गया। कोई मौजूद नहीं रहा, मरीज लेटा हुआ है। वह पांच—सात मिनट में अपने डिफेंस छोड़ देता है। वह ऐसी बातें बोलने लगता है जो बैठकर वह कभी नहीं बोल सकता था। वह अपने ऐसे अपराध स्वीकार करने लगता है जो खड़े होकर उसने कभी भी स्वीकार न किये होते।

अभी अमरीका के कुछ मनोवैज्ञानिक फ्रायड के कोच के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। वे यह आंदोलन चला रहे हैं कि यह आदमी को बहुत असहाय अवस्था में डालने की तरकीब है। उनका कहना ठीक है। आंदोलन, कि गलत है— उनका कहना ठीक है। आदमी असहाय अवस्था में पड़ जाता है निश्रित ही लेटकर। असहाय इसलिए हो जाता है कि उसने अपने तरफ सुरक्षा का जो इंतजाम किया था वह गिर जाता है।

पर शरणागत को हमने मूल्य दिया है। और अगर परमात्मा की तरफ, अरिहंत की तरफ, सिद्ध की तरफ, भगवान की तरफ शरणागति हो तो वह तो सदा परदे के पीछे ही है एक अर्थ में। अगर महावीर मौजूद भी हों तो महावीर का शरीर परदा बन जाता है और महावीर की चेतना तो परदे के पीछे होती है। और कोई उनके समक्ष जब समर्पण कर देता है तो वह अपने को सब भांति छोड़ देता है, जैसे कोई नदी की धार में अपने को छोड़ दे और धार बहाने लगे— तैरे नहीं, बहाने लगे। शरणागति भाव है, फ्लोटिंग है, और जैसे ही कोई बहता है, वैसे ही चित्त के सब तनाव छूट जाते हैं।

एक फ्रेंच खोजी, इजिप्त के पिरामिडों में दस वर्षों तक खोज करता रहा है। उस आदमी का नाम है— बोविस। वह एक वैज्ञानिक और ईजीनियर है। वह यह देखकर बहुत हैरान हुआ कि कभी—कभी पिरामिड में कोई चूहा भूल से या बिल्ली घुस जाती है और फिर निकल नहीं पाती— भटक जाती और मर जाती है। पर पिरामिड के भीतर जब भी कोई चूहा या बिल्ली या कोई प्राणी मर जाता है तो सड़ता नहीं। सड़ता नहीं, उसमें से दुर्गंध नहीं आती। वह ममीफाइड हो जाता है— सूख जाता है, सडता नहीं।

यह हैरानी की घटना है और बहुत अदभुत है। पिरामिड के भीतर इसके होने का कोई कारण नहीं है। और ऐसे पिरामिड के भीतर जो कि समुद्र के किनारे हैं जहां कि ह्युमिडिटी काफी है, जहां कि कोई भी चीज सड़नी ही चाहिये, और जल्दी सड़ जानी चाहिये, उन पिरामिड के भीतर भी कोई मर जाए तो सड़ता नहीं। मांस ले जाकर रख दिया जाए तो सूख जाता है, दुर्गंध नहीं देता। मछली डाल दी जाए तो सूख जाती है, सड़ती नहीं। तो बहुत चकित हो गया। इसका तो कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता। बहुत खोजबीन की। आखिर यह खयाल में आना शुरू हुआ कि शायद पिरामिड का जो शेप है, वही कुछ कर रहा है।

लेकिन शेप, आकार कुछ कर सकता है! सब खोज के बाद कोई उपाय नहीं था। दस साल की खोज के बाद बोविस को खयाल आया कि कहीं पिरामिड का जो शेप, जो आकृति है, वह तो कुछ नहीं करती! तो उसने एक छोटा पिरामिड माडल बनाया— छोटा सा, तीन—चार फीट का बेस लेकर, और उसमें एक मरी हुई बिल्ली रख दी। वह चकित हुआ, वह ममीफाइड हो गई, वह सड़ी नहीं। तब तो एक बहुत नये विज्ञान का जन्म हुआ, और वह नया विज्ञान कहता है—ज्यामिट्री की जो आकृतियां हैं उनका जीवन ऊर्जाओं से बहुत संबंध है। और अब बोविस की सलाह पर यह कोशिश की जा रही है कि सारी दुनिया के अस्पताल पिरामिड की शक्ल में बनाये जाएं। उनमें मरीज जल्दी स्वस्थ होगा।

आपने सर्कस के जोकर को, हंसोड़े को जो टोपी लगाये देखा है, वह फूल्‍स कैप कहलाती है। उसी की वजह से कागज— जितने कागज से वह टोपी बनती है, वह फूल्‍स कैप कहलाता है। लेकिन बोविस का कहना है कि कभी दुनिया के बुद्धिमान आदमी वैसी टोपी लगाते थे। वह वाइज—कैप है, क्योंकि वह टोपी पिरामिड के आकार की है। और अभी बोविस ने प्रयोग किये हैं, फूल्‍स कैप के ऊपर। और उसका कहना है कि जिन लोगों को भी सिरदर्द होता है, वे पिरामिड के आकार की टोपी लगाएं तत्‍क्षण उनका सिरदर्द दूर हो सकता है। जिनको भी मानसिक विकार हैं वे पिरामिड के आकार की टोपी लगाएं उनके मानसिक विकार दूर हो सकते हैं। अनेक चिकित्सालयों में जहां मानसिक चिकित्सा की जाती है, बोविस की टोपी का प्रयोग किया जा रहा है, और प्रमाणित हो रहा है कि वह ठीक कहता है।

क्या टोपी के भीतर का आकार, आकृति इतना भेद ला दे सकती है! अगर बाह्य आकृतियां इतना भेद ला सकती हैं तो आंतरिक आकृतियों में कितना भेद पड़ सकेगा, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं। शरणागति आंतरिक आकृति को बदलने की चेष्टा है, इनर ज्यामेट्री को। जब आप खड़े होते हैं तो आपके भीतर की चित्त—आकृति और होती है, और जब आप पृथ्वी पर शरण में लेट जाते हैं तो आपके भीतर की चित्त आकृति और होती है। चित्त में भी ज्यामेट्रिकल फिगर्स होते हैं। चित्त की आकृतियों में दो विशेष आकृतियां हैं, आपके खड़े होने का खयाल जमीन से नब्बे का कोण बनाता है। और जब आप जमीन पर लेट जाते हैं तो आप जमीन से कोई कोण नहीं बनाते, पैरेलल, समानांतर हो जाते हैं। अगर कोई परिपूर्ण भाव से कह सके कि मैं अरिहंत की शरण आता हूं सिद्ध की शरण आता हूं धर्म की शरण आता हूं तो यह भाव उसकी आंतरिक आकृति को बदल देता है। और आंतरिक आकृति बदलते ही, आपके जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाते हैं। आपके अंतर में आकृतियां हैं। आपकी चेतना भी रूप लेती है। और आप जिस तरह का भाव करते हैं, चेतना उसी तरह का रूप ले लेती है।

चार साल पहले, सारे पश्र्चिम के वैज्ञानिक एक घटना से जितना धक्का खाये, उतना शायद पिछले दो सौ वर्षों में किसी घटना से नहीं खाये। दिमित्री दोजोनोव नाम का एक चेक किसान जमीन से चार फीट ऊपर उठ जाता है। और दस मिनट तक जमीन से चार फीट ऊपर, पेवीटेशन के पार, गुरुत्वाकर्षण के पार दस मिनट तक रुका रह जाता है। सैकड़ों वैज्ञानिकों के समक्ष अनेकों बार यह प्रयोग दिमित्री कर चुका है। सब तरह की जांच—पड़ताल कर ली गयी है। कोई धोखा नहीं है, कोई तरकीब नहीं है।

दिमित्री से पूछा जाता है कि तेरे इस उठने का राज क्या है, तो वह दो बातें कहता है। वह कहता है— एक राज तो मेरा समर्पण भाव, कि मैं परमात्मा को कहता हूं कि मैं तेरे हाथ में अपने को सौंपता हूं तेरी शरण आता हूं। मैं अपनी ताकत से ऊपर नहीं उठता, उसकी ताकत से ऊपर उठता हूं। जब तक मैं रहता हूं तब तक मैं ऊपर नहीं उठ पाता।

दो—तीन बार उसके प्रयोग असफल भी गये। पसीना—पसीना हो गया। सैकड़ों लोग देखने आये हैं दूर—दूर से, और वह ऊपर नहीं उठ पा रहा है। आखिर में उसने कहा कि क्षमा करें। लोगों ने कहा— क्यों ऊपर नहीं उठ पा रहे हो? उसने कहा— नहीं उठ पा रहा इसलिए कि मैं अपने को भूल ही नहीं पा रहा हूं। और जब तक मुझे मेरा खयाल जरा—सा भी बना रहे तब तक ग्रेवीटेशन काम करता है, तब तक जमीन मुझे नीचे खींचे रहती है। जब मैं अपने को भूल जाता हूं मुझे याद ही नहीं रहता कि मैं हूं ऐसा ही याद रह जाता है कि परमात्मा है—बस, तब तत्काल मैं ऊपर उठ जाता हूं।

शरणागति का अर्थ ही है समर्पण। क्या यह दिमित्री जो कह रहा है, क्या परमात्मा पर छोड़ देने पर जीवन के साधारण नियम भी अपना काम करना छोड़ देते हैं? जमीन अपनी कशिश छोड़ देती है! अगर जमीन अपनी कशिश छोड़ देती है तो क्या आश्रर्य होगा कि जो व्यक्ति अरिहंत की शरण जाए, सेक्स की कशिश उसके भीतर छूट जाए! जीवन का सामान्य नियम छूट जाए! शरीर की जो मांग है वह छूट जाए! क्या यह हो सकता है कि शरीर भोजन मांगना बंद कर दे! क्या यह हो सकता है कि शरीर बिना भोजन के, और वर्षों रह जाए! अगर जमीन कशिश छोड़ सकती है तो कोई भी तो कारण नहीं है। प्रकृति का अगर एक नियम भी टूट जाता है तो सब नियम टूट सकते हैं।

अब दिमित्री दूसरी बात यह कहता है कि जब मैं ऊपर उठ जाता हूं तब एक बात भर असंभव है ऊपर उठ जाने के बाद— जब तक मैं नीचे न आ जाऊं, मेरे शरीर की जो आकृति होती है उसमें मैं जरा भी फर्क नहीं कर सकता। अगर मेरा हाथ घुटने पर रखा है, तो मैं उसे हिला नहीं सकता, उठा नहीं सकता। मेरा सिर जैसा है फिर उसको मैं आड़ा—तिरछा नहीं कर सकता। मेरा शरीर उस आकृति में बिलकुल बंध जाता है। और न केवल मेरा शरीर, बल्कि मेरे भीतर की चेतना भी उसी आकृति से बंध जाती है।

आपको खयाल में नहीं होगा— क्योंकि हमारे पास खयाल जैसी चीज ही नहीं बची है। आपके विचार में भी नहीं आया होगा कि सिद्धासन, पिरामिड की आकृति पैदा करना है शरीर में। बुद्ध की, महावीर की सारी मूर्तियां जिस आसन में हैं, वह पिरामिडिकल हैं। जमीन पर बेस बडी हो जाती है दोनों पैर की और ऊपर सब छोटा हो जाता है, सिर पर शिखर हो जाता है। एक ट्रायएंगल बन जाता है — उस अवस्था में। उस आसन को सिद्धासन कहा है। क्यों? क्योंकि उस आसन में सरलता से प्रकृति के नियम अपना काम छोड़ देते हैं और प्रकृति के ऊपर जो परमात्मा के गहन, सूक्ष्म नियम हैं, वे काम करना शुरू कर देते हैं। वह आकृति महत्वपूर्ण है। दिमित्री कहता है— जमीन से उठ जाने के बाद फिर मैं आकृति नहीं बदल सकता, कोई उपाय नहीं है। मेरा कोई वश नहीं रह जाता। जमीन पर लौटकर ही आकृति बदल सकता हूं।

यह शरणागति की अपनी आकृति है, अहंकार की अपनी आकृति है। अहंकार को आप जमीन पर लेटा हुआ सोच सकते हैं? कंसीव भी नहीं कर सकते। अहंकार को सदा खड़ा हुआ ही सोच सकते हैं। बैठा हुआ अहंकार, सोया हुआ अहंकार कोई अर्थ नहीं रखता। अहंकार सदा खड़ा हुआ होता है। तो शरण के भाव को आप खड़ा हुआ सोच सकते हैं? शरण का भाव लेट जाने का भाव है। किसी विराटतर शक्ति के समक्ष अपने को छोड़ देने का भाव है। मैं नहीं, तू— वह भावना उसमें गहरी है।

मैंने आपसे कहा कि प्रकृति के नियम काम करना छोड़ देते हैं, अगर हम परमात्मा के नियम में अपने को समाविष्ट करने में समर्थ हो जाएं। इस संबंध में कुछ बातें कहनी जरूरी हैं।

महावीर के संबंध में कहा जाता है— पच्चीस सौ साल में महावीर के पीछे चलनेवाला कोई भी व्यक्ति नहीं समझा पाया कि इसका राज क्या है। महावीर ने बारह वर्षों में केवल तीन सौ पैंसठ दिन भोजन किया। इसका अर्थ हुआ कि ग्यारह वर्ष भोजन नहीं किया। कभी तीन महीने बाद एक दिन किया, कभी महीने बाद एक दिन किया। बारह वर्ष के लंबे समय में सब मिलाकर तीन सौ पैंसठ दिन, एक वर्ष भोजन किया। अनुपात अगर लें तो बारह दिन में एक दिन भोजन किया और ग्यारह दिन भूखे रहे। लेकिन महावीर से ज्यादा स्वस्थ शरीर खोजना मुश्किल है, शक्तिशाली शरीर खोजना मुश्किल है। बुद्ध या क्राइस्ट या कृष्ण या राम, सारे स्वास्थ्य की दृष्टि से महावीर के सामने कोई भी नहीं टिकते। हैरानी की बात है! बहुत हैरानी की बात है! और महावीर के शरीर के साथ जैसे—जैसे नियम बाह्य—काम कर रहे हैं, उसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। बारह साल तक यह आदमी तीन सौ पैंसठ दिन भोजन करता है। इसके शरीर को तो गिर जाना चाहिए कभी का। लेकिन क्या हुआ है कि शरीर गिरता नहीं।

अभी मैंने नाम लिया है— राबर्ट पावलिटा का कि इसकी प्रयोगशाला में बहुत अनूठे प्रयोग किये जा रहे हैं। उनमें एक प्रयोग भोजन के बाहर सम्मोहन के द्वारा हो जाने का भी है। जो व्यक्ति इस प्रयोगशाला में काम कर रहा है उसने चकित कर दिया है। पावलिटा की प्रयोगशाला में कुछ लोगों को दस—दस साल के लिए सम्मोहित किया गया। वह दस साल तक सम्मोहन में रहेंगे— उठेंगे, बैठेंगे, काम करेंगे, खाएंगे, पिएंगे, लेकिन उनका सम्मोहन नहीं तोड़ा जाएगा। वह गहरी सम्मोहन की अवस्था बनी रहेगी। और कुछ लोगों ने तो अपना पूरा जीवन सम्मोहन के लिए दिया है जो पूरे जीवन के लिए सम्मोहित किये गये हैं, उनका सम्मोहन जीवन भर नहीं तोड़ा जाएगा।

उनमें एक व्यक्ति है बरफिलाव। उसको तीन सप्ताह के लिए पिछले वर्ष सम्मोहित किया गया और तीन सप्ताह पूरे समय उसे बेहोश, सम्मोहित रखा गया। और उसे तीन सप्ताह में बार—बार सम्मोहन में झूठा भोजन दिया गया। जैसे उसे बेहोशी में कहा गया कि तुझे एक बगीचे में ले जाया जा रहा है। देख, कितने सुगंधित फूल हैं और कितने फल लगे हैं, सुगंध आ रही है? उस व्यक्ति ने जोर से श्वास खींची और कहा— अदभुत सुगंध है! प्रतीत होता है, सेव पक गये। पावलिटा ने उन झूठे, काल्पनिक, फैंटेसी के बगीचे से फल तोड़े; उस आदमी को दिये और कहा कि लो बहुत स्वादिष्ट हैं। उस आदमी ने शून्य में, शून्य से लिए गये, शून्य सेवों को खाया। कुछ था नहीं वहां। स्वाद लिया, आनंदित हुआ।

पंद्रह दिन तक उसे इसी तरह का भोजन दिया गया— पानी भी नहीं, भोजन भी नहीं— झूठा पानी कहें, झूठा भोजन कहें। दस डाक्टर उसका अध्ययन करते थे। उन्होंने कहा है— रोज उसका शरीर और भी स्वस्थ होता चला गया। उसको जो शारीरिक तकलीफें थीं वे पांच दिन के बाद विलीन हो गयीं। उसका शरीर अपने मैक्विमम स्वास्थ्य की हालत में आ गया, सातवें दिन के बाद। शरीर की सामान्य क्रियायें बंद हो गयीं। पेशाब या पाखाना, मलमूत्र विसर्जन सब विदा हो गया, क्योंकि उसके शरीर में कुछ जा ही नहीं रहा है। तीन सप्ताह के बाद जो सबसे बड़े चमत्कार की बात थी, वह यह कि वह परिपूर्ण स्वस्थ अपनी बेहोशी के बाहर आया। बड़े आश्रर्य की बात—जो आप कल्पना भी नहीं कर सकते, वह यह कि उसका वजन बढ़ गया।

यह असंभव है। जो वैज्ञानिक वहां अध्ययन कर रहा था— डा. रेजलिव, उसने वक्तव्य दिया है— दिस इज साइटिफिकली इंपासिबल। पर उसने कहा— इंपासिबल हो या न हो, असंभव हो या न हो, लेकिन यह हुआ है, मैं मौजूद था। और दस रात और दस दिन पूरे वक्त पहरा था कि उस आदमी को कुछ खिला न दिया जाए कोई तरकीब से; कोई इंजेक्तान न लगा दिया जाए कोई दवा न डाल दी जाए. कुछ भी उसके शरीर में नहीं डाला गया। वजन बढ़ गया। तो रेजलिव उस पर साल भर से काम कर रहा है और रेजलिव का कहना है कि यह मानना पड़ेगा कि देयर इज समथिंग लाइक ऐन अननोन एक्स—फोर्स। कोई एक शक्ति है अज्ञात एक्स— नाम की, जो हमारी वैज्ञानिक रूप से जानी गयी किन्हीं शक्तियों में समाविष्ट नहीं होती— वही काम कर रही है। उसे हम भारत में प्राण कहते रहे हैं।

इस प्रयोग के बाद महावीर को समझना आसान हो जाएगा। और इसलिए मैं कहता हूं कि जिन लोगों को भी उपवास करना हो वे तथाकथित जैन साधुओं को सुन समझकर उपवास करने के पागलपन में न पड़े। उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे सिर्फ भूखा मरवा रहे हैं। अनशन को उपवास कह रहे हैं। उपवास की तो पूरी, और ही वैज्ञानिक प्रक्रिया है। और अगर उस भांति प्रयोग किया जाए तो वजन नहीं गिरेगा, वजन बढ़ भी सकता है।

पर महावीर का वह सूत्र खो गया। संभव है, रेजलिव उस सूत्र को चेकोस्लावाकिया में फिर से पुन: पैदा करे — कर लेगा। यहां भी हो सकता है— लेकिन हम अभागे लोग हैं। हम व्यर्थ की बातों में और विवादों में इतना समय को नष्ट करते हैं और करवाते हैं कि सार्थक को करने के लिए समय और सुविधा भी नहीं बचती। और हम ऐसी ही मूढ़ताओं में लीन होते हैं, जिन्होंने विद्वता का आवरण ओढ़ रखा है। और हम बंधी हुई अंधी गलियों में भटकते रहते हैं जहां रोशनी की कोई किरण भी नहीं है।

यह प्रकृति के नियम के बाहर जाने की महावीर की तरकीब क्या होगी? क्योंकि महावीर तो सम्मोहित या बेहोश नहीं थे। यह पावलिटा और रेजलिव का जो प्रयोग है, यह तो एक बेहोश और सम्मोहित आदमी पर है। महावीर तो पूर्ण जाग्रत पुरुष थे, वह तो बेहोश नहीं थे। वह तो उन जाग्रत लोगों में से थे जो कि निद्रा में भी जाग्रत रहते, जो कि नींद में भी सोते नहीं। जिन्हें नींद में भी पूरा होश रहता है कि यह रही नींद। नींद भी जिनके आसपास ही होती है— अराउंड द कार्नर—कभी भीतर नहीं होती। वह उसे जांचते हैं, जानते हैं कि यह रही नींद और. और वह सदा बीच में जागे हुए होते हैं।

तो महावीर ने कैसे किया होगा? फिर महावीर का सूत्र क्या है? असल में सम्मोहन में और महावीर के सूत्र में एक आंतरिक संबंध है, वह खयाल में आ जाए। सम्मोहित व्यक्ति बेहोशी में विवश होकर समर्पित हो जाता है। उसका अहंकार खो जाता है और तो कुछ फर्क नहीं है। अपने—आप जानकर वह नहीं खोता, इसलिए उसे बेहोश करना पड़ता है। बेहोशी में खो जाता है। महावीर जानकर उस अस्मिता को, उस अहंकार को खो देते हैं और समर्पित हो जाते हैं। अगर आप होशपूर्वक भी, जागे हुए भी समर्पित हो सकें, कह सकें —अरिहंत शरणं पवज्जामि, तो आप उसी रहस्य लोक में प्रवेश कर जाते हैं जहां का रेजलिव और पावलिटा प्रयोग करता है। पर केवल बेहोशी में प्रवेश कर पाते हैं। होश में आने पर तो उस आदमी को भी भरोसा नहीं आया कि यह हो सकता है। उसने कहा— कुछ न कुछ गड़बड़ हुई होगी। मैं नहीं मान सकता। होश में आने के बाद तो वह एक दिन बिना भोजन के न रह सका। उसने कहा कि मैं मर जाऊंगा। अहंकार वापस आ गया। अहंकार अपने सुरक्षा आयोजन को लेकर फिर खड़ा हो गया। उस आदमी को समझा रहे हैं डाक्टर कि नहीं मरेगा; क्योंकि इक्कीस दिन तो हम देख चुके कि तेरा स्वास्थ्य और बढ़ा है। पर उस आदमी ने कहा— मुझे तो कुछ पता नहीं। मुझे भोजन दें। भय लौट आया।

ध्यान रहे, मनुष्य के चित्त में जब तक अहंकार है, तब तक भय होता है। भय और अहंकार एक ही ऊर्जा के नाम हैं। तो जितना भयभीत आदमी, उतना अहंकारी। जितना अहंकारी, उतना भयभीत। आप सोचते होंगे कि अहंकारी बहुत निर्भय होता है, तो आप बहुत गलती में हैं। अहंकारी अत्यंत भयातुर होता है। यद्यपि अपने भय को प्रकट न होने देने के लिए वह निर्भयता के कवच ओढ़े रहता है। तलवारें लिए रहता है हाथ में कि संभलकर रहना। महावीर कहते हैं— अभय तो वही होता है जो अहंकारी नहीं होता। क्योंकि फिर भय के लिए कोई कारण नहीं रहा। भयभीत होनेवाला भी नहीं रहा। इसलिए महावीर कहते हैं कि जो निर्भय अपने को दिखा रहा है, वह तो भयभीत है ही। अभय… अभय का अर्थ? वही हो सकता है अभय, जो समर्पित, शरणागत; जिसने छोड़ा अपने को। अब कोई भय का कारण न रहा।

यह सूत्र शरणागति का है। इस सूत्र के साथ नमोकार पूरा होता है। नमस्कार से शुरू होकर शरणागति पर पूरा होता है। और इस अर्थ में नमोकार पूरे धर्म की यात्रा बन जाता है। उस छोटे से सूत्र में पहले से लेकर आखिरी कदम तक सब छोड़ दें कहीं किसी चरण में, छोड़ दें। यह बात प्रयोजनहीन है— कहां छोड़ दें। महत्वपूर्ण यही है कि छोड़ दें।

तो शरणागति का पहला तो संबंध है— आंतरिक ज्यामिति से कि वह आपके भीतर की चेतना की आकृति बदलती है। दूसरा संबंध है— आपको प्रकृति के साधारण नियमों के बाहर ले जाती है। किसी गहन अर्थ में आप दिव्य हो जाते हैं, शरण जाते ही।

आप “ट्रांसैंड’ कर जाते हैं, अतिक्रमण कर जाते हैं– साधारण तथाकथित नियमों का– जो हमें बांधे हुए हैं।और तीसरी बात– शरणागति आपके जीवन द्वारों को परम ऊर्जा की तरफ खोल देती है जैसे कि कोई अपनी आंख को सूरज की तरफ उठा ले। सूरज की तरफ पीठ करने की भी हमें स्वतंत्रता है। सूरज की तरफ पीठ करके भी हम खड़े हो सकते हैं। सूरज की तरफ मुंह करके भी आंख बंद रख सकते हैं। सूरज का अनंत प्रकाश बरसता रहेगा और हम वंचित रह जाएंगे। लेकिन एक आदमी सूरज की तरफ घूम जाता है, जैसे कि सूरजमुखी का फूल घूम गया हो। आंख खोल लेता है, द्वार खुले छोड़ देता है। सूरज का प्रकाश उसके रोएं-रोएं, रंध्र-रंध्र में पहुंच जाता है। उसके हृदय के अंधकारपूर्ण कक्षों तक भी प्रकाश की खबर पहुंच जाती है। वह नया और ताजा, पुनरुज्जीवित हो जाता है। ठीक ऐसे ही विश्व-ऊर्जा के स्रोत हैं और उन विश्व-ऊर्जा के स्रोतों की तरफ स्वयं को खोलना हो तो शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।

इसलिए अहंकारी व्यक्ति दीन से दीन व्यक्ति है, जिसने अपने को समस्त स्रोतों से तोड़ लिया है। जो सिर्फ अपने पर ही भरोसा कर रहा है। वह ऐसा फूल है जिसने जड़ों से अपने संबंध त्याग दिये। और जिसने सूरज की तरफ मुंह फेरने से अकड़ दिखायी। वर्षा आती है तो अपनी पंखुड़ियां बंद कर लेता है। सड़ेगा, उसका जीवन सिर्फ सड़ने का एक क्रम होगा। उसका जीवन मरने की एक प्रक्रिया होगी। उसका जीवन परम जीवन का मार्ग नहीं बनेगा। लेकिन फूल पाता है रस– जड़ों से, सूर्यों से, चांदतारों से। अगर फूल समर्पित है तो प्रफुल्लित हो जाता है। सब द्वारों से उसे रोशनी, प्रकाश, जीवन मिलता है।

शरणागति का तीसरा और गहनतम जो रूप है, वह प्रकाश, जीवन-ऊर्जा के जो परम स्रोत हैं, जो एनर्जी सोर्से हैं– उनकी तरफ अपने को खोलना है।

इस पावलिटा का मैंने नाम लिया, इसके नाम से एक यंत्र वैज्ञानिक जगत में प्रसिद्ध है। वह कहलाता है, पावलिटा जनरेटर। बड़े छोटे-छोटे उसने यंत्र बनाये हैं। बहुत संवेदनशील पदार्थो से बहुत छोटी-छोटी चीजें बनायी हैं, और अभूतपूर्व काम उन यंत्रों से पावलिटा कर रहा है। वह उन यंत्रों पर कहता है कि आप सिर्फ अपनी आंख गड़ाकर खड़े हो जाएं, पांच क्षण के लिए– कुछ न करें, सिर्फ आंख गड़ाकर उन यंत्रों के सामने खड़े हो जाएं। वह यंत्र आपकी शक्ति को संगृहीत कर लेते हैं और तत्काल उस शक्ति का उपयोग किया जा सकता है। और जो काम आपका मन कर सकता था, बहुत दूर तक वही काम अब वह यंत्र कर सकता है। पांच मिनट पहले उस यंत्र को आप हाथ में उठाते तो वह मुर्दा था। पांच मिनट बाद आप उसको हाथ में उठाएं तो आपके हाथ में उस शक्ति का अनुभव होगा। पांच मिनट पहले आप जिसे प्रेम करते हैं, अगर आपने वह यंत्र उसके हाथ में दिया होता तो वह कहता, ठीक है। यह व्यक्ति कहता या वह स्त्री कहती कि ठीक है। लेकिन पांच िमनट उसे आप गौर से देख लें और आपकी ध्यान-ऊर्जा उससे संयुक्त हो जाए तो आप उस यंत्र को अपने प्रेमी के हाथ में दे दें — वह फौरन पहचानेगा कि आपकी प्रतिध्वनि उस यंत्र से आ रही है। अगर क्रोध और घृणा से भरा हुआ व्यक्ति उस यंत्र को देख ले तो आप उसको हाथ से अलग करना चाहेंगे। अगर प्रेम और दया और सहानुभूति से भरा व्यक्ति देख ले तो आप उसे संभालकर रखना चाहेंगे।

पावलिटा ने तो एक बहुत अदभुत घोषणा की है। उसने कहा– बहुत शीघ्र भीड़ को छांटने के लिए गोली और लाठी चलाने की जरूरत न होगी। हम ऐसे यंत्र बना सकेंगे जो पंद्रह मिनट में वहां खड़े कर दिये जाएं तो लोग भाग जाएंगे। इतनी घृणा विकीर्णित की जा सकेगी। अभी उसके प्रयोग तो सफल हुए हैं उसने प्रयोग बताये हैं, लोगों को करके, और वे सफल हुए हैं। अब उसने नवीनतम जो यंत्र बनाया है वह ऐसा है कि आपको देखने की भी जरूरत नहीं है। आप सिर्फ एक विशेष सीमा के भीतर उसके पास से गुजर जाएं, वह आपको पकड़ लेगा।

मैंने कल कहा था कि स्टेलिन ने एक आदमी की हत्या करवा दी थी– कार्ल आटोविच झीलिंग की, १९३७ में। वह आदमी १९३७ में यही काम कर रहा था, जो पावलिटा अब कर पाया है। बीस साल, तीस साल व्यर्थ पिछड़ गयी बात। झीलिंग अदभुत व्यक्ति था। वह अंडे को हाथ में रखकर बता सकता था कि इस अंडे से मुर्गी पैदा होगी या मुर्गा, और कभी गलती नहीं हुई। पर यह तो बड़ी बात नहीं, क्योंकि अंडे के भीतर आखिर जो प्राण हैं, स्त्री और पुरुष की विद्युत में फर्क हैं, उनके विद्युत कंपन में फर्क है। वही उनके बीच आकर्षण है। वह निगेटिव-पाजिटिव का फर्क है। तो अंडे के ऊपर अगर संवेदनशील व्यक्ति हाथ रखे तो जो ऊर्जा-कण निकलते रहते हैं, वह बता सकता है।

लेकिन झीलिंग– चित्र को ढंक दें आप– वह चित्र, ढंके हुए चित्र पर हाथ रखकर बता सकता था कि चित्र नीचे स्त्री का है कि पुरुष का। झीलिंग का कहना था कि जिसका चित्र लिया गया है, उसके िवद्युत कण उस चित्र में समाविष्ट हो जाते हैं, जितनी देर लिया जाता है। और इसलिए समाविष्ट हो जाते हैं कि जब किसी का िचत्र लिया जाता है, तो वह कैमरा-कांशस हो जाता है, उसका ध्यान कैमरे पर अटक जाता है और धारा प्रवाहित हो जाती है। वह जो पावलिटा कह रहा है कि एक तरफ देखने से आपकी ऊर्जा चली जाती है; आपके चित्र में भी आपकी ऊर्जा चली जाती है।

पर यह तो कुछ भी नहीं है। झीलिंग की सबसे अदभुत बात जो थी, वह यह है कि किसी आइने पर हाथ रखकर वह बता सकता था कि आखिरी जो व्यक्ति, इस आइने के सामने से निकला, वह स्त्री थी या पुरुष। क्योंकि आइने के सामने भी आप मिरर-कांशस हो जाते हैं। जब आप आइने के सामने होते हैं तब जितने एकाग्र होते हैं, शायद और कहीं नहीं होते। आपके बाथरूम में लगा आइना आपके संबंध में किसी दिन इतनी बातें कह सकेगा कि आपको अपना आइना बचाना पड़ेगा कि कोई ले न जाए उठाकर। वे सब रहस्य खुल जाएंगे, जो आपने किसी को नहीं बताए। जो सिर्फ आपका बा थरूम और आपके बाथरूम का आइना जानता है। क्योंकि जितने ध्यानमग्न होकर आप आइने को देखते हैं, शायद किसी चीज को नहीं देखते। आपकी ऊर्जा प्रविष्ट हो रही है।

अगर आपसे ऊर्जा प्रविष्ट होती है ध्यानमग्न होने से, तो क्या इससे विपरीत नहीं हो सकता? वह विपरीत ही शरणागति का राज है। कि अगर आप ध्यानमग्न होते हैं, बहुत छोटे-से ऊर्जा के के*नदर हैं आप। और अगर आपसे भी ऊर्जा प्रवाहित हो जाती है, तो क्या परम शक्ति के प्रति आप समर्पित होकर, उसकी ऊर्जा को अपने में समाविष्ट नहीं कर सकते? ऊर्जा के प्रवाह हमेशा दोनों तरफ होते हैं। जो ऊर्जा आपसे बह सकती है, वह आपकी तरफ भी बह सकती है। और अगर गंगाएं सागर की तरफ बहती हैं तो क्या सागर गंगा की तरफ नहीं बह सकता? यह शरणागति, सागर को गंगा की गंगोत्री की तरफ बहाने की प्रक्रिया है।

हम तो सब बह-बहकर सागर में गिर ही जाते हैं, लड़-लड़कर बचाने की को िशश में हैं। जीसस ने कहा है– “जो भी अपने को बचाएगा, वह मिट जाएगा। और धन्य हैं वे जो अपने को मिटा देते हैं, क्योंकि उनको मिटाने की फिर किसी की सामर्थ्य नहीं है।’ गंगा तो लड़ती होगी, झगड़ती होगी, सागर में गिरने के पहले, सभी झगड़ते और लड़ते हैं। भयभीत होती होगी, मिटी जाती होगी। मौत से हमारा डर यही तो है। मौत का मतलब, सागर के किनारे पहुंच गयी गंगा। मरे, बचा रहे हैं। लड़ते-लड़ते गिर जाते हैं। तब गिरने का जो मजा था, उससे भी चूक जाते हैं और पीड़ा भी पाते हैं।

शरणागति कहती है, लड़ो ही मत। गिर ही जाओ, और तुम पाओगे कि िजसकी शरण में तुम गिर गये हो, उससे तुमने कुछ नहीं खोया– पाया। सागर आया गंगोत्री की तरफ — वह जो अमृत का स्रोत है, चारों तरफ, जीवन का रहस्य स्रोत। ये तो प्रतीक शब्द हैं–अरिहंत, सिद्ध, साधु। ये हमारे पास आकृतियां हैं, उस अनन्त स्रोत की। ये हमारे निकट, जिन्हें हम पहचान सकें। परमात्मा निराकार में खड़ा है, उसे पहचानना बहुत मुश्किल होगा। जो पहचान सके, धन्यभागी है।

लेकिन आकार में भी परमात्मा की छवि बहुत बार दिखाई पड़ती है– कभी किसी महावीर में, कभी किसी बुद्ध में, कभी किसी क्राइस्ट में, कभी उस परमात्मा की, उस निराकार की छवि दिखाई पड़ती है। लेकिन हम उस निराकार को तब भी चूकते हैं, क्योंकि हम आकृति में कोई भूल निकाल लेते हैं। कहते हैं कि जीसस की नाक थोड़ी कम लंबी है। यह परमात्मा की नहीं हो सकती। या महावीर को तो बीमारी पकड़ती है, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? कि बुद्ध भी तो मर जाते हैं, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? आपको खयाल नहीं कि यह आप आकृति की भूलें निकाल रहे हैं और आकृति के बीच जो मौजूद था, उससे चूके जा रहे हैं।

आप वैसे आदमी हैं, जो कि दीये की मिट्टी की भूलें निकाल रहे हैं, तेल की भूलें निकाल रहे हैं और वह जो ज्योति चमक रही है, उससे चूके जा रहे हैं। होगी दीये में भूल। नहीं बना होगा पूरा सुघड़। पर प्रयोजन क्या है? तेल भर लेता है, काफी सुघड़ है। वह जो ज्योति बीच में जल रही है, वह जो निराकार ज्योति है, स्रोत-रहित–उसे तो देखना कठिन है। उसे भी देखा जा सकता है। लेकिन अभी तो प्रारंभिक चरण में उसे अरिहंत में, उसे सिद्ध में, उसे साधु में, उसे जाने हुए लोगों के द्वारा कहे गये धर्म में देखने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि अगर कृष्ण बोल रहे हों तो हम यह फिक्र कम करेंगे कि उन्होंने क्या कहा। हम इसकी फिक्र करेंगे कि कोई व्याकरण की भूल तो नहीं थी। ऐसे लोग हैं!

हम जिद्द किये बैठे हैं, चूकने की कि हम चूकते ही चले जाएंगे। और जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, उनसे ज्यादा बुद्धिहीन खोजना मुश्किल है, क्योंकि वे चूकने में सर्वाधिक कुशल होते हैं। वे महावीर के पास जाते हैं तो वे कहते हैं कि सब लक्षण पूरे हुए कि नहीं? पहले लक्षण जो शास्त्र में लिखे हैं– वे पूरे होते हैं कि नहीं। वे दीयों की नाप-जोख कर रहे हैं, तेल का पता लगा रहे हैं। और तब तक ज्योति विदा हो जाएगी। और जब तक वे तय कर पाएंगे कि दीया बिलकुल ठीक है, तब तक ज्योति जा चुकी होगी। और तब दीये को हजारों साल तक पूजते रहेंगे। इसलिए मरे हुए दीयों का हम बड़ा आदर करते हैं। क्योंकि जब तक हम तय कर पाते हैं कि दीया ठीक है, या अपने को तय कर पाते हैं कि चलो ठीक है, तब तक ज्योति तो जा चुकी होती है।

इस जगत में, जिंदा तीर्थकर का उपयोग नहीं होता, सिर्फ मुर्दा तीर्थकर का उपयोग होता है। क्योंकि मुर्दा तीर्थकर के साथ, भूल-चूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती। अगर महावीर के साथ आप रास्ते पर चलते हों, और देखें कि महावीर भी थककर और वृक्ष के नीचे विश्राम करते हैं, शक पकड़ेगा कि अरे महावीर तो कहते थे अनंत ऊर्जा है, अनंत शक्ति है, अनंत वीर्य है। कहां गयी अनंत ऊर्जा? यह तो थक गये। दस मील चले और पसीना निकल आया। साधारण आदमी हैं। दीया थक रहा है। महावीर जिस अनंत ऊर्जा की बात कर रहे हैं वह ज्योति की बात है। दीये तो सभी के थक जाएंगे और गिर जाएंगे।

लेकिन ये सारी बातें हम क्यों सोचते हैं? यह हम सोचते हैं, इसलिए कि शरण से बच सकें। इसके सोचने का लाजिक है। इसके सोचने का तर्क है। इसके सोचने का रैशनलाइजेशन है। यह हम सोचते इस लिए हैं ताकि हमें कोई कारण मिल सके और कारण के द्वारा, हम अपने को रोक सकें– शरण जाने से। बुद्धिमान वह है जो कारण खोजता है शरण जाने के लिए। और बुद्धिहीन वह है जो कारण खोजता है शरण से बचने के लिए। दोनों खोजे जा सकते हैं।

महावीर जिस गांव से गुजरते हैं, सारा गांव उनका भक्त नहीं हो जाता । उस गांव में भी उनके शत्रु होते ही हैं। जरूर वे भी अकारण नहीं होते होंगे। उनको भी कारण मिल जाता है। वे भी खोज लेते हैं कि महावीर को, कहते हैं कि जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है। और अगर महावीर सर्वज्ञ हैं तो वे उस घर के सामने भिक्षा क्यों मांगते थे, जिसमें कोई है ही नहीं? इन्हें तो पता होना ही चाहिए न कि घर में कोई भी नहीं है! सर्वज्ञ? ये खुद ही कहते हैं, जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। और हमने इनको ऐसे घर के सामने भीख मांगते देखा, जिसमें पता चला कि घर खाली है। घर में कोई है ही नहीं। नहीं,

लेकिन आकार में भी परमात्मा की छवि बहुत बार दिखाई पड़ती है– कभी किसी महावीर में, कभी किसी बुद्ध में, कभी किसी क्राइस्ट में, कभी उस परमात्मा की, उस निराकार की छवि दिखाई पड़ती है। लेकिन हम उस निराकार को तब भी चूकते हैं, क्योंकि हम आकृति में कोई भूल निकाल लेते हैं। कहते हैं कि जीसस की नाक थोड़ी कम लंबी है। यह परमात्मा की नहीं हो सकती। या महावीर को तो बीमारी पकड़ती है, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? कि बुद्ध भी तो मर जाते हैं, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? आपको खयाल नहीं कि यह आप आकृति की भूलें निकाल रहे हैं और आकृति के बीच जो मौजूद था, उससे चूके जा रहे हैं।

आप वैसे आदमी हैं, जो कि दीये की मिट्टी की भूलें निकाल रहे हैं, तेल की भूलें निकाल रहे हैं और वह जो ज्योति चमक रही है, उससे चूके जा रहे हैं। होगी दीये में भूल। नहीं बना होगा पूरा सुघड़। पर प्रयोजन क्या है? तेल भर लेता है, काफी सुघड़ है। वह जो ज्योति बीच में जल रही है, वह जो निराकार ज्योति है, स्रोत-रहित–उसे तो देखना कठिन है। उसे भी देखा जा सकता है। लेकिन अभी तो प्रारंभिक चरण में उसे अरिहंत में, उसे सिद्ध में, उसे साधु में, उसे जाने हुए लोगों के द्वारा कहे गये धर्म में देखने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि अगर कृष्ण बोल रहे हों तो हम यह फिक्र कम करेंगे कि उन्होंने क्या कहा। हम इसकी फिक्र करेंगे कि कोई व्याकरण की भूल तो नहीं थी। ऐसे लोग हैं!

हम जिद्द किये बैठे हैं, चूकने की कि हम चूकते ही चले जाएंगे। और जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, उनसे ज्यादा बुद्धिहीन खोजना मुश्किल है, क्योंकि वे चूकने में सर्वाधिक कुशल होते हैं। वे महावीर के पास जाते हैं तो वे कहते हैं कि सब लक्षण पूरे हुए कि नहीं? पहले लक्षण जो शास्त्र में लिखे हैं– वे पूरे होते हैं कि नहीं। वे दीयों की नाप-जोख कर रहे हैं, तेल का पता लगा रहे हैं। और तब तक ज्योति विदा हो जाएगी। और जब तक वे तय कर पाएंगे कि दीया बिलकुल ठीक है, तब तक ज्योति जा चुकी होगी। और तब दीये को हजारों साल तक पूजते रहेंगे। इसलिए मरे हुए दीयों का हम बड़ा आदर करते हैं। क्योंकि जब तक हम तय कर पाते हैं कि दीया ठीक है, या अपने को तय कर पाते हैं कि चलो ठीक है, तब तक ज्योति तो जा चुकी होती है।

इस जगत में, जिंदा तीर्थकर का उपयोग नहीं होता, सिर्फ मुर्दा तीर्थकर का उपयोग होता है। क्योंकि मुर्दा तीर्थकर के साथ, भूल-चूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती। अगर महावीर के साथ आप रास्ते पर चलते हों, और देखें कि महावीर भी थककर और वृक्ष के नीचे विश्राम करते हैं, शक पकड़ेगा कि अरे महावीर तो कहते थे अनंत ऊर्जा है, अनंत शक्ति है, अनंत वीर्य है। कहां गयी अनंत ऊर्जा? यह तो थक गये। दस मील चले और पसीना निकल आया। साधारण आदमी हैं। दीया थक रहा है। महावीर जिस अनंत ऊर्जा की बात कर रहे हैं वह ज्योति की बात है। दीये तो सभी के थक जाएंगे और गिर जाएंगे।

लेकिन ये सारी बातें हम क्यों सोचते हैं? यह हम सोचते हैं, इसलिए कि शरण से बच सकें।इसके सोचने का लाजिक है। इसके सोचने का तर्क है। इसके सोचने का रैशनलाइजेशन है। यह हम सोचते इस िलए हैं ताकि हमें कोई कारण मिल सके और कारण के द्वारा, हम अपने को रोक सकें– शरण जाने से। बुद्धिमान वह है जो कारण खोजता है शरण जाने के लिए। और बुद्धिहीन वह है जो कारण खोजता है शरण से बचने के लिए। दोनों खोजे जा सकते हैं।

महावीर जिस गांव से गुजरते हैं, सारा गांव उनका भक्त नहीं हो जाता । उस गांव में भी उनके शत्रु होते ही हैं। जरूर वे भी अकारण नहीं होते होंगे। उनको भी कारण मिल जाता है। वे भी खोज लेते हैं कि महावीर को, कहते हैं कि जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है। और अगर महावीर सर्वज्ञ हैं तो वे उस घर के सामने भिक्षा क्यों मांगते थे, जिसमें कोई है ही नहीं? इन्हें तो पता होना ही चाहिए न कि घर में कोई भी नहीं है! सर्वज्ञ? ये खुद ही कहते हैं, जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। और हमने इनको ऐसे घर के सामने भीख मांगते देखा, जिसमें पता चला कि घर खाली है। घर में कोई है ही नहीं। नहीं, है। किसी दिन जब मेरी सामर्थ्य आ जाएगी कि जब मैं शून्य में गिर पाऊंगा– उन चरणों में, जो दिखाई भी नहीं पड़ते; उन चरणों में, जिन्हें छुआ भी नहीं जा सकता। लेकिन जो चरण चारों तरफ मौजूद हैं– जब मैं उस कास्मिक–उस विराट अस्तित्व, निराकार को सीधा ही गिर पाऊंगा। पर जरा गिरने का मुझे आनंद लेने दो। अगर इन दिखाई पड़ते हुए चरणों में इतना आनंद है, उसका मुझे थोड़ा स्वाद आ जाने दो, तो फिर मैं उस विराट में भी गिर जाऊंगा।

इसलिए बुद्ध का जो सूत्र है– “बुद्धं शरणं गच्छामि’ वह बुद्ध से शुरू होता है, व्यक्ति से। “संघं शरणं गच्छामि’– समूह पर बढ़ता। संघ का अर्थ है– उन सब साधुओं का, उन सब साधुओं के चरणों में। और फिर धर्म पर– “धम्मं शरणं गच्छामि’ फिर वह समूह से भी हट जाता है। फिर वह सिर्फ स्वभाव में, फिर निराकार में खो जाता है। वही, अरिहंत के चरण गिरता हूं; स्वीकार करता हूं, अरिहंत की शरण। सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूं, साधु की शरण स्वीकार करता हूं। और अंत में केवलिपन्नत्तं धम्मं शरणं पवज्जामि– धर्म की, जाने हुए लोगों के द्वारा बताये गये ज्ञान की शरण स्वीकार करता हूं। सारी बात इतनी है कि अपने को अस्वीकार करता हूं। और जो अपने को अस्वीकार करता है वह स्वयं को पा लेता है और जो स्वयं को ही पकड़कर बैठा रह जाता है वह सब तो खो देता है, अंत में स्वयं को भी नहीं पाता। स्वयं को पाने की यह प्रक्रिया बड़ी पैराडाक्सिकल है, बड़ी विपरीत दिखाई पड़ेगी। स्वयं को पाना हो तो स्वयं को छोड़ना पड़ता है। और स्वयं को मिटाना हो तो स्वयं को खूब जोर से पकड़े रहना पड़ता है।

दो सूत्र अब तक विकसित हुए हैं जैसा मैंने कहा– एक, सिद्ध की तरफ से कि मेरी शरण आ जाओ। दो, साधक की तरफ से कि मैं तुम्‍हारी शरण आता हूं। तीसरा कोई सूत्र नहीं है। लेकिन हम तीसरे की तरफ बढ़ रहे है। वह तीसरे की तरफ बढ़ते हुए हमारे कदम जीवन में जो भी शुभ है, जीवन में जो भी सुंदर है। जीवन में जो भी सत्‍य है उसमें खोने तरफ बढ़ रहे है।

समर्पण यानी श्रद्धा। समर्पण यानी शरणागति। समर्पण यानी अहंकार विसर्जन। नमोकार इस पर पूरा होता है।

कल से हम महावीर की वाणी में प्रवेश करेंगे। लेकिन वे ही प्रवेश कर पाएंगे जो अपने भीतर शरण की आकृति निर्मित कर पाएंगे। चौबीस घंटे के लिए एक प्रयोग करना। जब भी खयाल आये तो मन में कहना — “अरिहंते शरणं पवज्जामि, सिद्धे शरणं पवज्जामि, साहू शरणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्मं शरणं पवज्जा िम’। इसे दोहराते रहना चौबीस घंटे। रात सोते समय इसे दोहराकर सो जाना। रात नींद टूट जाए तो इसे दोहरा लेना। सुबह नींद खुले तो पहले इसे दोहरा लेना। कल यहां आते वक्त इसे दोहराते आना। अगर वह शरण की आकृति भीतर बन जाए तो महावीर की वाणी में हम किसी और ढंग से प्रवेश कर सकेंगे– जैसा पच्चीस सौ वर्ष में संभव नहीं हुआ है।

आज इतना ही।

अब हम यह शरण की आकृति और इसकी ध्वनि में थोड़ा प्रवेश करें। कोई जाए न, बैठ जाएं और सम्मिलित हों।


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एस धम्‍मों संतननो (भाग–2) प्रवचन–12

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उठो. तलाश लाजिम है–(प्रवचन–बारहवां)

पहला प्रश्‍न:

जीवन विरोधाभासी है, असंगतियों से भरा है, तो फिर तर्क, बुद्धि, व्यवस्था और अनुशासन का मार्ग बुद्ध ने क्यों बताया?

 प्रश्‍न जीवन का नहीं है। प्रश्न तुम्हारे मन का है। जीवन को मोक्ष की तरफ नहीं जाना है। जीवन तो मोक्ष है। जीवन नहीं भटका है, जीवन नहीं भूला है। जीवन तो वहीं है जहां होना चाहिए। तुम भटके हो, तुम भूले हो। तुम्हारा मन तर्क की उलझन में है। और यात्रा तुम्हारे मन से शुरू होगी। कहां जाना है, यह सवाल नहीं है। कहां से शुरू करना है, यही सवाल है।

मंजिल की बात बुद्ध ने नहीं की। मंजिल की बात तुम समझ भी कैसे पाओगे? उसका तो स्वाद ही समझा सकेगा। उसमें तो डूबोगे, तो ही जान पाओगे। बुद्ध ने मार्ग की बात कही है। बुद्ध ने तुम जहां खड़े हो, तुम्हारा पहला कदम जहां पड़ेगा, उसकी बात कही है। इसलिए बुद्ध बुद्धि, विचार, अनुशासन, व्यवस्था की बात नही कि उन्हें पता नहीं है कि जीवन कोई व्यवस्था नहीं मानता। जीवन कोई रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई गाड़ी नहीं है। जीवन परम स्वतंत्रता है। जीवन के ऊपर कोई नियम नहीं है, कोई मर्यादा नहीं है। जीवन अमर्याद है। वहां न कुछ शुभ है, न अशुभ। जीवन में सर्वस्वीकार है। वहां अंधेरा भी और उजेला भी एक साथ स्वीकार है।

मनुष्य के मन का सवाल है। मनुष्य का मन विरोधाभासी बात को समझ ही नहीं पाता। और जिसको तुम समझ न पाओगे, उसे तुम जीवन में कैसे उतारोगे? जिसे तुम समझ न पाओगे, उससे तुम दूर ही रह जाओगे।

तो बुद्ध ने वही कहा जो तुम समझ सकते हो। बुद्ध ने सत्य नहीं कहा, बुद्ध ने वही कहा जो तुम समझ सकते हो। फिर जैसे-जैसे तुम्हारी समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे बुद्ध तुमसे वह भी कहेंगे जो तुम नहीं समझ सकते।

बुद्ध एक दिन गुजरते हैं एक राह से जंगल की। पतझड़ के दिन हैं। सारा वन सूखे पत्तों से भरा है। और आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि क्या आपने हमें सब बातें बता दीं जो आप जानते हैं न क्या आपने अपना पूरा सत्य हमारे सामने स्पष्ट किया है? बुद्ध ने सूखे पत्तों से अपनी मुट्ठी भर ली और कहा, आनंद! मैंने तुमसे उतना ही कहा है जितने सूखे पत्ते मेरी मुट्ठी में हैं। और उतना अनकहा छोड़ दिया है जितने सूखे पत्ते इस वन में हैं। वही कहा है जो तुम समझ सको। फिर जैसे तुम्हारी समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे वह भी कहा जा सकेगा जो पहले समझा नहीं जा सकता था।

बुद्ध कदम-कदम बढ़े। आहिस्ता-आहिस्ता। तुम्हारी सामर्थ्य देखकर बढ़े हैं। बुद्ध ने तुम्हारी बूंद को सागर में डालना चाहा है।

ऐसे भी फकीर हुए हैं जिन्होंने सागर को बूंद में डाल दिया है। पर वह काम बुद्ध ने नहीं किया। उन्होंने बूंद को सागर में डाला है। सागर को बूंद में डालने से बूंद बहुत घबड़ा जाती है। उसके लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए। उसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए। उसके लिए दुस्साहस चाहिए। उसके लिए मरने की तैयारी चाहिए। बुद्ध ने तुम्हें रफ्ता-रफ्ता राजी किया है। एक-एक कदम तुम्हें करीब लाए हैं। इसलिए बुद्ध के विचार में एक अनुशासन है।

ऐसा अनुशासन तुम कबीर में न पाओगे। कबीर उलटबांसी बोलते हैं। कबीर तुम्हारी फिकर नहीं करते। कबीर वहां से बोलते हैं जहां वे स्वयं हैं, जहां मेघ घिरे हैं अदृश्य के, और अमृत की वर्षा हो रही है। जहा बिन घन परत फुहार-जहा मेघ भी नहीं हैं और जहा अमृत की वर्षा हो रही है। बेबूझ बोलते हैं।

तो कबीर को तो वे बहुत थोड़े से लोग समझ पाएंगे, जो उनके साथ खतरा लेने को राजी हैं। कबीर ने कहा है, जो घर बारै आपना चलै हमारे संग। जिसकी तैयारी हो घर में आग लगा देने की, वह हमारे साथ हो ले। किस घर की बात कर रहे हैं? वह तुम्हारा मन का घर, तुम्हारी बुद्धि की व्यवस्था, तुम्हारा तर्क, तुम्हारी समझ; जो उस घर को जलाने को तैयार हो, कबीर कहते हैं, वह हमारे साथ हो ले।

बुद्ध कहते हैं, घर को जलाने की भी जरूरत नहीं है। एक-एक कदम सही, इंच-इंच सही, धीरे- धीरे सही, बुद्ध तुम्हें फुसलाते हैं। इसलिए बुद्ध वहीं से शुरू करते हैं जहां तुम हो। उन्होंने उतना ही कहा है जो कोई भी तर्कनिष्ठ व्यक्ति समझने में समर्थ हो जाएगा। इसलिए बुद्ध का इतना प्रभाव पड़ा सारे जगत पर। बुद्ध जैसा प्रभाव किसी का भी नहीं पड़ा।

अगर दुनिया में मुसलमान हैं, तो मोहम्मद के प्रभाव की वजह से कम, मुसलमानों की जबर्दस्ती की वजह से ज्यादा। अगर दुनिया में ईसाई हैं, तो ईसा के प्रभाव से कम, ईसाइयों की व्यापारी-कुशलता के कारण ज्यादा। लेकिन अगर दुनिया में बौद्ध हैं, तो सिर्फ बुद्ध के कारण। न तो कोई जबर्दस्ती की गई है किसी को बदलने की, न कोई प्रलोभन दिया गया है। लेकिन बुद्ध की बात मौजूं पड़ी। जिसके पास भी थोड़ी समझ थी, उसको भी बुद्ध में रस आया।

थोड़ा सोचो, बुद्ध ईश्वर की बात नहीं करते। क्योंकि जो भी सोच-विचार करता है, उसे ईश्वर की बात में संदेह पैदा होता है। बुद्ध ने वह बात ही नहीं की। छोड़ो। उसको अनिवार्य न माना। बुद्ध आत्मा तक की बात नहीं करते क्योंकि जो बहुत सोच-विचार करता है, वह कहता है, यह मैं मान नही सकता कि शरीर के बाद बचूंगा। कौन बचेगा? यह सब शरीर का ही खेल है, आज है, कल समाप्त हो जाएगा। किसी ने कभी मरकर लौटकर कहा कि मैं बचा हूं? कभी किसी ने खबर की? ये सब यहीं की बातें हैं। मन को बहलाने के खयाल हैं।

बुद्ध ने आत्मा की भी बात नहीं कही। बुद्ध ने कहा यह भी जाने दो। क्योंकि ये बातें ऐसी हैं कि प्रमाण देने का तो कोई उपाय नहीं। तुम जब जानोगे, तभी जानोगे; उसके पहले जनाने की कोई सुविधा नहीं। और अगर तुम तर्कनिष्ठ हो, बहुत विचारशील हो, तो तुम मानने को राजी न होओगे। और बुद्ध कहते हैं, कोई ऐसी बात तुमसे कहना जिसे तुम इनकार करो, तुम्हारे मार्ग पर बाधा बन जाएगी। वह इनकार ही तुम्हारे लिए रोक लेगा। बुद्ध कहते हैं, यह भी जाने दो।

बुद्ध कहते हैं कि हम इतना ही कहते हैं कि जीवन में दुख है, इसे तो इनकार न करोगे? इसे तो इनकार करना मुश्किल है। जिसने थोड़ा भी सोचा-विचारा है, वह तो कभी इनकार नहीं कर सकता। इसे तो वही इनकार कर सकता है, जिसने सोचा-विचारा ही न हो। लेकिन जिसने सोचा-विचारा ही न हो वह भी कैसे इनकार करेगा, क्योंकि इनकार के लिए सोचना-विचारना जरूरी है। जिसके मन में जरा सी भी प्रतिभा है, थोड़ी सी भी किरण है, जिसने जीवन के संबंध में जरा सा भी चिंतन-मनन किया है, वह भी देख लेगा। अंधा भी देख लेगा। जड़ से जड़ बुद्धि को भी यह बात समझ में आ जाएगी, जीवन में दुख है। आंसुओ के सिवाय पाया भी क्या? इसे बुद्ध को सिद्ध न करना पड़ेगा, तुम्हारा जीवन ही सिद्ध कर रहा है। तुम्हारी कथा ही बता रही है। तुम्हारी भीगी आंखें कह रही हैं। तुम्हारे कंपते पैर कह रहे हैं। तो बुद्ध ने कहा, जीवन में दुख है। यह कोई आध्यात्मिक सत्य नहीं है, यह तो जीवन का तथ्य है। इसे कौन, कब इनकार कर पाया? और बुद्ध ने कहा, दुख है, तो अकारण तो कुछ भी नहीं होता, दुख के कारण होंगे। और बुद्ध ने कहा, दुख से तो मुक्त होना चाहते हो कि नहीं होना चाहते! ईश्वर को नहीं पाना चाहते, समझ में आता है। कुछ सिरफिरों को छोड़कर कौन ईश्वर को पाना चाहता है? कुछ पागलों को छोड़कर कौन आत्मा की फिक्र कर रहा है। समझदार आदमी ऐसे उपद्रवों में नहीं पड़ते। ऐसी झंझटें मोल नहीं लेते। जिंदगी की झंझटें काफी हैं। अब आत्मा और परमात्मा और मोक्ष, इन उलझनों में कौन पड़े?

बुद्ध ने ये बातें ही नहीं कहीं। तुम इनकार कर सको, ऐसी बात बुद्ध ने कही ही नहीं। इसका उन्होंने बड़ा संयम रखा। उन जैसा संयमी बोलने वाला नहीं हुआ है। उन्होंने एक शब्द न कहा जिसमें तुम कह सको, नहीं। उन्होंने तुम्हें नास्तिक होने की सुविधा न दी।

इसे थोड़ा समझना। लोगों ने बुद्ध को नास्तिक कहा है, और मैं तुमसे कहता हूं कि बुद्ध अकेले आदमी हैं पृथ्वी पर जिन्होंने तुम्हें नास्तिक होने की सुविधा नहीं दी। जिन्होंने तुमसे कहा ईश्वर है, उन्होंने तुम्हें इनकार करने को मजबूर करवा दिया। कहां है ईश्वर? जिन्होंने तुमसे कहा आत्मा है, उन्होंने तुम्हारे भीतर संदेह पैदा किया। बुद्ध ने वही कहा जिस पर तुम संदेह न कर सकोगे। बुद्ध ने आस्तिकता दी। न नहीं कहने की सुविधा छोड़ी, न का उपाय न रखा।

बुद्ध बड़े कुशल हैं। उनकी कुशलता को जब समझोगे तो चकित हो जाओगे, कि जिसको तुमने नास्तिक समझा है उससे बड़ा आस्तिक पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। और जितने लोगों को परमात्मा की तरफ बुद्ध ले गए, कोई भी नहीं ले जा सका। और परमात्मा की बात भी न की, हद की कुशलता है। चर्चा भी न चलाई। चर्चा तुम्हारी की, पहुंचाया परमात्मा तक। बात तुम्हारी उठाई, समझा-समझाया तुम्हें, सुलझाव में परमात्मा मिला। सुलझाया तुम्हें, सुलझाव में परमात्मा मिला। दुख काटा तुम्हारा, जो शेष बचा वही आनंद है। बंधन दिखाए, मोक्ष की बात न उठाई।

कारागृह में जो बंद है जन्मों-जन्मों से उससे मोक्ष की बात करके क्यों.. क्यों उसे शर्मिंदा करते हो? और जो कारागृह में बहुत दिनों तक बंद रह गया है, उसे मोक्ष का खयाल भी नहीं रहा। उसे अपने पंख भी भूल गए हैं। आज तुम उसे अचानक आकाश में छोड़ भी दो तो उड़ भी न सकेगा। क्योंकि उड़ने के लिए पहले उड़ने का भरोसा चाहिए। तड़फड़ाकर गिर जाएगा।

तुमने कभी देखा। तोते को बहुत दिन तक रख लो पिंजड़े में, फिर किसी दिन खुला द्वार पाकर भाग भी जाए, तो उड़ नहीं पाता। पंख वही हैं, उड़ने का भरोसा खो गया। हिम्मत खो गई। यह याद ही न रही कि हम भी कभी आकाश में उड़ते थे, कि हमने भी कभी पंख फैलाए थे, और हमने भी कभी दूर की यात्रा की थी। वह बातें सपना हो गयीं। आज पक्का नहीं रहा ऐसा हुआ था, कि सिर्फ सपने में देखा है। वह बातें अफवाह जैसी हो गयीं। और इतने दिन तक कारागृह में रहने के बाद कारागृह की आदत हो जाती है। तो तोता तो थोड़े ही दिन रहा है, तुम तो जन्मों-जन्मों रहे हो।

बुद्ध ने कहा, तुमसे मोक्ष की बात करके तुम्हें शर्मिंदा करें! तुमसे मोक्ष की बात करके तुम्हें इनकार करने को मजबूर करें!

