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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–16

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उदासी नहींउत्सव है भक्तिसोलहवां प्रवचन

दिनांक 16 मार्च, 1976,

श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्‍न सार :

*राजा हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद की पुराणकथा तथा होली उत्सव पर प्रकाश डालें।

 *यारी करके देखा यार मिलता नहीं, बेवफा मिलता है लेकिन बावफा मिलता नहीं।

 *भगवान इस समय हमारे और आपके बीच क्या करवाता है?    

 *जो अनुभव आपके सान्निध्य और प्रवचन में होता है, वह कैसे अधिक समय तक रहे?    

 *आपके जानने से पहले राधास्वामी संत से प्रभावित था,… मांस और शराब छोड़ने की शर्त थी। फिर अपकी किताब पढ़ी… बढ़िया अनूभव करता हूं। अब संन्यास… क्या केवल माला से ही काम नहीं चल सकता?  

 

 

 

पहला प्रश्र :

 

 

पुराण-कथा है, प्रहलाद नास्तिक राजा हिरण्यकश्यप के यहां जन्म लेता है, और फिर हिरण्यकश्यप अपनी नास्तिकता सिद्ध करने के लिए प्रहलाद को नदी में डुबोता है, पहाड़ से गिरवाता है, और अंत में अपनी बहन होलिका से पूर्णिमा के दिन जलवाता है। और आश्वर्य तो यही है कि वह सभी जगह बच जाता है, और प्रभु का गुणगान गाता है। और तब से इस देश में होली जालाकर होली का उत्सव मनाते हैं, रंग गुलाल डालते हैं, आनंद मनाते हैं। कृपा करके इस पुराण-कथा का मर्म हमें समझाइए।

 

 

पुराण इतिहास नहीं है। पुराण महाकाव्य है। पुराण में जो हुआ है, वह कभी हुआ है ऐसा नहीं, वरन सदा होता रहता है। तो पुराण में किन्हीं घटनाओं का अंकन नहीं है, वरन किन्हीं सत्यों की ओर इंगित है। पुराण शाश्वत है।

ऐसा कभी हुआ था कि नास्तिक के घर आस्तिक का जन्म हुआ? ऐसा नहीं, सदा ही नास्तिकता में ही आस्तिकता का जन्म होता है। सदा ही, और होने का उपाय ही नहीं है। आस्तिक की तरह तो कोई पैदा हो ही नहीं सकता, पैदा तो सभी नास्तिक की तरह होते हैं। फिर उसी नास्तिकता में आस्तिकता का फूल लगता है। तो नास्तिकता आस्तिकता की मां है, पिता है। नास्तिकता के गर्भ से ही आस्तिकता का आविर्भाव होता है।

हिरण्यकश्यप कभी हुआ या नहीं, मुझे प्रयोजन नहीं है। व्यर्थ की बातों में मुझे रस नहीं है। प्रहलाद कभी हुए, न हुए, प्रहलाद जानें। लेकिन इतना मुझे पता है, कि पुराण में जिस तरफ इशारा है, वह रोज होता है, प्रतिपल होता है, तुम्हारे भीतर हुआ है, तुम्हारे भीतर हो रहा है। और जब भी कभी मनुष्य होगा, कहीं भी मनुष्य होगा, पुराण का सत्य दोहराया जाएगा। पुराण सार- निचोड़ है, घटनाएं नहीं, इतिहास नहीं, मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित सत्य है। समझो। पहली बात–

साधारणत : तुम समझते हो कि नास्तिक आस्तिक का विरोधी है। वह गलत है। नास्तिक बेचारा विरोधी होगा कैसे! नास्तिकता को आस्तिकता का पता नहीं है। नास्तिकता आस्तिकता से अपरिचित है, मिलन नहीं हुआ। लेकिन आस्तिकता के विरोध में नहीं हो सकती नास्तिकता, क्योंकि आस्तिकता तो नास्तिकता के भीतर से ही आविर्भूत होती है। नास्तिकता जैसे बीज है और आस्तिकता उसी का अंकुरण है। बीज का अभी अपने अंकुर से मिलना नहीं हुआ। हो भी कैसे सकता है? बीज अंकुर से मिलेगा भी कैसे? क्योंकि जब अंकुर होगा तो बीज न होगा। जब तक बीज है तब तक अंकुर नहीं है। अकुंर तो तभी होगा जब बीज टूटेगा और भूमि में खो जाएगा। तब अंकुर होगा। जब तक बीज है तब तक अंकुर हो नहीं सकता। यह विरोधा भासी बात समझ लेनी चाहिए।

बीज से ही अंकुर पैदा होता है, लेकिन बीज के विसर्जन से, बीज के खो जाने से, बीज के तिरोहित हो जाने से। बीज अंकुर का विरोधी कैसे हो सकता है! बीज तो अंकुर की सुरक्षा है। वह जो खोल बीज की है, वह भीतर अंकुर को ही सम्हाले हुए है—ठीक समय के लिए, ठीक ऋतु के लिए, ठीक अवसर की तलाश में। लेकिन, बीज को अंकुर का कुछ पता नहीं है। अंकुर का पता हो भी नहीं सकता। और इसी अज्ञान में बीज संघर्ष भी कर सकता है अपने को बचाने का—डरेगा, टूट न जाऊं, खो न जाऊं, मिट न जाऊं! भयभीत होगा। उसे पता नहीं कि उसी की मृत्यु से महाजीवन का सूत्र उठेगा। उसे पता नहीं, उसी की राख से फूल उठनेवाले हैं। पता ही नहीं है। इसलिए बीज क्षमायोग्य है, उस पर नाराज मत होना। दयायोग्य है। बीज बचाने की कोशिश करता है। यह स्वाभाविक है अज्ञान में।

हिरण्यकश्‍यप पिता है। पिता से ही पुत्र आता है। पुत्र पिता में ही छिपा है। पिता बीज है। पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्‍यप को भी पता नहीं कि मेरे घर भक्त पैदा होगा। मेरे घर और भक्त! सोच भी नहीं सकता। मेरे प्राणों से आस्तिकता जन्मेगी—इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन प्रहलाद जन्मा हिरण्यकश्‍यप से। हिरण्यकश्‍ययप ने अपने को बचाने की चेष्टा शुरू कर दी। घबड़ा गया होगा। डरा होगा। यह छोटा-सा अंकुर था प्रहलाद, इससे हर भी क्या था? फिर यह अपना ही था, इससे भय भी क्या था! लेकिन जीवनभर की मान्यताएं, जीवनभर की धारणाएं दांव पर लग गई होंगी।

हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है। और ऐसा बाप और बेटे का ही सवाल नहीं है—हर आज कल के खिलाफ बगावत है, बीते कल के खिलाफ बगावत है। वर्तमान अतीत से छुटकारे की चेष्टा है। अतीत पिता है, वर्तमान पुत्र है। बीते कल से तुम्हारा आज पैदा हुआ है। बीता कल जा चुका, फिर भी उसकी पकड़ गहरी है, विदा हो चुका, फिर भी तुम्हारी गर्दन पर उसकी फांस है। तुम उससे छूटना चाहते हो : अतीत भूल-जाए, विस्मृत हो जाए। पर अतीत तुम्हें ग्रसता है, पकड़ता है।

वर्तमान अतीत के प्रति विद्रोह है। अतीत से ही आता है वर्तमान, लेकिन अतीत से मुक्त न हो तो दब जाएगा, मर जाएगा।

हर बेटा बाप से पार जाने की कोशिश है।

तुम प्रतिपल अपने अतीत से लड़ रहे हो–वह पिता से संघर्ष है।

ऐसा समझो–

सम्प्रदाय अतीत है, धर्म वर्तमान है। इसलिए जब भी कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होगा, सम्प्रदाय से संघर्ष निश्वित है। होगा ही। सम्प्रदाय यानी हिरण्यकश्यप, धर्म यानी प्रहलाद। निश्वित ही हिरण्यकश्यप शक्तिशाली है, प्रतिष्ठित है। सब ताकत उसके हाथ में है। प्रहलाद की सामर्थ्य क्या है?

नया-नया उगा अंकुर है। कोमल अंकुर है। सारी शक्ति तो अतीत की है, वर्तमान तो अभी- अभी आया है, ताजाताजा है। बल क्या है वर्तमान का? पर मजायही है कि वर्तमान जीतेगा और अतीत हारेगा, क्योंकि वर्तमान जीवन्तता है और अतीत मौत है।

हिरण्यकश्यप के पास सब था–फौज-फांटे थे, पहाड़-पर्वत थे। वह जो चहता, करता। जो चाहा उसने करने की कोशिश भी की, फिर भी हारता गया। शक्ति नहीं जीतती, जीवन जीतता है। प्रतिष्ठा नहीं जीतती, सत्य जीतता है। सम्प्रदाय पुराने हैं।

जीसस पैदा हुए, यशदइयों का सम्प्रदाय बहुत पुराना था, सूली लगा दी जीसस को। लेकिन मार कर भी मार पाए? इसीलिए पुराण की कथा है कि फेंका प्ररहलाद को पहाड़ से, डुबाया नदी में–नहीं डुबा पाए, नहब मार पाए। जलाया आग में–नहीं जला पाए। इससे तुम यह मत समझ लेना कि किसी को तुम आग में जलाओगे तो वह न जलेगा। नहीं, बड़ा प्रतीक है। जीसस को मारा, मरा गए। लेकिन मर पाए 7 मारकर भी तुम मार पाए 7

इसलिए मैं कहता हूं, पुराण तथ्य नहीं है, सत्य है। तुम अगर यह सिद्ध करने निकल जाओ कि आग जला न पाई प्रहलाद को, तो तुम गलती में पड़ जाओगे, तो तुम भूल में पड़ जाओगे, तो तुम्हारी दृष्टि भ्रान्त हो जाएगी। तुम अगर यह समझो कि पहाड़ से फेंका और चोट न खाई, तो तुम गलती में पड़ जाओगे। नहीं, बात गहरी है, इससे कहीं बहुत गहरी है। यह कोई ऊपर की चोटों की बात नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं, जीसस को सूली लगी, जीसस मर गए। सुकरात को जहर दिया, सुकरात मर गए। मैसूर को काटा, मैसूर मर गया। लेकिन मरा सच में या प्रतीत हुआ कि मर गए? जीसस अब भी जिंदा है–मारनेवाले मर गए। सुकरात अभी भी जिंदा है–जहर पिलानेवालों का कोई पता नहीं। सुकरात ने कहा था—जिन्होंने उसे जहर दिया–कि ध्यान रखो कि तुम मुझे मारकर भी न मार पाओगे, और तुम्हारे नाम की अगर कोई याद रहेगी तो सिर्फ मेरे साथ, कि तुमने मुझे जहर दिया था, तुम जियोगे भी तो मेरे नाम के साथ। निश्वित ही आज सुकरात के मारनेवालों का अगर कहीं कोई नाम है तो बस इतना ही कि सुकरात को उन्होंने मारा था।

थोड़ा सोचो! हिरण्यकश्यप का नाम होता, प्रहलाद के बिना? प्रहलाद के कारण ही। अन्यथा कितने हिरण्यकश्यप होते हैं, होते रहते हैं! आज हम जानते हैं, किसकी आज्ञा से जीसस को सूली लगी थी। उस वाइसरय का नाम याद है। हजारों वाइसराय होते रहे हैं दुनिया में, सब के नाम खो गए, लेकिन पायलट का नाम याद है; बस इतना ही नाम है कि उसका नाम था; जीसस को सूली दी थी, जीसस के साथ अमर हो गया।

जीसस को हम मारकर भी मार न पाए–इतना ही अर्थ है। जीवन को मिटाकर भी तुम मिटा नहीं सकते। सत्य को तुम छिपाकर भी छिपा नहीं सकते, दबाकर भी दबा नहीं सकते। उभरेगा, हजार-हजार रूपों में वह उभरेगा; हजार-हजार गुना बलशाली होकर उभरेगा। लेकिन सदा यह भांति होती है कि ताकत किनके हाथ में है। ताकत तो अतीत के हाथ में होती है। समाज के हाथ में होती है, सम्प्रदाय के हाथ में होती है, राज्य के हाथ में होती है। जब कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होता है तो कोंपल-सा कोमल होता है; लगता है जरा-सा धक्का दे देंगे, मिट जाएगा, लेकिन आखिर में वही जीतता है। उस कोमल-सी कोंपल की चोट से महासाम्राज्य गिर जाते हैं।

क्या बल है निर्बल का; निर्बल के बल राम। कुछ एक शक्ति है, जो व्यक्ति की नहीं है, परमात्मा की है। वही तो भक्त का अर्थ है। भक्त का अर्थ है जिसने कहा,’’ मैं नहीं हूं, तू है’’ ! भक्त ने कहा,’’ अब जले तो तू जलेगा; मरे तो तू मरेगा; हारे तो तू हारेगा; जीते तो तू जीतेगा। हम बीच से हटे जाते हैं।

भक्त का इतना ही अर्थ है कि भक्त बांस की पोंगरी की भांति हो गया; भगवान से कहता है,’’ गाना हो गा लो, न गना हो न गाओ–गीत तुम्हारे हैं। मैं सिर्फ बांस की पोंगरी हूं। तुम गाओगे तो बांसुरी जैसा मालूम होऊंगा; तुम न गाओगे तो बांस की पोंगरी रह जाऊंगा। गीत तुम्हारे हैं, मेरा कुछ भी नहीं। हां, अगर गीत में कोई बाधा पड़े, सुर भंग हो, तो मेरी भूल समझ लेना–बांस की पोंगरी कहीं इरछी-तिरछी है; जो मिला था उसे ठीक-ठीक बाहर न ला पाई; जो पाया था उसे अभिव्यक्त न कर पाई। भूल अगर हो जाए तो मेरी समझ लेना। लेकिन अगर कुछ और हो, सब तुम्हारा है’’ । भक्त का इतना ही अर्थ है।

नास्तिकता में ही आस्तिक पैदा होगा। तुम सभी नास्तिक हो। हिरण्यकश्यप बाहर नहीं है, न ही प्रहलाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रहलाद दो नहीं हैं–प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटनेवाली दो घटनाएं हैं। जब तक तुम्हारे मन में संदेह है–हिरण्यकश्यप है–तब तक तुम्हारे भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे–लेकिन तुम जला न पाओगे। उनको जलाने की कोशिश में तुम्हारे ही हाथ जल जाएंगे।

कितनी बार नहीं तुम्हारे मन में श्रद्धा का भाव उठता है, संदेह झपटकर पकड़ लेता है। कितनी बार नहीं तुम किनारे-किनारे आ जाते हो छलांग लगाने के, संदेह पैर में जंजीर बनकर रोक लेता है, क्या कर रहे हो! कुछ घर-द्वार की सोचो! कुछ परिवास की सोचो! कुछ

धन, प्रतिष्ठा, पद की सोचो! कुछ संसार की सोचो! क्या कर रहे हो? पैर रुक जाते हैं। सोचते हो, कल कर लेंगे, इतनी जल्दी क्या है!

क्रांति कितनी बार तुम्हारे भीतर नहीं उन्मेष लेती है! कितनी बार नहीं तुम्हारे भीतर क्रांति का झंझावात आता है—और तुम बार- बार संदेह का सा थ पकड़कर रुक जाते हो! यह तुम अपने भीतर खोजो। यह क था कुछ पुराण में खोजने की नहीं है। यह तुम्हारे प्राण में खोजने की है। यह पुराण तुम्हारे प्राणों में लिखा हुआ है।

मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि भाव तो उठा है, लेकिन बड़े संदेह भी हैं। मैं उनसे कहता हूं, भाव भी है, संदेह भी है, अब तुम किसके साथ जाने की सोचते हो? निर्णय तो तुम्हें करना पड़ेगा। क्या तुम सोचते हो, उस दिन तुम जाओगे जिस दिन कोई संदेह न होगा?    तब तो तुम कभी जा ही न सकोगे। संदेह भी है तुम्हारे भीतर, भाव भी है तुम्हारे भीतर, दोनों ही द्वार खुले हैं। संदेह भी है तुम्हारे भीतर, श्रद्धा भी है तुम्हारे भीतर, दोनों ही द्वार खुले हैं। संदेह भी है तुम्हारे भीतर, श्रद्धा भी है तुम्हारे भीतर, भाव भी है तुम्हारे भीतर, दोनों ही द्वार खुले हैं। संदेह भी है तुम्हारे भीतर श्रद्धा भी है तुम्हारे भीतर, भाव भी है तुम्हारे भीतर, दोनों ही द्वार खुले हैं। हिरण्यकश्‍यप, प्रहलाद दोनों ने पुकारा है—किसकी सुनोगे? कारण क्या है कि तुम संदेह की ही सुन लेते हो बार-बार? क्योंकि संदेह बलशाली मालूम होता है। सारा समाज, संसार साथ मालूम होता है। श्रद्धा निर्बल करती मालूम होती है—अकेले जाना होगा।

संदेह के राजपथ हैं, वहां भीड़ साथ है। श्रद्धा की पगडंडियां हैं, वहां तुम एकदम अकेले हो जाते हो, एकाकी। वही एकाकी हो जाना संन्यास है। अकेले होने का साहस ही श्रद्धा में ले जा सकता है।

हिरण्यकश्‍यप बलशाली है—वही उसकी निर्बलता सिद्ध हुई। प्रहलाद बिलकुल निर्बल है—वही उसका बल सिद्ध हुआ। लेकिन वह चलता रहा। उसका गीत न रुका, उसका भजन न रुका। बाप के विपरीत भी चलता रहा!

संदेह श्रद्धा का पिता है, शत्रु नहीं है। संदेह से ही श्रद्धा जन्मती है। और संदेह हजार चेष्टा करेगा कि श्रद्धा जन्मे न, क्योंकि श्रद्धा अगर जन्मी तो संदेह को खोना पड़ेगा, मिटना पड़ेगा। तो संदेह लड़ेगा आखिरी दम तक। उसी लड़ाई में वह विध्यंस करता है।

अब यह भी समझ लेना जरूरी है कि संदेह की क्षमता सिर्फ विध्यंस की है, सृजन की नहीं है। संदेह मिटा सकता है, बना नहीं सकता। संदेह के पास सृजनात्मक ऊर्जा नहीं है। वह कह सकता है, नहीं, लेकिन हां, हां उसके प्राणों में उठती ही नहीं। और बिना हां के जगत में कुछ निर्मित नहीं होता। सारा सृजन हां से है, सारा विध्यंस नहीं से है। तो नहीं हिंसात्मक है, हां अहिंसात्मक है। संदेह कहे चले जाता है, नहीं, मिटाने के उपाय सुझा देता है। कहता है,’’ यह छोटा-सा बालक श्रद्धा का—गिरा दो पहाड़ से! समाप्त करे यह झंझट बीच की! डुबा दो पानी में! आग में जला दो’’ !

मगर ध्यान रखना, जब भी सृजन और विध्यंस का संघर्ष होगा, विध्यंस हारेगा, सृजन जीतेगा। क्योंकि सृजन परमात्मा की ऊर्जा है। जब भी हां और ना में संघर्ष होगा, हां जीतेगी, ना हारेगी। ना में बल ही क्या है? कितनी ही बलशाली दिखाई पड़ती हो, लेकिन सारा बल नपुंसकता का है। बल है नहीं, झूठा दावा है।

तुमने कभी खयाल किया? तुम जब भी किसी बात पर नहीं कहते हो तो बड़ी शक्‍ति मालूम पड़ती है—नहीं के साथ शक्‍ति मालूम पड़ती है। और जब भी तुम हां कहते हो, ऐसा लगता है कहनी पड़ी। छोटा बच्चा कहता है मां से कि जरा बाहर खेल आऊं—”नहीं’’ ! बाहर खेल के लिए कह रहा था, कुछ’’ नहीं’’ कहने की बात भी न थी। पति कहता है, जरा, छुट्टी का दिन है, नदी पर मछली मार आऊं—”नहीं’’। क्या अड़चन थी? घर बैठे- बैठे मक्खी मारेगा! मछली ही मार लेता! कम-से-कम नदी के किनारे बैठने का थोड्ज्ञ सुख ले लेता। लेकिन’’ नहीं’’ त्वरित आती है।’’ नहीं’’ के साथ बल है।

खड़े हो तुम स्टेशन की खिड़की पर, टिकट मांगते हो। वह जो टिकटबाबू है, काम भी न हो तो रजिस्टर उलटने लगता है। वह कह रहा है,’’ खड़े रहो! कोई बड़े साहब, लाटसाहब… खड़े रहो’’ ! वह कह रहा है, नहीं! यह मौका उसको भी’’ नहीं’’ कहने का मिला है। इधर-उधर उलटेगा। तुमने भी बहुत बार यह किया है, खयाल करो। जब तुम्हें’’ नहीं’’ कहने का मौका मिलता है तो तुम छोड़ते नहीं। क्योंकि’’ नहीं’’ कहने से लगता है,’’ देखो! अटका दिया! मेरे पर निर्भर हो! अभी दूं टिकट तो ठीक, न दूं तो

ठीक’’ !’’ नहीं’’ के साथ एक नपुंसक बल की प्रतीति होती है जो कि झूठा है, वह अ सली बल नहीं है। अ ब इसे तुम खयाल करो। अगर तुम असली बलशाली हो तो तुम’’ नहीं’’ कहने से बल इकट्ठा करोगे ,

अगर पत्नी के प्रेम का बल है पति पर, तो वह’’ नहीं’’ कहकर अपनी ताकत आजमाएगी? जरूरत ही न रहेगी। जहां बल है, वहां’’ नहीं’’ की जरूरत ही नहीं है। प्रयोजन क्या है? जहां वास्तविक शक्‍ति है वहां तो’’ हां’’ से भी शक्‍ति ही प्रगट होती है। लेकिन तुम्हारी तकलीफ यह है कि वास्तविक शक्‍ति नहीं है,’’ नहीं’’ कहते हो, तो ही थोड़ी- सी झंझट खड़ी करके तुम शक्‍ति का अनुभव कर पाते हो।’’ हां’’ कहते हो, तो लगता है हां कहनी पड़ी।’’ हां’’ तुम मजबूरी में कहते हो। तुम्हें’’ हां’’ कहने का लुपत न आया। तुम्हें’’ हां’’ कहने का सलीका न आया। तुम्हारे पास ताकत नहीं है।

हिरण्यकश्‍यप प्रहलाद के सामने कमजोर मालूम होने लगा होगा। आनंद के सामने दुख सदा कमजोर हो जाता है—हो ही जाएगा, है ही कमजोर। दुख नकार है। आनंद विधायक ऊर्जा का आविर्भाव है। दुख में क भी कोई फूल खिले हैं? कांटे ही लगते हैं। प्रहलाद के फूल के सामने हिरण्यकश्‍यप का कांटा शर्मिंदा हो उठा होगा, लज्जा से भर गया होगा, वह ईष्या से जल गया होगा। यह ताजगी, यह कुआरापन, यह सुगंध, यह संगीत, ये प्रहलाद के भगवान के नाम पर गाए गए गीत—उसे बहुत बेचैन करने लगे होंगे। वह घबड़ाने लगा। उसकी सांसें घुटने लगीं। उसे एकबारगी वही सूझा जो सूझता है नकार को, नास्तिक को, निर्बल- दुर्बल को—वही सूझा उसे। मिटा दो इसे। विध्वंस सूझा।

दुनिया में दो तरह के बल हैं। या तो तुम कुछ बनाओ तो बल मालूम होता है। तुमने एक गीत लिखा…। कवियों से पूछो, जब उनका गीत पूरा हो जाता है तो वे कैसे हिमालय के शिखर पर उठ जाते हैं। कैसा आनंद तरंगायित हो उठता है! गतइrकार से पूछो, तब उसकी मूर्ति पूरी होती, तो वह स्रष्टा हो जाता है! किसी मां से पूछो, जब उसका गर्भ बड़ा होता है और जब उसके पेट में बच्चा बड़ा होने लगता है, तब उसकी पुलक, उसका आनंद पूछो!

एक स्त्री जब तक मां न बने, साधारण स्त्री है। गरिमा नहीं होती उसमें, गौरव नहीं होता। अभी कुछ पैदा ही नहीं किया, गरिमा कैसी? अभी वृक्ष में फल ही न लगे, गौरव कैसा? तब तक बांझपन घेरे रहता है। फिर एक बेटा हुआ, तब स्त्री में एक नया आविर्भाव होता है, तब वह साधारण स्त्री न रही, तब वह मां हो गई। मां होकर वह परमात्मा की संगी- साथी हो गई। सृजन दिया! कुछ पैदा किया! जीवन को जन्म दिया! मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष का मन स्त्री से सदा ही ईष्या से भरा है, क्योंकि वह जन्म नहीं दे सकता। गर्भ रखने की उसके पास सुविधा नहीं है। इसीलिए पुरुष और हजार चीजों को जन्म देता है—परिपूरक की तरह : कविता लिखता है, मूर्ति बनाता है, चित्र बनाता है, भवन बनाता है, ताजमहल खड़े करता है। लेकिन कितने ही ताजमहल खड़े करो, एक छोटे- से बच्चे का मुकाबला थोड़े ही कर सकेंगे। कितने ही सुंदर हों, तुम्हारी मूर्तियां कितनी ही कलापूर्ण हों, और तुम्हारे गीतों में कितना ही तरन्नुम हो और कितना ही छंद हो, छोटे- से बच्चे की आंखों का छंद तो न हो सकेगा। माना कि संगमरमर बहुत सुंदर है, मगर एक जीवंत बच्चे के सौंदर्य के सामने क्या होगा? एक साधारण-सी स्त्री तुम्हारे शाहजहांओं को मात कर देती है। बना लो तुम ताजमहल…!

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष निरंतर चेष्टा करता है कुछ बनाने की, ताकि वह भी अनुभव कर सके, मैं भी स्रष्टा हूं। लेकिन फिर भी तृप्ति वैसी नहीं होती जैसी स्त्री को होती है। इसलिए तो स्त्रियां कुछ नहीं बनातीं—न ताजमहल, न चित्र, न अजन्ता, न एलोरा। न उन्होंने गीत लिखे कालिदास जैसे, न चित्र बनाए पिकासो जैसे। स्त्रियां कुछ भी नहीं करतीं। बड़े हैरान होओगे तुम पाक शास्त्र भी पुरुष लिखते हैं। नयी शाक-सब्जी भी खोजनी हो तो पुरुष खोजते हैं, स्त्री उस झंझट में नहीं पड़ती। दुनिया के अच्छे और बड़े रसोइये स्त्रियां नहीं हैं, पुरुष हैं। रसोइये भी! हद हो गई! घर की साज-सज्जा करनी हो, इंटीरियर डैकोरेश्‍न करना हो, फर्नीचर जमाना हो, तो भी पुरुष विशेषज्ञ…!

स्त्री कुछ बनाती नहीं—बनाने की जरूरत अनुभव नहीं करती। मां होने में इतनी तृप्ति है : भर जाती है। सफल हो जाती है। फलवती हो जाती है, यानी सफल हो जाती है।

ध्यान रखना, दो उपाय हैं शक्‍ति अनुभव करने के—या तो सृजन या विध्यंस। अगर तुम सृजन के द्वारा शक्‍ति अनुभव न कर सके, तो फिर विध्वंस के द्वारा शक्‍ति अनुभव करोगे। हिटलर, मुसोलिनी, नेपोलियन और सिकंदर, ये विध्वंस के द्वारा शक्‍ति अनुभव कहते हैं, बुद्ध, सुकरात, जीसस, सृजन के द्वारा शक्‍ति अनुभव करते हैं।

शायद तुम्हें पता न हो: हिटलर मूलत: चित्रकार होना चाहता था। उसने आर्ट-अकेडमी में अर्जी भी दी थी, लेकिन स्वीकार न हुई। वह चोट उसे भारी पड़ी। वह कुछ बनाना चाहता था–चित्र, गतइrयां। वह चोट उसे भारी पड़ी। सारी जीवन-ऊर्जा उसकी विध्यंस से उलझ गई। यह भी शायद तुम्हें पता न हो कि इतने लाखों लोगों की हत्या के बाद भी रात जब उसे फुर्सत मिलती थी तो वह चित्र बनाता था। डांवाडोल था। हिटलर ने लिखा है कि आदमी को मारकर मिटाकर भी अपने बल का अनुभव होता है।

तुम जिनता बड़ा विध्चंस कर सको, उतना लगता है बलशाली हो; कोई फिक्र नहीं, बना नहीं सकता, मिटा तो सकता हूं।’’ सकने’’ का पता चलता है। बना नहीं सकता, कोई बात नहीं, मिटा सकता हूं! चलो, उतनी ऊंचाई न सही बनाने की, लेकिन मिटाने की ऊंचाई तो हो ही सकती है!

नास्तिकता विध्बंसात्मक है; आस्तिकता सृजनात्मक है। और आस्तिक और नास्तिक में जब भी संघर्ष होगा, नास्तिक की हार सुनिधित है। हां, आस्तिक असली होना चाहिए। कभी अगर तुम नास्तिक को जीतता हुआ देखो तो उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि आस्तिक नकली है। कभी अगर तुम नास्तिक को जीतता हुआ देखो तो उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि आस्तिक नकली है। नकली आस्तिकता से तो असली नास्तिकता भी जीत जाएगी, कम-से-कम असली तो है! इतना सत्य तो है वहां कि असली है। सत्य ही जीतता है।

तो अगर कभी तुम पाओ कि नास्तिकता जीत रही है तो उसका एक ही अर्थ होता है कि नास्तिकता प्रामाणिक होगी। आस्तिकता हार रही है तो उसका अर्थ हैस कि आस्तिकता झूठी होगी, आरोपित होगी, थोथी होगी, ऊपर से ढांपी होगी, पहल ली होगी, प्राणों से निकली न होगी; आचरण में होगी, अंतस में न होगी, ऊपर-ऊपर रंग-रोगन होगा, हृदय का जोड़ न होगा उसमें; प्राणों में जड़ें न होंगी। ऐसे बाजार से कागज के या प्लास्टिक के फूल खरीद लाए होओगे, वृक्षों पर लटका दिए होओगे–सारी दुनिया को धोखा हो जाए, लेकिन वृक्ष को थोड़े ही धोखा होगा। असली फूल जुडा है; वृक्ष की रसधार से एक है; एक ही गीत में, एक ही छंद में बद्ध है; दूर गहरी जड़ों तक जमीन से जुड़ा है; सुदूर आकाश से एक है; एक ही गीत में, एक ही छंद में बद्ध है; दूर गहरी जड़ों तक जमीन से जुडा है; सुदूर आकाश में चांदत्तारों से, सूरज से जुड़ा है। प्लास्टिक का फूल किसी से भी नहीं जुड़ा है; टूटा है; न जड़ों से, न जमीन से, आकाश से, न चादतारों से, न सूरज से–किसी से नहीं जुडा है।

तुम्हारी आस्तिकता अगर झूठी है तो नास्तिकता से हारेगी, तो तुम नास्तिक से डरोगे। तुम्हारी आस्तिकता अगर सच्ची है तो नास्तिक को करने दो विध्यंस, कर-करके खुद ही टूट जाएगा, कर-करके खुद ही हार जाएगा।

प्रहलाद अपने गीत गाए चला गया; अपनी गुनगुन उसने जारी रखी; अपने भजन में उसने अवरोध न आने दिया। पहाड़ से फेंका, पानी में डुबाया, आग में जलाया–लेकिन उसकी आस्तिकता पर आच न आई। उसके आस्तिक प्राणों में पिता के प्रति दुर्भाव पैदा न हुआ।

वही मृत्यु है आस्तिक की। जिस क्षण तुम्हारे मन में दुर्भाव आ जाए, उसी क्षण आस्तिक मर गया।

जीसस को सूली लगी। अंतिम क्षण में उन्होंने कहा,’’ हे परमात्मा! इस सभी को माफ कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं क्या कर रहे हैं। ये नासमझ हैं। कहीं ऐसा न हो कि तू इनको दण्ड दे दे। ये दया के योग्‍य हैं, दण्ड के योग्य नहीं।

शरीर मर गया, जीसस को मारना मुश्किल है। इस आस्त्किता को कैसे मारोगे; किस सूली पर लटकाओगे, किस आग में जलाओगे?

न, प्रहलाद अपना गीत गाए चला गया।

नास्तिकता विध्चंसात्मक है। यही अर्थ है कि हिरण्यकश्यप की बहन है अग्नि। हिरण्यकश्यप की बहन है अग्नि–वह बहन है, वह छाया की तरह साथ लगी है।

और आश्वर्य मत करो! पूछा है, आश्वर्य तो यही है कि वह सभी जगह बच जाता है और प्रभु के गुण गाता है। आश्वर्य मत करो। जिसे प्रभु का गुणगान आ गया, जिसने एक बार उस स्वाद को चख लिया, उस फिर कोई आग दुखी नहीं कर सकती। जिसने एक बार उसका सहारा पकड़ लिया, फिर उसे कोई बेसहारा नहीं कर सकता।

आश्वर्य मत करे। आश्वर्य होता है, यह स्वाभाविक है। पर आश्वर्य मत करो।

स्वभावत: तब से इस देश में उस परम विजय के दिन को हम उत्सव की तरह मनाते रहे हैं। होली जैसा उत्सव पृथ्वी पर खोजने से न मिलेगा। रंग गुलाल है। आनंद उत्सव है। तल्लीनता का, मदहोशी का, मस्ती का, नृत्य का, नाच कl-बड़ा सतरंगी उत्सव है। हंसी के फव्वारों का, उल्लास का, एक महोत्सव है। दीवाली भी उदास है, होली के सामने। होली की बात ही और है। ऐसा नृत्य करता उत्सव पृथ्वी पर कहीं नहीं है। ठीक भी है। एक गहन स्मरण तुम्हारे भीतर जगता रहे कि इस जगत में सबसे बड़ी विजय नास्तिकता के ऊपर आस्तिकता की विजय है; कि सदा-सदा बार-बार तुम याद करते रहो कि आस्तिकता यानी आनद।

आस्तिकता उदासी का नाम नहीं है। अगर आस्तिक उदास मिले तो समझना कि चूक हो गई है; बीमार है, आस्तिक नहीं है। अगर आस्तिक नृत्य से भरा हुआ न मिले तो समझना कि कहीं राह में भटक गया। कसौटी यही है।

धर्म उदासी नहीं है–नृत्य, उत्सव है। और होली इसका प्रतीक है। इस दिन’’ ना” मर’’ हां” की विजय हुई। इस दिन विध्यंस पर सृजन जीता। इस दिन अतीत पर वर्तमान विजयी हुआ। इस दिन शक्तिशाली दिखाई पड़नेवाले पर निर्बल-सा दिखाई पड़नेवाला बालक जीत गया। नये की, नवीन की, ताजे की विजय–अतीत पर, बासे पर, उधार पर। और उत्सव रंग का है। उत्सव मस्ती का है। उत्सव गीतों का है।

धर्म उत्सव है–उदासी नहीं। यह याद रहे। और तुम्हें नाचते हुए, परमात्मा के द्वार तक पहुंचना है। अगर रोओ भी तो खुशी से रोना। अगर आंसू भी बहाओ तो अहोभाव के बहाना। तुम्हारा रुदन भी उत्सव का ही अंग हो, विपरीत न हो जाए। थके-मांदे लंबे चेहरे लिए, उदास, मुर्दों की तरह, तुम परमात्मा को न पा सकोगे, क्योंकि यह परमात्मा का ढंग ही नहीं है। जरा गौर से तो देखो, कितना रंग उसने लिया है! तुम बेरंग होकर भद्दे हो जाओगे। जरा गौर से देखो, कितने फूलों में कितना रंग! कितने इंद्रधनुषों में उसका फैलाव है! कितनी हरियाली में, कैसा चारों तरफ उसका गीत चल रहा है! पहाड़ों में, पत्थरों में, पक्षियों में, पृथ्वी पर, आकाश में–सब तरफ उसका महोत्सव है! इसे अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, ऐसे ही हो जाना उससे मिलने का रास्ता है।

गीत गाते कोई पहुंचता है, नाचते कोई पहुंचता है–यही भक्ति का सार है।

 

दूसरा प्रश्‍न :

 

        याद रफीक हो तो रिफाकत जरूर है

        कसम तुझे अल्लाह की बनाखत जरूर है

        यारी करके देखा यार मिलता नहीं

        बेवफा मिलता है लेकिन बावफा मिलता नहीं।

 

 

तो फिर यारी करके नहीं देखा। हम भी देखे–मिलता है। तुम्हारी मानें कि अपनी ,     फिर यारी में कहीं कुछ भूल है। तुमने सोचा होगा, यारी की–कर नहीं पाए। बड़ी सरलता से आदमी अपने को समझा लेता है कि मैं तो सब कर रहा हूं, मिलता नहीं।

क्या किया है तुमने? यारी क्या की है? रोए? चीखे? तडुफे? छाती में तूफान उठा? झंझावात आई? अपने को चढ़ाने की तैयारी दिखाई? अपने को खोने का साहस किया? यारी क्या की अभी? अभी उसके आशिक हुए? लोग कुछ थोड़ा-बहुत कर लेते हैं और थोड़ा-बहुत भी करते हैं बहुत कुछ पाने की आशा में।

कहते हो—बेवफा मिलता है लेकिन बावफा मिलता नहीं। तुम बावफ हो? तुमने वफा पूरी की है? क्योंकि मेरे देखे तो ऐसा है, जो तुम हो वही मिलता है। जैसे तुम हो वैसा ही मिलता है। परमात्मा दर्पण की भांति है, तुम्हारे ही चेहरे को झलका देता है। अगर तुम बेईमान हो, बेईमान मिलेगा। अगर तुम धोखेबाज हो, धोखेबाज मिलेगा। अगर तुम चालबाजी कर रहे थे तो तुम जीत न पाओगे, वह तुमसे ज्यादा चालबाजी कर जाएगा।

सरल होकर जाओ! कुछ मांगते हुए मत जाओ, क्योंकि मांग में ही गड़बड़ है, क्योंकि मांगने का मतलब ही हुआ कि तुमने यार को न मांगा, कुछ और मांगा। लेकिन सभी की ऐसी आदत है। अहंकार का यह ढंग और शैली है कि अहंकार मान लेता है कि मैंने तो सब कुछ किया, लेकिन दूसरी तरफ से प्रत्युत्तर नहीं आ रहा है।

बच्चन का एक गीत है–सुनो इसे ठीक से।

 

इतने मत उन्मत्त बनो

जीवन मधुशाला से मधु पी

बन कर तन-मन मतवाला

गीत सुनाने लगा झूम कर

चूम- चूम कर मैं प्याला

शीश हिला कर दुनिया बोली

पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह

इतने मत उन्मत्त बनो!

बहुत लोग पी चेके हैं। ऐसी उधार शराब से, ऐसी बाजार में बिकनेवाली शराब से बहुत लोग सोच लिए हैं कि हो गए मतवाले! इतना सस्ता नहीं है मतवालापन। उसकी शराब खोजनी जरा कठिन बात है। अंगुर की नहीं, आत्मा की शराब जरा कठिन बात है।

इतने मत संतत बनो

जीवन मरघट पर अपने सब

अरमानाग की कर होली

चला राह में रोदन करता

चिताराख से भर झोली

शीश हिला कर दुनिया बोली

पृथ्वी पी हो चुका बहुत यह

इतने मत संतत बनो!

ये ढोंग न चलेंगे। दुनिया बहुत देख चुकी है। यारों की यारी, मतवालों का मतवालापन—सब ऊपर-ऊपर है। राख लगा लेने से कहीं भीतर का पता चलता है? ऊपर से शोरगुल मचाने से कहीं भीतर में कोई क्रांति घटित होती है?

और ध्यान रखना, जब भी तुम्हें लगे कि हाथ में कुछ न आया, तब समझ लेना कि अपेक्षा की थी कुछ। अपेक्षा के बिना विषाद होता ही नहीं है। तुमने वफा मांगी होगी तो बेवफा मिली। जब तुम मांगोगे कुछ, उससे विपरीत पाओगे। मांगना ही मत। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न प्ल। यह परमात्मा की तरफ जाने का रास्ता भिखमंगेपन का नहीं है, यह सम्राटों जैसा है। तुम मांगना मत, तो मिलता है। तुम मांगो कि तुमने ही बाधा खड़ी कर दी। तुम्हारी मांग ही अड़चन बन जाती है।

“यारी करके देखा यार मिलता नहीं’’ ।

नहीं, देखा ही नहीं। जिन ने यारी करके देखा उन्हें सदा मिला। पूछो मैसूर से! पूछो बुद्ध से! पूछो नारद से! पूछा मीरा से, चैतन्य से! पूछो फरीद से, कबीर से, नानक से! करोड़ों गवाह हैं इसके, कि जिन्होंने यारी की उनको यार मिलता है। और परमात्मा और बेवफा! ऐसा होता ही नहीं। ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। तुम्हारी ही कहीं भूल होगी। तुम कहीं अधैर्य में, जल्दी में लगे हो। भीतर से तुमने पुकारा ही नहीं। ऊपर-ऊपर से आवाज दी थी, और भीतर संदेह रहा होगा।

मैंने सुना है, विवेकानंद अमरीका के एक गांव में बोले, तो उन्होंने बाइबिल का एक उद्धरण दिया कि’’ यदि तू पहाड़ से भी कह दे आस्था से भरकर कि हट जा, तो पहाड़ हट जाता है’’ । एक बूढी औरत सुन रही थी। उसने कहा, यह हमको खयाल ही न था। उसके घर के पीछे एक पहाड़ है और उसकी वजह से हवा भी नहीं आती और गरमी में तप भी जाती है पहाड़ी। और उसने कहा, यह तो बड़ा ही सरल है। वह भागी घर। उसने कहा कि हटा दो, इसमें दिक्कत ही क्या है। उसने जाकर खिड़की खोलकर एक दहा सोचा, आखिरी बार तो और देख लें, फिर तो हट ही जाएगा। खिड़की खोलकर देखा, खिड़की बंद की, बैठकर नीचे उसने कहा,’’ हे परमात्मा! श्रद्धा से भरकर कह रही हूं, हटा इस पहाड़ को। बिलकुल हटा दे’’ । फिर दोतीन मिनट उसे वक्त भी दिया भगवान को। उसने खिड़की खोली—वे पहाड़ वहीं के वहीं है। और उसने कहा,’’ जा भी, मुझे पहले ही से पता था कि कहीं कोई पहाड़ ऐसे हटते हैं’’ !

पहले से ही पता था कि कहीं पहाड़ ऐसे हटते हैं! जब पहले से ही पता था तो वह जो प्रार्थना थी, ऊपर- ऊपर रही होगी, भीतर तो संदेह ही रहा होगा।

एक गांव में वर्षा न हुई, गांव के पुजारी ने सारे गांव के लोगों को इकट्ठा किया कि प्रार्थना करेंगे, वर्षा हो जाएगी। सारा गांव आ गया। पुजारी भी चला गांव के बाहर जहां सब इकट्ठे हो रहे थे, एक मंदिर के पास। पुजारी के पस ही एक छोटा- सा बच्चा भी चल रहा था एक बड़ा छाता लिए। उस पुजारी ने कहा,’’ नालायक! छाता कहां ले जा रहा है? ‘’उस बच्चे ने कहा,’’ लेकिन मैंने सोचा कि जब प्रार्थना होगी तो वर्षा भी होगी, लौटने में दिक्कत होगी’’ । मगर एक छोटा बच्चा ही लाया था। खुद पुजारी भी छाता लेकर न आया था। गांव की भीड़ इकट्ठी हुई, कोई छाता न लाया था। एक छोटा बच्चा ही प्रार्थना का पात्र था। एक वही भरोसे से आया था, कि जा ही रहे हैं प्रार्थना करने तो वर्षा होगी। लेकिन पुजारी ने उसकी श्रद्धा भी भ्रष्ट कर दी। उसने कहा,’’ अबे नालायक! यह छाता कहां ले जा रहा है? वर्षा ही तो नहीं हो रही वर्षों से, प्राण तड़पे जा रहे हैं और तू छाता लिए घूम रहा है’’ ! उसको भी संदेह जगा दिया। उसकी प्रार्थना भी खराब हो गई। मुझे लगता है, उस दिन वर्षा हो सकती थी। उस अकेले एक बच्चे की प्रार्थना से भी हो सकती थी। मगर उसकी प्रार्थना भी खराब हो गई। नहीं, तुमने अभी खोजा ही नहीं यार को। उस प्यारे को खोजने के लिए बड़ी हार्दिक उत्कंठा चाहिए और धैर्य चाहिए। तीन मिनट का समझ देकर खिड़की खोलकर मत देख लेना।

सुकूं है मौत यहां जौके- जुस्तजू के लिए

ये तश्रगी वो नहीं जो बुझाई जाती है।

जो उसकी चोज पर निकलते हैं, वे कोई प्यास बुझाने थोड़े निकलते हैं। वे कहते हैं—ये तश्रगी वो नहीं जो बुझाई जाती है। यह कोई प्यास ऐसी थोड़े ही है जो बुझाने की जरूरत है। यह तो प्यास बड़ी प्यारी है। वे तो कहते हैं,’’ जितनी याद करवाए और जितनी देर प्रतीक्षा करवाए, तेरी कृपा! तेरा मिलन ही थोड़ा सुखद है, तेरा इन्तजार भी’’ !

भक्त कहता है, छिपा रहे, जितना छिपना हो! अच्छा ही हुआ, और प्रार्थना की लेंगे थोड़ी। मिल जाएगा तो फिर क्या होगा? छिपा रहे। थोड़ा और इन्तजार सही। उसका इन्तजार भी प्यारा है।

सुकूं है मौत यहां…!

उसकी राह पर जो सुकून की तलाश कर रहे हैं, चैन की तलाश कर रहे हैं, वे तो गलती में है।

सुकूं है मौत यहां जौके-जुस्तजू के लिए।

जो जीवन की तलाश कर रहे हैं, चैन की तलाश पर निकले हैं, उनके लिए चैन की बात ही नहीं उठानी चाहिए।

ये तश्रगी वो नहीं जो बुझाई जाती है।

यह तो प्यास बढ़ाई जाती है। प्रार्थना तो प्यास में घी का काम करती है, जैसे घी आग में पड़ता है, ऐसे प्रार्थना प्यास में पड़ती है। भभकती है आग। एक ऐसी घड़ी आती है कि तुम प्यास ही प्यास रह जाते हो, तुम्हारे भीतर कोई ऐसा भी नहीं रह जाता जो कहे, मैं प्यासा हूं, वरन ऐसी ही भावना रह जाती है कि मैं प्यास हूं। उसी घड़ी यार मिल जाता है। यार तो मिला ही हुआ है।

यह न पानी से बुझेगी

यह न पत्थर से दबेगी

यह न शोलो से डरेगी

यह वियोगी की लगन है

यह पपीहे की रटन है।

 

 

 

तीसरा प्रश्‍न :

 

भगवान इस समय और इस जगह पर आपके और हमारे दर्म्यान क्या करवाता है?   आप में और हम में फर्क क्या है और वास्ता क्या है?  

 

बड़ा खेल करवाता है। मुझे बुलवाता है, तुम्हें सुनवाता है। मगर वही मुझसे बोलता है, वही तुमसे सुनता है। समझ लोगे तो बड़ी रसधार बहेगी, क्योंकि वही मुझसे बोला है, वही तुमसे सुनने चला आया है। उसके सिवा कोई और नहीं है। परमात्मा अपने ही साथ लुका-छिपी खेलता है। यही उसकी लीला है। यही उसने होने का ढंग है।

तुमने कभी अपने साथ लुका-छिपी खेली? कभी तुमने ताशों का खेल खेला अकेले ही?    कभी-कभी ट्रेन में मैं यात्रा करता था, तो कुछ लोग मिल जाते अकेले, मेरे डिब्बे में होते। वे कहते,’’ आप साथ देंगे’’? ‘’ मैं जरा और दूसरे खेल में लगा हूं, आप बाधा न दें’’। तो फिर वे अकेले ही ताश बिछा लेते। अकेले ही दोनों तरफ से चालें चल रहे हैं।

परमात्मा दोनों तरफ से चालें चल रहा है। राम में भी वही है और रावण में भी वही। और अगर रामायण पढ़कर तुम को यह न दिखाई पड़ा कि रावण में भी वही है तो तुम चूक गए, रामायण समझ न पाए। अगर यही दिखाई पड़ा कि राम में ही केवल है तो बस भूल गए, भटके। रावण में भी वही है।

अंधेरा भी उसी का है, रोशनी भी उसी की है। बोलता भी वही मुझसे है, सुनता भी वही तुममें है। तुम जिसे खोज रहे हो वह तुम में ही छिपा है। खोजता भी वही है, खोजा जा रहा भी वही है। जिस दिन जानोगे, जागोगे, उस दिन हसोगे।

झेन फकीर बोकोजू परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ तो लोगों ने उससे पूछा कि’’ परम ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद तुमने पहली बात क्या की’’ उसने कहा,’’ और क्या करते? ’’ एक प्याली चाय की मांगी’’। लोगों ने कहा,’’ प्याली चाय की! परम ज्ञान और प्याली चाय की’’ ! उसने कहा,’’ और क्या करते? जब सारा खेल समझ में आया कि अरे, वही खोज रहा है, वही खोजा जा रहा है। तो और क्या करते? सोचा कि चलो बहुत हो गया, बड़ी लंबी खोज को गई, एक प्याली चाय की पी लें। हैसे खूब’’!

तुम पूछते हो,’’ भगवान इस समय और इस जगह पर हमारे और आपके दर्म्यान क्या करवाता है’’?

बड़ा खेल करवाता है। जिस दिन समझ लोगे, उस दिन बड़ी रसधार बहेगी।’’ आप में और हम में फर्क क्या है? ’’

मेरी तरह से कुछ भी नहीं, तुम्हारी तरफ से बहुत है। और चेष्टा यही है कि तुम्हारी तरफ से भी न रह जाए। मेरी तरफ से तो तुम वहीं हो जहां मैं हूं, तुम्हारी तरफ से तुम सोचते हो वहां नहीं हो। सोचते रहो। वह तुम्हारा सपना है कि वहां नहीं हो–हो तो तुम भी वहीं। हो तो तुम भी भगवान। भगवता तुम्हारा स्वभाव है। बुद्धत्व तुम्हारी नियति है। तुम उससे भाग नहीं सकते, बच नहीं सकते। जैसे कमल कमल है, गुलाब गुलाब है–ऐसे तुम बुद्ध हो, बुद्धत्व को उपलब्ध हो। लेकिन तुम्हें यह खयाल नहीं है–तुम्हें और हजार खयाल चढ़ गए हैं सिर पर। कोई समझ रहा है, दुकानदार हूं, कोई समझ रहा है, डाक्टर हूं, कोई समझ रहा इंजीनियर हूं, कोई समझ रहा है स्त्री हूं, कोई समझ रहा है, पुरुष हूं, कोई कहता है हिंदू हूं, कोई कहता है, मुसलमान हूं। तुम न मालूम कितनी और हजार बीमारियों से रुग्ण हो—सिर्फ एक को नहीं देखते जो तुम हो। तुम भगवान हो! दुकान वगैरह करो—भगवान होते हुए करो। चलने दो, खेल को रोकने की भी कोई जरूरत नहीं है। समझ लो कि खेल है। कुछ छोड्कर भाग जाने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि भागता तो वही है तो समझता है कि खेल नहीं है। जो गंभीरता से ले लेता है वही भागता है। इसलिए तो मैं अपने संन्यासी को कहता हूं, कहीं भागना मत! भागे कि शक। भागे कि मतलब साफ हो गया कि तुमने गंभीरता से ले ली बात। चलो पत्नी है तो ठीक है, बच्चे हैं तो ठीक हैं–उनमें भी भगवान है। अगर तुम उसी को देखने लगो, हर तरफ से वही तुम्हें पुकारा है।

पगध्वनि तो सुनता था कब से

पर तुमसे साक्षात न होता

असमंजस में पड़ी सुनहली

सुबह सांवली सांझ हो गई

मेरे हर पल की व्याकुलता

अपने आप प्रणाम हो गई

प्रतिध्वनि तो सुनता था कब से

ध्वनि का उदगम ज्ञात न होता

पगध्वनि तो सुनता था कब से

पर तुमसे साक्षात न होता।

पगध्वनि तो तुमने भी सुनी है, अन्यथा तुम यहां न आते। प्रतिध्चनि तो तुमने भी सुनी है, अन्यथा तुम्हें कौन यहां ले आता; वही प्रतिध्चनि ले आई है। लेकिन सीधा-सीधा साक्षात्कार नहीं हो रहा है। मैं उसकी तरफ मुंह किए खड्ज्ञ हूं; तुम उसकी पीठ किए खड़े हो–इतना ही फासला है।

बड़ा फासला नहीं है। अबाउट टर्न–इतना-सा फासला है। मिलिट्री में लोग कर लेते हैं। घूम जाओ।’’ आप में और हम में फर्क क्या है;’’

घूम जाओ।’’ और वास्ता क्या है;’’

मेरी तरफ से तो कोई भी नहीं, तुम्हारी तरफ से है। तुम कुछ पाने योग्य हो। वही बाधा बन रही है। तुम कुछ तलाश रहे हो। वही बाधा बन रही है। मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम जिसे खोज रहे हो, वह मिला ही हुआ है। खोज के कारण ही तुम उलझन में पड़े हो।

मुल्ला नसरुद्दीन बाजार से जा रहा था–गधे पर बैठा, भागा। बाजार के लोगों ने पूछा,’’ नसरुद्दीन। कहा;’’ मगर उसने कहा,’’ अभी मत रोको, अभी मैं जल्दी में हूं”। दोतीन घंटे बाद थका-मादा वापस लौट रहा था। लोगों न पूछा,’’ कहां इतनी तेजी में जा रहे थे;’’ उसने कहा,’’ मेरा गधी खो गया था”। लोगों ने कहा,’’ तूम गधे पर सवार हो”। उसने कहा,’’ यह तीन घंटे बाद समझ में आया। पहले तो एकदम घबड़ाहट में छलांग लगाकर गधे पर सवार हो गया, खोज में निकल गया। नासमझो, तुमने क्यों न कहा;’’ उन्होंने कहा,’’ हम तो चिल्ला रहे थे, तुम बोले, बहुत जल्दी में हूं।

मैं चिल्ला रहा हूं, लेकिन तुम कहते हो, बहुत जल्दी में हैं। तुम्हें हंसी आती है नसरुद्दीन पर, लेकिन तुमने कभी खयाल किया चश्मा लगाकर तुमने कभी चश्मा नहीं खोजा; तो फिर तुम्हें चश्मा लगाना ही नहीं आया। कान पर कलम खोंसकर तुमने कभी कलम नहीं खोजी; तो फिर तुम्हें कलम लगाना ही नहीं आया। तुम अपनी जिंदगी में खुद ही खोज लोगे, अगर तुम गौर करोगे। कई बार विस्मरण की दशा होती है। चश्मा लगाए होते हो और उसी से खोजते होते हो कि चश्मा कहां है। जल्दी में यह हो जाता है। ट्रेन पकड़नी है और घड़ी समय बताए दे रही है और बाहर ड्रायवर हार्न बजा रहा है–घबड़ा गए, अब खोजने लगे, चश्मा कहां है। स्वभावत: चश्मा आंख के इतने करीब है कि एकदम दिखाई भी नहीं पड़ता। परमात्मा उससे भी ज्यादा करीब है। करीब कहना ठीक नहीं–आंख के भीतर है, इसलिए कैसे दिखाई पड़े;

तुम्हारी अड़चन यही है कि तुम कुछ खोज रहे हो। और तुम जब खोजोगे तो तुम्हें कोई न कोई मिल जाएगा बतानेवाला कि ऐसे खोजो। मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं कि खोज की जरूरत नहीं है–तुम जरा शांत होकर बैठ जाओ, छूट जाने दो ट्रेन, बजाने दो ड्रायवर को हार्न, तुम जरा शांत होकर बैठ जाओ, आंख बंद कर लो–तुम अचानक पाओगे : भीतर मौजूद है, उसे कभी खोया ही नहीं। जो खो जाए वह परमात्मा नहीं।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा खोजना है। मैं कहता हूं,’’ बड़ी झंझट की बात है। तुमने खोया कहां? ‘’वे सिर हिलाते हैं। वे कहते हैं,’’ खोया! खोया तो कहीं भी नहीं!’’ तो फिर किसलिए खोज रहे हो?

मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर के बाहर सड़क पर कुछ खोज रहा था। एक मित्र आ गया। उसने कहा,’’ क्या खोजते हो सांझ? ‘’उसने कहा,’’ मेरी चाबी गिर गई है’’। वह मित्र भी खोजने लगा। थोड़ी देर बाद उसने कहा कि’’ कहां गिरी है? रास्ता बड़ा है रात हुई जाती हौ’’। उसने कहा,’’ यह मत पूछो। गिरी तो घर के भीतर है’’। उसने कहा,’’ नासमझ! फिर बाहर क्यों खोज रहे हो? ‘’उसने कहा,’’ यहां रोशनी है। घर में अंधेरा है। अंधेरे में क्या खाक खोजें? खोजने से भी क्या मिलेगी, अंधेरे में? ‘’

तुम खोज रहे हो परमात्मा को, क्योंकि भीतर अंधेरा है और सब रोशनी बाहर है। आंख बाहर खुलती है, हाथ बाहर फैलते हैं—बस टटोलने लगे। लेकिन जिसको तुम टटोल रहे हो, वह तुम्हें वहां मिलेगा नहीं, क्योंकि वह तुम्हारे टटोलने में छिपा है, तुम्हारे भीतर छिपा है। तो मेरी तरफ से कोई फर्क नहीं है। मेरी तरफ से कोई वास्ता नहीं है। फर्क और वास्ता तुम्हारी तरफ से है। जिस दिन से भी गिर जाएगा उस दिन न तो मैं मैं हूं, न तुम तुम हो– मिलन हो गया!

अंबर की आंखों में कोई

 

सूरज है न सितारा

केवल रजकण भर हैं

सारे यहां-वहां जो छितरे

अंध। वचर के लिए वही

सब प्रखर विभा बन निखरे

धरती की छाती पर कोई

धारा है न किनारा

अंबर की आंखों में कोई

सूरज है न सितारा

चिर असंग के लिए न कुछ है

मेरा और तुम्हारा जो अपने में पूर्ण,

उसे कब कोई भेद सुहाता

यह अपूर्ण के मन की छलना

जोड़ा करती नाता

परमहंस के लिए न कोई

है चंदन अंगारा

अंबर की आंखों में कोई

सूरज है न सितारा।

मेरे लिए तो कोई फर्क नहीं है। मेरे लिए तो कोई भेद नहीं है। तो नाता तो कैसे होगा? अपने से ही कहीं कोई नाता होता? लेकिन तुम्हारे लिए नाता है, क्योंकि तुम कुछ खोजने आए हो। तुम्हारी खोज बीच में अड़ंगा बन रही है। मत खोजो! छोड़ दो आकांक्षा! सिर्फ बैठे रहो मेरे पास। उसी को हमने पुराने दिनों में सत्संग कहा था। सत्संग का अर्थ है: खोज भी नहीं रहे, बस बैठे हैं पास-पास! जिसको मिल गया है या जिसने जान लिया कि कभी खोया न था, उसके पास बैठे हैं। बस बठे हैं। न कोई विचार, न कोई कामना है–अचानक तुम तुम नहीं रह जाते। एक परदा हट जाता है। एक घूंघट उघड जाता है।

गुरु और शिष्य उसी क्षण न तो अलग रह जाते–न गुरु गुरु रह जाता, न शिष्य शिष्य रह जाता। सब फासले मिट जाते हैं। बीच की सब सीमाएं खो जाती हैं। उस मिलन के क्षण में ही सत्य को हस्तांतरण है।

मुझे सुनकर तुम्हें सत्य न मिलेगा, मुझे पीकर मिलेगा। पीना बड़ी और बात है। पीना तभी हो सकता है जब तुम बिलकुल खाली बैठे हो। तब तुम एक रिक्त शून्‍य हो जाते हो। उस रिक्त शून्‍य में वर्षा हो सकती है। तुम खाली होओ जो भर दिए जाओ। तुम पहले से ही भरे हो तो भरना मुश्किल है।

 

 

चौथा प्रश्‍न :

 

आपके पास बैठकर लगातार डेढ़ घंटे तक आपका प्रवचन सुनते समय मैं भक्ति के भाव व रस में इतना डूब जाती हूं कि पता नहीं मेरे दुख, चिंताएं और परेशानियां कहां खो जाती हैं। एक अपूर्व शांति का अनुभव छा जाता है। परंतु, प्रवचन के बाद आपका सान्निध्य छूटते ही थोड़ी देर में पुन: चिंताओं और परेशानियों से धिरने लगती हूं। जो अनुभव आपके प्रवचन व सान्निध्य में होता है, वह कैसे अधिक समय तक रहे, यह बताने का अनुग्रह करें!

 

 

क्षणभर को भी अगर चिंताएं खो जाती हैं, इच्छाएं विसर्जित हो जाती हैं, तनाव तिरोहित हो जाता है, तो कुंजी तुम्हारे हाथ में आ गई। कुछ और अब चाहने को है नहीं।

जो तुमने यहां किया है, वही तुम फिर-फिर करो। यहां क्या किया है? मुझे शांति से सुना। तुम्हारा ध्यान हट गया चिंताओं पर, बेचैनियों पर, उलझनों पर से–ध्यान मेरी तरफ लग गया। ध्यान जिस तरफ जाता है, उसी तरफ जीवन हो जाता है। फिर घर वापस लौटे, फिर तुम अपना ध्यान, फिर तुमने अपना प्रकाश चिंताओं पर कुरेदने में लगा दिया, फिर चिंताएं खड़ी हो गईं।

तुम जिस तरफ ध्यान देते हो उसी तरफ तुम्हारा जीवन बहता है। और तुम जिस पर ध्यान देते हो उसी को तुम भोजन देते हो, शक्ति देते हो, अगर चिताओं पर ध्यान दोगे, चिंताएं बलशाली हो जाएंगी। ध्यान भोजन है। इसलिए तो हम सब इतने ध्यान के लिए आतुर होते हैं।       हम सब चाहते हैं, लोग हम पर ध्यान दें। कोई तुम पर ध्यान दे तो तुम लगते हो, जैसे मर गए। घर में आते हो, पत्नी ध्यान ही नहीं देती। वह अपना बर्तन ही मलती रहती है। तुम गुजर जाते हो। तो ऐसा लगात है जैसे खत्म हुए। बच्चे खेल रहे हैं, वे खेलते रहते हैं, तुम गुजर जाते हो कोई ध्यान ही नहीं देता। रास्ते से निकलते हो, कोई नमस्कार नहीं करता। दस-पांच दिन में तुमको लगेगा, क्या हुआ, मर गए क्या! कोई ध्यान ही नहीं दे। ।

रहा.

इसलिए तो ध्यान की इतनी आकांक्षा होती है कि जो भी मिले, सिर झुकाए,’’ कहो कैसे हो ,   ‘’ चित्त प्रफुल्लित होता है। पत्नी दौड़ी आए, जूते निकाले, पैर दबाए, चित्त प्रफुल्लित होता है।

एक आदमी मनोवैज्ञानिक के पास गया था। वह कह रहा था,’’ मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। पांच साल पहले जब मैंने शादी की थी, घर आता था तो पत्नी स्लीपर लेकन दौड़ी आती थी और मेरा छोटा- सा कुत्ता स्वागत में भौंकता था। अब सब उलटा हो गया है। कुत्ता तो स्लीपर लेकर आता है मुंह में दबाए और पत्नी भौंकती है’’ । उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, मेरी समझ में नहीं आता कि उलझन क्या है! सेवाएं तो तुम्हें वहीकी वही मिल रही हैं।

लेकिन सेवाओं का सवाल नहीं, ध्यान का सवाल है। छोटा बच्चा भी ध्यान से जीता है। ध्यान ऊर्जा है। अभी मनोवैज्ञानिक इस पर बड़ा अध्ययन करते हैं कि ध्यान से जरूर कुछ गहरी ऊर्जा मिलती है। अगर मां बच्चे पर ध्यान न दे, वह सिकुड़ने लगता है। इसलिए तो बिना मां का बच्चा, कितनी ही उसकी हिफाजत करो, कुछ उसमें कमी रह जाती है, कुछ खोया- खोया हो जाता है। क्योंकि बिना मां के कौन उसे ध्यान दे? नर्स दूध दे देती है, कंबल ओढ़ा देती है, कपड़े बदल देती है लेकिन ध्यान नहीं देती। ध्यान क्यों दे? उसका अपना बेटा घर प्रतीक्षा कर रहा है ध्यान के लिए तो। सब इंतजाम कर दो बच्चे के लिए, सिर्फ मां का ध्यान न मिले, वह प्रेमपूर्ण ऊष्मा न मिले, वे प्रेमपूर्ण आखें न दिखाई पड़े कि कोई फिक्र करता है, कोई मेरे लिए आतुर है, कोई मेरी प्रतीक्षा करता है, मेरे हंसने से किसी के जीवन में फूल खिलते हैं, मेरे उदास होने से कोई उदास हो जाता है, कहीं मेरा होना किसी दूसरे के होने पर भी बल रखता है—तो बस बच्चे का प्राण मिलने लगते हैं।

तुमने देखा, छोटा बच्चा गिर जाए तो पहले खड़े होकर देखता है कि मां आसपास है! हो तो रोता है, न हो तो नहीं रोता। बड़े आश्वर्य की बात है, गिरने से नहीं रोता, गिरने का कोई संबंध ही नहीं रोने से। मां हो तो यह मौका नहीं चूकेगा ध्यान का, चिल्लाएगा, रोएगा, मां ध्यान देगी। मां नहीं है—क्या फायदा! फिजूल लोग खड़े हैं, और हंसी होगी। वह अपना चुपचाप झाड़कर चल पड़ता है।

मैं एक छोटे बच्चे के साथ एक घर में मेहमान था। मां उसकी बाहर गई थी। मैं बैठा था,

वह खेल रहा था। वह गिर पड़ा। उसने चारों तरफ देखा, मुझे बैठा देखा, उसने सोचा कि… अजनबी आदमी…! वह बैठा रहा। आधे घंटे बाद, मज तो भूल ही गया कि कब गिरा।

जब उसकी मां लौटी, वह एकदम से रोने लगा। मैंने पूछा कि हुआ क्या तेरा, तू बिलकुल ठीक है। वह कहता है,’’ आधा घंटा पहले गिरा था’’ ।

“तू तब क्यों नहीं रोया, नासमझ?’’

उसने कहा,’’ फायदा क्या है?’’

वह याद रखा उसने। अब कोई दर्द भी नहीं हो रहा है, मगर मां ध्यान देगी, पुचकारेगी, पुचकाएगी, हाथ फेरेगी–वह अवसर वह नहीं चुकना चाहता।

ध्यान भोजना है। ध्यान रखना, तुम जिसे ध्यान देते हो उसे जीवन देते हो। तो गलत को ध्यान मत दो। यहां सुनते हो मुझे, चित्त प्रफुल्लित हो जाता है, आनंदित हो जाता है, एक शीतलता छा जाती है। तुमने ध्यान मेरी तरफ दिया! गए घर, फिर खोदने लगे अपने घाव, फिर उघाड़ने लगे अपनी मलहमें-पट्टिया, फिर अंगुलियां डालने लगे अपनी पीड़ाओं में। क्या जरूरत है?

करो यह–यहां से जाते समय ध्यान रखो कि अब उन्हीं घावों में हाथ नहीं लगाना है। पुरानी आदत है, हाथ चले जाएंगे, वापस लौटा लो! फिर तुम्हें अड़चन होगी कि अगर कुछ न करें तो क्या करें! तो ध्यान देने को कुछ और बहुत घट रहा है चारों तरफ। पक्षियों के गीत हैं। उतना मधुर तो मैं तुमसे बोल भी नहीं सकता। जो वे तुमसे कह रहे हैं, वह तो मैं कहना चाहता हूं, कह नहीं पाता। तुम पक्षियों के गीत ही सुनो। चुप बैठकर सारा ध्यान उन पर लगा दो। इससे भी ज्यादा गहरा सत्संग हो जाएगा। हवाएं वृक्षों को कंपाती हैं। हवाओं की धुन वृक्षों के पत्तों में बजती है, उसे सुनो। परमात्मा वहां और भी अकलुषित भाव से प्रगट हुआ है। परमात्मा वहां और भी नैसर्गिक भाव से प्रगट हुआ है। झरने के पास बैठ जाओ, झरने की आहट सुनो, नाद सुनो।

तुम कहोगे,’’ कहां झरने खोजें? कहां से पक्षी लाएं? कहां वृक्ष… ? बीच बाजारा में रहते हैं। कोई हर्जा नहीं है। सुनने की कला चाहिए। तो राह के शोरगुल को सुनो। सिर्फ राह के शोरगुल को सुनो। मत कहो, अच्छा है बुरा है, बस सिर्फ सुनो। कारें दौड़ती हैं, बसें निकलती हैं, शोरगुल हैं, बच्चे चिल्लाते हैं, कुत्ते भौंकते हैं, बाजार लगा है–चुपचाप सुनो। तुम एक दिन चकित होकर पाओगे कि अगर ध्यान से सुना तो वहीं ध्यान लग जाएगा। और उस बाजार के कलरव में एक संगीत का जन्म होने लगेगा। वह बाजार का कलरव भी है तो उसी का, परमात्मा का, जितना पक्षियों के कंठों की आवाज है। है। कोयल से ही नहीं बोलता, कौवों से भी वही बोलता है। बाजार भी उसी का बाजारा है। असली बात, अपने घावों पर ध्यान मत लगाओ, कहीं भी ध्यान लगाओ। ध्यान को अपने से मुक्त करो, ताकि धीरे-धीरे तुम्हारी यह सामर्थ्य बन जाए कि यह पुरानी आदत चिंताओं को उघाड़ने की, उखाड़ने की मिट जाए। जब यह आदत मिट जाएगी तब मैं तुमसे कहूंगा, अब बाहर का भी ध्यान छोड़ो। अब आंख बंद करो, कहीं भी ध्यान न लगाओ। अब सिर्फ आंख बंद करके खाली बैठे रहो। उस शून्‍य से तुम्हें परम संगीत सुनाई पड़ेगा। वही परम सत्संग है। उसी तरफ तुम्हें ले चल रहा हूं। चाबी तो तुम्हें मिल गई है। अब जरा उस चाबी का उपयोग करो। जरा परमात्मा की याद को सब तरफ से पकड़ो। अपनी छोड़ो। उसकी गुनो!

दिन वही दिन हैं, शब वही शब है जो तेरी याद में गुजर जाएं।

सब तरफ से उसकी याद को उठाओ। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि बैठकर राम-राम, राम- राम जपो। बहुत जप रहे हैं लोग, उससे कुछ नहीं होता। उससे सिर्फ राम को नींद आने में बाधा पड़ती है। और कई तो माइक लगाकर, लाउड स्पीकर लगाकर राम-राम जप रहे हैं, वे राम को सोने ही नहीं देते। उस चिल्ल-पों से कुछ भी न होगा। उस शोरगुल से कुछ सार नहीं है। तुम्हारी बकवास से कुछ न होगा। तुम्हारी शांति से होगा। और अंतिम बात खयाल रखो कि सब सत्संग अंतत: तुम्हें अपने अंतरंग में ले जाने के लिए है। और सब ध्यान वस्तुत: उपाय है। मंजिल तो यह है कि तुम ऐसी दशा में आ जाओ जहां ध्यान की भी जरूरत न रहे–बस तुम हो, काफी हो!

न देखा कहीं वह जल्वा जो देखा खान-ए-दिल में

बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत-सा ढूंढा बुतखाना। बहुत मंदिर, बहुत मस्जिद खोजे, मगर जो महोत्सव, जो सौंदर्य, जो जल्वा खुद के भीतर हृदय में देखा वह कहीं भी न देखा।

न देखा कहीं वह जल्वा जो देखा खान-ए-दिल में

बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत-सा ढूंढा बुतखाना। आखिरी सवाल: भगवान! आपको जानने से पहले मैं राधास्वामी संत से प्रभावित था, लेकिन उनसे दिक्षा नहीं ली, क्योंकि वहां मांस और शराब छोड़ने की शर्त थी। फिर आपकी किताब पढ़कर कुछ प्रयोग किए और अपने में परिर्वतन पाया। आधा पागल तो लोग मुझे पहले से ही कहते थे, क्योंकि मैं ज्यादा बोलता था। लेकिन अब नजदीकी दोस्त भी कहने लगे हैं कि मैं पागलपन की तरफ तेजी से बढ़ रहा हूं। वैसे मेरा बोलना जरूर बढ़ गया है, लेकिन भीतर मैं बढ़िया अनुभव करता हूं। अब संन्यास लेने का जी हो रहा है, लेकिन उसमें गैरिक वस्त्र और माला की शर्त है। क्या केवल माला से ही काम नहीं चल सकता है?

अगर आधा ही पागल रहना हो तो माला से काम चल सकता है। मगर मेरी मानो तो पूरा पागल बनने का मजा और है। ऐसी भी कंजूसी क्या? और जब पागल ही होने निकल पड़े…तो आधा! यह एक पांव बाहर, एक पांव भीतर तुम्हें दुविधा में डाल देगा। यह दो नावों पर सवारी खतरनाक होगी। लोग आधा कहते हैं, तुम पूरे ही हो जाओ।

और अगर तुम्हें भीतर बढ़िया लग रहा है तो क्या फिक्र करना किसी की; असली सवाल तो भीतर है। तुम्हें भीतर आनंद आ रहा है, छोड़ो फिक्र। चार दिन की दुनिया है, लोग पागल ही कह लेंगे, क्या हर्जा है; मगर इतना मैं तुमसे कहूंगा, आधे होना ठीक नहीं। क्योंकि मजा हमेशा पूरे का है। आधा तो ऐसा है जैसा कुनकुना पानी; न पानी रहे ठीक से न भाप बने; त्रिशंकु हो गए, बीच में लटक गए। न घर के न घाट के, धोबी के गधे हो गए।

नहीं, यह न करो। यह मैं न करने दूंगा। मैं साथ न दूंगा इसमें। पूरा पागल होना हो तो आ जाओ।

मीरी में फकीरी में शाही में गुलामी में

कुछ काम नहीं बनता बेजुरअते रिंदाना।

पागलपन के बिना कहीं कुछ काम बनता ही नहीं।

मीरी में फकीरी में शाही में गुलामी में

कुछ काम नहीं बनता बेजुरअते रिदाना।

 

रिंद की, शराबी की, पागल की मस्ती और पूरा जोश चाहिए, तो ही कुछ काम बनता है। जो पहुंचे हैं, वे पूरे-पूरे दौड़े हैं तो ही पहुंचे हैं। ऐसे आधे-आधे, बंधे-बंधे तुम दूर न निकल पओगे घर से। तुम कोल्हू के बैल हो जाओगे। वहीं-वहीं चक्कर लगाते रहोगे।

 

पहली बात-

 

जब हुए बर्बाद ऐ’’ आबाद” तब पाया पता

बेनिशा हो कर मिला हमको निशाने कूए दोस्त।

 

उस परम मित्र का पता तो जब सब अपना पता खो जाता है, तभी मिलता है।

 

दूसरी बात– कहा है,’’ राधास्वामी सत्संग से प्रभावित थे। वहां शर्त थी शराब-मांस छोड़ने की, इसलिए दीक्षित न हुए”। यहां छोड़ने की कोई शर्त नहीं हा, कुछ लेने की शर्त है। छोड़ने में भी राजी न हुए, लेने में भी राजी न हुए, तो न राजी होने की कसम खा ली है क्या? कुछ तो करो।

 

पिछले प्रश्रोतर में नरेंद्र ने अपने पिता के संबंध में प्रश्र पूछा था। वे एक जैन मुनि के दर्शन को गए थे। वे बड़े प्यारे आदमी हैं। तो जैन मुनि के पास जब तुम जाओ दर्शन को, तीर्थयात्रा को–वे गिरनार गए थे, वहां जैन मुनि के दर्शन हो गए–तो मुनि ने कहा अब यहां आ ही गए हो तो कुछ त्याग करो, कुछ छोड़ दो। उन्होंने काह,’’ महाराज। अब आप कहते हैं तो कुछ करेंगे। लेकिन छोड़ना सधा, न-सधा, पीछे झंझट हो, कुछ ले लेते हैं’’ । मुनि ने कहा, चलो ठीक। उन्हें, क्या पता कि वे क्या हैं, क्योंकि अब तीर्थ में व्रत ले लिया तो उसको तो पूरा करना ही पड़ेगा। लोग उन्हें पागल समझते हैं, लेकिन वे आदमी बड़े गजब के हैं। छोड़ना क्या?    परमात्मा कहीं छोड़ने से थोड़े ही मिलता है! बढ़ाओ अपने को, फैलाओ अपने को! वहां तुमसे कहा, शराब-मांस छोड़ दो, मैं तुमसे कुछ छोड़ने को कहता नहीं। मैं कहता हूं, माला, गेरुआ ले लो! यह मैं जानता हूं कि अगर माला और गेरुआ लिया तो शराब और मांस छूट जाएगा। उसकी छोड़ने की बात मैं नहीं करता। वह कमजोरों की बात है। क्या छोड़ने की बात करनी! हीरा ले लो, कंकड़-पत्थर छूट जाएंगे, और रखना हो तो रखे रहना, कंकड़ ही पत् थर हैं, रखे भी रहे तो क्या हर्जा है! मगर ऐसा क भी देखा नहीं कि हीरा मिल जाए तो कंकड़-पत्थर न छूट जाएं।

और ज्यादा बोलने का पूछा है कि ज्यादा बोलता हूं, इसलिए लोग आधे पागल समझते हैं। और लिखा है कि बोलना और थोड़ा बढ़ता जा रहा है।

 

बोलने का अगर ज्यादा ही शौक है तो अण्ट- सण्ट बोलें, अनर्गल बोलें, स धुक्कडी बातें बोलें कि खुद की भी समझ में न आए, क्या कह रहे हैं। लोगों को भी आनंद आएगा, तुम्हें भी आनंद आएगा। समझदारी की न बोलें। समझदारी रोग है। चलें, यह कोशिश करके देखें। यहीं से श्दुरू कर दें। तुम्हें भी मजा आएगा, लोगों को भी मजा आएगा। और धीरे-धीरे तुम पाओगे कि बोलने को कुछ भी तो नहीं है, क्या बोले चले जा रहे हो? कहने को कुछ हो, कहो भी, कहने को है क्या?

ईसाइयों का एक संप्रदाय है, कीमती संप्रदाय है। उसमें वे देव- वाणी—इसको वे देव-वाणी कहते हैं, अनर्गल! उनके चर्च में लोग इकट्ठे हो जाते हैं। फिर प्रत्येक व्यक्ति शामत होकर बैठ आता है और फिर जो भी अनर्गल बोलने लगते हैं। अण्ट-सण्ट आवाजें, शोरगुल, न कोई भाषा, न कोई तुक, न कोई व्याकरण, न ऐसी भाषा जिसको कोई समझ सके, कुछ भी बोल रहे हैं। लेकिन पंद्रह-बीस मिनट भी ऐसा बोलने के बाद चित्त को बड़ी गहरी शांति मिलती है। क्योंकि कूड़ा- कर्कट जो सिर में इकका हो जाता है, वह निकल जाता है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि अगर बोलने में ही मजा आता है तो उसका मतलब केवल इतना है कि तुम कूड़ा-कर्कट इकका कर लेते होओगे, उसको तुम दूसरों में उलीच देते हो। निश्चित ही वे तुमसे परे होंगे, इसलिए पागल कहते हैं। उनको परेशान मत करो। एकांत में बैठकर बोलो, हर्जा क्या है? झाड़, पत्थर, चट्टान—कहीं भी मिल बैठे दीवाने दो, हो जाने दी चर्चा, चट्टान से बोल लो, हर्जा नहीं है। फिर चट्टान से बोलो कि हिंदी बोलो कि अंग्रेजी, कि मराठी कि पंजाबी, क्य फर्क पड़ता है। चट्टान स भी भाषाएं समझती है। तुम सभी मिलाकर बोलो तो भी चलेगा। झाड़ से बोल लिए, नदी से बोल आए, आकाश पड़ा है।

और इनमें से कोई तुम्हें पागल न कहेगा। वे सब प्रसन्न होंगे और तुम्हें आशीर्वाद देंगे। आदमियों को न सताओ! आदमी वैसे ही परेशान हैं। सुन लेते होंगे, क्योंकि मजबूरी है।

और तुम कहते हो कि अब तो पास के, निकट के दोस्त भी घबड़ाने लगे हैं! अखिर सीमा होती है। निकट के हैं, सुनना पड़ता है। लोग ऊबते रहते हैं और सुनते रहते हैं। मत सताओ उनको यह हिंसा है। तुम्हें अच्छा लगता है–एकांत में चले गए, अनर्गल बोले! उससे ध्यान उपलब्ध होगा। अगर एक तीस-चालिस मिनट तुमने अनर्गल बोल लिया, दिल खोलकर चिल्ला लिया, तुम एकदम हलके हो जाओगे, फूल-से हलके हो जाओगे। और तब तुम में एक क्षमता आ जाएगी कि तुम दूसरों से व्यर्थ न बोलोगे, सार्थक कुछ होगा तो ठीक है। तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि दूसरे पागल की तरह बके जा रहे हैं, कोई जरूरत नहीं है बकने की, लेकिन बके जो रहे हैं। तब तुम उनको भी धीरे-धीरे यही रास्ता सुझा देना, जो मैंने तुम्हें सुझाया, उनको तुम सुझा देना कि जंगल में एकांत में चले गए, वहां दिल खोलकर बोल लिए।

आधे पागल मत रहो। खूब समय गुजार दिया आधे में, अब जरा पूरे हो जाओ। और जिस दिन तुम पूरे हो जाओगे, उस दिन तुम पाओगे—जब जखुद रपतगी से आंख खुली सामने ही खड़े थे मंजिल के।

जब पूरे तल्लीन हो जाओगे पागलपन में, और उससे डूबकर बाहर आओगे और आंख खुलेगी—शांति में, मौन में, शून्‍य में–तुम पाओगे : मंजिल के सामने ही खड़े हैं।

मंदिर के सामने ही हर एक व्यक्ति खड़ा है। कहीं और कोई जगह ही नहीं है जहां तुम खड़े हो जाओ। मंदिर की सीढ़ियों पर ही हर एक खड़ा है।

 

आज इतना ही।

 

 

 

 

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–17

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कान्ता जैसी प्रतिबद्धता है भक्तिसत्रहवां प्रवचन

दिनांक १७ मार्च,१९७६,

श्री रजनीश आश्रम, पूना

 सूत्र :

 त्रिरूपभगपूर्वक नित्यदासनित्यकाता भजनात्मकं

वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम्

भक्त एकान्तिनो मुख्या :

कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभि : परस्परं लपमाना :

पावयन्ति कुलानि पृथिवी च

तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति

कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि

तन्मया :

मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवता:

सनाथा चेयं भूर्भवति नास्ति तेषु

जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेद

यतस्तदीया:

 

 

ज के लिए पहला सूत्र–’’ त्रिभगपूर्वक’’ …।

“तीन–स्वामी, सेवक, सेवा–ऐसे रूपों को भंग कर नित्य दासभक्ति से या नित्य काताभक्ति से प्रेम करना चाहिए–प्रेम ही करना चाहिए’’ ।

जीवन के सारे अनुभव त्रैत के हैं–द्वैत के ही नहीं, त्रैत के हैं। सत्य है अद्वैत। लेकिन मनुष्य के अनुभव सभी त्रैत के हैं। देखते हो कुछ, तत्क्षण तीन भंग हो जाते हैं– देखने वाला, दिखाई पड़ने वाली चीज, और दोनों के बीच दर्शन का संबंध। जानते हो कुछ, तो जाता, ज्ञेय, और ज्ञान। ऐसी त्रिवेणी है सारे अनुभव की।

सत्य एक है, लेकिन साधारणत: दिखाई पड़ता है, द्वैत है–ज्ञाता, ज्ञेय क्योंकि बीच का ज्ञान दिखाई नहीं पड़ता; वह सरस्वती है, वह दृश्य नहीं है। प्रयाग के तीर्थ पर तीन नदियां मिलती हैं–गगां, यमुना, सरस्वती। गंगा दिखाई पड़ती है, यमुना दिखाई पड़ती है, सरस्वती अदृश्य है। तीर्थ बनाया ही इसलिए है वहां क्योंकि त्रिवेणी ही सारे जीवन का तीर्थ है। यहां दो तो दिखाई पड़ते हैं, तीसरा छुपा-छुपा है। द्रष्टा, दृश्य दिखाई पड़ते हैं, दर्शन का अनुमान करना पड़ता है। दृश्य भी पकड़ में आ जाता है, द्रष्टा भी पकड़ में आ जाता है–

दर्शन को तुम अपनी मुट्ठी में न बांध पाओगे; वह अदृश्य सरस्वती है। सरस्वती को ज्ञान की देवी कहा है, वह ज्ञान की प्रतिमा है। ज्ञान कहो, दर्शन कहो–वह छिपा हुआ स्रोत है। सत्य एक है–अद्वैत, साधारण देखने पर दो मालूम पड़ता है–द्वैत; ठीक से खोजने पर पता चलता है—अद्वैत।

नारद का यह पहला सूत्र कहता है, त्रिभंग से मुक्त हो जाना जरूरी है। त्रिवेणी के पार, त्रिवेणी के गहरे में उतरना है, ताकि उस एक स्रोत का पता चल जाए जहां से गंगा, यमुना, सरस्वती, सभी निकलती हैं और अंतत: जाकर फिर उसी स्रोत में विलीन हो जाती हैं। सागर का पता चल जाए, जहां से नदियों का आविर्भाव है और जहां नदियों का अवसान है।’’ तीन रूपों को भंग कर, नित्य दासभक्ति से या नित्य काताभक्ति से प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए”।

यह तीन के पार जाने का जो उपाय है, उसका नाम ही प्रेम है। प्रेम एकमात्र तत्व है संसार में, जो संसार के विपरीत है। प्रेम अकेला एक स्रोत है जो संसा.::).ार के भीतर भी है और बाहर ले जाने में, जो संसार के विपरीत है। प्रेम अकेला एक स्रोत है जो संसार के भीतर भी है और बाहर ले जाने वाला भी है; संसार में होकर भी जो संसार में नहीं है; पृथ्वी पर जो किसी और लोक की किरण है; अधंकार में जो दूर सूरज की किरण है। उस किरण के सहारे को अगर पकड़ लिया तो सूरज तक पहुंच जाओगे।

इसलिए प्रेम का अनुभव परमात्मा के निकटतम है। क्यों? क्योंकि प्रेम के क्षण में न तो प्रेमी रह जाता न प्रेयसी रह जाती–प्रेम ही रह जाता है। अगर प्रेयसी भी हो, प्रेमी भी हो और बीच में दोनों के प्रेम हो, तो यह प्रेम कामवासना है, प्रेम नहीं है। क्योंकि प्रेम तो त्रिभंग के पार है। वहां तीनों मिट जाते हैं और एक ही रह जाता है। सब स्वर एक ही महासंगीत में सम्मिलित हो जाते हैं।

अगर तुमने कभी प्रेम का क्षण जाना हो तो जिससे तुमने प्रेम किया हो, या जिसके पास तुम्हारे जीवन में प्रेम का झरना फूटा हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि कुछ ऐसा हो जाता है: तुम तुम नहीं रह जाते; कहीं दीवालें गिर जाती हैं, सीमाएं धूमिल हो जाती हैं, भेद समाप्त हो जाते हैं। प्रेमी और प्रेयसी दूसरों को दो दिखाई पड़ते हैं; पर प्रेमी प्रेयसी में प्रविष्ट हो जाता है, प्रेयसी प्रेमी में प्रविष्ट हो जाती है। वहां भेद करना मुश्किल हो जाता है। कौन-कौन है, इसका भी पता चलाना मुश्किल हो जाता है। इतना आत्मैक्य हो जाता है!

प्रेम का अर्थ है, दूसरा अपने जैसा मालूम पड़े, तभी प्रेम। अगर दूसरा दूसरे जैसा मालूम पड़ता रहे तो काम। काम तो संसार का है; प्रेम परमात्मा का है।

इसलिए नारद कहते हैं, इस तीन के भंग के पार जाना हो, इस तीन के विभाजन के पार जाना हो–और पर जाए बिना परमात्मा की कोई गंध न मिलेगी–तो प्रेम ही एकमात्र मार्ग है। प्रेम ही करना चाहिए! प्रेम ही करना चाहिए!

प्रेमैव कार्यम्, प्रमैव कार्यम्! बस एक प्रेम ही करने जैसा है। एक प्रेम ही बस होने जैसा है। एक प्रेम में ही डुबकी लगानी है और अपने को खो देना है।

प्रेमी को पता भी नहीं चलता कि हुआ क्या? और अपने को खो देता है, गंवा देता है।

जान तुझ पर निसार करता हूं मैं नहीं जानता हुआ क्या है!

तुम्हें इतना भी पता चल जाए कि प्रेम हुआ है तो फासला हो गया, तुम प्रेमी बन गए, त्रिभंग खड़ा हो गया! यह भी पता नहीं चलता, हुआ क्या है! बचता भी नहीं कोई जिसको पता चले कि हुआ क्या है!

तुम जब तक बने हो तब तक तो प्रेम होगा ही नहीं। तुम ही तो अवरोध हो। इधर तुम गिरे उधर प्रेम आविर्भूत हुआ। तुम्हारे गिरने से ही प्रेम का उठना है। तुम जब तक अकड़े खड़े हो तब तक प्रेम न हो सकेगा, तब तक तुम लाख प्रेम की बातें करो, कोरी होंगी, चले हुए कारतूस जैसी होंगी, चलाते रहो, उससे कुछ हल न होगा। बातचीत होगी। उसमें प्राण न होंगे, सत्व न होगा। हवा में साबुन की झाग के बबूले बनाते रहो, गीत गाओ, कविता करो—लेकिन यह सब अपने को भुलाने का उपाय है, क्योंकि तुम अभी हो। प्रेम कुर्बानी मांगता है। और छोटी- मोटी कुर्बानी नहीं। कुछ और देने से न चलेगा। तुम कहो, धन दे देंगे, तुम कहो, यश दे देंगे, तुम कहो, शरीर दे देंगे—नहीं कुछ और देने से न चलेगा, तुम्हें अपने को ही देना पड़ेगा।

इसलिए प्रेम परम यज्ञ है। और दूसरे यज्ञ तो बड़े सस्ते हैं–घी डाल दो, अनाज डाल दो, धन- पैसे से हो जाते हैं। जब तक तुमने अपने को न डाला अग्नि में प्रेम की, तब तक तुमने यज्ञ किया ही नहीं, तब तक तुमने धोखा किया। असली को तो बचाते रहे, जो डालने योग्य था उसे तो बचाते रहे, जो डालने योग्य था ही नहीं उसको जलाते रहे। और गेहूं और घी डालने से क्या होगा? क्या बिगाड़ा है गेहूं और घी ने तुम्हारा? लेकिन आदमी ने हजारों उपाय खोजे हैं, ताकि अपने को बचा ले, कुछ और डालने से चल जाए।

लेकिन प्रेम तुम्हें मांगता है, तुमसे कम पर राजी न होगा। तुम कुछ और देकर प्रेम को समझा न पाओगे। प्रेम तुम्हारी कीमत से मिलता है, जब तुम अपने को दांव पर लगाते हो।          अक्ल कहती है न जा कूचा-ए-कातिल की तरफ

सरफरोशी की हवश कहती है चल क्या होगा!

तुम्हारे भीतर दोनों आवाजें उठेंगी। तुम्हारी होशियारी कहेगी, अक्ल कहेगी… अक्ल कहती है न जा कूचा-ए-कातिल की तरफ! यह परमात्मा तो बड़ा हत्यारा है, इसकी तरफ मत जाओ! यह प्रेमी तो खतरनाक है! इसमें तो तुम डूबोगे और खो जाओगे। यह तो तुम अपने कातिल की तरफ चले।

यह ठीक है। परमात्मा कातिल है, खयाल रखना। मार ही डालेगा। तुम्हें बचने न देगा। तुम्हारी गर्दन उतरेगी। मगर तुम्हारी गर्दन जब उतरेगी तभी तुम्हारे जीवन में पहली दफा महाप्रकाश का जन्म होगा। तुम मिटोगे तभी तुम पाओगे, होने का लुफ्त क्या है, होने का मजा क्या है! अस्तित्व की पहेली तुम्हें समझ आएगी। मिटकर ही पाओगे।

जीसस ने कहा है : जो बचाएंगे वे खो देंगे अपने को। जो खोने को राजी हैं, वे बच जाएंगे। यह प्रेम का गणित बड़ा उलटा है। संसार का गणित यह है कि जो अपने को बचाएगा वह बचेगा, जो अपने को गवाएगा वह खो जाएगा। संसार का गणित यह है कि जो अपने को बचाएगा वह रोको धन को, खर्च मत कर देना। रोकोगे तो ही बढ़ेगा। संसार का गणित कहता है, अगर धन बढ़ाना हो, तो रोको धन को, खर्च मत कर देना। रोकोगे तो बढ़ेगा। संसार का गणित कृपण बनाता है, कंजूस बनाता है। संसार का गणित एक तरह की आ ध्यात्मिक कब्जियत सिखाता है : रोक लो! सड़ा-गला कुछ भी हो, रोक लो, कहीं खो न जाए।

मनस्विद कहते हैं कि कब्जियत कंजूस की बीमारी है। कंजूस को कब्जियत होती ही है। सभी कब्जियतवाले भला कंजूस न हों, लेकिन सभी कंजूस कब्जियतवाले होते हैं। क्योंकि जब तुम चीजों को पकड़ने लगते हो तो छोड़ने की हिम्मत खो जाती है। मल-मूत्र को भी त्यागने की हिम्मत खो जाती है, और तो क्या त्यागोगे!

कंजूस की पकड़ सभी चीजों पर होती है। उसके हाथ में जो पड़ जाए, वह पकड़ लेता है, मुट्ठी बांधना जानता है, खोलना भूल गया है। तो जीवन की सहज मल- निष्कासन जैसी क्रियाएं भी रुक जाती हैं। रोकने की उसकी आदत इतनी सघन हो गई है कि जाने- अनजाने वह रोक ही लेता है। अचेतन हो गई है प्रक्रिया।

संसार का गणित तुम्हें कंजूस बनाता है। वह कहता है, रोको तो ही बचेगा।

मैंने सुना है, एक भिखमंगा एक द्वार पर खड़ा भीख मांग रहा था। गृहिणी बाहर आई। भिखमंगे का चेहरा शालीन था, कुलीन था। वस्त्र यद्यपि फटे- पुराने थे, लेकिन लगते थे कभी उन्होंने रौनक देखी होगी। चेहरे से लगता था, अभिजात्य घर में पैदा हुआ होगा। पूछा कि यह दुर्दशा तुम्हारी कैसे हुई? उसने कहा,’’ तुम घबड़ाओ मत! अगर ऐसे ही भिखमंगों को देती रही तो ऐसी ही हालत तुम्हारी भी हो जाएगी। ऐसे ही हमारी हुई। दे-देकर मिटे। तुम घबड़ाओ मत, जल्दी तुम्हारी भी हमारे जैसी हालत हो जाएगी’’ ।

संसार का गणित तो रोकने का है। प्रेम का गणित बिलकुल उलटा है। प्रेम है दान। और जो प्रेम सीख लेता है, वह और सब तो दे ही डालता है, अपने को भी दे डालता है। वस्तुत : वह अपने को देता है, उसी में सब दे दिया। जब मालिक को ही दे दिया तो फिर उसकी मालकियत कहीं पीछे बची?

लेकिन बुद्धि तुमसे हमेशा कहती रहेगी,’’ परमात्मा की तरफ मत जाओ, क्योंकि वहां गए कि मिटे। धर्म से बचो। इसलिए तो लोग धर्म की तरफ तभी जाते हैं जब एक पैर उनका कब्र में उतर जाता है, वे कहते हैं, अब तो मरना ही है, चलो अब थोड़ा धर्म भी कर लें। बुढापे में, जराजीर्ण हो कर, जीवन आया और जा भी चुका, गर्द- गुबार छूट गई है अब, पलभर के मेहमान हैं, अब गए तब गए—तब उन्हें परमात्मा का स्मरण आता है। यह भी बुद्धि की होशियारी है, बुद्धि कहती है,’’ अब क्या हर्ज है, अब तो ले लो नाम!’’

अकसर तो ऐसा होता है कि आदमी ले भी नहीं पाता नाम, मर जाता है, बेहोश हो जाता है मरने के पहले। पंडित- पुजारी उनके कान में राम का नाम ले देते हैं। बेहोश में गंगाजल उसके मुंह में डाल देते हैं। मत्राच्चारण होता है। क थापाठ हो जाता है। वह मर रहा है, वह सुन भी नहीं सकता है अब। जब सुन सकता था, जब देख सकता था, तब उसने व्यर्थ की चीजें देखीं, व्यर्थ की चीजें सुनीं। जब हाथ फैल सकते थे तब वह कूड़ा- कर्कट सम्हाले रहा। अब मरते वक्त जब कुछ भी पकड़ने की क्षमता न रह गई और जब सब छूटने ही लगा, जिसको पकड़-पकड़ कर जिया था और सोचा था कि सारी संपदा यही है, जब अपने हाथ से जाने लगी—तब वह कहता है,’’ चलो! अब परमात्मा को ही अपने को दे दें’’ । लेकिन यह देना कुछ सार्थक नहीं। इस देने से कुछ सार नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे खोटे सिक्के को कोई दान कर दे।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन बड़ा खुS था। मुझे मिलने आया। मैंने पूछा,’’ बड़े प्रसन्न हो ,   ‘’ कहने लगा,’’ दो आदमियों का उपकार करके आ रहा हूं’’ । मुझे भरोसा न आया। पूछा,’’ क्या उपकार किया है? ‘’उसने कहा,’’ दस रुपये का एक नोट था नकली, मेरे पास। एक गरीब आदमी को मैंने भेंट किया और कहा, एक रुपया तू रख ले, नौ वापस कर दे। वह भिखमंगा गया पास की दुकान पर, उसने दस की रेजगारी ले ली। नौ मुझे वापस कर दिए, एक रख लिया उसने। दो आदमियों का भला करके आ रहा हूं!’’ मैंने पूछा,’’ इसमग दो कौन हैं जिनका भला हुआ?   ‘’कहने लगा,’’ एक तो भिखमंगे को एक रुपया मिला,’’ और एक मुझे नौ रुपये मिले। क्योंकि नोट तो नकली ही था’’ ।

लोग दान भी करते हैं तो खोटे सिक्कों का कर आते हैं। तुम दान ही तभी करते हो जब तुम्हारे पास कोई ऐसी चीज आ पड़ती है जिसका तुम्हें कुछ उपयोग नहीं सूझता। मैं जानता हूं, कुछ चीजें तो समाज में घूमती ही रहती है। तुम किसी को दे देता हो, फिर वह किसी को दे देता है, फिर वह किसी को दे देता है। व्यर्थ की चीजें होती हैं। भेंट करने का ही मजा लोग ले लेते हैं।

संसार का सारा गणित यह है : पकड़ो, छूट न जाए! और प्रेम का सारा गणित यह है कि छोड़ दो, क्योंकि जिन्होंने पकड़ा उनका छीन लिया गया है। जिन्होंने छोड़ दिया, उनका कोई छीनेगा कैसे? इधर तुम देते हो—वस्तुत : तुम जो देते हो उसी के तुम मालिक हो। इस सूत्र को हृदयस्थ कर लो। कंठस्थ तो तुम कर सकोगे, उससे कुछ सार नहीं। हृदयस्थ कर लो! जो तुम देते हो उसी के तुम मालिक हो। जो तुम पकड़ते हो उसके तुम गुलाम। जिसे तुम्हें देने की हिम्मत नहीं उसके तुम मालिक कैसे हो सकते हो?

प्रेम तुम्हें मालिक बनाता है।

स्वामी राम अमरीका गए। वे अपने को शहंशाह कहा करते थे। अमरीका में लोगों ने उनसे पूछा कि आपके पास कुछ भी नहीं है, आप अपने को शहंशाह कहते हैं। उन्होंने कहा, ‘’इसीलिए! सब दे डाला। जो-जो दे डाला उसके तो मालिक हो गए। और अपने को भी दे डाला। जिस दिन अपने को दिया, उस दिन मालकियत पूरी हो गई। अब इस मालकियत को कोई छीन न सकेगा। हम शहंशाह हैं, क्योंकि हमारे पास कुछ भी नहीं है’’ ।

उन्होंने किताब लिखी तो किताब को नाम दिया : ‘’ राम बादशाह के छह हुक्मनामे’’। छह आज्ञाएं बादशाह राम की! पास कुछ भी न था। मगर राम जैसा सम्राट मुश्किल से पैदा होता है। उनके जैसी खुशी, उनके जैसा आनंद, उनके जैसा नृत्य, उनके जैसी मौज–जैसे सदा ही बहार में रहे, बसंत ही बसंत रहा, पतझड़ कभी आया भी नहीं।

प्रेम में पतझड़ आता ही नहीं। प्रेम ने पतझड़ जाना ही नहीं। प्रेम में एक ही ऋतु है–बसंत। दो–और तुम खिले! अगर वृक्ष भी कंजूस हों तो खिल न पाएंगे, क्योंकि फूल तो बंट जाते हैं। फूल तो खिला नहीं कि सुगंध उड़ी नहीं। फूल तो खिला नहीं कि दिगदिगत में हवाएं ले जाएंगी, बांट डालेंगी। अगर पेड़ कंजूस हों तो फूल न खिलेंगे, क्योंकि खिलने में तो हर होगा, ज्यादा से ज्यादा कलियों तक पहुंचेंगे, फिर सिकुड़कर रह जाएंगे कि कहीं हवाएं ले न जाएं, छीन न लें, दान न हो जाए।

मगर ध्यान रखना, वृक्ष की शोभा, वृक्ष का सम्राज्य तभी है जब उसकी सब ऊर्जा फूल बन जाए और वह लुट जाए।

“प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए’’ ।

बस करने योग्य प्रेम है, इसलिए दुबारा दोहराया है नारद ने : ‘’ प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए।’’ कुछ और करने जैसा नहीं है, क्योंकि प्रेम देना है अपने को समय भाव से।

यह इश्क नहीं आसा इतना ही समझ लीजे इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है!

यहां पहुंचते वही है जो डूब जाते हैं। यहां जो किनारों को पकड़कर बैठ जाते हैं, वे कभी नहीं पहुंच पाते। मुझे ऐसा कहने दो कि जो किनारे पर बैठते हैं वे डूब जाते हैं; जो मंझधार में डूबते हैं उन्हें किनारा मिल जाता है।

मिटना ही कला है प्रेम की। मिटना ही प्रार्थना है। अगर प्रार्थना करते-करते तुम पिघले न, तो तुमने व्यर्थ माथापच्ची की। अगर प्रार्थना करते-करते तुम बह न गए सभी दिशाओं में, तो तुम्हारी प्रार्थना भी तुम्हारी अक्ल का ही हिसाब है। सोचते हो, चलो यह भी कर लो, कौन जाने परमात्मा हो।

एक चर्च में एक पादरी बोल रहा था। वह थोड़ा हैरान हुआ। एक बुढ़िया सामने ही बैठी थी। वह जब भी ईश्वर का नाम लेता तब वह’’ आमीन’’ कहती थी। वह तो ठीक था। आमीन’’ ओउम’’ का ही रूपांतरण है। स्वागत का भाव है उसमें। लेकिन जब वह शैतान का नाम लेता तब भी वह कहती थी–”आमीन’’। वह थोड़ा हैरान हुआ। पूरा प्रवचन हो जाने पर वह उतरा मंच से नीचे, उस बुढ़िया के पास गया, कि मेरी समझ में नहीं आय। ईश्वर का नाम लेकन तो मैंने बहुतों को आमीन करते देखा, लेकिन तू शैतान के नाम में भी करती है!

बुढ़िया ने कहा,’’ मरने का वक्त है, किसी को नाराज करना ठीक नहीं। पता नहीं कहां जाना हो, किससे मिलना हो! शैतान के हाथ में पड़े कि भगवान के हाथ में पड़े! दोनों को ही राजी रखना ठीक है। अब यह सुविधा मेरे पास नहीं है कि ज्यादा सोच- विचार करूं। मरना करीब है। इसलिए मैं तो दोनों की प्रार्थना कर लेती हूं’’ ।

यह बुद्धि का हिसाब है। जैसे- जैसे मौत करीब आती है, तुम परलोक का इंतजाम करने लगते हो कि अब यहां तो छूटने लगा, फैलाया था बड़ा पसारा, सिकुड़ने लगा, यहां तो अब विदा होने की घड़ी आ गई, लोग तो अर्थी तैयार करने लगे, जल्दी ही बैंड- बाजा उठ जाएगा, चल पड़ोगे–अब थोड़ा उस परलोक की भी खबर कर लें, कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा हो ही! फिर हर्ज क्या है! नहीं हुआ तो कुछ बिगड़ता नहीं है, अगर हुआ तो कहने को तो रहेगा कि याद किया था।

ऐसे ही बेईमानों ने कहानियां भी गढ़ रखी हैं कि एक पापी मर रहा था, उसके बेटे का नाम नारायण था, उसने जोर से मरते वक्त बुलाया—”नारायण, नारायण! तू कहां है, नारायण’’ ।–और मर गया! कहते हैं, ऊपर के’’ नारायण’’ धोखे में आ गए! उसे उन्होंने स्वर्ग भेज दिया! आदमी की बेईमानी की कोई सीमा नहीं है। पंडित-पुरोहित ये कहानियां सुनाते हैं, लोगों को कहते हैं,’’ घबड़ाओ मत, मरते वक्त भी अगर नाम ले लिया एक बार, बस हो गया’’ ! लेकिन जिसको तुमने जीवन में न पुकारा उसे तुम मरने में कैसे पुकार सकोगे? जिसका नाम तुम्हारे ओठों पर जीवित-जीवित न आया, मृत्यु के क्षण में तुम्हारे मुरझाये ओठों पर उसके नाम की कुछ शोभा होगी? हृदय जब भरा- पूरा था, तब तुम वेश्याओं के द्वार पर लुटाते रहे। जब प्राणों में ऊर्जा थी तब तिजोडी भरते रहे। जब कुछ करने के दिन थे तब तो तुमने व्यर्थ और गलत ही किया। अब जब सब तरफ से सूख गए, हाथ सब तरफ से छीन लिए गये, सब दरवाजे बंद हो चुके तब—तब तुम मंदिर के द्वार पर आ बैठे! अब तुम’’ नारायण- नारायण’’ कर रहे हो! ऐसे कहीं हो सकता है? ऐसा धोखा कहीं हो सकता है ,

तुम्हारे जीवनभर का आलेख होगा, तुम्हारी मृत्यु के क्षण का नहीं, क्योंकि मृत्यु का क्षण तो तुम्हारे जीवनभर का निचोड़ है। तुम लाख नारायण कहो, अगर जीवन में तुम्हारे नारायणन बसा था, तो मरते वक्त तुम्हारे ओंठ से भला निकल जाए, तुम्हारे प्राणों की गहराई से न आ सकेगा, तुम्हारी परिधि पर भला हो जाए! राम- नाम चदरिया ओढ़ लेना। इससे किसको धोखा दोगे तुम ,

अस्तित्व को धोखा नहीं दिया जा सकता। इसलिए प्रतीक्षा मत करो कि कल कर लेंगे, कि अभी तो जवानी है, अभी तो हम जवान हैं, अभी तो जरा राग- रंग देख लें!

रामकृष्ण के पास एक आदमी आता था। वह काली का बड़ा भक्त था और साल में दो- चार दफे बकरे चढ़ावा देता था और भोज दिलवा देता था, फिर अचानक उसने बंद कर दिया।

रामकृष्ण ने कहा,’’ हुआ क्या? ‘’आया—कहा कि तू तो बड़ा भक्त था और तू तो सदा बकरे चढ़वाता था, दो-चार दफा साल में उत्सव मनवा देता था—अब क्या चित्त धार्मिक न रहा?    उसने कहा,’’ धार्मिक तो अब भी हूं, लेकिन दांत टूट गए!’’

आदमी मंदिर में भी जो करता है वह अपने ही लिए करता है। वह उत्सव वगैरह… काली तो बहाना था, वह तो मांसाहार को धर्म की आड़ में करने का उपाय था। पर अब दांत ही टूट गए! नहीं हो सकेगी। उसमें पूजा की सुगंध न होगी। उसमें अर्चना की धूप न उठेगी। उसमें तुम्हारी दुर्गंध ही होगी, उसमें जीवनभर की सड़ांध ही होगी।

करने योग्य तो एक ही बात है—और वह प्रेम है। लेकिन’’ इक आग का दरिया है और डूब के जाना है’’ ।

तीन-स्वामी, सेवक, सेवा, या ज्ञान, जाता, ज्ञेय, या द्रष्टा, दर्शन, दृS य—सभी त्रिभगिमा छोड़ देनी हैं। त्रिवेणी के पार उठे तो असली तीर्थ श्दुरू होता है। त्रिवेणी में डुबकी लगाई और उस जगह पहुंच गए जहां तीनों एक हो गए हैं…।

हिंदुओं के पास बड़ी सुंदर मूर्ति है—त्रिमूर्ति—ब्रह्मा, विष्णु, महेश! एक ही मूर्ति में तीनों के चेहरे हैं। किसी भी चेहरे से प्रवेश करो, भीतर एक जगह आ जाएगी जहां तीनों मिलते हैं। मूर्ति तो एक ही है, चेहरे भर तीन हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही परमात्मा के तीन चेहरे है। एक को पाना है। तीन के पार जाना है। और पार जाने का प्रेम के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। क्योंकि प्रेम ही जोड़ता है, बाकी सब चीजें तोड़ती हैं। धूणा तोड़ती है। जिससे धूणा हो जाए उससे हम टूट जाते हैं। जिससे धूणा हो जाए वह हमारे पास भी खड़ा हो तो करोड़ों मील का फासला हो जाता है। फिर जिससे प्रेम हो जाए उससे हम जुड़ जाते हैं। करोड़ों मील का फासला हो तो भी वह हमारे पास ही होता है, हृदय की धड़कन के बिलकुल पास होता है। प्रेम जोड़ता है।

धूणा अहंकार की अभिव्यक्ति है। जिसने प्रेम किया वह निरहकारी हुआ। बड़े शौ व तवज्जो से सुना दिल के धड़कने को मैं यह समझा कि शायद आपने आवाज दी होगी।

प्रेमी तो अपने दिल की धड़कन में भी उसी की आवाज सुनता है। दिल भी धड़कता है तो वह आंख बंद करके रस लेता है:’’ होगी उसी के पैरों की आवाज’’ !

“कतील’’ अब दिल की धड़कन बन गई है चाप कदमों की

कोई मेरी तरफ आता हुआ मालूम होता है।

दिल की धड़कन भी उसी के पैरों की आवाज हो जाती है। आंख खोलते हो जहां, वही दिखाई पड़ता है। तू ही तू है! पर प्रेम चाहिए। लोग परमात्मा को खोजने निकलते हैं और प्रेम है नहीं। परमात्मा को तो तुम छोड़ो; तुम प्रेम को खोज लो, परमात्मा अपने से बंधा चला आएगा। कच्चे धागे से चले आएंगे सरकार बंधे!

प्रेम का धागा बड़ा कच्चा है, पर उससे मजबूत कोई चीज ही नहीं। बड़ा कोमल है! लेकिन तुमने कभी खयाल किया कि लोहे कि जंजीरें भी तोड़ दो, प्रेम का कच्चा सा धागा भी तोड़ते नहीं बनता। कितनी ही बड़ी जंजीरें तोड़ी जा सकती हैं। जिन्हें डाला जा सकता है उन्हें तोड़ा जा सकता है। प्रेम भर नहीं टूटता। क्योंकि तुम्हारे ढाले ढलता नहीं। प्रेम तुमसे बड़ा है, कैसे टूटेगा ,     वस्तुत : तोड़ने वाला तो प्रेम में पहले ही टूट जाता है, तोड़नेवाला ही नहीं बचता।

“तीन रूपों को भंग कर नित्य दास्यभक्ति से या नित्य काताभक्ति से प्रेम करना चाहिए।’’

क्या है दास्यभक्ति? क्या है कांताभक्ति? दोनों एक ही है। जब कोई स्त्री किसी को प्रेम रती है तो फर्क तुम समझना।

नारद को कांताभक्ति शब्‍द का उपयोग करना पड़ा। जब कोई स्त्री किसी पुरुष को प्रेम करती ई तो उसे प्रेम का गुणधर्म बड़ा भिन्न होता है—उससे—जब कोई पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है। दोनों के गुणधर्म में बड़ी गहराई का फर्क है। पुरुष के लिए हजार कामों में प्रेम एक काम है। और हजार चीजें भी हैं करने को उसे, उन्हीं के बीच- बीच में समय निकालकर वह प्रेम भी कर लेता है। यS भी कमाना है, धन भी कमाना है, पद- प्रतिष्ठा है, दुकान है—हजार काम हैं। प्रेम उन्हीं के बीच में एक विश्राम है। स्त्री की बात बड़ी अलग है। स्त्री के लिए प्रेम की उसका एकमात्र काम है, और कुछ भी नहीं। उसे कुछ और नहीं करना है। प्रेम न हो स्त्री के जीवन में तो बिलकुल सूनी रह जाती है। पुरुष के जीवन में प्रेम न हो तो भी कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, वह हजार और चीजों से भर लेता है—धन से, पद से, राजधानियों में पहुंच जाता है। उसके और भी प्रेम हैं—प्रेम के अलावा। हजार तरह के! कुछ न मिले, कुछ मूढतापूर्ण काम करने लगता है—चलो, टिकटें ही इकट्ठी करो, पोस्टल स्टाम्प ही इकट्ठे करो, घुडदौडु में चले जाओ।

जरा सोचें, किसी घोड़े को कहो कि आदमियों की दौड़ हो रही है, आदम- दौड़ हो रही है, कोई घोड़ा न आएगा देखने। मगर आदमी हजारों की संख्या में खड़े हैं। यह पूरा कोरगाव पार्क घुडुदौडु देखनेवालों का निवास- स्थान है। बस जब घुडुदौडु होती है पूना में, तब वे आ जाते हैं, बस्ती आबाद हो जाती है, अन्यथा खाली हो जाती है। घोड़े भी हंसते होंगे कि आदमियों- से गधे न देखे! फिर घोड़ा कम- से- कम घोड़ा तो है।

फुटबाल हो कि हाकी हो कि बालीबाल हो, कि दो जगंली आदमी कुश्‍ती लड़ रहे हों, उसी को देखने खड़े हैं, धक्कमधुक्की खा रहे हैं। हजारा काम है आदमी को, चैन नहीं है! प्रेम तो बीच- बीच का विश्राम है, वह जीवन की मूल धोरा नहीं है, राह के किनारे-किनारे है। वह भी पोस्टल स्टाम्प जैसा ही एक शौक है, कर लिया तो ठीक, न किया तो कुछ हर्ज नहीं।

स्त्री प्रेम न कर पाए तो उसके भीतर कुछ अनखिला रह जाता है। इसलिए तुम हैरान होओगे, स्त्री एक बार प्रेम कर लेती है तो जैसे सदा के लिए प्रेम कर लेती है, एक पुरुष उसके लिए सदा के लिए हो जाता है। पुरुष इतनी जल्दी एक में नहीं डूबता। पुरुष की आकांक्षा और स्त्रियों पर घूमती ही रहती है, वह लाख उपाय करे, लेकिन उसकी नजर भटकती रहती है। पुरुष की नजर आवारा है। अगर पुरुष का बस चले—और धीरे-धीरे उसने इंतजाम किए हैं, बस–अगर उसका बस चले तो विवाह समाप्त हो जाएगा। पश्‍चिम के मुल्कों में जहां पुरुष ने काफी सम्पत्ति और सम्पन्नता पैदा की ली है, वहां विवाह टूट रहा है।

स्त्री जब भी किसी के प्रेम में पड़ती है तो वह पहले ही विवाह का सोचने लगती है; और पुरुष जैसे ही किसी के प्रेम में पड़ता है, वह विवाह से बचने की सोचने लगता है।

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे बोला कि अब आखिर आज जा ही रहा हूं।’’ हुआ क्या?’’ मैंने कहा,’’ दांत के डाक्टर के पास जा रहे हो, कहां जा रहे हो? कोई बीमारी हो गई है? कोई झंझट है, अदालत में कोई मुकदमा है?’’

उसने कहा कि नहीं, विवाह करना है। अब तक टाला!

पुरुष टालता है। स्त्री आतुर होती है, क्योंकि स्त्री को प्रेम एकोन्मुख है, एकांत है। पुरुष का प्रेम छितरा-छितरा है। पुरुष खानाबदोश है; घर बनाकर रहने में उसे बेचैनी मालूम पड़ती है।    स्त्रियों ने घर बनवाए। सारी सम्यता स्त्रियों के कारण बनी। नहीं तो पुरुष तो घूमता ही रहता डेरा-डंगा लेकर; तम्बू काफी था! मकान! इतना ठोस बनाने की जरूरत क्या है! तम्बू लगा लेते! आज यहां, कल वहां, परसों वहां!

नये पर पुरुष का रस है। भंवरे की तरह है–एक फूल, दूसरा फूल, तीसरा फूल! किसी फूल के साथ प्रतिबद्ध नहीं हो पाता, कमिट नहीं कर पाता। स्त्री करवा लेती है उससे। बेचैनी में, मजबूरी में, उलझन में फंस गया, निकल नहीं पाता। अपनी ही कही बातें अपनी ही गर्दन पर फंस जाती हैं।

मैंने सुना है, एक आदमी ने अपनी प्रेयसी को कहा,’’ तू मुझसे विवाह करेगी?’’ उसने कहा,’’ हां, निश्वित।’’ फिर वह आदमी बिलकुल चुप ही बैठ गया। घड़ी भारी लगने लगी। उस स्त्री ने कहा,’’ कुछ बोलो भी”। उसने कहा,’’ अब और बोलने को बचा क्या! बोल चुके। अब जिंदगी में बोलने को कुछ नहीं बचा। कितना टाला, आल निकल गया!’’

इसलिए नारद कहते हैं: कांताभक्ति। भक्त को अगर परमात्मा से भक्ति करनी है तो स्त्री से प्रेम सीखना पड़ेगा। फिर एक पर ही प्रतिबद्ध होना पड़ेगा।

तुम्हारा प्रेम बंटा हुआ है; थोड़ा इस दिशा में, थोड़ा उस दिशा में; थोड़ी राजनीति भी कर लो, थोड़ा धन कमा लो; थोड़ा धर्म भी कर लो; थोड़ी प्रतिष्ठा में हज क्या है; सभी कुछ बांट लो, बटोर लो! जिंदगी छोटी है, हाथ छोटे हैं, समय बहुत संकीर्ण है! तुम हजार दिशाओं में दौड़कर पगला जाते हो।

प्रेम अहर्निश एक दिशा में यात्रा है। इसलिए कांताभक्ति! एक बार स्त्री किसी के प्रेम में पड़ जाए, फिर उसके लिए संसार में कोई दूसरा पुरुष रह नहीं जाता। यही तो अड़चन है।

इसलिए स्त्री पुरुष को नहीं समझ पाती, पुरुष स्त्री को नहीं समझ पाता। पुरुष के लिए और भी स्त्रियां हैं। और पुरुष हमेशा अनुभव करता है कि नये-नये संबंध हो जाएं तो शायद ज्यादा सुख होगा। स्त्री की प्रतीति यह है कि संबंध जितना गहरा हो उतना ज्यादा सुख होगा।

पुरुष मात्रा पर जाता है; स्त्री, गुण पर। इसलिए सम्राट हैं, तो हजारों रानियों को इकट्ठा कर लेते हैं। फिर भी मन नहीं भरता। पुरुष का मन भरता नहीं–भर सकता नहीं। क्योंकि मन भरने की तो त भी सम्भावना है जब प्रेम गहरा हो, गुणात्मक हो। एक के सा थ इतनी तल्लीनता आ जाए, इतना तादात्म्य हो जाए कि भेद गिर जाएं। प्रेम तो तभी तृप्त होता है जब प्रा र्थना की सुगंध प्रेम में उठने लगे।

समय चाहिए!

पुरुष का प्रेम मौसमी फूलों की तरह है, अभी बोए, दोतीन सप्ताह बाद आना शुरू हो जाए। सर्दी आएगी, बाग- बगीचे मौसमी फूलों से भर जाएंगे। स्त्री का प्रेम मौसमी फूलों जैसा नहीं है, समय लगता है। जितना बड़ा वृक्ष, जितना आकाश में ऊपर उठाना हो, उतना जमीन में गहरी जड़ों को जाना पड़ता है। जितना वृक्ष ऊपर जाता है उतनी ही जड़ें नीचे गहरी जाती हैं। मौसमी फूलों की कोई जड़ें होती हैं, जरा हिला दो, उखड़ गए! इसलिए तो दो- चार छह सप्ताह में आ जाते हैं, पर दो-चार छह सप्ताह में विदा भी हो जाते हैं। क्षणभंगुर है पुरुष का प्रेम। उफान आता है उसमें, ज्वार आता है उसमें लेकिन भाटे के आने में देर नहीं लगती। ज्वार के पीछे ही छिपा भाटा भी चला आता है। अगर पुरुष के प्रेम को गौर से देखो, तो तुम उसे पाओगे कि जब वह प्रेम के क्षण में होता है, तब तो यह भूल ही जाता है कि मैं पुरुष हूं, क्या कह रहा हूं। वह कहता है,’’ सदा तुझे प्रेम करूंगा! तेरे अतिरिक्त और कोई मेरे लिए प्रेम का पात्र नहीं है’’ । पुरुष ये बातें कहता है, जब कहता है तब वह भी आविष्ट होता है उन बातों से—लेकिन घड़ीभर बाद उसे लगता है,’’ यह मैं क्या कह गया! इसे पूरा कर पाऊंगा? असम्भव मालूम होता है’’ । स्त्री इन बातों को हृदय से कहती है। सच तो यह है, स्त्री ये बातें कहती नहीं, अनुभव करती है।

अगर तुम दो प्रेमियों के बैठे देखो, तो तुम स्त्री को चुप पाओगे, पुरुष को बोलते पाओगे। सत्री चुप रहती है, कहना क्या है! जो है, है। जो है, वह अपनी दीप्ति से ही चमकेगा, उसे शब्‍द दे कर ओछा क्यों करें? ऐसा नहीं कि स्त्री चुप बोलना नहीं जानती—स्त्री पुरुष से ज्यादा बोलना जानती है। लेकिन प्रेम के क्षण में स्त्री चुप होती है। बात इतनी बड़ी है कि कही नहीं जा सकती। ऐसे तो स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा बोलने में कुशल होती हैं। बच्चियां पहले बोलती हैं बच्चों की बजाय। लेकिन सालभर पहले बोलना शरु कर देती हैं। लड़के थोड़ा देर लगाते हैं बोलने में। स्कूलों में भी लड़कियां ज्यादा प्रथम कोटि की आती हैं, बोल सकती हैं, लिख सकती हैं। कुशल हैं बोलने में। पुरुष का बोलना इतना कुशल नहीं है। लेकिन जब स्त्री-पुरुष प्रेम में पड़ते हैं, स्त्री चुप होती है, पुरुष बोलता है। क्योंकि जो नहीं है, वह बोल-बोलकर उसकी आभा पैदा करता है, आभास पैदा करता है। स्त्री चुप्पी से बोलती है। एक बार प्रेम में पड़ जाए तो वह सदा के लिए पड़ गई। इसलिए तो इस देश में हजारों स्त्रियां सती हो गईं अपने प्रमियों के पीछे, लेकिन कोई पुरुष क भी सता नहीं हुआ। इधर पत्नी मरी नहीं कि वह दूसरी पत्नी को लाने के विचार करने लगता है—वस्तुत : तो यह है कि मरने के पहले ही करने लगता है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। आखिरी क्षण उसने कहा कि’’ मुझे पता है कि तुम मेरे मर जाने के बाद विवाह करोगे, तुम अकेले न रह सकोगे। करना, लेकिन एक बात खयाल रखना’’ । नसरुद्दीन ने कहा,’’ कभी नहीं करूंगा, तू बिलकुल चिंता मत कर। कभी भी नहीं करूंगा। असम्भव है यह बात’’। और उसने कहा कि वह मैं जानती हूं, तुम मुझे व्यर्थ का भरोसा मत बंधाओ, सिर्फ एक बात का भरोसा मुझे बता दो, मेरे गहने और मेरे कपड़े उस स्त्री को मन पहनने देना।

नसरुद्दीन ने कहा,’’ यह झंझट की बात हुई। फातिमा तो तेरे गहने आएंगे भी नहीं और तेरी साड़ी भी नहीं आएगी’’ ।

वे तय ही कर चुके हैं कि किससे शादी करनी है!

पुरुष थिर नहीं है, चंचल है। इसलिए नारद को कहना पड़ा : ‘’कांताभक्ति’’।जैसे कोई स्त्री किसी को प्रेम करती है, ऐसा परमात्मा को प्रेम करना।

 

“दास्याभक्ति’’ !

दास शब्‍द निंदित हो गया बहुत। लेकिन उसमें भी कुछ राज है। अब तो दुनिया में कोई दास होते नहीं। और अगर किसी कम्यूनिस्ट को ये नारद के सूत्र मिल जाएं तो वह कहेगा, यह आदमी तो बुर्जुआ, पूंजीवादी मालूम पड़ता है, केपिटलिस्ट है, दासों की बातें कर रहा है, कह रहा है कि दास्यभक्ति होनी चाहिए, दासों जैसा होना चाहिए! दासता को मिटा दिया!

जिस दासता को तुमने मिटा दिया है उसकी बात नहीं हो रही है। यह एक ऐसी बात है कि कभी-कभी घटती है। यह भी प्रेम हा एक कि कोई किसी को अपनी सारी मालकियत दे देता है। छीन नहीं लेती—कोई-कोई दे देता है! कोई किसी के चरणों का दास हो जाता है। इतना हो जाता है कि अगर दोनों के जीवन बचाने का मौका आए और एक ही बचता हो, तो दास अपने मालिक को बचाएगा, अपने को नहीं। अगर घर में आग लगी हो तो दस जल जाएगा, मालिक को बचा लेगा।

दास्याभक्ति का इतना ही अ र्थ है कि तुमने जिसे मालिक जाना, उसको ही तुम अपनी आत्मा भी जानना। परमात्मा मालिक है, स्वामी है। या तो काताभक्ति करना या दास की भक्ति करना। क्योंकि दास भी अपना तादात्म्य छोड़ देता है अपने से, और मालिक के साथ जुड जाता है, और कांता भी अपने को बिलकुल भूल जाती है, अपने पति के साथ एक हो जाती है।

तुमने देखा! विवाह कर लाते हो स्त्री को, तुम्हारा नाम स्त्री के साथ जुड़ जाता है, तुम्हारा कुल, तुम्हारा गोत्र तुम्हारी जाति स्त्री के साथ जुड जाती है। इससे उलटा नहीं होता। तुम्हारी स्त्री की जाति तुम्हारे नाम से नहीं जुड़ती। स्त्री अपने को तुम में खो देती है, तुम उसमें अपने को नहीं खोते। तुम विवाह कर लाते हो स्त्री का नाम भी बदल देते हो। वह प्रसन्न होती है उसके नाम के बदल जाने से क्योंकि अतीत का मूल्य ही क्या अब! जो प्रेम के पहले था, वह था ही नहीं। असली जीवन तो अब शुरू हुआ। नया जन्म : नया जीवन! वह नया नाम चाहती है। वह नया भाव चाहती है अपने जीवन का। वह नाम भी बदल लेती है।

विवाह तुम करते हो स्त्री से, तो स्त्री के घर रहने पुरुष नहीं जाता, स्त्री पुरुष के घर रहने आती है। कभी मजबूरी में किसी कारण से पुरुष को जाना पड़ता है तो बड़ा लज्जित भाव से जाता है। घरजवाइ की जैसी फजीहत होती है, वह सभी जानते हैं। कभी एकाध पर यह मुसीबत आ जाती है कि घरजंवाई बनना पड़ता है, तो दीन- हीन हो जाता है।

तुम जरा गौर करो। आखिर पुरुष अगर विवाह करके अपनी पत्नी के घर रहने जाता है तो दीन-हीन की क्या जरूरत है? मगर वह समझता है, कुछ मजबूरी हो गई, अवश हो गया, असहाय हो गया, दूसरों पर निर्भर हो गया! लेकिन तुमने कभी इससे उलटा होते देखा ,     खयाल तुम करो, स्त्री तुम्हारे घर में आती है, दूसरे के घर में आती है, अपने को सब भांति लुटा देती है, और कभी दीन-हीन अनुभव नहीं करती, सौभाग्यशालिनी अनुभव करती है। यही नहीं, मजे की बात यह है कि अपने को पूरी तरह सर्वस्व दान करके अचानक तुम्हारे घर की मालकिन हो जाती है,’’ घरवाली’’ हो जाती है। घर तुम्हारा था, सत्री’’ घरवाली’’ हो जाती है! तुमको कोई’’ घरवाला’’ नहीं कहता। और ऐसा अनुभव नहीं करती कि दूसरे के घर में आ गई है। अपने को इतना खो देती है कि पराया नहीं बचता।

इसलिए नारद कहते हैं : कांताभक्ति या दासभक्ति…! इतने एक हो जाना परमात्मा से कि फासला न रह जाए।

नियाजे-इश्क की ऐसी भी एक मंजिल है

जहां है शक्र शिकायत किसी को क्या मालूम!

एक ऐसा भी मुकाम है प्रेम की यात्रा में, जहां तुम इतने एक हो जाते हो कि धन्यवाद देने में भी शिकायत मालूम पड़ेगी।

तुमने कभी खयाल किया! पश्‍चिम में चलता है, क्योंकि पश्‍चिम में संबंध औपचारिक हो गए, उनकी गहराई खो गई। अगर बेटा मां के लिए कुछ करता है तो मां भी कहती है,’’ थैंक्यू। धन्यवाद!’’

हिन्दुस्तान में कोई मां न कहेगी। धन्यवाद बेटे से! यह तो बड़ा परायापन हो जाएगा। बाप बेटे के लिए कुछ करता है तो पश्‍चिम में बेटा धन्यवाद देता है, न दे तो अशिष्ट है। लेकिन पूरब में! बाप बेटे के लिए कुछ करता है और अगर बेटा धन्यवाद दे तो बाप बड़ा चौंकेगा कि हुआ क्या! तू कोई पराया है ,

जहां संबंध औपचारिक होता है वहां धन्यवाद ठीक है। लेकिन जहां संबंध आत्मीय है वहां तो धन्यवाद शिकायत हो गई। धन्यवाद भी शिकायत हो जाती है, ऐसी भी प्रेम की एक मंजिल

 

है। नियाजे- इश्‍क की ऐसी भी एक मंजिल है

जहां है शक्र शिकायत किसी को क्या मालूम!

 

मैं तुमसे निरंतर कहता हूं कि प्रार्थना धन्यवाद है। लेकिन फिर एक ऐसी मंजिल भी आती है। यह तो शुरूआत की बात है कि प्रार्थना धन्यवाद है। यह तो मैं तुमसे इसलिए कहता हूं, ताकि तुम प्रार्थना को मांग न बनाओ। मांगने मत जाओ परमात्मा से, धन्यवाद देने जाओ। लेकिन जल्दी ही अगर तुम्हारा धन्यवाद गहन होने लगा, तो एक दिन तुम पाओगे : अब तो धन्यवाद देना भी शिकायत जैसा हो गया, क्योंकि परमात्मा से यह जाकर कहना कि तूने बहुत दिया, जाहिर है कि तुम कह रहे हो, लेकिन बहुत तुमने माना नहीं। औपचारिक है। अगर परमात्मा न देता तो…।

रामकृष्ण के पास जब केश्‍वचंद्र मिलने आए, पहली बात तो विवाद किया, फिर धीरे-धीरे उनके सत्संग में आने लगे, उनसे प्रभावित हुए, आदोलित हुए, परमात्मा की भक्ति भी करने लगे। तो रामकृष्ण ने एक दिन पूछा कि’’ तुम करते क्या हो भक्ति में? क्या विधि-विधान है तुम्हारा? ‘’उन्होंने कहा,’’ धन्यवाद देता हूं परमात्मा को। धन्यवाद देता हूं कि तूने जीवन दिया, आखे दीं, कान दिए, हाथ दिए, प्राण दिए, बुद्धि दी, इतना सब कुछ दिया! मेरे बिना कमाए दिया! मेरे बिना मांगे दिया!’’

रामकृष्ण लेकिन उदास हो गए? केशवचंद्र ने कहा,’’ आप सुनकर उदास क्यों हो गए ,     उन्होंने कहा,’’ धन्यवाद देता है? अगर परमात्मा आखें न देता, तू अंधा होता, तो फिर धन्यवाद देता कि नहीं? फिर नहीं देता। अगर बहरा होता तो? परमात्मा ने जो दिया है उसके कारण तू धन्यवाद देता है। अगर न दिया होता तो, फिर क्या करता तूं?‘’

धन्यवाद में भी शिकायत है। परमात्मा के सामने हो जाना काफी है। पहले मांग छोड़ो। धन्यवाद के कांटे से मांग का कांटा निकाल लो। फिर दोनों कांटे फेंक दो। फिर धन्यवाद भी क्या देना? उसी का सब है, धन्यवाद रखने लायक जगह भी बीच में नहीं बचती।

“भक्ता एकान्तिनो मुख्या :’’ ।

दूसरा सूत्र : ‘’ एकान्त अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठ है’’ ।

जैनों के पास एक शब्‍द है—अनेकांत। उसके विपरीत में शब्‍द है—एकांत। अनेकांत में जैनों का कहना है कि संसार में एक वस्तु नहीं है, अनेक वस्तुएं हैं, संसार अनंत वस्तुओं क जोड़ है। जैन अद्वैतवादी तो है नहीं, द्वैतवादी भी नहीं हैं—अनेकवादी हैं। इसलिए उनके दर्शनशास्‍त्र का ही नाम अनेकांत दर्शन हो गया। भक्त कहता है, एक ही है। जैन शास्त्र अत्यन्त तर्ककुशल है। जैन शास्त्र पढ़ोगे तो गणित जैसा मालूम पड़ेगा। साफ-सुथरा है बहुत—गणित साफ-सुथरा होता ही है। तर्क बहुत स्पष्ट है—तर्क स्पष्ट होते ही हैं। लेकिन गीत नहीं है, संगीत नहीं है। थोथा-थोथा है, ऊपर- ऊपर है। मरुस्‍थल जैसा है, फुलवाड़ी नहीं है, हरियाली नहीं है। रूखा रेगिस्‍थान मालूम होता है।

ठीक अनेकांत से विपरीत दृष्टि भक्त की है। इसलिए तो जैन भक्त नहीं है। वे भगवान को भी नहीं मानते, क्योंकि अगर भगवान को मानेंगे तो एक को मान लेना पड़ेगा। वे कहते हैं, अनंत वस्तुएं हैं, अनंत पदा र्थ हैं—लेकिन कोई एक नहीं है सबको जोड़नेवाला। वे कहते हैं, मनके तो बहुत हैं, लेकिन मनकों में पिरोया हुआ एक सूत्र नहीं है जो माला बना दे। भक्ति शास्‍त्र कहता है, मनकों से कहीं माला बनी? यद्यपि भीतर पड़ा हुआ धागा दिखाई नहीं पड़ता, मनके ही दिखाई पड़ते हैं, लेकिन मनकों से कहीं माला बनी? ढेर लग सकता था। अगर अनंत वस्तुएं होतीं और उन सबको जोड़नेवाला कोई एक न होता, तो संसार में ढेर हाता चीजों का, व्यवस्‍था नहीं हो सकती थी। तुम मनकों का ढेर लगा सकते हो, माला नहीं बना पाओगे। गले में तो पहनोगे कैस? लेकिन जगत बंधा हुआ, गुथा हुआ मालूम पड़ता है। अलग-अलग चीजें नहीं मालूम पड़ती। तुमने कोई चीज देखी जो अलग है? सब जुडा है। वृक्ष जमीन से जुडे हैं, जमीन सूरज से जुड़ी है, सूरज चादतारों से जुड़े हैं। सब जुडा है, गुंथा है, माला है। तो निश्वित ही इतनी अनंत चीजों का जोड़नेवाला कोई एक सूत्र, कोई सूत्रधार है, इन सबके भीतर पिरोया हुआ एक धागा–उस धागे का नाम ही परमात्मा है।

एकांत भक्ति श्रेष्ठ है। और भक्त तो कैसे दो का हो सकता है? एक का ही हो सकता है। इस्लाम इसलिए कहता है, सिवाय अल्लाह के और कोई परमात्मा नहीं है; सिवाय परमात्मा के और कोई परमात्मा नहीं। इस्लाम भक्ति का ही विस्तार है। सिवास एक परमात्मा के और कोई परमात्मा नहीं। एक! अनन्य!

जब तुम एक को पूजोगे तो तुम भी संगठित हो जाओगे। जब तुम अनंत की दृष्टि रखोगे, तुम भी अनंत टुकड़ों में टूट जाओगे। तुम्हारी दृष्टि तुम्हारा जीवन बन जाती है। एक को स्वीकार किया कि तुम भी एक होने लगे। जो तुम्हारी जीवनदृष्टि है, अन्तत: तुम्हारी जीवन- शैली भी बन जाएगी।

भक्त को एकांत, अनन्य होना चाहिऐ। क्योंकि प्रेम दो को जानता ही नहीं।

मीरा नाचती-नाचनी, कहते हैं, वृंदावन पहुंच गई। वृंदावन में एक मंदिर था, बड़ा मंदिर था कृष्ण का। और उस मंदिर का पुजारी सारे देश में ख्यातिलब्ध था। बड़ा प्रकांड पंडित था, बड़ा-महात्मा था। मगर वह स्त्री का मुंह नहीं देखता था। कृष्ण का भक्त था। लेकिन उसके मंदिर में स्त्रियों को आने की मनाही थी। मीरा नाचती हुई मंदिर में पहुंच गई। महापंडित तो घबड़ा गया, महात्मा तो बहुत घबड़ा गया। उसका सब महात्मापन डगमगा गया कि स्त्री भीतर आ कैसे गई! द्वारपाल भी खड़े थे, लेकिन मीरा के नाच में कुछ खो गए, कुछ मस्ती छा गई, न रोक पाए। कुछ ऐसी लहर की तरह मीरा आई, कुछ ऐसी धुन के साथ आई कि द्वारपाल ठगे से खड़े रह गए! सदा रोक दिया था और स्त्रियों को, लेकिन स्त्री यह कुछ और ही थी। आग की एक लपट थी! एक झटके में वह भीतर पहुंच गई! एक क्षण को द्वारपाल ठिठके कि वह तो अंदर थी! मंजीरा उसका बज रहा था। वह तो नाच रही रही थी।

पुजारी बहुत नाराज हुआ। वह आया और कहा कि मैंने सुना है तेरा नाम, लेकिन स्त्री की यहां आने की मनाही है। यहां केवल पुरुष ही आ सकते हैं।

मीरा ने कहा,’’ तुम मुझे चौंका दिए! मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के अतिरिक्त और कोई पुरुष नहीं? तुम भी पुरुष हो? मैंने तो कृष्ण के अतिरिक्त और किसी में पुरुष नहीं देखा। एक धक्का लगा छाती में महात्मा के। बात तो ठीक थी। भक्त होकर और कृष्ण के अतिरिक्त फिर कौन पुरुष है! फिर तो सभी स्त्रियां हैं; किसको रोकते हो तुम? मीरा ने कहा, किसी को रोकने का हक किसी को नहीं है। पुरुष तो एक परमात्मा है, बाकी तो सब उसकी सखियां हैं। तुम भी सखी हो। छोड़ो यह भ्रम पुरुष होने का।

मीरा ने ठीक ही कहा, उचित ही कहा। भक्त के लिए भगवान ही एकमात्र बचता है।

एकांत भक्ति ही श्रेष्ठ है। लेकिन तुम्हारा मन एक भीड़ है।

मैं अनेक घरों में मेहमान होता था, जब यात्रा करता रहा। कभी-कभी ऐसे घरों में पहुंच जाता जहां उनका पूजा-गह भी घर में बनाया होता। सब तरह के देवी-देवता बैठे हैं। पचास- साठ-सत्तर छोटे-छोटे, शंकर जी…जहां से जो मिल गए वहीं से ले आए। हनुमान जी भी जमे हैं। रामचंद्र जी भी बैठे हैं। और यह तो छोड़ो जितने कैलेंडर छपते हैं, सब, सब लगे हैं। बाजारा है। उपासनागह है? और भक्त को इतनी फुर्सत कहां, तो घंटी लेकर सबके सिर पर ऐसा बजाता हुआ चला जाता है! इकट्ठा होलसेल! सभी को हाथ जोड़कर नमस्कार कर दिया…!

मैं उनसे पूछता कि’’ यह मामला क्या है, इतना बाजार क्यों भरा हुआ है?’’

“भाव यह रहता है, कहीं कोई नाराज न हो जाए”।

कल-परसों एक मित्र अपने मित्र की खबर लाए कि उनको संन्यास लेना है, लेकिन वे हनुमान जी के भक्त हैं। तो वे आने में डरते हैं कि कहीं हनुमान जी नाराज न हो जाएं! हनुमान जी से मेरा कौन-सा झगड़ा है? वे नाराज किसलिए हो जाएंगे?

तुम्हारा भगवान भी तुम्हारा भय है। भय से कहीं पूजा हुई, भय से कहीं प्रेम हुआ? भय कहीं परमात्मा तक ले जाएगा? जिससे भय हो जाता है, उसमें तो धूणा हो जाती है। जिससे भय हो जाता है वह तो दुश्मन हो जाता है। भय के कारण तुम सिर झुकाकर, हाथ-पैर जोड़कर, राजी कर लेते हो कि देखो, परेशान न करना। रोज-रोज भक्ति करते हैं, ध्यान रखना! लेकिन यह पूजा तो न हुई, यह कोई भक्ति तो न हुई। फिर मैं निरंतर सोचता हूं कि अगर तुम्हारी भक्ति ठीक चल रही है, तो मेरे पास भी आने की क्या जरूरत है! ठीक नहीं चल रही है, इसलिए यहां आना चाहते हो। अगर हनुमान से ही प्रेम लग गया तो उसी बहाने पहुंच जाओगे, यहां आने की जरूरत क्या है? मगर यहां आने का खयाल बताता है कि डर के मारे पूजा तो किए जा रहो हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है। तो और कहीं भी टटोलते होंगे, लेकिन यह नाव भी न छूटे, दूसरी नाव पर भी पैर रख लें। तो सब तरफ के देवी-देवता लोग-इकट्ठे कर लेते हैं।

भक्त तो एकांत होता है। एक काफी है; नाम उसका कुछ भी रख लो–अल्लाह कहो, राम कहो, रहीम कहो, जो तुम्हें कहना हो, तुम्हारी मर्जी। नाम तुम चुन लो। उसका कोई नाम तो है नहीं; पुकारने के काम आ जाता है–चुन लो। बहाना है नाम तो।

घर में तुम्हारे बेटा पैदा होता है, बिना नाम के पैदा होता है; नाम रख लेते हो, बुलाने में सुविधा हो जाती है। भगवान का कोई भी नाम रख लो। जो रंग-रूप बनाना हो, वह रंग-रूप बना लो। ये तो सब बहाने हैं, ये तो सब खूंटियां हैं। लेकिन असली चीज पास है जिसको खूंटी पर टांगना है? प्रार्थना, प्रेम, पूजा तुम्हारे पास है? और जिसके पास प्रेम है, पूजा है, वह कहीं भी टांग देगा। खूंटी न मिलेगी तो बिना खूंटी के टांग देगा। द्वार-दरवाजे पर टांग देगा।

ध्यान रखना, एक के प्रति ही अनन्य भाव से डूब जाना है। वहीं से पहुंच जाओगे।

मेरे पास मुसलमान आते हैं, हिंदू आते हैं, ईसाई आते। मैं उनसे कहता हूं, तुम ईसाई हो तो ईसाई बने रहो, मुसलमान हो तो मुसलमान बने रहो। कुछ इससे बाधा नहीं आती। मस्जिद में करनी है पूजा, मस्जिद में, मंदिर में करनी है, मंदिर में–कोई अड़चन नहीं, सभी घर उसके हैं। पर कहीं भी करो तो! ऐसे घाट ही मत बदलते रहना। प्यास लगी हो तो पानी भी तो पीयो। यह घाट बदलने से क्या होगा? वहां प्यास थे, यहां प्यासे रह जाओगे। क्योंकि पीने की तमीज ही नहीं है।

असली बात तो झुकने की है, अंजुलि भरने की है। नदी तो बही जा रही है, तुम तट पर ही अकड़े खड़े रहो, उतरो न, झुको न, चुल्लू में पानी न भरो, तो नदी कोई छलांग लगाकर तुम्हारे कंठ में नहीं उतर जाएगी।

“एकांत भक्ति ही, श्रेष्ठ है’’ ।

एक बचे तुम्हारे मन में, तुम्हारे प्राण में, तुम्हारे तन में, तो उस एक के आधार पर तुम्हारे भीतर के खंड जुड़ने लगेंगे, अखंड हो जाएंगे। ऐसे तुमने सौ-पचास देवी-देवता पूजे तो वे इतना ही बता रहे हैं कि तुम भीड़ हो एक। सच तो यह है कि पूजा का गह सूना होना चाहिए, एक भी न हो, खाली हो। उस खालीपन में पुकारो एक को। उस शून्‍य से उठने दो तुम्हारे हृदय की आह, तुम्हारा रुदन तुम्हारे आंसू; पत्थरों की गतइrयों से थोड़े ही कुछ होता है। होता तो तुम्हारे हृदय की भाव-दशा से है। इतना ही हो कि तुम्हारे भीतर उसे पाने की प्रगाढ़ अभीप्सा हो।

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब

दिल का क्या रंग करूं खूने जिगर होने तक हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन खाक हो जाएंगे हम, तुमको खबर होने तक।

भक्त तो यह कहता है कि प्रेम धीरज मांगता है। माना, प्रेम धीरज मांगता है पर मेरी अभीप्सा बेचैन है। प्रेम कहता है, ठहरो, होगा–लेकिन मेरी अभीप्सा, मेरी प्यास कहती है,’’ बहुत देर वैसे ही हो गई। अब और देर न कराओ। अब मिलन काके और न ठहराओ, अब और स्थगित न करो’’ !

आशिकी सब्र तलब—प्रेम तो धीरज है, तपन्ना बेताब–लेकिन पाने की आकांक्षा प्रज्ज्वलित होकर जल रही है। दिल का क्या रंग करूं खूने जिगर होने तक–मुझे मालूम है कि तुम मिलोगे तो मुझे मिटा दोगे, लेकिन तब तक क्या करूं? दिल का क्या रंग करूं–क्या उपाय करूं इस दिल के लिए? खूने जिगर होने तक–तुम मिलोगे तो एक ही आंख, एक ही तुम्हारी दृष्टि–और मैं राख हो जाऊंगा, लेकिन तब तक क्या करूं, यह तो बताओ। हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन–यह भी हमें पता है कि तुम धोखा न दोगे। यह भी पता है कि भरोसा तुम पर रखा जा सकता है। यह भी पता है कि तुम देर भी न करोगे। खाक हो जाएंगे हम, तुमको खबर होने तक! लेकिन तुम्हें खबर होगी, तभी न! तुम्हें पता चलेगा, तभी न! धोखा भी न करोगे, देर भी न करोगे–सब माना, लेकिन हमारी आवाज तुम तक पहुंचेगी, तब तक तो हम खाक ही हो जाएंगे, तबाह हो जाएंगे।

तो भक्त रोता है, गिडगिडाता है, पुकारता है, दीवाने की तरह, गीत गाता है, सब्र बांधता है, धीरज रखता है, और अभीप्सा को भी जलाता है। एक बड़ी बेबूझ दशा है भक्त की।

“ऐसे अनन्य भक्त कण्ठावरोध, रोमांच और अश्रुयुक्त नेत्रवाले होकर परस्पर सम्भाषण करते हुए अपने कुलों को और पृथ्वी को पवित्र करते हैं’’। ऐसे अनन्य भक्त, उसकी याद में आदोलित, उसकी प्यास में दीवाने, उसका पुकार रहे हृदय के कोने-कोने से, रोआ-रोआ उसी को आवाज दे रहा–ऐसे भक्त, कण्ठावरोध, उनका गला रुंध जाता है, कहते नहीं बनता, आंसू भर आते हैं।

भक्ति कोई शास्त्र थोड़े ही है कि बैठे और पढ़ लिया। भक्ति तो अस्तित्वगत है, जीवन- रूपांतरण है।

“ऐसे अनन्य भक्त कण्ठावरोध’’ … बोलना चाहते हैं, बोल नहीं पाते, कंठ रुंध जाता है।’’ रोमांच’’ … रोएं खड़े हो जाते।’’ अश्रुयुक्त’’ … आखें आंसुओ से भरी होती है।’’ परस्पर सम्भाषण करते हैं’’ , एक-दूसरे को धीरज बंधाते हैं, एक-दूसरे को अपना अनुभव बताते हैं। माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं तू मिल शौक देख… म

लेकिन मेरी प्यास तो देख, तू मेरी अभीप्सा तो देख, तू मेरी बेचैनी तो देख।

तू मिल शौक देख, तू मेरी अभीप्सा तो देख, तू मेरी बेचैनी तो देख।

तू मिल शौक देख, मिरी इन्तजार देख!

मेरी प्रतीक्षा देख! मेरी पात्रता मत देख! पात्रता मेरे पास क्या है!

भक्त तो कहता है,’’ मैं कुछ भी नहीं हूं, दावा नहीं कर सकता हूं। यह नहीं कह सकता कि तुझे मिलना ही पड़ेगा। मेरी कमाई क्या है! इतना ही कह सकता हूं कि जरा मेरी आंखों में भरे आंसू देख! मेरे हृदय में उठता रुदन देख! मेरा सेअl रोआ कंपता है तेरे लिए! तेरी प्रतीक्षा में आतुर हूं। आंख के किवाड़ खोले बैठा हूं!’’ तू मिल शौक देख, मिरी इंतजार देख!

भक्त दावा तो नहीं कर सकता, योगी कर सकता है–इतने आसान करता है, इतने प्राणायाम करता है। इतनी सदियों से तपश्वर्या, व्रत-उपवास करता और अभी तक तू नहीं मिला?

तुमने कभी खयाल किया, जरा-सा तुम कुछ करते हो तो फौरन तुम्हें पात्रता का बोध उठता है कि अरे, तीन दिन से ध्यान कर रहे हैं, अभी तक कुछ हुआ नहीं! तुम कैसी मूढतापूर्ण बातें कर लेते हो!

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि सात दिन हो गए, अभी तक कुछ हुआ नहीं। तुमने मजाक समझी है? अभी आंसुओ से तुम्हारी आंखें भी गीली न हुईं? अभी कंठावरोध भी कहां हुआ? अभी तुमने पुकारा ही कहां?

‘’ भक्त कठावरोध, रोमांच, अश्रुयुक्त नेत्रवाले होकर परस्पर सम्भाषण करते हुए पृथ्वी को पवित्र करते हैं”।

रोमांच…। परमात्मा की याद ही पुलक से भर देती है! कभी प्रेमी की याद की? कभी द्वार- दरवाजे पर बैठकर प्रेमी भी प्रतीक्षा की? राह से पुलिसवाला निकल जाता है, दौड़कर आ जाते हो कि शायद प्रेमी आ गया! डाकिया दस्तक देता है, भागे चले जाते हो कि शायद प्रेमी आ गया! पते खडुखडात हैं हवा में सूखे, द्वार खोल लेते हो कि शायद प्रेमी आ गया!

जिसका तुम्हें इंतजार है, तुम्हें उसी-उसी की खबरें चारों तरफ आभास होती हैं। मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बैठा था, उसके घर। एक ऊंट निकला। मैं थोड़ा चकित हुआ। नसरुद्दीन की आखें बड़े भाव से भर गईं और जैसे उसे किसी बड़ी मधुर वस्तु की याद आ गई; जैसे लार मुंह में आ गई और उसने गटक ली। मैंने पूछा,’’ मामला क्या है? ऊंट को देखकर तुम्हें किस बात की याद आई?’’ उसने कहा,’’ ऊंट को देखकर मुझे खीर, पूरी, हलवा, इस-इस तरह की चीजें याद आईं”। मैंने कहा,’’ मैंने कभी सुना नहीं कि ऊंट का कोई भोजन से संबंध है!’’ उसने कहा,’’ इससे क्या फर्क पड़ता है, मुझे तो रेलगाड़ी देखकर भी हलवा, पूरी, खीर की खबर आती है”। मैंने कहा, तेरा दिमाग खराब है”। उसने कहा,’’ दिमाग खराब नहीं है, रोजे के दिन हैं, उपवास कर रखा है! हर चीज को देख कर बस…। ऊंट और रेलगाड़ी और हवाई जहाज, इससे कोई संबंध नहीं है”।

तुमने कभी उपवास किया? सब तरफ भोजन दिखाई पड़ता है!

संसार परमात्मा से उपवास है। अगर तुम सच में भूखे हो तो तुम्हें हर जगह वही दिखाई पड़ेगा।

साथ हर सांस के मिरे दिल से

आ रही, अभी खबर तेरी।

कंठावरोध होगा; जैसे गले से कुछ निकलना चाहता है, निकल नहीं पाता। क्योंकि परमात्मा के लिए कहां से शब्द लाओ! कैसे कहो, उसकी याद भी कैसे कहो! जिक्रे-यार भी कैसे करो! उस प्यारे का वर्णन कैस करो! कंठ रुक-रुक जाता है। हृदय में कुछ होता है, लहर उठती है, कंठ तक आती है, लेकिन प्रगट नहीं हो पाती। भक्त थरथराता है।

थरथराता है अब तलक खुर्शीद

सामने तेरे आ गया होगा।

भक्त कहता है, सूरज को तो देख, थरथराता है अब तलक खुर्शीद सामने तेरे आ गया होगा।

अभी भी थरथराता है–जरूर तेरे सामने आ गया होगा।

भक्त जैसे-जैसे परमात्मा के करीब आने लगता है, वैसे ही उसके पैर डगमगाने लगते हैं, उसकी हालत शराबी की हो जाती है।

परमात्मा अनूठी शराब है। जिसने वह शराब पी ली, फिर किसी शराब की कोई जरूरत न रही। और शराब कुछ ऐसी है कि उससे होश बढ़ता है, घटता नहीं–लेकिन जीवन तरंगायित हो जाता है। जैसे दुलहन सजकर चली, अपने प्रेमी को मिलने! भक्त तो सदा ही सुहागरात में जीता है। प्रतिपल उसके प्रेमी से मिलन होने की संभावना है। किस क्षण वीणा बज उठेगी, किस क्षण पुकार आ जाएगी, किस क्षण वह स्वीकार हो जाएगा–हर क्षण प्रतीक्षा का है!

“भक्त एक-दूसरे से संभाषण करते हैं”।

फर्क समझ लेना। दार्शनिक, पंडित एक-दूसरे से विवाद करते हैं, संवाद नहीं। उन्हें सिद्ध करना है कुछ। अपनी सिद्ध करनी है तो दूसरे की असिद्ध करनी ही पड़ती है बात। भक्त को विवाद नहीं है। दो भक्त मिल जाते हैं, बैठ जाते हैं पास, आंसुओ से बोलते हैं, रोएं-रोएं से बोलते हैं। उनका एक संभाषण है।

संभाषण का अर्थ होता है: एक-दूसरा एक-दूसरे को सहारा दे रहा है। रास्ता अंधेरा है और लंबा है। यह अंधेरी रात उसकी याद और उसकी चर्चा में कट जाए तो भली। सुबह तो आएगी, लेकिन सुबह बड़ी दूर है। जैसे-जैसे सुबह करीब आती है, अंधेरा और बढ़ता जाता है। तो भक्त एक-दूसरे को सांत्वना, भक्त एक-दूसरे को सहारा देते हैं। भक्त एक-दूसरे को, उनके भीतर क्या घटा है, क्या घट रहा है, उसका निवेदन करते हैं। विवाद का सवाल नहीं है। विवाद होता है दो सिरों के बीच में; संभाषण होता है दो हृदयों के बीच में।

ध्यान रखना, अगर तुम्हें परमात्मा को खोजना है तो ऐसे लोगों का संग खोजना जहां संभाषण हो सके; जिनके पासबैठकर सत्संग हो सके; जिनके पास बैठकर उस प्रेमी की याद सघन हो; जिनके आंसू तुम्हारे भीतर के आंसुओ को भी पुकार दे दें; जिनके भीतर बिजती हुई वीणा तुम्हारी वीणा के तारों को भी छेड़ दे। वस्तुत: मंदरों का यही उपयोग था कि वहां वे लोग मिल जाएं तो अलग-अलग खोज में लगे हैं, और एक-दूसरे को सहारा दे दें, और ऐसा न रहे कि हम अकेले ही हैं, कोई और भी खोजने चला है; अर भी लोग मार्ग पर हैं; हम अकेले नहीं हैं, संगी-साथी हैं। और जो हम हो रहा है, वैसा दूसरों को भी हो रहा है। ताकि भय न पकड़े। नहीं तो बहुत बार ऐसा लगेगा,’’ क्या हम पागल होने लगे! ऐसा तो पहले कभी न होता था कि आखें बात-बात में भर जाती हैं! ऐसा तो पहले कभी न होता था कि बात-बात में कंठ अवरूद्ध हो जाता हो!’’

रामकृष्ण निकलते थे तो उनके शिष्यों को उन्हें बचाकर ले जाना पड़ता था कि रास्ते में कोई’’ जयराम जी” न कर ले! इतना ही काफी था उनके लिए। किसी ने कह दिया’’ जयराम जी”, वे वहीं, खड़े हो गए आंख बंद करके। गिर जाएं सड़क पर, आंसू बहने लगें। कहीं उन्हें ले जाते थे तो पहले से लोगों का चेता देते थे कि भगवान की चर्चा मत छेड़ देना।

कहीं शादी-विवाह में बुला लिया एक बार उनको। किसी भक्त के घर शादी थी, वे चले गए। वह सब गड़बड़ हो गई शादी। क्योंकि किसी ने परमात्मा की बात छेड़ दी, रामकृष्ण नाचने लगे, वे बेहोश हो गए, तो दूल्हा-दुल्हन को तो लो भूल गए। रामकृष्ण बेहोश पड़े हैं। छह दिन तक बेहोश रहे। शादी-विवाह का तो सारा मामला ही खराब हो गया।

क्या हो जाता था? रामकृष्ण से लोग कहते थे,’’ आपको हो क्या जाता है?’’ वे कहते,’’ जैसे ही कोई उसकी याद दिला देता है, एक तूफान आ जाता है। फिर मैं अपने बस में नहीं रहता। फिर नियंत्रण नहीं कर पाता’’ ।

सत्संग का यही उपयोग है कि वहां एक ही दिशा में चलनेवाले लोग बैठ जाएं, थोड़ी बात कर लें; एक-दूसरे का मन हलका कर लें; एक-दूसरे से कह दें वह जो सकहा नहीं जा सकता है। यह संभाषण में हो ही संभव है; विवाद हो, तब तो तुमसे और मुश्किल हो जाएगी; तुम कह नहीं पाए कि दूसरा झंझट करने को, विवाद करने को खड़ा हो गया।

विवादी से थोड़े बचना प्रारम्भ में। जैसे कि हमारे बगीचे में छोटा-सा पौधा लगता है; तो हम उसके चारे तरफ बागुडु लगा देते हैं कांटों की; बड़ा हो जाएगा, फिर कोई जरूरत न रहेगी। लेकिन अभी अगर उसको छोड़ देंगे बिना बागुडु के, जानवन खा जाएंगे, बच्चे तोड़ डालेंगे, कुछ-न-कुछ दुर्घटना घट जाएगी। जब तुम्हारे भीतर भक्ति का अंकुर नया-नया है, तब तुम्हें सत्संग चाहिए; फिर तो तुम्हीं बड़े वृक्ष हो जाओगे; फिर तो तु अपने ही बल से खड़े हो जाओगे; फिर कोई जरूरत न रहेगी।

…’’ संभाषण करते हुए अपने कुलों और पृथ्वी को पवित्र करते हैं”। परमात्मा की याद भी पवित्रता लानेवाली है। परमात्मा मिल जाए, तब तो कहना क्या! लेकिन उसका जिक्र, उसकी याद भी पवित्र कर जाती है। थोड़ी देर को ही सही, तुम्हारी आखें आकाश की तरफ उठती हैं। थोड़ी देर को ही सही, पदार्थ को तुम भूलते हो। थोड़ी देर को ही सही, तुम्हारे जीवन का वातायन खुलता है–उस दिशा में, जिस दिशा में तुम कभी भी नहीं गए; अज्ञात, अनजान तुम्हारे भीतर थोड़ा-सा प्रवेश पाता है; तुम नये हो जाते हो!’’ ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म और शास्त्रों को सत्शास्त्र कर देते हैं’’ । यह बड़ा अनूठा सूत्र है।

तीर्थों के कारण कोई भक्ति को उपलब्ध नहीं होता–लेकिन भक्त जहां हो जाएं वहीं तीर्थ बन जाते हैं। कोई कर्म सुकर्म नहीं है, जब तक कि तुम्हारे जीवन में परमात्मा का हाथ प्रविष्ट न हो जाए। तुम्हारे किए तो सभी कर्म दुष्कर्म होंगे। परमात्मा तुम्हारे भीतर से कुछ करे तो सुकर्म होगा।

कर्मों को सुकर्म कर देता है भक्त, और शास्त्र सत्शास्त्र हो जाते हैं।

शास्त्रों को पढ़कर कोई भक्ति को उपलब्ध नहीं होता–लेकिन भक्ति को उपलब्ध हो जाए तो सारे शास्त्रों का प्रमाण हो जाता है स्वयं, सारे शास्त्रों के लिए गवाही हो जाता है, साक्षी हो जाता है। तब वह कह सकता है,’’ मेरी तरफ देखो! शास्त्र पर भरोसा न आए, छोड़ो; यहां जीवित शास्त्र हूं मैं, मेरी तरफ देखो! मेरी में आखें डालकर देखो! मेरे पास आओ! मेरी तरंगों को अनुभव करो!’’

सारे शास्त्र सफल हो जाते हैं। यह बड़े मजे की बात है–क्योंकि नारद ने पहले कहा कि भक्त को शास्त्र की कोई जरूरत नहीं। वेद का भी त्याग कर देता है भक्त। लेकिन एक ऐसी घड़ी आती है, जब भक्त उपलब्ध होता है तो सारे वेद उसकी मौजूदगी के कारण सत्य हा जाते हैं। वह फिर-फिर प्रमाण ले आता है कि परमात्मा है। वह फिर-फिर ऋचाओं को पुनरुज्जीवित कर देता है।

इश्क ने हमको जियारत गाहे-आलम कर दिया

गर्दे-गम से हो गया तामीर काबा एक और।

प्रेम ने हमें संसार के लिए एक तीर्थस्थान बना दिया। प्रेम ने हमें संसार के लिए एक तीर्थस्थान बना दिया कि लोग तीर्थयात्रा कर जाएं।

गर्दे-गम से हो गया तामीर काबा एक और।

और परमात्मा के विरह में जो पीड़ा झेली गई, उससे ही एक और नया काबा निर्मित हो गया। जहां भक्त हैं वहीं काबा है। जहां भक्त हैं वहीं काशी है। जहां भक्त हैं वही गिरनार। जहां भक्त हैं वहां सभी कुछ है, क्योंकि वहां परमात्मा फिर पृथ्वी पर अवतरित हुआ है। भक्त ने जगह खाली कर दी है; भक्त के सिंहासन पर परमात्मा फिर विराजमान हुआ है। इसे भक्त कहे या न कहे; यह प्रगट होने लगता है।

किस तरह तेरी मुहब्बत को छुपाए रखिए खामुशी भी लबे इजहार हुई जाती है।

छिपाना असंभव है। भक्त चुपा भी हो तो चुप्पी में भी उसी का संदेश प्रगट होने लगता है। किस तरह तेरी मुहब्बत को छुपाए रखिए खामुशी भी लबे इजहार हुई जाती है।

चुप रहते हैं तो भी वक्तव्य हो जाता है। चलते हैं तो वक्तव्य हो जाता है। आंख हिलती है तो वक्तव्य हो जाता है। बोलें तो बोलें, न बोलें तो भी शास्त्र के लिए प्रमाण मिल जाता है।

हजारों बार कोशिश कर चुका हूं नहीं छुपती मुहब्बत की निगाहें। असंभव है! जब तुम्हारे घर में दीया जलेगा, कैसे छिपाओगे? अंधेरी रात में गुजरनेवाले लोगों को भी दूर-दूर से भी रात के अंधेरे में तुम्हारे घर की रोशनी द्वार-दरवाजों के रन्ध्रों से प्रगट होने लगेगी। घर में दीया जला है तो दूर-दूर से यात्री आने लगेंगे।

यह जो भक्त की परम दशा है, यह करीब-करीब पागल जैसी है। करीब-करीब कहता हूं, क्योंकि पागल जैसी भी है और पागल जैसी नहीं भी है।

कबूं रोना, कबूं हंसना, कदू हैरान हो रहना

मोहब्बत क्या भले-चंगे को दीवाना बनाती है!

भक्त जरा बेबूझा हो जाता है; हंसने लगता है, कभी रोने लगता है, कभी चुप रह जाता है, कभी हैरानी से ठिठककर आकाश को देखता है। भक्त तुम्हारे बीच होता है लेकिन बहुत दूर होता है–किसी और लोक में होता है! उसने कुछ देखा है जो उसे दिवाना बना गया।

“ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म, शास्त्रों को सत्शास्त्र कर देते हैं, क्योंकि वे तन्मय हैं।

तन्मया:!”

क्योंकि वे परमात्मा में लीन हैं, क्योंकि वे परमात्मा में डूबे हैं, क्योंकि उन्होंने परमात्मा को अवसर दिया। वे परमात्मा के वाहन बन गए हैं। उन्होंने अपने को तो पोंछ डाला! उन्होंने परमात्मा के लिए पूरी जगह खाली कर दी! वे हए अपने और परमात्मा के बीच से! उन्होंने शून्‍य   का पात्र रख दिया उसके सामने, परमात्मा उसमें बरस गया है।

“तन्मयां’’ !

भक्ति का सूत्र है : तन्मय हो जाना। तो तुम करो उसमें तन्मय हो जाओ, वहीं भक्ति पैदा हो जाती है। खाना बना रहे हो, मकान झाड़ रहे हो, लकड़ी काट रहे हो, कुछ भी कर रहे हो—तन्मय हो जाओ। लकड़ी काटते समय बस लकड़ी काटने की क्रिया रह जाए, तुम न रहो। झाड़ते समय झाड़ना रह जाए, तुम न रहो। और सतत एक भाव-दशा बनी रहे–उसी के लिए! उसी के लिए लकड़ी काटते हैं। उसीक लिए आगन बुहारते हैं! उसी के लिए भोजन बनाते हैं!

जैसे-जैसे तुम्हारा कर्म तुम्हें डुबाने लगे, तुम तल्लीन होने लगो, वैसे-वैसे’’ पितृगण प्रमुदित होते हैं, देवता नाचते हैं, यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है’’ ।

“मोदन्ते पितरो’’ ! जो जा चुके तुम्हारे पितर, वे भी प्रमुदित होते हैं। धन्य, तुम उनके घर में पैदा हुए! धन्य, तुमने उनका होना भी सार्थक किया!

“नृत्यन्ति देवता:’’ ! स्वर्ग के देवता भी नाचते हैं : फिर घटी घटना! फिर कोई भक्त हुआ! फिर कोई भगवान हुआ! फिर घटी घटना! फिर कोई मिटा और किसी ने परमात्मा को अपने सिंहासन पर विराजमान किया! फिर एक मंदिर बना, एक तीर्थ बना, एक काबा निर्मित हुआ! स्वभावत : देवता न नाचेंगे तो कौन नाचेगा!

महावीर के संबंध में कहा जाता है, जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए, तीनों लोकों का संगीत बरसा। असमय फूल खिल गए! आकाश से देवता फूल बरसान लगे!

ये सब प्रतीक-कथाएं हैं। ये इतना ही कह रहे हैं कि जब भी कोई ऐसी परम दशा को उपलब्ध होता है तो सारा अस्तित्व उस व्यक्ति के माध्यम से एक आकाश की ऊंचाई को छूता है।

तुम भी उसी परम की योजनाएं हो! तुम्हारे भीतर से भी उसने एक हाथ फैलाया है! तुम्हारे भीतर से परमात्मा सतत सक्रिय है कि कोई श्रेष्ठतर, और श्रेष्ठतर दशा उत्पन्न हो! तुम चैतन्य के शिखर बन जाओ! तुम्हारी सफलता में परमात्मा की भी सफलता है। तुम्हारी

विफलता में उसकी भी हार है। क्योंकि तुम उसके सृजन हो, उसके कृत्य हो।

“ख्यति देवता :’’ ।

“और यह पृ थ्वी सना थ हो जाती है’’ ।

“उनमें (भक्तों में ) जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादि का भेद नहीं है।

भक्त तो सिर्फ भक्त है—न हिंदू, न मुसलमान। भक्त तो सिर्फ भक्त है—न शुद्र, न ब्राह्मण। भक्त होना काफी है, फिर सब विशेषण व्यर्थ हुए।

आशिक तो किसी का नाम नहीं

कुई इश्क किसी की जात नहीं

कब याद में तेरा साथ नहीं

सब हाथ में तेरा हाथ नहीं।

क्या जाता है प्रेम की;

आशिक तो किसी का नाम

कुछ इश्क किसी की जात नहीं।

वहां न कोई वर्ण है, न वर्ण-भेद है।

 

जब तक तुम्हारे आसपास ऐसी क्षुद्र दीवारें बनी हैं तब तक तुम परमात्मा के लिए द्वार न खोल पाओगे। अगर तुम मुसलमान हो तो मुसलमान रहते ही तुम परमात्मा को न पा सकोगे। अगर तुम हिंदू हो तो हिंदू रहते ही तुम परमात्मा को न पा सकोगे। क्योंकि इतने छोटे घेरे तुमने बनाए हैं।

उठाइए भी दैसे हरम की ये सबीलें

बढ़ते नहीं आगे जो गुजरते हैं इधर से!

यहीं अटक जाते हैं। कोई मंदिर में अटका है, कोई मिस्जद में अटका है। परमात्मा तक पहुलचने के साधन ही बाधक बन गए मालूम होते हैं। मंदिर से आगे जाना है। मस्जिद से बहुत आगे जाना है। ये कोई मंजिलें नहीं–रास्ते के पड़ाव हैं, बस काफी हैं, थोड़ी देर को विश्राम करने को रुक गए, ठीक है—लेकिन भूल मत जाना, इनमें खो मत जाना!

न जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, किसी क्रियादि को कोई भेद नहीं है,’’ क्योंकि वे उनके ही हैं, भगवान के ही हैं’’ ।

“यतस्तदीया :’’ ।

भक्त तो भगवान का है, फिर हिंदू कैसे हो सकता है, फिर मुसलमान कैसे हो सकता है, फिर ब्राह्मण कैसे हो सकता है, शूद्र कैसे हो सकता है?

“यतस्तदीया :’’ ।

“क्योंकि वे उनके ही हैं, भगवान के ही हैं’’ । भगवान के हो गए, फिर ये छोटे-छोटे खिलौने हैं, फिर ये छोटे- छोटे मंदिर- मस्जिद के झगड़े हैं, फिर ये छोटे-छोटे रंग और हइडी और चमड़ी के फासले हैं।

जनक ने एक महासभा बुलाई। सभी आमंत्रित नहीं किया—वह आदमी था : पंडितों को आमंत्रित किया; सिर्फ एक आदमी को अष्टावक्र! वह अनूठा जानी था। लेकिन उसका शरीर आठ जगह से इरछा-तिरछा था–अष्टावक्र। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ गया था–आठ जगह से तिरछा।

सभा में यह आदमी शोभा न देगा; सम्राट की सभा में ऐसा कूबड़ निकला हुआ, सब तरफ से झुका, इरछा-तिरछा, एक हंसी-मजाक का कारण बनेगा–उसे नहीं बुलाया था। लेकिन अष्टावक्र के पिता को बुलाया था। कोई काम पड़ गया घर, तो अष्टावक्र बुलाने पिता को सभा में आ गया। जैसे ही वह अंदर आया, ब्रह्मज्ञानियों की सभा थी, वे सभी हंसने लगे उसकी चाल देखकर, उसकी कुरूपता देखकर! जनक भी थोड़े बेचैन हुए। लेकिन और भी हैरानी हो गई, अष्टावक्र ने चारों तरफ देखा और वह इतने जोर से खिलखिलाकर हंसा कि सारे पंडित एक क्षण को तो अवाक रहकर ठिठक गए, यह उनकी समझ में ही न आया कि यह आदमी किसलिए हंसा!

जनक ने पूछा,’’ ये किसलिए हंसते हैं, वह तो मैं समझा; लेकिन तुम किसलिए हंसे;’’

तो अष्टावक्रने कहा,’’ मैं इसलिए हंसा कि तुमने तो ब्राह्मणों को बुलाया था, ये तो सब चमार हैं। ये चमड़ी के जानकार हैं। मुझको नहीं देखते, चमड़े का देखते हैं। मैं तुमसे कहता हूं, मुझसे ज्यादा सीधा इनमें से कोई भी नहीं है, बिलकुल सीधा हूं। शरीर तिरछा है, माना। इसलिए हंसता हूं कि इन चमारों को बुलाकर तुम ब्रह्मज्ञान की चर्चा करवा रहे हो। निकाल बाहर करो इनको।’’

ठीक कहा अष्टावक्र ने। चमड़े से जो भेद करे, वह चमार।

भक्त तो भगवान के हैं। अब इससे और ऊपर होना क्या रहा! अब क्या और विशे षण रहा! सब विशे षण गिर गए।

तुमसे भी मैं यही कहता हूं : भगवान के हो रहो! मंदिर- मस्जिदों को छोड़ो, भूलो! फासले छोड़ो, मिटाओ! फासले तो तुम्हें आदमियों से भी न मिलने देंगे, परमात्मा से मिलने की तो बात दूर। कम- से- कम इतना तो करो कि आदमियों से ही मिलने की क्षमता बना लो, तो उससे संभावना पैदा होगी कि क भी तुम परमात्मा से भी मिल सकते हो।

परमात्मा को पाना हो तो अभेद की दृष्टि चाहिए, अभेद का दर्शन चाहिए।

“यतस्तदीया :! वे भगवान के हैं!’’

 

आज इतना ही।

 

 

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–18

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एकांत के मंदिर में है भक्तिअठारहवां प्रवचन

दिनांक 18 मार्च,1976,

श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्‍न सार :

*मैं बिलकुल अकेली हूं, बुढापा भी आ गया है, पैर से अपाहिज हूं, नाच भी नहीं सकती! क्या मेरे जिए आशा की काई किरण संभव है?  

 *आपको सुनकर तथा ध्यान करने से मेरी अज्ञात के प्रति आस्था जगने लगी है। क्या यह नए परिवेश का सम्मोहन तो नहीं?    

 *वेद कुरान को त्याग कियो

परित्याग कियो री पुरानन को कंत के नैन में ध्यान धरयो

ब्रह्मानंद सुनो सखि कानन को

गुरुअन की शरणन् में कबहूं न गई मंदिर न चढ़ी नाही जोग लियो

पर जोग को भान भयो री सखी

जब प्यारे पिया संग भोग कियो।

क्या यह भी कोई मार्ग है?    

 

 

पहला प्रश्‍न :

 

 

घर-परिवार में होते हुए भी मुझे लगता है कि कोई अपना नहीं है, मैं बिलकुल अकेली हूं। साथ ही पाती हूं बुढापा भी आने लगा, और रिक्त हूं, रूखी-सूखी हूं, प्रेम की एक बूंद भी मुझमें नहीं है। पैर से थोड़ी अपाहिज हूं, इसलिए शिविर में मन भर के नाच भी नहीं सकती। घर वाले आपको विशेष पसंद भी नहीं करते हैं। अब तो आपको सुनकर आंसू बहते हैं और कुछ सूझता नहीं कि क्या करूं! क्या मेरे लिए आशा की कोई किरण संभव है?    

 

 

हली बात : अकेला होना मनुष्य का स्वभाव है। अकेला होना मनुष्य की नियति है। और जब तक अकेले होने को स्वीकार न करोगे, तब तक बेचैनी रहेगी। लाख उपाय करो कि अकेलापन मिट जाए, नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा। क्योंकि अकेलापन तुम्हारे भीतर की आतरिक अवस्था है, तुम्हारा स्वभाव है। ऊपर-ऊपर होता, निकालकर अलग कर देते।

अकेलापन सांयोगिक नहीं है, अलग किया ही नहीं जा सकता। अगर तुम्हारा अकेलापन तुमसे अलग हो जाए, उसी दिन तुम्हारी आत्मा खो जाएगी। आत्मा का होने का ढंग ही अकेला होना है। और जब तक तुम अकेलेपन को मिटाने की चेष्टा करोगे, तब तक हार और पराजय ही हाथ लगेगी। क्योंकि स्वभाव का अर्थ है, जो न मिटाया जा सके। कोई उपाय नहीं है। मित्र बनाओ, परिवार बसाओ, बच्चे हों, पति-पत्नी हों, समाज हो–सब थोड़ी देर का धोखा भला दे जाएं कि तुम अकेले नहीं हो, पर अकेला होना मिटता नहीं है। जब भी थोड़ी आंख भीतर करोगे, पाओगे: अरे! परिवार कहां दूर पड़ा रह गया; मित्र-प्रियजन, कितना बड़ा फासला है! आंख बंद की कि पाया कि अकेले हो गए। आंख खोलकर तुम अपने को भुलाए रहो भरमों में, डुबाए रहो हजार काम-धंधों में, व्यस्तता को ओढ़े रहो–लेकिन बार-बार क्षणभर को, घड़ीभर को तो विश्राम करोगे! क्षणभर को तो घर आओगे, भीतर प्रवेश करोगे! फिर वही स्वाद, फिर वही एकाकीपन!

गहस्थ का अर्थ ही यही है: वह व्यक्ति जो संबंध बनाकर अपने भीतर के अकेलेपन को मिटाने की चेष्टा में संलग्न है। गहस्थ की यही परिभाषा है। संन्यस्त की यही परिभषा है कि जिसने यह जान लिया कि यह मेरा स्वभाव है, मिटाने में व्यर्थ समय न खोऊं और जिसने अपने एकाकीपन को भोगना शुरू कर दिया–रस ले-लेकर; जो अपने एकाकीपन को दुश्मन की तरह नहीं देखता, बल्कि एकाकीपन को ही जिसने अपनी शरण बना ली; संसार की धूप से, बेचैनी से बचने के लिए सदा अपने एकाकीपन में चला गया; जब भी थका बाहर, भीतर डूब गया; जब भी बाहर उलझा, उपद्रव हुआ, तब भीतर डूब गया; जब पाया कि बाहर जीवन गंदा हुआ जाता है, भीतर स्नान कर लिया एकाकीपन में, फिर ताजा हो गया!

ध्यान अर्थात एकाकीपन में रमने की कला।

एकाकीपन परम सुंदर है। तुमने नाहक के भय पाल रखे हैं। उन भयों के लिए कोई वास्तविक कारण नहीं है–सांयोगिक कारण हैं।

बच्चा पैदा होता है, असहाय होता है। मनुष्य का बच्चा पृथ्वी पर सबसे ज्यादा असहाय है। जानवरों के बच्चे पैदा होते हैं, उठे और चल पड़े, जिंदगी की यात्रा शुरू हो गई। जंगली जानवरों के बच्चे परिवार में नहीं पलते, बड़े होते, जन्म होते से मां-बाप भी मुक्त हो गए, वे भी मुक्त हो गए। आदमी के बच्चे को अगर छोड़ दो, कोई सहारा न हो, कोई परिवार न हो, कोई प्रेम करने वाला, देख-रेख करनेवाला न हो, तो बच्चा मर जाएगा, बच नहीं सकता। अगर आदमी के लिए परिवार न मिले तो आदमी इस पृथ्वी से समाप्त हो जाएगा। और सब जानवर रहेंगे–पक्षी रहेंगे, पशु रहेंगे, आदमी भर नहीं रहेगा।

आदमी का बच्चा बहुत असहाय है। मां-बाप की जरूरत है–वर्षों तक! आठ-दस साल का भी हो जाएगा, तब भी स्वतंत्र नहीं हो पाता। पढ़ाना है, पढ़ना है, शिक्षा पानी है–तब भी मां-बाप पर निर्भर होगा। तो करीब पच्चीस साल लगते हैं आदमी के बच्चे को उस जगह आने में, जहां जानवरों के बच्चे पैदा होने से ही होते हैं।

इस असहाय अवस्था के कारण ही परिवार का जन्म हुआ। इसलिए पशुओं ने परिवार नहीं बनाए, सिर्फ आदमी ने बनाए। पच्चीस साल तक बच्चा निर्भर रहता है–मां पर, पिता पर, भाई पर, परिवार पर–यह निर्भर रहने की आदत बन जाती है छोटा बच्चा बहुत डरता है;

अगर मां घर के बाहर जा रही हो तो वह बहुत भयभीत हो जाता है। उसका भय स्वाभाविक है। कौन उसकी चिंता करेगा! भूख लगेगी तो कौन दूध देगा! प्यास लगेगी तो कौन पानी देगा! कपड़े गीले कर लेगा अपने, तो कौन बदलेगा! सर्दी लगेगी तो कौन कंबल डालेगा! मां घड़ीभर को बाहर जाती है तो बच्चे को मृत्यु जैसा अनुभव होता है, यह तो मैं मरा! मां अगर ऐसे ही गुस्से में कह देती है कि मैं मर जाऊंगी, अगर तुम चुप न हुए, ऊधम बंद न किया, तो मां को पता नहीं है कि बच्चे को कितना भारी धक्का पहुंचाया है उसने; क्योंकि मां की मृत्यु का अर्थ है उसकी भी मृत्यु। वह कैसे बचेगा!

पच्चीस साल तक इस तरह पर-निर्भर रहने के कारण, सदा दूसरे के साथ जीने के कारण, अकेलेपन की सामर्थ्य खो जाती है। फिर तुम अकेले होने में समर्थ भी हो जाते हो, लेकिन पुरानी आदतें पीछा करती है, छाया की तरह पीछे लगी रहती हैं। सत्तर साल के भी हो जाते हो, तब भी मुक्त नहीं हो पाते कि अकेले हो सको। मरते दम तक भी आखें दूसरों को खोजती रहती हैं।

मरते हुए बूढे आदमी को देखो: खोजता रहता है,’’ मेरा बेटा कहां है? अभी तक आया नहीं!’’ अनेक बार ऐसा होता है कि बेटा दूर गांव है, आने में देर लगती है, तो बाप जिंदा बना रहता है जब तक बेटा नहीं आ जाता; जैसे ही वह आया, समाप्त होने की सुविधा बनी; अटका रहता है, पकड़े रहता है जीवन को, जद्दोजहद करता रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक…जन्म में तो समझ में आता है, फिर तो आदत की बात है।

ध्यान का अर्थ है: इन संस्कारों को जो बचपन से पड़ गए हैं, यह दूसरे का सहारा खोजने की जो गलत आदत पड़ गई है–ध्यान का अर्थ है, इस आदत से ऊपर उठ जाना, और एक नए सूत्रपात का उदघाटन करता:’’ मैं अकेला हो सकता हूं! और मैं अकेला हूं!’’

तुम जितनी चेष्टा करोगे कि कहीं अकेला न रह जाऊं, उतना ही ज्यादा तुम अकेलापन अनुभव करोगे। जिस दिन तुम राजी हो जाओगे, स्वीकार कर लोगे कि वह तो स्वभाव है; मैं भी कैसा मूढ हूं, स्वभाव से लड़ने चला! स्वभाव से लड़कर कभी कोई जीता! हारता है बस! जिस दिन तुम स्वीकार कर लोगे, और तुम कहोगे,’’ यह तो मेरी नियती है, तो इससे परिचय तो बना लूं! यह कौन है मेरे भीतर अकेला है!’’ –और जैसे ही तुम भीतर की यात्रा पर चलोगे, तुम पाओगे कि मैं भी खूब पागल था, जो मैं खोजता था भीड़ में वह मेरे हृदय में था; जो मैं खोजता था संग में, साथ में, संबंध में वह असंगता में था; जिसको मैंने दूसरों के सामने झोली फैलाकर मांगा था, वह मेरे ही भीतर खजाना छिपा था!

एकाकीपन परम सुंदर है। इसलिए जैनों ने अपने मोक्ष का नाम रखा: कैवल्य। बड़ा प्यारा शब्द चुना। कैवल्य का अर्थ है: बस अकेले; बस अकेलापन बचा, शद्ध अकेलापन बचा; इतना अकेलापन बचा कि दूसरे तो है ही नहीं वहां, तुम भी नहीं हो; दूसरे तो गए ही, साथ-साथ तुम्हें भी ले गए। क्योंकि तुम जो अपने को समझते हो तुम हो, यह दूसरों का दान है; यह तुम हो नहीं। किसी ने कहा,’’ सुंदर हो बड़े’’ , सम्हालकर रख लिया इस बात को, सुंदर हो गए! किसी ने कहा,’’ बड़े बुद्धिमान हो’’ सम्हाल ली, गठरी बांध ली भीतर कि मैं बुद्धिमान हूं। यह भी सब दूसरों का दिया हुआ है।

थोड़ी देर को सोचो तो, अगर तुम उस सबको छोड़ दो जो दूसरों ने तुम्हें दिया है, तुम्हारी प्रतिमा ही बिखर जाएगी। इसमें मित्रों का भी दान है, शत्रुओं का भी दान है, अपनाग का भी दान है, परायों का भी दान है। तुम गठरी बांधते चले गए हो। और इसलिए तो तुम्हारी जो आत्मप्रतिमा है, बड़ी उलझी है, विरोधाभासी है, उसमें कोई संगीत नहीं है, संगीत नहीं है, लयबद्धता नहीं है। क्योंकि कितने लोगों से तुमने इकट्ठा कर लिया है!

यह ऐसे ही है जैसे कि एक कार बनाई जाए, और तुम एक-एक पुर्जा जगह-जगह से इकट्ठा कर लाओ–कोई फोर्ड का होगा, कोई फियट का होगा, कोई राल्सरायस का होगा, ऐसे तुम कबाड़खानों से इकट्ठा कर लाओ सब कल-पुर्जे—और फिर उसको जोड़कर तुम कार बना लो, दिखाई पड़ेगी कि यह बन गई, चलेगी नहीं। और भूलकर उसमें चढ़ना मत!

मुल्ला नसरुद्दीन के बेटों ने इस तरह की एक कार बना ली थी, और उन्होंने कहा,’’ पापा! हम जा रहे हैं सैर को, तुम भी आ जाओ’’ । रंग-रोगन देखकर गाड़ी का वह भी बैठ गया। पर गाड़ी कोई रंग-रोगन से थोड़े ही चलती है! बोनट के नीचे जो छिपा है, उससे चलती है, वह तो दिखाई पड़ता नहीं है। रंग-रोगन से कहीं गाड़ी चली है! बैठ गया। गाड़ी दो-चार-दस कदम चली होगी कि हइडी-हइडी थरथरा गई। रास्ते के बगल में जाकर गिर गई खेत में, कलपुर्जे बिखर गए। मुल्ला अपने सिर से हाथ लगाकर बैठ गया। उसके बेटे ने कहा,’’ पिताजी। चोट लगी है, तकलीफ हुई है? डाक्टर के पास ले चलूं? ‘’उसने कहा,’’ डाक्टर के पास क्या होगा ले जाने से! वैटरनरी डाक्टर के पास ले चलो! अगर अक्ल ही होती मुझ में तो तुम्हारी कार में बैठता?  पशु-चिकिल्सालय में भरती कर दो। मेरा इलाज वहीं होगा’’। यही तुम्हारी प्रतिमा है। कुछ कहीं से तुमने इकट्ठा कर लिया है। और इसलिए तो तुम्हारे जीवन में संवाद नहीं है। मित्रों ने जो बातें कही थीं, वे भी भीतर पड़ी हैं, शत्रुओं ने जो कह दी थीं वे भी भीतर पड़ी हैं। किसी ने कह दिया, बहुत सुंदर हो, किसी ने कहा कि तुम जैसा कुरूप आदमी नहीं देखा, किसी ने कहा कि तुम बड़े दाता हो, बड़े दानी हो, किसी ने कहा, कृपण, आखिरी दर्जे के कंजूस! यह सब पड़ा है भीतर। अब तुमको खुद भी समझ में नहीं आता कि तुम हो कौन। तुम्हारी अपनी कोई पहचान सीधी-सीधी नहीं है, सब उधार है। परम एकांत के क्षण में दूसरे तो होते ही नहीं, दूसरों ने तुम्हें जो धारणा दी थी तुम्हारे संबंध में, वह भी नहीं होती। तभी तुम्हारा स्वभाव प्रगट होता है।

एकांत में ही मंदिर है। एकांत में ही, परम एकांत में ही आत्म-साक्षात्कार है।

तो, पहली बात तो यह खयाल रखो…।

पूछा है,’’ घर-परिवार में होते हुए भी मुझे लगता है कि कोई अपना नहीं है’’ । बिलकुल ठीक लगता है, शुभ लगता है, सत्य लगता है। मगर चेष्टा इससे विपरीत चल रही होगी। चेष्टा यह चल रही होगी कि किसी तरह यह एकाकीपन मिट जाए, वस्तुत : कोई मेरा हो! बहुत लोग तुम्हें भरोसा भी दिला देंगे,’’ हम तुम्हारे हैं’’ , लेकिन वह सब भरोसा है, सांत्वना है,

तुम्हें संतोष बंधाया जा रहा है। जो अपने नाहीं हैं वे तुम्हारे क्या हो सकेंगे? और कोई किसी का हो कैसे सकता है? कितना ही बेटा कहे मां से कि मैं तुम्हारा हूं, कल मां चल बसेगी, बेटा साथ नहीं जाएगा। कितना ही पति कहे कि सदा-सर्वदा को तुम्हारा हूं, पत्नी मर जाएगी तो पति साथ नहीं मर जाएगा। कौन किसके साथ जाता है! ये सब बातें हैं–जरूरी हैं, क्योंकि आदमी बड़ा बेचैन है। उसे संतोष की शराब चाहिए; उसे अफीम चाहिए, ताकि वह सोया रहे; उसे ऐसा खयाल भर बना रहे कि सब अपने हैं।’’ कितना भरा-पूरा घर है,’’ लोग कहते हैं। सब भरे-पूरे घर पड़े रह जाते हैं, जब विदा का क्षण आता है।

कोई अपना नहीं है, यह इतना बड़ा सत्य है कि इससे लड़ना मत। यही तो दुर्दशा है साधारण जन की, जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा करता है; जो हो सकता है, मात्र निर्णय लेने से जो हो सकता है, उसकी चेष्टा नहीं करता।

कितनी बार तुम सबको नहीं लगा है कि कितने अकेले हो, मगर फिर-फिर तुमने अपने को भुलाने की कोशिश की है! क्यों इतने डरे हो अपने से? जो भी तुम भीतर हो उसे जानना ही होगा! सुखद-दुखद, कुछ भी हो, अपने स्वरूप से परिचय बनाना ही होगा, क्योंकि उसी परिचय के आधार पर तुम्हारे जीवन के फूल खिलेंगे।

देखो! जिनके जीवन के भी फूल खिले हैं, वे सब किसी न किसी रूप में एकांत की तलाश में चले गए थे। खिल गए फूल, तब लौट आए बाजार में। लेकिन जब फूल खिले नहीं थे–चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे मुहम्मद, चाहे क्राइस्ट–सब चले गए थे, दूर एकांत में। बाहर का एकांत तो भीतर के एकांत की खोज का ही सहारा है। बाहर का एकांत तो भीतर के एकांत को बनाने के लिए सुविधा जुटा देता है बस। असली एकांत तो भीतर है। लेकिन अगर बाहर भी एकांत हो तो भीतर के एकांत में डूबने में सुविधा मिलती है। जरूरी नहीं है कि कोई भागकर जाए, ठेठ बाजार में भी अकेला हो सकता है।

वस्तुत: तुम्हें हर बार लगता है कि अकेले हो, मगर उस अंतर्दृष्टि को तुम पकड़ते नहीं। वह अंतर्दृष्टि तुम्हारा जीवंत सत्य नहीं बन पाती, उलटे तुम उसे झुठलाते हो। तुम कहते हो,’’ कौन कहता है मैं अकेला हूं? पत्नी है, बच्चे हैं, सब भरा-पूरा है!’’ भीतर तो देखो, पात्र खाली का खाली पड़ा है। ये प्रवचनाएं हैं। इस प्रवचनाओं से जागो!

तो मैं तुमसे यह नहीं कहता…। मैं तुम्हें कोई तरकीब नहीं बताता कि कैसे तुम्हारा अकेलापन मिट जाए–मैं तुमसे कहता हूं, कैसे तुम अकेलेपन को उत्सव बना लो, कैसे तुम्हारा अकेलापन तुम्हारे जीवन की संपदा बन जाए, कैसे तुम्हारा अकेलापन आत्मसाक्षात्कार का द्वार बन जाए।

छोड़ो बचना! जीवन भर बहुत दौड़े; कहां पहुंचे? अब वही हो रहा जो अपने आप होता मालूम पड़ता है। राजी हो जाओ। और राजी भी बे-मन से नहीं, थके मन से नहीं; राजी भी विषाद और हार में नहीं–राजी, सत्य को समझकर। क्या करोगे, दीवाल से अगर निकलने की कोशिश करते हो, सिर टकराता है। बहुत करके देख ली, सिर लहूलुहान हो गया है, अब दरवाजे से निकलो! तुम यह तो न कहोगे कि दरवाजे से जो निकलता है, वह कमजोर है, कायर है, हम तो दीवाल से ही निकलेंगे, हम कोई कायर नहीं हैं! मगर तुम दरवाजे से निकलनेवाले आदमी को कायर नहीं कहते, बुद्धिमान कहते हो। दीवाल से टकरानेवाले को साहसी कहने की कोई जरूरत नहीं–वह मूढ है, बुद्धिहीन है। दीवाल से कोई निकला? निकलने के लिए द्वार है।

अकेलेपन से लड़कर कभी कोई नहीं जीता। जीतनेवाले अकेलेपन पर सवार हो गए, उन्होंने अकेलेपन का घोड़ा बना लिया, अकेलेपन को रथ बना लिया, उस पर सवार हो गए। और तब अकेलापन कैवल्य तक पहुंचा देता है, उस परम दशा तक, जिसको भगवान कहें, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें–उस परम दशा तक पहुंचा देता है। अकेले ही तुम पहचोगे।

तो मैं जब तुमसे कहता हूं, अकेलेपन को स्वीकार कर लो, तो ध्यान रखना, स्वीकार करने का मजा तो तभी होगा जब तुम स्वागत से स्वीकार करोगे। ऐसे बे-मन से कर लिया कि ठीक है, चलो, नहीं होता तो चलो यही कर लेते हैं, तो कुछ भी होगा। तब तुम्हारे इस बे- मन के पीछे तुम्हारी पुरानी आकांक्षा अभी भी सक्रिय है। तुम कोई न कोई उपाय खोजकर फिर अपने अकेलेपन को भरोगे।

गहस्थ का अर्थ है : जो अपने अकेलेपन को भरने की कोशिश में लगा है। संन्यस्त का अर्थ है : जो इस सत्य को अंगीकार किया है कि अकेलापन है, भरा नहीं जा सकता–तो जीएंगे, जो हम भोगेंगे, इसका स्वाद लेंगे, अगर है भीतर तो जरूर कुछ कारण होगा! और कारण यही है कि अकेलेपन की सीढ़ी परमात्मा से लगी है, उसी पर चढ़-चढ़कर एक-एक सोपान तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे। जब तक तुम अपने अकेलेपन से बचोगे तब तक तुम संसार में उतरने जाओगे, और से हो ओगे। क्योंकि जितना दूसरों से डोगे उतने ही अपने से

परमात्मा दूर जा तुम जु., दूर होते जाओगे। और वह जोड़ वास्तविक नहीं है, वह जोड़ सिर्फ जोड़ का धोखा है, जोड़ का आभास है।

एक महिला मुझे मिलने आई। पति से परेशान है। मगर पुरानी धारणाओं की है, तलाक भी नहीं दे सकती। पति दुष्ट है, मारता-पीटता भी है। जब आई तो उसने अपने हाथ, पीठ बताई। सब निशान पड़ गए हैं। लहुलूहान कर देता है पति जब मारता है। मैंने कहा,’’ तू अलग क्यों नहीं हो जाती’’? उसने कहा,’’ कैसे होऊं? गठबंधन हो गया है!”—’’ गठबंधन!”, उसने कहा,’’ हां सात फेरे लग गए!’’ तो मैंने कहा,’’ यह कोई बड़ी बात है? पति को ले आ, सात उलटे फेरे लगवा देंगे। आचल से बंधी थी? खोल देंगे! किसी ने बांधी थी, हम खोल देंगे, तू ले आ। गांठ, है क्या मामला इसमें इतना?’’

लेकिन झूठे गठबंधन भी बड़े वास्तविक मालूम होने लगते हैं। सात चक्कर लगा लिए, अब क्या करें! चक्कर में पड़ गए। उलटे लगा लो!

हम सारी व्यवस्था ऐसी करत हैं कि बंधन वास्तविक मालूम पड़ने लगें। इसलिए तो शादी का इतना शोरगुल मचाया जाता है–बैंड-बाजे, घोड़ा, दूल्हा, फूल-हार, मेहमान, उत्सव, मंत्र, पूजा, हवन- यज्ञ—ये सब उपाय हैं ताकि पुरुष और स्त्री को यह पक्का हो जाए कि यह घटना कुछ ऐसी है कि इसको उलटाया नहीं जा सकता। कोई बड़ी महान घटना घट रही है! यह मनोविज्ञान है। अगर शादी ऐसे ही कर दी जाए तो ज्यादा टिकेगी नहीं।

मैंने सुना है, एक युवक और युवती एक चर्च में अमरीका में भागते हुए अंदर पहुंचे। पादरी से उन्होंने कहा,’’ जल्दी करो। ये जो दो आदमी खड़े हैं, ये गवाह हो जाएंगे। और यह तुम्हारी फीस लो, विवाह करवा दो’’ ।

पादरी ने कहा,’’ देखो, तुमने कभी सुना नहीं कि जल्दबाजी का काम शैतान का’’ ! उन्होंने कहा,’’ होगा, हमें फुर्सत नहीं, तुम जल्दी करो!’’

तो पादरी ने कहा,’’ ठीक है…।’’ उसने जल्दी उनकी शादी कर दी। उनके जाते वक्त उसको उत्सुकता हुई कि मामला क्या है? इतनी जल्दी क्या है? उन्होंने कहा,’’ बाहर हम गलत जगह कार पार्क कर आए हैं’’ ।

अब ऐसी शादी कोई ज्यादा देर टिकेगी! इतनी जल्दबाजी में की गई, तो बंधन का आभास ही गहरा नहीं होता। इसलिए तो पश्‍चिम में तलाक बढ़ता जाता है। शादी का पूरा मनोविज्ञान टूट गया है। उसके आसपास की सारी व्यवस्था उखड़ गई है। तो सच्चाई साफ हो गई है कि हम दोनों का दिल साथ होने का, तो साथ हो गए, अलग होने का, तो अलग हो गए—बंधन कहां है ,

ध्यान रखना जिन- जिन बंधनों को तुमने बंधन माना है, वे मान्यता के हैं। मैं नहीं कहता कि सब बंधन तोड़कर भाग खड़े होओ। जाना कहां है भागकर? लेकिन जानते रहो कि बंधन सब खेल हैं। पति रहो, पत्नी रहो, जहां पाया है अपने को, जहां खड़े हो वहीं रहो—लेकिन एक बात मन में साफ हो जाए कि सब बंधन व्यस्तता का खेल है। इससे हम अपने को भरते और भुलाते हैं। लेकिन अकेला होना हमारा स्वभाव है। साथ होना संयोग, अकेला होना, स्वभाव है। संसार संयोग है, कैवल्य स्वभाव है।

“घर-परिवार में होते हुए भी मुझे लगता है, कोई अपना नहीं। मैं बिलकुल अकेली हूं’’ ।

इस शुभ घड़ी का उपयोग कर लो। अकेली हो या अकेले हो, आनंद-भाव से छाती से लगा लो इस बात को। सब अशांति मिट जाएगी, सब बेचैनी मिट जाएगी। कौन अपना है! अपेक्षा मिट जाएगी। कोई भी अपना नहीं है, फिर भी लोग इतना कुछ कर देते हैं तो अनुग्रह है। तुमने कभी खयाल किया, जिससे अपेक्षा होती है उसके प्रति अनुग्रह का भाव पैदा नहीं होता। राह पर तुम जा रहे हो, तुम्हारा रुमाल गिर गया और एक राहगीर ने उठाकर दे दिया, तुम बड़ा अनुग्रह अनुभव करते हो, तुम कहते हो,’’ धन्यवाद! शक्रगुजार हूं! बड़ी आपने कृपा की!’’ लेकिन यही रुमाल तुम्हारी पत्नी उठाकरदे दे या तुम्हारा पति उठाकर दे दे, तो तुम शक्रगुजारी करोगे ,     तुम कहोगे धन्यवाद? कोई कारण ही नहीं, क्योंकि यह तो तुम कहते हो अपनी है, अपना है, यह तो करना ही था, यह किया तो कौन-सी बड़ी बात की!

जिसको तुम अपना मान लेते हो, उससे अपेक्षाएं हो जाती हैं। तो उसके कारण तुम दुखी तो होते हो, सुखी कभी नहीं होते। उसके कारण दुख होता है। जहां- जहां अपेक्षा टूटती है, वहां- वहां दुख होता है। लेकिन जहां-जहां अपेक्षा पूरी होती है, सुख नहीं होता! तुम कहते हो,’’ यह तो अपना है। इसमें कौन- सी बड़ी भारी बात हो गई कि रुमाल उठाकर दे दिया? ‘’

अकेला जो जीने लगा, वह धीरे-धीरे अनुभव करेगा सारे संसार के प्रति अनुगहित है। कोई यहां अपना नहीं है, फिर भी लोग बड़े प्यारे हैं, हाथ में हाथ दे देते हैं, कहते हैं,’’ चलो, अंधेरे में सा थ हैं!’’ कोई अपना यहां नहीं है, फिर भी लोग ढांढस बंधाते हैं, साहस बंधाते हैं! कहते हैं,’’ घबड़ाओ मत, हम तो हैं!’’

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी तो वह खूब छाती पीट- पीटकर रोने लगा। पास- पड़ोग के लोग आए, उन्होंने कहा,’’ रोओ मत!’’ मगर वह चुप ही न हो। लोगों ने कहा कि’’ मामला क्या है? हमें तो यह पता भी न था कि तुम्हारा इतना प्रेम था इस स्त्री से, जिस तरह तुम रो रहे हो!’’ वह कहने लगा,’’ इसलिए थोड़े ही रो रहो हैं…। अब पूछते हो तो बताए देते हैं। जब मेरी मां मरी तो अनेक स्त्रियां आईं और कहने लगीं, हम तुम्हारी मां हैं, कोई फिक्र न करो! जब मेरे पिता मरे, अनेक बूढे आ गए, कहने लगे, कोई फिक्र न करो, हम तुम्हारे पिता हैं! अब कोई नहीं आता। रो रहा हूं इसलिए’’ ।

अनुभव करोगे तुम, अगर तुम्हारी अपेक्षा गिर जाए, कि जो भी थोड़ा- बहुत किसी ने कर दिया, वह भी न करता तो क्या करते? कोई जबरदस्ती तो न थी। कोई मांग और दावा तो नहीं हो सकता था। कोई कोर्ट- कचहरी तो नहीं की जा सकती थी।

“मैं बिलकुल अकेली हूं’’—इस भाव को गहन होने दो। यही तुम्हारा मंत्र हुआ। इसे दोहराओ, गदगद होकर दोहराओ कि मैं अकेली हूं। और धीरे-धीरे इसका रस आने लगेगा, स्वाद जमेगा। इससे बड़ी स्फुरणा होगी। जिन- जिन से दुख मिलता था, उन-उन से दुख मिलना बंद हो जाएगा। और जिससे कभी भी सुख मिलने की कोई आशा न थी, उससे भी सुख मिलने लगेगा। दृष्टि की बात है। लोग चारों तरफ बड़े प्रीतिपूर्ण मालूम होने लगेंगे, एक बार तुम्हारी अपेक्षा गिर जाए। तुम देखोगे, लोग भले हैं, साधु हैं। और जैसे ही यह बात तुम्हारे भीतर गहरी बैठ जाए कि अकेलापन स्वभाव है, द्वार खुला! क्योंकि तुम विश्राम की अवस्था में हो जाओगे—लड़ाई बंद हो गई। तुम नदी की धार में बहने लगे—तैरना बंद किया जब! और तुम पाओगे कि नदी की धार कितनी प्यारी है! कंधे पर बिठाए तुम्हीं ले जा रही है सागरों तक!

यह अकेलेपन की लहर परमात्मा तक ले जाती है, यह अनंत सागर तक ले जाती है। लेकिन अभागे हैं लोग! जिससे जीवन में प्रकाश उतर आता है, उसी द्वार को बंद किए बैठे हैं! रोते-चिल्लते हैं झूठे खिलौनों के लिए!

“साथ ही पाती हूं कि बुढापा आने लगा है और में रिक्त हूं! रूखी- सूखी हूं! प्रेम की एक बूंद भी मुझ में नहीं है!’’

प्रेम को हम कुछ गलत ही ढंग से देखते रहे हैं। प्रेम कुछ ऐसा थोड़ी है जैसे कि बालटी में पानी भरा रखा है, कि हो तो पी लो, न हो तो क्या पियोगे! प्रेम कोई वस्तु थोड़े ही है, जैसे तिजोड़ी में धन रखा है, खोल लो, धन हाथ में आ जाता है। नहीं, प्रेम वस्तु नहीं है–प्रेम भाव है। यह कोई भरा थोड़े ही रखा है कि देने की मर्जी हुई तो दे दिया और न मर्जी हुई तो न दिया, और है ही नहीं तो देंगे कैसे! नहीं, प्रेम तो करने से आता है।

तुम अभी बैठे हो, चल नहीं रहे हो। अगर मैं तुमसे पूछूं कि तुम्हारी चलने की शक्ति का क्या हुआ, तुम कहोगे,’’ संभावना है, शक्ति थोड़े ही है! अभी चलेंगे, चल पड़ेंगे! चलने लगेंगे तो चलने की शक्ति आ जाएगी। बैठे रहेंगे तो चलने का कोई कारण नहीं उठता’’ । तुम बैठे-बैठे यह तो नहीं कहते कि अब हम कैसे उठें, अब चलें कैसे, चलने की शक्ति कहां है, पहले इसका पक्का हो जाए।

चलना तो प्रक्रिया है। तुम चलो, उसी में पैदा होती है।

ऐसा ही प्रेम है, तुम प्रेम करो, उसी से पैदा होता है। ऐसा तो कोई है ही नहीं, जिसमें प्रेम की संभावना न हो। लेकिन तुम प्रेम करते ही नहीं। हम प्रेम मांगते हैं, देते नहीं। हमको लगता है, भीतर तो हम खाली हैं, दूसरों से ले- लेकर भर लें अपनी मटकी। मगर दूसरे भी तुम्हारी ही दशा में हैं, वे भी तुमसे अपनी मटकी भर लेना चाहते हैं। यह होगा कैसे ,     मटकियां टकराएगी, खटर- पटर शोरगुल मचेगा—जो हर घर- गहस्थी में मचा है। मटकियां टकरा रही हैं, कहते हैं कि बहुत बर्तन ए,     जगह रखो तो आवाज होगी ही।

प्रेम दान है। प्रेम कोई भिक्षा नहीं है कि किसी से मांग ली। और प्रेम कोई आज्ञा भी नहीं है कि किसी को दे दी कि करो प्रेम। और प्रेम कोई ऐसी चीज थोड़ी है कि तुम भीतर झांककर देखोगे तो वहां लबालब भरा हुआ मिलेगा। दो—उस देने में ही जगता है, देने में ही पैदा होता है, करने से ही आता है।

अगर मैं तुमसे कहूं कि’’ चलो, नदी पर तैरना सीख लो, तुम कहोगे, मेरे पास तैरना तो है ही नहीं। तो मैं तुमसे कहूंगा, तुम घबड़ाओ मत! कौन तैरना है, किसके पास तैरना है! बड़े से बड़े तैराक से कहो कि निकालो दिखाओ तुम्हारा तैरना, तो वह भी कहेगा, चलो नदी, तैरकर ही बताया जा सकता है। ऐसा कोई रखा हाथ में नहीं है, संदूक में बंद नहीं किया हुआ है कि गए और तुम्हें दर्शन करवा दिए।

प्रेम तैरने जैसा है। उतरो नदी में! और कभी भी देर नहीं हुई है। आखिरी क्षण तक, जब तक आखिरी श्वास आ रही है, तब तक भी प्रेम हो सकता है। हाथ- पैर पंगु हो गए हों, खाट पर लग गए हो, आखिरी सांस आ रही है, आंख खोलकर तुम प्रेम से देख तो सकते हो किसी की तरफ। उसी में प्रेम पैदा हो जाएगा।

प्रेम की कला सीखो! यह काई संपत्ति नहीं है, कला है। वृक्ष को देखो तो प्रेम से देखो, कैसा हरा है! कैसे फूल खिले हैं! जरा पा जाओ, वृक्ष को छुओ–और तुम पाओगे, भीतर कोई सोया था, जगने लगा! चांदत्तारों को देखो, पत्थर- पहाड़ों को देखो! सरोवर, सागरों को देखो! मगर प्रेम से! प्रेम तुम्हारी शैली हो जाए!

बहुत बड़ा कवि हुआ–मिलटन। किसी ने उसके संस्मरणों में लिखा है कि वह वस्तुओं को भी छूता था तो ऐसे जैसे उनमें व्यक्तित्व हो, जूता भी उतारता तो ऐसे प्रेम से भरपूर, जूते का भी धन्यवाद देता। देना चाहिए। कितने कांटों से नहीं बचा लिया है! जूते का बड़ा उपकार है! तुम आते हो, जूता ऐसा फेंकते हो जैसे एक झंझट मिटी। तुम्हारी दृष्टि में, तुम्हारे होने के ढंग में भूल है। अब तुम कहोगे, प्रेम है नहीं तो हम कैसे जूते को प्रेम से उतारें। मैं कहता हूं, तुम प्रेम से उतारकर देखो, तुम प्रेम को पाओगे! तुम कहते हो, प्रेम होगा तो हम प्रेम करेंगे! मैं कहता हूं, प्रेम करोगे तो प्रेम होगा! शुरू करके देखो! किसी का भी हाथ, हाथ में लेकर देखो!

एक एयर होस्टेस, एक परिचारिका मुझे कह रही थी। एक बूढी महिला हवाई जहाज पर चढ़ी, पहली दफा! और उस परिचारिका ने देखा कि वह बहुत घबड़ा रही है, नर्वस है, कैप रही है। पहली दफा अनुभव था। बूढी महिला! तो वह परिचारिका उसके पास गई, उसकी कुर्सी पर बैठ गई, उसके सिर को अपने हृदय से लगा लिया। तब तक जहाज ऊपर उठ गया, सब व्यवस्थित हे गया। धक्के आने बंद हो गए। इंजन संगीतपूर्ण रूप से चलने लगे। सब थिर हो गया। तो वह परिचारिका उठी। और जब वह जाने लगी तो बूढी ने कहा,’’ बेटी! जब मुझे फिर डर लगे तो आ जाना!”

जब तुम किसी को प्रेम देते हो, तब अनायास दूसरी तरफ से भी प्रेम बहने लगता है। सुलगाओ, कहीं से भी सुलगाओ चिंगारी। लपटें फिर दूसरों में फैलती चली जाती हैं! तुमने कभी किसी मकान में आग लगी देखी! एक मकान में आग लगती है, सारा पड़ोस घबड़ा जाता है, क्योंकि लपटों का क्या भरोसा, फैलने लगती हैं। हवा पर सवार होकर छलांग लेती है लपट और दूसरे मकान को पकड़ लेती है।

प्रेम भी आग है। तुम जरा जलाओ! तुम जरा चिंगारी उठाओ! औरसब तरफ से तुम्हारी लपट को बढ़ाने के उपाय होने लगेंगे। तुम जो करते हो, संसार उसी में तुम्हारा साथी हो जाता है। अब अगर तुम्हीं थके-मांदे बैठे हो कि कैसे चलना हेगा, कैसे प्रेम करना होगा—है ही नहीं! कौन लेकर आया है? जन्म के साथ कोई प्रेम की तिजोड़ी साथ लेकर आता है? संभावना लेकर आता है। संभावना सभी की है और आखिरी श्वास तक है।

मैंने सुना है, एक आदमी राह से गुजरता था और एक भिखमंगे ने उसके सामने हाथ फैलाए। बूढा, अंधा दुर्बल! उस आदमी ने जल्दी से खीसे में हाथ डाले, लेकिन वह अपना बटुआ तो घर ही भूल आया था। तो वह बड़ा मुश्किल में पड़ गया। वह पास बैठ गया, उसने बूढे का हाथ अपने हाथ में ले लिया और कहा,’’ बाबा! खीसे में कुछ है नहीं, बटुआ मैं घर भूल आया’’। उस बूढे ने कहा,’’ छोड़ो भी! बटुए और खीसे की बात क्या? तुमने मुझे इतना दिया हाथ हाथ में लेकर, जितना कभी किसी ने मुझे नहीं दिया। जब कभी यहां से गुजरो, क्षणभर को अपना हाथ मेरे हाथ में दे देना, बस बहुत है!’’

कौन किसी भिखमंगे का हाथ हाथ में लेता है! कोई पैसे ही देने की थोड़ी बात है—भाव की बात है!

जहां तुम्हें प्रेम करने का अवसर मिले, चूकना मत; नहीं तो चूकने की आदत मजबूत हो जाती है। अगर ज्यादा चूकते रहे तो चूकना तुम्हारा ढंग हो जाता है। प्रेम का रास्ता तब

असंभव है। और हम जगह-जगह चूकते हैं।

प्रत्येक घड़ी को प्रेम की घड़ी बनाओ! कोई प्रेम के लिए परमात्मा ही उतरेगा आकाश से तब तुम प्रेम करोगे! तो जिस दिन परमात्मा उतरेगा उस दिन पाओगे कि प्रेम करना तो तुम जानतेही नहीं। इसका अभ्‍यास करो! जो मिल जाए, घड़ीभर का साथ हो जाए रास्ते पर किसी से, फिर तो रास्ते अलग हो जाएंगे, कोई गीत आता हो, गीत गुनगनाकर सुना दो! कुछ न आता हो, आंख तो तुम्हारे पास है, प्रेम से गीली आंख से उसे देख लो! तुम उसके सपनों के हिस्से हो जाओगे। वह तुम्हारी याद करेगा, लौट-लौटकर तुम्हारी याद करेगा। और जब-जब तुम्हारी याद करेगा, भीतर तुम्हारे प्राणों में भी अज्ञात तार कपेंगे क्योंकि हम सब जुडे हैं। हम अलग-अलग नहीं है।

प्रेम को फैलाओ!

प्रेम के संबंध में तुम बहुत कंजूस हो। लेकिन लोग समझते हैं, शायद यह कंजूसी बड़ी कीमत की है।

मैंने सुना है, एक बहुत धनवान स्त्री एक होटल में पहुंची। पांच-सात कारें सामान लदा हुआ। सब सामान नौकर-चाकरों ने उतारा। लेकिन एक कार में उसका बेटा बैठा है, उम्र होगी कोई तेरह-चौदह साल। और तब उसने कुलियों को और बुलाया कि उतारो मेरे बेटे को। तो एक कुली ने पूछा कि’’ क्या अपंग है बेटा? यह तो बिलकुल स्वस्थ मालूम पड़ता है। चल नहीं सकता?’’ उस बूढी ने कहा,’’ चल सकता है, लेकिन उसे चलने की जरूरत नहीं, हमारे पास सब सुविधा है। चल सकता है, चलने की कोई जरूरत नहीं। हम कोई गरीब नहीं हैं”। दो कुली उस स्वस्थ लड़के को कंधे पर उठाकर ले गए।

चलना भी गरीबों का काम है! कोई अमीर कहीं चलते हैं!

ऐसी ही भ्रांतियां हैं। प्रेम–हम सोचते हैं, कभी करेंगे! लेकिन जब तक प्रेम न करोगे तब तक क्या करोगे? कुछ तो करोगे! उस करने का अभ्‍यास प्रगाढ़ हो जाएगा। प्रेम में न होने की आदत मजबूत अगर हो गई, तो मुश्किल होगी। प्रेम कोई रूखा-सूखा नहीं होता; सिर्फ गलत आदतें…। अभी भी देर नहीं हुई।

…’’ पाती हूं, बुढापा आने लगा और मैं रिक्त हूं”। अभी भी देर नहीं हुई। अभी भी आंख को गीला करो। अभी भी गीत को उठने दो। हमेशा प्रेम का उपाय है। और इतने लोग प्रेम के लिए भूखे और प्यासे हैं…! दो, कोई भी अवसर मिले, एक बात ध्यान रखो कि कैसे उसे हम प्रेम देने का अवसर बनाएं।

बुढापा आता है, सभी का आता है। उससे घबड़ाओ मत! बुढापे को समझ का समय बनाओ। क्योंकि बच्चे अबोध हैं, उन्हें कोई अनुभव नहीं, भोले-भाले हैं, लेकिन अनुभव-रिक्त हैं।

उनका भोला-भालापन तो खत्म होगा, खराब होगा। वे तो उठेंगे, जिंदगी में जाएंगे। और जिंदगी व्यभिचारी है। वे बिगड़ेंगे। बिगड़ना ही पड़ेगा। वह बिगड़ना जरूरी पाठ है।

फिर जवान हैं। जवानों का मन तो बहुत- सी उत्तेजनाओं से भरा है। बहुत कुछ कर लेने का उनके दिमाग में फितूर है। जवानी एक फितूर है। जवानी एक विक्षिप्तता है, एक जोश, एक जुनून। तो अभी तो वे आकाश में उड़ रहे हैं। जवान, अभी उनके पैर जमीन से नहीं लगते। लगेंगे उनके पैर। क्योंकि जल्दी ही पता चलेगा, जवानी तो एक बुखार थी, आई और गई, एक उत्तेजना थी, एक उत्ताप था, हम नाहक ही उसमें भूल बैठे, अपने को कुछ का कुछ समझ लिया।

मैंने सुना है कि एक लोमड़ी सुबह-सुबह निकली, सूरज के उगते प्रकाश में उसकी बड़ी छाया बनी–लम्बी छाया! उसने छाया की तरफ देखा और कहा, आत तो नाश्ते के लिए कम से कम एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी–इतनी बड़ी हूं! दिन भर खोजती रही, दोपहर हो गई, कुछ मिला नहीं। सूरज सिर पर आ गया। उसने फिर देखा अपनी छाया की तरफ, वह सिकुड़कर बड़ी छोटी हो गई। उसने कहा, अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो भी काम चलेगा!

जवानी तो एक नशा है, छाया बड़ी लंबी मालूम होती है। हर आदमी सिकंदर होना चाहता है। हर जवान सिकंदर होने के सपने देखता है। वह सपनों का समय है।

बुढापा बड़ा बहूमूल्य है, बच्चों जैसा अनुभव हीन नहीं है, सारा अनुभव हो गया, जवानों जैसी विक्षिप्तता नहीं है! वह जोश-खरोश, वह पागलपन गया! चीजें ज्यादा थिर हो गई हैं। दृष्टि ज्यादा थिर हो गई है। समझ गहरी हुई है। इसका उपयोग करो।

बुढापा सुंदर है–जवानी से ज्यादा। तभी तो परमात्मा जवानी के बाद बुढापा देता है, वह ऊपर की सीढ़ी है। जवानी के अनुभव के बाद बुढापा देता है, उसकी श्रेणी बहुत ऊंची है। बुढापे के लिए तैयार होओ। उसका उपयोग करो।

लेकिन तकलीफ क्या खड़ी होती है, कि बूढे तुम हो जाते हो, लेकिन खोपड़ी में जवानी के सपने भरे रहते हैं। तो अड़चन होगी। अब अगर एक बूढा व्यक्ति ऐसे प्रेम की आशा करता हो जैसा एक जवान को मिलता है, तो वह अड़चन में पड़ेगा। बूढे आदमी को और सौम्य प्रेम के मार्ग खोजने पड़ेंगे। उत्तेजना से भरे हुए नहीं। उसे वात्सल्य को जगाना पड़ेगा। उसका प्रेम वात्सल्य होगा। उसके प्रेम में करुणा होगी, शीतलता होगी, शोरगुल नहीं होगा, शांति होगी। उसका प्रेम करुणा जैसा होगा।

बुढापे से घबड़ाओ मत। वह तो इस जिंदगी का आखिरी सोपान है, उसके बाद ही तो परम घड़ी आती है मृत्यु की। घबड़ाओ मत कि बुढापा आ गया, अब क्या होगा! क्योंकि इस जीवन का नियम कुछ ऐसा है–

मन बन सांस अधीर, सहारा कोई और मिलेगा

रो मत मृदुल समीर, दुआरा

कोई और खुलेगा

प्रभु-पूजा कर का दीप,

देह का यह उपमान बहुत है

गंगाजल कहलाए आंसू यह सम्मान बहुत है

गा प्रभात का गीत,

भीत हो अंधियारा पिघलेगा।

मत बन सांस अधीर, सहारा कोई और मिलेगा

रो मत मृदुल समीर, दुआरा कोई और खुलेगा।

एक दरवाजा बंद हुआ नहीं कि दूसरा खुला नहीं! जवानी गई तो बुढापा आया! बचपन गया तो जवानी आई! एक दरवाजा बंद होता है, दूसरा खुल जाता है। यह जन्म गया, दूसरा जन्म आया! यह जीवन गया, दूसरा जीवन आया! अंत तो है ही नहीं–यात्रा अनंत है। घबड़ाओ मत! मौत भी दरवाजों को बंद नहीं करती, नये दरवाजे खोलती है। और अगर तुम बुढापे से राजी हो गए, तो तुम मौत से भी राजी हो जाओगे। बुढ़ापे से तुम राजी इसीलिए नहीं होते कि बुढ़ापा मौत की पगध्वनि है। बुढ़ापा कहता है, मौत आने लगी! बुढ़ापा कहता है, संभलो कब्र पास आने लगी! बुढ़ापा कहता है, अब मौत के सिवाय कुछ भी न बचा, बस अब मौत ही है, मौत ही है।

लेकिन मृत्यु एक द्वार है: इस तरफ बंद होता है जीवन, उस तरफ खुलता है। घबड़ाओ मत, जीवन की यात्रा अनंत है। इस अनंत यात्रा में बहुत बार तुम बच्चे हुए, बहुत बार जवान हुए, बहुत बार बूढे हुए, बहुत बार मरे–मर-मरकर भी कहां मर पाते हो! जीवन बचता ही चला जाता है। हजारों मौतें पार कर लेता है और बचता चला जाता है। जीवन शाश्वत है, अमृत है।

ध्यान रखो, तुम न बूढे होते हो, न तुम जवान होते हो, न तुम बच्चे होते हो। तुम्हारे भीतर कोई समयातीत है, कालातीत है। तुम्हारे भीतर कोई अशरीरी है। ये सारे लक्षण तो शरीर के हैं–बचपन, जवानी, बुढ़ापा! यह तो सब मन का और तन का ही जाल है, और इसके भीतर छिपे तुम हो–निष्कलुष। निराकार! निस्सीम! निर्गुण! एकांत को साधो! ताकि तुम्हें अपना पता चलने लगे, तुम कौन हो! अमृत! और घबड़ाओ मत। ऐसे बहुत घर पहले छोड़े हैं।

यह एक और घर

पीछे छूट गया

एक और भ्रम जो

जब तक था मीठा था

टूट गया

कोई अपना नहीं है कि

केवल सब अपने हैं

हैं बीच-बीच में अंतराल

जिनमें है झीने जाल

मिलाने वाले कुछ,

कुछ दूरी और दिखाने

वाले पर सच में

सब सपने हैं।

यह एक और घर

पीछे छूट गया

एक और भ्रम

 

जो जब तक था

मीठा था टूट गया।

पर घबड़ाओ मत! रो मत मृदुल समीर, दुआरा कोई और खुलेगा, दुआरा कोई और खुलेगा!’’ मैं पैर से थोड़ी अपाहिज हूं और शिविर में नृत्य करना कठिन होता है’’ ।

नृत्य कोई शरीर की बात ही तो नहीं है–नृत्य तो आतरिक घटना है। आत्मा तो कभी भी अपाहिज नहीं। तुमने कोई आत्मा देखी जो अपाहिज हो? नहीं शरीर नाच सकता, फिक्र छोड़ो–आंख बंद करो, तुम तो नाचो! तुम्हारे नाचने में शरीर क्या बाधा डालेगा? तुम्हारे होने में शरीर क्या बाधा डालेगा?

नृत्य तो एक भावभंगिमा है–प्रफुल्लता की, उत्सव की! जब कोई भक्त चलता है तो उसके चलने में भी नृत्य होता है। अभक्त नाचे भी, तो भी नृत्य कहां, शरीर की ही उछल-कूद होती है। उछल-कूद थोड़े ही नृत्य है।

माना, शरीर वृद्ध हुआ, अब नाच न सकोगे, छोड़ो! लेकिन भीतर कौन रोक सकता है?

अल्बर्ट कामू ने लिखा है कि तुम मुझे कारागह में डाल सकते हो, मेरे हाथों में जंजीरें पहना सकते हो–लेकिन तुम मुझे बंदी न बना सकोगे। जंजीरें हाथ पर ही होंगी, मुझ पर न होंगी। तुम पर कौन जंजीर डाल सकता है? यह शरीर के साथ तादाम्य बहुत ज्यादा है, इसलिए ऐसी अड़चन आती है। तुम सोचते हो, नाचेंगे कैसे, शरीर तो अपाहिज है!

