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भावना के भोज पत्र–(पत्र–पाथय–48)

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पत्र—पाथय—48

निवास:

115, योगेश भवन, नेपियर टाउन

                                               जबलपुर (म. प्र.)

आर्चाय रजनीश

दर्शन विभाग

महाकोशल महाविद्यालय

25 मार्च 1962

प्रिय मां,

दोपहर तप गई है। पलाश वृक्षों पर फूल अंगारों की तरह चमक रहे हैं।

एक सुनसान रास्ते से गुजरता हूं। बांसों के घने झुरमुट हैं और उनकी छाया भली लगती है।

कोई अपरिचित चिड़िया गीत गाती है। उसके निमंत्रण को मान वहीं रुक जाता हूं। एक व्यक्ति साथ हैं। पूछ रहे हैं, ‘‘क्रोध को कैसे जीते, काम को कैसे जीते?” यह बात तो अब रोज—रोज पूछी जाती है। इसके पूछने में ही भूल है। यही उनसे कहता हूं। समस्या जीतने की है ही नहीं। समस्या मात्र जानने की है। हम न क्रोध को जानते हैं और न काम को जानते हैं। यह अज्ञान ही हमारी पराजय है। जानना जीतना हो जाता है। क्रोध होता है, काम होता है तब हम नहीं होते हैं। होश नहीं होता इसलिए हम नहीं होते हैं। इस मूर्च्छा में जो होता है वह बिल्कुल यांत्रिक है। मूर्च्छा टूटते ही पछतावा आता है पर वह व्यर्थ है क्योंकि जो पछता रहा है वह काम के पश्चात् पुन: खो जाने को है। यह न हो पावे—अमूर्च्छा आती रहे—जाग्रति—सम्यक् स्मृति बने रहे तो पाया जाता है कि न क्रोध है, न काम है। यांत्रिकता टूट जाती है और फिर किसी को जीतना नहीं पड़ता है। दुश्मन पाये ही नहीं जाते है।

एक प्रतीक—कथा से समझें। अंधेरे में कोई रस्सी सांप दीखती है। कुछ उसे देखकर भागते हैं; कुछ लड़ने की तैयारी रखते हैं। दोनों ही मूल में है क्योंकि दोनों ही उसे सीप स्वीकार कर लेते हैं। कोई निकट जाता है और पाता है कि सांप है ही नहीं। उसे कुछ करना नहीं होता, केवल निकट पर जाना होता है।

मनुष्य को अपने निकट भर जाना है। मनुष्य में जो भी है सबसे उसे परिचित होना है। किसी से लड़ना नहीं है और मैं कहता हूं कि बिना लड़े ही विजय पर आ जाती है। सम्यक् जागरण जीवन—विजय का सूत्र है।

 

रजनीश के प्रणाम


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भावना के भोज पत्र–(पत्र–पाथय–49)

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पत्र—पाथय—49

निवास:

115, योगेश भवन, नेपियर टाउन

                                               जबलपुर (म. प्र.)

आर्चाय रजनीश

दर्शन विभाग

महाकोशल महाविद्यालय

मां,

नयी सुबह। नया सूरज। नई धूप। सोकर उठा हूं। सब नया—नया है। जगत् में कुछ भी पुराना नहीं है।

कई सौ वर्ष पहले यूनान में किसी ने कहा था, ‘‘एक ही नदी में दो बार उतरना असंभव है।’’

सब नया है पर मनुष्य पुराना पड़ जाता है। मनुष्य नये में जीता ही नहीं इसलिए पुराना पड़ जाता है। मनुष्य जीता है स्मृति में, अतीत में, मृत में। यह जीना ही है, जीवन नहीं है। पर अर्ध—मृत्यु है।

कल एक जगह यही कहा हूं। मनुष्य अपने में मृत है। जीवन योग से मिलता है। योग चिर—नवीन में जगा देता है। योग चिर—वर्तमान में जगा देता है।

मानव—चित्त स्मृति के भार से मुक्त हो तो ‘‘जो है’‘ वह प्रगट हो जाता है। स्मृति भूल का संकलन है। इससे जीवन को नहीं पाया जा सकता है। वह ज्ञान में भटकता है। उससे जो अज्ञान है, उसके द्वार नहीं खुलते हें।

ज्ञान को जाने दो ताकि अज्ञान प्रगट हो सके। मूल को जाने दो ताकि जीवित प्रगट हो सके—योग का सार—सूत्र यही है।

 

28 मार्च 1963

रजनीश के प्रणाम

 


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भावना के भोज पत्र–(पत्र–पाथय–50)

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पत्र—पाथय—50

निवास:

115, योगेश भवन, नेपियर टाउन

                                               जबलपुर (म. प्र.)

आर्चाय रजनीश

दर्शन विभाग

महाकोशल महाविद्यालय

प्रिय मां,

कल रात्रि कोई महायात्रा पर निकल गया है। उसके द्वार पर आज रुदिन है।

सुबह—सुबह घूमकर लौटा हूं। देखता हूं कि सड़क के किनारे कुछ लोग जमा है। एक भिखारी शरीर से मुक्त हो गया है।

एक बचपन की स्मृति मन पर दुहर जाती है। पहली बार मरघट जाना हुआ था। चिता जल गई थी और लोग छोटे—छोटे झुंड बनाकर बातें कर रहे थे। गांव के एक कवि ने कहा था:, ‘‘मैं मृत्यु से नहीं डरता हूं। मृत्यु तो मित्र है।’’

यह बात सबसे अनेक रुपों में अनेक लोगों से सुनी है। जो ऐसा कहते हैं। उनकी आंखों में भी देखा है और पाया है कि भय से ही ऐसी अभय की बातें निकलती है। मृत्यु को अच्छे नाम देने से ही कुछ परिवर्तन नहीं हो जाता है। वस्तुत: डर मृत्‍यु का नहीं है, डर अपरिचय का है। जो अज्ञात है वह भय पैदा करता है। मृत्यु से परिचित होना जरुरी है। परिचय अभय ले जाता है। क्यों — क्योंकि परिचय से ज्ञान होता है कि ‘जो है’ उसकी मृत्यु नहीं है। जिस व्यक्तित्व को हमने अपना ‘मैं’ जाना है, वही टूटता है। उसकी ही ह। वह है नहीं, इसलिए टूट जाता है। वह केवल सांयोगिक है। कुछ तत्वों का जोड़ है; जोड़ खुलते ही बिखर जाता है। यही मृत्यु। व्यक्तित्व के साथ स्वरुप को एक जानना जब तक है तब तक मृत्यु है।

व्यक्तित्व से गहरे उतरें स्वरुप पर पहुंचें और अमृत उपलब्ध हो जाता है। इस यात्रा का—व्यक्तित्व से स्वरुप तक ही यात्रा का मार्ग ध्यान है। ध्यान में, समाधि में मृत्यु से परिचय हो जाता है।

सूरज आते ही जैसे अंधेरा नहीं हो जाता है वैसे ही समाधि उपलब्ध होते ही मृत्यु नहीं हो जाती है।

मृत्यु न तो शत्रु है, न मित्र है, मृत्यु है ही नहीं। न उससे भय करना है, न उससे अभय होना है; केवल उसे जानना है।

रजनीश के प्रणाम

 

पुनश्च:

 

आपका कार्ड मिल गया है। निश्चय जानकर ठीक लगा। एक—दो दिन चि. सुशीला के पास रह लेना जरूरी है। मुझे यही डर था कि कहीं मेरे कारण निर्णय न बदल लें। मैं 7 अप्रैल को सुबह 4 बजे आगरा—अहमदाबाद एक्सप्रैस से जयपुर पहुंच रहा हूं।

शेष मिलने पर।

 

सबको विनम्र प्रणाम।

 

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–06)

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प्रेम परमात्‍मा है—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 17 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

1—आपसे कोई प्रश्न पूछती हूँ तो मुझे लगता है—मेरी गर्दन आपकी तलवार के नीचे आ गयी ऐसा क्यों?

2—आप ऑंख खोलने के लिए कहते हैं, मगर ऑंख खोलने में इतना भय क्यों लगता है?

3—मनुष्य जीवन सहज की ओर मुड़ेगा या नहीं? हमारा कर्तव्य क्या है?

4—कआदमी से प्रेम करता हूँ। लेकिन परमात्मा से किसी लगाव का मुझे पता नहीं। क्या मैं पाप के रास्ते पर हूँ?

 

पहला प्रश्न : जब भी मैं आपसे कोई प्रश्न पूछती हूँ, तो मुझे लगता है मेरी गर्दन आपकी तलवार के नीचे आ गयी। इस प्रश्न के प्रसंग में भी मेरा वही भाव है। ऐसा क्यों है?

शीला! भय तो बिल्कुल स्वाभाविक है। हर प्रश्न एक उत्तर की तलाश है। उत्तर तुम्हारे अहंकार को भरेगा, या तोड़ेगा, कुछ निश्चित नहीं है। मेरा उत्तर तो निश्चित ही तुम्हारे अहंकार को भरेगा नहीं, तोड़ेगा ही। तुम्हारे प्रश्न से ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम्हारे प्रश्न के बहाने तुम्हारे अहंकार को तोड़ा जाए। प्रश्न तो केवल एक परिस्थिति है। उत्तर बाहर से मिलने वाले नहीं हैं। अहंकार खंडित हो जाए तो उत्तर तुम्हारे भीतर है। प्रश्न में ही छिपा है। तो भय स्वाभाविक है।

जहाँ भय न लगे और प्रश्न पूछने में मजा आए, वहाँ समझना कि जीवन का रूपांतरण नहीं होगा। ऐसा ही होता है, पंडित—पुरोहित के पास तुम्हारा प्रश्न पूछना तुम्हारे अहंकार को भरता है। तुम्हारा प्रश्न तुम्हारे ज्ञान को बताता है। तुम्हारा प्रश्न तुम्हारी जिज्ञासा, तुम्हारी खोज, तुम्हारे अध्यात्म की तलाश की खबर लाता है। रस आता है पूछने में। और हर उत्तर जो पंडित—पुरोहित से तुम्हें मिलता है, तुम्हें तोड़ने वाला नहीं हो सकता, क्योंकि पंडित—पुरोहित तुम्हें तोड़ने का साहस नहीं कर सकता। तुम पर जीता है। तुम्हारा गुलाम है। तुम उसके मालिक हो। उसे तुम्हारे अहंकार को सजाना होगा। उसे सांत्वना देनी ही होगी। वह मलहम—पट्टी करेगा। वह तुम्हारे घावों को फूलों में छिपाएगा। उसके हाथ में तलवार नहीं हो सकती। उसके द्वार पर तुम्हारा स्वागत है। और जो पूछता है, उसका स्वागत उससे ज्यादा है जो नहीं पूछता है। क्योंकि जो पूछता है वह उसे मौका देता है उसके ज्ञान के प्रदर्शन का। पारस्परिक अहंकार की परिपूर्ति होती है।

पूछने वाले को मजा आता है कि लोग जानें कि मैं जाननेवाला हूँ—लोग जानना दिखाने के लिए पूछते हैं। ऊँचे—ऊँचे प्रश्न पूछते हैं, जिनका उनके जीवन से कोई संबंध नहीं है। परमात्मा है या नहीं? स्वर्ग है या नहीं? कितने नरक हैं? कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत और बड़ी गंभीर और गहरी बातें पूछते हैं, जिनसे उनके जीवन का कुछ लेना—देना नहीं है। जिनका कोई उपयोग भी नहीं है। लफ्फाजी है। लेकिन तात्त्विक उड़ान! अध्यात्म, परमार्थ, इनकी बातें पूछने से औरों को, सुननेवालों को लगता है कि हाँ, कोई पहुँचा हुआ आदमी है, ज्ञानी है। देखो, इसकी जिज्ञासा! देखा, इसकी उड़ान! देखो, इसके पंख कितनी ऊँचाइयाँ छू रहे हैं! और पंडित—पुरोहित को सुविधा मिल जाती है कि तुम्हारे प्रश्न के बहाने उसने जो इकट्ठा किया है शास्त्रों से, उसका प्रदर्शन कर ले।

यहाँ हालत बिल्कुल उल्टी है। तुम्हारा प्रश्न तुम्हारे अज्ञान की घोषणा करता है, ज्ञान की नहीं। क्योंकि जो ज्ञान से पूछता है वह तो पूछता ही नहीं, उसके प्रश्नों के तो मैं उत्तर ही नहीं देता। क्या तुम सोचते हो सारे प्रश्नों के मैं उत्तर देता हूँ? ज्ञान से पूछे गए प्रश्नों को तो तत्क्षण कचरे की टोकरी में डाल देता हूँ उनको तो दुबारा देखता भी नहीं। क्योंकि अगर तुम्हें पता ही है, तो फिर मेरे उत्तर की कोई जरूरत नहीं है। जो उस जगह से पूछता है जहाँ घोषणा कर रहा है कि मुझे मालूम है, जो शास्त्र का उल्लेख देकर पूछता है, जो उद्धरण देता है, और जो कहता है मुझे मालूम है, आपकी राय भी जाननी है। यहाँ कोई रायें नहीं दी जा रही हैं; यहाँ कोई मंतव्य नहीं दिए जा रहे हैं, न कोई प्रमाणपत्र दिए जा रहे हैं। उसका प्रश्न तो मैं फेंक ही देता हूँ। उसका तो कोई दो कौड़ी का मूल्य नहीं है। उसके ही प्रश्न का उत्तर दूसरी जगह मिलता, पंडितों—पुरोहितों के पास उसके ही प्रश्न का उत्तर मिलता। मैं तो केवल उन प्रश्नों के उत्तर देता हूँ जो अज्ञान की घड़ी में पूछे गए हैं।

तो पहले तो अज्ञान की घड़ी में पूछने से घबड़ाहट होती है कि यह मेरा अज्ञान प्रकट हुआ, कि मुझे इतना भी मालूम नहीं है; दीनता प्रकट होती है। और फिर तुम्हारी दीनता पर मेरा जो उत्तर आएगा, वह निश्चित ही तलवार की तरह आने वाला है। क्योंकि अगर मैं तुम्हारी गर्दन न काटूँ, तो तुम्हारे किसी काम का नहीं हूँ। तुम्हारा सिर तुम्हारे धड़ से अलग न हो जाए तो तुम परमात्मा का दर्शन कर न पाओगे। सिर गिरे तो परमात्मा का दर्शन हो। यह सिर की अकड़ में ही तो परमात्मा खो गया है।

तो घबड़ाहट, शीला, स्वाभाविक है। कोई भी प्रश्न पूछो, डर तो लगेगा कि अब पता नहीं मैं क्या कहूँगा? फिर मेरा उत्तर कोई सुनिश्चित उत्तर होता तो भी आश्वासन तुम खोज सकते थे कि कल भी मैंने ऐसा कहा था, परसों भी मैंने ऐसा कहा था, आज भी ऐसा ही कहूँगा। मेरे उत्तर के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती।

कल ही तुमने देखा है, समाधि ने पूछा था ब्रह्म वेदांत के संबंध में कुछ महीनों पहले; मैंने एक उत्तर दिया था। विजय भारती ने भी कल वैसा ही प्रश्न पूछा, इसी आशा में पूछा होगा कि जैसे मैंने समाधि के प्रश्न के उत्तर में कहा था कि ब्रह्म वेदांत भ्रांति में पड़ गए हैं, लौट आना चाहिए भ्रांति से उन्हें, और लोगों को न भरमाएँ, अभी वह घड़ी नहीं आयी है, अभी सिद्धि की घड़ी नहीं आयी है। सोचा होगा विजय भारती ने कि यह अच्छा मौका है, ऐसा ही प्रश्न मैं भी पूछ लूँ। पूछा ओमप्रकाश के संबंध में, मुश्किल में पड़ गया! उसकी गर्दन पर तलवार गिरी! अगर थोड़ी भी समझ होगी, तो अब दुबारा ऐसा प्रश्न नहीं पूछेगा। लेकिन पूछा इसी आशा में था कि जैसा मैंने उत्तर पहले दिया है, वैसा ही उत्तर दूँगा। मेरे उत्तर बँधे हुए नहीं हैं। मेरे पास कोई तैयार उत्तर नहीं हैं। तुम्हारा प्रश्न ही मेरे भीतर उत्तर को जन्माता है। और तुम्हारे प्रश्न से ज्यादा तुम्हारी मनोदशा मेरे उत्तर को निर्माण करती है। कल जो कहा था, आज न कहूँगा; आज जो कह रहा हूँ, कल का कुछ भरोसा नहीं है। इसलिए भय और भी लगता है।

अगर यह भी साफ हो कि यही मेरा उत्तर होगा, तो भी तुम निश्चित हो जाओ। मैं तुम्हें निश्चिंत छोड़ नहीं सकता। तुम्हारी निश्चिंतता तो तभी आएगी जब तुम्हारे भीतर से अस्मिता का सारा भाव चला जाएगा—फिर कोई भय न लगेगा मेरी तलवार से। क्योंकि मेरी तलवार तुम्हारी आत्मा को नहीं काट सकती। नाहं छिंदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः—याद करो कृष्ण का वचन—उस आत्मा को न तो शस्त्र छेद सकते हैं और न ही आग जला सकती है। मेरी तलवार तुम्हारी आत्मा को नहीं काट सकती। मेरी तलवार केवल तुम्हारे अहंकार को काट सकती है। क्योंकि अहंकार झूठ है, क्योंकि अहंकार निर्जीव है, कट सकता है, गिर सकता है, जल सकता है; गिरना ही चाहिए, कटना ही चाहिए, जलना ही चाहिए। जितनी जल्दी जल जाए उतना अच्छा है।

तो भय स्वाभाविक है। पर इस स्वाभाविक भय के ऊपर चलो अब। सच तो यह है, जिस दिन से शीला तूने संन्यास लिया उसी दिन से तलवार तेरे गर्दन पर लटकी है, पूछ कि न पूछ! अब पूछने में क्या भय? तलवार तो लटकी ही है। जो नहीं भी पूछते हैं, उनकी गर्दन पर भी गिरेगी। वह इस निश्चिंतता में नहीं रह सकते कि न कुछ पूछा है, न कोई खतरा है। संन्यास का अर्थ ही होता है कि तुमने गर्दन मेरे सामने रख दी—तुमने प्रार्थना की मुझसे कि अब उठाओ तलवार और मेरी गर्दन काटो। संन्यास का और अर्थ क्या होता है? संन्यास का इतना ही अर्थ है कि मैं झुकता हूँ, कि मैं प्रार्थना करता हूँ कि मेरे अहंकार को जला दो, कि मेरे किए यह अहंकार न छूटेगा, मेरे किए तो और बढ़ता है, मैं जो भी करता हूँ उससे बढ़ता है; प्रार्थना करता हूँ तो प्रार्थना सजावट हो जाती है अहंकार की, पूजा करता हूँ तो अहंकार को और पर लग जाते हैं, शास्त्र पढ़ता हूँ तो अहंकार ज्ञानी हो जाता है, व्रत—नियम साधता हूँ तो अहंकार तपस्वी हो जाता है, पुण्य करता हूँ तो पुण्यात्मा होकर बैठ जाता है, जो भी करता हूँ उससे बढ़ता है, सघन होता है, मजबूत होता है। मेरे किए इससे छुटकारा नहीं होगा।

नहीं हो सकता तुम्हारे किए। तुम अपने अहंकार को न काट पाओगे। तुम्हारे और तुम्हारे अहंकार के बीच फासला इतना कम है कि तलवार उठा न सकोगे और खतरा यही है कि तुम सोचोगे कि तुम अहंकार काट रहे हो, लेकिन तलवार अहंकार के हाथ में ही होगी। वह कुछ और काटेगा। और आखिर में तुम पाओगे कि वह खुद तो बच गया है, कुछ और कूड़ा—करकट काट दिया है। इसलिए तो तथाकथित महात्मा, साधु—संत, साधारण आदमी से भी ज्यादा अहंकारग्रस्त हो जाते हैं। उनका अहंकार और सघन हो जाता है। देखो, साधुओं के चेहरों पर जैसी अहंकार की प्रतिमा दिखायी पड़ेगी, वैसी साधारण जनों के चेहरे पर नहीं दिखायी पड़ती! साधारणजन को तो लगता है—मैं पापी, क्या है मेरे पास अहंकार करने को! महात्मा को लगता है—मैं पुण्यात्मा, मेरे पास कुछ है; मैंने कुछ कमाया, मेरे पास कमाई है।

तुमने संन्यास लिया, उसी दिन तुमने गर्दन मेरे सामने रख दी। अब मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ ठीक उसी क्षण की। पूछो, न पूछो, ठीक क्षण आने पर तलवार तुम्हारे गर्दन पर गिरेगी। वही तुम्हारे सौभाग्य का क्षण भी होगा। उसी मिटने में तो पाना है। उसी न हो जाने में तो हो जाना है। संन्यासी होने के बाद ज्यादा देर बच नहीं सकते।

 

अपना दामन सँभाल कर रखिए  

जिंदगी रक्स है शरारों का

यहाँ तो अंगारे नाच रहे हैं। सँभाल कर भी रखोगे दामन तो कब तक दामन सँभाल कर रखोगे—अंगारे दामन में गिरने ही वाले हैं। चल ही पड़े हैं। और तुम संन्यासी हुए तो तुमने खुद अंगारों के लिए दामन फैलाया है। इस गर्दन को गिर ही जाने दो।

 

दरिया में तलातुम बरपा है किश्ती का फसाना क्या मानी?

गरदाब से जब लड़ना है तुम्हें तिनके का सहारा क्या मानी?

यह नौहए किश्ती बंद करो खुद मौजे तूफाँ बन जाओ

पैरों के तले साहिल होगा साहिल की तमन्ना क्या मानी?

किनारों की आकांक्षा ही मत करो। यहाँ तो तुम्हें जो मैं कला दे रहा हूँ, वह तूफान को ही किनारा बना लेने की कला है। “दरिया में तलातुम बरपा है’—और तूफान बड़ा है, जिंदगी तूफान है—”दरिया में तलातुम बरपा है किश्ती का फसाना क्या मानी,’ ये छोटी—मोटी किश्तियाँ लेकर तुम चलोगे, ये बचेंगी थोड़े ही; ये डूब ही जाएँगी। तुम्हारे मंत्र की किश्तियाँ, तुम्हारे यंत्र की किश्तियाँ, तुम्हारे योग—विधि—विधानों की किश्तियाँ, ये छोटी—छोटी किश्तियाँ काम न आएँगी, दरिया तूफान में है, यह भयंकर अंधड़ में है। ये तुम्हारी सब नावें कागज की नावें हैं; खिलौने हैं, नावें नहीं हैं, ये तो डूबेंगी। और जितना तुम बचाने की कोशिश करोगे, उतनी ही कठिनाई में पड़ोगे।

 

दरिया में तलातुम बरपा है किश्ती का फसाना क्या मानी?

गरदाब से जब लड़ना है तुम्हें तिनके का सहारा क्या मानी?

और जब इस भयंकर तूफान से लड़ना है, तब छोटे—छोटे तिनको का सहारा लेने से क्या होगा? और तुम्हारा अहंकार तो तिनके से भी ज्यादा झूठा है। तिनका भी नहीं है, सिर्फ खयाल है। सिर्फ एक विचार है, एक सपना है जो तुमने नींद में देखा है।

 

यह नौहए—किश्ती बंद करो खुद मौजे तूफाँ बन जाओ

अब छोड़ो यह फिकर किश्तियों की, अब तो तूफान के साथ एक हो जाओ, मौजे तूफाँ बन जाओ। अब तो तूफान के साथ तारतम्य जोड़ लो। यही संन्यास है। अब बचने की चेष्टा ही छोड़ो। अब तुम मिटने के साथ ही दोस्ती कर लो। अब तो जीवन का आग्रह छोड़ो, अब तो मौत का आलिंगन कर लो :

 

यह नौहए—किश्ती बंद करो खुद मौजे तूफाँ बन जाओ

पैरों के तले साहिल होगा साहिल की तमन्ना क्या मानी?

तूफान को ही साहिल बना लेंगे। तूफान की ही नाव बना लेंगे। मौत को ही अमृत का द्वार बना लेंगे। यह गर्दन गिरेगी, इसी में तुम्हारा उठना है।

तो घबड़ाहट स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक घबड़ाहट के पार चलना है। स्वाभाविक होने से ही कोई बात सच नहीं हो जाती। स्वभाव के पार और भी स्वभाव है। यह बिल्कुल ही नीचे तल का स्वभाव है, जहाँ हमें भय पकड़े रहता है—मिट जाने का भय। मिटना तो है ही। ऐसे मिटे कि वैसे मिटे। बचना तो होना नहीं है। बचा तो यहाँ कोई भी नहीं है। यहाँ सिकंदर भी मिट जाते हैं, दीन—दरिद्र भी मिटते हैं, सम्राट भी। मिटना तो यहाँ है ही। गर्दन तो गिरेगी ही। तलवार गिरे या न गिरे तो भी गर्दन गिरेगी। तो फिर मिटने का भी उपयोग कर लेना चाहिए।

मरते सभी हैं, जो मरने का उपयोग कर लेता है वही अमृत को उपलब्ध हो जाता है। क्या है मरने का उपयोग? जो स्वेच्छा से मर जाता है। संन्यास स्वेच्छा से मृत्यु का वरण है। यह तैयारी है कि जब मौत आनी ही है, आती ही है, तो मैं स्वयं झुक जाता; मौत को इतना कष्ट भी न दूँगा, मैं खुद मरने को राजी हूँ। इसी मरने के राजीपन में तुम्हारे भीतर क्रांति घट जाती है, तुम मृत्यु के पार हो जाते हो। फिर कौन मरनेवाला बचा—जो मरने को ही राजी हो गए तो मरेगा कौन अब? जिसने मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया, वह इसी स्वीकार में अमृत हो गया। अमृत तो था ही, इस स्वीकार में उसे अमृत का बोध हो गया।

 

दमाग सोख्ता—सा, दिल पै गर्द—सी क्या है?

यह जिंदगी का तमस्खर है, जिंदगी क्या है?

यह तो जिंदगी का सिर्फ उपहास है जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं यह तो जिंदगी का र्सिफ् ढोंग है जिसे हम जिंदगी कहते हैं। यह तो जिंदगी का सिर्फ एक सपना है।

 

दमाग सोख्ता—सा दिल पै गर्द—सी क्या है?

यह जिंदगी का तमस्खर है, जिंदगी क्या है?

कदम बढ़ा कि नयी मंज़िलें बुलाती हैं

यह बेहिसी, यह थकन, यह शिकस्तगी क्या है?

न देख चश्मे—हिकारत से खुश्क काँटों को

गुलों से पूछ मआले शगुफ्तगी क्या है

काँटों को देखकर मत रुक जाना; पूछना हो जिंदगी का राज, फूलों से पूछना। मरनेवालों से मत पूछना, पूछना हो राज़ तो उनसे पूछना जिन्हें अमृत का कुछ अनुभव हुआ है। जिंदगी का राज़ पूछना हो तो हँसते हुए फूल से पूछना। उसे पता है मौत के बीच हँसने की कला। चारों तरफ मौत घिरी है और फूल है मुस्कुराए चला जाता है। चारों तरफ मौत धिरी है और दिया है कि जला चले जा रहा है। चारों तरफ मौत तो सबके घिरी है—तुम्हारे, मेरे, बुद्ध के, कृष्ण के, क्राइस्ट के; लेकिन तुम मौत से घबड़ा रहे हो और बुद्ध मौत से नहीं घबड़ा रहे हैं, इतना ही फर्क है। तुम्हारी घबड़ाहट में तुम मौत से दबे जा रहे हो। बुद्ध निर्भय होकर मृत्यु को देख रहे हैं—जो होना है होना है, जैसा होना है वैसा होना है, जैसा हो वैसा हो, ज्यों का त्यों ठहराया। बस इसी क्षण तुम्हारे भीतर एक स्वर पैदा होता है जो शाश्वत का है, एक किरण उतरती है जो परमात्मा की है।

 

कदम बढ़ा कि नयी मंज़िलें बुलाती हैं

यह बेहिसी, यह थकन, यह शिकस्तगी क्या है?

यह अकर्मण्यता, यह थकान, यह पराजय क्या है

 

न देख चश्मे—हिकारत से खुश्क काँटों को

….. काँटों को मत गिनती करो, मौत का हिसाब मत लगाओ…..

 

गुलों से पूछ मआले शगुफ्तगी क्या है

हँसने का राज़ क्या है? हँसने का एक ही राज़ है—मौत का स्वीकार। संन्यासी ही हँस सकता है। तुम्हें पता है क्यों इस देश ने संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र चुने? वह अग्नि का रंग है, लपटों का रंग है। प्राचीन समय में जब किसी को संन्यास देते थे, तो उसे चिता बनाकर उस पर लिटाते थे। फिर चिता में आग लगाते थे और घोषणा करते थे कि तू अब तक जो था, समाप्त हो गया। तेरी तरह तू मर गया। अब उठ और एक नए जीवन में उठ! जलती चिता से संन्यासी उठता था, फिर उसे नया नाम देते थे, और गैरिक वस्त्र देते थे ताकि याद रखना अग्नि को, लपटों को, मृत्यु को; स्मरण रखना कि जो भी मरणधर्मा है वह तू नहीं है; स्मरण रखना कि जो भी मरेगा, वह तू नहीं है।

तो शीला, घबड़ा मत! रख गर्दन सामने। गिरने दे तलवार। जो कटेगा, वह तू नहीं है।

सिकंदर जब भारत से वापिस लौटता था तो उसे याद आयी—जब यात्रा पर आया था भारत की तरफ तो उसके गुरु अफलातून ने उससे कहा था, जब भारत से लौटो, और बहुत—सी चीजें तुम लूट कर लाओगे, बन सके तो एक संन्यासी भी ले आना। संन्यास भारत की गरिमा है। वह भारत का गौरव है। वह भारत की देन है दुनिया को। तो अफलातून ने ठीक ही कहा था कि तू सब कुछ तो लाएगा लूटकर—धन—दौलत, हीरे—जवाहरात—मेरे लिए इतना खयाल रखना, एक संन्यासी ले आना। क्योंकि मैं जानना चाहता हूँ, संन्यास क्या है? सब लूट—पाट कर जब सिकंदर जा रहा था और पंजाब की आखिरी बस्तियाँ छोड़ रहा था, तब उसे याद आया कि वह भूल ही गया संन्यासी को ले जाना। तो उसने खबर की गाँव में कोई संन्यासी है? लोगों ने कहा—हाँ, एक संन्यासी है। वह नदी के किनारे नग्न वर्षों से जीता है। सिकंदर ने अपने दो आदमी भेजे और कहा—संन्यासी को कहो कि घोड़े पर सवार होकर हमारे साथ हो जाए। और कह देना, अगर आज्ञा न मानी तो यह नंगी तलवार है, गर्दन इसी वक्त काटकर गिरा दी जाएगी।

वे नंगी तलवारें लिए हुए सैनिक गए। जो संन्यासी वहाँ खड़ा था —नग्न, मस्त, सुबह की रोशनी में….. सूरज से बातें करता होगा, आकाश में उड़ता होगा, अनंत से जुड़ा था, मस्त था, मौज में था, रक्स में था, नाच में था—थोड़ी देर तक तो वे दोनों सैनिक तलवारें नंगी हाथ में लिए चुपचाप खड़े रहे; ऐसा दृश्य उन्होंने देखा नहीं था! ऐसी मस्ती उन्होंने देखी नहीं थी! मतवाले देखे थे, मगर ऐसा मतवाला नहीं देखा था! और संन्यासी को जैसे पता ही नहीं चला कि वे दो नंगी तलवारें लिए आदमी खड़े हैं किसलिए? आखिर में उन्होंने ही कहा कि भई, देखते नहीं, हम बड़ी देर से देख रहे हैं, सिकंदर की आज्ञा है, महान सिकंदर की आज्ञा है कि घोड़े पर सवार हो जाओ और हमारे साथ यूनान चलो। सब तरह की सुविधा रहेगी, सब तरह का इंतजाम रहेगा, तुम शाही मेहमान रहोगे। और यह भी खबर है साथ में कि अगर जाने से इंकार किया, तो ये नंगी तलवारें तुम्हारी गर्दन अभी गिरा देंगी।

वह संन्यासी ऐसा खिलखिलाकर हँसा कि नंगी तलवारें लिए सैनिकों के दिल धड़ककर रह गए होंगे। उस संन्यासी ने कहा—सिकंदर को कहो कि फिर उसे संन्यासियों से बात करने की तमीज नहीं है। उसे संन्यासियों के साथ चर्चा करने का कुछ पता नहीं है। उस नासमझ को ही ले आओ ताकि वह भी देख ले—जब एक संन्यासी की गर्दन काटी जाती है तो क्या होता है? रही आने—जाने की बात, वर्षों हो गए तब से मैंने आना—जाना छोड़ दिया। ठहर गया हूँ। वह ऊँची बातें कह रहा था जिसकी सिपाहियों को तो कुछ समझ में ही नहीं आया होगा क्या कह रहा है। आना—जाना छोड़ चुका हूँ, उसने कहा, ठहर गया हूँ। वह तो संन्यासी की परिभाषा कर रहा था, जो कृष्ण ने की है—स्थितप्रज्ञ, जिसकी प्रज्ञा ठहर गयी है, जो न अब आता न जाता…..रज्जब ने कहा न—जो आए जाए सो माया….. जो न आता, न जाता, जो सदा ठहरा है, सदा स्थिर है, उस थिरता का नाम ही संन्यास है। तो उसने कहा—मैं तो अब कहाँ आता—जाता, वर्षों हो गए ठहर गया, अब कैसा आना, कैसा जाना! कैसा भारत, कैसा यूनान! व्यर्थ की बातें यहाँ न करो। रही गर्दन काटने की बात, तुम्हें काटना हो तुम काट लो, सिकंदर को काटना हो सिकंदर काट ले, जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं तो यह गर्दन बहुत पहले काट ही चुका। इस गर्दन का मुझसे कुछ लेना—देना नहीं।

सिपाहियों की हिम्मत न पड़ी काटने की। यह आदमी कुछ अनूठा था। उन्होंने बहुत आदमी देखे थे, या तो आदमी होता है तलवार उसके सामने करो तो वह अपनी तलवार निकाल लेता है, लड़ने—जूझने को तैयार हो जाता है; या एक आदमी होता है कि तलवार दिखाओ तो वह भाग खड़ा होता है, पीठ दिखा देता है। न इसने पीठ दिखायी, न इसने तलवार निकाली, यह तीसरे ही तरह का आदमी था, जो खिलखिलाकर हँसा! इन सैनिकों ने बहुत युद्ध देखे थे, बहुत लोग मारे थे, मारे गए थे, खुद मौत का सामना किया था, मृत्यु के अनुभव से निरंतर गुजरे थे, मगर ऐसा आदमी न देखा था। उन्होंने सोचा, बेहतर है हम सिकंदर को पहले खबर कर दें।

एक तो वहीं रुका रहा कि संन्यासी पर नजर रखे, दूसरा भागा सिकंदर को गया, उसने कहा कि आदमी देखने जैसा है! अफलातून ने, तुम्हारे गुरु ने जो कहा संन्यासी ले आना, ठीक ही कहा। हमने बहुत आदमी देखे, मगर यह आदमी कुछ और तरह का आदमी है। यह आदमियों जैसा आदमी नहीं है। यह मौत की बात सुनकर हँसा—ऐसा हँसा कि भरोसा न आए! या तो यह पागल है, या यह किसी ऐसी अवस्था में है ऊँचाई की जहाँ हमारी कोई पहुँच नहीं है। आप खुद ही चलो। काटना हो आप खुद ही काट लो। और वह कहता है—गर्दन तो मैं पहले ही कटा चुका।

सिकंदर खुद गया। सिकंदर ने लिखा है कि जिंदगी में मैं दो बार अपने को छोटा अनुभव किया हूँ। एक बार डायोजनीज से मिला था, तब—वह भी एक नंगा फकीर था यूनान का—और एक बार दंडामि, इस हिंदू संन्यासी से मिला, तब; दो बार मुझे लगा कि मैं ना—कुछ हूँ। बाकि बड़े सम्राट देखे, दुनिया के बड़े ख्यातिनाम लोग देखे, उनके सामने मैं सदा बड़ा था। मेरे मुकाबले वे कुछ भी न थे। मगर इन दो फकीरों ने—दोनों नंगे फकीर थे मुझे एकदम झेंप से भर दिया।

दंडामि के सामने खड़े होकर सिकंदर ने कहा कि चलना होगा, अन्यथा यह तलवार है और मैं कठोर आदमी हूँ, जैसा कहता हूँ, वैसा करता हूँ, यह गर्दन अभी कट जाएगी, यह सिर अभी गिर जाएगा। पता है दंडामि ने क्या कहा? दंडामि ने कहा—गिराओ, गिराओ, सिर को गिरा दो; मैं भी उसे गिरते देखूँगा, तुम भी उसे गिरते देखोगे। और अब तुम करोगे क्या, जो काम मेरा गुरु पहले ही कर चुका है! अब तो यह सिर ऐसा ही अटका है, जुड़ा नहीं है। यह तो कटा हुआ सिर है, कटे हुए को क्या काटते हो, मगर काटो! तुम भी देखोगे गिरते, मैं भी देखूँगा गिरते। सिकंदर की तलवार कहते हैं म्यान में वापिस चली गयी। इस आदमी की रौनक, इस आदमी की आभा देखकर हतप्रभ होकर वापिस लौट गया। जाते वक्त उस संन्यासी ने कहा—और ध्यान रखना, जो संन्यासी तुम्हारे साथ जाने को राजी हो जाए, वह ले जाने—योग्य नहीं है। वह संन्यासी नहीं है। जो संन्यासी है, उसका अब कैसा आना, कैसे जाना! ज्यूँ का त्यूँ ठहराया।

तो शीला! कट ही जाने दो गर्दन। गर्दन कट जाए तो झंझट मिटे। फिर भय भी मिट जाएगा। जब कट ही गयी , तो कटने को कुछ और बचा नहीं। जब तक है, तब तक भय है। भय के ऊपर उठो।

 

दूसरा प्रश्न : आप ऑंख खोलने के लिए कहते हैं, मगर ऑंखें खोलने में इतना भय क्यों लगता है?

वेदांत, भय तो लगेगा ही। ऑंखें बंद हैं तो प्यारे सपने चल रहे हैं। ऑंखें खुलेंगी तो सपने उजड़ जाएँगे, टूट जाएँगे। ऑंखें बंद हैं, तो आशा का दीया जल रहा है। ऑंखें खुलेंगी तो दीया बुझ जाएगा।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात सपना देखा कि कोई देवदूत प्रगट हुआ है—फरिश्ता —और कह रहा है : ले ले, यह निन्न्यानबे रुपये हैं ले ले! मुल्ला ने कहा—निन्न्यानबे! जैसा कि आदमी का मन होता है; कोई भी, तुम भी होते तो तुम कहते यह भी खूब रही, निन्न्यानबे क्या, जब देते हो तो कम—से—कम सौ दो। कुछ अड़चन मालूम होती है निन्न्यानबे के साथ। “निन्न्यानबे का चक्कर,’ कहानी तुमने सुनी है न। कुछ अड़चन होती है। निन्याबे! तो मन सोचता है कि एक और हो। पूरा तो हो जाए! अधुरे में कुछ अड़चन होती है। तो, सपने में भी गणित नहीं टूटता आदमी का। मुल्ला ने कहा—जब देते ही हो, भाई, तो कम—से—कम सौ दो! बँधा नोट दो! यह क्या निन्न्यानबे! इस पर जिद्द होने लगी, फरिश्ता कहने लगा—लेना हो निन्न्यानबे ले लो; और मुल्ला कहने लगा कि लेंगे तो सौ लेंगे, अब एक के लिए यह क्या बात कर रहे हो! जब इतने दिलदार हो, जब इतने दूर से आए, तो एक रुपट्टी के लिए क्या कंजूसी दिखा रहे हो! इसी झगड़े में नींद खुल गयी। ऑंख खुली तो न फरिश्ता था, न निन्न्यानबे रुपये थे। मुल्ला बहुत घबड़ाया। जल्दी से ऑंख बंद करके बोला—भाई, चलो निन्न्यानबे ही दे दो! मगर वहाँ अब कोई भी न था। चलो अठ्ठानवे दे दो जितने देना हो दे दो कुछ तो दे दो मगर वहां अब कोई भी न था।

इसलिए ऑंख खोलने में डर लगता है। कहीं सपना टूट न जाए। तुम निन्न्यानबे को सौ करने में लगे हो। सपने का यही अर्थ होता है—निन्न्यानबे को सौ करने में जो लगा है वह सपने में है। और निन्न्यानबे सौ नहीं होते। निन्न्यानबे कभी सौ नहीं होते। निन्न्यानबे निन्न्यानबे ही रहते हैं। तुम्हें मैं कहानी कह दूँ, तो खयाल में आ जाए—

एक सम्राट की मालिश करनेवाला नाई रोज—रोज आता है, सुबह घंटे—दो घंटे सम्राट की मालिश करता है; पुरानी कहानी है, उसे एक रुपया रोज मालिश का मिलता। उन दिनों एक रुपया बहुत था। खुद खाता है, पड़ोस के लोगों को खिलाता है, मस्त है! सम्राट भी उसकी मस्ती सेर् ईष्या करता है। और कोई काम नहीं, दो घंटे मालिश कर लिए, फिर दिन—भर मुक्त है, फिर बाँसुरी बजाता है। वहीं सम्राट के सामने रहता है, उसकी बाँसुरी की आवाज सम्राट को भी कभी—कभी सुनायी पड़ जाती। उसके घर से हमेशा हँसी के फव्वारे छूटते रहते—मित्र इकट्ठे होते हैं, भाँग छनती है, गीत उठते हैं, ढोलक पर ताल पड़ती है, बाँसुरी बजती है। फिर दूसरे दिन सुबह आकर दो घंटे मेहनत कर जाता है और फिर निश्चिंत हो जाता है। सम्राट ने अपने वजीर से कहा कि मेरे पास सब है, मगर मैं इतना निश्चिंत नहीं। न मैं बाँसुरी बजा सकता हूँ—फुरसत कहाँ—न मैं हँस सकता हूँ इस जैसा। इसके पास कुछ भी नहीं है। वजीर ने कहा—यही तो झंझट है, इसके पास कुछ भी नहीं है! यह अभी चक्कर में नहीं पड़ा। आप घबड़ाएँ न, आपकीर् ईष्या मैं मिटा दूँगा, मैं इसको कल चक्कर में डाले देता हूँ।

रात में वह गया और निन्न्यानबे रुपये एक थैली में रखकर उस गरीब के घर में फेंक आया। सुबह उसने ऑंख खोली, निन्न्यानबे रुपये, गिनती किए—एकदम निन्न्यानबे! बस सौ का चक्कर शुरू हुआ। उसने कहा—आज जो रुपया मिले, आज रबड़ी नहीं खरीदनी, आज भाँग नहीं छनेगी, एक ही दिन की तो बात है, एक रुपया बच जाएगा, सौ हो जाएँगे सौ पूरे हो जाएँगे। यह आदमी का मन कुछ अजीब पागल है, निन्न्यानबे से पता नहीं क्यों राजी नहीं होता! सौ पूरे हो जाएँ! उस दिन न तो बाँसुरी बजी, न मृदंग पर ताल पड़ी, न मित्र आए, न हँसी के फव्वारे छूटे—भूखा प्यासा आदमी क्या हँसी का फव्वारा छूटे! वह कल की राह देख रहा है यह एक रुपया यह तो मिला है तो सौ कर लिए।

सम्राट ने वजीर से कहा—क्या किया भाई, हद्द कर दी! आज कहाँ गया नाई, क्या हो गया उसको? वजीर ने कहा—अब कभी हँसी न उठेगी और अब कभी बाँसुरी न बजेगी, आप फिकर न करें। आप जल्दी ही देखेंगे इसकी हालत खस्ता होती जाएगी। और उसकी हालत खस्ता होती चली गयी। क्योंकि जब सौ हो गए, तो फिकर उसको लगी कि ऐसे अगर बढ़ते चले जाएँ तो दो सौ हो सकते हैं। सौ तो हो ही गए, आधे तो हो ही गए, अब दो सौ में देर कितनी है! तो रोज अगर बचाऊँ! तो रूखी—सूखी खाने लगा, दोस्तियाँ छोड़ दीं—इसीलिए तो धनपति दोस्ती नहीं करते। गरीब की दुनिया में दोस्ती होती है, गरीब की दुनिया में, अमीर की दुनिया में कहाँ दोस्ती! अमीर की दुनिया में, र्सिफ् व्यवसायिक नाते—रिश्ते होते हैं, व्यावसायिक संबंध होते हैं, दोस्ती नहीं होती, मित्रता नहीं होती, क्योंकि कौन खर्चा ले, कौन झंझट ले! अमीर देने में डरता है, है उसके पास मगर देने में डरता है। गरीब के पास कुछ नहीं है, इसलिए देने में डरता ही नहीं—वैसे ही कुछ नहीं है, अब और क्या ले जाओगे! इतना है, यह भी ले लो तो कुछ हर्जा नहीं—क्या खोता है!

मगर अब इसके पास सौ रुपये थे और मुसीबत हो गयी! और दिन में दो—चार बार जाकर टटोलकर अपने रुपये देख लेता था और डर भी पैदा होने लगा कि कोई चोर को पता चल जाए, घर में इतने आदमियों का आना—जाना ठीक नहीं है। आना—जाना लोगों का बंद करवा दिया। खुद भी यहाँ—वहाँ जाना बंद कर दिया, क्योंकि घर से बाहर जाए—अकेला ही आदमी था—कोई चोर घुस जाए, कुछ हो जाए, कोई ले जाए! रात भी सोता था तो वो निश्चिंतता न रही। चिंताएँ आएँ। रात में एकाध—दो दफे उठकर जाकर देख ले कि सब ठीक—ठाक है? सूखने लगा। पंद्रह दिन में ही उसकी हालत खराब थी। सम्राट ने पूछा कि भाई, तुझे हुआ क्या है? कहाँ गयी तेरी रौनक? कहाँ गया तेरा रस, तेरी मस्ती? यह वजीर ने क्या किया तेरे साथ? उस आदमी ने कहा—वजीर ने! वह आदमी खिलखिलाकर हँसने लगा, उसने कहा अब मैं समझा। तो यह वजीर की शरारत है! वह मुझे मार ही डालता, अच्छा बता दिया आपने! मुझे निन्न्यानबे के चक्कर में डाल दिया।

निन्न्यानबे का चक्कर है एक। वही सपना है।

तुम पूछते हो—आप ऑंख खोलने के लिए कहते हैं, मगर ऑंख खोलने में इतना भय क्यों लगता है? इसीलिए कि ऑंख बंद है तो तुम्हारा सपना सच मालूम होता है। तुम ऑंख खोलकर देखोगे तो जिसके प्रेम में मरे जा रहे थे, पाओगे वहाँ कुछ भी नहीं—हड्डी—मांस—मज्जा है। ऑंख खोलकर देखोगे तो जिस पद के लिए दिवाने हुए थे, वहाँ कुछ भी नहीं है। ऊँची कुर्सियों पर बैठ जाने का रस छोटे—छोटे बच्चों जैसा है, जो कूड़े—कचरे के ढेर पर चढ़ जाते हैं और चिल्लाकर कहते हैं कि मैं सबसे ऊँचा हूँ। दिल्लियों में वही कूड़े—कचरे के ढेरों पर चढ़े हुए लोग चिल्लाते रहते हैं कि मैं सबसे ऊँचा हूँ। तुमने देखा न, छोटा बच्चा कभी तुम्हारे पास ही आकर कुर्सी के हत्थे पर चढ़कर खड़ा हो जाता है और कहता है—पिताजी, मैं आपसे बड़ा हूँ। तुम हँसकर रह जाते हो, तुम जानते हो बचकाना है। अभी बच्चा है, इसे कुछ पता नहीं। ये कोई बड़े होने के ढंग नहीं हैं। लेकिन कोई राष्ट्रपति हो गया, कोई प्रधानमंत्री हो गया, तुम सोचते हो कुछ भेद हो गया? कुर्सी पर चढ़ गया। अब वह कह रहा है—मैं बड़ा हूँ। और उसे पक्का भरोसा आने लगता है कि मैं बड़ा हूँ, क्योंकि कुर्सी को लोग नमस्कार करते हैं। वह सोचता है नमस्कार मुझे हो रही है।

एक रथ के सामने एक गधा चल रहा था। रथ में बैठे सम्राट को लोग झुक—झुककर नमस्कार कर रहे थे, गधा बहुत अकड़ गया। गधा जोर—जोर से रेंकने लगा। सम्राट ने कहा—इस गधे को क्या हुआ? सम्राट के वजीर ने कहा—यह लोगों की नमस्कार इसके दिमाग को खराब किए दे रही है। यह आगे—आगे चल रहा है, इसको आपका कुछ पता नहीं है, इसके पीछे रथ आ रहा है इसका पता नहीं है, और पता भी हो तो शायद यही सोच रहा हो कि मेरे पीछे रथ चलते हैं, और मेरे आगे लोग नमस्कार करते हैं सम्राट मेंरे पीछे चलते हैं और लोग झुक—झुककर मुझे नमस्कार करते हैं—, इस गधे का दिमाग फिरा जा रहा है। एक तो गधा और फिर दिमाग फिरा, इसकी हालत खराब हुई जा रहीं है, यह पगला जाएगा।

राजधानियों में तुम इसी तरह के लोग पाओगे। कुर्सी को लोग नमस्कार कर रहे हैं। कुर्सी से हटते ही कोई नमस्कार करने नहीं आता। तुमने देखा न कुर्सी पर आदमी बैठता हैं, लोग कहते हैं—जिंदाबाद। कुर्सी से उतरा कि मुर्दाबाद। असली बात—कुर्सी जिंदाबाद। तो जो कुर्सी पर है—वह भी जिंदाबाद हो जाता है। कुर्सी पर बैठे आदमी की लोग झुक—झुककर स्तुतियाँ करते हैं। खुशामद करते हैं। उसके अहंकार को फुलाते हैं। कुर्सी से उतरा नहीं आदमी कि फिर कोई पूछता नहीं। इसीलिए तो जो कुर्सी पर एक बार चढ़ जाता है, वह उतरता नहीं। लाख उपाय करता है चढ़ा ही रहे। क्योंकि उसे भी शक तो होता ही है कि कहीं उतर गया कुर्सी से, पता नहीं फिर क्या मेरी हालत हो! लोग चाहते हैं कि कुर्सी पर ही रहते—रहते मर जाएँ।

सपना तुम पद का देख रहो हो, ऑंख खोलोगे तो वहाँ कुछ भी न पाओगे। सपना तुम धन का देख रहो हो, ऑंख खोलोगे हाथ में राख पाओगे। इसलिए डर तो स्वाभाविक है। ऑंख खोलने से सपने टूट जाएँगे, एक बात। और फिर सच दिखायी पड़ेगा, वह और भी खतरनाक है—कि पता नहीं कैसा हो सच! अनुकूल पड़े न पड़े! और सच ने कोई कसम थोड़े ही खायी है कि तुमसे अनुकूल पड़ना पड़ेगा। सच तुम्हारे अनुकूल पड़ता ही नहीं। तुम्हीं को सच के अनुकूल पड़ना पड़ता है। और यही अड़चन है। झूठ की एक खूबी है कि वह तुम्हारे अनुकूल होता है।

इसको सूत्र की तरह समझो, इसे खूब गहरा पकड़ लो। झूठ की यह खूबी है—इसीलिए तो झूठ इतना सफल है दुनिया में—वह हमेशा तुम्हारे अनुकूल होता है। वह कहता है—तुम जैसे, वैसा मैं। मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। तुम लाल तो मैं लाल, तुम पीले तो मैं पीला; तुम दिन को रात कहो तो मैं दिन को रात कहता; तुम रात को दिन कहो तो मैं रात को दिन कहता। मैं तो तुम्हारा अनुगामी हूँ, मैं तो तुम्हारा दास। झूठ के साथ एक सुविधा है कि वह सदा तुम्हारे अनुकूल होता है। सत्य के साथ असुविधा है—तुम्हें सत्य के अनुकूल होना पड़ता है। अगर रात है तो रात है, तुम लाख चिल्लाओ कि दिन है, सत्य नहीं कहेगा कि यह दिन है।

सत्य के अनुकूल तुम्हें होना पड़ेगा, तो तुम्हें अपने बहुत से अंग काटने होंगे। तुमने झूठ की दुनिया में रह—रह कर जो अंग अपने बना लिए हैं, एक अपनी तस्वीर बनायी है। एक अपनी प्रतिमा निर्मित की है, वह सारी प्रतिमा खंडित होगी, फिर नए सिरे से शुरू करना पड़ेगा, फिर बारहखड़ी, फिर अ ब स से शुरू करना पड़ेगा। पुराना कुछ काम नहीं आएगा। अब तक जो सोचा था अपना परिचय है, वह काम नहीं अएगा। अब अपना नया परिचय खोजना होगा।

और सत्य के अनुकूल होने में अड़चनें आएँगी। अड़चनें इसलिए आएँगी कि बाकी सारे लोग झूठ के अनुकूल हैं तुम एकदम अजनबी हो जाओगे। तुम भरी दुनिया में अकेले हो जाओगे। मित्र किनारा काटने लगेंगे—क्योंकि कौन झंझट लेना चाहता है—अपने पराए हो जाएँगे, सब तरफ तुम अड़चन पाओगे, सब तरफ तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे बीच और लोगों के बीच फासला बढ़ता जा रहा है। तुम जितने सत्य के करीब आओगे, उतने लोगों से दूर होते जाओगे। तुमने सुना है कि संन्यासी समाज को छोड़कर भाग जाते थे, मैं कहता हूँ भागना मत समाज को छोड़कर, लेकिन एक बात तो होने वाली है, समाज में रहोगे तो भी तुम समाज के न रह जाओगे। समाज और तुम्हारे बीच एक अंतराल हो जाएगा, एक खाई पड़ जाएगी। तुम सत्य के अनुकूल होने की चेष्टा में लगोगे और समाज अभी झूठ में जी रहा है—समाज का अभी निन्न्यानबे का फेर जारी है—कैसे मेल बैठे? कैसे तालमेल हो? विसंगति हो जाएगी। और जीना तो इन्हीं लोगों के साथ है।

तो बड़ी कला सीखनी पड़ेगी कि जब तुम्हारे भीतर सब बदल गया हो, तब उनके साथ कैसे जीना जिनके भीतर कुछ भी नहीं बदला है। ऐसा ही समझो कि पागलखाने में एक आदमी जिए जो पागल नहीं है। उसकी अड़चन समझो। उसे बड़ी व्यवस्था रखनी पड़ेगी। उसे कम—से—कम इतना दिखावा जारी रखना पड़ेगा कि मैं भी भाई पागल हूँ, तुम्हारे जैसा ही हूँ। भीतर एक हो जाएगा और बाहर एक अभिनय करना होगा। ठीक संन्यासी सम्यकरूपेण अभिनय की कला में कुशल हो जाते हैं। अभिनय का मतलब, नाहक दूसरों को क्यों दुःख देना? जो सोए हैं और जो अभी सोए रहने का निर्णय किए हैं, उनकी नींद अकारण नहीं तोड़ देनी है। किसी को यह हक नहीं है। उन्हें सोने दो। जब उनका समय पकेगा तब वे जागेंगे। उनके झूठों को भी नाहक उनकी मर्जी के विपरीत उन्हें दिखलाओ मत, अन्यथा वे नाराज हो जाएँगे, अन्यथा वे तुमसे बदला लेंगे, प्रतिशोध लेंगे।

ये बड़ी कठिनाइयाँ हैं। पहले तो अपने सपने गए, जो—जो सुंदर था वह गया, और फिर आया सत्य, और सत्य के साथ फिर अपने को बदलना पड़ेगा।

 

एक खुद्दार आदमी का जमीर

 

वक्त? से कब शिकस्त खाता है

 

यह दिया हादसों की ऑंधी में

 

और शिद्दत से जगमगाता है

बड़ी हिम्मत चाहिए। बड़ी स्वतंत्रता चाहिए। बड़ा साहस चाहिए। “एक खुद्दार आदमी का जमीर’—बड़ा मजबूत अंतःकरण चाहिए। एक केंद्रित चेतना चाहिए। एक श्रद्धा चाहिए स्वयं के अस्तित्व पर।

 

एक खुद्दार आदमी का जमीर

 

वक्त? से कब शिकस्त खाता है

तभी तुम जीत सकोगे, नहीं तो समय तुम्हें हरा देगा। “यह दिया हादसों की ऑंधी में’, अगर भीतर श्रद्धा का बल हो, आत्मबल हो, तो फिर यह दिया ऑंधियों से बुझता नहीं; यह दिया हादसों की ऑंधी में—आपदाओं की ऑंधी में—और शिद्दत से जगमगाता है—और तेजी से जगमगाता है। तुम डरते हो कि पता नहीं यह दिया बुझ न जाए। नहीं, हिम्मत जुड़ाओ; जागो, खोलो ऑंख, जाने दो सपनों को—सपने हों तो भी किसी काम के नहीं; जितनी देर सपनों में रहे, उतना समय व्यर्थ गया, झूठी कल्पनाजाल से कुछ हित होने का नहीं है—जागो! और सत्य के साथ अड़चनें आएँगी, कठिनाइयाँ आएँगी, चुनौतियाँ आएँगी। मगर घबड़ाओ मत—

 

यह दिया हादसों की ऑंधी में

 

और शिद्दत से जगमगाता है

और नयी रौनक आएगी। धार आएगी तुम्हारे दीये पर। सब ऑंधियाँ उपद्रव की तुम्हें और निखारेंगी, तुम और जगमगाओगे।

 

शमा की लौ में उभर आई हैं जुल्मत की रगें

बदले लेने पै हैं आमादा पतंगों की क़तार

कितने अल्हड़ यह सिपाही हैं, कि डरते ही नहीं

मरते जाते हैं मगर हैं, कि चले आते हैं

जम के मैदाँ से क़दम उनके उखड़ते ही नहीं

ज़िंदगी के नए अंदाज़ बता जाते हैं

आग को आग समझते नहीं, हटते ही नहीं

अपनी लाशों से बना देते हैं, शोले का मजार

ताकि वो नस्लें जो कल आएँगी महफूज़ रहें

पतंगों से सीखो। सत्य का खोजी पतंगा है। रोशनी की तलाश में चला है। मौत घटेगी रोशनी के मार्ग पर।

 

शमा की लौ में उभर आई हैं जुल्मत की रगें

बदले लेने पै हैं आमादा पतंगों की क़तार

देखा है पतंगों को मरते शमा पर? दीये के पास ऐसा कुछ नहीं हो जाता कि एक पतंगा मर गया, तो दूसरा पतंगा रुक जाए। कतार चली आती है।

 

बदले लेने पै हैं आमादा पतंगों की क़तार

कितने अल्हड़ यह सिपाही हैं, कि डरते ही नहीं

मरते जाते हैं मगर हैं, कि चले आते हैं

जम के मैदाँ से क़दम उनके उखड़ते ही नहीं

आग को आग समझते नहीं, हटते ही नहीं

ऐसी ही साहस की क्षमता चाहिए, ऐसे ही जमना पड़ेगा, ऐसे ही लड़ना पड़ेगा। संन्यास का अर्थ है—रोशनी की तलाश में पतंगे की तरह अपने को गँवाने की हिम्मत। यह सौदा महँगा सौदा है। यह जुआरियों का सौदा है। तुम ऑंख खोलने से डरते हो? सभी डरते हैं। इससे आत्मनिंदा मत लेना। लेकिन डरके रुकने की जरूरत नहीं है। चुनौती बनाओ इसे। ऑंख खोलो। जैसा है उसे वैसा ही देखो, तो ही तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा हो सकती है। सत्य के अतिरिक्त न कभी आनंद फला है, न फल सकता है।

 

तीसरा प्रश्न : इस सृष्टि में अनेक प्राणी प्रकृति के अनुसार सहज जीवन बिता रहे हैं लेकिन मानव जाति निकृष्ट जीवन बीता रही है। मनुष्य जीवन सहज जीवन की ओर मुड़ेगा या नहीं? हमारा कर्तव्य क्या है?