क्योंकि ध्यान रखना, जो व्यक्ति बहुत दिन कारागृह में रह गया है वह यह कहना शुरू कर देता है कि कहीं कोई मुक्ति है ही नहीं। यह उसकी आत्मरक्षा है। वह यह कह रहा है कि अगर मोक्ष है तो फिर मैं यहां क्या कर रहा हूं मैं नपुंसक यहां क्यों पड़ा हूं? अगर मोक्ष है तो मैं मुका क्यों नहीं हुआ हूं? फिर सारी जिम्मेवारी अपने पर आ जाती है।

लोग ईश्वर को इसलिए थोड़े ही इनकार करते हैं कि ईश्वर नहीं है। या कि उन्हें पता है कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर को इनकार करते हैं, क्योंकि अगर ईश्वर है तो हम क्या कर रहे हैं! तो हमारा सारा जीवन व्यर्थ है। लोग मोक्ष को इसलिए इनकार करते हैं कि अगर मोक्ष है तो हम तो केवल अपने बंधनों का ही इंतजाम किए चले जा रहे हैं। तो हम मूढ़ हैं। अगर मोक्ष है, तो जिनको तुम सांसारिक रूप से समझदार कहते हो उनसे ज्यादा मूढ़ कोई भी नहीं।

तो आदमी को अपनी रक्षा तो करनी पड़ती है। सबसे अच्छी रक्षा का उपाय है कि तुम कह दो, कहो है आकाश? कहां है मोक्ष? हम भी उड़ना जानते हैं, मगर आकाश ही नहीं है। हम भी परमात्मा को पा लेते-कोई बुद्धों ने ही पाया ऐसा नहीं-हम कुछ कमजोर नहीं हैं, हममें भी बल है, हमने भी पा लिया होता, लेकिन हो तभी न? है ही नहीं। ऐसा कहकर तुम अपनी आत्मरक्षा कर लेते हो। तब तुम अपने कारागृह को घर समझ लेते हो।

जिस कारागृह में बहुत दिन रहे हो, उसे कारागृह कहने की हिम्मत भी जुटानी मूश्किल हो जाती है। क्योंकि फिर उसमें रहोगे कैसे? अगर ईश्वर है, तो संसार में बेचैनी हो जाएगी खड़ी। अगर मोक्ष है, तो तुम्हारा घर तुम्हें काटने लगेगा, कारागृह हो जाएगा। तुम्हारे राग, आसक्ति के संबंध जहर मालूम होने लगेंगे। उचित यही है कि तुम कह दो कि नहीं, न कोई मोक्ष है, न कोई परमात्मा है, यह सब जालसाजों की बकवास है। कुछ सिरफिरों की बातचीत है। या कुछ चालबाजों की अटकलबाजिया है। इस तरह तुम अपनी रक्षा कर लेते हो।

बुद्ध ने तुम्हें यह मौका न दिया। बुद्ध ने किसी को नास्तिक होने का मौका न दिया। बुद्ध के पास नास्तिक आए और आस्तिक हो गए। क्योंकि बुद्ध ने कहा, दुखी हो। इसको कौन इनकार करेगा? इसे तुम कैसे इनकार करोगे? यह तुम्हारे जीवन का सत्य है। और क्या तुम कहीं ऐसा आदमी पा सकते हो जो दुख से मुका न होना चाहता हो? मोक्ष न चाहता हो, लेकिन दुख से मुका तो सभी कोई होना चाहते हैं। , पीड़ा है, बुद्ध ने कहा, काटा छिदा है। बुद्ध ने कहा, मैं चिकित्सक हूं, मैं कोई दार्शनिक नहीं। लाओ मैं तुम्हारा काटा निकाल दूं। कैसे इनकार करोगे इस आदमी को? यह शिक्षक की घोषणा ही नहीं कर रहा है कि मैं शिक्षक हूं, या गुरु हूं। यह तो इतना ही कह रहा है, सिर्फ एक चिकित्सक हूं।

और इस आदमी को देखकर लोगों को भरोसा आया। क्योंकि इस आदमी के जीवन में दुख का कोई काटा नहीं है। इस आदमी के जीवन में ऐसी परमशांति है, ऐसी विश्रांति है-सब लहरें खो गई हैं पीड़ा की, एक अपूर्व उत्सव नित-नूतन, प्रतिपल नया, अभी-अभी ताजा और जन्मा इस आदमी के पास अनुभव होता है। इस आदमी के पास एक हवा है, जिस हवा में आकर यह दो बातें कर रहा है – अपनी हवा से खबर दे रहा है कि आनंद संभव है, और तुम्हारे दुख की तरफ इशारा कर रहा है कि तुम दुखी हो। दुख के कारण हैं। दुख के कारण को मिटाने का उपाय है।

तो बुद्ध का सारा चिंतन दुख पर खड़ा है। दुख है, क्यू के कारण हैं, दुख के कारण को मिटाने के साधन हैं, और दुख से मुक्त होने की संभावना है। इस संभावना के वे स्वयं प्रतीक हैं। जिस स्वास्थ्य को वे तुम्हारे भीतर लाना चाहते हैं, उस स्वास्थ्य को वे तुम्हारे सामने मौजूद खड़ा किए हैं। तुम बुद्ध से यह न कह सकोगे कि चिकित्सक, पहले अपनी चिकित्सा कर। बुद्ध को देखते ही यह तो सवाल ही न उठेगा। और तुम बुद्ध से यह भी न कह सकोगे कि मैं दुखी नहीं हूं। किस मुंह से कहोगे? और कहकर तुम क्या पाओगे? सिर्फ गवांओगे।

इसलिए बुद्ध ने तुम्हें देखकर व्यवस्था दी। और बुद्ध यह जानते हैं कि जिस दिन तुम्हारा दुख न होगा, जिस दिन तुम्हारी पीड़ा गिर जाएगी, तुम्हारी आंख के अंधकार का पर्दा कटेगा, तुम जागोगे, उस दिन तुम देख लोगे-मोक्ष है। जो दिखाया जा सकता हो, और जो दिखाने के अतिरिक्त और किसी तरह समझाया न जा सकता हो, उसे दिखाना ही चाहिए। उसकी बात करनी खतरनाक है। क्योंकि अक्सर लोग बातों में खो जाते हैं।

कितने लोग बात के ही धार्मिक हैं। बातचीत ही करते रहते हैं। ईश्वर चर्चा का एक विषय है। अनुभव का एक आयाम नहीं, जीवन को बदलने की एक आग नहीं, सिद्धातों की राख है। शास्त्रों में लोग उलझे रहते हैं, बाल की खाल निकालते रहते हैं, उससे भी अहंकार को बड़ा रस आता है। बुद्ध ने शास्त्रों को इनकार कर दिया। बुद्ध ने कहा, यह पीछे तुम खोज कर लेना। अभी तो उठो, अभी तो अपने जीवन के दुख को काट लो। बुद्ध ने यह कहा हफीज के शब्दों में-

उठो सनमकदे वालो तलाश लाजिम है

इधर ही लौट पड़ेंगे अगर खुदा न मिला

उठो मंदिरों वालो, जो तुम बैठ गए हो मंदिरों और मस्जिदों में, सनमकदे वालों! तलाश लाजिम है।

इधर ही लौट पड़ेंगे अगर खुदा न मिला

थोड़ा दुख को मिटाने की कोशिश कर लो। अगर न मिटा, तो यह दुख तो है ही, फिर लौट पड़ेंगे। थोड़ा कारागृह के बाहर आओ, घबड़ाओ मत, अगर खुला आकाश न मिला, इधर ही लौट पड़ेंगे।

बुद्ध ने जिज्ञासा दी, आस्था नहीं। बुद्ध ने इंक्वायरी दी, अन्वेषण दिया, आस्था नहीं। बुद्ध ने इतना ही कहा, ऐसे मत बैठे रहो। ऐसे बैठे तो कुछ न होगा। बैठे-बैठे तो कुछ न होगा। खोज लाजिम है। तुम दुखी हो, क्योंकि तुमने जीवन की सारी संभावनाएं नहीं खोजी। तुम दुखी हो, क्योंकि तुमने जन्म के साथ ही समझ लिया कि जीवन मिल गया। जन्म के साथ तो केवल संभावना मिलती है जीवन की, जीवन नहीं मिलता। बम के बाद जीवन खोजना पड़ता है। जो खोजता है उसे मिलता है। और जन्म के बाद जो बैठा-बैठा सोचता है कि मिल गया जीवन, यही जीवन है, पैदा हो गए यही जीवन है, वह चूक जाता है।

तो बुद्ध ने यह नहीं कहा कि मैं तुमसे कहता हूं कि यह मोक्ष, यह स्वातंत्रय, यह आकाश, यह परमात्मा मिल ही जाएगा; यह मैं तुमसे नहीं कहता। मैं इतना ही कहता हूं–

उठो सनमकदे वालो तलाश लाजिम है

खोज जरूरी है।

इधर ही लौट पड़ेंगे अगर खुद न मिला

और घबड़ाहट क्या है? यह घर तो फिर भी रहेगा। तुम्हारे मन की धारणाओं में फिर लौट आना, अगर निर्धारणा का कोई आकाश न मिले। लौट आना विचारों में, अगर ध्यान की कोई झलक न मिले। अगर शात होने की कोई सुविधा-सुराग न मिले, फिर अशात हो जाना। कौन सी अड़चन है? अशात होकर बहुत दिन देख लिया है। अशांति से कोई शाति तो मिली नहीं। बुद्ध कहते हैं, मैं भी तुम्हें एक झरोखे की खबर देता हूं, थोड़ा इधर भी झांक लो-तलाश लाजिम है।

बुद्ध ने खोज दी, श्रद्धा नहीं। इसे थोड़ा समझो। बुद्ध ने तुम्हें तुम्हारे जीवन पर संदेह दिया, परमात्मा के जीवन पर श्रद्धा नहीं। यह दोनों एक ही बात हैं। अपने पर संदेह हो जाए, तो परमात्मा पर श्रद्धा आ ही जाती है। परमात्मा पर श्रद्धा आ जाए, तो अपने पर संदेह हो ही जाता है। तुम्हें अगर अपने अहंकार पर बहुत भरोसा है, तो परमात्मा पर श्रद्धा न होगी। तुम अगर अपने को बहुत समझदार समझ बैठे हो, तो फिर तुम्हें किसी मोक्ष, किसी आत्मा में भरोसा नहीं आ सकता। तुमने फिर अपने ज्ञान को आखिरी सीमा समझ ली। फिर विस्तार की जगह और सुविधा न रही। और ज्यादा जानने को तुम मान ही नहीं सकते, क्योंकि तुम यह नहीं मान सकते कि ऐसा भी कुछ है जो तुम नहीं जानते हो। जिसने अपने पर ऐसा अंधा भरोसा कर लिया, वही तो परमात्मा पर भरोसा नहीं कर पाता। जिसने इस तथाकथित जीवन को जीवन समझ लिया, वही तो महाजीवन की तरफ जाने में असमर्थ हो जाता है, पंगु हो जाता है।

तो दो उपाय हैं। बुद्ध को छोड़कर बाकी बुद्धपुरुषों ने परमात्मा की तरफ श्रद्धा जगाई। बुद्ध ने तुम्हारे जीवन के प्रति संदेह जगाया। बात वही है। किसी ने कहा गिलास आधा भरा है। किसी ने कहा गिलास आधा खाली है।

बुद्ध ने कहा गिलास आधा खाली है। क्योंकि तुम खाली हो, भरे को तुम अभी समझ न पाओगे। और आधा गिलास खाली है यह समझ में आ जाए, तो जल्दी ही तुम आधा भरा गिलास है उसके करीब पहुंचने लगोगे। तुमसे यह कहना कि आधा गिलास भरा है, गलत होगा, क्योंकि तुम खाली में जी रहे हो। नकार का तुम्हें पता है, रिक्तता का तुम्हें पता है, पूर्णता का तुम्हें कोई पता नहीं। इसलिए बुद्ध ने शून्य को अपना शास्त्र बना लिया।

बुद्ध ने तुम्हें देखा, तुम्हारी बीमारी को देखा, तुम्हारी नब्ज पर निदान किया। इसलिए बुद्ध से ज्यादा प्रभावी कोई भी नहीं हो सकता। क्योंकि मनुष्य के मन में बुद्ध को समझने में कोई अड़चन न आई।

बुद्ध बहुत सीधे-साफ हैं। ऐसा नहीं कि जिंदगी में जटिलता नहीं है, जिंदगी बड़ी जटिल है। लेकिन बुद्ध बड़े सीधे-साफ हैं। ऐसा समझो कि अगर तुम कबीर से पूछो, या महावीर से पूछो, या कृष्ण से पूछो, तो वे बात वहां की करते हैं-इतने दूर की, कि तुम्हारी आंखों में पास ही नहीं दिखाई पड़ता, उतना दूर तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगा! तो एक ही उपाय है, या तो तुम इनकार कर दो, जो कि ज्यादा ईमानदार है। इसलिए नास्तिक ज्यादा ईमानदार होते हैं बजाय आस्तिकों के। और या तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन तुम स्वीकार कर लो, क्योंकि जब महावीर को दिखाई पड़ता है, तो होगा ही। तो तुम भी ही में ही भरने लगो। और तुम कहो कि ही, मुझे भी दिखाई पड़ रहा है।

इसलिए जिनको तुम आस्तिक कहते हो, वे बेईमान होते हैं। नास्तिक कम से कम सचाई तो स्वीकार करता है, कि मुझे नहीं दिखाई पड़ रहा है। हालांकि वह कहता गलत ढंग से है। वह कहता है, ईश्वर नहीं है। उसे कहना चाहिए, मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा। क्योंकि तुम्हें दिखाई न पड़ता हो इसलिए जरूरी नहीं है कि न हो। बहुत सी चीजें तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती हैं, और हैं। बहुत सी चीजें आज नहीं दिखाई पड़ती, कल दिखाई पड़ जाएंगी। और बहुत सी चीजें दिखाई आज पड़ सकती हैं, लेकिन तुम्हारी आंख बंद है।

नास्तिक के कहने में गलती हो सकती है, लेकिन ईमानदारी में चूक नहीं है। नास्तिक यही कहना चाहता है कि मुझे दिखाई नही पड़ता। लेकिन वह कहता है नहीं, ईश्वर नहीं है। उसके कहने का ढंग अलग है। बात वह सही ही कहना चाहता है। आस्तिक बड़ी झूठी अवस्था में जीता है। आस्तिक को दिखाई नहीं पड़ता, वह यह भी नहीं कहता कि मुझे दिखाई नहीं पड़ता। वह यह भी नहीं कहता कि ईश्वर नहीं है। जो नहीं दिखाई पड़ता उसे स्वीकार कर लेता है, किसी और के भरोसे पर। और तब यात्रा बंद हो जाती है। क्योंकि जो तुमने जाना नहीं और मान लिया, तुम उसे खोजोगे क्यों?

इसलिए बुद्ध ने कहा, तलाश लाजिम है। खोज जरूरी है। ईश्वर है या नहीं, यह फिक्र छोड़ो। लेकिन ऐसे बैठे-बैठे जीवन का ढंग दुखपूर्ण है। निराशा से भरा है, मूर्च्छित है। जागो। और बुद्ध ने करोड़ों-करोड़ों लोगों को परमात्मा तक पहुंचा दिया।

इसलिए मैं कहता हूं इस सदी में बुद्ध की भाषा बड़ी समसामयिक है। कटेंप्रेरी है। क्योंकि यह सदी बड़ी ईमानदार सदी है। इतनी ईमानदार सदी पहले कभी हुई नहीं। तुम्हें यह सुनकर थोड़ी परेशानी होगी, तुम थोड़ा चौंकोगे। क्योंकि तुम कहोगे, यह सदी और ईमानदार! सब तरह के बेईमान दिखाई पड़ रहे हैं। लेकिन मैं तुमसे फिर कहता हूं कि इस सदी से ज्यादा ईमानदार सदी कभी नहीं हुई। आदमी अब वही मानेगा, जो जानेगा।

अब तुम यह न कह सकोगे कि हमारे कहे से मान लो। अब तुम यह न कह सकोगे कि हम बुजुर्ग हैं, और हम बड़े अनुभवी हैं, और हमने बाल ऐसे धूप में नहीं पकाए हैं, हम कहते हैं इसलिए मान लो। अब तुम्हारी इस तरह की बातें कोई भी न मानेगा। अब तो लोग कहते हैं नगद स्वीकार करेंगे, उधार नहीं। अब तो हम जानेंगे तभी स्वीकार करेंगे। ठीक है, तुमने जान लिया होगा। लेकिन तुम्हारा जानना तुम्हारा है, हमारा नहीं। हम भटकेंगे अंधेरे में भला, लेकिन हम उस प्रकाश को न मानेंगे जो हमने देखा नहीं।

इसलिए मैं कहता हूं यह सदी बड़ी ईमानदार है। ईमानदार होने के कारण नास्तिक है, अधार्मिक है। पुरानी सदियां बेईमान थीं। लोग उन मंदिरों में झुके, जिनका उन्हें कोई अनुभव न था। उनका झुकना औपचारिक रहा होगा। सर झुक गया होगा, हृदय न झुका होगा। और असली सवाल वही है कि हृदय झुके। वे ईश्वर को मानकर झुक गए होंगे। लेकिन जिस ईश्वर को जाना नहीं है उसके सामने झुकोगे कैसे? कवायद हो जाएगी, शरीर झुक जाएगा, तुम कैसे झुकोगे? उन्होंने उस झुकने में से भी अकड़ निकाल ली होगी। वे और अहंकारी होकर घर आ गए होंगे, कि मैं रोज पूजा करता हूं? प्रार्थना करता हूं रोज माला फेरता हूं।

माला फेरने वालों को तुम जानते ही हो। उन जैसे अहंकारी तुम कहीं न पाओगे। उनका अहंकार बड़ा धार्मिक अहंकार है। उनके अहंकार पर राम-नाम की चदरिया है। उनका अहंकार बड़ा पवित्र मालूम होता है, शुद्ध, नहाया हुआ। पर है तो अहंकार ही। और जहर जितना शुद्ध होता है उतना ही खतरनाक हो जाता है।

नहीं, इस सदी ने साफ कर लिया है कि अब हम वही मानेंगे जो हम जानते हैं। ‘यह सदी विज्ञान की है। तथ्य स्वीकार किए जाते हैं, सिद्धात नहीं। और तथ्य भी अंधी आंखों से स्वीकार नहीं किए जाते हैं। सब तरफ से खोजबीन कर ली जाती है, जब असिद्ध करने का कोई उपाय नहीं रह जाता, तभी कोई चीज स्वीकार की जाती है।

इसलिए ऐसा घटता है-बर्ट्रेड रसल जैसा व्यक्ति जो नास्तिक है, इसलिए जीसस को श्रद्धा नहीं दे सकता, हालांकि ईसाई घर में पैदा हुआ है, सारे संस्कार ईसाई के हैं। लेकिन बर्ट्रेड रसल ने एक किताब लिखी है-व्हाय आई एम नाट ए क्रिश्चियन-मैं ईसाई क्यों नहीं हूं? ईसा पर बड़े शक उठाए हैं।

शक उठाए जा सकते हैं। क्योंकि ईसा की व्यवस्था में कोई तर्क नहीं है। ईसा कवि हैं। कहानियां कहने में कुशल हैं। विरोधाभासी हैं। उनके शब्द पहेलियां हैं। ही, जो खोज करेगा वह उन पहेलियों के आखिरी राज को खोल लेगा। लेकिन वह तो बड़ी खोज की बात है। और उस खोज में जीवन लग जाते हैं। लेकिन जो पहेली को सीधा-सीधा देखेगा, वह इनकार कर देगा।

रसल ने जीसस को इनकार कर दिया। लेकिन रसल ने कहा कि मैं नास्तिक हूं, मगर बुद्ध को इनकार नहीं कर सकता। बुद्ध को इनकार कैसे करोगे? यही तो मैं कह रहा हूं! रसल के मन में भी बुद्ध के प्रति वैसी ही श्रद्धा है, जैसी किसी भक्त के मन में हो। इनकार करने की जगह नहीं छोड़ी इस आदमी ने। इस आदमी ने ऐसी बात ही नहीं कही जो तर्क की कसौटी पर खरी न उतरती हो।

बुद्ध वैज्ञानिक द्रष्टा हैं। बुद्ध को इस भांति समझोगे तो तुम्हारे लिए बड़े कारगर हो सकते हैं। हालांकि ध्यान रखना, जैसे-जैसे गहरे उतरोगे पानी में, जैसे-जैसे बुद्ध के फुसलावे में आ जाओगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि जितना तर्क पहले दिखाई पड़ता था वह पीछे नहीं है। मगर तब कौन चिंता करता है, अपना ही अनुभव शुरू हो जाता है। फिर कौन प्रमाण मांगता है? प्रमाण तो हम तभी मांगते हैं, जब अपना अनुभव नहीं होता। जब अपना ही अनुभव हो जाता है…।

मैं तुम्हें तर्क देता हूं और तर्क से इतना ही तुम्हें राजी कर लेता हूं कि तुम मेरी खिड़की पर आकर खड़े हो जाओ, बस। फिर तो खिड़की से खुला आकाश तुम्हीं को दिखाई पड़ जाता है। फिर तुम मुझसे नहीं पूछते कि आप प्रमाण दें आकाश के होने का। अब प्रमाण देने का प्रश्न ही नहीं उठता है-न तुम मलते हो, न मैं देता हूं।

और तुम मुझे धन्यवाद भी दोगे कि भला किया कि पहले मुझे तर्क से समझाकर खिड़की तक ले आए। क्योंकि अगर तर्क से न समझाया होता तो मैं खिड़की तक आने को भी राजी नहीं होता। मैं एक कदम न चलता। अगर तुमने पहले ही इस आकाश की बात की होती जो मेरे लिए अनजाना है, अपरिचित है, तो मैं हिला ही न होता अपनी जगह से। तुमने भला किया आकाश की बात न की, खिड़की की बात की; असीम की बात न की, सीमा की बात की। तुमने भला किया आनंद की बात न की, दुख-निरोध की बात की। तुमने भला किया ध्यान की बात न की, विचार से मुक्त होने की बात की। तुमने भला किया श्रद्धा न मांगी, वह मैं दे न सकता, तुमने मेरे संदेह का ही उपयोग कर लिया। तुमने काटे से काटा निकाल दिया। भला किया।

इसलिए बुद्ध के प्रति कृतज्ञता अनुभव होगी। यद्यपि बुद्ध ने तुम्हें धोखा दिया। जीसस तुम्हें इतना धोखा नहीं दे रहे हैं। वे बात वही कह रहे हैं जो है। जैसा आखिर में तुम पाओगे, जीसस ने पहले ही कह दिया।

बुद्ध कुछ और कह रहे हैं। तुम्हें देखकर कह रहे हैं। जैसा नहीं है वैसा कह रहे हैं। लेकिन तुम अनुगृहीत अनुभव करोगे कि कृपा की, करुणा की कि इतना धोखा दिया; अन्यथा मैं खिड़की पर न आता।

तुम चकित होओगे अगर मैं तुमसे कहूं? झेन फकीरों ने कहा भी है, झेन फकीर लिंची ने कहा है, बुद्ध से ज्यादा झूठ बोलने वाला आदमी नहीं हुआ। लिंची रोज पूजा करता है बुद्ध की, सुबह से फूल चढ़ाता है, आंसू बहाता है, लेकिन कहता है, बुद्ध से झूठ बोलने वाला आदमी नहीं। लिंची ने एक बार अपने शिष्यों से कहा कि ये बुद्ध के शास्त्रों को आग लगा दो, ये सब सरासर झूठ हैं। किसी ने पूछा, लेकिन तुम रोज आंसू बहाते हो, रोज सुबह फूल चढ़ाते हो, और हमने तुम्हें घंटों बुद्ध की प्रतिमा के सामने भाव-विभोर देखा है। इन दोनों को हम कैसे जोड़े? ये दोनों बातें बड़ी असंगत हैं। लिंची ने कहा, उनकी करुणा के कारण वे झूठ बोले। उनके झूठ के कारण मैं वहा तक पहुंचा जहा सच का दर्शन हुआ। बुद्ध अगर सच ही बोलते तो मैं पहुंच न पाता।

सभी ज्ञानी बहुत उपाय करते हैं तुम्हें पहुंचाने के। वे सभी उपाय सही नहीं है। जैसे तुम घर में बैठे हो, तुम कभी बाहर नहीं गए, मैंने बाहर जाकर देखा कि बड़े फूल खिले हैं, पक्षियों के अनूठे गीतों का राज्य है, सूरज निकला है, खुला मुक्‍त। असीम आकाश है, सब तरफ रोशनी है, और तुम अंधेरे में दबे बैठे हो, और सर्दी में ठिठुर रहे हो; लेकिन तुम कभी बाहर नहीं गए, अब मैं तुम्हें कैसे बाहर ले जाऊं? तुमसे कैसे कहूं? तुम्हें कैसे खबर दूं बाहर के सूरज की? क्योंकि तुम्हारी भाषा में सूरज के लिए कोई पर्यायवाची नहीं है। तुम्हें कैसे बताऊं फूलों के बाबत? क्योंकि तुम्हारी भाषा में फूलों के लिए कोई शब्द नहीं है। रंग तुमने जाने ही नहीं, रंगों का उत्सव तुम कैसे सुनोगे-समझोगे? तुमने सिर्फ दीवाल देखी है। उस दीवाल को तुमने अपनी जिंदगी समझी है। तुमसे कैसे कहूं कि ऐसा भी आकाश है, जिसकी कोई सीमा नहीं? तुम कहोगे, हो चुकी बातें, लनतरानी है।

तुमने कहानी सुनी है कि एक मेंढक सागर से आ गया था और एक कुएं में उतर गया था। कुएं के मेंढक ने पूछा, मित्र कहां से आते हो? उसने कहा, सागर से आता हूं। कुएं के मित्र ने पूछा, सागर कितना बड़ा है? क्योंकि उस कुएं के मेंढक ने कुएं से बडी कोई चीज कभी देखी न थी। उसी में पैदा हुआ था, उसी में बड़ा हुआ था। कभी कुएं की दीवालों को पार करके बाहर गया भी न था। दीवालें बड़ी भी थीं। और पार इससे बड़ा कुछ हो भी सकता है, इसे मानने का कोई कारण भी न था। कभी बाहर से भी कोई मेंढक न आया था, जिसने खबर दी हो। सागर के मेंढक ने कहा, बहुत बड़ा है। लेकिन बहुत से कहीं पता चलता है! कुएं के मेंढक को बहुत बड़े का क्या मतलब? कुएं का मेंढक! आधे कुएं में छलांग लगाई उसने और कहा, इतना बड़ा। आधा कुआं, इतना बड़ा। उसने कहा कि नहीं-नहीं, बहुत बड़ा है। तो उसने पूरी छलांग लगाई। कहा, इतना बड़ा? लेकिन अब उसे संदेह पैदा होने लगा 1 सागर के मेंढक ने कहा, भाई! बहुत बड़ा है।

उसे भरोसा तो नहीं आया। लेकिन फिर भी उसने एक और आखिरी कोशिश की। उसने पूरा चक्कर कुएं का दौड़कर लगाया। कहा, इतना बड़ा? सागर के मेंढक ने कहा, मैं तुमसे कैसे कहूं? बहुत बड़ा है। इस कुएं से उसका कोई पैमाना नहीं। उसका कोई नाप-जोख नहीं हो सकता। तो कुएं के मेंढक ने कहा, झूठ की भी एक सीमा होती है। किसी और को धोखा देना। हम ऐसे नासमझ नहीं हैं। तुम किसको मूढ़ बनाने चले हो? अपनी राह लो। इस कुएं से बड़ी चीज न कभी सुनी गई, न देखी गई। अपने मां-बाप से, अपने पुरखों से भी मैंने इससे बड़ी चीज की कोई बात नहीं सुनी। वे तो बड़े अनुभवी थे, मैं नया हो सकता हूं। हम दर-पीढ़ी इस कुएं में रहे हैं।

अगर मैं तुमसे बाहर की बात आकर कहूं तुम्हारे अंधकार-कक्ष में, तुम भरोसा न करोगे। इसीलिए तो नास्तिकता पैदा होती है। जब भी कोई परमात्मा में जाकर लौटता है, और तुम्हें खबर देता है, और वह इतना लड़खड़ा गया होता है अनुभव से-वह इतना अवाक और आश्चर्यचकित होकर लौटता है कि उसकी भाषा के पैर डगमगा जाते हैं। अनुभव इतना बड़ा और शब्द इतने छोटे, शब्दों में अनुभव समाता नहीं। वह बोलता है, और बोलने की व्यर्थता दिखाई पड़ती है। वह हिचकिचाता है। वह कहता भी है, और कहते डरता भी है, कि जो भी कहेगा गलत होगा, और जो भी कहेगा वह सत्य के अनुकूल न होगा। क्योंकि भाषा तुम्हारी, अनुभव बाहर का। भाषा दीवालों की, अनुभव असीम का।

तो मैं क्या करूं तुम्हारे कमरे में आकर? लिंची ठीक कहता है, बुद्ध झूठ बोले। बुद्ध ने चर्चा नहीं की फूलों की, बुद्ध ने चर्चा नहीं की पक्षियों के गीत की, बुद्ध ने चर्चा नहीं की झरनों के कलकल नाद की; बुद्ध ने सूरज की रोशनी की और किरणों के विराट जाल की कोई बात नहीं की। नहीं कि उनको पता नहीं था। उनसे ज्यादा किसको पता था? उन्होंने बात कुछ और की। उन्होंने बात की तुम्हारी दीवालों की, उन्होंने बात की तुम्हारे अंधकार की, उन्होंने बात की तुम्हारी पीड़ा की, तुम्हारे दुख की; उन्होंने पहचाना कि तुम्हें बाहर ले जाने का क्या उपाय हो सकता है।

बाहर के दृश्य तुम्हें आकर्षित न कर सकेंगे। क्योंकि आकर्षण तभी होता है जब थोड़ा अनुभव हो। थोड़ा भी स्वाद लग जाए मिठास का, तो फिर तुम मिठाई के लिए आतुर हो जाते हो। लेकिन नमक ही नमक जीवन में जाना हो, कड़वाहट ही कड़वाहट भोगी हो, मिठास का सपना भी न आया हो कभी, क्योंकि सपना भी उसी का आता है जिसका जीवन में थोड़ा अनुभव हो, सपने भी जीवन का ही प्रतिफलन होते हैं!

तो बुद्ध ने तुमसे क्या कहा? बुद्ध ने कहा कि भागो, इस मकान में आग लगी है। आग लगी न थी। लिंची ठीक कहता है, बुद्ध झूठ बोले।

मगर लिंची रोज उनको धन्यवाद भी देता है कि तुम्हारी अनुकंपा कि तुम झूठ बोले, नहीं तो मैं भागता ही न। घर में आग लगी है! बुद्ध ने तुम्हें भयभीत कर दिया। तुम्हारे दुख के चित्र उभारे, तुम्हारे छुपे दुख को बाहर निकला। तुमने जो दबा रखा है अपने भीतर अंधकार, उसको प्रगट किया। तुम्हारे दुख को इतना उभारा कि तुम घबड़ा गए, तुम भयभीत हो गए। और जब बुद्ध ने कहा, इस घर में आग लगी है, तो तुम घबड़ाहट में भाग खड़े हुए। तुम भूल ही गए इनकार करना कि बाहर तो है ही नहीं, जाएं कहा? जब घर में आग लगी हो तो कौन सोच-विचार की स्थिति में रह जाता है? भाग खड़े हुए।

अमरीका में एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था। एक सिनेमागृह में जब लोग आधा घंटा तक पिक्‍चर देखने में तल्लीन हो चुके थे अचानक एक आदमी जोर से चिल्लाया-आग! आग!! उस आदमी को बिठा रखा था एक मनोवैज्ञानिक ने। भगदड़ शुरू हो गई। मैनेजर चिल्ला रहा है कि कहीं कोई आग नहीं है, लेकिन कोई सुनने को राजी नहीं। जब एक दफा भय पकड़ ले!

लोगों ने दरवाजे तोड़ डाले, कुर्सियां तोड़ डालीं, भीड़-भड़क्कम हो गई। एक-दूसरे के ऊपर भाग खड़े हुए। बच्चे गिर गए, दब गए। बामुश्किल कब्जा पाया जा सका। जब लोग बाहर आ गए, तभी उनको भरोसा आया कि किसी ने मजाक कर दी। लेकिन एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था कि लोग शब्दों से कितने प्रभावित हो जाते हैं। आग! बस काफी है। फिर तुम यह भी नहीं देखते कि आग है भी, या नहीं।

बुद्ध ने तुम्हारे दुख को उभारा। बुद्ध चिल्लाए, आग! तुम भाग खड़े हुए। उसी ‘भागदौड़ में तुममें से कुछ बाहर निकल गए। लिंची उन्हीं में से है, जो बाहर निकल गया। अब वह कहता है, खूब झूठ बोले! कहीं आग न लगी थी। कहीं धुआ भी न था, आग तो दूर। मगर उसी भय में बाहर आ गए। इसलिए चरणों में सिर रखता है न तुम चिल्लाते, न हम बाहर आते।

मैं भी तुमसे न मालूम कितने-कितने ढंग के झूठ बोले जाता हूं। जानता हूं सौभाग्यशाली होंगे तुममें वे, जो किसी दिन उन झूठों को पहचान लेंगे। लेकिन वे तुम तभी पहचान पाओगे जब तुम बाहर निकल चुके होओगे। तब तुम नाराज न होओगे। तुम अनुगृहीत होओगे।

बुद्ध ने तुम्हारी भाषा बोली। तुम्हें जगाना है, तुम्हारी भाषा बोलनी ही जरूरी है। बुद्ध अपनी भाषा तुमसे नहीं बोले। ही, बुद्ध के पास कोई बुद्धपुरुष होता तो उससे वे अपनी भाषा बोलते।

एक सुबह वे फूल लेकर आए हैं। ऐसा कभी न हुआ था। कभी वे कुछ लेकर न आए थे। और वे बैठ गए हैं बोलने के लिए, भीड़ सुनने को आतुर है। और वे फूल को देखे चले जाते हैं। धीरे-धीरे भीड़ बेचैन होने लगी, क्योंकि लोग सुनने को आए थे, और बुद्ध उस दिन दिखा रहे थे। जो लोग सुनने को आए हैं वे देखने को राजी नहीं होते।

यह बड़े मजे की बात है। तुम अगर हीरे की बाबत सुनने आए हो, और मैं हीरा लेकर भी बैठ जाऊं तो भी तुम बेचैन हो जाओगे। क्योंकि तुम सुनने आए थे। तुम कानों का भरोसा करने आए थे। मैंने तुम्हारी आंखों को पुकारा, तुम्हारी आंखें बंद हैं। हीरे की बात करूं, तुम सुन लोगे। हीरा दिखाऊं, तुम्हें दिखाई ही न पड़ेगा। बुद्ध फूल लिए बैठे रहे। उस दिन बुद्ध ने एक परम उपदेश दिया, जैसा उन्होंने कभी न दिया था। उस दिन बुद्ध ने अपना बुद्धत्व सामने रख दिया। मगर देखने वाला चाहिए। सुनने वाले थे। आंख के अंधे थे, कान के कुशल थे।

तुम्हारे सब शास्त्र कान से आए है। सत्य आंख से आता है। सत्य प्रत्यक्ष है। सुनी हुई बात नहीं। सत्य कोई श्रुति नहीं है, न कोई स्मृति है। सत्य दर्शन है।

उस दिन बुद्ध बैठे रहे। लोग परेशान होने लगे। बुद्धत्व सामने हो, लोग परेशान होने लगे! अंधे रहे होंगे। घड़ी पर घड़ी बीतने लगी। और लोग सोचने लगे होंगे अब घर जाने की, कि यह मामला क्या है? और कोई कह भी न सका। बुद्ध से कहो भी क्या, कि आप यह क्या कर रहे हैं? बैठे क्यों हैं? बोलो कुछ। बोलो तो हम सुनें। शब्दों तब हमारी पहुंच है। किसी को यह न दिखाई पड़ा कि यह आदमी क्या दिखा रहा है।

फूल को बुद्ध देखते रहे। परमशून्य। एक विचार की तरंग भीतर नहीं। मौजूद, और मौजूद नहीं। उपस्थित और अनुपस्थित। विचार का कण भी नहीं। परम ध्यान की अवस्था। समाधि साकार। और हाथ में खिला फूल। प्रतीक पूरा था। ऐसी ( समाधि साकार हो, तो ऐसा जीवन का फूल खिल जाता है। कुछ और कहने को न था। अब और कहने को बचता भी क्या है? पर आंख के अंधे!

तुम्हीं सोचो। आज मैं बोलता न और फूल लेकर आकर बैठ गया होता! तुम इधर-उधर देखने लगते। तुम लक्ष्मी की तरफ देखते कि मामला क्या है? दिमाग खराब हो गया? तुम उठने की तैयारी करने लगते। तुम एक-दूसरे की तरफ देखते कि अब क्या करना है?

जब ऐसी बेचैनी की लहर सब तरफ फैलने लगी-उतने चैन के सामने भी लोग बेचैन हो गए, उतनी शाति के सामने भी लोग अशात हो गए-तब एक बुद्ध का शिष्य महाकाश्यप.. इसके पहले उसका नाम भी किसी ने न सुना था। क्योंकि आंख वालों का अंधों से मेल नहीं होता। इसका नाम भी पहले किसी ने नहीं सुना था, यह पहले मौके पर इसका नाम पता चला। जब लोगों को इतना बेचैन देखा तो वह खिलखिलाकर हंसने लगा। उस सन्नाटे में उसकी खिलखिलाहट ने और लोगों को चौंका दिया कि यहां एक ही पागल नहीं है-यह बुद्ध तो, दिमाग खराब मालूम होता है, एक यह भी आदमी पागल है। यह कोई हंसने का वक्त है? यह बुद्ध को क्या हो गया है? और यह महाकाश्यप क्यों हंसता है?

और बुद्ध ने आंख उठाई और महाकाश्यप को इशारा किया, और फूल उसे भेंट कर दिया। और भीड़ से यह कहा, जो मैं शब्दों से तुम्हें दे सकता था, तुम्हें दिया। जो शब्दों से नहीं दिया जा सकता, वह महाकाश्यप को देता हूं। एक यही समझ पाया। तुम सुनने वाले थे, यह एक देखने वाला था।

यही कथा झेन के जन्म की कथा है। झेन शब्द आता है ध्यान से। जापान में झेन हो गया, चीन में चान हो गया, लेकिन मूलरूप है ध्यान। बुद्ध ने उस दिन ध्यान दे दिया। झेन फकीर कहते हैं-ट्रांसमिशन आउटसाइड स्‍क्रिप्चर्स। शास्त्रों के बाहर दान। शास्त्रों से नहीं दिया, उस दिन शब्द से नहीं दिया। महाकाश्यप को सीधा-सीधा दे दिया। शब्द में डालकर न दिया। जैसे जलता हुआ अंगारा बिना राख के दे दिया। महाकाश्यप चुप ही रहा। चुप्पी में बात कह दी गई। जो बुद्ध ने कहा था, कि मुट्ठी भर सूखे पत्ते, ऐसा ही मैंने तुमसे जो कहा है, वह इतना ही है। और जो कहने को है, वह इतना है जितना इस विराट जंगल में सूखे पत्तों के ढेर।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं र उस दिन उस फूल में पूरा जंगल दे दिया। उस दिन कुछ बचाया नहीं। उस दिन सब दे दिया। उस दिन बुद्ध उडेल गए। उस दिन महाकाश्यप का पात्र पूरा भर गया। तब से झेन में यह व्यवस्था रही है कि गुरु उसी को अपना अधिकारी नियुक्त करता है, जो मौन में लेने को राजी हो जाता है। जो शब्द की जिद करता है, वह सुनता है, ठीक है। साधता है, ठीक है। लेकिन वह खोजता उसे है अपने उत्तराधिकारी की तरह, जो शून्य में और मौन में लेने को राजी हो जाता है। जैसे बुद्ध ने उस दिन महाकाश्यप को फूल दिया। ऐसे ही शून्य में, ऐसे ही मौन में।

तो ऐसा नहीं है कि बुद्ध ने जो कहा है वही सब है। वह तो शुरुआत है, वह तो बारहखड़ी है। उसका सहारा लेकर आगे बढ़ जाना। वह तो ऐसा ही है जैसे हम स्कूल में बच्चों को सिखाते हैं ग गणेश का-या अब सिखाते हैं ग गधा का। क्योंकि अब धार्मिक बात तो सिखाई नहीं जा सकती, राज्य धर्मनिरपेक्ष ‘है, तो गणेश की जगह गधा। गणेश लिखो तो मुसलमान नाराज हो जाएं, कि जैन नाराज हो जाएं। गधा सिस्यूलर है, धर्मनिरपेक्ष है। वह सभी का है। ग गणेश का। न तो ग गणेश का है, न ग गधे का है। ग-ग का है। लेकिन बच्चे को सिखाते हैं। फिर ऐसा थोड़े ही है कि वह सदा याद रखता है कि जब भी तुम कुछ पढ़ो तब बार-बार जब भी ग आ जाए, तो कहो ग गणेश का। तो पढ़ ही न पाओगे। पढ़ना ही मुश्किल हो जाएगा। जो साधन था वही बाधक हो जाएगा।

जो कहा है, वह तो ऐसा ही है-ग गणेश का। वह तो पहली कक्षा के विद्यार्थी की बात है। लेकिन बुद्ध ने पहली कक्षा की बात कही, क्योंकि तुम वहीं खड़े हो। उन्होंने विश्वविद्यालय के आखिरी छोर की बात नहीं कही। वहां तुम कभी पहुंचोगे, तब देखा जाएगा। और वहा पहुंच गए जब तुम, तो कहने की जरूरत नहीं रह जाती, तुम खुद ही देखने में समर्थ हो जाते हो।

शुरुआत है शून्य से, अंत है देखने से। शुरुआत है संदेह से, अंत है श्रद्धा पर। संदेह को कैसे श्रद्धा तक पहुंचाया जाए, नास्तिकता को कैसे आस्तिकता तक पहुंचाया जाए, नहीं को कैसे ही में बदला जाए यही बुद्ध की कीमिया है, यही बुद्ध- धर्म है। एस धम्मो सनंतनो।

दूसरा प्रश्न

 

कल आपने कहा कि मोक्ष, बुद्धत्व की आकांक्षा भी वासना का ही एक रूप है। और फिर कहा, जब तक बुद्धत्व प्राप्त न हो जाए तब तक चैन से मत बैठना। इस विरोधाभास को समझाएं।

मोक्ष की, बुद्धत्व की आकांक्षा भी बुद्धत्व में बाधा है। फिर मैंने तुमसे कहा, जब तक मोक्ष उपलब्ध न हो जाए तब तक तृप्त होकर मत बैठ जाना। तब तक अभीप्सा करना, तब तक आकांक्षा करना। स्वभावत: विरोधाभास दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं यही कह रहा हूं कि जब तक आकांक्षारहितता उपलब्ध न हो जाए तब तक आकांक्षारहितता की आकांक्षा करते रहना। यह विरोधाभास दिखाई पड़ता है, क्योंकि मैं दो तलों को जोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। तुम जहां हो उसको, और तुम जहा होने चाहिए उसको जोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। इसलिए विरोधाभास।

जैसे कोई बच्चा पैदा हो, अभी जन्मा है, और हमें उसे मौत की खबर देनी हो। यद्यपि जो जन्म गया वह मरने लगा, लेकिन बच्चे को मृत्यु की बात समझांनी बड़ी कठिन हो जाएगी। मृत्यु की बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी। अभी तो जन्म ही हुआ है, और यह मौत की क्या बात है? और जन्म के साथ मौत को कैसे जोड़ो? बच्चे को विरोधाभासी लगेगी, लेकिन विरोधाभासी है नहीं। क्योंकि जन्म के साथ ही मौत की यात्रा शुरू हो गई। जो जन्मा, वह मरने लगा।

जितने जल्दी मौत समझाई जा सके उतना ही अच्छा है। ताकि जन्म व्यर्थ न चला जाए। अगर जन्म के साथ ही मौत की समझ आ जाए तो जन्म और मृत्यु के

बीच में बुद्धत्व उपलब्ध हो जाता है। तो आदमी जाग जाता है जन्म और मृत्यु दोनों से। जिस जन्म की मृत्यु होनी है, उन दोनों के बीच जीवन तो नहीं हो सकता आभास होगा। तो जब जन्म की मृत्यु ही हो जानी है, तो इस जीवन का क्या भरोसा? तो फिर हम किसी और जीवन की खोज करें-किसी और जीवन की, जहां न जन्म हो, न मृत्यु।

समझें इस प्रश्न को अब।

यदि मैं तुमसे कहूं आकांक्षा न करो, तो तुम यात्रा ही शुरू न करोगे, जन्म ही न होगा। अगर मैं तुमसे यह न कहूं कि आकांक्षा भी छूट जानी चाहिए, तो तुम कभी पहुंचोगे नहीं। मोक्ष की आकांक्षा मोक्ष की यात्रा का पहला कदम है। और मोक्ष की आकांक्षा का त्याग मोक्ष की यात्रा का अंतिम कदम है। दोनों मुझे तुमसे कहने होंगे।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक हैं, जो कहते हैं, जब आकांक्षा से बाधा ही पड़ती है तो क्या मोक्ष की आकांक्षा करना! फिर हम जैसे हैं वैसे ही भले हैं। इससे यह मत समझ लेना कि उन्होंने संसार की आकांक्षाएं छोड़ दीं। उन्होंने सिर्फ मोक्ष की आकांक्षा न की। उन्होंने अपने को धोखा दे लिया। संसार की आकांक्षाए तो वे किए ही चले जाएंगे। क्योंकि संसार की आकांक्षाएं तो तभी छूटती हैं जब कोई मोक्ष की आकांक्षा करता है। जब कोई मोक्ष की आकांक्षा पर सब दाव पर लगाता है, पूरा दिल दाव पर लगाता है, तब संसार की आकांक्षाएं छूटती हैं। तब संसार की आकांक्षाओं में जो ऊर्जा संलग्न थी वह मुक्त होती है, मोक्ष की तरफ लगती है। लेकिन जो मोक्ष की तरफ की आकांक्षा किए चला जाता है, वह भी भटक जाता है। क्योंकि अंततः वह आकांक्षा भी बाधा बन जाएगी। एक दिन उसे भी छोड़ना है।

ऐसा समझो, रात हम दीया जलाते हैं। दीए की बाती और तेल, दीया जलना शुरू होता है। तो दीए की बाती पहले तो तेल को जलाती है। फिर जब तेल जल जाता है, तो दीए की बाती अपने को जला लेती है। सुबह न तेल बचता है, न बाती बचती है। तब समझो कि सुबह हुई। फिर भोर हुई।

तो पहले तो संसार की आकांक्षाओं का तुम तेल की तरह उपयोग करो, और मोक्ष की आकांक्षा का बाती की तरह। तो संसार की सारी आकांक्षाओं को जला दो मोक्ष की बाती को जलाने में। तेल का उपयोग कर लो, ईंधन का उपयोग कर लो। सारी आकांक्षाएं इकट्ठी कर लो संसार की, और मोक्ष की एक आकांक्षा पर समर्पित कर दो। झोंक दो सब। मगर ध्यान रखना, जिस दिन सब तेल चुक जाएगा, उस दिन यह बाती भी जल जानी चाहिए। नहीं तो सुबह न होगी। यह बाती कहीं बाधा न बन जाए।

तो एक तो सांसारिक लोग हैं, जो कभी मोक्ष की आकांक्षा ही नहीं करते। फिर दूसरे मंदिरों, मस्जिदों में बैठे हुए धार्मिक लोग हैं, जिन्होंने संसार की आकांक्षा छोड़ दी और परमात्मा की आकांक्षा पकड़ ली। अब उस आकांक्षा को नहीं छोड़ पा रहे हैं। ऐसा समझो कि कुछ तो ऐसे लोग हैं जो सीढ़ियों पर पैर ही नहीं रखते ऊपर जाने की यात्रा ही शुरू नहीं होती। और कुछ ऐसे हैं जो सीढ़ियों को पकड़कर बैठ गए हैं। सीढ़ियां नहीं छोड़ते। जो सीढ़ियों के नीचे रह गया, वह भी ऊपर न पहुंच पाया, और जो सीढ़ियों पर रह गया, वह भी ऊपर न पहुंच पाया। मैं तुमसे कहता हूं? सीढ़ियां पकड़ो भी, छोड़ो भी।

मैंने सुना है, एक तीर्थयात्रियों की ट्रेन हरिद्वार जा रही थी। अमृतसर पर गाड़ी खड़ी थी। और एक आदमी को लोग जबर्दस्ती घसीटकर गाड़ी में रखना चाह रहे थे। लेकिन वह कह रहा था कि भाई, इससे उतरना तो नहीं पड़ेगा? उन्होंने कहा, उतरना तो पड़ेगा। जब हरिद्वार पहुंच जाएगी, तो उतरना पड़ेगा। तो उस आदमी ने कहा-वह बड़ा तार्किक आदमी था-उसने कहा, जब उतरना ही है तो चढ़ना क्या? यह तो विरोधाभासी है। चढ़ों भी, फिर उतरो भी। लेना-देना क्या है? हम चढ़ते ही नहीं। गाड़ी छूटने के करीब हो गई है, सीटी बजनेलगी है, और भाग-दौड़ मच रही है।

आखिर उसके साथियों ने-जो उसके यात्री-दल के साथी थे-उन्होंने उसको पकड़ा और वह चिल्लाता ही जा रहा है कि जब उतरना है तो चढ़ना क्या, मगर उन्होंने कहा कि अब इसकी सुनें! समझाने का समय भी नहीं, उसको चढ़ा दिया। फिर वही झंझट हरिद्वार के स्टेशन पर मची। वह कहे कि उतरेंगे नहीं। क्योंकि जब चढ़ ही गए तो चढ़ गए। अब उतर नहीं सकते। वह आदमी तार्किक था। वह यह कह रहा है कि विरोधाभासी काम मैं नहीं कर सकता हूं। वह किसी विश्वविद्यालय में तर्क का प्रोफेसर होगा!

जब मैं तुमसे कहता हूं, संसार की आकांक्षा छोड़ो-अमृतसर की स्टेशन पर; फिर तुमसे कहता हूं? अब जिस ट्रेन में चढ़ गए वह भी छोड़ो-हरिद्वार पर। परमात्मा का घर आ गया, हरिद्वार आ गया, उसका द्वार आ गया, अब यह ट्रेन छोड़ो। तुम्हें उस आदमी पर हंसी आती है। लेकिन अगर तुम अपने भीतर खोजोगे, तुम उसी आदमी को छिपा हुआ पाओगे।

लूटे मजे उसी ने तेरे इंतजार के

जो हद्दे-इंतजार के आगे निकल गया

विरोधाभास है!

लूटे मजे उसी ने तेरे इंतजार के

जो हद्दे-इंतजार के आगे निकल गया

इंतजार का मजा ही तब है, जब इंतजार भी न रह जाए। याद तभी पूरी आती है, जब याद भी नहीं आती।

इसे थोड़ा कठिन होगा समझना। क्योंकि जब तक याद आती है, उसका मतलब अभी याद पूरी आई नहीं। बीच-बीच में भूल- भूल जाती होगी, तभी तो याद आती

है। जिसकी याद पूरी आ गई, उसकी फिर याद आने की जगह कहां रही! फिर भूलेंगेकहां? याद कैसे आएगी? याद तभी तक आती है जब भूलना जारी रहता है। जब भूलना ही मिट गया तो याद कैसी! भूलना मिट जाने के साथ याद भी खो जाती है।

हद्दे-इंतजार–अब सीमा पार हो गई। लेकिन तभी याद का मजा है जब याद भी नहीं आती। अब एक ही हो गए उससे। अब याद करने के लिए भी फासला और दूरी न रही। किसकी याद करे और कौन करे? किसको पुकारे और कौन पुकारे? जिसे चाहा था, जिसकी चाहत थी, वह जो प्रेमी था और जो प्रेयसी थी, वे दोनों एक हो गए। अपनी ही कोई कैसे याद करे!

लूटे मजे उसी ने तेरे इंतजार के

जो हद्दे-इंतजार के आगे निकल गया

और धर्म की सारी भाषा विरोधाभासी है। होगी ही। क्योंकि धर्म यात्रा का प्रारंभ भी है और अंत भी। वह जन्म भी है और मृत्यु भी। और वह दोनों के पार भी है। इसलिए जल्दी विरोधाभासों में मत उलझ जाना। और उनको हल करने की कोशिश मत करना, समझने की कोशिश करना। तब तुम पाओगे, दोनों की जरूरत है। जो सीढ़ी चढ़ाती है, वही रोक भी लेती है। अगर तुमने बहुत विरोधाभास देखे तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि तुम एक तो कर लोगे, फिर दूसरा करने में अटकोगे। तुमने अगर यह कहा,

तुमने अगर यह सुन लिया कि परमात्मा याद करने से मिलता है, और तुम याद ही करते रहे, और तुम कभी हद्दे-इंतजार के आगे न गए, तो कभी परमात्मा न मिलेगा। राम-राम जपते रहोगे, तोता-रटंत रहेगी। कंठ में रहेगा, हृदय तक न जाएगा। क्योंकि जो हृदय में चला गया, उसकी कहीं याद करनी पड़ती है? याद होती रहती है, करनी नहीं पड़ती। होती रहती है कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि दो याद के बीच भी खाली जगह कहां? सातत्य बना रहता है। तब हद्दे-इंतजार।

और ऐसी घड़ी जब घटती है, तो ऐसा नहीं है कि जब तुम विरोधाभास की सीमा के पार निकलते हो, और जब तुम पैराडाक्स और विरोधाभास का अतिक्रमण करते हो, तो ऐसा नहीं है कि तुम ही परम आनंद को उपलब्ध होते हो, तुम्हारे साथ सारा अस्तित्व उत्सव मनाता है। क्योंकि तुम्हारे साथ सारा अस्तित्व भी अतिक्रमण करता है। एक सीमा और पार हुई।

जब अपने नक्श पर इंसान फतह पाता है

जो गीत गाती है फितरत किसी को क्या मालूम

जो गीत गाती है फितरत किसी को क्या मालूम-जब सारी प्रकृति गीत गाती है, जब सारा अस्तित्व तुम्हारे उत्सव में सम्मिलित हो जाता है!

क्योंकि तुम अलग- थलग नहीं हो, तुममें अस्तित्व ने कुछ दांव पर लगाया है, तुम अस्तित्व के दाव हो, पासे हो, परमात्मा ने तुम्हारे ऊपर बड़ा दाव लगाया है,

और बड़ी आशा रखी है। जिस दिन तुम उपलब्ध होते हो, तुम ही नहीं नाचते, परमात्मा भी नाचता है। तुम ही अकेले नाचे तो क्या नाच! परमात्मा भी खुश होता है। सारा अस्तित्व खुश होता है। एक फतह और मिली। एक विजय-यात्रा का चरण और पूरा हुआ।

जब अपने नक्स पर इंसान फतह पाता है

जो गीत गाती है फितरत किसी को क्या मालूम

वह बड़ा चुप है गीत। इसलिए किसी को क्या मालूम! वह बड़ा मौन है। वह उन्हीं को दिखाई पड़ता है जिन्हें अदृश्य दिखाई पड़ने लगा। वह उन्हीं को सुनाई पड़ता है जो सन्नाटे को भी सुन लेते हैं। वह उन्हीं को स्पर्श हो पाता है जो अरूप का भी स्पर्श कर लेते हैं, निराकार से जिनकी चर्चा होने लगी।

जो गीत गाती है फितरत किसी को क्या मालूम

तीसरा प्रश्‍न:

 

आकांक्षा मिटकर अभीप्सा बन जाती है। अभीप्सा की समाप्ति पर क्या कुछ बचता है? स्पष्ट करें।

कांक्षा यानी संसार की आकांक्षाएं। आकांक्षा यानी आकांक्षाएं। एक नहीं, अनेक। संसार अर्थात अनेक। जब आकांक्षा मिटकर अभीप्‍सा बनती है—अभीप्‍सा यानी आकांक्षा, आकांक्षाएं नहीं। एक ही आकांक्षा का नाम अभीप्सा, अनेक की अभीप्सा का नाम आकांक्षा। जब सारी आकांक्षाओं की किरणें इकट्ठी हो जाती हैं और एक सत्य पर, परमात्मा पर, या मोक्ष पर, या स्वयं पर, निर्वाण पर, कैवल्य पर केंद्रित हो जाती हैं, तो अभीप्सा। आकांक्षा और आकांक्षाओं का जाल जब संग्रहीभूत हो जाता है, तो अभीप्सा पैदा होती है। किरणें जब इकट्ठी हो जाती हैं, तो आग पैदा होती है। किरणें अनेक, आग एक।

यहां तक तो समझ में बात आ जाती है कि आदमी धन को चाहता है, पद को चाहता है, पत्नी को चाहता है, बेटे को चाहता है, भाई को चाहता है, जीवन चाहता है, लंबी उम्र चाहता है। यह सब चाहत, ये सब चाहतें इकट्ठी हो जाती हैं और आदमी सिर्फ परमात्मा को चाहता है-यहां तक भी समझ में आ जाता है। क्योंकि बहुत आकांक्षाएं जिसने की हैं वह इसकी भी कल्पना तो कम से कम कर ही सकता है कि सभी आकांक्षाएं इकट्ठी हो गयीं, सभी छोटे नदी-नाले गिर गए एक ही गंगा में और गंगा बहने लगी सागर की तरफ। लेकिन जब आकांक्षा के बाद अभीप्सा भी खो जाती है तब क्या बचता है? नदी-नाले खो जाते हैं गंगा में; फिर जब गंगा खो जाती है सागर में, तो क्या बचता है? सागर बचता है। गंगा नहीं बचती।

अब इसे तुम समझो।

पहले तुम्हारी आकांक्षाएं खो जाएंगी, तुम बचोगे। फिर तुम भी खो जाओगे, परमात्मा बचेगा। जब तक तुम आकांक्षाओं में भटके हुए हो, तब तक तुम तीन-तेरह हो, टुकड़े-टुकड़े हो। जब तुम्हारी सारी आकांक्षाएं अभीप्सा बन जाएंगी, तुम एक हो जाओगे, तुम योग को उपलब्ध हो जाओगे। योग यानी जुड़ जाओगे।

सासांरिक आदमी खंड-खंड है, एक भीड़ है। एक मजमा है। धार्मिक आदमी भीड़ नहीं है, एक एकांत है। धार्मिक आदमी इकट्ठा है। योग को उपलब्ध हुआ है। सारी आकांक्षाएं सिकोड़ लीं उसने। लेकिन अभी है। अभी होना भर मात्र बाधा बची। अभी तुम हो-अभीप्सा में-और परमात्मा है। यद्यपि तुम एक हो गए हो, लेकिन परमात्मा अभी दूसरा है, पराया है।

इसे थोड़ा समझो।

सांसारिक आदमी भीड़ है। अनेक है। धार्मिक आदमी एक हो गया, इकट्ठा हो गया। इंटीग्रेटेड, योगस्थ। लेकिन अभी परमात्मा बाकी है। तो द्वैत बचा। सांसारिक आदमी अनेकत्व में जीता है, धार्मिक आदमी द्वैत में। भक्त बचा, भगवान बचा। खोजी बचा, सत्य बचा। सागर बचा, गंगा बची। अब भक्त को अपने को भी डुबा देना है, ताकि भगवान ही बचे, ताकि सागर ही बचे। गंगा को अपने को भी खोना है। अनेक से एक, फिर एक से शून्य, तब कौन बचेगा? तब सागर बचता है, जो सदा से था। तुम नहीं थे तब भी था। वही बचेगा। जहा से तुम आए थे, वहीं तुम लौट जाओगे। जो तुम्हारे होने के पहले था, वही तुम्हारे बाद बचेगा।

मरने के बाद आए हैं ऐ राहबर जहां

मेरा कयास है कि चले थे यहीं से हम

वर्तुल पूरा हो जाता है। जन्म के पहले तुम जहां थे, मरने के बाद वहीं पहुंच जाते हो। थोड़ा सोचो; गंगा सागर में गिरती है, गंगा सागर से ही आई थी-सूरज की किरणों पर चढ़ा था सागर का जल, सीढ़ियां बनाई थीं सूरज की किरणों की, फिर बादल घनीभूत हुए थे आकाश में, फिर बादल बरसे थे हिमालय पर, बरसे थे मैदानों में, हजारों नदी-नालों में बहे थे गंगा की तरफ-गंगोत्री से बही थी गंगा, मेघ से आई थी, मेघ सागर से आए थे; फिर चली वापस, फिर सागर में खो जाएगी।

मरने के बाद आए हैं ऐ राहबर जहां

मेरा कयास है कि चले थे यहीं से हम

वही बचेगा, जो तुम्हारे होने के पहले था। उसे सत्य कहो…। तुम एक लहर हो। सागर तुम्हारे पहले भी था। लहर खो जाएगी, सो जाएगी, सागर फिर भी होगा। और ध्यान रखना, सागर बिना लहरों के हो सकता है, लहर बिना सागर के नहीं हो सकती। कभी सागर में लहरें होती हैं, कभी नहीं भी होतीं। जब लहरें होती हैं, उसको हम सृष्टि कहते हैं। जब लहरें नहीं होतीं उसको हम प्रलय कहते हैं। अगर सारी लहरों को सोचें, तो सृष्टि और प्रलय। अगर एक-एक लहर का हिसाब करें, तो जन्म और मृत्यु। जब लहर नहीं होती, तो मृत्यु। जब लहर होती है, तो जन्म। लेकिन जब लहर मिट जाती है तब क्या सच में ही मिट जाती है? यही सवाल है गहरा। लहर सच में मिट जाती है? आकार मिटता होगा, जो लहर में था। जो लहर में वस्तुत: था, वह तो कैसे मिटेगा? जो था, वह तो नहीं मिटता, वह तो सागर में फिर भी होता है। बड़ा होकर होता है, विराट होकर होता है।

तुम रहोगे, तुम जैसे नहीं। तुम रहोगे, बूंद जैसे नहीं। तुम रहोगे, सीमित नहीं। पता-ठिकाना न रहेगा, नाम-रूप न रहेगा। लेकिन जो भी तुम्हारे भीतर घनीभूत है इस क्षण, वह बचेगा, विराट होकर बचेगा। तुम मिटोगे, लेकिन मिटना मौत नहीं है। तुम मिटोगे, मिटना ही होना है।

आखिरी प्रश्न

 

पिछले एक प्रश्नोत्तर में आपने समर्पण और भक्ति में भीतर होश, बाहर बेहोशी कही है, और ध्यानी और ज्ञानी को भीतर से बेहोशी और बाहर से होश कहा है। यह ध्यानी को किस तरह की भीतर की बेहोशी होती है? और बाहर फिर वह किस चीज का होश रखता है, किस तरह से होश रखता है, जब कि भीतर बेहोशी रहती है? क्या मेरे सुनने या समझने में कहीं गलती हो रही है? कृपया फिर से ठीक से समझाकर कहें।

हीं–सुनने में कोई गलती नहीं हुई। समझने में गलती हो रही है। क्योंकि समझ विरोधाभास को नहीं समझ पाती। सुन तो लोगे; कितनी ही विरोधाभासी बात कहूं सुन तो लोगे। और यह भी समझ लोगे कि विरोधाभासी है, और यह भी समझ लोगे कि सुन लिया, लेकिन फिर भी समझ न पाओगे। क्योंकि जिसको तुम समझ कहते हो वह विरोधाभास को समझ ही नहीं सकती। इसीलिए तो विरोधाभास कहती है। मैं फिर से दोहरा देता हूं बात बड़ी सीधी है। जटिल मालूम होती है, क्योंकि बुद्धि सीधी-सीधी बात को नहीं पकड़ पाती।

एक तो है भक्त, प्रेमी। वह नाचता है। तुम उसकी बेहोशी को-जब मैं कहता हूं बेहोशी, तो मेरा मतलब है उसकी मस्ती-तुम उसके जाम को छलकते बाहर से भी देख लेते हो। मदिरा बही जा रही है। मीरा के नाच में, चैतन्य के भजन में, कुछ भीतर जाकर खोजना न होगा। उसकी मस्ती बाहर है। मौजे-दरिया, लहरों में है। फूलों में है। अंधे को भी समझ आ जाएगी। बहरे को भी सुनाई पड़ जाएगी। नाचती हुई है, गीत गाती हुई है। अभिव्यक्त है। यह जो मस्ती है, यह मस्ती तभी संभव है जब भीतर होश हो। नहीं तो यह मस्ती पागलपन हो जाएगी।

पागल और भक्त में फर्क क्या है? यही। पागल भी कभी नाचता है, मुस्कुराता है, गीता गाता है, लेकिन तुम पहचान लोगे। उसकी आंखों में जरा झांक कर देखना-उसमें बेहोशी तो है, लेकिन भीतर होश का दीया नहीं। भक्त बेहोश भी है और होश का दीया भी सम्हाले है। नाचता भी है, लेकिन दीए की लौ नहीं कंपती भीतर। बाहर नाच चलता है, भीतर सब ठहरा है-अकंप। तभी तो पागल और परमात्मा के दीवाने का फर्क है।

तो तुम्हें कभी-कभी परमात्मा का दीवाना भी पागल लगेगा, क्योंकि पागल और परमात्मा के दीवाने में बाहर तो एक ही जैसी घटना घटती है। और कभी-कभी पागल भी तुम्हें परमात्मा का दीवाना लगेगा।

लेकिन इसका मतलब यही हुआ कि तुम जरा भीतर न गए, बाहर से ही बाहर लौट आए। बाहर-बाहर देखकर लौट आए। जरा भीतर उतरो। जरा दों-चार सीढ़ियां भीतर जाओ। जरा पागल के नाच में और दीवाने-परमात्मा की मस्ती के नाच में जरा गौर करो। स्वाद भिन्न है, रंग-ढंग बड़ा भिन्न है। अलग-अलग अंदाज हैं। लेकिन थोड़ा गौर से देखोगे तो। ऐसे ही राह से चलते हुए देखकर गुजर गए तो भ्रांति हो सकती है। ऊपर से दोनों एक जैसे लगते हैं। पागल सिर्फ पागल है। बेहोश है। भक्त सिर्फ बेहोश नहीं है। बेहोश भी है, और कुछ होश भी है। बेहोशी के भीतर होश का दीया जल रहा है। यही विरोधाभास समझ में नहीं आता।

फिर एक और विरोधाभास, तो चीजें और जटिल हो जाती हैं।

यह तो भक्त हुआ, फिर ध्यानी हैं। यह तो मीरा हुई, फिर बुद्ध हैं। बुद्ध के बाहर तो कंपन भी न मिलेगा। वे मौजे-दरिया नहीं हैं, शात झील हैं। वे फूल के रंग जैसे बाहर दिखाई पड़ते हैं, ऐसे नहीं हैं। वे ऐसे हैं जैसे बीज में फूल छिपा हो। इंतजार-हजार रंग भीतर दबाकर बैठे हैं। स्वर हैं बहुत, लेकिन ऐसे जैसे वीणा में सोए स्‍वप्‍त सूर, किसी ने छेड़े न हों। तो बाहर बिलकुल सन्नाटा है।

तुम बुद्ध के बाहर होश पाओगे, मीरा के बाहर तुम मस्ती पाओगे। बुद्ध के बाहर तुम परम होश पाओगे। वहा जरा भी कंपन न होगा। और जैसे मीरा के बेहोशी। में भीतर होश है, ऐसा ही बुद्ध के बाहर के होश में भीतर बेहोशी होगी, क्योंकि दोनों साथ होने ही चाहिए, तभी परिपूर्णता होती है। अगर सिर्फ बाहर का होश ही हो और भीतर बेहोशी न हो, तो यह तो तुम साधारण त्यागी-विरक्त में पा लोगे। इसके लिए बुद्ध तक जाने की जरूरत नहीं। यही तो बुद्धों में और बुद्धों का अनुसरण करने वालों। फर्क है। बुद्ध में और पाखंडी में यही फर्क है।

मीरा और पागल में जैसे फर्क है, बुद्ध और पाखंडी में वैसे फर्क है। पाखंडी को देखकर अगर ऊपर-ऊपर से आ गए तो धोखा हो जाएगा। बगुले को देखा है खड़ा? कैसा बुद्ध जैसा खड़ा रहता है। इसीलिए तो बगुला भगत शब्द हो गया। कैसा भगत मालूम पड़ता है! एक टांग पर खड़ा रहता है। कौन योगी इतनी देर इस तरह खड़ा रहता है? लेकिन नजर मछली पर टिकी रहती है।

तो तुम्हें ऐसे लोग मिल जाएंगे-काफी है उनकी संख्या-क्योंकि सरल है बगुला बन जाना, बहुत आसान है। लेकिन उनकी नजर मछली पर लगी रहेगी। योगी बैठा हो भला आंख बंद किए, हो सकता है नजर तुम्हारी जेब पर लगी हो। बाहर से तो कोई भी साध ले सकता है आसन, प्राणायाम, नियम, मर्यादा। सवाल है भीतर का। यह निष्कंपता बाहर की ही तो नहीं है, अन्यथा सर्कस की है।

यह निष्कंपता अगर बाहर ही बाहर है, और भीतर कंपन चल रहा है, और भीतर आपाधापी मची है, और भीतर चिंतन और विचार चल रहा है, और वासनाएं दौड़ रही हैं, और भीतर कोई परमात्मा को पा लेने की मस्ती नहीं बज रही है, और भीतर कोई गीत की गुनगुन नहीं है, भीतर कोई नाच नहीं चल रहा है…..।

ऐसा समझो बुद्ध और मीरा बिलकुल एक जैसे हैं। फर्क इतना ही है कि जो मीरा के बाहर है, वह बुद्ध के भीतर है। जो मीरा के भीतर है, वह बुद्ध के बाहर है। एक सिक्का सीधा रखा है, एक सिक्का उलटा रखा है। सिक्के दोनों एक हैं। जो भीतर जाएगा वही पहचान पाएगा। और इसलिए मैं कहता हूं कि मुझे दोनों रास्ते स्वीकार हैं।

तुम अगर बुद्ध के अनुयायियों से मीरा की बात कहोगे, वे कहेंगे, कहा की अज्ञानी स्त्री की बात उठाते हो? जैनों से जाकर कहो, महावीर के अनुयायियों से कहो मीरा बात, वे कहेंगे कि आसक्ति, राग? कृष्ण का भी हुआ तो क्या! मोह? कहीं बुद्धपुरुष नाचते हैं? यह तो सांसारिकों की बात है। और कहीं बुद्धपुरुष ऐसा रोते हैं, याद करते हैं, ऐसा इंतजार करते हैं? कहीं बुद्धपुरुष ऐसा कहते हैं कि सेज सजाकर रखी है, तुम कब आओगे? न, जैन कहेंगे, यह तो अज्ञानी है मीरा।

जैन तो कृष्ण को भी ज्ञानी नहीं मान सकते। वह बांसुरी बाधा डालती है। ज्ञानी के ओंठों पर बांसुरी जंचती नहीं। करके देख लो कोशिश, किसी जैन-मंदिर में जाकर महावीर के मुंह पर बांसुरी रख आओ, वे पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे तुम्हारी, कि तुमने हमारे भगवान बिगाड़ दिए। यह दुष्कर्म होगा वहां। यह दुर्घटना मानी जाएगी! यहां तुम बांसुरी जैन-मंदिर में लेकर आए कैसे? और महावीर के ओंठ पर रखने की हिम्मत कैसे की?