मेरी एक संन्यासिनी लंदन में अस्पताल में पड़ी है। भयंकर कार दुर्घटना हुई। कोई पैंतीस फ्रेक्चर सारे शरीर में हुए। चिकित्सकों का खयाल है कि ठीक भी हो जाएगी, तो भी अब सामान्य न हो पाएगी। सभी कुछ टूट-फूट गया है भीतर। सिर्फ सिर को छोड्कर–सिर भर साबित है–बाकी सारा शरीर खंड-खंड हो गया है। सारे शरीर पर पलस्तर बंधा हुआ है। उसने मुझे लिखा कि मैं क्या करूं। उसे नटराज ध्यान बड़ा प्यारा था। जब वह यहां आई थी तो दिल खोलकर नाची थी। तो मैंने उसे लिखा कि इससे क्या फर्क पड़ता है, यह तो एक और सुगम अवसर मिला। चौबीस घंटे बिस्तर पर हो, आंख बंद कर लो—और नाचो! नाचने का भाव करो। स्वप्न देखो नाचने का।

वही चकित नहीं हुई, उसके चिकित्सक भी चकित हुए। क्योंकि जिस दिन से उसने भीतर का नृत्य शुरू किया है, उसकी बाहर की शिकायतें भूल गई हैं। वह उस अस्पताल में सबसे ज्यादा शांत हो गई है। और उसने खबर भेजी है कि बड़े आश्वर्य की बात है कि शरीर जल्दी भर रहा है, ठीक हो रहा है।

वह जो कल्पना का आतरिक नाच है, वह सहयोगी बनेगा। भीतर जो घटता है उसके परिणाम शरीर पर आते हैं। शरीर पर जो घटता है, जरूरी नहीं है कि परिणाम भीतर जाएं। तुम नाच सकते हो बाहर से, भीतर कुछ भी न हो! लेकिन अगर भीतर नाच हो तो बाहर परिणाम होते हैं, क्योंकि केंद्र पर जो घटता है उसकी तरगे परिधि तक पहुंच जाती हैं। केंद्र मूल है।

नाचो! नाचने में शरीर से कोई बाधा नहीं है। गाओ! ग्ला भी गा सकता है। दूसरे न सुन पाएंगे, यह बात जरूर सच है, लेकिन इससे गाने में क्या बाधा पड़ती है? नाचो, लंगड़ा भी नाच सकता है। दूसरे न देख सकेंगे तुम्हारा नाच, लेकिन तुम तो देख ही सकोगे। असली बात वहीं है।

तुम्हारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण उत्सव का हो जाए। तुम इस जीवन को बोझ की तरह न ढोओ। इस जीवन में तुम ऐसे न चलो जैसे जबरदस्ती किसी ने पत्थर तुम्हारे सिर पर रख दिए हैं। बस नाच का इतना ही अर्थ है।

“घरवाले आपको विशेष पसंद भी नहीं करते हैं’’ ।

कैसे करेंगे? क्योंकि यह नाता कुछ ऐसा है, बाकी सब नातों को पोंछ डालता है। इसलिए घर वाले किसी को भी पसंद नहीं करेंगे। एक प्रतियोगी आ गया! और कुछ ऐसा प्रतियोगी कि अब उनके बस चलाए न चलेगा। मेरे प्रेम में अगर तुम पड़े तो तुम्हारा पूरा परिवार बेचैनी अनुभव करेगा। क्योंकि हम सबका दृष्टिकोण ऐसा गलता है…।

समझो! कामवासना का एक अर्थशास्त्र है—वह अर्थशास्‍त्र यह है कि प्रेमी-प्रियजन नहीं चाहते कि संख्या बढ़ती जाए, क्योंकि फिर प्रेम बंटेगा तो भाग कम- कम पड़ेंगे। एक ही बेटा हो तो पूरा प्रेम का मालिक था। दस बेटे हैं—प्रेम कट जाता है। लेकिन यह प्रेम ही नहीं है। इसको मैं कामवासना कहता हूं, यह कामवासना का अर्थशास्‍त्र है। क्योंकि जितने ज्यादा दावेदार होंगे उतनी ही पूंजी बंटती चली जाएगी। एक बाप के दस लड़के हैं, पंद्रह लड़के हैं, जब मरेगा तो संमति टुकड़ों में बंट जाएगी, खेत के पंद्रह टुकड़े हो जाएंगे। अगर एक ही बेटा होता, सबका मालिक हो जाता।

यह काम का अर्थशास्त्र है कि बांटने से चीजें कम होती हैं। इसलिए जितने भी काम के संबंध हैं वे हमेशा भयभीत होते हैं कि कहीं और नये संबंध न बन जाएं। पत्नी देखती रहती है कि पति किसी स्त्री से दोस्ताना तो नहीं बढ़ा रहा है, कोई दोस्ती तो नहीं बढ़ा रहा है! झांकती रहती है किनारों से, कि रास्ते पर किसी को देखकर हंसा तो नहीं!

मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ बाजार से गुजर रहा था। एक बड़ी सुंदर युवती ने हाथ हिलाकर मुल्ला से कहा,’’ हेलो।’’ घबड़ा गया मुल्ला! वह तो देख ही नहीं रहा था उस तरफ! पत्नी के साथ पति जब चलता है, इधर-उधर नहीं देखता। तब वह ऐसे चलता है जैसे बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा था कि बस, चार कदम…जमीन चार कदम देखकर चलना, इससे ज्यादा में खतरा है!

पत्नी तो ठिठककर खड़ी हो गई। उसने कहा,’’ क्या मामला है? यह कौन है स्त्री? इससे क्या नाता है? नसरुद्दीन ने कहा,’’ कोई नाता नहीं है, व्यावसायिक संबंध है’’। पत्नी ने कहा,’’ किसका व्यवसाय–तुम्हारा या उसका?’’

पत्नी घबडायी है, कहीं कोई सौत न जन्म जाए, कहीं कोई प्रतियोगी न आ जाए! पति घबड़ाया हुआ है कि कहीं पत्नी किसी और के प्रति भी प्रेम को न बहाने लगे! अन्यथा, धारा कटेगी तो मेरे पल्ले कम पड़ेगा।

यह कामवासना का अर्थशास्त्र है। प्रेम का इससे कोई संबंध नहीं है, क्योंकि प्रेम की तो खूबी यह है कि जितना बाटो उतना बढ़ता है। प्रेम का अर्थशास्त्र तो यह है कि तुम जितना ज्यादा प्रेम करोगे उतना ही तुम्हारा प्रेमियों को ज्यादा मिलेगा।

अब इसे थोड़ा समझना।

अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को ही प्रेम करता है, और संसार में उसके कोई प्रेम-संबंध नहीं हैं, न मित्रों से, न किसी से, कोई नाता नहीं है, मैत्री का तो पत्नी के पास तुम कितनी देर बैठोगे? चौबीस घंटे? दुकान भी करनी है, बाजार भी करना है। पत्नी के लिए हीरे-जवाहारात भी चाहिए, वे भी लाने हैं, बड़ा मकान भी बनाना है। घड़ी आधा घड़ी तुम पत्नी के लिए निकाल पाते हो, साढ़े तेईस घंटे तो तुम कहीं और रहोगे। और उस साढ़े तेईस घंटों में तुम न तो किसी की तरफ प्रेम से देखते, न किसी का हाथ प्रेम से हाथ में लेते, तो अप्रेम की तुम्हारी आदत हो जाएगी। और आधा घंटा जब तुम पत्नी के पास रहोगे, तब भी तुम पास रहोगे नहीं। तुम्हें प्रेम करना ही भूल गया। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि पत्नी कहे कि जब तुम मेरे पास रहो तभी सांस लेना, साढ़े तेईस घंटे कहीं सांस मत लेना; यह तो हद हो गई कि मेरे बिना और तुम सांस ले रहे थे! तो जब पति घर तक आएगा, आएगा नहीं कंधों पर लाया जाएगा, अर्थी सज जाएगी! यही हो रहा है।

फिर जब तुम किसी को भी प्रेम नहीं कर पाते, जब तुम्हारा प्रेम सहज स्वभाव नहीं होता तो पत्नी से भी प्रेम होता नहीं, सिर्फ दिखावा होता है–और एक दुष्टचक्र पैदा होता है। क्योंकि पत्नी अनुभव करती है कि प्रेम मुझसे नहीं तो जरूर कहीं और होगा। वह और भी जाल फैलाती है, और पुलिस सिपाही लगाती है। वह सब तरफ से तुम्हें बंद कर लेना चाहती है, कहीं तुम और न दे आओ। और जितना ये पुलिस, पहरे लगते हैं, उतनी ही तुम्हारी सांस घुटने लगती है, प्रेम मरने लगता है।

प्रेम का अर्थशास्त्र काम के अर्थशास्त्र से बिलकुल उलटा है। प्रेम कहता है: बाटो। तुम जितना बाटोगे उतना ही तुम जो तुम्हारे पास है, उनको ज्यादा दे सकोगे।

मेरे पास जब तुम आते हो तो तुम्हारे लिए जो एक महाघटना है, तुम्हारे परिवार की दृष्टि में दुर्घटना होगी। होगी ही। क्योंकि यह कोई साधारण प्रेम नहीं है। यह प्रेम कुछ ऐसा है कि तुम्हारा सारा परिवारा बेचैन हो जाएगा, कि यह जो व्यक्ति हाथ से गया, अपना न रहा। जितना तुम्हारे मन में मेरी धुन बजेगी उतना ही वे पाएंगे कि फासला बढ़ा जा रहा है। वे सब बाधा खड़ी करेंगे, सब तरह का उपद्रव खड़ा करेंगे। वे हजार तरह की बातें करेंगे, तर्क देंगे। मैं उन्हें दुश्मन जैसा मालूम होने लगा। कोई यह स्वाभाविक स्थिति है। इससे चिंता मत लेना।

एक ही बात खयाल रखना कि जब से मेरे प्रेम में पड़ो, तब से अपने प्रियजनों को और भी ज्यादा प्रेम करना, बस इतना ही तुम कर सकते हो। मेरे प्रेम के कारण कमी मत पड़ने देना, नहीं अन्यथा उनका भय सच हो जाएगा। मेरे प्रेम के कारण तुम्हारा प्रेम बढ़े तो कितनी देर तक वे अपने भय को पालकर रख सकेंगे, आज नहीं कल उनकी आंख खुलेगी, आज नहीं कल वे देखेंगे कि यह मां थी, और भी ज्यादा प्यारी हो गई है, पत्नी थी और भी ज्यादा प्यारी हो गई, इतनी तो इसने देख- भाल कभी न की थी। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि तुम भी उनकी भूल को सही सिद्ध करनेवाले बन जाओ, ताकि वे पीछे कहें, हमने पहले ही कहा था!

मैं किसी को किसी से तोड़ने को यहां नहीं हूं। मेरा तो सारा पाठ ही प्रेम का है–और प्रेम यानी जोड़ना। तो तुम अगर पति हो, तो और भी प्रेमपूर्ण पति हो जाना। तुम्हारा संन्यास तुम्हारे पति होने में किसी तरह की कमी न करे। तुम अगर पत्नी हो तो तुम पति के प्रति और भी लगाव से भर जाना। अपने स्नेह को चारों तरफ बरसा देना। अपने प्रेम के फूल पति के चारों तरफ उगा देना। तो तुम पति को भी ले आओगी मेरे पास। क्योंकि तब उसे एक नया अर्थशास्त्र दिखाई पड़ेगा जो प्रेम का है, काम का नहीं।

कामवासना वही प्रेम है जो क्षुद्र है और बांटे बंट जाता है, छोटा हो जाता है। प्रेम की संपदा तो अपारा है।

उपनिषद कहते हैं, उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पूर्ण ही पीछे शेष रह जाता है। यह प्रेम का ही वक्तव्य है। प्रेम घटता ही नहीं, बांटे बढ़ता है, जितना उलीचो, बढ़ता है! कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए! कंजूसी उलीचने में मत करना।

“और आपको सुनकर आंसू बहते हैं’’ ।

अच्छा है। कुछ लोग हैं जिनको कुछ सुनकर विचार चलते हैं। उससे यह लाख गुना बेहतर है कि मुझे सुनकर आंसू गिरते हैं। साफ है कि मेरी बात तुम्हारे हृदय तक पहुंची, तुमने मुझे सुना। चिंता मत करो। आंसुओ के कारण हम चिंतित हो जाते हैं, क्योंकि हमें सिखाया ही यह गया है कि आंसू तो दुख में आते हैं। तो किसी को तुम रोता देखते हो, तुम्हें यही खयाल आता है कि’’ बेचारा, बड़ा दुखी! अन्यथा रोएगा क्यों?‘’

तुम्हें पता ही नहीं है कि आनंद में भी आंसू आते हैं। आंसुओ का कोई संबंध दुख-सुख से नहीं है, आंसुओ का संबंध तो किसी भी ऐसी भाव-दशा से है, जो इतनी ज्यादा हो जाती है कि तुम बरस पड़ते हो, तुम उसे सम्हाल नहीं पाते। जैसे मेघ भर गया जल से तो बरसेगा। फूल भर गया सुगंध से तो सुगंध फैलेगी। दीया जलेगा तो रोशनी बटेगी।

ध्यान रखना कि आंसू तो तुम्हारे भीतर के किसी अतिरेक की खबर लाते हैं, दुख हो कि सुख, इससे कोई संबंध नहीं है। लेकिन द्यैकइ आदमी दुख में ही रोता है—खुशी में तो रोने की बात दूर, लोग खुशी में हंस तक नहीं पाते। खुश होना भूल ही गए हैं हम। हम प्रसन्न होने की भाषा ही भूल गए हैं।

आंसू अगर मुझे सुनकर आते हैं—मंगलदायी है! प्रभु की कृपा है, प्रसाद है! उन आंसुओ को रोकना मत! उनको बहने देना। उन आंसुओ में बहुत कुछ कूड़ा- कर्कट तुम्हारा बह जाएगा। तुम पीछे ताजा अनुभव करोगे, जैसे स्नान हो गया हो। से कंजूसी मत करना। बहने दो आंसूओं को। ये आंसू भीतर उठती किसी रसधार की खबर हैं। बस इतना ही खयाल रहे कि इन आंसूओं को अपनी मस्ती बनाना, आनंद और अहो भाव से। यही तुम्हारी प्रा र्थना है। अगर कोई ठीक से रोना ही सीख ले तो कुछ और नहीं चाहिए, क्योंकि रोते- रोते हंसना आ जाता है।

“और कुछ सूझता नहीं, क्या करूं?‘’

रोओ! आंसू से बड़ी और प्रार्थना कहां है! हृदयपूर्वक रोओ! आंसू निखारेंगे तुम्हें, बुहारेंगे तुम्हें, जो व्यर्थ है वह फिक जाएगा, जो सार्थक है वह स्फटिक मणी की भांति स्वच्छ होकर भीतर जगमगाने लगेगा।

“और भगवान! क्या मेरे लिए आशा की कोई किरण संभव है?‘’

पूरा सूरज देने की यहां तैयारी है, किरणों की बात ही नहीं है। मुझको कंजूस समझा है?

 

 

दूसरा प्रश्‍न :

 

भगवान नास्तिक व साम्यवादी विचारों से प्रभावित होने के कारण में ईश्वर और आत्मतत्व को नकारता रहा। फिर आपका साहित्य पढ़ा तो तर्क-बुद्धि काम न पड़ी और यहां आ गया। जब आपको सुनने और ध्यान करने का अज्ञात के प्रति आस्‍था जगने लगी है और संन्यस्त होने का जी कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं नये परिवेश में सम्मोहित हो गया हू।

 

 

नास्तिकता ठीक-ठीक तैयारी है आस्तिकता की। जो नास्तिक न हुआ वह कभी आस्तिक भी न हुआ। जो ठीक से नास्तिक हुआ वह आस्तिक हुए बिना रह न सकेगा। जहां नास्तिकता पूर्ण होती है वहीं आस्तिकता शुरू होती है।

इसलिए पहली बात : ऐसा मत सोचो कि पहले तुम नास्तिक थे और अब तुम कुछ विपरीत दिशा में जा रहे हो। नहीं, तुम्हारी नास्तिकता ही तुम्हें मेरे पास ले आई है। यह मेरा अनुभव है हजारों लोगों पर काम करने के बाद, कि जो अपने को आस्तिक समझते हैं, वे करीब- करीब थोथे लोग हैं। और उनके साथ बड़ी मुश्किल होती है। उनका विकास बड़ा कठिन होता है। क्योंकि वे नहीं हैं वह उन्होंने अपने को मान रखा है, एक झूठ को पकड़ रखा है। यह तो ऐसे ही है जैसे बीमार आदमी समझता हो कि मैं स्वस्‍थ हूं। अब इसका इलाज कैसे करोगे? वह हाथ ही न रखने देगा। वह नाड़ी भी न पकड़ने देगा। वह कहेगा, मैं बीमार ही नहीं हूं। बीमार अगर जान ले कि मैं बीमार हूं तो ही इलाज हो सकता है।

करोड़ों आस्तिक हैं जो सोचते हैं कि आस्तिक हैं, पर आस्तिकता का अभी उन्हें कोई पता ही नहीं चला है। उधार आस्तिकता है–और धइर्म उधार नहीं है। धर्म बड़ी नकद घटना है।

तो जिनको मैं पाता हूं कि वे नास्तिक हैं, मेरे पास आते हैं तो मैं प्रसन्न होता हूं। उन्होंने अधिईा यात्रा तो खुद ही पूरी कर ली है। थोड़े ही धक्के की जरूरत है, वे आगे निकल जाएंगे। आस्तिक की भूल यह है कि वह अपने को आस्तिक बिना हुए आस्तिक समझता है। और नास्तिक की अगर कोई भूल हो सकती है तो वह एक कि वह नास्तिकता में ही अटक जाए, अर सोचने लगे कि बस सब जान लिया, अब कुछ जानने को नहीं है।

जिन मित्र ने पूछा है, उनका हृदय खुला है, इसलिए मेरे पास आ सके। लेकिन अब थोड़ी और हिम्मत जुटाने का सवाल है। मेरी बात में रस आना एक बात है और मेरे रस को पकड़कर छलांग लगा लेना, रूपांतरण करना बड़ी दूसरी बात है। मुझे सुन लेना अच्छा लगेगा। उतने से काम न होगा। मैं जो कह रहा हूं जब तक तुम्हारा दर्शन न बन जाए, मैं जो बता रहा हूं जब तक तुम न देख लो, जब तक तुम्हारा अनुभव भी मेरी गवाही न देने लगे–तब तक मन संदेह उठाएगा, मन कहेगा,’’ बात अच्छी तो लगती है, पता नहीं ठीक है या नहीं! स्वादिष्ट तो लगती है, लेकिन स्वास्थ्यप्रद है या नहीं! फिर कौन जाने, कहीं सम्मोहन तो नहीं हो गया!’’

इतने गैरिक वस्त्रों में लोग–निश्वित ही एक परिवेश बनता है। उनकी मस्ती, उनका नाचना, उनके जीवन में आई ताजगी, तुम्हें भी लुभायमान करने लगती है, लुभाती है। फिर ध्यान, फिर मुझे सुनना–ये सतत चोटें! तो मन कहेगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सम्मोहित हो गए हो। लेकिन जरा इस मन से पूछो, जब यह मन नास्तिक हुआ था और जब यह कम्शनइस्ट हुआ था, तब इसने तुमसे कहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सम्मोहित हो गए हो, परिवेश से! इसने तब न कहा था। क्योंकि तब इसको कोई खतरा न था। नास्तिकता में मन मजे से जी सकता है। नास्तिकता मन के लिए ठीक-ठीक खाद है, द्यैकइ’’ नहीं’’ कहना है।’’ नहीं’’ कहना मन के लिए बड़ा सुगम है।’’ हां’’ कहने में अड़चन आती है।’’ नहीं’’ में संघर्ष है। संघर्ष से अहंकार मजबूत होता है।’’ हां’’ समर्पण है।’’ हां’’ कहने से अहंकार गिरता है।

तो मन अब हजार-हजार सवाल उठाएगा : कहीं सम्मोहन तो नहीं है! मन यह कह रहा है, रुको! जल्दी मत करो! लेकिन ध्यान रहे, अगर जल्दी न की, तो मन कभी भी न करने देगा। वह कहेगा, कल! कल कभी आता नहीं।

और फिर मैं तुमसे यह पूछता हूं, इतने दिन नास्तिक रहे, आस्तिकता इतनी जल्दी सम्मोहित कर लेगी? हां, साधारण आस्तिक, जिन्होंने नास्तिकता जानी ही नहीं है, हो सकता है आसानी से सम्मोहित हो जाएं। लेकिन नास्तिक…। तुम तो लड़ रहे हो पूरी तरह मुझसे, फिर भी बाजी हारते चले जा रहे हो। तो मन कहता है, उलट दो बाजी, बंद ही करो खेल! हार तो निश्वित हुई चली जाती है!

सम्मोहन का क्या अर्थ होता है? दूसरे जो कह रहे हैं, उनकी देखा-देखी कुछ करने लगो तो सम्मोहन है। दूसरों की देखा- देखी करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा ध्यान तुम्हें सुख दे रहा हो, मुझे सुनकर तुम्हें प्रकाश का कोई झरोखा दिखाई पड़ रहा हो, मेरे पास बैठकर तुम्हारे हृदय का कोई वातायन खुलता हो, हवा का ताजा झोंका आता हो–तो अपने सुख की सुनो, मन की मत सुनो। मैं तुमसे यह कहता हूं, वस्तुत : दुखी रहने की बजाय सम्मोहित होकर सुखी रहना बेहतर है। सम्मोहन यह है नहीं, अनुभव तुम्हें बताएगा। सजगता से, होशपूर्वक उतरो। अगर तुम्हारा आनंद बढ़ता जाए, तुम्हारा जीवन अनुभव सुस्पष्ट होने लगे, धुंधली- धुंधली छायाएं हटने लगें और प्रकाश पास आने लगे–तो अपने अनुभव की ही सुनना। लेकिन मुझे एक मौका दो। फिर तुम्हें लौट जाना हो, अनुभव के बाद, मजे से लौट जाना। यह इसलिए कहता हूं कि कोई कभी लौटता नहीं अनुभव के बाद। अनुभव के पहले सीढ़ियों पर ही सारी बातचीत है कि कहीं संदेह, सम्मोहन, कोई धोखा, पता नहीं क्या मामला है! ये लोग नाच रहे हैं, कहीं ये सब बने-बनाए न हों, सिखे-पढाये न हों! कहीं ये सिर्फ तुम्हारे लिए ही नाच रहे हों कि अब तुम आ रहे हो, तो अब फांसने का इंतजाम किया हो!

नहीं, इनको तुम्हारा कोई पता भी नहीं है। ये अपने भीतर नाच रहे हैं। तुम भी नाचकर देखो! स्वाद लो!

मैं नहीं कहता, मुझ पर विश्वास करो! नहीं, मैं कहता हूं, मेरे साथ प्रयोग करो–सिर्फ प्रयोग! हाइपोथेटिकल! मुझ पर भरोसा करने की अभी जरूरत ही नहीं है। तुम्हारा अनुभव ही अगर भरोसा ले आए, तब बात दूसरी। जब अपनी ही आंख से देखोगे और जब अपने ही हृदय में अनुभव करोगे, तभी तुम्हारा मन छोड़ेगा–यह भाव, तर्क, विरोध कहीं सम्मोहन तो नहीं है। मन तुम्हें दुख में रखना चाहता है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं,’’ बड़ा आनंद आ रहा है। एक बात पूछने आए हैं आपसे, यह सच तो है? आनंद उन्हें आ रहा है मगर शक है। शक यह है कि मन मान ही नहीं सकता कि तुम और आनंदित! असंभव है। कहीं कोई भूल हो रही है!

मन मान ही नहीं सकता, क्योंकि तुम्हारे सारे जीवन का अनुभव तो दुख का है, अचानक तुम्हें सुख मिल रहा है, कभी न मिला था, कहीं किसी ने सम्मोहित तो नहीं किया। कहीं कोई जालसाजी, कोई षड्यंत्र तो नहीं चल रहा है।

लोग इतने भयभीत हैं, और पास कुछ भी नहीं है सिवाय दुख के!

मेरे एक संन्यासी ने किसी बड़े राजनेता को मेरी एक किताब दी। तो उन्होंने किताब हाथ में न ली। वे कहने लगे,’’ रुको, पहले दोतीन बातों का जवाब दो। मैंने सूना है कि यह आदमी खतरनाक है और सम्मोहित करता है। यही नहीं, एक सज्जन ने तो यहां तक कहा है कि किताब भी मत पढ़ना, क्योंकि पढ़ते-पढ़ते कई लोग पागल हो गए हैं। और फिर उन्होंने कहा कि यहां तक मैंने सुना है कि किताब छूने में भी खतरा है’’। किताब हाथ में नहीं ली औनर कहा कि बाबा बख्शो! बाल-बच्चे हैं। घर-द्वार हैं। इसमें न उलझाओ!

तुम्हार संदेह सदा सुख पर आता है, दुख पर नहीं! जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है, तब तुम किसी से आकर नहीं कहते कि सुनो भाई, सिर में दर्द हो रहा है, सच है या झूठ? तब तुम बिलकुल मान लेते हो। सिरदर्द को तुम बिलकुल मान लेते हो। क्योंकि दर्द का तुम्हारा अनुभव है। यह सुख बिलकुल ही अपरिचित है। इससे कभी मुलाकात ही न हुई थी। यह ताजा हवा का झोंका बिलकुल अजनबी हैं।

मैंने सुना है, स्वीडन का एक राजा दिनभर सोता था। अकसर राजे यह करते रहे अतीत में। रातभर नाच-गान चलता, पीना-पिलाना चलता और दिनभर सोना चलता। एक दिन कोई पांच बजे रात, छह बजे रात, महफिल समाप्त हुई। नींद उसे आ नहीं रही थी, तो वह अपने बगीचे में बाहर निकल आया। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने पूछा अपने पहरेदार को कि यह किस तरह की गंध हवा में है? उसके पहरेदार ने कहा,’’ महाराज! यह गंध नहीं है, सुबह की ताजी हवा है’’। जिंदगीभर तो कभी निकले नहीं, बस शराब की ही गंध को जानते थे। महफिल—उसी बंद दुनिया को जानते थे। सुबह की ताजी हवा..! पहली दफा जब अनुभव होगा तो तुम अड़चन में पड़ोगे, यह स्वाभाविक है। लेकिन एक ही उपाय है, और वह उपाय यह है कि थोड़ा हिम्मत करो और प्रयोग करो। नास्तिक रहकर देख लिया, अब आस्तिक रहकर भी देख लो। गहस्थ रहकर देख लिया, संन्यस्त होकर भी देख लो। गृहस्थ हाकर कुछ भी न पाया। इतना तो मौका दो कि शायद किसी और आयाम पर संपदा पड़ी हो। नास्तिक रहकर कुछ न पाया। इतना ही क्या काफी नहीं है कि तुम अब आस्तिकता की तरफ प्रयोग कर लो? प्रयोग के लिए लेकिन साहस चाहिए। और प्रयोग से ही संदेह जाएंगे। मैं विश्वास करने को कहता ही नहीं। मैं तो कहता हूं कि सत्य इतने करीब है, टटोलकर स्पर्श करके देख लो। आंख खोलो, सूरज निकल आया है। रोशनी सामने पड़ी है।

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो

जब तलक खिलते नहीं, ये कोयले देंगे धुंआ।

तब तक संदेह चलता ही रहेगा। धुंए से ही घिरे रहोगे। एक मौका दो सुबह की हवा को। खोलो खिड़की-द्वार-दरवाजे! आने दो हवा को! शीघ्र ही अंगारे जब भभक उठेंगे, धुंआ विलीन हो जाएगा।

 

धुंआ आग से पैद नहीं होता, धुंआ तो पैदा होता है गीले ईंधन से। तो जब तक पूरी तरह आग पकड़ न लेगी, तब तक धुंआ पैदा होता रहेगा। जब आग पूरी तरह पकड़ लेगी और लकड़ियां बिलकुल सूख जाएंगी उस आग में, तब धुंआ नहीं पैदा होता; तब श्दुद्ध आग, स्वर्ण जैसी शद्ध, निर्धूम…।

जब तक तुम्हारे मन की लकड़ी गीली-गीली है, सूखी नहीं, तब तक शक-संदेह का धुआ उठता ही रहेगा। और प्रयोग के अतिरिक्त कोई और उपाय नहीं है।

मुझे सुन-सुनकर तुम कहीं भी न पहुंच पाओगे। मैं जो कहता हूं, वह प्यारा लगता है। लेकिन इतने से ही कुछ भी न होगा। मैं जो कहता हूं, वह तुम्हें सुख देता लगता है। लेकिन उससे तो तुम सिर्फ इशारा लो और आगे चलो। मैं तुम्हें जहां की खबर दे रहा हूं, जब तक तुम वहीं न पहुंच जाओगे, तब तक तुम शब्दों को इकट्ठा कर लोगे, लेकिन सत्य की प्रतीति न होगी।

गर मुझे इसका यकीं हो मेरे हमदम मेरे दोस्त

गर मुझे इसका यकीं हो कि तेरे दिल की थकन

तेरी की उदासी, तेरे सीने की जलन

मेरी दिलजोई मेरे प्यार से मिट जाएगी

गर मुझे इसका यकीं हो मेरे हमदम मेरे दोस्त

रूजो- शब शामो- शहर मैं तुझे बहलाता रहूं

मैं कुछ गीत सुनाता रहूं हल्के शीरीं आबशारों के,

बहारों के, चमनजारों के गीत यूं ही गाता रहूं,

गाता रहूं तेरी खातिर गीत बुनता रहूं,

बैठा रहूं तेरी खातिर

पर मेरे गीत तेरे दुख का मुदावा ही नहीं

नग्मा जर्राह नहीं, गनइसो गमखार सही

मेरा गीत तुम्हारे जख्म न भर सकेगा, मलहम- पट्टी भला हो जाए। मेरा गीत तुम्हारी बीमारी की औषधि नहीं है। सांत्वना भले मिल जाए, सत्य न मिलेगा उससे। मेरे गीत में तुम सो मत जाना। यह कोई लोरी नहीं है। यह तुम्हें सुलाने के लिए नहीं, तुम्हें जगाने के लिए पुकार है, आवाज है।

मेरी बातें तुम्हें अच्छी लगती हैं—अच्छा है कि अच्छी लगती हैं, मगर इस काफी मत मान लेना। जरूरी है, काफी नहीं है। थोड़ा और चलो! मेरी बात अच्छी लगी है—मेरे जैसे होकर भी देखो! तब असली द्वार खुलेंगे।

जीवन अवसर है जानने के लिए, घबड़ाओ मत। पगडंडियां अधेरे बीहड़ में ले जाती है। लेकिन जिसको भी पहुंचना हो, पगडंडियों से ही पहुंचता है, राजपथ नहीं है। राजपथ पर भीड़ चलती है। यह तो जो मैं तुम्हें समझा रहा हूं, अकेले चलने का मार्ग है। इसमें तुम धीरे-धीरे परम एकांत को उपलब्ध हो जाओगे। वहीं तुम्हें पता चलेगा, क्या सत्य है, क्या झूठ है। इसलिए जल्दी निर्णय मत लेना। बाहर द्वार पर बैठे-बैठे निर्णय मत ले लेना। मेरा नियंत्रण है–महल के भीतर आओ!

अपने को पाने का अवसर

यूं ही न कहीं खो देना!

चुन लो सुर के सुमन,

समय का राग नहीं दब जाए

वर्तमान के लिए न गूंथो

गत की सूखी माला

तिमिर खोजने के लिए न है

दीपक का उजियाला

करो न धीमे चरण,

मिलन का क्षण

न कहीं टल जाए

पूनम हो या अमा,

सूर्य का जननी रात रहेग

श्ल-फूल दोनों को छू कर

मलय बयार बहेगी

ढंको न अपने नयन,

हृदय की आग नहीं बुझ जाए

अपने को पाने का अवसर

यूं ही न कहीं खो देना

चुन लो सुर के सुमन,

समय का राग नहीं दब जाए!

मैं यहां हूं। जब तक हूं जब डूब लो! जब तक हूं तब तक एक द्वार खुला है। हिम्मत कर लो! शास्त्र तो सदा रहेंगे। मैं जो कहता हूं वह तुम फिर आगे भी पढ़ लोगे। किताबें रहेंगी। सोच- विचार खूब कर लेना पीछे। लेकिन अभी स्थगित मत करो। इतना क्या भय है? इतनी क्या घबड़ाहट है? क्या अपने पर भरोसा बिलकुल भी नहीं है कि जब संन्यास का भाव उठे तो तुम्हें यह भी पक्का नहीं है कि वह तुम्हारा भाव है कि दूसरों का देखकर उठ आया है? तुम्हें क्या अपनी इतनी भी पहचान नहीं है?

श्रद्धा जगे, तो भी तुम संदिग्ध हो?

संदेह मिट जाएगा एक क्षण में, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। और यह भी मैं नहीं कहता कि श्रद्धा तभी होगी जब संदेह मिट जाएगा। अगर ऐसा कहता तो असंभव थी बात। मैं कहता हूं, संदेह है, माना। संदेह के बावजूद श्रद्धा का जो नया अंकुर उठ रहा है उसे मौका दो! फिर तुम तौल लेना बाद में। अगर तुम्हें लगे कि नास्तिक की’’ नहीं’’ ज्यादा मुक्तिदायी थी आस्तिक की’’ हां’’ से, वापस लौट जाना। पीछे तुम्हें लगे कि श्रद्धा से तो अश्रद्धा ही बेहतर थी—लौट जाना! लेकिन दोनों का अनुभव तो कर लो, ताकि तुलना कर सको, ताकि विचार कर सको!

एक का तो तुमने अनुभव किया है–संदेह का, नास्तिकता का, अब दूसरे का अनुभव बिना किए निर्णय मत करो।

मुल्ला नसरुद्दीन गांव का काजी हो गया था। पहला ही मुकदमा आया, तो उसने एक पक्ष का वक्तव्य सुना और कहा,’’ ठीक, बिलकुल ठीक!’’ कोर्ट का जो क्लर्क था, वह उठा, उसने पास आकर कहा कि महानुभव! अभी तो आपने एक का ही वक्तव्य सुना है। अभी विरोधी को भी तो कुछ मौका दें। आप तो निर्णय ही देने लगे कि बिलकुल ठीक है! नसरुद्दीन ने कहा,’’ लेकिन उसमें तो मैं जरा भ्रम में पड़ जाऊंगा। अगर दोनों की सुनी तो कन्पयूजन पैदा हो जाएगा’’ ।

मगर उसने कहा,’’ यह तो नियम है कोर्ट का’’ ।

उसने कहा कि चलो, ठीक। दूसरे से भी सुन ली। दूसरे की सुनी तो बोला,’’ बिलकुल ठीक, बिलकुल सत्य कह रहे हो’’। वह क्लर्क बोला,’’ आप यह कर क्या रहे हैं? पहले को भी ठीक कह दिया, दूसरे को भी ठीक कह दिया!”

नसरुद्दीन ने कहा,’’ बिलकुल ठीक कह रहे हो’’ ।

मौका दो! फिर शांत निश्वित मन से निर्णय करना। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि जिसने नास्तिकता और आस्तिकता के दोनों अनुभव किए, उसने दुबारा नास्तिकता चुनी हो। यह हुआ ही नहीं। यह अपवाद भी नहीं हुआ एक। यह हो ही नहीं सकता। एक दफा परख आ जाए हीरों की, फिर कौन कंकड़-पत्थरों को ढोता है!

 

 

आखिरी प्रश्न :

 

भगवान श्री!

वेद-कुरान को त्याग कियो

परित्याग कियो री पुरानन को

कंत के नैन में ध्यान धरयो

ब्रह्मानंद सुनो सखि कानन को

गुरुअन की शरणन् में

कबहूं न गई मंदिर

न चढ़ी नाही जोग लियो

पर जोग को भान भयो री सखी

जब प्यारे पिया संग भोग कियो!

कृपया बताएं कि क्या यह भी कोई मार्ग है!

 

 

इसी की चर्चा चल रही है। यही तो परम मार्ग है। यही तो नारद के भक्ति-सूत्र का सार है। कुछ भी जरूरत नहीं है–न वेद की, न कुरान की, न जोग की, न तप की। किसी की कोई जरूरत नहीं है–न मंदिर की, न मस्जिद की। जरूरत है तो बस इतनी ही कि परमात्मा के प्रति समर्पण हो जाए, उस प्रेमी से नात जुड़ जाए।

पर जोग को भान भयो री सखी जब प्यारे पिया संग भोग कियो!

तभी योग का अनुभव होता है जब उस परम प्यारे के साथ भोग हो जाता है।

सब कुछ मौजूद है तुम्हारे भीतर, जरा-सी चिंगारी चाहिए। एक चिनगार कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो

इस दिल में तेल से भीगी हुई बाती तो है! तैयार है सब, बस जरा प्रेम की चिनगार पड़ जाए!

कुरान, वेद, पुरान–कितने लोग उन्हें पढ़ रहे हैं, क्या पाया ,     उनको गौर से देखोगे तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि शास्त्रों से कुछ भी होता नहीं। होता होता तो सारा संसार कभी रूपांतरित हो गया होता! कितने शास्त्र हैं!

गजब है सच को सच कहते नहीं वो

कुरानो-उपनिषद खोले हुए हैं! गौर से देखो जरा, कुरान और उपनिषद की छाया में कितना पाखंड चल रहा है। शब्दों के पीछे कितना धोखा पड़ा हुआ है!

भक्ति का शास्त्र इतना ही है कि उस परमात्मा के प्रेम में पड़ जाना ही सब कुछ है। जिसने प्रेम जाना, उसने सब जाना। और बाकी सब जानने में जो अपने को उलझाये रहा, उस सबको तो जान ही न पाएगा, प्रेम को भी न जान पाएगा।

प्रेम की कठिनाई यह है कि उसके संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता, इसलिए प्रेम का कोई शास्त्र भी नहीं बन सकता।

नारद सूत्र तुतलातेतुतलाते हैं।

कहो कैसे।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी

आदमी की पीर ग्ली हो सही, गाती तो है।

बस इतना ही समझ लेना कि प्रेम गीत से प्रगट हुआ है, नृत्य से प्रगट हुआ है। और कुछ कहने का उपाय नहीं है; इसलिए नारद कहते हैं,’’ रोते हैं भक्त, कठावरोध हो जाता है; से आंसू झरते हैं; एक-दूसरे से संभाषण करते हैं, उनके कारण ही यह पृथ्वी स्वर्ग की तरह पूज्य हो गई है’’ ।

भक्तों का सत्संग करो। तलाश करो उनकी जो’’ उसके’’ प्रेम में पगे हों, ताकि तुम्हें भी वह प्रेम छू ले, तुम भी उसमें पग जाओ!

वस्तुत: आना अपने पर ही है। कितना बड़ा चक्कर लगाकर आते हो, यह तुम्हारी मर्जी। शास्त्रों से गए तो बहुत बड़ा चक्कर है; जबकी परमात्मा द्वार पर खड़ा था, सीधे तुम जा सकते थे।

हमीं थे क्या जूस्तजू का हासिल

हमीं थे क्या आप अपनी मंजिल

वहीं पर आ कर ठहर गया दिल

चले थे जिस राहगुजर से पहले!

तुम्हीं हो मंजिल, तुम्हीं हो मार्ग,

तुम्हीं हो खोजनेवाले, तुम्हीं हो खोज,

तुम्हीं हो खोजा जाने वाला सत्‍य।

नादर कहते है, त्रिभंग के भी ऊपर उठ गया-ज्ञाता; सेवक, सेव्‍य—जो त्रैत के ऊपर उठ गया…..। कौन उठता है उसके उपर? जो भी प्रेम में डूब जाता है, वही ऊपर उठ जाता है। तुम प्रेम में डूबो, प्रेम में मिटो।

प्रेम का शास्‍त्र ही एकमात्र धर्मशास्‍त्र है!

आज इतना ही।

 

विशेष:

दिनांक 19-20 मार्च, 1976;

को भगवान श्री प्रवचन के लिए उपस्‍थित नहीं हए……..

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–19

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प्रज्ञा की थिरता है मुक्तिउन्नीसवां प्रवचन

दिनांक २१ मार्च, १९७६,

श्री रजनीश आश्रम, पूना

 सूत्र :

वादो नावलम्ब्य। । 74। ।

  बाहुल्यावकाशादनियतत्ववच्च। । 75। ।

  भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्वोधक कर्माण्यपि करणीयानि।। 76। ।         

सुखदु:स्वेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाण क्षगार्द्धमपि व्यर्थं न नेयम्।। 77। ।       अंहिसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारिन्याणि परिपालनियानि।। 78। ।

  सर्वदा सर्वभावेन निश्विन्तितैर्भगवानेव भजनीय:। । 79। ।

  स करीत्यिमान: शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान्।। 80। ।

  त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी।। 81। ।

  गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्‍ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति साख्यासक्ति      

कातासक्ति वात्सल्यासक्त्यात्मनि वेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपा

  एकधाप्येकादशधा भवति। । 82। ।

  इत्येवं वदन्ति जनजल्पपनिर्भया एकमता :

  कुमारव्यासश्दुक शाडिल्यगर्गविष्णुकौण्डिन्य शेषोद्धवारुणिबजिहनुमद्विभीषणादयो      

भक्त्ययाचार्या :। । 83। ।

  य इदं नारदप्रोक्त शिवानुशासन विश्वसिति श्रद्धते स प्रेष्ठं लभते

  स प्रेष्‍ठं लभते इति। । 84। ।

 

 

क तीर्थयात्रा आज पूरी होगी।

भक्ति कोई शास्त्र नहीं है–यात्रा है। भक्ति कोई सिद्धांत नहीं है—जीवन-रस है। भक्ति को समझकर कोई समझ पाया नहीं। भक्ति को डूबकर, भक्ति में डूबकर ही कोई भक्ति के राज को समझ पाता है।

नाच कहीं ज्यादा करीब है विचार से। गीत कहीं ज्यादा करीब है गद्य से। हृदय करीब है मस्तिष्क से।

इन बहुत दिनों भक्ति की लहरों में हमने आदोलन लिया, बहुत तुम्हें रुलाया भी, क्योंकि भक्ति आंसुओ के बहुत करीब है। और जो रो न सके, वह भक्त न हो सकेगा। छोटे बच्चे की तरह जो असहाय होकर रो सके, वही भक्ति-मार्ग से गुजर पाता है।

भक्ति बड़ी सुगम है—लेकिन जिनकी आंखों में आंसू हों, बस उनके लिए। भक्ति बहुत कठिन है, अगर आंखों के आंसू सूख गए हों। और बहुत हैं अभागे संसार में जिनकी आंखों के आंसू सूख गए हैं, जिनके पास आखें हैं, लेकिन आंखों में पानी नहीं रहा, जो देखते हैं, लेकिन गहरानहीं देख पाते, क्योंकि आंखों से भी ज्यादा गहर आंखों के आस देखते हैं। और जिनकी आंखों से आंसू नहीं रहे, उनकी आंखों के स्वच्छ होने की संभावना मिट गई। आंसू तो स्नान करा जाते हैं, आंखों को बार-बार ताजा कर जाते हैं, धूल को जमने नहीं देते, विचार को टिकने नहीं देते, कूड़ा-कर्कट को बहा ले जाते हैं, आखें फिर ताजी हैं स्फटिक मणि की भांति, छोटे बच्चों की भांति, फिर संसार हरा और ताजा और नया हो जाता है। उस ताजगी से ही परमात्मा की खबर मिलती है।

भक्त का अर्थ है : जो रोना जानता है। भक्त का अर्थ है : जो असहाय होना जानता है। भक्त का अर्थ है : जो अपने ना-कुछ होने को अनुभव करता है। अहंकार से भक्ति बिलकुल विपरीत है। इसलिए जो अहंकार की खोज पर चले हैं, वे कभी भक्ति को उपलब्ध न हो सकेंगे। परमात्मा को पाना हो तो स्वयं को खोना ही पड़ेगा।

यह खोने की यात्रा थी। यह राह बड़ी मधुभरी थी, बड़े फूल खिले थे! क्योंकि भक्ति के मार्ग पर कोई मरुस्थल नहीं है। तुम पैर भर रखो, पहला कदम ही आखिरी कदम बन जाता है। तुम पैर भर बढ़ाओ कि सौंदर्य अपने अनंत रूपों को खोलने लगता है।

परमात्मा को खोजना नहीं, अपने को खोलना है, ताकि परमात्मा तुम्हें खोज सके। इस भ्रांति में तो तुम रहना ही मत कि तुम परमात्मा को खोज लोगे। भक्ति का मूल आधोरा यही है कि परमात्मा तुम्हें खोज रहा है, तुम छुप क्यों रहे हो, तुम बचाए क्यों फिरते हो अपने को?      तुम उसे न खोज सकोगे, क्योंकि तुम्हें न उसका पता मालूम, न ठिकाना मालूम। और हाथ कितने छोटे हैं और आकाश कितना बड़ा है! तुम मुट्ठियों में आकाश को बांध पाओगे?

मनुष्य की सामर्थ्य क्या है?

जिस दिन अपनी असामर्थ्य प्रतीत हो जाती है, उस दिन भक्त कहता है,’’ अब तुझसे कहें भी क्या, तुझे खोजें भी कहां ?‘’

लिखें जो कुछ और तो हमारी मजाल क्या

इतना ही लिख के भेज दिया है—”तरस गए’’ ।

भक्त रो सकता है, तरस सकता है। शिकायत भी तो करने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि शिकायत भी सामर्थ्य की ही छाया है।

ये दिन बड़े अहोभाव के थे।

ये सूत्र अगर तुम्हारे हृदय में थोड़ी-सी भनक छोड़ जाएं और तुम्हारा गीत मुखर हो उठे…। वीणा तो तुम लेकर ही आए हो, लेकिन न मालूम कितने भयों से ग्रस्त हो, और परमात्मा को तुम्हारी वीणा को छूने नहीं देते।

थोड़ी हिम्मत चाहिए। थोड़ी मतवाली हिम्मत चाहिए। यह काम पागलों का है। परमात्मा को जिन्होंने पाया वे पागल थे। और पागल होने की साम र्थ्य नहीं हो तो परमात्मा की बात छोड़ देनी चाहिए। यह बुद्धिमानों का, समझदारों का, दुकानदारों का काम नहीं—पियक्कड़ों का है। और मैं खुश हूं कि पियक्कड़ धीरे-धीरे अब मेरे पास आने लगे हैं, मतवालों को धीरे- धीरे खबर मिलने लगी है।

स्वा भाविक है—जैसे कोई कुंआ खोदता है तो पहले कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं, फिर कूड़ा- कर्कट निकलता है, फिर मिट्टी की परतें निकलती है, फिर जल धार आती है। अब जल धार आ गई! अब तो दीवानों से ही मुझे बात करनी है, क्योंकि वे ही केवल ले सकेंगे। ये अंतिम सूत्र हैं नारद के।

“भक्त को वाद-विवाद नहीं करना चाहिए’’ ।

ऐसा हिंदी में अनुवाद किया है। मूल संस्कृत का अर्थ तो इतना ही होगा : ‘’ भक्त को वाद-विवाद नहीं’’। वही ठीक है।’’ करना चाहिए’’ की बात ही भक्त के लिए उचित नहीं है, क्योंकि’’ करना चाहिए’’ में कर्ता आ गया, व्यवस्‍था आ गई। तुम कुछ करोगे तो तुम मिट ना सकोगे। अगर तुमने कुछ किया तो तुम अपने ही विपरीत कुछ करोगे। वाद-विवाद उठता था और तुमने नियम बना लिया कि वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, तो वाद-विवाद मिट थोड़े ही जाएगा—मत करो, छिपा रह जाएगा, मत लाओ बाहर, भीतर रह जाएगा—और भीतर रहे, इससे तो बेहतर था कि बाहर आ जाए। यह तो ऐसा हुआ जैसे रोग को भीतर छिपा लिया—नासूर बनेंगे उससे। यह तो मवाद को भीतर रख लेना हो जाएगा।

इसलिए में ऐसा अनुवाद न करूंगा कि भक्त को वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।’’ करना चाहिए’’ की बात ही भक्त नहीं जानता। कर्तव्य की भाषा ही भक्त ही भाषा नहीं है—उसकी भाषा प्रेम कीहै।

“भक्त तो वाद- विवाद नहीं’’—बस इतना काफी है। क्यों नहीं?… क्योंकि जिसने जाना हो, वह विवाद कैसे करे? विवाद तो टटोलने जैसा है—अंधेरे में कोई टटोलता है? जिसे पता है, जिसे अनुभव हुआ है, जिसके जीवन में थोड़ी भी सत्य की किरण उतरी है, जो उस किरण के साथ थोड़ा नाचा है, रास रचाया है—वह वाद-विवाद करेगा? उसके पास न तो कुछ सिद्ध करने को है, न किसी को असिद्ध करने की कोई आकांक्षा है। वह तो अपना प्रमाण है।

“भक्त तो वाद-विवाद नहीं’’—इसका अर्थ हुआ कि भक्त अपना प्रमाण है। वाद-विवाद तो वे करें जिसके पास अपना कोई प्रमाण नहीं है। विवाद का अर्थ यह होता है कि हमें अनुभव नहीं हुआ। भक्त से लड़ो, झगड़ो—भक्त कहेगा, आंखों में झांको मेरी, मेरे आंसुओ का स्वाद लो, मेरे साथ नाचो, ये मैंने धूंधर बांधै पैरों में, तुम भी बांधो, यह मैंने धूप-थाल सजाया, तुम भी अर्चना करो। जैसे मुझे हुआ, तुम्हें भी हो जाएगा, क्योंकि मुझ जैसे अपात्र को हो गया तो तुम जैसे पात्र को न होगा?

भक्त यह कहता है कि मुझको हो गया, मुझ जैसे पापी को हो गया, तो तुम जैसे पुण्यात्मा को न होगा? मैं तो कुछ भी न जानता था और परमात्मा मेरे द्वार आ गया, बस मेरी पुकार से आ गया, तुम तो बहुत जानते हो, तुम्हारी पुकार से न आएगा? ‘’भक्त को वाद- विवाद नहीं’’ ।

वाद-विवाद का अर्थ है कि तुम्हारे जीवन में प्रमाण नहीं है, तुम कहीं और खोजते हो, परिपूरक प्रमाण खोजते हो। जो तुम्हारे पास नहीं है उस तुम शब्दों से सिद्ध करना चाहते हो। जिसकी सुगंध तुम्हारे जीवन में नहीं है, तुम विवाद से समझाना चाहते हो कि है।

“भक्त को वाद- विवाद नहीं’’ । इसलिए नहीं कि यह कोई नियम है, बल्कि इसलिए कि यह असंभव हो जाता है। प्रेमी क्या विवाद करे? तुम मजनू से पूछो, लैला से संबंध में, वह विवाद न करेगा, वह लैला के सौंदर्य को भी सिद्ध करने की कोशिश न करेगा। वह तुमसे कहेगा,’’ मजनू की आखें पा ली। मैंने जैसा देखा है वैसा तुम भी देखो’’।

“मजनू’’ देखने का एक ढंग है।’’ भक्त’’ भी देखने का एक ढंग है। अंधे से क्या विवाद करोगे अगर प्रकाश सिद्ध करना हो? अंधे को तुम विवाद से समझा सकोगे? तुम जो भी प्रकाश के संबंध में कहोगे वह गलत ही समझा जाएगा। आंख जिसके पास नहीं है, कैस समझाओगे उसे ,     अंधी कहेगा,’’ मैं सुन सकता हूं, तुम अपने प्रकाश को थोड़ा बजाओ, तो मैं उसकी अधी

धुन, आवाल सुन लूं’’ ।’’ कहेगा,’’ मैं चख सकता हूं, तुम थोड़ा मेरी जीभ पर रख दो अपने प्रकाश को, ताकि मैं उसका स्वाद ले लूं’’ । अंधा कहेगा,’’ मैं छ सकता हूं, मेरे पास लाओ। कहां है तुम्हारा प्रकाश? ‘’ तुम कहते हो,’’ मैं प्रकाश से घिरा हूं, चारों तरफ प्रकाश है। मैं अपने हाथ फैलाता हूं, कहीं प्रकाश का पता नहीं चलता’’ ।

क्या करोगे तुम? तुम थक जाओगे, हार जाओगे। अंधे को प्रकाश के संबंध में तर्क देने का कोई अर्थ नहीं है। अगर कुछ तुमसे हो सके तो अंधे की आंखों को ठीक करने की व्यवस्था करो। जैसे तुमने आखें ठीक कर ली हैं, उसी राह से उसे ले चलो।

चैतन्य के पास एक तार्किक विवादी आया। चैतन्य खुद अपनी युवावस्था में बड ,     तार्किक थे, बड़े पंडित थे। बंगाल में उनकी ख्याति फैल गई थी। पंडित उनसे थरथराने लगे थे। पर एक दिन उन्हें दिखाई पड़ा सारे पांडित्य का थोथापन। हरा दिया बहुतों को, लेकिन अपनी जीत तो पास न आयी। न मालूम कितनों को पराजित कर दिया, लेकिन खुद के जीवन में विजय की तो कोई दुंदुभि न बजी। तर्क-जाल खूब फैला लिया, हाथ में कोई संपदा न लगी। कांटों की तरह दूसरों को चुभने लगे, लेकिन जिंदगी में अपने फूल न खिले। यह बात एक दिन उन्हें समझ में आ गई।

और ध्यान रखना, यह बात केवल परम बुद्धिमानों को ही समझ में आ पाती है। तर्क की असारता को देख लेना बड़े निष्ठापूर्ण, बड़े प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का लक्षण है।

उन्होंने सब तर्कजाल छोड़ दिया। लेकिन किसी को पता न था, कोई पंडित उनसे विवाद करने चल पड़ा था। वह आ गया। चैतन्य ने कहा,’’ तुम जरा देर करके आए। अब हराने का मजा जाता रहा, क्योंकि हम जीत गए। अब तुम्हें हराएं भी क्या—अब हम तुम्हें हराए बिना जीत गए। अब हम जीते हुए हैं। थोड़ी देर कर दी आने में। अब हम खाली अंधेरे में टटोलते नहीं हैं–रोशनी मिल गई है; गीत पकड़ लिया है–नाचते हैं। यह लो तंबूरा; नाचो।’’

पंडित बोला;’’ क्या पागल हूं मैं;’’

चैतन्य ने कहा,’’ लोगों को मैं तर्क के निमंत्रण देता था, वे तैयार रहते थे। वह शब्दों का नाच है। वे कोरे हवा के बबूले हैं। अब तुम्हें वास्तविक नृत्य का आमंत्रण दे रहा हूं–स्वीकार करो। क्योंकि ऐसे नाचकर मैंने उसकी छवि को खोज लिया है। जब नाच में मैं खो जाता हूं, तब वह प्रकट होता है। जब मैं मिट जाता हूं, तब वह आ जाता है। जब तक मैं हूं, तब तक द्वार बंद। जैसे ही मैं न हुआ कि द्वार खुल जाते हैं”।

“भक्त को वाद-विवाद नहीं’’। क्योंकि भक्त को स्वाद मिल गया; अब वाद-विवाद में समय कौन खोए;

क्योंकर भूले भटके फिरते भेद ढूंढने जग नश्वर का अंतरदीप जला कर देखो

मानव ही प्रमाण ईश्वर का।

ब्रह्मसूत्र का एक बड़ा बहुमूल्य सूत्र है, नारद के इस सूत्र से मेल खाता है : तर्क प्रतिष्ठानात—तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। यद्यपि साधारण जीवन में तर्क की ही प्रतिष्ठा दिखाई पड़ती है। जो जितना बड़ा तार्किक, उतना ही जानी मालूम पड़ता है। लेकिन परम ज्ञानियों ने कहा है कि तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है।

तर्क की अप्रतिष्ठा को समझो। तर्क कुछ भी सिद्ध नहीं करता, सिद्ध करता मालूम होता है। क्योंकि जो भी तर्क सिद्ध करता है, उसी को तर्क से ही असिद्ध किया जा सकता है। इसलिए तो तार्किक सदियों-सदियों तक तर्क-विवाद करते रहते हैं, फैलाते जाते हैं जाल को–निष्कर्ष कोई हाथ नहीं आता। पांच हजार वर्षों के दर्शनशास्त्र का इतिहास यह है : शून्‍य हाथ लायी है शून्‍य? कुछ भी हाथ आया नहीं है। कितने बड़े विवादी हुए, कितने बड़े तर्कनिष्ठ लोग हुए! तर्क की कैसी बाल की खाल निकली! लेकिन ऐसा कोई तर्क आज तक नहीं दिया जा सका है जिसका विपरीत तर्क न खोजा सके। और ऐसा कोई भी तर्क नहीं है जो स्वयं को ही न काट हम जीवन में रोज-रोज तर्क देते हैं। कभी तुमने खयाल किया? कभी अपने ही तर्क के विपरीत खड़े होकर देखो, तुम तत्काल पाओगे कि तुम उसके विपरीत भी वैसा ही तर्क खोजे लेते हो।

‘’ तर्क प्रतिष्ठानात’’ ।

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बैठा था। उसका बेटा है कोई अट्ठारह-उन्नीस साल का, वह आया और उसने कहा कि पापा! और उसने अच्छा मौका देखा कि मैं बैठा हूं, मेरे सामने उसमें हिम्मत बढ़ी। उसने कहा कि अब मैं कालेज जा रहा हूं, तो अब तो कार खरीदनी होगी। तो बाप ने कहा, ‘’ कार! तीन मकान छोड़कर तेरा कालेज है। और भगवान ने दो पैर किसलिए दिए हैं?’’

उस लड़के न कहा,’’ एक ऐक्सीलरेटर पर रखने को, एक ब्रेक पर’’।

तर्क की कोई प्रतिष्ठज्ञ नहीं है। तर्क का करोगे क्या?

मुल्ला सोच रहा था कि बड़ा तर्क दिया उसने, कि भगवान ने दो पैर किसलिए दिए!

हम अपनी वासना के हित मग ही तर्क खोज लेते हैं। जो तुम मानना चाहते हो, तुम मान लेते हो। हालांकि तुम कहोगे यह कि तर्कों से सिद्ध होता है, इसलिए मैंने माना। लेकिन अपने भीतर थोड़ा विश्लेषण करो, आत्मनिरिक्षण करो : तुमने माना पहले, तर्क पीछे खोजे। इसलिए तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है।

चोर मान लेता है कि चोरी करने का कारण है। बेईमान मान लेता है बेईमान होने का कारण है। वह कहता है, इस बेईमान संसार में ईमानदार तो जी ही नहीं सकता। चोर मान लेता है, सभी चोर हैं। हिंसक मानता है कि अहिंसा से तो कैसे जिओगे।

तुम जो मान लेना चाहते हो, मानते तुम पहले हो, तर्क तुम पीछे से जुटाते हो। तुम जरा निरिक्षण करोगे तो तुम्हारी समझ मग आ जाएगा कि मान्यता पहले उठती है या तर्क पहले उठता है। तर्क तो सिर्फ अपने का समझाना है कि मैं विचारशील हूं। वासना निर्बुद्धिपूर्ण मालूम होती है। तर्क वासना को बुद्धिमत्ता का आभास देता है। जिसे ईश्वर को मानता है वह ईश्वर के पक्ष में तर्क खोज लेता है। जिसे ईश्वर को नहीं मानना है, वह ईश्वर के विपक्ष में तर्क खोज लेता है। और दोनों का विवाद चलता रहे, विवाद का कभी कोई अंत नहीं आता—आ ही नहीं सकता, क्योंकि भीतर गहरे में विवाद है ही नहीं, उन्होंने पहले मान ही रखा है। तर्क तो केवल ऊपर की सजावट है। उसके बदल देने से कुछ भी न बदलेगा। इसलिए कोई भी तुमसे कितना तर्क करे, कुछ भी सिद्ध नहीं कर पाता। तुम्हें तर्क में हरा भी दे, तो भी तुम भीतर यही भाव लेकर जाते हो कि ठहरो, थोड़ा सोचने का मौका दो, कोई रास्ता खोज लेंगे। तर्क से कभी कोई पराजित हुआ है? तर्क से कभी कोई हार है? तर्क से कभी काई जीता है? दूसरे का मुंह बंद कर सकते हो, अगर तुम्हारा तर्क थोड़ा ज्यादा प्रबल है, लेकिन तुमसे प्रबल तार्किक मिल जाएगा और तुम्हारा मुंह बंद कर देगा। ब्रह्मसूत्र का यह वचन हजारों साल के अनुभव का सार है : तर्क प्रतिष्ठानात–तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है।

कठोपनिषद में भी एक वचन है : नेषा तर्केण मतिरापनेया–तर्क से, बुद्धि से’’ उसकी’’ उपलब्धि नहीं है। क्योंकि बुद्धि से तो तुम वही पा सकते हो जो तुमने जाना ही हुआ है। बुद्धि नये का कोई आविष्कार नहीं करती। बुद्धि तो जुगाली है, जैसे भैंस घास चर लेती है, फिर बैठकर जुगाली करती रहती है। बुद्धि पहले तो यहां-वहां से इकका कर लेती है, फिर उसी को दोहराती रहती है, पुनरुक्ति करती रहती है, साफ करती है, निखारती है, सजाती- संवारती है, रूप- रंग देती है, सुंदर बनातली है, व्यवस्था देती है–लेकिन बुद्धि नये का कभी भी नहीं जानती। बुद्धि मौलिक नहीं है। बुद्धि से कभी अज्ञात का कोई पता नहीं चलता—और परमात्मा परम अज्ञात है; वह परम रहस्य है! तुम्हारी बुद्धि के कारण ही तुम उसके पास नहीं पहुंच पाते हो।

“भक्त को वाद-विवाद नहीं’’ ।

“क्योंकि बाहुल्य का अवकाश है वाद-विवाद में और वह अनियत है’’ ।

बाहुल्य का अवकाय है…। कितना ही फैलाते चले जाओ, वह फैलता ही चला जाता है। ऐसी कोई सीमा ही नहीं आती जहां तुम कह सको, तर्क पूर्ण हुआ। ऐसी कोई जगह नहीं आती जहां सब प्रश्र गिर जाते हों और आत्यंतिक उत्तर हाथ में आ जाता हो। तुम सिर्फ प्रश्रों को पीछे हटाये चले जाते हो। कोई कहता है,’’ जगत किसने बनाया? ‘’तुम कहते हो,’’ ईश्वर ने बनाया’’ । वह पूछेगा,’’ ईश्वर को किसने बनाया? ‘’ अब क्या करोगे? ‘’कहोगे,’’ और किसी महा-ईश्वर ने बनाया’’। वह पूछेगा,’’ उसको किसने बनाया?‘’

बाहुल्य का अवकाश है…।

कोई आदमी चोरी करता है, बेईमान है, दुखी है, परेशान है—तुम कहते हो, पिछले जन्मों का फल भोग रहा है। पिछले जन्मों में क्यों उसने ऐसे कर्म किए थे? कहो,’’ और पिछले जन्मों का फल भोग रहा है। मगर इससे क्या हल होगा? कहीं तो जाकर रुकोगे? कभी तो इसने शांति की होगी? शुरुआत कैसे हुई थी? तो इतना बाहुल्य करने की जरूरत क्या थी? बात तो वहीं की वहीं खड़ी रही, प्रश्र वहीं का वहीं रहा—उत्तर कोई हाथ आया नहीं।

तुम दुखी हो, कोई समझा देता है कि पिछले जन्म के पाप-कर्म के कारण दुखी हो, तुम संतोष कर लेते हो कि चलो ठीक है। लेकिन तुम पूछो,’’ पिछले जन्म में क्यों पाप-कर्म किए ,   ‘’ और उस आदमी के पास सिवाय इसके कोई उत्तर न होगी कि उसके पिछ ले जन्म में तुमने कुछ और किया था। खींचते जाओ, कहां पहुंचोगे? कितने ही जन्मों के बाद प्रश्र वहीं का वहीं रहेगा।

तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। बुद्धि से दिए गए उत्तर उत्तर नहीं हैं, उतरों का आ भास है। उनसे धोखा होता है कि उत्तर मिल गया। और जिसको धोखा हो गया कि उत्तर मिल गया, वह जीवन को व्य र्थ ही गंवाने लगता है, क्योंकि उत्तर की खोज बंद हो जाती है। उत्तर तो ऐसा चाहिए जिसके मिलते ही सब हल हो जाए, सारी ग्रंथिया सुलझ जाएं। इसलिए परमात्मा के अतिरिक्ल कोई उत्तर नहीं है। और परमात्मा का उत्तर बुद्धि का उत्तर नहीं है। अत्यंत शांत अवस्‍था में जहां बुद्धि की सारी तरंगें सो जाती हैं, जहां हृदय प्रेम से लबालब होता है, जहां हृदय की प्याली प्रेम को बहाती है—उन घड़ियों में, तर्क से नहीं, भाव से, विचार से नहीं, प्रा र्थना से- सोचने- समझने से नहीं, मतवालेपन से…! जो प्रभु की मधुशाला में पीकर नाचने लगते हैं, केवल उनको…!

लेकिन कठिनाई है, दुनिया तुम्हें पागल कहेगी।

अमरीका का एक बहुत प्रसिद्ध कवि है : एलिन गिन्सबर्ग। कुछ दिन पहले मैं उसका जीवन- चरित्र पढ़ता था। वह कोई अट्ठाइस साल का था। भावपूर्ण व्यक्ति है, कवि है, महाकवि है। बुद्धि से कम, हृदय और भाव से ज्यादा जिया है। एक सांझ सूरज डूबता था और वह अपनी खिड़की के पास अपने बिस्तर पर लेटा विश्राम करता था। विलियम ब्लेक की कुछ पंक्तियां उसके मन में दोहर रही थीं। वह उन्हीं को सोचता-सोचता-सोचता सूरज का डूबना देखता रहा। सांझ हो गई, पक्षियों के गीत चुप हो गए। अचानक उसे ऐसा आभास हुआ, उसे कुछ झलक मिली; जैसे परमात्मा ने उसे छुआ; जैसे कोई हाथ आया खिड़की से अंदर। उसे स्पर्श हुआ, घबड़ाया! लेकिन इतना सुखद था स्पर्श कि घबड़ाहट को एक तरफ रख दिया और पड़ा रहा। इतना प्रगाढ़ हुआ स्पर्श कि उसे लगा कि परमात्मा का अनुभठ हुआ है। और बात इतनी गहरी गई कि उसने उठकर अपनी किताब पर लिखा कि अब चाहे सारी दुनिया कहे कि ईश्वर नहीं है, तो भी मैं कहूंगा कि ईश्वर है; मैंने उसे जाना है। और मैं इस घड़ी को कभी नहीं भूलूंगा। लाख मेरी बुद्धि फिर पुराने तर्कजाल उठा ले, इसलिए आज कसम खाता हूं इस क्षण में कि मैं परम आस्तिकता को उपलब्ध हुआ, ईश्वर है।

लेकिन जैसे ही वह लिख रहा था, वैसे ही तर्क और संदेह उठने शुरू हो गए। असल में तर्क और संदेह तो पहले ही उठ आए होंगे, तभी तो यह कसम ली; तभी तो यह लिखा, नहीं तो लिखने की जरूरत क्या थी? यह भविष्य का संदेह झांक गया, मन को कंपा गया। स्पर्श छूट गया उस परम शक्ति का, लेकिन फिर भी छाया डज़ेलती रही। लिखकर वह बाहर आया। उसके मन को हुआ, किसी को कह दूं; शायद इस क्षण कोई दूसरा भी मुझमें पहचान ले कि कुछ हुआ है। क्योंकि वह जमीन पर चलता हुआ मालूम नहीं हो रहा था–जैसे इंद्रधनुषों पर उड़ा जा रहा हो, आकाश के मार्ग पर हो, जमीन की सारी कोशिश खो गई है; जैसे गुरुत्वाकर्षण न रहा!

वह भागकर अपने पड़ोस में गया। दो लड़कियां अपने दरवाजे पर खड़ी बात कर रही थीं, उसने कहा,’’ सुनो, ईश्वर है! मुझे उसका अनुभव हुआ है। खिड़की से उसने हाथ डाला है और मुझे छुआ है’’। उन दोनों ने जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया कि यह कौन पागल है। वे उसे पहचानती थीं; लेकिन अब तक इतना ही खयाल था कि कवि है, लेकिन आज बिलकुल गया! उन्होंने घबड़ाहट में दरवाजा बंद कर लिया। इसने दरवाजों पर दस्तक दी तो उन्होंने खिड़की से कहा,’’ हट जाओ, नहीं तो पुलिस को खबर कर देंगे’’। इसने कहा,’’ परमात्मा का अनुभव और पुलिस को खबर!’’ अपने एक मित्र को, जो कि मनोचिकित्सक था, इसने फोन किया, कि वह तो शायद समझ सकेगा, मन के संबंध में इतना जानता है। उसने फोन किया कि मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ है। अब थोड़ा डरा हुआ था, क्योंकि लड़कियों ने जो व्यवहार किया था…। थोड़ा डरते से उसने कहा कि मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ है; और तो शायद कोई समझ न सके, तुम समझोगे। उसने कहा,’’ तुम सीधे भागे यहां चले आओ, तुम्हें इलाज की जरूरत है’’ । तब संदेह और भी बढ़ गया। उसने सोचा कि कुछ गलती हो गई। अपने कागज पर देखा, अभी घटना इतने करीब थी; कुछ ही क्षण बीते थे, अभी भी रोआ-रोआ उसका पुलकित था–जैसे नारद कहते हैं,’’ रोमांच हो आता है भक्त को, आंखें गदगद हो जाती हैं, आंसू झरने लगते हैं।’’ अभी सब गीला था, अभी सब ताजा था। अभी-अभी तो हुई भी घटना। अभी देर भी न हुई थी। लेकिन संदेह पकड़ने लगे–सोचा कि बेहतर है कि मैं चला ही जाऊं, कौन जाने कोई वहम हुआ, किसी भ्रम में पड़, मन का कोई प्रक्षेपण था या कि मैं पागल हो गया, आत्मसम्मोहित हो गया! कहीं विलयम ब्लेक की कविता को देहराने के कारण ही तो यह सब घटना नहीं हो गई!

वह गया मित्र के घर। मित्र ने उसे लिटाया, इन्जैक्शन दिए। आठ महीने उसको अस्मताल में रखा गया–पागल की तरह! यह संसार, जिनको परमात्मा का अनुभव हो, उसके साथ पागल की तरह व्यवहार करता है। उसमें भी संसार का कोई कसूर नहीं। वह आठ महीने के बाद निकल सका पागलखाने से, सिर्फ यह भरोसा दिलाकर कि यह बात गलत थी। उसने लिखा है कि मैं जब भी जानता था कि बात एकदम गलत नहीं थी; लेकिन अब परमात्मा के लिए जिंदगीभर पागल बने रहते का तो कोई अर्थ नहीं है। जब मैंने सब तरह के प्रमाण दे दिए कि मैं ठीक अपने तर्क में, बुद्धि में वापस लौट आया हूं, सामान्य हो गया हूं, बीमार नहीं हूं अब, रुग्ण नहीं हूं–तब उन्होंने मुझे छोड़ा।

एक महान अनुभव चूक गया। यह आदमी भारत में हुआ होता, परमहंस हो जाता। उसकी कविताओं में अभी भी कभी-कभी झलक है। लेकिन समाज की अपनी स्वीकृति की सीमाएं हैं। समाज के ढांचे से इंचभर यहां-वहां तुम हुए कि अड़चन खड़ी होती है।

अगर तुम्हें कोई प्रतीति भी हो तो उसे छिपाना; जैसे कोई हीरा मिल जाए, तो कबीर ने कहा है–”गांठ गठियायो’’ , जल्दी से गांठ लगा लेना, किसी को बताना मत, नहीं तो लोग कहेंगे,’’ दिमाग खराब हो गया!’’ उसकी किसी को कानों-कान खबर मत होने देना। लोग हृदय के विपरीत हैं। लोग प्रार्थना के विपरीत हैं। तुम चकित होओगे कि वे भी जो प्रार्थना करते हैं, प्रार्थना के विपरीत हैं; वे भी प्रार्थना करते हैं, जहां तक बुद्धि की सीमा के भीतर चलता है–पूजा-पाठ करते हैं, मदिन जाते हैं, लेकिन कभी भी हिसाब-किताब की दुनिया के आगे नहीं बढ़ते। उनका मंदिर उनकी दुकान की सीमा के भीतर है। और उनका प्रेम उनकी तर्क की बागुडु से घिरा है। और उनकी पूजा औपचारिक है। जाना चाहिए, इसलिए जाते हैं मंदिर। पूजा करनी चाहिए, इसलिए पूजा करते हैं। क्योंकि समाज इन बातों को मान्यता देता है, हिंदू को, मुसलमान को, जैन को बरदाश्त है, धार्मिक आदमी को बरदाश्त नहीं करता।

 

ये सूत्र बड़े क्रांतिकारी सूत्र हैं। हिम्मत हो, तो ही इस तरफ बढ़ना, नहीं तो भूल जाना।

“वाद-विवाद में बाहुल्य का अवकाश है और वह अनियत है’’ ।

नारद कहते हैं, व्यर्थ का फैलाव करने से सार क्या! और फिर तर्क कहीं भी पहंचाता नहीं, उसकी कोई नियति नहीं है, उसका कोई निष्कर्ष नहीं है, वह निष्कर्षहीन व्यर्थ की विडम्बना है। करते जाओ, करते जाओ, एक तर्क से दूसरा निकलता है, दूसरे तर्क से तीसरा निकलता है, ऐसा क भी नहीं आता, ऐसा क्षण कभी नहीं आता, जहां निष्पत्ति आती हो—और जिससे निष्पत्ति न आती हो, उसमें जीवन को मत गंवाना, क्योंकि जीवन निष्पत्ति चाहता है। जीवन किसी महत्वपूर्ण नियति को पूरा करना चाहता है। जीवन खीलना चाहता है।

नहीं हृदय में राग, भला तब वीणा क्या बोलेगी?

अगर मूल निर्गंध, फूल में सुरभि नहीं डोलेगी।

मूल की चिंता करना, तो फूल में गंध आएगी। और हृदय में राग को जगाना, तो जीवन की वीणा तरंगित होगी। लेकिन मूल और हृदय का विचार करना।

“प्रेमाभक्ति की प्राप्ति के लिए भक्ति शास्‍त्र का मनन करना चाहिए और ऐसे भी कर्म करने चाहिए जिनसे भक्ति की वृद्धि हो’’ ।

भक्ति शास्‍त्र का अध्ययन नहीं हो सकता।

तीन शब्‍द हैं हमारे पास : चिंतन, मनन, निदिध्यासन। चिंतन तो विचार है। मनन ध्यान है। निदिध्यासन समाधि है। चिंतन, अगर ठीक मार्ग से चले तो मनन पर पहुंच जाता है, अगर कोल्हू के बैल की तरह चलने लगे तो फिर मनन तक नहीं पहुंचता। तर्क में जिसका चिंतन उलझ गया, वह मनन तक नहीं पहुंच पाता। जो इतना चिंतनशील है कितर्क की व्यर्थता को पहचान लेता है, उसका चिंतन, उसकी चिंतन-ऊर्जा मनन बनने लगती है।

मनन सोच-विचार नहीं है—मनन भावना है। जैसे तुम एक फूल को देख रहे हो, तो तुम सोचते हो : गुलाब है कि जूही है कि चम्पा है, कि लाल है कि पिला है कि सफेद है, कि सुगंधित है कि सुगंधित नहीं है, देश है विदेश है—अगर इस तरह की बातें तुम सोच रहे हो तो चिंतन कर रहे हो गुलाब के संबंध में, पहले जो गुलाब देखे थे, उनसे तुलना कर रहे हो,’’ उनसे सुंदर है, कम सुंदर है? ‘’तो तुम चिंतन में लगे हो। अगर तुम सिर्फ गुलाब को देख रहे हो—भावानिष्ठ, सोच नहीं रहे, न अतीत के गुलाबों से तुलना कर रहे हो न भविष्य के गुलाबों से, न कोई व्याख्या-विश्लेषण, नामकरण कर रहे हो—तुम सिर्फ देख रहे हो : तुम सिर्फ आंखों से पी रहे हो, तुम सिर्फ गुलाब को अपने हृदय में उतरने दे रहे हो, तुम गुलाब में उतर रहे हो, गुलाब तुममें उतर रहा है, तुम्हारे और गुलाब के बीच एक आतरिक लेन- देन शुरू हुआ है, गुलाब आपना सौंदर्य तुममें उडेलेगा, सुगंध तुम में उडेलेगा, और तुम्हारा जीवन- स्पर्श अपने में लेगा, तुम दोनों तरंगायित हो एक ही तरंग में, एक ही वेव- लेंग्थ पर—तो मनन। अब न यहां कोई चिंतन है, न कोई विचार उठता है, तुम निपट भोग रहे हो।

विचार की एक भी परत बीच में नहीं है। तुम पूरे खुले हो। तुमने हृदय के सारे कपाट खोल दिए हैं। तुम्हारा स्वागत परिपूर्ण है। तुममें पुलक उठ आएगा। तुम्हारा रोंआ-रोंआ रोमांचित हो जाएगा। गुलाब से तुम्हें परमात्मा का हा थ फैला हुआ अनुभव होने लगेगा। गुलाब तुम्हारे हृदय को छू जाएगा, उसकी गुदगुदी तुमसे प्रविष्ट हो जाएगी। तुम दो न रह जाओगे। एक क्षण ऐसा आएगा मनन का जहां तुम यह न कह सकोगे कि कौन गुलाब है, कौन मैं हूं?

जहां दोनों की सीमाएं एक-दूसरे पर छा जाएंगी, जहां दोनों एक हो जाएंगे, करीब आ जाएंगे—तो मनन।

नारद कहते हैं, भक्तिशास्त्र का मनन…। चिंतन नहीं हो सकता। चिंतन करोगे तो बाहुल्य हो जाएगा, विवाद हो जाएगा—मनन…।

भक्तों के वचन सुनना, सोचना मत उन पर—गुनना। जब भक्त भगवान का नाम लें, तब,     तुम यह मत सोचना कि यही भगवान का नाम है या नहीं। कोई कहे’’ अल्लाह’’ , कोई कहे’’ राम’’ , कोई कहे’’ कृष्ण’’ —तुम नाम पर मत जाना। तुम जो जब कोई अल्लाह कहे, तो उसकी आंखों में देखना : झलक आती है? जब कोई अल्लाह कहे, तो उसमें उठती तरंगों को अनुभव करता। जब कोई अल्लाह कहे तो देखना, कैसे उसने अपने को उंडेल दिया! जब कोई राम कहे तब भी वही देखना—तब तुम पाओगे कि राम कहो, अल्लाह को, रहीम कहो, रहमान कहो–कोई अंतर नहीं पड़ता। भक्त की पुलक एक ही है, रोमांचित हो जाता है…।

इसलिए तो तुमसे बार- बार कहता हूं : आओ जिक्रे-यार करें। उस परमात्मा का थोड़ा स्मरण…। लेकिन अगर तुम नाम पर चले गए, तो तुम चिंतन में चले गए, मनन न हुआ। जिक्र सोच- विचार नहीं है, चिंतन नहीं है। जिक्र तो एक डुबकी है—डूब गए उसमें, मगन हो गए! जिक्र तो उसकी शराब का पी लेना है।

भक्तों के वचन सुनकर तुम चिंतन मत करता कि ये क्या कह रहे हैं। अगर तुम चिंतन में पड़े तो तुम चूक गए। ज्ञानियों के वचन सुनो तो चिंतन करना, क्योंकि वहां चिंतन के सिवाय और कुछ भी नहीं है। भक्तों के वचन सुनो तो उनका हृदय देखना, उनका आनंद देखना। तुम, वे क्या कहते हैं, यह फिक्र ही छोड़ देना। तुम तो सीधे- सीधे उनको देखना। देख रहे हो जो कुछ उसमें भी सबका मत विश्वास करो,

सुनी हुई बातें तो केवल गुंज हवा की होती हैं।

जो देख रहे हो तुम, वह भी सब विश्वास- योग्य नहीं है, क्योंकि बहुत कुछ तो तुम्हारी कल्पना का जाल है जो तुम देख रहे हो। फिर’’ सुनी हुई बातें तो केवल ग्त्यं हवा की होती हैं,’’ तो जो सुन रहे हो उस पर तो बहुत फिक्र करना ही मत। जो अनुभव में आए, बस…। भक्तों के पास बैठकर उनके साथ डोलना। पागलों के साथ बैठकर उनके पागलपन में सहयोगी होना, सहभोगी होना। मतवालों के साथ मतवाले हो जाना। नाचते हों भक्त तो नाचना, गाते हों तो गाना। अपना फासला मिटाना। अपनी सोच- समझ को उतारकर रख देना, बोझ की तरह, एक किनारे। थोड़ी देर को निर्बोझ हो जाना। तो तुम्हें पता चलेगा, भक्तिशास्त्र क्या है।

भक्तिशास्त्र शास्त्रों में नहीं लिखा है—भक्तों के हृदय में लिखा है। भक्तिशास्त्र शब्द नहीं, सिद्धांत नहीं—एक जीवंत सत्य है। जहां तुम भक्त को पा लो, वहीं उसे पढ़ लेना, और कहीं पढ्ने का उपाय नहीं।

“भक्तिशास्त्र का मनन, और ऐसे कर्म भी जिनसे भक्ति की वृद्धि हो’’ , क्योंकि वस्तुत : तुम जो करते हो, वही तुम होने लगेते हो। इस तत्व को थोड़ा ठीक से समझ लो।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं,’’ नाचने से क्या होगा? ‘’मैं कहता हूं,’’ होने की बात पीछे विचार कर लेंगे–तुम नाचो तो!” वे कहते हैं,’’ लेकिन पहले पक्का न हो जाए कि नाचने से क्या होगा…!” तो मैं उनसे कहता हूं,’’ तुम पैदा हुए थे, सांस लेने से पहले तुमने पूछा था–सांस लेने से क्या होगा, जब तक पक्का न हो जाए? बोलने के पहले तुमने पूछा था–बोलने से क्या होगा, जब तक पक्का न हो जाए? चलने के पहले पूछा था–चलने से क्या होगा, जब तक पक्का न हो जाए? फिर किसी के प्रेम में पड़ गए थे, पूछा था—प्रेम करने से क्या होगा, जब तक पक्का न हो जाए? सारे जीवन तुम करत रहे, कर-करके जानते रहे, परमात्मा के साथ ही यह ज्यादती क्यों करते हो कि पहले पूछना चाहते हो? ‘’करो तो ही कोई जानता है। किए बिना कौन जानता है? जानना अस्तित्वगत है। रोओगे तो जानोगे कि क्या होता है। दूसरे को रोते देखकर भी न जानोगे, क्योंकि आंख में आंसू बहना, तुम क्या पहचानोगे हृदय में क्या बहा? आंख से बहते आंसुओ को देखकर प्राणों में कौन ग्त्यं उठी, कैसे जानोगे? आंसू ही दिखाई पड़ेंगे। आंसुओ का कोई परीक्षण नहीं किया जा सकता। तुम आंसू इकट्ठे कर लो आंसू की दिखाई पड़ेंगे। आंसुओ का कोई परीक्षण नहीं सकता। तुम आंसू इक र दुखी आसु किया जा’’ ट्ठे क लो भक्त के, किसी के, और दोनों के’’ ओं को ले जाओ प्रयोगशाला में, वैज्ञानिक कोई फर्क न बता सकेंगे कि कौन से आंसू भक्त के हैं और कौन से दुखी के हैं, क्योंकि आंसू तो बस आंसू हैं, बस एक से हैं। लेकिन भक्त अहोभाव से रोता है। भक्त के रुदन में दुख नहीं है, परम आनंद है।

किसी का प्रियजन चल बसा है, वह भी रोता है, दुख से विषाक्त हैं उसके आंसू। लेकिन इस आनंद और दुख को आंसुओ में न पकड़ सकोगे, क्योंकि आनंद और दुख तो भीतर की बात है। आंसू.. आंसू कुछ भी नहीं कह सकते। तुम ही रोओगे जब आनंद से तभी तभी तुम जानोगे। ये अनुभव वैयक्तिक हैं। ये दूसरे से पूछकर भी नहीं समझे जा सकते।

प्रेम को बिना जाने कौन जान पाया प्रेम क्या है।

“भक्तिशास्त्र का मनन करना चाहिए और ऐसे कर्म भी करने चाहिए जिनसे भक्ति की वृद्धि हो’’ । किन कर्मों से भक्ति की वृद्धि होती है? भक्त होने का क्य कर्म है?

जीवन को देखने का एक ढंग है। साधारणत : तुम जीवन को बड़े अविश्वास से देखते हो। जीवन को देखने का ढंग साधारणत : संदेह से भरा है। और जहां संदेह खड़ा हो, वहां तुम जो भी करोगे वह कृत्य भक्त का न हो सकेगा। भक्त का कृत्य उठता है श्रद्धा से। वही कृत्य तुम दो तरह से कर सकते हो : संदेह से भरकर भी कर सकते हो, श्रद्धा से भरकर भी कर सकते हो। श्रद्धा से भरकर किया कि कृत्य भक्त का हो गया। संदेह से भरकर किया कि साधारण कृत्य हो गया।

तुमने किसी को दो पैसे भीख में दे दिए, ये तुम ऐसे भी दे सकते हो कि टालो, अब आदमी सिर पर खड़ा है, दो पैसा देकर निपटा लेना अच्छा है। तब भी तुमने दो पैसे दिए–मगर व्यर्थ! तुम कुछ भी न देते और इस आदमी पर श्रद्धा रखते, इस आदमी में आदमी देखते कम-से-कम, न देखते परमात्मा, तो कृत्य भक्त का हो जाता।

तुम क्या करते हो, उसका गुणधर्म तुम पर निर्भर है। देखो लोगों को, तुम्हारी आंख अगर श्रद्धा से भरकर देखती है, प्रेम से भरकर देखती है, सहानुभूति से भरकर देखती है, तो कृत्य भक्त का हो गया। ऐसे ही धीरे- धीरे यही आंख तैयार होती जाएगी और परमात्मा को खोज लेगी। परमात्मा छिपा नहीं है–सिर्फ तुम्हारी आंख तैयार नहीं है।

“सुख-दुख, इच्छा, लाभ आदि का पूर्ण त्याग हो जाए, ऐसे काल की बाट देखते हुए आधा क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिए’’।

“सुख-दुख, इच्छा, लाभ आदि का पूर्ण त्याग हो जाए…”।

भक्त त्याग कर नहीं सकता–हो जाए…! क्योंकि भक्त का पूरा आधार यही है कि परमात्मा करेगा, मेरे किए क्या होगा! वह प्रार्थना करता है। यही साधक है भक्त का फर्क है। साधक चेष्टा करता है त्याग की, इच्छा छोड़ दूं। लेकिन तुम जरा समझो, जब तुम इच्छा छोड़ने की चेष्टा करते हो, तब तुमने एक नयी इच्छा को जन्म दे दिया : इच्छा छोड़ने की इच्छा। अब तुम फंसे जाल में। जब तुम वस्तुओं को छोड़ने का आग्रह करते हो, तब तुम्हें त्याग को पकड़ना पड़ता है। छोड़ने के लिए पकड़ना पड़ता है–और पकड़ ही छोड़नी थी। संसार छोड़ना चाहते हो तो तुम्हें स्वर्ग की कल्पना करनी पड़ती है, क्योंकि बिना तुम कुछ पकड़े छोड़ नहीं सकते।

फिक्र है जाहिद को हूरो-कौसरोतसनीम की

और हम जन्नत समझते हैं तिरे दीदार को।

वह जो त्यागी है उसे तो स्वर्ग की अप्सराओं की आकांक्षा है, सुख के भोग, स्वर्ग के कल्पवृक्षों की।

“फिक्र है जाहिद को हूरो-कौसरोत्तसनीम की।’’

“और हम जन्नत समझते हैं तिरे दीदार को’’

 

और भक्त तो कहता है,’’ तू दिख गया–स्वर्ग हो गया। तेरा दर्शन काफी है’’ । भक्त तो कहता है,’’ हमारी आंख तुझे देखने में समर्थ हो गई–बस, बस हो गया। तुझे पालिया तो सब पा लिया’’ ।

साधक चेष्टा करता है, भक्त प्रार्थना करता है। भक्त कहता है,’’ तू कुछ ऐसा कर कि इच्छा छूट जाए; हम तो छोड़ेंगे भी तो नयी इच्छा का बीजारोपण कर लेंगे’’ । भक्त कहता है,’’ कुछ ऐसा कर कि व्यर्थ से छुटकारा हो जाए; क्योंकि हम तो ऐसे हैं कि हम सार्थक को भी पकड़ेंगे तो व्यर्थ हो जाएगा। हम सोना भी छूते हैं, मिट्टी हो जाता है। और सुना है कि तू मिट्टी भी छू देता है तो सोना हो जाता है। तो तू ही कुछ कर’’ ।

प्रार्थना का राज यही है कि भक्त कहता है,’’ हमारे किए कुछ भी न होगा। कितने जन्मों- जन्मों से तो हम कहते रहे हैं। सब किया-कराया व्यर्थ चला जाता है। आखिर में हम दोहरा- दोहराकर वही कर लेते हैं जो हम नहीं करना चाहते थे। दूसरे पर क्रोध करना रोकते हैं तो अपने पर क्रोध होने लगता है, मगर क्रोध जारी रहता है। कामवासना को त्यागते हैं तो कामवासना से चित्त भर जाता है, छुटकारा नहीं होता।

एक कवि मुझे अपना संस्मरण सुना रहे थे। दिल्ली जाते थे, राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में भाग लेते। जिस कम्पार्टमेंट में थे, ग्वालियर से एक महिला और उसका बच्चा सवार हुआ। कवि बच्चे के साथ खेलते रहे, फिर सांझ ढल गई, फिर अंधेरा होने लगा, फिर रात होने लगी। महिला सोने की तैयार हुई, लेकिन कुछ डरी और झिझकी-सी थी। कवि ने पूछा,’’ क्या बात है ,     कुछ परेशानी है? ‘’उसने कहा,’’ नहीं कुछ परेशानी नहीं है। आप कहां जा रहे हैं? ‘’तो कवि ने कहा,’’ मैं दिल्ली जा रहा हूं राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिए।’’ उस महिला ने कहा,’’ तब तो कोई फिक्र नहीं। कवि हैं, फिर तो कोई खतरा नहीं’’। वह लेट गई, सो गई।

वे कवि मुझसे कहने लगे,’’ मुझे बड़ा धक्का पहुंचा कि उस स्त्री ने कहा, कवि हैं तब तो फिर कोई खतरा नहीं’’ ।

तो मैने कहा कि तुम स्त्री की बात को कुछ गलत समझे–साधु-महात्मा होता तो खतरा था। कवि हो, तो जिंदगी को भोग ही रहे हो, स्त्री कोई त्याज्य वस्तु नहीं है। और स्त्री का अनुभव हो जाए तो मुक्ति हो जाती है। धन का अनुभव हो जाए तो धन पर पकड़ खो जाती है। स्त्री ने ठीक ही कहा, बड़ी समझदार रही होगी। तुम समझे नहीं उसकी बात को। उसने तुमसे कुछ नहीं कहा, साधु-महात्माओं के खिलाफ कुछ कह दिया। जो दबाओगे वह भीतर घाव बन जाता है। तुम खुद ही अपने भीतर खोज ले सकते हो : जो भी तुमने दबाया है वही तुम्हारी छाया बन जाती है। पश्‍चिम   के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुग ने जो कुछ महत्वपूर्ण खोजें कीं, उनमें एक खोज है : दी शैडो–छाया। वे कहते हैं, हर आदमी की एक छाया है। सूरज की धूप में जो छाया बनती है वही नहीं। हर आदमी की एक छाया है–उसने व्यक्तित्व के जिन अंगों को अंगीकार नहीं किया, वे छाया की तरह उसका पीछा करते हैं। उसने जिन-जिन व्यक्तित्व की बातों को हटा दिया है अपने से दूर, दबा दिया है अपने से दूर, अचेतन में सरका दिया है, तलघर में डाल दिया है–वे उसकी छायाएं हैं, वे सदा उसका पीछा करती हैं।

अगर तुमने क्रोध को दबा दिया, तो क्रोध सदा तुम्हारे पीछे खड़ा है प्रतीक्षा की राह में, कभी भी, किसी भी क्षण प्रगट हो जाएगा मौका देखकर। अगर काम को दबा दिया तो काम तुम्हारी छाया बन जाएगा। जिसने इस तरह से अपने व्यक्तित्व को तोड़ लिया है, खंड-खंड कर लिया है, वह उस अखंड को कभी भी न जान पाएगा। अखंड को जानने के लिए अखंड होना जरूरी है। छाया को आत्मसात करना होगा। वह जो तुमने अपने से अलग कर दिया है वह तुम्हारा है, उसे फिर से अपने में लीन करना होगा। उसको जब तक तुम अगर रखोगे तब तक तुम झूठे रहोगे। हर बच्चे को करना पड़ता है अलग, मजबूरी है। मगर सदा अलग रखने की कोई मजबूरी नहीं है, जब समझ आ जाए तो उसे आत्मलीन करने की जरूरत है।

छोटा बच्चा है, मां-बाप की अपेक्षाएं हैं। वह कुछ करता है, मां-बाप चाहते हैं, कुछ और करे। वह वक्त- बेवक्त हंस देता है, मां-बाप कहते हैं, चुप रहो मेहमान घर में हैं। तो बच्चे को अपने को दबाना शुरू करना पड़ता है। हर बात हर जगह नहीं कही जा सकती, तो बच्चे को अपने भीतर खंड करने पड़ते हैं। बच्चे को एक बात समझ में आ जाती है : कुछ त्याज्य है जो स्वीकार- योग्य नहीं है, और कुछ स्वीकार-योग्य है जो न भी आता हो तो प्रदर्शन करना जरूरी है, जहां क्रोध आता हो वहां शांति रखनी जरूरी है। ऐसी बातें बच्चे को धीरे-धीरे अपने ही अंगों को काटने के लिए मजबूर कर देती हैं, बच्चा झूठा हो जाता है, अप्रामाणिक हो जाता है।

यह तुम्हारा जो कटा हुआ हिस्सा है, यह तुम्हारा य था र्थ है, इसको लीन करना जरूरी है। साधक इसको काटता चला जाता है, भक्त इसको लीन कर लेता है। भक्त कहता है,’’ मेरे किए क्या होगा! मैं तो यह खड़ा हूं—जैसा भी हूं, पापी, बुरा- भला—तुम स्वीकार करो! तुमने ही बनाया ऐसा, तुम ही मार्ग दो। तुमने ही गिराया, तुम ही उठाओ’’ । भक्त का यह भरोसा है कि जिसने जीवन दिया, क्या वह इतना- सा न कर सकेगा, कि गिरे को उठा ले, जिसने हड्डीयों में प्राण फूंके, जिसने मिट्टी को जीवंत किया, क्या उससे इतना भी न हो सकेगा कि मैं जैसा हूं मुझे ऐसा ही स्वीकार कर ले। फिर मिट्टी भी उसी की है, वासना भी उसी की है, कामना, क्रो धे भी उसी का है! और मुझसे यह अपेक्षा रखनी कि मैं कुछ कर पाऊंगा, असंभव है!

क्योंकि क्रोधी आदमी क्रोध पर विजय पाने के लिए भी क्रोध का ही उपयोग करता है। हिंसक हिंसा से मुक्त होने के लिए भी हिंसा का ही उपयोग करेगा, इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। अगर तुम्हें अपने ही हा थों से अपने जूते के बंध पकड़कर खुद को उठाना है तो कैसे उठ पाओगे? थोड़ा उछल- कूद भला कर लो! जिनको तुम साधु- महात्मा कहते हो, बस थोड़ी उछल- कूद है! बार- बार जमीन पर पड़ जाते हैं! अपने ही हा थों से!

भक्त कहता है,’’ तेरे हा थों के द्वारा उठना हो सकता है!’’

इसलिए कहता है : ‘’ सुख- दुख, इच्छा, लाभ आदि का पूर्ण त्याग हो जाए, ऐसे काल की बाट देखते हुए आधा क्षण भी व्य र्थ नहीं बिताना चाहिए’’ ।

आधा क्षण भी बिना प्रार्थना के न जाए। जीवन छोटा है, करने को बहुत है। और एक क्षण बाद हम होंगे या नहीं होंगे, इसका भी कुछ पता नहीं। तो आधा क्षण भी व्यर्थ न जाए, प्रार्थना- शून्य न जाए। तुम उठो, बैठो, चलो, कुछ भी करो, लेकिन प्रा र्थना अहर्निश तुम्हारे भीतर डोलती रहे।

आज व्योम के मरुमानस में इद्रधनुष उग आया

आत्मचेतना बिना प्राण का रस नि:शेष न होता

शेष मानते जिसे, वही छित अंतरतम में सोता

यह मन्मथ के कुसुमायुद्ध की बिबित सुंदर छाया

ज्योतितिमिर की सधिमात्र ही नामरूप का कारण

“केवल’’ ही कर सकता अपना बंधन सहज निवारण

भुने बीज के उस में अंकुर कब किसने उकसाया?

कब विराग का बांध मुखौटा विकल राग छिप पाया!

छिपाने की चेष्टा मत करना, अन्यथा विराग का मुखौटा बंध जाएगा, राग भीतर रहेगा। केवल वही—केवल परमात्मा ही—मुक्ति ला सकता है। जहां से जीवन का जन्म है, वहीं से मुक्ति का भी। जहां से वासना का जन्म है, वहीं से ब्रह्मचर्य का भी। यह भक्त की आस्था है कि भक्त कहता है, परमात्मा ही कुछ करेगा, मैं प्रार्थना कर सकता हूं।

लेकिन अगर तुम्हारी प्रा र्थना पूर्ण है तो पूर्ण होती ही है। तुमने कभी पुकारा ही नहीं। तुमने कभी हृदय भरकर मांगा ही नहीं। क भी तुमने अपने-आप को पूरा उसके हा थ में सौंपा ही नहीं। तुमने कभी हृदयपूर्वक उससे कहा ही नहीं कि आओ, मुझे बदलो! मैं बदलने को तैयार हूं, लेकिन जानता नहीं, कैसे बदलूं! मैं बदलने को तैयार हूं, लेकिन बदलाहट मेरे बस के बाहर है! तुम्हीं आओ! तुम्हीं पाहुने बनो मेरे हृदय में! तुम्हीं मुझे बदलो! भक्त का मार्ग सुगम है—बस, यह पहला कदम बड़ा कठिन है। तुम्हारे मन में ऐसा बना ही रहता है कि हम अपने सूत्रधार बने रहें। इसलिए साधक का अंहकार मरता ही नहीं, नये- नये रूप धरता है। कल संसारी था, अब संन्यासी हो जाता है। कल तक भोगी था, अब त्यागी हो जाता है, लेकिन नये रूप रख लेता है, नये मुखौटे पहन लेता है। लेकिन मैं कुछ करके रहूंगा, यह बात मिटती ही नहीं। भक्त कहता है,’’ मैं’’ झूठा भ्रम है। मैं हूं कहां? तू ही है। तो तू ही कर!

“अहिंसा, सत्य, सौच, दया, आस्तिकता आदी आचरणीय सदाचारों का भली- भांति पालन करना चाहिए’’ ।

बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है इसमें : आस्तिकता। महावीर ने नहीं गिनाया, बुद्ध ने नहीं गिनाया, पतंजलि ने भी छोड़ दिया है। अहिंसा सभी ने गिनाई है, दूसरे को दुख न देना, समझ में आता है। सत्य सभी ने गिनाया है, जो है, उससे विपरीत न कहना, जो है, उससे विपरीत न करना, जो है, उसको अन्यथा न बताना। शौच : आतंरिक पवित्रता—शरीर की, बाहर की, मन की, सब तरह की–बिलकुल ठीक है। दया : दूसरे के लिए जितना सुख हमसे बन सके, उतना देने की चेष्टा।

लेकिन आस्तिकता! इसको आचरण कहा नारद ने! यह बड़ी अनूठी बात है। और मेरे देखे बिना आस्तिकता के बाकी कोई भी हो नहीं सकता, अहिंसा, सत्य, S मैच, दया, बिना आस्तिकता के हो नहीं सकते।

आस्तिकता का क्या अर्थ है? आस्तिकता का अर्थ है : परमात्मा से’’ हां’’ कहना, कि हां, मैं राजी हूं, परमात्मा को’’ नहीं’’ न कहना। वहजो कराए सो करना, वह जो न कराए सो न करना। उससे ही पूछकर चलना। अपनी बागडोर उसी के हाथ में दे देना। लगाम उसी को सौंप देना। फिर वह गड्डों में गिराए तो गड्ढे स्वर्ग हैं। फिर वह नरक ले जाए तो नरक भी अहोभाग्य है। सब कुछ उसके हाथ में छोड़ देने का नाम आस्तिकता है।

आस्तिकता का इतना मतलब नहीं होता कि तुम कहते हो कि हां, ईश्वर को हम मानते हैं। अगर कोई आदमी तुमसे न कहे कि ईश्वर को मानता है या नहीं मानता है, क्या तुम उसके आचरण को देखकर पता लगा पाओगे कि यह नास्तिक है या आस्तिक है? कोई पता न लगा पाओगे। नास्तिक भी वही जीवन जीते हैं, आस्तिक भी वही जीवन जीते हैं, फर्क तो कुछ दिखाई पड़ता नहीं, सिर्फ लफ्फाजी है, शब्‍दों का फर्क है। अगर तुम शब्‍दों को हटा दो और लेबिल न लगे हों कि यह आदमी नास्तिक है कि आस्तिक, तुम कोई फर्क न कर पाओगे। तुम्हें आस्तिकों में परम सुंदर व्यक्तित्वों के लोग मिल जाएंगे। सदाचारी नास्तिक मिल जाएंगे, सदाचारी आस्तिक मिल जाएंगे। इनसे कुछ भी तय नहीं हेता। आस्तिकता का अर्थ है : नदी में तैरना नहीं, बहना, परमात्मा के खिलाफ न लड़ना, उसके हाथ में अपना हाथ दे देना, कहना,’’ जहां तू ले चले, ले चल, मुझे भरोसा है, मुझे आस्था है’’ ।

आस्था बड़ी क्रांति है, महाक्रांति है। इससे बड़ी कोई छलांग नहीं। इससे बड़ा कोई रूपांतरण नहीं। क्योंकि यह कह देना कि मैं अलग नहीं हूं इस अस्तित्व से, एक हूं, इससे भिन्न मेरी न कोई नियति है, न इससे भिन्न कहीं जाने का मेरा मन है, तू जो कराए…।

तुम जरा चौबीस घंटे भी आस्तिक होकर देखो। एक बार तय करो कि चौबीस घंटे में वह जो कराएगा, करेंगे, तुम निर्भार हो जाओ—चौबीस घंटे में ही तुम पाओगे कि तुम किसी और जगत का स्वादले आए, फिर तुम दुबारा वही न हो सकोगे जो तुम कल तक थे। क्योंकि तुम्हारी चिंताएं, तुम्हारी बेचैनिया, तुम्हारी अशांतियां,’’ मैं कुछ करके रहूंगा’’ , इससे पैदा होती है। फिर नहीं कर पाते तो विषाद घेरता है, संताप घेरता है, हार पकड़ लेती है। जैसे ही तुमने कहा,’’ जो तू करेगा, मेरा कोई चुनाव नहीं अब, तू अंगीकार कर ले और मुझे चला, मैं यह भी न कहूंगा कि तूने भटकाया, क्योंकि तू भटकाये तो इसका अर्थ हुआ कि भटकने में ही मेरी मंजिल होगी, मैं यह भी न कहूंगा कि अभी तक कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि नहीं हुआ तो शायद इसी ढंग से होने का रास्ता गुजरता होगा!’’

भक्त का अर्थ है : अनन्य श्रद्धा। उसकी श्रद्धा को कहीं खंडित नहीं किया जा सकता। कोई घड़ी, कोई घटना उसकी श्रद्धा को डांवांडोल नहीं करती।

आस्तिकता परम गुण है। नास्तिकता यानि’’ नहीं” कहने की आकांक्षा। तुम सभी के मन में’’ नहीं” पहले उठता है।’’ नहीं” कहना हमेशा आसान है, क्योंकि अहंकार को अकड़ देता है।’’ नहीं” कहा नहीं कि भीतर लगता है कि हम भी कुछ हैं।’’ हां” कहा कि भीतर लगता है: गए!’’ हां” में आदमी बह जाता है;’’ नहीं” में अकड़ जाता है। तो जितनी’’ नहीं” तुम अपने आसपास घेरते जाओगे उतना अहंकार मजबूत होता चला जाता है।

आस्तिकता यानी’’ हां” : समग्र भाव से’’ हां”।

“सब समय सर्वभाव से निश्वित होकर भगवान का ही भजन करना चाहिए”।

महफिल में शमा, चांद फलक पर, चमन में फूल

तसवीरे रूए अनवरे जानां कहां नहीं?

राम-राम जपने की बात नहीं है। यह नहीं कह रहे हैं नारद कि तुम बैठते-उठते राम-राम जपते रहो। ऐसे तो कई मूढ जप रहे हैं। उससे उन्हें कोई लाभ हुआ, इसका तो पता नहीं, सिर्फ बुराई उनकी जड़ हो गई दिखाई पड़ती है।

“सब समय सर्वभाव से निश्वित होकर भगवान का ही भजन करना चाहिए”। इसका अर्थ यह है: जहां तुम देखो, सब तरफ घूंघट उघाडकर उसी को देखो, तो ही सर्वकाल में, सब जगह, उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते भजन हो सकता है। अगर राम-राम, जपोगे तो भी दो राम के बीच में जगह छूट जाएगी। कितने ही जल्दी रटो’’ राम-राम, राम-राम” तो भी सर्वकाल में नहीं हो पाएगा; दो राम के बीच में जगह छूट ही जाएगी। तुम चाहे एक-दूसरे के ऊपर राम को चढ़ा दो, जैसे मालगाडुभ का ऐक्सीडेंट हो गया हो, डब्बे एक-दूसरे पर चढ़ गए हों, तो भी सर्वकाल में सर्वभाव से नहीं हो सकेगा। कभी तो थक जाओगे। और ध्यान रखना, जब तुम थक जाओगे तो तुम विपरीत करोगे। धर्म कुछ ऐसी कला है जिसमें थकना नहीं है। अगर थक गए तो विपरीत करना पड़ेगा क्योंकि थकान मिटाने के लिए करना पड़ता है: दिनभर जागे, थक गए, तो रात सोना पड़ता है। राम-राम, राम-राम जपते रहे, फिर थक गए, परेशान हो गए, तो फिर व्यर्थ की बातों में अपने मन को उलझाना पड़ता है।

एक ही उपाय है–

महफिल में शमा, चांद फलक पर, चमन में फूल

तसवीरे रूए अनवरे जानां कहां नहीं?

तुम जहां भी देखो, चाहे फूल हो, चाहे शमा हो, चाहे चांद हो, पशु-पक्षी हों, मनुष्य हों, पौधे हों, पत्थर हों–तुम जहां नजर डालो, जल्दी से घूंघट उठाकर उसको देख लेना, आगे बढ़ जाना। धीरे-धीरे तुम्हारी आखें ही घूंघट उठाने की कला सीख जाएंगी; तुम्हें घूंघट उठाना भी नहीं पड़ेगा, आंख पड़ी कि तुम घूंघट के पार देख लोगे। सब जगह उसी की छवि विराजमान है! तो तुम दूसरों में भी उसी को देखोगे, अपने में भी उसी को देखोगे। किसी दिन दर्पण के सामने खड़े-खड़े अपनी छवि में भी तुम्हें उसी की छवि दिखाई पड़ जाएगी। तब फिर सतत हो गया। अब यह करना नहीं है।

ध्यान रखना, जो करना पड़े वह सतत नहीं हो सकता। क्योंकि करने से तो थकोगे, छुट्टी मांगोगे। अब यह करने जैसा नहीं है, अब तो यह हो रहा है, यह तो अब अपने-आप घट रहा है–तो भजन!

“वे भगवान कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रगट होते हैं और भक्तों को अनुभव करा देते हैं।’’

इस सूत्र को समझने में भूल हो सकती है। बहुतों ने भूल की है। सीधा अर्थ तो यह हुआ कि भगवान खुशामद से प्रसन्न हो जाते हैं।

“वे भगवान कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रगट होते हैं और भक्तों का अनुभव करा देते हैं।’’ इसका तो अर्थ हुआ कि बड़े स्तुतिप्रिय हैं, खुशामद की आकांक्षा रखते हैं, कि तुम उनका भजन करो तो वे जल्दी से खुश हो जाते हैं कि देखो, यह भक्त बड़ा शोरगुल मचा रहा है! नहीं, इसका यह अर्थ नहीं है।

तुम जब कीर्ति करते हो परमात्मा की, तब तुम खुल जाते हो।’’ कीर्तित होने पर वे शीघ्र प्रगटजब तुम उनका स्मरण करते हो परम भाव से, तुम बंद नहीं रह जाते, तुम खुल जाते हो–उस खुलेपन में दर्शन हो जाता है।

परमात्मा तो वही है जो सदा मौजूद है, तुम किसी भांति पीठ किए खड़े हो। जब तुम कीर्ति करते हो परमात्मा की, तुम्हारा मुख उसकी तरफ घूमने लगता है। सूर्यमूखी का फूल देखा है ,   –सूरज की तरफ घूमता रहता है। इसलिए तो हम उसको सूर्यमुखी कहत हैं, उसका मुख सूरज की तरफ तो एक दिशा में है, परमात्मा तो सभी दिशाओं में है। तुम्हें एक दफा समझ में आ जाए सूत्र, तो जहां तुम देखते हो उसी को देखना–बस उसकी कीर्ति शुरू हो गई।

कीर्ति का मतलब यह नहीं कि तुम कहो कि हम बहुत पापी हैं और तुम बड़े पतितवान हो, इस सबसे कोई मतलब नहीं है। ये कहने की बातें नहीं हैं, कहकर तो खराब हो जाती हैं–ये तो भीतर अनुभव करने की बाते हैं। तुम अनुभव करना। तुम्हारे जीवन में उसका यशगान ग्ल्मंने लगे! फूल को देखो तो तुम्हारे मन में धन्यवाद उठे : अहो, परमात्मा! चांद को दखो तो धन्यवाद उठे : अहो! तुम्हारे जीवन में अहोभाव सतत निनादित होने लगे! इतना सौंदर्य चारों तरफ है और तुमने अहोभाव प्रगट नहीं किया! तुम्हारी आंखों पर कैसे परदे न पड़े होंगे!

रोज सूरज उगता है, तुम नमस्कार में निनाद चल रहा है, तुमने कभी अपने प्राणों में उसके निनाद को प्रवेश न दिया! चारों तरफ हजार-हजार रूपों में परमात्मा तुम्हें छूने को आतुर है–हवाओं की तरंगों में, सूरज की किरणों में–तुम बिलकुल जड़ बैठे हो, तुम्हें

 

पक्षाघात लग गया है?

भक्ति का अर्थ इतना है केवल: थोड़े सजग बनो, थोड़ा तोड़ो यह जड़-पन, थोड़ा उठो, नाचो! वह नाच रहा है, तुम भी नाचो! वह गा रहा है, तुम भी गाओ! जब तुम्हारा गीत उसके गीत से मिलने लगेगा, जब तुम्हारा नाच उसके पैरों के साथ पड़ने लगेगा, तत्क्षण तुम पाओगे कि तुममें भी वही नाच रहा है।

यह मत सोचना कि तुम जब अहोभाव से भरते हो तो परमात्मा अहोभाव से नहीं भरता। तुम उसी का फैलाव हो, उसी का एक हाथ हो। तुम जब आनदित होते हो, तुम्हारा हाथ जब स्वस्थ होता है, तो तुम्हारा पूरा प्राण भी आनंदित होता है।

भक्त और भगवान कोई दो बातें नहीं हैं–दो पंख हैं एक ही पक्षी के, दो पैर हैं एक ही व्यक्तित्व के।

कुछ तेरा हुस्न भी है सादा ओ मालूम बहुत कुछ मेरा प्यार भी शामिल तेरी तस्वीर में!

भगवान परम प्यारा है, लेकिन भक्त का—”कुछ मेरा प्यार भी शामिल तेरी तस्वीर में’’ ! भक्त भी उडेलता है अपने को। यह एकतरफा सौदा नहीं है। यह एकतरफा जानेवाला रास्ता नहीं है। दोनों तरफ से लेन-देन है। यह प्रेमी और प्रेयसी का लेन- देन है, भक्त और भगवान का लेन-देन है। ऐसा नहीं है कि तुम ही प्रसन्न होते हो जब भगवान तुम्हें उपलब्ध होता है—भगवान भी प्रसन्न होता है। यह अर्थ है कीर्तित होने से। जब तुम्हारे भीतर उसका अवतरण होता है, तुम नाच उठते हो। वह भी नाचता है परम अहोभाव से :’’ फिर कोई एक उपलब्ध हुआ! फिर कोई एक भूला- भटका वापस आया! फिर एक लहर, दूर निकल गई थी, वापस लौट आई!’’

“यह प्रमरूपा भक्ति एक होकर भी तीनों कायिक, वाचिक, मानसिक सत्यों में, अथवा तीनों कालों में सत्य भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ है, भक्ति ही श्रेष्ठ है’’ ।

तीनों–कायिक, वाचिक, मानसिक, अथवा तीनों कालों में—भूत, भविष्य, वर्तमान—भक्ति ही श्रेष्ठ है, भक्ति ही श्रेष्ठ है! क्योंकि शेष सब तो मनुष्य के कृत्य है। शेष सब मनुष्य को करना पड़ता है–योग, तप, त्याग, तपश्वर्या। भक्ति का बिलकुल दूसरा ही आधार है, मनुष्य छोड़ता है कि तू कर, मनुष्य सिर्फ करने देता है उसे, रोकता नहीं। शेष सब साधना-विधियां विधायक है। भक्ति सिर्फ अवरोध को हटाती है।

भक्त यह कहता है : मैं बाधा न दूंगा, बस इतना मेरा भरोसा मुझको है कि मैं बाधा नहीं दूंगा, तू आएगा तो मैं द्वार बंद न रखूंगा। मगर तुझे लाऊं कैसे? द्वार खोलकर आंख बिछाकर तेरी राह में बैठा रहूंगा, अहर्निश बैठा रहूंगा! सांझ-सुबह, रात-दिन, चौबीस घंटे तेरी प्रतिक्षा करूंगा, लेकिन कहां से तुझे पकड़कर ले आऊं, वह मेरा बस नहीं। तेरी कृपा होगी। तेरा गुणगान करूंगा। तेरे गीत गाऊंगा। तेरे लिए नाचूंगा। द्वार बंद न रहेंगे! उस इतना भक्त कह सकता है। अवरोध न रहेगा मेरी तरफ से। तू आए और मुझे न पाए, ऐसा न होगा–मैं मौजूद रहूंगा।

शेष सारी साधना-पद्धतियां करने को कहती हैं, भक्ति, छोड़ने को। इसलिए नारद कहते हैं कि भक्ति श्रेष्ठ है, क्योंकि वह भगवान का कृत्य है। जैसे तुमे अपने हृदय को खोल देते हो, वह जो लिखता है तुम लिखने देते हो। उसके हस्ता क्षर बन जाते हैं भक्त के ऊपर। इसलिए भगवान की प्रतिमा को भक्त जिस भांति प्रगट करता है, कोई दूसरा साधक न हीं कर पाता।’’ यह प्रेम रूपा भक्ति एक होकर भी गुण माहत्म्यासक्ति, रूपा भक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, दास्यासक्ति, साख्यासक्ति, कातासक्ति, वात्सल्यासक्ति, आत्मनिवेदनासक्ति, तत्मयासक्ति और परमविरहासक्ति—इस प्रकार से ग्यारह प्रकार की होती है’’ ।

भक्ति तो एक ही है, लेकिन भक्त ग्यारह प्रकार के होते हैं। भगवान को जिस रूप में तुम भजना चाहो…। सूफी हैं, वे भगवान को प्रेयसी मानते हैं स्त्री के रूप में मानते हैं। ठीक, भगवान को इससे कुछ एतराज नहीं, क्योंकि भगवान दोनों है—स्त्री में भी है, पुरुष में भी है। सूफि यों ने भगवान को प्रेयसी माना। उस तरह से उन्होंने यात्रा की।

भारत में प्रेयसी किसी ने माना नहीं। कृष्ण भक्त हैं, वे उसे पुरुष मानते हैं—इस सीमातक पुरुष मानते हैं कि बंगाल में एक संप्रदाय है कृष्ण भक्तों का, जो स्त्रियों जैसे कपड़े पहनता है, रात सोता भी है तो कृष्ण की मूर्ति को हृदय से लगाकर सोता है। वह पति है, भक्त पत्नी है, सखी है, गोपी है। वह भी ठीक है। जिस विधि से, जिसको सरल मालूम पड़े। यह भक्त के ऊपर निर्भर है, उसकी भाव-दशा पर निर्भर है।

परमात्मा तो सब है, लेकिन तुम अभी इतने विराट नहीं कि उसके सब रूपों को इकट्ठा अपने में ले सको, तुम्हें तो कहीं एक द्वार से प्रवेश करना होगा। उसके तो अनंद द्वार हैं, लेकिन स भी द्वारों से तुम प्रवेश न कर सकोगे। जिस द्वार से तुम्हें प्रवेश करना हो, तुम उस द्वार से प्रवेश कर जाओ—पहुंचोगे तुम एक पर।

ये ग्यारह द्वार नारद ने गिनाए हैं, इनमें करीब-करीब सब सं भावनाएं आ जाती हैं। अपनी-अपनी सं भावना चुन लेनी चाहिए। तुम्हें जैसा रुचे, परमात्मा तुम्हारी रुचि से राजी है। तुमने अगर उसे मां की तरह पुकारा, काली की तरह पुकारा, तो वह मां की तरह प्रगट होने लगेगा। इसका केवल इतना ही अर्थ हुआ कि तुम जो रूप-रंग उसे देते हो वह उसी रूप-रंग में प्रविष्ट हो जाता है। स भी रूप उसके हैं। रामकृष्ण को वह काली के रूप में प्रगट हुआ, वे मां को पुकारते रहे, वे मां का ही गीत गाते रहे। भक्त ढांचा देता है।

ऐसा समझो कि तुम एक खिड़की बनाते हो अपने मक की, फिर तुम खिड़की पर खड़े होकर आकाश को देखते हो, आकाश का तो कोई ढांचा नहीं है, लेकिन तुम्हारी खिड़की का ढांचा है। तुम्हारी खिड़की अगर चौकोर है तो चौकोर आकाश दिखाई पड़ता है, तुम्हारी खिड़की अगर गोल है तो गोल आकाश दिखाई पड़ता है, यद्यपि तुम्हारी खिड़की के कारण आकाश गोल नहीं हो जाता और न ही चौखटा हो जाता। और जब तुम्हें आकाश दिखाई पड़ जाएगा, तुम मदमस्त हो जाओगे, खिड़की से कूद जाओगे, खुले आकाश में आ जाओगे। वहां फिर कोई रूप नहीं है, अरूप है।

सगुण प्रारंभ है, निर्गुण अंत है। सगुण द्वार है, निगुर्ण पहुंच जाना है। पर किसी भी ढंग से हो, किसी भी रंग से हो–हो।

तू न कातिल हो तो कोई और ही हो

तेरे कूचे की शहादत ही भली।

तेरी गली में भी मर गए,

तो भी चलेगा।

तू अगर अपने हाथ से भी

न मारे तो कोई बात नहीं।

तू न कातिल हो

कोई और ही हो

तेरे कूचे की

शहादत ही भली।

बस उसकी राह में कहीं खो जाना है। उस तक कोई कब पहुंचा है; कूचे में ही लोग खो गए हैं। उस तक पहुंचना संभव भी कहां है? तुम तो तुम रहते पहुंच न पाओगे–तुम खोकर ही पहुंचोगे। तुम तो कहीं राह में ही खो जाओगे।

कोई मनुष्य कभी भगवान से मिला नहीं। जब तक मनुष्य रहता है, भगवान नहीं; जब मनुष्य मिट जाता है, तब भगवान…।

ऐसा ही समझो कि कोई बीज कभी अपने अंकुर से मिला? बीज मिट जाता है तो अंकुर। ऐसे ही मनुष्य जब मिट जाता है, तो अंकुरण होता है उस परमात्मा का। तुम्हारी मृत्यु में ही उसका आगमन है।

तेरे कूचे की शहादत ही भली।

“सनत्कुमार, व्यास, शकदेव, शांडिल्य, गर्ग, विष्णु, कौंडिण्ड, शेष, उद्धव, आरुणि, बलि, हनुमान, विभीषण आदि भक्तितत्व के आचार्यगण लोगों की निंदा-स्तुति का कुछ भी भय नकर, सब एकमत से ऐसा कहते हैं कि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है’’ ।

लोगों की निंदा-स्तुति का कुछ भय न कर…।’’ प्रेम के मार्ग पर सबसे ज्यादा निंदा-स्तुति है, क्योंकि संसार चलता है गणित से। संसार चलता है हिसाब-किताब से। संसार की व्यवस्था तर्क-सरणी है। और प्रेम सब सीमाएं तोड़कर बहने लगता है। इसलिए संसार प्रेम को स्वीकार नहीं करता–साधारण प्रेम को ही स्वीकार नहीं करता, क्योंकि यह तो सब किनारे तोड़कर बाढ़ बनना है। समाज घबड़ाता है। समाज मर्यादा चाहता है, और प्रेम अमर्याद है।

इसलिए जिसे समाज की निंदा-स्तुति का बहुत भय है, वह भक्त नहीं हो पाएगा। मगर करोगे क्या? समाज की स्तुति-निंदा को इकट्ठा करके करोगे क्या? मौत के क्षण में कुछ काम न आएगा। यहां भी कोई तृप्ति न मिलेगी। कितनी ही स्तुति समाज करे, पेट न भरेगा। कितनी ही तालियां लोग पीटें, प्राणों के फूल न खिलेंगे। कितना ही सम्मान हो और गले में फूलमालाएं डाली जाएं, तुम भीतर दरिद्र के दरिद्र ही रहोगे, तुम्हारा भिखमंगापन न। मिटेगा।

तो जरा देख लेना कि कहीं समाज की निंदा- स्तुति में अपनी आत्मा को तो नहीं बेच रहे हो! कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनकी स्तुति बड़ी महंगी पड़ती हो…। जितना- जितना तुम समाज की स्तुति की चिंता करते हो, उतना ही तुम छोटे होते चले जाते हो। जितना ही तुम डरते हो उतना तुम्हें और डराया जाता है। धीरे-धीरे तुम समाज के कूड़े-घर पर बैठे रहने को राजी हो जाते हो। इसे थोड़ा सोचना।

क्या करोगे, मिल भी गई सारी स्तुति तो? क्या होगा? किसी ने निंदा न की तो क्या होगा? कोई तुम्हारी निंदा न करे, सभी तुम्हारी स्तुति करें, तो तुम्हें जीवन का अर्थ खुल जाएगा? क्या तुम्हारे प्राणों के कमल खिल जाएंगे? क्या तुम तृप्त हो जाओगे? होतो उलटा ही है। जैसे- जैसे स्तुति मिलती है, वैसे- वैसे स्तुति की व्यर्थता पता चलती। जितना- जितना लोग तुम्हारा सम्मान करने लगते हैं, उतना-उतना तुम कारागह में पड़ने लगते हो, उतनी- उतनी तुम्हारी मर्यादा संकीर्ण होने लगती है, उतना-उतना तुम्हें लगता है, अब तुम खिल नहीं सकते, अब हजार आखें तुम पर हैं।

भक्त तो केवल वही हो सकता है जिसने एक बात का निर्णय कर लिया कि भीतर के आनंद के सामने और कोई भी चीज वरणीय नहीं है। भीतर का आनंद पहले है। परमात्मा के संबंध प्रथम, फिर शेष सारे संबंध हैं। अगर उससे संबंध बनकर सब संबंध बनते हों तो भक्त राजी है। अगर उससे संबंध टूटते हों, तो फिर कोई संबंध अर्थ का नहीं है।

जीसस ने कहा है : उस एक को खोकर तुम सब खो दोगे, और सब को खोकर भी अगर तुमने उस एक को पा लिया तो सब पा लिया।

“जो इस नारदोक्त शिवानुशासन में विश्वास और श्रद्धा करते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं’’ ।

विश्वास और श्रद्धा पर ये सूत्र पूरे होते हैं। इन दो शब्‍दों को थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी है। विश्वास का अर्थ है : संदेह अभी मिट नहीं गए—संदेह हैं, लेकिन तुम संदेहों के बावजूद विश्वास करते हो। संदेह एकदम से मिट भी नहीं जा सकते, कोई जादू तो नहीं है, कोई मंत्र तो नहीं है कि मंत्र फेर दिया, दवा ले ली, ताबीज बांध लिया और संदेह मिट गए। संदेह हैं, लेकिन संदेहों को चुनो या न चुनो, यह तुम्हारे हाथ में है।

 

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, संन्यास भी लेना है, संदेह भी है। मैं कहता हूं, दोनों तुम्हारे भीतर हैं। संन्यास लेने का भाव भी उठा है; वे कहते हैं, उठा है। कुछ विश्वास भी आता है, कुछ संदेह भी है’’ । मैं कहता हूं, अब तुम्हें दो में से चुनना पड़ेगा। संदेह चाहो, संदेह चुन लो। तब तुम अपनी आधी आत्मा को तड़फाओगे जो संन्यास लेना चाहती थी। संन्यास ले लो, तब तुम अपने आधे विचारों को तड़फाओगे, मन को, जो संदेह करना चाहता था। अब तुम्हें चुनना यह है कि संदेह तो तुम बहुत दिन करके देख लिए, क्या पाया; अब थोड़ा विश्वास करके भी देख लो। एक मौका विश्वास को भी दो। संदेह ने तो सिर्फ सताया। संदेह से कोई सुख तो न जन्मा, कोई वर्षा तो न हुई, अषाढ़ के मेघ तो न घिरे, प्राणों की पृथ्वी तो वैसी की वैसी तडुफती रह, प्यासी रही। संदेह करके बहुत दिन देख लिया, अब विश्वास करके भी देख लो। एक मौका विश्वास को भी दो।

वे कहते हैं,’’ लेकिन संदेह अभी मिटे नहीं’’ ।

मैं उनसे कहता हूं,’’ संदेह के बावजूद चुनाव तो करना ही होगा। और ध्यान रखना, जब तुम चुनाव भी नहीं करते, तब भी चुनाव तो हो ही रहा है। तुम कहते हो, अभी सोचूंगा, अभी चुनाव नहीं करता। लेकिन इसका मतलब हुआ कि तुमने संदेह को पक्ष में चुनाव किया। बिना चुनाव किए तो एक क्षण भी तुम रह नहीं सकते। न चुनाव करो, तो यह चुनाव हुअ। मगर चुनाव तो हो ही रहा है।

तो एक मौका नये को दो, अपरिचित को दो, अनजान को दो। उस रह को भी एक मौका दो जिस पर तुम कभी नहीं गए। और जिस राह पर बहुत बार हो आए हो, कभी कुछ न पाया…।

जिस आदमी ने अब तक संदेह किए हैं, अगर वह ठीक-ठीक संदेह करना जानता हो तो अब संदेह पर संदेह आ जाना चाहिए। संदेह पर संदेह का नाम ही विश्वास है। यह श्रद्धा नहीं है, यह विश्वास है। संदेह पर जिसे संदेह आ गया; कर-कर के देखा, कुछ न पाया, आदत पुरानी है, किए चले जाते हैं; जिस राह से बहुतबार गए वहां आंख बंद करे भी चले जाते हैं तो चलना हो जाता है, कुशलता आ गई है, आदत हो गई है–लेकिन सोचो। अब संदेह का उपयोग करो। संदेह पर संदेह करो तो विश्वास पैदा होता है।

विश्वास संदेह के विपरीत नहीं है, संदेह के किनारे-किनारे है। संदेह के बावजूद जब विश्वास की राह पर तुम चलते हो तो धीरे-धीरे अनुभव आता है कि ठीक हुआ कि अहोभाग्य मैंने विश्वास चुना। एक-एक कदम बढ़ते हो कि जीवन में नई हरियाली, नई ताजगी, नई किरणें उतरने लगती हैं। संदेह जिनको तुम किनारे रखकर आए थे, धीरे-धीरे भागने लगते हैं; जैसे प्रकाश में अंधेरा भागने लगता है। सूरज निकल आया और जैसे ओस-कण तिरोहित होने लगते हैं, ऐसे तुम्हारे संदेह तिरोहित होने लगेंगे। जब सारे संदेह तिरोहित हो जाएंगे तो विश्वास समाप्त हो जाता है, श्रद्धा का जन्म होता है।

 

विश्वास औषधि की तरह है। तुम बिमार हो, विश्वास औषधि की तरह है। फिर जब बीमारी चली गई, तब तुम बोतल को भी फेंक आते हो कचराघर में, फिर कोई जरूरत न रही।

स्वास्थ्य यानी श्रद्धा। श्रद्धा स्वास्थ्य की भांति है। श्रद्धा में संदेह होता ही नहीं। विश्वास में संदेह किनारे-किनारे चलता है, समानान्तर चलता है। इसलिए जब तक श्रद्धा न आ जाए, तब तक बड़ा सचेत रहने की जरूरत है। श्रद्धा आ गई, फिर आंख मूंदकर, चादर तानकर सो जाओ। फिर कोई प्रश्र न रहा। बीमारी गई। तुम प्रकाश से मंडित हुए।

“जो इस नारदोक्त शिवानुशासन में विश्वास और श्रद्धा रखते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं’’ ।

त्वरित घूमता चक्र, दृगों को लगता ठहरा-सा है

त्वरित घूमता चक्र, दृगों को ठहरा-सा लगता है

किंतु क्रिया की निष्क्रियता में परिणति ही समता है

मृत्यु असंगति नहीं, सहज वह जीवन की संगति है

रति का मूल स्वभाव पूर्ण हो बन जाती फिर यति है कर्ता बनता सिद्ध कर्म ही जब अकर्म बनता है

मुक्ति नहीं कुछ और, मात्र वह प्रज्ञा की थिरता है

जहां-जहां विपरीत दिखाई पड़ रहा है, वहां-वहां विपरीत नहीं है–एक ही छिपा है।

तुमने कभी खयाल किया है कि अगर पंख बिजली का तेजी से घूमे, घूमता जाए, तेज होता जाए, तो एक घड़ी आती है : स्थिर मालूम होने लगता है। ये दीवालें स्थिर लगती हैं। वैज्ञानिक कहते हैं, परमाणु बड़ी तीव्र गति से घूम रहे हैं। उनकी गति इतनी तीव्र है कि हम उनकी गति को देख नहीं पाते, सब स्थिर हो गया है।

अगर गति महान हो, आत्यन्तिक हो–स्थिर हो जाती है। अगर कामना पूर्ण हो, कामना से मुक्ति हो जाती है। अगर कर्म पूर्ण हो, अकर्म बन जाता है।

मुक्ति नहीं कुछ और, मात्र वह प्रज्ञा की थिरता है।

और मुक्ति कहीं आकाश में नहीं है, कहीं दूर भविष्य में नहीं है। तुम्हारा बोध थिर हो जाए, ठहर जाए, निष्कंप लौ जलने लगे बोध की भीतर–बस मुक्त हो गए तुम। परमात्मा तुमसे कहीं दूर नहीं–तुम्हारे होने का एक ढंग है। जब तुम अपनी परिपूर्णता में निखरते हो, तुम्हीं जब अपने अंधकार के ऊपर उठते हो, तो परमात्मा हो।

तो भक्त का जो आत्यंतिक अनुभव है, वह भगवान हो जाने का है। सब दूरी खोज के दिनों की है। जैसे-जैसे समाप्त होने के करीब आती है, भक्त और भगवान एक होने लगते हैं।

इन सूत्रों को सुना। इस सूत्रों पर मनन करना। इन सूत्रों को धीरे- धीरे अपनी जीवन की शैली में, संभालने की कोशिश रना। जितना बन सके, उतना समय परमात्मा की स्मृति में, जितना बन सके उतना परमात्मा को देखने में, सब जगह उघाड़-उघाड़कर, जहां देखने की कठिनाई भी मालूम पड़ती हो, पत्थर में, चट्टान में, वहां भी गौर से देखना–दिखेगा।

इसलिए तो हमने सारी मूर्तियां पत्थर की बनाई हैं परमात्मा की, क्योंकि पत्थर में भी वह है। वहां भी मूर्ति को खोजने की बात है, छिपा है, जरा छैनी चलाने की बात है। छैनी लेकर जाने की जरूरत नहीं–तुम्हारी आंख ही छैनी हो सकती है। जरा गौर से देखना : जहां कहीं रूप-रंग भी दिखाई नहीं पड़ता, वहां भी प्रगट हो जाता है। और जल्दी थक मत जाना, अधैर्य

मत करना।

धीरज और अनंत प्रतीक्षा!

मत कर धीमा गीत,

अभी तो मंजिल दूर बहुत है

पी कर स्वर का स्नेह पंथ का

हृदय सदय हो जाता

रागों के मेले में नभ का

सूनापन खो जाता

मत रख पूजा-थाल अभी तो

धूप कपूर बहुत है।

 

 

आज इतना ही।

 

 

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–20

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अहोभाव, आनंद, उत्‍सव है भक्‍तिबीसवां प्रवचन

दिनांक 22 मार्च,1976,

श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्न सार :

*परम विरहासक्ति पर कुछ कहें?

 *ध्यान की गहराई की अवस्था स्थायी कैसे हो?

 *क्या मुक्ति के लिए अन्तत : आराध्य की छवि का विसर्जन भी अनिवार्य है?  

 *आपके समीप आकर आपकी ओर देखा ही न गया। ऐसे क्यों हो जाता है?  

 *आपको रोज-रोज सुनते हैं, देखते हैं, फिर भी जी क्यों नहीं भरता? और कहीं बाहर भी चले जाते हैं तो भी जी यहीं क्यों लगा रहता है?    

 *नारद के बहुआयामी व्यक्तित्व पर कुछ प्रकाश डालें।

 *भक्त ध्रुव की पुराण-कथा पर कुछ प्रकाश डालें।

 

 पहला प्रश्‍न :

 परम विरहासक्ति पर कुछ कहने की कृपा करें?

उस प्यारे की मौजूदगी प्यारी है, तो गैर-माजूदगी भी प्यारी होगी। जिसने उसे चाहा है, अनुपस्थिति में उसकी चाह और बढ़ेगी, घटेगी नहीं। चाह की कसौटी यही है। लेकिन चाह तो तुमने जानी नहीं, कामना जानी है। कामना की खूबी यह है : मिल जाए, जिसे तुमने मांगा है, तो मांग टूट जाती है, समाप्त हो जाती है। धन मिल जाए, धन व्यर्थ हो जाता है। प्रेमी मिल जाए, प्रेमी व्यर्थ हो जाता है। कामना पा भी ले, तो भी खाली रह जाती है। प्रार्थना न भी पाए, तो भी भरी है।

विरहासक्ति का अर्थ है कि भक्त भगवान को तो प्रेम करता ही है, उसकी गैर-मौजूदगी को भी प्रेम करने लगता है। उसकी गैर-मौजूदगी भी उसकी ही गैर-मौजूदगी है। उसका न दिखाई पड़ना भी उसका ही न दिखाई पड़ना है। पूर्ण है वह, शून्‍य भी उसका ही है। सब भाव उसका है, अभाव भी उसका ही है। फिर जो वह दे, उसी में भक्त राजी है।

भक्त का भाव यही है कि तू जो कराए, रुलाए, दूर रखे, हंसाए कि पास रखे, तृप्त करे कि अतृप्ति की आग जलाए, वर्षा बनकर आए कि प्यास बनकर उठे–तेरी मर्जी पर मेरा होना है! तो भक्त यह नहीं कहता कि मेरी मर्जी मान और प्रगट हो। वह कहता है, तेरा अप्रगट होना भी प्यारा है, हम इसे ही प्यार कर लेंगे। हम तेरी अनुपस्थिति में भी नाचेंगे और गुनगुनाएंगे! और जब तक तुम उसकी अनुपस्थिति को प्रेम न कर पाओगे, तब तक वह उपस्थित न हो सकेगा। यही भक्त की कसौटी है। इसलिए विरहासक्ति…।

विरह से भी आसक्ति हो जाती है। आंसुओ से भी प्रेम हो जाता है। तुमने भक्त को रोते देखा हो, वह दुख में नहीं रो रहा है। उसके आंसू खुशी के आंसू हैं। उसके आंसू फलों जैसे हैं, चांदत्तारों जैसे हैं। उसके आंसुओ में फिर से झांको। उसकी आंखों में कोई शिकायत नहीं है, अनुग्रह का भाव है : ‘’ तूने रुलाया, यह भी क्य कुछ कम है! क्योंकि बहुत आखें हैं, बिना रोये ही रह जाती हैं। बहुत आखें हैं जिन्हें आंसुओ का सौभाग्य ही नहीं मिलता। तूने दूर रखा, तडुफाया, इसी तडुफ से तो भक्ति का जन्म हुआ। इसी से तो तेरे पास आने की महत आकांक्षा जगी, अभीप्सा पैदा हुई। तो दूर रखने में भी तेरा कोई राज होगा। तेरी मर्जी

पूरी हो’’ ! जीवन को देखने के दो ढंग हैं। एक धार्मिक व्यक्ति का ढंग है, वह कांटों में भी फूल खोज लेता है। और एक अधार्मिक व्यक्ति का ढंग है, वह फूलों में भी कांटे खोज लेता है। देखने पर सब कुछ निर्भर है।

सुकून कल्ब को हलकी सी भी उम्मीद काफी है

कि नूरे सुबह की पहली किरण बारीक होती है

हृदय में चैन हो, हृदय में शांति हो, धैर्य हो,

तो छोटी-सी उम्मीद भी बहुत है। स्वभावत:

सुबह की पहली किरण बहुत बारीक होती है।

उतनी बारीक किरण भी सूरज की खबर है।

वह दिखाई भी नहीं पड़ती, भासमान होती है–पर सूरज की खबर है।

भक्त को परमात्मा की अनुपस्थिति भी परमात्मा की ही खबर है।

सुकून कल्ब को हलकी सी भी उम्मीद काफी है

कि प्ले सुबह की पहली किरण बारीक होती है

जो गम हद से ज्यादा हो खुशी नजदीक होती है

चमकते हैं सितारे रात जब तारीक होती है।

और जब रात बहुत घनी अंधेरी होती है तो तारे खूब चमककर प्रगट होते हैं। परमात्मा की अनुपस्थिति की जब भाव-दशा पकड़ लेती है तो उसकी उपस्थिति इतनी प्रगाढ़ होकर मालूम होती है जितनी कभी भी नहीं मालूम हुई। विरह में भी मिलन है। अंधेरी रात में भी उसके तारे चमकते हैं। जब सब खोया हुआ लगता है तब भी वह पाया हुआ ही मालूम होता है। लेकिन हमारे जीवन का दृष्टिकोण, हमारे देखने का ढंग अति सांसारिक है। और वहां हमने जो पाठ सीखा है वह पाठ बड़ा खतरनाक है। ठीक इससे उलटी दशा धर्म की यात्रा की है।

संसार में जब तक कोई चीज मिलती नहीं है तब तक तो तुम बहुत उसके लिए तडुफते हो—पाने के लिए तडुफते हो, किसी तरह अभाव मिट जाए। धन नहीं है तो तुम धन के लिए तडुफते हो, क्योंकि निर्धन्नता को मिटाना है। निर्धनता से तुम राजी नहीं होते, निर्धनता से तुम लड़ते हो, ताकि धन पैदा कर सको। पर देखा तुमने, जब धन हाथ में आ जाता है तो पता लगता है : राख लगी, कोई हीरे-जवाहरात न लगे, धूल लगी। जब नहीं था धन तब निर्धनता से लड़ते रहे। जब धन मिलता है तो धन व्यर्थ हो जाता है।

यह तुम्हारा सामान्य जीवन का अनुभव है। इससे ठीक उलटा अनुभव धार्मिक का है। धार्मिक परमात्मा की अनुपस्थिति से लड़ता नहीं है; वह कहता है, यह अनुपस्थिति भी उसकी ही है, लड़ना कैसा, लड़ना किससे; यह भी वरदान उसी का है, यह आशीष उसी की है।

अनुपस्थिति में विरोध नहीं है–अनुपस्थिति में उसे खोजना है; छिपा होगा कहीं; किरण बहुत बारीक होगी; होगा तो ही…। ऐसा तो कोई स्थान नहीं हो सकता जहां वह न हो। अपनी आखें कमजोर होंगी। अपने देखने में बल न होगा। अपनी आंख पर परदे होंगे। अपनी समझ धुंधली होगी। अपना बोध का दीया थिर न होगी, कंपित होती होगी भीतर की चित्त- दशा, प्रज्ञा ठहरी न होगी। लेकिन भगवान तो अपनी अनुपस्थिति में भी मौजूद होगा, क्योंकि ऐसी तो कोई जगह नहीं है जो उससे खाली हो। वह पास से भी पास, दूर से भी दूर; मिला हुआ भी है, खोया हुआ लगता है। तो भक्त अनुपस्थिति से लड़ता नहीं, वह अपने आंसुओ में भी नाचता है। उसके आंसू भी गुनगुनाते हुए हैं। उसके आंसुओ में दुख मत देख लेना, अन्यथा तुम उसके आंसुओ को न समझ पाओगे। उसके आंसुओ में इस बात की खबर है कि तू कितना ही छिपाए, अपने को छिपा न सकेगा; तू कितना ही परदे डाले, धोखा न दे सकेगा। हम तेरी अनुपस्थिति में भी तुझे खोज लेते हैं, तो तेरी उपस्थिति की तो बात ही क्या करनी।

अनुपस्थिति परमात्मा के विपरीत नहीं है, जैसा धन निर्धनता के विपरीत है। और इसलिए जब भक्त परमात्मा को उपलब्ध होता है तो वैसी हालत नहीं आती जैसे धन को उपलब्ध होकर आती है। धन व्यर्थ हो जाता है मिलते ही। धन का सारा मजा उसके न मिलने में हैं; जब तक नहीं मिलता तभी तक महिमापूर्ण मालूम होता है; जैसे मिला, कचरा हो जाता है। परमात्मा के न मिलने में भी अहोभाग्य है, मिल जाने का तो फिर कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता। भक्त कहता है, तू जिस हाल रखे, हम उस हाल में राजी हैं। भक्त कहता है, हमारी गुनगुनाहट को तू छीन न सकेगा। होंगी इसी तरह से तै मंजिलें ओज की तमाम हां यूं ही मुस्कुराए जो, हां यूं ही गुनगुनाए जा।

सारे पड़ाव पार कर लिए जाएंगे, सारी मंजिलें पार कर ली जाएंगी।

होंगी इसी तरह से तै मंजिलें ओज की तमाम हां यूं ही मुस्कुराए जा, हां यूं ही गुनगुनाए जा।

भक्त का आनंद सतत है। उसमें विच्छेद नहीं है। अंधेरा हो तो, रोशनी हो तो; सुबह हो तो, सांझ हो तो; बहार आए तो, पतझड़ आए तो–भक्त के लिए भेद नहीं पड़ता, क्योंकि वह हर चेहरे में उसको पहचान लेता है–जीवन आए तो, मौत आए तो। भक्त का अर्थ ही यही है जिसे अब भगवान धोखा न दे सकेगा।

साधक और भक्त में यही भेद है। साधक अपने संकल्प से जीता है; भक्त, समर्पण से। साधक कहता है, पाकर रहेंगे। साधक की भाषा में संसार छिपा है। जैसे वह धन को पाता था, वैसे ही धर्म को भी पाकर रहेगा। जैसे वह यश, पद, प्रतिष्ठा खोजता था, ऐसे ही प्रभु को भी खोजेगा। लेकिन उसकी खोज का सूत्र पुराना है:’’ मैं पाकर रहूंगा! तेरे बिना किए क्या होगा? मैं करूंगा तो होगा”।

भक्त तो सारा हिसाब बदल देता है। भक्त कहता है: समर्पण! मेरे किए कुछ न हुआ। देखा बहुत कर-करके, हाथ कुछ भी न आया; जैसे रेत से तेल निचोड़ते रहे, समय व्यर्थ हुआ, शक्ति का अपव्यय हुआ, कहीं पहुंचे न। अब तुझ पर छोड़ देते हैं। अब हम नाचेंगे! अब हमने पाने की भी फिक्र छोड़ी! अब हम न पाएं तुझे तो भी कोई फर्क न पड़ेगा, तू हमें मिला! साधक की भाषा है–

अपने ऊपर कर भरोसा, जज्बे दिल से काम ले

यूं न साकी आएगा, उठ बढ़ के मीना थाम ले।

साधक की भाषा है: अपने ऊपर भरोसा कर, हिम्मत से काम ले, संकल्प को जगा; ऐसे बैठे-बैठे कुछ न होगा।

यूं न साकी आएगा, बढ़ के मीना थाम ले।

छीना-झपटी करनी होगी। यह मधु-पात्र ऐसे अपने-आप तेरे सामने न आएगा। उठ! संकल्प कर! छीन ले! संघर्ष कर!

यह साधक की भाषा है। भक्त को इस भाषा में ही संसार मालूम होता है:’’ परमात्मा से भी छीनना होगा? यह साकी ऐसा साकी तो नहीं जिससे छिनना पड़े। भक्त कहता है,’’ यह तो बात की लज्जत ही न रही। परमात्मा से छीनना पड़ा, तो मिला-न-मिला बराबर हो गया। छीन-झपट से जो मिले उसका तो सौंदर्य ही चला गया। उसका प्रसाद हो! मांगना भी न पड़े। मांग भी यही कहती है कि छीन-झपट किसी-न-किसी तल पर जारी है। कहना भी न पड़े, इशारा भी न करना पड़े। वह दे, अपने से दे, मनाकर दे!’’

भक्त की भाषा है–

सामने तेरे भेईा इक दिन दौरे महबा आएगा

तू अभी समझा नहीं साकी का ईमां, सब्र कर।

अभी तू उसके प्रेम को, उसके नियम को समझा नहीं; थोड़ा धीरज रख!

सामने तेरे भी इक दिन दौरे महबा आएगा–वह मधु-पात्र सामने तेरे अपने-आप आ जाएगा, तू थोड़ा धीरज रख। तू जरा उसके नियम की तरफ देख।

सब्र ही भक्ति की पात्रता है, अनंत धैर्य! तुम अगर एक क्षण को भी उसके अनंत धैर्य से भर जाओ, तो उसी क्षण उपलब्धि हो जाएगी। उपलब्धि में परमात्मा बाधा नहीं है, तुम्हारा धैर्य बाधा है। इसलिए विरह से भी आसक्ति हो जाती है। भक्त विरह के गीत गाता है। वह विरह के आसपास भी सजावट कर लेता है। वह अपने रोने को भी सम्हालकर रखता है। वह अपने रुदन को भी, अपनी आहों को भी प्रार्थना बना लेता है। वह अपने रुदन के, अपने आंसुओ के ईंटों से ही अपने मंदिर को बना लेता है। वह उससे भी राजी है। वह यह नहीं कहता कि देखो, मैं कितना रो रहा हूं। वह यह कहता है कि और रुलाओ मुझे। देखो, कितना हलका हो गया हूं रो-रोकर! कितना रूपांतरित हुआ हूं! तुम जल्दी मत करना। कोई जल्दी नहीं है। तुम मुझे पूरा बदलकर ही आना! वह आने की बात ही परमात्मा पर छोड़ देता है; अपने हृदय को खोल देता है, प्रतीक्षा करता है।

भक्ति प्रतीक्षा है, प्रयास नहीं। भक्ति समर्पण है, संकल्प नहीं। और भक्ति से बड़ी कोई कीमिया नहीं है; क्योंकि भक्ति का मूल आधार ही, सांसारिक मन का आत्मघात हो जाता है। सांसारिक मन कहता है, करने से कुछ होगा। भक्ति कहती है, करने से कुछ भी नहीं हुआ। सांसारिक मन कहता है: अहंकार! नये-नये नाम रखता है; कभी कहता है, संकल्प की शक्ति; कभी कहता है, हिम्मत, साहस, व्यक्तित्व, आत्मा–हजार नाम रखता है, लेकिन सबके भीतर तुम अहंकार को छिपा हुआ पाओगे, सबके भीतर’’ मैं” माजूद है,’’ मैं” की कम-ज्यादा मात्रा मौजूद है। और वही बाधा है।

भक्त कहता है,’’ मैं” नहीं, तू। जब मैं ही नहीं हूं तो क्या विरह और क्या मिलन?’’ मिलन हो गया! जहां’’ मैं” मिटा वही मिलन हो गया। और जिसे विरह में परमात्मा दिखाई पड़ गया, उसके मिलन की तो बात ही न पूछो! वह बात तो बात करने की न रही। उसके संबंध में कुछ भी न कहा जा सकेगा।

मीरा के सारे गीत विरह के गीत हैं–इतने मधुर, इतने गरिमापूर्ण! सब विरह के गीत हैं। चैतन्य का नृत्य विरह का नृत्य है। मिलन के बाद तो कोई नाच ही नहीं सका। नाच भी मुश्किल हो जाता है। विरह में नाच लो थोड़ा-बहुत। विरह में बोल लो थोड़ा-बहुत; मिलन पर तो बोज बंद हो जाते हैं; मिलन तो अबोल कर जाता है; मिलन में तो सब शून्‍य   हो जाता है। बूंद जब सागर में खो गई, खो गई! अब कहां नाचेगी, अब कहां कूदेगी? अब कहां वीणा बजेगी? अब कहां नृत्य होगा, कहां गीत सजेंगे? मीरा जब खो गई सागर में तो खो गई! वे जो मीरा के गीत हैं, सब विरह से उत्पन्न हुए हैं; स्वभावत: विरह से भी आसक्ति हो जाएगी। इतना प्यारा था उसका न मिलना भी।

जिसने उस प्यारे की तरफ थोड़े कदम बढ़ाए, उसे उसके न मिलने में भी आनंद हो जाता है।

 

 

दूसरा प्रश्‍न :

 

आपके सान्निध्य में ध्यान की गहराई का कुछ अनुभव होता है, लेकिन वह अवस्था स्थायी नहीं रहती। उसे स्थायी करने की दिशा में कृपया हमारा मार्गदर्शन करें!

 

 

स्थायी करना ही क्यों चाहते हो? स्थायी की भाषा ही सांसारिक है। क्षणभर को रहती है, उतनी देर अहोभाव से नाचे, उतनी देर कृतज्ञता से नाचे। उस क्षण में यह नया उपद्रव क्यों भीतर ले आते हैं कि स्थायी करना है? जो मिला है उसकी भी पात्रता नहीं है! अहोभाग्य कि पात्र न था, क्षणभर को उसके दर्शन हुए। नाचे! गुनगुनाए! आनंदित हों! दूसरा क्षण इसी क्षण में निकलेगा, आएगा कहां से? कल आज से ही पैदा होगा। अगर आज गीत से भरा था, तो कल इन्हीं गीतों से जन्मेगा। अगर आज तुम्हारे पैर में थिरक थी और पूंघर बंधे थे, तो कल पर भी उनकी छाया पड़ेगी। स्वभावत: कल तुम्हारे थर की आवाज और सुदृढ़ हो जाएगी; बांसुरी और भी गहरी बजेगी; मस्ती और भी गहरी उतरेगी!

कल आएगा कहां से? इसलिए तुम कल की चिंता ही छोड़ दो। सभी की यही तकलीफ है, क्योंकि संसार का यह गणित है: जो न हो उसकी चिंता करो; जो मिल जाए उसकी चिंता करो कि कहीं खो न जाए! गरीब परेशान है कि धन मिल जाए; धनी परेशान है कि कहीं खो न जाए! दोनों परेशान हैं। परेशानी जैसे हमारी आदत है। जैसे हम कुछ भी करें, परेशानी से हम न बचेंगे, परेशानी तो हम घूम-फिरकर पैदा कर ही लेंगे।

रोज कोई-न-कोई मेरे पास आकर कहता है कि’’ ध्यान में बड़ा आनंद आ रहा है, लेकिन यह टिकेगा?’’ क्यों आनंद को खराब कर रहे हो? कल जब आएगा तब कल को देख लेंगे”। और आज अगर तुम आनंदित हो सकते हो, कल भी तुम ही तो रहोगे न? और आज अगर तुम आनंदित हो सकते हो, तो कल की ईंटें आज के ऊपर ही रखी जाएंगी, कल का भवन आज के ऊपर ही खड़ा होगा। तुम कृपा करके कल को भूलो!

कल, मन का उपद्रव है। कल तुम्हारा आज को खराब कर देगा। यह क्षण अगर शांति का त तुम डूबो डुबकी लो तुम रस-विभोर हो ओ तुम भूल ही ओ समय को। इसी था,, जा, जा

से आने वाला क्षण उभरेगा–और भी गहरा, और भी ताजा, और भी मदहोश! और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए तो भविष्य की चिंता छूट ही जाती है।

स्थायी करने का मोह भविष्य की चिंता है। क्षण काफी है। एक क्षण से ज्यादा किसको कब कितने क्षण मिलते हैं? एक बार एक ही क्षण तो मिलता है तुम्हें। अगर एक क्षण में तुम्हें आनंदित होने की कला आ गई, तो सारा जीवन आनंदित हो जाएगा। जिसको एक बूंद रंगने की कला आ गई, वह सारे सागर को रंग लेगा। एक-एक बूंद ही तो हाथ में पड़ती है, उसको रंगते जाना। दो बूंद इकट्ठी भी तो नहीं मिलतीं कि अड़चन आए कि हम तो केवल एक बूंद को ही रंगना जानते हैं, दो बूंदें एक साथ आ गईं तो हम क्या करेंगे!

एक क्षण आता है एक बार; जब चला जाता है हाथ से तब दूसरा क्षण उतरता है। बड़ी संकीर्ण धारा है समय की! दो क्षण भी तो साथ नहीं आते।

एक क्षण को शांत होना आ गया–हो गई स्थायी शांति! हो गई शाश्वत! अब इसे कोई भी तुमसे छीन न सकेगा। हां, तुम ही छीन सकते हो। अगर तुम इस क्षण में आनेवाले क्षण की चिंता से भर जाओ, चिंतातुर हो जाओ, तो तुमने यहीं खराब कर ली–फिर इस खराब किए हुए क्षण से अगला क्षण पैदा होगा, वह और भी खराब होगा।

तो पहली बात: पूछो मत, स्थायी कैसे करना! इतना ही पूछो कि इसी क्षण में कैसे डूबे! डुबकी में ही स्थायित्व है।

और दूसरी बात:’’ आपके सान्निध्य में ध्यान की गहराई का कुछ अनुभव होता है…।’’ जो मेरे सान्निध्य में होता है, वह मेरे कारण नहीं होता, होता तो तुम्हारे ही कारण है। जो तुम्हारे भीतर नहीं हो सकता, वह किसी के भी सान्निध्य में नहीं हो सकता। हां, मेरे सान्निध्य में सुविधा मिल जाती होगी–स्वयं से थोड़ा छूटने की, स्वयं के बंधन थोड़े ढीले करने की। मेरे सान्निध्य में थोड़ा-सा तुम अपनी पुरानी आदतों को किनारे हटा देते होओगे, बस! होता तो तुम्हारे ही भीतर है।

इसलिए जो मेरे सान्निध्य में होता है, अब यह एक नया उपद्रव खड़ा मत कर लेना कि घर जाकर न होगा। मन तरकीबें खोजता है। मन कहता है,’’ वहां हो गया था, उनके कारण हो गया था’’ । पाप मुझे लगेगा ऐसे। तुम अगर नरक गए तो मैं जिम्मेदार होऊंगा। यहां तुम्हें जो थोड़ा-सी झलक मिल जाती है, उसमें मेरा कुछ हाथ नहीं है; सिर्फ तुम मेरी थोड़ी सुन लेते हो, इतनी ही तुम घर पर भी सुनना, बात हो जाएगी। इतना तुम थोड़ा-सा मुझे द्वार-दरवाजा देते हो, थोड़ा अपने को किनारे कर लेते हो, थोड़ा अपने को बीच से हटा लेते हो–कुछ होता है। घर पर भी इतना ही हटा लेना। यह तुम्हारे ही किए हो रहा है।

छोटे बच्चे का कोई हाथ पकड़ लेता है और चला देता है–चलता तो बच्चा ही है भीतर। दूसरे के हाथ से थोड़ा सहारा मिल जाता है, हिम्मत बढ़ जाती है, अनुभठ आ जाता है। मगर ये हाथ जिंदगीभर पकड़ लेने को नहीं है। नहीं तो इससे घसिटना ही बेहतर था, कम-से-कम खुद तो घसिटते थे, अब यह एक और उपद्रव साथ लगा; एक दूसरे के हाथ, अब यह और मजबूरी हुई, और परतत्रता हुई। नहीं, ऐसे किसी पर निर्भर मत हो जाना।

मेरा तो सारा आयोजन यहां यही है कि तुम परम मुक्त हो सको; उसमें तुझसे भी मुक्त होना सम्मिलित है। अगर मुझसे बंध जाओ तो तुम तो और लंगड़े हो जाओगे; तुम वैसे ही लंगड़ा रहे हो, तुम वैसे ही पंगु हो, यह तो और पक्षाघात हो जाएगा।

यहां थोड़ी-सी झलक लो, उसे झलक ही मानता; फिर उसे अपने एकांत में गहराना, ताकि तुम्हें यह भी अनुभव आ सके कि वह झलक तुम्हारे भीतर से ही आई थी। किसी के हाथ का सहारा मिला था–धन्यवाद! लेकिन इससे ज्यादा निर्भरता न हो। ऐसे ही है जैसे कि कोई बच्चे को तैराक पानी में डाल देता है, हाथ-पैर तड़फड़ाता है बच्चा–हाथ-पैर तडुफडाना ही तैरने की श्दुरुआत है। अकेला शायद उतर भी न पाता पानी में, डरता, घबड़ाता; पर कोई तैरनेवाला पास में खड़ा है, हिम्मत…हिम्मत साथ दे गई। जो हुआ है वह तो भीतर हो रहा है। दो-चार बार पानी में तैराक डालेगा, बच्चे के हाथ-पैर सुघड़ हो जाएंगे, फिर कोई जरूरत न रह जाएगी, फिर उसे खुद ही हिम्मत आ जाएगी। फिर तो वह दूर सागर भी पार कर ले सकता है।

मैंने सुना है, एक गांव में एक ग्रामीण किसान बैल को जोतकर अपने हल को चला रहा था। वह कोड़ा भी फटकारता जाता बैल पर और कभी कहता,’’ हीरा! जोर से’’ , कभी कहता,’’ मोती! जोर से’’ , कभी कहता,’’ चंदा! जोर से’’ , कभी कहता,’’ सरज। जोर से’’ । एक आदमी खड़ा देख रहा था। उसने कहा,’’ इस बैल के कितने नाम हैं?’’ उस किसान ने कहा,’’ नाम तो इसका एक ही है–हीरा।’’

“तो बाकी इतने नाम किसलिए लेते हो?’’

तो उसने कहा,’’ इसकी हिम्मत बढ़ाने को। इसकी आखें तो बंधी हैं, यह समझता है और भी बैल लगे हैं। यह हिम्मत से चला जाता है’’ ।

बस इतना ही मेरा काम है—”हीरा! जोर से, मोती! जोर से।’’ लगे, तुम अकेले नहीं हो। एक बार हिम्मत आ जाए तो तुम्हारी आंख की पट्टी खोल देंगे, कहेंगे,’’ तुम ही चल रहे थे’’ । तीसरी बात : जल्दी मत करा। धैर्य बड़ी से बड़ी शि क्षा है धर्म के मार्ग पर। क्योंकि जिसको हम खोजने चले हैं, वह इतना विराट है कि तुमने अगर जल्दी मांग की, तो तुम्हारी मांग के कारण ही न मिल पाएगा। मौसमी फूल हम बो देते हैं, दो- चार- छह सप्ताह में फूल आ जाते हैं। लेकिन अगर चिनार के वृक्ष लगाने हों, देवदार के वृक्ष लगाने हों, तो वर्षों लगते हैं। आकाश को छूनेवाले वृक्ष लगाने हों तो उनकी जड़ें भी पाताल तक पहुचनी चाहिए।

परमात्मा आखिरी मंजिल है, उसके पार फिर कुछ भी नहीं। इतनी विराट मंजिल को पाने चले हो, और इतने कृपण हो धैर्य के संबंध में, इतनी जल्दबाजी करते हो!

तुमने देखा भक्तों को, घर- घर में मंदिर बनाकर बैठे हैं, जल्दी से घंटी बजा लेते हैं, फूल चढ़ा देते हैं। उनके हाथ- पैर देखो, इतनी जल्दी में हैं वे कि उनके ये कृत्य देखकर ही भगवान उनसे न मिलेगा! बुलाने में भी तो थोड़ा सलीका हो। उसे पुकारो, थोड़ा सोचो भी कि किसे पुकारा है! थोड़ा सौजन्य तो सीखो! इतना बड़ा निमंत्रण भेज रहे हो, जरा सोच- समझकर पाती लिखी!

लेकिन बड़ा अधैर्य है! तुम अगर अपने अधैर्य पर विचार करोगे तो तुम्हें अपना सारा कृत्य बचकाना मालूम पड़ेगा। कोई रोज गीता पढ़ लेता है, कोई पूजा कर लेता है, कोई फूल चढ़ा देता है, कोई मंदिर में सिर झुका आता है—लेकिन क्या कर रहे हो तुम? और फिर इससे तुम आशा बांधने लगते हो कि अभी तक मिला नहीं, अभी तक स्थायी आनंद नहीं मिला, अभी तक परमात्मा का कोई दर्शन नहीं हुआ! नहीं, यह भक्त का ढंग नहीं।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे

बेनियाजी तेरी आदत ही सही।

देर लगाना तेरी आदत हो, कोई हर्जा नहीं, हम भी सब्र की आदत डाल लेंगे, और क्या! अगर तू देर करता है, ठीक। जितनी देर तू कर सकता है, उससे ज्यादा देर धैर्य रखने की हम आदत डाल लेंगे।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे

बेनियाली तेरी आदत ही सही

जल्दी में मत पड़ना। जल्दी ही तनाव पैदा कर देती है। जल्दी के कारण ही मन बेचैनी पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत- अनंत काल मौजूद है। मन में बेचैनी पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत- अनंत काल मौजूद है। कहीं कोई जल्दी नहीं है। समय की अनंत धारा मौजूद है, न कोई छोर है न कोई ओर है, न कोई प्रारंभ है न कोई अंत है। इस शाश्वत में

तुम व्यर्थ ही परेशान हुए जा रहे हो। तुम दौड़- धूप किसलिए कर रहे हो? तुम्हारी दौड़- धूप से कुछ जल्दी न हो जाएगा। जल्दी की जरूरत नहीं।

जरा वृक्षों को देखो, कैसे अलसाए हुए हैं! चादतारों को देखो, कैसे चुपचाप गतिमान हैं! कहीं पहुंचने की कोई जल्दी तुम्हें अस्तित्व में दिखाई पड़ती है? अस्तित्व ऐसा शांत है जैसे पहुंच ही हुआ हो, पहुंचने की जल्दी मालूम ही नहीं होती। ऐसा ही भक्त भी है, उसने अस्तित्व की भाषा समझ ली है। वह कोई जल्दी में नहीं है। वह कोई प्रार्थना इसलिए नहीं करता कि भगवान प्रार्थना करने से मिलेगा–प्रार्थना उसका आनंद है। वह पूजा इसलिए नहीं करता कि ठीक है, पूजा करने से मिलता है तो चलो पूजा किए लेते हैं। यह कोई साधन नहीं है पूजा, यह साध्य है। वह अहोभाव से भरा है, आनंद से भरा है, कैसे अपने आनंद को प्रगट करें, किस भाषा में परमात्मा से कहें कि तेरे अनंत आशीषों की वर्षा मेरे ऊपर है! तुतलाकर–पूजा की भाषा में, भजन की, कीर्तन की भाषा में कह देता है कि तेरी अनंत अनुकंपा मेरे ऊपर है! प्रार्थना से वह कुछ पाना नहीं चाहता।

और मजा यही है कि जिसने प्रार्थना से कुछ पाना न चाहा, उसे सब मिला। और जिसने प्रार्थना में भी पाने का जहर डाल दिया, उसकी प्रार्थना भी मर गई, और कुछ मिलने की तो बात ही न रही।

प्रार्थना में जहां मांग आई, जहर आया। प्रार्थना में जहां कामना प्रविष्ट हुई, प्रार्थना तिरोहित हुई। तो प्रार्थना प्रार्थना के आनंद के लिए है। फिर इसी क्षण में तुम खूब सुखी हो उठोगे। दूसरा क्षण इसी से आएगा, आता रहेगा, आता ही रहा है।

 

 

तीसरा प्रश्‍न :

 

 

भक्त अंतिम अवस्था तक आराध्या को नहीं भुला पाता है, क्या मुक्ति के लिए अंतत : आराध्य की छवि का विसर्जन भी अनिवार्य है?    

 

 

प्रश्र भक्त का नहीं है। भक्त तो चाहता ही नहीं मुक्ति को। भक्त तो कहता है,’’ ऐसा मत करना कि मुक्ति हो जाए! ये बंधन बड़े प्यारे हैं’’ !

भक्त कहता है,’’ मुक्ति को छोड़ने को तैयार हैं, भगवान, तुझे छोड़ने को तैयार नहीं। तू मुक्ति अपनी सम्हाल। किसी और को दे देना, और बहुत भिखारी हैं! हमें तो तू ही काफी है। तू हमें हजार-हजार बंधनों में बांध! तू प्रेम के न मालूम कितने डोले सजा! तू हमें प्रेम की यात्रा पर ले चल!”

“मुक्ति’’ भाषा ही भक्त की नहीं है। तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं, बहुत सी भाषाएं गड्डमगड हो गई हैं। तुम पूछते हो,’’ मुक्ति के लिए भगवान बाधो है? ‘’पर भक्त मुक्ति मांगता नहीं–और भक्त मुक्त हो जाता है, मांगता नहीं। भक्त की मुक्ति निश्वित है, लेकिन भक्त के बिना मांगे घटती है।

अब इसको भी थोड़ा समझना।

भक्त के अतिरिक्त जितने मार्ग हैं वे मुक्ति मांगते हैं। भगवान को वे उपयोग करते हैं साधन की तरह, माध्यम की तरह। योग में पतंजलि भगवान को भी एक साधन मान लेते हैं’’ ईश्वर के प्रति समर्पण, यह और विधियों में एक विधि है; इस भांति व्यक्ति परम मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है”। भगवान के ऊपर है मोक्ष। और भगवान एक विधी है और विधियोंमें। अनिवार्य विधि भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध बिना भगवान को माने भी मुक्ति की राह बता देते हैं; महावीर बिना भगवान को माने भी मुक्ति की राह बता देते हैं।

तो पहली तो बात और विधियों में एक विधी है। दूसरी बात विधि भी अनिवार्य नहीं है, छोड़ी जा सकती है।

भक्त के अतिरिक्त जो मार्ग है–ज्ञान के, योग के, हठ के, क्रिया के–उन सब में मुक्ति परम है। भगवान को अगर किसी ने जगह दी भी है, तो एक साधन की तरह। भक्त के लिए भगवान परम है।

मुक्ति क्या है भक्त के लिए; भक्त के अतिरिक्त जो साधक हैं, उनके लिए–ऐसी घड़ी का आ जाना जहां वे भगवान से भी मुक्त हो जाएं, मुक्ति है; जहां दूसरा न रह जाए, स्वयं का होना ही आत्यंतिक हो जाए, आखिरी हो जाए, कोई दूसरा न हो। इसलिए महावीर ने उस परम अवस्था को’’ कैवल्य” कहा–एकमात्र तुम्हारी चेतना बचे। या आत्मा कहा, परमात्मा कहा। महावीर का’’ परमात्मा” शब्द भगवान का पर्यायवाची नहीं है–परमात्मा का अर्थ है आत्मा की परम स्थिति, आखिरी ऊंचाई; तुम इस ऊंचाई पर आ गए, जिससे और ऊपर कोई ऊंचाई नहीं।

भक्त के लिए मुक्ति क्या है;

भक्त कहता है,’’ ऐसी घड़ी आ जाए कि तू ही तू रह जाए, मैं न रहूं।’’

भक्त के अतिरिक्त लोग हैं, वे कहते हैं,’’ ऐसी घड़ी आ जाए, मैं ही मैं रहूं, तू न रहे”।

भक्त कहता है,’’ मैं। मैं ही तो उपद्रव हूं, मैं मिट जाऊं; बस तू ही तू रह जाए।’’

भक्त कहता है,’’ बाधनेवाला तेरा बंधन तो रहे, बंधनेवाला मैं न रह जाऊं। तेरा बंधन तो मुझे हजार-हजार रंग-रूपों में बांध ले, लेकिन मैं तुझ में लीन हो जाऊं”।

भक्त अपने को मिटाना चाहता है भगवान में। भक्त के अतिरिक्त जो हैं वे भगवान को मिटा लेना चाहते हैं अपने में। भक्त की भी मुक्ति फलित होती है, पर बड़ी अनूठी है उसकी मुक्ति। उसमें भक्त खो जाता है, भगवान बचता है। इसलिए भगवान को खोकर तो भक्त मुक्ति मांग ही नहीं सकता, वह तो असंभव है।

पूछा है’’ भक्त अंतिम अवस्था तक आराध्य को नहीं भुला पाता है…’’

भुलाना चाहता नहीं। तुम उसे भुलाने के रास्ते बताओ, वह भाग खड़ा होगा कि यह क्या रास्ता बता रहे हो। वह कहेगा,’’ दूर ही रखो अपने सिद्धांत। बामुश्किल तो किसी तरह उसका सहारा पकड़ पाए हैं और तुम भुलाने का उपाय बताते हो।’’ भक्त तुमसे पूछेगा,’’ ऐसा कुछ बताओ कि वह ही वह रह जाए और मैं भूल जाऊं।’’

भक्त भगवान से ही पूछ लेता है अंतिम क्षणों में, और किसी से पूछने की उसे जरूरत भी नहीं है। जैसे- जैसे राग बंध जाता है, जैसे-जैसे भीतर का तार उसी के तारों के साथ नाचने लगता है, जैसे-जैसे संगीत लयबद्ध होता है—वह उसी से पूछने लगता है। वह कहता है,’’ अब तू ही बता दे!’’

भक्त औरों को तो पागल मालूम पड़ेगा, क्योंकि उसकी भाषा प्रेम की है।

इक बात भला पूछें, तुम कैसे मनाओगे ,

जैसे कोई रूठा हो और तुमको मनाना हो

वह भगवान से ही पूछ लेता है कि सुनो

इक बात भला पूछें, तुम कैसे मनाओगे ,

जैसे कोई रूठा हो और तुमको मनाना हो

वह बात करने लगता है सीधी! भक्ति संवाद है! वह किसी और से पूछता नहीं, वह भगवान से ही पूछता है। जिसके तार उससे ही जुड़ गए, अब किसी और से पूछने की जरूरत भी न रही। तेरा गम, राजू मेरा, खामोशी मेरी, सुखन मेरा

यही है रूह मेरी, हुस्न मेरा, पैरहन मेरा।

वह कहता है,’’ तेरे मिलने की तो बात दूर, तुझे न मिलने का जो दुख है, वह भी इतना प्यारा है। यही मेरा रहस्य है, तुझे न पाने की पीड़ा, राजू मेरा, खामोशी मेरी—तू मिलकर तो क्या करेगा, पता नहीं, तेरी अनुपस्थिति के बोध ने भी मुझे खामोशी कर दिया, मौन कर दिया। सुखन मेरा! तेरे न मिलने से भी मेरे भीतर अनाहत- वाणी का नाद शुरू हुआ है, मिलने से क्या होगा पता नहीं! यही है रूह मेरी! और अब तो तेरी गैर- मौजूदगी की पीड़ा ही मेरी आत्मा है। हुस्न मेरा! यही है सौंदर्य मेरा! पैरहन मेरा! यही मेरे वस्त्र हैं! यही मेरी आत्मा है। यही मेरी देह है! यही मेरी वाणी है, यही मेरा मौन है—तेरे न मिलने का गम…! परमात्मा के मिलने पर भक्त उसी पूछ लेता है कि अब तू ही बता दे, कैसे अपने को पूरा- पूरा खो दूं। धीरे- धीरे खोता ही चला जाता है। एक- एक कदम मिटता ही चला जाता है।

यह प्रश्र हमारे मन में उठता है, क्योंकि हमने बुद्धि से सोचा है। हमने बुद्धि से शास्त्र पढ़े हैं। शास्त्रों में लिखा है, जब तक दो रहेंगे, द्वैत रहेगा, तब तक तो संसार रहेगा, अद्वैत चाहिए। माना, निश्वित ही अद्वैत चाहिए। लेकिन अद्वैत दो ढंग का हो सकता है : या तो भगवान मिटे या भक्त मिटे।

तुम जरा अपने से पूछना, तुम्हारा मन कहेगा : ‘’ भगवान ही मिटे। मैं और मिटूं! यह बात जंचती नहीं’’ । तुम भगवान को ही अपने लिए मिटा लेना चाहते हो, इसलिए मुक्ति का सवाल उठता है। पर यह तो बड़े अहंकार की भाव-दशा हुई। तुमने शब्द अच्छे खोजे—’’ अद्वैत’’ … लेकिन छिपा ले गए नास्तिकता को। बातें तुमने बड़ी धार्मिक कीं, लेकिन आखिर में अपने को बचा लिया।

जो धर्म तुम्हें मिटाये वह धर्म ही नहीं। धर्म तो आत्मविसर्जन है, स्वयं को पिघलाना, बहा देना है। तुम्हारी अकड़ पिघल जाए, बर्फ की तरह जमी तुम्हारी छाती पिघल जाए, तुम बह जाओ सब दिशाओं में, तुम उसके अस्तित्व के साथ एक हो जाओ!

मुक्ति की बातें ही क्या हैं? अपने से मुक्त होना है, अस्तित्व से थोड़े ही मुक्त होना है! भगवान यानी अस्तित्व। नामों पर मत जाना। भगवान कहो, सत्य कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो—जो तुम्हारी मर्जी हो। लेकिन अस्तित्व और तुम… तुम बड़े छोटे हो। एक छोटी-सी बूंद महासागर के सामने, यह आकांक्षा कर रही है कि किसी तरह महासागर मिट जाए! वह आकांक्षा ही भ्रांत है।

मुक्ति यानी अपने से मुक्ति। और भगवान में मिटने के लिए भक्ति से और ज्यादा सुगम कोई उपाय नहीं है। इसलिए नारद ने कहा, भक्ति सभी साधनों में श्रेष्ठ है। क्योंकि पहले चरण से ही तुम्हारे मिटने की यात्रा शुरू हो जाती है। सुगम है, नारद ने कहा। और मार्गों पर पीछे अड़चन आती है, क्योंकि पहले तो तुम मजबूत होते चले जाते हो, फिर एक घड़ी आती है, तब मजबूत हो गए अहंकार को छोड़ना पड़ता है। भक्ति पहले ही कदम से तुम्हें बिखेरने लगती है।

इसलिए दुनिया में बहुत कम भक्त हुए हैं, योगी बहुत हुए। तुम्हारा समझना शायद उलटा हो। तुम शायद सोचते हो भक्त तो बहुत हुए हैं। भक्त न के बराबर हुए हैं, क्योंकि भक्त होना दुस्साहस है। योगी होने में दुस्साहस नहीं है। तुम अपने मालिक हो—सिर के बल खड़े रहो कि आसन लगाओ कि सांस रोको कि जो तुम्हें करना हो करो, लेकिन तुम अपने मालिक हो। संकल्प मजबूत होता चला जाता है, अहंकार तीखा होता चला जाता है, धार पैनी होती चली जाती है। इसलिए योगियों के अहंकार की धार को देखो, तलवार की तरह चमकती है! भक्त झुकता है। भक्त अपने को बिखेरता है। भक्त बड़ा कमनीय हो जाता है, कोमल हो जाता है, नाजुक हो जाता है। योगी पथरीला हो जाता है, जिद्दी हो जाता है, अकड़ जाता है, कुछ करने का खयाल आ जाता है। योगी सिद्धि की तलाश में है, शक्ति मिल जाए। भक्त सिर्फ अपने को खोने चला है।

“अंतत : क्या मुक्ति के लिए आराध्य की छवि का विसर्जन भी अनिवार्य है?‘’

तुम ही खो जाते हो। आराधक खो जाता है। स्वभावत : जब आराधक खो जाता है, आराध्य भी खो जाता है, क्योंकि आराध्य बचेगा कहां जब आराधक न बचा? जब भक्त न बचा तो भगवान कहां बचेगा? मगर खोने की शूरूआत होती है भक्त से : इधर भक्त खोया, उधर भगवान गया, एक ही बचा। अब उसे तुम जो चाहे कहो—भक्त कहो, भगवान कहो, सब एक ही ह।

लेकिन प्रश्र पूछा गया है साधक के दृष्टिकोण से, भक्त के दृष्टिकोण से नहीं—”आराध्य को खोना है! उसकी छवि खो जाती है!’’ देखनेवाला खो जाता है, स्वभावत : दृश्य भी खो जाता है। एक ही ऊर्जा बचती है। न दृश्य होता है न द्रष्टा होता, एक ही ऊर्जा बचती है। कहो उसे दर्शन की ऊर्जा…। मगर भक्ति की भाषा में उचित होगा, कहो—प्रेम की ऊर्जा। न प्रेमी बचता है न प्यारा बचता है—प्रेम ही लहरें लेने लगता है।

लामकाने- कोकबेतकदीरे- आदम इश्क है

पासबाने- अजमतेतामीरे- आदम इश्क है

ख्वाबे- आदम इश्क है, ताबीरे- आदम इश्क है

इश्क है, हां इश्क है मेमारे- कसरे- दो जहां।

मनुष्य के भाग्य- नक्षत्र को चमकानेवाला ईश्वर प्रेम है। मानव- निर्माण की प्रतिष्ठा का रक्षक प्रेम है। मनुष्य का स्वरूप प्रेम है। स्वप्न प्रेम है। लोक- परलोक दोनों दुनियाओं का निर्माता प्रेम है।

प्रेम ही बचता है।

ऐसा समझो कि गंगा बहती है, दो किनारों से बीच। दो किनारे—एक भक्त, एक भगवान, बीच में जो बह रही है धोरा प्रेम की, भक्ति की, असली गंगा तो वही है। लेकिन साधक भगवान को खोना चाहता है, भक्त अपने को खोना चाहता है, यद्यपि दोनों दिशाओ से दोनों खो जाते हैं, अंतत : बीच की धारा ही रह जाती है, गंगा ही बचती है प्रेम की।

 

 

चौथा प्रश्‍न :

 

कल संध्या दर्शन के समय दो विकल्प थे। मैंने चरणस्पर्श करने का निर्णय इसलिए लिया कि बहुत समय बाद क्षणभर को अपने प्रीतम को निकट से देखूंगा, लेकिन वह क्षण आया तो ऊपर आपकी ओर देखा ही न गया। और अब रोता हूं, रोता हूं। ऐसा क्यों हो जाता है आपके निकट?    

 

देखने के लिए सिर उठाना जरूरी थोड़े ही है—सिर झुकाकर भी देखा जाता है। असली देखना तो सिर झुकाकर ही देखना है। नाहक रोओ मत। और जिसने सिर झुकाकर देख लिया, फिर सिर उठाकर देखने का कोई सवाल ही नहीं। इसलिए न उठा होगा सिर।

आंखों से थोड़े ही देखना होता है, अन्यथा देखना बड़ा आसान हो जाता। आखें तो सभी की खुली हैं, अंधा कौन है? आंखों से ही देखना होता तो सभी कुछ हो जाता। देखना कुछ आंखों से ज्यादा गहरी बात है—हृदय की है। और हृदय तभी देख पाता है जब झुकता है। फिर उठने की खबर किसको रह जाती है!

नहीं, कुछ भूल हो गई है। तुम अपने रोने को नहीं समझ पा रहे हो। तुमने व्यर्थ का एक बौद्धिक उलझाव और समस्या खड़ी कर ली है। तुम्हारी व्याख्या में कहीं भूल हो गई हैं, अन्यथा तुम खुS होते, अन्यथा तुम्हारा रोना आनंद का रोना हो जाता। फिर से देखना। यह घटना बहुत बार घटेगी, इसलिए समझ लेना जरूरी है। बहुत बार ऐसा होता है, जब हृदय से कुछ घटता है तो भी बुद्धि पीछे से आकर व्याख्या करती है। हृदय तो व्याख्या करता नहीं, अव्याख्य है, घटता है कुछ, भोगता है, लेकिन काट- पीटकर विश्लेषण नहीं करता। हृदय के पास विश्लेषण है ही नहीं। हृदय तो जोड़ना जानता है, तोड़ना नहीं। हृदय तो अनुभव कर लेता है, लेकिन फिर अनुभव के पीछे खड़े होकर उसका बौद्धिक विश्लेषण नहीं करना जानता। तो जैसे ही अनुभठ हो गया, बुद्धि झपट्टा मारती है, जैसे कहीं लाS पड़ी हो तो चीले झपट्टा मारती हैं, गिद्ध झपट्टा मारते हैं, हृदय ने जो अनुभव किया, जैसे ही अनुभव हो गया, अतीत में चला गया, अनुभव मर चुका, वैसे ही बुद्धि झपट्टा मारती है, बुद्धि की चील झपट्टा मारती है, पकड़कर मुर्दा चील की चीर- फाड़ करती हैं—पोस्टमार्टम! उसमें हिसाब लगाती है, क्या हुआ! और सब गड़बड़ हो जाता है। क्योंकि बुद्धि को तो अनुभव हुआ न था, जिसको अनुभव हुआ था उसने व्याख्या न की और जिसको अनुभव नहीं हुआ वह व्याख्या करता है।

पूछा है : ‘’ कल संध्या दर्शन के समय दो विकल्प थे। मैंने चरण- स्पर्श करने का निर्णय इसलिए लिया कि बहुत समय बाद क्षणभर को अपने प्रीतम को निकट से देखूंगा, लेकिन वह क्षण आया तो ऊपर की ओर देखा ही न गया’’ ।

जरूरत ही न थी। भीतर देखने की जरूरत है। प्रीतम बाहर नहीं है। आंख खोलने की कम, आंख बंद करने की जरूरत है। प्रीतम बाहर नहीं है। जिस दिन तुम मुझे अपने भीतर देखोगे, उसी दिन मुझे देखा, उसके पहले तो देखने की तैयारी है, उसके पहले तो देखने की बारहखड़ी है।

फिर पीछे सोचा होगा।

“और अब रोता हूं, रोता हूं’’। अब बुद्धि ने कहा होगा,’’ यह तुमने क्या किया? ‘’बुद्धि पीछे से आ जाती है परेशान करने को। अगर तुम हृदय से इस बात को समझो, तो जिस क्षण झुके, उस क्षण कुछ ऐसा हुआ बेखुदी कहां ले गई हमको देर से इंतजार है अपना!

झुके जब तुम, खो गए एक क्षण को, एक क्षण को तुम न रहे—उस झुकने में विसर्जित हो गए। इसलिए लौटकर देखने का खयाल न आ सका। कोई था ही नहीं जो देखता। एक क्षण को सब शहमत हो गया, कोई लहर न उठी। एक अनूठा क्षण आया! एक झरोखा खुला! लेकिन झरोखा तभी खुलता है जब तुम नहीं होते। फिर पीछे से तुम लौट आए। तब तक झरोखा बंद हो गया। अब तुम पछताते हो। अब तुम रोते हो। दुबारा ऐसी भूल मत करना।

बुद्धि को हृदय का विश्लेषण करने की आज्ञा मत दो। बुद्धि को विश्लेषण अटकाते हैं, भटकाते हैं, जो जैसा है उसे वैसा ही नहीं देखने देते। बुद्धि की धारणाएं आकर बड़ा धुआ खड़ा कर देती हैं। स्मरण रखो–

जो राह अहले- खिरद के लिए है ला-महदूद

जुनुने- इश्क को वह चंदगाम होती है। बुद्धि के लिए जो रास्ता बहुत ही लंबा है, प्रेम के लिए दो- चार कदम का भी नहीं।

जो राह अहले- खिरद के लिए है ला- महदूद—जिसका अंत ही नहीं आता, बुद्धि के लिए जो चलता ही जाता है रास्ता… जुनूने- इश्क को वह चंदगाम होती है—लेकिन जो प्रेम में मतवाला है, प्रेम में पागल है, उसके लिए कुछ कदम ही काफी हैं। अगर प्रेम का मतवालापन पूरा- पूरा हो, उसकी त्वरा पूरी हो, तो एक ही कदम काफी है। एक कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। लेकिन वह कदम हृदय सक उठना चाहिए, बुद्धि और विचार से नहीं। अब दुबारा जब झुको तो बुद्धि को मौका मत देना व्यर्थ बीच में आकर उपद्रव करने का। जब झुको तो हृदयपूर्वक उस क्षण को अनुभव करने की कोशिश करना : ‘’ क्या हुआ!’’ हृदय से ही! सोच- विचार की कोई जरूरत नहीं है—सिर्फ जागने की, जागरूकता की, होश की जरूरत है। थोड़ा जागकर उस क्षण में देखना, तुम अपने को न पाओगे। और जहां तुमने अपने को न पाया, वहीं द्वार खुला है, क्योंकि तुम ही दरवाजा, तुम ही दीवाल हो। तुम अगर हो तो दीवाल, तुम अगर नहीं हो तो दरवाजा।

अब उठा ही चाहता है होश के रुख से नकाब

भर चुकी है अक्ल का बहुरूप नादानी बहुत। अब बहुत हो चुका। और नासमझी ने बुद्धिमानी के बहुत रूप रख लिए और बहुत दिन धोखा दिया। भर चुकी है अक्ल का बहुरूप नादानी बहुत—जिसको तुम बुद्धिमानी कहते हो वह सिर्फ नादानी है। नादानी ने बुद्धिमानी के बहुत रूप रखे हैं, बहुत- बहुत तरह से तुम्हें बुद्धिमान बनने का धोखा दिया है। छोड़ो अब उसे।

अब उठा ही चाहता है होश के रुख से नकाब–घड़ी पास आती है, जब अगर तुम थोड़े सम्हले, झुके और उठे न, झुके और सोचा न, बाहर देखने की चिंता न की, क्योंकि प्रीतम भीतर है, झुके तो झुके रह गए, तो गए, लौटे न, बुद्धि को मौका न दिया, हृदय के ही पूरे हो रहे—तो ज्यादा दूर नहीं है। अब उठा ही चाहता है होश के रुख से नकाब—तो तुम्हारे भीतर जो होश दबा पड़ा है उसका घूंघट उठ जाएगा। और बुद्धिमानी के नाम पर नादानी बहुत धोखा दे चुकी, अब जाग जाने का समय है!

 

 

पांचवां प्रश्‍न :

 

 

आपको रोज-रोज सुनते हैं, रोज-रोज देखते हैं, फिर भी जी क्यों नहीं भरता? और कहीं बाहर भी चले जाते हैं तो भी जी यही लगा रहता है। कृपा कर समझाइये!

 

जी की बातें समझायी नहीं जाती। और समझना हो तो अपने जी से ही पूछना चाहिए। बात समझने-समझाने की नहीं है।

समझ तो तुम गए हो, लेकिन जो मैंने अभी-अभी कहा कि बुद्धि लौट-लौटकर हृदय पर कब्जा करती है, बुद्धि हृदय को मुक्त भाव से जीने नहीं देती, बुद्धि हृदय को सहज भाव से प्रवाहित नहीं होने देती–वह लौट-लौटकर आ जाती है। अब अगर तुम्हारा मन लग गया है, अगर तुम्हारे हृदय के तार मेरे हृदय के तारों से कहीं जुड गए हैं तो बात सीधी-साफ है, समझना- समझाना कया! जाहिर है कि प्रेम में पड़ गए हो, पागल हो गए हो! नहीं तो कोई रोज- रोज सुनने आता है ,

मकतबे-इश्क का दुनिया में है निराला उसूल

उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ। साधारण दुनिया में और पाठशालाएं हैं, वहां जिसको सबक यादा हो जाता है उसको छुट्टी मिल जाती है, बात खत्म हुई! लेकिन प्रेम की पाठशाला का बड़ा उलटा ढंग है।

मकतबे-इश्क का दुनिया में है निराला उसूल

उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ।

तुम्हें सबक याद हो गेया है। अब जी कहीं लगेगा न। और यह सबक ऐसा है कुछ कि सीख गए तो सीख गए, फिर भूलने का उपाय नहीं। इसलिए तो लोग सीखने में बड़ी आनाकानी करते हैं। सीखते ही नहीं। ठीक ही कहते हैं एक हिसाब से; सीख गए तो फिर भूल नहीं सकते। तो जितनी देर करनी हो, सीखने के पहले ही कर लेना। अंगुली तुमने मेरे हाथ में दी तो पहुंचा बहुत दूर नहीं है।

 

 

अंतिम दो प्रश्‍न :

 

भक्ति-सूत्र के रचनाकार नारद बहुआयामी व्यक्तित्व के मालूम पड़ते हैं। झगड़ा लगाने में उन्हें विशेष रस मिलता है। वृद्धावस्था में भी कामिनी-कांचन के प्रति उनका मोह कायम रहता है। ढाई घड़ी से अधिक एक जगह टिकते नहीं। कृपापूर्वक इस रहस्य-भरे व्यक्तित्व पर थोड़ा प्रकाश डालें।

 

रहस्य कुछ भी नहीं, सीधी-सीधी बातें हैं। लेकिन हम इतने उलटे हो गए हैं। रहस्य हम में है, नारद में नहीं। ऐसा कुछ है कि सारी दुनिया शीर्षासन कर रही है और एक आदती सीधा खड़ा है, तो उलटा मालूम होता है।

सीधे-से सूत्र हैं। झगड़ा लगाने में उन्हें विशेष रस लगता है। झगड़ा मिटाने का एक ही उपाय है: उसे पूरा-पूरा लगा देना, अन्यथा झगड़ा मिटता ही नहीं। जो चीज पूरी हो जाती है, मिट जाती है। इतनी-सी सार की बात है नारद के सारे झगड़े में। बड़ा सूत्रात्मक है।

जिस चीज को भी तुमने दबाया उसी में उलझ जाओगे। झगड़े को पूरा हो ही लेने देना। अगर तुम्हारे भीतर बुद्धि में और हृदय में झगड़ा है तो उसे पूरा हो लेने दो; उसे पहुंच जाने दो अंतिम सीमा तक; उसे उठने दो; उसको सौ डिग्री तक बढ़ने दो। इससे बीच में अगर जल्दी की और कच्चे-कच्चे तुमने उसको रोक लिया, तो उलझे रह जाओगे, खंडित रहा जओगे। अगर तुम्हारी प्रार्थना और कामना में झगड़ा है तो झगड़े को दबाना मत, उभारना। अगर तुम्हारे क्रोध में और प्रेम में झगड़ा है तो उसको उभारना, दबाना मत। उभारने का अर्थ है: रेचन, केथारसिस। उसे पूरा का पूरा ले आना।

बाकी कथाएं तो प्रतीक हैं। जहां कहीं झगड़ा हो, नारद संलग्न हो जाते हैं। झगड़े का पूरा उभार ले आना, उसको पूरा रूप दे देना–उसकी मृत्यु है। कुछ चीजें हैं जो पूरी होकर मर जाती हैं और बिना पूरे हुए कभी नहीं मरतीं। जैसे सूखे पते वृक्ष से अपने-आप गिर जाते हैं, पके फल वृक्ष से अपने-आप टपक जाते हैं; कच्चे फलों को तोड़ना पड़ता है।

नारद का झगड़ा और झगड़े में रस फलों को पकाने की प्रक्रिया है। इसके पीछे बड़ी सा र्थक बातें जुड़ी हैं। लेकिन नारद की इस तरह से क भी कोई व्याख्या नहीं हुई, इसलिए कठिनाई हो गई। और नारद जैसा अनूठा व्यक्तित्व हंसी-मजाक का कारण हो गया।

“वृद्धावस्था में भी कामिनी-कांचन के प्रति उनका मोह कायम रहता है।’’ इसका कुल अर्थ इतना है कि वृद्धावस्था में भी उनकी युवावस्था नहीं खोती। बुढापा भी उन्हें बूढा नहीं कर पाता—इतना-सा मतलब है। मौत उन्हें मार न पाएगी। जिसको बुढापे ने बूढा कर दिया उसको मौत मार डालेगी। ये तो प्रतीक हैं। इतनी सी खबर है इस बात में कि नारद ताजे बने रहते हैं, युवा बने रहते हैं—अंतिम क्षणों तक!

नारद बूढे नहीं होते, चादर जवान रहती है, ताजी रहती है, ज्यों की त्यों रहती है, एक रेखा नहीं पड़ती। लेकिन’’ कामिनी-कंचन’’ शब्‍द आते से ही घबड़ाहट हो जाती है। फिर हम भूल जाते हैं प्रतीक की भाषा को। यही कबीर ने कहा है, लेकिन उनकी बात को किसी ने उलटा नहीं समझा क्योंकि भाषा उन्होंने तुम्हारी समझ में आ सके, ऐसी उपयोग की है। कबीर ने कहा है : ‘’ ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया! खूब जतन से ओढी चदरिया, ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया’’। यह भी वही बात है, प्रतीक अलग है।

नारद बूढे नहीं होते, चादर जवान रहती है, ताजी रहती है, ज्यों की त्यों रहती है, एक रेखा नहीं पड़ती। लेकिन’’ कामिनी- कंचन’’ साधुओं ने दोनों शब्‍दों को बड़ा खराब कर दिया है, गालियां हैं। किसी को यह कह दिया कि कामिनी- कंचन में रस है, बस नरक का द्वार उसके लिए खोल दिया।

भक्त के लिए कामिनी और कंचन में भी परमात्मा ही है। भक्त की भाषा दमन की नहीं है, ऊर्ध्व-आरोहण की है। भक्त यह कहता है, जहां भी सौंदर्य है उसी का है : कहीं कामिनी में प्रगट है, कहीं फूल प्रगट है, कहीं चादतारों में प्रगट है! रूप उसने कुछ भी रखे हों, रूपायित वही हुआ है। मिट्टी भी उसी की है, सोना भी उसी का है। मिट्टी की भी अपनी सुगंध है, सोने का अपना सौंदर्य है। भक्त न तो मिट्टी के पक्ष में है, न सोने के विपरीत है। भक्त वि भाजन नहीं करता। भक्त ने अविभाज्य रूप से परमात्मा को अंगीकर किया है, बाहर भी विभाजन नहीं करता, अपने भीतर भी विभाजन नहीं करता, भीतर भी अपने को स्वीकार करता है—जैसा उसने बनाया है, वैसा ही स्वीकार करता है। भक्त के मन में त्याज्य कुछ भी नहीं है, भोग भी नहीं है, क्योंकि भोग भी’’ उसका’’ ही प्रसाद है।

भक्त को समझना बड़ा कठिन है। योगीतपस्वियो को हम समझते हैं, क्योंकि वेहम से विपरीत हैं, समझना आसान है। हम धन के पीछे दौड़ रहे हैं, वे धन छोड्कर भाग रहे हैं—दोनों भाग रहे हैं, दोनों धन से जुडे हैं : एक धन के लिए भाग रहा है, एक धन से दूर भाग रहा है। भाषा में कठिनाई नहीं है। हमारी पीठ एक- दूसरे की तरफ होगी, लेकिन बंधे हम एक ही चीज से हैं—धन! हम स्त्री के पीछे दिवाने हैं, वह स्त्री से बचने के पीछे दीवाना है—बाकी दोनों की नजर स्त्री पर लगी है। दोनों स्त्री से गुथे हैं।

भक्त भाग ही नहीं रहा। नारद तो अपना एकतारा बजा रहे हैं; वे भागते-करते नहीं। उन्हें सब स्वीकार है। उन्होंने दोनों लोक को स्वीकार किया है। यही उनकी कथाओं का अर्थ है कि वे पृथ्वी से वैकुंठ दिन-रात यात्रा कर रहे हैं। उनका आवागमन अनवरुद्ध है, उन्हें कहीं कोई रोकने वाला नहीं है। इस लोक से उस लोक जाने में कोई सीमा नहीं। मतलब इतना है। इस लोक और उस लोक के बीच में कोई सेतु नहीं बनाना पड़ रहा है उन्हें; दोनों जुड़े हैं, अखंड हैं। कहना ही मुश्किल है कि कहां यह लोक समाप्त होता है और कहां वह लोक श्दुरू हाता है। कहीं कोई चुंगी-नाका नहीं है। निर्बाध नारद यहां से वहां एक ही संगीत की लय पर, एक ही एकतारे को बजाते हुए वैकुठ को पृथ्वी से जोड़ते रहे हैं। उनका एकतारा दो लोकों को एक कर रहा है। उनकी यात्रा अनूठी है।

नारद के व्यक्तित्व को फिर से पूरा का पूरा समझने की जरूरत है। क्योंकि नारद का व्यक्तित्व अगर ठीक से समझा जा सके तो दुनिया में एक नए धर्म का आविर्भाव हो सकता है–एक ऐसे धर्म का जो संसार और परमात्मा को शत्रु न समझे, मित्र समझे; एक ऐसे धर्म का जो जीवन-विरोधी न हो, जीवन-निषेधक न हो, जो जीवन को अहोभाव, आनंद से स्वीकार कर सके; एक ऐसे धर्म का जिसका मंदिर जीवन के विपरीत न हो, जीवन की गहनता में हो!

“ढाई घड़ी से अधिक एक जगह नहीं टिकते’’ !

क्या टिकता है? ढाई घड़ी बहुत बड़ा समय है। कुछ भी टिकता नहीं है। डबरे टिकते हैं, नदियां तो बही चली जाती हैं। नारद धारा की तरह हैं! बहाव है उनमें! प्रवाह है! प्रक्रिया है! गति है! गत्यात्मकता है! डबरे तो सड़ते हैं। एक ही जगह पड़े रहते हैं माना, मगर सिवाय कीचड़-कबाड़ के कुछ पैदा नहीं होता। स्वच्छता के लिए प्रवाह चाहिए।

लेकिन तुम सभी डरे हुए हो प्रवाह से। तुम सभी डरे हुए हो परिवर्तन से, क्योंकि परिर्वतन के पीछे मौत छिपी मालूम होती है। अगर परिर्वतन होगा तो मौत आएगी। तुम सब यह चाहोगे कि अगर कोई चमत्कार कर सके और तुम जैसे हो जहां हो, वहीं डबरे की तरह ठहर जाओ, गतइrयों की भांति, पत्थर! एक चमत्कार ईश्वर करे और अब अपनी-अपनी जगह जैसे हैं, वैसे ठहर जाएं, तो तुम बड़े खुश होओगे हालांकि मर जाओगे, मगर तुम बड़े प्रसन्न होओगे कि चलो, अब मौत नहीं आएगी। मगर मौत आ ही गई!

जरा जीवन को देखो चारों तरफ: कितनी गति है! कहीं कुछ ठहरा हुआ है? सिवाय तुम्हारे भय की, मन की आकांक्षाओं के, ठहरने का कहीं कोई स्थान है? सब बदल रहा है। सब रूपांतरित हो रहा है। लहरें आती हैं, जाती हैं सागर की! सृष्टि और प्रलय! दिन और रात! सब बदल रहा है!

ढाई घड़ी! तुम ज्यादा न डर जाओ, इसलिए ढाई घड़ी कहा होगा कथाओं में। ढाई पल भी कहां कोई चीज ठहरी है। त्वरित जीवन रूपांतरित हो रहा है। जीवन का अर्थ ही रूपांतरण है। जो ठहर जाए वह मौत। जो बढ़ता चले वही जीवन।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा : ठहरना मत। समझे नहीं वे। वे समझे कि बुद्ध यह कह रहे हैं कि एक गांव में ज्यादा देर मत ठहरना। बुद्ध ने कहा : ‘’चरैवेति! चरैवेति! चलते जाना! चलते जाना! उन्होंने समझा कि ठीक है, परिव्राजक बना रहे हैं बुद्ध। तो एक गांव में तीन दिन से ज्यादा नहीं ठहरते, दूसरे गांव में चले जाते हैं। बुद्ध ने कुछ और ही कहा था। बुद्ध ने कहा था : ठहरना जीवन के विपरीत है। ठहरने की आकांक्षा ही आत्महत्या है। बढ़ते ही जाना! यहां कुछ ऐसा नहीं है कि मंजिल है कोई, जहां पहुंचकर ठहरे सो ठहरे, तो तुम जड़ हो जाओगे। यहां यात्रा ही मंजिल है। चलते जाना! यही अर्थ है नारद का।

 

और अंतिम सवाल : पुराण में कथा है कि बालक ध्रुव नारद के भक्त थे, नारद नारायण के भक्त थे। बालक पुरव की भक्ति से मात्र छह महीने में ही नारायण प्रसन्न हो गए और उपलब्ध हो गए। और इसकी स्मृति में आकाश से एक तारा उगा—ध्रुव तारा। इससे अन्य ऋषि-मुनि ध्रुव के प्रति ईष्या से और नारायण के प्रति शिकायत से भर गए, क्योंकि वे सब कठोर तपश्वर्या करके भी कुछ न पा सके थे। जब वे ऋषि-मुनि इकट्ठे होकर विचार करते थे, तब एक मछुआ आया और उसने उन सबको नदी की सैर का निमंत्रण दिया। वे सब गए और उन्होंने जगह-जगह सफेद चिह्म देखे। ऋषि-मुनियों के पूछने पर मछुए ने कहा, इन सभी स्थलों पर ध्रुव ने पिछले जन्मों में तपश्वर्या की थी।

 

कृपा करके इस पुराण की कथा का हमें सार कहिए!

कथाएं इतिहास नहीं हैं। कथाएं पुराण हैं। इतिहास और पुराण का भेद समझ लेना चाहिए। इतिहास तो वह है जो कभी घटा, हुआ। पुराण वह है जो सदा होता है। इतिहास समय में घटता है, पुराण शाश्वत है। तो पुराण को सिद्ध करने की कोशिश मत करना कि वह हुआ कि नहीं, वह तो भूल ही हो गई फिर। फिर तो तुम कविता को समझे ही नहीं, काव्य को पहचाने ही नहीं। फिर तो तुम गलत रास्ते पर चल पड़े। ऐसा चल रहा है पूरे मुल्क में, हजारों साल से चल रहा है, अभी भी चलता है।

अभी कुछ दिन पहले लुधियाना में पुरि के शंकराचार्य ने चुनौती दी कि कोई भी अगर सिद्ध कर दे कि रामायण झूठ है तो मैं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हूं। कुछ हैं तो सिद्ध करना चाहते हैं कि रामायण झूठ है। कुछ हैं जो सिद्ध करना चाहते हैं कि रामायण सच है। और दोनों एक ही नाव में सवार हैं।

न रामायण झूठ है, न रामायण सच है–रामायण पुराण है। रामायण का समय से कोई संबंध नहीं, इतिहास से कोई संबंध नहीं। ऐसा कभी हुआ है, ऐसा सवाल ही नहीं है। ऐसा नहीं हुआ है, यह तो सवाल उठता ही नहीं है। ऐसा होता रहा है। ऐसा आज भी हो रहा है, अभी भी घट रहा है।

पुराण का अर्थ है : जीवन का सार-निचोड़ थोड़ी-सी कहानियों में रख दिया है। कहानियों पर जिद्द मत करना, सार-निचोड़ को पकड़ना।

‘’बालक धुइव नारद के भक्त थे, नारद नारायण के भक्त थे’’ । इसका अर्थ हुआ कि भगवान तक सीधे पहुंचना कठिन होगा, सदगुरु चाहिए। इसका अर्थ हुआ कि भगवन से सीधा- सीधा मिलना कठिन होगा, मध्यस्थ चाहिए। इसका अर्थ हुआ कि कोई बीच में चाहिए जो तुम जैसा भी हो और भगवान जैसा भी हो, तो सेतु बन सकेगा। कोई ऐसा चाहिए जिसका एक हाथ तुम्हें पकड़े हो और एक हाथ जिसका परमात्मा पकड़े हो। एक हा थ तुम्हारे जैसा और एक हाथ परमात्मा जैसा! जो परमात्मा और मनुष्य के बीच में कहीं हो—संक्रमण हो, द्वार हो। परमात्मा बहुत बड़ा है। आदमी बहुत छोटा है। दोनों में तालमेल कैसे बैठे? कोई चाहिए जो परमात्मा जैसा बड़ा हो, आदमी जैसा छोटा भी हो।

गुरु इस दुनिया में सबसे बड़ा विरोधाभास है, सबसे बड़ा पैराडाक्स। अगर तुम गुरु को एक तरफ से देखो, अपनी तरफ से, तो तुम्हारे जैसा है। अगर तुम दूसरी तरफ से देखो तो परमात्मा जैसा है। इसलिए तो कोई भी अपने गुरु के लिए तर्क नहीं कर सकता, न प्रमाण जुटा सकता है। क्योंकि तुम्हारे तर्क और प्रमाण कुछ भी सिद्ध न कर सकेंगे उसके लिए, जिसको दूसरी तरफ से देखने की क्षमता न हो। वह कहेगा, हमारे जैसा ही तुम्हारा गुरु है, जैसी हमें भूख लगती है उसे लगती है, धूप आए तो हमें पसीना आता है, उसे आता है।

इन बातों से बचेन के लिए फिर कपोल- कल्पनाएं शुरू होती हैं। जैन कहते हैं, महावीर को पसीना नहीं आता। पागल हैं। बिलकुल पागलपन की बात है। जैन कहते हैं, महावीर को चोट करो तो खून नहीं निकलता, दूध निकलता है।

ये क्यों कहानियां गढ़ी गई हैं? ये भक्त यह कह रहे हैं कि हमारा भगवान आदमियों जैसा नहीं है। मगर तुम्हें यह सिद्ध करना पड़ रहा है कि पसीना नहीं आता, उससे साफ है कि पसीना आता होगा। तो काहे के लिए चिंता करते? दूसरे सिद्ध करते हैं कि पसीना आता है, खून ही निकलता है, दूध कहीं निकला है!

भक्तों ने अपने गुरुओं को अलौकिक सिद्ध करने की बड़ी चेष्टाएं की हैं। उनकी चेष्टा को समझो सहानुभूतइ से तो सार्थक मालूम होती है। उनकी चेष्टा ही यही है, वे यह कह रहे हैं कि तुम हमारे गुरु को साधारण मनुष्य मत समझो। ठीक ही कह रहे हैं, लेकिन जिस भाषा में कह रहे हैं वह बिलकुल गलत है। और उनकी भाषा के कारण दूसरों के सामने महावीर का, या उनके गुरु का परमात्म- रूप तो प्रगट नहीं होता, उनका ऐतिहासिक रूप तक संदिग्ध हो जाता है।

गुरु बड़ी भारी विरोधाभासी अवस्था है, अगर बुद्धि से देखा तो आदमी जैसा, अगर हृदय से देखा तो परमात्मा जैसा। इसलिए श्रद्धा की आंख हो जो गुरु परमात्मा से जोड़ने का कारण हो जाता है।

“पुराण की क था है, बालक पुरव नारद के भक्त थे, और नारद नारायण के’’ । सेतु बन गया। राह खुल गई। अव की भक्ति से मात्र छह महीने में नारायण प्रसन्न हो गए। छह महीने भी लगे, यह आश्वर्य की बात है। जरूर सरकारी कामकाज, दपतर…! छह महीने!

अब जैसा सरल हृदय प्रार्थना करे और छह महीने लगें! पुराण ने मजाक की है! सरकारी काम-काज, रेड टेप! फाइलें सरकने में वक्त लग जाता है। तुम चकित होते हो कि छह महीने, इतने जल्दी हो गया; मैं चकित हो रहा हूं कि छह महीने लगे, इतनी देर लगी! बाल-हृदय से प्रार्थना उठे, तत्क्षण पूरी हो जाती है। इतने निर्दोष हृदय से उठी प्रार्थना में कमी क्या हो सकती है कि छह महीने लगें? हां, पुराण लिखनेवालों को शायद छह महीने बाद पता चला होगा। लेकिन प्रार्थना हो, निर्दोष हो, तो क्षण का भी फासला नहीं है, प्रार्थना तत्क्षण पूरी हो जाती है। यही तो प्रार्थना का चमत्कार है। उसमें देर लग जाए, यह संभव नहीं; क्योंकि प्रार्थना समय के बाहर है, समयतीत है।

आकाश में ध्रुव तारा तो अभी भी है; ध्रुव की कथा बनी, उसके पहले भी था। लेकिन ध्रुव की घटना इतनी महत्वपूर्ण है और उसकी स्थिर भक्ति इतनी स्थिर थी, उसकी प्रज्ञा ऐसी थिर थी कि सारे अस्तित्व में पुरव से ज्यादा, ध्रुव तारे से ज्यादा थिरता का और कोई प्रतीक नहीं मिला। वह अकेला तारा है जो ठहरा हुआ है, अपनी जगह पर, कोई उसे हिलाता नहीं, अकंप। इसलिए पुरव तारे से पूरव का नाम जुड़ गया।’’ इससे अन्य ऋषि-मुनि ध्रुव के प्रतिईष्या और नारायण के प्रति शिकायत से भर गए”। …ऋषि-मुनि न रहे होंगे। क्योंकि जहां तकr ईष्या है वहां तक कैसा ऋषि, कैसा मुनि! मगर इसी तरह से ऋषि-मुनियों से हम परिचित हैं: ईर्ष्या है, दौड़ है, महत्वकांक्षा है, जलन है, शिकायत है! और उनकी शिकायत तर्कयुक्त भी मालूम होती है; वर्षों से तपश्वर्या कर रहे थे, उनको तो न मिला और छोटे बालक को मिल गया, जिसका कुछ अर्जन नहीं!

इसे ध्यान रखो: सांसारिक मन कहता है, भगवान को भी अर्जित करना होगा; जैसे वह भी कोई संपदा है, बैंक-बैलेंस हैं। भगवान मिला ही हुआ है, सिर्फ स्मरण करना है, अर्जन नहीं। सरल हृदय उसका स्मरण करता है, प्रत्यभिज्ञा हो जाती है। गणितवाला हृदय, गणितवाली बुद्धि अर्जन करती है–कमाओ। उपवास करो, व्रत करो, त्याग करो, यह करो, वह करो–कमाओ। दावेदार बनो! स्वभावत: जब तुम कमाते हो तो भीतर से यह भी उठता है, बड़ी देर लग रही है, इतना कमा लिया–अभी तक नहीं, अभी तक नहीं! और अगर एएसे कमानेवालो लोगों के बीच में किसी को अचानक मिल जाए जिसने कुछ भी न किया; छोटा बच्चा, जिसके पास समय ही न था करने को कुछ–तो स्वभावत: ईष्या जगेगी कि यह तो फिर अन्याय हो गया। यह तो इनका बस चले तो ये ऋषि-मुनि परमात्मा को अदालत में ले जाएं कि’’ यह अन्याय हो रहा है। कहावत तो सुनी थी कि देर है अंधेर नहीं; लेकिन अब तो अंधेर भी हो रहा है। देर तो हो ही गई है कि जिंदगीभर तपश्वर्या की, व्रत- उपवास किए, सब फेहरिश्त तैयार रख हैं…।’’ फाइलें ऋषि-मुनियों की तैयार हैं, उन्होंने क्या-क्या किया है, उसमें खूब बढ़ा-चढ़ाकर लिखा हुआ है। और इस दो दिन के बालक को, जिसने कुछ भी न किया था; जो अभी ठीक से तुतलाता भी नहीं, यह क्या तो प्रार्थना करेगा, कहां से संस्कृत का शद्ध उच्चार लाएगा, वेद-मंत्र कहां जानता है–इसको मिल गया! बुद्धि का चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि बुद्धि गणित है।’’

यही समझ लेना चाहिए, प्रार्थना को न तो भाषा की जरूरत है, न शास्‍त्र की जरूरत है, सिर्फ प्रेम की जरूरत है। छोटे बालक जैसा प्रेम पर्याप्त है, उससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। तुम अगर फिर से अपने छोटे बालक जैसे प्रेम को पुन : पा लो तो सब S मन्त्र दो कौड़ी के हैं। तो कोई व्रत- उपवास जरूरी नहीं है। उतनी सरल हृदय से तुम्हारी प्रार्थना उठ आए, पूरी हो जाएगी।

लेकिन ऋषि- मुनि एक तरफ ईष्या से भरे हैं, एक तरफ शिकायत से भी भरे हैं! अन्याय हो गया था!

ध्यान रखना, धर्म के मार्ग पर अर्जन की भाषा छोड़ो, अन्यथा तुम संसार को ही खींचे लिए जा रहे हो। छोड़ो ये बातें। परमात्मा, तुम क्या करते हो, इससे नहीं मिलता, तुम क्या हो, इससे मिलता है। तुम्हारा होना शुद्ध हो, तुम्हारा होना निष्कलुष हो, तुम्हारा होना कुंआरा हो, छोटे बच्चे जैसा हो!

जीसस न कहा है : जो छोटे बच्चों की तरफ होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे।’’ ऋषि- मुनि इकट्ठे हो गए, विचार करने लगे। एक मछुए ने उनको अपनी नाव में बिठा लिया। वहां जगह- जगह सफेद चिह्म दिखाई पड़े। पूछने पर मछुए ने कहा, ये वे स्थान हैं, जहां ध्रुव ने पिछले जन्मों में तपश्वर्या की थी।’’ इससे ऋषि- मुनि राजी हो गए होंगे। यह बात फिर उनकी समझ में आ गई होगी, फिर गणित में बैठ गई। यह तो बहुत कठिन होता अगर मछुआ कहता कि बस पुरव ने मांगा और भगवान मिल गए, कोई तपश्वर्या पीछे नहीं है, कोई यात्रा पीछे नहीं है। कहानी सरल हो गई। ऋषि- मुनियों की शिकायत कम हो गई होगी। मेरे देखे कर्म का सिद्धांत तुम्हारे सांसारिक गणित का फैलाव है। तुम कहते हो, फलां आदमी आनद भोग रहा है, पिछले जन्मों में पुण्य किए होंगे, क्योंकि यह तो तुम बरदास्त कर ही नहीं सकते कि इसी जन्म में और आनंद भोग रहा हो! दूसरा आदमी मजे कर रहा है, सफलता पा रहा है, तुम कहते हो,’’ ठहरो! वक्त आएगा जब भोगोगे! अगले जन्म में देखना, सडोगे, नरक में पड़ोगे! यह चार दिन की चांदनी है, फिर अंधेरी रात!’’ ऐसे तुम अपनेमन को समझा लेते हो।

कर्म का सिद्धांत साधारणत : तुम्हारे मानसिक गणित का ही फैलाव है। उससे तुम हल कर लेते हो, मामला साफ हो जाता है, झंझट खत्म हो गई। फिर तुम्हें अड़चन नहीं होती। अगर मैं कहूं कि बस, बिना कुछ किए परमात्मा मिल गया, तुम कहोगे,’’ यह बात जरा संदिग्ध है, हम इतना कर रहे हैं और न मिला!’’ अगर मैं कहूं, जन्मों- जन्मों में मेहनत की, तब तुम कहोगे,’’ ठीक है, दया आती है, मिलना ही चाहिए।’’ गणित में बात बैठ गई। मछुए की बात सुनकर ऋषि- मुनि सहमत हो गए होंगे। मछुआ बड़ा होशियार रहा होगा। मछलियां पकड़ते- पकड़ते आदमियों को पकड़ना जान गया होगा। पुरव से उनकी नाराजगी चली गई होगी, परमात्मा से शिकायत भी चली गई—बात सब गणित में आ गई!

और मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम गणित में नहीं आता। और मैं तुमसे कहता हूं, प्रार्थना गणित में नहीं आती। और मैं तुमसे पुन: पुन: कहता हूं: तुम क्या करते हो, इससे परमात्मा के मिलने का कोई भी संबंध नहीं–तुम क्या हो, तुम्हारा होना ही एकमात्र पाने का उपाय है।

 

 

आज इतना ही।

ओशो

 

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–09)

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राम रेगीले के रंग राती—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 20 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम पूना

सूत्र:

गुरु गरवा दादू मिल्या, दीरघ दिल दरिया।

तत छन परसन होत हीं भजन भाव भरिया।।

श्रवण कथा साँची सुणी, संगति सतगुरु की।

दूजा दिल आवै नहिं, जब धारी धुर की।।

भरमजाल भव काटिया, संका सब तोड़ी।

साँचा सगा जे राम का, ल्यौ तासूँ जोड़ी।।

भौजल माहीं काढ़िकै, जिन जीव जिलाया।

सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।

जनम सफल तब का भया, चरपौ चित लाया।

रज्जब राम दया करी, दादू गुर पाया।।

 

राम रंगीले के रंग राती।

परम पुरुष संगि प्राण हमारों, मगन गलित मद-माती।।

लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँ, गिनत न सीली ताती।

डगमग नहीं अडिग होई बैठी, सिर धरि करवत काती।।

सब विधि सुख राम ज्यूँ राखै, यहु रसरीति सुहाती।

जन रज्जब धन ध्यान तिहारो, बेरबेर बलि जाती।।

 

वानी, हुस्न, गमजे, अहद, पैमां कहकहे, नग्मे

रसीले ओंठ, शर्मीली निगाहें, मरमरी बाहें

यहाँ हर चीज बिकती है,

खरीदारो!

बताओ क्या खरीदोगे?

 

भरे बाजू, गठीले जिस्म, चौड़े आहनी सीने

बिलकते पेट, रोती गैरतें, सहमी हुई आहें

यहाँ हर चीज बिकती है,

खरीदारो!

बताओ क्या खरीदोगे?

 

जबानें, दिल, इरादे, फैसले, जांबाजियाँ, नारे

यह आए दिन के हंगामे, यह रंगारंग तकरीरें

यहाँ हर चीज बिकती है,

खरीदारो!

बताओ क्या खरीदोगे?

 

सदाकत, शायरी, तन्कीद, इल्पो-फन कुतुबखाने

कलम के, मोंजिजे, फिक्रो-नजर की शोख तस्वीरें

यहाँ हर चीज बिकती है,

खरीदारो!

बताओ क्या खरीदोगे?

 

अजानें, शंख, हजरे, पाठशाले, डाढ़ियाँ, कश्के,

यह लंबी-लंबी तस्वीहें, यह मोटी-मोटी मालाएँ

यहाँ हर चीज बिकती है,

खरीदारो!

बताओ क्या खरीदोगे?

 

अलल-एलान होते हैं, यहाँ सौदे जमीरों के

यह वह बाजार है जिसमें फरिश्ते आके बिक जाएँ

यहाँ हर चीज बिकती है,

खरीदारो!

बताओ क्या खरीदोगे?

 

संसार एक बाजार है। यहाँ हर चीज बिकती है; खरीदारो! बताओ क्या खरीदोगे?–सिवाय परमात्मा के। परमात्मा-भर बाजार में नहीं है। उसका-भर सौदा नहीं हो सकता। उसे भर खरीदने का कोई उपाय नहीं है। और सब कुछ मिल जाएगा। लेकिन और जो भी मिलेगा, जैसा मिला वैसा ही खो भी जाएगा। पानी पर खींची लकीरें हैं। रेत के बनाए महल हैं। बन भी न पाएँगे और मिट जाएँगे। और जो भी पा लोगे, मौत छीन ही लेगी।

जिसे मौत छीन ले, समझ लेना वह संसार था। जो मौत में भी बचकर तुम्हारे साथ चला जाए, जो चिता की लपटों में भी तुम्हारा साथ न छोड़े, समझना वही परमात्मा है। मृत्यु जिसे पोंछ देती है, वह परमात्मा नहीं है।

परमात्मा का अर्थ हैः शाश्वत जीवन; अनंत जीवन; न जिसका कोई ओर, न कोई छोर, न कोई आदि, न कोई अंत। वैसे जीवन को न पाया तो कुछ भी न पाया। वैसे जीवन को न पाया तो सिर्फ गँवाया कौरे गँवाया। वैसे जीवन की आकांक्षा कहाँ जगे, कैसे जगे? कौन उठाए उस लपट को तुम्हारे भीतर? कौन तुम्हें याद दिलाए? जिसने पाया हो, वही याद दिला सकेगा। जिसने चखा हो, वही तुम्हारे प्राणों में भी चाह उठा सकेगा। जो जागा हो, वही सोए को जगा सकेगा। उस जागे का नाम गुरु। गुरु का कोई और अर्थ नहीं होता। जो तुम्हें परमात्मा को छोड़कर कुछ और सिखाए, वह शिक्षक, गुरु नहीं। जो तुम्हें परमात्मा सिखाए, वह गुरु।

आज के सूत्र बड़े प्यारे हैं।

 

“गुरु गरवा दादू मिल्या, दीरघ दिल दरिया।’

रज्जब कहते हैं: सागर-जैसे चौड़े दिलवाला गुरु मिल गया। गुरु होगा ही सागर के दिल जैसा विस्तीर्ण। परमात्मा को जानते ही हृदय विस्तीर्ण हो जाता है। परमात्मा को जानते ही जाननेवाला परमात्मामय हो जाता है। जो उसे जानता है, उसके जैसा हो जाता है। इसे याद रखना। तुम जो जानते हो उसके जैसे ही हो जाते हो। तुम जो पाते हो उसके जैसे ही हो जाते हो। जो धन ही इकट्ठा करता है और ठीकरों में ही जीता है, वह ठीकरा होकर ही मरता है। आदमी के चेहरे पर उसकी सारी जिंदगी की कथा लिखी होती है। उसकी ऑंखों में ज़रा झाँको और तुम उसके जीवन की गहराई को पकड़ लोगे। उसकी ऑंखों में तुम्हें तैरते हुए नोट-नोट दिखायी पड़ेंगे, कि सोने-चाँदी के ढेर दिखायी पड़ेंगे, कि पद-प्रतिष्ठा का अंबार दिखायी पड़ेगा। बस यह आदमी वही हो गया।

जो चाहते हो, सोचकर चाहना। क्योंकि चाहना तुम्हारी आत्मा बन जाती है। तुम जो चाहते हो, उसका रंग तुम पर चढ़ जाता है। जो भी तुम माँगते हो, वही तुम धीरे-धीरे हो जाते हो। क्षुद्र को मत माँगना, अन्यथा क्षुद्र हो जाओगे। माँगना ही हो तो विराट को माँगना, ताकि विराट हो सको। चाहना हो तो परमात्मा को चाहना। उसका रंग लगे तो जीवन में गंध आए। उसका रंग लगे तो जीवन में रोशनी उतरे।

लोग अगर कीड़े-मकोड़ों की तरह सरक रहे हैं तो उसका कारण है, उनकी चाह जमीन की है। आकाश की तरफ ऑंखें उठाओ!

परमात्मा की प्रार्थना में हम आकाश की तरफ ऑंखें क्यों उठाते हैं? परमात्मा की प्रार्थना में क्यों हम अपने बाजू आकाश की तरफ फैलाते हैं? किसलिए? कोई परमात्मा आकाश में बैठा है, ऐसा थोड़े ही है। लेकिन एक इशारा है कि परमात्मा आकाश जैसा विराट है। और जो इस आकाश जैसे विराट को जान लेगा, स्वभावतः उसी जानने में वह आकाश जैसा विराट हो जाएगा। हम जो जानते हैं, वही हो जाते हैं। उपनिषद कहते हैं: जिन्होंने उसे जाना, वह वही हो गए।

“गुरु गरवा दादू मिल्या, दीरघ दिल दरिया।’

सागर जैसा जिसका दिल था, ऐसा गुरु मिला। ऐसा भारी गुरु मिला! “गरवा’! भारी का क्या अर्थ? “गुरु’ शब्द का अर्थ भी “भारी’ होता है। गुरु शब्द भी उसी मूल से बना है जिससे गरवा। गुरु का अर्थ है, ऐसा भारी, कि बैठ जाए गहराइयों से गहराइयों में, जो अंतिम गहराई में पहुँच जाए। हलके होओगे तो गहराई न जान सकोगे। गहरे होने के लिए तो वजन चाहिए। तो सागर की अतल गहराइयों में उतर पाओगे।

किस बात से वजन आता है जीवन में? एक ही बात से वजन आता है जीवन में: परमात्मा से जुड़ जाओ तो वजन आता है। नहीं तो लोग सतह पर ही जीते हैं, सतह पर ही मर जाते हैं। परमात्मा सतह पर नहीं है। या तो ऊँचाइयों की ऊँचाई है परमात्मा, या गहराइयों की गहराई है परमात्मा। सतह तो दोनों के मध्य में है–न ऊँचाई है वहाँ, न गहराई है वहाँ।

और यह भी खयाल रखना कि जीवन के गणित में ऊँचाई और गहराई का एक ही अर्थ होता है। वह एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। जो गहरा होता है, वही ऊँचा हो जाता है। जो ऊँचा होता है, वही गहरा हो जाता है। ऐसा ही समझो जैसे वृक्ष। जो वृक्ष जितना ऊँचा उठता है आकाश में, उसकी जड़ें उतनी ही गहरी चली जाती हैं पाताल में। अनुपात बराबर होता है। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि छोटी-छोटी जड़ोंवाले वृक्ष को आकाश को छूने की कला सिखा दो। और तुम यह भी नहीं कर सकते कि पाताल तक जड़ें पहुँचानेवाले वृक्ष को तुम आकाश तक पहुँचने से रोक लो। यह अनुपात बराबर होता है–जितनी ऊँचाई उतनी गहराई।

फेड्रिक नीत्शे का अद्भुत वचन हैः जिन्हें आकाश छूना हो, उन्हें पाताल छूना ही होगा। . . . तो एक तरफ तो गुरु आकाश जैसा होता है विराट! उसकी उंचाई और दूसरी तरफ गुरु गहरा होता है– सागरों जैसा! अनंत उसकी गहराई है। मगर ये एक ही घटना के दो हिस्से हैं। इसमें गुरु का कुछ भी नहीं है। परमात्मा के साथ जो भी जुड़ता है, वही ऐसा हो जाता है। यह जादू तो परमात्मा के साथ जुड़ने का है; उसकी समीपता का जादू है।

तुम अपनी जिंदगी को देखो तो कुछ समझ में आए। तुम्हारी जिंदगी में कभी कोई विराटता का क्षण आता है–जब सब द्वार खुल जाते हों, सब दीवालें गिर जाती हों, जब तुम्हारा छोटा-सा चित्त का ऑंगन छोटा न रह जाता हो, आकाश-जैसा विराट होता हो।

स्वामी राम कहते थे कि मैंने अपने चित्त के आकाश में चाँदत्तारों को चलते देखा है, सूरज को उगते देखा है। लोग समझते हैं कि पागलपन की बातें हैं; या जो इतने कठोर न होते, वे कहते कविताएँ हैं। लेकिन राम जो कह रहे थे, न तो पागलपन था और न काव्य था–जीवन का सीधा सत्य था। अहंकार की सीमा टूट जाए तो तुम अपने भीतर चाँदत्तारों को चलते देखोगे ही, वे तुम्हारे भीतर चल ही रहे हैं। तुम अपने भीतर ही वसंतों को आते देखोगे। अपने भीतर ही तुम विराट का सारा विस्तार देखोगे। तुम अपने भीतर सब पा लोगे। मगर अहंकार बड़ा संकीर्ण है और तुम्हें खुलने नहीं देता।

अपनी जिंदगी को परखो। तुम्हारी जिंदगी में न कोई ऊँचाई का अनुभव है, न कोई गहराई का अनुभव है, न कोई विशालता का अनुभव है। तुम्हारी जिंदगी का अनुभव सिवाय दुःख के और कुछ भी नहीं है। सिवाय पीड़ा के तुम्हारा कोई स्वाद नहीं है। तुम्हारी ऑंखें अंधेरे से भरी हैं और तुम्हारी ऑंखें धुएँ से तिलमिला रही हैं। और यह धुऑं तुम्हारे ही भीतर तुम्हारे अहंकार से उठ रहा है। और यह अंधेरा भी तुम्हारे भीतर ही जन्म ले रहा है।

 

मेरे ख्वाबों के शबिस्ताँ में उजाला न करो

कि बहुत दूर सवेरा नजर आता है मुझे

छुप गए हैं मेरी नजरों से खदो-खाले-हयात

हर तरफ अब्र घनेरा नजर आता है मुझे

चाँदत्तारे तो कहाँ अब कोई जुगनू भी नहीं

कितना शफ्फाक अंधेरा नजर आता है मुझे

कोई ताबिंदा किरन यूँ मेरे दिल पर लपकी

जैसे सोए हुए मजलूम पै तलवार उठे

किसी नग्मे की सदा गूँज के यूँ थर्रायी

जैसे टूटी हुई पाजेब से झंकार उठे

मैंने पलकों को उठाया भी तो ऑंसू पाए

मुझसे अब खाक जवानी का कोई बार उठे

तुमने रातों में सितारे तो टटोले होंगे

मैंने रातों में अंधेरे ही अंधेरे देखे

तुमने ख्वाबों के परिस्ताँ तो सजाए होंगे

मैंने माहौल के शबरंग फरेरे देखे

तुमने इकतार की झंकार तो सुनी ही होगी

मैंने गीतों में उदासी के बसेरे देखे

मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम

जिंदगी मौत की मानिंद गुजारी मैंने

इक बिगड़ी हुई सूरत के सिवा कुछ भी न था

जब भी हालात की तस्वीर उतारी मैंने

किसी अफलाक-नशीं ने मुझे धत्कार दिया

जब भी रोकी है मुकद्दर की सवारी मैंने

मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम?