नुष्य का दुर्भाग्य भी यही है और सौभाग्य भी यही कि वह सहज नहीं है। दुर्भाग्य इसलिए कि पौधों को, पक्षियों को जो शांति और शकून उपलब्ध है, वह आदमी को उपलब्ध नहीं। सौभाग्य इसलिए कि आदमी चाहे तो बुद्ध बने, कृष्ण बने, क्राइस्ट बने। पौधे और पशु—पक्षी कृष्ण, बुद्ध और क्राइस्ट नहीं बन सकते।

मनुष्य का महत्त्वपूर्ण लक्षण उसकी स्वतंत्रता है। मनुष्य हकदार है चुनने का अपनी जीवन—व्यवस्था को। एक कुत्ता कुत्ते की तरह पैदा होता है और कुत्ते की तरह ही मरता है। एक गुलाब का पौधा गुलाब की तरह पैदा होता है और गुलाब की तरह ही मरता है। कोई क्रांति नहीं घटती जीवन में। जीवन वैसे का ही वैसा, ढाँचे में बँधा होता है। एक परतंत्रता है। शांति तो जरूर है, लेकिन गुलामी की शांति है। स्वाभाविकता भी जरूर है; कपट नहीं, पाखंड नहीं, गुलाब बस गुलाब है, चंपा होने का कभी धोखा नहीं देता और न कमल होने का आयोजन करता ह, जो है, जैसा है, राजी है। पर यह स्वतंत्रता नहीं है। गुलाब गुलाब होने को बँधा है।

आदमी की खूबी क्या है? आदमी का लक्षण क्या है? इस सारी प्रकृति में आदमी अकेला ही है जिसके यह क्षमता के भीतर है कि जो चाहे हो जाए। चाहे तो गुलाब जैसा सुंदर, और चाहे तो बबूल का झाड़ हो जाए। चाहे तो काँटे—ही—काँटे उगा ले और चाहे तो फूल—ही—फूल हो जाए। चाहे तो घास ही रह जाए और चाहे तो कमल हो जाए। यह आदमी की खूबी है। आदमी स्वतंत्र है, तरल है, मुक्त है। आदमी के पास आत्मा है, आदमी चुनाव कर सकता है। अधिक लोग गलत चुनाव करते हैं, इससे चुनावे करने की क्षमता की निंदा नहीं होती। कुछ थोड़े—से लोग ही ठीक को चुनते हैं। क्योंकि ठीक को चुनना कुछ कठिन मालूम होता है।

नीचे उतरना सदा आसान है। जैसे पहाड़ से कोई उतरता हो। इसलिए आदमी नीचे की तरफ उतरने में आसानी पाता है। वृत्तियाँ नीचे की तरफ उतरना है, विवेक ऊपर की तरफ चढ़ना है। बेहोशी नीचे की तरफ उतरना है, होश ऊपर की तरफ चढ़ना है। पहाड़ पर चढ़ने में अड़चन तो होती है, पसीना तो आता है, हाथ—पैर थक जाते हैं, शरीर टूटता है, मगर जो शिखर पर पहुँचते हैं वे ही शिखर पर होने का आनंद जानते हैं। नीचे उतरना सुगम है, लेकिन पहुँचोगे ऑंधियों की घाटी में। ऊपर चढ़ना कठिन है, लेकिन सूरज से मुलाकात होगी, बादलों से आलिंगन होगा, मुक्त और निर्मल आकाश उपलब्ध होगा। महँगा तो है, लेकिन परिणाम अद्भुत है।

आदमी जैसा होना चाहिए वैसा पैदा नहीं हुआ है। आदमी को स्वतंत्रता है वैसा होने की। या चाहे, न होना हो तो न होने की। इसलिए एक क्षण में भी कभी—कभी क्रांति हो जाती है। नीचे जाता हुआ आदमी कभी एक क्षण में पुकार सुन लेता है ऊपर जाते किसी आदमी की, या पहाड़ की चोटी से, शिखर से आते हुए किसी बुद्ध—पुरुष की वाणी उसके कान में पड़ जाती है,एक क्षण में क्रांति हो जाती है। क्योंकि मामला इतना ही है। कुछ ऐसा नहीं है कि नीचे जाने के लिए हम बँधे हैं, हमने चुना है इसलिए नीचे जा रहे हैं। जिस क्षण तय कर लेंगे कि अब नीचे नहीं जाना है, कोई दुनिया की ताकत हमें नीचे नहीं ले जा सकती।

तुमने पूछा कि इस सृष्टि में अनेक प्राणी हैं जो प्रकृति के अनुसार सहज जीवन बिता रहे हैं, लेकिन मानव—जाति निकृष्ट जीवन बिता रही है। क्योंकि मनुष्य—जाति स्वतंत्र है। और वे प्राणी स्वतंत्र नहीं हैं। सुकरात का प्रसिद्ध वचन है कि मैं संतुष्ट सुअर होने के बजाय असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करुँगा। ठीक है, संतुष्ट सुअर आखिर सुअर है। असंतुष्ट सुकरात आखिर सुकरात है। सिर्फ संतोष में ही तो सब कुछ नहीं है। संतोष सचेत होना चाहिए, तब कुछ है।

शांति अनिवार्य हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। जब शांति अनिवार्य नहीं है, स्वेच्छा से है, चुनी हुई है, तब उसका मूल्य है। तुम्हें गीत मजबूरी में गाना पड़े—कोयल ऐसे ही तो गाती है, मजबूरी में; इसलिए कोयल कभी बैजू बावरा हो पाएगी, यह मत सोचना। कभी नहीं हो पाएगी। मजबूरी है, यंत्रवत् है, गाना ही पड़ता है। फिर कोयल वही गीत गाती रही है, करोड़ों—करोड़ों वर्षों से, कहीं कोई विकास नहीं होता, आदमी अकेला विकासमान है। देखते हो, करोड़ वर्ष पहले भी कोयल यही गीत गाती थी, यही धुन,यही सुर, यही रंग, यही राग अब भी वही गाती है, आगे भी वही गाएगी, यह पुनरुक्ति है। आदमी अपने गीत को बदलता है, अपने तरन्नुम को बदलता है। आदमी ऊँचाइयों की तलाश करता है। हालाँकि यह सच भी है कि ऊँचाइयों की तलाश की स्वतंत्रता के कारण आदमियों को नीचे गिर जाने की भी सुविधा है। तो कोई आदमी बुद्ध हो जाता है, कोई आदमी एडोल्फ हिटलर हो जाता है। मगर मैं तुमसे कहूँगा, एडोल्फ हिटलर जिस क्षण चाहे उस क्षण बुद्ध हो सकता है। कोई रुकावट नहीं है। अपना ही निर्णय है। निजी निर्णय है। इस निजी निर्णय को जगाओ।

सहज तो होना है, लेकिन सहज होना है सचेत होकर, अनिवार्यरूपेण नहीं। स्वतंत्रता का फल होना चाहिए सहजता। बुद्ध भी सहज हैं लेकिन यह सहजता और है। यह सहजता वही नहीं जो गुलाब के फूल की है। यह मजबूरी नहीं है, यह बंधन नहीं है। गुलाब का फूल तो बँधा है, जंजीरों में बँधा है। ज़रा गौर से देखना, कितना ही सुंदर हो लेकिन हाथ पर जंजीरें हैं। कुछ और नहीं हो सकता। सब तरफ से सीमित है। बुद्ध अपने निर्णय से खिले हैं। जो भी फूल पैदा हुआ है बुद्ध में, वह खुद का ही निर्णय, खुद का ही श्रम, खुद की ही साधना का परिणाम है। अपूर्व आनंद है वहाँ!

पूछा तुमने, मनुष्य सहज जीवन की ओर मुड़ेगा या नहीं? तुम मनुष्य की फिकर छोड़ो। तुम अपनी फिकर लो। मनुष्य का तो कौन निर्णय करे? स्वतंत्रता तो अनिर्णीत ही रहेगी, निर्णय नहीं हो सकता। हाँ, तुम चाहो तो अपने लिए निर्णय ले सकते हो। मैं अपने लिए निर्णय लिया हूँ, तुम अपने लिए निर्णय ले सकते हो। प्रत्येक व्यक्ति को निजी निर्णय करना है और निज़ घोषणा करनी है। तुम मनुष्य की फिकिर छोड़ो; मनुष्य यानी कौन? तुम्हें मनुष्य कहीं मिलेगा? मनुष्य कहीं नहीं मिलेगा। कहीं अ मिलेगा, कहीं ब मिलेगा, कहीं स मिलेगा, मनुष्य कहीं नहीं मिलेगा। कहीं राम मिलेंगे, कहीं रहीम मिलेंगे, मनुष्य कहीं नहीं मिलेगा। मनुष्य होते ही नहीं। मनुष्य तो केवल एक शब्दिक सिद्धांत है। तो तुम जब पूछते हो कभी मनुष्य स्वतंत्र होगा कि नहीं, तो तुम गलत बात पूछते हो। तुम तो इस तरह की बात पूछ रहे हो कि कभी ऐसी मजबूरी आ जाएगी मनुष्य पर कि वह असहज न हो सके। वह तो मनुष्य की हत्या होगी। वह तो मनुष्य की सारी गरिमा खो जाएगी। नहीं, मनुष्य को हक सदा रहेगा कि वह चाहे तो तैमूरलंग हो, चाहे तो दादू हो जाए, चाहे तो प्रेम के आकाश में उठे और चाहे तो घृणा के पाताल में खो जाए।

मनुष्य एक सीढ़ी है। और सीढ़ी हमेशा दो दिशाओं में होती है—नीचे की तरफ भी होती है, ऊपर की तरफ भी होती है। वही सीढ़ी जिससे तुम नीचे जाते हो, उसी से तुम ऊपर जाते हो। अब तुम अगर यह कहो कि क्या कभी ऐसी भी सीढ़ी होगी जो सिर्फ ऊपर ही जाए, तो तुम गलत बात पूछ रहे हो। जो सीढ़ी सिर्फ ऊपर ही जाती है, वही सीढ़ी नहीं है! सीढ़ी को दोनों तरफ जाना होता है—ऊपर भी, नीचे भी। हाँ तुम्हारी मर्जी है, तुम चाहो ऊपर चढ़ो, तुम चाहो नीचे जाओ। इसलिए धर्म व्यक्ति का मूल्य मानता है, समाज का कोई मूल्य नहीं मानता। धर्म वैयक्तिक है, सामाजिक नहीं।

और यह आकस्मिक नहीं है कि जो लोग समाज का बहुत मूल्य मानते हैं, वे सभी धर्म के विपरीत हैं। कम्युनिस्ट, फासिस्ट, सोशलिस्ट और उस तरह के मार्के के सारे लोग धर्म के विपरीत हैं। होंगे ही, क्योंकि बुनियादी भेद है। वे मनुष्य को समाज की तरह स्वीकार करते हैं, वे व्यक्ति की कोई गरिमा नहीं मानते। और इसलिए वे सभी स्वतंत्रता के विपरीत हैं, विरोधी हैं। अगर रूस में स्वतंत्रता मर गयी है और चीन में मर गयी है, तो यह कोई दुर्घटना नहीं है, यह साम्यवाद का सहज परिणाम है। साम्यवाद व्यक्ति को मानता ही नहीं। साम्यवाद कहता है —समाज की नियति होती है, व्यक्ति की कोई नियति नहीं होती। व्यक्ति होता ही नहीं। व्यक्ति तो केवल समाज का एक अंग है। अंग मात्र।

धर्म की देशना और है। धर्म का मानना है—व्यक्ति आधार है। समाज तो व्यक्तियों के जोड़ का नाम है। समाज के पास कोई आत्मा नहीं है। समाज तो निर्जीव शब्द है, कोरा शब्द है। ऐसा ही जैसे जब तुम कहते हो—जंगल। जंगल कहीं देखा? जाओ, खोजो, जंगल कभी नहीं मिलेगा, मिलेंगे वृक्ष। वृक्ष होते हैं, जंगल नहीं होता, बहुत वृक्ष साथ होते हैं तो उसका नाम—जंगल। यहाँ तुम बैठे हो इतने लोग —पाँच सौ मित्र यहाँ बैठे हैं—एक समूह यहाँ बैठा है। तुम सोचते हो सच में कोई समूह यहाँ बैठा है? यहाँ पाँच सौ व्यक्ति बैठे हैं, समूह इत्यादि का कोई अर्थ नहीं होता। तुम तुम हो, तुम्हारा पड़ोसी, पड़ोसी है। यहाँ पाँच सौ जीवंत चेतनाएँ बैठी हैं, यहाँ पाँच सौ दीये जल रहे हैं—अलग—अलग, अपनी—अपनी रोशनी से, अपने—अपने ढंग से। और मनुष्य का यह अनिवार्य लक्षण है कि वह जो चाहे हो सकता है—निम्न से निम्नतम और श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम।

यह बात सच है कि मनुष्य अगर गिरे तो पशुओं से बहुत नीचे गिर जाता है और मनुष्य अगर उठे तो देवताओं से बहुत ऊपर उठ जाता है। देवता भी बँधे हैं, जैसे पशु बँधे हैं। इसलिए भारत के मनीषियों ने एक अपूर्व बात कही है कि अगर देवताओं को भी मोक्ष चाहिए हो तो पहले मनुष्य होना पड़ेगा। मनुष्य दोराहा है। पशुओं को मुक्त होना हो तो मनुष्य होना पड़ेगा और देवताओं को मुक्त होना हो तो मनुष्य होना पड़ेगा। क्यों? क्योंकि देवता तो बड़े ऊपर गए हुए हैं? ऊपर तो गए हुए हैं, लेकिन देवता शुभ करने को मजबूर हैं। वहाँ स्वतंत्रता नहीं है। वहाँ सुख अनिवार्य है। वहाँ रोशनी जबर्दस्ती है, उनका चुनाव नहीं है। उन्हें चौराहे पर लौटना पड़ेगा, जहाँ से सब रास्ते खुलते हैं।

आदमी चौराहा है, जहाँ से सब रास्ते खुलते हैं। इसलिए आदमी अगर नीचे गिरे तो कोई पशु उसका मुकाबला नहीं कर सकता। जंगली से जंगली जानवर भी आदमी का मुकाबला नहीं कर सकते। कोई जंगली जानवर जब भर—पेट हो तो किसी को मारता नहीं। भूखा हो तो मारता है! आदमी बड़ा अजीब है। जब भरे—पेट होता है तब शिकार को निकलता है। कोई पशु अपनी ही जाति के प्राणियों को नहीं मारता—कोई सिंह सिंह को नहीं मारता, कोई कुत्ता किसी कुत्ते को नहीं मारता है—अकेला आदमी है जो आदमी को मारता है। और खूब मारता है। और बड़े आयोजन से मारता है। और बड़े झंडे इत्यादि उठाकर और बड़े दर्शनशास्त्र खड़े करके मारता है। और इस ढंग से मारता है कि लगे कि कोई बड़ा काम कर रहा है। हो रहा है कुल मारा जाना, लेकिन ऊँचे ऊँचे नाम— कभी धर्म की आड़, कभी राजनीति की आड़, कभी देश की आड़, कभी स्वतंत्रता की आड़; कभी लोकतंत्र, कभी समाजवाद, न—मालूम कैसे—कैसे शब्द, ऊँचे—ऊँचे शब्द, और आकर पीछे गौर से अगर देखो तो आदमी आदमी को मारने में लगा हुआ है। शांति की बातें करता है, युद्ध की तैयारी करता है। कहता है— शांति होगी कैसे अगर युद्ध के अस्त्र—शस्त्र पास में नहीं होंगे।

आदमी का पूरा इतिहास युद्धों का इतिहास है। पशु—पक्षी तो कभी मार लेते हैं जब उन्हें भूख लगी होती है। आदमी का मारना जघन्य है, अपराधपूर्ण है, पाप है। आदमी पशुओं से नीचे गिरता है, लेकिन देवताओं से ऊपर भी उठ जाता है। ये कथाएँ व्यर्थ ही नहीं हैं कि जब बुद्ध को ज्ञान उत्पन्न हुआ तो देवता स्वर्ग से उतरे और उन्होंने फूल बरसाए। ऐसा वस्तुतः हुआ कि नहीं, यह सवाल नहीं है, ये कोई ऐतिहासिक घटनाएँ नहीं है, ये तो प्रतीक कथाएँ हैं। ये यह कह रही हैं कि जब कोई आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो देवता छोटे पड़ जाते हैं। बस उनका काम फूल बरसाने का रह जाता है। बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए तो देवता उनके चरणों में आकर झुके। उनके चरणों की धूल सिर पर चढ़ायी। बुद्धत्व देवत्व से ऊपर है। आदमी की सहजता जबर्दस्ती आनेवाली बात नहीं है। आदमी सदा मुक्त रहेगा। इसलिए यह तो मत पूछो कि मनुष्य कभी सहज जीवन की ओर मुड़ेगा कि नहीं? एक—एक व्यक्ति अपना—अपना निर्णय ले सकता है।

और फिर तुमने पूछा है—हमारा कर्तव्य क्या है? कर्तव्य ही तो असहज कर देता है। कर्तव्य का मतलब ही यह होता है….. कोई पशु ने कभी पूछा है हमारा कर्तव्य क्या है? पशुओं को जो होता है हो रहा है, कर्तव्य का कोई सवाल नहीं। आदमी पूछता है हमारा कर्तव्य क्या है? उसी कर्तव्य में स्वतंत्रता छिपी है। हम क्या करें? क्योंकि आदमी दोनों काम कर सकता है—बुरा भी और अच्छा भी। मेरा जोर इस पर नहीं है कि तुम अच्छा काम करो, क्योंकि यह होता है, अक्सर हुआ है कि अच्छा काम करने में भी तुम मूर्छित रहे आते हो। तो तुम्हारा अच्छा काम भी यंत्रवत् हो जाता है। मेरा जोर कर्तव्य पर नहीं है, मेरा जोर बोध पर है। तुम जो भी करो, बोधपूर्वक करो। वही एकमात्र कर्तव्य है। बुरा भी करो तो बोधपूर्वक करो। और तुम चकित हो जाओगे कि बुरा हो ही नहीं सकेगा। चोरी करने जाओ, बोधपूर्वक जाओ; ऐसे जाओ जैसे विपस्सना ध्यान कर रहे हो; और तुम चोरी नहीं कर पाओगे। तो मैं तुमसे यह नहीं कहता कि चोरी मत करो—क्योंकि एक तरफ से चोरी रोको, आदमी दूसरी तरफ से करता है। इधर से रोको, उधर से करता है; आदमी नयी तरकीबें निकाल लेता है। आदमी तरकीबें निकालने में कुशल है, कोई—न—कोई रास्ता निकाल लेता है, कि चोरी हो सकती हो और चोरी पकड़ी न जाए और चोरी चोरी न मालूम पड़े।

एक तरफ से चोरी रोको, दूसरी तरफ से शुरू हो जाती है। आदमी को कहो यह काम बुरा है, तो वह वह काम बंद कर देता है, मगर उसके भीतर की चेतना तो नहीं बदली, वही—का—वही आदमी है, कहीं और करेगा। देखा तुमने, महावीर ने कहा कि खेती—बाड़ी में हिंसा है। तो जैनियों ने खेती—बाड़ी बंद कर दी। लेकिन इससे क्या तुम सोचते हो जैन हिंसक नहीं रहे? खेती—बाड़ी की हिंसा नहीं रही, मगर उनकी हिंसा दुकान पर शुरू हो गयी। बाजार में बैठ गए, वही हिंसा और शायद ज्यादा बढ़ गयी। क्योंकि अब एक उनको आड़ भी मिल गयी धर्म की।

तुम्हें पता है कि जैन—धर्म के माननेवाले सभी व्यवसायी क्यों हैं? वह इसीलिए कि कृषि का तो उपाय नहीं रहा। अगर तुम खेत बनाओगे, पौधे काटोगे, तो हिंसा होगी। मगर काटने की वृत्ति तो थी, तो दुकान पर बैठकर आदमियों को काटने लगे। बचाव इतना आसान नहीं है। इधर से रोको, उधर शुरू हो जाता है। एक तरफ से बीमारी को रोको, दूसरी तरफ से प्रगट हो जाती है। दबाने से काम नहीं चलेगा। तुम मुझसे कर्तव्य मत पूछो। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम ऐसा करो, वैसा करो, क्योंकि मजबूरी हो जाएगी, जबर्दस्ती थोप लोगे। मैं तुमसे कहता हूँ— जो भी करो होशपूर्वक करो।

ऐसा हुआ कि एक बौद्ध भिक्षु रास्ते से गुजरता था और एक वेश्या ने उसके जाकर चरणों में सिर रख दिया और कहा—मेरा निवेदन है कि इस वर्ष चातुर्मास, वर्षाकाल मेरे घर में बिताएँ। और भी भिक्षु साथ थे। यह भिक्षु अति सुंदर था, वेश्या मोहित हो गयी थी। उसने सम्राट देखे थे, मगर ऐसा प्यारा भिक्षु नहीं देखा था। ऐसा आदमी ही नहीं देखा था। यह शान ही कुछ और थी! अक्सर ऐसा हो जाता है। संन्यास एक तरह की गरिमा देता है, एक तरह का सौंदर्य देता है, एक तरह की दीप्ति जो साधारणतः नहीं पायी जाती, एक प्रसाद। वेश्या पहचान गयी सौंदर्य को —सौंदर्य की उसकी परख थी। सौंदर्य ही उसका व्यवसाय था। इस सुंदरतम आदमी को देखकर वह नहीं रोक सकी अपने को। उसने चरणों में सिर रख दिया और उसने कहा कि मैं हटूँगी नहीं। मुझे आश्वासन दो इस वर्ष चार माह वर्षा के तुम मेरे यहाँ बिताओगे। वर्षा सर पर थी, आसाढ़ के पहले बादल घिरने शुरू हो गए थे—और भिक्षुओं का नियम है कि वे चार महीने वर्षा के कहीं एक जगह रुक जाएँ। उसने कहा—मैं कल भगवान को पूछकर उत्तर दे दूँगा।

दूसरे भिक्षु जो खड़े देख रहे थे, ईष्या से जल गए। वेश्या अपूर्व सुंदरी थी। दूर—दूर तक ख्यातिलब्ध थी। बड़े सम्राट उसके द्वार पर खड़े रहते थे, ईष्या जग गयी। वासना भी जगी, ईष्या भी जगी, और उनके पैर नहीं छुए, और उनको निमंत्रण नहीं दिया, इस आदमी के प्रति जलन भी उठी—यह सब इकट्ठा हो गया और साथ में धर्म की आड़ भी मिली। वह सामने जाकर बुद्ध को कहा कि वेश्या ने निवेदन किया और इस भिक्षु ने इंकार नहीं किया। यह कर्तव्य से च्युत हो गया। इसे साफ कहना चाहिए था कि मैं वेश्या के घर में नहीं ठहर सकता। क्योंकि आपने तो स्त्री तक को छूने को मना किया है और इसने वेश्या को भी पैर छूने दिए। इसे निष्कासित किया जाए। इसे संघ से बाहर किया जाए।

बुद्ध हँसे, और बुद्ध ने कहा—इसने कहा क्या? तो उन्होंने कहा इसने इतना ही कहा कि मैं भगवान से पूछकर कल उत्तर दूँगा। बुद्ध ने उस भिक्षु को खड़ा किया, उस भिक्षु को देखा एक क्षण और कहा कि तुझे आज्ञा है तू चार महीने वेश्या के घर रुक सकता है। उस भिक्षु ने सिर झुकाया और कहा—मेरे लिए कोई कर्तव्य निर्देश? बुद्ध ने कहा—बस होश रखना।

और चार महीने अपूर्व होश के थे!

चार महीने बाद जब भिक्षु वापिस लौटा तो उसके साथ वेश्या भी वापिस आयी। भिक्षु तो अद्भुत रूप से रूपांतरित हो गया था, क्योंकि उसे बहुत होश रखना पड़ा, चौबीस घंटे होश रखना पड़ा, इससे ज्यादा और होश की कोई जगह ही नहीं हो सकती थी। प्रतिपल उत्तेजना थी, प्रतिपल आकर्षण था। चार महीने उसे जागकर ही रहना पड़ा था। ज़रा झपकी खाता, ज़रा सपने में पड़ जाता तो सदा के लिए चूक जाता। उसका बढ़ता हुआ होश, उसकी बढ़ती हुई दीप्ति, उस वेश्या को भी रूपांतरित कर गयी। उस वेश्या ने बुद्ध के चरणों में अपना सारा धन रख दिया और कहा कि मुझे दीक्षा दें। मैं तो सोचती थी कि आपके भिक्षु को बदल लूँगी, लेकिन आपके भिक्षु ने मुझे बदल लिया। मैं तो सोचती थी कि आपका भिक्षु आज नहीं कल गिरेगा मेरे चरणों में, लेकिन मुझे उसके चरणों में गिर जाना पड़ा। इतना होश से भरा हुआ आदमी मैंने नहीं देखा है। जो श्वास भी लेता था तो होश से ले रहा था। जिसकी हर क्रिया होशपूर्ण थी।

मैं भी तुमसे यही कहता हूँ—अगर तुम्हें सहज जीवन की ओर जाना है, होश से जिओ। और अगर तुम चाहते हो और लोग भी सहज जीवन की तरफ जाएँ, तो तुम होश से जिओ, ताकि तुम्हारे होश की गंध उनको भी लगे, तुम्हारे होश की झलक उन पर भी पड़े। जागरूक होकर जिओ। कर्तव्य को विस्तार में मत पूछो, मैं तुमसे नहीं कहूँगा कि पानी छानकर पीओ—क्योंकि पानी छानकर पीनेवाले लोग खून बिना छाने पी गए हैं—मैं तुमसे नहीं कहूँगा छोटी—छोटी बातें कि इनका तुम विस्तार सँभालो, क्योंकि वे छोटी—छोटी बातें तो बहुत हैं, उनका कितना विस्तार सँभालोगे, और हर विस्तार में कुछ बातें छूट जाएँगी। शास्त्रों में सब कर्तव्य गिनाए गए हैं, लेकिन कितने गिनाओगे, ऐसी परिस्थिति आ जाती है कि शास्त्र में कोई कर्तव्य नहीं गिनाया हुआ है।

जीसस ने अपने एक शिष्य से कहा कि अगर कोई तुझे मारे तो उसे क्षमा कर देना। उसने पूछा—कितनी बार? अब क्या उत्तर दोगे? एक बार मारे….. शिष्य भी ठीक पूछ रहा है कि कोई सीमा होगी, हर चीज की हद्द होती है….. एक बार मारे, कर देंगे क्षमा; कितनी बार मारे तब तक क्षमा करनी है? जीसस ने कहा—सात बार। उसने कहा—ठीक! लेकिन उसने जिस ढंग से ठीक कहा उसका मतलब था कि आठवीं बार देख लेंगे! उसके ठीक कहने में ऐसा ढंग था, कि ठीक है तो फिर देख लेंगे आठवीं बार! और सौ सुनार की एक लोहार की, एक बार में ही ऐसा मजा चखा देंगे कि छठी का दूध याद आ जाए; कि सात बार में जो किया वह एक ही बार में निबटा दूँगा! उसकी ऑंख में ढंग यह था। जीसस ने कहा—नहीं भाई, सतहत्तर बार। मगर तुम कितना करोगे, अठहत्तर बार! आदमी को अगर विस्तार में बताने चलो तो अड़चन है।

मैंने सुना है, एक ईसाई फकीर को एक आदमी ने चाँटा मारा। नास्तिक था चाँटा मारनेवाला, और साथ में बाइबिल लेकर आया था, और किताब खोलकर बतायी कि देखो लिखा है इसमें कि जो तुम्हारे एक गाल पर चाँटा मारे, दूसरा उसके सामने कर देना। उस फकीर ने कहा—मुझे पता है, किताब लाने की कोई जरूरत नहीं थी, यह रहा मेरा दूसरा गाल! उस आदमी ने उस दूसरे गाल पर और करारा चाँटा मारा। बस फकीर फिर उस पर टूट पड़ा, उसकी ऐसी मरम्मत की, वह बहुत चिल्लाया—भई, यह क्या कर रहे हो, जीसस की तो याद करो! उन्होंने कहा—इसके आगे जीसस ने कुछ भी नहीं कहा है। एक गाल पर चाँटा मारो, दूसरा कर देना; अब तीसरा तो कोई गाल है नहीं, इसके आगे हम स्वतंत्र हैं।

विस्तार की बातें काम नहीं आतीं। क्योंकि एक सीमा आ जाती है विस्तार की, उसके आगे तुम स्वतंत्र होते हो। यही तुम देखते न रोज, सरकार कितने कानून बनाती है! जितने कानून बनाती है, उतनी ही बेईमानी बढ़ती है। क्योंकि कानून का मतलब होता है, विस्तार में तुम्हें रोकती है कि यह भी मत करना, यह भी मत करना, वह भी मत करना—मगर कितना करोगे? सब बताने के बाद कुछ तो बाकी रह जाता है, जिंदगी बहुत बड़ी है! आदमी वह करके दिखा देता है कि लो, यह हम करके दिखाए देते हैं! जब वह आदमी करके दिखा देता है, तब सरकार को फिर कानून बनाना पड़ता है कि यह मत करना। तुमने देखा, सरकारी ढंग की दस्तावेज इस तरह की होती है, पढ़ने में ही नहीं आती! उसमें इतनी तरकीबें होती हैं, सब तरह की तरकीबें, रोकने के लिए तरकीबें होती हैं—ऐसा मत करना, वैसा मत करना, उसमें कई नियम, उप—नियम, धाराएँ, उप—धाराएँ, मगर फिर भी जो आदमी को करना है वह कर लेता है। दुनिया में कोई पाप रुका नहीं है; कानून बढ़ते गए हैं, अपराध बढ़ते गए हैं। कानून के बढ़ने से सिर्फ वकील को लाभ होता है, अपराध नहीं रुकते हैं। कानून जब ज्यादा हो जाता है, तो अपराधी को भी अपने विशेषज्ञ रखने पड़ते हैं जो खोजबीन करते रहें—वे ही वकील हैं। जो खोजबीन करते हैं अपराधी की तरफ से कि तू इस तरह से कर ले, कि यह रही तरकीब, अभी इस पर नियम नहीं बना है, इसके पहले निबटा ले। नियम बढ़ते जाते हैं, बेईमानी बढ़ती चली जाती है।

विस्तार में मुझसे मत पूछो कि हम क्या करें? कर्तव्य की पूछो ही मत? मेरा सूत्र सीधा—साफ है एक —होश से जीओ। उस होश से जीने में सब आ जाएगा। अगर जीसस ने कहा होता —जब तुम्हें कोई चाँटा मारे तब होश से जीना, तो इस फकीर को उपाय नहीं था बचने का। अगर जीसस ने कहा होता कि कोई तुम्हारा अपमान करे तो होशपूर्वक क्षमा कर देना—सात और सतहत्तर बार का सवाल नहीं है, आदमी बहुत जटिल और बहुत चालाक है, सिर्फ इतना ही कि होशपूर्वक क्षमा कर देना।

होश से जीओ , एक दिया जलाकर जीओ। ये विस्तार की बातों के कारण ही धर्म विकृत हुए हैं। इतने विकृत हो गए हैं, नियम—ही—नियम रह गए हैं। अगर उनको पालते रहो, तो तुम्हारी बुद्धिमत्ता के विकसित होने का समय ही नहीं आएगा। अगर नियमों को ही पालते रहो तो तुम करीब—करीब एक कारागृह के कैदी हो जाते हो। तुम देखो तुम्हारे साधुओं को, कारागृह के कैदी हो जाते हैं! चले हैं स्वतंत्रता को लेने, चले हैं मोक्ष की खोज में, हो गए हैं कारागृह के कैदी। एक—एक छोटी बात का हिसाब चल रहा है, चौबीस घंटे उसी में लग जाते हैं।

एक जैन—मुनि ने मुझसे कहा कि आप कहते हैं ध्यान करो; फुरसत कहाँ है? नियम—व्यवस्था से, मर्यादा से चलने में फुरसत कहाँ है? यही दुकानदार कहता है कि फुरसत कहाँ? यही मुनि कहता है कि फुरसत कहाँ? तो बड़े मजे की बात हो गयी।

दुकानदार तो क्षमा किया जा सकता है कि कहता है—भई, फुरसत कहाँ है, कब ध्यान करें? लेकिन मुनि भी कह रहा है कि फुरसत कहाँ। इतने नियम! इतना विस्तार है नियमों का! धर्म को नियम से मुक्त करने की जरूरत है। बस एक ही सीधा सूत्र होना चाहिए।

 

ऐ “शाद’! रहबरों के रवैय्ये को देखकर

आना पड़ा है राहजनों की पनाह में

ये जो मार्गदर्शक हैं, ये नियम देनेवाले लोग हैं, इनसे लोग इतने पीड़ित हो गए हैं कि अब तो लुटेरों की शरण में जाना भी ठीक मालूम पड़ता है।

 

क्या कहूँ दिल पै क्या गुजरती है

तेरे कूचे से जब गुजरता हूँ

रहजनों का तो कोई खौफ नहीं

रहबरों से मगर मैं डरता हूँ

 

“शाद’ अपने लहू की सुर्खी से

आर्जूओं में रंग भरता हूँ

“रहजनों का तो कोई खौफ नहीं’, लुटेरों का तो कुछ खौफ नहीं है। तुमको लुटेरों ने नहीं लूटा है, “रहबरों से मगर मैं डरता हूँ’ मगर वह जो मार्गदर्शक हैं, नेता हैं, जो तैयार बैठे हैं तुम्हें नियम देने को—ऐसा करो, वैसा करो, ऐसा न करना, वैसा न करना—उनसे सावधान रहना! उन्होंने ही तुम्हारे कारागृह निर्मित किए हैं। मैं तुम्हें चरित्र नहीं देता, मैं तुम्हें केवल बोध देता हूँ। मैं तुम्हें आचरण नहीं देता, मैं केवल अंतःकरण की जागृति देता हूँ। जो भी करो, वेश्या के घर भी ठहरना पड़े तो घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है, ठहर जाना, होश कायम रखना। यह श्रेष्ठतम धर्म है।

बुद्ध का एक भिक्षु यात्रा पर जा रहा था। उसने पूछा, मेरे लिए कोई आदेश? बहुत निम्न वृत्ति का भिक्षु रहा होगा, क्योंकि बुद्ध ने जो आदेश दिया वह बुद्ध—जैसा नहीं है। अभी तुमने कहानी सुनी न, वेश्या के घर जाते भिक्षु को कहा—होश रखना। यह बुद्ध—जैसा आदेश है। इस युवक ने पूछा कि मैं यात्रा पर जा रहा हूँ, मेरे लिए कोई निर्देश? मार्ग के लिए कोई सूचनाएँ—क्या करूँ, क्या न करूँ। बुद्ध ने कहा—स्त्रियों को छूना मत। देखना मत। राह पर स्त्री दिखायी पड़ जाए, ऑंख नीची कर लेना। उस भिक्षु ने पूछा—लेकिन कभी ऐसा भी हो सकता है कि स्त्री को देखना ही पड़ जाए; मजबूरी हो; तो उस हालत में क्या करना? तो बुद्ध ने कहा—छूना मत। उस भिक्षु ने पूछा और यह भी हो सकता है कि किसी मजबूरी में छूना पड़ जाए। समझ लो कि एक स्त्री गिर पड़ी—पैर फिसल गया— और मैं पीछे हूँ, क्या उसको हाथ का सहारा न दूँ? तो बुद्ध ने कहा—अगर छूना ही पड़े तो छू लेना, मगर होश रखना। देखना मत, पहले कहा। फिर अगर मजबूरी आ जाए तो कहा कि ठीक है, देख लेना। फिर कहा—छूना मत। मजबूरी आ जाए तो कहा छू लेना। फिर आखिरी सूत्र दिया कि होश रखना। उस आदमी ने कहा कि और अगर ऐसी मजबूरी आ जाए कि होश न रख सकूँ, तो बुद्ध ने कहा फिर जाने की जरूरत ही नहीं। ऐसी मजबूरी आनी ही नहीं चाहिए। फिर तो तू सिर्फ रास्ते खोज रहा है। फिर मजबूरियों के बहाने खोज रहा है। निम्नवृत्ति का आदमी रहा होगा।

अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम्हारे धर्म के नियम निम्न—से—निम्न वृत्ति को ध्यान में रखकर बनाने पड़ते हैं। इसी कारण बड़े छोटे होते हैं, ओछे होते हैं, संकीर्ण होते हैं। और इसी कारण श्रेष्ठ व्यक्तियों को कोई भी धर्म अपने भीतर नहीं समा पाते। बुद्ध पैदा हुए, हिंदू उन्हें अपने भीतर न समा पाए। क्योंकि वे जीएँगे ऊपर से और धर्म के नियम बने हैं आखिरी आदमी के लिए, निम्नतम के लिए—इसमें बड़ा फासला हो गया। यहूदी जीसस को न समा पाए। मुसलमान मंसूर को न समा पाए। धर्म की तथाकथित व्यवस्था अंतिम आदमी को देखकर बनी है, निकृष्टतम आदमी को देखकर बनी है। और धर्म का अनुभव श्रेष्ठतम के लिए है। तो जब भी श्रेष्ठतम आदमी पैदा होगा, तब परंपरागत धर्म उसके विपरीत हो जाएगा।

मैं तुम्हें कोई कर्तव्य नहीं देता। इतना ही कहता हूँ—जागो, जागकर जीओ। जागरण न छूटे, होश न खोए। हाथ में होश का धागा बना रहे। फिर सब सध जाएगा। इस एक के साधने से सब सध जाता है। इस एक के खो जाने से सब खो जाता है।

 

आखिरी प्रश्न : मैं आदमी को प्रेम करता हूँ। लेकिन परमात्मा से मेरा कोई लगाव है, इसका मुझे पता नहीं। क्या मैं पाप के रास्ते पर हूँ?

हीं, तुम ही पुण्य के रास्ते पर हो। परमात्मा का पता नहीं, प्रेम करोगे भी कैसे? आदमी से प्रेम करो। उस प्रेम की गहराई में उतरो। उसी गहराई में परमात्मा की झलकें मिलनी शुरू होंगी। और कहाँ खोजोगे? मंदिरों में थोड़े ही छिपा है। मनुष्यों में छिपा है, चेतनाओं में छिपा है। पत्थरों में थोड़े ही खोदकर उसे पाओगे? आदमी के हृदय में।

 

बता दो आबिदाने—बे—अमल को

खुदा उकता चुका है बंदगी से

खुदा से क्या मुहब्बत कर सकेगा

जिसे नफरत है उसके आदमी से

और तुम्हारे तथाकथित धर्मों ने तुम्हें अब तक आदमी से नफरत सिखायी है। इसी के कारण पृथ्वी पर धर्म की बातें बहुत होती हैं, बहुत धर्म भी हैं और धर्म बिल्कुल नहीं है। यह बंदगी हो चुकी व्यर्थ। यह बंदगी काम नहीं आयी। और परमात्मा भी इस बंदगी से बहुत थक चुका है। तुम आदमी को ही प्रेम करो। मैं तुमसे कहता हूँ—तुम ठीक रास्ते पर हो। हालाँकि तुम्हारे धर्मगुरु कहेंगे—तुम गलत रास्ते पर हो। आदमी को प्रेम? परमात्मा को प्रेम करो। और परमात्मा का तुम्हें पता नहीं, कैसे प्रेम करोगे? लेकिन अगर परमात्मा के बनाए हुए से तुम्हारा प्रेम हो जाए, तो कितनी देर परमात्मा से दूर रहोगे? अगर तुम्हारे प्राणों में संगीत से प्रेम हो जाए, तो उसी संगीत के रास्ते पर खोजते—खोजते तुम संगीत के स्रोत तक पहुँच जाओगे, संगीत को जन्म देनेवाले के पास पहुँच जाओगे। अगर फूल से प्रेम हो, तो कितनी देर तुम रुके रहोगे, कभी—न—कभी वे ऍ?गुलियाँ तुम्हें कहीं—न—कहीं मिल जाएँगी जिन्होंने फूलों में रंग भरा है। सूरज से प्रेम हो तो इन्हीं किरणों में तुम कभी और छिपी हुई किरणों को भी खोज लोगे।

आदमी इस जगत में सर्वश्रेष्ठ फूल है। क्योंकि स्वतंत्रता का फूल है। खूब करो आदमी को प्रेम। और परमात्मा की बात ही मत उठाओ। एक दिन तुम अचानक पाओगे कि आदमी प्रेम में ही परमात्मा खो गया। आदमी खो गया और मिल भी गया। यह खोना और मिलना एकसाथ घट जाता है। यह विरोधाभास एक साथ घटता है।

 

हमको मारा तेरी इनायत ने

सबको तेरे अताब ने मारा

डर रहा था गुनाह से लेकिन

आदमी को सबाब ने मारा

आदमी को तथाकथित पुण्यों ने मारा है, पाप ने नहीं। तुम पाप—पुण्य की पुरानी परिभाषा पर मत अटके रहो। मैं तुम्हें नयी परिभाषा देता हूँ, नयी दृष्टि देता हूँ। प्रेम पुण्य है। अ—प्रेम पाप है। तुम प्रेम करो। जिससे कर सको उससे करो। इतना ही खयाल रखो कि प्रेम कहीं रुके न, अटके न, धारा बहती रहे; गंगा कहीं ठहरे न, तो सागर तक पहुँच जाएगी। बस प्रेम का बाँध मत बनाना कहीं। पत्नी से प्रेम करो, खूब करो, पति से, बच्चों से, माँ से, पिता से, मित्रों से ,मगर यह मत सोचना कि बस प्रेम यहीं समाप्त हो गया। बाँध मत बनाना। पत्नी से प्रेम करो, पति से प्रेम करो, बेटे से प्रेम करो, माँ से प्रेम करो, मित्र से प्रेम करो और प्रेम को बहने दो, हर प्रेमपात्र के भीतर से और आगे जाने दो, और तुम पाओगे सभी प्रेमपात्रों में वही एक प्रेमपात्र छिपा है। सभी ऑंखों में उसकी चमक है। सभी चेहरों पर उसी का रंग है। सभी सौंदर्य में वही प्रकट हो रहा है, उसी की अभिव्यक्ति है।

 

फूल—सा रंगो—बू नहीं लेकिन

फूल—से बढ़ के नर्म तीनत है

इसको नफरत से पायमाल न कर

घास भी गुलिसिताँ की जीनत है

फूल ही नहीं हैं परमात्मा के, घास भी उसकी है।

“फूल—सा रंगो—बू नहीं लेकिन,’ माना कि घास में फूल जैसा रंग नहीं, सुगंध नहीं; “फूल से बढ़ के नर्म तीनत है,’ लेकिन इसका स्वभाव फूल से भी ज्यादा कोमल है। परमात्मा घास में कोमलता की तरह प्रगट हुआ है, बस ऑंख चाहिए। “इसको नफरत से पायमाल न कर’, इसे नष्ट मत कर देना यह समझकर कि यह घास है, इसमें क्या होगा; “घास भी गुलसितां की जीनत है,’ वह भी बगिया की शोभा है, रौनक है। यहाँ क्षुद्र—से—क्षुद्र में विराट छिपा है। यहाँ क्षुद्र है ही नहीं। क्षुद्र हमारी नासमझी के कारण है। जैसे—जैसे समझ गहरी होगी, वैसे—वैसे विराट प्रगट होगा।

 

छलक रही है मएनाब तिश्नगी के लिए

सँवर रही है तेरी बज्म? बरहमी के लिए                                                                                                    

 

नहीं—नहीं हमें अब तेरी जुस्तजू भी नहीं                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

तुझे भी भूल गए हम तेरी खुशी के लिए

 

जहाने—नौ का तसव्वुर हयाते—नौ का ख़याल

बड़े फरेब किए तुमने बंदगी के लिए

                                                                                                                                      

कहाँ के इश्को—मुहब्बत, किधर के हिज्रो विसाल

अभी तो लोग तरसते हैं ज़िंदगी के लिए

 

जो जुल्मतों में हवीदा हो कल्बे—इंसाँ से

जियानवाज वह शोला है तीरगी के लिए

 

न मंज़िलों की तमन्ना, न रहगुजर की तलाश

न जाने किस पै भरोसा है, रहबरी के लिए

 

तेरे जहान की हर दिलकशी सलामत है

मेरी निगाह भटकती है आदमी के लिए

आदमी को खोजो और प्रेम करो। आदमी की खोज में ही तुम धीरे—धीरे उसकी झलकें पाने लगोगे। दुनिया अधार्मिक हो गयी, क्योंकि हमें सिखाया गया—दुनिया को प्रेम मत करना, आदमी को प्रेम मत करना। प्रेम का द्वार बंद हो गया। परमात्मा तक पहुँचने का सेतु टूट गया। मैं तुमसे कहता हूँ—खूब करो प्रेम। बस प्रेम का बाँध न आए। प्रेम बहता जाए। हर पात्र से ऊपर निकल जाए, आगे निकल जाए; हर पात्र से छलक जाए। यही प्रार्थना है, प्रेम का सदा बहते रहना प्रार्थना है। और बहता प्रेम परमात्मा को निश्चिंत पा लेता है। इसलिए घबड़ाओ मत और यह मत सोचो कि तुमने कोई पाप किया है। यह मत सोचो कि तुमसे कुछ भूल हो रही है, कि तुम धार्मिक नहीं हो। अक्सर ऐसा हो जाता है कि तथाकथित धार्मिक धार्मिक नहीं होते, सिर्फ दिखायी पड़ते हैं। और इससे उल्टी बात भी सच है। जो लोग अधार्मिक मालुम होते हैं, अक्सर अधार्मिक नहीं होते।

मैंने एक छोटी—सी कहानी सुनी है। योरोप का एक बहुत बड़ा ईसाई पुरोहित प्रवचन देने चर्च में गया था। वह बोला तो उसने कहा कि जो लोग पुण्य करते हैं, वे स्वर्ग में प्रवेश पाएँगे, और जो पाप करते हैं, वे नरक में। और फिर उसने यह भी कहा—जो परमात्मा को याद करते हैं, वे स्वर्ग में प्रवेश पाएँगे, जो परमात्मा को भूल जाते हैं, वे नरक में। एक आदमी उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा—आपने मुझे मुश्किल में डाल दिया। मेरे लिए एक सवाल उठ गया। पुरोहित ने सोचा भी नहीं था यह सवाल। जब उठा तब उसे समझ में आया। सवाल जरूर जटिल है।

उस आदमी ने पूछा कि मैं यह पूछना चाहता हूँ, आपने कहा जो पुण्य करते हैं वे स्वर्ग में जाएँगे, और जो प्रभु को स्मरण करते हैं वे स्वर्ग में जाएँगे। और जो पाप करते हैं और जो प्रभु को स्मरण नहीं करते, वे नरक जाएँगे। मेरा सवाल यह है कि जो पुण्य करते हैं और प्रभु को स्मरण नहीं करते हैं, वे कहाँ जाएँगे? और जो प्रभु का स्मरण करते हैं और पाप करते हैं, वे कहाँ जाएँगे? वह पादरी भी भौंचक्का रह गया। उसे कुछ सूझा नहीं। एकदम सिर घूम गया। क्योंकि अड़चन खड़ी हो गयी। अगर वह यह कहे कि जो लोग पुण्य करते हैं और प्रभु को स्मरण नहीं करते, वे भी स्वर्ग जाएँगे, तो सीधा सवाल है—फिर प्रभु को स्मरण करने की जरूरत क्या है? और जो लोग प्रभु का स्मरण करते हैं और पाप करते हैं और उन्हें नरक जाना पड़ता है, तो फिर सवाल यह है कि प्रभु के स्मरण से फायदा क्या हुआ? नरक तो गए ही! तो पाप और पुण्य काफी हैं! फिर प्रभु को बीच में लेने की जरूरत क्या है? यही तो कारण था कि जैन और बौद्ध, दो धर्मों ने प्रभु को बीच में नहीं लिया, परमात्मा को बीच में नहीं लिया, उन्होंने पाप और पुण्य के सिद्धांत से काम चला लिया। जो बुरा करता है, वह दु:ख पाएगा; जो भला करता है, वह सुख पाएगा; बात खतम हो गयी; बीच में परमात्मा को लेने की जरूरत नहीं मानी? क्योंकि परमात्मा को लेने से जटिलता बढ़ेगी। यही सवाल उठेगा।

उस पुरोहित ने कहा—मुझे क्षमा करें, मैंने इस तरह कभी सोचा नहीं। मुझे सात दिन का मौका दें, अगले रविवार मैं इसका उत्तर दूँगा। सात दिन वह सो भी नहीं सका, बहुत सिर मारा—आदमी भी ईमानदार रहा होगा, नहीं तो पुरोहित चालबाज होते हैं, कुछ भी उत्तर निकाल लाता; ईमानदार था, उसको यह प्रश्न तीर की तरह चुभने लगा। और यह प्रश्न था महत्त्वपूर्ण। सातवें दिन वह सुबह जल्दी ही भोर में चर्च पहुँच गया, अभी तक उत्तर नहीं आया है, सोचा कि जाकर चर्च में ही बैठ जाऊँ, प्रभु से परमात्मा से प्रार्थना करूँ कि तुम्हीं बताओ, अब मैं क्या उत्तर दूँ? वह आदमी आता होगा और सारे गाँव में खबर फैल गयी है, सारा गाँव आ रहा है। मैं जो भी उत्तर सोचता हूँ, गलत मालूम होता है। इन दोनों के बीच कैसे तालमेल बिठाऊँ? हाथ जोड़कर प्रभु की प्रार्थना में झुका। जल्दी उठ आया था, रात सोया भी नहीं था, वहाँ सिर झुकाए हुए वेदी के सामने उसे झपकी आ गयी। उसने एक सपना देखा। सपने में उसने वही देखा जो सात दिन से उसके प्राणों को मथ रहा था।

उसने देखा कि वह एक ट्रेन में सवार है। उसने पूछा—भई यह ट्रेन कहाँ जा रही है? लोगों ने कहा—स्वर्ग जा रही है। उसने कहा—यह अच्छा ही हुआ, वहीं चलकर देख लूँ कि हालत क्या है? वह स्वर्ग पहुँचा, उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने किताबों में जो वर्णन देखे थे स्वर्ग के, बड़े रंगीन थे, बड़े सुवासपूर्ण थे, और स्वर्ग बिल्कुल उजड़ा—सा मालूम पड़ रहा था। वीरान—सा मालूम पड़ता था। खंडहर मालूम पड़ता था। धूल—धवाँस जमी थी। उसने पूछा—यह मामला क्या है? ऐसी शकल तो नरक की होनी चाहिए। कहीं कुछ भूल—चूक तो नहीं। उतरा, लेकिन स्वर्ग ही था, भूल—चूक नहीं थी। उसने पूछा कि मैं यह जानना चाहता हूँ—यहाँ कुछ लोग हैं? जैसे बुद्ध। क्योंकि बुद्ध ने पुण्य किया, प्रभु को स्मरण नहीं किया। सुकरात। पुण्य तो किया, लेकिन प्रभु को स्मरण नहीं किया। यहाँ बुद्ध और सुकरात जैसे लोग हैं? उन्होंने कहा—भई, नाम नहीं सुना कभी। बुद्ध और सुकरात का हमें कुछ पता नहीं है।

भागदौड़ कर उसने पता लगाया कि नरक भी कोई ट्रेन जाती है कि नहीं? एक ट्रेन नरक जा रही थी, तैयार ही खड़ी थी, वह सवार हो गया।

नरक पहुँचा। बड़ा हैरान हुआ। वहाँ बड़ी ताजगी थी, बड़ी रौनक थी, बड़ा रंग था, बड़ी सुंगध थी; उसे तो भरोसा ही नहीं आया कि यह हो क्या रहा है, सब उल्टा हुआ जा रहा है; यह नरक है? उतरकर उसने पूछा कि यहाँ सुकरात और बुद्ध जैसे लोग हैं? उन्होंने कहा है, उनके ही आने के कारण तो नरक की यह रंगत आयी है। यह जो सुगंध देख रहे हो, यह जो सुवास देख रहे हो, यहाँ जो चारों तरफ महोत्सव देख रहे हो, इसी तरह के लोगों के आने की वजह से तो यह रंगत आयी है!