अनुयायियों के साथ बड़ा खतरा है। वे ऐसे ही हो जाते हैं जैसे घोड़ों की आंखों पर पट्टियां बंधी होती हैं-बस एक तरफ दिखाई पड़ता है। तले में जुते घोड़े देखे? बस वैसे ही अनुयायी होते हैं। बस एक तरफ दिखाई पड़ता है। जीवन का विस्तार खो जाता है। संप्रदाय का यही अर्थ है।

धर्म तो बहुआयामी है। संप्रदाय एक आयामी है, वन डायमेंशनल है। बस उन्होंने बुद्ध को देखा, समझा कि बात खतम हो गई। बुद्ध बहुत खूब हैं, लेकिन बुद्ध होने के और भी बहुत ढंग हैं। जिंदगी बड़ी अनंत आयामी है। परमात्मा किसी पर चूक नहीं जाता। हजार-हजार रंगों में, हजार-हजार फूलों में, हजार-हजार ढंगों में अस्तित्व खिलता है और नाचता है।

मगर दो बड़े बुनियादी ढंग हैं। एक ध्यान का, और एक प्रेम का। मीरा प्रेम से पहुंची। जो प्रेम से पहुंचेगा, उसकी मस्ती बाहर नाचती हुई होगी, और भीतर ध्यान होगा। भीतर मौन होगा, सन्नाटा होगा। मीरा को भीतर काटोगे, तो तुम बुद्ध को पाओगे वहां। और मैं तुमसे कहता हूं अगर बुद्ध की भी तुम खोजबीन करो और भीतर उतर जाओ, तो तुम वहा मीरा को नाचता हुआ पाओगे। इसके अतिरिक्त हो नहीं सकता। क्योंकि जब तक ध्यान मस्ती न बने, और जब तक मस्ती ध्यान न बने, तब तक अधूरा रह जाता है सब।

इसलिए कभी यह मत सोचना कि जिस ढंग से तुमने पाया, वही एक ढंग है। और कभी दूसरे के ढंग को नकार से मत देखना। और कभी दूसरे के ढंग को निंदा से मत देखना, क्योंकि वह अहंकार की चालबाजियां हैं। सदा ध्यान रखना, हजार-हजार ढंग से पाया जा सकता है। बहुत हैं रास्ते उसके। बहुत हैं द्वार उसके मंदिर के। तुम जिस द्वार से आए, भला। और भी द्वार हैं। और दो प्रमुख-द्वार हैं। होने ही चाहिए। क्योंकि स्त्री और पुरुष दो व्यक्तित्व के मूल ढंग हैं।

स्त्री यानी प्रेम। पुरुष यानी ध्यान। पुरुष अकेला होकर उसे पाता है। स्त्री उसके साथ होकर उसे पाती है। पुरुष सब भांति अपने को शून्य करके उसे पाता है। स्त्री सब भांति अपने को उससे भरकर पाती है। मगर जब मैं स्त्री और पुरुष कह रहा हूं तो मेरा मतलब शारीरिक नहीं है। बहुत पुरुष हैं जिनके पास प्रेम का हृदय है, वे प्रेम से ही पाएंगे। बहुत स्त्रिया हैं जिनके पास ध्यान की क्षमता है, वे ध्यान से पाएंगी।

मगर यह बात तुम सदा ही ध्यान रखना कि जो तुम बाहर पाओगे, उससे विपरीत तुम भीतर पाओगे। क्योंकि विपरीत से जुड़कर ही सत्य निर्मित होता है। सत्य विरोधाभासी है। सत्य पैराडाक्स है।

आज इतना ही।


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एस धम्‍मो संतननों (भाग–2) प्रवचन–13

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 अंतर्बाती को उकसाना ही ध्यान–(प्रवचन—तेहरवां)

अनवस्‍सुतचित्‍तस्‍स अनन्‍वाहतचेतसो।

पुज्‍जपापपहीनस्‍स नत्‍थि जागरतो भयं।।34।।

 

कुम्‍भूपमं कायमिमं विदित्‍वा नगरूपमं चित्‍तमिदं ठपेत्‍वा।

योधेथ मारं पज्‍जायुधेन जितं च रक्‍खे अनिवेसनोसिया।।35।।

 

अचिरं वत’ यं कायो पठविं अधिसेस्‍सति।

छुद्धो अपेतविज्‍जाणो निरत्‍थं व कलिड्गरं।।36।।

 

दिसो दिसं यन्‍तं कयिरा वेरी व पन वेरिन।

मिच्‍छापणिहितं चितं पापियों नं ततो करे।।37।।

 

न तं माता-पिता कयिरा अज्‍जे वापि च जातका।

सम्‍माणिहितं चितं सेरूयसो नं ततो करे।।38।।

दुनिया है तहलके में तो परवा न कीजिए

यह दिल है रूहे-अस्र का मसकन बचाइए

दिल बुझ गया तो जानिए अंधेर हो गया

एक शमा आंधियों में है रोशन बचाइए

संसार बदलता है, फिर भी बदलता नहीं। संसार की मुसीबतें तो बनी ही रहती हैं। वहां तो तूफान और आधी चलते ही रहेंगे। अगर किसी ने ऐसा सोचा कि जब संसार बदल जाएगा तब मैं बदलूंगा, तो समझो कि उसने न बदलने की कसम खा ली। तो समझो कि उसकी बदलाहट कभी हो न सकेगी। उसने फिर तय ही कर लिया कि बदलना नहीं है, और बहाना खोज लिया।

बहुत लोगों ने बहाने खोज रखे हैं। वे कहते हैं, संसार ठीक हालत में नहीं है, हम ठीक होना भी चाहें तो कैसे हो सकेंगे? अंधे हैं ऐसे लोग, क्योंकि संसार कभी ठीक नहीं हुआ, फिर भी व्यक्तियों के जीवन में फूल खिले हैं। कोई बुद्ध रोशन हुआ, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट सुगंध को उपलब्ध हुए हैं। संसार तो चलता ही रहा है। ऐसे ही चलता रहेगा। संसार के बदलने की प्रतीक्षा मत करना। अन्यथा तुम बैठे रहोगे प्रतीक्षा करते, अंधेरे में ही जीयोगे, अंधेरे में ही मरोगे। और संसार तो सदा है। तुम अभी हो, कल विदा हो जाओगे।

इसलिए एक बात खयाल में रख लेनी है, बदलना है स्वयं को। और कितने ही तूफान हों, कितनी ही आधियां हों, भीतर एक ऐसा दीया है कि उसकी शमा जलाई जा सकती है। और कितना ही अंधकार हो बाहर, भीतर एक मंदिर है जो रोशन हो

तुम बाहर के अंधेरे से मत परेशान होना। उतना ही चिंता और उतना ही श्रम भीतर की ज्योति को जलाने में लगा देना। और बड़े आश्चर्य की तो बात यही है कि जब भीतर प्रकाश होता है, जब तुम्हारी आंखों के भीतर प्रकाश होता है, तो बाहर अंधकार मिट जाता है। कम से कम तुम्हारे लिए मिट जाता है। तुम एक और दूसरे ही जगत में जीने लगते हो। और हर व्यक्ति परमात्मा को धरोहर है। कुछ है, जो तुम पूरा करोगे तो ही मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकोगे।

एक अवसर है जीवन, जहा कुछ सिद्ध करना है। जहा सिद्ध करना है कि हम बीज ही न रह जाएंगे, अंकुरित होंगे, खिलेंगे, फूल बनेंगे। सिद्ध करना है कि हम संभावना ही न रह जाएंगे, सत्य बनेंगे। सिद्ध करना है कि हम केवल एक आकांक्षा ही न होंगे कुछ होने की, हमारे भीतर होना प्रगट होगा। उस प्रागटय का नाम ही

दुनिया है तहलके में तो परवा न कीजिए

यह दिल है रूहे-अस्र का मसकन बचाइए

यह जो भीतर हृदय है, जिसे बुद्ध ने चित्त कहा, जिसे महावीर, उपनिषद और वेद आत्मा कहते हैं, यह अस्तित्व का मंदिर है।

रूहे-अस्र का मसकन बचाइए

दिल बुझ गया तो जानिए अंधेर हो गया

अंधेरे की उतनी चिंता मत करिए। अंधेरे ने कब किसी रोशनी को बुझाया है? अंधेरा कितना ही बड़ा हो, एक छोटे से टिम-टिमाते दीए को भी नहीं बुझा सकता। अंधेरे से कभी अंधेर नहीं हुआ है।

दिल बुझ गया तो जानिए अंधेर हो गया

एक शमा आंधियों में है रोशन बचाइए

वह जो भीतर ज्योति जल रही है जीवन की, वह जो तुम्हारे भीतर जागा हुआ है, वह जो तुम्हारा चैतन्य है, बस उसको जिसने बचा लिया। सब बचा लिया। उसे जिसने खो दिया, वह सब भी बचा ले तो उसने कुछ भी बचाया नहीं। फिर तुम सम्राट हो जाओ, तो भी भिखारी रहोगे। और भीतर की ज्योति बचा लो, तो तुम चाहे राह के भिखारी रहो, तुम्हारे साम्राज्य को कोई छीन नहीं सकेगा।

सम्राट होने का एक ही ढंग है, भीतर की संपदा को उपलब्ध हो जाना। स्वामी होने का एक ही ढंग है, भीतर के दीए के साथ जुड़ जाना, एक हो जाना। और वह जो भीतर का दीया है, चाहता है प्रतिपल उसकी बाती को सम्हालो, उकसाओ। उस बाती के उकसाने का नाम ही ध्यान है। बाहर के अंधेरे पर जिन्होंने ध्यान दिया, वे ही अधार्मिक हो जाते हैं। और जिन्होंने भीतर के दीए पर ध्यान दिया, वे ही धार्मिक हो जाते हैं। मंदिर-मस्जिदों में जाने से कुछ भी न होगा। मंदिर तुम्हारा भीतर है। प्रत्येक व्यक्ति अपना मंदिर लेकर पैदा हुआ है। कहो खोजते हो मंदिर को? पत्थरों में नहीं है। तुम्हारे भीतर जो परमात्मा की छोटी सी लौ है, वह जो होश का दीया है, वहा है।

ये बुद्ध के सूत्र उस अप्रमाद के दीए को हम कैसे उकसाएं उसके ही सूत्र हैँ। इन सूत्रों. से दुनिया में क्रांति नहीं हो सकती, क्योंकि समझदार दुनिया में क्रांति की बात करते ही नहीं। वह कभी हुई नहीं। वह कभी होगी भी नहीं। समझदार तो भीतर की क्रांति की बात करते हैं, जो सदा संभव है। हुई भी है। आज भी होती है। कल भी होती रहेगी। असंभव की चेष्टा करना मूढ़ता है। और असंभव की चेष्टा में जो संभव था वह भी खो जाता है। जो मिल सकता था वह भी नहीं मिल पाता उसकी चेष्टा में जो कि मिल ही नहीं सकता है। संभव की चेष्टा ही समझ का सबूत है। असंभव की चेष्टा ही मूढ़तापूर्ण जीवन है।

बुद्ध ने कहा है, ‘जिसके चित्त में राग नहीं है, और इसलिए जिसके चित्त में द्वेष नहीं है, जो पाप-पुण्य से मुक्त है, उस जाग्रत पुरुष को भय नहीं। ‘

तुम तो भगवान को भी खोजते हो तो भय के कारण। और भय से कहा भगवान

मिलेगा? ही, भगवान मिल जाता है तो भय खो जाता है। भगवान और भय साथ-साथ नहीं हो सकते। यह तो ऐसे ही है जैसे अंधेरा और प्रकाश साथ-साथ रखने की कोशिश करो। तुम्हारी प्रार्थनाएं भी भय से आविर्भूत होती हैं। इसलिए व्यर्थ हैं। दो कौड़ी का भी उनका मूल्य नहीं है। तुम मंदिर में झुकते भी हो तो कंपते हुए झुकते हो। यह प्रेम का स्पंदन नहीं है, यह भय का कंपन है।

बड़ा फर्क है दोनों में।

जब प्रेम उतरता है हृदय में, तब भी सब कैप जाता है। लेकिन प्रेम की पुलक! कहां प्रेम की पुलक, कहां भय का घबड़ाना, कंपना! ध्यान रखना, प्रेम की भी एक ऊष्मा है और बुखार की भी। और प्रेम में भी एक गरमाहट घेर लेती है और बुखार में भी। तो दोनों को एक मत समझ लेना। भय में भी आदमी झुकता है, प्रेम में भी। पर दोनों को एक मत समझ लेना। भयभीत भी प्रार्थना करने लगता है, प्रेम से भरा भी। लेकिन भयभीत की प्रार्थना अपने भीतर घृणा को छिपाए होती है। क्योंकि जिससे हम भय करते हैं उससे प्रेम हो नहीं सकता।

इसलिए जिन्होंने भी तुमसे कहा है, भगवान से भय करो, उन्होंने तुम्हारे अधार्मिक होने की बुनियाद रख दी। मैं तुमसे कहता हूं। सारी दुनिया से भय करना, भगवान से भर नहीं। क्योंकि जिससे भय हो गया, उससे फिर प्रेम के, आनंद के संबंध जुड़ते ही नहीं। फिर तो जहर घुल गया कुएं में। फिर तो पहले से ही तुम विषाक्त हो गए। फिर तुम्हारी प्रार्थना में धुआ होगा, प्रेम की लपट न होगी। फिर तुम्हारी प्रार्थना से दुर्गंध उठ सकती है। और तुम धूप और अगरबत्तियों से उसे छिपा न सकोगे। फिर तुम फूलों से उसे ढांक न सकोगे। फिर तुम लाख उपाय करो, सब उपाय ऊपर-ऊपर रह जाएंगे। थोड़ा सोचो, जब भीतर भय हो तो कैसे प्रार्थना पैदा हो सकती है?

इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की। अभी तो प्रार्थना ही पैदा नहीं हुई तो परमात्मा की क्या बात करनी? अभी आंख ही नहीं खुली तो रोशनी की क्या चर्चा करनी? अभी चलने के योग्य ही तुम नहीं हुए हो, घुटने से सरकते हो, अभी नाचने की बात क्या करनी? प्रार्थना पैदा हो तो परमात्मा। लेकिन प्रार्थना तभी पैदा होती है जब अभय–फियरलेसनेस।

यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है। अभय का अर्थ निर्भय मत समझ लेना। ये बारीक भेद हैं और बड़े बुनियादी हैं। निर्भय और अभय में बड़ा फर्क है। जमीन-आसमान का फर्क है। शब्दकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ लिखा है। जीवन के कोश में दोनों के अर्थ बड़े भिन्न हैं। निर्भय का अर्थ है जो भीतर तो भयभीत है, लेकिन बाहर से जिसने किसी तरह इंतजाम कर लिया। जो भीतर तो कंपता है, लेकिन बाहर नहीं कंपता। जिसने न कंपने का अभ्यास कर लिया है। बाहर तक कंपन को आने नहीं देता। जिनको तुम बहादुर कहते हो, वे इतने ही कायर होते हैं, जितने कायर। कायर डरकर बैठ जाता है, बहादुर डरकर बैठता नहीं, चलता चला जाता है। कायर अपने भय को मान लेता है, बहादुर अपने भय को इनकार किए जाता है, लेकिन भयभीत तो है ही। अभय की अवस्था बड़ी भिन्न है। न वहा भय है, न वहां निर्भयता है। जब भय ही न रहा, तो निर्भय कोई कैसे होगा? अभय का अर्थ है, भय और निर्भय दोनों ही जहां खो जाते हैं। जहां वह बात ही नहीं रह जाती।

इस अवस्था को -बुद्ध और महावीर दोनों ने भगवत्ता की तरफ पहला कदम कहा है। कौन आदमी अभय को उपलब्ध होगा? कौन से चित्त में अभय आता है? जिस चित्त में राग नहीं, उस चित्त में द्वेष भी नहीं होता। स्वभावत:। क्योंकि राग से ही द्वेष पैदा होता है।

तुमने खयाल किया, किसी को तुम सीधा-सीधा शत्रु नहीं बना सकते। पहले मित्र बनाना पड़ता है। एकदम से किसी को शत्रु बनाओगे भी तो कैसे बनाओगे? शत्रु सीधा नहीं होता, सीधा पैदा नहीं होता, मित्र के पीछे आता है। द्वेष सीधे पैदा नहीं होता, राग के पीछे आता है। घृणा सीधे पैदा नहीं होती, जिसे तुम प्रेम कहते हो उसी के पीछे आती है। तो शत्रु किसी को बनाना हो तो पहले मित्र बनाना पड़ता है। और द्वेष किसी से करना हो तो पहले राग करना पड़ता है। किसी को दूर हटाना हो तो पहले पास लेना पड़ता है। ऐसी अनूठी दुनिया है। ऐसी उलटी दुनिया है।

द्वेष से तो तुम बचना भी चाहते हो। लेकिन जिसने राग किया, वह द्वेष से न बच सकेगा। जब तुमने व्यक्ति को स्वीकार कर लिया, तो उसकी छाया कहो जाएगी? वह भी तुम्हारे घर आएगी। तुम यह न कह सकोगे मेहमान से कि छाया बाहर ही छोड़ दो, हमने केवल तुम्हें ही बुलाया है। छाया तो साथ ही रहेगी। द्वेष राग की छाया है। वैराग्य राग की छाया है।

इसलिए तो मैं तुमसे कहता हूं असली वैरागी-वैरागी नहीं होता। असली वैरागी तो राग से मुक्त हो गया। इसलिए महावीर-बुद्ध ने उसे नया ही नाम दिया है, उसे वीतराग कहा है। तीन शब्द हुए-राग, वैराग्य, वीतरागता। राग का अर्थ है संबंध किसी से है, और ऐसी आशा कि संबंध से सुख मिलेगा। राग सुख का सपना है। किसी दूसरे से सुख मिलेगा, इसकी आकांक्षा है। द्वेष, किसी दूसरे से दुख मिल रहा है इसका अनुभव है। मित्रता, किसी को अपना मानने की आकांक्षा है। शत्रुता, कोई अपना सिद्ध न हुआ, पराया सिद्ध हुआ, इसका बोध है। मित्रता एक स्वप्न है। शत्रुता स्वप्न का टूट जाना। राग अंधेरे में टटोलना है, द्वार की आकांक्षा में। लेकिन जब द्वार नहीं मिलता और दीवाल मिलती है, तो द्वेष पैदा हो जाता है। द्वार अंधेरे में है ही नहीं, टटोलने से न मिलेगा। द्वार टटोलने में नहीं है। द्वार जागने में है।

तो बुद्ध कहते हैं, जिसके चित्त में राग नहीं है। राग का अर्थ है, जिसने यह खयाल छोड़ दिया कि दूसरे से सुख मिलेगा। जो जाग गया, और जिसने समझा कि राख किसी से भी नहीं मिल सकता। एक ही भ्रांति है, कहो इसे संसार, कि दूसरे से सुख मिल सकता है। पत्नी से, या पिता से, या भाई से, या बेटे से, या मित्र से, या धन से, या मकान से, या पद से, दूसरे से सुख मिल सकता है-तो राग पैदा होता है। स्वाभाविक, जिससे सुख मिल सकता है उसे हम गंवाना न चाहेंगे। जिससे सुख मिल सकता है उसे हम बचाना चाहेंगे। जिससे सुख मिल सकता है वह कहीं दूर न चला जाए, कहीं कोई और उस पर कब्जा न कर ले। तो पत्नी डरी है कि पति कहीं किसी और स्त्री की तरफ न देख ले। पति डरा है कि पत्नी कहीं किसी और में उत्सुक न हो जाए। क्योंकि इसी से तो सुख की आशा है। वह सुख कहीं और कोई दूसरा न ले ले।

लेकिन सुख कभी किसी दूसरे से मिला है? किसी ने भी कभी कहा कि दूसरे से सुख मिला है? आशा और आशा और आशा। आशा कभी भरती नहीं। किसने तुम्हें आश्वासन दिया है कि दूसरे से सुख मिल सकेगा? और दूसरा जब तुम्हारे पास आता है, तो ध्यान रखना, वह अपने सुख की तलाश में तुम्हारे पास आया है। तुम अपने सुख की तलाश में उसके पास गए हो। न उसको प्रयोजन है तुम्हारे सुख से, न तुमको प्रयोजन है उसके सुख से। मिलेगा कैसे, प्रयोजन ही नहीं है? पत्नी तुम्हारे पास है, इसलिए नहीं कि तुम्हें सुख दे। तुम पत्नी के पास हो, इसलिए नहीं कि तुम उसे सुख दो।

उपनिषद कहते हैं, कौन पत्नी को पत्नी के लिए प्रेम करता है? पत्नी के लिए कोई प्रेम नहीं करता, अपने लिए प्रेम करता है। कौन पति को पति के लिए प्रेम करता है? अपने लिए प्रेम करता है। सुख की आकांक्षा अपने लिए है। और इसलिए अगर ऐसा भी हो जाए कि तुम्हें लगे कि दूसरे को दुख देकर सुख मिलेगा, तो भी तुम तैयार हो। और यही होता है। सोचते हैं दूसरे से सुख मिलेगा, लेकिन हम भी दूसरे को दुख ही दे पाते हैं और दूसरा भी हमें दुख दे पाता है।

जिसने इस सत्य को देख लिया वह संन्यस्त हो गया। संन्यास का क्या अर्थ है? जिसने इस सत्य को देख लिया कि दूसरे से सुख न मिलेगा, उसने अपनी दिशा मोड़ ली। वह भीतर घर की तलाश में लग गया। अपने भीतर खोजने लगा, कि बाहर तो सुख न मिलेगा अब भीतर खोज लूं। शायद जो बाहर नहीं है वह भीतर हो।

और जिन्होंने भी भीतर झांका, वे कभी खाली हाथ वापस न लौटे। उनके प्राण भर गए। उनके प्राण इतने भर गए कि उन्हें खुद ही न मिला, उन्होंने लुटाया भी, उन्होंने बांटा भी। कुछ ऐसा खजाना मिला कि बांटने से बढ़ता गया। कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए। जब सुख मिल जाए तो दोनों हाथ उलीचिए। क्योंकि जितना उलीचो उतना ही बढ़ता चला जाता है। जैसे कुएं से पानी खींचते जाओ, झरने और नया पानी ले आते हैं। पुराना चला जाता है, नया आ जाता है।

जिसको सुख मिल गया उसे यह राज भी पता चल गया कि बांटों। क्योंकि अगर सम्हालोगे तो पुराना ही सम्हला रहेगा, नया-नया न आ सकेगा। लुटाओ, ताकि तुम

रोज नए होते चले जाओ। छोटा-छोटा कुआं भी छोटा थोड़े ही है। अनंत सागर से जुड़ा है। भीतर से झरनों के रास्ते हैं। इधर खाली करो, उधर भरता चला जाता है।

तुम आत्मा ही थोड़े ही हो, परमात्मा भी हो। तुम छोटे कुएं ही थोड़े ही हो, सागर भी हो। सागर ही छोटे से कुएं में से झांक रहा है। छोटा कुआं एक खिड़की है जिससे सागर झांका। तुम भी एक खिड़की हो, जिससे परमात्मा झांका। एक बार अपनी सुध आ जाए, एक बार यह खयाल आ जाए कि मेरा सुख मुझ में है, तो राग समाप्त हो जाता है।

‘जिसके चित्त में राग नहीं….।’

अर्थात जिसने जान लिया कि सुख मेरा भीतर है। इसलिए जिसके चित्त में द्वेष भी नहीं है। स्वभावत:, जब दूसरे से सुख मिलता ही नहीं, तो कैसी शिकायत, कैसा शिकवा कि दूसरे से दुख मिला? यह बात ही फिजूल हो गई। सुख का खयाल था तो ही दुख का खयाल बनता था। जिससे तुम जितनी ज्यादा अपेक्षा रखते हो उससे उतना ही दुख मिलता है।

लोग मुझसे पूछते हैं कि पति-पत्नी एक-दूसरे के कारण इतने दुखी क्यों होते हैं? तो मैं उनसे कहता हूं, वह संबंध ऐसा है जहां सबसे ज्यादा अपेक्षा है, इसलिए। जितनी अपेक्षा, उतनी मात्रा में दुख होगा। क्योंकि उतनी असफलता हाथ लगेगी। राह पर चलता आदमी अचानक तुम्हारे पास से गुजर जाता है, उससे दुख नहीं मिलता। मिलने का कोई कारण नहीं, अजनबी है। अपेक्षा ही कभी नहीं की थी। और अगर अजनबी मुस्कुराकर देख ले, तो अच्छा लगता है।

तुम्हारी पत्नी मुस्कुराकर देखे, पति मुस्कुराकर देखे, तो भी कुछ अच्छा नहीं लगता। लगता है जरूर कोई जालसाजी होगी। पत्नी मुस्कुरा रही है! मतलब कहीं बाजार में साड़ी देख आई है? या कहीं गहने देख लिए? या कोई नया उपद्रव है? क्योंकि सस्ता नहीं है मुस्कुराना, कोई मुफ्त नहीं मुस्कुराता। जहां संबंध हैं वहां तो लोग मतलब से मुस्कुराते हैं। पति अगर आज ज्यादा प्रसन्न घर आ गया है, फूल ले आया है, मिठाइयां ले आया है, तो पत्नी संदिग्ध हो जाती है, कि जरूर कुछ… जरूर कुछ दाल में काला है। किसी स्त्री को बहुत गौर से देख लिया होगा, प्रायश्चित्त कर रहा है। नहीं तो कभी घर कोई मिठाइयां लेकर आता है!

जिनसे जितनी अपेक्षा है उनसे उतना ही दुख मिलता है। जितनी अपेक्षा है, उतनी ही टूटती है। जितना बड़ा भवन बनाओगे ताश के पत्तों का, उतनी ही पीड़ा होगी। क्योंकि गिरेगा। उतना श्रम, उतनी शक्ति, उतनी अभीप्साओं के इंद्रधनुष, सब टूट जाएंगे। सब जमीन पर रौंदे हुए पड़े होंगे, उतनी ही पीड़ा होगी। अजनबी से दुख नहीं मिलता। अपरिचित से दुख नहीं मिलता। क्योंकि अपेक्षा जरूरी है।

लेकिन अगर तुम अपेक्षा ही छोड़ दो, तो तुम्हें क्या कोई दुख दे सकेगा? इसे बहुत सोचना। इस पर मनन करना, ध्यान करना। अगर तुम अपेक्षा छोड़ दो, कोई

मांग न रहे–क्योंकि तुम जाग गए कि मिलना किसी से कुछ भी नहीं है-तो तुम अचानक पाओगे तुम्हारे जीवन से दुख विसर्जित हो गया। अब कोई दुख नहीं देता। सुख न मांगो तो कोई दुख नहीं देता। तब तो बड़ी अभूतपूर्व घटना घटती है। तुम सुख नहीं मांगते, कोई दुख नहीं देता। न बाहर से सुख आता है, न दुख आता है। पहली बार तुम अपने में रमना शुरू होते हो। क्योंकि अब बाहर नजर रखने की कोई जरूरत ही न रही। जहा से कुछ मिलना ही नहीं है, जहा खदान थी ही नहीं, सिर्फ धोखा था, आभास था, तुम आंख बंद कर लेते हो।

इसलिए बुद्धपुरुषों की आंख बंद है। वह जो बंद आंख है ध्यान करते बुद्ध की, या महावीर की, वह इस बात की खबर है केवल कि अब बाहर देखने योग्य कुछ भी न रहा। जब पाने योग्य न रहा, तो देखने योग्य क्या रहा न: देखते थे, क्योंकि पाना था। पाने का रस लगा था, तो गौर से देखते थे। जो पाना हो, वही आदमी देखता है। जब पाने की भ्रांति ही टूट गई तो आदमी आंख बंद कर लेता है। बंद कर लेता है कहना ठीक नहीं, आंख बंद हो जाती है। पलक अपने आप बंद हो जाती है। फिर आंख को व्यर्थ ही दुखाना क्या फिर आंख को व्यर्थ ही खोलकर परेशान क्या करना; और यह जो दृष्टि पर पलक का गिर जाना है, यही भीतर दृष्टि का पैदा हो जाना है।

‘जिसके चित्त में राग नहीं और इसलिए जिसके चित्त में द्वेष नहीं, जो पाप-पुण्य से मुक्त है, उस जाग्रत पुरुष को भय नहीं।’

पाप और पुण्य, वे भी बाहर से ही जुड़े हैं, जैसे सुख और दुख। इसे थोड़ा समझना। यह और भी सूक्ष्म, और भी जटिल है। यह तो बहुत लोग तुम्हें समझाते मिल जाएंगे कि सुख-दुख बाहर से मिलते नहीं, सिर्फ तुम्हारे खयाल में हैं। लेकिन जो लोग तुम्हें समझाते हैं बाहर से सुख न मिलेगा, और इसलिए बाहर से दुख भी नहीं मिलता, वे भी तुमसे कहते हैं, पुण्य करो, पाप न करो। शायद वे भी समझे नहीं। क्योंकि समझे होते तो दूसरी बात भी बाहर से ही जुड़ी है। क्या है दूसरी बात? वह पहली का ही दूसरा पहलू है।

पहला है, दूसरे से मुझे सुख मिल सकता है। मिलता है दुख। इसलिए राग बांधता हूं और द्वेष फलता है। बोता राग के बीज हूं फसल द्वेष की काटता हूं। चाहता हूं राग, हाथ में आता है द्वेष। तड़फड़ाता हूं। जैसे बुद्ध ने कहा, कोई मछली को सागर के बाहर कर दे। तट पर तडुफड़ाएं। ऐसा आदमी तड़फड़ाता है।

फिर पाप-पुण्य क्या है? पाप-पुण्य इसका ही दूसरा पहलू है। पुण्य का अर्थ है, मैं दूसरे को सुख दे सकता हूं। पाप का अर्थ है, मैं दूसरे को दुख दे सकता हूं। तब तुम्हें समझ में आ जाएगा। दूसरे से सुख मिल सकता है यह, और मैं दूसरे को सुख दे सकता हूं यह, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हुए। दूसरा मुझे दुख देता है यह, और मैं दूसरे को दुख दे सकता हूं यह भी, उसी बात का पहलू हुआ।

इसलिए बुद्ध ने इस सूत्र में बड़ी महिमापूर्ण बात कही है। कहा है कि जिसके चित्त में न राग रहा, न द्वेष; जो पाप-पुण्य से मुक्त है। क्योंकि जब यही समझ में आ गया कि कोई मुझे सुख नहीं दे सकता, तो यह भ्रांति अब कौन पालेगा कि मैं किसी को सुख दे सकता हूं? तो कैसा पुण्य? फिर यह भ्रांति भी कौन पालेगा कि मैंने किसी को पाप किया, किसी को दुख दिया। यह भांति भी गई। सुख-दुख के जाते ही, राग-द्वेष के जाते ही पाप-पुण्य भी चला जाता है। पाप-पुण्य सुख और दुख के ही सूक्ष्म रूप हैं।

इसलिए तो धर्मगुरु तुमसे कहते हैं कि जो पुण्य करेगा वह स्वर्ग जाएगा। स्वर्ग यानी सुख। तुमने चाहे इसे कभी ठीक-ठीक न देखा हो। और धर्मगुरु कहते हैं, जो पाप करेगा वह नर्क जाएगा। नर्क यानी दुख। अगर पुण्य का परिणाम स्वर्ग है और पाप का परिणाम नर्क है, तो एक बात साफ है कि पाप-पुण्य सुख-दुख से ही जुड़े हैं। जब सुख-दुख ही खो गया, तो पाप-पुण्य भी खो जाते हैं।

ध्यान रखना, दुनिया में दो तरह के भयभीत लोग हैं। जिनको तुम अधार्मिक कहते हो, वे डरे हैं कि कहीं दूसरा दुख न दे दे। और जिनको तुम धार्मिक कहते हो, वे डरे हैं कि कहीं मुझसे किसी दूसरे को दुख न हो जाए। जिनको तुम अधार्मिक कहते हो, वे डरे हैं कि कहीं ऐसा न हो कि मैं दूसरे से सुख लेने में चूक जाऊं। और जिनको तुम धार्मिक कहते हो, वे डरे हैं कि कहीं ऐसा न हो कि मैं दूसरे को सुख देने से चूक जाऊं। तो तुम्हारे धार्मिक और अधार्मिक भिन्न नहीं हैं। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े होंगे, लेकिन एक ही तल पर खड़े हैं। तल का कोई भेद नहीं है। कोई तुम्हारा धार्मिक अधार्मिक से ऊंचे तल पर नहीं है, किसी और दूसरी दुनिया में नहीं है।

हो दौरे-गम कि अहदे-खुशी दोनों एक हैं

दोनों गुजश्तनी हैं खिजां क्या बहार क्या

चाहे पतझड़ हो, चाहे वसंत, दोनों ही क्षणभंगुर हैं। दोनों अभी हैं, अभी नहीं हो जाएंगे। दोनों पानी के बुलबुले हैं। दोनों ही क्षणभंगुर हैं। दोनों में कुछ चुनने जैसा नहीं है। क्योंकि अगर तुमने बहार को चुना, तो ध्यान रखना, अगर तुमने वसंत को चुना तो पतझड़ को भी चुन लिया। फिर वसंत में अगर सुख माना, तो पतझड़ में दुख कौन मानेगा?

एक महिला मेरे पास लाई गई। रोती थी, छाती पीटती थी, पति उसके चल बसे। वह कहने लगी, मुझे किसी तरह सांत्वना दें, समझाएं। किसी तरह मुझे मेरे दुख के बाहर निकालें। मैंने उससे कहा, सुख तूने लिया। माना कि सुख था, अब दुःख कौन भोगेगा? तू बहुत होशियारी की बात कर रही है। पति के होने का सुख, तू कभी मेरे पास नहीं आई कि मुझे इस सुख से बचाएं। जगाएं, ये मैं सुख में डूबी जा रही हूं। तू कभी आई ही नहीं इस रास्ते पर।

लोग जब दुख में होते हैं तभी मंदिर की तरफ जाते हैं। और जो सुख में जाता है, वही समझ पाता है। दुख में जाकर तुम समझ न पाओगे। क्योंकि दुख छाया है, मूल नहीं। मूल तो जा चुका, छाया गुजर रही है। छाया को कैसे रोका जा सकता है?

मैंने उस महिला को कहा, तू रो ही ले, अब दुख को भी भोग ही ले। क्योंकि भ्रांति दुख की नहीं है, भ्रांति सुख की है। सुख मिल सकता है, तो फिर दुख भी मिलेगा। वसंत से मौह लगाया, तो पतझड़ में रोओगे। जवानी में खुश हुए, बुढ़ापे में रोओगे। पद में प्रसन्न हुए तो फिर पद खोकर कोई दूसरा रोका तुम्हारे लिए रा मुस्कुराए तुम, तो आंसू भी तुम्हें ही ढालने पड़ेंगे। और दोनों एक जैसे हैं ऐसा जिसने जान लिया, क्योंकि दोनों का स्वभाव क्षणभंगुर है, पानी के बबूले जैसे हैं।

ध्यान रखना, यह जानना सुख में होना चाहिए, दुख में नहीं। दुख में तो बहुत पुकारते हैं परमात्मा को, और फिर सोचते हैं, शायद उस तक आवाज -नहीं पहुंचती। दुख में पुकारने की बात ही गलत है। जब तुमने सुख. में न पुकारा, तो तुम गलत मौके पर पुकार रहे हो। जब तुम्हारे पास कंठ था और तुम पुकार सकते थे, तब न पुकारा; अब जब कंठ अवरुद्ध हो गया है तब पुकार रहे हो! अब पुकार निकलती ही नहीं। ऐसा नहीं है कि परमात्मा नहीं सुनता है। दुख में पुकार निकलती ही नहीं। दुख तो अनिवार्य हो गया।

अगर सुख में न जागे, और सुख को गुजर जाने दिया, तो अब छाया को भी गुजर जाने दो। मेरे देखे, जो सुख में जागता है वही जागता है। जो दुख में जागने की कोशिश करता है वह तो साधारण कोशिश है, सभी करते हैं। हर आदमी दुख से मुक्त होना चाहता है। ऐसा आदमी तुम पा सकते हो जो दुख से मुक्त नहीं होना चाहता; लेकिन इसमें सफलता नहीं मिलती, नहीं तो सभी लोग मुक्त हो गए होते। लेकिन जो सुख से मुक्त होना चाहता है, वह तत्क्षण मुक्त हो जाता है। लेकिन सुख से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। यही आदमी की विडंबना है।

दुख से तुम मुका होना चाहते हो, लेकिन वहा से मार्ग नहीं। सुख से तुम मुक्त होना नहीं चाहते, वहां से मार्ग है। दीवाल से तुम निकलना चाहते हो, द्वार से तुम निकलना नहीं चाहते। जब दीवाल सामने आ जाती है, तब तुम सिर पीटने लगते हो कि मुझे बाहर निकलने दो। जब -द्वार सामने आता है, तब तुम कहते हो अभी जल्दी क्या है? आने दौ दीवाल को, फिर निकलेंगे।

ध्यान रखना, जो सुख में संन्यासी हुआ, वही हुआ। तेन त्यक्तेन भुजीथा:। उन्होंने ही छोड़ा जिन्होंने भोग में छोड़ा। पत्नी मर गई, इसलिए तुम. संन्यासी हो गए। दिवाला निकल गया, इसलिए संन्यासी हो गए। नौकरी न लगी, इसलिए संन्यासी हो गए। चुनाव हार गए, इसलिए संन्यासी हो गए। तो तुम्हारा संन्यास हारे हुए का संन्यास है। इस संन्यास में कोई प्राण नहीं। लोग कहते हैं, ‘हारे को हरिनाम। हारे को हरिनाम? हारे हुए को तो कोई हरि का नाम नहीं हो सकता।

जीत में स्मरण रखना बड़ा मुश्किल है। क्योंकि जीत बड़ी बेहोशी लाती है। जीत में तो तुम ऐसे अकड़ जाते हो कि अगर परमात्मा खुद भी आए, तो तुम कहो फिर कभी आना, आगे बढ़ो, अभी फुर्सत नहीं। और मैं तुमसे कहता हूं परमात्मा आया है, क्योंकि जीत में द्वार सामने होता है। लेकिन तुम अंधे होते हो।

‘जिसके चित्त में राग नहीं और इसलिए जिसके चित्त में द्वेष नहीं, जो पाप-पुण्य से मुक्त है, उस जाग्रत पुरुष को भय नहीं।’

भय क्यों पैदा होता है? भय दो कारण से पैदा होता है। जो तुम चाहते हो, कहीं ऐसा न हो कि न मिले, तो भय पैदा होता है। या, जो तुम्हारे पास है, कहीं ऐसा न हो कि खो जाए, तो भय पैदा होता है। लेकिन जाग्रत पुरुष को पता चलता है कि तुम्हारे पास केवल तुम ही हो, और कुछ भी नहीं। और जो तुम हो, उसको खोने का कोई उपाय नहीं। उसे न चोर ले जा सकते हैं, न डाकू छीन सकते हैं। नैनं छिंदति शस्त्राणि-उसे शस्त्र छेद नहीं पाते। नैनं दहति पावकः-उसे आग जलाती नहीं। जाग्रत को पता चलता है कि जो मैं हूं वह तो शाश्वत, सनातन है। उसकी कोई मृत्यु नहीं।

सोया कंपता है। डरता है कि कहीं कोई मुझसे छीन न ले।

दो दिन पहले एक युवती ने मुझे आकर कहा कि मैं सदा डरती रहती हूं कि जो मेरे पास है, कहीं छिन न जाए। मैंने उससे पूछा कि तू पहले मुझे यह बता, क्या तेरे पास है? उसने कहा, जब आप पूछते हो तो बड़ी मुश्किल होती है, है तो कुछ भी नहीं। फिर डर किस बात का है? क्या है तुम्हारे पास जो खो जाएगा? धन? और जो तुम सोचते हो तुम्हारे पास है और खो सकता है, क्या तुम उसे बचा सकोगे? तुम कल पड़े रह जाओगे। सांस नहीं आएगी-जाएगी, मक्खियां उड़ेगीं तुम्हारे चेहरे पर-तुम उड़ा भी न सकोगे-धन यहीं का यहीं पड़ा रह जाएगा। धन तुम्हारा है? तुम नहीं थे तब भी यहां था, तुम नहीं होओगे तब भी यहां होगा। और ध्यान रखना, हान रोका नहीं कि तुम खो गए। मालिक खो गया और धन रोएं। धन को पता ही नहीं कि तुम भी मालिक थे। तुमने ही मान रखा था।

तुम्हारी मान्यता ऐसी ही है जैसे मैंने सुना है, एक हाथी एक छोटे से नदी के गल पर से गुजरता था और एक मक्खी उस हाथी के सिर पर बैठी थी। जब पुल कंपने लगा, और उस मक्खी ने कहा, देखो! हमारे वजन से पुल कंपा जा रहा है। हमारे वजन से! उसने हाथी से कहा, बेटे! हमारे वजन से पुल कैप रहा है। हाथी ने सहा कि मुझे अब तक पता ही न था कि तू भी ऊपर बैठी है 1

कहते हैं छिपकलियां, उनको कभी निमंत्रण मिल जाता है उनकी जात-बिरादरी। में तो जाती नहीं, वे कहती हैं महल गिर जाएगा, सम्हाले हुए हैं। छिपकली चली पाएगी तो महल गिर जाएगा!

तुम्हारी भ्रांति है कि तुम्हारे पास कुछ है। तुम्हारी मालकियत झूठी है। हां, जो

तुम्हारे पास है वह तुम्हारे पास है। उसे न कभी किसी ने छीना है, न कोई छीन सकेगा। असलियत में संपदा की परिभाषा यही है कि जो छीनी न जा सके। जो छीनी जा सके वह तो विपदा है, संपदा नहीं है। वह संपत्ति नहीं है, विपत्ति है।

तो दो डर हैं आदमी जिनसे कंपता रहता है। कहीं मेरा छिन न जाए। स्वभावत: तुमने जो तुम्हारा नहीं है उसको मान लिया मेरा, इसलिए भय है। वह छिनेगा ही। सिकंदर भी न रोक पाएगा, नेपोलियन भी न रोक पाएगा, कोई भी न रोक पाएगा। वह छिनेगा ही। वह तुम्हारा कभी था ही नहीं। तुमने नाहक ही अपना दावा कर दिया था। तुम्हारा दावा झूठा था, इसलिए तुम भयभीत हो रहे हो। और जो तुम्हारा है, वह कभी छिनेगा नहीं। लेकिन उसकी तरफ तुम्हारी नजर नहीं है। जो अपना नहीं है, उसको मानकर बैठे हो। और जो अपना है, उसे त्याग कर बैठे हो। संसार का यही अर्थ है। संपदा का त्याग और विपदा का भोग। संसार का यही अर्थ है, जो अपना नहीं है उसकी घोषणा कि मेरा है, और जो अपना है उसका विस्मरण।

जिसको स्वयं का स्मरण आ गया वह निर्भय हो जाता है। निर्भय नहीं, अभय हो जाता है। वह भय से मुक्त हो जाता है। जो तुम्हारा नहीं है उसने ही तो तुम्हें भिखारी बना दिया है। मांग रहे हो, हाथ फैलाए हो। और कितनी ही भिक्षा मिलती जाए मन भरता नहीं। मन भरना जानता ही नहीं।

बुद्ध कहते हैं, मन की आकांक्षा दुष्‍पूर है, वासना दुष्‍पूर है, वह कभी भरती नहीं।

एक सम्राट के द्वार पर एक भिखारी खड़ा था। और सम्राट ने कहा कि क्या चाहता है, उस भिखारी ने कहा, कुछ ज्यादा नहीं चाहता, यह मेरा भिक्षापात्र भर दिया जाए। छोटा सा पात्र था। सम्राट ने मजाक में ही कह दिया कि अब जब यह भिखारी सामने ही खड़ा है, और पात्र भरवाना है, और छोटा सा पात्र है, तो क्या अन्न के दानों से भरना, स्वर्ण अशर्फियों से भर दिया जाए।

मुश्किल में पड़ गया। स्वर्ण अशर्फियां भरी गयीं, सम्राट भी हैरान हुआ, वे स्वर्ण अशर्फियां खो गयीं। पात्र खाली का खाली रहा। लेकिन जिद पकड़ गई सम्राट को भी कि यह भिखारी, यह क्या मुझे हराने आया है! वह बड़ा सम्राट था, उसके खजाने बड़े भरपूर थे। उसने कहा कि चाहे सारा साम्राज्य लुट जाए लेकिन इस भिखारी से थोड़े ही हारूंगा! उसने डलवायीं अशर्फियां।

लेकिन धीरे-धीरे उसके हाथ-पैर कंपने लगे। क्योंकि डालते गए और वे खोती गयीं। आखिर वह घबड़ा गया।

वजीरों ने कहा कि ये तो सब लुट जाएगा। और यह पात्र कोई साधारण पात्र नहीं मालूम होता। यह तो कोई जादू का मामला है। यह आदमी तो कोई शैतान है। उस भिखारी ने कहा, मैं सिर्फ आदमी हूं र शैतान नहीं। और यह पात्र आदमी के हृदय से बनाया है। हृदय कब भरता है? यह भी नहीं भरता। इसमें कुछ शैतानियत नहीं है, सिर्फ मनुष्यता है।

कहते हैं, सम्राट उतरा सिंहासन से, उस भिखारी के पैर छुए और उसने कहा कि मुझे एक बात समझ में आ गई-न तेरा पात्र भरता है, न मेरा भरा है। तेरे पात्र में भी ये सब स्वर्ण अशर्फियां खो गयीं, और मेरे पात्र में भी खो गई थीं, लेकिन तूने मुझे जगा दिया। बस अब इसको भरने की कोई जरूरत न रही। अब इस पात्र को ही फेंक देना है। जो भरता ही नहीं उस पात्र को क्या ढोना!

लेकिन आदमी मांगे चला जाता है, जो उसका नहीं है। और चाहे कितनी ही बेइज्जती से मिले, बेशर्मी से मिले, मांगे चला जाता है। भिखारी बड़े बेशर्म होते हैं। तुम उनसे कहते चले जाते हो, हटो, आगे जाओ, वे जिद्द बांधकर खड़े रहते हैं। बड़े हठधर्मी होते हैं। हठयोगी। भिखमंगा मन ही बड़ा जिद्दी है। बड़ी बेशर्मी से मांगे चला जाता है।

पिला दे ओक से साकी जो मुझसे नफरत है

प्याला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

ओक से ही पी लेंगे।

प्याला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

मांगे चले जाते हैं। कोई लज्जा भी नहीं है। पात्र कभी भरता नहीं। कितने जन्मों से तुमने मांग है! कब जागोगे? कितनी बेइज्जती से मांगा है! कितने धक्के-मुक्के खाए हैं! कितनी बार निकाले गए हो महफिल से! फिर भी खड़े हो।

पिला दे ओक से साकी जो मुझसे नफरत है

प्याला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

संसार में आदमी कितनी बेइज्जती झेल लेता है। कितनी बेशर्मी से मांगे चला जाता है। और एक बात नहीं देखता कि इतना मांग लिया, कुछ भरता नहीं; पात्र खाली का खाली है। कितना मांग लिया, कुछ भरता नहीं, दुष्‍पूर है। जिस दिन यह दिखाई पड़ जाता है उसी दिन तुम पात्र छोड़ देते हो। उसी क्षण अभय उत्पन्न हो जाता है।

अभय उन्हीं को उत्पन्न होता है जिन्होंने यह सत्य देख लिया कि जो तुम्हारा है वह तुम्हारा है, मांगने की जरूरत नहीं। तुम उसके मालिक हो ही। और जो तुम्हारा नहीं है, कितना ही मांगो, कितना ही इकट्ठा करो, तुम मालिक उसके हो न पाओगे। जिसके तुम मालिक हो, परमात्मा ने तुम्हें उसका मालिक बनाया ही है। और जिसके तुम मालिक नहीं हो, उसका तुम्हें मालिक बनाया नहीं। इस व्यवस्था में तुम कोई हेर-फेर न कर पाओगे। यह व्यवस्था शाश्वत है। एस धम्मो सनंतनो।

और जिसके जीवन में अभय आ गया, बुद्ध कहते हैं, उसके जीवन में सब आ गया। वह परमात्मा स्वयं हो गया। जहां अभय आ गया, वहां उठती है प्रार्थना, वहां उठता है परमात्मा। लेकिन उसकी बुद्ध बात नहीं करते, वह बात करने की नहीं है।

वह चुपचाप समझ लेने की है। वह आंख से आंख में डाल देने की है। वह इशारे-इशारे में समझ लेने की है, जोर से कहने में मजा बिगड़ जाता है। वह बात चुप्पी में कहने की है। इसलिए बुद्ध उसकी बात नहीं करते। वे मूल बात कह देते हैं, आधार रख देते हैं फिर वे कहते हैं, बीज डाल दिया फिर तो वह अपने से ही अंकुर बन जाता है।

‘इस शरीर को घड़े के समान अनित्य जान, इस चित्त को नगर के समान दृढ़ ठहरा, प्रज्ञारूपी हथियार से मार से युद्ध कर, जीत के लाभ की रक्षा कर, और उसमें आसक्त न हो।’

‘इस शरीर को घड़े के समान अनित्य जान।’

शरीर घड़ा ही है। तुम भीतर भरे हो घड़े के, तुम घड़े नहीं हो। जैसे घड़े में जल भरा है। या और भी ठीक होगा, जैसा खाली घड़ा रखा है और घड़े में आकाश भरा है। घड़े को तोड़ दो, आकाश नहीं टूटता। घड़ा टूट जाता है, आकाश जहा था वहीं होता है। घड़ा टूट जाता है, सीमा मिट जाती है। जो सीमा में बंधा था वह असीम के साथ एक हो जाता है। घटाकाश आकाश के साथ एक हो जाता है।

शरीर घड़ा है। मिट्टी का है। मिट्टी से बना है, मिट्टी में ही गिर जाएगा। और जिसने यह समझ लिया कि मैं शरीर हूं वही भ्रांति में पड़ गया। सारी भ्रांति की शुरुआत इस बात से होती है कि मैं शरीर हूं। तुमने अपने वस्त्रों को अपना होना समझ लिया। तुमने अपने घर को अपना होना समझ लिया। ठहरे हो थोड़ी दैर को, पड़ाव है मंजिल नहीं, सुबह हुई और यात्रीदल चल पड़ेगा। थोड़ा जागकर इसे देखो।

मामूर-ए-फना की कोताहियां तो देखो

एक मौत का भी दिन है दो दिन की जिंदगी में

बड़ी कंजूसी है। बड़ी संकीर्णता है।

मामूर-ए-फनां की कोताहियां तो देखो

एक मौत का भी दिन है दो दिन की जिंदगी में

कुल दो दिन की जिंदगी है। उसमें भी एक मौत का दिन निकल जाता है। एक दिन की जिंदगी है और कैसे इठलाते हो! कैसे अकड़े जाते हो! कैसे भूल जाते हो कि मौत द्वार पर खड़ी है! शरीर मिट्टी है और मिट्टी में गिर जाएगा।

‘इस शरीर को घड़े के समान अनित्य जान।’

बुद्ध यह नहीं कहते कि मान। बुद्ध कहते हैं, जान। बुद्ध का सारा जोर बोध पर है। वे यह नहीं कहते कि मैं कहता हूं इसलिए मान ले कि शरीर घड़े की तरह है। वे कहते हैं, तू खुद ही जान। थोड़ा आंख बंद कर और पहचान, तू घड़े से अलग है। ध्यान रखना, जिस चीज के भी हम द्रष्टा हो सकते हैं, उससे हम अलग हैं। जिसके हम द्रष्टा न हो सकें, जिसको दृश्य न बनाया जा सके, वही हम हैं। आंख बंद करो और शरीर को तुम अलग देख सकते हो। हाथ टूट जाता है, तुम नहीं टूटते। तुम लाख कहो कि मैं टूट गया, बात गलत मालूम होगी, खुद ही गलत मालूम होगी। हाथ टूट गया, पैर टूट गया, आंख चली गई, तुम नहीं चले गए। भूख लगती है, शरीर को लगती है, तुम्हें नहीं लगती। हालांकि तुम कहे चले जाते हो कि मुझे भूख लगी है। प्यास लगती है, शरीर को लगती है। फिर जलधार चली जाती है, तृप्ति हो जाती है, शरीर को होती है।

सब तृप्तियाँ, सब अतृप्तिया शरीर की हैं। सब आना-जाना शरीर का है। बनना-मिटना शरीर का है। तुम न कभी आते, न कभी जाते। घड़े बनते रहते हैं, मिटते जाते हैं। भीतर का आकाश शाश्वत है। उसे कोई घड़ा कभी छू पाया! उस पर कभी धूल जमी! बादल बनते हैं, बिखर जाते हैं। आकाश पर कोई रेखा छूटती है! तुम पर भी नहीं छूटी। तुम्हारा क्वांरापन सदा क्वारा है। वह कभी गंदा नहीं हुआ। इस भीतर के सत्य के प्रति जरा आंख बाहर से बंद करो और जागो।

बुद्ध कहते हैं, ‘इस शरीर को घड़े के समान अनित्य जान।

सिद्धात की तरह मत मान लेना कि ठीक है। क्योंकि तुमने बहुत बार सुना है, महात्मागण समझाते रहते हैं, शरीर अनित्य है, क्षणभर का बुलबुला है, तुमने भी सुन-सुनकर याद कर ली है बात। याद करने से कुछ भी न होगा। जानना पड़ेगा। क्योंकि जानने से मुक्ति आती है। ज्ञान रूपांतरित करता है।

इस चित्त को इस तरह ठहरा ले जैसे कि कोई नगर चट्टान पर बसा हो, या किसी नगर का किला पहाड़ की चट्टान पर बना हो-अडिग चट्टान पर बना हो।

‘इस चित्त को नगरकोट के समान दृढ़ ठहरा ले।’

सारी कला इतनी ही है कि मन न कंपे, अकंप हो जाए। क्योंकि जब तक मन कंपता है तब तक दृष्टि नहीं होती। जब तक मन कंपता है तब तक तुम देखोगे कैसे? जिससे देखते थे वही कैप रहा है। ऐसा समझो कि तुम एक चश्मा लगाए हुए हो, और चश्मा कैप रहा है। चश्मा कैप रहा है, जैसे कि हवा में पत्ता कैप रहा हो, कोई पत्ता कंप रहा हो तूफान में, ऐसा तुम्हारा चश्मा कैप रहा है। तुम कैसे देख पाओगे? दृष्टि असंभव हो जाएगी। चश्मा ठहरा हुआ होना चाहिए।

मन कंपता हो, तो तुम सत्य को न जान पाओगे। मन के कंपने के कारण सत्य तुम्हें संसार जैसा दिखाई पड़ रहा है। जो एक है, वह अनेक जैसा दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि मन कंप रहा है। जैसे कि रात चांद है, पूरा चांद है आकाश में, और झील नीचे कंप रही है लहरों से, तो हजार टुकड़े हो जाते हैं चांद के, प्रतिबिंब नहीं बनता। पूरे झील पर चांदी फैल जाता है, लेकिन चांद का प्रतिबिंब नहीं बनता। हजार टुकड़े ‘हो जाते हैं। फिर झील ठहर गई, लहर नहीं कंपती, सब मौन हो गया, सन्नाटा हो गया, झील दर्पण बन गई, अब चांद एक बनने लगा। अनेक दिखाई पड़ रहा है, अनेक है नहीं। अनेक दिखाई पड़ रहा है कंपते हुए मन के कारण।

मैंने सुना है, एक रात मुल्ला नसरुद्दीन घर आया। शराब ज्‍यादा पी गया है। हाथ में चाबी लेकर ताले में डालता है, नहीं जाती, हाथ कंप रहा है। पुलिस का आदमी द्वार पर खड़ा है। वह बड़ी देर तक देखता रहा, फिर उसने कहा कि नसरुद्दीन, मैं कुछ सहायता करूं? लाओ चाबी मुझे दो, मैं खोल दूं। नसरुद्दीन ने कहा, चाबी की तुम फिकर न करो, जरा इस कंपते मकान को तुम पकड़ लो, चाबी तो मैं खुद ही डाल दूंगा।

जब आदमी के भीतर शराब में सब कैप रहा हो, तो उसे ऐसा नहीं लगता कि मैं कैप रहा हूं; उसे लगता है यह मकान कंप रहा है। तुमने कभी शराब पी? भांग पीकर कभी चले रास्ते पर? जरूर चलकर देखना चाहिए, एक दफा अनुभव करने जैसा है। उससे तुम्हें पूरे जीवन के अनुभव का पता चल जाएगा कि ऐसा ही संसार है। इसमें तुम नशे में चल रहे हो। तुम कैप रहे हो, कुछ भी नहीं कंप रहा है। तुम खंड-खंड हो गए हो, बाहर तो जो है वह अखंड है। तुम अनेक टुकड़ों में बंट गए हो, बाहर तो एक है। दर्पण टूट गया है तो बहुत चित्र दिखाई पड़ रहे हैं, जो. है वह एक है। बुद्ध कहते हैं, चित्त ठहर जाए, अकंप हो जाए, जैसे दीए की लौ ठहर जाए, कोई हवा कंपाए न।

‘प्रज्ञारूपी हथियार से मार से युद्ध कर, जीत के लाभ की रक्षा कर, पर उसमें आसक्त न हो।

यह बड़ी कठिन बात है। कठिनतम, साधक के लिए। क्योंकि इसमें विरोधाभास है। बुद्ध कहते हैं, आकांक्षा कर, लेकिन आसक्त मत हो। सत्य की आकांक्षा करनी होगी। और सत्य को जीतने की भी यात्रा करनी होगी। विजय को सुरक्षित करना होगा, नहीं तो खो जाएगी हाथ से विजय। ऐसे बैठे-ठाले नहीं मिल जाती है। बड़ा उद्यम, बड़ा उद्योग, बड़ा श्रम, बड़ी साधना, बड़ी तपश्चर्या।

‘जीत के लाभ की रक्षा कर।

और जो छोटी-मोटी जीत मिले उसको बचाना, रक्षा करना, भूल मत जाना नहीं तो जो कमाया है वह भी खो जाता है।

तो ध्यान सतत करना होगा, जब तक समाधि उपलब्ध न हो जाए। अगर एक दिन की भी गाफिलता की, एक दिन की भी भूल-चूक की, तो जो कमाया था वह खोने लगता है। ध्यान तो ऐसा ही है जैसे कि कोई साइकिल पर सवार आदमी पैडल मारता है। वह सोचे कि अब तो चल पड़ी है साइकिल, अब क्या पैडल मारना! पैडल मारना बंद कर दे तो ज्यादा देर साइकिल न चलेगी। चढ़ाव होगा तब तो फौरन ही गिर जाएगी। उतार होगा तो शायद थोड़ी दूर चली जाए, लेकिन कितनी दूर जाएगी? ज्यादा दूर नहीं जा सकती। सतत पैडल मारने होंगे, जब तक कि मंजिल ही न आ जाए।

ध्यान रोज करना होगा। जो-जो कमाया है ध्यान से, उसकी रक्षा करनी होगी। ‘जीत के लाभ की रक्षा कर। ‘

वह जो-जो हाथ में आ जाए उसको तो बचाना। जितना थोड़ा सा चित्त साफ हो जाए, ऐसा मत सोचना कि अब क्या करना है सफाई। वह फिर गंदा हो जाएगा। जब तक कि परिपूर्ण अवस्था न आ जाए समाधि की तब तक श्रम जारी रखना होगा।

हां, समाधि फलित हो जाए, फिर कोई श्रम का सवाल नहीं। समाधि उपलब्ध हो जाए, फिर तो तुम उस जगह पहुंच गए जहा कोई चीज तुम्हें कलुषित नहीं कर सकती। मंजिल पर पहुंच गए। फिर तो साइकिल को चलाना ही नहीं, उतर ही जाना है। फिर तो जो पैडल मारे वह नासमझ। क्योंकि वह फिर मंजिल के इधर-उधर हो जाएगा। एक ऐसी घड़ी आती है, जहां उतर जाना है, जहा रुक जाना है, जहां यात्रा ठहर जाएगी। लेकिन उस घड़ी के पहले तो श्रम जारी रखना। और जो भी छोटी-मोटी विजय मिल जाए, उसको सम्हालना है। संपदा को बचाना है।

‘प्रज्ञारूपी हथियार से मार से युद्ध कर।

वही एक हथियार है आदमी के पास-होश का, प्रज्ञा का। उसी के साथ वासना से लड़ा जा सकता है। और कोई हथियार काम न आएगा। जबर्दस्ती से लड़ोगे, हारोगे। दबाओगे, टूटोगे। वासना को किसी तरह छिपाओगे, छिपेगी नहीं। आज नहीं कल फूट पड़ेगी। विस्फोट होगा, पागल हो जाओगे। विक्षिप्त हो जाओगे, विमुक्त नहीं। एक ही उपाय है, जिससे भी लड़ना हो होश से लड़ना। होश को ही एकमात्र अस्त्र बना लेना। अगर क्रोध है, तो क्रोध को दबाना मत क्रोध को देखना, क्रोध के प्रति जागना। अगर काम है, तो काम पर ध्यान करना। होश से भरकर देखना, क्या है काम की वृत्ति।

और तुम चकित होओगे, इन सारी वृत्तियों का अस्तित्व निद्रा में है, प्रमाद में है। जैसे दीया जलने पर अंधेरा खो जाता है, ऐसे ही होश के आने पर ये वृत्तियां खो जाती हैं। मार, शैतान, काम-कुछ भी नाम दो-तुम्हारी मूर्च्छा का ही नाम है।

अहो! यह तुच्छ शरीर शीघ्र ही चेतना-रहित होकर व्यर्थ काठ की भांति पृथ्वी पर पड़ा रहेगा।

बुद्ध कहते हैं, जब तुम जागकर देखोगे, परम आनंद का अनुभव होगा। भीतर। एक उदघोष होगा–

‘अहो! यह तुच्छ शरीर शीघ्र ही चेतना-रहित होकर व्यर्थ काठ की भांति पृथ्वी पर पड़ा रहेगा।’

यह शरीर तुम नहीं। और जिस दिन तुम अपने शरीर को व्यर्थ काठ की भाति पड़ा हुआ देख लोगे, उसी दिन तुम शरीर के पार हो गए। अतिक्रमण हुआ। शरीर मौत है। शरीर रोग है। शरीर उपाधि है। जो शरीर से मुक्त हुआ, वह निरुपाधिक हो गया।

शरीर से मुक्त होने का क्या अर्थ है? शरीर से मुक्त होने का अर्थ है, इस बात। की प्रतीति गहन हो जाए, सघन हो जाए; यह लकीर फिर मिटाए न मिटे, यह बोध

फिर दबाए न दबे; यह बोध सतत हो जाए; जागने में, सोने में यह अनुभव होता रहे कि तुम शरीर में हो, शरीर ही नहीं।

‘जितनी हानि द्वेषी-द्वेषी की या वैरी-वैरी की करता है, उससे अधिक बुराई गलत मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है।

दुश्मन से मत डरो, बुद्ध कहते हैं, वह तुम्हारा क्या बिगाड़ेगा? डरो अपने चित्त से। शत्रु-शत्रु की इतनी हानि नहीं करता-नहीं कर सकता-जितना तुम्हारा चित्त गलत दिशा में जाता हुआ तुम्हारी हानि करता है। बुद्ध ने कहा है तुम्हारा ठीक दिशा में जाता चित्त ही मित्र है। और तुम्हारा गलत दिशा में जाता चित्त ही शत्रु है। तुम अपने ही चित्त से सावधान हो जाओ। तुम अपने ही चित्त का सदुपयोग कर लो, सम्यक उपयोग कर लो, फिर तुम्हारी कोई हानि नहीं करता। अगर कोई दूसरा भी तुम्हारी हानि कर पाता है, तो सिर्फ इसीलिए कि तुम्हारा चित्त गलत दिशा में जा रहा था, नहीं तो कोई तुम्हारी हानि नहीं कर सकता। ठीक दिशा में जाते चित्त की हानि असंभव है। इसलिए असली सवाल उसी भीतर के दृढ़ दुर्ग को उपलब्ध कर लेना है।

‘जितनी हानि द्वेषी-द्वेषी की या वैरी-वैरी की करता है, उससे अधिक बुराई गलत मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है। ‘

क्या है गलत मार्ग? स्वयं को न देखकर शेष सब दिशाओं में भटकते रहना। भीतर न खोजकर, और सब जगह खोजना। अपने में न झांककर सब जगह झांकना। अपने घर न आना, और हर घर के सामने भीख मलना गलत मार्ग है। और ऐसे तुम चलते ही रहे हो!