थोड़ा सोचो अपनी जिंदगी को। ऐसा ही तुम पाओगे।

चाँदत्तारे तो कहाँ अब कोई जुगनू भी नहीं

 

कितना शफ्फाक अंधेरा नजर आता है मुझे

तुम्हारे चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। चाँदत्तारे तो दूर, जुगनू भी तुम्हारे चित्त के आकाश में तैरते हुए दिखायी नहीं पड़ते।

 

मैंने पलकों को उठाया भी तो ऑंसू पाए

 

मुझसे अब खाक जवानी का कोई बार उठे

 

तुमने रातों में सितारे तो टटोले होंगे

 

मैंने रातों में अंधेरे ही अंधेरे देखे

 

तुमने ख्वाबों के परिस्ताँ तो सजाए होंगे

 

मैंने माहौल के शबरंग फरेरे देखे

–और मेरी जिंदगी में तो सिवाय काले झंडों के और मुझे कुछ भी दिखायी नहीं पड़ा।

 

मैंने माहौल के शबरंग फरेरे देखे

 

तुमने इकतार की झंकार तो सुनी ही होगी

 

मैंने गीतों में उदासी के बसेरे देखे

 

मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम

 

जिंदगी मौत की मानिंद गुजारी है मैंने

लोग ऐसे ही गुजार रहे हैं–मौत की मानिंद। मरे-मरे जी रहे हैं। जीने का सिर्फ नाम है, जीना कहाँ! क्योंकि जीवन तो केवल वे ही जानते हैं जिन्होंने महाजीवन के साथ हाथ जोड़ लिए हैं। जो परमात्मा के साथ एक धारा में बँध जाते हैं, वे ही जीवन को जानते हैं; बाकी तो हम मृत्यु ही जानते हैं। मरण-ही-मरण है। रोज हम मरते हैं–और थोड़ा ज्यादा मर जाते हैं; और थोड़ी मौत करीब सरक आती है; और थोड़ी कब्र करीब आ जाती है। हमारी जिंदगी का और अनुभव क्या है?

 

इक बिगड़ी हुई सूरत के सिवा कुछ भी न था

 

जब भी हालात की तस्वीर उतारी मैंने

कभी अपने हालात की तस्वीर उतारकर देखो। कभी अपने रंग-ढंग पर गौर करो। सब फीका है! सब बासा है! न कहीं कोई गंध, न कहीं कोई रंग, न कोई नृत्य, न कोई मदहोशी, न कोई मस्ती। किसलिए जीते हो? किसलिए जिए जाते हो? किस आशा में चले जाते हो?

 

किसी अफलाक-नशीं ने मुझे धत्कार दिया

 

जब भी रोकी है मुकद्दर की सवारी मैंने

 

मेरे गमख्वार! मेरे दोस्त! तुम्हें क्या मालूम?

आदमी की जिंदगी, जिंदगी नाममात्र को है। आदमी जब तक परमात्मा से जुड़े नहीं तब तक जीवन के कोई स्वर उसमें उठते नहीं। उसके साथ जुड़ते ही पाजेब बजती है। उसके साथ जुड़ते ही झंकार उठती है, इकतारा बजता है।

ये आज के सूत्र उसके साथ जुड़ने के सूत्र हैं। लेकिन इसके पहले कि कोई परमात्मा से जुड़े, किसी परमात्मा के प्यारे से जुड़ना होता है।

 

गुरु गरवा दादू मिल्या, दीरघ दिल दरिया।

 

तत छन परसन होत हीं भजन भाव भरिया।।

यह प्यारा वचन है। “तत छन’! एक क्षण में, नजर से नजर मिली और सब हो गया! “तत छन परसन होत हीं,’. . . दरस-परस होते ही, देखा गुरु को कि बात हो गयी।

साहसी व्यक्ति रहा होगा रज्जब। लोग तो वर्षों सोचते हैं। विचार में ही गँवा देते हैं। बुद्ध मिल जाएँ, कि कृष्ण मिल जाएँ तो भी विचार में गँवा देते हैं। सोचते ही रहते हैं। संदेहों का अंत ही नहीं आता, प्रश्नों की समाप्ति नहीं होती। शायद सोचना एक बहाना होगा। शायद सोचना टालने की एक विधि होगी। शायद सोचने के नाम से स्थगन करते होंगे–कल, परसों, अभी नहीं।

साहसी का अर्थ हैः जो जानता है, या तो अभी या कभी नहीं।

“तत छन परसन होत हीं’. . . । और जैसे ही दरस हुआ, परस हुआ, जैसे ही स्पर्श हुआ गुरु की तरंग का, जैसे ही गुरु का राग सुनायी पड़ा, जैसे ही उन ऑंखों ने रज्जब की ऑंखों में झाँका. . . “भजन भाव भरिया’. . . उठ आयी कोई चीज जो सोयी पड़ी थी जन्मों-जन्मों से। फूटी कोई कली! खिला कोई फूल! जो सितार कभी नहीं छुई गयी थी, बज उठी। “भजन भाव भरिया’! गुरु के पास बैठकर अगर भजन भाव न भरे, तो तुम पास बैठे ही नहीं। अगर गुरु के पास बैठकर डोले नहीं, तो तुम पास बैठे ही नहीं।

गुरु के पास बैठे हो, इसका लक्षण क्या है? कसौटी क्या है? एक ही कसौटी हैः “भजन भाव भरिया’। तुम्हारे भाव में भजन उतर आए। तुम्हारे भीतर नाद जगे। तुम जीवन के उल्लास से भर जाओ। यह जो जीवन चारों तरफ न-मालूम कितने-कितने तरह की मधु ढाल रहा है, तुम इसे पी उठो! तुम नाच उठो!

“तत छन परसन होत हीं’। यह “परसन’ शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं–या तो परस, स्पर्श, या प्रसन्न। “तत छन परसन होत हीं’. . . दोनों अर्थ सार्थक हैं। गुरु प्रसन्न क्या हुआ, “भजन भाव भरिया’। शिष्य की तरफ से एक अर्थ कि परस हुआ। सौभाग्यशाली है शिष्य कि गुरु से ऑंख मिली, कि गुरु के हाथ में हाथ पड़ा, कि गुरु के वातावरण में बैठने का सुअवसर आया, कि थोड़ी देर को गुरु की तरंग में डोला। यह बजी बीन गुरु की और शिष्य नाचा एक नाग की भाँति! यह परस शिष्य की तरफ से है। लेकिन जब भी कोई गुरु किसी शिष्य को नाग की भाँति फन उठाकर नाचते मस्त होते देखता है, स्वभावतः प्रसन्न होता है–एक फूल और खिला! एक मंदिर और बना! एक काबा और खोजा गया! एक तीर्थ और उठा! परमात्मा एक हृदय में और उतरा!

“तत छन परसन होत हीं’…तो गुरु प्रसन्न न हो जाए तो क्या हो? आह्लाद से भर जाता है, शिष्य को पाकर गुरु उतने ही आह्लाद से भर जाता है, जितना शिष्य गुरु को पाकर आह्लाद से भर जाता है। यह लपट दोनों तरफ साथ-साथ जगती है। यह धुन एकसाथ उठती है।

“तत छन परसन होत हीं, भजन भव भरिया।।’

और गुरु प्रसन्न हो जाए और उसकी मुस्कुराहट तुम पर बरस उठे और उसका आनंद तुम पर ढल जाए, तो क्या होगा?–“भजन भाव भरिया’! तुम्हारे भीतर भाव तो पड़ा ही था जन्मों-जन्मों से, कोई ठीक-ठीक वसंत का अवसर न मिला था; बीज तो पड़ा था, भूमि न मिली थी; आज भूमि मिल गयी। आज वसंत आ गया। ऋतु आ गयी। टूटेगा बीज, पौधा उठेगा। हरे पत्ते निकलेंगे। सुर्ख फूल खिलेंगे।

 

“भजन भाव भरिया’!

 

श्रवण कथा साँची सुणी, संगति सतगुरु की।

और सब तो सुना था, और सब जो गुना था, पढ़ा था, व्यर्थ हो गया–जब संगति सतगुरु की जानी। उसी संगति में सुनी सच्ची श्रवण-कथा। साथ होने में सुनी। संगति में सुनी।

शास्त्र तो बहुत हैं, लेकिन जब तक शास्ता को न खोज लोगे, तब तक कोई शास्त्र जीवित नहीं होता। बुद्ध के वचन संगृहीत हैं, “धम्मपद’ पढ़ो; कृष्ण के वचन संगृहीत हैं, “भगवद्गीता’ पढ़ो, लेकिन कुछ कमी है। कुछ खोयी-खोयी बात है। क्या बात की कमी है? क्योंकि जो कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, वही गीता में लिखा है, वैसा-का-वैसा लिखा है। क्या कमी है? कहने वाला नहीं है। शब्द हैं, शब्दों का मालिक नहीं है। शब्दों के पीछे धड़कता हुआ हृदय नहीं है। शब्दों के पीछे खड़ा हुआ शून्य नहीं है। तो जो अर्जुन को अनुभव हुआ होगा, वह गीता पढ़कर तुम्हें नहीं हो सकता। मेरे पास बैठकर तुम्हें जो अनुभव हो रहा है, वह कल आनेवाले दिनों में इन्हीं शब्दों को पढ़नेवाले लोगों को नहीं होगा। संगति खो जाएगी। कुछ मूलस्वर कम रहेगा। कुछ बात खाली-खाली हो जाएगी। उतना ही फर्क समझो जैसा जिंदा आदमी में और उसकी तस्वीर में जैसे जिंदा आदमी में और उसकी बनायी हुयी संगमरमर की प्रतिमा में। प्रतिमा बिल्कुल वैसी ही तो लगती है, फिर भी प्राण नहीं हैं। बोलेगी नहीं, चलेगी नहीं, उठेगी नहीं।

जब शास्त्र चलता है, बोलता है, उठता है, हँसता है, गाता है, नाचता है, तभी पकड़ लेना। जब शास्त्र का जन्म हो रहा हो, तब पकड़ लेना। गुरु का यही अर्थ हैः जहाँ शास्त्र का जन्म हो रहा है, जहाँ अभी सब ताजा है। फिर बासे फूलों को, सुखाए गए फूलों को लोग सदियों-सदियों तक सम्हाल कर रखते हैं, मगर उनसे फिर गंध नहीं उठती।

 

श्रवण कथा साँची सुणी, संगति सतगुरु की।

वह जो साथ बैठना हो जाता है गुरु के, गुरु बोले कि न बोले, यह बोले, वह बोले, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता–उसके साथ बैठने में ही. . . श्रवण कथा साँची सुणी…सच्ची कथा!

ये शब्द समझने जैसे हैं। सुनना मात्र श्रवण नहीं है। सुनते तो सभी हैं, श्रवण बहुत कम लोग करते हैं।

सुनने और श्रवण में क्या भेद है?

सुनना तो कान से हो जाता है। जिसके कान ठीक हैं, वही सुन लेता है। श्रवण–जो कान के पीछे अपनी आत्मा को भी उँडेल देता है; जो प्रेम से सुनता है भाव से सुनता है, आह्लाद से सुनता है; जिसके कान के पीछे उसका हृदय जुड़ा होता है। कोई विवाद से भी सुन सकता है। भीतर हजार तर्क चल रहे हैं। यहाँ कभी-कभी यहाँ भी लोग आ जाते हैं। एक भी आदमी आ जाता है तो यहाँ का स्वर भंग होता है। आकर मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तभी मेरे खयाल में आ जाते हैं कि कुछ ये दो-चार लोग आ गए हैं। वे हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकते। मैं उन्हें नमस्कार कर रहा हूँ, वे हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकते। वे सुनेंगे कैसे? नमस्कार तक का उत्तर देने की उनमें सामर्थ्य नहीं है, सुनेंगे कैसे? आ गए हैं. . . देखने-परखने आ गए होंगेः क्या यहाँ हो रहा है? कुछ सुनिश्चित धारणाएँ लेकर आ गए होंगे, कि जो यहाँ हो रहा है गलत हो रहा है, धर्म के विपरीत हो रहा है। तो मैं नमस्कार भी उन्हें करूँ तो वे मुझे हाथ जोड़कर कैसे नमस्कार करें–ऐसे अधार्मिक आदमी को कोई नमस्कार करता है!

सुनेंगे तो वे भी, लेकिन श्रवण न हो सकेगा। और वे इस भ्रांति में होंगे कि सुनकर आ गए। श्रवण तो उन्हीं का हो सकेगा, जिनके कान सिर्फ कान नहीं, बल्कि उनका हृदय भी हैं; जो सहानुभूति से सुनेंगे; जिनके भीतर विवाद नहीं है, संवाद है; जो मेरे साथ जुड़कर सुनते हैं। इधर मैं, उधर वे, ऐसे दो नहीं रह जाते, एक सेतु बन जाता है। एक अज्ञात ऊर्जा जोड़ देती है।

मैं देख पाता हूँ किन-किन से मेरी ऊर्जा जुड़ी है। मेरे लिए दृश्य है! और तुम भी जानते हो जब तुम्हारी जुड़ जाती है और जब नहीं जुड़ती। वे घड़ियाँ तुम्हें भी मालूम हैं। जब जुड़ जाती है कोई बात, तो मैं क्या कह रहा हूँ, यह सवाल नहीं होता; फिर जो भी मैं कहता हूँ उसीसे अमृत का अनुभव होता है। जब नहीं जुड़ पाती किसी दिन, तो तुम पाते हो कुछ चूका-चूका है। इधर मैं बोल रहा हँ उधर तुम सुन रहे हो, मगर बीच में कोई जोड़ नहीं है। मैं दूर से चिल्ला रहा हूँ, तुम बहुत दूर से सुन रहे हो, आवाज सुनायी भी पड़ती है, पर अर्थ पकड़ में नहीं आते जब जुड़ जाती है तरंग, जब तुम मेरे साथ साँस लेते हो, और मेरे हृदय के साथ तुम्हारा हृदय धड़कता है, जब मुझमें और तुममें कोई भेद नहीं होता, जब तुम एकात्म होकर सुनते हो, तो श्रवण पैदा होता है।

“श्रवण कथा साँची सुणी’। और “कथा’! शब्द तो बनता है “कथ्य’ से, जो कहा जाता है। लेकिन शब्द पर ही मत अटक जाना। कथा का मौलिक अर्थ होता है जो नहीं कहा जा सकता, फिर भी कहने की कोशिश की जाती है। जो कहा जा सकता है, वह तो साधारण कथा है। जो कथ्य में समा जाता है, वह तो साधारण कथा है। जो कथ्य में नहीं समाता, फिर भी कहना तो पड़ता है। कहना पड़ेगा ही; क्योंकि बहुत हैं जिनके काम आ जाएगा। शब्द में नहीं आता है, फिर भी समाने की चेष्टा करते हैं। उसका नाम कथा है। शब्दातीत को शब्द में लाने का उपाय कथा ही है।

इसलिए कथा में इतिहास नहीं होता। राम की कथा में कोई इतिहास नहीं है। कुछ ऐसा नहीं है कि जो राम की कथा में कहा गया है, वैसा-ही-वैसा हुआ है। वैसी भ्रांति में मत पड़ना। नहीं तो वाल्मीकि की कथा एक बात कहती है, तुलसी की कथा दूसरी बात कहती है। और भी बहुत लोगों ने रामायणें लिखी हैं, सबकी कथाएँ अलग बात कहती हैं। ऐतिहासिक नहीं है बात। इतिहास से ज्यादा आध्यात्मिक है। इतिहास तो बहाना है। राम और सीता और रावण तो बहाने हैं। उनके पीछे बहानों के पीछे कुछ छिपाया गया है। जो श्रवण करेंगे, उन्हें बहानों के पीछे छिपे हुए खजाने मिल जाएँगे। जो केवल सुनेंगे, उनके हाथ में केवल कथा लगेगी; जो कही गयी है, वही बात लगेगी; जो अनकही कहे के साथ जोड़ दी गयी है, वे उससे वंचित रह जाएँगे। वह सूक्ष्म है। वही अर्थ है। श्रवण कथा साँची सुणी, संगति सतगुरु की।

पश्चिम से नए विचार आए हैं, नयी शोध की पद्धतियाँ आयी हैं, नयी इतिहास की खोजों की विधियाँ आयी हैं। उन सबने हमें बड़ी मुश्किल में डाल दिया है क्योंकि हमारी सारी कथाएँ ऐतिहासिक नहीं हैं। और जब पश्चिम की कसौटी पर कसी जाती हैं, तो गैर-ऐतिहासिक सिद्ध होती हैं। फिर हमारे यहाँ भी ऐसे मूढ़ हैं जो उनको ऐतिहासिक सिद्ध करने की कोशिश में लग जाते हैं। और तब एक व्यर्थ का विवाद शुरू होता है; जिसमें हम हारेंगे।

यह बात समझ लेनी चाहिए कि पूरब ने जो कथाएँ रची हैं, वे इतिहास की घटनाएँ नहीं हैं; वे अंतरतम की घटनाएँ हैं। राम तुम्हारे भीतर की किसी चीज के प्रतीक हैं और रावण भी तुम्हारे भीतर की किसी चीज के प्रतीक हैं और सीता भी तुम्हारे भीतर है और राम के हाथ से रावण के हाथ में पड़ गयी है। उसे वापस घर लौटाना है। तुम्हारे भीतर के राम को तुम्हारे भीतर की सीता की तलाश में निकलना है। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारी सीता है; बाजार में खो गयी है। रावण की लंका सोने की थी–कहीं सोने में खो गयी है; कहीं धन-दौलत में बिक गयी है।

 

जवानी, हुस्न, गमजे, अहद, पैमां, कहकहे, नग्मे

 

रसीले ओंठ, शरमीली निगाहें, मरमरी बाहें

 

यहाँ हर चीज बिकती है,

 

खरीदारो!

 

बताओ क्या खरीदोगे?

 

भरे बाजू, गठीले जिस्म, चौड़े आहनी सीने

 

बिलकते पेट, रोती गैरतें, सहमी हुई आहें

 

खरीदारो!

 

यहां हर चीज बिकती है,

 

बताओ क्या खरीदोगे?

तुमने अपनी आत्मा बेच दी है और कुछ व्यर्थ की चीजें खरीद लाए हो। तुमने अपनी आत्मा दाँव पर लगा दी है, और कुछ व्यर्थ की चीजें खरीद लाए हो। तुम्हें अपनी सीता को छुड़ाना होगा। ऐसे बाहर रावण के पुतले जलाने से कुछ भी न होगा; यह पागलपन बंद करो। भीतर जलाना होगा। यह बाहर की विजय-यात्रा, यह दशहरे का पर्व. . . बहुत मना चुके। इससे कुछ नहीं होता। यह विजय-यात्रा भीतर घटनी चाहिए। यह दशहरा भीतर आना चाहिए। यह विजयदशमी भीतर होनी चाहिए। भीतर का खयाल ही नहीं है। कथा को बाहरी कर दिया है। ऐसे कथा से, कथा के मौलिक अर्थ से बच गए हो।

“स्रवण कथा साँची सुणी, संगति सतगुरु की।’ गुरु के साथ बैठ-बैठकर, पर्त-पर्त गहरे उतरकर, आहिस्ता-आहिस्ता, कदम-कदम अंतरतम में चलकर जाना।

 

दूजा दिल आवै नहिं, जब धारी धुर की।।

और जबसे यह पहचान हो गयी है, जबसे यह असली कथा सुन ली है, जबसे यह सच अनुभव आने लगा है, जब से ये साँचे बोल हृदय में उतर गए हैं. . . दूजा दिल आवै नहिं. . . अब परमात्मा के सिवाय दिल में कोई आता नहीं!

“दूजा दिल आवै नहिं’। यही पहचान है। जब तक परमात्मा के सिवाय दूसरे की याद आती है, तब तक समझना अभी संसार जारी है।

 

दूजा दिल आवै नहिं, जब धारी धुर की।।

अब तो जो मेरे से भी परे है, उसको ही पाने की एकमात्र आकांक्षा बची है। परात्पर! “जब धारी धुर की’। जो न शब्दों में है, न सीमाओं में है, जिसे प्रगट करने को ब्रह्म शब्द भी छोटा पड़ जाता है, उस परात्पर ब्रह्म को, उस शब्दातीत ईश्वर को, उस भावातीत को पाने चल पड़े हैं। अब तो उस एक की ही धुन लग गयी है। अब तो वह एक ही पुकार रहा है, एक ही खींच रहा है। एक गहरी कशिश! भक्त चल पड़ा–बँधा हुआ!

 

दूजा दिल आवै नहिं, जब धारी धुर की।।

 

भरमजाल भव काटिया, संका सब तोड़ी।

गुरु का काम क्या है? भरमजाल भव काटिया। यह जो संसार का व्यर्थ का उपद्रव है, जिसको तुमने सार्थक मान लिया है, गुरु का इतना ही तो अर्थ है कि वह तुम्हें जगा दे और दिखा देः क्या व्यर्थ है और क्या सार्थक है? बस, इससे ज्यादा गुरु कुछ कर भी नहीं सकता; इतना ही दिखा दे कि यह रहा हीरा, वह रहा पत्थर, अब तुम्हें जो चुनना हो चुन लो। जानकर कभी कोई पत्थर को चुनता है? पत्थर को चुनते हो इसी आशा में कि शायद हीरा है। गुरु यह नहीं कहता कि पत्थर मत चुनो। गुरु यह भी नहीं कहता कि हीरा चुनो। गुरु तो इतना ही कहता हैः यह रहा हीरा, यह रहा पत्थर, यह रही कसौटी–कस लो और जाँच लो; फिर जो मर्जी करो।

महावीर ने कहा हैः मैं उपदेश देता हूँ, आदेश नहीं। ठीक कहा, प्यारी बात कही। यही सभी सद्गुरुओं का आधार है। उपदेश। आदेश नहीं। जहाँ आदेश हो, समझना गुरु नहीं है वहां। जो तुम से कहे, ऐसा करना ही पड़ेगा, ऐसा ही करो, इससे अन्यथा किया तो पापी हो–वहाँ गुरु नहीं है। वहाँ तो कोई नयी राजनीति का जाल है। वहाँ नेता होगा, गुरु नहीं है। वहाँ तो कोई नयी तानाशाही तुम्हारे ऊपर निर्मित हो रही है, तुम्हें गुलाम बनाने की कोई नयी व्यवस्था की जा रही है, कोई नयी जंजीरें ढाली जा रही हैं, नए कारागृह खड़े किए जा रहे हैं। सावधान रहना।

सद्गुरु केवल उपदेश देता है। इतना ही बता देता है कि यह पत्थर है, यह सोना है। फिर तुम्हारी जो मर्जी। आदेश नहीं देता। आदेश की जरूरत नहीं है। आदेश की जरूरत तो उनको पड़ती है, जो समर्थ नहीं हैं तुम्हें दिखलाने में कि क्या पत्थर है और क्या हीरा है। वे ही तुम्हें अनुशासन देते हैं। वे कहते हैं: सुबह पाँच बजे उठना, राम-भजन करना, ऐसा करना, वैसा करना, यह खाना, वह पीना, यह मत खाना, वह मत पीना, हजार नियम तुम्हें देते हैं, हजार मर्यादाएँ तुम्हें देते हैं। उसका कारण? एक बात की कमी है उनके पास–तुम्हारी ऑंख खोल नहीं पाते; तुम्हें दिखा नहीं पाते कि यह रहा हीरा, यह रही मिट्टी। जिस दिन तुम्हें दिख जाएगा कि हीरा क्या है, मिट्टी क्या है, उस दिन क्या तुम मिट्टी चुनोगे? कौन ऐसा पागल होगा?

 

भरमजाल भव काटिया, संका सब तोड़ी।

इतना ही काम है सद्गुरु का कि तुम्हारे भ्रम के जो-जो जाल हैं, उनको तोड़ दे; तुम्हारे चित्त की शंकाओं का निरसन कर दे।

एक पतंगा

तन्हात्तन्हा

शाम ढले इस फिक्र में था

यह तन्हाई कैसे कटेगी?

 

रात हुई

और शमा जली

मगसूम पतंगा झूम उठा

हँसते-हँसते रात कटेगी

 

सुबह हुई

और सबने देखा

राख पतंगे की उड़-उड़कर

शमा को हरसू ढूँढ़ रही थी

यही तुम्हारी जिंदगी है! जल्दी ही राख का ढेर रह जाएगा। ज़रा याद करो! जरा पहचानो! जल्दी ही अपनी चिता पर जलोगे। जल्दी ही राख पड़ी रह जाएगी। और राख उड़-उड़कर खोजेगी उस जीवन को, जिसको गँवा आए। राख उड़-उड़कर खोजेगी उन सपनों को, जिनके आधार पर सब खोया, सब                     व्यर्थ किया।

एक पतंगा

तन्हात्तन्हा

शाम ढले इस फिक्र में था

यह तन्हाई कैसे कटेगी?

 

रात हुई

और शमा जली

मगसूम पतंगा झूम उठा

हँसते-हँसते रात कटेगी

तुम भी सब यही सोच रहे होः हँसते-हँसते रात कटेगी! और रात के पार सुबह नहीं है मौत है। और शमा के साथ तुम्हारी जिंदगी नहीं है, तुम्हारी चिता है।

 

सुबह हुई

और सबने देखा

राख पतंगे की उड़-उड़कर

शमा को हरसू ढूँढ़ रही थी

ऐसी ही राखें उड़ रही हैं, शमा को ढूँढ़ रही हैं। रास्ते पर उड़ती धूल के बवंडर को देखा है? खड़े हो जाना, ज़रा ध्यान करना। यह जो धूल का आज बवंडर है, कभी तुम्हारी जैसी देह रही होगी। पैर के नीचे पड़ी धूल को देखा है? यह तुम्हारे पैर के नीच है आज, कल किसी सिर में रही होगी। कल कोई देह रही होगी। तुम भी ऐसे ही कल धूल में पड़े रह जाओगे। इसके पहले कि सब धूल हो जाए, इसके पहले कि धूल धूल में गिरे, कुछ खोज लो। कुछ ऐसा खोज लो, जो मिटता नहीं। कुछ ऐसी तलाश कर लो।

 

भरमजाल भव काटिया, संका सब तोड़ी।

अभी तो जिस ढंग से हम जी रहे हैं, वह एक व्यर्थता की पुनरुक्ति मात्र है। वही-वही बार-बार करते हैं, अनंत बार करते हैं, फिर भी जागते नहीं। आदमी अनुभव से सीखता मालूम ही नहीं होता।

 

सब काट दो

 

बिस्मिल पौधों को

 

बेआब सिसकते मत छोड़ो

 

सब नोच लो

 

बेकल फूलों को

 

शाखों पै बिलखते मत छोड़ो

 

यह फस्ल उम्मीदों की हमदम!

 

इस बार भी गारत जाएगी

 

सब महनत सुबहो-शामो की

 

अबके भी अकारत जाएगी

 

खेती के कोनों खदरों में

 

फिर अपने लहू की खाद भरो

 

फिर मिट्टी सींचो अश्कों से

 

फिर अगली ऋतु की फिक्र करो

 

जब फिर इक बार उजड़ना है

 

इक फस्ल पकी तो भर पाया

 

तब तक तो यही कुछ करना है

 

बस यही करते रहो। हर बार फसल काटो और हर बार उजड़ो।

 

 

यह फस्ल उम्मीदों की हमदम!

 

इस बार भी गारत जाएगी

 

यह जिंदगी तुम्हें पहली बार नहीं मिली, बहुत बार मिली है। यह फसल तुम बहुत बार उगा चुके हो। यह काम कुछ नया नहीं है, तुम बड़े पुराने हो, तुम बड़े कारीगर हो अपने को गँवाने में। तुम बड़े कुशल हो अपने को बरबाद करने में।

 

यह फस्ल उम्मीदों की हमदम!

 

इस बार भी गारत जाएगी

 

सब महनत सुबहो-शामो की

 

अबके भी अकारत जाएगी

यह अकारत ही जानेवाली है, क्योंकि यह दिशा ही भ्रांत है। तुम रेत से तेल निचोड़ने की चेष्टा कर रहे हो, हारोगे नहीं तो और क्या होगा?

 

खेती के कोनों खदरों में

 

फिर अपने लहू की खाद भरो

 

फिर मिट्टी सींचो अश्कों से

 

फिर अगली ऋतु की फिक्र करो

 

जब फिर इक बार उजड़ना है

 

इक फस्ल पकी तो भर पाया

 

जब तक तो यही कुछ करना है

मगर बस फिर उजड़ोगे, फिर आशाएँ, फिर उजड़ोगे, फिर आशाएँ। जागो अब! अब कुछ ऐसी फसल काटें जो भर जाए जीवन को। अब कुछ ऐसा धन तलाशें, जो निर्धनता को सच में ही मिटा दें; छुपाए न, मात्र छुपाए न, मिटा दे–सदा के लिए मिटा दे!

 

भरमजाल भव काटिया, संका सब तोड़ी।

 

साँचा सगा जे राम का ल्यौं तासूँ जोड़ी।।

गुरु मिला–दरिया दिल! साँचा सगा जे राम का. . . । उसने दो काम किए। पहले तो उसने अपने से संबंध जोड़ा–“साँचा सगा जे राम का’। क्योंकि गुरु से जब तक संबंध न जुड़ जाए, तब तक परमात्मा से संबंध जुड़ना करीब-करीब असंभव है। “साँचा सगा जे राम का’। पहले राम से दोस्ती हो, इसके पहले राम के सगों से तो दोस्ती हो जाए; उसके मित्रों से तो पहचान हो जाए! उसके मित्र यहाँ घूमते हैं। उसके मित्र तुम्हारे आसपास हैं। तुम जिस दिन चाहोगे, उनके हाथ में तुम्हारा हाथ हो जाएगा। उनके हाथ में हाथ पड़ते ही पहला कदम उठ गया।

 

साँचा सगा जे राम का, ल्यौं तासूँ जोड़ी।।

पहले उससे अपनी प्रीति को जोड़ लो। अपने लगाव को उससे लगा लो, जो राम का सगा है, साँचा है; जिसमें राम की तुम्हें थोड़ी-सी झलक मिल जाए; जिसके पास तुम्हें राम की थोड़ी-सी सुगंध मिल जाए।

 

भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया।

गुरु के साथ जुड़ते ही जीवन में एक क्रांति आती है। कल तक जो जीवन था, मृत्यु हो जाता है। और कल तक जिसका हमें सपने में भी सवाल नहीं उठा था, उस नए जीवन का प्रादुर्भाव होता है।

“भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया’। वह जो चक्कर था संसार का, वह जो भँवर थी संसार की–यह कमा लूँ, वह कमा लूँ; यह बना लूँ, वह बना लूँ–जगाया गुरु ने कि सब व्यर्थ है! सार वहाँ हाथ नहीं लगेगा। उस दिशा में जाओ मत! उस दिशा में कुछ कभी किसी ने पाया नहीं। निरपवाद रूप से जो उस दिशा में गया है, भटका है, भूला है, मरा है। मैं भी गया हूँ, गुरु कहता है, मैं भी दौड़ा हूँ उन्हीं रास्तों पर, जिन पर तुम दौड़ रहे हो, मैं भी ऐसे ही थका हूँ, ऐसे ही गिरा हूँ जैसे तुम दौड़ रहे हो, गिर रहे हो, थक रहे हो। अब मैंने एक और दिशा खोज ली है, जहां विश्राम है, जहाँ विराम है, जहाँ राम है। और ध्यान रखना, जहाँ राम है, वहीं विराम है, वहीं विश्राम है। राम के अतिरिक्त कहाँ विराम? दौड़-धूप जारी रहेगी, आपाधापी जारी रहेगी।

 

भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया।

 

सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।

गुरु खींच लेता है इस भ्रमजाल से। उसके लगाव में खिंचे तुम बाहर आ जाते हो–अपने सपनों को छोड़कर। गुरु तुम्हारे सामने एक नया दृश्य उपस्थित कर देता है, जो ज्यादा मनमोहक है, जो ज्यादा प्यारा है, जो ज्यादा मधुमय है। तुम छोड़ देते हो अपने छोटे-मोटे उपद्रवों को, तुम गुरु के पीछे चल पड़ते हो, उसके साथ हो लेते हो।

“भौजल माहिं काढ़िकै जिन जीव जिलाया।’ और जैसे गुरु ने मुर्दे को जिला दिया हो, ऐसी घटना घटती है।

“सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।’ पर खयाल रखना, सद्गुरु जबरदस्ती चेष्टा से तुम्हें नहीं बदलता है–सहज। उसकी मौजूदगी बदलती है।

वह कोई छेनी लेकर, हथौड़ी लेकर तुम्हारे अंग-प्रत्यंग काटने नहीं लगता है। वह तुम्हें बाँधने नहीं लगता है–मर्यादाओं में, बाढ़ों में। तुम्हें अपने निकट बुलाता है। तुम्हें अपनी खिड़की से झाँकने का निमंत्रण देता है। कहता है, इस हृदय में राम का वास हो गया है, तुम ज़रा अपने कान मेरे हृदय के पास ले आओ, जरा यह धड़कन सुनो! इस धड़कन में प्यारा संगीत है! उस धड़कन को सुनते ही तुम्हारे भीतर भी एक दीवानापन पैदा होता है। उस धड़कन को सुनते ही फिर तुम रुक नहीं सकते। तुम्हें पंख लगने शुरू हो गए! तुम उड़ोगे ही! उड़ना ही पड़ेगा! अब कोई उपाय नहीं है। चुनौती आ गयी।

गुरु तो सिर्फ पास बुलाता है और चुनौती दे देता है। फिर सहज घटनाएँ घटनी शुरू हो जाती हैं।

 

सहज सजीवन कर लिया, साँचे संगि लाया।।

और चुपचाप, तुम्हें पता नहीं चलता, कब गुरु ने तुम्हारे जीवन को आमूल रूपांतरित कर दिया। कानोंकान खबर नहीं होती। यह चुपचाप हो जाता है। पगध्वनि भी नहीं सुनी जाती। कहीं कोई शोरगुल नहीं मचता। कहीं कोई बैंडबाजे नहीं बजते। चुपचाप हो जाता है। होते-होते हो जाता है। एक दिन अचानक सुबह जागकर तुम पाते हो, तुम वही आदमी नहीं हो जो थे।

परसों एक युवती कोई वर्ष-भर यहाँ रहने के बाद वापस लौटी अपने घर। उसकी एक ही चिंता थी कि अब घर जा रही हूँ, एक ही मुझे फिक्र है कि मेरे प्रियजन मुझे पहचान पाएँगे? मेरे माँ-बाप मुझे पहचान पाएँगे? मेरा पति मुझे पहचान पाएगा? मैं इतना बदल गयी हूँ। एक ही डर था उसके मन में कि मुझे वे पहचान नहीं सकेंगे। मैंने उससे पूछाः यह तुझे खयाल कब आया? उसने कहा : जब तक जाने का खयाल नहीं था, खयाल ही नहीं आया था। यहाँ सब चुपचाप हो रहा था, इतना हो रहा था कि किस-किस बात का हिसाब रखो! लेकिन अब जबसे जाने का सवाल उठा है कि जाना है; माँ बीमार है, उसे देखने जाना है, तबसे एक चिंता मन में सवार हुई है–वे मुझे पहचान पाएँगे? वे मुझे स्वीकार कर पाएँगे? मैं बदल गयी हूँ। मेरे पति निश्चित ही उसी स्त्री को नहीं पाएँगे जो साल-भर पहले उन्हें छोड़कर आयी थी।

चुपचाप घटनाएँ घट जाती हैं। असली घटनाएँ चुपचाप ही घटती हैं। बड़ी घटनाएँ चुपचाप ही घटती हैं। ये तो छोटी-छोटी घटनाएँ हैं, जिनका शोरगुल मचता है। फूल चुपचाप खिल जाते हैं, चाँदत्तारे चुपचाप पैदा हो जाते हैं।

 

सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।

तभी पता चलता है शिष्य को जब सत्य का संग-साथ हो जाता है; तब उसे याद आती है कि अरे, क्या हो गया! मैं कहाँ-से-कहाँ आ गया! मैं कौन था और कौन हो गया! हो जाती है घटना, तभी पता चलता है। मगर यह संभव तभी है जब कोई सरलता से गुरु के हाथ में अपना हाथ दे पाए। खींचातानी न करे। प्रतिरोध न करे। अड़चन-रुकावट न डाले। अवरोध न खड़ा करे।

 

सहज सजीवन कर लिया, साँचे संगि लाया।।

 

जनम सफल तब का भया, चरनौ चित लाया।

रज्जब कहते हैं, अब समझ में आ रहा है कि सफल उसी दिन हो गया था मैं, जिस दिन इन चरणों में चित्त लग गया था। वह जो घोड़े पर सवार थे और बारात जाती थी और दादू ने बीच में रोक लिया था और कहा था–

 

रज्जब तैं गज्जब किया, सिर से बाँधा मौर।

 

आया था हरिभजन को, चला नरक की ठौर।।

एक क्षण में सब हो गया था। रज्जब कूद पड़ा था घोड़े से। बारात ठिठकी रह गयी थी। किसी की समझ में न आया था क्या हो रहा है। उसने चरण पकड़ लिए थे दादू के। क्रांति उसी दिन हो गयी थी; पहचान आने में शायद वर्षों लग जाएँ।

“जनम सफल तब का भया’…उसी दिन हो गया था, मैं तो अब पहचान पाया…”चरनौ चित लाया।’ जिस क्षण गुरु के चरणों में चित्त लगा था, उसी दिन क्रांति हो गयी थी।

क्रांति की भी खबर मिलते-मिलते मिलती है। तुम ऐसे बेहोश हो कि तुम्हारे भीतर ही फूल खिल जाते हैं और तुम्हें पता नहीं चलता और तुम्हारे भीतर ही क्रांतियां हो जाती है और तुम्हें पता नहीं चलता। समय लग जाता है। तुम्हारे अचेतन तल में और तुम्हारे चेतन तल में बड़ा फासला है–जमीन और आसमान का। घटना तो भीतर घटती है तुम्हारे केंद्र पर, परिधि को खबर लगते-लगते समय स्वभावतः लग जाता है। बहुत समय लग जाता है कभी। कभी-कभी वर्षों लग जाते हैं। गुरु न हो तो शायद तुम चेतो ही न।

ज़रा सोचो, यह दादू दयाल न आए होते इस घोड़े पर चढ़े हुए रज्जब को उतारने, थोड़ी ही देर की बात थी, यह संसार में उतरा जा रहा था। एक लंबी यात्रा शुरु होती, जिसका कोई अंत अपने हाथ में नहीं है। यह कहाँ जाकर समाप्त होती, यह भी कहना मुश्किल है। कहाँ अंत होता इसका, यह भी कहना मुश्किल है। लेकिन गुरु ने ठीक उस समय रोक लिया, द्वार पर ही रोक लिया संसार के। यह भवजाल में पड़ने ही जा रहा था और रोक लिया। मगर यह मत सोचना कि सिर्फ गुरु का ही हाथ है इस रोक लेने में। रज्जब की भी बड़ी कला है। रज्जब भी बड़े हिम्मत का आदमी है। इतना आसान तो नहीं!

मेरे पास लोग आते हैं। किसी की उम्र सत्तर साल है, वह अभी भी कहता है कि अभी कैसे संन्यास लूँ! अभी बच्चों की शादी होनी है। बस एक लड़का और बचा है, इसकी शादी कर दूँ, इसको काम-धाम से लगा दूँ, फिर कोई चिंता नहीं है, फिर संन्यास ले लूँगा। जैसे मौत तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी! और मौत तुमसे यह नहीं पूछेगी कि सब लड़कों की शादी हो गयी कि नहीं।

हिम्मत का आदमी रहा होगा रज्जब! अभी इसकी उम्र ही क्या रही होगी? यही कोई अठारह-बीस साल की उम्र रही होगी। मगर अक्सर ऐसा हो जाता है कि जवान जो हिम्मत कर लेते हैं, बूढ़े नहीं कर पाते। नियम तो यही है कि बूढ़े होते-होते सभी को संन्यस्त हो जाना चाहिए। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि दुनिया में जो बड़े संन्यासी पैदा हुए हैं, वे सब जवानी में संन्यासी हुए। क्यों? क्योंकि बुढ़ापे में अक्सर तो ऊर्जा ही नहीं रह जाती।

कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था एक आदमी की। वह मरणशय्या पर पड़ा है। गीता सुनायी जा रही है। वह बेहोश है और बीच-बीच में सिर हिलाता है, हाथ ऊपर उठाता है। पास में पड़ोस की स्त्रियाँ बैठी हैं। कोई कहती है कि देखो, काका हाथ ऊपर उठा रहे हैं, शायद भगवान की तरफ उठा रहे हैं। आखिर एक आदमी बैठा थोड़ी देर से देख रहा था, उसने कहा–बकवास बंद करो! मैं जानता हूँ काका को। उसने खीसे से बीड़ी निकाली और काका के मुँह में लगा दी और काका मरते वक्त बीड़ी पीने लगे। इधर गीता चल रही है! और दोत्तीन उन्होंने कश लिए, धुऑं मुँह से निकला, फिर शांति से मर गए। जिंदगी-भर जो लत रही . . . ! उस आदमी ने कहा कि बकवास बंद करो, यह भगवान वगैरह की तरफ हाथ नहीं उठा रहे, इनको बीड़ी चाहिए। मुझे भली-भाँति मालूम है, बिना बीड़ी पिए नहीं मरेंगे। और जब उन्होंने दोत्तीन कश लगा लिए. . . वह उनका राम-नाम हुआ; हरिभजन हो गया!. . . तब वे शांति से मरे।

मरते वक्त तक भी तुम हरि को याद थोड़े ही कर पाओगे। याद भी आएगी तो बीड़ी की याद आएगी, कि कोई ले आता इस वक्त, कि होता कोई प्रभु का प्यारा और ले आता इस वक्त! अब अपने से तो जाते बनता नहीं, बोल भी खो गया है, बोल भी नहीं सकते हैं और गीता चल रही हैः “सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ गीता चल रही है! और स्वभावतः गीता चल रही है, पड़ोस की स्त्रियाँ–धार्मिक स्त्रियाँ ऐसी जगह इकट्ठी हो जाती हैं–और काका हाथ उठा रहे हैं! सोचा होगा कि काका भी आखिरी अवस्था में सिद्धावस्था को पहुँच गए हैं। काका वहीं हैं जहाँ सदा थे। गीता वगैरह नहीं सुनी जा रही है। उनको तलफ लगी है।

आदमी बदल जाए जवानी में, जब ऊर्जा हो, जब शक्ति हो, जब प्राण हों, तो आसानी होती है। क्योंकि बदलाहट के लिए भी तो ऊर्जा की जरूरत होती है। जितनी जल्दी बदल जाओ उतना अच्छा।

रज्जब को ठीक समय पर पकड़ लिया होगा। लोग तो नाराज हुए होंगे। लोगों ने तो कहा होगा यह कोई भली बात है? यह अपशकुन कर दिया। बारात जा रही थी, यह कोई समय था ज्ञान की चर्चा छेड़ने का? हरिचर्चा छेड़ने का यह कोई समय था? दादू पर नाराज हुए होंगे। दादू को क्षमा नहीं कर पाए होंगे। आदमी मरते वक्त संन्यास लेता है।

एक बूढ़ा आदमी मेरे पास आया। उसके लड़के ने संन्यास ले लिया है। लड़के की उम्र होगी कोई तीस साल। बाप बहुत नाराज था। पंडित है–पढ़ा-लिखा–ज्ञानी है। आकर उसने शास्त्रों की चर्चा छेड़ दी; और उसने कहा, आपको मालूम है कि संन्यास तो चौथी अवस्था है–ब्रह्मचर्य, फिर गृहस्थ, फिर वानप्रस्थ, फिर संन्यास। और आपने इस मेरे लड़के को संन्यास कैसे दे दिया? यह किस शास्त्र में लिखा है? यह तो आखिरी अवस्था में लेने का है। यह तो जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तब लेने का है।

मैंने कहाः ठीक, मैं आपसे राजी हो गया। आप संन्यास लेने को राजी हों तो मैं इसका संन्यास वापस लेता हूँ। सत्तर-पचहत्तर साल का आदमी, जब वह यह भी न कह सके कि मेरा समय नहीं आया है। मैंने कहा कि पचहत्तर साल तो बस खत्म–वह भी सौ साल उम्र मानें, तो। पचहत्तर साल पर वानप्रस्थ खत्म हो गया, अब संन्यास का वक्त आ गया। सौ साल जीता कौन है? सत्तर साल औसत उम्र है। उस हिसाब से तो आपको कभी का संन्यासी हो जाना चाहिए था। मैंने कहा : आप ले लो संन्यास। आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, शास्त्र की बात कह रहे हैं। मैं शास्त्र के बिल्कुल विपरीत नहीं हूँ, पक्ष में हूँ।

वे बहुत घबड़ाए। उन्होंने कहा मैं फिर आकर आपसे बात करूँगा। मैंने कहाः आप जाते कहाँ हैं? लौटें, न लौटें! फिर इस लड़के का भी संन्यास तो वापिस लेना है। जब आप लौटोगे, तभी इसका वापिस लूँगा।

फिर वे नहीं आए। फिर भाड़ में जाए लड़का! फिर उन्होंने चिंता नहीं की। काका फिर नहीं आए! कौन झंझट में पड़े इस! अब शास्त्र के अनुकूल तो यही है। वे सोच रहे थे शास्त्र के अनुकूल बच्चे को बचा लेंगे, उन्होंने यह नहीं सोचा था खुद फँस जाएँगे।

जिंदगी जब प्रवाह में होती है, जब उभार में होती है, जब लोहा गर्म होता है, तब चोट हो जाए तो बड़े काम की होती है।

 

जनम सफल तब का भया, चरनौं चित लाया।

 

रज्जब राम दया करी, दादू गुर पाया।।

कहते हैं: राम की कृपा हो गयी मुझ पर। भक्तों का सदा का यह अनुभव रहा है कि उसकी बिना कृपा के हम उसको खोजेंगे भी नहीं। उसकी बिना कृपा के हम उसकी तरफ जाएँगे भी नहीं। वही चाहेगा तो ही हम उसे खोजेंगे।

मिस्र के पुराने शास्त्र कहते हैं कि जब तुम परमात्मा की खोज पर निकलते हो तो एक बात पक्की समझ लेना कि उसने तुम्हें पुकारा है, अन्यथा तुम अपने से थोड़े ही खोज पर निकल सकते थे। उसने तुम्हारी याद की है। तुम उसे याद आ गए हो, इसलिए खोज शुरू हुई है।

“रज्जब राम दया करी’। राम ने दया की। और जब भी राम दया करता है तो सीधा नहीं कर सकता। क्योंकि सीधा तो राम तुम्हारी समझ में न आएगा। सीधा तो तुमसे कोई सेतु नहीं बनेगा। सीधे-सीधे तो राम इतना बेबूझ होगा तुम्हें कि सामने भी खड़ा रहे तो तुम देख न पाओगे, पहचान न पाओगे। बोले तो समझ न पाओगे।

 

रज्जब राम दया करी, दादू गुर पाया।।

उसकी कृपा का परिणाम यह था कि दादू जैसा गुरु मिला। यह उसकी कृपा है कि दादू जैसा गुरु मिला। दादू जैसा गुरु मिल जाए तो राम के मिलने में देर कितनी? मिल ही गया! समझो कि मिल ही गया। गुरु के चरणों पर हाथ पड़ गए तो उसीके छिपे चरणों पर हाथ पड़ गए। गुरु वही है जिसमें तुम्हें भगवान की पहली किरण उतरती अनुभव में आने लगे। गुरु वही है तुम्हारे लिए, जो तुम्हारे लिए परमात्मा का प्रतिबिंब बन जाए; जिसमें परमात्मा की छाया तुम्हारे लिए उतरने लगे; जिसके माध्यम से परमात्मा तुम्हारे लिए ग्राह्य हो जाए।

 

राम रंगीले के रंग राती।

और जब यह हुआ, जब यह घटना घटी, तो एक नयी दुनिया शुरू होती है–मस्ती की, नृत्य की, उत्सव की। “राम रंगीले के रंग राती।’ रज्जब कहते हैं: उस राम रंगीले के रंग में रंग गयी हूँ। जैसे ही भक्त परमात्मा में रँगता है, उसकी भाषा हमेशा स्त्री की हो जाती है, यह खयाल रखना। वहाँ कहाँ दूसरा पुरुष; बस एक ही पुरुष है। वहाँ तो सभी स्त्री हो जाते हैं। स्त्री का मतलब, वहाँ तो सभी निष्क्रिय, ग्राहक, अनाक्रामक, स्वागत के द्वार हो जाते हैं। बंदनवार हो जाते हैं।

“राम रंगीले के रंग राती।’ राम सच में ही रंगीला है। और जिन्होंने राम की तस्वीरें ऐसी बनायी हैं, जिनमें रंग नहीं हैं, वे तस्वीरें झूठी हैं। क्योंकि सारे जगत के रंग उसके रंग हैं। सारे रंग उसके रंग हैं। सब रंग हैं। इंद्रधनुष के सारे रंग उसके रंग हैं। फूलों के, वृक्षों के, पक्षियों के सारे रंग उसके रंग हैं। तितलियों के सारे रंग उसके रंग हैं। इस जगत में जितनी भाव-भंगिमाएँ हैं, सब उसकी भाव-भंगिमाएँ हैं।

“राम रंगीले के रंग राती।’ और जो उसमें रंग जाए, उसके सारे रंगों में डूब जाए, उसका जीवन उदासी का होगा तुम सोचते हो? अगर उसका जीवन उदासी का होगा तो फिर आनंद का, उत्सव का जीवन किसका होगा? संसार में उदास रहो, संसार उदासी है, परमात्मा में उत्सव है।

मगर बड़ी उल्टी बातें हो रही हैं दुनिया में। यहाँ सांसारिक तो थोड़े-बहुत प्रसन्न भी दिखायी पड़ते हैं, आध्यात्मिक तो बिल्कुल ऐसे बैठ जाते हैं, मुर्दा होकर! इसका मतलब क्या है? इसका मतलब साफ है, गणित सीधा है। ये जो तुम्हारे तथाकथित आध्यात्मिक लोग उदास होकर बैठे हैं, ये आध्यात्मिक नहीं हैं। नहीं तो ये कहते**ऱ्**: राम रंगीले के रंग राती! ये आध्यात्मिक नहीं हैं, ये सांसारिक ही हैं। संसार में थोड़ी-बहुत हँसी, थोड़ी-बहुत गूँज, थोड़ा-बहुत रस, इनको था, वह भी गया।

संसार में लोग थोड़े हँसते भी हैं; चलो झूठी ही सही, हँसी तो है! थोड़े नाचते भी हैं; व्यर्थ ही सही, मगर नाच तो है! थोड़ा रस भी संसार में बहता दिखायी पड़ता है; उथला ही सही, मगर रस तो है! यह थोड़ा उत्सव भी दिखायी पड़ता है संसार में। फिर तुम्हारे आध्यात्मिक साधु-संत हैं, वे बिल्कुल ऐसे बैठे हैं मुर्दे की भाँति! यह इस बात की खबर दे रहे हैं वे कि संसार में ही उनका रस है; और संसार हाथ से गया, अब दूसरा उन्हें कोई रस है नहीं, अब क्या करें? उदास न हों तो और क्या करें? अब बस मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

असली आध्यात्मिक व्यक्ति का लक्षण ही यही होगा कि उसके पास तुम सब रंगों की, सब ध्वनियों की बहार पाओगे। उसके पास तुम्हें उत्सव-ही-उत्सव मालूम होगा। वहाँ अगर नाच न होगा, तो फिर नाच और कहीं भी नहीं हो सकता। मंदिर उजड़ गए, मस्जिदें खाली पड़ी हैं, चर्च बेरौनक हैं, क्योंकि वहाँ रंग नहीं है, रूप नहीं है। वहाँ परमात्मा के सौंदर्य की आयोजना नहीं है। वहाँ परमात्मा के आनंदरूप का अवतरण नहीं है। वहाँ संसार से जबरदस्ती अपने को छुड़ाकर, किसी भाँति संसार से भाग गए लोग बैठ गए हैं! नाराज, क्रुद्ध, परेशान, पीड़ित, उदास!

 

“राम रंगीले के रंग राती।’

“परम पुरुष संगि प्राण हमारो’। यह होगा ही। यह रंगमय तो जीवन हो ही जाएगा। मधुमय तो जीवन हो ही जाएगा। “परम पुरुष संगि प्राण हमारो’। जब परम पुरुष के साथ होओगे तो रास न रचाओगे? जब उसकी बाँसुरी बजेगी तो तुम नाचोगे नहीं? और जब वह मोर-मुकुट बाँधकर तुम्हारे बीच खड़ा हो जाएगा, तो तुम साधु-महात्मा बने खड़े रहोगे?

ज़रा सोचो, कृष्ण बाँसुरी बजा रहे हैं, मोर-मुकुट बाँधे और सब महात्मा इत्यादि–अखंडानंद, पाखंडानंद–सब खड़े हैं! वे सब अपनी मालाएँ फेर रहे हैं। वे कह रहे हैं–हरे राम, हरे राम! नहीं, कृष्ण के पास नृत्य चाहिए।

यह आकस्मिक नहीं है कि हिंदुओं ने कृष्ण को पूर्णावतार कहा है। राम थोड़े कम पड़ जाते लगते हैं। इतना उत्सव नहीं है। कृष्ण के पास उत्सव पूर्ण है। बहुविध प्रगट हुआ है। सब रंगों में प्रगट हुआ है। कोई निषेध नहीं है। कृष्ण के पास जैसा रास रचा है, वही खबर दे रहा है पूरे विराट की। ऐसा ही रास चल रहा है चाँदत्तारों का, सूरज-पृथ्वियों का। यह विराट उत्सव चल रहा है जो प्रकाश का, इसके बीच में कहीं कोई कृष्ण जरूर है। इसके बीच में कोई बाँसुरी जरूर बज रही है। उसी बाँसुरी की धुनें पक्षियों के कंठ में आ गयी हैं। उसीकी बाँसुरी के रंग फूलों में आ गए हैं। उसी बाँसुरी की तरंग तितलियों में आ गयी है। कहीं इस विराट के केंद्र पर कोई बाँसुरी निश्चित बज रही है।

हिंदू ठीक ही कहते हैं कि कृष्ण पूर्णावतार हैं। उन्होंने हिम्मत से यह बात कही। राम का बड़ा समादर है, लेकिन उनको अंशावतार ही कहा। कुछ कमी रह गयी है। कुछ थोड़ी-सी मर्यादा है। उत्सव में मर्यादा नहीं होती। उत्सव में मर्यादा हो तो उत्सव मर जाता है। उत्सव तो अमर्याद होना चाहिए।

 

राम रंगीले के रंग राती।

 

परम पुरुष संगि प्राण हमारे, मगन गलित मद-माती।।

सब डूब गया! पूर्ण मग्नता पैदा हुई है। मदमस्त।. . .मगन गलित मद-माती।

 

लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँ, गिनत न सीली ताती।

अब न तो सर्दी की कोई फिकर है, न गर्मी की कोई फिकर है। न सफलता, न असफलता। न सुख, न दःुख। अब उस परम प्यारे के साथ नाच चल रहा है। अब कैसी फिकर? अब सब उसके हाथ में है। अब कैसी फिकर? अब कैसी चिंता?

लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँ, गिनत न सीली ताती।

 

डगमग नहीं अडिग होई बैठी, सिर धरि करवत काती।।

करना क्या पड़ा है इस उत्सव के लिए? सिर्फ अपने सिर को काट देना पड़ा है। सिर को काटकर रख दिया है चरणों में, फिर नाच शुरू हो गया है, जिसका कोई अंत नहीं। और उस एक ही नाम से प्रेम लग गया है।

अहंकार के कारण ही तुम रुके हो। तुम्हारा सिर भारी है। तुम्हारा सिर सब कुछ हो गया है। तुम सोच-विचारकर चल रहे हो। तुम गणित बिठा रहे हो। तुम चालाक हो, चालबाज हो, चतुर हो। तुम्हारे जीवन में सरलता नहीं है, हृदय का भाव नहीं है। तो तुम में “भजन-भाव भरिया’, कैसे घटे यह घटना! हृदय ही सूख गया है।

 

लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँ, गिनत न सीली ताती।

 

डगमग नहीं. . .

सिर कट गया, फिर कैसा डगमग होना? यह सिर ही डगमगाता है। यह खोपड़ी ही है जो संदेहों से भरती है। यह खोपड़ी ही है जो चंचल होती है। यह अहंकार ही है जो यहाँ से वहाँ ले जाता है; कहता है–यह कर लो, वह कर लो; वैसे हो जाओ, वैसे हो जाओ।

“डगमग नहीं अडिग होई बैठी।’ सिर कट जाए तो फिर तो अडिग हो ही गए; फिर तो सब ठहर गया। मन ठहरा कि सब ठहरा। विचार ठहरे कि सब ठहरा। बस एक काम करोः अगर कहीं राम की तुम पर कृपा हो गयी हो, राम की कृपा हो रही हो और गुरु के चरण मिल जाएँ, तो सिर को काटने में देर मत करना। तत्क्षण सिर काटकर चढ़ा देना। तुम गँवाओगे कुछ भी नहीं, क्योंकि तुम्हारे सिर में सिवाय भूसे के और कुछ भी नहीं है। गँवाना क्या है? भूसे के अतिरिक्त कुछ और तुमने सिर में पाया है? बेचने जाओगे तो भूसे के भी दाम नहीं मिलेंगे।

मैंने सुना है, ऐसा हुआ। एक सम्राट किसी भी फकीर के चरणों में झुक जाता था। उसके वजीरों को अच्छा नहीं लगता था। और उसके वजीरों ने कहा, यह भला नहीं है; यह ठीक नहीं है। यह शोभा नहीं देता। आप इतने बड़े सम्राट हैं। ऐरे-गैरे, कोई भी फकीर चले आते हैं, भीख माँगनेवाले फकीर, आप उनके चरण छूते हैं? आप सिर झुकाते हैं उनके चरणों में? यह सिर बड़े सम्राट नहीं झुकवा सकते, यह सिर कभी नहीं झुका–विजेता सम्राट था–इस सिर पर बहुमूल्य हीरे-जवाहरातों के मुकुट होते हैं। इसको आप झुकाते हैं फकीरों के चरणों में? गंदे फकीर, नंगे फकीर! उस सम्राट ने कहा, समय आने पर जवाब दूँगा। एक दिन एक आदमी को फाँसी लगी। बड़ा सुंदर आदमी था, बड़ा प्यारा आदमी था। कुछ भूल-चूक की थी, सम्राट से कुछ धोखाधड़ी की थी, फाँसी लग गयी। लेकिन चेहरा उसका बड़ा सुंदर था, रूपवान था। उसकी गर्दन कटवायी सम्राट ने और अपने वजीरों को कहा कि इसको जाकर बाजार में बेच आओ। सम्राट ने कहा था तो वजीरों को जाना पड़ा। जहाँ गए वहीं लोगों ने कहा, हटो-हटो, भागो यहाँ से! यह क्या ले आए हो तुम? इसका हम क्या करेंगे? और बदबू भी आ रही है, तुम यहाँ से जाओ! तुम होश में हो? कौन खरीदेगा इसको?

जहाँ गए वहीं से भगाए गए। साँझ होते ही वे वापिस लौटे। उन्होंने कहा, यह तो बड़ा मुश्किल मामला है, दो पैसे में भी कोई लेने को तैयार नहीं है। पैसे की बात ही अलग, लोग खड़े नहीं होने देते। वे कहते हैं, अपना रास्ता पकड़ो! बात ही नहीं करते, खरीदने का तो सवाल ही नहीं, लोग हँसते हैं। वे कहते हैं, पागल हो गए हो? आदमी के सिर का हम करेंगे क्या?

सम्राट ने कहा, तुम सोचते हो, कल जब मैं मर जाऊँगा, तुम मेरे सिर को बेच पाओगे? दो पैसे में कोई खरीदेगा नहीं। भूसे के सिवाय इसमें कुछ है भी नहीं। भूसा भी बिक जाएगा।

एक और ऐसी कहानी है।

एक सूफी फकीर को कुछ डाकुओं ने पकड़ लिया। मस्त फकीर था! अलमस्त फकीर था! और उन्होंने सोचा कि बेच देंगे इसे गुलामों के बाजार में, अच्छे दाम लग जाएँगे हाथ। उसे लेकर चले। राह वह में एक सम्राट की सवारी गुजरती थी, सम्राट रुका, उसने कहा कि यह आदमी कहाँ ले जा रहे हो? उन्होंने कहा, हम बेचने जा रहे हैं, आपको खरीदना है? गुलाम है, खरीद लें।

उसने कहा, दस हजार रुपए में खरीद लेता हूँ। लेकिन उस फकीर ने उन डाकुओं को कहा कि इतने सस्ते में बेच मत देना। ठहरो ज़रा, तुम्हें मेरे मूल्य का पता नहीं।

आदमी बुद्धिमान मालूम होता था। थोड़ी देर साथ उसके रहे भी थे, उसकी मस्ती भी देखी थी। हो सकता है ठीक हो। तो उन्होंने कहा, नहीं, इतने में नहीं बेचेंगे। तो सम्राट ने कहा, बीस हजार देता हूँ। उस फकीर ने कहा, तुम ज़रा धीरज रखो। अब तो उसकी बात पर भरोसा भी आ गया। दस से बीस हो गए। उन्होंने मना कर दिया बेचने से।

आगे फिर एक धनी की सवारी मिली। उस धनी ने कहा, पचास हजार रुपए देता हूँ इस आदमी के। उस फकीर ने कहा, तुम बेच मत देना जल्दी में–वे तो बिल्कुल आतुर हो रहे थे। पचास हजार! जब ठीक कोई मूल्य बताएगा तो मैं तुम्हें खुद कह दूँगा कि बेच दो।

फिर कोई और मिल गया खरीदनेवाला जो लाख रुपए देने को तैयार था, लेकिन फकीर ने कहा, ज़रा सावधान! अब तो वे ज़रा गुलाम बेचनेवाले भी चिंतित हो गए कि इससे ज्यादा दाम मिल नहीं सकते। हमने बड़े-बड़े गुलाम बिकते देखे हैं, मगर एक लाख रुपया! यह जरूरत से ज्यादा हो गया! बेचने को ही थे और उस फकीर ने कहा, तुम्हारी मर्जी, फिर पछताओगे, जिंदगी-भर पछताओगे! तुम्हें मेरे दाम का पता नहीं है, मुझे पता है। तुम ज़रा ठहरो!

थोड़ी दूर चलने पर एक घसियारा मिला। वह एक घास की पोटली लिए सिर पर जा रहा था। और उस फकीर ने कहा, इससे पूछो कितने दाम देगा? उन्होंने कहा, यह क्या दाम देगा? उसने कहा तुम पूछो तो। फकीर को देखा उस घसियारे ने, नीचे से ऊपर तक, उसने कहा–भई ज्यादा तो मेरे पास नहीं है, मगर यह घास की पोटली दे सकता हूँ। फकीर ने कहा, बेच दो! ठीक दाम मिल रहे हैं, अब चूको मत।

सिर ठोंक लिया होगा उन डाकुओं ने कि किस पागल के चक्कर में पड़ गए।

मगर फकीर ठीक कह रहा है। इतना ही दाम है! ठीक दाम तो इतना ही है। लेकिन इस सिर को हम बचाए फिरते हैं। इस सिर को हम अकड़ाए फिरते हैं। मजा यह है कि यह सिर अकड़ा रहे तो दो कौड़ी इसके दाम नहीं हैं और यह सिर झुक जाए तो इसकी कीमत का क्या हिसाब! मगर यह बड़ा मजा है, यह झुके तो इसमें कीमत आती है। झुकने से कीमत आती है। झुकने से यह हीरों से तुलने-योग्य हो जाता है।

 

जनम सफल तब का भया, चरनौं चित लामा।

रज्जब राम दया करी, दादू गुर पाया।।

डगमग नहीं अडिग होई बैठी, सिर धरि करवत काती।।

एक बड़े आरे से लेकर सिर को काट डाला है, तब से सब डाँवाँडोलपन चला गया, सब थिर हो गया। प्रज्ञा ठहर गयी।

और जहाँ विचार ठहर जाते हैं, वहीं तो परमात्मा का आगमन है। तुम्हारे विचारों की तरंगों के कारण ही तुम चूक रहे हो। देख नहीं पाते, सुन नहीं पाते, अनुभव नहीं कर पाते। परमात्मा तो सदा मौजूद है, तुम्हारी तरंगें सब विकृत कर देती हैं। ऐसा ही है जैसे चाँद तो निकला हो, लेकिन झील पर बहुत लहरें हों तो छाया चाँद की नहीं बनती। बने तो भी बिखर जाती हैं। झील भर पर चाँदी बिखर जाती है, मगर चाँद नहीं दिखायी पड़ता। फिर कभी झील पर हवा नहीं है, हवा के झोंके नहीं हैं, तरंगें नहीं हैं और चाँद निकला–चाँद पूरा झलकता है। ऐसे ही परमात्मा तुम में झलके, तुम ठहरो ज़रा! लेकिन तुम पड़े हो विवाद में, संदेहों में, विचारों में–जिनका कोई मूल्य भी नहीं है, जिनको पकड़-पकड़कर तुम कुछ पाओगे भी नहीं। लेकिन बड़ी जिद्द से पकड़ा है। छोड़ने को राजी नहीं हैं। बीमारियों को पकड़े बैठे हो और छोड़ने को राजी नहीं हैं!

 

डगमग नहीं अडिग होई बैठी, सिर धरि करवत काती।।

 

सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखै. . .

और जब से यह सिर काटा है, तब से एक मजे की बात घट रही हैः सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखै. . . । अब जैसा राम रखते हैं, हर हाल में सुख-ही-सुख है। संतोष से दोस्ती हो गयी है।

 

सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखै, यहु रसरीति सुहाती।

यही प्रेम की पुरानी रीति है। “यहु रसरीति सुहाती’. . . । भक्त को यही सुहाती है–एक बात, कि जैसे राम रखें, वैसे रहूँगा। “जैसे’ का खयाल रखना। उसमें तुम्हारी शर्त नहीं आनी चाहिए। सुख तो सुख, दुःख तो दुःख। दिन तो दिन, रात तो रात। सब उसकी हैं–रात भी उसकी, और दुःख भी उसका; फूल भी उसके और काँटे भी उसके।

 

सब विधि सुखी राम ज्यूँ राखै, यहु रसरीति सुहाती।

जन रज्जब धन ध्यान तिहारो. . .

धनी हो जाता है आदमी, ध्यानी हो जाता है आदमी–जब सिर झुका देता है, विचारों की आहुति चढ़ा देता है; मेरे का जो भाव है, उसे गिरा देता है।

“जन रज्जब धन ध्यान तिहारो।’ फिर तो बस उसकी याद ही रह जाती है। वही एकमात्र भीतर की आवाज रह जाती है।

 

जन रज्जब धन ध्यान तिहारो, बेरबेर बलि जाती।।

और फिर तो बार-बार बलि जाने का मजा आने लगता है। हर घड़ी बलि जाने का मजा आने लगता है। यही है पूजा, यही है प्रर्थाना, यही है अर्चना।

कहना मुश्किल है– राम रंगीले के रंग राती–उस घड़ी में क्या घटता है, कहना मुश्किल है। कैसे सौंदर्य के बादल तुम्हारे ऊपर बरस जाते हैं, कहना मुश्किल है। कैसे सूरज, अनंत सूरज तुम्हारे अंधेरे को आलोकित कर देते हैं, कहना मुश्किल है। कोई शब्द सार्थक नहीं हैं जो बता सकें। और कैसे अपूर्व सौंदर्य का अनुभव होता है, और कैसे सुख की धार भीतर बहने लगती है, कहना मुश्किल है!

 

जैसे शबनम से भरी कोंपल में

किसी तितली के परों का परतव

जैसे जंगल में किसी मोर का रक्स

जैसे झोंकों में किसी शमा की जौ

तेरे शानों पे मुअत्तरजुल्फें

 

जैसे बरसात की महकी रुत में

साँवला गीत किसी बादल का

जैसे गुलज़ार में भौंरों की उड़ान

जैसे मंदिर में धुऑं संदल का

यह जवां साल खदो-खाल तेरे

 

मुझसे तारीफ नहीं हो सकती

तेरी तुर्शी हुई रानाई की

जिसमें शामिल हो तवाजुन का शऊर

 

तू वह तस्वीर है चुगताई की

बन गया है मेरा सपना कल का

खुशनुमा रंग तेरे ऑंचल का

साधारण प्रेम की भी परिभाषा नहीं हो पाती, तो प्रभु-प्रेम की तो कैसे हो! साधारण रूप भी शब्दों में नहीं बँधता, तो उस निराकार का रूप तो कैसे बँधे!

यह तो किसी कवि के शब्द हैं–अपनी प्रेयसी के लिए कहे हैं। कहा है–

 

जैसे शबनम से भरी कोंपल में

जैसे कोंपल में ओस की बूँद भरी हो।

जैसे शबनम से भरी कोंपल में

किसी तितली के परों का परतव

और पास से कोई उड़ती तितली निकल जाए और तितली के रंगीन परों की छाया ओस की बूँद में पड़ जाए!

 

जैसे शबनम से भरी कोंपल में

किसी तितली के परों का परतव

जैसे जंगल में किसी मोर का रक्स

और जैसे एकांत जंगल में कोई मोर नाचे!

 

जैसे झोंकों में किसी शमा की लौ

और जैसे हवा के झोंके में शमा की लौ का नृत्य!

 

तेरे शानों पे मुअत्तरजुल्फें

ऐसे तेरे बाल तेरे माथे पर!

जैसे बरसात की महकी रुत में

साँवला गीत किसी बादल का

जैसे गुलज़ार में भौंरों की उड़ान

जैसे मंदिर में धुऑं संदल का

यह जवां साल खदो-खाल तेरे

यह तेरा रूप, यह तेरा नक्श!

मुझसे तारीफ नहीं हो सकती

साधारण रूप की तारीफ भी नहीं हो पाती।

 

मुझसे तारीफ नहीं हो सकती

तेरी तुर्शी हुई रानाई की

तेरे रूप की, तेरे सौंदर्य की मैं प्रशंसा नहीं कर पाता!

 

जिसमें शामिल हो तवाजुन का शऊर

और फिर जिसमें संतुलन भी हो . . . सौंदर्य और संतुलन!

 

तू वह तस्वीर है चुगताई की

बड़े-बड़े चित्रकार भी तेरी तस्वीर न बना सकें।

 

बन गया है मेरा सपना कल का

 

खुशनुमा रंग तेरे ऑंचल का

इतना ही कह सकता हूँ कि मैंने जिंदगी-भर, कल तक जो सपने देखे थे, उन सब सपनों का रंग तेरे ऑंचल का रंग है। मगर कहना मुश्किल है!

 

मुझसे तारीफ नहीं हो सकती

 

तेरी तुर्शी हुई रानाई की

प्रभु के सौंदर्य का तो कैसे वर्णन हो? और प्रभु का संग-साथ मिल जाने पर जो मस्ती उतर आती है, जो शराब ढल जाती है प्राणों में, उसकी तो कैसे अभिव्यक्ति हो? पर भक्त के जीवन को देखोगे तो अभिव्यक्ति मिलेगी– उसके उठने में, उसके बैठने में, उसकी ऑंखों में, उसके हाथों में। भक्त को देखोगे–उसकी भक्ति में, उसकी पूजा में, उसकी प्रार्थना में, उसकी आरती में–भक्त को देखोगे तो थोड़ी-थोड़ी खबर मिलेगी। तारीफ तो नहीं हो सकती, वचनों में आबद्ध भी नहीं किया जा सकता, रंगों में तस्वीर भी नहीं बनायी जा सकती, मगर भक्त के प्रसाद में थोड़ी-सी झलक मिल सकती है। वैसी ही झलक–

 

जैसे शबनम से भरी कोंपल में

किसी तितली के परों का परतव!

वैसी ही झलक–

 

जैसे जंगल में किसी मोर का रक्स

जैसे झोंकों में किसी शमअ की लौ

 

जैसे बरसात की महकी रुत में

साँवला गीत किसी बादल का

जैसे गुलज़ार में भौंरों की उड़ान

जैसे मंदिर में धुऑं संदल का

यह जवां साल खदो-खाल तेरे

परमात्मा बहुत निकट है, तुम नाहक उससे दूर बने हो! अपूर्व संपदा तुम पर बरसने को तत्पर है, झोली फैलाओ! मगर तुम अपनी झोली बंद किए बैठे हो। सब कुछ मिल सकता है–और तुम ना-कुछ की तलाश कर रहे हो! हीरों की खदान पास है–और तुम कचराघर में खोजबीन कर रहे हो!

सब बहुत निकट है; हाथ बढ़ाने की बात है–इतने निकट है! मगर तुम्हारे हाथ गलत दिशाओं में टटोल रहे हैं। तुम ऍ?धेरों में टटोल रहे हो। तुमने ऑंखें बंद कर रखी हैं। तुमने हृदय को जड़ कर रखा है। तुमने अपनी बुद्धि से ही सब कुछ जीने की व्यवस्था कर रखी है। यही तुम्हारे जीवन की दुर्घटना है। इस बुद्धि को चढ़ा दो। खोज लो कहीं कोई चरण, किसी भी बहाने इस बुद्धि को चढ़ा दो। यह बुद्धि चढ़ जाए, तुम अचानक पा जाओ! रोशनी उतरे! रंग उतरे! गंध उतरे! और पहली बार तुम्हें जीवन का अर्थ मालूम हो।

जीवन बहुमूल्य है, इसे ऐसे ही मत गँवाओ। जीवन बहुत बड़ी भेंट है भगवान की! इसे ऐसे ही मत चला जाने दो। मगर अधिक लोग इसे ऐसे ही चला जाने देते हैं। रज्जब से कुछ सीखो!

 

गुरु गरवा दादू मिल्या, दीरघ दिल दरिया।

तत छन परसन होत हीं भजन भाव भरिया।।

श्रवण कथा साँची सुणी, संगति सतगुरु की।

दूजा दिल आवै नहिं, जब धारी धुर की।।

भरमजाल भव काटिया, संका सब तोड़ी।

साँचा सगा जे राम का, त्यों तासूँ जोड़ी।।

भौजल माहिं काढ़िकै, जिन जीव जिलाया।

सहज सजीवन कर लिया साँचे संगि लाया।।

जनम सफल तब का भया, चरनौं चित लाया।

रज्जब राम दया करी, दादू गुरु पाया।।

 

राम रंगीले के रंग राती।

परम पुरुष संगि प्राण हमारो, मगन गलित मद-माती।।

लाग्यो नेह नाम निर्मल सूँ, गिनत न सीली ताती।

डगमग नहीं अडिग होई बैठी, सिर धरि करवत काती।।

सब विधि सुखी राम ज्यौं राखै, यहु रसरीति सुहाती।

जन रज्जब धन ध्यान तिहारो, बेरबेर बलि जाती।।

राम रंगीले के रंग राती।

 

आज इतना ही।

 

 

 


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आनंद योग—(द बिलिव्‍ड)–(प्रवचन–2)

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जब संदेह न होकर विश्‍वास होता है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 11 जूलाई 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—विश्‍वास करने के निर्णय से विश्‍वास उत्‍पन्‍न क्‍यों नहीं होता?

      2—बाउल, एक तांत्रिक, एक भक्‍त और एक सूफी के मध्‍य…..क्‍या अंतर?

      3—अनुभव और अनुभतियों का अनुसरण करो?

      4—सहष्‍णुता में, स्‍थगित करने में और मात्र मूढ़ता के मध्‍य क्‍या अंतर है?

      5—आपका व्‍यवहार विवेक के प्रति कैसा है?

     

पहला प्रश्न — विश्वास करने के निर्णय मे विश्वास उत्पन्न क्यों नहीं होता?

तुम्हारी ओर से विश्वास करना, एक निर्णय नहीं है। तुम उसके लिए निर्णय नहीं ले सकते हो। जब तुम्हारे संदेह समाप्त हो जाते हैं, जब तुम संदेह को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हो, और तुम संदेह करने की व्यर्थता के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हो जाते हो, विश्वास का जन्म होता है। तुम्हें संदेह के साथ कुछ करना होगा, तुम्हें विश्वास के लिए कुछ भी करने की जरूरत ही नहीं है। तुम्हारे विश्वास का अधिक महत्त्व न होगा, क्योंकि तुम्हारा विश्वास और तुम्हारा निर्णय हमेशा संदेह के विरुद्ध ही होगा। और विश्वास, संदेह के विपरीत नहीं होता, विश्वास केवल संदेह की अनुपस्थिति होता है। जब संदेह नहीं होता, विश्वास ही होता है। स्मरण रहे, विश्वास किसी के प्रतिकूल या विपरीत नहीं है। शब्दकोष भले ही कुछ भी कहें, विश्वास, संदेह के विपरीत नहीं है ठीक वैसे ही, जैसे अंधकार, प्रकाश के विपरीत नहीं है। वह विपरीत होना प्रतीत होता है, लेकिन है नहीं, क्योंकि अंधकार लाकर तुम प्रकाश को नष्ट नहीं कर सकते। तुम अंधकार को अंदर नहीं ला सकते। प्रकाश के ऊपर अंधकार उडेल कर उसे नष्ट करने का कोई उपाय नहीं है। एक छोटी सी मोमबत्ती की छोटी सी ज्योति को भी, अंधकार नष्ट करने में कभी भी सफल नहीं हो सका है। एक छोटी सी मोमबत्ती के प्रकाश के सामने, पूरे अस्तित्व का अंधकार भी नपुंसक है। ऐसा क्यों होता है? यदि अंधकार, विपरीत है, शत्रुतापूर्ण और विरोधी है, तो प्रकाश को हराने में उसे कभी भी समर्थ होना ही चाहिए। वह केवल अनुपस्थित है। अंधकार इसीलिए है, क्योंकि प्रकाश नहीं है। जब प्रकाश होता है तो अंधकार नहीं होता। जब तुम अपने कमरे में प्रकाश करते हो, क्या तुमने निरीक्षण किया है कि तब क्या होता है? अंधकार कमरे के बाहर नहीं जाता, ऐसा नहीं होता कि अंधकार कमरे से पलायन कर जाता है। साधारण रूप से हम पाते हैं कि वह वहां है ही नहीं। वह कभी वहां था ही नहीं—वह एक शुद्ध नकारात्मकता है।

संदेह भी अंधकार के समान होता है और विश्वास, प्रकाश के समान होता है। यदि तुम्हारे अंदर है, तभी तुम विश्वास करने का निश्चय करोगे, अन्यथा विश्वास का निश्चय करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। फिर उसके लिए निश्चय क्यों करना? तुम्हारे अंदर अत्यधिक संदेह होना ही चाहिए। जितना अधिक बड़ा संदेह होता है, उतनी ही बड़ी जरूरत, विश्वास सृजित करने की अनुभव की जाती है। इसलिए जब कभी कोई भी व्यक्ति यह कहता है—’‘मैं बहुत दृढ़ता से विश्वास करता हूं‘‘, स्मरण रहे, कि वह एक बहुत मजबूत संदेह के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। इसी तरह से लोग कट्टर धार्मिक बन जाते हैं। उनमें कट्टर धार्मिकता का जन्म इसीलिए होता है क्योंकि उन्होंने झूठा विश्वास उत्पन्न कर लिया है। उनका संदेह अभी तक जीवित है, उनका संदेह अभी समाप्त नहीं हुआ है। संदेह अभी तिरोहित नहीं हुआ है, वह अभी भी वहां है। और संदेह से लड़ने के लिए ही उन्होंने उसके विरुद्ध विश्वास सृजित कर लिया है। यदि संदेह बहुत मजबूत है तो उन्हें विश्वास के साथ एक उन्मादी की भांति अपने को लपेटना होगा। जब कभी कोई व्यक्ति यह कहता है—’‘ मैं एक बहुत निष्ठावान विश्वासी हूं ‘‘, तो स्मरण रखना, अपने हृदय में कहीं गहरे में वह बहुत बड़ा अविश्वास लिए चल रहा है। अन्यथा उसे निष्ठावान विश्वासी कहने की जरूरत क्या थी। साधारण विश्वास ही यथेष्ट है—दृढू विश्वास ही क्यों? जब तुम किसी भी व्यक्ति से यह कहते हो—’‘ मैं तुम्हें बहुत दृढ़तापूर्वक प्रेम करता हूं ‘‘, तो कहीं कोई चीज गलत है। प्रेम, काफी है। प्रेम परिमाण में नहीं होता। जब कोई व्यक्ति यह कहता है—’‘ मैं तुम्हें बहुत अधिक प्रेम करता हूं ‘‘, तो कहीं कुछ चीज गलत है, क्योंकि प्रेम में कोई परिमाण नहीं होता। तुम कम या अधिक प्रेम नहीं कर सकते। या तो तुम प्रेम करते हो अथवा नहीं करते, प्रेम। यह विभाजन बहुत अधिक स्पष्ट है।

कुछ दिन पूर्व एक नई पुस्तक प्रकाशित होकर आई और मैं हमेशा उसकी प्रथम प्रति विवेक को दिया करता था। मैंने उस पर लिखा—’‘ विवेक को प्रेम सहित भेंट।’’ उसने मुझसे कहा—’‘ अत्यधिक प्रेम सहित क्यों नहीं?” मैंने उत्तर दिया— ” यह लिखना असम्भव है। मैं उसे नहीं लिख सकता—क्योंकि मेरे लिए कम या अधिक सम्भव ही नहीं है। मैं तो सामान्य रूप से ‘प्रेम सहित’ ही लिख सकता हूं ‘अत्यधिक प्रेम ‘ तो निरर्थक है। प्रश्न परिमाण का नहीं है, बल्कि केवल गुण का है। जब तुम ‘ अधिक ‘कहते हो तो तुम उस ‘अधिक ‘ के पीछे जरूर कोई चीज छिपा रहे हो, थोड़ी सी घृणा, थोड़ा सा क्रोध, थोड़ी सी ईर्ष्या, लेकिन कुछ ऐसी चीज जरूर है, जो प्रेम नहीं है। उसे छिपाने के लिए ही तुम इतने अधिक उत्साह का प्रदर्शन कर रहे हो, जिसे तुम ‘अत्यधिक प्रेम ‘‘ दृढ़ विश्वास’ कहते हो। जब तुम ‘बहुत अधिक’ या कट्टर ईसाई होते हो, तो तुम ईसाई जरा भी नहीं होते। यदि तुम बहुत अधिक कट्टर हिंदू होते हो, तो तुम अभी तक हिंदू होना समझे ही नहीं।

ठीक पिछली रात ही एक युवती मुझे बता रही थी कि वह भयभीत है। वह मुझसे संन्यास लेना चाहती थी, लेकिन वह भयभीत थी।’’ क्योंकि जीसस क्राइस्ट को अब नम्बर दो पर रखना होगा और आप प्रथम हो जायेंगे।’’ वह बहुत उलझन में थी। यह तो क्राइस्ट को आपके पीछे रखना हो जायेगा ‘‘—उसकी इस बात के प्रत्युत्तर में मैंने उससे कहा—’‘ यदि तुम वास्तव में क्राइस्ट को प्रेम करती हो तो तुम मुझमें ही क्राइस्ट को देखोगी। तब तुम दो भिन्न व्यक्ति नहीं खोज सकोगी। लेकिन यदि तुम ईसाई हो तब ऐसा कठिन होगा। तब तुम संन्यास लेने के बारे में भूल ही जाओ।’’

जो क्राइस्ट से प्रेम करता है, वह मुझसे प्रेम कर सकता है, वहां इसमें कहीं संघर्ष है ही नहीं। जो कृष्ण से प्रेम करता है, वह मुझसे भी प्रेम कर सकता है, वहां इसमें संघर्ष जैसी कोई बात ही नहीं है। लेकिन यदि कोई हिंदू मुसलमान या ईसाई है, तब ऐसा करना कठिन है। एक ईसाई, क्राइस्ट का प्रेमी नहीं है। ईसाई बनना तुम्हारी ओर से लिया गया एक निर्णय है, अभी संदेह पूरी तरह विसर्जित नहीं हुआ है, उस संदेह को दबा दिया गया है। संदेह का दमन मत करो। वस्तुत— इसके विपरीत निरीक्षण करो, गहराई से देखो, उसका विश्लेषण करो।

उसके किसी भी भाग को अनजाना और बिना विश्लेषण के मत छोड़ो। संदेह करने वाले मन की सभी पर्तों के साथ पहचान बनाओ। संदेह में गहरी पैठ करने से, उनसे पहचान बढ़ाने से, संदेह विसर्जित होंगे। एक दिन अचानक जब तुम सुबह जागोगे, तुम विश्वास से भरे हुए होगे—लेकिन अपने निर्णय जैसे नहीं। वह निर्णय लेने जैसा कुछ हो ही नहीं सकता, क्योंकि विश्वास तो कुछ ऐसी चीज है, जिसके साथ तुम जन्मते हो, संदेह तो सीखी हुई चीज होती है, और विश्वास होता है मौन, मूक और जन्मजात।

प्रत्येक बच्चा विश्वास करता है। जैसे—जैसे वह बड़ा होता है, संदेह उठने लगते हैं। संदेह करना सीखा जाता है। इसलिए विश्वास तो तुम्हारे अस्तित्व में एक अंतर्प्रवाह की तरह वहां हमेशा रहता है। तुम बस संदेह गिरा दो, विश्वास उठ खड़ा होगा। और तब विश्वास का अपना एक अनुपम सौंदर्य होता है, क्योंकि वह शुद्ध होता है। वह संदेह के विरुद्ध नहीं होता, वह बस संदेह की अनुपस्थिति होता है। चट्टान हटा दी गई, और झरना उफनता हुआ प्रवाहित होने लगा है।

इसलिए कृपया, उसके बारे में कोई निर्णय लेने का प्रयास मत करें। तुम्हारे निर्णय लेने में देर होगी; और निर्णय लेने में तुम जितना अधिक समय लोगे, उतने ही अधिक तुम अपने अंदर संदेह के बढ़ते कीड़ों को रेंगते हुए पाओगे। तब तुम दो भागों में विभाजित हो जाओगे, और कभी भी विश्राममय नहीं रहोगे, और वहां निरंतर एक पीड़ा बनी रहेगी।

इसीलिए बहुत से लोग परमात्मा में विश्वास करते हैं और उनके गहरे में कहीं संदेह जीवित बना उस अवसर की प्रतीक्षा में धड़कता रहता है, जब वह विश्वास को नष्ट कर दे। ऐसा विश्वास निरर्थक होता है क्योंकि विश्वास परिधि पर होता है और संदेह तुम्हारे अस्तित्व के लगभग केंद्र तक पहुंच गया होता है। प्रेम के बारे में, विश्वास के बारे में और परमात्मा के बारे में कभी कोई निर्णय लेना ही नहीं। ये चीजें तुम्हारे किये गये निर्णय से नहीं होतीं। ये सभी कोई तार्किक निष्पत्ति नहीं हैं, ये निष्कर्ष नहीं हैं। जब वहां कोई भी संदेह नहीं होता, तभी विश्वास होता है।

वह स्वयं से छूटता है। वह प्रवाहित होता है। वह तुम्हारे आंतरिक केंद्र और आंतरिक समाधि से उमगता है। तुम अपने अस्तित्व का एक नूतन संगीत सुनना शुरू कर देते हो। तुम्हारे होने की एक नूतन शैली और फिर एक नया ढंग होता है। वह मन का नहीं, अस्तित्वगत होता है।

 

दूसरा प्रश्न : एक बाउल? एक तांत्रिक एक भक्त और एक सूफी के मध्य वास्तव में क्या अंतर होत? है? क्या यह सभी लोग प्रेम पथ के ही पथिक हैं? ये सभी अंदर से मिले—जुले एक जैसे ही लगते हैं कृपया बोध देने की अनुकम्पा करो।

 

किसी हद तक ये सीमाएं एक दूसरे को आच्छादित करती हुई बाहर से अलग भी दिखाई देती हैं। इन सभी का मार्ग प्रेम ही है, लेकिन फिर भी इन सभी में कुछ सूक्ष्म विशेषताएं हैं। एक दूसरे को आच्छादित करती सीमाओं के साथ—साथ, तांत्रिक बाउल और भक्त, इन तीनों में कुछ चीजें विशिष्ट हैं। सूफी भी एक भक्त से अलग नहीं होता। सूफी भक्त है—इस्लाम के मार्ग का और एक भक्त, सूफी होता है हिंदुत्व के मार्ग का। भक्ति और सूफी में कोई अंतर होता ही नहीं, इसलिए हम इसका जिक्र करेंगे ही नहीं। अंतर केवल पारिभाषिक शब्दावली का है। सूफी इस्लाम के पारिभाषिक शब्दों का और एक भक्त, हिंदू परिभाषिक शब्दों का प्रयोग करते हैं। अंतर केवल भाषा का है, और किसी अंतर का कोई महत्त्व नहीं है। बाउल, तांत्रिक और भक्त, इन तीनों को ही समझना है।

प्रेम की तीन सम्भावनाएं हैं — सबसे निम्‍न तल पर सेक्स या कामवासना, सेक्स से ऊंचा तल है प्रेम, और प्रार्थना है सर्वोच्च शिखर। तांत्रिक सेक्स की दिशा की ओर ही उन्मुख है। तांत्रिक वास्तव में प्रेम से दूर रहते हैं, क्योंकि प्रेम फंसाने वाला जंजाल बन जाएगा। वे सेक्स की शुद्ध तकनीक के विशेषज्ञ बने रहते हैं। सेक्स की ऊर्जा के प्रति वे तटस्थ वैज्ञानिक की भांति कार्य करते हैं। वे इसके बीच प्रेम को नहीं लाते हैं। वे ऊर्जा का रूपांतरण करते हैं। उनमें प्रेम भी उमगता है, प्रार्थना भी जन्मती है, लेकिन ये केवल परिणाम होते हैं। वे छाया की तरह उसका अनुगमन करते हैं, लेकिन वे सेक्स ऊर्जा की ओर ही उन्मुख होते हैं। तांत्रिक का पूरा कार्य और उसकी पूरी प्रयोगशाला सेक्स केंद्रित ही होती है। वह वहीं, उस व्यक्ति से निरासक्त, अलग और लगभग तटस्थ होकर ही रहता है। जिस किसी के भी साथ वह प्रेम या संभोग करता है, वह पूरी तरह उससे पृथक और निरासक्त बना रहता है। तंत्र की विधि का यह एक भाग है कि तुम्हें उस व्यक्ति से कोई जुड़ाव या आसक्ति नहीं होनी चाहिए। इसी वजह से तांत्रिक कहते हैं : तंत्र की विधियां अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ मत करो। किसी ऐसी स्त्री की खोज करो, जिसके साथ तुम्हारा कोई भी सम्बंध न हो, जिससे तुम एक शुद्ध तकनीशियन बने रह सको। यह विधि पूर्ण वैज्ञानिक है।

यह ठीक इस तरह है : जैसे तुम एक महान सर्जन या शल्य चिकित्सक होकर हजारों आपरेशन कर सकते हो, लेकिन जब तुम्हें अपने ही हाथों से अपनी पत्नी का आपरेशन करना पड़े, तो तुम्हारे हाथ कापना शुरू हो जाते हैं। यदि तुम्हें अपने ही लड़के का आपरेशन करना पड़े, तो तुम्हें किसी दूसरे सर्जन को बुलाना पडेगा। वह भले ही तुम्हारा जितना होशियार न हो, लेकिन फिर भी तुम्हें किसी दूसरे को ही बुलाना पड़ेगा—क्योंकि आवश्यकता ऐसे सर्जन की है, जो मरीज से पूरी तरह असम्बंधित और निरासक्त हो। केवल तभी शल्य क्रिया पूर्णता से वैज्ञानिक हो सकता है।

तांत्रिक को पूरी तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना होता है। वह किसी ऐसी स्त्री या ऐसे पुरुष को खोजेगा, जो उससे किसी भी तरह सम्बंधित न हो। और तांत्रिक प्रक्रियाओं में किसी के साथ जाने से पूर्व, महीनों तैयारी की जरूरत होती है। और पूरी तैयारी यही है कि कैसे प्रेम की भावना से दूर रहा जाए कैसे उस दूसरे व्यक्ति के साथ गहरे सम्बंधों में गिरने से अपने को रोक कर तटस्थ रहा जाये। अन्यथा पूरी विधि का कोई भी उपयोग न हो सकेगा।

बाउल प्रेम की ओर उन्मुख है। बाउल के जीवन में यदि सेक्स आता है तो वह केवल एक छाया की भांति आता है। वह उसके प्रेम का ही एक भाग है। वह सेक्स से भयभीत नहीं होता, लेकिन वह सेक्स की ओर उन्मुख नहीं है। वह एक स्त्री से प्रेम करता है : क्योंकि वह उस स्त्री से प्रेम करता है, वह उसके साथ वह सब कुछ बांटना चाहता है, जो उसके पास है, जिसमें सेक्स ऊर्जा भी सम्मिलित है। लेकिन सेक्स उसकी प्रयोगशाला नहीं है; उसकी प्रयोगशाला प्रेम है, गहरा सम्बंध है, दूसरे व्यक्ति की पूरी देखभाल और फिक्र है—इतनी अधिक फिक्र कि तुम स्वयं कम महत्त्वपूर्ण और दूसरा अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। तांत्रिक के मार्ग में जो कुछ बाधा है, वही बाउल का मार्ग है। यदि बीच में सेक्स आता है, तो ठीक है, यदि वह नहीं आता है, तो वह भी ठीक है। सेक्स कोई लक्ष्य नहीं है। और वह सेक्स के स्वाभाविक प्रवाह पर कार्य नहीं कर रहा है, वह प्रेम की सूक्ष्म ऊर्जा पर कार्य कर रहा है। जैसे एक तांत्रिक बीज पर कार्य कर रहा है, बाउल फूल पर कार्य कर रहा है, और भक्त अथवा सूफी, सुगंध अथवा प्रेम पुष्प की सुवास पर कार्य कर रहे हैं। प्रार्थना, सेक्स ऊर्जा का उच्चतम रूप है, प्रेम से भी ऊंचा। यह प्रेम पुष्प की सुवास है, अति सूक्ष्म, सारी स्थूलता चली गई। भक्त या सूफी प्रार्थना पर ही कार्य करता है। यदि प्रार्थना का अनुसरण करते हुए प्रेम प्रविष्ट होता है, तो उसकी इजाजत होती है। उस बारे में कोई भी समस्या नहीं है। यहां तक कि यदि प्रेम का अनुसरण करते हुए सेक्स भी प्रविष्ट होता है, तो उसकी भी इजाजत होती है—लेकिन पूरा ध्यान, प्रार्थना पर ही केन्द्रित रहता है। इसलिए यदि एक भक्त किसी दूसरे व्यक्ति से प्रेम करता है, तो वह प्रार्थना का ही एक रूप है। दूसरा व्यक्ति दिव्य है, दूसरा व्यक्ति देवता या देवी है। वह पवित्र प्रेम करता है।

बाउल ठीक इन दोनों के मध्य में है। वह तांत्रिक, भक्त अथवा सूफी इन दोनों के मध्य एक सेतु है।

कठिनाइयां तो तांत्रिक के साथ हैं। वह कठिनाई है—क्योंकि वह अधिक स्थूल है, और सम्भावना इस बात की है कि तुम इस स्थूलता में ही खो न जाओ। वह कहीं तुम्हें अपने नियंत्रण में न ले ले, तुम पर हावी न हो जाए। सेक्स की ऊर्जा अति भयंकर है, वह आदिम ऊर्जा हे, बहुत तूफानी है वह, और तुम एक सागर में गतिशील हो रहे हो। सागर में प्रचण्ड तूफान उठ रहे हैं, और तुम्हारे पास एक छोटी सी डोंगी है, और सफर बहुत खतरनाक है। तंत्र के मार्ग में प्रवेश करना तो बहुत सरल है, लेकिन उससे बाहर आना उतना ही कठिन है। यदि सौ लोग प्रविष्ट होते हैं, तो केवल एक ही बच पाता है—क्योंकि तुम आदिम ऊर्जा के साथ खेल रहे हो। यह ऊर्जा इतनी अधिक प्रचण्ड है कि वहां इस बात की सम्भावना अधिक है कि वह तुम्हें अपने नियंत्रण में कर ले।

प्रार्थना का, सुवास का मार्ग भी कठिन है। तुम सुवास को देख नहीं सकते, वह पकड़ में नहीं आती। प्रार्थना के मार्ग में प्रवेश करना बहुत कठिन है। यदि तुम प्रविष्ट हो जाते हो, तो तुम उससे सरलता से बाहर आ जाते हो। तंत्र के मार्ग में प्रविष्ट होना तो बहुत आसान है, लेकिन उससे बाहर आना बहुत कठिन है। प्रार्थना में प्रवेश करना बहुत कठिन है, लेकिन उसके बाहर आना बहुत आसान है। उसमें प्रविष्ट होना लगभग असम्भव है—तुम जब प्रेम के बारे में ही कुछ नहीं जानते, तो प्रार्थना के बारे में तो क्या कहा जाए? यह तुम्हारे लिए मात्र एक शब्द है, जिसके साथ कोई विषय—सामग्री नहीं है, वह वास्तविकता से पृथक बहुत बहुत सूक्ष्म और दूर है। जो प्रार्थना है, तुम उसके साथ कोई सम्बंध या सम्पर्क नहीं बना सकते। इसलिए तुम अधिक से अधिक एक विशिष्ट कर्मकाण्ड के शिकार बन जाते हो। तुम एक प्रार्थना को दोहरा सकते हो : वह केवल मौखिक उच्चारण मात्र होगा, वह मन की ही एक सामग्री और मन का ही एक खेल है। सामान्यत: प्रार्थना के पथ पर प्रवेश करना ही कठिन होगा।

बाउल का मार्ग ठीक मध्य में है। इसमें प्रवेश करना, तंत्र के मार्ग जितना सरल नहीं है, और न प्रार्थना के मार्ग जितना कठिन है। यह मनुष्य के लिए सम्भव है। बाउल बहुत यथार्थवादी हैं, जमीन से बहुत अधिक जुड़े हैं, और उनका मार्ग यथासम्भव सबसे अधिक सुरक्षित मार्ग है। ठीक मध्य में, दोनों में एक संतुलन स्थापित करने वाला—एक हाथ सेक्स की ओर उन्मुख और दूसरा हाथ प्रार्थना में उठा हुआ। बाउल ठीक मध्य में चलने वाले यात्री हैं।

 

तीसरा प्रश्न : आप कहते हैं— तुम अपने अनुभवों और अनुभूतियों का अनुसरण करो, और जब मैं अंतिम रूप से साहस कर अधिक स्वतंत्रता प्रसन्नता और सरलता से अपनी अनुभूतियों और अनुभवों का अनुसरण करती हूं तो आप कहते हैं कि मैं अपरिपक्‍व हूं। आखिर इसका क्या अर्थ है?

 

तुम्हारे प्रश्न का ठीक यही अर्थ है, जो स्वयं कह रहा है—कि तुम अपरिपक्व हो। अपरिपक्वता और होती ही क्या है? तुम जो कुछ भी कर रही हो, तुम लगभग उसे मूर्च्छा में ही कर रही हो। हां, मैं यह कहता हूं—सहज स्वाभाविक बनकर रहो, लेकिन मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि मूर्च्छित बनो। मेरा अर्थ है—सजग बने रहकर सहज स्वाभाविक बनो। सहज स्वाभाविक बनने से तुम तुरंत यह समझ लेती हो कि नदी में बहने वाला लकड़ी का स्लीपर बन जाना है, जिससे तुम्हारे मन की धारा तुम्हें जहां भी बहा ले जाये, तुमसे जो कुछ भी कराये, वह होने देना है। तुम अप्रत्याशित अथवा एक संयोग बन कर रह गई हो।

अपरिपक्वता एक मनुष्य को संयोग से होने वाली एक घटना बना देती है, और परिपक्वता व्यक्ति को एक दिशा देती है।

‘मेच्‍योरिटी’ अर्थात परिपक्वता शब्द का लेटिन मूल शब्द है—’ मेचुरस ‘ जिसका अर्थ है —पकना। एक फल तभी परिपक्व होता है, जब वह पक जाता है, जब वह मीठा बन जाता है और खाने तथा पचने के लिए तैयार होता है, जब वह किसी के जीवन का भाग बन सकता है। परिपक्व व्यक्ति वह होता है जो यह जान लेता है कि प्रेम क्या है और प्रेम ही ने उसे मधुर और मीठा बनाया है।

अब माधुरी जो कुछ कर रही है, वह प्रेम नहीं है, वह केवल एक सनक है कामवासना की—इसलिए एक दिन वह एक पुरुष के साथ घूमती है, और दूसरे दिन दूसरे पुरुष के साथ। यह बहुत विध्वंसक और विनाशक है। स्मरण रहे, जो कुछ मैं कहता हूं उसे ठीक से समझने की जरूरत है, अन्यथा मेरा कहना सहायक न हो सकेगा। वह हानिकारक ही बन जायेगा।

एक बार ऐसा हुआ:

मुल्ला नसरुद्दीन घर आया। उसकी पत्नी ने उससे पूछा—’‘ नसरुद्दीन! जब तुमने अपने बॉस से वेतन बढ़ाने को कहा, तो आखिर उसका हुआ क्या?”

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा—’‘ वह एक भेड़ के मेमने की तरह है।’’

” क्या सचमुच, ऐसा है वह? लेकिन उसे कहा क्या?”

— ” बा…… बा…..।’’

 

जो कुछ मैं कहता हूं कृपया उसे सावधानी से सुनो और उससे अपने अलग अर्थ न निकालो उसके अर्थ को विकृत न करो। सहज स्वाभाविक बनो। लेकिन तुम सहज स्वाभाविक केवल तभी बन सकती हो, जब तुम बहुत सजग बनी रहो। अन्यथा तुम एक संयोग या दुर्घटना बन जाओगी—एक क्षण तुम उत्तर दिशा की ओर जा रही होगी और दूसरे ही क्षण दक्षिण दिशा की ओर। तुम दिशा ज्ञान ही खो दोगी। एक सहज स्वाभाविक व्यक्ति प्रत्येक क्षण प्रत्युत्तर में स्वयं तैयार रहता है। कभी उसे उत्तर की ओर कभी दूसरे लोग उसे दक्षिण दिशा की ओर जाते देख सकते हैं, लेकिन उसकी आंतरिक दिशा पूरी तरह से निश्चित बनी रहती है। उसकी आंतरिक दिशा लक्ष्य की ओर जाते तीर की भांति होती है। परिस्थितियों के अनुसार वह समायोजन कर सकता है, लेकिन जब एक बार वह व्यवस्थित हो जाता है, वह फिर से ऊर्जा प्राप्त कर अपनी दिशा की ओर गतिशील होने की शुरुआत करता है। दिशा के लिए उसके पास अपनी अनुभूति होती है, लेकिन वह अनुभूति तभी होती है जब तुम अत्यंत सजग होते हो अन्यथा तुम्हारी स्वाभाविकता तुम्हारा कद घटा कर तुम्हें केवल एक पशु बना देती है। पशु सहजता स्वाभाविक होकर जीते हैं, लेकिन वे बुद्ध नहीं होते। इसलिए केवल सहजता और स्वाभाविक किसी व्यक्ति को बुद्ध नहीं बना सकती, इससे कुछ अधिक और, किसी और चीज को जोड्ने की आवश्यकता होती है सहजता और स्वाभाविकता में सजगता जोड़नी होती है। तब तुम एक यांत्रिकता बनकर नहीं रह जाते और न तुम नदी की धारा के साथ बहने वाला लकड़ी का एक स्लीपर होते हो।

सागर पर तैरने वाले एक जहाज के डॉक्टर ने परिचारक को सूचना दी कि शयनकक्ष नम्बर पैंतालीस में एक व्यक्ति मर गया है। शव को दफनाने के सामान्य निर्देश दे दिए गए। कुछ समय पश्चात डॉक्टर ने उस केबिन में झांक कर देखा तो पाया कि शव अब भी वहां पड़ा हुआ है। उन्होंने परिचारक को बुलाकर उसका ध्यान उस ओर जब आकर्षित किया तो उसने उत्तर दिया—’‘ मेरा खयाल था कि आपने केबिन नम्बर उन्चास के बाबत कहा था। मैं उस केबिन में गया, तो मैंने देखा कि उन लोगों में से एक व्यक्ति अपनी बर्थ पर लेटा है। मैंने उससे पूछा—क्या तुम मर गये हो?” उसने कहा—’‘ करीब करीब एक सीमा तक मरा ही समझो।’’ इसलिए मैंने उसे दफना दिया।’’

 

फिर भी यदि कोई व्यक्ति यह कहता है—’‘ करीब करीब एक सीमा तक मरा ही समझो, तो इसका अर्थ है कि वह जीवित है। बहुत अधिक भाषा पर मत जाओ, बहुत अधिक शाब्दिक मत बनो। मैं तुम्हें अपनी भावनाओं और अनुभूतियों की बात सुनने के लिए कहता हूं लेकिन मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें खण्डित बन जाना चाहिए। मेरे कहने का अर्थ है कि तुम अपनी अनुभूतियों की बात तो सुनो, लेकिन तुम्हारे सभी अनुभव और अनुभूतियों एक गुंथी हुई माला बन जायें। उन्हें फूलों के एक ढेर की तरह नहीं होना चाहिए। तुम्हारे अनुभव और अनुभूतियां एक फूलों की माला की तरह होनी चाहिए और सभी फूलों के अंदर एक दौड़ता धागा हो जो उन्हें एक दूसरे से बांधे रहे। हो सकता है कि कोई भी उसे न देख सके लेकिन उन्हें जोड्ने वाला धागा एक निरंतरता देता है — यह निरंतरता ही दिशा है। जब तक तुम्हारी अनुभूतियां एक फूलों का हार नहीं बनतीं, तुम टुकड़ों में बिखर जाओगी, तुम खण्ड—खण्ड हो जाओगी, तुम अपनी सहभागिता खो दोगी।’’

हां! मैंने माधुरी से अपने अनुभवों और अनुभूतियों के अनुसार सहजता और स्वाभाविकता से जीवन में गतिशील होने को कहा था। लेकिन मैं निरंतर सब कुछ करने पर जोर तो देता रहा हूं लेकिन सदा यह भी स्मरण रखना है कि इसके साथ सजगता रखना भी आवश्यक है, जो बुनियादी जरूरत है—तब तुम जो कुछ करना चाहो, करो। तुम जो कुछ भी कर रही हो, यदि उसे करने में कुछ चीज ऐसी है, जिसमें सजगता बाधा बन रही हो, तो उसे मत करना। यदि वहां तुम कोई काम ऐसा कर रही हो, जिसमें सजगता बाधा न बन कर, उसके विपरीत तुम्हारी सहायता कर रही हो, तो उसे जरूर करना।

ठीक और गलत की पूरी परिभाषा ही यही है। गलत वही है जो सजगता के साथ न किया जा सकता हो, जिसके लिए मूर्च्छा जरूरी हो। ठीक वह है, जो केवल सजगता के साथ ही किया जा सकता हो, जिसके लिए मूर्च्छा को हटाना हो, अन्यथा उसे किया ही न जा सकता हो। सजगता अत्यंत आवश्यक है। ठीक वही है, जिसके लिए सजगता आवश्यक हो, और गलत वही है, जिसके लिए मूर्च्छा जरूरी हो। मेरी यही परिभाषा पाप और पुण्य के लिए भी है। और तय तुम्हें करना है; सारी जिम्मेदारी तुम्हारी ही है।

 

एक बार ऐसा हुआ : एक चिंतित स्त्री अपने डॉक्टर के पास गई और उससे कहा कि उसके पति में पौरुष की कुछ कमी प्रतीत होती है क्योंकि वह उसमें कोई रुचि लेता ही नहीं। उसने उसे दवा देते हुए कहा—’‘ यह गोलियां तुम्हारी सहायता करेंगी। अगली बार जब तुम और तुम्हारे पति शांति से साथ—साथ भोजन करें तो इनमें से दो गोलियां उसकी काफी में मिला देना और वे अपने सहज स्वाभाविक रूप में आ जायेंगे। इसके बाद मुझे फिर आकर बताना।’’

दो सप्ताह बाद वह स्त्री फिर डॉक्टर के पास गई और डॉक्टर ने पूछा कि उसका उपचार सफल सिद्ध हुआ या नहीं?

उसने उत्तर दिया—’‘ ओह! पूरी तरह से लाजवाब। मैंने रेस्तरां में उसकी कॉफी में दो गोलियां मिला दीं और उसके दो सिप लेने के बाद ही वह मुझसे प्रेम करने लगा।’’

डॉक्टर ने मुस्कराते हुए कहा—’‘ बढ़िया! अब तो आपको कोई शिकायत नहीं?”

उसने उत्तर दिया—’‘ ठीक है, फिर भी एक शिकायत है। मेरे पति और मैं अब कभी अपने को उस रेस्तरां में अपना मुंह नहीं दिखा सकते।’’

 

स्मरण रहे माधुरी! मैं जो कुछ भी कहता हूं उसे ध्यान से समझना है, क्योंकि अंत में तुम्हीं को यह निर्णय लेना है कि उन दो गोलियों का प्रयोग कहां किया जाये मैं तुम्हारा पीछा नहीं कर सकता। यह तुम ही तय करोगी कि कहां स्वाभाविक हुआ जाये, कैसे सहज और स्वाभाविक बना जाए। और कोई मूर्च्छा नहीं है सहजता और स्वाभाविकता। सहजता स्वाभाविकता में बहुत सजग बहुत सावधान और बहुत दायित्वपूर्ण होना है। तुम केवल चारों ओर बेवकूफ बनी घूम रही हो।

तुमने पूछा है—’‘ आप कहते हैं—तुम अपने अनुभवों और अनुभूतियों का अनुसरण करो, और जब मैं अंत में साहस कर अधिक स्वतंत्रता, प्रसन्नता और सरलता से अपने अनुभवों और अनुभूतियों का अनुसरण करती हूं तो आप कहते हैं कि मैं अपरिपक्व हूं। आखिर इसका क्या अर्थ है?”

अपने दिए गये वक्तव्य के साथ मैं तुम्हें देखने के लिए एक खास रस्सी भी देता हूं। मैं तुम्हें वह विशिष्ट रस्सी इसीलिए देता हूं जिससे जब मैं देखूं कि तुम पागल बन रहे हो, तब मुझे तुम्हें वापस खींचना होता है। मैं निरीक्षण करते हुए देखता रहता हूं कि माधुरी क्या कर रही है, लेकिन अब बहुत, कुछ बहुत अधिक हो चुका है।

 

मैं तुम्हें एक प्रसंग के बारे में बताना चाहता हूं : अब्दुल, अरब के भूरे रेगिस्तान में यात्रा कर रहा था। उसका ऊंट रेत पर बैठ गया और उसने उठने से साफ इंकार कर दिया। आखिर लम्बी प्रतीक्षा के बाद एक दूसरा अरब उसे मिला और अब्दुल ने उसे अपनी समस्या बतलाई।

दूसरे अरब ने उससे कहा—’‘ मैं उसे ठीक कर सकता हूं। केवल तुम्हें इसके लिए चांदी के पांच सिक्के खर्च करने होंगे।

अब्दुल ने कहा—’‘ यह सस्ता सौदा है, इसलिए तुम आगे बढ़कर इस ऊंट को उठाओ।’’

इसलिए बिना बात का बतंगड़ बनाये वह अरब झुककर अब्दुल के ऊंट के निकट आया और उसके कान में फुसफुसाते हुए कुछ शब्द कहे। अचानक ऊंट उछल कर अपने पैरों पर खड़ा हो गया और एक शिकारी कुत्ते की तरह रेगिस्तान में दौड़ पड़ा।

अब्दुल आश्चर्यचकित होकर प्रसन्नता से बोला—’‘ तुम्हारी इस तरकीब की कीमत वाकई पांच चांदी के सिक्कों से काफी अधिक है।’’

उस दूसरे अरब ने उत्तर दिया—’‘ मैं जानता हूं। और मैं वह जादू भरे शब्द तुम्हें बताऊं, मैं तुमसे पांच सौ चांदी के सिक्के चाहता हूं जिससे तुम अपने ऊंट को वापस पकड सको।’’

 

यह केवल आधी कहानी है : अब तुम्हें उस ऊंट को पकड़ना होगा…… अब पांच सौ चांदी के सिक्कों की जरूरत है। जब तक वह दूसरा अरब उसी मंत्र को अब्दुल के कानों को नहीं सुनाता, वह अपना ऊंट नहीं पकड़ सकता।

माधुरी! तुम्हारी कामनाएं भी शिकारी कुत्तों की तरह दौड़ रही हैं। यह आसान था, इसकी कीमत केवल पांच सौ रुपये है, तभी तुम अपना ऊंट पकड़ सकोगी, और इसकी कीमत पांच सौ रुपये होगी। यह तुम्हारे लिए अधिक स्कूर्तिदायक होगा।

कामनाओं के साथ गति करते हुए किसी को भी हमेशा पूर्णता का अनुभव होता है, क्योंकि कोई भी लगभग पशु के समान ही बन जाता है। इसमें प्रसन्नता जैसा ही अनुभव होता है क्योंकि वहां कोई तनाव नहीं होता, कोई जिम्मेदारी नहीं होती। तुम इस बारे में दूसरे व्यक्ति के बारे में कोई भी फिक्र नहीं करते। अब तुम्हें ऊंट को पकड़ना है।

हां, मैंने मैं तुमसे अपने अनुभवों और अनुभूतियों के साथ स्वतंत्र होने के लिए कहा था, अब मैं तुमसे सजग बनने के लिए भी कह रहा हूं। यह अधिक श्रमपूर्ण होगा, लेकिन यदि तुम सजग रह सकीं तो तुम वास्तव में सरल और पूर्ण बन सकोगी। यह सरलता और कुछ भी नहीं है, यह केवल अपने बचपन में पीछे लौटना अथवा अपने पशुत्व में पीछे लौटना है। मैं तुमसे जिस सरलता को उपलब्ध होने के लिए कहता हूं वह सहजता और सरलता एक बुद्ध की है, वह पशुत्व की ओर पीछे न लौटकर, जीवन के चरम शिखर पर पहुंचने की है। तुम्हारी यह सरलता और सहजता तुम्हारी अधिक सहायता करने नहीं जा रही है। इसने किसी की भी सहायता नहीं की है। यह सरलता बहुत आदिम, छिछली और अपरिपक्व है।

लेकिन मैं यह देखना चाहता हूं कि तुम क्या करती हो, और मैंने यह देखा भी है कि तुम क्या कर रही हो। अब तुम्हें अधिक सजग बनना है। अपने जीवन में एक अनुशासन लाओ, उसे एक दिशा दो। अधिक सावधान, अधिक प्रेमपूर्ण और अधिक जिम्मेदार बनो। तुम्हें अपने शरीर को पूरा सम्मान देना है, यह परमात्मा का मंदिर है। तुम्हें इसके साथ इस तरह का व्यवहार नहीं करना है, जिस तरह का तुम कर रही हो, यह उसका अनादर करना है। लेकिन यह कठोरता होगी, यह मैं जानता हूं। लेकिन मैं स्थितियां निर्मित करता हूं जिनके लिए कठोर चीजें करनी ही होती हैं क्योंकि विकसित होने का केवल यही एक ढंग है।

 

चौथा प्रश्न : सहिष्णुता में, स्थगित करने में और मात्र मूढ़ता के मध्य क्या अंतर है?

 

हां, यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है क्योंकि लोग इन तीनों के बारे में भ्रमित हो सकते है।

सहिष्णुता में बहुत सजगता होती है, बहुत सक्रियता होती है और सहिष्णुता में अत्यंत धैर्य और प्रतीक्षा होती है। यदि तुम किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो—जिसे तुम अपना मित्र कहते हो—तो तुम बस दरवाजे पर बैठे रहते हो, लेकिन तुम बहुत सजग और सावधान रहते हो। सड़क से कोई भी आवाज आती है, कोई कार गुजरती है, और तुरंत तुम उस ओर देखना शुरू कर देते हो, शायद तुम्हारा मित्र आ गया हो। हवा से दरवाजा खड़कता है, और अचानक तुम सजग हो जाते हो, हो सकता है उसने दरवाजा खटखटाया हो….. .उद्यान में सूखी पत्तियां इधर—उधर उडती हुई खड़खड़ाती हैं और तुम घर के बाहर आ जाते हो, शायद वह आ गया है….. .सहिष्णुता बहुत सक्रिय होती है। उसमें प्रतीक्षा होती है। उसमें सुस्ती न होकर उसकी दृष्टि में प्रेम, आशा और आनंद की दीप्ति होती है। उसमें मूर्च्छा नहीं होती और न गफलत जैसी ही कोई चीज होती है। वह एक द्युतिवान जलती हुई ज्योति की भांति होती है। इसमें कोई प्रतीक्षा करता है। कोई भी अनंत प्रतीक्षा कर सकता है, लेकिन वह प्रेम, आशा और आनंद से प्रतीक्षा करता है, वह सक्रिय, सजग और निरीक्षणकर्ता बना रहता है।

इसके ठीक विपरीत है—मात्र मूढ़ता। तुम बस सुस्त, बेवकूफ और मूढ़ बने एक गफलत में होते हो और तुम सोच सकते हो कि तुम सहनशील या संतोषी हो। तुम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हो कि जो दूसरे लोग कठिन परिश्रम करते हुए कहीं पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं, वे असंतोषी हैं, जब कि तुम एक संतोषी व्यक्ति हो। लेकिन स्मरण रहे, सहिष्णुता को कार्य की आवश्यकता होती है। सहिष्णुता, निष्कि्रय नहीं होती। एक सक्रिय व्यक्ति धैर्यपूर्वक कार्य करता है। वह कोई मांग नहीं करता, उसकी जरूरतें बहुत अधिक नहीं होतीं, उसमें कोई जल्दबाजी नहीं होती, उसे तुरंत या शीघ्र सतोरी या समाधि घट जाये, ऐसी उसकी कोई चाह नहीं होती। वह जानता है कि यह श्रमपूर्ण और बहुत कठोर मार्ग है। वह जानता है कि मार्ग बहुत कठिन है और एक हजार एक बार गड्डों में गिरने की सम्भावनाएं हैं। खोना बहुत आसान है, और प्राप्त करना बहुत कठिन। वह जानता है कि ‘उसे’ पाना लगभग असम्भव है—लेकिन यही उसका आकर्षण है और यही उसके लिए एक चुनौती है। परमात्मा को पाना लगभग असम्भव है, लेकिन यही उसका सौंदर्य है, और यही चुनौती है। उस चुनौती को स्वीकार करना होता है। वह कठोर श्रम करता है और फिर भी यह भली भांति जानते हुए भी कि उसकी चाह असम्भव को पाने की है, और उसकी अपनी सीमाएं हैं, वह कोई शिकायत नहीं करता।

परमात्मा को जानना और परमात्मा ही हो जाना, यह उत्कंठा लगभग असम्भव है। यह अविश्वसनीय है पर यह घटती है। यही कारण है कि लोग इंकार किए चले जाते हैं कि बुद्ध कभी हुए भी थे, जीसस केवल एक काल्पनिक कथा के पात्र हैं, और कृष्ण, कवियों की कल्पना भर हैं। इतने अधिक लोग इस बात का आग्रह क्यों करते हैं कि बुद्ध केवल काल्पनिक कथा के एक चरित्र हैं और जीसस और कृष्ण कभी हुए ही नहीं। आखिर क्यों? वे लोग केवल यही कह रहे हैं कि यह पूरी बात असम्भव प्रतीत होती है और ऐसा हो ही नहीं सकता।

एक तरह से ये लोग ठीक ही हैं, ऐसा नहीं हो सकता, लेकिन फिर भी ऐसा होता है। पर ऐसा बहुत कम होता है। यह इतना अधिक दुर्लभ या कम है कि तुम यह कह सकते हो कि ऐसा बिलकुल होता ही नहीं। जब कभी हजारों वर्ष गुजरने के बाद, कोई कभी बुद्धत्व को उपलब्ध होता है—जैसे मानो लगभग ऐसा कभी होता ही नहीं।

इसे जानते हुए ही एक कोई प्रतीक्षा करता है, लेकिन वह निष्‍क्रिय होकर प्रतीक्षा नहीं करता, क्योंकि तब प्रतीक्षा करना निरर्थक होगा।

वह प्रतीक्षा ठीक किसान की प्रतीक्षा की भांति होती है। वह बीज बोता है कि वह मौसम आने पर अंकुरित होगे। उसमें जल्दबाजी नहीं की जा सकती। बार—बार खेत में जाकर खोदकर यह देखने की कोई जरूरत ही नहीं है कि बीज अभी तक अंकुरित हुए अथवा नहीं, क्योंकि वह बहुत ही विनाशक होगा। ऐसा करना बीजों को अंकुरित ही नहीं होने देगा। यह अधैर्य ही बीजों को नष्ट कर देगा। वह प्रतीक्षा करता है, वह जल से उन्हें सींचता है—महीनों तक कुछ भी दिखाई ही नहीं देता। पृथ्वी के ऊपर कुछ भी नहीं आता, लेकिन वह गहरे धैर्य के साथ प्रतीक्षा करता रहता है, अपना काम किए चला जाता है, खेत की देखभाल करता है, प्रार्थना करता है और उनके अंकुरित होने की आशा करता है कि वे अंकुरित होने की राह पर हैं। और एक दिन वे वहां होते हैं।

मात्र छूता तुम्हारी निष्क्रियता, तुम्हारे आलस्य और तुम्हारी सुस्ती को छिपाने के सुंदर शब्द हैं। एक आलसी व्यक्ति ही यह कह सकता है—’‘ मुझे कोई जल्दी नहीं है, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं ‘, और वह कोई भी काम नहीं करेगा। तब तुम व्यर्थ ही प्रतीक्षा कर रहे हो, कुछ भी होने नहीं जा रहा। हां, मौसम आने पर बीज अंकुरित तो होगे, लेकिन बीजों को बोना और सींचना होता है, अन्यथा वे अंकुरित न होगे। इसलिए तुम अपने ही अंदर निरीक्षण करो। यह भेदभाव एक ही व्यक्ति की विशेषता नहीं है, यह विशेषताएं प्रत्येक व्यक्ति में होती हैं। ये श्रेणियां नहीं हैं कि कोई व्यक्ति ‘ निरा मूर्ख ‘ होता है और कोई व्यक्ति बहुत सहिष्णु। नहीं, यह चित्तवृत्तियां, प्रत्येक व्यक्ति में साथ—साथ होती हैं। कभी तुम्हारे जीवन में मूर्खतापूर्ण क्षण आते हैं और कभी तुम्हारे जीवन में सहिष्णुता के भी क्षण आते हैं, और इन दोनों के ठीक मध्य में है—स्थगन। किसी कार्य को आगे के लिए स्थगित करना या टालना, बहुत बड़ी चालाकी अथवा बेईमानी है।

सहिष्णुता सजग है, मूर्च्छित है। सहिष्णुता सचेतन है, और स्थगन अचेतन है। स्थगन या टालने में दो मोड होते हैं, तुम कुछ काम करना चाहते हो, और फिर भी तुम उसके लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं हो। यह बहुत बेईमानी की स्थिति है, तुम मध्यस्थ रहना चाहते हो, लेकिन तुम कहते हो—’‘ कल करेंगे।’’ यदि तुम वास्तव में करना ही चाहते हो तो आज ही वह सही समय है, क्योंकि कल कभी आता ही नहीं। यदि तुम वास्तव में करना ही चाहते हो, तो ठीक अभी उस पर ध्यान दो, क्योंकि उसके टालने की जरूरत क्या है? तुम कैसे निश्चित हो सकते हो कि कल आयेगा ही? हो सकता है कि वह कभी न आये। और यदि वह वास्तव में तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण है और उसके लिए तुम्हारी तीव्र चाह है, तब तुम उसे एक क्षण के लिए भी न टालोगे। तुम अन्य सभी चीजें टाल दोगे लेकिन तुम ध्यान करोगे। तुम केवल वही आगे के लिए स्थगित करोगे जो तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है अथवा तुम बेईमान बने हुए स्वयं अपने ही साथ खिलवाड़ कर रहे हो। तुम्हारे मन का एक भाग कहता है—’‘ हां। यह महत्त्वपूर्ण तो है—यह मैं जानता हूं इसी वजह से तो मैं इसे कल से शुरू करूंगा।’’ तुम संतुष्ट हो जाते हो।

 

एक व्यक्ति को उसके एक अच्छे मित्र ने यह चुनौती दी, कि उनमें कौन व्यक्ति अधिक ऊर्जावान है, यह सुनकर पहले व्यक्ति ने कहा कि वह सुबह छ: बजे उठ बैठा, टहलने चला गया। आठ बजे नाश्ते के बाद उसने एक घंटा कार्य किया और तब ऑफिस चला गया। वहां उसने सिर्फ आधे घंटे का लंच किया और इसी तरह उसने किये गये कार्यों का बारी—बारी से ग्यारह बजे रात तक की कसरत का पूरा फैलाव भरा विस्तृत विवरण सुना डाला।’’

उसके मित्र ने कहा—’‘ यह तो ठीक है लेकिन तुम यह सभी कुछ कितनी अवधि से कर रहे हो?”

—’‘ मैं इसे सोमवार से शुरू करूंगा।’’

 

परमात्मा का ध्यान हमेशा स्थगित कर दिया जाता है, प्रेम हमेशा स्थगित कर दिया जाता है, ध्यान हमेशा आगे के लिए टाल दिया जाता है। क्रोध, लोभ, और घृणा कभी स्थगित नहीं किये जाते, शैतान को कभी नहीं टाला जाता। जब शैतान तुम्हें आमंत्रित करता है तुम हमेशा पहले ही से तैयार रहते हो। तुम तुरंत, उसी समय खड़े हो जाते हो। तुम कहते हो ‘ मैं आ रहा हूं ‘। जब कभी कोई तुम्हारा अपमान करता है, तुम उससे यह नहीं कहते—’‘ मैं कल क्रोध करूंगा, ” लेकिन प्रेम के लिए तुम हमेशा उसे कल के लिए स्थगित कर देते हो। प्रार्थना के लिए तुम कहते हो— ” हां! उसे मुझे करना है ‘‘—यह बहुत बेईमान स्थिति है। तुम इस तथ्य को पहचानना ही नहीं चाहते कि प्रार्थना करने की तुम्हारी इच्छा है ही नहीं, प्रेम तुम करना ही नहीं चाहते, ध्यान तुम करना ही नहीं चाहते। तुम इस तथ्य को जानना ही नहीं चाहते कि तुम्हें परमात्मा के प्रति व्यग्रता है ही नहीं, इसलिए तुम उसे इस तरह टालना चाहते हो। तुम इसकी भली भांति व्यवस्था कर लेते हो—तुम उस काम को किए चले जाते हो, जिसकी तुम्हें वास्तव में चाह होती है, और उस काम को टाले चले जाते हो जिसकी तुम्हें चाह होती ही नहीं, लेकिन तुम्हें उस तथ्य को पहचानने का साहस नहीं होता। कम से कम ईमानदार बनी। टालना, बेईमानी है, बहुत बड़ी बेईमानी। अपने आप का अंदर से निरीक्षण करो और तुम पाओगे कि जो कुछ सुंदर है, उसे तुम स्थगित करते रहे हो।

यह दुहरा मोड़ है, तुम विभाजित हो अथवा तुम स्वयं के साथ ही चालाकी भरा खेल, खेल रहे हो।

 

मैंने सुना है : एक रबी के दुर्भाग्य से उसने अपनी दौड़ती कार, फादर मर्फी की कार से टकरा दी। वह उछल कर कार से बाहर आया और ऊंची आवाज में क्षमा याचना करता हुआ बोला—’‘ मेरे प्रिय फादर मर्फी! मुझे इतना अफसोस है कि मैं बयान नहीं कर सकता। मैंने परमात्मा के प्रिय साथी के साथ ऐसा कर आपके और आपके सभी लोगों के साथ बहुत बड़ी बेवकूफी भरा काम किया है। आप ठीक तो हैं न फादर?”

फादर मर्फी ने कहा—’‘ हां मैं ठीक हूं रबी! मुझे कोई भी चोट नहीं लगी, लेकिन मैं थोड़ा सा कांप जरूर गया।’’

रबी ने नम्रतापूर्वक निवेदन किया—’‘ आप ठीक कह रहे हैं। यहां मेरे पास एक उम्दा व्हिस्की है, क्या उसका आप एक सिप लेना चाहेंगे?”

और उसने पतलून के पीछे की जेब से फ्लास्क में व्हिस्की निकालकर फादर को दी, जिसे पादरी ने हृदय से स्वीकार किया। उसने फ्लास्क फादर को देते हुए कहा—’‘ आप दूसरा पेग भी लीजिए। यह सब कुछ मेरी ही तो गलती से हुआ। आप मजे से पीजिए। इस बाबत फिक्र ही मत कीजिए कि यह कितनी महंगी है? पादरी को दूसरे आमंत्रण की आवश्यकता नहीं थी और उसने दूसरा गहरा सिप लेते हुए कहा—’‘ रबी! आप भी तो एक सिप लीजिए?”

रबी ने हर्ष से चीखते हुए कहा—’‘ लो पुलिस तो पहले ही से आ पहुंची।’’

 

मन बहुत चालबाज है। प्रत्येक मनुष्य का मन एक यहूदी का ही मन है। यहूदी कोई जाति नहीं है, यह सभी के मनों के अंदर का केंद्र है, यह एक चित्तवृत्ति है। जब तुम दूसरों के साथ बेईमानी से खेल खेलते हो तो धीमे— धीमे तुम स्वयं चालाकियां सीखते हो। मनुष्य जाति के लिए यह सबसे बड़ी समस्या है, जिसका उसे सामना करना है। तुम दूसरों के साथ चालाकियां करते हो, और इस संसार में तुम्हें इससे फायदा होता है। धीमे— धीमे तुमने इतनी गहराई से वे चालें सीख ली हैं, कि तुम यह भूल ही गए हो कि तुम स्वयं अपने आप ही से चालाकी का खेल, खेल रहे हो। मन बहुत अधिक सांसारिक है, बहुत अधिक यहूदी चित्तवृत्ति का है। वह व्यापार के अतिरिक्त अन्य कोई व्यवहार जानता ही नहीं।

 

मैंने सुना है :

एबे जब रिटायर होने लगा तो वह बहुत अधिक चिंतित था। अपने अधिकतम जीवन में उसने खूब मौज मजा ही किया था। उसकी ढेर सारी इच्छाएं थीं, पर बचत उसने कुछ भी नहीं की थी। अपने रिटायर होने की सुबह चढ़ी चिंतित त्यौरियों के साथ उसने अपनी पत्नी रशेल की ओर मुड़ते हुए कहा—’‘ मैं नहीं जानता कि अब हम लोगों की गुजर कैसे होगी?”

रशेल ने आलमारी की तली वाली दराज को खींचकर बैंक की पास बुक निकाली, जिसमें पिछले चालीस वर्षों से नियमित जमा धनराशि का विवरण था। वह भले ही रिटायर हो चुका था, लेकिन वे लोग धनी थे।

एबे ने पूछा—’‘ लेकिन तुमने ऐसा किया कैसे?”

रशेल ने शर्माते हुए कहा—’‘ अपने विवाहित जीवन में हर बार जब आप खर्च को अग्रिम धनराशि देते थे, मैं उसमें से दस शिलिंग अलग रख देती थी और देख लो, कैसे वह धनराशि इतनी अधिक इकट्ठी हो गई?”

पुलकित होकर उसने अपनी पत्नी को आलिंगन में भरते हुए कहा—’‘ ओह! यह कितना आश्चर्यजनक है? लेकिन प्रिय रशेल! तुमने यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बतलाई? यदि मैं ऐसा जान पाता तो मैंने तुम्हें अपना पूरा काम धंधा सौंप दिया होता।’’

 

बस कुछ पाना है।

मन हमेशा व्यापार की भाषा में ही सोच रहा है। भले ही तुम प्रेम भी कर रहे हो, वह भी व्यापार ही है। जब तुम प्रार्थना भी करते हो, वह भी एक व्यापार होता है। और यदि वह परमात्मा भी हो, तब भी वह एक व्यापार है। और एक बार जब तुम इस व्यापारिक संसार के अभ्यस्त बन जाते हो, तुम स्वयं अपने आपसे चालाकी भरा खेल खेलना शुरू कर देते हो। सजग हो जाओ। टालना, सबसे अधिक खतरनाक खेलों में से एक है, जो कोई भी मनुष्य स्वयं के साथ खेल सकता है। यदि तुम चाहते हो तो उस काम को करो। यदि तुम नहीं चाहते हो, तो ईमानदार बने रहो, कौन तुम्हें विवश कर रहा है? सिर्फ ईमानदार बने रहो। उस काम को मत करो, बल्कि इसे भली भांति जानो कि तुम उसे इसलिए नहीं कर रहे हो, क्योंकि तुम उसे नहीं करना चाहते हो? धोखेबाज क्यों बनो? यह ईमानदारी तुम्हारी सहायता करेगी।

जैसा मैं देखता हूं कोई भी मनुष्य बिना प्रेम किए नहीं रह सकता है, यदि वह वास्तव में ईमानदार है। लेकिन लाखों लोग बिना प्रेम किए इसलिए जी रहे हैं क्योंकि वे उसे टालते चले जाते हैं। एक दिन वे मर जायेंगे और उनका जीवन पूरी तरह मरुस्थल जैसा शुष्क होगा।

जैसा कि मैं देखता हूं कोई भी व्यक्ति बिना परमात्मा के भी जीवित नहीं रह सकता—लेकिन लाखों लोग जी रहे हैं, क्योंकि उन्होंने नकली परमात्मा सृजित कर लिया है, परमात्मा का एक प्रतिस्थापन, एक ऐसा परमात्मा, जिसे हमेशा टाल दिया जाता है। अब यह बहुत आसान है, तुम बिना परमात्मा के जी सकते हो क्योंकि परमात्मा के वहां होने का तुम्हारे पास झूठा अनुभव है, तुम उस पर विश्वास करते हो, और एक दिन तुम उसके लिए अपना पूरा जीवन लगाने जा रहे हो। लेकिन वह एक दिन कभी नहीं आयेगा। यदि तुम चाहते हो कि वह एक दिन आये, तो वह पहले से आया ही हुआ है—वह दिन आज ही है। यह क्षण ही तुम्हारे रूपांतरण का ही लक्षण है।

 

पांचवां प्रश्न : किसी ने मुझसे यह अशोभनीय और गुस्ताखी भरा प्रश्न पूछने का साहस किया कि आपका व्यवहार विवेक के प्रति कैसा होता हे? आपके बताने के द्वारा कोई मेरे द्वारा कोई भी बात समझना सम्भव हो सकता है।

 

स बारे में कुछ भी कहना कठिन होगा।

विवेक मेरे इतने अधिक निकट है, कि वह जैसे निरंतर सलीब पर चढ़ी रहती है। मेरे इतने अधिक निकट रहना बहुत श्रमपूर्ण और चढ़ाई पर चढ़ने जैसा कार्य है। तुम मेरे जितने अधिक निकट होते हो, तुम्हारा उतना ही अधिक दायित्व बढ़ जाता है। तुम मेरे जितने अधिक निकट होते हो, तुम्हें अपने आपको उतना ही अधिक रूपांतरित करना होता है। तुम अपनी अयोग्यता का जितना अधिक अनुभव करते हो, तुम्हें उतना ही अधिक यह महसूस होना शुरू हो जाता है कि कैसे अधिक योग्य बना जाये— और यह लक्ष्य लगभग असम्भव प्रतीत होता है। और मैं बहुत सी स्थितियां निर्मित किए चले जाता हूं। मुझे उन्हें निर्मित करना ही होता है क्योंकि मेरे भीर उसके स्वभाव के घर्षण या टकराने से ही एकीकरण घटित होता है। केवल कठिन से कठिन परिस्थिति के द्वारा ही कोई विकसित होता है। यह विकास बिना कष्ट के नहीं होता, विकास पीड़ायुक्त होता है। तुम पूछ रहे हो—मैं विवेक के प्रति कैसा व्यवहार करता हूं?

मैं उसे धीमे— धीमे मार रहा हूं। केवल यही एक रास्ता है जिससे पूरी तरह वह एक नया अस्तित्व ले, उसका पुनर्जन्म हो। उसके लिए एक सलीब पर चढ़े हुए चलने जैसा है, और यह काम बहुत सख्त है।

 

मैं इस बारे में एक प्रसंग बताना चाहता हूं : एक यहूदी परिवार में अपने पुत्र के उद्दण्ड व्यवहार के कारण, माता—पिता के हृदय को बहुत आघात पहुंचा। सरकारी स्कूल से उसका नाम काट दिया गया इसलिए अंत में निराश होकर उन्होंने उसे एक रोमन कैथोलिक स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा। पहले ही दिन स्कूल से घर लौटते ही वह सीधे अपने कमरे में चला गया अपना होमवर्क करना शुरू कर दिया।

जब काम से उसका पिता घर लौटा तो उसने उसकी मम्मी से पूछा—’‘ अब मुझे बताओ, पुत्र के बाबत बुरी खबर क्या है?”

मोम्मा ने उत्तर दिया—’‘ पोप्पा! कोई बुरी खबर नहीं है। वह स्कूल से भेड़ के मेमने की तरह खामोश लौटा और वह अपने कमरे में बैठा हुआ अब भी होमवर्क कर रहा है।’’

पोप्पा आश्चर्य से चीखता हुआ बोला—’‘ वह और होमवर्क! उसने अपने पूरे जीवन में कभी होमवर्क किया ही नहीं। उसे जरूर अस्वस्थ होना चाहिए।’’

इसलिए पोप्पा अपने पुत्र के कमरे में जाकर उससे बोला—’‘ यह तुम्हारी मम्मी मुझे क्या बता रही हैं कि तुम होमवर्क कर रहे हो? यह अचानक तुम्हारे हृदय का परिवर्तन हो कैसे गया?”

लड़के ने उत्तर दिया—’‘ पोप्पा! मैं ही उस स्कूल में अकेला यहूदी हूं। मेरी डेस्क के सामने वाली दीवार पर जो तस्वीर लगी है वह वहां आखिरी यहूदी युवा की है। उई मां! आपको भी उसे जरूर देखना चाहिए कि उन्होंने उसके साथ किया क्या?

 

जीसस को क्रॉस पर लटका दिया गया। मेरे बहुत अधिक निकट रहना, क्रॉस पर बने रहना होता है। सब कुछ इतना ही है। यही है वह सब कुछ, जो मैं उसे करने के लिए कहे चला जाता हूं। वास्तव में उसे तुम सभी लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक होम वर्क करना होता है।

 

छठवां प्रश्न : अभी हाल ही के प्रवचन में आप कह रहे थे— ”प्रेम के मार्ग पर: ध्यान के बारे में सब कुछ भूल जाओ और ध्यान के मार्ग पर, प्रेम के बारे में सब कुछ भूल जाओ! ” अब आप कह रहे हैं कि प्रेम का मूल्य आवश्यक और अपरिहार्य है। वस्तुत: ध्यान के पथ पर चलते हुए मैं स्वयं अपने को बहुत उलझन में या रहा हूं, यह मैं समझता हूं कि बाउलो पर बोलते हुए आप बाउल ही बन जाते हैं और यूरी तरह से प्रेम के मार्ग पर ही होते है, मुझे इन प्रवचनो को फिर कैसे सुनना चाहिए? और ध्यान के मार्ग पर, प्रेम, अनुभव और भावनाओं का क्या महत्व है?

 

त्तर : यदि मैं बाउलों के बाबत, और प्रेम, भक्ति तथा प्रार्थना के सम्बंध में चर्चा कर रहा हूं और तुम ध्यान के पथ पर चल रहे हो, तो मुझे ध्यानपूर्वक सुनो, बस इतना ही यथेष्ट है। केवल मुझे पूरे ध्यान से सुनो, तब सुनते हुए ही तुम ध्यान में भी विकसित होने लगोगे। लेकिन बुद्धि के द्वारा मत सुनो, क्योंकि उसकी वहां कोई जरूरत ही नहीं है। तुम ध्यान के मार्ग पर चल रहे हो, इसलिए तुम्हें उसके विवरण या विस्तार के बारे में फिक्र करने की जरूरत ही नहीं है। जो कुछ मैं कह रहा हूं उसे तुम खामोशी से बिना इस बात की चिंता किए कि मैं क्या कह रहा हूं मौन होकर बस सुनो। तुम उसे गहरे ध्यान में सुन सकते हो। सुनने को ही अपना ध्यान बना लो और उससे ही सब कुछ हो जायेगा। लेकिन यदि तुम उसे बुद्धि से सुनते हो, तो उससे भ्रम और उलझनें उत्पन्न होगीं। यदि मैं ध्यान के पथ पर बोल रहा हूं और तुम प्रेम के पथ पर चल रहे हो तो मुझे परिपूर्ण प्रेम से सुनो। तुम अपने मार्ग की लीक से हटोगे नहीं। और तब मैं भले ही प्रेम या ध्यान किसी पर भी बोलूं तुम परिपूर्ण और तृप्त हो जाओगे। तुम्हारा अपना पथ और भी अधिक सुदृढ़ और समृद्ध होगा। तुम्हारी संकल्प शक्ति और भी अधिक दृढ़ होगी।

 

अंतिम प्रश्न : प्यारे भगवान? कृपया मेरी सहायता करो मुझे मेरा मार्ग दिखलाये : वह प्रेम है अथवा ध्यान? मुझे मेरे स्वभाव के अनुसार एक सूत्र देने की कृपा करें!

 

ह प्रश्न नीलम का है। मैं उसे जानता हूं। मैं उसे बहुत लम्बी अवधि से काफी कुछ जानता हूं केवल इसी जीवन में नहीं, बल्कि मैं उसे पिछले जन्मों से जानता हूं। उसका मार्ग पूरी तरह से निश्चित ही प्रेम का है। प्रेम के द्वारा ही वह ‘उसे’ प्राप्त करने जा रही है। प्रेम के द्वारा ही उसे अपने ‘होने’ का अनुभव होगा, प्रेम के द्वारा ही वह जो सब कुछ घट सकता है, उसे घटेगा। और यह मैं निश्चित रूप से परिपूर्णता से कह सकता हूं। जब दूसरे लोग मुझसे पूछते हैं तो मैं इतना निश्चित नहीं होता हूं। कोई व्यक्ति जो अभी हाल ही में यहां आया है, मुझे उसे भली भांति जानना होता है, उसके अंदर अधिक गहराई से झांकना होता है, विभिन्न स्थितियों में उसका निरीक्षण करना होता है, उसकी चित्तवृत्तियों को देखना होता है, उसके अस्तित्व की पर्त दर पर्त को सूक्ष्मता से समझना होता है, तभी….. .लेकिन नीलम के बारे में यह पूर्ण रूप से निश्चित है। मैंने उसे इस जीवन में जाना है, और मैंने उसे पूर्व के जन्मों में भी जाना है। उसकी दिशा पूरी तरह से स्पष्ट है, प्रेम ही उसका ध्यान है।

आज इतना ही।

 

 


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आनंद योग—(द बिलिव्‍ड)–(प्रवचन–3)

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अपनी आंखें बंद करो और उसे पकडने का प्रयास करो—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 12 जूलाई 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

 बाउल गाते हैं—

वासना की सरिता में

कभी डुबकी लगाना ही मत

अन्यथा तुम किनारे तक पहुंचोगे ही नहीं,

यह उग्र तूफानों से भरी हुई वह नदी है—

जिसके किनारे हैं ही नहीं।

क्या तुम उस मानुष को

अपने ही अंदर देखना चाहते हो?

यदि हां, तो अपने ही घर के अंदर जाओ

जो अत्यंत सुंदर और रूपमान है।

उस तक जाने के सभी मार्ग

जहां जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ रहते हैं

जिसे बोध और समझ से ही जाना जा सकता है

वह आकाश मंडल के भी पार है।

अपनी आंखें मूंद कर

उसे पकड़ने का प्रयास करो

देखो, वह फिसलता हुआ निकला जा रहा है।

 

ज्यां पॉल सार्त्र कहता है कि यह मनुष्य एक अनुपयोगी व्यग्रता है, अर्थहीन और व्यर्थ है। वह ठीक ही कहता है, यदि वहां मनुष्य के पार और कुछ भी नहीं है, यदि वहां ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मनुष्य का अतिक्रमण कर जाए। वह ठीक कहता है, क्योंकि अर्थ हमेशा किसी उच्चतम स्रोत से ही आता है। किसी भी वस्तु या व्यक्ति में स्वयं कभी कोई अर्थ नहीं होता, वह हमेशा कहीं पार से या अज्ञात से आता है।

उदाहरण के लिए तुम एक बीज का निरीक्षण कर सकते हो : अपने आप में वह अर्थहीन है, जब तक कि वह अंकुरित नहीं होता। एक बार जब वह अंकुरित होता है, वह अर्थपूर्ण हो जाता है। बीज के लिए वृक्ष होना ही उसका अर्थ है। अब बीज का अस्तित्व एक निश्चित कारण से होता है। उसका अस्तित्व मात्र एक संयोग नहीं है। वह अर्थपूर्ण है। उसे जन्म देना है। उसे कोई चीज सृजित करनी है : कुछ ऐसी चीज़ जो उसके पार है, कुछ ऐसी चीज जो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक बड़ी है, कुछ ऐसी चीज जो कहीं अधिक उच्चतम सोपान की है।

लेकिन तब, वृक्ष का अपने आप में क्या अर्थ है? फिर उसका अर्थ खो जाता है, जब तक कि वृक्ष पुष्पित न हो सके। वृक्ष का अर्थ ही उसके फलने फूलने में है। जब वह पुष्पित पल्लवित होता है, तभी उसका कुछ अर्थ होता है : वृक्ष अब मां बन गया है, वृक्ष ने अब कुछ नया जन्म दिया है, अब वृक्ष महत्त्वपूर्ण बन गया है। वह वहां बिना किसी उद्देश्य के नहीं था, क्योंकि फूल उसका प्रमाण है। उसका वहां होना अर्थपूर्ण था, वह वहां प्रतीक्षा कर रहा था—फूलों के आने की।

लेकिन अपने आप में फूल का क्या महत्त्व है, जब तक कि उसकी सुवास, हवाओं द्वारा दूर—दूर तक न फैले? एक बार वह सुगंध बिखरा दे, तो फूल अर्थपूर्ण हो जाता है, और इसी तरह यह क्रम आगे चलता रहता है।

अर्थ होता है हमेशा, उच्चतर स्थिति में पहुंचने का। हमेशा अर्थ होता है— उसके पार जाने में, अर्थ हमेशा अतिक्रमण करने में होता है। यदि मनुष्य के पार कुछ भी नहीं है वहां, तो स्पर्श बिछल ठीक कहता है : तब मनुष्य एक व्यर्थ व्यग्रता भर है, इधर—उधर भागते रहने की, लेकिन असफलता और उसका नष्ट होना निश्चित है। वह कभी पहुंच ही नहीं सकता वहां, क्योंकि वहां ऐसा कोई भी स्थान है ही नहीं, जहां पहुंचना हो। वह कुछ बन ही नहीं सकता क्योंकि उस बनने के पार कुछ भी नहीं है। उसका फैलाव और विकास नहीं हो सकता, वह खिलकर फूल नहीं बन सकता, जिससे उसकी सुवास चारों ओर फैल सके। यदि मनुष्य का अंत स्वयं अपने आप में सीमित होकर रह जाता है, तब निश्चित रूप से उसका जीवन व्यर्थ है। लेकिन मनुष्य स्वयं अपने आप में समाप्त नहीं होता, वह एक विकास है। मनुष्य है एक होना, कुछ बनना, विकसित होना, निरंतर उस पार जाना। फ्रीड्रिक नीत्यो ने कहा है, ” वह दिन सबसे अधिक दुर्भाग्यशाली दिन होगा, जब मनुष्य में उच्चतम बनने की आकांक्षा नहीं होगी, जब मनुष्य में स्वयं के पार जाने की आकांक्षा नहीं होगी। वह दिन सबसे अधिक दुर्भाग्यशाली होगा, जब मनुष्य की आकांक्षा का तीर मनुष्य की अपेक्षा उससे भी उच्चतम लक्ष्य की ओर गतिशील न होगा, जब मनुष्य अपने आप में सीमित होकर अपने में सिमट कर रह जायेगा और उसके पहुंचने को कोई लक्ष्य ही न होगा।’’

ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक मनुष्य उस दुर्भाग्यशाली दिन के अधिक से अधिक निकट आता जा रहा है। वह मृत्यु का क्षण प्रतिपल निकट से निकट आता जा रहा है और सार्त्र का कथन सत्य होने जा रहा है, यदि तुम उसे सत्य होने की स्वीकृति दो। यदि तुम मनुष्य को एक बीज ही बने रहने दो और उसे अंकुरित होने की अनुमति न दो, यदि तुम उसे एक ऐसा वृक्ष ही बने रहने तक सीमित कर दो जो पुष्पित न हो सके, यदि तुम फूलों को अनुमति न दो कि वे अपनी सुवास चारों ओर फैला सकें, तब वास्तव में जीवन केवल एक नर्क है वह जीने योग्य न होकर निरर्थक है। तब जन्म लेना दुःखों में ही जन्म लेने जैसा है। तब मृत्यु एक आशीर्वाद और जीवन एक अभिशाप है।

लेकिन ऐसा है नहीं, यह तुम पर ही निर्भर है कि तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण होगा अथवा अर्थहीन। यह सब कुछ तुम्हीं पर निर्भर है। धर्म की पूरी दिशा ही यही है कि जीवन को पहले ही से कोई अर्थ नहीं दिया गया है, जिसे निर्मित करना है। वह अर्थ तुम्हें पहले से हस्तांतरित नहीं किया गया है, केवल वहां सम्भावना और अवसर है, वह सम्भावित शक्ति है मनुष्य के पास। तुम फूल बनकर एक अर्थपूर्ण अस्तित्व बन सकते हो अथवा तुम शुल्क और व्यर्थ हो सकते हो। तुम पर ही महान उत्तरदायित्व है, यदि तुम उसे पूरा नहीं करते हो तो तुम्हारे लिए कोई दूसरा उसे पूरा नहीं कर सकता। तुम सेवकों पर निर्भर नहीं हो सकते। जीवन इतना अधिक मूल्यवान है कि तुम किसी दूसरे पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम्हें ही पूरी स्थिति नियंत्रित करनी होगी और तुम्हें ही अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेनी होगी।

तुम वास्तव में मनुष्य उसी दिन बनोगे जिस दिन तुम अपने विकास के लिए जिम्मेदार बन जाओगे। जिस दिन वास्तव में एक मनुष्य बन जाओगे तुम उसी दिन निर्णय लोगे कि तुम्हें अपने जीवन का अर्थ सृजित करना है। तुम्हें एक कोरा कागज दिया गया है : तुम्हें उस पर अपने हस्ताक्षर करने होंगे, और तुम्हें उस पर अपने गीत लिखने होंगे। वहां गीत पहले से नहीं हैं। तुम ही वहां हो, उसकी सम्भावना है वहां—लेकिन गीत तो तुम्हें ही गाना और गुनगुनाना है, नृत्य तो तुम्हें ही करना है। नर्तक है वहां, लेकिन उस नर्तक के होने का क्या अर्थ है, यदि उसने अभी तक नृत्य किया ही नहीं? उसे नर्तक पुकारना भी अर्थहीन है क्योंकि जब तक वह नाचता नहीं, तुम उसे नर्तक कैसे कह सकते हो? जब तक एक बीज वृक्ष नहीं बन जाता, वह केवल एक नाम है, वह बीज है ही नहीं। और जब तक एक वृक्ष फलता फूलता नहीं, वह केवल नाम भर का वृक्ष है, वह वृक्ष कहने योग्य है ही नहीं। और जब तक एक फूल सुवास नहीं बिखेरता, वह केवल नाम भर के लिए फूल है, वह अभी फूल बना ही नहीं।

तुम अपना अस्तित्व निरंतर सृजित कर रहे हो। और यदि तुम सृजित नहीं करते हो तो तुम दुर्योग से धाराओं में बहने वाले लकड़ी के तने जैसे बन जाओगे, जो बिना दिशा के यहां—वहां बहता रहता है।

बाउल पहले कदम से शुरुआत करते हैं। उनके पास मनुष्य की सभी सम्भावनाओं और सीडी की सभी पायदानों पर चढ़ने के लिए पूरी समझ और एक अखण्ड दृष्टिकोण होता है। सीढ़ी का पहला पायदान या डंडा है—वासना, सेक्स के प्रति भावोद्वेग और सेक्स ऊर्जा। और सेक्स ऊर्जा ने निरंतर मनुष्य को भ्रमित किया है। यदि वह केवल सेक्स मात्र ही बनी रहती है, तो वह अर्थहीन बन जाएगी। तब तुम केवल एक ही लीक पर चलते रहोगे।

सेक्स तभी अर्थपूर्ण है, जब वासना से प्रेम उत्पन्न हो। केवल प्रेम भी तभी अर्थपूर्ण है, जब उससे प्रार्थना का जन्म हो। यदि तुम्हारा सेक्स केवल एक कामुकता मात्र है, एक दोहराने वाला चक्र और एक यांत्रिक प्रक्रिया है जो तुम बस किए चले जा रहे हो, तब तुम अर्थहीन होकर रह जाओगे। क्योंकि सेक्स तुम्हारी ही ऊर्जा है और उसे रूपांतरित किए जाना है। वह बहुत अपरिपक्व और कच्ची सामग्री की भांति है। उस पर बहुत कुछ काम किये जाना है। वह खान से निकला हीरा है, और तुम्हें उसे तराश कर उस पर पालिश करनी है, तुम्हें उसे एक सुंदर रूप और आकृति देनी है। तुम्हें उसे एक नूतन सौंदर्य देना है। यह तुम पर निर्भर करता है। यदि तुम खदान से निकले कच्चे हीरे के पत्थर को साथ लिए घूमोगे तो वह मूल्यहीन होगा और केवल इतना ही नहीं, वह तुम्हारे लिए एक भार होगा। उसे ढोये चले जाने से बेहतर है उसे फेंक दो। उसे व्यर्थ में क्यों ढोये चले जा रहे हो, कुछ चीज उससे भी उच्चतम विकसित हो सकती है।

इसे सदा स्मरण रखना, बाउल, वासना या सेक्स के विरुद्ध नहीं है, लेकिन उनका कहना है कि यदि तुम केवल वासना तक ही सीमित होकर रह गये तो तुम नष्ट हो जाओगे। उसी में खोकर रह जाओगे।

वासना की सरिता में

कभी डुबकी लगाना ही मत

अन्यथा तुम कभी किनारे तक पहुंचोगे ही नहीं

यह उग्र तूफानों से भरी हुई वह नदी है—

जिसके किनारे हैं ही नहीं।

इससे उनका क्या अर्थ है ?—वासना की नदी में तट या किनारे होते ही नहीं और यदि तुमने उसमें डुबकी लगाई तो तुम उसी में खो जाओगे। एक व्यक्ति को उससे ऊपर उठना है। ऐसा नहीं कि उसमें कुछ चीज गलत है, यह आवश्यक बात याद रखने की है। यह निष्कर्ष मत निकालो कि बाउल यह कह रहे हैं कि सेक्स के साथ कुछ चीज गलत है। वे केवल यह कह रहे हैं कि गलत तब होता है, जब तुम उसी में सीमित होकर रह जाते हो। यदि तुम उसका उपयोग कर सकते हो, यदि तुम उसे ऊपर चढने वाली सीढ़ी का पत्थर बना सकते हो, यदि तुम उससे उच्चतम तल की ओर गति कर सकते हो, तब वह बहुत सुंदर है। वह एक बड़ी सहायता बन जाती है। बिना उसके उससे ऊपर उठना असम्भव होता।

वासना अपने आप में एक बीज की भांति है — उसमें पूरी सम्भावना है, वह ठीक मिट्टी, उचित मौसम और योग्य माली की प्रतीक्षा कर रही है, उसे उस कुशल मनुष्य की प्रतीक्षा है जो अंकुरित होने में उसकी सहायता करे। एक बीज वास्तव में और कुछ भी नहीं, यह केवल एक सम्भावना है। उसके लिए वृक्ष बनने की कोई अनिवार्यता नहीं है। यह हो सकता है कि वह कभी कुछ बन ही न सके और पूरी तरह नष्ट ही हो जाए। यदि तुम उस बीज को पत्थर में दबा दो तो वह बीज ही बना रहेगा। सदियां गुजर सकती हैं और बीज अंकुरित नहीं होगा।

बहुत से लोग ऐसे ही बीज की भांति है। उन लोगों ने अभी अपनी भूमि ही नहीं खोजी—उन लोगों को सही मौसम ही नहीं मिला अभी तक। ये सभी सांसारिक लोग हैं।

एक धार्मिक मनुष्य वह होता है, जिसका बीज ठीक भूमि तक पहुंच जाता है और उसमें विलुप्त हो जाता है। जब बीज मिटता है, तभी वृक्ष का जन्म होता है। जब ‘ तुम ‘ विसर्जित हो जाते हो, तभी आत्मा का जन्म होता है। जब आत्मा विलुप्त होती है तो परमात्मा का जन्म होता है।

तुम्हारा अस्तित्व बीज के सख्त आवरण या छिलके जैसा है….. .यही मनुष्य का अहंकार है। सांसारिक मनुष्य अहंकारी मनुष्य ही होता है, जो सांसारिक मनुष्य नहीं होता, वही विनम्र होता है। विनम्र होने का साधारण सा यही अर्थ है — वह बीज की भांति भूमि में विलुप्त हो गया है, वह पृथ्वी के अंदर जाकर मर जाने को तैयार है। अंग्रेजी का Humble (विनम्र) शब्द Humus से निकला है। Humous का अर्थ होता है—’ पृथ्वी ‘। विनम्र मनुष्य वह है जो पृथ्वी के अंदर जाकर मिटने को पहले ही से तैयार है। विनम्र व्यक्ति वह है, जो अपने आप को खो देने को तैयार है। जीसस बार—बार कहते हैं, यदि तुम अपने को मिटाते नहीं, खोते नहीं, तो तुम ‘ उसे ‘ प्राप्त न कर सकोगे, यदि तुम अपने को खोते नहीं तो कभी भी ‘ होने ‘ की अनुभूति न कर सकोगे — धन्य हैं वे लोग, जो खोने और मिटने को तैयार हैं ”। आखिर उनके कहने का अर्थ क्या है? उनके कहने का अर्थ है— धन्यभागी है वह बीज, जो अपने सख्त छिलके के खोल को मिटाने के लिए आघात सहने को तैयार हो जाता है, मिट्टी के लिए अपने कोमल हृदय का द्वार खोल देता है, जिससे मिट्टी उस पर अपना कार्य कर सके और उसे अज्ञात की ओर ले जाए जो ज्ञात के साथ बंधन तोड़ देता है, जो ज्ञात के साथ अपनी प्रतिबद्धता समाप्त कर अज्ञात के प्रति प्रतिबद्ध हो जाता है। खतरे हैं वहां—वहां तूफान भी होंगे, बादलों की गरज और बिजली की कौंध होगी वहां।

एक छोटे से पौधे के लिए पूरा संसार एक खतरे का समय है, उसके लिए एक हजार एक जोखिम हैं। लेकिन बीज के लिए वहां कोई खतरा नहीं होता। बीज बंद होता है, बिना किसी खिड़की दरवाजे के पूरी तरह सुरक्षित, वह एक सुरक्षित कैद होती है।

लेकिन एक नन्हा सा पौधा बहुत नाजुक है इसका निरीक्षण करें : एक बीज है बहुत कठोर और सुरक्षित, और पौधा है—बहुत कोमल और नाजुक, जो आसानी से नष्ट हो सकता है। और एक फूल और भी अधिक नाजुक है—एक सपने जैसा नाजुक एक कविता की तरह नाजुक। और उसकी सुवास और अधिक सूक्ष्म तथा नाजुक होती है—वह लगभग अदृश्य होती है, वह अव्याख्य बन जाती है। यह सारा विकास अज्ञात की ओर उन्मुख है, कोमल, नाजुक और अव्याख्य की ओर उन्‍मुख है।

सारा विकास अदृश्य की ओर उन्मुख है। केवल स्थूल ही दिखाई देता है। परमात्मा अदृश्य है। केवल पदार्थ ही दृश्यमान है, मन अदृश्य है। केवल स्थूल का ही स्पर्श किया जा सकता है, केवल वही स्पष्ट और निश्चित होता है, लेकिन सूक्ष्म का स्पर्श नहीं किया जा सकता, वह अस्पष्ट और अनिश्चित होता है। यही कारण है कि परमात्मा को देखा नहीं जा सकता—क्योंकि परमात्मा फूलों की सुवास है, अति सूक्ष्म, बहुत—बहुत सूक्ष्म।

स्मरण रहे, स्थूल के साथ सुरक्षा होती है। प्रेम की अपेक्षा वासना अधिक सुरक्षित है, प्रार्थना की अपेक्षा प्रेम कहीं अधिक सुरक्षित है। और यदि तुम सुरक्षा की ओर देख रहे हो, तो तुम वासना तक ही सीमित रह जाओगे।

बहुत से लोग सेक्स में ही जन्मते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है : प्रत्येक को सेक्स में ही जन्म लेना होता है। समस्या तब होती है जब बहुत से लोग केवल सेक्स में ही जीते हैं और सेक्स में ही मर जाते हैं। इसका अर्थ है कि उनका कोई फैलाव और विकास हुआ ही नहीं। सेक्स में जन्म लेना पूरी तरह स्वाभाविक है, लेकिन उसमें मरना? तब क्या है इसका दिशा संकेत? तब क्या अर्थ है उत्पन्न होने का? तब यदि तुम विकसित नहीं हुए तो कुछ भी तो नहीं घटा तुम्हारे साथ?

 

मैं एक वृद्ध व्यक्ति के बारे में पढ़ रहा था, एक ऐसे वृद्ध के सम्बंध में जो लगभग पचासी वर्ष का था? वह अपने डॉक्टर के पास गया और उससे कहा— ” डॉक्टर! मैं नपुंसक हो गया हूं।’’

डॉक्टर ने उसकी ओर देखा और पूछा—’‘ लेकिन आपने इस बात को पहली बार कब नोट किया?”

उस वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया—’‘पिछली रात और आज फिर इस सुबह।’’ लोग जिए चले जा रहे हैं….. .तुम वासना में जितनी लम्बी अवधि तक जीते रहोगे, तुम्हारा अस्तित्व उतना ही अधिक कुरूप होता जायेगा। और यदि तुम्हें उसी में मरना भी पड़े तब तो पूरा जीवन ही व्यर्थ बरबाद हो गया। तुम जन्म से आगे कभी एक कदम भी न गए। वास्तव में जन्म तो स्वाभाविक रूप से सेक्स में होगा ही लेकिन उसी में मृत्यु नहीं होनी चाहिए।

 

मैंने सुना है :

अपनी मम्मी के प्रसूति क्लिनिक में प्रतीक्षा करता हुआ नन्हा मुन्ना सामी अपना ‘ होमवर्क ‘ करने में व्यस्त था। जब वह मम्मी से मिला तो उसने पूछा— ” मम्मी! मेरा जन्म कैसे और कहां से हुआ?”

उसने उत्तर दिया—’‘ आह डार्लिंग, सफेद परों वाला स्ट्रोक पक्षी तुम्हें इस दुनिया में लाया।’’

” और आप कहां से जन्मीं मम्मी?”

” ओह! स्ट्रोक पक्षी मुझे भी इस दुनिया में लाया।’’

” और दादी कहां से आईं?”

” क्यों, तेरी दादी तो स्ट्राबेरी की झाड़ी के नीचे पाई गई।’’

इसलिए होमवर्क करते हुए उसने अपने निबंध में लिखा—’‘ ऐसा लगता है जैसे तीन पीढ़ियों से मेरे परिवार में किसी का भी स्वाभाविक रूप से जन्म हुआ ही नहीं।”

 

सेक्स में जन्म लेना स्वाभाविक है, किसी को इस बारे में रक्षात्मक होने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। लेकिन सेक्स में ही मृत्यु होना अस्वाभिक है। सेक्स से एक एक कर उच्चतम की ओर कदम उठना ही चाहिए। बीज से प्रारम्भ कर सुवास तक की यात्रा ही विकास है।

लेकिन बहुत अधिक लोग, सेक्स के दोहराने वाले चक्र में ही जीते हैं: वे एक ही दिनचर्या के साथ परिभ्रमण करते रहते हैं। वे बिना सजग हुए वही चीजें, जिनके बारे में उन्हें स्वयं यह होश नहीं कि वे एक ही चीज को जाने कितनी अधिक बार कर चुके हैं, और बिना सजग हुए कि उनसे कुछ भी नहीं मिला, वे उन्हें किए चले जा रहे हैं। लेकिन वे, बिना यह जाने हुए कि उन्हें उसके अलावा और क्या करना चाहिए बस उन्हीं चीजों को किए चले जा रहे हैं। वे लोग एक ही चक्राकार मार्ग पर घूमते हुए व्यस्त बने रहते हैं। यही कारण है कि हम पूरब में इसे ‘संसार’ या चक्र कहते हैं। यह संसार एक चक्र के नाम से ही पुकारा जाता है। ठीक वैसे ही जैसे एक पहिया घूमे चला जाता है तो उसकी वही तानें घूमती हुई ऊपर नीचे आती—जाती हैं, यदि तुम्हारा जीवन भी एक पहिए जैसा ही है तो वही चीजें बार बार घूम कर आती जाती हैं, इस तरह तुम्हारे जीवन का कोई अर्थ होगा ही नहीं— क्योंकि अर्थ तो केवल तभी होता है, जब तुम स्वयं अपने ही पार कोई कदम उठाते हो। और यह भी स्मरण रखना यदि तुम पार के लिए कोई कदम उठाते हो तब तुम वहां भी जाकर जड़ हो जाते हो, और अर्थ फिर खो जाता है।

इसलिए अर्थ तो नूतनता में है। यदि तुम निरंतर अर्थपूर्ण बने रहना चाहते हो, शाश्वत रूप से अर्थपूर्ण, तब तुम्हें विकसित, विकसित और विकसित ही होते चले जाना है। यदि तुम कहीं भी रुककर जड़ हो गये, तो अर्थ तुरंत मिट जाता है। रुककर जड़ होना अर्थपूर्ण होना नहीं है, अर्थ है प्रवाह में, अर्थ है विकसित होने में, इसे निरंतर स्मरण रखना है। तुम प्रेम में भी रुककर जड़ बन सकते हो और अर्थ फिर खो जायेगा, तब तुम फिर बासी और पुराने हो जाओगे, तब नदी फिर प्रवाहित नहीं हो रही है। प्रवाह रुक जाने से तुम फिर गंदे हो जाओगे। और जब नदी बह रही होती है वह साफ और ताजी होती है, जब नदी का प्रवाह रुक जाता है, वह स्थिर और प्रवाहहीन हो जाती है।

ऐसा ही सत्य जीवन के बारे में भी है। यदि तुम प्रेम में रुक कर स्थिर हो गये, प्रवाह फिर से खो गया। तुम फिर से उसी लीक पर चल पड़े।

प्रार्थना जरूरी है…… और यहां प्रार्थना से भी कहीं अधिक ऊंची चीजें हैं। प्रार्थना ही अंतिम है जिसके बारे में कुछ कहा जा सकता है, जिसे कुछ परिभाषित किया जा सकता है, पर वह भी संतोषजनक रूप से नहीं, बल्कि आधा अधूरा ही। लेकिन प्रार्थना ही अंत है—वह जैसे क्षितिज है। ऐसा नहीं है, कि क्षितिज पर जाकर पृथ्वी समाप्त हो जाती है और ऐसा भी नहीं है कि क्षितिज पर जाकर आकाश समाप्त हो जाता है। क्षितिज केवल हमें अपनी सीमा का दिग्दर्शन कराता है : हमारी दृष्टि उससे और आगे नहीं जाती, उतना ही सब कुछ होता है। प्रार्थना, सेक्स ऊर्जा का क्षितिज है, लेकिन वह अंत नहीं है। प्रार्थना से कुछ चीजें और उच्चतम तल पर हैं, लेकिन उन चीजों को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द हैं ही नहीं। जब तुम प्रार्थना तक पहुंचते हो, तुम तभी जानोगे कि वहां प्रार्थना से भी उच्चतम तल पर कुछ और चीजें हैं क्योंकि विकास शाश्वत है।

लोग लगभग मृत हैं क्योंकि वे रुक कर और जड़ होकर रह गये हैं। वे एक ही चीज की बार—बार खोज में लगे हैं। जरा इसका निरीक्षण करें।

एक व्यक्ति को तलाश होना चाहिए नये की। यह खोज ही जैसे तुम्हें नया और ताज़ा बना देती है, तुम्हें फिर से युवा बना देती है। यदि आज तुम्हें कोई सुंदर अनुभव हुआ है, तो कल उसे फिर मांगो ही मत, क्योंकि अब तुमने चूंकि उसे जान लिया, वह अर्थहीन हो गया, जैसे समाप्त हो गया। कोई और चीज मांगो, किसी और नई चीज की खोज करो, किसी अज्ञात और अपरिचित को टटोलो। उसके घर जाओ। वह सुंदर था, लेकिन उसकी पुनरुक्ति मत करो, क्योंकि पुनरुक्ति सुंदरता की हत्या कर देती है। पुनरुक्ति प्रत्येक वस्तु से ऊब उत्पन्न करती है। और एक बार तुम ऊबने के अभ्यस्त हो जाते हो, तो तुम मृत हो जाते हो। तब तुम उसी घेरे में चक्कर लगाते रहते हो।

 

मैंने सुना है……

एक आमोद—प्रमोद भरी पार्टी हो रही थी। शराब, व्हिस्की के साथ हंसी मजाक स्वतंत्रता से जैसे प्रवाहित हो रहा था। एक आज्ञाकारी वेटर ने ट्रे में रखी शराब एक सख्त मिजाज और गम्भीर व्यक्ति को पेश की, वह व्यक्ति निश्चित रूप से एक पादरी था। पादरी ने उसकी ओर कठोर दृष्टि से देखते हुए कहा—’‘ नहीं धन्यवाद। मैं शराब नहीं पीता।’’

वेटर उन्हें छोड्कर आगे बढ गया। लेकिन शीघ्र ही ड्रिंक्स की दूसरी ट्रे लेकर दूसरा वेटर प्रकट हुआ। परमात्मा के योग्य मनुष्य ने उसे शुष्क दृष्टि से देखते हुए कहा—’‘ क्या तुम नहीं जानते कि मैं शराब बिल्‍कुल भी पीता ही नहीं।’’ और उसने अपने कथन में बाद में सोचा गया विचार जोड़ते हुए कहा— ” मैं शराब पीने की अपेक्षा किसी स्त्री से अवैध सम्बंध जोड़ना बेहतर समझता हूं।’’

 

मुल्ला नसरुद्दीन अपने पडोसी के साथ आराम से बैठा हुआ स्कॉच व्हिस्की के घूंट—घूंट का आनंद ले रहा था। अचानक प्रसन्नता से चीखते हुए अपना गिलास नीचे रखकर वह बोला—’‘ सुंदर है स्वर्ग। मुझे कभी यह खयाल भी नहीं आया कि वहां का चुनाव इतना सुंदर था।’’

लोगों के मन में सेक्स का ही विचार घूमता रहता है। और यहां सेक्स के साथ आवेशित हो जाने के दो तरीके हैं : पहला रास्ता है सामान्य मनुष्यों का—प्ले बॉय की तरह ऐश करने का और दूसरा रास्ता है—तथाकथित धार्मिक लोगों का। लेकिन दोनों के मनों पर वासना का ही अधिकार है—एक उसके पक्ष में और दूसरा उसके विपक्ष में। उनके खयालों में सेक्स ही जड़ जमाये बैठा है, वे कभी भी उसके पार नहीं जा पाते।

बाउल इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आते। वे सांसारिक मनुष्यों जैसे नहीं हैं, क्योंकि वे सेक्स के पार जाते हैं। वे साधु संन्यासियों जैसे भी नहीं हैं, क्योंकि वे सेक्स के विरुद्ध नहीं हैं। वे लोग तथाकथित धार्मिक साधुओं और फकीरों जैसे भी नहीं हैं, क्योंकि वे कहते हैं—’‘ सेक्स तुम्हारी ऊर्जा है, जिसका प्रयोग करना है। निश्चित रूप से उसे शुद्ध करना है, लेकिन उसे निंदित नहीं करना है।’’ तुम एक खान से निकले पत्थर को हीरा कैसे बनाओगे, यदि तुम उसके बारे में निंदा के भाव से भरे हुए हो, और सोच रहे हो कि तुम उसे फेंक ही दो। और यदि तुम उससे दूर भागना शुरू कर दोगे तो तुम उसे कैसे तराश सकते हो, तुम उस पर कैसे पालिश कर सकते हो, तुम उसे कैसे मूल्यवान बना सकते हो? संसार में दो तरह की जड़ताएं हैं : एक ओर वे लोग हैं—जो सोचते हैं कि सेक्स ही जीवन है और दूसरे वे लोग, जिनकी सोच है कि सेक्स से लड़ना ही जीवन है और दोनों ही लोग गलत हैं। सेक्स का सृजनात्मक प्रयोग करना ही बाउलों का लक्ष्य है।

 

अपने शाश्वत आशावाद के कारण अपने मित्रों को निरंतर उत्तेजित करता रहता था। कितनी भी खराब स्थिति क्यों न हो, वह हमेशा कहता था—’‘ इससे भी खराब स्थिति हो सकती थी।’’ उसकी इस चिढाने वाली आदत को ठीक करने के लिए उसके मित्रों ने एक ऐसी स्थिति को निर्मित करने का निर्णय किया जो पूरी तरह से इतनी मृत और घोर अंधकारमय हो कि नसरुद्दीन उसमें आशा की एक किरण भी न पा सके।

एक दिन कब्र के मैखाने में पहुंचकर उनमें से एक ने कहा—’‘ मुल्ला! क्या तुमने सुना कि जार्ज के साथ क्या घटना घटी? कल रात जब वह घर गया तो उसने बिस्तरे पर अपनी पत्नी को दूसरे मर्द के साथ पाया और दोनों को गोली से मार दिया, और तब बंदूक की नली अपनी ओर घुमाकर खुद भी गोली खाकर मर गया।’’‘’ भयानक हादसा हो गया।’’ मुल्ला ने कहा—’‘ लेकिन यह इससे भी कहीं अधिक भयानक हो सकता था।’’

स्तब्ध होकर उसके मित्र ने कहा—’‘ इससे बुरा तो नर्क में भी नहीं हो सकता था। इससे अधिक बुरा और क्या होना सम्भव था।’’

नसरुद्दीन ने कहा—’‘ यदि यह हादसा एक दिन और पहले हुआ होता, तब आज मैं मुर्दा ही होता।’’

लोग एक ही लीक पर चले जा रहे हैं, फिर फिर वही दोहराये चले जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी आंखें पूरी तरह बंद हैं। ऐसा लगता है कि कुछ और होना भी सम्भव है, उसकी उनके पास कोई योजना या विचार ही नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ने उन्हें कभी भी उस पार की कोई झलक भी नहीं दी है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उन्होंने कभी भी ऊंचाइयों की ओर देखा ही नहीं। उन्होंने। कभी आकाश की ओर भी नहीं देखा, वे लोग कीचड़ में ही रेंगते जा रहे हैं। सारभूत रूप से यदि तुम उसमें खड़े हो सकी उसके अंदर अपनी जड़ें जमा सको और आंखें ऊंचाइयों की ओर उन्मुख हो सकें। तब कीचड़ के गुणों का भी रूपांतरण हो जायेगी।

 

वासना की सरिता में

कभी डुबकी लगाना ही मत

तुम किनारे तक न पहुंच सकोगे।

यह नदी बिना तटों वाली है

जहां तूफान उमड़ रहे हैं।

और तुम सभी ने यह जरूर महसूस किया होगा कि जिसे तुम प्रेम कहते हो वह तुम्हारे लिए पीड़ाओं के सिवा और कुछ भी नहीं लाता। तुम जिसे भी प्रेम कहकर पुकारते हो, वह तुम्हें नर्क के सिवा और कुछ भी नहीं देता। लेकिन फिर भी तुम किसी तरह उसमें बने रहने की व्यवस्था कर लेते हो, पर तुम उसके पार देखने की व्यवस्था नहीं कर पाते।

 

एक बार ऐसा हुआ:

एक बहुत ही बुद्धिमान वृद्ध व्यक्ति के पास उसके पुत्र ने जाकर कहा— ” पिताजी! मैं विवाह करना चाहता हूं।’’

वृद्ध ने कहा—’‘ नहीं मेरे बच्चे। तुम अभी काफी बुद्धिमान नहीं हो।’’

लड़के ने पूछा—’‘ मैं काफी बुद्धिमान कब बनूंगा?”

वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया—’‘ जब तुम इस विचार से पीछा छुड़ा लोगे कि तुम विवाह करना चाहते हो, तभी तुम यथेष्ट बुद्धिमान बनोगे, और तब तुम विवाह कर सकते हो।’’

 

यह परस्पर विरोधी प्रतीत होता है, लेकिन यही सत्य है : जब तुम्हारा ध्यान और समय अब सेक्स के साथ नहीं रहता, जब तुम्हारी चाह आवेश और मानसिक रुग्णता नहीं रह जाती, तुम उसमें प्रवेश करने के लिए पर्याप्त प्रज्ञावान बन जाते हो— क्योंकि तब तुम उसकी सभी सम्भावनाओं का प्रयोग करते हुए उसके द्वारा उसे प्राप्त करने योग्य बनते हो। तब वह केवल एक खेल नहीं रह जाता, तब वह केवल समय गुजारने का साधन नहीं होता और तब वह केवल अपने को भुलाने का उपाय नहीं रह जाता। तब वह तुम्हारे लिए एक सृजनात्मक कृत्य बन जाता है। तब तुम उसकी अत्यधिक ऊर्जा से कुछ नई चीज का सृजन करते हो। वह परमात्मा का उपहार होता है। यदि तुम उसी में सीमित होकर रह जाते हो तो बाउल उसी को वासना कहते हैं। यदि तुम उसके पार जा सकते हो तो वह अपना रूप बदलना शुरू कर देता है, उसके गुण बदलना शुरू हो जाते हैं।

बाउल गीत है :

अरे हलवाहे! क्या तुझे इतनी भी समझ नहीं है

कि तू अपने ही खेत की जरा भी देखभाल नहीं करता?

छ: पक्षियों का झुण्ड तेरी ही देह के खेत में उगी

धान की सुनहरी फसल का चावल चुग रहे हैं

इस मानुष देह की अमूल्य भूमि

पर परमात्मा की अनुकम्पा से जो फसल उगी है

उसे कामना, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या और अहंकार

की छ: गौरेया हो जा रही हैं।

चेतना की मेड

जहां से टूट कर नीचे धसक गई है

उन खुले स्थानों से

तेरी फसल की दावत उड़ाने

पशुओं का लंड चढता चला आ रहा है।

ओ मेरे बेशर्म हृदय!

क्या तुझे लजा नहीं आती?

अब मैं तुझसे कहूं तो क्या कहूं?

तूने स्वर्ण का मूल्य चुकाकर

कांच के टुकड़े खरीद लिए हैं।

दो—दो आंखों के होने के बावजूद भी

तूमूल्यवान हीरों से चूककर

नकली कांच के पत्थर उठा लाया है।

तू आंखें बंद कर भटक गया

और देख न सका

कि तेरा ही घर

चुने हुए हीरों और मणिकों से भरा पड़ा है।

अपनी कमर के बंधे फेंटे में हंसिया खोंसे

तू एक खेत से दूसरे खेत में

आखिर क्या खोज रहा है?

जिसे खोज रहा है—उसका क्या है उपयोग?

ओ मेरे हृदय!

क्या तू एक बार

उस परम सुंदर घर की खोज नहीं करेगा…..?

कामुकता की यांत्रिक राहों में तुम जो कुछ भी खोजे चले जा रहे हो, वह सौंदर्य की खोज नहीं है। वह प्रेम की भी खोज नहीं है और न वह परमात्मा की ही खोज है। अधिक से अधिक वह एक प्राकृतिक और जैविक विधि भर है, जिससे तुम अपने आप को उसमें डुबाकर भुला सको। वह तुम्हारे शरीर में एक प्राकृतिक व्यवस्था है, तुम अपने आप को उसमें डुबा सकते हो। वह तुम्हारे लिए एक शराब एक ड्रग बन सकता है। वह तुम्हारा तीखा तेज स्वाद भी बन सकता है।

सेक्स एक रसायन है, वह तुम्हारे शरीर में विशिष्ट हारमोन्स छोड़ता है। वह तुम्हें एक विशिष्ट भ्रमपूर्ण अच्छा लगने का भाव देता है। वह तुम्हें कुछ ऐसे क्षण देता है जिनमें तुम संसार का शिखर अनुभव कर सकते हो। लेकिन तब फिर तुम घाटी में वापस लौटते हो और घाटी पहले से भी कहीं अधिक अंधेरी और कुरूप लगती है, जैसे मानो तुम्हें चालाकी से ठग लिया गया है। सेक्स तुम्हें एक ऐसा भ्रम देता है जैसे मानो कोई चीज घट रही हो। यदि तुम सेक्स में ही सीमित होकर रह जाते हो, तब तुम अपनी ऊर्जा का मात्र अपव्यय करते हो। धीमे— धीमे ऊर्जा तुममें से निकलती चली जायेगी और तुम केवल एक मृत खोल भर रह जाओगे।

बाउल कहते हैं:

इस व्यर्थ संसार तट पर खड़ी

तेरी कुटिया का कैसा है रंग रूप?

तेरी कुटिया का ढांचा हड्डियों से बना है

और तेरी खाल से मढ़ी छत पर बालों की घास फूस है

लेकिन उन पर बैठे मोर के जोड़े को

इस बात की खबर ही नहीं

कि एक दिन उनका भी अंत आने वाला है।

जैसे बचपन खेल—खेल में ही गुजर गया

यौवन काम, क्रोध, लोभ, मोह और दम्भ में बीत गया

और अब बुढ़ापा भी बीता जा रहा है

अपने स्वामी को बुलाते और पुकारते हुए

अब तुम्हारे दांत भी गिरते जा रहे हैं

और बाल अब भूरे और सफेद होते जा रहे हैं।

अब पौरुष और साहस की आयु बीत चुकी

ज्वार के बाद अब भाटे का समय है

तेरे घर का रंग रोगन और प्लास्टर

अब धीमे— धीमे चटकता जा रहा है।

ऊर्जा धीमे— धीमे रिसती जा रही है। संसार में बहुत थोड़े से लोग ऐसे हैं जो इस महान अवसर का उपयोग अपने विकास के लिए कर पाते हैं। अपने उठाये गये कदमों का निरीक्षण करो। तुम्हें विकसित होने के लिए एक विशिष्ट अवसर दिया गया है। यदि तुम विकसित नहीं होते हो, तो तुम जीवन को व्यर्थ बरबाद कर एक थकाने वाला नीरस जीवन जीते हो। तुम अपने को जीवंत नहीं कह सकते, यदि तुम सजग नहीं हो। यदि तुम्हारी बहती तरल चेतना एकीकृत होकर ठोस स्फटिक जैसी नहीं बनती तो तुम गहरी नींद में ही सोये हुए हो, एक मूर्च्छा में हो, तुम जैसे सोये हुए ही चलते फिरते और काम करते हो। और सेक्स सबसे बड़ी नींद लाने वाली औषधि है। बहुत से लोग ठीक इसका नींद की गोली की तरह ही उपयोग करते हैं : वे प्रेम करते हैं और तब वे सो जाते हैं। तब वे अधिक अच्छी तरह से सो पाते हैं। ऊर्जा निष्कासित होने के बाद वे खाली होकर गहरी बेहोशी में डूब जाते हैं। वह नींद असली नींद नहीं है—वह केवल थकावट की मूर्च्छा है, वह ठीक एक रिक्तता है। यह ऊर्जा से भरी नींद नहीं है। यह नींद जीवन जैसी न होकर मृत्यु के समान है।

बलखाती नदी के घुमाव और मोड़

तुम्हारी पकड़ से फिसल—फिसल जाते हैं।

सावधान हो जाओ मेरे बंधु!

उफनती तेज धारा में कदम मत रखो।

काले बादलों से घिरी पहाड़ियों को चीरती

नदी की जलधार प्रचण्ड गति से बढ़ती ही आ रही है।

तब नदी सूखी थी

जब बाढ़ का पानी प्रचण्ड जलधारा बनकर नीचे आ रहा है

अब तुम इस नदी को कैसे पार कर सकते हो?

जब भी तुम सेक्स के साथ पहले ही से व्यस्त नहीं हो, और शांत भी हो, फिर भी इस नदी को पार करना कठिन है। जब नदी में बाढ़ भी नहीं आई हुई है, और जब नदी गर्मी में बहुत उथली है, उसकी धारा बहुत छोटी और पतली है, तब भी उससे गुजरते हुए उसके पार जाना कठिन है। और जब वर्षा ऋतु आ जाती है और नदी में बाढ़ आ जाती है और जब तुम वासना से पूरी तरह भरे होते हो, तब तो इस नदी को पार कर पाना असम्भव है।

तब नदी शुष्क थी

जब बाढ़ का पानी, प्रचण्ड जलधारा बनकर नीचे आया

अब तुम इस नदी को कैसे पार कर सकते हो?

ओ नाविक! सावधान होकर अपनी रक्षा स्वयं करो

पतवार को मजबूती से थामे रहो

और यदि नाव उलटने लगे

तो सद्गुरु का स्मरण करो।

बाउल कहते हैं कि इस मूर्च्छा से बाहर आने का केवल एक ही मार्ग है और वह है—परमात्मा को याद करना : नाम स्मरण। उसके नाम को सदा याद रखना। प्रेम के पथ पर यह हमेशा ही एक बुनियादी विधि रही है—’ उसे ‘ स्मरण करना। और जब एक भक्त गहरी श्रद्धा से परमात्मा के नाम का स्मरण करता है, उसका पूरा अस्तित्व पुलकित और रोमांचित हो उठता है, और उसकी ऊर्जा तेजी से ऊर्ध्वगामी होने लगती है। सामान्य रूप से ऊर्जा नीचे की ओर प्रवाहित होती है, वही सेक्स ऊर्जा के निष्कासन का मार्ग है। यदि तुम वास्तव में अश्रुपूरित नेत्रों से परमात्मा का नाम लेते हो चाहे वह कोई भी नाम हो—राम अल्लाह अथवा कोई भी नाम हो क्योंकि सभी नाम उसके ही नाम है—तो उसी पुकार और उसी स्मरण की सातवें चक्र सहस्रार में सिर के आसपास कहीं चोट होती है। यदि उसका स्मरण मात्र औपचारिक संस्कार नहीं है, यदि गहरे प्रेम, श्रद्धा और भक्ति के साथ तुमने उसका नाम पुकारा है तो अकस्मात् तुम्हारे शरीर की ऊर्जा में एक परिवर्तन होता है। वह ऊर्जा जो सेक्स की ओर गतिशील थी, उसका ऊपर उठना प्रारम्भ हो जाता है।

बाउल कहते हैं:

परमात्मा ने खेल के सभी कार्यकलापों को—

उल्टा कर दिया है।

अब पृथ्वी विरोधाभासी असंगत भाषा में बतियाने लगी है।

अब फूल, फलों के शीर्ष पर उग रहे हैं

और सौम्य अगर की बेल गर्जती हुई वृक्ष का गला पकड़ रही है

चंद्रमा दिन में उगने लगा है

और रात में उदय होकर चमकता है।

और रक्त सफेद बन गया है

और इस रक्त की झील में हंसों का जोड़ा तैरता है।

वासना और प्रेम के अरण्य में

निरंतर गोते लगाता

वह संभोग में रत रहता है।

सभी महान रहस्यदर्शियों ने इस स्थिति का वर्णन किया है : जब काम की यह ऊर्जा वेग से ऊपर की ओर उठना शुरू होती है, जब तुम्हारी इस ऊर्जा पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जब तुम्हारी ऊर्जा एक दूसरे नियम के अधीन कार्य करती है, यह नियम है— अनुग्रह का, जब तुम ऊपर की ओर खींच लिए जाते हो, जब तुम ऊपर की ओर जाने लगते हो, जब तुम ऊपर की ओर तेजी से आगे बढते हो, जैसे मानो आकाश ही तुम्हें ऊपर खींच रहा है, तब व्यक्ति पूरी तरह से भिन्न एक दूसरे संसार को जानता है। प्रत्येक चीज ऊपर से नीचे आती है— अथवा वह वास्तव में ठीक ऊपर की ओर ही हो सकती है, लेकिन हर चीज बदलती है। कबीर ने कहा है कि उन्हें जब ऐसा घटा तो उन्होंने देखा कि सागर जल रहा है और वह अग्नि बहुत शीतल है। उन्होंने देखा मछलियां सूखी जमीन पर दौड रही हैं और उन्होंने ऐसे वृक्ष देखे, जिनकी जड़ें आकाश में थीं और जिनकी शाखाएं पृथ्वी की ओर आ रही थीं। ये सभी केवल प्रतीक के रूप में की गई अभिव्यक्तियां हैं।

जब काम ऊर्जा तेजी से नीचे की ओर प्रवहित होती है तो उसके प्रभाव के सम्बंध में हम प्रत्येक चीज भली भांति जानते हैं। जब कामऊर्जा ऊर्ध्वगामी होकर ऊपर की ओर उठती है तो पूरी तरह से एक नये संसार का भरोसा खुलता है। तब तुम इस संसार को नहीं देखते, क्योंकि तुम्हारे नेत्र धुर विरोधी एक नये आयाम में होते हैं।

लेकिन सामान्यतया हमारे पूरे जीवन की धारणा और विचार सेक्स केंद्रित हैं। हम जो कुछ भी करते हैं : हम धन कमाते हैं, तो हम धन भी सेक्स के लिए ही अर्जित करते हैं, हम प्रसिद्धि पाने का प्रयास करते हैं, लेकिन हम प्रसिद्धि भी सेक्स के लिए ही अर्जित करते हैं। कभी—कभी बहुत निर्दोष क्रियाकलाप भी जिन्हें तुम सेक्स के साथ नहीं जोड़ सकते, लेकिन यदि वह व्यक्ति अभी भी असाधारण वासना से उद्दीप्त हो, वे भी सेक्स से ही सम्बंधित होते हैं। यह समझना थोड़ा सा कठिन है कि एक व्यक्ति जो प्रसिद्धि के पीछे भाग रहा है, वह सेक्स के पीछे कैसे दौड़ रहा

मनोवैज्ञानिकों से पूछो। वे कहते हैं कि स्त्रियां किसी अन्य चीज की अपेक्षा प्रसिद्धि से अधिक आकर्षित होती हैं। वे सुंदर चेहरे की ओर उतनी अधिक आकर्षित नहीं होतीं, जितनी, जितनी वे उपलब्धि से आकर्षित होती हैं। एक प्राप्तकर्ता, एक व्यक्ति जिसके पास अधिक धन हो, शक्ति हो, प्रतिष्ठा हो, किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा स्त्री को अधिक आकर्षित करता है, क्योंकि एक स्त्री निरंतर किसी ऐसे ही व्यक्ति की खोज में रहती है जिसके आगे वह झुक सके। तुम सुंदर हो सकते हो, लेकिन यदि तुम्हारे पास कोई शक्ति नहीं है, तो तुम स्त्री को सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं दे सकते। यदि तुम शक्ति सम्पन्न हो, भले ही तुम सुंदर न हो बुद्धिमान भी न हो, लेकिन इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यदि तुम शक्तिशाली हो, विश्वसनीय हो, तो स्त्री तुम्हारे कंधों पर झुक सकती है। तुममें वहां उसके लिए एक निश्चित गारंटी है।

पुरुष स्त्री की ओर आकर्षित होते हैं उसके शारीरिक सौंदर्य और शरीर के अंगों के संतुलन से, जबकि स्त्री अधिक आकर्षित होती है—प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, शक्ति और पुरुष की उपलब्धियों से। इसलिए यदि पुरुष शक्ति और सत्ता के पीछे पागल हैं, तो गणित बहुत सरल है। यदि मृत्यु भी सामने खड़ी हो अथवा खतरा सामने खड़ा हो, फिर भी लोग सेक्स में ही लगे रहते हैं।

 

जीवन ने मुझे एक बहुत सुंदर जोक भेजा है।

ईसाडोर गिन्सबर्ग को उसके डॉक्टर ने कुछ अवकाश लेने का परामर्श दिया, क्योंकि अपने व्यवसाय को खड़ा करने में उसने वर्षों तक कठिन परिश्रम किया था। अपने अवकाश के दौरान उसकी भेंट एक सुंदर युवती से हुई जिसके साथ उसने काफी समय आमोद—प्रमोद में व्यतीत किया।’’

अपने कार्यालय लौटने पर उसने अनुभव किया कि जैसे वह एक नये व्यक्ति लगने लगा है : क्योंकि उसके जीवन में प्रेम प्रविष्ट हो चुका था।

कुछ सप्ताह गुजरने के बाद एक जाने—माने भद्र पुरुष, मि. ईसाडोर गिन्सबर्ग से मिलने आए और उनसे अकेले में बात करने की इच्छा व्यक्त की। मुस्कराते हुए गर्मजोशी से उसने वह कार्ड पढ़ा, जो उसे दिया गया था। वह कार्ड एक प्रसिद्ध कानूनी विशेषज्ञता वाली फर्म के एडवोकेट का था।

उसने कहा—’‘मैं मिस मैमी लोटरगी का प्रतिनिधि हूं। आपको उनका स्मरण होगा, जिनसे आप होटल कार्लटन में मिले थे।’’

”हां, हां।’’ ईसाडोर ने उत्तेजित और लालायित भाव से कहा।

”फिर ठीक है मित्र गिन्सबर्ग, आपका इनके बारे में क्या ख्याल है?” यह कहते हुए उसने सामने रखी डेस्क पर ईसाडोर और मैमी के कई फोटोग्राफ रख दिए जिनका विवाद निश्चित रूप से बातचीत द्वारा ही सुलझ सकता था।

फोटो देखकर ईसाडोर पर पूरी तरह से नशा जैसा छा गया। आश्चर्य से आंखें फैलाकर वह उन फोटो को उलट—पुलट कर मुग्ध भाव से देखता रहा। कई मिनटों तक खामोशी छाई रही, जैसे हवा का बहना रुक गया हो। अंत में वह एडवोकेट की ओर मुड़कर दृढ़ आदेश देने वाले स्वर से बोला—ठीक है। मैं इस फोटो की दो प्रतियां इस फोटो की तीन इसकी और चार प्रतियां तथा अन्य दूसरे फोटोग्राफ लेना चाहूंगा।’’

 

वासना की पकड़ ऐसी होती है कि तुम आसन्न खतरे को भी नहीं देख सकते। वासना की पकड़ ऐसी होती है, कि तुम सामने खड़ी मृत्यु को भी नहीं देख सकते। वास्तव में बहुत अजीब घटना घटती है। एक व्यक्ति मृत्यु के जितने अधिक निकट आता है वह उतना ही अधिक वासनामय हो जाता है। क्योंकि सेक्स जीवन का अनुभव देता है इसीलिए कोई भी व्यक्ति कामुकता से अधिक बंध जाता है। वृद्ध लोग सेक्स में गतिशील होने में भले ही समर्थ न हों, लेकिन वे तब भी अपनी कल्पनाओं में सेक्स का ही चिंतन शुरू कर गतिशील हो जाते हैं। ऐसा लगभग सदैव होता ही है।

मैंने बहुत से लोगों को मरते हुए देखा है। ऐसा बहुत कम होता है कि यह व्यक्ति अपने मन में परमात्मा का चिंतन करते हुए मरे। लगभग हमेशा ही दस में से नौ लोग जब मरते हैं तब उनके मनों में सेक्स ही होता है और यही दूसरे जन्म का प्रारम्भ बन जाता है। मन पर छाया सेक्स ही दूसरे जन्म में दूसरे सेक्स जीवन की शुरुआत बन जाता है।

लेकिन ऐसा होना ही है, यदि तुम सेक्स के पार जाने के लिए उसकी पकड़ के पार होने के लिए कठिन श्रम नहीं कर रहे हो। यदि तुम उसके पंजों से अपने को मुक्त करने के लिए कठिन संघर्ष नहीं कर रहे हो, तब ऐसा होना ही है—क्योंकि मृत्यु के क्षण तुम सेक्स के सम्बंध में ही अधिक सोचना शुरू कर दोगे, क्योंकि सेक्स ठीक मृत्यु के विपरीत प्रतीत होता है। सेक्स से ही जन्म होता है, इसीलिए मन सेक्स की ही कल्पना करता है। और जब अंतिम क्षण आ ही गया है, जब शरीर विसर्जित होने जा रहा है, यह ऊर्जा का अंतिम शक्ति परीक्षण है, यह ध्यान ऊर्जा एक प्रवाह की भांति तुम्हारे सिर की ओर जाती तुम्हें अपने नियंत्रण में लेती है। यदि तुम मन में सेक्स के चिंतन के साथ मरे, तो तुम जीवन चक्र में घूमते हुए फिर आओगे—इसी आने—जाने, जाने— आने के दोहराने वाले चक्र को हिंदू आवागमन कहते हैं।

यदि तुम मनुष्य के अंदर देखना चाहते हो

तो तुम्हें रूप और सौंदर्य के घर में जाना चाहिए। बाउल कहते हैं—यदि तुम मनुष्य का अन्तर्तम देखना चाहते हो तो तुम्हें रूप

और सौंदर्य के शाश्वत घर में प्रवेश करना होगा। प्रेम में अधिक सौंदर्य बोध है, वासना में लगभग सौंदर्य—बोध है ही नहीं। वासना कुरूप है, और तुम इसका निरीक्षण कर सकते हो। जब कोई तुम्हारी ओ वासना की दृष्टि से देखता है, तो क्या तुमने उसका चेहरा देखा है? वह कुरूप हो जाता है। जब वहां आंखों में वासना होती है तो एक सुंदर चेहरा भी कुरूप बन जाता है। और इसके ठीक विपरीत भी घटता है : एक कुरूप चेहरा भी जब आंखों में प्रेम होता है, सुंदर बन जाता है। आंखों में प्रेम के होने से चेहरे को पूरी तरह से भिन्न एक नया रंग मिल जाता है, एक भिन्न प्रभा मण्डल उत्पन्न हो जाता है। वासना का आभा मण्डल काला और कुत्सित होता है। किसी की ओर वासना से देखना ही कुरूपता है। यह सौंदर्य की खोज नहीं है।

भारत के महानतम कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है—’‘सौंदर्य ही सत्य है ” और उन्होंने ठीक ही कहा है। और वह बाउलों से बहुत अधिक प्रभावित थे। वास्तव में वह ही प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने बाउलों को पश्चिम से परिचित कराया, वह ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने बाउलों के कुछ गीतों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। वह स्वयं ही एक तरह के बाउल थे। वह कहते हैं—सौंदर्य ही सत्य है।’’ यदि तुम सुंदरता की खोज करोगे तुम सत्य को उपलब्ध हो जाओगे। तम्हारे अंदर जितना अधिक सौंदर्यबोध होगा, तुम सुंदरता के प्रति जितने अधिक संवेदनशील होगे, तुम उतने ही अधिक संतुलित और लयबद्ध होते जाओगे क्योंकि अंततोगत्वा सुंदरता परमात्मा की ही सम्पत्ति है।

एक उदाहरण से तुम्हारे लिए यह और स्पष्ट हो जायेगा।

तुम एक स्त्री देखते हो, यदि तुम उसे वासना की दृष्टि से देखते हो, तो तुम केवल शरीर देखते हो, पदार्थ अथवा उसका कोई भाग देखते हो, यदि तुम उसे प्रेम से देखते हो, तो तुम कुछ चीज उसमें ऐसी देखते हो, जो पदार्थ नहीं है, जो आत्मिक है, और यदि तुम एक स्त्री को प्रार्थना के भाव से देखते हो, तो तुम पूरी तरह से किसी दिव्य रूप को या देवी को ही देख रहे हो। यह तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर करता है। वासनापूर्ण दृष्टि से तुम स्त्री के शरीर के कुछ भाग देखते हो, प्रेमपूर्ण दृष्टि से तुम स्त्री की आत्मा को देखते हो, और प्रार्थनापूर्ण नेत्रों से वह दिव्य दिखाई देती है, स्वयं परमात्मा के ही रूप में दिखाई देती है। सौंदर्य के प्रति जहां कहीं भी तुम्हारी संवेदनशीलता परिपूर्ण हो जाती है, दिव्यता प्रकट हो जाती है।

यदि तुम मनुष्य का अंतर्तम देखना चाहते हो

तो तुम्हें रूप और सौंदर्य के शाश्वत घर में प्रवेश करना होगा।

उसके सभी मार्ग ब्रह्माण्ड में एक दूसरे को काटते हुए

जहां जीवन, मृत्यु के साथ रहता है

और होश, पागलपन के साथ, सभी के पार चले जाते हैं।

उसके सभी रास्ते सभी सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं, जहां जीवन और मृत्यु साथ—साथ रहते हैं, और होश, पागलपन के साथ। परमात्मा में मृत्यु और जीवन दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा के लिए अंधकार और प्रकाश दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा के लिए प्रारम्भ और अंत भी दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा का अर्थ है समग्रता : परमात्मा सभी की चिंता करता है। इसलिए जब तुम परमात्मा के निकट जाते हो, तुम खोओगे कुछ भी नहीं, और सब कुछ पा लोगे। शुरू में ऐसा लग सकता है कि तुम कुछ चीज खो रहे हो, लेकिन परमात्मा में सभी कुछ समाहित है। परमात्मा में वासना भी रहती है लेकिन पूरी तरह से रूपांतरित स्थिति में। परमात्मा में पदार्थ भी रहता है लेकिन वह शुद्ध और पवित्र बन जाता है। कोई भी एक रहता तो संसार में है, लेकिन उसका होकर नहीं रहता। परमात्मा स्वयं है इस संसार में, पर सांसारिक नहीं है। संसार उसी के अधिकार और नियंत्रण में रहता है लेकिन वह संसार के नियंत्रण में नहीं रहता।

यह विपरीत ध्रुवों की स्थिति भी समझ लेने जैसी है।

बाउल का परमात्मा, ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों के परमात्मा की तुलना में कहीं अधिक महान है, क्योंकि उनके परमात्मा तो धर्मशास्त्रों में वर्णित परमात्मा जैसे हैं। बाउलों का परमात्मा कहीं अधिक काव्यात्मक है, जबकि अन्य धर्मों के परमात्मा तर्कपूर्ण हैं। बाउलों का परमात्मा तर्कविहीन होने से अधिक सच्चा और प्रामाणिक है। ईसाई कहते हैं—परमात्मा ‘ गुड ‘ है, सुंदर और भला है। यह शब्द गॉड (God), गुड (Good) से ही निकला है। ‘ गुड ‘ शब्द ही उसका मूल है। परमात्मा ‘ गुड ‘, भला या सुंदर है, तब बुरे का क्या होगा, बुरा आखिर जायेगा कहां? तब बुरे का अस्तित्व है कहां? वे स्पष्ट करते हैं कि इस बुरे के कारण ही उन्हें शैतान बनाना पड़ा। लेकिन ऐसी सैद्धान्तिक चालबाजी पर बाउल हंसते हैं। वे कहते हैं— यदि परमात्मा ही शैतान का सृजन करता है और शैतान का सृजनहार बनकर रहता है, और यदि तुम कहते हो कि शैतान, परमात्मा के विरुद्ध चला गया, तब वहां दो ही सम्भावनाएं हैं। पहली यह कि परमात्मा सर्वशक्तिमान नहीं है और शैतान उसके विरुद्ध जा सकता है— और दूसरी सम्भावना यह है कि परमात्मा उसे अपने विरुद्ध स्वयं उकसाता है—तभी वह सर्वशक्तिमान है, लेकिन तब शैतान के होने का वही कारण है।

बाउल कहते हैं कि परमात्मा दोनों एक साथ हैं, और जब वे कहते हैं कि परमात्मा दोनों है, तो उनके कहने का अर्थ है कि परमात्मा समझ के पार है। वह परस्पर विरोधी है। परमात्मा में सभी कुछ समाहित है। प्रत्येक चीज उसमें रूप और आकृति बदल रही है, सभी विपरीतताए उसमें लयबद्ध हो रही हैं। परमात्मा एक आरकेस्ट्रा है, उसमें सभी स्वर—वाद्य लयबद्ध होकर एक साथ बज रहे हैं। वह अनेक में एक है। वह सभी का एकीकृत रूप है।

 

उसके रास्ते ब्रह्माण्ड में

एक दूसरे को काटते हुए पार चले जाते हैं

जहां जीवन, मृत्यु के साथ

और समझ तथा पागलपन साथ—साथ रहते हैं।

बाउल कहते हैं—’वह’ ही श्रेष्ठतम कारण, और श्रेष्ठतम अकारण एक साथ है। वे कहते हैं कि परमात्मा ही सभी का कारण है और परमात्मा पागलपन भी है। एक तर्कनिष्ठ मन के लिए यह समझना कठिन हो जाता है। लेकिन बाउल कहते हैं कि जीवन कोई तर्क नहीं है। वे कहते हैं—’‘ हम तो जो भी कुछ हैं, उसका केवल वर्णन कर रहे हैं। यही वह तरीका है, जिससे हमने उस परमात्मा को जाना है।’’ वह बहुत तर्कपूर्ण और बहुत अतर्कपूर्ण, दोनों ही एक साथ है। वह अनंत करुणावान और अनंत न्यायकर्ता दोनों एक साथ है। उसके अंदर सभी विपरीत ध्रुव मिलकर एक हो गये हैं। उसे समझने के लिए किसी को उस एक में समग्रता के समाहित होने की बात समझनी होगी। तुम इस दावे और वक्तव्य को अपनी बुद्धि द्वारा नहीं समझ सकते। तब यह निरर्थक प्रतीत होता है। लेकिन जरा जीवन का निरीक्षण करें : वह सभी कुछ जो जीवंत है, किसी न किसी तरह उसका ही होना चाहिए और वह सभी कुछ जो मरता है, किसी न किसी तरह उसमें ही मर रहा है। हां! वह बहुत न्यायसंगत होकर रहता है, लेकिन तब पागल व्यक्तियों में कौन रहता है? पागल व्यक्ति में भी ‘ वह ‘ ही रहता है, और सभी सम्भव तरीकों से वही प्रेम करता है।

इसलिए बाउल कहते हैं—’‘ भयभीत मत हो, तुम केवल अपने आप में होना भर रह जाओ और तुम उसे खोज लोगे। उसे खोजने के लिए तुम्हें कुछ और बनने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम केवल स्वयं में ही बने रहो। यदि तुम पागल हो, तो केवल पागल बनकर ही रहो, तब वही उसे खोजने का तुम्हारा मार्ग होगा। यदि तुम एक गायक हो, तो गीत ही गाये जाओ। वह सब कुछ एक साथ है, और सभी कुछ उसी में समाहित है। तुम्हारा गीत गाना एक प्रार्थना बन जायेगा, एक मार्ग बन जायेगा, यदि तुम गीत नहीं गा सकते तो भी फिक्र मत करना, फिक्र करने की कोई भी जरूरत नहीं। यदि तुम अनुभव करते हो कि केवल शांत बैठे हुए ही तुम अपने मौन अस्तित्व में पूरी तरह आनंदित हो, तब वही तुम्हारा मार्ग है। सभी मार्ग उसी के हैं। बाउल कहते हैं—’‘ तुम जहां कहीं भी हो, तुम कहीं से भी यात्रा करो, तुम उसी की ओर यात्रा करते हो। बस कहीं भी चूको मत, यात्रा पथ पर बढ़ते ही जाओ। गतिशील बने ही रहो गतिशीलता रुकने न पाए क्योंकि गति का रुकना ही मृत्यु है। जब कभी तुममें जड़ता आ जाती है, तुम रुक जाते हो, तभी दूरी सामने आती है। बस चलते ही रहो और चलना ही बन जाओ। वे तुम्हें कोई नीति या नैतिकता नहीं देते, वे तुम्हें कोई विशिष्ट आदर्श नहीं देते, वे तुम्हें कोई नियम नहीं देते कि तुम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। न वे कर्त्तव्य निभाने की फिक्र करते हैं। वे कहते हैं— अच्छा तो यह है कि वह प्रकरण—’‘ वे सभी को, जैसे वे हैं, उससे प्रेम करते हैं।’’ बस तुम्हें चलते ही चले जाना है, कहीं रुककर जड़ होकर बैठना नहीं है।

अपने नेत्र मूंद कर

उसे पकड़ने का प्रयास करो

वह फिसल—फिसल जाता है।

बहुत सुंदर ” अपने नेत्र मूंद लो और उसे पकड़ने का प्रयास करो, वह फिसल—फिसल जाता है।’’

यदि तुम कहीं भी जड़ हो जाते हो, तो तुम उससे चूक जाओगे। तुम्हें गतिशील बने रहना है, क्योंकि वह भी परिभ्रमण कर रहा है। वह हमेशा फिसल जाता है। वह सदा नूतन और अज्ञात में परिभ्रमण कर रहा है। यदि तुम किसी ज्ञात के साथ बंधे तो ‘ उसे ‘ चूक जाओगे। अपनी आंखें मूंद लो और अपने ही अंदर निरीक्षण करो कि वह कितनी तेजी से घूमता हुआ निरंतर नाच रहा है। वह पुराने स्थान से निरंतर फिसलते हुए सरक रहा है। वह निरंतर नवीन है। वह सर्प की भांति है जो पुरानी केंचुल छोड़ते हुए सरक कर बाहर आ जाता है। परमात्मा निरंतर इतिहास से सरकता हुआ बाहर आ रहा है, क्योंकि वह शाश्वत है, परमात्मा निरंतर सरकते हुए बाहर आ रहा है, और यह घटना पहले ही घट चुकी है, क्योंकि वह कभी अपने को दोहराता नहीं। और यदि तुम इतिहास के पन्नों से ही चिपके रहे तो तुम उससे चूक जाओगे, क्योंकि तब तुम भूतकाल में ही देखते रहोगे, और वह हमेशा भविष्य में परिभ्रमण कर रहा है। परमात्मा भविष्य है और मन है अतीत, तभी अंतर उत्पन्न होता है।

एक असली धार्मिक व्यक्ति वह होता है जिसका कोई अतीत नहीं होता, जिसकी कोई आत्मकथा नहीं होती, जो निरंतर नया होता है, उसका प्रत्येक क्षण परमात्मा के साथ फिसलते हुए चलता है। वह फिक्र करता ही नहीं, जो घटना घट चुकी वह घट चुकी, मामला खत्म हुआ। अब वहां पूर्ण विराम लगा दो, पीछे मुड़कर देखो ही मत। बढ़ते चलो….. .वह हमेशा तुम्हें तुमसे आगे खड़ा होकर पुकार रहा है। वह हमेशा तुम्हें अपने अस्तित्व के नवीन क्षेत्रों की ओर, वासना से प्रेम की ओर, और प्रेम से प्रार्थना की ओर गतिशील होने के लिए तुम्हें प्रेरित कर तुम्हें विश्वस्त कर रहा है, और वहां प्रार्थना से भी उच्चतम क्षेत्र है, और वह निरंतर गतिशील है। यदि तुम उसका अनुसरण करोगे, तो इसके लिए केवल एक ही रास्ता है कि तुम्हें भी निरंतर गतिशील रहना होगा।

एक नदी बन जाओ। नदी की भांति प्रवाहित होते रहो। हां! वे ठीक कहते

अपने नेत्र मूंदो

और उसे पकड़ने का प्रयास करो

वह हाथों से फिसला जा रहा है।

अपनी आंखें बंद क्यों करो ?—क्योंकि प्रारम्भ में तो उसे बिना आंखों के देख पाना बहुत कठिन होगा। वहां इतने अधिक रूप और आकृतियां हैं कि तुम उसे खो सकते हो। तुम्हारे चारों ओर सब इतना अधिक है और यह संसार इतना अधिक जटिल है कि तुम उसमें भटक सकते हो। इसलिए सरलतम से प्रारम्भ करो—तुम स्वयं अपने ही से शुरुआत करो। अपनी आंखें बंद कर लो, तब वहां केवल एक तुम ही रह जाते हो। इस रास्ते से परिचित होने में यह सरल होगा। अपनी आंखें बंद करो और उसे देखो, वह निरंतर फिसलता जा रहा है। वह तुम्हारी ही अपनी चेतना है, वही सारभूत मनुष्य है, बाउल जिसे ‘ आधार मानुष ‘ कहते हैं। वह तुम्हारे ही अंदर है, वही तुम्हारा अन्तर्निहित स्वभाव अथवा अस्तित्व है, लेकिन ‘ वह ‘ निरंतर आगे की ओर फिसलता जा रहा है। इसी तरह से वह अपने को विकसित और प्रकट करता है।

परमात्मा एक विकास भी है और एक विद्रोह भी, क्योंकि कभी ‘ वह ‘ बहुत धीमी गति से और कभी वह तेजी से गतिशील होता है। एक व्यक्ति को सजग होकर उससे कदम से कदम मिलाकर चलना होता है। यदि तुम अपनी सजगता खो देते हो तो वह आगे निकल जाता है। तब कोई कभी नहीं जानता कि वह फिर से लौटकर कब आयेगा। यदि मूर्च्छा में एक भी क्षण नष्ट हो गया तो वह संसार के सबसे दूर वाले सिरे पर होगा। प्रत्येक को निरंतर सजग और सचेत रहना होता है।

लेकिन पहले अपने ही अंदर उसका निरीक्षण करो। ऐसा नहीं कि वह बाहर नहीं है, वह वहां भी है—क्योंकि अंदर और बाहर सभी कुछ उसका ही है। लेकिन पहले तुम्हें स्वयं अपने ही अंदर उसे समझना आसान होगा। एक बार तुमने वहां उसे जान लिया और देख लिया, फिर तुम उसे हर जगह देखने में समर्थ हो सकोगे। वहां एक बार तुमने उसे समझ लिया, फिर अपनी आंखें खोलो, वह तुम्हारे ही चारों ओर खड़ा है : वह वृक्षों में भी है, पक्षियों में भी है, मनुष्यों में भी है, स्त्री में भी है, चट्टानों में भी है, नदियों पहाड़ों और बादलों में भी है। लेकिन पहले परिचय प्राप्त कर लो उसका। और सबसे बड़ा परिचय, जो सबसे सरलतम है—वह है अपने नेत्र मूंदकर, अपने ही अंदर देखना और निरीक्षण करना। तुम पाओगे कि तुम्हारी चेतना की सर्पिणी निरंतर गति करती हुई अपनी पुरानी केंचुल उतार रही है। यह चेतना का अथवा जीवन ऊर्जा का प्रवाह ही है।

बाउलों का परमात्मा को मृत नहीं है। उनके विचार में वह स्थिर और प्रवाहहीन नहीं है। वह कोई ऐसा परमात्मा नहीं है जो सातवें स्वर्ग में कहीं सोने के सिंहासन पर बैठा हुआ हो। बाउलों का परमात्मा बहुत जीवंत परमात्मा है, वह तुम्हारे अंदर ही तुम्हें ठोकर मारता है, तुम्हें अपने प्रवाह में बहाये लिए जाता है। बाउलों का परमात्मा और कुछ भी नहीं—वह जीवन के समानार्थक है। जीवन को बड़े और उभरे अक्षरों में लिखो—जीवन, और बस इतना ही कहा जा सकता है बाउलों के परमात्मा के बारे में।

बाउल कहते हैं:

मेरा हृदय पूरी तरह संतृप्त और भरपूर है

लेकिन मैं जिसे चाहता हूं जिसे मैंने जाना है

लेकिन किसके साथ और कैसे

आनंद के साथ अथवा मृत्यु के साथ

बहुत अजीब हैरान करने वाला वह अनुभव होता है, जब तुम परमात्मा से परिचित होते हो, तुम यह नहीं बता सकते, कि वह क्या है, तुम उसका वर्णन नहीं कर सकते। वह इतना अधिक विरोधाभासी और एक दूसरे के विपरीत है।

मेरा हृदय पूरी तरह संतृप्त और भरपूर है।

लेकिन मैं चाहता हूं जिसे मैंने जाना है

लेकिन किसके साथ और कैसे

आनंद के साथ अथवा मृत्यु के साथ

वह मृत्यु और पुनर्जीवन दोनों एक साथ हैं। वह सभी के पार पुनर्जन्म भी है। एक परम आश्चर्य के भाव ने

मेरा पीछा करते हुए मुझे सभी ओर से—

ऐसा पकड़ लिया है

कि मैं कुछ समझ नहीं पाता

कहां है वह सागर?

और कहां गईं वे सारी सरिताए?

और इसके बावजूद भी

वहां तुम्हारे देखने के लिए

लहरें उफन रही हैं।

लेकिन ऐसा अद्भुत आश्चर्य

तुम सभी देख सकोगे—

केवल यदि तुम अपने नेत्रों को

अपने हृदय के साथ एक कर लो।

‘तुम अपने नेत्र मूंद लो’ इसका यही अर्थ है—जिससे तुम अपनी आंखों और हृदय को एक दूसरे के समानांतर लाकर एक कर सको। केवल यदि तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे हृदय के साथ जुड़कर एक हो जाती है, तभी अचानक तुम परमात्मा को सभी विरोधाभासों के साथ देखोगे। सभी कारणों का तुम्हें स्रोत और पागलपन दिखाई देगा, जीवन और मृत्यु के सभी स्रोत एक साथ दिखाई देंगे।

बाउल कहते हैं:

मेरे कम्पित हृदय के केंद्र में

आंसुओ का सिंधु है

मेरी आंखें रोती हुई मौन अश्रुपात कर रही हैं

और मेरे रोम—रोम से प्रेमपूर्ण पुकार

निरंतर ध्वनित हो रही है—

आओ प्रीतम प्यारे! आओ पधारो,

आ भी जाओ, कृपया पधारो।

बाउलों का मार्ग साधुओं संन्यासियों और फकीरों का मार्ग नहीं है। उनका मार्ग है—नर्तक और गायक का, उस मनुष्य का जिसके अंदर सौंदर्य बोध है। उनकी प्रार्थना सुंदरता से भरपूर है और परमात्मा उनके लिए कोई दार्शनिक विचार या धारणा न होकर, उनका प्रीतम प्यारा है।

मुक्त संवेग निषेधात्मक शक्तियों के साथ रहते हैं

और स्त्रैण—ऊर्जा, मनुष्य की आत्मा के साथ

आलिंगनबद्ध होकर

पूर्ण रूप से अदृश्य होते हुए भी

उस वीणा की तरह होती है

जिसके तार लयबद्ध हो गए हों।

हृदय ही वह मंदिर या घर है

जिसमें मिलन का संगीत गूंजता ही रहता है।

जब तुम स्वयं अपनी ही गहराई में पहुंचते हो, जब तुम अपने हृदय के केंद्र का स्पर्श करते हो, तो तुम उस भूमि के क्षेत्र पर आ जाते हो, जहां से फिर जुदाई होती ही नहीं। वहां, तुम न केवल परमात्मा के साथ हो, तुम उसके साथ मिलकर एक ही हो जाते हो—क्योंकि तुम उसके ही एक खण्ड हो। यह ‘ वह ‘ ही है जिसने तुम्हारे समान बनकर अपने को अभिव्यक्त किया है। धन्यभागी और भाग्यशाली होने का अनुभव करो, ‘ उसने ‘ भी तुम्हें अपने अनेक रूपों में से एक रूप में चुन

 

लिया है।

अपनी आंखें बंद करो

और उसे पकड़ने का प्रयास करो

वह हाथों से फिसला जा रहा है।

 

आज इतना ही।



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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–10)

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ठहर जाना पा लेना है—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 21 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्न सार:

1—आपके हिंदी प्रवचनों में भी सत्तर—अस्सी प्रतिशत वे पाश्चात्य संन्यासी होते हैं जिन्हें हिंदी—भाषा बिल्कुल नहीं आती। आप फिर भी उसी तत्परता, सहजता और गहनता से बोलते हैं मानो पूरी मंडली भाषा समझ रही हो। क्या आपको इस बात से कोई अड़चन नहीं आती?

2— इस सदी का मनुष्य अधार्मिक क्यों हो गया है?

3—बहुत दिनों से बड़ी बेचैन और गुमसुम हो रही हूँ। पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ। दो दिन के दर्शन से अपूर्व आनंदित हुई। लेकिन चार रात से सो नहीं पाती और ऐसी हालत बहुत दिनों से है।

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा. ….

4—परमात्मा से वियोग क्यों?

 

 

पहला प्रश्न : आपके हिंदी प्रवचनों में भी सत्तर—अस्सी प्रतिशत वे पाश्चात्य संन्यासी होते हैं जिन्हें हिंदी—भाषा बिल्कुल नहीं आती। आश्चर्य है कि आप फिर भी उसी तत्परता, सहजता और गहनता से बोलते हैं, मानो कि पूरी मंडली भाषा समझ रही हो। क्या आपको इस बात से कोई अड़चन नहीं आती? यह कैसे संभव है, यह समझाने की अनुकंपा करें।

चिन्मय! भाषा की यहाँ बात ही नहीं है, भाव की बात है। फिर भाषा जो समझते हैं, वे भी कहाँ समझ पाते हैं? भाषा समझने से ही तो नहीं समझ लोगे। जो कहा जा रहा है, वह भाषा में आबद्ध भला हो, भाषा में सीमित नहीं है। भाषा के द्वारा संवादित किया जा रहा हो, लेकिन भाषा का ही नहीं है। भाव से जुड़ो तो ही समझ में आएगा।

अनेक को यह प्रश्न उठता होगा मन में कि जो हिंदी—भाषा नहीं समझ रहे हैं, वे कैसे समझ रहे होंगे? मैं जो बोल रहा हूँ उसे वे नहीं समझेंगे, लेकिन मैं जो हूँ उसे वे समझेंगे। और वही मूल्यवान है। जो कहा जा रहा है, वह नहीं, वरन जहाँ से कहा जा रहा है, वह। मेरी चुप्पी मूल्यवान है। उसी चुप्पी से शब्द निर्मित हो रहे हैं। शब्द तो ऐसे हैं जैसे झील पर तरंगें। तरंगें ही थोड़े झील का सब कुछ हैं। झील बिना तरंगों के भी हो सकती है। वे मेरी झील को देख रहे हैं, उन्हें तरंगें दिखायी नहीं पड़ रही हैं, वही असली बात भी है।

और कई बार तो ऐसा हो जाता है, उल्टा ही हो जाता है, जो भाषा समझ पाता है, वह भाषा समझने के कारण ही भाव नहीं समझ पाता। भाषा में अटक जाता है। मैंने कोई बात कही, तुमने भाषा समझी, तो तुम ऊहापोह में पड़े, सोच—विचार में उलझे, अर्थ निकालने लगे। अर्थ तो तुम्हारे होंगे। शब्द मेरे, अर्थ की कलमें तुम अपनी लगाओगे—अनर्थ हो जाएगा। बात सुनी—समझी, तुम्हारे भीतर न—मालूम कितनी स्मृतियाँ जग गयीं। तुमने जो पढ़ा है, सुना है, गुना है, वह सब आंदोलित हो उठा। तुम्हारे भीतर शोरगुल मच गया। तुम्हारे भीतर एक बाजार खड़ा हो गया। उस बाजार में मेरी आवाज खो जाएगी। तुम्हारे भीतर विवाद उठेंगे, तर्क उठेंगे, संदेह उठेंगे, क्योंकि भाषा समझ में आ रही है। तो बहुत बार यह भी हो जाता है कि भाषा समझ में न आती हो और अगर प्रेम हो, तो न तो विवाद पैदा होगा, न विचार पैदा होंगे, न ऊहापोह जन्मेगा, सन्नाटा छा जाएगा; शब्द का व्यवधान नहीं होगा, निःशब्द में सेतु बन जाएगा।

जो हिंदी—भाषा नहीं समझ रहे हैं, वे यहाँ अकारण नहीं बैठे हैं, बड़ी समझ से बैठे हैं, उतनी समझ हिंदी समझने वालों की नहीं है। क्योंकि जब मैं अंग्रेजी में बोलता हूँ, हिंदी समझने वाले विदा हो जाते हैं। फिर उनका पता नहीं चलता। वे कहते हैं—हमें अंग्रेजी समझ में नहीं आती। तुम ज़रा अपना अंधापन समझो। जिनको हिंदी समझ में नहीं आ रही है, वे बैठे सुन रहे हैं, रोज, यह भी तुम देखते हो, लेकिन जब मैं अंग्रेजी में बोलता हूँ और तुम्हें अंग्रेजी समझ में नहीं आती, तुम विदा हो जाते हो। तुम भी कभी बैठकर देखो! भाषा के बिना मुझसे जुड़कर देखो। और शायद फिर भाषा से जुड़ना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। क्योंकि यहाँ जो बात हो रही है, वह बात की बात नहीं है। बात तो केवल बहाना है, बात तो तुम्हारे मन को दिया गया खिलौना है। असली बात तो कुछ और है, बात तो कुछ और है।

असली बात तो एक अवस्था का निर्माण है—एक क्षेत्र का, एक आकाश का—जहाँ तुम मेरे साथ तरंगित हो सको। जहाँ तुम मेरे साथ लयबद्ध हो सको, जहाँ तुम्हारी साँस मेरी साँस के साथ चले। जहाँ तुम मेरे साथ ऐसे जुड़ जाओ कि मेरी ऑंखों से देख सको और कानों से सुन सको। जहाँ तुम मेरे साथ उस अंतर्यात्रा पर निकल पड़ो जहाँ परमात्मा का निवास है। यहाँ कोई दर्शनशास्त्र नहीं समझाया जा रहा है। यह कोई स्कूल नहीं है, कोई विद्यालय नहीं है, यह तो ध्यानपीठ है। यहाँ ज्ञान नहीं दिया जा रहा है, ध्यान का रस लगाया जा रहा है, ध्यान का पागलपन दिया जा रहा है, ध्यान की मस्ती बाँटी जा रही है। लेना—देना क्या है भाषा से? मैंने जो कहा वह समझा कि नहीं समझा, उसका मूल्य कितना है? मेरे पास बैठे दो घड़ी, मेरे साथ डोले दो घड़ी, मेरे साथ एकरस हो लिए दो घड़ी; मेरे भाव में नहाए, मेरे रंग में रंगे, मेरे गीत में डोले, मेरी तरन्नुम से बँधे, बस हो गया। उन घड़ी—दो घड़ियों में कुछ हो जाएगा जो मूल्यवान है। उन दो घड़ियों में तुम संसार के पार चलोगे, अतीत चलोगे, अतिक्रमण करोगे। उन घड़ी—दो—घड़ी में भावातीत अवस्था बन जाएगी।

तो जिनको भाषा समझ में नहीं आ रही है, तो उन पर दया मत खाना, तुम यह मत सोचना कि बेचारे, ये बैठे हैं और इनको कुछ समझ में नहीं आ रहा है! बैठे हैं, उसी बैठने में कुछ हो रहा है। चुप हैं, सुनायी कुछ भी नहीं पड़ रहा है, उसी न सुनायी पड़ने में कुछ हो रहा है। भीतर कोई तरंगें नहीं चल रही हैं, सब निस्तरंग है, सब ठहरा हुआ है, ऊर्जा का ऊर्जा के साथ नृत्य हो रहा है, भाव भाव से गठबंधित हो रहा है, एक रास चल रहा है, एक रहस्य का आदान—प्रदान हो रहा है।

बोलना पड़ता है मुझे, क्योंकि तुम बिना बोले न समझोगे। लेकिन चेष्टा तो यही है धीरे—धीरे तुम बिना बोले समझो। इस दुनिया से जाने के पहले यही चाहूँगा कि मेरे हजारों संन्यासी मेरे साथ चुप बैठे हों और समझें, बोलना न पड़े। वही गंतव्य है। जब तुम आओगे, जब तुम चुपचाप मेरे पास बैठोगे, और बात होने लगेगी, और बात हो जाएगी, और न कुछ कहना पड़ेगा, और न कुछ सुनना पड़ेगा, न कोई वक्ता होगा, न कोई श्रोता होगा, तब तुम जिन ऊँचाइयों में उठोगे और जिन गहराइयों में उतरोगे, उन्हें शब्दों में कहने का काई उपाय नहीं है। शब्द बड़े सतही हैं। उन गहराइयों को नहीं छू पाते। वह शब्दों की सामर्थ्य नहीं, उनका स्वभाव नहीं। शब्द तो बाजारू हैं, बाजार के लिए हैं, कामचलाऊ हैं। मंदिर में शब्द की क्या जरूरत?—मस्ती की जरूरत है। मधुशाला में शब्द की क्या जरूरत?—मस्ती की जरूरत है।

तुमने पूछा—”आपके हिंदी प्रवचनों में सत्तर—अस्सी प्रतिशत वे पाश्चात्य संन्यासी होते हैं जिन्हें हिंदी—भाषा बिल्कुल नहीं आती। आश्चर्य है कि फिर भी आप उसी तत्परता, सहजता और गहनता से बोलते हैं।’ मैं यहाँ कोई बोलनेवाला नहीं हूँ—यहाँ कोई वक्ता नहीं है। वक्ता हो तो श्रोता पर बँधा होता है। वक्ता हो तो श्रोता को देखकर बोलता है। वक्ता हो तो श्रोता के पीछे चलता है। वक्ता हो तो ध्यान रखना पड़ता है कि श्रोता जिस बात से राजी हो, वही कहो। जिस बात से नाराजी हो, वह मत कहो। इसीलिए तो राजनीतिज्ञ के वक्तव्य कभी भी सुनिश्चित नहीं होते—हो नहीं सकते। उसे श्रोताओं को देखकर रोज अपने वक्तव्य बदल लेने पड़ते हैं। या उसे ऐसे वक्तव्य देने पड़ते हैं जिनके अनेक अर्थ हो सकें; जब जैसा अर्थ निकालना हो निकाला जा सके। राजनीतिक वक्ता खयाल रखकर बोल रहा है—श्रोता कितनी दूर तक मेरे साथ जाने को राजी है? उसे श्रोता को कहीं ले जाना है, श्रोता का कुछ उपयोग करना है। श्रोता साधन है, उसकी सीढ़ियाँ बनानी हैं, उसके कंधों पर पैर रखने हैं, उसके सिरों का उपयोग करना है; उसे यात्रा करनी है श्रोता के ऊपर। तो श्रोता की मर्जी का ध्यान रखना पड़ेगा।

मैं कोई वक्ता नहीं हूँ। मैं तुम्हारी सीढ़ी नहीं बनाना चाहता। सच तो यह है कि मैं तुम्हारे लिए सीढ़ी बनना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि तुम मेरा उपयोग कर लो। मेरी सीढ़ियों पर पैर रखो, मेरे कंधों पर चढ़ो और उन ऊँचाइयों को देख लो जो शायद तुम अपने ही पैरों पर खड़े रहे तो न देख सकोगे। तो मुझे तुम्हें राजी करने को कुछ नहीं बोलना है। इसलिए तो मुझसे लोग इतने नाराज हैं। जब राजी करने को न बोलूँगा तो नाराज होंगे। उन्हें धक्के लगते हैं; उन्हें बेचैनी होती है, उन्हें परेशानी होती है। मैं यहाँ तुम्हें राजी करने को नहीं हूँ। मुझे तुमसे कोई मत नहीं लेना है। मुझे तुम्हारी भीड़ अनुयायियों की तरह इकट्ठी नहीं करनी है। मेरा तुमसे कोई न्यस्त स्वार्थ नहीं है। मुझे कुछ मिला है, वह जरूर बाँट देना चाहता हूँ। जो भी मौजूद होगा, उसीको बाँटँगा। अगर मनुष्य न होंगे तो पशु—पक्षियों को बाँटँगा। अगर पशु—पक्षी न होंगे तो पौधों—पहाड़ों को बाँटँगा।

तुमने सुना है, महावीर जब पहली बार बोले तो कोई मनुष्य नहीं था सुनने को। अभी मनुष्यों को तो खबर ही नहीं लगी थी कि महावीर को ज्ञान उपलब्ध हो गया। जब पहली बार बोले तो कोई भी नहीं था सुनने को। कहानियाँ कहती हैं कि देवता थे। देवता का मतलब होता है, कोई भी नहीं था। शून्य में बोले होंगे। कहानी लिखने वालों को अड़चन हुई होगी कि इसमें तो महावीर पागल मालूम पड़ेंगे—कि कोई सुननेवाला नहीं, क्योंकि दिखायी कोई भी नहीं पड़ता, किससे बोलते हैं—कहानी लिखनेवालों को बेचैनी हुई, तो उन्होंने देवता कल्पित किए कि देवताओं से बोले। देवता थे—अदृश्य देवता खड़े थे। …… तुम यहाँ नहीं होओगे तो मुझे भी अदृश्य देवताओं से बोलना पड़ेगा।

तुम चकित होओगे जानकर कि फिर धीरे—धीरे आदमी भी आए—आदमियों तक खबर पहुँची—फिर धीरे—धीरे आदमी ही नहीं आए, पशु—पक्षी भी आए—उन तक भी खबर पहुँची। अब महावीर पशु—पक्षियों से क्या बोलते होंगे? क्या तुम सोचते हो पशु—पक्षी महावीर जो बोलते होंगे उसे समझते होंगे? नहीं, लेकिन महावीर को तो समझते थे। जो बोला, वह नहीं समझा गया होगा, लेकिन जो महावीर का अस्तित्व था, जो धड़कन थी, जो रक्स, जो नृत्य जन्मा था महावीर में, वह तो समझा होगा। शायद आदमियों से ज्यादा बेहतर समझा होगा। महावीर के भीतर जो नृत्य हो रहा था, वह मोरों ने ज्यादा बेहतर समझा होगा तुम्हारी बजाय, क्योंकि तुम तो नाच भूल गए हो। मोर को अभी भी नाच आता है……सुनते हो इस कोयल की आवाज को? महावीर ने जो गीत गाया, कोयलें ज्यादा समझी होंगी, अभी उनका स्वर नहीं खो गया है। अभी स्वर जीवित है। आदमी का तो स्वर खो गया है। आदमी तो गीत गाना भूल गया है। आदमी तो सिर्फ रोना जानता है, गाना जानता कहाँ है? हाँ, कभी—कभी गाने में भी रोता है, यह दूसरी बात है, मगर गाता कहाँ है? आनंद कहाँ है? उत्सव कहाँ है?