तभी उसकी नींद खुल गयी। लोग आने शुरू हो गए थे। उसने खड़े होकर मंच पर कहा कि मैं तो उत्तर नहीं जानता, लेकिन यह सपना कहे देता हूँ। इस सपने से इतना सार मैंने निकाला कि जहाँ भले लोग हैं वहाँ स्वर्ग है और जहाँ भले लोग नहीं हैं वहाँ नरक है। यह बात गलत है कि पुण्य करनेवाले लोग स्वर्ग जाते हैं, पुण्य करनेवाले लोग जहाँ जाते हैं वहाँ स्वर्ग बन जाता है। यह बात गलत है कि पाप करनेवाले लोग नरक जाते हैं। पाप करनेवाले लोग स्वर्ग भी चले जाएँ तो भी जहाँ जाते हैं वहाँ नरक बन जाता है।

तुम औपचारिक धर्म में मत उलझ जाना—मंदिर हो आए, मस्जिद हो आए, प्रार्थना कर ली, पाठ कर लिया। नहीं, धर्म तो एक ही है—वह प्रेम है। और धर्म के इस अनुभव को, प्रेम को जगाने का उपाय एक ही है—वह होश है।

इन दो शब्दों में, इन दो कदमों में धर्म की पूरी यात्रा हो जाती है। इतना ही फासला है संसार में और मोक्ष में। बस दो कदम का फासला है। एक कदम का नाम प्रेम, एक कदम का नाम ध्यान। ये दो कदम तुम उठा लो। बस ये दो कदम उठ जाएँ—भीतर ध्यान हो, बाहर की तरफ बहता हुआ प्रेम हो; भीतर गहरा होता हुआ ध्यान हो, बाहर बँटता हुआ प्रेम हो; ध्यान बन जाए तुम्हारी जड़ और प्रेम बन जाए तुम्हारे फूल—खिल जाएँ।

आदमी को प्रेम करो, प्रकृति को प्रेम करो, चाँदत्तारों को प्रेम करो—प्रेम करो! और सब प्रेम उसी परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाता है। कहीं भी प्रेम की अंजलि चढ़ाओ, कहीं भी प्रेम के फूल चढ़ाओ, वे उसी के चरणों में पहुँच जाते हैं। प्रेम से गाए गए गीत ही केवल प्रार्थनाएँ हैं और ऐसी प्रार्थनाएँ ही केवल सुनी जाती हैं।

तुम भूलो परमात्मा को—परमात्मा से कुछ लेना—देना नहीं है, शब्दों के जाल में मत पड़ो। प्रेम परमात्मा है। और ध्यान ऑंख है, जो उस परमात्मा को देख सकती हैं। तो दो बातें तुम्हें कहता हूँ—प्रेम करो, ध्यान करो। प्रेम होने दो, ध्यान होने दो। और अंततः एक ऐसी घड़ी आती है जब ध्यान और प्रेम में कोई अंतर नहीं रह जाता। ध्यान प्रेमपूर्ण हो जाता है, प्रेम ध्यानपूर्ण हो जाता है। पहुँच गए तुम मंजिल पर। आ गया असली घर, जिसकी तलाश थी।

 

आज इतना ही।

 

 

 


Filed under: संतो मगन भया मन मेरा--(रज्‍जब--वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–31)

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अध्याय—इकत्तीस

निज घर के लिये महाबिरह

मीरदाद : धुन्ध के समान है निज घर के लिये महाविरह। जिस प्रकार समुद्र और धरती से उठी धुन्ध समुद्र तथा धरती पर ऐसे छा जाती है कि उन्हें कोई देख नहीं सकता, इसी प्रकार हृदय से उठा महाविरह हृदय पर ऐसे छा जाता है कि उसमें और कोई भावना प्रवेश नहीं कर सकती।

और जैसे धुन्ध स्पष्ट दिखाई देने वाले यथार्थ को आँखों से ओझल करके स्वयं एकमात्र यथार्थ बन जाती है. वैसे ही यह विरह मन की अन्य भावनाओं को दबा कर स्वय प्रमुख भावना बन जाता है। और यद्यपि विरह उतना ही आकारहीन, लक्ष्यहीन तथा अन्धा प्रतीत होता है जितनी कि धुन्ध, फिर भी द्वन्द की तरह ही इसमें अनन्त अजात आकार भरे होते हैं, इसकी दृष्टि स्पष्ट होती है तथा इसका लक्ष्य सुनिश्चित।

ज्वर के समान है यह महाविरह। जैसे शरीर में सुलगा जर शरीर के विष को भस्म करते हुए धीरे —धीरे उसकी प्राण —शक्ति को क्षीण कर देता है, वैसे ही अन्तर की तड़प से जनमा यह विरह मन के मैल तथा मन में एकत्रित हर अनावश्यक विचार को नष्ट करते हुए मन को निर्बल बना देता है।

एक चोर के समान है यह महाविरह। जैसे छिप कर अन्दर घुसा चोर अपने शिकार का भार तो कुछ हलका करता है, पर उसे बहुत दुःखी कर जाता है, वैसे ही यह विरह गुप्त रूप से मन के सारे बोझ तो हर लेता है, पर ऐसा करते हुए उसे बहुत उदास कर देता है और बोझ के अभाव के ही बोझ तले दबा देता है।

चौड़ा और हरा—भरा है वह किनारा जहाँ पुरूष और स्त्रियाँ नाचते, गाते, परिश्रम करते तथा रोते हुए अपने क्षण—भंगुर दिन गँवा देते हैं। किन्तु भयानक है आग और धुआं उगलता वह साँड़ जो उनके पैरों को बाँध देता है. उनसे घुटने टिकवा देता है. उनके गीतों को वापस उन्हीं के कण्ठ में ठूंस देता है और उनकी सूजी हुई पलकों को उन्हीं के आंसुओं से चिपका देता है।

चौड़ी और गहरी भी है वह नदी जो उन्हें दूसरे किनारे से अलग रखती है। और उसे वे न तैर कर, और न ही वपु अथवा पाल से नौका को खेकर पार कर सकते हैं। उनमें से थोड़े, बहुत ही थोड़े, लोग उस पर चिन्तन का पुल बाँधने का साहस करते हैं। किन्तु सभी, लगभग सभी, बड़े चाव से अपने किनारे से चिपके रहते हैं जहाँ हर कोई अपना समय रूपी प्यारा पहिया ठेलता रहता है।

महाविरही के पास ठेलने के लिये कोई मनपसन्द पहिया नहीं होता। तनावपूर्ण व्यस्तता और समयाभाव द्वारा सताये इस संसार में केवल उसी के पास कोई काम —धन्धा नहीं होता, उसी को कोई जल्दी नहीं होती। पहनावे, बोलचाल और आचार—व्यवहार में इतनी शालीन मनुष्य जाति के बीच वह अपने आप को वस्त्रहीन, हकलाता हुआ और अनाड़ी पाता है। हँसने वालों के साथ वह हँस नहीं पाता, और न ही रोने वालों के साथ रो पाता है। मनुष्य खाते हैं, पीते हैं, और खाने —पीने में आनन्द लेते हैं, पर वह स्वाद के लिये खाना नहीं खाता और जो वह पीता है वह उसके लिये नीरस ही होता है।

औरों के जीवन—साथी हैं. या वे जीवन—साथी खोजने में व्यस्त हैं, पर वह अकेला चलता है, अकेला सोता है, अकेला ही अपने सपने देखता है। लोग सांसारिक बुद्धि तथा समझदारी की दृष्टि से बड़े अमीर हैं; एक वही मूढ़ और बेसमझ है। औरों के पास सुखद स्थान हैं जिन्हें वे घर कहते हैं; एक वही बेघर है। औरों के पास कोई विशेष भू—खण्ड हैं जिन्हें वे अपना देश कहते हैं तथा जिनका गौरवगान वे बहुत ऊँचे स्वर में करते हैं; अकेला वही है जिसके पास ऐसा कोई भू—खण्ड नहीं जिसका वह गौरवगान करे और जिसे वह अपना देश कहे। यह सब इसलिये कि उसकी आन्तरिक दृष्टि दूसरे किनारे की ओर है।

निद्राचारी होता है महाविरही इस पूर्णतया जागरूक दिखने वाले संसार के बीच। वह एक ऐसे स्वप्न से प्रेरित होता है जिसे उसके आस —पास के लोग न देख सकते हैं, न महसूस कर सकते हैं। और इसलिये वे उसका निरादर करते हैं और दबी आवाज़ में उसकी खिल्ली उड़ाते हैं। किन्तु जब भय का देवता — आग और धुआं उगलता वह

 

साँड़ — प्रकट होता है तो उन्हें धूल चाटनी पड़ती है, जब कि निद्राचारी जिसका वे निरादर करते और खिल्ली उड़ाते थे, विश्वास के पंखों पर उनसे और उनके साँड़ से ऊपर उठ जाता है, और दूर, दूसरे किनारे के पार, बीहड़ पर्वत की तलहटी में पहुँच जाता है।

बंजर, और उजाड़, और सुनसान है वह भूमि जिस पर से निद्राचारी उड़ता है। किन्तु विश्वास के पंखों में बल है, और वह व्यक्ति उड़ता चला जाता है।

उदास, और वनस्पतिहीन और अत्यन्त भयानक है वह पर्वत जिसकी तलहटी में वह उतरता है। किन्तु विश्वास का हृदय अजेय है; और उस व्यक्ति का हृदय साहसपूर्वक धड़कता चला जाता है।

पथरीला, रपटीला और कठिनाई से दिखाई देने वाला है पहाड़ पर जाता उसका रास्ता। परन्तु रेशम—सा कोमल है विश्वास का हाथ, स्थिर है उसका पैर, और तेज है उसकी आँख। और वह व्यक्ति चढ़ता चला जाता है।

रास्ते में उसे एक समतल, चौड़े मार्ग से पहाड़ पर चढ़ते हुए पुरुष और स्त्रियाँ मिलते हैं। वे अल्पविरही पुरुष और स्त्रियाँ हैं जो चोटी पर पहुँचने की तीव्र इच्छा तो रखते हैं, परन्तु एक लंगड़े और दृष्टिहीन मार्गदर्शक के साथ। क्योंकि उनका मार्गदर्शक है उन वस्तुओं में विश्वास जिन्हें आंखें देख सकती हैं, और जिन्हें कान सुन सकते हैं. और जिन्हें हाथ छू सकते हैं, और जिन्हें नाक तथा जिह्वा सूँघ और चख सकते हैं। उनमें से कुछ पर्वत के टखनों से ऊपर नहीं चढ़ पाते, कुछ उसके घुटनों तक पहुँचते हैं; कुछ कूल्हे तक, और बहुत थोड़े कमर तक। किन्तु उस सुन्दर चोटी की झलक तक पाये बिना वे सब अपने मार्गदर्शक सहित फिसल कर पर्वत से नीचे लुढ़क जाते हैं।

क्या आंखें वह सब देख सकती हैं जो देखने योग्य है, और क्या कान वह सब सुन सकते हैं जो सुनने योग्य है? क्या हाथ वह सब छू सकता है जो छूने योग्य है, और क्या नाक वह सब सूँघ सकती है जो सूँघने योग्य है? क्या जिह्वा वह सब चख सकती है जो चखने योग्य है? जब दिव्य कल्पना से उत्पन्न विश्वास उनकी सहायता के लिये आगे बढ़ेगा, केवल तभी ज्ञानेन्द्रियाँ वास्तव में अनुभव करेंगी और इस प्रकार शिखर तक पहुँचने के लिये सीढ़ियाँ बनेंगी।

विश्वास से रहित ज्ञानेन्द्रियाँ अत्यन्त अविश्वसनीय मार्गदर्शक हैं। चाहे उनका मार्ग समतल और चौड़ा प्रतीत होता हो, फिर भी उसमें कई छिपे फन्दे और अनजाने खतरे होते हैं। और जो लोग स्वतन्त्रता के शिखर पर पहुँचने के लिये इस मार्ग को अपनाते हैं, वे या तो रास्ते में ही मर जाते हैं, या फिसल कर लुढ़कते हुए वापस वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से वे चले थे; और वहाँ वे अपनी टूटी हड्डियों को जोड़ते हैं और अपने खुले घावों को सीते हैं।

अल्पविरही वे हैं जो अपनी ज्ञानेन्द्रियों से एक ससार रच तो लेते हैं, लेकिन जल्दी ही उसे छोटा तथा घुटन —भरा पाते हैं, और इसलिये वे एक अधिक बड़े और अधिक हवादार घर की कामना करने लगते हैं। परन्तु नई निर्माण—सामग्री और नये कुशल राजगीर को ढूँढने के बजाय वे पुरानी निर्माण—सामग्री ही बटोर लेते हैं और उसी राजगीर को — ज्ञानेन्द्रियो को — अपने लिये एक अधिक बड़े घर का नक्‍शा। बनाने और उसका निर्माण करने का काम सौंप देते हैं। नये घर के बनते ही वह उन्हें पुराने घर की तरह छोटा तथा घुटन —भरा प्रतीत होने लगता है। इस प्रकार वे ढहाने —बनाने में ही लगे रहते हैं और सुख तथा स्वतन्त्रता प्रदान करने वाले जिस घर के लिये वे तड़पते हैं उसे कभी नहीं बना पाते, क्योंकि ठगे जाने से बचने के लिये वे उन्हीं का आसरा लेते हैं जिनके द्वारा वे ठगे जा चुके हैं। और जैसे मछली कड़ाही में से उछल कर भट्ठी में जा गिरती है, वैसे ही वे जब किसी छोटी मृगतृष्णा से दूर भागते हैं तो कोई बड़ी मृगतृष्णा उन्हें अपनी ओर खींच लेती है।

महाविरही तथा अल्पविरही व्यक्तियों के बीच ऐसे मनुष्यों के विशाल समूह हैं जिन्हें कोई विरह महसूस नहीं होता। वे खरगोशों की तरह अपने लिये बिल खोदने और उन्हीं में रहने, बच्चे पैदा करने और मर जाने में सन्तुष्ट हैं। अपने बिल उन्हें काफी सुन्दर, विशाल और आरामदेह प्रतीत होते हैं जिन्हें वे किसी राजमहल के वैभव से भी बदलने को तैयार नहीं। वे निद्राचारियों का मजाक उड़ाते हैं, खासकर उनका जो एक ऐसी सूनी पगडण्डी पर चलते हैं जिस पर पदचिह्न विरले ही होते हैं और बड़ी मुश्किल से पहचाने जाते हैं।

अपने साथी मनुष्यों के बीच में महाविरही वैसा ही होता है जैसा वह गरुड़ जिसे मुर्गी ने सेया है और जो चूजों के साथ? उनके बाड़े में बन्द है। उसके भाई—चूजे तथा माँ —मुर्गी चाहते हैं कि वह बाल —गरुड़ उन्हीं जैसा हो, उन्हीं के जैसे स्वभाव और आदतों वाला, और उन्हीं की तरह रहने वाला। और वह चाहता है कि चूजे उसके समान हों, अधिक खुली हवा और अनन्त आकाश के स्वज देखने वाले। पर शीघ्र ही वह उनके बीच अपने आप को एक अजनबी और अछूत पाता है, वे सब उसे चोंच मारते हैं, यहाँ तक कि उसकी माँ भी। किन्तु उसे अपने रक्त में शिखरों की पुकार बड़े जोर से सुनाई देती है, और बाड़े की दुर्गन्ध उसकी नाक में बुरी तरह चुभती है। फिर भी वह सब—कुछ चुपचाप सहता रहता है जब तक उसके पंख पूरी तरह नहीं निकल आते। और तब वह हवा पर हो जाता है, और प्यार —भरी विदा—दृष्टि डालता है अपने भूतपूर्व सवार

भाइयों और उनकी माँ पर जो दानों और कीड़ों के लिये मिट्टी कुरेदते हुए मस्ती में कुडकुड़ाते रहते हैं।

खुशी मनाओ, मिकेयन। तुम्हारा सपना एक पैगम्बर का सपना है। महाविरह ने तुम्हारे संसार को बहुत छोटा कर दिया है, और तुम्हें उस संसार में एक अजनबी बना दिया है। उसने तुम्हारी कल्पना को निरंकुश ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ से मुक्त कर दिया है, और मुका कल्पना ने तुम्हारे अन्दर विश्वास जाग्रत कर दिया है।

और विश्वास तुम्हें दुर्गन्धपूर्ण घुटन—भरे संसार से बहुत ऊँचा उठा कर वीरान खोखलेपन के पार बीहड़ पर्वत के ऊपर ले जायेगा जहाँ हर विश्वास को परखा जाता है और सन्देह की अन्तिम तलछट को निकाल कर उसे निर्मल किया जाता है।

और इस प्रकार निर्मल हो चुका विजयी विश्वास तुम्हें सदैव हरे —भरे रहने वाले शिखर की सीमाओं पर पहुँचा देगा और वहाँ तुम्हें दिव्य ज्ञान के हाथों में सौंप देगा। अपना कार्य पूरा करके विश्वास पीछे हट जायेगा, और दिव्य ज्ञान तुम्हारे कदमों को उस शिखर की अक्यनीय स्वतन्त्रता की राह दिखायेगा जो प्रभु तथा आत्मविजयी मनुष्य का वास्तविक, सीमा —रहित आनन्दपूर्ण धाम है।

परख में खरे उतरना, मिकेयन। तुम सब खरे उतरना, मेरे साथियो। उस शिखर पर क्षण —भर भी खड़े हो सकने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिये चाहे कोई भी पीड़ा सहनी पड़े, ज्यादा नहीं है। परन्तु उस शिखर पर स्थायी? निवास प्राप्त कर सकने में यदि अनन्तकाल भी लग जाये तो कम है।

हिम्बल : क्या आप हमें अपने शिखर पर अभी नहीं ले जा सकते एक’ झलक के लिये ही सही. चाहे वह क्षणिक ही हो?

मीरदाद : उतावले मत बनो, हिम्बल। अपने समय की प्रतीक्षा करो। जहाँ मैं आराम से साँस लेता हूँ, वहाँ तुम्हारा दम घुटेगा। जहाँ मैं आराम से चलता हूँ, वहाँ तुम हाँफने और ठोकरें खाने लगोगे। विश्वास का दामन थामे रखो; और विश्वास बहुत बड़ा कमाल कर दिखायेगा।

यही शिक्षा थी मेरी नूह को।

यही शिक्षा है मेरी तुम्हें।

 

 


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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–32)

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अध्याय—बत्तीस

पाप और आवरण

मीरदाद : पाप के विषय में तुम्हें बता दिया गया है, और यह तुम जान जाओगे कि मनुष्य पापी कैसे बना।

तुम्हारा कहना है, और वह सारहीन भी नहीं है, कि परमात्मा का प्रतिबिम्ब और प्रतिरूप मनुष्य यदि पापी है, तो स्पष्ट है कि पाप का स्रोत स्वय परमात्मा ही है। इस तर्क में भोले —भाले लोगों के लिये एक जाल है, और तुम्हें, मेरे साथियो, मैं जाल में फँसने नहीं दूँगा। इसलिये मैं इस जाल को तुम्हारे रास्ते से हटा दूँगा. ताकि तुम इसे अन्य मनुष्यों के रास्ते से हटा सकी।

परमात्मा में कोई पाप नहीं, क्या सूर्य का अपने प्रकाश में से मोमबत्ती को प्रकाश देना पाप है? न ही मनुष्य में पाप है, क्या एक मोमबत्ती के लिये धूप में जल कर अपने आप को मिटा देना और इस प्रकार सूर्य के साथ मिल जाना पाप है?

लेकिन पाप है उस मोमबत्ती में जो अपना प्रकाश बिखेरना नहीं चाहती, और जब उसे जलाया जाता है तो दियासलाई तथा दियासलाई जलाने वाले हाथ को कोसती है। पाप है उस मोमबत्ती में जिसे धूप में जलने में शर्म आती है. और जो इसीलिये अपने आप को सूर्य से छिपा लेना चाहती है।

मनुष्य ने प्रभु के विधान का उल्लघन करके पाप नहीं किया. बल्कि पाप किया है उस विधान के प्रति अपने अज्ञान पर परदा डाल कर।

ही. पाप तो अंजीर—पत्ते के आवरण से अपनी नग्नता छिपाने में था।

क्या तुमने मनुष्य के पतन की कथा नहीं पढ़ी जो शब्दों की दृष्टि से सरल और संक्षिप्त, परन्तु अर्थ की दृष्टि से गहरी और महान है? क्या तुमने नहीं पढ़ा कि जब मनुष्य परमात्मा में से नया —नया निकला था तो किस प्रकार वह एक शिशु —परमात्मा जैसा था — निश्चेष्ट, गतिहीन, सृजन में असमर्थ? क्योंकि परमात्मा के सभी गुणों से युक्त होते हुए भी वह सब शिशुओं की तरह अपनी अनन्त शक्तियों और योग्यताओं को प्रयोग में लाने में ही नहीं, बल्कि उन्हें जानने में भी असमर्थ था।

एक सुन्दर शीशी में बन्द अकेले बीज की तरह था मनुष्य अदन की वाटिका में। शीशी में पड़ा बीज बीज ही रहेगा, और जब तक उसे उसकी प्रकृति के अनुकूल मिट्टी में दबाया न जाये और उसका खोल फूट न जाये, उसके अन्दर बन्द चमत्कार सजीव होकर प्रकाश में नहीं आयेगा।

परन्तु मनुष्य के पास उसकी प्रकृति के अनुकूल कोई मिट्टी नहीं थी जिसमें वह अपने आप को रोपता और अंकुरित हो जाता।

उसके चेहरे को किसी अन्य समरूपी चेहरे में अपनी झलक नहीं मिलती थी। उसके मानवी कान को कोई अन्य मानव—स्वर सुनाई नहीं देता था। उसका मानव —स्वर किसी अन्य मानव —कण्ठ में गूँज कर नहीं लौटता था। उसके एकाकी हृदय के साथ एक—सुर होने के लिये कोई अन्य हृदय नहीं था।

इस संसार में, जिसे उपयुक्त जोड़ों के रूप में अपनी यात्रा पर रवाना किया गया था, मनुष्य अकेला था, बिलकुल अकेला। वह अपने लिये एक अजनबी था। उसके करने के लिये अपना कोई काम नहीं था और न ही था उसके लिये निर्धारित कोई मार्ग। अदन उसके लिये वही था जो किसी शिशु के लिये एक आरामदेह पालना होता है — निक्रिय आनन्द की एक अवस्था। वह उसके लिये सब प्रकार की सुख —सुविधा का स्थान था।

नेकी और बदी के ज्ञान का वृक्ष तथा जीवन का वृक्ष दोनों उसकी पहुँच में थे; फिर भी वह उनके फल तोड्ने और चखने के लिये हाथ नहीं बढाता था; क्योंकि उसकी रुचि और उसकी संकल्प —शक्ति, उसके विचार तथा उसकी कामनाएँ, यहाँ तक कि उसका जीवन भी, सब उसके अन्दर बन्द पड़े थे और इस प्रतीक्षा में थे कि उन्हें कोई धीरे—धीरे खोले। उन्हें स्वयं खोलना उसके लिये सम्मव नहीं था। अतएव उसे अपने अन्दर से ही अपने लिये एक साथी पैदा करने के लिये विवश किया गया — एक ऐसा हाथ जो उसके बन्धन. खोलने में उसका सहायक बने।

पाप और आवरण उसे सहायता और कहाँ से मिल सकती थी सिवाय अपने अन्दर के जो दिव्यत्व से सम्पन्न होने के कारण सहायता से भरपूर था? और यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

किसी नई मिट्टी और साँस से नहीं बनी थी हौवा, बल्कि आदम की अपनी ही मिट्टी और साँस थी — उसकी हड्डी में से एक हड्डी उसके मास में से मांस का एक टुकड़ा। कोई अन्य जीव रंगमंच पर प्रकट नहीं हुआ था; बल्कि स्वयं उसी एक आदम को युगल बना दिया गया था — एक पुरुष आदम और एक स्त्री आदम।

इस प्रकार उस अकेले. दर्पण —रहित चेहरे को एक साथी और एक दर्पण मिल जाता है, और वह नाम जो पहले किसी मानव —स्वर में नहीं गूँजा था अदन की वीथिकाओं में ऊपर, नीचे, सर्वत्र मधुर स्वरों में गूँजने लगता है, और वह हृदय जिसकी उदास धड़कन एक सूने वक्ष में दबी पड़ी थी एक साथी वक्ष में एक साथी हृदय के अन्दर अपनी गति महसूस करने और धड़कन सुनने लगता है।

इस प्रकार चिनगारी—रहित फौलाद का उस चकमक पत्थर से मेल हो जाता है जो उसमें से बहुत —सी चिनगारियाँ पैदा कर देता है। इस प्रकार अनजली मोमबत्ती दोनों सिरों से जला दी जाती है।

मोमबत्ती एक है, बत्ती एक है, और रोशनी भी एक है, यद्यपि वह देखने में दो अलग —अलग सिरों से पैदा हो रही है। और इस प्रकार शीशी में पड़े बीज को वह मिट्टी मिल जाती है जिसमें अंकुरित होकर वह अपने रहस्य प्रकट कर सकता है।

इस प्रकार अपने आप से अनजान एकत्व द्वैत को जन्म देता है ताकि द्वैत में निहित संघर्ष और विरोध के द्वारा उसे अपने एकत्व का ज्ञान कराया जा सके। इस प्रक्रिया में भी मनुष्य अपने परमात्मा का सही प्रतिबिम्ब है, उसका प्रतिरूप है। क्योंकि परमात्मा — आदि चेतना — अपने आप में से शब्द को प्रकट करता है; और शब्द तथा चेतना दोनों दिव्य ज्ञान में एक हो जाते हैं।

द्वैत कोई दण्ड नहीं है, बल्कि एकल की प्रकृति में निहित एक प्रक्रिया है, उसकी दिव्यता के प्रकट होने का एक आवश्यक साधन। कैसा बचपना है और किसी तरह सोचना। कैसा बचपना है यह विश्वास करना कि इतनी बड़ी प्रक्रिया से उसका मार्ग तीन बीसी और दस सालों या तीन बीसी दस—लाख सालों में भी तय करवाया जा सकता है।

आत्मा का परमात्मा बनना क्या कोई मामूली बात है?

क्या परमात्मा इतना कठोर और कंजूस मालिक है कि देने के लिये उसके पास पूरा अनन्तकाल होते हुए भी वह मनुष्य को फिर से एक होकर, अपने ईश्वरत्च तथा परमात्मा के साथ अपनी एकता का पूरी तरह डगन प्राप्त करके वापस अपने मूलधाम अदन में पहुँचने के लिये केवल सत्तर वर्ष का इतना कम समय प्रदान करे?

लम्बा है द्वैत का मार्ग; और मूर्ख हैं वे लोग जो उसे तिथिपत्रों से नापते हैं। अनन्तकाल सितारों के चक्कर नहीं गिनता।

जब निष्क्रिय, गतिहीन, सृजन में असमर्थ आदम को एक से दो कर दिया गया तो वह तुरन्त क्रियाशील, गतिमान तशा सृजन और सन्तानोत्पादन में समर्थ हो गया।

दो कर दिये जाने पर आदम का पहला काम क्या था? वह था नेकी और बदी के ज्ञान के वृक्ष का फल खाना और इरा प्रकार अपने सारे ससार को अपने जैसा ही दो कर देना। अब कुछ भी वैसा न रहा था जैसा पहले था — निष्पाप तथा निश्चिन्त। बल्कि सब —कुछ अच्छा या बुरा, लाभकारी या हानिकारक, सुखकर या कष्टकर हो गया था, दो विरोधी दलों में बँट गया था जब कि पहले एक था।

और जिस साँप ने हौवा को नेकी और बदी का स्वाद चखने के लिये फुसलाया था, क्या वह उस सक्रिय किन्तु अनुभवहीन द्वैत की ही गहरी आवाज नहीं थी जो कुछ करने तथा अनुभव प्राप्त करने के लिये अपने आप को प्रेरित कर रहा था?

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस आवाज को पहले हौवा ने सुना और उसका कहा माना। क्योंकि हौवा मानों सान का पत्थर थी — अपने साथी में छिपी शक्तियों को प्रकट करने के लिये बनाया गया उपकरण।

इस प्रथम मानव—कथा में चोरी से अदन के पेड़ों में से अपना मार्ग बना रही इस प्रथम स्त्री की सजीव कल्पना के लिये क्या तुम अक्सर रुक नहीं गये — ऐसी स्त्री की कल्पना जो घबराई हुई थी, जिसका हृदय पिंजरे में बन्द पक्षी की तरह फड़फड़ा रहा था, जिसकी आंखें चारों ओर देख रही थीं कि कहीं कोई ताक तो नहीं रहा है, और जिसके मुँह में पानी भर आया था जब उसने अपना काँपता हुआ हाथ उस लुभावने फल की ओर बढ़ाया था? क्या तुमने उस समय अपनी साँस रोक नहीं ली जब उसने वह फल तोड़ा और उसके कोमल गूदे में अपने दाँत गड़ा दिये, ऐसी क्षणिक मिठास का स्वाद लेने के लिये जो स्वयं उसके और उसकी सन्तान के लिये स्थायी कडवाहट में बदलने वाली थी?

क्या तुमने जी —जान से नहीं चाहा कि जब हौवा अपना विवेक—शून्य कार्य करने ही वाली थी, परमात्मा उसी समय प्रकट होकर उसकी उन्मत्त धृष्टता को रोक देता, बजाय बाद में प्रकट होने के जैसा कि कहानी में होता है? और जब हौवा ने वह गुनाह कर ही लिया, तो क्या तुमने नहीं चाहा कि आदम के पास इतना विवेक और साहस होता कि वह अपने आप को हौवा का सह —अपराधी बनने से रोक लेता?

परन्तु न तो परमात्मा ने हस्तक्षेप किया, न आदम ने अपने आप को रोका, क्योंकि परमात्मा नहीं चाहता था कि उसका प्रतिरूप उससे भिन्न हो। यह उसकी इच्छा और योजना थी कि मनुष्य अपनी खुद की इच्छा और योजना को सँजोये और दिव्य ज्ञान द्वारा अपने आप को एक करने के लिये द्वैत का लम्बा रास्ता तय करे। जहाँ तक आदम का सवाल है, वह चाहता भी तो अपनी पत्नी के दिये फल को खाने से अपने आप को रोक नहीं सकता था। वह फल खाने के लिये बाध्य था केवल इसलिये कि उसकी पत्नी उस फल का कुछ अंश खा चुकी थी, क्योंकि दोनों एक शरीर थे, और दोनों एक —दूसरे के कर्मों के लिये उत्तरदायी थे।

क्या परमात्मा मनुष्य के नेकी और बदी का फल खाने पर अप्रसन्न और कुद्ध हुआ? यह सम्भव नहीं था, क्योंकि परमात्मा जानता था कि मनुष्य फल खाये बिना रह नहीं सकेगा, और वह चाहता था कि मनुष्य फल खाये; किन्तु वह यह भी चाहता था कि मनुष्य पहले ही जान ले कि खाने का परिणाम क्या होगा और उसमें परिणाम का सामना करने की शक्ति हो। और मनुष्य में वह शक्ति थी। और मनुष्य ने फल खाया। और मनुष्य ने परिणाम का सामना किया।

और वह परिणाम था मृत्यु। क्योंकि प्रभु की इच्छा से क्रियाशील दो बनने में मनुष्य की क्रिया —रहित एकता समाप्त हो गई थी। अतएव मृत्यु कोई दण्ड नहीं है, बल्कि जीवन का एक पक्ष है, द्वैत का ही एक अंश है। क्योंकि द्वैत की प्रकृति है सब वस्तुओं को एक से दो का रूप दे देना, प्रत्येक वस्तु को एक परछाईं प्रदान कर देना।

इसलिये आदम ने अपनी परछाईं पैदा कर ली हौवा के रूप में, और अपने जीवन के लिये दोनों ने एक परछाईं पैदा कर ली जिसका नाम है मृत्यु। परन्तु आदम और हौवा मृत्यु की छाया में रहते हुए भी प्रभु के जीवन में परछाईं—रहित जीवन जी रहे हैं।

द्वैत एक निरन्तर संघर्ष है; और संघर्ष यह भ्रम पैदा करता है कि दो विरोधी पक्ष अपने आप को मिटा देने पर तुले हैं। विरोधी दिखने वाले पक्ष वास्तव में एक—दूसरे के पूरक हैं, एक—दूसरे के साधक हैं और कंधे से कन्धा मिला कर एक ही उद्देश्य के लिये, सम्पूर्ण शान्ति, एकता और दिव्य ज्ञान से उत्पन्न होने वाले सन्तुलन के लिये कार्य —रत हैं। परन्तु भ्रम की जड़ ज्ञानेन्द्रियों में जमी हुई है, और वह तब तक बना रहेगा जब तक ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।

इसलिये आदम की आंखें खुलने के बाद प्रभु ने जब उसे बुलाया तो उसने उत्तर दिया, ”मैंने बा:। में तेरी आवाज सुनी, और ‘मैं’ डर गया क्योंकि ‘मैं’ नंगा था, और ‘मैंने’ अपने आप को छिपा लिया।’’ आदम ने यह भी कहा, ”जो स्त्री तूने ‘मुझे’ साथी के रूप में दी थी, उसने ‘मुझे’ वृक्ष का फल दिया, और ‘मैंने’ खाया।’’

हौवा और कोई नहीं थी, आदम का अपना ही हाड़—मांस थी। फिर भी आदम के इस नवजात ‘मैं’ पर विचार करो जो आंख खुलने के बाद अपने आप को हौवा से, परमात्मा से और परमात्मा की समूची रचना से भिन्न, पृथक् और स्वतन्त्र समझने लगा।

एक भ्रम था यह ‘मैं’। उस अभी —अभी खुली आँख का एक भ्रम था परमात्मा से पृथक् हुआ यह व्यक्तित्व। इसमें न सार था, न यथार्थ। जन्म

इसका इसलिये हुआ था कि इसकी मृत्यु के माध्यम से मनुष्य अपने वास्तविक अहं को पहचान ले जो परमात्मा का अहं है। यह भ्रम तब लुप्त होगा जब बाहर की आंख के सामने अँधेरा छा जायेगा और अन्दर की आंख के सामने प्रकाश हो जायेगा। और इसने यद्यपि आदम को चकरा दिया, फिर भी इसने उसके मन में एक प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न कर दी और उसकी कल्पना को लुभा लिया। मनुष्य के लिये, जिसे किसी भी अहं का अनुभव न हुआ हो, एक ऐसा अहं पा लेना जिसे वह पूरी तरह अपना कह सके सचमुच एक बहुत बड़ा— प्रलोभन था, और उसके मिथ्याभिमान के लिये बहुत बड़ा प्रोत्साहन भी।

और आदम अपने इस भ्रामक अह के प्रलोभन और बहकावे में आ गया। यद्यपि वह इसके लिये लज्जित था, क्योंकि यह अवास्तविक था, नग्न था, फिर भी वह इसे त्यागने को तैयार नहीं था, वह तो इसे अपने पूरे हृदय से और अपने नये मिले समूचे कौशल से पकड़े बैठा था। उसने अंजीर के पत्ते सीकर जोड़ लिये तथा अपने लिये एक आवरण तैयार कर लिया जिससे वह अपने नग्न व्यक्तित्व को ढक ले और उसे परमात्मा की सर्व —वेधी दृष्टि से बचा कर अपने ही पास रखे।

इस प्रकार अदन, आनन्दपूर्ण भोलेपन की अवस्था, अपने आप से बेखबर एकता, पत्तों का आवरण पहने एक से दो बने मनुष्य के हाथ से निकल गई, और मनुष्य तथा दिव्य जीवन के वृक्ष के बीच ज्वाला की तलवारें खड़ी हो गईं।

मनुष्य नेकी और बदी के दोहरे द्वार में से अदन से बाहर आया था, वह दिव्य ज्ञान के इकहरे द्वार में से अदन के अन्दर जायेगा। वह दिव्य जीवन के वृक्ष की ओर पीठ किये निकला था, उस वृक्ष की ओर मुँह किये प्रवेश करेगा। जब वह अपने लम्बे और कठिन सफर पर रवाना हुआ था तो अपनी नग्नता पर लज्जित था और अपनी लज्जा को छिपाये रखने के लिये आतुर, जब वह अपनी यात्रा के अन्त पर पहुँचेगा तो उसकी पवित्रता आवरण —मुक्त होगी और उसे अपनी नग्नता पर गर्व होगा।

परन्तु ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक कि पाप मनुष्य को पाप से मुक्त न कर दे। क्योंकि पाप स्वय अपने विनाश का कारण सिद्ध होगा। और पाप आवरण के सिवाय और कहीं है?

हां, पाप और कुछ नहीं है सिवाय उस दीवार के जो मनुष्य ने अपने और परमात्मा के बीच में खड़ी कर ली है — अपने क्षण —भंगुर अहं और अपने स्थायी अह के बीच।

वह ओट जो शुरू में अंजीर के मुट्ठी भर पत्ते थी अब एक विशाल परकोटा बन गई है। क्योंकि जब मनुष्य ने अदन के भोलेपन को उतार फेंका तब से वह अधिकाधिक पत्ते जमा करने और आवरण पर आवरण सीने में जी—जान से जुटा हुआ है।

आलसी लोग अपने मेहनती पड़ोसियों द्वारा फेंके गये चीथड़ों से अपने आवरणों के छेदों पर पैबन्द लगा —लगा कर सन्तोष कर लेते हैं। पाप की पोशाक पर लगाया जाने वाला हर पैबन्द पाप ही होता है, क्योंकि वह उस लज्जा को स्थायी बनाने का साधन होता है जिसे परमात्मा से अलग होने पर मनुष्य ने पहली बार और बड़ी तीव्रता के साथ महसूस किया था।

क्या मनुष्य अपनी लज्जा पर विजय पाने के लिये कुछ कर रहा है? अफसोस, उसके सब उद्यम लज्जा पर लादे गये लज्जा के ढेर हैं, आवरणों पर चढ़े और आवरण हैं।

मनुष्य की कलाएँ और विद्याएँ आवरणों के सिवाय और क्या हैं? उसके साम्राज्य, राष्ट्र, जातीय अलगाव, और युद्ध के मार्ग पर चल रहे धर्म — क्या ये आवरण की पूजा के सम्प्रदाय नहीं हैं?

उसके उचित और अनुचित, मान और अपमान न्याय और अन्याय के नियम, उसके असंख्य सामाजिक सिद्धान्त और रूढ़ियाँ — क्या ये आवरण नहीं हैं?

उसके द्वारा अमूल्य का मूल्यांकन और उसका अमित को नापना, असीम को सीमांकित करना — क्या यह सब उस लुंगी पर और पैबन्द लगाना नहीं है जिस पर पहले ही कई पैबन्द लगे हुए हैं।

पीड़ा से भरे सुखों के लिये उसकी अमिट भूख; निर्धन बना देने वाले धन के लिये उसका लोभ, दास बना देने वाले प्रभुत्व के लिये उसकी प्यास, और तुच्छ बना देने वाली शान के लिये उसकी लालसा — क्या ये सब आवरण नहीं हैं?

नग्नता को ढकने के लिये अपनी दयनीय आतुरता में मनुष्य ने बहुत अधिक आवरण पहन लिये हैं जो समय के साथ उसकी त्वचा से इतने कस कर चिपक गये हैं कि अब वह उनमें और अपनी. त्वचा में भेद नहीं कर पाता। और मनुष्य साँस लेने के लिये तड़पता है; वह अपनी अनेक त्वचाओं से छुटकारा पाने के लिये प्रार्थना करता है। अपने बोझ से छटकारा पाने के लिये मनुष्य अपने उन्माद में सब—कुछ करता है,

लेकिन वही एक काम नहीं करता जो वास्तव में उसे उसके बोझ से छुटकारा दिला सकता है, और वह है उस बोझ को फेंक देना। वह अपनी अतिरिक्त त्वचाओं से मुक्त होना चाहता है. पर अपनी पूरी शक्ति से उनसे चिपका हुआ है। वह आवरण —रहित होना चाहता है. पर साथ ही चाहता है कि पूरी तरह कपड़े पहने रहे।

निरावरण होने का समय समीप है। और मैं अतिरिक्त त्वचाओं को — आवरणों को — उतार फेंकने में तुम्हारी सहायता करने के लिये आया हूँ ताकि अपनी त्वचाओं को उतार फेंकने में तुम भी संसार के उन सब लोगों की सहायता कर सकी जिनमें तड़प है। मैं तो केवल विधि बताता हूँ; किन्तु अपनी त्वचा को उतार फेंकने का काम हरएक को स्वयं ही करना होगा, चाहे वह कितना ही कष्टदायी क्यों न हो।

अपने आप से अपने बचाव के लिये किसी चमत्कार की प्रतीक्षा न करो, न ही पीड़ा से डरो; क्योंकि आवरण —रहित ज्ञान तुम्हारी पीड़ा को स्थायी आनन्द में बदल देगा।

फिर यदि दिव्य ज्ञान की नग्नता में तुम्हारा अपने आप से सामना हो और यदि परमात्मा तुम्हें बुला कर पूछे, ”तुम कहाँ हो?” तो तुम शर्म नहीं करोगे, डरोगे ही परमात्मा से छिपोगे। बल्कि महसूस न तुम न तुम तुम अडोल बन्धन —मुक्‍त, दिव्य शान्ति से युक्त खड़े रहोगे, और परमात्मा को उत्तर दोगे :

”हमारे प्रभु, हमारी आत्मा, हमारे अस्तित्व, हमारे एकमात्र अहं, हमें देखिये। लज्जा. भय और पीड़ा में हम नेकी और बदी के लम्बे, विषम, और टेढ़े—मेढ़े उस रास्ते पर चलते रहे हैं जिसे आपने हमारे लिये समय के आरम्भ में निर्धारित किया था। निज घर के लिये महाविरह ने हमारे पैरों को प्रेरणा दी और विश्वास ने हमारे हृदय को थामे रखा. और अब दिव्य ज्ञान ने हमारे बोझ उतार दिये हैं, हमारे घाव भर दिये हैं. और हमें वापस आपकी पावन उपस्थिति में ला खड़ा किया है — नेकी और बदी, जीवन और मृत्यु के आवरणों से मुक्त; द्वैत के सभी भ्रमों से मुक्त; आपके सर्वग्राही अहं के सिवाय और हर अहं से मुक्त। अपनी नग्नता को छिपाने के लिये कोई आवरण पहने बिना हम लज्जामुक्त, प्रकाशमान, भय—रहित होकर आपके सम्मुख खड़े हैं। देखिये, हम एक हो गये हैं। देखिये, हमने आत्म—विजय प्राप्त कर ली है।’’

और परमात्मा तुम्हें अनन्त प्रेम से गले लगा लेगा, और तुम्हें सीधे अपने दिव्य जीवन—वृक्ष तक ले जायेगा।

यही शिक्षा थी मेरी नूह को।

यही शिक्षा है मेरी तुम्हें।

नरौंदा : यह बात भी मुर्शिद ने तब कही थी जब हम अँगीठी के पास बैठे थे।

 


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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–33)

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अध्याय—तैंतीस

रात्रि — अनुपम गायिका

 नरौंदा : पर्वतीय नीड़ के लिये, जिसे बर्फीली हवाओं और बर्फ के भारी अम्बारों ने पूरे शीतकाल में हमारी पहुँच से परे रखा था, हम सब इस प्रकार तरस रहे थे जिस प्रकार कोई निर्वासित व्यक्ति अपने घर के लिये तरसता है।

हमें नीड़ में ले जाने के लिये मुर्शिद ने बसन्त की एक ऐसी रात चुनी जिसके नेत्र कोमल और उज्ज्वल थे, जिसकी साँस उष्ण और सुगन्धित थी, जिसका हृदय सजीव और सजग था।

वे आठ सपाट पत्थर, जो हमारे बैठने के काम आते थे, अभी —तक वैसे ही अर्ध —चक्र के आकार में रखे थे जैसे हम उन्हें उस दिन छोड़ .गये थे जब मुर्शिद को बेसार ले जाया गया था। स्पष्ट था कि उस दिन से कोई भी नीड़ में नहीं गया था।

हममें से प्रत्येक अपने —अपने स्थान पर बैठ गया और मुर्शिद के बोलने की प्रतीक्षा करने लगा। परन्तु वे खामोश थे। पूर्णिमा का चन्द्र भी, जिसकी किरणें मानों हमारा स्वागत कर रही थीं, आशा के साथ मुर्शिद के ओंठों की ओर टकटकी लगाये हुए था।

एक शिला से दूसरी शिला पर गिर रहे पहाड़ी झरनों ने रात्रि को अपने तुमुल संगीत से भर दिया था। बीच—बीच में किसी उल्‍लू की धूं —धूं या किसी झींगुर के गीत के खण्डित स्वर सुनाई देते थे।

गहरी खामोशी में प्रतीक्षा करते हमें काफी देर हो चुकी थी जब मुर्शिद ने अपना सिर उठाया, और अपनी अधमुँदी आँखें खोलते हुए हमसे बोले.

मीरदाद : इस रात की शान्ति में मीरदाद चाहता है कि तुम रात्रि के गीत सुनो। रात्रि के गायक —वृन्द को सुनो। क्योंकि सचमुच ही रात्रि एक अनुपम गायिका है।

अतीत की सबसे अँधेरी दरारों में से, भविष्य के उन्नलतम दुर्गों में से, आकाश के शिखरों तथा धरती की गहराइयों में से निकल रहे हैं रात्रि के स्वर, और तेजी से पहुँच रहे हैं विश्व के दूरतम कोनों तक। विशाल तरंगों के रूप में ये तुम्हारे कानों के चारों ओर लहरा रहे हैं। अपने कानों को अन्य सब स्वरों से मुक्त कर दो ताकि इन्हें सुन सकी।

उतावली—भरा दिन जिसे आसानी से मिटा देता है. उतावली से मुक्त रात्रि उसे अपने क्षण भर के जादू से पुन बना देती है। क्या चाँद और तारे दिन की तेज रोशनी में छिप नहीं जाते? दिन जिसे कल्पना और असत्य के मिश्रण में डबा देता है, रात्रि उसे नपे —तुले उल्लास के

साथ दूर—दूर तक गाती है। जड़ी —बूटियों के सपने भी रात्रि के गायक—वृन्द में शामिल होकर उनके गीत में योग देते हैं।

सुनो तुम सितारों को

सुनो, गगन में झूलते

सुनाते जो लोरियाँ

दलदली बालू के

पालने में सो रहे भीमकाय शिशु को,

चीथड़े कंगाल के पहने हुए राजा को,

बेड़ियों —जंजीरों में जकड़ी हुई दामिनी को —

पोतड़ों में लिपटे हुए स्वयं परमात्मा को।

सुनो तुम धरती को

धरती को जो एक साथ

प्रसव में कराहती है, दूध भी पिलाती है,

पालती है, व्याहती है, कब्र में सुलाती है।

सुनो वन —पशुओं को

घूमते हैं जगल में टोह में शिकार की,

चीखते, गुर्राते हैं, चीरते, चिर जाते हैं,

सुनो अपनी राहों पर सरकती लताओं को,

रहस्यमय गीत अपने गुनगुनाते कीड़ों को;

किस्से चरागाहों के, गीत जल—प्रवाहों के

सुनो अपने सपनों में दोहराते विहंगों को;

मृत्यु के प्यालों में गट—गट पीते जीवन को

सुनो वृक्षों, झाड़ियों को और हर श्वास को।

शिखर से और वादी से,

मरुस्थल से, सागर से,

घास और मिट्टी के नीचे से, और वायु से

आ रही चुनौती है समय में लिपटे प्रभु को।

सुनो सब माताओं को —

किस तरह वे रोती हैं, कैसे वे बिलखती हैं,

और सब पिताओं को —

कैसे वे कराहते हैं, कैसे आहें भरते हैं।

सुनो उनके बेटों को और उनकी बेटियों को

बहक़ लेने भागते, बन्दूक से डर भागते,

प्रभु को फटकारते, और भाग्य को धिक्कारते।

स्वाँग रचते प्यार का और बैर फुसफुसाते हैं,

पीते तो हैं जोश पर पसीना छूटे डर से,

बोते हैं मुसकानें और काटते आंसू हैं,

अपने लाल खून से

उमड़ रही बाढ़ के प्रकोप को पैनाते हैं।

सुनो उनके भूख —मारे पेटों को पिचकते,

और उनकी सूजी हुई पलकों को झपकते,

कुम्हलाई उनकी अँगुलियों को

सुनो उनकी आस की लाश को खोजते,

और उनके हृदयों को

अनगिनत ढेरों में फूलते और फूटते

सुनो, कूर मशीनों को सुनो दनदनाते हुए,

दर्प —भरे नगरों को धड़ाम से गिर जाते हुए, श

शक्तिशाली दुर्गों को

अपने ही नाश की घण्टियाँ बजाते हुए,

पंकिल रक्त—ताल में छप—छप गिर जाते हुए।

सुनो न्यायी लोगों की तुम प्रार्थनाओं को

लोभ की चीखों के संग टनटनाते हुए,

बच्चों की तोतली और भोली बातों को

दुष्ट गपशप सग चारण—गीत गाते हुए,

सुनो किसी कन्या की लज्जारुण मुसकान को

वेश्या की धूर्तता के संग चहचहाते हुए,

और किसी वीर के हर्षोन्माद को

सुनो एक धूर्त के विचार गुनगुनाते हुए।

हर जनजाति के और हर किसी गोत्र के

हर खेमे हर कुटिया में से रात्रि सुनाती है

तुरही पर अपनी

युद्ध —गीत मनुष्य के।

पर जादूगरनी रात्रि

लोरियाँ, चुनौतियाँ, युद्ध—गीत और सब

मिला देती है एक ही अति उत्तम गीत में।

गीत वह सूक्ष्म इतना जो कान सुन पाये न

गीत इतना भव्य, और अनन्त फैलाव में,

स्वर में गहराई और टेक में मिठास ऐसी,

कि तुलना में फरिश्तों के गायकवृन्द गीतिकाएँ

लगते मात्र कोलाहल और बड़बड़ाहट हैं।

आत्म—विजेता का

यही विजय —गान है।

पर्वत जो रात्रि की गोद में हैं ऊँघते,

यादों में डूबे मरु लिये टीले रेत के,

पर्यटक तारे, सागर नींद में जो घूमते,

निवासी प्रेत—पुरियों के,

पावन —त्रयी और प्रभु —इच्छा,

सब करते आत्म—विजेता का

स्वागत हैं, जयघोष हैं।

भाग्यवान हैं लोग वे जो सुनते हैं और बुझते।

भाग्यवान हैं लोग जिनको

रात्रि संग अकेले में होती अनुभुति है

रात्रि जैसी शान्ति की, गहराई की, विस्तार की

लोग वे, अँधेरे में

चेहरों पर जिनके अँधेरे में किये गये

अपने कुकर्मों की पड़ती नहीं मार है,

लोग वे, आंसू जिनकी

ररकते नहीं पलकों में

साथियों की आंखों से जो उन्होंने बहाये हाथों में न जिनके

लोभ से, द्वेष से, होती कभी खाज है, कानों को न जिनके

अपनी तृष्णाओं की घेरती फूत्कार है, विवेक को न जिनके

डक कभी मारते उनके विचार हैं।

भाग्यवान हैं. हृदय जिनके

 

समय के हर कोने से घिर कर आती हुई

विविध चिन्ताओं के बैठने के छत्ते नहीं;

जिनकी बुद्धि में भय सुरंग खोद लेते नहीं;

साहस के साथ जो

कह सकते हैं रात्रि से, ”दिखा दो हमें दिन को”

कह सकते हैं दिन को, ”दिखा दो हमें रात्रि को”।

हां, बहुत भाग्यवान हैं जिनको

रात्रि संग अकेले में होती अनुभूति है

रात्रि जैसी समस्वरता, नीरवता, अनन्तता की।..