चलता हूं थोड़ी दूर हर एक सहरी के साथ

पहचानता नहीं हूं अभी राहबर को मैं

यह चित्त तुम्हारा हरेक के साथ हो जाता है। कोई भी यात्री मिल जाता है, उसी के साथ हो जाता है। कोई स्त्री मिल गई, कोई पुरुष मिल गया, कोई पद मिल गया, कोई धन मिल गया, कोई यश मिल गया, चल पड़ा। थोड़ी दूर चलता है, फिर हाथ खाली पाकर फिर किसी दूसरे के साथ चलने लगता है। राह पर चलते अजनबियों के साथ हो लेता है। अभी अपने मार्गदर्शक को पहचानता नहीं है।

चलता हूं थोड़ी दूर हर एक सहरी के साथ

जो मिल गया उसी के साथ हो लेता है।

अपना कोई होश नहीं।

पहचानता नहीं हूं अभी राहबर को मैं

अभी कौन मार्गदर्शक है, कौन गुरु है,

उसे मैं पहचानता नही।

बुद्ध ने कहा है, तुम्हारा होश ही तुम्हारा गुरु है। कभी आंख लुभा लेती है, रूप की तरफ चल पड़ता है। कभी कान लुभा लेता है, संगीत की तरफ चल पड़ता है। कभी जीभ लुभा लेती है, स्वाद की तरफ चल पड़ता है।

चलता हूं थोड़ी दूर हर एक शहरी के साथ

पर हाथ कभी भरते नहीं, प्राण कभी तृप्त होते नहीं। सोचकर कि यह ठीक नहीं, फिर किसी और के साथ चल पड़ते हैं। मगर एक बात याद नहीं आती-

पहचानता नहीं हूं अभी राहबर को मैं

कौन है जिसके पीछे चलूं? होश, जागृति, ध्यान, उसके पीछे चलो तो ही पहुंच पाओगे। क्योंकि उसका जिसने साथ पकड़ लिया वह अपने घर लौट आता है, वह अपने स्रोत पर आ जाता है। गंगा गंगोत्री वापस आ जाती है।

‘जितनी भलाई माता-पिता या दूसरे बंधु-बांधव नहीं कर सकते, उससे अधिक भलाई सही मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है। ‘

और कोई मित्र नहीं है, और कोई सगा-साथी नहीं है। और कोई संगी संग करने योग्य नहीं है। एक ही साथ खोज लेने योग्य है, अपने बोध का साथ। फिर तुम वीराने में भी रहो, रेगिस्तान में भी रहो, तो भी अकेले नहीं हो। और अभी तुम भरी दुनिया में हो और बिलकुल अकेले हो। चारों तरफ भीड़- भाड़ है, बड़ा शोरगुल है, पर तुम बिलकुल अकेले हो। कौन है तुम्हारे साथ ‘ मौत आएगी, कौन तुम्हारे साथ जा सकेगा? लोग मरघट तक पहुंचा आएंगे। उससे आगे फिर कोई तुम्हारे साथ जाने को नहीं है। फिर तुम्हें कहना ही पड़ेगा, मन से कहो, बेमन से कहो-

शुक्रिया ऐ कब तक पहुंचाने वाले शुक्रिया

अब अकेले ही चले जाएंगे इस मंजिल से हम

फिर चाहे मन से कहो, चाहे बेमन से कहो; कहो चाहे न कहो; मौत के बाद अकेले हो जाओगे। थोड़ा सोचो, जो मौत में काम न पड़े वे जीवन में साथ थे! जो मौत में भी साथ न हो सका, वह जीवन में साथ कैसे हो सकता है? धोखा था, एक भ्रांति थी। मन को भुला लिया था, मना लिया था, समझा लिया था। डर लगता था अकेले में। अकेले होने में बेचैनी होती थी। चारों तरफ एक सपना बसा लिया था। अपनी ही कल्पनाओं का जाल बुन लिया था। अपने अकेलेपन को भुलाने के लिए मान बैठे थे कि साथ है। लेकिन कोई किसी के साथ नहीं। कोई किसी के संग नहीं। अकेले हम आते हैं और अकेले हम जाते हैं। और अकेले हम यहां हैं, क्योंकि दो अकेलेपन के बीच में कहां साथ हो सकता है?

जन्म के पहले अकेले, मौत के बाद अकेले, यह थोड़ी सी दूर पर राह मिलती है, इस राह पर बड़ी भीड़ चलती है, तुम यह मत सोचना तुम्हारे साथ चल रही है। सब अकेले-अकेले चल रहे हैं। कितनी ही बड़ी भीड़ चल रही हो, सब अकेले- अकेले चल रहे हैं। इसको जिसने जान लिया, इसको जिसने समझ लिया, वह फिर अपना साथ खोजता है। क्योंकि वही मौत के बाद भी साथ होगा। फिर वह अपना साथ खोजता है। वह कभी न छूटेगा।

अपना साथ खोजना ही ध्यान है। दूसरे का साथ खोजना ही विचार है। इसलिए

विचार में सदा दूसरे की याद बनी रहती है। तुम्हारे सब विचार दूसरे की याद हैं। अगर तुम ध्यान करो-विचार पर विचार करो बैठकर-तो तुम पाओगे तुम्हारे विचारों में तुम करते क्या हो? तुम्हारे विचारों में तुम दूसरों की याद करते हो। बाहर से साथ न हों, तो भीतर से साथ हैं।

एक युवा संन्यस्त होने एक गुरु के पास पहुंचा। निर्जन मंदिर में उसने प्रवेश किया। गुरु ने उसके चारों तरफ देखा और कहा कि किसलिए आए हो? उस युवक ने कहा कि सब छोड़कर आया हूं तुम्हारे चरणों में, परमात्मा को खोजना है। उस गुरु ने कहा, पहले ये भीड़- भाड़ जो तुम साथ ले आए हो बाहर ही छोड़ आओ। उस युवक ने चौंककर चारों तरफ देखा, वहां तो कोई भी न था। भीड़- भाड़ का नाम ही न था, वह अकेले ही खड़ा था। उसने कहा, आप भी कैसी बात करते हैं, मैं बिलकुल अकेला हूं। तब तो उस युवक को थोड़ा शक हुआ कि मैं किसी पागल के पास तो नहीं आ गया!

उस गुरु ने कहा, वह मुझे भी दिखाई पड़ता है। आंख बंद करके देखो, वहां भीड़- भाड़ है। उसने आंख बंद की, जिस पत्नी को रोते हुए छोड़ आया है, वह दिखाई पड़ी। जिन मित्रों को गांव के बाहर बिदा मांग आया है, वे खड़े हुए दिखाई पड़े। बाजार, दुकान, संबंधी, तब उसे समझ आया कि भीड़ तो साथ है।

विचार बाहर की भीड़ के प्रतिबिंब है। विचार, जो तुम्हारे साथ नहीं हैं उनको साथ मान लेने की कल्पना है। ध्यान में तुम बिलकुल अकेले हो; या अपने ही साथ हो, बस।

‘जितनी भलाई माता-पिता या दूसरे बंधु-बांधव नहीं कर सकते, उससे अधिक भलाई सही मार्ग पर लगा चित्त करता है। ‘

सही मार्ग से क्या मतलब? अपनी तरफ लौटता। जिसको पतंजलि ने प्रत्याहार कहा है। भीतर की तरफ लौटता। जिसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा है। अपनी तरफ आता हुआ। जिसको जीसस ने कहा है, लोटों, क्योंकि परमात्मा का राज्य बिलकुल हाथ के करीब है। वापस आ जाओ।

यह वापसी, यह लौटना ध्यान है। यह लौटना ही चित्त का ठीक लगना है। तुम चित्त के ठीक लगने से यह मत समझ लेना कि अच्छी-अच्छी बातों में लगा है। फिल्म की नहीं सोचता, स्वर्ग की सोचता है। स्वर्ग भी फिल्म है। अच्छी-अच्छी बातों में लगा है। दुकान की नहीं सोचता, मंदिर की सोचता है। मंदिर भी दुकान है। अच्छी-अच्छी बातों में लगा है। यह मत समझ लेना मतलब कि पाप की नहीं सोचता, पुण्य की सोचता है। पुण्य भी पाप है। अच्छी-अच्छी बातों का तुम मतलब मत समझ लेना कि राम-राम जपता है। मरा-मरा जपो कि राम-राम जपो, सब बराबर है। दूसरे की याद, पर का चिंतन! फिर वह मंदिर का हो कि दुकान का, राम का हो कि रहीम का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

ठीक दिशा में लगे चित्त का अर्थ है, अपनी दिशा में लौटता। वहा विचार छूटते जाते हैं। धीरे- धीरे तुम ही रह जाते हो, तुम्हारा अकेला होना रह जाता है। शुद्ध। मात्र तुम। इतना शुद्ध कि मैं का भाव भी नही उठता। क्योंकि मैं का भाव भी एक विचार है। अहंकार भी नहीं उठता, क्योंकि अहंकार भी एक विचार है। जब और सब छूट जाते हैं, उन्हीं के साथ वह भी छूट जाता है। जिस मुकाम पर तुम ‘तू। को छोड़ आते हो, वहीं ‘मैं’ भी छूट जाता है। जहां तुम दूसरों को छोड़ आते हो, वहीं तुम भी छूट जाते हो। फिर जो शेष रह जाता है, फिर जो शेष रह जाता है शुद्धतम, जब तक उसको न पा लो तब तक जिंदगी गलत दिशा में लगी है।

ये जिंदगी गुजार रहा हूं तेरे बगैर

जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं मैं

जब तक इस जगह न आ जाओ तब तक सारी जिंदगी एक गुनाह है, एक पाप है। तब तक तुम कितना ही अपने को समझाओ, कितना ही अपने को ठहराओ, तुम कंपते ही रहोगे भय से। तब तक तुम कितना ही समझाओ, तुम धोखा दे न पाओगे। तुम्हारी हर सांत्वना के नीचे से खाई झांकती ही रहेगी भय की, घबड़ाहट की। मृत्यु तुम्हारे पास ही खड़ी रहेगी। तुम्हारी जिंदगी को जिंदगी मानकर तुम धोखा न दे पाओगे। और तुम कितने ही पुण्य करो, जब तक तुम स्वयं की सत्ता में नहीं प्रविष्ट हो गए हो-

ये जिंदगी गुजार रहा हूं तेरे बगैर

वही परमात्मा है। वही तुम्हारा होना है-तुमसे भी मुका। वही परमात्मा है। जहा घड़ा छूट गया और कोरा आकाश रह गया। नया, फिर भी सनातन। सदा का, फिर भी सदा नया और ताजा।

ये जिंदगी गुजार रहा हूं तेरे बगैर

जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं मैं

और जब तक तुम उस जगह नहीं पहुंच जाते तब तक तुम अनुभव करते ही रहोगे कि कोई पाप हुआ जा रहा है। कुछ भूल हुई जा रही है। पैर कहीं गलत पड़े जा रहे हैं। लाख सम्हालो, तुम सम्हल न पाओगे। एक ही सम्हलना है, और वह सम्हलना है धीरे- धीरे अपनी तरफ सरकना। उस भीतरी बिंदु पर पहुंच जाना है, जिसके आगे और कुछ भी नहीं। जिसके पार बस विराट आकाश है।

इसे बुद्ध ने शुद्धता कहा है। इस शुद्धता में जो प्रविष्ट हो गया उसने ही निर्वाण पा लिया। उसने ही वह पा लिया जिसे पाने के लिए जीवन है। और जब तक ऐसा न हो जाए तब तक गुनगुनाते ही रहना भीतर, गुनगुनाते ही रहना-

ये जिंदगी गुजार रहा हूं तेरे बगैर

जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं मैं

इसे याद रखना तब तक। भूल मत जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी पड़ाव

पर ही सोए रह जाओ। कहीं ऐसा न हो कि तुम भूल ही जाओ कि जीवन जागने का पाठशाला है। इससे उत्तीर्ण होना है। यहां घर बसाकर बैठ नहीं जाना है।

आज इतना ही।



Filed under: एस धम्‍मों सनंतनो--भाग-2 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

एस धम्‍मों संतननो (भाग–2) प्रवचन–14

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अनंत छिपा है क्षण में–(प्रवचन—चौदहवां)

पहला प्रश्न :

 आप श्रद्धा, प्रेम, आनंद की चर्चा करते हैं, लेकिन आप शक्ति के बारे में क्यों नहीं समझाते? आजकल मुझमें असह्य शक्ति का आविर्भाव हो रहा है। यह क्या है और इस स्थिति में मुझे क्या रुख लेना चाहिए?

क्‍ति की बात करनी जरूरी ही नहीं। जब शक्ति का आविर्भाव हो तो प्रेम में उसे बांटो, आनंद में उसे ढालो। उसे दोनों हाथ उलीचो।

शक्ति के आविर्भाव के बाद अगर उलीचा न, अगर बांटा न, अगर औरों को साझीदार न बनाया, अगर प्रेम के गीत न गाए, उत्सव पैदा न किया जीवन में, तो शक्ति बोझ बन जाएगी। तो शक्ति पत्थर की तरह छाती पर बैठ जाएगी। फिर शक्ति से समस्या उठेगी।

गरीबी की ही समस्याएं नहीं हैं संसार में, अमीरी की बड़ी समस्याएं हैं। लेकिन अमीर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो धन उसे मिल गया, उसका क्या करे? पर यह भी कोई समस्या है? उसे बांटो, उसे लुटाओ। बहुत हैं जिनके पास नहीं है, उन्हें दो।

कठिनाई इसलिए खड़ी होती है कि हमने जीवन में केवल मांगने की कला सीखी है। और जब हम सम्राट बनते हैं, तो अड़चन आ जाती है। बताने की कला का अभ्यास, फिर अचानक जब हम सम्राट बन जाते हैं परमात्मा के प्रसाद से, उतरती है अपरिसीम ऊर्जा, तब भी हम मलना ही जानते हैं, देना नहीं जानते। हमारे जीने का सारा ढंग मांगना सिखाता है। फिर जब परमात्मा हम पर बरसता है तो बांटने की हमारे पास कोई कला नहीं होती, आदत नहीं होती, अभ्यास नहीं होता, इसलिए अड़चन आती है। यही तो कठिनाई है।

मेरे पास बहुत अमीर लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, बड़ी अड़चन है; धन तो है, क्या करें? अड़चन क्या है? अड़चन यही है कि आदत गरीबी की है, आदत भिखारी की है। अड़चन यही है। जिंदगी भर मांगा–कमाना सीखा। बांटना तो कभी सीखा नहीं! सीखते भी कैसे? था ही नहीं तो बांटते क्या? जो नहीं था उसको मांगा, इकट्ठा किया, जोड़ा, संजोया, सारा जीवन इकट्ठा करने कोई आदत बन गई। फिर मिला; अब देने को हाथ नहीं खुलते, बढ़ते नहीं, यही अड़चन है। यह अड़चन समझ ली तो हल हो गई। कुछ करना थोड़े ही है।

शक्ति मिल गई, आविर्भाव हुआ, यही तो सारे ध्यान की चेष्टा है।

और तुम पूछते हो कि ‘आप श्रद्धा, प्रेम, आनंद की बात करते हैं, शक्ति के बारे में क्यों नहीं समझाते ”

वही तो मैं शक्ति के बारे में समझा रहा हूं कि जब शक्ति उठे, तो आनंद बनाना। नहीं तो मुश्किल खड़ी होगी। जब शक्ति उठे तो नाचना। फिर साधारण चलने से काम न बनेगा, दौड़ना। फिर ऐसे ही उठना-बैठना काफी न होगा। अपूर्व नृत्य जब तक जीवन में न होगा तब तक बोझ मालूम होगा। जितनी बड़ी शक्ति, उतनी बड़ी जिम्मेवारी उतरती है। जितना ज्यादा तुम्हारे पास है, अगर तुम उसे फैला न सके तो बोझ हो जाएगा।

शक्ति की समस्या नहीं है, फैलाना सीखो। इसलिए तो प्रेम की बात करता हूं शक्ति की बात नहीं करता। जिनके पास शक्ति नहीं है, उन्हें शक्ति के संबंध में क्या समझाना? जिनके पास है, उन्हें शक्ति के संबंध में क्या समझाना? जिनके पास नहीं है, उन्हें शक्ति कैसे पैदा की जाए-कैसे ध्यान, साधना, तपश्चर्या, अभ्यास, योग, तंत्र-कैसे शक्ति पैदा की जाए, यह समझाना जरूरी है। फिर जिनके पास शक्ति आ जाए, द्वार खुल जाए परमात्मा का और बरसने लगे उसकी ऊर्जा, उन्हें शक्ति के संबंध में क्या समझाना? जब शक्ति सामने ही खड़ी है तो अब उसके संबंध में क्या बात करनी? उन्हें समझाना है प्रेम, आनंद, उत्सव। इसलिए प्रत्येक ध्यान पर मेरा जोर रहा है कि तुम उसे उत्सव में पूरा करना। कहीं ऐसा न हो कि ध्यान करने का तो अभ्यास हो जाए, और बांटने का अभ्यास न हो।

बहुत लोग दीनता से मरे हैं, बहुत लोग साम्राज्य से मर गए हैं। बहुत से लोग

इसलिए दुखी हैं कि उनके पास नहीं है, फिर बहुत से लोग इसलिए दुखी हो जाते हैं कि उनके पास है, अब क्या करें? और जीवन का जो रसाध्यक्ष है, वह देखता है कि तुमने अपनी ऊर्जा का क्या उपयोग किया? उसे संचित किए चले गए? कृपणता की? इकट्ठा किया? तो जिससे महाआनंद फलित हो सकता था उससे सिर्फ नर्क ही निर्मित होगा।

तुमने कभी खयाल किया, मीरा ने कुंडलिनी की बात नहीं की। बचेगी कहां कुंडलिनी? नाच में बह जाती है। योगी करते हैं बात, क्योंकि बांटना नहीं जानते। कुंडलिनी का अर्थ क्या है? ऊर्जा उठी और बह नहीं पा रही है। तो भीतर भरी मालूम पड़ती है। लेकिन मीरा में कहो बचेगी? भरने के पहले लुटाना आता है। आती भी नहीं कि बांट देती है। गीत बना लेती है, नाच ढाल लेती है। उत्सव में रूपांतरित हो जाती है। इसलिए मीरा ने कुंडलिनी की बात नहीं की 1 चैतन्य ने कुंडलिनी की बात नहीं की। तुम चकित होओगे, भक्तों ने बात ही नहीं की कुंडलिनी की।

क्या भक्तों को कभी कुंडलिनी का अनुभव नहीं हुआ है? एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या भक्तों ने कुंडलिनी को नहीं जाना? जाना, लेकिन इकट्ठा नहीं किया। इसलिए कभी समस्या न बनी। कृपण के लिए धन समस्या हो जाती है। दाता के लिए कोई समस्या है? दाता तो आनंदित होता है कि इतने दिन तक बांटने की इतनी आकांक्षा थी, अब पूरी हुई जाती है।

मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा

रसाध्यक्ष, जीवन का जो उत्सव जांच रहा है, देख रहा है, वह माला के दानों पर गिनता रहा-

मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा

किनने पी किनने न पी किन-किन के आगे जाम था

शक्ति का अर्थ है, तुम्हारे आगे जाम है, अब पी लो। मत पूछो कि जाम का क्या करें? सामने प्याली भरी है। पीयो और पिलाओ। उत्सव बनो।

यहूदियों की अदभुत किताब तालमुद कहती है, परमात्मा तुमसे यह न पूछेगा कि तुमने कौन-कौन सी भूलें कीं? परमात्मा तुमसे यही पूछेगा कि तुमने आनंद के कौन-कौन से अवसर गंवाए? तुमसे यह न पूछेगा, तुमने कौन-कौन से पाप किए? यह बात मुझे बड़ी जंचती है। परमात्मा और पाप का हिसाब रखे, बात ही ठीक नहीं। परमात्मा और पापों का हिसाब रखे! परमात्मा न हुआ तुम्हारा प्राइवेट सेक्रेटरी हो गया। कोई पुलिस का इंस्पेक्टर हो गया। कोई अदालत का मजिस्ट्रेट हो गया। परमात्मा न हुआ कोई आलोचक हो गया, कोई निंदक हो गया। परमात्मा की इतनी बड़ी आंखों में तुम्हारे पाप दिखाई पड़ेंगे? तुम्हारी भूलें दिखाई पड़ेगी?

नहीं, तालमुद ठीक कहता है, परमात्मा पूछेगा कि इतने सुख के अवसर दिए उनको गंवाया क्यों? इतने नाचने के मौके थे, तुम बैठे क्यों रहे? इतने कंजूस क्यों थे? इतने कृपण क्यों थे? मैंने तुम्हें इतना दिया था, तुमने उसे बांटा होता। तुमने उसे बहाया होता। तुम एक बंद सरोवर की तरह क्यों रहे? तुम बहती हुई सरिता क्यों न बने? तुम कृपण वृक्ष की तरह रहे कि जिसने फूलों को न खिलने दिया कि कहीं सुगंध बंट न जाए! तुम एक खदान की तरह रहे जो अपने हीरों को दबाए रही, कहीं सूरज की रोशनी न लग जाए!

परमात्मा ने तुम्हारे सामने जीवन की प्याली भरकर रख दी है। और एक बात समझ लेना कि तुम जितना इस प्याली पर दूसरों को निमंत्रित करोगे, उतनी यह प्याली भरती चली जाएगी। तुम इसे खाली ही न करोगे, तो यह बोझ भी हो जाएगी, और परमात्मा भरे कैसे इसे? और कैसे भरे? यह भरी हुई रखी है। तुम इसे उलीचो, खाली करो। तुम पर बोझ भी न होगी और परमात्मा को और भरने का मौका दो। जिसने एक आनंद की घड़ी का उपयोग कर लिया उसके जीवन में दस आनंद की घड़िया उपलब्ध हो जाती हैं। जो एक बार नाचा, दस बार नाचने की क्षमता उसे उपलब्ध हो जाती है।

लेकिन यह बड़ी कठिन बात है। तुम कहते जरूर हो आनंद चाहते हैं, लेकिन तुम्हें आनंद के स्वभाव का कुछ पता नहीं। तुम्हें आनंद भी मिल जाए तो तुम उससे भी दुख पाओगे। तुम ऐसे अभ्यासी हो गए हो दुख के। दुख का स्वभाव है सिकुड़ना, आनंद का स्वभाव है फैलना। इसलिए जब कोई दुख में होता है तो एकांत चाहता है। बंद कमरा करके पड़ा रहता है अपने बिस्तर पर सिर को ढांककर। न किसी से मिलना चाहता है, न किसी से जुलना चाहता है। चाहता है मर ही जाऊं। कभी-कभी आत्महत्या भी कर लेता है कोई। सिर्फ इसीलिए कि अब क्या मिलने को रहा?

लेकिन जब तुम आनंदित होते हो, तब तुम मित्रों को बुलाना चाहते हो। मित्रों से मिलना चाहते हो। तुम चाहते हो किसी से बांटों, किसी को तुम्हारा गीत सुनाओ, कोई तुम्हारे फूल की गंध से आनंदित हो। तुम किसी को भोज पर आमंत्रित करते हो। तुम मेहमानों को पूला आते हो, आमंत्रण दे आते हो।

मेरे एक प्रोफेसर थे। उनका मुझसे बड़ा लगाव था। लेकिन वे मुझे घर बुलाने में डरते थे, क्योंकि शराब पीने की उन्हें आदत थी। और कहीं ऐसा न हो कि मुझे पता चल जाए। कहीं ऐसा न हो कि मेरे मन में उनकी जो प्रतिष्ठा है, वह गिर जाए। वे इससे बड़े भयभीत थे, बड़े डरे हुए थे। बहुत भले आदमी थे।

पर एक बार ऐसा हुआ कि मैं बीमार पड़ा और उन्हें मुझे हास्टल से घर ले जाना पड़ा। तो कोई दो महीने मैं उनके घर पर था। बड़ी मुश्किल हो गई। वे पीए कैसे? पांच-दस दिन के बाद तो भारी होने लगा मामला। मैंने उनसे पूछा कि आप कुछ परेशान हैं, मुझे कह ही दें-अगर आप ज्यादा परेशान हैं, या कोई अड़चन है मेरे होने से यहां, तो मैं चला जाऊं वापस। उन्होंने कहा कि नहीं। पर मैं अपनी परेशानी कहे देता हूं कि मुझे पीने की आदत है। तो मैंने कहा, यह भी कोई बात हुई! आप पी लेते, लुक-छिपकर पी लेते, इतना बड़ा बंगला है। उन्होंने कहा, यही तो मुश्किल है, कि जब भी कोई पीता है-असली पीने वाला-अकेले में नहीं पी सकता। चार-दस मित्रों को न बुलाऊं तो पी नहीं सकता। अकेले में भी क्या पीना! उन्होंने कहा, पीना कोई दुख थोड़े ही है, पीना एक उत्सव है।

वह बात मुझे याद रह गई। जब जीवन की साधारण मदिरा को भी लोग बांटकर पीते हैं, तो जब तुम्हारी प्याली में परमात्मा भर जाए, और तुम न बांटो! जब शराबी भी इतना जानते हैं कि अकेले पीने में कोई मजा नहीं, जब तक चार संगी-साथी न हों तो पीना क्या! जब शराबी भी इतने होशपूर्ण हैं कि चार को बांटकर पीते हैं, तो होश वालों का क्या कहना!

बांटो। शक्ति का आविर्भाव हुआ है, लुटाओ। और यह भी मत पूछो किसको दे रहे हो, क्योंकि यह भी कंजूसों की भाषा है। पात्र की चिंता वही करता है जो कंजूस है। वह पूछता है, किसको देना? पात्र है कि नहीं? दो पैसा देता है, तो सोचता है की यह आदमी दो पैसे का क्या करेगा? यह भी कोई देना हुआ, अगर हिसाब पहले रखा कि यह क्या करेगा? यह तो देना न हुआ, यह तो इंतजाम पहले ही न देने का कर लिया। यह तो तुमने इस आदमी को न दिया, सोच-विचारकर दिया।

मेरे एक मित्र थे, बड़े हिंदी के साहित्यकार थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष थे। और भारतीय संसद के सबसे पुराने सदस्य थे-पचास साल तक वे एम पी रहे। उनका जुगल किशोर बिड़ला से बहुत निकट संबंध था। मेरे काम में उन्हें रस था। वे कहने लगे कि मेरा संबंध है बिड़ला से, अगर वे उत्सुक हो जाएं आपके काम में तो बड़ी सहायता मिल सकती है। तो हम दोनों को मिलाया।

बिड़ला मुझसे बातचीत किए। उत्सुक हुए। कहने लगे, जितना आपको चाहिए मैं दूंगा। और जिस समय चाहिए, तब दूंगा। सिर्फ एक बात मुझे पक्की हो जानी चाहिए कि जो मैं दूंगा, उसका उपयोग क्या होगा? मैंने कहा, बात ही खतम करो। यह अपने से न बनेगा, यह सौदा नहीं हो सकता। अगर यही पूछना है कि आप जो देंगे उसका मैं क्या करूगां, अपने पास रखो। यह कोई देना हुआ? अगर बेशर्त देते हो, कि मैं तुम्हारे सामने ही यहां सड़क पर लुटाकर चला जाऊं, तो तुम मुझसे पूछ न सकोगे कि यह क्या किया? क्योंकि देने के बाद अगर तुम पूछ सको, तो तुमने ?rदया ही नहीं। और देने के पहले ही अगर तुम पूछने का इंतजाम कर लो, और पहले ही शर्त बांध लो, तो तुम किसी और को देना। यह शर्तबंद बात मुझसे न बनेगी।

वह बात टूट गई। आगे चलने का कोई उपाय न रहा। लोग देते भी हैं-अब बिड़ला जैसा धनपति भी हो, वह भी देता है तो शर्त रखकर देता है कि क्या काम में आएगा? किस काम में लगाएंगे? तो वह मुझे नहीं देता, अपने ही काम को देता है। उलटे मुझे भी सेवा में संलग्न कर रहा है। यह देना न हुआ, मुझे मुक्त में खरीद लेना हुआ।

मैंने कहा, मुझे देख लो, मुझे समझ लो, मुझे दो। फिर शेष मुझ पर छोड़ दो। फिर मैं जो करूंगा करूंगा। उसके संबंध में कोई बात फिर न उठेगी।

पात्र अपात्र की क्या चिंता करनी? फूल खिलता है तो इसकी थोड़े ही फिकर करता है कि कोई पास से आ रहा है वह सुगंध का ज्ञाता है, कि अमीर है या गरीब है, कि सौंदर्य का उपासक है या नहीं। फूल इसकी थोड़े ही फिकर करता है। फूल खिलता है तो सुगंध को लुटा देता है हवाओं में। राह से कोई न भी गुजरता हो, निर्जन हो राह, तो भी लुटा देता है। जब बादल भरते हैं तो इसकी थोड़े ही फिकर करते हैं, कहां बरस रहे हैं! भराव से बरसते हैं। इतना ज्यादा है कि बरसना ही पड़ेगा। तो पहाड़ पर भी बरस जाते हैं, जहां पानी की कोई जरूरत नहीं। झीलों पर भी बरसते हैं, जहां पानी भरा ही हुआ है। यह थोड़े ही सवाल है कि कहो बरसना? बरसना।

अगर तुम जीवन को देखोगे तो बेशर्त पाओगे। वह्मं- उत्सव बेशर्त है। वहां नाच अहर्निश चल रहा. है। किसी के लिए चल रहा है, ऐसा भी नहीं है। ज्यादा है। परमात्मा इतना अतिशय है, इतना अतिरेक से है कि क्या करे अगर न लुटे, न बरसे?

जब तुम्हारे जीवन में शक्ति का आविर्भाव मालूम हो, जब तुम्हें लगे कि बादल भर गया-मेघ भरपूर है, जब तुम्हें लगे कि शक्ति तुम्हारे भीतर उठी है, तो समस्या बनेगी। नाचना, गाना। पागल की तरह उत्सव मनाना। शक्ति विलीन हो जाएगी। और ऐसा नहीं है कि तुम पीछे शक्तिहीन हो जाओगे। शक्ति को बांटकर ही कोई वस्तुत: शक्तिशाली होता है। क्योंकि तब उसे पता चलता है, झरने अनंत हैं। जितना बांटो उतना बढ़ता जाता है।

मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा

ध्यान रखना, रसाध्यक्ष बैठा है। माला फेर रहा है। वह माला के दानों पर गिन रहा है-

किनने पी किनने न पी किन-किन के आगे जाम था

और एक ही पाप है जीवन में, और वह पाप है बिना उत्सव के विदा हो जाना। बिना नाचे, बिना गीत गाए विदा हो जाना। तुम्हारा गीत अगर अनगाया रह गया, तुम्हारा बीज अगर अनफूटा रह गया, तुम जो लेकर आए थे वह गंध कभी दसों दिशाओं में न फैली, तो परमात्मा तुमसे जरूर पूछेगा।

इसलिए जब शक्ति उठती है, तो सवाल उठता है कि अब क्‍या करें? हिसाब मत लगाओ। बेहिसाब लुटाओ। सभी पात्र हैं, क्योंकि सभी पात्रों में वही छिपा है। हर आंख से वही देखेगा नाच, और हर कान से वही सुनेगा गीत। हर नासारंध्र से सुवास उसी को मिलेगी।

एक बौद्ध साध्वी थी। उसके पास सोने की छोटी सी बुद्ध की प्रतिमा थी। स्वर्ण की। वह इतना उसे प्रेम करती थी, और जैसे कि साधारणत: कृपण मन होता है कि

वह अपनी धूप भी जलाती तो हवाओं में यहां-वहा न फैलने देती, उसे वापस धक्के दे-देकर अपने छोटे से बुद्ध को ही पहुंचा देती। फूल भी चढ़ाती तो भी डरी रहती कि गंध कहीं यहां-वहां न उड़ जाए।

फिर एक बड़ी मुसीबत हुई एक रात। वह एक मंदिर में ठहरी। चीन में एक बहुत प्राचीन मंदिर है, हजार बुद्धों का मंदिर है। वहां हजार बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। वह डरी। और सभी प्रतिमाएं बुद्ध की हैं, तो भी डर! वह डरी, कि यहां अगर मैंने धूप जलाई, अगरबत्तिया जलायी, फूल चढ़ाए, तो यह धुआ तो कोई मेरे बुद्ध पर नहीं रुका रहेगा। यहां-वहां जाएगा। दूसरे बुद्धों पर पहुंचेगा। बुद्ध भी दूसरे! जिनकी प्रतिमा वह रखे है उन्हीं की प्रतिमाएं वे भी हैं। तालाब हैं, सरोवर हैं, सागर हैं, लेकिन चांद का प्रतिबिंब अलग कितना ही हो, एक ही चांद का है। तो उसने एक बांस की पोगरी बना ली, और धूप जलाई और बौस की पोंगरी में से धूप को अपने बुद्ध की नाक तक पहुंचाया। सोने की बुद्ध की प्रतिमा का मुंह काला हो गया।

वह बड़ी दुखी हुई। वह सुबह मंदिर के प्रधान भिक्षु के पास गई और उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई। इसे कैसे साफ करूं? वह प्रधान हंसने लगा। उसने कहा, पागल! तेरे सत्संग में तेरे बुद्ध का चेहरा तक काला हो गया।

गलत साथ करो, यह मुसीबत होती है। इतनी भी क्या कृपणता! ये सभी प्रतिमाएं उन्हीं की हैं। इतनी भी क्या कंजूसी! अगर थोड़ा धुआ दूसरों के पास भी पहुंच गया होता, तो कुछ हर्ज हुआ जाता था? लेकिन मेरे बुद्ध!

ये सभी प्रतिमाएं बुद्धों की ही हैं। हर आंख से वही झांका है। हर पत्थर में वही सोया है। तुम इसकी फिकर ही मत करो। तुम्हारे जीवन में आनंद भरे-प्रेम दो, गीत दो, संगीत दो, नाचो; बांटो। इसी की तो प्रतीक्षा रही है कि कब वह क्षण आएगा जब हम बांट सकेंगे। अब पात्र-अपात्र का भी भेद छोड़ो। वे सब नासमझी के भेद हैं।

इसलिए शक्ति के संबंध में कुछ बोलता नहीं हूं। क्योंकि जो मैं बोल रहा हूं अगर समझ में आया, तो शक्ति कभी समस्या न बनेगी। इसलिए भी शक्ति के संबंध में नही बोलता हूं क्योंकि वह शब्द जरा खतरनाक है। शाति के संबंध में बोलता हूं र शक्ति के संबंध में नहीं बोलता। क्योंकि शक्ति अहंकार की आकांक्षा है। शक्ति शब्द सुनकर ही तुम्हारे भीतर अहंकार अंगड़ाई लेने लगता है। अहंकार कहता है, ठीक, शक्ति तो चाहिए। इसीलिए तो तुम धन मांगते हो, ताकि धन से शक्ति मिलेगी। पद मलते हो, क्योंकि पद पर रहोगे तो शक्तिशाली रहोगे। यश भागते हो, पुण्य मलते हो, लेकिन सबके पीछे शक्ति मांगते हो। योग और तंत्र में भी खोजते हो, शक्ति ही खोजते हो।

शक्ति की पूजा तो संसार में चल ही रही है। इसलिए मैं शक्ति की बात नहीं करता, क्योंकि धर्म के नाम पर भी अगर तुम शक्ति की ही खोज करोगे, तो वह अहंकार की ही खोज रहेगी। और जब तक अहंकार है तब तक शक्ति उपलब्ध नहीं होती। ऐसा सनातन नियम है। एस धम्मो सनंतनो।

जब तुम शक्ति की चिंता ही छोड़ देते हो और शांति की तलाश करते हो, शांति की तलाश में अहंकार को विसर्जित करना होगा, क्योंकि वही तो अशांति का स्रोत है। और जब अहंकार विसर्जित हो जाता है, द्वार से पत्थर हट जाता है। शांति तो मिलती है। शांति तो मूलधन है और शक्ति तो ब्याज की तरह उपलब्ध हो जाती है। शांति को खोजो, शक्ति अपने से मिल जाती है। शक्ति को खोजो, शक्ति तो मिलेगी ही नहीं, शांति भी खो जाएगी।

इसलिए शक्ति का खोजी हमेशा अशात होगा, परेशान होगा। वह अहंकार की ही दौड़ है। नाम बदल गए, वेश बदल गया, दौड़ वही है। कौन चाहता है शक्ति? वह अहंकार। चाहता है कोई चमत्कार मिल जाए, रिद्धि-सिद्धि, शक्ति मिल जाए, तो दुनिया को दिखा दूं कि मैं कौन हूं।

इसलिए जहा तुम शक्ति की खोज करते हो, जान लेना कि वह धर्म की दिशा नहीं है, अधर्म की दिशा है। तुम्हारे चमत्कारी, तुम्हारे रिद्धि-सिद्धि वाले लोग, सब तुम्हारे ही बाजार के हिस्से हैं। उनसे धर्म का कोई लेना-देना नहीं। वे तुम्हें प्रभावित करते हैं, क्योंकि जो तुम्हारी आकांक्षा है, लगता है उन्हें उपलब्ध हो गया। जो तुम चाहते थे कि हाथ से ताबीज निकल जाएं, घड़ियां निकल जाएं, उनके हाथ से निकल रही हैं। तुम चमत्कृत होते हो, कि धन्य है! उनके पीछे चल पड़ते हो कि जो इनको मिल गया है, किसी न किसी दिन इनकी कृपा से हमको भी मिल जाएगा।

लेकिन घड़ियां निकाल भी लोगे तो क्या निकाला? जहां परमात्मा निकल सकता था वहा स्विस घड़ियां निकाल रहे हो। जहा शाश्वत का आनंद निकल सकता था वहा राख निकाल रहे हो। चाहे विभूति कहो उसको, क्या फर्क पड़ता है। जहा परमात्मा की विभूति उपलब्ध हो सकती थी, वहा राख नाम की विभूति निकाल रहे हो। मदारीगिरी है। अहंकार की मदारीगिरी है। लेकिन अहंकार की वही आकांक्षा है। शक्ति की मैं बात नहीं करता, क्योंकि तुम तत्क्षण उत्सुक हो जाओगे उसमें कि कैसे शक्ति मिले, बताएं। उसमें अहंकार तो मिटता नहीं अहंकार और भरता हुआ मालूम पड़ता है। तो मैं तुम्हें मिटाता नहीं फिर, मैं तुम्हें सजाने लगता हूं।

यही तो अड़चन है मेरे साथ। मैं तुम्हें सजाने को उत्सुक नहीं हूं तुम्हें मिटाने को उत्सुक हूं। क्योंकि तुम जब तक न मरो, तब तक परमात्मा तुममें आविर्भूत नहीं हो सकता। तुम जगह खाली करो। तुम सिंहासन पर बैठे हो। तुम जगह से हटो, सिंहासन रिक्त हो, तो ही उसका अवतरण हो सकता है। जैसे ही तुम शात होओगे, अहंकार सिंहासन से उतरेगा, तुम पाओगे शक्ति उतरनी शुरू हो गई। और यह शक्ति बात ही और है, जो शात चित्त में उतरती है! क्योंकि अब अहंकार रहा नहीं जो इसका दुरुपयोग कर लेगा। अब वहां कोई दुरुपयोग करने वाला न बचा।

इसलिए जानकर ही उन शब्दों का उपयोग नहीं करता हूं जिनसे तुम्हारे अहंकार

को थोड़ी सी भी खुजलाहट हो सकती है। तुम तो तैयार ही बैठे हो खुजाने को। जरा सा इशारा मिल जाए कि तुम खुजा डालोगे। तुम तो खाज के पुराने शिकार हो। तुम्हें जरा से इशारे की जरूरत है कि तुम्हारी आकांक्षा के घोड़े दौड़ पड़ेंगे। तुम सब लगामें छोड़ दोगे।

नहीं, मैं शाति की बात करता हूं। मैं मृत्यु की बात करता हूं र निर्वाण की बात करता हूं? शून्य होने की बात करता हूं? क्योंकि मुझे पता है कि तुम जब शून्य होओगे तो पूर्ण तो अपने आप चला आता है। उसको चर्चा के बाहर छोड़ो। चर्चा से नहीं आता, शून्य होने से आता है।

शक्ति की बात ही मत करो। वह तो शात होते मिल ही जाती है। वह तो शात हुए आदमी का अधिकार है।

जब मिल जाए, तो तुम क्या करोगे! इसलिए मैं आनंद, उत्सव और प्रेम की बात करता हूं। तुम जैसे हो, अभी प्रेम कर ही नहीं सकते। अभी तो तुम्हारा प्रेम धोखा है। तुम जैसे हो, आनंदित हो ही नहीं सकते। अभी तो आनंद केवल मुंह पर पोता गया झूठा रंग-रोगन है। अभी तुम जैसे हो, हंस ही नहीं सकते। अभी तुम्हारी हंसी ऊपर से चिपकाई गई है, मुखौटा है।

किसी ने पूछा है-

दूसरा प्रश्न:

 

कल आपने कहा कि दूसरा कभी किसी को खुश नहीं कर सकता है। मगर प्रेमी के साथ प्रेम में डूब जाने में जो सुख, आनंद और अहोभाव अनुभव होता है, वह क्या है?

हो नहीं सकता। जल्दी मत कर लेना निर्णय की। जरा बड़े-बूढ़ों से पूछना।

यह मुक्ति ने पूछा है। अभी प्रेम के मकान के बाहर ही चक्कर लगा रही है। जरा बड़े-बूढ़ों से पूछना, वे कहते हैं-

जब तक मिले न थे जुदाई का था मलाल

अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गई

जब तक मिले न थे, तब तक दूर होने की पीड़ा थी। अब जब मिल गए, तो पास होने की आकांक्षा भी निकल गई। अब यह दुख है कि अब कैसे हटें, कैसे भागे? जल्दी मत करना। अभी जिसको तुम प्रेम, आनंद, अहोभाव कह रहे हो वह सब शब्द हैं सुने हुए। अभी प्रेम जाना कहा? क्योंकि तुम जैसे हो उसमें प्रेम फलित ही नहीं हो सकता। प्रेम कोई ऐसा थोड़े ही है कि तुम कैसे ही हो और फलित हो जाओ। प्रेम जन्म के साथ थोड़े ही मिलता है। अर्जन है। उपलब्धि है। साधना है। सिद्धि है।

यही तो परेशानी है। सारी दुनिया में हर आदमी यही सोच रहा है कि जन्म के साथ ही हम प्रेम करने की योग्यता लेकर आए हैं। धन कमाने की तुम थोड़ी बहुत कोशिश भी करते हो, लेकिन प्रेम कमाने की तो कोई भी कोशिश नहीं करता। क्योंकि हर एक माने बैठा है कि प्रेम तो है ही। बस प्रेमी मिल जाए, काम शुरू। जिसको तुम प्रेमी कहते हो, उसे भी प्रेम का कोई पता नहीं है। दूर की ध्वनि भी नहीं सुनी है। न तुम्हें पता है।

जिसको तुम प्रेम समझ रहे हो वह सिर्फ मन की वासना है। जिसको तुम प्रेम समझ रहे हो-दूसरे के साथ होने का आनंद-वह केवल अपने साथ तुम्हें कोई आनंद नहीं मिलता, अपने साथ तुम परेशान हो जाते हो, अपने साथ ऊब और बोरियत पैदा होती है, दूसरे के साथ थोड़ी देर को अपने को फंसा पाते हो, उसी को तुम दूसरे के साथ मिला आनंद कह रहे हो। दूसरे के साथ तुम्हारा जो होना है, वह अपने साथ न होने का उपाय है। वह एक नशा है, इससे ज्यादा नहीं। उतनी देर को तुम अपने को भूल जाते हो, दूसरा भी अपने को भूल जाता है। यह आत्म -विस्मरण है, आनंद नहीं। मूर्च्छा है, अहोभाव इत्यादि कुछ भी नहीं है। मेरी बातें सुन-सुनकर तुम्हें अच्छे-अच्छे शब्द कंठस्थ हो जाएंगे। इनको तुम हर कहीं मत लगाने लगना।

‘कल आपने कहा कि कोई दूसरा कभी किसी को खुश नहीं कर सकता।

निश्चित मैंने कहा है। और कोई कभी नहीं कर सका है। लेकिन किसी भी युवा को समझाना मुश्किल है। क्योंकि जो युवक समझता है, वह तो समय के पहले प्रौढ़ हो गया। कभी कोई शंकराचार्य, कभी कोई बुद्ध समय के पहले समझ पाते हैं। अधिक लोग तो समय भी बीत जाता है-जवानी भी बीत जाती है, बुढ़ापा भी बीतने लगता है, मौत द्वार पर आ जाती है-तब तक भी नहीं समझ पाते।

समझ का कोई संबंध तुम्हारे जीवन की होश की तीव्रता से है। अभी जिसको तुम सोचते हो कि प्रेमी के साथ प्रेम में डूब जाने में-अभी तुम अपने में नहीं डूबे, दूसरे में कैसे डूबोगे! जो अपने में नहीं डूब सका, वह दूसरे में कैसे डूब सकेगा! अभी तुम अपने भीतर ही जाना नहीं जानते, दूसरे के भीतर क्या खाक जाओगे। बातचीत है। अच्छे-अच्छे शब्द हैं। सभी जवान अच्छे-अच्छे शब्दों में अपने को झुठलाते हैं, भुलाते हैं। जवानी में अगर किसी से कहो कि यह प्रेम वगैरह कुछ भी नहीं है, तो न तो यह सुनाई पड़ती है बात-सुनाई भी पड़ जाए तो समझ में नहीं आती-क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को एक भ्रांति है कि दूसरे को न हुआ होगा, लेकिन मुझे तो होगा, हो रहा है।

अभी यात्रा का पहला ही कदम है। जरा बात पूरी हो जाने दो। जरा ठहरो, जल्दी निर्णय मत करो। जिन्होंने जाना है जीवन का यह दौर, जो इससे गुजरे हैं, उनसे पूछो।

सुलगती आग दहकता खयाल तपता बदन

कहां पर छोड़ गया कारवां बहारों का

वह जिसको वसंत समझा था,

बहार समझी थी, वह कहां छोड़ गई?

सुलगती आग दहकता खयाल तपता बदन

एक रुग्ण दशा। एक बुखार। सब धूल-धूल। सब इंद्रधनुष टूटे हुए। सब सपनों के भवन गिर गए। और एक सुलगती आग, कि जीवन हाथ से व्यर्थ ही गया। लेकिन जब तुम सपनों में खोए हो, तब बड़ा मुश्किल है यह बताना कि यह सपना है। उसके लिए जागना जरूरी है।

प्रेम अर्जित किया जाता है। और जिसने प्रार्थना नहीं की, वह कभी प्रेम नहीं कर पाया। इसलिए प्रार्थना को मैं प्रेम की पहली शर्त बनाता हूं। जिसने ध्यान नहीं किया, वह कभी प्रेम नहीं कर पाता। क्योंकि जो अपने में नहीं गया, वह दूसरे में तो जा ही नहीं सकता। और जो अपने में गया, वह दूसरे में पहुंच ही गया। क्योंकि अपने में जाकर पता चलता है, दूसरा है ही नहीं। दूसरे का खयाल ही अज्ञान का खयाल है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने एक मित्र के साथ बैठा था। और उसने अपने बेटे को कहा कि जा और तलघरे से शराब की बोतल ले आ। वह बेटा गया, वह वापस लौटकर आया। उस बेटे को थोड़ा कम दिखाई पड़ता है। और उसकी आंखों में एक तरह की बीमारी है कि एक चीज दो दिखाई पड़ती है। उसने लौटकर कहा कि दोनों बोतल ले आऊं या एक लाऊं?

नसरुद्दीन थोड़ा परेशान हुआ, क्योंकि बोतल तो एक ही है। अब अगर मेहमान के सामने कहे एक ही ले आओ, तो मेहमान कहेगा यह भी क्या कंजूसी! अगर कहे दो ही ले आओ, तो यह दो लाएगा कहां से? वहा एक ही है। और मेहमान के सामने अगर यह कहे कि इस बेटे को एक चीज दो दिखाई पड़ती है तो नाहक की बदनामी होगी। फिर इसकी शादी भी करनी है। तो उसने कहा, ऐसा कर, एक तू ले आ और एक को फोड़ आ-बाएं तरफ की फोड़ देना, दाएं तरफ की ले आना, क्योंकि बाएं तरफ की बेकार है। ऐसा उसने रास्ता निकाला।

बेटा गया। उसने बाएं तरफ की फोड़ दी, लेकिन दाएं तरफ कुछ था थोड़े ही!। एक ही बोतल थी, वह फूट गई। बाएं तरफ और दाएं तरफ ऐसी कोई दो बोतलें थोड़े ही थीं। बोतल एक ही थी। दो दिखाई पड़ती थीं। वह बोतल फूट गई, शराब बह गई, वह बड़ा परेशान हुआ। उसने लौटकर कहा कि बड़ी भूल हो गई, वह बोतल एक ही थी, वह तो फूट गई।

मैं तुमसे कहता हूं जहां तुम्हें दो दिखाई पड़ रहे हैं, वहा एक ही है। तुम्हें दो दिखाई पड़ रहे हैं, क्योंकि तुमने अभी एक को देखने की कला नहीं सीखी। प्रेम है एक को देखने की कला। लेकिन उस कला में उतरना हो तो पहले अपने ही भीतर की सीढ़ियों पर उतरना होगा। क्योंकि वही तुम्हारे निकट है।

भीतर जाओ, अपने को जानो। आत्मज्ञान से ही तुम्हें पता चलेगा मैं और तू झूठी बोतलें थे, जो दिखाई पड़ रहे थे। नजर साफ न थी, अंधेरा था, धुंधलका था, बीमारी थी-एक के दो दिखाई पड़ रहे थे। भ्रम था। भीतर उतरकर तुम पाओगे, जिसको तुमने अब तक दूसरा जाना था वह भी तुम्हीं हो। दूसरे को जब तुम छूते हो, तब तुम अपने ही कान को जरा हाथ घुमाकर छूते हो, बस। वह तुम्हीं हो। जरा चक्कर लगाकर छूते हो। जिस दिन यह दिखाई पड़ेगा, उस दिन प्रेम। उसके पहले जिसे तुम प्रेम कहते हो, कृपा करके उसे प्रेम मत कहो।

प्रेम शब्द बड़ा बहुमूल्य है। उसे खराब मत करो। प्रेम शब्द बड़ा पवित्र है। उसे अज्ञान का हिस्सा मत बनाओ। उसे अंधकार से मत भरो। प्रेम शब्द बड़ा रोशन है। वह अंधेरे में जलती एक शमा है। प्रेम शब्द एक मंदिर है। जब तक तुम्हें मंदिर में जाना न आ जाए तब तक हर किसी जगह को मंदिर मत कहना। क्योंकि अगर हर किसी जगह को मंदिर कहा, तो धीरे-धीरे मंदिर को तुम पहचानना ही भूल जाओगे। और तब मंदिर को भी तुम हर कोई जगह समझ लोगे।

जिसे तुम अभी प्रेम कहते वह केवल कामवासना है। उसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है। शरीर के हारमोन काम कर रहे हैं, तुम्हारा कुछ भी नहीं है। स्त्री के शरीर से कुछ हारमोन निकाल लो, पुरुष की इच्छा समाप्त हो जाती है। पुरुष के शरीर से कुछ हारमोन निकाल लो, स्त्री की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। तुम्हारा इसमें क्या लेना-देना है? केमिस्ट्री है। थोड़ा रसायनशास्त्र है। अगर ज्यादा हारमोन डाल दिए जाएं पुरुष के शरीर में, तो वह दीवाना हो जाता है, पागल हो जाता है एकदम। मजनू के शरीर में थोड़े ज्यादा हारमोन रहे होंगे, और कुछ मामला नहीं है। जिसको तुम प्रेम की दीवानगी कहते हो, वह रसायनशास्त्र से ठीक की जा सकती है। और जिसको तुम प्रेम की सुस्ती कहते हो, वह इंजेक्शन से बढ़ाई जा सकती है और तुममें त्वरा आ सकती है और तुम पागल हो सकते हो।

इसे तुम प्रेम मत कहना, यह सिर्फ कामवासना है। और इसमें तुम जो प्रेम, और अहोभाव, और आनंद की बातें कर रहे हो, जरा होश से करना, नहीं तो इन्हीं बातों के कारण बहुत दुख पाओगे। क्योंकि जब कोई स्वर भीतर से आता न मालूम पड़ेगा अहोभाव का, तो फिर बड़ा फ्रस्ट्रेशन, बड़ा विषाद होता है। वह विषाद कामवासना के कारण नहीं होता, वह तुम्हारी जो अपेक्षा थी उसी के कारण होता है, कामवासना का क्या कसूर है? हाथ में एक पैसा लिए बैठे थे और रुपया समझा था, जब हाथ खोला, और मुट्ठी खोली तो पाया कि पैसा है। तो पैसा थोड़े ही तुम्हें कष्ट दे रहा है। पैसा तो तब भी पैसा था। पहले भी पैसा था, अब भी पैसा है, पैसा-पैसा है। तुमने रुपया समझा था, तो तुम पीड़ित होते हो, तुम दुखी होते हो, तुम रोते-चिल्लाते हो कि यह धोखा हो गया।

तुमने जिसे प्रेम समझा है वह पैसा भी नहीं है, कंकड़-पत्थर है। जिस प्रेम की मै बात कर रहा हूं वह किसी और ही दूसरे जगत का हीरा है। उसके लिए तुम्हें तैयार होना होगा। तुम जैसे हो वैसे ही वह नहीं घटेगा। तुम्हें अपने को बड़ा परिष्कार करना होगा। तुम्हें अपने को बड़ा साधना होगा। तब कहीं वह स्वर तुम्हारे भीतर पैदा हो सकता है।

लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को जिंदगी में एक नशे का दौर होता है। कामवासना का दौर होता है। तब काम ही राम मालूम पड़ता है। जिस दिन यह बोध बदलता है और काम-काम दिखाई पड़ता है, उसी दिन तुम्हारी जिंदगी में पहली दफे राम की खोज शुरू होती है।

तो धन्‍यभागी है वे, जिन्होंने जान लिया कि यह प्रेम व्यर्थ है। धन्यभागी है वे, जिन्होंने जान लिया कि यह अहोभाव केवल मन की आकांक्षा थी, कहीं है नहीं। कहीं बाहर नहीं था, सपना था देखा। जिनके सपने टूट गए, आशाएं टूट गयीं, धन्यभागी हैं वे। क्योंकि उनके जीवन में एक नई खोज शुरू होती है। उस खोज के मार्ग पर ही कभी तुम्हें प्रेम। मिलेगा। प्रेम परमात्मा का ही दूसरा नाम है। इससे कम प्रेम की परिभाषा नहीं।

तीसरा प्रश्‍न:

 

     क्‍या प्रयास व साधना विधि है और तथाता मंजिल है? या तथाता ही विधि और मंजिल दोनों है?