शायद पौधे ज्यादा समझे होंगे, क्योंकि पौधों में अब भी फूल खिलते हैं, अब भी रंग आता है, गंध आती है। पौधे अब भी आकाश में उठना जानते हैं। अभी भी तारों से बातें करते हैं। हवाओं में नाचते हैं, सूरज से मुलाकात लेते हैं। महावीर के शब्द तो नहीं समझे होंगे पौधे, पशु—पक्षी, महावीर को तो समझे होंगे! और मुझे लगता है आदमियों के बजाय महावीर को पौधे और पशु ज्यादा समझे। कम—से—कम उन्होंने महावीर को पत्थर तो नहीं मारे! कम से कम उन्होंने महावीर के कानों में कीलें तो नहीं ठोंके। उन्होंने महावीर को एक गाँव से दूसरे गाँव तो नहीं खदेड़ा। वे महावीर पर नाराज तो नहीं हो गए कि तुम नग्न क्यों हो? पौधे, पशु—पक्षी नग्न ही हैं। उन्हें तो आश्चर्य इस पर होता है कि आदमी ने कपड़े क्यों पहने हैं?

इस प्रकृति में सिर्फ आदमी ही कपड़े पहने हुए हैं। आदमी ही अपने को छिपा रहा है। आदमी ही अपने से भयभीत है। आदमी ही अपनी देह से डरा है। आदमी को ही अपनी देह के प्रति हीनता की ग्रंथि पैदा हो गयी कि कुछ पाप है देह में, कुछ बुराई है देह में, छिपाओ। पशु—पक्षी, पौधे अब भी तो नग्न हैं। आदमी भर कुछ रुग्ण है। इंग्लैंड में ऐसी महिलाएँ हैं जो अपने कुत्तों को भी कपड़े पहनाती हैं। इन महिलाओं का दिमाग खराब है। और इन महिलाओं के मन में जरूर कोई गहन रोग है।

तुम जानकर यह हैरान होओगे, विक्टोरिया के जमाने में कुर्सियों के पैर भी नंगे नहीं छोड़े जाते थे, क्योंकि पैर हैं न वे! कुर्सियों के पैर, उन पर कपड़ा चढ़ाया जाता था। क्योंकि पैर नंगे नहीं होने चाहिए। अब जो कुर्सियों के पैरों पर कपड़ा चढ़ाते होंगे, इनकी बेहूदगी देखते हो? इनका नंगापन देखते हो? इनका नंगापन देखते हो? इनकी भीतरी दरिद्रता देखते हो? इनका रोग देखते हो! इनकी कामुकता देखते हो? इनकी कामग्रसित मनोग्रंथियाँ देखते हो? ये बीमार हैं, ये विक्षिप्त हैं।

महावीर को गाँव—गाँव से भगाया गया। क्योंकि वे नग्न थे। पौधों की तरह, पशुओं की तरह, पक्षियों की तरह।

जीसस से किसी ने पूछा है, आपका मूल संदेश क्या है? जीसस ने कहा—फूलों से पूछ लो; पक्षियों से पूछ लो; मछलियों से पूछ लो, और वे तुम्हें मेरा असली संदेश बता देंगी। क्या कह रहे हैं जीसस? जीसस कह रहे हैं—निसर्ग मेरा संदेश है। तुम फिर स्वाभाविक हो जाओ, यही मेरा संदेश है।

महावीर को ज्यादा प्यार किया पौधों ने, पशुओं ने, पक्षियों ने। कुछ आश्चर्य नहीं कि वे सुनने आते हों। सुनने आते हों कहना ठीक नहीं है, क्योंकि भाषा तो उनकी समझ में नहीं आएगी; लेकिन महावीर को देख तो सकते हैं, महावीर की तरंग को तो छू सकते हैं। सारी दुनिया में पुलिस कुत्तों का उपयोग करती है अपराधियों को पकड़ने के लिए, हत्यारों को पकड़ने के लिए। अगर कुत्तों के पास इतना बोध है कि हत्यारों को पहचान लें, हत्यारे की गंध को पहचान लें, तो क्या कुत्तों के पास इतना बोध नहीं हो सकता कि महावीर की गंध को पहचान लें, ज्ञानी की गंध को पहचान लें? यह तो उसी तर्क का हिस्सा है।

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जब कोई लकड़हारा कुल्हाड़ी उठाकर वृक्ष के पास वृक्ष को काटने आता है, तो वृक्ष उदास हो जाता है। इसको अब जाँचने के उपाय हैं। अब यंत्र बन गए हैं। जैसे तुम्हारी छाती पर डाक्टर स्टेथॅस्कोप लगाकर जाँच लेता है। या कार्डियोग्राफ। तुम्हारे भीतर कुछ गड़बड़ हो गयी होती है, तो कार्डियोग्राफ पकड़ लेता है। वैसे यंत्र बन गए हैं जो हृदय की धक—धक को वृक्ष की पहचानने लगे हैं। वृक्ष की संवेदना को पकड़ते हैं। ग्राफ बन जाता है मशीन पर कि वृक्ष कैसा अनुभव कर रहा है—प्रसन्न है, दुःखी है, उदास है? हत्यारे को आते देखकर, लकड़हारे को आते देखकर वृक्ष बेचैन हो जाता है, दुःखी हो जाता है। और भी जानकर तुम आश्चर्यचकित होओगे कि एक वृक्ष काटा जाता है, तो उसके आसपास के सारे वृक्ष उदास और दुःखी हो जाते हैं। और यही वृक्ष जब माली आता है, पानी सींचने, तो बड़े आनंदविभोर हो जाते हैं। और यह भी आश्चर्य की बात है कि अभी कुल्हाड़ी चली नहीं है, सिर्फ कुल्हाड़ी को लेकर हत्यारा आ रहा है, दूर है अभी और वृक्ष उदास होने लगते हैं, बेचैन होने लगते हैं। अभी कुल्हाड़ी चली होती तो भी ठीक था, कुल्हाड़ी मारी होती वृक्ष को तो भी ठीक था, हम समझ सकते थे कि वृक्ष को चोट लगेगी। लेकिन दूर से आता कुल्हाड़ी लिए हुए आदमी! और यह भी आश्चर्य की बात है, अगर वह सिर्फ कुल्हाड़ी लिए निकल रहा है और काटने का कोई इरादा नहीं है, तो कोई वृक्ष परेशान नहीं होता। काटने का इरादा है तो ही परेशान होता है। मतलब इरादे भी पकड़े जा रहे हैं।

आदमी ही संवेदनशील नहीं है, पशु—पक्षी भी हैं। शायद ज्यादा हैं। भाषा से ही थोड़े समझा जाता है, और भी समझने के उपाय हैं, और भी गहनतर उपाय हैं। भाषा तो बहुत ही कामचलाऊ उपाय है।

सद्गुरु के पास होना हो तो भाषा तो निम्नतम उपाय है। मजबूरी है। क्योंकि तुम्हारे पास और कुछ समझने को नहीं है, इसलिए इसका उपयोग करना पड़ता है।

मैंने सुना है, एक सेनापति ने एक बिल्कुल मूढ़ सेक्रेटरी अपने पास रख छोड़ा था। जड़ बुद्धि। सम्राट ने उससे पूछा कि और सब तो ठीक है, तुमने अपने स्टाफ पर बुद्धिमान लोग रखे हैं, मगर यह एक बुद्धू क्यों रखा है? यह बिल्कुल जड़ है। उस जनरल ने कहा—इसके रखने का कारण है। जब भी मैं कोई आज्ञा निकालता हूँ सैनिकों के लिए, तो पहले इसको पढ़ने को देता हूँ। अगर यह समझ लेता है, तो मैं समझता हूँ कि दुनिया में सभी लोग समझ लेंगे। अगर यह नहीं समझता, तो फिर से मैं उसको लिखवाता हूँ। इसका एक बड़ा उपयोग है, यह बड़ा कीमती आदमी है, इसको मैं अपने साथ ही रखता हूँ। जो बात यह समझ लेता है, वह दुनिया में सभी समझ लेंगे

भाषा में जो समझता है, वह आखिरी बात है। सबसे नीचे तल की बात है। जो तुम भाषा के द्वारा समझ लेते हो, वह तो कोई भी समझ लेगा जो भाषा समझता है, उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। भाषा से शून्य को समझो; शून्य की मात्रा बढ़ती जाए, भाषा की मात्रा कम होती जाए, तो तुम ऊपर उठने लगे।

यहाँ जो हिंदी नहीं समझ रहे हैं, और शांत बैठे हैं, वे भी कुछ समझ रहे हैं। वे तरंगित हो रहे हैं। वे तरंगों को समझ रहे हैं। वे संवेदित हो रहे हैं। उन्होंने अपना हृदय मेरे प्रति खोल रखा है। वे आंदोलित हो रहे हैं भीतर। एक भाव का रिश्ता, एक नाता बन रहा है।

मैं तुमसे कहूँगा, जब मैं अंग्रेजी में बोलता हूँ तब भाग मत जाया करो। तुम भी बैठकर सुना करो। तुम भी यह लाभ लो! ऐसा समझो कि जब हिंदी में बोलता हूँ तो उनके लिए बोलता हूँ जो हिंदी नहीं समझते और जब अंग्रेजी में बोलता हूँ तो उनके लिए बोलता हूँ जो अंग्रेजी नहीं समझते। ऐसा समझो। तब तुम दोहरे लाभ ले सकोगे—भाषा से जो समझ में आ सकता है, वह भाषा से समझ में आ जाएगा और जो भाषा से समझ में नहीं आता, वह भी जब तुम मौन मेरे पास बैठोगे तब समझ आ जाएगा।

रही मेरी बोलने की बात, तो यहाँ कोई बोलनेवाला नहीं है। नहीं तो अड़चन होती। मैं भी सोचता कि इतने लोग यहाँ बैठे हैं जो समझते नहीं, तो मैं बोल किससे रहा हूँ? फूल खिलता है एकांत में, इसकी थोड़े ही चिंता होती है कि कितने लोग राह से गुजरेंगे जो मेरी सुगंध से आंदोलित होंगे? कितने लोग प्रभावित होंगे? कितने लोग आकर धन्यवाद करेंगे? एकांत में खिला फूल भी अपनी गंध को बिखेरता है। ऐसे ही मैं गंध को बिखेर रहा हूँ। तुम हो या नहीं; यह निमित्त की बात है। तुम हो, ठीक, तुम नहीं हो, ठीक, जो मुझसे प्रगट हो रहा है, होता रहेगा। ऐसा मत समझो कि तुम हो, इसलिए बोल रहा हूँ ऐसा समझो कि मैं बोल रहा हूँ, इसलिए तुम यहाँ हो। तुम्हारे कारण मैं यहाँ नहीं हूँ, मेरे कारण तुम यहाँ हो। तब दृष्टि बदल जाएगी।

फिर मैं तो जो करता हूँ, जो होता है, वह पूरा ही हो सकता है। तुम समझो कि न समझो, इससे प्रयोजन नहीं है। लेकिन मैं बोलूँ, तो पूरी ही तत्परता से बोल सकता हूँ—अन्यथा बोलूँगा ही नहीं। जिस दिन मुझे लगेगा आज तत्परता से नहीं बोल सकता हूँ, उस दिन बोलूँगा ही नहीं। जो काम समग्र तत्परता से नहीं हो सकता वह मैं करुंगा ही नहीं। अपने पूरे प्राण उँडेल सकता हूँ किसी बात में, तो ही करूँगा। नहीं तो नहीं करूँगा। क्योंकि फिर बात झूठी हो जाती है। जिसमें त्वरा नहीं है, तीव्रता नहीं है, सहजता नहीं है, समग्रता नहीं है, वह बात अधूरी हो जाती है, झूठी हो जाती है। जब हँस सको पूरा तो हँसना और जब रो सको पूरा तो रोना। आधे—आधे काम मत करना।

तुम्हारी चिंता भी मेरी समझ में आती है। चिन्मय ने पूछा है; तो कारण स्पष्ट है। चिन्मय को हैरानी होगी, अगर इतने लोग न समझते हों और बोलना पड़े तो हैरानी होगी कि किससे बोलना है, यहाँ कोई समझने वाला नहीं है? समझाने की आतुरता। सुननेवाला वहाँ बैठा हो ताली बजाने को, तो बोलने में मजा आ जाता है। लेकिन वह मजा उधार है। सुननेवाले पर निर्भर है, बासा है। एक और बोलना है, जो अंतर्भाव से जगता है। तुम्हारे भीतर है इतना ज्यादा कि बाँटना है, पात्र मिले कि अपात्र मिले।

एक तिब्बती कहानी मैंने सुनी है। एक फकीर बड़ा ख्यातिनाम, दूर—दूर से लोग उसके दर्शन को आते हैं और वे सभी एक प्रार्थना करते रहे और वर्षों तक एक ही प्रार्थना करते रहे कि आप शिष्य स्वीकार क्यों नहीं करते? तो वह फकीर कहता था—कोई पात्र मिले तो स्वीकार करूँ। पात्र ही कोई नहीं दिखायी पड़ता। और उसने पात्र की ऐसी परिभाषा की थी कि अगर वैसी पात्रता का कोई व्यक्ति हो तो वह स्वयं ही गुरु हो जाएगा, वह किसी का शिष्य क्यों होगा? तो उसकी पात्रता की परिभाषा ही असंभव थी पूरा करना। न कोई पात्र मिलता था, न वह शिष्य बनाता था। सेवा—टहल के लिए एक आदमी उसके पास रहता था। वह भी शिष्य नहीं था। क्योंकि शिष्य तो वह बनाता ही नहीं था।

मरने के तीन दिन पहले एक दिन अचानक उसने ऑंख खोली सुबह और अपने उस आदमी को कहा जो उसकी सेवा—टहल करता था कि जा, पहाड़ से नीचे उतर और जो भी लोग शिष्य बनना चाहते हों, उन सबको ले आ। उसने पूछा—सबको! पात्रता का क्या होगा? उसने कहा—छोड़ पात्रता इत्यादि की बात, अब समय खोने को नहीं है। तू भाग! जो मिले, जो आने को राजी हो। उसको भरोसा नहीं आया, क्योंकि जिंदगी—भर बड़े—बड़े गुणी लोग आए थे, योग्य लोग आए थे, साधक आए थे, तपस्वी आए थे, वर्षों ध्यान किया था ऐसे लोग आए थे, चरित्रवान थे, शीलवान थे और इंकार कर दिए गए थे। क्योंकि वह बूढ़ा पात्रता की ऐसी शर्तें बताता था कि कोई भी पूरी नहीं कर पाता था।

गया गाँव में, डुंडी पीट दी की अब बूढ़ा गुरु किसी को भी शिष्य बनाने को तैयार है, जिसको भी आना हो! लोगों को यह भरोसा नहीं हुआ इस बात पर। बड़े—बड़े लौट आए थे खाली हाथ। मगर फिर कुछ लोग चल पड़े। उन्होंने कहा—चलो देखें, हर्ज क्या है, दर्शन ही हो जाएँगे! कोई भी चल पड़ा। एक आदमी बेकार था, नौकरी नहीं लगी थी, उसने सोचा—चलो, बैठे—बैठे यहीं क्या कर रहे हैं, चल पड़ो। एक की पत्नी मर गयी थी, वह वैसे ही उदास था, उसने कहा—चलो, मन ही बहल जाएगा। बाजार की छुट्टी थी आज, कुछ लोग खाली थे, उन्होंने कहा—हम भी चलते हैं। एक छोटा बच्चा भी साथ हो लिया। ऐसे कोई भी—एक तरह की भीड़—कोई पच्चीस एक आदमी पहुँच गए। भरोसा उनको किसी को भी नहीं था कि वह गुरु स्वीकार करेगा।

गुरु ने एक—एक को बुलाया, पूछा कि क्यों दीक्षा लेना चाहते हो? उनके उत्तर बड़े अजीब थे। एक ने कहा कि मेरी पत्नी मर गयी और मैं खाली बैठा था—सच तो यह है कि दीक्षा इत्यादि से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है—मगर कोई भी व्यस्तता चाहिए। घाव गहरा है, किसी भी काम में उलझ जाऊँ। तभी यह आदमी डुंडी पीट रहा था कि गुरु शिष्य स्वीकर करने को राजी है, जिसको भी आना हो। तो मैंने सोचा—चलो, बैठे—ठाले यही क्या करते हैं? चलो, बैठे—ठाले यह भी क्या बुरा है? बैठे—ठाले अध्यात्म! चल पड़ा।

इसने पूछा—तू किसलिए आया है? उसने कहा कि मैं, नौकरी नहीं लगती। सोचा कि व्यर्थ बैठे रहने से तो राम—भजन ही ठीक है। शायद राम—भजन से ही नौकरी लग जाए! ऐसे लोग आ गए थे। किसी ने कहा—दुकान बंद है आज और किसी ने कुछ कहा। जो सेवा—टहल करता था, वह तो खड़ा देख रहा था, कि यह इस तरह के लोगों को कैसे शिष्य स्वीकार किया जाएगा? लेकिन गुरु ने सबको स्वीकार कर लिया।

वह जो आदमी सेवा—टहल करता था, वह चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा—आप होश में हैं, आप क्या कर रहे हैं? बड़े—बड़े ज्ञानी, बड़े—बड़े ध्यानी लौटा दिए, और इस कचरे को! उस गुरु ने कहा, अब तू सच्ची बात समझ ले। तब मेरे पास देने को कुछ था ही नहीं। अपनी दीनता छिपाता था उनकी पात्रता की बात करके। उनकी पात्रता मैंने असंभव बना दी थी सिर्फ इसीलिए कि न होगा कोई पात्र, न मेरी दीनता पता चलेगी। मेरी सुराही खाली थी। इसलिए मैं कहता था—लाओ सोने के पात्र, हीरे—जवाहरात जड़े पात्र, तो ढालूँगा सुराही। मेरी सुराही खाली थी और यह दीनता मैं किसी को बताना नहीं चाहता था; इसलिए मैंने पात्रता का इतना शोरगुल मचा रखा था। न कोई पात्र होगा, न मेरी खाली सुराही का पता चलेगा। ढालने की नौबत ही न आएगी। आज मेरी सुराही भर गयी है, अब क्या पात्र और क्या अपात्र! मिट्टी का पात्र हो तो चलेगा। और नहीं जिनके पास कोई पात्र हो—कुल्हड़ से ही पीना हो, हाथ से ही पीना हो, तो भी चलेगा। हाथ भी जिनके न हों तो उनके मुँह में ही ढाल दूँगा, तो भी चलेगा। आज पिलाना है, आज मेरे पास है। खयाल रखना, सद्गुरु तुम्हारी पात्रता से नहीं देता है। सद्गुरु अपने भराव से देता है। उसके भीतर घटा है; करेगा क्या? मेघ सघन हुआ है, बरसेगा। दिया जला है, रोशनी बिखरेगी। कमल खिला है, सुगंध उठेगी। ऐसा ही सहज।

मैं तो जो भी करूँ, या जो भी हो, वह समग्रता से ही हो सकता है। तुम समझो, तुम न समझो; तुम पात्र हो, तुम अपात्र हो; इसका हिसाब तुम ही रखो। यह हिसाब मैं नहीं रखता हूँ।

मेरे पास लोग आ जाते हैं— आध्यात्मिक किस्म के लोग—वे कहते हैं—आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं! पात्रता तो सोचिए! मैं कहता हूँ—परमात्मा हर किसी को जीवन दे देता है और पात्रता नहीं सोचता, मैं बीच में पात्रता सोचनेवाला कौन? अगर जीवन दिया जा सकता है अपात्रों को, तो संन्यास क्यों नहीं? अगर अपात्रों को परमात्मा जिलाए रखता है रोज—चोरों को भी, बेईमानों को भी—श्वास देता है, प्राण देता है, आत्मा देता है, तो संन्यास क्यों नहीं? जब परमात्मा ही हर किसी को देने को राजी है, तो मैं क्यों शर्तें लगाऊँ? जिसको लेना हो ले ले, जिसको न लेना हो न ले। हालाँकि यह सच है—केवल वे ही ले पाएँगे जो पात्र होंगे और वे वंचित रह जाएँगे जो अपात्र होंगे। क्योंकि देने से ही तुम्हें थोड़े मिल जाता है।

ज़रा सोचो फिर उस कहानी को। वह बूढ़ा देने को राजी, उसकी सुराही भर गयी। लेकिन क्या तुम सोचते हो वे सब लोग जो दीक्षा लेने आए थे, ले पाएँगे? दीक्षा के कृत्य से भला गुजर जाएँ, दीक्षा घट नहीं पाएगी। क्योंकि जब वे गुरु के चरणों में सिर झुकाएँगे तब भी वह आदमी सोच रहा होगा कि नौकरी लगती है कि नहीं, देखें? कि मेरी पत्नी तो मर गयी, अब मैं यह क्या कर रहा हँ? अच्छा तो यही होता कि जाकर दूसरी पत्नी की तलाश करता। यह मैं कहाँ के चक्कर में पड़ रहा हूँ, दूसरा सोच रहा होगा। तीसरा सोच रहा होगा कि अब जाने का वक्त आ गया, अब यहाँ कब तक बैठा रहूँ, अब दुकान खुलने का समय है, अब मुझे वापिस होना चाहिए, कि पत्नी घर राह देखती होगी, कि भोजन बन गया होगा, कि अब तो भूख भी लग गयी है; इस तरह की बातें सोच रहे होंगे वे लोग। और मधु ढाला जाएगा इस तरह की बातों में, पहुँचेगा कैसे? गुरु तो सभी को देता है, पात्र ले पाते हैं, अपात्र वंचित रह जाते हैं। वर्षा तो सभी पर होती है। प्यासे पी लेते हैं, जो प्यासे नहीं हैं, वे मुँह फेर कर खड़े हो जाते हैं।

 

दूसरा प्रश्न : इस सदी का मनुष्य अधार्मिक क्यों हो गया है?

किसने तुम्हें कहा? आदमी का अहंकार हमेशा इसी तरह सोचता रहा है कि पहले, पूर्वज, बाप—दादे बड़े धार्मिक थे; और अब सब अधर्म हो गया है। किन पूर्वजों की बात कर रहे हो! ज़रा शास्त्र तो उठाकर देखो, तुम ऐसा ही आदमी पाओगे, तुम हमेशा ऐसा ही आदमी पाओगे जैसा आदमी आज है। युधिष्ठिर को जुआ खेलते नहीं देखते? द्रोपदी को दाँव पर लगाया हुआ नहीं देखते? सीता चोरी जाती है, यह नहीं देखते? राम—रावण का युद्ध होता है, यह नहीं देखते? सब तरह की चालबाजियाँ, सब तरह की घातें, सब तरह की हिंसाएँ होती हैं, यह नहीं देखते? तुम सोचते हो आज का आदमी अधार्मिक है, पहले के आदमी धार्मिक थे? तो तुम्हारे पुराणों में कथाएँ किसकी हैं? और फिर बुद्ध—महावीर—कृष्ण और सारे तीर्थंकर, सारे पैगंबर और सारे अवतार लोगों को समझा क्या रहे थे?

बुद्ध चालीस साल तक एक ही बात समझाते रहे—चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो, व्यभिचार मत करो; ये किसको समझा रहे थे? धार्मिक पुरुषों को? ये जिनको समझा रहे होंगे, वे लोग चोर होंगे, बेईमान होंगे, व्यभिचारी होंगे—नहीं तो बुद्ध पागल थे। अगर समझो कि सारे महापुरुष दुनिया के कहते हों कि भाई, पागलपन मत करो, तो एक बात जाहिर है कि वे पागलखाने में उपदेश दे रहे होंगे। किसको ये उपदेश दिए जा रहे थे? साफ जाहिर है, आदमी ऐसा ही था।

और अगर तुम मुझसे पूछो, तो मेरी अपनी दृष्टि कुछ और भी है। मेरी दृष्टि है कि आज का आदमी चाहे पुराने ढाँचे—ढर्रे में न बँधा हो, इसलिए अधार्मिक लगता हो, क्योंकि सत्यनारायण की कथा न करता हो, रविवार को चर्च न जाता हो, मंदिर के पुजारी के चरणों में न झुकता हो, रोज बाइबिल न पढ़ता हो, यह हो सकता है कि आज का आदमी यह काम न करता हो, लेकिन इससे कोई आदमी अधार्मिक नहीं हो जाता। चर्च जाने से अगर आदमी धार्मिक होता, तो चर्च न जाने से अधार्मिक हो जाता। हम चर्च जानेवालों को जानते हैं। वे धार्मिक नहीं हैं। और हम सत्यनारायण की कथा करवानेवालों को जानते हैं। उनका सत्य से कोई संबंध नहीं है और न नारायण से कोई संबंध है। हम यज्ञ—हवन करनेवाले लोगों को जानते हैं, उनके यज्ञ झूठे, उनके हवन झूठे। तीर्थयात्रा करनेवालों को हम जानते हैं, हज—यात्रा करनेवालों को हम जानते हैं—चारों तरफ तो ऐसे लोग भरे पड़े हैं, उनमें कौन—सा धर्म है? कौन—सी धर्म की गंध है? कौन—सा धर्म का प्रकाश उनके भीतर से प्रगट हो रहा है? कौन—सा दिया जला है? नहीं, ये बातें धार्मिक होने से इनका कोई संबंध नहीं है।

इसलिए जो नहीं मंदिर जाते हैं और नहीं तीर्थ जाते हैं, उनको अधार्मिक मत मान लेना। लेकिन पंडित—पुजारी उनको अधार्मिक कहेंगे, क्योंकि इन लोगों के कारण उनके व्यवसाय को नुकसान पहुँच रहा है। उनके लिए धार्मिक का अर्थ यह है, जो उनके चक्कर में है— वह धार्मिक। जो उनके शोषण को स्वीकार करता है, वह धार्मिक। जो उनके द्वारा पैदा की गयी दासता में बँधा रहता है, वह धार्मिक। जो उनसे मुक्त होना चाहता है, वह अधार्मिक।

और सच तो यह है कि धार्मिक व्यक्ति सदा मुक्त होना चाहता है। मोक्ष उसकी आकांक्षा है। वह सब चीजों से मुक्त होना चाहता है वह कोई बंधन नहीं मानना चाहता। वह बंधनों के पार जाना चाहता है। यही तो धर्म की अभीप्सा है, यही तो मुमुक्षा है—मोक्ष की आकांक्षा कि मैं सब बंधनों से मुक्त हो जाऊँ। जो सारे बंधनों से मुक्त होने चला है, वह पंडित—पुरोहितों के बनाए गए क्षुद्र—से बंधनों को अंगीकार करेगा? जो सब तरह से मुक्त होना चाहता है, वह क्रियाकांडों से भी मुक्त होगा। और तुम जिसको धार्मिक कहते हो, वह सिर्फ क्रियाकांडी है, उसको तुम धार्मिक कहते हो। किसी ने चुटैया बढ़ा रखी है—कैसा धार्मिक आदमी जा रहा है! अब चुटैया से धर्म का क्या लेना—देना? इतना सस्ता धर्म! कोई जनेऊ पहने हैं और धार्मिक हो गए! जिन्होंने तिलक लगा लिया है और धार्मिक हो गए! धार्मिक होने का संबंध इन बातों से नहीं हो सकता। धार्मिक होने का संबंध कुछ आंतरिक है। ध्यान जले, भीतर प्रीति उमगे, प्रार्थना का फूल खिले। और मैं तुमसे कहता हूँ, इस सदी का आदमी जितना ध्यान में और प्रार्थना में अंतर्यात्रा में उत्सुक है, कभी भी नहीं था। और मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूँ कि धर्म की परिभाषा हमारी इतनी ऊँची हो गयी है, इसलिए बहुत—से लोग अधार्मिक मालूम हो रहे हैं।

धर्म की परिभाषा ऊपर उठ गयी है। हमारा धर्म का मापदंड ऊपर उठ गया है। हमारी धर्म की कसौटी उठ गयी है। इसीलिए आदमी अधार्मिक मालूम हो रहा है। पुराने दिनों में धर्म की कसौटी बड़ी नीची थी। युधिष्ठिर को धर्मराज कहा। आज तुम किसी जुआरी को धर्मराज कह सकोगे? और जुआरी ऐसा—वैसा नहीं, पत्नी को भी दाँव पर लगा दिया। युधिष्ठिर आज हों तो तिहार जेल में होंगे। पत्नी को दाँव पर लगाओगे, कोई मजाक है! दुनिया सभ्य हो गयी है। नियम—कानून हैं कुछ। फिर तिहार जेल किसके लिए है?

युधिष्ठिर को काई धर्मराज कहेगा? किस आधार पर कहेगा? इन पाँच भाइयों ने अपनी पत्नी को बाँट लिया था। पत्नी कोई संपत्ति है जो पाँच भाई बाँट सकेंगे? फिर व्यभिचार क्या है? फिर पाप क्या है? स्त्री कोई वस्तु है कि बाँट लिया? स्त्री में आत्मा नहीं है? लेकिन पुराने धर्म की परिभाषा में स्त्री में आत्मा अंगीकार नहीं थी। स्त्री पदार्थ की तरह थी। स्त्री—धन कहते थे उसे। बाप जब बेटी का विवाह करता था तो कहता था—कन्यादान। दान! तुम कोई धन—पैसा दे रहे किसको? कन्यादान जैसा बेहूदा शब्द! स्त्री—धन जैसा बेहूदा शब्द! अपमानजनक। अधार्मिक।

चीन में ऐसा था कि कोई अपनी पत्नी को मार डाले, उस पर कोई मुकदमा नहीं चल सकता था। ऐसे ही है जैसे कि कोई अपने कुत्ते को मार डाले। इसमें मुकदमा क्या चलना? या कोई अपनी गाय को मार डाले, या अपने घोड़े को मार डाले, इसमें मुकदमा क्या चलना? अपना घोड़ा, मारें कि रखें। चीन में कोई कानून नहीं था; कोई अपनी पत्नी को मार डाले, मार सकता था। पत्नी में आत्मा अंगीकार नहीं की गयी थी। ये धार्मिक लोग थे? किस तरह के धार्मिक लोग!

नहीं, धर्म की परिभाषा बड़ी ओछी थी, बड़ी संकीर्ण थी, बड़ी साधारण थी। धर्म की परिभाषा विकसित हुई है। आदमी विकसित हुआ है, आदमी प्रौढ़ हुआ है। और यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि जैसे—जैसे समय बढ़ा है, आदमी की समझ भी बढ़ी है। आज युधिष्ठिर को कोई धर्मराज नहीं कह सकेगा। आज धर्मराज होने के लिए युधिष्ठिर से काफी ऊपर जाना पड़ेगा। इसलिए बहुत—से लोग अधार्मिक मालूम हो रहे हैं। क्योंकि मापदंड ऊपर हो गया है और लोग उतने ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। मापदंड को नीचा कर लो, बहुत—से लोग धार्मिक मालूम पड़ने लगेंगे। धर्म का शोषण बहुत हुआ है। धर्म के नाम पर भी शोषण बहुत हुआ है। इससे भी लोग बेचैन हो गए हैं और परेशान हो गए हैं। आज की दुनिया में करीब—करीब जिनको तुम अधार्मिक कहते हो, वे धार्मिक लोग हैं अगर वे ईश्वर को भी इनकार करते हैं तो इसीलिए इनकार करते हैं कि ईश्वर के नाम से बहुत ज्यादा षडयंत्र, बहुत ज्यादा शोषण हो चुका है। अब यह नाम उपयोगी नहीं है। यह नाम विदा कर दिया जाना चाहिए।

 

इक जनम—जनम का रोगी अपना रोग दिखाने आया, दाता

जनम—जनम दुःख पाया

दीन धरम की ओर से तेरी खोट मिटाने आया, दाता

यह कैसा भेष बनाया

तेरी अंधी श्रद्धा ने क्या—क्या अंधेर मचाया, दाता

तुझको ध्यान न आया

क्या इस कारण ही मैंने तुझको भगवान बनाया, दाता

क्या माँगा क्या पाया

मैं तेरी अनदेखी सूरत अपने ध्यान में लाऊँ

परबत काटके पत्थर चाटके अपना जी बहलाऊँ

आप बनाऊँ तेरी मूरत आप ही फूल चढ़ाऊँ

मैंने अपनी भूल से जुग—जुग तेरा ढोंग रचाया, दाता

अपना आप लुटाया

आज मैं तेरे ऊँचे शीशमहल को ढाने आया, दाता

बात चुकाने आया

आदमी थक गया है। तुम्हारी ईश्वर की धारणा से थक गया है। तुम्हारे पाप—पुण्य की कल्पना से थक गया है। तुम्हारे पुनर्जन्म—कर्म के सिद्धांतों से थक गया है। क्योंकि उनके सबके पीछे अधर्म चला है। आदमी गरीब है, पूछो—क्यों? पिछले जन्म में पाप किए होंगे। यह गरीबी को छिपाने का आधार बन गया, यह ओट बन गयी। अच्छे कर्म करो। और अच्छे कर्म यानी क्या? वही सत्यनारायण की कथा करवाओ, तीर्थयात्रा करो, तीर्थ पर दान करो, ब्राह्मण को भोजन कराओ, ब्राह्मण देवता के चरणों में झुको—अच्छे कर्म करो। अगले जनम में सब लाभ होगा।

न पिछले का कुछ पता है न अगले का कुछ पता है। अगले—पिछले के हिसाब पर यह समझाया जा रहा है जो ऑंख के सामने है। आदमी गरीब है, तो कह रहे हैं कि उसके पिछले जन्मों का पाप। आदमी अमीर है, तो पिछले जन्मों का पुण्य। हालत बिल्कुल उल्टी है। पुण्यों से कहीं धन इकट्ठा हुआ है? पाप के बिना असंभव है धन इकट्ठा करना। क्योंकि धन इकट्ठा करने का अर्थ ही यह होता है कि किसी के पास से छिनेगा। किसी की जेब से जाएगा, तो तुम्हारी जेब में आएगा। कहीं से हटेगा तो तुम्हारे पास ढेर लगेगा। लेकिन लुटेरे और डाकू पुण्यात्मा समझे गए, क्योंकि उनके पास धन था। सीधे—सादे लोग पापी समझे गए, क्योंकि गरीब थे। आदमी थक गया इन बातों से। ये बातें झूठी थीं। और ये बातें धर्म की नहीं थीं, ए बातें पंडित—पुरोहितों का लंबा जाल था।

आज की दुनिया में जो लोग तुम्हें अधार्मिक मालूम पड़ते हैं, मेरी दृष्टि में वे ही धार्मिक हैं, क्योंकि वे इन सब चीजों को तोड़कर बाहर आ गए हैं। वे एक नया धर्म चाहते हैं, वे धर्म की नयी परिभाषा चाहते हैं, एक नया आकाश चाहते हैं। क्योंकि नया आकाश नहीं मिल रहा है, वे अपने को अधार्मिक घोषित करने को मजबूर हैं। मैं जो प्रयास यहाँ कर रहा हूँ, वह प्रयास यही है कि जो आज अधार्मिक होने को मजबूर है उसके लिए धार्मिक होने का नया आकाश मिल सके। नया द्वार मिल सके। उसके लिए नया मंदिर निर्मित हो सके। क्रियाकांड का नहीं अतीत के ऊपर निर्भर नहीं, नवोन्मेष हो धर्म का। एक नयी भाषा हो धर्म की। नया ढंग हो जो आज की भाषा बोले, इस सदी की समझ में आ सके। अब पुरानी बात चलेगी नहीं।

 

एक आवाज—खुदा देख रहा है सब कुछ

अपने खालिक की परिस्तिश के लिए झुक जाओ

आओ प्यासो तुम्हें दरिया से मिलेगी शबनम

उसके इल्ताफ से महरूम न हो रुक जाओ

 

खनखनाती हुई जेबों के रसीले नग्में

झूमकर जब भी समाअत पै बिखर जाते हैं

प्यास और भूख से लिथड़े हुए मरियल चहरे

सुर्खिए—जरकी तमाजत से निखर जाते हैं

जिंदगी चीखती है—तुम मुझे रुसवा न करो

पेट कहता है कि ईधन तो बहरतौर मिले

रूह कहती है कि इंसान की तौहीन है यह

जिस्म कहता है, नहीं और मिले और मिले

 

जिंदगी पेट के शफ्फाक तकाजे लेकर

हाथ फैलाए कतारों में खड़ी रहती है

कोई नग्मा, कोई खुश्बू कोई जरकार चमक

इसी उम्मीद पै राहों में गड़ी रहती है

 

एक आवाज—मुकद्दर की यही है तक्सीम

सुबहे—नौ तुझको मिले, मुझको सियह रात मिले

गर खुदा है तो उसे यह न गवारा होगा

एक सोने में तुले एक को खैरात मिले

 

आज का आदमी यह सवाल उठा रहा है।

 

एक आवाज—मुकद्दर की यही है तक्सीम

अब तक यही समझाया गया है कि यह भाग्य का बँटवारा है कि एक होगा गरीब, एक होगा अमीर। यह भाग्य का बँटवारा है।

 

एक आवाज—मुकद्दर की यही है तक्सीम

सुबहे—नौ तुझको मिले……

एक को सुबह की प्रभात मिले और दूसरे को अंधेरी रात मिले ……

 

सुबहे—नौ तुझको मिले, मुझको सियह रात मिले

अगर खुदा है तो उसे यह न गवारा होगा

अब आदमी पूछ रहा है यह कि या तो यह पुराना ईश्वर ही झूठा था और था ही नहीं—कोई ईश्वर नहीं है—या नया ईश्वर तलाशो। नया ईश्वर गढ़ो।

 

गर खुदा है तो उसे यह न गवारा होगा

एक सोने में तुले एक को खैरात मिले

एक भीख माँगे और एक सोने में तुले; यह ईश्वर को गवारा नहीं हो सकता, यह भाग्य का बँटवारा नहीं हो सकता। कहीं आदमी की चालबाजी है। और अब तक दो तरह के लोगों ने मिलकर आदमी को सताया है। एक है राजनीतिज्ञ और एक है पुरोहित। और उन दोनों का सदा साथ रहा है। उन दोनों ने एक—दूसरे को सहारा दिया। उन दोनों ने मिलकर आदमी को चूसा। आदमी थक गया है। भले आदमियों ने, समझदार आदमियों ने धर्म की तरफ पीठ फेर ली है। मगर इसके कारण मैं उनको अधार्मिक नहीं कहूँगा। मैं तो कहूँगा—वे ही सच्चे धार्मिक हैं, भविष्य उनका है। हम नया ईश्वर तरासेंगे, हम नया ईश्वर गढ़ेंगे। हम नए काबा बनाएँगे—अगर पुराने काबा पड़ गए झूठे तो पड़ जाने दो। हम नए अर्थ देंगे धर्म को, नयी भावभंगिमाएँ देंगे, नए रंग देंगे—हम फिर से प्राण फूँकेंगे धर्म में।

अगर लोग अधार्मिक हैं तो इसीलिए कि अब लाश की पूजा नहीं करना चाहते। तुम्हारे धर्म का मूल्य नहीं रह गया है, गंदगी रह गयी है धर्म के नाम पर और लाश पड़ी है। जाओ और देखो तुम्हारे तीर्थस्थानों में, सिवाय धर्म की लाश के और कुछ भी नहीं है। जिनके पास भी थोड़ी समझ है, वे लाश की पूजा नहीं करेंगे। जिंदगी का सबूत दो—धर्म जिंदगी का सबूत दे।

मैंने सुना है, हबीबुल्ला नामक एक सरदार एक बार तुर्की के राजा कादिर हसन के पास अपने घोड़े को बेचने के लिए गया। राजा कादिर ने पूछा—इसकी क्या कीमत है? सरदार ने जवाब दिया—सिर्फ पाँच हजार रुपए, श्रीमान! राजा ने कहा—मित्र, इसकी कीमत पाँच सौ रुपह से अधिक नहीं है। परंतु सरदार ने पाँच हजार रुपए से कम में घोड़ा बेचने के लिए स्वीकृति न दी। राजा को घोड़ा अच्छा लगा। और इसीलिए उसने पाँच हजार रुपए देकर घोड़ा खरीद भी लिया और साथ ही यह भी कहा कि दोस्त, तुम मुझे ठग रहे हो। सरदार कुछ नहीं बोला और चुपचाप रुपए अपनी जेब में रख लिए और इसके बाद वह पलटकर गजब की तेजी से उसी घोड़े पर चढ़ा और तीर की तरह राजमहल से बाहर निकल गया। राजा कादिर ने अपने बीस घुड़सवारों को सरदार हबीबुल्ला को पकड़ने के लिए भेजा। दिन—भर पीछा करने के बाद भी वह सरदार पकड़ा न जा सका।

दूसरे दिन वही सरदार राजा कादिर हसन के दरबार में हाजिर हुआ। उसने पाँच हजार रुपए राजा के सामने रख दिए और कहा कि आपको रुपए रखने हों रुपए रख लें, घोड़ा रखना हो घोड़ा रख लें।

सबूत दे दिया उसने घोड़े की ताकत का। और क्या सबूत चाहिए, तुम्हारे बीस घुड़सवार दिन—भर पीछा करके भी धूल ही खाते रहे, घोड़े के पास भी न पहुँच सके। और क्या सबूत चाहिए? राजा ने सिर झुका लिया। पाँच हजार रुपए घोड़े के दाम दिए और पाँच हजार पुरस्कार भी।

प्रमाण दो। अगर लोग अधार्मिक हैं तो सिर्फ इसीलिए अधार्मिक हैं कि तुम्हारे धर्म से प्राण निकल गए हैं, प्रमाण निकल गए हैं। तुम्हारा धर्म निस्तेज पड़ा है। तुम्हारा धर्म केवल बुद्धुओं को राजी कर पा रहा है। बुद्धिमानों को राजी नहीं कर पा रहा है। और खयाल रखना, जब भी धर्म सिर्फ बुद्धुओं को राजी कर पाता है, तो दो कौड़ी का हो जाता है। जब धर्म बुद्धिमानों को राजी करता है, तभी उसमें कुछ मूल्य होता है।

ज़रा लौटकर देखो, बुद्ध के पास जो लोग इकट्ठे हो गए थे, वे बुद्धू नहीं थे, वे उस सदी के सबसे श्रेष्ठतम लोग थे। बुद्धू तो अभी भी अपना वैदिक हवन—यज्ञ—याग कर रहे थे। बुद्ध के पास जो लोग इकट्ठे हो गए थे, वे बुद्धिमान थे, विचारशील लोग थे—तेजस्वी, प्रतिभाशाली। जब भी कोई नया धर्म जन्मता है, तब तेजस्वी लोग उसके करीब आते हैं—तेजस्वी ही आ सकते हैं, क्योंकि वे ही साहस कर सकते हैं। और हिम्मत और जुर्रत और जोखम उठा सकते हैं। और तेजस्वी ही उसके पास आ सकते हैं, क्योंकि वे ही तलाश भी कर सकते हैं! सत्य की उनकी खोज होती है। जो तृतीय कोटि के हैं, वे तो पुरानी लकीर के फकीर होते हैं।

फिर बुद्ध मर गए। फिर बुद्ध का धर्म भी धीरे—धीरे जड़ हो गया। फिर उसके आसपास भी बुद्धुओं की जमात इकट्ठी हो गयी। फिर शंकराचार्य ने एक आवाज दी। और शंकराचार्य के आसपास फिर समझदार लोगों की जमान इकट्ठी हो गई। फिर समझदार लोग, जागरूक हुए। फिर एक नयी परिभाषा आकाश से उतरी। फिर शंकर में एक नया आविर्भाव हुआ, धर्म की नयी प्रतिभा जगी। अब शंकर को गए भी हजार साल बीत गए। अब फिर बुद्धुओं की जमात शंकर के आसपास इकट्ठी है। पुरी के शंकराचार्य जैसे लोग अब शंकराचार्य हैं। जिनमें तुम लाख खोजो, बुद्धि न पा सकोगे। जिनमें प्रतिभा का कोई निखार नहीं पा सकोगे। जिनमें नियमबद्धता है और जड़ता है। जो लकीर के फकीर हैं। और जो लकीर से इंच—भर यहाँ—वहाँ नहीं हो सकते।

फिर नए धर्म की जरूरत है। सदा ही नए धर्म की जरूरत रहेगी। क्योंकि यह एक ऐतिहासिक पहलू है : जब भी नया धर्म पैदा होता है—नए धर्म का मतलब जब भी धर्म नया वेश लेता है, नयी सदी का वेश लेता है, नयी भाषा का परिधान पहनता है और उतरता है—तो बुद्धिमान लोग उसके आसपास इकट्ठे होते हैं। बुद्धू उसका विरोध करते हैं। और जब नया धर्म धीरे—धीरे पुराना पड़ जाता है, लकीरें बन जाती हैं, तो बुद्धिमान उससे हट जाते हैं। फिर बुद्धू उसमें सम्मिलित हो जाते हैं। जब कोई धर्म मरने के करीब होता है तो बुद्धुओं के हाथ में होता है और जब कोई धर्म जन्मने के करीब होता है तो बुद्धों के हाथ में होता है।

तुम्हें अगर दुनिया में आज अधर्म दिखायी पड़ रहा है, तो उसका एक ही कारण है—आज नए धर्म को संजीवन देनेवाले लोगों की कमी है। और पुराने धर्म में लोग अब नहीं जाएँगे। जाना भी नहीं चाहिए। पीछे लौटकर कोई जीवन की यात्रा होती भी नहीं है। यात्रा सदा आगे की तरफ है। यात्रा सदा भविष्य की ओर है।

उतारो नए वेद। गाओ नए उपनिषद। फिर उठने दो भगवद्गीता को। तो लोग धार्मिक होंगे। अब तुम कहो कि हमारी पुरानी भगवद्गीता, इसी को मानकर चलो; अब यह संभव नहीं है। अतीत को आदमी मानकर चलें भी क्यों? समय प्रवाहमान है। लेकिन पंडित—पुरोहित को तो रस अतीत में है, क्योंकि उसका न्यस्त स्वार्थ तो अतीत से है। भविष्य से उसको क्या लेना—देना?

अब यह खयाल में ले लेना, धर्म तो भविष्य से ही जीवित होता है। और पंडित—पुरोहित जीता है अतीत से, इसलिए पंडित—पुरोहित और धर्म का कभी कोई संबंध नहीं होता। मेरे देखे, पंडित—पुरोहित इस दुनिया में सबसे ज्यादा अधार्मिक लोग हैं। उनको एक ही काम है—उनकी दुकान चलती रहे। वे हर मौके से अपनी दुकान को ही उठा लेते हैं। कोई भी बहाना मिल जाए। अब दुनिया में अशांति है, वे कहेंगे—यज्ञ करो; शतचंडी यज्ञ। विश्वशांति के लिए! विश्वशांति से तुम्हारे यज्ञ का क्या लेना—देना? और कितने यज्ञ तुम कर चुके हो, विश्वशांति होती नहीं— विश्वशांति तो छोड़ो, तुम एकाध मुहल्ले में तो शांति करवा के दिखा दो! मुहल्ले को छोड़ो, वे जो पाँच सौ ब्राह्मण एक करोड़ रुपए को फूँकने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं, उनमें ही भारी अशांति होती है, और झगड़ा मचा रहता है कि कौन कितना खींच ले। तुम जरा यज्ञ जब पूरा हो जाता है, तब ज़रा जाकर देखना—वहाँ कैसी खींचातान मचती है। किसको कितना मिल गया, कौन ने ज्यादा पा लिया, किसको कम मिला—सब उपद्रव वही—का—वही, तुम विश्वशांति करने चले थे! कोई भी बहाना खोज लेते हो। आदमी अपने ही व्यवसाय में लगा रहता है।

मैंने सुना है, अपातकाल से पहले तथा बाद की स्थिति पर लेखकों को एक—दूसरे पर आक्षेप करते देखकर एक श्रोता ने कहा— आप जब अधिक गर्मी में आएँ, हमारी कंपनी के जूते चलाएँ।

वह अपना जूता बेचने में लगे हैं! उनको इसकी कोई फिकर नहीं कि यहाँ क्या हो रहा है। आप जब अधिक गर्मी में आएँ, हमारी कंपनी के जूते चलाएँ। वह बेचारा जूता कंपनी का एजेंट होगा। वहाँ बैठा होगा, उसने देखा कि अब अवसर आ रहा है करीब, अब जूते चलेंगे, इस मौके को चूकना नहीं चाहिए।

तुम्हारे पंडित—पुरोहित हर मौके पर एक ही काम कर रहे हैं—किसी तरह पुराने को घसीटकर ले आओ। तुम बीमार हो, वे कहते हैं—चलो, यह मंत्र, यह पाठ, यह पूजा तुम्हें नौकरी नहीं मिलती, यह मंत्र, यह पाठ, यह पूजा। परिवार में प्रेम नहीं है, यह मंत्र, यह पाठ, यह पूजा। तुम लाओ कोई भी बीमारी, उनके पास उत्तर तैयार है। और मजा यह है कि उनके उत्तर से कुछ हल नहीं हुआ—कभी हल नहीं हुआ। न किसी को नौकरी मिली है, न किसी के घर में शांति हुई है, लेकिन जब तुम्हारे घर में शांति एक मंत्र से नहीं होती, तो तुम ऐसे मूढ़ हो कि तुम सोचते हो कि इस पंडित को ठीक मंत्र नहीं आता, किसी दूसरे पंडित के पास जाएँ। चले तुम दूसरे बाबा की तलाश में! वहाँ नहीं मिलेगा तो तीसरे बाबा की तलाश। खोजते रहते हो और ऐसे ही जिंदगी गँवा देते हो।

धर्म तुम्हारी जिंदगी की छोटी—मोटी समस्याओं का उत्तर नहीं है, धर्म तो तुम्हारे जीवन की समस्या का उत्तर है। इसे तुम ठीक से समझ लो। न तुम्हारी बीमारी का उत्तर है धर्म में, न तुम्हारे व्यवसाय की सफलता का उत्तर है धर्म में, न अदालत में जीतने की कोई व्यवस्था है धर्म में। अगर अदालत में जीतना हो तो बेहतर है अधार्मिक लोगों की सलाह लो, क्योंकि अदालतों में उनकी चलती है। और अगर व्यवसाय में सफल होना है तो धर्म इत्यादि की बात भूल जाओ, क्योंकि व्यवसाय अधर्म से चलता है। धर्म का संबंध ही इन सब बातों से नहीं है। धर्म तो उत्तर है पूरे जीवन का। यह क्षुद्र—क्षुद्र सस्याओं का उत्तर वहाँ नहीं है। तुम्हारा पूरा जीवन ही जब तुम्हें एक समस्या की भाँति लगे, जब तुम्हें लगे कि मैं क्यों हूँ, किसलिए हूँ, क्या हूँ, तभी धर्म का उत्तर तुम्हारे काम आ सकता है। और वह उत्तर तुम्हें पंडित—पुरोहित से नहीं मिलेगा, सद्गुरु से मिलेगा।

सद्गुरु का अर्थ होता है, जो किसी शास्त्र की गवाही से नहीं बोल रहा है। जो अपनी बात की खुद ही गवाही है। जो खुद ही साक्षी है। जो कह रहा है—मैंने देखा है। जो कहता है—मैंने जाना है। तुम आओ और मैं तुम्हारी ऑंखें भी खोलूँगा। तुम आओ मेरे पास और मेरे हृदय से झाँको; यह खिड़की तुम्हें परमात्मा का अनुभव कराएगी। लेकिन उस अनुभव से तुम यह मत सोचना कि अदालत का मुकदमा जीत जाओगे। जीत रहे होओगे तो हार जाओगे। बाजार में सफलता मिलेगी, यह मत सोचना। मिल रही होगी तो सब डाँवाँडोल हो जाएगी।

यह संसार चलता है झूठ से। परमात्मा अर्थात् सत्य।

सत्य का एक नया प्रतिमान जन्म रहा है, एक नया भाव जन्म रहा है। और जब तक वह नया भाव विस्तीर्ण नहीं हो जाता तुम्हें ऐसा लगेगा कि लोग अधार्मिक हो गए हैं। लोग अधार्मिक नहीं हो गए हैं, सिर्फ पुराना धर्म मर गया है। मौरे नए धर्म की जरूरत गहरी प्यास की तरह अनुभव की जा रही है।

 

तीसरा प्रश्न : बहुत दिनों से बड़ी बेचैन और गुमसुम हो रही हूँ। पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ। तारीख पंद्रह और सोलह दोनों दिनों के दर्शन से अपूर्व आनंदित हुई। लेकिन चार रात से सो नहीं पाती और ऐसी हालत बहुत दिनों से है।

 

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा

तेरे सामने मेरा हाल है

तेरी एक निगाह की बात है

मेरी जिंदगी का सवाल है

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा……

वीणा, बेचैनी बढ़ेगी। और बढ़ेगी। क्योंकि जिसे तुमने अब तक चैन समझ रखा था, वह झूठा था। जिसको तुमने अब तक घर समझा था, सराय थी। जरा सोचो, एक आदमी सराय में ठहरा हो और उसे घर समझता हो, फिर एक दिन उसे याद आनी शुरू हो जाए कि यह सराय है, तो बेचैनी बढ़ेगी। कल तक सब ठीक चलता था, घर मानकर बैठे रहते थे, आज पता चला सराय है। फिर घर कहाँ है? अब घर को तलाशना होगा। या घर को बनाना होगा। सब निश्चिंत हो गया था, सराय को घर मान लिया था, कोई चिंता न रही, फिकर न रही, आश्वस्त हो गए थ, सब आश्वासन गया, सब सुरक्षा गयी। ऐसा ही हो रहा है। जो मेरे पास आए हैं, वे बेचैन होंगे। तुम्हारा चैन मैं तुमसे छीन लूँगा। तुम्हारा चैन झूठा। तुम्हारा चैन ही क्या है? कि सब ठीक चल रहा है। कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

मैं विश्वविद्यालय में अध्यापक था बहुत वर्षों तक। सुबह मैं घूमने निकलता था, दो—चार विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और भी थे जो घूमने निकलते थे। लेकिन धीरे—धीरे जिस रास्ते पर मैं घूमने जाता था, उस पर उन्होंने घूमने जाना बंद कर दिया। क्योंकि मैं उनसे पूछता—कहिए, कैसे हैं? वे कहते—सब ठीक। मैं उनसे पूछता कि कुछ भी ठीक नहीं है, मुझे बताइए—क्या ठीक? आपकी शकल तो कुछ और कह रही है कि कुछ भी ठीक नहीं है। यह शकल तो उदास है। वह तिलमिला जाते। सुबह—सुबह यह कौन सुनना चाहता है! और जब लोग कहते हैं सब ठीक है, तो उनका मतलब थोड़े ही होता है सब ठीक है, वे कह रहे हैं—बस, छोड़ो भी, जाने दो; सब ठीक है, आगे बात नहीं चलानी! आगे बात छेड़ना भी मत। मैं उनके साथ ही हो लेता कि यह तय ही हो जाए कि सब ठीक है कि नहीं है। वे मुझसे कन्नी काटने लगे। मैं जिस रास्ते पर घूमने जाता, उस पर उन्होंने जाना ही बंद कर दिया। मेरा रास्ता एकदम सन्नाटा हो गया, मैंने कहा—यह भी अच्छा हुआ!

सुकरात से लोग नाराज थे यूनान में। नाराजगी का एक कारण यही था कि तुम कुछ भी कहो और सुकरात तुम्हें फिर पीछा नहीं छोड़ेगा। तुमने ऐसी औपचारिक बात कही और वह तुम्हारा पीछा पकड़ लेगा, बीच बाजार में हाथ पकड़कर रोक लेगा, वह कहेगा अब इसे सिद्ध करो।

तुम भी जानते हो, दुनिया जानती है कि यहाँ कुछ भी ठीक नहीं है, मगर मानकर चल रहे हैं। एक मनौती की दुनिया बना ली है।

वीणा, मनौती की दुनिया टूटती है तो बेचैनी होनी शुरू होती है। कल तक तेरा घर था, पति था, बच्चे थे, अब कुछ भी नहीं। बेचैनी न होगी तो क्या होगी? कल तक सब ठीक चल रहा था, एक सपना था, मैंने तुझे झकझोरा और जगा दिया, अब तू ऑंखें बंद करके कोशिश कर रही है कि सपना फिर जम जाए—कोई सपना दुबारा थोड़े ही जम सकता है, उखड़ गया सो उखड़ गया। तुमने कभी कोशिश की? आधे सपने में उठ आए, फिर ऑंख बंद कर ली अब पूरा तो देख लें कम—से—कम—फिर वह पूरा नहीं होता। वह गया तो गया। सपने को तोड़कर फिर पूरा नहीं किया जा सकता।

बेचैनी तो बढ़ेगी। यह अच्छा लक्षण है। कठिन लगेगा, घाव की तरह लगेगा, छाती में छुरी की तरह चुभेगा—और तू ठीक ही कहती है : तेरी एक निगाह की बात है, मेरी जिंदगी का सवाल है। मुझे भी पता है। उसी निगाह ने तो सब गड़बड़ की है। उसी निगाह ने तो बेचैनी पैदा कर दी। उसी निगाह की तो तू शिकार हो गयी। मगर यह शुभ हुआ है। जो आज बेचैनी है, वह कल असली चैन में ले जाएगी।

एक झूठा चैन है, एक असली चैन है। एक सराय को घर मानना है और फिर एक घर को पा लेना है। यह झूठे चैन में जिंदगी ही व्यर्थ जाती है। यह तो छिन गयी बात। अब लौटने का कोई उपाय नहीं। जब एक दफे जान लिया कि यह सराय है, अब तुम लाख उपाय करो, खूब सजाओ दीवालों को, बंदनवार लटकाओ, व्यवस्था जमाओ, नया फर्नीचर लाओ, मगर एक बार पता चल गया कि यह सराय है, अब चैन नहीं होगा—चैन नहीं हो सकता। यह जिंदगी सराय है।

सूफी फकीर हुआ—इब्राहीम। सम्राट था, अपने महल में सोया था, रात देखा—छप्पर पर कोई चल रहा है। उसने पूछा—कौन है, भाई? ऊपर छप्पर पर क्या कर रहा है? सम्राट वैसे ही घबड़ाया हुआ आदमी होता है। छप्पर पर कौन चढ़ आया? क्या कर रहा है? कोई दुश्मन तो नहीं आ गया? खपरे उठाकर अंदर तो नहीं कूद पड़ेगा? उस ऊपर वाले आदमी ने कहा—तुम शांति से सोए रहो, मेरा ऊँट खो गया है, मैं उसको खोज रहा हूँ। इब्राहीम तो हैरान हो गया कि ऊँट खो गया है, छप्पर पर खोज रहे हो, राजमहल की! तुम्हारा ऊँट छप्पर पर कहाँ जाएगा? उठा। सिपाहियों को कहा कि पकड़ो इस आदमी को। या तो यह पागल है—और खतरनाक हो सकता है। लेकिन वह आदमी पकड़ा नहीं जा सका। वह निकल भागा।

दूसरे दिन इब्राहीम बड़ा उदास था। सिंहासन पर बैठा था, मगर उदास था। बार—बार उसे याद आने लगी—यह आदमी कौन था? रात छप्पर पर चढ़ा कैसे? पहरा इतना है! फिर निकल भी भागा। और उत्तर जो उसने दिया, ऊँट खोज रहा हूँ! इससे दो बातें हो लेतीं तो हल हो जाता। रात—भर सो भी नहीं सका, इसी में पड़ा रहा सोच में और तभी उसने देखा कि द्वारपाल से कोई आदमी हुज्जत कर रहा है।

एक आदमी दरवाजे पर खड़ा कह रहा था द्वारपाल से—मुझे रुकने दो, मुझे इस धर्मशाला में रुकने दो। मैं रुक कर रहूँगा। द्वारपाल कह रहा था—तुम पागल तो नहीं हो, होश में हो? यह धर्मशाला नहीं है, यह सम्राट का निवासस्थान है, यह सम्राट का खुद का निजी घर है। और वह आदमी कह रहा था—छोड़ो बकवास, मुझे पक्का पता है—यह धर्मशाला है, सराय है। सम्राट ने भीतर से आवाज सुनी, यह आवाज पहचानी मालूम हुई, तत्क्षण उसे खयाल आया यह वही आवाज है जो रात छप्पर पर कह रहा था आदमी। वही कड़क आवाज में, वही विशिष्टता। उसने कहा—इस आदमी को भीतर लाओ, भगाओ मत। वह आदमी भीतर लाया गया—एक मस्त फकीर था।

उस फकीर से सम्राट ने कहा—यह हुज्जत करनी शोभा देती है? तुम जानते हो भलीभाँति यह सम्राट का महल है। मुझे देखते हो? यह मेरा सिंहासन देखते हो? यह मेरा दरबार देखते हो? यह धर्मशाला नहीं है। और उस फकीर ने कहा—मैं फिर कहता हूँ कि यह धर्मशाला है। और मैं इसमें रुकूँगा। उसने इतने बल से कहा कि सम्राट भी कँप गया भीतर। उससे पूछा—तुम किस प्रमाण से कहते हो कि धर्मशाला है? उस फकीर ने कहा—मैं पहले भी आया हूँ तब यहाँ एक दूसरा आदमी बैठा था सिंहासन पर। और वह भी यही कहता था यह मेरा घर है। अब वह आदमी कहाँ है? सम्राट ने कहा—अब मैं समझा, वह मेरे पिता थे, वह स्वर्गीय हो गए। और उस फकीर ने कहा—उसके पहले भी मैं यहाँ आया था, तब एक तीसरा आदमी बैठा था, एक बुङ्ढा यहाँ था, वह भी यही कह रहा था कि मेरा घर है, वह कहाँ है? सम्राट ने कहा—तुम फिजूल की बकवास में पड़े हो, वे मेरे दादा थे। उस फकीर ने कहा—जब इतने लोग यहाँ रहते हैं और अपना घर बताते हैं और चले जाते हैं, कोई भी रह नहीं पाता, यह क्या खाक घर है! तुम अगली बार मुझे मिलोगे? पक्का वायदा करते हो कि जब मैं दुबारा आऊँगा, तुम यहाँ रहोगे?हाथ—पैर कँप गए होंगे, पसीना आ गया होगा, झुरझुरी फैल गयी होगी इब्राहीम के हृदय में। बात तो सच थी। अगले दिन का भरोसा नहीं है। और इतने लोग इस महल में रह चुके और सभी ने इसको घर समझा और सभी जा चुके—घर होता तो रहते, सराय ही है। कोई दो दिन ठहरता, कोई दो साल ठहरता है, कोई ज्यादा ठहर जाता है, मगर है तो सराय। इब्राहीम उतरकर नीचे खड़ा हो गया, उस फकीर के चरणों में गिर पड़ा और कहा कि तुम रुको, यह सराय ही है, मैं चला। उसी क्षण इब्राहीम ने महल छोड़ दिया।

ऐसा ही कुछ हो रहा है, वीणा! बेचैनी तो होगी। तेरे घर को मैंने सराय बता दिया। चलते वक्त सम्राट ने इतना ही पूछा था—एक बात और बता दें, वह रात का सवाल, नहीं तो मैं जिंदगी—भर उसी में उलझा रहूँगा। यह तो ठीक हो गया, यह सिद्ध हो गया, यह सराय ही है, तू मजे से ठहर। वह रात जो तू ऊँट खोजते निकला था मेरे छप्पर पर, वह क्या मामला था? उस फकीर ने कहा—वह ऐसा ही मामला था, वह तुझे सजग करने की चेष्टा थी, कि जैसे महलों के छप्परों पर ऊँट नहीं खोते, ऐसे ही संसार में आनंद नहीं खोया है। और जैसे ऊँटों को पाने के लिए छप्परों पर जाना मूढ़ता है, पागलपन है, वैसे ही आनंद को खोजने अपने से बाहर जाना मूढ़ता है, पागलपन है। सोने के सिंहासनों पर बैठ जाने से आनंद नहीं मिलता। आनंद वहाँ खोया नहीं है। आनंद कहीं और खोया है! जैसे ऊँट छप्पर पर नहीं खोते, जैसे यह असंभव है, ऐसे ही आनंद भी सोने के सिंहासनों पर बैठकर मिल नहीं जाता। यह भी उतना ही असंभव है। यही कहने को मैंने तुझसे रात का उपाय किया था। तू उस समय नहीं चौंका, तो मुझे फिर आना पड़ा। अब यह सराय की बात लेकर आना पड़ा।

तो वीणा, तुझे दिखायी पड़ना शुरू हो गया है कि सराय सराय है। इसलिए बेचैनी है। “बहुत दिनों से बड़ी बेचैन और गुमसुम हो रही हूँ’। और गुमसुम भी हो ही जाएगी। जब घर सराय हो जाए, अपने अपने न मालूम पड़ें, पराए पराए न मालूम पड़ें, गुमसुम न होओगे तो करोगे क्या? एकदम सन्नाटा छा जाएगा। पुराना सब अस्त—व्यस्त हो गया। अब पुरानी कोई बात सार्थक नहीं मालूम होती, संगत नहीं मालूम होती। एक चुप्पी आ जाएगी। “पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ’। वह हँसी सब झूठी थी। अब कैसे हँसोगी? वह हँसी झूठी थी, वह हँसी तो सिर्फ ऑंसुओं को छिपाने का उपाय थी।

फेड्रिक नीत्शे ने कहा है……किसी मित्र ने उससे पूछा कि तुम हमेशा हँसते हो, बात क्या है? तुम इतने प्रसन्न क्यों हो? उसने कहा—मत पूछो। यह बात पूछो मत। असल में मैं प्रसन्न आदमी नहीं हूँ—वह था भी नहीं प्रसन्न आदमी—उसने कहा मैं बहुत दुःखी आदमी हूँ, लेकिन मैं हँसता रहता हूँ। अगर मैं न हँसूँ, तो मुझे डर है कि मैं रोने लगूँगा। हँसकर रोने को छिपा लेता हूँ।

तुम्हारी हँसी में तुम्हारे ऑंसुओं की खनक होती है, भनक होती है। मैंने तुम्हें हँसते देखा है, मैंने वीणा को हँसते देखा है, वह हँसी झूठी थी। वह हँसी ऊपर—ऊपर थी। एक छिपाव था उसमें। उसमें इतना ही कहना था—अब रोने से क्या सार है? फायदा क्या है; कौन सुनेगा? कौन समझेगा? नाहक रोकर और अपने को दुःखी क्यों करना है? उलझा लो अपने को, लगालो अपने को किसी काम में। लोग मनोरंजन के साधन खोजते रहते हैं। चलो सिनेमा हो आओ! दो घड़ी अपने को भूल जाएँगे। चलो उपन्यास पढ़ लो। कि चलो रेडियो, कि चलो संगीत, कि चलो क्लब, कहीं भी अपने को उलझा लो। कहीं चलो, चार लोग बैठेंगे, हँसेगे, गपशप करेंगे, थोड़ी चिंता कम हो जाएगी। वे सब हँसियाँ झूठी हैं।

अब तो असली रोना पैदा होगा। और असली रोने के बाद असली हँसी है। नकली हँसी गयी, ऊपर के आवरण गए, अब ऑंसू बहेंगे। और उन ऑंसुओं के बाद ऑंखें स्वच्छ हो जाएँगी—ऑंख ही नहीं, ऑंसू हृदय को भी स्वच्छ कर जाते हैं—फिर एक हँसी आएगी, बुद्धों की हँसी, एक आनंद का भाव, एक मुस्कान जो तुम्हारे रोएँ—रोएँ पर फैल जाएगी। जो तुम सोओ तो भी मौजूद रहेगी। जो जिंदगी में भी साथ होगी, मौत में भी साथ होगी। जो तुम्हारा स्वभाव होगी। इसके पहले कि वह हँसी आए, झूठी हँसी तो जाएगी।

असत्य को असत्य की भाँति जान लेना सत्य को जानने का एकमात्र उपाय है। असार को असार की भाँति पहचान लेना सार की पहचान की तरफ पहला कदम है।

“पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ। तारीख पंद्रह और सोलह दोनों दिनों के दर्शन से अपूर्व आनंदित हुई हूँ। लेकिन चार रात से सो नहीं पाती और ऐसी हालत बहुत दिनों से है’। मेरे पास आओगी, मेरे पास बैठोगी, तो कुछ—कुछ तुम्हें तुम्हारे भविष्य की झलक मिलेगी, वही “दर्शन’ है। कुछ—कुछ जैसा तुम्हारे भीतर होना चाहिए, उसका थोड़ा आभास होगा—जैसे दूर से आती हुई संगीत की आवाज सुनायी पड़ी हो। जितने मेरे करीब आओगे, उतना तुम्हारा भविष्य तुम्हारे करीब आ रहा है। मेरे भीतर जो हो गया है, वह तुम्हारे भीतर होना है।

बुद्ध ने कहा है, अपने एक शिष्य को, कि तू चिंतित न हो, तू दुःखी मत हो, तू परेशान मत हो, क्योंकि मैं भी तेरे ही जैसा चिंतित था, तेरे ही जैसा दुःखी था, तेरे ही जैसा परेशान था; एक दिन था मैं तेरे जैसा था, एक दिन होगा कि तू मेरे जैसा हो जाएगा। क्योंकि हम दोनों स्वभावतः एक—जैसे हैं। अब मैं आनंदित हूँ, अब मैं प्रसन्न हूँ, तू ज़रा मेरे करीब आ, गौर से मुझे देख, यह तेरा भविष्य है। तू मेरा अतीत है, मैं तेरा भविष्य हूँ। वीणा, यही मैं तुझसे कहता हूँ। तू मेरा अतीत है, मैं तेरा भविष्य हूँ। यही तो सारे गुरुओं ने अपने शिष्यों से कहा है। सत्संग का और अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है कि गुरु के दर्पण में अपने भविष्य की छाया को देख लेना। आनंद होगा, रसविभोर हो उठोगी।

और कहा कि “चार दिन से सो नहीं पाती’ पुरानी नींद भी गयी, पुराने सपने भी गए। नींद की भी गुणवत्ता बदलेगी—जल्दी ही बदलेगी—एक नए ढंग की नींद आनी शुरू होगी। एक ऐसी नींद जिसमें आदमी सोया भी होता है और जागा भी होता है, एक ऐसी नींद जिसमें शरीर सोया होता है और प्राण जागे होते हैं, और भीतर चेतना का दिया जलता ही रहता है। पुरानी नींद तो गयी। और अब कोशिश भी मत करना उसको लौटाने की। लौटायी भी नहीं जा सकती। मैं उसे लौटने भी नहीं दूँगा। अड़चन होगी, कठिनाई होगी—नींद न आए रात—भर तो लगेगा कुछ खाली—खाली हो गया। घबड़ाना मत। जल्दी ही एक नयी नींद इसका स्थान लेगी। पुराने का स्थान खाली करने दो, नया मेहमान आता ही होगा। घर खाली हो जाए पुराने से तो नया आ जाए। नयी नींद आएगी अब। योगियों ने उसको श्वान—निद्रा कहा है। जैसे कुत्ता सोता है और जागा भी रहता है—ज़रा—सी खनक हो जाए और खड़ा हो जाता है। ज़रा—सी आवाज हो जाए और ऑंख खोल देता है।

कृष्ण ने कहा है—जब सब सोते हैं, तब भी योगी जागता है। “या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी’। क्या कहा है? इसका कोई मतलब यह थोड़े ही है कि योगी बैठा रहता है ऑंखें खोले अपना छप्पर देखता रहता है! ऑंख तो उसकी भी बंद होती है, देह तो उसकी भी सो जाती है, लेकिन कुछ है भीतर जो नहीं सोता। कुछ है भीतर जो जागा रहता है—चैतन्य जागा रहता है। अभी हालत ऐसी है कि तुम राह पर चलते हो, बाजार में काम करते हो, दुकान पर बैठते हो, सब करते हो और सोए हुए हो। अभी तुम जागे हो नाममात्र को। वस्तुतः सोए हो। योगी सोता है नाममात्र को, वस्तुतः जागा होता है। अभी तुम्हारा दिन भी रात है, तब तुम्हारी रात भी दिन हो जाती है। जल्दी ही वैसी घड़ी भी आएगी। और जो प्रतीक्षा करते हैं, जो धीरज से प्रतीक्षा करते हैं, उनकी झोली निश्चित अपूर्व अनुभवों से भर दी जाती है।

 

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा

 

तेरे सामने मेरा हाल है

 

तेरी एक निगाह की बात है

मेरी जिंदगी का सवाल है

 

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा……

मुझे पता है। मुझे खयाल में है। जो मुझसे जुड़े हैं, उनमें से एक—एक का मुझे पता है—कौन कहाँ है? कौन के भीतर क्या हो रहा है, कैसा हो रहा है? जिस दिन मैंने तुम्हें संन्यास दिया, उस दिन से यह मेरा उत्तरदायित्व हो गया कि जीवन में कि मृत्यु में, सब तरफ, सब जगह तुम्हें साथ दूँ। तुम्हारी तैयारी—भर होनी चाहिए साथ लेने की। मेरे हाथ, कितने ही दूर तुम होओ, तुम्हारे पास पहुँच जाएँगे।

 

आखिरी प्रश्न : परमात्मा से वियोग क्यों?

नुष्य की तरफ से ही है। परमात्मा की तरफ से ज़रा भी नहीं। विस्मरण है, वियोग नहीं। वियोग हो जाए तो फिर तो योग हो न सकेगा—फिर कैसे होगा योग? फिर कहाँ खोजेंगे उसे? फिर उसका पता—ठिकाना भी तो मालूम नहीं। उसका नाम—धाम भी तो मालूम नहीं। किस दिशा पर जाओगे? फिर तो सब तरफ अंधेरा होगा; किस दीए को लेकर खोजोगे? किसको खोजोगे? और मिल भी जाएगा रास्ते में तो कैसे पहचानोगे? क्या प्रत्यभिज्ञा होगी? नहीं, वियोग नहीं हुआ है। वियोग हो गया तो फिर योग हो ही नहीं सकता।

योग हो सकता है इसीलिए कि वियोग हुआ नहीं, सिर्फ विस्मरण हुआ है। परमात्मा से तुम अभी भी जुड़े हो, इस क्षण भी जुड़े हो—उतने ही जितने पहले जुड़े थे, उतने ही जितने आगे जुड़े रहोगे। तुम परमात्मा में उतने ही हो, जितना मैं हूँ। तुम परमात्मा में उतने ही हो, जितने कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं, बुद्ध हैं। परमात्मा में कम और ज्यादा होने का उपाय नहीं है। परमात्मा में होकर ही हमारा जीवन है। हमारी श्वास—श्वास उसकी ही है। और हमारी धड़कन—धड़कन उसकी है। लेकिन हम भूल गए हैं। किसी को याद आ गयी है, किसी को याद भूल गयी है।

मछली सागर में है। जिस मछली को याद आ गयी कि यही सागर है, वह बुद्ध हो गयी। और जिस मछली को याद नहीं आ रही कि यही सागर है और पूछती फिरती है कि सागर कहाँ है? और……ठीक ही पूछती है। क्योंकि सागर में ही पैदा हुई, सागर में ही बड़ी हुई तो सागर का पता कैसे चले? सोच—विचार करती है, ऑंख बंद कर लेती है, योगासन साधती है—सागर कहाँ है? गुरुजनों से पूछती है, दार्शनिक—चिंतकों के पास जाती है—सागर कहाँ है? और उत्तर हजार मिलते हैं। मगर वे सब उत्तर व्यर्थ हैं। क्योंकि सागर यहीं है। सागर यही है। मछली सागर में है।

कबीर ने कहा है न कि मुझे बड़ी हँसी आयी यह जानकर कि मछली सागर में प्यासी! “मोहे आवै बहुत, हाँसी, मछली सागर में प्यासी’। यही हमारी दशा है।

तुम पूछते हो—परमात्मा से वियोग क्यों है? नहीं, है ही नहीं वियोग; विस्मरण है तुम बस भूल गए हो। और भूलने का कारण यही है कि परमात्मा चौबीस घंटे उपलब्ध है, अहर्निश उपलब्ध है, सतत् उपलबध है। जो सतत् उपलब्ध हो जाता है, वह हमें भूल जाता है। तुम्हें अपनी श्वास की याद आती है? सतत् उपलब्ध है। कोई अड़चन होती है तो याद आती है। सर्दी—जुकाम हो गया, तो याद आती है श्वास की। नहीं तो याद नहीं आती। तुमने खयाल किया, सिर में दर्द होता है तो सिर की याद आती है। नहीं तो सिर की कहीं याद आती है?

संस्कृत में शब्द है—वेदना। उसके दो अर्थ होते हैं—एक दुःख और एक ज्ञान। वेदना उसी सूत्र से आया है, जिससे वेद। उसका एक अर्थ होता है—ज्ञान और एक अर्थ होता है—दुःख। दुःख और ज्ञान एक ही शब्द के अर्थ? दुःख के कारण ही ज्ञान होता है। और परमात्मा ने तुम्हें कभी दुःख नहीं दिया, इसलिए उसका ज्ञान नहीं हो रहा है। सुख—ही—सुख दिया है। उसकी तरफ से सुख की ही धारा बहती रही है। उसने तुम्हें दुःख नहीं दिया, इसलिए उसका ज्ञान नहीं हो रहा है।

और जितने दुःख तुमने दिए हैं अपने को, वे तुमने ही दिए हैं। अपने ही दुःखों के कारण तुम उससे दूर मालूम पड़ रहे हो। अपने ही चक्कर तुमने खड़े कर लिए हैं। तुमने खूब शोरगुल मचा रखा है अपने चारों तरफ, तुमने खूब धुऑं उठा रखा है अपने चारों तरफ—विचार का, वासना का, क्रोध का, काम का—इतना धुऑं उठा रखा है कि दिखायी नहीं पड़ रहा है परमात्मा। और परमात्मा ही तुम्हें चारों तरफ से घेरे हुए है—बाहर भी वही, भीतर भी वही।

परमात्मा को खोजने मत निकल जाना। परमात्मा को खोजने निकले कि चूके। जागो, होश से भरो, यहीं पा लो, अभी पा लो। कल देखा नहीं रज्जब ने कहा—”तत छन परसन होत ही’। परस होते ही, एक क्षण में यह क्रांति घट जाती है। परमात्मा को पाने में समय की यात्रा नहीं करनी होती है। एक क्षण में यह क्रांति घट जाती है। तत्क्षण। इसी क्षण। न पड़ो विचार में, इसी क्षण न पड़ो ऊहापोह में, इसी क्षण बस मौजूद रह जाओ—शांत, स्थिर—यह पक्षियों की आवाजें हों, ये सूरज की किरणें, यह उपस्थिति, और तुम चुप, मौन, सन्नाटे में। फिर कबीर तुम पर नहीं हँसेगे। फिर कबीर देख लेंगे कि कम—से—कम इस मछली को तो सागर मिल गया।

और जिस दिन कबीर तुम पर न हँसे, उस दिन ही तुम हँसने के हकदार हो। जब तक कबीर तुम पर हँसते हैं, तब तक तुम सिर्फ रोने के हकदार हो, हँसने के नहीं हो।

परमात्मा से कोई वियोग न कभी हुआ है, न हो सकता है। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। जागो और अपने अधिकार को माँग लो। तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है परमात्मा। एक क्षण को भी न तुमने खोया है, न तुम खो सकते हो। चाहो तो भी नहीं खो सकते हो। पापी—से—पापी आदमी में परमात्मा उतना ही है जितना पुण्यात्मा में। उसकी नजर में कुछ भेद नहीं है। वियोग ज़रा भी नहीं है, इसीलिए योग हो सकता है।

इस भाव से भरो। मेरी ऑंख में झाँको। यही भाव तुम में उँडेलना चाहता हूँ। यही भाव तुममें भरना चाहता हूँ। मगर तुम इधर—उधर देखते हो, तुम ऑंखें बचाते हो; तुम कहते हो, हमें तो परमात्मा को खोजना है। मैं कहता हूँ—अभी है, यहीं है, मिला हुआ है। तुम कहते हो—यह कैसे हो सकता है? यह तो असंभव दिखता है। मैं तो खोजूँगा। बस उसी खोज से तुम वंचित रह जाते हो। वही खोज तुम्हें दूर—से—दूर भटकाए रहती है। खोजने वाले भटकते हैं, ठहर जानेवाले पा लेते हैं।

 

आज इतना ही।

 

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–11)

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राम बिन सावन सह्यो न जाइ—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

दिनांक 22 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:

रामबिन सावन सह्यो न जाइ।

काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।

कनक—अवास—वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।

महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह—भुअंग।।

सूनी सेज बिथा कहूँ कासूँ, अबला धरै न धीर।

दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।।

सकल सिंगार भार ज्यूँ लागैं, मन भावै कछु नाहीं।

रज्जब रंग कौन सू कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।।

भजन बिन भूलि पर्यो संसार।

चाहै‘ पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।

बाछै ऊरध अरध सं लागै, भूले मुगंध गँवार।

खाइ हलाहल जीयो चाई, मरत न लागै बार।।

बेठे सिला समुद्र तिरन कूँ, सो सब बूडनहार।

नाम बिना नाहीं निसतारा, कबहूँ न पहुँचै पार।।

सुख के काज धसे दीरध दुख, बहे काल की धार।

जन रज्जब यूँ जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।।

 

बिन सावन सधो न जाइ:

 

ऐगदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे

मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं

मैंने देखा है इन आँखों से मुरव्वत का मयाल

मुझको अब मेहरो—मुहब्बत से कोई प्यार नहीं

मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है

अब मेरा कुक खुदा का भी तलबगार नहीं

जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले

मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं

 

हे गदागर! मुझे ईमान की बख्शिश के एवज

ये दुआ क्यों नहीं देता कि मैं जरदार बनूँ

बेच डालूँ सरे—बाजार जमीरे—हस्ती

और एहसास की जिल्लत का अलमदार बनूँ

आदमीयत का गला काटके इज्जत पाऊँ

जुल्मके साये में राहत का तलबगार बनूँ

राजे—रोशन में यतीमों के घरौंदे लूटूँ

और बेवाओं की दौलत का परिस्तार बनूँ

 

ऐ गदागर! मुझे हैरान निगाहों से न देख

मेरा कुचला हुआ एहसास यही कहता है

देख इन शिगरफी चेहरों के शफक—रंग खतूत

जिनसे मजबूर घरानों का लहू बहता है

देख इन ऊँचे मकानात के तहखानों को

जिनकी हर साँस में जहराब घुला रहता है

देख ईमान की गिरती हुई दीवारों को

जिनकी तामीर में इंसान सितम सहता है

 

रमि बिन सावन सहचौ न जहि ऐ गदागर!

मुझे ईमान से क्या है लेना

इससे मुपिलस की कबा तक भी नहीं सिल सकती

ये जवाँ जिस्म, ये भरपूर निगाहें, ये सरूर——

फिक्रे—इसान बजुज इनके नहीं खुल सकती

चार दिन ऐश से जीना है मुझे भी, लेकिन

हट के दौलत से कोई चीज नहीं मिल सकती

और दौलत वो शिकंजा है कि जिसमें फँसकर

हम तो क्या सिलवते—यजदाँ भी नहीं हिल सकती

ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे

 

जमाना बदला है। जिस हवा में रज्जब ने गीत गाया था, वह हवा अब नहीं।

 

तो शायद गत तुम्हार समझ में आए, न आए। अब तो शायद तुम्‍हारी समझ में आए। अब तो ऐसे गीत समझ में आते हैं—’ ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे ‘। हे भिक्षु, मुझे धर्म की बख्शीश मत दे। मुझे धर्म का प्रसाद मत दे। मुझे धर्म की नसीहत मत दे। मुझे धर्म का उपहार मत दे।

ऐं गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे

मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं

आज धर्म से किसको क्या लेना—देना है?

मैने देखा है इन आँखों से मुरव्वत का मयाल

मुझको अब मेहरो—मुहब्बत से कोई प्यार नहीं

लोगों ने प्यार को हारते देख लिया है। लोगों ने प्यार को पराजित होते देख लिया है। प्रेम की विजय की बात कल्पना हो गयी। और जहाँ प्रेम कल्पना हो जाए, वहाँ प्रार्थना के जन्मने का सवाल कहाँ? प्रेम ही तो अपनी अंतिम उडान में प्रार्थना बनता है। प्रेम का ही सार—निचोड़ तो प्रार्थना है। झूठे क्रियाकांड रह गये हैं। उनके भीतर से प्राण निकल गये हैं। लोग प्रार्थनाएँ अब भी कर रहे हैं, मगर प्रार्थना करनेवाले हृदय कहाँ? लोग अब भी मंदिरों—मस्जिदों में जा रहे हैं। आदत हो गयी है जाने की। रिवाज हो गया है जाने का। औपचारिकता है जाने की। सामाजिक व्यवहार है वहाँ जाना। जिंदगी के चलने में स्रुविधा मिलती है। उपयोगी है। लेकिन आदमी के हृदय से मंदिर मिट गया है। तो बाहर के मंदिर बहुत काम आ नहीं सकते। अब भी लोग राम और कृष्ण का नाम लेते हैं, मगर ओंठ, बस ओंठ तक ही यह बात होती है। हृदय तक इसकी पहुँच नहीं। अब कौन प्रभु के प्रेम में पागल होता है? अब तो प्रभु के प्रेम में जो पागल होता है, उसे लोग बस पागल ही मानते हैं। सिर्फ पागल ही मानते हैं।

ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे

मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं

मैंने देखा है इन आँखों से मुरव्वत का मयाल

म्रुझको अब मेहरो—मुहब्बत से कोई प्यार नहीं

मैने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है

अब मेरा कुफ्र खुदा को भी तलबगार नहीं

और जब आदमी को चाह कर कुछ न मिलता हो, तो परमात्मा को भी कोई क्यों ‘चाहे? जब चाहने से आदमी को कुछ नहीं मिलता, तो परमात्मा को चाहने से भी क्या मिल’ जाएगा? परमात्मा को चाहने का रस तो तभी जगता है जब आदमी को चाहने से कुछ मिलता है। जब छोटे—छोटे प्रेम से उसकी किरणें मिलती हैं, तो फिर सूरज की आकांक्षा पैदा होती है।

तुमने अगर किसी एक आदमी को चाहा और उसकी चाहत तुम्हारे जीवन में रंग भर गयी और उसके प्रेम ने तुम्हारे जीवन को सुगंध दे दी, तो आज नहीं कल तुम परमात्मा के प्रेम में पड़ोगे। पड़ना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं बचने का। भागोगे कहाँ? जब क्षणभंगुर के प्रेम से ऐसा रस बहा, तो शाश्वत के प्रेम से कैसा रस न बहेगा? सीधा गणित है, साफ गणित है। बुद्धिहीन से बुद्धिहीन को भी समझ में आ जाएगा। जब एक फूल से इतनी सुगंध मिली, तो उस विराट के साथ संबंध जुड़ जाने से कैसा नृत्य नहीं होगा, कैसा उत्सव नहीं होगा? क्षणभंगुर ने भी नाच दे दिया था। क्षणभंगुर जो पानी के बबूले की तरह था, वह भी आंखों को नयी रोशनी से भर गया था। सपने उठे थे आकाश के। तुम मिट्टी नहीं रह जाते जब तुम किसीके प्रेम में पड़ते हो। जब तुम किसीके प्रेम में पड़ते हो, देह भूल ही जाती है। प्रेम के क्षणों में तुम आत्मा हो जाते हो। वही अनुभव परमात्मा के प्रेम की तरफ ले जाता है।

मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है

अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं

जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले

मैं तेरी नेक दुआओं का खरीददार नहीं

आज की हवा ऐसी है। और मैं यह कहना चाहूँगा कि इस हवा में धार्मिकों का हाथ है। तथाकथित धार्मिकों के कारण ही यह हवा है। झूठे धर्म के कारण यह हवा है। थोथे धर्म के कारण यह हवा है। धर्म की लाशें पड़ी हैं, उनसे यह दुर्गंध उठ रही है। उनके कारण आदमी ईश्वर से विमुख हो रहा है। उनके कारण ईश्वर की तरफ मुँह करने की आकांक्षा भी नहीं जगती। देखो तुम्हारे पंडित—पुरोहितों—पुजारियों की तरफ, उन्हें देख कर तुम्हें कुछ ऐसा भाव उठता है कि नाचे और मग्न हो जाएँ? उनके जीवन में भी तो नाच नहीं है। जन्म हो गये उनको घंटियाँ बजाते मंदिरों में, हृदय की वीणा अभी भी नहीं बजी। जन्म हो गये उन्हें फूल चढ़ाते मंदिरों में, पत्थरों के सामने झुकते—झुकते वे भी पत्थर हो गये हैं; उनकी प्रार्थनाएँ नपुंसक, उनके क्रियाकांड थोथे, सब पाखंड है, सब धोखा है। आंखें हैं आदमी के पास, आदमी एकदम अंधा नहीं है। इतना दिखायी पड़ता है। जन्मों—जन्मों तक जो मंदिरों की पूजा और प्रार्थना से कुछ न पा सके हों, उनका परमात्मा भी झूठा ही होगा। कौन उनके परमात्मा की तरफ आतुर हो? कौन उनके परमात्मा को चाहे?

मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ——जमीन आज नास्तिक है नास्तिकों के कारण नहीं, तथाकथित आस्तिकों के कारण। लोग ईश्वर के भी तलबगार नहीं। देखते हैं ईश्वर के तलबगारों का झूठ, उस झूठ में अब कोई सम्मिलित नहीं होना चाहता।

इसलिए तुम्हें थोड़ी अड़चन होगी। ये गीत किसी और हवा में गाये गये थे। यह पौधा किसी और जमीन में ऊगा था। वह जमीन बदली हे, लेकिन फिर भी अगर थोड़ी सहानुभूति से समझोगे, अगर थोड़े पंडित—पुरोहितों के जाल को छोड्कर समझोगे, तो बात समझ में आ जाएगी। नहीं आए, ऐसा कुछ नहीं है। क्योंकि तुम्हारे भी गहन तल में, तुम्हारे हृदय की भी गहराइयों में, लाख उपाय करो परमात्मा की खोज छिपी पड़ी है। कोई आदमी बिना परमात्मा को पाए तृप्त होता नहीं। उसीको पाकर संतोष होता है। और कोई कितना ही उसकी तरफ पीठ कर ले, और कोई कितना ही नाराजगी में कह दे कि अब मैं तेरा तलबगार नहीं, नाराजगी एक बात है, यह तलब मिट जाने वाली तलब नहीं। यह प्यास ऐसी कोई प्यास नहीं है कि तुमने कह दी और मिट गयी। यह तो परमात्मा बरसेगा तुम्हारे कंठ में तो ही मिटेगी।

यह प्यास मनुष्य की संपदा है। इसी प्यास के कारण तो आदमी लाख धर्म के नाम से पाखंड चलता रहे, तो भी धर्म में थोड़ी न बहुत उत्सुकता बनी रहती है। लाख धर्म के नाम से शोषण चलता रहे, मंदिर—मस्जिद—गुरुद्वारे झूठे हो जाएँ, तो भी आदमी कोई नयी राह खोज लेता है। कोई नया मार्ग खोज लेता है। मंदिर—मस्जिदों को बचा कर निकल जाता है, लेकिन परमात्मा की तलाश जारी रहती है। प्यास कुछ ऐसी है, बिना परमात्मा को पाये मिट नहीं सकती।

इसलिए समझ तो सकोगे, स्वभावत: क्षमता भीतर समझने की है, लेकिन ये गीत और हवा में गाये गये थे, कोई और माहौल में गाये गये थे। ये किसी और तरह के लोगों ने गाये थे, किन्हीं और तरह के लोगों के सामने गाये थे। वे लोग धीरे—धीरे विदा हो गये हैं, वैसी मस्त मधुशालाएँ अब नहीं रहीं, वैसे आनंद के सत्संग अब नहीं रहे।

सुनो—

राम बिन सावन सहयो न जाइ।

राम के बिना सावन सहा नहीं जाता। राम अर्थात् परम प्यारा। नाम कुछ भी दो। अल्लाह कहो, राम कहो, रहीम कहो, जो भी नाम देना हो, वह परम प्यारा है। जिसके बिना सब फीका है, जिसके बिना हम हैं तो लेकिन नहीं जैसे हैं। जिसके बिना हम खाली—खाली हैं। जिसके बिना हमारा कोई मूल्य नहीं। जिसके बिना हम जीते जरूर हैं, मगर जीना नाममात्र का जीना है। सच कहो तो मरते ही हैं। जिसके बिना हम जीते नहीं। बस मौत ही करीब आती है और हाथ लगता क्या है? रोज— रोज थोड़ा—थोड़ा मरते जाते हैं। चल किस तरफ रहे हो? पहुँचोगे कहाँ? बस मौत में पहुँच जाते हो। यह भी कोई जिंदगी हुई?

जिंदगी की परिभाषा क्या है? जिंदगी की परिभाषा है कि जो महा जिंदगी में ले जाए। जीवन अगर सच्चा है, तो उसका अंतिम फल महा जीवन होगा। लेकिन इस जीवन का फल तो मृत्यु होती है, यह कैसा जीवन! यह जीवन होगा ही नहीं। कहुाईं कुछ भूल हो गयी। कहीं कुछ चूक हो गयी। कुछ—का—कुछ समझ बैठे हैं। परमात्मा के साथ के बिना कोई जीवन नहीं है। उसके साथ है जीवन। उसके विरोध में है मृत्यु। उससे जो अलग है, वह मरेगा। जो उसके साथ है, कभी नहीं मरेगा।

जीसस का एक प्यारा वचन है। आओ, मेरे साथ हो जाओ, क्योंकि जो मेरे साथ हैं वे कभी नहीं मरेंगे। जो मेरे साथ हैं, उनकी कोई मृत्यु नहीं है। जीसस क्या कह रहे हैं? जीसस यह कह रहे हैं—आदमी दो ढग से जी सकता है। एक ढंग है अलग— अलग, अहंकार की भाँति, मैं की भाँति, परमात्मा के विरोध में, असहयोग में, परमात्मा से भिन्न। ऐसे ही अधिक लोग जीते हैं। उनके जीवन का केंद्र मैं है। मैं ऐसा कर लूँ, मैं वैसा हो जाऊँ, मैं वह पा लूँ, उनकी अपनी कुछ मर्जी है, कोई आकांक्षा है जिसे वे पूरी करना चाहते हैं। वे दुनिया को दिखा देना चाहते हैं कि मैं कौन हूँ। वे यहाँ हस्ताक्षर कर जाना चाहते हैं पत्थरों पर——खुद तो मिट जाएँगे लेकिन नाम रह जाएगा। समय की रेत पर वे चिह्न छोड़ जाना चाहते हैं। पागल हैं वे, क्योंकि रेत पर कहीं कोई चिह्न छूटे हैं? आएँगी हवाएँ और चिह्न मिट जाएँगे। यहाँ पत्थर भी रेत हो जाते हैं। यहाँ नाम भी पत्थरों पर लिखोगे तो कितनी देर टिकेगा? और इस शाश्वत की विराट व्यवस्था में तुम्हारे नाम—धाम का छूट जाना सब फिजूल है, सब सपना है। मगर अहंकार ऐसे ही जीता है कि मैं कुछ कर जाऊँ, कुछ दिखा जाऊँ, मैं कुछ हो जाऊँ।

और अहंकार की अपनी मर्जी होती है कि ऐसा होना चाहिए, ऐसा होगा तो ही मैं तृप्त होऊँगा, ऐसा नहीं होगा तो मैं असंतुष्ट रहूँगा। इसीलिए तो इतने लोग असंतुष्ट हैं क्योंकि जैसा तुम चाहते हो, वैसा नहीं होता। यह अस्तित्व तुम्हारी चाह से नहीं चल सकता। यह तुम्हारी चाह से चलता तो कभी का पागल हो जाता। क्योंकि तुम्हारी इतनी चाहें हैं। इन सारी चाहो को पूरा नहीं किया जा सकता। एक क्षण तुम एक बात चाहते हो, दूसरे क्षण दूसरी बात चाहते हो। यह तो एक आदमी की बात हुई। फिर यहाँ इतने आदमी हैं, इतने पशु हैं, इतने पक्षी हैं, इतने पौधे हैं, इतने जीवन हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कम—से—कम पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। इन सब की चाहें कैसे पूरी हो सकती हैं! अस्तित्व की चाह पूरी होती है। आदमी की चाह पूरी नहीं होती। हाँ, कभी—कभी तुम्हारी चाह पूरी हो जाती है, तो यही समझना कि संयोगवशात् तुम्हारी चाह अस्तित्व की चाह के साथ एक पड गयी थी। तुमने कभी भूल—चूक से वही चाह लिया था जो परमात्मा चाह रहा था। इसलिए तुम सफल हो गये। तुम उसी धारा में बह गये जिस तरफ परमात्मा बह रहा था। कभी—कभी तुम सफल हो जाते हो, उसका कारण यही होता है।

तुम कभी सफल नहीं होते, परमात्मा सदा सफल होता है। तुम सदा हारते हो। सौ में निन्न्यानबे मौके पर तो तुम हारते हो। इस हार से कुछ सीखो। इससे एक बात सीखो कि मेरी मर्जी पूरी नहीं हो सकती। जिस आदमी को यह दिखायी पड़ गया कि मेरी मर्ज़ी पूरी नहीं हो सकती, उस आदमी को दूसरी चीज दिखायी पड़ने में ज्यादा देर नहीं लगती कि परमात्मा की मर्जी ही पूरी होती है। तो मैं उसकी मर्जी के साथ एक हो जाऊँ। तो वह जो करे वह ठीक। मेरा उससे कुछ विरोध न रहे। मेरा सहयोग संग हो जाए। अगर ठीक से समझो तो इसी का नाम सत्संग है। परमात्मा की मर्जी के साथ एक हो जाना। कह देना कि तू कर। मैं तेरे हाथ की बाँसुरी हूँ, तू बजा, तू गा। तेरा गीत मुझसे बहे, मैं बाधा न बनूँ, बस इतना काफी है। फिर जीवन में कोई असफलता नहीं है, फिर कोई विफलता नहीं है। फिर कैसी विफलता! फिर जो होता है वही सफलता है। फिर तो बीच मझधार में भी जाओ तो वही किनारा है। उसकी जो मर्जी! जिस आदमी ने. अपनी मर्जी छोड़ दी, वही आदमी धार्मिक है। और जिसने अपनी मर्जी छोड़ दी, वही परमात्मा के साथ है।

राम बिन सावन सहचो न जाइ।

और जिसको यह बात समझ में आ गयी, उसे एक बात दिखायी पड़ेगी कि सारा अस्तित्व कितनी मस्ती और कितने आनंद से भरा है! सावन सदा ही आया हुआ है। सावन ही—सावन है। यह प्रकृति सदा उत्सव में लीन है। यहाँ महोत्सव अखंड चल रहा है। एक क्षण को विराम नहीं है। यह महोत्सव की तरंगें उठती ही जाती हैं। यह लहरें सदा टकराती रहती हैं। यह नृत्य चलता ही रहता है चाँद— तारों का। यह चारों तरफ जो विराट उत्सव चल रहा है, यही सावन है। जिसको यह बात दिखायी पड़ गयी, उसको एक बात दिखायी पड़ेगी कि परमात्मा के बिना इतना सौंदर्य कैसे सहूँ! परमात्मा के बिना इतना रस कैसे सहूँ! परमात्मा के बिना इतना उत्सव उन्माद ले आएगा, मैं पागल हो जाऊँगा। मैं सह न पाऊँगा, असह्य हो जाएगा।

ध्यान रखना, दुख ही असह्य नहीं हौते, सुख भी असह्य हो जाते हैं। और अगर तुमने असह्य होने की प्रक्रिया के भीतर झाँका हो तो तुम बहुत हैरान होओगे। वैज्ञानिक कहते हैं कि असह्य दुख ऐसा शब्द बनाना ठीक नहीं, क्योंकि कोई दुख असह्य नहीं हो पाता। असह्य होने के पहले ही आदमी बेहोश हो जाता है। यह दुख को अंतरंग व्यवस्था है। जब तक सह सकता है तभी तक होश रहता है। जैसे ही सहने के बाहर होने लगता है दुख, आदमी बेहोश हो जाता है। यह प्रकृति कोई अंतरंग व्यवस्था है तुम्हें दुख से बचाने की। तो असह्य दुख होता ही नहीं। कहते हैं हम, लेकिन असह्य दुख होता नहीं। जब असह्य होता है तो बेहोश हो जाते हैं। उसका पता ही नहीं चलता। इसीलिए तो सिर मे चोट लगती है, बेहोश हो गये। पीड़ा भयंकर है, प्रकृति तुम्हें बचा लेती है बेहोश करके। पीड़ा नहीं सहने देती। दुख तो असह्य होता ही नहीं। लेकिन सुख हो सकता है असह्य। क्योंकि सुख को सहने के लिये प्रकृति की तरफ से बचाव की कोई व्यवस्था नहीं है। सुख ऊँचाइयों—सें—ऊँचाइयों पर जा सकता है। ऐसी ऊँचाइयों पर, जहाँ तुम बिखरने लगो, जहाँ तुम टूटने लगो, जहाँ तुम टुकड़े—टुकड़े होने लगो, जहाँ तुम अपने को सम्हाल न सको, जहाँ नृत्य ऐसा हो जाए कि तुम खंड—खंड हो जाओगे। और अगर जीवन के उत्सव को देखोगे तो ऐसा ही रस तुम में पैदा होगा। परमात्मा के बिना उसे सहा नहीं जा सकता। इतना बड़ा सागर सम्हालना हो अपने भीतर, तो पात्र भी इतना ही बड़ा होना चाहिए। यह पात्र उसीका हो सकता है। यह पात्रता अपनी नहीं हो सकती।

राम बिन सावन सह्यो न जाइ।

राम के बिना यह जीवन का महोत्सव सहा नहीं जाता। शायद इसीलिए लोग जीवन के उत्सव को देखते भी नहीं। वे जीवन में दुख ही तलाशते रहते हैं, शिकायतें ही खोजते रहते हैं, काँटे बीनते रहते हैं, अँधेरी रातों की गिनती करते रहते हैं। उससे व्यवस्था ठीक बनी रहती है। उगर जीवन का सुख तुम देखोगे, तो अकेले कैसे सहोगे? सुख बाँटना पड़ता है।

तुमने कभी सुख की यह महत्ता समझी? दुख आदमी अकेले सहना चाहता है, सुख बाँटना चाहता है। जब कोई दुखी होता है, द्वार—दरवाजे बंद करके अपने कमरे में छिप जाता है, कहता है——न मुझे कोई छेड़ो, न मुझे कुछ कहो, न मुझे बाहर ले जाओ, मुझे मुझमें डूब जाने दो, मैं दुखी हुँ_। दुखी आदमी कभी—कभी शराब पीलेता है, सिर्फ इसीलिए ताकि सबसे संबंध टूट जाएँ। और दुखी आदमी कभी—कभी आत्यंतिक घड़ियों में आत्मघात कर लेता है। वह इसीलिए कि न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। मैं ही नहीं होऊँगा, तो फिर किससे संबंध, किससे नाता?

लेकिन जब सुख पैदा होता है, तो आदमी बाँटना चाहता है। महावीर जब दुखी थे, जंगल चले गये। जैन—शास्त्रों में उसकी बड़ी—बड़ी कहानियाँ हैं। लेकिन वह असली कहानी नहीं है, वह महावीर का असली राज नहीं है, असली राज तो तब है जब महावीर आनंदित हुए—तब क्या हुआ? तब वे जंगल से वापिस बस्ती लौट आए। अब बाँटना है। अकेले जंगल में क्या करोगे? हमने सद्पुरुषों की जो कहानियाँ लिखी हैं, वे भी अधूरी हैं। उसमें हमने यह तो खूब चर्चा किया है कि वह कैसे छोड्कर चले गये——बड़े—बड़े महल, सोने के महल, बडे राज्य, हाथी—घोड़े, उनकी बड़ी संख्या, बड़ा धन, बड़ी दौलत कैसे छोड्कर चले गये उसका हमने बड़ा रसपूर्ण विवेचन और वर्णन किया है, लेकिन दूसरी बात हम नहीं कहते कि वह वापिस क्यों लौट आए? एक दिन सब वापिस लौटे। बुद्ध भी छ साल के बाद वापिस आ गये, महावीर बारह साल के बाद वापिस आ गये——एक दिन सभी वापिस आ गये। अब क्या हुआ था? जब चले ही गये थे तो चले ही जाना था। अब इसी दुनिया में वापिस क्या आना था? लेकिन आना पड़ा। जब आनंद फला तो बाँटना पड़ेगा। आनंद को सँभाला नहीं जा सकता। और आनंद बाँटने के लिए सबसे ज्यादा योग्य पात्र कौन हो सकता है?

परमात्मा सामने हो तो भक्त नाच ले मन भर कर। फिर बाँध ले घूँघर पैरों में। फिर नाच ले। फिर चिंता न हो। फिर उस विराट में अपने सारे नृत्य को डुबा दे। नहीं तो सावन बड़ा भारी होने लगता है। तुमने अगर साधारण जीवन में प्रेम किया है, तो भी सावन भारी होने लगता है। उसीको प्रतीक मान कर रज्जब ने यह गीत लिखा है। प्रेयसी और मौसम गुजार लेती है, प्रतीक्षा कर लेती है, लेकिन जब सावन आ जाता है और आकाश में बादल घिरने लगते हैं और भूखी—प्यासी धरती के तृप्त होने का क्षण करीब आने लगता है, वृक्षों पर नये पत्ते आ जाते हैं, नयी रिमझिम शुरू होती है, मोर नाचने लगते हैं, पपीहे गीत गाने लगते हैं, कोयल पुकारने लगती है, सब तरफ उत्सव होने लगता है, फूल खिलने लगते हैं, तब असहय हो जाता है। राम बिन सावन सह्यो न जाइ।

साधारण प्रेम में भी प्रीतम के बिना सावन को सहना मुश्किल हो जाता है। दुर्दिन तो गुजर जाते हैं, सुदिन नहीं गुजरते। दुख तो बिता लेता है आदमी अकेले भी—— सच तो यह है, अगर तुमने किसीको प्रेम किया है, तो उससे तुम दुख की बात करना ही न चाहोगे। तुम चाहोगे कि दुख की क्या बात करनी? दुख अकेले सह लोगे। दुख चुपचाप घूँट की तरह पी लोगे। लेकिन जब सुख उमगेगा, तब तुम उसके गले में हाथ डालना चाहोगे, हाथ में हाथ लेकर नाचना चाहोगे।

जो साधारण प्रेम की प्रक्रिया है, वही प्रार्थना की भी है। उन दौनों में जो अंतर है, वह परिमाण का अंतर है। लेकिन गुण का अंतर नहीं है——गुणात्मक कोई भेद नहीं है। परिमाणात्मक भेद जरूर है। अनत—अनत गुना बड़ा है प्रार्थना का आनंद। लेकिन है वह प्रेम की ही बूँद जो सागर हो गयी है। राम बिन सावन सह्यो न जाइ।

अफसानए—निगाहे—मुहब्बत न पूछिए

कहते हें किसको हस्रे मसर्रत न पूछिए

वह मस्त—मस्त रात वह बाद: बदस्त रात

उस मस्त—मस्त रात की कीमत न पूछिए

होती है इक दिल में खलिशे—बेकरार—सी

वल्लाह उस नजर की शरारत न पूछिए

आलम तमाम आँसुओं का एक शैल था

मुझसे फसानए—शबे—फुर्कत न पूछिए

रातों को कर रही हूँ सितारों से गुपतगू

मुझसे मेरे जुनूँ की हिकायत न पूछिए

क्या हो गया है आपकी नज्म: को क्या कहूँ

हालत न पूछिए, मेरी हालत न पूछिए

प्रेम दीवाना कर जाता है। और सावन द्वार पर दस्तक दे, तो प्रेम में फिर ऐसी बाढ़ आती ड्रै! उसी बाढ़ की चर्चा है। और फिर यह प्रेम भी परमात्मा का प्रेम! यह कोई छोटे—मोटे प्रेमी का प्रेम नहीं, जो आज है कल नहीं हो जाएगा, ऐसा प्रेम जो सदा के लिए है, आता है तो जाता नहीं, जो शाश्वत है, जो समय की परिधियाँ नहीं मानता, जो आकाश से विराटतर है। भक्त का भाव समझो, भक्त के भीतर की दीवानगी समझो—

काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।

भीतर—भीतर आग जल रही है, बाहर सावन आ गया है, और प्रियतम का कोई पता नहीं। घटायें घिर गयीं——सुंदर घटायें, प्यारी घटायें——लेकिन प्रियतम के बिना ये प्यारी घटायें, ये सुंदर घटायें कैसे प्यारी लगें, कैसे सुंदर लगें?

ख्याल करो, हमें प्रकृति में वही दिखायी पड़ता है जो हमारे भीतर घटता है। तुम्हारा प्यारा घर आया है, तो अमावस की रात भी पूर्णिमा हो जाती है। और तुम्हारा प्यारा घर नहीं आया, तो पूर्णिमा की रात भी तो अमावस ही रहती है। प्रियतम आ गया है तो चाँद नाचता हुआ मालूम पड़ता है आकाश में। तुम्हारा हृदय नाच रहा है। चाँद पर तुम्हारे हृदय का नाच प्रतिबिंबित होने लगता है। तुम्हारा प्यारा जा रहा है, चाँद अब भी वैसा—का—वैसा है, लेकिन तुम्हारा हृदय रो रहा है, देखो चाँद की तरफ और आंसू टपकते मालूम पड़ते हैं चाँद से। हमें जो बाहर दिखायी पड़ता है, वह भीतर का प्रतिफलन है। जो हमारे भीतर होता है, वही हमें बाहर के पर्दे पर दिखायी देता है। तो जो तुम्हें बाहर दिखायी पड़े, उससे अपने भीतर का इशारा लेना। जो तुम्हें बाहर दिखायी पड़े, उससे समझ लेना कि तुम्हारे भीतर क्या है? दर्पण के सामने खड़े हो न, जो चेहरा दर्पण में दिखायी पड़ता है वह दर्पण में नहीं है, वह तुम्हारा चेहरा है। ऐसे ही हम प्रति क्षण प्रकृति के दर्पण के सामने खड़े है। वहाँ जो भी दिखायी पड़ता है, वह अपना ही चेहरा है। उससे अपने ही चेहरे की पहचान लेनी है।

‘काली घटा काल होइ आई’। यह मस्त काली घटा, यह जो नाचती हुई घटा चली आ रही है, यह ऐसे लगती है जैसे मौत आ रही है। ‘कामनि दगधै माइ’। और भीतर—भीतर मिलन की आतुरता। छूक हो जाने की आतुरता काम है।

काम का अर्थ समझो।

काम का अर्थ है——दो में पीड़ा है, एक में रस है। एक हो जाने में आनंद है। साधारण स्त्री—पुरुष भी जब प्रेम में गहन भर जाते हैं, तो एक हो जाना चाहते हैं, जुड़ जाना चाहते हैं। और वही तो प्रेम का दुर्भाग्य है कि एक नहीं हो पाते। इसलिए सभी प्रेम असफल होते हैं। क्योंकि प्रेम की आकांक्षा यही है कि एक हो जाएँ और एक होना संभव नहीं है। दो देहें कैसे एक हो सकती हैं? क्षण भर को शायद हो भी जाएँ, मगर फिर क्षण भर के बाद गहन अँधेरे गर्त, गहराई में गिर जाना पड़ता है। फिर अँधेरी खाई में भटक जाना पड़ता है। और भी पीड़ा होने लगती है। वह जो क्षण भर का मिलन हुआ था, उससे विरह और घना हो जाता है। उसके संदर्भ में विरह और भी प्रगाढ़ हो जाता है। संसार में प्रेम की आकांक्षा है कि एक हो जाएँ और यह आकांक्षा पूरी नहीं होती, यह आकांक्षा तो सिर्फ परमात्मा के साथ पूरी हो सकती है। वह जो तुम्हारे भीतर काम का प्रबल वेग है, वह राम के साथ ही पूरा हो सकता है और कोई उपाय नहीं। क्योंकि उसके साथ देह का मिलन नहीं है, आत्मा का मिलन है। वहाँ सीमाएँ सदा के लिए खो सकती हैं। वहाँ हम डुबकी मार सकते हैं। कभी लौटने की फिर जरूरत नहीं है।

काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।

कनक—अवास—वास सब फीके..

सोने का महल फीका पड़ गया। सुंदर वस्त्र फीके पड़ गये।

कनक—अवास—वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।

और जब प्यारे का प्रसंग न हो साथ, प्यारे का संदर्भ न हो साथ, सब फीका पड़ जाता है। जीवन के बड़े—से—बड़े सुख प्रेम के प्रसंग में घटते हैं। तुम अपने जीवन में भी थोड़ा अवलोकन करना। तुम्हारे जीवन के जो बड़े—सें—बड़े सुख के क्षण आए हैं, वे अकेले में नहीं आए हैं, वे प्रेम के प्रसंग में आए हैं। जो तुम्हारे जीवन में कभी क्षण भर को झरोखा खुला है और अनंत की झलक मिली है, वह अकेले में नहीं मिली है, वह प्रेम के प्रसंग में मिली है। जहाँ भी प्रेम फलित हुआ है, जहाँ भी प्रेम पका है, वहीं जीवन को देखने का एक नया प्रसंग, एक नया संदर्भ मिल जाता है। शब्दों में अर्थ नहीं होते——इसे ऐसा समझो——और न धटनाओ में अर्थ होते हैं। किसी शब्द में कोई अर्थ नहीं होता। अर्थ तो वाक्य में होता है। जब उस शब्द को तुम वाक्य के भीतर रखते हो, उसमें अर्थ आ जाता है। दूसरे वाक्य में उसी शब्द का दूसरा अर्थ हो जाएगा। तीसरे वाक्य में तीसरा अर्थ हो जाएगा। फिर वाक्य का भी अपने में अर्थ नहीं होता है, पूरे पृष्ठ के संदर्भ में अर्थ होता है। पृष्ठ का पूरी प्रुस्तक के संदर्भ में अर्थ होता है। अगर तुम इस बात को ठीक तरह से समझोगे तो इकहरी—इकहरी घटनाओं में कोई अर्थ नहीं होता, घटनाओं के प्रसंग और संदर्भ में अर्थ होता है। और जितना बड़ा संदर्भ हो, उतना ही अर्थ बड़ा होता जाता है।

बड़े—सें—बड़ा अर्थ घटता है परमात्मा के प्रेम के प्रसंग में। क्योंकि वह बडा—से—बडा संदर्भ है। उससे बड़ा फिर कोई संदर्भ नहीं। वह महाकाव्य है। उसके साथ जुड़कर क्षुद्र से शब्द स्वर्ण के हो जाते हैं। उसके साथ जुड़कर कंकड़—पत्थर हीरे—मोती हो जाते हैं।

‘कनक—अवास—वास सब फीके’। सब है, लेकिन सब फीका है। यही तो आज की दुनिया का सबसे बड़ा विचारणीय प्रश्न है। मनुष्य इतना समृद्ध कभी भी नहीं था जितना आज है, विज्ञान ने मनुष्य को बड़ी समृद्धि दी है, बड़ी सुविधा दी है। सब है, चाँद पर जाने की क्षमता है, मगर परमात्मा से संदर्भ छूट गया है। इसीलिए सब होते भी आदमी बिलकुल फीका है। बिलकुल कोरा है, खाली है, रिक्त है। बाहर धन का ढेर लग गया है, स्वर्ण के महल निर्मित हो गये हैं——और भीतर? भीतर बड़ी कंगाली है। भीतर आदमी बिलकुल भिखारी है। यह आज के मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है कि क्या हो गया, क्यों ऐसा हुआ? भीतर आदमी को अर्थहीनता क्यों मालूम होती है?

दुनिया के बड़े—सें—बड़े विचारक जिस प्रश्न पर सर्वाधिक चिंतातुर हैं, वह प्रश्न है——अर्थवत्ता का। आदमी की अर्थवत्ता क्यों खो गयी है? लोग क्यों पूछ रहे हैं कि जीवन का अर्थ क्या है? जीवन में कोई अर्थ है भी नहीं, हो भी नहीं सकता। अर्थ तो किसी संदर्भ में होता है। परमात्मा के संदर्भ में अर्थ था, वह संदर्भ खो गया है। ऐसा ही समझो कि तुम्हें किसी किताब का एक पन्ना हवा में उड़ता हुआ मिल जाए, तुम उसे पढ़ जाओ, कुछ अर्थ समझ में न आएगा। अर्थ तो पूरी किताब में था। या तुम्हें कविता की एक पंक्ति मिल जाए और अर्थ समझ में न आए। अर्थ तो पूरी कविता में था। या तुम्हें एक शब्द मिल जाए और अर्थ समझ में न आए। ऐसी ही हालत आदमी की हो गयी है, आदमी संदर्भ से टूट गया है। उसकी जडें आज परमात्मा के साथ जुड़ी हुई मालूम नहीं होतीं। अकेला खड़ा है, पृष्ठभूमि खो गयी है, समझ में नहीं आता मैं कौन हूँ। कनक—अवास—वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।

 

मैं तलूए—सुबहे—नौसे अभी मुतमइन नहीं हूँ

तेरा हुस्न भी तो होता किसी खुशनुमा किरन में

सरेबाम पुकारा, लबे—दार भी सदा दी

मैं कहाँ—कहाँ न पहुँचा तेरी दीद की लगन में

में लिये—लिये फिरा हूँ गमे—जिंदगी की लाश

कभी अपनी खिलवतों में, कभी तेरा अंजुमन में

तेरे गम में बह गया है मेरा एक—एक आँसू

नहीं अब कोई सितारा जो चमक सके गगन में

एक बार उसकी जरा—सी झलक मिल जाए कि सारे सितारे फीके हो जाते हैं। फिर कोई सितारा नहीं चमक सकता। फिर कोई धन धन नहीं। ध्यान की भनक पड़ जाए कि फिर कोई धन धन नहीं। प्रार्थना की जरा—सी सुगबुगाहट भीतर हो जाए, फिर कोई प्रेम प्रेम नहीं। परमात्मा है, ऐसा आभास होने लगे कि फिर इस जीवन में जो भी अर्थ’ थे वे सब बदल गये। फिर एक नये अर्थ की यात्रा शुरू हुई। तीर्थयात्रा शुरू हुई। अब तुम ठीक—ठीक संदर्भ में आने शुरू हुए। अब तुम्हें अपनी जड़ें मिलीं।

महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह—भुअंग।।

बड़ी विपत्ति है, बड़ी बेहाली है, उसके बिना——प्यारे के बिना। महाबिपत बेहाल लाल बिन लागै बिरह—भुअंग। और विरह ने ऐसे पकड़ा है, जैसे भुजग ने पकड़ लिया हो। जैसे किसी भयंकर सर्प की लपेट में पड़ गये हों। कोई भयंकर सर्प कुंडली मार कर चारों तरफ बैठ गया हो, ऐसा उसके विरह ने पकड़ा है। आज ऐसा विरह किसीको पकड़ता नहीं। दुर्भाग्य है। क्योंकि जितना बड़ा विरह तुम्हें पकड़े, उतने ही बड़े मिलन की आशा है। विरह ही हमारे छोटे—छोटे हैं! तो मिलन भी हमारे छोटे—छोटे हैं। विरह और मिलन में अनुपात होता है। जब कोई परमात्मा के विरह से तडूफता है, तो उसके तडुफने में भी एक सौंदर्य है। और एक आदमी धन के लिए तडूफ रहा है, उसके तडुफने में एक कुरूपता है। एक आदमी पद के लिए तडुफ रहा है, उसकी तडूफ अमानवीय है, जंगली है। उसकी तडूफ में संस्कृति नहीं है। उसकी तडुफ में मनुष्य के ऊँचे मूल्यों का कोई स्थान नहीं है।

तडुफो तो किसी बड़ी बात के लिए तड़फो। जब तडुफ ही रहे हो तो क्षुद्र के लिए क्या तडूफना! जब खोजने ही चले हो, तो परमधन को खोजो। और जब यात्रा ही शुरू की है तो परमपद की करना।

सूनी सेज बिथा कहूँ कासूँ, अबला धरै न धीर।

रज्जब कहते हैं, सेज सूनी है। सजी है और सूनी है। सावन द्वार पर खड़ा है और सब सूना पै। ‘ सूनी सेज बिथा कहूँ कासूँ ‘। और यह मेरी व्यथा ऐसी है कि किससे कहूँ? इसे तो जाननेवाले ही समझेंगे। धन्यभागी हैं वे जिनके जीवन में ऐसी व्यथा है कि जिसको कहने के लिए भी पात्र खोजना’ पड़े! धन्यभागी हैं वे जिनकी व्यथा को साधारणत: कहा न जा सके। उसका अर्थ हुआ कि परम की व्यथा उनके भीतर पैदा हुई है।

परेशां रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ

सकूने—मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ

हँसो और हँसते—हँसते डूबते जाओ खलाओं में

हमें यह रात भारी है, सितारो तुम तो सो जाओ

हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा

यही किस्मत हमारी है, सितारो तुम तो सो जाओ

तुम्हें क्या? आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया

यह बाजी हमने हारी है, सितारो तुम तो सो जाओ

कहे जाते हो रो—रो कर हमारा हाल दुनिया से

यह कैसी राजदारी हे सितारो तुम तो सो जाओ

हमें भी नींद आ जाएगी, हम भी सो ही जाएँगे

अभी कुछ बेकरारी है, सितारो तुम तो सो जाओ

शायद सितारे समझें, आदमी तो नहीं समझेगा। आदमी तो ऐसा नासमझ हो गया है, ऐसा पत्थर हो गया है, ऐसा पाषाण हो गया है! किससे कहें?

सूनी सेज बिथा कहूँ कासूँ, अबला धरै न धीर।

कोई धीरज नहीं है। एक भयंकर अशांति का जन्म हुआ है।

जीसस का एक वचन तुम्हें याद दिलाता हूँ——

किसीने जीसस से पूछा है कि क्या आप वही हैं जिसके संबंध में शास्त्र कहते हैं कि उसके आगमन पर दुनिया में शांति हो जाएगी? जीसस ने उस आदमी को गौर से देखा और कहा, मैं शांति लेकर नहीं, तलवार लेकर आया हूँ। मैं तुम्हें अशांत करने आया हूँ। ईसाई विचारक दो हजार साल से इस वचन पर चिंतन करते रहे। यह वचन जीसस ने न कहा होता तो अच्छा था। क्योंकि जीसस तो शांति के दूत हैं और यह वचन कि मैं शांति लेकर नहीं तलवार लेकर आया हूँ, मैं तुम्हें अशांत करने आया हूँ। लेकिन यह वचन सार्थक है। और जीसस ने कहा तो ठीक ही किया। मैं इसके साथ पूरी तरह सहमत हूँ। इस दुनिया में जो भी भगवान का प्यारा है, वह तुम्हें अशांत ही करेगा। तुम वैसे शांत हो——शांत मतलब चल रहे हो; सब ठीक—ठाक है। दूकान कर रहे, बजार कर रहे, बच्चे पैदा कर रहे, सो रहे, उठ रहे, कमा रहे, जीत रहे, हार रहे, जिंदगी बीत रही है, सब ठीक—ठाक है——अगर तुम किसी परमात्मा के प्यारे के निकट पड़ गये तो यह सब ठीक—ठाक एक क्षण में बिखर जाएगा। क्योंकि पहली दफे तुम्हें दिखायी पड़ेगा तुमने जिंदगी यूँ ही गँवायी, कूड़ा— करकट बीनने में गँवायी। गहरी अशांति पैदा होगी। बड़ी बेचैनी पैदा होगी। बड़ा अधैर्य पैदा होगा। एक आध्यात्मिक असंतोष पैदा होगा।

एक असंतोष है सांसारिक वस्तुओं के लिए। वह असंतोष अधार्मिक आदमी का लक्षण है। एक असंतोष है परमात्मा को पाने के लिए। वह असंतोष धार्मिक आदमी का लक्षण है। जो बाहर की चीजों से असंतुष्ट हैं, वे बाहर दौड़ते रहते हैं। जो भीतर की आकांक्षा से भर जाते हैं, भीतर के अनुभव के लिए लालायित हो जाते हैं, जिन्हें भीतर का असंतोष पकड़ लेता है——’ डिवाइन डिसकॅन्टेन्ट ‘——जिन्हें एक दिव्य असंतुष्टि पकड़ लेती है, वे भीतर की खोज पर निकल जाते हैं।

बाहर से संतुष्ट हो जाओ और भीतर असंतुष्ट हो जाओ! अभी हालत तुम्हारी उलटी है——भीतर से बिल्कुल संतुष्ट हो, बाहर बड़े असंतुष्ट हो। कहते हैं——यह मकान छोटा है, यह दूकान छोटी है, थोड़ी बड़ी कर लें; यह धन का ढेर छोटा है, थोड़ा बड़ा कर लें, यह पद भी कोई पद है, थोड़ा बड़ा पद खोज लें; अभी थोड़ी शक्ति है, लगा लें, अभी थोड़ा मौका है, अवसर है। बाहर से तुम असंतुष्ट हो और भीतर तुम देखते भी नहीं कि भीतर कुछ भी नहीं है, तुम बिलकुल खाली हो, वहाँ अँधेरा है। वहाँ दीया भी नहीं जला कभी। और बाहर दीवाली मना रहे हो! और भीतर दिवाला है।

थोड़ा भीतर भी देखो। ये बाहर के दीये बहुत दूर तक काम न आएँगे, जलेंगे और बुझ जाएँगे। इनसे कोई रौशनी न कभी किसीको मिली है, न मिल सकती है। मौत आएगी और उसका एक झोंका इन सबको मिटा जाएगा। कुछ ऐसा दीया जला लो जिसे मौत न बुझा सके।

सूनी सेज बिथा कहूँ कासूँ, अबला धरै न धीर।

भक्त बड़ा बेचैन हो जाता है। इस बेचैनी के बाद ही चैन है। जितनी बड़ी बेचैनी उतना ही बड़ा चैन है। यह बेचैनी कीमत है जो चुकानी पड़ती है उस चैन के लिए। भक्त बड़ा दुखी हो जाता है। तुम क्या खाक दुखी हो! तुम्हारा दुख भी छोटा है, क्षुद्र शै। भक्त बड़ा दुखी हो जाता है। भक्त की छाती में तो घाव—ही—घाव रह जाते हैं। उसकी आँखों में आंसू—ही—आंसू रह जाते हैं। रुदन के सिवा उसे कुछ नहीं सूझता। उसे चारों तरफ अँधेरा दिखायी पड़ता है और भीतर रिक्तता दिखायी पड़ती है। और एक बात कोई भीतर गहरे में कहे चला जाता है कि चाहो तो सब बदल सकता है, सावन द्वार पर खड़ा है, प्यारे से मिलना भी हो सकता है!

तुम उस पीड़ा को थोड़ा सोचो, बिचारो! जब सब हो सकता है और कुछ भी होता नहीं मालूम होता। घड़ियाँ बीतती जाती हैं प्रतीक्षा की और उसकी पगध्वनि सुनायी नहीं पड़ती। भक्त न—मालूम कितनी भावदशाओं से ऐसी अवस्था में गुजरता

 

जी में हसरत है सुनाएँ उन्हें अफसानए—गम

कभी मौका मिले सब कुछ कहें उनकी ही कसम

लेकिन आते नहीं सुनते नहीं रूदादे—अलम

कितने मजबूर हैं बतलाएँ यह है कैसा सितम

इस पै तुर्रा है कि उल्फत का भी इकरार करो

हम को पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो

ऐसे बेरहम हैं इंसाफ का भी पास नहीं

महर की जर्रा बराबर भी तो बू—बास नहीं

ऐसी बेमेहरी पै भी दिल कि मेरे पास नहीं

अब भी आ जाएँ कि जीने की कोई आस नहीं

और खुद आके कहें इश्क का इजहार करो

हमको पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो

 

आवाज सुनायी पड़ती है——हमको पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो, मगर कहाँ से आवाज आती है, स्रोत का पता नहीं चलता। कोई पुकार आती है बहुत दूर से, या बहुत गहरे से, या बहुत भीतर से, मगर पता नहीं चलता। कौन पुकार दे रहा है, दिखायी नहीं पड़ता। और पुकार सघन होती चली जाती है। और पुकार की सघनता के साथ—साथ भक्त की पीड़ा सघन होती चली जाती है। एक आग जलने लगती है, एक विरह की अग्नि में भक्त जलता है। यही असली यज्ञ है।

बद करो तुम्हारे यज्ञ जो तुम बाहर कर रहे हो। व्यर्थ न जलाओ उनमें गेहूँ और घी, व्यर्थ न बहाओ इन चीजों को। जलाना हो, अपने अहंकार को अपने भीतर परमात्मा की विरह की आग में जलाओ। मिटाना है, अपने को वहाँ मिटाओ। वहीं बने वेदी हवन की। सच्चा यज्ञ वहीं है, जीवनयज्ञ वहीं है। और जिस दिन तुम बिल्कुल राख हो जाओगे, बिल्कुल राख, उसी क्षण मिलन हो जाता है। तुम मिटे कि मिलन हुआ। तुम्हारे मिटने में ही मिलन है।

शबे—इंतजार की कश—म—कश में न पूछ कैसे सहर हुई

कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया

विरह की रात लंबी होती है। कैसे सुबह होती है, बड़ा मुश्किल है कहता।

शबे इंतजार की कश—म—कश में न पूछ कसे सहर हुई

जिनकी हो गयी सुबह, वे भी नहीं बता पाते कि कैसे हो गयी है। बड़ी लंबी थी यात्रा, बड़ी लंबी थी रात, ‘ कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया, ‘ किसी तरह कुछ करते रहे। प्रार्थना की, पूजा की, मंत्र किये, जाप किये, वह सब बस ऐसा ही था—कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया। मगर उस सबके पीछे एक विरह था, वही असली बात है। उस सबके पीछे एक तलाश थी, टटोलना था, वही असली बात है। खोज थी। क्या तुमने खोजने के लिया किया, उसका मूल्य नहीं है बहुत, बस खोज की भीतर, इसीका मूल्य है। परमात्मा तुम क्या करते हो यह नहीं देखता, तुम क्या चाहते हो, यही देखता है। तुम्हारी अभीप्साएँ जाँची जाती हैं, तुम्हारी आकांक्षाएँ पहचानी जाती हैं। तुम्हारे अंतर्भाव पढ़े जाते हैं।

सूनी सेज बिथा कहूँ कासूँ, अबला धरै न धीर।

दादुर मोर पपीहा बोलैं ते मारत तन तीर।।

और सबके प्रेमी उन्हें मिले जा रहे हैं, भक्त का प्रेमी उसे कब मिलेगा? सावन आ गया। दूल्हनें सज गयीं, दूल्हे सज गये, जिनकी प्रतीक्षा थी वे प्यारे आने लगे, प्रेयसियों को मिलने लगे, सावन आ गया, ‘दादुर मोर पपीहा बोलैं ते मारत तनतीर,’ पशु—पक्षी भी अपने प्रियतमों को मिलने लगे, सब तरफ मिलन की घड़ी आ गयी— सावन यानी मिलन की घड़ी——प्यार सबका पकने लगा, और भक्त के भगवान का कोई पता नहीं। वहाँ बस अभी भी अँधेरी रात है। वहाँ अभी भी बस रेगिस्तान है। वहाँ अभी बस विरह का ही स्वाद है।

सिसकियाँ लेती हुई गमगीन हवाओं चुप रहो

अपनी हालत पर न फूलों को हँसाओ चुप रहो

सुबह से पहले न बोलो हमनवाओ चुप रहो

सो रहे हैं दर्द उनको मत जगाओ चुप रहो

बंद हैं सब मैकदे साकी बने हैं महतसिब

ऐ गरजती गूँजती काली घटाओ चुप रहो

धड़कनें काफी हैं, इजहारे—तमन्ना के लिए

अपने ओठों से कभी आगे न आओ चुप रहो

तुमको है मालूम आखिर कौन—सा मौसम है यह

फसले—गुल आने तलक ऐ खुशनवाओ चुप रहो

सोच की दीवार से लगकर हैं गम बैठे हुए

दिल में भी नामा न कोई गुनगुनाओ चुप रहो

बुझ गये हालात के शोले तो देखा जाएगा

वक्त से पहले अँधेरे में न जाओ चुप रहो

देख लेना घर से निकलेगा न हमसाया कोई

ऐ मेरे यारो मेरे दर्द—आश्नाओ चुप रहो

क्यों शरीकेगम बनाते हो किसीको ऐ ‘कतील’।

अपनी सूली अपने काँधे पर उठाये चुप रहो

‘अपनी सूली अपने काँधे पर उठाये चुप रहो’। यह भक्त की जीवन—व्यथा है। ‘ क्यों शरीके—गम बनाते हो किसीको ऐं ‘कतील ‘! ‘ दुख कहो भी तो किससे कहो? कहने का सार भी क्या है! समझेगा कौन? लोग हँसेंगे ज्यादा—से—ज्यादा। समझेंगे पागल हो तुम।

क्यों शरीके—गम बनाते हो किसीको ऐ ‘ कतील ‘!

अपनी सूली अपने काँधे पर उठाये चुप रहो

भक्त को चुपचाप सहना पड़ता है, चुपचाप रोना पड़ता है। मैं उन भक्तों की बात नहीं कर रहा हूँ जो अखंड पाठ करवा देते हैं। उन्हें तो भक्ति का कुछ पता ही नहीं है। चौबीस घंटे शोरगुल मचवा देते हैं। मोहल्ले—पड़ोस के लोगों की नींद खराब करवा देते हैं। भक्ति का तो. बड़ा चुपचाप निवेदन है। रात के अँधेरे में, एकांत में। किससे कहना है अपना गम, कौन समझेगा यहाँ? लोग आँसू देखेंगे, हँसेंगे। चुपचाप रो लेना, चुपचाप पुकार लेना। यह बात भीतर की भीतर रहे। यह किसी को पता भी चलाने की बात नहीं, क्योंकि आदमी बड़ा चालबाज है। कभी—कभी तो लोगों को पता चले इसीलिए आयोजन करने लगता है। यह सब आयोजन झूठे हो जाते हैं। बस परमात्मा को पता चले इतना काफी है। तुम दूसरों को पता चलवाने की कोशीश मत करना।

तुमने देखा है, अगर कोई मंदिर में पूजा कर रहा हो, दो—चार—दस आदमी इकट्ठे हो जाएँ, उसकी पूजा बड़े जोर—शोर से होने लगती है। उसके हाथ की आरती और जोर—शोर से उतरने लगती है। अगर फोटोग्राफर भी आ जाए, अखबारनवीस भी आ जाएँ, फिर तो कहना क्या! वह ऐसा मस्त हो जाता है कि कबीरदास जी क्या हुए होंगे! कि बाबा नानक सिर ठोंक लेते कि हम भी पीछे पड़ गये! कि मीरा भी सोचती कि अब यहाँ नाचना ठीक है कि नहीं! लेकिन जब देखता है कोई भी नहीं है देखने वाला, तो जल्दी से घंटी—वटी बजाकर, पानी इत्यादि छिड़क कर भाग खड़ा होता है। भगवान से तो कुछ लेना—देना नहीं है। तुम्हारे पूजा—पाठ भी तुम्हारे अहंकार की घोषणाएँ बन जाते है।

क्यों शरीकेगम बनाते हो किसीको ऐ ‘कतील ‘!

अपनी सूली अपने काँधे पर उठाये चुप रहो

 

सकल सिंगार भार ज्यूँ लागैं, मन भावै कछु नाहीं।

रज्जब कहते हैं—सारा शृंगार किये बैठा हूँ। क्या शृंगार है भक्त का? अपने पात्र को माँजा है, शुद्ध किया है, अपने भीतर के विषाक्त भावों से मुक्ति पायी है ——क्रोध छोड़ा है, मोह छोड़ा है, लोभ छोड़ा है, आसक्तियाँ छोड़ी हैं, ईर्ष्याएँ— वैमनस्य छोड़े हैं, द्वैत छोड़ा है, द्वंद्व छोड़ा है, तर्क छोड़ा है, संदेह छोड़े है—सब तरफ से अपने को सजाया है। क्या है शृंगार भक्त का? श्रद्धा है शृंगार। ‘सकल म्प्रंगार भार ज्यूँ लागैं ‘। लेकिन जब तक प्यारा न मिल जाए तब तक सब शृंगार भार है। प्यारा मिल जाए तब तो बात ही बदल जाती है। तब तो रंग ही बदल जाता है, तब तो ढंग ही बदल जाता है।

चाँदनी रात फिक्रे—शेरो—सुखन

मैंने चाँदी के बुत तराशे हैं

उनमें तुम रूह फूँक दो, वर्ना

मेरे अपकार सर्द लाशें हैं

फिर तुम गीत गाते रहो, उनमें प्राण नहीं। ‘ मेरे अपकार सर्द लाशें हैं, ‘ मेरी अभिव्यक्तियों में कोई प्राण नहीं। ‘ उनमें तुम रूह फूँक दो; ‘ तुम डालो प्राण तो पड़े प्राण। ऐसे भी गीत हैं जब गायक नहीं गाता, सिर्फ गायक माध्यम होता है और परमात्मा गाता है। तब मजा और। तब आकाश पृथ्वी पर उतरता है। और ऐसे भी गीत हैं जो गायक ही गाता है; परमात्मा का उनमें कुछ पता नहीं होता। तब वे कितने ही शब्दों की दृष्टि से सुंदर हों, मगर निष्प्राण होते हैं।

कवि और ऋषि का यही भेद है।

कवि खुद ही गाता है, ऋषि परमात्मा को गाने देता है। दोनों गाते हैं, दोनों गायक हैं, ऊपर से देखने पर कोई भेद नहीं है, दोनों के ओंठ शब्दों को बनाते हैं, दोनों के कंठों से वाणी निकलती है, मगर एक की सिर्फ कंठ से ही आ रही है, और दूसरे की वैकुंठ से आ रही है — उसकी अपनी नहीं है, बाँस की बाँसुरी जैसा है, खाली है।

कबीर ने कहा——मैं बाँस की पोंगरी, सब गीत तुम्हारे। कुछ भूल—चूक हो जाती हो, मेरी——बाँस की पोंगरी हूँ, स्वरों को बिगाड़ देती हूँ, बेसुरा कर देती हूँ, वह भूल—चूक मेरी। सब सुंदर तुम्हारा, सब असुंदर मेरा। चूक—चूक मेरी, ठीक—ठीक तुम्हारा। पुण्य हो तो तुमसे, पाप हो जाए——मुझसे। यह भक्त का भाव है।

चाँदनी रात फिक्रे—शेरो—सुखन

मैंने चाँदी के बुत तराशे हैं

उनमें तुम रूह फूँक दो वर्ना

मेरे अपकार सर्द लाशें हैं

सकल सिंगार भार ज्यूँ लागैं, मन भावै कछु नाहीं।

मन को भाये भी क्या अब, जब मनभावन से मन लग गया तो मन को फिर कुछ नहीं भाता। जब मनमोहन से मन लग गया तो मन को फिर कुछ नहीं भाता। फिर सब फीका है। सब स्वाद बेस्वाद है। सब स्वर विसंगीत है। सब सौंदर्य सतही है, ऊपर—ऊपर है। उस प्यारे की मौजूदगी ही आZ_ तो अस्तित्व साँसें लेता है, धड़कता है। रज्जब रंग कौन सूँ कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।

आंनद कैसे करूँ, रज्जब कहते हैं। ‘ रज्जब रंग कौन सूँ कीजै ‘। कैसे रंग से भरूँ, कैसे नाचूँ, कैसे उत्सव मनाऊँ, कैसे रास रचाऊँ, जे पीव नाहीं माहीं, अभी भीतर परमात्मा आकर मौज्द नहीं हुआ। वह आए तो फिर नाच—ही—नाच है, बिना आयो— जन के। चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती है और नाच शुरू हो जाता है। और परमात्मा भीतर न हो, तो हम हजार आयोजन करें, हमारे आयोजन सब झूठे हैं, सब पाखंड हैं। धर्म पाखंड हो गया है हमारे आयोजनों के कारण। जब तुम चेष्टा करके कुछ करते हो, तब पाखंड होता है। जब उसकी मौजूदगी के अनुभव से सहज तुम्हारे भीतर कुछ होता है, स्वस्फूर्त, तब धर्म सच्चा होता है। सिखाये धर्म व्यर्थ हैं। पढ़ लिया गीता में या कुरान में और किया, तो बस आयोजित है। परमात्मा को पुकारों भीतर। उसकी प्रतिमा वहाँ निर्मित होने दो।

और ध्यान रखना, प्यास हो तो जरूर बात हो जाती है। बस पूरी प्यास चाहिए; इसके अतिरिक्त आदमी के बस में कुछ भी नहीं है।

अलग बैठे थे, फिर भी आँख साकी की पड़ी हम पर

अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएँगे

तिश्नगी कामिल, बस पूर्ण प्यास चाहिए, साकी कब तक बचाएगा, कब तक बच— बच कर निकलेगा?

अलग बैठे थे, फिर भी आँख साकी की पड़ी हम पर

अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएँगे

जरूर आएँगे जब दीया जलता है, तो परवाना आता है। और जब प्यास जलती है, तो प्यारा आता है। आना ही पड़ता है। तुमने शर्त पूरी कर दी—उतनी ही शर्त है, बस प्यास की शर्त है। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी प्यास की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और कुछ भी नहीं। माँगना मत कुछ और। कुछ और चाहना मत। चाहना तो उसको चाहना, माँगना तो उसको माँगना, और कुछ मत माँगना।

रज्जब रंग कौन सूँ कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।।

रज्जब कहते हैं—सावन तो आ गया, नाचना तो मुझे भी है, नाचना तो मुझे भी चाहिए, सावन का सम्मान तो मुझे भी करना है। पक्षी गीत गा उठे, बादल घिर गये, मोर नाच उठे —— दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर——तीर मुझे भी चुभ रहा है सावन का, यह सौंदर्य मुझे भी जगा रहा है। यह चारों तरफ हो रहा उत्सव और मैं कैसे अलग—थलग बैठा रहूँ! मगर करूँ क्या ‘मेरा प्राणप्यारा अभी आया नहीं, उसकी पगध्वनि भी मुझे सुनायी नहीं पड़ रही।

भजन बिन भूलि पर्यो ससार।

और यह हो क्यों गया? ऐसा हो कैसे गया ?——कि प्यारा नहीं मिल रहा है। भजन बिन भूलि पर्यो संसार। हमने ही उसकी याद धीरे—धीरे गँवा दी है। भजन का अर्थ है——उसकी याद, उसकी स्मृति, सुरति। हमने ही धीरे—धीरे उसकी याद भुला दी। उसने हमें भुला दिया, ऐसा कोई भक्त नहीं कहेगा। ऐसा लांछन भक्त भगवान पर लगा नहीं सकता। हमने ही भुला दिया है। हम ही पीठ करके खड़े हो गये हैं। हमने ही कुछ ऐसा इंतजाम कर लिया है कि हम उससे दूर—दूर हो गये हैं। परमात्मा हम से दूर नहीं है, हम उससे दूर हैं।

भजन बिन भूलि पर्यो संसार।

भजन को भूल गये हैं—भजन यानी परमात्मा के स्मरण को। और जो परमात्मा के स्मरण को भ्ल जाता है, वह संसार के स्मरण से भर जाता है। स्मरण तो करना ही पड़ेगा। स्मृति में कोई चीज तो भरेंगी ही। अगर अमृत न भरोगे तो जहर भरेगा। अगर शुभ न भरोगे तो अशुभ भरेगा। अगर प्रेम न भरोगे तो घृणा भरेगी। पात्र खाली तो रहेगा नहीं। वह तो पात्र का गुण नहीं है खाली रहना, पात्र तो भरेगा ही। अगर सुगंध न भरेगी तो दुर्गंध भरेगी।

ऊर्जा का नियम है कि वह कुछ करेगी; ऊर्जा कृत्य बनेगी। अगर तुमने सृजन न किया तो तुम विनाश करने में लग जाओगे। अगर तुमने निर्माण न किया तो तुम मिटाने में लग जाओगे। इसके पहले कि तुम्हारी ऊर्जा विध्वंस बने, सृजन बनाओ। और इसके पहले कि तुम्हारी ऊर्जा संसार की स्मृति में उलझ जाए, खो जाए.. .जरा देखते हो कभी, अपने को भी सोचते हो कभी? दिन भर भी संसार सोचते, रात बिस्तर पर पड़े भी संसार सोचते, नींद भी नहीं आती ससार की याद में ही, मन उलझा रहता है—सुबह से साँझ, साँझ से सुबह, दिन और रात, वर्ष आते और जाते और तुम संसार की ही चिंता में डूबे रहते हो। और पाओगे क्या इस चिंता से? थोड़ी तो बुद्धिमानी बरतो।

भजन बिन भूलि पर्यो संसार।

चाहै‘ पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।

और फिर तुम चाहे पश्चिम जाओ, चाहे पूरब जाओ; फिर चाहे हिदू होओ, चाहे मुसलमान; चाहे इस दिशा में पूजो, चाहे उस दिशा में, चाहे तुम्हारी काशी इधर हो और तुम्हारा काबा वहाँ हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। जाओ तुम्हें जहाँ जाना है, अगर भजन नहीं किया है——भजन यानी अगर परमात्मा का स्मरण नहीं जगाया है, संसार के स्मरण से भरे हो——तो तुम काशी भी जाकर कुछ भेद नहीं कर पाओगे। काशी में भी तुम संसार का ही स्मरण करोगे। और काबा में जाकर भी तुम संसार का ही स्मरण करोगे। तुम्हारी माँगें संसार की ही होंगी।

तुम जरा सोचो, अगर मैं तुम्हें ऐसी एक पहेली दूँ कि कल सुबह जब तुम उठोगे, परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा होगा। और तुमसे पूछेगा——तीन वरदान माँग लो। तुम जरा सोचना कौन—से तीन वरदान तुम माँगोगे? किसीको बताने की जरूरत नहीं है, इसलिए धोखा देने की भी कोई जरूरत नहीं है, खुद ही सोचना कौन—से तीन वरदान माँगोगे? तुम बड़े हैरान होओगे अपने वरदानों की माँग देखकर। तुम जरूर कुछ क्षुद्र माँगोगे। परमात्मा भी सामने खड़ा होगा, तो तुम उससे चूक जाओगे। तुम्हें शायद ही याद आए कि तुम कहो कि अब और वरदान की क्या जरूरत! आप मिल गये तो, बस! तुम्हें शायद ही यह याद आए कि तुम कहो कि नहीं, अब कोई वरदान नहीं चाहिए। बस ये चरण अब सदा मेरे हाथ में रहें, इन चरणों से लगा रहूँ, इन चरणों की लौ लगी रहे, बस पर्याप्त। माँग सकोगे ऐसा? अगर बहुत सोचोगे—समझोगे तो कहोगे कि नंबर तीन पर इसको माँग लेंगे, पहले नंबर दो तो निबटा लें।

तुम इस बात को ही न माँग सकोगे। तुम्हारा हृदय तो संसार की याद से भरा है। तुम कहोगे——यह मौका क्यों चूके? तुम कहोगे——कि राष्ट्रपति बना दो, कि प्रधानमंत्री बना दो, कि दुनिया का सबसे बड़ा धनपति बन जाऊँ।

ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे

मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं

मैंने देखा है इन आँखों से मुरव्वत का मयाल

मुझको अब मेहरो—मुहब्बत से कोई प्यार नहीं

मैने इसान को चाहा भी तो क्या पाया

अब मेरा कुक खुदा का भी तलबगार नहीं

जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले

मैं तेरी नेक दुआरों का खरीददार नहीं

 

भजन बिन भूलि पर्यो संसार।

चाहै पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।

बस एक बात तुम्हारी पक्की हो गयी कि तुम्हारे हृदय में परमात्मा का विचार नहीं उठता। और सब विचार उठते हैं, अनंत विचार उठते हैं, एक विचार चूक गया है——और वही सार्थक है। और जिसने उसे पा लिया, सब पा लिया। और जिसने उसे गँवा दिया, उसने सब गँवा दिया। और तुम जिसे समझ रहे हो संपत्ति, वह विपत्ति है।

दस्ते—पुरखूं को कफे—दस्ते—निगारा समझे

हत्यारे के हाथ को, खूनी के हाथ को चितेरे का हाथ समझे।

दस्ते—पुरखूं को कफे—दस्ते—निगारा समझे

कत्लगहु थी जिसे हम महफिले—यारां समझे

और जहाँ मारा जाना था, जो कत्लगह थी, कत्लखाना था——कत्लगह थी जिसे हम महफिलें—यारा समझे। ऐसा ही हुआ है संसार में। तुमकुछ—का—ढ़ुछ समझ रहे हो। यह कत्लगह है, यहाँ सभी मरने को तैयार खड़े हैं, यहाँ ‘क्यू’ लगा है मौत का, इसको तुम घर समझ रहे हो?

दस्ते—पुरखूं को कफे—दस्ते—निगारा समझे

कत्लगह थी जिसे हम महफिले—यारा समझे

कुछ भी दामन में नहीं खारे—मलामत के सिवा

ऐ जुनू, हम भी किसे कूए—बहारां समझे

अखीर में पाओगे कि दामन में सिवाय काँटों के और कुछ भी नहीं।

कुछ भी दामन में नहीं खारे—मलामत के सिवा काँटे—ही—कौटे इकट्ठे हो जाएँगे। हो ही रहे हैं। तुम वही इकट्ठे कर रहे हो। तुम काँटों को फूल समझ रहे हो।

कुछ भी दामन में नहीं खारे—मलामत के सिवा

ऐ जुनू हम भी किसे कुए—बहारां समझे

और हमने जिसे बसंत की गली समझा——कूए—बहारां——हमने जहाँ समझा था आनंद घटित होगा, जहाँ हमने सोचा था अमृत की वर्षा होगी, वहां सिवान काँटों के और कुछ भी नहीं मिला। इस दुनिया से लोग हार कर जाते हैं। जीत कर भी जा सकते हो। मगर जीत उसके साथ है——’राम बिन सावन सहयो न जाइ’। जीत उसके साथ है, हार अकेले—अकेले। जो उसके साथ हो लेता है, जीत जाता है। उसे मिल गयी कूए—बहारां, उसे मिल गये बसंत के क्षण। फिर उसके जीवन में बसंत के अतिरिक्त कभी और कुछ नहीं घटता। फिर सावन भी है, प्यारा भी है और मिलन शाश्वत है।

चाहै पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।

बाछै अरध अरध सूँ लागै भूले मुगध गँवार।

हे मूढ़, हे गँवार, तू चाहता तो स्वर्ग है, लेकिन बना लेता नर्क है। यही हमारा संसार है। सब सुख चाहते हैं, और सब दुख पाते हैं। सब प्रतिष्ठा चाहते हैं और सब अप्रतिष्ठा पाते हैं। सब सम्मान चाहते हैं और सब अपमान पाते हैं। स्तुति माँगते हो, गालियाँ मिलती हैं। ‘ बाछै अरध अरध सूँ लागै ‘ माँगते तो ऊपर को हो., मिलता नीचे का है। आकांक्षा तो बड़ी ऊँची करते हो, मगर परिणाम बिल्कुल नहीं देखते कि परिणाम क्या है? ‘ बाछै अरध अरध सूँ लागै ‘, ऊर्ध्वयात्रा की तो आकांक्षा है, मगर अधोगामी हो जाते हो। ‘भूले मुगध गँवार’।

‘खाइ हलाहल जीयो चाहै’। जहर तो पीते हो और सदा जीता रहूँ, ऐसी मन में वासना है। यह कैसे होगा? यह असंभव हो नहीं सकता। ‘ खाइ हलाहल जीयो चाहै, मरत न लागै बार ‘। जीना चाहते हैं सदा और जो सदा है उसके साथ संबंध नहीं जोड़ते। संबंध जोड़ते उसके साथ जो क्षणभंगुर है। और जीना चाहते हैं सदा। देह के साथ संबंध जोड़ते है——जो आज है और कल नहीं हो जाएगी। आत्मा के साथ संबंध नहीं जोड़ते——जो कल भी थी, आज भी है, कल भी होगी।

‘खाइ हलाहल जीयो चाहै, मरत न लागै बार’। और देर कहाँ लगती है मरने में। और रोज तुम लोगों को मरते देखते हो, रोज अर्थी उठाते हो, रोज लोगों को मरघट पहुँचा आते हो, मगर तुम्हें यह ख्याल नहीं आता कि जल्दी ही तुम्हारी घड़ी भी पास आ रही है। और तुम्हारी जिंदगी में कोई फर्क नहीं आता।

मैं छोटा था, तो मुझे मरघट जाने का शौक था। मरघट से मुझे बहुत मिला। गाँव में कोई भी मरे—इसका कोई मुझे सवाल ही नहीं था—मैं सभी की अर्थी में जाता था। जब मैं स्कूल न पहुँचूँ तो मेरे शिक्षक समझ लें कि कोई मर गया होगा गाँव में। जब मैं घर खाने के वक्त न पहुँचूँ तो घर के लोग समझ लें कि कोई मर गया होगा गाँव में——जाओ, भेजो किसीको मरघट, पकड़ के लाए!

जब भी कोई मरता, मैं उसके साथ मरघट जाता। और मरघट पर जाकर दो हैरानी की बातें मुझे हमेशा दिखायी पड़ती। उधर आदमी जल रहा है और लोग बैठे संसार की गपशप कर रहे हैं। इससे मैं हमेशा चमत्कृत हुजा। आदमी जल’ रहा है, कल तक इससे बातें करते थे, यह इनका दोस्त था, मित्र था, प्रियजन था, आज वह जल रहा है, उसकी अर्थी में आग लगा दी है, अब बैठ कर वहीं आसपास गपशप हो रही है—संसार की गपशप हो रही है कि फिल्म कौन—सी लगी है? ऐसी है? फलाँ पथादमी का क्या हाल है? वही बाजार!

इनको याद भी नहीं आ रही कि यह मौततुम्हारी भी मौत है। यह घड़ी तो ध्यान की थी। यह तो बैठ कर सोचने की थी। यह तो विचार की थी। यह आदमी मर गया, यह भी इन्हीं बातों को करते मर गया कि कौन—सी फिल्म कहाँ लगी है, और हम भी इन्हीं बातों को करते मर जाएँगे। लेकिन मुझे धीरे—धीरे समझ में आना शुरू हुआ, वे अपने को बचाने के लिए बातों में उलझाए हुए हैं। यह आदमी मर गया, यह बात दिखायी नहीं पड़नी चाहिए। क्योंकि यह अस्त—व्यस्त कर देगी। यह उनकी जिंदगी के ढाँचे को तोड़—मरोड़ देगी। उनको फिर परमात्मा को याद करने को मजबूर होना पड़ेगा। फिर संसार का स्मरण करने से काम न चलेगा। क्योंकि संसार का स्मरण करते—करते रोज लोग मर रहे हैं।

कब तुम्हें सुध आएगी कि हम उसका स्मरण करें कि फिर मरना न हो! और ऐसा सूत्र तुम्हारे भीतर है। और ऐसी तुम्हारी संभावना है तुम अमरत्व के पुत्र हो! वेद कहते हैं——’अमृतस्य पुत्र ‘। हे अमृत के पुत्रो, तुम क्यों मृत्यु में उलझ गये हो? जो संसार में उलझा, वह मृत्यु में उलझा। क्योंकि संसार मरणधर्मा है। जिसने प्रभु को स्मरण किया, वह अमृत हुआ। जैसा होना है, उससे ही साथ जोड़ लो। जैसा होना है, उससे ही दोस्ती कर लो। दोस्ती सोच—समझ कर करना। ‘खाइ हलाहल जीयो चाहै, मरत न लागै बार’।

‘बैठे सिला समुद्र तिरन को’, और मज देखते हो कि लोग चट्टान समुद्र में डाल कर उस पर बैठकर पार होने के इरादे कर रहे हैं। चट्टान तो डूबेगी ही डूबेगी प्यारे, तुम भी डूबोगे! ऐसे तो बिना ही चट्टान के भी चलते तो शायद पहुँच जाते। धन की नाव बना रहे हैं लोग, पद की नाव बना रहे हैं लोग, ये चट्टानें हैं, ये तुम्हें डुबा देंगी। इनके साथ डूबना हो सकता है। इनके साथ पार होना नहीं हो सकता।

‘बैठे सिला समुद्र तिरन को’, अहंकार की चट्टान लेकर चले हो, अकड़ लेकर चले हो? ‘ बैठे सिला समुद्र तिरन को सो सब बूड़नहार ‘। वे सब डूबने वाले हैं। उस पार ले जानेवाली तो एक ही नाव है?—नानक नाम जहाज। उसका नाम ही बस एकमात्र नाव है। उसका स्मरण ही; भजन बिन भूलि पटयो संसार।

‘ नाम बिना नाहीं निस्तारा ‘। ये छोटे—से शब्द, ये चार शब्द तुम्हारी समझ में आ जाएँ तो तुम्हारी जिंदगी में जादू आ जाए। नाम बिना नाहीं निस्तारा, इतनी भर तुम्हारी पकड़ हो जाए तो सब मंदिरों व सब मस्जिदों के राज तुम्हारे हाथों में आ गये, सब शास्त्रों की संपदा तुम्हें मिल गयी।

‘ नाम बिना नाहीं निस्तारा’, उसके नाम के बिना न कोई कभी पार हुआ है और न कभी कोई पार हो सकता है। ‘ कबहुँ न पहुँचै पार ‘। और जो इस सत्य. को देख ले कि उसका स्मरण पार ले जानेवाला है, उसकी जिंदगी में इसी क्षण नृत्य शुरू हो जाता है। यह बात ही इतनी आhlादकारी है, उदासी मिट जाती है, आंखों में नयी चमक आ जाती है।

देख जिंदा से परे रंगे—चमन जोशे—बहार

रक्स करना है तो फिर पाँव की जंजीर न देख

जरा पार आँख उठ जाए, देख जिंदा से परे, कारागृह से जरा ऊपर देखो, देख जिंदा से परे रंगे—चमन जोशे—बहार, जरा आकाश की तरफ देखो, जरा ऊपर उठो अपनी सीमाओं से—धन—दौलत, पद—प्रतिष्ठा, नाम—धाम, इन सीमाओं के जरा ऊपर उठो—देख जिंदा से परे रंगे—चमन जोशे—बहार, रक्स करना है तो फिर पाँव की जंजीर न देख। और जिन्हें नाच करना है, वे फिर बैठे हुए पाँव की जंजीर ही नहीं देखते रहते। और जिसने ऊपर की तरफ देखा और नाच शुरू हुआ, उसकी नाच में सारी जंजीरें अपने से टूट जाती हैं।

जंजीरों के लिए बैठे रहने की कोई जरूरत नहीं है। जंजीरों ने तुम्हें नहीं बाँधा है, तुम नाच भूल गये हो इसलिए जंजीरें हैं। जंजीरें तुम्हारे नाच को नहीं रोक रही हैं, नाच के न होने के कारण जंजीरें निर्मित हो गयी हैं।

नाम बिना नाहीं निस्तारा कबहुँ न पहुँचै पार।।

सुख के काज धसे दीरघ दुख…

देखते हो मूढ़ता? भूले मुगध गँवार। क्या है मूढ़ता इस जगत की? सुख के काज धसे दीरघ दुख। चाहते तो सुख हैं और घुसते जाते दुख में हैं। माँगते स्वर्ग हैं और खोजते जाते नर्क। और तुम जानते हो कि यही हो रहा है। जितने दिन तुमने दुख उठाया है अब तक, ख्याल करो’, चाहा तो सदा सुख है और पाया सदा दुख, यह मामला क्या है? यह गणित कैसा है? तुम अब तक खोजते किसे रहे?

सुख खोजते रहे। और पाते क्या रहे? दुख पाते रहे। जरूर कहीं भूल हो रही है। तुम्हारे भीतर कोई बुनियादी भ्रांति है।

सुख के काज धसे दीरघ दुख बqए काल की धार।

और इसी में समय की धारा तुम्हें मृत्यु की तरफ बहाए लै जा रही है। यह बदलना होगा।

निजामे—मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है

हजारो हैं सफ़े जिनमें, न मै आयी, न जाम आया

कितने लोग हैं यहाँ जो जीवन का रस, जीवन का अमृत बिना पीए मर जाते हैं। जिनके हाथ में न कभी शराब लगी, न कभी प्याली पड़ी।

निजामे—मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है

मधुशाला का नियम बदलने की जरूरत है। मधुशाला की व्यवस्था बदलने की जरूरत है। जीवन का ढंग बदलने की जरूरत है।

निजामे—मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है

हजारों हैं सफ़े जिनमें, न मै आयी, न जाम आया

कितने लोग हैं, जो जीवित तो हैं लेकिन जीवन को जाने बिना। जो परमात्मा में जी रहे हैं परमात्मा को पीए बिना। सागर में हैं और प्यासे हैं। इनका कोई परिचय ही नहीं हुआ अमृत से।

मैं तुम्हारी तरफ देखता हूँ तौ मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि तुम कैसे इंतजाम किये जा रहे हो, तुम कैसे दुख का आयोजन किये जा रहे हो? कब जागोगे? कब देखोगे? अपने हो पैर पर कुल्हाड़ी मारे चले जा रहे हो। भूले मुगध गँवार। सुख के काज धसे दीरघ दुख, बहे काल की धार।

जन रज्जब यूँ जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।।

इस तरह सारा जगत अड़चन में पड़ा है। और माया की बुनियादी भ्रांति क्या है? माया की भ्रांति यही है कि उसने नर्क के दरवाजे पर स्वर्ग लिख दिया है। दुख के दरवाजे पर सुख लिख दिया क्रुँ। विपत्ति. के दरवाजे पर संपत्ति लिख दिया है। बस चले तुम! तुम यह देखते ही नहीं कि वहाँ हो क्या रहा है? चले धन की खोज में! जरा धनियों की तरफ तो देखो। उन्हें मिला है कुछ? चले पद की खोज में। जो पद पर हैं जरा उनकी अंतरात्मा में तो झाँको! उन्हें मिला है कुछ? चले बने सिकंदर। सिकंदर को क्या मिला है? आज तक इस दुनिया में किसी धनी ने कहा है कि मुझे कुछ मिला? जरा मनुष्य का इतिहास पलटो, सदियों—सदियों के अनुभव में तलाशो।

हाँ, कभी—कभी किसी बुद्ध ने, किसी महावीर ने, किसी कृष्ण ने, क्राइस्ट ने, कबीर ने कहा है कि मुझे मिला है। लेकिन न तो यह धन के तलाशी थे, न पद के तलाशी थे। इनकी तलाश तो राम की थी। यह संसार के खोजी ही न थे। ये तो भजन में भीगे हुये लोग थे। इनने कहा है कि मिला है। इनकी तुम सुनते नहीं। इनकी न सुनने के तुमने कई उपाय कर लिये हैं। तुमने अपने को इनकी तरफ बज बहरा कर लिया है। तुम इनकी तरफ देखते नहीं। और कभी मजब्री में अगर तुम्हें देखना भी पड़ता है तो तुम कहते हो—महाराज, ठीक ही कहते होओगे आप, यह रही पूजा, आपके चरण छूए लेते हैं, मगर मुझे बख्शो!

ऐ गदागर ! मुझे ईमान की सौगात न दे

मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं

मैंने देखा है इन आँखों से मुरव्वत का मयाल,

मुझको अब मेहरो—मुहब्बत से कोई प्यार नहीं

मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है

अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं

जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले

मैं तेरी नेक दुआओं का खरीददार नहीं

तुमने बुद्ध से यही कहा, तुमने महावीर से यही कहा, तुमने कृष्ण से यही कहा, क्राइस्ट से यही कहा, कबीर से यही कहा, यही तुम मुझसे कह रहे हो, यही तुम्हारे कहने की आदत पड़ गयी है। यह आदत छोड़ो। इसी आदत में तुमने बहुत जन्म गँवाए हैं। इस जन्म को भी मत गँवा देना।

जन रज्जब यूं जगत बिगू—भो, इस माया की लार।।

इस माया के पीछे चल—चलकर, इस झूठे सूत्र के पीछे चल—चल कर लोग बिबूचन में पड़े हैं, अड़चन में पड़े हैं, उलझन में पड़े हैं और जब मैलोगों की बात कर रहा हूँ। तो ख्याल रखना, तुम्हारी बात कर रहा हूँ। नहीं तो लोग बडे होशियार हैं, वे सोचते हैं——लोगों की बात हो रही है।

एक फकीर चर्च में हर रविवार को बोलता। और एक आदमी सदा सुनने आता, सामने ही बैठता। और जब भी प्रवचन पूरा होता तो उस फकीर के पास आता और कहता कि बिल्कुल ठीक किया; जो बातें कहीं, इसकी लोगों को बड़ी जरूरत है। लोगों को! आखिर फकीर सुन—सुन कर परेशान होने लगा। हर बार यही होता। कुछ भी कहे वह और वह आदमी आता और कहता कि अच्छा फटकारा! अच्छी जूतियाँ लगायीं, लोगों को इसकी जरूरत है!

एक दिन संयोग की बात खूब वर्षा हो गयी, कोई नहीं आया, अकेला वही आदमी आया। फकीर ने सोचा कि आज का मौका चूकना नहीं है। उसने खूब जूतियाँ चलायी। उसने खूब फटकारे लगायीं। उसने इधर से मारा, उधर से मारा। मगर उस आदमी पर कुछ चोट ही न पड़े, वह बड़ा मस्त बैठा! फकीर भी थोड़ा हैरान होने लगा कि अब तो आज कोई है भी नहीं, अब यह मस्त क्या बैठा है! आज यह क्या कहेगा? लेकिन उस आदमी ने जो कहा सुन लेना ठीक सें; जाते वक्त उसने कहा——गजब कर दिया, खूब मारा, हालाँकि आज कुोई आए नहीं थे। अगर आए होते, तो खूब फटकारा, बड़ी जरूरत थी। इन्हीं चीजों को जरूरत थी। कोई फिकिर न करो, मैं गाँव—गाँव में जाकर, घर—घर जाकर लोगों को कह आऊँगा।

मगर अपनी तरफ कोई लेना नहीं चाहता। लोग सोचते हैं, ये दूसरों की बातें चल’ रही हैं।

मैं तुमसे कह रहा हूँ। जब कहता हूँ लोगों से कह रहा हूँ, तो मैं तुमसे कह रहा हूँ। और किसी की यहाँ बात नहीं हो रही है। और किसी की बात करने की जरूरत भी नहीं है। जो यहाँ हैं, उनकी बात हो रही है। यह बात सीधी—सीधी है। जो भी मैं तुमसे कह रहा हूँ, ठीक तुमसे कह रहा हूँ। तुम यह मत सोचना कि यह पड़ोसी के लिए लागू है। तो यह बच्चू जो बगल में बैठा है, यही धन के पीछे पागल है; अच्छी पड़ी! हम तो पहले ही इसको समझाते थे, मगर कभी समझा नहीं। यह जो बगल में बैठे हैं नेता जी; अच्छी पड़ी, पद के पीछे दीवाने हैं। चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, ठीक मारे गये। मैं तुमसे कह रहा हूँ। और जब तक तुम सीधे—सीधे लेना शुरू न करोगे, ये अमृतदायी वचन व्यर्थ चले जाएँगे। वर्षा होगी और तुम्हारा घड़ा खाली—का—खाली रह जाएगा।

ये सूत्र अनूठे हैं, इन्हें गुनगुनाना। ये सूत्र तुम्हारे समझ में आने लगें तोजिंदगी बड़ी सहल होने लगे।

मुझे सहल हो गयीं मजिले वो हवा के रुख भी बदल गये

तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गये

ये सूत्र तुम्हारी समझ में आ जाएँ तो तुम्हारे हाथ में परमात्मा का हाथ आने लगे। वह तो तैयार ही खड़ा है, उसने तो हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ाया ही हुआ है, कब से बढ़ाए—बढ़ाए थक गया है, मगर तुम हाथ हाथ में लेते नहीं।

मुझे सहल हो गयीं मंजिलें, वो हवा के रुख भी बदल गये

तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गये

कठिन नहीं है कि चिराग राह में जल जाएँ। कठिन नहीं है कि सावन में प्यारा भी आ जाए। सावन भी उसीका है, इसीमें कहीं छिपा होगा। यहीं कहीं होगा पास— पड़ोस में। उसके बिना सावन भी कहाँ? यह सावन उसीकी आभा है। यह सावन उसीकी तरंग है। यह सावन उसीकी छाया है। सावन आ गया, तो सावन का मालिक भी आ ही गया होगा। थोड़ा खोजें, थोड़ा तलाशें, थोड़ा पुकारें, थोड़े प्यास से भरें।

अलग बैठे थे फिर भी आँख साकी कि पड़ी हम पर

अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएँगे

 

आज इतना।

 


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आनंद यांग–(दि बिलिव्ड)–(प्रवचन–04)

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मध्‍य में रूकने का स्‍मरण रहे—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 13 जूलाई 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

प्यारे ओशो! मैने सुना है:….. एक मनोवैज्ञानिक

अपने ही जुड़वां पुत्रों के साथ एक प्रयोग करना चाहत था!

वह उन्‍हें अपने साथ समूह चिकित्सा के कमरे में ले गया और

प्रत्येक लड़के को स्वयं अलग—अलग कमरे में रखा! आइक

के कमरे में उसने टी: वी: पर पर विज्ञापित, कठिनता से बिकने

वाले खिलौनों का ढेर इक्‍कठा कर रखा था। क्‍योंकि परीक्षण से

वह नकारात्‍मक दृष्‍टिकोण का, शिकायतें करने वाला

निराशावादी पाया गया था! माइक के कमरे में उसने की खाद

कर बहुत बड़ा डेर इकट्ठा कर दिया   माइक आशावादी है।

एक घंटे बाद ताला खोलकर उसने आइक के कमरे में प्रवेश

किया वहां आइक खिलौने के बाद खिलौना उछालते हुए

शिकायत कर रहा था— यह खिलौना किसी भाई काम का

नहीं है, और यह तो कुछ करता ही नहीं।

जैसे ही उसने दूसरे कमरे का दरवाजा खोला वह कुछ क्षणों

तक तो अपने लड़के को खोजने में असमर्थ रहा लेकिन तभी

उसने उसकी आवाज सुनी जो कह रहा था— ” यहां एक टट्टू

जरूर होना चाहिए! यह? एक टट्टू या खच्चर जरूर होनी

चाहिए।

और जब वह दृष्टिगत हुआ तो जहां लीद की खाद पड़ी हुई थी,

वहां वह उसे उत्तेजित होकर फर्श खोदता हुआ दिखाई दिया

क्योंकि वह उसके नीचे टट्ठू के होने की आशा का रहा था!

मैने कमरे बदल लिये है, और मैं टट्टू के निकलने की आशा में

अपनी नजर जमाये हुए हूं।

निराशावाद और आशावाद के सम्बंध में जो पहली चीज समझ लेने जैसी है वह यह है कि वे अलग नहीं हैं। वे भिन्न दिखाई देते हैं, लेकिन उनकी आकृति से धोखे में मत पडो। वे एक ही घटना के केवल दो विपरीत ध्रुव हैं। एक निराशावादी, एक आशावादी बन सकता है। एक निराशावादी ठीक एक आशावादी ही है जो अपने सिर के बल ठीक उल्टा खड़ा हुआ है। वे दो भिन्न व्यक्ति हैं, वे दो भिन्न आयाम नहीं है। स्मरण रहे, कमरे बदलने का कोई मूल्य नहीं। दोनों ही कमरों से बाहर निकलकर खुले आकाश के नीचे आओ, जहां न आशावाद और न कहीं निराशावाद का कोई अस्तित्व है। जब दोनों ही चले जाते हैं, तुम तभी विश्राममय हो सकते हो, क्योंकि दोनों ही गलत हैं।

 

स्थिति का विश्लेषण करो। निराशावादी, चीजों, के अंधेरे पक्ष की ओर ही

देखे चले जाता है और उजले पहलू से इंकार किए चला जाता है; वह केवल आधे

सत्य को ही स्वीकार करता है। आशावादी व्यक्ति, चीजों के अंधेरे पक्ष से इंकार

किए चला जाता है और केवल उजले पक्ष को ही स्वीकार करता है, वह भी आधा

सत्य है। इनमें से कोई भी पूर्ण सत्य को स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि पूरा सत्य

गर्मी और जाड़ा, परमात्मा और शैतान अंधकार और प्रकाश अच्छा और बुरा तथा जीवन और मृत्यु दोनों ही एक साथ है। दोनों एक ही व्‍यायाम कर रहे है वे आधे से इंकार कर रहे है और शेष दूसरे आधे को स्वीकार कर रहे हैं। दूसरा आधा भाग भी उतना ही आधा है जितना पहले वाला आधा भाग; वहां उनमें कोई भी अंतर नहीं है। यदि निराशावादी गलत है तो आशावादी भी गलत है। दोनों ही, सत्य जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे चुनाव करते हैं।

दोनों ही कमरों से बाहर निकल कर अचुनाव के खुले आकाश के नीचे आओ। चुनाव करो ही मत। सत्य जैसा है, उसे वैसा ही रहने दो। अपनी चित्त वृत्ति के अनुसार उसमें रंग मत भरो। उसकी तथ्यात्मकता को देखने का प्रयास करो, अपनी चित्त वृत्ति की प्रकृति को उससे मत जोड़ो। उसे न तो आशा भरी दृष्टि से और न निराशा भरी दृष्टि से देखो। न विधायक बनो और न नकारात्मक—यही है वह उच्चतम चेतना, जो सम्भव है।

लेकिन आशावाद प्रार्थना करता है, क्योंकि संसार अधिक या कम निराशावादी ही है। लोगों के लटके लम्बे चेहरे हमेशा शिकायतें करते हुए झुंझलाते रहते हैं। आशावाद से गुजरते हुए जीना सुंदर है, क्योंकि लोग कांटों की ही हमेशा बात करते रहते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना सौभाग्य है जो फूलों और सुवास की बात करता है। पर गलत वह भी है।

 

मैं तुम्हें एक अन्य प्रसंग के बारे में बताना चाहता हूं।

एक बार मैं एक अस्पताल में मुल्ला नसरुद्दीन को देखने गया, जो एक कार दुर्घटना के कारण वहां भर्ती था। मुल्ला बुरी तरह से जख्मी था’ उसकी एक टांग टूट गई थी, दोनों हाथों में फ्रैक्चर थे; गले की हड्डी भी टूट गई थी। उसके सिर और चेहरे पर भी जख्म थे, और कई पसलियां भी टूट गई थीं। उसका पूरा शरीर पट्टियों और टेप से पूरी तरह ढक गया था और केवल दो आंखें और मुंह ही खुला हुआ था। मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं थे, लेकिन मैंने महसूस किया कि मुझे कुछ जरूर कहना चाहिए। इसलिए मैंने मुल्ला से पूछा—’‘नसरुद्दीन! तुम्हें आज कैसा अनुभव हो रहा है? मेरा खयाल है यह टूटी हड्डियां और जख्म तुम्हें बहुत अधिक पीड़ा दे रहे होंगे। क्या तुम्हें बहुत अधिक कष्ट हो रहा है?”

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ नहीं, कोई ज्यादा नहीं दर्द सिर्फ तब होता है, जब मैं हंसता हूं।’’

 

ऐसे व्यक्ति से मिलना अच्छा लगता है। ऐसा बहुत कम होता है लेकिन यह सामान्य प्रकार के मामलों जितना ही गलत है। सौ में निन्यान्वे लोग निराशावादी होते हैं। वे पीडा और दुखों की ओर ही न केवल देखते हैं वे उनकी प्रतीक्षा भी करते हैं। वे ऐसे समझते हैं कि कुछ न कुछ घटना घटने ही जा रही है, जो गलत होगी ही, वे उसके लिए पहले ही से तैयार हैं। यदि वैसा नहीं होता है, तो वे बहुत निराश हो जायेगे, लेकिन वे किसी नकारात्मक चीज की, अंधेरे पक्ष के घटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से गलत हैं, लेकिन तब ऐसे लोगों के कारण और ऐसे लोगों का ही बहुमत है—दूसरे तरह के लोग, जो बहुत कम और दुर्लभ हैं, वे मूल्यवान बन जाते हैं: ऐसा व्यक्ति वह है, जो काले बादलों को प्रकाशमय विद्युत के लिए देख रहा है, जो अंधेरे में उगती सुबह का इंतजार कर रहा है। जब रात बहुत अंधेरी होती है, वह प्रतीक्षा करता है, क्योंकि जानता है कि अब सुबह बहुत निकट है। वह सदा आशा से भरा हुआ होता है। लेकिन मैं पुन: इस बात पर जोर देता हूं कि दोनों ही गलत हैं, क्योंकि जीवन काला और सफेद दोनों है। वास्तव में जीवन स्लेटी है। एक अति या छोर पर वह सफेद दिखाई देता है तो दूसरी अति या छोर पर वह काला दिखाई देता है, लेकिन दोनों के ठीक मध्य में वह और कुछ न होकर स्लेटी रंग की शेड होता है।

ऐसा कोई व्यक्ति, जो उन दोनों को समझता है, चुनाव रहित हो जाता है। वह न तो निराशावादी होता है और न आशावादी। तुम उसे किसी भी कमरे में न पाओगे। तुम उसे अप्रसन्न या उदास भी नहीं पाओगे और न तुम उसे प्रसन्नता और अति उत्साह से उछलता हुआ पाओगे। बुद्धों का यही लक्ष्य है: वे न दुखी और पीड़ित हैं और न वे किसी परमानंद में डूबे हैं। वे कोई भी उत्तेजना जानते ही नहीं, वे केवल शांत और मौन हैं। यही है वह जिसे वे आध्यात्मिक आनंद अथवा सच्चिदानंद कहते हैं। सच्चिदानंद प्रसन्नता नहीं है, क्योंकि प्रसन्नता में एक तरह की उत्तेजना होती है एक तरह का ज्वर होता है। पर देर—सबेर तुम उससे थक जाओगे, क्योंकि यह अस्वाभाविक है। देर—सबेर तुम्हें अपने को बदलना ही होगा, तुम्हें अप्रसन्न होना ही होगा। सच्चिदानंद न तो नकारात्मक है और न विधायक यह सभी का अतिक्रमण है, यह द्वंद्व के पार है। एक व्यक्ति शांत, केंद्रित, चिंतामुक्त और अद्विग्न बना रहता है। अच्छा या बुरा जो भी घटता है, वह दोनों को ही स्वीकार करता है, क्योंकि वह जानता है कि जीवन दोनों का जोड है।

यह व्यक्ति सच्चा और प्रामाणिक है। वह पूरी तरह बिना कोई प्रतिक्रिया के बना रहता है। यदि तुम लम्बी अवधि तक निराशावादी रहे हो, तो एक दिन तुम्हें बहुत आसानी से यह महसूस होगा कि तुम अनावश्यक रूप से दुःखी और अप्रसन्न बने रहे हो, इसलिए तुम अपना ‘ रोल ‘ बदलते हो। तुम फिसलते हुए आशावादी बन जाते हो। लेकिन अब तुम एक अति से दूसरी अति पर चले गए हो।

 

मैं तुम्हें एक प्रसंग के बारे में बताना चाहता हूं।

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन एक विशाल डिपार्टमेंटल स्टोर में अपनी पत्नी के लिए नायलोन के रफ कपड़े खरीदने के लिए गया। अपनी लापरवाही से वह एक काउटंर पर लगी पागल भीड़ में फंस गया, जहां मोलभाव करने वाली बिक्री चल रही थी। उसने शीघ्र ही अपने को धक्के खाते एक बुरी तरह से उत्तेजित स्त्री के पैर से अपने पैर के दबने का अनुभव किया। जितने समय तक सम्भव था वह खड़ा रहा, तब अपना सिर झुकाकर वह सिर और कोहनियों से भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ा। उस स्त्री ने कहा—’‘ तो यह तुम हो। क्या तुम एक भद्र मनुष्य की भांति व्यवहार नहीं कर सकते?”

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ अब और अधिक नहीं। मैं एक घंटे से एक भद्र पुरुष की भांति ही व्यवहार कर रहा था। अब मैं एक स्त्री की भांति व्यवहार कर रहा हूं।’’

 

यहां एक स्थिति ऐसी आती है जब कोई भी अपने एक ही तरह के रोल से बुरी तरह थक जाता है। निराशावादी व्यक्ति भी एक दिन यह महसूस करता है— ” क्यों? आखिर क्यों मैं अंधेरे पक्ष की ओर ही देखे चला जाऊं? आखिर क्यों मैं गुलाब की झाड़ी मैं कांटों को ही गिनता रहूं? वह कांटों के बारे में भूलकर गुलाबों को गिनना शुरू कर देता है—लेकिन दोनों ही आधे हैं। तुम एक आधे से दूसरे आधे की ओर गतिशील हो जाते हो, और पूर्णता उतनी ही दूर बनी रहती है जितनी पहले थी।

गुलाब की झाड़ी में कांटे और फूल दोनों ही हैं। वे दोनों वहां एक दूसरे के साथ—साथ ही रहते हैं। वे एक दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं, वे एक दूसरे के दुश्मन नहीं हैं। वास्तव में कांटे, फूल की रक्षा करते हैं। वे दोनों गुलाब की झाड़ी के पूर्ण अंगिक अस्तित्व हैं। और ऐसा ही जीन भी है। अच्छे और बुरे दोनों साथ—साथ जुड़े हैं, पापी और संत दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं और जीवन और मृत्यु भी दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। एक ठीक और सही समझ तभी आती है, जब तुम इन विपरीत ध्रुवों को समझ जाते हो। और इसी समझ से, तुम दोनों के पार चले जाते हो। तब तुम शांत बने रहते हो—क्योंकि वहां न तो कुछ भी प्रसन्न होने के लिए है और न इस बारे में कुछ भी दुखी होने के लिए।

स्मरण रहे, यदि तुम प्रसन्न हो, तो अपने अचेतन की गहराई में कहीं न कहीं तुम अप्रसन्ना की सम्भावना भी लिए चल रहे हो, क्योंकि तुम प्रसन्न केवल तभी हो सकते हो, यदि तुम अप्रसन्न भी हो सकते हो।

दोनों सम्भावनाएं साथ—साथ बनी रहती हैं। वे अगल— थलग नहीं की जा सकतीं, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए यदि तुम एक पहलू को फेंक देते हो, तो तुम दूसरे को भी उसी के साथ फेंक देते हो। यदि तुम एक पहलू को रखते हो तो दूसरा भी तुम्हारे ही साथ रहता है। यदि तुम अपने चेतन मन में निराशावादी बन जाते हो, तो अपने अचेतन में तुम आशावादी बने रहोगे। यदि तुम चेतन मन में आशावादी हो, तो तुम अपने अचेतन मन में निराशावादी बने रहोगे।

प्रसन्नता और अप्रसन्नता दोनों ही साथ—साथ रहती हैं। तुम जब चाहो, उनका ‘ रोल ‘ या अभिनय बदल सकते हो। वास्तव में लोग यह रोल बदलते ही रहते हैं: सुबह तुम आशावादी होते हो और शाम आते— आते तुम निराशावादी बन जाते हो। इसी कारण भिखारी भीख मांगने सुबह—सुबह आते हैं—क्योंकि सुबह बहुत से लोगों को आशावादी बना देती है। शाम होते होते पूरे जीवन की गंदगी को जानने के बाद लोग निराशावादी बन जाते हैं, वे थक कर क्रोधी और हताश हो जाते हैं। भिखारी शाम को भीख मांगने नहीं आते, क्योंकि कौन उन्हें भीख देने जा रहा है उस समय? सुबह लोग अधिक खुले और उदार होते हैं, सुबह का सूरज फिर से आशा की किरणें लेकर आता है। रात बीत चुकी है ” हो सकता है कुछ अच्छा घटने जा रहा हो।’’ लोग अधिक विधायक होते हैं। शाम होते होते लोग नकारात्मक बन जाते है।

दिन में तुम अपने ‘ रोल ‘ कई बार बदलते हो यदि तुम थोड़े से भी सजग हो, तो तुम समझ जाओगे, एक क्षण पूर्व ही तुम आशावादी थे, और एक क्षण बाद ही तुम निराशावादी बन गये। छोटी—छोटी चीजें वातावरण बदल देती है, सम्बंध और रिश्ते बदल देती हैं, किसी व्यक्ति की छोटी सी मुद्रा या मुखाकृति, तुम्हारा रोल बदल देती है। क्या तुमने इसका कभी निरीक्षण किया है? तुम उदास बैठे हो और तभी कोई व्यक्ति आता है और वह व्यक्ति हंसी मजाक करने वाला है, वह जोक सुनाता है और हंसता—हंसाता है—तुम भूल ही जाते हो कि तुम उदास थे, और हंसना शुरू कर देते हो। तुम हंस रहे थे, तभी कुछ ऐसे मित्र आ गये, जो सभी उदास थे; वे अपने साथ उदासी का मौसम साथ लेकर आते हैं और तुम उसमें अपने स्थान से हट जाते हो।

जैसा कि मैं देखता हूं प्रत्येक मनुष्य दोनों ही सम्भावनाओं के साथ जन्म लेता है। तुम्हें दोनों की ही व्यर्थता समझकर उनके पार जाना है। यह वह मौन ही है; जो द्वैत की पूर्ण अनुपस्थिति है। इसलिए कृपया अतिवादी बनने से दूर रहो। अतिरेक से हमेशा बचना चाहिए क्योंकि कोई भी अति, असत्य का मूल है। वास्तव में संसार में वहां कोई भी झूठ नहीं है, केवल सत्य और अर्द्धसत्य हैं। सभी आधे सच ही झूठ हैं; और सत्य कभी आधा नहीं होता वह पूर्ण ही होता है।

मन की प्रवृत्ति हमेशा अतिरेक की ओर जाने की होती है—तुम ऊंचाई की ओर जा रहे हो, तब तुम्हें नीचाई की ओर घाटी में भी जाना है, पहले ऊपर की ओर जाना है तब फिर नीचे आना है। तुम ‘ यो—यो ‘ की भांति आते—जाते हो और कभी भी सजग नहीं बन पाते कि दोनों ही व्यर्थ हैं। पुरानी घड़ी की पेंडुलम की तरह तुम एक अति से दूसरी अति की ओर जाते हो। एक बार पेंडुलम यदि मध्य में रुक जाये, तो घड़ी रुक जाती है। एक बार तुम मध्य में रुक जाओ, समय विलुप्त हो जाता है। तब तुम इस संसार के भाग नहीं रह जाते। घड़ी रुक जाती है. तब तुम शाश्वत अस्तित्व के एक भाग बन जाते हो।

जरा पेंडुलम का बाएं से दाएं गति करने का निरीक्षण करो। एक बहुत अजीब चीज घट रही है वहां। जब पेंडुलम दाईं ओर जाता है तो तुम उसे दाईं ओर जाता हुआ देखते हो। उसे मिस्त्री से पूछो: वह कहेगा कि जब पेंडुलम दाहिनी ओर जा रहा है वह बाईं ओर जाने के लिए संवेग प्राप्त कर रहा है, और जब वह बाईं ओर जा रहा है, तो वह दाईं ओर जाने के लिए संवेग प्राप्त कर रहा है। इसलिए जब तुम दुःखी होते हो तो तुम प्रसन्न होने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो। जब तुम प्रसन्न होते हो तो तुम दुःखी होने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो। जब तुम प्रेमपूर्ण होते हो, तुम घृणा करने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो, और जब तुम घृणा कर रहे होते हो, तो तुम प्रेमपूर्ण होने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो।

एकबार तुम इस सूक्ष्म यांत्रिकता को समझ जाओ कि मन हमेशा अतियों अथवा पराकाष्ठा की ओर ही गतिशील होता है, तुम मन के साथ सहयोग करते हुए ही रुक सकते हो। आशावाद और निराशावाद दोनों मन के ही अंदर हैं और एक समझदार प्रामाणिक मनुष्य उन दोनों के पार है।

 

एक बार ऐसा हुआ मुल्ला नसरुद्दीन एक स्थानीय डिपार्टमेंटल स्टोर में नौकरी पाने के लिए प्रार्थनापत्र देने को तैयार हुआ। एक मित्र ने उसे बताया—उस स्टोर की नीति किसी अन्य व्यक्ति को नौकरी न देकर एक कैथोलिक ईसाई को ही नौकरी पर रखना है और यदि वह वहां नौकरी चाहता है तो उसे अपने कैथोलिक ईसाई होने का झूठ बोलना पड़ेगा।

नसरुद्दीन ने नौकरी पाने के लिए प्रार्थनापत्र दिया और वहां के कार्यकत्ताओं ने चलन के अनुसार प्राय: पूछे जाने वाले सामान्य प्रश्न पूछे। तब उसने मुल्ला से पूंछा— तुम किस चर्च को मानने वाले हो? ‘‘

नसरुहीन ने उत्तर दिया—’‘ मैं एक कैथोलिक हूं। वास्तव में मेरे पिता एकपादरी और मां नन थीं।

 

पूरे रास्ते में, याद रहे—मध्य में रुक जाना है। वहीं संतुलन लायेगा, वही तुम्हें केंद्रित बनायेगा। पहली बार तुम्हें शांत और ध्यानपूर्ण होने का अनुभव होगा और तुम दोनों को स्वीकार करने में समर्थ हो सकोगे। तुम्हारा स्वीकार भाव समग्र होना चाहिए। तुम इसलिए प्रसन्न आनंदित और उत्तेजित नहीं होगे क्योंकि वहां गुलाब हैं। तुम देखोगे कि वहां दोनों ही हैं और दोनों ही अच्छे हैं और दोनों की ही आवश्यकता है। लेकिन तुम अप्रमावित, अस्पर्श और बिना बिंधे रहोगे, बिना कांटों से खरोंच लगे हुए भी और फूलों से भी बिना प्रभावित हुए। यही वह लक्ष्य है।

 

दूसरा प्रश्न: मुझे करने की इतनी बुरी तरह जरूरत है और चूंकि वह मेरे पास नहीं है? इसीलिए मैं पीड़ित हूं मैं इतना साहस कह? खोजूं जिससे मैं अपने मारने वाले पर भी श्रद्धा कर सकूं?

 

जो लोग स्वयं पर श्रद्धा करते हैं, वे ही दूसरों पर भी श्रद्धा कर सकते हैं। जो लोग स्वयं पर श्रद्धा नहीं करते, वे किसी पर भी श्रद्धा नहीं कर सकते। आत्मविश्वास से ही श्रद्धा कर जन्म होता है। यदि तुम स्वयं अपने पर ही श्रद्धा नहीं रखते हो— तब तुम मुझ पर भी श्रद्धा नहीं कर सकते—तुम किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकते। क्योंकि यदि तुम स्वयं पर ही विश्वास नहीं कर सकते तो तुम अपने विश्वास पर कैसे विश्वास कर सकते हो? वह तुम्हारा विश्वास बनने जा रहा है। यह हो सकता है, तुम्हें मुझ पर विश्वास हो, लेकिन यह तुम्हारा विश्वास है—तुम मुझ पर तो विश्वास करते हो, पर तुम स्वयं पर विश्वास नहीं करते। इसलिए यह प्रश्न मेरे बारे में न होकर, यह एक गहरा प्रश्न तुम्हारे सम्बंध में ही है।

और कौन हैं वे लोग, जो स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं कर सकते? कहीं कोई चीज उनके साथ गलत हो गई है।

पहली बात तो यह कि यह वे लोग हैं, जो स्वयं एक बहुत अच्छी छवि नहीं रखते, वे स्वयं के प्रति ही निंदा से भरे हुए हैं। वे हमेशा अपराध बोध से ग्रस्त होने के साथ सदा गलत होने का ही अनुभव करते हैं। वे हमेशा रक्षात्मक होते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वे गलत नहीं है, लेकिन अपने गहरे में वे यह अनुभव करते हैं कि वे गलत हैं।

यह वे लोग हैं जो किसी तरह प्रेमपूर्ण वातावरण से चूकते रहे हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं अपने आप पर विश्वास नहीं कर सकता, उसकी गहरी जड़ों में मां के साथ कुछ समस्या होनी जरूरी है। कहीं न कहीं मां और बच्चे के सम्बंधों में वैसा नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था। क्योंकि बच्चे के अनुभव में मां ही सबसे पहले आने वाली व्यक्ति होती है, और यदि मां बच्चे पर विश्वास करती है, यदि मां बच्चे को प्रेम करती है तो बच्चा भी मां पर विश्वास करना और उससे प्रेम करना शुरू कर देता है। मां के माध्यम से बच्चा संसार के बारे में सजग होता है। मां ही वह खिड़की है, जहां से वह अस्तित्व में प्रवेश करता है। और धीमे— धीमे यदि बच्चे और मां के मध्य एक सुंदर सम्बंध बनने लगता है, उनके बीच एक गहरी संवेदनशीलता, ऊर्जाओं का गहराई तक हस्तांतरण और खिलावट होती है….. .तब बच्चा दूसरों पर भी विश्वास करना शुरू कर देता है। क्योंकि वह जानता है कि उसका पहला अनुभव सुंदर था और उसके सोचने को ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि दूसरा अनुभव भी सुंदर न हो। उसके पास विश्वास करने का प्रत्येक कारण होता है कि यह संसार सुंदर है।

यदि तुम्हारे बचपन में तुम्हारे चारों ओर एक गहरे प्रेम का वातावरण था, तो तुम धार्मिक बनोगे, विश्वास का उदय होगा। तुम विश्वास करोगे, विश्वास करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण बन जाएगा। सामान्य रूप से तुम किसी पर भी अविश्वास नहीं करते, यदि कोई व्यक्ति तुममें अविश्वास सृजित करने की सख्त कोशिश न करे—केवल तभी तुम उस पर अविश्वास करोगे। लेकिन अविश्वास करना एक अपवाद होगा। एक व्यक्ति तुम्हें धोखा देता है और विश्वास को तोड्ने के लिए अपनी पूरी कोशिश करता है। हो सकता है उस व्यक्ति पर विश्वास नष्ट हो जाए लेकिन इससे तुम पूरी मनुष्यता पर अविश्वास करना शुरू नहीं कर दोगे। तुम कहोगे—’‘ यह तो ऐसा एक व्यक्ति है और वहां लाखों मनुष्य हैं एक मनुष्य के कारण सभी पर अविश्वास क्यों किया जाए? लेकिन यदि मूल विश्वास में ही कमी रह गई और तुम्हारे तथा तुम्हारी मां के मध्य ही कुछ चीज गलत हो गई, तब अविश्वास ही तुम्हारा मूल गुण बन जाता है। तब सामान्यतया स्वाभाविक रूप से तुम अविश्वास करने लगते हो। वहां फिर किसी को कुछ भी सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं होती। तुम मनुष्य पर अविश्वास करने लगते हो, और तब यदि कोई व्यक्ति यह चाहता है कि तुम उस पर विश्वास करो, तो उसे बहुत कठिन कार्य करना पडेगा। और तब तुम उस पर सशर्त विश्वास करोगे। और तब भी वह विश्वास, समझ से उद्भूत न होगा। वह बहुत संकीर्ण होगा; उसका लक्ष्य केवल एक व्यक्ति ही होगा।’’

यही समस्या है। प्राचीन युग में लोग बहुत विश्वासी होते थे। श्रद्धा और विश्वास, मनुष्य का साधारण गुण होता था। तब उसे विकसित करने की कोई आवश्यकता नहीं होती थी। वास्तव में यदि कोई व्यक्ति संदेह पूर्ण और एक महान नास्तिक बनना चाहता था तो एक बड़े प्रशिक्षण की आवश्यकता होती थी, उसे अनुशासन बद्ध और अपने सिद्धांत के प्रति पक्का बनना होता था। सामान्य रूप से लोग श्रद्धावान थे, क्योंकि उनके प्रेम के सम्बंध अत्यधिक गहरे थे। आधुनिक संसार में प्रेम विलुप्त हो गया है बच्चे अब ऐसे परिवारों में जन्म लेते हैं, जहां उनके मां बाप के बीच प्रेम नहीं है। जब बच्चों का जन्म होता है मां उनकी अधिक देखभाल नहीं करती—वह यह फिक्र नहीं करती कि उनके साथ क्या हो रहा है। वास्तव में वह नाराज है क्योंकि बच्चे शोर शराबा कर उसके जीवन में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। स्त्रियां बच्चों से दूर रहना चाहती हैं और यदि उनका जन्म हो ही जाता है, तो उसे वे जीवन की एक दुघर्टना या दुर्योग मानती हैं और वहां उनका बच्चों के प्रति एक गहरा नकारात्मक दृष्टिकोण है। बच्चा मां से यही नकारात्मक दृष्टिकोण प्राप्त करता है; शुरू से ही उसके हृदय को विषाक्त कर दिया जाता है। वह मां पर विश्वास कर ही नहीं सकता।

केवल तीन या चार दिन पूर्व ही यहां आश्रम में प्राइमल थेरेपी ( अपने अतीत को पुन: जीते हुए मूल स्रोत पर पहुंचने की विधि) लेने वाले एक संन्यासी ने मुझे बताया कि इस प्रयोग में वह बचपन की एक स्मृति से होकर गुजरा। उसे याद आया और वह अपने अंदर यह देख सका कि उसकी मां ने उसका दम घोंटकर उसे मारने का प्रयास किया था। अपने बचपन को पुन: जीते हुए पूरी स्मृति में वह उस घटना को देख सका। अब उसका पूरा अस्तित्व कांपने और डोलने लगा और वह एक सामान्य मनुष्य नहीं है, वह स्वयं एक मनोविश्लेषक है। अब वह बहुत सी चीजें समझता है, जो उसने पहले कभी नहीं समझी थी: वह इतना मृतवत क्यों बना रहता है, ठीक एक पत्थर की शिला की भांति, अप्रवाहित, वह क्योंकि किसी पर विश्वास नहीं कर पाता, वह क्यों सरलता से प्रेम में गतिशील नहीं हो पाता, क्यों उसे इतना अधिक कठिन प्रयास करना पड़ता है और फिर भी कहीं न कहीं कोई चीज गलत हो जाती है। वह जलधारा की भांति प्रवाहित नहीं हो पाता है— क्योंकि मां ने उसका दम घोंटने का प्रयास किया था।

मूल श्रद्धा ही खो गयी, निहित मूल श्रद्धा ही जाती रही: ” मां ने भी मुझे मारने का प्रयास किया? तब फिर किस पर विश्वास किया जाये?’‘— असम्भव। अब यह संसार केवल शत्रुतापूर्ण ही लगता है। प्रत्येक को यहां संघर्ष करना पड़ता है; वही जीवित रह पाता है जो योग्य और शक्तिशाली होता है।

कई बार मुझे स्वयं आश्चर्य होता है: किसी भी व्यक्ति को चार्ल्स डार्विन का मनोविश्लेषण अध्ययन करना चाहिए। उसके और उसकी मां के बीच कुछ न कुछ चीज जरूर ही गलत होना चाहिए तभी उसने—’‘ जो शक्तिशाली और योग्य है संघर्ष में वहीं बच पाता है—’‘ जैसी कल्पना को जन्म दिया। इसी तरह से किसी भी व्यक्ति को प्रिंस क्रोपाटकिन का भी मनोविश्लेषण और अध्ययन करना चाहिए। उसका अपनी मां के साथ ऐसा गहरा प्रेमपूर्ण रिश्ता जरूर रहा होगा।

” केवल सर्वाधिक शक्तिशाली ही जीवित रह पाता है ” के स्थान पर अंतर्सहयोग के सिद्धांत का प्रतिस्थापन किया। उसने कहा—’‘ जीवन में कहीं कोई संघर्ष है ही नहीं, बल्कि वहां एक सहयोग है। वास्तव में जब एक चीता झपटकर किसी पशु का शिकार कर उसे अपना आहार बनाता है, तो वह भी एक सहयोग है। इसे वह कैसे स्पष्ट करता है? वह कहता है—वास्तव में जिस क्षण चीता अपने शिकार पर झपटता है, शिकार होने वाला पशु विश्रामपूर्वक आसानी से स्वयं मर जाता है। वहां कोई संघर्ष नहीं होता। शिकार होने वाला पशु चीते का सरलता से आहार बन जाता है। जब तुम वृक्ष से एक सेब तोड़कर खाते हो तो सेब और तुम्हारे मध्य एक सहयोग होना जरूरी है। अन्यथा वह सेब तुम्हारे शरीर में जाकर मुसीबत खड़ी कर सकता है। वह तुमसे संघर्ष होने की स्थिति में तुम्हारे साथ लड़ेगा। वह अपने आपको यह अनुमति नहीं देगा कि तुम्हारा शरीर उसे अवशोषित कर हजम कर जाये, वह शत्रुतापूर्ण ही बना रहेगा। लेकिन वह साधारण रूप से तुम्हारे अंदर जाकर स्वयं घुल जाता है; तुम्हारा रक्त और तुम्हारी हड्डियां बन जाता है; तुम्हारा मांस बनता हौपूछो चार्ल्स डार्विन से: जब कभी दो मित्र एक दूसरे के गहरे प्रेम में होते हैं, वे एक दूसरे के लिए मरने तक को तैयार रहते हैं। डार्विन कहता है—कि यह केवल बहाने हैं। गहरे में वहां संघर्ष, युद्ध, प्रतियोगिता और ईर्ष्या है।

दर्शनशास्त्र का जन्म किसी हताशा या अवसाद के क्षणों में नहीं हुआ है। दर्शनशास्त्र तो तुम्हारे अपने अस्तित्व से जन्मा है, तुम्हारे अपने जीवंत अनुभव से उत्पन्न हुआ है। यदि बच्चा अपनी मां के साथ गहरे प्रेम में रहा है और मां ने भी उस पर अपना प्रेम बरसाया है तो यही भविष्य के लिए सभी विश्वास का प्रारम्भ है। तब वह बच्चा स्त्रियों के साथ अधिक प्रेम पूर्ण सम्बंध बनायेगा वह अपने मित्रों के साथ कहीं अधिक प्रेमपूर्ण होगा और एक दिन सद्गुरु को समर्पण करने में सफल हो सकेगा— अंतिम रूप से वहीं पूरी तरह से परमात्मा में स्वयं घुलकर एक हो जाने में समर्थ हो सकेगा। लेकिन यदि मूल सम्बंध ही से तुम चूक गये हो तो बुनियाद ही खोखली है। तब तुम्हें कठोर प्रयास करना होगा, लेकिन यह अधिक से अधिक कठिन होता जाता है। यही सब कुछ मैं प्रश्नकर्त्ता के बारे में अनुभव कर रहा हूं। मुझे श्रद्धा करने की इतनी बुरी तरह जरूरत हैं….. .हां, क्योंकि श्रद्धा पालन पोषण करती है। बिना विश्वास के तुम भूखे बने रहते हो, क्षुधा ग्रस्त होते हो। विश्वास ही जीवन के लिए सबसे अधिक सूक्ष्म पोषक तत्व है। यदि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते तो तुम वास्तव में जीवित ही नहीं हो। तुम सदा भय ग्रस्त रहते हो, तुम जीवन से नहीं, चारों ओर मृत्यु से घिरे रहते हो। अपने अंदर यदि गहरा विश्वास हो, तो पूरा दृश्य पटल बदल जाता है। तब तुम अपने शाश्वत घर में होते हो और वहां कोई संघर्ष होता ही नहीं। तब तुम इस संसार में एक अजनबी नहीं हो। तब तुम एक विदेशी नहीं हो; तुम किसी और दुनिया से नहीं आए हो। तुम इसी संसार के हो और और यह संसार तुम्हारा अपना है। यह संसार तुम्हारे यहां होने से प्रसन्न है—यह संसार तुम्हारी रक्षा कर रहा है। गहरी सुरक्षा का यह अहसास तुम्हें साहस देता है और तुम्हें अनजाने रास्तों पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

मां जब घर में होती है तो बच्चा साहसी बना रहता है। क्या तुमने इसका कभी निरीक्षण किया है? वह बाहर सड़क पर भी जा सकता है, वह उद्यान में घूमने भी जा सकता है और वह एक हजार एक काम कर सकता है। जब मां नहीं होती वहां, वह तभी बस अंदर जाकर भयभीत बना बैठा रहता है। वह अब बाहर नहीं जा सकता, क्योंकि अब वहां सुरक्षा नहीं है; सुरक्षा का कवच नहीं है वहां अब वहां का वातावरण पूरी तरह विदेशी है।

 

एक बार ऐसा हुआ

मैं एक मित्र के साथ ठहरा हुआ था। वे दोनों पति—पत्नी किसी विवाह संस्कार में भाग लेने गये हुए थे और उन्होंने अपने छोटे बच्चे को घर पर खेलते रहने को छोड दिया था और मुझसे कहा था—कृपया आप इसे देखते रहियेगा, और मैं उसका निरीक्षण कर रहा था—वह बाहर पोर्च में खेल रहा था। वह गिर पड़ा, उसने अपने चारों ओर देखा और फिर मेरी ओर देखा। मैंने भी उसकी ओर खामोशी से देखा। उसने एक क्षण तक यह महसूस करते हुए कि चोट रोने और चीखने योग्य है अथवा नहीं, प्रतीक्षा की। लेकिन मैं इतना अधिक तटस्थ बना रहा जैसे मैं वहां उपस्थित था ही नहीं, इसलिए उसने अपने कंधे उचकाये, जैसे कह रहा हो—’‘ यह सज्जन तो किसी काम के नहीं ‘‘, और वह फिर अपने खेल में व्यस्त हो गया। आधे या एक घंटे बाद जब माता—पिता वापस लौटे, उसने रोना शुरू कर दिया। मैंने उससे कहा—’‘ अब तुम्हारा यह रोना अतर्कपूर्ण है। आधा घंटा गुजर गया, अब तुम्हारी चोट तुम्हें कष्ट नहीं दे सकती ”। उसने उत्तर दिया—’‘ प्रश्न यह नहीं है। लेकिन आपने मुझे ऐसी पथरीली दृष्टि से देखा था, इसलिए मैंने सोचा कि यदि चोट लगी हैं तो लगी है, रोना चीखना व्यर्थ है। आखिर उसकी जरूरत क्या है? अब मेरी मां वापस लौट आई हैं। अब वह एक भिन्न वातावरण में है— अब वह रो सकता है, क्योंकि वह जानता है कि अब वहां कोई ऐसा है जो उसे सान्‍तवना दे सके जो उसकी चोट को महसूस कर सके कोई ऐसा है वहां, जो उसी परवाह कर सके।

यदि तुमने अपने ऊपर गहरे बरसते प्रेम और विश्वास में बचपन व्यतीत किया है तो तुम स्वयं अपने ही बारे में एक सुंदर छवि बना लेते हो। यदि तुम्हारे माता— पिता वास्तव में एक दूसरे से गहरा प्रेम करते रहे हैं और वे तुम्हें पाकर बहुत प्रसन्न रहे हैं; क्योंकि तुम्हीं उनके प्रेम की चरम सीमा, उनके प्रेम—संगीत की तेज होती हुई धुन, उनके प्रेम की वास्तविकता और उनके गहरे प्रेम से उत्पन्न हुए गीत हो। तुम्हीं इस बात के प्रमाण और गवाह हो कि उन दोनों में आपस में कितना अधिक प्रेम रहा है। तुम्हीं सृजन हो उनका: वे तुम्हें स्वीकार करते हैं, तुम जैसे भी हो, वे तुम्हें वैसे ही स्वीकार करते हैं और तुम्हें लेकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। यदि वे तुम्हारी सहायता करने की कोशिश करते हैं, तो बहुत प्रेम पूर्ण तरीके से ही तुम्हारी सहायता करते हैं। यदि कभी वे यह कहते भी हैं—’‘ यह काम मत करो ‘‘, तुम्हारा उससे न तो हृदय दुःखता है और न तुम्हें अपमान का अनुभव होता है। वास्तव में तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारे बारे में परवाह की जा रही है।

लेकिन जब तुम उनका प्रेम नहीं पाते और तुम्हारे माता—पिता यह कहे चले जाते हैं—’‘ इस काम को मत करो और इस काम को करो, और धीमे— धीमे बच्चा यह समझना शुरू कर देता है।—’‘ जैसा मैं हूं मैं उस रूप में उन्हें स्वीकार नहीं हूं और जब मैं कुछ विशिष्ट काम करता हूं तभी मुझे प्रेम किया जाता है, और यदि मैं उन विशिष्ट कार्यों को नहीं करता हूं तो मुझे प्रेम नहीं मिलता है, और यदि मैं कुछ अन्य काम करता हूं तो मुझसे घृणा की जाती है।’’

इसलिए वह सिकुड़ना शुरू कर देता है। उसका जैसा स्वाभाविक अस्तित्व है उसे न तो स्वीकार किया जाता है और न उससे प्रेम किया जाता है। उसे सशर्त प्रेम मिलता है क्योंकि श्रद्धा खो गयी है। तब वह कभी भी अपनी सुंदर छवि बनाने में समर्थ न हो सकेगा। क्योंकि वे मां की आंखें हैं, जिनमें पहली बार तुम उसकी प्रतिबिम्बित होती प्रसन्नता, अनुग्रह, भावना की तरंगें और परमानंद देखते हो और जानते हो कि तुम उसके लिए मूल्यवान हो और सहज स्वाभाविक रूप से उसकी दृष्टि में तुम्हारा कुछ मूल्य है। तब श्रद्धा करना और समर्पण करना बहुत आसान हो जाता है, क्योंकि तुम भयभीत नहीं हो।—लेकिन यदि तुम जानते हो कि तुम गलत हो, तब तुम हमेशा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हो कि तुम सही हो। लोग तर्कपूर्ण बन जाते हैं। तर्क करने वाले सभी लोग बुनियादी रूप से ऐसे वे लोग हैं, जिनकी स्वयं उनकी दृष्टि में ही सुंदर छवि नहीं है। वे रक्षात्मक और बहुत संवेदनशील होते हैं। यदि वहां ऐसा कोई तर्क वितर्क करने वाला व्यक्ति है और तुम उससे कहते हो—’‘ यह कार्य तुमने गलत किया है ” तो वह तुरंत नाराज होकर तुम पर झपट पड़ेगा। वह छोटी सी मित्रतापूर्ण आलोचना भी सहन नहीं कर सकता। लेकिन यदि उसकी स्वयं के बारे में अच्छी छवि है, तो वह सुनने ओर सीखने को तैयार रहता है, वह दूसरों के दिए परामर्श को सम्मान देने को तैयार रहता है। हो सकता है वे ठीक हों, और यदि वे ठीक हैं और वह गलत है, तो भी वह फिक्र नहीं करता, क्योंकि उसे फिक्र नहीं होती। वह अपनी ही दृष्टि में अच्छा बना रहता है।

लोग बहुत हृदयस्पर्शी होते हैं—वे आलोचना पसंद नहीं करते, वे यह नहीं चाहते कि कोई उनसे यह कहे कि यह काम करो अथवा कोई कहे कि वह काम करो। और ये लोग सोचते हैं कि वे समर्पण नहीं कर सकते किसी के आगे, क्योंकि वे शक्तिशाली हैं। ये लोग केवल रुग्ण हैं, मानसिक रोगी हैं। केवल एक शक्तिशाली स्त्री या पुरुष ही समर्पण कर सकता है, दुर्बल व्यक्ति कभी समर्पण नहीं कर सकता। क्योंकि वे सोचते हैं कि समर्पण करने से उनकी दुर्बलता सारे संसार में प्रकट हो जायेगी। वे जानते हैं कि वे दुर्बल हैं, वे अपनी हीनता की ग्रंथि को .भली भांति जानते हैं, इसलिए वे झुक नहीं सकते। यह करना उनके लिए बहुत कठिन है, क्योंकि झुकने का अर्थ यह स्वीकार करना होगा कि वे हीन हैं। केवल एक श्रेष्ठ व्यक्ति ही झुक सकता है, हीन मनुष्य कभी भी नहीं झुक सकते। वे किसी दूसरे व्यक्ति का सम्मान भी नहीं कर सकते क्योंकि वे स्वयं का ही सम्मान नहीं करते। वे यह भी नहीं जानते कि सम्मान होता क्या है, और वे समर्पण करने से सदा भयभीत रहते हैं, क्योंकि समर्पण का अर्थ है उनकी दुर्बलता।

स्मरण रखें, समर्पण तभी सम्भव है, यदि तुम अत्यधिक शक्तिशाली हो; तुम्हें समर्पण के बारे में कोई चिंता नहीं है, क्योंकि तुम जानते हो कि तुम समर्पण भी कर सकते हो और फिर भी तुम दुर्बल नहीं होगे। तुम समर्पण कर सकते हो और अपनी संकल्प शक्ति भी नहीं खोओगे। वास्तव में समर्पण के द्वारा तुम यह दिखला रहे हो कि तुम्हारे पास महान संकल्प की शक्ति भी है।

इसलिए यदि तुम यह अनुभव करते हो कि श्रद्धा करना कठिन है, तब तुम्हें वापस जाना होगा। तुम्हें अपनी स्मृतियों को गहरे खोद कर देखना होगा। तुम्हें अपने अतीत में लौटना होगा। तुम्हें अपने मन से अतीत के प्रभावों को साफ करना होगा। तुम्हारे पास अतीत के कूड़े कर्कट का एक बड़ा ढेर होना जरूरी है, तुम्हें उस भार से मुक्त होना होगा।

इसे करने की यही एक कुंजी है यदि तुम लौट कर अपने जीवन में वापस जा सको, केवल स्मृतियों में नहीं बल्कि फिर वही जीवन फिर से जी सको। इसे एक ध्यान बना लो। प्रत्येक दिन, रात में सोने से पूर्व, एक घंटे बस अतीत में वापस लौटो। वह सभी कुछ खोजने का प्रयास करो, जो तुम्हारे बचपन में घटा था। तुम जितने गहरे जा सको, उतना ही अच्छा है—क्योंकि हम बहुत सी उन चीजों को छिपा रहे हैं, जो कभी घटी थीं लेकिन हम उन्हें चेतना तल तक ऊपर आने की अनुमति नहीं देते। उन्हें सतह तक आने की अनुमति दो। प्रत्येक दिन वापस लौटते हुए तुम्हें गहरे और गहरे में जाने का अनुभव होगा। पहले तुम्हें कुछ वहां की घटनाएं याद आयेंगी, जब तुम चार या पांच वर्ष के थे, और तुम उसके पार जाने में समर्थ न हो सकोगे। अचानक तुम्हें चीन की दीवार जैसे प्रतिरोध का सामना करना होगा। पर धीमे— धीमे और गहरे जाने पर तुम देखोगे कि और गहरे तुम तीन वर्ष….. .दो वर्ष के हो। लोग उस बिंदु तक पहुंच जाते हैं जब गर्भ से उनका जन्म हुआ था। यहां कुछ ऐसे भी लोग हैं जो गर्भ की स्मृतियों तक पहुंचे हैं और यहां ऐसे भी लोग हैं जो उसके भी पार अपने पूर्व जन्म में, जब उनकी मृत्यु हुई थी, वहां तक भी पहुंचे हैं।

लेकिन यदि तुम उस बिंदु तक पहुंच सकते हो, जहां तुम्हारा जन्म हुआ था और तुम उन क्षणों को फिर से जी सकते हो, तो तुम्हें गहरी पीड़ा और दर्द से गुजरना होगा। तुम्हें लगभग ऐसा अनुभव होगा, जैसे मानो तुम्हारा फिर से जन्म हो रहा हो। तुम्हारी भी वैसी ही चीख निकल सकती है जैसे जन्म के समय बच्चा पहली बार चीखता है। तुम्हें दम घुटने का अनुभव होगा, जब गर्भ से बाहर आने पर बच्चे को पहली बार दम घुटने जैसा अनुभव होता है, क्योंकि कुछ क्षणों तक वह सांस लेने में समर्थ नहीं होता है। उस समय उसे बहुत अधिक दम घुटने का अनुभव होता है; तब वह चीखता है और सांस कर रास्ता खुल कर सांस चलना शुरू हो जाती है, और फेफड़े काम करना शुरू कर देते हैं। तुम्हें चलकर उसी बिंदु तक पहुंचना है।

वहां से तुम्हें फिर वापस लौट आना है। प्रत्येक रात्रि फिर से वहीं जाओ और वापस लोटो। इसमें लगभग कम से कम तीन माह से लेकर नौ माह तक का समय लगता है और प्रत्येक दिन तुम्हें अधिक भार मुक्त होने का अनुभव होगा, तुम अधिक से अधिक हल्के होते जाओगे और साथ ही साथ विश्वास का भी जन्म होगा। एक बार अतीत स्पष्ट हो जाये और तुम वह सभी कुछ देख लो, जो पूर्व में तुम्हारे साथ घटा था, तो तुम उससे मुक्त हो जाओगे। यही वह कुंजी है यदि तुम अपनी स्मृति में किसी भी बात या घटना के प्रति सजग हो जाते हो, तो तुम उससे मुक्त हो जाते हो। सजगता ही तुम्हें मुक्त करती है और मूर्च्छा ही बंधन निर्मित करती है। तभी विश्वास करना सम्भव हो सकेगा।

जब तुम यहां मेरे साथ हो, तुम फिर से दूसरे गर्भ में ही हो, तुम फिर से दूसरे जन्म की प्रतीक्षा कर रहे हो। यही एक सद्गुरु का काम होता है—कि वह तुम्हें दूसरा जन्म दे, तुम्हें द्विज बनाये, तुम्हारा पुनर्जन्म हो। एक जन्म तो माता और पिता देते हैं और दूसरा जन्म गुरु या सद्गुरु देता है। तुम फिर से एक दूसरे गर्भ में हो, वह आत्मिक गर्भ है। तुम्हें अपने शरीर के गर्भ के साथ पूरी तरह सभी हिसाब बंद कर देना है। तुम्हें अपने शारीरिक जन्म के साथ जो भी बंधन शेष हो, उसे गिरा देता है, जिससे तुम मेरे साथ पूरी तरह अभी और यहीं हो सको।

अपने प्रश्न में तुम कहते हो—’‘ मुझे श्रद्धा की इतनी बुरी तरह जरूरत है….. .हां! यह बात बहुत जरूरी है एक व्यक्ति जो श्रद्धा नहीं कर सकता, उसे बुरी तरह श्रद्धा की जरूरत होती है। और एक ऐसा व्यक्ति जो श्रद्धा कर सकता है वह इसकी जरूरत के प्रति सजग भी नहीं होता। जरूरत तभी उठती है, जब तुम भूखे होते हो।

मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच गए हैं कि प्रेम ही भोजन है। केवल बीस वर्ष पूर्व यदि किसी ने यह कहा होता कि प्रेम एक सूक्ष्म जीवन सफूर्ति है, तो वैज्ञानिक यह सुनकर हंसे होते। उन्होंने सोचा होगा—’‘ तुम एक कवि हो, यह सब बकवास है।’’ लेकिन अब वैज्ञानिक खोजें कहती हैं—’‘ प्रेम एक भोजन है।’’ जब बच्चे को भोजन दिया जाता है, वह उसके शरीर का पोषण करता है और यदि उसे प्रेम नहीं दिया जाता, तब उसकी आत्मा विकसित नहीं होती। उसकी आत्मा अपरिपक्व और अविकसित रह जाती है।

अब वहां ऐसे तरीके और विधियां हैं; जिससे यह माना जा सके कि बच्चे को प्रेम दिया गया अथवा नहीं; क्या उसे वह प्रेम की उष्णता दी गई, जिसकी उसे जरूरत थी अथवा नहीं दी गई। तुम बच्चे की जरूरत की हर चीज देकर उसका पालन—पोषण करो, अस्पताल में उसकी डाक्टरों द्वारा पूरी देखभाल भी करो, लेकिन केवल उसकी मां को उससे दूर कर दो, उसे दूध, दवा, देखभाल सभी कुछ दो, लेकिन न तो उसे आलिंगन में लो और न उसे चूमो और स्पर्श करो। इस सम्बंध में बहुत से प्रयोग किए गए। वह बच्चा धीमे— धीमे स्वयं अपने आप सिकुड़ने लगता है। वह रुग्ण हो जाता है, और अधिकतर तो उसकी मृत्यु ही हो जाती है, जिसका कोई कारण दृष्टिगत नहीं होता। और यदि वह बच भी जाता है, वह निम्‍नतम धरातल पर ही जीवित रहता है। वह अल्पमति या एक छू बन कर रह जाता है। वह जीवित रहेगा, लेकिन वह हमेशा केवल एक किनारे पर जीवित रहेगा। वह जीवन की गहराई में न उतर सकेगा, उसके पास ऊर्जा होगी ही नहीं। बच्चे को हृदय से लगाना, उसे शरीर की गर्मी देना ही उसका सूक्ष्म भोजन है। अब धीमे— धीमे यह बात भली भांति जानी जा चुकी है।

अब मैं तुम्हारे लिए यह भविष्यवाणी करना चाहता हूं: बीस या तीस वर्ष बाद मनोवैज्ञानिक यह भी जानेगे कि श्रद्धा इससे भी उच्च तल का भोजन है, वह प्रेम से भी बड़ी शक्ति है.? .प्रार्थना जैसी। श्रद्धा है—प्रार्थनापूर्ण होना, लेकिन यह बहुत अधिक सूक्ष्म है। तुम इसे अनुभव कर सकते हो। यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है तो मेरे साथ रहते हुए अचानक तुम देखोगे कि तुम एक महान साहसिक अभियान पर चल पड़े हो और तुरंत तुम्हारे जीवन में एक परिवर्तन होना शुरू हो गया है। यदि तुम्हारे पास श्रद्धा नहीं है तो तुम वहीं खड़े रहोगे। मैं कितना भी बोले चला जाऊं, मैं तुम्हें कितना ही खींचे चले जाऊं तुम जड़ होकर खड़े ही रह जाओगे— और इस तरह तुम मुझे चूकते चले जाओगे। अपनी श्रद्धा को जन्मने दो। तुम्हारे और मेरे मध्य वही श्रद्धा ही एक सेतु बन जायेगी। तब साधारण शब्द भी दीसिवान हो उठेंगे, केवल तभी मेरी उपस्थिति एक गर्भ बन सकती है, और तुम्हारा पुनर्जन्म हो सकता है।

तुम पूछ रहे हो—’‘ मुझे श्रद्धा करने की इतनी बुरी तरह जरूरत है, और चूंकि वह मेरे पास नहीं है, मैं इसीलिए पीड़ित हूं। मैं इतना साहस कहां खोजूं जिससे मैं मारने वाले पर भी श्रद्धा कर सकूं।’’

हां! मैं ही तुम्हें मारने वाला हूं लेकिन एक खास तरह से। मुझे तुम्हें मारना ही होगा क्योंकि केवल यही रास्ता है जिससे तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके। मुझे तुम्हारे मुरतीत से तुम्हें पूरी तरह काट देना होगा, मुझे तुम्हारी जीवन कथा नष्ट करनी ही होगी, केवल तभी नये का जन्म हो सकता है।

लेकिन यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है, तो तुम मरने के लिए तैयार रहोगे। यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है, तो तुम जानते हो—मरकर जीवित हो उठना निश्चित है। मैं इस बात की गारंटी नहीं दे सकता; वहां गारंटी देने का कोई रास्ता ही नहीं है। केवल श्रद्धा ही वह गारंटी है। मैं उसके बारे में चर्चा कर सकता हूं मैं उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति कर सकता हूं लेकिन उससे तुम्हारे अंदर केवल स्वप्न सृजित होंगे, वह गारंटी नहीं होगी। मैं तुम्हें यह बता सकता हूं कि मेरे साथ क्या घटा है, मैं तुम्हें उस और जाने का प्रलोभन दे सकता हूं लेकिन वह कोई गारंटी नहीं होगी।

” कौन जानता है? यह शख्स केवल झूठ बोल रहा हो अथवा यह व्यक्ति झूठ .। भी बोल रहा हो, लेकिन वह केवल विभ्रम में भी हो सकता है?” इसे सिद्ध कैसे। किया जाये? यह कोई ऐसी चीज नहीं, जिसे में तुम्हें दिखा सकता हूं। यदि तुम्हें श्रद्धा है तब वहां गारंटी है। तुम्हारे श्रद्धा ही तुम्हारी गारंटी है।

तुम मुझ पर श्रद्धा भी दो तरह से कर सकते हो। इस बात को भी ठीक से समझ लेना है, क्योंकि इनमें से एक रास्ता, गलत रास्ता है।

तुम मुझ पर श्रद्धा कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें असुरक्षा और अकेलेपन का अनुभव होता है। तुम विवश होकर बलात् श्रद्धा कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें मेरे साथ सुरक्षित होने का अधिक अनुभव होता है। इसी तरह से बहुत से लोग चर्चों मठों, संस्थाओं और संगठित धर्मों के साथ जी रहे हैं। कोई ईसाई है, कोई हिंदू है; यह एक निश्चित सुरक्षा देती है। तुम अकेले नहीं हो—करोड़ों ईसाई और करोड़ों हिंदू तुम्हारे साथ हैं।’’ इतने अधिक लोग गलत कैसे हो सकते हैं? उन्हें ठीक होना ही चाहिए ‘ —इसलिए तुम भीड़ को पकड़ते हो, अपने को हिलगा लेते हो उसे साथ, सिर्फ इसीलिए क्योंकि तुम भयभीत हो। श्रद्धा उत्पन्न हो सकती है—क्योंकि भय है वहां—तब यह एक नकारात्मक श्रद्धा है—इससे तुम्हारा पुनर्जन्म न होगा। वास्तव में यह नूतन जन्म लेने में बाधक बनेगा। श्रद्धा तो प्रेम से ही उत्पन्न हो सकती है। तभी वह ठीक और सच्ची है।

जो लोग विश्वास करते हैं, क्योंकि वे भयभीत हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि वे किसी के साथ बंध जायें, उसके साथ लटक जायें, वे भयभीत हैं और वे सहारे को किसी का हाथ चाहते हैं, वे आकाश की आरे देखते हैं और केवल अभय का अनुभव करने के लिए ही परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। क्या तुमने कभी देखा है? कभी अंधेरी सुनसान सड़क से गुजरते हुए तुम रात में सीटी बजाना शुरू कर देते हो, अथवा गाना शुरू कर देते हो—इसलिए नहीं कि उससे तुम्हें कोई सहायता मिल जायेगी। लेकिन एक तरह से वह सहायता भी करती है। गाने या गुनगुनाने से तुम उष्णता का अनुभव करते हो, तुम उसमें व्यस्त हो जाते हो और भय का दमन हो जाता है। सीटी बजाने से तुम्हें अच्छा लगने लगता है। तुम यह भूल जाते हो कि तुम अंधेरे में हो और यह खतरनाक है, लेकिन इससे वास्तविक यथार्थ में कोई असली परिवर्तन नहीं होता। यदि वहां भय और खतरा है, तो वह अभी भी वहां है। वास्तव में वह पहले से कहीं अधिक हैं, क्योंकि एक व्यक्ति जो गाने में व्यस्त है, अधिक आसानी से लूटा जा सकता है, क्योंकि वह कम सजग होगा। सीटी बजाते हुए वह कम सावधान रहेगा। वह सीटी बजाने के साथ अपने चारों ओर एक भ्रम खड़ा कर रहा है। तो यदि तुम्हारी श्रद्धा भय से उत्पन्न हुई है तो इससे यही अच्छा है कि तुम वह श्रद्धा करो ही मत, क्योंकि वह नकली है।

 

मैंने सुना है:

मुल्ला नसरुद्दीन हजामत बनाने बाली ऊंची कुर्सी पर चढ़कर बैठ गया और नाई से पूछा—’‘ वह हज्जाम कहां है जो इस बगल वाली कुर्सी पर हजामत बनाता था?”