उनके लिये ही केवल

गाती है रात्रि यह गीत आत्म—विजेता का।

यदि तुम दिन के झूठे लाँछनों का सामना सिर ऊँचा रख कर विश्वास से चमकती आंखों से करना चाहते हो, तो शीघ्र ही रात्रि की मित्रता प्राप्त करो।

रात्रि के साथ मैत्री करो। अपने हृदय को अपने ही जीवन —रक्त से अच्छी तरह धोकर उसे रात्रि के हृदय में रख दो। अपनी आवरणहीन कामनाएँ रात्रि के वक्ष को सौंप दो, और दिव्य ज्ञान के द्वारा स्वतन्त्र होने की महत्त्वाकांक्षा के अतिरिक्त अन्य सभी महत्त्वाकांक्षाओं की उसके चरणों में बलि दे दो। तब दिन का कोई भी तीर तुम्हें बेध नहीं सकेगा, और तब रात्रि तुम्हारी ओर से लोगों के सामने गवाही देगी कि तुम सचमुच आत्म —विजेता हो।

व्यग्र दिन भले ही पटकें तुम्हें इधर—उधर,

तारक—हीन रातें चाहे

अपने अँधेरे में लपेट लें तुम को,

फेंक दिया जाये तुम्हें विश्व के चौराहों पर,

राह दिखाने को चिह्न, पद—चिह्न मिलें नहीं,

फिर भी न डरोगे तुम

किसी भी मनुष्य से और न ही किसी स्थिति से.

न ही होगा शक तुम्हें लेश—मात्र इसका

कि दिन और रातें, और मनुष्य और चीजें भी

जल्दी ही या देर से आयेंगे तुम्हारे पास,

और विनयपूर्वक प्रार्थना वे करेंगे —

”आदेश दें हमको, ”

विश्वास क्योंकि रात्रि का प्राप्त होगा तुमको।

और विश्वास रात्रि का प्राप्त जो कर लेता है

सहज ही आदेश वह अगले दिन को देता है।

रात्रि के हृदय को ध्यान से सुनो, क्योंकि उसी के अन्दर आत्म—विजेता का हृदय धड़कता है। यदि मेरे पास आंसू होते तो आज रात मैं उन्हें भेंट कर देता हर टिमटिमाते सितारे और रज—कण को; हर कल —कल करते नाले और गीत गाते टिड्डे को; वायु में अपनी सुगन्धित आत्मा को बिखेरते हर नील—पुष्‍प को, हर सरसराते समीर को, हर पर्वत और वादी को, हर पेड़ और घास की हर कोंपल को — इस रात्रि की सम्पूर्ण अस्थायी शान्ति और सुन्दरता को। मैं अपने आंसू मनुष्य की कृतघ्नता तथा बर्बर अज्ञान के लिये क्षमायाचना के रूप में इनके सामने उँड़ेल देता।

क्योंकि मनुष्य, घृणित पैसे के गुलाम, अपने स्वामी की सेवा में व्यस्त हैं, इतने व्यस्त कि स्वामी की आवाज़ और इच्छा के अतिरिक्त और किसी आवाज और इच्छा की ओर ध्यान नहीं दे सकते।

और भयंकर है मनुष्यों के स्वामी का कारोबार — मनुष्य के संसार को एक ऐसे क़साईखाने में बदल देना जहाँ वे ही गला काटने वाले हैं और वे ही गला कटवाने वाले। और इसलिये. लहू के नशे में चूर मनुष्य मनुष्यों को इस विश्वास में मारते चले जाते हैं कि जिन मनुष्यों का कोई. खून करता है, धरती के सब प्रसादों और आकाश की समस्त उदारता में उन मनुष्यों का सभी हिस्सा उसे विरासत में मिल जाता है।

अभागे मूर्ख। क्या कभी भेडिया किसी दूसरे भेड़िये का पेट चीर कर मेमन। बना है? क्या कभी कोई साँप अपने साथी साँपों को कुचल और निगल कर कपोत बना है? क्या कभी किसी मनुष्य ने अन्य मनुष्यों की हत्या करके उनके दुःखों को छोड़ उनकी खुशियाँ विरासत में पाई हैं? क्या कभी कोई कान दूसरे कानों में डाट लगा कर जीवन की स्वर—तरंगों का अधिक आनन्द ले सका है? या कभी कोई आँख अन्य आंखों को नोच कर सुन्दरता के विविध रूपों के प्रति अधिक सजग हुई है?

ऐसा कोई मनुष्य मनुष्यों का समुदाय है जो केवल एक क्या या

घण्टे के वरदानों का भी पूरी तरह उपयोग कर सके, वरदान चाहे खाने—पीने के पदार्थों के हों, चाहे प्रकाश और शान्ति के? धरती जितने जीवों को पाल सकती है उससे अधिक जीवों को जन्म नहीं देती। आकाश अपने बच्चों के पालन के लिये न भीख माँगता है, न चोरी करता है।

वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”यदि तुम तृप्त होना चाहते हो तो मारो और जिन्हें मारते हो उनकी विरासत प्राप्त करो।’’

जो मनुष्य का प्यार, धरती का दूध और मधु तथा आकाश का गहरा स्नेह पाकर नहीं फला—फूला, वह मनुष्य के आंसू, रक्त और पीड़ा के आधार पर कैसे फले—फूलेगा?

वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”हर राष्ट्र अपने लिये है।’’ कनखजूरा कभी एक इव भी आगे कैसे बढ़ सकता है यदि उसका हर पैर दूसरे पैरों के विरुद्ध दिशा में चले, या दूसरे पैरों के आगे बढ़ने में रुकावट डाले, या दूसरे पैरों के विनाश के लिये षड्यन्त्र रचे? मनुष्य भी क्या एक दैत्याकार कनखजूरा नहीं है, राष्ट्र जिसके अनेक पैर हैं? वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”शासन करना सम्मान की बात है, शासित होना लज्जा की।’’

क्या गधे को हाँकने वाला उसकी दुम के पीछे—पीछे नहीं चलता? क्या जेलर कैदियों से बँधा नहीं होता?

वास्तव में गधा अपने हाँकने वाले को हाँकता है, कैदी अपने जेलर को जेल में बन्द रखता है।

वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”दौड़ उसी की जो तेज दौड़े, सच्चा वही जो समर्थ हो।’’

क्योंकि जीवन मांसपेशियों और बाहुबल की दौड़ नहीं है। लूले— लँगड़े भी बहुधा स्वस्थ लोगों से बहुत पहले मंजिल पर पहुँच जाते हैं। और कभी —कभी तो एक तुच्छ मच्छर भी कुशल योद्धा को पछाड़ देता

वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं कि अन्याय का उपचार केवल अन्याय से ही किया जा सकता है। अन्याय के बदले में थोपा गया अन्याय कभी न्याय नहीं बन सकता। अन्याय को अकेला छोड़ दो, वह स्वयं ही अपने आप को मिटा देगा।

परन्तु भोले लोग अपने स्वामी पैसे के सिद्धान्तों को आसानी से सच मान लेते हैं। पैसे और उसके जमाखोरों में वे भक्तिपूर्ण विश्वास रखते हैं और उनकी हर मनमानी सनक के आगे सर झुकाते हैं। रात्रि का न वे विश्वास करते हैं न परवाह। जब कि रात्रि मुक्ति के गीत गाती है, और मुक्ति तथा प्रभु—प्राप्ति की प्रेरणा देती है। तुम्हें तो, मेरे साथियो, वे या तो पागल करार देंगे या पाखण्डी।

मनुष्यों की कृतम्मता और तीखे उपहास का बुरा मत मानना, बल्कि प्रेम और असीम धैर्य के साथ स्वयं उनसे तथा आग और खून की बाढ़ से, जो शीघ्र ही उन पर टूट पड़ेगी, उनके बचाव के लिये उद्यम करना।

समय आ गया है कि मनुष्य मनुष्य की हत्या करना बन्द कर दे। सूर्य, चन्द्र और तारे अनादिकाल से प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उन्हें देखा, सुना और समझा जाये, धरती की लिपि प्रतीक्षा कर रही है कि उसे पढ़ा जाये, आकाश के राजपथ, कि उन पर यात्रा की जाये, समय का उलझा हुआ धागा, कि उसमें पड़ी गाँठों को खोला जाये, ब्रह्माण्ड की सुगन्ध, कि उसे सूँघा जाये; पीड़ा के कब्रिस्तान, कि उन्हें मिटा दिया जाये; मौत की गुफा, कि उसे ध्वस्त किया जाये; ज्ञान की रोटी, कि उसे चखा जाये; और मनुष्य, परदों में छिपा परमात्मा, प्रतीक्षा कर रहा है कि उसे अनावृत किया जाये।

समय आ गया है कि मनुष्य मनुष्यों को लूटना बन्द कर दें और सर्वहित के काम को पूरा करने के लिये एक हो जायें। बहुत बड़ी है यह चुनौती, पर मधुर होगी विजय भी। तुलना में और सब तुच्छ तथा खोखला है।

हां, समय आ गया है। पर ऐसे बहुत कम हैं जो ध्यान देंगे। बाकी को एक और पुकार की प्रतीक्षा करनी होगी — एक और भोर की।

 


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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–34)

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अध्याय—चौंतीस

माँ— अण्डाणु

मीरदाद : मीरदाद चाहता है कि इस रात के सन्नाटे में तुम एकाग्र —चित्त होकर माँ—अण्डाणु के विषय में विचार करो।

स्थान और जो कुछ उसके अन्दर है एक अण्डाणु है जिसका खोल समय है। यही माँ —अण्डाणु है।

जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है, वैसे ही इस अण्डाणु को लपेटे हुए है विकसित परमात्मा. विराट परमात्मा — जीवन जो कि अमूर्त, अनन्त और अकथ है।

इस अण्डाणु में लिपटा हुआ है कुण्डलित परमात्मा, लघु— परमात्मा — जीवन जो मूर्त है, किन्तु उसी तरह अनन्त और अकथ।

भले ही प्रचलित मानवीय मानदण्ड के अनुसार माँ —अण्डाणु अमित है, फिर भी इसकी सीमाएँ हैं। यद्यपि यह स्वयं अनन्त नहीं है, फिर भी इसकी सीमाएँ हर ओर अनन्तता को छूती हैं।

ब्रह्माण्ड में जो भी पदार्थ और जीव हैं, वे सब उसी लघु —परमात्मा को लपेटे हुए समय—स्थान के अण्डाणुओं से अधिक और कुछ नहीं, परन्तु सबमें लघु—परमात्मा प्रसार की भिन्न—भिन्न अवस्थाओं में है। पशु के अन्दर के लघु—परमात्मा की अपेक्षा मनुष्य के अन्दर के लघु—परमात्मा का और वनस्पति के अन्दर के लघु —परमात्मा की अपेक्षा पशु के अन्दर के लघु—परमात्मा का समय—स्थान में प्रसार अधिक है। और सृष्टि में नीचे —नीचे की श्रेणियों में क्रमानुसार ऐसा ही है।

दृश्य तथा अदृश्य सब पदार्थों और जीवों का प्रतिनिधित्व करते अनगिनत अण्डाणुओं को माँ —अण्डाणु के अन्दर इस क्रम में रखा गया है कि प्रसार में बड़े अण्डाणु के अन्दर उसके निकटतम छोटा अण्डाणु है, और यही क्रम सबसे छोटे अण्डाणु तक चलता है। अण्डाणुओं के बीच में जगह है और सबसे छोटा अण्डाणु केन्द्रीय नाभिक है जो अत्यन्त अल्प समय तथा स्थान के अन्दर बन्द है।

अण्डाणु के अन्दर अण्डाणु, फिर उस अण्डाणु के अन्दर अण्डाणु, मानवीय गणना से परे और सब प्रभु द्वारा अनुप्राणित — यही ब्रह्माण्ड है, मेरे साथियों।

फिर भी मैं महसूस करता हूँ कि मेरे शब्द कठिन हैं, वे तुम्हारी बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकते। और यदि कभी शब्द पूर्ण ज्ञान तक ले जाने वाली सीढ़ी के सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाये गये होते तो मुझे भी अपने शब्दों को सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाने में प्रसन्नता होती। इसलिये यदि तुम उन ऊँचाइयों, गहराइयों और चौड़ाइयों तक पहुँचना चाहते हो जिन तक मीरदाद तुम्हें पहुँचाना चाहता है, तो बुद्धि से बड़ी किसी शक्ति के द्वारा शब्दों से बड़ी किसी वस्तु का सहारा लो।

शब्द, अधिक से अधिक, बिजली की कौंध हैं जो क्षितिजों की झलक दिखाती हैं, ये उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं; स्वयं क्षितिज तो बिलकुल ही नहीं। इसलिये जब मैं तुम्हारे संमुख माँ —अण्डाणु और अण्डाणुओं की, तथा विराट —परमात्मा और लघु —परमात्मा की बात करता हूँ तो मेरे शब्दों को पकड कर न बैठ जाओ, बल्कि कौंध की दिशा में चलो। तब तुम देखोगे कि मेरे शब्द तुम्हारी कमजोर बुद्धि के लिये बलशाली पख हैं।

अपने चारों ओर की प्रकृति पर ध्यान दो। क्या तुम उसे अण्डाणु के नियम पर रची गई नहीं पाते हो? ही, अण्डाणु में तुम्हें सम्पूर्ण सृष्टि की कुंजी मिल जायेगी।

तुम्हारा सिर, तुम्हारा हृदय, तुम्हारी आंख अण्डाणु हैं। अण्डाणु है हर फूल और उसका हर बीज। अण्डाणु है पानी की एक बूँद तथा प्रत्येक प्राणी का प्रत्येक वीर्याणु। और आकाश में अपने रहस्यमय मार्गों पर चल रहे अनगिनत नक्षत्र क्या अण्डाणु नहीं हैं जिनके अन्दर प्रसार की भिन्न—भिन्न अवस्थाओं में पहुँचा हुआ जीवन का सार — लघु — परमात्मा — निहित है? क्या जीवन निरन्तर अण्डाणु में से ही नहीं निकल रहा है और वापस अण्डाणु में ही नहीं जा रहा है?

निःसन्देह, चमत्कारपूर्ण और निरन्तर है सृष्टि की प्रक्रिया। जीवन का प्रवाह माँ—अण्डाणु की सतह से उसके केन्द्र तक, तथा केन्द्र से वापस सतह तक बिना रुके जारी रहता है। केन्द्र—स्थित लघु—परमात्मा जैसे—जैसे समय तथा स्थान में फैलता जाता है, जीवन के निम्नतम वर्ग से जीवन के उच्चतम वर्ग तक एक अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में प्रवेश करता चला जाता है। सबसे नीचे का वर्ग समय तथा स्थान में सबसे कम फैला हुआ है और सबसे ऊँचा वर्ग सबसे अधिक। एक अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में जाने में लगने वाला समय भिन्न—भिन्न होता है — कुछ स्थितियों में पलक की एक झपक होता है तो कुछ में आ युग। और इस प्रकार चलती रहती है सृष्टि की प्रक्रिया जब तक माँ —अण्डाणु का खोल टूट नहीं जाता, और लघु—परमात्मा विराट—परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता।

इस प्रकार जीवन एक प्रसार, एक वृद्धि और एक प्रगति है, लेकिन उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में लोग वृद्धि और प्रगति का उल्लेख प्राय: करते हैं, क्योंकि उनके लिये वृद्धि है आकार में बढ़ना, और प्रगति आगे बढ़ना। जब कि वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है समय और स्थान में सब तरफ फैलना, और प्रगति का तात्पर्य है सब दिशाओं में समान गति, पीछे भी और आगे भी, और नीचे तथा दायें—बायें और ऊपर भी। अतएव चरम वृद्धि है स्थान से परे फैल जाना और चरम प्रगति है समय की सीमा से आगे निकल जाना, और इस प्रकार विराट —परमात्मा में लीन हो जाना और समय तथा स्थान के बन्धनों में से निकल कर परमात्मा की स्वतन्त्रता तक जा पहुँचना जो स्वतन्त्रता कहलाने योग्य एकमात्र अवस्था है। और यही है वह नियति जो मनुष्य के लिये निर्धारित है।

इन शब्दों पर ध्यान दो, साधुओं। यदि तुम्हारा रक्त तक इन्हें प्रसन्नतापूर्ण ग्रहण न कर ले, तो सम्भव है कि अपने आप को और दूसरों को स्वतन्त्र कराने के तुम्हारे प्रयत्न तुम्हारी और उनकी जंजीरों में और अधिक कड़ियाँ जोड़ दें। मीरदाद चाहता है कि तुम इन शब्दों को समझ लो ताकि इन्हें समझने में तुम सब तड़पने वालों की सहायता कर सकी। मीरदाद चाहता है कि तुम स्वतन्त्र हो जाओ ताकि उन सब लोगों को जो आत्म —विजयी और स्वतन्त्र होने के लिये तड़प रहे हैं तुम स्वतन्त्रता तक पहुँचा सकी। इसलिये मीरदाद अण्डाणु के इस नियम को और अधिक स्पष्ट करना चाहेगा, खासकर जहाँ तक इसका सम्यश्व मनुष्य से है।

मनुष्य से नीचे जीवों के सब वर्ग सामूहिक अण्डाणुओं में बन्द हैं। इस तरह पौधों के लिये उतने ही अण्डाणु हैं जितने पौधों के प्रकार हैं, जो अधिक विकसित हैं उनके अन्दर सभी कम विकसित बन्द हैं। और यही स्थिति कीड़ों, मछलियों और स्तनपायी जीवों की है, सदा ही जीवन के एक अधिक विकसित वर्ग के अन्दर उससे नीचे के सभी वर्ग बन्द होते हैं।

जैसे साधारण अण्डे के भीतर की जर्दी और सफेदी उसके अन्दर के प्ले के भूण का पोषण और विकास करती है, वैसे ही किसी भी अण्डाणु में बन्द सभी अण्डाणु उसके अन्दर के लघु —परमात्मा का पोषण और विकास करते हैं।

प्रत्येक अण्डाणु में समय —स्थान का जो अंश लघु—परमात्मा को मिलता है, वह पिछले अण्डाणु में मिलने वाले अंश से थोड़ा भिन्न होता है। इसलिये समय —स्थान में लघु —परमात्मा के प्रसार में अन्तर होता है। गैस में वह बिखरा हुआ और आकारहीन होता है, पर तरल पदार्थ में अधिक घना हो जाता है और आकार धारण करने की स्थिति में आ जाता है, जब कि खनिज में वह एक निश्चित आकार और स्थिरता धारण कर लेता है। परन्तु इन सब स्थितियों में वह जीवन के गुणों से रहित होता है जो उच्चतर श्रेणियों में प्रकट होते हैं। वनस्पति में वह ऐसा रूप अपनाता है जिसमें बढने, अपनी संख्या—वृद्धि करने और महसूस करने की क्षमता होती है। पशु में वह महसूस करता है, चलता है और सन्तान पैदा करता है, उसमें स्मरण —शक्ति होती है और सोच —विचार के मूलतत्त्व भी। लेकिन मनुष्य में, इन सब गुणों के अतिरिक्त, वह एक व्यक्तित्व और सोच विचार करने, अपने आप को अभिव्यक्त करने तथा सृजन करने की क्षमता भी प्राप्त कर लेता है। निःसन्देह परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है जैसा किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित एक भव्य मन्दिर या सुन्दर दुर्ग की तुलना में एक बच्चे द्वारा बनाया गया ताश के पत्तों का घर। किन्तु है तो वह फिर भी सृजन ही।

प्रत्येक मनुष्य एक अलग अण्डाणु बन जाता है, अधिक विकसित मनुष्य में कम विकसित मानव —अण्डाणुओं के साथ सब पशु, वनस्पति तथा उनसे निचले स्तर के अण्डाणु, केन्द्रीय नाभिक तक, बन्द होते हैं। जब कि सबसे अधिक विकसित मनुष्य में — आत्म—विजेता में — सभी मानव अण्डाणु और उनसे निचले स्तर के सभी अण्डाणु भी बन्द होते हैं।

किसी मनुष्य कै। अपने कन्दर बन्द रखने. वाले अण्डाणु का विस्तार उस मनुष्य के समय—स्थान के क्षितिजों के विस्तार से नापा जाता है। जहाँ एक मनुष्य की समय की चेतना में उसके शैशव से लेकर वर्तमान घड़ी तक की अल्प अवधि से अधिक और कुछ नहीं समा सकता. और उसके स्थान के क्षितिजों के घेरे में उसकी दृष्टि की पहुँच से परे का कोई पदार्थ नहीं आता, वहाँ दूसरे व्यक्ति के क्षितिज स्मरणातीत भूत और सुदूर भविष्य को, तथा स्थान की लम्बी दूरियों को जिन पर अभी उसकी दृष्टि नहीं पड़ी ‘है अपने घेरे में ले आते .हैं।

प्रसार के लिये सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है, पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता; क्योंकि वे एक ही अण्डाणु में से एक ही समय और एक ही स्थान पर नहीं निकले हैं। इसलिये समय—स्थान में उनके प्रसार में अन्तर होता है; और इसीलिये कोई दो मनुष्य ऐसे नहीं मिलते जो हूबहू एक —जैसे हों।

सब लोगों के सामने प्रचुर मात्रा में और खूब खुले हाथों परोसे गये भोजन में से एक व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुन्दरता को देखने का आनन्द लेता है और तृप्त हो जाता है, जब कि दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है और सदा भूखा रहता है। एक शिकारी एक सुन्दर हिरनी को देख .कर उसे मारने और खाने के लिये प्रेरित होता है; एक कवि उसी हिरनी को देख कर मानों पंखों पर उड़ान भरता हुआ उस समय और स्थान में जा पहुँचता है जिसका शिकारी कभी सपना भी नहीं देखता। मिकेयन, शमदाम के साथ एक ही नौका में रहते हुए, परम स्वतन्त्रता और समय तथा स्थान की सीमाओं से पूर्ण मुक्ति के सपने देखता है, जब कि शमदाम सदा अपने आप को समय तथा स्थान के और अधिक लम्बे तथा और अधिक दृढ़ रस्सों से बाँधने में व्यस्त रहता है। वास्तव में मिकेयन और शमदाम पास —पास रहते हुए भी एक दूसरे से बहुत दूर हैं। मिकेयन के अन्दर शमदाम है; परन्तु शमदाम के अन्दर मिकेयन नहीं है। इसलिये मिकेयन शमदाम को समझ सकता है, परन्तु शमदाम मिकेयन को नहीं समझ सकता।

एक आत्म —विजेता का जीवन हर व्यक्ति के जीवन को हर ओर से है, क्योंकि सब व्यक्तियों के जीवन उसमें समाये हुए हैं। परन्तु छूता

आत्म—विजेता के जीवन को किसी भी व्यक्ति का जीवन हर ओर से नहीं छूता। अत्यन्त सरल व्यक्ति को आत्म—विजेता अत्यन्त सरल प्रतीत होता है। अत्यन्त विकसित व्यक्ति को वह अत्यन्त विकसित दिखाई देता है। किन्तु आत्म —विजेता के सदा कुछ ऐसे पक्ष होते हैं जिन्हें आत्म —विजेता के सिवाय और कोई न कभी समझ सकता है, न महसूस कर सकता है। यही कारण है कि वह सबके बीच में रहते हुए भी अकेला है, वह संसार में है फिर भी संसार का नहीं है।

लघु —परमात्मा बन्दी नहीं रहना चाहता। वह मनुष्य की बुद्धि से कहीं ऊँची बुद्धि का प्रयोग करते हुए समय तथा स्थान के कारावास से अपनी मुक्ति के लिये सदैव कार्य —रत रहता है। निम्न स्तर के जीवों में इस बुद्धि को लोग सहज —बुद्धि कहते हैं। साधारण मनुष्यों में वे इसे तर्क और उच्च कोटि के मनुष्यों में इसे दिव्य बुद्धि कहते हैं। यह सब तो वह है हां, पर इससे अधिक भी बहुत कुछ है। यह वह अनाम शक्ति है जिसे कुछ लोगों ने ठीक ही पवित्र शक्ति का नाम दिया है, और जिसे मीरदाद दिव्य ज्ञान कहता है।

समय के खोल को बेधने वाला और स्थान की सीमा को लाँघने वाला प्रथम मानव —पुत्र ठीक ही प्रभु का पुत्र कहलाता है। उसका अपने ईश्वरत्व का ज्ञान ठीक ही पवित्र शक्ति कहलाता है। किन्तु विश्वास रखो कि तुम भी प्रभु के पुत्र हो, और तुम्हारे अन्दर भी वह पवित्र शक्ति अपना कार्य कर रही है। उसके साथ कार्य करो, उसके विरुद्ध नहीं।

परन्तु जब तक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते और स्थान की सीमा को लाँघ नहीं जाते, तब तक कोई यह न कहे, ”मैं प्रभु हूँ’। बल्कि सब कहो, ”प्रभु ही मैं है”। इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखो, कहीं ऐसा न हो कि अहंकार तथा खोखली कल्पनाएँ तुम्हारे हृदय को भ्रष्ट कर दें और तुम्हारे अन्दर हो रहे पवित्र शकि्त के कार्य का विरोध करें। क्योंकि अधिकांश लोग पवित्र शक्ति के कार्य के विरुद्ध काम करते हैं, और इस प्रकार अपनी अन्तिम मुक्ति को स्थगित कर देते है।

समय को जीतने के लिये यह आवश्यक है कि तुम समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लड़ो। स्थान को पराजित करने के लिये यह आवश्यक है कि तुम स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो। दोनों में से एक का भी स्नेहपूर्ण स्वागत करना दोनों का बन्दी होना तथा नेकी और बदी की अन्तहीन हास्य—जनक चेष्टाओं का बंधक बने रहना है।

जिन लोगों ने अपनी नियति को पहचान लिया है और उस तक पहुँचने के लिये तड़पते हैं, वे समय के साथ लाड़ करने में समय नहीं गँवाते और न ही स्थान में भटकने में अपने कदम नष्ट करते हैं। सम्भव है कि वे एक ही लघु जीवन—काल में युगों को समेट लें तथा अपार दूरियों को मिटा दें। वे इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि मृत्यु उन्हें उनके इस अण्डाणु से अगले अण्डाणु में ले जाये, वे जीवन पर विश्वास रखते हैं कि बहुत—से अण्डाणुओं के खोलों को एक साथ तोड़ डालने में वह उनकी सहायता करेगा।

इसके लिये तुम्हें हर वस्तु के मोह का त्याग करना होगा, ताकि समय तथा स्थान की तुम्हारे हृदय पर कोई पकड़ न रहे। जितना अधिक तुम्हारा परिग्रह होगा, उतने ही अधिक होंगे तुम्हारे बन्धन। जितना कम तुम्हारा परिग्रह होगा, उतने ही कम होंगे तुम्हारे बन्धन।

हां, अपने विश्वास, अपने प्रेम तथा दिव्य ज्ञान के द्वारा मुक्ति के लिये अपनी तड़प के अतिरिक्त हर वस्तु की लालसा को त्याग दो।



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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–35)

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अध्याय—पैंतीस

परमात्मा की राह पर प्रकाश — कण

मीरदाद : इस रात के सन्नाटे में मीरदाद परमात्मा की ओर जाने वाली तुम्हारी राह पर कुछ प्रकाश —कण बिखेरना चाहता है।

विवाद से बचो। सत्य स्वयं प्रमाणित है; उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। जिसे तर्क और प्रमाण के सहारे की आवश्यकता होती है, उसे देर—सवेर तर्क और प्रमाण के द्वारा ही गिरा दिया जाता है।

किसी बात को सिद्ध करना उसके प्रतिपक्ष का खण्डन करना है। उसके प्रतिपक्ष को सिद्ध करना उसका खण्डन करना है। परमात्मा का कोई प्रतिपक्ष है ही नहीं। फिर तुम कैसे उसे सिद्ध करोगे या कैसे उसका खण्डन करोगे?

यदि जिह्वा को सत्य का वाहक बनाना हो तो उसे कभी मूसल, विषदन्त, वातसूचक, कलाबाज या सफाई करने वाला नहीं बनाना चाहिये। बेजुबानों को राहत देने के लिये बोलो। अपने आप को राहत देने के लिये मौन रहो।

शब्द जहाज हैं जो स्थान के समुद्रों में चलते हैं और अनेक बन्दरगाहों पर रुकते हैं। सावधान रही कि तुम उनमें क्या लादते हो; क्योंकि अपनी यात्रा समाप्त करने के बाद वे अपना माल आखिर तुम्हारे ही द्वार पर उतारेंगे।

घर के लिये जो महत्त्व झाड़ का है, वही महत्त्व हृदय के लिये आत्म—परीक्षण का है। अपने हृदय को अच्छी तरह बुहारो।

अच्छी तरह बुहारा गया हृदय एक अजेय दुर्ग है।

जैसे तुम लोगों और पदार्थों को अपना आहार बनाते हो, वैसे ही वे तुम्हें अपना आहार बनाते हैं। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हें विष न मिले, तो दूसरों के लिये स्वास्थ्यप्रद भोजन बनो।

जब तुम्हें अगले कदम के विषय में सन्देह हो, निश्चल खड़े रहो।

जिसे तुम नापसंद करते हो, वह तुम्हें नापसन्द करता है; उसे पसन्द करो और ज्यों का त्यों रहने दो। इस प्रकार तुम अपने रास्ते से एक बाधा हटा दोगे।

सबसे अधिक असह्य परेशानी है किसी बात को परेशानी समझना। अपनी पसन्द का चुनाव कर लो? हर वस्तु का स्वामी बनना या किसी का भी नहीं। बीच का कोई मार्ग सम्भव नहीं।

रास्ते का हर रोड़ा एक चेतावनी है। चेतावनी को अच्छी तरह पढ़ लो, और रास्ते का रोड़ा प्रकाश —स्तम्भ बन जायेगा।

सीधा टेढ़े का भाई है। एक छोटा रास्ता है, दूसरा घुमावदार। टेढ़े के प्रति धैर्य रखो।

विश्वास—युक्त धैर्य स्वास्थ्य है। विश्वास—रहित धैर्य अर्धांग है।

होना, महसूस करना, सोचना, कल्पना करना, जानना — यह है मनुष्य के जीवन —चक्र के मुख्य पड़ावों का क्रम।

प्रशंसा करने और पाने से बचो, जब प्रशंसा सर्वथा निश्छल और उचित हो तब भी। जहाँ तक चापलूसी का सम्बन्ध है, उसकी कपटपूर्ण कसमों के प्रति गूँगे और बहरे बन जाओ।

देने का अहसास रखते हुए कुछ भी देना उधार लेना ही है।

वास्तव में तुम ऐसा कुछ भी नहीं दे सकते जो तुम्हारा है। तुम लोगों को केवल वही देते हो जो तुम्हारे पास उनकी अमानत है। जो तुम्हारा है, केवल तुम्हारा हां, वह तुम दे नहीं सकते, चाहो भी तो नहीं। अपना सन्तुलन बनाये रखो. और तुम मनुष्यों के लिये अपने आप को नापने का मानदण्ड और तोलने का तराजू बन जाओगे।

गरीबी या अमीरी नाम की कोई चीज नहीं है। बात वस्तुओं का उपयोग करने के कौशल की है।

असल में गरीब वह है जो उन वस्तुओं का जो उसके पास हैं गलत उपयोग करता है। अमीर वह है जो अपनी वस्तुओं का सही उपयोग करता है।

बासी रोटी की सूखी पपड़ी भी ऐसी दौलत हो सकती है जिसे आँका न जा सके। सोने से भरा तहखाना भी ऐसी गरीबी हो सकता है जिससे छुटकारा न मिल सके।

जहाँ बहुत—से रास्ते एक केन्द्र में मिलते हों वहाँ इस अनिश्चय में मत पड़ो कि किस रास्ते पर चला जाये। प्रभु की खोज में लगे हृदय को सभी रास्ते प्रभु की ओर ले जाते हैं।

जीवन के सब रूपों के प्रति आदर —भाव रखो। सबसे तुच्छ रूप में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण रूप की कुंजी छिपी रहती है।

जीवन की सब कृतियाँ महत्त्वपूर्ण हें — हां, अद्भुत. श्रेष्ठ और अद्वितीय। जीवन अपने आप को निरर्थक, तुच्छ कामों में नहीं लगाता। प्रकृति के कारखाने में कोई वस्तु तभी बनती है जब वह प्रकृति की प्रेमपूर्ण देखभाल और श्रमपूर्ण कौशल की अधिकारी हो। तो क्या वह कम से कम तुम्हारे आदर की अधिकारी नहीं होनी चाहिये?

यदि मच्छर और चींटियाँ आदर के योग्य हों, तो तुम्हारे साथी मनुष्य उससे कितने अधिक आदर के योग्य होने चाहियें?

किसी मनुष्य से घृणा न करो। एक भी मनुष्य से घृणा करने की अपेक्षा प्रत्येक मनुष्य से घृणा पाना कहीं अच्छा है।

क्योंकि किसी मनुष्य से का। करना उसके अन्दर के लघु —परमात्मा से घृणा करना है। किसी भी मनुष्य के अन्दर के लघु —परमात्मा से घृणा करना अपने अन्दर के लघु—परमात्मा से घृणा करना है। वह व्यक्ति भला कभी अपने बन्दरगाह तक कैसे पहुँचेगा जो बन्दरगाह को ले जाने वाले अपने एकमात्र मल्लाह का अनादर करता हो?

नीचे क्या है, यह जानने के लिये ऊपर दृष्टि डालो। ऊपर क्या है, यह जानने के लिये नीचे दृष्टि डालों।

जितना ऊपर चढ़ते हो, उतना ही नीचे उतरो, नहीं तो तुम अपना सन्तुलन खो बैठोगे।

आज तुम शिष्य हो। कल तुम शिक्षक बन जाओगे। अच्छे शिक्षक बनने के लिये अच्छे शिष्य बने रहना आवश्यक है।

संसार में से बदी के घास —पात को उखाड़ फेंकने का यत्न न करो, क्योंकि घास —पात की भी अच्छी खाद बनती है।

उत्साह का अनुचित प्रयोग बहुधा उत्साही को ही मार डालता है। केवल ऊँचे और शानदार वृक्षों से ही जगल नहीं बन जाता, झाडियों और लिपटती लताओं की भी आवश्यकता होती है।

पाखण्ड पर परदा डाला जा सकता है, लेकिन कुछ समय के लिये ही; उसे सदा परदे में नहीं रखा जा सकता, न ही उसे हटाया या नष्ट किया जा सकता है।

दूषित वासनाएँ अन्धकार में जन्म लेती हैं और वहीं फलती—फूलती हैं। यदि तुम उन्हें नियन्त्रण में रखना चाहते हो तो उन्हें प्रकाश में आने की स्वतन्त्रता दो।

यदि तुम हजार पाखण्डियों में से एक को भी सहज ईमानदारी की राह पर वापस लाने में सफल हो जाते हो तो सचमुच महान है तुम्हारी सफलता।

मशाल को ऊँचे स्थान पर रखो, और उसे देखने के लिये लोगों को बुलाते न फिरो। जिन्हें प्रकाश की आवश्यकता है उन्हें किसी निमन्त्रण की आवश्यकता नहीं होती।

बुद्धिमत्ता अधूरी बुद्धि वाले के लिये बोझ है, जैसे मूर्खता मूर्ख के लिये बोझ है। बोझ उठाने में अधूरी बुद्धि वाले की सहायता करो और मूर्ख को अकेला छोड दो, अधूरी बुद्धि वाला मूर्ख को तुमसे अधिक सिखा सकता है।

कई बार तुम्हें अपना मार्ग दुर्गम, अन्धकारपूर्ण और एकाकी लगेगा। अपना इरादा पक्का रखो और हिम्मत के साथ कदम बढ़ाते जाओ, और हर मोड़ पर तुम्हें एक नया साथी मिल जायेगा।

पथ —विहीन स्थान में ऐसा कोई पथ नहीं जिस पर अभी तक कोई न चला हो। जिस पथ पर पद —चिह्न बहुत कम और दूर —दूर हैं, वह सीधा और सुरक्षित है, चाहे कहीं—कहीं ऊबड़—खाबड़ और सुनसान है। जो मार्गदर्शन चाहते हैं उन्हें मार्गदर्शक मार्ग दिखा सकते हैं, उस पर चलने के लिये विवश नहीं कर सकते। याद रखो, तुम मार्गदर्शक हो। अच्छा मार्गदर्शक बनने के लिये आवश्यक है कि स्वयं अच्छा मार्गदर्शन पाया हो। अपने मार्गदर्शक पर विश्वास रखो।

कई लोग तुमसे कहेंगे, ”हमें रास्ता दिखाओ”। किन्तु थोड़े ही बहुत ही थोड़े कहेंगे, ”हम तुमसे विनती करते हैं कि रास्ते में हमारी रहनुमाई करो”।

आत्म—विजय के मार्ग पर वे थोड़े —से लोग उन कई लोगों से अधिक महत्त्व रखते हैं।

तुम जहाँ चल न सकी, रेंगो। जहाँ दौड़ न सकी, चलो, जहाँ उड न सको, दौड़ो, जहाँ समूचे विश्व को अपने अन्दर रोक कर खड़ा न कर सकी, उड़ो।

जो व्यक्ति तुम्हारी अगुआई में चलने का प्रयास करते हुए ठोकर खाता है उसे केवल एक बार, दो बार, या सौ बार ही नहीं उठाओ। याद रखो कि तुम भी कभी बच्चे थे, और उसे तब तक उठाते रही जब तक वह ठोकर खाना बन्द न कर दे।

अपने हृदय और मन को क्षमा से पवित्र कर लो ताकि जो भी सपने तुम्हें आयें वे पवित्र हों।

जीवन एक ज्वर है जो हर मनुष्य की प्रवृत्ति या धुन के अनुसार भिन्न—भिन्न प्रकार का और भिन्न—भिन्न मात्रा में होता है, और इसमें मनुष्य सदा प्रलाप की अवस्था में रहता है। भाग्यशाली हैं वे मनुष्य जो दिव्य ज्ञान से प्राप्त होने वाली पवित्र स्वतन्त्रता के नशे में उन्मत्त रहते हैं।

मनुष्य के ज्वर का रूप —परिवर्तन किया जा सकता है, युद्ध के ज्वर को शान्ति के ज्वर में बदला जा सकता है और धन—संचय के ज्वर को प्रेम का संचय करने के ज्‍वर में। ऐसी है दिव्य ज्ञान की वह रसायन —विद्या जिसे तुम्हें उपयोग में लाना है और जिसकी तुम्हें शिक्षा देनी है।

जो मर रहे हैं उन्हें जीवन का उपदेश दो, जो जी रहे हैं उन्हें मृत्यु का। किन्तु जो आत्म—विजय के लिये तड़प रहे हैं, उन्हें दोनों से मुक्‍ति। का उपदेश दो।

वश में रखने और वश में होने में बड़ा अन्तर है। तुम उसी को वश में रखते हो जिससे तुम प्यार करते हो। जिससे तुम घृणा करते हो, उसके तुम वश में होते हो। वश में होने से बची।

समय और स्थान के विस्तार में एक से अधिक पृध्यियाँ अपने पथ पर घूम रही हैं। तुम्हारी पृथ्वी इस परिवार में सबसे छोटी है, और यह बड़ी हृष्ट—पुष्ट बालिका है।

एक निश्चल गति — कैसा विरोधाभास है। किन्तु परमात्मा में संसारों की गति ऐसी ही है।

यदि तुम जानना चाहते हो कि छोटी —बड़ी वस्तुएँ बराबर कैसे हो सकती हैं तो अपने हाथों की अँगुलियों पर दृष्टि डालों।

संयोग बुद्धिमानों के हाथ में एक खिलौना है; मूर्ख संयोग के हाथ में खिलौना होते हैं

कभी किसी चीज की शिकायत न करो। किसी चीज की शिकायत करना उसे अपने लिये अभिशाप बना लेना है। उसे भली प्रकार सहन कर लेना उसे उचित दण्ड देना है। किन्तु उसे समझ लेना उसे एक सच्चा सेवक बना लेना है।

प्राय: ऐसा होता है कि शिकारी लक्ष्य किसी हिरनी को बनाता है परन्तु लक्ष्य चूकने से मारा जाता है कोई खरगोश जिसकी उपस्थिति का उसे बिलकुल ज्ञान न था। ऐसी स्थिति में एक समझदार शिकारी कहेगा, ”मैंने वास्तव में खरगोश को ही लक्ष्य बनाया था, हिरनी को नहीं। और मैंने अपना शिकार मार लिया।’’

लक्ष्य अच्छी तरह से साधो। परिणाम जो भी हो अच्छा ही होगा। जो तुम्हारे पास आ जाता है, वह तुम्हारा है। जो आने में विलम्ब करता है, वह इस योग्य नहीं कि उसकी प्रतीक्षा की जाये। प्रतीक्षा उसे करने दो।

जिसका निशाना तुम साधते हो यदि वह तुम्हें निशाना बना ले तो तुम निशाना कभी नहीं चूकोगे। चूका हुआ निशाना सफल निशाना होता है। अपने हृदय को निराशा के प्रहार के सामने अभेद्य बना लो।

निराशा वह चील है जिसे दुर्बल हृदय जन्म देते हैं और विफल आशाओं के सड़े —गले मांस पर पालते हैं।

एक पूर्ण हुई आशा कई मृत—जात आशाओं को जन्म देती है। यदि तुम अपने हृदय को कब्रिस्तान नहीं बनाना चाहते तो सावधान रहो, आशा के साथ उसका विवाह न करो।

हो सकता है किसी मछली के दिये सौ अण्डों में से केवल एक ही में से बच्चा निकले। तो भी बाकी निन्यानवे व्यर्थ नहीं जाते। प्रकृति बहुत उदार है, और बहुत विवेक है उसकी विवेकहीनता में। तुम भी लोगों के हृदय और बुद्धि में अपने हृदय और बुद्धि को बोने में उसी प्रकार उदार और विवेकपूर्वक विवेकहीन बनो।

किसी भी परिश्रम के लिये पुरस्कार मत माँगो। जो अपने परिश्रम से प्यार करता है, उसका परिश्रम स्वय पर्याप्त पुरस्कार है।

सिरजनहार शब्द तथा पूर्ण सन्तुलन को याद रखो। जब तुम दिव्य ज्ञान के द्वारा यह सन्तुलन प्राप्त कर लोगे तभी तुम आत्म —विजेता बनोगे, और तभी तुम्हारे हाथ प्रभु के हाथों के साथ मिल कर कार्य करेंगे।

परमात्मा करे इस रात्रि की नीरवता और शान्ति का स्पन्दन तुम्हारे अन्दर तब तक होता रहे जब तक तुम उन्हें दिव्य ज्ञान की नीरवता और शान्ति में डुबा न दो।

”यही शिक्षा थी मेरी नूह को।

हु यही शिक्षा है मेरी तुम्हें।

 

 


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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–36)

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अध्याय—छत्तीस

नौका — दिवस तथा उसके धार्मिक अनुष्ठान

जीवित दीपक के बारे में बेसार के सुलतान का सन्देश

नरौंदा : जब मुर्शिद बेसार से लौटे तब से शमदाम उदास और अलग —अलग सा रहता था। किन्तु जब नौका —दिवस निकट आ गया तो वह उल्लास तथा उत्साह से भर गया और सभी जटिल तैयारियों का, छोटी से छोटी बातों तक का. नियन्त्रण उसने स्वयं सँभाल लिया।

अगर —बेल के दिवस की तरह नौका —दिवस को भी एक दिन से बढ़ा कर उल्लास —भरे आमोद—प्रमोद का पूरा सप्ताह बना लिया गया था जिसमें सब प्रकार की वस्तुओं तथा सामान का तेजी के साथ व्यापार होता था।

इस दिन के अनेक विशेष धार्मिक अनुष्ठानों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं : बलि चढ़ाये जाने वाले बैल का वध, बलि—कुण्ड की अग्नि को प्रज्वलित करना, और उस अग्नि से वेदी पर पुराने दीपक का स्थान लेने वाले नये दीपक को जलाना। यह पूरा कार्य मुखिया स्वयं बड़ी औपचारिकता के साथ करता है. जनसमूह उसका हाथ बटाता है और अन्त में हर व्यक्ति नये दीपक से एक मोमबत्ती जलाता है; ये मोमबत्तियाँ बाद में बुझा दी जाती हैं और दुष्ट आत्माओं के विरुद्ध तावीजों के रूप में सावधानी के साथ रख ली जाती हैं। धर्मक्रियाओं की समाप्ति पर मुखिया का भाषण देना एक प्रथा है।

अगर—बेल के दिवस पर आने वाले यात्रियों की तरह नौका —दिवस के यात्री भी कोई न कोई उपहार और भेंट साथ लिये बिना कम ही आते हैं। अधिकांश यात्री बैल, मेढ़े और बकरे लाते हैं जो प्रकट रूप से तो नौका द्वारा भेंट किये गये बैल के साथ बलि चढ़ाने के लिये होते हैं, पर वास्तव में नौका के पशुधन में वृद्धि करने के लिये लाये जाते हैं न कि मारे जाने के लिये।

नया दीपक आम तौर पर दूधिया पर्वत—माला के किसी राजा या धनी—मानी व्यक्ति के द्वारा भेंट किया जाता है। और क्योंकि यह भेंट प्रस्तुत करना बडे सम्मान और सौभाग्य की बात माना जाता है और क्योंकि इसके दावेदार भी बहुत होते हैं, यह प्रथा बना दी गई है कि हर आगामी वर्ष के लिये भेंटकर्ता का चुनाव उत्सव की समाप्ति पर परची डाल —कर कर लिया जाये। राजाओं तथा धनवानों में उत्साह और श्रद्धा की होड़ लग जाती है; प्रत्येक प्रयत्न करता है कि उसका दीपक मूल्य तथा बनावट और कारीगरी की सुन्दरता में पहले के सब दीपकों को मात कर दे।

इस वर्ष दीपक भेंट करने के लिये बेसार के सुलतान को चुना गया था। सब लोग नये बहुमूल्य दीपक को देखने की प्रतीक्षा में थे, क्योंकि सुलतान अपने धन को खुले हाथों बाँटने के लिये और साथ ही नौका के प्रति अपने उत्साह के लिये प्रसिद्ध था।

उत्सव के एक दिन पहले शमदाम ने हमें और मुर्शिद को अपने ख्य में बुलाया और हमसे अधिक मुर्शिद को सम्बोधित करते हुए उसने ये शब्द कहे :

शमदाम : कल एक पवित्र दिवस है, और हम सबको यही शोभा देता है कि उसकी पवित्रता को बनाये रखें।

पिछले झगड़े कुछ भी रहे हों, आओ उन्हें हम यहीं और अभी दफना दें। यह नहीं होना चाहिये कि नौका की प्रगति धीमी पड़ जाये, या हमारे उत्साह में कोई कमी आ जाये। और परमात्मा न करे कि नौका रुक ही जाये।

मैं इस नौका का मुखिया हूँ। इसके संचालन का कठिन दायित्व मुझ पर है। इसका मार्ग निश्चित करने का अधिकार मुझे प्राप्त है। ये कर्तव्य और अधिकार मुझे विरासत में मिले हैं; इसी प्रकार मेरी मृत्यु के बाद वे निश्चय ही तुममें से किसी को मिलेंगे। जैसे मैंने अपने अवसर की प्रतीक्षा की थी, तुम भी अपने अवसर की प्रतीक्षा करो।

यदि मैंने मीरदाद के साथ अन्याय किया है तो वह मेरे अन्याय को क्षमा कर दे।

मीरदाद : मीरदाद के साथ तुमने कोई अन्याय नहीं किया, लेकिन शमदाम के साथ तुमने घोर अन्याय किया है।

शमदाम : क्या शमदाम को शमदाम के साथ अन्याय करने की स्वतन्त्रता नहीं है?

मीरदाद : अन्याय करने की स्वतन्त्रता? कितने बेमेल हैं ये शब्द! क्योंकि अपने साथ अन्याय करना भी अपने अन्याय का दास बनना है, जब कि दूसरों के प्रति अन्याय करना एक दास का दास बन जाना है। ओह, भारी होता है अन्याय का बोझ।

शमदाम : यदि मैं अपने अन्याय का बोझ उठाने को तैयार हूँ तो इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है?

मीरदाद : क्या कोई बीमार दाँत मुँह से कहेगा कि यदि मैं अपनी पीड़ा सहने को तैयार हूँ तो इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है?

शमदाम : ओह, मुझे ऐसा ही रहने दो, बस ऐसा ही .रहने दो। अपना भारी हाथ मुझ से दूर हटा लो, और मत मारो मुझे चाबुक अपनी चतुर जिह्वा से। मुझे अपने बाकी दिन वैसे ही जी लेने दो जैसे मैं अब तक परिश्रम करते हुए जीता आया हूँ। जाओ, अपनी नौका कहीं और बना लो, पर इस नौका में हस्तक्षेप न करो। तुम्हारे और मेरे लिये, तथा तुम्हारी और मेरी नौकाओं के लिये यह संसार काफी बड़ा है। कल मेरा दिन है। तुम सब एक ओर खड़े रहो और मुझे अपना कार्य करने दो — क्योंकि मैं तुममें से किसी का भी हस्तक्षेप सहन नहीं करूँगा।

ध्यान रहे। शमदाम का प्रतिशोध उतना ही भयानक है जितना परमात्मा का। सावधान। सावधान।

नरौंदा : जब हम मुखिया के ख्य से बाहर निकले तो मुर्शिद ने धीरे —से सिर हिलाया और कहा

मीरदाद : शमदाम का हृदय अभी तक शमदाम का ही हृदय है।

नरौदा : अगले दिन प्रात: शमदाम बहुत प्रसन्न हुआ जब सब धार्मिक रीतियाँ अत्यन्त औपचारिकता के साथ निर्विध्न पूरी कर ली गईं; और वह क्षण आ गया जब नया दीपक भेंट किया और जलाया जाना था।

उस क्षण एक लम्बा और प्रभावशाली व्यक्ति, जो सफेद वस्त्र पहने था, धक्कमधक्का करते कठिनाई से अपना रास्ता बनाते हुए वेदी की ओर आता दिखाई दिया। तत्काल दबी आवाज में कानों कान बात फैल गई कि यह बेसार के सुलतान का निजी दूत है जो नया दीपक लेकर आया है, और सब लोग उस बहुमूल्य निधि की झलक पाने के लिये उत्सुक हो उठे।

औरों की तरह यह मानते हुए कि वह नये वर्ष की बहुमूल्य भेंट लेकर आया है शमदाम ने बहुत नीचे तक झुक कर उस दूत को प्रणाम किया। किन्तु उस व्यक्ति ने शमदाम को दबी आवाज से कुछ कह कर अपनी जेब से एक चर्म—पत्र निकाला और, यह स्पष्ट कर देने के बाद कि इसमें बेसार के सुलतान का सन्देश है जिसे लोगों तक खुद पहुँचाने का उसे आदेश दिया गया है, वह पत्र पढ़ने लगा :

बेसार के भूतपूर्व सुलतान की ओर से आज के दिन नौका में एकत्रित दूधिया पर्वत—माला के अपने सब साथी मनुष्यों के लिये शान्ति —कामना और प्यार।

नौका के प्रति मेरी गहरी श्रद्धा के आप सब प्रत्यक्ष साक्षी हैं। इस वर्ष का दीपक भेंट करने का सम्मान मुझे प्राप्त हुआ था, इसलिये मैंने बुद्धि या धन का उपयोग करने में कोई संकोच नहीं किया ताकि मेरा उपहार नौका के योग्य हो। और मेरे प्रयास पूर्णतया सफल रहे; क्योंकि मेरे वैभव और मेरे शिल्पकारों के कौशल से जो दीपक तैयार हुआ. वह सचमुच एक देखने योग्य चमत्कार था।

”लेकिन प्रभु मेरे प्रति क्षमाशील और कृपालु था, वह मेरी दरिद्रता का भेद नहीं खोलना चाहता था। क्योंकि उसने मुझे एक ऐसे दीपक के पास पहुँचा दिया जिसका प्रकाश चकाचौंध कर देता है और जिसे बुझाया नहीं जा सकता, जिसकी सुन्दरता अनुपम और निष्कलंक है। उस दीपक को देख कर मैं इस विचार से लज्जा में डूब गया कि मैने अपने दीपक की कभी कोई कीमत समझी थी। सो मैंने उसे कूड़े के ढेर पर फेंक दिया।

”यह वह जीवित दीपक है जिसे किसी के हाथों ने नहीं बनाया है। मैं तुम सबको हार्दिक सुझाव देता हूँ कि उसके दर्शन से अपने नेत्रों को तृप्त करो, उसी की ज्योति से अपनी मोमबत्तियों को जलाओ। देखो, वह तुम्हारी पहुँच में है। उसका नाम है ”मीरदाद’।

”प्रभु करे कि तुम उसके प्रकाश के योग्य बनी।’’

सन्देशवाहक ने अभी अन्तिम शब्द पढ़े ही थे कि शमदाम जो अब तक उसके पास ही खड़ा था, अचानक ऐसे गायब हो गया जैसे कोई भूत हो। मुर्शिद का नाम उस विशाल जनसमूह में ऐसे घूम गया जैसे तेज हवा का झोंका किसी कुँआरे जंगल में से गुजर जाता है। सभी उस जीवित दीपक को देखने के लिये उत्सुक हो उठे जिसका उल्लेख बेसार के सुलतान ने अपने सन्देश में इतने सम्मोहक ढंग से किया था।

शीघ्र ही मुर्शिद वेदी की सीढ़ियाँ चढ़ते और भीड़ के सामने आते दिखाई ‘दिये। और उसी क्षण वह लहराता जनसमूह ऐसे शान्त हो गया मानों वह एक अकेला मनुष्य हो — एकाग्र, उत्सुक और सचेत। तब निस्तकता को भंग करते हुए मुर्शिद बोले

 


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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–37)

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अध्याय—सैंतीस

 मुर्शिद लोगों को आग और खून की बाढ़ से सावधान करते हैं

बचने का मार्ग बताते हैं, और अपनी नौका को जल में उतारते हैं

मीरदाद : क्या चाहते हो तुम मीरदाद से? वेदी को सजाने के लिये सोने का रत्न —जटित दीपक? परन्तु मीरदाद न सुनार है, न जौहरी, आलोक—स्तम्भ और आश्रय वह भले ही हो।

या तुम तावीज चाहते हो बुरी नजर से बचने के लिये?