तना हिसाब में क्‍यों पड़ते हो? यह हिसाब कहां ले जाएगा? हिसाब ही करते रहोगे या चलोगे भी? क्‍या मंजिल है, क्‍या मार्ग है, इसको सोचते ही रहोगे?

तो एक बात पक्की है, कितना ही सोचो, सोचने से कोई मार्ग तय नहीं होता, और न सोचने से कोई मंजिल करीब आती है। सोचने-विचारने वाला धीरे-धीरे चलने में असमर्थ ही हो जाता है। चलना तो चलने से आता है, होना होने से आता है।

नामों की चिंता में बहुत मत पड़ो। दोनों बातें कही जा सकती हैं। प्रेम ही मार्ग है, प्रेम ही मंजिल है। यह भी कहा जा सकता है कि प्रेम मार्ग है, परमात्मा मंजिल है। पर कोई फर्क नहीं है इन बातों में। जिस तरह से तुम्हारा मन चलने को राजी हो उसी तरह मान लो। क्योंकि मेरी फिकर इतनी है कि तुम चलो। तुम्हें अगर इसमें ही सकून मिलता है, शांति मिलती है कि प्रेम मार्ग, परमात्मा मंजिल है; योग मार्ग, ‘मौक्ष मंजिल है; प्रयास, विधि मार्ग, तथाता मंजिल है; ऐसा समझ लो, कोई अड़चन नहीं है। मगर कृपा करके चलो।

जो तर्कनिष्ठ हैं, उन्हें यही मानना उचित होगा। क्योंकि तर्क कहता है, मंजिल और मार्ग अलग-अलग। जो तर्क की बहुत चिंता नहीं करते, और जो जीवन को बिना तर्क के देखने में समर्थ हैं-वैसी सामर्थ्य बहुत कम लोगों में होती है-लेकिन अगर हो तो उनको दिखाई पड़ेगा कि मार्ग और मंजिल एक ही हैं। क्योंकि मार्ग तभी पहुंचा सकता है मंजिल तक जब मंजिल से जुड़ा हो। नहीं तो पहुंचाएगा कैसे? अगर अलग-अलग हों तो पहुंचाएगा कैसे? तब तो दोनों के बीच फासला होगा। छलता न लग सकेगी। दूरी होगी।

वही मार्ग पहुंचा सकता है जो मंजिल से जुड़ा हो। और अगर जुड़ा ही है तो फिर क्या फर्क करना। कहा तय करोगे कि कहां मार्ग समाप्त हुआ, कहां मंजिल शुरू हुई?

इसलिए महावीर का बड़ा अदभुत वचन है कि जो चल पड़ा वह पहुंच ही गया। जरूरी नहीं है। तुम जैसे चलने वाले हों तो बीच में ही बैठ जाएँगे कि लो, महावीर को गलत सिद्ध किए देते हैं। लेकिन महावीर के कहने में बड़ा सार है-जो चल पड़ा वह पहुंच ही गया। क्योंकि जब तुम चले, पहला कदम भी उठाया, तो पहला कदम भी तो मंजिल को ही छू रहा है। कितनी ही दूर हो, लेकिन एक कदम कम हो गई, पास आ गई।

लाओत्सु ने कहा है, एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। तो ऐसा थोड़े ही है कि यात्रा तभी पूरी होती है जब -पूरी होती है। जब तुम चले तब भी पूरी होनी शुरू हो जाती है। इंच-इंच चलते हो, कदम-कदम चलते हो, बूंद-बूंद चलते हो। सागर चुक जाता है एक-एक बूंद से।

तुम्हारे ऊपर निर्भर है। अगर बहुत तर्कनिष्ठ मन है और तुम ऐसा मानना चाहो कि मार्ग अलग, मंजिल अलग, ऐसा मान लो। अगर दृष्टि और साफ-सुथरी है, तर्क के ऊपर देख सकते हो और विरोधाभास से कोई अड़चन नहीं आती, तो मार्ग ही मंजिल है, ऐसा मान लो। दोनों बातें सही हैं। क्योंकि दोनों बातें एक ही सत्य को देखने के दो ढंग हैं।

मार्ग अलग है मंजिल से, क्योंकि मार्ग पहुंचाएगा और मंजिल वह है जब तुम पहुंच गए। मार्ग वह है जब तुम चलोगे, मंजिल वह है जब तुम पहुंच गए और चलने की कोई जरूरत न रही-अलग-अलग हैं। दोनों एक भी हैं। क्योंकि पहला कदम पड़ा कि मंजिल पास आने लगी। मार्ग छुआ नहीं कि मंजिल भी छू लीं-कितनी ही दूर सही! किरण को जब तुम छूते हो, सूरज को भी छू लिया, क्योंकि किरण सूरज का ही फैला हुआ हाथ है। तुमने मेरे हाथ को छुआ तो मुझे छुआ या नहीं? हाथ मेरा दो फीट लंबा है कि दो हजार फीट लंबा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? कि दस करोड़ मील लंबा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? किरण सूरज का हाथ है। किरण को छ लिया, सूरज को छू लिया। यात्रा शुरू हो गई।

एक बात पर ही मेरा जोर है कि तुम बैठे मत रहो। क्योंकि विचार करने की एक हानि है कि विचारक सिर पर हाथ लगाकर बैठ जाता है, सोचने लगता है। कुछ करो। करने से रास्ता तय होगा, चलने से।

कई बार मैं देखता हूं, बहुत लोगों को, वे विचार ही करते रहते हैं। समय खोता जाता है। कभी-कभी के लोग मेरे पास आ जाते हैं, वे अभी भी विचार कर रहे हैं कि ईश्वर ने दुनिया बनाई या नहीं! तुम अब कब तक यह विचार करते रहोगे? बनाई हो तो, न बनाई हो तो। जीवन को जानने के लिए कुछ करो। ईश्वर हो तो, न हो तो। तम होने के लिए-स्वयं होने के लिए-कुछ करो। ये सारी चिंताएं, ये सारी समस्याएं अर्थहीन हैं। कितनी ही सार्थक मालूम पड़े, सार्थक नहीं हैं। और कितनी ही बुद्धिमानीपूर्ण मालूम पड़े, बुद्धिमानीपूर्ण नहीं हैं।

बेखुदी में हम तो तेरा दर समझकर झुक गए

अब खुदा मालुम वह काबा था या बुतखाना था

वह मंदिर था या मस्जिद थी, यह परमात्मा पर ही छोड़ देते हैं। हम तो झुक गए।

बेखुदी में हम तो तेरा दर समझकर झुक गए

हमने तो अपनी विनम्रता में,

अपने निरअहंकार में सिर झुका दिया।

अब खुदा मालूम वह काबा था या बुतखाना था

अब यह खुदा सोच ले कि मस्जिद थी, कि मंदिर था, कि काशी थी, कि काबा था। -यह चिंता साधक की नहीं है, यह चिंता पंडित की है कि कहा झुके?

जरा फर्क समझना, बारीक है और नाजुक है। समझ में आ जाए तो बड़ा क्रांतिकारी है।

पंडित पूछता है, कहो झुके? साधक पूछता है, झुके? पंडित का जोर है, कहा? पंडित पूछता है, किस चीज के सामने झुके? काबा था कि काशी? कौन था जिसके सामने झुके? साधक पूछता है, झुके? साधक की चिंता यही है, झुकाव आया? नम्रता आई? झुकने की कला आई? इससे क्या फर्क पड़ता है कहां झुके! झुक गए। जो झुक गया उसने पा लिया। इससे कोई भी संबंध नहीं कि वह कहां झुका। मस्जिद में झुका तो पा लिया, मंदिर में झुका तो पा लिया। झुकने से पाया। मंदिर से नहीं पाया, मस्जिद से नहीं पाया। मंदिर-मस्जिदों से कहीं कोई पाता है! झुकने से पाता है।

और जो सोचकर झुका कि कहा झुक रहा हूं वह झुका ही नहीं। कहीं कोई सोचकर झुका है! सोच-विचार करके तो कोई झुकता ही नहीं, झुकने से बचता है। उतर तुम बिलकुल निर्णय करके झुके कि हो, यह परमात्मा है, अब झुकना है -सब तरह से तय कर लिया कि यह परमात्मा है, फिर झुके–तो तुम झुके नहीं। क्योंकि तुम्हारा निर्णय और तुम्हारा झुकना। तुम अपने ही निर्णय के सामने झुके। तुम परमात्मा के सामने न झुके, तुम अपने निर्णय के सामने झुके।

साधक झुकता है। झुकने का अर्थ है, निर्णय छोड़ता है। साधक कहता है, मैं कौन हूं र मैं कैसे जान पाऊंगा, मेरी हैसियत क्या? मेरी सामर्थ्य क्या? साधक कहता है कि मैं कुछ हूं नहीं। इस न होने के बोध में से झुकने का फूल खिलता है। इस न होने में से समर्पण आता है। इस न होने में से झुकना आ जाता है। ऐसा कहना ठीक नहीं कि साधक झुकता है। ऐसा कहना ज्यादा ठीक है कि साधक पाता है कि झुकना हो रहा है। देखता है तो पाता है, अकड़ की कोई जगह तो नहीं, कोई सुविधा नहीं, अकड़ का कोई उपाय नहीं। अकड़ का उपाय नहीं पाता, इसलिए झुकना घटने लगता है। तुम अगर झुकते भी हो, तो तुम्हीं झुकते हो। तुम्हीं झुके तो क्या खाक झुके। अगर झुकने में भी तुम रहे, तो झुकना न हुआ।

बेखुदी में हम तो तेरा दर समझकर झुक गए

अब खुदा मालूम वह काबा था या बुतखाना था

मार्ग और मंजिल एक हैं कि अलग-अलग, खुदा मालूम। तुम चलो। और जिस बहाने से चल सके उसी बहाने को मान लो। सब बहाने बराबर हैं। इसीलिए तो मैं सभी धर्मों की चर्चा करता हूं। कोई धर्म किसी से कम-ज्यादा नहीं है। सब बहाने हैं। खूंटियां हैं मकान में, किसी पर भी टल दो अपने कपड़े। कृपा करो, टांगो। खूंटियों का बहुत हिसाब मत रखो कि लाल पर टलेंगे, कि हरी पर टांगेंगे। हरी होगी इस्लाम की खूंटी, लाल होगी हिंदुओं की खूंटी। तुम टांगो। क्योंकि धार्मिक को टलने से मतलब है, खूंटियों से मतलब नहीं।

अब खुदा मालूम वो काबा था या बुतखाना था

ये तुम परमात्मा पर छोड़ दो। ये सब बड़े हिसाब उसी पर छोड़ दो। तुम तो एक छोटा सा काम कर लो, तुम चलो। लेकिन लोग बड़े हिसाब में लगे हैं, बड़ी चितना करते है, बड़ा विचार करते हैं। बड़ी होशियारी में लगे हैं, कि जब सब तय हो जाएगा बौद्धिक रूप से, और हम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाएंगे, तब।

तो तुम कभी न चलोगे। तुम जिंदगीभर जिंदगी का सपना देखोगे। तुम जिंदगी भर जीने का विचार करोगे, जी न पाओगे। तैयारी करोगे, लेकिन कभी तुम जा न पाओगे यात्रा पर। बोरिया-बिस्तर बांधोगे, खोलोगे, बांधोगे, खोलोगे; रेलवे स्टेशन पर जाकर ट्रेन कब, कहां जाती है उसका पता लगाओगे; टाइम-टेबल का अध्ययन करोगे तुम्हारे वेद, तुम्हारे कुरान टाइम-टेबल हैं, ज्यादा कुछ भी नहीं-उनका बैठकर तुम अध्ययन करते रहो, टाइम-टेबल से कहीं कोई यात्रा हुई है! कुछ लोगों को मैं देखता था, जब मैं सफर में होता था, वे बैठे हैं अपने टाइम-टेबल का ही अध्ययन कर रहे हैं। वेदपाठी कहना चाहिए। शानी, पंडित टाइम-टेबल का अध्ययन कर रहे हैं। उसी को उलट रहे हैं।

नक्शों को रखे बैठे रहोगे। नक्शों से कभी किसी ने यात्रा की है? मैं तुमसे कहता हूं र अगर यात्रा पर न जाना हो तो नक्‍शे का अध्ययन करना बहुत जरूरी है। मै’ तुमसे कहता हूं, अगर यात्रा से बचना हो तो नक्शों को पकड़ रखना बहुत जरूरी है। क्योंकि मन उलझा रहता है नक्शों में। और नक्शे बहुत प्रकार के हैं, नाना रंग -रूप के हैं।

बुद्ध ने क्या कहा है इसकी फिक्र मत करो। महावीर ने क्या कहा है इसकी चिंता गत करो। कृष्ण ने क्या कहा है इसका हिसाब मत रखो। बुद्ध क्या हैं, महावीर क्या है, कृष्ण क्या हैं-उनके होने पर थोड़ी नजर लाओ और तुम भी होने में लग जाओ। ये सब बाल की खाल हैं कि कौन सी विधि है और कौन सा पहुंचना; कौन सा मार्ग, कौन सी मंजिल। बाल की खाल मत निकालो। बहुत तर्कशास्त्री हैं। उनको तुम छोड़ दे सकते हो। और एक बात ध्यान रखना, अंत में तुम पाओगे कि जो चले वे पहुंच गए और जो सोचते रहे वे खो गए। साधक एक कदम की चिंता करता है। एक कदम चल लेता है फिर दूसरे की चिंता करता है।

चीन में कहानी है कि एक आदमी वर्षों तक सोचता था कि पास में एक पहाड़ पर तीर्थस्थान था वहा जाना है। लेकिन-कोई तीन-चार घंटे की यात्रा थी, दस-पंद्रह मील का फासला था-वर्षों तक सोचता रहा। पास ही था, नीचे घाटी में ही रहता था, हजारों यात्री वहां से गुजरते थे, लेकिन वह सोचता था पास ही तो हूं, कभी भी चला जाऊंगा।

बूढ़ा हो गया। तब एक दिन एक यात्री ने उससे पूछा कि भाई, तुम भी कभी हो? उसने कहा कि मैं सोचता ही रहा, सोचा इतना पास हूं कभी भी चला जाऊंगा। लेकिन अब देर हो गई, अब मुझे जाना ही चाहिए। उठा, उसने दुकान बंद की। सांझ हो रही थी। पत्नी ने पूछा, कहां जाते हो? उसने कहा मैं, अब तो यह मरने का वक्त आ गया, और मैं यही सोचता रहा इतने पास है, कभी भी चला जाऊंगा, और मैं इन यात्रियों को ही जो तीर्थयात्रा पर जाते हैं सौदा-सामान बेचता रहा। जिंदगी मेरी यात्रियों के ही साथ बीती-आने-जाने वालों के साथ। वे खबरें लाते, मंदिर के शिखरों की चर्चा करते, शाति की चर्चा करते, पहाड़ के सौंदर्य की बात करते, ‘गैर मैं सोचता कि कभी भी चला जाऊंगा, पास ही तो है। दूर-दूर के लोग यात्रा कर गए, मैं पास रहा रह गया। मैं जाता हूं।

कभी यात्रा पर गया न था। सिर्फ यात्रा की बातें सुनी थीं। सामान बाधा, तैयारी की रातभर-पता था कि तीन बजे रात निकल जाना चाहिए, ताकि सुबह-सुबह ठंडे-ठंडे पहुंच जाए। लालटेन जलाई। क्योंकि देखा था कि यात्री बोरिया-बिस्तर ‘भी रखते हैं, लालटेन भी लेकर जाते हैं। लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुंचा तब उसे एक बात खयाल आई कि लालटेन का प्रकाश तो चार कदम से ज्यादा पड़ता नहीं। पंद्रह मील का फासला है। चार कदम तक पड़ने वाली रोशनी साथ है। यह पंद्रह मील की यात्रा कैसे पूरी होगी? घबड़ाकर बैठ गया। हिसाब लगाया। दुकानदार था, हिसाब-किताब जानता था। चार कदम पड़ती है रोशनी, पंद्रह मील का फासला है। इतनी सी रोशनी से कहीं जाना हो सकता है? घबड़ा गया। हिसाब बहुतों को घबड़ा देता है।

अगर तुम परमात्मा का हिसाब लगाओगे, घबड़ा जाओगे। कितना फासला है। कहां तुम, कहा परमात्मा! कहां तुम, कहा मोक्ष! कहा तुम्हारा कारागृह और कहा मुक्ति का आकाश! बहुत दूर है। तुम घबड़ा जाओगे, पैर कंप जाएंगे। बैठ जाओगे, आश्वासन खो जाएगा, भरोसा टूट जाएगा। पहुंच सकते हो, यह बात ही मन में समाएगी न।

उसके पैर डगमगा गए। वह बैठ गया। कभी गया न था, कभी चला न था, यात्रा न की थी। सिर्फ लोगों को देखा था आते-जाते। उनकी नकल कर रहा था, तो लालटेन भी ले आया था, सामान भी ले आया था। कहते हैं, पास से फिर एक यात्री गुजरा और उसने पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, मैं बड़ी मुसीबत में हूं। इतनी सी रोशनी से इतने दूर का रास्ता! पंद्रह मील का अंधकार, चार कदम पड़ने वाली रोशनी! हिसाब तो करो! उस आदमी ने कहा, हिसाब-किताब की जरूरत नहीं। उठो और चलो। मैं कोई गणित नहीं जानता, लेकिन इस रास्ते पर बहुत बार आया-गया हूं। और तुम्हारी लालटेन तो मेरी लालटेन से बड़ी है। तुम मेरी लालटेन देखो-वह बहुत छोटी सी लालटेन लिए हुए था, जिससे एक कदम मुश्किल से रोशनी पड़ती थी-इससे भी यात्रा हो जाती है। क्योंकि जब तुम एक कदम चल लेते हो, तो आगे एक कदम फिर रोशन हो जाता है। फिर एक कदम चल लेते हो, फिर एक कदम रोशन हो जाता है।

जिनको चलना है, हिसाब उनके लिए नहीं है। जिनको नहीं चलना है, हिसाब उनकी तरकीब है। जिनको चलना है, वे चल पड़ते हैं। छोटी सी रोशनी पहुंचा देती है। जिनको नहीं चलना है, वे बड़े अंधकार का हिसाब लगाते हैं। वह अंधकार घबड़ा देता है। पैर डगमगा जाते हैं।

साधक बनो, ज्ञानी नहीं। साधक बिना बने जो ज्ञान आ जाता है, वह कूड़ा-करकट है। साधक बनकर जो आता है, वह बात ही और है। महावीर ठीक कहते हैं, जो चल पड़ा वह पहुंच गया; वह ज्ञानी की बात है। उस ज्ञानी की जो चला है, पहुंचा है।

महावीर के पास उनका खुद का दामाद उनका शिष्य हो गया था। लेकिन उसे बड़ी अड़चन होती थी। भारत में तो दामाद का ससुर पैर छूता है। तो महावीर को पैर छूना चाहिए दामाद का। मगर जब उसने दीक्षा ले ली और उनका शिष्य हो गया, तो उसको पैर छूना पड़ता था। तो उसे बड़ी पीड़ा होती थी। बड़ा अहंकारी राजपूत था। और फिर महावीर की बातों में उसे कई ऐसी बातें दिखाई पड़ने लगीं जो असंगत हैं। यह बात उनमें एक बात थी। तो उसने एक विरोध का झंडा खड़ा कर दिया। उसने महावीर के पांच सौ शिष्यों को भड़का लिया। और उसने कहा, यह तो बकवास है यह कहना कि जो चलता है वह पहुंच गया। महावीर कहते थे, अगर तुमने दरी के लिए खोली-खोलना शुरू की कि खुल गई। अब यह बात तो बड़ी गहरी थी। मगर बुद्ध बुद्धिमानों के हाथ में पड़ जाए तो बड़ा खतरा। उसने कहा, इसका तो मैं प्रमाण दे सकता हूं कि यह बात बिलकुल गलत है। वह एक दरी ले आया लपेटकर। उसने कहा कि यह लो, हम खोल दिए-जरा सी खोल दी और फिर रुक गया। और महावीर कहते हैं, खोली कि खुल गई। कहां खुली? उससे पांच सौ आदमियों को भड़का लिया, महावीर के शिष्यों को।

कभी-कभी पंडित भी ज्ञानियों के शिष्यों को भड़का लेते हैं, क्योंकि पंडित की बात ज्यादा तर्कपूर्ण होती है। वह ज्यादा बुद्धि को जंचती है। बात तो जंचेगी। यह क्या बात है? खोलने से कहीं खुलती है, बीच में भी रुक सकती है। चलने से कहीं कोई पहुंचता है, बीच में भी तो रुक सकता है।

महावीर करुणा के आंसू गिराए होंगे, लेकिन क्या कर सकते थे? सिद्ध तो वे भी नहीं कर सकते थे यह। करुणा के आंसू गिराए होंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि जो। एक कदम भी सत्य की तरफ चल पड़ा, वह कभी नहीं रुकता है-मगर अब इसको समझाएं कैसे-क्योंकि सत्य का आकर्षण ऐसा है। तुम जो नहीं चले हो उनको खींच रहा है। जो चल पड़ा वह फिर कभी नहीं रुकता है। नहीं जो चले हैं वे भी खिंचे जा रहे हैं, तो जो चल पड़ा है वह कहीं रुकने वाला है ‘ जिसने जरा सा भी स्वाद ले लिया सत्य का फिर सब स्वाद व्यर्थ हो जाते हैं। जो सत्य की तरफ जरा सा झुक गया, सत्य की ऊर्जा, सत्य का आकर्षण चुंबक की तरह खींच लेता है। यह तो ऐसे ही है जैसे कि हमने छत से एक पत्थर छोड़ दिया जमीन की तरफ। महावीर यह कह रहे हैं कि पत्थर छोड़ दिया कि पहुंच गया।

अगर मैं होता तो महावीर के दामाद को ले गया होता छत पर। दरी न खुलवाई होती, क्योंकि दरी की बात मैं न करता-वह मैं भी समझता हूं कि वह झंझट हो जाएगी दरी में तो। एक पत्थर छोड़ देता और कहता छूट गया-पहुंच गया। क्योंकि बीच में रुकेगा कैसे? गुरुत्वाकर्षण है। हा, जब तक छत पर ही रखा हुआ है तब तक गुरुत्वाकर्षण कुछ भी नहीं कर सकता। जरा डिगा दो। इसलिए मैं कहता हुं सत्य ऐसा है जैसे छत से कोई छलांग लगा ले। तुम एक कदम उठाओ, बाकी फिर अपने से हो जाएंगे। तुम्हें दूसरा कदम उठाना ही न पड़ेगा। क्योंकि जमीन का गुरुत्वाकर्षण कर लेगा शेष काम।

महावीर ठीक कहते थे। लेकिन महावीर कोई तार्किक नहीं हैं। महावीर हार गए, ऐसा लगता है। रोएं होंगे करुणा से कि यह पागल खुद भी पागल है और यह पांच सौ और पागलों को अपने साथ लिए जा रहा है।

महावीर जानते हैं कि जो एक कदम चल गया वह मंजिल पर पहुंच गया। कृष्णमूर्ति ने पहली किताब लिखी है-द फेर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम, उस किताब का नाम है, पहली और आखिरी मुक्ति। क्योंकि पहले कदम पर ही आखिरी घट जाती है। वही महावीर कह रहे थे कि एक कदम उठा लिया कि मंजिल आ गई। जिन्होंने भी पहला कदम उठा लिया उनकी मंजिल आ गई।

अब तुम पूछते हो कि मंजिल क्या और मार्ग क्या?

चाहो, दो कर लो, चाहो, एक कर लो असलियत तो यही है कि मार्ग ही मंजिल है। क्योंकि एक कदम उठाते ही पहुंचना हो जाता है। तुम अगर नहीं पहुंचे, तो यह मत सोचना कि हमने कदम तो बहुत उठाए, चूंकि मंजिल दूर है इसलिए नहीं पहुंच पा रहे। तुमने पहला कदम ही नहीं उठाया। इसलिए अटके हो।

मगर अहंकार को बड़ी पीड़ा होती है यह मानने में कि मैंने पहला कदम नहीं उठाया? यह बात ही गलत लगती है। कदम तो हमने बहुत उठाए, मार्ग लंबा है, मंजिल दूर है, इसलिए नहीं पहुंच रहे हैं। अहंकार को उसमें सुविधा है कि मंजिल दूर है इसलिए नहीं पहुंच रहे हैं।

मैं तुमसे कहता हूं र तुमने पहला कदम ही नहीं उठाया। अन्यथा तुम्हें कोई रोक सकता है? जिसने उठाया पहला कदम, वह पहुंच गया। पहले कदम पर ही पहुंचना हो जाता है। तुम उठाओ भर कदम और मंजिल आ जाती है। लेकिन बैठे-बैठे हिसाब मत करो। काफी हिसाब कर लिए हो।

तथाता मार्ग भी है, मंजिल भी। तथाता का अर्थ क्या होता है? तथाता का अर्थ है, सर्व स्वीकार का भाव। अहंकार संघर्ष है। अहंकार कहता है, ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए। अहंकार कहता है, यह रहा ठीक, वह ‘रहा गलत। अहंकार चुनाव करता है, भेद करता है, बांटता है, खंड-खंड करता है। तथाता का अर्थ है, सर्व स्वीकार, टोटल एक्सेप्टेन्स। जैसा है, जो है, राजी हैं। अहंकार है परिपूर्ण विरोध। तथाता है परिपूर्ण स्वीकार। अहंकार है प्रतिरोध, रेसिस्टेन्स। तथाता है राजी होना। अहंकार है नहीं, तथाता है हां। अस्तित्व जो कहे, ही।

तब तो पहले ही कदम पर मंजिल हो जाएगी। ऐसी घड़ी में तो क्रांति घट जाती है, रूपांतरण हो जाता है। फिर बचा क्या पाने को, जब तुमने सब स्वीकार कर लिया? लड़ाई कहां रही? फिर तुम तैरते नहीं, अस्तित्व की धारा तुम्हें ले चलती है सागर की तरफ।

रामकृष्ण ने कहा है, दो ढंग हैं यात्रा करने के। एक है पतवार लेकर नाव चलाना। वह अहंकार का ढंग है। बड़ा थकाता है, और ज्यादा दूर पहुंचाता भी नहीं। दूसरा रास्ता है पतवार छोड़ो, पाल खोलो, हवाएं ले जाएंगी। तुम हवाओं के सहारे चल पड़ो।

एहसान नाखुदा का उठाए मेरी कला

कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं

कौन चिंता करे मांझी की?

एहसान नाखुदा का उठाए मेरी बला

अब ये माझी का और कौन एहसान उठाए?

कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं

लंगर भी तोड़ देता हूं र कश्ती भी उस पर छोड़ देता हूं। यह है तथाता। अब वह जहां ले जाए। अब उतर मझधार में डुबा दे तो वही किनारा है। अब डूबना भी उबरना है। स्वीकार में फासला कहां? अब न पहुंचना भी पहुंचना है। स्वीकार में फासला कहां? अब होना और न होना बराबर है। अब मंजिल और मार्ग एक है। अब बीज और वृक्ष एक है। अब सृष्टि और प्रलय एक है। क्योंकि वे सारे भेद बीच में अहंकार खड़ा होकर करता था। सारे भेद अहंकार के हैं। अभेद निरअहंकार का है।

एहसान नाखुदा का उठाए मेरी बला

कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं

ऐसी मनोदशा परमावस्था है। और ऐसी परम अवस्था में साधन, साध्य का कोई भेद नहीं। सृष्टि, स्रष्टा का कोई भेद नहीं। जीवन, मृत्यु का कोई भेद नहीं। एक के ही अलग-अलग चेहरे हैं।

फिर तुम जहां हो वहीं मंजिल है। फिर कहीं और जाने को भी नहीं है। जाना भी अहंकार का ही खयाल है। पहुंचने की आकांक्षा भी अहंकार की ही दौड़ है। वह भी महत्वाकांक्षा ही है।

चौथा प्रश्‍न:

 

क्‍या क्षणभंगुरता का बोध ही जीवन में क्षण-क्षण जीने की कला बन जाता है?

 

निश्‍चित ही! जैसे-जैसे ही तुम जागोगे और देखोगे कि एक क्षण के अतिरिक्त हाथ में कोई दूसरा क्षण नहीं है–दों क्षण किसी के पास एक साथ नहीं होते। एक क्षण आता है, जाता है, तब दूसरा आता है-एक ही क्षण ही हाथ में है।

सारे जीवन की कला यही है कि इस एक क्षण. में कैसे जी लो। कैसे यह एक क्षण ही तुम्हारा पूरा जीवन हो जाए। कैसे इस एक क्षण की इतनी गहराई में उतर जाओ कि यह क्षण शाश्वत और सनातन मालूम हो। एक क्षण से दूसरे क्षण पर जाना सधारण जीवन का ढंग है। और एक क्षण की गहराई में उतर जाना असाधारण जीवन का ढंग है।

सांसारिक जीवन का अर्थ है, इस क्षण को अगले क्षण के लिए कुर्बान करो, फिर उसको और अगले के लिए कुर्बान करना। आज को कल के लिए निछावर करो, कल को फिर और परसों के लिए निछावर करना। सांसारिक जीवन एक सतत स्थगन, एक पोसपोनमेंट है। संन्यास का जीवन, इस क्षण को पूरा जी लो परम अनुग्रह के भाव से। परमात्मा ने यह क्षण दिया, इसे पूरा पी लो। इस क्षण की प्याली में से एक बूंद भी अनपीयी न छूट जाए, तुम इसे पूरा ही गटक जाओ, तो तुम तैयार हो रहे हो दूसरे क्षण को पीने के लिए। जितना तुम पीयोगे उतनी तैयारी हो जाएगी। यह प्यास कुछ ऐसी है कि पीने से बढ़ती है। यह रस कुछ ऐसा है कि जितना तुम इसमें डूबोगे उतनी ही डूबने की क्षमता आती जाएगी।

क्षणभंगुरता का बोध अगर तुम्हें आ जाए कि एक ही क्षण पास है, दूसरा कोई क्षण पास नहीं-हो सकता है यही क्षण आखिरी हो-तो फिर तुम कल पर न छोड़ सकोगे। तुम आज जीओगे, यहीं जीओगे। तुम यह न कहोगे की कल पर छोड़ते हैं, कल जी लेंगे। कल कर लेंगे प्रेम, कल कर लेंगे उत्सव, कल कर लेंगे आनंद, तुममें फिर यह सुविधा न रहेगी। आज ही है उत्सव, आज ही है पूजा, आज ही है प्रेम। आज के पार कुछ भी नहीं है।

क्षणभंगुर का अगर इतना स्पष्ट बोध हो जाए कि जीवन क्षण- क्षण बीता जा रहा है, चूका जा रहा है, तो तुम क्षण की शाश्वतता में उतरने में समर्थ हो जाओगे। एक क्षण भी अपनी गहराई में सनातन है, शाश्वत है।

ऐसे समझो कि एक आदमी किसी झील में तैरता है-ऊपर-ऊपर, एक लहर से दूसरी लहर। और एक दूसरा है गोताखोर, जो झील में एक ही लहर में गोता मारता है और गहरे उतर जाता है। सांसारिक आदमी एक लहर से दूसरी लहर पर चलता रहता है। सतह पर ही तैरता है। सतह पर सतह ही हाथ लगती है। गहराई में जो जाता है उसे गहराई के खजाने हाथ लगते हैं। किसी ने कभी लहरों पर मोती पाए? मोती गहराई में हैं।

जीवन का असली अर्थ क्षण की गहराई में छिपा है। तो यह तो ठीक है कि जीवन को क्षणभंगुर मानो-है ही; मानने का सवाल नहीं है, जानो। यह भी ठीक है कि एक क्षण से ज्यादा तुम्हें कुछ मिला नहीं। लेकिन इससे उदास होकर मत बैठ जाना। यह तो कहा ही इसलिए था ताकि झूठी दौड़ बंद हो जाए। यह तो कहा ही इसलिए था ताकि गलत आयाम में तुम न चलो। यह तो तुम्हें पुकारने को कहा था कि गहराई में उतर आओ।

बुद्ध जब कहते हैं, जीवन क्षणभंगुर है, तो वे यह नहीं कह रहे है कि इसे छोड़कर तुम उदास होकर बैठ जाओ। वे यही कह रहे हैं कि तुम्हारे होने का जो ढंग है अब तक, वह गलत है। उसे छोड़ दो, मैं तुम्हें एक और नए होने का ढंग बताता हूं।

साधारण आदमी तो क्षणभंगुर जीवन की सतह पर जीता है। इसी क्षणभंगुर सतह पर वह अपने स्वर्ग और नर्कों की भी कामना करता है, अपने आने वाले भविष्य जन्मों की भी कल्पना करता है-यहीं, इसी आयाम में। वह कभी नीचे झांककर नहीं देखता कि सतह की गहराई में कितना अनंत छिपा है।

एक-एक क्षण में अनंत का वास है। और एक-एक कण में विराट है। लेकिन वह कण को कण की तरह देखता है, क्षण को क्षण की तरह देखता है। और क्षण की वजह से-इतना छोटा क्षण जी कैसे पाएंगे-वह आगे की योजनाएं बनाता है कि कल जीएंगे और यह भूल ही जाता है, कि कल भी क्षण ही हाथ में होगा। जब भी होगा क्षण ही हाथ में होगा। ज्यादा कभी हाथ में न होगा। जब यह जीवन चूक जाता है, तो अगले जीवन की कल्पना करता है कि फिर जन्म के बाद होगा जीवन। लेकिन तुम वही कल्पना करोगे, उसी की आकांक्षा करोगे जो तुमने जाना है।

गालिब की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं-

क्यों न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब

सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही

गालिब कह रहा है कि नर्क को ही जाना है हमने तो, स्वर्ग को तो जाना नहीं। और जिनको हमने जाना है, उन्होंने भी नर्क को ही जाना है।

क्यों न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब

तो हम स्वर्ग को भी नर्क में क्यों न मिला लें?

सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही

स्वर्ग होगा भी छोटा नर्क के मुकाबले, क्योंकि अधिक लोग नर्क में जी रहे हैं। स्वर्ग में तो कभी कोई जीता है। इस थोड़ी सी जगह को भी और अलग क्यों छोड़ रखा है।

क्यो न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब

सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही

इसको क्यों अलग छोड़ रखा है? ये पंक्तियां बड़ी महत्वपूर्ण हैं। ये साधारण आदमी के मन की खबर हैं।

तुम्हें अगर स्वर्ग भी मिले तो तुम उसे अपने नर्क में ही जोड़ लेना चाहोगे, और तुम करोगे भी क्या? मैंने देखा है, तुम्हें धन भी मिल जाए तो तुम उसे अपनी गरीबी में जोड़ लेते हो, और तुम करोगे भी क्या? तुम्हें आनंद का अवसर भी मिल जाए तो तुम उसे भी अपने दुख में जोड़ लेते हो, तुम और करोगे भी क्या? तुम्हें अगर बार दिन जिंदगी के और मिल जाएं तो तुम उन्हें इसी जिंदगी में जोड़ लोगे, और तुम करोगे भी क्या? आदमी सत्तर साल जीता है, सात सौ साल जीए तो तुम सोचते हो कोई क्रांति हो जाएगी! बस ऐसे ही जीएगा। और सुस्त होकर जीने लगेगा। ऐसे ही जीएगा। सत्तर साल में अभी नहीं जीता तो सात सौ साल में तो और भी स्थगित करने होगी कि जल्दी क्या है?

क्यों न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब

सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही

तुम जो हो उसी में तो जोड़ोगे भविष्य को भी। तुम स्वर्ग को भी अपने नर्क में ही जोड़ लोगे। तुम अपने अधर्म में ही धर्म को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी दुकान में ही मंदिर को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी बीमारी में अपने स्वास्थ्य को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी मूर्च्छा में अमूर्च्छा की बातों को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी अशांति में अपने ध्यान को भी जोड़ लेते हो। रूपांतरण नहीं हो पाता।

नर्क में स्वर्ग को नहीं जोड़ना है। नर्क को मिटाना है, ताकि स्वर्ग हो सके। नर्क को छोड़ना है, ताकि स्वर्ग हो सके।

क्षणभंगुर जीवन है, यह सत्य है। इसके तुम तीन अर्थ ले सकते हो। एक, क्षणभंगुर है, इसलिए जल्दी करो। भोगो, कहीं भोग छूट न जाए। सांसारिक आदमी वही कहता है-खाओ, पीओ, मौज करो, जिंदगी जा रही है। फिर धार्मिक आदमी है, वह कहता है-जिंदगी जा रही है, खाओ, पीओ, मौज करो, इसमें मत गवांओ। कुछ कमाई कर लो, जो आगे काम आए स्वर्ग में, मोक्ष में। ये दोनों गलत हैं। फिर एक तीसरा आदमी है जिसको मैं जागा हुआ पुरुष कहता हूं बुद्धपुरुष कहता हूं, वह कहता है-जीवन क्षणभंगुर है, इसलिए कल पर तो कुछ भी नहीं छोड़ा जा सकता। स्वर्ग और भविष्य की कल्पनाएं नासमझियां हैं। इसलिए बुद्ध ने स्वर्गों की बात नहीं की। फिर वह यह कहता है कि जीवन क्षणभंगुर है तो सतह पर ही खाने-पीने और मौज में भी उसे गंवाना व्यर्थ है। तो थोड़ा हम भीतर उतरें, क्षण को खोलें, कौन जाने क्षण केवल द्वार हो जिसके बाहर ही हम जीवन को गंवाए दे रहे हैं। क्षण को खोलना ही ध्यान है।

महावीर ने तो ध्यान को सामायिक कहा। क्योंकि सामायिक का अर्थ है, समय को खोल लेने की कला। क्षण में खोलकर उतर जाना। द्वार तो छोटा ही होता है, महल बहुत बड़ा है। तुम द्वार के कारण महल को छोटा मत समझ लेना। द्वार तो छोटा ही होता है। द्वार के बड़े होने की जरूरत नहीं। तुम निकल जाओ इतना काफी है।

इतना मैं तुमसे कहता हूं? क्षण का द्वार इतना बड़ा है कि तुम उससे मजे से निकल सकते हो। इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं। क्षण के पार शाश्वत तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। तुम एक द्वार से दूसरे द्वार पर भाग रहे हो। कुछ द्वार-द्वार भीख मांगते फिर रहे हैं, वे सांसारिक लोग। कुछ हैं जो उदास होकर बैठ गए हैं द्वार के बाहर, सिर लटका लिया है कि जीवन बेकार है। इन दो से बचना।

एक तीसरा आदमी भी है, जिसने क्षण की कुंजी खोज ली-वही अमूर्च्छा है, अप्रमाद है-और क्षण का द्वार खोल लिया। क्षण का द्वार खोलते ही शाश्वत का द्वार खुल जाता है। अनंत छिपा है क्षण में, विराट छिपा है कण में।

आखिरी प्रश्न :

 

आनंद की दशा में क्या बस फूल ही फूल हैं, कांटे क्या एक भी नहीं?

 

प्रश्‍न थोड़ा कठिन है। कठिन इसलिए है कि आनंद के मार्ग पर न तो फूल हैं और न कांटे। कांटे तुम्हारे देखने में होते हैं। फूल भी तुम्हारे देखने में होते हैं। कांटे और फूल बाहर नहीं हैं। कांटे और फूल तुम्हें मिलते नहीं हैं बाहर, तुम्हारे देखने से जन्मते हैं। गलत देखने से कांटे दिखाई पड़ते हैं। ठीक देखने से फूल दिखाई पड़ते हैं। तुम वही देख लेते हो जो तुम्हारी दृष्टि है। दृष्टि ही सृष्टि है, इसे स्मरण रखो।

बड़ी प्राचीन कथा है कि रामदास राम की कथा कह रहे हैं। कथा इतनी प्रीतिकर है, राम की कहानी इतनी प्रीतिकर है कि हनुमान भी सुनने आने लगे। हनुमान ने तो खुद ही आंखों से देखी थी सारी कहानी। लेकिन फिर भी कहते हैं, रामदास ने ऐसी कही कि हनुमान को भी आना पड़ा। खबर मिली तो वह सुनने आने लगे। बड़ी अदभुत थी। छिपे-छिपे भीड़ में बैठकर सुनते थे।

पर एक दिन खड़े हो गए, खयाल ही न रहा कि छिपकर सुनना है, छिपकर ही आना है। क्योंकि रामदास कुछ बात कहे जो हनुमान को जंची नहीं, गलत थी, क्योंकि हनुमान मौजूद थे। और यह आदमी तो हजारों साल बाद कह रहा है। तो उन्होंने कहा कि देखो, इसको सुधार कर लो।

रामदास ने कहा कि जब हनुमान लंका गए और अशोक वाटिका में गए, और उन्होंने सीता को वहा बंद देखा, तो वहा चारों तरफ सफेद फल खिले थे। हनुमान ने कहा, यह बात गलत है, तुम इसमें सुधार कर लो। फूल लाल थे, सफेद नहीं थे। रामदास ने कहा, तुम बैठो, बीच में बोलने की जरूरत नहीं है। तुम हो कौन? फूल सफेद थे।

तब तो हनुमान को अपना रूप बताना पड़ा। हनुमान ही हैं! भूल ही गए सब। कहा कि मैं खुद हनुमान हूं। प्रगट हो गए। और कहा कि अब तो सुधार करोगे? तुम हजारों साल बाद कहानी कह रहे हो। तुम वहां थे नहीं मौजूद। मैं चश्मदीद गवाह हूं। मैं खुद हनुमान हूं, जिसकी तुम कहानी कह रहे हो। मैंने फूल लाल देखे थे, सुधार कर लो।

मगर रामदास जिद्दी। रामदास ने कहा, होओगे तुम हनुमान, मगर फूल सफेद थे। इसमें फर्क नहीं हो सकता। बात यहां तक बढ़ गई कि कहते हैं राम के दरबार में दोनों को ले जाया गया, कि अब राम ही निर्णय करें कि अब यह क्या मामला होगा, कैसे बात हल होगी! क्योंकि हनुमान खुद आंखों देखी बात कह रहे हैं कि फूल लाल थे। और रामदास फिर भी जिद किए जा रहे हैं कि फूल सफेद थे।

राम ने हनुमान से कहा कि तुम माफी मांग लो। रामदास ठीक ही कहते हैं। फूल सफेद थे। हनुमान तो हैरान हो गए। उन्होंने कहा, यह तो हद्द हो गई, यह तो कोई सीमा के बाहर बात हो गई। मैंने खुद देखे, तुम भी वहां नहीं थे। और न ये रामदास थे और न तुम थे। तुमसे निर्णय मांगा यही भूल हो गई। मैं अकेला वहा मौजूद था। सीता से पूछ लिया जाए, वे मौजूद थीं।

सीता को पूछा गया। सीता ने कहा, हनुमान, तुम क्षमा मांग लो, फूल सफेद थे। संत झूठ नहीं कह सकते। होना मौजूद न होना सवाल नहीं है। अब रामदास ने जो कह दिया वह ठीक ही है। फूल सफेद ही थे। मुझे दुख होता है कि तुम्हें गलत होना पड़ रहा है, तुम्हीं अकेले एकमात्र गवाह नहीं हो, मैं भी थी, फूल सफेद ही थे। शानदार!

उसने कहा, यह तो कोई षड्यंत्र मालूम होता है। कोई साजिश मालूम पड़ती है। मुझे भलीभांति याद है।

राम ने कहा, तुम ठीक कहते हो, तुम्हें फूल लाल दिखाई पड़े थे, क्योंकि तुम क्रोध से भरे थे। आंखों में खून था। जब आंखों में खून हो, क्रोध हो, तो सफेद फूल कैसे दिखाई पड़ सकते हैं?

जब मैंने इस कहानी को पढ़ा तो मेरा मन हुआ, इसमें थोड़ा और जोड़ दिया जाए। क्योंकि फूल वहां थे ही नहीं। अगर हनुमान की आंखों में खून था इसलिए लाल दिखाई पड़े, तो यह रामदास के मन में एक शुभ्रता है जिसकी वजह से सफेद दिखाई पड़ रहे हैं। फूल वहां थे नहीं। मैं तुमसे कहता हूं। राम भी गलत थे, सीता भी गलत हैं, रामदास भी गलत हैं। फूल बाहर नहीं हैं। तुम्हारी आंख में ही खिलते हैं। कांटे भी बाहर नहीं हैं। तुम्हारी आंख में ही बनते हैं, निर्मित होते हैं। तुम्हें वही दिखाई पड़ जाता है जो तुम देख सकते हो।

अब तुम पूछते हो, ‘आनंद की दशा में क्या बस फूल ही फूल हैं?’

न तुम्हें आनंद की दशा का पता है, न तुमने कभी फूल देखे।

‘कांटे क्या एक भी नहीं?’

अब तुम्हें पता ही नहीं तुम क्या पूछ रहे हो। जिसके भीतर आनंद का आविर्भाव हुआ है, उसके बाहर सिर्फ आनंद ही आनंद होता है, फूल ही फूल होते हैं। क्योंकि जो तुम्हारे भीतर है वही तुम्हारे बाहर छा जाता है। तुम्हारा भीतर ही फैलकर बाहर छा जाता है। तुम्हारा भीतर ही बाहर हो जाता है। तुम जैसे हो वैसा ही सारा अस्तित्व हो जाता है।

बुद्ध के साथ सारा अस्तित्व बुद्ध हो जाता है। मीरा के साथ सारा अस्तित्व मीरा हो जाता है। मीरा नाचती है तो सारा अस्तित्व नाचता है। बुद्ध चुप होते हैं तो सारा अस्तित्व चुप हो जाता है। तुम दुख से भरे हो, तो सारा अस्तित्व दुख से भरा है।

अनंत छिपा है क्षण मे तुमने कभी खयाल भी किया होगा, तुम परेशान हो, दुखी हो, चांद को देखते हो, उदास मालूम होता है। उसी रात तुम्हारे ही पड़ोस में कोई प्रसन्न है, आनंदित है, उसी चांद को देखता है ‘और लगता है आनंद बरस रहा है।

तुम्हारी दृष्टि ही तुम्हारा संसार है। और मोक्ष का अर्थ है, सारी दृष्टि का खो जाना। न सफेद, न लाल। जब कोई भी दृष्टि नहीं रह जाती तुम्हारी, तब तुम्हें वह दिखाई पड़ता है, जो है। उसको परमात्मा कहो, निर्वाण कहो।

साधु को भी जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। असाधु को भी जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। शैतान को जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। संत को जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। जो है, वह तो तभी दिखाई पड़ता है जब तुम्हारी कोई भी दृष्टि नहीं होती। तब तुम कुछ भी नहीं जोड़ते।

इसलिए बुद्ध ने तो उस परमदशा में आनंद है, ऐसा भी नहीं कहा। क्योंकि वह भी दृष्टि है। फूल हैं, ऐसा भी नहीं कहा। काटे हैं, ऐसा भी नहीं कहा। क्योंकि काटे तुम्हारी दुख की दृष्टि से पैदा होते थे, आनंद तुम्हारे आनंद की दृष्टि से पैदा हो रहा है। काटो में भी तुम थे, फूलों में भी तुम हो। एक ऐसी भी घड़ी है निर्वाण की जब तुम होते ही नहीं; तब एक परमशून्य है। इसलिए बुद्ध ने कहा, निर्वाण, परमशून्यता। जहां कुछ भी नहीं है। जहां वही दिखाई पड़ता है, जो है। अब उसे कहने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि उसे कांटा कहो तो गलत होगा, फूल कहो तो गलत होगा, दुख कहो तो गलत होगा।

तो तीन दशाएं हैं। एक दुख की दशा है। तब तुम्हें चारों तरफ काटे दिखाई पड़ते हैं। फूल केवल तुम्हारे सपने में होते हैं। काटा चुभता है वस्तुत: और फूल केवल आशा में होता है। यह एक दशा। फिर एक आनंद की दशा है, जब चारों तरफ फूल होते हैं। काटे सब खो गए होते हैं, कहीं कोई काटा नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन काटा संभावना में छिपा होता है। क्योंकि फूल अगर है, तो काटा कहीं संभावना में छिपा होगा। फिर एक तीसरी परमदशा है। न काटे हैं, न फूल हैं। उस परमदशा को ही आनंद कहो। वह सुख के पार, दुख के पार। काटे के पार, फूल के पार।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग-2) प्रवचन–26

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प्रेम के कोई गुणस्‍थान नहीं—प्रवचन छब्बीसवां

प्रश्‍नसार:

1— बारहवें और तेरहवें गुणस्थान: क्षीणमोह और सयोगिकेवलीजिन में क्या भिन्नता है इसे स्पष्ट करने की कृपा करें।

2—क्‍या तेरहवें गुणस्‍थान को उपलब्‍ध होकर भी उससे च्‍युत हुआ जा सकता है?

3—क्‍या प्रेम के मार्ग पर भी कोई सीढ़ियां होती है?

4—रजनीश एशो आमी तोमार बोइसागी

आमी पूना गेलाम, आमी काशी गेलाम

लाओ री लाओ संगे डुगडुगी।

5—देह की वृद्धावस्‍था, मन में आशंका, मरने की पूरी तैयारी, वापसी की भी भय नहीं—लेकिन दुबारा भगवान तो मिलेंगे नहीं।

6—रजनीश महाराज को नमस्‍कार कैसे करें, जब तक कि भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए?

पहला प्रश्न:

बारहवें और तेरहवें गुणस्थान: क्षीणमोह और सयोगिकेवलीजिन में क्या भिन्नता है इसे स्पष्ट करने की कृपा करें।

यह प्रश्न स्वाभाविक है। जैन शास्त्रों में इस संबंध में बड़ा ऊहापोह है। क्योंकि दोनों अवस्थाएं करीब-करीब एक जैसी मालूम पड़ती हैं।

बारहवीं अवस्था में समस्त मोह, माया शून्य हो जाती है। कुछ शेष बचता नहीं। और कुछ होने की संभावना भी न रही। सब बाधाएं गिर गईं, सब अवरोध समाप्त हुए। फिर तेरहवीं अस्वस्था में, तेरहवें गुणस्थान में सूत्र केवल इतना ही कहते हैं, सयोगिकेवलीजिन। केवलज्ञान उपलब्ध होता है, जिनत्व उपलब्ध होता है।

लेकिन जब सभी मोह क्षीण हो गए, जब सभी बाधाएं हट गईं, जब अंधकार जाता रहा तो फिर दोनों में फर्क क्या है? दोनों में देह है, इसलिए सयोगी से कोई फर्क नहीं पड़ता। बात थोड़ी बारीक है और नाजुक है। ऐसा समझना, कभी तुम बीमार पड़े, चिकित्सा हुई। सारी बीमारियां चली गईं तो भी जरूरी नहीं कि तुम स्वस्थ हो गए। अभी दौड़ न सकोगे, अभी श्रम न कर सकोगे। चिकित्सक कहेगा कुछ देर आराम करो। बीमारी तो गई, लेकिन स्वास्थ्य का आविर्भाव होने दो।

बारहवां गुणस्थान नकारात्मक है। तेरहवां गुणस्थान विधायक है। बारहवें गुणस्थान में जो कूड़ा-कर्कट था, वह गया। व्यर्थ हटा। लेकिन सार्थक को उतरने दो। बारहवां गुणस्थान शून्य जैसा है। तेरहवां गुणस्थान पूर्ण जैसा है। बौद्धों ने निर्वाण की जो परिभाषा की है, वह बारहवें गुणस्थान की ही परिभाषा है।

इसलिए जैन दृष्टि में अभी और थोड़े आगे जाना है। शून्य तो हो गए, अभी पूर्ण नहीं हुए। मोह तो गया, राग गया लेकिन अभी वीतरागता नहीं उतरी। तुम तैयार हो गए, मेहमान अभी नहीं आया। तुमने घर सजा लिया, द्वार-दरवाजों पर बंदनवार बांध दिए, स्वागतम लटका दिया, दीये जला लिए, धूप-दीप बाल ली। तुम तैयार हो गए, मेहमान अभी नहीं आया।

बारहवें में तुम्हारी तैयारी पूरी हो गई। अब तुमसे कुछ और नहीं मांगा जा सकता, तुम जो कर सकते थे, जो मनुष्य के लिए संभव था, वह हो गया। अब उतरेगा कोई। प्रकाश का अवतरण होगा। पात्र तैयार हो गया, अमृत की अब वर्षा होगी।

इसे तुम ऐसा मत सोचना कि इन दोनों के बीच समय का कोई फासला है। इन दोनों के बीच “एम्फेसिस’, जोर का फासला है। तुम यह मत सोचना कि बारहवां घट गया तो तेरहवें के घटने में अब कुछ समय लगेगा। युगपत हो सकता है। यह विश्लेषण तो इसलिए है ताकि तुम्हें सीढ़ी-सीढ़ी बात समझ में आ जाए।

ऐसा भी हो सकता है, बीमारी गई और तुम स्वस्थ हो गए, लेकिन बीमारी का जाना ही स्वस्थ हो जाना नहीं है। बीमारी का जाना स्वस्थ होने के लिए अनिवार्य चरण है। लेकिन बीमारी का न होना ही स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं है। स्वास्थ्य कुछ विधायक है। ऐसा नहीं है कि जब तुम स्वस्थ होते हो तो तुम इतना ही कह सकते हो कि मेरे सिर में कोई दर्द नहीं है, पेट में कोई दर्द नहीं है, कहीं कांटा नहीं चुभता; इतना ही कह सकोगे? कि कैंसर नहीं है, टी. बी. नहीं है। स्वास्थ्य की बस इतनी ही व्याख्या कर सकोगे? या कहोगे कि कुछ अपूर्व मुझे भरे है, कुछ लहरा रहा है। कुछ मेरे रोएं-रोएं में कंप रहा है, जो सिरदर्द का अभाव ही नहीं है, जो किसी अनूठी ऊर्जा की मौजूदगी है। किसी परम शक्ति का मेरे भीतर निवास है।

स्वास्थ्य विधायक है। इसलिए पूरब में जो स्वास्थ्य का विज्ञान है उसे हमने आयुर्वेद कहा है। पश्चिम का शब्द मेडिसिन, मेडिकल साइंस बहुत दरिद्र है। मेडिसिन का मतलब होता है सिर्फ औषधि। पश्चिम ने चुना मेडिकल साइंस–औषधि का विज्ञान; क्योंकि उनकी दृष्टि में स्वास्थ्य का अर्थ है, बीमारी का न हो जाना।

पूरब ने चुना आयुर्वेद: आयु का विज्ञान, जीवन का विज्ञान। सिर्फ औषधि नहीं है आयुर्वेद, औषधि से कुछ ज्यादा है। औषधि से तो इतना ही मालूम होता है, दर्द न रहा। लेकिन दर्द न रहने का अर्थ, आनंद हो गया? दर्द रहता तो आनंद में बाधा पड़ती जरूर, दर्द न रहा तो आनंद के लाने में सुविधा हो गई जरूर; लेकिन दर्द का न होना ही आनंद की परिभाषा है?

बौद्ध बारहवें गुणस्थान को निर्वाण की परिभाषा मानते हैं, इसलिए वे आनंद की बात नहीं करते। वे कहते हैं, परम अवस्था–दुख-निरोध। निर्वाण यानी दुख-निरोध; दुख न रहेगा। इससे आगे बात नहीं करते। उनसे पूछो, दुख न रहेगा यह भी कोई बात हुई? रहेगा क्या फिर? होगा क्या फिर? संसार न रहेगा, समझ में आ गया, लेकिन क्या मोक्ष की बस इतनी ही परिभाषा है? फिर मोक्ष अपने आप में क्या है? अगर संसार से ही परिभाषा हो सकती हो मोक्ष की, तो मोक्ष बड़ा लचर हुआ, बड़ा कमजोर हुआ, दीन हुआ, दरिद्र हुआ। जिसकी परिभाषा भी संसार से ही करनी होती हो…।

ऐसा समझो कि एक आदमी अमीर है, वह धन का त्याग कर दे; और एक आदमी गरीब है, उसके पास बहुत कुछ नहीं है, झोपड़ा है। वह अपने झोपड़े का त्याग कर दे। क्या तुम कहोगे कि अमीर का त्याग गरीब के त्याग से बड़ा है?

अगर त्याग धन का ही छोड़ना है तब तो निश्चित ही अमीर का त्याग गरीब के त्याग से बड़ा है। क्योंकि गरीब ने झोपड़ा छोड़ा, अमीर ने महल छोड़ा।

लेकिन त्याग धन का छोड़ना ही नहीं है। त्याग एक विधायक चित्त की दशा है। क्या छोड़ा यह मूल्यवान नहीं है, छोड़कर जो मिलता है वही मूल्यवान है। जो मिलता है, उसे छोड़ने से नहीं नापा जा सकता।

या ऐसा समझो कि एक आदमी ने एक पैसा चुरा लिया और दूसरे आदमी ने करोड़ रुपये चुरा लिए। क्या करोड़ रुपये चुरानेवाला बड़ा चोर है? एक पैसा चुरानेवाला छोटा चोर है। तो फिर तुम समझे नहीं।

चोरी तो बराबर है। एक पैसे की हो कि करोड़ रुपये की हो। चोरी में कोई मात्रा से फर्क नहीं पड़ता। एक आदमी ने एक पैसे की चोरी छोड़ी। एक पैसा रास्ते पर पड़ा था, वह पड़ा रहा और निकल गया। और एक आदमी के रास्ते पर करोड़ रुपये पड़े थे, उसने करोड़ रुपये की चोरी छोड़ी। चोरी की संभावना थी, न की। इन दोनों में कौन-सा बड़ा अचोर है? दोनों अचोर हैं।

अचौर्य चित्त की एक विधायक दशा है।

बारहवां गुणस्थान कहता है संसार नहीं हुआ, समाप्त हुआ। जैसे तुम किसी देश की सीमा पार करते हो, तो जो इस देश की सीमा है, समाप्त होता है देश, वही दूसरे देश की शुरुआत है। तो सीमा पर जो तख्ती लगी होती है, एक तरफ लिखा होता है–भारत समाप्त। दूसरी तरफ लिखा होगा है–चीन शुरू।

बारहवां गुणस्थान इस तरफ की खबर देता है–“संसार समाप्त'; तेरहवां गुणस्थान उस तरफ की खबर देता है–“मोक्ष शुरू।’ दोनों एक ही तख्ती पर होंगे। तख्ती की एक तरफ लिखा है–“संसार समाप्त'; दूसरी तरफ लिखा है “मोक्ष प्रारंभ।’ दोनों में रत्तीमात्र फासला नहीं दिखाई पड़ता, पर फासला बड़ा है। दोनों की सीमारेखा एक ही है। इसलिए जैन शास्त्रों में भी खूब चिंतन चला है कि फर्क क्या है?

मेरे देखे बारहवां गुणस्थान इतना ही कहता है: कि जो छोड़ने योग्य था, छूट गया; जो मिटने योग्य था, मिट गया; जो व्यर्थ था, असार था, उससे मुक्ति हुई। तेरहवां गुणस्थान कहता है: वहीं रुकना नहीं हुआ, जो मिलने योग्य था, मिला; जो पाने योग्य था, बरसा। मेहमान घर आ गया।

जैन सूत्रों में भी बात साफ है। बारहवें सूत्र की परिभाषा है–

णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणुदय-समचित्तो।

खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं।।

“संपूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की भांति निर्मल हो गया है, ऐसे पुरुषों को वीतरागदेव ने क्षीणमोह या क्षीणकषाय कहा है।’

“निर्मल हो गया’–नकारात्मक है। शुद्ध हो गया, अशुद्धि गई। तेरहवें गुणस्थान की परिभाषा है:

केवलणाणदिवायर-किरणकलावप्पणासिअण्णाणो।

णवकेवललद्धुग्गमं-पावियरपरमप्पववएसो।।

“केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान-अधंकार सर्वथा नष्ट हो गया, तथा जो सम्यकत्व, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य को उपलब्ध हुए वे सयोगिकेवलीजिन कहलाते हैं।’

अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, सम्यकत्व, समाधि, अनंत सुख, अनंत वीर्य, ये उपलब्धि की सूचनाएं हैं–क्या मिला!

संसार गया, मोक्ष मिला। इसलिए महावीर कहते हैं, तेरहवें गुणस्थान में आए हुए व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता, परमात्मा कहा जा सकता है।

दूसरा प्रश्न:

क्या तेरहवें गुणस्थान को उपलब्ध होकर भी कोई उससे च्युत हो सकता है, क्या कोई अब तक हुआ है?

नहीं, तेरहवें गुणस्थान तक पहुंचकर कोई कभी च्युत नहीं हुआ, न हो सकता है। तो फिर सवाल उठता है कि चौदहवें गुणस्थान की क्या जरूरत है? जब तेरहवें से वापसी हो ही नहीं सकती, जब तेरहवें से गिरना हो ही नहीं सकता, तो फिर तेरहवें और चौदहवें का फासला क्या?

तेरहवें गुणस्थान से कोई च्युत नहीं होता, लेकिन कोई चाहे तो तेरहवें गुणस्थान पर रुक सकता है। महाकरुणावान पुरुष रुक गए हैं। तेरहवें गुणस्थान पर जो रुक गए हैं, उनके लिए ठीक-ठीक शब्द बौद्धों के पास है; वह शब्द है “बोधिसत्व’। जिन्होंने कहा, हम चौदहवें में प्रवेश न करेंगे। क्योंकि हम अगर चौदहवें में प्रवेश कर गए तो शरीर छूट जाएगा। शरीर छूट जाएगा तो हम किसी के काम न आ सकेंगे। संबंध टूट जाएंगे।

बौद्धों में कथा है कि बुद्ध जब स्वर्ग या मोक्ष के द्वार पर पहुंचे, द्वार खुला तो वे खड़े रह गए। द्वारपाल ने कहा, आप प्रवेश करें। बुद्ध ने कहा कि नहीं, अभी नहीं। अभी बहुत हैं मेरे पीछे, जो अंधेरे में भटकते हैं। जो रोशनी मुझे मिली है, जब तक उन तक न पहुंचा दूं तब तक मैं प्रवेश न करूंगा।

यह तेरहवें गुणस्थान में रुक जाने की बात है। इसका अर्थ हुआ, जो व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो गया है, वह कहता है थोड़ी देर और अभी इस देह में रहूंगा। क्योंकि इस देह से ही उनके साथ संबंध बना सकता हूं, जो अभी देह को ही अपना होना समझते हैं। इस देह से ही कोई संवाद हो सकता है उनके साथ, जिन्होंने देह में ही अपने प्राणों को आरोपित कर लिया है; जो देह के साथ तादात्म्य-रूप हो गए हैं।

देह में रुक जाने की आकांक्षा को जैनों ने तीर्थंकर कर्मबंध कहा है। जो तेरहवीं अवस्था में रुक जाता है करुणावश, कि पीछे चलते लोगों को थोड़ी सहायता पहुंचा सकूं; जो मुझे मिला है वह बांट भी सकूं; जो मैंने पाया है उसे और भी पा सकें।

ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। अगर तेरहवीं गुणअवस्था में किसी व्यक्ति ने चेष्टा न की तो वह अपने आप चौदहवीं में सरक जाएगा। तेरहवीं अवस्था से चौदहवीं में जाना ऐसा है, जैसे कि बड़ी कोई ढलान पर उतर रहा हो, या नदी की गहन धार में बहा जाता हो जहां पैर जमाकर खड़ा होना मुश्किल हो जाए।

इसलिए जगत में तेरहवीं अवस्था को जैसे ही लोग उपलब्ध होते हैं, तत्क्षण चौदहवीं अवस्था में प्रवेश हो जाते हैं–या थोड़ी देर-अबेर। ज्यादा देर रुक नहीं पाते। कुछ बलशाली लोग ज्ञान के बाद भी अज्ञान के संसार में पैरों को टेककर खड़े रहे हैं।

उन बलशाली पुरुषों के कारण ही संसार एकदम अंधेरा नहीं है, उसमें कहीं-कहीं दीये टिमटिमाते हैं–कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई महावीर, कोई जरथुस्त्र, कोई मोहम्मद। कहीं थोड़े-थोड़े दीये टिमटिमाते हैं। यह इन बलशाली पुरुषों का…।

संसार से छूटना बड़ा कठिन है; लेकिन उससे भी बड़ी कठिन बात है, संसार से छूटकर थोड़ी देर संसार में रुक जाना। अति कठिन बात है। संसार से छूटना ही पहले अति कठिन बात है, फिर जब छूटने की घड़ी आ जाए तो उस समय याद किसको रहती है?