हज्जाम ने उत्तर दिया—’‘ ओह! वह एक दुःखद प्रसंग है। मैदे व्यापार से घबडा कर वह इतना अधिक निराश हो गया कि एक दिन जब एक ग्राहक ने उससे कहा—कि वह मालिश नहीं कराना चाहता तो बस उसकी खोपड़ी उलट गई और उसने उस्तुरे से ग्राहक का गला काट दिया। अब वह सरकारी पागलखान में भर्ती है। पर श्रीमान! बस मैं यूं ही पूंछ रहा हूं क्या आप मालिश कराना पसंद करेंगे?

मुल्ला नसरुद्दीन ने तुरंत उत्तर दिया—’‘ जरूर! पूरी तरह से।’’

 

तुम भय के कारण—’‘ जरूर, पूरी तरह से ” कह सकते हो, लेकिन यह श्रद्धा न होगी। श्रद्धा तो प्रेम से जन्मती है, और यदि तुम यह पाते हो कि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते, तब तुम्हें कठोर श्रम करना होगा। तुम्हारा अतीत बहुत अधिक बोझिल हैं, उसमें कूड़े कर्कट का ढेर है। तुम्हें उसे साफ करना होगा, भार रहित बनाना होगा।

 

तीसरा प्रश्न:

मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है! वहां ऐसी कोई शक्ति जरूर होनी चाहिए जो पूरे ब्रह्माण्ड की एक साथ संभाले हुए है! लेकिन स्वयं अपनी ही गहराई में मैं वहां किसी परमात्मा का अथवा आपका, अथवा इस बात का कि परमात्मा मेरे साथ है अनुभव नहीं कर पाता! मैं यह अनुभव करता हूं जैसे मैं स्वयं इस धमकी भरे संसार में जैसे असुरक्षित हूं और कहीं खो गया हूं! मुझे तभी आराम मिलता है जब मैं अकेला होता हूं! मैं उस मूल श्रद्धा से चुका जा रहा हूं! जो जानकारी या ज्ञान मैने इकट्ठा किया है? जिन भावनाओं को मैने महसूसा है? और जो अनुभव मुझे प्राप्त हुए है, वे आंतरिक श्रद्धा की ओर मेरा पथ प्रशस्त नहीं करते

कृपया क्या आप मेरी सहायता कर सकते हैं?

हली बात, विश्वास एक बहाना है। किसी भी चीज में विश्वास मत करो। विश्वास एक झूठी श्रद्धा है। वह तुम्हें यह अहसास कराती है। जैसे मानो तुम्हें श्रद्धा हो। यह ‘ जैसे मानो ‘ वाली श्रद्धा है; यह खतरनाक है। यदि तुमने दिव्यता जैसी किसी भी चीज का अनुभव नहीं किया है, तो कृपया ईमानदार बने रहो। श्रद्धा करने की कोई जरूरत नहीं है और वहां परमात्मा पर भी विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा को एक तार्किक व्यायाम जैसा मत बनाओ। प्रश्नकर्त्ता कह रहा है, ” मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है। वहां ऐसी कोई शक्ति जरूर होनी चाहिए जो पूरे ब्रह्माण्ड को एक साथ संभाले हुए है।’’ यह एक तर्क का मुद्दा है: अस्तित्व अथवा ब्रह्माण्ड वहां है और सभी चीजें भी वास्तव में एक साथ गतिशील हैं, प्रत्येक वस्तु बहुत सुंदरता से एक साथ चली जा रही हैं, इसीलिए तर्कपूर्ण मन कहता है—वहा कोई ऐसा जरूर होना चाहिए जो सभी को एक साथ संभाले हुए है। जब अस्तित्व वहां है, इसलिए कोई ऐसा जरूर होना चाहिए जिसने यह सभी कुछ सृजित किया है।

लेकिन तर्क के द्वारा परमात्मा तक नहीं पहुंचा जा सकता। केवल प्रेम के द्वारा ही परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। परमात्मा कोई प्रकृति और तर्क के पार का निष्कर्ष नहीं है। यही कारण है कि वैज्ञानिक परमात्मा या सत्य तक कभी भी नहीं पहुंच सकते। और वे लोग जो वास्तव में विचारक हैं, उन्होंने हमेशा परमात्मा से इंकार किया है—क्योंकि यदि तुम वास्तव में विचार का चिंतन कर रहे हो, तुम परमात्मा पर विश्वास नहीं कर सकते। परमात्मा, निरर्थक और असम्भव प्रतीत होता है, वह सच जैसा लगता ही नहीं।

लेकिन तर्क तुम्हें एक नकली विचार दे सकता है। वह सामान्य रूप से कहता है कि जब तुम संसार को एक साथ चलते हुए देखते हो तो तुम सोचते हो कि कोई ऐसा है जो सभी को एक साथ संभाले हुए है। इतना कहना ही काफी है कि यह अत्यधिक विराट संसार एक साथ चला जा रहा है—’‘ मैं यह नहीं जानता कि क्यों, मैं यह भी नहीं जानता कि कौन इसे संभाले हुए है, अथवा कोई ऐसा है, जो इसे संभालता हैं।’’ यह निष्कर्ष ठीक नहीं है; स्मरण रहे, कि तुम यह जानते नहीं। यह अज्ञान ही अत्यधिक सहायक होगा, क्योंकि यह अज्ञान, ईमानदार प्रामाणिक और सच्चा होगा।

तुम सोचते हो कि यह संसार सभी को एक साथ लेकर ऐसे ही कैसे चले जा रहा है, और इसी कारण वहां परमात्मा जरूर होना चाहिए। यहां ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो कहते हैं कि ठीक इसीलिए ही कि संसार ऐसे ही चले जा रहा है, वहां परमात्मा हो ही नहीं सकता। क्योंकि यदि वहां परमात्मा है, तो कभी—कभी वह भी, संसार में ऐसा कोई व्यक्तित्व होगा ही। यह सब कुछ इतना यांत्रिक है: सितारे परिभ्रमण किए चले जाते हैं, सूर्य रोज उगता है यह पृथ्वी घूमे ही चले जा रही है, लोग जन्म लेते हैं फल और बीज वृक्षों पर लगते हैं और बीज मौसम आने पर फिर वृक्ष बनते हैं। यह इतना अधिक यांत्रिक प्रतीत होता है कि बहुत से दार्शनिक कहते हैं—क्योंकि यह संसार पूरी तरह से ठीक ठीक चले ही जा रहा है, तो उसके पीछे कोई व्यक्ति हो ही नहीं सकता। क्योंकि कभी—कभी एक व्यक्ति बदल भी जाता है और जब कभी वह बहुत ऊब भी जाता है। एक दिन सोचता है—’‘ अब आम के बीजों से सेब उत्पन्न होंगे।’’

यदि संसार में वहां कोई व्यक्तित्व है, तो जरा सोचो—’‘ पिकासो की एक वैसी ही पेंटिंग क्या प्रतिदिन आयेगी? यदि पिकासो के घर के बाहर वैसी ही पेंटिंग प्रतिदिन आती रहे तो इससे क्या सिद्ध होगा कि वहां अंदर कोई व्यक्ति बैठा १ अथवा वहां कोई यांत्रिक व्यवस्था हैं? तुम घर के अंदर कभी नहीं जाते हो। तुम यह भी नहीं जानते कि अंदर कौन है, केवल एक पेंटिंग प्रतिदिन मशीनी ढंग से बाहर आ रही है। ठीक वहीं पेंटिग, प्रत्येक चीज ठीक वैसे ही पूर्ण, क्या यह सिद्ध करेगा कि अंदर पिकासो जैसा एक महान पेंटर है? अथवा इससे यह सिद्ध होगा कि वहां अंदर कोई यांत्रिक व्यवस्था है जो उत्पादन किये जा रही है? यहां ऐसे दार्शनिक भी हैं जो कहते हैं कि क्योंकि संसार एक यांत्रिक व्यवस्था से चल रहा है तो वहां उसके पीछे कोई व्यक्तित्व हो ही नहीं सकता। अब क्या किया जाये?”

तुम कहते हो—जब संसार या सृष्टि है: तो वहां सृष्टिकर्त्ता या सृष्टा भी होना चाहिए। ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो कहते हैं—यदि सृष्टि को सृष्टा की आवश्यकता है तब सृष्टा को किसी और सृष्टा की जरूरत होगी। उस सृष्टा को आखिर बनोयगा कौन? और यदि तुम यह कहते हो सृष्टा को किसी और सृष्टा की जरूरत नहीं है— तो मूर्ख मत बनो। तब वे कहते हैं—’‘ तब सृष्टा की भी क्या आवश्यकता है? जब सृष्टा बिना सृष्टा के हो सकता है। तब सृष्टि भी स्वयं बिना किसी सृष्टा के हो सकती है।’’ जैसे ही तुमने यह सिद्धांत बुनियादी रूप से स्वीकार कर लिया कि कोई भी चीज बिना सृजित किए हुए भी अस्तित्व में हो सकती है—वैसे ही संसार या सृष्टि भी बिना सृष्टा के हो सकती है। यदि तुम तर्क में धंसते चले जाओगे तो तुम मुसीबत में पड़ोगे।

 

मैं तुम्हें एक प्रसंग बताना चाहता हूं।

चाय घर में एक के प्रोफेसर ने कहा—तर्कशास्त्र का एक सबक है—’‘ यदि प्रदर्शन नौ बजे शुरू होता है और रात्रि भोजन का समय छ: बजे है, मेरे लड़के को खसरा निकला हुआ है और मेरा भाई कैडीलाक कार चला रहा है तो बताओ मेरी आयु क्या है?”

मुल्ला नसरुद्दीन ने तुरंत उत्तर दिया—’‘ चौरासी वर्ष।’’‘’ बिलकूल ठीक।’’ प्रोफेसर ने कहा—’‘ अब तुम यहां मौजूद दूसरे लोगों को बतलाओ कि तुम ठीक उत्तर तक किस तरह पहुंचे?”

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ यह बहुत आसान है। मेरे एक चाचा हैं, जो बयालीस वर्ष के हैं और वह आधे पागल हैं। इस हिसाब से आपको चौरासी वर्ष का होना चाहिए।’’

 

यदि तुमने परमात्मा को तर्क शास्त्र का एक व्यायाम बना दिया तो तुम पागल हो जाओगे। तार्किक जांच पड़ताल के जाल से कोई भी व्यक्ति कभी समझदार बनकर बाहर नहीं आता। कोई भी समझदार होकर कभी वापस लौटा ही नहीं है क्योंकि आयाम पूरी तरह भिन्न है—उसका तर्क से कुछ लेना देना है ही नहीं। यह कुछ ऐसी चीज है जिसे हृदय के साथ किय जाना है, यह कुछ चीज प्रेम के साथ करने जैसी है।

” मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है ” कृपया विश्वास मत करें, क्योंकि यह विश्वास ही एक चट्टान बन जायेगा और तुम्हें गहरे उतरने की अनुमति नहीं देगा। सामान्य रूप से इतना ही जानो कि तुम उसे नहीं जानते। अपने अज्ञान को स्वीकार करो। उसे विश्वास की आडू में छिपाओ मत क्योंकि अज्ञान से भी एक सम्भावना होती है, लेकिन झूठी उधार ली गई तार्किक जानकारी से कोई सम्भावना ही नहीं होती। तार्किक जानकारी बंजर है, जब कि प्रेम उपजाऊ है।

” मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है। वहां ऐसी कोई शक्ति जरूर होना चाहिए जो पूरे ब्रह्माण्ड को एक साथ संभाले हूए है—’‘ यह परमात्मा तक पहुंचने का कोई तरीका नहीं है—’‘ लेकिन स्वयं अपनी ही गहराई में मैं वहां किसी परमात्मा का अनुभव नहीं कर पाता।’’ सचमुच…… आखिर तुम अनुभव करोगे कैसे? हृदय में तुम तर्क के किसी कथन या निष्कर्ष का कैसे अनुभव कर सकते हो?” दो और दो चार होते हैं, यह निश्चित रूप से ठीक है—लेकिन क्या तुम तर्क पूर्ण निष्कर्ष से प्रेम कर सकते हो? क्या तुम दो धन दो चार से प्रेम कर सकते हो? और यदि कोई भी इससे इंकार करता है, तो क्या तुम उसके लिए क्योंकि वह सच है शहीद बनने का तैयार हो सकते है? तुम कहोगे—उसके बारे में सब कुछ भूल जाओ। यदि तुम कहोगे—उसके बारे में सब कुछ भूल जाओ। यदि तुम दो में दो जोड़कर पांच बनाना चाहते हो तो बना लो, पर मैं उसके लिए अपना जीवन नष्ट क्यों करूं?

कोई भी नहीं मरता, कोई भी एक तर्क पूर्ण कथन या निष्कर्ष के लिए जीवन को दांव पर नहीं लगाता। इसका कोई भी मूल्य नहीं है। यदि कोई इससे इंकार करता है तो उसे वैसा ही रहने दो। दो और दो मिलाकर चार होना पूरी तरह सच है लेकिन यह परमात्मा की श्रेणी का सत्य नहीं है; यहां तक कि यह लैला और मजनू की भी श्रेणी का भी सच नहीं है। यदि तुम्हारे तर्क को गलत सिद्ध कर दिया जाये तो कुछ भी गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता। तुम अपने तर्क में परिवर्तन कर सकते हो। लेकिन यदि तुम्हारा प्रेम गलत सिद्ध हो जाता है तो तुम फिर से वही व्यक्ति कभी भी नहीं हो सकते। यदि तुम्हारा प्रेम गलत सिद्ध होता है, तो तुम ही गलत सिद्ध हो जाते हो। यदि तुम्हारा तर्क गलत सिद्ध हो जाता है, तो कुछ भी गलत सिद्ध नहीं होता। तुम अपने तर्क को बदल सकते हो, तुम उससे अप्रभावित बने रह सकते हो।’’ मैं स्वयं अपनी गहराई में परमात्मा का अनुभव नहीं करता।’’—क्योंकि विश्वास से अनुभव तक का यहां कोई रास्ता है ही नहीं। वे एक दूसरे से सम्बंधित नहीं हैं। इसलिए विश्वास के बारे में भूल ही जाओ। अन्यथा फिर इसकी एक खतरनाक सम्भावना है तुम यह बहाना बना सकते हो कि तुम अनुभव कर रहे हो।

बहुत से लोग बहाने बनाते हैं। वे चर्च, मंदिर और मस्जिद में जाते हैं और वे बहाना बनाते हैं कि वे परमात्मा का अनुभव कर रहे हैं। उनका यह अनुभव वास्तविक अनुभव नहीं है। तुम देख सकते हो कि मंदिर में उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। मंदिर के बाहर तुम उसी आदमी को फिर कहीं न देख पाओगे, जैसा मनुष्य तुमने मंदिर के अंदर देखा था। तुम उसे वैसा ही बाजार के बीच न पाओगे। वह उसका केवल एक मुखौटा था: वह अनुभव करने का कठोर प्रयास कर रहा था। वह नकली आंसू बहाने के साथ—साथ रोने और बिलखने के लिए तैयार था। वे आंसू घड़ियाली आंसू थे। तुम उसे प्रार्थना करते हुए देख सकते हो, लेकिन उसके हृदय में कुछ भी नहीं उमग रहा है—उसके अंदर प्रेमाग्नि नहीं है, तीव्र भावोद्वेग ही नहीं है उसकी प्रार्थना केवल मौखिक शब्द मात्र हैं। वह उन शब्दों को दोहराये चले जाता है, जिसे दोहराने के लिए उसे बताया गया है; यह ठीक तोता रटंत जैसा है। भावनाएं तभी उठती हैं; अनुभव तभी होता है जब तुम अत्यधिक कठोर और निष्ठा से भरा जीवन जीते हो।

परमात्मा में विश्वास के बारे में भूल ही जाओ, उसकी वहां कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ यही जानो कि तुम नहीं जानते हो।’’ मैं नहीं जानता हूं इसी निष्ठा से प्रारम्भ होना चाहिए। हो सकता है परमात्मा—हो, हो सकता है, वह नहीं हो; मुझे खोज करनी है। अब कहां खोजा जाए उसे और कैसे खोजा जाये? यदि वहां है परमात्मा, तो उसे वृक्षों पक्षियों और पशुओं का परमात्मा भी तो होना चाहिए वह अकेला मनुष्यों का ही तो परमात्मा नहीं है। वृक्ष कोई भी तर्क नहीं जानते, पशु पक्षी भी कोई तंर्क—वितर्क नहीं जानते। यदि वहां परमात्मा है तो, ‘ उसे ‘ सभी का परमात्मा होना चाहिए। तर्क का प्रमुख क्षेत्र बहुत सीमित होता है, वह केवल छोटा सा भाग होता है, पूरे संसार का एक बहुत छोटा सा भाग। गणितीय हिसाब किताब और तर्क वितर्क के लिए मनुष्यता के पास मन का केवल एक छोटा सा ही कोना है।

तर्क की बात भूल ही जाओ, यदि परमात्मा है, तो उसे सभी का परमात्मा होना चाहिए। उस तक पहुंचने की शुरुआत यों करो, जैसे वृक्ष करते हैं। उस तक पहुंचने की शुरुआत सरिताओं की भांति करो, जो सागर से मिलने उस तक दौड़ पड़ती है, उस तक पक्षियों की भांति पहुंचो और उस तक पहुंचने की शुरुआत अपने समग्र अस्तित्व के द्वारा करो। नृत्य करो अपनी गहराइयों के साथ। परमात्मा को भूल ही जाओ, केवल समग्रता से नृत्य करने में ही डूब जाओ—क्योंकि एक दिव्य नृत्य करते हुए उस भावदशा में एक क्षण को मन विसर्जित हो जाता है, और तुम्हें समग्र और पूर्ण होने का अनुभव होता है। जब तुम प्रामाणिकता के साथ नृत्य कर रहे होते हो और गति तीव्र होती है तो मन कार्य नहीं कर सकता। मन रुक जाता है और तुम अमन में छलांग लगा जाते हो।

तुम होते हो लेकिन तुम तब मन नहीं होते, और तुम उन क्षणों में तर्क की भाषा में नहीं सोचते। तुम एक वृक्ष बन जाते हो, तेज हवा के साथ झूमते और डोलते हुए एक वृक्ष अथवा एक फूल, एक बहती नदी, एक चट्टान अथवा एक सितारा बन जाते हो, लेकिन तुम तर्क के उस छोटे से सीमा क्षेत्र को, जो तुम पर अधिकार जमाये हुए था, छोड़ देते हो। अकस्मात् तुम्हें किसी के सम्पर्क में होने का अनुभव होना शुरू होने लगेगा। तुम्हें लगेगा जैसे किसी अज्ञात ऊर्जा ने तुमसे सम्पर्क जोड़ा है और तुम्हें भी किसी के सम्पर्क में आने का अहसास होगा। एक नर्त्तक ही धार्मिक बनता है, उसे वैसा होना ही होता है। कोई गीत गुनगुनाओ— और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कोई धार्मिक गीत ही गाओ। यदि गाना सच्चा और प्रामाणिक है, तो वही धार्मिक है। उसके शब्द क्या हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दौड़ो तैसे, कोई भी काम करो, और करते हुए उस कार्य में खो जाओ।

मैं इसीलिए ध्यान की सक्रिय विधियों पर जोर देता हूं: नृत्य करना, गीत गाना, संगीत, ताईची, कराटे। कुछ करो, क्योंकि जब तुम कुछ करते हो तो तुम वृक्षों, पक्षियों और पशुओं के महान संसार का एक भाग बन जाते हो। वे करने वाले हैं, वे विचारक नहीं है। जब तुम कुछ कार्य करते हो, तो अकस्मात् अस्तित्व की एकता के विराट सागर में डूब जाते हो।

तब वहां यह अनुभव होता है कि परमात्मा है। लेकिन यह परमात्मा, ईसाइयों, हिंदुओं और मुसलमानों का परमात्मा नहीं है। यह परमात्मा तुम्हारा अपना परमात्मा है। इसका बाईबिल गीता और कुरान से कोई लेना—देना नहीं है। यह परमात्मा तुम्हारा परमात्मा है। इस परमात्मा का तर्कशास्त्र, तर्क के पार के निष्कर्षों, दर्शन शास्त्र और संस्कारों से कुछ लेना देना नहीं है। यह वह परमात्मा है, जिसे तुमने महसूसा है, उसमें जीकर उसका अनुभव किया है।

तब….. .तुम तभी जानोगे, और इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा मार्ग है ही नहीं।

लोग शास्त्रों से सीख रहे हैं और सबसे महान शास्त्र जो तुम्हें अस्तित्व द्वारा दिया गया है, वह बिना खुले रह जाता है। और शास्त्रों के द्वारा तुम पाते हो केवल विचार।

 

मैंने सुना है……

मुल्ला नसरुद्दीन तलाक के बारे में अपने वकील से मिलने गया।

वकील ने उससे पूछा—’‘ तलाक देने के लिए तुम्हारे खयाल में तुम्हारे पास क्या आधार हैं?”

मुल्ला ने उत्तर दिया—’‘ यह मेरी पत्नी के शिष्टाचार के बाबत है। भोजन की मेज पर बैठने की उसकी बुरी आदतों से वह पूरे परिवार की गौरव गरिमा को नष्ट करती है।’’

वकील ने कहा—’‘ यह बुरी बात है। लेकिन आपका विवाह हुए कितना समय बीत चुका?”

मुल्ला ने उत्तर दिया—’‘ नौ वर्ष।’’

वकील ने कहा—’‘ यदि आप उसके मेज पर बैठने की आदतों और तौर तरीकों को नौ वर्ष तक सहते रहे तो मैं यह नहीं समझ पा रहा कि अब आप उसको तलाक क्यों देना चाहते हो?”

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ मैं पहले इसे स्वयं नहीं जानता था। मैं आज सुबह ही शिष्टाचार पर एक पुस्तक खरीद कर लाया हूं।’’

तुम पहले पुस्तकें पढ़ते हो, तब तुम जीवन के बारे में कुछ निर्णय लेते हो। पहले जीवन में गतिशील बनो और तभी पुस्तकों के बारे में कोई निर्णय लो। और तब तुम्हें आश्चर्य होगा कि गीता, कुरान और बाइबिल तीन अलग— अलग पुस्तकें न होकर केवल एक ही पुस्तक है। तब बुद्ध, क्राइस्ट और कृष्ण तीन व्यक्ति नहीं रह जाते, बल्कि तीनों स्वर एक ही व्यक्ति के स्वर होते हैं।

लेकिन पहले यदि तुम पुस्तकों के तर्कपूर्ण जाल में फंस जाते हो, तब तुम जीवन को जानने में कभी भी समर्थ न हो सकोगे। अधिक सहज स्वाभाविक बनने का प्रयास करो। परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल ही जाओ। उस परमात्मा के साथ रहो, जो तुम्हें पहले ही से चारों ओर से घेरे हुए है, वह तुम्हारे चारों ओर फैला है। इसी क्षण कोयल कूकती हुई अपनी प्रार्थना कर रही है, पक्षी भी चहचहाते हुए प्रार्थना ही कर रहे हैं। जरा वृक्षों की ओर देखो, कि वे कितने प्रार्थनापूर्ण हैं? पूरा अस्तित्व ही प्रार्थना में निमग्न है और तुम क्या कर रहे हो, तुम बैठे हुए अपने खोपड़ी के अंदर परमात्मा के बारे में विचार कर रहे हो कि वह है अथवा नहीं? ” उसका अस्तित्व होना ही चाहिए क्योंकि यह संसार इतनी सुंदरता से एक साथ चलता चला जा रहा है।’’

यह संसार सभी के साथ मिलकर सुंदरता से गतिशील है। तुम भी सभी के साथ मिलकर उसके एक भाग बन जाओ, इस सहभागिता में घुल ही जाओ। जब नदी बही चली जा रही है, तुम उसमें कूदते क्यों नहीं? तुम नदी किनारे आंखें बंद किए बैठे हुए सोच रहे हो—नदी को वहां जरूर होना चाहिए क्योंकि…..? ये सभी ” क्योंकि ” आदि भूल ही जाओ।

आंतरिक श्रद्धा केवल तभी जन्मती है जब तुम्हारा परमात्मा से जीवंत सम्पर्क होता है। जो कुछ भी तुम करना चाहो, कर सकते हो पर कृपया केवल मात्र सिर या बुद्धि के होकर मत रह जाना। सिर या बुद्धि के साथ गलत कुछ भी नहीं है यदि वह तुम्हारी समग्रता में साथ कार्य करती है। गलत तब होता है जब वह एक भाग बनकर समग्रता पर नियंत्रण करना प्रारम्भ कर देती है। अपने सिर से उतार कर चेतना को नीचे पेट या नाभि पर ले जाओ। वापस लौटकर तुम होशपूर्ण बनो, कहीं अधिक भूमि या मिट्टी से जुड़ो।

बाउलों का यही संदेश है: अधिक प्रामाणिक और सच्चे बनो। जब तुम प्रामाणिक होते हो तो परमात्मा भी प्रामाणिक होता है; जब तुम सच्चे होते हो, तो परमात्मा भी सच्चा होता है—क्योंकि जब तुम सच्चे होते हो, तुम अस्तित्व के सत्य के साथ सम्पर्क बनाने में समर्थ होते हो। जब तुम प्रामाणिक होते हो तुम अचानक समग्र अस्तित्व के साथ लयबद्ध हो जाते हो। जब तुम नकली होते हो, तभी यह समस्या उठ खड़ी होती है कि परमात्मा अस्तित्व में है अथवा नहीं, इससे बस इतना ही प्रदर्शित होता है कि तुमने पूर्ण अस्तित्व के साथ लयबद्धता खो दी है। फिर से लयबद्ध हो जाओ, पंक्तिबद्ध होकर अस्तित्व की सीमा रेखा में फिर गिर पड़े। अधिक सच्चे और अधिक प्रामाणिक बनने के लिए वापस लौट आओ।

सभी धर्मों का भी यही पूरा संदेश है यदि वह धर्म, धर्म जैसा है। यही कारण है कि बुद्ध और महावीर परमात्मा के बारे में कुछ बात करते ही नहीं : वे कहते हैं : ” सच्चे और प्रामाणिक बनो, और तुम परमात्मा ही हो जाओगे।’’ केवल सच्चे बनने से ही तुम सत्य के निकट आ जाते हो। यह बहुत सरल है। क्या तुम इतनी साधारण सी बात भी नहीं समझ पाते कि सच्चे बनने से ही तुम सत्य के निकट आ जाते हो?

विश्वास झूठा है, उधार का ज्ञान भी झूठा है। वह सभी कुछ गिरा दो जो उधार लिया हुआ है। कुछ समय के लिए तुम अपने को दीन होने का अनुभव करो क्योंकि तुम्हारी बटोरी गई जानकारी तुम्हें एक बहुत बड़ा अहंकार देती है, कि मैं जानता हूं। यह जानना, कि तुम कुछ भी नहीं जानते तुम कुछ दिनों तक बहुत निर्धन होने का अनुभव कर सकते हो, तुम्हें एक भिखारी जैसा होने का अनुभव हो सकता है। लेकिन यदि तुम पहले ही प्रामाणिक बनने को तैयार हो, तो अचानक एक दिन संवाद घटित हो जाता है। जब तुम उधार ली गई जानकारी को खो देते हो, तो तुम्हारे अंदर से कुछ चीज उमगती और जन्मती है जो न जाने कब से प्रतीक्षा कर रही थी। तुम्हारे अंदर ही से कुछ उठता है, कोई सुवास जैसा, जो तुम्हारी पूरी चेतना को सुवास से भर देता है। परमात्मा जो कुछ भी है वह यही है।

परमात्मा और कुछ भी नहीं है, बल्कि जीवन ही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा एक ऊर्जा है, तुम ही हो परमात्मा। परमात्मा ही वह ऊर्जा है जिससे वृक्ष वृक्ष है। सितारों में भी वही परमात्मा की ही ऊर्जा है। प्रत्येक वस्तु जिस सामग्री से बनी है, परमात्मा वही सामग्री और कच्चा माल है। परमात्मा सृष्टा न होकर सृष्टि है। इस क्षण भी तुम परमात्मा के ही सागर में हो, लेकिन वह तुम्हारे बहुत निकट है और तुम ही उससे बहुत दूर अपने सिर और बुद्धि में उलझे हो। बुद्धि को हृदय से जोड्ने वाले सेतु से ही तुम चूके जा रहे हो।

 

अंतिम प्रश्न: प्यारे ओशो! मैं आपके सम्बंध में इतना अधिक सनकी और पागल हूं कि मैं आपके पास कैसे आऊं?

सी कारण मैं सनकी लोगों को आकर्षित करता हूं क्योंकि मैं स्वयं सनकी हूं। लेकिन सनकी अथवा पागल व्यक्ति बहुत सुंदर होते हैं। ये लोग ही संसार में केवल समझदार लोग है। बाउल शब्द का भी यही अर्थ है। बाउल का अर्थ होता है—बावरा दीवाना, पागल। मैं एक बाउल हूं और मैं बाउलों को ही अपनी ओर इसी कारण आकर्षित करता हूं।



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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–12)

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नीड़—निर्माण का मजा : जब आंधी हो—(प्रवचन—बाहरवां)

दिनांक 23 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—आप कृष्‍ण, क्राइस्‍ट, कबीर, सभी पर क्‍यों बोल रहे है?

2—जंजीर टूटी नहीं, नुपुर बन गई है।

3—भगवान को ‘किडनेप’ करने का इरादा।

4—संसार संन्‍यास में बाधाएं डाल रहा है…..

5—संन्‍यास मेरे भाग्‍य में है या नहीं?

6—समाधि की अंतर्दशा के संबंध में कुछ कहें।

 

पहला प्रश्न : आप कृष्ण, क्राइस्ट, कबीर, सभी पर क्यों बोल रहे हैं?

मैं सभी हूँ! तुम भी सभी हो। मुझे याद है, तुम्हें याद नहीं। इतना ही भेद है। मनुष्य की सारी वसीयत तुम्हारी है। मनुष्य की ही क्यों, अस्तित्व की सारी वसीयत तुम्हारी है। जो भी आज तक हुआ है, सब तुम्हारा है। और जो कल भी होगा, वह भी तुम्हारा है। तुम्हारे भीतर सारा अतीत छिपा है और सारा भविष्य भी। बुद्ध भी तुम्हारे भीतर हुए! महावीर भी। और आने वाले बुद्ध भी तुम्हारे ही भीतर जगेंगे, जन्मेंगे, जीएँने; चलेंगे, उठेंगे, बोलेंगे। तुम इस विराट के साथ एक हो। इस बात की याद दिलाने के लिए बोल रहा हूँ, सब पर बोल रहा हुं। मनुष्य ने पुराने दिनों में बहुत संकीर्ण घेरे बना लिये थे, उन्हें तोड़ देना जरूरी है। जो कबीर को मानता है, वह कबीर के घेरे में बंद हो जाता है। जो क्राइस्ट को मानता है, वह क्राइस्ट के घेरे में बंद हो जाता है। ऐसे छोटे—छोटे डबरे लोगों ने बना लिये हैं। मैं सारे डबरे तोड रहा हूँ, ताकि सागर प्रगद हो। कबीर का अपना ढंग है; और कृष्ण का अपना; महावीर का अपना और मुहम्मद का अपना। ये ढंग के ही भेद हैं। लेकिन जो जीवनधारा, जो रसगंगा बही है, वह तो एक ही है। ये एक ही रसगंगा के अलग—अलग घाट, अलग—अलग तीर्थ हैं। तुम इन्हें अलग—अलग देखना बंद करो। इन्हें अलग—अलग देखकर बड़ी अड़चन पैदा हुई है। धर्म के नाम पर बहुत खून बहा। धर्म के नाम पर बहुत अधर्म हुआ है। और धर्म के नाम पर बहुत सीमाएँ, पाखंड, औपचारिकताएँ, क्षुद्रताएँ निर्मित हो गयी हैं। वे सब तोड़ देनी हैं।

मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च, इनके होने के ढंग कितने ही अलग हों, लेकिन जिसके लिए ये निर्मित हैं वह मालिक एक है। उस मालिक की तुम्हें याद दिलाना चाहता हूँ। फिर जिसे जिस भाँति रुच जाए। रुचि भर का भेद होगा। किसीको कृष्ण का ढंग रुचता है, तो जरूर उसी ढंग से चले। उसी बाँसुरी के स्वर पर नाचे। किसीको बुद्ध का ढंग रुचता है, तो बुद्ध के साथ जोड़ ले नाता। लेकिन स्मरण सदा रखे कि डबरा न बन जाए। तुम्हारा बुद्ध का प्रेम इतना बड़ा होना चाहिए कि उसमें महावीर, मुहम्मद, क्राइस्ट, जरथुस्त्र समा जाएँ। प्रेम अगर छोटा हो, तो घृणा’ हो जाता है। छोटा होने के कारण ही घृणा हो जाता है।

इस पृथ्वी पर सारे लोग प्रेम करते हैं, फिर भी घृणा का राज्य है। क्या होगा कारण? सारे लोगों का प्रेम छोटा—छोटा है। छोटा प्रेम घृणा बन जाता है। प्रेम तो बड़ा ही हो तो प्रेम रहता है। प्रेम तो विराट ही हो तो प्रेम रहता है। प्रेम का विराट होना उसकी अनिवार्य लक्षणा है। आगनों से प्रेम न करो। आँगनों में रहना भी पड़े तो रहो, मगर प्रेम तो आकाश से ही हो। तुम्हारे आँगन में भी जो आकाश है, वह विराट का ही हिस्सा है। तुमने एक दीवाल बना ली है, तुम्हारी दीवाल अपने ढंग की है, किसीने पत्थर रख लिये हैं, किसीने ईंटें जोड़ ली हैं, किसीने संगमरमर की दीवाल बना ली है, मगर यह दीवालों का भेद है। वह जो आकाश तुम्हारे आंगन में उतरा है, उसमें कुछ भेद नहीं है। किसीका आड़ा है आँगन, किसीका तिरछा है, और किसीने कोई और रूप दिया है, यह तुम्हारी मौज। तुम्हारा आँगन है, तुम जैसा चाहो बनाओ। जिस आकृति में चाहो बनाओ। लेकिन याद रखना, जो आकाश उतरा है उसका कोई आकार नहीं है। आकाश निराकार है। निराकार भूल गया, आकार हाथ में पकड़ कर रह गया। अगिन तो भूल ही गया, क्योंकि औंगन तो आकाश का अंग है, आँगन को घेरने वाली दीवाल महत्वपूर्ण हो गयी। ऐसे तुम हिंदू बने, मुसलमान बने, जैन बने, ईसाई बने। और जितने तुम मुसलमान बन गये, हिंदू बन गये, जैन बन गये, उतने ही तुम कम आदमी हो गये। आदमी बनो। सारी वसीयत तुम्हारी है। कुरान भी गूँजे तुम्हारे भीतर, और गीता का भी गीत उठे, सब तुम्हारा है। इतने विराट में से तुम क्षुद्र को चुन कर दरिद्र क्यों होना चाहते हो? लेकिन अहंकार क्षुद्र के साथ ही संयोग बना पाता है। विराट से संयोग बनाए तो मौत हो जाती है। अहंकार को मिटना पड़ता है। बूँद सागर से दोस्ती बनाएगी तो खो जाएगी। इससे लोग डरते हैं। इससे लोग छोटे—छोटे आयोजन कर लेते हैं।

और फिर जब तुम एक छोटा—सा आयोजन कर लेते हो, तो उससे भिन्न जो है सब, विपरीत मालूम होने लगता है। जो तुम्हारे साथ नहीं, वह दुश्मन मालूम होने लगता है। फिर राजनीति पैदा होती है, धर्म तो नष्ट हो जाता है। यह तो राज— नीति की भाषा है कि जो मेरे साथ नहीं, वह मेरा दुश्मन। जो मेरा गीत न गाए, वह मेरा दुश्मन। जो मेरी बाँसुरी न बजाए, वह मेरा दुश्मन। जो मेरे ढंग से न नाचे, वह मेरा दुश्मन। तो दुनिया में मित्र तो कम रह जाते हैं, दुश्मन बहुत हो जाते हैं।

और यह सारा जगत परमात्मा से व्याप्त है। इस परमात्मा से तुम मैली ही बनाओ सिर्फ। और ख्याल रखना, लाल रंग लाल है, हरा रंग हरा है, नीला रंग नीला है। भिन्न हैं बहुत, मगर फिर भी अभिन्न हैं, क्योंकि हैं तो सभी एक ही प्रकाश के अंग। एक ही इंद्रधनुष के हिस्से हैं। और दुनिया सुंदर है, क्योंकि सतरंगी है। यहाँ बहुत रूपों में बुद्ध का अवतरण हुआ है। बहुत रूपों में दीया जला है। परवाने इसकी फिकर नहीं करते कि दीया मिट्टी का है कि सोने का है, परवाने तो दीये को पहचानते हैं और दीये के साथ जोड़ लेते हैं दोस्ती और मिट जाते हैं। दीये की ज्योति को पहचानते हैं।

तुम ज्योति को पहचान सको, इसलिए इन सबकी बात कर रहा हूँ। तुम विराट हो सको, इसलिए इन सबकी बात कर रहा हूँ। छोटे न बनो।

बुसअते—बज्मे—जहां में हम न मानेंगे कभी

एक ही साकी रहे और एक पैमाना रहे

इतनी बड़ी दुनिया में, इतने विस्तीर्ण विराट में, इतने असीम में, तुमने भी क्या जिद कर रखी है कि एक ही साकी रहे और एक ही पैमाना रहे! तुमने भी क्या जिद कर रखी है कि इसी मधुशाला से पिएँगे! जब कि सब तरफ उसका मधु बरसता हो।

बुसअते—बज्मे जहां में हम न मानेंगे कभी

एक ही साकी रहे और एक पैमाना रहे

सब सुराहियों से पिओ। सब मधुशालाएँ तुम्हारी हैं। सब मंदिर—मस्जिद तुम्हारे हैं। जहाँ मौज हो, वहाँ प्रार्थना करो। जो निकट पड़ जाए, वहाँ पूजा करो। जरा उठो और तुम चौंक कर पाओगे कि अगर तुम मंदिर में भी पूजा कर पाते हो और मस्जिद में भी और गुरुद्वारे में भी और शिवालय में भी और चैत्यालय में भी, तुम अचानक पाओगे तुम्हारे हृदय का विस्तार होने लगा। तुम्हारी प्रार्थना बड़ी होने लगी। फैलने लगी, विस्तीर्ण होने लगी। छोटी—छोटी प्रार्थनाएँ लिये चल रहे हो! इतना बड़ा आकाश मिल सकता है, तुम जमीन पर सरक रहे हो! और तुम मुझसे पूछते हो कि आप कृष्ण, क्राइस्ट, कबीर, सभी पर क्यों बोल रहे हैं!

एक और मित्र ने पूछा है। उन्होंने पूछा है कि अतीत में तो कोई बुद्धपुरुष दूसरे बुद्धपुरुषों के वचनों पर नहीं बोला। उनकी तुम उनसे पूछ लेना, मेरे लिए तो कोई दूसरा नहीं है। जब बुद्ध पर बोलता हूँ, तो बुद्ध ही हो जाता हूँ। अभी रज्जब पर बोल रहा हूँ, तो रज्जब ही हो गया हूँ। मेरे लिए कोई दूसरा नहीं है। वे क्यों नहीं बोले दूसरों पर, तुम्हारा कहीं उनसे मिलना हो जाए उनसे पूछ लेना। मैं क्यों बोरन रहा हूँ, इसका उत्तर तुम्हें दे सकता हूँ। मेरे लिए कोई दूसरा नहीं है। बुद्धत्व का स्वाद एक है। जैसे सब सागर नमकीन हैं; ऐसे बुद्धत्व का स्वाद एक है। बाहर से चखो तो प्रेम, भीतर से चखो तो ध्यान। अपने भीतर जाकर उतरकर चखो तो ध्यान उसका स्वाद है और अपने बाहर किसीको बाँट दो तो प्रेम उसका स्वाद है। एक पहलू सिक्के का प्रेम है, एक पहलू ध्यान है। कुछ बुद्धों ने’ एक पहलू को जोर दिया, कुछ बुद्धों ने दूसरे पहलू को जोर दिया। क्योंकि अमुक को पा लेने से दूसरा अपने—आप मिल जाता है। बुद्ध ने कहा ध्यान पा लो, प्रेम अपने से उपलब्ध होता है। और मीरा ने कहा प्रेम पा लो, ध्यान अपने से उपलब्ध होता है। तुम एक पा लो, दूसरा अपने से मिल जाता है। मैं तुम्हें याद दिला रहा हूँ कि चाहो तो तुम दोनों भी एकसाथ पा लो। जो तुम्हारी मर्जी हो, एक से चलना है एक से चलो, दूसरा मिल जाएगा, दोनों को एक साथ पाना हो तो दोनों को एकसाथ पा लो।

मेरे लिए कोई दूसरा नहीं है।

उन मित्र ने यह भी पूछा है——और यही नहीं कि आप दूसरे बुद्धपुरुषों के वचन पर बोलते हैं, आप ऐसे लोगों का काव्य भी उद्धरण कर देते हैं जो बुद्धपुरुष नहीं हैं। मेरे लेखे यहाँ कोई भी नहीं है जो बुद्धपुरुष न हो। तुम्हें पता न होगा। हो तो तुम वही। सोए—सोए हो, तंद्रा में हो, खोए—खोए हो, मगर हो तो तुम वही। बुद्ध ने कहा है, जिस दिन मैं बुद्ध हुआ, उसी दिन मेरे लिए सारा अस्तित्व बुद्ध हो गया। मैं भी तुमसे यही कहता हूँ। यह हो सकता है कि जिन कवियों की पंक्तियाँ मैं उद्धृत करता हूँ, उन्हें भी याद न हो कि वे कौन हैं। मगर मैं अपने को जान कर, अपने को पहचान कर इस पहचान को भी पा लिया हूँ कि सबके भीतर वही बोल रहा है। और कभी—कभी सोए हुए आदमी से भी उसकी ऐसी प्यारी पुकार उठती है! और कभी—कभी सोया हुआ आदमी भी ऐसे प्यारे शब्दों में उसकी अनुगूँज कर जाता है! वस्तुत जो भी श्रेष्ठ काव्य है, वह कवि के द्वारा निर्मित नहीं होता, कवि से सिर्फ बहता है। उस घड़ी में कवि मिट गया होता है और परमात्मा ही होता है। ज्यादा देर यह बात नहीं टिकती, फिर कवि लौट आता है, न केवल लौट आता है बल्कि अपनी कविता पर——जो उसकी नहीं है, उससे आयी है, उससे बही है——उसका दावेदार हो जाता है। उस पर हस्ताक्षर कर देता है कि यह मेरी कविता है। लेकिन जगत के सारे विचारशील कवियों ने यह कहा है कि जो भी हमसे श्रेष्ठ पैदा हुआ है, वह हमसे नहीं आया, हमसे पार कहीं से आया है।

रवींद्रनाथ ने कहा है कि जो भी श्रेष्ठ है मेरे गीतों में, वह मेरा नहीं है। कहीं— कहीं कोई पंक्ति जो अद्भुत स्वर्णमयी हो उठी है, वह मेरी नहीं है। उसमें चमक किसी और ही रोशनी की है। हाँ, मेरे ओंठों का उपयोग हुआ है। ऐसा ही समझो कि तुम अपनी कलम से एक गीत लिखते हो, अगर कलम भी बोल सकती होती तो कहती कि गीत मैंने लिखा है। कलम बोल नहीं सकती, बस इतनी ही दिक्कत है।

कलम भी बोल सकती होती तो झंझट खड़ी हो जाती, कलम कहती कि मेरे बिना तो नहीं लिखा न; मैंने लिखा है, मैं मालिक हूँ।

कवि अपने गहरे क्षणों में सिर्फ कलम हो जाता है। इसलिए हम सदा से मानते रहे हैं कि वेद अपौरुषेय हैं; उनको किसी पुरुष ने नहीं लिखा है। इसका यह मतलब नहीं कि पुरुष ने नहीं लिखा, पुरुषों ने ही लिखा है, क्योंकि लिखावट तो जब भी होगी कलम से ही होगी, कलम तो चाहनी ही होगी, बिना कलम के कैसे लिखोगे, लिखा तो पुरुषों ने ही है, मनुष्यों ने ही है, मगर जिन्होंने लिखा, लिखते क्षण में वे मिट गये थे। द्वार हो गये थे। उनके पार से आकाश झलका था, चाँद—तारों ने रोशनी फेंकी थी, परमात्मा उनसे बोल सका था, उन्होंने जगह दे दी थी, राह से हट गये थे, बाधा न रहे थे, अवरोध हटा लिये थे, कहा था, मैं मौजूद हूँ, मेरा उपयोग कर लो, उपकरण हो गये थे, निमित्त मात्र थे। जैसे कलम निमित्त मात्र है। कलम लिखती नहीं कविता, सिर्फ निमित्त है लिखने में; लिखी जाती है कविता उससे, मगर आती कहीं और से है। वेद ही अपौरुषेय नहीं हैं, कुरान भी अपौरुषेय है। और बाइबिल भी। मगर वेद, कुरान और बाइबिल को हम मान भी लें अपौरुषेय, मेरे देखे तो साधारण—से—साधारण कवि में भी कभी—कभी अपौरुषेय तत्व उत्तर आता है, उसकी झलक आ जाती है। उसे पता नहीं, इतना उसका ध्यान अभी गहरा नहीं कि पहचान ले कहाँ से यह स्वर आया, अभी इतनी गहरी उसकी प्रज्ञा नहीं है कि प्रत्यभिज्ञा कर ले कहाँ से, किस द्वार से यह किरण उतरी, सोचता है मेरी ही है, दावेदार बन जाता है, लेकिन जब जागेगा, तो पाएगा कि मेरा कुछ भी नहीं है।

तो ठीक पूछा तुमने कि मैं कभी—कभी उनके उद्धरण भी देता हूँ जिनको साधारणत कोई बुद्धपुरुष नहीं कहेगा। लेकिन मैं तो वृक्षों की भी बातें करता हूँ, पहाड़ों की भी बातें करता हूँ, चाँद—तारों की भी बातें करता हूँ, इनमें भी मेरे लिए बुद्ध ही सोए हुए हैं। वृक्ष में बुद्ध हरे हैं, पहाड़ में बड़ी गहरी नींद में सोए हैं——जागेंगे कभी; कभी वह घड़ी आएगी जब पहाड़ भी जागेगा और बुद्धत्व को उपलब्ध होगा और वृक्ष भी जागेगा और बुद्धत्व को उपलब्ध. होगा; कमी तुम भी वृक्ष थे और कभी तुम भी पहाड़ थे, यात्रा करते—करते अब तुम आदमी हो गये हो, अब एक कदम और उठाओगे तो बुद्ध हो जाओगे।

तुम्हारे स्वभाव की परिभाषा क्या है? स्वभाव की एक ही परिभाषा है, जो अंतत: तुम्हारे भीतर होगा, वही तुम्हारा स्वभाव है। जो अंतिम शिखर होगा तुम्हारा वही तुम्हारा स्वभाव है। क्योंकि वही तुम्हारा अंतिम शिखर हो सकता है जो तुम्हारे भीतर सदा से अंतरतम में छिपा पड़ा था। एक बीज है, इसका स्वभाव तो पहचान में नहीं आता। बीज तो बंद है, पहचानोगे कैसे? ताले पड़े हैं बीज पर, द्वार— दरवाजे बंद हैं, कुंजी भी मिलती नहीं कोई। इस बीज को फिर तुम डाल देते हो भूमि में, फिर यह टूटता है, अंकुरित होता है, फिर इसमें वृक्ष पैदा होता है, फिर एक दिन तुम पाते हो कि फूलों से लद गया वृक्ष; अब तुम जानते हो कि यह बीज का स्वभाव क्या था। यह गुलमोहर था। यह जो आज सुर्ख फूलों से भर गया है, यह लपटों की तरह आकाश में इसने फूल उठा दिये हैं। यह फूलों से भरा है, यह इसका स्वभाव था। बीज में तो पहचान में न आ सका था, लेकिन फूलों में पहचान में आ गया। तुम बीज हो, बुद्ध के फूल खिल गये हैं, मगर तुम्हारे बीज में भी यही सब भरा है। तुम्हारा बीज भी इसी सबको अपने भीतर लिये है। तुम छोटे नहीं हो, तुम कितने ही छोटे अपने को बना लिये हो मगर तुम छोटे नहीं हो।

तो मैं तो उनसे भी चुन लेता हूँ, जिनको तुम साधारणत: बुद्धपुरुष न कहोगे। मेरे लिए बुद्धों में और अबुद्धों में जो भेद है, बड़ा छोटा—सा है। जरा—सा है। बुद्ध जागे हैं, अबुद्ध सोए हैं। स्वभाव में रत्ती मात्र का भेद नहीं है। और कभी—कभी सोया हुआ आदमी भी ऐसी बातें बोल जाता है, कभी—कभी छोटे बच्चे ऐसी बातें बोल जाते हैं कि बड़े—बूढ़े और सयाने मात हो जाएँ। कभी—कभी छोटे बच्चों के मुँह से ऐसी बातें निकल आती हैं——जो अभी तुतलाते हैं, जिन्हें अभी बोलना भी ठीक से नहीं आया——ऐसे सत्य प्रगट हो जाते हैं कि जिनके सामने बड़े—बड़े सत्य का विचार करनेवाले विचारक फीके पड़ जाएँ, छोटे पड़ जाएँ। यही तो जिंदगी का रहस्य है। इसलिए मुझे कोई अड़चन नहीं होती।

फिर मैं इसकी फिकिर नहीं करता कि कवि का क्या प्रयोजन है। कवि के शब्द ले लेता हूँ, अर्थ तो मैं अपने डालता हूँ। शायद कवि पढ़ेगा, सुनेगा, तो खुद भी चौंकेगा—शायद ये उसके अर्थ रहे भी न हों, शायद इस भाँति उसने सोचा भी न हो। उसने तो शायद शराब का गीत शराब के लिए ही लिखा हो, लेकिन जब मैं उसका गीत उद्धृत करता हूँ, तो मेरे लिए शराब शराब नहीं रह जाती, परमात्मा का आंनदरस हो जाता है। रसों वै स। अर्थ तो मैं अपने डाल देता हूँ, रंग तो मैं अपना डाल देता हूँ। सुराही मैं किसीकी उठा लेता हूँ, रस तो मैं अपना डाल देता हूँ। तुम्हें यह याद दिलाना चाहता हूँ कि तुम बुद्धत्व से बहुत दूर नहीं हो। जरा जागने की बात है। एक क्षण में भी हो सकती है। और भजन—भाव जग सकता है, फूल खिल सकते हैं।

फिर उन मित्र ने यह भी पूछा है कि आपका हर शब्द काव्य है, फिर आप बाहर के काव्य से क्यों उद्धरण देते हैं? कौन बाहर, कौन भीतर? कहाँ बाहर, कहाँ भीतर? ये बाहर—भीतर के भेद छोड़ो। यहाँ सब एक है। यहाँ न कुछ बाहर है, न कुछ भीतर है। यही मेरा काव्य है, जिसमें न कुछ बाहर है, न कुछ भीतर है; न कुछ अपना. है, न पराया है। इस एकरसता में डूबो।

लेकिन तुम्हें संकीर्ण दायरे पसंद आते हैं। तुम्हें बड़ी अड़चन होती है यह बात मानकर कि मैं कबीर पर बोलूं, फरीद पर बोलूँ, रूमी पर बोलूँ, तुम्हें बड़ी अड़चन होती है।

मैं एक जैन—संत पर बोल रहा था, बीच में फरीद का मैंने उल्लेख किया——औंर फरीद तो मुसलमान था——एक सज्जन मेरे सामने ही बैठे बड़े मस्त हो रहे थे, एकदम चौंके, उठ कर चल पड़े। बाद में उन्होंने मुझे खबर भेजी कि आपने जैन—संत पर बोलते समय और मुसलमान फकीर का उल्लेख किया, यह बात ठीक नहीं है। कहाँ अहिंसा और कहाँ हिंसा? कहाँ वीतराग जैन—संत और कहाँ फरीद? आपने दोनों की तुलना की! इससे हमारे हृदय को बड़ी चोट पहुँची।

ऐसे ओछे हो गये हैं लोग। उन्हें फरीद का कुछ पता नहीं है। फरीद उतना ही वीतराग है, जितने उनके जैन—संत वीतराग होंगे। शायद थोड़ा ज्यादा ही। उनकी कठिनाई क्या है? उनकी कठिनाई यह है कि उनका जैन—मुनि तो पत्नी को छोड्कर चला गया है और यह फकीर ने तो पत्नी नहीं छोड़ी है। मगर यह हो सकता है जो पत्नी को छोड्कर चला गया है वह पत्नी से डरता हो, भयभीत हो, पत्नी के पास रहेगा तो वासना जगने की संभावना रही होगी, और जो पत्नी के पास ही रहा आया, वह इतना वीतराग हो कि अब पास और दूर से क्या फर्क पड़ता है? पत्नी है तो रही’ आए। भीतर की वासना दग्ध हो गयी हो तो पत्नी से भागने की जरूरत भी क्या है? कोई पत्नी से थोड़े ही भागता है, अपनी ही वासनाओं से, अपने ही रोगों से, अपने ही भीतर छिपे हुए साँप—बिच्छुओं से भागता है। मगर वे तो तुम्हारे साथ ही चले जाते हैं। मगर हम ऊपर से देखने के आदी हैं। हम तो ‘लेबिल’ लगा कर बैठे हैं। ‘लेबिल’ लगा दिये हैं और अपने—अपने ‘लेबिल’ को सँभाले बैठे हैं, और अपनी सीमा में दूसरे को प्रवेश नहीं करने देते।

मुझसे सभी नाराज हैं। होना चाहिए था सभी को प्रसन्न, क्योंकि मैं सभी के संतों की बातें कर रहा हूँ, लेकिन सभी नाराज हैं। नाराज इसलिए हैं कि उनके ही संत की बात अगर करता, तो ठीक था। और संतों को बीच में ले आया हूँ! सभी की प्रशंसा कर रहा हूँ! इससे उनकी सीमाएँ डगमगा गयी हैं। इससे उन्हें बेचैनी पैदा हो गयी है।

फिर तुमने बुद्धपुरुषों के बीच बड़े फासले खड़े कर रखे हैं। जैन बुद्ध को ज्ञानी नहीं मानते। और न ही बौद्ध महावीर को उपलब्ध सिद्ध मानते हैं। औरों की तो बात छोड़ो, इतने पास—पास ये दोनों आदमी थे——महावीर और बुद्ध—फिर भी दोनों के अनुयायी दोनों को स्वीकार नहीं कर पाते। तुम्हारे मन छोटे हैं, संकीर्ण हैं। तुम एक ढाँचा बना लेते हो। उस ढाँचे में जो आ जाए, बस वही ठीक। मैं ढाँचे मिटा रहा हूँ। मैं तुम्हें उस दिशा में ले चल रहा हूँ जहाँ तुम एक दिन कह सकोगे——सब ठीक, जहाँ किसी ढाँचे के आधार से न कहोगे सब ठीक, बल्कि जीवन ठीक ही हो सकता है, गलत होगा ही कैसे; सब ठीक, क्योंकि सब परमात्मा से व्याप्त है; सब उसकी लीला, तो गलत कैसे होगा? जिस दिन तुम गलत में भी ठीक देख लोगे, उस दिन समझना कि तुमने ठीक को देखा। जब तक तुम्हें गलत अलग और ठीक अलग दिखता है, तब तक तुमने ठीक को अभी देखा नहीं। जिस दिन तुम्हें अँधेरे में भी रोशनी दिखायी पड़ेगी, उसी दिन जानना कि रोशनी पहचाने हो। उसके पहले तुमने रोशनी पहचानी नहीं।

मुझे न तो बुद्धों में कुछ फर्क है, और न बुद्धों और अबुद्धों में कुछ फर्क है। मेरी दृष्टि में कोई फर्क ही नहीं है। सबका स्वीकार है, सबका अंगीकार। और ऐसा ही सर्वस्वीकार तुम्हारे भीतर जगे, यह मेरी चेष्टा है।

तुमने सूखे हुए बेले भी कभी सूँघे?

इनको मसला न करो

कितनी आज़ुर्दा

मगर भीनी महक देते हैं

इनको फेंका न करो

गर्द—आल्द बुझे चेहरों को भी समझा करो

सिर्फ देखा न करो

हाथ के छालों का

घट्टों का

मदावा भी करो

सिर्फ़ छेड़ा न करो

तुमने सूखे हुए बेले भी कभी सूँघे?

ये सब सूखे बेले हैं। अतीत में कितने फूल खिले हैं।

तुमने सूखे हुए बेले भी कभी सूँघे

इनको मसला न करो

कितनी आज़ुर्दा

मगर भीनी महक देते हैं

इनको फेंका न करो

सारा अतीत अपने भीतर समा लेनें जैसा है। सारा अतीत तुम्हारा है। और ध्यान रखना, मैं परंपरावादी नहीं हूँ। मैं नहीं चाहता कि तुम अतीत से बँधे रहो। मगर मैं यह भी नहीं चाहता कि तुम अतीत के शत्रु हो. जाओ। मैं चाहता हूँ, अतीत को तुम अपने में समा लो और अतीत से आगे बढ़ो। जितना हो चुका है, वह तुम्हारा है, और बहुत कुछ होना है। अतीत पर रुकना मत।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, अतीत—उन्मुख। वे अतीत में ही अटके रहते हैं। उनकी आँखें पीछे की तरफ फिर गयी हैं। वे वेद में ही तलाश करते रहते हैं। उनको जो पीछे हुआ है, वही ठीक है, आगे सब गलत है। फिर इनके विपरीत दूसरे तरह के लोग हैं। वे कहते हैं, जो आगे होगा वही ठीक है। पीछे जो हुआ है, सब गलत है। मैं तुमसे कहता हूँ, पीछे जो हुआ है वह भी ठीक है, आगे और भी ठीक होने को है। तुम पीछे को भी सँभाल लो, पीछे की संपदा को भी सँभालो अपने में, तुम ज्यादा समृद्ध हो जाओगे। और उसी समृद्धि की बुनियाद पर भविष्य के महल खड़े होंगे और भविष्य के मंदिर उठेंगे। जो अतीत में जाना गया है, उससे बहुत कुछ ज्यादा भविष्य में जाना जा सकेगा। क्योंकि अतीत के कंधे पर हम खड़े हो सकते हैं। इसलिए बोल रहा हूँ कबीर पर भी, क्राइस्ट पर भी, कृष्ण पर भी, ताकि तुम इन सब कंधों का सहारा ले लो; ताकि तुम इन सब कंधों पर खड़े हो जाओ, तुम ऊपर उठो।

कभी किसी छोटे बच्चे को बाप के कंधों पर खड़ा हुआ देखा है! फिर उसे दूर तक दिखायी पड़ने लगता है। तुम इन सारे कंधों का उपयोग कर लो, ये तुम्हारी सीढ़ियाँ हैं। तुम इन पर चढ़ते चले जाओ, ताकि तुम्हें और दूर और विस्तीर्ण दिखायी पड़ने लगे। पूजा मत करो इनकी, इनको आत्मसात कर लो। तुम पूजा में पड़े हो! पूजा बचने का उपाय है। मैं तुम्हें पूजा नहीं सिखा रहा हूँ, तुम्हें आत्मसात करने की प्रक्रिया सिखा रहा हूँ। इसलिए पुनरुज्जीवित करता हूँ——अभी रज्जब पर बोल रहा हूँ, तो कोशिश यह है कि अब तुम रज्जब को सीधा पढ़ोगे तो कुछ तुम्हारे हाथ में आएगा नहीं, शब्द रह जाएँगे, मैं अपने प्राण रज्जब में डाल देता हूँ, जैसे रज्जब ने बोला होता वैसे तुमसे फिर बोलता हूँ, तुम्हें एक मौका देता हूँ रज्जब के साथ सत्संग कर लेने का, यह कोई रज्जब के ऊपर टीका नहीं हो रही है, यह रज्जब के ऊपर कोई व्याख्या नहीं हो रही है, मैं कोई पंडित नहीं हूँ, न कोई भाषाशास्त्री हूँ, न कोई इतिहासज्ञ हूँ; यह रज्जब के ऊपर कोई व्याख्यान नहीं हो रहा है, रज्जब को निमंत्रित कर रहा हूँ कि मेरा उपयोग कर लो, थोडी देर को फिर लोगों को सत्संग का मौका दे दो, फिर से तुम्हारी वाणी जीवित हो जाए।

तुमने सूखे हुए बेले भी कभी सूंघे?

इनको मसला न करो

कितनी आज़ुर्दा

मगर भीनी महक देते हैं,

इनको फेंका न करो

तुमने सूखे हुए बेले भी कभी सूँधे?

ये सूखे हुए बेलों को फिर से हरा कर रहा हूँ। ताकि फिर एक बार तुम्हारे नासापुट इनकी अपूर्व सुगंध से भर जायें। कौन जाने कौन—सा फूल तुमको पकड़ ले और रूपांतरित कर जाए। कौन जाने कौन—सी वाणी तुम्हारी हृदय—तंत्री को छू दे। कौन जाने मीरा तुम्हें जगाए कि महावीर तुम्हें जगाएँ। कौन जाने किसकी पुकार तुम्हारे सोए प्राणों को मथ डाले। इसलिए सबको बुला रहा हूँ।

जो सत्सग तुम्हें उपलब्ध हो रहा है, वैसा सत्संग पृथ्वी पर कभी किसीको उपलब्ध नहीं हुआ था। इसलिए सबको बुला रहा हूँ। सारी गंगा तुम्हें उपलब्ध करवा दे रहा हूँ। जो घाट तुम्हें रुच जाए, जहाँ और जिस नाव में तुम बैठ जाना चाहो बैठ जाओ, पार उतरना है। पार उतरना ही है। कोई भी बहाने से पार उतरो। अटके मत रह जाओ। इसलिए सब पर बोल रहा हूँ। मै सब हूँ। तुम भी सब हो। मुझे याद है, तुम्हें याद नहीं। तुम्हें याद दिलाने के लिए बोल रहा हूँ।

 

दूसरा प्रश्न : आपने कहा, जंजीरें टूट जाती हैं। लेकिन मेरी जंजीरें टूटी नहीं, पर अब वही जंजीरें नूपुर बनकर बज रही हैं।

हेमा, यही मतलब है जंजीर टूट जाने का। जंजीर है ही नहीं। माना है तो जंजीर है। संसार है कहाँ? माना पै तो संसार है। जागो और जंजीरें नूपुर बन जाती हैं ——यही तो मजा है——संसार निर्वाण हो जाता है। इसलिए तो मैं कहता हूँ, संसार से भागना नहीं है, जागना है। भागने में तो यह बात हमने मान ही ली कि संसार में निर्वाण नहीं हो सकता। भागने में तो हमने यह बात मान ही ली कि जंजीरें सच्ची हें और तोड़नी पड़ेगी। जंजीरें झूठी हैं, सपना हैं। देखते ही नूपुर बज उठते हैं। गुलामी है नहीं, भ्रांति है; समझते ही गुलामी विसर्जित हो जाती है। स्वतंत्रता का संगीत जगने लगता है।

छलके न सुबू और झूम उठे, कतरा न मिले और प्यास बुझे

यह जर्फ़ है पीनेवालों का साकी का कोई एजाज़ नहीं

पीने का ढंग चाहिए। पीने की शैली आनी चाहिए। तो फिर ऐसी अद्भुत घटना भी घट जाती है। ‘छलके न सुबू और झूम उठे, कतरा न मिले और प्यास बुझे ‘। एक बूँद भी नहीं जाती कंठ में और प्यास बुझ जाती है। सुराही छलकती भी नहीं और प्यारने भर जाते हैं। ‘यह जर्फ़ है पीनेवालों का’, यह विशिष्टता है पीनेवालों की, ‘साक़ी का कोई एजाज़ नहीं’——पिलानेवाले का कोई चमत्कार नहीं। पीने का ढंग आ जाए, पियक्कड़ होने की कला आ जाए, तो संसार निर्वाण है, पदार्थ, परमात्मा है, और साधारण से कृत्य असाधारण जाते है। उठना—बैठना पूजा हो जाती है। प्रेम प्रार्थना हो जाती है। इस जगत में जो भी मिलता है, प्रभु ही मिलता है। आँख बदली कि सब बदला।

हेमा, ठीक कहती है तू कि जंजीरें टूटी नहीं हैं, पर अब वही जंजीरें नूपुर बनकर बज रही हैं। यही जंजीर के टूटने का मतलब है। अब जंजीरें कहाँ हैं, अब नूपुर है। जंजीरें गयीं। वह हमारी भ्रांति थी। जैसे रास्ते पर किसीने रस्सी को पड़ा देखा था और साँप समझ लिया था। अब रोशनी हो गयी, या दीया जल गया, आंख खुल गयी, गौर से देखा, रस्सी है, साँप गया, साँप का भय गया। ऐसा ही यह संसार है। हमने कुछ—का—कुछ समझ लिया है।

इसलिए तो मैं कहता हूँ कि संबंधों से भागना मत। क्योंकि जिस पत्नी को छोड़— कर तुम भाग रहे हो, उसमें परमात्मा बसा है। और जिस पति को छोड्कर तुम भाग रहे हो, उसमें परमात्मा बसा है। जिम बेटे को छोड़कर तुम जंगल जा रहे हो, उसमें भी परमात्मा ही आया हुआ है। तुम जा कहाँ रहे हो? परमात्मा तुम्हें खोजने कितने रूप में आया है——पत्नी के रूप में, बेटे के रूप में, बेटी के रूप में, माँ के रूप में, मित्र के रूप में, पड़ोसी के रूप में, परमात्मा ने कितने रूप धरे हैं तुम्हें खोजने को! तुम्हें सब तरफ से तलाश रहा है, तुम जंगल जा रहे हो!

जागने भर की बात है, सब बदल जाता है। आँसू मुस्कुराहटें हो जाते हैं। कारा—गृह मंदिर हो जाता है।

हालते दिल अयां हो गयी

खामोशी तर्जुमा हो गयी

हालते जिंदगी का बया

दुखभरी दास्तां हो गयी

कोशिशे इल्तफ़ातो करम

कोशिशे रायगा हो गयी

दास्ताने गमे आरजू

जब बढ़ी बेकरा हो गयी

खुल गया जिंदगी का भरम

हर नफुस इम्तहां हो गयी

तुमने हँसकर जो देखा मुझे

जिंदगी नग्माख्वां हो गयी

उसकी बस एक हँसकर देख लेने की बात——’तुमने हँस कर जो देखा मझे, जिंदगी नग्माख्वां हो गयी। गये सब रोने के दिन, गीत के दिन आ गये——’जिंदगी नग्माख्वां हौ गयी’, जिंदगी गायक हो गयी। आँसू मुस्कुराहट में बदल जाते हैं। और जहाँ तुमने दुख के अतिरिक्त कुछ भी न पाया था, वहाँ दुख ही भर नहीं मिलता और सब मिलता है। जहाँ तुमने नर्क—ही—नर्क पाया था, अचानक तुम हैरान हो जाते हो कि नर्क गया कहां? स्वर्ग का अवतरण हो गया।

स्वर्ग और नर्क कहीं और नहीं हैं। यहीं हैं, तुम्हारी नजर में हैं, तुम्हारी दृष्टि सृष्टि है। देखने की कला सीखो, पीने की कला सीखो। जिंदगी एक अवसर है जीने की कला सीखने का। इसलिए मैं तुम्हें जीवन से जरा भी नहीं तोड़ना चाहता। जीवन से जोड़ना चाहता हूँ। समग्रीभूत भाव से तुम जीवन के साथ एक हो कर जीवन को देखो, पहचानो, जीओ, यहीं कहीं राज छिपा है।

 

तीसरा प्रश्न: भगवान दो—तीन दिन से मैं यहाँ आयी हूँ। शायद थोड़े और दिन रह जाऊँगी। लेकिन मैं आपको ‘किडनेप’ करने आयी हूँ। आपके सब संन्यासियों को सावधान कर दें। फिर ऐसा न हो कि मैंने बताया नहीं था। यह सवाल नहीं है, झाँसा चिट्ठी है। आप तो हर रोज मेरे साथ हैं, फिर कभी—कभी भाग भी तो जाते हैं। अब आप भाग न सकेंगे और मैं नहीं जाऊँगी।

योगिनी, इरादा बिल्कुल नेक है। गुरु को चुराना ही होता है। गुरु को चुराकर अपने हृदय में बसाना ही होता है। और उपाय भी नहीं है। तुम्हें ‘किडनेप’ करने की मेहनत न करनी पड़ेगी, मैं तो खुद ही तुम्हारे साथ चलने को राजी हूँ। जगह दो। सिंहासन खाली करो। सिंहासन से अहंकार को उतर जाने दो। तो मैं तुम्हारे साथ अभी हो जाऊँ। और जब—जब तुम्हारे मन से, सिंहासन से अहंकार उतर जाता है, तब—तब साथ हो जाता है। जब—जब अहंकार फिर सिंहासन पर बैठ जाता है, तब—तब साथ टूट जाता है। यह सब तुम्हारे ऊपर निर्भर है। तुम चाहो तो चौबीस घंटे मुझे साथ रखो। तुम्हारी मर्जी की बात है।

इसलिए अगर कुछ करना है तो वहाँ भीतर कुछ करना होगा। वहाँ याद को सघन करो। वहाँ से ‘मैं—भाव’ को जाने दो। यह ‘मैं—भाव’ इतना गहन होकर बैठा है, इतनी गहराई तक इसकी जड़ें प्रविष्ट हो गयी हैं कि तुम इसकी शाखा— प्रशाखा काटते रहो, कुछ नहीं होगा; नये अंकुर निकल आते हैं। इसकी जड़ काटनी होगी।

जड़ कैसे कटती है?

दो ही उपाय हैं। या तो प्रेम से कट जाती है जड़, या ध्यान से कटती है जड़। दो में से कोई एक उपाय चुन लो। वह मुझे ‘ किडनेप ‘ करने का उपाय है। या तो प्रेम से, इतने प्रेम से भर जाओ कि अहंकार उसमें डूब ही जाए। और या, इतने ध्यान से भर जाओ कि जागरूकता इतनी सघन हो कि अहंकार है ही नहीं, यह दिखायी पड़ जाए। ध्यानी को दिखायी पड़ जाता है कि अहंकार न कभी था, न है। एक झूठ था। एक धारणा थी। और प्रेमी को दिखायी पड़ जाता है, क्योंकि प्रेम अहंकार को डुबा देता है। उस झूठी धारणा को किसीके प्रेम में बहा देता है। बाढ़ आ जाती है प्रेम की और अहंकार की झूठी धारणा बह जाती है। दो में से कुछ एक उपाय है।

और मैंने तुझे आनंद योगिनी नाम दिया है। इसीलिए दिया है——ध्यान तेरा मार्ग है। ध्यान तेरा योग है। योग अर्थात् ध्यान, जागरूकपन। और—और जाग। उठते—बैठते—सोते एक ही स्मरण रहे कि जो भी मैं करूँ, जो भी मुझसे हो, उसमें बेहोशी न हो। चलूँ तो होशपूर्वक, बैठूँ तो होशपूर्वक, बस होश को सँभालो। होश के संभलते—सँभलते एक दिन तुम अचानक पाओगे, सब घटित हो गया है।

 

चौथा प्रश्न : संसार संन्यास में बाधाएँ डाल रहा है। परिवार विरोध में है; पत्नी विरोध में है; समाज विरोध में है; और आपकी निंदा में वे सभी सहमत हैं। मैं क्या करूँ?

संसार बाधा डाले, यह स्वाभाविक है। इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं। संसार बाधा न डाले तो संन्यास की कोई जरूरत ही न रह जाए। संसार बाधा डालता है, इसीमें तो चुनौती है। जो हिम्मतवर हैं, वे चुनौती स्वीकार कर लेते हैं।

समाज को छोड़ना नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि समाज को छोड़ना है; मगर समाज की हर बात मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति स्वतंत्र है। उसकी अंतःप्रज्ञा स्वतंत्र है। अपनी निजता की घोषणा करो। संसार तो संन्यास का विरोध करेगा। क्योंकि संसार नहीं चाहता कि तुम्हारे भीतर निजता हो। निजता खतरनाक है समाज के लिए, संसार के लिए। संसार तो चाहता है कि तुम एक कुशल यत्न होओ, बस। आत्मा तुम में होनी नहीं चाहिए, आत्मा से झंझट होती है। अब एक सैनिक के पास अगर आत्मा हो, तो वह सैनिक नहीं हो पाएगा। क्योंकि आत्मा हो तो हजार प्रश्न उठेंगे। वह पूछेगा कि मैं गोली इस आदमी पर क्यों चलाऊँ? इसने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं। इससे मेरी पहचान तक नहीं, दुश्मनी की तो बात दूर। द्रुश्मनी के पहले दोस्ती तो होनी चाहिए, कम—से—कम पहचान तो होनी ही चाहिए। इसे मैने पहले कभी देखा भी नहीं। इसे मैं क्यों गोली मारूँ? और जैसे मेरी पत्नी मेरे घर राह देखती है, इसकी पत्नी भी इसके घर राह देखती होगी।

और मेरे बच्चे प्रार्थना कर रहे होंगे कि मैं मारा न जाऊँ, और इसके बच्चे भी प्रार्थना कर रहे होंगे कि यह मारा न जाए। जैसे मैं रोटी के लिए अपनी जिंदगी दाँव पर लगा दिया हूँ, ऐसे ही रोटी के लिए इसने जिंदगी दाँव पर लगा दी है। हम दोनों संग—साथी हैं; हम दुश्मन नहीं हैं। अगर गोली चलनी भी होगी तो हम दोनों मिलकर तुम पर गोली चलाएँगे जो गोली चलाने की आज्ञाएँ दिलवा रहे हो। अगर आत्मा होगी तो बड़ा खतरा हो जाएगा। दुनिया में सैनिक नहीं हो सकेंगे। समाज गुलाम चाहता है; स्वतंत्र, विचारशील लोग नहीं। संसार चाहता है ऐसे लोग जो आज्ञाकारी हों, बगावती और विद्रोही नहीं; कभी पूछे नहीं कि ऐसा क्यों करें। समाज गुलाम चाहता है। तुम इतिहास की किताबों में पढ़ते हो कि पहले गुलामी होती थी, वह झूठी बात है। गुलामी अब भी है। उतनी की उतनी है। नाम बदल गये हैं, ऊपर का रंग—रोगन बदल दिया गया है, बात वही है। समाज स्वतंत्र व्यक्ति को स्वीकार करने में घबड़ाता है, क्योंकि स्वतंत्र व्यक्ति स्वतंत्र है, यही अड़चन है। वह अपने ढंग से जिएगा, अपने ढंग से चलेगा। तुम एक स्वतंत्र व्यक्ति से जिसके पास अपनी निजता है अगर कहोगे कि यह गणेश जी हैं, इनकी पूजा करो। वह कहेगा कि कहाँ के गणेश जी, यह मिट्टी का लौंदा है, तुमने बना कर खड़ा कर दिया है! कैसी पूजा! आदमी की बनायी चीज की कैसी पूजा! पूजा ही करनी है तो उसकी करूँगा जिसने सब बनाया है। अभी तुम बना कर तैयार किये हो, यह तुम्हारे हाथ का खिलौना है—फिर चाहे गणेश जी कहो, चाहे हनुमान जी कहो, चाहे हजार और नाम रखो——इसकी मैं कैसी पूजा करूँ? और अगर करूँगा भी तो यह पूजा झूठी होगी, मेरे हृदय की नहीं होगी।

आत्मा होगी तो आत्मा का स्वर होगा। आत्मा होगी तो अंतःकरण होगा। वह आदमी कहेगा कि मैं झुकूँगा नहीं आदमी की बनायी हुई चीजों के सामने। झुकूँगा उसके सामने जिसने सब बनाया है, जिसने मुझे बनाया है, जिसने तुम्हें बनाया, जिसने तुम्हारे गणेश जी बनाए, उसीके सामने झुकूँगा, उसी मालिक के सामने झुकूँगा। अड़चन खड़ी हो जाएगी। गणेश—उत्सव कैसे मनाओगे? होली का हुड़दंग कैसे करोगे? दीवाली पर लक्ष्मी का पूजन कैसे होगा? जिसके पास थोड़ी भी बुद्धि है, चैतन्य है, समझ है, वह कहेगा—सिक्कों का अर्चन—पूजन ‘ धन की पूजा, इस धार्मिक देश में और! जहां लोगों को यह भ्रांति सवार है कि हम दुनिया के सबसे ज्यादा आध्यात्मिक लोग हैं। दुनिया में कहीं भी धन की पूजा नहीं होती, सिवाय इस देश को छोड़ कर—और यह आध्यात्मिक देश है। और सारी दुनिया पदार्थवादी है! और हम ही अध्यात्मवादी हैं! और दीवाली आ जाती है तो दीये जलाते हैं और लक्ष्मी—पूजन हो रहा है! सिक्के का ढेर लगाये हुए हैं, उसके सामने मंत्नोच्चार हो रहा है! धन की ऐसी पूजा, ऐसी निर्लज्ज पूजा, ऐसी बेशर्म पूजा दुनिया में कहीं नहीं होती। तुममें थोड़ी निजता हो, थोड़ा सोच—विचार हो, तो तुम कहोगे—यह मैं क्या कर रहा हूँ? चाँदी—सोने के ठीकरों की पूजा कर रहा हूँ! और यह बुद्ध और महावीर का देश। बातें बुद्ध और महावीर की, पूजा धन की! तुम्हें विसंगति दिखायी पड़ना शुरू हो जाएगी। तुम कैसे इस सारे ढोंग में जी सकोगे जो चलता है? मुश्किल हो जाएगा ढोंग में चलना। और ऐसे हर व्यक्ति अगर ढोंग में चलने को राजी न हो जाए, तो समाज बिखरेगा। यह समाज तो बिखर जाएगा, एक नया समाज पैदा होगा। यह समाज बिखरना नहीं चाहता——इस समाज के न्यस्त स्वार्थ हैं। यह समाज बना रहना चाहता है। यह तुम्हें मिटा कर ही बना रह सकता है। यह तुम्हें मार कर ही जी सकता है।

इसलिए जैसे ही बच्चा पैदा होता है समाज उसकी हत्या करने में लग जाता है। हर बच्चे की हत्या कर दी गयी है। तुम इस खयाल में मत रहना कि तुम जिंदा हो। तुम्हें जिंदा होने नहीं दिया गया है। तुम्हारे जिंदा होने के पहले तुम्हारी हत्या कर दी गयी है। सब बच्चे बचपन में ही मार डाले गये हैं। फिर लाशें जी रही हैं। इसीलिए तो दुनिया में इतनी मूढ़ता है, इतना अंधकार है, इतनी गुलामी है, इतनी हिंसा है, इतना वैमनस्य है। आदमी नहीं हैं यहाँ।

और तुम अगर संन्यासी होना चाहते हो, तो तुम बगावत कर रहे हो। तुम यह कह रहे हो कि मैं अपनी हत्या नहीं होने दूँगा। यह मेरा जीवन है, मैं अपने ढंग से जीऊँगा, मैं अपने रंग से जीऊँगा, मुझे अपना गीत गाना है, मैं किसी दूसरे के ताल पर नाचने को राजी नहीं हूँ। नाचना होगा तो नाचूँगा, नहीं नाचना होगा तो नहीं नाचूँगा, लेकिन तुम बीन बजाओ और मैं नाचूँ, यह नहीं हो सकता।

संसार बाधा डालेगा। लेकिन इस बाधा से घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। इसे चुनौती बनाओ। यह मौका है। इससे टक्कर लो।

हमारी फितरते आज़ाद पर क्या—क्या कमंदे हैं

सुरीली कितनी आवाजे—सलासिल होती जाती हैं

उधर: दी जा रही हैं रपतें दीवारे जिंदा को

इधर आज़ादियों की फिक्र कामिल होती जाती है

हवाओं को इधर जिद्द है कि एक तिनका न रह जाए

इधर फिक्रे नशेमन और महकम होती जाती है

यकीनन आ गया है मैकदां में तिश्नालब कोई

कि पीता जा रहा हूँ कैफियत कम होती जाती है

‘हमारी फितरते आज़ाद पर क्या—क्या कमंदे हैं ‘। हमारे स्वतंत्न स्वभाव पर

 

कितनी बेड़ियाँ हैं, कितनी दीवालें हैं, कितनी जंजीरें हैं!

हमारी फितरते आजाद पर क्या—क्या कमंदे हैं

सुरीली कितनी आवाजे—सलासिल होती जाती है

और यह जो आयोजन है दासता का, बड़े कुशलता से किया है। इतनी कुशलता से किया गया है कि बेड़ियाँ बजे भी तो उनमें से सुरीली आवाज निकले, उनका स्वर मोहक हो, जैसे बीन बजे, तुम्हें याद ही न पड़े कि बेड़ियाँ हैं। बेड़ियों को ऐसा सोने—चाँदी से मढ़ा गया है कि तुम्हें भ्रांति होती रहे कि आभूषण हैं। छोड़ने की तो बात दूर, तुम उन्हें बचाने में लग जाओगे कि कोई चुरा न ले जाए। कारागृह को इतना रंगीन रँगा गया है कि तुम समझते हो तुम्हारा घर है।

हमारे फितरते आज़ाद पर क्या—क्या कमंदे हैं

सुरीली कितनी आवाजे—सलासिल होती जाती है

उधर दी जा रही हैं रपतें दीवारे जिंदा को

और रोज—रोज ये दीवालें बड़ी की जा रही हैं, कारागृह मजब्त किया जा रहा है, नये पहरे बिठाये जा रहे हैं।

उधर दी जा रही हैं रपतें दीवारे जिंदा को

इधर आज़ादियों की फिक्र कामिल होती जाती है

लेकिन अगर हिम्मतवर आदमी हो तो जैसे—जैसे जेलखाने की दीवाल बड़ी होती है वैसे—वैसे आजाद होने की आकांक्षा गहन होती है।

इधर आज़ादियों की फिक्र कामिल होती जाती है

चुनौती लो।

हवाओं को इधर जिद है कि इक तिनका न रह जाए

इधर फिक्रे नशेमन अनैर महकम होती जाती है

माना कि तूफान हैं और आँधियाँ हैं, और संसार है और परिवार है और समाज है, और सब मिल। कर तुम्हारे संन्यास के नीड़ को बनने न देंगे, तुम्हारी बगावत को वे काट डालेंगे, तुम्हारी आत्मा को जनमने न देंगे, माना——

हवाओं को इधर जिद है कि इक तिनका न रह जाए

इधर फिक्रे नशेमन और महकम होती जाती है

अगर हिम्मत हो तो नीड़—निर्माण की हिम्मत बढ़ाओ, नीड़—निर्माण की अभीप्सा को और प्रबल होने दो, जितने जोर से तूफान आए, उतने जोर से संकल्प जगे। तूफान जिद करे कि एक तिनके को न बचने देंगे, तुम भी जिद्द करना कि नीड़—निर्माण करके रहेंगे। यह नीड़—निर्माण का मजा ही तब है जब औंधी में हो।

यकीनन आ गया है मैकदां में तिश्नालब कोई

अब पता चल जाने दो मधुशाला को कि आ गया है सचमुच में कोई प्यासा, ऐसे ही नहीं जाएगा, बिना पिये नहीं चला जाएगा।

यकीनन आ गया है मैकदां में तिश्नालब कोई

कि पीता जा रहा हूँ कैफियत कम होती जाती है

जब सच्ची कोई प्यास होती है तो जितना पिओ, उतनी प्यास बढ़ती जाती है, कि जितना पिओ, कि इधर पीते जाते हो और प्यास और सघन होती जाती है। संन्यास तो एक मदिरा है। हिम्मत करनी होगी। पियक्कड़ बनना होगा। और मैं जानता हूँ, अड़चनें हैं। संसार, तुम कहते हो, संसार संन्यास में बाधाएँ डाल रहा है। परिवार विरोध में है। परिवार के विरोध के भी कारण हैं। क्योंकि संन्यास के नाम पर अब तक जो चला है, वह परिवार—विरोधी था। संन्यास के नाम पर अब तक जो चला है, वह जीवन—विरोधी था। पत्नी घबड़ा रही होगी कि संन्यासी हो जाओगे, तो धर छोड़ दोगे। समझाओ अपने परिवार को कि यह संन्यास का एक नया आविर्भाव है। यहाँ कुछ छोड़ना नहीं है। यहाँ पत्नी को छोड्कर भाग नहीं जाना है, और न परिवार को, न जिम्मेदारियों को, न दायित्व को। सच तो यह है कि संन्यासी होकर तुम जितने अपने परिवार के लिए प्रेमपूर्ण हो सकोगे, उतने बिना संन्यासी होकर नहीं हो सकोगे। मैं तो प्रेम सिखा रहा हूँ।

परिवार भयभीत होगा, पत्नी भयभीत होगी—स्वाभाविक है। तथाकथित संन्यास के नाम पर कितनी पत्नियाँ पति के रहते विधवा नहीं हो गयी हैं! आकड़े इकट्ठे करो, तुम बहुत हैरान हो जाओगे। तुम कहते हो, महावीर के पास पचास हजार लोग संन्यस्त हुए। वह तो ठीक। इनकी पचास हजार पत्नियों का क्या हुआ? उन पचास हजार पत्नियों के साथ छोटे—छोटे बच्चे होंगे, उनका क्या हुआ? उन्होंने भीख माँगी, यतीमखानों में पले, बेवक्त मरे, बीमार रहे, शिक्षा मिली नहीं मिली! ये पचास हजार जो संन्यासी हो गये यह तो ठीक, बड़ा गौरव का काम हुआ, लेकिन पचास हजार जो पत्नियाँ छूट गयीं, इनमें से कितनी को वेश्या हो जाना पड़ा, इसका भी तो कुछ हिसाब लगाओ! कितनों को भीख माँगनी पड़ी। धर्म के नाम पर! और उनके मुँह भी बंद कर दिये; क्योंकि पति ने कोई बहुत बड़ा काम किया है, बोला भी नहीं जा सकता।

यह पुरानी संन्यास की धारणा ऐसी जीवन—विरोधी थी, ऐसी आनंद—विरोधी थी, हजारों—हजारों साल की छाप पड़ गयी है लोगों के मन पर, संन्यास शब्द से ही घबड़ाहट हो जाती है। संन्यास, और भीतर एक कंपन हो जाता है, अचेतन मन कँप जाता है। शायद तुम्हारी यह पत्नी पहले भी कभी किसी जन्म में किसी संन्यासी के कारण दुख भोग चुकी होगी; वह अभी भी इसके अचेतन तल में पड़ी होगी बात——फिर संन्यास! फिर वही दुख की कथा! फिर वही नर्क! फिर बच्चों का क्या होगा? यह कच्ची गृहस्थी है, इसका क्या होगा? अगर यह घबड़ा जाती हो तो आश्चर्य नहीं। इसे समझाओ। यह संन्यास एक बिल्कृउल नया जीवन का दृष्टिकोण है, एक नया दर्शन है। यहाँ हम छोड़ने को किसीको कह नहीं रहे हैं। यहाँ हम भगोड़े पैदा नहीं कर रहे हैं। यहाँ तो हम ऐसे लोग पैदा कर रहे हैं जो बीच बाजार में ध्यानी हों, और जो परिवार में रहकर परमात्मा को पाने की अभीप्सा से भरें। यह जीवन भी परमात्मा ने दिया है, इसे छोड्कर जाना परमात्मा के साथ धोखा करना है। जो उसने दिया है, उसकी भेंट को पूरी तरह स्वीकार करो। इसे अवसर बनाओ। इस अवसर से अपने को विकसित करो। यह एक चुनौती है। तो तुम्हारी पत्नी भी समझेगी, परिवार भी समझेगा।

लेकिन खयाल रखना कि मेरा संन्यास ठीक से समझ लेना, कई बार तो ऐसा हो जाता है कि तुम जब मेरा संन्यास लेते हो तब तुम्हारी भी धारणा यही होती है कि तुम भी कोई पुरानी प्रक्रिया का संन्यास ले रहे हो। तुम्हारे मन में भी धारणा यही बैठी है।

मेरे से लोग संन्यास ले गये हैं, फिर वे मुझे पत्र लिखते हैं कि अब आपने संन्यास दे दिया, अब घर में मन नहीं लगता, अब काम में मन नहीं लगता, और आप घर भी नहीं छोड़ने देते! मुझे आज्ञा दें तो मैं जंगल जाना चाहता हूँ। जंगल जाना आसान लगता है। जंगल ही भेजना होता तो परमात्मा ने तुम्हें जंगल में पैदा किया होता! बहुतों को जंगल में पैदा किया हुआ है न। तुमको आदमी बनाया, कुछ तुमसे आशा रखी है। तुमको भेड़िया बनाता, तुमको जगल में ही रखता। तुमसे कुछ बड़ी आशा रखी है कि तुम बीच संसार में रहकर और अपने भीतर जंगल को पैदा कर सकोगे। जंगल में तुम्हारे जाने की जरूरत नहीं है; जंगल को तुम्हारे भीतर लाने की जरूरत है। हिमालय पर तुम्हें नहीं जाना है; हिमालय को तुम्हारी आत्मा में जगाना है। उतनी ही शांति, उतना ही धैर्य, उतना ही सन्नाटा, उतना ही मौन, उतना कुआँरा सौंदर्य तुम्हारे भीतर पैदा होना है। पशु जंगल में रहता है, संन्यासी के भीतर जंगल बैठा है, इतना फर्क है। तुम भी जंगल में जा कर रहने लगो, तुम भी पशु हो जाओगे। मैं जंगल जाने के पक्ष में नहीं हूँ।

मेरा संन्यास लोगों को लगता है सरल है——जिन्होंने लिया नहीं——जिन्होंने लिया है, उनको पता चलता है कठिन है। आमतौर से लोग यही समझते हैं कि इन्होंने संन्यास को बिल्कुल सरल बना दिया। कुछ नहीं छोड़ना है, न कहीं जाना है, न कुछ अड़चन है, घर में ही रहे, नौकरी भी की, दुकान भी की, बच्चे भी, पत्नी भी, सब ठीक और संन्यासी भी हो गये। बिल्कुल सरल है। तुम्हें समझ में नहीं आयी यह बात अभी। जरा होकर देखो।

जंगल में बैठ कर संन्यास सरल है। झझट के बाहर हो गये। दुकान पर बैठकर बहुत कठिन है। अब ग्राहक में राम देखना पड़ेगा। और यही अड़चन है। ग्राहक में राम देखो तो उसकी जेब कैसे काटो! जेब काटो तो राम नहीं दिखायी पड़ता। राम देखो, जेब नहीं कटती। अब मुश्किल हुई! घर में हो और आसक्त न होओ——आसक्ति के सारे उपकरण मौजूद हैं, और आसक्त न होओ। उपकरण न हों तो आदमी अपने को कहीं भी उलझा ले, रामधुन करता रहे, जोर—जोर से हनुमान चालीसा पढ़ता रहे; उलझा ले कहीं अपने को, भूला रहे, लेकिन सामने सारे उपकरण मौजूद हैं! जरा चौके में बैठ कर जहाँ पत्नी सुंदर सुस्वादु भोजन बना रही हो, एक दिन उपवास करो!

उपवास के दिन तुम्हें पता है लोग क्या करते हैं? मंदिर चले जाते हैं। जैन पर्यूषण में उपवास करते हैं, तो फिर घर में नहीं रहते। क्योंकि घर में खतरा है। बच्चों के लिए भोजन भी पकेगा, सुंगध भी उड़ेगी भोजन की; चौके से आती खनकार बर्तनों की आवाज, सब पुकारेगी। आज बहुत पुकारेगी। और दिन तो सुनायी भी नहीं पड़ती थी। और दिन तो अपना अखबार पढ़ते रहते थे——कौन सुनता था चौके में क्या आवाज आ रही है! लेकिन आज पेट खाली है। आज अखबार पढ़ने में मन नहीं लगता। आज मन चौके की तरफ भाग रहा है। बच्चे किलकारी कर रहे है। बच्चे कह रहे हैं माँ से कि आज खीर बहुत बढ़िया बनी है। अब यह प्राण संकट में पड़ रहे हैं! यह उपवासी आदमी, इसकी मुसीबत समझो तुम!

तो यह जाकर मंदिर में बैठ जाता है। मंदिर में और भी उपवासी बैठे हैं। इसी जैसे और भी बुद्धू हैं न! वे सब वहाँ बैठे हैं। वे एक दूसरे को सहारा देते हैं। क्योंकि वहाँ बैठे हैं शांत बन कर। भूख सबको लगी है, मगर अब वहाँ के लोग इतने शांत बैठे हैं, अपनी फजीहत कौन कराए। वह भी शांत बैठे हैं। मुनि महाराज का प्रवचन सुन रहे हैं। प्रवचन में उपवास की प्रशंसा की जा रही है। भोजन का विरोध किया जा रहा है। जो आज भोजन कर रहे हैं, उन सब का नर्क जाना निश्चित है। इससे चित्त को आनंद भी आ रहा है कि ठीक है, बाद में भटकोगे; बाद में भोगोगे। आज मैंने तकलीफ उठा ली, कोई बात नहीं; देख लेंगे, एक—एक बात का बदला ले लिया जाएगा। मन में बड़ा मजा आ रहा है कि मैं पुण्यात्मा और बाकी सारा जगत पापी। बिचारों को कुछ पता नहीं है। ऐसे तुम अपने को समझा रहे हो।

मेरा संन्यास ऐसा है कि तुम घर में बैठे हो, बाजार में बैठे हो, सारे उपकरण, वासना को जगाने वाली सारी चुनौतियाँ, सारे संवेग उपस्थित हैं, और वहाँ निश्चित हो। और कोई छूती नहीं है, कोई चीज आभा नहीं डालती। तुम कहते हो, यह सरल है! फिर तुम्हें सरलता और कठिनता शब्दों का अर्थ मालूम नहीं।

ऐसा ही प्रचार किया जा रहा है सारे देश में कि मेरा संन्यास सरल है। आओ, बनो संन्यासी और जानो! ऊपर से सरल दिखायी पड़ रहा है, भीतर बडी कठिनाई हैं। गहरी कठिनाई है।

वे विरोध करेंगे। उन्हें पता नहीं है। उन्हें समझाओ। और समझाना सिर्फ शाब्दिक नहीं होना चाहिए, तुम्हारे व्यक्तित्व से समझाओ। मेरे पास आने से तुम्हारी पत्नी को पता चलना चाहिए कि तुम ज्यादा प्रेमपूर्ण हो गये हो, तो समझा पाओगे, नहीं तो नहीं समझा पाओगे। बातचीत से क्या होता है! पत्नियाँ बातचीत तो पतियों की सुनतीं ही नहीं, ख्याल रखना। पत्नियाँ तो पतियों की बातचीत को बकवास समझती हैं। तुम बके जाते हो, वह सुनतीं नहीं। पत्नियाँ ज्यादा व्यावहारिक हैं, वे तो तुम्हारे व्यक्तित्व को देखती हैं। तुम ज्यादा प्रेमपूर्ण हो गये हो, तुम्हारे जीवन में ज्यादा करुणा आ गयी है; तुम्हारा मोह—लोभ कम हुआ है, तुम्हारी वासना क्षीण हुई है? ये सब बातें सबूत देंगी।

अब पत्नी देखती है तुम हो तो वैसे ही के वैसे। शायद और क्रोधी हो गये। क्योंकि ध्यान करने बैठते हो, बच्चे ने शोरगुल कर दिया, आ गये निकल कर बाहर दुर्वासा ऋषि की भाँति, तैयार अभिशाप देने को, जनम—जनम तक के लिए नष्ट कर देने की तैयारी, पत्नी अगर यह देखेगी तो उसे भरोसा नहीं आएगा कि यह सन्यास कुछ भिन्न है। भिन्नता का अनुभव कराओ। तुम्हारी जिंदगी में थोड़ा नाच आने दो। तुम्हारी जिंदगी में थोड़ी रसधार बहने दो। स्त्रियाँ बहुत व्यावहारिक हैं। बुद्धि से समझाने की जरूरत नहीं है, उनके समझने का एक अलग ढग है——अस्तित्वगत—— तुम्हें देख कर वे पहचान लेंगी, उनकी ओंखें आंनद के आसुओ से भर जाएँगी, वे तुम्हारे संन्यास में सहयोगी बन जाएँगी। इतना ही नहीं, वे स्वयं भी संन्यास के लिए आतुर और उत्सुक हो जाएँगी।

मैं तुम्हें जीवन दे रहा हूँ, तुमसे जीवन छीन नहीं रहा हूँ, इसके प्रमाण दो।

रही यह बात कि आपकी सभी निंदा करते हैं। मैं क्या करूँ? या तो उनके साथ सम्मिलित हो जाओ——अगर संन्यास से बचना हो। वे भी बेचारे इसीलिए निंदा कर रहे हैं। मैं उनके लिए एक खतरा हो गया हूँ। मेरी मौजूदगी उन्हें बेचैन कर रही है। मेरी मौजूदगी उनकी शांति छीन रही है, उनका संतोष छीन रही है। मेरी मौजूदगी उन्हें याद दिला रही है कि कुछ और भी होने का एक ढंग है, जिंदगी और ढ़ंग से भी जी जा सकती है, जिंदगी को एक और रंग भी दिया जा सकता है। उनकी जिंदगी उदास है, उनकी जिंदगी पश्चात्ताप से भरी है, उनकी जिंदगी एक हार है और एक पराजय का लंबा लंबा इतिहास है। मेरी मौजूदगी उन्हें यह ख्याल दिला रही है कि अब तक उन्होंने जो किया, वह व्यर्थ गया, लेकिन अहंकार मानने नहीं देता कि अब तक जो किया, वह गलत गया। कौन मानने को राजी होता है कि मैंने जो पचास साल जिए, वह अज्ञान में जिए। पचास साल अज्ञान में! कोई मानने को राजी नहीं होता। आदमी अपनी प्रतिष्ठा का बचाव करता है।

वे मेरी निंदा में लगे हैं क्योंकि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा बचानी है। अगर मैं सही हूँ, तो वे सब गलत हैं। यहाँ समझौता होनेवाला नहीं है, मैं कोई समझौतावादी नहीं हूँ। या तो दो और दो चार होते हैं, या दो और दो चार नहीं होते। मैं तो सीधी बात कह रहा हूँ। वह सीधी बात उनको बेचैन कर रही है, तीर की तरह चुभ रही है। उनकी निंदा मेरी निंदा नहीं है, सिर्फ आत्मरक्षा है। वे अपनी आत्मरक्षा में लगे हैं। तो अगर तुम्हें भी संन्यास से बचना हो, तो तुम भी निंदा में लग जाओ—— वही उपाय है बचने का। और, अगर तुम्हें संन्यास में जाना हो, तो उन्हें निंदा करने दो! उनकी निंदा से क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारे—मेरे बीच जो घट रहा है, उनकी निंदा से गलत नहीं होता। अगर कुछ घट रहा है तुम्हारे—मेरे बीच, अगर कोई सेतु बन रहा है, अगर प्रेम के धागे फैल रहे हैं तुम्हारे—मेरे बीच, तुम्हारे—मेरे बीच कोई एक अनुभव सघन हो रहा है, तो उनकी निंदा से क्या फर्क पड़ता है? हँस लेना। उनकी निंदा से तुम भी बेचैन हो जाते हो। उसका कारण यही है कि तुम भी अभी डाँवाडोल हो। नहीं तो निंदा बेचैन नहीं करेगी। मुझे कोई चिता नहीं है उनकी निंदा से——सारी दुनिया निंदा करे! अगर दुनिया को निंदा करने में मजा आता है, तो उन्हें मजा लेने दो। मजा लेने का उन्हें हक है। यह उनकी स्वतंत्रता है। मुझे इससे कोई अड़चन नहीं है।

सच तो यह है, उनकी निंदा से सिर्फ यही सबूत मिलता है कि जो मैं कह रहा हूँ, उसमें कुछ सच है। सत्य की सदा निंदा हुई है। सत्य के साथ सदा यही व्यवहार हुआ है। वही व्यवहार मेरे साथ हो रहा है। यह व्यवहार बढ़ता जाएगा। जैसे—जैसे मेरे रंग में लोग रँगेने, जैसे—जैसे यह हवा फैलेगी, ये तरंगें व्याप्त होंगी पृथ्वी के कोने—कोने में, यह व्यवहार बढ़ता जाएगा।

कल मुझे खबर मिली कि ब्राजील में ब्राजील की सरकार ने मेरे केंद्रों को बंद करवा दिया है। पुलिस ने हमले किये हैं, केंद्र बंद कर दिये हैं। अब ब्राजील’ की सरकार का मैं क्या बिगाड़ रहा हूँ! न ब्राजील कभी गया हूँ—और न कभी जाऊँगा। मेरे संन्यासी उनका क्या बिगाड़ रहे हैं? मिल—जुल लेते हैं, नाच लेते हैं, गीत गा लेते हैं, ध्यान कर लेते हैं, प्रेम की दो बातें कर लेते हैं, उनका क्या बिगाड़ रहे हैं? उन्हें क्या बेचैनी हो रही है? उन्हें क्या अड़चन हो रही है? यह बढ़ेगा।

 

स्विट्जरलैडं से अभी एक महिला आयी। उसने कहा——जब मैं भारतीय राजदूतावास में वहाँ गयी तो उन्होंने मुझे लिस्ट दी, उसमें आठ आश्रमों के नाम दिये और साथ में यह भी कहा कि इन आठ में से किसी में भी जाना, मगर पूना भूल कर मत जाना। वे आठ आश्रम कौन—से हैं? वे आश्रम वैसे हैं, दकियानूसी आश्रम! बाबा मुक्तानंद; इनके आश्रम जाना। क्योंकि इनके आश्रम से समाज को कोई खतरा नहीं है। और वह महिला यहाँ आने को तैयार थी, यहाँ आना चाहती थी यहीं आने के लिए आ रही थी। उसने गैरिक वस्त्र पहन रखे थे; संन्यास की तैयारी करके आ रही थी। तो राजदूतावास में उससे कहा गया कि तेरे गैरिक वस्त्र इस बात की संभावना हैं कि तू पूना जा रही है। पूना नहीं जाना है। अगर पूना जाना हो, तो हम आज्ञा नहीं दे सकते भारत में प्रवेश की। उसे झूठ’ बोल कर आना पड़ा है कि वह पूना नहीं जाएगी।

बी. बी. सी. से कल पत्र मुझे आया है। बी. बी. सी. कोशिश करती है, आधी फिल्म उन्होंने बना ली है इस आश्रम की, आधे में भारतीय सरकार ने उनको अटका दिया है। अब वे कोशिश कर रहे हैं, मगर सरकार आज्ञा नहीं देती प्रवेश की। अगर इस आश्रम की फिल्म बनानी है तो उन्हें भारत में प्रवेश की आज्ञा नहीं है। इंगलैंड में भारतीय उच्चायुक्त से जाकर बार—बार मिल रहे हैं और उच्चायुक्त कहता है कि कोई संभावना नहीं, हम आज्ञा दे नहीं सकते। अब यह संयोग की ही बात नहीं है कि जो व्यक्ति भारत का उच्चायुक्त है लंदन में, वह पूना का है। उसको अड़चन होगी, उसको भारी अड़चन होगी। वह सज्जन मुझे मिल भी चुके हैं। मुझे जब मिले थे, तब भी बेचैन हो गये थे वह। क्योंकि मेरी बातों के साथ मेल खाना, साहस चाहिए। राजनेताओं में साहस तो होता ही नहीं। राजनेता में कोई आत्मा तो होती ही नहीं। वह तो अपनी आत्मा को बेच देता है—तभी राजनेता हो पाता है। जो राजनेता जितनी कुशलता से अपनी आत्मा को बेचने में सफल हो जाता है, उतनी जल्दी ऊँचे पदों पर पहुँच जाता है। आत्मा बेच कर ही पहुँचना होता है।

यह उपद्रव बेढ़ता जाएगा। और भी देशों से खबरें आनी शुरू हुई हैं। जर्मनी से खबर आयी है कि अगर हम जाकर उनसे कहते हैं कि हमें पूना जाना है तो आज्ञा नहीं मिलती जर्मनी छोड़ने की। हमें झूठ बोलकर आना पड़ रहा है कि हम कहीं और जा रहे हैं।

यह शिकंजा रोज—रोज गहरा होता जाएगा। यह कठिनाई बढ़ने वाली है। क्योंकि मैं एक आग हूँ’। तुम्हें जो गैरिक वस्त्र दिये हैं ये इसीलिए दिये हैं, यह आग का रंग है। और मैं चाहता हूँ, यह आग सारी दुनिया में फैल जाए। यह जैसे—जैसे फैलेगी वैसे—वैसे कठिनाई आने वाली है। निंदा भी बढ़ेगी, अड़चनें भी बढ़ेगी, बाधा भी बढ़ेगी, यह सब होगा। लेकिन यह सदा ऐसा ही हुआ है। ऐसा ही फिर होगा यह कूछ नया नहीं है। यह आदमी का सदा से सत्य के साथ व्यवहार रहा है।

 

डराके मौजें तलातुमसे हमनशीनों को

यही तो हैं जो डुबोया किये सफीनों को

कभी नजर भी उठायी न सूए—बादए—नाब

कभी चढ़ा गये पिघलाके आबगीनों को

हुए हैं काफिले जुल्मतके वादियोंमें रवा

चिरागे—राह किये, खूंचुकां जबीनों को

तुझे न माने कोई, तुझको इससे क्या ‘ मजरूह ‘! चल अपनी राह भटकने दे नुक्तचीनों को

कोई माने, न माने, इसकी तुम फिकिर छोड़ो।

तुझे न माने कोई तुझको इससे क्या ‘ मजरूह ‘!

चल अपनी राह भटकने दे नुक्तचीनों को

वे जो निंदा कर रहे हैं, उनको निंदा में रस लेने दो। तुम अपनी राह चलो। अगर तुम्हारे साथ सत्य है, तो धीरे—धीरे और भी लोग तुम्हारे साथ होने लगेंग। सत्य के साथ धीरे—धीरे ही लोग होते हैं। और थोड़े ही लोग होते हैं। क्योंकि सिर्फ साहसी! अब महावीर के साथ कितने लोग हो गये थे? बुद्ध के साथ कितने लोग हो गये थे? थोड़े ही लोग। और उनको यह सब निंदा सहनी पड़ी थी, जो तुम्हें सहनी पड़ रही है। क्राइस्ट के साथ कितने लोग थे? बहुत थोड़े लोग। और सारी निंदा सहनी पड़ी। और क्राइस्ट को सूली पर चढ़ना पड़ा। और शिष्यों को जिंदगी भर दुख झेलना पड़ा——एक गाँव से दूसरे गाँव भगाये गये। यह सब फिर हो सकता है, क्योंकि आदमी वैसा का वैसा है। और आदमी की वृत्तियाँ वैसी—की—वैसी हैं।

लेकिन अगर साहस है, तो संन्यास के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। साहस है, सत्य के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।

घबड़ाओ मत। इस सारी स्थिति को उपयोग कर लो। यह सारी स्थिति या तो तुम्हें रुकावट का कारण बन सकती है, या तुम्हें धक्का देने का कारण बन सकती ; सब तुम पर निर्भर है। राह पर पड़ा हुआ पत्थर, या तो रुक जाओ, या पत्थर ण्र चढ़ जाओ, उसे सीढ़ी बना लो। इस सारी स्थिति को सीढ़ी बनाना है।

 

पाँचवाँ प्रश्न भी इससे ही संबंधित प्रश्न है :

 

संन्यास मेरे भाग्य में है या नहीं?

संन्यास स्वतंत्रता है। न तो भाग्य में होता, न नहीं होता। संन्यास भाग्य की, बात ही नहीं है। जो भाग्य में है, वह तो परतंत्रता है। संन्यास तुम्हारा चुनाव हैं——बोधपूर्वक, स्वेच्छा से। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है कि संन्यास की बात लिखवा कर पैदा हुआ है, कि विधि ने लिख दी है कि संन्यासी होगा, कि विधि ने लिख दिया कि संन्यासी नहीं होगा। संन्यास विधि के बाहर है। संन्यास एकमात्र चीज है जो विधि के बाहर है। बाकी सारी चीजें करीब—करीब नियत हैं।

तुम कितने दिन जिंदा रहोगे, नियत है। तुम्हारे माँ—बाप से कितनी तुम्हें उम्र मिली है, वह नियत हो गया, तुम्हारे जन्म में ही नक्शा मिल गया है। तुम रुरुष होओगे कि स्त्री, वह भी नियत हो गया माँ—बाप के द्वारा। तुम बीमार रहोगे कि स्वस्थ, वह भी बहुत कुछ नियत हो गया माँ—बाप के द्वारा। तुम्हारा रंग क्या होगा, रूप क्या होगा, वह भी नियत हो गया। फिर तुम्हारी जिंदगी में सारी वासनाएँ हैं वह भी तुम लेकर आए हो। लेकिन एक बात भर तुम लेकर नहीं आए हो, वह तुम्हारी परम स्वतंत्रता है, कि तुम इस संसार में निर्वाण को बना सकोगे या नहीं— यह तुम्हारी परम स्वतंत्रता है। इसकी कोई नियति नहीं है।

बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। बुद्ध एक नदी के पास से गुजरे, उनके पैरों के चिह्न गीली रेत पर बन गये। और उनके पीछे—पीछे एक ज्योतिषी आ रहा है। वह अभी लौटा है काशी से बारह वर्ष ज्योतिष का अध्ययन करके। तो अभी नया—नया जोश भी है, अध्ययन का प्रभाव भी है, प्रयोग करने की आकांक्षा भी है। उसने ये चरण—चिह्न देखे रेत पर बने, उसने झुक कर नीचे देखा कि इतने सुंदर चरण—चिह्न, और चरण—चिह्नों में उसने वह चिह्न देखा जो केवल चक्रवर्ती सम्राट को होता है। वह तो बहुत हैरान हो गया। चक्रवर्ती सम्राट, इस छोटे—से गाँव के पास की इस गंदी—सी नदी के किनारे, नंगे पैर रेत पर चले, भर दुपहरी में! चक्रवर्ती सम्राट, यह हो नहीं सकता। उसे तो बड़ी मुश्किल हो गयी। उसने कहा—बारह साल बेकार गये। या तो मेरा सारा ज्योतिषशास्त्र व्यर्थ हो गया; और या फिर चक्रवर्ती ऐसे घूमने लगे गाँव—गाँव! नंगे पैर! चक्रवर्ती महल से नहीं उतरेगा, चक्रवर्ती सिंहासन से नहीं उतरेगा, चक्रवर्ती अपने रथ से नहीं उतरेगा——और नंगे पैर, और भरी दुपहरी में, गरम रेत, और यह छोटा—सा उजड़ा—सा गरीब गाँव, सौ—पचास घर!

वह रेत के ऊपर बने चरण—चिह्नों का पीछा करता हुआ इस आदमी की तलाश में गया। बुद्ध एक— वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे हैं। बुद्ध को देखा तो और मुश्किल’ हो गयी। आदमी तो लगता है चक्रवर्ती सम्राट जैसा, मगर है भिखारी; भिक्षापात्र बगल में रखा हुआ है, फटा—सा चीवर पहन रखा है, देह सुंदर है—स्वर्ण जैसी, चेहरे पर अपूर्व आभा है, औखें ऐसी कि कमल की पंखुड़ियों जैसी कोमल, और नंगे पैर; जूता भी नहीं है। वह बुद्ध के पास आकर बैठा, उसने कहा——मुझे अड़चन में डाल दिया है आपने, मेरी गुत्थी सुलझा दें। मेरे बारह साल बेकार गये। ये जो मैं शास्त्र लिये आया हूँ काशी से——दबाए है शास्त्र अपनी बगल में——ये बेकार हैं। अगर बेकार हैं, तो इनको मैं नदी में डाल दूँ, बारह साल बेकार गये, किसी और काम में लगूँ। क्योंकि मेरे शास्त्र कहते हैं कि ये चरण—चिह्न तो केवल चक्रवर्ती सम्राट के होते हैं। यह पैर में चक्र का चिह्न है। आप का पैर देख लूं। पैर देखा, चिह्न बिल्कुल स्पष्ट है, कहीं कोई संदेह की बात नहीं है।

बुद्ध ने कहा——तुम परेशान न होओ। शास्त्रों को फेंकने की जरूरत नहीं है; साधारणत: तुम्हारा शास्त्र सभी लोगों पर: लागू होगा; सिर्फ संन्यासियों पर लागू करने की कोशिश मत करना। निन्न्यानबे प्रतिशत तुम्हारा शास्त्र लागू होगा। लेकिन संन्यास हाथ की रेखाओं में नहीं होता, पैर की रेखाओं में नहीं होता। और चक्रवर्ती सम्राट भी संन्यासी हो सकता है। इसमें कोई बाधा है? संन्यास तो किसीके भी जीवन में फल सकता है। यह फूल तो गरीब के जीवन में लग सकता है, अमीर के जीवन में लग सकता है। ज्ञानी—अज्ञानी के जीवन में लग सकता है, सुंदर—कुरूप के जीवन में लग सकता है।

नहीं, संन्यास का भाग्य से कोई संबंध नहीं है। लेकिन लगता यह है कि तुम भाग्य की आडू लेना चाहते होओगे। तुम सोचते होओगे, भाग्य में होगा तो अपने से होंगा। और नहीं होगा भाग्य में तो नहीं होगा। बचना चाह रहे हो। यह तुम्हारे लेने से होगा, भाग्य से नहीं होगा। यह भाग्य तुम्हारा बहाना है, यह तुम्हारी तरकीब है, यह तुम्हारी आडू है। धोखा मत दो अपने को। संन्यास नहीं लेना है, मत लो। मगर जानकर कि यह कोई भाग्य की बात नहीं है, यह लिखा हुआ नहीं है। संन्यास का अर्थ ही है भाग्य के पार जाना, नियति के पार जाना, बँधे—बँधाए के पार जाना।

तकदीर का शिकवा बेमानी, जीना ही तुझे मंजूर नहीं

आप अपना मुकद्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं

यह महफिल, अहले दिल है, यहाँ हम सब मैकश, हम सब साकी

तफरीह करें इंसानोंमें इस बज्मका यह दस्तूर नहीं

वे कौनसी सुबहें हैं जिनमें बेदार नहीं अफसूं तेरा

वे कौनसी काली रातें हैं जो मेरे नशे में चूर नहीं

सुनते हैं कि काँटों से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने

कहता है मगर यह अज्मे—जुनूं सेहरा से गुलिस्तां दूर नहीं

‘मज़रूंह ‘! उठी है मौजे—सदा आसार लिये तूफानों के

हर कतरो—शबनम बन जाए इक जूए—खां कुछ दूर नहीं

‘तकदीर का शिकवा बेमानी’। भाग्य को बीच में मत लाओ। भाग्य की शिकायत मत करना कि क्या करें—मरते वक्त यह मत कहना कि क्या करें, भाग्य में नहीं थी प्रार्थना, भाग्य में नहीं था भजन, भाग्य में नहीं था संन्यास, भाग्य में नहीं थी पूजा। यह बात मत करना।

तकदीर का शिकवा बेमानी जीना ही मुझे मंजूर नहीं

आप अपना मुकद्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं

मजबूरियाँ बहुत हैं, मगर इस संबंध में नहीं हैं। परमात्मा को तो प्रत्येक व्यक्ति पाने का अधिकारी है। उसमें कुछ भेद नहीं है। उस संबंध में सब समान हकदार हैं। यह हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। समझो—

कहता है मगर यह अज्मे—जुनूं सेहरा से गुलिस्तां दूर नहीं

मरुस्थल से गुलिस्तां दूर नहीं है। बहुत पास है। संसार से निर्वाण दूर नहीं है; बहुत पास है। एक कदम ही उठाने की बात है। उस कदम का नाम ही संन्यास है। और वह कदम प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है।

हरम से मैकदे तक मजिले—यक उम्र थी साकी

सहारा गर न देती लगजिशे पैहम तो क्या करते

जो मिट्टी को मिजाजे—गुल अता कर देते ऐ वाइज़!

जमीं से दूर, फिक्रे—जन्नते—आदम तो क्या करते

सवाल उनका, जवाब उनका, सकूत उनका, खिताब उनका

हम उनकी अंजुमन में सर न खम करते तो क्या करते

संन्यास सिर को गंवाने की कला है। संन्यास अपने को मिटाने की कला है। यह न होने की कला है।

सवाल उनका, जवाब उनका, सकूत उनका, खिताब उनका

हम उनके अंजुमन में सर न खम करते तो क्या करते

सुनो मैं जो तुमसे कह रहा हूँ। गुनो जो मैं तुमसे कह रहा हूँ। मेरे बहाने तुम्हारा भविष्य तुमसे बोल रहा है। उसे पहचानो। और अगर पहचान में थोड़ी भी किरण आ जाती हो, तो साहस करो, उठो, चलो। सेहरा से गुलिस्तां दूर नहीं। पास ही है। एक ही कदम की बात है।

मगर हम नयी—नयी तरकीबें खोज लेते हैं। कोई कहता है——हमारे कर्म में नहीं। कोई कहता है —— हमारे भाग्य में नहीं। कोई कहता है —— जब भगवान की मर्जी होगी। और सारी बातों के लिए तुम ये बातें नहीं सोचते। और सारी बातों के लिए तुम स्वयं दौड़ते रहते हो। सिर्फ जब जीवन में जरूर कोई क्रांति की बात आ जाती है करीब, तब तुम थक जाते हो, तब तुम ठिठक जाते हो, तब तुम कहने लगते हो——अब भाग्य में होगा तो होगा, अब मैं क्या कर सकता हूँ, यह अपने हाथ की बात नहीं। ऐसे तुम बहाना कर लिये, ऐसे अपने को बचा लिये। ऐसे ही बचते रहे हो अब तक। और ऐसे ही जीवन को गँवाते रहे हो। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूँ —और सब भाग्य में होगा, और सब भविष्य के भीतर आता होगा, संन्यास नहीं आता। संन्यास स्वेच्छा से लिया गया निर्णय है। संन्यास तुम्हारी परम स्वतंत्रता की घोषणा है। गुलाम रहना हो गुलाम रहो, मगर याद रखना, तुम अपनी मर्जी से गुलाम हो। मुक्त होना हो मुक्त हो जाओ। तुम्हारी मर्जी के बिना कुछ भी न होगा। परमात्मा भी तुम्हारी मर्जी के बिना तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता। इतनी मनुष्य की गरिमा रखी है उसने। इतना मनुष्य को सम्मान दिया है।

आखिरी सवाल : समाधि की अंतर्दशा के संबंध में कुछ कहें।

समाधि के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। समाधि बात बात के बाहर की है। समाधि अनुभव है। समाधि कैसे फलित हो जाए, यह तो मैं तुम्हें बता सकता हूँ लेकिन समाधि में क्या है, क्या होता है समाधि में, मैं भी नहीं बता सकता, कोई और भी नहीं बता सकता——न कभी किसीने बताया है, न कभी कोई बता सकेगा। समाधि शब्दों में नहीं समाती। शब्दातीत अनुभव है, समयातीत अनुभव है; सारे विशेषणों के पार है, सारी अभिव्यक्तियों से दूर है, भावातीत दशा है।

तुम पूछते हो समाधि की अंतर्दशा के संबंध में कुछ कहें। तौ पहली तो बात, समाधि के संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन तुम अगर मेरे पास बैठना सीख जाओ तो तुम समाधि के पास बैठे हो। तुम अगर मेरी आँख में’ देखना सीख जाओ तो तुमने समाधि में खाँका। तुम अगर मेरा हाथ अपने हाथ में ले लो तो तुमने समाधि का हाथ अपने हाथ में लिया।

एक दिन ऐसा हुआ कि रामकृष्ण की तस्वीर एक चित्रकार ने बनायी है और तस्वीर लेकर वह आया और रामकृष्ण ने तस्वीर देखी और तस्वीर के चरणों में सिर झुका दिया। खुद की ही तस्वीर थी। शिष्य थोड़े चौंके। शिष्य थोड़े बेचैन हुए। पास में बैठे किसी शिष्य ने कहा कि परमहंसदेव, आप यह क्या कर रहे हैं? होश में हैं? यह तस्वीर आपकी है, अपनी ही तस्वीर को सिर झुका रहे हैं! रामकृष्ण ने कहा——भली याद दिलायी, मैं तो समाधि को सिर झुकाया। यह तस्वीर समाधि’ की है। मेरा रंग—रूप है, मगर वह तो गौण है, इस चित्रकार ने मेरे भीतर के भाव को भी रंग में थोडा—थोड़ा पकड़ा, रूप में थोड़ा—थोड़ा पकड़ा, मै तो उसी भावदशा को नमस्कार किया हूँ।

समाधि के संबंध में कुछ नहीं कह सकता, लेकिन तुमसे जो बोल रहा हूँ, वह समाधि बोल रही है। तुम जिसे देख रहे हो, वह समाधि है। मेरे निकट आओ, मेरा स्वाद लो, मेरी सुराही से थोड़ी शराब पीओ।

और दूसरी बात, समाधि कोई अंतर्दशा नहीं है——वहाँ न कुछ अंतर है, न कुछ बाह्य। वहाँ अंतर और बाह्य का भेद मिट गया है। कहने को कहते हैं अंतर्दशा, मगर वस्तुत: वहाँ न कुछ बाहर है, न भीतर है। वहाँ सब द्वंद्व समाप्त हो गये—— बाहर—भीतर भी द्वंद्व है।

लोग कहते हैं समाधि परमात्मा का अनुभव है, ऐसी भी बात नहीं, वहाँ कोई अनुभव नहीं है, कोई अनुभोक्ता नहीं है। लोग कहते हैं समाधि परमात्मा का साक्षात्कार है। कौन साक्षात्कार करेगा और किसका करेगा? वहाँ दो नहीं हैं। ज्ञान में तो दो चाहिए——ज्ञाता और ज्ञेय; दर्शन में दो चाहिए——दृश्य और दृष्टा। समाधि तो एकात्म अनुभव है। परमात्मा का दर्शन नहीं होता, मैं परमात्मा हूँ, ऐसा अनुभव होता है। ‘अहं ब्रह्मास्मि,’ ऐसी उद्घोषणा है समाधि।

फिर दशा शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि दशा से ऐसा लगता है——कोई ठहरी हुई चीज। जैसे डबरा, बहता नहीं। समाधि सरिता है, गत्यात्मकता है, ऊर्जा है, नृत्य है; अंतर्नृत्य कहो तो ज्यादा ठीक, अंतऊर्जा कहो तो ज्यादा ठीक, अंतर्प्रवाह कहो तो ज्यादा ठीक। जैसे बिजली कौंधती है, जैसे नदी बहती है, ऐसा प्रवाह है, अनंत से अनंत तक। दशा शब्द में ऐसा लगता है——सब ठहरा हुआ। इसर्दशा में दशा शब्द ठीक—ठीक है। दुर्दशा में दशा शब्द बिल्कुल ठीक है, सब ठहरा हुआ है। समाधि दशा नहीं है। ऐसा समझो कि एक नर्तकी नृत्य करती है। नृत्य क्या एक दशा है? रक्स करती हुई नर्तकी का बदन——

‘जैसे दीपक की लौ, जैसे नागिन का फन

जैसे चटके कली, जैसे लहके चमन

जैसे उमड़े घटा, जैसे फूटे किरन

जैसे आँधी उठे, जैसे भड्के अगन

जैसे पहलू में दिल, जैसे दिल में लगन

जैसे मुड़ती नदी, जैसे उड़ती पवन

जैसे तितली का पर, जैसे भँवरे का मन

जैसे विरहा का दुख, जैसे चोरी का धन

जैसे मन में तडूफ, जैसे वन में हिरन

——रक्स करती हुई नर्तकी का बदन

समाधि——जैसे दीपक की लौ, जैसे नागिन का फन। समाधि——जैसे चटके कली, जैसे लहके चमन। समाधि——जैसे उमड़े घटा, जैसे फूटे किरन। गत्यात्मकता, ऊर्जा, प्रवाह, जीवंतता। परमात्मा कोई ठहरी हुई चीज नहीं। परमात्मा .शाश्वत प्रवाह है। इसीलिए तो परमात्मा जीवन है। परमात्मा पत्थर नहीं है, परमात्मा फूल है। समाधि को जानो तो ही जान पाओगे। मैं राजी तुम्हें समाधि में ले चलने को हूँ, तुम बाहर—बाहर से मत पूछो। मैं कुछ कहूँगा, तुम कुछ समझोगे। तुम बाहर— बाहर से पूछोगे तो चूकोगे। आओ, भीतर आओ, द्वार खुले हैं, दस्तक भी देने की कोई जरूरत नहीं है, आओ, भीतर आओ। और अगर तुम जरा हिम्मत करो इस देहली के पार होने की, तो तुम जान लोगे समाधि क्या है। समाधि स्वयं का मिट जाना और परमात्मा का आविर्भाव है। समाधि समाधान है। इसलिए समाधि कहते हैं उसे। सारी समस्याओं का समाधान। फिर कोई समस्या न रही, कोई प्रश्न न रहा, कोई चिंता न रही; सब शांत हो गया; सब प्रश्न गिर गये, सब समस्याएँ तिरोहित हो गयीं, एक शून्य रह गया। लेकिन उसी शून्य में पूर्ण उतरता है। तुम शून्य बनो, पूर्ण उतरने को तत्पर बैठा है। तुम्हारी तरफ से समाधि शून्य है, परमात्मा की तरफ से समाधि पूर्ण है।

लेकिन एक बात स्मरण रखना सदा, जो भी समाधि के संबंध में कहा जाए——मै भी जो कह रहा हूँ, वह भी सम्मिलित है——वह सभी कामचलाऊ है। पूछा है तो कह रहा हूँ। पूछा है तो कहना पड़ता है। लेकिन जो है, कहने में नहीं आता है। जो हूऐ, वह जानने में आता है, अनुभव में आता है। मैं कुछ कहूँगा, शब्दों का उपयोग करना पड़ेगा। शब्द में लाते ही वह जो विराट आकाश था समाधि का, सिकुड़ कर बहुत छोटा हो गया। और यह बड़ी असंभव बात है।

एक छोटा बच्चा किताब पढ़ रहा था। इतिहास की किताब और उसने पढ़ा नेपोलियन का यह प्रसिद्ध वचन कि संसार में असंभव कुछ भी नहीं, वह खिल खिला कर हँसने लगा। उसके बाप ने पूछा——क्या बात है? तू किताब पढ़ रहा है कि हँस रहा है? उसने’ कहा मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि यह इसमें लिखा है——संसार में असंभव कोई बात नहीं। पिता ने भी कहा——ठीक ही कहा है, संसार में असंभव कोई बात नहीं है। लड़के ने कहा फिर रुको, मैने आज ही सुबह एक काम करके देखा है जो बिल्कुल असंभव है। बाप ने कहा—कौन—सा काम? उसने कहा——मैं लाता हूँ अभी। वह भागा, स्नानगृह से जाकर टूथपेस्ट उठा लाया और उसने कहा— इसमें से पहले टूथपेस्ट निकालो, फिर भीतर करो, यह असंभव है——नेपोलियन के जमाने में टूथपेस्ट नहीं होता होगा। इसलिए मुझे हँसी आ गयी, क्योंकि सुबह ही मैंने बहुत कोशिश की, लाख कोशिश की मगर फिर भीतर नहीं जाता।

समाधि का अर्थ है—पहले मन से बाहर आओ; टूथपेस्ट निकाल लिया। अब समाधि के संबंध में बताने का मतलब है——टूथपेस्ट को फिर भीतर करो, फिर शब्दों में लौटो; असंभव है। शायद टूथपेस्ट तो किसी तरह से आ भी जाए, कोई उपाय बनाए जा सकते हैं, लेकिन शब्द के बाहर जाकर समाधि का अनुभव होता है, फिर शब्द के भीतर: उसको लाना असंभव है। इशारे हो सकते हैं। वही इशारे मैंने किये

 

ये सब इशारे हैं——

जैसे दीपक की लौ, जैसे नागिन का फन

जैसे चटके कली, जैसे लहके चमन

जैसे उमड़े घटा, जैसे फूटे किरन

जैसे आँधी उठे, जैसे भड़के अगन

जैसे पहलू में दिल, जैंसे दिल में लगन

जैसे मुड़ती नदी, जैसे उड़ती पवन

जैसे तितली का पर, जैसे भँवरे का मन

जैसे विरहा का दुख, जैसे चोरी का धन

जैसे मन में तड़फ, जैसे वन में हिरन

इशारे। इनको पकड़ मत लेना; ये परिभाषा नहीं है। मगर अगर व इशारे तुम्हें पुकारने लगें, ये इशारे प्यास बन जाएँ, तुम्हें खींचने लगें, एक अदम्य आकर्षण पैदा हो जाए, अभीप्सा जगे कि जानकर रहेंगे, तो काम हो गया। जो मैं यहाँ बोल रहा हूँ, उससे तुम्हें समाधि को नहीं समझा सकूँगा; लेकिन जो मैं बोल रहा हूँ, अगर उससे तुम्हारे भीतर प्यास जग आए, तो एक दिन समाधि का फूल भी तुम्हारे भीतर खिलेगा, तुम्हारा हक है। अपने अधिकार की माँग करो।

आज इतना ही।

 


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आनंद यांग–(दि बिलिव्ड)–(प्रवचन–05)

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आज इतना ही। जीवन रहते हुए मरना—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 14 जूलाई 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

बाऊलगीत

यह मनुष्य का शरीर जो श्वांस लेता है,

प्राणवायु पर ही जीवित रहता है।

और उसके पार वह अदृश्य दूसरा

जो पहुंच के बाहर है—

वह विश्राम करता है।

और दो के मध्य में

एक और मनुष्य रहस्य कडी की भांति गतिशील है

जिसका शरीर मन, हृदय और भावों का अनुसरण करता हुआ

आराधना ही में रत रहता है।

इन तीनों के बीच

यह एक लीला हो रही है

ओ मेरे खोजी हृदय!

तू किसे खोज रहा है?

जीवन और मृत्यु के दोनों द्वारों के मध्य

एक और द्वार भी है,

जिसे पूरी तरह स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

क्योंकि वह मृत्यु के द्वार पर

फिर से जन्म लेने में समर्थ है,

और वह है शाश्वत प्रेम।

मृत्यु से पहले ही मर जाना

जीवित रहते हुए भी

मर जाने जैसा है।

र्म अत्यंत ही जटिल चीज है। उसकी गढ़ता और जटिलता समझने जैसी है। यहां विश्व में कोई सात तरह के धर्म हैं। पहली तरह का धर्म अज्ञान से उद्भूत है। क्योंकि लोग अपने अज्ञान को बरदाश्त नहीं कर सकते, इसलिए वे उसे छिपाते हैं। यह मानना कठिन होता है कि कोई व्यक्ति कुछ भी नहीं जानता, यह अहंकार के विरुद्ध है। लोग विश्वास करते हैं। उनके विश्वास की पद्धति, उनके अहंकार की रक्षा करती है। यह सहायता भी करती है लेकिन बहुत दूर तक जाने में यह बहुत हानिकारक है। प्रारम्भ में यह विधि सुरक्षा करती दिखाई देती है, लेकिन अंतिम रूप से यह बहुत विध्वंसक है। इसका मूल स्रोत ही अज्ञान में है।

धर्म एक रोशनी है, एक प्रकाश है, धर्म एक समझ है, धर्म है—होशपूर्ण रहना और धर्म है एक प्रामाणिकता। लेकिन मनुष्यता का बहुत बड़ा भाग इस पहली तरह के ही धर्म में रहता है। यह केवल वास्तविक यथार्थ को टालना भर है; यह उस रिक्तता को झुठलाना भर है जो व्यक्ति अपने अस्तित्व में महसूस करता है और यह अपने अज्ञान की अंधेरी काली खाई से बचने का प्रयास भर है।

पहली तरह के धर्म के लोग कट्टर और उन्मादी होते हैं। वे यह भी बरदाश्त नहीं कर सकते कि संसार में दूसरी तरह के धर्म भी हो सकते हैं। उनका धर्म ही केवल मात्र धर्म है, क्योंकि वे अपने अज्ञान से इतने अधिक डरे हुए हैं कि यदि यहां कोई दूसरा धर्म भी है, तो वे संदेही हो सकते हैं तब उनके अंदर संदेह उठ सकता है। तब वे इतने अधिक निश्चित नहीं हो सकेंगे। निश्चयात्मकता प्राप्त करने के लिए ही वे बहुत अधिक दुराग्रही बन जाते हैं, पागलपन की सीमा तक हठी बन जाते हैं। वे दूसरे धर्मों के शास्त्र पढ़ नहीं सकते, वे सत्य के सम्बंध में दूसरे के मतों और नाजुक मत भेदों को सुन तक नहीं सकते, वे दूसरे लोगों के परमात्मा के बाबत रहस्यों और ज्ञान को बरदाश्त नहीं कर सकते। उनका परमात्मा ही एकमात्र परमात्मा है और उनके लिए उनका पैगम्बर ही केवलमात्र अकेला पैगम्बर है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक चीज को वे पूरी तरह नकली मानते हैं। ये लोग पूर्ण और बेशर्त होने की भाषा में बात करते हैं, जब कि एक समझदार व्यक्ति सदैव तुलनात्मक होता है।

इन लोगों ने धर्म को बहुत अधिक हानि पहुंचाई है, क्योंकि इन्हीं लोगों के कारण धर्म अपने आपमें थोड़ा मूढ़तापूर्ण दिखाई देता है।

याद रहे, तुम्हें इस पहली तरह के धर्म का शिकार नहीं बनना है। लगभग नब्बे प्रतिशत मनुष्यता पहली तरह के धर्म में ही रहती है, और यह किसी भी तरह से अधर्म की अपेक्षा बेहतर स्थिति नहीं है। यह इससे भी निकृष्ट हो सकती है— क्योंकि एक अधार्मिक व्यक्ति हठी या दुराग्रही तो नहीं होता। एक अधार्मिक व्यक्ति कहीं अधिक खुला हुआ होता है, कम से कम दूसरों को सुनने के लिए तैयार होता है; वह सभी बातों पर तर्क वितर्क करने, बातचीत करने, उसे खोजने और जांच करने के लिए तैयार रहता है; लेकिन पहली तरह के धार्मिक लोग कुछ भी सुनने तक को तैयार नहीं होते।

जब मैं विश्वविद्यालय में एक छात्र था, तो मैं अपने एक मित्र प्रोफेसर के साथ ठहरा करता था। उनकी मां कट्टर हिंदू थीं, पूर्ण रूप से अशिक्षित, लेकिन बहुत अधिक धार्मिक। एक दिन जाड़े की रात में, जब कमरे के आतिशदान में आग जल रही थी, मैं ऋग्वेद पड़ रहा था। इतने में वे मेरे पास आकर बोलीं—’‘ तुम इतनी देर रात तक आखिर क्या पढ़ रहे हो?” केवल उन्हें चिढ़ाने के लिए मैंने कहा—’‘ मैं कुरान पढ़ रहा हूं।’’ मेरे ऊपर जैसे उछल कर उन्होंने मुझसे ऋग्वेद छीन कर आतिशदान में जलती हुई आग में फेंक दिया और क्रोधित होकर मुझसे प्रश्न किया—’‘ क्या तुम मुसलमान हो?” तुमने मेरे घर में कुरान लाने का साहस कैसे किया?”

अगले दिन मैंने उनके पुत्र अर्थात् अपने मित्र प्रोफेसर से कहा—’‘ आपकी मां तो मुसलमान लगती हैं—क्योंकि इस तरह की चीज तो अभी तक केवल मुसलमानों के द्वारा की जाती रही है।

मुसलमानों ने विश्व का सबसे अधिक बड़ा और मूल्यवान पुस्तकों का खजाना सिकंदरिया का पूरा पुस्तकालय ही जला दिया। उस पुस्तकालय में विश्व की प्राचीन सभ्यता की बहुमूल्य विरासत थी। वह पुस्तकालय इतना विशाल था कि उसमें लगाई आग छ: महीने तक जलती रही। उसकी पुस्तकों को पूरी तरह जलने में छ: माह लगे। और जिस व्यक्ति ने उसे जलवाया, वह एक मुसलमान खलीफा था। उसका तर्क, पहली तरह के धर्म का तर्क है। वह अपने एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में जलती हुई मशाल के साथ, पुस्तकालयाध्यक्ष के सामने आकर बोला— ” मेरा एक सरल सा प्रश्न है। इस विशाल पुस्तकालय में लाखों करोड़ों पुस्तकें है………. ”

उन पुस्तकों में वह सब कुछ था, जो मनुष्यता ने उस समय तक जाना और सीखा था, और वास्तव में उसमें उससे कहीं अधिक ज्ञान था जितना हम अब जानते है।

उस पुस्तकालय में लीमूरिया और अटलांटिस के सम्बंध में प्रत्येक सूचना थी और अटलांटिस की उस सभ्यता के पूरे शास्त्र और ग्रंथ थे, और वह सम्यता और पूरा महाद्वीप, अटलांटिक महासागर के गर्भ में समा गये। वह सर्वाधिक प्राचीनतम पुस्तकालय था; जिसमें उस समय तक के सभी ग्रंथों को सुरक्षित रखा गया था। यदि वह अभी भी रही होती, तो आज मनुष्यता पूरी तरह भिन्न होती—क्योंकि हम अभी भी उन चीजों की खोज कर रहे हैं, जो पहले ही खोजी जा चुकी थीं।

इस खलीफा ने कहा—’‘ यदि इस पुस्तकालय की सभी पुस्तकों में वह ज्ञान उपलब्ध है जो कुरान में है तब इन पुस्तकों की कोई आवश्यकता नहीं, यह आवश्यकता से अधिक है। यदि इनमें कुरान से अधिक कुछ है, तो वह गलत है।’’

तब उसको तुरंत नष्ट करना जरूरी है। हर तरह से उसे नष्ट किया ही जाना था। यदि उसमें वह सब कुछ है, जो कुरान में है तब वह आवश्यकता से अधिक है। फिर अनावश्यक रूप से इतने बडे पुस्तकालय का प्रबंध किए जाने की जरूरत क्या? एक कुरान ही काफी है। और यदि तुम कहते हो कि उसमें कुरान से भी कहीं अधिक चीजें और ज्ञान है, तो उस सभी को गलत होना ही चाहिए क्योंकि कुरान ही सर्वोच्च सत्य है।

एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में जलती मशाल लेकर, उसने कुरान के नाम पर पुस्तकालय में आग लगाना शुरू किया। उस दिन बहिश्त में मुहम्मद जरूर बहुत रोये और बिलखे होंगे, क्योंकि उनके ही नाम पर उस पुस्तकालय को जलाया जा रहा था। यह है—पहली तरह का धर्म। सदैव सजग बने रहो, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में ऐसा ही हठी और दुराग्रही मनुष्य बैठा हुआ है।

 

कल रात मैं पढ़ रहा था……

दो असाधारण रूप से झक्की और दुराग्रही बूढों की एक जैसी ही ख्याति थी। जब वे दोनों किसी भी स्थिति में एक दूसरे से आमने—सामने उलझ जाते थे, जहां किसी एक को झुकाना होता था। तो प्राय: मामले को सुलझाने के लिए तीसरे व्यक्ति को दखल देना होता था। एक दिन ये दोनों जिद्दी के, सूखी घास के ढेर को अपनी अपनी गाड़ी पर लादे हुए एक तंग रास्ते पर मिले। दोनों ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे एक दूसरे की गाड़ी को गुजरने के लिए एक इंच जगह भी न देंगे।

अंत में एक बूढ़े से दूसरे से कहा—’‘ मैं यहां उतनी अवधि तक प्रतीक्षा करने को तैयार हूं जितनी देर तक तुम प्रतीक्षा कराना चाहते हो।’’ इतना कहकर उसने अपना अखबार निकाला और उसे पढ़ना शुरू कर दिया।

दूसरे बूढ़े ने अपने पाइप में तम्बाकू भरी और बहुत संतोष के साथ धुंआ उडाने लगा। आधे घंटे की खामोशी के बाद वह आगे की ओर झुककर, पड़ोस में बैठै के से बोला—’‘ जब तुम अखबार पूरा पढ चुको तो क्या उसे पढ़ने के लिए मुझे देने में आपको कोई आपत्ति तो नहीं होगी?”

इस तरह का दुराग्रही और हठी मनुष्य, प्रत्येक मनुष्य के अंदर ही रहता है। और यह मनुष्य जाति की सबसे निम्नतम कोटि है। ऐसा मनुष्य हिंदुओं में भी है, मुसलमानों, ईसाइयों, बौद्धों और जैनों में भीं—ऐसा मनुष्य प्रत्येक मनुष्य के अंदर ही निवास करता है और प्रत्येक मनुष्य को इस जाल में न फंसने के प्रति सावधान और सजग रहना है। केवल तभी तुम उच्चतम तलों के धर्मों की ओर उन्मुख हो सकोगे। इस पहली तरह के धर्म के साथ समस्या यह है कि हम लोग लगभग इसी में पले बड़े हैं। हम लोग उसके आदी हो गए हैं, इसलिए वह लगभग सामान्य जैसे लगने लगा है। वह हमारा ढांचा बन गया है। एक हिंदू इस विचार के साथ पाला— पोसा जाता है कि दूसरे सभी धर्म गलत हैं। यदि उसे सहनशील बनना भी सिखाया जाए तो वह सहनशीलता उस व्यक्ति की अपनी होती है जिससे वह उन दूसरों के बाबत जानता है जो उसे नहीं जानते। एक जैन पूरी तरह से इस विश्वास के साथ पाला—पोसा जाता है कि केवल वह ही ठीक है और अन्य सभी दूसरे लोग अज्ञानी है। वे ठोकरें खा रहे हैं और अंधेरे में टटोल रहे हैं। यह अनुशासन और आदतें तुम्हारे अंदर इतनी गहराई से प्रविष्ट हो जाती हैं। कि तुम यह भी भूल सकते हो कि ये सभी थोपे गये संस्कार और आदतें हैं और तुम्हें उनसे ऊपर उठना है।

 

मुल्ला नसरुद्दीन अपने एक मित्र को उसकी हाथ की रेखाएं देखकर उसका भविष्य बतला रहा था। उसने कहा—’‘ तुम निर्धन, दुखी और अप्रसन्न ही बने रहोगे जब तक कि तुम साठ वर्ष के नहीं हो जाते।’’

तब उसके मित्र ने आशान्वित होकर पूछा—’‘ तब उसके बाद क्या होगा?” नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ उस समय तक तुम उस सभी के अभ्यस्त हो चुके होगे।’’

 

यही समस्या है, कोई भी व्यक्ति एक निश्चित अनुशासन और आदतों के ढांचे का अभ्यस्त हो जाता है और यह सोचना शुरू कर देता है, जैसे मानो वही उसका स्वभाव हो, अथवा जैसे मानो वही सत्य हो।

इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंदर इस सबसे निम्न सम्भावना को खोजते समय बहुत सजग और सचेत होना चाहिए जिससे वह उसके जाल में पकड़ा न जा सके।

कभी—कभी हम अपने जीवन को रूपांतरित करने के लिए कठिन कार्य करते हैं और हम पहली तरह के धर्म में ही विश्वास किए चले जाते हैं। तब किसी क्रांति होने की सम्भावना नहीं है। क्योंकि तुम ऐसी चीज को पाने का प्रयास कर रहे हो जो बहुत निम्‍न तल की है, और वह वास्तव में धार्मिक नहीं हो सकती। पहली तरह का यह धर्म, केवल नाममात्र का ही धर्म है; उसे धर्म कहकर पुकारना ही गलत है।

 

एक मनुष्य दूसरे से कह रहा था—’‘ मेरा डॉक्टर दामाद एक पीलिया से पीले पड़े मनुष्य का पिछले बीस वर्षों से इलाज कर रहा है। आखिर उसने यह खोज की कि वह व्यक्ति चीनी था।’’

 

दूसरे व्यक्ति ने कहा—’‘ आखिर वास्तविकता भी तो कोई चीज है? और कितनी भयानक बात है कि उसने उसे ठीक कर दिया।’’

 

किसी व्यक्ति का बीस वर्षों तक पीलिया रोग का इलाज किए जाना, जो एक चीनी भी हो सकता है, लेकिन वह कितने समय तक उस इलाज से अपनी रक्षा कर सकता है? यदि तुम निरंतर एक गलत दृष्टिकोण से स्वयं अपने ऊपर कार्य करते रहो, तो तुम अपनी प्रकृति और स्वभाव छोड़ते चले जाओगे। तुम उसी तरह से कार्य करना शुरू कर दोगे, जिस तरह से तुम कार्य करना चाहते हो। हां! तुम्हारी आदत ही तुम्हारा दूसरा स्वभाव या प्रकृति बन सकती है। दुर्भाग्य से वह कभी—कभी पहला स्वभाव बन जाता है, और मूल प्रकृति पूरी तरह भुला दी जाती है।

पहले तरह के धर्म का प्रमुख गुण है कि वह अनुकरण करने को कहता है। वह अनुकरण करने का आग्रह करता है: बुद्ध का अनुकरण करो, जीसस का अनुकरण करो, महावीर का अनुकरण करो लेकिन अनुकरण अवश्य करो। किसी भी व्यक्ति का अनुकरण करो। स्वयं के होकर मत रहो, किसी और जैसे बनो। और यदि तुम बहुत अधिक जिद्दी और हठी हो तुम अपने आपको किसी और जैसा बनने को विवश कर सकते हो।

तुम किसी दूसरे व्यक्ति जैसे कभी न हो सकोगे। अपने गहरे में तुम वैसे हो ही नहीं सकते। तुम वैसे ही बने रहोगे, लेकिन तुम अपने आप पर बल प्रयोग कर सकते हो जिससे तुम लगभग किसी दूसरे जैसे दिखना शुरू हो जाओगे।

प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनूठी निजता के साथ जन्म लेता है और प्रत्येक व्यक्ति की एक अपनी अलग नियति होती है। अनुकरण करना अपराध है, यह अपराधी होने जैसा है। यदि तुम बुद्ध बनने का प्रयास करते हो, तुम बुद्ध की नकल तो कर सकते हो; बुद्ध जैसे दिखाई भी दे सकते हो, बुद्ध की तरह चल भी सकते हो, उनकी ही तरह बातचीत भी कर सकते हो, लेकिन तुम चूक जाओगे।

तुम जीवन में वह सभी कुछ चूक जाओगे, जो वह तुम्हें देने के लिए तैयार है। क्योंकि बुद्ध केवल एक बार ही होते हैं, प्रकृति कभी अपने आपको दोहराती नहीं है। परमात्मा इतना अधिक सृजनात्मक है कि वह कभी भी किसी चीज को दोहराता नहीं। तुम वर्तमान में, अतीत में अथवा भविष्य में भी ठीक अपने जैसा कोई दूसरा मनुष्य नहीं खोज सकते। ऐसा आज तक कभी हुआ ही नहीं। मनुष्य होना कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। वह फोर्ड की कारों की तरह नहीं है, जिनके पुर्जे जोड़कर तुम ठीक एक जैसी लाखों कारों का उत्पादन कर सको। मनुष्य के पास अपनी आत्मा है, वह वैयक्तिक है। अनुकरण करना विष तुल्य है। कभी किसी का भी अनुकरण करना ही नहीं; अन्यथा तुम पहली कोटि के धर्म का शिकार बन जाओगे, जो अपने आप में किसी भी तरह धर्म है ही नहीं।

तब वहां धर्म की एक दूसरी कोटि है। दूसरी श्रेणी का धर्म भय पर आधारित है। मनुष्य भयभीत है, यह संसार उसके लिए एक अजनबी संसार है, और मनुष्य सुरक्षित होना चाहता है, सुरक्षा चाहता है। बचपन में माता और पिता सुरक्षा करते हैं। लेकिन यहां ऐसे लाखों लोग हैं जो अपने बचपन के पार जाकर आगे कभी विकसित ही नहीं हो पाते। वे वहीं अटक कर रह जाते हैं; और वे अभी भी अपने माता और पिता की जरूरत महसूस करते है। इसीलिए वे परमात्मा को परमपिता अथवा मातृशक्ति कहकर पुकारते है। उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए एक दैवी—पिता की आवश्यकता महसूस होती है; क्योंकि वे स्वयं अभी तक यथेष्ट परिपक्व या विकसित नहीं हो सके हैं। उन्हें किसी सुरक्षा की जरूरत है।

एक मनोवैज्ञानिक विन्नीकोट, जो कई वर्षों से छोटे बच्चों की एक विशिष्ट समस्या पर कार्य कर रहा था, उसने बहुत सी सुंदर चीजें खोजी। उनका उल्लेख करना प्रसंगानुकूल है।

तुमने छोटे बच्चों को अपने ‘ टेडी बियर ‘ अथवा अपने प्रिय किसी विशिष्ट खिलौने, अथवा किसी गुड्डे, गुड़िया कम्बल अथवा किसी ऐसी चीज के साथ खेलते और उसे निरंतर साथ रखते देख होगा; जिसका व्यक्तित्व उसके लिए विशेष अर्थपूर्ण है। ‘ टेडी बियर ‘ अर्थात् छोटे भालू का खिलौना ही लो, जिस बच्चे को वह प्रिय होता हे, तुम उसे किसी दूसरे से बदल नहीं सकते। तुम उससे कह सकते हो कि हम इससे कहीं अच्छा दूसरा खिलौना ला देंगे, लेकिन उससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। बच्चे का उसी टेडी बियर के खिलौने के साथ एक प्रेम सम्बंध जुड़ जाता है। उसका अपना ‘ टेडी बियर ‘ ही अनूठा होता है, तुम उसे किसी दूसरे से बदल नहीं सकते। वह गंदा हो जाता है, फट जाता है, उससे गंध आने लगती है, लेकिन बच्चा उसे ही हमेशा अपने साथ रखता है। तुम उसके स्थान पर कोई दूसरा नया खिलौना लाकर उसे हटा नहीं सकते। माता—पिता को उसे बरदाश्त करना ही होता है।

यहां तक कि उसे सम्मान भी देना पड़ता है, अन्यथा बच्चा नाराज होकर रूठ जाना है। यदि माता—पिता, बच्चे के साथ यात्रा पर बाहर भी जाते हैं, तो भी उन्हें टेडी बियर को बरदाश्त करते हुए उससे लगभग परिवार के एक सदस्य जैसा व्यवहार भी करना होता है। वे जानते हैं कि ऐसा करना बेबकूफी है लेकिन बच्चे के लिए वह बहुत महत्त्वपूर्ण है।

उस बच्चे के लिए ‘ टेडी बियर ‘ का आखिर क्या महत्त्व है? बच्चे के बाहर के संसार में वह वास्तविक यथार्थ का एक भाग है। निश्चय ही वह मात्र एक कल्पना नहीं है; वह एक वैयक्तिकता मात्र भी नहीं हैं; और न वह एक सपना है, क्योंकि यथार्थ में वह वहां है। लेकिन वह समग्र रूप से वहां नहीं है; क्योंकि बहुत से बच्चों के उसके साथ सपने जुड़े हैं। वह एक वस्तु हैं, पदार्थगत है लेकिन उसके साथ बहुत अधिक वैयक्तिकता भी जुड़ी हुई है। बच्चे के लिए तो वह जैसे जीवंत है। बच्चे ने उस ‘ टेडी बियर ‘ में बहुत सी चीजें प्रक्षेपित कर रखी हैं। वह ‘ टेडी बियर ‘ से बातचीत करता है, कभी—कभी उससे नाराज होकर उसे दूर फेंक भी देता है और तब यह कहते हुए—मुझे अफसोस है। उसे वापस उठा लाता है। उसके पास लगभग मनुष्य जैसा एक व्यक्तित्व है। बिना ‘ टेडी बियर ‘ के वह सो नहीं सकता। उसे पकड़कर हृदय से लगाकर ही वह सोने जाता है और अपने को सुरक्षित महसूस करता है। ‘ टेडी बियर ‘ के साथ रहते हुए उसके लिए संसार ठीक है, उसकी हर चीज ठीक है। बिना टेडी बियर के वह अचानक अपने को अकेला पाता है।

इसलिए ‘ टेडी बियर ‘ के अस्तित्व का पूरी तरह से एक नया आयाम है; जो न तो काल्पनिक या वैयक्तिक है और न वस्तुगत। विन्नीकोट इसे अंतरिम या क्षणिक क्षेत्र कहता है जो थोड़ा—सा पदार्थगत है और थोड़ा सा वैयक्तिक। बहुत से बच्चे शरीर से तो विकसित हो जाते हैं, लेकिन उनका आत्मिक रूप से कोई विकास नहीं होता, और उन्हें अपने पूरे जीवन में अपने टेडी बियर की जरूरत बनी रहती है। मंदिरों में तुम्हारे परमात्मा की मूर्ति और कुछ भी नहीं, वह ‘ टेडी बियर ‘ ही है। इसीलिए जब एक हिंदू हिंदू मंदिर में जाता है, वह कुछ ऐसा देखता है वहां, जो एक मुसलमान नहीं देख सकता। मुसलमान तो केवल पत्थर की एक मूर्ति ही देख पाता है। हिंदू कुछ ऐसी चीज देखता है वहां, जो कोई दूसरा नहीं देख पाता, क्योंकि मूर्ति उसका टेडी बियर ही है। एक वस्तु के रूप में तो वह वहां है ही, लेकिन वह पूरी तरह पदार्थगत नहीं है। उसमें पूजा करने वाले की काफी अधिक वैयक्तिक भी प्रक्षेपित है, जो एक स्क्रीन या सिनेमा के पर्दे की भांति कार्य करती है।

तुम एक जैन मंदिर में जाते हो। तुम एक हिंदू हो सकते हो, लेकिन जैन मंदिर में श्रद्धा उठने जैसी तुम किसी भी बात का अनुभव न करोगे। कभी—कभी तुम थोड़ी सी नाराजगी भी महसूस कर सकते हो, क्योंकि महावीर अपनी मूर्ति में बिलकुल नग्न खड़े हैं। तुम किसी सम्मान जैसी चीज का अनुभव न करते हुए जितनी शीघ्रता से संभव हो सके, बाहर निकलना चाहोगे। लेकिन तभी वहां एक जैन अत्यधिक सम्मान की भावना के साथ आता है, क्योंकि वह मूर्ति ही उसका टेडी बियर है और वहां बहुत सुरक्षा का अनुभव करता है।

इसलिए जब कभी भी तुम भयभीत होते हो, तुम परमात्मा का स्मरण करना शुरू कर देते हो। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे भय का बाई—प्रोडक्ट है, वह भय से ही स्वत:— उत्पन्न हुआ है। जब तुम अच्छा महसूस करते हो और भयभीत नहीं होते, तुम कोई फिक्र करते ही नहीं। वहां उसकी कोई जरूरत ही नहीं है।

तो दूसरी तरह का धर्म भय की ओर उन्मुख है। यह बहुत रुग्ण है, यह लगभग मानसिक बीमारी जैसा है क्योंकि तुममें परिपक्रता केवल तभी आती है, जब तुम यह महसूस करते हो कि तुम अकेले हो और तुम्हें अकेला ही रहना है, और तुम्हें वास्तविक यथार्थ या सत्य जो कुछ भी वहां है, उसका सामना करना है। ये क्षणभंगुर टेडी—बियर या मूर्तियां केवल तुम्हारी ही कल्पनाऐं है और वे तुम्हारी सहायता नहीं कर सकेंगी। यदि कुछ भी होने जा ही रहा है, तो वह होगा ही, ये टेडी बियर तुम्हारी रक्षा न कर सकेंगे। यदि मृत्यु होने जा रही है तो वह होगी ही। तुम परमात्मा को पुकारते ही जाओ, पर तुम्हारे पास सुरक्षा आने से रही। तुम केवल भयभीत होने के कारण ही उसे पुकार रहे हो, जब कि वास्तव में तुम किसी को भी नहीं पुकार रहे हो।

हो सकता है, जोर जोर से बुलाना, तुम्हें थोड़ा साहस देता हो। हो सकता है तुम प्रार्थना कर रहे हो………. प्रार्थना तुम्हें एक निश्चित साहस देती है, लेकिन उत्तर देने के लिए वहां कोई परमात्मा है नहीं। वहां ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर दे। लेकिन यदि तुम्हारा ऐसा कोई खयाल है कि वह है वहां, जो तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर दे, तो तुम्हें इस विचार से थोडा सा सुकून और शांति मिलती है।

 

एक बार मैंने देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन बहुत भक्तिभाव से प्रार्थना कर रहा है। जब वह अपनी नमाज खत्म कर चुका तो मैंने उससे पूछा—’‘ मुल्ला! लगता है तुम जरूर किसी समस्या से जूझ रहे हो और इसीलिए इतनी गहरी भक्ति से प्रार्थना कर रहे थे। कृपया तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो, क्या कभी तुम्हारी प्रार्थना सुनी गई और उसका उत्तर तुम्हें मिला?” उसने उत्तर दिया—’‘ हां! एक तरह से या दूसरी तरह से।’’

 

लेकिन यदि प्रार्थना का उत्तर एक तरह से या दूसरी तरह से मिलता है तो इसमें खास बात क्या है। हां! कभी—कभी वह तथ्यों के साथ घट जाती है और कभी यह तथ्यों के साथ नहीं भी घटती, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना से तथ्य ज्यों के त्यों बने रहते हैं, उनमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। इससे तुम्हारे मन में थोडा सा फर्क जरूर पड़ता है, पर वास्तविकता में कोई अंतर नहीं पड़ता।

भय पर आधारित या उससे उद्भूत धर्म,’ मत करो ‘ वाला धर्म है, यह मत करो, वह मत करो—क्योंकि भय नकारात्मक है। मूसा के दस आदेश, ये सभी भय पर आधारित हैं—यह मत करो, वह मत करो—सुरक्षा के लिए अपने आप में बंद होकर रह जाओ, कभी कोई जोखिम मत उठाओ, कभी किसी खतरनाक रास्ते की ओर बढ़ो ही मत, और वास्तव में अपने आप को जीवंत बने रहने की अनुमति ही मत दो। ठीक जैसे कि पहली कोटि का धर्म, मूढ़तापूर्ण और उन्मादी था, दूसरी कोटि का धर्म भी वैसा ही नकारात्मक है। यह तुम्हें एक विशेष तरह की जकड़न और बंधन देता है। इसमें बचपना है। यह सुरक्षा की खोज के लिए है, जो कहीं भी सम्भव है ही नहीं, क्योंकि जीवन का अस्तित्व असुरक्षा में ही है। परमात्मा का अस्तित्व जैसे एक असुरक्षा, खतरा और जोखिम भरा है।

भयोम्मुख धर्म की कुंजी है—नर्क जैसा शब्द और वास्तव में दमन, निरंतर दमन, यह मत करो। दूसरी कोटि के धर्म का मनुष्य हमेशा भयभीत रहता है—क्या खाया जाये, क्या न खाया जाये, उस स्त्री से प्रेम किया जाये अथवा न किया जाये, वह घर बनाया जाये या न बनाया जाये। और तुम जिस चीज का भी दमन करते हो, तुम उससे कभी भी मुक्त नहीं हो सकते और वास्तव में अधिक से अधिक तुम उसकी शक्ति के शिकंजे में होते हो। क्योंकि जब तुम किसी चीज का दमन करते हो तो वह तुम्हारे अचेतन में गहरे चली जाती है। वह तुम्हारी जड़ों तक पहुच कर तुम्हारे पूरे अस्तित्व को विषमय बना देती है।

 

मैंने सुना है: एक वृद्ध व्यक्ति, जो प्रत्येक कार्य समय देखकर नियमित रूप से करता था, पहली बार एक फिल्म देख रहा था। वह बहुत ही धार्मिक मनुष्य के रूप में जाना जाता था, जो अपनी प्रार्थनाएं नियमित रूप से किया करता था, अपने सभी कर्तव्यों का पूरी तरह निर्वाह करता था और ऐसा कहा जाता था कि वह कभी भी समस्या उत्पन्न करने वाली किसी भी स्थिति में कभी भी पड़ा ही नहीं।

संक्षेप में वह बहुत सरल व्यक्ति था—लेकिन अंदर से वह इतना सरल नहीं था। फिल्म में एक स्थान पर कई सुंदर लड़कियों का झुंड स्क्रीन पर आता दिखाई दिया। तैरने के तालाब तक पहुंचने के लिए उन्होंने रेल की पटरी पार की और तरणताल पर पहुंच कर गोताखोरी के लिए वे अपने कपड़े उतारने लगीं। पहले उन्होंने अपने जूते खोले, मोजे अलग किये फिर अपनी कमीजें और स्कर्ट उतारीं और बस वह आगे कुछ और उतारने जा रही थीं…… तभी एक मालगाड़ी तीव्र गति से धड़धड़ाती हुई स्क्रीन पर प्रकट हुई और वह दृश्य छिप गया। जब मालगाड़ी गुजर गई, तो अगले दृश्य में लड़कियों को पानी में उछलते कूदते और खेलते हुए दिखलाया गया।

समय के पाबंद उस बूढ़े व्यक्ति ने उस फिल्म को बार—बार कई बार देखा। आखिरकार गेटकीपर ने उसके कंधे को थपथपा कर उससे पूछा—’‘ क्या आपको अपने घर नहीं जाना है?”

समय के पाबंद उस वृद्ध ने उत्तर दिया—’‘ मैं यह सोच रहा था कि कभी तो वह वक्त आयेगा जब यह रेलगाड़ी लेट हो जायेगी।’’

 

अपने अंदर गहरे में तुम हमेशा वह साथ लिए चलते हो, जिसका तुमने दमन किया है। तुम धर्म का अनुसरण एक संस्कार की भांति करते हो, लेकिन वह तुम्हारा हृदय कभी भी नहीं बनता।

मैंने एक घटना के बाबत सुना है: सदियों तक योरोप में बसे यहूदियों को संगठित दण्ड का शिकार बनना पड़ा जिसे सामूहिक अत्याचार, मारपीट अथवा ‘ पोगरोम ‘ कहा जाता था। यह दण्ड देने की प्रक्रिया प्राय: हुआ करती थी अत: यहूदियों में उसके प्रति एक मजाक की भावना विकसित हो गई।

 

पौलैण्ड के एक छोटे से कस्वे में सिपाहियों ने आस्ट्रोवस्की के घर में जबरन प्रवेश किया। उसके परिवार में उसके साथ उसकी पत्नी, तीन लड़कियां, दो पुत्र और उसकी वृद्ध धार्मिक मां भी थी। उसकी प्रसिद्धि चारों ओर एक संत जैसी थी। सिपाहियों का सार्जेन्ट चीखते हुए बोला—’‘ सभी लोग एक लाइन में खडे हो जाओ। हम सभी पुरुषों को मारते—मारते अधमरा कर देंगे और सभी स्त्रियों के साथ बलात्कार करेंगे।’’

ओस्ट्रोवस्की ने गुहार लगाते हुए कहा—’‘ जरा रुकिये श्रीमान! आप मुझे और मेरे बेटों को चाहे जितना भी मारें पीटें, मेरी पत्नी और लड़कियों को चाहे जैसे भी गाली गलौज कर अपमानित करें लेकिन मेरी प्रार्थना है कि मेरी मां के साथ बलात्कार न करें।

वह पछत्तर वर्ष की वृद्धा है और बहुत धार्मिक है।’’

वृद्ध महिला चीखते हुए बोली—’‘ शटअप! तुम खामोश रहो। आखिर ‘ पोगरोम ‘ तो एक ‘ पोगरोम ‘ ही होता है।’’

 

स्मरण रहे, दमन, स्वतंत्रता की ओर ले जाने वाला मार्ग नहीं है। दमन करना अथवा अपने भावों को रोकना, उन्हें शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने से भी कहीं अधिक बुरा है, क्योंकि शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति से उस मनुष्य को एक न एक दिन उससे मुक्त हो ही जाना है, लेकिन दमन के द्वारा मनुष्य के मन में वह चीज हमेशा घुमड़ती और घूमती ही रहती है। केवल जीवन ही तुम्हें स्वतंत्रता देता है। एक जिया हुआ जीवन ही तुम्हे स्वतंत्रता देता है, और बिना जिया हुआ जीवन आकर्षक बना रहता है, और तुमने जिन भावों का दमन किया है, वे मन में घूमते ही रहते हैं।

तिरासी वर्ष के विधुर स्थूलोवित्व ने मियामी बीच स्थित वृद्धाश्रम में रहने से साफ इंकार करते हुए अपने पुत्र के सामने घोषणा करते हुए कहा—’‘ मैं कोई भी चीज खा ही नहीं सकता, जब तक यहूदी की धार्मिक विधि ‘ कोशर ‘ पद्धति से उसे तैयार न किया जाए।’’

उसका पुत्र कई हफ्ते ऐसा स्थगन खोजता रहा और अंत में उसे एक ऐसा स्थान मिल ही गया जहां यहूदियों के धार्मिक नियमों के अनुसार भोजन ‘ सर्व ‘ किया जाता था। उसने अपने पिता को उसी वृद्ध निकेतन में भेज दिया जहां ‘ कोशर ‘ विधि से तैयार भोजन ही उसके पिता को परोसा जाए और उनकी भावनाओं की रक्षा हो सके।

तीन दिनों बाद उसके पुत्र को ज्ञात हुआ कि वृद्ध महाशय, वृद्ध—निकेतन छोड्कर होटल फाउन्टेनब्यू चले गए हैं। उसका पुत्र होटल मैनेजर से पिता के कमरे की चाभी लेकर, सीढ़ियां चढ़कर उनके कमरे में दरवाजा खोलकर जा पहुंचा और देखा कि उसके पिता भूरे बालों वाली एक सुंदरी के साथ पलंग पर लेटे हैं और वे दोनों पूरी तरह नग्र हैं।

उलझन में पड़े लड़के ने प्रश्न किया—’‘ पापा! आपने ऐसा क्यों किया?” वृद्ध महाशय ने उत्तर दिया—’‘ लेकिन यह तो देखो जरा, मैं इस होटल का भोजन नहीं ले रहा हूं।’’

 

जो लोग भयवश संस्कारों के द्वारा जीवन जीते हैं वे एक चीज से तो दूर रह सकते हैं, लेकिन वे किसी दूसरे जाल में फंस जाते हैं, क्योंकि उनके पास उनकी अपनी समझ नहीं है। वह केवल भय से उत्पन्न हुई समझ है। वे उससे डरे हुए हैं कि उन्हें नर्क में जाना होगा।

एक सच्चा धर्म तुम्हें निर्भयता देता है, बस इसी को मापदण्ड बना लो। यदि धर्म तुम्हें भय देता है, तब वास्तव में वह धर्म है ही नहीं।

तीसरी कोटि का धर्म, लोभ से उत्पन्न होता है।

लोभ से उत्पन्न धर्म कहता है—’ यह करो ‘। और जैसे भय से उत्पन्न होने वाले धर्म की कुंजी है—नर्क जैसा शब्द, तो लोभ से जन्म धर्म की कुंजी है—स्वर्ग का शब्द। प्रत्येक कार्य इस तरह से करना है, जिससे इस संसार के पार दूसरा संसार पूरी तरह सुरक्षित रहे, और मृत्यु के बाद भी तुम्हारी प्रसन्नता और सुख की पूरी गारंटी हो।

‘ यह करो ‘, ऐसे करो ‘ अथवा लोभ से जन्मा धर्म औपचारिक संस्कार गुस्त, महत्त्वाकांक्षी और कामनाओं की ओर उन्तुख होता है। वह कामनाओं से भरा हुआ होता है। मुसलमानों, ईसाइयों और हिंदुओं के स्वर्ग की अवधारणाओं को जरा गौर से देखो। उनकी मात्रा और डिग्री में अंतर हो सकता है, लेकिन यह बहुत अद्भुत बात है यह सभी लोग अपने इस जीवन में जिन चीजों से इंकार किए चले जाते हैं, वे बड़ी मात्रा में उन सभी चीजों की स्वर्ग से सुविधाएं चाहते हैं। स्वर्ग को पाने के लिए यहां इस जीवन में तुम्हें ब्रह्मचर्य से रहना होगा, तभी वहां सोलह वर्ष की आयु पर रुक जाने वाली चिर युवा सुंदर अप्सराएं तुम्हें उपलब्ध होंगी। मुसलमान कहते हैं—’‘ यहां शराब का सेवन मत करो, लेकिन स्वर्ग में शराब की नदियां बह रही हैं। चिंता करने की कोई बात नहीं।’’

लेकिन यह सब कुछ बकवास लगता है। यदि यहां कोई भी चीज गलत है, तो वह गलत ही है। वह स्वर्ग में कैसे ठीक और अच्छी हो सकती है? तभी उमर खैय्याम ठीक ही कहता है। वह कहता है’ यदि बहिश्त में शराब की नदियां बह रही हैं तो हम लोग यही से उसका अभ्यास करना क्यों न शुरू कर दें, क्योंकि यदि हम बिना अभ्यास किए वहां जाते हैं, तो वहां बहिश्त में रहना कठिन होगा। इसलिए इस जीवन में उसका थोड़ा सा पूर्वाभ्यास कर लिया जाए जिससे हमारे अंदर उसका स्वाद और उसके लेने की क्षमता उत्पन्न हो जाए।’’ तब उमर खैथ्याम की बात अधिक तर्कपूर्ण प्रतीत होती है। वास्तव में वह मुसलमानों के बहिश्त की धारणा के विरुद्ध उसका मखौल उड़ा रहा है। यह मूर्खतापूर्ण है, पूरी धारणा ही मूर्खता से भरी है। लेकिन जो लोग हैं, वे इस लालच के कारण ही धार्मिक बने हुए हैं।

एक चीज निश्चित है यहां जो कुछ तुम इकट्ठा करोगे, वह तुमसे यही छीन लिया जाएगा। मृत्यु अपने साथ सब कुछ ले जाती है। इसलिए लालची लोग यहां कुछ ऐसी चीज इकट्ठी करना चाहते है, जिसे मृत्यु अपने साथ न ले जा सके। लेकिन इकट्ठा करने का विचार, संग्रह करने की चाह ज्यों की त्यों बनी रहती है। अब वह पुण्य का संचय कर रहा है। दूसरे संसार में पुण्य ही वह सिक्का है, अत— वह यहां पुण्यों का संग्रह किए चले जा रहा है, जिससे वह दूसरे संसार में हमेशा—हमेशा के लिए वासना और प्रेम में जी सके। इस कोटि का मनुष्य मूल रूप से संसारी है। उसका दूसरा संसार और कुछ भी नहीं, बल्कि इस संसार का ही एक प्रक्षेपण है। चूंकि उसकी कामनाएं हैं, उसकी कुछ महत्त्वाकांक्षाएं हैं, और चूंकि उसके पास शक्ति प्राप्त करने की वासना है, इसलिए वह कार्य करेगा, लेकिन उसका करना हृदय से न होगा। वह एक तरह का नियंत्रित कार्य होगा।

जाड़ों में मुल्ला नसरुद्दीन अपने युवा पुत्र के साथ बैलगाड़ी हांकता गांव जा रहा था। बर्फ गिर रही थी और ऐसे में बैलगाड़ी बर्फ में धंस गई। अंत में वे एक फार्म हाउस में पहुंचे, जहां रात रुकने के लिए उनका स्वागत किया गया। घर बहुत ठंडा था और ऊपर की मंजिल के जिस कमरे में उन्हें रुकने को कहा गया वह तो बर्फ के बक्से की तरह ठंडा था। अपने अंडर बियर के नाड़े को कसते हुए मुल्ला कूदकर मुलायम बिस्तर पर लेट गया और अपने को सिर तक कम्बल से ढक लिया। उसके युवा पुत्र को अपने मन में थोड़ा सा बुरा लगा।

उसने कहा—’‘ माफ करें डैडी! क्या आप ऐसा नहीं सोचते कि बिस्तरे में जाने से पहिले आपको प्रार्थना करना चाहिए था।’’ मुल्ला ने कम्बल के नीचे ही अपनी एक आख घिर कर उत्तर दिया—’‘ मेरे बेटे! इस जैसी स्थिति आने पर मैं प्रार्थना को आगे के लिए सुरक्षित रख लेता हूं।’’

 

तब चीजें केवल परिधि पर होती हैं। लालच भय और अज्ञान ये सभी केवल परिधि पर हैं।

ये तीन तरह के धर्म हैं— और ये तीनों एक दूसरे से मिले हुए हैं। तुम ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं खोज सकते जो शुद्ध रूप से पहली, दूसरी या तीसरी कोटि के धर्म का हो। जहां कहीं भी लोभ और लालच होता है, वहां भय भी होता है, जहां भय होता है, वहां लोभ होता है, और जहां लोभ और भय दोनों एक साथ होते हैं, वहां अज्ञान होता है—क्योंकि वे बिना उनके अस्तित्व में हो ही नहीं सकते। इसलिए मैं किसी शुद्ध कोटि के बाबत कह ही नहीं रहा हूं। मैं उनका श्रेणीबद्ध विभाजन केवल इसलिए कर रहा हूं जिससे तुम उन्हें ठीक से समझ सको। अन्यथा यह तीनों मिले हुए हैं।

ये धर्म की तीन निम्‍नतम कोटियां हैं। इन्हें धर्म कहकर पुकारना भी नहीं चाहिए।

तब वहां एक चौथी कोटि भी है तर्क—वितर्क हिसाब—किताब और चालाकी का धर्म।

यह धर्म, ‘ करो ‘ और ‘ मत करो ‘ का जोड़ है— यह सांसारिक भौतिकवादी, अवसरवादी, बुद्धिगत, सैद्धांतिक शास्त्रसम्मत और परम्परावादी धर्म है। यह पंडितों और विद्वान शास्त्रज्ञों का धर्म है, जो तर्क के द्वारा परमात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं और जिनका ख्याल है कि जीवन के रहस्यों को बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है।

इस तरह के धर्म, धर्मशास्त्रों को जन्म देते हैं। यह वास्तव में धर्म न होकर उसकी धुंधली सी कार्बन अनुकृति हैं। लेकिन सभी पूजा घर इसी पर आधारित हैं। जब संसार में कोई बुद्ध, मुहम्मद, कृष्ण या क्राइस्ट अस्तित्व में होता है तो पंडित, विद्वान और चालाक बुद्धिजीवी लोग उनके चारों ओर इकट्ठे हो जाते हैं। वे कठिन परिश्रम करना शुरू कर देते हैं आखिर जीसस के होने का अर्थ क्या है? वे एक धर्मशास्त्र, एक पंथ, एक मत और पूजाघर का सृजन करना शुरू कर देते है। ऐसे लोग बहुत सफल होते हैं, क्योंकि वे बहुत अधिक तर्कपूर्ण होते हैं। वे लोग तुम्हें परमात्मा नहीं दे सकते, वे तुम्हें सत्य भी नहीं दे सकते, लेकिन वे तुम्हें महान संगठन देते हैं। वे तुम्हें कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्च देते हैं। वे तुम्हें महान धर्मशास्त्र देते हैं, जिसमें वास्तविक अनुभव जैसा कुछ भी न होकर, केवल बुद्धि का करतब और चालाकी मात्र होती है। उनकी पूरी इमारत कुछ ऐसी होती है, जैसे मानो कोई ताश का एक घर बनाता हो और हल्की सी हवा चलने पर वह घर ध्वस्त हो जाता हो। उनकी पूरी इमारत कुछ ऐसी होती है जैसे मानो कोई कागज की नाव नदी में खेने का प्रयास कर रहा हो। वह ठीक असली नाव जैसी दिखाई तो देती है, उसकी आकृति ठीक नाव जैसी ही होती है, लेकिन वह कागज की नाव होती है। वह बेजान है, वह पहले ही से मृत है। तर्क—वितर्क, कागज की नाव जैसा ही है, और जीवन को तर्क—वितर्क द्वारा नहीं समझा जा सकता।

मैंने एक अमेरिकन के बारे में सुना है’ एक अत्यंत धनी अमेरिकन को यह पक्का यकीन हो गया कि आणुविक युद्ध उसके आसपास बस होने ही जा रहा है, और उसने यह पक्का इरादा कर लिया कि वह तब भी जीवित रहेगा। उसने एरीजोना के मरुस्थल के मध्य में एकड़ों जमीन खरीदी और मजदूरों, मिस्त्रियों की भर्ती करते हुए उसने उनसे जमीन के पांच मील नीचे एक घर बनाने का आदेश दिया। इसे पचास गज मोटे सीसे के खोल से ढका गया और इसमें बिजली उत्पादन का ऐसा संयंत्र लगाया गया, जो दस वर्षों तक ताजी हवा, रोशनी और गर्मी दे सके। उसमें ठंडे जमे हुए भोज पदार्थ, पानी, सिगार, शराबें और अन्य पेय उस अवधि के प्रयोग के लिए इकट्ठे किये गये, और इसके ही साथ विलासितापूर्ण जीवन में सहायक जितनी भी चीजें सोची जा सकती थीं, वे सभी जुटाई गईं। पूरा काम तीन वर्षों में पूरा हुआ और उसके बनाने में पांच सौ हजार मिलियन डालर खर्च हुए।

उसका मालिक गर्व से भरा हुआ, मरुथल में उसका निरीक्षण करने के लिए गया और वहीं एक रेडइंडियन ने उसकी पीठ में तीर मारकर उसकी हत्या कर दी।

यह जीवन ऐसा ही है तुम उसके सभी प्रबंध करते हो और उसे समाप्त करने के लिए केवल एक तीर काफी है। मनुष्य का जीवन बहुत नाजुक है। मनुष्य तर्क से इस सत्य या वास्तविकता को कैसे समझ सकता है? मनुष्य इतना अधिक सीमित है, उसकी समझ की दृष्टि इतनी अधिक छोटी है। नहीं, तर्क के द्वारा वहां उसे जानने का कोई मार्ग है ही नहीं। तर्क—वितर्क के द्वारा दर्शनशास्त्र का जन्म होता है, लेकिन किसी सच्चे धर्म का नहीं।

सामान्यत धर्म के यह चार रूप ही जाने जाते हैं। पांचवा, छठा और सातवां ही सच्चे धर्म हैं। पांचवा धर्म प्रज्ञा या समझ पर आधारित है। वह तर्क और बुद्धि पर आधारित न होकर समझ पर आधारित है। और बुद्धि और प्रज्ञा अथवा समझ में बहुत बड़ा अंतर है।

बुद्धि तर्क निष्ठ होती है, जब कि प्रज्ञा असंगत या विरोधामास अपने में समाहित किए बहुत होती है। बुद्धि विश्लेषाणात्मक होती है और प्रज्ञा संश्लेषणात्मक। बुद्धि विभाजन करती है, किसी चीज को समझने के लिए उसे खण्ड—खण्ड करती है। विज्ञान बुद्धि, विभाजन, विश्लेषण और विच्छेदन पर आधारित है। प्रज्ञा चीजों को एक साथ जोड़ती है, खण्ड से उसे अखण्ड बनाती है, क्योंकि महान समझों की एक समझ यही है कि अखण्ड के द्वारा ही खण्डों का अस्तित्व होता है, और उससे विपरीत कुछ नहीं होता। और अखण्ड केवल सभी खण्डों का योग न होकर, उस योग से भी कुछ अधिक होता है। उदाहरण के लिए तुम्हारे पास एक गुलाब का फूल है, तुम एक वैज्ञानिक या तार्किक के पास जाकर उससे कहते हो—’‘ मैं इस गुलाब के फूल को समझना चाहता हूं यह आखिर है क्या?” वह करेगा क्या? वह उसका विच्छेदन करेगा, वह उन सभी तत्वों को अलग— अलग कर देगा, जिनसे फूल बना है। जब तुम फिर उसे जाकर देखोगे तो पाओगे तो फूल तो नष्ट हो गया। फूल के स्थान पर तुम वहां लेविल लगी कुछ शीशियां देखोगे। उसके सभी सत्य अलग— अलग कर दिए गए लेकिन एक चीज निश्चित है, वहां किसी भी शीशी में तुम सुंदरता का लेबिल लगा न पाओगे।

सौंदर्य कोई पदार्थ नहीं है, और सौंदर्य उसके खण्डों में नहीं होता। एक बार तुम फूल का विच्छेदन कर देते हो, एक बार जब फूल की अखण्डता नष्ट हो जाती हैं उसका सौंदर्य भी लुप्त हो जाता है। सौंदर्य तो उसके अखण्ड होने में होता है?ए यही वह गरिमा है जो अखण्ड से आती है। यह सभी तत्वों के जोड़ से कुछ अधिक होता है। तब वहां केवल खण्ड ही होते हैं। तुम एक मनुष्य के शरीर की चीर—फाड़ या विच्छेदन कर सकते हो, और जिस क्षण तुम उसे काटते हो, जीवन विलुप्त हो जाता है। तब तुम केवल एक मृत शरीर या मुर्दा पाते हो। तुम जान सकते हो कि उसके शरीर में कितना एलूमिनियम और कितना आयरन है अस्सी प्रतिशत अथवा कितने प्रतिशत पानी या अन्य चीजें है तुम सभी अंगों, फेफड़ों, गुर्दों आदि की प्रक्रिया समझ सकते हो, उस शरीर में प्रत्येक चीज है, लेकिन केवल एक ही चीज नहीं है और वह है—जीवन। जो एक चीज वहां नहीं है वही सबसे अधिक मूल्यवान है। जिसे हम वास्तव में समझना चाहते हैं, वह एक चीज ही वहां नहीं है और उसके अतिरिक्त हर चीज वहां है।

अब वैज्ञानिक भी इस तथ्य के प्रति सजग होने लगे हैं कि जब तुम मनुष्य के रक्तप्रवाह में से रक्त लेकर उसका परीक्षण करते हो तो वह, वही रक्त नहीं। मनुष्य के रक्तप्रवाह में बहते हुए वह जीवंत था, और उसमें जीवन की धड़कन थी। अब वह केवल मृत रक्त है। वह वही नहीं हो सकता क्योंकि अब गेस्टाल्ट बदल गया है। तुम गुलाब के फूल में से उसका रंग ले सकते हो, लेकिन क्या यह वही फूल का जीवंत रंग है? वह उस जैसा लगता जरूर है, लेकिन ठीक वैसा हो ही नहीं सकता। उसकी वह सुगंध कहां चली गई? वह जीवंतता और नाजुकता कहां चली गई? अब उसमें जीवन की वह धड़कन कहां है? जब वे सभी उस गुलाब के फूल में थीं, तो उनका पूरी तरह से एक भिन्न संयोजन था, और तब वहां जीवन था। वह अपनी उपस्थिति से भरा उसे प्रकट कर रहा था। उसके हृदय में परमात्मा ही धड़क रहा था। उसे तोड़ लिया गया, उसके सभी खण्ड उसमें है, लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि उसके सभी खण्ड वैसे ही हैं। वे हो भी नहीं सकते, क्योंकि खण्डों का अस्तित्व, अखण्ड होने में ही है।

बुद्धि विच्छेदन कर विश्लेषण करती है। वह विज्ञान का एक उपकरण है। प्रज्ञा धर्म का एक उपकरण है, वह दोनों को जोड़ता है। इसीलिए अध्यात्म के सबसे बड़े विज्ञान को हम योग कहते हैं। योग का अर्थ है वह विधियां, जो जोड़ती हैं। योग का अर्थ है चीजों को एक साथ रखना। परमात्मा सबसे बड़ा जोड़ है, सभी चीजों को एक साथ रखने वाला। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, परमात्मा एक उपस्थिति है, एक ऐसी उपस्थिति, जिसमें पूरा अस्तित्व एक महान लयबद्धता में कार्य करता है— सभी वृक्ष और पक्षी, पृथ्वी, सितारे चंद्रमा और सूरज, नदियां और सागर यह सभी एक साथ मिलकर ही परमात्मा है। यदि तुम इनका विच्छेदन करो तो तुम कभी भी परमात्मा को न पाओगे। एक मनुष्य के शरीर का विच्छेदन करो, तुम उसकी उपस्थिति कहीं नहीं पाओगे, जो उसे जीवंत बनाता है।

प्रज्ञा या समझ सभी चीजों को एक साथ जोड्ने की विधि है। एक प्रज्ञावान व्यक्ति बहुत संश्लेषणात्मक होता है। वह सदैव उच्चतम अखण्ड की ओर देखता है, क्योंकि उच्चतम अखण्ड ही अर्थपूर्ण है।

उसकी दृष्टि सदैव उच्चतम तल की किसी वस्तु की ओर होती है, जिसमें जो निम्नतम है वह धुल कर उसका एक भाग बनकर ही कार्य करने लगता है और अखण्ड के साथ लयबद्ध होकर वह संगीत की एक तान की तरह कार्य करते हुए अखण्ड के आस्केस्ट्रा को अपना योगदान देता है, और उससे पृथक नहीं होता।

प्रज्ञा सदैव उच्च तल की ओर, जबकि बुद्धि निम्‍नतल की ओर किसी कारणवश ही गतिशील होश है।

यह बिंदु बहुत नाजुक है, कृपया इसे ठीक से समझें।

बुद्धि किसी कारण की ओर जाती है, जबकि प्रज्ञा लक्ष्य की ओर जाती है। प्रज्ञा भविष्य की ओर, जबकि बुद्धि अतीत की ओर गतिशील होती है। बुद्धि प्रत्येक वस्तु को घटाकर उसके निम्‍नतम भिन्न के अंश तक पहुंचा देती है। यदि तुम उससे पूछो कि प्रेम क्या होता है, बुद्धि तुरंत कहेगी—वह और कुछ भी नहीं, बल्कि सेक्स ही है, जो प्रेम का निम्‍नतम अंश है। यदि तुम उससे पूछो कि प्रार्थना क्या है, बुद्धि कहेगी—वह और कुछ भी नहीं बल्कि दमित सेक्स ही है।

प्रज्ञा अथवा समझ से पूछो कि सेक्स क्या है, तो वह कहेगी कि वह और कुछ भी नहीं बल्कि बीज रूप में प्रार्थना ही है। उसी में प्रेम की संभावना छिपी हुई है। बुद्धि उसे घटाकर निम्‍नतम तल पर ले जाती है, वह प्रत्येक वस्तु का महत्त्व कम करते हुए उसे निम्‍नतम तल तक ले जाती है। बुद्धि से पूछो—कमल का फूल क्या होता है? वह कहेगी—वह कुछ भी न होकर एक भ्रम है क्योंकि उसका वास्तविक यथार्थ तो कीचड़ है—क्योंकि कमल कीचड़ में से ही निकल कर ऊपर खिलता है और मुर्झा कर फिर कीचड़ में ही समा जाता है। कीचड़ ही एकमात्र सत्य है और कमल तो केवल एक भ्रम अथवा मायाजाल ही है, वास्तविक सत्य तो कीचड़ है— क्योंकि कमल, कीचड़ से ही उत्पन्न होता है और मुर्झा कर फिर कीचड़ में ही वापस समा जाता है। कीचड़ ही वास्तविक यथार्थ है और कमल तो केवल चला जाता है। समझ अथवा प्रज्ञा से पूछो—कीचड़ क्या है, और वह कहेगी—’‘ उसमें कमल को उत्पन्न करने की क्षमता है।’’ तब कीचड़ अदृश्य हो जाती है और लाखों कमल खिल उठते हैं।’’

प्रज्ञा उच्च से उच्चतम तल की ओर जाती है और उसका पूरा प्रयास यही रहता है कि वह अस्तित्व के सर्वोच्च शिखर तक पहुचे, क्योंकि चीजों की स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति निम्नतम तल से न होकर उच्चतम तल के द्वारा ही की जा सकती है। तुम निम्न तल से उसे स्पष्ट न कर अस्पष्ट ही कर देते हो। और जब निम्‍नतम ही अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है तो सारा सौंदर्य खो जाता है, जो शुभ और सत्य है वह रहता ही नहीं।

प्रत्येक वस्तु में जो कुछ भी महत्त्वपूर्ण है, वह खो जाता है, और तब तुम चिल्लाते हो—’‘ इस जीवन का अर्थ क्या है?

पश्चिम में विज्ञान ने प्रत्येक चीज का मूल नष्ट कर उसे घटाकर पदार्थ बना दिया है। अब प्रत्येक व्यक्ति जीवन के अर्थ के बारे में चिंतित है, क्योंकि अर्थ तो उच्चतम अखण्ड में ही होता है।

जरा देखो, तुम अकेले हो, तुम अनुभव करो—जीवन का क्या अर्थ है? तुम किसी स्त्री से प्रेम करो, उसका एक निश्चित अर्थ प्रकट होता है। अब दो, एक बन जाते हैं—यह थोड़ा सा उच्च तल है। एक अकेला व्यक्ति, एक प्रेमी युगल से थोड़े से निम्‍नतल पर है। एक प्रेमी युगल थोड़े से उच्च धरातल पर है। दो चीजें एक साथ जुड़ गईं। दो विपरीत ऊर्जाएं एक दूसरे में समाहित हो गईं। स्त्रैण और पुरुष, निष्क्रय और सक्रिय ऊर्जाओं का एक वर्तुल उत्पन्न हो गया, जो कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

यही कारण है कि भारत में हमारे पास अर्द्ध नारीश्वर की अवधारणा है। शिव की आकृति में आधी स्त्री और आधा पुरुष चित्रित किया गया है। अर्द्ध नारीश्वर की अवधारणा कहती है कि पुरुष आधा है और स्त्री भी आधी है। जब एक पुरुष और एक स्त्री गहन प्रेम में मिलते हैं, तो एक उच्चतम वास्तविकता का जन्म होता है, जो निश्चित रूप से अधिक जटिल और अधिक महान होता है, क्योंकि दो ऊर्जाएं मिल रही हैं।

तब एक बच्चे का जन्म होता है, अब वहां एक परिवार है—जो कहीं अधिक अर्थपूर्ण है। अब पिता को अपने जीवन में एक अर्थ का अनुभव होता है, कि बच्चे को अब पालपोस कर बड़ा करना है। वह बच्चे को प्रेम करता है, कठोर परिश्रम करता है, लेकिन अब कार्य करना केवल कार्य नहीं रह जाता। वह अपने बच्चे के लिए अपने प्रियपात्र के लिए और अपने घर के लिए कार्य कर रहा है। वह कार्य करता है लेकिन कार्य करने की कठोरता और तनाव खो जाता है। वह कार्य को अब घसीटता नहीं। दिन भर थक कर वह नाचता हुआ घर आता है। बच्चे के चेहरे पर मुस्कान देखकर वह अत्यधिक प्रसन्न हो जाता है। एक प्रेमी युगल की अपेक्षा एक परिवार का तल अधिक उच्च है, और इसी तरह और भी ऊंचे तल हैं। परमात्मा और कुछ भी नहीं है, बल्कि वह सभी के जोडकर, वह सभी का सबसे बड़ा परिवार है।

यही कारण है कि मैं गेरुवा वस्त्रधारी अपने संन्यासियों को अपना परिवार कहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम सभी उसी अखण्ड में समाहित होकर खो जाओ। मैं तुम्हें समग्र अस्तित्व में इतना अधिक अवशोषित हुआ देखना चाहता हूं कि तुम्हारी वैयक्तिकता भी बनी रहे, लेकिन तुम इस महान एक्य के, जो तुमसे कहीं अधिक महान है, एक भाग बन जाओ। तुरंत जीवन का अर्थ प्रकट हो जाता है जब तुम इस महान एकीकरण के एक भाग बन जाते हो।

जब कोई कवि एक कविता लिखता है, अथवा जब कोई नर्त्तक नाचता है तो जीवन का अर्थ प्रकट हो जाता है। जब कोई मां बच्चे को जन्म देती है— अर्थ प्रकट हो जाता है। तुम्हें प्रत्येक चीज से काटकर अकेला छोड़ दिया जाए तुम एक निर्जन टापू की तरह अर्थहीन होकर रह जाते हो। सभी के साथ जुड़कर तुम अर्थपूर्ण हो जाते हो। तुम पहले से बड़े, उस समग्र अस्तित्व के भाग बन जाते हो, और इस बड़े होने में ही एक अर्थ है। इसी कारण मैं कहता हूं कि जिस सबसे बड़े, महान और अखण्ड की कल्पना या धारणा की जा सकती है, वही परमात्मा है और बिना परमात्मा के तुम जीवन के सर्वोच्च अर्थ को प्राप्त न कर सकोगे। परमात्मा कोई व्यक्ति की भांति नहीं है, वह कहीं किसी सिंहासन पर नहीं बैठा है। ये सारे विचार केवल मूर्खतापूर्ण हैं। परमात्मा अस्तित्व की सम्पूर्ण उपस्थिति है, वही अस्तित्व है और वही अस्तित्व का आधार भी है।

परमात्मा का अस्तित्व वहीं है, जहां जोड़ है, एक्य है, जहां कभी भी योग होता है, वहीं परमात्मा अस्तित्व में आता है। तुम अकेले चल रहे हो, परमात्मा अभी सोया हुआ है। तभी अचानक तुम किसी को देखते हो और मुस्कराते हो, परमात्मा जाग गया है, क्योंकि दूसरा आ गया है। तुम्हारी मुस्कान, सम्बंध—विच्छेद न कर, सम्बंध जोड़ती है, वह एक सेतु बन जाती है। तुमने दूसरे की ओर एक सेतु उछाला है। दूसरे से भी उत्तर आता है, वह भी मुस्कराता है। तुम दोनों के बीच एक खाली स्थान उभरता है, मैं उसी को परमात्मा कहता हूं—एक छोटी सी धड़कन। जब तुम किसी वृक्ष के निकट जाते हो और उसके निकट बैठते हो, तुम पूरी तरह वृक्ष के अस्तित्व को भूले हुए हो। परमात्मा अभी गहरी नींद सोया हुआ है। तभी अचानक तुम वृक्ष की ओर निहारते हो, तभी वृक्ष के प्रति तुम्हारी संवेदना जागृत होती है, और परमात्मा जाग जाता है।

जहां कहीं भी प्रेम होता है, वहीं परमात्मा होता है। जहां कहीं भी से प्रत्युत्तर आता है, वहीं परमात्मा होता है। परमात्मा एक शून्य स्थान है, जहां कहीं भी एकता घटती है, वह अस्तित्व में आता है। इसी कारण—मैं कहता हूं कि प्रेम ही परमात्मा की शुद्धतम सम्भावना है, क्योंकि यह दो ऊर्जाओं का सूक्ष्म और रहस्यमय योग है। इसीलिए बाउलों का आग्रह है कि प्रेम ही परमात्मा है। परमात्मा को भूल जाओ, प्रेम ही सब कुछ करेगा। लेकिन प्रेम को कभी मत भूलना, क्योंकि परमात्मा अकेला कुछ नहीं कर सकता।

प्रज्ञा अंतर करना जानती है, वह एक समझ है। इसका बीज मंत्र है—सत्य या सत्। वह मनुष्य जो प्रज्ञा से चलता है वह सत् अर्थात् सत्य के पथ पर ही चलता है। प्रज्ञा से उच्च, धर्म का छठवां तल है। मैं इसे ध्यान का धर्म कहता हूं।

ध्यान है सजगता, स्वाभाविकता, सहजता, जिसे बाउल कहते हैं—सहज— मानुष, स्वयं प्रवर्तित मनुष्य। यह है—अपरम्परागत, जड़ों से जुड़ी हुई, क्रांतिकारी वैयक्तिकता और स्वतंत्रता। इसका बीज शब्द है—चित्त अथवा चेतना। ठहरी हुई स्थिर बुद्धि का ही सर्वोच्च रूप है प्रज्ञा। यह प्रज्ञा या समझ बुद्धि का शुद्धतम स्वरूप है। सीढ़ी वही है। इसी सीढ़ी से बुद्धि नीचे जाकर अधोगामी होती है और इसी सीढ़ी से प्रज्ञा उच्चतम तल पर ले जाती है, लेकिन सीढ़ी एक ही है। ध्यान में सीढी फेंक दी जाती है। अब उसी सीढ़ी पर नीचे या ऊपर जाने की कोई भी गति होती ही नहीं। अब कोई गति न होकर अपने अंदर अपने ही डूबने की गतिशून्यता होती है।

प्रज्ञा और बुद्धि दोनों ही किसी दूसरे व्यक्ति की ओर उन्मुख होती हैं। बुद्धि दूसरे व्यक्ति को काटती है जब कि प्रज्ञा, दूसरे व्यक्ति से तुम्हें जोड़ती है। इसलिए यदि तुम ठीक से समझ जाते हो, तो पहले चार तरह के धर्म, जिन्हें मैं धर्म कहता ही नहीं, वे उधार अथवा नकली धर्म हैं। असली धर्म तो पांचवीं कोटि से ही प्रारम्भ होता है, और यह धर्म का सबसे नीचे का स्वरूप है, लेकिन यही असली है। छठी तरह का धर्म है— ध्यान, चेतना या चित्। कोई भी ऐसा एक व्यक्ति अपनी ओर ही मुड़ता है। वह बस होना भर रहने का प्रयास करता है। यही है वह स्थान जहां झेन का अस्तित्व है। यह धर्म की छठी कोटि है। ‘ झेन ‘ शब्द का अर्थ ही है— ध्यान या मेडीटेशन।

तब आती है धर्म की सर्वोच्च कोटि—सातवां तल: समाधि और परमानंद का धर्म। जैसे कि पांचवे कोटि के धर्म का बीजाक्षर सत या सत्य है और छठवें कोटि के धर्म, ध्यान का बीजाक्षर चित् अथवा चैतन्य है, इस सर्वोच्च धर्म का बीजाक्षर है— आनंद चारों ओर से बरसता हुआ परमानंद। सत् चिद् और आनंद यह तीनों बीजाक्षर हैं—सत्य, चेतना और परमानद।

बाउल, सातवीं तरह के धर्म—उत्सव आनंद, गीत, नृत्य और परमानंद से जुड़े लोग हैं। उनका अत्यधिक प्रसन्न बने रहना ही ध्यान बन जाता है, क्योंकि एक ही व्यक्ति ध्यानपूर्ण भी हो सकता है और उदास भी। एक ही व्यक्ति ध्यानपूर्ण होकर शांत भी बन सकता है और वही व्यक्ति परमानंद से चूक भी सकता है।’’

एक ही व्यक्ति ध्यानपूर्ण होकर शांत भी बन सकता है और वही व्यक्ति परमानंद से चूक भी सकता है। क्योंकि ध्यान तुम्हें पूरी तरह चिर और शांत बना सकता है लेकिन जब तक नृत्य नहीं घटता, तुम किसी चीज से चूक रहे हो। शांति बहुत अच्छी चीज है, लेकिन उसमें किसी चीज की कमी है, उसमें परमानंद नहीं है। जब शांति ही आनंद से नृत्य करना शुरू कर देती है, तो परमानंद घटता है। जब शांति, सक्रिय बन जाती है, और अतिरेक से प्रवाहित होने लगती है, वह परमानन्द बन जाती है। जब परमानंद एक बीज के अंदर समा जाता है, वह शांति होती है। और जब बीज अंकुरित होता है तो केवल इतना ही नहीं; बल्कि वृक्ष भी विकसित होता है, फूल भी खिलते हैं, उसमें, और जब बीज ही विकसित होकर फूल बन जाता है, तब वही समाधि है। यही धर्म की सर्वोच्च कोटि है।

शांति को नृत्य करना है और मौन को गुनगुनाना है। और जब तक तुम्हारा सबसे अधिक अन्तर्गम का अनुभव हास्य नहीं बनता, उसमें किसी चीज की कमी है। कुछ अब भी किए जाना है। इसी स्थान पर बाउल प्रवेश करते हैं। उनका धर्म है—परमानंद। और अब आज के लिए यह गीत—

यह मनुष्य जो श्वांस लेता है

प्राणवायु पर ही जीवित रहता है,

और इसके पार वह अदृश्य दूसरा

जो पहुंच के बाहर है, विश्राम करता है।

और दो के मध्य में एक और मनुष्य

रहस्यमय कड़ी की भांति गतिशील है।

जिसका शरीर मन, हृदय और भावों का अनुसरण करता हुआ

आराधना ही में रत रहता है।

वह मनुष्य जो सांस लेता है, और वह मनुष्य जो सभी के पार रहता है….. .इन दो के मध्य में इन्हें जोड्ने वाला तीसरा मनुष्य भी है: शरीर, मन और आत्मा, अथवा तुम ईसाइयों की त्रिमूर्ति—परमात्मा, उसके पुत्र और पवित्र शैतान का भी उपयोग कर सकते हो।

शरीर ही वह मनुष्य है, जो श्वांस लेता है। श्वांस लेने के द्वारा ही शरीर जीवित रहता है। सांस तुम्हारे शरीर के अंदर जाती है, वह तुम्हें प्राण ऊर्जा देती है, तुम्हारे जीवन को जीवऊर्जा देती है। बिना श्वांस लिए शरीर नष्ट हो जाएगा, क्योंकि बिना श्वांस लिए शरीर बाहर के वातावरण से टूट कर अलग हो जाएगा। वातावरण, तुम्हारे अस्तित्व में अपना अस्तित्व निरंतर उड़ेल रहा है। श्वांस अंदर लेना, श्वांस बाहर छोड़ना—वातावरण इसी के द्वारा तुम्हें निरंतर जीवंत और प्रवाहित बनाये रखता है।

बाउल कहते हैं—यह शरीर ही पहला मनुष्य है।

तब उसके पार एक दूसरा है, जिसे सांस लेने की जरूरत नहीं होती, जो शाश्वत रूप से वहां विराजमान है, जिसे किसी भी चीज की जरूरत नहीं होती। वही परमात्मा है बाउलों का। वे उसे सारभूत मनुष्य अथवा आधार मनुष्य कहते हैं और दो के मध्य मन है, जिसे बाउल हृदय कहते हैं, यही पवित्र शैतान है। इसका अस्तित्व दो के मध्य जोड्ने वाली कड़ी की भांति है।

पूरा कार्य, मन अथवा हृदय ही में किए जाना है। एक छोर पर तो शरीर का अस्तित्व है, और दूसरे छोर पर परमात्मा है। अनुशासन अथवा साधना का पूरा कार्य हृदय ही में किये जाना है। ध्यान के बारे में इतना ही सब कुछ किये जाना है। यह मनुष्य जो श्वांस लेता है

प्राणवायु पर ही जीवित रहता है।

और इसके पार वह अदृश्य दूसरा

जो पहुंच के बाहर है,

विश्राम करता है।

ओर दो के मध्य में एक और मनुष्य

रहस्यमय कड़ी की भांति गतिशील है

जो, शरीर हृदय और भावों का अनुसरण करता हुआ

आराधना ही में रत रहता है।

बाउल कहते हैं कि पूजा या आराधना करने से ही कुछ नहीं होने का लेकिन आराधना हो तो समझ से जानते हुए। शरीर को मन और हृदय की पूजा करनी चाहिए और हृदय को पूजना चाहिए उस अदृश्य को। इसी को वे लोग समझ से जानते हुए पूजा, आराधना करना कहते हैं। अपने शरीर को मन और हृदय का अनुसरण करने दो, अपने शरीर को अपने भावों का अनुसरण करने दो और अपने भावों को इस अदृश्य अज्ञात का अनुसरण करने दो। तुम तभी एक आराधक पर भक्त हो। तब पूजा करना सामान्य संस्कार नहीं रह जाता जिसे तुम पूजा करना में जाकर करते हो, तब पूजा या आराधना कुछ ऐसी चीज होती है जिसे तुम अपने शरीर और अस्तित्व के मंदिर में भावों के द्वारा करते हो।

इन तीनों के बीच

यहां एक लीला हो रही है,

ओ मेरे खोजी हृदय।

तू किसे खोज रहा है?

और बाउल कहते हैं यहां एक लीला या खेल हो रहा है। यह तीनों, शरीर, हृदय और आत्मा एक दूसरे का पीछा करते हुए दौड़ रहे हैं।

ओ मेरे खोजी हृदय।

तू किसे खोज रहा है?

यह शब्द लीला या खेल समझने जैसा है। यह चीज पूरब का ही अनूठापन है। पश्चिम में इस तरह की धारणा या विचार कभी उठा ही नहीं। पश्चिम में परमात्मा की धारणा, कार्य करने वाले कर्त्ता के रूप में की जाती है, न कि खिलाड़ी के रूप में वहां परमात्मा की धारणा सृष्टि की रचना करने वाले के रूप में है और यह कसौटी बहुत गम्भीर—प्रतीत होती है। लेकिन लीला की धारणा तो एक हास— परिहास, अथवा एक खेल की है। पूरब में हम लोगों ने जाना है कि परमात्मा गम्भीर नहीं है और न धर्म को ही उदास और गम्भीर होना चाहिए। परमात्मा सबसे महान खिलाड़ी या अभिनेता है। जो एक विराट लीला में संलग्न है।

जैसे एक चित्रकार अपनी तूलिका से कैनवास पर रंगों द्वारा चित्रण करने का खेल खेलता है, तब उसे खेल या रास से कुछ नये का जन्म होता है। चित्र दो तरह से बनाया जा सकता है: तुम बहुत गम्भीर होकर उसे बना सकते हो, तब तुम ठीक एक यांत्रिक रूप से कार्य करने वाले एक साधारण चित्रकार होगे। तुम उस चित्र को पूरी कुशलता से चित्रित कर दोगे, लेकिन उसमें किसी चीज की कभी बनी रहेगी, उसमें आत्मा न होगी। एक यांत्रिक मनुष्य और एक कलाकार के मध्य यही अंतर होता है। कलाकार किसी योजना को बनाकर कार्य नहीं करता। वह बस कैनवास के सामने बैठ जाता है, और ब्रुश व रंगों से खेलने लगता है। वह बच्चे से भी कहीं बड़ा खिलाड़ी होता है। उसके खेल से ही कुछ नई चीज उमगती हैं। आधुनिक चित्र को समझने के लिए यही सबसे अच्छा तरीका है।

आधुनिक चित्रकला, पश्चिमी से कहीं अधिक पूरबी है। पिकासो पश्चिमी से कहीं अधिक पूरबी है क्योंकि वह ब्रश और रंगों से खेलता है। यही कारण है कि आधुनिक चित्रकला को समझना बहुत कठिन है। शास्त्रीय और परम्परागत चित्र को समझना बहुत सरल है। वह जीवन को ठीक वैसा ही जैसा वह है चित्रित करती है, वह मूल की कार्बन कापी या प्रतिलिपि है। वह फोटोग्राफों की तरह यांत्रिक है। आधुनिक चित्र को समझना बहुत कठिन है। उसे समझना उतना ही कठिन है जितना कि फूलों को समझना। किसी व्यक्ति ने पिकासो से उसके चित्र को देखने के बाद उससे पूछा—’‘ आखिर इसका अर्थ क्या है? पिकासो ने कहा—’‘ कोई भी व्यक्ति वृक्षों और पक्षियों से जाकर यह नहीं पूछता—कि तुम्हारे होने का क्या अर्थ है? तुम मेरे पास आकर मुझसे यह क्यों पूछते हो? मुझे अकेला छोड दो। पौधों और फूलों से जाकर पूछो कि आखिर वे क्यों है?

एक महान लीला चल रही है।

वनस्पति शास्त्री अब इस बात के प्रति सजग होने लगे हैं कि पौधों और फूलों में कोई चीज बहुत अनूठी और अर्थपूर्ण है। वे अब इसके प्रति सजग हो गये हैं, कि तितलियां या भरि या अन्य कीट फूलों के साथ खेल खेलते हैं और उनकी नकल उतारते हैं, वे फूलों को धोखा देकर छकाते हैं। तितलियों फूलों की नकल उतारते हुए उन्हें खिजाती हैं। और दूसरी ओर फूल भी तितलियों और अन्य कीड़ों की नकल उतारते हैं, उनके साथ खेलते हैं और यह खेल या लीला चलती ही रहती है। छिपकलियां और गिरगिट, चट्टानों की नकल उतारती हैं और चट्टानें उनकी नकल उतारती हैं। लुका छिपी की यह महान लीला उनके बीच निरंतर चल रही है।

यह लीला एक बहुत सुंदर धारणा है। वह तुम्हें अत्यधिक क्या, पूरी तरह विश्राम में ले जाती है। यदि परमात्मा ही इस खेल में शामिल है तो गम्भीर होकर उदास लटके चेहरे बनाने की कोई जरूरत ही नहीं है और अधिक खेलपूर्ण हो जाओ। जीवन एक खेल है। जीवन की ओर बिना गम्भीर हुए जरा खेल पूर्ण दृष्टि से निहारो, तुम्हें बहुत बड़ा अंतर दिखाई देगा।

जब तुम अपने आफिस जाते हुए सड़क पर चलते हो, तब तुम्हारा मन पूरी तरह मित्र होता है, तनावपूर्ण महत्त्वाकांक्षी चिंतित और खिंचा—खिंचा सा। उसी सड़क पर तुम सुबह टहलने निकलते हो। सड़के वही है, उसके किनारे खड़े वृक्ष भी वही हैं, पक्षी भी वही हैं, वही आकाश है और वहीं तुम हो, और आसपास से गुजरते हुए लोग भी वही हैं। लेकिन जब तुम सुबह टहलने के लिए जाते हो, तो तुम्हें कोई भी खिंचाव या तनाव नहीं होता है क्योंकि तुम विशेष रूप से किसी खास स्थान पर नहीं जा रहे हो। वह केवल सुबह का टहलना भर है, तुम उसका मजा ले रहे हो, और तुम खेलपूर्ण हो।

प्रार्थना करना भी एक खेल हैं। इसलिए यदि तुम मंदिर जाते हो और बहुत गम्भीर बन जाते हो तो तुम मंदिर से चूक जाओगे। मंदिर भी हंसते मुस्कराते हुए जाओ, मंदिर भी उत्सव आनंद मनाने के लिए जाओ।

 

बाउल गाते हैं—

मुझे स्वयं अपने होने का भी कोई ज्ञान नहीं,

यदि केवल एक बार मैं यह जान पाता—

कि मैं कौन हूं

तो वह अज्ञात भी जाना जा सकता था।

परमात्मा तो बहुत निकट ही है

लेकिन फिर भी बहुत दूर—

जैसे मेरे बिखरे केशों के पीछे

कोई पहाड़ छिपा हो।

मैं डाकर से देहली के

दूर—दूर नगरों की यात्रा करते हुए

निरंतर उसे खोजता रहता हूं

लेकिन मैं अपने ही घुटनों के चारों ओर ही

घूमता रहता हूं।

मेरी अपनी ही आकृति और रूप में

परमात्मा जीवंत है।

केवल हृदय की शुद्धता ही

मुझे उस तक ले जाएगी।

मैं जितना अधिक वेद शास्त्रों का अध्ययन करता हूं

मैं उतनी ही उलझन में पड़कर भटक जाता हूं

आंखों के होने के बावजूद भी

मैं अंधा हूं।

केवल मेरे हृदय की शुद्धता ही

मुझे उस तक ले जाएगी।

मेरे अपने ही रूप और आकृति में

परमात्मा जीवित है।

लेकिन कभी भी अपने जीवन में

मेरा उस मनुष्य से एक बार भी कभी आमना सामना नहीं हुआ,

जो मेरे ही अपने छोटे से कक्ष में विराजमान है।

तूफानों और आधियों के गुबार में

मेरी आंखें अंधी बनकर कुछ भी देख नहीं पातीं,

यहां तक कि जब वह नाचता है

मेरे हाथ उसके हाथों तक पहुंचने से पहले ही

असफल हो जाते हैं।

जैसे वह संसार के साथ सदा सदा के लिए

व्यस्त हो गया है

मैं खामोश रहता हूं—

जब वे लोग उसे जीवन के मूल तत्व

जल, अग्नि, पृथ्वी और वायु कहकर पुकारते हैं

जब कि यह निश्चित नहीं है

कि वह इन्हीं में से किसी एक में है।

मैं अभी तक अपने ही अंदर

अपने छोटे से कक्ष अपने हृदय को ही नहीं जान पाया हूं

फिर मैं किसी और को

जिसे मैं जानना चाहता हूं

कैसे जान सकता हूं?

 

बाउल कहते हैं यदि तुम अपने ही छोटे से कमरे या हृदय को जान लो, तो तुम सभी को जान लोगे—क्योंकि वह उसी कमरे में ही तो छिपा है। वह सांस लेते हुए मनुष्य के शरीर में ही बसा है। वह प्रज्ञा, चेतना और ध्यान बनकर तुम्हारे ही मन में बसा है और फिर भी तुम्हारे पार है। आहिस्ते— आहिस्ते तुम्हारा शरीर भावों और अनुभूतियों का अनुसरण करे, फिर उन्हें उस अज्ञात का अनुसरण करने दो। पोथियों की जानकारी के द्वारा नहीं, अनुभव के द्वारा आगे बढ़ो, और केवल तभी तुम्हारी परमात्मा के साथ लयबद्धता हो सकेगी।

वह कहीं भी नहीं रहता—

न तो असंख्य सितारों की भूल भुलइयों में

और न असीम शून्य विस्तार में।

तुम उसे नहीं पाओगे नीतिशास्त्रों अथवा वेदों के पाठ में।

इन सभी के अस्तित्व के पार

वह मनुष्य, यहीं रहता है—

रूप में भी अरूप बनकर

मेरे अंगों के मंदिर का श्रृंगार बनकर।

वह पंचतत्वों के सहज स्वाभाविक शरीर में ही

भावों और अनुभूतियों के साथ दीप्तिवान हो रहा है।

पंचतत्वों और पदार्थ से बना यह शरीर सहज और स्वाभाविक है। यह शरीर ही उसका मंच है और वह मनुष्य यहीं है।

 

यदि तुम अपने हृदय को ही

पहचानने में असफल हो गए,

तो जो महान और अज्ञात है

उसे तुम कैसे जान सकोगे?

चारों दिशाओं में फैले इस अस्तित्व के साथ

लयबद्ध होकर

इसे अपने हृदय पात्र में भर लो

फिर जो दूर से भी दूर है

वह तुम्हारे निकट होगा।

अज्ञात का तुम्हें बोध होगा

और वह अप्राप्य मनुष्य,

तुम उसे प्राप्त कर सकोगे।

उस असीम, अछोर अज्ञात और अपरिचित के लिए अपने हृदय के द्वार खोल दो। शास्त्र—ज्ञान के साथ आगे गतिशील मत होना क्योंकि ज्ञान का अर्थ है जिसे तुम पहले ही से जानते हो। इसी कारण वेद तुम्हारी सहायता न कर सकेंगे। वेद का अर्थ होता है—ज्ञान। वेद शब्द का अर्थ ही है—जानना। इसका मूल वेद से ही आता है— जिसका अर्थ है जानना। इसीलिए बाउल निरंतर वेदों की आलोचना करते हैं। वे कहते हैं—ज्ञान से कोई भी सहायता नहीं मिलने वाली। अज्ञात की ओर आगे बढ़ो और प्रतीक्षा करो, उस अज्ञात की, जो तुम्हारा द्वार खटखटाये। तुम बस सजग आशापूर्ण ग्राहयता और भाव भरे हृदय से खेलपूर्ण रहते हुए उसकी प्रतीक्षा करो। जीवन और मृत्यु के द्वारों के मध्य

एक अन्य द्वार भी सामने ही खुला है…..

जिसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

वह जो मृत्यु के द्वार पर

फिर से जन्म लेने में समर्थ और योग्य है,

जो मृत्यु से पहले ही

जीते हुए ही मर जाता है,

वही प्रेम में डूबा व्यक्ति ही अमर हो जाता है।

एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहस्य यह है कि जीवन और मृत्यु के दो द्वारों के मध्य एक अन्य द्वार भी है…… उस द्वार को हम प्रेम कहकर पुकारते हैं। क्या तुमने उसे देखा है? जीवन और मृत्यु के मध्य वहां सिवाय प्रेम के और कुछ भी तो नहीं घटता। यदि तुम जीवन और मृत्यु के बीच प्रेम से चूक गए तो तुम जीवन में मिले पूरे अवसर से ही चूक जाओगे। तुम ज्ञान इकट्ठा कर सकते हो, तुम मूल्यवान पत्थरों और रत्नों को इकट्ठा कर सकते हो, तुम धन सम्पत्ति, पद प्रतिष्ठा और शक्ति का संचय कर सकते हो, लेकिन यदि तुम प्रेम से चूक गये तो तुम असली द्वार से ही चूक गये।

पहला द्वार जो जन्म का द्वार है, वह दूसरे द्वार के द्वारा प्रेम के द्वार में प्रविष्ट होने का अवसर देता है। जीवन और मृत्यु के मध्य ही प्रेम है। वास्तव में जीवन का अस्तित्व केवल इसीलिए है, जिससे वह प्रेम और प्रेम घटने का अवसर दे सके। यदि तुम उससे ही चूक गये तो पूरे जीवन से ही चूक गये। यदि तुम उससे नहीं चूके, और शेष सभी कुछ से चूक गये, तो तुमने न कुछ भी खोया और न तुम किसी से भी चूके।

और यह प्रेम का द्वार ही असली मृत्यु है। वह दूसरी मृत्यु सबसे अंत में आयेगी, यह असली मृत्यु नहीं है, क्योंकि तुम जीवित रहोगे। तुम्हारा फिर से पुनर्जन्म होगा। जैसे मृत्यु के बाद जन्म होता है, इसीलिए जन्म मृत्यु का अनुसरण करता है। यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन यदि तुम प्रेम के द्वार में प्रविष्ट हो गये, तब तुम मर जाओगे और तुम तब इतनी पूर्णता से मर जाओगे कि तुम्हारा फिर कोई दूसरा जन्म न होगा और वास्तव में फिर कोई मृत्यु भी नहीं होगी। प्रेम ही वास्तविक और सच्ची मृत्यु है, क्योंकि अहंकार पूरी तरह विसर्जित हो जाता

साधारण मृत्यु में केवल शरीर मरता है, अहंकार फिर भी बना रहता है, और यही तुम्हें नये जन्मों में ले जाता है। पुनर्जन्म का यही अहंकार ही धागा है। एक बार यह धागा टूट जाये, तो जड़ ही टूट जाती है, तुम पदार्थगत संसार से विलुप्त हो जाते हो तुम दृश्य संसार से अदृश्य में चले जाते हो, जो सभी के पार है, वही दूसरा किनारा है।

जीवन और मृत्यु के द्वारों के मध्य

एक अन्य द्वार भी सामने ही खुला है,

जिसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

वह जो मृत्यु के द्वार पर

फिर से जन्म लेने में समर्थ और योग्य है,

जो मृत्यु से पहले ही

जीते हुए ही मर जाता है

वही प्रेम में डूबा व्यक्ति ही

अमर हो जाता है।

यही है वह, जिसे बाउल मृत्यु का असली द्वार कहते हैं।

मृत्यु से पहले ही मर जाना

मरकर भी जीवित रहने जैसा है।

यदि तुम मरने से पहले ही मर सकते हो, वही तुम हो, यदि तुम प्रेम के द्वार में होकर गुजर सकते हो, यदि तुम जीवित रहते हुए मर सकते हो, तब तुम्हारे लिए कोई मृत्यु है ही नहीं। तब तुम अमर बन गये, तब तुम शाश्वत हो, तब तुम एक परमात्मा हो। तब तुम इस पदार्थगत संसार के कोई भाग नहीं हो, जहां शरीर आकृतियां ग्रहण करते हैं, और जहां शरीर की आकृतियां मिट जाती हैं। तब तुम सभी रूपों, आकृतियों जन्म और मृत्यु के पार हो जाते हो। यह पार जाने का तत्व तुममें पहले ही से है।

मनुष्य अभी यहां है। वह ठीक अभी, इस क्षण में यहां है। लेकिन तुम्हें प्रेम के रसायन से होकर गुजरना होगा, अन्यथा तुम इसे कभी न जान सकोगे।

बाउल गाते हैं:

प्रेमी आराधक के लश का

और वास्तविक सत्य तक पहुंचने का

वर्णन करने के लिए

सभी शब्द और बातें व्यर्थ हैं।

प्रेम का अमृत पीकर ही

वह प्रेमी आराधक

उस अदृश्य मनुष्य के चेहरे को देख सकता है

उस महान अप्राप्त को वही प्राप्त कर सकेगा।

मैं उस मनुष्य को कैसे पकड़ सकता हूं

जो सभी की पकड़ के बाहर है?

वह नदी के उस दूसरे किनारे पर रहता है

और मेरी आंखों की त्वचा

मेरी दृष्टि पर पर्दा डाल देती है।

यह शरीर ही तुम्हारी दृष्टि पर आवरण डाल देता है। यदि तुम शरीर के साथ बहुत अधिक तादाम्य जोड़ लेते हो, तो वही अवरोध बन जाता है। इस विधि को उलट दो: शरीर को हृदय का अनुसरण करने दो, न कि हृदय शरीर का अनुसरण करे। यदि हृदय को शरीर का अनुसरण करना पड़ा तो शरीर अवरोध बन जाता है। तब तुम उस दूसरे किनारे पर नहीं पहुंच सकते। यदि शरीर, हृदय का अनुसरण करता है, तो शरीर ही नौका बन जाता है।

कहां है चंद्रमा का वह घर?

और कौन कैसे बनाता है

एक दूसरे के पीछे घूमते आते—जाते

रात और दिनों का यह अनूठा चक्र?

पूर्णमासी की रात्रि में निकले पूर्ण चंद्र में

लगे ग्रहण को सभी जानते हैं।

लेकिन कोई भी

महीने की सबसे अंधेरी रात में

काले वर्ण के चंद्रमा के बारे में

कुछ भी जांच पड़ताल नहीं करता।

वह व्यक्ति, जो

आकाश में पूर्ण चंद्रमा के उदय होने

और सबसे अंधेरी रात में व्याप्त चंद्रमा

को भी जानने में समर्थ है

वही व्यक्ति स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल

अर्थात तीनों लोकों के गौरव को जानने का

दावा करने का अधिकार रखता है।

” वह व्यक्ति जो आकाश में पूर्ण चंद्रमा के उदय होने और सबसे अंधेरी रात में भी चंद्रमा को देख पाता है….. .यह बाउलों का प्रेम की अनुभूति का ही वर्ण है। एक प्रेमी ही मृत्यु से भी जीवन का सृजन करने में समर्थ है, वह कोई भी चमत्कार कर सकता है। यही कारण है कि प्रेम के बारे में यहां इतना अधिक भय है। मैंने हजारों व्यक्तियों को, जब वे प्रेम के द्वार में प्रवेश करते हैं, भय से कांपते हुए देखा है। प्रेम करने से इतना अधिक भय उत्पन्न क्यों होता है?