हां, तावीज मीरदाद के पास बहुत हैं, परन्तु किसी और ही प्रकार के।

या फिर तुम प्रकाश चाहते हो ताकि अपने —अपने पूर्व —निश्चित मार्ग पर सुरक्षित चल सकी? कितनी विचित्र बात है। सूर्य है तुम्हारे पास, चन्द्र है, तारे हैं, फिर भी तुम्हें ठोकर खाने का और गिरने का डर है? तो फिर तुम्हारी आंखें तुम्हारा मार्गदर्शक बनने के योग्य नहीं हैं, या तुम्हारी आंखों के लिये प्रकाश बहुत कम है। और तुममें से ऐसा कौन है जो अपनी आंखों के बिना काम चला सके? कौन है जो सूर्य पर कृपणता का दोष लगा सके?

वह आंख किस काम की जो पैर को तो अपने मार्ग पर ठोकर खाने से बचा ले, लेकिन जब हृदय राह टटोलने का व्यर्थ प्रयास कर रहा हो तो उसे ठोकरें खाने के लिये और अपना रक्त बहाने के लिये छोड़ दे?

वह प्रकाश किस काम का जो आंख को तो ज्यादा भर दे, लेकिन आत्मा को खाली और प्रकाशहीन छोड़ दे?

क्या चाहते हो तुम मीरदाद से? यदि देखने की क्षमता रखने वाला हृदय और प्रकाश में नहाई आत्मा चाहते हो और उनके लिये व्याकुल हो रहे हो, तो तुम्हारी व्याकुलता व्यर्थ नहीं है। क्योंकि मेरा सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा और हृदय से है।

इस दिन के लिये जो गौरवपूर्ण आत्म—विजय का दिन है, तुम उपहार —स्वरूप क्या लाये हो? बकरे, मेढ़े और बैल? कितनी तुच्छ कीमत चुकाना चाहते हो तुम मुक्ति के लिये। कितनी सस्ती होगी वह मुक्ति जिसे तुम खरीदना चाहते हो!

किसी बकरे पर विजय पा लेना मनुष्य के लिये कोई गौरव की बात नहीं। और गरीब बकरे के प्राण अपनी प्राण —रक्षा के लिये भेंट करना तो वास्तव में मनुष्य के लिये अत्यन्त लज्जा की बात है।

क्या किया है तुमने इस दिन की पवित्र भावना में योग देने के लिये, जो प्रकट विश्वास का और हर परख में सफल प्रेम का दिन है?

हां, निश्चय ही तुमने तरह —तरह की रस्में निभाई हैं, और अनेक प्रार्थनाएँ दोहराई हैं। किन्तु सन्देह तुम्हारी हर क्रिया में साथ रहा है, और घृणा तुम्हारी हर प्रार्थना पर ”तथास्तु” कहती रही है।

क्या तुम जल —प्रलय पर विजय का उत्सव मनाने के लिये नहीं आये हो? पर तुम एक ऐसी विजय का उत्सव क्यों मनाते हो जिसमें तुम पराजित हो गये? क्योंकि नूह ने अपने समुद्रों को पराजित करते समय तुम्हारे समुद्रों को पराजित नहीं किया था, केवल उन पर विजय प्राप्त करने का मार्ग बताया था। और देखो, तुम्हारे समुद्र उफन रहे हैं और तुम्हारे जहाज को डुबाने पर तुले हुए हैं। जब तक तुम अपने तूफान पर विजय नहीं पा लेते, तुम आज का दिन मनाने के, योग्य नहीं हो सकते।

तुममें से हरएक जल —प्रलय भी है, नौका भी और केवट भी। और जब तक वह दिन नहीं आ जाता जब तुम किसी नहाई—सँवरी आंरी धरती पर लगर डाल लो, अपनी विजय का उत्सव मनाने की जल्दी न करना।

तुम जानना चाहोगे कि मनुष्य अपने ही लिये बाढ़ कैसे बन गया।

जब पवित्र प्रभु —इच्छा ने आदम को चीर कर दो कर दिया ताकि वह अपने आप को पहचाने और उस एक के साथ अपनी एकता का अनुभव कर सके, तब वह एक पुरुष और एक स्त्री बन गया — एक नर —आदम और एक मादा —आदम। तभी ड़ब गया वह कामनाओं की बाढ़ में जो द्वैत से उत्पन्न होती हैं — कामनाएँ इतनी बहुसंख्य, इतनी रंगबिरंगी, इतनी विशाल, इतनी कलुषित और इतनी उर्वर कि मनुष्य आज तक उनकी लहरों में बेसहारा वह रहा है। लहरें कभी उसे ऊँचाई के शिखर तक उठा देती हैं तो कभी गहराइयों तक खींच ले जाती हैं। क्योंकि जिस प्रकार उसका जोड़ा बना हुआ है, उसकी कामनाओं के भी जोड़े बने हुए हैं। और यद्यपि दो परस्पर विरोधी चीजें वास्तव में एक—दूसरे की पूरक होती हैं, फिर भी अज्ञानी लोगों को वे आपस में लड़ती —झगड़ती प्रतीत होती हैं और क्षण भर के युद्ध—विराम की घोषणा करने के लिये भी तैयार नहीं जान पड़ती।

यही है वह बाढ़? जिससे मनुष्य को अपने अत्यन्त लम्बे, कठिन द्वैतपूर्ण जीवन में प्रतिक्षण, प्रतिदिन संघर्ष करना पड़ता है।

यही है वह बाढ़ जिसकी जोरदार बौछार हृदय से फूट निकलती है और तुम्हें अपनी प्रबल धारा में बहा ले जाती है।

यही है वह बाढ़ जिसका इन्द्रधनुष तब तक तुम्हारे आकाश को शोभित नहीं करेगा जब तक तुम्हारा आकाश तुम्हारी धरती के साथ न जुड़ जाये और दोनों एक न हो जायें।

जब से आदम ने अपने आप को हौवा में बोया है. मनुष्य बवण्डरों और बाढ़ों की फसलें काटते चले आ रहे हैं। जब एक प्रकार के मनोवेगों का प्रभाव अधिक हो जाता है, तब मनुष्यों के जीवन का सन्तुलन बिगड़ जाता है, और तब मनुष्य एक या दूसरी बाढ़ की लपेट में आ जाते हैं ताकि सन्तुलन पुन: स्थापित हो सके। और सन्तुलन तब तक स्थापित नहीं होगा जब तक मनुष्य अपनी सब कामनाओं को प्रेम की परात में गूँध कर उनसे दिव्य ज्ञान की रोटी पकाना नहीं सीख लेता। नूह के समय धरती जिस बाढ़ की लपेट में आई थी, वह मानव—जाति द्वारा झेली गई पहली बाढ़ नहीं थी, और न ही अन्तिम। उसने तो विध्वंसकारी बाढ़ों के लम्बे सिलसिले में मात्र एक ऊँचा चिह्न अंकित किया था। अग्नि और रक्त की जो बाढ़ धरती पर आने वाली है वह निश्चय ही उस चिह्न को नीचे छोड़ देगी।

अफसोस। तुम व्यस्त हो बोझ पर बोझ लादने में, व्यस्त हो अपने रक्त में दुःखों से भरपूर भोगों का नशा घोलने में, व्यस्त हो कहीं न ले जाने वाले मार्गों के मान —चित्र बनाने में, व्यस्त हो अन्दर झाँकने का कष्ट किये बिना जीवन के गोदामों के पिछले अहातों से बीज चुनने में। तुम ड़बोगे क्यों नहीं, मेरे लावारिस बच्चो?

तुम पैदा हुए थे ऊँची उड़ाने भरने के लिये, असीम आकाश में विचरने के लिये, ब्रह्माण्ड को अपने डैनों में समेट लेने के लिये। परन्तु तुमने अपने आप को उन परम्पराओं और विश्वासों के दरबों में बन्द कर लिया है जो तुम्हारे, परों को काटते हैं, तुम्हारी दृष्टि को क्षीण करते हैं और तुम्हारी नसों को निर्जीव कर देते हैं। तुम आने वाली बाढ़ पर विजय कैसे पाओगे, मेरे लावारिस बच्चो?

तुम प्रभु के प्रतिबिम्ब और समरूप थे, किन्तु तुमने उस समानता और समरूपता को लगभग मिटा दिया है। अपने ईश्वरीय आकार को तुमने इतना बौना कर दिया है कि अब तुम खुद उसे नहीं पहचानते। अपने दिव्य मुख —मण्डल पर तुमने कीचड़ पोत लिया है, और उस पर कितने ही मसखरे मुखौटे लगा लिये हैं।

जिस बाढ़ के द्वार तुमने स्वयं खोले हैं उसका सामना तुम कैसे करोगे, मेरे लावारिस बच्चो?

यदि तुम मीरदाद की बात पर ध्यान नहीं दोगे तो धरती तुम्हारे लिये कभी भी एक कब्र से अधिक कुछ नहीं होगी, न ही आकाश एक कफन से अधिक कुछ होगा। जब कि एक का निर्माण तुम्हारा पालना बनने के लिये किया गया था, दूसरे का तुम्हारा सिंहासन बनने के लिये। मैं तुमसे फिर कहता हूँ कि तुम ही बाढ़ हो, नौका हो और केवट भी। तुम्हारे मनोवेग बाढ़ हैं। तुम्हारा शरीर नौका है। तुम्हारा विश्वास केवट है। पर सबमें व्याप्त है तुम्हारी संकल्प —शक्ति और उनके ऊपर है तुम्हारे दिव्य ज्ञान की छत्र —छाया।

यह निश्चित कर लो कि तुम्हारी नौका में पानी न रिस सके और वह समुद्र—यात्रा के योग्य हो, किन्तु इसी में अपना जीवन न गँवा देना, अन्यथा यात्रा आरम्भ करने का समय कभी नहीं आयेगा, और अन्त में तुम वहीं पड़े —पड़े अपनी नौका समेत सड—गल कर ड़ब जाओगे। यह भी निश्चित कर लेना कि तुम्हारा केवट योग्य और धैर्यवान हो। पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम बाढ़ से स्रोतों का पता लगाना सीख लो. और उन्हें एक—एक करके सुखा देने के लिये अपनी संकल्प —शक्ति को साध लो। तब निश्चय ही बाढ़ थमेगी और अन्त में अपने आप समाप्त हो जायेगी।

जला दो हर मनोवेग को, इससे पहले कि वह तुम्हें जला दे।

किसी मनोवेग के मुख में यह देखने के लिये मत झाँकी कि उसके दाँत जहर से भरे हैं या शहद से। मधु—मक्खी जो फूलों का अमृत इकट्ठा करती है उनका विष भी जमा कर लेती है।

न ही किसी मनोवेग के चेहरे को यह पता लगाने के लिये जाँचो कि वह सुन्दर है या कुरूप। साँप का चेहरा हौवा को परमात्मा के चेहरे से अधिक सुन्दर दिखाई दिया था।

न ही किसी मनोवेग के भार का ठीक पता लगाने के लिये उसे तराजू पर रखो। भार में मुकुट की तुलना पहाड़ से कौन करेगा? परन्तु वास्तव में मुकुट पहाड़ से कहीं अधिक भारी होता है।

और ऐसे मनोवेग भी हैं जो दिन में तो दिव्य गीत गाते हैं, परन्तु रात के काले परदे के पीछे क्रोध से दाँत पीसते हैं, काटते हैं, और डक मारते हैं। खुशी से फूले तथा उसके बोझ के नीचे दबे ऐसे मनोवेग भी हैं जो तेजी से शोक के कंकालों में बदल जाते हैं। कोमल दृष्टि तथा विनीत आचरण वाले ऐसे मनोवेग भी हैं जो अचानक भेड़ियों से भी अधिक भूखे, लकड़बग्घों से भी अधिक मक्कार बन जाते हैं। ऐसे मनोवेग भी हैं जो गुलाब से भी अधिक सुगंध देते हैं जब तक उन्हें छेड़ा न जाये, लेकिन उन्हें छूते और तोड़ते ही उनसे सड़े —गले मास तथा कबरबिज्यू से भी अधिक घिनौनी दुर्गन्ध आने लगती है।

अपने मनोवेगों को अच्छे और बुरे में मत बाँटो, क्योंकि यह एक व्यर्थ का परिश्रम होगा। अच्छाई बुराई के बिना टिक नहीं सकती, और बुराई अच्छाई के अन्दर ही जड पकड़ सकती है।

एक ही है नेकी और बदी का वृक्ष। एक ही है उसका फल भी। तुम नेकी का स्वाद नहीं ले सकते जब तक साथ ही बदी को भी न चख लो। जिस चूची से तुम जीवन का दूध पीते हो उसी से मृत्यु का दूध भी निकलता है। जो हाथ तुम्हें पालने में झुलाता है वही हाथ तुम्हारी कब्र भी खोदता है।

द्वैत की यही प्रकृति है, मेरे लावारिस बच्चो। इतने हठी और अहंकारी न हो जाना कि इसे बदलने का प्रयत्न करो। न ही ऐसी मूर्खता करना कि इसे दो आधे —आधे भागों में बाँटने का प्रयत्न करो ताकि अपनी पसन्द के आधे भाग को रख लो और दूसरे भाग को फेंक दो।

क्या तुम द्वैत के स्वामी बनना चाहते हो? तो इसे न अच्छा समझो न बुरा।

क्या जीवन और मृत्यु का दूध तुम्हारे मुँह में खट्टा नहीं हो गया है? क्या समय नहीं आ गया है कि तुम एक ऐसी चीज़ से आचमन करो जो न अच्छी है न बुरी, क्योंकि वह दोनों से श्रेष्ठ है? क्या समय नहीं आ गया है कि तुम ऐसे फल की कामना करो जो न मीठा है न कडुवा, क्योंकि वह नेकी और बदी के वृक्ष पर नहीं लगा है?

क्या तुम द्वैत के चंगुल से मुक्त होना चाहते हो? तो उसके वृक्ष को — नेकी और बदी के वृक्ष को — अपने हृदय में से उखाड़ फेंकी। हां, उसे जड़ और शाखाओं सहित उखाड़ फेंकी ताकि दिव्य जीवन का बीज, पवित्र ज्ञान का बीज जो समस्त नेकी और बदी से परे है, इसकी जगह अंकुरित और पल्लवित हो सके।

तुम कहते हो मीरदाद का सन्देश निरानन्द है। यह हमें आने वाले कल की प्रतीक्षा के आनन्द से वंचित रखता है। यह हमें जीवन में गुंगे, उदासीन दर्शक बना देता है. जब कि हम जोशीले प्रतियोगी बनना चाहते हैं। क्योंकि बड़ी मिठास है प्रतियोगिता में, दाँव पर चाहे कुछ भी लगा हो। और मधुर है शिकार का जोखिम, शिकार चाहे एक छलावे से अधिक कुछ न हो।

जब तुम मन में इस प्रकार सोचते हो तब भूल जाते हो कि तुम्हारा मन तुम्हारा नहीं है जब तक उसकी बागडोर अच्छे और बुरे मनोवेगों के हाथ में है।

अपने मन का स्वामी बनने के लिये अपने अच्छे—बुरे सब मनोवेगों को प्रेम की एकमात्र परात में गूँध लो ताकि तुम उन्हें दिव्य ज्ञान के तन्दूर में पका सकी जहाँ द्वैत प्रभु में विलीन होकर एक हो जाता है।

संसार को जो पहले ही अति दुःखी है और दुःख देना अब बन्द कर दो।

तुम उस कुएँ से निर्मल जल निकालने की आशा कैसे करते हो जिसमें तुम निरन्तर हर प्रकार का कूड़ा —करकट और कीचड़ फेंकते रहते हो? किसी तालाब का जल स्वच्छ और निश्चल कैसे रहेगा यदि तुम हर क्षण उसे हलोरते रहोगे?

दुःख में डूबे संसार से शान्ति की रकम मत माँगो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें अदायगी दु:ख के रूप में हो।

घृणा में डूबे संसार से प्रेम की रकम मत माँगो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें अदायगी घृणा के रूप में हो।

दम तोड़ रहे ससार से जीवन की रकम मत माँगो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें अदायगी मृत्यु के रूप में हो। ससार अपनी मुद्रा के सिवाय और किसी मुद्रा में तुम्हें अदायगी नहीं कर सकता, और उसकी मुद्रा के दो पहलू हैं।

जो कुछ माँगना है अपने ईश्वरीय अहं से माँगो जो शान्तिपूर्ण ज्ञान से इतना समृद्ध है।

ससार से कोई ऐसी माँग मत करो जो तुम अपने आप से नहीं करते। न ही किसी मनुष्य से कोई ऐसी माँग करो जो तुम नहीं चाहते कि वह तुमसे करे।

और वह कौन —सी वस्तु है जो यदि सम्पूर्ण सँसार द्वारा तुम्हें प्रदान कर दी जाये तो तुम्हारी अपनी बाढ़ पर विजय पाने और ऐसी धरती पर पहुँचने में तुम्हारी सहायता कर सके जो दुःख और मृत्यु से नाता तोड़ चुकी है और आकाश से जुड़ कर स्थायी प्रेम और ज्ञान की शान्ति प्राप्त कर चुकी है? क्या वह वस्तु सम्पत्ति है, सत्ता है, प्रसिद्धि है? क्या वह अधिकार है, प्रतिष्ठा है. सम्मान है? क्या वह सफल हुई महत्त्वाकांक्षा है, पूर्ण हुई आशा है? किन्तु इनमें से तो हरएक केवल जल का एक स्रोत है जो तुम्हारी बाढ़ का पोषण करता है। दूर कर दो इन्हें, मेरे लावारिस बच्चो, दूर, बहुत दूर।

स्थिर रहो ताकि तुम उलझनों से मुक्‍ति रह सकी। उलझनों से मुक्त रहो ताकि तुम ससार को स्पष्ट देख सको।

जब तुम संसार के रूप को स्पष्ट देख लोगे, तब तुम्हें पता चलेगा कि जो स्वतन्त्रता, शान्ति तथा जीवन तुम उससे चाहते हो, वह सब तुम्हें देने में वह कितना असहाय और असमर्थ है।

संसार तुम्हें दे सकता है केवल एक शरीर — द्वैतपूर्ण जीवन के सागर में यात्रा के लिये एक नौका। और शरीर तुम्हें ससार के किसी व्यक्ति से नहीं मिला है। तुम्हें शरीर देना और उसे जीवित रखना ब्रह्माण्ड का कर्त्तव्य है। उसे तूफानों का सामना करने के लिये अच्छी हालत में, लहरों के प्रहार सहने के योग्य रखना, उतना ही सुदृढ़ और सुरक्षित रखना जितनी नूह की नौका थी, उसकी पाशविक वृत्तियों को बाँध कर नियन्त्रण में रखना, जैसे नूह ने अपनी नौका में जानवरों को बाँध कर पूर्ण नियन्त्रण में रखा था — यह तुम्हारा कर्तव्य है, केवल तुम्हारा।

आशा से दीप्त तथा पूर्णतया सजग विश्वास रखना जिसको पतवार जमाई जा सके, प्रभु—इच्छा में अटल विश्वास रखना जो अदन के आनन्दपूर्ण प्रवेश —द्वार पर पहुँचने के लिये तुम्हारा मार्गदर्शक हो — यह भी तुम्हारा काम है, केवल तुम्हारा।

निर्भय संकल्प को, आत्म —विजय प्राप्त करने तथा दिव्य—ज्ञान के जीवन —वृक्ष का फल चखने के संकल्प को अपना केवट बनाना — यह भी तुम्हारा काम है, केवल तुम्हारा।

मनुष्य की मंजिल परमात्मा है। उससे नीचे की कोई मंजिल इस योग्य नहीं कि मनुष्य उसके लिये कष्ट उठाये। क्या हुआ यदि रास्ता लम्बा है और उस पर झंझा और झक्कड़ का राज है? क्या पवित्र हृदय तथा पैनी दृष्टि से युक्त विश्वास झंझा को परास्त नहीं कर देगा और झक्कड़ पर विजय नहीं पा लेगा?

जल्दी करो. क्योंकि आवारगी में बिताया समय पीड़ा —ग्रस्त समय होता है। और मनुष्य, सबसे अधिक व्यस्त मनुष्य भी, वास्तव में आवारा ही होते हैं।

नौका के निर्माता हो तुम सब, और साथ ही नाविक भी हो। यही कार्य सौंपा गया है तुम्हें अनादि कौल से ताकि तुम उस असीम सागर की यात्रा करो जो तुम स्वय हो, और उसमें खोज लो अस्तित्व के उस मूक संगीत को जिसका नाम परमात्मा है।

सभी वस्तुओं का एक केन्द्र होना जरूरी है जहाँ से वे फैल सकें और जिसके चारों ओर वे घूम सकें।

यदि जीवन — मनुष्य का जीवन — एक वृत्त है और परमात्मा की खोज उसका केन्द्र, तो तुम्हारे हर कार्य का केन्द्र परमात्मा की खोज ही होना चाहिये, नहीं तो तुम्हारा हर कार्य व्यर्थ होगा, चाहे वह गहरे लाल पसीने से तर —बतर ही क्यों न हो।

पर क्योंकि मनुष्य को उसकी मंजिल तक ले जाना मीरदाद का काम है. देखो! मीरदाद ने तुम्हारे लिये एक अलौकिक नौका तैयार की है, जिसका निर्माण उत्तम है और जिसका संचालन अत्यन्त कौशलपूर्ण। यह दयार से बनी और तारकोल से पुती नहीं है; और न ही यह कौओं, छिपकलियों और लकड़बग्घों के लिये बनी है। इसका निर्माण दिव्य ज्ञान से हुआ है जो निश्चय ही उन सबके लिये आलोक —स्तम्भ होगा जो आत्म—विजय के लिये तड़पते हैं। इसका सन्तुलन —भार शराब के मटके

और कोल्हू नहीं, बल्कि हर पदार्थ और हर प्राणी के प्रति प्रेम से भरपूर हृदय होंगे। न ही इसमें चल या अचल सम्पत्ति, चाँदी, सोना, रत्न आदि लदे होंगे, बल्कि इसमें होंगी अपनी परछाइयों से मुक्त हुई तथा दिव्य ज्ञान के प्रकाश और स्वतन्त्रता से सुशोभित आत्माएँ।

जो धरती के साथ अपना नाता तोडना चाहते हैं, जो एकत्व प्राप्त करना चाहते हैं, जो आत्म—विजय के लिये तड़प रहे हैं, वे आयें और नौका पर सवार हो जायें।

नौका तैयार है।

वायु अनुकूल है।

सागर शान्त— है।

यही शिक्षा थी मेरी नूह को।

यही शिक्षा है मेरी तुम्हें।

नरौंदा : जब मुर्शिद चुप हो गये तो एकत्रित लोगों में, जो अब तक खामोश बैठे थे, एक सरसराहट फैल गई मानों जब तक मुर्शिद बोल रहे थे सब अपनी साँस रोके हुए थे।

वेदी की सीढ़ियों से उतरने से पहले मुर्शिद ने सातों साथियों को बुलाया. रबाब मँगवाया, और उनके साथ नई नौका का गीत गाने लगे। जनसमूह ने भी धुन को पकड़ लिया, और एक विशाल तरंग की तरह उसकी मधुर टेक आकाश को छूने लगी

तैर, तैर, री नौका मेरी

प्रभु तेरा कप्तान।

 

यहाँ समाप्त होता है पुस्तक का वह अंश

जिसे ससार के लिये प्रकाशित करने की

मुझे अनुमति है।

जहाँ तक शेष अश का सम्बन्ध है,

उसका समय अभी

नहीं आया है।

मि. न.

 

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–07)

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मन रे, करू संतोष सनेही—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 18 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

मन रे, करु संतोष सनेही।  

तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की, दुख पावै नहिं देही।।

मिल्या सुत्याग माहिंजे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै।

तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोइ पावै।।

बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै, और पताल न जाई।

ऐसे जानि मनोरथ मेटहु, समझि सुखी रहु भाई।।

रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि विस्वासा।

जन रज्जब यूँ जानि भजन करु, गोबिंद है घर वासा।।

 

हरिनाम मैं नहिं लीनां।

पाँच सखी पाँचू दिसि खेलै, मन मायारस भीनां।।

कौन कुमति लागी मन मेरे, प्रेम अकारज कीनां।

देख्या उरझि सुरझि नहिं जान्यूँ, विषम विषयरस पीनां।।

कहिए कथा कौन विधी अपनी, बहु बैरनि मन खीनां।

आतमराम सनेही अपने, सो सुपिनै नहिं चीनां।।

आन अनेक आनि उर अंतरि, पग पग भया अधीनां।

जन रज्जब क्यूँ मिलै सतगुरु, जगत माहिं जी दीनां।।

 

नुकरई झाँझनों झन—झनन—झनन दूध से पाँवों को गुदगुदाती है

गुनगुनाती रहें काँच की चूड़ियाँ, हर कलाई नए गीत गाती रहे

हर जवानी सदा मुस्कराती रहे

 

गाँव से दूर खेतों के उस पार वह साफ शफ्फाक चश्मा उबलता रहे

शोख पनिहारियों का हसीं जमघटा गागरें लेके राहों पै चलता रहे

हुस्न मंजर के साँचे में ढलता रहे

 

गर्मियों की कड़कती हुई धूप में, झूमकर पेड़ साए लुटाते रहें

ठंडी—ठंडी हवाओं के पाले हुए, मस्त झोंके शराबें पिलाते रहें

नींद बनकर नज़र में समाते रहे

चौदवीं रात के चाँद की चाँदनी खेतों पर हमेशा बिखरती रहे

ऊँघते रहगुजारों में फैले हुए हर उजाले की रंगत निखरती रहे

 

नर्म ख्वाबों की गंगा उभरती रहे

ईद का दिन यूँ ही रोज आता रहे, ढोलकों पर यूँ ही थाप पड़ती रहे

मनचली लड़कियों में हँसी—खेलपर नित नए ढब से बनती—बिगड़ती रहे

कोई माने तो कोई अकड़ती रहे

शहर से लौटकर आनेवाले जवाँ, गाँव में जौक—दर—जौक आते रहें

अपनी—अपनी दुल्हन के लिए नित नयी सोने—चाँदी की सौगात लाते रहें

जिंदगी के महल जगमगाते रहें

 

नुकरई झांझनों झन—झनन—झनन दूध से पाँवों को गुदगुदाती है

गुनगुनाती रहें काँच की चूड़ियाँ, हर कलाई नए गीत गाती रहे

हर जवानी सदा मुस्कराती रहे

 

ऐसा मनुष्य चाहता है, पर होता नहीं। ऐसा मनुष्य चाहता है, पर हो नहीं सकता। जिंदगी मौत के बीच है। जिंदगी का छोटा—सा दीया तूफानों के बीच टिमटिमा रहा है। यहाँ न तो थिरता हो सकती है, न आनंद हो सकता है; यह असंभव है। मन आकांक्षा करता है, मन बड़े सपने सँजोता है, लेकिन सब सपने टूट जाते हैं। सपने टूटने को ही बनते हैं। प्यारे सपनों के गीत गाते रहो, गीतों से मन को उलझाते रहो, गीतों से मन को समझाते रहो, सांत्वना के खूब—खूब जाल रच लो, मगर मौत आती है और सब तोड़ जाती है।

दो ही तरह के लोग हैं पृथ्वी पर। एक, जो मौत को झुठलाते रहते हैं और सपनों में अपने को उलझाते रहते हैं। दूसरे, जो मौत को देख लेते भर—ऑंख कि आती है, आती ही होगी, आ ही गयी है, और मौत की उस चोट में ही सपनों से जाग जाते हैं। सपनों से जो जाग जाए, वही सत्य को अनुभव कर पाता है। सपनों में जो सोया रहे, वह अंधे की भाँति जीता है।

 

नाच रहे हैं अंधे इंसाँ

पैरों में जंजीरें डाले

जंजीरें टूटतीं नहीं तुम्हारे नाच से। जंजीरें टूटती हैं ऑंख से। और जंजीरें टूट जाएँ तो फिर एक और ही तरह का नाच है। जंजीरें टूट जाएँ तो फिर तुम्हारे भीतर परमात्मा नाचता है, तुम नहीं। और जंजीर एक ही है—तुम्हारी ऑंख का बंद होना जंजीर है। ऑंख खोलो।

आज के सूत्र ऑंख खोलने की दिशा में बड़े मूल्य के उपाय बन सकते हैं। एक—एक शब्द को हृदय में लेना।

मन रे, करु संतोष सनेही।

सीधे—सादे शब्द हैं। सीधे—सादे आदमी रज्जब के हैं। किसी पंडित के नहीं, किसी शब्दों के धनी के नहीं, आत्मा के धनी के हैं। और खयाल रखना, आत्मा के धनी सीधे—साफ शब्दों में बोलते हैं। शब्दों में रस नहीं है उन्हें; जो कहना है, उसके लिए शब्दों का केवल उपयोग कर लेते हैं। रज्जब कोई कवि नहीं है, यद्यपि कविता की है और प्यारी की है। लेकिन गौण है वह बात। कवि तो केवल शब्दों को जमाता है। कवि के पास देने को शायद ही कुछ है। लेकिन शब्दों का एक तिलिस्म खड़ा करता है। शब्दों का मालिक है। शब्दों का कुशल कलाकार है। शब्दों में खूब रंग भरता है, शब्द मनमोहक हो जाते हैं। लेकिन कवि की जिंदगी तो सूनी—की—सूनी होती है। कवि की जिंदगी में तो कहीं फूल नहीं खिलते। उसके फूल सिर्फ कविताओं में खिलते हैं।

रज्जब कवि नहीं हैं। रज्जब तो ऑंख वाले आदमी हैं। कविता तो गौण है, मस्ती से निकल आयी है, सहज निकल आयी है। उसे बनाया भी नहीं है। इसलिए शब्द तो सीधे—सादे होंगे। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि सीधे—सादे शब्दों के कारण ही हम चूक जाते हैं। लगता है यह तो हम समझ ही गए; अब इसमें क्या बात समझाने की!

मन रे, करु संतोष सनेही!

यह तो हम दोहराते हैं खुद ही—संतोषी सदा सुखी। यह तो हम सब जानते ही हैं। मगर जानते कहाँ हैं? सुना है, पकड़ भी लिया है, तोतों की तरह दोहरा भी लेते हैं, मगर जानते कहाँ हैं? यह हमारे अनुभव की संपदा नहीं है, यह हमारा धन नहीं है—यही हमारा धन होता तो हमारे जीवन की रौनक और होती, गरिमा और होती। जंजीरें न होतीं, नृत्य होता। ऑंखों में ऍ?धेरा न होता, रोशनी नाचती। यह सारा आकाश तुम्हारा ऑंगन होता। यह सारा अस्तित्व अपने रहस्यों को तुम पर लुटाता। लेकिन वह तो नहीं हो रहा है। टटोल रहे हैं, ऍ?धेरे की तरह, अंधी गुफाओं में। जिनको हम जीवन कह रहे हैं, अंधे संबंधों में—जिनको हम प्रेम कहते हैं—टटोल रहे हैं, तलाश चल रही है; हाथ कभी कुछ लगता नहीं, फिर भी टटोल जारी रहती है। हाथ कभी कुछ लगेगा भी नहीं। लेकिन हाथ न भी लगे तो भी क्या करें, टटोलना तो जारी रखना ही पड़ेगा, एक मजबूरी है। टटोलने में कम—से—कम एक आशा बनी रहती है कि आज नहीं तो कल मिलेगा, कल नहीं तो परसों मिलेगा—उलझे तो रहते हैं कम—से—कम, व्यस्तता तो बनी रहती है।

तुम्हारा सारा जीवन का उपक्रम तुम्हारी तथाकथित व्यस्तता का ही एक आयोजन है। आदमी व्यस्त रहता है तो भूला रहता है आदमी खाली होता है तो याद आने लगती है कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैं यहाँ क्यों हूँ? किसलिए हूँ? मेरा गंतव्य क्या है? मुझे कहाँ होना था? मैं किस कीचड़ में पड़ गया? कमल बनने आया था और कीचड़ में ही दबा रह गया हूँ। झकझोरने वाले प्रश्न उठने लगते हैं। उनसे बचने का एक ही उपाय है—उलझा लो अपने को, कहीं भी काम में लगा दो अपने को। काम से एक झूठी प्रतीति बनी रहती है—कुछ हो रहा है। कुछ नहीं हो रहा है। कुछ न कभी हुआ है यहाँ, न कुछ कभी यहाँ होगा। मगर होने की भ्राँति बनी रहती है। कर तो रहे हैं, दौड़ तो रहे हैं, भाग तो रहे हैं, लड़ तो रहे हैं और क्या करें? सब तो दावँ पर लगा रहे हैं। आज नहीं कल, कल नहीं परसों होगा। देर है, अंधेर तो नहीं है। ऐसे अपने को समझाते हैं। और सब प्यारे शब्द हमें याद हो गए हैं। उन प्यारे शब्दों को हमने याद करके ही मार डाला है, उनकी हत्या कर दी है।

समझो—मन रे, करु संतोष सनेही।

रज्जब कहते हैं—दोस्त तो दुनिया में एक है, प्रेमी तो दुनिया में एक है, अगर प्रेम ही करना हो तो उसीसे कर लेना, उसका नाम संतोष है। संतोष से प्रेम कर लेंगे तो क्या होगा? हमने तो नाते असंतोष से जोड़े हैं। हमने तो विवाह असंतोष से रचाया है। हमने तो हाथ में हाथ डाल दिए हैं असंतोष के। फिर तड़फ रहे हैं, फिर रो रहे हैं, फिर गिड़गिड़ा रहे हैं। मगर दोस्ती नहीं छोड़ते। जितना गिड़गिड़ाते हैं, उतनी ही दोस्ती मजबूत करते चले जाते हैं। इस सीधे से सत्य को देखो—असंतोष से दोस्ती जो बनाएगा, वह कैसे सुखी हो सकता है? इतना सीधा—सा गणित भी दिखायी नहीं पड़ता! असंतोष की कला क्या है? जो है, असंतोष कहता है, उसमें क्या रखा है! असंतोष कहता है—जो तुम्हारे पास नहीं है, उसमें सार है। जो तुम्हारे पास है, निस्सार है। इसलिए जो नहीं है उसे पाने में लगो, तो मजा पाओगे, तो आनंद पाओगे।

लेकिन, यह सूत्र तो ऐसा हुआ—आत्मघाती सूत्र है यह—जैसे ही तुम उसे पा लोगे वह व्यर्थ हो जाएगा।

असंतोष का तर्क समझो। असंतोष की व्यवस्था समझो। असंतोष की व्यवस्था यह है कि जो मिल गया, वही व्यर्थ हो जाता है। सार्थकता तभी तक मालूम होती है जब तक मिले नहीं। जिस स्त्री को तुम चाहते थे, जब तक मिले न तब तक बड़ी सुंदर। मिल जाए, सब सौंदर्य तिरोहित। जिस मकान को तुम चाहते थे—कितनी रात सोए नहीं थे! कैसे—कैसे सपने सजाए थे!—फिर मिल गया और बात व्यर्थ हो गयी। जो भी हाथ में आ जाता है, हाथ में आते ही से व्यर्थ हो जाता है। इस असंतोष को तुम दोस्त कहोगे? यही तो तुम्हारा दुश्मन है। यह तुम्हें दौड़ाता है—सिर्फ दौड़ाता है—और जब भी कुछ मिल जाता है, मिलते ही उसे व्यर्थ कर देता है। फिर दौड़ाने लगता है। यह दौड़ाता रहा है जन्मों—जन्मों से तुम्हें। वह जो चौरासी कोटियों में तुम दौड़े हो, असंतोष की दोस्ती के कारण दौड़े हो। दस हजार रुपए पास में हैं—क्या है मेरे पास, कुछ भी तो नहीं! लाख हो जाएँ तो कुछ होगा! लाख होते ही तुम्हारा असंतोष—तुम्हारा मित्र, तुम्हारा साझीदार—कहेगा, लाख में क्या होता है? ज़रा चारों तरफ देखो, लोगों ने दस—दस लाख बना लिए हैं। अरे मूढ़, तू लाख में ही बैठा है! अब लाख की कीमत ही क्या रही? अब गए दिन लाखों के, अब दिन करोड़ों के हैं। करोड़ बना! तो कुछ होगा।

तुम सोचते हो करोड़ हो जाएगा तुम्हारे पास तो कुछ होगा? कुछ भी नहीं होगा। यही असंतोष तुम्हारा साथी वहाँ भी मौजूद रहेगा। करोड़ होते—होते—होते—होते काफी समय बीतेगा, दौड़ होगी, जीवन गँवाया जाएगा, और जब पहुँच जाओगे, तो यही असंतोष कहेगा कि करोड़ भी कोई बात है! अरबपति हैं दुनिया में! आगे देख! ठहरना नहीं, अरबपति होना है! और ऐसे ही दौड़ाता रहेगा। जो नहीं है, उसमें रस पैदा करवाता रहेगा। और जो है, उसमें विरस पैदा करवा देगा। जो है, वह होने के कारण ही अर्थहीन है। और जो नहीं है, वह न होने के कारण ही सार्थक है। तभी तो दौड़ जारी रहती है। नहीं तो दौड़ ही मर जाए।

संतोष से जिसने दोस्ती बाँधी, उसकी दौड़ ही गयी। उसकी आपाधापी समाप्त हो जाती है। संतोष का सूत्र उलटा है। संतोष कहता है—जो है, वही सार्थक है। जो नहीं है, उसमें क्या रखा है! जो अपने पास है, वही धन्यभाग है। और जो अपने पास नहीं है, उसमें कुछ भी नहीं है। संतोष से जिसने दोस्ती बाँध ली, वह अगर सुखी न होगा तो क्या होगा? और असंतोष से जिसने दोस्ती बाँधी, अगर वह दुःखी न होगा तो क्या होगा? असंतोष की सहज निष्पत्ति दुःख है। अगर तुम मेरी बात ठीक से समझो तो असंतोष में जीनेवाला मन ही नरक में जीता है। संतोष में जीनेवाला मन स्वर्ग में जीता है। जिसने संतोष बना लिया, स्वर्ग बना लिया।

स्वर्ग और नरक भौगोलिक अवस्थाएँ नहीं हैं; कहीं भूगोल में नहीं हैं, किसी नक्शे में नहीं मिलेंगे, मनोदशाएँ हैं। मनोवैज्ञानिक हैं। संतोषी आदमी में तुम स्वर्ग पाओगे। उसके पास तुम्हें स्वर्ग के फूल खिलते मिलेंगे। उसके पास तुम्हें स्वर्ग की आभा मिलेगी। धूल में भी बैठा होगा तो तुम उसे महल में पाओगे। क्योंकि धूल को भी महल बना लेने की कला उसके पास है, कीमिया उसके पास है। संतोषी आदमी के हाथ में जादू है। रूखी रोटी खाएगा तो ऐसे कि सम्राट भीर् ईष्यालु हो जाएँ। नंगा भी चलेगा रास्ते पर तो ऐसे कि सम्राटों की बड़ी—बड़ी शोभायात्राएँ फीकी पड़ जाएँ। देखा नहीं है महावीर को नग्न चलते हुए रास्तों पर? देखा नहीं है महावीर के चरणों में सम्राटों को झुकते हुए? क्या था इस आदमी के पास? लंगोटी भी न थी। मगर एक मस्ती थी। यह मस्ती कहाँ से आयी थी? इस मस्ती का खजाना कहाँ मिला था? संतोष से दोस्ती बाँध ली थी। और यह सम्राटों को क्यों झुकना पड़ रहा था महावीर के सामने, जिनके पास सब था? असंतोष से दोस्ती थी। सोचते थे कि शायद सम्राट होकर तो मिला नहीं, अब फकीर होकर मिल जाए। चलो फकीर के चरणों में बैठें। यह भी असंतोष की ही दौड़ है। संसार में नहीं मिला, तो चलो अब हिमालय पर चले जाएँ। यह भी असंतोष का नया कदम है : ध्यान रखना, संन्यास अगर असंतोष से ही उठता हो, तो गलत होगा। अगर संतोष से उठता होगा तो सम्यक् होगा। और दोनों में जमीन—आसमान का फर्क होगा।

भगोड़ा संन्यासी असंतोष से ही संन्यासी है। असंतोष से कोई संन्यासी है, मतलब अभी भी संसारी है। बाजार में रहकर देख लिया, नहीं पाया। असंतोष ने कहा—बाजार में क्या रखा है, पागल! असंतोष को समझ लेना। असंतोष सब तरह की भाषाएँ जानता है। आध्यात्मिक भाषा भी जानता है। असंतोष बड़ा कुशल है। उसने देखा तुम्हें कि अब तुम बाजार से ऊबे जा रहे हो, वह कहता है कि बिल्कुल ठीक ही है, बाजार में रखा क्या है? और मजा यह है कि यही असंतोष जिंदगी—भर तुमसे कहता रहा कि बाजार में सब रखा है। तुम्हारा अंधापन अद्भुत है। पहले भी इसकी माने चले गए, अब भी इसकी मान लेते हो। यही कहता था बाजार में सब रखा है, धन में सब रखा है, पद—प्रतिष्ठा में। इसके पहले कि यह देखता है कि हवा बदलने लगी, अब तुम चौंकने लगे, अब तुम जागने लगे थोड़े, यह कहता है—यहाँ क्या रखा है? पागल, मैं तो पहले ही से कहता था! यहीं होता तो त्यागीत्तपस्वी जंगल जाते! असली चीज जंगल में है। जंगल में मंगल है। चल जंगल। छोड़। छोड़ पत्नी, छोड़ घर—द्वार। और तुम सोचते हो—बड़े संन्यास की आकांक्षा उठ रही है! तुम्हें असंतोष ने फिर धोखा दिया। अब यह तुम्हें जंगल में बिठा देगा। और वहाँ भी थोड़े दिन बैठकर तुम पाओगे, कुछ नहीं मिल रहा है। और यही असंतोष तुमसे कहेगा—पहले ही कहा था कि जंगल में मंगल, यह सब फिजूल की बकवास है! अपने घर लौट चलो। जो है वहीं है, संसार में है। थोड़ी और चेष्टा करते तो मिल जाता। दो—चार कदम चलने की बात थी, मंजिल के करीब आ—आकर आ गए? मूढ़ हो, नासमझ हो। जो पीछे रह गए हैं, देखो मजा कर रहे हैं। और तुम यहाँ बैठे गुफा में क्या कर रहे हो?

मगर तुम्हारा अंधापन ऐसा है कि तुम असंतोष से कभी पूछते ही नहीं कि तू पहले यह कहता था, अब तू यह कहता है, तू बदलता जाता है? नहीं, दोस्ती गहरी है, दोस्त पर भरोसा होता है। भरोसे का नाम ही तो दोस्ती है।

रज्जब कहते हैं—यह दोस्ती छोड़ो। इसने तुम्हें जन्मों—जन्मों भटकाया है, नरकों की यात्रा करवायी है, दुःख से और महादुःख में ले गया है, यह दोस्ती छोड़ो। अब एक नयी दोस्ती बनाओ, संतोष से दोस्ती बनाओ।

 

मन रे, करु संतोष सनेही।

प्यारे, संतोष को पकड़ो। संतोष से प्रेम लगाओ। संतोष से भाँवर पाड़ो। असंतोष के साथ रहकर बहुत देख लिया, कुछ भी न पाया, अब तो चेतो! संतोष का मतलब होता है—जो है, धन्य मेरा भाग! असंतोष कहता है—इतना ही! और होना चाहिए, मैं अभागा हूँ! संतोष कहता है—जो है, धन्य मेरा भाग! इससे भी कम हो सकता था। जो है, इतना भी क्या कम है! इतना भी होना ही चाहिए, इसकी कोई अनिवार्यता थोड़े ही है! यह भी परमात्मा की देन है। मैं अनुगृहीत हूँ।

बस इस अनुग्रह की भाषा में जीवन का रूपांतरण हो जाता है। तब तुम जहाँ हो, अचानक पाते हो वहीं स्वर्ग की धुन बजने लगी। बज ही रही थी, सिर्फ तुम्हारे असंतोष के कारण सुनायी नहीं पड़ती थी। तुम्हारे आसपास देवदूत निरंतर मौजूद थे, मगर असंतोष से भरी ऑंखें देख नहीं पाती थीं। तुम सदा से ही इसके हकदार और मालिक थे, मगर असंतोष की दोस्ती तुम्हें बहुत दूर ले गयी—अपने से दूर ले गयी।

संतोष तुम्हें अपने पास ले आता है। क्यों? क्योंकि असंतोष की प्रक्रिया में दूर जाना जरूरी है। असंतोष तुम्हारी ऑंखों को दूर और दूर रखता है। वह कहता है—वहाँ चलो, चाँद पर चलो; भविष्य में, आगे, और आगे; आज थोड़े ही मिलने वाला है सुख, कल मिलेगा सुख। असंतोष कहता है—कल ज्यादा दूर थोड़े ही है! थोड़ा ही, चार कदम की यात्रा और है। और कल कभी आता नहीं। और कल भी असंतोष यही कहेगा कि थोड़ा और, थोड़ा और—चले चलो, चले चलो! असंतोष धीरज बँधा जाता है और अतृप्ति को जगाए जाता है। चलाए रखता है, चलाए रखता है, चलाए रखता है, दौड़ाता है। और जिस दिन तुम गिरते हो तो कब्र में ही पहुँचते हो। और कहीं नहीं पहुँचते।

संतोष कहता है—वहाँ नहीं, यहाँ। कल नहीं, अभी। इस क्षण सब है। संतोष से दोस्ती बाँधते ही इस क्षण के अतिरिक्त समय का और कोई अर्थ नहीं रह जाता है। यही क्षण सारा अस्तित्व हो जाता है। हो जाने दो इसी क्षण को सारा अस्तित्व! चलो थोड़ी ही देर को सही, मेरे साथ! इस क्षण संतोष से दोस्ती बाँध लो! ये हवाओं में लहराते हुए वृक्ष, यह सन्नाटा, यह मेरा होना, तुम्हारा होना, यह आमना—सामना, यह इस क्षण में जो घट रहा है इसके पार मत देखो, बस इसी में ऑंखें गड़ाओ, और तुम अचानक पाओगे—तुम किसी सुख के स्रोत के करीब आने लगे। अचानक भीतर से एक शांति उमगेगी और तुम्हें घेर लेगी। चूक जाओगे तुम इससे फिर, क्योंकि असंतोष इतनी जल्दी दोस्ती नहीं छोड़ देगा। दोस्ती बनानी आसान है, छोड़नी बहुत मुश्किल होती है। विवाह करने बहुत आसान, तलाक में अदालतें बड़ी झंझटें देती हैं। फिर पकड़ लेगा। फिर असंतुष्ट। फिर दुःखी। फिर चिंतित। फिर आतुर भविष्य के लिए। लेकिन जब भी तुम अवसर दोगे संतोष को, क्षण—भर को ही सही संतोष से नाता बाँधोगे, उसी क्षण तुम पाओगे वर्षा हो जाती है अनंत की। ये ही क्षण ध्यान के क्षण हैं। और इन्हीं क्षणों के राज़ को जिसने समझ लिया, वह समाधि को उपलब्ध हो जाएगा।

समाधि का क्या अर्थ है? संतोष से दोस्ती थिर हो गयी। अडिग हो गयी। असंतोष के हमले बंद हो गए। समाधि शब्द को देखते हो? उसी धातु से बना है जिससे समाधान। समाधान का अर्थ होता है—अब कोई असमाधान नहीं है चित्त में। ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए, ऐसी कोई चिंता नहीं है चित्त में, अब कोई समस्या नहीं है चित्त में। अब तो जैसा है वैसा है—”ज्यूँ का त्यूँ ठहराया’।

मन रे, करु संतोष सनेही।

नहीं तो घूमोगे भिखारी बने—बने। बन जाओ सम्राट! जब्त भी कब तक हो सकता है? सब्र की भी इक हद होती है।

 

पल भर चैन न पानेवाला, कब तक अपना रोग छिपाए?

“शाद’ वही आवारा शायर, जिसने तुझको प्यार किया था

नगर—नगर में धूम रहा है, अरमानों की लाश उठाए।

सब घूम रहे हैं अरमानों की लाश उठाए। तुमने कहानी सुनी है न—

पार्वती की मृत्यु हो गयी। और शिव पार्वती की लाश को लेकर देश—भर में घूमने लगे। इस आशा में कि कभी फिर जग जाएगी। इस आशा में कि किसी पुण्यत्तीर्थ में कोई चमत्कार हो जाएगा। इस आशा में कि मैं मृत्यु से हारूँगा नहीं, जीवन पर भरोसा रखूँगा। पार्वती की लाश को लिए शिव घूमते हैं सारे देश में। कथा प्यारी है! कथा सांकेतिक है। अंग—अंग पार्वती के सड़ते जाते हैं और गिरते जाते हैं। मगर शिव की आशा नहीं गिरती।

तुम सब भी लाशें लिए घूम रहे हो। तुम्हारे अरमानों की लाशें, तुम्हारे सपनों की लाशें, तुम्हारी आकांक्षाओं की लाशें—कितनी लाशें लिए तुम घूम रहे हो! और लाशें सड़ती हैं, दुर्गंध भी दे रही हैं, उनके अंग—अंग भी गिरते जाते हैं, मगर तुम हो कि जागते नहीं। तुम पुरानी लाशें तो ढो ही रहे हो, तुम फिर नई लाशों के आयोजन कर रहे हो। नए अरमान, नए वासनाओं के जाल निर्मित कर रहे हो। मरने के पहले तुम अपने को कितनी लाशों से नहीं घेर लोगे!