तुम दुख में ही जीए और अचानक महल आ गया, सब सुखों का द्वार खुल गया, तुम रुक पाओगे, तुम दौड़कर महल में प्रवेश कर जाओगे। तुम कहोगे, जन्मों-जन्मों से जिसको खोजा है वह सामने खड़ा है। मंजिल सामने तो खड़ी है, अब कैसा रुकना! तुम एक क्षण भी रुक न पाओगे।

तो तेरहवीं अवस्था से कोई गिरता तो नहीं यह सच है, लेकिन तेरहवीं अवस्था में कोई रुक सकता है। कठिन है, अति दुर्गम है, लेकिन हुआ है। तेरहवीं अवस्था में जो रुक गए हैं, वे ही अवतारी पुरुष हैं।

जैन परिभाषा में अवतार परमात्मा के घर से नहीं आता। इसलिए अवतार शब्द का उपयोग जैन नहीं करते। अवतार शब्द का ही मतलब है: उतरे; अवतरित हो ऊपर से आए। जैन परिभाषा में तो सभी नीचे से ऊपर की तरफ जाते हैं। ऊर्ध्वगमन है जगत में, अधोगमन नहीं है। अवतार का मतलब तो हुआ, अधोगमन। अवतार का तो मतलब हुआ, असीम सीमा में उतरा, विराट क्षुद्र हुआ, महत छोटा बना, आकाश आंगन बना, असीम ने सीमा में अपने को बांधा।

अवतरण तो अधोगमन हुआ। यह तो पतन हुआ। जिसको हिंदू अवतार कहते हैं, उसको जैन मानता है कि यह तो पतन है। तो उसकी बात में भी बल है। पतन तो है ही। जैसे परमात्मा च्युत हुआ। यह तो हो नहीं सकता। परमात्मा च्युत हो ही नहीं सकता। इसलिए जैन कहते हैं सिर्फ ऊर्ध्वगमन होता है, सिर्फ उत्क्रांति होती है, सिर्फ विकास होता है। पीछे कोई जाता ही नहीं, आगे ही जाना है। जाना मात्र आगे की तरफ है। हम ऊपर ही उठते हैं।

इसलिए तेरहवीं अवस्था में पहुंचा हुआ व्यक्ति अवतारी पुरुष है। आया है लंबी यात्रा पार करके। जन्मों-जन्मों में बारह अवस्थाएं पूरी की हैं, तेरहवीं पर आया, भगवान हुआ।

यह भगवान का अर्थ भी समझ लेना। हिंदू सोचते हैं, भगवान का अर्थ, जिसने संसार बनाया।

जैनों में भगवान का वैसा अर्थ नहीं है। संसार को तो किसी ने बनाया नहीं। कोई स्रष्टा तो नहीं है। लेकिन जिसने अपने को बना लिया, वह भगवान। इन बारह सीढ़ियों से गुजरकर जो तेरहवीं पर आ गया, वही भगवान।

इसलिए भगवान एकवाची भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक भगवान है। जितनी आत्माएं हैं उतने भगवान के होने की संभावना है। अनंत भगवान के होने की संभावना है। हिंदू कहते हैं भगवान अनंत हैं, जैन कहते हैं अनंत हैं भगवान।

प्रत्येक जीवन-ऊर्जा किसी न किसी दिन तेरहवें गुणस्थान में आएगी–देर-अबेर। भटकोगे…कितना भटकोगे? किसी न किसी दिन पीड़ा से थकेऱ्हारे, टूटे घर आओगे। उस तेरहवें गुणस्थान में भगवत्ता उपलब्ध होगी।

यह जो भगवान की तेरहवीं अवस्था है, इससे कोई च्युत तो नहीं हो सकता। च्युत होना होता ही नहीं। लेकिन कोई चाहे तो रुक सकता है। चौदहवीं अवस्था को आने से रोक सकता है। बड़ी प्रगाढ़ करुणा करनी पड़े। करुणा को ऐसी प्रगाढ़ता से करना पड़े कि वह करीब-करीब वासना बन जाए। सांसारिक आदमी जैसे वासना से बंधा है और संसार से नहीं छूटता, ऐसे तेरहवें गुणस्थान में पहुंचा हुआ व्यक्ति करुणा की जंजीरें ढालता है; करुणा से बंधता है। रुकता है कि किसी तरह थोड़ा साथ, थोड़ा संग, थोड़ी पुकार दे सके। उसकी नाव आ लगी, उस पार जाने का निमंत्रण आ पहुंचा, फिर भी वह हजार उपाय करता है कि इस किनारे पर थोड़ी देर रुक जाए।

अलग-अलग सदगुरुओं ने अलग-अलग उपाय किए हैं, कैसे इस किनारे पर थोड़ी देर और रुक जाएं कि तुमसे थोड़ी बात हो सके, कि तुम्हें थोड़ा संदेश दिया जा सके; कि तुम्हारी नींद को थोड़ा हिलाया जा सके; कि तुम्हारे स्वप्न थोड़े तोड़े जा सकें।

अपने आप रुकना नहीं होता। अपने आप तो तेरहवें गुणस्थान से चौदहवां गुणस्थान सहज घट जाता है। जैसे बड़ी चिकनी भूमि हो और तुम खिसक जाओ, रपट जाओ। बड़ी रपटीली भूमि हो और ढलान हो। तेरहवें से चौदहवां इतने करीब है, और इतना आकर्षक है, इतना मोहक है कि कौन रुकना चाहेगा?

फिर रुकना कठिन भी है। इसलिए जैन कहते हैं, हजारों लोग केवलज्ञान को उपलब्ध होते हैं, कभी कोई एकाध तीर्थंकर हो पाता है। तीर्थंकर का अर्थ है, जो तेरहवें में रुकता–बलपूर्वक, चेष्टापूर्वक।

चौदहवें का अर्थ है, शरीर से संबंध का टूट जाना। जो तेरहवें में हुआ है, उससे कुछ ज्यादा नहीं होता चौदहवें में। जो तेरहवें में है, उससे चौदहवें में कुछ कम हो जाता है बस, ज्यादा नहीं होता। तेरहवें तक शरीर का साथ है, चौदहवें में शुद्ध आत्मा रह जाती है, शरीर से संबंध छूट जाता है।

तीसरा प्रश्न:

महावीर ने वैराग्य और ध्यान के मार्ग को चौदह सीढ़ियों में बांटा है। क्या प्रेम के मार्ग की भी ऐसी कोई व्याख्या है? कृपया इस पर कुछ कहें।

प्रेम को बांटने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि प्रेम छलांग है। ज्ञान क्रमिक है, प्रेम छलांग है। ज्ञान इंच-इंच चलता, कदम-कदम चलता। प्रेम इंच-इंच नहीं चलता, कदम-कदम नहीं चलता।

ज्ञान बड़ा होशियार है, प्रेम बड़ा पागल है। इसलिए ये जो गुणस्थान हैं, ज्ञान के साधक के लिए हैं। भक्ति के मार्ग पर कोई गुणस्थान नहीं हैं।

भक्त जानता नहीं विभाजन को। भक्त जानता ही नहीं कोटियों को। भक्त जानता ही नहीं विश्लेषण को। भक्त की पहचान तो संश्लेषण से है–सिन्थेसिस। भक्त की तो पहचान चीजों को जहां-जहां भेद हो वहां अभेद देखने की है।

ज्ञानी की सारी चेष्टा जहां अभेद भी हो, वहां भेद पहचानने की है। महावीर ने तो अपने पूरे शास्त्र को भेद-विज्ञान कहा है। कहा कि यह भेद को पहचानने की कला है। पहचानना है कि शरीर क्या है, आत्मा क्या है। पहचानना है कि संसार क्या है, मोक्ष क्या है। एक-एक चीज पहचानते जाना है। एक-एक चीज का ठीक-ठीक ब्यौरा और ठीक-ठीक विश्लेषण करना है। ठीक विश्लेषण करने से ही कोई मुक्त अवस्था को उपलब्ध होता है। ज्ञान का खोजी विश्लेषण करता है। विश्लेषण उसकी विधि है। वह कैटेगरीज बनाता है, कोटियां बनाता है। उसका ढंग वैज्ञानिक है।

भक्त, प्रेमी कोटियां तोड़ता है। सब कोटियां को गड्डमड्ड कर देता है। दीवाना है, पागल है। पागलों ने कहीं हिसाब लगाए?

तो यह तो पूछो ही मत, कि क्या भक्ति के मार्ग पर भी, प्रेम के मार्ग पर भी इसी तरह की कोटियां हो सकती हैं, विभाजन हो सकता है? संभव नहीं है।

एक आदमी धन इकट्ठा करता है तो धीरे-धीरे करता है। लुटेरा आता है, लूटकर ले जाता है इकट्ठा।

रामकृष्ण के पास एक आदमी हजार सोने की मोहरें लेकर आया। कहा, स्वीकार कर लें। रामकृष्ण ने कहा, अब तुम तो ले आए तो चलो स्वीकार कर लिया। लेकिन मैं क्या करूंगा। तुमने तो अपना बोझा छुड़ाया, मुझ पर डाल दिया। ऐसा करो, मैंने स्वीकार कर लीं। अब मेरी तरफ से इनको बांधकर गंगा में डाल आओ।

उस आदमी ने पोटली बांधी बड़े बेमन से। हजार बार सोचने लगा कि यह क्या हुआ! मगर अब कुछ कह भी न सका। भेंट कर दीं। और यह आदमी पागल है। यह कह रहा है, गंगा में फेंक आ। गया बेमन से। बड़ी देर लगा दी, आया नहीं तो रामकृष्ण ने कहा, जरा पता तो लगओ। वह गंगा पहुंचा कि घर भाग गया? वह है कहां? अब तक लौटा नहीं।

भेजा देखने को, तो देखा कि वह गंगा के किनारे पर बैठकर…बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई है। वह पहले पटक- पटककर खनखना-खनखनाकर गिनती कर रहा है। एक-एक गिनकर फेंक रहा है। किसी ने खबर दी रामकृष्ण को। वे गए और उन्होंने कहा, पागल! जोड़ना हो तो गिनती करनी पड़ती है, फेंकने के लिए क्या गिनती कर रहा है? अरे! नौ सौ निन्यानबे हुईं तो भी चलेगा। एक हजार एक हुईं तो भी चलेगा। बांध पोटली, इकट्ठी फेंक! यह क्या गिनती कर रहा है?

वह पुरानी आदत रही होगी–जोड़नेवाले की आदत, गिनती करने की। वह पुराने हिसाब से जैसे अपनी दुकान पर बैठकर खनखनाकर देखता होगा। असली है कि नकली है, वह अभी भी कर रहा है। अब पूरी प्रक्रिया उलटी हो गई।

प्र्रेम तो डूबना जानता है।

यह कौन आया रहजन की तरह

जो दिल की बस्ती लूट गया

आराम का दामन चाक हुआ

तसकीन का रिश्ता टूट गया

यह कौन आया रहजन की तरह

जो दिल की बस्ती लूट गया

डाकू की तरह आता है परमात्मा। इसलिए तो हिंदू परमात्मा को हरि कहते हैं। हरि यानी लुटेरा: हर ले जाए जो; झपट ले। रहजन की तरह आ जाए–डाकू। जो लूट ले।

यह कौन आया रहजन की तरह

जो दिल की बस्ती लूट गया

प्रेम कुछ तुम्हारे बस में थोड़े ही है। ध्यान तुम्हारे बस में है। ज्ञान तुम्हारे बस में है। त्याग, तपश्चर्या तुम्हारे बस में है, प्रेम तुम्हारे बस में थोड़े ही है। किसी अज्ञात क्षण में, किसी अनजानी घड़ी में, किसी सौभाग्य की घड़ी में आ जाता है कोई और लूट ले जाता है।

आराम का दामन चाक हुआ

प्रेम के पहले आदमी आराम से जीता है। प्रेम के बाद फिर आराम नहीं। प्रेम के पहले तो आदमी जानता ही नहीं कि पीड़ा क्या है। प्रेम के बाद ही जानता है कि पीड़ा क्या है। क्योंकि प्रेम में जलता है, पिघलता है, गलता है, मिटता है।

आराम का दामन चाक हुआ

तसकीन का रिश्ता टूट गया

प्रेम के पहले जिंदगी बड़ी धीमी-धीमी चलती है, धीरज से चलती है। कहीं कोई दौड़, छलांग नहीं। आदमी सावधानी से चलता है। प्रेम के बाद मस्ती पकड़ लेती है। फिर कहां धीरज? फिर कहां धैर्य! फिर कैसा आराम।

बुद्धि तो बड़ा सोच-विचारकर कहीं झुकती है। हृदय झुका ही हुआ है। अगर इसे तुम ठीक से समझ सको तो ऐसा समझना, हृदय तो तुम्हारा अभी भी भक्ति में डूबा हुआ है। तुम्हारा अपने हृदय से संबंध छूट गया है। तुम अपनी बुद्धि में समा गए। अपनी खोपड़ी में निवास कर लिया है। वहीं रह गए। अटक गए वहीं। उलझ गए वहीं।

हृदय तो अब भी प्रार्थना कर रहा है। हृदय तो अभी भी नमाज पढ़ रहा है। हृदय तो अभी भी डूबा है। हृदय का होना ही परमात्मा में है।

वे जो बुद्धि में भटक गए हैं और जिनको हृदय का रास्ता नहीं मिलता, उनके लिए चौदह गुणस्थान हैं। जिनको हृदय करीब है और जिन्हें कोई अड़चन नहीं, जो सरलता से हृदय में उतर सकते हैं, उनके लिए कोई गुणस्थान नहीं, कोई भेद-विभाजन नहीं। उनके लिए न कोई शास्त्र है, न कोई साधना है।

जवानी मोहब्बत, वफा नाउम्मीदी

यह है मुख्तसर-सा हमारा फसाना

किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे

जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना

बुद्धि ढूंढ़ती ही रही कि कहां है वह जगह, जहां सिर झुकाऊं।

जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना

देहली ढूंढ़ती ही रही कि कहां सिर को रखूं, कहां माथा टेकूं? कहां मंदिर? कहां मस्जिद?

जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना

किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे

और दिल तो हर जगह तेरी प्रार्थना करता रहा, तेरी पूजा में लीन रहा। दिल तो पूजा में डूबा ही है। वहां तो जल ही रहा दीया। वहां तो धूप उठ ही रही। वहां तो वेदी सजी है।

जो बुद्धि में बहुत बुरी तरह खो गए हैं–बुद्धि के अरण्य में, विचारों के जंगल में, जंजाल में, उनके लिए ज्ञान का रास्ता है।

इसलिए जैन शास्त्र अत्यंत बौद्धिक हैं, रूखे हैं। गणित की तरह हैं। आइंस्टीन की किताब पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, एक से हैं। न्यूटन को पढ़ो कि अरिस्टोटल को पढ़ो कि जैन शास्त्र पढ़ो, एक से हैं।

बहुत बार कई जैनों ने मेरे पास आकर कहा है कि कभी आप कुंदकुंद पर बोलें। कई दफे उनकी बात सुनकर मैं भी कुंदकुंद की किताब उलटाकर देखता हूं, फिर बंद कर देता हूं। बिलकुल रूखा-सूखा है। मैं भी चेष्टा करके कविता उसमें डाल न सकूंगा। बड़ी अड़चन होगी। काव्य है ही नहीं। रसधार बहती ही नहीं। सीधा-सीधा गणित का हिसाब है–दो और दो चार।

जैन शास्त्र पैदा ही तब हुए, जब भारत एक बड़ी बौद्धिक क्रांति से गुजर रहा था। सारा देश बड़े चिंतन में लीन था। सदियों के चिंतन के बाद निष्कर्ष लिए जा रहे थे। ऐसा भारत में ही था ऐसा नहीं, सारी दुनिया में एक महत ऊर्जा उठी थी। भारत में बुद्ध थे, महावीर थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, निगंठनाथपुत्त महावीर थे। यूनान में थेलीस, सुकरात, प्लेटो, अरिस्टोटल। ईरान में जरथुस्त्र। चीन में कन्फ्यूसियस, लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु।

सारी दुनिया में एक बड़ी तीव्र उत्क्रांति हो रही थी। सब तरफ हवा गर्म थी। विचार कसे जा रहे थे। विचार, तर्क, चिंतन, मनन अपनी आखिरी कसौटी छू रहा था, आखिरी ऊंचाई छू रहा था। उस उत्तुंग क्षण में जिन-सूत्र रचे गए। वे उस दिन की पूरी खबर लाते हैं, उस दिन का पूरा वातावरण, उस दिन की पूरी हवा और मौसम उनमें छिपा हुआ है।

भक्त बड़े और ढंग से जीता है। भक्त का मार्ग स्त्रैण है। इसीलिए जैन तो मानते ही नहीं कि स्त्री का मोक्ष हो सकता है। उस मानने में बड़ा विचार है।

एक बात निश्चित है, जैन शास्त्र में स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता। स्त्री का हो सकता है कि नहीं इस पर पूरा, किसी को कोई दावा नहीं कहने का; लेकिन इतनी बात पक्की है कि जैन शास्त्र से तो नहीं हो सकता। क्योंकि जैन शास्त्र से स्त्री का मेल ही नहीं बैठ सकता। वह उनमें हृदय है ही नहीं। उसमें तो सभी पुरुषों का भी बैठ जाए मेल, यह भी कठिन मालूम होता है।

तो जैन शास्त्र ठीक ही कहते हैं कि स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता। क्योंकि जैन शास्त्र पुरुष मन की खोज है–तर्क, चिंतन, मनन। प्रेम की खोज नहीं है। इसलिए एक बड़ी अनूठी घटना घटी। जैनों का एक तीर्थंकर–तेईसवां–एक तीर्थंकर स्त्री थी। नाम है मल्लीबाई। लेकिन जैनों ने मल्लीबाई को मल्लीबाई लिखना भी पसंद न किया। वे उसको मल्लीनाथ लिखते हैं। वह थी तो स्त्री, लेकिन बना दिया पुरुष। वे मानते नहीं कि मल्लीबाई स्त्री थी। वे कहते हैं, मल्लीनाथ। और मुझे भी लगता है, वे ठीक कहते हैं। वह चाहे देखने में स्त्री रही हो, भीतर से पुरुष ही रही होगी। इसलिए नाम बदला तो ठीक ही किया। मल्लीबाई मल्लीनाथ ही रही होगी। हृदय तो नहीं रहा होगा। इसलिए बात तो ठीक ही लगती है।

पुरुष का चित्त तो तर्क की धार है, गणित का हिसाब है, विज्ञान का फैलाव है। विश्लेषण उसका द्वार है। स्त्री का चित्त अलग ढंग से धड़कता। हृदय, प्रेम, रस–“रसो वै सः’। स्त्री के लिए परमात्मा रस-रूप है, कृष्ण-रूप है। सत्य यानी प्रीतम। सत्य यानी सिर्फ गणित का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं। सत्य यानी जहां हृदय झुक जाए।

किए दिल ने हरेक जगह तुझको सिजदे

जबीं ढूंढ़ती ही रही आस्ताना

हृदय झुकता ही रहा। जहां गया वहीं अपने प्रीतम को खोज लिया। और बुद्धि खोजती ही रही कि वह जगह कहां है, जहां मैं झुकूं? बुद्धि खोज-खोजकर जगह नहीं पाती कि कहां झुकूं; और हृदय को बिना खोजे जगह मिल जाती है। हृदय की एक छलांग है।

और जब मैं कह रहा हूं स्त्री-चित्त, तो तुम यह मत सोचना कि तुम पुरुष हो तो प्रेम तुम्हारे लिए नहीं। और तुम ऐसा भी मत सोचना कि तुम स्त्री हो तो जिन-सूत्र तुम्हारे लिए नहीं है। शरीर से स्त्री और पुरुष होना एक बात है, चित्त से स्त्री और पुरुष होना बिलकुल दूसरी बात है।

अगर जैनों ने मल्लीबाई को मल्लीनाथ कहा, तो ठीक ऐसे ही चैतन्य महाप्रभु को चैतन्यबाई कहा जा सकता है। वह स्त्रैण चित्त है। वह गौरांग का नाचता हुआ रूप!–जैसे राधा हो गए। किसी ने ऐसी हिम्मत नहीं की। क्योंकि स्त्री को पुरुष बनाना तो आसान मालूम होता है। कहते हैं, “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसीवाली रानी थी।’ लेकिन किसी पुरुष को नामर्द कहो तो झगड़ा खड़ा हो जाता है।

पुरुषों की दुनिया है यह। यहां स्त्री को अगर पुरुष कहो तो मालूम होता है, प्रशंसा कर रहे हो। और अगर पुरुष को स्त्री कहो तो लगता है निंदा हो गई। चूंकि पुरुष ने ही सारे मापदंड तय किए हैं।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, यह बात गलत है। अगर मल्लीबाई मल्लीनाथ कही जा सकती है तो क्यों नहीं चैतन्य को चैतन्यबाई कहो? ज्यादा उचित होगा। ठीक-ठीक खबर मिलेगी।

तो तुम ऊपर शरीर को आईने में देखकर तय मत कर लेना, भीतर खोजबीन करना। अगर तुम हृदय की तरफ झुके हो तो तुम स्त्रैण हो। अगर तुम बुद्धि की तरफ झुके हो तो तुम पुरुष हो। जो मनोवैज्ञानिक मापदंड है वह हृदय और बुद्धि के बीच तय होगा।

हृदय का रास्ता सुगम है। और हृदय का रास्ता अत्यंत उल्लासपूर्ण है। वहां कोई खंड, कोटियां, विभाजन नहीं हैं।

इसलिए महावीर तो कहते हैं, मेरी दृष्टि भेद-विज्ञान की है। और भक्त कहते हैं, हमारी दृष्टि अभेद-विज्ञान की है। हम एक को ही देखते हैं। अनेक में भी एक को ही देखते हैं। हमें एक ही दिखाई पड़ता है। सभी रूप उसके मालूम होते हैं। सभी नाम उसके मालूम होते हैं। रूप के कारण भक्त धोखे में नहीं पड़ता। आकृति के कारण धोखे में नहीं पड़ता। वह सभी आकृतियों में छिपे निराकार को देख लेता है।

और भक्ति को मैं कहता हूं, वह एक छलांग है। इसलिए भक्ति तो एक क्षण में भी घट सकती है। ज्ञान के लिए सदियां लग जाती हैं। तुम्हारी मर्जी! ज्ञान से भी लोग पहुंचते हैं।

कुछ हैं, जो सीधी तरह से कान पकड़ना जानते ही नहीं। करोगे भी क्या? वे चक्कर लगाकर, हाथ से सिर के पीछे से घूमकर कान पकड़ते हैं। कुछ को अपने घर भी आना हो तो वे पहले सारी दुनिया का चक्कर लगाकर फिर घर आते हैं। अगर तुम चलते ही रहो, चलते ही रहो तो जमीन गोल है, एक दिन अपने घर आ जाओगे चलते-चलते-चलते।

मैंने सुना है एक आदमी भागा जा रहा था। राह किनारे बैठे एक बूढ़े से पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है? सभी लोग दिल्ली जा रहे हैं तो वह भी जा रहा होगा। एक बुखार है, दिल्ली चलो। उस बूढ़े ने कहा, जिस तरफ तुम भागे जा रहे हो, अगर उसी तरफ भागे गए तो बहुत दूर है क्योंकि दिल्ली पीछे छूट गई। अगर तुम इसी दिशा में भागे चले जाओ तो पहुंचोगे जरूर एक दिन दिल्ली, लेकिन सारी दुनिया का चक्कर लगाकर पहुंचोगे। हजारों मील की यात्रा है। अगर लौट पड़ो तो दिल्ली बिलकुल पीछे है। आठ मील पीछे छोड़ आए हो।

अगर बुद्धि की तरफ से गए तो बड़ी लंबी यात्रा है। पृथ्वी भी इतनी बड़ी नहीं है। क्योंकि बुद्धि के फैलाव का कोई अंत ही नहीं है। बुद्धि का आकाश बहुत बड़ा है।

मैंने सुना है कि शिव अपने बेटों के साथ खेल रहे हैं–कार्तिकेय और गणेश। और ऐसे ही खेल में उन्होंने कहा कि तुम मानते हो कि मैं ही यह सारी सृष्टि हूं? तो मेरे भक्त को मेरी परिक्रमा कैसी करनी चाहिए, तुम बताओ। तो कार्तिकेय तो बड़े बुद्धिमान रहे होंगे, ज्ञानी रहे होंगे। चले सारी सृष्टि का चक्कर लगाने। शिव की परिक्रमा करनी है। और शिव यानी सारी सृष्टि। सब में व्याप्त परमात्मा। पता नहीं अभी तक लौटे भी कि नहीं कार्तिकेय। कहानी कुछ कहती नहीं। गणेश ने ज्यादा होशियारी की। वजनी शरीर, हाथी की सूंड! अब इतनी बड़ी पृथ्वी का चक्कर क्या? उन्होंने शिव का चक्कर लगाकर जल्दी से वहीं बैठ गए। हो गई! सृष्टि की परिक्रमा हो गई। अगर शिव ही समाए हैं सारी सृष्टि में तो अब सारी सृष्टि की परिक्रमा क्या करनी! शिव की कर ली तो सारी सृष्टि की हो गई। कार्तिकेय ने सोचा ठीक उलटा। वह भी ठीक है, वह भी तर्क ठीक है। कि जब सारी सृष्टि में समाए हैं तो सारी सृष्टि की जब परिक्रमा होगी तभी तो परिक्रमा हो पाएगी।

बुद्धि यानी कार्तिकेय। हृदय यानी गणेश। हृदय से तो अभी घट सकता है। ऐसा एक चक्कर मारा शिव का और बैठ गए कि हो गई बात पूरी।

लेकिन बुद्धि से बहुत लंबी यात्रा है–अनंत काल। जो क्षण में हो जाता है, वह शायद अनंत काल में ही हो पाए। तुम पर निर्भर है। किन्हीं-किन्हीं को यात्रा का ही सुख आता है तो उन्हें रोकने का कोई कारण नहीं।

लेकिन अपने भीतर ठीक से जांच कर लेना। भक्त के लिए तो भगवान चुपचाप आ जाता है। अचानक आ जाता है।

एक दिन चुपचाप अपने आप

यानी बिन बुलाए तुम चले आए

मुझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर

इसकी प्रतीक्षा में कि दोनों हाथ फैलाकर

तुम्हें उल्लास से खींचा

सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा

एक दिन चुपचाप अपने आप

यानी बिन बुलाए तुम चले आए

भक्त तो सिर्फ प्रतीक्षा करता है। कहां जाए खोजने? कहां है परमात्मा या कहां परमात्मा नहीं है? कहां खोजने जाए? या तो सब जगह है या कहीं नहीं है। कहां खोजने जाए? परमात्मा की कोई दिशा तो नहीं। भक्त सिर्फ प्रतीक्षा करना जानता है। रोता है, प्रार्थना करता है, आंसू गिराता है।

एक दिन चुपचाप अपने आप

यानी बिन बुलाए तुम चले आए

भक्त तो कहता है हम बुलाएं भी किस जबान से? किस जुबां से? किन ओंठों से लें तेरा नाम? ओंठ हमारे झूठे हैं। और उनसे हम और बहुत नाम ले चुके हैं। कैसे पुकारें तुझे? हमारी सब पुकार बड़ी छोटी है, क्षीण है। कहां खो जाएगी इस विराट में, पता भी न चलेगा।

एक दिन चुपचाप अपने आप

यानी बिन बुलाए तुम चले आए

मुझे ऐसा लगा, जैसे लगा था रातभर

इसकी प्रतीक्षा में…

और भक्त कहता है, वे जो बीत गईं जीवन की घड़ियां, बस एक रात थी, जो प्रतीक्षा में बीत गई।

कि दोनों हाथ फैलाकर

तुम्हें उल्लास से खींचा

सबेरे की किरण-कुसुम को हाथ से सींचा

भक्त को भगवान मिलता है। भक्त को भगवान स्वयं खोजता है। ज्ञानी सत्य की खोज करता है। भक्त को भगवान खोजता है। भक्त कहीं जाता-आता नहीं। किन्हीं सीढ़ियों पर यात्रा नहीं करता…।

पीड़ ऐसी कि घटा छायी है

ठंडी यह सांस की पुरवाई है

तुझको मालूम क्या है आज यहां

बरखा बादल के बिना आयी है

वर्षा हो जाती है बादल के बिना आए। उसका अमृत-घट भर जाता है। बादल भी नहीं उमड़ते-घुमड़ते और वर्षा हो जाती है।

अतक्र्य है भक्त का मिलन परमात्मा से। ज्ञानी का तो तर्क है। ज्ञानी का तो बिलकुल साफ-साफ है। रत्ती-रत्ती का उत्तर है। ज्ञानी अर्जित करता है। भक्त के लिए भगवान प्रसाद-रूप है। भक्त कहता है, मेरे किए मिलेगा यह संभव ही नहीं है। मेरे किए ही तो चूक रहा है। मेरे कारण ही तो बाधा पड़ रही है। भक्त अपनी बाधा हटा लेता है।

ज्ञानी जिस दिन पाता है, उस दिन किसी को धन्यवाद देने की भी जरूरत नहीं है। क्योंकि उसने अर्जित किया है। इसलिए महावीर की संस्कृति का नाम पड़ गया है श्रमण संस्कृति। श्रम से पाया है, चेष्टा से पाया है, पुरुषार्थ से पाया है।

भक्त तो कहता है, भगवान प्रसाद-रूप मिला है। मैंने पाया, ऐसी बात ही गलत है।

ज्ञानी तो कहता है, जब तक मैं पूर्ण न हो जाऊं तब तक कैसे सत्य मिलेगा? इसलिए ज्ञानी अपने को पूर्ण करने में लगता है। ज्ञानी की साधना है, भक्त की तो सिर्फ प्रार्थना है। भक्त कहता है, पूर्ण और मैं? होनेवाला नहीं। मिलोगे तो अपूर्ण में ही मिलन होगा। मर्जी हो तो जैसा हूं, ऐसा ही स्वीकार कर लो। मुझसे यह सधेगा न, कि मैं पूर्ण हो सकूं।

तो ज्ञान में एक खतरा है कि अहंकार बच जाए। भक्ति में अहंकार का खतरा नहीं है। भक्ति का खतरा दूसरा है–कि आलस्य का नाम भक्ति बन जाए। ज्ञान में आलस्य का खतरा नहीं है। दोनों के खतरे हैं, दोनों के लाभ हैं। ज्ञानी का खतरा है कि अहंकारी हो जाए कि मैंने अर्जित किया। भक्त का खतरा है कि आलस्य प्रतीक्षा बन जाए। आलस्य प्रतीक्षा नहीं है। प्रतीक्षा बड़ी सक्रिय चित्त की दशा है, सक्रिय और निष्क्रिय एक साथ। बड़ी तीव्र प्यास की दशा है।

तुमने कभी देखा? ओलंपिक के चित्र देखे होंगे। दौड़ के लिए प्रतियोगी खड़े होते हैं रेखा पर। सीटी बजने की प्रतीक्षा है। दौड़े नहीं हैं अभी। ऊर्जा से भरे खड़े हैं। एक क्षण, एक-एक क्षण सूचना की प्रतीक्षा है, और दौड़ पड़ेंगे। दौड़े नहीं हैं अभी, लेकिन ऊर्जा से भरे खड़े हैं।

ऐसी ही दशा भक्त की है। खोजने नहीं जाता लेकिन आलस्य में नहीं है। बड़ी त्वरा से भरा है।

एक गीत कल मैं पढ़ रहा था। है तो इस संसार के प्रेम का गीत लेकिन प्रेम इस संसार का हो कि उस संसार का, बहुत भेद नहीं।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम

प्यार का महूरत निकल जाएगा

कौन शृंगार पूरा यहां कर सका

सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी

हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा

बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी

हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन

पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां

कांच से ही ना नजरें मिलाती रहो

बिंब को मूक प्रतिबिंब छल जाएगा

देखती ही न दर्पण रहो प्राण तुम

प्यार का यह महूरत निकल जाएगा

भक्त कहता है, हम तो अपूर्ण हैं। कब तक सजते-संवरते रहें? तुम हमें ऐसे ही स्वीकार कर लो। हम कभी पूर्ण हो पाएंगे इसकी संभावना भी नहीं। लेकिन हमारा प्रेम पूर्ण है। हम अपूर्ण होंगे, हमारी चाह पूर्ण है। हमारी चाहत देखो।

कौन शृंगार पूरा यहां कर सका

सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी

हार जो भी गुंथा सो अधूरा गुंथा

बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी

हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन

पूर्ण तो बस एक प्रेम ही है यहां

कांच से ही नजरें ना मिलाती रहो

बिंब को मूक प्रतिबिंब छल जाएगा

भक्त कहता है, जो अभी मिल सकता है उसे कल पर मत टालो। जो इसी क्षण घट सकता है, उसे कल पर मत टालो। मत कहो कि हम तैयार होंगे। हम सीमित हैं। हमारी सीमाएं हैं। हम अपूर्ण हैं। हमारी चाहत पूर्ण हो सकती है, हमारी अभीप्सा पूर्ण हो सकती है, लेकिन हम पूर्ण नहीं हो सकते।

यहां फर्क तुम समझने की कोशिश करना। ज्ञानी कहता है, चाहत छोड़ो और पूर्ण बनो। भक्त कहता है, चाहत को पूर्ण करो; तुम्हारी पूर्णता-अपूर्णता की चिंता न करो। दोनों विपरीत, लेकिन पहुंच जाते हैं एक ही शिखर पर।

चौथा प्रश्न:

रजनीश एशो आमी तोमार बोइरागी

आमी पूना गेलाम, आमी काशी गेलाम

लाओ री लाओ संगे डुगडुगी

बहुत हंसी आती है। अब तो डुगडुगी के सिवा कुछ बचा नहीं है।

डुगडुगी ही बच जाए तो सब बच गया। डुगडुगी खो जाए तो सब खो गया। तुम डुगडुगी हो जाओ तो सब हो गया। आह्लाद! नृत्य! तुम्हारे भीतर के स्वर नाचने लगें, गुनगुनाने लगें, तो निश्चित ही फिर हंसी के योग्य ही है सब–सब खोजबीन, सब दौड़धूप।

भक्त तो उत्सव में मानता है। भक्त तो उत्सव को ही पूजा और प्रार्थना बनाता है। यह जगत एक महोत्सव है। इसमें तुम नाहक उदास-उदास बैठे हो। सम्मिलित हो जाओ। सब थिरक रहा है, तुम भी थिरको। सब नाच रहा है। देखो चांदत्तारे, देखो वृक्ष, पशु-पक्षी, देखो हवाएं, अकाश में घिरे बादल, ये बूंदों की टिपटिप! सब नाच रहा है। यहां थिर कोई भी नहीं है। सब फुदक रहे हैं। सिर्फ आदमी उदास है।

डुगडुगी बनो। बजो। बांसुरी बनो। फूटने दो स्वर को: झरनों की तरह, चांदत्तारों की तरह। नाचो, इस महत नृत्य में सम्मिलित हो जाओ।

तब जरूर हंसी आएगी। हंसी आएगी, नाहक इतने दिन उदास रहे। नाहक इतने दिन रोए। नाहक इतने दिन वंचित रहे। जो मिला ही था, उसके साथ नाच क्यों न सके? रास हो ही रहा है। यह ब्रह्मांड रास की एक प्रक्रिया है।

तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता? बांसुरी कभी बंद नहीं हुई, बज ही रही है। तुम बहरे हुए हो। अंधे हुए हो। नाच हो ही रहा है। ऐसा नहीं था कि कुछ कभी वृंदावन में हुआ था, अब नहीं हो रहा है। परमात्मा नाच ही रहा है। जिनके पास आंखें हैं, वे जहां भी हैं, उन्हें वहीं वृंदावन के दर्शन हो जाएंगे।

हंसी तो आएगी। क्योंकि तब पता चलेगा कि हम अकारण ही परेशान थे। हंसी अपने पर आएगी। हंसी औरों पर भी आएगी, जो अभी भी परेशान हैं। हंसी आएगी इस सारे खेल पर।

इसीलिए तो भक्तों ने कहा है कि यह जगत लीला है। यह खेल है। इसे बहुत गंभीरता से मत लो। गंभीरता ज्ञानी का मार्ग है; सरलता, उत्फुल्लता भक्त का।

हंसी तो आएगी क्योंकि फिर जो कहने योग्य मालूम पड़ेगा उसे कह भी न सकोगे। हंसकर ही कहा जा सकता है या रोकर कहा जा सकता है। वाणी बड़ी छोटी पड़ जाती है। डुगडुगी बजाकर ही कहा जा सकता है।

शब-ए-वस्ल की क्या कहूं दास्तां

जबां थक गई, गुफ्तगू रह गई

उस मिलन की रात की कहानी क्या कहूं? कैसे कहूं?

जबां थक गई, गुफ्तगू रह गई

कहते-कहते जबान तो थक गई लेकिन जो कहना चाहते थे, वह नहीं कहा जा सका। बजाओ डुगडुगी! उससे ही कहो। नाचो! ले लो एकतारा हाथ में। और जो तुम्हें नाचकर मिलेगा, वह किसी शास्त्र से किसी को कभी नहीं मिला।

नृत्य का अर्थ है, गीत का अर्थ है, उत्सव का अर्थ है कि तुमने पैर से पैर मिलाए अस्तित्व के साथ। तुम ऐसे किनारे पर न खड़े रहे राह के। जा रही थी यात्रा, रथोत्सव हो रहा था, तुम भी सम्मिलित हुए। नाचता जा रहा है अस्तित्व प्रतिपल। तुम क्यों बैठे किनारे? कैसे उदास? कैसे हताश?

उठो! लौटाओ अपनी थिरक! इस नाचते हुए रासमंडल में सम्मिलित हो जाओ। खो जाओगे उस नृत्य में। तुम न बचोगे। डुगडुगी बजेगी तो तुम न बचोगे।

भक्त खोने की तैयारी रखता। ज्ञानी अपने को बचाता, निखारता। भक्त अपने को डुबाता और खोता।

मिलते ही किसी के खो गए हम

जागे जो नसीब सो गए हम

जब वस्तुतः भाग्य जागता है, जब वस्तुतः वर्षा होती है, जब वस्तुतः अमृत के द्वार मिलते हैं तो तुम नहीं बचते। कोई आज तक परमात्मा से मिला थोड़े ही! मिलने के पहले ही खो जाता है। मिलने की पहली शर्त खो जाना है।

मिलते ही किसी के खो गए हम

जागे जो नसीब सो गए हम

भक्त के लिए प्रतिपल प्रतीक्षा का है। वह राह देख ही रहा है। कब आ जाएंगे उसके प्रीतम, कहा नहीं जा सकता।

आज आएंगे वो गीतों को जरा चुप कर दो

चांद को नभ से उतारो और द्वारे धर दो

चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को

आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो

चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को

आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो

भक्त, भगवान है या नहीं ऐसी जिज्ञासा ही नहीं करता। भगवान आ ही रहा है। भक्त को प्रश्न ही नहीं उठा है भगवान के होने न होने का।

जिसको प्रश्न उठ गया, वह श्रद्धा न कर पाएगा।

हम भक्त की तरह पैदा होते हैं, फिर विनष्ट हो जाते हैं। इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना। प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह पैदा होता है। होना ही चाहिए क्योंकि स्त्री के गर्भ से पैदा होता है। हृदय के पास धड़कता हुआ पैदा होता है। होना ही चाहिए प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह पैदा–श्रद्धा से भरा, स्वीकार-भाव से। “हां’ हर बच्चे का स्वर है। धीरे-धीरे “ना’ सीखता है, नहीं सीखता है, नकार सीखता है, नास्तिकता सीखता है।

नास्तिकता सीखी जाती है, आस्तिकता हमारा स्वभाव है। नास्तिकता हम बाहर से सीख लेते हैं। जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव, जीवन की धोखाधड़ी हमें नास्तिकता के लिए तत्पर कर देती है। संदेह हम सीखते हैं। श्रद्धा हम लेकर आते हैं। नास्तिक कोई पैदा नहीं होता, नास्तिक निर्मित होते हैं। आस्तिक पैदा होते हैं। आस्तिक हमारा स्वभाव है।

छोटा बच्चा “नहीं’ कहना जानता ही नहीं। कुछ भी कहो, “हां’ कहता है। अभी उसने “नहीं’ सीखी नहीं है। अभी जीवन ने उसे इतना दुख नहीं दिया कि वह नहीं कहे। अभी इनकार उसे आया नहीं। अभी किसी ने धोखाधड़ी नहीं की। अभी किसी ने वंचना नहीं की। किसी ने जेब नहीं काटी। किसी ने उसे सताया नहीं। अभी वह ना कहे कैसे?

आस्तिकता स्वाभाविक है। भक्ति हम लेकर आते हैं। संदेह हम सीखते हैं। संदेह बाहर से उधार मिलता है। अगर तुम्हारे मन में प्रश्न हैं तो फिर तुम्हें ज्ञान के रास्ते पर थोड़ी यात्रा करनी होगी। अगर कोई प्रश्न नहीं हैं जीवन में, और तुम्हारे मन में संदेह सहज नहीं उठता, आदत गहरी नहीं हुई संदेह की तो फिर कोई भी अड़चन नहीं है। तुम इसी क्षण परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट हो सकते हो। द्वार-दरवाजे बंद भी नहीं हैं।

पांचवां प्रश्न:

ऐसा लगता है कि अब थोड़ी-सी आयु ही बची है। न जाने कौन कब इस शरीर को समाप्त कर दे! इससे मन में एक उतावलापन रहता है कि जो करना है, शीघ्रता से करूं; अन्यथा बिना कुछ पाए ही चला जाना होगा। भय या अड़चन बिलकुल नहीं लगती। हर क्षण जाने को तैयार हूं। दुबारा आने से भी डर नहीं लगता। परंतु एक भय, एक अड़चन अवश्य सताती है कि उस समय आप गुरु भगवान तो नहीं उपलब्ध होंगे। क्या मेरा उतावलापन उचित है? मैं क्या कर सकता हूं? हर प्रकार से तैयार ही होकर आया हूं।

ओमप्रकाश सरस्वती ने पूछा है। मैं जानता हूं, वे पूरी तरह तैयार होकर आए हैं। वे कुछ भी खोने को तैयार हैं, कुछ भी देने को तैयार हैं। और उसी कारण बाधा है।

हृदय उनका भक्त का है, ज्ञानी का नहीं है। अगर ज्ञानी का उनका स्वभाव होता तो सब कुछ देने की यह तैयारी उन्हें गुणस्थानों की सीढ़ियों पर चढ़ा देती। लेकिन बुद्धि उनका स्वभाव नहीं है, हृदय उनका स्वभाव है। इसलिए सब देने की यह तैयारी ही बाधा है। इसे भी छोड़ो। उसका ही है, देना क्या है? समर्पण भी क्या करना है? उसकी ही वस्तुएं उसे देते हुए शर्म खाओ।

यह बात ही भूलो कि कुछ देना है। यह बात ही भूलो कि कुछ करना है। यह पूछो ही मत कि मैं क्या करूं? उतावलापन है? उतावलेपन को उतावलापन मत कहो। वह शब्द गलत है। उसे प्रतीक्षा कहो, त्वरित प्रतीक्षा कहो, त्वरा से भरी प्रतीक्षा कहो, अभीप्सा कहो। उतावलापन गलत व्याख्या है।

निश्चित ही भक्त को भी एक अधैर्य होता है कि पता नहीं कब मिलन होगा! लेकिन उसके अधैर्य में एक सौंदर्य है। वह अधैर्य में भी शांति से जीता है। वह जानता है कि मिलना तो होगा; चाहता है जल्दी हो जाए।

उतावलेपन में धीरज नहीं है, सिर्फ अधैर्य है। अभीप्सा में अधैर्य भी है और धीरज भी है। अभीप्सा बड़ी पैराडाक्सिकल, बड़ी विरोधाभासी स्थिति है। एक तरफ वह जानता है, मिलना तो होना ही है। वह तो निश्चित है। वह बात तो हो ही गई। उसमें कुछ सोचना नहीं है।

दूसरी तरफ वह कहता है, अब जल्दी हो जाए। अब और देर न लगाओ। अब कब से पलक-पांवड़े बिछाकर बैठा हूं। अब आ भी जाओ। और भीतर वह जानता है कि ऐसी जल्दी भी क्या है? आओगे तो तुम निश्चित ही।

भक्त की मनोदशा बड़ी विरोधाभासी है। जो मिला ही हुआ है उसे, उसके लिए तड़फता है। जिसका मिलना बिलकुल सुनिश्चित है, उसके लिए तड़फता है।

उतावलापन मत कहो। कभी-कभी गलत शब्द खतरनाक हो सकता है। उतावलेपन में एक तरह का तनाव है। अभीप्सा में तनाव नहीं है। प्यास कहो, पुकार कहो। उतावलापन मत कहो। उतावलापन बुद्धि का शब्द है। और ओमप्रकाश बुद्धिमान आदमी नहीं, हृदयवान आदमी हैं।

हृदयवान शब्द का लोग उपयोग ही नहीं करते। किसी को कहो बुद्धिमान नहीं, तो वह नाराज हो जाए। क्योंकि एक ही मतलब होता है, बुद्धिमान नहीं है यानी बुद्धू। दूसरी बात ही हम भूल गए हैं कि कोई हृदयवान भी हो सकता है।

ओमप्रकाश हृदय के केंद्र के करीब हैं। घटेगी घटना। घटनी ही है। लेकिन तुम्हारी तरफ से कोई तैयारी की जरूरत नहीं है। और न तुम्हारे पास कोई उपाय है कि तुम कुछ कर सको। तड़पो, रोओ, नाचो। लेकिन यह भी उसे पाने के साधन की तरह नहीं। क्योंकि साधन की तरह सोचना ही बाजार की भाषा है, प्रेम की भाषा नहीं।

नाचो, क्योंकि श्रद्धा है। नाचो, क्योंकि वह आता ही होगा। नाचो, क्योंकि वह आ ही रहा है, रास्ते पर ही है। नाचो, कि दूर उसके रथ के पहियों की आवाज सुनाई ही पड़ने लगी है। कितने ही दूर-दिगंत में, आकाश में बादलों के पास होती है गड़गड़ाहट लेकिन वह चल पड़ा। वह अनंत काल से तुम्हारी तरफ चल ही रहा है।

नाचो! उसने तुम्हें चुन लिया है–साधन की तरह नहीं, साध्य की तरह। गाओ! इसलिए नहीं कि गाने से उसे रिझाना है। गाओ इसलिए, कि उसने तुम्हें रिझा लिया है। अब गाओगे न तो करोगे क्या?

इस फर्क को खयाल में ले लेना। भक्त साधन की तरह नहीं कुछ करता, साध्य की तरह करता है। परम आह्लाद से भरकर करता है क्योंकि जो घटना है, वह घट ही चुका है। जो होना है वह हो ही चुका है। उसे रंचमात्र भी संदेह नहीं है। अनंत काल में भी अगर परमात्मा से मिलना होगा तो इसी क्षण मिलना हो गया है। इस श्रद्धा में ही मिलना हो गया है कि अनंत काल में मिलना हो जाएगा।

नारद स्वर्ग जा रहे हैं। और एक वृक्ष के नीचे उन्होंने एक बूढ़े संन्यासी को बैठे देखा, तप में लीन माला जप रहा है। जटा-जूटधारी! अग्नि को जला रखा है। धूप घनी, दुपहर तेज, वह और आग में तप रहा है। पसीने से लथपथ। नारद को देखकर उसने कहा कि सुनो, जाते हो प्रभु की तरफ, पूछ लेना, जरा पक्का करके आना, मेरी मुक्ति कब तक होगी? तीन जन्मों से कोशिश कर रहा हूं। आखिर हर चीज की हद्द होती है।

चेष्टा करनेवाले का मन ऐसा ही होता है, व्यवसायी का होता है। नारद ने कहा जरूर पूछ आऊंगा। उसके ही दो कदम आगे चलकर दूसरे वृक्ष के नीचे, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे एक युवा संन्यासी नाच रहा था। रहा होगा कोई प्राचीन बाउल: एकतारा लिए, डुगडुगी बांधे। थाप दे रहा डुगडुगी पर, एकतारा बजा रहा, नाच रहा। युवा है। अभी बिलकुल ताजा और नया है। अभी तो दिन भी संन्यास के न थे।

नारद ने कहा–मजाक में ही कहा–कि तुम्हें भी तो नहीं पूछना है कि कितनी देर लगेगी? वह कुछ बोला ही नहीं। वह अपने नाच में लीन था। उसने नारद को देखा ही नहीं। उस घड़ी तो नारायण भी खड़े होते तो वह न देखता। फुर्सत किसे? नारद चले गए। दूसरे दिन जब वापस लौटे तो उन्होंने उस बूढ़े को कहा कि मैंने पूछा, उन्होंने कहा कि तीन जन्म और लग जाएंगे। बूढ़ा बड़ा नाराज हो गया। उसने माला आग में फेंक दी। उसने कहा, भाड़ में जाए यह सब! तीन जन्म से तड़फ रहा हूं, अब तीन जन्म और लगेंगे? यह क्या अंधेर है? अन्याय हो रहा है।

नारद तो चौंके। थोड़े डरे भी। उस युवक के पास जाकर कहा कि भई! नाराज मत हो जाना–वह नाच रहा है–मैंने पूछा था। अब तो मैं कहने में भी डरता हूं। क्योंकि उन्होंने कहा है कि वह युवक, वह जिस वृक्ष के नीचे नाच रहा है, उस वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे लग जाएंगे।

ऐसा सुना था उस युवक ने, कि वह एकदम पागल हो गया मस्ती में और दीवाना होकर थिरकने लगा। नारद ने कहा, समझे कि नहीं समझे? मतलब समझे कि नहीं? जितने इस वृक्ष में पत्ते हैं इतने जन्म! उसने कहा, जीत लिया, पा लिया, हो ही गई बात। जमीन पर कितने पत्ते हैं! सिर्फ इतने ही पत्ते? खतम! पहुंच गए!

कहते हैं वह उसी क्षण मुक्त हो गया। ऐसा धीरज, ऐसी अटूट श्रद्धा, ऐसा सरल भाव, ऐसी प्रेम से, चाहत से भरी आंख…उसी क्षण! पता नहीं उस बूढ़े का क्या हुआ! मैं नहीं सोचता कि वह तीन जन्मों में भी मुक्त हुआ होगा क्योंकि वह वक्तव्य नारायण ने माला फेंकने के पहले दिया था। वह बूढ़ा कहीं न कहीं अब भी तपश्चर्या कर रहा होगा।

अक्सर तुम माला जपते लोगों का चेहरा देखो तो उस बूढ़े का चेहरा थोड़ा तुम्हें समझ में आएगा। बैठे हैं। खोल-खोलकर आंख देख लेते हैं, बड़ी देर हो गई अभी तक। तपश्चर्या, उपवास करते लोगों के चेहरे को गौर से देखो तो उस बूढ़े की थोड़ी पहचान तुम्हें हो जाएगी।

नहीं ओमप्रकाश के लिए वैसा होने की कोई जरूरत नहीं है। लो एकतारा हाथ में, ले लो डुग्गी, नाचो। हो ही गया है। करना क्या है और? परमात्मा को हमने कभी खोया नहीं है, सिर्फ भ्रांति है खो देने की। नाचने में भ्रांति झड़ जाती है। गीत गुनगुनाने में भ्रांति गिर जाती है। उल्लास, उत्सव में राख उतर जाती है, अंगारा निकल आता है।

रही बात कि–“उस समय आप गुरु-भगवान तो नहीं उपलब्ध होंगे।’

अगर मुझसे संबंध जुड़ गया तो मैं सदा उपलब्ध हूं। संबंध जुड़ने की बात है। जिनका नहीं जुड़ा उन्हें अभी भी उपलब्ध नहीं हूं। वे यहां भी बैठे होंगे। जिनसे नहीं जुड़ाव हुआ, उन्हें अभी भी उपलब्ध नहीं हूं। जिनसे जुड़ गया उन्हें सदा उपलब्ध हूं।

ओमप्रकाश से जोड़ बन रहा है। तो घबड़ाओ मत। अहोभाव से भरो। जोड़ बन गया तो यह जोड़ शाश्वत है। यह टूटता नहीं। इसके टूटने का कोई उपाय नहीं है।

और यह उतावलेपन को तो बिलकुल भूल जाओ। अधैर्य पकड़ो, लेकिन धीरज के साथ।

दिन जो निकला तो पुकारों ने परेशान किया

रात आयी तो सितारों ने परेशान किया

गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई

गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया

यह उतावलापन संसार का है। धन मिल जाए, पद मिल जाए, यह उतावलापन सांसारिक है।

गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई

गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया

अब बहार आ गई है। जरा देखो तो! मगर तुम पुरानी खिजां की आदत, पुरानी पतझड़ की आदत परेशान होने की बनाए बैठे हो। यह पुरानी छाया है तुम्हारे अनुभव की। इसे छोड़ो। चारों तरफ वसंत मौजूद है।

अगर मैं कुछ हूं तो वसंत का संदेशवाहक हूं। यह वसंत मौजूद है। यह बहार आ ही गई है। जरा आंख बंद करो तो भीतर दिखाई पड़े। जरा आंख ठीक से खोलो तो बाहर दिखाई पड़े। अब परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं। जो ऊर्जा परेशानी बन रही है, उसी ऊर्जा को आनंद बनाओ।

आखिरी प्रश्न:

कल आपने कहा कि उत्तर गीता से मिला हो तो कृष्ण महाराज को नमस्कार करना। माना कि कृष्ण से मिलना संभव नहीं, कोई याददाश्त भी नहीं, लेकिन कृपया बताएं कि रजनीश महाराज को कैसे नमस्कार करें, जब तक कि भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए!

जब तक भीतर का रजनीश उभरकर न आए तब तक नमन करो; जब उभरकर आ जाए तब नमस्कार कर लेना। नमन और नमस्कार में कोई बहुत फासला थोड़े ही है! नमन जरा लंबा कर दिया साष्टांग, तो नमस्कार!

कृष्ण महाराज को नमस्कार करने को कहा क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे भीतर का कृष्ण तुम्हारे बाहर की कृष्ण की धारणा में दबा रह जाए। कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुम्हारे सत्य को उभरने न दे। कहीं ऐसा न हो कि उधार ज्ञान तुम्हारी मौलिक प्रतिभा को प्रगट न होने दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम सूचनाओं को ही ज्ञान समझते हुए जीयो और मर जाओ; और तुम्हें अपनी कोई जीवंत अनुभूति न हो।

मेरी बात तुम सुन रहे हो। अगर मेरी बात को संगृहीत करने लगे तो खतरा है। सुनो मेरी, गुनो अपनी। समझो, संग्रह मत करो। याददाश्त भरने से कुछ भी न होगा। स्मृति के पात्र में तुमने, जो-जो मैंने तुमसे कहा, इकट्ठा भी कर लिया तो दो कौड़ी का है। उससे कुछ लाभ नहीं। तुम्हारा बोध जगे। जो मैं कह रहा हूं उसे समझो, उससे जागो। कोई परीक्षा थोड़ी ही देनी है कहीं कि तुमने जो मुझसे सुना, वह याद रहा कि नहीं रहा।

एक मित्र एक दिन आए, वे कहने लगे, बड़ी मुश्किल है। रोज आपको सुनता हूं लेकिन घर जाते-जाते भूल जाता हूं। तो अगर मैं नोट लेने लगूं तो कोई हर्ज तो नहीं? तो नोट लेकर भी क्या करोगे? अगर नोट लिया तो नोट-बुक का मोक्ष हो जाएगा, तुम्हारा कैसे होगा? तो याद तो नोट-बुक को रहेगा। तुमको तो रहेगा नहीं।

और याद रखने की जरूरत क्या है? मैंने उनसे पूछा, याद रखकर करोगे क्या? समझ लो, बात हो गई। सार-सार रह जाएगा। फूल तो विदा हो जाएंगे, सुगंध रह जाएगी। पहचानना भी मुश्किल होगा, किस फूल से मिली थी। लेकिन उस सुगंध के साथ-साथ तुम्हारे भीतर की सुगंध भी उठ आएगी। उस सुगंध का हाथ पकड़कर तुम्हारी सुगंध भी लहराने लगेगी।

तो एक दिन तो गुरु को नमस्कार करना ही है। नमन से शुरू करना, नमस्कार से विदा देनी। इसे याद रखना। इसे भूलना मत। कृष्ण से उतना खतरा नहीं है, जितना तुम्हारे लिए मुझसे खतरा है। क्योंकि कृष्ण से तुम्हारा कोई लगाव ही नहीं। जिनका लगाव है, वे तो मेरे पास आते भी नहीं। तो कृष्ण को तो तुम बड़े मजे से नमस्कार कर सकते हो। असली कठिनाई तो मुझे नमस्कार करने में आएगी।

लेकिन नमस्कार करने के पहले नमन का अभ्यास करना होगा। नमन ही लंबा होकर नमस्कार बनता है। झुको! तुम अगर झुके तो तुम्हारे भीतर कोई जगेगा। तुम अगर अकड़े रहे तो तुम्हारे भीतर कोई झुका रहेगा। तुम झुको तो तुम्हारे भीतर कोई खड़ा हो जाएगा।

बाहर का गुरु तो केवल थोड़ी देर का साथ है ताकि भीतर का गुरु जग जाए। और जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाता है, उस दिन तुम जल्दी न करोगे हाथ छुड़ाने की।

जमाले-इश्क में दीवाना हो गया हूं मैं

यह किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूं मैं?

प्रेम में कैसा पागलपन हो गया!