एरिक फ्रोम ने एक बहुत सुंदर पुस्तक लिखी है, जिसमें वह कहता है कि प्रेम सबसे अधिक जोखिम भरी चीजों में से एक बहुत खतरनाक चीज है। और प्रेम के बारे में यहां मनुष्यता को सबसे अधिक भय लगता है। जो लोग प्रेम के बोर में बातचीत करते हैं, वे केवल अपने आप को धोखा देने के लिए ही बात कर सकते हैं। उनकी बातचीत उन्हें केवल यह अहसास दिलाने की प्रतिपूर्ति कर सकती है कि वे प्रेमी हैं। लेकिन लोग प्रेम से भयभीत हैं। वह उन्हें भयभीत करता है क्योंकि लोग प्रेम से भयभीत हैं। वह उन्हें भयभीत करता है क्योंकि प्रेम मृत्यु है। तुम्हें अपने अहंकार को पूरी तरह गिराना और मिटाना होता है। यह आत्मघात करने जैसा है। भय का होना स्वाभाविक है, लेकिन यदि तुम काफी साहसी हो तो तुम उससे गुजर सकते हो, यदि तुम अपने कंधों पर प्रेम की सलीब ढोते चल सकते हो, तो तुम्हारा पुनर्जन्म होना निश्चित है। जिस क्षण अहंकार गिरता है, उसी क्षण तुम्हारा नया जन्म होता है।

 

वह व्यक्ति

जो प्रेम के अंतर्निहित उसके स्वभाव को जानता है

वह निर्भय होता है।

वह केवल अपने ही रूप को

जो उसकी आंखों के सामने जीवंत होता है,

प्रेम करता है।

अपनी प्रसन्नता में ही

वह अपने ही घर के अंदर होता है।

वह अकेली तीव्र चाह से ही

प्रबल कामवासना को शांत करता है

वह परमात्मा के हृदय पर प्रेम का धावा बोलता है

जो सभी लोगों के हृदय पात्रों को मथ कर

प्रेम—नवनीत उत्पन्न करता है

ऐसा करते हुए वह अपने आप को

उसके शाश्वत प्रेम में डूबा हुआ ही पाता है।

तुम अपने हृदय रूपी घर की भली भांति देखभाल करो

क्योंकि उसी में वह मन मनुष्य निवास करता है।

प्रेम भरी आंखों की काली पुतलियों से

दृष्टि उस पर केंद्रित कर दो।

पारे लगे शीशे के दर्पण पर

उसकी छवि तुम्हें तैरती दिखाई देगी।

इस पृथ्वी की क्रीड़ा स्थली पर

उसकी गहन खोज करते हुए

छिन्न—भिन्न होते दांव पेंचों की तरह

तुमने कितना अधिक समय व्यर्थ गंवा दिया।

अब इस प्रेम—समारोह में सम्मलित होकर

उमड़ते भावों से उसे खोजो

और इस प्रेम—महोत्सव में डूब ही जाओ।

बाउल कहते हैं कि केवल बौद्धिक खोज से कोई सहायता नहीं मिलने वाली। बस, केवल प्रेम—महोत्सव में सम्मलित हो जाओ: यही है वह जिसे प्रार्थना और आराधना कहते हैं।

नाचते, गाते उत्सव आनंद मनाते, इस परमानंद में डूब ही जाओ। तुम अपने माध्यम से परमात्मा को लीलामय होकर खेलने की अनुमति दो, अपने खेलपूर्ण होने को ही तुम अपनी प्रार्थना, और केवल उत्सव आनंद को ही तुम अपनी पूजा बना लो।

 

आज इतना ही।


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संतो मगन भय मन मेरा–(प्रवचन–13)

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गुरु की याद में रंग भी बहुत, नूर भी बहुत—(प्रवचन—तेरहवां)

24 मई 1979; श्री

रजनीश आश्रम।

सूत्र:

मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि—बदल औरे करि लेहि।।

ज्यूँ माटी कूँ कुटे कुँभार। त्यूँ सतगुरु की मार विचार।।

भाव भिन्न कछु औरे होइ। ताते रे मन मार न जोइ।।

जैसा लोहा घड्रै लुहार। कूटि—काटि करि लैवै सार।।

मारै मारि मिहरि करि लेहि। तो निपजै फिरि मार न देहि।।

ज्यूँ साँटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।

मन तोड़न का नाहीं भाव। जे तुछ तूटि जाय तो जाव।।

ज्यूँ कपड़ा दरजी के जाय। टूक—टूक करि लेहि बनाय।।

त्यँ रज्जब सतगरु का खेल। ताले समझि मार सब खेल।।

 

दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।

जन रज्जब उनकी दया, पाई निहचल ठौर।।

रज्जब कूँ अज्जब मिल्‍या, गुरु दादू दातार।

दुख दरिद्र तब का गया, सुख संपत्ति अपार।।

रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड।

गुरु—बैन बिच रैन में, किया दुहूँ घर फोड़।।

गरु दीरध गोबिंद सूँ, सारै सिष्य सुकाज।

रज्जब मक्का बड़ा परि, पहुँचे बैठि जहाज।।

कामधेनु गुरु क्या कहै, सिष नि:कामी होइ।

रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ

दास हैं आस्मां के तारे

बुझे—बुझे हैं सभी नजारे

हसीं बहारें भी रो रही हैं

लुटा है यूँ मेरा आशियाना

यह अनुभव सभी का है। यह अनुभव संसार का है। यहाँ सिर्फ आदमी लुटता है, उजडता है, बसता नहीं। यहाँ बसने का कोई उपाय नहीं। यह बस्ती नहीं है, मरघट है। यहाँ सिर्फ मृत्यु के लिये प्रतीक्षा में खड़े हुए लोग हैं——पंक्तिबद्ध। आएगी जब घड़ी, उठ जाएँगे। कभी भी आ सकती है घड़ी। यों तो उसी दिन आ गयी जिस दिन जन्म हुआ। जन्म के साथ—ही—साथ मौत आ गयी छाया की भाँति। जिसका जन्म हुआ, अब मृत्यु से न बच सकेगा। जन्म में ही मृत्यु निश्चित हो गयी, थिर हो गयी।

जहाँ मृत्यु ही घटनी है, जहाँ उजडूना ही है, वहाँ जो बसने का ख्याल रखते हैं, वे नासमझ हैं। और जहाँ सिर्फ एक ही बात निश्चित है और सब अनिश्चित है, जहाँ सिर्फ मृत्यु निश्चित है, वहाँ जो घर बनाते हैं, वे व्यर्थ ही बनाते हैं। यह घर उजडेगा। और इस कर के बनाने में पीड़ा उठायी, फिर इस घर के उजड़ने में पीड़ा उठानी पड़ेगी। यहाँ पीड़ा—ही—पीड़ा है। यहाँ दुख—ही—दुख है। संसार दुख का सागर है। ऐसा जिसे अनुभव होता है, वही परमात्मा की तलाश में निकलता है। जिसने इस घर को ही असली घर समझ लिया, फिर उसकी खोज बंद हो गयी।

जिसे दिखायी पड़ा कि यह नीड़ असली नीड़ नहीं है, असली नीड़ की तलाश करनी है अभी, ज्यादा—से—ज्यादा सराय है, रात भर को रुक गये हैं, सुबह हुए चलना पड़ेगा; पड़ाव है ज्यादा से ज्यादा, मंजिल नहीं है यह, उनके जीवन में अज्ञात की तलाश शुरू होती है। उस अज्ञात को हम जो भी नाम देना चाहे दें, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, सत्य कहें, समाधि कहें, ये सिर्फ नामों के भेद हैं। लेकिन इनकी खोज के पहले यह अनिवार्य है अनुभव हो जाना कि यहाँ घर बन नहीं सकता। यहाँ घोंसले बिगड़ेने को ही बनते हैं। यहाँ सब आशियाने उजड़ जाते हैं। उजड्ना यहाँ का स्वभाव है। बसना धोखा है, उजड्ना सचाई है। बसना भ्रांति है। थोड़ी—बहुत देर कोई सपना देख सकता है बसने का, लेकिन सपने सपने हैं। कितनी देर भुलाए रखोगे अपने को सपने में?

जो जितनी जल्दी सपने को सपने की भाँति देख ले, उतना बुद्धिमान है। कोई युवावस्था में देख लेता है, कोई बुढ़ापे तक में नहीं देख पाता। तुम्हारी बुद्धिमत्ता की एक ही कसौटी है——जितने जल्दी तुम यह देख लो कि यह कागज की नाव’ है जिसमें तुम बैठे हो, यह डूबेगी; अब डूबी, तब डूबी; और यह रेत पर बनाया गया घर है, यह गिरेगा; अब गिरा, तब गिरा। इसके पहले कि घर गिर जाए, जो इस घर से मुक्त हो जाता है, इस घर के लगाव से मुक्त हो जाता है, मोह से मुक्त हो जाता है, उसके जीवन में एक किरण उतरती है——परमात्मा की खोज शुरू होती है।

 

फूल पै धूल, बबूल पै शबनम, देखनेवाले देखता जा

अब है यही इंसाफ का आलम, देखनेवाले देखता जा

परवानों की राख उड़ा दी वादे—सहर के झोंकों ने

शमअ बनी है पैकरे—मातम देखनेवाले देखता जा

एक पुराना मदफन जिसमें’ दफ्न हैं लाखों उम्मीदें

—छलनी—छलनी सीनए—आदम देखनेवाले देखता जा

एक तेरा ही दिल नहीं घायल दर्द के मारे और भी हैं

कुछ अपना कुछ दुनिया का भय देखनेवाले देखता जा

 

जरा आंख खोलों और जरा देखों। तो क्या पाओगे यहां? एक पुराना मदफन जिसमें दफ्न हैं लाखों उम्मीदें। खुद को क्या पाओगे? एक पुरानी कब्र, जिसमें हजारों—हजारों आकांक्षाओं की मृत्यु घट चुकी है; जिसमें हजारों अभीप्साएँ मुर्दा होकर गिर गयी हैं, सड़ गयी हैं।

एक पुराना मदफन जिसमें दफन हैं लाखों उम्मीदें

छलनी—छलनी सीनए आदम देखनेवाले देखता जा

और यहाँ हर हृदय छलनी—छलनी हो गया है। किसी तरह सम्हाले है अपने को और चल रहे हैं, बात और है। मगर पैर सबके डगमगा गये हैं। हवाएं ऐसी हैं, आधियाँ ऐसी हैं। नावें सब डाँवाडोल हैं। लेकिन कुछ हैं जो नावों को किसी तरह सम्हालने में ही सारा जीवन, सारी ऊर्जा लगा देते हैं। पानी में बहा दी उन्होंने जीवन की बहुमूल्य संपदा। कुछ हैं जो यह देखकर कि यहाँ जीवन में शाश्वत कुछ भी नहीं है, सब क्षणभंगुर है, मुड़ जाते शाश्वत की और। उस मुड़ने में ही क्रांति घटित होती है। उसी व्यक्ति के जीवन में धर्म का जन्म होता है।

न शास्त्र पढ़ने से होगा यह, न मंदिर—मस्जिद जाने से होगा यह, यह तो जिदगी का दुख रूप देखोगे तो होगा। जीवन को ठीक—ठीक पहचानोगे तो होगा। राम—राम जपने से नहीं होगा। तुम ऊपर राम—राम जपते रहोगे, भीतर काम अपने सपने सजाता रहेगा। तुम मालाएँ फेरते रहोगे, भीतर अँधेरा घर बसाए बैठा रहेगा। तुम बाहर के दीये जलाते रहोगे, भीतर गहन अँधेरी रात अमावस बनी रहेगी। जीवन को देखो!

और जीवन दिखायी न पड़े, इसके हमने बड़े उपाय कर रखे हैं। करने ही पड़ेंगे। अगर जीवन का दुख सभी को दिखायी पड़ने लगे, तो यह जो राग—रंग दिखायी पड़ता है, यह जो आशा—उमंग—उत्साह दिखायी पड़ता है, यह सब एकदम तिरोहित हो जाए। ये जो लोग दिखायी पड़ते हैं चले जा रहे हैं, बड़ी तीव्रता से, इनकी गति टूट जाए। इन्हें साफ हो जाए कि यहाँ कोई मंजिल कभी किसीको मिली नहीं। फिर कैसे दौड़ सकेंगे? फिर किसके लिए दौड़ना है? फिर ये जो सपने बना रहे हैं और योजनाएँ बना रहे हैं और चिंताएँ कर रहे हैं, और विचार और उ;हापोह कर रहे हैं——क्या करें, क्या न करें——सब एकदम भस्मीभूत हो जाएगा।

हमने एक दुनिया बना ली है, असली दुनिया से बचने के लिए हमने एक विचारों का जाल खड़ा कर लिया है, अपने चारों तरफ विचार की एक पर्त— बना ली है, उसके माध्यम से ही दुनिया को देखते हैं। हम अपनी आशाओं के चश्मों से ही दुनिया को देखते हैं। फिर दुनिया हमें रंगीन दिखायी पड़ने लगती है। चश्मे का रंग दुनिया का रंग मालूम होने लगता है। और बचपन से हर बच्चे को उसके माँ—बाप चश्मे देते हैं, महत्वाकांक्षा देते हैं, वासना देते हैं——कुछ हो जाना, कुछ बन कर बता देना, नाम रख लेना, यश कमा लेना, पद, प्रतिष्ठा, धन। हर एक को हम यही आशाओं का पाठ पढ़ाते हैं। और ये सब आशाएँ एक दिन व्यर्थ हो जाती हैं। ये सब आशाएँ झुठी सिद्ध होती हैं। यहाँ किसीकी भी महत्वाकांक्षा कभी पूरी नहीं हुई। ऐसा जगत का स्वभाव नहीं किसीकी महत्वाकांक्षा पूरी करे। तब परमात्मा की खोज शुरू होती है।

असार दिख जाए संसार में, तो फिर सार को बिना खोजे कैसे रहोगे? औंख मुड़ती है, और दिशाओं में गति शुरू होती है। बहिर्याता बंद होती है, अंतर्यात्रा शुरू होती है। और ध्यान रखना, अंतर्यात्रा का ही दूसरा नाम तीर्थयात्रा है। अगर तुम्हारा तीर्थ बाहर है तो तुम्हारा तीर्थ संसार का हिस्सा है। जाओ काशी, जाओ काबा, ये तीर्थ नहीं हैं। तीर्थ तो एक ही है——भीतर जाओ; जहाँ राम मिले, वहाँ जाओ, जहाँ शाश्वत मिले, वहाँ जाओ। न तो काबा में मिलेगा, न काशी में, न कैलाश में। बाहर की यात्रा चाहे तुम धर्म के नाम पर करो और चाहे धन के नाम पर, बाहर की ही यात्रा है। और बाहर की यात्रा तुम्हें भीतर न लाएगी।

बाहर कुछ मिलता ही नहीं। इस बात को मानने में पीड़ा होती है, क्योंकि हमारा सब किया अनकिया हो जाता है। हमने अब तक जो भी जिंदगी में दाँव लगाये हैं, वे सब व्यर्थ हो जाते हैं। हम देखना नहीं चाहते।

एक मेरे परिचित थे, उनकी पत्नी मेरे पास आयी। उसने कहा कि .शक है कि मेरे पति को केंसर है, मगर वे डाक्टर के पास नहीं जाते। वे कहते हैं——मुझे कोई बीमारी ही नहीं है, तो मैं जाऊँ क्यों? मैने उन मित्र को बुलाया। मैंने कहा तुम्हारी पत्नी परेशान है। वे बोले व्यर्थ परेशान है। जब मैं बीमार ही नहीं हूँ तो मैं डाक्टर के पास जाऊँगा क्यों? मैने उनसे कहा जब तुम बीमार ही नहीं हो, तो डाक्टर के पास जाने में इतना डर क्या है? पत्नी का मन रह जाएगा, मुझे भी दिख रहा है कि तुम बीमार नहीं हो, और डाक्टर को भी दिख जाएगा, कोई डाक्टर तुम्हारी पत्नी की मानकर बीमार थोड़े ही समझ लेगा। अब वे बड़ी मुश्किल में पड़ गये। शक तो उन्हें भी है, भीतर डर तो उन्हें भी है। इसी डर के कारण डाक्टर के पास नहीं जा रहे हैं कि कहीं शक सच्चा साबित न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि केंसर हो ही। पर मेरे पास आ गये तो मुश्किल में पड़ गये, अब उनको उत्तर देते न सूझे। मैंने कहा, पत्नी परेशान है, यह बीमार हो जाएगी इस तरह परेशान होते—होते; रात सोती नहीं, यही फिक्र लगी रहती है; इसका भ्रम मिटा दो तुम बिल्कुल ठीक मालूम हो रहे हो, डाक्टर को भी ठीक मालूम होओगे, मगर इसका भ्रम टूट जाएगा, इसको शांति मिल जाएगी; इसकी खातिर तुम चले जाओ। अब मना करने का कोई उपाय न रहा।

मैं उन्हें डाक्टर के पास ले गया। मैं साथ ही उनके गया, क्योंकि मुझे डर था रास्ते मे वे पत्नी को कुछ—न—कुछ कह कर भाग खड़े होंगे। डाक्टर से उन्हें डर लग रहा था। और वही हुआ, केंसर उन्हें था। वे एकदम रोने लगे। मैंने उन्हें कभी रोते नहीं देखा था। और कहने लगे कि आपने ही मुझे मुसीबत में डाला। जैसे किं मैंने उनको केंसर करवा दिया। सब ठीक—ठाक चल रहा था, अब मुझे मुश्किल में डाल दिया,। मैने कहा, मुश्किल में तुम थे। अब. कुछ उपाय खोजा जा सकता है।

लेकिन उनकी तर्कसरणी समझते हो? उनकी तर्कसरणी इस संसार में अधिक लोगों की तर्कसरणी है। इसीलिए लोग सद्गुरुओं के पास नहीं जाते। डर है कि वहाँ रोग दिखायी न पड़ जाए। भय है कि कहीं जीवन की व्यर्थता समझ में न आ जाए। फिर क्या करेंगे? कहीं हाथ खाली हैं, ऐसा अनुभव में न आ जाए अभी तो मुट्ठी बाँध रखी है और भरोसा कर रखा है कि हीरे—जवाहरात हाथ में हैं। उस भरोसे में मजा है। उस भरोसे से ही जीए जा रहे हैं। गर्मी है, उत्साह है। कहीं कोई सद्गुरु हाथ खोलकर दिखा न दे कि सब मिट्टी है यहाँ, न कोई हीरे हैं, न कोई जवाहरात हैं। क्योंकि तुम एकदम गिर पड़ोगे स्वर्ग से। एकदम सिंहासन से उतरइ जाओगे। तुमने अपने टूटे—फूटे मकान को महल समझ रखा है। सद्गुरु के पास जाओगे तो झकझोर कर दिखा देगा कि यह टूटा—फूटा झोपड़ा है; कहाँ का महल, किस सपने में पड़े हो?

क्रोध भी आएगा सद्गुरु पर।

सदा से सद्गुरुओं पर लोगों को क्रोध आया है। यह क्रोध आकस्मिक नहीं है। इस क्रोध के पीछे बड़ा मनोविज्ञान है। तुमने ऐसे ही थोड़े महावीर को गालियाँ दीं। तुमने ऐसे ही थोड़े बुद्ध को पत्थर मारे। तुमने ऐसे ही थोड़े सुकरात को जहर पिला दिया। कोई व्यर्थ झंझट करने जाता है? हर किसी को तो कोई पत्थर नहीं मारता। साधु—संतों की तो लोग पूजा करते हैं। उनके चरणों में फूल चढ़ाते हैं उनसे आशीर्वाद लेने जाते हैं। तो इस दुनिया में दो तरह के साधु—संत हैं। एक साधु—संत, जो तुम्हें सांत्वना देते हैं। उनकी तुम पूजा करते हो। जो तुम्हें सांत्वना देता है, जो कहता है——आपको और केंसर, कभी नहीं हो सकता। हाथ की रेखाओं में ही नहीं है। मैंने हाथ देख कर बता दिया। आपको और केंसर! कभी नहीं हो सकता। आप जैसे सरलचित्त व्यक्ति, सेवाभावी, मंदिर—मस्जिद जानेवाले, गीता— कुरान पढ़नेवाले, आपको केंसर! कभी नहीं। यह तो नास्तिकों को होता है। चित्त प्रसन्न हुआ। आप अपने घर आ गये। कोई सांत्वना दे तो तुम प्रसन्न होते हो।

तुम ख्याल रखना, ये दो तरह के साधु—संत इस जमीन पर सदा रहे हैं। तुम्हें सांत्वना देनेवाला तुम्हारे घावों को छिपानेवाला, तुम्हारे घावों पर दो फूल रख देनेवाला तुम्हें प्यारा लगता है, हालाँकि वह तुम्हारा दुश्मन है। वह तुम्हारे संसार को उजड़ने न देगा। वह तुम्हें भटकाए रखेगा। मगर तुम भटकना चाहते हो। इसलिएऊ भटकाने वाले तुम्हें प्यारे मालूम पड़ते हैं। कभी सौ में एक ऐसा साधु भी होता है, जो तुम्हें सांत्वना नहीं देता। वरन विपरीत तुम्हारी सारी सात्वनाएँ छीन लेता है। तुम्हारी सारी आशाएँ छीन लेता है। तुम्हारी आँख से सारे सपने खींच लेता है। ऐसे संतों को तुम पत्थर मारोगे ही। तुम हजार उपाय खोजोगे। इस व्यक्ति से तुम्हारे भीतर भय पैदा हो गया। इसने तुम्हें कँपा दिया। मगर यही सद्गुरु है। निन्न्यानबे तो सब असद्गुरु हैं, मिथ्या, झूठे। वे तो तुम्हारे संसार का ही शृंगार हैं। तुम्हारी दुकान, तुम्हारी बाजार, तुम्हारी वासनाओं—कामनाओं का ही हिस्सा हैं। तुम उनको जहर देने वाले नहीं हो। और न तुम उनको पत्थर मारोगे। तुम तो उनकी पूजा करोगे।

लेकिन बुद्ध को तुम पत्थर मारोगे। दादू को तुम सताओगे। कबीर को तुम परेशान करोगे। तुम परेशान करोगे इसलिए कि कबीर की मौजूदगी तुम्हें परेशान कर रही है। तुम्हारा जिम्मा नहीं; कसूर है तो कबीर का ही है। कबीर तुम्हारी पर्त—पर्त को उघाड़ कर रखे दे रहे हैं। तुम्हारे घाव उघाडे दे रहे हैं, दबा—दबा कर तुम्हारी मवाद तुम्हें दिखाए दे रहे हैं। तुम्हारे भीतर से घाव और तुम्हारे नासूर और तुम्हारे केंसर तुम्हारी आंखों में उघाड़कर ला रहे हैं। तुम नाराज हो जाओगे 1 जिन मिल की मैंने तुमसे बात की, वे जितने दिन जिंदा रहे, मुझसे नाराज रहे। फिर मेरे पास नहीं आए। उनकी नाराजगी का कारण साफ है। मैं उन्हें द्रुश्मन मालूम पड़ रहा हूँ, क्योंकि सब ठीक चल रहा था, अब वे डगमगा गये, अब वे घबड़ा गये।

ईश्वर की तलाश तो तुम्हारा संसार बिल्कुल डगमगा जाए तो ही शुरू हो सकती है। इससे कम में तलाश शुरू नहीं होती। अगर तुम्हारे पैर जरा भी संसार में जमे रहें तो तुम कहोगे, अभी क्या जल्दी है? अभी थोड़ी देर और रस ले लें। थोड़ी देर और मजा कर लें। थोड़ी देर यह उत्सव और चलता है चल लेने दें। जल्दी क्या है, परमात्मा प्रतीक्षा कर सकता है। वह तो शाश्वत है, सदा है, फिर खोज लेंगे। तुम परमात्मा को कल पर टालते जाओगे अगर तुम्हारे पैर जरा भी जमीन पर रुके। सद्गुरु वही है जो तुम्हारे पैर के नीचे से सारी जमीन खींच ले। नाराज न होओगे तो क्या करोगे?

मैं जानता हूँ, जिन्होंने सुकरात को जहर दिया, तुम्हारे जैसे ही लोग थे। परेशान हो गये थे। अदालत में जिसने तय किया कि सुकरात को जहर दिया जाए, उसने सुकरात को दो विकल्प भी दिये थे। अदालत ने यह कहा था कि अगर तुम एथेंस छोड़ दो तो हमें तुम्हारी कोई चिंता नहीं है। फिर तुम जिंदा रहो, तुम्हें जो करना है करो। अगर एथेसं नहीं छोड़ते हो तो मृत्यु की सजा। क्योंकि एथेंस के नागरिक तुमसे परेशान हो गये हैं। दूसरा विकल्प, अगर तुम एथेंस में ही रहना पसंद करो तो अब तक तुम जो काम कर रहे थे, वह बंद कर दो। लोगों को जगाने का काम बंद करो। लोग नहीं जगना चाहते। तुम सत्य की बात करनी बंद करो। अगर लोगों को असत्य प्रिय है तो उनकी स्वतंत्रता है, उनको असत्य प्रिय रहने दो। तुम यह लोगों का पीछा मत करो। तुम लोगों को बेचैन मत करो। लोगों के घावों में उंगुलियाँ डालकर

उन्हें दिखाओ मत कि ये घाव हैं। दर्द होता है, पीड़ा होती है।. तो तुम चुप हो जाओ। अगर तुम चुपचाप रहो, हमें कोई एतराज नहीं, जिंदा रह सकते हो। … लेकिन सुकरात ने कहा——एथेंस मैं छोड्कर जाऊँ कहाँ? जहाँ जाऊँगा वहीं यह मुसीबत फिर से पैदा हो जाएगी। क्योंकि वहाँ भी ऐसे ही लोग हैं। वे भी नाराज होंगे। रही मेरे चुप हो जाने की बात, वह संभव नहीं है। सत्य तो बोलेगा, कीमत कुछ भी चुकानी पड़े। सत्य अनबोला नहीं रहेगा। सत्य की तो घोषणा होगी। यह मेरे वश में नहीं है, सुकरात ने कहा, कि मैं रोक लूँ। मैं हूँ कहाँ अब? सत्य ही है। और जो होना है, वही होगा। फिर तुम चिंता न करो। मरना तो मुझे है ही, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, मरूँगा तो हई। ऐसे मरा, वैसे मरा, क्या फर्क पड़ता है? तुम्हें जो सजा देनी है, तुम दे दो। तुम मुझे बचने के उपाय मत बताओ, क्योंकि इस जिंदगी में बचने का कोई उपाय ही नहीं। यह जिदगी ही विकल्प नहीं देती, यहाँ मौत निर्णीत है। तो कब मरे—आज कि कल कि परसों, कैसे मरे——बीमारी से मरे, बिस्तर पर मरे, कि जहर देकर मारे गये, कि सूली पर लटका कर मारे गये। क्या फर्क पड़ता है? मौत आती ही है। किस ढाँचे में आती है, किस शैली से आती है, इससे जरा भी भेद नहीं होता।

सुकरात पर लोग नाराज नहीं थे ऐसे ही, कारण था।

जिस आदमी के जीवन में संसार में अभी लगाव है, वह सद्गुरुओं से नाराज होगा। तुम तो गुरुओं के पास भी इसीलिए जाते हो कि संसार की कुछ आकांक्षा पूरी हो जाए। ऐसे भूले—भटके लोग मेरे पास भी आ जाते हैं। एक ही बार आते हैं, क्योंकि दोबारा फिर उनके आने का कोई उपाय नहीं रह जाता। वे समझ जाते हैं कि यह स्थान नहीँ है। वे मेरे पास आ जाते हैं कि चुनाव में खड़ा हुआ दँ, आशीर्वाद दे दें। तुम्हें चुनाव में जिताने का आशीर्वाद कोई सद्गुरु देगा? सद्गुरु आशीर्वाद देगा कि जितनी जल्दी हार जाओ, उतना अच्छा। हारे को हरिनाम। हारो तो हरि का नाम याद आए। जीतो तो कैसे याद आएगा ‘ जीत में तो अकड़ बढ़ती चली जाएगी। मेरे पास भी लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, कि व्यवसाय शुरू कर रहा हूँ, आपके आशीर्वाद से शुरू करना है। मैं कहता हूँ, तुम कहीं और जाओ। मेरे आशीर्वाद से शुरू करोगे, व्यवसाय चलेगा ही नहीं। मेरा आशीर्वाद तो एक ही हो सकता है कि तुम्हारे सब व्यवसाय टूट जाएँ। मगर तब तुम नाराज न होओ तो क्या होओ? तुम फिर मुझसे बदला न लो तो क्या करो? तुम फिर अराने रास्ते खोजोगे मुझसे बदला लेने के। तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूँ। तुम्हारी तकलीफ भी स्वाभाविक है।

इसलिए एक बात ख्याल रखना, तभी आज के सूत्र समझ में आ सकेंगे। संसार व्यर्थ है ऐसी तुम्हारी थोड़ी प्रतीति हो जाए तो सद्गुरु से संबंध जुड़ सकता है। अन्यथा तुम्हारे संबंध असद्गुरुओं से ही जुड़ेंगे, क्योंकि तुम उनके पास भी संसार की ही सुरक्षा के लिए जाओगे। तुम उनसे भी धन माँगोगे, पद माँगोगे, प्रतिष्ठा माँगोगे। पुत्र माँगोगे, पुत्री माँगोगे, व्यवसाय माँगोगे, धंधा, सफलता, बस तुम संसार ही माँगोगे। किसी—न—किसी बहाने तुम्हारे मन में संसार की ही आकांक्षा होगी। और जिसके मन में संसार की आकांक्षा है, वह असद्गुरु के पास ही जा सकता है। उसका मेल असद्गुरु से ही पड़ सकता है।

मुझसे लोग कभी—कभी आकर पूछते हैं कि निर्णय कैसे करें कि सद्गुरु कौन है? मैं उनसे कहता हूँ—तुम इसकी फिकिर ही मत करो, तुम क्या निर्णय करोगे कि सद्गुरु कौन है? तुम इतनी ही फिक्र कर लो कि तुम्हारा संसार चुक गया? फिर तुम्हें असद्गुरु से संबंध जुड़ ही नहीं सकता। क्योंकि असद्गुरु दे सकता है संसार की ही वासनाएँ, ससार के ही प्रलोभन, संसार की ही महत्वाकांक्षाएँ। उसके आशीर्वाद सांसारिक हैं। तुम्हारा संबंध ही असद्गुरु से नहीं जुड़ सकता। इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम सद्गुरु को कैसे पहचानें, सवाल यह है कि हमारे भीतर अगर संसार की आकांक्षा क्षीण हो गयी है, तो तुम्हारा जिससे संबंध बैठेगा, जिससे तुम्हारा प्रेम हो जारागा, वह सद्गुरु ही होगा। असद्गुरु को तो तुम तत्क्षण देख लोगे। क्योंकि तुम ध्यान माँगोगे, वह धन का आशीर्वाद देगा। तुम परमात्मा माँगोगे, वह पद का आशीर्वाद देगा। तुम कुछ माँगोगे, वह कुछ देगा। तुम्हारी औंखें साफ— साफ देख लेंगी कि वह जो दे रहा है, यह वही संसार है जिसे तुम छोड आए, या जिसे तुम देख आए कि व्यर्थ है।

कोई निर्णय नहीं कर सकता कि सद्गुरु कौन है, असद्गुरु कौन है? लेकिन यह निर्णय तो तुम कर ही सकते हो कि तुम्हारे भीतर संसार का रस चुक गया है या शेष है? अगर चुक गया, तो तुम जिसे भी पा लोगे वह सद्गुरु होगा।

और जिस व्यक्ति के जीवन में संसार का रस चुक गया है और परमात्मा की खोज शुरू हो गयी है, उसे सद्गुरु खोजना ही होगा। क्योंकि परमात्मा से सीधा— सीधा संबंध बनाना करीब—करीब असंभव है। मैं कहता हूँ—करीब—करीब असंभव है, क्योंकि कभी—कभी बन जाता है। मगर निन्न्यानबे मौकों पर नहीं बनता। निन्न्यानबे मौकों पर बीच में एक सेतु की जरूरत पड़ती है। वही सेतु सद्गुरु है। हम तो समो चके हैं तुझे साँस—साँस में

यह और बात हे कि तुझे आग ही नहीं

क्या हो सकेगा इसका मदावा शराब से

यह जिंदगी का गम है, गमे—आशिकी नहीं

अहले—वफा में ऐसे भी कुछ नामुराद हैं

जिनको तेरी जफा भी मठयसर हुई नहीं

ऐ ‘ शाद ‘! क्या बात है कि बज्मे—हयात में

शमग़ु तो जल रही हैं, मगर रोशनी नहीं

यहाँ जल तो रहे हैं दीये सब तरफ, मगर रोशनी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी तुम्हारे पास आँखे—ही उन दीयों की रोशनी देखने के योग्य नहीं हैं। सूरज तो निकला हुआ है, मगर तुम अँधेरे में हो। तुम्हें आँख खोलने की याद ही भूल गयी है। तुम आँख बंद किये खड़े हो और सूरज को देखना चाह रहे हो! सद्गुरु का इतना ही अर्थ है, सद्गुरु तुम्हें सूरज नहीं दे देगा, सद्गुरु सिर्फ तुम्हें आँख खोलने की कला दे देगा, सूरज तो मौजूद है। सद्गुरु तुम्हें परमात्मा नहीं दे देगा, परमात्मा तो मौजूद ही है, न देना है, न लेना है, लेकिन सद्गुरु तुम्हरे भीतर सरंगमबिठा देगा कि वह परम संगीत सुनायी पड़ने लगे। सद्गुरु तुम्हें सुनने की कला दे देगा ताकि तुम्हारे कान उस मधुर रव को सुन लें, जो प्रतिपल मौजूद है। तुम्हारे कान अभी केवल शोरगुल सुनने में समर्थ हैं। बाजार का उपद्रव सुनने में समर्थ हैं। हंगामा होता हो तो सुन लेते हैं। भीड़—भाड़ की आवाज हो, शोरगुल हो, नारे हों, सुन लेते हैं। वह जो भीतर ओंकार का नाद हो रहा है, उसे नहीं सुन पाते। वह अति सूक्ष्म है।

कोई संगीतज्ञ से संबंध जोड़ना पड़ेगा, जो धीरे—धीरे एक—एक कदम सूक्ष्मता में तुम्हें उतारता जाए। किसीका हाथ पकड़ना होगा जिसे देखना आ गया है। अंधे आदमी को रास्ता पार करना हो तो किसीका हाथ पकड़ लेता है। और कभी—कभी तो ऐसा हो जाता है कि जिसका हाथ पकड़ा है, हो सकता है वह भी अंधा हो, मगर यह भरोसा कि किसीका हाथ पकड़ा है बल दे देता है। कभी—कभी ऐसा भी हुआ है कि जिन्होंने परमात्मा को नहीं जाना है, उनको भी जिन्होंने प्रेम और श्रद्धा से स्वीकार कर लिया है वे परमात्मा तक पहुँच गये हैं। गुरु तो निमित्तमात्र है।

ऐसी घटना भी घटती है।

मैंने सुना, एक अंधा आदमी राह के किनारे खड़ा रास्ता देख रहा है कि कोई आ जाए और उसे पार करा दे। तभी एक और आदमी भी आकर खड़ा हो गया पास में, वह भी अंधा है और किसीकी राह देख रहा है। दोनों ने एक—दूसरे का हाथ टटोला, दोनों ने यह समझा कि चलो, आ गया कोई; दोनों रास्ता पार कर गये। उस पार जाकर दोनों ने एक दूसरे को धन्यवाद दिया कि बड़ी कृपा की कि मुझे पार करवा दिया। दूसरे ने कहा कि आप क्या कहते हैं, कृपा आपने की कि मुझे पार करवा दिया। तब पता चला राज कि दोनों अंधे थे। मगर यह भरोसा आ गया कि कोई हाथ पकड़े है, यात्रा सुगम हो गयी।

श्रद्धा आ जाए तो शक्ति आ जाती है। फिर अगर आंखवाले आदमी का हाथ मिल जाए तब तो कहना क्या? मैं तो सिर्फ यह उदाहरण के लिए कह रहा हूँ कि कभी—कभी अंधों ने भी एक—दूसरे का साथ देकर पार करवा दिया है; तो आंखवाले का हाथ मिल जाए तब तो कहना क्या?

दीये जले हुए हैं, सूरज निकला हुआ है, फूल खिले हुए हैं, सिर्फ तुम्हें कला भूल गयी है। तुम्हारी संवेदना क्षीण हो गयी है। तुम जड़ हो गये हो। नं तुम्हें सुनायी पड़ता, न तुम्हें दिखायी पड़ता, तुम्हारे हृदय में अब कोई धड़कन नहीं है। प्रेम बरस रहा हे।

जीसस ने कहा है—ईश्वर प्रेम है। हम सुन भी लेते हैं, मगर समझ में नहीं आता। प्रेम बरस रहा है। इस क्षण भी बरस रहा है। ऐसी कोई घड़ी नहीं है जब तुम्हारे ऊपर प्रभु— का प्रेम नहीं बरस रहा है। एक क्षण को भी उसका प्रेम का बरसना बंद हो जाए, तुम्हारे जीवन का सेतु टूट जाए। उसके प्रेम से ही तुम जी रहे हो। उसके प्रसाद से ही तुम श्वाँस ले रहे हो। उसका प्रसाद ही तुम्हारा अस्तित्व है। मगर पहचान नहीं रह गयी है, बोध नहीं रह गया है। जिसे बोध हो, उसके साथ मैत्री बना लेने का नाम सद्गुरु को खोजना है।

वो रिंदे पाकबाज हैं छूलें अगर हमें

दोजख की आग को भी गुलिस्तां बनाएँ हम

उन पियक्कड़ों से जरा दोस्ती हो जाए जो परमात्मा को पी कर बैठे हैं। जिन्होंने परमात्मा की शराब पी ली है, जिन्होंने वह पवित्र शराब पी ली है——

वो रिदे पाकबाज हैं, छूलें अगर हमें

दोजख की आग को भी गुलिस्तां बनाएँ हम

बस इतना हो जाए तो नरक की आग भी गुलिस्तां बन जाए, तो नरक की आग में भी फूल खिल जाएँ, तो नरक का अँधेरा भी रोशनी हो जाए। नरक कहीं है ही नहीं सिवाय तुम्हारी आँख के बंद होने के। कहीं और नरक नहीं है। तुम्हारा अंधापन ही तुम्हारा नर्क है। आँख खुल जाए तो स्वर्ग—ही—स्वर्ग है। स्वर्ग के अतिरिक्त यहाँ कुछ है ही नहीं। यह सारा—का—सारा स्वर्ग। है यह अस्तित्व सब रूपों का स्वर्ग है। लेकिन यह मैं जानता हूँ कि लोग नर्क में जी रहे हैं। यह बड़ी अड़चन की बात है, अस्तित्व पूरा—का—पूरा स्वर्ग है और मजा ऐसा है कि लोग नर्क में जी रहें हैं——कभी कोई स्वर्ग में जीता है।

कैसे संबंध जुड़े इस स्वर्ग से? कैसे घटना घटे? कैसे ये अंधेरी, रात कटे? कैसे ये विरह के क्षण पूरे हों? किसी पियक्कड़ को खोज लो। किसी मतवाले को खोज लो। और मतवाले सदा हैं। तुम नहीं खोज पाते हो उसका कारण एक ही है सिर्फ कि तुम हमेशा पुराने मतवालों को खोज रहे हो, जो अब नहीं हैं। कोई बुद्ध को खोज रहा है, बुद्ध अब नहीं हैं। यह तो बात ऐसी साफ है कि अब बुद्ध नहीं हैं। कोई महावीर को खोज रहा है, महावीर अब नहीं हैं। और मजा यह है कि तुम जब महावीर मौजूद थे तब तुम महावीर को नहीं खोज रहे थे, तब तुम कृष्ण को खोज रहे थे। और जब कृष्ण मौजूद थे, तब तुम किसी और को खोज रहे थे। तुम हमेशा मुर्दों को खोजते हो। और परमात्मा सदा जीवित रूप में मौजूद होता है। तुम्हारे मंदिरों में तुम मुर्दों की पूजा कर रहे हो और परमात्मा कहीं जिंदा है, चल रहा है, उठ रहा है, बैठ रहा है। अभी गीत कहीं गाया जा रहा है, तुम भगवद्गीता पढ़ रहे हो। तुम कुरान की आयतें रट रहे हो, कहीं अभी आयतें उतर रही हैं। कहीं परमात्मा अभी फिर पुकार रहा है, लेकिन तुम वेद में उलझे हो, और कहीं वेद रचे जा रहे हैं, कहीं एक—एक शब्द ऋचा है।

मगर तुम्हारी कठिनाई यह है कि तुम सदा मुर्दे को पूजते हो। मुर्दे को पूजने के पीछे कारण है। मुर्दे की प्रतिष्ठा है, हजारों साल की प्रतिष्ठा है। तुम बाजार में जीने के आदी हो। बाजार में पुराने की ‘ क्रेडिट ‘ होती है। नाम बिकता है। नये को कौन खरीदता है? नये को बेचना मुश्किल है। नयी चीज भी चलानी हो तो लोग पुराना नाम खरीद लेते हैं। पुराने नाम के खूब दाम मिलते हैं। तुम अगर नयी साबुन बनाओ और लक्स टॉयलेट साबुन का नाम खरीद लो, तो बिकेगी, बिक जाएगी, कोई फिक्र न करेगा कि नयी है कि पुरानी। लेकिन नयी साबुन बनाओ तो बिकना आसान नहीं है। नाम चाहिए——लोग नाम खरीदते हैं। लोग नाम से परिचित हैं। लोग विज्ञापन खरीदते हैं——हजारों साल का विज्ञापन है।

मैंने सुना है, अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति एंड्रयू कारनेगी विज्ञापनों के बड़े खिलाफ था। वह कभी ‘ एडवरटाइजमेंट ‘ देता नहीं था किसी अखबार में। लेकिन एक अखबार का मालिक उसके पीछे ही पड़ा था। वह कितना ही उसको भगाता, वह फिर लौट—लौट कर दों—चार दिन में आ जाता। उसको भरोसा था कि वह राजी कर लेगा। एक दिन सुबह—मणी—सुबह पहुँचा, एंडूबू कारनेगी ने कहा——भई, आ गये फिर तुम, मुझे विज्ञापन देने नहीं हैं। उसने पूछा—लेकिन क्यों नहीं देने हैं? आप मुझे एक दफे ठीक—ठीक समझा दें, मैं दोबारा न आऊँ। क्यों नहीं देने हैं। तर्क क्या है? उसने कहा कि मेरी चीजें बिक ही रही हैं, मैं क्यों विज्ञापन दूँ? लोग मेरी चीजों को खरीद ही रहे हैं, लोगों को पता ही है, विज्ञापन की मुझे कोई जरूरत नहीं है। तभी पहाड़ी के ऊपर बने हुए चर्च की घंटियाँ बजने लगी। उस विज्ञापन माँगनेवाले अखबार के मालिक ने कहा——आप सुनते हैं? यह चर्च कितने दिनों से वहाँ है? एंड्रयू कारनेगी ने कहा कि यह सौ साल पुराना चर्च है। उस अखबार के मालिक ने कहा——अभी भी यह सुबह—शाम घंटियाँ बजाता है कि नहीं? नहीं तो लोग भूल जाएँगे। ये घंटियाँ विज्ञापन हैं कि मैं अभी हूँ, कि मुझे भूल मत जाना। और कहते हैं एंड्रयू कारनेगी थोड़ी देर चर्च की घंटियाँ सुनता रहा, और उसने विज्ञापन देना शुरू कर दिया। उसे बात समझ में आ गयी। लोग विज्ञापन को अर्थ देते हैं, मूल्य देते हैं।

अब वेद का विज्ञापन पुराना है। इसीलिए तो सभी धर्मो के लोग यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं——हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है। वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि वेद पाँच हजार साल से पुराने नहीं हैं। लेकिन लोकमान्य तिलक कहते हैं——नब्बे हजार साल पुराने हैं। हिंदू तो कहते हैं——सनातन हैं। हम कोई सालों में गिनती नहीं करना चाहते। क्योंकि सालों में गिनती करना खतरनाक है। कोई दूसरी किताब निकल आए जो ज्यादा पुरानी हो! सनातन हैं। सदा से हैं। ऐसा कभी था ही नहीं जब वेद नहीं थे। यह इतना आग्रह क्यों है?

जैनों से पूछो, जैन कहते हैं जैन—धर्म हिंदू धर्म से पुराना है। हमारे तीर्थंकर सबसे ज्यादा पुराने हैं। दलीलें खोजते हैं। वे कहते हैं, हमारे पहले तीर्थंकर का नाम ऋग्वेद में उपलब्ध है। और आदर से उपलब्ध है। तो उसका मतलब यह हुआ कि जब ऋग्वेद लिखा गया, तब भी हमारा धर्म था, हमारा पहला तीर्थंकर हो चुका था। और इतने आदर से उल्लेख किया गया है पहले तीर्थंकर का जैसा कि हम समसामयिक आदमी का कभी नहीं करते। समसामयिक की तो हम निंदा करते हैं। हम तो आदर ही पुराने का करते हैं। हमारी तो आदर की प्रक्रिया ही पुराने के लिए है। तो वे कहते हैं, इतने आदर से उल्लेख किया है पहले तीर्थकर का, इससे सिद्ध होता है कि तीर्थंकर को मरे हजारों साल हो चुके होंगे। अगर समसॉमयिक होते तीर्थंकर तो एक तो आदर ही नहीं होता, नाम का उल्लेख भी नहीं हो सकता था। तो ऋग्वेद से ज्यादा पुराना जैन धर्म है।

सब की चेष्टा यही है कि उनकी किताब, उनका धर्म सबसे ज्यादा पुराना हो। क्यों ?’ पुराने की प्रतिष्ठा है। पुराने के साथ परंपरा जुड़ जाती है। हजारों साल का इतिहास, कहानियाँ, कथाएँ, घटनाएँ जुड़ जाती हैं। बल पैदा हो जाता है। जब नया पैदा होता है तो उसके साथ न कोई परंपरा होती है, न कोई कहानियाँ होती हैं, न कोई पुराण होते हैं। मगर परमात्मा सदा ही नया है। परमात्मा सदा नूतन है——नित नूतन है। तुम्हारी अड़चन यही है कि तुम पुराने में खोजते, हो और नहीं पाते। और पुराने में खोजने के कारण तुम पडित के हाथ के शिकार हो जाते हो। क्योंकि पंडित पुराने का धंधा करता है। पंडित पुराने से जीता है। पंडित परंपरा का शोषण करता है। तुम्हारी परंपरा की आकांक्षा का पडित ठीक—ठीक शोषण कर लेता है। फिर तुम्हें पंडित के हाथ पड़ जाना होता है।

और पंडित तुम्हें सांत्वना दे सकता है, सत्य नहीं। सत्य तो उसे खुद भी नहीं मिला। उसके हाथ में भी मुर्दा शब्द हैं। वह मुर्दा शब्दों से ही तुम्हें भर देगा। तुम्हारे मस्तिष्क में भी मुर्दा शब्द डाल देगा।

सद्गुरु की खोज तो तभी हो सकती है जब तुम एक बात समझ लो कि अब बुद्ध तो मिलेंगे नहीं, अब किसी जीवित बुद्ध को तलाशना है। अब महावीर तो मिलेंगे नहीं, अब किसी जीवित महावीर को तलाशना है। और यह भी ख्याल रखना कि महावीर एक दफा ही एक ढंग के होते हैं। दूसरी दफा उसी ढंग के नहीं होते। इस जगत में पुनरुक्ति नहीं होती। यह भी एक अड़चन है खोजी के लिए। तुमने एक ढाँचा बना लिया है। चलो, ठीक, आज के महावीर को खोज लेंगे, मगर आज का महावीर प्राकृत भाषा नहीं बोलेगा। कैसे बोलेगा? आज का महावीर हो सकता है हिंदी बोले, मराठी बोले, गुजराती बोले; और तुम प्राकृत बोलनेवाले महावीर को खोजोगे, क्योंकि मूल महावीर ने प्राकृत बोली थी। नहीं पाओगे।

महावीर का एक ढंग था, एक ‘जीवन—दृष्टि थी, एक शैली थी। अद्वितीय थी, अनूठी थी, मगर इस दुनिया में कार्बन कॉपी होतीं ही नहीं। और कार्बन कॉपी खतरा है। अगर तुम महावीर को खोजने गये तो किसी कार्बन कॉपी के चक्कर में पड़ जाओगे। कहीं—न—कहीं लोग हैं जो कार्बन कॉपी कर रहे हैं, जो ठीक महावीर जैसे ही चल रहे हैं, उठ रहे हैं, बैठ रहे हैं, वैसे ही भोजन कर रहे हैं, उसी ढंग से नग्न हैं, उसी ढंग का उन्होंने आचरण बना लिया है, उनके चक्कर में तुम पड़ जाओगे। और ध्यान रखना, परमात्मा कभी पुनरुक्त नहीं होता। परमात्मा सदा ही अद्वितीय है, बेजोड़ है। महावीर बस एक बार होते हैं, दुबारा नहीं होते——न तो महावीर के पहले कभी हुए थे, न महावीर के बाद कभी होंगे। मुहम्मद एक ही बार होते हैं, दुबारा नहीं होते हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं hऐ कि परमात्मा होना बंद हो जाता है। परमात्मा रोज नये रूप लेता है। परमात्मा सृजनात्मक है।

नये को पहचानने की क्षमता चाहिए, तो सद्गुरु मिलेगा। अगर पुराने की पकड़ है तो तुम्हें नकलची मिलेंगे, नेता मिलेंगे; कुशल अभिनेता मिल जाएँगे; पंडित मिलेंगे, पुजारी मिलेंगे, पुरोहित मिलेंगे, अनुयायी मिलेंगे, मगर मौलिक अनुभव को उपलब्ध व्यक्ति नहीं मिल पाएगा। इस सारी पक्षपात की धारणा को आँख से उतार कर जो खोजने निकलता है, उसे निश्चित सद्गुरु मिल जाता है। सद्गुरु सदा मौजूद है। इस पृथ्वी पर ऐसा कभी नहीं होता जब परमात्मा का दीया कहीं—न—कहीं प्रगाढ़ होकर न जलता हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। उसकी अनुकंपा अपार है। उसकी अनुकंपा का ही तो यह प्रमाण होगा कि अब भी वह आदमी से निराश नहीं हुआ है, अब भी कहीं उतरता है, अब भी कहीं पुकारता है, वैसे ही जैसे पुराने दिनों में पुकारता था अब भी पुकारता है। मगर तुम्हें उसकी नयी भाषा समझनी होगी, नया रंग—ढंग समझना होगा। वह आज के अनुकूल होगा। और सदा ही चँकि नया होगा, इसलिए जो लोग पुराने नक्शे लेकर चलेंगे उन्हें वह कभी भी नहीं मिल पाएगा। वह किसी पुराने नक्शे के ढाँचे में बैठेगा नहीं। इसलिए बड़ी खुली आंख चाहिए। लेकिन अगर तुम खोज में निकले हो, अगर सच में ही खोज तुम्हारे रोएँ—रोएँ को पकड़ ली, तो यह घटना घटेगी।

हंगामें उठ रहे हैं मेरी साँस—साँस से

सर से कदम तक इक दिले—बेकरार हूँ

अगर तुम्हारे रोएँ—रोएँ में बेकरारी है, बेचैनी है, खोजना ही है सद्गुरु को, प्यास है, सघन प्यास, ज्वलंत प्यास, तुम्हारा रोआँ—रोआँ जल रहा है——

हंगामें उठ रहे हैं मेरी साँस—साँस से

सर से कदम तक इक दिले—बेकरार हूँ

तो देर नहीं लगेगी।

जितनी प्रगाढ़ होगी अभीप्सा, उतने ही शीध्र मिलन हो जाता है। और सद्गुरु से पहली दफा आँख मिली कि बस बात हो गयी। यह भी पहली आँख का प्रेम है। पहली दृष्टि। बस आँख तुम्हारी साफ होनी चाहिए, पुराने कूड़ा—करकट से भरी नहीं होनी चाहिए, आँख साफ हो, एक बार सद्गुरु से मिली तो बात हो गयी।

दुश्मनों ने तो दुश्मनी की है

दोस्तों ने भी क्या कमी की है

अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था

इश्क ने दिल में रोशनी की है

यह प्रेम की घटना है। यह महा प्रेम की घटना है। 1 इश्क ने दिल में रोशनी की है, अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था ‘। शास्त्रों से ज्यादा—से—ज्यादा बुद्धि में थोड़ी रोशनी हो सकती है। मगर वह रोशनी बहुत काम की नहीं, उधार है, बासी है, परायी है। अपनी रोशनी तो हृदय में उठती है। अपनी लपट तो हृदय में जगती है। ‘ अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था, इश्क ने दिल में रोशनी की है ‘।

जब तुम्हारे भीतर प्रकाश धड़कता है हृदय में, तब तुम ठीक रास्ते पर आ गये। खोजो उन आँखो को जिनको देखते ही प्रेम जग जाए। खोजो उन हाथों को जिनके स्पर्श से ही प्रेम जग जाए। फिर सब सुगम हो जाता है।

ऐसी ही तो घटना रज्जब के जीवन में घटी। घोड़े पर सवार, बारात जाती थी कि दादू दयाल बीच में आकर खड़े हो गये, आंख—से—आंख मिली और बस बात हो गयी। बात की बात हो गयी। उतार कर फेंक दिया सिर से मौर, दादू के चरणों में सिर रख दिया—दादू को सिरमौर बना लिया।

मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि बदल औरे करि लेहि।।

सस्ता नहीं है सद्गुरु का साथफिर। सद्गुरु मारेगा, मिटाएगा, तोड़ेगा। हिम्मतवर ही उसके पास हो सकते हैं। जो सांत्वना की तलाश में गये थे वे तो दूर से ही भाग खड़े होंगे। तुम तो गये थे कि कोई तुम्हारे गले में फूलमाला पहनाएगा और वहाँ गर्दन काटी जाने लगी, तुम कैसे टिकोगे? गर्दन. कटवाने की हिम्मत हो तो ही टिकोगे। सिर रख दिया चरणों में, इसका मतलब समझते हो? इसका मतलब सिर्फ औपचारिक नहीं होता, इसका मतलब सिर्फ यह कोई प्रणाम करने का कोई ढंग नहीं है, सिर रख दिया चरणों में इसका मतलब होता है——यह रही गर्दन, काटना हो काटो। मैं ना—नुच नहीं करूँगा। हटेगी नहीं यह गर्दन। उठा लो तलवार और काट दो, यहीं इसी मस्ती से कट जाऐंगा, शिकायत नहीं होगी; इसी आनंद—अहोभाव से मर जाऊँगा, मिट जाऊँगा। मुझे मिटा दो। मैं अपने ढंग से रह कर देख लिया हूँ और पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी न पाया, अब म्उझे मिटा दो, अब मुझे जला दो, मेरी मृत्यु बनो, मेरी सूली बन जाओ। यह अहंकार मुझे जन्मों—जन्मों तक सताया है। इस अहंकार से न—मालूम मैंने कितने—कितने सपने देखे, कितने विषाद सहे, इस अहंकार ने मुझे कहाँ—कहाँ नहीं भटकाया है, इस अहंकार में बहुत भटक चुका हूँ, अब तुम इसे मिटा दो। मुझमें मेरा—भाव न रह जाए, मेरी खुदी मिटा दो।

चरणों में सिर रखना सिर्फ नमस्कार नहीं है। इसलिए पश्चिम के लोग थोड़े हैरान होते हैं——यह भी कोई नमस्कार करने का ढंग है कि किसी के पैरों में सिर रखो! उन्हें पता नहीं यह नमस्कार का ढंग ही नहीं है। इसका नमस्कार से कुछ लेना—देना नहीं है। यह तो कुछ और ही बात है। यह तो समर्पण का भाव है। यह तो समर्पण की घोषणा है कि यह रहा सिर, अब जो मर्जी हो वैसा करो।

‘ मार भली जो सतगुरु देहि ‘। रज्जब कहते हैं —— उससे ज्यादा प्यारी दुनिया में और कोई चीज नहीं। सद्गुरु की मार। और मारेगा सब तरफ से, क्योंकि न— मालूम कितना कचरा है सदियों—सदियों पुराना जो छीनना है। और जिसे तुम संपत्ति समझकर पकड़े बैठे हो। और तुम्हारे भीतर न—मालृम कितने रोग हैं जिन रोगों को नष्ट करना है। उन रोगों को तुमने अब तक अपना जीवन जाना है। तुम्हारे भीतर न—मालूम कितने न्यस्त स्वार्थ हैं——काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है। तुम्हारे भीतर न—मालूम कितनी विषाक्त मनोदशाएँ हैं, उन सब को मिटाना है। एक—एक करके काटना है। तुम्हें तैयार करना है।

मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि बदल औरे करि लेहि।।

जो उस मार को झेलने को राजी हो जाता है स्वागत से, सन्मान से, श्रद्धा से, फेरि बदल औरे करि लेहि, गुरु उसे बदल कर कुछ—का—कुछ कर लेता है——और ही बना देता है! रूपांतरण हो जाता है। इंच—इंच काटना पड़ता है। इसलिए थोड़े—से हिम्मतवर योद्धा ही सद्गुरुओं के पास रुकते हैं। कमजोर भाग जाते हैं। कमजोर भागने के लिए न—मालूम कितने उपाय खोज लेते हैं, कितने तर्क खोज लेते हैं।

 

गुरु की याद में रंग भी बहुत, नूर भी बहुत

न—मालूम क्या—क्या उनके मन में विचार उठ आते हैं और भाग खड़े होते हैं। मगर ध्यान रखना, वे सब भागने के लिए व्यवस्थाएँ है, पलायन की व्यवस्थाएँ हैं।

ज्यूँ माटी कूँ कुटै कुँभार। त्यूँ सतगुरु की मार विचार।।

और जब सतगुरु मारे, उठे उसकी तलवार, काटने लगे तुम्हारी गर्दन, तो रज्जब कहते है——सोचना अपने मन में, क्योंकि मन तो भागने को होगा, और मन कहेगा इसलिए थोड़े ही आए थे; आए थे कि थोड़ा ज्ञान हो जाए, आए थे कि थोड़ी शांति हो जाए, आए थे कि थोड़ा सुख हो जाए, आए थे कि थोड़ी संपदा मिल जाए, आए थे कि थोड़ा सम्मान बढ़े, आए थे कि दुनिया में थोड़ा कुछ कर दिखाएँ—नाम छोड़ जाएँ, कुछ हस्ताक्षर बना जाएँ——कोई गर्दन कटाने तो आए नहीं थे। यह क्या होने लगा?

‘ ज्यूँ माटी कूँ कुटै कुँभार ‘। तो रज्जब कहते हैं, जाकर देखना, जैसे कुम्हार माटी को कूटता है, बिना कूटे माटी तैयार नहीं होती; तुम भी माटी हो, अभी माटी से ज्यादा नहीं हो, क्योंकि अभी मृत्यु ही तुम्हारे जीवन की लक्षणा है। हाँ, तुम्हारी माटी में कहीं अमृत भी छिपा है, मगर कूट—कूट कर उसे मुक्त करना होगा। तुम्हारी देह में आत्मा भी दबी पड़ी है, मगर उसके लिए राह बनानी होगी। अभी तो तुम देह—ही—देह हो। अभी तो तुम शरीर—ही—शरीर हो——माटी और कुछ भी नहीं, बस माटी।

‘ ज्यूं माटी कूँ कुटै कुँभार ‘। तो गुरु उठाएगा अपने शस्त्र, कूटना शुरू करेगा, मृत्यु से अमृत को अलग करना है, जड़ से चेतन को अलग करना है, निद्रा से होश को अलग करना है।

ज्यूँ माटी कूँ कुटै कुँभार। त्यूँ सतगुरु की मार विचार।।

सदा ध्यान रखना, जब मार पड़े तो घबड़ा मत जाना। सोचना कि ठीक, कुम्हार के हाथ में पड़ गया हूँ, अब माटी पिटती है, अब कुछ होगा। फेरि—बदल औरे करि लेहि।

निजामे—आलम बदल रहा है, खुदा भी शायद नया बनेगा

नये—नये से हैं सब मुजाविर, नयी—नयी सी हैं खानकाहें

रहे—तलब में जो थक के बैठें, मेरी नजर में वे बुलहविस हैं

रहे—तलब में कयाम कैसा? रहे—तलब में कहाँ पनाहें

जो खोजने चला है, सच में ही खोजने चला है, जो सत्य का खोजी है, सत्यार्थी है, रहे—तलब में कयाम कैसा, फिर वह सोचता नहीं कि दाँव पर क्या लगाना और क्या बचाना। रहे—तलब में कहाँ पनाहें। फिर वह शरण भी नहीं लेता। अपनी गर्दन छिपाता भी नहीं। गुरु बरसता है तो वह छाता नहीं तान लेता। गुरु बरसता है, वह अपने चारों तरफ बचाव के लिए आयोजन नहीं कर लेता, रक्षा का इंतजाम नहीं करता। रहे—तलब में कहाँ पनाहें।

और, ‘रहे—तलब में जो थक के बैठें, मेरी नजर में वे बुलहविस हैं ‘। और जो गुरु के पास आकर जल्दी ही थक जाएँ, उसका मतलब इतना ही है कि अभी संसार से उनका मन मूक्त नहीं हुआ था, अभी संसार में कुछ लगाव बना था, अभी संसार में वासना बनी थी, यूँ ही चले आए थे, कच्चे—कच्चे चले आए थे, अभी पके नहीं थे, अभी परिपक्व नहीं थे; सुन इप्ल—या होगा कि संसार व्यर्थ है, मगर जाना नहीं था, पढ़ लिया होगा कि सब संसार माया है, मगर यह अपनी अनुभूति नहीं थी। ‘ रहे—तलब में जो थक के बैठें ‘, और जो कहें कि बस थक गये, जरा में थक जाएँ, ‘ मेरी नजर में वे बुलहविस हैं ‘। वे वासनाग्रस्त लोग हैं, भूल से आ गये। ‘ रहे—तलब में कयाम कैसा? ‘ विश्राम कैसा? सत्य को खोजने जो चला है, वह दाँव पर लगाता है, कुछ भी बचाता नहीं——रहे—तलब में कहाँ पनाहे? और वह कोई रक्षावरण अपने चारों तरफ खड़ा नहीं करता——न बुद्धि के, न विचार के, न देह के। सब तरह से अपने को खुला छोड़ देता है।

‘ भाव भिन्न कछु औरे होइ ‘। और जब गुरु मारता है, तो यह मत सोचना कि नाराज है। गुरु और नाराज! असंभव। यह मत सोचना कि तुम्हारा अपमान कर रहा है। गुरु और किसीका अपमान करे! असंभव।

‘भाव भिन्न कछु औरे होइ ‘। उसका भाव कुछ और है। कोई कुम्हार मिट्टी को पीट रहा है तो अपमान थोड़े ही कर रहा है, सच में सम्मान कर रहा है। इस मिट्टी को चुना है, कि इस मिट्टी से कुछ मूर्ति बनानी है। और भी मिट्टियाँ थीं बहुत, उनको नहीं कूटा है, नहीं पीटा है, उनको योग्य नहीं समझा है। जब मूर्तिकार एक पत्थर पर छेनी लेकर जुट जाता है तोड्ने, तो पत्थर का अपमान नहीं है, सम्मान है। पत्थर तो बहुत थे दुनियाँ में, इस पत्थर को चुना है, इस पत्थर से भगवत्ता निर्मित होगी, इस पत्थर में कुछ विशिष्टता है।

भाव भिन्न कछु औरे होइ। ताते रे मन मार न जोइ।।

इसलिए मार पर ध्यान मत देना, भाव पर ध्यान देना। गुरु क्या कर रहा है इसका ध्यान ही मत देना, सदा खोजना उसकी आकांक्षा क्या है? और वहाँ तुम सदा अनुकंपा पाओगे। वहाँ तुम सदा करुणा पाओगे। वहाँ तुम सदा प्रेम पाओगे। और जितना ज्यादा प्रेम होगा, गुरु उतना ही कठोर होगा।

जैसा लोहा घडै लुहार। कूटि—काटि करि लैवै सार।।

लोहे जैसे ही कठोर हो तुम, कठिन हो तुम, आग में तुम्हें गलाना होगा, तो ही तुम तरल हो पाओगे। आग में तुम्हें गलाना होगा, तो ही तुम नरम हो पाओगे।

 

जैसा लोहा घडै लुहार। कूट—काटि करि लैवै सार।।

और कूटेगा और काटेगा, तभी सार उत्पन्न हो सकेगा। जैसे तुम हो, ऐसे तो असार हो। अनगढ़ पत्थर हो। कि मिट्टी का ढेर हो। कि लोहा हो।

मारै मारि मिहरि करि लेहि ‘। एक हाथ से मारता है गुरु और जो मार को झेल लेता है, उसी क्षण पाएगा उसकी मेहेर, उसकी अनुकपा की वर्षा भी दूसरे हाथ से हो रही है। मगर उसको ही पता चलेगा जो मार खेल लेगा स्वागत से। जो भाग खड़ा होगा, वह उसकी मेहेर से वंचित रह जाएगा, उसकी अनुकंपा से वंचित रह जाएगा। ‘ मारै मारि मिहरि करि लेहि ‘। ऐसे मारता है, फिर पुचकार लेता है। चोट करता है, फिर सहलाता है। फिर—फिर चोट करेगा। और हर चोट पहली चोट से ज्यादा गहरी होती जाएगी। और हर चोट के बाद, हर गहरी चोट के बाद गहरी अनुकंपा तुम्हें उपलब्ध होने लगेगी। ऊपर से जो देखेगा, उसे कुछ समझ न आएगा। ये भीतर के राज हैं, उनपर ही खुलते हैं जो भीतर प्रवेश करते हैं।

मारै मार मिहरि करि लेहि। तो निपजै फिरि मार न देहि।।

यह मार तब तक चलती रहती है जब तक कि तुम्हारे भीतर का दीया न जल जाए; ज्ञान कोई दृष्टि पैदा न हो जाए, साक्षी का जन्म न हो जाए, सार का आविर्भाव न हो जाए।

‘तो निपजै फिरि मार न देहि ‘। और जब इस दृष्टि का जन्म हो जाता है, फिर कोई मार नहीं है। फिर गुरु तो मारता ही नहीं, फिर मृत्यु भी नहीं मार सकती। फिर मार ही नहीं है, फिर मृत्यु ही नहीं है। फिर अमृत है। मगर उस अमृत के पहले बहुत बार मरना होता है। और धन्यभागी हैं वे जो गुरु के हाथ से बहुत बार मरने को तैयार होते हैं।

ज्यूँ साँटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरंगर पानि।।

जैसे तीर बनानेवाला तीर को सँडूसी से पकड़ता है, हथौड़ी से कूटता है, सीधा करता है। ‘ज्यों साँटी संपुट में आनि, ‘ जैसे तीर को पकड़ लिया हो सँडुसी सै तीरंगर ने, ऐसा गुरु शिष्य को पकड़ ,लेता है। छूटना मुश्किल हो जाता है। भागना मुश्किल हो जाता है। जो पहले ही भाग गये, पकड़ के पहले भाग गये वे भाग गये, जो पकड़ में आ गये, वे नहीं भाग पाते।

ज्यूँ साँटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरंगर पानि।।

तुम्हारे तीर बड़े इरछे—तिरछे हैं। इनसे कोई लक्ष्यभेद नहीं हो सकता। चलाओ कहीं, पहुँचेंगे कहीं। ये सीधैं ही नहीं हैं। तीर को तो सीधा होना चाहिए तो ही लक्ष्य—भेद हो सकता है। तुम्हारी सब चाल इतनी तिरछी है, तुम इतने तिरछे चलते रहे हो जन्मों—जन्मों में कि तुम्हारा कुछ पक्का नहीं, कहो कुछ, करो कुछ, करना कुछ चाहते थे——तुम्हारा कुछ पक्का. नहीं है।

अमरीका का प्रसिद्ध विचारक और लेखक मार्कट्वेन एक सभा से व्याख्यान करके लौटा। उसकी पत्नी ने उसके घर आने पर पूछा——व्याख्यान कैसा रहा? मार्कट्वेन ने पूछा——कौन—सा व्याख्यान? जो मैं देना चाहता था, वह ?या जो मैंने दिया, वह? या अब जो मैं सोचता हूँ जो मुझे देना चाहिए था, वह? कौन—सा व्याख्यान?

आदमी पर्त—दर—पर्त तिरछा है। तुम भी जानते हो। कहते कुछ——मुँह कुछ कहता, आँख कुछ कहती, मुँह से हाँ करते हो, आँख न कहती है, मुँह से न कहते हो, आँख हाँ कहती है; और भीतर कुछ और, भाव कुछ और; न तुम कहे की सुनोगे, न तुम भाव की सुनोगे, करोगे तुम जब तक न—मालृम क्या करोगे? कुछ पक्का नहीं है। आदमी बिल्कुल तिरछा—तिरछा है, सीधा नहीं है। गुरु को इस तीर को सीधा करना होगा। तुम्हारी वाणी, तुम्हारे विचार, तुम्हारे आचरण, तुम्हारे अस्तित्व को एक तारतम्यता देनी होगी, एक सुसंबद्धता देनी होगी, एक संगति देनी होगी। तुम अभी विवादग्रस्त हो। तुम्हारे भीतर बहुत दिशाएँ चल रही हैं। तुम्हारा एक हाथ पश्चिम जा रहा है, एक हाथ पूर्व जा रहा है, एक पैर दक्षिण जा रहा है, एक पैर उत्तर जा रहा है, तुम चारों दिशाओं में चारों धामों की यात्रा पर एक साथ निकल पड़े हो। चारों धाम इकट्ठे कर लेने का इरादा है। तुम कहीं नहीं पहुँचोगे। क्योंकि तुम पहुँच सकते हो तभी जब तुम समग्रीभूत होकर एक दिशा में गति करो।

ज्यूँ सीटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरंगर पानि।।

और कठिनाइयाँ तो होंगी——मिट्टी कूटी जाएगी, लोहा गलाया जाएगा, पत्थर तोड़ा जाएगा, तीर को कूटा जाएगा, पीटा जाएगा, सींखचों में पकड़ा जाएगा।

हमने भी इक सुबह की खातिर

जलते—बुझते रात गुजारी

दुख की धूप में सूख के अक्सर

फलती है जीवन की क्यारी

दुख की धूप में सूख के अक्सर, फलती है जीवन की क्यारी। इस दुख को आनंदभाव से स्वीकार कर लेने का नाम ही तप है। गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है, वही तपश्चर्या है।

‘ मन तोड़न का नाहीं भाव ‘। तुम्हें तोड़ना नहीं चाहता गुरु, तुम्हें बनाना चाहता है। मगर बनाने के लिए तोड़ना पड़ता है।

मन तोड़न का नाहीं भाव। जे तुछ तूटि जाय तौ जाव।।

और जो टूट जाते हों, उनका जिम्मा उन्हीं पर है। वे तुच्छ हैं, निकम्मे हैं, समझे नहीं बात, गुरु का हथौड़ा देखा और भाग खड़े हुए, एकाध चोट खायी और भाग खड़े हुए, इतना भी मौका न दिया कि चोट के बाद मेहेर बरस जाती।

ऐसा रोज यहाँ हो रहा है। क्योंकि यह तो प्रयोगशाला है। यहाँ लोग बनाए— मिटाए जा रहे हैं। यहाँ मिट्टियाँ कूटी जा रही हैं। यहाँ लोहे गलाए जा रहे हैं। यहाँ रोज यह होता है, कोई व्यक्ति जरा—सी बात उसके विपरीत पड़ जाए, एक शब्द उसके विपरीत पड़ जाए, बस फिर दुबारा दिखायी नहीं पड़ता। फिर जो भागा सो भागा। फिर वह लौट कर नहीं देखता। वह यह भी मौका नहीं देता कि जो चोट की गयी थी, उसको सहलाने का समय दे देता। वह इतना भी मौका नहीं देता कि जो मार की गयी थी, उस मार के पीछे जो करुणा की वर्षा होने वाली थी, उसका भी थोड़ा स्वाद ले लेता। बस वह भाग ही जाता है। तुच्छ आदमी धैर्यवान नहीं होता। और ये रास्ते धीरज के रास्ते हैं। जीवन को रूपांतरण करना धीरज की बात है।

‘ जे तुछ तूटि जाय तौ जाव ‘। और अगर कोई टूट जाता हो तो ध्यान रखना, वह अपने ही कारण टूट गया। ‘ मन तोड़न का नाहीं भाव ‘।

शिष्य को तो प्रतीक्षा में होना चाहिए, अनंत धैर्य में होना चाहिए।

इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम

जब कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ

शिष्य. को तो ऐसा होना चाहिए कि कान—ही—कान हो जाए जब गुरु बोले, आँख— ही—आंख हो जाए जब गुरु को देखे, हाथ—ही—हाथ हो जाए जब गुरु का हाथ उसे छूए।

इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम

ऐसी टकटकी लगाकर सुन रहे थे, ऐसा कान हो गये थे——

इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम

जब कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ

इधर फूल भी खिला हो, जरा—सी आवाज हुई हो—फूल के खिलने में कोई बड़ी आवाज नहीं होती——जब कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ, लगा तेरा कोई संदेश आया। ऐसे ही संदेश आते हैं। इतने धैर्य में, इतनी शांति में, इतने अहोभाव में; कली चटकने की तरह ही संदेश आते हैं। हथौड़ों की चोट है और कलियों का चटकना भी है। हथौड़ों की चोट को ही मत देखते रहना, क्योंकि पीछे कली भी चटकनेवाली है। हथौड़े की चोट में ही खो गये, तो चूक गये। अवसर द्वार आया था, भर जाते तुम, सदा के लिए भर जाते, खाली—कें—खाली रह गये।

ज्यूँ कपड़ा दरजी के जाय। टूक—टूक करि लेहि बनाय।।

बनाने के पहले टुकडे—टुकड़े करना जरूरी है। क्यों? क्योंकि तुम गलत ढंग से जुड़ गये हो। तुम्हारे सब अंग गलत ढंग से जुड़ गये हैं। तुम्हारा हाथ वहाँ है जहाँ पैर होना था, तुम्हारा पैर वहाँ है जहाँ सिर होना था, तुम्हारा सिर वहाँ है जहाँ पेट होना था। तुम कहोगे यह भी कोई बात हुई?

जार्ज गुर्जिएफ ने इसका बहुत गहरा विश्लेषण किया है——इस सदी का एक सद्गुरु। उसने लिखा है कि जब किसी आदमी के मस्तिष्क में कामवासना चलती है, तो उसका मतलब हुआ——यौनकेंद्र मस्तिष्क में चला गया। यौनकेंद्र पर कामवासना की ऊर्जा रहे, यह स्वाभाविक। लेकिन मस्तिष्क में चली जाए, यह विकृति। जब कोई आदमी भाव भी खोपड़ी से करने लगता है, तो गड़बड़ हो गयी; भाव हृदय में होना चाहिए, हृदय उसका केंद्र है। तो हृदय और मस्तिष्क मिश्रित हो गये, गड्डमड्ड हो गये, खिचड़ी बन गयी। तुम्हारे सब अंग—प्रत्यंग गलत जुड़ गये हैं।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मेरा विचार है कि मेरे भीतर आपके प्रति श्रद्धा पैदा हो रही है। मैं पूछता हूँ——विचार? श्रद्धा पैदा होती है तो विचार नहीं होता। श्रद्धा का विचार से कोई संबंध नहीं है। श्रद्धा तो विचारातीत है। श्रद्धा में विचार कहाँ? संदेह में विचार होता है, संदेह विचार है, श्रद्धा विचार से मुक्ति हें। इसीलिए तो विचार करनेवाले आदमी को श्रद्धा करने वाला आदमी अंधा मालूम होता है। उसकी बात में बल है। वह कहता है——सब श्रद्धा अंधी होती है, क्योंकि विचार की जगह नहीं है उसमें, तर्क का उपाय नहीं है उसमें। जब कोई कहता है कि मेरा विचार है कि मेरे मन में आपके प्रति श्रद्धा पैदा हो —रही है, तो वह सिर से श्रद्धा कर रहा है जो कि गलत बात है। श्रद्धा का केंद्र वहाँ नहीं है, श्रद्धा का केंद्र हृदय है।

जब तुम किसीके प्रेम में पड़ जाते हो और जब तुम प्रेम की बात करते हो, तुमने ख्याल किया, अचानक ही तुम्हारा हाथ अपने हृदय पर चला जाता है जब तुम प्रेम की बात करते हो। कोई ऐसा नहीं करता कि अपने सिर पर हाथ रखकर कहे—— मुझे तुमसे प्रेम हो गया है’। अगर ऐसा कोई आदमी करे तो क्या होगा? इसका मतलब है कि सब गड़बड़ हो गया। जब प्रेम होता है तो हाथ हृदय पर जाता है, हृदय प्रेम का केंद्र है। तर्क का केंद्र मस्तिष्क है। तुम भीतर बिल्क़ुल गड्डमड्ड हो गये हो। तुम्हारे सब तार गलत—सही जुड़ गये हैं। कुछ—कन् कुछ हो गया है। जैसे यंत्र के अंग—प्रत्यंग गलत जुड़ गये हों।

सब तुम्हारे भीतर है। ऐसा ही समझो कि कार है खड़ी द्वार पर, सब उसके भीतर है, लेकिन चीजें गलत—सलत जुड़ी हैं——जहाँ इंजन होना चाहिए, वहाँ इंजन नहीं है, जहाँ ब्रेक होनी चाहिए, वहाँ ब्रेक नहीं है, वे कहीं और जुड़े हैं; सब अस्त— व्यस्त हो गया है, यह गाड़ी चल नहीं सकती। तुम्हारी भी जीवन की गाड़ी कहाँ चल रही है? तुम्हारी जीवन की गाड़ी शाब्दिक अर्थों में गाड़ी है। यह शब्द सुनते हो? गाड़ी हम बनाये हुए हैं उस चीज के लिए जो चलती है, लेकिन गाड़ी को मतलब होता है——गड़ी; चलने वाली नहीं। तुम्हारी गाड़ी बिल्कुल गड़ी है, सच में गाड़ी है, चलती—वलती नहीं, कहाँ चलना है, कहाँ जाना है, यहीं गड़े—गड़े मर जाना है। लोग वहीं पैदा होते हैं, वहीं मर जाते हैं, इंच भर जीवन में यात्रा नहीं होती—— वही—के—वही मर जाते हैं जैसे आए थे। और सब लेकर आए थे।

तो गुरु तोड़ेगा।

ज्यूँ कपड़ा दरजी के जाय। टूक टूक करि लेहि बनाय।।

पहले काटेगा। जहाँ—जहाँ गलत अग ज्रुडू गये हैं, सब काट देगा। कभी—कभी ऐसा हो जाता है न, तुम गिर पड़े, हड्डी टूट गयी, रिसर हड्डी गलत जुड़ गयी। तो सर्जन को फिर से तोड़नी पड़ती है। फिर ठीक से जोड़नी पड़ती है।

सद्गुरु सर्जन है। और तुम्हारी हड्डियाँ ही गलत नहीं जुड़ी हैं, तुम्हारा सब कुछ गलत जुड़ गया है। क्योंकि तुमने अज्ञान में सब जोड़ लिया है। तुम्हें कुछ पता ही नहीं था क्या कहाँ होना चाहिए। ‘ टूक टूक करि लेहि बनाय ‘। तोड़ने में पीड़ा भी होगी लेकिन।

त्यूँ रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।

लेकिन इसको खेल की तरह लेना। सतगुरु का खेल समझना।

त्यूँ रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब खेल।।

खेल ही समझ कर झेलो तो झेल पाओगे। अगर बहुत गंभीर हो गये, बहुत परेशान हो गये, बहुत बेचैन. हो गये, तो भाग जाओगे। अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई आदमी ऑपरेशन की टेबल से बीच में भाग जात, तो जितनी हालत पहले खराब थी उससे ज्यादा खराब हालत अब हो जाएगी। पहले ही ठीक थे। इसलिए जो लोग अधकचरे धार्मिक हो जाते हैं, उनकी दुर्गति बहुत है, उनकी दुर्दशा बहुत है। या तो ऑपरेशन की टेबल पर ही मत जाना।

मैंने सुना है ऐसा हुआ था। एक नेता जी का ऑपरेशन हुआ। उनका मस्तिष्क निकाल कर चिकित्सक उसको साफ कर रहे थे——नेताओं का मस्तिष्क साफ करने की जरूरत पड़ती ही है। असल में हर साल नेताओं के मस्तिष्क को निकाल कर, साफ—सुथरा करके फिर से रखना चाहिए। वे साफ—सुथरा कर रहे थे, समय लग रहा था साफ—सुथरा करने में——नेता जी का मस्तिष्क, समय लगेगा ही——तभी एक आदमी भागा हुआ भीतर आया और उसने कहा —— नेता जी, नेता जी, आप पड़े यहाँ क्या कर रहे हो? आप प्रधानमंत्री हो गये। वे नेता जी तो उठे और चलने लगे। डाक्टरों ने कहा —— रुको भाई, कहाँ जा रहे हो? आपका मस्तिष्क अभी खोपड़ी के बाहर है। उसने कहा——अब हमें मस्तिष्क की जरूरत ही क्या, प्रधानमंत्री हो गये! अब मस्तिष्क सम्हालकर रखना, अब हमें कोई जरूरत नहीं है।

ऑपरेशन की टेबल से बीच में मत भाग जाना। नहीं तो और दुर्दशा हो जाती है। मेरा भी यह अनुभव है, जिन्होंने कभी ध्यान नहीं किया, वे ही ठीक हैं। लेकिन जो आधा—धूधा ध्यान कर लेते हैं, वे और मुश्किल में पड़ जाते हैं। जिन्होंने कभी योग नहीं किया, वे ही ठीक हैं। जिन्होंने कुछ आधा—धूधा योग कर लिया, वे और मुश्किल में पड़ जाते हैं। पुराना भी सब अस्तव्यस्त हो जाता है, नया जम नहीं पाता, उनके भीतर एक तरह की अराजकता हो जाती है। एक तरह की विक्षिप्तता हो जाती है। और इस दुनिया में ऐसे बहुत—से लोग हैं, जिनकी हालत विक्षिप्त है। बीच से भाग गये है।

सद्गुरु के चरणों में जाओ तो पीछे के सब सेतु तोड़ ही देना, लौटने का उपाय ही मत रखना, सीढ़ी गिरा देना; तो ही यह काम हो पायेगा। और तो ही यह काम अपने सर्वांग सुंदर रूप में हो पाएगा। लेकिन जाते भी हम हैं। और जाते भी हम कहाँ हैं? आधे—आधे जाते हैं। आधे—आधे जाते हैं तो भागने का खतरा है।

मेरे पास लोग आते हैं, परसों ही किसीने पत लिखकर पूछा —— संन्यस्त होना चाहता हूँ, लेकिन अगर गैरिक वस्त्र और माला न पहनूँ तो? तो काहे के लिए संन्यस्त होना चाहते हो!! इतना—सा भी न कर सकोगे——यह भी कोई बड़ा काम है तुम समझ रहे हो? गेरुआ वस्त्र पहन लिया, माला पहन ली, तुम समझ रहे हो कोई बहुत बड़ा काम कर लिया? कोई सात समुद्र लाँघ लिये? कोई गौरीशंकर का पहाड़ चढ़ गये? किसी रंग का कपड़ा तो पहनते ही होगे न! तो गैरिक का पहन लिया! और जरा—सी माला गले में लटका ली, तुम समझे कि सिद्धपुरुष हो गये! मगर यह भी नहीं हो सकता है। इसमें भी शर्त लगा रहे हो कि ऐसे ही संन्यास मिल जाए, यह भी न करना पड़े। और आगे फिर जो करना है, उसका क्या होगा? यह तुम्हारी हालत तो ऐसी है कि ऑपरेशन को आए और बोले कि अगर टेबल पर न लेटना पड़े तो चलेगा? हालाँकि टेबल पर लेटना कोई ऑपरेशन नहीं है, टेबल पर लेटने से ही कोई सब कुछ नहीं हो गया, मगर जो आदमी टेबल पर लेटने को ही राजी नहीं है, इसका ऑपरेशन कैसे करोगे?

ये तो केवल’ स्वीकृति की सूचनाएँ हैं कि हम राजी हैं, हमें भरोसा है। यह सिर्फ इंगित हैं।

मगर आदमी अधूरा है। और अधूरेपन के भाव को छिपा भी नहीं पाता, वह प्रगट हो जाता है——किसी—न—किसी रूप में प्रगट हो जाता है। रोज मैं अनुभव करता हूँ, लोग मेरे पास आते हैं, हजारों लोग मेरे संपर्क में आए हैं, देखता हूँ उनको, कोई चरण में भी झुकता है तो दोनों बातें एकसाथ दिखायी पड़ती हैं—एक हिस्सा झुकना चाह रहा है, एक नहीं झुकना चाह रहा है। झुकना भी चाहता है, नहीं भी झुकना चाहता। वह जो नहीं झुकना चाहता, वह भी प्रगट है, वह भी जाहिर है।

ऐसा हुआ कि एक नेता जी को किसी आदमी ने होटल में उल्लू का पट्ठा कह दिया। नाराज हो गये, मानहानि का मुकदमा चला दिया। मुल्ला नसरुद्दीन को अपनी गवाही में ले गये। जिस आदमी ने उनको उल्लू का पट्ठा कहा था, उसने कहा कि मैंने किसीका नाम नहीं लिया और वहाँ तो कम—से—कम पचास आदमी थे, तो यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि मैने नेता जी को ही उल्लू का पट्ठा कहा? मैंने किसीका नाम लिया ही नहीं। मैने तो सिर्फ इतना ही कहा था कि देखो, ये उल्लू के पट्ठे! वहाँ तो पचास आदमी थे।

मजिस्ट्रेट को भी बात तो जमी। उसने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि तुम गवाह हो, तुम कहते हो कि इस आदमी ने नेता जी को उल्लू का पट्ठा कहा था? नसरुद्दीन ने कहा——निश्चित इसने नेता जी को उल्लू का पट्ठा कहा था। लेकिन मजिस्ट्रेट ने कहा——यह आदमी कहता है वहाँ पचास आदमी थे और इसने नाम किसीका लिया नहीं, तुम्हें कैसे निश्चयपूर्वक यह भरोसा है कि इसने नेता जी को ही उल्लू का पट्ठा कहा? नसरुद्दीन ने कहा —— वहाँ नेता जी को छोड्कर उल्लू का पट्ठा कोई था ही नहीं। ये अकेले उल्लू के पट्ठे वहाँ थे। इसलिए हमें पक्का भरोसा है इसने नेता जी को ही कहा है।

छिपे भाव प्रगट हो जाते हैं। कहाँ तक बचाओगे? कैसे बचाओगे? तुम्हारे अंतरतम में जो पड़ा है, वह आज नहीं कल बाहर आ जाता है।

ध्यान रखना, सद्गुरु से संबंध जोड़ो तो पूरा—पूरा जोड़ना, कहीं भीतर कुछ दबा मत लेना। कुछ दबाने की जरूरत हो तो अभी रुकना, अभी समय नहीं आया, अभी ऋतु नहीं आयी, थोड़ी और प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा कर लेना बेहतर है, लेकिन बीच से भाग जाना खतरनाक है। क्योंकि बीच से जो भाग गया, उसकी जिंदगी फिर कभी सुव्यवस्यित न हो पाएगी। पहले की जिंदगी तो मिलेगी ही नहीं——वह तो गयी——और जो मिलनेवाली थी, जिसकी आशा में पहली को गँवा दिया, उसकी अब कोई संभावना न रही। क्योंकि वह सद्गुरु के द्वारा ही मिल सकती थी। ऐसा समझो कि कपड़ा दर्जी ने काटा और तभी कपड़ा भाग गया। अब इस कपड़े की क्या गति होगी, तुम सोचो! इससे पहले ही ठीक थे, कम—से—कम थोक थान में तो थे, इकट्ठे तो थे। अब यह चिंदी—चिंदी हो गया। थोड़ा रुको। इसमें रूप आने दो, रंग आने दो, आकृति उभरने दो।

त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब खेल।।

इसको खेल ही समझना। तो ही झेल पाओगे। गंभीरता से ले लिया, तो जरा—सी बात चोट कर जाएगी। क्यों? क्योंकि गंभीरता वस्तुत: अहंकार की ही छाया है। यह मैं तुमसे कहूँ, यह तुम ठीक से ख्याल में पकड़ो——गंभीरता अहंकार का ही एक रूप है। निर—अहंकार सरल होता है, छोटे बच्चे—जैसा होता है, सब चीज खेल—खेल में ले लेता है। और खेल—खेल में लो तो हल्का है सब, सरलता से हो जाएगा। दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।

शाब्दिक अर्थों में भी यह सच है। दूल्हा अपना मौर उतार कर रख दिया था और चरण नह लिये थे दादू के, उनको सिरमौर बना लिया था; दुल्हन को लेने जा रहा था, दुल्हन की तो फिक्र छोड़ दी थी और असली दुल्हन की तलाश में लग गया था, प्रेम की खोज थी, लेकिन गलत दिशा में बहा जाता था दादू की आँख मिली और असली प्रेम फलित हो गया। दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर। यूँ जुज्बे—जिदगो हुई जाती है तेरी. याद

जैसे कोई शराब मिला दे शराब में

ऐसा मिल जाना चाहिए शिष्य को गुरु से कि जरा फासला न रहे——जैसे कोई शराब मिला दे शराब में——जरा—सा भी फासला न रहे। शराब और पानी में भी मिलाओ तो थोड़ा—सा फासला रह जाता है।

यूँ जुज्बे—जिदगी हुई जाती है तेरी याद

गुरु की याद ऐसी बैठ जानी चाहित्——

जैसे कोई शराब मिला दे शराब में

फिर घटनाएँ घटनी शुरू होती हैं——त्वरा से, तीव्रता से; छलाँगें लगनी शुरू होती हैं, इंच—इंच कदम नहीं उठते, मील—मील कदम उठ जाते हैं।

जन रज्जब उनकी दया, पायी निहचल ठौर।।

और उनकी दया से वह जगह मिल गयी, जहाँ से कोई भी नहीं डिगा सकता, मौत भी नहीं डिगा सकती। जिसको कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की अवस्था कहा है——पायी निश्चल ठौर। जैसे दीया जले और हवा का कोई झोंका उसे कँपा न सके, अकं—प हो। जन रज्जब उनकी दया, पायी निहचल ठौर।।

और रज्जब कहते हैं, अपने कुछ सामर्थ्य से नहीं, उनकी कृपा से। सभी शिष्यों का यही अनुभव है, अपने प्रयास से नहीं होती क्रांति, उनके प्रसाद से।

रज्जब कूँ अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।

याद करो दादू के वे वचन जो घोड़े पर सवार रज्जब से उन्होंने’ कहे थे—

रज्जब तैं गज्जब किया

घोड़े पर सवार रज्जब जा रहा है, बारात निकली है, दूल्हा बना है बीज में रोक कर घोड़े को दादू ने कहा था——

 

गुरु की याद में रंग भी बहुत, नूर भी बहुत

रज्जब तैं गज्जब किया, सिर पर बाँधा मौर।

आए थे हरिभजन कूँ, चले नरक की ठौर।।

यह तूने क्या किया? उसका जवाब दे रहे हैँ रज्जब——

रज्जब को अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातरि।

अज्जब का अर्थ होता है——अलौकिक। यहाँ है मौर यहाँ का नहीं। संसार में है और संसार का नहीं। लोक में है और अलौकिक। कुछ पार का है। और जिसमें तुम्हें पार की झलक मिले, वही तो गुरु है। उसीके चरण में झुकना। जहाँ से तुम्हें कोई किरण दिखायी पड़े, जो बहुत दूर से आ रही है, जिसके स्रोत का भी तुम्हें अनुमान नहो सके। जिसकी आँख में झाँको तो ऐसा सागर दिखायी पड़े किजिसका कोई किनारा न मिले।

रज्जब कूँ अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।

सद्गुरु देता है, अकारण देता है, इसलिए उसको दातार कहा है। उसे’ उत्तर में कुछ भी मिलने वाला नहीं है। तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं जो तुम उसे दे सको। कोई कीमत भी नहीं है जो चुकायौ जा सके। कोई मूल्य भी नहीं है जिससे तुम खरीद सको।

रज्जब कूँ अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।

दुख दरिद्र तब का गया

तब का। उसी क्षण चला गया। तत छन चला गया। जिस क्षण आँख मिल गयी गुरु से, दुख दरिद्र तब का गया, ऐसा नत्दुएाईं कि फिर धीरे—धीरे गया, उसी क्षण चला गया। ‘ सुख संपत्ति अपार ‘, और सुख की संपत्ति मिली।

अब ख्याल रखना, इसकी व्याख्या करनेवालों ने यही अनुवाद कर दिया है संपत्ति का——धन। संपत्ति का मतलब धन नहीं होता। साधुओं की भाषा में नहीं होता। साधुओं के वचन हैं, यहाँ तुम सांसारिक अर्थ मत कर लेना।

संपत्ति बड़ा प्यारा शब्द है। इस शब्द को ठीक से समझना हो, तो तुम्हें बहुत से शब्दों का ख्याल करना पड़ेगा। समाधि, समाधान, संबोधि, सम्यक्त्व, सम्पत्ति, ये सब एक ही धातु से बने हैं——सम। सम का मतलब है, जो ठहर गया, जिसके लिए सब समान हो गया, सुख और दुख बराबर हो गये, सफलता—विफलता बराबर हो गयी, जीवन और मृत्यु समतौल हो गये। सम्पत्ति का: अर्थ, समाधि। सम्पत्ति का अर्थ, सम्यक्त्व। सम्पत्ति का अर्थ, समाधान। सम्पत्ति का अर्थ, समता, सम्बोधि। सम्पत्ति का अर्थ, सम्पदा। पर सब के भीतर ख्याल रखना एक ही शब्द है——सम। जिसको तुम सम्पत्ति कहते हो, वह तो विपत्ति है, उसको सम्पत्ति कहना ही नहीं चाहिए। वहां कहाँ समता है? वहाँ कहाँ सम्यक्त्व है? वहाँ कहाँ जीवन की शांति

है? जिसको तुम सम्पदा कहते हो, उसको विपदा कहनी चाहिए। तुम विपदा को सम्पदा कहते हो और विपत्ति को सम्पत्ति कहते हो। वही तुम्हारी भ्रांति है।

इसलिए इस वचन का ऐसा अर्थ मत कर लेना कि एकदम छप्पर टूट गये और वर्षा हो गयी मोहरों की। छप्पर टूटे जरूर, मगर यह छप्पर नहीं, और छप्पर। और मोहरें भी बरसी जरूर, मगर वे मोहरें नहीं जो सरकारी टकसालों में ढाली जाती हैं, मगर वे मोहरें जो अनंत से उतरती हैं, शाश्वत से उतरती हैं, जो परमात्मा की टकसाल में ढाली जाती हैं।

दुख दरिद्र तब का गया, सुख संपत्ति अपार।।

रज्जब नर—नारी सकल चकवा चकवी जोड़—

यह बड़ा प्यारा वचन है

गुरु बैन बिच रैन में, किया दुहूँ घर फोड़।।

रज्जब कह रहे हैं कि नर नारी सकल चकवा चकवी जोड़। सारी प्रकृति दो में बँटी हैं—स्त्री और पुरुष। स्त्री पुरुष में आकर्षित है, पुरुष स्त्री में आकर्षित है। इसी आकर्षण में परमात्मा चूका जा रहा है। इसी आकर्षण में वस्तुत: जिसे खोजना चाहिए, उसकी खोज नहीं हो पाती। और इस आकर्षण से कुछ मिलता नहीं है। स्त्री को पुरुष मिल जाता है, पुरुष को स्वी मिल जाती है, लेकिन मिलता कुछ भी नहीं। हाथ कुछ नहीं आता। सब सपना है।

रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।

यह सारी—की—सारी संसार की जो व्यवस्था है, यह एक को दो में तोड़कर की गयी है। एक को दो हिस्सों में तोड़ दिया गया है। वे दोनों एक—दूसरे से मिलना चाहते हैं, मिलने को आतुर हैं, मिल नहीं पाते। मिलन हो भी जाता है तब भी मिलन नहीं होता। यही तो प्रेमियों का कष्ट है कि कितने ही पास आ जाएँ फिर भी दूरी बनी रहती है। और कितने ही कितने मिल जाएँ, फिर भी मिलन कहाँ होता है? मिल— मिल कर छूटना हो जाता है। पास आ—आ कर दूर हो जाते हैं। विवाह हो—होकर तलाक हो जाते हैं। क्षणभर को सुख. मिलता है और तत्क्षण दुख की वर्षा हो जाती है। जरा प्रेम और फिर घृणा। यह द्वंद्व चलता रहता है, क्योंकि इस द्वंद्व के नीचे मूल द्वंद्व है——नर नारी सकल चकवा चकवी जोड़——विपरीत का द्वंद्व’ है।

पुरुष—स्त्री, ये दो विपरीतताछुँ हैं। जैसे ऋण और धन विद्युत। दोनों एक—दूसरे से आकर्षित हो रहे हैं, और विकर्षित भी। पास भी आना चाहते हैं और दूर भी हट रहे हैं। संसार द्वंद्व है। द्वंद्व को दो हिस्सों में तोड़ा जा सकता है—नर नारी। चीन में इस विचार को बहुत गहनता तक ले जाया गया हे——यिन यांग। ताओवादी परंपरा में इस विचार पर बहुत खोज की गयी है कि सारा अस्तित्व द्वद्व में बँटा है। और जब तक आदमी इस द्वद्व में ही उलझा रहता है, तब तक कोई निस्तार नहीं है, कोई छुटकारा नहीं है। एक स्त्री से मन ऊब जाता है, फिर टूसरी स्त्री में अटक जाता है। एक पुरुष से मन ऊब जाता है, फिर दूसरे पुरुष में अटक जाता है। यह अंतद्रुनि प्रक्रिया है। तुम्हें दुनिया के सारे पुरुष मिल जाएँ और सारी स्त्रियाँ, तो भी तुम तृप्त न हो सकोगे।

ज्या पाल सार्त्र का एक पात्र उसके एक नाटक में कहता है कि मुझे अगर दुनिया की सारी स्त्रियाँ मिल जाएँ तो भी मैं तृप्त न हो सकूँगा। तुम भी जरा सोचना—— तृप्त हो सकोगे सारी स्त्रियाँ मिल जाएँ तो? तत्क्षण तुम पाओगे कि नहीं, कुछ फिर भी खाली रहेगा। यह पात्र भरता नहीं, जब तक परमात्मा से न भरा जाए। यह विपरीत से नहीं भरता, यह बाहर दूसरे से नहीं भरता, इसकी खोज तो अंतरतम में करनी होती है।

रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।

गुरु—बैन बिच रैन में

और बीच आधी रात में, जबकि मिलन होने ही होने को था, ऐसा लगता था अब हुआ, तब हुआ.. .और ठीक ही कह रहा है रज्जब, बारात जा रही थी, अभी मिलन हुआ, अभी हुआ, अभी सुख की वर्षा होने को है, और उस बीच गुरु आ गया। ‘ गुरु बैन बिच रैन में ‘.. .आधी रात. .’ किया दुहूँ घर फोड़ ‘, दोनों घर गिरा दिये। न स्ही की तरह बचने दिया मुझे, न पुरुष की तरह बचने दिया मुझे। द्वंद्व गिरा दिया। दोनों घर गिरा दिये। मुझे निर्द्वंद्व में पहुँचा दिया। द्वैत मिटा दिया, मुझे अद्वैत में पहुँचा दिया। इसीकी तलाश थी। स्त्री के माध्यम से इसी अद्वैत की तलाश हो रही है।

क्या खोजते हो तुम स्त्री के माध्यम से? किसीके साथ एक होना हो जाए। पुरुष के माध्यम से क्या खोजते हो? एक ऐसा क्षण मिल जाए जहाँ हम अस्तित्व के साथ लीन हो गये।

यूँ जज्बे—जिंदगी हूई जाती है तेरी याद

जैसे कोई शराब मिला दे शराब में

यही खोज रहे हो। मगर यह होता नहीं। इस तरह तो नहीं होता। बड़ी उलटी प्रक्रिया से होता है। अपने भीतर जाने से मिलना होता है, अपने बाहर जाने से दूरी बढ़ती जाती है। क्योंकि तुम्हारे भीतर अंतरतम में बैठा है परमात्मा। एक विराजमान है तुम्हारे भीतर। बाहर तो दो है। बाहर तो होने ही वाला दो——मैं और तू। भीतर सिर्फ एक है। और जितने तुम भीतर जाओगे, उतने ही तुम पाओगे उसका रूप मैं का रूप नहीं है, क्योंकि मैं के लिये तो तू की जरूरत है। जैसे—जैसे भीतर जाओग वैसे—वैसे पाओगे न तू रहा, न मैं रहा। जहाँ मैं भी मिट गयी, तू भी मिट गयी, जहाँ मैं—तू मिट गयी, वहाँ तत्क्षण उस एक का अनुभव हो जाता है जिसको हम खोज रहे हैं जन्मों—जन्मों से; जिसके लिए यात्रा चल रही है।

‘…….किया दुहूँ घर फोड़ ‘।।

कौन—से दो घर फोड़ दिये? मैं और तू के घर फोड़ दिये। मिटा दिया पूरुष—स्त्नी का भाव।

गुरु दीरघ गोबिंद सूँ, सारै सिष्य सुकाज।

शिष्य जो भी माँगता था, खोजता था, सब गुरु की छाया में पूरा हो जाता है। सारै सिष्य सुकाज। सब हो जाता है। जो कर—कर के नहीं हुआ था, वह सिर्फ गुरु की मौजूदगी में हो जाता है। गुरु दीरघ गोबिंद सूँ। क्योंकि गुरु गोविंद से जुड़े हैं। तुम्हें गोविंद से तो जुड़ना मुश्किल है, क्योंकि तुम्हारी गोविद से अभी कोई पहचान नहीं, लेकिन गुरु से जुड़ सकते हो। गुरु से जुड़ते ही तुम भी गोविंद से जुड़ गये। रज्जब मक्का बड़ा परि पहुँचै बैठि जहाज।।

बहुत दूर है मक्का, मगर बैठ गये जहाज में तो पहुँच गये। परमात्मा बहुत दूर है, मगर बैठ गये गुरु की नाव में तो पहुँच गये। सारै सिष्य सुकाज।

कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निकामी होइ।

रज्जब मिलि रीता रह्या, मदभागी सिष जोइ।।

अगर तुम रीते रह जाओ गुरु को पाकर, तो तुम्हीं जिम्मेवार हो। तुम्हारी जिम्मे— वारी कहाँ है? कि तुम निकम्मे थे। गुरु ने जो कहा, तुमने किया नहीं। गुरु ने जहाँ चलाया, तुम चले नहीं। तुम निकम्मे थे।

‘ कामधेनु गुरु क्या कहै ‘। गुरु तो कामधेनु है, तुम्हें जो चाहा था सब होनेवाला था, मगर तुम चले नहीं, उठे नहीं, सुना नहीं, गुना नहीं। तुम आलसी ही बने रहे। तुम अपनी तंद्रा में ही पड़े रहे।

कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निकामी होइ।

तो गुरु कहता रहता है, कहता रहता है, कहता रहता है, शिष्य अपनी अकर्मण्यता में, अपनी निद्रा में सुनता रहता, सुनता रहता——सुनता ही नहीं। जोड़ बनता नहीं, क्रांति घटती नहीं, आग जलती नहीं।

रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ।।

रज्जब कहते हैं अगर कोई रीता रह जाए गुरु के पास जाकर, तो मदभागी है, अभागी है। लेकिन बड़ा उल्टा मामला है। अगर तुम गुरु के पास जाकर रीते रह जाओ, तो कहोगे यह गुरु किसी काम का नहीं। हम रीते रह गये, साफ है कि इस गुरु के पास कुछ है नहीं, नहीं तो हमको मिल जाता। तुम यह नहीं सोचते——जो कि सोचना चाहिए——कि कहीं ऐसा तो नहीं है किं मेरी मटकी ही उल्टी रखी, गुरु बरस रहा है और मैं भर नहीं पाता। या मेरी मटकी फूटी है। भर भी जाता है तो सब बिखर जाता है। या मेरी मटकी गंदी है। मेघ से वर्षा होती है स्वच्छ और मेरी मटकी में आते—आते सब गंदगी हो जाती है, सब नाली का कीचड़ मच जाता

मटकी साफ करो। थोड़ा कृत्य तो करना पड़े मटकी साफ करने में। थोड़ी अकर्मण्यता छोड़ा। मटकी में छेदछाद हों, उन्हें भरो। मटकी उल्टी पड़ी हो, उसे सीधा करो। बस ये तीन काम तुम कर लो, भर जाओगे, निश्चित भर जाओगे। फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में

इस तरह आयी रंगोनूर लिये

जैसे एक सीमपोश दोशीजा

मकबरे में जला रही हो दिये

तुम खुलो तो परमात्मा उतरे। तुम गुरु के लिए खुलो तो गुरु तो उतरे—ही—उतरे, उसके साथ परमात्मा उतर आए। उसके सहारे तुम परमात्मा तक पहुँच जाओ, परमात्मा तुम तक पहुँच जाए।

फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में

इस तरह आयी रंगोनूर लिये

जरा खुलो, तो रंग भी बदूत है गुरु की याद में और नूर भी बहुत है। रोशनी भी बहुत, उत्सव भी बहुत। फूलों के सब रंग हैं वहाँ, प्रकाश के सब ढंग हैं वहाँ। फिर तेरी याद दिल की जुल्मत’ में

——और तुम्हारा दिल बिल्कुल अंधकार है, अमावस है——

इस तरह आयी रंगोनूर लिये

जैसे एक सीमपोश दोशीजा

——जैसे कोई सफेद वस्त्र पहने हुए एक क्वाँरी——

मकबरे में जला रही हो दिये

ऐसी पवित्र क्वाँरी, सफेद कपड़ों में कोई स्त्री मकबरे में दीया जला रही हो, ऐसी ही तुम्हारे भीतर एक पवित्र गंगा बह जाती है। एक क्वाँरी गंगा बह जाती है। अछूते जगत से स्पर्श होता हैं।

पर तैयारी दिखाओ। मिटने की तैयारी चाहिए। मिटे बिना न कोई कभी हुआ है, न हो सकता है। धन्यभागी हैं वे जो गुरु के पास मिटने को तैयार हैं, क्योंकि सारे जगत का आनंद उनका होगा। इस जगत के सारे उत्सव उनके होंगे। उनकी अमावस समाप्त हो जाएगी। और उनके जीवन में पूर्णिमा का उदय होगा। पूरा चाँद तुम्हारा है, इरा आकाश तुम्हारा है, लेकिन हकदार तुम तभी हो पाओगे जब तुम अपने अहंकार से बिल्कुल खाली हो जाओ। उस अहंकार को चढ़ा देने का नाम ही शिष्यत्व है।

आज इतना ही।

 

 


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आनंद यांग–(दि बिलिव्ड)–(प्रवचन–06)

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अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है—(प्रवचन—छट्ठवां)

दिनांक 15 जूलाई, 1976;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रशनसार—

पहला प्रश्न:

मुझे कैसे प्रार्थना करनी चाहिए? मैं प्रार्थना करने में जो कुछ अनुभव करता है, मैं नहीं जानता कि अपने इस प्रेम की मैं किस तरह ठीक से अभिव्यक्त करूं?

 प्रार्थना कोई विधि नहीं है, वह कोई संस्कार नहीं है, और न वह कोई औपचारिकता है। यह हृदय का सहज स्वाभाविक उमड़ता उद्रेक है, इसलिए यह पूछो ही मत—कैसे? क्योंकि यहां कैसे जैसा कुछ है ही नहीं, और ‘ न कैसे जैसा ‘ कुछ हो भी सकता है। जिस क्षण जो कुछ घटता है, वही ठीक है। यदि आंसू उमड़ते हैं तो अच्छा है। यदि तुम कोई गीत गाने लगते हो तो यह भी ठीक है। यदि तुम नाचने लगते हो, तो भी ठीक है। यदि अंदर से कुछ भी नहीं आ रहा है और तुम बस शांत खड़े रहते हो, तो यह भी ठीक है। क्योंकि प्रार्थना, कोई अभिव्यक्ति नहीं है, वह किसी खोल या आवरण में नहीं है, वह उस खोल या आवरण में बंद उस सारभूत तत्व में है।

कभी मौन ही प्रार्थनापूर्ण होता है, तो कभी गीत गाना प्रार्थना बन जाता है। यह सभी कुछ तुम पर और तुम्हारे हृदय पर निर्भर करता है। इसलिए यदि मैं तुमसे गीत गाने के लिए कहता हूं और तुम गीत इसलिए गाते हो क्योंकि ऐसा करने के लिए मैंने तुमसे कहा था, तब वह प्रार्थना शुरू से ही नकली और झूठी है। अपने हृदय की सुनो, उस क्षण को महसूस करो और उसे होने दो। और फिर जो कुछ भी होता है, वह ठीक ही होता है।

तुम्हारे साथ कभी कुछ भी नहीं घटेगा, लेकिन वह तो निरंतर घट ही रहा है, तुम उसे घटने की अनुमति तो दो, उस पर तुम अपनी इच्छा मत लादो। जब तुम पूछते हो—कैसे? तो तुम अपनी चाह थोपने की कोशिश कर रहे हो, तुम कोई योजना बनाने की कोशिश कर रहे हो। इसी तरह तुम प्रार्थना से चूक जाते हो। इसी कारण सभी धर्मस्थल और धर्म, संस्कार और कर्मकांड बन कर रह गए हैं। उनकी एक तय की गई निश्चित प्रार्थना है, उसका एक निश्चित रूप है, एक अधिकृत और स्वीकृत किया गया अनूदित वर्णन है। लेकिन कोई भी व्यक्ति कैसे प्रार्थना की शब्दावली को स्वीकृति प्रदान कर सकता है? कोई भी व्यक्ति कैसे उसका अधिकृत वर्णन तैयार कर तुम्हें दे सकता है? प्रार्थना तो तुम्हारे अंदर से उठती और उमगती है, और प्रत्येक क्षण में उसकी अपनी प्रार्थना होती है, और प्रत्येक चित्तवृत्ति में उसकी अपनी निजी प्रार्थना होती है। यह कोई भी नहीं जानता कि तुम्हारे आतरिक संसार में कल सुबह क्या घटने जा रहा है? उसे कैसे निश्चित और तय किया जा सकता है?

एक पहले से तैयार की गई प्रार्थना झूठी और नकली प्रार्थना है; यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है। एक निर्धारित विधि से तैयार संस्कारित प्रार्थना, प्रार्थना ही नहीं है उसके बाबत यह पूरी तौर से निश्चित रूप से कहा जा सकता है। एक असंस्कारित, सहज स्वाभाविक भाव भरी मुद्रा और कुछ भी नहीं, एक प्रार्थना ही है।

कभी तुम बहुत उदासी का अनुभव कर सकते हो, क्योंकि उदासी परमात्मा से ही सम्बंधित है। उदासी भी दिव्य होती है। यहां हमेशा प्रसन्न रहना भी कोई जरूरी नहीं है। तब यह उदासी ही तुम्हारी प्रार्थना है। तब तुम अपने हृदय को रोने और बिलखने दो, और आंखों को आंसू बरसाने दो। तब इस उदासी को ही परमात्मा की अर्पित कर दो। वहां तुम्हारे हृदय में जो कुछ भी हो, उसे ही उन दिव्य चरणों में अर्पित कर दो—वह प्रसन्नता हो अथवा उदासी, और कभी—कभी वह क्रोध या आक्रोश भी हो सकता है।

जब कभी कोई परमात्मा से नाराज भी हो सकता है। यदि तुम परमात्मा से नाराज नहीं हो सकते, तो तुमने प्रेम को जाना ही नहीं। जब कभी कोई वास्तव में एक गहरे उन्माद में हो सकता है। तब अपने क्रोध को ही अपनी प्रार्थना बन जाने दो। परमात्मा से लड़ो—वह तुम्हारा है और तुम उसके हो, और प्रेम कोई औपचारिकता नहीं जानता। प्रेम में सभी तरह के संघर्ष बने रह सकते हैं। यदि उसमें लड़ाई और संघर्ष का अस्तित्व न हो, तब वह प्रेम है ही नहीं। इसलिए जब कभी तुम्हें प्रार्थना करने जैसा कुछ भी अनुभव न हो, तो तुम उसे ही अपनी प्रार्थना बना लो। तुम परमात्मा से कहो—’‘ जरा ठहरो! देखो, मेरा मूड ठीक नहीं है, और तुम जिस तरह से यह सब कुछ कर रहे हो, यह कृत्य तुम्हारी प्रार्थना करने योग्य नहीं है।’’

लेकिन तुम इसे अपने हृदय का सहज स्वाभाविक भावोद्वेग बनने दो

परमात्मा के साथ कभी भी अप्रामाणिक बनकर मत रहो, क्योंकि यह तरीका उसके साथ अस्तित्व में बने रहने का नहीं है। यदि तुम परमात्मा के साथ ईमानदार नहीं हो—यदि गहरे में तो तुम शिकायत कर रहे हो और ऊपर ही ऊपर प्रार्थना कर रहे हो? तब परमात्मा तुम्हारी शिकायत की ओर ही देखेगा, प्रार्थना की ओर नहीं। तुम झूठे बन जाओगे। वह सीधे तुम्हारे हृदय में देख सकता है। तुम किसे धोखा देने अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?

की कोशिश कर रहे हो? तुम्हारे चेहरे की मुस्कान परमात्मा को धोखा नहीं दे सकती, तुम्हारा वास्तविक सत्य वह जान ही लेगा। केवल वही तुम्हारे सत्य को जान सकता है, उसके सामने झूठ ठहरता ही नहीं। इसलिए वहां सत्य को ही बने रहने दो। तुम उसे केवल अपना सत्य ही भेंट करो और कहो— आज मैं तुमसे नाराज हूं तुम्हारे इस संसार से नाराज हूं तुम्हारे द्वारा दिए इस जीवन से नाराज हूं। मैं तुमसे घृणा करता हूं। और मैं तुम्हारी प्रार्थना भी नहीं कर सकता, इसलिए तुम्हें आज मेरी प्रार्थना के बिना ही रहना होगा। मैंने अब तक बहुत सहा है, अब तुम सहो।

उससे इसी तरह बात करो जैसे कोई अपने प्रेमी या मित्र या मां के साथ बातचीत करता है। उससे ऐसे बात करो जैसे कोई छोटे बच्चे के साथ बात सकता है। मैं एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था, और वहां मां ने अपने छोटे बच्चे को प्रार्थना करने का आदेश दिया। वह बच्चा अभी सोने के लिए बिस्तरे पर जाने के लिए तैयार नहीं था और वह कुछ देर और मेरे पास रहना चाहता था। उसकी प्रार्थना करने में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन वह परिवार बहुत अधिक अनुशासन प्रेमी था इसलिए उन्होंने उससे कहा—’‘ अब नौ बज गये हैं। तुम सोने के लिए जाओ, और देखो, प्रार्थना करना भूल मत जाना।’’

मैं देख सकता था कि वह बहुत नाराज था। वह अपने कमरे में गया। मैंने केवल यह सुनने के लिए ही, कि वह कैसी प्रार्थना करने जा रहा है, उसका चुपके से पीछा गया। अंधेरे में मैंने उसे यह कहते हुए सुना—’‘ हे परमात्मा तू बुरे लोगों को अच्छा बना और अच्छे लोगों को बहुत अच्छा ”। वह जानता था कि उसके माता और पिता अच्छे तो हैं लेकिन वे बहुत अधिक अच्छे नहीं हैं।

मैंने एक अन्य दूसरे बच्चे के बारे में भी सुना है। मैं एक परिवार के साथ एक अतिथि गृह में ठहरा हुआ था। पहली रात बच्चे ने प्रार्थना की। वह बच्चा सोते हुए हमेशा मद्धिम प्रकाश जलाये रखता था, लेकिन उस रात बिजली चले जाने से गहन अंधकार था। उसके प्रार्थना प्रारम्भ करते ही बिजली चली गई थी। वह बिस्तरे से उठकर अपनी मां से बोला—’‘ अब मुझे फिर से और अधिक सावधानी से प्रार्थना करनी होगी क्योंकि रात और अधिक अंधेरी होती जा रही है।’’ पहले तो उसने कामचलाऊ औपचारिक प्रार्थना की थी, लेकिन अब चूंकि रात अंधरी हो गई थी और वहां कोई प्रकाश भी न था, इसलिए वह अधिक भयभीत था। उसने कहा— ” मुझे अब फिर से प्रार्थना करनी होगी। मुझे फिर बिस्तरे से उठकर कहीं अधिक सावधानी से प्रार्थना करनी होगी क्योंकि अब यहां कहीं अधिक खतरा है।’’

एक बच्चे बनकर ही बच्चों की प्रार्थनाएं सुनो।

सभी धर्म कहते हैं कि परमात्मा परमपिता है। वास्तव में जोर इस बात पर होना चाहिए कि मनुष्य एक बच्चे की भांति है। जब हम परमात्मा को परमपिता कहते हैं तो उसका असली अर्थ यही है। लेकिन हम लोग यह भूल गए है— परमात्मा परमपिता है, लेकिन हम लोग उसके बच्चे नहीं हैं। इसे भूल जाओ कि वह तुम्हारा पिता है अथवा नहीं, तुम बस एक छोटे बच्चे की भांति हो जाओ—सहज, स्वाभाविक सच्चे और प्रामाणिक। मुझसे या किसी दूसरे से भी यह पूछो ही मत कि प्रार्थना कैसे की जाये? क्षण को ही यह तय करने दो, यह क्षण ही निर्णायक होगा और उस क्षण का सत्य ही तुम्हारी प्रार्थना होनी चाहिए।

यही मेरा उत्तर है उस क्षण का सत्य, वह चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, बिना शर्त तुम्हारी प्रार्थना बन जाना चाहिए। और एक बार उस क्षण का सत्य तुम्हारी सम्पत्ति बन जाता है, तुम विकसित होना शुरू हो जाओगे और तुम तभी प्रार्थना के अतुलित सौंदर्य को जानोगे। तुम पथ में प्रविष्ट हो चुके हो। लेकिन यदि तुम केवल एक ही प्रार्थना एक ही विधि से दोहराते चले जाओगे तब तुम चूक जाओगे। तुम पथ में कभी प्रविष्ट ही न हो सकोगे, और तुम केवल उससे बाहर ही बने रहोगे।

 

दूसरा प्रश्न:

प्यारे भगवान! आपके बुद्धत्व को चुराने के लिए मैं निरंतर प्रार्थनाएं किए चले जाता हूं! भगवान, कृपा करके कम से कम मुझे आशीर्वाद दें जिससे मेरी प्रार्थना कहीं अधिक सघन और जीवंत हो जाये।

 

ह बहुत सुंदर है। एक शिष्य को अपने सद्गुरु से बहुत कुछ चुराना चाहिए क्योंकि यहां थोड़ी सी ऐसी चीजें हैं, जिन्हें दिया नहीं जा सकता; केवल तुम उन्हें ले सकते हो, मैं उन्हें तुम्हें दे नहीं सकता। उन वस्तुओं की प्रकृति या स्वभाव ही कुछ ऐसी है कि उन्हें दिया नहीं जा सकता, लेकिन तुम उन्हें ले सकते हो। एक शिष्य को अपने सद्गुरु से काफी कुछ चुराना होता है। यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है और मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं।

लेकिन अकेली प्रार्थना से कुछ नहीं होने का, क्योंकि प्रार्थना का सम्बंध एक विशिष्ट मार्ग से है और बुद्धत्व का मार्ग दूसरा है। प्रार्थना, भक्ति के पथ का एक भाग है, और भक्त या सूफी कहता है—’‘ मैं नहीं चाहता किसी भी तरह का बुद्धत्व। मेरे मालिक! मैं तो आपके साथ निरंतर एक हजार एक जन्मों में, एक हजार एक खेलों को एक हजार एक संसारों में खेलना चाहता हूं। मैं इस खेल या लीला से बाहर नहीं होना चाहता, यह लीला बहुत सुंदर है, और मैं इसी का एक भाग बना रहना चाहता हूं। मेरे स्वामी मुझे इस योग्य बना, जिससे मैं सदा अभी और यहीं तेरे साथ आख मिचौली की लीला खेलता रहूं।’’

प्रार्थना एक प्रेमी का, भक्ति के मार्ग का एक भाग है। एक प्रेमी, प्रेम के बंधन को प्रेम करता है, वह किसी भी तरह से उससे बाहर आने का प्रयास नहीं करता। वास्तव में उसकी केवल यही प्रार्थना है कि उसे इस योग्य समझा जाना चाहिए कि परमात्मा उसे अपनी लीला में निरंतर स्थान देता रहे। वह खेल, खेल रहा है और खेल बहुत सुंदर है। वह उससे मुक्त नहीं होना चाहता।

बुद्धत्व शब्द, ध्यान मार्ग से सम्बंध रखता है। ध्यानी कहता है—’‘ बस, अब बहुत हो चुका। मैं एक लम्बी अवधि से बंधन में बंधा दुःख झेल रहा हूं अब तो मुझे मुक्त करो।’’ वास्तव में वह कुछ मांग ही नहीं सकता—क्योंकि ध्यान के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के लिए प्रार्थना भी एक बन्धन है। महावीर ने कभी प्रार्थना नहीं की। बुद्ध ने कभी प्रार्थना नहीं की। बुद्ध के लिए प्रार्थना अर्थहीन थी उन्होंने उससे अलग रहने के सारे प्रयास किए। इसलिए यदि तुम बुद्धत्व चाहते हो, तो प्रार्थना करना ही मत, क्योंकि प्रार्थना एक बंधन निर्मित करेगी। यह प्रेम का शुद्धतम रूप है। यह बंधन बहुत सुंदर और सुहाना है लेकिन है बंधन ही। यदि तुम उस मार्ग का चुनाव करते हो, तब वह ठीक है। लेकिन तब उसके लिए बुद्धत्व ठीक शब्द नहीं

 

मैंने सुना हैं…….?

एक कुपित मां ने अपने नवयुवा पुत्र से पूछा—’‘ तुमने मुझे बताया क्यों नहीं कि तुम मछली का शिकार करने जाना चाहते हो?”

उस बच्चे ने उत्तर दिया—’‘ क्योंकि मैं बस मछलियों के शिकार के लिए जाना चाहता था।’’

 

यदि तुम वास्तव में मछली मारने जाना चाहते हो, तो पूछो मत, जाओ। पूछने से कोई सहायता नहीं मिलने वाली। यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध होना चाहते हो, तब तुम्हें बिलकुल अकेले ही रहना होगा। तब वहां कोई परमात्मा है ही नहीं; तब वहां कोई भी ऐसा नहीं, जो तुम्हारी सहायता कर सके। क्योंकि यदि तुम किसी की सहायता चाहते हो, तो वह सहायता ही एक बंधन बन जायेगी। यदि मैं तुम्हें मुक्त होने में सहायता करता हूं तो तुम मुझ पर आश्रित होने लगोगे। तब बिना मेरे तुम मुक्त होने में समर्थ न हो सकोगे। ध्यान के मार्ग पर सहायता करना सम्भव नहीं है, केवल संकेत दिए जा सकते हैं। बुद्ध ने कहा है—’‘ बुद्ध केवल मार्ग दिखलाते हैं। वे वास्तविक विधि से कोई सहायता नहीं कर सकते। तुम्हें स्वयं ही अपने पथ पर आगे बढ़ना होगा, तुम्हें अपना प्रकाश स्वयं बनना होगा।’’

मैंने एक घटना के बाबत सुना है:

मकान मालिक ने नसरूद्दीन से कहा—’‘ मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूं और मैं तुम्हारे पास सभी चाभियां छोड़े जा रहा हूं। इसमें मेरे भण्डार गृह की चाभी के साथ मेरी सेफ और रत्नजटित आभूषणों के बक्से की भी चाभियां हैं। मैं भलीभांति जानता हूं कि तुम्हारे हाथों सब कुछ सुरक्षित रहेगा, लेकिन वास्तव में मैं आशा करता हूं कि तुम उन्हें छुओगे नहीं।’’

जब मकान मालिक अपने सफर से वापस आया तो मुल्ला ने उससे कहा— ” मेरे मालिक! अब मैं आपको छोड्कर जाना चाहता हूं।

”आखिर क्यों नसरुद्दीन?”

” क्योंकि आप मुझ पर विश्वास नहीं करते।’’

” यह तुम कैसे कह सकते हो, जब मैं अपनी सभी चाभियां ही तुम्हारे पास छोड़ कर गया।’’

” यह तो आपने किया मेरे मालिक लेकिन उनमें से कोई भी चाभी किसी ताले में लगी ही नहीं।’’

 

यदि तुम वास्तव में मुझसे बुद्धत्व चुराना चाहते हो, तो किसी भी कुंजी से कोई ताला खुलेगा नहीं—इसलिए नहीं कि मैं तुम्हें गलत कुंजियां दे रहा हूं केवल इसलिए क्योंकि दरवाजा पहले ही से खुला है और वहां कोई ताला है ही नहीं…… और तुम तालों की खोज कर रहे हो, जबकि ताले जैसी किसी चीज का अस्तित्व है ही नहीं। इसलिए तुम कुंजी की वजह से ताले की खोज कर सकते हो, और तुम चूक जाओगे। दरवाजा पहले ही से खुला है, तुम बस मुझमें प्रवेश करो और ‘ वह ‘ वहां है। कोई भी तुम्हारा मार्ग रोक नहीं रहा है।

लेकिन इसमें प्रार्थना सहायक न होगी, केवल ध्यान ही सहायता करेगा। ध्यान ही तुम्हें स्पष्ट रूप से देखने की क्षमता देगा।

महान जादूगर हुडनी के जीवन का एक बहुत सुंदर प्रसंग है। उसका पूरा जीवन अत्यधिक सफलता से बीता; और वह चमत्कारों का सफल व्यापारी था। उसने बहुत से ऐसे चमत्कार किए कि यदि वह मनुष्यता को ठगने वाला व्यक्ति होता, तो वह बहुत आसानी से ठग सकता था। लेकिन वह एक बहुत ईमानदार व्यक्ति था। वह कहा करता था—’‘जो कुछ मैं कर रहा हूं वह और कुछ नहीं बल्कि एक कुशलता है; और उसमें चमत्कार जैसा और कुछ भी नहीं।’’ किसी भी जादूगर ने कभी इतना नहीं किया जितना अधिक चमत्कार हुडनी ने दिखलाया। उसकी शक्ति पर विश्वास करना लगभग असम्भव था। उसे संसार के लगभग सभी अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?

कैदखानों में बडी सुरक्षा में रखा गया, और कुछ ही पलों में वह उनसे बाहर निकल आता था। उसे जंजीरों, हथकड़ियों, बेड़ियों में ताले लगाकर रखा जाता और कुछ ही क्षणों में वह बाहर आ जाता। न जंजीरें काम करतीं और न ताले। कुछ ऐसा घटता कि वह तुरंत मुक्त हो जाता। उसे मुक्त होने में मिनिट भी नहीं, बस केवल कुछ सेकिंड ही लगते।

लेकिन अपने पूरे जीवन में केवल एक बार वह इटली में असफल हुआ। वह रोम के केंद्रीय कारागार में बंदी बनाकर रखा गया और हजारों लोग उसके बाहर आने को देखने के लिए इकट्ठे हो गए। कई मिनट गुजर गए लेकिन उसके बाहर आने का कोई चिह्न न दिखाई दिया। लगभग आधा घंटा गुजर गया और लोगों में बैचेनी बढ़नी शुरू हो गई, क्योंकि ऐसा आज तक कभी भी नहीं हुआ था।

”आखिर हुआ क्या? क्या वह पागल हो गया, क्या वह मर गया अथवा हुआ क्या? अथवा क्या वह महान जादूगार असफल हो गया?

आखिर एक घंटे बाद वह पसीने से तरबतर हंसता हुआ बाहर आया। लोगों ने उससे पूछा—’‘ आखिर आपको हुआ क्या? एक घंटा? हम लोग तो सोच रहे थे कि कहीं आप पागल तो नहीं हो गये अथवा कहीं मर तो नहीं गए?” यहां तक कि अधिकारी भी यह सोच रहे थे कि चलकर उसे देखा जाये कि उसके साथ हुआ क्या?

उसने उत्तर दिया—’‘उन लोगों ने मेरे साथ चालाकी की। दरवाजे में ताला लगा ही नहीं था। मेरी सारी कुशलता ताले को खोलने की है और मैं यह खोजने की कोशिश कर रहा था कि ताला है कहां, पर वहां कोई ताला पड़ा ही न था। दरवाजे पर ताला लगाया ही नहीं गया था, वह पहले ही से खुला हुआ था। थक कर, चिंतित, परेशान और उलझन में डूबा जब मैं गिर पड़ा और दरवाजे से ठोकर लगी तो दरवाजा खुल गया। इस तरह मैं बाहर आया; लेकिन इसमें मेरी कुशलता काम न आई।’’

ठीक यही मामला मेरे साथ भी है।

यही प्रश्न बोधिधर्म से भी पूछा गया था; उसके पास बहुत सी कुंजियां थीं। कोई भी कुंजी किसी ताले में लगती न थी, और वह अधिक से अधिक कुंजियां इकट्ठा ही किये चले जाता था। प्रश्नकर्त्ता बहुत हिसाब किताब का चतुर व्यक्ति है। अब जब वे कुंजियां नहीं लग रही हैं, वह मुझसे आशीर्वाद मांग रहा है। मेरे आशीर्वाद तो तुम सभी के लिए हैं ही, तुम चाहे उन्हें मांगो अथवा नहीं, लेकिन यह कुंजियां किसी काम की नहीं हैं। इन सभी कुंजियों को फेंक दो। दरवाजा तो खुला ही हुआ है। कोई भी तुम्हारा रास्ता नहीं रोक रहा। लेकिन यदि तुम बुद्धत्व खोज रहे हो, तो उसका मार्ग ध्यान है। यदि तुम्हें शाश्वत लीला की खोज है तो बुद्धत्व की भाषा में सोचने की कोई जरूरत ही नहीं है।

यह दोनों निर्दिष्ट करने वाले मार्ग भिन्न हैं, पूरी तरह एक दूसरे से जुदा। लेकिन अंतिम परिणाम एक ही जैसा है। भक्त या प्रेमी, परमात्मा की सुंदर लीला का भाग बनकर ही उस बोध को प्राप्त करता है, और ध्यानी इस लीला को बहुत सुंदर पाता है जब उसे बुद्धत्व घटता है। लेकिन दोनों भिन्‍न दिशाओं से भिन्न विधियों और भिन्न व्यवहार के द्वारा वहां पहुंचते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को बहुत स्पष्ट रूप से यह निर्णय लेना होता है, अन्यथा तुम उलझन में पड़ जाओगे। प्रेम अथवा ध्यान बहुत स्पष्टता से चुन लेना है और तब उस पथ पर निष्ठा से थिर हो जाना है। अंतिम रूप से जो दूसरे पथ पर चलने से घटित होता है, वह तुम्हें भी घटता है, इसलिए परेशान होने की जरा भी जरूरत नहीं। लेकिन यह सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने पर ही घटता है। सभी पथ, पर्वत के शिखर पर पहुंच कर मिल जाते हैं, लेकिन सभी मार्गों पर अलग अलग तरह से चलना होता है।

 

तीसरा प्रश्न:

पिछले जन्य के अनुभवों करे भ्रम और पागलपन से कैसे पहचाना जाए?

 

सकी कोई आवश्यकता है ही नहीं: जो सब कुछ बीत गया वह पूरा अतीत ही एक भ्रम अथवा माया है। यहां अतीत और भ्रम के बीच कोई अंतर है ही नहीं। जो कुछ गुजर चुका, वह अब सत्य रहा ही नहीं। अब इस बात को बहुत गहराई से समझ लेना है।

बीता हुआ कल जा चुका, वह अब रहा ही नहीं। अब एक असली गुजर जाने वाले कल और एक काल्पनिक कल में अंतर क्या रहा? उनमें कोई भी अंतर नहीं है क्योंकि दोनों का अस्तित्व केवल तुम्हारे मन में है—वह चाहे असली कल हो या काल्पनिक कल। दोनों एक तरह की कल्पनाएं ही होंगे। एक असली बीतने वाले कल और नकली कल में क्या अंतर होगा? उनमें कोई भी अंतर नहीं क्योंकि दोनों ही नकली हैं। इन दोनों का अस्तित्व नहीं क्योंकि दोनों ही नकली हैं। इन दोनों का अस्तित्व कहीं भी न होकर केवल तुम्हारे मन में है। पूरा अतीत एक भ्रम और छलावा है, पूरा भविष्य भी एक भ्रम है, क्योंकि वह अभी है ही नहीं, और इन दो के मध्य वर्तमान है। इसीलिए पूरब में हम पूरे अस्तित्व को एक भ्रम अथवा माया कहते हैं, क्योंकि दो भ्रमों के मध्य में वास्तविक सत्य का अस्तित्व कैसे हो सकता है? और आज भी कल होने जा रहा है, आज निरंतर कल में से गुजर रहा है। वर्तमान निरंतर अतीत बनता जा रहा है। लेकिन वास्तविक सत्य, भ्रम कैसे बन सकता है? भविष्य, अतीत में से होकर गुजर रहा है और वर्तमान केवल उसके गुजरने का एक द्वार है, इसके अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं है। भविष्य भी भ्रम है, अतीत भी एक भ्रम है, द्वार पर केवल एक क्षण के लिए चीजें प्रकट होकर असली होने लगती हैं। यह किस तरह का सत्य हो सकता है? यह भी भ्रमपूर्ण है। हिंदू कहते हैं कि सब केवल बाह्य आकृति है, और असली जैसा कुछ भी नहीं है।

असली और वास्तविक वह होता है जो जीवित रहे। असली सत्य वह होता है जो हमेशा शाश्वत रूप से यहां होता है। सत्य वह होता है जो समय के पार हो। नकली और झूठा वह होता है जो समय के अंदर हो। अतीत, समय के अंदर बंदी है। वर्तमान को झूठा और नकली के रूप में सोचना ही कठिन होगा, लेकिन शुरुआत अतीत से करो। अतीत को झूठा सोचना बहुत सरल है, क्योंकि वह घटा अथवा नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है? हो सकता है वह हुआ ही न हो। वह केवल तुम्हारे मन में ही हो सकता है, वह केवल तुम्हारा विचार हो सकता है कि वैसा कुछ हुआ है। अतीत के बारे में झूठा या नकली सोचना और ऐसा ही भविष्य के बारे में भी सोचना बहुत आसान है।

इन दो के बीच ही में वर्तमान का संकरा सेतु है। लेकिन दो नकली वास्तविकताओं के बीच असली या प्रामाणिक का अस्तित्व कैसे हो सकता है? मध्य का भाग प्रामाणिक और सत्य कैसे हो सकता है, जब उसके दोनों छोर असत्य और नकली हैं, और जबकि असली सत्य भी निरंतर भ्रम और अवास्तविकता में बदलता जा रहा है? नहीं, यह सभी कुछ जो अनुभव किया गया, वह एक कल्पना है, वह एक स्वप्न की सामग्री है। केवल अनुभव करने वाला व्यक्ति ही सत्य है, केवल देखने वाला ही सच्चा है। जो देखा गया वह दृश्य एक सपना है, उसका दृष्टा, साक्षी ही केवल सत्य है।

मनुष्य जाति के पूरे इतिहास में मनुष्य की चेतना की महानतम खोजों में से यह एक महत्त्वपूर्ण खोज है। इसके मुकाबले कुछ अन्य है ही नहीं। अन्य सभी खोजें मात्र बचपने जैसी चीजें हैं। यह एक खोज ही सभी धर्मों की आधारशिला है: कि तुम हो—तुम एक साक्षी की भांति हो। एक स्वप्न के होने के लिए भी स्वप्न देखने वाले की आवश्यकता होती हे। एक स्वप्न, एक स्वप्न हो सकता है, लेकिन स्वप्न देखने वाला स्वप्न नहीं हो सकता। धोखा देने के लिए भी, मुझे तो अस्तित्व में होना ही होग, गलती करने के लिए भी, मेरी या मैं की जरूरत होगी ही। बिना मेरे गलती हो ही नहीं सकती। यह साक्षी ध्यान ही की खोज है।

इसलिए इस बारे में फिक्र करो ही मत, कि भ्रमों और पागलपन से पिछले जन्मों के अनुभवों को कैसे पहचाना जाए। इसमें पहचानने जैसा कुछ है ही नहीं। इसकी यहां कोई आवश्यकता है ही नहीं।

 

मैंने सुना है: मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी को पिछली रात को देखे गये सपने के अनुभव के बारे में बता रहा था—’‘ वह भयानक स्वप्न था। मैं जो के घर में एक जन्मदिवस समारोह में भाग ले रहा था। जो की मां ने तीन फीट ऊंची एक चाकलेट पका कर तैयार की थी, और जब उसने उसे काटकर प्रत्येक व्यक्ति को उसका एक—एक टुकड़ा परोसा तो वह इतना बड़ा था कि पेट के नीचे लटक रहा था। तब उसने घर में बनाई कुछ आइसक्रीम निकाली। वह भी उसके पास इतनी अधिक थी कि उसने हममें से प्रत्येक को सूप का कटोरा भर— भर कर दी।’’

उसकी पत्नी ने पूछा—’‘ लेकिन इस सपने में भयानक जैसा क्या है?”

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ ओह! मैं उसे चख सकता कि उससे पहले ही मैं जाग गया।’’

 

अतीत से हम निरंतर जाग रहे हैं। प्रत्येक क्षण जागने का ही क्षण है। लेकिन हम निरंतर भविष्य की नींद में गाफिल हो जाते हैं। इसलिए प्रत्येक क्षण नींद और अंधकार में फिर से ठोकर लगने जैसा है। इसलिए असली योग्यता जागने और सोने के बीच भेद कर पाना है। किसी अन्य दूसरी योग्यता का कोई मूल्य ही नहीं है।

इतने अधिक जागृत बनने का प्रयास करो, कि तुम फिर से गहरी नींद में सो न जाओ। इतने अधिक सजग रहो कि भविष्य को तुम्हें फिर से धोखा देने की स्वीकृति न देनी पड़े, जैसे कि तुम उसे पहले से देते आये हो। जो कुछ अतीत बन चुका है, लेकिन एक बार यदि वह तुम्हारा भविष्य है, तब तुम उससे धोखा खाओगे। अब वह भविष्य अतीत बन चुका है, और अब दूसरा भविष्य आ रहा है। प्रत्येक क्षण भविष्य आ पहुंचता है और भविष्य केवल तुम्हें तभी धोखा दे सकता है, यदि तुम सोये हुए हो। तब फिर वह अतीत हो जायेगा। अब मैं एक बात तुमसे कहना चाहता हूं : यदि तुम सजग बने रहे और तुमने भविष्य को धोखा देने की वर्तमान में अनुमति नहीं दी, तो अतीत विसर्जित हो जाता है। तब उसकी कोई स्मृति भी शेष नहीं रह जाती, और उसका कोई चिन्ह तक नहीं रह जाता। तब कोई भी व्यक्ति कोरी स्लेट की तरह हो जाता है, बिना बादलों के एक आकाश की भांति, एक अरहित ज्योति की भांति।

यही है वह बुद्धत्व की दशा—इतनी अधिक सजगता कि केवल साक्षी ही सत्य हो और अन्य दूसरी कोई भी चीज न हो, केवल वह सतह पर पानी की लहरों की भांति हो। प्रत्येक चीज बस गुजर रही है, सब कुछ केवल बहा जा रहा है। केवल एक ही चीज रह जाती है, और वह रह जाती है—तुम्हारी चेतना और तुम्हारी सजगता।

लेकिन हम अतीत के जाल में फंस जाते हैं। जो कुछ सामने से गुजरता है, किसी भी तरह उसमें से कुछ मन में बना रहता है। वह गुजर जाता है, वह वहां ठहरता नहीं, लेकिन किसी तरह मन उससे बंध जाता है।

 

मैंने सुना है…. एक व्यक्ति ने अपने ऊपर की मंजिल के एपार्टमेन्ट से सीढ़ियों के नीचे वाले एपार्टमेन्ट में खड़े मुल्ला नसरुद्दीन से चीखते हुए कहा— ” यदि तुमने अपना क्लेरीनेट बजाना बंद नहीं किया तो मैं पागल हो जाऊंगा।’’ नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ अब तो बहुत देर हो चुकी है। मैंने एक घंटे पहले ही उसे बजाना बंद कर दिया था।’’

 

लोग निरंतर उन बातों के बारे में परेशान रहते हैं, जो लगभग बीत चुकी होती हैं अथवा गायब हो जाती हैं। अतीत ही तुम्हें पागल बनाता है। तुम सोचे चले जाते हो, तुम अपने घावों को उघाडते उनसे खेलते रहते हो और तुम बार—बार अपने आप को चोटिल बनाते रहते हो। तुम फिर—फिर अपने अहंकार को भोजन देते रहते हो। ऐसा प्रतीत होता है जैसे अतीत तुम्हारा खजाना हो, लेकिन वह और कुछ भी नहीं, केवल बुलबुला भर है, हवा का एक बुलबुला। और ऐसा ही भविष्य भी है: और इन दो के मध्य वर्तमान का क्षण है। सजग रहो, जागरूक बने रहो। किसी अन्य तरह की किसी योग्यता का कोई भी महत्त्व नहीं, केवल एक ही योग्यता महत्त्वपूर्ण है, और वह है सावधान अथवा असावधान बने रहने की।

अब मैं तुमसे यह कह सकता हूं यदि तुम असावधान रहे, तो जो कुछ घटता है वह काल्पनिक है। यदि तुम सजग हो, तब जो कुछ भी घटता है वही सत्य है। क्या तुम अपने भूतकाल में सजग थे? यदि तब तुम सजग थे, तो वही सत्य था। क्या तुम ठीक अभी भी सजग हो? यदि तुम सजग हो, तो जो कुछ भी तुम्हारे सामने घट रहा है, वही सत्य है। क्या तुम कल भी सजग बने रहोगे? तब जो कुछ भी घटेगा, वह सत्य होगा। इसलिए वास्तविक सत्य अथवा असत्य के बारे में भूल ही जाओ’ केवल अधिक से अधिक सजग बनने का प्रयास करो।

सत्य अथवा झूठ, इस पदार्थगत संसार के गुण नहीं हैं, वे वैयक्तिक चेतना के गुण हैं। बुद्ध के लिए प्रत्येक वस्तु सत्य है। तुम्हारे लिए जो गहरी नींद में सोते हुए खर्राटे भर रहे हो, प्रत्येक वस्तु नकली और झूठी है। जरा इस तरह से भी विचार करो: तुम एक कमरे में सो रहे हो और दूसरा व्यक्ति तुम्हारे सिरहाने सजग और जागा हुआ बैठा हुआ है। कमरा वही है, दोनों ही उसी कमरे में हैं, एक ही स्थान मे है। एक गहरी नींद में सो रहा है—है, और दूसरा सजग बैठा हुआ है। क्या वे एक ही कमरे में है? क्या वे दोनों एक ही कमरे में हो सकते है? क्योंकि एक व्यक्ति जो सो रहा है वह स्वप्त देख रहा है, वह इस कमरे के अतिरिक्त अन्य दूसरे एक हजार एक कमरों के स्वप्न देख रहा है। क्या तुमने कभी उसी कमरे के बारे में कोई स्वप्न देखा है, जिसमें तुम सो रहे हो? नहीं, कभी भी नहीं। एक स्वप्न हमेशा किसी और जगह का होता है। यही स्वप्न का कार्य है कि वह तुम्हें कहीं अन्य स्थान पर ले जाए। जो व्यक्ति सोया हुआ है, वह स्वप्न देख रहा है। वह इस कमरे के बारे में और इस कमरे की वास्तविकता के बारे में सजग नहीं है। उसके पास अपना अलग काल्पनिक सत्य है। वह व्यक्ति जो उस व्यक्ति की बगल में सजग बना बैठा है, उसकी सजगता उसे पूरी तरह से भिन्न एक अलग गुण का सत्य दे रही है।

बुद्ध एक गांव से दूसरे गांव में टहलते हुए गतिशील रहते थे और उनके साथ उनका शिष्य आनंद रहता था, और दोनों दो भिन्न संसारों में रहते थे। आनंद सोया हुआ स्वप्न देखता हुआ चलता था और बुद्ध बिना स्वप्नों के सदा जागे हुए चलते थे। जब तुम स्वप्न नहीं देख रहे हो, तुम वास्तविक सत्य का सामना कर रहे हो। जब तुम स्वप्न देख रहे हो तो तुम्हारा केवल तुम्हारे सजगता के लिए फिर उसकी कसौटी क्या है?

अधिक से अधिक सजग बनो, तो संसार अधिक सत्य बन जाता है। और भी अधिक सजग रहने से संसार और भी अधिक वास्तविक और सत्य बन जाता है। जब तुम अपनी चेतना के सर्वोच्च शिखर पर होते हो, तो संसार इतना अधिक दीप्तिवान और सत्य से आलोकित हो उठता है कि उसे पदार्थ कहना भी कठिन लगता है। ऐसा व्यक्ति उसे परमात्मा कहता है, कुछ और कहने से काम चलता ही नहीं।

वह एक ऐसा दीप्तिवान सत्य और इतनी शाश्वत वास्तविकता होती है, कि ऐसे व्यक्ति को कहना ही होता है कि समय जैसे रुक गया है। सत्य और वास्तविकता न तो अतीत होता है, न वर्तमान और न भविष्य वह केवल बस होता है। वह यहीं और अभी होता है। अभी, यह अब समय का भाग नहीं है। केवल बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्तियों को ही उसका प्रयोग करने की अनुमति होनी चाहिए क्योंकि तुम्हारे ‘अब’ अभी केवल यहां नहीं है। तुम ‘अब’ को क्या कहकर पुकारोगे? जिस क्षण तुम उसे ‘अब’ कहते हो, वह पहले ही अतीत बन चुका होता है। अथवा जिसे तुम ‘अब’ या ‘अभी’ कहकर पुकारते हो, पहले वह अतीत बनता है, और तब भविष्य हो जाता है। तुम इतने अधिक सोये हुए हो कि जिस समय तुम उस क्षण को पकड़ने के लिए आते हो, वह पहले ही से जा चुका होता है। वह बहुत फिसलने वाला होता है। ‘अभी’ केवल तभी सम्भव है जब तुम बहुत अधिक सजग हो और तुम्हारे मन में एक भी सपना न हो, विचार की एक भी तरंग न हो। तभी तुम पूरी तरह उपस्थित हो। जब तुम उपस्थित हो तो सत्य भी उपस्थित है। जब तुम ‘अभी’ में हो, और ‘अभी’ शाश्वत हो जाता है। तब वह कभी भी न आता है और न जाता है, वह बस वहां होता है। तब कुछ भी न आता है और न जाता है।

बुद्ध के महान शिष्य बोधिधर्म कहा करते थे—’‘ बुद्ध कभी भी रहे ही नहीं, वह कभी उत्पन्न ही नहीं हुए वह पृथ्वी पर कभी चले नहीं, और न उन्होंने कभी भी कुछ कहा ही। उनके एक शिष्य ने उनसे कहा—’‘ जो कुछ आप कह रहे हैं, वह केवल असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि बुद्ध कपिलवस्तु में एक राजा के यहां उत्पन्न हुए उन्हें एक विशिष्ट नारी ने जन्म दिया। उन्होंने संसार का त्याग किया। ये तो सभी ऐतिहासिक तथ्य है, और आप उनसे भी इंकार किस चले जाते हैं। और आप स्वयं उन्हीं बुद्ध के अनुयायी हैं। यदि वह कभी भी हुए ही नहीं, यदि उनका कभी जन्म ही नहीं हुआ, और वह कभी पृथ्वी पर चले ही नहीं, तब आप किसका अनुसरण करते हैं?”

बोधिधर्म ने उत्तर दिया—’‘ मैं उसका अनुसरण करता हूं जो कभी उत्पन्न ही नहीं हुआ, कभी पृथ्वी पर चला ही नहीं जिसने कभी एक शब्द का उच्चारण तक नहीं किया और जो कभी मरा ही नहीं। मैं उसका अनुसरण करता हूं वही असली बुद्ध है। और अन्य सभी कुछ जिसे तुम इतिहास कहते हो, वह और कुछ भी नहीं, बल्कि वह सोये हुए लोगों के देखे गये सपने हैं।’’

अब यह बात समझने जैसी है। मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूं यह एक तथ्य है। मैं तुमसे बात कर रहा हूं तुम मुझे सुने रहे हो, लेकिन फिर भी बोधिधर्म बिलकुल ठीक कहता है: यह अभी भी एक स्वप्न हैं क्योंकि तुम जागे हुए नहीं हो। यदि तुम जाग गए हो तो तुम समझोगे कि मैंने एक शब्द का भी उच्चारण नहीं किया।

तब तुम पूरी तरह भिन्न सत्य को देख सकोगे, जहां शब्दों का उच्चारण नहीं किया जाता, जहां मौन का साम्राज्य है, जहां शब्दरहित सत्य का साक्षात्कार होता है। यदि तुम जागे हुए हो, तो तुम मुझे प्रयास रूप से समझ सकोगे और तुम समग्र घिरता को देख सकोगे, लेकिन यह तुम्हारे मौन पर निर्भर करेगा, यह तुम्हारी स्वप्नविहीन चित्त दशा पर निर्भर करेगा, यह तुम्हारे जागरण पर निर्भर करेगा। तब तुम समझ सकोगे कि तुम्हारे सामने जो व्यक्ति बैठा हुआ है, वह वास्तविक व्यक्ति नहीं है। तब वह कोई अन्य है, उसमें कुछ चीज ऐसी है जो सभी से पूरे तरह अलग है, जो पूर्ण रूप से जुदा है, तब यह सत्य तुम्हारे आगे उद्घाटित होगा।

यही इसका अर्थ है, जब हम बुद्ध को भगवान कहते हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए वास्तविकता और सत्य नहीं है, बल्कि यह सत्य केवल उनके लिए है, जो सजग हो गये हैं: वे उसे पहचानते हैं। जब हम जीसस को परमात्मा का पुत्र कहते हैं, तो यही उसका अर्थ होता है। यह सत्य सभी के सामने उद्घाटित नहीं हुआ, क्योंकि प्रत्येक यही जानता था कि यह व्यक्ति और कोई भी नहीं, बल्कि जोसेफ नाम के बढ़ई का बेटा है, और जो केवल व्यर्थ का दावा कर रहा था कि वह परमात्मा का पुत्र है। लेकिन जो लोग उनसे प्रेम करते थे, जो लोग अत्यधिक सजग और सचेत थे, उनकी इस वास्तविकता के बारे में, कि जोसेफ बढ़ई का पुत्र इस सपनों के झूठे संसार की केवल छाया भर था और उनका परमात्मा का पुत्र होना ही वास्तविक सत्य था। लेकिन तुम इस सत्य को केवल उसी सीमा तक समझ सकते हो, जहां तक तुम स्वयं प्रामाणिक हुए हो। इससे अधिक तुम और कुछ भी नहीं कर सकते।

तथ्य, सत्य नहीं होते। कोई भी व्यक्ति तथ्य तो हो सकता है पर हो सकता है वह सत्य न हो, और कोई भी व्यक्ति सत्य हो सकता है, पर तथ्य नहीं। यह शब्द, तथ्य, लेटिन भाषा के मूल शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है—करना। यह सुंदर शब्द है। तथ्य वह होता है जिसके बारे में तुम कुछ भी चीज कर सकते हो। लेकिन हमारा करना और कुछ भी नहीं, बल्कि सपने देखने जैसा है। तुम अपने सपने में भी बहुत सी चीजें या काम कर सकते हो, वे तथ्य हैं। तुम अपने सपने के साथ इतने अधिक आवेश में आ जाते हो कि कभी—कभी जब तुम कोई भयानक सपना देखते हो और तब जागने पर भी तुम फिर भी कांपते रहते हो, और पसीने से तरबतर होते हो। भय वहां तब भी बना ही रहता है, हृदय तेजी से धड़कता रहता है। अब तुम यह जानते हो कि वह एक स्वप्न था, अब तुम यह जानते हो कि वह एक बुरा सपना था और उस बारे में चिंता करने की कोई भी जरूरत नहीं, लेकिन फिर भी तुम कांपते रहते हो। सपना तुम्हें इतना अधिक प्रभावित करता है कि वह तुम्हारी वास्तविकता, तुम्हारे शरीर और तुम्हारे मन में गहरे पैबस्त हो जाता है।

लेकिन हम दो तरह की नींदों में जिए चले जाते हैं: एक नींद तो रात में आती है जिसे हम सोना या नींद कहते हैं और दूसरी दिन में होती है जिसे हम जागना कहते हैं। यह जागे हुए सोना है, केवल नाम भर का जागना है यह हमारी आखें तो खुली रहती हैं, लेकिन जब तक सोच विचार पूरी तरह रुक न जाए तुम्हारी असली आख, बोध की दृष्टि बंद ही रहती है।

 

”भ्रमपूर्ण दृष्टि से पिछले जीवन के अनुभवों को कैसे पहचाना जाये?”

न तो इसका कोई मार्ग है और न यहां इसकी कोई जरूरत ही है, और किसी भी व्यक्ति को इन बेवकूफी की चीजों में समय भी व्यर्थ, बरबाद नहीं करना चाहिए। जो जा चुका, वह जा चुका, जो बीत गया वह पहले ही से एक भ्रम है, एक छलावा है। केवल एक ही चीज बनी रहती है और वह है तुम्हारा साक्षी। बस उसी को थामे रहो, उसकी लीक से हटो मत। उसे पकड़ना कठिन होगा, तुम बार—बार उसकी लीक से हट जाओगे, लेकिन तुम्हें बार—बार अपने को याद दिलाते हुए उसे पकडना है। कई बार तुम लक्ष्य से चूक जाओगे, कई बार तुम्हें उसकी कुछ झलकें मिलेंगी। लेकिन धीमे— धीमे अधिक से अधिक सम्भावनाओं के नये द्वार खुलेंगे। और यदि तुम कुछ मिनटों के साथ ही सजग बने रहे, तो तुम्हारे अंदर से ही एक नये मनुष्य का जन्म होगा। तुम पूरी तरह भूत, अथवा भविष्य अथवा वर्तमान की कोई फिक्र होगी ही नहीं। तुम केवल बस एक भिन्न आयाम में जीवित रहोगे, वह आयाम है शाश्वतता का जहां कुछ भी नहीं गुजरता, न कुछ भी जन्मता है, न कुछ भी मरता है, प्रत्येक चीज ज्यों की त्यों बनी रहती है—शांत, थिर और मौन।

 

चौथा प्रश्न :

मैं अधिक से अधिक मैत्री भावना से ओत—प्रोत अपने को खेलपूर्ण होने का अनुभव करते हुए, ऊर्जा से भरी हुई हूं लेकिन मैं बात बहुत अधिक करती हूं। मुझे क्या करना चाहिए?

 

स बारे में भी खेलपूर्ण ही रहो। इसे कोई गम्भीर चीज मत बनाओ। बातचीत भी खेलपूर्ण तरीके से करो, और यदि उसे कोई नहीं सुनता है, तो इसे भी खेलपूर्ण तरीके ही से लो—क्योंकि यहां यह जरूरी नहीं कि किसी को उसे सुनना ही चाहिए। इससे नाराजगी का अनुभव मत करो। यदि कोई तुमसे बात करने सरलता से तुम्हारे पास आता है, तो उससे बातचीत करो। यदि कोई दूसरा व्यक्ति तुम्हें सुनने के मूड में नहीं है, तो वह उसकी अपनी समस्या है। लेकिन तुम नाराजगी का अनुभव मत करो। बस केवल सजग बनी रहो कि जब तुम बात करना चाहती हो, तो तुम्हारे अंदर क्या घट रहा है। ऐसा बहुत से लोगों के साथ होगा।

जब ध्यान के द्वारा तुम्हारे अंदर ऊर्जा मुक्त होती है, तो वह अभिव्यक्त होने के लिए सभी तरह के मार्ग खोजेगी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारे पास किस तरह की प्रतिभा है। यदि तुम एक चित्रकार हो, और ध्यान से ऊर्जा मुक्त होगी है तुम अधिक चित्र बनाओगे, तुम पागल बनकर चित्रण करोगे। तुम सब कुछ भूल जाओगे, पूरा संसार भूल जाओगे। तुम अपनी पूरी ऊर्जा चित्रण करने में उडेल दोगे। यदि तुम एक नर्तक हो तो तुम्हारा ध्यान तुम्हें एक महान नर्तक बना देगा। यह सब कुछ तुम्हारी क्षमता, प्रतिभा, निजता और तुम्हारे व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। इसलिए इसे कोई भी नहीं जानता कि क्या होगा। कभी—कभी आकस्मिक रूप से कई परिवर्तन होंगे एक व्यक्ति जो बहुत शांत था और कभी अधिक बात न करता था, अचानक बातूनी बन जाता है। वह बहुत दमित हो सकता है। हो सकता है उसे कभी भी बात करने की अनुमति न मिली हो। जब ऊर्जा ऊपर उठती है और बहती है तो वह बातें करना शुरू कर सकता है।

लेकिन इस बारे में फिक्र करने की कोई जरूरत ही नहीं। उसका दमन मत करो। यदि तुम यह अनुभव करती हो कि तुम्हारा बोलना दूसरों के लिए भार बन रहा है, तब बस तुम अपने कमरे में बैठकर अकेली ही बात करो। वहां अन्य कोई दूसरा उसे सुने, इसकी जरूरत ही नहीं है। और वास्तव में कौन सुनता है? तुम दीवार से बातें कर सकती हो, और यह कहीं अधिक मानवीय होगा, क्योंकि तुम किसी दूसरे व्यक्ति के लिए कोई दुख निर्मित नहीं करोगी। तुम किसी को सताओगी नहीं, और न तुम किसी अन्य को बोर करोगी।

 

किसी ने मुझे एक सुंदर घटना लिख कर प्रेषित की है :

पैट रैली अपने पापों को स्वीकार कर रहा था—’‘ फादर। निश्चित रूप से मैंने पिछली रात सात बार संभोग किया।’’

पादरी ने पूछा—’‘ कितनी स्त्रियों के साथ?” पैट ने उत्तर दिया—’‘ ओह मेरे धर्मपिता! स्त्री तो केवल एक ही थी।’’

पादरी ने कहा—’‘ ठीक है। यह इतना बुरा पाप तो नहीं है, जैसा मैंने सोचा था। पर वह स्त्री थी कौन?’‘—’‘ फादर! वह मेरी ही पत्नी थी।’’

पादरी ने कहा—’‘ मेरे पुत्र! फिर इसमें कुछ भी तो गलत नहीं है।

पैट ने उत्तर दिया—’‘ मेरे धर्मपिता! मैं इस बात को जानता हूं लेकिन मैं बस इस बात को किसी को बताना चाहता था।’’

 

यहां ऐसे भी कुछ क्षण होते हैं, जब तुम बस किसी को कुछ बताना चाहते हो। यदि तुम उस बात को न बताओ तो वह, तुम पर एक भार बनी रहती है।

यदि तुम उसे बता देते हो, तो तुम उससे मुक्त होकर तनावमुक्त हो जाते हो। यदि तुम्हें कोई सहानुभूति से सुनने वाला मिल जाए तो अच्छा है, अन्यथा तुम स्वयं अपने से बातें कर सकती हो। लेकिन कभी इसका दमन मत करो। दमन करने से अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है? वह तुम पर एक बोझ बन जाएगा। दीवार के ठीक सामने बैठ जाओ, और उससे अच्छी खासी बात करना शुरू कर दो। शुरू में तो यह तुम्हें थोड़े से पागलपन जैसा लगेगा, लेकिन तुम इसे जितना अधिक करोगी, तुम इसमें उतना ही अधिक सौंदर्य देखोगी? यह बहुत कम हिंसक है। यह किसी दूसरे व्यक्ति का भी समय बर्बाद नहीं करता, और यह ठीक वैसे ही कार्य करता है और तुम हल्की हो जाती हो। दीवार के साथ अच्छी तरह बातचीत करने के बाद तुम बहुत बहुत विश्राम का अनुभव करते हो। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को इसे करना चाहिए। यह संसार कहीं अधिक बेहतर और शांत हो जाये, यदि लोग दीवारों से बातचीत करना शुरू कर दें।

इसे आजमा कर देखो। यह एक गहरा ध्यान बन जायेगा— भली भांति यह जानते हुए भी कि दीवार नहीं सुन रही है। लेकिन मुद्दा इस बात का है ही नहीं। मैंने एक महान मनोविश्लेषक के बारे में सुना है, जो काफी वृद्ध हो गया था, लेकिन उसने फिर भी छू सात और आठ घंटे प्रति दिन मरीजों को सुनने का अभ्यास जारी रखा। उसका एक शिष्य जो नया—नया काम सीख रहा था, वह मरीजों की बकवास, मानसिक उन्माद और घिसी—पिटी एक जैसी ही बातें तीन चार घंटे सुनकर बहुत अधिक थक गया। उसने अपने वृद्ध गुरु से एक दिन पूछा— आप इतना सब कैसे कर लेते हैं, क्योंकि मैं आपको शाम को भी सुबह जितना ही ताजा पाता हूं जब आप क्लीनिक में आते है। मरीजों की सात— आठ घंटे बकवास सुनकर भी आप वैसे ही ताजादम होकर यहां से जाते हैं। क्या आप कभी थकते नहीं? मैं युवा हूं मैं उन्हें दो तीन घंटे सुनकर ही थक जाता हूं।’’

वृद्ध महाशय हंसते हुए बोले—’‘ सुनता ही कौन है?” फ्रॉयड ने इसकी व्यवस्था बहुत कुशलता से की थी। यहां तक कि वह मरीज के सामने भी नहीं बैठता था। वह अपने मरीज से एक कोच या आरामकुर्सी पर लेट जाने को कहता था और उसके सामने एक पर्दा पड़ा रहता था और वह उस पर्दे के पीछे बैठता था। और मरीज को कोच पर लेटे हुए छत की ओर देखते हुए बात करनी पड़ती थी। यह वास्तव में बहुत अर्थपूर्ण था। पहली बात तो यह कि जब एक व्यक्ति लेटा होता था तो वह कहीं अधिक विश्राम पूर्ण होता था। बैठे रहने की अपेक्षा लेटे हुए वह अपने गहरे में दबी बातें बतलाता था। वह अपने अचेतन में और गहराई तक उतरता था। खड़े—खड़े एक व्यक्ति यदि बात करे तो वह बहुत अधिक उथली होगी। यदि वह बैठ कर बात करे तो वह थोड़ा अधिक गहरे में उतरता है। उसे लेट जाने दो और तब उसे सुनो, तो वह अपने अंदर और गहरे उतरता है।

और तब, वह सब कुछ किसी व्यक्ति के आमने—सामने नहीं कह रहा है। जब तुम किसी का सामना कर रहे होते हो, तो दूसरे की उपस्थिति ही, दमन करने वाली शक्ति के रूप में कार्य करती है। तब तुम उन बातों को कहना शुरू कर देते हो जिन्हें वह पसंद करे। तब तुम चीजों को इस ढंग से कहना शुरू कर देते हो कि दूसरा नाराज न हो जाये। तब तुम चीजों को इस प्रकार अभिव्यक्त करने की व्यवस्था करते हो जिन पर उसकी सहमति प्राप्त कर सको तुम। तब दमन बहुत अधिक होता है और सत्य कभी भी बाहर नहीं आ पाता। जब कोई भी व्यक्ति तुम्हारे सामने नहीं होता और सामने केवल छत होती है, तो तुम्हें किसी भी व्यवस्था करने की कोई जरूरत नहीं होती। कमरे की छत किसी बात का बुरा नहीं मानती, तुम उससे जो चाहो कह सकते हो। धीमे— धीमे वह व्यक्ति गहरे जाकर सम्बंध जोड़ लेता है। अब यहां फ्रायड के कोच की भी कोई जरूरत नहीं है, केवल तुम्हारी अब ही यह काम पूरा कर देगी। और अब वहां किसी दूसरे व्यक्ति को भी बैठने की जरूरत नहीं है, तुम स्वयं ही बात कर सकते हो और स्वयं ही उसे सुन सकते हो। स्वयं से बात करते हुए स्वयं सुनना तुम्हें एक गहराई देगा, तुम्हें अपने ही मन के बारे में एक गहरी समझ उत्पन्न होगी।

इसलिए दीवार से बातें करो और उन्हें सुनो। तुम बात करने वाली और सुनने वाली दोनों एक साथ बन जाओ। उसका विश्लेषण मत करो, कोई भी निर्णय मत लो, यह मत कहो कि यह अच्छा है और यह बुरा: ऐसा कहना चाहिए था और वैसा नहीं कहना चाहिए था। और न चीजों को शुद्ध या परिष्कृत बनाओ, उन पर कोई भी रंग और रोगन मत लगाओ। जो कुछ भी मन में आए उसे सीधे साफ तरीके से बाहर आने दो—वह चाहे कितना ही कुरूप, भद्दा और असंगत क्यों न हो? अपने मन को पूरा खेल खेलने दो और तुम बस उसे देखती रहो। यह एक बहुत बड़ा ध्यान बन जाएगा।

 

नवविवाहित युगल, अपने कुंवारे मित्रों के सामने अपने विवाहित जीवन की प्रशंसा में कसीदे पढते हुए कह रहा था—’‘ हां! सचमुच यह आश्चर्यजनक है। नाश्ता करने से पूर्व हम लोग वह महान और मधुर कार्य किया करते थे। उसके बाद जब मैं बाहर जाता था तो वह छोटी गुड़िया सी स्त्री मुझे एक गहरे आलिंगन में बांधकर, दरवाजे तक आते हुए एक चुम्बन देती थी।

मैं रात के वक्त घर लौटता था, और भोजन मेज पर सजा तैयार मिलता था। उसके बाद मैं अपने कमरे में बैठकर अखबार पड़ता रहता था और वह बर्तन साफ करती थी। फिर वह कपड़े बदलकर आराम से मेरी बगल में बैठकर मुझसे बतियाती रहती थी। वह बातें और बातें ही करती रहती थी, उसकी बातें कभी खत्म होने पर ही नहीं आती थीं, और मैं चाहने लगता था कि वह बेहोश होकर नीचे गिर जाए।’’ अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?

किसी भी दूसरे व्यक्ति को कभी ऐसा अवसर न दो कि वह यह सोचना शुरू कर दे कि तुम बात करते—करते बेहोश होकर गिर पड़ो। यह तुम्हारी अपनी समस्या है। अथवा तुम इसके लिए एक बहुत सुंदर व्यवस्था कर सकती हो। इसी आश्रम में यहां ऐसे बहुत से पागल लोग हैं’ तुम उन्हीं में किसी अन्य व्यक्ति को खोज लो जिसकी समस्या भी तुम्हारी जैसी ही हो। तब तुम एक अच्छी व्यवस्था बना सकती हो। एक घंटा तुम बातचीत करो और एक घंटा वह तुम्हारी बात सुने। एक दूसरे से जुड्ने या सम्बंधित होने की इसमें कोई जरूरत नहीं, इसमें संगत होने की भी जरूरत नहीं और न बातचीत करते हुए किन्हीं नियमों का अनुसरण करने की ही कोई जरूरत है। यह बातचीत है ही नहीं। एक घंटा जो कुछ तुम्हारे मन में आए उसे निरंतर बिना सोचे—समझे कहते ही जाना है, और निश्चित रूप से फिर तुम्हें इसकी कीमत चुकानी होगी—एक घंटा फिर तुम्हें उसकी बकवास सुननी होगी। और यह चीज दोनों के ही लिए मूल्यवान होगी।

लेकिन एक बात याद रखना चाहिए कुछ भी दबाना नहीं है। किसी चीज का भी जब दमन किया जाता है जब वह जहरीली बन जाती है। और बातें करना केवल एक निर्दोष कृत्य है, दीवार से ही काम चलेगा। जाओ, वृक्षों के निकट जाओ और वे बहुत खुश होंगे क्योंकि कोई उनसे बातचीत करता ही नहीं। वे हमेशा प्रतीक्षा करते रहे हैं। वे बहुत कृतज्ञ होंगे तुम्हारे। अथवा तुम नदी या चट्टानों के पास जाकर उन्हें अपनी बातें सुनाओ लेकिन उनका दमन मत करो। धीमे— धीमे चीजें साफ और स्पष्ट होने लगेगी और बातें करना समाप्त हो जाएगा। यह केवल शुरुआत है, और तब तुम्हें अपने अस्तित्व की गहरी पर्तो को स्पर्श करने का अवसर मिलेगा बातचीत तुम्हारे जीवन की सबसे उथली पर्त है, केवल ऊपर सतह वाली पर्त। जब ऊर्जा बहती हुई और नीचे जाएगी तो नीचे की पर्ते कँपना शुरू हो जायेंगी, उनमें तरंगें उठने लगेंगी। उन्हें उठने की अनुमति दो। बहुत शीघ्र जब बातें खत्म हो जाएंगी और तुम अपना कूड़ा कबाड़ जिसे तुम पूरे जीवन भर ढोती आई हो, जब तुम उसे बाहर फेंक दोगी, फिर शांति और मौन आयेगा। और फिर वह मौन पूरी तरह से शुद्ध और क्वाँरा होगा।

तुम अपनी बातों को बलपूर्वक दबा भी सकती हो और शांत तथा मौन बने रह सकती हो, लेकिन तुम्हारी यह शांति और मौन असली और प्रामाणिक नहीं होगी। अपने गहरे में तुम कंपती ही रहोगी, कहीं गहरे में किसी भी क्षण ज्वालामुखी का विस्फोट फूट पड़ने को तैयार होगा। तुम उसी ज्वालामुखी के शिखर पर बैठी हुए हो।

लोग बहुत शांत दिखाई देते हैं, लेकिन वे शांत हैं नहीं। मैं चाहता हूं कि तुम वास्तव में प्रामाणिक रूप से शांत बनो, और तरीका केवल एक ही है, गहरे से गहरा रेचन।

मैं जानता हूं कि अमीदा बहुत अधिक ऊर्जा का अनुभव करती है। उसे अपने ऊर्जा—स्रोतों पर हल्के से चोट करनी होगी और उसे अपने को अस्तित्व की जमीन से जोड़ना होगा। इसलिए सभी मार्गों से वह बहुत शक्तिशाली होने का अनुभव करेगी। बातचीत करना मनुष्य जाति की सबसे अधिक आधारभूत विशेषता और अंश है। मनुष्य जाति, मनुष्य जाति इसलिए है, क्योंकि वह बातचीत कर सकती है। किसी अन्य पशु में यह क्षमता नहीं है। और फिर अमीदा एक स्त्री है, वह पुरुष भी नहीं है।

 

मैंने सुना है….

एक स्त्री अपने पति से कह रही थी कि नया पादरी बहुत अधिक बातूनी था। फिर उसने बताया—’‘ मैंने ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं देखा, जो इतनी तेजी से बात करता हो। जो कुछ भी वह कहता है, उसे समझना लगभग असम्भव है। उसके शब्द एक दूसरे को आच्छादित करते हुए बाहर निकलते हैं।’’

उसके पति ने उत्तर दिया—’‘ मैं इसका कारण जानता हूं। उसके पिता एक राजनेता थे और उसकी मां एक स्त्री थी।’’

 

अब यह पूरी तरह से संगत साथ है। चूंकि अमीदा एक स्त्री है: बातचीत करना उसके लिए आसान है और उसके कई कारण भी हैं।

क्या तुमने कभी देखा है ?—छोटी लड़कियां जब लड़कों के सामने बात करना शुरू करती हैं तो लडके पिछड़ जाते हैं। स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों में भी जहां तक भाषा का सम्बंध है, लड़कियां हमेशा लड़कों से बेहतर और आगे रहती हैं। वे हमेशा अधिक अंक प्राप्त करती हैं और कहीं अधिक पारगत होती हैं। स्त्री मन और पुरुष मन के मध्य कुछ चीजें भिन्न प्रतीत होती हैं, पुरुष मन कहीं अधिक कर्त्ता या कार्य करने वाला है और स्त्री मन कहीं अधिक बेहतर बात करने वाला है। ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि जहां तक पुरुष का सम्बंध है उसकी काफी अधिक ऊर्जा कार्य करने में खर्च हो जाती है: और जहां तक स्त्री का सम्बंध है, उसे कार्य करने में इतनी अधिक ऊर्जा खर्च नहीं करनी होती इसलिए उसकी पूरी ऊर्जा एक ही बातें करने की दिशा की ओर मुड़ जाती है।

लेकिन इसमें गलत कुछ भी नहीं है। एक अच्छे बात करने वाले व्यक्ति में कुछ चीज मूल्यवान होती है: वह बेहतर तरीके से संवाद और सम्बंध स्थापित कर सकता है।

किसी कला में पारंगत होना सुंदर है, क्योंकि सूचनाओं का अधिक संचार करना सम्भव होता है। और एक सुंदर संभाषण का अपना अलग सौंदर्य बोध और मूल्य है। लेकिन पहले अंदर रुकी बातों की बाढ़ को बाहर निकालना है। तब चीजें स्वयं छंट जायेंगी और थिर हो जायेंगी।

इस बाढ के गुजर जाने के बाद अमीदा पायेगी कि उसकी चेतना से बहुत छोटे—छोटे वाक्य ही बाहर आ रहे हैं, लेकिन वे हीरों जैसे हैं, और प्रत्येक वाक्य अपने आप में मूल्यवान है। लेकिन पहले शब्दों की इस बाढ़ को गुजर जाने देना होगा। यदि इस बाढ़ को रोका गया, इसका दमन किया गया, तब ये हीरे जैसे वाक्य सदा के लिए खो जायेगे। यही कारण है कि विश्व के सभी महान शास्त्र सूत्रों में लिखे गये, क्योंकि जिन लोगों ने उन्हें लिखा, वे रेचन की बाढ़ से होकर गुजरे थे। जब उनका रेचन पूरा हो गया, तब हीरे जैसे छोटे—छोटे वाक्य, सरल, सुंदर और सौंदर्य बोध से भरपूर चेतना में बुलबुलों के रूप में उमगना शुरू हुए। यह वही चेतना है, जिससे वेदों और कुरान का जन्म हुआ। और इसी चेतना से भाषा के सौंदर्य बाइबिल का जन्म हुआ। फिर कभी इनसे बड़—चढ़ कर श्रेष्ठ वचन नहीं आए।

जीसस अशिक्षित थे, लेकिन कोई भी व्यक्ति उनके वचनों की स्पष्टता को, जो सत्य तक गहरे उतर जाते हैं, उन्हें मात न दे सका। इसके पीछे उनका गहन ध्यान है। पतंजलि के योगसूत्र हों अथवा बादरायण के ब्रह्मसूत्र, अथवा वे नारद के भक्ति सूत्र हों—वे इतने छोटे—छोटे वाक्यों में हैं, जितने अधिक संक्षिप्त होने का तुम केवल विचार कर सकते हो, ये लगभग टेलीग्राफिक हैं, लेकिन उनके अंदर इतना अधिक ज्ञान भरा हुआ है कि प्रत्येक वाक्य में जैसे आणविक ऊर्जा हो। यदि इसका विस्फोट हो, यदि तुम इन्हें प्रेम से अपने अंदर अपने हृदय में ले जाओ, तो जब उनका विस्फोट होगा तुम उनके द्वारा आलोकित हो उठोगे।

लेकिन पहले बाढ़ के पानी को बाहर निकल जाने दो। यह एक शुभ संकेत है कि दमित भावों की बाढ़ आई हुई है। यदि सहानुभूति से सुनने वाले कुछ कान खोज सको, ये अच्छा है। अन्यथा उन्हें वृक्षों और चट्टानों को सुनाओ, लेकिन उनका दमन मत करो।

 

पांचवां प्रश्न:

मुझे सामने खड़ी मृत्यु दिखाई देती है। मैं इसे स्वीकार करती हूं अथवा ऐसा जब मैं सोचती हूं कि बहुत से लोग बीमार पड़ते है? और अस्पतालों में उनकी मृत्यु भी हो जाती है? तो मैं अपने उदर में भय की इस बड़ी गांव को पाती हूं। मैं मृत्यु से और मरने से इतना अधिक डरी हुई हूं कि मैं अपने को कमल होने जैसा अनुभव करती हूं।

मृत्यु एक समस्या है। तुम उसे टाल सकते हो, स्थगित कर सकते हो, लेकिन तुम उसे पूरी तरह मिटा नहीं सकते। तुम्हें उसका सामना करना ही होगा। उसे मिटाया जा सकता है, केवल तभी जब तुम उसके साथ अंत तक पूरे रास्ते भर उसके संग यात्रा करो।

यह बहुत जोखिम भरा काम है, और तुम्हें अत्यधिक भय देगा। तुम्हारा पूरा अस्तित्व हिलने और कांपने लगेगा: मरने का विचार मात्र ही स्वीकारने योग्य नहीं है। यह इतना अधिक गलत और अर्थहीन दिखाई देता है, और यदि एक व्यक्ति को मरना ही है तो फिर उसके जीवन का क्या अर्थ है? तब मैं क्यों और किसके लिए जी रहा हूं? यदि अंत में मृत्यु होनी ही है तो क्यों न अभी आत्महत्या कर ली जाये? प्रत्येक दिन सुबह उठना दिन भर कठिन परिश्रम करना बिस्तरे पर सोने के लिए जाना, सुबह फिर उठ बैठना कठोर श्रम करना और फिर सो जाना— आखिर किसके लिए? केवल क्या अंत में मर जाने के लिए ही?

मृत्यु केवल आत्मज्ञान की समस्या है। मृत्यु के कारण ही मनुष्य ने विचार करना शुरू किया। मृत्यु के कारण ही मनुष्य गम्भीर विचारक और ध्यानी बना। वास्तव में मृत्यु के कारण ही धर्म का जन्म हुआ। पूरा श्रेय मृत्यु को ही जाता है। मृत्यु ने प्रत्येक व्यक्ति की चेतना को मथ दिया। यह समस्या ऐसी है, जिसे हल करना है। इसलिए इसके साथ गलत कुछ भी नहीं है।

यह प्रश्न पूछा है विद्या ने।

”मैं मृत्यु को सामने खड़े देखती हूं प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु को सामने खड़ा ही देखता है। मार्टिन हैडीगर ने कहा है—मनुष्य मृत्यु की ओर ही बढ़ रहा है। और यही मनुष्य की प्राथमिकता है। जानवर मर जाते हैं लेकिन वे यह नहीं जानते कि उन्हें मरना है अथवा वे मरने जा रहे हैं। वृक्ष मरते हैं, लेकिन वहां उनका मृत्यु से कोई आमना—सामना नहीं होता। यह प्राथमिकता मनुष्य की ही है, कि केवल वही जानता है कि वह मरने जा रहा है। इसीलिए मनुष्य मृत्यु के पार भी विकसित हो सकता है। इसीलिए वहां मृत्यु में गहरे उतरकर उससे निकल आने की सम्भावना है।

’’मैं स्वीकार करती हूं और ऐसा ही मैं सोचती हूं नहीं, स्वीकार करना सम्भव नहीं है। तुम धोखा दे सकती हो: तुम यह सोच सकती हो कि तुमने उसे स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसकी ओर देखना भी इतना अधिक कष्टकर लगता है। यहां तक कि उसके बारे मे सोचना भी इतना कष्टकर लगता है कि एक व्यक्ति सोचता है—’‘हां! ठीक है, मैं मरने जा रहा हूं—इसलिये क्या किया जाये? मैं मरने जा रहा हूं लेकिन यह प्रश्न मत उठाओ। इसके बारे में बात तक न करो।’’ कोई भी व्यक्ति इस खयाल से दूर रहता है उसे एक किनारे अलग रख देता है, जिससे वह रास्ते पर न आ जाये, उसे केवल अपने अचेतन में ही रखता है।

उसकी स्वीकृति करना सम्भव नहीं है। तुम्हें मृत्यु का सामना करना ही पड़ेगा। जब तुमने उसका सामना किया, तो तुम्हें उसे स्वीकार करने की जरूरत ही नहीं, क्योंकि तब तुम जानती हो कि वहां कोई मृत्यु है ही नहीं।

और तब बहुत से लोग बीमार हो जाते हैं, अस्पतालों में भर्ती होते हैं और मर जाते हैं और मैं अपने उदर में इस भय की बहुत बड़ी गांठ पाती हूं वह कहां है, इसी समस्या का समाधान करना है। उदर ही ठीक भय का वह स्थान है, जहां वह बड़ी गांठ महसूस होती है, उसी स्थान पर मृत्यु घटित होती है। जापानी उसी स्थान को हारा कहते हैं। बस नाभि के दो इंच नीचे वह बिंदु है, जहां शरीर और आत्मा एक दूसरे से जुड़े होते हैं। जब तुम्हारी मृत्यु होती है, तो यही वह स्थान है जहां शरीर से आत्मा सम्बंध तोड़ती है। मरता कुछ भी नहीं, क्योंकि शरीर मर नहीं सकता, क्योंकि वह पहले ही से मरा हुआ है। और तुम मर नहीं सकते क्योंकि तुम स्वयं ही जीवन हो। केवल तुम्हारे और शरीर के बीच का सम्बंध टूटता है।

यह गांठ या ग्रंथि ही ठीक वह स्थान है, जहां कार्य किये जाना है, इसलिए उस गांठ से बचने की कोशिश मत करो। मैं विद्या से यह कहना चाहता हूं कि तुझे जब भी उस गांठ का अनुभव हो, तो वह क्षण बहुत मूल्यवान है। अपनी आखें बंद कर अपनी पूरी चेतना उस गांठ पर ले जा। यही है हारा। उसका अनुभव करो ,उसे अनुमति दो, उसके पास तुम्हारे लिए कुछ संदेश है, वह तुमसे कुछ कहना चाहता है। यदि तुम उसे अनुमति दो, तो वह तुम्हें संदेश देगा। यदि तुम उसमें विश्रामपूर्ण हो जाओ, यदि तुम उसके अंदर जाओ, तो धीमे— धीमे तुम देखोगे कि वह गांठ विसर्जित हो गई, और उस गांठ के स्थान पर एक कमल के फूल जैसा कुछ खिल उठा है। यह एक बहुत सुंदर अनुभव है। और तुम यदि फिर भी और गहरे जाओ तो तुम एक सेतु देखोगे, वह फूल एक सेतु है। उसके एक ओर शरीर है और दूसरी ओर तुम्हारी आत्मा। और वह फूल उन दोनों को जोड़ रहा है, वह फूल एक सेतु बना हुआ है।

उस फूल की जड़ें शरीर के अंदर फैली हैं, और उस फूल की पंखडिया और उसकी सुवास ही आत्मा है। यह एक जोड्ने वाला सेतु है। लेकिन यदि तुम भयभीत हो गए और तुम वहां नहीं गए तो तुम्हें गांठ होने जैसा ही, खिंचाव और तनाव का अनुभव होगा।

” मैं मृत्यु से और मरने से इतना अधिक डरी हुई हूं कि मैं पागल होने जैसा अनुभव करती हूं।’’

यहां पागल होने की कोई जरूरत नहीं है। पागल तो तुम होतीं। यह पूरी तरह स्वाभाविक है कि जब कोई भी व्यक्ति बार—बार और अनेक बार अस्पताल में उपचार के लिए जाता है और वहां मरता भी है तो तुम्हें अपनी मृत्यु का भी स्मरण आता है।

इसमें गलत कुछ भी नहीं है।

 

मैंने सुना है……

एक बीटनिक एक मनोविश्लेषक से भेंट करने गया और अपनी बात प्रस्तुत करते हुए कहा—’‘ आपको मेरी सहायता करनी ही होगी।’’

उसने मस्तक पर बल डालते हुए पूछा—’‘ आखिर आपकी समस्या क्या है?”

उस संगीत का बीटनिक ने कहा— आखिर वक्त मेरी सबसे अधिक मुझे विवश बनाने वाली इच्छा है अपनी दाढी बनाकर शॉवर के नीचे स्नान करने की।’’

 

यदि तुम अभी अपनी दाढ़ी शेव कर शावर स्नान नहीं करना चाहते, तो एक न एक दिन तुम्हें विवश करने वाली यह इच्छा कि तुम आखिरी वक्त शेव कर शॉवर स्नान करो, उठेगी ही। यह कोई भी समस्या नहीं है, ठीक अभी अपनी शेव कर शावर स्नान करो।

तुम मृत्यु को टालना चाहते हो। उसका सामना तो करना ही होगा, वह जीवन के सभी कार्यों का ही एक भाग है। वह एक सबसे बड़ा सबक है जो प्रत्येक व्यक्ति को सीखना ही है। इस बारे में पागल बनने की कोई जरूरत ही नहीं है, इससे कुछ भी सहायता मिलने वाली। उसके अंदर प्रवेश करो और उसका सामना करो। आज अथवा कल तुम्हें अस्पताल में भर्ती होना ही पड़ेगा, आज या कल तुम्हें बीमार पड़ना ही होगा और आज या कल तुम मरने भी जा रहे हो। इसलिए उसे स्थगित किए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इससे अच्छा यही है कि कहीं बहुत अधिक देर न हो जाये, तुम उससे पूर्व ही उसे भली भांति समझ लो।

 

मुल्ला नसरुद्दीन बीमार पड़ा और चिंतित होकर उसने तुरंत फोन पर मौलवी से सम्पर्क करते हुए यह आग्रह किया कि वह अगले संसार में उसकी भटकती हुई रूह को सहारा देने के लिए प्रतिदिन आकर प्रार्थना किया करे। जब प्रतिदिन की भांति प्रार्थना करने मौलवी उसके पास आया तो उसने मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत खुश आनंद से किलकते हुए पाया।

नसरुद्दीन ने अट्टहास करते और उल्लसित होकर कहा—’‘ श्रीमान! आज मैं बिलकुल ठीक हूं और बहुत आनंदित हूं।

मेरा डॉक्टर कहता है कि मैं अभी दस साल और जिऊंगा, इसलिए अब आपको फिर यहां आने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।’’

लेकिन तुम बूंद—बूंद कर गुजरते नौ वर्ष, ग्यारह महीने और उन्तीस दिन कैसे गुजारोगे? एक दिन तो तुम्हें मृत्यु का सामना करना ही होगा। बेवकूफ मत बनो, उसे टालो मत। क्योंकि यदि तुम उसे सबसे आखिरी दिन के लिए टालोगे, तो बहुत देर हो चुकी होगी। यह निश्चित नहीं है कि वह आखिरी दिन कब आयेगा? वह दिन आज भी हो सकता है, वह कल ही हो सकता है और वह किसी भी क्षण घटित हो सकता है। मृत्यु के बारे में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

हम मृत्यु में ही जीते हैं, इसलिए वह किसी भी क्षण हो सकती है। उसका सामना करो, उसका साक्षात्कार करो और पेट में वह गांठ जो ठीक स्थान पर है, उसका साक्षात्कार करना है। वही वह द्वार है, जिससे तुम जीवन में प्रवेश करते हो और जिससे होकर ही तुम जीवन के बाहर उस पार जाते हो।

 

अंतिम प्रश्न:

प्यारे भगवान! आपके प्रेम में डूबकर मैं मिट जाने के भय से आक्रांत है, और मैं समर्पित हूं।

 

ह पूछा है प्रेम पूर्णिमा ने।

मेरा उत्तर है—तेरा प्रेम में डूबना ही तेरे भय का कारण है और मैं तुझे स्वीकार करता हूं।

 

आज इतना ही।

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–14)

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उपासना चेष्टारहित चेष्टा है—(प्रवचन—चौदहवाँ)

25 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

      प्रशनसार—

1—पूजा—पाठ, योग—ध्यान, व्रत—उपवास, साधुता, ये सब मैने किया; इतने अनुभवों से गुजरा, कुछ हुआ नहीं; और आप अनुभव पर जोर देते हैं। अब मैं क्या करूँ?

2—उपासना यानी क्या?

3—आँख को निर्मल करने का उपाय बताएँ। चारों ओर राम कैसे दिखायी पड़े? क्या ध्यान के जैसे ही संन्यास का भी विश्वव्यापी प्रचार व प्रसार आवश्यक है?

 

पहला प्रश्न :

आप सदा अनुभव पर जोर देते हैं। मैं सब कर चुका हूँ——पूजा—पाठ, योग—ध्यान, व्रत—उपवास! और कुछ वर्षों तक पुराने ढब का साधु भी रह चुका हूँ। मगर इस सब अनुभव से कुछ मिला नहीं। अब मैं क्या करूँ?

मैं अनुभव पर निश्चय जोर देता हूँ। लेकिन अनुभव और अनुभव में भी भेद है। अनुभव अभिनय मात्र भी हो सकता है। तब ऊपर से तो लगता है अनुभव से गुजरे और भीतर से कोई अनुभव’ घटा नहीं।

कोई कोरी मुद्राओं से गुजर सकता है। तुम मुस्कुरा सकते हो और हृदय में मुस्कुराहट न हो। तो तुम्हें लगेगा मुस्कुराहट के अनुभव से गुजर गये; और हाथ कुछ सुवास लगेगी नहीं। तुम रो भी सकते हो। अभिनेताओं को नाटक के मंच पर ‘रोते देखा न! आँसू भी टपक सकते हैं झरझर आँसू टपक सकते हैं, और लगेगा कि तुम अनुभव से गुजरे रोने के, लेकिन तुम्हारे हृदय से आंसू न आ रहे हों तो अनुभव से तुम नहीं गुजरे। अक्सर ऐसा हो जाता है कि हम थोथी प्रक्रियाओं से गुजरते हैं और उसको अनुभव मान लेते हैं। फिर हाथ कुछ लगेगा नहीं।

मैंने सुना है, एक अद्भुत व्यक्ति हुआ, वह बडा व्याकरणविद था। साठ साल का हो गया, उसके पिता उसे रोज समझाते——पिता बूढ़े हो गये थे कोई अस्सी वर्ष के——कि अब तो तू राम की सुध ले। अब तो प्रभु का स्मरण कर। मंदिर कब जाएगा? ——तू भी बूढ़ा होने के करीब आ गया, साठ साल पूरे हो गये। वह व्याकरणविद सदा एक ही बात कहता कि बार—बार क्या राम का नाम लेना! आप तो जानते हैं कि मैं व्याकरण का ज्ञाता हूँ; बार—बार राम का नाम लो या बहुवचन में एक दफे राम का नाम लो, काम हो जाएगा। एक बार जाऊँगा, समग्रता से नाम ले लूँगा।

साठवाँ वर्षदिन बेटे का मनाया जा रहा था, बाप ने उसे फिर याद दिलायी कि आज तो तू मंदिर जा ही, आज प्रभु का स्मरण कर! उसके बेटे ने कहा कि आपको मैं देख रहा हूँ जीवन भर से मंदिर जाते, प्रभु का स्मरण करते, पूजा—पाठ करते, कुछ होता दिखायी पड़ता नहीं। ऐसे ही मैं भी आऊँगा—जाऊँगा, ये धक्के खाने से क्या सार है? जाऊँगा एक दिन! और अगर आप कहते हैं आज ही चला जाऊँ तो आज जाता हूँ। लेकिन गया तो फिर बैठे प्रतीक्षा मत करना। एक बार नाम लूँगा। बाप को तो कुछ समझ में आया नहीं वह क्या कह रहा है, उसने तो बात मजाक में ही ली, कहा——जा, नाम ले!

बेटा मंदिर में गया और कहते हैं उसने एक ही बार नाम लिया राम का और नाम लेते ही गिर गया और समाप्त हो गया।

उस व्याकरणविद का नाम था——भट्टोजी दीक्षित। एक ही बार नाम लिया! इसको कहते हैं अनुभव! मगर समग्रता से लिया होगा। रोएँ—रोएँ से लिया होगा। कण—कण पुकारा होगा। स्वाँस—स्वाँस स्मरण से भर गयी होगी। सब दाँव पर लगा दिया होगा। कह कर गया था एक बार नाम लूँगा और अब प्रतीक्षा मत करना। अब राम में जा रहा हूँ तो अब काम की दुनिया में वापिस क्या लौटना है? बाप तो मजाक ही समझे थे; क्योंकि बाप तो जीवन भर नाम लेते रहे थे।

तो मैं तुमसे कहता हूँ अनुभव अनुभव में भेद है। बाप का भी अनुभव था मंदिर में पूजा करने का, प्रार्थना करने का। रोज गये थे, रोज वैसे ही वापिस लौट आए थे। कुछ बदला न था, कुछ नया न हुआ था, कुछ स्पर्श ही नहीं हुआ था। धूल भी नहीं खड़ी थी।

इन दोनों अनुभव का भेद ख्याल में लो।

और जब मै अनुभव पर जोर देता हूँ तो मेरा मतलब——भट्टोजी दीक्षित वाला अनुभव। ऐसी थोथी प्रक्रियाओं से कुछ न होगा कि चले मंदिर, घंटा बजा आए, पूजा कर आए, एक औपचारिकता है रोज बैठकर अपने एक कोने में स्नान के बाद राम का जप कर लिया, इससे कुछ भी न होगा। अपने को समग्रता से उँडेलोगे तब कुछ होगा। राम का नाम असली बात नहीं है, असली बात अपने को समग्रता से उँडेलना है। फिर तुमने राम को पुकारा कि कृष्ण को पुकारा कि रहीम को पुकारा, किसको पुकारा इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे तो सब नाम गौण हैं। परमात्मा का कोई नाम नहीं है। लेकिन समग्रता से पुकारा, बस, बात हो जाएगी।

तुम कहते हो, मैं सब कर चुका हूँ——पूजा—पाठ, योग—ध्यान, व्रत—उपवास! और कुछ वर्षों तक साधु भी रह चुका हूँ। तुमने कुछ भी नहीं किया है। तुम भट्टोजी दीक्षित के पिता हो। न तुमने पूजा की है, न पाठ किया है, न योग किया है, न ध्यान; न व्रत किया है, न उपवास किया है, कुछ भी नहीं किया। करते तो ऐसा हो ही नहीं सकता था कि हाथ खाली रह जाते। ऐसा कभी हुआ नहीं। आग में हाथ डालोगे तो जलेगा ही। जल पीओगे तो तृप्ति होगी ही। कोई कहे कि मैंने आग में हाथ डाला और हाथ जला नहीं, तो एक ही बात है साफ कि इसने आग की तस्वीर में हाथ डाला होगा, आग में हाथ नहीं डाला होगा। आग की तस्वीर आग— जैसी लगती है, आग नहीं है। इसने ‘ आग ‘ शब्द लिख लिया होगा कागज पर और उसको हाथ में रख लिया होगा। लेकिन ‘ आग ‘ शब्द कागज पर लिखा हुआ अंगारा नहीं बनता।

तुम शब्दों से खेलते रहे हो, शास्‍त्रों से खेलते रहे हो। अनुभव ऐसे नहीं होता। पंडित तुम हो गये होओगे, मगर प्रज्ञा का ऐसे जन्म नहीं होता। महँगी बात है प्रज्ञा। पंडित सस्ता है, दो कौड़ी का है, बजार में मिलता है, कोई भी खरीद सकता है। पंडित होने से सस्ता दुनिया में कोई दूसरा काम नहीं है। क्योंकि पंडित 1 आग ‘ शब्द से खेलता है, सिर्फ शब्द से। शब्द का धनी हो जाता है, शब्द के संबंध में सारी जानकारियाँ ले लेता है। आग शब्द की व्युत्पत्ति जानता है——किस धातु से बनी है ——सारे ‘ आग ‘ शब्द का इतिहास जानता है——किन—किन भाषाओं से गुजरा है यह शब्द, इसने क्या—क्या अर्थ, रंग, भावभगिमाएँ ली हैं, सब जानता है——मगर आग से इसका कोई परिचय नहीं है।

मैंने सुना है, एक युवक एक युवती के प्रेम में था। बिल्कुल पागल था। मगर युवती थी कि उसकी तरफ कुछ ध्यान नहीं देती थी। बहुत दिनों तक उसके पीछे चक्कर लगाने के बाद भी जब कोई नतीजा नहीं निकला और युवक पूरी तरह निराश हो गया तो एक दिन उसने युवती से साफ—साफ बात कर लेने का निश्चय किया और हिम्मत करके उससे कहा——निष्ठुर, पत्थरदिल, अब मुझे तुझसे एक ही सवाल करना है, बोल जवाब देगी? पूछूँ? पूछो, युवती ने लापरवाही से कहा। तो फिर यह बता कि क्या तू जानती है प्रेम किसे कहते हैं? और क्या तूने कभी किसीसे प्रेम किया है? इसके जवाब में युवती ने एक बड़ा संदूक खोलकर दिखाते हुए कहा——यह पूरा संदूक जिन पत्रों से भरा है वे प्रेमपत्र हैं। इनमें अनेक युवकों के फोटो भी हैं। ये सब फोटो तुझ जैसे दिलफेंक युवकों के ही हैं। और इस संदूक में एक दर्जन के करीब अँगूठियाँ भी हैं। ये सब मुझे भेंट में मिली हैं। इतना कहने के बाद उस युवती ने युवक से पूछा——अब तू ही बता कि प्रेम के मामले में कौन ज्यादा जानता है? तू ज्यादा अनुभवी है या मैं?

तुम्हारी संदूक में भी तुम कहते हो सब है——पूजा—पाठ, योग—ध्यान, व्रत—उपवास, साधुता। लेकिन कुछ कमी रह गयी; कुछ मौलिक भूल हो गयी, कहीं तुम पहले चरण पर चूक गये, चले तो तुम बहुत, लेकिन दिशा कुछ गलत थी। चले भी बहुत, पहुँचे कहीं नहीं। क्योंकि चलने का एक ही प्रमाण है मेरे पास——पहुँचो। पहुँचना ही प्रमाण है। फल से परीक्षा होती है वृक्ष की। और कोई परीक्षा नहीं है। तुम कहो ——मैने आम बोये और नीम लग गयी। तो एक ही बात है जो सिद्ध होती है कि तुमने नीम ही बोयी थी, आम समझ कर बोयी होगी, मगर बोयी नीम थी। क्योंकि नीम के कड़वे फल नीम में ही लगते हैं, आम के पौधे में नहीं लगते हैं। फल में पहचान है वृक्ष की।

तुम कहते हो ये सब मैने किया, इतने अनुभव से मैं गुजरा, कुछ हुआ नहीं। और आप अनुभव पर जोर देते है’! तुम्हारा यह अनुभव अनुभव नहीं है, थोक है, नपुंसक है। तुम फिर से लौट कर विचार करो। सच में तुमने पूजा की ‘कब की थी पूजा, याद है? कैसे की थी. पूजा? पूजा के क्षण में तुम्हारे भाव कहाँ थे? जब तुम मंदिर में झुके थे परमात्मा की प्रतिमा के सामने, तब तुम वहाँ थे? सच वहाँ थे? या कि बजार में थे? या कि दुकान पर पहुँच गये थे? या कि ग्राहकों से मोल—तोल कर रहे थे? तुम वहाँ थे जब तुम झुके थे ?——या पास में खड़ी कोई सुंदर स्त्री को आँख के कोने से देख रहे थे ?तुम वहाँ थे जब झुके थे? ——कि ख्याल तुम्हारा लगा था कि जूते छोड़ आया हूं मंदिर के बाहर कोई चुरा न ले जाए? अक्सर लोग जब मंदिर में झुकते हैं, उनका ध्यान जूतों पर लगा होता है। कोई जूते न ले जाए। इससे तो मुसलमान ही बेहतर, अपना जूता अपने साथ ही रखते हैं। तुम देखते हो, मुसलमानों को नमाज में छपी हुई तस्वीरें देखते हो? सब अपना—अपना जूता अपने सामने रखे हैं। और उसी जूते को सिर झुका रहे हैं। सोच रहे हैं कि खुदा की बंदगी हो ही हे!

तुम्हारी पूजा तभी पूजा है, जब तुम्हारा हृदय झुके, तुम्हारा भाव झुके; जब तुम सच में ही झुक जाओ, पूरे—पूरे झुक जाओ। जब तुम वहीं होओ, उस क्षण के अतिरिक्त तुम्हारा कोई अस्तित्व कहीं और न हो, तुम समग्ररूप से वहाँ उपस्थित होओ, उस उपस्थिति में पूजा है। फिर तुमने फूल कौन—से चढ़ाए, यह गौण हैं। चढ़ाए कि नहीं चढ़ाए, यह भी गौण है। हाथ में थाली का दीया जला था कि नहीं जला था, यह भी गौण है। जब हृदय का दीया जला हो तो थाली के दीये महत्वपूर्ण नहीं रह जाते। लेकिन हृदय के दीये की तो फिकिर ही नहीं है, थाली का दीया जल रहा है। थाली का दीया जल रहा है और तुम्हारी आरती उतर रही है। स्वभावत: तुम सोचते हो आरती करते—करते थक गया——और आरती एकबार तुमने नहीं की——अब क्या सार है, चलो कुछ और करें। तुम वही—के—वही। जिस ढंग से तुमने आरती की थी, उसी ढंग से तुम ध्यान करोगे। जिस ढंग से तुमने ध्यान किया, उसी ढंग से योग करोगे——तुम वही—के—वही। तुम्हारे हाथ की चीजें बदलती जाएँगी, तुम नहीं बदलोगे। तुम सभी अनुभवों से गुजर जाओगे और कोरे—के—कोरे, खाली—के— खाली। और एक और उपद्रव तुम्हारे सिर में बैठ जाएगा कि कुछ नहीं होता, अनुभव करके देख लिया।

तुम कहते हो——कुछ वर्षों तक साधु भी रह लिया। साधु भी कोई कुछ वर्षों तक रहता है? साधुता फली न होगी। साधुता सहजता से उमगी न होगी। साधुता एक ढोंग, एक पाखंड रही होगी। ऊपर से आवरण स्वीकार कर लिया होगा। सोचा होगा, चलो यह भी करके देख लें, सब तो करके देख ही लिया, अब यह भी करके देख लें, क्या बना—बिगड़ा जाता है। कुछ हाथ नहीं लगा तो अपने घर वापिस लौट जाएँगे।

और फिर तुम घर लौट ही आए।

जो आदमी घर लौटने का ख्याल लेकर गया है, वह लौट ही आएगा। जिसने पीछे अपने सीढ़ियाँ लगा रखी हैं, वह उतर ही जाएगा। तुम्हारी साधुता क्या थी? वह भी वैसी ही थी जैसी तुम्हारी पूजा थी, जैसे तुम्हारा उपवास था।

मैं तुमसे कहना चाहता हूँ——अनुभव का अर्थ बाहरी उपचार नहीं है। अनुभव का अर्थ, आंतरिक अनुभव, आंतरिक अनुभूति, आंतरिक भावोन्माद है। कुछ भी नहीं हुआ है तुम्हें अभी तक। अब तुम यह भ्रांति छोड़ दो कि तुम्हें अनुभव हुआ है, नहीं तो यह तुम्हें अटकाएगी। अगर मै तुमसे कहूँगा ध्यान में उतरो, तुम कहोगे——सब करके देख चुका। मैं तुम्हें समझाऊँगा पूजा करो, तुम कहोगे——मैं सब करके देख चुका। और तुमने कुछ भी करके नहीं देखा है। लाभ तो नहीं हुआ, तुम्हारे करने से एक हानि हो गयी——अब तुम कुछ और करने को उत्सुक नहीं रह गये।

इस बात को तुम्हारे हृदय में गहरा बैठ जाने दो——तुमने अभी तक कुछ नहीं किया, तुम्हारा किया—धरा सब मिट्टी में गया है। तुम अ ब स से शुरू करो। तुम कोरी किताब पर लिखना शुरू करो। फिर से समझो, फिर से शुरू करो, बीच में अपने ज्ञान को मत लाओ, क्योंकि तुम्हारे पास ज्ञान कुछ भी नहीं है। तुम ऐसे समझो जैसे छोटे बच्चे हो, सत्य की खोज का भाव फिर से जगा है। तुम पीछे से पर्दा गिरा दो। अतीत को भूल ही जाओ, विस्मृत कर दो। उससे कुछ लेना—देना नहीं है। उतने दिन व्यर्थ गये। अब उन दिनों को आने वाले भविष्य को भी व्यर्थ मत करने दो।

अब तुम फिर से सीखो। और इस बार बाहर की विधि पर जोर मत दो, इस बार अंतर—विधि पर जोर दो। मैं तुमसे नहीं कहता कि मंदिर में जाकर झुको। मैं तुमसे कहता हूँ, जहाँ झुकने का’ भाव आ जाए, वहीं झुक जाना। फिर मंदिर हो कि मस्जिद, कि गिरजा हो कि गुरुद्वारा, कि बजार हो कि दुकान, कि वृक्ष हो सामने कि आकाश, जहाँ झुकने का भाव आ जाए वहाँ झुक जाना।

तुम्हें कभी झुकने का भाव नहीं आता? सुबह सूरज को ऊगते देख कर झुकने का भाव नहीं आता? सूरज ऊग रहा है यहाँ और तुम चले मंदिर की तरफ! इससे बडा मंदिर और कहाँ पाओगे? इससे ज्यादा रोशन मंदिर और कहाँ है? इतना विराट प्रकाश सामने आ रहा है और तुम अभिभूत नहीं होते? तुम्हारे भीतर रोमांच नहीं होता? सुबह के सूरज को ऊगते देखकर तुम्हारे भीतर कुछ नहीं ऊगता? तो? मंदिर में क्या खाक होगा। आदमी के बनाए हुए मकानों में क्या होगा. रात तारों से भरी है, आकाश की चादर तारों से सजी है, और तुम्हारा मन नहीं होता कि झुक जाओ इस विस्मय के समक्ष, इस रहस्य को पी लो? हाथ जोड्ने की आकांक्षा नहीं जगती? इन तारों से नमस्कार कर लें। इन तारों से थोड़ी गुफ्तगू कर लें। थोड़ा संवाद हो जाए। दो बातें हो जाएँ। जयराम जी हो जाए। तारों को देख कर तुम नहीं झुके, गीता के सामने झुक रहे हो? आदमी के छापे खाने में छपी किताब के सामने झुक रहे हो? इतनी बड़ी विराट किताब आकाश की खुली है और उस पर सब हस्ताक्षर परमात्मा के——ये सब चाँद—तारे उसकी लिखावट हैं, इनको पढ़ो, इनको गुनो।

मै तुमसे कहता हूँ——भाव की फिकिर लो। और भाव के बहुत क्षण आते हैं। चौबीस घड़ी में ऐसा मौका जरूर आता है एकाध बार, जब अंतरभाव उठता है—, झुक जाओ! कैसा अद्भुत है जगत! अहोभाव उठता है, एक कृतज्ञता का भाव उठता है, धन्यवाद देने का मन होता है——पता नहीं किसे धन्यवाद दें? किसने बनाया है यह सब रहस्य? नाम भी नहीं है उसका कुछ, उसको पाती भी लिखनी है तो उसका पता भी नहीं है।

झुकने का मतलब क्या होता है? झुकने का मतलब यह होता है कि हमें पता नहीं कि तू किस दिशा में है, हमें पता नहीं तेरा नाम क्या है, हमें पता नहीं तेरा ठिकाना क्या है, हमें पता नहीं कि तू है भी या नहीं, मगर जो दिखायी पड़ रहा है वह इतना विस्मयपूर्ण है कि तू जरूर होगा। कि तू होना ही चाहिए। यह जो संगीत बज रहा है तेरा, यह जो विस्तार फैला है तेरा, यह जो इतनी सुनियोजित जगत की व्यवस्था चल रही है——अर्थपूर्ण, सुसंगत, लयबद्ध——यह जो नृत्य हो रहा है, उत्सव हो रहा है, तू जरूर कहीं इसमें छिपा होगा। हम झुकते हैं तुझ अज्ञात के प्रति, तुझ अनाम के प्रति। ऐसा जब तुम झुकोगे, तो पूजा। वह मंदिर में जो तुम घंटी बजाते हो, वह पूजा नहीं है, वह पूजा का ढोंगे है। पूजा का क्षण होगा तो कहाँ घंटी खोजने जाओ? पूजा का क्षण कोई बँधा—बँधाया क्षण थोड़े ही है कि उठे सुबह, स्नान किया और चले मंदिर कि सात बजे पूजा कर लेंगे। परमात्मा शाश्वत है, समय का उससे कोई संबंध नहीं बनता। और परमात्मा सहज है, जो खुद भी सहज होते हैं उन्हीं का जोड़ बैठता है। तो तुम प्रतीक्षा करो, जब कभी सहज प्रार्थना का क्षण आ जाए, झुक जाना।

मूसा एक जंगल से गुजरते थे और उन्होंने एक आदमी को झुके देखा। साँझ हो गयी थी, सूर्यास्त हो रहा था। वह आदमी गड़रिया था। उसकी भेड़ें भी उसीके पास— पास में—में करती घूम रही थीं और वह उन्हींके बीच में बैठा प्रार्थना में लीन था। आकाश की तरफ हाथ जोड़े हुए थे उसने और बड़ी मस्ती में बातें कर रहा था। मूसा भी ठिठक गये उसके पीछे कि क्या कह रहा है? जो सुना तो मूसा बहुत घबडा गये। यह कोई प्रार्थना है!

वह आदमी कह रहा था कि हे प्रभु, तू बहुत अकेला होगा वहाँ! मुझे पता है कभी—कभी जब रात अकेले होता हूँ, कैसा भय लगता है। तुझे भय नहीं लगता? तुझे भय लगता होगा, मैं आने को राजी हूँ, तू मुझे बुला ले। मैं सदा तेरे साथ रहूँगा, तेरी छाया बन जाऊँगा। और कभी—कभी तु्झे भूख भी लगती होगी और कोई भोजन देनेवाला नहीं होता होगा। मैं तेरा भोजन भी बना दूँगा, मुझे भोजन बनाना भी आता है। और मैं तुझे खूब नहलाऊँगा, धुलाऊँगा पता नहीं किसीने तुझे नहलाया—धुंलाया कि नहीं; जूँ पड़ गयी होंगी——मेरी भेड़ों में पड़ जाती हैं। मगर देख लो मेरी भेड़ों को, एक—एक की सफाई कर देता हूं। रात तेरे पैर भी दबा दूँगा, थक जाता होगा ——इतना विराट तेरा विस्तार है, इसका निरीक्षण करते—करते थक जाता होगा, रात तेरे पैर भी दबा दूँगा। तेरे कपड़े भी धो दूँगा। तू जो कहेगा सब कर दूँगा, तत मुझे उठा ले, तू मुझे बुला ले।

मूसा के बर्दाश्त के बाहर हो गया जब उसने कहा तेरी जूँ भी बीन दूँगा। मूसा ने कहा——ठहर नासमझ! यह प्रार्थना कैसी प्रार्थना? बहुत प्रार्थनाएँ मैने सुनी, यह तूने किससे सीखी, कहाँ से सीखी? वह तो घबड़ा गया, सीधा—सादा आदमी, उसने कहां——मुझे क्षमा करो, मुझे कुछ पता नहीं, सीखी नहीं, खुद ही बना ली है। यह तो आप जानते ही हैं कि मैं तो गड़रिया हूँ, पढ़ा—लिखा नहीं हूँ, शास्त्र की मुझे क्या तमीज, संस्कार जैसी चीज मुझपर कोई पड़ी नहीं है, खुद ही बना ली है। अब भेड़ों से बात करता हूँ, उतनी ही मेरी भाषा है। उसी भाषा को परिमार्जित करके परमात्मा से बात कर लेता हूं। आप मुझे सिखा दें। तो मूसा ने ठीक—ठीक यहूदियों की जो प्रार्थना है, वह सिखायी। बड़े प्रसन्न थे म्सा कि एक भटके हुए आदमी को रास्ते पर लाए।

और जब उस आदमी को छोड़ कर मूसा चले, तो जैसे ही एर्कात आया, जोर से एक आवाज आकाश से गूँजी कि मूसा, मैंने तुझे भेजा था कि तू लोगों को मेरे पास लाना, तू तो लोगों को मुझसे दूर करने लगा। मेरा प्यारा, तूने उससे उसकी प्रार्थना छीन ली! शब्द नहीं सुने जाते हैं, भाव सुने जाते हैं। तू वापिस जा, क्षमा माँग! उससे प्रार्थना सीख! मूसा तो कैप गये। भागे— गये, उस गड़रिये को पकड़ा, उसके चरणों में गिरे और कहा—मुझे क्षमा कर दे, भाई! मैने जो कहा उसे वापिस त्रेता हूँ। परमात्मा की नजरों में तेरी प्रार्थना स्वीकार हो गयी है, हमारी प्रार्थना अभी स्वीकार नहीं हुई है। तू जैसा चाहे वैसा ही कर। और मुझे क्षमा कर दे। मुझसे बड़ी भूल हो गयी।

यह कहानी मधुर है, प्रीतिकर है, अनूठी है। सहज, स्वाभाविक, तब पूजा का अनुभव होता है। अभी तो तुम्हारी पूजा इतनी ओछी है!

मैने सुना है, एक नगर में कुछ लोगों ने मिल कर एक मंदिर बनाया। सोचा किसकी मूर्ति स्थापित करें? खूब विचार करने के बाद ट्रस्टियों ने यही तय किया कि राम की मूर्ति स्थापित करें, तो राम की मूर्ति स्थापित कर दी। थोड़े—से लोग मंदिर आने लगे जो राम को मानते थे। लेकिन जो कृष्‍ण को मानते थे, वे मंदिर नहीं आए। तो उन्होंने सोचा कि राम की मूर्ति हटा कर कृष्ण की मूर्ति स्थापित करें। तो कृष्ण की मूर्ति स्थापित की तो राम के माननेवालों ने आना बंद कर दिया। कृष्ण को माननेवाले आने लगे। फिर उन्होंने सोचा कि शिव की मूर्ति स्थापित करें। ऐसे वे हर साल मूर्तियाँ बदलते गये और हर साल आने वाले बदलते गये। मगर संख्या वही थोड़ी—की—थोड़ी रही।

फिर उन्होंने सोचा कि मूर्ति हटा दें, मंदिर को मस्जिद बना दें। तो मंदिर को मस्जिद बना दिया। तो हिंदुओं ने आना बंद कर दिया, मुसलमान आने लगे। मगर संख्या वही—की—वही रही। वे तंग आ गये। वे चाहते थे सारा गाँव आए। वे चाहते थे सब आएँ। उन्होंने एक बूढ़े बुजुर्ग से सलाह ली कि हम क्या करें? उसने कहा. ——तुम एक होटल खोल लो। उन्होंने होटल खोली और सब आए।

ऐसी मजेदार दुनिया है। यहाँ मंदिर—मस्जिद के बीच झगड़ा है, होटल में सब जाते हैं। होटल खोल ली होगी, नाइट क्लब बना दिया होगा, स्विमिंग पूल डाल दिया होगा, सब आने लगे। हिंदू भी आए, मुसलमान भी आए, ईसाई भी आए, सिख भी आए, पारसी भी आए, जैन भी आए, बौद्ध भी आए। फिर कौन करता है फिकिर राम की और कृष्ण की, सब आए। गलत में सब राजी हैं। अद्भुत है यह दुनिया और सही में बडे विवाद हैं। झूठ में सब संगी—साथी हैं, सत्य में बड़े संप्रदाय हैं। उपद्रव करना हो, सब इकट्ठे हो जाते हैं। प्रभु को स्मरण करना हो, कोई इकट्ठा नहीं होता।

तुम किस मंदिर में गये थे? कहाँ तुमने पूजा की? तुम किस मस्जिद में गये, कहाँ तुमने प्रार्थना की? ये सब आदमी के बनाए हुए खेल हैं। इनके जाल को अनुभव मत समझ लेना। परमात्मा से संबंध जोड़ना है, थोड़ा प्रकृति से संबंध जोड़ो। वही एकमात्र मंदिर है। वही असली मस्जिद है। परमात्मा से पहचान करनी है तो उसका जो निर्माण है, उससे अपने हृदय को आदोलित होने दो, संवादित होने दो। तुम्हारे भीतर हवाओं का सुर बजने लगे, वृक्षों की हरियाली उतरे, फूलों की लाली आए, चाँद—तारों की रोशनी जगे! तब तुम जानोगे पूजा क्या है? मैं उस अनुभव की बात कर रहा हूँ। तुम्हारे अनुभव की बात नहीं कर रहा हूँ। तुम्हारी पूजा के कल सब व्यर्थ हैं और उठे हैं। तुम्हारे ओठों से आप शब्द सब सीखे हुए हैं। तुमने परमात्मा के सामने झुककर कभी सीधी—सीधी बात की है? जैसा यह गड़रिया कर रहा था। सीधी—सीधी बात, आमने—सामने। नहीं, तुम्हारी बात उधार है।

मैने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। उसको रोज एक प्रेमपत्र लिखता था। स्त्री भी हैरान थी, बड़े अद्भुत प्रेमपत्र लिखता था! फिर प्रेम टूटा तो उस स्त्री ने मुल्ला ने जो अँगूठी दी थी उसे वापस की। मुल्ला ने कहा——और अगर तकलीफ न हो तो मेरे प्रेमपत्र भी वापस दे दो। उस स्त्री ने कहा —— लेकिन प्रेमपत्र तुम क्या करोगे? उसने कहा यह तुम न पूछो। अब कोई मेरी जिंदगी तुम्हारे साथ खतम थोड़े ही हो गयी! अब ये प्रेमपत्र मुझे फिर लिखने पड़ेंगे। अब सच बात तुम्हें बता दूँ, अब तो मामला खतम ही हो गया, ये प्रेमपत्र मैं खुद नहीं लिखता हूँ, एक पंडित से लिखवाता हूँ। इनका पैसा देना पड़ता है! ये कोई मुक्त नहीं हैं! अब फिर से खर्चा करना पड़ेगा। ये तुम मुझे दे दो, यही मैं दूसरे नाम से चला दूँगा, तीसरे नाम से चला दूँगा, इनसे तो जिंदगी भर काम चल जाएगा इतने पत्रों से। एक प्रेम क्या, न—मालूम कितने प्रेम कर लेंगे।

लेकिन जब तुम किसी पंडित से प्रेमपत्र लिखवाओगे तो झूठा नहीं हो जाएगा? तुमने प्रार्थना भी तो पंडित से सीखी है। वह भी झूठी हो गयी। तुम्हारा अपना कुछ भाव पैदा होता है, या कि तुम बिल्कुल रेगिस्तान हो? तुम्हारे भीतर भाव का कोई मरूद्यान नहीं है? कोई झरना नहीं बहता? तुमने वेद से सीख ली प्रार्थना? तुमने कुरान से सीख ली प्रार्थना? ये प्रार्थनाएँ काम नहीं पड़ेगी। ये तुम्हें असली अनुभव में नहीं ले जाएँगी। तुम्हें अपनी प्रार्थना को जन्म देना होगा। तुम्हें अपनी प्रार्थना बनना होगा। तुम जब बनोगे प्रार्थना, तब सुनी जाएगी, तब अनुभव होगा। ऐसी ही तुम्हारी बाकी भी सब बातें हैं। तुम कहते हो——योग भी कर चुका, ध्यान भी, व्रत—उपवास भी। तुमने कुछ नहीं किया। उपवास का अर्थ समझते हो? उपवास का अर्थ होता है, परमात्मा के पास होना। उप वास। उसके पास बैठना। भूखे मरने’ से मतलब नहीं होता। हाँ, ऐसा अक्सर हो जाता है कि उसके पास बैठे— बैठे भोजन की याद नहीं आती, भोजन भूल जाता है। असली उपवास में भोजन नहीं होता ध्यान में, परमात्मा ध्यान में होता है, लेकिन परमात्मा इतना ध्यान में होता है कि देह की सुध—बुध भूल जाती है, उस दिन भोजन की याद नहीं आती यह उपवास। तुम जब उपवास करते हो तो ठीक उल्टा ही होता है। तुम्हारे उपवास को उपवास नहीं कहना चाहिए। इसीलिए तो हमारे पास दूसरा शब्द है—अनशन। अनशन करते हो तुम, आज भोजन नहीं लेंगे।

मगर देखा है, जब आदमी उपवास का तय करता है, अनशन करने चलता है तो क्या करता है? ——कल भोजन नहीं लेना है, आज रात डट कर ले लेता है। कल तक की कमी आज पूरी कर लेता है। यह कोई उपवास है? और कल तुम दिन—भर क्या करोगे? तुम सिर्फ भोजन की ही याद करोगे। और क्या करोगे? भूखा आदमी और करेगा क्या? भूखे होने से तुम परमात्मा के पास कैसे बैठ सकोगे? परमात्मा के पास बैठने से कभी—कभी भूल जाता है भोजन, लेकिन भोजन को छोड़ने से कोई परमात्मा के पास नहीं पहुँचता। देखना कितनी सीधी—सीधी बात है और किस तरह आदमी ने उल्टी कर ली है। हाँ, महावीर ने उपवास किये थे, क्योंकि डूब गये ध्यान में, अंतर्वास हो गया, भीतर पहुँच गये, बाहर की याद न रही——दिन आया कब, दिन गया कब, कुछ पता न चला, कब सुबह हुई, कब साँझ हुई,’ कुछ पता न चला ——डूबे मस्ती में, भीतर, तो डूबे ही रहे, मस्ती में किसको पता चले कब भूख लगी, कब प्यास लगी, दिन बीत गये——उपवास।

लेकिन दूसरे जो नकलची हैं, जो अनुकरण करनेवाले हैं, उन्होंने देखा कि महावीर ने आज भोजन नहीं किया——वे बैठे हैं, वे यही देखते रहते हैं कि कौन क्या नहीं कर रहा है——आज महावीर ने भोजन नहीं किया, और महावीर बड़े मस्त हो रहे हैं, तो उन्होंने निष्कर्ष लिया कि भोजन न करने से यह मस्ती आ रही है। बस यहीं तर्क की भूल हो जाती है। और ऐसा लगता ऊपर से कि ठीक मालूम हो रहा है कि आज महावीर मस्त हैं और भोजन नहीं किये हैं, साफ है कि भोजन न करने से मस्ती ——का रही है। चले वे भी, उन्होंने कहा——हम भी उपवास करेंगे। ऐसी मस्ती तो हमें ‘भी चाहिए। तुम उपवास कर लोगे, मस्ती तो नहीं आएगी, थोड़ी—बहुत रही होगी गस्ती वह भी चली जाएगी। भूखा आदमी क्या मस्त होगा? खाक मस्त होगा। मस्ती से उपवास आ सकता है——उपवास गौण है, मस्ती प्रमुख है। लेकिन उपवास रो मस्ती नहीं आ सकती।

महावीर नग्न हो गये। वह मस्ती में घटी घटना थी। इतने सरल हो गये, इतने निर्दोष हो गये, जैसे छोटा बच्चा होता है, कब वस्त्र गिर गये, पता न रहा। कब वृक्षों, पशु—पक्षियों जैसे हो गये, पता नहीं रहा। इतने सहज, इतने स्वाभाविक, इतने नैसर्गिक, इतने एकरस हो गये जगत से! ——गिर गये वस्त्र! अगर ठीक से समझो तो कोई चेष्टा करके इस तरह की नग्नता नहीं ला सकता। क्योंकि चेष्टा में तो निर्दोष हो ही नहीं पाओगे और वही हो रहा है। जैनमुनि नग्न हो जाते हैं। मगर बड़ी चेष्टा से, पाँच सीढ़ियाँ हैं। कोई उनसे पूछे महावीर ने कब ये पाँच सीढ़ियाँ पूरी कीं? पाँच सीढ़ियाँ हैं। पहले इतने वस्त्र रखो। वस्त्रों में परिग्रह कर लो, सीमित। फिर लँगोटी रखो। फिर एक ही लँगोटी रखो। फिर ऐसे धीरे—धीरे—धीरे— धीरे अभ्यास करते—करते—करते एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सारे वस्त्र छोड़ दोगे। इसमें करीब—करीब जीवन लग जाता है।

यह अभ्यास से आयी हुई नग्नता और महावीर की निर्दोषता से आयी हुई नग्नता तुम पर्यायवाची समझते हो? तो तुम बिल्कुल अंधे हो। महावीर को नग्नता का अनुभव हुआ। और ये सज्जन जो जैनमुनि बन कर बैठ गये हैं, उनको सिर्फ नंगेपन का अनुभव हो रहा है। ये बड़ी अलग बात है। महावीर ने दिगंबरत्व जाना।

‘ दिगंबर ‘ शब्द का अर्थ प्यारा है। इसका मतलब होता है, आकाश ही जिसका वस्त्र हो गया। और ये सज्जन जो अभ्‍यास कर रहे हैं, ये सिकुड़े—सिकुड़े बैठे हैं। इन्होंने अभ्यास कर लिया, ये सब सर्कसी हैं। जैसे सर्कस में एक अभ्यास होता है, आदमी कोशिश करके अभ्यास कर लेता है तो लोग रस्सियों पर चलना भी सीख लेते हैं, तो नग्नता कोई कठिन बात नहीं है।

तुम कहते हो——मैं साधु भी हो चुका। जैसे साधु कोई होने की बात है। और फिर ना भी हो चुके। जैसे यह कोई ऊपर से ओढ़ने की चीज है कि——ओढ ली, उतार दी। जँची तो ओढ़ ली, नहीं जँची ती उतार दी। साधुता अतरात्मा है। कैसे उतारोगे, कैसे चढाओगे? यह —रंग ऐसा नहीं है कि चढ़े तो उतर जाए। यह कोई कच्चा रंग नहीं है। चढ़ता है तो चढ़ता है। हाँ, लेकिन ऊपर से चढ़ा लिया तो कितनी देर खीचोगे! थोड़े—बहुत दिन मे लगेगा, भई, कुछ सार तो हो नहीं रहा है, साधु भी बन कर बैठ गये हैं। कहाँ है मोक्ष लक्ष्मी? जैन—शास्त्र कह्ते है——जब मोक्ष की लक्ष्मी मिलेगी। बैठे हैं अब आँख बंद किये, मगर आंख बद नहीं है, थोड़ी—थोड़ी खुली है, देख रहे हैं कि अब मोक्ष लक्ष्मी आती होगी। अभी तक नहीं आयी मोक्ष लक्ष्मी! कहाँ हैं अप्सराएँ? बैठे है आँख बद किये, कितनी देर से साधु बने बैठे हैं और सब शास्त्र कहते हैं कि जब साधु बन कर जंगल में बैठोगे तो अप्सराएँ आएँगी और नाचेगी, अभी तक नहीं आयीं! बड़ी देर लगा रही हैं। कहाँ है स्वर्ग का सुख, अभी तक कोई किरण उतरी नहीं!

यह साधुता है? तुम व्यवसाय करने चले। तुम परमात्मा से भी चीजें खरीदने चले। कुछ चीजें तो कम—से—कम बजार के बाहर छोड़ो! कुछ चीजें तो ऐसी रहने दो जो खरीदी नहीं जा सकतीं। जिनके लिए जीवन दाँव पर लगाना होता है। ये सारे पाठ जो तुमने कल तक सीखे थे, गलत थे। तोतारटत थे। तोतों को रटवा देते हैं न। राम जपो, तो तोता राम ही जपता रहता है। रटे की बात है। कोई तोते के हृदय में थोड़े ही राम होता है।

मैंने सुना है, एक तोता एक पंडित के पास था। खूब राम—राम जपता था। राम— राम ही जपता रहता था दिन—भर। बड़ा भगत तोता था। पड़ोस में एक महिला रहती थी, उसने भी एक तोता पाला। वह तोता गालियाँ बकता था। वह बड़ी परेशान थी। उसने पंडितजी को पूछा कि क्या करना? ये बड़ी बेहूदी चीज मैं घर ले आयी हूँ। देखने में सुंदर था तो मैंने खरीद लिया। और यह गालियाँ बकता है। और ऐसे मौके पर बक देता है, घर में मेहमान आए हों, फिर यह नहीं चूकेगा। यह कुछ—न—कुछ बीच में छेड़ देगा। भद्द हो जाती है। और मैं इसको लारव समझाती हँ राम—राम जपो, वह मुझे ही गाली देता है। राम—राम जपना तो दूर, मुँहफट जबाब देता है। उस पंडित ने कहा——तू एक काम कर। यह मेरा तोता बड़ा भगत है, ऐसा तोता मैने नहीं देखा, सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठ आता है और जो राम—राम की गुहार लगाता है! सारे घर को जगा देता है, पास—पड़ोस के लोगों को जगा देता है। फिर उसकी गुहार चलती ही रहती है। यह पिछले जन्म का कोई बड़ा पहुँचा हुआ भगत है। तू ऐसा कर, अपने तोते को यहाँ ले आ। सत्संग का तो लाभ होता है न! उसको साथ रख दे तो कुछ दिन रह जाएँगे साथ दोनों तोते, सत्संग से सब ठीक हो जाएगा, यह बड़ा ज्ञानी है। यह तेरे तोते को सुधार देगा।

पंडित का तोता तो नर था और उस महिला का तोता मादा था। उनको एक ही पिंजड़े में रख दिया। मादा तोते ने दूसरे दिन गाली नहीं दी। लेकिन नर तोता भी राम—राम नहीं बोला। पडित थोड़ा हैरान हुआ। उसने पूछताछ की कि क्या हुआ, भगतजी क्या हुआ? उसने कहा——अब क्यों राम—राम जपें? इसीलिए तो राम—राम जपते थे, एक मादा चाहिए थी। और मादा से कहा——तू क्यों चुप है? उसने कहा——इसीलिए तो गालियाँ बकते थे, एक नर चाहिए था। न तो राम—राम जपने वाले को ‘राम—राम से कोई मतलब था, न गालियाँ देनेवाले को गालियाँ देने से कोई मतलब था। दोनों के काम हल हो गये, झंझट मिट गयी, भगत जी भगत जी न रहे।

तुम जब राम को स्मरण करते हो किसी आकांक्षा से, तब तुम झूठ हो। जब तुम्हारे भीतर कोई हेतु होता है तब तुम झूठ हो। अहेतुक स्मरण ही पूजा है, पाठ है, प्रार्थना है। अहेतुक स्मरण! किसी और कारण से नहीं, सिर्फ मस्ती से। परमात्मा से और क्या कारण जोड़ना है! उसका नाम ही पर्याप्त आनंददायी है। और फिर तुम सीखे हुए शब्द दोहरा रहे हो! सीखे हुए शब्दों को जाने दो और जो तुमने साधुता ली थी, ले ली थी, वह भी लोभ में ली होगी, कि चलो सब कर के राव लिया, अब साधु हो कर देख लें। इस तरह के लोभ में यहाँ मत संन्यास ले लेना, नहीं तो यह अवसर भी चूकोगे। यहाँ तो संन्यास मस्ती से आए, तो डूबना। और इसी लोभ में यहाँ ध्यान मत करने लगना नहीं तो यहाँ भी चूकोगे। यह द्वार जो कि खुला द्वार है, यह भी तुम्हारे लिए बद ही रह जाएगा। तुम पर सब निर्भर है। जल्दी मत करना, पुरानी आदतें बड़ी मुश्किल से जाती हैं। तुम तो बैठना यहाँ, ध्यान करने वाले लोग ध्यान करते हो, नाचने वाले लोग नाचते हों, तुम बैठना। तुम प्रतीक्षा करो जरा, जल्दी मत करना। उठकर नाचने मत लगना, अन्यथा तुम्हारा नाच ऊपर—ऊपर होगा। बैठो, गुनो, सुनो, नाचने वालों की भावभगिमाएँ देखो। और एक घड़ी आएगी जरूर, जब तुम पाओगे कि भीतर तुम्हारे कोई नाच उठा, एक तरंग उठी, एक उमग उठी, एक लहर उठी। उसी लहर के नाच में उठ पड़ना और नाचना तब तुम पहली दफा अनुभव करोगे, मैं किस अनुभव की बात कर रहा हूँ। उस अनुभव को अनुभव करोगे।

पूछते हो—अब मैं क्या करूँ? यहाँ तो तुम प्रतीक्षा करो। सुनो मुझे, समझो मुझे, बैठो यहाँ पास। ध्यानी ध्यान करते हों, उनके पास बैठो। यहाँ की मस्ती को जरा तुम्हारे भीतर प्रवेश करने दो। तुम जल्दी न करो। करने की जल्दी न करो। तुम पहले बहुत जल्दी कर चुके हो और उसीमें चूक गये हो। इस बार कुछ होने दो, करना नहीं है, होने दो। इस बार ध्यान हो तो होने. देना, संन्यास हो तो होने देना, रोकना मत, बस। करना भी मत, रोकना भी मत। मुझे मौका दो।

यह एक प्रयोगशाला है। यहाँ सब मौजूद किया जा रहा है जो तुम्हें रूपांतरित कर सकता है, तुम सिर्फ खुले भाव से यहाँ मौजूद रहो। बस, तुम्हारा खुला हृदय चाहिए। इससे ज्यादा की कोई अपेक्षा नहीं। खुले हृदय में सब अपने से हो जाता है।

 

दूसरा प्रश्न:

भी संबद्ध है। पूछा है——उपासना यानी क्या?