संतोष से दोस्ती करो। उस दोस्ती से होते ही सारी लाशों से छुटकारा हो जाता है। संतोष से दोस्ती होते ही अतीत से छुटकारा हो जाता है, भविष्य से छुटकारा हो जाता है, वर्तमान ही सब कुछ हो जाता है।

खयाल करो, अतीत की इतनी याद क्यों आती है? इसीलिए कि भविष्य से अभी लगाव है। तुम थोड़ा चौंकोगे, अतीत भविष्य का ऐसा क्या लेना—देना! गहरा लेना—देना है। अतीत से लगाव है, क्योंकि अतीत मिला कुछ नहीं उसमें, सिर्फ घाव—ही—घाव हैं, और उन्हीं घावों के लिए तुम भविष्य में मलहम खोज रहे हो। दोनों जुड़े हैं। घावों को उकसाना पड़ेगा, तो ही तो मलहम की तलाश जारी रहेगी। तुम्हारा भविष्य क्या है? तुम्हारे अतीत की आकांक्षाओं का ही प्रक्षेपण है। और इन दोनों के बीच में तुम चूके जा रहे हो। इन दोनों के बीच में है क्षण वर्तमान का। वही वास्तविक क्षण है। वही असली है। अतीत स्मृति है, भविष्य कल्पना है, वर्तमान सत्य है। लेकिन स्मृति और कल्पना के बीच में सत्य को झुठलाया जा रहा है। छोड़ो अतीत से नाता, छोड़ो भविष्य से नाता, हो रहो इसी क्षण के! एकरस हो जाओ इस क्षण से, तन्मय हो जाओ इसी क्षण में! यही तो ध्यान की परिभाषा है। यही प्रेम की परिभाषा है। जब अतीत और भविष्य मिट जाता है, तो तुम जिस घड़ी में होते हो— अगर अकेले हो तो ध्यान है, अगर उस घड़ी में किसी का संग—साथ है तो प्रेम है। मगर दोनों का स्वाद एक है। वर्तमान है दोनों का स्वाद।

 

मन रे, करु संतोष सनेही।

तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की, दुख पावै नहिं देही।।

संतोष से दोस्ती हो जाए तो तृष्णा तृप्त हो जाए। प्यास बुझ जाए। भूख भर जाए। “तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की’। और यह तृष्णा कोई नयी नहीं है, जुग—जुग की है—अनंतकालीन है। मगर एक क्षण में मिट जाती है संतोष से दोस्ती छुयी कि मिट गयी। संतोष से दोस्ती साधुता का आधार है, संन्यास का आधार है।

“दुख पावै नहिं देही’। और खूब तुमने दुःख दे लिए हैं अपनी आत्मा को। और व्यर्थ दिए हैं दुःख। हकदार तो सुखों के थे, मालकियत तो थी तुम्हारी फूलों के लिए, लेकिन काँटे चुनते रहे हो। और अब भी नहीं मानते; अब भी नहीं जागते। एक असंतोष मिट नहीं पाता कि तुम दस नए निर्मित कर लेते हो। फिर चले दौड़े! भागना ही तुम्हारे जीवन का एकमात्र ढंग हो गया है? तुम रुकना ही भूल गए हो? रुको! ठहरो! परमात्मा यहीं है। अभी है। इसी क्षण है। न दूर आकाश में है, न कहीं बैकुंठ में है, न किसी मोक्ष में है, संतोष में है।

 

मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै।

ध्यान दो इस सूत्र पर विरोधाभासी सूत्र है। लेकिन सत्य अक्सर विरोधाभासी होता है। जीसस का प्रसिद्ध वचन है—जो बचाएँगे, गँवा देंगे; जो गँवाने को राजी हैं, उनका बच जाएगा। उल्टा गणित मालूम होता है। उल्टा इसीलिए मालूम होता है कि हम जिस तरह की जिंदगी जिए हैं अब तक, वही उल्टी रही है। अब उसको सीधा करना उल्टा मालूम होता है।

“मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या’। रज्जब कहते हैं—परमात्मा ने जो दिया है, उसको वे ही भोग सके हैं जिन्होंने उस पर पकड़ नहीं रखी; जिन्होंने उस पर मुट्ठी नहीं बाँधी। याद करो उपनिषद् का वचन—”तेन त्यक्तेन भु**१८२**ाीथाः’। उन्होंने ही भोगा, जिन्होंने त्यागा। अनूठा वचन है। इस एक वचन में सारे शास्त्रों का सार आ गया है। वे ही भोगना जानते हैं जो पकड़ने से मुक्त हैं। पकड़नेवाला भोग ही नहीं पाता। तुम देखते हो न कृपण को, कंजूस को, वह गरीब से भी ज्यादा गरीब होता है। और ऐसा नहीं कि उसके पास है नहीं, मगर वह पकड़कर बैठा है। तुमने कहानियाँ सुनीं न कि कृपण मर जाते हैं तो अपने गड़े धन पर साँप होकर बैठ जाते हैं। जिंदगी में भी वे यही किए थे—साँप होकर बैठे थे, पहरा ही देते रहे थे। मर कर भी यही करेंगे। कहानियों में सार है। क्योंकि जिंदगी—भर जो किया है, उसका अभ्यास ऐसा हो जाता है कि मरकर कुछ अन्यथा करोगे कैसे? एक विशेषज्ञ मरा। विशेषज्ञ था कुशलता का, “इफीसिएंसी एक्स्पर्ट’ था। काम ही उसका यही था कि दफ्तर में जहाँ चार आदमी हैं वहाँ एक से काम चलवा देना। जो काम दो घंटे में होता है, वह पंद्रह मिनट में करवा देना। उसकी बड़ी ख्याति थी। वह मरा। कहते हैं जब उसकी अर्थी उठायी गयी, तो उसने ढक्कन खोला और बोला कि यह क्या हो रहा है? चार आदमियों की क्या जरूरत है? दो चाक लगा दो, एक ही आदमी से मरघट पहुँचना हो जाएगा।

बात ठीक मालूम पड़ती है। जिंदगी—भर यही काम किया था—कम आदमियों से कैसे ज्यादा काम लेना?मरते वक्त भी कैसे भूल जाएगा? मरकर भी कैसे भूल जाएगा? उसके प्राण छटपटा गए होंगे जब देखा होगा कि चार आदमी अर्थी उठा रहे हैं! यह तो एक से हो सकता है, सिर्फ दो चक्के लगाने की जरूरत है। इसलिए चार आदमियों का श्रम व्यर्थ करना!

कहानियाँ ठीक ही कहती हैं कि कृपण मरता है तो साँप होकर बैठ जाता है। जिंदगी—भर यही तो अभ्यास किया था उसने। भोगा कब? धन था तो भी भोगा कहाँ? रक्षा करता रहा। धनी इस दुनिया में बहुत कम हैं, रखवाले हैं। कोई दूसरे के धन की रखवाली करते हैं, कुछ अपने धन की रखवाली करते हैं; मगर रखवाली तो रखवाली है, फर्क क्या पड़ता है!

“मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या’।

परमात्मा ने जो रचा है, वह उन्हीं को मिला है जिन्होंने त्याग की कला जानी। त्याग की कला क्या है? संतोष से दोस्ती त्याग की कला है। ऐसी परिभाषा किसी और ने नहीं की साफ—साफ। रज्जब ने बिल्कुल गणित का सूत्र दे दिया। त्याग की परिभाषा संतोष। तुम थोड़े चौंकोगे। क्योंकि तुमने तो त्याग भी किया है तो असंतोष के कारण किया है। कोई आदमी सब छोड़कर चला जाता है, वह कहता है—छोड़ेंगे नहीं तो स्वर्ग कैसे मिलेगा? स्वर्ग पाने की आशा में संसार छोड़ रहा है। यह त्याग नहीं है। यह भोग की प्रबल वासना है। इस पत्नी को छोड़ रहा है कि स्वर्ग में हूरें मिलेंगी, सुंदर अप्सराएँ मिलेंगी। सपने देख रहा है। यहाँ शराब नहीं पीता, स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं। वहाँ दिल खोलकर पीएगा। यहाँ—यहाँ जो—जो भोग छुड़वाने को धर्मशास्त्र कहते हैं—उन्हीं—उन्हीं भोगों की व्यवस्था उन्होंने स्वर्ग में की है। ये धर्मशास्त्र भी अद्भुत हैं! जब यहीं छुड़वाना है, तो फिर वहाँ इंतजाम क्या करवाना? और अगर वहाँ इंतजाम ही होना है, तो उमर खैय्याम ठीक कहता है कि फिर अभ्यास यहाँ करने दो। नहीं तो अभ्यास ही नहीं होगा। तुम कहते हो—स्वर्ग में चश्मे बहते हैं शराब के; और यहाँ शराब का अभ्यास न किया तो पिएगा कौन? तुम कहते हो—वहाँ सुंदर—सुंदर स्त्रियाँ हैं; और यहाँ स्त्रियों से बचने का उपदेश दिया जा रहा है। तो फिर उनको भोगेगा कौन? उमर खैय्याम की बात में तर्क मालूम पड़ता है। मजाक वह ठीक कर रहा है। वह तुम्हारे त्यागियों की मजाक कर रहा है, वह कह रहा है—ये त्यागी इत्यादि नहीं हैं, ये सब झूठी बकवास है। त्याग के नाम पर भी भोग की आकांक्षा है। और कुछ ज्यादा पाने की इच्छा है। यह सौदा है। व्यवसाय है, त्याग नहीं है।

शास्त्र कहते हैं—गंगा के किनारे अगर एक रुपया दान दो तो स्वर्ग में एक करोड़ गुना मिलता है। मगर यह कौन—सा त्याग हुआ? और एक रुपए में एक करोड़ गुना! तो लॉटरी सरकारें ही नहीं खिला रही हैं, भगवान भी खिला रहा है। लॉटरी हो गयी। एक रुपया आदमी छोड़ देता है गंगा के किनारे इस आशा में कि स्वर्ग में करोड़ गुना मिलेगा। मगर यह आशा असंतोष है। यह वासना असंतोष है। यह त्याग नहीं है। यह छोटा त्याग है बड़े भोग के लिए।

रज्जब कहते हैं—”मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या’। लेकिन भोगा उन लोगों ने है जो त्याग की असली कला जानते हैं। त्याग की असली कला क्या है? आज सब कुछ है। जो है, उसमें परम आनंद। कल है ही नहीं। कल के लिए बचाना क्या है जब कल है ही नहीं? कल के लिए इकट्ठा क्या करना है जब कल है ही नहीं? कल के लिए पकड़ना क्या है जब कल है ही नहीं?

मुहम्मद रोज रात सोने के पहले पत्नी को कहते थे—जो भी दिन में इकट्ठा हो गया हो, बाँट दे। कल का क्या भरोसा है? हम हों न हों। और फिर जिसने आज दिया है, अगर कल होगा तो वह कल भी देगा। यही संतोष है। जिंदगी—भर तो पत्नी मानती रही। फिर स्त्री आखिर स्त्री! मुहम्मद बीमार हुए। आखिरी घड़ियाँ करीब आ गयीं। उस रात पत्नी ने उनकी बात नहीं सुनी। उसे डर लगा। रात, आधी रात दवा की जरूरत पड़ जाए, वैद्य की जरूरत पड़ जाए तो फीस कहाँ से चुकाऊँगी? तो कुछ बचा लेना जरूर—ज्यादा नहीं बचाया, पाँच रुपए, पाँच दीनार छिपाकर रख दिए।

मुहम्मद आधी रात करवट बदलने लगे। पत्नी ने कहा—कुछ बेचैनी है? कोई तकलीफ है? दवा का इंतजाम करें? वैद्य को बुलाएँ? उन्होंने कहा—न दवा की जरूरत है, न वैद्य की, मुझे ऐसा लगता है कि तूने घर में कुछ बचा रखा है। उससे मेरे प्राण अटके हैं। मैं क्या जवाब दूँगा परमात्मा को कि आखिरी दिन भरोसा नहीं किया। पत्नी तो बहुत घबड़ायी। जल्दी से उसने पाँच दीनार लाकर कहा कि मैंने जरूर बचा लिए, मुझे क्षमा करें, इसी खयाल से कि कब जरूरत पड़ जाए वत्त बेवत्त, बिमारी—बूड़ापा मोहम्मद ने कहा जल्दी बांट दे! उसने कहा— में बाँटूँ भी तो किसको? आधी रात कौन होगा? मुहम्मद ने कहा—जिसने मुझे याद दिलायी है कि पाँच रुपये घर में अटके हैं उसने किसी को जरूर भेजा होगा, तू दरवाजा तो खोल। और दरवाजा खोला तो देखा एक भिखारी खड़ा है—आधी रात! और उसने कहा कि मैं बड़ी मुसीबत में हूँ, पाँच रुपए की जरूरत है। वे पाँच रुपए उस भिखारी को दे दिए गए; मुहम्मद ने चादर ओढ़ ली और कहते हैं चादर ओढ़ते ही उनके प्राण छूट गए।

संतोष के बड़े आयाम हैं। समय की दृष्टि से वर्तमान में जीना संतोष है। पकड़ की दृष्टि से जो मिल जाए उसे बिना पकड़े भोग लेना संतोष है। बिना पकड़े, बिना दावेदार हुए, बिना मालकियत जताए। परिग्रह की दृष्टि से अपरिग्रह संतोष है। श्रद्धा की दृष्टि से, यह भरोसा, कि जिसने आज दिया है कल भी देगा संतोष है। संतोष के गुण बहुत हैं। एक संतोष तुम्हारे जीवन को न—मालूम कितनी दिशाओं से रूपांतरित कर देगा। इसलिए रज्जब कहते हैं—दोस्ती कर लो, संतोष से दोस्ती कर लो।

 

मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै।

कहते हैं—तुम कितना ही पकड़ने की कोशिश करो, अधिक नहीं हो पाएगा। “गह्या अधिक नहिं आवै।’ तुम कितना ही गहो, अधिक नहीं हो पाएगा। क्योंकि असंतोष से अगर दोस्ती रही, तो असंतोष इतना कुशल है कि हर चीज को कम बताने की उसकी आदत है। लाख होंगे तो वह कहेगा—लाख में क्या होता है, दस लाख चाहिए। दस लाख होंगे तो वह कहेगा दस लाख में क्या होता है—करोड़ चाहिए। असंतोष की सारी प्रक्रिया यह है कि जो है, उससे बड़े की कल्पना देता है। और बड़े की कल्पना में जो है वह छोटा हो जाता है। छोटा हो जाता है, पीड़ा शुरू हो जाती है। अतृप्ति हो जाती है। काँटा चुभने लगता है। दौड़ शुरू हो जाती है। और यह दौड़ कभी अंत नहीं हो सकती जब तक असंतोष से दोस्ती ही न छूट जाए। असंतोष से दोस्ती छूटते ही जो भी है, वह जरूरत से ज्यादा है।

मैंने सुना है, एक फकीर के पास छोटा—सा झोंपड़ा था। बस पति और पत्नी दोनों सो लेते, इतनी उसमें जगह थी। एक रात जोर से वर्षा होती थी, अमावस की रात और एक आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी। पति ने कहा—द्वार खोल दे। पत्नी ने कहा कि ठीक नहीं द्वार खोलना, वर्षा जोर की है, कोई शरण चाहता होगा, जगह कहाँ है? पति ने कहा—कोई फिकर नहीं, दो के सोने—योग्य जगह है, तीन के बैठने—योग्य होगी; दरवाजा खोल। दरवाजा खोला। एक मेहमान भीतर आया, उसने कहा—क्या मैं रात—भर विश्राम कर सकता हूँ? पति ने कहा मजे से। तीनों बैठ गए, गणशप शुरू होने लगी। फिर किसी ने थोड़ी देर बाद दस्तक दी। पति ने पत्नी से कहा—खोल। उसने कहा—अब बहुत मुश्किल हो जाएगी। जगह कहाँ है? पति ने कहा कि तीन ज़रा दूर—दूर बैठे हैं, चार ज़रा पास—पास बैठेंगे। जगह की क्या कमी है, हृदय चाहिए; दरवाजा खोल। वह आदमी भी भीतर ले लिया। फिर थोड़ी देर में एक आदमी आ गया और उसने दस्तक दी। रात है और रास्ता ऍ?धेरा—भरा है और लोग भटक गए हैं रास्ते पर और मार्ग नहीं खोज पा रहे हैं। पति ने कहा—दरवाजा खोल। पत्नी ने कहा—बहुत हुआ जा रहा है। पति ने कहा—अभी ज़रा सुविधा से बैठे हैं, फिर थोड़ी असुविधा होगी, जगह की कहाँ कमी है? और प्रेम हो, तो असुविधा क्या है? दरवाजा खोल।

अब तक तो बात ठीक थी, थोड़ी देर बाद एक गधे ने आकर दरवाजे पर जोर से सिर मारा। पति ने कहा—दरवाजा खोल। पत्नी ने कहा—अब सीमा के बाहर बात हुई जा रही है। अब यहाँ जगह कहाँ है? और यह गधा है बाहर! इस गधे को भी भीतर ले आएँ? पति ने कहा—अभी हम बैठे हैं, इसके लिए काफी जगह है, अब हम खड़े हो जाएँगे। मगर जगह काफी है, अभी जगह कम नहीं है। तू गधे को भीतर ले आ। अब तो वे जो लोग तीन पहले भीतर आ चुके थे, उन्होंने भी विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह बात ठीक नहीं है। पति ने कहा—तुम अपनी सोचो! तुम्हें पता है, यह पत्नी पहले ही से विरोध कर रही थी! अब तुम भी विरोध कर रहे हो। यह कोई अमीर का महल नहीं है जिसमें जगह की कमी हो, यह गरीब का झोंपड़ा है। यह वचन बड़ा अद्भुत है—यह कोई अमीर का महल नहीं है—उस फकीर ने कहा—जिसमें जगह की कमी हो, यह गरीब का झोंपड़ा है, इसमें जगह की क्या कमी है? आने दो। गधा भी भीतर आ गया, वे सब खड़े हो गए। अब खड़े होकर गपशप चलने लगी। और उस फकीर ने कहा—देखते हो, जगह बन जाती है, हृदय चाहिए।

संतोष विराट है। असंतोष बड़ा क्षुद्र है। असंतुष्ट आदमी के पास महल भी हो तो छोटा है, और संतुष्ट आदमी के पास झोंपड़ा भी हो तो बड़ा है। संतुष्ट आदमी जीवन की कला जानता है।

 

मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै।

 

तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोइ पावै।।

और खयाल रखो—यह संतोष की नयी—नयी भाव—भंगिमाएँ समझा रहे हैं—वे कहते हैं, “तामें फेर सार कछु नाहीं,’ जो तुम्हें मिला है, उसमें फेर—फार करने की बहुत चेष्टा मत करो; क्योंकि उसमें कभी कोई फेर—फार होता नहीं। धोखे होते हैं फेर—फार के, लेकिन फेर—फार नहीं होता। गरीब अमीर हो सकता है, लेकिन गरीबी नहीं मिटती। फेर—फार ऊपरी होते हैं। तुम बीमार आदमी को सुंदर वस्त्र पहना दो और मुकुट पहना दो और राजसिंहासन पर बिठा दो, क्या फर्क पड़ता है? उसकी बीमारी उसे भीतर खाए जा रही है। फटे—पुराने कपड़ों में बीमार था, अब सुंदर लबादों में बीमार है, मगर फर्क क्या है? तुम असंतुष्ट आदमी को धन दे दो, वह गरीब था, अब भी गरीब है, कुछ भेद नहीं पड़ता। अज्ञानी के हाथ में शास्त्र दे दो, वह कंठस्थ कर लेगा शास्त्र, अज्ञानी था, अज्ञानी ही रहेगा। शास्त्र के कंठस्थ करने से कुछ भी नहीं होता। हाँ, और वहम पैदा हो जाएगा कि मैं ज्ञानी हूँ।

“तामें फेर सार कछू नाहीं’।

संतोष को जिसने जाना है, वह कहता है, कि इस जिंदगी में फर्क होते ही नहीं। तुम लाख दौड़धूप करो, जिंदगी वैसी—की—वैसी बनी रहती है। यहाँ—वहाँ थोड़े रंग इत्यादि बदल लो, मगर तुम वैसे—के—वैसे बने रहते हो। कुछ भेद नहीं आता। तो फिर दौड़धूप का सार क्या है? फिर इतनी आपाधापी क्यों है?

“राम रच्या सोइ पावै’। और जो परमात्मा देता है वही मिलता है, तुम्हारे पाने से नहीं मिलता। “राम रच्या सोइ पावै’। संतोष का अर्थ है, उसे देना होगा तो देगा, उसे नहीं देना होगा तो नहीं देगा। देगा तो धन्यवाद, नहीं देगा तो धन्यवाद। क्योंकि वह जानता है हमारी जरूरत क्या है। कभी हमारी जरूरत होती है कि हमें मिले और कभी हमारी जरूरत होती है कि हमें नहीं मिले। कभी हमारा विकास न मिलने से होता है, और कभी हमारा विकास मिलने से होता है। और वह जानता है, यह श्रद्धा संतोष है।

 

यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

तूने जीवन—जोत जगायी

मैंने पग—पग ठोकर खायी

जिस रास्ते पर डाले तू मैं उस रास्ते पर हो लूँ

यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

 

तूने तो मोती बरसाए

मैंने काले कंकर पाए

मैं झोली में कंकर लेकर मोती जानके रो लूँ

यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

 

तूने फूल सुहाने बाँटे

मेरे भाग में आए काँटे

मैं झोली में काँटे लेकर फूल समझके तोलूँ!

यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

 

तूने भेजे अमरित प्याले

पड़ गए मुझको जान के लाले

मैं विस को भी अमृत जानूँ तेरा भेद न खोलूँ

यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ

भक्त कहता है, संतोषी कहता है तूने तो सदा ही ठीक किया है, मेरे असंतोष के कारण ही मैं चूकता रहा हूँ। तूने फूल भेजे, मैंने काँटे चुन लिए। तूने अमृत का प्याला भेजा, मैंने उसे विष में बदल लिया। तूने सारे जगत को अपूर्व रूप से सुंदर बनाया है, मैंने इसे कुरूप कर डाला। यह सब तेरी देन है दाता मैं इसमें क्या बोलूँ। अब भूल समझ आने लगी है कि अगर दुःख पाए तो हमने अपने कारण पाए। लोग कहते हैं—परमात्मा ने इतना दुःख क्यों बनाया है? तुम्हें न परमात्मा का पता है, न तुम्हें दुःख के रसायन का पता है कि कैसे दुःख निर्मित होता है। परमात्मा ने दुःख बनाए नहीं, सिर्फ तुम्हें स्वतंत्रता दी है। और स्वतंत्रता से बड़ा सुख नहीं है जगत में। मगर तुम उस स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे हो। तुम फूलों को काँटे बना लेते हो, अमृत को विष बना लेते हो, मोतियों को कंकड़ बना लेते हो, और फिर दोष देते हो परमात्मा पर।

 

जिस रस्ते पर डाले तू मैं उस रस्ते पर हो लूँ

यही संतोष है। अपनी तरफ से मैं अब कुछ भी न करूँगा। तुझसे भिन्न कुछ भी न करूँगा। अगर तेरी मर्जी मुझे गरीब रखने की है, तो गरीब रहूँगा। और तेरी मर्जी अगर मुझे अमीर रखने की है, तो अमीर रहूँगा। खयाल रखना, पहली मर्जी तो तुमने बहुत बार सुनी है साधुओं—संन्यासियों से, दूसरी मर्जी तुमने नहीं सुनी क्योंकि तुम्हारा साधु—संन्यासी भी असली संतोषी नहीं है। एक है, जो कहता है जब तक धनी न होऊँगा तब तक रुकूँगा नहीं। दूसरा कहता है —धन? कभी नहीं। मैं तो निर्धन होकर रहूँगा! एक धन का गौरव गाता है, दूसरा दरिद्रता का गौरव गाता है।

इस देश में तो दरिद्रता का गौरव बहुत गाया गया है। उसी गौरव के कारण तुम दरिद्र हो गए हो। अभी भी तुम्हारे महात्मा दरिद्रता को दरिद्रनारायण का नाम दिए जाते हैं। ठीक है, फिर तुमने दरिद्र होने का तय ही कर लिया है। उसकी तरफ से तो मोती बरसते हैं मगर तुम काँटे बना लेते हो। यहाँ कोई भी दरिद्र होने को पैदा नहीं हुआ है। परमात्मा से आए हैं सब, कैसे दरिद्र हो सकते हैं! हमने इस देश में परमात्मा को जो नाम दिया है उस पर कभी खयाल किया? ईश्वर कहां है उसे। ईश्वर का अर्थ होता है—ऐश्वर्य। जिसका सारा ऐश्वर्य है, जिसकी सारी महिमा है, जिसका सारा धन है। हम उससे आए, उसकी किरणें, उसकी संतति, हम कैसे दरिद्र हो सकते हैं! लेकिन कुछ लोगों ने जिद्द कर रखी है कि अमीर होकर रहेंगे। जो आदमी कहता है मैं अमीर होकर रहूँगा, वह भी चूक रहा है। क्योंकि अमीर हम हैं, होने की जरूरत नहीं है।

एक भूल कि मैं अमीर होकर रहूँगा। अमीर थे ही, होने की क्या जरूरत थी? भूल में पड़ गए। फिर अमीर होने की चेष्टा में बहुत दुःख पाए। तो जिद्द दूसरी पैदा हुई एक दिन कि मैं अब गरीब होकर रहूँगा। यह अक्सर हो जाता है। आदमी विपरीत पर चला जाता है। अमीरी में बहुत दुःख पाए, एक दिन आदमी कहता है कि बहुत हो गया, अमीरी में दुःख मिल रहे हैं। अमीरी में दुःख नहीं मिल रहे हैं मैं तुमसे कहता हूँ, असंतोष में दूख मिल रहे हैं। अमीरी क्या दुःख देगी! जब गरीबी तक दुःख नहीं दे सकती तो अमीरी कैसे दुःख देगी? असंतोष में दुःख मिल रहा है।

मगर असली चीजें हम देखते ही नहीं। हम कहते हैं—अमीरी में दुःख मिल रहा है। अमीरी छोड़कर रहूँगा। मैं गरीब होकर रहूँगा। अब गरीब होने चले! मगर यात्रा जारी है। पहले गरीब से अमीर होने का असंतोष था, अब अमीर से गरीब होने का असंतोष है, लेकिन असंतोष से तुम्हारा नाता नहीं टूटता।

मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, उसकी क्रांति समझो। मैं तुमसे यह कह रहा हूँ—जो हो, जहाँ हो, जैसे हो, उससे अन्यथा होने की बात ही छोड़ दो। अगर उसके इरादे गरीब होने के हैं, तो गरीब; उसका इरादा अमीर रखने का है, तो अमीर। और तुम तब चकित हो जाओगे। जो तुम हो, जहाँ हो, जैसे हो, वैसे ही राजी हो जाओ। उस राजीपन में ही असली धन पैदा होता है। राजीपन धन है। उस संतोष में धन है। फिर गरीब भी अमीर हो जाता है। अमीर की तो बात ही क्या करनी, गरीब भी अमीर हो जाता है। अमीरी एक ही बात का नाम है—संतोष का।

लेकिन तुमने दोनों तरह के लोग देखे हैं और तुम समझते हो कि दोनों बड़े विपरीत हैं। ज़रा भी विपरीत नहीं हैं। उनका तर्क एक, उनकी तर्कसारणी एक, उनके सोचने की प्रक्रिया एक। असंतोष दोनों का स्वर है।

 

तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोई पावै।।

बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै, और पताल न जाई।

वासना से न कोई स्वर्ग पहुँचता है, और न कोई नरक पहुँच सकता है। “बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै।’ तुम्हारी चाह से ही तुम स्वर्ग नहीं जा सकते। चाह से तो तुम कहीं भी नहीं जा सकते। चाह का मतलब है—तुम परमात्मा से लड़ रहे हो। चाह का मतलब है—तुम्हारी निजी आकांक्षा है कुछ। तुम इस विराट की आकांक्षा के साथ एकरस नहीं हो। तुम कहते हो—मैं अपनी खिचड़ी अलग पकाऊँगा। यह जो खिचड़ी पक रही है विराट की, तुम इसमें भागीदार नहीं होना चाहते, तुम कहते हो—मैं अपनी हाँडी अलग चढ़ाऊँगा। ढाई चावल की खिचड़ी तुम अलग पकाना चाहते हो। बस वहीं तुम्हारी पीड़ा है, वहीं तुम्हारी चूक है।

“बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै’। तुम्हारी चाहना से थोड़े ही तुम स्वर्ग पहुँचोगे। चाह को छोड़ो और तुम पाओगे—तुम स्वर्ग में ही हो; तुम स्वर्ग में ही थे।

 

ऐसे जानि मनोरथ मेटहु, समझि सुखी रहु भाई।।

“ऐसे जानि मनोरथ मेटहु’। इतनी बात जान लो कि तुम्हारे करने से कुछ होगा नहीं, तुम्हारे चाहने से कुछ होगा नहीं, तुम्हारे दौड़ने से कुछ होगा नहीं। तुम ही झूठ हो, इसलिए तुमसे जितनी चीज़ें पैदा होती हैं सब झूठ होंगी। राम सच है। तुम राम के साथ एकलीन हो जाओ, वही संतोष है। संतोष का मतलब—तेरी मर्जी सो मेरी मर्जी। मेरी अब कोई अलग मर्जी नहीं। और जिस दिन तेरी मर्जी सो मेरी मर्जी, उस दिन तुम कहाँ बचोगे? तुम तो बचते ही हो मेरी मर्जी की आड़ में। तुम कहते हो कि मैं तो ऐसा चाहता।

यहाँ रोज होता है। संन्यासी आकर मुझसे कहते हैं—हम सब आपके ऊपर समर्पण करते हैं। आप जो कहेंगे, वही हम करेंगे। जो मैं कहता हूँ, करते नहीं! यहाँ तक हो जाता है कि मैं उनसे वही कह रहा हूँ कि यह करो, और वे कहते हैं कि नहीं, हम तो वही करेंगे जो आप कहते हैं।

एक युवती ने संन्यास लिया; कहा कि मैं तो वही करूँगी जो आप कहेंगे। मैंने कहा—ठीक; अब यह पहला काम है कि तू वापिस घर जा। मैं कहीं जा ही नहीं सकती, उसने कहा। मैं तो वही करूँगी जो आप कहेंगे। मैंने कहा— तू सुन रही है? तेरे माँ—बाप दुःखी होंगे, अभी तेरी उम्र भी ज्यादा नहीं, वे परेशान होंगे, अभी तू जा। धीरे—धीरे जब वे राजी हो जाएँगे, तू आ जाना। उसने कहा कि आप मुझे हटा नहीं सकते यहाँ से! मैंने तो सब समर्पण ही कर दिया! और मैं नहीं हटा पाया उसे, दो साल हो गए, तीन साल हो गए, वह नहीं हटती। वह कहती है—समर्पण ही कर दिया! और आप जो कहेंगे वही करने वाली हूँ, मैं तो कुछ अब बची ही नहीं। देखते हैं तरकीब आदमी कैसी खेल लेता है? एक युवक संन्यासी ने पत्र लिखा मुझे कि मेरा मन कुछ दिनों से कुछ समय के लिए वापिस घर जाने का है, अमरीका जाने का है। मगर जो आप कहेंगे, वही मैं करूँगा। मैंने उससे कहा—कोई जाने की अभी जरूरत नहीं है। दूसरे दिन उसका पत्र आया कि आपका उत्तर सुनकर चित्त बहुत उदास हो गया है; चित्त में जाने—ही—जाने की धुन लगी है; हालाँकि जो कुछ आप कहेंगे वही मैं करूँगा। तो मैंने उसे खबर भेजी कि ठीक है, तू चला जा। तब उसका पत्र आया कि मैं अति आनंदित हूँ। इस बात से मेरे हृदय को बड़ी शांति मिल रही है कि जो आप कह रहे हैं, वही मैं करने जा रहा हूँ। देखते हैं मजाक! लोग प्रतीक्षा करते हैं उस समय तक जब तक तुम्हारी मर्जी की बात न कही जाए। तब तक वे कहते रहते हैं कि आप जो कहेंगे वही करेंगे—करते नहीं। जब वही बात कह दो जो वे करना ही चाहते थे पहले से, तब वे कहते हैं—देखो समर्पण! मैं तो सब समर्पित ही कर दिया हूँ! आप तो नरक जाने को कहें तो वहाँ चला जाऊँगा, अमरीका का तो क्या है! जाऊँगा, जब आप कहते हैं तो जरूर जाऊँगा!

आदमी का मन बड़ा बेईमान है।

मुल्ला नसरुद्दीन मस्जिद जाता है। मस्जिद के मौलवी को उसने कहा कि सुबह आने की बड़ी मुश्किल होती है, तय ही नहीं कर पाता, तय ही करने में समय निकल जाता है, कि जाऊँ कि न जाऊँ, जाऊँ कि न जाऊँ; मन में बड़ी दुविधा रहती है, अब आप तो जानते ही हैं। मन दुविधाग्रस्त है मेरा। मौलवी ने कहा—तू एक काम कर, परमात्मा पर छोड़ दे। उसने कहा—यह कैसे तय होगा और पक्का कैसे पता चलेगा कि परमात्मा की मर्जी क्या है? मुल्ला थोड़ा डरा भी, क्योंकि परमात्मा की मर्जी तो निश्चित ही यह होगी कि मस्जिद जाओ। मगर उसने कहा कि पक्का कैसे चलेगा कि परमात्मा की मर्जी क्या है? तो मौलवी ने कहा—तू ऐसा काम कर, एक रुपया रख ले और कहा कि अगर चित गिरे तो परमात्मा चाहता है मस्जिद जाओ, और अगर पुत गिरे तो परमात्मा चाहता है कि मस्जिद मत जाओ।

दूसरे दिन मुल्ला नहीं आया। रास्ते में बाजार में मौलवी को मिला, मौलवी ने पूछा—आए नहीं, भाई? उसने कहा कि आपने कहा था, वही किया। मौलवी ने कहा तो क्या हुआ? पुत गिरा रुपया? उसने कहा कि पहली बार में तो नहीं गिरा। सत्रह बार फेंकना पड़ा, तब पुत गिरा। मगर गिरा। जब पुत गिरा तब फिर मैं निश्चिंत सो गया; मैंने कहा कि अब जब परमात्मा की ही मर्जी है!

आदमी बहुत बेईमान है। अपनी मर्जी को परमात्मा पर भी थोपने की चेष्टा करता है। वहीं से उसके सारे कष्टों का जन्मस्रोत है।

“ऐसे जानि मनोरथ मेटहु’।

इस दुःखों के जाल को देखकर अब अपने मनोरथ मिटा दो। यह जो मन के रथों में बैठकर तुम यात्राएँ कर रहे हो—ऐसा हो जाए, वैसा हो जाए; ऐसा बनजाए, वैसा बन जाए; ये जो मन के रथ हैं, इनको अब मिटा दो। अब मन के रथ से उतर आओ।

 

ऐसे जानि मनोरथ मेटहु,समझि सुखी रहु भाई।।

और फिर? फिर सुख—ही—सुख है। फिर दुःख तो जाना ही नहीं गया है कभी। जिसने भी परमात्मा के चरणों में समर्पण किया, उसने दुःख नहीं जाना। उस समर्पण में ही सारे दुःख मिट जाते हैं। उस समझ में ही सुख का सागर उमड़ आता है। परमात्मा से हमारी दूरी ही इतनी है—मेरी मर्जी। बस उतनी दूरी है।

 

फिर कहाँ आर्जू का लुत्फ रहा?

आर्जू हो गयी अगर पूरी

और जन्नत है क्या, जहन्नुम क्या

तेरी कुर्बत है इक तेरी दूरी

बस एक ही सारा उपद्रव है—”तेरी कुर्बत है इक तेरी दूरी’। तुझसे फासला बस जीवन का सारा कष्टों का सार है। तेरी समीपता जीवन के सुखों का सार है। स्वर्ग है तेरी कुर्बत, तेरे पास होना। और नरक है तुझसे दूर होना। दूरी और पास होने के बीच में दीवाल क्या है? मेरी मर्जी या तेरी मर्जी। जिस दिन तुम पूरे हृदय से कह सकोगे—तेरी मर्जी पूरी हो, उस दिन के बाद फिर दुःख नहीं है।

 

 

रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि विस्वासा

जन रज्जब यूँ जानि भजन करु, गोविंद है घर वासा।।

“रे मन, मानि सीख सतगुरु की’। इतनी ही तो सीख है सतगुरुओं की, इतनी छोटी—सी ही तो बात है—कुंजियाँ तो छोटी ही होती हैं; महल कितने ही बड़े हों जिनके द्वार खुल जाते हैं, कुंजियाँ तो छोटी ही होती हैं—इतनी ही सीख है सतगुरुओं की। क्या है? संतोष से दोस्ती बना लो। “हिरदै धरि विस्वासा’। कौन कर सकेगा संतोष से दोस्ती? जिसे जीवन में श्रद्धा है।

समझना इसे।

तुम माँ के पेट में थे नौ महीने तक, कोई दुकान तो चलाते नहीं थे, फिर भी जिए। हाथ—पैर भी न थे कि भोजन कर लो, फिर भी जिए। श्वास लेने का भी उपाय न था, फिर भी जिए। नौ महीने माँ के पेट में तुम थे, कैसे जिए? तुम्हारी मर्जी क्या थी? किसकी मर्जी से जिए? फिर माँ के गर्भ से जन्म हुआ, जन्मते ही, जन्म के पहले ही माँ के स्तनों में दूध भर आया, किसकी मर्जी से? अभी दूध को पीनेवाला आने ही वाला है कि दूध तैयार है, किसकी मर्जी से? गर्भ से बाहर होते ही तुमने कभी इसके पहले साँस नहीं ली थी माँ के पेट में तो माँ की साँस से ही काम चलता था—लेकिन जैसे ही तुम्हें माँ से बाहर होने का अवसर आया, तत्क्षण तुमने साँस ली, किसने सिखाया? पहले कभी साँस ली नहीं थी, किसी पाठशाला में गए नहीं थे, किसने सिखाया कैसे साँस लो? किसकी मर्जी से? फिर कौन पचाता है तुम्हारे दूध को जो तुम पीते हो, और तुम्हारे भोजन को? कौन उसे हड्डी—मांस—मज्जा में बदलता है? किसने तुम्हें जीवन की सारी प्रक्रियाएँ दी हैं? कौन जब तुम थक जाते हो तुम्हें सुला देता है? और कौन जब तुम्हारी नींद पूरी हो जाती है तुम्हें उठा देता है? कौन चलाता है इन चाँद—सूर्यों को? कौन इन वृक्षों को हरा रखता है? कौन खिलाता है फूल अनंत—अनंत रंगों के और गंधों के?

इतने विराट का आयोजन जिस स्रोत से चल रहा है, एक तुम्हारी छोटी—सी जिंदगी उसके सहारे न चल सकेगी? थोड़ा सोचो, थोड़ा ध्यान करो। अगर इस विराट के आयोजन को तुम चलते हुए देख रहे हो, कहीं तो कोई व्यवधान नहीं है, सब सुंदर चल रहा है, सुंदरतम चल रहा है; सब बेझिझक चल रहा है। तुम छोटे से अंश हो इस जगत के, तुम्हें यह भ्रांति कब से आ गयी कि मुझे स्वयं को अलग से चलाना पड़ेगा? मुझे अपना जिम्मा अपने ऊपर लेना पड़ेगा? इसी भ्रांति में तुमने अपने जीवन के सारे कष्ट, असफलताएँ और विषाद पैदा कर लिए हैं।

“हिरदै धरि विस्वासा’। खयाल रखना, रज्जब या मैं तुमसे किसी सिद्धांत में विश्वास करने को नहीं कहते हैं। यह नहीं कहते—गीता में विश्वास करो। उससे तुम धार्मिक नहीं बनोगे, हिंदू बन जाओगे। हिंदू का धार्मिक होने से क्या लेना—देना! यह नहीं कहता—कुरान में विश्वास करो। उससे तुम मुसलमान बन जाओगे। और पृथ्वी पर मुसलमान के कारण काफी उपद्रव हो चुके हैं। मैं तुमसे कहता हूँ—जीवन में भरोसा करो, किताबों में नहीं। मंदिर—मस्जिदों में नहीं, इस विराट अस्तित्व में भरोसा करो। और इसी भरोसे में संतोष का जन्म हो जाएगा। यह भरोसा और यह संतोष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम्हारा असंतोष इतना ही तो कह रहा है न कि मुझे अपना इंतजाम खुद करना है। अगर मैं न करूँगा तो कौन करेगा?

 

रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि विस्वासा।

जन रज्जब यूँ जानि भजन करु गोविंद है घर वासा।।

घर के भीतर गोविंद बसा है, तू किस फिकर में पड़ा है? कर भजन, नाच, आनंदमग्न हो—संतो, मगन भया मन मेरा—नाचो, गाओ, गुनगुनाओ, गोविंद ने तुम्हारे भीतर वास किया है। गोविंद तुम्हारे भीतर बैठा है।

 

हुआ करें तेरे कान आशनाए शोरे—जर्स

सफर का दिल में इरादा नहीं तो कुछ भी नहीं

 

हमारे बुतकदए—दिल में ढूँढ तो जाहिद!

यहीं कहीं तेरा काबा नहीं तो कुछ भी नहीं

“हुआ करें तेरे कान आशनाए शोरे—जर्स’। ऐ पुजारी, मंदिर की घंटियों की आवाज सुन—सुनकर तेरे कान फूट भी जाएँ तो कुछ न होगा।

 

हुआ करें तेरे कान आशनाए शोरे—जर्स

सफर का दिल में इरादा नहीं तो कुछ भी नहीं

सुनता रह मंदिर की घंटियों को, करता रह पूजा और पाठ, लेकिन अगर परमात्मा में डूबने की आकांक्षा नहीं; अगर असंतोष छोड़ने की, संतोष जगाने की कोई आकांक्षा नहीं—सफर का दिल में इरादा नहीं तो कुछ भी नहीं।

यह सब मंदिर—मस्जिद तेरी बनावटें हैं, तेरे झूठ, आदमी की ईजादें।

हमारे बुतकदए—दिल में ढूँढ़ तो जाहिद! और तू चला है बड़ा विराग साधने, बड़ा वैराग्य साधने, बड़ी तपश्चर्या करने; ऐ जाहिद, हमारे बुतकदए—दिल में, हमारे हृदय के मंदिर में भी तो ज़रा झाँक! “यहीं कहीं तेरा काबा नहीं तो कुछ भी नहीं’। अगर यहीं तेरा काबा न मिल जाए, तो कहीं भी नहीं मिलेगा।

“हिरदै धरि विस्वासा’; “गोविंद है घर वासा’। भीतर गोविंद का वास है। रचाओ रास! कहाँ के असंतोष में पड़ गए हो? किसे पाने चले हो? मालिकों का मालिक भीतर है! सम्राटों का सम्राट भीतर है!

हरिनाम मैं नहिं लीनां।

मगर कहाँ फुर्सत गोविंद को भीतर खोजने की?

 

हरिनाम मैं नहिं लीनां।

पाँच सखी पाँचू दिसि खेलैं, मन मायारस भीनां।।

आदमी तो इन पाँच इंद्रियों के जाल में पड़ा है। सोचता भोजन की, वह जीभ का रस। सोचता संगीत की, वह कान का रस। सोचता स्पर्श की, वह देह का रस। फुर्सत कहाँ है भीतर झाँके, अंतर के काबा को खोजे? फुर्सत कहाँ है कि गोविंद की तलाश करे? बाहर—ही—बाहर सब उलझा रह जाता है; सारा जीवन उसी में बीत जाता है। भोजन की तलाश करो, भोग की तलाश करो, सौंदर्य की तलाश करो, संगीत की तलाश करो, सुगंध की तलाश करो—इंद्रियाँ ही भरमाए रखती हैं। इंद्रियों के चक्कर में आदमी बाहर—ही—बाहर चलता रहता है, भीतर जाने का अवकाश नहीं मिलता, और हम चूक जाते हैं उससे जो हमारा है; और हम भटकते रहते हैं भिखारियों की तरह।

 

हरिनाम मैं नहिं लीनां

पाँच सखी पाँचू दिसि खेलैं. . .

और ये जो पाँच इंद्रियाँ हैं, अलग—अलग पाँच दिशाओं में इनकी यात्रा है। इसलिए तुम भी टूट गए खंड—खंड में—एक हिस्सा इधर जा रहा है, एक हिस्सा उधर जा रहा है। एक हिस्से को दूसरे की फिक्र नहीं है। जीभ के स्वाद में इतना खो जाते हो कि शरीर को कष्ट हो रहा है, इसकी फिकर नहीं है। शरीर के विश्राम में इतने सो जाते हो कि चित्त मलिन हो जाता है, उदास हो जाता है, इसकी फिकर नहीं है। एक—एक इंद्रिय अपनी—अपनी तरफ खींच रही है। तुम पाँच इंद्रियों के जाल में हो।

मुल्ला नसरुद्दीन एक घर में चोरी करने गया। चोरी तो नहीं कर पाया, क्योंकि घर के लोग जागे थे। उस घर के मालिक की दो पत्नियाँ थीं। एक ऊपर रहती, एक नीचे। और दोनों उसको खींच रही थीं। ऊपरवाली पत्नी ऊपर की तरफ खींच रही थी, नीचे रहनेवाली पत्नी नीचे की तरफ खींच रही थी! सो तुम समझ सकते हो जो उसकी फज़ीहत हो रही थी। घर में ऐसा उपद्रव मचा था कि मुल्ला छिपा हुआ एक कोने में, गबराया हुआ कि कब यह लोग शांत हो जाएं तो मैं भागुं। मगर भाग न पाया। वह आशांति रातभर चली। यह अशांतिया कोई ऐसी ही थोड़ी है कि खतम हो जाए आसानी से। वह उपद्रव रातभर चला—सुबह मुल्ला घर में ही पकड़ा गया—निकलने का मौका न मिला।

अदालत में मुकदमा चला। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम भाग क्यों नहीं सके? उसने कहा—भागने का उपाय नहीं था। घर में ऐसा उपद्रव मचा था—एक तो मैं उत्सुक भी हो गया उपद्रव देखने में, और दूसरा उपद्रव ऐसा था और इन दोनों स्त्रियों ने ऐसी मरम्मत की अपने पति की कि मैं डरा भी कि अगर मैं पकड़ा गया तो मेरी क्या गति होगी! जब पति की यह गति हो रही है! तो मजिस्ट्रेट ने पूछा—अब तुम्हें क्या कहना है? उसने कहा—हुजूर, मुझे सिर्फ एक ही बात कहनी है कि और सब दंड देना मगर दो स्त्रियों से विवाह करने का दंड मत देना। सब तरह की सजा भोगने को तैयार हूँ, मगर जो देखा है उस रात, बस दो स्त्रियों से मेरी शादी मत करवा देना! इतना—भर मुझे कहना है। और मुझे कुछ कहना नहीं है।

लेकिन दो स्त्रियों का क्या सवाल है, यहाँ पाँच स्त्रियाँ हैं एक—एक के पीछे। पाँचों इंद्रियाँ खींच रही हैं। तुम्हारी फज़ीहत हुई जा रही है। तुम टूट गए हो खंड—खंड में।

 

पाँच सखी पाँचू दिसि खेलैं, मन मायारस भीनां।।

और मन है कि सपनों में डूबा हुआ है। इसलिए जो भीतर मौजूद है, उसका पता नहीं चलता। गोविंद है घर बासा, मगर पता कैसे चले? और प्रतिपल पुकार रहा है गोविंद भीतर से, मगर पता कैसे चले?

 

नसीमे—सहर ने मुझे गुदगुदाया

हँसाया, हँसाकर यह मुझको बताया

—कि वे आ गए हैं

चहकते हुए पंछियों ने जगाया

जगाया, जगाकर यह मुझको बताया

—कि वे आ गए हैं

 

महकने लगा फिर गुलाबी सवेरा

मिला मुझसे बिछड़ा हुआ प्यार मेरा

मुहब्बत भरा गीत भँवरों ने गाया

लुभाया, लुभाकर यह मुझको बताया

—कि वे आ गए हैं

 

दुल्हन मेरे ख्वाबों की सजने लगी है

फजाओं में पायल—सी बजने लगी है

तराना कोई बादलों ने सुनाया

सुनाया, सुनाकर यह मुझको बताया

—कि वे आ गए हैं

 

मचलने लगीं मेरे दिल की उमंगें

जवाँ हो गयीं फिर पुरानी तरंगें!

किसी ने मेरे दिल को झूला झुलाया

झुलाया, झुलाकर यह मुझको बताया

—कि वे आ गए हैं

 

हवा मुस्करायी, फजा गुनगुनायी

किसी के लिए सेज मैंने बिछायी

बहारों ने फिर मेरा घूँघट उठाया

उठाया, उठाकर यह मुझको बताया

—कि वे आ गए हैं

परमात्मा प्रतिक्षण आ रहा है। हवाएँ भी उसकी खबर लाती हैं, बादलों की गड़गड़ाहट भी उसकी खबर लाती है; चाँद भी उसकी खबर लाता है, सूरज भी उसकी खबर लाता है; फूल खिलते हैं और उसकी खबर लाते हैं, हर घड़ी उसकी खबर आ रही है—कि वे आ गए हैं—लेकिन तुम्हें फुर्सत कहाँ? तुम उलझे हो अपनी इंद्रियों के चक्कर में। तुम खींचे जा रहे हो। तुम बड़ी झंझट में पड़े हो। तुम्हारा जीवन एक उपद्रव है।

मन मायारस भीनां’।

मायारस का अर्थ होता है—सपनों का रस। नहीं है, उसमें उलझे हो। और जो नहीं है, उसमें उलझे होने के कारण उससे वंचित हो, जो है।

 

कौन कुमति लागी मन मेरे, प्रेम अकारज कीनां।

किस कुबुद्धि में पड़ गए हो, किस बेहोशी में जी रहे हो, कैसी नींद है यह कि व्यर्थ से प्रेम कर लिया है। “प्रेम अकारज कीनां’। जिससे कुछ हल नहीं होगा, उससे प्रेम कर लिया है। और जिससे सब हल हल हो जाए, उससे प्रेम नहीं किया—असंतोष से प्रेम कर लिया है और संतोष से प्रेम नहीं किया। मन रे, करु संतोष सनेही।

 

देख्या उरझि सुरझि नहिं जान्यूँ, विषय विषयरस पीनां।।

उलझना तो तुमने खूब कर दिया है, अब समझ में नहीं आ रहा है कि सुलझें कैसे! सूत्र दे रहे हैं रज्जब। उलझने का सूत्र है— असंतोष। बहुत समस्याएँ नहीं हैं तुम्हारे जीवन में। बहुत लक्षण हैं, समस्या तो एक ही है—असंतोष।

“देख्या उरझि सुरझि नहिं जान्यूँ’, उलझना तो तुमने जान लिया, खूब उलझ गए हो और अब कहते हो—सुलझूँ कैसे? लेकिन अगर तुम ठीक से समझो अपनी उलझन को तो तुम पाओगे—सबके पीछे असंतोष है। और सूत्र मिल जाए असंतोष का तो सुलझने का सूत्र भी हाथ में आ गया। बस असंतोष से “अ’ को अलग कर देना है। “अ’ यानी अभाव। असंतोष अभाव में, लगाव में लगाए रखता है, “अ’ के अलग होते ही भाव हो जाता है। जो है, उसका अनुभव शुरू हो जाता है।

 

. . .विषम विषयरस पीनां।।

कहिए कथा कौन विध अपनी, बहु बैरनि मन खीनां।

और तुम्हारी कथा ही क्या है? इतनी ही कथा है कि कितनी चोटें खायीं, कितने घाव खाए, कितनी पीड़ाएँ झेलीं, इतनी ही कथा है कि कितनी—कितनी काँटे की झाड़ियों में उलझे। तुम्हारी कथा क्या है, व्यथा ही तुम्हारी कथा है।

 

कहिए कथा कौन विध अपनी, बहु बैरनि मन खीनां।

बहुत शत्रुओं के जाल में पड़ गए।

 

आतमराम सनेही अपने, . . .

और गोबिंद भीतर बैठा है; असली प्यारा, असली मित्र भीतर बैठा है।

 

आतमराम सनेही अपने, सो सुपिनै नहिं चीनां।।

जागने की तो बात और सपने में भी खयाल नहीं आता परमात्मा का। सपने तक में उसकी झलक नहीं पड़ती। और मौजूद है परमात्मा हर घड़ी। जागे हो तब भी मौजूद है, सोए हो तब भी मौजूद है, सपने में भी मौजूद है।

मैत्रेय जी ने एक प्रश्न पूछा है कि आप कहते हैं सपना झूठा है। सपना अगर झूठा है तो फिर सच क्या है? सपने को देखनेवाला सच है। ऑंख खुला सपना भी झूठा है, ऑंख बंद किया सपना भी झूठा है, मगर दोनों के बीच एक सूत्र है जो जोड़ रहा है—देखनेवाला, द्रष्टा। द्रष्टा सच है।

दृष्टि बदलो, दृश्य से द्रष्टा पर लौट आओ। बाहर न जाओ, भीतर आ जाओ। “हिरदै धरि बिस्वासा’, “गोविंद है घर वासा’। जब तुम गहरे—से—गहरे सपने में भी खोए हो, तब भी तुम्हारे भीतर जो देख रहा है सपने को, वह स्वयं गोविंद है, वह स्वयं परमात्मा है। द्रष्टा परमात्मा का स्वभाव है। दृश्य में उलझ जाना हमारी उलझन है। हमारी ईजाद। द्रष्टा पर जाग जाना उलझन का अंत।

 

आतमराम सनेही अपने, सो सुपिनै नहिं चीनां।।

आन अनेक आनि उर अंतरि, पग पग भया अधीनां।

कितनी वासनाओं में उलझ गए! अनेक विषयों को मन में स्थान दे दिया है। “आन अनेक आनि उर अंतरि’—कितने लोग बसा लिए भीतर; कितनी वासनाए,ँ कितनी आकांक्षाएँ! इसी भीड़ में भीतर का गोविंद खो गया है। उसकी आवाज बड़ी धीमी है, और तुम्हारी वासनाओं का शोरगुल बहुत बड़ा है।

पग—पग भया अधिना— और इन्हीं के कारण तुम पग—पग भिखमंगे हो। जब तक वासना है, तब तक भिखमंगापन है। जब तक असंतोष है, तब तक भिखमंगापन है। फरीद अकबर के पास गया था, क्योंकि फरीद के गाँव के लोगों ने कहा—अकबर से कहो एक स्कूल बनवा दे। और तुम्हें तो इतना मानता है तो जरूर तुम्हारी बात मान लेगा। फरीद गया। कभी राजमहल गया नहीं था। जब कभी आना था तो अकबर खुद आता था उससे मिलने। गया। पता चला अकबर अभी प्रार्थना करता है मस्जिद में, तो वह मस्जिद में जाकर खड़ा हो गया देखने कि क्या प्रार्थना करता है अकबर? प्रार्थना सुनी तो चकित हुआ। प्रार्थना कर रहा था अकबर हाथ उठाकर कि हे मालिक, या मालिक, मुझे और धन दे, और दौलत दे, मेरे साम्राज्य को बड़ा कर! फरीद तो लौट पड़ा।

अकबर ने प्रार्थना पूरी की, ऑंख खोलकर देखा, फरीद को लौटते सीढ़ियाँ उतरते देखा तो दौड़ा, कहा—कैसे आए और कैसे चले? फरीद ने कहा—आए थे सम्राट के पास, भिखारी को देखकर चले। नहीं—नहीं, अब तुमसे कुछ भी न कहूँगा! तुम्हारे पास वैसे ही कम है, मदरसा तुम मेरे गाँव में बनवाओगे और कमी हो जाएगी। नहीं—नहीं, बात ही खतम हो गयी। अकबर ने कहा—कौन—सी पहेली बूझ रहे हैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आता, कौन—सा मदरसा, कौन—सा सम्राट, कौन—सा भिखारी, क्या कह रहे हैं आप? फरीद ने कहा—आया था गाँव के लोगों की बात मानकर कि एक स्कूल खुलवा दें। मगर यहाँ मैंने देखा कि तुम अभी भी माँग रहे हो—हे परमात्मा, हे मालिक, और धन दे, और दौलत दे, मेरे राज्य को बड़ा कर। तो फिर तुमसे क्या माँगना? फिर मैंने सोचा कि जिससे तुम माँग रहे हो, उसी से हम भी माँग लेंगे। अगर माँगना ही होगा, तो फिर बीच में और एक दलाल क्यों लेना! और तुम तो वैसे ही दरिद्र हो, मेरे पास कुछ होता तो तुम्हें देकर जाता। मगर मैं गरीब आदमी, मेरे पास कुछ है नहीं। तुम्हारी प्रार्थना सुनकर मुझे ऐसी दया आने लगी है कि कुछ होता तो सब दे देता—यह बेचारा माँग रहा है!