जमाले-इश्क में दीवाना हो गया हूं मैं

प्रेम में ऐसी दीवानगी भी आती है कि प्रेमी से ही हाथ छुड़ाकर भागने के लिए आदमी तत्पर हो जाता है।

जमाले-इश्क में दीवाना हो गया हूं मैं

यह किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूं मैं

तुम छुड़ाओ मत। जल्दी मत करो। मैं खुद ही चुपचाप हाथ अलग कर लूंगा। तुम जरा तैयार हो जाओ, तुम पकड़ना भी चाहोगे तो मैं पकड़ने न दूंगा। क्योंकि अगर मैंने तुम्हें पकड़ने दिया तो मैं तुम्हारा दुश्मन हुआ, मित्र न हुआ। कल्याणमित्र तो वही है, जो तुम्हें तुम्हारा बोध दे जाए और हट जाए बीच से। जो तुम्हें परमात्मा के द्वार तक पहुंचा जाए, फिर तुम लौटकर उसे खोजो तो मिले भी न।

मगर ऐसा सदगुरु कभी खोता नहीं, क्योंकि तुम उसे अपने अंतर्तम में विराजमान पाओगे। तब तुम अचानक पहचानोगे एक दिन, जो बाहर से बोला था, वह भीतर की ही आवाज थी। जिसने बाहर से पुकारा था वह भीतर से ही उठी पुकार थी। वह जो बाहर दिखाई पड़ा था वह अपने ही अंतर्तम की छवि थी। बाहर जिसके दर्शन हुए थे, वह अपना ही भविष्य रूप धरकर आया था।

घबड़ाओ मत। अभी तो तुम भुलाने की कोशिश करोगे तो भुला न सकोगे। जब तक जाग नहीं गए तब तक भुलाना संभव भी नहीं, उचित भी नहीं। संभव हो तो भी उचित नहीं।

किस-किस उन्वां से भुलाना उसे चाहा था रविश

किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया

जब तक तुम जाग ही नहीं गए हो, जब तक तुम अपने प्रीतम स्वयं ही नहीं बन गए हो, तब तक तुम भुला भी न सकोगे कृष्ण को, या महावीर को, या मोहम्मद का।

किस-किस उन्वां से भुलाना उसे चाहा था रविश

किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया

भुलाने की जल्दी भी मत करो। जागने की फिक्र करो। भुलाने पर जोर मत दो, जागने पर जोर दो। इधर तुम जागे, कि एक अर्थ में तुम भूल जाओगे गुरु को और एक गहरे अर्थ में पहली दफे तुम उसे पाओगे। अपने ही भीतर विराजमान पाओगे। तुम्हारे ही सिंहासन पर विराजमान पाओगे। तुम्हारी ही आत्मा जैसा विराजमान पाओगे।

अचानक तुम पाओगे, गुरु और शिष्य दो नहीं थे।

मैं तुम्हारी ही संभावना हूं। जो तुम हो सकते हो, उसकी ही खबर हूं। लेकिन छुड़ाने की कोई जल्दी नहीं है। जल्दी छुड़ाने में तो तुम अटके रह जाओगे। लाभ भी न होगा। छूटना तो हो ही जाएगा। सीख लो। जाग लो। तुम हो जाओ।

मां अपने छोटे बच्चे को चलना सिखाती है। हाथ पकड़कर सिखाती है। हालांकि बच्चा हाथ छोड़ना चाहता है। क्योंकि बच्चे के अहंकार को चोट लगती है कि कोई और मेरा हाथ पकड़कर चलाए! लेकिन मां पकड़ती है। माना कि बच्चे के अहंकार को चोट लगती है, लेकिन अभी उसे उस पर छोड़ा भी नहीं जा सकता है।

अभी तो तुम छुड़ाओगे भी तो मैं न छोडूंगा। अभी भी तुम भागोगे तो मैं तुम्हारा पीछा करूंगा। तुम कहीं भी निकल जाओ, मैं छाया की तरह तुम्हें सताऊंगा। अभी तो उपाय नहीं है।

तो मां पकड़ती है बच्चे का हाथ। फिर एक दिन बच्चा चलने लगता है, तो चुपचाप हाथ को छुड़ाती है–फिर चाहे बच्चा पकड़ना भी चाहे।

क्योंकि अब बच्चे को भी समझदारी आ गई है इतनी कि मां के हाथ में हाथ हो तो ज्यादा सुरक्षित। अनुभव ने सिखा दिया। कई दफे गिरा है, घुटने टूट गए हैं, अब अनुभव ने सिखा दिया है कि यह हाथ पकड़े ही रहूं। लेकिन अब मां छुड़ाती है।

यही तो जीवन का विरोधाभास है। एक दिन पकड़ना पड़ता है, एक दिन छुड़ाना पड़ता है। जिस सीढ़ी से चढ़ते हो उसे छोड़ना पड़ता है। जिस नाव से दूसरे किनारे जाते हो, उससे उतरना पड़ता है।

इसलिए अभी नमन करो, फिर नमस्कार भी हो जाएगा। तुम न करोगे तो मैं कर लूंगा।

आज इतना ही।


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समाधि के सप्‍त द्वार–(ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–16

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ऐसा है आर्य मार्ग—प्रवचन—सोलहवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; प्रातः, 17 फरवरी, 1973

और यदि तू सातवां द्वार भी पार कर गया, तो क्या तुझे अपने भविष्य का पता है? आनेवाले कल्पों में स्वेच्छा से जीने के लिए तू बाध्य होगा, लेकिन मनुष्यों द्वारा न देखा जाएगा, और न उनका धन्यवाद ही तुझे मिलेगा। और अभिभावक-दुर्गभ भ को बनानेवाले अन्य अनगिनत पत्थरों के बीच तू भी एक पत्थर बन कर जीएगा। करुणा के अनेक गुरुओं के द्वारा निर्मित उनकी यातनाओं के सहारे ऊपर उठा और उनके रक्त से जुड़ा यह दुर्ग मनुष्य-जाति की रक्षा करता है। क्योंकि मनुष्य मनुष्य है, इसलिए यह उसे भारी विपदाओं और शोक से बचाता है।

साथ ही, चूंकि मनुष्य इसे नहीं देखता है, इसलिए वह न स्पर्श कर सकता है और न प्रज्ञा की वाणी को सुन सकता है क्योंकि वह जानता ही नहीं है।

लेकिन ओ जिज्ञासु, निर्दोष आत्मावाले तूने तो इसे सुना है और तू तो सब कुछ जानता है इसलिए तुझे निर्णय करना है, अतः एक बार फिर से सुन।

हे सोवान के मार्ग, हे स्रोतापन्न, तू सुरक्षित है। देख, उस मार्ग पर जहां थके हुए यात्री को अंधकार का सामना करना होता है, जहां कांटों से छिद कर हाथ लहूलुहान हो जाते हैं, जहां पांव तीखे व कठोर पत्थरों से कट-फट जाते हैं, और जहां “काम’ अपने शक्तिशाली शस्त्र चलाता है, वहां जरा सी दूरी ही पार कर एक बड़ा वरदान, महान पुरस्कार तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।

वह शांत और अकंप यात्री इस धारा पर बहता चलता है, जो निर्वाण को चली जाती है। वह जानता है कि जितने ही उसके पांव खून उगलेंगे, उतना ही वह स्वयं धुलकर स्वच्छ हो जाएगा। वह भली-भांति जानता है कि सात छोटे-छोटे और क्षण-भंगुर जन्मों के बाद निर्वाण उसका है

ऐसा है ध्यान का मार्ग, जो योगियों का आश्रम है और जिस अपूर्व लय के लिए स्रोतापन्न लालायित है।

लेकिन, जब उसने अर्हत का मार्ग पार कर लिया तब कोई लालसा नहीं है।

वहां सदा के लिए क्लेश मिट जाता है और तनहा की जड़ें उखड़ जाती हैं। लेकिन, ओ शिष्य, रुक अभी भी एक और शब्द कहना बाकी है। क्या तू ईश्वरीय करुणा को मिटा सकता है? करुणा कोई सदगुण नहीं है। यह नियमों का नियम है–शाश्वत लयबद्धता, आलय की आत्मा। इसे ही तटहीन जागतिक तत्व, नित्य सम्यकत्व की प्रभा, सभी वस्तुओं का कौशल और सनातन प्रेम का विधान कहते हैं।

जितना ही तू इसके साथ एकात्म होता है, जितना ही इसके अस्तित्व में तेरा अस्तित्व घुलमिल जाता है, जितना ही तू इसके साथ एक होता है–जो है–उतना ही तू स्वयं परिपूर्ण करुणा बन जाएगा।

ऐसा है आर्य मार्ग–पूर्णता के बुद्धों का मार्ग।

और यदि तू सातवां द्वार भी पार कर गया, तो क्या तुझे अपने भविष्य का पता है? आनेवाले कल्पों में स्वेच्छा से जीने के लिए तू बाध्य होगा, लेकिन मनुष्यों द्वारा न देखा जाएगा, और न उनका धन्यवाद ही तुझे मिलेगा।’

बोधिसत्व की जो स्थिति है उसे समझें, तो यह सूत्र समझ में आएगा।

बोधिसत्व शरीर से मुक्त हो जाता है। जगत उसे देख नहीं पाता, लेकिन वह जगत को देख पाता है। जगत उसे समझ नहीं पाता, लेकिन वह जगत को समझ पाता है। और जगत को न मालूम कितने उपायों से वह सहायता भी पहुंचाता है। उसका कोई धन्यवाद भी उसे नहीं मिलता है। मिलने का कोई कारण भी नहीं, क्योंकि जिन्हें सहायता पहुंचाई जाती है, वे उसे देख भी नहीं सकते हैं।

यह सूत्र कह रहा है: अगर तू सातवां द्वार भी पार कर गया, तो फिर एक धन्यवाद-रहित कार्य में तुझे पड़ जाना होगा। कोई तुझे धन्यवाद भी न देगा, कोई जानेगा भी नहीं कि तूने क्या किया, कोई पहचानेगा भी नहीं। कहीं लिपिबद्ध न होगी तेरी बात। जो सहायता तूने पहुंचाई है, उसे तू ही जानेगा; वे भी नहीं जानेंगे, जिन्हें सहायता पहुंचाई गई।

स्वभावतः ऐसे कृत्य में कोई तभी उलझ सकता है, जब उसकी अस्मिता पूरी मिट गई हो। अहंकार तो एक ही बात में उत्सुक होता है कि मैं जाना जाऊं, माना जाऊं, कोई धन्यवाद स्वीकार करे, कोई अनुगृहीत हो। बोधिसत्व की अवस्था तो उपलब्ध होती है अहंकार के मिट जाने के बाद। तो अब यह सवाल नहीं है कि जिसको सहायता दी है, वह अनुगृहीत हो। अब तो सहायता देना ही अपने आप में पर्याप्त है। लेकिन यह सूत्र एक बात और कहता है, जो बड़ी अजीब और बड़ी विरोधाभासी है।

यह सूत्र कहता है: आनेवाले कल्पों में स्वेच्छा से जीने के लिए तू बाध्य होगा।

यह बड़ी उल्टी बात है–स्वेच्छा से जीने के लिए बाध्य! कोई तुझे मजबूर नहीं करेगा कि तू बोधिसत्व बन; कोई तुझे जोर-जबरदस्ती नहीं करेगा कि तू मनुष्यों की सेवा में लग, कि सोए हुए को जगा, कि भटके हुए को मार्ग पर ला; कोई तुझे बाध्य नहीं करेगा। तू चाहे तो खो सकता है महाशून्य में; तू चाहे तो लग सकता है इस महाकार्य में, महाकरुणा के कार्य में। इसलिए बड़े उल्टे शब्दों का प्रयोग किया है–स्वेच्छा से जीने को बाध्य होगा। लेकिन तेरी स्व-इच्छा ही तुझसे कहेगी कि तू जी, रुक, ठहर; खो मत जा, उनके काम पर अभी जिन्हें जरूरत है। यह तेरी स्वेच्छा की ही बाध्यता होगी।

बाध्यता तो होती है हमेशा अपनी मर्जी के बिना, कोई और जबरदस्ती करता है। बोधिसत्व की स्थिति में कोई जबरदस्ती प्रकृति की नहीं रह जाती। परमात्मा का भी कोई आग्रह नहीं रह जाता है–नियम के बाहर हो गया वह व्यक्ति। उसे अब चलाया नहीं जा सकता। वह चलना चाहे, तो चल सकता है। उसे रोका नहीं जा सकता, वह रुकना चाहे तो रुक सकता है।

हम सब इस जगत में चलते हैं कार्य और कारण के नियम में बंधे, काजेलिटि में बंधे। हम जो भी कर रहे हैं, वह हमें लगता है कि हम कर रहे हैं; लेकिन हम करते नहीं, हमसे करवाया जाता है। जब आपको क्रोध होता है तो क्या आपको लगता है कि आप क्रोध करते हैं? लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि मुझसे बहुत क्रोध हो जाता है, कैसे रोकूं? तो उनसे मैं पूछता हूं, क्या सच में तुम क्रोध करते हो? अगर तुम ही करते हो तो रोक सकते हो। लेकिन क्रोध कौन करता है, वह तो जैसे अवश, स्वेच्छा के विपरीत, मजबूरी में किया जाता है। आपसे करवा लिया जाता है, आप करते नहीं हो। करते होते, तब तो मालिक थे।

तो इसे ऐसा समझें कि अगर आपसे कोई कहे कि अभी क्रोध करके दिखाएं, तो आप क्रोध न कर सकेंगे। तो आप करते हैं, इस भ्रांति में मत रहना। और जब क्रोध हो रहा है, तब कोई कहे कि इसी वक्त रुक जाएं, तब आप रुक न सकेंगे। तब क्रोध आपको चला रहा है, आप क्रोध को चलाते हैं, ऐसा नहीं है। प्रेम आपको चला रहा है; आप प्रेम को रही है। और आप सोच रहे हैं कि मैं कर रहा हूं। अगर आप कर रहे होते–तो आप रोक कर देखिए, तो पता चल जाएगा। क्योंकि जो भी आप करते हैं, वह आप रोक सकते हैं। तो सुंदर स्त्री दिखाई पड़े और मन में वासना न उठे, ऐसा करके देखिए। पानी अगर यह मानता है कि वह भाप बन रहा है, तो उसे यह करना चाहिए कि नीचे आग जले और वह भाप न बने, तो पक्का हो जाएगा कि आग से नहीं भाप बन रहा है, अपनी स्वेच्छा से बन रहा है। गर्मी नीचे गिरती जाए, शून्य डिग्री के नीचे पहुंच जाए, और पानी इनकार करे, बर्फ न बने। धन आपके सामने पड़ा हो, हीरे-जवाहरातों का ढेर लगा हो, और आपके भीतर वासना न जगे उनके मालिक बन जाने की, तो समझना वासना आप कर रहे हैं।

जिसे हम रोक नहीं सकते, उसे हम कर रहे हैं, यह भ्रांति है।

जो हमारे बस में नहीं है, उसके हम बस में हैं। पर आदमी के अहंकार को चोट लगती है।

इस देश के मनुष्यों ने तो सदा कहा है कि आदमी भी प्रकृति के कार्य-कारण से बंधा चल रहा है। इसको हम नियति कहते हैं, भाग्य कहते हैं। आपके किए कुछ हो नहीं रहा है। और जब हमने यह कहा कि परमात्मा की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, तो उसका मतलब यह है कि आप अपनी मर्जी की बातें छोड़ दें; यह प्रकृति का विराट नियम ही सब हिला रहा है। पत्ता भी हिलता है, तो उस विराट नियम से हिलता है। आप इसमें बीच में अपने मैं को खड़ा मत करें। अगर यह भी खयाल में आ जाए, तो आपकी जिंदगी में क्रांति हो जाएगी। तब आप यह नहीं कहेंगे कि मैं क्रोध करता हूं। आप यही कहेंगे कि क्रोध होता है, प्रेम होता है, घृणा होती है, सुख होता है, दुख होता है।

अगर यह बात आपको बिलकुल साफ समझ में आ जाए कि आपके भीतर भी प्रकृति के अंधे नियम काम कर रहे हैं, और आप उनके मालिक नहीं हैं, तो मालकियत की पहली किरण आपके भीतर पैदा हो गई। यह समझ भी लेना कि मैं गुलाम हूं, मालकियत की शुरुआत है। और गुलाम अपने को यह समझ रहे हैं कि मैं तो मालिक हूं, तो फिर उसकी मालकियत कभी भी तय नहीं हो सकती क्योंकि वह भ्रांति में ही मरेगा।

बोधिसत्व हमसे बिलकुल दूसरा छोर है, जहां नियम धक्का देना बंद कर देते हैं, जहां पानी गरम करके भाप नहीं बनाया जा सकता, जहां पानी ठंडा करके बर्फ नहीं बनाया जा सकता। बोधिसत्व अहंकार के छूटते ही, विराग के जन्मते ही, ध्यान की उपलब्धि पर, प्रज्ञा की किरण के पैदा होते ही–धीरे-धीरे-धीरे जिस जगत में काम होता है नियमों का, उसके पार हो रहा है, स्वेच्छा के जगत में प्रवेश कर रहा है।

बुद्ध के जीवन की बड़ी मीठी कथा है। जब उनका जन्म हुआ, तो ज्योतिषियों ने कहा कि यह व्यक्ति या तो सम्राट होगा या संन्यासी होगा। सब लक्षण सम्राट के थे। फिर बुद्ध तो भिक्षु हो गए, संन्यासी हो गए। और सम्राट साधारण नहीं, चक्रवर्ती सम्राट होगा, सारी पृथ्वी का सम्राट होगा।

बुद्ध एक नदी के पास से गुजर रहे हैं, निरंजना नदी के पास से गुजर रहे हैं। रेत पर उनके चिह्न बन गए, गीली रेत है, तट पर उनके पैर के चिह्न बन गए। एक ज्योतिषी काशी से लौट रहा था। अभी-अभी ज्योतिष पढ़ा है। यह सुंदर पैर रेत पर देख कर उसने गौर से नजर डाली। पैर से जो चिह्न बन गया है नीचे, वह खबर देता है कि चक्रवर्ती सम्राट का पैर है। ज्योतिषी बहुत चिंतित हो गया। चक्रवर्ती सम्राट का अगर यह पैर हो, तो यह साधारण सी नदी के रेत पर चक्रवर्ती चलने क्यों आया? और वह भी नंगे पैर चलेगा कि उसके पैर का चिह्न रेत पर बन जाए! बड़ी मुश्किल में पड़ गया। सारा ज्योतिष पहले ही कदम पर व्यर्थ होता मालूम पड़ा। अभी-अभी लौटा था निष्णात होकर ज्योतिष में। अपनी पोथी, अपना शास्त्र साथ लिए हुए था। सोचा, इसको नदी में डुबा कर अपने घर लौट जाऊं, क्योंकि अगर इस पैर का आदमी इस रेत पर भरी दुपहरी में चल रहा है नंगे पैर–और इतने स्पष्ट लक्षण तो कभी युगों में किसी आदमी के पैर में होते हैं कि वह चक्रवर्ती सम्राट हो–तो सब हो गया व्यर्थ। अब किसी को ज्योतिष के आधार पर कुछ कहना उचित नहीं है।

लेकिन इसके पहले कि वह अपने शास्त्र फेंके, उसने सोचा, जरा देख भी तो लूं, चल कर इन पैरों के सहारे, वह आदमी कहां है। उसकी शक्ल भी तो देख लूं। यह चक्रवर्ती है कौन, जो पैदल चल रहा है!

तो उन पैरों के सहारे वह गया। एक वृक्ष की छाया में बुद्ध विश्राम कर रहे थे। और भी मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि चेहरा भी चक्रवर्ती का था, माथे पर निशान भी चक्रवर्ती के थे। बुद्ध की आंखें बंद थीं, उनके दोनों हाथ उनकी पालथी में रखे थे; हाथ पर नजर डाली, हाथ भी चक्रवर्ती का था। यह देह, यह सब ढंग चक्रवर्तियों का, और आदमी भिखारी था, भिक्षा का पात्र रखे, वृक्ष के नीचे बैठा था, भरी दुपहरी में अकेला था।

हिला कर बुद्ध को उसने कहा कि महानुभाव, मेरी वर्षों की मेहनत व्यर्थ किए दे रहे हैं–ए सब शास्त्र नदी में फेंक दूं, या क्या करूं? मैं काशी से वर्षों से मेहनत करके, ज्योतिष को सीख करके लौट रहा हूं। और तुममें जैसे पूरे लक्षण प्रगट हुए हैं, ऐसे सिर्फ उदाहरण मिलते हैं ज्योतिष के शास्त्रों में। आदमी तो कभी-कभी हजारों-लाखों साल में ऐसा मिलता है। और पहले ही कदम पर तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया। तुम्हें होना चाहिए चक्रवर्ती सम्राट और तुम यह भिक्षापात्र रखे इस वृक्ष के नीचे क्या कर रहे हो?

तो बुद्ध ने कहा कि शास्त्रों को फेंकने की जरूरत नहीं है, तुझे ऐसा आदमी दुबारा जीवन में नहीं मिलेगा। जल्दी मत कर, तुझे जो लोग मिलेंगे, उन पर तेरा ज्योतिष काम करेगा। तू संयोग से, दुर्घटनावश ऐसे आदमी से मिल गया है, जो भाग्य की सीमा के बाहर हो गया है। लक्षण बिलकुल ठीक कहते हैं। जब मैं पैदा हुआ था, तब यही होने की संभावना थी। अगर मैं बंधा हुआ चलता प्रकृति के नियम से तो यही हो जाता। तू चिंता में मत पड़, तुझे बहुत बुद्ध-पुरुष नहीं मिलेंगे जो तेरे नियमों को तोड़ दें। और जो अबुद्ध है, वह नियम के भीतर है। और जो अजाग्रत है, वह प्रकृति के बने हुए नियम के भीतर है। जो जाग्रत है, वह नियम के बाहर है।

जाग्रत व्यक्ति का संकल्प होता है, उसकी स्वेच्छा होती है, वह जो चाहे करे। इसलिए यह सूत्र बड़े मजे की बात कहता है। यह कहता है, स्वेच्छा से जीने के लिए तू बाध्य होगा। कोई तुझे बाध्य न कर सकेगा कि रुक और सेवा कर, रुक और करुणा से लोगों को जगा; और सोए, पीड़ित, दुखी, विक्षिप्त लोगों की बीमारी दूर कर, उनके लिए औषधि बन, उनके लिए चिकित्सक बन। कोई तुझे बाध्य न करेगा, लेकिन तू स्वयं ही बाध्य होगा। यह तेरी स्वेच्छा ही होगी, तू स्वयं ही चुनेगा कि मैं रुक जाऊं।

“लेकिन तू मनुष्यों के द्वारा न देखा जाएगा, और न उनका धन्यवाद ही तुझे मिलेगा। और अभिभावक-दुर्ग को बनानेवाले अन्य अनगिनत पत्थरों के बीच तू भी एक पत्थर बन कर जीएगा। करुणा के अनेक गुरुओं के द्वारा निर्मित उनकी यातनाओं के सहारे ऊपर उठा और उसके रक्त से जुड़ा यह दुर्ग मनुष्य-जाति की रक्षा करता है। क्योंकि मनुष्य मनुष्य है, इसलिए यह उसे भारी विपदाओं और शोक से बचाती है।’

यह एक प्रतीक है सत्य समझने योग्य। पहली तो बात यह है कि बोधिसत्व का कृत्य दिखाई नहीं पड़ता। बोधिसत्व भी दिखाई पड़ जाए, तो भी उसका कृत्य दिखाई नहीं पड़ता। वह जो कर रहा है, वह सूम है। वह जो कर रहा है, वह आपके अचेतन में वहां काम कर रहा है, जहां का आपको भी पता नहीं है। उसके करने के अपने रास्ते हैं।

तिब्बत में एक शब्द है “तुलकू’। ब्लावट्स्की को भी तिब्बत में “तुलकू’ ही कहा जाता है। “तुलकू’ का अर्थ होता है ऐसा कोई व्यक्ति, जो किसी बोधिसत्व के प्रभाव में इतना समर्पित हो गया है कि बोधिसत्व उसके द्वारा काम कर सके। ब्लावट्स्की तुलकू बन सकी। स्त्री थी, इसलिए आसानी से बन सकी; समर्पित थी। जो लोग ब्लावट्स्की के पास रहते थे, वे लोग चकित होते थे। जब वह लिखने बैठती थी, तो आविष्ट होती थी, पजेस्ड होती थी। लिखते वक्त उसके चेहरे का रंग-रूप बदल जाता था। आंखें किसी और लोक में चढ़ जाती थीं। और जब वह लिखने बैठती थी तो कभी दस घंटे, कभी बारह घंटे लिखती ही चली जाती थी। पागल की तरह लिखती थी। कभी काटती नहीं थी, जो लिखा था उसको। यह कभी-कभी होता था। जब वह खुद लिखती थी, तब उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तो उसके संगी-साथी उससे पूछते थे, यह क्या होता है? तो वह कहती थी कि जब मैं “तुलकू’ की हालत में होती हूं, तब मुझसे कोई लिखवाता है। थियोसाफी में उनको मास्टर्स कहा गया है। कोई सदगुरु लिखवाता है, मैं नहीं लिखती; मेरे हाथ किसी के हाथ बन जाते हैं; कोई मुझमें आविष्ट हो जाता है, और तब लिखना शुरू हो जाता है, तब मैं अपने वश में नहीं होती, मैं सिर्फ वाहन होती हूं। यह पुस्तक भी ऐसे ही वाहन की अवस्था में उपलब्ध हुई है।

कभी-कभी ऐसा होता था कि कुछ लिखा जाता था और उसके बाद महीनों तक वह अधूरा ही पड़ा रहता था। संगी-साथी ब्लावट्स्की के कहते कि वह पूरा कर डालो, जो अधूरा पड़ा है। वह कहती, कोई उपाय नहीं है पूरा करने का; क्योंकि मैं पूरा करूं, तो सब खतरा हो जाए; जब मैं फिर आविष्ट हो जाऊंगी, तब पूरा हो जाएगा। उसकी कुछ किताबें अधूरी ही छूट गई हैं, क्योंकि जब कोई बोधिसत्व चेतना उसे पकड़ ले, तभी लिखना हो सकता है।

ये जो बोधिसत्व हैं, ऐसी चेतनाएं जो परमद्वार पर खड़ी हैं; क्षीण होने के, विलीन होने के, शांत होने के, नष्ट हो जाने के द्वार पर खड़ी हैं–महामृत्यु अभी घटनेवाली है जिनके लिए, ये हजार तरह से काम करती हैं। किसी व्यक्ति में आविष्ट हो सकती हैं, किसी व्यक्ति को पता भी न चले, उसका उपयोग कर सकती हैं। इन सारी आत्माओं का तिब्बत में खयाल है, और खयाल सही है कि एक दुर्ग है, जो मनुष्य-जाति को घेरे हुए है चारों तरफ से।

आदमी जैसा है, वह बिलकुल पागल है। और वह जो भी करता है, वह सब पागलपन से भरा है। अगर आदमी को बिलकुल उसके ही सहारे छोड़ दिया जाए, तो वह अपने को भी नष्ट कर ले सकता है। वह जो भी कर रहा है वह सब उपद्रव से ग्रस्त है। उसे कुछ पता ही नहीं कि क्या

कर रहा है, और क्या हो रहा है। यह बोधिसत्वों का दुर्ग, उसे बार-बार मार्ग पर ले आता है, बार-बार उसे भटकने से बचाता है, बार-बार अनेक उपाय करके दिशा और दृष्टि देने की कोशिश करता है।

यह सूत्र कह रहा है कि जब तू सातवें द्वार को भी पार कर जाएगा, तब अपनी ही स्वेच्छा से तू भी इस महादुर्ग की एक इट बनना चाहेगा। अनेक गुरुओं की यातनाओं से निर्मित यह दुर्ग है। यह दुर्ग मनुष्य-जाति की रक्षा करता है। तिब्बत में हर बुद्ध-पूर्णिमा को एक विशेष पर्वत पर पांच सौ बौद्ध लामा इकट्ठे होते हैं। हर वर्ष बुद्ध-पूर्णिमा की रात, आधी रात बुद्ध की वाणी सुनाई पड़ती है। यह बोधिसत्व-वाणी है। एक नियत योजना के अनुसार, एक नियत घड़ी में बुद्ध की वाणी उपलब्ध होती है। नियत लोग, निश्चित लोग, जो उस वाणी को सुन सकते हैं–क्योंकि वाणी अशरीरी है–वे ही केवल वहां इकट्ठे होते हैं। पांच सौ से ज्यादा लामा वहां कभी इकट्ठे नहीं होते हैं। जब एक लामा उनमें से मर जाता है, समाप्त हो जाता है, तभी एक नए लामा को प्रवेश मिलता है। स्थान गुप्त रखा जाता है; क्योंकि कोई भी गैर-व्यक्ति वहां पहुंच जाए, तो बाधा पड़ सकती है उस घटना में। बुद्ध मरते वक्त वह निश्चित कर गए हैं।

सदगुरु अक्सर निश्चित कर जाते हैं कि उनके साथ, बाद में जब उनका शरीर न होगा, तो कैसे संबंध स्थापित किया जाए। यह संबंध स्थापित करने के निश्चित सूत्र हैं और उनके ही अनुसार चला जाए, तो संबंध स्थापित होते हैं। जो परंपराएं अपने गुरु से संबंध स्थापित करती रहती हैं, वे जीवित हैं।

बहुत सी परंपराएं हैं, जिनका संबंध सूत्र खो गया है, वे मृत हैं। जैसे जैनों की परंपरा है, वह मृत है। महावीर से संपर्क-सूत्र खो गया है। और जैनों में आज एक भी सिद्ध पुरुष नहीं है, जो महावीर से संपर्क-सूत्र स्थापित कर सके। इसलिए जैनों की जो भी गहन गूढ़-विद्या है, वह ढकी पड़ी है, उसको उघाड़ने का कोई उपाय नहीं है। जैन पंडित, जैन साधु और संन्यासी जो भी करते रहते हैं, वह सब बौद्धिक है; उसमें कोई आध्यात्मिक अनुभव नहीं है। इसलिए महावीर जैसे महाप्राण गुरु का भी संदेश जगत तक नहीं पहुंच सका। क्योंकि परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई है। उपाय छोड़ कर गए हैं महावीर, जिन उपायों से उनसे संबंध स्थापित किया जा सकता है। लेकिन कोई उपाय काम में नहीं है।

बुद्ध की परंपरा आज भी जीवित है। आज भी संपर्क-सूत्र स्थापित करनेवाले लोग हैं, जो आज भी बुद्ध की वाणी उपलब्ध कर सकते हैं। बुद्ध की वाणी शाश्वत उपलब्ध रहेगी, बुद्ध के आश्वासन हैं। जीसस का संबंध-सूत्र खो गया है। ईसाइयत औपचारिक धर्म हो कर रह गई है। चर्च हैं, पादरी हैं, पोप हैं, भारी विस्तार है। लेकिन विस्तार ही है, इस्टेबिल्शमेंट ही है; भीतर जो सत्व है, वह खो गया है। जीसस से संबंध नहीं रह गया है। तो ईसाइयत इतनी फैल गई, लेकिन फिर भी जीसस से कोई संबंध नहीं है। तो प्राण नहीं हैं भीतर। सैकड़ों परंपराएं पृथ्वी पर हैं। हर परंपरा किसी महागुरु, किसी बोधिसत्व की चेतना से चलती है। लेकिन उससे संबंध प्रस्थापित होता ही रहना चाहिए। क्योंकि युग बदलता है, समय बदलता है, भाषा बदलती है। फिर से पुनः संबंध स्थापित होना चाहिए कि बुद्ध अभी क्या कहेंगे। बुद्ध इस क्षण में क्या कहेंगे। बुद्ध का आज के लिए क्या संदेश होगा। अगर संबंध टूट जाए, तो दो हजार, ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने जो कहा था, वह हमारे पास किताबों में रह जाता है। लेकिन ढाई हजार साल पहले की जो स्थिति थी, वह आज नहीं है। ढाई हजार साल पहले जिन लोगों से उन्होंने कहा था, वे लोग आज नहीं हैं। ढाई हजार साल पहले जो उन्होंने विधियां दी थीं, वे आज कारगर नहीं होंगी, क्योंकि आदमी बदल गया है, आदमी का मन बदल गया है।

जीवित परंपरा का अर्थ होता है कि बुद्ध से बार-बार संबंध स्थापित करके आज के लिए संदेश पाया जा सके। अगर यह न हो सके, तो परंपरा बोझ हो जाती है, और मुर्दा हो जाती है।

यह बोधिसत्व का जो दुर्ग है, हमारे चारों तरफ मौजूद है बहुत निकट, क्योंकि हमारे हृदय के पास है दुर्ग। इससे संबंध बनाया जा सकता है। लेकिन उस संबंध को बनाने के लिए पूर्ण समर्पण की दशा चाहिए।

मूर्तियां हैं, मंदिर हैं, चर्च हैं, गिरजे हैं, गुरुद्वारे हैं, वे सब प्रतीक हैं; संबंध स्थापित करने के एक तरह के यंत्र हैं, जिनसे संबंध स्थापित किया जा सकता है, जिन पर ध्यान एकाग्र करने से आप इस लोक से हटते हैं और उस लोक के लिए उन्मुख हो जाते हैं।

करीब-करीब आज पृथ्वी पर बोधिसत्वों का संपर्क क्षीणतम हो गया है। इधर पिछले कुछ दशकों में ब्लावट्स्की के प्रयास से बड़ा महाप्रयोग हुआ। और बड़ी चेष्टा हुई कि बोधिसत्व के दुर्ग से पुनः संबंध स्थापित हो जाए। थियोसाफी का पूरा का पूरा आंदोलन इस संबंध-सूत्र को स्थापित करने के लिए ही था, लेकिन प्रयास असफल हो गया; हो ही नहीं पाया, थोड़ा काम हुआ और सब अवरुद्ध हो गया। और आज कोई इतना बड़ा प्रयास दूसरा नहीं है, जो ज्ञान की जो शाश्वत धारा है, जो परंपरा है, ज्ञान के जो सूत्र सदा उपलब्ध कर लिए गए हैं, उनको पुनर्जीवित किया जा सके। और जरूरत बहुत ज्यादा है कि यह हो; और अगर यह न हो, तो आदमी भटक सकता है, खो सकता है। क्योंकि आदमी के पास बुद्धों का जो जीवंत दुर्ग है, अगर उससे ही हमारा संबंध विछिन्न हो जाए, तो हम भटकते ही चले जाएंगे, और गिरते ही चले जाएंगे।

आज आदमी की गिरावट का कारण न तो विज्ञान है, आदमी की गिरावट का

कारण न तो अनीति है–आदमी की गिरावट का एक ही कारण है कि अनंत-अनंत काल में जो शाश्वत सत्य की खोजें हैं और उन सत्यों की संपत्ति जिनके पास सुरक्षित है, उनसे हमारा संबंध क्षीण हो गया है। उस संबंध को पुनर्जीवित किया जा सके, तो ही मनुष्य को बचाया जा सकता है। अन्यथा यह पृथ्वी खाली कर देनी पड़ेगी। अन्यथा इस पृथ्वी पर आदमी के बचने की इस सदी के बाद कोई संभावना नहीं है। एक महा-आंदोलन की जरूरत है कि पृथ्वी के कोने-कोने में सभी धर्म-परंपराओं से संपर्क पुनर्जीवित किया जा सके। यह किया जा सकता है।

अगर आप समर्पित हैं और ध्यान में पूरी तरह डूबते हैं, तो आज नहीं कल अचानक आप पाएंगे कि आप एक दूसरे लोक में प्रवेश करने लगे, और दूसरे लोक की वाणी आपको सुनाई पड़ने लगी, और दूसरे लोक की आत्माएं आपसे संबंध स्थापित करने लगी हैं। वे सदा उत्सुक हैं, सिर्फ आपकी तरफ से द्वार खुला चाहिए। और तब आप पाएंगे कि आप नाहक ही परेशान हो रहे थे; जिनसे मार्गदर्शन मिल सकता है वे बहुत निकट हैं।

यह सूत्र कहता है: साथ ही, चूंकि मनुष्य इसे नहीं देखता है, इसलिए वह न स्पर्श कर सकता है, और न प्रज्ञा की वाणी सुन सकता है क्योंकि वह जानता ही नहीं है।

“लेकिन ओ जिज्ञासु, निर्दोष आत्मावाले, तूने तो इसे सुना है और तू तो सब कुछ जानता है इसलिए तुझे निर्णय करना है। अतः एक बार फिर से सुन।

“हे सोवान के मार्ग, हे स्रोतापन्न, तू सुरक्षित है। देख, उस मार्ग पर जहां थके हुए यात्री को अंधकार का सामना करना होता है।’

यह उसे याद दिला रहा है, यह सूत्र सिर्फ याद दिला रहा है। निर्वाण के पहले खो जाने की संभावना है। यह सूत्र याद दिला रहा है कि तू तो अब सुरक्षित है। अब तुझे तो कोई भय न रहा। तूने वह वाणी सुन ली, जो मुक्त करती है, और तूने वह सत्य स्पर्श कर लिया है। अब तुझे कोई दुख नहीं है। तेरे पैर निरंतर आनंद में बहे जा रहे हैं, लेकिन स्मरण कर उस मार्ग का, जहां तू कल चल रहा था, और जहां तुझे कोई सहारा न था, और जहां तुझे कोई मार्ग-दर्शन देनेवाला नहीं था, उस मार्ग पर अभी भी थके हुए यात्री अंधेरे का सामना कर रहे हैं।

“जहां कांटों से छिद कर हाथ लहू-लुहान हो जाते हैं, जहां पांव तीखे व कठोर पत्थरों से कट-फट जाते हैं और जहां “काम’ अपने शक्तिशाली शस्त्र चलाता है, वहां जरा सी दूरी ही पार कर एक बड़ा वरदान, महान पुरस्कार तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।’

अगर तू जरा-सा लौट कर पीछे देख तो जिस रास्ते पर तू कल तक था, वहां करोड़ों लोग हैं। जैसा तू भटकता था, वे भटक रहे हैं। जिन दुखों में तू डूबता था, उसमें वे डूब रहे हैं। जिन पीड़ाओं को तू अपने हाथ से पकड़ कर भोगता था, वहां वे अपने ही हाथों से अपनी पीड़ाएं निर्मित कर रहे हैं और भोग रहे हैं। पीछे के नरक को देख, यह नरक अगर दिखाई पड़ जाए तुझे, तो तू उनकी सहायता के काम पड़ सकता

है।

“वह शांत और अकंप यात्री इस धारा पर बहता चला जाता है, जो निर्वाण को चली जाती है। वह जानता है कि जितने ही उसके पांव खून उगलेंगे उतना ही वह स्वयं धुलकर स्वच्छ हो जाएगा। वह भलीभांति जानता है कि सात छोटे-छोटे और क्षणभंगुर जन्मों के बाद निर्वाण उसका है।’

यह भी तुझे साफ है कि ज्यादा देर नहीं है तेरे महानिर्वाण में खो जाने के लिए। शीघ्र ही थोड़े ही जन्मों में समस्त रूप में महाशून्य हो जाएगा। इसके पहले कि तू महाशून्य हो जाए, तू महाशून्य होने की जल्दी मत करना।

“ऐसा है ध्यान का मार्ग, जो योगियों का आश्रय है और जिस अपूर्व लय के लिए स्रोतापन्न लालायित है।’

वह धारा में प्रवेश कर रहा है, साधक है, नया है, लालायित है–इस महाशून्य को जानेवाले मार्ग पर चलने के लिए।

लेकिन, जब उसने अर्हत का मार्ग पार कर लिया, तब कोई लालसा नहीं है।

अर्हत होते ही सारी लालसाएं शांत हो जाती हैं, सारी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं। तब खतरा है, क्योंकि जब स्वयं की वासना क्षीण हो जाए, तो दूसरे की भी दिखाई नहीं पड़ती और जब स्वयं के दुख मिट जाएं, तो दूसरों के दुखों का कोई खयाल नहीं रह जाता है।

हम वही जानते हैं जो हमारे भीतर होता रहता है। जो हमारे भीतर बंद हो गया, हम भूल जाते हैं कि वह दूसरों के भीतर अभी जारी है।

“वहां सदा के लिए क्लेश मिट जाता है’

अर्हत होते ही, सिद्ध होते ही सारा क्लेश मिट जाता है।

“और तनहा की जड़ें उखड़ जाती हैं।’

तृष्णा के सारे जाल टूट जाते हैं।

“लेकिन ओ शिष्य, रुक अभी भी एक और शब्द कहना बाकी है। क्या तू ईश्वरी करुणा को मिटा सकता है? करुणा कोई सदगुण नहीं है। यह नियमों का नियम है–शाश्वत लयबद्धता, आलय की आत्मा। इसे ही तटहीन जागतिक सत्व, नित्य, सम्यकत्व की प्रभा, वस्तुओं का कौशल और सनातन प्रेम का विधान कहते हैं।’

एक शब्द और है अर्हत के लिए। सूत्र कहता है कि एक शब्द और है, सब हो चुका, तेरी तृष्णा मिट गई। तेरी तृष्णा के साथ ही तेरे दुखों का सागर तिरोहित हो गया। खुद की तृष्णा ही खुद का दुख है। तुझे कुछ पाने को न बचा, तूने सब पा लिया। तू हो गया जो हो सकता था। तेरा फूल खिल गया, लेकिन एक आखिरी शब्द और है। और वह आखिरी शब्द है करुणा के संबंध में।

इसे हम समझ लें।

जिस जगत में हम रहते हैं, वहां वासना नियम है।

वासना का अर्थ है: हम लेना चाहते हैं, पाना चाहते हैं, छीनना चाहते हैं। जिस जगत में हम रहते हैं, वहां वासना नियम है। इस जगत के पार होते ही वासना की जगह करुणा नियम हो जाती है।

वासना का अर्थ है लेना। करुणा का अर्थ है देना–वासना के ठीक विपरीत।

वासना चाहती है: देना कुछ भी न पड़े और सब मिल जाए। और करुणा चाहती है, लेना कुछ भी न पड़े, सब दे दिया जाए। यह वासना से करुणा में प्रवेश है।

अर्हत की वासना नष्ट हो गई, अब वह चाहे तो सीधा शून्य में विलीन हो सकता है। लेकिन बोधिसत्व को, जो दूसरा मार्ग है वह कहता है, जो-जो वासना से तूने मांगा था, वह करुणा से लौटा दे। निपटारा पूरा कर दे। जिनसे तूने चाहा था, उनको दे दे। बिना दिए भी खोया जा सकता है, बिना बांटे भी खोया जा सकता है। कोई बांटने की अनिवार्यता नहीं है। अब कोई दबाव नहीं है, अब कोई जोर-जबरदस्ती नहीं है कि बांट ही। सच तो यह है कि जब तक जोर-जबरदस्ती है बांटने की, तब तक हमारे पास बांटने को कुछ भी नहीं होता है। जिस दिन बांटने को मिलता है कुछ, उस दिन कोई जबरदस्ती नियमों की नहीं रह जाती। परम स्वतंत्र है चेतना, चाहे तो बांट सकती है।

यह सूत्र सकता है: करुणा कोई सदगुण नहीं है।

यह कोई नैतिक गुण नहीं है।

“करुणा कोई सदगुण नहीं है। यह है नियमों का नियम–शाश्वत लयबद्धता, आलय की आत्मा। इसे ही तटहीन, जागतिक तत्व, नित्य सम्यकत्व की प्रभा, सभी वस्तुओं का कौशल और सनातन प्रेम का विधान कहते हैं।’

यह करुणा कोई नैतिकता नहीं है–जिस करुणा की यहां बात की जा रही है। यह करुणा कोई दया भी नहीं है कि दूसरों पर दया करें। क्योंकि दया में भी अहंकार मौजूद है। यह करुणा तो प्रेम का एक विधान है। इसमें कोई अस्मिता नहीं कि मैं दया करूं, तो श्रेष्ठ हो जाऊंगा। अब कोई श्रेष्ठता अर्हत के लिए बाकी न बची, उसने सारी श्रेष्ठता पा ली। अब देने से कुछ और ज्यादा नहीं हो जाएगा वह। अब बांटना उसके लिए कोई पुण्य नहीं है। उसने सब पुण्य पा लिए हैं। इसलिए सवाल उठता है कि अर्हत क्यों बांटे? क्योंकि हमारी भाषा में यह तकलीफ है कि हम सोचते हैं कि जब कुछ मिलनेवाला नहीं है उससे तो बांटें क्यों? तो बांटना क्या है? न कोई दबाव है, न मिलने की कोई आशा है, न कोई बढ़ती होनेवाली है। अर्हत से ऊपर जाने का कोई उपाय नहीं है, आखिरी शिखर छू लिया गया।

सूत्र कहता है, यह कोई दया नहीं है, इससे कुछ अर्जित होनेवाला नहीं है। लेकिन यह प्रेम का विधान है। जैसे वासना जगत का विधान है, ऐसे करुणा जगत के पार जानेवाले का विधान है। यह स्वेच्छा से चुना हुआ नियम है, इसलिए इसको नियमों का नियम कहा है, क्योंकि जो नियम स्वेच्छा से नहीं चुने जाते, वे आधारभूत नहीं हैं। यह अल्टीमेट ला है–ताओ। इससे ऊपर और कोई नियम नहीं जाता। मांगना ऊपर-ऊपर है, देना नीचे है। वासना सतह पर है, करुणा आधार में है।

“जितना ही तू इसके साथ एकात्म होता है, जितना ही इसके अस्तित्व में तेरा अस्तित्व घुलमिल जाता है, जितना ही तू इसके साथ एक होता है–जो है–उतना ही तू परिपूर्ण करुणा बन जाएगा।’

“ऐसा है आर्य मार्ग–पूर्णता के बुद्धों का मार्ग।’

बुद्ध आर्य शब्द का बहुत उपयोग किए हैं। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठतम। ऐसा है आर्यों का मार्ग–जो श्रेष्ठतम हैं, उनका मार्ग। ऐसा है पूर्णता को प्राप्त बुद्धों का मार्ग–कि वासना के जगत के बाद, वे करुणा के नियम को स्वेच्छा से चुन लेते हैं। यह चुनाव उनका है, कोई अपरिहार्यता नहीं है। परिपूर्ण स्वेच्छा है। स्वेच्छा से ही खड़े हो जाते हैं संसार में उनकी सहायता करने को, जो अभी भटक रहे हैं। इसलिए उन्हें समझने में हमेशा कठिनाई होती है। क्योंकि हमें लगता कि अगर एक बुद्ध भी आपको समझा रहा है, तो जरूर उसका मतलब होगा, कोई प्रयोजन होगा। क्योंकि हम प्रयोजन की ही भाषा समझ सकते हैं। हमारी कोई गलती भी नहीं है। अगर कोई आपको बदलने की भी कोशिश कर रहा है, तो जरूर उसका कोई प्रयोजन होगा, जरूर इससे उसे कुछ लाभ मिलता होगा, जरूर इसमें वह कुछ पा रहा होगा या पाने की कोई वासना रखता होगा। कोई प्रतिष्ठा, कोई पद, कोई यश, कोई महत्वाकांक्षा जरूर भीतर होगी। नहीं तो कौन किसके लिए परेशान होता है और क्यों परेशान होगा?

वासना की भाषा में जो जीते हैं उन्हें करुणा का कोई भी पता नहीं हो सकता है। इसमें भी कोई गलती नहीं है, कोई उपाय भी नहीं है। जैसे अंधे को कोई प्रकाश नहीं दिखता, वैसे वासनावाले को करुणा नहीं दिखाई पड़ती। करुणा भी अगर दिखाई पड़ती है, तो वह समझता है इसके भीतर कोई वासना जरूर छिपी है।

इसलिए बुद्ध सदा ही गलत समझे जाएंगे। यह उनका भाग्य। गलत उनको समझा ही जाएगा। क्योंकि वे जिनसे बात कर रहे हैं, उनकी भाषा और है, उनका नियम और है। लेकिन फिर भी वे चेष्टा में रत रहेंगे। क्योंकि जैसे-जैसे उन्हें दिखाई पड़ना शुरू होता है, अपनी पीड़ाओं का पथ, जिस पर वे गुजरे हैं अनेक-अनेक जन्मों में, वैसे ही उन्हें दिखाई पड़ने लगती हैं, अनेक-अनेक आत्माएं, उसी तरह की पीड़ाओं में गुजरती हुई।

ये सूत्र बोधिसत्व पैदा करने के सूत्र हैं। जो भी अर्हत के मार्ग पर जा रहा है, उसे उनका स्मरण न हो, यह सूत्र खयाल में न हो, तो वह लीन हो जाएगा। अनेक बुद्ध खो गए हैं शून्य में सीधे। यह सूत्र सिर्फ इस बात के लिए गहरी चोट करने के लिए है कि इसका खयाल बना रहे, तो महायान में जैसे ही साधक ध्यान में करीब पहुंचने लगता है, इस तरह के सूत्र उसका गुरु उसको देने लगता है। चूंकि अब डर का क्षण करीब आ रहा है। अब वह खतरनाक क्षण करीब आ रहा है, जब साधक चुंबक की तरह खींच लिया जाएगा शून्य में और खो जाएगा।

खयाल रखें, जब भी आनंद घटता है, तो कौन रुकता है? एक कदम भी कौन रुकना चाहता है? जब महा-आनंद निकट खड़ा हो, तो आप उसकी तरफ पीठ न कर पाएंगे। तब तो मन होगा कि कूद जाएं, डूब जाएं। उस समय इन सूत्रों का स्मरण बना रहे तो शायद कोई पीठ फेर कर खड़ा हो जाए और लौट कर संसार की तरफ देखे, जो पीछे रह गया है। देखते ही संसार का दूसरा नियम शुरू हो जाएगा करुणा का। लेकिन अगर न देखा, तो वह नियम काम नहीं करेगा। एक बार भी पीछे लौट कर देख लिया तो वासना तिरोहित हो गई, करुणा सक्रिय हो जाएगी, दूसरे नियम का सूत्रपात हो गया।

अर्हत के मार्ग पर, हीनयान के मार्ग पर, ठीक इससे उल्टे सूत्रों का काम होता है, क्योंकि हीनयान के साधक को समझाया जाता है कि जब महाशून्य करीब आए तो तू लौट कर पीछे मत देखना। क्योंकि अगर तूने लौटकर पीछे देखा, तो फिर युगों तक तुझे ठहरना पड़ेगा। ऐसा है आर्य मार्ग एक बार पीछे देख लिया, तो यह जो दृश्य है पीछे, वह हमें पता नहीं है कि वह दृश्य कितना भयंकर है। ऐसा समझें कि अगर मैं आपकी सारी वासनाओं को खोल कर देखूं। आपकी सारी पीड़ाओं को, हृदय के कांटों को, सबको उघाड़कर रख लूं, तो जो मुझे दिखाई पड़ेगा, एक-एक आदमी एक-एक नरक है। ऊपर से लिपा-पुता है, ह्वाइट वाश्ड है, तो वह अलग बात है। ऊपर से दीवाल बना रखी है लीप-पोत कर, रंग-रोगन कर रखा है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अगर हम आदमी को खोल दें तो नरक की मवाद बहनी शुरू हो जाए। अगर हम सारे जगत को जब कोई बोधिसत्व पीछे लौटकर देखता है, तो वहां मवाद का, पीड़ा का, दुख का, घृणा का, हिंसा का राज्य है।

तो हीनयान के साधक को आखिरी क्षण में कहा जाता है कि तू पीछे भर लौट कर मत देखना, क्योंकि नदी जब गिरने लगती है सागर में, तो एक बार पीछे लौट कर देख लेती है, उस रास्ते को, जिस पर होकर आई है। तू लौट कर पीछे मत देखना, अन्यथा फिर तुझे किनारे पर रह जाना पड़ेगा अनेक-अनेक युगों तक। क्योंकि जो तुझे दिखाई पड़ेगा, वह तुझे, तेरी करुणा को पैदा करेगा।

अपना-अपना सूत्र चुन लेना चाहिए। और उस सूत्र को ध्यानपूर्वक मन में बिठाया जाना चाहिए गहरे-गहरे, ताकि अचेतन में प्रवेश कर जाए। और जब हम द्वार पर खड़े हों, तो हमारे काम आ जाए। अगर लगता हो कि हीनयान ही मार्ग है, लगता हो कि मुझे शून्य में ही चले जाना है, तो फिर इन सूत्रों से बचना चाहिए। और लगता हो कि उचित है यही, क्योंकि मेरा फिर कुछ खोएगा नहीं, अनंत काल तक अगर रुका रहूं मैं किनारे पर, तो भी मुझे जो पाना था, वह पा लिया है। कुछ मेरा खोता नहीं, लेकिन मैं दूसरे के काम आ सकता हूं। और एक दूसरे करुणा के नियम के सूत्र हाथ में आते ही मैं सहयोगी और सहारा बन जाता हूं।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–3) प्रवचन–16

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मन का रूपांतरण—(अध्याय-6) प्रवचन—सोलहवां

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।। 33।।

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। 34।।

हे मधुसूदन, जो यह ध्यानयोग आपने समत्वभाव से कहा है, इसकी मैं मन के चंचल होने से बहुत काल तक ठहरने वाली स्थिति को नहीं देखता हूं। क्योंकि हे कृष्ण, यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है, तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए उसका वश में करना मैं वायु की भांति अति दुष्कर मानता हूं।

योग की आधारभूत शिलाओं के संबंध में कृष्ण के द्वारा बात किए जाने पर अर्जुन ने वही पूछा है, जो आप भी पूछना चाहेंगे। अर्जुन कह रहा है, बातें होंगी ठीक आपकी, मिलता होगा परम आनंद। आकर्षण भी बनता है कि उस आयाम में यात्रा करें। लेकिन मन बड़ा चंचल है। और समझ में नहीं पड़ता है कि इस चंचल मन के साथ कैसे उस थिर स्थिति को पाया जा सकेगा! क्षणभर भी ठहरेगी वह स्थिति, इसका भी भरोसा नहीं आता है।

फिर चंचल ही नहीं है यह मन, बहुत शक्तिशाली, बहुत जिद्दी भी है। बहुत अडिग, अपने स्वभाव को कायम भी रखता है। ऐसा लगता है कि हे मधुसूदन, जैसे वायु को वश में करना कठिन हो, वैसा ही कठिन इस मन को वश में करना है।

वायु के साथ खूबी है एक। वायु पर मुट्ठी बांधें, तो पकड़ में नहीं आती है। जितने जोर से मुट्ठी बांधें, उतनी ही मुट्ठी के बाहर हो जाती है। न तो दिखाई पड़ती है वायु कि हम उसका पीछा कर सकें। ऐसा ही मन भी दिखाई नहीं पड़ता है। और न ही वायु जरा ही देर थिर रहती है। जो अथिर है प्रतिपल, यहां से वहां डांवाडोल है, दौड़ती फिरती है, ऐसा ही यह मन है–प्रतिपल दौड़ता हुआ; अदृश्य; न दिखाई पड़ता, न पकड़ में आता; सिर्फ अनुभव होता है इसके कंपन का।

वायु का आपको अनुभव क्या है? वायु का कोई अनुभव नहीं है। वायु की दौड़ती, भागती धारा के थपेड़ों का अनुभव है। वायु अगर थिर हो, तो वायु का कोई भी अनुभव न होगा। उसकी अथिरता का ही अनुभव है, उसके प्रवाह का ही अनुभव है। दौड़ती है वायु आपको छूकर, तो उसका स्पर्श होता है। दौड़ता हुआ ही स्पर्श होता है। और तो कोई अनुभव नहीं है।

मन का भी, उसके परिवर्तन का ही अनुभव होता है; मन का तो कोई अनुभव नहीं है। उसकी चंचलता ही प्रतीति में आती है, और तो कुछ प्रतीति में आता नहीं है।

जैसे वायु की गति प्रतीति में आती है, वायु नहीं; ऐसे ही मन की भी चंचलता प्रतीति में आती है, मन नहीं। ऐसा जो अदृश्य, जो पकड़ के बाहर और सदा ही भागता हुआ मन है।

तो अर्जुन की शंका उचित ही है। वह पूछता है कृष्ण को, संभावी नहीं मालूम पड़ता, इंप्रोबेबल है, असंभव दिखता है। आप कहते हैं, सदा के लिए थिर हो जाए; क्षण के लिए भी थिर होना असंभव मालूम पड़ता है। मन का यह स्वभाव ही नहीं है कि थिर हो जाए। मन तो चंचल ही है। या कहें कि चंचलता ही मन है। दुरूह मालूम होती है बात। आकर्षण भारी। मन को देखकर, कमजोरी को देखकर, मन की स्थिति को देखकर असंभव मालूम होती है बात।

यह अर्जुन का ही सवाल नहीं है, यह पूरे मनुष्य के मन का सवाल है। इसमें दोत्तीन बातें ध्यान में ले लेनी जरूरी हैं।

एक, कि मन के संबंध में जो भी हम जानते हैं, स्वभावतः उसी जानने के भीतर सोचते हैं। हमने मन को कभी थिर नहीं जाना। तो उचित ही लगता है, स्वाभाविक ही तर्कयुक्त लगता है कि मन की थिरता असंभव है। हमने कभी मन को थिर नहीं जाना। इसलिए स्वाभाविक ही लगता है कि यह शंका उठे कि यह मन थिर नहीं हो सकेगा।

लेकिन यह हमारी धारणा नकारात्मक है। यह हमारी धारणा निगेटिव है। हमें थिरता का कोई अनुभव नहीं है, चंचलता का ही अनुभव है। इसलिए हमारा यह सोचना कि थिरता असंभव है, थोड़ा जरूरत से ज्यादा सोचना है। हम इतना ही कहें कि चंचल हैं हम, थिरता का हमें कोई पता नहीं। वहां तक बात तथ्य की है। लेकिन तत्काल हमारा मन एक कदम आगे बढ़कर नतीजा लेता है, जिसके लिए कोई कारण नहीं है। हमारा मन कहता है कि नहीं, थिरता असंभव है।

चंचलता हमने जानी है, वह हमारे अतीत का अनुभव है। थिरता हमारा अनुभव नहीं है। लेकिन जो हमारा अनुभव नहीं है, वह असंभव है, ऐसा कहने का कोई कारण नहीं है। अगर बहरे को कोई कहे, बहरे को कोई समझाए लिखकर कि वाणी संभव है; बहरा कहेगा, असंभव है। अंधे को कोई समझाने की कोशिश करे कि प्रकाश संभव है; अंधा कहेगा, असंभव है। अंधा कहेगा, हे मधुसूदन, अंधकार के सिवाय कभी कुछ जाना नहीं। मान नहीं सकता कि आंखें प्रकाश भी देख सकती हैं, क्योंकि अंधकार ही देखती रही हैं। एक क्षण को भी देख सकती हैं, यह अकल्पनीय मालूम पड़ता है, क्योंकि सदा से अंधकार ही जाना है।

फिर भी हम जानते हैं कि वह अंधे की धारणा नकारात्मक है। लेकिन अंधे की बात गलत न कह सकेंगे हम। अंधा अपने अनुभव से कहता है। और अनुभव के सिवाय कहने का उपाय भी क्या है!

हम जब मन के संबंध में कह रहे हैं, तब भी हम अपने अनुभव से कहते हैं। लेकिन अनुभव अंधे जैसा है। मन के अतिरिक्त हमने कभी कुछ जाना ही नहीं। जो हमने नहीं जाना है, उसके बाबत पाजिटिव कनक्लूजन लेना उचित नहीं है।

अर्जुन का यह कहना तो ठीक है कि मन चंचल है, बहुत कठिन मालूम पड़ता है। लेकिन यह कहना उचित नहीं है कि अकल्पनीय मालूम पड़ता है, कृष्ण। यह हम अपनी अनुभूति के बाहर का नतीजा ले रहे हैं, जो खतरनाक हो सकता है। क्योंकि वैसा नतीजा, रोकने वाला सिद्ध होगा। वैसा नतीजा अवरोध बन जाएगा।

एक बार किसी ने सोच लिया कि ऐसी बात असंभव है, तो करने की धारणा ही छूट जाती है। असंभव को कोई करने नहीं निकलता। जब कोई असंभव को भी करने निकलता है, तो मानकर चलता है कि संभव है। अगर संभव को भी कोई मान ले कि असंभव है, तो करने ही नहीं निकलता। और मान्यता फिर असंभव ही बना देगी; क्योंकि जब करने ही नहीं जाएंगे, तो सिद्ध ही हो जाएगा कि देखो, असंभव है; क्योंकि फलित नहीं होगा। और इस तरह तर्क का अपना एक दुष्चक्र, एक विशियस सर्किल है। अगर आप मानते हैं कि असंभव है, तो आप करेंगे नहीं; करेंगे नहीं, तो संभव नहीं हो पाएगा। आपकी मान्यता और दृढ़ हो जाएगी कि असंभव है। देखो, कहा था पहले ही कि असंभव है!

अगर आप असंभव को भी संभव मानकर चलते हैं, तो करने की सामर्थ्य, शक्ति बढ़ती है। और कुछ आश्चर्य नहीं कि असंभव भी संभव हो जाए। क्योंकि बहुत असंभव संभव होते देखे गए हैं। असल में हम असंभव उसे कहते हैं, जिसे हम नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन जिसे हम नहीं कर पा रहे हैं, उसे नहीं ही कर पाएंगे, ऐसा निष्कर्ष लेने की तो कोई भी जरूरत नहीं है।

पर अक्सर हम अतीत से निष्कर्ष लेते हैं भविष्य का। अतीत भविष्य का निर्धारक नहीं है; और अतीत से कोई नतीजा भविष्य के लिए नहीं लिया जा सकता। मैं अभी तक नहीं मरा हूं, इसलिए मैं अगर कहूं कि मृत्यु असंभव है, तो गलती है कुछ? इतने दिन का अनुभव है, इतने दिन जीकर जाना है कि नहीं मरता हूं। अगर मैं कहूं कि इतने वर्ष का अनुभव!

एक आदमी कहे कि अस्सी वर्ष का मेरा अनुभव कि नहीं मरता हूं, नतीजा देता है कि मृत्यु असंभव है। अस्सी वर्ष तक जो संभव नहीं हो पाया, वह अचानक एक क्षण में संभव हो जाएगा, यह तर्कयुक्त नहीं मालूम होता। जो अस्सी वर्ष तक नहीं आ सकी मौत, अस्सी वर्ष तक मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं, वह एक क्षण में कैसे आ जाएगी? जिसको अस्सी वर्ष मैंने हराया, वह एक क्षण में मुझे कैसे हराएगी? जो अस्सी वर्ष तक मेरी प्रतीति नहीं बनी, वह एक क्षण में मेरा अनुभव नहीं बन सकता है–ऐसा अगर कोई कहे, तो गलत कह रहा है? ठीक ही मालूम पड़ता है, तर्कयुक्त मालूम पड़ता है।

लेकिन सभी तर्कयुक्त बातें सत्य नहीं होतीं। सच तो यह है कि सभी असत्य तर्कयुक्त रूप लेते हैं। सभी असत्य अपने आस-पास तर्क का जाल बुन लेते हैं।

अर्जुन कहता है, असंभव मालूम पड़ता है–अकल्पनीय, इनकंसीवेबल–कोई धारणा नहीं बनती कि यह हो सकता है, एक क्षण को भी ठहरेगा मन। लेकिन यह अर्जुन बिना जाने कह रहा है।

अर्जुन एक अर्थ में ठीक कह रहा है, क्योंकि हम सब का अनुभव यही है। एक अर्थ में गलत कह रहा है, क्योंकि जो हमारा अनुभव नहीं है, उसके संबंध में कोई भी विधायक वक्तव्य ठीक नहीं है।

एक आदमी कहता है कि मेरा जीवन हो गया, मैंने ईश्वर का कहीं दर्शन नहीं किया, इसलिए ईश्वर नहीं है। उसे इतना ही कहना चाहिए कि ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। इतना ही मुझे पता है कि मैंने उसका अभी तक दर्शन नहीं किया है। तो बात बिलकुल ही तथ्य की है।

लेकिन मैंने दर्शन नहीं किया है, इसलिए ईश्वर नहीं है, तो फिर तर्क अपनी सीमा के बाहर गया। और अक्सर तर्क कब अपनी सीमा के बाहर चला जाता है, हमें पता नहीं चलता। एक छोटी-सी छलांग तर्क लेता है, और खतरनाक स्थितियों में पहुंचा देता है।

एक बिलकुल छोटी-सी छलांग; मैंने ईश्वर को नहीं जाना अब तक; बहुत खोजा, नहीं पाया। सब तरह खोजा, नहीं दर्शन हुआ, तो ईश्वर नहीं है। इन दोनों के बीच में गैप है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। इस निष्पत्ति तक पहुंचने के लिए उतने आधार काफी नहीं हैं। इस निष्पत्ति पर तो वही पहुंच सकता है, जो यह भी कह सके कि जो भी संभव था, वह सब मैंने देख लिया; जो भी अस्तित्व था, वह मैंने पूरा छान डाला; कोना-कोना जहां तक असीम का विस्तार था, मैंने सब पा लिया, देख लिया। अब एक रत्तीभर अस्तित्व नहीं बचा है छानने को, इसलिए मैं कहता हूं कि ईश्वर नहीं है। तब उसकी बात में कोई तर्कयुक्तता हो सकती है। लेकिन सदा शेष है।

तो अर्जुन के इस संदेह में वास्तविकता है। फिर भी कहीं कोई गहरी भूल है।

दूसरी बात वह कहता है कि वायु की तरह है। और ठीक उसने उपमा ली है। ठीक उसने उपमा ली है। लेकिन फिर भी उपमा में कुछ बुनियादी भूलें हैं, वह खयाल में ले लें, तो कृष्ण का उत्तर समझना आसान हो जाएगा।

एक तो बुनियादी भूल यह है कि वायु पदार्थ है, मन पदार्थ नहीं है। वायु पदार्थ है, मन पदार्थ नहीं है। अर्जुन के वक्त में तो वायु को पकड़ना मुश्किल था, अब मुश्किल नहीं है। अगर आज अर्जुन सवाल पूछता, तो वायु की उपमा नहीं ले सकता था। आज तो विज्ञान ने सुलभ कर दिया है। हम चाहें तो वायु को ठंडा करके पानी बना ले सकते हैं। और ज्यादा ठंडा कर सकें, तो ठोस पत्थर की तरह वायु जम जाएगी।

क्योंकि विज्ञान कहता है, प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हैं। जैसे बर्फ, पानी, भाप। इसी तरह प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हैं। और प्रत्येक पदार्थ एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश कर सकता है। वायु भी एक विशेष ठंडक पर जल की तरह हो जाती है; और एक विशेष ठंडक पर पत्थर की तरह जम जाएगी। पदार्थ की तीन अवस्थाएं हैं।

खैर, अर्जुन को उसका कोई पता नहीं था। अगर आज कोई अर्जुन की तरफ से पूछता, तो वायु का उदाहरण नहीं ले सकता था। क्योंकि वायु अब बिलकुल मुट्ठी में पकड़ी जा सकती है; ठंडी करके पानी बनाई जा सकती है; बर्फ की तरह जमाई जा सकती है। उसे कोई आदमी हाथ में लेकर चल सकता है।

पदार्थ की तुलना मन से देने में एक बुनियादी भूल हो गई। मन तो सिर्फ विचार है। मन है क्या, इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें, तो बहुत साफ हो जाएगी बात।

दो चीजों के बाबत हमें बड़ी सफाई है। एक तो शरीर के बाबत बहुत साफ स्थिति है कि शरीर है। वह पदार्थ का समूह है। वह पंचभूत कहें, या जितने भूत हों उतने कहें, उन सब का समूह है। उसके बाबत बहुत स्थिति साफ है। आत्मा है, उसके बाबत भी स्थिति साफ है कि वह पदार्थ नहीं है। इतना तो साफ है नकारात्मक, कि वह पदार्थ नहीं है। वह चैतन्य है, वह कांशसनेस है। यह मन क्या है दोनों के बीच में?