जो उपवास का अर्थ है, वही उपासना का अर्थ है। दोनों में जरा भेद नहीं। दोनों एक ही शब्द के निर्माण है। उप वास, पास बैठना, उप आसना, पास आसन लगाना।

तुम जो समझते हो उपवास का अर्थ और उपासना का अर्थ, वह मेरा अर्थ नहीं। गुरु के पास बैठ जाना——उपासना। सूरज ऊगता हो, उस ऊगते सूरज के पास तल्लीन हो जाना——उपासना। पक्षी गीत गाते हों, आँख बंद करके उनके गीतों में लीन हो जाना, डूब जाना——उपासना। जहाँ कहीं सौंदर्य, सत्य और शिवम् का आविर्भाव होता हो, वहीं आसन मार कर बैठ जाना, वहीं अपने हृदय के द्वार खोल देना, निमंत्रण दे देना परमात्मा को और प्रतीक्षा करना। उपासना निष्क्रिय प्रतीक्षा है, अनाक्रामक प्रतीक्षा है। चेष्टा शून्‍य चेष्टा है। उपासना अद्भुत कीमिया है।

तुम्हारी चेष्टा से कुछ चीजें नहीं होंगी, नहीं हो सकती हैं। उन चीजों का स्वभाव ऐसा है कि वे चेष्टा से नहीं हो सकती हैं। जैसे रात तुम्हें नींद नहीं आ रही हो तो तुम जो भी चेष्टा करोगे उससे नींद आने में बाधा पड़ेगी, सहयोग नहीं मिलेगा; क्योंकि नींद चेष्टा से आ ही नहीं सकती। सब चेष्टाएँ नींद को तोड़नेवाली हैं। कोई तुमसे कहता है कि गिनो एक से लेकर सौ तक गिनती, फिर सौ से लेकर नीचे की तरफ उतरो एक तक, फिर एक से सौ तक जाओ, तुम रात भर जाते रहोगे ऊपर—नीचे, थोड़ी—बहुत नींद भी जो मालूम हो रही थी वह भी गँवा दोगे। क्योंकि सौ तक जाना, फिर सौ से नीचे उतरना, इसमें तुम्हें और जागरूकता की जरूरत पड़ेगी। यह तो ध्यान का उपाय हुआ, नींद का उपाय न हुआ। यह तो ध्यान की विधि है।

क्या करोगे तुम?

तुम जो भी करोगे उसीसे बाधा पडेगी, क्योंकि कृत्य और निद्रा में विरोध है। निद्रा कृत्य से नहीं आती, क्रिया से नहीं आती। तुम तो पड़े रहो बिस्तर पर निढाल होकर, कुछ मत करो, पड़े रहो, जब आना होगा आ जाएगी, तुम्हारे हाथ में नहीं है, तुम खींचतान कर नींद को नहीं ला सकोगे, तुम्हारी मुट्ठी में नहीं है। तुम्हारी पहुँच के बाहर है। जब आती है तब आती है। हाँ, इतना ही तुम कर सकते हो कि अपने को बचाओ मत। अपने को उस स्थिति में छोड़ दो जहाँ नींद तुम्हें पकड़ सके। इसी स्थिति को पैदा करने के लिए हम व्यवस्था कर रहे हैं।

क्या है हमारी व्यवस्था?

घर में जो कमरा सबसे ज्यादा शांत होता है उसमें आदमी सोता है। पर्दे खींच देते हैं ताकि अँधेरा हो जाए, अँधेरे में नींद के आगमन में सुविधा होती है। नींद बड़ी संकोची है, रोशनी में नहीं आती। नींद जब बिल्कुल अँधेरा होता है तब चुपचाप आती है। जरा भी शोरगुल हो तो नहीं आती। जब सन्नाटा हो तब आती है। फिर तुमने बिस्तर पर अपने को लिटा दिया है——बिस्तर भी हम ऐसा बनाते हैं कि सुविधापूर्ण हो, क्योंकि असुविधा रहे कोई तो नींद नहीं आती। असुविधा में मन जागा रहता है। एक काँटा गड़ रहा हो तो मन जागा रहता है। सिर में दर्द हो तो मन जागा रहता है। तुम बिस्तर पर लेट गये हो, कंबल ओढ़ लिया है, पर्दे गिरा दिये हैं, अँधेरा हो गया, सन्नाटा हो गया, कोई शोरगुल नहीं, दरवाजे—खिड़कियाँ बंद कर दीं। मगर ये कोई नींद लाने के उपाय नहीं हैं। ये सिर्फ नींद को आने की सुविधा देना है।

बस ऐसी ही उपासना भी है। परमात्मा लाया नहीं जा सकता, आता है। अपनी मर्जी से आता है। आ ही रहा है, सिर्फ हम उपासना का आयोजन नहीं कर पाते।

जैसे नींद का आयोजन करते हो, ऐसे ही उपासना का आयोजन करो। सिर्फ अपने को छोड़ दो खाली, मुक्त, शांत, निर्विचार, शिथिल, एक विराम पैदा हो जाए।

फिर कहाँ तुमने अपने को छोड़ा, इससे फर्क नहीं पड़ता। परमात्मा के लिए कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ वह न पहुँच जाए। तो किसी मंदिर—मस्जिद में विशेषरूप से जाने की जरूरत नहीं है। हाँ, मंदिर—मस्जिद में जाने का एक उपयोग हो सकता है, अगर और कहीं शांत स्थान ही न मिलता हो। इसलिए मंदिर—मस्जिद बनाए गये थे। उनके बनाने का एक ही आधार था कि बजार है, भीड़भाड़ है, शांति नहीं है, एक स्थान, जहाँ कोई जाकर शांत हो जाए——जैसे नींद का कमरा होता है, ऐसे ही उपासना का एक भवन। वहाँ लोग स्वच्छ होकर जाएँगे, ताजे होकर जाएँगे, स्नान करके जाएँगे, शांति हगेई वहाँ, बजार की भीड़भाड़ न होगी, लोग जोर—जोर से बात नहीं करेंगे, वहाँ ज्यादा सुविधा होगी कि कोई आदमी विराम में ठहर जाए, बैठ जाए।

उपासना यानी शांत होकर बैठ जाना। आसन मार दिया, बैठ गये। निमंत्रण दे दिया कि प्रभु तू आ। खींचतान नहीं की जा सकती। तुम उसका आंचल पकड़ कर उसे खींच नहीं सकते। मगर इतना ही हो जाए तो काफी है, अपने—आप आ जाता है। आना ही चाहता है। तुम जितने आतुर हो, तुमसे ज्यादा आतुर परमात्मा है तुमसे मिलने को। तुम्हारी आतुरता तो कुछ भी नहीं है। तुम्हारी आतुरता तो बस नाममात्र की आतुरता है—कामचलाऊ है, कुनकुनी आतुरता है। परमात्मा प्रतिपल आतुर है। सब तरफ से तुम्हें घेर लेना चाहता है, तुम्हें हृदय से लगा लेना चाहता है, मगर तुम मौका नहीं देते। और तुम्हें हृदय से भी लगा ले तो तुम छूट—छूट जाते हो।

सिर्फ अपने को शिथिल छोड़ो, शांत छोड़ो—कहीं भी! यह.. .ये पक्षी बोल रहे हैं, किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर शिथिल छोड़ दो। यह धूप तुम्हारे सिर पर पड़ती है, यह हवा का झोंका आता है, ये पक्षी बोलते हैं, ये सब परमात्मा का ही आगमन है, ये उसकी पगध्वनियाँ हैं, ये उसके ही इशारे है।

उपासना बड़ा प्यारा शब्द है। जापान में ज़ाज़ेन का जो अर्थ है, वही उपासना का अर्थ है, ज़ाज़ेन का अर्थ है, बैठना और कुछ न करना। उपासना का भी यही अर्थ है—बैठना और कुछ न करना। कृत्य के कारण ही हमारे चित्त में चिंताएं पैदा हो जाती है। कृत्य के कारण ऊहापोह शुरू हो जाता है। कृत्य के कारण तरंगें उठने लगती हैं। और जब कुछ कृत्य नहीं करना है, सब तरंगें शांत हो जाती हैं।

तो उपासना को तुम कृत्य मत मानना, अकृत्य है, चेष्टा मत मानना, चेष्टा— रहितता है। कुछ पाने की वासना नही है उपासना, सिर्फ अपने को हाथ में छोड़ देना है परमात्मा के। जैसे कोई जल की धार में अपने को छोड़ दे। और जल की धार उसे बहा ले चले। ऐसे जीवन की धार में अपने को छोड़ देने का नाम उपासना है। कुछ कहने की भी बहुत जरूरत नहीं है। कुछ बोलने की भी बहुत जरूरत नहीं है। हाँ, कभी—कभी बोल सहज उठ जाए तो उठने देना। मगर सहज बोल! और तुम चकित होओगे यह बात जानकर कि जरूरी नहीं है कि सहज बोल में अर्थ हो। कभी—कभी भीतर से हो सकता है सिर्फ नाद उठे। जैसे तुमने शास्त्रीय संगीतज्ञों को कभी आलाप भरते देखा हो, ऐसा नाद उठे।

ईसाइयों में एक छोटा—सा संप्रदाय है। उनकी एक प्रक्रिया है——ग्लासोलालिया। बड़ी महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। उपासना जिसको समझनी हो उसे ग्लासोलालिया समझनी चाहिए। छोटा—सा संप्रदाय, बहुत थोड़े—से लोग उसको मानने वाले हैं। क्योंकि वह बड़ा पागलपन जैसा मालूम पड़ता है। उस संप्रदाय को माननेवाला शांत बैठ जाता है और प्रतीक्षा करता है। फिर भीतर से कुछ आवाज उठनी शुरू होती है——भीतर से, उठाता नहीं। ऐसा नहीं है कि तुम उठाओ——राम—राम, राम—राम या ओम्— ओम्, कुछ उठाता नहीं। भीतर से प्रतीक्षा करता है कुछ उठे——आssssआऽss, कुछ भी उठे, अनर्गल उठे, उठने देता है, बोलने लगता है। असंगत, अर्थहीन ध्वनियाँ पैदा होती हैं। पागलपन लगेगा, जो भी दूसरा देखेगा वह कहेगा——यह क्या प्रार्थना हो रही है? तुम पागल हो गये हो? यह हिंदू की प्रार्थना है कि मुसलमान की, कि ईसाई की? यह किसी की भी नहीं है।

मैं इसको देववाणी कहता हूँ। यह एक विशेष ध्यान है। और मस्ती छाने लगती है। तुम बोलते नहीं, तुमसे कोई बोलता है। तुम सिर्फ माध्यम बन जाते हो, आदमी डोलने लगता है, मस्ती से भरने लगता है, बड़ी मादकता आ जाती है। घंटों बीत जाते हैं, पता नहीं चलता कि समय कहाँ गुजर गया। मगर सिर्फ एक हिम्मत उसमें रखनी पड़ती है कि लोग पागल समझेंगे। यह सहज उद्घोष होगा। लोग तो पागल निश्चित समझेंगे। लोग तो समझेंगे दिमाग गया। यह क्या कर रहे हो? मगर अगर तुम एकांत स्थान खोज सको अपने लिए तो मैं तुमसे कहूँगा——यही असली उपासना है।

और तुम चकित हो जाओगे। एक घंटे भर की देववाणी के बाद तुम ऐसे पाओगे जैसे नहाए जन्मों—जन्मों के बाद। ऐसे ताजे हो गये, हल्के हो गये, जैसे उड़ सको, पर लग गये। जैसे जमीन में कोई कशिश न रही। चलोगे और ऐसा लगेगा कि तुममें कोई भार नहीं। मस्तिष्क एकदम शांत हो जाएगा। शांत ही नहीं, शीतल भी हो जाएगा। एक भीतर शीतलता घनी होगी। तुम पाओगे न मालम कितना बोझ मस्तिष्क से गिर गया। कितनी व्यर्थ की बातें जो सिर में चलती थीं, नहीं चल रही हैं आज। आज भागदौड़ नहीं रहेगी। आज तुम्हारे प्रत्येक कदम में एक शालीनता होगी, एक प्रसाद होगा।

तुम इसे करो और देखो। इसको मैं अनुभव कहता हूँ। मैं तुम्हें बता नहीं सकता। जैसे मैंने कहा आsss आssss आ, ऐसा मत करने लगना, कि मैंने कहा आssss आssss करना है। जो हो, वही होने देना। कभी सार्थक शब्द भी निकल आएगा। कभी निरर्थक शब्द भी आएगा। मगर तुम उसके नियंता मत होना। तुम उसे गहरे अचेतन से उठने देना। पहले तो तुम भी चौकोगे, जब उठेगा, तुम भी डरोगे, एक भय व्याप्त हो जाएगा कि यह क्या हो रहा है। गये काम से! यह बंद होगा कि नहीं फिर? इसको चलने देना है कि नहीं! यह स्वाभाविक भय है कि यह उठ रहा है, हम तो उठा नहीं रहे, फिर चलता ही रहा कहीं! पत्नी भी आकर सामने खड़ी हो गयी और यह नहीं रुका, फिर क्या करोगे? तो आदमी दबाने की कोशिश करता है। उसके ऊपर बैठ जाना चाहता है दबाकर कि ऐसी झंझट में पड़ना ठीक नहीं है, यह तो बिल्कुल शुद्ध विक्षिप्तता है।

तुम अपनी बहुत—सी विक्षिप्तताओं को दबाए बैठे हो। उसीके कारण तुम विक्षिप्त हो, उन्हें निकल जाने दो। उरं—हें उड़ जाने दो हवा में। उन्हें मुक्त कर दो। और तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर पहली बार स्वास्थ्य का अनुभव हुआ। एक घंटा अगर कोई सहज उपासना में बैठ जाए, सिर्फ बैठा रहे, कुछ करे न और जो हो, होने दे। तो एक तो ग्लासोलालिया महत्वपूर्ण प्रत्रि?या है उपासना के लिए। दूसरी प्रकिया है इंडोनेशिया में——’लातिहान’। वह भी महत्वपूर्ण प्रकिया है। ग्यासोलालिया में ध्वनि आने देने पर जोर है और लातिहान में मुद्राओं को।

शांत आदमी खड़ा हो जाता है, लातिहान में बैठता नहीं खड़ा होता है, ताकि मुद्रा ठीक से हो सके। सिर्फ खड़ा रहता है शांत। छोड़ देता है अपने को परमात्मा के हाथ में। सब तरह से शिथिल कर देता है अपने को। कह देता है——जो तेरी मर्जी हो, कर! अचानक पाता है कि एक हाथ ऊपर उठा.. .अपना ही हाथ ऊपर उठते देखना——बिना उठाए——घबड़ाने वाला है.. .मुद्रा बनने लगी, या शरीर डोलने लगा। जैसे बीन बजने लगी और साँप नाचने लगा। नाच पैदा हो जाता है, मुद्राएँ बनती हैं, सिर घूमने लगता है, आदमी चक्कर खाने लगता है——कुछ भी हो सकता है, सब कुछ संभव है। कूदने लगता है, फाँदने लगता है, या कभी कुछ भी न हो, शांत ही खड़ा रहे, कुछ भी न हो, वह भी हो सकता है।

एक. घंटे भर का लातिहान और तुम पाओगे जैसे सारे शरीर में जहाँ—जहाँ ऊर्जा में अवरोध थे, सब पिघल कर बह गये। एक घंटे भर बाद तुम पाओगे तुम्हारा शरीर ठोस नहीं, तरल है। एक अद्भुत नृत्य से गुजर गये। मगर इसमें भी लोग तुम्हें पागल समझेंगे कि यह क्या हो रहा है।

इसीलिए तो जो प्रयोग यहाँ चल रहे हैं, उनको जो लोग बाहर से देखने आ जाते हैं वे समझते हैं कि सब पागलपन हो रहा है; यह क्या हो रहा है? यह कैसा ध्यान? यह कैसी पूजा, यह कैसी प्रार्थना? क्योंकि उनके पास बँधे ढाँचे हैं। वे उन्हीं ढाँचों को सोचकर आए हैं कि कुछ ऐसा हो रहा होगा; कि बाबा मुर्दानंद बैठे होंगे और अपनी माला फेर रहे होंगे। यहाँ कोई बाबा मुर्दानंद नहीं हैं। यहाँ जीवन है, अपनी पूरी तरंग में, अपनी पूरी मस्ती में, अपने पूरे आल्हाद में। लोग यहाँ सोच कर आ जाते हैं कि लोग बैठे होंगे बिल्कुल अपने झाडों के नीचे, सूख—साखे, जिनसे जीवन जा चुका है, झरने सूख गये हैं। ऐसे लोगों को लोग महात्मा कहते हैं। और जब इन महात्माओं के चेहरे बिल्कृउल पीले पड़ जाते हैं, पीतल जैसे हो जाते हैं, तो वे कहते हैं——देखो कैसी स्वर्ण जैसी आभा प्रगट हो रही है! जब ये महात्मा बिल्कुल म्ख कर हड्डी—हड्डी हो जाते हैं, वे कहते हैं——यह है त्याग, तपश्चर्या! यह है महिमा!

तुम खुद भी मूढ़ हो, तुम्हारी मूढ़ता के कारण तुम्हारे महात्मा भी मूढ़ हैं। तुम्हारे पीछे चल रहे हैं। तुम जिस बात की प्रशसा करते हो, वही करने लग जाते हैं।

यहाँ हम किसीकी धारणाएँ तृप्त करने को नहीं हैं। यहाँ तो हम जीवन के प्रयोग कर रहे हैं। यहाँ तो जो सहज नैसर्गिक है, उसको सुविधा दे रहे हैं कि प्रगट हो। उपासना का मेरे लिए यही अर्थ है——जो हो होने देना, तुम तरल हो जाना। तुम कठपुतली हो जाना। और सब धागे उसके हाथ में छोड़ देना। वह नचाए तो नाचना, वह रुलाए तो रोना, वह गवाए तो गाना, वह जो करवाए सो करना। और वह कुछ न करवाए, बिल्कुल बुत बनाकर बिठाल दे तो बुत बने बैठे रहना। अपनी तरफ से न करना, इसे मैं दोहराता हूँ फिर—फिर, अपनी तरफ से कुछ भी न करना। क्योंकि तुम इतने. धोखेबाज हो कि तुम यह सब काम अपनी तरफ से कर सकते हो।

लातिहान में किसी के हाथ—पाँव में मुद्राएँ आ रही हैं, अब तुम खड़े देख रहे हो, तुम सोचते हो कि यह मामला क्या है, हम क्यों खड़े हैं? सब को कुछ—न—कुछ हो रहा है, कोई क्या कहेगा कि इन्हें कुछ भी नहीं हो रहा, तुम भी अपना हाथ—पैर हिलाने लगे, मटकाने लगे; बस तुम चूक गये। सबके भीतर से ध्वनियाँ उठ रही हैं, तुमने देखा कि हम ही चुप बैठे हैं तो बुध्दू मालूम होते हैं, अब जब पागलों के साथ हो गये हैं तो पागल ही हो जाने में सार है, तुम भी उठाने लगे ध्वनि; तुम चूक गये। और बाहर से देखनेवालों को दोनों बातें एक—सी मालूम पडूंगी, क्योंकि बाहर से कोई भेद नहीं किया जा सकता। कौन अभिनय कर रहा है, कौन अनुभव कर रहा है, इसका बाहर से कुछ भेद नहीं किया जा सकता। मगर तुम्हें अपने भीतर तो साफ पता चलता रहेगा कि यह अनुभव है या अभिनय। अगर अभिनय है, तत्क्षण छोड़ दो। अभिनय से कोई परमात्मा तक न पहुँचा है, न पहुँच सकता है। अनुभव से पहुँचता है।

 

तीसरा प्रश्न :

आंख को निर्मल करने का उपाय बताएँ। चारों ओर राम कैसे दिखायी पड़े?

प्रियंवदा! पूछा है तुमने कि चारों ओर राम कैसे दिखायी पड़े! राम की कोई धारणा मत रखना मन में कि खड़े हैं धन्रुर्धारी राम! ऐसी कल्पना लेकर चली, तो जल्दी ही दिखायी पड़ने लगेंगे, मगर वह झूठे राम हैं। राम से धनुर्धारी राम मत समझना, जब भी मैं ‘राम’ शब्द का उपयोग कर रहा हूँ तो परमात्मा के लिए उपयोग कर रहा हूँ, दशरथ के बेटे राम की तस्वीर अगर तुम्हारे मन में बैठ गयी, तो तुम्हारी कल्पना उस तस्वीर में रंग भरने लगेगी।

राम दशरथ के बेटे राम से पुराना शब्द है——इसीलिए तो उनको राम का नाम दिया गया था। वह राम की एक अभिव्यक्ति हैं। जैसे कृष्ण भी राम की एक अभिव्यक्ति हैं। जैसे क्राइस्ट भी राम की एक अभिव्यक्ति हैं। तो पहला तो काम यह तुम्हारे मन में साफ हो जाना चाहिए कि राम से मेरा मतलब सिर्फ परमात्मा से, अल्लाह से।

राम प्यारा शब्द है। मगर राम को धनुषबाण इत्यादि लेकर खड़ा मत कर देना। थक गये होंगे, काफी दिन हो गये खड़े—खड़े। अब उनसे कहो कि धनुषबाण रखो, आप विश्राम में जाओ। कोई रूप मत देना राम को। रूप दिया कि चूक हो गयी। रूप दिया कि खेल मन का शुरू हो जाता। आकार दिया कि तुम भटके। राम को निराकार रहने देना, पहली बात। अगर सब जगह राम को देखना हो तो निराकार रहने देना। अगर आकार दिया तो फिर आकार में ही देख सकोगे, सब जगह न देख सकोगे। इसलिए जिसने धनुर्धारी राम को ही राम मान लिया, वह कृष्ण के विपरीत हो जाता है। वह फिर कृष्ण को नहीं मानता। क्योंकि उसने तो एक रूप पकड़ लिया। अब यह कृष्ण तो बिल्कुल दूसरा रूप है। यहाँ तो बाँसुरी है, धनुष नहीं है। फिर वह क्राइस्ट को कैसे माने! यह तो और भी दूर की बात हो गयी। फिर वह मुहम्मद को कैसे माने? यह तो फासला और लंबा होने लगा। फिर वह जकड़ गया। फिर उसने एक धारणा राम की बना ली, फिर उसी धारणा में आबद्ध हो गया। वह धारणा उसका काराग्रह हो गयी, उसकी जंजीर हो गयी।

पहली बात।

अगर राम को सब जगह देखना हो तो कोई रूप मत देना, रंग मत देना। नहीं तो वृक्ष में कैसे देखोगे? अब वृक्ष विचारा मजबूर है, धनुषबाण उठा नहीं सकता। मोर नाचेगा, कैसे देखोगे? अब नाचे कि धनुषबाण उठाए! तो तुम मुश्किल में पड़ गये। और जिस राम ने धनुषबाण उठाया था, वह कब के तिरोहित हो चुके। अब तो तुम्हें मंदिर में ही मिलेंगे वह; पत्थर की मूर्ति में मिलेंगे। इसीलिए पत्थर की मूर्ति इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है। तुमने रूप तय कर लिया, उस रूप से मिलने वाली चीज तो पत्थर की मूर्ति ही हो सकती है। क्योंकि मृति भी तुम्हारी बनायी हुई है और रूप भी तुम्हारा बनाया हुआ है। तुम झूठे राम की धारणा में बँधे, सब धारणाएँ झूठी हैं। निर्धारणा में राम का अनुभव होता है।

तुम्हारा प्रश्न है——आँख को निर्मल करने का उपाय बताएँ। चारों ओर राम कैसे दिखायी पड़े? तो पहला तो निराकार का भाव करो। निराकार का भाव करते ही चारों ओर है ही राम, दिखायी पड़ने का सवाल नहीं है। वही है। उसके अति— रिक्त कोई और नहीं है। सारे आकार उसके हैं। निराकार का मतलब होता शै—— सारे आकार उसके हैं। सारी आकृतियाँ उसकी हैं। तुम भी वही हो। शेष सब भी वही है। मगर यह भी सिद्धांत रहे तो किसी काम का नहीं है, अनुभव बनना चाहिए। और अनुभव के लिये आँख निश्चित साफ करनी जरूरी है।

सरल उपाय है आंख को साफ कर लेने का——प्रेम से भरे हुए आँसू। रोओ। रोने से प्यारी और कोई प्रक्रिया नहीं है। दुख से मत रोना। दुख से जो रोता है उसने तो रोने की महिमा जानी ही नहीं। आनंद से रोना। आनंद—अश्रु! आँख स्वच्छ होने लगती है आनंद के अश्रुओं से। बाहर की ही आँख शुद्ध नहीं होती, भीतर की आंख भी शुद्ध हो जाती है। दृग्रिg निर्मल हो जाती है। नहीं तो परमात्मा सामने खड़ा रहता है और हमें दिखायी नहीं पड़ रहा। हमारी आँखों पर इतनी धूल जमी है।

यह कौनसा मुकाम है, ऐं जज्बे—आर्जू

वे सामने हैं और नजर बेकरार है

परमात्मा सामने खड़ा है और हम तलाश रहे हैं। और नजर बेकरार है और हम पूछ रहे हैं कहाँ है! अक्सर तो ऐसा हुआ है, तुमने परमात्मा से ही पूछा है है कि कहाँ है? और किससे पूछोगे? बतानेवाला भी वही है। कहाँ खोजोगे उसे? ——खोजनेवाला भी वही है। आँख तो निर्मल निश्चित होनी चाहिए——प्रश्न महत्वपूर्ण है। रोना सीखो! रोना बड़ी कला है। सभी को नहीं आती। पुरुष तो बिल्कुल भूल गये हैं। उन्हें तो याद ही नहीं रही। उन्होंने तो रोने की पूरी प्रक्रिया का दमन कर दिया है। उनकी आँखें तो जड़ हो गयी हैं, पथरीली हो गयी हैं। उनकी आंखों से रौनक भी चली गयी है। उनकी आँखें अंधी हो गयी हैं। उनकी आंखें अहंकार से भर गयी हैं। अहंकार से भरने के लिये उन्होंने आंसुओं से अपनी आँखों को वंचित कर लिया है। क्योंकि अगर आँसू बहते रहें तो अहंकार बह जाएगा। इसलिए हम हर बच्चे को सिखाते हैं कि तू मर्द है, रोना मत, रोने का काम स्त्रियाँ करती हैं। तू कोई लड़की नहीं है, याद रख।

हम छोटे—से—छोटे बच्चे में जहर भरने लगे अहंकार का। हम उसे यह कह रहे हैं कि मर्द कुछ खास बात है। स्त्रियाँ ठीक है रोती रहें, इनका क्या मूल्य है! इनकी कौन गिनती? रोने दो रोना है तो। अच्छा ही हैं उलझी रहें काम में अपने। लेकिन तुम! तुम्हारे उपर जिंदगी के बड़े काम हैं। रोना मत। तुम्हें जिंदगी में लड़ाई लेनी है, संघर्ष लेना है, स्पर्धा करनी है। रोने से कहीं चलेगा? ऐसे बीच बाजार में खड़े होकर रोने लगोगे तो भद्द हो जाएगी। हारो तो भी हँसना, टूटो तो भी हँसना, मरो तो भी हँसना, रोना मत। यही मर्द का लक्षण है। टूट जाओ पर झुकना मत।

और रोना तो कैसे शोभा देगा अहंकारी को? अहंकार के बड़े विपरीत है रोना। पुरुष को हमने अहंकार सिखाया है। और उसका परिणाम यह हुआ है कि पुरुष की एक क्षमता ही खो गयी है। वह रो ही नहीं पाता। और तुम यह जानकर चकित होओगे कि प्रकृति ने कुछ भेद नहीं किया है। स्त्री की आँख के पीछे उतनी ही आंसू की थैलियाँ हैं जितनी पुरुष की आँख के पीछे। दोनों में बराबर आँसू की क्षमता है। इसलिए प्रकृति ने पुरुष को नहीं रोना है ऐसा कोई नियम नहीं दिया है। अगर ऐसा नियम. दिया होता, तो पुरुष की आँख के पीछे आँसू की ग्रंथियाँ ही न होतीं। स्त्रियों को ही आँसू की ग्रंथि दी होती। जो चीज जिसको देनी, उसको दी होती। जैसे पुरुष को बच्चे पैदा नहीं होते हैं तो उसको गर्भ नहीं दिया है। स्ती को गर्भ दिया है। लेकिन पुरुष की आँख में उतनी ही आँसू की ग्रंथियाँ हैं जितनी स्त्री की आंख में। इसलिए प्रकृति ने चाहा था कि दोनों रोएँ, दोनों रोने की कला सीखें।

तो पुरुष तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया है।

मनसविद कहते हैं कि मनुष्यों में पुरुषों की पीड़ा के बहुत कारणों में एक बुनियादी कारण उनका न रोना भी है। रो ही नहीं सकते। तो हल्के नहीं हो पाते। तुमने कभी देखा है, तुम रो लिये हो, हल्के हो गये हो। कोई भार बह जाता है। दुनिया में और दुगुने पुरुष पागल होते हैं स्त्रियों की बजाय। क्योंकि स्त्रियाँ रो लेती हैं और फुटकर—फुटकर पागल’ हो लेती हैं। चिल्लड़? जरा—सी बात हुई, चिल्ला ली, नाराज हो ली, रो ली। पुरुष थोक पागल होता है। इकट्ठा करता जाता है, इकट्ठा करता जाता है, इकट्ठा करता जाता है, फिर एक घड़ी आती है जहाँ सँभालना मुश्किल हो जाता है। दुगुने पुरुष पागल होते हैं। और दुगुने ही पुरुष आत्महत्या भी करते हैं। हालाँकि स्त्रियाँ धमकी बहुत देती हैं, मगर करतीं नहीं। स्त्रियाँ कहती हैं कि हम मर जाएँगे, ऐसा कर लेंगे, वैसा कर लेंगे, मगर करतीं इत्यादि नहीं। कभी—कभी नींद की गोलियाँ भी ले लेती हैं तो हिसाब से लेती हैं कि कहीं मर ही न जाएँ।

स्त्रियों में इतना पागलपन इकट्ठा नहीं हो पाता, उनके रोने के कारण। लेकिन पुरुष आत्महत्या कर लेते हैं। और आत्महत्या से भी बड़ी भयंकर बात पुरुष की यह है कि पुरुष पूरे जीवन हत्या के आयोजन करने में लगा रहता है। इसलिए इतने युद्ध होते हैं दुनिया में। युद्ध चलते ही रहते हैं। कोई भी बहाना मिल जाए पुरुष को लड़ने का, वह चूकता नहीं। बस मौका मिल जाए मारने का, कोई आडू मिल जाए हत्या की कि वह हत्या करने में लग जाता है। और बड़े ऊँचे—ऊँचे नाम देता है। राष्ट्र के लिए, मातृभूमि के लिए, धर्म के लिए, ??? धर्म के लिए, इस्लाम के लिए, बड़े ऊँचे—ऊँचे शब्द देता है, मामला कुल’ इतना ही है कि मारना है। मारना है तो ऐसे ही मारो, कि मारने के लिए। कम—से—कम सचाई तो रहेगी, कि हमारा दिल नहीं मान रहा है अब, अब हम किसी को मारेंगे। लेकिन मारना एकदम, सीधा— सीधा मारने लगो एकदम तो झंझट होती है। पहले वह झंडा ऊँचा रहे हमारा, या कुछ और उपाय करता है। सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा! तुम पागल हो गये हो। यही भ्रांति सभी को है। कोई बहाना खोजो। अच्छे—अच्छे बहाने खोज लो, मगर मतलब पीछे एक है। मतलब साफ हो——मारना है। क्योंकि अगर पुरुष न मारे दूसरे को तो फिर उसे आत्महत्या की सूझती है।

ख्याल करना, दूसरे को मारना और अपने को मारने में बुनियादी फर्क नहीं है, ये एक ही ऊर्जा के दो पहलू हैं। अगर दूसरे को मारने का मौका मिल जाए तो आदमी अपने को नहीं मारता। और अगर दूसरे को मारने का मौका मिले ही न, मिले ही न, मिले ही न, तो जो दूसरे को मारने की प्रक्रिया थी, वह अपने पर ही लौट आती है। आदमी आत्महंता हो जाता है। इसलिए तुम जानकर चकित होओगे कि जब भी दुनिया में बड़ा युद्ध होता है, आत्महत्याओं की संख्या एकदम से गिर जाती है। जब पहले महायुद्ध में आत्महत्याओं की संख्या एकदम से गिर गयी, तो मनोवैज्ञानिक भरोसा ही नहीं कर सके कि युद्ध से इसका क्या संबंध! क्यूँ ऐसा हुआ? और दूसरे महायुद्ध में तो फिर और भी जोर से गिरी। तुम और भी चकित होओगे जानकर कि जब युद्ध होता है तो कम लोग पागल होते हैं, कम डाके पड़ते हैं, कम हत्याएँ होती हैं, कम अपराध होते हैं। जरूरत ही नहीं है और अपराध करने की, युद्ध इतना बड़ा अपराध हो रहा है। और इतनी शान से हो रहा है! हत्याएँ इतनी खुली चल रही हैं, अब अलग—अलग निजी—निजी आयोजन क्या करना, राष्ट्रीय आयोजन हो रहे हैं। बड़े पैमाने पर काम चल रहा है तो अब छोटे—मोटे काम क्या करने हैं। समूह काटे जा रहे हैं, देश के देश बरबाद किये जा रहे हैं, तो अब इक्के— दुक्के आदमी को क्या मारना?

यह दुनिया का एक बड़ा महत्वपूर्ण राज है। जैसे हिंदुस्तान में उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले हिंदू मुसलमान लड़ते थे। तो हिंदू आपस में नहीं लड़ते थे। लड़ने का जब मजा मुसलमान से ही मिल गया तो अब आपस में क्या लड़ना? मुसलमान आपस में नहीं लड़ते थे। फिर हिंदुस्तान पाकिस्तान बँटे। अब वह मजा तो गया तो हिंदू हिंदू से लड़ने लगे। मुसलमान मुसलमान से लड़ने लगे। तुमने देखा, बँगलादेश और पाकिस्तान आपस में लड़ लिये। मुसलमान मुसलमान से लड़ गये। भयंकर हत्या हुई। और हिंदू छोटी—छोटी बात पर लड़ते हैं। यह जिला महाराष्ट्र में रहे कि कर्नाटक में, लड़ों, छूरे भोंक दो। हिंदी राष्ट्रभाषा हो कि न हो, छूरे भोंक दो। छूरा भोंको, कोई भी बहाना लो! भाषा इत्यादि सब गौण बातें हैं। दक्षिण उत्तर का झगड़ा है, भाषा भाषा का झगड़ा है।

जैसे—जैसे बड़े झगड़े मिटते जाते हैं, छोटे—छोटे झगड़े फैलते जाते हैं। लेकिन मात्रा आदमी के उपद्रव की उतनी ही रहती है। ‘ टोटल, ” सम टोटल ‘, वह जो पूरा जोड़ है, वह उतना—का—उतना रहता है। बड़ा झगड़ा खड़ा हो जाए, छोटे झगड़े एकदम बंद हो जाते हैं। तुमने देखा, चीन ने हमला किया, फिर गुजराती—मराठी का कोई झगड़ा नहीं। खतम! जब चीन से ही झगड़ा हो रहा है तो अपने ही आदमियों को आसपास क्या मारना! हिंदुस्तान—पाकिस्तान का झगड़ा हो जाए तो पाकिस्तान इकट्ठा हो जाता है। नहीं हो झगड़ा तो पाकिस्तान में भीतर झगड़े शुरू हो जाते है।

आदमी आदमी से लड़ने को उत्सुक है। कहीं भी लड़ाई चलनी ही चाहिए। और इस सारी लड़ाई के पीछे एक बुनियादी कारण है कि हमने पुरुष को अहंकार सिखाया है। और उसकी आंखों से हमने आँसू छीन लिये हैं। आँसू विन्रम करते हैं। और आँसू पवित्र करते हैं। आँसू हल्का करते हैं।

रोओ! रोने की कला सीखो! कभी—कभी अकारण रोओ। रोने के मजे के लिए ही रोओ। कभी शांत बैठ जाओ और आने दो आंसुओ को। तुम सोचोगे ऐसे कसे आ जाएँगे, कोई कारण तो चाहिए, ऐसे कैसे आ जाएँगे? मैं तुमसे कहता हूँ तुम जरा प्रतीक्षा तो करो किसी दिन बैठकर! तुम चकित होओगे, आते हैं। क्योंकि

 

 

कारण तो जिंदगी भर रहे हैं, तुम आंसू रोक कर बैठे हो। कारण तो कितने आए और चले गये, तुम नहीं रोए हो। और हर बार आँसू भरे थे और निकलना चाहते थे। उनके बाँध तुमने बाँध दिये हैं। बाँध को टूटने दो।

बैठो और रोओ। सौंदर्य को देखो परमात्मा के और रोओ। संगीत को सुनो परमात्मा के और रोओ। आह्लाद में रोओ। रोओ और नाचो। नृत्य तुम्हारे शरीर को पवित्र कर जाएगा। आँसू तुम्हारी आँखों को पवित्र कर जाएँगे। लेकिन लोग बडे उल्टे करते रहते हैं।

जब हँसने—हँसाने के दिन थे हम आठ पहर रोते ही रहे

अब वक्त जो आया रोने का हम अश्क बहाना भूल गये

इस दौरे—तलातुम में ‘वामिक’ कितने ही सफीने खे डाले

और अपनी शिकस्ता किश्ती को मौजों से बचाना भूल गये

लोग यहाँ दूसरों को बचाने में लगे रहते हैं और खुद डूब जाते हैं। न—मालूम कितनों की नावें बचा लेते हैं और यह भूल ही जाते हैं कि अपनी किश्ती शिकस्ता होती जा रही क्ष, टूटती जा रही है — डूबी, अब डूबी, तब डूबी। यहाँ लोग दूसरों को सलाह देते हैं और अपनी ही सलाह अपने काम में नहीं लाते।

जब हँसने—हँसाने के दिन थे हम आठ पहर रोते ही रहे

अब वक्त जो आया रोने का हम अश्क बहाना भूल गये

तुम पूछते हो —— आँख को निर्मल करने का उपाय! तुम्हें खुद ही ख्याल आ जाना चाहिए था, उपाय तो आँख के साथ जुड़ा है——आँसू। मगर शायद आँसू की प्रक्रिया भूल गयी होगी। जिंदगी सख्त कर गयी होगी, पथरीला कर गयी होगी; हृदय को सुखा गयी होगी, रसधार नहीं बहती होगी। उस रसधार को उमगाओ। फिर से बहने दो, आँसुओं को आने दो, आंखों को गीली होने दो। आँखें गीली होंगी तो हृदय भी गीला होगा। और गीला हृदय परमात्मा के निकट हो जाता है, सूखा हृदय दूर हो जाता है।

भक्त ऐसे ही नहीं रोए। समझ लिया था उन्होंने कि रोना भजन की गहरी—से— गहरी प्रक्रिया है। भाव जब भीग जाते हैं, शब्द क्या कहेंगे जो आँसू कह सकते हैं! और तुमने ख्याल किया है, जब भी भाव अतिरेक होता है तो आंसू जरूर आते हैं, फिर चाहे भाव दुख का हो, चाहे सुख का हो, आनंद का हो, कोई भी भाव हो। जब भी भाव अतिरेक में हो जाता है, जब उसकी बाढ़ आती है, तो आंसूओं से बहता है।

संगीत को सुनो और रोओ। सूर्यास्त को देखो और बहने दो आँसुओं को।

इस अपूर्व जगत को अनुभव करो। यह हमारे होने का विस्मय, यह हमारा होना कितना विस्मयपूर्ण है! हमारे होने की कोई आवश्यकता नहीं है, कोई अनिवार्यता नहीं है, हमारे बिना दुनिया बड़े मजे में होती, कोई अड़चन न आती। यह हमारा होना इतना बड़ा चमत्कार है! इस चमत्कार को नहीं देखते और क्षुद्र चमत्कारों की तलाश में रहते हो——मदारियों की तलाश में रहते हो! किसीने हाथ से राख निकाल दी, अहहss। इतना बड़ा चमत्कार हुआ है कि तुम हो, चैतन्य है, प्रेम है, जीवन है! जो नहीं होना चाहिए था, कोई कारण नहीं जिसके होने का, है। तुमने कमाया नहीं है, अर्जित नहीं किया है, यह तुम्हारा हक नहीं है, यह तुम्हें भेंट मिली है, यह प्रसाद अनुग्रह है। इस अनुग्रह में रोओ।

जवानी के नग्मे हवाओं ने गाये——मगर तुम न आये

महकने लगे मेरी जुल्फों के साये——मगर तुम न आये

सुनूँ अपनी साँसों में आहट तुम्हारी

कहाँ जा छुपी मुस्कुराहट तुम्हारी

खड़ी हूँ मैं पलकों की चिलमन उठाये——मगर तुम न आये

इक टीस दिल की सदा बन गयी है

नजर हार कर इल्तजा बन गयी है

उम्मीदों के लाखों दिये झिलमिलाये——मगर तुम न आये

कभी ले लिया शामे—गम का सहारा

कभी रो दिये नाम लेकर तुम्हारा

कभी हमने राहों में सज्दे बिछाये——मगर तुम न आये

रोओ, रोना सज्दा है।

कभी रो दिये नाम लेकर तुम्हारा

कभी हमने. राहों में नज्दे बिछाये——मगर तुम न आये

रोओ, विरह में रोओ, परमात्मा नहीं मिला है अब तक इसलिए रोओ। और फिर जब मिल जाए तो इसलिए रोना कि परमात्मा मिल गया है। रोना दोनों समय काम आता है। जब नहीं मिला तब भी, और जब मिल जाता है तब भी।

डरो मत; भयभीत न होओ। क्योंकि मनुष्य जी रहा है बुद्धि से और बुद्धि के आँकडूाएं की पकड़ में आँसू नहीं आते। आँसू दूसरे ही जगत से आते हैं, उनका बुद्धि से कुछ संबंध नहीं है। आँसू हृदय से आते हैं। इसलिए तुम रोओगे तो दूसरे समझेंगे दुख में हो, पीड़ा में हो। समझाएँगे, सांत्वना देंगे। उनसे कहना कि तुम दुख के कारण नहीं रो रहे हो। क्योंकि परमात्मा का विरह भी बड़ा आनंदपूर्ण है। धन्यभागी हैं वे जो उसके विरह में जलते हैं। क्योंकि उन्हीं का मिलन भी होगा। उसकी याद में बितायी गयी घड़ियाँ कीमती घड़ियाँ हैं। उसके इंतजार में बिताये पल बहुमूल्य हैं।

कट तो गयी है हिज की रात

कैसे कटी यह और है बात

 

यूँ आए वे रात ढले

जैसे जल में ज्योत जले

आँख जिन्हें टपका न सकी

सहरों में वे अश्क ढले

विरह की रात भी कट जाती है। कैसे कटी, कहना मुश्किल है। शब्दों में नहीं कहा जा सकता। सिर्फ आंसुओ में ही गीत उतरते हैं। और विरह में जो रोया है, जितना रोया है, उतने ही मिलन को करीब बुला लिया है। तुम अगर समग्रभाव से रो सको तो इसी क्षण भी मिलन हो सकता है। परमात्मा दूर नहीं है। सामने ही खड़ा है। मगर आँखें धूल से भरी हैं।

अगर रो सको, तो उससे सुंदर फिर कुछ और नहीं है। वही तुम्हारी उपासना। अगर न रो सको, तो फिर कुछ और उपाय खोजने पड़ेंगे। रोना प्रेम की विधि है। भक्ति की विधि है। अगर रोना न बन सके, तो फिर ध्यान करना होगा। ध्यान भक्तिशून्य विधि है। प्रेमरिक्त विधि है। उसका नंबर दो है स्थान। प्रेम से जो वंचित ही हो गये हैं, इस तरह वंचित हो गये हैं अब उन्हें कुछ उपाय नहीं सूझता, उनके लिए ध्यान विधि है।

लेकिन अभी जिनका हृदय प्रेम से भरा है, उन्हें ध्यान की चिंता छोड़ देनी चाहिए। मग्न होओ। कोई अवसर न चूको मान होने का। और हजार अवसर आते हैं रोज। अवसर. आते ही रहते हैं, तुम्हें जरा पहचान आ जानी चाहिए। फूल खिला बगिया में, नाचो, गाओ, रोओ। पत्थरों में फूल खिल रहे हैं, चमत्कार हो रहा है! ओस की बूँद सरकने लगी घास की पत्ती पर, और पूरा सूरज उसमें चमक आया, किरणें— किरणें फूट गयीं, इंद्रधनुष रच गया उसके आसपास, नाचो, गाओ, रोओ। तलाशोगे तो हर घड़ी कुछ—न—कुछ पा लोगे। प्रकृति परमात्मा से भरी है, लबालब भरी है। सागर के गर्जन को सुनो। उसके गर्जन के साथ आत्मसात हो जाओ। जल्दी ही बादल आते होंगे, बिजलियाँ चमकेगी, आकाश बादलों से भरेगा, तुम भी उन बादलों के साथ आकाश में तैरो, तिरो। जरा संबंध जोड्ने लगो अपना परमात्मा के रहस्य— मय लोक से। यही उसका मंदिर है।

और यहाँ बहुत बार हँसी भी आएगी, रोना भी आएगा। और ऐसी घड़ियाँ भी आएँगी जब आँसू भी बहेंगे और हँसी भी साथ होगी। खिलखिलाहट भी फूटेगी और आँख से आँसू भी झरते होंगे। और जब हँसी और रोना साथ—साथ घटते हैं तो बड़ी रहस्यपूर्ण प्रतीति होती है। बड़ी भाव की दशा आ जाती है।

 

अंतिम प्रश्न :

ध्यान का विश्वव्यापी प्रचार व प्रसार अत्यंत जरूरी हो गया है। क्या संन्यास का प्रचार भी उतना ही आवश्यक है?

चिन्मय! ध्यान का प्रचार और प्रसार नहीं करना होता। प्रचार और प्रसार से ही तो सारी बातें झूठी हो गयी हैं। लोग तोते हो गये हैं। ध्यान का तो सिर्फ आचार करना होता है। प्रचार और प्रसार तो आचार के पीछे छाया की तरह चलते हैं।

मैं तुमसे यह नहीं कहता हूँ कि तुम जाओ और ध्यान का प्रचार करो, मैं तुमसे कहता हूँ——जाओ और ध्यान को जीओ। जोर जीने पर है। उस जीने में जो तुम्हें मिलेगा, जो गंध तुमसे उठेगी, वही अगर प्रचार बन जाए तो बन जाए, लेकिन चेष्टा से कोई प्रचार नहीं करना है। नहीं तो अक्सर यह हो जाता है कि लोग भूल ही जाते हैं कि ध्यान करना है, ध्यान का प्रचार करने में मजा लेने लगते हैं। असल में प्रचार करना इतना सस्ता और सरल है, ध्यान करना कठिन मालूम होता है। यह भूल ही जाते हैं कि अपना ध्यान हुआ या नहीं हुआ। दूसरे को ज्ञान देने का मजा ऐसा है। क्योंकि ज्ञान देने में तुम्हारे अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है कि देखो, मैं ज्ञानी और तुम अज्ञानी। जब भी तुम किसीको ज्ञान देते हो, तुम ज्ञानी और वह अज्ञानी।

तो लोग ध्यान के प्रचार में लग जाते हैं, ध्यान के व्यवहार में नहीं। यह खतरा बहुत बार हो गया है। कितने ईसाई मिसनरी हैं दुनिया में! दस लाख ईसाई पादरी हैं सारी दुनिया में। ये भूल ही गये कि इनको क्राइस्ट होना हैं। ये क्राइस्ट के प्रचार में ही लगे हैं। ये भूल ही गये कि क्राइस्ट को भीतर बुलाना है। फुर्सत कहाँ? समय कहाँ? प्रचार से बचें तब! फिर प्रचार के बड़े—बड़े आयोजन किये जाते हैं। फिर प्रचार का शास्त्र निर्मित करना होता है।

मुझे एक बार निमंत्रण मिला एक ईसाई कालेज में, जहाँ वे पादरियों को निष्णात करते हैं। जहाँ वे पादरी—पुरोहित तैयार करते हैं। उन्होंने मुझे धुमाकर दिखाया, मैं देखकर दंग हुआ। वहाँ वे हर चीज सिखाते हैं, छोटी—सें—छोटी चीज सिखाते हैं। पाश्चात्य ढंग तो हर चीज के विस्तार में जाता है। हर चीज को कुशल बनाता है। तो मैंने एक कमरे में देखा कि पादरियों को सिखाया जा रहा है कि जब वे बाइबिल के इस वचन को पढ़ें, तो किस शब्द पर ज्यादा जोर देना, किस पर कम जोर देना; किस शब्द को जोर से बोलना, किसको धीरे बोलना, हाथ कब उठाना, मुद्रा कैसी प्रगट करनी। ये भी सिखाया जा रहा है! अगर जीसस के वचन को बोलते समय तुम्हरे चेहरे पर प्रकाश नहीं आता, तो ही सिखाना पड़ेगा यह कि जब जीसस का यह वचन बोलो तो दिखावा करना है।

मैंने सुना है, ऐसी ही किसी कक्षा में शिक्षक समझा रहा था होने वाले पादरियों को कि जब तुम यह वचन जीसस के पढ़ो, तो आह्नाहित हो जाना। चेहरे पर मुस्कान फैल जाए, आँखें चमक उठें। जब तुम यह स्वर्ग का वर्णन करो जो ईश्वर के राज्य का वर्णन है.. .जीसस ने जगह—जगह स्वर्ग के राज्य का वर्णन किया है… जब तुम यह वर्णन करो, तुम एकदम अलौकिक अवस्था में पहुँच जाना। भावदशा में आ जाना, आखें ऊपर चढ़ जाएँ। और जब नरक का वर्णन करें, एक पादरी ने खड़े होकर पूछा, तब? तब तुम्हारा साधारण चेहरा जैसा है वैसा ही काम दे देगा। कुछ करने की जरूरत नहीं, यही चेहरा ठीक है।

प्रचार जब प्रमुख हो जाए, तो फिर ये बातें महत्वपूर्ण हो जाती हैं। फिर लोगों को कैसे ईसाई बनाया जाए, कैसे आर्यसमाजी बनाया जाए, कैसे यह बनाया जाए, कैसे वह बनाया जाए, लोग इसी चिंता में आतुर हो जाते हैं।

नहीं, तुम ख्याल रखना।

मिसनरी मेरे लिए गदा शब्द है। यहाँ कोई मिसनरी न बन जाए। बचना। जीओ, ध्यान को जीओ। ध्यान संक्रामक है। अगर तुम ध्यान को जीओगे तो तुम अचानक पाओगे कि लोग तुमसे पूछने लगे तुम्हें क्या हो गया है। अगर तुम ध्यान को जीओगे, तुम पाओगे कि लोगों के’ पास से गुजरते वक्त लोग एक क्षण गौर से तुम्हें देखते हैं——तुम्हें क्या हो गया है? तुम कुछ भिन्न मालूम होते हो। तुम्हारे आसपास की तरंग भिन्न मालूम होती है। तुम किसी और लय में आबद्ध मालूम होते हो। अगर लोग पूछें, तो निवेदन कर देना——प्रचार नहीं। क्योंकि प्रचार में’ तो यह आकांक्षा होती है कि दूसरे को जल्दी अपना अनुयायी बना लो। किसी भी तरह समझा—बुझाकर, लोभ—भय देकर, उसे अनुयायी बना लो। नहीं, यह कोई चेष्टा ही मत करना। किसी को अनुयायी बनाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा आनंद अगर उसे छू ले और वह आतुर हो जाए, तो अपने आनंद की विधि उसे समझा देना। प्रचार नहीं है यह, सिर्फ अपने आनंद में उसे साझीदार बना लेना। कोई भी चेष्टा जानी—अनजानी ऐसी न हो तुम्हारे भीतर कि यह मेरी विचारधारा का हो जाए। क्योंकि ध्यान कोई विचारधारा नहीं है। ध्यान तो समस्त विचारों से मुक्ति है।

तुमने पूछा है——ध्यान का विश्वव्यापी प्रचार व प्रसार अत्यंत जरूरी हो गया है। क्यों? तुम सोचते हो पहले आदमी को जरूरत नहीं थी, आज ही जरूरत हो गयी है? ध्यान की जरूरत तो सदा से थी। ध्यान की जरूरत सदा है। जैसे स्वास्थ्य की जरूरत सदा से थी। ध्यान है क्या? आध्यात्मिक स्वास्थ्य, आंतरिक स्वास्थ्य। सदा से जरूरत है।

हर समाज, हर समय अपनी सदी को समझता है——बडी महत्वपूर्ण, बड़ी महत्वपूर्ण, ऐसी कोई सदी नहीं थी! संकट के दिन आ गये! बडी क्रांति हो रही है! मगर तुमको पता है, सदा से यही भाव रहा है लोगों को। जरा किताबें पुरानी उठाकर देखो! हर सदी में लोग यही सोचते हैं कि ऐसी सदी कभी नहीं आयी थी। बड़ा संकट, बड़ी क्रांति!

मैने तो सुना है कि जब अदम को और हव्‍वा को बहिश्त से निकाला गया तो जो पहले शब्द अदम ने बोले थे वे ये कहे थे उसने कि हम एक बहुत संकटकालीन क्रांतिपूर्ण समय से गुजर रहे हैं। पहले शब्द! पहले मनुष्य ने! और तब से आदमी यह बोलता ही रहा है। हर समय से यही बोलता रहा है। हर समय, हर काल में यही बोलता रहा है कि बस! आनेवाली पीढ़ियाँ भी यही कहेंगी जो तुम कह रहे हो। आदमी की जरूरत सदा एक है। भिन्न कैसे हो सकती है? पौधों को पहले जल चाहिए था, अब भी चाहिए। आदमी को पहले भी स्वास्थ्य चाहिए था, अब भी चाहिए। कल भी चाहिए होगा। कुछ बदल नहीं गया है। आदमी की बुनियादी जरूरतें वही—की—वही हैं और वही—की—कही रहेंगी।

यह भी हमारा अहंकार है कि हम अपने समय को खूब बढ़ा—चढ़ाकर, अतिशयोक्ति करके बताते हैं। और हम भूल ही जाते हैं कि ये अतिशयोक्तियाँ सदा की गयी हैं। जब हम करते हैं तो हमें याद नहीं रहती। जब दूसरे करते हैं तो हमें याद रहती है। तब हमें लगने लगता है कि ये बढ़ी—चढ़ी बात कर रहे हैं। लेकिन सभी अपने अहंकार की तृप्ति के लिए हर बात को बढ़ा—चढ़ाकर कहते हैं।

एक माँ अपने बेटे को कह रही थी, क्योंकि उसके बेटे ने आकर उससे कहा कि —माँ ‘ माँ! देख, खिड़की के बाहर एक सिंह चल रहा है। उसकी माँ ने कहा—— फिर अतिशयोक्ति! मुझे दिखायी पड़ रहा है कि बिल्ली जा रही है, और मैं तुझसे करोड़ बार कह चुकी हूँ कि अतिशयोक्ति मत कर, मगर तू किये ही चला जाता है। करोड़ बार! अब वह इन्हीं माता जी की शिक्षा का परिणाम हैं। सुपुत्र सिर्फ उन्हीं के पीछे चल रहे हैं। डाँटा माँ ने बहुत और कहा——जा, ऊपर जा और भगवान से प्रार्थना कर और माफी माँग कि अब कभी अतिशयोक्ति नहीं करूँगा। वह बेटा ऊपर गया, थोड़ी देर बाद वापिस आया। माँ ने कहा——माँगी क्षमा? उसने कहा—— मैंने माँगी, लेकिन भगवान ने कहा कि पहले पहल जब मैने भी बिल्ली को देखा तो मैंने भी समझा कि सिंह आ रहा है।

आदमी अपनी अतिशयोक्तियाँ परमात्मा तक फैला देता है। आदमी अपने झूठ परमात्मा तक फैला देता है।

तुम इसकी चिंता में न पड़ो। ध्यान सदा से जरूरी है। सदा जरूरी रहेगा, क्योंकि आदमी सदा चिंतित रहा है। अब भी चिंतित है। कुछ ऐसा नहीं है कि अब का आदमी कुछ ज्यादा चिंतित हो गया है। ये सब भ्रांतियाँ हैं। इतनी ही चिंता थी। चिंता के कारण बदल गये हैं। आज से हजार साल पहले निश्चित ही कोई आदमी रात में यह नहीं सोचता था चिंतित होकर कि एक फियेट गाड़ी खरीदनी है। कैसे चिंता करता, फियेट गाड़ी होती ही नहीं थी। तो हमको लगता है कि आदमी निश्चित सोता होगा, क्योंकि फियेट गाड़ी की चिंता नहीं। मगर छकड़ा गाड़ी! क्या फर्क पड़ता है? छकड़ा गाड़ी होनी चाहिए एक। एक घोड़ा होना चाहिए मेरे पास शानदार! तुम सोच रहे हो कि एक इम्पाला गाड़ी हो, वह आदमी सोचता था कि एक घोड़ा हो। रात उतनी ही चिंता घोड़े से हो जाती थी, जितनी इम्पाला गाड़ी से होती है। कोई फर्क नहीं पड़ता।

तुम सोचते हो गरीब अमीर की चिंता में कुछ फर्क होते हैं? कोई फर्क नqाईं होते। चिंता वही होती है, चिंता के आधार अलग—अलग होते हैं। चिंता के कारण अलग—अलग होते हैं, चिंता वही होती है।

सब सदियों में आदमी चिंतित रहा है। क्योंकि जब तक ध्यान न फल जाए तब तक चिंता चलती ही रहती है। ध्यान फले तो चिंता जाती है। फिर घोड़े गये, छकड़ा गाड़ी गयी, सब गया। ध्यान आया तो सारी चिंताएँ गयीं। अमीर ध्यान करे तो चिंताएँ चली जाती हैं, गरीब ध्यान करे तो चिंताएँ चली जाती हैं। ध्यान चिंता— मुक्ति है। क्योंकि विचार—मुक्ति है। क्योंकि मन—मुक्ति है।

ध्यान का विश्वव्यापी प्रचार व प्रसार अत्यत जरूरी हो गया है। चिन्मय, तुम खतरनाक बात पूछ रहे हो। तुम कह रहे हो कि करना पड़ेगा! अत्यंत जरूरी हो गया है! लोगों को बदल कर रखना पड़ेगा! यही चलता रहा है इस दुनिया में। जब इस्लाम आया तो मुसलमानों ने कहा कि दुनिया को मुसलमान बना कर रखना पड़ेगा, इससे कम में काम नहीं चलेगा। ख्याल रखना, उनकी भी बड़ी अच्छी आकांक्षा। क्योंकि इस्लाम के बिना उद्धार कहाँ? अज्ञानी भटक रहे हैं—कोई हिंदू है, कोई ईसाई है, कोई यहूदी है, इन अज्ञानियों को सबको रास्ते पर लाना है। जरा उनकी करुणा तो देखो! फिर अगर ये रास्ते पर अज्ञानी अपने—आप नहीं आते तो भी लाना तो है ही। तो फिर तलवार से भी लाना पड़े तो लाना है। उनकी दया तो देखो! तलवार तक उठायी अज्ञानियों को ज्ञान के रास्ते पर लाने के लिए! अगर जिंदा न आओ तो मुर्दा, मगर लाना तो है। जरा उनकी अनुकंपा का तो ख्याल’ करो! पाकर ही रहना है! अच्छी—अच्छी बातों के पीछे बड़े खतरनाक इरादे छिप जाते हैं।

इस्लाम अच्छा, सुंदर भाव है। मगर तलवार उठा ली। इस्लाम का अर्थ होता ह—शाति। शब्द का अर्थ होता है, शांति। और तलवार उठायी शांति में से। आदमी ऐसा अद्भुत है। ध्यान में से तलवार उठा सकता है, जब शांति में से उठा ली। करवा के ही रहना है ध्यान। जिंदा करो तो जिंदा, मुर्दा करो तो मुर्दा, लेकिन ध्यान तो करवा के ही रहेंगे! जिंदा कि मुर्दा, लेकिन बदलाहट तो करवानी है। ईसाई भी इस चिंता में लगे हैं कि सारी दुनिया को ईसाई बना देना है। क्योंकि जो ईसाई नहीं होगा वह नर्क जाएगा। उनका प्रेम तो देखो! जरा उनका प्रेम परखो! क्योंकि जो ईसाई नहीं, वह नर्क जाएगा। स्वर्ग भेजने का एक ही उपाय है——ईसाई! एक ही दरवाजा है। तो जबरदस्ती भी लेकिन भेजना तो पड़ेगा ही। तुम कितने ही चिल्लाओ कि मुझे नहीं जाना है स्वर्ग, वे कहते हैं——हम भेजेंगे। अनिवार्य हो गया है, सभी को जाना पड़ेगा। और जब स्वर्ग भी अनिवार्य हो जाता तो नर्क हो जाता है। अनिवार्यता में नर्क है। स्वतंत्रता में स्वर्ग है।

इस भाषा में मत सोचो कि अत्यंत जरूरी हो गया है, क्योंकि इससे खतरा पैदा होता है। तुससे भीतर तुम्हारे शह भाव उठता है कि जब अत्यंत जरूरी हो गया, अब सब दाँव पर लगा दो। अब आदमी को ध्यान करवा के रहेंगे।

मैं एक संस्कृत विद्यालय में कुछ दिन अध्यापक था। जब पहले—पहल वहाँ गया, संस्कृत विद्यालय था, पुराने ढर्रे का सब हिसाब था वहाँ और संस्कृत पढ़ने कोई जाता तो है नहीं आजकल, तो सभी विद्यार्थी स्कॉलरशिप पर थे। स्कॉलरशिप की वजह ही से संस्कृत पढ़ने आए थे, नहीं तो कौन संस्कृत पड़ता है। किसलिए पढ़ेगा? इसी बहाने आ गये थे कि सौ रुपये महीने स्कॉलरशिप मिलती थी तो भर्ती हो गये थे। और जब स्कॉलरशिप मिलती हो तो फिर उनसे जो करवाना हो सो करवाओ; नहीं तो स्कॉलरशिप कट जाए। तो उनको तीन बजे रात उठना पड़ता था। पुरानी व्यवस्था—— गुरुकुल की! स्नान करो, प्रार्थना करो, पूजा करो। तीन बजे रात, सर्दी के दिन ‘… जब मैं पहुँचा… खुद प्रिंसिपल सोए रहते। क्योंकि वह कोई स्कॉलरशिप वाले विद्यार्थी तो थे नहीं! प्रोफेसर सब सोC रहते। मैं सिर्फ यह देखने के लिए उठा कि इन विद्यार्थियों पर क्या गुजर रही है? वे सब माँ—बहन की गाली दे रहे——प्रिंसिपल से लेकर परमात्मा तक को। क्योंकि जब प्रार्थना अनिवार्य हो जाए और तीन बजे उठकर स्नान करना पड़े, तो कोई आसान मामला है! और मैं नया—नया था, मुझे वे पहचानते नहीं थे, एक ही दिन पहले आया था, तो मैं सब कुएँ पर बैठ कर वे जहाँ स्नान कर रहे थे——संस्कृत कालेज, तो वहाँ कुएँ पर स्नान करना पड़े—पानी डालते जा रहे और गाली देते जा रहे। मैं सब सुना, मैं बहुत प्रसन्न हुआ। बिल्कुल ठीक हो रहा है!

मैने प्रिंसिपल को कहा कि आप इन विद्यार्थियों को परमात्मा का दुश्मन बना रहे हैं। ये एक दफे इस कालेज से छूटे, तो फिर भूलकर परमात्मा का नाम नहीं लेंगे। ये गालियाँ बकते परमात्मा को। ये जबरदस्ती है। पर उन्होंने कहा कि प्रार्थना तो सिखानी ही पड़ेगी। प्रार्थना तो अच्छी चीज है। मैने कहा——आप कहाँ थे तीन बजे? कहने लगे——अब मैं जरा, उम्र भी मेरी हुई, और फिर काम में भी देर लग जाती है रात में, मैं तीन बजे उठूँ तो जरा मुश्किल है। मैंने कहा—और कोई प्रोफेसर वहाँ नहीं था। प्रार्थना इन्हीं बिचारे गरीब विद्यार्थियों के लिए——सब गरीब विद्यार्थी, स्कॉलरशिप पर आए——इन्हीं के लिए जरूरी है? नहीं, उन्होंने कहा कि आप ऐसा कह रहे हैं, अधिक लोग तो स्वेच्छा ही से करते हैं। तो मैंनें कहा——आप ऐसा करें, आज नोटिसबोर्ड पर मैं लिख देता हूँ कि कल सुबह जिनको स्वेच्छा से करना हो वे आएँ और जिनको स्वेच्छा से न करना हो वे न आएँ।

मैने लिख दिया बोर्ड पर। एक भी विद्यार्थी नहीं आया। मैं और प्रिसिपल, दोनों। मैंने कहा——कहिये, जनाब! कहाँ गये विद्यार्थी?

चीजें थोपी गयी हैं संसार पर। और जिन्होंने थोपी हैं, जरूरी नहीं है कि उन्होंने बुरे कारणों से. थोपी हों, कारण अच्छे भी हो सकते हैं, मगर थोपना ही बुरा है। तो न तो कोई प्रसार करना है, न कोई प्रचार करना है, सिर्फ जीना है ध्यान को। उस जीने से किसीको सुगंध मिले, कोई चल पड़े तुम्हारे साथ चल पड़े। मगर यह गौण हो, यह परोक्ष हो।

और पूछा है——क्या संन्यास .का प्रचार भी उतना ही आवश्यक है? आवश्यक किसी चीज का प्रचार नहीं है। प्रचार अच्छी बात ही नहीं है। संन्यास का कैसे प्रचार करोगे? यही तो हुआ, अभी पहला जो मैंने प्रश्न का उत्तर दिया, जो सज्जन कहे कि मैं साधु हो गया था। प्रचार में हो गये होंगे। प्रचार में आदमी कुछ—का कुछ हो जाता है। आदमी प्रचार से जीता है। रोज—रोज दोहराते रहो कोई बात, लोगों को लगने लगती है अब करना जरूर है।

तुम रोज अखबार में पढ़ते हो कि नया टूथपेस्ट आ गया बजार में। पढ़ते रहते, पढ़ते रहते.. .पहली दफे पढ़ते, तुमको कुछ खास ध्यान नहीं आता, निकल गये, पढ़लिया। फिर दूसरी दफे, फिर तीसरी दफे। जब दो महीने के बाद तुम पहुँचते हो प्रकान पर, टूथपेस्ट खरीदने, तुम्हें अचानक वही नाम याद आता है जो दो महीने से मगर—बार तुम पर दोहराया जा रहा है। रेडियो से भी——बिनाका! अखबार में भी——बिनाका! बाजार में भी——बिनाका! सुंदरियाँ खड़ी हैं जिनके चेहरों से बिनाका की सुगंध आ रही है! बिनाका गीतमालाएँ चल रही हैं? हर तरफ।बनाका! तुम्हारी खोपड़ी में बिनाका भर गया। अब तुम कुछ भी लाख उपाय करो, बस बिनाका ही निकलता है। दुकान पर गये कि बिनाका! तुम सोचते हो कि मैं अपनी स्वेच्छा से चुन रहा द्रूँ। तुम नहीं चुन रहे हो। यह जबरदस्ती हो गयी, यह बड़ी सूक्ष्म जबरदस्ती है।

ऐसे ही लोग साधु भी हो जाते हैं, संन्यासी भी हो जाते हैं; ध्यानी भी हो जाते हैं, पूजा—पाठी भी हो जाते हैं, मगर यह सब झूठ है।

प्रचार से नहीं! तुम्हारे जीवन की ज्योति जले। जो संन्यास तुम्हारे जीवन में आया है, इसकी मस्ती किसी को अगर मोह ले, तो ठीक। बस इसकी मस्ती किसीको मोह ले तो ठीक।

कोई आयोजन नहीं करना है? बहुत आयोजन हो चुके मनुष्यजाति के इतिहास में आदमी को अच्छा बनाने के, सब असफल हो गये हैं। अब कोई आयोजन अच्छा बनाने का मत करना। आदमी अच्छा है जैसा है। तुम अगर और इससे बेहतर हो सकते हो तो हो जाओ। बस तुम्हारे बेहतर हो जाने से ही कोई क्रांति की प्रक्रिया शुरू होती है, शृंखला शुरू होती है। एक दीये से दूसरा दीया जल जाता है, दूसरे से तीसरा दीया जल जाता है। और हम आशा कर सकते हैं कि अगर असली दीये जलते रहेंगे तो कभी यह पूरी पृथ्वी दीपमालिका बन सकती है। मगर जोर—जबरदस्ती नहीं।

और प्रचार जोर—जबरदस्ती है। वह बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है लोगों के ऊपर थोपने की। नहीं, थोपना नहीं——न ध्यान, न संन्यास। आविर्भाव होने दो। अपने—आप आने दो।

सहजस्फूर्त जो है, वही सुंदर है, वही सत्य है, वही शिव है।

 

आज इतना ही।

 


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आनंद यांग–(दि बिलिव्ड)–(प्रवचन–07)

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वे वासना को वासना से ही मारते हैं—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 16 जूलाई 1976;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

 बाऊलगीत:

जो लोग मर गये हैं

पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित है,

और वे प्रेम के अनुभवों

और उसकी सुवास को भली भांति जानते हैं,

वे लोग ही जीवन—मृत्यु की इस सरिता को देखते हुए

अखण्ड सत्य को खोजते हैं, और वे लोग ही

इस नदी को पार कर लेंगे।

हवा के विरुद्ध चलोग हुए

प्रसन्नता पाने की

उनकी कोई चाह ही नहीं है।

वे वासना को

वासना में रहते हुए ही मारते हैं

और बिना तादात्‍म्‍य जोड़े प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं।

 

नुष्य की ऊर्जा सक्रिय है, वह एक निरंतर होने वाली प्रगति है। वह एक बहुत सृजनात्मक विकास है, जिसमें हजारों सम्भावनाएं हैं और साथ ही उसके लिए अनंत विकल्प भी खुले हैं। मनुष्य इस अस्तित्व के विकास का आरम्भ है, और उसमें इस अस्तित्व की सभी सम्भावनाएं हैं। मनुष्य का शरीर एक लघु बह्माण्ड है, वह वास्तव में है केवल एक बूंद ही, लेकिन उस बूंद में वह सभी कुछ है, जो एक सागर में होता है, वह वास्तव में है एक बूंद ही, लेकिन चेतना की वह एक बूंद है, और चेतना है सागर जैसा अपार, अनंत, जो कोई सीमाएं नहीं जानती। लेकिन जिस मनुष्य की मैं बात कर रहा हूं वह है—बाउलों का सारभूत मनुष्य— आधार—मनुष्य। तुम भी वही बन सकते हो, लेकिन तुम वह हो नहीं। तुम अभी बीज हो। तुम टूट कर, अंकुरित होकर फल—फूल कर हवाओं में अपनी सुवास बिखेर सकते हो, लेकिन अभी तुम वह हो नहीं। इसे भली भांति स्मरण रखना है।

गुरुजिएफ कहा करता था कि मनुष्य आत्मा के साथ नहीं जन्मता, उसे प्रयास के द्वारा आत्मा निर्मित करनी होती है। मनुष्य का जन्म लेना, केवल एक अवसर और सौभाग्य है, जिसका प्रयोग किया जा सकता है, और उसे बर्बाद भी किया जा सकता है, यह सभी कुछ तुम पर निर्भर है। एक व्यक्ति को स्वयं अपना का सृष्टा बनना होता है। माता—पिता ने तुमको शरीर दिया है, लेकिन असली जन्म तो अभी होना है। और इस असली जन्म के लिए तुम्हें अपनी मां, और अपना पिता स्वयं बनना होगा। असली जन्म तो आंतरिक सृजनात्मकता से होता है। तुम्हें अंदर ही गतिशील होकर, अपने ऊर्जा के स्रोत को खोजना होगा, और इतना ही नहीं, बल्कि उस ऊर्जा के यांत्रिक मार्ग को, और उस यात्रा में आने वाले सभी रास्तों को सचेतन बनाने के लिए बदलना होगा।

सामान्यत: ऊर्जा, नीचे की ओर प्रवाहित होती है। यही कारण है कि बाउल उसे वासना कहकर पुकारते हैं। जब वे उसे वासना कह कर पुकारते हैं, तब वे न तो उसका विरोध कर रहे हैं और न उसकी निंदा कर रहे हैं। यह केवल एक तथ्य है, ठीक जैसे पानी नीचे की ओर ही बहता है। पानी के लिए स्वाभाविक यही है कि वह पहाड़ से नीचे की ओर बहे। लेकिन पानी ऊपर भी उठ सकता है, इतना गर्म करना पडेगा, जिससे वह वाष्प बन सके। गर्मी के एक विशिष्ट तापमान पर, सौ डिग्री पर वह ऊपर की ओर उठना शुरू कर देता है। वही पानी जो बहता हुए पहाड़ से नीचे की ओर जाता था, अब पहाड़ के ऊपर की ओर उठना शुरू हो जाता है।

एक रूपांतरण घटित हुआ है, जिसके लिए केवल ताप की आवश्यकता थी। पूरब में इस ऊर्जा को ताप कहते हैं। ताप का अर्थ होता है—गर्मी, ताप शब्द का अर्थ है अपने आप को उष्ण करना गर्म करना।

बाउल गाते हैं:

जब कामना की अग्नि से सारे अंग जलने लगें

फिर भी समय

उसके रस को वासना की ही आँच पर उबालो

जिससे उसके फल में सूक्ष्मता से मधुरता आ जाये।

उसकी चाशनी को जब तक

नियंत्रित ऊष्मा पर मथा न जाये

वह खमीर उठ जाने से खट्टा हो जाता है

कामनाओं से ही भावनाओं का विकास होता है

और वासना के खुरदुरे वृक्ष के तने से ही प्रेम की कोंपलें फूटती हैं। वासना भी वही ऊर्जा है, जैसी प्रेमी की है, अंतर केवल दिशा का है। वासना की ऊर्जा नीचे की ओर बहती है, और प्रेम पहाड़ी पर ऊपर की ओर चढ़ने का प्रारम्भ है। वासना, ठीक वृक्ष की जड़ों जैसी है, और प्रेम पक्षी के पंखों के समान है—लेकिन ऊर्जा वही है। सभी ऊर्जाएं एक जैसी ही होती हैं। ऊर्जा अपने आपमें तटस्थ होती है। उसके बारे में तुम जब तक सचेतन न हो, वह सृजनात्मक नहीं हो सकती। और पहाड़ से नीचे की ओर जाने की गति विनाशात्मक है: तुम केवल अपने आप को भ्रष्ट कर रहे हो। तुम उसके द्वारा बिखरी तरल चेतना को ठोस बनाकर उसका एकीकरण नहीं कर रहे हो—जिसे गुरुजिएफ क्रिस्टलाइज़ेशन कहता है।

प्रत्येक क्षण तुममें ऊर्जा उडेली जा रही है। अस्तित्व तुममें वायु के द्वारा जल के द्वारा, भोजन के द्वारा, सूरज और चंद्रमा के प्रकाश के द्वारा, एक हजार एक तरीकों और सूक्ष्म प्रभावों से तुम्हें ऊर्जावान बना रहा है। ब्रह्माण्ड तुम्हारे अंदर ऊर्जा उडेले जा रहा है। और तुम इस ऊर्जा के साथ कर क्या रहे हो? तुम इससे कोई भी कार्य कर भी रहे हो अथवा उसे केवल बरबाद कर रहे हो? क्या तुम इससे किसी चीज का सृजन कर रहे हो? क्या तुम इस बिखरी बहती चेतना की ऊर्जा को एक निश्चित स्थान पर ठोस बनाकर उसका एकीकरण कर रहे हो? अथवा वह एक छोर से तुम्हारे अंदर प्रविष्ट होती है और दूसरे छोर के द्वारा बाहर निकल जाती है?

यहां ऐसे बहुत से लोग हैं जो एक पाइप की तरह जी रहे है: तुम शरीर के पाइप में एक ओर से चीजें उड़ेलोग हो, और उसके दूसरे सिरे से बाहर निकाल देते हो। एक पाइप बनकर मत जियो।

जब ऊर्जा तुम्हारे अंदर हो, उसके साथ कुछ करो, जिससे उसका कुछ भाग तुम्हारा स्थाई भाग बन जाये। अन्यथा तुम्हारा पूरा जीवन केवल एक पाइप बना ही रह जाएगा: खाना, पीना, व्यर्थ भाग को बाहर निकाल देना, पेशाब करना—ठीक एक पाइप की तरह। तुम्हारी इस ऊर्जा द्वारा सूक्ष्म रस निर्मित होते हैं। यही सेक्स है, बहुत ही सूक्ष्म रस। अब तुम इसके साथ क्या कर रहे हो? क्या तुम इससे कोई सार्थक कार्य कर रहे हो अथवा इसे केवल बरबाद कर रहे हो?

वासना सेक्स ऊर्जा का सबसे अधिक निम्रतम रूप है, प्रेम इसका सर्वोच्च रूप है। जब तक तुम्हारी वासना प्रेम न बन जाये, तुम लक्ष्य से चूकते रहोगे।

गुरुजिएफ कहा करता था कि मनुष्य में एक विशिष्ट यांत्रिकत्व है, जिसे वह ‘कुंड बफर’ कहा करता था, यह ठीक कुंडलिनी के ही समानांतर है। कुण्डलिनी एक केंद्र है, लेकिन यह केवल तभी कार्य करता है, जब ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है।’कुंड बफर’ वह केंद्र है, जो तब कार्य करता है, जब तुम्हारी ऊर्जा नीचे की ओर जाती है। इसी ‘कुंड बफर’ को पिघला कर नष्ट करना है, क्योंकि यही कई जन्मों के निरंतर अभ्यास से बनी यांत्रिकता है। प्रत्येक मनुष्य शरीर में एक विशिष्ट यांत्रिकत्व और एक मार्ग बन जाता है और जिस क्षण ऊर्जा तैयार होती है, वह इसी मार्ग के द्वारा गतिशील होती है। यह मार्ग तुम्हारे अस्तित्व को बाहर ले जाने के लिए वहां पहले ही से है। यदि यही सत्य है और कुछ अन्य होने की सम्भावना ही नहीं है, तब जीन—पॉल—सार्त्र ठीक ही कहता है कि मनुष्य होना एक व्यर्थ की लालसा या उत्कंठा है। तब तुम पृथ्वी पर कुछ दिनों तक जीवित रहते हो, चीजों को भोजन के रूप में लेते हो, उन्हें अवशोषित करते हो, व्यर्थ का भाग बाहर फेंकते हो और इसके अलावा कुछ भी नहीं करते हो। तब इस सभी कुछ का महत्त्व क्या है?

लेकिन सब कुछ यही नहीं है।’कुंडबफर ‘ पिघलाया जा सकता और उस मार्ग को तोड़ा जा सकता है। और एक बार वह मार्ग तोड़ दिया जाए तो दूसरा मार्ग कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। वह मार्ग पहले ही से है और तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसा नहीं कि वह अस्तित्व में नहीं है, वह पहले ही से है। वह तुम्हारे जन्म के साथ ही आया है, लेकिन तुमने अभी तक उसका प्रयोग नहीं किया है। तुमने अपनी ऊर्जा को उसके द्वारा बहने की अनुमति नहीं दी है। वास्तव में वह पहाड़ी पर ऊपर चढने जैसा श्रमपूर्ण कार्य है और पहाड़ी पर जाने के लिए शक्ति, सजगता, संकल्प साहस और श्रद्धा की आवश्यकता होती है…. बहुत सी अन्य चीजों की जरूरत होती है।

प्रेम करना कोई काल्पनिक स्वप्न नहीं है। प्रेम, वासना की छलनी से छनकर ही विकसित होता है, इसका अनुभव मृत्यु होने जैसा है। जैसे चिकनी मिट्टी से प्रेम करने वाला मृग पूरी तरह जीवित ही पृथ्वी में दफन हो जाता है। और मिट्टी में ही बिल बनाकर रहता है। प्रेमी भली भांति जानते हैं कि वासना से प्रेम का नवनीत कैसे निकाला जाता है यद्यपि एक शक्तिशाली व्यक्ति के लिए भी यह पहाड़ पर चढ़ने जैसा कार्य है।

अत्यंत साहसी, वास्तव में दृढ़ संकल्प और सच्ची जोखिम उठाने वाले लोग ही आत्म— अनुभव अथवा आत्म—रूपांतरण के मार्ग की ओर आकर्षित होते हैं। धर्म है, सबसे बड़ी जोखिम उठाने जैसा अदम्य साहस। गौरीशंकर शिखर पर अथवा चांद पर पहुचना भी कुछ नहीं है, लेकिन अपने ही अस्तित्व के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना ही असली बात हैं क्योंकि पहले तो हम इस तथ्य के प्रति ही सजग नहीं है कि शिखर जैसी किसी चीज का भी अस्तित्व है। पहले ही हम इतने अधिक मूर्च्छित हैं कि हम यह भी नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं। हम यह भी नहीं जानते कि हम अपने जीवन के साथ क्या कर रहे हैं?

मैंने सुना है :

एक छोटे विद्युत उत्पादन केंद्र का प्रबन्धक अपना कार्य करते हुए बिजली के चपेट में आकर मर गया। सह—प्रबंधक ने पुलिस, मजिस्ट्रेट और संयंत्र के सभी कर्मचारियों को सूचित किया। उन सभी लोगों ने भय से आक्रांत होकर फर्श पर प्रबंधक के मृत शरीर को पड़ा पाया और वे सभी यह अनुमान लगाने लगे कि इतना अधिक अनुभवी व्यक्ति इतनी अधिक भयंकर भूल कैसे कर सकता है?

सह प्रबंधक ने कहा—’‘मैं केवल एक ही बात सोच सकता हूं कि बेचारे जो ने अपने एक हाथ में केबिल का यह छोर जरूर उठाया होगा।’’

सह प्रबंधक केबिल का एक छोर एक हाथ में उठाकर, बिना सोचे समझे उसे दूसरे हाथ तक ले गया और दूसरे हाथ से सम्पर्क होते ही एक धमाका हुआ।

सह प्रबंधक भी मृत प्रबंधक के शव की बगल में ही मृत पड़ा था लेकिन वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए उस रहस्य को सुलझा कर मरा था।

 

मनुष्य मूर्च्छित है। तुम सभी काम किए चले जाते हो, बिना यह जानते हुए आखिर तुम उन्हें क्यों कर रहे हो? यदि तुम्हें थोड़ा भी होश हो, तो तुम वे काम जो किये चले जा रहे हो, उन्हें कर ही नहीं सकते।

हम जो कुछ अपने जीवन के साथ कर रहे हैं, उसे केवल सोये—सोये कर रहे हैं। चेतना विकसित होनी है। तुम जितने अधिक होशपूर्ण होगे, उतनी ही अधिक ऊर्जा अपने आप ऊपर की ओर बहना शुरू हो जायेगी। चेतना ही ऐसी वह कुंजी है, जिससे सारे ताले खुल जाते हैं, चेतना या होश ही वह संकेत है, जिससे पूरी पहेली हल हो जाती है। चेतना के द्वारा ही वासना प्रेम बन जाती है, इसलिए प्रेम कोई अचेतन कृत्य नहीं है।

जब बाउल कहते हैं कि प्रेम ही द्वार है, तो उनका अर्थ उस प्रेम से नहीं होता, जिसे तुम प्रेम कहते हो। तुम्हारा प्रेम उतना ही मूर्च्छित है, जितने तुम्हारे अन्य कृत्य। वह मूर्च्छित हैं, इसी कारण प्रेम में गिरना ‘ शब्दों से उसे अभिव्यक्त किया जाता है। हां! यह नीचे गिरने जैसा ही है। बाउल जिस प्रेम की बात कहते हैं, वह प्रेम में नीचे गिरना न होकर ऊपर उठना है। वह नीचे गिरना न होकर ऊपर उठना है। इसलिए गलत मत समझो कि बाउल जिस प्रेम की बात कर रहे हैं, तुम्हारा प्रेम है। तुम्हारा प्रेम तो केवल वासना का ही दूसरा नाम है, यह एक सुंदर और अच्छा नाम है। और अच्छे तथा सुंदर शब्दों से सावधान रहो, क्योंकि वे बहुत धोखेबाज हो सकते हैं। यदि तुम वासना पर प्रेम का लेबिल लगा दो, तो तुम अपने लगाये लेबिल से धोखे में पड़ जाओगे।

वासना तभी होती है, जब तुम मूर्च्छित होते हो। तुम एक स्त्री को देखते हो अथवा एक पुरुष को देखते हो, और तुम उसके प्रेम में पड़ जाते हो, और तुम नहीं जानते कि आखिर क्यों, कभी—कभी तो तुम अपने स्वयं के ही स्वर के विरुद्ध, स्वयं अपने को भुलाकर प्रेम में डूब जाते हो।

लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं—’‘ हम क्या कर सकते हैं आखिर? हम असहाय हैं। हमें प्रेम हो गया है।’’ यह प्रेम बाउलों का प्रेम नहीं है, यह वासना है। जिसे बाउल वासना कहते हैं, वह यही है: मूर्च्छित प्रेम ही वासना है। तब इसकी ऊर्जा नीचे की ओर बहती है। तब यह काम केंद्र से गुजरती हुई फिर इसी संसार में आ जाती है। वासना का ऊर्ध्वगमन ही प्रेम है, लेकिन यह सचेतन या होशपूर्ण होता है। चेतना ही वह सीढ़ी है, जिस पर तुम एक पायदान चढ़ते हुए अधिक से अधिक होशपूर्ण बनते हो। तुम जो कुछ भी करते हो, पूरे होश से करते हो, यहां तक कि चलना, भोजन करना, बिस्तरे पर सोने के लिए जाना, बात करना और सुनना भी एक जीवन की ये सभी छोटी— छोटी चीजें भी जिन्हें तुम करते हो, होशपूर्ण होकर ही करते हो। और जब तुम प्रेम में होते हो, तुम पूरे चैतन्य के ही प्रेम में होते हो। यह प्रेम, तुम्हारे स्वयं अपने ही विरुद्ध नहीं होता। यह ऐसा नहीं होता जो तुम्हें अपने नियंत्रण में ले ले, यह ऐसा नहीं होता, जिसके तुम शिकार हो जाओ, यह वैसा भी नहीं होता, जैसे कोई व्यक्ति चुम्बक की भांति तुम्हें अपनी ओर खींच ले। नहीं, तुम स्वयं ही उसकी ओर सचेतन रूप से गतिशील होते हो।

बाउलों का प्रेम अत्यधिक शीतल होता है। उसमें सजगता की शीतलता होती है। तुम्हारा प्रेम बहुत उतस और उष्ण होता है। उसमें मूर्च्छा का ज्वर होता है।

हम सभी ‘कुंड बफर’ के द्वारा कार्य करते हैं। ठीक काम केंद्र के मध्य में यह यांत्रिक रूप से कार्य करता है। जो लोग ‘कुंड बफर’ के द्वारा जीते हैं, वे लोग दो तरह के जीवन जी सकते हैं एक तो अपनी कामनाओं को तुष्ट करने में लगे रहना है और दूसरा है उनका दमन करना—लेकिन दोनों ही एक जैसे ही हैं। सामान्यत जो लोग दमन भरा जीवन जीते हैं उन्हें संत कहा जाता है। यह केवल बेवकूफी है। भिन्न वस्त्रों में ये लोग भी अन्य दूसरों जैसे ही हैं। अपनी कामनाओं को तुष्ट करने में लगे लोगों का जीवन उतना ही मूर्च्छापूर्ण है जितना कि उन लोगों का, जो दमित जीवन जी रहे हैं। वास्तव में ‘ कुण्ड बफर ‘ जितना अधिक शक्तिशाली होता है, लोग उतने ही अधिक दमित होते हैं क्योंकि वे उसे नियंत्रित करना चाहते हैं। वे भयभीत रहते हैं। वे भयभीत इसलिए होते हैं क्योंकि वे अपनी कामेच्छाओं के ऊपर अपने अहंकार का नियंत्रण खोने लगते हैं। वे उसे नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं, लेकिन उनका नियंत्रण कामेच्छा को गहरे अचेतन में बलपूर्वक धकेलना जैसा होता है। उसके शिखर पर बैठे हुये निरंतर उन्हें उससे संघर्ष ही करना होता है।

और स्मरण रहे यदि तुम्हें किसी चीज से संघर्ष करना अथवा लड़ना है, तो तुम कभी उसे छोड़ नहीं सकते, और न उसके पार जा सकते हो। उसके साथ लड़ने के लिए तुम्हें उसी तल पर बने रहना होगा। उससे लड़ने के लिए तुम्हें चौबीस घंटे उसकी छाती पर चढ़कर बैठे रहना होगा। वहां कोई अवकाश का दिन नहीं होता, और यदि तुम एक क्षण के लिए भी उसे छोड़ दो, तो वह फिर वहां उपस्थित होकर तुम्हें कामनाओं को तुष्ट करने की ओर धकेलता है।

कामनाओं को तुष्ट करने वाला और उनका दमन करने वाला, यह एक ही तरह के व्यक्ति के दो चेहरे हैं। तुम अपने मठों और आश्रमों में दमन करने वालों की श्रेणी ही के लोग पाओगे और संसार में तुम कामनाओं को तुष्ट करने में लगे लोग पाओगे। प्लेबॉय और तथाकथित संत ये दोनों एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। उन दोनों के मनों में सेक्स ही उमडू घुमड़ रहा है, दोनो की मानसिक जड़ता एक जैसी ही है और दोनों की मानसिक रुग्णता एक जैसी ही है। उनका ‘ कुण्डबफर ‘ पिघलने की जरूरत है। और क्या किया जा सकता है?

इसमें एक छोटी सी विधि बहुत सहायक होगी। जब कभी तुम्हारे अंदर सेक्स की कामना उठे, तो वहां उसकी तीन सम्भावनाएं है: पहली है, उनको तुष्ट करने में लग जाओ, सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति यही कर रहा है, दूसरी है—उसका दमन करो, उसे बलपूर्वक अपनी चेतना के पार अचेतन के अंधकार में नीचे धकेल दो, उसे अपने जीवन के अंधेरे तलघर में फेंक दो। तुम्हारे तथा कथित असाधारण लोग, महात्मा, संत और भिक्षु यही कर भी रहे हैं। लेकिन यह दोनों ही प्रकृति के विरुद्ध हैं। ये दोनों ही रूपांतरण के अंतर्विज्ञान के विरुद्ध हैं।

तीसरी सम्भावना है—जिसका बहुत थोड़े से लोग सदैव प्रयास करते हैं। जब भी सेक्स की कामना उठे, तुम अपनी आंखें बंद कर लो। यह बहुत मूल्यवान क्षण है: कामना का उठना ऊर्जा का जाग जाना है। यह ठीक सुबह सूर्योदय होने जैसा है। अपनी दोनों आंखें बंदकर लो, यह क्षण ध्यान करने का है। अपनी पूरी चेतना को काम केंद्र पर ले जाओ, जहां तुम उत्तेजना, कम्पन और उमंग का अनुभव कर रहे हो। वहां गतिशील होकर केवल एक मौन दृष्टा बने रहो। उसकी निंदा मत करो, उसकी साक्षी बने रहो। तुम उसकी निंदा करते हो, तुम उससे बहुत दूर चले जाते हो। और न उसका मजा लो, क्योंकि जिस क्षण तुम उसमें मज़ा लेने लगते हो, तुम मूर्च्छा में होते हो। केवल सजग, निरीक्षण कर्ता बने रहो, उस दीये की तरह जो अंधेरी रात में जल रहा है। तुम केवल अपनी चेतना वहां ले जाओ, चेतना की ज्योति, बिना हिले डुले थिर बनी रहे। तुम देखते रहो कि कामकेंद्र पर क्या हो रहा है, और यह ऊर्जा है क्या?

इस ऊर्जा को किसी भी नाम से मत पुकारो, क्योंकि सभी शब्द प्रदूषित हो गए हैं। यदि तुम यह भी कहते हो कि यह सेक्स है, तुरंत ही तुम उसकी निंदा करना प्रारम्भ कर देते हो। यह शब्द ही निदापूर्ण बन जाता है। अथवा यदि तुम नई पीढ़ी के हो, तो इसके लिए प्रयुक्त शब्द ही कुछ पवित्र बन जाता है। लेकिन शब्द अपने आप में हमेशा भाव के भार से दबा रहता है। कोई भी शब्द जो भाव से बोझिल हो, सजगता और होश के मार्ग में अवरोध बन जाता है। तुम बस उसे किसी भी नाम से पुकारो ही मत। केवल इस तथ्य को देखते रहो कि काम केंद्र के निकट एक ऊर्जा उठ रही है। उसमें उत्तेजना है उमंग है, उसका निरीक्षण करो। और उसका निरीक्षण करते हुए तुम्हें इस ऊर्जा का पूरी तरह से एक नये गुण का अनुभव होगा। उसका निरीक्षण करते हुए तुम देखोगे कि यह ऊर्जा ऊपर उठ रही है। वह तुम्हारे अंदर मार्ग खोज रही है। और जिस क्षण वह ऊपर की ओर उठना प्रारम्भ करती है, तुम्हें अनुभव होगा कि एक शीतलता तुम पर बरस रही है, तुम पर चारों ओर से एक अनूठी शांति, मौन अनुग्रह आशीर्वाद और आनंद की वर्षा हो रही है। अब कोई पीड़ायुक्त है, यह ठीक एक मरहम जैसा है। और तुम जितने अधिक सजग बने रहोगे, यह ऊर्जा उतनी ही ऊपर जाएगी। यदि यह हृदय तक आ सकती है, जो बहुत कठिन नहीं है, कठिन तो है, लेकिन बहुत अधिक कठिन नहीं है.. यदि तुम सजग बने रहे, तो तुम देखोगे कि यह हृदय तक आ गई है। जब यह ऊर्जा हृदय तक आ जाती है तो तुम पहली बार यह जानोगे कि प्रेम क्या होता है।

अभी तक प्रेम के नाम पर तुम एक नकली चीज ढोये चले जा रहे हो। जब यह ऊर्जा हृदय चक्र पर आती है तो प्रेम में रूपांतरित हो जाती है। एक बार प्रेम में रूपांतरित हो जाये, एक बार वह समझ बनकर मर्म को बेध जाये, एक बार तुम उसका अनुभव कर लो, तो तुम्हारा अस्तित्व शुद्ध होने का अनुभव करेगा। तुम्हें कुंवारे होने का अनुभव होगा, तुम्हें इतना पवित्र और निर्मल होने का अनुभव होगा कि तुम यह सोच भी नहीं सकते कि स्वर्ग कहीं और भी है। तुम जानोगे कि वह तुम्हारे ही अंदर है। और तब स्वर्ग एक सत्य बन जाएगा, तब वह धर्मशास्त्रों की कल्पना मात्र न होगा, वह लगभग एक भूगोल बन जाएगा। तुम ठीक से जान जाओगे कि वह कहां है, और परमात्मा फिर एक कल्पना भर नहीं रह जाएगा। उस शुद्धता में, उस मौन में और प्रेम की उस परिपूर्णता में तुम देखोगे—परमात्मा है— एक सिद्धांत के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वयं सिद्ध सत्य के रूप में, एक तथ्य, एक प्रमाण, निचोड़ और प्रकृति तथा तर्क के पार के निष्कर्ष के रूप में नहीं, बल्कि वह बस सामान्य रूप से वहां है। उससे इंकार करने का वहां कोई मार्ग ही नहीं। वह वहां इतना अधिक है कि तुम अपने आपसे तो इंकार कर सकते हो, लेकिन तुम परमात्मा से इंकार नहीं कर सकते। परमात्मा की वास्तविकता के सामने तुम स्वयं अपने आपको इतना अधिक धुंधला पाओगे, कि तुम कह सकते हो— ” मैं नहीं भी हो सकता हूं लेकिन ‘वह’ है।

वह उसकी पहली झलक होगी। वह ऊर्जा और भी ऊंचाई पर चढ़ सकती है। जब वह कंठ स्थित विशुद्ध चक्र तक आती है, वह प्रार्थना बन जाती है। लोग प्रार्थना तो करते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि प्रार्थना क्या होती है—’‘ क्योंकि प्रार्थना प्रेम का सबसे अधिक सूक्ष्म और परिष्कृत रूप है। यदि तुम हृदय चक्र के द्वारा उठती ऊर्जा के साथ गतिशील नहीं होते, तो तुम प्रार्थना तक नहीं जा सकते, तब वहां कोई अन्य मार्ग है ही नहीं। किसी भी व्यक्ति को हृदय चक्र के द्वारा ही जाना होगा। कंठ के चक्र के कारण ही, क्योंकि विशुद्ध चक्र में ही प्रार्थना का अस्तित्व है, और वह वहां ही घटित होती है, लोगों ने प्रार्थना को संस्कारित करना शुरू कर दिया है। लोगों ने प्रार्थनाएं रची हैं, वे कुछ कहते हुए आग्रह करते हैं। लेकिन कंठ चक्र का प्रयोग करते हुए और परमात्मा से कहकर कुछ मांगना प्रार्थना करना नहीं है। प्रार्थना का सम्बंध कंठ के चक्र के साथ तो है, लेकिन मौखिक रूप प्रार्थना के उच्चारण से नहीं है। वह है तो इसी चक्र का अनुभव, और यह अनुभव ठीक ऐसा है, जैसे एक शिशु को पहली बार मां के स्तनपान से होता है। यह अनुभव तुम्हारे कुछ कहने से नहीं होता बल्कि तुम कुछ चीज प्राप्त करते हुए उसका अनुभव करते हो। परमात्मा से कुछ भी कहना और मांगना प्रार्थना नहीं है, बल्कि परमात्मा से कुछ चीज प्राप्त करना ही प्रार्थना है। परमात्मा, मां बन जाता है, मां का स्तन बन जाता है। प्रार्थना से तुम्हारा पोषण होता है। हां, उसका अस्तित्व कंठ चक्र में ही है और वहीं घटित होती है, क्योंकि कंठ का चक्र ही पोषण प्राप्त करने वाला चक्र भी है। कंठ चक्र ही वह प्रथम चक्र है, जो सबसे पहले शिशु में कार्य करना शुरू करता है, क्योंकि बच्चे को वायु अनी होती है जो कंठ चक्र के द्वारा ही घटती है। और तब उसे दूध चूसना होता है, और यह क्रिया भी कंठ चक्र के द्वारा ही होती है। प्रार्थना ठीक वायु को चूसने जैसी जीवन्त है अथवा वह मां के स्तन से दूध चूसने जैसी है।

इसीलिए जीसस कहते हैं—’‘ जब तक तुम छोटे शिशु जैसे नहीं बन जाते, तुम परमात्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते।’’ वह कंठ चक्र की ही बात कर रहे हैं। लेकिन ईसाइयों ने पूरी तरह से वह लीक ही छोड़ दी। वह प्रतीकात्मक रूप में कह रहे हैं कि तुम फिर से एक शिशु बन जाओ और अपने कंठ चक्र से वही ऊर्जा चूसना शुरू कर दो जो जीवन है। अब यहां वास्तव में मां का स्तन और दूध अदृश्य

क्या तुमने प्रार्थना में लीन किसी व्यक्ति को देखा है ?—वह अनुग्रह में उससे मिलकर एक हो जाता है, वह कितना शांत, कितना विश्रामपूर्ण दिखाई देता है, जैसे उसे अपना घर मिल गया हो। एक छोटे शिशु को दूध पीते हुए और मां के स्तन के चूचक को मुंह में लिए सोते हुए देखो, वह अपने मां के स्तन के साथ गहरी नींद में विश्राम कर रहा है। उस शिशु के चेहरे का निरीक्षण करो, वह चेहरा एक संत का चेहरा भी है, जब वह कंठ चक्र पर पहुंच जाता है और प्रार्थना उमगती है।

प्रार्थना कुछ ऐसी चीज नहीं है, जिससे तुम परमात्मा के लिए कुछ करते हो। प्रार्थना तो कुछ ऐसी चीज है जिससे तुम अपने लिए परमात्मा को कुछ करने की स्वीकृति देते हो। प्रार्थना एक ग्राह्यता है। वह तुम्हारे द्वारा किया जाने वाला कोई कार्य न होकर एक निष्क्रिय स्वागत है। प्रार्थना, परमात्मा से कुछ कहने या निवेदन करने की बात नहीं है। इसके विपरीत यह परमात्मा को सुनना है। यह ‘ उसकी ‘ भेंट को पहले से तैयार होकर प्राप्त करना है। उसकी भेंट को तुम्हारे लिए प्राप्त करना कठिन है, क्योंकि तुम्हारे अपने विचार हैं और तुम्हारे पास अपनी योजनाएं हैं। तुम उससे कहे चले जाते हो कि हमें ठीक मार्ग दिखलाओ—’ऐसा करो, तब मैं प्रसन्न हो सकूंगा।’

हमारे पास लोकोक्ति है कि मनुष्य प्रस्तावित करता है और परमात्मा निस्तारित करता है। यह मूढ़तापूर्ण कहावत है, इसमें मात्र मूर्खता है। मामला ठीक इससे उलटा है—परमात्मा प्रस्तावित करता है और मनुष्य निस्तारित किए चले जाता है, क्योंकि तुम्हारे पास स्वयं अपनी योजनाएं हैं।

तुम उसकी बात कभी सुनते ही नहीं, तुम सोचते हो कि तुम उसकी अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान हो। तुम उसे परामर्श दिए चले जाते हो—’‘ ऐसा करो, वैसा मत करो—’‘ तुम यही सब तो अपनी प्रार्थना में कहते हो।

एक सच्ची प्रार्थना में परमात्मा को सुझाव देने जैसा कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि तुम एक गहन कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उसे धन्यवाद दो। परमात्मा तुम पर जो कुछ भी बरसा रहा है, उसे केवल स्वीकार करना ही प्रार्थना है। प्रार्थना तो उसकी भेंट को स्वीकार करना है।

लेकिन यह सभी कुछ होता है कंठ चक्र में ही। यह प्रेम का सर्वोच्च रूप है। और जब तुम और भी उच्चतम शिखर, अपने सातवें चक्र सहस्रार पर जाते हो, तब वहां समाधि घटित होती है, जो सर्वोच्च परमानंद है, जहां खोजते—खोजते, खोजने वाला खो जाता है, जहां तुम बिलकुल बचते ही नहीं, जहां तुम और परमात्मा अपनी सीमाएं खोकर एक हो जाते हो।

एक सीमा का दूसरी सीमा को आच्छादित करना, कंठ चक्र से ही शुरू हो जाता है: सीमाएं धुंधली होने लगती हैं, वे बहुत स्पष्ट नहीं रह जातीं। लेकिन फिर भी तुम्हारा पृथक अस्तित्व होता है। तुम्हारा केंद्र पृथक और परमात्मा का केंद्र पृथक होता है। प्रार्थना में तुम दोनों मिलोग हो, एक दूसरे की सीमा का अतिक्रमण करते हो। एक तरह से दोनों की परिधिया एक दूसरे से मिल जाती हैं, लेकिन केंद्र फिर भी पृथक बने रहते हैं। तुम्हारी ऊर्जा जितनी ऊपर उठती है, अधिक से अधिक केंद्र एक दूसरे के निकट आते हैं। सातवें चक्र सहस्रार पर तुम्हारे सभी केंद्र एक बन जाते हैं। तब वहां केवल एक ही केंद्र होता है। यही उसका अर्थ है जब जीसस कहते हैं—’‘ मैं नहीं बल्कि मेरे परमपिता मुझमें निवास करते हैं।’’ अब खोजने वाला और जिसकी खोज की गई, वे दो नहीं रहे। अंतिम मुलाकात सम्पन्न हो गई, प्रेम की अंतिम खिलावट हो गई, पूर्णता को उपलब्ध होकर वह फल—फूल चुका। जब काम केंद्र ऊर्जा से धड़क रहा है, उसमें कम्पन हो रहे हैं, जब वह नदी की भांति प्रवाहित हो रहा है—तो कामनाओं की तुष्टि अथवा उनके दमन के मध्य चुनाव किए बिना, यदि तुम निरीक्षण कर्त्ता बनकर मध्य में बने रहे, तो एक विशाल रुपान्तरण स्वयं अपने से घटित होता है।

इसलिए अगली बार जब तुम्हें तीव्र कामवासना का अनुभव हो, तो दो आसानी से उपलब्ध विकल्पों—कामना तुष्टि अथवा उसके दमन की ओर गतिशील न होकर ठीक मध्य में बने रहना, और फिर तुम एक ऐसे स्थान पर हो, जहां से दरवाजा खुल सकता है।

वह हमेशा मध्य ही में खुलता है।

बुद्ध इसी मार्ग को मध्य मार्ग, मज्झिम निकाय कहते हैं। वह कहते हैं—’‘ हर कहीं, अति पर जाना ही मत। सदा मध्य ही का चुनाव करना। ठीक मध्य ही सभी के पार है। यदि तुम दो विपरीत छोरों तथा दो विरोधों के ठीक मध्य स्थान खोज सके तो तुम उनके पार चले गये, तुम्हारा रूपान्तरण हो गया। रूपांतरण का द्वार ठीक मध्य ही में खुलता है और मध्य में बने रहना ही सभी के पार जाना है।

जब तुम काम केंद्र पर एक साक्षी की भांति खड़े निरीक्षण कर रहे हो, ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है।’कुंड बफर’ पिघलना शुरू हो जाता है और कुण्डलिनी कार्य करना शुरू कर देती है। कुण्डलिनी ही ठीक मार्ग है, और ‘ कुण्ड बफर ‘ का मार्ग गलत है। और कुण्ड बफर इसलिए गतिशील है, क्योंकि हम अनेक जन्मों से इतनी अधिक मूर्च्छा में जीते रहे हैं कि कुण्डलिनी कार्य कर ही नहीं सकती, वह सुप्त पड़ी है। कुण्डलिनी को चेतना के ईंधन की जरूरत है। यदि चेतना की यह गैस नहीं है तो कुण्डलिनी कार्य नहीं कर सकती।’ कुण्डबफर ‘ तो मूर्च्छा के साथ कार्य करता है।

इसलिए यह तुम पर निर्भर है: यदि तुम मूर्च्छा ही में जिए चले जाते हो तो कुण्ड बफर अपना कार्य करता रहेगा, लेकिन यदि तुम चेतना में या होशपूर्वक जीते हो, तो अचानक तुम्हारा जीवन बदल जाता है। तुम अपने अस्तित्व के आंतरिक केंद्र की ओर गतिशील हो जाते हो, जहां गहरे में आत्मा का निवास है।

 

एक मनुष्य, जो मूर्खों के एक सक को साथ ले चलने में अत्यधिक सफल था, जब उससे पूछा गया कि तुम इन जिद्दी गधों को किस तरह व्यवस्थित कर लेते हो?

 

उस मनुष्य ने स्पष्ट करते हुए बताया—’‘ जब वे आगे नहीं बढ़ते तो मैं जमीन से मिट्टी उठाकर उनके मुंह में डाल देता हूं। यह निश्चित बात है कि वे उसे उसे थूक देते हैं, लेकिन नियमानुसार वे फिर चलना शुरू कर देते हैं।

उस व्यक्ति ने पूछा—’‘ तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि यह इसका ही प्रभाव होता है?”

” मैं निश्चित तो नहीं हूं लेकिन मैं सोचता हूं कि इससे उनके विचारों का प्रवाह बदल जाता है।’’

 

यदि तुम साक्षी होने की शुरूआत करते हो, तो कोई भी यह ठीक—ठीक नहीं जानता कि तुम्हारी ऊर्जा कैसे गतिशील होना प्रारम्भ हो जाती है, लेकिन किसी न किसी तरह ऐसा होता है। हो सकता है यह तुम्हारे विचारों का प्रवाह बदल देती हो। यह एक बहुत बड़ा आघात होता है।

तुम स्वयं प्रयास करो—तुम क्रोधित हो, तुम्हारा क्रोध बढ़ता जा रहा है, तभी अचानक तुम सजग हो जाओ। अपने शरीर को हिलाओ—डुलाओ, और सजग बन जाओ, और देखो क्या होता है? अचानक तुम देखोगे कि कोई चीज तुम्हारे हाथों से फिसल गई है, और तुम्हारा क्रोध अब जाता रहा। अब किसी भी तरह क्रोध करना बेवकूफी लगता है। अथवा जब तुम्हें क्रोध आये तो किसी और के चेहरे पर थप्पड़ मारने के स्थान पर जिससे कोई भी सहायता मिलने वाली नहीं, तुम अपने ही चेहरे पर थप्पड़ मारो। जब भी तुम्हें क्रोध आये, स्वयं अपने ही गाल पर थप्पड़ मारो, और देखो, क्या होता है। जो यांत्रिक व्यवस्था, रुटीन रूप से करने जा रही थी, अचानक आघात पहुचाने से वह कार्य नहीं कर सकती।

यदि तुम अपने चेहरे पर थप्पड़ मारते हो, तो तुम्हारे अंदर एक होश जागृत होता है, यह होश या चेतना तुम्हारे अचेतन ढांचे को तोड़ देता है। इसलिए जब कभी तुम इसे बदलना चाहो, तो स्मरण रहे—होश ही इसकी कुंजी है। अन्यथा हम लगभग एक तरह के पागलपन में जी रहे हैं। थोड़े से लोग तो पागलखानों में बंद हैं और शेष उसके बाहर हैं। लेकिन एक भी समझदार मनुष्य को खोज पाना कठिन है। अंतर केवल डिग्री का है। क्या तुमने इस मामले का कभी निरीक्षण किया है, क्या तुम कभी इस बात से भयभीत हुए हो—कि जो व्यक्ति पागल बन गया है, वह कुछ दिनों पूर्व ठीक तुम्हारे जैसा ही था। कोई भी व्यक्ति कभी यह सोच भी नहीं सकता था कि वह कभी पागल हो जाएगा, और अब वह पागल है। क्या ऐसा तुम्हारे साथ भी नहीं हो सकता?

अमेरिका के सबसे महान मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स के बारे में यह कहा जाता है कि जब वह पहली बार एक पागलखाना देखने गए तो वह घर बहुत उदास होकर लौटे। वह ज्वरग्रस्त होकर लौटे। उनकी पत्नी बहुत चिंतित हुई। उसने पूछा—’‘ आखिर हुआ क्या? जब तुम यहां से गए थे तो पूरी तरह ठीक थे।’’

उन्होंने उत्तर दिया—’‘ मुझसे बात मत करो। मैं बात करने की मनःस्थिति में हूं ही नहीं।’’

और वह कम्बल ओढ़ कर लेट गए और दो तीन दिनों तक बीमार रहे। प्रत्येक चिंतित था। डाक्टर ने भी उन्हें देख कर कहा—’‘ कुछ भी गलत नहीं है। यह ठीक हैं।’’ तब उन्होंने बतलाया कि उनके साथ हुआ क्या ?—’‘पागलखाने में बहुत से पागलों को देखकर अचानक मेरे मन में एक खयाल आया—कि ऐसा मेरे साथ भी तो हो सकता है।’’

इस खयाल ने उन्हें अंदर से कंपा दिया, फिर वह वैसे ही व्यक्ति नहीं रहे, बल्कि इस घटना ने उन्हें बहुत सजग बना दिया।

तुम्हारे मन के अंदर पागलपन निरंतर बना ही रहता है— और तुम इसे जानते हो। तुम इसे न जानने की व्यवस्था कर कैसे सकते हो, वह तो तुम्हारे अंदर एक अंतर्प्रवाह की भांति रहता है। परिधि पर तुम ठीक से सब कुछ व्यवस्थित कर लेते हो।

 

मैंने सुना है एक पादरी को एक पागलखाने में रहने वाले लोगों को उपदेश देने का अवसर मिला। अपने प्रवचन के दौरान उसने नोट किया कि उनमें से एक मरीज ने उसे सबसे अधिक ध्यान देकर सुना, उसकी आंखें एक कील की तरह उनके चेहरे पर जैसे गड़ गईं, और उसका शरीर आतुरता से आगे झुक गया। उसका इस तरह रुचि लेना उन्हें बहुत प्रशंसापूर्ण लगा। प्रवचन के बाद पादरी ने देखा कि उस व्यक्ति ने पागलखाने के अधीक्षक से कुछ कहा। इसलिए जितनी भी. शीघ्र सम्भव हो सका, पादरी ने उनसे पूछा—’‘ क्या इस व्यक्ति ने आपसे मेरे उपदेश के बारे में कुछ कहा?”

—’‘जी हां।’’

— ‘अगर आपको एतराज न हो तो क्या आप बता सकते हैं कि उसने आपसे क्या कहा?”

अधीक्षक ने टालने का बहुत प्रयास किया लेकिन उपदेशक आग्रह ही करता

रहा

अंत में उसने कहा—’‘ जो कुछ उस व्यक्ति ने कहा वह यह वाक्य था— ” जरा सोचें यह तो पागलखाने के बाहर हैं और मैं अंदर हूं।’’

तुम पागलखाने के बाहर हो सकते हो, और अन्य कोई व्यक्ति उसके अंदर हो सकता है, लेकिन अंतर कुछ डिग्री का ही है। जब तक तुम होशपूर्ण या सचेतन नहीं हो जाते, तुम हमेशा ही पागलपन के सीमांत पर, हमेशा अंदर से उबलोग हुए पहले से तैयार बैठे हो। कोई भी छोटी सी चीज सिद्ध कर सकती है कि ऊंट की पीठ पर लदे बोझ पर एक तिनके का भी भार लादने से वह नीचे भी बैठ सकता है। कोई भी छोटी सी चीज, कोई भी छोटी सी घटना, और तुम सीमा रेखा लांघ सकते हो।

मूर्च्छा में जीना, वास्तव में जीना है ही नहीं। होशपूर्ण बनना सचेतन रूप से गतिशील होना जो कुछ तुम्हारे मन में घट रहा हो, अपने मन से पृथक रहकर उस सभी के प्रति सजग और सचेत रहना, क्योंकि जब तुम किसी चीज का निरीक्षण करते हो तो तुम और तुम्हारी चेतना उस वस्तु से पृथक बनी रहती है— और यही इसका रहस्य है। यदि तुम अपने विचारों का निरीक्षण करते हो, तो तुम अपने विचारों से पृथक हो जाते हो, तुम्हारा उनके साथ कोई तादात्म्य नहीं रह जाता। और जब तुम्हारा उनसे तादात्म्य नहीं रह जाता, तुम उन्हें सहयोग नहीं देते और तुम अपने विचारों को और ऊर्जा नहीं दिए चले जाते और वे धीमे— धीमे विजर्सित हो जाते हैं। जब मेजबान रुचि न ले तो मेहमान स्वयं चले जाते हैं। वे प्राय: इतनी अधिक शीघ्रता से नहीं आते, और यदि वे आते भी हैं, तो अधिक समय तक नहीं ठहरते। उनके बीच अंतराल आने लगते हैं—एक विचार आता है और चला जाता है और तब कुछ मिनट गुजर जाते हैं और दूसरा कोई विचार नहीं आता। इसी अंतराल में तुम सत्य का साक्षात्कार करते हो। तब तुम्हारे और सत्य या वास्तविकता के बीच कोई पर्दा नहीं होता। बिना आवरण या पर्दे के ही सत्य का साक्षात्कार होता है, और यही परमात्मा

आज का गीत है:

वे जो मर गए हैं

पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित हैं।

और वे प्रेम के अनुभवों

और उसकी सुवास को भली भांति जानते हैं।

वे लोग ही जीवन—मृत्यु की

इस सरिता को निहारते हुए, अखण्ड सत्य को खोजते हैं, और वे ही इस नदी को पार कर लेंगे।

हवा के विरुद्ध चलोग हुए

प्रसन्नता पाने की

उनकी कोई चाह ही नहीं है।

वे वासना को वासना में रहते हुए ही मारते हैं।

और बिना तादात्‍म्‍य जोड़े

प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं।

अत्यधिक अनूठे सूत्र हैं, बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण सूत्र…. ”वे जो मर गए हैं, पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित है।’’ तुम कैसे मर भी सकते हो और फिर भी पूरी तरह जीवित भी बने रहे सकते हो? यदि तुम अपने शरीर के साक्षी बन जाओ, तब तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो। शरीर का ही जन्म होता है और शरीर की ही मृत्यु होने जा रही है, जिस क्षण तुम जानते हो, कि तुम शरीर नहीं हो, तुम जानते हो कि तुम न कभी जन्मे थे और न कभी तुम्हारी मृत्यु होगी। इसलिए एक अर्थ में तुम पूरी तरह जीवित बन जाते हो, शाश्वत रूप से जीवित—इसी को जीसस कहते हैं— ‘ अकूत संपदा से भरा जीवन, अतिरेक से बहता हुआ जीवन।’ तब तुम कभी भी खाली नहीं हो सकते: तुम्हारा कोई प्रारम्भ नहीं होता और न तुम्हारा कोई अंत हो सकता है, तुम चिर स्थायी और शाश्वत ऊर्जा हो। तब तुम एक ओर तो पूरी तरह जीवित हो, और क्योंकि तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो, तब वह जीवन जिसके बारे में तुम सोचा करते थे कि वह शरीर में है, अब और वहां है ही नहीं।

शरीर पहले ही मर चुका है। तुम उसका प्रयोग करते हो, तुम उसमें रहते हो, लेकिन तुम अब उसके साथ तादात्म्य नहीं जोड़ते।

वे जो मर गए हैं

पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित हैं

वे प्रेम के अनुभवों और उसकी सुवास को

भली भांति जानते हैं

और वे लोग ही इस सरिता को पार कर लेंगे

और जब तुम पूरी तरह सजग हो और अब और शरीर के प्रति आसक्त नहीं हो, अब और शरीर के साथ तुम्हारा तादात्म्य नहीं रह गया है, तुम्हारे अंदर अब और यह विचार नहीं रह गया कि तुम शरीर हो, तभी प्रेम का उदय होता है। जिस क्षण तुम मात्र शरीर नहीं रह जाते, तुम्हारे अंदर का ‘ कुण्ड बफर ‘ टूट जाता है—क्योंकि ‘ कुण्डबफर ‘ केवल तभी बना रह सकता है, जब तुम शरीर से तादात्म्य जोड़ लेते हो। कुण्डबफर, शरीर का ही एक भाग है।

अब जो कुछ मैं कहने जा रहा हूं उस बारे में सावधान और होशपूर्ण हो जाओ।’ कुण्डबफर ‘ तो शरीर का एक भाग है और ‘ कुण्डलिनी ‘ शरीर का भाग नहीं है। कुण्डलिनी तुम्हारा भाग है, वह तुम्हारी अपनी चेतना का एक भाग है। इसलिए लोग, और यहां ऐसे बहुत से हैं…. यहां तक कि कुछ डॉक्टरों ने भी यह खोजने का प्रयास किया है कि कुंडलिनी का शरीर में कहां अस्तित्व है। यहां तक कि कुछ लोगों ने यह सिद्ध करने की भी मूर्खता की है कि उसका अस्तित्व यहां अथवा वहां है, वह इस केंद्र अथवा उस केंद्र में है।

कुण्डलिनी इस भौतिक शरीर का भाग है ही नहीं। और गुरुजिएफ ठीक था: यदि लोग यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि कुण्डलिनी शरीर का ही एक भाग है, तब वे जो कुछ भी सिद्ध करते हैं वह कुण्ड बफर है, न कि कुण्डलिनी। वहां गुरुजियेफ से कोई भी व्यक्ति यह कहने वाला था ही नहीं कि कुण्डलिनी आत्मा या चेतना का एक भाग है, न कि शरीर का और सभी तथाकथित हिंदू योगी, विशेष रूप से आधुनिक योगी, वे हर तरह से जब भी वे इस बारे में कुछ भी लिखते हैं, वे विज्ञान का ही अनुकरण करते हैं। वे यह दिखाने और सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि योग एक विज्ञान है। तब वास्तव में वे इसी दृष्टिकोण के शिकार बन जाते हैं, जिसके शिकार वैज्ञानिक हैं’ उनका दृष्टिकोण शरीर के साथ ही प्रारम्भ होता है और वे सोचते हैं कि यह शरीर ही सब कुछ है। इसीलिए वे यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि कुण्डलिनी कहीं न कहीं इस भौतिक शरीर में है और वह शरीर विज्ञान के अंतर्गत कार्य करती है।

गुरुजिएफ कहा करता था कि ये लोग कुण्डबफर के बारे में बातचीत कर रहे हैं: ” उनकी कुण्डलिनी कुण्डलिनी न होकर कुण्डबफर ही है, उसका नकली अस्तित्व है।’’ जब तुम शरीर के साथ बहुत अधिक तादात्म्य जोड़ लेते हो, तब यह नकली कुण्डलिनी तुम्हारे शरीर में ऊपर की ओर उठती है, तुम्हारी चेतना में नहीं। जब तुम्हारा शरीर के साथ कोई तादात्म्य नहीं रह जाता, तो कुण्डबफर विसर्जित हो जाता है। वास्तव में यह कुण्डबफर ही है, जहां से तुम्हारा शरीर से तादात्म्य जुड़ा हुआ है। यही कारण है सेक्स लगभग प्रेम का समानार्थक बन जाता है। जब एक स्त्री का मासिक धर्म बंद हो जाता है तो वह सोचना शुरू कर देती है कि उसका जीवन समाप्त हो गया। जब एक पुरुष को यह पता चलता है कि अब उसमें सेक्स की दृष्टि से पुंसत्व नहीं रहा तो वह यह अनुभव करना शुरू कर देता है कि वह अब व्यर्थ हो गया है। ये गलत दृष्टिकोण इस वजह से बने रहते हैं क्योंकि हमने काम केंद्र के साथ बहुत अधिक तादात्म्य जोड़ लिया है।

यदि साक्षी का उदय हो जाये, तो तुम शरीर से पृथक हो, और तुम जानते हो कि तुम उससे अलग हो—ऐसा नहीं कि तुम उसे दोहराते हो, ऐसा भी नहीं कि चूंकि वेद कहते हैं कि तुम अपने शरीर से पृथक हो, इसलिए तुम उसे दोहराते हो, उसका मंत्र जाप करते हो और उसका निरंतर जाप तुम्हें यह भ्रमित विचार दे देता है कि हां, तुम शरीर से पृथक हो। इससे कोई सहायता मिलने की नहीं। तुम्हारा स्वयं का जानना, अपना अस्तित्वगत अनुभव ही सहायता कर सकता है, अन्य और कुछ भी नहीं। यदि तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो, तो अचानक प्रेम का उदय होता है: ऊर्जा हृदय चक्र की ओर गतिशील होना शुरू हो जाती है।

इस हृदय का अस्तित्व फेफड़ों के मध्य नहीं है। यह हृदय शरीर का भाग नहीं है, फेफड़े शरीर का एक भाग है। और हृदय की धड़कन के बारे में तुम जो कुछ सोचते रहे हो, यह केवल फेफड़ों की धड़कन है।

इस धड़कन के पीछे एक अन्य धड़कन है। तुम इसका खयाल इस तरह से कर सकते हो: फेफड़े और हृदय समानांतर हैं। फेफड़े, शरीर का भाग हैं और हृदय आत्मा का। कुण्डबफर और कुण्डलिनी समानांतर हैं: कुण्डबफर, शरीर का भाग है और कुण्डलिनी आत्मा का। सेक्स और प्रेम समानांतर है: सेक्स शरीर का भाग है और प्रेम आत्मा का। संसार और परमात्मा समानांतर है: संसार का सम्बंध शरीर से है, और परमात्मा का आत्मा से। शरीर और आत्मा का भी अस्तित्व समानांतर है, ठीक दो समानांतर रेखाओं की भांति जो हमेशा साथ—साथ तो रहती हैं लेकिन फिर भी कहीं आपस में मिलती नहीं। वे हमेशा से साथ—साथ हजारों जन्मों से एक दूसरे के समानान्तर दौड़ रही हैं और मिलती कहीं भी नहीं। वे एक दूसरे को प्रभावित करती हैं लेकिन उनका मिलना कभी भी नहीं होता। वे एक दूसरे को रंग सकती हैं। जब तुम बहुत अधिक शरीर और मन के नियंत्रण में रहते हो, तुम्हारा शरीर और मन आत्मा को लगभग अपने नियंत्रण में ले लेता है। जब तुम शरीर से पृथक हो जाते हो, तुम्हारा उससे तादात्म्य नहीं रह जाता, तो तुम्हारी आत्मा, तुम्हारे शरीर और मन को अपने नियंत्रण में ले लेती है।

साधारणतया तुम्हारी आत्मा ही गुलाम बनी रहती है और शरीर मालिक बना रहता है। लेकिन जब यह रूपांतरण होता है, तो समझ का उदय होता है। आत्मा फिर से अपना स्वामित्व प्राप्त करती है और शरीर अपने ठीक स्थान पर आकर सेवक बन जाता है, एक बहुत आज्ञाकारी सेवक।

वे जो मर गए हैं

पर फिर भी पूरी तरह जीवित हैं

और वे प्रेम के अनुभवों और उसकी सुवास को भली भांति जानते हैं।

वे लोग ही जीवन मृत्यु की

इस सरिता को देखते हुए, अखण्ड सत्य को खोजते हैं

और वे लोग ही इस नदी को पार कर लेंगे।

अखण्ड सत्य, योग, सभी भागों का मिलकर एकीकरण, बहती तरल चेतना का रवे की तरह ठोस होकर केंद्र पर घनीभूत हो जाना, केंद्रित हो जाना अथवा तुम उसे जिस तरह से भी पुकारना चाहो—वही लक्ष्य है। उसे देखते हुए तटस्थता से देखते हुए.. .यही कुंजी है, जिसे मैं साक्षी होना कहता हूं।

जीवन मृत्यु की सरिता की ओर देखते हुए वे अखण्ड सत्य को खोजते हैं।

वहां तुम्हारे ही अंदर एक सरिता जीवन की और दूसरी मृत्यु की बह रही है। शरीर ही मृत्यु की सरिता है और आत्मा ही जीवन—सरिता है। आत्मा कभी नहीं मरती और शरीर सदा जीवित नहीं रहता। आत्मा—शरीर दोनों साथ—साथ रहते हैं और शरीर आत्मा के जीवन को प्रतिबिम्बित करता है। यह आत्मा के जीवन के साथ ही प्रकाशवान होता है। यह जीवन जैसे उधार लिया हुआ है, यह चन्द्रमा की भांति है। चंद्रमा के पास अपनी स्वयं की किरणें नहीं होती, वह सूर्य को प्रतिबिम्बित करता है। किरणें सूर्य से आती है और चंद्रमा की सतह से टकरा कर वापस लौटती हैं, चंद्रमा उन्हें प्रतिबिम्बित करता है लेकिन तुम उन्हें ऐसे देखते हो, जैसे मानो वे चंद्रमा से ही आ रही हो।

यह ऐसा है, जैसे तुम यदि कमरे में एक छोटा सा दिया जला दो, और बाहर गुजरता हुआ कोई व्यक्ति शीशे की खिड़की द्वारा अंदर दिखाई दे। खिड़की का शीशा दीये के प्रकाश को बाहर भी फैलाता है, लेकिन प्रकाश खिड़की के शीशे से नहीं आ रहा है, वह तो कमरे के अंदर जलोग दीये से आ रहा है, शीशा उसे प्रतिबिम्बित कर रहा है।

तुम्हारा शरीर जीवन को प्रतिबिम्बित करता है—तुम्हारा शरीर आत्मा के जीवन प्रकाश से ही आलोकित है। यही कारण है, जब आत्मा कहीं शून्य से मिल जाती है, शरीर मृत हो जाता है। शरीर सदा से मृत ही था। जाकर कमरे के अंदर दीये को बुझा दो, और खिड़की भी अंधेरे में डूब जायेगी। वह हमेशा अंधेरी थी ही, क्योंकि उसके पास अपना कोई प्रकाश न था।

शरीर मृत्यु की एक सरिता है, और यदि तुम शरीर के साथ आसक्ति को बनाए ही रखते हो, तो तुम बार—बार मृत्यु की नदी में गिरते रहोगे। तुम जन्म लोगे और मर जाओगे, तुम्हारा फिर जन्म होगा और फिर तुम्हारी मृत्यु होगी—इसी को हिंदू कहते हैं—जन्म मरण का चक्र: अपने ही अंदर गहरे जाओ, और उस जीवन के सत्रोत की खोज करो। यह शरीर से पूरी तरह भिन्न है। उसने शरीर को ही अपना घर बनाया है, लेकिन वह शरीर नहीं है। वह जीवन—सरिता का प्रवाह है। उनका निरीक्षण करते हुए उनकी ओर देखते हुए साक्षी रहते हुए… इन दोनों, जीवन और मृत्यु की सरिता के पार, वे उस अखण्ड सत्य को खोजते हैं।

और एक बार तुम्हारी समझ, जीवन और मृत्यु के बारे में—कि वह हैं क्या? पूर्ण हो जाए; तुम अखण्ड हो जाते हो, केंद्रित हो जाते हो। क्योंकि तब शरीर में तुम्हारा कोई केंद्र नहीं रह जाता, तब वहां फिर कोई भ्रम नहीं रह जाता कि तुम शरीर में हो। तब तुम अचानक अपने अस्तित्व के असली केंद्र के प्रति, अपने सबसे अंदर, गहरे में स्थित समाधि के प्रति सचेत होते हो।

हवा के विरुद्ध चलते हुए

प्रसन्नता पाने के लिए

उनकी कोई चाह ही नहीं होती।

बाउल कहते हैं कि सच्चे खोजियों की प्रसन्नता पाने की कोई चाह, हवा के विरुद्ध चलने की होती ही नहीं। वे बस जीवन सरिता के साथ बहते हैं। वे जीवन से कोई भी चीज मांगते ही नहीं, वे केवल प्राप्त करते हैं। जीवन उन्हें जो कुछ देता है, वे उसी में मस्त, प्रमुदित रहते हैं, लेकिन उनकी कोई मांग नहीं रह जाती। वे कभी तैरते नहीं, वे धारा के विरुद्ध तैरने का प्रयास ही नहीं करते, वे केवल धारा के साथ बहते हैं। यही है उनका समर्पण।

 

उनका यहां एक सुंदर गीत है….

अरे उतावले अधीर निष्ठर।

तू आग में भुनने क्यों जा रहा है?

अपने हृदय की कली

को

तू क्यों बलात खिलने के लिए विवश कर रहा है?

जिससे बिना समय का मोल चुकाये

उसकी सुवास कली से मुक्त होकर

चारों ओर व्याप्त हो जाए।

तू मेरे स्वामी—मेरे परमात्मा की ओर देख

कलियां शाश्वत रूप से

स्वयं अपने आप खिल रही हैं,

उन्हें कभी कोई जल्दबाजी होती ही नहीं।

तू अपने भयानक लालच की वजह से

दिन के घंटों पर निर्भर है,

इसके अतिरिक्त, तू और कर ही क्या सकता है?

तू अपनी प्रेमिका की गुहार सुन

और उसे व्यथित मत कर।

ओ मेरे हृदय के स्वामी।

जीवन सरिता अपने आप में मग्न

सहज स्वाभाविक रूप से बही चली जा रही है।

ओ मेरे अधीर मन।

तू उसके शब्दों में छिपे मौन को सुन।

बाउल कहते हैं, किसी भी चीज को बलात् करने का प्रयास मत करो। जीवन को एक गहरे स्वीकार भाव से जियो। जरा देखो, परमात्मा करोड़ों फूल, कलियों पर बलप्रयोग किये बिना प्रति दिन खिला रहा है, वह कभी शीघ्रता नहीं करता, धैर्य से प्रतीक्षा करता है और उन्हें खिलने के लिए उनको समय देता है। बाउल कहते हैं— ” प्रत्येक चीज अपने ठीक समय पर स्वयं घटती है, प्रत्येक चीज अपना मौसम आने पर स्वयं अपने आप होती है। प्रतीक्षा करो। अधीर मत हो, और न शीघ्रता करो। सारी जल्दीबाजी करना ही लालच है, और यह एक सूक्ष्म—संघर्ष है। जो कुछ घटने जा रहा है, वह घटेगा ही, तुम्हें अस्तित्व से लड़ने की कोई जरूरत है ही नहीं। तुम उस पर श्रद्धा कर सकते हो, तुम उसे समर्पण कर सकते हो।

यह समझ लेने जैसा है :

यदि यह तुम्हारे अंदर आबोहवा का एक भाग बन जाये, तो यह तुम्हें अत्यधिक आनंद देगा। जब तुम आगे और कोई भी चीज प्रस्तावित नहीं करते हो, तब कोई भी व्यक्ति तुम्हें निराशा नहीं दे सकता। तुम्हारे पास न तो कोई योजना है, और न ही तुम्हारा कोई लक्ष्य है। तुम कहीं भी नहीं जा रहे हो और तुमने बस अपने आपको ‘ उसके ‘ हाथों में छोड़ दिया है, और जहां कहीं भी ‘ वह ‘ तुम्हें चाहता है, तुम्हें ले जाता है।

‘ तेरा साम्राज्य आयेगा और तेरा ही किया हुआ होगा ‘‘ उसकी ‘ इच्छानुसार ही होने दो’ बाउलों का यही तरीका है। यह है समर्पण, प्रेम और श्रद्धा का मार्ग। बाउल कोई योगी नहीं है, निश्चित रूप से ‘ हठयोगी ‘ तो वह है ही नहीं बाउल एक प्रेमी है, एक भक्त है। उसका विश्वास है कि परमात्मा उसे किसी अज्ञात संसार में ले जा रहा है, और वह सुंदर होना ही चाहिए क्योंकि ‘ वह ‘ उसे ले जा रहा है। नदी सागर की ओर बही चली जा रही है, उसे जाना ही चाहिए क्योंकि यह ‘ उसकी ‘ नदी है। बच्चों जैसा यह विश्वास और श्रद्धा ही केवल उसका मार्ग है।

हवा के विरुद्ध चलोग हुए

प्रसन्नता पाने की उनकी कोई चाह नहीं है।

वे वासना को

वासना के साथ रहते हुए ही मारते हैं

और उससे तादात्‍म्‍य जोड़े बिना ही

प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं।

इसी कारण बाउल कहते हैं, यदि वासना का भी अतिक्रमण करना है, तो वह वासना के द्वारा ही।’’ यदि, क्रोध का रूपांतरण करना है तो वह क्रोध के द्वारा ही होगा। वे उस रसायन को जानते हैं कि कैसे विष को अमृत में बदला जाए। वे यह नहीं कहते कि यह विष है, इसे फेंक दो। वे कहते हैं—इसका रूपांतरण करो, अमृत इसके पीछे या अंदर ही छिपा हुआ है। विष तो केवल उसका बाहरी खोल है। उसके अंदर छिपे सारतत्व को खोज लो, प्रेम वासना के पीछे ही छिपा है। आत्मा, शरीर के पीछे ही छिपी है। परमात्मा संसार के पीछे ही छिपा है। उसे फेंको मत। वह कोई अत्यधिक मूल्यवान चीज तुम्हारी ओ उछालेगा। हो सकता है तुम अभी भी सजग न हो कि उसका कितना अधिक मूल्य है। तुम सोचते हो कि वह एक पत्थर है। एक जौहरी बनो। इसी को बाउल कहते हैं—’ रसिक ‘, स्वाद पारखी होना। उसका स्वाद जानने के तरीके खोजो और जानो कि वह है क्या? उसके अंदर छिपी वास्तविकता अथवा सत्य के प्रति सजग बनो, उसके द्वार खोलकर उसके अंदर जाओ। वह एक कोहेनूर भी हो सकता है, उसे फेंको मत। यदि परमात्मा ने तुम्हें पत्थर दिया है तो वह कोहेनूर होना ही चाहिए— अन्यथा वह तुम्हें देता ही क्यों? तुम उसकी अपेक्षा अपने को बुद्धिमान मत मानो, उसकी प्रज्ञा और मेधा को ही सर्वोत्कृष्ट मानो। उस पर श्रद्धा रखो। यदि उसने तुम्हें एक पत्थर दिया है, तो वह एक कोहेनूर होना ही चाहिए उसे एक बहुत मूल्यवान हीरा होना ही चाहिए। यह उसकी दी हुई भेंट है, यह अन्यथा हो ही नहीं सकती।

इसलिए वासना में भी वे साधारण संन्यासियों के समान नहीं है। वे उससे लड़ते नहीं, वे उसके गहरे में जाकर खोज करते हैं, वे उसका रसायन खोजने का प्रयास करते हैं। कोई चीज तो वहां होनी ही चाहिए अन्यथा और मनुष्य को तो उसने किसी भी पशु की अपेक्षा कहीं अधिक दिया है। पशुओं में सेक्स मौसमी होता है। वर्ष में एक बार या दो बार ही वे कामुक होते हैं, अन्यथा सेक्स विसर्जित हो जाता है। मनुष्य चौबीसों घंटे, साल के बारह महीने, तीन सौ पैंसठ दिन, प्रति क्षण कामुक ही बना रहता है। कोई चीज वहां उसमें होनी ही चाहिए। मनुष्य को इतनी अधिक काम ऊर्जा आखिर क्यों दी गयी? वह केवल संतान उत्पन्न करने के कारण ही नहीं हो सकती—क्योंकि पशु ठीक पूर्णता से उसे कर रहे हैं। यदि मनुष्य ऋतु आने पर ही कामुक बनता, तो एक तरह से सभी चीजें कहीं अधिक बेहतर रही होती, वर्ष में एक बार एक महीने के लिए और शेष ग्यारह महीने तुम स्वतंत्र रहते। तुम इस बीच हजारों कार्य कर सकते थे और इस बारे में फिक्र करते ही नहीं। वर्ष में एक महीना यथेष्ट होता।

लेकिन मनुष्य को इतनी अधिक काम ऊर्जा आखिर क्यों दी गई? यह केवल बच्चों के उत्पन्न करने के लिए ही नहीं हो सकती। यह महान कोष किसी दूसरी वजह से दिया गया है: यह अपने साथ अत्यधिक सजग और सचेत बनने की एक छिपी हुई सम्भावना साथ लिए चल रही है। इसी ऊर्जा को प्रेम की ऊर्जा बनना है और इस प्रेम को प्रार्थना बनना है, और इस प्रार्थना को परमानंद का सर्वोच्च शिखर बनना है। संतान उत्पन्न करने वाला भाग, जहां तक मनुष्य का सम्बंध है, बहुत छोटा है। उसमें कोई अन्य चीज जो बहुत अधिक मूल्यवान है, छिपी हुई है। परमात्मा तुम्हें कोई भी चीज बिना किसी विशिष्ट कारण के नहीं दे सकता।

वे वासना को

वासना के साथ रहते हुए ही मारते हैं

और उससे तादात्‍म्‍य जोड़े बिना ही

प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं

जब वासना रूपांतरित हो जाती है तो तुम उससे निरासक्त बने ही प्रेमनगर में प्रवेश करते हो। स्मरण रहे—यह उनकी प्रेम की परिभाषा है। यदि प्रेम के साथ आसक्ति और लगाव है, तो वह वासना है। यदि प्रेम में कोई बंधन या आसक्ति नहीं है, केवल तभी वह वासना नहीं है। जब तुम वासना में डूबे हो, तब तक वास्तव में दूसरे के बारे में सोच भी नहीं सकते, अपने प्रेमिका या प्रेमी के बारे में भी नहीं सोच सकते। तुम केवल अपने उद्देश्य के लिए ही दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हो। और वास्तव में फिर वहां आसक्ति पर लगाव होगा ही, क्योंकि तुम दूसरे पर नियंत्रण करना चाहोगे और तुम उस पर अपना अधिकार हमेशा के लिए करना चाहोगे, क्योंकि कल भी तुम्हें उसकी आवश्यकता हो सकती है, और परसों भी तुम्हें उसकी जरूरत पड़ सकती है। तुम एक प्रेमी या प्रेमिका चाहते हो, जिस पर तुम अपना अधिकार और नियंत्रण रखना चाहते हो।

प्रेम एक उपहार है: तुम्हें इसकी फिक्र करनी ही नहीं चाहिए कि वह कल वहां तुम्हारा स्वागत करने के लिए होगा अथवा नहीं। क्योंकि एक प्रेमी तो अपना प्रेम वृक्षों और चट्टानों को भी दे सकता है। एक प्रेमी तो उसे आकाश की शून्यता को भी दे सकता है। एक प्रेमी तो बस खिल सकता है और अपनी सुवास, यदि वहां लेने को कोई भी न हो, तो उसे हवाओं के द्वारा चारों ओर बिखेर सकता है। जरा खयाल करें : बुद्ध, बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं, बिलकुल अकेले ऐसा नहीं कि वहां कोई उसे ग्रहण कर रहा है, लेकिन उसे ग्रहण करने के लिए परमात्मा या अस्तित्व वहां हमेशा ही रहता है, अपने कई रूपों में, और कई तरीकों से वह उसे ग्रहण करता है। वासना एक लोभ है, वासना एक बंधन है, वासना में परिग्रह है। प्रेम को किसी पर अधिकार या नियंत्रण करने की जरूरत नहीं है, प्रेम कोई आसक्ति जानता ही नहीं, क्योंकि प्रेम, लोभ नहीं है। प्रेम एक उपहार है। यह एक सहभागिता है। तुमने कुछ पाया है, तुम्हारा हृदय भरा हुआ है, तुम्हारे फल पक गए हैं। तुम्हारी तीव्र उत्कंठा है कि कोई व्यक्ति आए और उसमें सहयोगी बने। यह देना बेशर्त है, यदि कोई सहभागी नहीं भी बनता है, तो भी कोई बात नहीं। लेकिन तुम इतने अधिक भरे हुए हो कि तुम निर्भर होना चाहते हो—जैसे बादल, जल से भरे होते हैं, और वे बरसते हैं। कभी वे जंगल में, कभी वे पहाड़ पर और कभी रेगिस्तान में जल बरसाते हैं, लेकिन वे वर्षा अवश्य करते हैं। यह बात, कि उन्होंने जल कहां बरसाया, असंगत है। वे इतने अधिक भरे हुए हैं कि उन्हें तो बरसना ही हैं।

एक प्रेमी, प्रेम से इतना भरा हुए होता है, कि वह एक बादल बन जाता है, वह प्रेम जल से भरा हुआ होता है: हो उसे बरसना ही होता है। उसका बरसना सहज और स्वाभाविक है।

तथा कथित प्रेमी

प्रेम की सुवास को

बहुत कम जान पाते हैं

एक प्रेमी अकेले प्रेम के लिए ही जीता है

जैसे मछली केवल जल में ही जीवित रहती है।

वह प्रेमी महान है

जो रात—दिन प्रेम कर सकता है

आराधना और प्रार्थना के साथ

जो प्रेम भरा मिलन घटित हो रहा है—

वह उसके प्रति

पूरी तरह समर्पित है।

पुरुष हो अथवा स्त्री

वह अभी भी अकेला ही है।

लेकिन वह प्रेमी तभी बनता है

जब उन दोनों की आत्माएं मिलती है।

सामान्यतया एक पुरुष अकेला है, एक स्त्री भी अकेली है। वहां अकेलापन है। भले ही यदि तुम किसी पुरुष अथवा स्त्री अथवा किसी मित्र से जुड़े हो, और यदि यह केवल वासना का ही सम्बंध है, तो भी तुम अकेले ही रहोगे। क्या तुमने कभी इसका निरीक्षण नहीं किया? एक स्त्री से बंधना, अथवा एक पुरुष से बंधना, लेकिन इस बंधन के बावजूद, अकेलापन रहता ही है। कहीं न कहीं गहरे में एक दूसरे के साथ कोई संवाद नहीं होता, तुम एक निर्जन द्वीप की तरह सभी से कटे रहते हो। तुम्हारे बीच संवाद असम्भव प्रतीत होता है। प्रेमी सामान्यतया एक दूसरे के साथ कभी बातचीत करते ही नहीं, क्योंकि प्रत्येक बात से तर्क—वितर्क उत्पन्न होता है और प्रत्येक बात संघर्ष ले आती है। धीमे— धीमे वे मौन बने रहना सीख लेते हैं, धीमे— धीमे वे यह सीख जाते हैं कि किसी भी तरह दूसरे से दूर रहा जाए अथवा उसे टाला जाए अथवा अधिक से अधिक उसे बरदाश्त किया जाए। लेकिन वे रहते हैं अकेले ही। यदि दूसरा वहां है भी, फिर भी वहां एक रिक्तस्थान रहता है, आंतरिक स्थान अतृप्त बना रहता है।

बाउल कहते हैं :

पुरुष हो अथवा स्त्री

वह अभी भी अकेला ही है।

लेकिन एक व्यक्ति प्रेमी तभी बनता है

जब उनकी आत्माएं मिल जाती हैं।

यह प्रश्न दो शरीरों का नहीं है, यह प्रश्न दो शरीरों के मिलने, एक दूसरे का आलिंगन करने और एक दूसरे में प्रवेश करने का ही नहीं है। प्रश्न है दो आत्माओं के एक दूसरे की गहराई में जुड़ जाने का। जब दो आत्माएं एक दूसरे के आर—पार एक दूसरे को समझती हैं, तब अकेलापन हमेशा के लिए विसर्जित हो जाता है। तब पूरी तरह से एक नूतन संसार उदित होता है, जहां तुम कभी भी अकेले नहीं हो सकते। तुम अखण्ड बन जाते हो।

पुरुष आधा है, स्त्री भी आधी है।

जब प्रेम होता है तो अखण्डता घटती है।

विष और अमृत

जब एक दूसरे में मिल जाते हैं,

ठीक उस बजने वाले और सुने जाने वाले संगीत की तरह

जो अकेला एक कृत्य बन जाता है।

मनुष्य का हृदय

सभी अधूरेपन से मुक्त है,

और शाश्वत रूप से बोध को उपलब्ध है। वह जैसे भलाई और बुराई को देखता है,

ठीक वैसे ही समय और स्थान को देखता है।

एक शिशु मां के स्तन से

जीवनदायी दूध चूसता है

और उसी स्त्री के स्तन पर लगी जोंक

उसका रक्तपान करती है।

”विष और अमृत मिलकर एक हो जाते हैं—’‘ प्रेम और वासना भी मिलकर एक हो जाते हैं, जीवन और मृत्यु मिलकर एक हो जाते हैं। यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम क्या चुनने जा रहे हो? एक शिशु मां के स्तन से दूध पीता है, और एक जोंक उसी स्तन से रक्त चूसती है। यह तुम्हीं पर निर्भर है। वासना बुरी नहीं है, लेकिन प्रेम और वासना मिलकर एक हो गए हैं।

प्रेम का चुनाव करो, वासना में से निकाल कर प्रेम को बाहर लाओ। अपने जीवन को एक सजगता से भरा जीवन बनने दो, जिससे तुम जो कुछ भी करो, वह इतने होश या चेतना से किया जाये, कि केवल जो कुछ मूल्यवान है, वही चुना जाए और जो निर्मूल्य है उसे छोड़ दिया जाए।

पूरा जीवन और कुछ भी नहीं, बल्कि मृत्यु के विरुद्ध जीवन को चुनने का एक महान प्रयास है, यह वासना के स्थान पर प्रेम को चुनने का, संसार के स्थान पर परमात्मा को चुनने का और झूठ, धोखा तथा असत्य की बजाय, सत्यम् शिवम् और सुंदरम को चुनने का एक महान प्रयास है।

ओ मेरे हृदय!

तू किस उलझन में पड़ा है?

जैसे—जैसे दिन गुजरते जाते हैं

तुझे उत्तराधिकार में मिली सम्पत्ति

लुटकर कपूर सी उड़ती जाती है

और तू सपनों में खोया हुआ,

केवल दिन रात ऊंधता ही रहता है।

और पांच घरों में रहते हुए भी

तेरा उन पर कोई नियंत्रण नहीं

ओ मेरे हृदय!

लुटेरा तेरे साथ ही

तेरे ही कक्ष में विश्राम कर रहा है।

लेकिन तू इसे कैसे जान और देख सकता है

तेरी आंखें तो नींद और मूर्च्छा से मूंदी हुई हैं।

यही बेखबरी और मूर्च्छा है, सजगता का अभाव है: ” ओ मेरे हृदय! लुटेरा तेरे ही साथ, तेरे ही कक्ष में विश्राम कर रहा है, लेकिन तू इसे कैसे जान और देख सकता है? तेरी आंखें तो नींद और मूर्च्छा से मुंदी हुई हैं।’’ अपनी आंखें खोल! निरीक्षण कर, तेरे अंदर और बाहर क्या कुछ घट रहा है। जीवन और मृत्यु की सरिता के प्रति सजग बन, और धीमे— धीमे जीवन की सरिता में बहते हुए उसके साथ एक और अखण्ड हो जा।

जब भाव और अनुभव उमड़ कर मिलोग हैं

तो प्रेम के सोते फूट पड़ते हैं

दो अलग—अलग रूप और आकृतियां

अपने को एक मानकर

एक ही पथ पर चल पड़ते हैं।

दो प्रेमी हृदय

दो समानांतर सरिताओं की भांति भागे चले जा रहे हैं,

पर प्रेम के परमात्मा तक पहुचने के लिए

मार्ग बहुत लम्बा है।

यदि तुम्हारा प्रेम, वासना न होकर केवल प्रेम है, तब धीमे— धीमे तुम पाओगे कि तुम और तुम्हारी प्रेमिका दोनों साथ—साथ गाते और नाचते हुए उस सर्वोच्च—प्रेमी की ओर बढे चले जा रहे हैं, उस स्थान की ओर, जहां वह प्रीतम प्यारा रहता है, और केवल वहीं कोई भी व्यक्ति विश्राम पा सकता है। तब तुम अपने अंतिम घर की ओर बढ़ रहे हो। लेकिन यदि वहां वासना है, तब तुम कहीं भी गतिशील ही नहीं हो रहे हो।

वासना है—एक रुके हुए जल के तालाब की तरह मृत, और प्रेम है एक बहती हुई नदी की भांति। और यदि तुम किसी से प्रेम करते हो, तो तुम दोनों की सरिताए एक दूसरे के समानांतर सागर की ओर दौड़ रही हैं। यह अच्छा है कि तुम अपनी प्रेमिका के साथ नाचते हुए यह अच्छा है कि तुम अपने हाथ में उसका हाथ थामे हुए और अच्छा होगा यदि तुम उसके साथ हृदय से हंसते गाते हुए चलो। लेकिन स्मरण रहे यदि तुम्हारा जीवन एक रुके जल का तालाब बन जाता है, तब समझना, वह वासना है। प्रेम तो सदा बहता और सक्रिय होता है, जबकि वासना बासी और थिर, अथवा रुकी हुई होती है

सौंदर्य के सार—तत्व को

उसके चेहरे पर टकटकी लगाकर देखते हुए

प्रेम के दर्पण में

तुम उसके दृश्य रूप में उस अरूप को देखो।

उसके हाथों में आकर अग्नि शीतल हो जाती है,

और चांदी जैसे शुभ्र बर्फ के ढेले

अग्नि की ज्वाला बन जला देते हैं।

प्रेम एक चमत्कार है। एक बार प्रेम घट जाये, तो निरंतर चमत्कार होते ही रहते हैं: हाथों में आकर अग्नि शीतल हो जाती है और चांदी जैसे शुभ्र बर्फ के ढेले, अग्नि की ज्वाला बन जला देते हैं।

प्रेम का अपना ही एक अलग संसार है। वासना एक पृथक कानून और नियम के अंतर्गत जीवित है। रहस्यदर्शी इसे वासना का नियम अर्थात गुरुत्वाकर्षण का नियम कहकर पुकारते हैं: जिसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति नीचे की ओर खींच लिया जाता है। और प्रेम का नियम अनुग्रह का नियम है: कोई भी व्यक्ति ऊपर की ओर खींच लिया जाता है।

 

मैंने सुना है : एक सूफी रहस्यदर्शी किसी व्यक्ति के घर में ठहरा हुआ था, और उसके बारे में लोगों का खयाल था कि वह एक पागल है, इसलिए पूरा परिवार थोड़ा भयभीत था। वह रहस्यदर्शी विश्वास करने योग्य न था, वह कभी भी कुछ भी कर सकता था। लेकिन वह एक महान रहस्यदर्शी के रूप में भी जाना जाता था, इसलिए वे लोग उसे घर से भी नहीं निकाल सकते थे और वे सभी इस बात से भी भयभीत थे।’’ उसे रात में कहां रखा जाये, उसे कहां सोने दिया जाये ” इसका खयाल रख उन्होंने तलघर में उसका बिस्तर बिछाया।

अचानक आधी रात में उन्होंने ऊपर छज्जे से उसके खिलखिलाकर हंसने की आवाज सुनी। वे उसकी हंसी को तुरंत पहिचान गये, वह उसी पागल की ही हंसी थी।

लेकिन वह ऊपर छज्जे पर कैसे पहुच गया? उसे तो तलघर में रखा गया था। वे लोग सीढ़ियां चढ़कर ऊपर भागे: वह पागलों की तरह वहां हंसे ही जा रहा था, और हंसते हुए छज्जे पर ही लोटपोट हो रहा था।

उन्होंने पूछा—’‘ आखिर हुआ क्या? आप यहां कैसे आ गए?” उसने कहा— ” मैं इसी वजह से तो हंस रहा हूं। मैं नीचे तलघर में सो रहा था और तभी चमत्कारों का एक चमत्कार हुआ। अचानक मैं नीचे से ऊपर आकर गिरा। मैं इसीलिए हंस रहा हूं।’’

 

यह कहानी बहुत सुंदर है। रहस्यदर्शी ऊपर की ओर चले जाते हैं। प्रेम भी ऊपर की ओर उठाता है। यह एक दूसरे संसार का भाग है, ऐसा एक अन्य नियम के अंतर्गत होता है: वह है अनुग्रह का नियम।

आकाश की प्राचीरों पर

प्रकाश फूटने लगा है

और अंत में वह कृपा निधान

सुबह टहलता हुआ आखिर आ ही पहुंचा,

और मैंने उसे अपने चेहरे के निकट ही मौजूद पाया।

उगते प्रेम—सूर्य की ऊष्मा से

रात की चमक पिघलने लगी है

और पत्तियों पर पड़ी ओस नीचे टपक रही है

मुर्झाये फूल फिर से खिलने लगे हैं

और पंख फड़फड़ाते पक्षी उड़ रहे हैं।

प्रेम ही वह उगता हुआ सूर्य है

और वासना ही आत्मा की अंधेरी रात है।

ओ मेरे असंवेदनशील हृदय!

तू अपने ही शरीर में

अपने स्वभाव की स्वयं खोजकर

जब तक तू अपने सारतत्व को नहीं जान लेता

परमात्मा की पूजा पाठ से कुछ भी नहीं होने वाला।

इसी शरीर में सात स्वर्गों का निवास है

इस जीवन सरिता की यात्रा में

तू गलतियां ही करेगा।

क्योंकि तूने कभी भी

अपने मित्रों और शत्रुओं को पहचानना सीखा ही नहीं

जो तेरे अपने ही शरीर में जीवित हैं।

इसलिए आधारभूत कार्य है अपने ही शरीर में बसे मित्र और शत्रुओं को जानना। मुख्य कार्य यह जानने का है कि तुम किस तरह के हो और किस तरह के नहीं हो, जिससे तुम मृत्यु और जीवन, वासना और प्रेम तथा कुण्ड बफर और कुण्डलिनी के मध्य होने वाले भेद को पहचान सको।

यहां से तुम्हें कहीं और जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भी घटने जा रहा है वह तुम्हारे ही अंदर घटने जा रहा है। इस शरीर में वहां सभी कुछ दिया गया है, वह सभी कुछ पहले ही से दिया गया है। केवल थोड़े से अंतर को समझने के लिए थोड़े से होश और सजगता की जरूरत है। अपने ही अस्तित्व को प्रकाश में लाओ। बाहर संसार की ओर से आंखें बंद कर अपने ही अंदर अपनी आंखें खोलो। तुम्हारे ही शरीर में लघु रूप में पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।

रहस्यदर्शी कहते हैं: जैसा ऊपर है, वैसा ही नीचे है।

हिंदू कहते हैं: जो कुछ भी ब्रह्म में है, और जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में है, वह सभी कुछ मनुष्य में भी है।

मनुष्य पूरे ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा नक्‍शा है। तुम्हारे ही अंदर सीमित और असीमित दोनों का ही अस्तित्व है, तुम्हारे ही अंदर पदार्थ और चेतना दोनों ही हैं: तुम्हारे ही अंदर निम्रतम और उच्चतम दोनों का ही अस्तित्व है।

नीत्‍शे कहा करता था कि मनुष्य दो खाइयों और दो अनतताओं के बीच एक तनी हुई रस्सी की भांति है।

हां! मनुष्य एक रस्सी है, एक सेतु है। तुम एक सीढी हो: जिसका एक भाग पृथ्वी पर टिका है, और दूसरा भाग जिसे तुम कभी भी देख नहीं सकते, वह परमात्मा के चरणों से लगा है। इसे देखो, इसे पहचानो, और ठीक दिशा को महसूसो और गतिशील हो जाओ। बस चलना शुरू कर दो।

आज इतना ही।

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–15)

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बिरहिण बिहरे रैनदिन—(प्रवचन—पंद्रहवाँ)

दिनांक 26 मई 1976,

श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

सिला सँवारी राजनै, ताहि नवै सब कोइ।

रज्जब सिष—सिल गुरु गढै सोइ पूजि किन होइ।।

गुरु ज्ञाता परजापती, सेवक माटी रूप।

रज्जब रज सूँ फेरकै, घरिले कुंभ अनूप।।

ज्यूँ धोबी की धमस सहि, ऊजल होइ कुचीर।

त्यूँ सिव तालिब निरमला, मार सहे गुरु पीर।।

बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।

जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।

बिरहा—पावक उर बसे, नखसिख जालै देह।

रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह।।

भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।

रज्जब तलफै तबलगै, मिलै न मारनहार।।

जैसे नारी नाह बिन, भूली सकल सिंगार।

त्यूँ रज्जब भूला सकल, सुनि सनेह दिलदार।।

तन मन ओले ज्यूँ गर्लाहं, बिरह—सूर की ताप।

रज्जब निपजै देखि लूँ, यूँ आपा गलि आप।।

रज्जब ज्वाला बिरह की, कबहूँ प्रगटै माहिं।

तौ सीचनि घृत सों चहौं, करम—काठ जरि जाहिं।।

दरद नहीं दीदार का, तालिब नाहीं जीव।

रज्जब बिरह बिबोग बिन, कहाँ मिलै सो पीव।।

माअत जब खनकती है तरबखानों की राहों में

तो मंजिल के तसव्वुर से कदम ललचा ही जाते हैं

अगर जेबे—अत्रो—गिरेबा की हम—अहंगी सलामत हो

तो नामों की मुरव्वत के मुकामात आ ही जाते हैं

 

सुनहरी उंगलियाँ रुकती हैं जब साजों की शहरंग पर

तो नग्मों की चहकती साँस रुक जाती है सीने में

दरोगे—मस्लहत आमेज भी एक चीज है लेकिन

छलक जाता है जहराबे—अलम हर आबगीने में

 

तसव्वुर उम्र की उस हद पै जाके हांप जाता है

जहाँ अहले—हवस बेदाद—पर—बेदाद करते हैं

ब—मजबूरी थिरकती है जबानी बर—सरे—महफिल

बदन के मुस्कुराते जाविये फर्याद करते हैं

 

नजर की नग्मगी, जुल्फों के बल, होठों की शीरीनी

यहाँ हर चीज झूठे प्यार पर मजबूर होती है

यहाँ किरदार के उजले सनम ढाले नहीं जाते

यहाँ हर जिंदगी गुपतार पर मजबूर होती है

 

झरोकों से महकते हैं यहाँ हँसते हुए फाके

यहाँ चुकता है सौदा जिंदगी की इल्तिजाओ का

यहाँ दिन को बदन तुलते हैं मीजाने—हुकुमत में

यहाँ रातों को जमता है अखाड़ा रहनुमाओं का

खरीदारो! यहाँ हर रात जश्ने—आम होता है

यह वह मंडी है जिसमें प्यार का नीलाम होता है

 

संसार है प्रेम की भूल, प्रेम की भ्रांति। प्रेम तो ठीक है, लेकिन गलत से हो गया है। प्रेम तो सुंदर है, लेकिन व्यर्थ से हो गया है। प्रेम तो शाश्वत है, लेकिन क्षण— भंगुर सें हो गया है। और ‘जब प्रेम झूठा हो जाए, तो सब झूठ हो जाता है। क्योंकि प्रेम हमारा प्राण है। प्रेम की ऊर्जा से निर्मित है सारा अस्तित्व।

नजर की नग्मगी, जुल्फों के बल, होठों की शीरीनी

यहाँ हर चीज झूठे प्यार पर मजबूर होती है

यहाँ किरदार के उजले सनम ढाले नहीं जाते

यहाँ हर जिंदगी गुपतार पर मजबूर होती है

मनुष्य जब भी प्रेम करता है, जिससे भी प्रेम करता थैं, तो वस्तुत परमात्मा की तलाश में ही करता है। तुम जब किसी स्त्री के सौंदर्य से मोहित हुए हो, तो अनजाने ही सही, उस स्त्री के चेहरे के दर्पण में तुम्हें परमात्मा की कुछ छवि दिखायी पड़ी है। तुम्हें होश हो कि न हो। तुम जब किसी रुरुष के प्रेम में पड़े हो, तो तुम्हें कुछ भनक सुनायी पड़ी है। दूर की आवाज सही, साफ—साफ पकड़ में भी न आती हो, मुट्ठी भी न बँधती हो, लेकिन जब भी तुमने किसीको चाहा है तो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि तुमने परमात्मा को ही चाहा है। लेकिन तुम अपनी चाहत के रंग को समझ नहीं पाए, चाहत के ढंग को समझ नहीं पाए। चाहा कुछ, उलझ गये कहीं और।

जैसे खिड़की से किसी ने सूरज को ऊगते देखा और खिड़की के चौखटे को पकड़ कर बैठ गया, और खिड़की की पूजा करने लगा। खिड़की में कुछ बुरा भी नहीं है, सूरज को दिखाया है खिड़की ने, तो धन्यवाद दो, मगर खिड़की की पूजा करने बैठ गये! फिर सूरज का क्या होगा? खिड़की लक्ष्य बन जाती है, माध्यम होती तो ठीक थी।

ऐसे ही हमने किसी मनुष्य के चेहरे में परमात्मा की झलक पायी, किन्हीं आँखों में उसकी शराब उतरती देखी, किसी युवा देह में उसकी बिजली चमकी, उसकी बिजली कौंधी, हम देह को पकड़कर बैठ गये, हम आँख की पूजा करने लगे, हम रूप के पुजारी हो गये अgएएर हम यह भूल ही गये कि सब रूप में अरूप झलकता है, सब आकार में निराकार, सब गुणों में निर्गुण। इतनी भर याद आ जादू, तो जीवन मे वह पड़ाव आ जाता है जहाँ से नयी यात्रा शुरू होती है। वह मोड़ आ जाता है, जीवन ‘नर्म का पहनावा पहन लेता है, जीवन धर्म को गीत गाने लगता है।

संसार है तो परमात्मा का ही प्रेम, लेकिन माध्यम से हो गया है। और माध्यम को हम इतने जोर से पकड़ लेते हैं कि माध्यम जिसे दिखाने के लिए है, वह चूक ही उठाता है। ऐसा समझो कि किसी से तुम्हें प्रेम हो जाए और तुम उसके वस्त्रों को ही सब कुछ समझ लो और उसकी देह की तलाश ही न करो, तो तुम्हें लोग पागल कहेंगे। संसार पागल है। तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए और तुम उसकी देह पकड़ लो और उसकी आत्मा की तलाश ही न करो, यह भी पहली ही जैसी भ्रांति है। क्योंकि देह वस्त्र से ज्यादा नहीं है। तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए और तुम उसकी आत्मा को ही पकड़ लो और परमात्मा तक तुम्हारे प्राण न उठें, फिर भी भूल हो गयी। खोदे चलो। खोजे चलो। हर जगह से तुम परमात्मा तक पहुँच सकते हो। क्योंकि हर जगह वही छिपा है। आवरण कितने ही हो, आवरण उघाड़े जा सकते हैं। न तो आवरणों को पकड़ना और न आवरणों से भयभीत होकर भाग जाना।

दुनिया में दो तरह के काम होते रहे हैं। कुछ लोग आवरण पकड़ लेते हैं— किन्हीं ने खिड़की की पूजा शुरू कर दी है। और इनकी मूढ़ता को देखकर कुछ लोग खिड़की को छोड्कर भाग गये हैं। ऐसे भागे हैं कि खिड़की के पास नहीं आते। दोनों ने भूल कर दी है। क्योंकि सूरज खिड़की से ही देखा जा सकता है। न तो पूजनेवाला देख पाएगा और न भगोड़ा देख पाएगा।

संसार परमात्मा की खिड़की है। भोगी भी नहीं देख पाता और जिसको तुम योगी कहते हो, वह भी चूक जाता है। भोगी ने जोर से पकड़ लिया है संसार, योगी इतना घबड़ा गया है भोगी की पकड़ देखकर कि उसने पीठ कर ली और भागा जंगल की तरफ। लेकिन संसार उसका ही है। वही यहाँ तरंगित है। यह गीत उसका है। इस बाँसुरी पर उसी के स्वर उठ रहे हैं। बाँसुरी को न तो पकड़ो, न बाँसुरी से डरो, बाँसुरी से आते हुए अज्ञात स्वरों को पहचानो। फिर बाँसुरी का भी सन्मान होगा। सच्चे धार्मिक व्यक्ति के मन में संसार का अनादर नहीं होता, सम्मान होता है। क्योंकि यही तो परमात्मा से जोड्ने का उपाय है, यही तो सेतु है। सच्चा व्यक्ति संसार का भी अनुगृहीत होता है, क्योंकि इसी ने परमात्मा तक लाया। सच्चा व्यक्ति अपनी देह का भी अनुगृहीत होता है, क्योंकि यह देह वाहन है। सच्चा व्यक्ति किसी चीज के विरोध में ही नहीं होता। सब चीजों का उपयोग कर लेता है। समझदार वही है जो जहर का अमृत की तरह उपयोग कर ले। वही कुशल है, वही बुद्धिमान

जहर औषधि बन जाता है समझदार के हाथ में। और नासमझ के हाथ में अमृत भी जहर बन सकता है, यह याद रखना। धर्म भी किन्हीं लोगों के हाथ में जहर हो गया है और संसार भी किन्हीं लोगों के हाथ में परमात्मा का दर्शन बन गया है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि तुम कहाँ हो, सवाल यह नहीं है कि तुम संसार में हो कि पहाड़ पर हो, एकांत में हो कि भीड़ में हो, सवाल यह है तुम्हें कला आती है या नहीं? जीवन का माध्यम की तरह उपयोग करने की कला का नाम धर्म है।

यहाँ हर चीज उसके ही मंदिर की सीडी है। पत्थर मत समझो इन सीढ़ियों को, तक मत जाओ, अटक मत जाओ, चढ़ो और पार उठो। तब तुम धन्यवाद करोगे इन सीढ़ियों का। लेकिन जब तक यह नहीं होता तब तक यहाँ हर चीज झूठी हो जाती है।

हर चीज झूठी क्यों हो जाती है? क्योंकि तुम साधन को साध्य समझ लेते हो। दस तभी सब झूठ हो जाता है। जहाँ प्रेम भ्रांत से अटका, वहीं प्रार्थना का जन्म असंभव हो जाता है और जहाँ प्रेम ने भ्रांति में अटकाव न पाया और भ्रांति के बीच से अपनी नाव को खेकर आगे निकल गया, वहीं प्रेम प्रार्थना बन जाता है। और जो लोग संसार की भ्रांति में नहीं पड़ते, वे ही सद्गुरु की तलाश करते हैं। सद्गुरु की तलाश कब शुरू होती है? कौन व्यक्ति सद्गुरु के हाथ में अपने को छोड़ेगा? हर ओई नहीं छोड़ता। कौन छोड़ता है? कुछ शर्तें हैं, ख्याल रखना।

पहली बात, जिसने सब तरफ से सिर मार—पटक कर देख लिया, जिसने सब तरफ से कोशिश करके देख ली, जो भी उससे हो सकता था कर चुका, और हर जगह हार गया और हर जगह पराजय मिली, हर जगह दीवाल आ गयी और द्वार न मिला, बेस दिशा में खोजा वहीं व्यर्थता हाथ लगी, जिसके भीतर अपनी असफलता का बोध प्रगाढ़ हो जाता है कि मैं मेरे ही कारण खोज न पाऊँगा——……क्यों न खोज पाऊँगा? क्‍योंकि हर असफलता से यह बात दिखायी पड़ने लगती है कि मेरा यह मैं—भाव ही मेरी सारी असफलताओं का आधार है। तो मैं जो भी करता हूँ, मेरा मैं—भाव और मजबूत होता है। मैं पूजा करता हूँ, तो अहंकार बढ़ता है; मैं त्याग करता हूँ तो अहंकार बढ़ता है, मैं दान करता हूँ तो अहंकार बढ़ता है, मैं जो भी करता हूँ, मेरा कृत्य मेरे अहंकार को और भी सजा जाता है और मजबूत बना जाता है, और यही अहंकार मुझे तोड़ रहा है।

अहंकार यानी मैं अलग हूँ। निर—अहंकार अर्थात मैं इस विराट के साथ एक हूँ। जब तक एक न हो जाएँ इस विराट के साथ हम, हम इसे जान न पाएँगे। हम तरसते ही रहेंगे, हम भटकते ही रहेंगे, और अहंकार बाधा है। और जो भी मैं करता हूँ उससे अहंकार मजबूत होता है। विनम्रता भी साध लो, तो भी अहंकार मजबुत होता है। विनम्र आदमी का भी बड़ा गहन अहंकार हो जाता है कि मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं। मुझसे ज्यादा निर—अहंकारी ओर कोई नहीं। यह भी अकड़ वही है पुरानी, कुछ फर्क न पड़ा। तब धन की अकड़ थी, पद की अकड़ थी, अब भी अकड़ है। अकड़ ने नये रूप ले लिये, अकड़ नये द्वार से प्रवेश कर गयी। सामने के दरवाजे से दिखायी भी पड़ती थी, अब पीछे के दरवाजे से आ गयी। सामने थी तो बचने का उपाय भी था, अब उसने’ पीछे से गर्दन पकड़ी। अब पहचान मुश्किल हो जाएगी।

इसीलिए तुम्हारे तथाकथित महात्माओं में जितना अहंकार होता है, उतना किसी और में नहीं होता। यह ऐसे ही नहीं है, अकारण नहीं है, इसके पीछे पूरा विज्ञान है। महात्मा ने बड़ी कोशिश की है। सब त्यागा, सब सुख छोड़े, सुविधा छोड़ी, सुरक्षा छोड़ी, सब तरह से अपने को कष्ट दिये, तप किया, व्रत—उपवास किये, योग .किया, साधन बिठाये, सब किया, इस करने में ही अहंकार मजबूत हुआ। तुम ऐसा समझो, कर्ता का जहाँ—जहाँ भाव उठता है, वहाँ—वहाँ अहंकार को भोजन मिलता है, अहंकार में नया खून पड़ता है—जब यह बात दिखायी पड़ती है कि मैं बाधा हूँ और मैं जो भी करता हूं उससे मैं मजबूत होता है, इसलिए अब मेरे किये कुछ भी न होगा, तब आदमी सद्गुरु की खोज में निकलता है। तब हम उसे खोजें जिसके किये कुछ हो सके। हम किसीके चरणों में अपने को गिरा दें। हम कह दें कि मैं तो हार गया, अब मैं समर्पित हूँ। अब मुझे तोड़ो, मुझे मिटाओ, मुझे फिर से बनाओ। पहली बात स्मरण रखना, जो अपने मैं की यात्रा से बुरी तरह पराजित हो गया है, वही व्यक्ति सद्गुरु के चरणों में जाता है।

दूसरी बात, जो व्यक्ति संसार और जीवन के अनुभव से इतना ज्यादा व्याकुल हो गया है कि अब अगर यह पूरा संसार भी उसे मिलता हो, तो वह लेने को राजी नहीं है। जिसने देख लिया है कि यहाँ मिल जाएँ चीजें तो भी दुख है, न मिलें तो भी दुख है; जीतो तो दुख है, हारो तो दुख है। जिसे हार ही नहीं पकड़ ली है बल्कि जिसे जीत में भी हार दिखायी पड़ गयी है; जिसने सब आशाएँ छोड़ दी हैं, जो आशा से शून्य हो गया है, वही व्यक्ति सद्गुरु के चरणों में जा सकता है।

क्यों?

क्योंकि सद्गुरु के चरणों में जाना मृत्यु के चरणों में जाना है। सद्गुरु तो उठाएगा तलवार और टुकड़े—टुकड़े कर देगा। टुकड़े—टुकड़े करे तो ही तुम्हारा नया जन्म हो, पुनर्जन्म हो। टुकड़े—टुकड़े करे तो ही जन्मों—जन्मों का कचरा जो तुम्हारे ऊपर इकट्ठा हो गया है, जिसे तुम समझते हो कि मैं हूँ, उससे तुम्हारा छुटकारा हो। लेकिन टुकड़े—टुकड़े होने को, मरने को वही राजी हो सकता है जिसे अब जीवन में कोई आशा नहीं रही। अगर जीवन में थोड़ी भी आशा रही, तो तुम कहोगे—— अभी थोड़ी और कोशिश कर लूँ; शायद अब तक नहीं हुआ है, कल हो जाए, थोड़ा और दौड़ लूँ, थोड़े और उपाय बिठा लूँ, कौन जाने सफलता मिल ही जाए! तो तुम भाग जाओगे, फिर तुम मरने को राजी नहीं हो सकते, फिर तुम अपने को दाँव पर नहीं लगा सकते।

पुराने शास्त्र कहते हैं——आचार्यो मृत्यु :। गुरु तो मृत्यु है। गुरु के पास जाना तभी संभव है, जब जीवन तुम्हें मृत्यु—जैसा मालूम पड़ने लगे। जब तुम्हें ऐसा लगे, अब अपने पास गँवाने को कुछ है ही नहीं; या जो भी है सब व्यर्थ है, यह तो कोई ले ले तो अच्छा, कोई लूट ले तो अच्छा, कोई छीन ले तो अच्छा। जब तुम्हें ऐसा दिखायी पडने लगे कि तथाकथित जीवन मृत्यु—जैसा है, तभी तुम्हें मृत्यु जीवन—जैसी

मालूम पड़ेगी। इतनी बड़ी क्रांति जब घटती है, तो कोई सद्गुरु के चरणों में जाता है। ये आज कै वचन सद्गुरु के चरणों में पहुँचकर जो घटनाएँ घटती हैं उस संबंध में हैं। महत्वपूर्ण हैं, गहरे इशारे इनमें मरे हैं। एक—एक इशारे को पकड़ना।

सिला सँवारी राजनै, ताहि नवै सब कोइ।

रज्जब सिय—सिल गुरु गटैद, सोइ पूजि किन होइ।।

राज पत्थर से एक मूर्ति बनाता है, एक मूर्तिकार मूर्ति गढ़ता है——राम की, —कृष्ण की, बुद्ध की, महावीर की——हजारों लोग उसकी पूजा करते हैं। पत्थर की मूर्ति की पूजा करते हैं। जानते हैं भलीभाँति——आदमी ने गढ़ी है, जानते हैं भलीभाँति ——पत्थर पत्थर है, चाहे कितने ही सुंदर रूप दो, प्राण नहीं डाले जा सकते। बुद्ध की मूर्ति में कितना ही खोजो, बुद्ध कों न पा सकोगे। वहाँ कहाँ बुद्ध? वहाँ कहाँ चेतना? वहाँ कहाँ समाधि? पत्थर की मूर्ति में खोजने चलोगे तो पत्थर—ही—पत्थर पाओगे। धोखा है।

प्रसिद्ध झेन गुरु इक्कू एक मंदिर में ठहरा। रात थी सर्द, उसे सर्दी लग रही थी, उसने बुद्ध की एक मूर्ति उठा ली——लकड़ी की मूर्ति थी——और जलाकर ताप ली। जब वह आग जलाकर ताप रहा था, मंदिर के पुजारी ने मंदिर में अचानक आग जली देखी तो वह जागा, भागा हुआ आया, देखा तो भरोसा ही नहीं आया उसे! इस आदमी को साधु समझकर ठहर जाने दिया था, यह ऐसा दुष्कृत्य करेगा कि भगवान की मूर्ति जला देगा, इसकी तो कल्पना भी न— थी! और इक्कू जाहिर साधु था, सारा देश उसे जानता था। पुजारी भौंचक्का खड़ा रह गया। इक्कू ने पूछा—इतने भौंचक्के क्यों खड़े हो? बैठो। आँच ताप लो, सर्दी बहुत है। उस पुजारी ने कहा——तुम पागल तो नहीं हो गये हो? भगवान की मूर्ति जला दी, महापाप किया है, इससे बड़ा पातक नहीं हो सकता। उसकी बात सुनकर इक्कू ने पास में पड़ी अपनी लकड़ी उठायी, अपना डंडा उठाया——और अब मूर्ति तो जल चुकी थी, अब राख—ही—राख थी—राख में डंडा घुमाने लगा, जैसे कुछ खोजता हो। पूछा उस पुजारी ने——अब क्या कर रहे हो? अब क्या खोज रहे हो? उसने कहा——मै बुद्ध की अस्थियाँ खोज रहा हूँ,। पुजारी को भी हँसी आ गयी। उसने कहा——तुम निश्चित पागल हो। तुम्हारा कोई कसूर नहीं, मेरी ही गल्ती हो गयी जो मैंने तुम्हें भीतर ठहराया। लकड़ी की मूर्ति में कहाँ बुद्ध की अस्थियाँ? अब इक्कू।’ हँसने की बारी थी। वह खिलखिला कर हँसा। उसने. कहा—तो फिर दो मूर्तियाँ और हैं मंदिर में, उनको भी ले आओ, अभी रात बहुत बाकी है। तापेंगे, गपशप करेंगे।

जो मूर्ति बुद्ध की है, उसमें बुद्ध की अस्थियाँ भी नहीं हैं, बुद्ध की आत्मा तो कहाँ! उसमें तो कुछ भी नहीं है, पत्थर ही है। लेकिन हमारी आँखें रूप से अंधी हो गयी हैं। आकृति से हम इस तरह से जुड़ गये हैं कि पत्थर में भी आकृति होती है तो धोखा हो जाता है। हमने आकृतियों से इतना प्रेम किया है——कभी स्त्री से, कभी पुरुष से, कभी बेटे से, पत्नी से, पति से, माँ से, बाप से, भाई से, मित्र से—— हमने आकृतियों से इतना प्रेम किया है, और धीरे—धीरे हमें आकृति की ऐसी पकड़ हो गयी है कि हम पत्थर की मूर्ति को भी नमस्कार करने लगते हैं। क्योंकि आकृति वहाँ दिखायी पड़ती है। हम भूल ही गये कि आकृति के पीछे आत्मा से प्रेम किया जाता है। हमारी भ्रांति इतनी लंबी है, सदियों पुरानी तूँ, जन्मों—जन्मों पुरानी है, भ्रांति ऐसी गहन होकर बैठ गयी है कि कोई भगवान की मूर्ति बनाकर रख देता है, आकृति दिखायी पड़ती है, हम झुके! कैसी हम मूढ़ता कर रहे हैं, इसका हमें बोध भी नहीं होता! होगा भी नहीं, क्योंकि और भी हजारों झुक रहे हैं। जब इतने लोग झुक रहे हैं तो हम सोचते हैं— —ठीक ही होगा, इतने लोग गलत नहीं हो सकते।

जार्ज बर्नार्ड शा से किसी आदमी ने कहा——उसने कुछ वक्तव्य दिया था, वक्तव्य ऐसा था कि कोई राजी न हो। बर्नार्ड शा को ऐसे वक्तव्य देने की आदत थी। जैसे उसने घोषणा कर दी कि वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है यह बात गलत है। सूरज ही पृथ्वी का चक्कर लगाता है। अब बर्नार्ड शा कोई वैज्ञानिक नहीं है, उसे कहने का यह कोई हक नहीं है। किसीने जाकर कहा कि यह आप क्या कहते हैं? सारी दुनिया अब मानती है, सारे वैज्ञानिक मानते हैं, कि पृथ्वी ही सूरज का चक्कर लगाती है। इतने लोग मानते हैं तो गलत न मानते होंगे। बर्नार्ड शा ने कहा——इतने लोग मानते हैं, तो बात सही हो ही नहीं सकती। इतने लोग मानते हैं तो गलत ही होगी। भीड़ गलत के साथ ही इकट्ठी होती है। सत्य के साथ भीड़. इकट्ठी हो नहीं पाती। सत्य को तो विरले चुनते हैं। रही मेरे वक्तव्य की बात, तो उसने कहा—मेरे वक्तव्य का कारण है। मैं यह मान ही नहीं सकता कि मैं जिस पृथ्वी पर रहता हूँ, वह पृथ्वी किसी का चक्कर लगाए। जब मैं यहाँ रहता हूँ, जब तक मैं यहाँ हूँ कम—से—कम, तब तक सूरज ही इस पृथ्वी का चक्कर लगाएगा।

वह आदमी के अहंकार की मजाक उड़ा रहा है। उसने तो व्यंग्य में यहु बात कही थी, लेकिन एक बात उसने बड़ी सार्थक कही कि इतने लोग मानते हैं, तो सही नहीं हो सकता। हमारा तर्क यही है कि इतने लोग मानते हैं तो सही होगा ही। इसलिए सारे दुनिया के धर्म इस कोशिश में लगे रहते हैं कि उनकी संख्या कैसे बढ़ जाए। क्योंकि संख्या के बल से ऐसा लगता है, उनकी मान्यता सच हो जाएगी। तुम भी इसी कोशिश में होते हो। तुम्हें डर होता है कि अगर अपनी बात को मानने वाले तुम अकेले हो तो तुम्हें खुद ही संदेह होता है कि जरूर कुछ गल्ती होगी। कोई और नहीं मानता, मैं अकेला मानता हूँ। अकेला मैं ही ठीक! सारी दुनिया गलत! ऐसे कैसे हो सकता है? इतने लोग गलत नहीं हो सकते।

इसीलिए हर आदमी अपने विचार से दूसरे आदमी को राजी करने की कोशिश करता है। क्यों? अगर दूसरा राजी हो जादू तो भरोसा आता है कि मेरी बात जरूर ठीक होगी, देखो दूसरे ने भी मानी। तुम्हें अपनी बात पर खुद भरोसा नहीं है, दूसरे में भरोसा पैदा हो जाए तो तुम्हें अपनी बात पर भरोसा आ जाता है। फिर भीड़ बढ़ने लगे, तो भरोसा और बढ़ने लगता है। ईसाई चाहते हैं सारी दुनिया ईसाई हो जाए, मुसलमान चाहते हैं सारी दुनिया मुसलमान हो जाए, हिंदू चाहते हैं सारी दुनिया हिंदू हो जाए। मतलब क्या है? किसी को अपनी बात पर भरोसा नहीं है। भीड़ हो तो भरोसा आ। जितनी बड़ी भीड़ हो जाए उतना भरोसा आ जाए। इतने लोग मानते हैं तो ठीक ही मानते होंगे।

तुम जरा ख्याल रखना, सावधान रहना, सत्य बहुत थोड़े लोगों के पल्ले पड़ता है। क्योंकि सत्य को अपने आँचल में लेने के लिए मिटने की तैयारी चाहिए। झूठ सभी के पल्ले पड़ जाता है, क्योंकि झूठ तुमसे कोई माँग ही नहीं करता। झूठ तो कहता है, मैं मुफ्त मिलने को तैयार हूँ, मैं यह रहा, तुम बस मुझे ले लो। और झूठ सब तर्क देता हैं कि मैं सच क्यों? सत्य कोई तर्क ही नहीं देता। सत्य तो सिर्फ घोषणा करता है। और घोषणा महँगी है। जो भी उसे लेने जाता है, जल जाता है, राख हो जाता है। राख हो जाता है, तभी ले पाता है।

तुम देखते हो रोज, आदमी मूर्ति गढ़ रहा है, फिर मूर्ति एक दिन बनकर तैयार हो गयी, फिर मंदिर में उसकी स्थापना हो गयी, फिर चले तुम पूजा करने! तुम्हें कभी यह मी ख्याल नहीं आता आदमी की बनायी हुई मूर्ति में कहाँ परमात्मा होगा? कैसे परमात्मा होगा? परमात्मा शायद मिल भी जाए वहाँ जो परमात्मा का बनाया हुआ है——किसी वृक्ष में मिल जाए भला, किसी पक्षी में मिल जाए भला, किसी आदमी में मिल जाए, किसी स्त्री में मिल जाए, मगर पत्थर की मूर्ति जो एक राज ने बनायी है, उसमें कैसे मिलेगा? राज में मिल भी जाता, मगर मूर्ति में नहीं मिल सकता। लेकिन तुम मूर्ति की ही पूजा करते हो। लाखों लोग कर रहे हैं, और लाखों जन्मों से तुम कर रहे हो, आदत हो गयी है।

आदत का निचोड़ क्या है?

निचोड़ इतना है, हम आकृति से बँध गये हैं। आकृति के भीतर आत्मा है या नहीं, इसकी भी हमें चिंता नहीं रही। आकृति पूरी हो तो बस सब ठीक हो गया। और मजा यह है कि आक़ृति भी कहाँ कोई पूरी होती है! तुमने परमात्मा देखा नहीं, कैसे तुम उसकी मूर्ति बना रहे हो? तुम्हारी सब मूर्तियाँ सुंदर पुरुषों की मूर्तियाँ हैं; जिनमें कभी—कभी परमात्मा की झलक उतरी थी। मगर खिड़की को पकड़ लिया तुमने। राम की मूर्ति खिड़की का ढाँचा है। राम जब जिंदा चलते थे इस जमीन पर, थोड़े—से लोगों ने उनमें देख पाया होगा परमात्मा। बहुत थोड़े—से लोगों ने। कुछ थोड़े—से भक्तों ने, कुछ थोड़े—से शिष्यों ने, जो झुक गये होंगे समग्ररूप से। इस खिड़की में से झाँका होगा, परमात्मा का अनुभव हुआ होगा, उन्होंने घोषणा की कि राम प्रभु के अवतार हैं, राम भगवान हैं। तब से तुम खिड़की की पूजा कर रहे हो। तबसे धनुर्धारी राम की मूर्ति बना ली। यह खिड़की है। बाँसुरी बजाते हुए कृष्ण की मूर्ति खिड़की है। समाधि में बैठे बुद्ध की मूर्ति खिड़की है। और कई बार ऐसा होता है कि बुद्ध सामने खड़े हो तो तुम न पहचानोगे और बुद्ध की मूर्ति रखी हो, तुम जल्दी झुक जाओगे, तत्क्षण झुक जाओगे।

कुछ और भी मनुष्य के मन की बात समझ लेनी जरूरी है।

मुर्दा चीज के सामने झुकने में कोई अड़चन नहीं होती। अहंकार को चोट नहीं लगती। जीवित व्यक्ति के सामने झुकने में अहंकार को चोट लगती है। अपने ही जैसे व्यक्ति के सामने झुकना! आखिर बुद्ध होंगे भगवान, हैं तो हमारे जैसे—हड्डी— मांस—मज्जा! हमारी जैसी देह, हमारी जैसी भूख लगती, प्यास लगती, रात थकते और सोते। बच्चे थे, जवान हुए, बूढ़े हुए, मरे——हमारे जैसे। बीमार भी होते थे। बुद्ध के साथ एक वैद्य हमेशा चलता था। वैद्य का नाम जीवक था। वह बुद्ध की देह की चिंता करता था। तुम अगर बुद्ध को देखने जाते और तुम जीवक को देखते, तुम कहते——यह कैसे भगवान? इनको भी बीमारी होती है! भगवान को कैसे बीमारी? यह भी थक जाते हैं! यह भी बूढ़े होने लगे! इनके भी हाथ—पैर कँपने लगे! यह तो फिर हम जैसे ही मनुष्य हैं।

हाँ, तुम्हारी पत्थर की मूर्ति में एक खूबी है——बीमार नहीं होती, भूख नहीं लगती, प्यास नहीं लगती, मूर्ति थकती नहीं, बैठी है सो बैठी है; दिन आ जाए, रात आ जाए, बैठी ही रहती है! हिंदू दया करके उसको लिटा कर सुला देते हैं। कि अब महाराज, सोओ! तुम्हारे बैठे—बैठे हम थके जा रहे हैं! अब आप विश्राम करो! झूले पर लिटा देते हैं, रजाई ओढ़ा देते हैं सर्दी हो तो, पट बंद कर देते हैं कि अब झंझट छूटे, नहीं तो यह बैठे ही हैं, यह अपनी बाँसुरी बजाए ही चले जा रहे हैं!

आखिर हमें घर भी जाना है, और भी हजार काम हैं, कोई यही काम थोड़े ही है! तो रात को पट इत्यादि बंद करके ताला इत्यादि लगाकर भगवान को लिटाकर वह अपने काम में गये। सुबह फिर मंदिर खुलेगा, फिर उनको उठाएँगे, दतौन करवा देंगे हाथ—मुँह धुला देंगे, नहला देंगे, स्नान करवा के फिर बिठा देंगे।

एक बात तुमने देखी, पत्थर की मूर्ति में तुम्हें एक बात साफ हो जाती कुए——तुम जैसी नहीं है। जीवित आदमी तो तुम जैसा होता है। तुम जैसा और तुम जैसा नहीं। लेकिन वह जो दूसरा हिस्सा है, वह तो शिष्य को दिखायी पड़ता है। तुम जैसा सभी को दिखायी पड़ता है।

बुद्ध जब बुद्ध होकर अपने घर वापिस लौटे तो बुद्ध के बाप को भी दिखायी नहीं पड़ा कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये हैं। कैसे दिखायी पड़े? अक्सर ऐसा हो जाता है, जिनसे हमारे बहुत लगाव हैं, आसक्तियाँ हैं, जिनको हमने सदा जाना है, उनमें तो दिखायी पड़ना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। बुद्ध के बाप को कैसे दिखायी पड़े? जानते हैं सदा से इस छोकरे को! उनके ही घर में पैदा हुआ, उनसे ही पैदा हुआ, बचपन से जानते हैं। बुद्ध द्वार पर आकर खड़े हैं और बाप नाराज हैं। और बाप अपने गुस्से में बके जा रहे है——जैसे सब बाप बकते हैं। बाप यानी जो बके! वह बक रहे हैं, एकदम गुस्से में हैं कि तूने धोखा दिया, तूने गद्दारी की, मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मुझे छोड़ कर भाग गया, यह कोई बात है? हुक ही तू मेरा बेटा है, इकलौता है, यह सारा राज्य तेरे लिए है, तेरे ही साथ मेरी सारी आशा जुड़ी है, मैं तुझे माफ कर दूँगा, तू अब भी लौट आ, अभी भी क्षमा माँग ले, मेरे पास बाप का दिल है, मैं तुझे प्रेम करता हूँ, तेरी सब भूल—चूक माफ कर दूँगा, चल तू आ गया है, ठीक, घर लौट आया है, ठीक, यह क्या भिक्षापात्र इत्यादि लिए खड़ा हे! हमारे परिवार में कभी किमीने भिक्षा नहीं माँगी, हम सदा—सदा से सम्राट होते रहे हैं। क्यों हमारी बेइज्जती करवा रहा है? तू इस गाँव में भीख माँगेगा! यह तेरी राजधानी है, यहाँ गाँव के गरीब—गुरबे तुझे भीख देंगे! —जो हमसे पलते है। थोड़ी शर्म खा, थोड़ी हमारी प्रतिष्ठा का ख्याल कर, थोड़ा मेरे बुढ़ापे की तरफ देख! बुद्धत्व दिखायी नहीं पड़ रहा, बेटा दिखायी पड़ रहा है। बाप नाराज है।

बुद्ध ने पता है क्या कहा? सब सुना और जब बाप थोड़े थक गये, तब बुद्ध ने कहा कि एक बार गौर से मुझे तो देखें! जो आपका घर छोड्कर गया था, वही भें? वापिस नहीं लौटा हूँ। तब से गंगा का बहुत पानी बह गया। मैं कोई और ही होकर लौटा हूँ। मैं आपसे कुछ माँगने नहीं आया हूँ, कुछ देने आया हूँ; ऋण —चूकाने आया हूँ। मुझे कोई संपदा मिल गयी है। आपका साम्राज्य ठीक, मुझे कोई और बड़ा साम्राज्य मिल गया है, मैं उसमें आपको भागीदार बनाने आया हूँ। लेकिन बाप तो बाप! बाप ने कहा——छोड़, मैं तुझे सदा से जानता हूँ! क्या मैं तुझे पहचानता नहीं? तू किसी और को कहना कि तू दूसरा होकर आया है, तू वही है। मेरा बेटा।

तुम समझते हो, कठिनाई क्या हो रही है?

कठिनाई यह —हो रही है——बाप सिर्फ आकृति को देख रहे हैं। भीतर जो घटना घट गयी है, जो नया आकाश खुला है, जो प्राण ने नया निखार लिया है, जो भीतर नया नाच उठा है, ऊर्जा का, जो नया स्वरनाद उठ रहा है, जो भीतर ओंकार का जन्म हुआ है, यह जो भीतर आज परमात्मा विराजमान हुआ है——यह मंदिर अब खाली नहीं है, इस मंदिर का भगवान आ गया है——लेकिन इसको देखने के लिए तो शिष्यत्व चाहिए। देखा, बाप ने भी देखा, धीरे—धीरे झुके, धीरे—धीरे समझे, देखा, लेकिन पहले तो इतना ही दिखायी पड़ा कि यह मेरा बेटा वापिस लौट आया। मेरा बेटा——इतना ही दिखायी पड़ा।

जिंदा आदमी के सामने झुकने में अड़चन है। पहली अड़चन, तुम्हारे ही जैसा। तुमसे भिन्न कहाँ? इसलिए सारे दुनिया के धर्म अपने शास्त्रों में अपने सद्गुरुओं को भिन्न बताने की कोशिश में एक—दूसरे से होड़ करते हैं। ईसाई कहते हैं कि जीसस का जन्म क्वाँरी कन्या से हुआ। अब यह मूढ़ता की बात है। निपट मूढ़ता की बात। मगर इसके पीछे कारण क्या है? कारण यही है कि सिद्ध करना चाहते हैं कि तुम्हारे कृष्ण, तुम्हारे बुद्ध, तुम्हारे महावीर कुछ खास नहीं! खास हैं जीसस, देखो क्वाँरी कन्या से जन्म हुआ! हुआ कृष्ण का क्वाँरी कन्या से जन्म? जैसे और आदमी जन्मते हैं, ऐसे ही कृष्ण जन्मे। अब बड़ा मुश्किल है, हिंदू एकदम अपनी कहानी बदल भी नहीं सकते! कृष्ण के संबंध में कहानी वे पहले ही लिख चुके। जीसस की कहानी नयी है। महावीर की कहानी लिखी जा चुकी थी। अब बदलाहट की नहीं जा सकती। मगर उसने भी अपने—अपने जी तोड़ कोशिश की है। यह बात उनको ख्याल में नहीं आयी थी। उनको दूसरी बातें ख्याल में आयी थीं। उनसे तुम पूछो तो वे अपनी दूसरी बातें बताते हैं।

जैन कहते हैं कि महावीर को सर्प ने काटा तो उनके शरीर से खून की जगह दूध बहा। जब जीसस को मूली लगी थी तो खून बहा था। आदमी जैसे आदमी! क्या खूबी! खूबी थी महावीर को, काटा साँप ने, दूध बहा। पागलपन की बात है। अगर शरीर में दूध भरा हो तो कभी का दही बन जाए। कोई साँप के काटने तक रुका रहता! कभी के सड़ गये होते महावीर। दही—ही—दही की बास आने लगती। भक्त भी दूर—दूर बैठते।

शरीर से कहीं दूध निकलते हैं? लेकिन विशिष्टता बतानी है। आदमी के मन की कमजोरी।

बुद्ध भी बौद्धों के हाथ में पड़ गये तो उन्होंने भी छोड़ा नहीं, उन्होंने भी कहानियाँ गढ़ लीं; विशिष्टता सिद्ध करनी ही होगी। बौद्धों ने लिखा है कि बुद्ध का जन्म हुआ, खड़े—खड़े माँ के पेट से पैदा हुए। खड़े—खड़े! और एकदम—पैदा ही हुए खड़े—खड़े, इतना ही नहीं——सात कदम चले भी। और सात कदम चलकर अपने बुद्धत्व की घोषणा की। पागलपन की बातें हैं!

लेकिन ये कहानियाँ गढनी पड़ी। ये कहानियाँ इसलिए गढनी पड़ी हैं ताकि तुम्हें यह बात समझ में आ जाए कि तुम्हारे जैसे नहीं हैँ, तुमसे भिन्न हैं। तुमसे बिल्कुल अनूठे हैं।

मुहम्मद अपने घोड़े पर चढ़े—चढ़े सीधे स्वर्ग चले गये। कम—से—कम घोड़ा तो छोड़ जाते! घोड़ा भी ले गये। कुछ—न—कुछ हमें बनाना पड़ेगा।

लेकिन जब आदमी जिंदा होता है, तब ये बातें नहीं बना सकते तुम। क्योंकि जिंदा आदमी तुम्हारी इन सारी कहानियों को खंडित कर देगा। अगर बुद्ध होते तो खुद ‘ही हँसते, वह कहते——यह क्या पागलपन है? अगर जीसस होते तो खुद ही हँसते। अगर महावीर होते तो यह खुद ही हँसते——जैसा मैं हँस रहा हूँ ऐसे ही महावीर हंसते, वह खुद ही कहते——मैं दही हो जाता।… यह मैं महावीर से पूछकर ही कह रहा हूँ। यही उन्होंने कहा होता।

लेकिन जब एक सद्गुरु विदा हो जाता है, तो शिष्यों के हाथ में तूलिका होती है, फिर वे रंग देते हैं। फिर मूर्ति को गढ़ते हैं सब तरह से, ऐसा बनाते हैं कि वह भिन्न दिखायी पड़ने लगे, पृथक दिखायी पड़ने लगे, सामान्य न रह जाए, अद्वितीय हो जाए। भेद जितना हो जाए तुम में और मूर्ति में, उतना ही शुभ है, तुम्हें झुकने. में उतनी ही आसानी हो जाती है। फिर, मुर्दा गुरु के सामने झुकने में बड़ा रस होता है, क्योंकि मुर्दा गुरु तुम्हारा कुछ कर नहीं सकता। जिंदा गुरु तुम्हें मार डालेगा। मुर्दा गुरु तुम्हें क्या मारेगा! मुर्दा गुरु के तो मालिक तुम हो, जिंदा गुरु तुम्हारा मालिक हो जाएगा। जिंदा गुरु के सामने झुकना उसके हाथों में अपनी गर्दन देना है। मुर्दा गुरु ए सामने झुकने में कुछ अड़चन नहीं है। मुर्दा गुरु तुम्हारे हाथ में है। जब सुलाओ, सोएगा; जब उठाओ, उठेगा, जब बिठाओ, बैठेगा, तुम जो करवाओगे वैसा करेगा। मुर्दा गुरु तुम्हारे पीछे चलेगा, जिंदा गुरु के पीछे तुम्हें चलना होगा। वहाँ अड़चन है। वहाँ कठिनाई है। इसीलिए लोग मूर्ति की पूजा करते हैं, अतीत की पूजा करते हैं, मुर्दों की पूजा करते हैं। जीवित सामने खड़ा रहे, तो निंदा करते हैं, विरोध करते है, इन्कार करते हैं। जिंदा को नहीं मान सकते।

सिला सँवारी राजनै, ताहि नवै सब कोइ।

रज्जब कह रहे हैं, यह मजा देखो! किसी मूर्तिकार ने मूर्ति बना दी है और सब उसके सामने झुक रहे हैं।

रज्जब सिष—सिल गुरु गढ़ै

और गुरु शिष्य को गढ़ता है, शिष्य की शिला को गढ़ता है, तोड़ता है, काटता है, नया रूप देता है——नयी आत्मा!

सोइ पूजै किन होइ।।

मुश्किल से कोई इसको पूजनेवाला मिलता है। मुश्किल से! देखने वाला मिलता है, पूजनेवाले की तो बात ही छोड़ो! पहचानने वाला मुश्किल से मिलता है। तुमने अपने मन की यह वृत्ति देखी? अगर कोई किसी की निंदा करता हो तो तुम तत्क्षण स्वीकार कर लेते हो बिना विवाद के। निरीक्षण करना! कोई आकर कहता है कि फलाँ आदमी बड़ा बेईमान है, तो तुम यह नहीं कहते कि भई, पहले प्रमाण दो तब मानूँगा। कोई कहता है कि फलाँ आदमी बड़ा जालसाज है, चोर, लुच्चा, तुम बिल्कुल मान लेते हो——तुम एकदम ऐसा सत्संग करने लगते हो इस आदमी का, एकदम कान—ही—कान हो जाते हो, तुम कहते हो, क्या बात कही! कुछ और सुनाओ! यह तो मुझे पता ही था कि यह आदमी ऐसा है, आज तुमने बिल्कुल सिद्ध कर दिया। तुम प्रमाण नहीं माँगते। और तुम यही बात दूसरे से कहोगे. थोड़ा और मिर्च—मसाला मिलाओगे। लेकिन अगर कोई किसीकी प्रशंसा करता हो, कोई आकर कहे कि फलाँ आदमी बड़ा साधु है, बड़ा सच्चरित्र, ध्यानी, प्रभु का प्यारा, तुम कहोगे——छोड़ो बकवास, देख लिये बहुत प्रभु के प्यारे, सब धोखाधड़ी है! सब पाखड है! कहाँ के साधु? कहाँ की बातें’ कर रहे हो, सतयुग में होते थे साधु, अब यह कलियुग चल रहा है! यह पंचमकाल चल रहा है, अब कहाँ साधु! भ्रांति में मत पड़ो, सावधान रहना, सब छुपे लुटेरे हैं, जरा नींद लग गयी, जेब कट जाएगी। तुम लाख प्रमाण पूछोगे कि प्रमाण क्या है?

और कठिनाई यह है कि साधुता के लिए क्या प्रमाण हो सकता है? कठिनाई यह है कि भीतर किसीके परमात्मा की छबि उतरी, इसका क्या प्रयाण हो सकता है? कोई प्रमाण नहीं हो सकता है और तुम प्रमाण पूछते हो। फिर प्रमाण दिया नहीं जा सकता, तो तुम हँसते हो, तुम कहते हो——हम पहले ही कहते थे!

अपने मन के इस खेल को समझना——निंदा तुम स्वीकार कर लेते हो, प्रशंसा तुम स्वीकार नहीं करते। क्यों? क्योंकि जब भी किसीकी निंदा होती है, तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। तुम कहते हो—इससे तो हम ही भले। सारी दुनिया गंदी है। इसकी तुम जो घोषणा करते हो, उसका यह मतलब नहीं होता कि सारी दुनिया की गंदगी से तुम्हें कोई एतराज है, तुम यही कह रहे हो कि मेरे सिवाय यहाँ सब गड़बड़ है। इसलिए तुम रोज जल्दी से सुबह उठकर अखबार पढ़ते हो। और जिस अखबार में जितनी ज्यादा हत्याओं की, चोरियों की, बेईमानियो की खबरें हों, उसको उतने ही रसविमुग्ध होकर पढ़ते हो। अखबार पढ़कर तुम निश्चित शो जाते हो, चित्त हल्का हो जाता है। तुम कहते हों——इनसे तो हम ही बेहतर ‘ इससे तो हम ही ज्यादा सच्चरित्र! इतना बुरा तो हमने भी नहीं किया।

लेकिन अगर कोई किसीकी प्रशंसा करता हो तो तुम्हारे मन में चोट पड़ती है। तो हमसे भी कोई बेहतर है इस दुनिया में। अहंकार को अड़चन आती है। तुम स्वीकार नहीं करना चाहते। तुम्हारे मन में सहज भाव अस्वीकार का उठता है। रज्जब कह रहे हैं कि बड़ी अजीब बात है, कोई राज पत्थर की मूर्ति बना देता है, लोग पूजने चल पड़ते हैं, और कोई गुरु जीवंत परमात्मा को उतार देता है शिष्यों में, तो भी पूजा करने वाला मुश्किल है। पूजा करने वाला दूर, स्वीकार करने वाला मुश्किल’, अंगीकार करने वाला मुश्किल। स्वीकार—अंगीकार करने वाला दूर, जो विपरीत न हो जाए, विरोध में न हो जाए, ऐसा आदमी मुश्किल। जो मिटाने को तैयार न हो जाए, ऐसा आदमी मुश्किल। कोई मानने को राजी नहीं होता कि तुम ध्यान को उपलब्ध हो गये। कोई मानने को राजी नहीं होता कि तुम प्रार्थना को उपलब्ध हो गये, कि तुम्हें समाधि उपलब्ध हुई।

गुरु ज्ञाता परजापती सेवक माटी रूप।

शिष्य तो मिट्टी की तरह आता है गुरु के पास। तोड़ता गुरु, निर्माण करता, परमात्मा को आवाहन करता, स्थिति बनाता परमात्मा को पुकारने को, शिष्य की क्यारी को तैयार करता है, बीज बोता है, आकाश से बादलों को पुकारता है, सूरज को पुकारता है, सारे अस्तित्व को निमंत्रण देता है कि क्यारी तैयार हो गयी है, बीज भ1ई डाले जा चुके हैं, आओ मेघ, बरसो, आओ सूरज, फेंको अपनी किरणें! इधर शिष्य को तैयार करता है, उधर परमात्मा को आमंत्रित करता है। गुरु का यही दो काम है। इस तरफ शिष्य की तैयारी कि वह पात्र बन जाए और उधर परमात्मा को पुकार, कि जब शिष्य पात्र बन कर तैयार हो तो परमात्मा उसमें बरसे और परमात्मा उसमें भर जाए। पत्थरों की मूर्तियों में नहीं परमात्मा उतरता है। मुण्मय में परमात्मा नहीं उतरता, चिन्मय में परमात्मा उतरता है।

किसी में तेरे खदो—खाल का जमाल न था

बना बना के मिटाता रहा हूँ तस्वीरें

तुम बनाते रहो तस्वीरें, तुम्हारी सब तस्वीरें तुम्हें गलत मालूम पड़ेगी, क्योंकि किसी में भी उसका नक्श न उतरेगा, उसका रूप न उतरेगा, उसका सौंदर्य न उतरेगा।

किसी में तेरे खदो—खाल का जमाल न था

किसीमें वह सौंदर्य नहीं है।

बना बना के मिटाता रहा हूँ तस्वीरें

कितनी मूर्तियाँ आदमी ने परमात्मा की गढ़ी हैं, मिटायी हैं, फिर बनायी हें? कितने चित्र रंगे हैं, फिर रंग भरे, फिर रंग भरे, सदियों से आदमी यही करता रहा। गुरु कुछ और प्रक्रिया करता है। शिष्य को सिर्फ भूमिका बनाता है। शिष्य की मिट्टी से सिर्फ घड़ा तैयार करता है। परमात्मा भर जाता है, जब भी तुम्हारी पात्रता पूरी होती है। तत्क्षण घटना घट जाती है, एक क्षण का भी व्यवधान नहीं होता है। गुरु ज्ञाता परजापती…

इसलिए रज्जब कहते हैं कि गुरु न केवल ज्ञाता है, जानने वाला है प्रजापति भी है, निर्माता भी है।

सेवक माटी रूप।

रज्जब रज सूं फेरिकै, घडिले कुंभ अनूप।।

मिट्टी को फेर—फेर कर, मिट्टी को निर्मित कर—कर के उस अद्भुत कुंभ को बना लेता है, उस अद्भुत घड़े को बना लेता है—घडिले कुंभ अनूप——जिसमें निराकार उतर आता है, अरूप उतर आता है, उस अद्वितीय घड़े को भर लेता है। कुंभ का अर्थ यही होता है। जिस दिन शिष्य का घड़ा तैयार हो गया, जिस दिन शिष्य की पाव्रता तैयार हो गयी, जिस दिन शिष्य कुंभ हो गया, अब अपनी तरफ से कोई कमी न रही, अब सिर्फ उसकी प्रतीक्षा है, अपनी तरफ से कोई अड़चन—अटकाव — नहीं है, अपनी तरफ से सब बाधाएँ हटा दी हैं। कुंभ भीतर के पात्र का निर्माण है।

ज्यूं धोबी की धमस सहि, ऊजल होइ कुचीर।

और जैसे धोबी पीटता है कपड़ों को और गंदे कपड़े स्वच्छ होने लगते——

त्यूं सिष तालिब निरमला, मार सहे गुरु पीर।।

जो गुरु की मार सहने को तैयार हो जाता है, वही निर्मल हो जाता है। वही खोजी कुंभ बन पाता है।

त्यूं सिष तालिब निरमला, मार सहे गुरु पीर।

बड़ी तैयारी चाहिए, बड़ा साहस चाहिए, जोखिम उठाने की कूबत चाहिए। जोखम भारी है! कौन जाने कुंभ बनेगा कि नहीं बनेगा? बना—बनाया मिट जाए, हाथ की आधी रोटी छूट जाए और पूरी रोटी न मिले, क्या पता? दुनिया भी समझदारी कहती है—हाथ की आधी रोटी भी दूर की पूरी रोटी के लिए मत छोड़ना। हाथ की आधी भली।

लेकिन शिष्य के पास जाकर तो गणित पूरा उलटना पड़ता है। वहाँ दूसरे गणित लागू होते हैं। अगर वहाँ पूरा—पूरा छोड़ोगे, तो ही पूरा—पूरा फिर पाने के हकदार बनोगे। वहाँ जरा—सी कंजूसी की, उतनी ही कमी रह जाएगी। उतना ही घड़े में छेद रह जाएगा। निन्यानबे प्रतिशत गुरु के साथ रहे और एक प्रतिशत साथ न रहे, उतना ही छेद रह जाएगा। उतना ही छेद काफी है—घडे में कोई हजार छेद थोड़े ही जरूरी हैं उसे खाली रखने को! एक छेद भी काफी है। नाव में हजार छेद थोड़े ही चाहिए डुबाने के लिए, एक छेद भी काफी है। अछिद्र होना पड़ेगा। सौ प्रतिशत गुरु के साथ होना पड़ेगा।

सौ प्रतिशत साथ होना कठिन मामला है। दुर्गम है। सौ प्रतिशत साथ वे ही हो सकते हैं, जो अपने अहंकार को पूरा झुकाने को राजी हों। अहंकार कहेगा——थोड़ा सँभाल कर चलो, थोड़ा बचा कर चलो, थोड़े दूर—दूर रहो, अड़चन ज्यादा आ जाए तो निकल भागने का अवसर रहे, एकदम पास मत चले जाओ कि निकल न सको बाहर… यहाँ मैं जानता हूँ ऐसे लोग भी संन्यस्त हो जाते हैं जो फासला रखते हैं, जो दूरी—दूरी रखते हैं, जो होशियारी से संन्यासी हैं, जो कहते हैं कुछ होता हो तो देख लें, कुछ न होता हो तो निकल भागेंगे; हमेशा वहाँ खड़े रहते हैं परिधि पर, केंद्र तक नहीं आते, क्योंकि केद्र पर आ जाएँगे तो फिर नहीं भाग सकेगे।

यहाँ कभी हो जाता है, ऐसा होता है, जिनको जाना है, या सोच कर आए हैं कि पता नहीं सत्संग जमे न जमे, वे दूर बैठ जाते हैं, किनारे पर बैठ जाते हैं, क्योंकि वहाँ से निकलने में सुविधा रहेगी। अगर जाना हो बीच सत्संग से उठकर तो किनारे से निकल जाने में आसानी रहेगी। ऐसे ही लोग किनारे पर खड़े रहते हैं, इस ख्याल में कि क्या पता? दोनों नाव में पैर रखते हें। एक पैर गुरु के नाव में रख देते हैं, एक पैर अपना पुराना संसार में जमाए खड़े रहते हैं, कि अगर कहीं गड़बड़ हो जाए तो ऐसा न हो कि न घर के रहे न घाट के! कहीं ऐसा न हो कि दोनों गये, माया मिली न राम। राम मिलते हों तो ठीक, न मिलते हों तो कम—से—कम माया बची रहे।

इतनी होशियारी से जो गुरु के पास आएगा, वह नहीं आ पाएगा। होशियार और गुरु का संबंध नहीं बनता। चतुर चूक जाते हैं। गुरु से संबंध उनका बनता है, जो सरल हैं, भोले—भाले हैं। जो कहते हैं? बहुत—से—बहुत यही होगा न कि मिटेंगे, ऐसे रह कर भी क्या पाया है? चलो, अच्छे हाथों से मिटे, यह भी कम सौभाग्य नहीं! ऐसे प्यारे हाथों से मिटे, यह भी कुछ कम सौभाग्य नहीं! मिटना तो था ही, मरना तो था ही, यमदूत आते, उनके हाथ से मिटते, सद्गुरु के हाथ से मिट गये, यह अच्छा! कम—से—कम मरने में एक प्रसाद तो होगा, एक सौंदर्य तो होगा! कम—से—कम परमात्मा को खोजने की राह पर मिटे, यह तो आनंद होगा। धन को खोजते—खोजते भी मिटते हैं लोग, हम परमात्मा को खोजते—खोजते मिटे। अगर कहीं भी कोई परमात्मा है, अगर कहीं भी कोई संभावना है, तो यह भी क्या कम है कि हम उसे खोजते थे। यह भी क्या कम सौभाग्य है!

बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।

शिष्य तो रात—दिन गुरु के साथ हो जाता है। रात—दिन बिरह में जीने लगता है। और गुरु सिखाएगा क्या? गुरु उसके मिलन की बातें करेगा, ताकि तुम्हारे भीतर विरह पैदा हो। इस कीमिया को समझ लेना।

मुझसे लोग पूछते हैं कि आप परमात्मा के मिलन की, मोक्ष की, निर्वाण की ऐसी बात करते हैं, इतनी बात करते हें, क्यों? सिर्फ विधि की बात करें कि उस तक हम कैसे पहुँचे। पहुँचेंगे तब हम देख लेंगे कि क्या होगा? यह विधि ही है। तुम्हें पता भी नहीं चल रहा है। यह परमात्मा के मिलन की, निर्वाण की, मुक्ति की, यह जो रस की बात कर रहा हूँ, यह तुम्हारे भीतर विरह जगे, इसलिए। मिलन में जब रस जगेगा, तो ही तो विरह में अग्नि पैदा होगी। जब तुम दीवाने होने लगोगे उसे पाने को, जितने तुम दीवाने होने लगोगे उतने ही तुम्हारे भीतर दिन—रात एक सतत अंतर्धारा बहने लगेगी, आँसू बहने लगेंगे। बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार। खूब उसकी तस्वीर: खींचता हूँ, जानते हुए कि उसकी कोई तस्वीर नहीं बन सकती; खूब उसके रूप—रंग और सौंदर्य और आनंद का वर्णन करता हूँ, जानते हुए कि कोई भी शब्द उसके साथ न्याय नहीं कर सकते, पर इसी कारण करता हूँ—तुम्हारे भीतर उसके दीदार का भाव पैदा हो; तुम्हारे भीतर यह महत्वाकांक्षा पैदा हो, यह अभीप्सा जगे कि देखना है, कि सब भी दाँव पर लगता हो तो भी देखना है, कि परमात्मा को बिना देखे इस संसार से नहीं जाना है’, ये आँखें उसे देखकर ही बंद होंगी, ऐसी उत्कंठा जगे।

कुछ मुहब्बत के गम, कुछ जमाने के गम

यूँ भी नाशाद हम, यूं भी नाशाद हम

जिंदगी का सफर है कि वादा तेरा

जिस जगह से उठे थे वहीं हैं कदम

कौन जाने मुलाकात फिर हो न हो

आज ही क्यों न खोलें फरेबे—करम

दिल की दूरी तो है खेल तकदीर का

फासले क्या नजर के भी होंगे न कम

चलो दूरी रहे परमात्मा से, अनंत दूरी रहे तो रहे, कम—से—कम नजर में तो परमात्मा आ जाए। रात दूर के तारे भी देखकर एक रसधार बह जाती है। तारों को कुछ हाथ में ही लेना तो जरूरी नहीं है।

दिल की दूरी तो है खेल तकदीर का

फासले क्या नजर के भी होंगे न कम

दीदार का अर्थ होता है, कम—से—कम नजर का फासला तो उठे, कम—से—कम नजर से नजर तो मिले। अनंत रहा आए फासला कोई बात नहीं, एक बार यह भरोसा तो आ जाए, यह अनुभव तो आ जाए कि परमात्मा है। परमात्मा शब्द ही न रह जाए, कहीं छोटी—सी किरण कौंध जाए, अनुभव बन जाए।

आप दिल‘ के करीब हैं फिर भी

अंखि दीदार को तरसती है

याद गुजरे हुए जमाने की

एक नागिन है दिल को डसती है

‘आप दिल के करीब हैं फिर भी, आँख दीदार को तरसती है’। और परमात्मा पास है, पास—से—भी पास, तुम भी अपने इतने पास नहीं हो जितना परमात्मा तुम्हारे पास है, लेकिन फिर भी अंखिं दीदार को तरसती है। देखना चाहते हैं, पहचानना चाहते हैं, छूना चाहते हैं, उसकी सुगंध लेना चाहते हैं, उसका स्वाद लेना चाहते हैं। यह स्वाद कैसे जगेगा? यह स्वाद की अभीप्सा कैसे पैदा होगी?

सत्संग का एक ही प्रयोजन है, जिसने पा लिया है उसे, वह कुछ—कुछ उसकी कहानी तुमसे कहे, उसका गुणगान करे, उसको पाकर जो उसे मिल गया और जो खोया हैं, वह तुमसे कहे कि व्यर्थ खोया है, सार्थक पाया है, अपना दिल तुम्हारे सामने खोल कर रखे। मगर दिल तो उन्हीं के सामने खोल कर रखे जा सकते हैं जो झुक गये हों। शिष्य के अतिरिक्त सत्संग नहीं हो सकता। सुनने वालों से सत्संग नहीं होता, सत्संग कोई मनोरंजन नहीं है, सत्संग कोई सभा नहीं है, कोई व्याख्यान इत्यादि नहीं है, सत्संग तो जो खोज रहा है उसके बीच और जिसे मिल गया है उसके बीच एक नृत्य है ऊर्जा का। एक अंतर्मिलन है, एक भाँति का अंतर्संभोग है—आत्मा से आत्मा का, अस्तित्व से अस्तित्व का।

बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।

जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।

सत्संग में विरह जगना शुरू होता है। आग जलती है फिर, ऐसी आग जो फिर बुझाए नहीं बुझती, ऐसी आग फिर जिसे कोई और जल नहीं बुझा सकता जब तक कि परमात्मा का जल ही न बरसे। तो सद्गुरु पर: नाराजगी भी होती है। शिष्य —शुद्ध भी होता है। कई बार लगता है, पहले ही अच्छे थे, चल तो रहे थे, अपनी जिंदगी एक ढाँचे में बँधी जाती थी, न ज्यादा होश था, न ज्यादा फिकिर थी, सब ठीक—ठाक था, औरों जैसे ही थे, यह नयी अभीप्सा जगा दी, यह नयी आग पैदा कर दी। और एक ऐसी प्यास जिसको बुझाने का इस संसार में कोई उपाय नहीं, कोई सरोवर नहीं जो इस प्यास को बुझा दे। सत्संग में तुम्हें याद दिलायी जाती है कि तुम हंस हो और मानसरोवर चलना है। उड़ चल हंसा वा देश। तुम मजे से स्वने लगे थे बगुलों के साथ, भूल ही गये थे; अपना हंस होना, सोचते थे मैं भी बगुला हूँ, बगुलों के साथ बगुला भगत होकर खड़े हो गये थे, पूजा भी कर लेते थे, मंदिर— मस्जिद भी हो आते थे, गुरुद्वारा भी हो आते थे, सब कर लेते थे, मगर थे बगुला भगत! ऊपर—ऊपर सब था, भीतर आकांक्षा मछली को पकड़ने की थी। ऊँची—ऊँची उड़ानें भी भरते थे, लेकिन नजर नीचे ही लगी रहती थी।

रामकृष्ण कहते थे, चील बड़ी ऊँची उड़ती है, मगर नजर नीचे लगी रहती है; कहीं कूड़ा—करकट के ढेर पर कोई चूहा मरा पड़ा हो, नजर वहाँ लगी रहती है। बड़ी ऊँची उड़ती है और नजर बड़ी नीची लगी रहती है। लोग मंदिरों में बैठे होते हैं, नजर दुकानों पर लगी होती है। हाथ में माला जपते रहते हैं, भीतर राम का कोई पता ही नहीं होता, सब तरह की कामनाएँ उठती रहती हैं।

सत्संग का अर्थ है, तुम्हें झकझोर कर जगा देना कि तुम क्या कर रहे हो? यह तुम्हारे योग्य नहीं। तुम मानसरोवर के लिए बने हो। तुम हंस हो। मगर तब अड़चन शुरू होती है। अड़चन यह शुरू होती है, अगर हम हंस हैं, मानसरोवर कहाँ है? मानसरोवर तो बहुत दूर लंबी यात्रा है, दुर्गम यात्रा है, पहुँच पाओ न पहुँच पाओ। मानसरोवर की प्यास जग गयी, अब यह ताल—तलैयों के पास रस नहीं आता, हंसों की जमघट में बैठने का ख्याल आ गया, अब ये बगुले जँचते नहीं, अब बड़ी मुश्किल हो गयी। अब बड़ी फाँसी लग गयी। शिष्य की यही फाँसी है। जीसस ने कहा है, जो अपनी सूली को अपने कंधे पर लेकर चलेंगे, वे ही पहुँच पाएँगे। इसी फाँसी की चर्चा की है, इसी सूली की चर्चा की है।

जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।

ऐसा विरह जगता है जिसका कोई पार नहीं है। अपार को पाने चले तो अपार विरह से कीमत चुकानी पड़ती है।

तेरी उल्फत की चिंगारी ने जालिम! एक जहाँ फूँका

इधर चमकी, उधर सुलगी, यहाँ फूंका वहाँ फूँका

सब तरफ आग जल जाती है। फिर यहाँ कोई वसंत मालूम नहीं पड़ता, सब पतझड—ही—पतझड़ हो जाता है।

देखा तो खुशी के फूल खिले, सोचा तो गमों की धूल उड़ी

कहते हैं बहारां लोग जिसे, वह एक साया पतझड का है

जब समझ आनी शुरू होती है, जब गुरु की वाणी उतरनी शुरू होती है, जब गुरु—वाणी कै अर्थ भीतर खुलने शुरू होते हैं, जब उन शब्दों की बूंदें भीतर धीरे—धीरे, धीरे—धीरे हृदय तक पहुँचने लगती हैं, तो पता चलता हैं——यहाँ वसंत जिसको समझा था, वह पतझड़ का अंग था। वह केवल पतझड़ का ही एक ढंग था। उसके बिना पतझड़ नहीं हो सकता था, इसलिए था। वसंत भी इसीलिए था ताकि पतझड़ हो सके। यहाँ जिंदगी मरने का एक ढंग है। यहाँ जिंदगी एक लंबा मरण है, हुक लंबी मौत का सिलसिला, धीमे—धीमे मरते जाना, रोज—रोज मरते जाना। यहाँ प्रेम प्रेम का धोखा है। यहाँ प्रकाश बस बाहर—बाह्र है और भीतर गहन अँधेरा है। यहाँ की सब रोशनी दो कौड़ी की है।

‘बिरहिण बिहरे रैनदिन’। जब यह समझ में आए, तो फिर न दिन है न रात है, फिर तो विरह—ही—विरह है। बड़ी कठिनाई होती है विरह के इन क्षणों में। बड़े अनूठे अनुभव होते हैं। पल भर, घड़ी भर नींद भी नहीं लग पाती कि विरह जगा जाता है।

आहटों के फरेब में मत आ

उनका क्या एतबार सोने दे

जरा—सी आहट होती है, लगता है कि शायद आ गया जिसकी तलाश थी, जरा ध्यान में एक तरंग उठती है, लगता है आ गया जिसकी तलाश थी   जरा प्रार्थना में रस उमगता है, लगता है आ गया जिसकी तलाश थी।

आहटों के फरेब में मत आ

उनका क्या एतबार सोने दे

नींद लगती ही नहीं। नींद लग ही नहीं सकती। जब विरह जलता है, तो कैसी नींद? सबसे पहले नींद जल जाती है। कैसा विश्राम? सबसे पहले विश्राम जल’ .जाता है। कहाँ विश्राम? मनुष्य एक धधकती आग हो जाता है।

बिरहा—पावक उर बसै…

आग हृदय में बस जाती है।

बिरहा—पावक उर बसै, नख सिख जालै देह।

रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसौ मोहन मेह।।

आग लग गयी हृदय में, एक ही स्वर गूँजता रहता है——

रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसौ मोहन मेह।।

हे प्रभु, अब बरसो। अब बरसो। और कब तक तड़फाओगे? और कब तक म्लाओगे?

लाते नहीं जो मुझको तसव्वुर में भी कभी

आते हैं किसलिए मेरे बज्में—ख्याल में?

और आते नहीं हो, तो फिर ख्याल में क्यों आते हो? और जब मेरी तुम्हें बाद नहीं, तो फिर मेरी याद में क्यों आते हो?