तुम खयाल रखना, तुम्हारे सम्राट भी भिखमंगे हैं। जब तक वासना है तब तक कोई सम्राट हो ही नहीं सकता। “पग पग भया अधीनां’।

 

जन रज्जब क्यूँ मिलै जगतगुरु, जगत माहिं जी दीनां।।

दो चीजें हैं—जगत, जो तुम्हारे बाहर फैला है, और जगतगुरु, जो तुम्हारे भीतर बैठा है। जगत में ही उलझे रहे तो जगतगुरु से चूक जाओगे। और असंतोष जगत में उलझाए रखता है। संतोष जगत से सुलझा देता है। और जैसे ही चित्त सुलझता है जगत से, जाओगे कहाँ फिर? जब जाने की अब कोई इच्छा न रही, वासना न रही, कोई असंतोष न रहा, कोई अतृप्ति न रही, तो कहाँ जाओगे फिर? होओगे तो कहीं? तब तुम अपने भीतर होओगे। तभी तुम गोबिंद के रस में डूब जाओगे। जगतगुरु भीतर बैठा है। जगत को बनानेवाला भीतर बैठा है। बस इतना ही करना है, एक छोटा—सा सूत्र—असंतोष को संतोष में बदल देना है।

 

मन रे, करु संतोष सनेही।

तृस्ना तपति मिटै जुग—जुग की, दुःख पावै नहिं देही।।

मिल्या सुत्याग माहिं जे सिरज्या, गह्या अधिक नहिं आवै।

तामें फेर सार कछू नाहीं राम रच्या सोइ पावै।।

बाछै सरग सरग नहिं पहुँचै, और पताल न जाई।

ऐसे जानि मनोरथ मेटहु, समझि सुखी रहु भाई।।

रे मन, मानि सीख सतगुरु की, हिरदै धरि बिस्वासा।

जन रज्जब यूँ जानि भजन करु, गोबिंद हैं घर वासा।।

 

आज इतना ही।

 

 

 


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आनंद योग—(द बिलिव्‍ड)

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आनंद योग—(द बिलिव्‍ड)

(अंग्रेजी पुस्‍तक ‘’The Beloved Vol-2’’ बाउल संतो के क्रांति गीत का हिन्‍दी अनुवाद स्‍वामी ज्ञान भेद द्वारा)

रमात्‍मा तुम्‍हारे चारों और है,

और तुम हमेशा उससे चूक रहे हो,

परमात्‍मा के पास केवल एक ही काल है—

और वह है वर्तमान उसके लिए

भूतकाल और भविष्‍यकाल

का अस्‍तित्‍व ही नहीं है।

मनुष्‍य, वर्तमान न रहकर,

भूत या भविष्‍य में रहता है,

परमात्‍मा भूत और भविष्‍य

में न रहकर वर्तमान में रहता है,

इसलिए दोनों का मिलन कैसे हो?

हम भिन्‍न आयामों में जी रहे है।

या तो परमात्‍मा, भूत और भविष्‍य

में रहना शुरू कर दे तब यह मुलाकात हो जाती है,

लेकिन तब परमात्‍मा न रहेगा,

वह ठीक तुम्‍हारे जैसा एक सामान्‍य मनुष्‍य होगा;

अथवा तुम वर्तमान में जीना शुरू कर दो—

तभी होगा मिलन।

लेकिन तब तुम एक साधारण

मनुष्‍य नहीं रह जाओगे,

तुम दिव्‍य बन जाओगे।

केवल दिव्‍य का ही दिव्‍य के साथ

मिलन हो सकता है।

केवल समान ही समान के साथ

मिल सकता है।

—ओशो


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आनंद योग—(द बिलिव्‍ड)–(प्रवचन–1)

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जड़े और फूल एक ही है—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 10 जूलाई 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

सूत्र—

बाउल गाते हैं

उत्सव आनंद में डूबे साहसी दीवानों का

रस और माधुर्य जब एक स्वर्णपात्र में इकट्ठा हो जाता है

तभी उसका मूल्य समझ में आता है कि

वह श्रेष्ठतम है। पूजा प्रार्थना फलप्रद होकर तभी

विकसित करती है

जब तुम्हारा पात्र तैयार और शुद्ध हो। वही प्रेमी सत्य को

उपलब्ध होता है

जो समग्रता से प्रेम करता है।

इसे बार—बार प्रयास कर असफल होने वाला व्यक्ति ही

पूरी तरह समझता है। जब उसके आगे मृत्यु के रहस्य खुलते हैं

वह पूरी तरह जीवंत होता है।

जीवन के दूसरे तलों में ऐसा है ही क्या

जिसकी वह फिक्र करे…..?

नुष्य विभाजित है। अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचे दो जीवन—दर्शनों के कारण मनुष्य का मन भी विभाजित और खण्डित है। दोनों ही दर्शनों में अतिरंजना है, दोनों ही दो तार्किक छोरों पर हैं।

कभी लोग इस दर्शन को—’खाओ, पियो और मौज करो’ के नाम से पुकारते हैं, जो संयोगवश जीवन का भौतिकवादी दृष्टिकोण है। यह कहीं भी पहुंचाता नहीं, और न इसमें कुछ स्थायित्व है। तुम किसी चीज के लिए कोई साधन नहीं जुटा रहे हो और न ही कुछ घटने जा रहा है, इसीलिए तुम उस क्षण में छोड़ दिए गए हो, जिससे अधिकतम तुम उसे अपना बना लो। मृत्यु पूरी तरह से सब कुछ नष्ट कर देगी, और कुछ भी न बचेगा, इसलिए दूसरे किनारे की फिक्र ही मत करो। कुछ भी यहां लक्ष्य जैसा है, इस बारे में सोचो ही मत। न विचार करो—परमात्मा, सत्य, मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त करने के बारे में। ये सभी मात्र भ्रम हैं, इनका कहीं कोई अस्तित्व है ही नहीं—यह सभी मनुष्य मन के मात्र खोखले सपने हैं। वे जरा भी महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, इसलिए उस क्षण से तुम जितना भी रस निचोड सकते हो, निचोड़ लो। जीवन में अंतर्प्रवाह जैसा वहां कुछ भी नहीं है, जो सार्थक हो। यह जीवन तो एक संयोग से मिला है : तुम किसी लक्ष्य या किसी कारण से उत्पन्न नहीं हुए हो।

बहुत अधिक लोग इसी तरह से जीते हैं, और बहुत कुछ ऐसा है, जिससे वे चूक जाते हैं—क्योंकि जीवन मात्र एक संयोग नहीं है, वहां उसका कुछ कारण और उद्देश्य है, क्योंकि प्रत्येक क्षण की शाश्वतता में वहां एक धागा दौड़ रहा है, क्योंकि जीवन एक फैलाव या एक विस्तार है। कोई चीज घटने जा रही है। भविष्य बंजर या बांझ नहीं है, उसमें कुछ सृजित होने जा रहा है। एक तैयारी की जरूरत है, जिससे तुम विस्तीर्ण हो सको, जिससे तुम्हारा बीज अपने उद्देश्य को प्रकट कर सके, जिससे तुम अपने स्वभाव और सारभूत तत्व को उपलब्ध हो सको, जिससे तुम जान सको कि तुम कौन हो और यह अस्तित्व है क्या?

जीवन एक पागल व्यक्ति का केवल एक विचार मात्र नहीं है। वह बहुत अधिक व्यवस्थित है। वह मात्र एक अव्यवस्था न होकर, पूरा ब्रह्माण्ड है। वहां सभी कुछ एक क्रम में है। अव्यवस्था के पीछे भी वहां एक व्यवस्था है, केवल उसे गहराई तक देखने के लिए आंखों की जरूरत है। सतह या परिधि पर तुम कुछ क्षणों को ही एक क्रम में देख सकते हो उसे, पर उसकी निरंतरता या शाश्वतता नहीं देख सकते। यह हो सकता है कि तुम परिधि पर शरीर के सिवा और कुछ अधिक न देख सको। ठीक उसी तरह जब तुम सागर के निकट जाते हो, तो उसके तट पर खड़े हुए तुम सागर की गहराई को नहीं देख सकते, केवल तुम उसकी लहरें ही देखते हो। लेकिन सागर मात्र लहरें ही नहीं है। बिना सागर के लहरों का कोई अस्तित्व नहीं है, और बिना लहरों के भी सागर अस्तित्व में नहीं रह सकता। लहरें सागर से पृथक नहीं हैं। लहरें और कुछ भी नहीं, बल्कि वह सागर का आलोड़न मात्र हैं और सागर में बहुत अधिक गहराई है। लेकिन उसकी गहराई को जानने के लिए किसी व्यक्ति को गहरे में गोता लगाकर उसकी गहराइयों में जाना होगा।

भौतिकवादी दृष्टिकोण ने जीवन को पूरी तरह अर्थहीन बना दिया है। तब तुम भले ही जीवित रहो अथवा तुम आत्महत्या कर लो, इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि जीवन और मृत्यु दोनों ठीक एक जैसे हैं। जीवन और कुछ भी नहीं, बल्कि मरने का एक ढंग है। तुम मरने जा रहे हो, तुम कैसे मरते हो इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। जब तुम मर जाते हो, तो उससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितनी अवधि तक जीये और फिर मर गये। कुछ भी फर्क पड़ता ही नहीं। यह दृष्टिकोण एक अर्द्धसत्य है— और आधा सच बहुत खतरनाक होता है, झूठ से भी कहीं अधिक खतरनाक, क्योंकि उसमें थोड़ा सा सत्य होता है। किसी चीज का थोड़ा सा होना बहुत बहुत धोखा दे सकता है। पूरा झूठ इतना खतरनाक नहीं होता, क्योंकि वह अधिक समय तक धोखा नहीं दे सकता। देर—सवेर तुम जानोगे ही कि वह झूठ है। आधे सच या अर्द्धसत्य बहुत खतरनाक होते हैं, क्योंकि यदि कुछ चीज सत्य है तो वह थोड़ा सा सत्य तुम्हें हिलगाये रख सकता है और झूठ को जानने में तुम कभी भी समर्थ न हो सकोगे।

दूसरा विपरीत छोर है आध्यात्मिक लोगों का। वह कहता है—’‘ यह क्षण व्यर्थ है। यह समय व्यर्थ है, केवल शाश्वतता ही अर्थपूर्ण है। इसलिए इस क्षण आनंद मनाने में समय व्यर्थ नष्ट मत करो। इस क्षण को नष्ट न करते हुए भविष्य के लिए तैयारी करो। भविष्य के लिए वर्तमान का बलिदान कर दो। तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उस सभी का उस भविष्य के लिए त्याग कर दो, जो अपने आप में एक पक्का आश्वासन देता है। जीवन को निरंतर सत्य की ओर गतिशील रखो। पूरा जीवन परमात्मा, अथवा निर्वाण अथवा स्वयं को उपलब्ध होने का एक निरंतर प्रयास बन जाये। ‘यह’ नहीं, बल्कि ‘वह’ महत्त्वपूर्ण है। यहां कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है, जो कुछ है वह,’ वहां ‘ है। दूसरा किनारा ही महत्त्वपूर्ण है। इस किनारे का तो एक छलांग लगाने वाले बोर्ड की तरह प्रयोग करना है, लेकिन तुम्हें जाना दूसरे किनारे पर ही है। वास्तविक जीवन तो दूसरे किनारे पर ही है। इस किनारे पर तो केवल भ्रम और भुलावे हैं, सब कुछ माया है। इसलिए ऐसी किसी भी चीज में समय नष्ट मत करो, जो तुम्हें इसी किनारे पर ही बनाये रखती है। इस तट पर प्रसन्न मत रहो, क्योंकि यदि तुम इसी तट पर आनंद मनाते रहे, फिर तुम इसे छोड़ोगे कैसे? उदास और गम्भीर रहो। यह तट, दुःखों और पीड़ाओं का तट है। यह तट जीवन का नहीं, मृत्यु का तट है। इस तट पर पापों के ढेर के सिवा और कुछ भी नहीं है, इसलिए यहां तो उदास बन कर ही रहना है। यह तट तुम्हें जो कुछ भी दे सकता है, उसके प्रति तटस्थ बने रहो। यहां किसी भी चीज के प्रति आसक्ति मत रखो। किसी भी व्यक्ति के प्रेम में पड़ो ही मत। इस तट के सौंदर्य के साथ प्रेम करो ही मत। सदा सजग बने रहकर उस दूसरे तट का ही स्मरण करो। अपनी दृष्टि सदा उस दूसरे किनारे की ओर ही लगाये रखो।’’

यह भी एक दूसरी अति या पराकाष्ठा है। यह भी अपने साथ अर्द्धसत्य लिए चल रही है, और यह भी पहली अति की ही भांति उतनी ही खतरनाक है।

यह क्षण भी उस शाश्वतता का एक भाग है, और यह किनारा भी, इस नदी के दूसरे किनारे की भांति ही महत्त्वपूर्ण है। इस तट का सौंदर्य और इस तट के गीत और काव्य भी, दूसरे तट के गीतों और काव्य जितने ही दिव्य हैं। यह क्षण जो तुम्हें उपलब्ध है, वह भी शाश्वत है। इसलिए इस क्षण का भविष्य के लिए बलिदान करना मूर्खता है, क्योंकि इसी क्षण जैसा ही भविष्य भी होगा। दूसरा तट भी हमेशा इस तट जैसा ही आयेगा। और यदि तुमने वह चाल सीख ली, जो अध्यात्मवादियों ने सीख कर पूरी मनुष्यता के मन को प्रदूषित कर दिया है, और उन्होंने पूरी मनुष्यता को यह सिखला कर कि कैसे इस क्षण को नष्ट किया जाये, कैसे इस तट के प्रति नकारात्मक बना जाये, तब तुम किसी भी जगह जाओगे तो तुम नकार से भरे होगे। तुम जहां भी होगे, तुम नकार से भरे होगे। तुम जहां कहीं भी होगे तुम विध्वंसात्मक ही होगे। तुम जहां कहीं भी रहोगे, तुम दुःखी और उदास ही रहोगे। यह धर्म नहीं

बाउलों का दृष्टिकोण इन दोनों दो विपरीत ध्रुवों के मध्य एक महान संश्लेषण है। बाउलों की समझ दोनों ही अर्द्धसत्यों का प्रयोग कर उनसे ही पूर्ण सत्य निर्मित करती है। बाउल कहते हैं—’‘ यह क्षण ही सब कुछ नहीं है, ठीक; लेकिन यह कहना भी गलत है कि यह क्षण कुछ भी नहीं है।’’ वे कहते हैं—’‘ जीवन एक तैयारी है, लेकिन यह तैयारी और कुछ भी नहीं, बल्कि इस क्षण के प्रति आनंदित बने रहना है।’’ वे न तो भौतिकवादी हैं और न अध्यात्मवादी। वे धार्मिक लोग हैं। धर्म एक महान संश्लेषण है। और यदि तुम इसे नहीं समझते हो, तो तुम या तो इस छोर की अति के अथवा उस अति के शिकार बन जाओगे। अथवा तुम आधे— आधे, दोनों के ही शिकार हो जाओगे। इसी तरह से मनुष्य का मन विचारों, अनुभवों और कार्यों के मध्य सम्बंध न जोड़ पाने से दुविधाग्रस्त हो जाता है। इस स्थिति को ‘सीजोफ्रेनिया’ कहते हैं। यह कोई मानसिक बीमारी न होकर, थोड़े से लोगों में घटने वाली व्याधि है और यह मनुष्यता की अब एक सामान्य स्थिति है। यहां प्रत्येक व्यक्ति विभाजित और खण्डित है। तुम इसे अपने ही जीवन में देख सकते हो। जब तुम किसी स्त्री या किसी पुरुष के साथ प्रेम में नहीं होते, तो तुम प्रेम के बारे में दिवास्वप्न देखने लगते हो। कल्पना में प्रेम ही जैसे लक्ष्य बन जाता है। जैसे वही जीवन का लक्ष्य बन जाता है। और जब तुम किसी स्त्री या किसी पुरुष से प्रेम कर रहे होते हो, तो अचानक तुम अध्यात्म की भाषा में सोचना शुरू कर देते हो : यह आसक्ति है, यह परिग्रह है, यह वासना है।’’ उसके प्रति निंदा का भाव उठने लगता

तुम अकेले भी नहीं रह सकते, और तुम किसी के साथ भी नहीं रह सकते। यदि तुम अकेले होते हो तो तुम्हारी उत्कंठा दूसरों या भीड़ के लिए होती है। यदि तुम किसी व्यक्ति के साथ होते हो तो तुम अकेले रहने के लिए व्यग्र होना शुरू हो जाते हो। इसमें कुछ चीज समझने जैसी है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को इस समस्या का सामना करना पड़ता है।

तुम इस दुविधाभरे ‘ सीजोफ्रेनिक ‘ संसार में ही उत्पन्न हुए हो। तुम्हें दोहरे मानदण्ड दिए गये हैं। तुम्हें भौतिकतावाद और आध्यात्मिकता दोनों साथ—साथ सिखाई गई हैं। पूरा समाज तुम्हें परस्पर विरोधी चीजें सिखाये चला जा रहा है। मैं एक बार एक उपकुलपति के साथ ठहरा हुआ था और उन्होंने कहा कि वे नई पीढ़ी के बारे में बहुत अधिक चिंतित हैं। उनके दो युवा पुत्र थे और वे उन दोनों के बारे में ही परेशान थे। वह चाहते थे कि वे विनम्र बनें। वह चाहते थे कि वे सच्चे, ईमानदार, धार्मिक और प्रार्थनापूर्ण बनें।

मैंने कहा—’‘ यह तो ठीक है। लेकिन आप उनसे और क्या चाहते हैं? ”उन्होंने उत्तर दिया—’‘ निश्चित ही मैं यह भी चाहता हूं कि वे जीवन में भी सफल हों।’’

मैंने जोर देकर पूछा—’‘ सफल होने से आपका क्या अर्थ है?”

उन्होंने कहा—’‘ कम से कम मैं तो उपकुलपति बन ही गया हूं। मैं चाहूंगा कि वे लोग भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर, ऊंचे पदों पर पहुंचे, भौतिक दृष्टि से सफल होकर जहां तक धन सम्पत्ति का सम्बंध है— उन लोगों के पास भी एक अच्छा बंगला, एक अच्छी कार हो, सुंदर पत्नी हो और समाज में भी प्रतिष्ठा हो।’’

और तब वह थोड़े से असहज होकर बोले—’‘ लेकिन आप यह सब कुछ क्यों पूछ रहे हैं?”

मैंने कहा—’‘ मैं इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि आपकी दोनों ही चाहें परस्पर विरोधी हैं। एक ओर तो आप चाहते हैं कि आपका पुत्र विनम्र हो और दूसरी ओर आप यह भी चाहते हैं कि वह महत्त्वाकांक्षी भी बने। अब यह दोनों चीजें उसे विभाजित कर देंगी। एक ओर तो वह मनुष्यता, विनम्रता, और सादगी का आदर्श लेकर चलेगा और दूसरी ओर उसका आदर्श होगा—सफल होना, महत्त्वाकांक्षी बन कर, सब कुछ प्राप्त करना। एक महत्वाकांक्षी मनुष्य विनम्र नहीं हो सकता — और एक विनम्र व्यक्ति, महत्त्वाकांक्षी नहीं हो सकता। और आप चाहते हैं कि वह प्रार्थनापूर्ण भी हो। आप चाहते हैं कि वह सच्चा और ईमानदार भी हो। एक व्यक्ति जो संसार में सफल होने का प्रयास कर रहा है, उसे बेईमान बनना ही होगा। और वास्तव में वह बेईमान भी इस तरह का होगा कि कोई कभी भी उसकी बेईमानी पकड़ न सकेगा। उसे बहुत चालाक बेईमान बनना होगा। उसे बेईमान होते हुए भी ईमानदार होने का बहाना बनाना होगा। उसे अहंकारी होते हुए भी विनम्र होने का ढोंग करना होगा। लेकिन ये दोनों इतने अधिक भिन्न, ठीक एक दूसरे के धुर विरोधी लक्ष्य हैं, और आप इन्हें एक ही व्यक्ति के अंदर समाविष्ट करना चाहते हैं—ऐसा व्यक्ति हमेशा विभाजित और खण्डित रहेगा। यदि वह सफल होता है तो वह

सोचेगा—’‘मेरी विनम्रता का क्या हुआ और क्या कुछ हुआ मेरी करुणा विकसित करने की भावना का?” और यदि वह विनम्र बनता है तो वह सोचेगा—’‘ आखिर क्या हुआ मेरी महत्त्वाकांक्षाओं का? मैं तो अब कहीं भी नहीं हूं।’’

तुम्हारा जन्म एक द्विविधाग्रस्त संसार में हुआ है। तुम्हारे माता—पिता द्विविधाग्रस्त थे, तुम्हारे सभी शिक्षक, तुम्हारे पुरोहित और तुम्हारे सभी राजनीतिज्ञ भी द्विविधाग्रस्त ही हैं। वे सभी दो धुर विरोधी लक्ष्यों की बातें किए चले जाते हैं और वे तुम्हें खण्डित और विभाजित व्यक्तित्व का बनाते जा रहे हैं।

बाउल बहुत स्वस्थ लोग हैं। वे द्विविधाग्रस्त और खण्डित नहीं हैं। उनका विश्लेषण समझ लेने जैसा है : यह समझ ही तुम्हारे लिए अत्यधिक सहायक होगी।

वे कहते हैं : ”यह संसार और उसके पार का दूसरा संसार, परस्पर विरोधी नहीं है।’’ वे कहते हैं—’‘ खाओ, पियो और मौज उड़ाओ, और साथ ही साथ प्रार्थनापूर्ण भी बने रहो, इन दोनों में कोई विरोध नहीं है।’’ वे कहते हैं—’‘ यह तट और दूसरा तट, दोनों परमात्मा रूपी नदी के ही दो किनारे हैं।’’ इसलिए वे कहते हैं कि प्रत्येक क्षण को भौतिकतावादी बनकर जीना है और प्रत्येक क्षण को अध्यात्म की ओर उन्‍मुख भी करना है। प्रत्येक क्षण एक व्यक्ति को प्रसन्न और उत्सवपूर्ण होना है और इसी के साथ—साथ उसे भविष्य में विकसित और विस्तीर्ण होने के लिए सजग होशपूर्ण और पूरी तरह सचेत भी बने रहना है। यह विकसित होना इस क्षण के उत्सवपूर्ण होने के विरुद्ध नहीं है। वास्तव में, क्योंकि तुम इस क्षण में आनंदित हो, तो अगले क्षण तुम्हारा हृदय कमल कहीं अधिक खिलेगा। इस क्षण तुम जितने अधिक प्रसन्न होगे, अगले क्षण तुम और अधिक आनंदित होने में समर्थ हो सकोगे। यदि आज स्वर्ग बन गया है तो आने वाला कल भी नर्क नहीं बन सकता क्योंकि उसका जन्म आज के ही गर्भ से होगा। यदि आज का दिन गीत, नृत्य और हास्य से परिपूर्ण अत्यधिक सुंदर बीता है, तो कल भी कैसे उदास हो सकता है? उदासी उसमें कहां से प्रविष्ट हो सकती है? वह तुम्हारा आने वाला कल बनने जा रहा है, और जब वह आयेगा, वह आज जैसा ही आयेगा, क्योंकि तुमने आज किस तरह जीया जाये, यह राज जान लिया है।

बाउल कहते हैं—’‘ किसी सांसारिक व्यक्ति से जीवन जीने का ढंग सीखो, इपीक्यूरियन या चारवाक से सीखो कि इस क्षण को कैसे जिया जाये। असली और प्रामाणिक धार्मिक लोगों से दिशा निर्देश लेना सीखो, बुद्ध, महावीर और कृष्ण का संश्लेषण करो। इस क्षण और शाश्वतता को विभाजित मत करो, पदार्थ और मन को विभाजित और खण्डित मत करो और न आकाश और पृथ्वी को अलग— अलग जानो। जड़ों और फूलों में विभाजन मत करो, वे दोनों एक साथ ही हैं।

सहभागिता अथवा दो विरोधों को एक साथ लेकर चलना ही बाउलों का लक्ष्य है। और जब अंदर सारे विभाज विसर्जित हो जाते हैं और जब वहां अंदर कोई संघर्ष नहीं रह जाता, तब अंदर तुममें एकत्व और अखण्डता घटती है, तुम दीसिवान हो उठते हो। तुममें एक महान गरिमा का जन्म होता है। तब तुम उतने ही प्रसन्न होगे जितना इपीक्यूरस था और तुम बुद्ध की भांति मौन भी हो जाओगे।

एक बाउल की आत्मा में, बुद्ध और इपीक्यूरस दोनों एक दूसरे का आलिंगन कर रहे हैं, और यही मेरा भी लक्ष्य है, यही मेरी भी सिखावन है। यदि किसी भांति तुम बिना इपीक्यूरस हुए बुद्ध बन जाओ, तो बहुत कुछ चूक जाओगे। तुम बुद्ध की पत्थर प्रतिमा की भांति बनकर रह जाओगे, तुम जीवंत न रहोगे। अथवा यदि तुम बिना बुद्ध बने इपीक्यूरस बन जाते हो, तुम तब भी बहुत कुछ चूक जाओगे। तुम क्षणिक जीवन के कुछ क्षणों का ही आनंद ले सकते हो, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। जीवन के पास तुम्हें देने के लिए और भी बहुत कुछ है और तुम केवल सतह की लहरों पर ही जीवन बिता रहे हो, तुम कभी भी गहराई तक पहुंचते ही नहीं।

मैं तुम्हें इतना समर्थ बनाना चाहता हूं कि तुम लहरों पर रहते हुए चमकती धूप के साथ बहती हुई प्रचण्ड हवाओं और गर्जते तूफान का भी सामना करते हुए सागर की गहराई में भी उतर सको, जहां सभी तूफान मिट जाते हैं, जहां केवल ऐसा गहरा अंधकार होता है जिसमें सूरज की एक किरण भी नहीं पहुंच पाती और जहां हर चीज बिना किसी शोर या व्यवधान के शांत और मौन होती है। लेकिन मैं चाहता हूं कि तुम दोनों के योग्य बन सको। यदि एक तुम्हें दूसरे के लिए असमर्थ बनाता है तो तुम अपार सम्पदा वाले मनुष्य नहीं हो, तब तुम आधे अधूरे मनुष्य हो। तब तुम्हारा आधा अस्तित्व मृत है। तब तुम लकवाग्रस्त हो : तब तुम पूरी तरह जीवंत नहीं हो।’’

तुमने जरूर सुना होगा कि अस्तित्ववादी क्या कहते हैं। उनकी आधारभूत घोषणा है : आत्मा से पहले मनुष्य का शरीर अस्तित्व में आया। वे कहते हैं— ”मनुष्य पहले जन्मा, और तब धीमे— धीमे उसने स्वयं अपनी आत्मा का सृजन किया। मनुष्य एक खाली बोतल की तरह रिक्त ही जन्मा था, उसके अंदर कुछ भी न था, वह ठीक एक कोरे कागज की तरह था। तब धीमे— धीमे उसे अपनी आत्मकथा स्वयं लिखनी पड़ी। वह कुछ भी साथ लेकर नहीं आया था, उसे हर चीज पर अपने हस्ताक्षर स्वयं करने पड़े। वह एक खालीपन या रिक्तता लेकर ही जन्मा था।’’ बाउल इससे ठीक विरोधी बात कहते हैं। वे कहते हैं : मनुष्य का जन्म आत्मा के ही साथ हुआ, आत्मा अर्थात् ‘आधार मनुष्य ‘। ‘ सारभूत मनुष्य ‘ अथवा आत्मा वहां सदा से ही है, यह हो सकता है वह प्रकट हो या अप्रकट हो। बीज में वृक्ष पहले ही से छिपा होता है। शरीर से पहले आत्मा होती है, उससे अन्यथा नहीं होता। बाउल कहते हैं कि जीवन किसी नई चीज का सृजन नहीं है, वह केवल एक फैलाव है। तुम्हारे पास वह पहले ही से है, केवल उसे विकसित होना है, उसके बीच में आने वाले अवरोधों को हटाना भर है। बाधाएं या अवरोध हटाकर उन्हें केवल एक ओर रख देना है और जीवन विकसित होना शुरू हो जाता है। तुम एक कली की भांति हो ‘जब उसके खिलने में कोई बाधाएं नहीं आतीं, तो खिलावट होना शुरू हो जाती है और तुम्हारा कमल खिल जाता है।

लेकिन तुम जो कुछ बनने जा रहे हो, तुम सारतत्व के रूप में वह पहले ही से हो—’‘ क्योंकि यदि तुम पहले ही से ‘ वह ‘ न रहे होते ‘‘, बाउल कहते हैं, तब तुम बन ही नहीं सकते थे। तुम्हारे बनने का और कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं, वहां कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे तुम कुछ और बन सकते। गुलाब की झाड़ी में गुलाब खिलेंगे ही, कमल की बेल कमल ही उपयेगी। तुम अपनी नियति पहले ही से अपने साथ लिए चल रहे हो, केवल उनके रास्ते की रुकावटें हटा देनी हैं।

यही है वह चीज, जिसे बाउल तैयारी करना कहते हैं। अपने आप को तैयार करने का अर्थ है, अपने रास्ते की रुकावटों को दूर हटाना। यदि तुम घृणा को मिटा दो, तो प्रेम का झरना बहना शुरू हो जायेगा। तुम्हें प्रेम पैदा करने की जरूरत नहीं है, कोई भी व्यक्ति प्रेम उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि तुम प्रेम को उत्पन्न कर सकते तो वह असम्भव होता। केवल घृणा को हटा दो और तुम देखोगे, प्रेम प्रवाहित होने लगा। मूर्च्छा दूर करो और तुम देखोगे, समझ का उदय होने लगा। नकारात्मक चीजों को हटाओं, विधायक विकसित होना शुरू हो जायेगा। तब पूरी तैयारी ही केवल नकारात्मक चीजों को हटाने की है। यह लगभग ऐसा है, जैसे नदी की धारा के प्रवाह को कोई छोटी सी चट्टान रोक रही हो ‘ तुम चट्टान हटा देते हो और नदी प्रवाहित होने लगती है। चट्टान ही उसके मार्ग का अवरोध बन रही थी और धारा के लिए यह कभी सम्भव ही न था कि वह आगे बढ़कर प्रकट हो पाती। हम अपने अस्तित्व के साथ बहुत सी चट्टानें लिए चल रहे हैं—इन्हें तुम अपनी बहती ऊर्जा का अवरोध कह सकते हो—लेकिन उन अवरोधों को हटाना और विसर्जित करना होगा।

बाउलों की विधियां बहुत सरल हैं। वे कहते हैं कि यदि नाच सकते हो तो तुम्हारे अस्तित्व से बहुत से अवरोध विसर्जित हो जायेंगे—क्योंकि जब कोई व्यक्ति नृत्य करता है और नृत्य में सच्चाई से गति करता हुआ, केवल घूमना ही बन जाता है, तो वह तरल हो जाता है। क्या तुमने इसे देखा नहीं है? यदि तुमने किसी को नृत्य में खोते हुए देखा है, तो तुम इसे क्यों नहीं समझ पाते? तब वह अधिक समय तक शिला जैसा ठोस और कठोर रह ही नहीं सकता। नाचते हुए वह घुल रहा है, बह रहा है। वह ठोस से तरल हो रहा है। यह तरलता ही अवरोधों को पिघलाती है। इसलिए बाउलों के लिए नृत्य करना ही योग है। वह एक दूसरे के साथ घंटों नाचते हैं। जब आकाश में रात्रि को चंद्रमा की चांदनी छिटकी हुई होती है, तो बाउल रात भर नाचते ही रहते हैं, क्योंकि उनके लिए चंद्रमा ही उनके प्रियतम कृष्ण का प्रतीक है। वे अपने कृष्ण को पूर्ण चंद्र ही कहते हैं। जब रात्रि का अधिपति पूरा चंद्रमा वहां होता है, वे नाचेंगे ही। और यह नृत्य कोई प्रस्तुति या कार्यक्रम नहीं है उनके लिए यह किसी और को दिखाने के लिए नहीं है। यदि कोई इसे देखता है, तो वह दूसरी बात है। बाउल स्वयं अपने ही लिए अपने आनंद के लिए नाचते हैं।

अवधी के महान कवि तुलसीदास से किसी ने पूछा— आपने रामायण क्यों लिखी ?—क्योंकि उन्होंने अपना पूरा जीवन उसमें ही लगा दिया।

तुलसीदास ने कहा—’‘ स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा ” : अपने स्वयं के आनंद के लिए ही मैं राम कथा गाता रहा—स्वान्तः सुखाय, केवल स्वयं अपने आनंद के लिए ही, केवल मात्र अपने आनंद की खातिर यह किसी और के लिए उनकी कोई प्रस्तुति न थी।

बाउल नाचते हैं स्वान्तः सुखाय, स्वयं अपने आनंद के लिए। गीत गाना उनकी दूसरी विधि है। उन्होंने बहुत कोमल, स्त्रैण, ताओवादी और सौंदर्यबोध को उत्पन्न करने वाली विधियां चुनी हैं, वे सख्त या कठोर नहीं हैं। वे गीत गाते हैं और गीत गाते हुए पूरी तरह उसमें डूब जाते हैं, खो जाते हैं। गीत गाना उनके लिए मंत्र दोहराने जैसा है, गीत गाना उनके लिए प्रार्थना करने जैसा है। और वे गीत गाते हैं— अपने प्रीतम प्यारे के लिए वे गीत गाते हैं— अपने मालिक के बारे में, अपने परमात्मा के बारे में। यदि तुम गीत गाने में खो गये तो तुम नाद ब्रह्म में खो गये, तुम ध्वनिरहित ध्वनि में खो गये। और उनका गीत गाना और नाचना कोई संस्कारित चीज नहीं है। उसमें किसी संस्कार सम्पन्न करने जैसा कुछ नहीं है। प्रत्येक बाउल वैयक्तिक है। तुम दो बाउलों को एक ही नृत्य करते अथवा एक ही तरह से नाचते भी नहीं पाओगे। वे किसी कर्मकाण्ड का पालन या अनुसरण नहीं करते।

यह बात समझने जैसी है, क्योंकि यह उनके लिए बहुत बहुत बुनियादी बात है। और मैं चाहूंगा कि तुम इसे निरंतर याद रखो। यदि कोई चीज कर्मकाण्ड या संस्कार बन जाती है, तब उसे छोड़ देना, वह अब व्यर्थ हो गई, क्योंकि कर्मकाण्ड का अर्थ ही है—उसे दोहराना। मुसलमान, एक विशेष ढंग से प्रतिदिन नमाज पढ़ते हैं, वह एक संस्कार या कर्मकाण्ड बन गई है। ईसाई जो प्रार्थना करते हैं, एक ही प्रार्थना वह बार—बार दोहराते हैं। वे उसे करने के इतने अधिक अभ्यस्त हो गये हैं, कि उसमें किसी चेतना की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। वे उसे औपचारिक रूप में कर सकते हैं और उसके ही साथ उसके पीछे पृष्ठभूमि में बहुत से विचार चलते रहते हैं। उनकी प्रार्थना रोबोट की तरह यंत्रचालित बन गई है। वे शब्दों को दोहरा सकते हैं। वे प्रार्थना के शब्दों को जानते हैं, वे उन्हें कई बार दोहरा चुके हैं। वह उनके लिए एक मृत संस्कार भर रह गया है।

बाउल कहते हैं— अपनी प्रार्थना को प्रत्येक क्षण से उठने दो। अपने अतीत को ढोये चले जाने की आवश्यकता क्या है? क्या तुम अपने परमात्मा से सीधे ही बातचीत नहीं कर सकते? एक ही बात को बार—बार दोहराने की आखिर क्या तुक है? आज, कल से भिन्न है—प्रार्थना भी नई होनी चाहिए उतनी ही नूतन और नवीन, जितना कि सुबह का उगता हुआ सूरज और ओस की बूंदें नई हैं। कुछ ऐसा कहो, जो तुम्हारे हृदय से उमड़ रहा हो। यदि उसमें कुछ नहीं उमग रहा तो गहन मौन में झुक जाओ, क्योंकि वह सब कुछ जानता है। वह तुम्हारा मौन निवेदन भी समझ जाएगा। किसी दिन यदि नाचने जैसा लगे तो नाचो। अब उस क्षण के लिए वही प्रार्थना होगी। किसी दिन यदि तुम गीत गाना चाहो—लेकिन किसी और के गीत को दोहराना मत क्योंकि वह तुम्हारे हृदय में से नहीं उमगा है और उन दिव्य चरणों में अपने हृदय को उड़ेलने का यह कोई तरीका नहीं है। अपने गीत को कंठ से स्वयं फूटने दो। उसके छंद और व्याकरण की बात भूल ही जाओ। परमात्मा कोई बहुत बड़ा व्याकरण का आचार्य नहीं है और न वह उन शब्दों की फिक्र करता है, जिनका तुम प्रयोग कर रहे हो। उसका अधिक सम्बंध तो तुम्हारे हृदय से है। उसका’ मुख्य सम्बंध तो तुम्हारे इरादों और भाव से है। वह समझ ही जाएगा।

इसलिए बाउल अपने गीत उस क्षण की अन्तर्प्रेरणा से रचते हैं। वे सहज स्वाभाविक होते हैं। उस क्षण वे परम विश्राम में होते हैं, वे नृत्य को अपने से होने देते हैं, वे गीत को स्वयं अपने से उमगने देते हैं। यही वजह है कि वे लोग पागल जैसे जाने जाते हैं, क्योंकि किसी दिन वे परमात्मा से झाड़ भी सकते हैं। और ऐसा होना ठीक भी है। जब तुम परमात्मा से प्रेम करते हो तो उससे झगड़ा भी कर सकते हो। किसी दिन वे उससे बहुत नाराज होकर कहेंगे—’‘ नहीं, आज मैं तेरी प्रार्थना करने नहीं जा रहा हूं। तूने मेरे लिए किया ही क्या है? मैं तुझसे बहुत नाराज़ हूं।’’ लेकिन यह प्रार्थना बहुत सुंदर है। यह सुनी जायेगी, यह अस्तित्व के केंद्र तक पहुंचेगी। जब तुम प्रेम करते हो तो कभी—कभी तुम खीज भी हो जाते जब तुम प्रेम करते हो, तो कभी तुम नाराज भी हो जाते हो, कभी—कभी तुम शिकायतें करने लगते हो और कभी केवल नाचते हो। मनुष्य बहुत असहाय है और बाउल पूरी तरह निःसहाय होकर जीता है। यही कारण है कि वह सभी वस्तुओं की पकड छोड़ देता है और सड़क का भिखारी बनकर रहता है। वह अपने को परमात्मा के हाथों में छोड़ देता है और कहता है—’‘ मुझे तुम पर पूरा भरोसा है।’’

ठीक दूसरे ही दिन मैं एक बाउल द्वारा गाया हुआ गीत या प्रार्थना पढ़ रहा था, जिसमें बाउल कहता है—’‘ फिर ठीक है, यदि तू मेरी परीक्षा ही लेना चाहता है तो जरूर ले परीक्षा। यदि तू मुझे दुःख और पीड़ाएं ही देना चाहता है, तो वही दे। जितना अधिक मैं सह सकता हूं उन्हें सहूंगा। ठीक है न?”

लेकिन उसकी यह बातचीत, महज बात भर ही नहीं है। यह उसका प्रियतम से संवाद है। और वह किसी शास्त्र के वचन नहीं दोहरा रहा है, वह अपना शास्त्र स्वयं गढ़ रहा है। और जब तुम स्वयं अपना शास्त्र सृजित करते हो केवल तभी तुम सही अर्थ में जीते हो। यदि वह उधार लिया हुआ है तो तुम उसे जी नहीं सकते। उधार लिया गया गीत भी कोई गाता है? उधार लिया नाच कोई नृत्य नहीं होता। उसे स्वयं अंदर से प्रकट होने दो। उसके सम्पादित होने के बारे में फिक्र ही मत करो, क्योंकि हम लोग जो कुछ भी प्रस्तुति करते हैं, उसके बारे में दूसरे लोगों की राय के बाबत बहुत अधिक चिंता करते हैं। बाउल लोग नृत्य गान की प्रस्तुति जैसी कोई चीज नहीं कर रहे हैं, उनकी पहुंच प्रत्यक्ष है। वह परमात्मा से उसी तरह सीधी बातचीत कर रहे हैं, जैसा एक छोटा बच्चा, अपने माता—पिता से बातचीत करता है, जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से बातचीत करता है : वह बात जीवंत होती है। आज के लिए जो गीत है, वह बहुत प्यारा है।

उत्सव आनंद में डूबे साहसी दीवानों का

रस और माधुर्य

जब एक स्वर्णपात्र में इकट्ठा हो जाता है

तभी उसका मूल्य समझ में आता है,

कि वह श्रेष्ठतम है।

पूजा प्रार्थना भी तभी फलप्रद होती है

जब तुम्हारा पात्र तैयार और शुद्ध हो

वह तभी तुम्हें विकसित करती है।

इसलिए बाउल कहते हैं—’‘ तुम अपने आप को तैयार करो।’’ लेकिन जब वह तुम्हें अपने को तैयार करने के लिए कहते हैं, तो उसका अर्थ संसार के विरोध में तैयार होने से नहीं है। उनकी तैयारी जीवन समर्थित है। जब वे कहते हैं—’ तैयारी करो ‘ तो दूसरे आध्यात्मिक लोगों के अर्थ जैसा उनका अर्थ नहीं होता। जब दूसरे आध्यात्मिक लोग पूजा प्रार्थना के लिए तैयार होने की बात कहते हैं तो उसका अर्थ होता है—जीवन में प्रसन्न और प्रमुदित होना छोड़ दो जीवन के विरुद्ध चलो।

और उत्सव आनंद के प्रति अपने लगाव को नष्ट करना शुरू कर दो। ऐसे धार्मिक लोग गहरे अर्थों में, स्वयं अपने शरीर को कष्ट देने वाले स्वपीड़क हैं। स्वयं को सताना उनके लिए बहुत मूल्यवान बन जाता है। वे स्वयं अपने लिए दुःखों और कष्टों को सृजित करते हैं। नहीं, बाउल तो जीवन प्रेमी होता है। जब वह कहता है— ‘अपने को तैयार करो, तो वह कह रहा है—इस क्षण का आनंद लो, जिससे तुम अगले क्षण के लिए तैयार हो सको। इस क्षण को स्वर्णिम बना लो। अपने सभी क्षणों को सुनहरे पलों की एक शृंखला बना लो, और तुम स्वर्ण पात्र जैसे बन जाओगे। और तुम स्वर्णपात्र जैसे बन जाओगे।’

उत्सव आनंद में डूबे साहसी दीवानों का

रस और माधुर्य

जब एक स्वर्णपात्र में इकट्ठा हो जाता है

तभी उसका मूल्य समझ में आता है

कि वह श्रेष्ठतम है।

परमात्मा को आमंत्रित करने से पूर्व, तुम्हें एक स्वर्ण पात्र बनना होगा, जिससे वह अपने को तुम्हारे पात्र में उड़ेल सके। प्रसन्न, प्रमुदित और हर्षित रहो, जिससे तुम परम आनंदित बनने में समर्थ हो सको। इस तट पर उत्सव आनंद मनाओ जिससे जिसे तुम दूसरा तट कहते हो, वहां उत्सव आनंद मनाने के तरीके सीख सको। केवल वे लोग जो पहले ही से तैयार हैं, उसके द्वारा बुलाये जायेंगे। यदि तुम उदास, दुखी, स्वपीडूक और स्वयं को ही सताने वाले हो, तुम दूसरे तट को अपने से और दूर कर रहे हो। क्योंकि दूसरा तट उन्हीं लोगों के अधिकार में हो सकता है, जो उसे भली भांति समझ सकते हैं। तुम जितने अधिक उत्सवमय होते हो, दूसरा तट उतना ही अधिक तुम्हारे निकट आ जाता है। और वास्तव में जब तुम्हारा उत्सव— आनंद अपने सर्वोच्च शिखर पर होता है, यह तट ही दूसरे तट में बदल जाता है। जब तुम वास्तव में अपने समारोह के सर्वोच्च शिखर पर होते हो, जब तुम्हारा नृत्य चरम सीमा पर होता है, तो तुरंत ही यह तट फिर यह तट रह ही नहीं जाता, और तुम दूसरे तट पर ही होते हो। फिर तुम इस संसार में रहते ही नहीं, तुम परमात्मा में ही होते हो।

पूजा प्रार्थना तभी फलप्रद होती है

जब तुम्हारा पात्र तैयार और शुद्ध है

वह तभी तुम्हें विकसित करती है।

एक योग्य पात्र की आवश्यकता होती है। यदि तुम परमात्मा को धारण करने वाले पात्र बनना चाहते हो, यदि तुमने ‘ उसे ‘ अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है और तुम उसका मेजबान बनना चाहते हो, तब तुम्हें स्वर्ग के राज्य में रहने के ढंग सीखने होंगे। तुम्हें यहां और अभी इस ढंग से रहना होगा कि यह क्षण ही स्वर्ग बन जाये, और केवल तभी तुम परमात्मा को आमंत्रित कर सकते हो। बहुत से लोग बिना यह विचार किये हुए उसे आमंत्रित किये चले जाते हैं, कि जैसे वह उसका स्वागत कर उसे ग्रहण करने को पहले से तैयार हों। यदि वह आता है, क्या वह तुम्हें पहले से ही तैयार पायेगा? यदि वह आता है तो क्या तुम उसका स्वागत करने में समर्थ होगे? यदि वह अपने को तुममें उड़ेलता है तो क्या तुम्हारा स्वर्ण पात्र पहले से तैयार है? यदि नहीं, तो तुम उसकी दिव्यता को कैसे इकट्ठा करोगे? क्या तुम्हारे हृदय का पात्र पहले ही से खुला हुआ उसे ग्रहण करने को तैयार है? कोई भी व्यक्ति इस बारे में पूछता ही नहीं।

मेरे पास बहुत से लोग आते हैं और वे पूछते हैं—कहां है परमात्मा ?—जैसे मानो यह परमात्मा का कर्त्तव्य हो कि वह अपने आपको सिद्ध करे कि वह कहां है। यदि वह स्वयं अपनी उपस्थिति सिद्ध नहीं कर सकता तो वे लोग विश्वास भी नहीं कर सकते। अभी और यहीं, परमात्मा तुम्हारे चारों ओर है। वह तुम्हारे अंदर ही है तुम उसके बिना हो ही नहीं सकते। उसके सिवा और कुछ है ही नहीं, केवल परमात्मा ही है। लेकिन तुम ही पहले से तैयार नहीं हो। तुम स्वर्णपात्र बने बिना चूक रहे हो उसे। तुम्हारे पास उसे देखने की दृष्टि ही नहीं है, उसे सुनने के लिए तुम्हारे पास कान ही नहीं है और उसका स्पर्श महसूस करने के लिए तुम्हारे पास वे हाथ ही नहीं है। तुम तैयार हो ही नहीं, और तुम उसका स्वागत उसी से कर सकते हो, जो तुम्हारे पास पहले ही से तैयार हो। एक भी क्षण खोने जैसा नहीं है। एक बार तुम तैयार हो जाओ, तो तुरंत—बिना एक भी क्षण के अंतराल के जिस क्षण तुम तैयार होते हो, तुरंत वह प्रकट हो जाता है और घटना घट जाती है। क्योंकि वह तो पहले ही से प्रकट है, केवल तुम्हारी तैयारी ही घटित होनी थी।

यदि जब कभी हम तैयार होने की कोशिश भी करते हैं, हमारे प्रयास आधे अधूरे हृदय से किए गए प्रयास होते हैं।

एक कवि बॉब डाय ने अपनी एक बोध कथा में इसे भली भांति व्यक्त किया है और मैं तुम्हें उसी के बाबत बताना चाहता हूं।

जॉन वेस्ले हार्डिंग के संगीत एलबम के पीछे की ओर हम तीन व्यापारियों का विवरण पाते हैं जिनमें से एक व्यापारी ने फ्रैंक से भेंट करते हुए अपने मिशन को स्पष्ट करते हुए कहा—’‘ मि. ड्यालन के गीतों का एक नया रिकार्ड आया है, जिसमें कोई विशिष्टता न भी हो, लेकिन वह उनके लिखे गीत हैं और हम समझते हैं कि उनकी सफलता की कुंजी आपके पास हैं। फेंक ने कहा—’‘ आप ठीक कह रहे हैं।

कुंजी मैं हूं।’’ व्यापारी ने कुछ और उत्तेजित होकर कहा—’‘ ठीक है, फिर कृपा कर उसे हमारे लिए आप स्पष्ट करें।’’

फ्रैंक जो पूरे समय आंखें बंद किए लेटा हुआ था, उसने अचानक अपनी दोनों आंखें फाड़ते हुए कहा—’‘ और आप कितनी दूर तक साथ चल कर मुझे सहयोग गे?”

उन तीनों व्यापारियों के प्रमुख ने उत्तर दिया—’‘ बहुत अधिक दूर तक नहीं, सिर्फ उतनी ही दूर तक, जिससे हम कह सकें कि हम लोग भी वहां थे।’’

जो लोग परमात्मा को खोज रहे हैं, वे लोग भी केवल उतनी ही दूर तक चलना चाहते हैं—जिससे वे संसार को यह बता सकें कि उन्होंने भी परमात्मा को देखा है। लेकिन वे काफी दूर तक चलना ही नहीं चाहते—क्योंकि यदि तुम परमात्मा में बहुत अधिक दूर तक बढ़ गये तो तुम कभी वापस नहीं लौट सकते। वे लोग अगला कदम उठाना ही नहीं चाहते—क्योंकि यदि तुम गहरे उतर गये, तब वहां एक बिंदु ऐसा आ जाता है, जहां से तुम वापस नहीं लौट सकते। वे केवल थोडी ही दूर तक चलना चाहते हैं, जिससे वे संसार में वापस लौटकर लोगों से यह कह सकें—’‘ हमने भी परमात्मा को देखा है।’’ लेकिन उनकी पूरी दिलचस्पी इस संसार में और उस सम्मान पर है, जो संसार उन्हें दे सकता है। बैंक में उनकी अच्छी खासी रकम जमा है, आज उनके पास एक महलनुमा विशाल कोठी है और अब वे अपने घरों में ही परमात्मा को भी प्राप्त कर सकते हैं।

यह एक सुंदर कथा है।

व्यापारियों का प्रमुख उत्तर में कहता है—’‘ बहुत अधिक दूर तक नहीं, सिर्फ उतनी ही दूर तक जिससे हम कह सकें कि हम लोग भी वहां थे।’’

जब तुम मंदिर में जाते हो, तो तुम जाकर भी वहां वास्तव में नहीं जाते, तुम्हारा चेहरा बाजार की ओर ही रहता है। क्या तुमने कभी इसे अपने आप में अथवा दूसरों में देखा है ?—यदि तुम मंदिर में अकेले ही होते हो, तो तुम्हें प्रार्थना करने में अधिक आनंद नहीं आता। यदि वहां बहुत से लोग तुम्हें देख रहे होते हैं, तब तुममें बहुत उत्साह होता है, तुम अपने को बहुत उच्च समझते हो— अपनी प्रार्थना के कारण नहीं, बल्कि केवल इसलिए क्योंकि पूरा शहर तुम्हें वहां देख रहा है। और वे लोग सोचेगे कि तुम कितने अधिक धार्मिक कितने अधिक सदाचारी और कितने अधिक परमात्मा के निकट हो। तुम चाहोगे कि लोग तुम्हें देखकर ईर्ष्या का अनुभव करें। यह तुम्हारी प्रस्तुति है। लेकिन तुम्हारी यह प्रस्तुति लोगों के सामने उनके ही लिए है, और परमात्मा इसके बाहर है। तुम्हारा उससे कोई भी सम्पर्क नहीं हो रहा है।

उससे अकेले में ही सम्पर्क करो, क्योंकि तब वह कोई प्रस्तुति नहीं होगी। तुम्हें किसी भी व्यक्ति के आगे कुछ भी सिद्ध नहीं करना है, तुम्हें तो उसके आगे अपना हृदय खोलना है।

बाउल गाते हैं—

अकेले बैठे हुए

तुम जैसे ही विस्मयविमूढ़ होते हो

कि मृत्यु का समय आ पहुंचता है।

ओ मेरे पागल हृदय!

सभी से बेखबर होकर

तूने अस्सी लाख योनियों में

अनंत पीड़ाओं से गुजरते हुए

जन्म से मृत्यु की यात्राएं पूरी करते हुए

जनम—जनमों में खोज करते हुए

यह मानुष देह प्राप्त की है।

इस मानुष तन की पावन भूमि को

तूने क्यों बंजर बना डाला?

यदि तूने उसे गोडा औ जोता होता

तो इसी से सोने जैसी फसल उग सकती थी।

ओ मेरे हृदय!