यह मन दोनों के मिलन से उत्पन्न हुई एक बाइ-प्रोडक्ट है। यह मन पदार्थ और चेतना के मिलन से पैदा हुई एक उत्पत्ति है। वस्तुतः देखा जाए, तो शरीर का भी बहुत गहन अस्तित्व है और आत्मा का भी। मन का गहन अस्तित्व नहीं है।

मन ऐसा है, जैसे कि मैं आपको एक जंगल में मिल जाऊं। और हम दोनों के बीच मैत्री का जन्म हो। आप भी बहुत हैं, मैं भी बहुत हूं, लेकिन यह मैत्री हम दोनों के बीच एक संबंध है। यह मैत्री पदार्थ भी नहीं है, और यह मैत्री आत्मा भी नहीं है। क्योंकि अकेले दो पदार्थों के बीच यह घटित नहीं हो सकती, इसलिए पदार्थ तो नहीं है। और अकेली दो आत्माओं के बीच भी घटित नहीं हो सकती बिना शरीरों को बीच में माध्यम बनाए, तो यह सिर्फ आत्मा भी नहीं है। लेकिन शरीर और आत्मा मौजूद हों, तो मैत्री नाम का एक संबंध, एक रिलेशनशिप घटित हो सकती है।

मन वस्तु नहीं है, संबंध है। मन पदार्थ नहीं है, संबंध है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें; क्योंकि संबंध को पदार्थ से तुलना देने में बड़ी भूल हो जाएगी। पदार्थ को कभी तोड़ा नहीं जा सकता। आप कहेंगे, तोड़ा जा सकता है; हम एक पत्थर के दस टुकड़े कर सकते हैं। आपने पदार्थ नहीं तोड़ा, सिर्फ पत्थर तोड़ा है। पदार्थ तोड़ने का मतलब यह है कि पत्थर को आप इतना तोड़ें, इतना तोड़ें कि पत्थर शून्य में विलीन हो जाए। आप नहीं तोड़ सकते। विज्ञान कहता है, कोई पदार्थ तोड़ा नहीं जा सकता इस अर्थ में। नष्ट नहीं किया जा सकता।

लेकिन संबंध नष्ट किया जा सकता है। मेरे और आपके बीच की मैत्री के नष्ट होने में कौन-सी कठिनाई है! मैत्री नष्ट हो सकती है; बिलकुल नष्ट हो सकती है। अस्तित्व में फिर वह कहीं ढूंढ़े से न मिलेगी।

संबंध नष्ट हो सकते हैं, पदार्थ नष्ट नहीं होता। वायु पदार्थ है, मन संबंध है। मन संबंध है शरीर और आत्मा के बीच। शरीर और आत्मा के बीच जो दोस्ती है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा के बीच जो मैत्री हो गई है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा के बीच जो राग है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा के बीच जो लेश्या है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा के बीच जो संबंध है, रिलेशनशिप है, उसका नाम मन है।

निश्चित ही, यह संबंध शरीर की तरफ से आत्मा की तरफ नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर जड़ है। अगर मैं अपनी कार को प्रेम करने लगता हूं, तो भी मैं यह नहीं कह सकता कि मेरी कार मुझे प्रेम करती है। कार की तरफ से मेरी तरफ कोई प्रेम नहीं हो सकता। इकतरफा है; वन वे ट्रैफिक है।

तो संबंध में भी एक बात खयाल रख लेना कि जब दो व्यक्तियों के बीच मैत्री होती है, तो टू वे ट्रैफिक, डबल ट्रैफिक है। यहां से भी कुछ जाता है, वहां से भी कुछ आता है। लेकिन जब एक व्यक्ति और एक वस्तु के बीच संबंध होता है, तो वन वे ट्रैफिक है। एक ही तरफ से जाता है; दूसरी तरफ से कुछ आता नहीं।

तो संबंध भी यह इस तरह का है, जैसा कि एक व्यक्ति और वस्तु के बीच होता है; दो व्यक्तियों के बीच नहीं। एक तरफ चेतना है भीतर, और दूसरी तरफ पदार्थ है शरीर। चेतना की तरफ से ही यह संबंध है।

और ध्यान रहे, इकतरफा संबंध में एक सुविधा है, उसे तोड़ने में सदा ही इकतरफा निर्णय काफी होता है। दो तरफा संबंध तोड़ने में कठिनाई है। अगर मैं किसी व्यक्ति को प्रेम करूं, तो झंझट है तोड़ते वक्त; क्योंकि दूसरी तरफ से भी कुछ लेन-देन हुआ है। और जब तक दोनों राजी न हो जाएं तोड़ने को, तब तक तोड़ने में कठिनाई है, अड़चन है।

वस्तु के साथ संबंध तोड़ने में कोई भी अड़चन नहीं है, क्योंकि इकतरफा है। मेरा ही निर्णय था कि संबंधित हूं। मेरा ही निर्णय है कि संबंधित नहीं हूं, बात समाप्त हो गई। वस्तु जाकर किसी अदालत में मुकदमा नहीं करेगी कि यह आदमी मुझे डायवोर्स कर रहा है, कि यह तलाक मांगता है। वस्तु को कोई प्रयोजन नहीं है। जब मेरा संबंध था, तब भी वस्तु का कोई संबंध मुझसे नहीं था।

इसलिए ध्यान रखें कि मन एक संबंध है, पहली बात, वस्तु नहीं। दूसरी बात, मन इकतरफा संबंध है–चेतना का शरीर की तरफ; शरीर से चेतना की तरफ नहीं। शरीर की तरफ से चेतना की तरफ कोई संबंध की धारा ही नहीं है। सारी धारा चेतना से शरीर की तरफ है।

इसलिए अर्जुन जब कहता है, वायु जैसा है, तो कई भूलें करता है। उपमा में भूलें अक्सर हो जाती हैं। मन पदार्थ नहीं है, इसलिए वायु जैसा नहीं है। इसलिए वायु तो किसी दिन पकड़ ली जाएगी, पकड़ ली गई; मन को किसी भी दिन नहीं पकड़ा जा सकेगा। संबंध को पकड़ने का कोई उपाय नहीं है। इसीलिए विज्ञान मन को मानने तक को राजी नहीं है। उसका कारण है कि उसकी लेबोरेटरी में, उसकी प्रयोगशाला में कहीं भी मन पकड़ा नहीं जा सकता।

एक आदमी को काटकर, विज्ञान सब तरफ से डिसेक्ट करके खोज लेता है। हड्डी मिलती है, मांस मिलता है, मज्जा मिलती है, खून मिलता है, पानी मिलता है, लोहा, तांबा सब मिलता है। एक चीज नहीं मिलती, मन। इसलिए विज्ञान कहता है, हमने खोज करके देख लिया, मन नहीं मिलता। और जो नहीं मिलता है, वह नहीं है। वही भूल तर्क की फिर हो रही है। क्योंकि जो नहीं मिलता, जरूरी नहीं है कि नहीं हो। हो सकता है, खोजने का ढंग ऐसा है कि वह नहीं मिल सकता।

अगर आपके हृदय की काट-पीट करके हम खोजें कि प्रेम है या नहीं; और न मिले–नहीं मिलेगा; अब तक नहीं मिला। कभी नहीं मिलेगा। फेफड़ा खोलकर पूरा देख लेंगे। फुफ्फुस मिलेगा, हवा को फेंकने का यंत्र मिलेगा। प्रेम-व्रेम नहीं मिलेगा।

इसलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि फेफड़ा है, हृदय है ही नहीं। नाहक हृदय-हृदय की लोग बातें किए जा रहे हैं! एक कविता है हृदय, यह है नहीं।

लेकिन क्या आप मानने को राजी होंगे कि प्रेम नहीं है? सबका अनुभव है कि है। मां जानती है कि है। बेटा जानता है कि है। मित्र जानते हैं कि है। प्रेमी जानते हैं कि है।

अनुभव में सबके है प्रेम, लेकिन फिर भी प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होगा। और अगर प्रयोगशाला के वैज्ञानिक से आपने जिद्द की, तो आप ही गलत सिद्ध होंगे। असल में प्रयोगशाला जिन साधनों का उपयोग कर रही है, वे वस्तुओं के पकड़ने के साधन हैं, उनसे संबंध पकड़ में नहीं आते। संबंध छूट जाते हैं।

संबंध वस्तु नहीं है। और इसलिए संबंध की एक खूबी है कि संबंध बन सकता है और विनष्ट हो सकता है। संबंध शून्य से पैदा होता है और शून्य में विलीन हो जाता है।

इस बात को ठीक से समझ लें।

वस्तु कभी भी पैदा नहीं होती; वस्तु सदा है। और कभी नष्ट नहीं होती; सदा है। न तो वस्तु का कोई सृजन होता है और न कोई विनाश होता है; सिर्फ रूपांतरण होता है। जो अभी पानी था, वह बर्फ बन जाता है। जो बर्फ था, वह पानी बन जाता है। जो पानी था, वह भाप बन जाता है। जो अभी पहाड़ पर जमा था, वह समुद्र में पिघलकर बह जाता है। जो अभी शरीर था, वह कल खाद बन जाता है। जो अभी खाद है, वह कल शरीर बन जाता है। जो अभी पौधे में बीज की तरह प्रकट हुआ है, वह कल आपका खून बन जाता है। जो अभी आपके भीतर खून है, कल जमीन में समाकर फिर किसी बीज में प्रवेश कर जाएगा। सब रूपांतरण हैं; लेकिन मूल नहीं खोता है। मूल थिर है।

आइंस्टीन का खयाल स्वीकृत हुआ है, और वह यह कि इस जगत में जितनी वस्तु है, जितना मैटर है, वह सीमित है। क्योंकि उसमें नया नहीं जुड़ सकता और पुराना घट भी नहीं सकता। वह कितना ही विराट हो, लेकिन पदार्थ सीमित है। हम नाप पाएं कि न नाप पाएं; हमारे नापने के साधन छोटे पड़ जाएं, लेकिन पदार्थ सीमित है, क्योंकि उसमें नया एडीशन नहीं हो सकता। एक पानी की बूंद ज्यादा नहीं जोड़ी जा सकती इस जगत में!

आप कहेंगे, हम हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिलाकर पानी बना सकते हैं। बिलकुल बना सकते हैं। लेकिन हाइड्रोजन आक्सीजन को ही मिलाकर बना सकते हैं। वह हाइड्रोजन आक्सीजन का एक रूप है। वह कोई नई घटना नहीं है। आज तक एक रेत का टुकड़ा भी हम नया नहीं बना सकते हैं। न बना सके हैं और न बना सकेंगे।

पदार्थ जैसा है, है। जितना है, है। उतना ही है, उतना ही रहेगा। लेकिन संबंध रोज नए बन सकते हैं, और रोज खो जा सकते हैं।

इस जमीन पर जितने लोग रहे हैं, उनके शरीरों में जितना था, वह सब अभी इस जमीन में मौजूद है; जमीन का वजन कम-ज्यादा नहीं होता। हम कितने ही लोग पैदा हों, मर जाएं, जमीन का वजन उतना ही रहता है। हम जब जिंदा रहते हैं, तब भी उतना रहता है; जब मर जाते हैं, तब भी जमीन का वजन उतना ही रहता है। हमारे शरीर में से कुछ खोता नहीं। हां, जमीन में गिर जाता है, रूप बदल जाते हैं।

लेकिन हमारे संबंधों का क्या होता है? कोई प्रेम किया था। कोई फरिहाद किसी शीरी को प्रेम किया था। उस प्रेम का क्या हुआ? जब वह प्रेम चल रहा था, तब भी जमीन पर कोई चीज बढ़ी नहीं थी, और जब वह प्रेम नहीं है, तब भी जमीन पर कोई चीज घटी नहीं है। वह प्रेम क्या था? वह चला है, यह निश्चित है। क्योंकि वह प्रेम इतना बड़ा भी हो जाता है कभी कि कोई अपने पदार्थगत शरीर की गर्दन काट दे। प्रेमी अपने को मार डाल सकता है। प्रेम इतना हो सकता है गहन कि शरीर को तोड़ दे, जीवन को नष्ट कर दे। तो वह प्रेम नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह है तो है ही। और कभी-कभी तो जीवन से भी ज्यादा वजनी हो जाता है। लेकिन वह है क्या?

वह संबंध है, रिलेशनशिप है। संबंध की एक खूबी है कि वह खो सकता है; बन भी सकता है, मिट भी सकता है।

इसलिए अर्जुन का यह खयाल कि वायु की तरह है यह मन, ठीक नहीं है। उदाहरण करीब-करीब सूचक है, लेकिन ठीक नहीं है। प्रामाणिक नहीं है। जमता है, फिर भी बहुत गहरे में नहीं जमता है। मन एक संबंध है।

और यह भी बात अर्जुन की ठीक नहीं है–हम सबके मन में हैं ये बातें, इसलिए मैं कह रहा हूं–यह भी बात अर्जुन की ठीक नहीं है कि इस मन को थिर नहीं किया जा सकता। क्योंकि एक और गहरे नियम की आपको मैं बात कर दूं, जो भी चीज चंचल हो सकती है, वह थिर हो सकती है। और जो चीज थिर नहीं हो सकती, वह चंचल भी नहीं हो सकती। जो भी दौड़ सकता है, वह खड़ा हो सकता है। और जो खड़ा भी नहीं हो सकता, वह दौड़ भी नहीं सकता। अगर आप दौड़ सकते हैं, तो आप खड़े हो सकते हैं। दौड़ने की क्षमता साथ में ही खड़े होने की क्षमता भी है। भला आप कभी खड़े न हुए हों, दौड़ते ही रहे हों, और अब ऐसी आदत बन गई हो कि आपको खयाल ही न आता हो कि खड़े कैसे होंगे! बन जाता है।

मैंने सुना है कि एक आदमी पक्षाघात से, पैरालिसिस से परेशान है दस साल से। घर के भीतर बंद पड़ा है; उठ नहीं सकता। लेकिन एक दिन रात, आधी रात अंधेरे में आग लग गई। सारे घर के लोग बाहर निकल गए। वह पैरालिसिस से करीब-करीब मरा हुआ आदमी, वह भी दौड़कर बाहर आ गया। जब वह दौड़कर बाहर आया, तो लोग चकित हुए। वे तो हैरान थे कि अब क्या होगा, उसको निकाला नहीं जा सकता। लेकिन जब उसको लोगों ने दौड़ते देखा, तो मकान की आग तो भूल गए लोग। दस साल से वह आदमी हिला नहीं था, वह दौड़ रहा है!

लोगों ने कहा, यह क्या हो रहा है। चमत्कार, मिरेकल! आप, और दौड़ रहे हैं! उस आदमी ने नीचे झांककर अपने पैर देखे। उसने कहा, मैं दौड़ कैसे सकता हूं! वापस गिर गया। मैं दौड़ ही कैसे सकता हूं? दस साल से…!

लेकिन अब वह कितना ही कहे कि दौड़ नहीं सकता, लेकिन वह खाट से मकान के बाहर आया है। फिर नहीं उठ सका वह आदमी। पर क्या हुआ क्या? इस बीच आ कैसे गया?

वह जो एक कंडीशनिंग थी, एक खयाल था कि मैं उठ नहीं सकता, चल नहीं सकता, आग के सदमे में भूल गया। बस, इतना ही हुआ। एक शॉक। और वह भूल गया पुरानी आदत। दौड़ पड़ा।

सौ में से नब्बे पक्षाघात के बीमार मानसिक आदत से बीमार हैं। सौ में से नब्बे! शरीर में कहीं कोई खराबी नहीं है। सौ में से नब्बे, मैं कह रहा हूं। लेकिन एक आदत है।

और मन के मामले में तो सौ में से सौ दौड़ने के बीमार हैं। पक्षाघात से उलटा। इतने जन्मों से मन को दौड़ा रहे हैं कि अब यह सोच में भी नहीं आता कि मन खड़ा हो सकता है? नहीं हो सकता। कौन कहता है, नहीं हो सकता? यह मन ही कह रहा है।

तो अर्जुन जो सवाल पूछ रहा है, वह अगर ठीक से हम समझें, तो अर्जुन नहीं पूछ रहा है। अर्जुन अभी है भी नहीं, पूछेगा कैसे! मन ही पूछ रहा है। मन ही कह रहा है कि मैं कभी खड़ा नहीं हो सकता। मैं कभी खड़ा हुआ ही नहीं। मैं सदा चलता ही रहा। दौड़ना मेरी प्रकृति है। चंचलता मेरा स्वभाव है। मैं चंचलता ही हूं; मैं खड़ा नहीं हो सकता।

लेकिन ध्यान रहे, इस जगत में प्रत्येक शक्ति अपनी विपरीत शक्ति से जुड़ी होती है। जो जीएगा, वह मरेगा। जीने के साथ मरना जुड़ा रहता है। यहां कोई भी शक्ति अकेली पैदा नहीं होती, पोलेरिटी में पैदा होती है। अस्तित्व पोलर है, ध्रुवीय है। यहां हर चीज अपने विपरीत से जुड़ी है, विपरीत के बिना अस्तित्व में नहीं हो सकती।

अगर हम दुनिया से प्रकाश समाप्त कर दें, तो आप सोचते होंगे, अंधेरा ही अंधेरा रह जाएगा। आप गलत सोचते हैं। अगर हम दुनिया से प्रकाश समाप्त कर दें, अंधेरा तत्काल समाप्त हो जाएगा। आप कहेंगे, फिर क्या होगा? कुछ भी हो, अंधेरा नहीं हो सकता। हां, बात असल यह है कि प्रकाश आप समाप्त न कर पाएंगे। इसलिए पता करना मुश्किल है। प्रकाश और अंधेरा संयुक्त अस्तित्व हैं।

और आसान होगा समझना, अगर दुनिया से हम गर्मी समाप्त कर दें, तो क्या आप सोचते हैं, सर्दी बच रहेगी? ऊपर से तो ऐसे ही दिखाई पड़ता है कि गर्मी बिलकुल समाप्त हो जाएगी, तो एकदम ठंडक हो जाएगी दुनिया में। लेकिन ठंडक गर्मी का एक रूप है, गर्मी के साथ ही समाप्त हो जाएगी। वह दूसरा पोल है।

अगर आप सोचते हों कि हम सब पुरुषों को समाप्त कर दें, तो दुनिया में स्त्रियां ही स्त्रियां रह जाएंगी, तो आप गलत सोचते हैं। अगर सब पुरुषों को समाप्त कर दें, स्त्रियां तत्काल समाप्त हो जाएंगी। या सब स्त्रियों को समाप्त कर दें, तो पुरुष तत्काल समाप्त हो जाएंगे। वे पोलर हैं। वे एक-दूसरे के छोर हैं। एक ही साथ हो सकते हैं, अन्यथा नहीं हो सकते।

क्या आप सोचते हैं, इस दुनिया में हम शत्रुता समाप्त कर दें, तो मित्रता ही बचेगी? तो आप गलत सोचते हैं। हालांकि बहुत लोग इसी तरह सोचते हैं कि दुनिया से शत्रुता समाप्त कर दो, तो मित्रता ही मित्रता बच जाएगी! उन्हें कोई पता नहीं है अस्तित्व के नियमों का। जिस दिन दुनिया से शत्रुता समाप्त होगी, उसी दिन मित्रता समाप्त हो जाएगी। मित्रता जीती है शत्रुता के साथ।

दुनियाभर के शांतिवादी हैं, वे कहते हैं कि दुनिया से युद्ध बंद कर दो, तो शांति ही शांति हो जाएगी। वे गलत कहते हैं। उन्हें जीवन के नियम का कोई पता नहीं है। अगर आप युद्ध समाप्त करते हैं, उसी दिन शांति भी समाप्त हो जाएगी। पोलर है। अस्तित्व एक-दूसरे से बंधा है, विपरीत से बंधा है।

ऊपर से सोचने में ऐसा लगता है कि ठीक है, पुरुष को समाप्त करने से…हम सब पुरुषों की छाती में छुरा भोंक दें। तो स्त्रियों की छाती में तो छुरा भोंक ही नहीं रहे, तो वे तो बचेंगी ही! पर आपको पता ही नहीं है। वे तत्काल विनष्ट हो जाएंगी। इधर पुरुष समाप्त होंगे, उधर स्त्रियां कुम्हलाएंगी, सूखेंगी और विदा हो जाएंगी। जिस दिन आखिरी पुरुष समाप्त होगा, उस दिन आखिरी स्त्री मर जाएगी।

अस्तित्व पोलर है, ध्रुवीय है। हर चीज अपने विपरीत के साथ जुड़ी है।

इसलिए अर्जुन का यह कहना कि मन चंचल है, इसलिए ठहर नहीं सकता, गलत है। चंचल है, इसीलिए ठहर सकता है। चंचल है, इसीलिए ठहर सकता है। अगर जीवन के नियम का बोध हो, तो कहना था ऐसा कि मन का स्वभाव चूंकि चंचल है, हे मधुसूदन, इसलिए मेरी बात समझ में आ गई। मन ठहर सकता है।

यह ठीक नियमयुक्त बात होती, लेकिन बड़ी एब्सर्ड। अगर अर्जुन ऐसा कहता कि मन चंचल है, इसलिए मैं समझ गया कि ठहर सकता है, तो हमें भी बड़ी दिक्कत पड़ती गीता समझने में। हम कहते, यह अर्जुन कैसा पागल है! जब मन चंचल है, तो ठहरेगा कैसे?

तो यह तो हमें, यह सिलोजिज्म, यह तर्क-वाक्य तो ठीक मालूम पड़ता है कि मन चंचल है, मधुसूदन, इसलिए, देअर फोर, ठहर नहीं सकता। यह तो बिलकुल तर्कयुक्त मालूम पड़ता है।

लेकिन मैं आपसे कहता हूं, यह तर्कयुक्त है, लेकिन सत्य नहीं है। सत्य वचन तो यह होगा कि चूंकि मन चंचल है, मधुसूदन, इसलिए, देअरफोर, ठहर सकता है। यह सत्य होगा। क्योंकि आदमी जीवित है, इसलिए मर सकता है। अगर आपने कहा, चूंकि आदमी जीवित है, इसलिए नहीं मर सकता, तो गलत होगा। अगर आपने कहा कि आदमी स्वस्थ है, इसलिए बीमार नहीं पड़ सकता, तो गलत है। अगर आप कहें कि आदमी स्वस्थ है, इसलिए बीमार पड़ सकता है, तो ठीक है।

असल में स्वस्थ आदमी ही बीमार पड़ता है। अगर आप इतने बीमार हो जाएं कि डाक्टर कह दे, स्वास्थ्य रत्तीभर नहीं बचा, तो फिर आप बीमार न पड़ सकेंगे, ध्यान रखना। मरा हुआ आदमी कभी बीमार पड़ते देखा है आपने? आप कह सकते हैं कि यह मुर्दा बीमार पड़ गया? मुर्दा बीमार पड़ता ही नहीं। पड़ ही नहीं सकता। जिंदा ही बीमार पड़ सकता है। स्वास्थ्य हो, तो ही आप बीमार पड़ सकते हैं। असल में बीमारी का पता ही इसलिए चलता है कि स्वास्थ्य का भी पता चलता है। यह पोलर है, यह ध्रुवीय है।

पर अर्जुन को इस सत्य का कोई बोध नहीं है। हम जैसा ही उसका मन है। जिस तर्क-विधि से हम चलते हैं, उसी तर्क-विधि से वह चलता है। हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति से मेरा इतना प्रेम है कि कभी झगड़ा नहीं होगा। बस, हम गलत बातों में पड़ गए। जिससे प्रेम है, उससे झगड़ा होगा। पोलर हैं। जब आपका किसी से प्रेम हो, तो आप समझ लेना कि आप झगड़े का एक नाता स्थापित कर रहे हैं।

लेकिन हमारा तर्क नहीं है ऐसा। हम कहते हैं, मेरा इतना प्रेम है कि झगड़ा कभी नहीं होगा। बस, मूढ़ता में पड़े आप। आपको जिंदगी की पोलेरिटी का कोई पता नहीं है। जिससे जितना ज्यादा प्रेम है, उससे उतनी ही कलह की संभावना है। अगर कलह से बचना हो, तो कृपा करके प्रेम से बच जाना। और आप सोचते हों कि प्रेम-प्रेम हम सम्हाल लेंगे, और कलह-कलह से बच जाएंगे, तो आप निपट अंधकार में हो। आपको जिंदगी में यह कभी भी रास्ते पर नहीं लाएगी बात।

जिसको शत्रुता से बचना हो, उसको मित्रता से बच जाना चाहिए। लेकिन हम करते हैं कोशिश कि मित्र बना लें, ताकि शत्रुता से बच जाएं। प्रेम फैला दें, ताकि संघर्ष न हो। अपना बना लें, ताकि कोई पराया न रहे। जो जितना गहरा आपका अपना है, उससे आपको उतने ही पराएपन के क्षण उपलब्ध होंगे। जो आपके जितना निकट है, किन्हीं क्षणों में वह आपको इस पृथ्वी पर सर्वाधिक दूर मालूम पड़ेगा।

मगर यह जीवन का गहरा नियम है, जो हमारे सामान्य हिसाब में नहीं आता। और इसलिए हम जिंदगीभर गलती किए चले जाते हैं। जिंदगीभर गलती किए चले जाते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मेरा तो मेरी पत्नी से इतना प्रेम है, फिर कलह क्यों होती है? मैं कहता हूं, इसीलिए। और तो कोई कारण नहीं है।

अभी एक मौका आया। कोई आठ साल पहले एक महिला ने मुझे आकर कहा था कि मेरे पति से बहुत कलह होती है। और मेरा प्रेम इतना है! मेरा यह प्रेम-विवाह है, और हमने जी-जान लगाकर यह शादी की है। न मेरे घर के लोग पक्ष में थे, न उस घर के लोग पक्ष में थे। और जब तक हम घर के लोगों से लड़ रहे थे, तब तक ही हमारा प्रेम रहा। और जब से हमने शादी की, तब से हम दोनों लड़ रहे हैं! इतना प्रेम था कि हम जीवन देने को तैयार थे, और अब हालत ऐसी है कि एक साथ बैठना मुश्किल हो गया है। बात क्या है? मैंने कहा, यही बात है। इतना प्रेम होगा, तो यही फल होगा।

फिर आठ साल बाद वह महिला मुझे मिली। मैंने उससे पूछा, कहो, कलह कैसी चल रही है? उसने कहा, कलह! कलह अब बिलकुल नहीं चलती, क्योंकि प्रेम ही नहीं रहा। अब कलह भी नहीं चलती। उसने जो शब्द मुझे कहे, वे बहुत ठीक थे। उसने कहा, अब कलह भी नहीं चलती है। अब तो कोई संबंध ही नहीं रहा। बात ही शांत हो गई। प्रेम ही नहीं बचा; अब कलह भी नहीं बची!

जितना हम मन के भीतर जाएंगे या जीवन के भीतर जाएंगे, उतना इस विरोधी तत्व को पाएंगे। रिपल्शन और अट्रैक्शन, विकर्षण और आकर्षण एक साथ हैं। राग और विराग एक साथ हैं। विरोध साथ में खड़े हैं।

इसलिए अर्जुन लगता है कि ठीक पूछ रहा है; ठीक नहीं पूछ रहा है। और अर्जुन को यह भी खयाल नहीं है कि कृष्ण जो कह रहे हैं, वह कोई सिद्धांत नहीं कह रहे हैं। अगर कृष्ण कोई सिद्धांत कह रहे हैं, तो अर्जुन कृष्ण को हरा देगा। अगर कृष्ण कोई सिद्धांत कह रहे हैं, तो अर्जुन कृष्ण को हरा देगा। क्योंकि सिद्धांत के माध्यम से मन को हल करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि सब सिद्धांत मन की संततियां हैं। सिद्धांत के द्वारा मन को हराने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि सब सिद्धांत मन ही पैदा करता है और निर्मित करता है।

अभी मैं एक महानगर में था। एक पंडित, बड़े सज्जन, भले आदमी। एक ही बुराई, कि पंडित। वे मुझे मिलने आए। मैंने उनसे पूछा, क्या कर रहे हैं आप जिंदगीभर से? उन्होंने कहा कि मेरा तो एक ही काम है कि मैं जैन साधु-साध्वियों को सिद्धांत की शिक्षा देता हूं। मैंने कहा, कितनों को दिया? उन्होंने कहा, सैकड़ों जैन साधु-साध्वियों को मैंने निष्णात किया है। शास्त्र का बोध दिया है। मैंने कहा, इतने सैकड़ों जैन साधु-साध्वी आपने बना दिए, लेकिन आप अब तक साधु नहीं हुए? उन्होंने कहा, मैं तो नौकरी बजाता हूं। मैंने कहा, तो कभी सोचा कि नौकरी बजाने वाला पंडित जिन साधु-साध्वियों को पैदा किया होगा, वे किस हालत के होंगे? नौकर से भी गए-बीते होंगे! कितनी महीने की तनख्वाह मिलती है! वे कहने लगे, ज्यादा नहीं देते। पैसा तो जैनियों पर बहुत है, लेकिन डेढ़ सौ रुपए महीने से ज्यादा नहीं देते! मैंने कहा, तुमने जो साधु-साध्वी पैदा किए, उनकी कीमत कितनी होगी? डेढ़ सौ रुपए महीने का मास्टर साधु-साध्वी पैदा कर रहा है! सिद्धांत की शिक्षा दे रहा है!

मैंने कहा, जिन सिद्धांतों को तुम लोगों को समझाते हो, उनके सत्य का तुम्हें खुद कोई अनुभव नहीं हुआ? उसने कहा कि बिलकुल नहीं। मैं तो अपने डेढ़ सौ रुपए के लिए करता हूं।

अगर अर्जुन किसी पंडित के पास होता, तो पंडित को हरा देता। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा है, वे जीवन की गहराइयां हैं। हमारी ऐसी उलझन है। लेकिन कृष्ण के साथ कठिनाई है, क्योंकि कृष्ण कोई सिद्धांत की बात नहीं कर रहे, सत्य की बात कर रहे हैं। इसलिए अर्जुन कितनी ही कठिनाइयां उठाए, वे सत्य के सामने एक-एक जड़ सहित उखड़कर गिरती चली जाएंगी। उसने उचित कठिनाई उठाई है। मनुष्य की वह कठिनाई है। मनुष्य के मन की कठिनाई है। लेकिन जिस आदमी के सामने उठाई है, उसे सिद्धांतों में कोई रस नहीं है।

इसीलिए गीता में एक अभूतपूर्व घटना घटी है कि गीता में कृष्ण ने इतने सिद्धांतों का उपयोग किया है कि दुनिया में जितने सिद्धांत हो सकते हैं, करीब-करीब सबका। और इसलिए सभी सिद्धांतवादी पंडितों को गीता बड़े काम की मालूम पड़ी है, क्योंकि सब अपने मतलब की बात गीता से निकाल सकते हैं। इसीलिए तो गीता पर इतनी टीकाएं हो सकी हैं। एकदम एक-दूसरे से विरोधी!

लेकिन उन टीकाओं में एक भी कृष्ण को समझने की सामर्थ्य की टीका नहीं है। उसका कारण है। क्योंकि जो भी टीका निकाल रहा है, उसका सिद्धांत पहले से तय है, गीता को जानने के पहले से तय है। और अपने सिद्धांत को वह गीता पर थोप देता है। जब कि कृष्ण का कोई सिद्धांत नहीं है। कृष्ण का कुछ सत्य जरूर है। और वह उस सत्य तक पहुंचाने के लिए किसी भी सिद्धांत का उपयोग कर सकते हैं। इसलिए वे भक्ति की भी बात करते हैं, ज्ञान की भी, कर्म की भी, ध्यान की भी, योग की भी। वे सारी बात करते चले जाते हैं। ये सब सिद्धांत सिद्धांत की तरह विरोधी हैं, सत्य की तरह अविरोधी हैं। सत्य की तरह कोई विरोध नहीं है, लेकिन सिद्धांत की तरह भारी विरोध है।

इसलिए गीता पर जितना अनाचार हुआ है, ऐसा अनाचार किसी पुस्तक पर पृथ्वी पर नहीं हुआ है। क्योंकि एक सिद्धांत को मानने वाला जब गीता की व्याख्या करता है, तो वह अपने सिद्धांत को सब सिद्धांतों की गर्दन काटकर गीता पर थोप देता है। एक गर्दन बचा लेता है। जो उसके सिद्धांत से कहीं मिलता है, उसको बचा लेता है। बाकी सब की गर्दन कलम कर देता है। गीता की हत्या हो जाती है।

गीता सिद्धांतवादी शास्त्र नहीं है, गीता एक सत्य की उदघोषणा है। सिद्धांत का मोह नहीं है। इसलिए विपरीत सिद्धांतों की एक साथ चर्चा है–एक साथ। गीता तर्क का शास्त्र नहीं है। अगर तर्क का शास्त्र होता, तो कंसिस्टेंट होता, एक संगति होती उसमें।

गीता जीवन का शास्त्र है। जितना विरोधी जीवन है, उतनी ही विरोधी गीता है। जितना जीवन पोलर है, स्वविरोधी है, उतने ही गीता के वक्तव्य स्वविरोधी हैं।

और कृष्ण से ज्यादा तरल आदमी, लिक्विड आदमी खोजना कठिन है। वे कहीं भी बह सकते हैं। पत्थर की तरह नहीं हैं कि बैठ गए एक जगह। पानी की तरह बह सकते हैं। या और भी उचित होगा कि भाप की तरह हैं। बादल की तरह कोई भी रूप ले सकते हैं। कोई ढांचा नहीं है।

इसलिए अर्जुन दिक्कत में पड़ता जाता है। अपनी ही शंकाएं उठाकर दिक्कत में पड़ता जाता है। क्योंकि उसकी प्रत्येक शंका उसके मन की सूचना देती है कि वह कहां खड़ा है। इस प्रश्न ने अर्जुन की स्थिति को बहुत साफ किया है।

अर्जुन को मन के ऊपर किसी चीज का उसे कोई अनुभव नहीं है। तर्क-बुद्धि उसके पास गहरी है। सोचता-समझता है, लेकिन भाव के जगत में उसका कोई प्रवेश नहीं है। नियम की बात करता है, लेकिन गहरे, अल्टिमेट नियम का उसे कोई भी अहसास नहीं है।

इस वक्तव्य ने अर्जुन के अर्जुन की स्थिति बहुत साफ की है। और कृष्ण के लिए अब उसकी स्थिति को हल करना प्रतिपल आसान होता चला जाएगा। सबसे बड़ी कठिनाई यह है, वह कठिनाई है, डायग्नोसिस की, निदान की। और जहां तक शरीर की डायग्नोसिस, बीमारियों का पता लगाने का सवाल है, हम उपाय कर सकते हैं। लेकिन जहां तक मन की बीमारियों का सवाल है, उनको कन्फेस करवाना पड़ता है। और कोई उपाय नहीं है। उनको बीमार से ही स्वीकृति दिलवानी पड़ती है।

फ्रायड एक काम करता रहा है–करीब-करीब कृष्ण वही काम कर रहे हैं–फ्रायड एक काम करता रहा है, और फ्रायड के पीछे चलने वाले मनसविदों का जो समूह है, साइकोएनालिस्ट्स का, वे भी एक काम करते रहे हैं। वे मरीज को पर्दे के पीछे एक कोच पर लिटा देते हैं। और उससे कहते हैं, जो तुझे बोलना है बोल। कुछ भी छिपाना मत, जो तेरे मन में आए, बोलते जाना। कभी वह गीत गाता है। कभी गालियां बकता है। कभी भजन बोलने लगता है। जो तेरे मन आए, बस मन में आए, उसको तू शब्द देते जाना। तू यह भी मत फिक्र करना कि वह ठीक है कि गलत।

पर्दे के पीछे छिपा हुआ मनोवैज्ञानिक बैठा रहता है। वह आदमी पर्दे के पार अनर्गल–हमें अनर्गल दिखाई पड़ता है बाहर से, उसके भीतर तो उसकी भी संगति है–वह बोलता चला जाता है। जैसा हम सब अंदर बोलते रहते हैं, अगर जोर से बोल दें, बस वैसे ही। वह बोलता चला जाता है।

एक-दो दिन, तीन दिन तो थोड़ा रोकता है, कोई-कोई बात छिपा जाता है। लगता है कि नहीं बोलनी चाहिए, तो छिपा लेता है। लेकिन तीन-चार दिन में वह धीरे-धीरे राजी हो जाता है, हल्का हो जाता है, बहने लगता है, और बोलने लगता है। फिर मनोवैज्ञानिक पीछे बैठकर खोज करता रहता है कि उसके मन का सार मिल जाए।

कृष्ण भी अर्जुन से ऐसी बातें कह रहे हैं कि अर्जुन के मन का सार मिल जाए। अर्जुन का मन साफ प्रकट हो जाए। इस वक्तव्य में अर्जुन के मन का सार साफ हुआ है, अर्जुन के मन का निदान हुआ है। अब कृष्ण चिकित्सा में ज्यादा व्यवस्था से लग सकते हैं।

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। 35।।

हे महाबाहो, निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन, अभ्यास अर्थात स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है।

कृष्ण ने अर्जुन की मनोदशा को देखकर कहा, निश्चय ही अर्जुन, मन बड़ी मुश्किल से वश में होने वाला है।

यह जो कहा, निश्चय ही, यह मनुष्य के मन की स्थिति के लिए कहा है। निश्चय ही, जैसा मनुष्य है, ऐज वी आर, जैसे हम हैं; हमें देखकर, निश्चय ही मन बड़ी मुश्किल से वश में होने वाला है। जैसा आदमी है, अगर हम उसे वैसा ही स्वीकार करें, तो शायद मन वश में होने वाला ही नहीं है।

लेकिन–और उस लेकिन में गीता का सारा सार छिपा है– लेकिन अर्जुन, अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है।

जैसा मनुष्य है, अगर हम उसे अनछुआ, वैसा ही रहने दें, और चाहें कि मन वश में हो जाए, तो मन वश में नहीं होता है। क्योंकि जैसा मनुष्य है, वह सिर्फ मन ही है। मन के पार उसमें कुछ भी नहीं है। मन के पार उसका कोई भी अनुभव नहीं है। मन को वश में करने की कोई भी कीमिया, कोई भी तरकीब उसके हाथ में नहीं है। लेकिन–और लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है; और ये दो शब्द, अभ्यास और वैराग्य गीता के प्राण हैं–लेकिन अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है। अभ्यास और वैराग्य का आधार आपको समझा दूं, फिर हम अभ्यास और वैराग्य को समझेंगे।

अभ्यास और वैराग्य का पहला आधार तो यह है कि मनुष्य जैसा है, उससे अन्यथा हो सकता है।

मन की बात ही नहीं कर रहे वे। वे कह रहे हैं, मन को छोड़ो। तुम जैसे हो, ऐसे में मन वश में नहीं होगा। पहले हम तुम्हें ही थोड़ा बदल लें। पहले हम तुम्हें ही थोड़ा बदल लें, फिर मन वश में हो जाएगा। अभ्यास और वैराग्य इस बात की घोषणा है कि मनुष्य जैसा है, उससे अन्यथा भी हो सकता है। मनुष्य जैसा है, उससे भिन्न भी हो सकता है। मनुष्य जैसा है, वैसा होना एकमात्र विकल्प नहीं है, और विकल्प भी हैं। हम जैसे हैं, यह हमारी एकमात्र स्थिति नहीं है, और स्थितियां भी हमारी हो सकती हैं।

अगर हम एक बच्चे को जंगल में छोड़ दें पैदा हो तब, तो क्या आप सोचते हैं, वह बच्चा कभी भी मनुष्य की कोई भी भाषा बोल पाएगा! कोई भाषा नहीं बोल पाएगा। ऐसा नहीं कि वह आपके घर में पैदा हुआ था, तो गुजराती बोलेगा जंगल में! कि हिंदुस्तान की जमीन पर पैदा हुआ था, तो हिंदी बोलेगा। कि अंग्रेज के घर में पैदा हुआ था, तो अंग्रेजी बोलेगा। नहीं, वह कोई भाषा नहीं बोलेगा। शायद आप सोचते होंगे, वह कोई नई भाषा बोलेगा। वह नई भाषा भी नहीं बोलेगा। वह भाषा ही नहीं बोलेगा।

उन्नीस सौ बीस में बंगाल में दो बच्चियां पकड़ी गईं, जिनको भेड़िए उठाकर ले गए थे और उन्होंने उनको बड़ा कर लिया। भेड़िए शौकीन हैं। और कई दफे दुनिया में कई जगह उन्होंने यह काम किया है। बच्चों को उठा ले जाते हैं, फिर उनको पाल लेते हैं। एक बच्ची ग्यारह साल की थी और एक तेरह साल की थी, जब वे पकड़ी गईं। और पहली दफा हैरानी हुई, वे कोई भाषा नहीं बोलती थीं। भाषा की तो बात दूसरी है, वे दो पैर से खड़ी भी नहीं हो सकती थीं। वे चारों हाथ-पैर से ही चलती थीं।

अभी कुछ दिन पहले, पांच-सात वर्ष पहले यू.पी. में एक बच्चा पकड़ा गया जंगल में, वह भी भेड़ियों ने पाल लिया था। वह कोई चौदह साल का था, वह भी कोई भाषा नहीं बोल सकता था। उसका नाम रख लिया था राम, पकड़ने के बाद। छः महीने कोशिश करके बामुश्किल उससे राम निकलवाया जा सका कि वह राम कह सके। लेकिन छः महीने में वह मर गया। और चिकित्सक कहते हैं कि वह राम कहलवाने की कोशिश ही उसकी जान लेने वाली सिद्ध हुई।

चौदह साल का बच्चा एक शब्द नहीं बोलता था। क्या हुआ? चारों हाथ-पैर से चलता था। छः महीने मसाज कर-करके उसको बामुश्किल खड़ा कर पाए। नहीं तो रीढ़ उसकी सीधी नहीं होती थी, फिक्स्ड हो गई थी। चार हाथ-पैर से वह भेड़ियों की तेजी से दौड़ता था! लेकिन खड़ा करके वह ऐसा चलता था कि रत्ती-रत्ती मुश्किल हो गया। क्या हो गया?

आदमी वही हो जाता है, जिस आयाम में उसका अभ्यास करवा दिया जाता है; वही हो जाता है। वह भेड़िए के साथ रहा, भेड़िए का अभ्यास हो गया। अभ्यास कर लिया, वही हो गया।

आदमी एक अनंत संभावना है, इनफिनिट पासिबिलिटी। हम जो हो गए हैं, वह हमारी एक पासिबिलिटी है सिर्फ। वह हमारी एक संभावना है, जो हम हो गए हैं। अगर हम दुनिया की मनुष्य जातियों को भी देखें, तो हमको पता चलेगा कि अनंत संभावनाएं हैं।

ऐसे कबीले हैं आज भी, जो क्रोध करना नहीं जानते हैं। आप हैरान होंगे! आप कहेंगे, क्रोध! क्रोध तो हर मनुष्य करता है। आपको सब मनुष्यों का पता नहीं है।

ऐसे कबीले हैं आज भी आदिवासियों के, जो क्रोध करना नहीं जानते। क्योंकि क्रोध भी अभ्यास से आता है; अचानक नहीं आ जाता। बाप कर रहा है, मां कर रही है, घर भर क्रोध कर रहा है, और तख्ती भी लगी है कि क्रोध करना पाप है घर में। और सब चल रहा है। वह बच्चा सीख रहा है, वह कंडीशन हो रहा है। वह जवान होकर बच्चा कहेगा कि ऐसा हो ही कैसे सकता है कि आदमी क्रोध न करे! तो यह सिखावन है। बच्चा तो एक तरल चीज थी। आपने उसे एक दिशा में ढाल दिया। कठिनाई हो गई। वह अड़चन हो गई।

ऐसे कबीले हैं, जिनमें संपत्ति का कोई मोह नहीं है; कोई मोह नहीं है। संपत्ति का मोह ही नहीं है। अभी एक छोटे-से कबीले की खोज हुई, तो बड़े चकित हो गए लोग, उस कबीले में संपत्ति की मालकियत का खयाल ही नहीं है। किसी आदमी को यह खयाल नहीं है कि यह मेरी जमीन है। किसी को खयाल नहीं है कि यह मेरा मकान है।

लेकिन कबीले का पूरा ढंग और है कंडीशनिंग का। कोई अपना मकान नहीं बनाता, सारा गांव मिलकर उसका मकान बनाता है। जब भी गांव में एक नए मकान की जरूरत पड़ती है, पूरा गांव मिलकर एक मकान बनाता है। गांव में कोई नया आदमी रहने आ जाता है, तो पूरा गांव एक मकान बना देता है। वह आदमी उसमें रहने लगता है। पूरा गांव घर-घर से चीजें देकर उसके घर को जमा देता है पूरा। वह घर का उपयोग करने लगता है।

उस कबीले में खयाल ही नहीं है प्राइवेट ओनरशिप का, कि व्यक्तिगत संपत्ति भी कोई चीज होती है। आप उस कबीले में कम्युनिज्म न फैला सकेंगे। क्योंकि कम्युनिज्म पोलेरिटी है। व्यक्तिगत संपत्ति हो, तो कम्युनिज्म का खयाल पैदा हो सकता है; नहीं तो पैदा नहीं हो सकता। उस कबीले में आप किसी को नक्सलाइट नहीं बना सकते हैं। कोई उपाय नहीं है। उस कबीले में किसी को खयाल ही नहीं है कि वस्तु और व्यक्ति में कोई संबंध मालकियत का होता है।

और हम मरे जाते हैं अपरिग्रह का सिद्धांत दोहरा-दोहराकर। वह कुछ हल होता नहीं। अपरिग्रही से अपरिग्रही भी…अब दिगंबर जैन मुनि नग्न रहते हैं।

दो दिगंबर जैन मुनि शिखरजी के पास के वन में झगड़ पड़े। अब झगड़ा लोग कहते हैं कि या तो स्त्री के कारण होता है या धन के कारण। न उनके पास स्त्री है, न धन है, जहां तक जानकारी है। झगड़ा हो गया, तो जो पिच्छी वगैरह रखते हैं साथ में, उससे एक-दूसरे की खोपड़ी पर हमला बोल दिया! लोगों ने, गांव वालों ने आकर छुड़ाया। पुलिस भी आ गई। और तब बड़ी हैरानी हुई कि वह जो पिच्छी का डंडा था, उसमें सौ-सौ के नोट अंदर भरे हुए थे। उसी पर झगड़ा हो गया था। वह बंटवारे में झगड़ा हो गया था। गए थे शौच को जंगल में, लेकिन वह बंटवारे में झगड़ा हो गया!

पुलिस थाने ले गई। आस-पास के गांव के जैनी हाथ-पैर जोड़कर उनको छुड़वाए, कि हमारी इज्जत का खयाल करो। कोई क्या कहेगा! दिगंबर मुनि हैं! चर्चा बंद करो। रिश्वत खिलाई मुनि को छुड़ाने के लिए।

बड़े आश्चर्य की बात है, एक आदमी नग्न खड़ा होने की हिम्मत जुटा पाया, तो पिच्छी में रुपए के बंडल रखे हुए है! कंडीशनिंग है। कंडीशनिंग भारी है। मगर यह एक रूप ही है। यह अनिवार्य नहीं है। ऐसे रूप आदमी के हैं, जहां उनको पता भी नहीं है।

अब यहां हम सोचते हैं। जिस ढंग से हम सोचते हैं, वह एक विकल्प है। यह मैंने इसलिए उदाहरण के लिए आपको कहा कि अन्य विकल्प सदा हैं।

अभ्यास का मूल आधार यह है कि आप जैसे हैं, उससे अन्यथा हो सकते हैं। अभ्यास का अर्थ है, ऐसी विधि, जो आपको अन्यथा कर देगी। अब जैसे एक आदमी है, वह कहता है कि मेरे हाथ में बहुत तकलीफ है, आपरेशन करवाना है। आपरेशन आप करिएगा, तो मैं न करवा पाऊंगा, मैं हाथ को खींच लूंगा। इतनी तकलीफ होगी। हम कहते हैं, कोई फिक्र नहीं। हम तुम्हें अनस्थेसिया दे देंगे, पहले बेहोशी की दवा दे देंगे, फिर आपरेशन कर लेंगे। फिर तुम्हें तकलीफ न होगी।

अर्जुन कहता है, मन बड़ा चंचल है। कृष्ण कहते हैं, बिलकुल ठीक कहते हो। हम पहले अभ्यास करवा देंगे। फिर मन चंचल न रहेगा। हम पहले तुम्हें बदल देंगे। हम सारी स्थिति बदल देंगे।

अभ्यास का अर्थ है, सारी बाह्य और आंतरिक स्थिति की बदलाहट। अभ्यास का अर्थ है, वे जो संस्कार हैं, कंडीशनिंग है, वह जो हमारे भीतर पुराना जमा हुआ प्रवाह है, उसको जगह-जगह से तोड़कर नई दिशा दे देना।

और दूसरा शब्द कृष्ण उपयोग करते हैं, वैराग्य। उनका अर्थ तो मैं सांझ आपसे कहूंगा। अभी मैं सिर्फ मूल आधार आपको कह दूं।

अभ्यास का अर्थ है, आप जैसे हैं, उससे अन्यथा करने की विधियां, मेथड्स। और आप जैसे हैं, वह भी किन्हीं विधियों के कारण हैं, अपने कारण नहीं। अगर आप गुजराती बोलते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि गुजराती का अभ्यास करवा दिया गया है। और कोई कारण नहीं है। आप अंग्रेजी बोल सकेंगे, अगर अंग्रेजी का अभ्यास करवा दिया जा सके। कोई अड़चन नहीं है।

जो भी आप हैं, वह अभ्यास का फल है। लेकिन अभी जो अभ्यास करवाया है, वह समाज ने करवाया है। और समाज बीमारों का समूह है। अभी जो अभ्यास करवाया है, वह भीड़ ने करवाया है। और भीड़ मनुष्य की निम्नतम अवस्था है। इसलिए आप उस भीड़ के एक हिस्से हैं। अभी आप हैं नहीं। अभी आप जो भी हैं, वह भीड़ का ही हिस्सा हैं। और भीड़ ने जो करवा दिया है, वह आप हैं।

अभ्यास का अर्थ है, व्यक्तिगत चेष्टा उस दिशा में, जहां आप नए हो सकें, जहां आप भिन्न हो सकें।

यह मन की धारा, जो बहुत चंचल दिखाई पड़ती है, वह चंचल इसीलिए है कि पूरी व्यवस्था उसे चंचल कर रही है।

हमारी हालत करीब-करीब ऐसी है कि मैंने सुना है, एक कुत्ते के मन में खयाल आ गया कि वह दिल्ली चला जाए। सारी दुनिया दिल्ली जा रही थी। उसने सोचा कि कुत्ते क्यों पीछे रह जाएं! और जब सभी दिल्ली पहुंच जाएंगे, तो कुत्तों के अधिकारों का क्या होगा? फिर वह कुत्ता कोई छोटा-मोटा कुत्ता भी नहीं था, एक एम.पी. का कुत्ता था। नेता का कुत्ता था। दिन-रात दिल्ली जाओ, दिल्ली आओ की बात सुनाई पड़ती थी। दिल्ली जाने की विधियां और उपाय और सीढ़ियां ईजाद किए जाते थे; आदमियों के कंधों पर कैसे चढ़ो, लोगों की आंखों में धूल कैसे झोंको, सब उसने सुन लिया था। वह ठीक ट्रेंड हो गया था।

एक दिन उसने अपने गुरु को कहा–गुरु, मालिक जो उसका एम.पी. था–कहा कि अब बहुत देर हुई जा रही है। अब मुझे आशीर्वाद दें, मैं भी दिल्ली जाऊं! उसने कहा कि तू क्या करेगा दिल्ली जाकर? कुत्ता होकर और तेरी ऐसी हिम्मत?

समझ गया था। वह कुत्ता तो बहुत दिन से रहता था; वह सब राज समझ गया था। उसने कहा कि आप देखते नहीं कि आपका वह जो विरोधी पहुंच गया है इस बार, वह कुत्तों से बेहतर है? बदतर है। नेता ने कहा कि बिलकुल ठीक। यह बात तो बिलकुल ठीक है। तू जा। तू दिल्ली जा। उसने कहा, रास्ता कुछ बता दें। मैं कैसे दिल्ली जाऊं!

तो रास्ता, नेता ने कहा कि सूत्र सरल है। जिस तरकीब से मैं जाता रहा, वही तरकीब तू भी उपयोग कर। क्योंकि वह अनुभव में लाई गई तरकीब है। तरकीब उसने बता दी कि जब अमीर कोई दिखाई पड़े, अमीर कुत्ता…!

कुत्तों में भी अमीर और गरीब होते हैं। अमीर कुत्ता आपने देखा होगा; कार में भी चलता है; सुंदरतम स्त्रियों की गोद में भी बैठता है; शानदार गलीचों पर विश्राम भी करता है! आदमी को रोटी न मिले, उसको तो विशेष भोजन मिलता है। वह अमीर कुत्ता है।

तो उसने कहा, जब अमीर कोई कुत्ता दिखे, तो कहना कि सावधान। गरीब कुत्ते इकट्ठे हो रहे हैं; तुम्हारे लिए खतरा है। मैं तुम्हारी रक्षा कर सकता हूं। और जब कोई गरीब कुत्ता दिखे, तो फौरन कहना कि मर जाओगे। लूटे जा रहे हो। शोषण किया जा रहा है। लाल झंडा हाथ में लो। मैं तुम्हारा नेता हूं। इन अमीरों को ठीक करना जरूरी है। और जब तक–जैसा कि अहमदाबाद की सड़कों पर मैंने दो-चार जगह लिखा देखा: जनता जागे, सेठिया भागे–उसने कहा होगा, कुत्ते जागे, सेठिया भागे। तैयार हो जाओ!

पर उस कुत्ते ने कहा कि महाराज, यह तो ठीक है। लेकिन अमीर और गरीब कुत्ते दोनों साथ मिल जाएं, तो मैं क्या करूं? तो कहना, मैं सर्वोदयी हूं! मैं सबके उदय में विश्वास करता हूं। गरीब का भी उदय हो, अमीर का भी उदय हो। सूरज पूरब से भी निकले, पश्चिम से भी साथ निकले। हम सर्वोदयी हैं।

सूत्र पूरा हो गया। कुत्ते ने प्रचार शुरू कर दिया। और नेता ने कहा, ध्यान रखना, जोर से बोले चले जाना। कुत्ते ने कहा, यह तो अभ्यास है हमारा। इसमें कोई चिंता न करें। इसमें हम नेताओं को मात दे देते हैं। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। हम चिल्लाते रहेंगे। नेता ने कहा, अगर चिल्लाते रहे, तो दिल्ली पहुंच जाओगे। बस, चिल्लाने में कुशलता चाहिए। इसकी फिक्र मत करना कि क्या चिल्ला रहे हो। जोर से चिल्ला रहे हो, इसका खयाल रखना। दूसरे को दबा देना चिल्लाने में, बस!

कुत्ते ने शुरू कर दिया काम। महीने पंद्रह दिन में उसने काशी के कुत्तों को राजी कर लिया। नेता से कहा कि अब मैं जाता हूं। आप वहां खबर करवा दें दिल्ली में कि मैं आ रहा हूं। ठहरने का इंतजाम, सब व्यवस्था करवा दें। कितनी देर लगेगी, नेता ने पूछा, तेरे पहुंचने में? कुत्ते ने कहा कि कुत्ते की चाल से जाऊंगा; और सर्वोदयी कहकर फंस गया हूं। तो वे कुत्ते कह रहे हैं, पैदल जाओ। झंझट हो गई। वे कहते हैं, सर्वोदयी, पैदल जाओ, पदयात्रा करो! फंस गया झंझट में; नहीं तो ट्रेन में निकल जाता। अब तो पैदल ही जाना पड़ेगा। कम से कम महीनाभर लग जाएगा।

खबर कर दी गई। दिल्ली के कुत्ते बड़े प्रसन्न हुए। काशी का कुत्ता आता है; धर्मतीर्थ से आता है। जरूर कुछ ज्ञान लेकर आता होगा! काम पड़ेगा। लेकिन बड़ी मुश्किल तो यह हुई कि एक महीने के बाद उन्होंने स्वागत का इंतजाम किया, द्वार-दरवाजे बनाए। लेकिन कुत्ता सात ही दिन में पहुंच गया। वे तो इंतजाम कर रहे थे एक महीने बाद का, कुत्ता सात दिन में दिल्ली पहुंच गया। बड़े चकित हुए।

उन्होंने कहा, बिलकुल समझ नहीं तुम्हें। बेवक्त आ गए। हम सब इंतजाम किए थे। मेयर को राजी किए थे। फूलमाला पहनवाते। यह तुमने क्या किया! सब विरोधी पार्टी के नेताओं को इकट्ठा कर रहे थे कि फूलमाला पहनाते। तुम यह क्या किए? इतनी जल्दी आ गए बेवक्त। कोई तैयारी नहीं है।

उस कुत्ते ने कहा कि मैं क्या कर सकता हूं? काशी से निकला; एक मिनट रुक नहीं सका कहीं। जिस गांव में पहुंचा, उसी गांव के कुत्ते इस बुरी तरह पीछे लग जाते कि मैं जान बचाकर गांव के बाहर होता। वे दूसरे गांव के बाहर तक जब तक मुझे छोड़ते, तब तक दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते। मैं ठहरा ही नहीं, रुका ही नहीं, विश्राम नहीं किया। बस, भागता ही चला आ रहा हूं! और कहते हैं, इतना ही कहकर वह कुत्ता मर गया, क्योंकि इतना थक गया था।

दिल्ली आमतौर से कब्र बनती है पहुंचने वालों की। बड़ी कब्र है। दौड़-दौड़कर किसी तरह पहुंचते हैं वहां; गिरकर मर जाते हैं। शायद मरने के लिए पहुंचते हैं या किसलिए पहुंचते हैं, कुछ कहना कठिन है। मर गया वह कुत्ता। पर एक राज की बात बता गया कि ठहर नहीं पाया कहीं; दौड़ाते ही रहे लोग।

हम भी एक-एक आदमी के मन को बचपन से दौड़ा रहे हैं। सब मिलकर दौड़ा रहे हैं। सब मिलकर दौड़ा रहे हैं। बाप दौड़ा रहा है कि नंबर एक आओ। मां दौड़ा रही है कि क्या कर रहे हो, बगल के पड़ोसी का लड़का देख रहे हो? स्पोर्ट्स में नंबर एक आ गया। मां-बाप किसी तरह पीछा छोड़ेंगे, तो एक पत्नी उपलब्ध होगी। वह कहेगी, दौड़ो। देखते हो, बगल का मकान बड़ा हो गया। बगल की पत्नी के पास हीरों की चूड़ियां आ गईं। तुम देखते रहोगे ऐसे ही बैठे! दौड़ो। किसी तरह दौड़-दाड़कर और थोड़ी उम्र गुजारता है, तो बच्चे पैदा हो जाते हैं। वे कहते हैं कि क्या बाप मिले तुम भी! न घर में कार है, न टेलीविजन सेट है। कुछ भी नहीं है। बड़ी दीनता मालूम होती है। इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स पैदा हो रहा है हममें, स्कूल जाते हैं तो। दौड़ो।

पूरी शिक्षा, पूरा समाज, पूरी व्यवस्था दौड़ने के एक ढांचे में ढली हुई है। दिल्ली पहुंचो। दौड़ो, चाहे जान चली जाए, कोई फिक्र नहीं। दौड़ते रहो। ठहरना भर मत।

अगर इतने सारे अभ्यास में आदमी का मन ठहरने का स्थान नहीं पाता, किसी विश्रामगृह में नहीं रुक पाता, भागता ही चला जाता है; तो अगर अर्जुन एक दिन कह रहा है कृष्ण से कि यह मन बड़ा भागने वाला है, यह रुकता नहीं क्षणभर को, तो ठीक ही कह रहा है। हम सब का मन ऐसा है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह मन का ढंग सिर्फ एक संस्कारित व्यवस्था है। अभ्यास से इसे तोड़ा जा सकता है। अभ्यास से नई व्यवस्था दी जा सकती है। और वैराग्य से! क्यों? वैराग्य को क्यों जोड़ दिया? क्या अभ्यास काफी न था? अभ्यास की विधि बता देते कि इससे बदल जाओ।

वैराग्य इसलिए जोड़ दिया कि अगर वैराग्य न हो, तो आप विधियों का उपयोग न करेंगे। क्योंकि राग दौड़ाने की व्यवस्था है। राग के बिना कोई दौड़ता नहीं है। दिल्ली कोई ऐसे ही वैराग्य भाव से नहीं दौड़ता। राग, कुछ उपलब्धि की आकांक्षा, कुछ पाने का खयाल दौड़ाता है। कोई लक्ष्य, कोई राग दौड़ाता है।

तो राग चंचल होने का आधार है, तो वैराग्य विश्राम का आधार बनेगा। अभी हम सब राग में जीते हैं। हमारा पूरा समाज राग से भरा है। हमारी पूरी शिक्षा, समाज की व्यवस्था, परिवार, संबंध–सब राग पर खड़े हैं। इसलिए हम सब दौड़ते हैं। राग बिना दौड़े नहीं फलित हो सकता। राग यानी दौड़।

चंचलता का बुनियादी आधार राग है। इसलिए ठहराव का बुनियादी आधार वैराग्य होगा।

तो वैराग्य की शर्त जरूरी है, नहीं तो आप ठहरने को राजी नहीं होंगे। आप कहेंगे, ठहरकर मर जाएंगे। पड़ोसी तो ठहरेगा नहीं, वह तो दौड़ता रहेगा। आप मुझसे ही क्यों कहते हैं कि ठहर जाओ? अगर मैं ठहर गया, तो दूसरा तो ठहरेगा नहीं; वह पहुंच जाएगा!

जब तक आपको कहीं पहुंचने का राग है, जब तक कुछ पाने का राग है, तब तक मन अचंचल नहीं हो सकता, चंचल रहेगा। इसमें मन का क्या कसूर है! आप राग कर रहे हैं, मन दौड़ रहा है। मन आपकी आज्ञा मान रहा है।

इसलिए वैराग्य की शर्त पीछे जोड़ दी कि वैराग्य की भावना हो, तो फिर ऐसी विधियां हैं, जिनके अभ्यास से आदमी मन को विश्राम को पहुंचा सकता है।

संध्या हम वैराग्य के संबंध में और अभ्यास के संबंध में थोड़ी गहरी छान-बीन करेंगे। अभी तो पांच-सात मिनट के लिए सब राग छोड़कर, एक पांच-सात मिनट कीर्तन के वैराग्य में–क्योंकि कीर्तन कहीं ले जाएगा नहीं।

एक युवक मेरे पास आया था। वह पूछ रहा था, कीर्तन से फायदा क्या होगा? सोचते हैं आप, वह पूछता है, कीर्तन से फायदा क्या होगा?

फायदा! फायदे की भाषा में जो सोचता है, वह कीर्तन नहीं कर पाएगा। कीर्तन से फायदा होता है, लेकिन उसी को, जो फायदे की भाषा छोड़ देता है। कीर्तन तो वैराग्य के मन की दशा है। और कीर्तन एक अभ्यास भी है; एक अभ्यास मन को ठहराने का। शरीर नाचेगा। शब्द वाणी से निकलेंगे। और भीतर कोई बिलकुल ठहरा रहेगा। नाच के बीच कोई बिलकुल ठहरा रहेगा।

आप भी साथ दें। साथ देंगे, तो ही अनुभव हो पाएगा। और संकोच न करें, छोटे-से संकोच व्यर्थ ही बाधा डाल देते हैं। देखते हैं कि कहीं पड़ोस का आदमी क्या सोचने लगे! वह पहले ही से आपके बाबत बहुत अच्छा नहीं सोचता है। आप बिलकुल बेफिक्र रहें।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--3 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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