लाते नहीं जो मुझको तसव्वुर में भी कभी, तुम्हारे सपनों में तो तुम मुझे कभी नहीं आने देते, तुम्हारे विचारों की तरंगों में तुम मुझे कभी याद भी नहीं करते हो, तुम्हें तो मेरी सुध भी नहीं है——

लाते नहीं जो मुझको तसव्वुर में भी कभी

आते हैं किसलिए मेरे बज्में—ख्याल में?

——तो फिर मेरा क्यों पीछा कर रहे हो? फिर मेरे ख्यालों की दुनिया में क्यों आए चले जाते हो? रोता है भक्त, गिड़गिड़ाता है भक्त, जलता है, तडुफता है, जैसे कोई मछली को पानी से निकाल दे, भर—दुपहरी में आग—सी जलती रेत पर पटक दे, ऐसे भक्त की दशा हो जाती है। इतने विरह से जो गुजरता हुऐ, वही उस परम मिलन को उपलब्ध होता है। भक्ति सस्ती नहीं है।

तुमने सुना होगा, तुम्हारे तथाकथित महात्माओं को कहते हुए कि यह कलियुग चल रहा है और भक्ति का उपाय बड़ा सुगम है; इस जमाने के लिए, इस समय के लिए भक्ति का उपाय ही एकमात्र उपाय है। तुम भ्रांति में मत पड़ जाना। कौन नासमझ कह रहा है कि भक्ति का उपाय सुगम है? सिर्फ इसलिए सुगम है कि इसमें सिद्धासन मारकर नहीं बैठना पड़ता? इसलिए सुगम है कि शीर्षासन नहीं करना पड़ता? इसलिए स्रुगम है कि प्राणायाम इत्यादि नहीं करना पड़ता? प्राणायाम और शीर्षासन और सिद्धासन कौन—से कठिन हैं। महीने—दो महीने के अभ्यास से आ जाएँगे। शरीर की कवायदें हैं, उनमें क्या कठिनाई हो सकती है! क्या इसीलिए कठिन हैं कि इसमें व्रत—उपवास इत्यादि का आग्रह है? करोड़ों लोग बिना व्रत,— उपवास किये अधभूखे हैं और जी रहे हैं, कोई बहुत कठिन बात नहीं हो सकती। थोडा अभ्यास करोगे, यह भी हो जाएगा।

अफ्रीका में एक जाति सिर्फ एक ही बार भोजन करती है। जब तक वे सभ्यता के और दूसरे रूपों के संपर्क में नहीं आए थे, उन्हें पता ही नहीं था कि लोग दो दफे भोजन करते हैं। भारत में हम दो दफे भोजन करते थे, जब से पश्चिम के संपर्क में आए तब से पता चला कि कम—से—कम पाँच बार किया जा सकता है। आस्ट्रेलिया में एक कबीला दो दिन में एक ही बार भोजन करता है। सदियों से यही उनकी आदत है। शरीर हर स्थिति .में समायोजित कर लेता है अपने को। एक बार भोजन करो तो भी धीरे—धीरे अभयास हो जाता है—फिर एक ही बार भूख लगती है। और पाँच बार करो तो पाँच बार भूख लगती है। शरीर और मन आदतों से जीते हैं।

इसलिए तुम यह मत सोचना कि उपवास—व्रत इत्यादि में कोई बड़ी भारी दुर्गमता है। कोई भी कर ले सकता है। बड़ी बुद्धिमत्ता की भी जरूरत नहीं है। सच तो यह है, जिनमें जितनी बुद्धि कम है, उतनी आसानी से कर लेते हें। बुद्धि है ही नहीं, सिर के बल खड़े भी हो गये तो तुम्हारा हर्जा क्या होने वाला है? क्योंकि जिसके पास बुद्धि है, अगर ज्यादा देर सिर के बल खड़ा होगा तो बुद्धि गँवा बैठेगा। तुमने कभी सिर के बल खड़े लोगों को बहुत बुद्धिमान देखा? कोई उनके जीवन में तुमने प्रतिभा की चमक देखी?

वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सिर की तरफ खून का प्रवाह बहुत ज्यादा हो जाए— जोकि शीर्षासन में हो जाता है, क्योंकि खून जमीन की तरफ बहता है, एकदम से तीव्र धार खून की सिर की तरफ बहती है, सारा खून सिर की तरफ जाने लगता है। साधारण स्थिति में तुम जब खड़े होते हो तो सिर में सबसे कम खून पहुँचता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण के विपरीत खून को चलना पड़ता है, उल्टा जाना पड़ता है, कठिन चढाई हो जाती है। चढ़ाई कठिन है। जब तुम सिर के बल खड़े होते हो; खून पूरा—का—पूरा सिर की तरफ जाता है। खून की अगर जोर से बाढ़ चली जाए सिर की तरफ तो सिर बड़े छोटे तंतुओं से मिलकर बना है——सात करोड़ तंतुओं से मिलकर बना है—बड़े छोटे तंतु। इतने बारीक हैं कि बाल भी तुम्हारा बहुत मोटा न्एए०। एक लाख तंतुओं को एक के ऊपर एक रखें तो एक बाल के बराबर होता है। जरा तुम सोचो! और उनसे तुम्हारी प्रतिभा है। जितने सूक्ष्म तंतु होते हैं जिस आदमी के पास, उसकी प्रतिभा उतनी ही महान होती है। सिर के बल खड़े होकर वह तंतु टूट जाते हैं खून के प्रवाह में, वे तंतु नहीं बच सकते। इसलिए अक्सर तुम्हारे योगी जड़ और बुद्धिहीन दिखायी पड़ते हैं। कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत भी नहीं है।

तुम यह तथाकथित साधुओं की बात में मत पड़ जाना, जो कहते हैं—कलयुग मेँ भक्ति ही एकमात्र उपाय है क्योंकि सुगम है। सुगम तो नहीं है। प्रेम सुगम है? पागल हुए हो ‘ होश की बातें कर रहे हो? कुछ प्रेम का पता है? प्रेम से दुर्गम और कुछ भी नहीं है। क्योंकि प्रेम जलाता है, तड़फाता है, आग में डाल देता है—— मछली की तरह तड़फाता है।

बिरहा—पावक उर बसै, नखसिख जालै देह।

रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसौ मोहन मेह।।

 

कुको ईमा की कोई बात नहीं है इसमें

रास दुनिया न जिन्हें आयी वह दीदार बने

 

जिनको पीने का सलीका है वे प्यासे हैं ‘कतील’

जितने कम—जर्फ थे इस दौर में मैख्वार बने

जो यहाँ की छोटी—मोटी चीजें पीने में लगे हैं—शराब इत्यादि——कमजर्फ हैं। उनकी कोई पात्रता नहीं है, योग्यता नहीं है। जो असली पियक्कड़ हैं, वे तो परमात्मा को पीने के लिए आतुर हैं। और किसी प्यास को बुझाने की उनकी आकांक्षा नहीं, किसी और चीज से प्यास को बुझाने की उनकी आकांक्षा नहीं।

जिनको पीने का सलीका है वे प्यासे हैं ‘कतील ‘

जो पीना सच में जानते हैं, वे उसके मधु की तलाश कर रहे हैं, वे उसकी मधुशाला खोज रहे हैं, इस संसार की कोई मधुशाला उन्हें तृप्त नहीं कर सकती।

जिनको पीने का सलीका है वे प्यासे हैं ‘कतील’

जितने कम—जर्फ थे इस दौर में मैख्वार बने

जिनकी कोई पाढता नहीं, योग्यता नहीं, बुद्धि नहीं, समझ नहीं, वे यहाँ छोटी— छोटी चीज़ें पी कर मैख्वार बन गये हैं, पियक्कड़ कहला रहे हैं। अगर पीना हो तो परमात्मा को पीओ। बहुत बठे रह चुके गंदे नदी—तालाबों के किनारे, अब मान— सरोवर चलो! उठो हंस, फैलाओ अपने पंख——उड़ चल वा देश! यह देश तुम्हारा देश नहीं है। यह घर तुम्हारा घर नहीं है। सराय को घर समझ लिया है। तलैयों को मानसरोवर समझ लिया है। मर्त्य को अमृत समझ लिया है। क्षुद्र को विराट समझ लिया है। फिर अगर दुखी हो रहे हो तो आश्चर्य कैसा?

जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।

बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।

बिरहा—पावक उर बसै, नखसिख जालै देह।

रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसौ मोहन मेह।।

जरूर वर्षा होती है परमात्मा की, लेकिन तभी होती है जब तुम अपनी परिपूर्णता में तडुफते हो। जब तुम सब दाँवकुँपर लगा देते हो। जब तुमकुछ भी नहीं बचाते। सब चतुराई छोड़ देते हो। सब सौदेबाजी छोड़ देते हो।

गुनगुनाती हुई आती हैं फलक से बूँदें

कोई बदली तेरे पाजेब से टकराई है

फिर छनाछन! तुम्हारी तडुफ पूरी हो जाए कि बस! यहाँ तुम्हारी तडूफ अपनी पूर्णता पर पहुँचती है—सौ डिग्री——और वहाँ से वर्षा शुरू होती है।

गुनगुनाती हुई आती हैं फलक से बूँदें

आकाश से बूँदें उतरने लगती हैं——गुनगुनाती हुई, गीत गाती हुई, रक्स करती हुई, नाचती हुई।

कोई बदली तेरे पाजेब से टकराई है

परमात्मा के पाजेब से टकरा कर कोई बादल संगीत बरसा जाता बै, अमृत बरसा जाता है। लेकिन पात्रता विरह से उत्पन्न होती है। कुंभ बनता है पहले तो, कुम्हार पीटता मिट्टी को, चक्के पर चढ़ाता ठोंकता——एक हाथ से चोट करता है बाहर से और भीतर एक हाथ से सँभालता है; हर चोट को भीतर से सँभालता है——ऐसे घड़ा निर्मित होता है। फिर निर्मित हुआ घड़ा भी कच्चा होता है जब तक आग में न डाला जाए। विरह की आग में शिष्य पकता है। विरह की आग में ही घड़ा पक्का होता है, मजबूत होता है।

भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।

यह वचन बड़ा प्यारा है। रज्जब कहते हैं, जब से तुमने मेरी छाती में भाला .भोंक दिया.. भलका लाग्या भाव का—जब से तुमने भाव का भाला मेरी छाती में भोंक दिया.. .सेवक हुआ सुमार—तब से हमारी भी गिनती हो गयी। तब से हम भी कुछ हो गये। तब से हम भी हैं उसके। पहले हम नहीं थे। उसके पहले हमारी क्या सुमार थी। हमारी कौन गिनती थी! हमारी कहाँ गणना थी। उसके पहले होना न होने के जैसा था।

भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।

तबसे हम भी कुछ हैं। मिट कर कुछ हुए। भाला लगा तब कुछ हुए। समर्पित हुए, तब से हम कुछ हैं। जब तक अकड़े थे, ना—कुछ थे। अहंकार छोड़ा तो कुछ हुए, अहंकार था तो कुछ भी नहीं थे।

भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार

शब्द बडे प्यारे हैं। अब हमारी भी गिनती है। देर—अबेर होगी, मेघ हमारा कब आएगा पता नहीं, मगर गिनती है, कतार में हम भी खड़े हैँ, अब हम यूँ ही व्यर्थ नहीं हैं, कच्चे नहीं हैं कि मेघ बरसेगा तो मिट्टी बह जाएगी, अब हम पक गये हैं। तुमने भाला क्या मारा, पका दिया!

रज्जब तलफै तब लगै मिलै न मारनहार।।

बड़ा प्यारा वचन है। हीरों से तौलो तो भी कीमत न हो। ‘ रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार ‘। जब तक मारनेवाला नहीं मिला था, तभी तक तलफ थी। अब तो मिल गये मारनेवाले! यह गुरु का अर्थ——मारनहार। तुमने मिटा दिया और बना दिया।

भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।

रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार।।

तब तक ही अड़चन थी जब तक मारनेवाला न मिला था। अब तो राह से लग गये, अब तो गिनती अपनी भी हो गयी। अब देर—अबेर हो सकती है, कौन चिंता करता है! प्रतीक्षा करनी होगी, कर लेंगे। कितना ही समय बीते अब, अब कोई घबड़ाहट नहीं है। भाला चुभ गया हैं—गुरु को मारनहार कहा। लेकिन जो मारन— हार है, वही जियावनहार भी है। इधर मारता है, उधर जिलाता है। एक हाथ से ठोंकता है, दूसरे हाथ से सँभालता है।

जैसे नारी नाह बिन, भूली सकल सिंगार।

त्यूँ रज्जब भूल्या सकल, सुनि सनेह दिलदार।।

गुरु की आवाज सुनकर सब भूल गया, रज्जब कहते हैं, कि मैंसब भूल गया। ‘ जैसे नारी नाह बिन भूली सकल सिंगार ‘। जैसे कोई अपने प्यारे की प्रतीक्षा करती हो स्त्री, तो श्वंगार करती है। लेकिन पति प्यारा न आता हो, न आनेवाला हो, तो सब प्रग्गार भूल जाता है। शृंगार के लिए तो कोई शृंगार नहीं करता, प्यारे के लिए शंगार किया जाता है। ‘ जैसे नारी नाह बिन भूली सकल सिंगार ‘, जैसे प्रियतम नही आया, नहीं आता है, तो सारा शृगार भूल जाता है, ऐसे ही——’त्यों रज्जब भूला सकल’। सारा संसार भूल गया उसी क्षण जब से गुरु की आवाज सुनी। क्योंकि तभी से एक बात पक्की हो गयी कि जिस प्यारे को हम खोज रहे हैं, वह संसार मे नहीं है। हम वहाँ खोज रहे हैं जहाँ वह नहीं है। और हमने वहाँ अब तक खोजा ही नहीं, जहाँ वह है।

त्यूँ रज्जब भूल्या सकल, सुनि सनेह दिलदार।

यह स्नेह से भरे हुए गुरु के वचन सुने, यह भाला दिल’ में लगा, सेवक हुआ सुमार।

मुझको अब तक खुदा से है शर्मिदगी

ऐ सनमखानए—दिल के पहले सनम

कुछ तो होंगी मुहब्बत की मजबूरियाँ

कौन सहता है वर्ना किसी के सितम

हम ‘ कतील ‘ अपनी धुन में न कुछ सुन सके

रोकते रह गये हमको दैरो—हरम

सद्गुरु जब तुम्हें पुकारेगा, तो मंदिर रोकेगे, मस्जिद रोकेगे, दुकान रोकेगी, बजार रोकेगा, घर रोकेगा, परिवार रोकेगा, सब रोकेगे, सारा संसार तुम्हें घेरा बाँधकर खड़ा हो जाएगा। तुम बड़े चकित होओगै, इस संसार ने कभी तुम्हारी चिंता न की थी, लेकिन जिस दिन तुम गुरु की आवाज सुनोगे, सारा संसार तुम्हें रोकेगा। लेकिन फिर रुकना असंभव है।

हम ‘ कतील ‘ अपनी धुन में न कुछ सुन सके

रोकते रह गये हमको दैरो—हरम

फिर कुछ नहीं रुकता, फिर कोई नहीं रोक सकता। एक बार आवाज पड़ जाए कान में। तो आते रहो जाते रहो, जहाँ सत्संग चलता हो बैठते रहो, आज, कल, परसों, कौन जाने कब शुभ घड़ी आ जाए, कब तुम्हारे कान खुले हों, कब तुम्हारा हृदय कान के करीब हो, बात पड़ जाए? एक बार भाला लग जाए, सेवक हुआ सुमार।

तन मन ओले ज्यूँ गलहि बिरह—सूर की ताप।

और जैसे ओले गल जाते हैं सूरज के ताप में, ऐसेंही विरह की अग्नि जब जलती है——तन मन ओले ज्यूँ गलहि। तन भी गल जाता है, मन भी गल जाता है। जो नहीं गल सकता, बस वही शेष रह जाता है।

तन मन ओले ज्यूँ गलहिं, बिरह—सूर की ताप।

रज्जब निपजै देखि तूँ, यूँ आपा गलि आप।।

रज्जब कहते हैं कि मैने इस तरह अपने को गलते भी देखा और अपने को निक— लते भी देखा। अपने को मिटते भी देखा और अपने को बनते भी देखा। ‘ रज्जब निपजै देखि तूँ यूँ आपा गलि आप ‘। यह चमत्कार देखा। एक तरफ अपने को मरते देखा और एक तरफ देखा कि गल गया सब——देह गल गयी, मन गल गया, जिसको कल तक माना था कि मैं हूँ, वह सब गल गया और पहली दफे पहचान आयी अपने असली आपा की। जिसकी अब तक पहचान ही न थी, अब तब तो यही जानते थे कि मन और देह का जोड़ मैं हूँ। वे दोनों तो गल गये और बह भी गये विरह की अग्नि में, और तभी भीतर से कुछ तीसरा उठा। तीसरा जो अदृश्य है।

मनुष्य त्रिवेणी है। प्रयाग तीर्थ है, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन है। गंगा दिखायी पड़ती है, यमुना दिखायी पड़ती है, सरस्वती दिखायी नहीं पड़ती। ये सिर्फ प्रतीक हैं। यह प्यारा प्रतीक. है। देह दिखायी पड़ती है, मन का भी अनुभव होता है, आत्मा का कहाँ पता चलता है? वह सरस्वती है। दोनों उड़ जाते हैं, देह और मन और तभी जो शेष रह जाता है, जिसके उड़ने का कोई उपाय नहीं, वही तुम हो——तत्त्वमसि श्वेतकेतु। रज्जब निपजै देखि. तूं, यूं आपा गलि आप।

रज्जब ज्वाला विरह की, कबहूँ प्रगटै माहि।

रज्जब कहते हैं, कभी—कभी सौभाग्य से विरह की ज्वाला तुम्हारे भीतर के मंदिर में प्रकट होती है। यह हवन की अग्नि जलती है। रज्जब ज्वाला बिरह की कबहूं प्रगटे माहि, कभी—कभी ऐसा सौभाग्य का क्षण आता है। और जब ऐसा क्षण आ जाए तो चूक मत जाना। उसे बुझ मत जाने देना। उसे बुझा मत देना। उसे भुला मत देना।

‘तौ सींचनि घृत सों चहौं…….

सींच देना अपने जीवनघृत से कि भभक उठे, कि समग्ररूपेण तुम्हें घेर ले।

तौ सींचनि घृत सों चहौं, करम—काठ जरि जाहिं।।

अगर ठीक से विरह की अग्नि को जल जाने दिया, तो यह भक्ति का सूत्र समझ लेना —

ज्ञानी कहते हैं, ध्यान से, बड़े गहरे ध्यान. से व्यक्ति कर्म के जाल से मुक्त होगा। कर्म को मानने वाले कहते हैं, शुभ कर्मों को कर—कर के अशुभ कर्मों को काट—काट कर व्यक्ति कर्म के जाल से मुक्त होगा। भक्त कहते हैं, विरह की अग्नि, ऐसे कर्म जल जाते हैं जैसे लकड़ी जल जाती है आग में। विरह शुद्ध कर जाता है, जैसे अग्नि शुद्ध करती है स्वर्ण को, कुंदन बना देती है।

तौ सीचनि घृत सों चहौं, करम—काठ जरि जाहि।

दरद नहीं दीदार का, तालिब नाहीं जीव।

रज्जब बिरह बिबोग बिन, कहाँ मिलै सो पीव।।

और अगर तुम्हौर भीतर उसे देखने की आकांक्षा नहीं है, तो तुम क्या हो! फिर तुम्हारी कोई गिनती नहीं। तुम थे, नहीं थे, बराबर। परमात्मा को देखने की आकांक्षा से ही तुम्हारा वास्तविक जन्म शुरू होता है। इससे पहले तो तुम यों ही जीए, नाममात्र को, सपने में जीए। जब भी कोई बुद्ध से सन्यास लेता था तो वह कहते थे, आज से अब अपनी उम्र गिनना। सेवक हुआ सुमार।

एक बार सम्राट बिंबिसार उनसे मिलने आया। और एक भिक्षु दर्शन करने आया था। सम्राट बैठा था। बुद्ध ने भिक्षु से पूछा——तेरी उम्र कितनी है? उसने कहा —चार वर्ष। वह था कोई सत्तर वर्ष का। बिंबिसार बड़ा चौंका। सोचा, यह क्या हो रहा है? या तो मैंने गलत सुना। उसने पूछा बुद्ध को —— मैंने गलत तो नहीं सुना, यह आदमी कहता है चार वर्ष? चालीस भी कहता तो भी मैं भरोसा नहीं करता, क्योंकि यह निश्चित सत्तर से कम का नहीं है, ज्यादा भले हो; चार वर्ष? बुद्ध ने कहा—आपको पता नहीं, हम गणना इसी तरह करते। यह चार वर्ष पहले संन्यस्त हुआ। उसके पहले तो जिआ कि नहीं जिआ, उसकी कौन गिनती? उसकी हम गिनती ही नहीं करते। वे तो रात में बीत गये, सपनों में बीत गये।

तुम रात के सपनों की गिनती तो नहीं करते। अगर कोई तुमसे पूछेगा——कितना धन तुम्हारे पास है? तो तुम उतना ही बताओगे जितना बैंक में है। तुम उतना नहीं गिनोगे जितना तुमने सपनों में भी देखा है। वह उसमें तुम गिनती नहीं करोगे। कोई पूछेगा—तुम्हारे पास क्या है? तो तुम सपनों को छोड़ देते हो। जब कोई व्यक्ति जागता है, तो उसे पता चलता है कि अब तक जो जीवन था वह नींद ही था। सोए थे, सपने देखे थे, उनकी कोई गिनती नहीं करता।

दरद नहीं दीदार का, तालिब नाहीं जीव।

जब तक उस परमात्मा को पाने की आकांक्षा नहीं जगी है, जब तक उसकी खोज ने तुम्हें आतुर नहीं किया है, जब तक तुमने उसकी पुकार नहीं सुनी है और तुम उसकी खोज पर नहीं निकल पड़े हो, तब तक तुम क्या हो! तब तक अपनी गिनती मत कर लेना। तब तक हो सकता है तुम्हारे पास बहुत धन हो, बड़ा पद हो, मगर तुम कुछ भी नहीं। दो कौड़ी तुम्हारा मूल्य नहीं है। हाँ, जब तुम उसकी खोज से भरते हो, तभी तुम्हारे भीतर जीवन की शुरुआत है।

रज्जब विरह बिबोग बिन, कहाँ मिलै सो पीव।।

और जो विरह के वियोग से भर गया है, जो देखता है कि मैं हकदार हूँ परमात्मा को पाने का, यह सागर मेरा है और मैं किनारे पर तड़प रहा हूँ, जो देखता है कि मानसरोवर मेरा है और मैं गंदी तलैया के किनारे क्यों बैठा हूँ, जिसे यह दिखायी पड़ती है अवस्था कि मेरी आत्यंतिक संभावना परमात्मा होने की है, उससे कम पर मैं राजी नहीं होऊँगा, उसको वियोग पैदा होगा।

अब फर्क समझना।

एक शास्त्र है हमारे पास, जिसको हम योग कहते हैं ——कैसे परमात्मा से जुड़े? मगर योग के पहले वियोग पैदा होना चाहिए। अगर वियोग ही पैदा न हो तो जुड्ने का सवाल ही कहाँ उठता है? जो आदमी बिना वियोगी बने योगी बन गया है, उस आदमी ने गलत कदम उठा लिया। पहले वियोग, फिर योग। और जितनी तुम्हारे वियोग की गहराई होगी, उतनी ही तुम्हारे योग की गहराई होगी। अक्सर लोग योगी बन बैठे हैं और वियोग ने उनको जलाया ही नहीं था, दग्ध ही नहीं किया था, वियोग के काँटे अभी चुभे ही नहीं थे और योग के फूल खिलाने में लग गये हैं, ये फूल कभी नहीं खिलेंगे। ये फूल खिलने असंभव हैं। वियोग से बचना मत। और वियोग बड़ी पीड़ा है, सच है बड़ी आग है, लेकिन आग के बिना कौन निखरा है?

रज्जब बिरह बिबोग बिन, कहाँ मिलै सो पीव।।

किसको कब मिला है प्यारा बिना विरह के, वियोग के? अग्नि में जले बिना वह प्यारा किसीको मिला नहीं, क्योंकि हम उस प्यारे के योग्य नहीं हो पाते। वह तो मिलने को उत्सुक है प्रतिपल, पर हमारी पात्रता नहीं है। उसका मेघ तो धिर। ही हुआ है, आकाश पर तना ही हुआ है, राजी है बरसने को, मगर कुंभ तैयार नहीं है। करो तैयार अपने को! जागो विरह में! वियोग को पकड़ने दो तुम्हें एक ओँधी और झंझावात की तरह! उसीसे तो वास्तविक योग का जन्म होगा। तडूफोगे तो जरूर पाओगे। जो भी तडूफे हैं, उन्होंने पाया है। और जिस दिन तुम्हारी गिनती हो जाए, उसी दिन तुम संन्यासी हुए। जिस दिन संन्यासी हुए, उसी दिन गिनती हुई—सेवक हुआ सुमार। धन्यभागी हैं वे जो सूउमार हो जाते हैं! धन्यभागी हैं वे जो कह सके कि मिल गया मारनहार!

सद्गुरु के बिनांकौन तुम्हें मिटाएगा? और तुम जब तक मिट ही न जाओ, तब तक बाधा है। तुम बाधा हो। तुम्हारी दीवाल हट जाए, तो आकाश अभी प्रवेश कर जाए। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।

मेरे पास लोग आते हैं, पूछते हैं कि परमात्मा और हमारे बीच बाधा क्या है? मैं उनसे कहता हूँ —— तुम ही बाधा हो। मैं—भाव बाधा है। वे कुछ और सुनना चाहते हैं। वे सुनना चाहते हैं कि पाप बाधा है; तो पुण्य करें। वे सुनना चाहते हैं कि अज्ञान बाधा है; तो ज्ञानी हो जाएँ, पंडित हो जाएँ। और जब मैं उनसे कहता हूँ तुम ही बाधा हो, तो उन्हें भला नहीं लगता। इतनी दूर जाने की उनकी तैयारी नहीं थी। मैं पापी था तो मैं को पुण्यात्मा बनाने को तैयार थे वे, लेकिन मैं को छोड़ने को नहीं। मैं काला था तो उसे सफेद रंगने को तैयार थे वे, लेकिन मैं को छोड़ने को नहीं। मैं अज्ञानी था तो ज्ञान से थोप देने को तैयार थे वे, मैं भोगी था तो मैं को योगी बना देने को तैयार थे वे; लेकिन मैं को छोड़ देने को नहीं।

भक्ति का सारसूत्र स्मरण रखो——मैं बाधा है। न तो पाप बाधा है, न अज्ञान बाधा है, मैं बाधा है। मैं ही पाप है और मैं ही अज्ञान है। इस द्वार से मैं गया, उस द्वार से परमात्मा प्रविष्ट हो जाता है।

तुम हटो, राह दो। तुम भी एक दिन कह सकोगे——

भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।

रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार।।

 

आज इतना ही।


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आनंद यांग–(दि बिलिव्ड)–(प्रवचन–08)

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मैं केवल तुम्हारे लिए ही अस्तित्व में बना हुआ हूं—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 17 जूलाई 1976,

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न:

जब कोई व्यक्ति तुमसे घृणा करता है, तो तुम क्या करो?

चाहे कोई व्यक्ति तुमसे घृणा करे या कोई व्यक्ति तुमसे प्रेम करे, तुम्हें इससे कोई फर्क पड़ना ही नहीं चाहिए। यदि तुम ‘हो‘, तो तुम वैसे ही बने रहते हो, और ‘ तुम नहीं हो ‘ तब तुम तुरंत बदल जाते हो। यदि तुम हो ही नहीं, तब कोई भी व्यक्ति तुम्हें खींच सकता है, तुम्हें धक्का दे सकता है: तब कोई भी व्यक्ति तुम्हारा कोट पकड़ कर धकिया सकता है और तुम्हें बदल सकता है। तब तुम एक गुलाम हो, तब तुम मालिक नहीं हो। तुम्हारी मालकियत तब शुरू होती है, जब बाहर जो कुछ भी घटना घटे, वह तुम्हें बदलती नहीं, तुम्हारा आंतरिक वातावरण और आबोहवा वैसी ही बनी रहती है।

एक मनोविश्लेषक एक अधिवेशन में भाग ले रहा था। एक भाषण के दौरान एक कुरूप स्त्री, जो उससे अगली सीट पर बैठी हुई थी, उसने उसे एक चिकोटी काटी। नाराज होकर वह लगभग उसे कोई सख्त प्रत्युत्तर देने ही जा रहा था, तभी उसने अपना इरादा छोड़ कर विचार किया— ‘‘ मुझे क्रोधित क्यों होना चाहिए आखिरकार यह उसकी अपनी समस्या है।‘‘

 

चाहे कोई भी व्यक्ति तुमसे घृणा करे या प्रेम, यह उसकी अपनी समस्या है। यदि ‘ तुम ‘ उपस्थित हो, यदि तुमने अपने होने को समझ लिया है, तो तुम अपने होने के साथ लयबद्ध बने रहते हो। तुम्हारी आंतरिक लय को कोई भी भंग नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति तुमसे प्रेम करता है तो ठीक है, यदि कोई व्यक्ति तुमसे घृणा करता है—तो भी ठीक है। दोनों ही तुम्हारे कहीं बाहर ही बने रहते हैं। यह वही है जिसे हम मालकियत कहते हैं, यही है वह, जिसे हम बहती तरल चेतना का एकीकृत होकर ठोस बनना और सभी प्रभावों और छापों से मुक्त होना कहते हैं। तुम पूछ रहे हो— ‘‘ जब कोई व्यक्ति तुमसे घृणा करता है तो तुम क्या करो? मैं कर ही क्या सकता हूं? यह उस व्यक्ति की अपनी समस्या है। उसके पास मेरे साथ करने के लिए कुछ और है ही नहीं। यदि मैं यहां नहीं होता, तो उसने किसी दूसरे व्यक्ति से घृणा की होती। उसे घृणा करनी ही थी। यदि वहां कोई भी न होता और वह अकेला ही होता, तो उसने स्वयं से ही घृणा की होती। धृणा करना उसकी अपनी समस्या है। उसका मुझसे किसी भी तरह कुछ भी लेना—देना ही नहीं। मूल रूप से उसका मुझसे कुछ सम्बंध ही नहीं, मैं तो बस एक बहाना भर हूं। किसी दूसरे अन्य व्यक्ति ने भी उसके लिए बहाना बनकर वही कार्य उतनी ही अच्छी तरह किया होता।

क्या तुमने कभी निरीक्षण नहीं किया कि जब तुम क्रोधित होते हो, तुम बस क्रोध में होते हो? ऐसा नहीं होता कि तुम्हारा क्रोध किसी व्यक्ति विशेष के लिए हो। वह व्यक्ति और कुछ भी न होकर, केवल एक बहाना भर होता है। क्रोध में भरे हुए तुम आफिस से घर लौटते हो, और अपनी पत्नी पर बरस पड़ते हो। क्रोध में भरे हुए ही तुम घर से बाहर निकलोग हो और आफिस जाकर तुम चपरासी, क्लर्क अथवा इस पर और उस पर अपना क्रोध प्रकट करते हो। यदि तुम अपने चित्त की दशाओं का विश्लेषण करो तो तुम देखोगे कि वे तुम्हीं से सम्बंधित हैं। तुम अपने ही संसार में रहते हो लेकिन तुम उसे दूसरों पर प्रक्षेपित किए चले जाते हो।

जब तुम क्रोध में होते हो, तो तुम मुझ पर नहीं, स्वयं ही पर क्रोधित हो। जब तुम घृणा से भरे होते हो, तो तुम ही घृणा से भरे होते हो, मुझसे घृणा नहीं होती तुम्हें। जब तुम प्रेम से भरे होते हो तो तुम ही प्रेम से आपूरित होते हो, तुम्हारा प्रेम मुझ पर नहीं होता। एक बार तुम इसे समझ लो, तो तुम संसार में कमल के पत्ते की भांति बने रहते हो। तुम रहते जल में हो, लेकिन जल तुम्हारा स्पर्श नहीं करता, वह तुम्हें छूता तक नहीं। तुम रहते संसार में ही हो, और फिर भी उससे अलग रहते हो। तब कोई भी व्यक्ति तुम्हारी शांति को भंग नहीं कर सकता, और न कोई व्यक्ति तुम्हारा ध्यान भंग कर सकता है। तुम्हारी करुणा प्रवाहित होने लगती है। यदि तुम मुझे प्रेम करते हो, तो तुम मेरी करुणा प्राप्त करते हो। यदि तुम मुझसे घृणा करते हो, तो तुम मेरी करुणा ग्रहण न कर सकोगे—इसलिए नहीं कि मैं उसे तुम्हें दूंगा नहीं। मैं तो तुम्हें उसे निरंतर दे ही रहा हूं जितनी अधिक से अधिक मैं उन लोगों को दे रहा हूं जो मुझसे प्रेम करते हैं। लेकिन तुमने ही अपने द्वार बंद कर लिए होगे और तुम उसे ग्रहण न कर सकोगे।

एक बार जो बोध को उपलब्ध हो जाता है, वह करुणा से भर जाता है, बेशर्त करुणा उससे प्रवाहित होती है। ऐसा नहीं कि वह कुछ क्षणों में ही करुणावान होता है और कुछ क्षणों में वह करुणावान नहीं होता। तब करुणा उसका प्राकृतिक स्वभाव और स्थायी चित्तवृत्ति बन जाती है, करुणा उसके अस्तित्व का अभिन्न भाग बन जाती है। तब तुम जो कुछ भी करते हो, उसकी करुणा तुम पर बरसती ही रहती है। लेकिन वहां कुछ क्षण ऐसे होते है जब तुम खुले होगे, तो तुम उसे ग्रहण कर लोगे, और कुछ क्षण वहां ऐसे होते हैं जब तुम उसे ग्रहण न कर सकोगे, क्योंकि तुम्हारे हृदय के द्वारा बंद होंगे।

इसलिए घृणा में तुम उसे ग्रहण न कर सकोगे, लेकिन प्रेम में तुम उसे ग्रहण कर सकोगे। और तुम इसका अंतर भी महसूस कर सकते हो—क्योंकि एक व्यक्ति जो मुझे प्रेम करता है, विकसित होना शुरू हो जायेगा, और जो व्यक्ति मुझसे घृणा करता है, सिकुड़ना शुरू हो जायेगा। दोनों ही पूरी तरह से इतने अधिक भिन्न हो जायेगे, कि तुम यह भी सोच सकते हो कि मैं उस व्यक्ति को, जो मुझसे प्रेम करता है, कुछ अधिक दे रहा हूं और जो व्यक्ति मुझसे घृणा करता है, अथवा जो मुझसे नाराज है अथवा जिसके द्वार मेरे लिए बंद हैं, मैं उन्हें अपनी करुणा नहीं दे रहा हूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं। बादल वहां हैं और वे वर्षा कर रहे है यदि तुम्हारा पात्र टूटा हुआ नहीं है तो वह भर जाएगा, अथवा यदि तुम्हारा पात्र टूटा न भी हो लेकिन औंधा रखा हुआ हो, तुम तब भी चूक जाओगे। घृणा वह मनःस्थिति है, जब हृदय का पात्र औंधा रखा होता है। तब वर्षा तो होती ही रहेगी, लेकिन तुम खाली रहोगे, क्योंकि तुम वहां मेरे प्रति खुले हुए नहीं हो, इसीलिए चूक जाओगे।

एक बार तुम अपने पात्र को सीधा कर लो, जो ऊपर की ओर खुला हुआ हो, बस यही है—प्रेम। प्रेम और कुछ भी नहीं बल्कि अपने द्वार खोलना है, वह एक ग्राहकता, एक निमत्रंण और एक स्वागत भाव है, जो कहे— ‘‘ मैं अब तैयार हूं। कृपया पधारिए।‘‘

बाउल गाते चले जाते हैं— ‘‘ आओ प्रीतम प्यारे! मेरे पास आओ! ‘‘ वे उसे आने के लिए आमंत्रित किए चले जाते हैं। प्रेम है— आमंत्रण और घृणा है—दूर हटाना, खदेड़ना। यदि तुम मुझे प्रेम करते हो, तो तुम बहुत अधिक प्राप्त कर सकोगे— इसलिए नहीं कि मैं तुम्हें विशेष रूप से कुछ अधिक दे रहा: लेकिन यदि तुम मुझसे घृणा करते हो तो तुम कुछ भी प्राप्त ही न कर सकोगे—इसलिए नहीं, कि मैं तुम्हें नहीं दे रहा हूं। बल्कि इसलिए क्योंकि तुम्हारे द्वार बंद हैं। लेकिन मैं स्वयं में ही बना रहूंगा।

मेरा शरीर के साथ कुछ भी तादात्म्य नहीं है, और न मेरा कोई तादात्म्य मन के साथ रह गया है। मैं अपने घर आ गया हूं।

यदि तुम्हारा तादात्म्य शरीर के साथ जुड़ा है और कोई तुम्हारे शरीर पर चोट करता है तो तुम क्रोधित हो जाओगे क्योंकि वह तुम्हें चोट पहुंचा रहा है। यदि तुम्हारा तादात्म्य मन के साथ है और कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है, तो तुम क्रोधित हो जाओगे, क्योंकि वह तुम्हारे मन को चोट पहुंचा रहा है। एक बार तुम्हारा तादात्म्य अपने अस्तित्व के साथ हो जाये तो कोई भी तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता, क्योंकि किसी भी व्यक्ति ने अभी वह खोज नहीं की है जिससे अस्तित्व या आत्मा पर चोट पहुंचाई जा सके।

शरीर को चोट पहुंचाई जा सकती है, मन को घायल किया जा सकता है.. लेकिन आत्मा को तो स्पर्श तक नहीं किया जा सकता।

उसे चोट पहुंचाने का कोई तरीका है ही नहीं, उसे पीड़ित करने का वहां कोई भी उपाय है ही नहीं। उसका स्वभाव ही परमानंद है। तुम मेरे शरीर को चोट पहुंचा सकते हो: बहुत आसान सी बात है, लेकिन यदि मेरा तादात्म्य शरीर से है तो मुझे क्रोध आयेगा, क्योंकि मैं सोचूंगा कि तुमने मुझे चोट पहुंचाई। यदि तुम मेरा अपमान करते हो तब वह चोट मन तक पहुंचती है। यदि मेरा तादात्म्य मन के साथ है तो तुम मुझे दुश्मन लगते हो। लेकिन न तो मेरा तादात्‍म्‍य शरीर के साथ है, और न मन के साथ। मैं साक्षी हूं। इसलिए तुम जो कुछ भी करते हो, वह मेरे साक्षी के केंद्र तक कभी पहुचता ही नहीं। वह पूरी तरह अप्रभावित साक्षी बना रहता है। एक बार झूठे जोड़े गए तादात्म्य गिर जाते हैं, तुम्हारी व्यग्रता भी समाप्त हो जाती है, तब तुम चक्रवात के केंद्र बन जाते हो, और तूफान उग्रता से तुम्हारे चारों ओर घूमता रहता है, लेकिन अंदर गहरे में तुम थिर और शांत बने रहते हो, तुम्हारे अस्तित्व का छोटा सा केंद्र, जो कुछ भी घट रहा है, उससे पूरी तरह अलग बना रहता है।

 

मैंने सुना है

एक दार्शनिक, एक हज्जाम और गंजा बेवकूफ तीनों साथ—साथ यात्रा कर रहे थे। रास्ता चलकर उन सभी को खुले स्थान पर सोने के लिए विवश होना पड़ा, और खतरे को टालने के लिए यह तय किया गया कि वे बारी—बारी से देखभाल करेंगे। पहली बारी हज्जाम की आई, जिसने केवल मजाक में सोते हुए दार्शनिक के सिर पर उस्तुरा फेरकर उसे सफाचट्ट बना दिया। तब उसने उसे देखभाल के लिए जगा दिया। दार्शनिक ने अपना हाथ ऊपर उठाकर अपना सिर खुजाया और बोला— ‘‘तुमसे एक छोटी सी गलती हो गई तुमने मेरी बजाय उस गंजे बेवकूफ को जगा दिया है।‘‘

 

तुम्हारी पहचान और तादात्म्य जोड़ लेना ही तुम्हारी मूल समस्या है। यदि तुमने शरीर के साथ तादात्म्य जोड़ लिया है, तब तुम निरंतर कठिनाई में पड़ने जा रहे हो, क्योंकि तुम्हारा शरीर निरंतर बदल रहा है, तुम्हारी पहचान कभी भी एक बिंदु पर थिर होकर विश्राम न कर सकेगी। एक दिन शरीर युवा है और दूसरे दिन वह वृद्ध जैसा थका हुआ है। एक दिन वह स्वस्थ है तो दूसरे दिन वह रुग्ण है। एक दिन तुम बहुत युवा और दीप्तिवान हो, और दूसरे ही तुम्हारे शरीर का ढांचा निराशा से टूटा—फूटा और नष्टप्राय है। निरंतर शरीर जैसे एक प्रवाह में बहा जा रहा है।

यही कारण है कि जो लोग अपने शरीर के साथ तादात्म्य जोड़ लेते हैं, वे निरंतर उलझन में पड़कर, बिना यह जाने कि वे कौन हैं भ्रमित होते रहेंगे। तुमने ऐसी चीज से पहचान बनाई है जो विश्वसनीय नहीं है। एक दिन वह जन्म लेती है, और दूसरे दिन मर जाती है। वह निरंतर मर ही है और निरंतर बदल रही है। तुम उसके साथ आराम से कैसे रह सकते हो?

यदि तुमने मन के साथ तादात्म्य जोड़ लिया, तब वहां और भी अधिक कठिनाई होगी। क्योंकि शरीर का तो कम से कम एक निश्चित ढांचा है, वह बदलता तो है लेकिन यह बदलाव बहुत धीमे— धीमे होता है। तुम कभी भी इस परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पाते। यह परिवर्तन बहुत खामोशी से होता है और इसमें वर्षों लग जाते हैं, और वास्तव में तभी एक विशिष्ट परिवर्तन होता है। एक बच्चा एक रात में जवान नहीं हो जाता और एक व्यक्ति रातों रात का नहीं हो जाता। इसमें वर्षों लग जाते हैं और यह परिवर्तन बहुत धीमी गति से होता है, और इतने सूक्ष्म और छोटे परिवर्तन होते है कि कोई व्यक्ति इनके प्रति कभी सजग नहीं हो पाता। लेकिन मन के साथ तुम निरंतर एक उपद्रव में पड़े रहते हो, उसमें प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है। एक क्षण में तुम अपने को परम भाग्यशाली होने का अनुभव करते हुए इस संसार के शिखर पर होते हो, और दूसरे ही क्षण तुम नर्क में होते हो और आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगते हो। इस मन के साथ तुम कैसे पहचान बना सकते हो? आत्मा वह है, जो सदैव शाश्वत रूप से जस की तस बनी रहती है। उसका कोई रूप या आकृति नहीं है, इसलिए वह बदल नहीं सकती, उसके पास कोई विषय सामग्री नहीं होती, इसलिए भी वह नहीं बदल सकती। आत्मा बिना किसी विषय सामग्री के अरूप होती है। उसका कोई नाम रूप नहीं होता—पूरब में हम इसी को नाम रूप से परे ‘ कहते हैं। केवल यह दो ही चीजें बदलती हैं—नाम और रूप। वह इनमें से कोई भी नहीं है। वह बस केवल होना भर है, सभी विषय सामग्री और रूप से रिक्त। एक बार तुम इस रिक्तता या शून्यता मे ‘प्रविष्ट हो जाओ, फिर कुछ भी तुम्हें परेशान नहीं कर सकता, क्योंकि वहां परेशान करने वाला कोई है ही नहीं। कोई भी तुम्हें चोट नहीं पहुचा सकता, क्योंकि वहां अंदर कोई भी या कुछ भी चोट पहुंचाने वाला है ही नहीं।

तब यदि तुम मुझसे घृणा करते हो, तो तुम्हारी घृणा का तीर मुझसे होकर गुजर जाएगा, लेकिन वह मुझे चोट नहीं पहुंचा सकता, क्योंकि वहां कोई है ही नहीं। तुम मुझे अपना लक्ष्य नहीं बना सकते। चाहे तुम मुझसे प्रेम करो अथवा घृणा, तुम मुझे अपना निशाना नहीं बना सकते। इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और मैं कुछ करता ही नहीं हूं। मैं बस अपने स्वयं में बना रहता हूं।

 

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था— ‘‘हां! मैं कभी राजनीति में कुछ हुआ करता था, पर उससे पहले दो वर्ष मैंने इस शहर में कुत्तों को पकड़ने का कार्य किया, और अंत में मुझे उस नौकरी से हाथ धोना पड़ा।‘‘

मैंने उससे पूछा— ‘‘ आखिर मामला क्या है? क्या मेयर को बदलने का मामला है या कुछ और बात है?

उसने उत्तर दिया— ‘‘ नहीं! मैने अंत में कुत्ता पकड़ ही लिया।‘‘

 

और यही बात मैं तुमसे भी कहना चाहता हूं: अंत में मैंने कुत्ता पकड़ ही लिया। अब मेरे करने को कोई काम बचा ही नहीं। मैं बेकार और बेरोजगार हूं। मैं कुछ भी कर ही नहीं रहा हूं: सारी कामनाएं लुप्त हो गई हैं, सभी कुछ करना छूट गया है। मैं बस यहां हूं। मैं केवल तुम्हारे लिए ही यहां हूं। यदि तुम मुझसे प्रेम करते हो, तुम महान स्वागत के साथ मुझे प्राप्त कर सकोगे, और तुम्हारा अत्यधिक कल्याण होगा। यदि तुम मुझसे घृणा करते हो, तो तुम चूक जाओगे, और जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। अब यह तुम पर है कि तुम चुनाव करो। लेकिन मैं कोई भी कार्य कर ही नहीं रहा हूं।

 

दूसरा प्रश्न:

आप ध्यान अथवा भक्ति दोनों में से किसी एक का अनुमोदन कर रहे हैं मैं दोनों को सहायक याता है दोनों एक ही लक्ष्य की ओर ले जाती है? वह है— परमानंद? जब कभी मैं अनुभव करता हूं कि मैं वह हूं अथवा वस्तुत: यह अर्थात वही सारभूत मनुष्‍य हूं और कभी—कभी मैं तीव्र भावोद्वेग में एक भक्त बन जाता है नाचते गाते हुए प्रार्थना करते हुए उसके बारे में खेली दिव्य लीलाओं की चर्चा करता हूं क्या मैं दोनों एक साथ हूं? मेरी सच्ची प्रकृति क्या है? मेरे विकास के लिए आप किस मार्ग का सुझाव देगे?

आपसे संन्यास लेने के बाद पंद्रह महीने आपके साथ रहते हुए? मृत्यु का भय तो चला गया है? शरीर ‘उसका‘ दिव्य मंदिर बन चुका है, और मन उसके प्रयोग के लिए एक वाद्य— यंत्र बन गया है! आपके सभी वचन बहुत मधुर है, लेकिन उससे भी कहीं अधिक ध्यान और मधुर है आपका मौन? जिससे मैं अपने जीवन का दिशा—निर्देश प्राप्त करता हूं: कुछ करो ही मत, स्वीकार करो, अभिनय करो जो मेरे विकास के लिए बहुत अच्छी तरह कार्य कह रहा है

कृपया बोध देने की अनुकम्पा करें।

दि चीजें इतने सुंदर रूप से होती जा रही हैं, तो फिर क्यों समस्या खड़ी कर रहे हो? क्या तुम अपनी अंतर्दृष्टि को स्वीकार नहीं कर सकते? क्या तुम्हें हमेशा एक गवाह की जरूरत है? क्या तुम्हें हमेशा किसी अन्य व्यक्ति की स्वीकृति की आवश्यकता पड़ती है? यदि मैं चला गया तो तुम उलझन में पड़ जाओगे। जब तुम इतनी अधिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हो, तो क्या यह प्रसन्नता ही अपने आप में पर्याप्त प्रामाण नहीं है कि तुम ठीक मार्ग पर हो।

लेकिन अपने जीवन में कई बार तुम इतनी अधिक गलतियां कर चुके हो कि तुम्हें स्वयं पर से विश्वास उठ गया है।

यह फिर से सीखने और समझने की एक बहुत मूलभूत बात है— ‘‘ तुम स्वयं पर विश्वास करो।‘‘ जब प्रत्येक चीज बहुत सुंदर रूप से हो रही है और तुम परमानंद तथा प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हो, तो यह भूल जाओ— ‘‘कि मैं क्या कह रहा हूं। उसके बारे में फिक्र करो ही मत। तुम जानते हो कि सभी ठीक से हो रहा है। अपने स्वयं के अनुभव के प्रति संशय और संदेह उत्पन्न क्यों कर रहे हो?

 

मैंने सुना है……..

मुल्ला नसरुद्दीन डेट्रोइट की यात्रा करते हुए रास्ते में पड़ने वाले दृश्य देखता जा रहा था। जेफरसन एवेन्यू पर आकर बस के ड्राइवर ने दिलचस्पी के सभी स्थानों के बारे में बताना शुरू किया।

उसने माइक से घोषणा की— ‘‘ अपनी दाहिनी ओर हम डॉज हाउस देख रहे हैं।‘‘

मुल्ला ने पूछा— ‘‘ क्या जोन डॉज?‘‘

‘‘जी नहीं श्रीमान होरेस डॉज। अपनी बात जारी रखते हुए उसने आगे बताया— ‘‘ वहां दूर बाएं कोने पर ‘ हम फोर्ड हाउस ‘ देख रहे हैं।‘‘

मुल्ला ने सुझाव देते हुए कहा— ‘‘ कोई नही—हेनेरी फोर्ड।‘‘

‘‘जी नहीं श्रीमान, एडसेल फोर्ड। और जेफरसन के आगे जाने पर बाएं मोड़ के पास हम क्राइस्ट चर्च देखेंगे।‘‘

क्या जीसस क्राइस्ट? अथवा मैं फिर गलत हूं? मुल्ला नसरुद्दीन ने भेड़ की तरह मिमियाते हुए पूछा।

 

मैं समझता हूं कि तुमने अपने जीवन में कई बार चीजों को गलत ही पाया है और तुमने अपना आंतरिक अनुभव—ज्ञान ही खो दिया है। तुम्हारा स्वयं पर से विश्वास जाता रहा है। तुम्हारा आत्मविश्वास खो गया है, इसीलिए तुम्हें दूसरों से पूछना पड़ता है। यदि तुम परमानंद का भी अनुभव कर रहे हो, तो भी तुम्हें किसी अन्य व्यक्ति से पूछना होगा— ‘‘क्या मैं ठीक हूं?‘‘

परमानंद का अनुभव पर्याप्त संकेत है।

इसलिए अब दो सम्भावनाएं है: या तो तुम्हें वास्तव में परमानंद का वैसा ही अनुभव हो रहा है, जैसा तुम अपने प्रश्न में लिख रहे हो—तब इसमें मुझसे पूछने की कोई जरूरत ही नहीं है: अथवा तुम केवल कल्पना कर रहे हो कि तुम उसे जानते हो— और इसीलिए तुम मुझसे पूछ रहे हो। यह बात भी अपने अंदर गहरे उतर कर तुम्हें ही तय करनी होगी, क्योंकि काल्पनिक परमानंद, कोई आनंद है ही नहीं। तुम उसकी कल्पना कर सकते हो। मनुष्य की कल्पना शक्ति अपरिमित है। तुम उन चीजों की कल्पना कर सकते हो क्योंकि मैं निरंतर परमानंद की चर्चा करता रहता हूं प्रेम, ध्यान और शिखर अनुभव के बारे में बताता रहता हूं। तुम उन शब्दों को पकड़ सकते हो, और तुम्हारा लोभ तुम्हारे साथ ही लीला खेलना शुरू कर सकता है, जैसे तुम उस दिव्य परमात्मा के साथ ही लीला खेल रहे हो। तुम्हारा लालच तुम्हारे साथ ही लीला खेल सकता है, और तुम्हें यह सभी विचार दे सकता है। लेकिन यदि यह सभी कुछ काल्पनिक है तो तुम्हें हमेशा संशय बना रहेगा, क्योंकि अपने गहरे में तो तुम जानते ही हो कि यह केवल काल्पनिक कथा है। यदि तुम्हारे मामले में ऐसा ही है, तब तुम्हारा पूछना पूरी तरह अर्थपूर्ण है।

यह तय तुम्हें ही करना है। यदि ऐसा वास्तव में घटित हो रहा है और तुम वास्तव में आनंदित हो, यदि यह एक तथ्य है और तुम कोई कल्पना नहीं कर रहा हो, तब तुम ठीक रास्ते पर चल रहे हो—क्योंकि परमानंद के अनुभव के अतिरिक्त इसका और कोई संकेत है ही नहीं।

जब तुम परमानंद का अनुभव कर रहे हो तो तुम ठीक उसी मार्ग पर चल रहे हो, जिस पर तुम्हें आगे बढ़ना चाहिए। क्योंकि केवल यह आनंद तभी बढ़ता है जब तुम परमात्मा के निकट पहुंचते जाते हो, और किसी अन्य तरीके से ऐसा अनुभव

होता ही नही। यदि तुम परमात्मा से दूर जा रहे हो तो पीड़ा और वेदना उत्पन्न होती है। तुम अधिक से अधिक निराशा का अनुभव करते हो, तुम्हें अधिक से अधिक ऊब और कष्टों का अनुभव होता है। कष्टो का होना ही इस बात का संकेत है कि तुम भटक गए हो, यह एक स्वाभाविक संकेत है कि तुम सत्य के मार्ग से दूर हो गए हो। परमानंद केवल यही बतला रहा है कि तुम अखण्ड के साथ मिलने उसकी ही सीध में जा रहे हो। सभी चीजों में एक लय बद्धता आ जाती है, क्योंकि प्रीतम का उद्यान निकट आता जा रहा है शीत्तलमंद सुगंध वायु का अनुभव होता है, जो अपने साथ फूलों की सुवास, ताजगी और एक नूतन उल्लास और उमंग साथ ला रही है। तब समझना, तुम प्रीतम प्यारे के नंदन कानन की और ही बढे जा रहे हो। हो सकता है, तुम अभी इसे देख नहीं सकते, लेकिन तुम्हारी दिशा ठीक है।

इसलिए स्वयं पर श्रद्धा रखो। लेकिन यदि तुम केवल कल्पना ही कर रहे हो तो अपनी सारी कल्पनाएं गिरा दो।

 

तीसरा प्रश्न :

दर्शन के समय जिस तरह से आपने मुझे बताया था, उससे स्पष्‍ट है कि मेरा ध्यान है— समग्रता से यहीं और अभी में जीना। आपने यह स्पष्ट कर दिया था कि मुझे आशा में नहीं जीना है। टी: एस इलियट ने कहा है— ‘‘मैने अपनी आत्मा से कहा— शांत हो जा और बिना कोई आशा किए प्रतीक्षा कर, आशा के लिए आशावादी बनना गलत चीज है! प्रेम के बिना भी प्रतीक्षा कर, प्रेम के लिए, होने वाले प्रेम की आशा करना गलत है। यद्यपि वहा फिर भी दृढ़ विश्वास है? लेकिन दृढ़ विश्वास या आस्था प्रेम और आशा यह सभी, प्रतीक्षा कराती हैं ‘‘ भगवान? इस पर आप क्या कहेगे?

ह प्रश्न है प्रदीपा का।

वह पूरी तरह ठीक से समझ गई है, जो मैं उसे दिखाने का प्रयास कर रहा हूं। परिपव्‍कता तभी आती है, जब तुम बिना आशा के जीना शुरू कर देते हो। आशा बहुत बचकानी होती है। तुम परिपव्‍क तभी बनते हो, जब तुम भविष्य में आशा को प्रक्षेपित नहीं करते। वास्तव में तुम समझदार या परिपव्‍क तभी होते हो, जब तुम्हारे पास कोई भविष्य नहीं होता, तुम केवल क्षण— क्षण में जीते हो—क्योंकि यहां केवल यही वास्तविकता अथवा सत्य है। अतीत में धर्म, इस बारे में चर्चा किया करते थे कि यहां इसके बाद क्या होगा। वे धर्म के बचकाने और अपरिपव्‍क दिन थे। अब धर्म ‘यहीं और अभी ‘ के बारे में बात करता है, धर्म अब बीते युग के पार आया है। वेदों, कुरान और बाइबिल का मूलभूत लक्ष्य यहां के बाद की चर्चा है। लेकिन अब मनुष्य की बुद्धि इतनी अधिक बचकानी नहीं है। इस तरह का परमात्मा और इस तरह का धर्म अब मृत हो चुका है। वह भविष्य का धर्म था, वह आशा का धर्म था।

अब पूरे विश्व में एक दूसरी तरह का धर्म अपना दावा प्रस्तुत कर रहा है, और यह धर्म है—वर्तमान में यहीं और अभी के बारे में जीने का। यहां के सिवा कहीं और नहीं जाना है और यहां रहने के लिए कोई दूसरा समय या स्थान है भी नहीं, केवल यही स्थान और यही समय है—यहीं और अभी। इसी क्षण में जीवन को बहुत त्वरा से जीना है। वह मनुष्य जो आशा में जीता है, जीवन में बिखर जाता है। वह जीवन को फैला देता है और वह विरल बन जाता है। और जब वह बहुत अधिक संकरा और तंग हो जाता है, तो वह कभी प्रसन्न नहीं हो सकता। प्रसन्नता का अर्थ है तीव्रता और अत्यंत गहराई। यदि तुम अपनी आशा का वितान भविष्य में फैला दो, तो जीवन बहुत सिकुड़ जाएगा और अपनी गहराई खो देगा।

जब मैं कहता हूं सभी आशाओं को छोड़ दो, तो मेरे कहने का अर्थ है कि इस क्षण को इतनी अधिक त्वरा से जी लो कि भविष्य की कोई आवश्यकता ही न रह जाए। तब वहां एक मोड़ आता है, एक रूपांतरण होता है। तुम्हारे लिए समय की गुणात्मकता बदल जाती है और वह शाश्वत बन जाता है। तुम आशा के साथ कर ही क्या सकते हो? वास्तव में तुम क्या आशा कर सकते हो? तुम नूतन या आने वाले अनजाने भविष्य के लिए कोई आशा नहीं कर सकते। तुम केवल उस पुराने से ही आशा कर सकते हो, जो पहले कभी घटा था—हो सकता है वह थोड़े से यहां— वहां के संशोधन के साथ, कुछ अधिक सजे रूप में हो। लेकिन आशा और कुछ भी नहीं, बल्कि बीता अतीत तुमने किसी चीज को जीकर देखा, तुमने किसी चीज का अनुभव किया और तुम अब बार—बार उसके लिए ही आशा कर रहे हो। यह एक दोहराना मात्र है, इसकी गति चक्राकार है।

आशा करने का अर्थ है— अतीत का भविष्य में पुन: प्रक्षेपण। तुमने कल एक व्यक्ति से प्रेम किया था, तुम आने वाले कल भी उसी व्यक्ति से प्रेम करना चाहते हो। और तुम जानते हो कि कल का अनुभव तृप्‍तिदायक नहीं था, इसीलिए तुम आशा कर रहे हो। कल यथेष्ट नहीं था, आशा इसीलिए है। कल तुम किसी चीज से चूक गए। अब वही चूका गया अंतराल तुम्हें कष्ट दे रहा हैं, वह पीड़ा सृजित कर रहा है। तुम आशा करते हो कि कल फिर वही व्यक्ति तुम्हें प्रेम करने को उपलब्ध होगा, और कल वास्तव में प्रेम मिलेगा।

पर बीते गए कल और आने वाले कल के मध्य आज है। यदि तुम वास्तव में प्रेम करना चाहते हो तो उसे आज ही यहीं और अभी क्यों नहीं करते? अन्यथा जब आज, कल बन जाएगा, तुम फिर से प्रक्षेपण करना शुरू कर दोगे। अधूरे अनुभव ही प्रक्षेपित किए जाते हैं। अधूरी कामनाओं को ही प्रक्षेपित किया जाता है। यदि तुम इस क्षण समग्रता से सच्चा प्रेम करते हो, तो तुम फिर से इस क्षण के बारे मे कभी विचार तक न करोगे। वह समाप्त हो चुका वह पूरा हो चुका, वह पूर्ण है। वह अब विसर्जित हो गया और अपने पीछे कोई चिन्ह तक न छोड़ गया।

यह वही है जिसे कृष्णमूर्ति कहते हैं— ‘समग्रता से किया गया कर्म।‘ समग्रता से किया गया कर्म कोई कर्म निर्मित नहीं करता। वह कर्म की कोई शृंखला सृजित नहीं करता, वह कोई बंधन उत्पन्न नहीं करता। यदि वह समग्रता से किया गया है, तो तुम फिर कभी उसका स्मरण तक नहीं करते, वहां उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है।

हम केवल उसी बात का स्मरण रखते हैं, जो अधूरी रह गई हो। मन की प्रवृत्ति चीजों को पूरा करने की है। और तुम्हारे पास इतने अधिक अधूरे अनुभव हैं: वे भविष्य में तुम्हें प्रक्षेपित किए चले जाते हैं। अतीत जा चुका है— अब अतीत में उन्हें पूरा किए जाने का कोई भी उपाय नहीं है, और वर्तमान तुम्हारे हाथों से तेजी से फिसला जा रहा है, इसलिए तुम नहीं समझते कि वह कोई जरूरी चीज है, क्योंकि वर्तमान में उन्हें पूरा किए जाने की कोई सम्भावना नहीं है। भविष्य बहुत लम्बा है: तुम यह जीवन, अगला जन्म, यह संसार, और दूसरा संसार भी प्रक्षेपित कर सकते हो—तुम अनंत समय तक को प्रक्षेपित कर सकते हो। तुम्हें चैन तभी मिलेगा। तुम कहते हो, ‘‘ मेरा कोई भी नुकसान नहीं हुआ है, क्योंकि कल है वहां, फिर वहां अगला जन्म होगा।‘‘ धीमे— धीमे तुम एक गलत ढांचे के जाल में फंसते जा रहे हो।

नहीं, आशा कोई भी ठीक चीज नहीं है। वर्तमान में ही इतनी अधिक गहराई, और इतनी अधिक पूर्णता से जियो कि कुछ भी शेष न रह जाये। तब वहां प्रक्षेपण नहीं होंगे। तुम बहुत आसानी से वर्तमान का कोई भी भार लिए बिना कल की ओर गतिशील हो जाओगे। और जब वहां बीता हुआ कल तुम्हारे अंदर नहीं घूम रहा है, तब वहां कोई आने वाला कल भी नहीं होगा। जब तुम्हारे चारों ओर अतीत नहीं लटक रहा, तब वहां कोई भविष्य भी नहीं है।

प्रदीपा ने इसे ठीक से समझ लिया है, इसी कारण मैं उसे समझाने का प्रयास कर रहा हूं आशा एक बीमारी है, यह मन का एक रोग है। यह आशा ही है, जो तुम्हें जीने की अनुमति नहीं दे रही है। आशा कोई मित्र नहीं है, स्मरण रहे: यह तुम्हारी शत्रु है। आशा के ही कारण तुम हर चीज कल पर टालोग चले जाते हो। लेकिन कल भी तुम वैसे ही बने रहोगे और कल भी तुम किसी भविष्य की आशा करोगे। और इस तरह तुम अनंत काल तक जा सकते हो और चूके जा सकते हो। कल पर टालना बंद करो। और कौन जाने, भविष्य तुम्हारे लिए क्या प्रकट करने जा रहा है? इस बारे में जानने का कोई उपाय है ही नहीं। यह तो शुरुआत है और सभी विकल्प खुले हुए हैं। वास्तव में क्या घटने जा रहा है, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता। लोगों ने बहुत कोशिश करके देख ली।

इसी वजह से लोग ज्योतिषियों के पास अथवा ‘ आई चिंग ‘ के पास जाते हैं और दूसरी तरह के उपाय करते हैं। ‘ आई चिंग ‘ लोगों को सम्मोहित किए चले जाता है, और ज्योतिषी लोगों को प्रभावित किए चले जाते हैं। लोगों को ज्योतिष में अभी भी एक महान शक्ति दिखाई देती है। आखिर क्यों ?—क्योंकि लोग जिस चीज से चूक रहे हैं, वे भविष्य के लिए उसकी आशा कर रहे हैं। वे कुछ संकेत जानना चाहते हैं कि आगे क्या होने जा रहा है, जिससे वे उस तरह से प्रबंध कर सकें। ये चीजें बनी ही रहेंगी, भले ही वैज्ञानिकता ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि सभी कुछ व्यर्थ है। यह चीजें बनी ही रहेंगी, क्योंकि यह प्रश्न विज्ञान का न होकर मनुष्य की आशा का है।

जब तक आशा नहीं छोडी जाती, ‘ आई चिंग ‘ भी नहीं मिट सकता। मनुष्य के मन पर इस बड़ी शक्ति का प्रभाव हो ही, क्योंकि तुम आशा की डोरी से बंधे हुए हो। तुम भविष्य के बारे में छोटे—छोटे संकेत जानना चाहते हो, जिससे तुम आश्वस्त होकर आगे बढ़ सको, तुम अधिक विश्वास से प्रक्षेपण कर सको, और तुम बहुत सी चीजों को टाल सको।

यदि तुम आने वाले कल के बारे में कुछ बातें जान लो, तो मेरा खयाल है कि तुम आज भी जी न सकोगे। तुम कहोगे— ‘‘ इसकी आवश्यकता क्या है? हम कल जी लेंगे।‘‘ यहां तक कि कल के बारे में बिना कोई भी बात जाने हुए भी तुम वही कर रहे हो। कल कभी नहीं आता… और जब वह आता है, वह हमेशा आज ही होता है। और तुम यह जानते ही कि आज कैसे जिया जाए?

इसलिए तुम एक बड़े जाल में फंसे हुये हो। इस पूरे ढांचे को ही ध्वस्त कर दो। आशा ही मनुष्य का बंधन है, आशा ही ‘ समसार ‘ है और आशा ही संसार है। एक बार जब तुम आशा छोड़ देते हो, तुम एक संन्यासी बन जाते हो, तब तुम्हें फिर कहीं भी नहीं जाना है।

मैंने सुना है……

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन बहुत ही गहरी ध्यान ही मुद्रा में अपने कुत्ते के

निकट बैठा हुआ, एकल नाटक में अभिनय करते हुए कह रहा था— ‘‘ तुम केवल एक कुत्ते हो, लेकिन मैं चाहता हूं कि काश! मैं तुम्हारे जैसा ही होता। जब तुम सोने के लिए जाते हो तो बस तीन बार चारों ओर घूमते हो और लेट जाते हो। जब मैं बिस्तरे पर सोने जाता हूं तो उससे पहले मुझे सारे दिन किए काम को समेटना होता है, बिल्ली को कमरे से बाहर निकालना होता है, और कपड़े उतारने होते हैं और तभी मेरी पत्नी की आख खुल जाती है और वह बड़बड़ाने लगती है, और तभी बेबी जाग जाता है और रोने लगता है, और मुझे उसे गोद में लेकर घर में घूम—घूम कर उसे बहलाना होता है और तभी मैं बिस्तरे पर सोने जा सकता हूं जिससे सुबह ठीक समय पर मैं फिर उठ सकूं। जब तुम सोकर उठते हो, तो तुम अपने अंगों को फैलाकर अंगड़ाई लेते हो, अपनी गर्दन को थोड़ा सा हिलाते—डुलाते हो और जाग जाते हो। मुझे उठते ही आग जलानी होती है, उस पर केतली रखकर चाय बनानी होती है, पत्नी के साथ थोड़ी नोंक—झोंक के बाद मुझे स्वयं नाश्ता तैयार करना होता है। तुम सारे दिन बड़े मजे मारते मस्ती से लेटे रहते :हो और मुझे सारा दिन काम करते हुए ढेर सारी मुसीबतों का सामना करना होता है। जब तुम मर जाओगे, तो बस हमेशा के लिए मर जाओगे और जब मैं मरूंगा तो मुझे फिर कहीं और जाना होगा।‘‘

 

इस— ‘‘फिर कहीं और ‘ को ही नर्क कहकर पुकारो, या स्वर्ग कहकर, लेकिन ‘ कुछ कहीं ‘ है, और परमात्मा है—यहीं, और तुम हमेशा कहीं न कहीं जा ही रहे हो।

परमात्मा तुम्हारे चारों ओर है, और तुम हमेशा उससे चूक रहे हो, क्योंकि तुम वर्तमान से चूक रहे हो। परमात्मा के पास केवल एक ही काल है— और वह है वर्तमान उसके लिए भूतकाल और भविष्यकाल का अस्तित्व ही नहीं है। मनुष्य, वर्तमान में न रहकर, भूतकाल या भविष्य में रहता है, परमात्मा, भूत और भविष्य में न होकर वर्तमान में रहता है। इसलिए दोनों का मिलन कैसे हो? हम भिन्न आयामों में जी रहे हैं, या तो परमात्मा, भूत और भविष्य में रहना शुरू कर दे तब यह मुलाकात हो जाती है, लेकिन तब वह परमात्मा न रहेगा, वह ठीक तुम्हारे जैसा एक सामान्य मनुष्य होगा: अथवा तुम वर्तमान में जीना शुरू कर दो—तभी होगा मिलन। लेकिन तब तुम एक साधारण मनुष्य नहीं रह जाओगे, तुम दिव्य बन जाओगे। केवल दिव्य का ही दिव्य के साथ मिलन हो सकता है, केवल समान ही समान के साथ मिल सकता है।

आशा छोड़ दो।

आशा के ही कारण तुम परमात्मा से चूके जा रहे हो। और समस्या है—यही दुष्‍चक्र: जितने अधिक तुम परमात्मा से चूकते हो, तुम उतनी ही अधिक आशा करते हो: जितना अधिक तुम आशा करते हो, अधिक चूक जाते हो। एक बार गहरे में तुम आशा को, उसके ढांचे और अपने पर उसकी पकड़ को समझ और देख लो, तो उसी समझ और दृष्टि से आशा अपने आप गिर जाएगी। अचानक तुम यहीं और अभी होगे, और देखोगे, जैसे मानो तुम्हारी आंखों के आगे पड़ा पर्दा हट गया, तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों के आगे पड़ा आवरण हट गया। तुम अत्यधिक ताजे और युवा बन जाओगे और देखोगे कि तुम चारों ओर पूरी तरह से एक आलोकित और नूतन संसार में हो। वृक्ष हरे होंगे लेकिन एक अलग तरह की अत्यधिक गहरी हरियाली होगी और उस हरेपन में एक आलोक, एक प्रकाश और एक दीप्ति होगी। यहां तुम्हारी आंखें ही हैं, जो केवल धूल से ढकी हैं, जो अपने चारो ओर हर कहीं तितली के पंखों के विविध रंग नहीं देख सकतीं।

आशा को त्याग दो।

लेकिन मैं जब भी किसी व्यक्ति से आशा त्यागने को कहता हूं तो वह सोचता है कि मैं उसे निराश बनने के लिए कह रहा हूं। नहीं, मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं। जब तुम आशा का त्याग कर देते हो तो वहां निराश बनने की कोई सम्भावना ही नहीं रह जाती, क्योंकि केवल आशा के ही कारण निराशा का अस्तित्व है। तुम आशा करते हो, और वह पूरी नहीं होती, तभी निराशा जन्मती है। तुम आशा करते हो और तुम बार—बार आशा किए जाते हो, लेकिन परिणाम कुछ निकलता नहीं, तभी निराशा का जन्म होता है। निराशा है एक निष्फल आशा।

जिस क्षण तुम आशा छोड़ देते हो, निराशा भी गिर जाती है। तुम केवल बिना आशा और बिना निराशा के होते हो। और यही सबसे अधिक सुंदर क्षण है, जो एक मनुष्य को घट सकता है, क्योंकि इसी क्षण वह व्यक्ति परमात्मा के राज्य में प्रवेश करता है।

 

चौथा प्रश्न:

आपके सभी कुछ बताने के बावजूद भी मैं अभी भी ध्यान के मार्ग और प्रेम के मार्ग के मध्‍य किसी एक का चुनाव नहीं करना चाहता! मेरा हृदय इस संसार को बहुत अधिक प्रेम करता है? और कहना चाहिए कि यही मेरे लिए पर्याप्त है? और मेरा मन समर्पण को दीन हीन मानकर उसका उपहास करता है! गुरुजिएफ एक चौथे मार्ग की बात करता है? जिसमें शरीर? हृदय और मन सभी एक साथ संलग्र होते हैं? क्या इस मार्ग का अनुसरण करने की कोई सम्भावना नहीं है?

पनी चालबाजी के प्रति सजग हो जाओ। तुम यहां समर्पण नहीं कर सकते और तुम सोचते हो कि तुम गुरुजिएफ के प्रति समर्पण करने में समर्थ हो सकोगे? समस्या मेरे या गुरुजिएफ के साथ नहीं है, तुम्हारी समस्या है मेरे साथ, कि तुम समर्पण नहीं कर सकते। और गुरुजिएफ बहुत सख्त, दोषों को क्षमा न करने वाला कठोर सद्गुरु था, बोधिधर्म के बाद जितने भी अभी तक खतरनाक सद्गुरु हुए हैं, वह उनमें से एक था। समस्या तुम्हारे साथ ही है। देखने की जरूरी बात यह है— जब मैं प्रेम पर चर्चा करता हूं तो लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं— ‘‘ यह हमारे लिए कठिन है, क्या हम ध्यान नहीं कर सकते? और यदि मैं उनसे ध्यान करने के लिए कहता हूं तो वे कहते हैं— ‘‘ यह तो इतना अधिक कठिन है। क्या वहां कोई और दूसरा मार्ग नहीं है? वे टालना चाहते हैं।

अब तुम पूछ रहे हो—क्या हम गुरुजियेफ का अनुसरण नहीं कर सकते? मैं एक बात पूछ रहा हूं तुमसे: ‘‘ क्या तुम अनुसरण करने को तैयार हो? अनुसरण करना कठिन है। अनुसरण करने का अर्थ है—समर्पण करना। अनुसरण करने का अर्थ होता है कि अब तुमने मन और बुद्धि उठाकर एक ओर रख दी। गुरुजिएफ तो अभी एक बहाना है, इसलिए अपने अंदर तुम यह सोच सकते हो, ‘‘ यदि मैं इस व्यक्ति के प्रति समर्पित नहीं हूं तो कम से कम मैं गुरुजिएफ के प्रति तो समर्पण करने को तैयार हूं।‘‘ लेकिन तुम गुरुजिएफ को खोजने कहां जा रहे हो? और यदि तुम कभी उसके सामने पड़ भी गए तो तुम दूसरे सद्गुरुओं के बारे में सोचना शुरू कर दोगे, क्योंकि वहां बहुत सी अन्य सम्भावनाएं भी हैं। तुम यही प्रश्न गुरुजिएफ से भी पूछोगे… कि मेरे लिए आपको समर्पण करना तो कठिन है, और शरीर मन और आत्मा तीनों पर एक साथ कार्य करना बहुत कठिन है—क्योंकि अलग से इनमें से एक पर ही कार्य करना कठिन है। तीनों चीजों पर एक साथ कार्य करना और भी अधिक जटिल और श्रमपूर्ण होने जा रहा है। इसलिए तब तुम कह सकते हो—क्या मैं बाउलों के पथ का अनुसरण नहीं कर सकता?

इसी तरह से तुम अपने अनेक जन्मों में यात्रा करते रहे हो। स्मरण रहे, तुम इस पृथ्वी पर नये नहीं हो। और स्मरण रहे, तुम कई सद्गुरुओं के साथ रहे हो— अन्यथा तुम यहां होते ही नहीं। तुम पूरी तरह भूल गए हो, लेकिन तुम कई बार चूके हो। यह कोई पहला अवसर नहीं है कि तुम चूके जा रहे हो। हो सकता है तुम बुद्ध के साथ भी उनके पथ पर चले हो जीसस के भी साथ चले हो सकते हो। यहां ऐसे लोग हैं, जिन्हें मैं जानता हूं कि निश्चिय ही वे जीसस के साथ चले हैं, लेकिन वे उन्हें चूक गए। यहां ऐसे भी लोग हैं जो बुद्ध के साथ चले हैं, और चूक गए।

लेकिन खोज जारी रहती है।

जब भी कोई व्यक्ति मुझसे संन्यास लेना चाहता है तो पहली चीज, जो मैं खोजने का प्रयास करता हूं कि वह व्यक्ति नया है अथवा पुराना पापी है। अब तक मैं ऐसे किसी व्यक्ति के सम्पर्क में नहीं आया, जिसने धर्म में पहली बार ही दिलचस्पी ली हो और ताजा व नया हो। नहीं, वह व्यक्ति कई सद्गुरुओं के साथ रहता हुआ कई मार्गों पर यात्रा कर चुका है, पर कहीं भी वह समग्र रूप से कभी रहा ही नहीं। अब तुम भी इस अवसर से चूक सकते हो।

 

मैंने सुना है— एक युगल ने अपनी साठ से उनहत्तर वर्ष की आयु में अपने विवाहित जीवन के पैंतालीस वर्ष, जो जितना कलह और संघर्ष से भरे थे, उतने ही प्रेम से भी भरे हुए थे, किसी तरह आखिर गुजार ही दिए। जब पति अपने पैंसठवें जन्मदिवस के दिन आफिस के घर लौटा तो उसकी पत्नी ने उसे दो सुंदर टाई उपहार में दीं। वह इतना अधिक भावुक हो उठा कि उसकी पत्नी को रात्रि भोजन घर पर न पका कर, शीघ्र ही नहा धोकर और कपड़े बदलकर उसे रात्रि भोजन के लिए कहीं बाहर चलने को कहा। वे कोमलता से भरे प्रेम के दुर्लभ क्षण थे। कुछ मिनटों के बाद जब पति कपडे बदल कर सुहानी शाम नगर के किसी होटल में गुजारने के लिए सीढ़ियां उतर कर नीचे आया तो वह उपहार में मिली टाइयों में से एक टाई पहने हुए था। उसकी पत्नी ने अपनी हुक्म देने वाली अपनी तार्किक शक्ति और आदत के वशीभूत होकर एक क्षण के लिए उसे घूरते और गुर्राते हुए कहा— ‘‘ आखिर बात क्या है, क्या दूसरी टाई अच्छी नहीं है?‘‘

 

लेकिन अब एक व्यक्ति एक बार में एक टाई ही तो पहन सकता है: ‘‘आखिर बात क्या है, क्या दूसरी टाई अच्छी नहीं है?‘‘

यदि तुम केवल तर्क—वितर्क ही करना चाहते हो, तब तुम गुरुजिएफ का अनुसरण कर सकते हो। लेकिन अभी जो अवसर तुम्हें उपलब्ध है, उस अवसर को यह केवल टालना भर होगा। आखिर कुछ तो करो। यदि तुम गुरुजिएफ का अनुसरण करना चाहते हो, तो गुरुजिएफ का ही अनुसरण करो, लेकिन कृपया अनुसरण तो करो। तुम स्वयं अपने ही साथ चालबाजी के खेल मत खेलो। एक व्यक्ति बहुत चालाक हो सकता है, एक व्यक्ति स्वयं अपने को ही धोखा दे सकता है। यह कोई बहुत अधिक खतरनाक बात नहीं है। जब तुम दूसरों को धोखा देते हो, क्योंकि देर—सबेर वे लोग जान ही लेंगे कि तुम उन्हें धोखा दे रहे हो। यह बहुत देर तक नहीं चल सकता। लेकिन जब तुम स्वयं को ही धोखा दे रहे हो, तो यह बहुत कठिन बात है। इसे खोजने आखिर कौन जा रहा है? तुम यहां अकेले ही हो, और यदि तुम ही धोखा दे रहे हो

मैंने सुना है कि एक व्यक्ति रेलगाड़ी से यात्रा कर रहा था। वह स्वयं अकेले ही ताश खेल रहा था। उसी डिब्बे में बैठा एक दूसरा व्यक्ति उसे खेलोग देख रहा था और तभी उसने सजग होकर देखा कि वह व्यक्ति स्वयं अपने आप को ही धोखा दे रहा था। वह खेलने वाला अकेला था और वह दूसरा व्यक्ति सजगता से देख रहा था कि वह स्वयं ही को धोखा दे रहा था।

आखिर उसने टोकते हुए कहा— आखिर यह मामला क्या है? आप यह कर क्या रहे हैं? क्या आप नहीं समझते कि आप स्वयं अपने को ही धोखा दिए चले जा रहे हैं?

उस व्यक्ति ने उत्तर दिया—मैं ऐसा ही अपने पूरे जीवन भर करता रहा हूं। ‘ दूसरे व्यक्ति ने पूछा— ‘‘क्या आप स्वयं अपने आपको धोखा देते नहीं पकड़ सकते?‘‘

उसने उत्तर दिया— ‘‘ मैं बहुत अधिक चालाक हूं।‘‘

 

चालाकी करना एक बहुत बड़ा विरोध बन सकता है, क्योंकि चालाकी करना, बुद्धिमानी या प्रज्ञा नहीं है। बेईमानी के लिए चालाकी एक अच्छा नाम है। इसके प्रति सजग बनो।

यदि तुम गुरुजिएफ के पथ का ही मुनसरण करना चाहते हो, तो जरूर करो अनुसरण, यह पूरी तरह ठीक है, वह मार्ग पूर्ण रूप से ठीक है।

लेकिन तब तुम यहां अपना समय व्यर्थ नष्ट कर रहे हो? उसी मार्ग का अनुसरण करो। फिर तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? लेकिन यदि तुम यहां हो, तब गुरुजिएफ और अन्य हर चीज को भूल जाओ। यदि तुम यहां मेरे साथ बने रहना चाहते हो, तब मेरे साथ यहीं बने रहो, जिससे कुछ चीज वास्तव में घटे।

लेकिन यह एक सामान्य बात है, इसमें असाधारणता कुछ भी नहीं: लोग अपने सद्गुरुओं को बदलोग रहते हैं, वे एक स्थान से दूसरे स्थान जाते रहते हैं। वे जब यह महसूस करने लगते हैं कि वे काफी अधिक बढ़ चुके हैं और वे उसके प्रति प्रतिबद्ध होकर किसी उलझन में पड़ सकते हैं, तो वे उसे बदल देते हैं। वे कहीं और फिर से यही खेल खेलना शुरू कर देते हैं। जब वे वहां भी यह अनुभव करते हैं कि वह क्षण आ पहुचा है और उन्हें कुछ चीज करनी ही होगी—वे फिर स्थान बदल देते

यह एक विवाह सम्बंध है मेरे सान्निध्य में रहने का अर्थ ही मेरे साथ विवाह करने जैसा है। लोग मेरे साथ उसी बिंदु तक ठहरते हैं, जहां तक प्रेम सम्बंध जारी रहता है। एक बार जब प्रतिबद्ध होने की, उसमें डूबने की समस्या आती है, वे भयभीत हो उठते हैं। तब वे किसी दूसरे मार्ग के बारे में विचार करना शुरू कर देते हैं। फिर उन्हें कोई भी मार्ग चलेगा—क्योंकि वास्तव में यह प्रश्न मार्ग का है ही नहीं। यह प्रश्न है समर्पण का। किसी भी मार्ग के प्रति समर्पण करो, सत्य तुम्हें घटेगा ही—क्योंकि वह किसी मार्ग के कारण नहीं घटता, वह घटता है केवल समर्पण के कारण।

 

कुछ वर्ष पहले एक राजनीतिक नेता को एक किसान अपने इक्के पर गांव ले जा रहा था। तभी एक उड़ता हुआ पतंगा, इक्के के घोड़े के सिर के चारों ओर और कुछ देर बाद उन नेता के सिर के चारों ओर चक्कर लगाने लगा।

उस राजनेता ने किसान से पूछा— ‘‘ चचा! यह किस तरह का पतंगा है?‘‘ बूढ़े किसान ने उत्तर दिया— ‘‘ यह घुड़मक्सी है।‘‘

‘‘ घुड़मक्सी? वह क्या होती है?‘‘

‘‘ सिर्फ यह एक ऐसी मक्खी है, जो घोड़े, खच्चरों और गधों के सिरों के ऊपर ही मंडराती रहती हैं। चूंकि वह मक्खी अभी भी नेताजी के सिर पर मंडरा रही थी इसलिए उन्हें थोड़े से परिहास करने का अवसर दिखाई दिया और उन्होंने कहा— ‘‘ कहीं तुम्हारे कहने का यह मतलब तो नहीं कि मैं एक घोड़ा हूं?‘‘

‘‘नहीं। आप निश्चित रूप से एक घोड़े नहीं है ‘‘

ठीक है, फिर तुम्हारे कहने का क्या यह अर्थ है कि मैं एक खच्चर हूं? किसान ने कुछ उत्तेजित होकर कहा— ‘‘ आप खच्चर कैसे हो सकते है?‘‘ तब उस राजनेता ने आग्रहपूर्वक पूछते हुए कहा— ‘‘ अब चचा! जरा मेरी ओर देखकर बताइये, क्या मैं आपको एक गधा दिखाई देता हूं? निश्चित रूप से आपके कहने का यह अर्थ हरगिज नहीं हो सकता कि आप मुझे गधा कहें।‘‘ ‘‘नहीं श्रीमान्! मैं आपको गधा कैसे कह सकता हूं और आप मुझे गधे जैसे दिखाई भी नहीं देते। लेकिन आप जरा समझिए आप उस घुडमक्सी को तो बेवकूफ नहीं बना सकते।‘‘

 

बहुत चालाक मत बनो और न चालाकी दिखाओ, क्योंकि तुम परमात्मा अथवा अस्तित्व को मूर्ख नहीं बना सकते। तुम केवल स्वयं को ही मूर्ख बना सकते हो। अंतिम विश्लेषण में तुम अपने सिवा किसी भी अन्य व्यक्ति को मूर्ख नहीं बना सकते। इसलिए अपने उठाये प्रत्येक कदम का, जो तुम्हारा मन उठाता है, निरीक्षण करो। मैं यह नहीं कर रहा हूं कि मेरा अनुसरण करो। मैं कह रहा हूं— अनुसरण करो। कहीं भी जहां कहीं भी तुम्हारा हृदय तुम्हें ले जाए जहां भी तुम अपने और सद्गुरु के मध्य एक विशिष्ट लयबद्धता का अनुभव करो, वहीं जाओ, और उन्हीं का अनुसरण करो। लेकिन अनुसरण करो। केवल विचार करने से ही कोई सहायता नहीं मिलने वाली।

तुम इस अस्तित्व को मूर्ख नहीं बना सकते।

 

पांचवां प्रश्न—

आश्रम के बाहर रहना कभी—कभी मेरे लिए बहुत कठिन हो जाता है? क्योंकि मैं देखता हूं कितने कठोर लोग है वहा जो एक दूसरे को कुचलते हुए चलते हैं इससे मुझे बहुत चोट पहुंचती है? जब कभी शारीरिक पीड़ा भी होती है और मैं अपने को एक छोटे बच्चे की भाति पाता हूं जिस पर सरलता से आघात किया जाता सकता है।

मैं इस स्थिति में कैसे क्या करूं? मुझे बताने करई कृपा करें।

 

स संसार में सदा से ही समस्याएं रही हैं, और यह संसार भी हमेशा से ऐसा ही रहा है और यह संसार ऐसा रहेगा भी। यदि तुम बाहर काम करना शुरू करो, तो परिस्थितियों को बदलने, लोगों को बदलने, एक काल्पनिक आदर्श संसार के बारे में सरकार को बदलने, आर्थिक राजनीतिक और शिक्षा जगत के ढांचे को बदलने का विचार करते हुए ही, तुम खो जाओगे। यह एक जाल है, जिसे राजनीति कहते हैं। इसी तरह बहुत से लोग अपना जीवन बरबाद कर देते हैं। इसके बारे में बहुत स्पष्ट रूप से यह समझ लो: ठीक अभी तुम ही वह व्यक्ति हो, जो अपनी सहायता स्वयं कर सकते हो। अभी तो तुम किसी भी व्यक्ति की कोई सहायता नहीं कर सकते। इससे केवल एक आंतरिक संघर्ष ही हो सकता है, जो कवल मन की ही एक चाल है। तुम अपनी ही समस्याओं को समझो, तुम अपने ही मन और उसकी व्यग्रता को समझो और पहले इसे ही बदलने की कोशिश करो।

ऐसा बहुत से लोगों के साथ होता है: जिस क्षण वे किसी भी तरह के धर्म, ध्यान और प्रार्थना की ओर रुचि लेने लगते हैं, तुरंत ही मन उनसे कहता है— ‘‘तुम यहां चुपचाप बैठे आखिर क्या कर रहे हो, संसार को तुम्हारी जरूरत है, वहां बहुत से गरीब लोग हैं, वहां बहुत संघर्ष, हिंसा और आक्रमण है। तुम मंदिर में प्रार्थना करते हुए आखिर क्या कर रहे हो? जाओ और लोगों की सहायता करो।‘‘ तुम उन लोगों की कैसे सहायता कर सकते हो, क्योंकि तुम भी ठीक उन्हीं जैसे हो। तुम उनके लिए और अधिक समस्याएं ही सृजित कर सकते हो, लेकिन उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते। इसी तरह से सभी क्रांतियां हमेशा असफल हो गईं। कोई भी क्रांति अभी तक सफल नहीं हुई, क्योंकि क्रांतिकारी भी उसी नाव में सवार थे। एक धार्मिक व्यक्ति वह है, जो इस बात को समझता है—मैं बहुत बौना हूं मैं बहुत सीमित हूं। इस सीमित ऊर्जा से यदि मैं स्वयं को ही बदल सकता हूं तो वह एक चमत्कार होगा।‘‘

और यदि तुम स्वयं को ही बदल सकते हो, यदि तुम पूरी तरह से एक भिन्न अस्तित्व हो जाओ, तो तुम्हारी आंखों में एक नये जीवन की दीप्ति होगी और तुम्हारे हृदय की धड़कनों में एक नया गीत गज रहा होगा, तब तुम दूसरे लोगों के लिए भी सहायक हो सकते हो, क्योंकि तब तुम्हारे पास कुछ चीज ऐसी होगी जिसे तुम बांट सकोगे।

ठीक दूसरे दिन शिवा ने मुझे बाशो के जीवन का एक सुंदर प्रसंग भेजा। बाशो जापान की हाइकू कविताओं का महान कवि है, वह हाइकू कविताओं का कुशल कारीगर है। लेकिन वह केवल एक कवि ही नहीं है। कवि बनने से पूर्व वह एक रहस्यदर्शी था, इससे पहले कि वह सुंदर कविताओं में माधुर्य बरसाना शुरू करता, वह स्वयं अपने ही केंद्र पर गहरे में रस—वर्षा से भीग उठा। वह एक ध्यानी था। यह कहा जाता है कि जब वह एक युवा था, तभी वह एक यात्रा में प्रविष्ट हुआ। यह यात्रा स्वयं को खोजने का प्रयास था। कुछ समय बाद जंगल में उसे एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी—हो सकता है। उस समय वह एक वृक्ष के नीचे ध्यान में था या ध्यान करने का प्रयास कर रहा था, कि तभी उसने जंगल में एक छोटे बच्चे के रोने की अकेली आवाज सुनी। तब उसने अपना सामान उठाया, और बच्चे को उसके अपने भाग्य पर छोड्कर अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया।

अपनी डायरी में उसने लिखा: ‘‘ पहले एक व्यक्ति को वह सब कुछ करना चाहिए जिसकी उसे स्वयं के लिए आवश्यकता है, तभी वह व्यक्ति दूसरों के लिए कुछ कर सकता है।‘‘

यह बहुत कठोर दिखाई देता है एक बच्चा जंगल में अकेला रो रहा है और यह व्यक्ति इस बात पर ध्यान कर रहा है कि वह उसके लिए कुछ करे अथवा नहीं।, क्या वह उस बच्चे की कुछ सहायता कर सकता है, क्या सहायता करना ठीक होगा अथवा नहीं। एक असहाय अकेला बच्चा भयानक जंगल में मर सकता है— और बाशो इस पर ध्यान करता है और अंत में निर्णय लेता है कि वह किसी और की सहायता कैसे कर सकता है, जब कि उसने अभी तक स्वयं की ही सहायता नहीं की है। वह स्वयं अभी निर्जन जंगल में भटक रहा है और स्वयं अपने आप में एक छोटे बच्चे की तरह अकेला है। फिर वह कैसे किसी अन्य दूसरे की सहायता कर सकता है?

यह घटना बहुत कठोर दिखाई देती है, लेकिन है बहुत अर्थपूर्ण है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जंगल में यदि तुम्हें कोई रोता और चीखता हुआ बच्चा मिले तो उसकी सहायता मत करो। लेकिन इसे समझने का प्रयास करे: अभी तुम्हारा स्वयं का दिया नहीं जला है और तुमने दूसरे की सहायता करनी शुरू कर दी। तुम्हारा आंतरिक अस्तित्व अभी तक पूर्ण अंधकार में है और तुमने दूसरों की सहायता करना प्रारम्भ कर दिया।

तुम स्वयं अभी तक दुख झेल रहे हो और तुम लोगों के सेवक बन गये। तुम अभी तक आंतरिक क्रांति के द्वारा स्वयं ही नहीं गुजरे हो और तुम एक क्रांतिकारी बन गए। यह विचार ही निरर्थक और व्यर्थ है, लेकिन यह प्रत्येक व्यक्ति के मन में उठता जरूर है। दूसरों को सहायता करना इतना अधिक सरल दिखाई देता है। वास्तव में जिन लोगों को स्वयं अपने आपको बदलने की जरूरत है, वे ही लोग हमेशा दूसरों को बदलने में दिलचस्पी लेते हैं। यह एक व्यवसाय बन जाता है जिसमें व्यस्त होकर वे स्वयं को भूल सकते हैं।

यह जो कुछ भी है, मैंने इसका निरीक्षण किया है। मैंने ऐसे बहुत से समाज सेवकों को देखा है, सर्वोदयी लोगों को देखा है, और मैंने इनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा कभी भी नहीं देखा जिसके पास किसी की भी सहायता करने के लिए कोई अंतर्प्रकाश हो। लेकिन वे प्रत्येक व्यक्ति की सहायता करने का कठोर प्रयास कर रहे हैं। वे समाज को बदलने के लिए उसके पीछे पागलों की तरह लगे हुए हैं और वे सभी लोगों और उनके मन को बदलना चाहते हैं, लेकिन वे पूरी तरह यह भूल ही गए है कि उन्होंने ऐसा अभी स्वयं अपने लिए ही नहीं किया है। लेकिन लोग व्यस्त बने रहते हैं।

एक बार एक पुराने क्रांतिकारी और समाजसेवी मेरे साथ ठहरे हुए थे। मैंने उनसे पूछा— ‘‘ आप अपने कार्य में पूरी तरह खो चुके हैं। क्या कभी आपने इस बात पर विचार किया है कि जो कुछ आप वास्तव में चाहते हैं, यदि वैसा ही किसी चमत्कार से रातों रात हो जाए तो अगली सुबह से फिर आप क्या करेंगे?

वह हंसे—पर वह हंसी पूरी तरह खोखली हंसी थी—लेकिन तब वे थोड़ा उदास हो गए। उन्होंने कहा— ‘‘यदि यह सम्भव हो जाये, तब मेरे करने के लिए फिर कुछ होगा ही नहीं। यदि यह संसार ठीक वैसा ही हो जाए जैसा कि मैं चाहता हूं तब मेरे करने के लिए फिर कुछ होगा ही नहीं। मुझे आघात सा लगेगा और मैं वैसी दशा में आत्महत्या भी कर सकता हूं।‘‘

ये सभी इसी में व्यस्त हो गए हैं, यही विचार निरंतर उनके मन में घूमते रहते हैं। और उन्होंने एक ऐसे हठ को चुना है जो कभी भी पूरा नहीं हो सकता। इसलिए जन्मों—जन्मों तक तुम दूसरों को बदलने के काम में व्यस्त बने रह सकते हो। पर ऐसा करने वाले तुम होते कौन हो?

 

 

यह भी एक तरह का अहंकार है: कि दूसरे लोग आपस ही में एक दूसरे के प्रति बहुत कठोर हैं और वे एक दूसरे को कुचलते हुए आगे बढ़ रहे हैं। केवल यह विचार मात्र कि दूसरे लोग निर्दय और कठोर हैं। तुम्हें यह महसूस कराता है कि तुम बहुत कोमल हो। नहीं, तुम ऐसे नहीं हो। यह तुम्हारी एक तरह की महत्त्वाकांक्षा ही है: लोगों की सहायता करना, उदार और कोमल बनकर सहायता करना, जिससे उनकी सहायता कर तुम और अधिक दयालु और करुणावान बन सको।

 

खलील जिब्रान ने एक छोटी सी कहानी लिखी है वहां एक कुत्ता था। उसे देखकर कोई भी व्यक्ति उसे एक महान क्रांतिकारी कह सकता था। वह शहर भर के कुत्तों को हमेशा यही शिक्षा दिया करता था— ‘‘ केवल व्यर्थ ही भौंकते रहने के कारण ही हम लोग विकसित नहीं हो पा रहे हैं। तुम लोग अपनी ऊर्जा भौंकने में व्यर्थ बरबाद कर रहे हो।‘‘

एक डाकिया गुजरता है और अचानक एक पुलिस वाला या एक संन्यासी सामने से निकला नहीं कि कुत्ते किसी भी तरह की वर्दी के विरुद्ध हैं, किसी भी व्यक्ति के ऊपर से नीचे तक एक ही तरह के कपड़े हों, और चूंकि वे क्रांतिकारी हैं, फौरन वे भौंकना शुरू कर देते हैं।

वह नेता सभी से कहा करता था— ‘‘बंद करो भौंकना। अपनी ऊर्जा व्यर्थ नष्ट मत करो, क्योंकि यही ऊर्जा किसी उपयोगी सृजनात्मक कार्य में लगाई जा सकती है। कुत्ते पूरी दुनिया पर शासन कर सकते हैं, लेकिन तुम लोग व्यर्थ ही अकारण अपनी ऊर्जा भौंकने में नष्ट कर रहे हो। इस आदत को छोड़ना होगा। केवल यही तुम्हारा पाप और अपराध है, यही मूल पाप है।‘‘

सभी कुत्तों को यह सुनकर हमेशा यह अहसास होता था कि वह बिलकुल ठीक और तर्कपूर्ण बात कह रहा था ‘तुम लोग आखिर क्यों भौंकते चले जाते हो? और ऊर्जा भी व्यर्थ नष्ट होती है, कोई भी कुत्ता भौंक— भौंक कर थक जाता है। दूसरी ही सुबह वह फिर भौंकना शुरू कर देता है और फिर रात होने पर ही वह थकता है। आखिर इस सभी की क्या तुक है?

वे सभी अपने नेता की कही बात को समझ सकते थे, लेकिन वे यह भी जानते थे कि वे लोग बस कुत्ते भर हैं, बेचारे विवश कुत्ते। आदर्श बहुत महान था और उनका नेता वास्तव में एक ज्ञानी था, क्योंकि वह जिस बात का उपदेश दे रहा था, वह वैसा कर भी रहा था। वह कभी भी भौंकता नहीं था। तुम उसका चरित्र भली भांति देख सकते हो, उसने जिस बात का उपदेश दिया, स्वयं उसी के अनुरूप चला भी।

लेकिन धीमे— धीमे निरंतर उससे उपदेश सुनते सुनते वे लोग आखिर थक गए। एक दिन उन्होंने तय किया—वह उनके नेता का जन्मदिवस था और उन्होंने यह निर्णय लिया कि कम से कम आज की रात, अपने नेता की बात का सम्मान रखते हुए वे रात भर भौंकेगे नहीं और यही उनका नेता के लिए उपहार होगा। इसकी अपेक्षा वे किसी और बात से इतने अधिक खुश न हो सकते थे। उस रात सभी कुत्तों ने भौंकना बंद कर दिया। यह बहुत कठिन और श्रमपूर्ण था। यह ठीक उसी तरह था, जैसे तुम ध्यान कर रहे हो तो विचारों को रोकना कितना कठिन हो जाता है। उन सभी के लिए वैसी ही समस्या थी वह। उन्होंने भौंकना बंद कर दिया, जब कि वे हमेशा भौंका ही करते थे। और वे लोग कोई महान संत नहीं थे, बल्कि मामूली कुत्ते थे। लेकिन उन्होंने कठिन प्रयास किया। यह बहुत श्रमपूर्ण था। वे सभी आंखें बंद किए अपनी— अपनी जगह छिपे हुए थे। आंखें बंद कर दांत भींचे हुए वे खामोश बैठे थे, न वे कुछ देख सकते थे और न कुछ सुन सकते थे। वजह एक महान अनुशासन का पालन कर रहे थे।

उनका नेता पूरे शहर में चारों ओर घूमा। वह बहुत उलझन में पड़ गया। वह उपदेश किन्हें दे? अब शिक्षा किन्हें दे? आखिर यह हुआ क्या—पूरी तरह शांति व्यास है चारों ओर। तभी अचानक जब आधी रात गुजर चुकी थी, वह इतना अधिक उत्तेजित हो उठा, क्योंकि उसने कभी सोचा तक न था कि सभी कुत्ते उसकी बात सुनेंगे। वह भली भांति जानता था कि वे लोग कभी उसकी बात सुनेंगे ही नहीं क्योंकि कुत्तों के लिए भौंकना एक स्वाभाविक बात थी। उसकी मांग अप्राकृतिक और अस्वाभाविक थी, लेकिन कुत्तों ने भौंकना बंद कर दिया। उसकी पूरी नेतागीरी दांव पर लगी हुई थी। आखिर कल से वह करेगा क्या? क्योंकि वह केवल उपदेश और शिक्षा देना जानता था। उसकी पूरी शासन व्यवस्था दांव पर लगी हुई थी। और तब पहली बार उसने महसूस किया, क्योंकि वह निरंतर सुबह से लेकर रात तक उन्हें शिक्षा और उपदेश ही देता रहता था, इसी वजह से उसे कभी भी भौंकने की जरूरत महसूस नहीं होती थी। उसकी ऊर्जा उसी में इतनी अधिक लगी हुई थी, कि वह एक तरह का भौंकना ही था।

लेकिन उस रात कहीं भी, कोई भी गलती करता मिला ही नहीं। और उस उपदेशक कुत्ते में भौंकने की तीव्र लालसा शुरू हो गयी।

एक कुत्ता आखिर एक कुत्ता ही तो होता है। तब वह एक अंधेरी गली में गया और उसने भौंकना शुरू कर दिया। जब इसे दूसरे कुत्तों ने सुना तो सोचा कि किसी एक कुत्ते ने समझौते को तोड़ दिया है, तब उन्होंने कहा— ‘‘फिर हमीं लोग आखिर यह दुख क्यों सहे?‘‘ पूरे शहर ने ही जैसे भौंकना शुरू कर दिया। तभी उस नेता ने वापस लौटकर कहा— ‘‘अरे मूर्खों! तुम लोग भौंकना कब बंद करोगे? क्योंकि तुम लोगों के भौंकने से ही हम लोग केवल कुत्ते ही बनकर रह गए हैं, अन्यथा पूरे संसार पर हमारा अधिकार होता।‘‘

 

यह बात भली भांति याद रहे, कि एक समाज सेवक और एक क्रांतिकारी असम्भव की मांग कर रहे हैं—लेकिन यह बात उन्हें व्यस्त बनाए रखती है। और जब तुम दूसरी समस्याओं में व्यस्त रहते हो, तो तुम स्वयं अपनी ही समस्याओं को भूल जाते हो, यही तुम्हारी प्रवृत्ति है। पहले तुम अपनी समस्याओं को सुलझाओ, क्योंकि तुम्हारा मूल दायित्व यही है।

 

एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ने मजाक—मजाक में एक खेत खरीदा। वह हर बार खेत में हल चलवा कर उसमें खुदी तंग नालियों में बीज बिखेर देता था, तभी कांव— कांव करते काले कौओं की फौज झपट्टा मारते हुए बोये बीजों को झपट लेती थी। अंत में अपने गर्व को यों कौओं द्वारा निगला कर ध्वस्त होते देख उस मनोवैज्ञानिक ने अपने पुराने पड़ोसी मुल्ला नसरुद्दीन से कुछ करने का अनुरोध किया।

मुल्ला नसरुद्दीन डग भरता हुआ खेत में गया और वह पूरे खेत में इस तरह घूमता रहा जैसे वह बीज बो रहा हो, लेकिन वह बिना बीजों के ही बीज बोने का अभिनय कर रहा था। कौए झपट्टा मारकर नीचे उतरे, बीज न पाकर उन्होंने कांव— कांव कर संक्षिप्त विरोध व्यक्ति किया, फिर वे उड़ गए। मुल्ला नसरुद्दीन ने अगले दिन और फिर उससे अगले दिन भी बार—बार उसी प्रक्रिया को दोहराया और हर बार कौओं और चिड़ियों को भ्रमित और भूखा वापस लौटा दिया। अंत में चौथे दिन उसने खेत में बीज बो दिए एक भी कौवे ने वहां आने की फिक्र नहीं की।

जब उस मनोवैज्ञानिक ने मुल्ला को धन्यवाद देने का प्रयास किया तो मुल्ला खरखरी आवाज में बोला— ‘‘ठीक सीधा—सादा मनोविज्ञान है यह तो। क्या कभी आपने इसके बाबत सुना नहीं?‘‘

 

स्मरण रहे—यह बहुत सीधा सरल मनोविज्ञान है—दूसरों के मामलों में नाक मत धुसाओ। यदि वे कोई चीज गलत कर रहे हैं, तो यह उनके ऊपर है कि वे उसे महसूस करें। कोई दूसरा अन्य व्यक्ति उन्हें इसका अहसास नहीं करा सकता। जब तक वे स्वयं यह निर्णय नहीं लेते कि उसे महसूस करने का अन्य कोई तरीका वहां है ही नहीं, तुम व्यर्थ ही अपना मूल्यवान समय और ऊर्जा नष्ट ही करोगे। तुम्हारी पहली जिम्मेदारी यही है कि तुम स्वयं को ही बदलों। और अपना अस्तित्व ही रूपांतरित हो जाता है, तो चीजें अपने आप घटना शुरू हो जाती हैं। तुम एक दीप्तिवान प्रकाश बन जाते हो और तुम्हारे प्रकाश के द्वारा वे अपनी राह खोजना शुरू कर देते हैं। ऐसा नहीं कि तुम उनके पास जाते हो, यह भी नहीं, कि तुम उन्हें देखने और समझने को विवश करते हो। तुम्हारा प्रकाश, तुम्हारी आलोकित दीप्ति ही पर्याप्त आमंत्रण होता है: और लोग आना शुरू हो जाते हैं। प्रकाश की जिसको भी आवश्यकता होगी, वह आयेगा ही। किसी भी व्यक्ति के पीछे जाने की कोई जरूरत है ही नहीं, क्योंकि तुम्हारा जाना ही मूर्खता होगी। कोई भी व्यक्ति किसी को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध आज तक नहीं बदल सका। चीजों के घटने का यह तरीका है ही नहीं। यह एक सीधा सरल मनोविज्ञान है, क्या कभी तुमने सुना नहीं इसके बाबत? केवल तुम स्वयं के ही साथ बने रहो।

 

छठवां प्रश्न:

मैं निराश हूं! मैं चाहती हूं कि कुछ ऐसा घटे जिससे मैं अधिक से अधिक ऊर्जा प्राप्‍त कर गहरे तथाता में जा सकूं। अंत में मुझे प्राय: कुछ क्षणों को ऐसा अनुभव होता है जैसे मैं कहीं किसी चीज में गिरती ही चली जा रही हूं, यह अनुभव समुंद्र में गिरने जैसा अथवा आकाश में छाए विशाल अद्भुत और सुंदर बादलों के बीच खो जाने जैसा होता है! लेकिन यह अनुभव जितना ही प्रगाढ़ होता है? तो इसका दूसरा भाग जो उतना ही शक्तिशाली है? वह मेरे, अहंकार है? जो मुझे खामोश कर मुझे फिर से सो जाने को बाध्य करता है और कहता है— कि हर चीज काल्पनिक और गोबर जैसी है? यह विचार इतना अविश्वसनीय पर प्रबल होता है कि मुझ संकल्प शक्ति जैसी कोई चीज दिखाई ही नहीं देती।   मैं पूरी तरह शक्तिहीन होने का अनुभव करती है, जो मुझे असहायता और निराशा का अहसास कराती है और कभी—कभी मैं कुंठाग्रस्त हो जाती हूं। कृपया मेरी सहायता करें।

 

गता है, तेरे मन में कुछ गलतफहमियां हैं। यह अहंकार नहीं है जो तुझे यह संदेश देने का प्रयास कर रहा है कि तू कल्पना में विचरण कर रही है। लेकिन कल्पनाएं बहुत सुंदर होती है और तू कल्पना ही में विचरण कर रही है। तू मीठे मधुर स्वप्न देख रही है।

यह अहंकार नहीं है जो तुझे नीचे खींचता है, अहंकार वह है, जो स्वप्न देख रहा है और जो कल्पनाओं में ले जा रहा है। वह भाग जो तुझे स्वप्न से नीचे की ओर खींचना चाहता है वह तेरा होश और चेतना है। तू इस सम्बंध में भ्रमित हो रही है। चेतना सदैव तुझे वास्तविक यथार्थ मे वापस लाती है। वास्तव में अहंकार है—एक स्वप्न, यह एक झूठी मानसिक दृष्टि है। अहंकार कभी भी किसी भी व्यक्ति को कल्पनाओं में जाने .से रोकता नहीं है, क्योंकि अहंकार कल्पनाओं का पोषण करता है। अहंकार ही सबसे बड़ी कल्पना और सनक है। फिर वह कल्पनाओं में जाने से तुझे कैसे रोक सकता है? वह चाहता है कि तू स्‍वप्‍न ही देखती रहे, वह चाहता है कि तेरे स्वप्न भी दूसरे संसार के महान सपने हों।

यह अहंकार नहीं है जो तुझे इस पृथ्वी पर नीचे खींच रहा है। जो भाग तुझे वास्तविक यथार्थ संसार में नीचे खींच रहा है, वह तेरी चेतना है, लेकिन तू चेतना की निंदा कर रही है और तू अधिक से अधिक कल्पनाओं में जाना चाहती है। नहीं तू पूरी तरह गलतफहमी में पड़ गई है।

‘‘मैं अधिक से अधिक ऊर्जा का अनुभव करती हूं और चाहती हूं कि मुझे गहराई में जाकर तथाता का अनुभव घटे। अंत के कुछ क्षणों में मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं कहीं किसी चीज में नीचे गिरती जा रही हूं। यह अनुभव समुद्र में गिरने जैसा अथवा आकाश में छाए विशाल, अद्भुत और सुंदर बादलों के बीच खो जाने जैसा होता है

यह सब कुछ कहीं भी नहीं है, ये सभी तुम्हारी कल्पनाएं हैं।

‘‘लेकिन यह अनुभव जितना प्रगाढ़ होता है, तो इसका दूसरा भाग जो उतना ही शक्तिशाली है, वह मेरा अहंकार है, जो मुझे खामोश कर, फिर से सो जाने को बाध्य करता है और कहता है—कि हर चीज काल्पनिक है।‘‘

यह गोबर जैसा ही है, लेकिन यह तुम्हें कठोर और अरुचिकर लगता है।

 

मैं तुम्हें एक घटना के बाबत बताना चाहता हूं—

लंदन स्कूल की एक शिक्षिका की कक्षा में सभी धर्मों और सभी देशों के बच्चे एक साथ मिले—जुले पढ़ते थे। एक दिन उसने कक्षा में प्रश्न किया— ‘‘ अभी तक जितने भी महान मनुष्य हुए हैं, उनमें सबसे अधिक महान कौन था? और जो छात्र ठीक उत्तर देगा। उसे एक शिलिंग मिलेगा।‘‘

पहला बच्चा अमेरिकन था। उसने उत्तर दिया— ‘ जार्ज वाशिंगटन। अगला बच्चा था पेट्रिक ओ ‘ कैली और उसने उत्तर दिया—सेंट पेट्रिक ही अभी तक हुए मनुष्यों में सबसे अधिक महान था। तब बारी आई एक भारतीय बच्चे की जिसने गौतम बुद्ध का नाम लिया, और एक चीनी बच्चे ने लाओत्से को महानतम बतलाया।

तब पंक्ति में अगला बच्चा ऐबे था जिसने बिना किसी हिचक के उत्तर दिया— ‘‘जीसस।‘‘

शिक्षिका ने उसे तुरंत एक शिलिंग दिया और उससे पूछा— ‘‘ मुझे बताओ, ऐसा कैसे हुआ कि तुमने एक यहूदी होते हुए भी, जो जीसस के क्राइष्ट होने पर विश्वास नहीं करता, उन्हें अभी तक हुए महान लोगों में उनके होने का उल्लेख किया?‘‘

ऐबे ने उत्तर दिया— ‘‘ अपने हृदय की गहराई में मैं जानता हूं कि सबसे अधिक महान तो मोजेज ही थे, लेकिन व्यापार तो आखिर व्यापार है।‘‘

 

अपने हृदय की गहराई में तुम भी जानती हो कि यह सभी कल्पनाएं गोबर जैसी ही हैं। इसी वजह से तुम बार—बार इसी पृथ्वी की ओर खींच ली जाती हो। पृथ्वी पर वापस उतरो, कल्पना से कोई सहायता मिलनी वाली नहीं।

वहां एक काव्य है, यह अलग तरह का काव्य है जो वास्तविक यथार्थ से उमगता है। हां! वहां बहुत सुंदर मेघों की घटाएं हैं और वहां असीम विराट सागरों का सौंदर्य भी है, लेकिन वह अस्तित्व से तभी उत्पन्न होता है, जब तुम्हारी जड़ें पृथ्वी में हों। तब वहां वास्तविकता अर्थात् सत्य और सौंदर्य के मध्य कोई भी संघर्ष नहीं होता। वह सौंदर्य और कुछ भी नहीं होता बल्कि सत्य स्वयं अपने सम्पूर्ण सौंदर्य को अभिव्यक्त करता है। लेकिन अभी तो तुम जो कुछ भी कर रही हो, वह कल्पनाएं हैं। इसलिए इस दबाव को हटाओ और तुम अपने आग्रह को बदलो। यह अहंकार है, जो तुम्हें कल्पनाओं के आकाश में उड़ाये लिए जा रहा है, और वह तुम्हारी चेतना है जो तुम्हें नीचे पृथ्वी की ओर खींच रही है।

चेतना को अधिक से अधिक कार्य करने की अनुमति दो और सपने देखने में अधिक समय नष्ट मत करो।

 

मैंने सुना है…..

दो मछुवारे अपने पिछले दिन के अनुभव एक दूसरे को बतला रहे थे। एक ने कहा कि कल उसने तीन सौ पौंड वजन की सोलोमन मछली पकड़ी।

दूसरे ने टोकते हुए कहा— ‘‘ लेकिन कोई भी सोलोमन मछली कभी भी तीन सौ पौंड वजन की होती ही नहीं।‘‘

‘‘तो भी, जो मछली मैंने पकड़ी, वह तीन सौ पौंड वजनी ही थी। पर तुमने क्या पकड़ा?‘‘

दूसरे मुछवारे ने उत्तर दिया— ‘‘ कुछ खास नहीं। सिर्फ जंग लगा एक पुराना योग लैंप मेरे जाल में आया। लेकिन उसके पेदे पर खुदा हुआ था— ‘‘ क्रिस्टोफर कोलम्बस की सम्पत्ति 1492‘‘। और जब मैंने उस लैंप को खोला तो मैं देखकर हैरान रह गया कि उसमें एक मोमबत्ती जमी खड़ी थी और तुम जानते हो कि वह मोमबत्ती उस समय भी जल रही थी।

पहले मछुवारे ने अगला कदम उठाते हुए कहा— ‘‘ अब हमें दोनों कहानियों को इकट्ठा करके आगे चर्चा करना चाहिए यदि तुम इस नारकीय मोमबत्ती को बुझा हुआ मान लोगे तो मैं सोलोमन मछली का वजन दो सौ पाउण्ड कम कर सकता हूं।‘‘

 

एक व्यक्ति चाहता है कि उसके पास मीठे मधुर अनुभव हों, और एक व्यक्ति सुंदर अनुभवों की इच्छा करता है। लेकिन केवल इच्छा भर करने से तुम उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते, तुम केवल उनके बारे में स्वप्न देख सकते हो। तुम केवल कामना करने के द्वारा ही उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते, बल्कि तुम स्वयं कठोर परिश्रम करके ही उन्हें प्राप्त कर सकते हो। अत्यधिक प्रयास करने की आवश्यकता होती है। तभी एक दिन सत्य उद्घाटित होता है। और तब उसकी जो कांति और दमक होती है, वह किसी भी सपने में कभी भी हो ही नहीं सकती। क्योंकि सपना केवल सपना ही है, वह मन का ही एक विचार है, भले ही उस विचार में कई रंग भरे हों, लेकिन फिर भी वह एक विचार ही है। जब सत्य प्रकट होता है तो वह पूरी तरह भिन्न होता है, वह किसी भी स्वप्न की अपेक्षा लाखों गुना अधिक सुंदर होता है। सपने देखने में व्यर्थ समय नष्ट मत करो, इस शरीर में रहते हुए ही, पृथ्वी पर ही चलो और अपने होश में वापस आओ।

 

अंतिम प्रश्न:

 

यह प्रश्न है दिव्या का प्यारे सदगुरू! मैं प्रेम और ध्यान के सम्बंध में कुछ और नहीं सुनना चाहती: वे दोनों मेरे लिए एक ही हैं मैं सत्व खोज रही हूं और आप ही उसके साधन हैं मेरी भक्ति और मेरी प्रार्थनाएं? केवल कृतज्ञता की ही अभिव्यक्ति है प्रेम बस है और मैं हूं कभी—कभी मुझे आश्चर्य होता हैं कि आप हैं भी अथवा नहीं, या मैं ही निरंतर आपको सृजित किये जा रही हूं, अथवा क्या मेरा अस्तित्व? आपके अस्तित्व से पृथक है! यदि आप इतने अधिक सुंदर हैं तो मुझे परमात्मा जरूर बनना है आपके प्रति मेरा प्रेम, मेरी कृतज्ञता ही केवल निश्चित है? जो बनी ही रहती है?

और यही सत्य है। मैं जितना कुछ जानती हूं, लेकिन फिर भी प्रत्येक बार जब आपको यह कहते हुए सुनती हूं— प्रेम अथवा ध्यान तभी आप मुझे पकड़ पाते हैं कि मैं अपने केंद्र से दूर हूं, क्योंकि सभी श्रेणियां कार्य है: मैं यह हूं अथवा वह? यह हमें अभी समझना है!

 

आपके निकट पहुंचाना कितनी सुंदर यात्रा है।

 

हुत—बहुत धन्यवाद दिव्या।

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–16)

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गुरु दर्पण है—(प्रवचन—सोहलवां)

दिनांक 27 मई 1978,

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—आपके बिना जिंदगी से कुछ शिकवा तो न था, लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी!…

2—गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब तारनहार बन जाता है? यह बात शिष्य पर निर्भर या गुरु पर?

3—’इस दुनिया से जाने के पहले’, या,’ जब मैं नहीं रहूँगा’ जैसे कलेजे को चीर देनेवाले शब्दों का अपने तईं न प्रयोग करने के लिए भगवान से एक प्रेमी का अनुरोध!

पहला प्रश्न :

आपके बिना इस जिंदगी से कोई शिकवा तो न था, लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी। अब जी में आता है, तेरे दामन में सिर छुपाकर रोता रहूँ, रोता रहूँ!

गेहानंद, धन मिलता है तमी निर्धनता का पता चलता है। स्वास्थ्य का अनुभव हो तो बीमारी की पहचान आती है। जो सदा बीमार ही रहा हो, उसे बीमारी भूल जाती है। जो जंजीरों में ही रहा हो और जिसने कभी स्वतंत्रता का स्वाद न चखा हो, उसे जंजीरें याद नहीं रह सकतीं। जंजीरों को जानने के लिए स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि चाहिए। नहीं तो जंजीरें आभूषण मालूम होने लगती हैं। आदमी अपनी जंजीरों को सजा लेता है, सँवार लेता है सुंदर बना लेता है। कारागृह में ही अगर पैदा हुए, वहीं पहली बार आँख खोली और खुला आकाश कभी देखा नहीं, तो कारागृह कारागृह है यह कैसे जानोगे? स्वतंत्रता का अनुभव ही, थोड़ा—सा अनुभव, एक बूँद भर अनुभव भी बेचैन कर जाएगा। फिर कारागृह में एक क्षण रुकना कठिन हे।। फिर खुले आकाश की आकांक्षा पैदा होती है।

इसलिए धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति से ज्यादा अशांत हो जाता है। अधार्मिक व्यक्ति की तो कोई खास अशांति नहीं है, क्षुद्र की अशांति है। उसकी शिकायतें ही क्या हैं? थोड़ा पैसा और मिल जाए, थोड़ा बड़ा मकान हो, थोड़ी बड़ी दुकान हो। यह सब हो सकता है। हो रहा है। उसकी जगत से कोई बड़ी शिकायत नहीं क्योंकि जगत से उसकी कोई बड़ी माँग नहीं। थोड़ा बैंक में उसका पैसा बढ़ जाएगा, उसकी अशांति शांत मालूम होती पड़ेगी।

असली अशांति तो धार्मिक व्यक्ति को पैदा होती है। क्योंकि उसकी अभीप्सा अनंत की है, असीम की है, विराट की है, अमृत की है। थोड़े—से, छोटे—से वह राजी नहीं है। उसका असंतोष बड़ा व्यापक है। उसकी अतृप्ति इस पृथ्वी पर पूरी हो सके, ऐसा संभव नहीं है। आकाश ही उसे तृप्ति दे सकता है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति से ज्यादा अड़चन’ में पड़ जाता है। और तब तुम्हें यह भी समझ में आ जाएगा कि लोग धर्म से डरे हुए क्यों हैं? उनके डरने के पीछे अचेतन कारण हैं। भय है। ऐसे ही जिंदगी मुश्किल मालूम पड़ती है, और इस जिंदगी में परमात्मा की आकांक्षा को भी अगर जन्मा लिया, फिर क्या होगा? क्षुद्र तो मिलता नहीं है, शाश्वत को कहाँ खोजने जाएँगे? क्षुद्र ही तो हाथ में नहीं आ रहा है, विराट को कैसे पा सकेंगे? इन्कार ही कर दो कि विराट है ही नहीं।

नास्तिक ईश्वर को इन्कार नहीं करता, सिर्फ इतना ही कहता है कि तुम न होओ तो अच्छा! मैं वैसे ही मुश्किल में हूँ, मैं ऐसे ही मुश्किल में हूँ और अगर तुम भी दो और तुम्हें भी पाने की अभीप्सा जग गयी, कि मेरा क्या होगा? अभी ही सोना मुश्किल है, अभी ही नींद नहीं आती, लेकिन तुम्हारी अगर खोज पैदा हो गयी, तो फिर कहाँ पलकें लगा पाऊँगा? नास्तिक अपनी आत्मरक्षा में ईश्वर को इन्कार करता है। नास्तिकता का कोई संबंध ईश्वर से नहीं है, उसका संबंध सिर्फ अपनी रक्षा से है। नास्तिक यह कहना है कि न तुम हो, न मुझे तुम्हें खोजने की कोई जरूरत है। यह छोटा—सा आंगन सब कुछ है। बस इस छोटे—से आँगन पर कब्जा हो जाए, मालकियत हो जाए, तो सब पा लिया। नास्तिक यह कह रहा है, इस आँगन कै पार और कुछ भी नहीं है। वह यह कह रहा है कि न होगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। वह पहले से ही अपनी रक्षा कर रहा है।

नास्तिक भयभीत आदमी है। आमतौर से लोग उल्टा समझते हैं। आमतौर से लोग समझते हैं कि नास्तिक बड़ा निर्भीक है। देखो, ईश्वर तक को इन्कार कर रहा छै। मैं तुमसे कहता हूँ, बात बिल्कुल उल्टी है। नास्तिक निर्भीक नहीं है। निभी्रक होता तो इस जगत को इन्कार करता और ईश्वर की खोज पर निकलता। क्षुद्र की खोज में रखा क्या है ?r निर्भीक होता तो अनंत की तलाश करता, दुर्गम कोई तलाश करता, जो आसानी से नहीं मिलता है, उस शिखर को पाने की यात्रा पर निकलता, जिसे पाने में बड़ी चढ़ाई है और चढ़ाई कठिन है।

नहीं, नास्तिक निर्भीक नहीं है, भयभीत है। यद्यपि उसने अपने भय के लिए बड़ा तर्कजाल खोज रखा है। वह कहता है—ईश्वर है ही नहीं, खोज पर जाएँ तो जाएँ किसकी? पुकारें तो पुकारे किसे? होता तो जरूर पुकारते, है ही नहीं। ऐसे उसने आख बद कर ली। कारागृह में जो आदमी कहता है—आकाश है ही नहीं, आकाश में उड़ने वाले पंख हैं ही नहीं, आकाश में कोई कभी उड़ा नहीं, ये सब व्यर्थ की बातें हैं, वह सिर्फ इतना ही कह रहा है—मुझे चैन से सोने दो, मुझे मेरी जंजीरों में रहने दो, यह कारागृह नहीं है, यह मेरा घर है; मुझे कुछ और नहीं चाहिए, इससे ज्यादा की मेरी माँग नहीं है।

तुमने साधारणत: यह भी सुना है कि धार्मिक आदमी बड़ा संतुष्ट होता है, मैं तुमसे कहता हैं कि गलत है बात। धार्मिक आदमी संसार की दृष्टि से संतुष्ट मालूम होता है, क्योंकि उसका सारा असंतोष परमात्मा की तरफ लग गया है। उसके पास असंतोष बचा नहीं कि दुकान में लगा दे, इसलिए संतुष्ट मालूम होता है, इसलिए नहीं कि संतुष्ट हो गया है वह सँसार से। संसार से कौन कब संतुष्ट हुआ है? लेकिन असंतोष की एक मात्रा है, एक सीमा है। उसने अपना सारा असंतोष सत्य की खोज में लगा दिया है। उसकी अतृप्ति आतरिक है। सांसारिक की अतृप्ति वाह्य है। उसकी नजरें बाहर खोज रही हैं। धार्मिक की नजरें भीतर खोज रही हैं। और भीतर की खोज कठिन है। चाँद—तारों पर पहुँच जाना आसान है, अपने भीतर पहुँचना कठिन है।

क्यों कठिन है?

क्योंकि चाँद—तारों और हमारे बीच फासला है। फासला हो तो तय किया जा सकता है। स्वयं के और स्वयं के बीच कोई फासला नहीं है, तय कैसे करो? इसलिए तीर्थयात्रा बड़ी कठिन है। और जब मैं कहता हुँ—तीर्थयात्रा, तो मेरा मतलब काबा और काशी से नहीं है, तुम्हारे अंतरतम में विराजमान परमात्मा से है, तुम्हारे भीतर जलते हुए चैतन्य के दीये से है। दूरी ही नहीं है, यात्रा कैसे हो, यही अड़चन है। जो मिला ही हुआ है, उसे कैसे पाएँ, यही अड़चन है। न मिला होता तो पाने की कोशिश कर लेते। जो हमारा ही है, उसे कैसे जानें? जो सदा से हमारा है, जैसे मछली सागर में है, कैसे सागर को जाने? ऐसी हमारी दशा है।

तुम्हारा प्रश्न सार्थक है। तुमने पूछा है—आपके बिना इस जिंदगी से कोई शिकवा तो न था। हो भी नहीं सकता था। जब तक सद्गुरु से मिलना न हो जाए, जिंदगी से कोई शिकवा होता ही नहीं। जिंदगी सब कुछ मालूम होती है, खिलौने ही सब कुछ मालूम होते हैं, कूड़ा—करकट ही धन मालूम होता है, शिकवा हो भी क्या सकता है? और तुम्हारे चारों तरफ तुम्हारे जैसे ही लोग होते हैं, तुम भी व्यर्थ को पाने में लगे हो, वे भी व्यर्थ को पाने में लगे हैं। सब तुम्हरे जैसे लोग, तुम्हारी ही दौड़, एक ही दिशा की खोज, भीड़ में आदमी चलता चला जाता है। याद कहाँ आती है कि हम अपनी जिंदगी का क्या उपयोग कर रहे हैं? क्या जिंदगी इसीके लिए है कि थोड़ा—सा धन इकट्ठा कर के मर जाएँ? कि थोड़ा बड़ा मकान बना कर मर जाएँ? कि दो—चार बच्चे पैदा करें और मर जाएँ? जिंदगी इसीलिए है? प्रश्न ही नहीं उठ पाते। प्रश्नों की सुविधा ही नहीं है। ऐसे प्रश्न संगत भी नहीं मालूम पड़ते। जिंदगी के संगत प्रश्न दूसरे हैं। सफलता कैसे मिले? धन कैसे कमाया जाए? पद कैसे मिले? प्रतिष्ठा कैसे मिले?

नहीं, तुम्हें शिकवा हो भी नहीं सकता था। मेरे पास आए हो तो अब तुम्हें जिंदगी से असंतोष शुरू होगा। अब तुम्हें लगेगा, ताब तक जो किया है, व्यर्थ सब; अब तक जो किया, मिट्टी हो गया। अगर पचास साल जिए हो, तो नाली में बह गये वे पचास साल। उनसे कोई उपलब्धि नहीं हुई। घबड़ाहट हुाएगी, बेचैनी होगी। इसलिए सद्गुरु से लोग बचते हैं। पंडित—पुजारी के पास जाने से नहीं डरते, क्योंकि पंडित—पुजारी तो तुम्हारी ही दुनिया का हिस्सा है। उसमें और तुममें कोई भेद नहीं हे। पंडित—पुजारी तुम्हारे भीतर अभीप्सा का दीया नहीं जला सकता है, असंतोष की आग पैदा नहीं कर सकता है। सद्गुरु वही है जो तुम्हें ऐसा असंतुष्ट कर दे कि जब तक परमात्मा न मिले तब तक संतोष न मिले।

जीसस ने ठीक कहा है कि मैं शांति का संदेश लेकर नहीं आया, मैं तलवार लेकर आया हूँ। कल सुनते थे रज्जब को, कि गुरु ने भाला छेद दिया मेरी छाती में। जहाँ माला छिद जाए छाती में, वहीं समझना रूपांतरण की संभावना है। तुम्हें यहाँ आकर कुछ नये का आभास हुआ, भनक पड़ी कान में, जिंदगी ऐसी भी हो सकती है, जिंदगी यह रूप, यह रग भी ले सकती है, जिंदगी यह रूप, यह गीत भी गा सकती है, जिंदगी में ऐसे फूल भी खिल सकते हैं, तुम्हें थोड़ी—सी सरसराहट मालूम हुई। तुम जिस जिंदगी को जी रहे थे, वही जिंदगी को जीने का एकमात्र विकल्प नहीं है, और भी विकल्प है। तुम जिसे धन मानते थे, वही धन नहीं है, और भी धन हैं। और तुम जिसे पद मानते थे, वही पद नहीं है, और भी पद हैं। नया आयाम खुला। आँख जरा ऊपर —उठी। कारागृह की दीवाल के पार तुमने आकाश की तरफ देखा। चाँद—तारों से मरा आकाश दिखायी पड़ा। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगे। कारागृह से शिकायत शुरू हो गयी।

सद्गुरु से मिलने का अर्थ है, ऐसे व्यक्ति से मिल जाना, जिसे स्वतंत्रता का अनुभव हुआ है। स्वतंत्रता का अनुभव संक्रामक है। उसका उपदेश नहीं दिया जाता, उसका उपदेश दिया भी नहीं जा सकता, लेकिन अगर तुम स्वतंत्रता से भरे हुए व्‍यक्ति के पास बैठोगे, तो कुछ बूँदें छलक जाएँगी उसके भीतर से तुम्हारे भीतर। कब छलक जाएँगी, पता भी नहीं चलेगा। संक्रामक है इसलिए कहता हूँ। प्रेम से भरे व्यक्ति के पास बैठोगे, कुछ प्रेम की बूँदें तुम्हारे कंठ से उतर जाएँगी, तुम्हारे राव—जूद।

और तुमने यह अनुभव भी किया है कभी—कभी।

अगर उदास आदमी के पास बैठो तो अनायास तुम उदास हो जाते हो। और। चिंतित आदमी के पास बैठो तो चिंताओं की तरंगें तुम्हारे चित्त को घेर लेती हैं। हंसते आदमी के पास बैठो तो चाहे तुम उदास भी क्यों न रहे होओ, एकबारगी भूल जाते हो उदासी और हँसने लगते हो। दस आदमी आनंदित बैठे हों, मस्त हो और तुम उनके पास बैठ जाओ तो उनकी मस्ती का प्रवाह तुम्हें भी बहा ले चलता है किसी नयी दिशा में। थोड़ी देर को तुम किसी और लोक के यात्री हो जाते हो। यह तुम्हारे भी अनुभव में आता है कि हमें एक—दूसरे की तरंगें छु लेती हैं।

सत्य की तरंग तो बड़ी—से—बड़ी तरंग है, बाढ़ है। जिसको सत्य मिला हो, उसके पास बैठोगे तो तुम्हें पहले तो यही अड़चन आएगी कि तुम्हारी सारी जिंदगी असत्य मालूम होने लगेगी, उसकी तुलना में।

तुमने प्रसिद्ध कहानी सुनी है न कि अकबर ने एक लकीर खींच दी अपने दरबार में एक दिन आकर और कहा—कोई इसे छुए न और छोटी कर दे। बिना छुए छोटी कर दे। अब लकीरें बिना छुए कैसे छोटी की जाएँ? दरबारियों ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, जितना सोचा होगा उतनी ही उलझन बढ़ गयी होगी, क्योंकि बिना छुए कैसे लकीर छोटी हो सकती है। छोटी करने का मतलब यह होता है—छूनी पड़ेगी, मिटानी पड़ेगी, पोंछनी पड़ेगी, इधर से, उधर से काटनी पड़ेगी। छूने की आज्ञा नहीं। और तब बीरबल हँसा, और उसने एक बडी लकीर उस छोटी लकीर के नीचे खींच दी। छोटी लकीर को छुआ नहीं और लकीर छोटी हो गयी। बिना छुए छोटी हो गयी। एक तुलना जगी। एक पृष्ठभूमि खड़ी हो गयी।

तुम जब मेरे पास आए, मैं तुम्हारी पृष्ठभूमि बना। शिकायत शुरू हुई। जिंदगी ऐसी ही जीनी जैसी तुम जी रहे थे, व्यर्थ है। और जब यह ख्याल आता है कि जिंदगी ऐसा जीना व्यर्थ है, तभी दूसरा भी ख्याल आता है कि फिर सार्थक क्या होगा? और एक बार असार असार की भाँति दिख जाए, तो सार को खोजना कठिन नहीं है। असत्य असत्य की तरह अनुभव में आ जाए, तो सत्य तो हाथ के पास ही है—जब जरा गर्दन झुकायी देख ली। सत्य तो तुम्हारे भीतर है, असत्य में आँखें उलझी रहती हैं, इसलिए सत्य का अनुभव नहीं हो पाता। तो मेरे पास आओगे, असंतोष जन्मेगा, शिकायत भी पैदा होगी और आनंद के द्वार भी खुलेंगे। यह विरोधाभास एकसाथ घटित होगा। एक तरफ से तुम एकदम उदास हो जाओगे, अपनी जिंदगी को देखोगे तो उदास हो जाओगे, और जिंदगी की नयी संभावना की थिरक देखोगे, यह नयी पायल का बजना सुनोगे, तो परम आनंद से भर जाओगे। नये सपने तुम्हारे हृदय में नीड़ बना लेंगे।

धार्मिक होने का यही अर्थ है, यह पृथ्वी काफी नहीं। यह देह काफी नहीं। यह मन काफी नहीं। इस मन, इस देह, इस पृथ्वी का सीढ़ी की तरह उपयोग कर लेना है। अतिक्रमण करना है, पार जाना है, इसके ऊपर उठना है। इसके ऊपर उठने के ही भाव के कारण बड़ी भ्रांति यह हो गयी कि जब देखा महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को, मुहम्मद को ऊपर उठते, इस जिंदगी से पार जाते, एक नयी जिंदगी का आविर्भाव करते, एक नये आकाश को आमंत्रित करते और उनका उत्फुल्ल भाव

देखा, उनकी समाधि देखी, उनका उन्माद देखा, उनका हर्ष देखा, उनके चारों तरफ बहती हुई आंनद की शराब देखी, उनके पास बनती नयी मधुशाला देखी—बहुत लोग दीवाने हुए और झूमे और मस्त हुए।

जो सद्गुरु की जीवित अवस्था में जुड़ जाते हैं वे तो मस्त हो जाते हैं, लेकिन पीछे बड़ी अड़चन हो जाती है। पीछे संसार से ऊपर उठना है, यह बात ही लोग इस तरह अनुवादित करते हैं कि संसार दुश्मन है, देह दुश्मन है, ऊपर उठने की तो बात भूल जाती है, दुश्मनी की बात पकड़ जाती है। ऊपर कुछ है उसे पाना है, यह तो स्मरण में नहीं रहता, जो नीचे है उसे छोड़ना है, यह स्मरण में हो जाता है। विधायक नकारात्मक हो जाता है। जब बुद्ध जीवित होते हैं तो उनके साथ विधायक होता है धर्म। बुद्ध की मौजूदगी उसे विधायकता देती है,’ पाज़िटिविटी’ देती है। बुद्ध की मौजूदगी में तुम चूक नहीं कर पाते। वह प्रकाश सामने है, कैसे भूल होगी? तुम उस प्रकाश में लीन होने लगते हो, तुम धीरे—धीरे उस प्रकाश से नाता जोड़ लेते हो, तुम अपने दीये को बुद्ध के दीये के पास सरकाते चलते हो—यही शिष्यत्व है—एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारा बुझा दीया बुद्ध के इतने करीब आ जाता है कि बुद्ध के दीये से लपट झपकती है, एक क्षण में क्रांति हो जाती है, तुम भी जल उठते हो। तुम पहली दफा जीवित होते हो। तुम्हारा असली जन्म होता है। तुम द्विज बनते हो। बुद्ध के पास गये बिना कोई द्विज नहीं बनता। द्विज कोई पैदा नहीं होता। द्विज का अर्थ है, दुबारा जन्मा। एक जन्म माँ से मिलता हूं, पिता से मिलता है, एक जन्म गुरु से मिलता है। गुरु के पास गये बिना कोई द्विज नहीं होता। जनेऊ इत्यादि पहन कर सोच मत लेना कि तुम द्विज हो गये। कि ब्राह्मण के घर में पैदा हुए तो द्विज हो गये। जब तक ब्रह्म को जाननेवाले के पास पैदा न होओ फिर से, तब तक तुम द्विज नहीं हो सकते। वह ब्राह्म्ण है। ब्राह्मण याने जिसने ब्रह्म को जाना। जब तक ब्राह्मण, ब्रह्म को जानने वाला तुम्हारी दाई न बन जाए और तुम्हें फिर से नया जन्म न दे दे, तब तक तुम शूद्र हो।

सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सभी को ब्राह्मण की तरह मरना चाहिए। सभी मरते नहीं ब्राह्मण की तरह। कभी—कभार। दुर्भाग्य की बात है। सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं और अधिकतर सभी शूद्र की तरह ही मरते हैं। ब्राह्मण तो कभी— नामी कोई होता है—कोई नानक, कोई रज्जब, कोई कबीर। मगर जब भी कभी—कभी ब्राह्मण जीवित होता है, तो उसके पास धर्म की विधायकता होती है। तुम उसके पास सरकते—सरकते उसकी विधायक ज्योति से जुड़ जाते हो।

लेकिन जैसे ही दीया उदर जाता है—उडियो पंख पसार—जैसे ही बुद्ध और कबीर चले जाते हैं, घना अंधकार छूट जाता है, पहले से भी ज्यादा घना अंधकार। तुमने

कभी देखा, रात अँधेरी रात तुम राह से जा रहे हो, अँधेरा है, बहुत अँधेरा है, लेकिन फिर भी चल रहे हो तो कुछ—कुछ दिखायी पड़ता है, नहीं तो चलते कैसे! और तभी एक कार पूरा प्रकाश फैलाती हुई, तुम्हारी आँखों को जगमगाती हुई पास से निकल जाती है। फिर कार के बाद तुम एकदम डगमगा जाते हो। अँधेरा और अँधेरा हो जाता है। पैर लड़खड़ा जाते हैं। यह वही अँधेरा है, तुम भी वही हो, कुछ बदला नहीं है, मगर बीच में जो रोशनी चमक गयी आँख में, वह अब और अँधेरा खड़ा कर गयी। हर बुद्ध के मरने के बाद जगत में धर्म की विधायकता खो जाती है, नकारात्मकता पैदा हो जाती है।

नकारात्मक धर्म का अर्थ होता है, संसार गलत है, इसे छोड़ो। विधायक धर्म का अर्थ होता है, परमात्मा सही है, उसे पाओ। नकारात्मक धर्म का अर्थ होता है, यह छोड़ो, वह छोड़ो, यह त्यागो, वह त्यागो। विधायक धर्म का अर्थ होता है, हाथ फैलाओ, हृदय खोलो, रोशनी से भरो, परमात्मा का धन बरस रहा है, तुम वंचित न रह जाओ, द्वार—दरवाजे खोलो, उसे भीतर आने दो, अतिथि द्वार पर दस्तक दे रहा है।

पार्क समझ लेना।

इसीके कारण मनुष्यजाति बड़ी झझट में पड़ गयी है, क्यौंकि हर बुद्ध के बाद नकारात्मकता फैल जाती है। यह कुछ अनिवार्य है। इससे बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ, जब तक बन सके जीवित बुद्ध का साथ खोज लेना, नहीं तो बहुत संभावना है कि तुम नकारात्मक धर्म में ही उलझे रहोगे। और नकारात्मक धर्म तुम्हें परमात्मा को तो देगा ही नहीं, तुमसे संसार भी छीन लेगा। तुम धोबी के गधे हो जाओगे, न घर के न घाट के। वही तुम्हारे तथाकथित साधु— महात्माओं की जिंदगी है—धोबी के गधे, न घर के न घाट के। परमात्मा मिला नहीं है और संसार छोड़ दिया है। स्वतंत्रता तो मिली ही नहीं, कारागृह भी गया। अब हाथ में कुछ भी नहीं है। पख तो मिले ही नहीं, वह जो पिजड़े की सुरक्षा थी वह भी गयी।

तुमने कभी देखा, घर में अगर तुम्हारे तोता हो और बहुत दिन पिंजड़े में रह चुका हो तो उसे एकदम पिंजड़ा खोलकर मुक्त मत कर देना, वह मारा जाएगा। वह उड़ न सकेगा। क्योंकि पिंजड़े में बंद रहते—रहते उसको पंख की क्षमता खो गयी है, उसे अपने पंख पर भरोसा ही खो गया है। भरोसा तो प्रयोग से आता है। इतने दिनों से उड़ा नहीं, भूल ही गया है कि उड़ सकता है। पंख जरूर हैं, मगर अब सब दिखावे के हैं, औपचारिक हैं। अब पंखों के भीतर आस्था नहीं है। और आस्था के बिना हर चीज निर्जीव हो जाती है। अब तोते को अपने पंखों पर आस्था नहीं है—वर्षों से उसे याद ही नहीं है कि वह उड़ सकता है। हाँ, दूसरों को उड़ते देखा है, मगर मैं तो उड़ नहीं सकता। यह सम्मोहन उसमें गहरा हो गया है—मैं उड़ नहीं सकता, मैं उड़ नहीं सकता। यह सोच—सोच कर धीरे—धीरे अपने पंखों से अपना संबंध खो दिया है। आज उसे अचानक निकाल दोगे पिंजड़े के बाहर, मारा जाएगा। स्वतंत्रता तो मिलेगी नहीं, खुले आकाश का आनंद भी न मिलेगा, चाँद— तारों से बात करने का मजा भी नहीं, वह जो पिंजडे की सुरक्षा थी और जीवन था, वह भी गया।

ऐसे तुम्हारे साधु—संन्यासी हैं। नकारात्मक। संसार में थोड़ी तरंग भी है, थोड़ी रसधार भी बहती है क्योंकि परमात्मा संसार में मौजूद है। कितने ही कीचड में पड़ा हो मगर हीरा हीरा है। और कितना ही देह में भटक गयी हो आत्मा लेकिन आत्मा आत्मा है। परमात्मा संसार में मौजूद है—इन वृक्षों में, इस कोयल की आवाज में, इन सूरज की किरणों में, इन हवाओं के झोंकों में, मुझमें, तुम में, परमात्मा मौजूद है। गिर गया है हीरा, कीचड़ में गिर गया है, साफ कर लेना है, उठाना है, धो डालना है।

विधायक धर्म सद्गुरु से संबध जोड्ने से उपलब्ध होता है। शास्त्र से जो धर्म को खोजते हैं उनको नकारात्मक धर्म हाय मिलता है।

यह दो शब्द खूब याद रखना—शास्ता और शास्त्र। शास्ता का अर्थ होता है, सद्गुरु, जहाँ अभी शास्त्र जन्म रहा है, जहाँ शास्त्र अभी साँसें ले रहा है, जहाँ शास्त्र में अभी खून की धार बहती है, हृदय धड़कता है, जहाँ वेद का जन्म हो रहा है, जहाँ कुरान की आयतें उठ रही हैं। शास्ता ऐसा द्वार, जहाँ से परमात्मा फिर जगत मे झाँक रहा हैं—स्पष्ट, प्रगाढ़ होकर, पुंजीभूत होकर, समग्रीभूत। फिर एक दफा संसार में आदमी की तलाश कर: रहा है। फिर आदमी को पुकार रहा है। फिर आवाहन दे रहा है कि आओ, मैं प्रतीक्षानुर हूँ।

शास्त्र, जब शास्ता जा चुका। शब्द अब श्वाँस नहीं लेते, किताब में स्याही बन कर पड़ गये। कहाँ रोशनी थी उन शब्दों में—जब बुद्ध बोलते हैं तो शब्दों में प्रकाश होता है—फिर शास्त्र में स्याही रह जाती है। स्याही यानी अँधेरापन। कालापन रह जाता है। कहाँ उज्ज्वल शब्द थे, कहाँ धड़कते शब्द थे, कहाँ नाचते शब्द थे, कहां फिर किताबों में पड़े हुए मुर्दा शब्द! लाशें रह गयीं। किताबों पर पड़े दाग, फिर तुम उसमें सत्य को खोजते रहना; तुम्हें जो मिलेगा वह नकारात्मक होगा। उस नकारात्मक में तुम फँसोगे, कहीं जाओगे नहीं। यह जिंदगी भी खराब होगी और वह जिंदगी भी न मिलेगी।

विधायक धर्म का अर्थ होता है, जो है, उससे ऊपर उठना है—उसके विपरीत नहीं, उसका उपयोग करना है।

तुम मेरे पास आए, तुम कहते हो—लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी। जिंदगी हो भी नहीं सकती बिना किसी जीवित व्यक्ति से जुड़े। और सब यहाँ जीवित नहीं हैं। रास्तों पर लाशें चल रही हैं, मुर्दे बजारों में बैठे हैं। जिन्हें अपने जीवन का कुछ भी पता नहीं है, उनको जीवित कैसे कहोगे? ऐसा ही समझो कि तुम्हारी जेब में कोहनूर हीरा रखा है, लेकिन तुम्हें पता नहीं है। तो तुम्हें धनी कहा जा सकता है? कोहनूर हीरा जरूर तुम्हारी जेब में है, मगर तुम्हें पता नहीं है, तो तुम्हें धनी कहा जा सकता है? तुम तो राह पर खड़े भीख माँग रहे हो! और यह भी सच है कि कोहनूर हीरा तुम्हारी जेब में है। मगर उस कोहनूर हीरे का क्या करें? उसका होना न होना बराबर है।

पश्चिम का एक अद्भुत सद्गुरु जार्ज गुर्जिएफ लोगों से कहता था—तुम्हारे भीतर आत्मा है ही नहीं। कोई आदमी आत्मा के साथ पैदा नहीं होता। उसने बड़ी अनूठी बात कही, क्योंकि सब शास्त्र तो यही कहते हैं कि आदमी आत्मा के साथ पैदा होता है—बिना आत्मा के पैदा ही कैसे होगा? बिना आत्मा के जिओगे कैसे? लेकिन गुर्जिएफ का प्रयोजन समझना। गुर्जिएफ कोई सिद्धांतवादी नहीं है, वह कोई आत्म— वादी नहीं है, उसकी दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। वह यह कह रहा है कि आत्मा तुम्हारे पास नहीं है, तब तक हो भी कैसे सकती है जब तक तुम्हें उसका पता नहीं है? कोहनूर तुम्हारी जेब में पड़ा है लेकिन तुम भीख माँग रहे हो, हम कैसे कहें कि तुम्हारे पास कोहनूर है, कि तुम धनी हो। आत्मा सिर्फ संभावना है। तलाशों तो शायद पा लो।

मेरे पास आए हो तो मैं तुम्हें परमात्मा नहीं देना चाहता, मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूँ। और जिसके पास भी जीवन हो, उसे परमात्मा मिल जाता है। जीवन परमात्मा का पहला अनुभव है। और चूँकि मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूँ’, इसलिए तुम्हें सिकोड़ना नहीं चाहता, तुम्हें फैलाना चाहता हूँ। तुम्हें मर्यादाओं में बाँध नहीं देना चाहता, तुम्हें अनुशासन के नाम पर गुलाम नहीं बनाना चाहता हूँ; तुम्हें सब तरफ की स्वतंत्रता देना चाहता हूँ, ताकि तुम फैलो, विस्तीर्ण होओ। तुम्हें बोध देना चाहता हूँ, आचरण नहीं। तुम्हें अंतश्चेतना देना चाहता हूँ, अंतःकरण नहीं। तुम्हें एक समझ देना चाहता हूँ जीने की, जीने को हजार रंगों में जीने की, तुम्हें जिंदगी एक इद्रधनुष कैसे बन जाए इसकी कला देना चाहता हूँ, तुम कैसे नाच सको और तुम्हारे ओंठों पर बाँसुरी कैसे आ जाए, इसके इशारे देना चाहता हूँ। और मेरी समझ और मेरा जानना ऐसा है, जो आदमी गीत गाना जान ले, उसके मुँह से गालियाँ निकलनी बंद हो जाती हैं। मैं तुम्हें गालियाँ छोड़ने पर जोर देना ही नहीं चाहता,

गीत गाना सिखाना चाहता हूँ। यह विधायकता है।

गीत जो गाता है, वह गाली कैसे देगा? जिसके जीवन में फूल खिलने लगे, जिसकी उर्जा फूल बनने लगी, उसकी ऊर्जा फिर काँटे नहीं बनेगी। नहीं बन सकती है। जिसके भीतर अमृत झरने लगा, उसके भीतर जहर झरना बंद हो जाता है क्योंकि एक ही ऊर्जा है। जब गलत हो जाती है तो जहर हो जाती है, जब ठीक हो जाती है तो अमृत हो जाती है। जब नीचे की तरफ बहती है, अधोगामी होती है, तो जहर हो जाती है। जब ऊपर की तरफ उठने लगती है, तो ऊर्ध्वगामी हो जाती है, तो अमृत हो जाती है। ऊर्जा तो एक ही है।

मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूँ। और जीवन नृत्य करता हुआ, गीत गाता हुआ, जीवन उत्सवपूर्ण। एक बार तुम्हारे जीवन में उत्सव आ जाए, एक बार तुम्हें पंख पसारने की कला आ जाए, एक बार धीरे—धीरे तुम्हें फिर पंख फैलाने का आभास आ जाए, फिर आस्था आ जाए, फिर तुम थोड़े प्रयोग करके पंख उड़ाना सीख लो, फिर तुम्हें कौन रोक सकेगा? फिर यह सारा आकाश तुम्हारा है। परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, बस तुम जीवित हो जाओ। या इसे और दूसरी भाषा में कहें तो यूँ—परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, तुम आत्मवान हो जाओ। असली बात आत्मा है। जो भी आत्मवान हैं, परमात्मा उसकी संपदा है। आत्मवान को पुरस्कार मिलता है परमात्मा का। तुम्हारे भीतर आत्मा नहीं है, जिंदगी कैसे हो सकती थी?

अगेहानंद, तुम सौभाग्यशाली हो। अब जिंदगी में शिकवा भी होगा, शिकायत भी होगी, यह जिंदगी पर्याप्त नहीं मालूम होगी, सब तरफ सीमा आ जाएगी। और एक नयी जिंदगी का अविर्भाव हा रहा है, एक नयी किरण तुम्हारे भीतर समा रही है, उस नयी किरण को सँभालो। जेल की दीवालों से लड़ने में मत लग जाना। तुम जेल के भीतर भी अगर नाचना सीख लो तो दीवालें गिर जाएँगी। मैरी मान्यता यह है कि जो ठीक से नाचता है, ओंगन टेढ़ा भी हो तो सीधा हो जाता है। जो ठीक से प्रसन्न हो जाता है, उसकी दीवालें गिर जाती हैं। तुम्हारे विषाद ने तुम्हारी दावालें खड़ी की हैं। जो उत्फुल्ल हो जाता है, जिसके भीतर एक उत्फुल्लता की बाढ आ जाती है, सब कारागृह बह जाते हैं, सब जंजीरें बह जाती हैं। मैं तुम्हें गंजीर तोड्ने पर जोर नहीं दे रहा हूँ, मैं तुम्हें नाचना आ जाए इस पर जोर दे रहा हूं। जो नाचना सीख गया उसकी जंजीरें टूट जाती हैं। टूट ही जाती हैं। नाचते पैरों।। कहीं जंजीरें टिक सकती हैं।

शिकायत आएगी अब जिंदगी से। और साथ—ही—साथ एक विरोधाभास भी घटित होगा जिंदगी के प्रति एक श्रद्धा का भाव आएगा, अनुग्रह का भाव आएगा, कृतज्ञता का भाव आएगा।

धर्म जब नकारात्मक हो जाता है तो सिर्फ लोगों को नष्ट करता है, रुग्ण करता है।

कतलि अहले—हरम हैं नजर झुकाए हुए

किस एहतराम ले बेचा गया है यजदांको

जरा गौर से देखो मदिर के पुजारियों और पुरोहितों को, मस्जिदों के रखवालों को—

कतील अहले—हरम हैं नजर झुकाए हुए

जरा काबे के पुजारियों को गौर से देखो, तुम उन्हें नजर झुकाए हुए पाओगे। तुम उन्हें शर्मिदा पाओगे। उन्हें तुम अपराधी पाओगे।

कतील अहले—हरम हैं नजर झुकाए हुए

किस एहतराम से वेचा गया है यजदांको

कितने आदरपूर्वक और निष्ठा से और कृउशलता से परमात्मा को बेच दिया है उन्होंने, अपराध का भाव न होगा तो क्या होगा’ परमात्मा के नाम से न—मालूम क्या चल रहा है! जो नहीं चलना चाहिए। मौत चल रही है परमात्मा के नाम से। जहूर चल रहे परमात्मा के नाम से। परमात्मा के नाम से थोथे क्रियाकांड चल रहे। परमात्मा के नाम से सब तरह की मूढताएँ चल रही, अंधविश्वास चल रहे।

कुछ बे—रिया अगर है तो दरबाने—मैकदा

देरो—हरम में बे—सरो—सामान जाइए

यह कवि ने ठीक सूचन दिया है। मंदिर—मस्जिद में जाओ तो बिना सामान के जाना, वहाँ लुटेरे हैं।

कुछ बे—रिया अगर है तो दरबाने—मैकदा

और अगर कहीं थोड़ी बहुत ईमानदारी बची है, छलरहिता, निष्कपटता बची है, तो वह सिर्फ मधुशाला में बची है। वहाँ तुम्हारी चीजें बच जाएँगी, तुम भी बच जाओगे। लेकिन मदिर—मस्जिद में तुम बेच दिये गये हो, तुम बिक गये हो। वहाँ तुम्हारा सौदा कर लिया गया है। कोई हिंदू होकर बिक गया है, कोई मुसलमान होकर बिक गया है, कोई ईसाई होकर बिक गया है। विशेषण रह गये हैं लोगों के हाथों में। राख रह गयी है लोगों के हाथों में। अब हिंदू होने से क्या होता है? मुसलमान होने से क्या होता है? आदमी होने से कुछ होता है जरूर। मगर मुसलमान जो है, वह आदमी नहीं हो पाता, क्योंकि मुसलमान है तो आदमी केसे हो? और हिंदू जो है तो आदमी नहीं हो पाता। जो भारतीय है, वह कैसे आदमी हो? जो पाकिस्तानी है, वह कैसे आदमी हो?

आदमी के ऊपर पहले और दूसरी शर्तें लगी हैं। हजार बंधन लगे हैं। इन बंधनों में तुमने अपने को घेर लिया है, तुम बिक गये हो किन्हीं के हाथों में। तुम्हें पता भी नहीं तुम कब बिक गये हो। तुम उतने बचपन में बिक गये हो जब तुम्हें होश भी नहीं था। तब तुम्हारे माँ—बाप ने तुम्हें बेच दिया है, तब तुम्हारे परिवार ने तुम्हें बेच दिया है—वे भी बिके हुए लोग थे। उनको उनके माँ—बाप बेच गये थे। ऐसे पीढ़ी—दर पीढ़ी लोग बेचते चले जाते हैं।

तुम्हें पता ही नहीं है कि तुमने अभी धर्म की तलाश नहीं की है, खोज ही नहीं की है और तुम धार्मिक बन बैठे। हिंदू बन सकते हो तुम बिना खोजे, धार्मिक नहीं बन सकते। धार्मिक बनने के लिए दुस्साहस चाहिए, खोज करने की हिम्मत चाहिए। अंधेरे में जाने की जोखम उठानी पड़ती है। भटक भी सकते हो। वह खतरा भी मौजूद है। लेकिन जो भटकने का खतरा लेते हैं, वे ही पहुँच पाते हैं। और जो भटकने का खतरा लेते हैं, परमात्मा उन्हें नहीं भटकने देता, उनके सहारे को आ जाता है। असहाय जो है, उसे परमात्मा का सहारा सदा उपलब्ध है।

मगर तुम्हारे मंदिर—मस्जिदों ने तुम्हें बड़ा आश्वस्त कर दिया है कि तुम्हें सब मालूम है। इसलिए जिंदगी से भी कोई शिकवा पैदा नहीं होता, क्योंकि बड़ी जिंदगी का कोई अनुभव पैदा नहीं होता।

अब इस अवसर को चूकना मत। अब यह जो थोड़ी—सी उत्फुल्लता तुम्हारे हृदय में जग रही है और थोड़ी गर्मी तुम्हारे प्राणों में आ रही है, इसको साथ— दो, सहयोग दो।

जिंदगी की कद्र सीखी शुक्रिया तेगे—सितम!

हाँ हमीं थे कल तलक जीने से उकताए हुए

सैरे—साहिल कर चुके ऐ मौजे—साहिल सर न मार

से क्या बहलेंगे तूफान के बहलाए हुए

साज उठाया जब तो गरमाते फिरे जर्रोंके दिल

जाम हाथ आया तो महरो—महके हम साये हुए

तुम्हारे हाथ में मैंने एक जाम दे दिया है, तुम्हारे हाथ में मैंने मधु से भरी हुई प्याली दे दी है, अगर पीने की हिम्मत की तो जल्दी ही तुम चाँद—तारों के पड़ोसी हो जाओगे।

जाम हाथ आया तो महरो—महके हमसाये हुए

चाँद—तारों के साथ तुम्हारी दोस्ती बन सके, इसका उपाय कर रहा हूँ। बस तुम गे थोड़ी—सी हिम्मत होने की जरूरत है। और स्वभावत. चाँद—तारों से दोस्ती करनी दो तो हिम्मत चाहिए पड़ेगी। इतना फैलने की हिम्मत चाहिए पड़ेगी। चाँद—तारों को अपने भीतर लेने की हिम्मत चाहिए पड़ेगी। छोटे—छोटे होने से काम न चलेगा।

सब क्षुद्रताएँ, सब संस्कार छोड़ देने होंगे। असंस्कारित होकर ही तुम स्वतंत्र हो पाओगे। संस्कारमुक्त होकर ही तुम स्वतंत्र हो पाओगे। मैं तुम्हें स्वतंत्रता ही नहीं देना चाहता, स्वच्छंदता देना चाहता हूँ। ठीक—ठीक अर्थों में स्वच्छंदता। तुम्हारे भीतर के स्वयं के छंद को जगाना चाहता हूँ।

स्वच्छंदता का अर्थ उच्छृंखलता मत कर लेना। तुम्हारे भीतर सोया हुआ है छंद। वह जग सकता है, वह जगने को आतुर है, बीज की तरह तड़फ रहा है कि कब तुम उस पर ध्यान दो वह फूटे, अंकुरित हो, वृक्ष बने; कब उसमें फूल खिले, आकाश को सुगंध से भर दे। और जब तक तुम आकाश को सुगंध से भरने के योग्य न हो जाओ, तब तक जानना कुछ कमी है, कुछ कमी है।

 

दूसरा प्रश्न:

कृपया बताएँ कि गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब वह तारनहार बन जाता है? यह बात शिष्य पर निर्भर है या गुरु पर?

ज्जब ने गुरु को मारनहार कहा। कहा कि तब तक तलफ न मिटेगी जब तक मारनहार न मिल जाए। तब तक पीड़ा न मिटेगी जब तक मारनहार न मिल जाए। तब तक यह वेदना से छुटकारा नहीं है जब तक मारनहार न मिल जाए। मारनहार कहा गुरु को। बड़े गहरे अर्थों से कहा। गुरु वही, जहाँ तुम्हारा अहंकार मरे, जहाँ तुम्हारा आपा मिटे। जहाँ तुम राख हो जाओ जलकर, गुरु की अग्नि में ग्रुरु के प्रेम में तुम ना हो जाओ; इसलिए मारनहार कहा।

लेकिन वही जो एक तरफ से मृत्यु है, दूसरी तरफ से तर जाना है। अहंकार मरे तो आत्मा की उपलब्धि हो। जो एक तरफ से सूली है, वही दूसरी तरफ से सिंहासन

जब गुरु से पहली दफा मिलना होता है तब वह मारनहार होता है। और इसलिए लोग गुरु से मिलने से डरते हैं। गुरु से दूर—दूर रहते हैं। हजार तरह के तर्क खोज लेते हैं दूर—दूर रहने के। कि क्यों किसीके चरणों में झुकना? हम परमात्मा से सीधे—सीधे ही जुड— लेंगे। क्या जरूरत है कि हम किसी से सीखने जाएं? इस जिंदगी में तुमने जो भी सीखा है, औरों से सीखा है। तब तुमने यह सवाल नहीं उठाया। लेकिन जब परमात्मा को सीखने की बात आती तो यह सवाल उठना शुरू हो जाता है। अहंकार जाल खड़े कर रहा है। अहंकार कह रहा है— यह उचित नहीं; तुम और झुको! तुम और शिष्य बनो! तुम और समर्पण करो! अहंकार अपने को बचाएगा। और अहंकार सद्गुरुओं के खिलाफ हजार तरह के विचार खड़े करेगा। बड़े तर्कसंगत भी। और कठिनाई नहीं है विचार खड़े करने में। किसी भी चीज के विरोध में तुम्हें विचार करना हो, तुम कर सकते हो।

तुम जरा एक दिन प्रयोग करके देखना कि यह जो आदमी रास्ते पर जा रहा है, कोई भी आदमी, अ, ब, स—इसके खिलाफ मुझे सोचना है। फिर तुम उसके पीछे लग जाना। फिर दो—चार दिन उसका निरीक्षण करना। और एक जिद्द पर अड़े रहना कि इसके खिलाफ मुझे कुछ पता लगाना है। तुम्हें हजारों तथ्य मिल जाएँगे। और फिर अगर तुम यह तय कर लो कि इस आदमी की अच्छाइयों का पता लगाना है तो तुम उसी आदमी के पीछे पड़ जाना, दो—चार दिन कोशिश करते रहना, तुम हजारों अच्छाइयाँ पता लगा लोगे।

सुफी फकीर हुआ — जुन्नैद। एक रात उसने सपना देखा कि वह परमात्मा के सामने खड़ा है। परमात्मा ने उससे कहा, कुछ पूछना तो नहीं? उसने कहा, एक ही जिज्ञासा है, बस एक ही जिज्ञासा है। मेरे गाँव में सबसे ज्यादा सात्विक आदमी कौन है? तो परमात्मा से आवाज आयी उसे कि तेरा पड़ोसी। नींद खुल गयी उसकी—उसे धक्का इतना लगा। पड़ोसी! पड़ोसी ही तो सबसे बुरा आदमी होता है दुनिया में। पड़ोसी से बुरा तो कोई होता ही नहीं। पड़ोसी में कभी कोई अच्छाई दिखायी पड़ती ही नहीं किसीको।

प्रसिद्ध वचन है जीसस का कि अपने पड़ोसी को अपने ही जैसा प्रेम करो। और।’क दूसरा वचन है कि अपने शत्रु से अपने ही जैसा प्रेम करो। एक ईसाई पुरोहित से मैं बात कर रहा था, मैंने कहा इन दोनों का एक ही अर्थ है, क्योंकि पड़ोसी और दुश्मन दो नहीं होते। वह तो एक ही आदमी का नाम है। पड़ोसी ही तो दुश्मन होता है।

जुन्नैद की नींद खुल गयी। पड़ोसी! यह तो कभी उसने सोचा ही नहीं था। वह तो सोच रहा था, उसके गुरु के संबंध में कहेगा परमात्मा। और भीतर कहीं यह भी आशा थी कि शायद मेरा ही नाम ले दे कि जुन्नैद, तेरे सिवा और कौन सात्विक आदमी तेरे गाँव में? कहीं भीतर वह आकांक्षा थी। पड़ोसी! इस आदमी में तो बातने कभी कुछ अच्छा देखा ही नहीं। मगर जब परमात्मा कहता है तो ठीक ही कहता होगा। लाख समझाने का उपाय किया, लेकिन नहीं समझा पाया कि पड़ोसी ही सबसे ज्यादा सात्विक है।

दूसरे दिन जब सोया, संयोग की बात फिर उसे सपना आया, फिर वह परमात्मा के सामने खड़ा है—शायद दिन भर सोचता रहा था कि अब अगर मिलना हो जाए तो फिर पूछ ही लूँ ठीक से। तो उसने कहा कि वह तो ठीक है, आपने जो कहा, एक सवाल और है, मेरे गाँव में सबसे बुरा आदमी कौन है? तो परमात्मा ने फिर कहा—तेरा पड़ोसी। अब तो और उलझन हो गयी। पड़ोसी तो एक ही था। परमात्मा हँसा और उसने कहा, तू घबड़ा मत और बेचैन मत हो, सब देखने की बात है। तू चाहे तो बुरे—से—बुरे आदमी को पड़ोसी में देख सकता है, और तू चाहे तो भले—से—भले आदमी को पड़ोसी में देख सकता है।

यह दुनिया वैसी ही हो जाती है जैसा तुम देखते हो, देखना चाहते हो। जब कोई गुरु से बचना चाहता है तो सब तरह की बुराइयाँ खोज लेता है। आसान है। कोई अड़चन नहीं।

जुन्नैद के जीवन में एक और उल्लेख है। वह बगीचे में अपने काम कर रहा था, खुर्पी लिए कुछ खोद रहा था कि बीच में ही कुछ काम से उसे अंदर जाना पडा, खुर्पी वहीं छोड़ गया, लौट कर आया खुर्पी नदारद थी। तभी उसने चारों तरफ देखा, वही पड़ोसी जा रहा था। उसने कहा, हो न हो! उसने उसे गौर से देखा कि अगर चोरी इसने की होगी तो इसकी चाल से पता चलेगा। उसको चाल बिलकुल पक्के चोर की मालूम पड़ी। उसने और गौर से देखा, जाकर और किनारे खड़ा हो गया दीवाल के, उसको बिल्कुल आखें गड़ा कर देखा, और उसे लगा कि पड़ोसी घबड़ा भी रहा है, आँखें झुकाए है, शर्मिदा है, उसे बिल्कुल पक्का हो गया। फिर दो—चार दिन वह देखता ही रहा, पड़ोसी जब भी निकले, यहाँ—वहाँ जाए, और हमेशा उसका भरोसा मजबूत होता चला गया कि इसीने चुरायी है। हर बात ने इसी की गवाही दी। उसका चलना, उसका उठना, उसका बैठना, उससे जयरामजी भी की तो जैसे उसने डर कर जयरामजी का उत्तर दिया, हर चीज से पता चला कि चोर यही है।

पाँचवें दिन वह बगिया में फिर काम कर रहा था कि मिट्टी में ही गड़ी हुई उसे अपनी खुर्पी मिल गयी। अरे, उसने कहा कि मैंने भी नाहक बेचारे पड़ोसी को दोष दिया—तभी पड़ोसी जा रहा था, रास्ते से निकल रहा था, उसने गौर से देखा, ऐसा भला और प्यारा आदमी! चाल तो देखो, बिल्कुल साधुओं जैसी है! चेहरे का भाव तो देखो, कैसा प्रसादपूर्ण है!

तुम जो देखना चाहते हो, देख लोगे। तुम्हें आदमी में शैतान मिल सकता है, तुम्हें आदमी में भगवान मिल सकता है। फिर तुम्हें जिसके साथ— रहना हो, उसे खोजो। कुछ लोग शैतानों में ही रहना पसंद करते हैं, वे सब में शैतान खोजते रहते हैं। उनकी दुनिया नर्क हो जाती है। उनको हर आदमी बुरा दिखायी पड़ता है, फिर उन्हीं बुरे आदमियों के बीच रहना पड़ता है—जाओगे कहाँ, यही तो आदमी हैं! इन्हीं आदमियों के बीच कोई—कोई स्वर्ग में रह लेता है, क्योंकि वह हर आदमी में भला देखता है। हर आदमी में भला देखा जा सकता है।

और सद्गुरु तो बड़ी विरोधाभासी घटना है। सद्गुरु में तो एक अतिक्रमण है—इस जगत का है सद्गुरु और इस जगत के पार का भी। उसमें बड़ा विरोधाभास है। शरीर में है और शरीर के बाहर है। संसार में है और संसार उसके भीतर नहीं है। उसमें दो गणित का मेल हो रहा है। दो बिल्कुल अलग गणित, दो बिल्कुल अलग जीवन—नियम उसमें मिल रहे हैं, जो बिल्कुल एक—दूसरे के विपरीत हैं। तुम जो भी देखना चाहो।

जो उसके विरोध में देखना चाहेगा, वह इस जगत के नियम को उसमें देख लेगा। जो उसके पक्ष में देखना चाहेगा, वह उस जगत के नियम को उसमें देख लेगा। अहंकार तर्क खोज लेता है। तुम बुद्ध के पास होते हो तो तुम तर्क खोज लेते हो। तुमने खोजे थे—शायद तुम में से कुछ रहे भी हों। क्योंकि तुम नये नहीं हो। यहाँ कोई नया नहीं। ये सब पुराने यात्री हैं। ये सब यहाँ चल ही रहे हैं, चलते ही रहे हैं। तुम्हारे सिर पर इतनी धूल है सदियों की, जन्मों—जन्मों की। तुम बुद्ध को भी बचकर आ गये हो, तुम महावीर को भी बचकर आ गये, तुम कृष्ण को भी बचकर आ गये, तुमने हर एक में कुछ—न—कुछ भूल निकाल ली।

जरा सोचो, अगर तुम्हें भूल निकालनी है, कृष्ण में कोई कमी है भूल निकालने की! कितनी भूलें न तुम निकाल लोगे! न निकालना चाहो, एक बात। मगर अगर निकालना चाहो तो कितनी भूलें न निकाल’ लोगे। भूल की दृष्टि से भी कृष्ण पूर्णावतार हैं। औरों ने भूलें की हैं तो छोटी—छोटी की हैं। राम ने भी की होंगी और बुद्ध ने भी की होंगी, मगर उनकी भूलों की मर्यादा है। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, भूल भी मर्यादा में करते हैं! कृष्ण ने तो ऐसी भूलें कीं कि अमर्याद हैं। कितनी भूलें तुम नहीं निकाल लेते कृष्ण को, जरा एक बार सोचना एकांत में बैठकर और हो सकता है तुम कृष्ण के भक्त होओ और मंदिर में खड़ी मूर्ति की पूजा करते हो और घर में तुमने कृष्ण का झूला बना रखा हो और उनको झूला झुलाते हो—जरा एक बार बैठकर, झुला रोक कर, आँख बंद करके सोचना, किसको झूला खुला रहे हो? सोलह हजार स्त्रियाँ थी इसकी। ये सब स्त्रियाँ इनकी अपनी भी नहीं थीं, इनमें कई तो दूसरों की पत्नियाँ थीं जिनको वे भगा लाए थे—। फिर झूला न हिलाओगे! फिर ऐसा होगा कि अब इस झूले सहित इन सज्जन को घर के बाहर कैसे निकालें?

नहीं, लेकिन तुम सोचते नहीं, मुर्दा से क्या लेना—देना, मुर्दा को झूला झुलाते रहो। असली कृष्ण के पास होते तो तुम्हें दिक्कतें आ जातीं। बुद्ध के पास दिक्कतें आ गयी थीं। कृष्ण में तो भूलें साफ—साफ दिखायी पड़ती हैं। कोई बहुत खोजबीन की जरूरत नहीं है। कृष्ण तो बड़े प्रकट हैं, सीधे—साफ हैं। कृष्ण में तो जिसको श्रद्धा करने की जिद्द ही हो गयी हो, वही कर सकता है। जिसने तय ही कर लिया हो कि करो जो तुम्हें करना हो मगर हम श्रद्धा करेंगे।

और यही कृष्ण की खूबी है। क्योंकि इतनी चुनौती देते हैं तुम्हारी श्रद्धा को, फिर भी अगर तुम श्रद्धा कर लोगे तो तर जाओगे। यह कृष्ण की खूबी है। इतना बड़ा सद्गुरु कभी हुआ नहीं, क्योंकि श्रद्धा को इतनी चुनौती किसी ने कभी दी नहीं। जो कर सकें श्रद्धा, वे तर ही जाएँगे, अब और क्या बचा? कृष्ण पर श्रद्धा कर ली तो अब किस पर अश्रद्धा रह जाएगी? आखिरी कदम उठा लिया, आखिरी परीक्षा पार हो गये, उत्तीर्ण हो गये।

बुद्ध पर श्रद्धा करना ज्यादा आसान है। लेकिन बुद्ध पर भी अश्रद्धा करने वाले लोग हैं। छोटी—छोटी बात में भूल निकाल लेते हैं। जिनको अश्रद्धा करने की ही जिद है, वे बुद्ध में भी भूल निकाल लेते हैं। वें कहते हैं कि अगर बुद्ध परम ज्ञानी हैं, तो बीमार क्यों होते है? बुद्ध की मृत्यु हुई विषाक्त भोजन करने से। जो विरोधी हैं वे कहते हैं, जिनको इतना भी पता न चला कि जो भोजन हम कर रहे हैं यह विषाक्त है, इनको त्रिकालज्ञ कैसे कहोगे? त्रिकालज्ञ का तो अर्थ होता है, जो तीनों काल जानता है। जो पहले हुआ है वह भी जानता है, जो अभी हो रहा है वह भी जानता है। जैनों ने यही संदेह उठाया है बुद्ध पर कि बुद्ध सर्वज्ञ नहीं हैं। तीनों काल की तो छोड़ो, भोजन पर बैठे हैं थाली पर और जो भोजन है वह विषाक्त है, इसका भी पता नहीं चल रहा, विषाक्त भोजन कर गये और मारे गये उसीसे। यह कैसी सर्वज्ञता हे?

अब देखना यह घटना, तुम्हें भी लगेगी कि बात तो ठीक है, अगर सर्वज्ञता बुद्धत्व का लक्षण है, तो यह कैसी सर्वज्ञता है? लेकिन जिसको श्रद्धा है, वह क्या देखता है? वह देखता है बुद्ध की अनुकंपा। वह कहता है कि बुद्ध को दिख रहा है कि यहाँ जहर है, लेकिन जिस आदमी ने भोजन तैयार किया है उसने इतने प्यार से तैयार किया है कि अब उसके सामने यह कहना कि इसमें जहर है, उसके हृदय को आघात पहुँचाना होगा। इससे तो जहर को पी जाना ही बेहतर है। उसको आघात नहीं पहुँचाना चाहते।

वह एक गरीब आदमी था। वर्षों से बुद्ध को निमंत्रण दे रहा था। फिर जब बुद्ध उसके गाँव आए, तब वह सुबह तीन बजे रात ही आकर बुद्ध के दरवाजे पर खड़ा हो गया—नहीं तो और लोग आ जाते थे, पहले निमंत्रण दे जाते थे—वह तीन बजे जब बुद्ध उठे, आँख खोली, तो पहले उसे ही खड़ा पाया। पूछा कि तू भई, इतनी रात? उसने कहा कि आज तो मैं निमंत्रण पहला मेरा है, अभी कोई दूसरा आया नहीं है—जब बहू निमंत्रण दे ही रहा था तभी सम्राट प्रसेनजित भी आ गये, लेकिन बुद्ध ने कहा अब देर हो गयी। पहला निमंत्रण तो उसका है। अब तो मैं उसके घर भोजन करूँगा।

निमंत्रण तो दे आया, लेकिन उसके घर भोजन तो कुछ था नहीं। बिहार का गरीब आदमी।……बिहार कोई आज ही गरीब नहीं है, वह पहले ही से गरीब है। बिहार के लोग कुशल हैं गरीब होने में। सदियों से उन्होंने उसका अभ्यास कर रखा है।…….उसके पास खिलाने को तो कुछ था नहीं। बिहार में गरीब आदमी उन दिनो—और शायद अब भी यह करते हों—बरसात में जो कुकुरमुत्ते पैदा हो जाते हैं, उनको इकट्ठा कर लेते हैं। उनको सुखा कर रख लेते हैं। फिर उनकी साल भर सब्जी बनाते हैं। अब कुकुरमुत्ता कोई खाने की चीज नहीं है, मगर पेट बिल्कुल खाली हो तो कुछ भी खाने की चीज हो जाती है। कुकुरमुत्ते कभी—कभी विषाक्त होते हैं, क्योंकि कहीं भी ऊगते हैं, अक्सर तो गंदी जगह में ऊगते हैं—इसीलिए तो कुकुरमुत्ता उसका नाम है, कि कुत्ता वहाँ पेशाब कर गया है। लोग समझते हैं कुत्ते के पेशाब करने से ऊगता है। मगर अक्सर गंदी जगहों में ऊगते हैं—कूड़ा—करकट भरा हो, लकड़ी इत्यादि पड़ी हो पुरानी, सीली, उनमें ऊग आते हैं।

कुकुरमुत्ते की सब्जी बनायी उसने—और तो उसके पास सब्जी थी भी नहीं— वह विषाक्त थी। जिनको बुद्ध से प्रेम है, जिनको बुद्ध से श्रद्धा है, जो सद्गुरु के साथ होना चाहते हैं, वे कहते हैं—बुद्ध ने देखा, लेकिन बिना कुछ कहे चुपचाप भोजन कर लिया। विषाक्त था, जहरीला था, कडुवा था। इतना ही नहीं कि भोजन कर लिया, उसे धन्यवाद दिया। उसके प्रेम को देखा, उसके भोजन को नहीं। भोजन कड़वा हो, लेकिन प्रेम ने उसे मधुर बनाया था। और कभी—कभी ऐसा होता है सम्राटों के घर भोजन करो और मीठा नहीं होता, क्योंकि प्रेम का माधुर्य नहीं होता। लौटकर जब अपने झोंपड़े पर आ गये तो उन्होंने जो पहली बात कही अपने संन्यासियों से, वह यही कही कि जाकर गाँव में खबर कर दो कि उस गरीब आदमी का बड़ा भाग्य हैं—दुनिया में दो सबसे बड़े’ भाग्यशाली हैं, वह माँ जो सबसे पहला भोजन देती है बुद्धपुरुष को और वह व्यक्ति जो अंतिम भोजन देता है—यह बड़ा भाग्यशाली है, इसने अंत्तिम भोजन दे दिया। आनंद ने कहा—आप यह क्या कह रहे हैं? बुद्ध ने कहा—तू जा और गाँव में डुंडी कर, नहीं तो मेरे मर जाने के बाद लोग उसे मार डालेंगे। उसे क्षमा नहीं कर सकेंगे। जाकर गाँव में खबर कर दे कि वह धन्यभागी है।

अब जिसको श्रद्धा है, उसे यह दिखायी पड़ता है। यह जिसको श्रद्धा है, उसने यह कहानी लिखी। उसने यह बुद्ध का भीतरी भाव लिखा। जिसको श्रद्धा नहीं है, उसे लगता है यह अज्ञानी हैं। इनको यह भी पता नहीं चल रहा है कि सामने रखा भोजन विषाक्त है, करने योग्य नहीं है। यह सर्वज्ञ कैसे? यह त्रिकालज्ञ कैसे? इनका ज्ञान कैसा? अज्ञानी हैं, जैसे और सब अज्ञानी हैं वैसे ही अज्ञानी हैं। जिनको सामने खड़ी मौत नहीं दिखायी पड़ रही है, अपनी मौत नहीं दिखायी पड़ रही है, वे दूसरों को क्या अमृत के दर्शन करा सकेंगे?

अब तुम देखते हो, आदमी तरकीबें खोज ले सकता है। सदा से यह हुआ है। सदा यह होता रहेगा।

गुरु तो मारनहार है! उसके पास तो वे ही आ सकते हैं जिन्हें गर्दन कटाने की तैयारी है। जो कहते हैं, देख लिया अपनी तरह से जी कर, कुछ पाया नहीं, अब किसीके चरणों में सिर रख दें और उसके इशारे से जीकर देख लें, शायद कुछ मिल जाए। अपनी तरफ से जीए, दुख पाया, पीड़ा पायी, विषाद पाया। अब किसी और के इशारे से चल कर देख लें, हम तो हार गये हैं, शायद कोई और जीत जाए। किसी और के भाग्य से अपना भाग्य जोड़कर देख ले, हमारा भाग्य तो अमावस बन गया है, शायद किसी और के भाग्य के साथ पूर्णिमा हो जाए। तो जो मरने को तैयार है, वही गुरु के पास आ पाता है। पहला अनुभव तो गुरु का मारनहार की तरह ही होता है। और गुरु चोट करना शुरू करता है। और गुरु सब तरफ से काटता है। तुम्हारे धर्म को काटेगा, तुम्हारे शास्त्र को काटेगा, तुम्हारी धारणा को काटेगा, तुम्हारे सिद्धांत को काटेगा, तुम्हें सब तरफ से मारेगा। वही तुम नहीं समझ पाओगे तो चूक जाओगे।

छोटी—सी बात तुम्हारे धर्म के खिलाफ कह देगा— और तुम्हारा धर्म क्या है? तुम्हारे पास धर्म ही होता तो तुम्हें गुरु के पास आने की जरूरत न थी! थोड़ी—सी बात तुम्हारे खिलाफ कह देगा कि बस तुम बेचैन हो गये, कि तुम चले, कि यह जगह अपने लिए नहीं है। तुम अपना सहारा खोजने आए थे.? तुम अपने तर्कों के लिए और तर्क खोजने आए थे? तुम चाहते हो गुरु तुम जैसे हो उसको और मजबूत कर दे? गुरु तुम्हारा दुश्मन नहीं है। तुम वैसे ही काफी मजबूत हो, उसीलिए काफी दिन से भटक रहे हो। अब तुम्हें कमजोर करना है। अब तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच लेनी है।

इसलिए ख्याल रखना, गुरु अगर तुम मुसलमान हो और मुसलमान धर्म के खिलाफ कुछ कहे, तो उसे मुसलमान धर्म से कुछ लेना—देना नहीं है, वह सिर्फ तुम पर चोट कर रहा है। उसका प्रयोजन कुछ और है। अगर गुरु हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ कहे तो वह हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ भी नहीं कह रहा है, उसे क्या लेना—देना धर्म से, वह तो सदा ही धर्म के पक्ष में है, मगर तुम्हारे हिंदूपन के खिलाफ कुछ कह रहा है। वह यह कह रहा है, तुम्हारा यह हिंदूपन का जो आग्रह है, यह तुम्हें अटका रहा है, इसे जाने दो, इसे बह जाने दो, तुम इससे मुक्त हो जाओ, यह दीवाल गिरा दो। तो तुम्हारी बहुत—बहुत धारणाओं पर चोट करनी पड़ेगी।

कल ही मैंने तुमसे कहा कि महावीर को साँप ने काटा, जैन कहते हैं दूध निकला, तो मैंने कहा कि दूध तो निकल नहीं सकता क्योंकि जब साँप ने काटा तब उम्र महावीर की कम—से—कम पचास साल थी! तब तक तो दही जम गया होगा। बस, किसी जैनी को दुख हो गया। उसने पत्र लिख दिया। उनसे मैं कहता हूँ कि मेरी बात गलत थी। असल में दही नहीं निकला, घी निकला था। पचास साल, दही तो कब का जम गया होगा, मेरी बात गलत है, जमा—जमा दही के ऊपर मक्खन की पर्त भी जम गयी होगी। और महावीर नंग—धड़ंग धूप में खड़े रहते थे, घी बन गया होगा। मैं अपनी बात वापिस लेता, कल जो मैंने कहा था वह गलत था, उसमें सुधार कर लो—घी निकला था। इससे दिल प्रसन्न होता है!

तुम पर चोट कर रहा हूँ, महावीर से क्या लेना—देना है? जब महावीर पर चोट कर रहा हूँ तब भी तुम्हारे महावीर पर चोट कर रहा हूँ। मेरे भी महावीर हैं। वह प्रतिमा और है। उस प्रतिमा पर चोट नहीं कर रहा हूँ। उस प्रतिमा को ही निखारने के लिए तुम्हारी प्रतिमा पर चोट कर रहा हूँ। मेरे महावीर तुम्हें दिखायी पड़ सकें, इसलिए तुम्हारे महावीर को मुझे छीनना पड़ेगा। कठिन होगा, पीड़ादायी होगा, जैसे कोई चमड़ी उधेड़ रहा हो तुम्हारी ऐसा होगा। कितने—कितने प्रेम से तुमने अपनी प्रतिमा सजायी है और मैं उठाकर हथौड़ी उसे तोड्ने लगा! मैं मूर्ति भंजक हूँ। लेकिन वस्तुत: जिनकी मूर्तियाँ तोड़ी जा रही हैं उनकी मूर्तियाँ नहीं तोड़ी जा रही हैं, उनके बहाने तुम्हारी मूर्ति तोड़ी जा रही है। वे तुम्हारी मूर्तियाँ हैं, तुम ही उनके नियंता हो। तुम्हीं उनके केंद्र हो। तुम्हारी सब मूर्तियाँ तोड़ दी जाएँ तो तुम्हारा अहंकार टूट जाएगा।

मैं तुम्हारे हाथ के पूजा के थाल छीन लूँगा, तुम्हारे ओंठों पर आयी हुई प्रार्थनाएँ छीन लूँगा। छीनना ही पड़ेगा। तभी तो उस सहज प्रार्थना को जन्म मिल सकता है जो तुम्हारे हृदय में दबी पड़ी है, जो मुझे दिखायी पड़ रही है कि दबी पड़ी है। मैं देख रहा हूँ कि एक बजि पड़ा है और उसके ऊपर एक चट्टान रखी है। चट्टान को हटाना पड़ेगा। तो बीज उमने। तुम्हारे भीतर प्रार्थना पड़ी है, मगर तुम हो कि सीखी हुई प्रार्थना में अटके हो। हरे कृष्णा हरे रामा कर रहे हो! उधर राम तुम्हारे भीतर पड़े हैं, वे कहते हैं—चट्टान तो हटाओ, तुम कहते हो—चुप भी रहो, हम अभी भजन कर रहे हैं, भजन में बाधा मत डालो!

मैं इस चट्टान को हटाऊँगा। तो स्वभावत: जो मेरे पास आया है, उसे मैं पहले अगर मृत्यु जैसा मालूम पडूँ तो आश्चर्य नहीं है। मृत्यु को जानकर भी जो टिक जाएगा, वही तारनहार रूप देख पाता है।

तुमने पूछा है कृपया बताएँ कि गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब वह तारनहार बन जाता है? जब शिष्य मरने को राजी हो जाता है, तभी गुरु—तारनहार बन जाता हे। जब तक शिष्य मरने से बचता है, तब तक मारनहार रहता है। तुम्हारे मरने’ से बचने के कारण ही मारनहार रहता है। जब तुम खुद ही राजी हो जाते हो मरने को, फिर कौन मारने की तुम्हें जरूरत रही! फिर कोई प्रयोजन न रहा। जब तक तुम लड़ते हो तब तक मारनहार रहता है। जब तुम सब प्रतिरोध छोड़ देते हो समर्पित हो जाते हो, तुम कहते हो—यह रही गर्दन!

सैकड़ों वर्ष पहले भारत का एक अद्भुत ज्ञानी बोधिधर्म चीन गया। उसने चीन में जाकर घोषणा कर दी कि मैं दीवाल की तरफ मुँह करके बैठा रहूँगा, जब तक कि असली शिष्य न आ जाएगा। वह नौ साल तक दीवाल की तरफ मुँह करके बैठा रहा। अपनी किस्म का आदमी था, झक्की था। दुनिया के सभी सद्गुरु झक्की होते हैं। झक्‍की का मतलब यह कि वे अपने तरह के ही होते हैं। उन जैसा आदमी फिर दुबारा नहीं होता। अद्वितीय होते हैं, बेजोड़ होते हैं। फिर बोधिधर्म दुबारा नहीं होता। वैसा रंग और रूप परमात्मा एक ही बार लेता है।

वह नौ साल तक बैठा रहा दीवाल की तरफ मुँह करके। न मालूम कितने लोग आए, सम्राट आया देश का, उसने प्रार्थना की किं आप मेरी तरफ मुँह करें। आप दीवाल की तरफ मुँह क्यों किये हुए हैं? बोधिधर्म ने कहा कि मैंने सब चेहरों में सिर्फ दीवालें देखीं, थक गया, इससे यह दीवाल बेहतर। जब कोई चेहरा आएगा जिसमें मैं पाऊँगा दीवाल नहीं है, द्वार है, तो मैं मुँह फेरूँगा। तुम वह चेहरे नहीं हो, जाओ! रफी—दफा हो जाओ! बड़े—बड़े पंडित आए—होड़ लग गयी, कौन बोधिधर्म का मुँह अपनी तरफ फिरवा लेगा? बड़े लानी आए, मगर बोधिधर्म था कि दीवाल की तरफ बैठा रहा सो बैठा रहा।

फिर आदमी आया नौ साल के बाद। उस आदमी का नाम था—हुई नेंग। बर्फ पड़ रही थी, सर्दी के दिन थे, बर्फ जमी थी, बोधिधर्म बैठा है, उसके चारों तरफ बर्फ; जम गयी है, और वह दीवाल की तरफ देख रहा है। हुई नेंग उसके पीछे आकर खड़ा हो गया, बोला भी नहीं। उसने यह भी नहीं कहा कि मेरी प्रार्थना है, मेरी तरफ देखिये। वह खड़ा ही रहा, खड़ा रहा, चौबीस घंटे खड़ा रहा। आखिर बोधिधर्म को हा पूछना पड़ा कि भाई, तुम यहाँ क्या कर रहे हो? पूछना ही पड़ेगा, चौबीस घंटे से यह आदमी खड़ा है, बोलता ही नहीं, बोधिधर्म भी डरा होगा कि मामला क्या हे? कोई हमसे भी ज्यादा पागल आदमी आ गया! बर्फ जमी जा रही है और यह खड़ा है। हुई नेंग ने कहा कि कुछ भेंट लेकर आया हूँ आपके लिए। और तलवार निकाली और अपना हाथ काटकर भेंट कर दिया। कटा हुआ हाथ, लहू की धार और हुई नेंग ने कहा—फिरो मेरी तरफ, अन्यथा गर्दन उतार दूंगा।

और कहते हैं तत्क्षण बोधिधर्म फिरा और कहा कि रुक भाई, गर्दन मत उतार देना। तेरी मैं प्रतीक्षा कर रहा था। जो गर्दन देने को तैयार है, उसकी गर्दन लेने की कोई जरूरत नहीं है। जो गर्दन देने को तैयार नहीं है, उसकी गर्दन लेने की जरूरत है।

इस भेद को ख्याल रखना, इस बात को ख्याल रखना। गुरु तब तक मारनहार है, जब तक तुम लड़ रहे हो, बचा रहे हो अपनी गर्दन। अपने हाथ में ढाल लिये हो, वह जहाँ से चोट करता है वहीं से बचा लेते हो। जब तक तुम बचाव कर रहे हो, गुरु मारनहार है। जब तुम ढाल फेंक दोगे, गर्दन सामने रख दोगे, कहोगे— उठाओ तलवार और काट दो मेरी गर्दन, उसी क्षण गुरु तारनहार हो जाता है।

पूछा तुमने—यह बात शिष्य पर निर्भर है या गुरु पर? यह बात शिष्य पर निर्भर है। गुरु पर निर्भर नहीं है। गुरु तो सदा तारनहार है। गुरु का तो अर्थ ही होता है, जो तारनहार है। और क्या गुरु का अर्थ होता है? जो पार ले जाए’, जो उतार दे पार। गुरु तो सदा ही तारनहार है। लेकिन चूँकि शिष्य अभी डरता है, नाव में बैठने की शर्तें पूरी नहीं कर पाता, गुरु कहता हैं—तुम तो नाव में बैठ जाओ लेकिन यह जो तुम झोली साथ में लिए हो, यह वहीं रख दो। झोली में वह अशर्फियाँ लिये हुए है। वह कहता है कि झोली के साथ. ही नाव में आ जाने दो। गुरु कहता है— नाव में तुम तो आ जाओ, मगर यह शास्त्र जो तुम सिर पर रखे हो, इन्हें किनारे पर रख दो। यह नाव डुबानी नहीं है। शास्त्र वजनी हैं, ये नाव को डुबा देंगे। वह कहता है कि मैं कैसे शास्त्र को छोड्कर आ सकता हूँ? यह तो रामायण है! यह कोई साधाराग किताब थोड़े ही है, यह कुरान है! यह कोई साधारण किताब थोड़े ही है, पवित्र बाइबिल है! मैं इसको कैसे छोड़ सकता हूँ? मैं तो इसको साथ ही लेकर जाऊँगा। तो गुरु मारनहार लगता है। लेकिन जो राजी है, जो कहता है— यह छोड़ी किताब, यह छोड़ी मूर्ति, जो सब छोड़ने को राजी है, उसके लिए तत्क्षण गुरु तारनहार हो गया।

गुरु तो तारनहार था ही, सिर्फ शिष्य के देखने में परिवर्तन होते हैं। जब तक तुम गुरु से बच रहे हो, जब तक तुम गुरु के साथ चतुरता का व्यवहार कर रहे हो तब तक मारनहार है। जब तक तुम गुरु के साथ चालबाजियाँ कर रहे हो, बचाव कर रहे हो, होशियारियाँ कर रहे हो; जब तक तुम गुरु के साथ राजनीतिज्ञ का व्यवहार कर रहे हो, कूटनीति का व्यवहार कर रहे हो, तब तक मारनहार है। जैसे ही तुम सरल हो जाते हो, निर्दोष हो जाते हो, तुम्हें उसका तारनहार रूप दिखायी पड़ जाता है।

और जिंदगी जिसको समझ में आ गयी हो, जिंदगी के दुख जिसने देख लिये हों और जिंदगी की व्यर्थता पहचान ली हो, वह गुरु से लड़ेगा नहीं। लड़ने का यहाँ है क्या तुम्हारे पास?

रात भर जब जहन में बोता हूँ फनपारा कोई

काटता हूँ सुबह दम टूटा हुआ तारा कोई

रोशनी किसको मिली है किरमके—शबताब में

किसने इत्मीनान पाया है फसूने—ख्वाब में

 

सुबह से जब शाम तक कंगाल हो जाता हूँ मैं

आप अपने माल का दल्लाल हो जाता हूँ मैं

कौड़ियों के मोल बिक जाते हैं फनपारे मेरे

बुझ गये हैं बारहा कीचड़ में अंगारे मेरे

जब तुम्हें जिंदगी दिखायी पड़ती है सपना—ही—सपना है, और जब तुम जिंदगी की कीचड़ में अपने सारे अंगारों को बुझते हुए देखते हो, अपनी सारी आशाओं को मरते हुए देखते हो, तो तुम फिर बचाव नहीं करोगे सद्गुरु से। तुम्हारे पास बचाने को कुछ बचा ही नहीं। तुमने खुद ही देख लिया है कि तुम्हारे सिद्धांत तुम्हें पार नहीं कर पाए। तुम उन्हें तुम खुद ही छोड़ दोगे। गुरु को कहना भी नहीं पड़ेगा कि छोड़ दो। तुमने खुद ही देख लिया है कि तुम्हारे तिलक—चंदन तुम्हें बचा नहीं पाए, तुम खुद ही छोड़ दोगे। तुमने खुद ही देख लिया है तुम्हारा औपचारिक धर्म, क्रियाकांड, मंदिर—मस्जिद तुम्हें बचा नहीं पाए।

रोशनी किसको मिली है किरमके—शबताब में

किसने इत्मीनान पाया है फसूने—ख्वाब में

किसने सपने में शांति पायी है’ किसने सपने में आनंद पाया है? और मिल भी जाए सपने में आनंद तो सुबह जाग कर पता चलता है कि हाथ में कुछ नहीं. है, राख भी नहीं।

कौड़ियों के गोल बिक जाते हैं फनपारे मेरे

बुझ गये हैं बारहा कीचड़ में अंगारे मेरे

जरा देखो अपनी जिंदगी को, तुम्हारे सारे अंगारे कीचड़ में पड़े हैं और सब बुझ गये हैं, रोज बुझे जा रहे हैं, रोज तुम बुझे जा रहे हो, रोज मौत करीब आ रही है; जल्दी ही यह अंगारा जो जिंदगी है, बुझ जाएगी। जिसको यह बात दिखायी पड़ जाती है इस जिंदगी की व्यर्थता, वह लड़ता नहीं, वह बिना लड़े हथियार रख देता है। समर्पण का वही तो अर्थ है—हथियार रख देना। वह जाकर गुरु के चरणों में कहता है कि मैंने जीकर देख लिया, सब उपाय कर लिये, सब दौड़धाप—आपाधापी कर ली, कुछ हाथ लगता नहीं, अब आप जैसा कहें! आप जो कहें! अब आपकी आज्ञा ही मेरा जीवन होगा। अब मेरा मन मेरा मालिक नहीं होगा, आप मेरे मालिक हैं। अब मेरे मन की मैं नहीं सुनूँगा, मेरे मन की नहीं सुनूँगा, मेरा मन लाख कुछ कहे, मैं आपकी सुनूँगा। मेरा मन विरोध में रहे, रहा आए, मैं आपकी सुनूँगा। उसी क्षण गुरु तारनहार हो गया।

दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात

इसके दामन में मेरे अश्केरवाँ पलते हैं

हमसफर कोई नहीं है मेरी तनहाई का

चंद साये हैं जो हमराह मेरे चलते हैं

—डबडबायी हुई आखों में है सावन की झड़ी

और दिल में मेरे यादों के शजर फलते हैं

देख मैंने भी मनायी है यहाँ दीवाली

मेरी पलकों पे भी अश्कों के दीये जलते है

और क्या है तुम्हारी दीवाली! तुम्हारी आंखों पर तुम्हारे आँसुओं के अतिरिक्त तुम्हारे पास और कोई दीये नहीं हैं।

दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात

इसके दामन में मेरे अश्केरवाँ पलते हैं

जिंदगी भर तुमने दामन में भरा क्या है? तुमने अपने आँचल में भरा क्या है? तुम जरा झोली तो खोलो! जिसमें तुम हीरे—जवाहरात समझे हो, सिवाय तुम्हारे आँसुओं के और कुछ भी नहीं है। जहाँ तुमने मोती समझे हैं, वहाँ तुम्हारे आँसू हैं और कुछ भी नहीं है।

दीपमाला की यह बेचन बिलगती हुई रात

इसके दामन में मेरे अश्केरवाँ पलते हैं

हमसफर कोई नहीं है मेरी तनहाई का

चंद साये हैं जो हमराह मेरे चलते हैं

क्या है तुम्हारे पास? तुम्हारी छाया ही है, बस और कुछ भी नहीं।

चंद साये हैं जो हमराह मेरे चलते हैं

यहाँ कौन संगी है, कौन साथी है? यहाँ कौन अपना है? नहीं, तुम्हारी पत्नी भी तुम्हारी अपनी नहीं और तुम्हारा पति भी तुम्हारा अपना नहीं। तुम्हारा बेटा भी तुम्हारा अपना नहीं। तुम्हारा मित्र भी तुम्हारा अपना नहीं। जब तुम देखोगे कि जिंदगी के सब नाते झूठे हैं, तब एक नया नाता पैदा होता है, वही गुरु और शिष्य का नाता है। उसके पहले पैदा नहीं होता। जब तक तुम्हें लग रहा है कि और सब नाते ठीक हैं, उन्हीं में एक नाता यह भी है, तब तक गुरु मारनहार है। क्योंकि वह तुम्हारे नातों को तोड़ेगा। वह तुम्हारे झूठे नाते झूठे हैं, ऐसा तुम्हें जगाएगा और दिखाएगा। अड़चन होगी। पीड़ा होगी। वह तुम्हारे घाव उघाड़ेगा। वह तुम्हें ऐसे बच नहीं जाने देगा। गुरु यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि तुम्हारी पत्नी है, भाई है, माँ है, पिता है, ऐसे सब नातों में यह भी एक नया नाता है—यह गुरु और शिष्य का नाता। यह सब नातों में एक नाता नहीं है। सब नाते एक तरफ, यह नाता एक तरफ। अगर सब नाते भी गँवाना पड़े, तो भी इस नाते के लिएगँवाए जा सकते हैं। तो ही गुरु तारनहार हो जाता है।

दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात

इसके दामन में मेरे अश्केरवाँ पलते हैं

हमसफर कोई नहीं है मेरी तहनाई का

अकेले हो तुम बिल्कुल, एकदम अकेले है—तनहा हो।

हमसफर कोई नहीं है मेरी तनहाई का

चंद साये हैं जो हमराह मेरे चलते हैं

यहाँ छायाओं के अतिरिक्त तुम्हारा संगी—साथी कौन है? जिसको यह दिखायी पड़ता है, वह किसी रोशन व्यक्ति का हाथ पकड़ लेता है। वह कहता है—सायों के साथ, छायाओं के साथ बहुत चल लिये, अपनी ही परछाइयों के साथ बहुत चल लिये, अब किसी रोशन का साथ करने की आकांक्षा जगी है। किसी रोशन से मित्रता बना लेनी ही तो शिष्यत्व है।

डबडबाई हुई आँखों में है सावन की झड़ी

और दिल में मेरे यादों के शजर फलते है

देख मैने भी मनायी है यहाँ दीवाली

मेरी पलकों में भी अश्कों के दीये जलते हैं

कुछ और तुम्हारे पास है भी नहीं, बस यादें हैं। अतीत की यादें हैं और भविष्य की कल्पनाएँ हैं। और आँखें तुम्हारी औंसुओं से डबडबायी हैं। तुम्हारा जीवन एक लंबी मरुयात्रा है, जहाँ कहीं कोई मरूद्यान नहीं। जिस दिन यह दिखायी पड़ता है, उस दिन ही तुम समग्रभाव से झुकते हो। उसी झुकने में मारनहार गुरु तारनहार हो गया। वह तो तारनहार था, लेकिन तुम्हारे झुकने में तुम्हें दर्शन होता है।

गुरु तो एक दर्पण है। तुम जो शकल लेकर आते हो, वही शक्ल उस दर्पण में दिखायी पड़ती है। तुम डरे—डरे आते हो, गुरु. मारनहार दिखायी पड़ता है। तुम निर्भय आते हो, अभय आते हो, गुरु तारनहार हो जाता है। गुरु तो एक दर्पण है। वह तो तुम्हारी ही तस्वीर को तुम्हारे पास वापिस लौटा देता है। तुम अपने ही चेहरे उसमें देखते हो।

यूँ झुका है नदी पै एक शहतूत

देखता हो वह जैसे आईना

पेडू का अक्स है कि सब्ज आंचल

जिसमे लिपटा हो नुकरई सीना

डालियाँ लद गयी हैं फूलोंसे

खुशबुओं से महक उठे साये

जैसे गिर कर दुल्हन के हाथों से

नागहाँ इत्रदाँ उलट जाये

 

गुरू को तो झील समझ। उसके किनारे खड़े हुए दरख्त हो जाओ। झुको, झाँको। गुरु को दर्पण समझो। पास आओ, निकट आओ, अपने चेहरे को पहचानो। गुरु तो तुम जैसे हो वैसा ही तुम्हें दिखलाता है। इसलिए अगर तुम्हें गुरु में सिर्फ मारनहार दिखायी पड़े, तो समझना कि तुम्हारा भय प्रतिबिंबित हो रहा है। तुम्हें तारनहार दिखायी पड़े तो समझना तुम्हारा अभय प्रतिबिंबित हो रहा है। मारनहार दिखायी पड़े तो समझना कि अभी इस मरनेवाली जिंदगी में तुम्हारे कहीं मोह अटके हैं। तारनहार दिखायी पड़े तो समझना कि अमृत की झलक तुम्हें उसमें मिलनी शुरू हो गयी,इस जिंदगी से तुम्हारे सब नाते—रिश्ते टूट गये है।

और ख्याल रखना, फिर दोहरा दूँ, मैं तुमसे यही नहीं कह रहा हूँ कि जिंदगी से नाते—रिश्ते तोड़ लेना, सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि जान लेना जिंदगी के नाते—रिश्ते बस कामचलाऊ हैं। तोड्ने में भी क्या रखा है! तोड़ते तो वे ही हैं जो इनको बहुत मान लेते हैं कि बड़े महत्वपूर्ण हैं। एक आदमी कहता है पत्नी बड़ा महत्व पूर्ण नाता है; और एक आदमी पत्नी छोड़ कर भाग जाता है, वह कहता है कि पत्नी के रहते मैं परमात्मा को न पा सकूँगा—वह भी मान रहा है कि पत्नी का नाता बड़ा महत्वपूर्ण है, इतना महत्वपूर्ण कि परमात्मा से मिलने. से रोक देगा। ये दोनों एक—से मूढ़ हैं। इनमें जरा भेद नहीं है। एक—दूसरे से उल्टे चल रहे हैं, मगर इनकी मूढ़ता एक ही है। एक पैर के बल खड़ा हैं—गृहस्थ को मैं कहता हँ, पैर के बल खड़ा हुआ आदमी, प्राकृतिक आदमी। और जिसको तुम साधु—महात्मा कहते हो, वह शीर्षासन करता हुआ आदमी। मगर वही आदमी शीर्षासन कर रहा है। कुछ फर्क नही है, कुछ भेद नहीं है।

तो मैं तुमसे जिंदगी के नाते—रिश्ते छोड़ का भाग जाने को नहीं कह रहा हूँ। उनमें कुछ मूल्य ही नहीं है, छोड्कर क्या भागोगे? सपनों का त्याग क्या करोगे? इतना जानना भर है कि खेल है, अभिनय है। अभिनय को बड़ी सरलता से निभाओ, आनंद से निभाओ। अभिनय ही है तो गंभीरता की कोई जरूरत नहीं है। मौज से निभाओ। जैसे आदमी ताश खेलता है और ताश में राजा होते, रानी होते, और सब होते। मगर वे सब राजा—रानी ऐसे ही होते जैसे इंग्लैंड की रानी। कोई खास उसका मतलब नहीं होता। लेकिन जब तुम ताश खेलते हो तो राजा—रानी बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। या शतरंज खेलते हो तुम—हाथी—घोड़े, वजीर, राजा बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कुछ भी नहीं है वहाँ—गरीब की शतरंज हो तो लकड़ी के, अगर अमीर की हो तो समझो हाथीदाँत के, या सोने—चाँदी के, मगर वहाँ कुछ भी नहीं है। खेलनेवाले खूब डूब जाते हैं।

कभी—कभी तो ऐसा हो जाता है कि शतरंज में तलवारें खिंच जाती हैं। ऐसे गंभीर हो जाते हैं। गर्दनें कट जाती हैं। वहाँ कुछ था ही नहीं, जरा सोचो। वह जो राजा और वजीर और हाथी और घोड़े, सब हँसते होंगे जब तुम तलवार खींच लेते होगे कि हद हो गयी, हद हो गयी, हमारे भीतर कुछ भी नहीं है, न कोई राजा है, न कोई वजीर है, न कोई घोड़ा है, न कोई हाथी है, यहाँ तलवारें खिंच गयीं।

जिंदगी को गंभीरता से लो तो मैं तुम्हें सांसारिक कहता हूँ। जिंदगी को गैर— गंभीरता से लो, मैं तुम्हें संन्यासी कहता हूँ। मेरा संन्यास और संसार में बस यही बुनियादी भेद है। जिंदगी एक खेल है। न इस तरह मूल्यवान है, न उस तरह मूल्यवान है। न इसमें कुछ रखा है पकड़ने में, न रखा है कुछ छोड़ने में।

तो जहाँ हो, वहीं जाग जाओ। और जिस दिन तुम्हें यह दिखायी पड़ जाए कि यह सब खेल है—खेल तो है ही। और तुम जानते भी हो, ऐसा भी नहीं कि तुम जानते नहीं; छिपाते हो अपनी जानकारी क्योंकि तुम डरते हो इस जानकारी से, कहीं यह दिखायी न पड़ जाए कि यह खेल है। क्योंकि इस खेल में तुमने खूब जिंदगी गँवायी है। और इस खेल में’ तुमने काफी दाँव लगा दिये हैं। अब यह दिखायी न पड़ जाए कि यह खेल है!

मेरे एक मित्र जापान में एक घर में मेहमान थे। बूढ़े आदमी, एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, वहाँ एक दर्शनशास्त्र के सम्मेलन मे भाग लेने गये थे। घर में बड़ा शोरगुल था एक दिन, बड़ी तैयारियाँ हो रही थीं, तो उन्होंने पूछा—क्या मामला है? तो जिसके घर मेहमान .थे उस मेहमान ने कहा कि आज शादी है। आप भी सम्मिलित हों। तो वे भी बेचारे नहाए—धोए, अच्छे कपड़े पहने, तैयार हुए—जब शादी है तो ढंग से तैयार हो जाना। और जब भीतर से बाहर आए और बरात देखी तो बड़े हैरान हुए! बरात गुड्डा—गुड्डियों की थी। इस घर के बच्चों ने अपने गुड्डे का विवाह पड़ोस की गुड्डी से किया हुआ था। मगर बड़े बैडंबाजे बज रहे थे!

और बड़ा उत्सव मनाया जा रहा था! और बरात भी चली और गाँव के बड़े—बूढ़े भी सम्मिलित हुए। यह भी चले साथ, मगर बड़ी बेचैनी। और दूल्हे की जगह सिर्फ़ एक गुड्डा है—जापानी गुड्डा बनाने में कुशल होते हैं, बड़ा शानदार गुड्डा हैं—घोड़े पर सवार है। घोड़ा असली है, गुड्डा झूठा है। जब दूसरे पड़ोस में जहाँ बरात जानी थी पहुँच गयी, वहाँ भी बड़ा साज—सामान है, वहाँ भी लोग इकट्ठे हैं, स्वागत बरात का किया गया—जैसे असली बरात चल रही हो!

बर्दाश्त के बाहर हो गया तो पूछा कि यह मामला क्या है, मेरी कुछ समझ में नहीं आता। और बच्चे अगर निकालते यह जुलूस तो ठीक भी था, मगर बडे—बूढे भी इसमें सम्मिलित हुए हैं। तो जिस बूढ़े के घर वे मेहमान थे, उसने कहा कि सभी बरातें खेल हैं। यह भी खेल है। तुम जिन असली बरातों में सम्मिलित हुए हो, वे भी खेल हैं। इसमें हर्ज क्या है? इसमें इतने परेशान क्यों हुए जा रहे हो? बच्चों को मजा आ रहा है, हम सम्मिलित हो गये हैं तो उनको और भी मजा आ रहा है। हम सम्मिलित हो गये हैं तो उनके खेल को बड़ी गंभीरता आ गयी है; खेल में बड़ा प्राण आ गया, बल आ गया। हम जानकर सम्मिलित हुए हैं कि खेल है। इसलिए हम सम्मिलित भी हैं और नहीं भी हैं। बच्चे अभी अनजाने हैं, उनको खेल नहीं है, असली बात हो रही है। वे भी बड़े हो जाएँगे तब समझ लेंगे कि खेल है।

इतना ही फर्क है। संसारी अभी बचकाना है, उसने खेल को असली समझ लिया है। संन्यासी जाग गया, थोड़ा होश से भरा, प्रौढ़ हुआ, उसने खेल को खेल की तरह पहचान लिया। अब भागना कहाँ है, अब जाना कहाँ है? और अभी बहुत बच्चे हैं जो खेल में उलझे हैं, तुम भी उनके साथ खड़े हो। पर फर्क हो गया।

मुझसे लोग पूछते है—आप अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को क्यों नहीं कहते? मैं क्यों कहूँ छोड़ने को? परमात्मा ने ही नहीं छोड़ा है अभी तक संसार, संन्यासी क्यों छोड़े! कोई संन्यासी को परमात्मा से ऊपर जाना है! कोई परमात्मा से भी बड़े होने की आकांक्षा है! परमात्मा खेल खेल रहा है। इसलिए हम परमात्मा के खेल को लीला कहे हैं।

लीला का मतलब समझो।

लीला का मतलब समझ गये कि तुम सारे धर्मों का सार समझ गये। खेल, बस गंभीरता से मत लो। जिस दिन तुम खेल को खेल की तरह जान लोगे, उस दिन इस जगत में गंभीरता से लेने की एक ही बात रह जाती है—वह गुरु और शिष्य का संबंध। वह भर खेल नहीं है।

क्यों?

वह भर खल नहीं है, क्यों, क्योंकि उसके माध्यम से सत्य का अनुभव होगा। बाकी तो सारे माध्यम और—और असत्यों में ले जाएँगे। तो खेल की और गैर—खेल की मेरी परिभाषा भी समझ लो। खेल वह है जो और खेलों में ले जाए। वह खेल नहीं है जो खेलों के बाहर ले जाए। यहाँ एक ही द्वार है, गुरु—शिष्य का संबंध, जो संसार के पार ले जाता है।

 

आखिरी प्रश्न :

भगवान, आपसे इस दास का निवेदन है कि आप प्रवचन में जब भी कभी कहते हैं, ‘इस दुनिया से जाने के पहले’, या,’ जब मैं नहीं रहूँगा,’ तब मेरे कलेजे को चीर देते हैं। बहुत वेदना होती है। कृपया इन शब्दों को मत कहें।

तपाल, इसीलिए ये शब्द कहे जाते हैं कि कलेजे को चीरें। अभी कोई जा थोड़े ही रहा हूँ! मगर ऐसा न हो कि मैं चला जाऊँ और तुम्हारा कलेजा न चिर पाए। तुम्हारे कलेजे को चीर कर जा सकूँ, इसीलिए बार—बार हर तरह से चोट करता हूँ। यह भी चोट का एक हिस्सा है।

अब अगर महावीर पर चोट करता हूँ, तो जैन पर चोट होती है। मगर तुममें यहाँ बहुत हैं जिनको अब महावीर से कुछ लेना नहीं, बुद्ध से कुछ लेना नहीं, मुझसे ही सब लेना है, तो मुझ पर भी चोट करता हूँ। तो मैं कहता हूँ कि अब जाता हूँ, कि अब सँभलों, कि अब यह दीया बुझा, कि अभी देखना हो तो देख लो, रोशनी मौजूद है, इस रोशनी में आँख खोल लो, तुम इसी मस्ती में मत पड़े रहना_कि अब क्या करना है, गुरु तो मिल गये! गुरु मिले, तब कुछ करना है। अक्सर लोग सोचते हैं कि गुरु तो मिल गये, अब क्या करना है?

मेरे पास आकर कहते हैं कि अब आप मिल गये, अब क्या करना है? मै उनसे कहता हूँ—मेरे भाई, अब करना शुरू करना है। वह तो निश्चित हो जाते हैं, वे कहते हैं—बात खतम हो गयी, अब आप मिल गये, अब क्या करना है? आदमी बड़ा कुशल है। पहले भी कुछ नही कर रहे थे वह—ऐसा नहीं है कि पहले कुछ कर रहे थे—पहले भी परमात्मा की खोज के लिए कुछ नहीं कर रहे थे—अब उनकी तरकीब देखो, अब वह कहते है—अब आप मिल गये, अब क्या करना है? पहले भी नहीं कर रहे थे, अब भी नहीं करना है। फिर करोगे कब? फिर करोगे कैसे?

कुछ करना है। नींद नहीं तो टूटेगी नहीं। तुमने कभी एक अनुभव किया? जब सपना कभी—कभी बहुत दुख—स्वप्न हो जाता है तो नींद अपने—आप टूट जाती है। तुम कोई सपना देख रहे हो कि तुम भागे जा रहे हो और तुम्हारे पीछे एक चीता लगा है—अब तुम कोई शिकारी भी नहीं हो, पता नहीं यह चीता तुम्हारे पीछे क्यों लगा है, मगर उसको शिकार करना है। अब तुम भागे जा रहे हो, बेतहाशा, पहाड़ी ऊँची होती जाती है और चीता करीब आता जाता है, चढ़ाव मुश्किल होता जाता है, हाँप रहे हो, पसीना—पसीना हो रहे हो, दोपहर है, भरी धूप है, और चीता पास आता जाता है, तुम उसकी साँस भी अपनी पीठ पर अनुभव कर पा रहे हो, अब मारे गये, तब मारे गये, और चीता बढ़ा चला आ रहा है— और उसने एक पंजा दिया, और तुम्हारी नींद खुल गयी। अभी भी दिल धड़कता रहता है थोड़ी देर, नींद खुल जाने के बाद भी। अपनी पीठ भी तुम देखते हो कि मामला क्या है? कहीं कोई चीता नहीं है। सिर्फ तुम्हारी पत्नी का हाथ तुम्हारी पीठ पर है। कुछ मामला नहीं है, यह तो सभी का मामला चल रहा है, जो रोज दिन में चलता है, वही रात में चल रहा है, शिकार किया जा रहा है, मगर छाती धड़क रही है, पसीने—पसीने हो रहे हो, हाँप रहे हो। थोड़ी देर में हँस कर शांत होकर सो जाते हो। जब सपना कभी बहुत दुख—स्वप्न जैसा हो जाता है, पीड़ा इतनी हो जाती है कि नींद नहीं बच सकती।

मनोवैज्ञानिक से अगर तुम पूछोगे, तो तुम चकित होओगे जानकर कि मनोविज्ञान की जो आधुनिकतम खोजे  हैं, वे कहती हैं किं सपने के आने का प्रयोजन ही एक है—नींद को बचाना। यह तुम चकित होओगे जानकर, आमतौर से तुम सोचते हो कि सपने के कारण हम सो नहीं पाए। आमतौर से लोग कहते हैं कि रात भर सपने आते रहे, सो नहीं पाए। उनको पता नहीं वे उल्टी बात कह रहे हैं। अगर सपने न आते तो वे बिल्कुल नहीं सो सकते थे। सपना नींद को बचाने का उपाय है। जैसे समझो उदाहरण के लिए, तुमने सपने में देखा कि तुम्हें खूब भूख लगी है। अब असलियत हो सकती है कि तुम्हें भूख लगी है। हो सकता है जैन हो, पर्यूषण के दिन चल रहे हों और व्रत कर लिया है—तुम्हें भरोसा न हो, तुम सोहन से पूछ सकते हो, वह व्रत करती रही है पहले—व्रत कर लिया, अब रात सो तो गये हैं— अब नींद में तो कोई व्रत—म्रत भूल जाता है, भूख लगी है तो भूख याद रहती है, असली चीज़ें याद रहती हैं, नकली चीज़ें भूल जाती हैं, स्वाभाविक याद रहता है— —पेट में तो कड़की है, पेट तो माँग रहा है कि कुछ मिल जाए। अब अगर पेट की भूख जारी रहे तो नींद नहीं आ सकती। तो नींद में तुम्हारा मन तुम्हें एक भुलावा देता है—चले, नींद में उठे, चले, खोल लिया फ्रिज, खड़े हैं फ्रिज के सामने, सब चीजें रक्खी हैं; आइसक्रीम निकाल ली—उपवास इत्यादि के दिन ऊँची चीज़ें याद आती हैं, रूखी—सूखी रोटी कौन खाता है रात, उपवास के दिन बातें ही ऊँची चलती हैं—तुम मजे से आइसक्रीम खा रहे हो, सपना चल रहा है, यह तुम्हारी नींद को बचा रहा है। आइसक्रीम खा—पीकर तुम मजे से सोए रहोगे, क्योंकि तुम्हें एक भरोसा दिला दिया सपने ने कि अब तो आइसक्रीम भी खा ली, अब क्या है? अब तो मामला खतम हो गया, छूट गये पर्यूषण से, अब तो सो जाओ शांति से!

तुम्हें जोर से पेशाब लगी है और तुम चले सपने में कि तुम बाथरूम में चले गये हो, पेशाब कर आए, आकर सो गये। नींद में सपना देख रहे हो। वह जो तुम्हारे ब्लेडर पर जोर का दबाव पड़ रहा है, वह नींद तोड़ देगा; सपना सिर्फ तुम्हारे लिए भुलावा दे रहा है। एक कल्पना का जाल खड़ा कर रहा है। वह कह रहा है—ठीक है, हो तो आए, मामला खतम हो गया, अब सो जाओ। वह जो तुम्हारे ब्लेडर पर दबाव पड़ रहा था, सपने ने उस दबाव को रोक दिया।

सपना इस तरह काम करता है जैसे कार में लगे स्प्रिग काम करते हैं। कार जा रही है, गड्ढा पड़ता है तो स्प्रिग गड्ढे को पी जाता है, तुम अंदर बैठे हो, चलते रहते हो। जितनी कीमती कार हो, उतने बहुमूल्य स्प्रिग होते हैं। रेलगाड़ियों के दो डिब्बों के बीच में’ बफर’ लगाये होते हैं। वे’ बफर’ इसलिए लगाये होते हैं कि अगर कोई टकराहट हो जाए, एकदम से रेलगाड़ी रोकनी पड़े, कुछ हो जाए, तो दो डिब्बे टकरा न जाएँ।’ बफर’ धक्का पी जाते हैं।

सपना एक’ बफर’ है। सपना तुम्हें रातभर बचाए रखता है, नहीं तो हजार उपद्रव आते हैं। एक मच्छर आकर कान के पास गुनगुनाने लगा, तुम सोचते हो कि लता मंगेशकर! सपने ने तुमको बचा दिया। लता मंगेशकर गा रही है! सपने ने एक तुमको तरकीब पकड़ा दी, सपने ने कहा, तुम कहाँ परेशान हो रहे हो, कोई मच्छर—वच्छर नहीं है, लता मंगेशकर गा रही है। जरा गौर से गीत सुनो! तुम एक फिल्मी धुन सुनने लगे। मच्छर की धुन फिल्मी धुन में दब गयी।’ बफर’ आ गया। बीच में’ बफर’ ने आकर गड्डे को पी लिया। रात भर सपना तुम्हें बचा रहा है। तुम्हारी नींद को बचा रहा है।

लेकिन, जब सपना ऐसा होता है कि जिसको नींद नही समा सकती, जिसको नींद नहीं अपने भीतर आत्मसात कर सकती, जब सपना इतना भयंकर हो जाता है, तो नींद टूट जाती है।

सद्गुरु जो तुम्हें चोट करता है,. वह इसीलिए कि तुम्हारी नींद टूट जाए, तुम्हारे’ बफर’ टूट जाएँ, तुम्हारे स्प्रिंग टूट जाएँ, तुम्हें जिंदगी के गड्ढे समझ में आ जाएँ। तुम पूछते हो—आपसे इस दास का निवेदन है, आप प्रवचन में जब भी कभी कहते हैं,’ इस दुनिया से जाने से पहले,’ या’ जब मैं नहीं रहूँगा,’ तब मेरे कलेजे को चीर देते हैं। मगर तुम चिरने कहाँ देते हो। मैं तो चीरता हूँ, मगर तुम चिरने नहीं देते। तुम बचाव कर जाते हो। तुम इधर—उधर हो जाते हो। तुम किनारा काट जाते हो, तीर निकल जाता हु, तुम बच जाते हो। थोड़ी—बहुत खरोंच लग रही है अभी, उस खरोंच को ही तुम हृदय का चीर देना कह रहे हो। हृदय चीर जाए तो काम हो जाए। नींद टूट जाए। सब सपने समाप्त हो जाएँ। तुम जाग जाओ। यह चोट तो मैं करता रहूँगा। यह चोट तो मुझे करने ही होगी। यह चोट तो मेरा काम है। यह घाव तो मैं तुम्हारा उधाड़ता रहूँगा। घावों को सांत्वना नहीं देनी है, मलहम—पट्टी नहीं करनी है, उनको उघाड़ना है। चोट तुम्हारे सामने जितनी गहन और जितनी साफ हो जाए उतना अच्छा है।

वह चोट जो दिल पर खायी थी उस चोट का अब एहसास कहाँ

इक दाग—सा बाकी है जिसको, हम याद बनाए बैठे हैं

मैं तुम्हें याद नहीं बनाने दूँगा। मैं चोट—पर—चोट करता रहूँगा। मैं घाव को ताजा और हरा रखूँगा। यही सत्संग का अर्थ है कि तुम आओ रोज और चोट खाओ रोज। कब तक सोए रहोगे? एक दिन तो आएगा कि जागोगे! तुम्हारी नींद और मेरे बीच संघर्ष चल रहा है। यही तो सत्संग है।

हजारों माहताब आए, हजारों आफताब आए

मगर हमदम! वही है जुल्मतेगमखाना बरसों से

कितने चाँद उतरे जमीन पर, कितने सूरज उतरे जमीन पर; कितने बुद्ध, कितने कृष्ण चले जमीन पर, मगर तुम बचते रहे। अँधेरा वैसा—का—वैसा बना है। चाँद— तारे उतरते हैं, चले जाते हैं, तुम वैसे—के—वैसे रह जाते हो। चोट खाओ। मिटने की तैयारी दिखाओ। इस बार ऐसा न हो कि मैं चोट करता रहूँ और तुम बचते रहो। इस बार तीर को कलेजे में लग ही जाने दो। किसी भी बहाने से हो, तुम्हें जगाना है। मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का गजर हो

अपनी तो यह हसरत है कि किसी तरह सहर हो

सुबह हो जाए, फिर किस बात से तुम जगे—

मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का नजर हो

अपनी तो यह हसरत है कि किसी तरह सहर हो

सब उपाय किये जाएँगे। सब तरफ से तुम्हें छेदा जाएगा। जितने जल्दी तुम तीरों का स्वागत कर लो, सन्मानपूर्वक अपने भीतर ले लो, अपने हृदय को खुद ही खोल दो, उघाड़ दो, उतने ही जल्दी काम पूरा हो जाए।

सतपाल, मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूँ। तुम भी मेरी तकलीफ समझो! तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूँ, चोट हो जाती है। तुम्हें मुझसे प्रेम है, तुम्हें मुझसे लगाव है, लेकिन अगर यह लगाव तुम्हें जगत के पार न ले जाए, तो यह लगाव भी फिर सांसारिक हो गया और व्यर्थ हो गया। फिर यह भी एक रिश्ता था, जैसे और रिश्ते थे—यह भी एक झूठा रिश्ता हो गया। यह लगाव तो तभी सच्चा लगाव’ होगा, यह रिश्ता तो तभी सच्चा रिश्ता होगा, जब तुम्हें जगाए, जब तुम्हें मिटाए। यहाँ तुम्हारी मृत्यु का आयोजन चल रहा है। सत्संग यानी मृत्यु का आयोजन। और धन्यभागी हैं वे जो मरने को राजी हो जाते हैं। क्योंकि अमृत की मालकियत उनकी ही है। मृत्यु का मूल्य चुका कर ही अमृत का पुरस्कार मिलता है।

 

आज इतना ही।



Filed under: संतो मगन भया मन मेरा--(रज्‍जब--वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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