 

प्रेम का फावड़ा उठाकर

पापों के खर—पतवार को उखाड़कर

और सारे अवरोधों को अलग हटाकर,

तू आस्था के बीज बो,

जो विकसित हो सकें।

तुम वे बीज अपने साथ लिए चल रहे हो। तुम्हारे अस्तित्व के गहरे केंद्र में वह खजाना पहले ही से प्रतीक्षा कर रहा है, वह प्रतीक्षा कर रहा है उन अवरोधों के हटने की, जिससे वह चारों ओर फैलकर विकसित हो सके। परमात्मा होना तुम्हारा अंतर्निहित गुण और स्वभाव है : परमात्मा ही तुम्हारी नियति है। तुम्हीं वह बीज हो, और तुम्हारा बीज ही विकसित होकर परमात्मा का पुष्प बनने जा रहा है।

मनुष्य के सभी अंग

खिले कमलों के एक जोड़े से जुड़े हैं।

एक कमल नीचे की ओर खिला है

और दूसरा शरीर के ऊपर के भाग में

लेकिन इन कमलों को खिलने के लिए

तेरी ही तलाश है।

यह तेरे शरीर में

सूरज के उगने और अस्त होने की भांति ही

खिलते और बंद होते हैं।

जैसे ही तुम्हारा होश जागता और सोता है, तुम्हारे अंदर का कमल भी।ग्वलता और बंद होता है। ठीक जैसे सूरज आकाश में पूरब के क्षितिज पर उदित होता है, यह कंवल भी खिल जाते हैं और पश्चिम में सूरज जब अस्त होता है और रात आ जाती है तो यह कंवल भी फिर बंद हो जाते हैं।

बाउल कहते हैं—

मनुष्य के सभी अंग

खिलते कमल के एक जोड़े से जुड़े हैं…..

जिसे योगी चक्र कहते हैं, पानी की भंवर जैसे ऊर्जा के यह सात चक्र होते हैं। बाउल इन्हीं को सात कमल के पुष्प कहते हैं।

एक कमल नीचे की ओर उग रहा है

और दूसरा—शरीर के ऊपर के भाग में

लेकिन इन कमलों को खिलने के लिए

तेरी ही तलाश है।

यह तेरे शरीर में सूरज के उदय और अस्त होने की भांति ही

खिलते और बंद होते हैं।

जिनमें यह कमल खिलते हैं

उनकी अमावस जैसी काली रात में

पूर्ण चंद्र का उदय हो जाता है।

सबसे नीचे का कमल सेक्स का कमल है। जब तुम वहीं बने रहते हो तो अमावस की काली रात होती है। सबसे अंतिम सातवां कमल है—सहस्रार यह वह कमल है जहां चंद्रमा पूर्ण होकर चमकता है। सेक्स से प्रेम की ओर गतिशील होना है। वह मनुष्य जो सहस्रार तक आ पहुंचा है—उसका गुण है प्रेम, उसके सभी कार्य प्रेमपूर्ण होते हैं। और जो व्यक्ति सबसे नीचे के चक्र अथवा कमल पर बना रहता है, उसके गुण अथवा कार्य, सेक्स से सम्बंधित होते हैं।

और जरा भी चिंता मत करो। बाउल गाते हैं—

अपनी इस टूटी नाव के लिए

मेरी चिंताओं का अंत नहीं

क्योंकि यह नाव अब मुझे और आगे नहीं ले जा सकती,

इसमें अब सारा जल तेजी से भरता जाता है

और नमक ने इसके ढांचे को जर्जर बना दिया है

यह मेरी जीवन नौका

सारे जल का बोझ अब और नहीं ढो सकती।

ओ मेरे जीवन के स्वामी।

अपनी दृष्टि मेरी ओर उठाकर

मुझ पर अपनी करुणा बरसा

और जैसे ही मैं मरने लग

तू मेरा हाथ थाम ले।

क्रोध और घृणा के लुटेरों ने

मेरी जीवन नौका पर आक्रमण कर

सब कुछ लूट लिया है।

तट से बंधी रस्सी को काटकर

उन्होंने उसे तेज हवा और लहरों की दया पर

छोड़ दिया है।

सद्गुरु कहते हैं—

तू अपने हृदय पर लगे दागों को धो डाल

तेरी नाव शांत जल में फिर से तैरने लगेगी।

केवल हृदय के दागों को धोना है। हृदय से केवल संदेहों को गिराना है, हृदय से अविश्वास को हटाना है। एक बार विश्वास और श्रद्धा का जन्म हो जाये, तुम धुलकर साफ हो जाओगे। विश्वास और श्रद्धा हृदय को पूरी तरह से शुद्ध और साफ कर देते हैं, और तब कमल चक्र खिल उठते हैं।

पत्थर की चट्टान पर

आस्था का बोया हुआ बीज

दिन प्रतिदिन सूखता ही जाता है

वह कभी भी अंकुरित हो ही नहीं सकता।

तुम बंजर पृथ्वी को चाहे कितना ही

गोड़ो, जोतो

लेकिन सूखे सख्त बीजों से

फसल उग ही नहीं सकती।

वह अरण्य महान है

जिसमें चंदन के वृक्ष उगते हैं

और उनसे स्पर्श कर बहती हवा के झोंकों में

चंदन की सुबास होती है

जो आसपास के सभी वृक्षों को सुवासित कर

उन्हें भी चंदन बना देती है।

यदि तुम किसी बहुत कठोर हृदय में परमात्मा के बीज बोना चाहो, तो वे उ—गेगे नहीं। पहले अपने हृदय को कोमल बनाओ, उसे ग्राह्यशील बनने दो। तब वह उस अरण्य की मुलायम मिट्टी की तरह हो जायेगा, जहां चंदन के वृक्ष उगते हैं। और गीत की ये पंक्तियां बहुत सुंदर हैं—

महान है वह अरण्य

जिसमें चंदन के वृक्ष उगते हैं

और उनसे स्पर्श कर बहती हवा के झोंकों में

चंदन की सुवास होती है,

जो आसपास के सभी वृक्षों को सुवासित कर

उन्हें भी चंदन बना देती है।

और जब एक मनुष्य का बीज प्रस्कुटित होकर फलता फूलता और महकता है, तो जो भी लोग उसके संपर्क में आते हैं वे चंदन ही हो जाते हैं। इसीलिए सत्संग की इतनी ख्याति है, इसीलिए सद्गुरु की उपस्थिति का इतना अधिक गौरव है। वह चंदन का वृक्ष बन जाता है। केवल उसके सम्पर्क में आने भर से तुम सुवासित हो उठते हो, और तुम्हारा अपना बीज अंकुरित और विकसित होना शुरू हो जाता है। लकड़ी के तख्तों और धातुओं के टुकड़ों को जोड़कर

तुम सागर पर तैरने के लिए नाव बनाते हो,

लेकिन पानी के लिए

यह सभी तत्व अजनबी हैं।

उस पर तैरती नाव यात्रा पर भी ले जाती है

और डूब भी जाती है।

लेकिन प्रेम की गांठ कभी नहीं टूटती।

यदि वाहन ठीक नहीं है, यदि तैयारियां पूरी नहीं हैं, तो पूरा प्रयास व्यर्थ हो जाता है। तुम एक बड़ी और वजनी नाव भी बना सकते हो, लेकिन तब वह डूब जायेगी। वह सागर में तैरेगी नहीं।

बाउल कहते हैं कि केवल प्रेम की नाव पर बैठकर वही व्यक्ति, जो कोमल हो, जिसमें स्रैण ग्राह्यता हो, जिसमें गीत और नृत्य का उत्सव आनंद हो, केवल उस दूसरे किनारे पर पहुंच सकता है। इतने अधिक कोमल और स्त्रैण बन जाओ, ठीक मिट्टी की तरह मुलायम और अपने हृदय से सभी कठोर पत्थरों को बीन—बीन कर बाहर फेंक दो। सामान्य रूप से हम ठीक इसका उल्टा करते हैं, हम लोग संदेह और अविश्वास इकट्ठा किए जाते हैं और अपनी ही जमीन को पथरीला बनाकर नष्ट किए जाते हैं।

पूजा प्रार्थना तभी फलप्रद होकर

विकसित करती है

जब तुम्हारा पात्र तैयार और शुद्ध हो

वही प्रेमी सत्य को उपलब्ध होता है

जो समग्रता से प्रेम करता है,

वही अनुपलब्धि की पीड़ा

भली भांति समझता है।

वह प्रेमी जो समग्रता से प्रेम करता है, वही सत्य को उपलब्ध हो सकता है। वही अनुपलब्धि की पीड़ा समझ सकता है….. बाउल का मार्ग प्रेम है : प्रेम और उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं—समग्रता से प्रेम, प्रेम की परिपूर्णता में पूरी तरह डूबकर प्रेम और पूरी श्रद्धा।

अमृत पाने के लिए

हृदय के शीरे में

प्रेम भरे कृत्यों को मिलाकर

प्रेम की तीव्र भावना से

उसे देह की देग में भरकर

आग पर रखकर मथना होता है।

सामान्यत: लोग प्रेम तो करते हैं, लेकिन उनमें प्रेम की तीव्र भावना और अहसास नहीं होता। वे प्रेम का भी शोषण करते हैं। वे प्रेमियों की भांति व्यवहार तो करते हैं, लेकिन उनका प्रेम अपने को संतुष्ट और प्रसन्न करने के लिए ही होता है। उनमें प्रेम की तीव्र भावना और अहसास नहीं होता। वे प्रेम करने के लिए प्रेम नहीं करते। उनमें प्रेम के प्रति सम्मान और श्रद्धा नहीं होती। प्रेम एक वासना बनकर रह जाता है, वह कभी भी एक पूजा और प्रार्थना नहीं बनता।

अमृत पाने के लिए

हृदय के शीरे में

प्रेम भरे कृत्यों को मिलाकर

प्रेम की तीव्र भावना से

उसे देह की देग में भरकर

आग पर रखकर मथना होता है।

हृदय के माधुर्य को वाष्प बनाना होता है

तुम स्वयं से ही प्रेम करते हुए

उस अमृत की सम्पदा के कोष को

प्राप्त कर सकते हो।

यदि तुम ऐसा व्यक्ति खोज सको, जो पूरी तरह से परमात्मा के प्रेम में डूबा हो, तब अपने को उस व्यक्ति में डुबो लो—क्योंकि प्रेम सिखाया नहीं जा सकता, उसमें तो केवल डूबा जा सकता है। तुम्हें कोई भी प्रेम करने के ढंग सिखा नहीं सकता, तुम्हें इसके लिए एक प्रेमी के निकट सान्निध्य में रहना होगा। तुम्हें कोई भी नहीं सिखा सकता कि प्रार्थना कैसे की जाए उसका निरीक्षण करते हुए उन्हें अनुभव करते हुए उनके आसपास घूमते हुए उनके अस्तित्व के होने का स्वाद और सुवास लेते हुए ही तुम सीख सकोगे कि प्रार्थना क्या होती है। तब प्रार्थना करना एक कर्मकाण्ड न होगा। तब प्रार्थना तुम्हारे अंदर एक खिलावट करेगी, तुममें एक सहज स्वाभाविक नूतन दृष्टि उदित होगी।

हृदय की मधुरता को वाष्प बनाओ

और स्वयं से प्रेम करते हुए

पूरी तरह प्रेम रस में डूबकर

तुम उस अमृत के कोष और आंतरिक सम्पदा को

प्राप्त कर सकते हो।

ऐसा ही रिश्ता, सद्गुरु और शिष्य के मध्य घटित होता है। बाउल सद्गुरु को खोजते भ्रमण करते रहते हैं। जब भी वे ऐसा कोई व्यक्ति पाते हैं, जिसके गीत और जिसका नृत्य प्रार्थनापूर्ण हो. और इसे जानने का कोई बौद्धिक मापदण्ड नहीं हैं, तुम्हें बस किसी के सान्निध्य में रहना होता है। तुम कैसे जानोगे कि कोई व्यक्ति प्रेम में दीवाना है? उसकी कसौटी क्या है? केवल उसके साथ रहते हुए उसे देखना और समझना कि कैसे वह आचरण करता है, कैसे उससे उत्तर आता है। गीत गाते उसके बहते प्रेमाश्रुओं को देखना और समझना, भिन्न—भिन्न क्षणों में उसकी चित्तवृत्ति का निरीक्षण करना। धीमे— धीमे तुम यह अनुभव करने में समर्थ होते जाओगे कि क्या पूजा होती है, क्या प्रेम और क्या प्रार्थना होती है। हां! इसे सिखाया नहीं जा सकता बल्कि इसे पकड़ा जा सकता है,

वह दिन कब आयेगा

जब मेरे हृदय में विराजमान

वह अनमोल खजाना, वह मनमानुष

मेरा अपना बनेगा?

यद्यपि उस मनमानुष का कोई रूप

या कोई आकृति नहीं है।

लेकिन जिस मनुष्य ने प्रेम की राहों पर चलकर

उसका स्वाद लिया

जिससे उसकी सुवास का अनुभव कर उसे अपने

में अवशोषित कर लिया

वह मनुष्य

जिसे मृत्यु का बोध हो गया है

उसके होने का वह स्वयं ही सबसे बड़ा प्रमाण है।

जिसने अहंकार और ईर्ष्या

वासना और क्रोध

अज्ञान और लोभ के शत्रुओं को जीत लिया है

उसका पूरा जीवन ही

उसके होने का प्रमाण है।

यदि तुम्हारा जीवन, उस आधार मनुष्य के लिए

जीवंतता से प्रवाहित हो रहा है

तो वह अनुग्रह पूर्ण कदमों से चलकर

स्वयं तुम्हारे पास आयेगा।

देखो, तुम्हारी अपनी ही देह में

देवताओं, दानवों और मनुष्यों

इन सभी के संसार हैं

और वह वहां पहले ही से विराजमान है।

परमात्मा तुझमें पहले ही से गहरे पैठा हुआ है, यह खबर तुझे भले ही अब तक न हुई हो, तूने भले ही अब तक ईसामसीह का उपदेश अथवा ‘गोस्पेल ‘ न सुना हो। अंग्रेजी का यह शब्द Gosel बहुत सुंदर है। पुरानी अंग्रेजी में यह Godspeel है, जिसका अर्थ होता है—परमात्मा का जादू। ‘गॉड स्पेल’ कहीं अधिक सुंदर शब्द है। ‘वह’ पहले ही से तुझमें गहरे पैठा हुआ है। वह पहले ही वहां है, लेकिन अभी तक तुझको उसकी खबर नहीं हुई। तुम्हारा सिर, तुम्हारे हृदय से बहुत दूर है। अपने सिर को जरा उसके निकट लाओ।

प्रेम करने के तरीकों में ही मनुष्य अपनी पूरी खबर स्वयं देता है। और तुम्हारे ही शरीर में देवताओं, दानवों और मनुष्य के सभी संसार समाये हुए हैं। ‘ वह ‘ पहले ही वहां विराजमान हैं, और तीन संसारों को संभाले हुए हैं। बाउल रोते और बिलखते हैं और उनके बहते प्रेमाश्रु ही उसका प्रमाण हैं। उनका रोना इतना अधिक प्रामाणिक है और उनका बिलखना और व्याकुल होना भी इतना अधिक प्रामाणिक है कि यदि एक बार भी तुम किसी बाउल के सम्पर्क में आओ, तो तुम उससे कभी यह पूछोगे ही नहीं कि परमात्मा का अस्तित्व है अथवा नहीं।

यदि पहली ही दृष्टि में मैं उसके दर्शन न कर सका

तो फिर मैं अपने नयनों को कभी खोलूंगा ही नहीं।

तब क्या तुम उसकी गंध शंकर

कानों से उसकी पदचाप सुनकर मुझे बता सकोगे

कि वह आ गया है।

कि वह आ गया है पूरब के आकाश में

कि तुम्हारा मित्र छा गया है पूरब की पूरी दिशा में।

यदि पहली ही दृष्टि में, मैं उसके दर्शन न कर सका, तो फिर मैं अपने नयनों को कभी खोलूंगा ही नहीं वे गाये चले जाते हैं, प्रार्थना किए चले जाते हैं। उनका गीत इतना अधिक प्रामाणिक और सच्चा होता है उनकी प्रार्थना इतनी अधिक मर्मभेदी होती है, और यह बिना परमात्मा के कैसे सम्भव है? हां! प्रेम के रास्तों में परमात्मा ही उसका प्रमाण होता है।

वह प्रेमी, जो समग्रता से प्रेम करता है

वही सत्य को उपलब्ध हो सकता है।

इसे बार—बार प्रयास कर असफल होने वाला व्यक्ति ही

भली भांति समझता है।

पूरा जोर है समग्रता, पूर्णता, पूरी सावधानी और सम्पूर्णता पर। तुरंत ही जब तुम समग्रता से तैयार हो जाते हो, स्वर्णपात्र भी तैयार हो जाता है।

मृत्यु के रहस्य

उसके आगे उद्घाटित हो जाते हैं।

जब वह पूरी तरह जीवंत होता है।

फिर वह जीवन के दूसरे किनारे के लिए

किसी बात की कोई फिक्र करता ही नहीं।

”जबकि वह पूरी तरह जीवंत है, मृत्यु के रहस्य उसके आगे स्वयं खुल जाते हैं ”….. और प्रेमी भली भांति जानता है कि मृत्यु क्या होती है। प्रेमी जानता है कि जड़ें और कुल एक ही हैं मृत्यु होती ही नहीं है। केवल प्रेमी ही यह जानता है कि इस आस्‍तित्‍व में सबसे अधिक झूठी चीज मृत्यु ही है। क्यों? प्रेमी यह कैसे जान पाता है कि मृत्यु होती ही नहीं है? क्योंकि अपने प्रेम में प्रेमी तो पहले ही मर जाता है। और वह पाता है कि वह वहां अभी भी है—केवल वहां है ही नहीं, बल्कि इतना अधिक है वहां, कि उतना अधिक तो इससे पहले वह कभी रहा ही नहीं। मरकर भी, पहली बार ही वह इतनी समग्रता से जी रहा है। वह मरता है—परमात्मा के ही प्रेम में, अपने प्रीतम प्यारे के प्रेम में। वह पूरी तरह से, उसे बिना शर्त अपना समर्पण कर देता है।

केवल कुछ ही दिनों पूर्व गिरीश ने मुझे एक पत्र लिखा। वह सोचती है कि आश्रम में उसके करने के लिए बहुत अधिक कार्य है। यह सच हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। लेकिन अपने पत्र में उसने कुछ ऐसी चीज लिखी है जो बहुत अर्थपूर्ण है। उसने अपने पत्र में लिखा है—’‘ मेरे पास करने को बहुत अधिक कार्य है, और यह समर्पण नहीं है, यह बलिदान है ” अब समर्पण तो बलिदान करने के बारे में कुछ जानता ही नहीं।

यदि तुमने समर्पण को ठीक से जाना है तो तुमने पहले ही से अपना बलिदान दे दिया। समर्पण का अर्थ ही है कि तुम पहले ही मर गये। यदि तुमने मुझे अपना समर्पण किया है, तब वहां कोई समस्या है ही नहीं। तब कार्य अधिक हो या कम— तुम्हारा इससे कुछ लेना देना है ही नहीं। यह बात ही असंगत है। तब यह मुझे देखना होगा, तब मुझे यह तय करना होगा कि कौन सा कार्य अधिक है और कौन सा कम? और यह मुझे ही तय करना होगा कि तुम्हें करने को कितना अधिक कार्य कितनी अवधि के लिए दिया जाये और तुम्हें कितना अधिक कार्य करने के लिए एक विशिष्ट दिशा में शक्ति लगाने के लिए प्रेरित किया जाए। लेकिन तुम्हारे लिए अब कोई समस्या रही ही नहीं—तुम तो समर्पित हो। लेकिन यदि तुम सोचती हो कि तुम बलिदान देने जा रही हो, तो यह समर्पण नहीं है, तब तुमने कभी समर्पण किया ही नहीं। तब कोई भी चीज बलिदान करने जैसी ही दिखाई देगी।

एक प्रेमी ही जानता है कि बलिदान करने जैसा कुछ है ही नहीं। जब तुम समर्पित हो, तो जहां तक तुम्हारे अहंकार का सम्बंध है, तुम मृत हो। तब जो कुछ भी घटता है, तुम न केवल उसे स्वीकार करते हो, तुम उसे गहन कृतज्ञता के साथ स्वीकार करते हो।

एक प्रेमी मृत्यु का रहस्य जानता है, क्योंकि अपने प्रेम के द्वारा वह पहले ही मृत्यु की ओर गतिशील हो जाता है। वहां दो मृत्यु घटित होती है, एक मृत्यु तो होती है—तुम्हारे जीवन के अंत पर और दूसरी जो जीवन और मृत्यु के मध्य घट सकती है—वह प्रेम की मृत्यु है, प्रेम में मरना। जो व्यक्ति प्रेम में मरता है, फिर उसकी कभी मृत्‍यु होती ही नहीं। तब उसके लिए सभी तरह की मृत्यु का अंत हो जाता है। उसका पहले ही पुनर्जन्म हो गया। वह यह भली भांति जान गया कि केवल अहंकार की ही मृत्यु होती है। यदि तुम अहंकार छोड़ते हो, तो तुम अमर हो जाते हो। मृत्यु के रहस्य उसके आगे

स्वयं खुल जाते हैं

जब वह पूरी तरह जीवंत होता है।

फिर वह जीवन के दूसरे किनारे की

कोई फिक्र करता ही नहीं।

समर्पण के उस आत्यंतिक क्षण में—यह तट, दूसरे तट में ही बदल जाता है, यह संसार ही दूसरा संसार बन जाता है—फिर दूसरे किनारे की कौन परवाह करता है?

मैं एक बहुत महत्त्वपूर्ण कहानी पढ़ रहा था

चार सौ वर्ष पूर्व एक माली ने एक उथले गमले में चीड़ का एक इंच का पौधा रोपा। ज्यों—ज्यों पौधा बढ़ता गया, वह प्रत्येक जड़ और शाखा को सुव्यवस्थित करता रहा। जब उसकी मृत्यु हुई, तो उसकी देखभाल उसका पुत्र करने लगा और इसी तरह यह क्रम उन्नीस पीढ़ियों तक चलता रहा। आज भी वह वृक्ष टोकियो के कोवाला उद्यान में खड़ा हुआ है, वह कभी मूल गमले से पृथक विकसित ही नहीं हुआ। चार सौ वर्षों बाद भी वह केवल बीस इंच ही ऊंचा है और शीर्ष पर भी उसका फैलाव करीब छत्तीस इंच है। यह छोटा वृक्ष प्रत्येक को चीख—चीख कर चेतावनी दे रहा है। ठीक उस वृक्ष की ही तरह मन और आत्मा भी कतर कर छोटे किए जा सकते हैं, हमेशा परिणाम एक ही होगा, वह मनुष्य बौना बन जाएगा।

यदि तुम अपनी जड़ों को जीवन में विकसित नहीं कर रहे हो, यदि तुम अपनी जड़ों को विकसित करते हुए उन्हें प्रेम और विश्वास में नहीं फैलने दे रहे हो तो तुम बौने ही बने रहोगे। तुम कभी भी ‘सारभूत मनुष्य’ या ‘ आधार मानुष ‘ न बन सकोगे। विकसित होते हुए गहराइयों की ओर बढ़ो, क्योंकि जब तुम्हारी जड़ें विकसित होती हुई गहराइयों में पहुंचेगी, तुम्हारी शाखें विकसित होकर ऊंचाइयों की ओर बढ़ेगी। गहराई और ऊंचाई दोनों साथ—साथ बढ़ती हैं। पृथ्वी में जितनी तुम गहराई में जाते हो उतने ही ऊंचे आकाश की ओर भी जाते हो। इस तट की जितनी अधिक गहराई में तुम जाते हो, तुम दूसरे तट के और अधिक निकट पहुंचते हो।

प्रेम, जीवन से प्रेम करो, वह सब कुछ, जो तुम्हारे चारों ओर है, उससे प्रेम करो और अपनी जड़ों को जितनी अधिक दूर तक फैलाना सम्भव है, फैलाओ। तुम परमात्मा के ही चरण स्पर्श करना शुरू कर दोगे। तुम्हारे श्रद्धा सुमन, दिव्य चरणों पर बरसना शुरू हो जाएंगे। अन्यथा स्मरण रहे, तुम एक बौने ही बने रहोगे।

प्रेम करना एक अनिवार्यता है। यह आत्मा का एक मात्र पोषक तत्व है।

शरीर, भोजन करने से ही जीवित रह सकता है और आत्मा का अस्तित्व भी प्रेम ही

से है। यह केवल शब्द मात्र बनकर न रह जाये, इसे एक गहरा अनुभव बनने दो।

बाउलों के लिए प्रेम ही पूजा है। बाउलों के लिए प्रेम ही प्रार्थना है और

बाउलों के लिए प्रेम ही परमात्मा है।

 

 

 

 


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संतो मगन भया मन मेरा–(प्रवचन–08)

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अहेतुक प्रेम भक्‍ति है—(प्रवचन—08)

दिनांक 19 मई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—आपसे आंख मिली तबसे अविरत गुंजन हो गयी थी। कल संध्या आपके चरणों में गिरते ही धुन विदा हो गयी, शब्द निःशब्द हो गए। यह कैसी पुकार!

2—यहाँ आने का कोई कारण नजर नहीं आता, मगर न जाने आपकी कशिश मुझे यहाँ क्यों खींच लाती है। किसी को उत्तर देने में असमर्थ मगर अब जिंदगी में जीने का मजा आने लगा है। क्यों? साथ ही मैं बिल्कुल पत्थर हो गयी हूँ। रोना तो जैसे सूख ही गया है।

3—मनुष्य क्यों व्यर्थ की बातों में उलझा रहता है?

4—मेरी जिंदगी के “जिग्सा पज़ल‘ का अब तक न मिल रहा एक टुकड़ा कल संतोष पर हुए आपके प्रवचन में अचानक मेरे हाथ आ गया। भगवान, आशिष दें कि फिर न खो जाए।

5—संन्यासी होने के पश्चात हमने जो पाया है, वह सभी को प्राप्त हो, ऐसा हृदय में बार—बार उठता है। क्या यह संभव है?

6—संसार में ही परमात्मा छिपा है, या कि संसार ही परमात्मा है?

 

पहला प्रश्न : दर्शन दो भगवान

मेरी अंखियाँ प्यासी रे

तीन—चार दिन से जबसे आपसे आंख मिली है, तबसे अविरत गुंजन हो गयी थी। कल संध्या आपके चरणों में गिरते ही धुन विदा हो गयी, शब्द निःशब्द हो गए। यह कैसी पुकार!

चितरंजन, शब्द की पुकार गहरी पुकार नहीं। निःशब्द की पुकार ही गहरी पुकार है। प्रार्थना जब तक शब्दमय होती है, तब तक छिछली होती है, उथली होती है। प्रार्थना जब निःशब्द हो जाती है, तभी गहराई लेती है। बोली जा सके जो प्रार्थना, वह मस्तिष्क की ही तरंग है। बोली न जा सके जो प्रार्थना, वही हृदय का आविर्भाव है। गूँज से शुरू होती है बात, शून्य पर पूरी होनी चाहिए।

 

दर्शन दो भगवान

मेरी अंखियां प्यासी रे

ठीक है, यहीं से शुरू होगी बात। इसी अभीप्सा से। लेकिन अगर ये शब्द बहुत ज्यादा पकड़ मारकर बैठ जाएँ, तो इन्हीं शब्दों के कारण दर्शन असंभव हो जाएगा। यही शब्द गूँजते रहेंगे। इनकी गूँज के कारण ही उसकी गूँज सुनायी न पड़ सकेगी। वह बोल रहा है। लेकिन उसका बोलना निःशब्द है, मौन है। उसे समझना हो तो भी निःशब्द और मौन में ही समझना होगा। उससे पहचान बनानी हो तो उसकी ही भाषा सीखनी पड़ेगी। उसकी भाषा संस्कृत नहीं है; न अरबी है, न हिंदी है, उसकी कोई भाषा नहीं है। सन्नाटा उसकी भाषा है। शून्य उसकी भाषा है। मौन उसकी भाषा है। जैसे—जैसे प्रार्थना गहरी होने लगेगी वैसे—वैसे मौन होने लगेगी। फिर एक भाव ही रह जाएगा। भाव जो रोएँ—रोएँ में समाया होगा। भाव जो धड़कन—धड़कन में धड़केगा। भाव जिसे तुम पकड़ भी न पाओगे, मगर होगा। उसी भाव की पहुँच हो सकती है। उसी भाव के पास पंख होते हैं परमात्मा तक पहुँचने के।

तो ठीक हुआ अनुभव। शब्द छोड़ना है, शब्द से मुक्‍ति होना है, निःशब्द से जुड़ना है। मेरे पास आए हो इसीलिए बोलता हूं इसीलिए कि तुम्हें किसी तरह अबोल की तरफ ले चलूँ। समझता हूँ इसीलिए कि किसी तरह समझाने के पार ले चलूँ। शब्दों का उपयोग शब्दों की हत्या के लिए ही किया जा रहा है। जैसे एक काँटे से दूसरा काँटा निकाल लेते हैं, ऐसे तुमसे बोल रहा हूँ। ताकि मेरा काँटा तुम्हारे काँटे को निकाल ले। फिर दोनों फेंक देने हैं। फिर उस खालीपन में ही उसका आविर्भाव होता है। जब कोई शब्द की तरंग नहीं होती तब कुछ सुनायी पड़ता है। और जो सुनायी पड़ता है, वह तुम्हारा नहीं है फिर, वह किसी का नहीं है फिर, फिर वह समस्त का है। फिर वह पूरे अस्तित्व के प्राणों से उठा है। वही अनुभव रूपांतरित करता है।

तुम ठीक प्रतीति से गुजरे। मेरे पास आओगे तो पहले तो शब्द ही गूँजेंगे। पर धीरे—धीरे शब्द छूटते चले जाएँगे। फिर मैं यहाँ बोलता भी रहूँगा, वहाँ तुम सुनते भी रहोगे, और न तो मैं यहाँ बोल रहा हूँ और न तुम वहाँ सुन रहे हो। तब घटना घटेगी। मेरे बोलने में शून्य है, देर—अबेर तुम्हारे सुनने में भी शून्य हो जाएगा। तब इन दो शून्यों का मिलन होगा।

 

दूसरा प्रश्न : मुझे यहाँ आने का कोई कारण भी नजर नहीं आता। मगर न—जाने आपकी कशिश मुझे यहाँ क्यों खींच लाती है। किसीके पूछने पर भी उत्तर देने में असमर्थ होती हूँ। मगर अब जिंदगी में जीने का मजा आने लगा है। क्यों? साथ ही मैं बिल्कुल पत्थर हो गयी हूँ। रोना तो जैसे सूख ही गया है।

मुद्रा! यहाँ आने का कोई कारण हो भी नहीं सकता। और जो कारण से आते हैं, वे आते जरूर हैं मगर पहुँच नहीं पाते। जो कारण से आते हैं उनका कारण ही मेरे उनके बीच दीवाल बन जाता है। जो अकारण आते हैं, वही आते हैं।

अकारण आने का अर्थ है— प्रेम से आना। प्रेम इस जगत में एकमात्र अकारण वस्तु है। उसके लिए कोई कारण नहीं बताया जा सकता। और सब चीजों के लिए कारण बताए जा सकते हैं। इसलिए और सब चीजें व्यवसाय का हिस्सा हैं, प्रेम व्यवसाय के बाहर है। और सब चीजें बुद्धि के ही खेल हैं, प्रेम बुद्धि के अतीत है। उसे कशिश कहो, आकर्षण कहो, प्रेम कहो, भक्‍ति कहो, भाव कहो, लेकिन एक बात सुनिश्चित है नाम कुछ भी दो, कारण उसमें नहीं है। एक खिंचाव है, एक अनजाना खिंचाव है। तुम्हारे बावजूद तुम्हें आ जाना पड़ता है। दूसरों को ही नहीं समझा पाती हो, ऐसा नहीं है, खुद को भी कहाँ समझा पाती हो; खुद भी तो मन कहता है—क्या जरूरत है जाने की? कितने बार तो हो आए! अब बार—बार जाने से क्या सार है? लेकिन तुम्हारे बावजूद भी कोई प्रबल आकर्षण तुम्हें यहाँ ले आता है। यही आने का ठीक ढंग है। फिर मेरे और तुम्हारे बीच कोई बाधा नहीं होगी, क्योंकि कोई हेतु नहीं होगा। फिर संबंध अहेतुक होगा। अहेतुक प्रेम का नाम ही भक्‍ति है।

जब तक प्रेम में हेतु होता है, तब तक प्रेम वासना। जिस दिन प्रेम में हेतु गिर गया, उस दिन प्रेम भक्‍ति। ये प्रेम के ही दो रूप हैं। प्रेम जब तक हेतु से जुड़ा है, तब तक काम, और प्रैम जिस दिन हेतु से मुक्‍ति हो गया, उस दिन राम। ये प्रेम की ही दो यात्राएँ हैं। हेतु से जुड़ा तो प्रेम जमीन में गिर जाता है, हेतु से मुक्‍ति हुआ तो आकाश में उड़ने लगता है।

तुमने पूछा—मुझे यहाँ आने का कोई कारण भी नजर नहीं आता। ठीक ही बात नजर आ रही है। यहाँ आने का कोई कारण है भी नहीं। यहाँ आना वैसे ही अकारण है जैसे जीवन अकारण है। यहाँ आना वैसे ही अकारण है जैसे फूल खिलते हैं, पक्षी गीत गाते हैं, सूरज निकलता है, आकाश में रात तारे भर जाते हैं। यहाँ आना ऐसे ही हो, ऐसे ही सहज, ऐसे ही बिना किसी लाभ—हानि के विचार के, बिना कुछ पाने की दृष्टि के—आध्यात्मिक पाने की दृष्टि भी नहीं। क्योंकि जहाँ पाने की दृष्टि है वहाँ लोभ है, जहाँ लोभ है वहाँ अध्यात्म कहाँ? जहाँ लोभ है वहाँ संसार है। अगर कोई मंदिर गया और कुछ पाने गया, तो मंदिर नहीं गया। अगर कोई परमात्मा के चरणों में झुका और अर्चना और पूजा और प्रार्थना के पीछे कोई हेतु रहा कि हे प्रभो, ऐसा हो जाए, वैसा हो जाए, यह मिल जाए, वह मिल जाए, तो झुका ही नहीं। झूठ हो गयी प्रार्थना, झूठ हो गयी अर्चना। वे शब्द जो तुम्हारे ओंठों पर आए, गंदे हो गए। उठने चाहिए शब्द बिना किसी कारण के; तो प्रार्थना तत्क्षण पहुँच जाती है।

मुद्रा! यही है ढंग आने का। मैंने तुम्हें नाम दिया है—प्रेम मुद्रा। प्रेम की भावदशा। यही है प्रेम की भावदशा। तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है, कारण बता पाओगे? क्यों हो गया प्रेम? खोजबीन करोगे तो शायद कुछ कारण बता पाओ, लेकिन वे सब कारण नाममात्र के होंगे; उनके कारण प्रेम नहीं हुआ है। बात उल्टी ही है। प्रेम हो जाने के कारण उन बातों का मूल्य मालूम पड़ रहा है। तुम किसी व्‍यक्‍ति के प्रेम में पड़ गए, फिर कहते हो—देखो उसका शील, देखो उसका प्रसाद, देखो उसका सौंदर्य, इसीलिए तो मेरा प्रेम हो गया। इसी प्रसाद, इसी शील, इसी सौंदर्य के कारण। यह बात सच नहीं है। तुमने गणित को उल्टा कर लिया। तुमने गणित को शीर्षासन करवा दिया। तुम्हारा प्रेम हो गया है, इसलिए शील दिखायी पड़ता है, सौंदर्य दिखायी पड़ता है, प्रसाद दिखायी पड़ता है। जब तक प्रेम नहीं हुआ था, इसी आदमी में न तो शील था, न सौंदर्य था, न प्रसाद था, कुछ भी नहीं था। यह ऐसा ही एक आदमी था जैसे और आदमी हैं, ऐसी ही एक स्त्री थी जैसी और स्त्रियाँ हैं। एक आंकड़ा था, आदमी नहीं था। नंबर था। राह पर कई बार गुजरना, साथ मिलना हो गया था, मगर कभी यह ललक पैदा न हुई थी। कभी इसके सौंदर्य से अभिभूत न हुए थे।

फिर एक दिन घटना घटी। अब तुम कहते हो—सौंदर्य के कारण प्रेम हो गया! मैं कहता हूँ—प्रेम के कारण सौंदर्य दिखायी पड़ रहा है। क्योंकि प्रेम तो अकारण होता है। कभी—कभी उस व्‍यक्‍ति से भी हो जाता है, जिसको कोई सुंदर नहीं मानता। फिर भी जिसका हो जाता है, उसे सौंदर्य दिखायी पड़ता है। उसकी आंख ही बदल जाती है। उसके सोचने का ढंग ही बदल जाता है। उसके मापदंड बदल जाते हैं। प्रेम क्या आता है एक झंझा आया, एक तूफान आया। सब रूपांतरित कर जाता है। यहाँ आना प्रेम से है।

मगर न जाने आपकी कशिश मुझे यहाँ क्यों खींच लाती है। जान नहीं पाओगी। जान लो, समझ लो, पकड़ में आ जाए बुद्धि के, तो फिर बहुत गहरी न रही। तुम्हारे भीतर ऐसा भी कुछ है जो तुम्हारे जानने से ज्यादा गहरा है। जानना ऊपर—ऊपर है। जानना सतह पर है। जानना परिधि है। तुम्हारा केंद्र तुम्हारे जानने के बाहर है। यह आना अगर जानने से होगा तो तुम्हें पता रहेगा किसलिए जा रहे हैं। ध्यान करने जा रहे हैं। शांति की तलाश में जा रहे हैं। ईश्वर की खोज में जा रहे हैं। शायद कोई विधि मिल जाए, कोई मार्ग मिल जाए और जगह भी गए हैं, यहाँ भी जा रहे हैं; और दरवाजे खटखटाए, इस दरवाजे पर भी खटखटा लो; कौन जाने, शायद वह भाग्य की घड़ी आ गयी हो और अब जीवन का सुख बरस उठे। अगर ऐसे सोच—विचार से आओ, तो समझ के भीतर होगी बात। लेकिन मेरा संबंध ही उनसे बनता है जिनके आने का कारण समझ के बिल्कुल बाहर है। जो समझा न सकेंगे। जो लाख सिर पटकें, समझा न सकेंगे। जितनी समझाने की कोशिश करेंगे, उतने उलझ जाएँगे।

इसलिए जिनका मुझसे प्रेम है, समाज उन्हें पागल ही कहेगा। क्योंकि तुम समझा न सकोगे। समाज कहता है—समझाओ, क्यों जाते हो? क्या कारण है? और तुम्हारे पास कोई कारण नहीं सूझता। और तुम अवाक् खड़े रह जाते हो। तुम कोई तर्क नहीं बना पाते। तुम कहते हो, बस एक आकर्षण है। इन बातों को समझदार लोग थोड़े ही मान लेंगे। कहेंगे सम्मोहित हो गए हो। कि विक्षिप्त हो गए हो। कि तुम अपने होश में नहीं हो। ऐसे वे ठीक ही कह रहे हैं। ये बातें होश की हैं भी नहीं। ये बातें बेहोशी की हैं। ऐसे वे ठीक ही कह रहे हैं। चाहे उनके कहने का कारण गलत हो, चाहे वे शब्द गलत उपयोग कर रहे हों, लेकिन ठीक ही कह रहे हैं। तुम मेरे प्रेम में पड़ गए तो यही तो सम्मोहन है। सम्मोहन का अर्थ है— एक जादू का संबंध निर्मित हो गया। एक ऐसा संबंध जो नहीं होना चाहिए था, नियम के अनुकूल नहीं है प्रकृति की व्यवस्था में नहीं है, बाजार और व्यवसाय की भाषा में नहीं है; एक ऐसा संबंध निर्मित हो गया जो बिल्कुल अव्यावहारिक है, खतरनाक भी सिद्ध हो सकता है, महँगा भी पड़ सकता है; जो संबंध सौदे का नहीं है, जिसमें शुद्ध जुआ है, जोखिम—ही—जोखिम है, मगर हो गया है। और ऐसी गहराई से हुआ है कि तुम्हारी बुद्धि भी उस गहराई को माप नहीं पाती। तुम्हारी बुद्धि भी उस गहराई में उतर नहीं पाती। बुद्धि डुबकी मारना नहीं जानती, बुद्धि तैरना जानती है। नदी की सतह पर तैरती है। ये बातें डुबकी की हैं।

तो ठीक ही है मुद्रा, कि मगर न जाने आपकी कशिश मुझे यहाँ क्यों खींच लाती है? खींचती रहेगी। यह कशिश बढ़ती रहेगी। यह घटनेवाली कशिश नहीं है। जितना आओगी उतनी बढ़ती रहेगी।

कुछ कशिशें होती हैं, कुछ आकर्षण होते हैं, जल्दी ही चुक जाते हैं। सामान्य नियम यही है। अर्थशास्त्री से पूछो, उसने उसके लिए एक कानून ही बना रखा है, एक नियम ही बना रखा है—”लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न’। आज एक भोजन किया, खूब स्वादिष्ट था। कल भी वही भोजन करोगे, उतना स्वादिष्ट नहीं मालूम पड़ेगा। कैसे पड़ेगा? परसों भी वही भोजन करोगे, सारा स्वाद खो जाएगा। नरसों भी वही भोजन करोगे, ऊब पैदा होगी। और अगर वही भोजन रोज—रोज दिया जाए, कितने दिन कर पाओगे? एक सप्ताह पूरा न होगा कि थाली फेंक दोगे। और यही भोजन बड़ा स्वादिष्ट लगा था! “लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न्स’। यह नियम है, रोज—रोज जिसका हम अनुभव करते, रोज—रोज जिसका हम स्वाद लेते, उसका रस कम होता चला जाता है। बाजार में सभी चीजों का रस इसी तरह कम हो जाता है। इसीलिए तो दुकानदारों को, व्यवसायियों को रोज—रोज नयी—नयी चीजें ईजाद करनी पड़ती हैं। नयी न भी हों, तो कम—से—कम नए पैकेट में हों। नए नाम में हों, नए रंग में हों। हर साल कारों के नये मॉडल निकालने पड़ते हैं। थोड़ा—बहुत फर्क होता है, कुछ खास फर्क नहीं होता—और अक्सर तो ऐसा होता है पुरानी कार शायद ज्यादा मजबूत हो, नयी कार और भी गयी—बीती हो—मगर नयी है! तो लोग खरीदते हैं। साल—छः महीने में रस चुक जाता है, ऊब जाते हैं, फिर कुछ नया चाहिए।

सांसारिक सारे संबंध ऐसे ही हैं। सिर्फ प्रेम एक ऐसा अलौकिक आयाम है, जहाँ “लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न्स’ लागू नहीं होता। जहाँ जितना भोगो, उतना रस बढ़ता है। प्रेम अर्थशास्त्र के बाहर है। प्रेम गणित के चौखटे के बाहर है।

अब लोग तुम्हें पागल ही तो कहेंगे न! कोई व्‍यक्‍ति मुझे पाँच साल से निरंतर सुन रहा है। एकाध दिन सुन लिया, ठीक है; दो दिन सुन लिया ठीक है; पाँच साल! अब अगर “अजित सरस्वती’ को लोग पागल कहें, तो ठीक ही कहते हैं। पाँच साल से निरंतर सुन रहे हो! एक सुबह नहीं गयी जब न सुना हो। और रस बढ़ता गया है। और रस नयी तरंगें लेता गया है। और रस नयी गहराइयों में उतरता गया है। और रस ने नए—नए, नए—नए, फूल खिलाए हैं; रोएँ—रोएँ में प्रवेश कर गया है, रग—रग में चला गया है। यह अर्थशास्त्र के बाहर की बात है।

तुम्हारे मन में भी कभी खयाल उठता होगा कि मैं रोज क्यों बोलता हूँ? मैं छाँट रहा हूँ उन लोगों को जो मुझे रोज सुन सकते हैं। इसके पीछे प्रक्रिया है। कोई रोज नहीं बोलता। और अगर रोज लोग बोलते भी हैं तो कम—से—कम एक ही समूह के सामने नहीं बोलते। आज बंबई बोलेंगे, कल कलकत्ता बोलेंगे, परसों कानपुर बोलेंगे, चलेगा। क्योंकि समूह बदल जाता है। मैं एक ही जगह बैठकर, एक ही समूह के सामने बोले चला जा रहा हूँ! तुमने शायद सोचा हो या न सोचा हो, आज बात आ गयी तो तुमसे कहे देता हूँ, मैं जाँच रहा हूँ उन लोगों को जिनका रस जितना सुनते हैं उतना बढ़ता जा रहा है। वे ही मेरे हैं, मैं उनका हूँ। जो ऊब जाएँगे, उनसे मेरा नाता कोई प्रेम का नहीं था, वह अर्थशास्त्रीय नाता था। वह समाप्त हो गया। वह समाप्त हो ही जाना चाहिए था। उसका कोई मूल्य नहीं है। यह छाँटने की एक प्रक्रिया है। इस भाँति वे ही बचे रहेंगे जो सच में ही दीवाने हैं। जिन्हें इस बात से कुछ मतलब ही नहीं कि मैं क्या बोल रहा हूँ। वही बात शायद हजार बार तुमसे कही होगी; लेकिन जो मेरे प्रेम में है, उसे वही बात हर बार नए रंग की मालूम पड़ती है, नए ढंग की मालूम पड़ती है। फिर उसे चौंककर सुनता है। फिर उससे कुछ होता हुआ मालूम होता है।

चिंता में मत पड़ो। यह कशिश बढ़नेवाली कशिश है। यह बढ़ती जाए, इसी में सौभाग्य भी है। क्योंकि ऐसे बढ़ते—बढ़ते, बढ़ते—बढ़ते, सुनते—सुनते—सुनते एक दिन शब्द तिरोहित हो जाएगा : मैं यहाँ बोलता रहूँगा, तुम वहाँ सुनते रहोगे, न मैं यहाँ बोलूँगा, न तुम वहाँ सुनोगे। उस दिन नाता पहली दफा बना। उस दिन सेतु जुड़ा। उस दिन दो शून्यों का मिलना हुआ। गुरु तो शून्य है; शिष्य को भी शून्य होना पड़ता है; तभी मिलन है। समान से ही समान का मिलन हो सकता है।

मुझे यहाँ आने का कोई कारण नजर नहीं आता, मगर न—जाने आपकी कशिश मुझे यहाँ क्यों खींच लाती है? किसी के पूछने पर भी उत्तर देने में असमर्थ होती हूँ। यह शुभ लक्षण है। उत्तर दे सको, तो सब गुड़ गोबर हुआ। उत्तर दे सको तो बात दो कौड़ी की हो गयी। निरुत्तर रह जाओ, कहना चाहो और कहने को कुछ न पाओ, भाव तो उठे लेकिन शब्द न बनें, पता तो चले भीतर कि ऐसा कुछ होगा लेकिन कोई शब्द उसे प्रगट करने में समर्थ न हों। क्योंकि सब शब्द संकीर्ण हैं, विराट को नहीं समा पाते। बाजार में उनका उपयोग ठीक है, रोज के लोक—व्यवहार में ठीक है, लेकिन जब भी तुम किन्हीं गहराइयों में सरकोगे, तभी पाओगे सभी शब्द नपुंसक हो गए, कुछ भी नहीं कहते। कहोगे, तो लगेगा कुछ कहना चाहा, कुछ कह दिया। कहोगे तो शर्मिंदा होओगे। क्योंकि ऐसा लगेगा कि यह तो कुछ गद्दारी हो गयी। जो भीतर था, वह तो आया नहीं, कुछ—का—कुछ हो गया है। लड़खड़ा जाओगे। जैसे छोटे बच्चे तुतलाते हैं; क्योंकि भाषा नयी होती है; इतनी नयी होती है कि उनको तुतलाना पड़ता है। फिर से तुम तुतलाओगे जब प्रेम की भाषा सीखोगे, क्योंकि यह और भी नयी भाषा है। फिर से तुम तुतलाओगे जब शून्य की भाषा तुम्हारे भीतर उतरनी शुरू होगी।

नहीं, उत्तर नहीं बनेगा। हँस देना। रो देना। नाच लेना। कोई पूछे कि किसलिए जाते हो, नाच लेना। एक खंजरी पास रख लेना, ठोंककर और नाच देना। मगर उत्तर शब्दों से नहीं दिया जा सकता।

“उत्तर देने में असमर्थ होती हूँ, मगर अब जिंदगी में जीने का मजा आने लगा है’। वही असली उत्तर है। उसी मजे को प्रगट होने दो। उस आनंद को, उस आनंद की गंध को फैलने दो। उस आनंद का प्रकाश विस्तीर्ण होने दो। लोग खुद—ही—खुद समझेंगे। समझने वाले समझेंगे। नासमझ कभी नहीं समझते—समझाने की कोई जरूरत भी नहीं है। समझनेवाले समझ लेंगे कि कुछ हुआ है। कुछ ऐसा हुआ है जो कहा नहीं जा सकता। तुम्हारा व्‍यक्‍तित्व कहेगा। तुम्हारी शांति कहेगी। तुम्हारा आनंद कहेगा। तुम्हारे भीतर से बहती हुई नयी अनुभूति की धार कहेगी। उनका हाथ पकड़ लेना, उन्हें गले लगा लेना जो पूछें कि क्यों जाते हो? अपनी ऊर्जा से कहना, अपने प्रवाह से कह देना, अपनी तरंग को उनमें डाल देना, अपने नृत्य को उनमें उतर जाने दना; उनकी आंख में झाँकना, उँडेल देना अपने को उनमें, मगर शब्द से मत कहना। शब्द से नहीं कहा जा सकता। शब्द से कहोगे, बेईमानी हो जाएगी।

“मगर अब जिंदगी में जीने का मजा आने लगा है। क्यो?’ यह क्यों बिल्कुल छोड़ दो। जब दुःख हो, पूछ सकते हो—क्यों? लेकिन जब आनंद हो, भूलकर मत पूछना क्यों? क्योंकि आनंद स्वभाव है। दुःख विभाव है। एक आदमी बीमार होता है तो जाकर डॉक्टर से पूछता है कि मुझे कौन—सी बीमारी हो गयी? क्यों हो गयी? निदान करो। कारण खोजो, उपचार करो। लेकिन जब कोई स्वस्थ होता है तो डॉक्टर के पास जाकर नहीं पूछता कि मुझे कौन—सा स्वास्थ्य हो गया है? निदान करो, कारण बताओ, क्यों हुआ? उपचार करो। नहीं, स्वास्थ्य तो स्वाभाविक है। क्यों का कोई सवाल ही नहीं है। स्वास्थ्य तो होना ही चाहिए। स्वास्थ्य तो प्रकृति का नियम है। जब तुम स्वस्थ होते हो तुम यह नहीं पूछते—मैं क्यों स्वस्थ हूँ? या कि पूछते हो? लेकिन जब बीमार होते हो तो जरूर पूछते हो कि मैं क्यों बीमार हूँ? “क्यों’ पूछना पड़ता है तब जब हमें किसी चीज से मुक्‍ति होना हो। इसलिए आनंद जब जगे तो “क्यों’ तो पूछना ही मत। आनंद से मुक्‍ति थोड़ा होना है। उसके विश्लेषण में जाने से क्या रखा है? आनंद आए तो आनंदित होना। रत्ती—भर समय मत गँवाना, क्षण—भर भी विश्लेषण में अपना खोना मत, “क्यों’ इत्यादि को भूल ही जाना, आनंद आए तो आनंद में मग्न होना, डूब जाना मस्ती में, पी लेना आनंद के फूल को, आनंद की शराब को और नाचना और प्रगट होने देना गीत जो अपने आप बहे, जो सहज—स्फूर्त हो, मगर क्यों मत पूछना। क्यों का उत्तर है भी नहीं। आनंद इस जगत का स्वभाव है—सच्चिदानंद।

तुम पूछते नहीं कि वृक्ष हरे क्यों हैं। या कि पूछते हो? तुम पूछते नहीं गुलाब लाल क्यों हैं। या कि पूछते हो? तुम पूछते नहीं कि दीये से रोशनी क्यों निकल रही है। या कि पूछते हो! ऐसा ही आनंद है। आनंद तुम्हारा स्वभाव है—तुम्हारी रोशनी, तुम्हारी सुगंध, तुम्हारा रंग, तुम्हारा ढंग। आनंद चूक रहा हो तो जरूर पूछना कि क्या कारण है, मेरा स्वभाव अवरुद्ध क्यों है? किन पत्थरों ने मेरे झरने को रोका? कौन—सी बाधा आ गयी? कौन अवरोध कर रहा है? मैं बह क्यों नहीं पा रहा हूँ? मेरे भीतर नृत्य क्यों नहीं घट रहा है? जरूर पूछना। दुःख हो तो पूछना—क्यों?

लेकिन हमारी आदतें दुःख की हैं। हम जन्मों—जन्मों से दुःखी रहे हैं। दुःख की आदत ने हमें एक और आदत सिखा दी है—”क्यों’ की। सदा पूछते रहे हैं—क्यों, क्यों? ऐसा ही समझो कि एक आदमी जन्मों—जन्मों से बीमार है और पूछता रहा—क्यों, क्यों, क्यों? फिर एक दिन स्वस्थ हो गया, पुरानी आदत के कारण पूछेगा—क्यों? सिर्फ तुम्हारी पुरानी आदत है, मुद्रा! अब पूछती हो, “मगर जिंदगी में जीने का मजा आने लगा है; क्यों?’ मुझको पता नहीं। किसी को पता नहीं है। जिंदगी आनंद है! जैसे वृक्ष हरे हैं, ऐसे जिंदगी आनंद है। यह परमात्मा का स्वभाव है आनंद। कोई उत्तर नहीं है।

हाँ, दुःख हो तो जरूर कोई उत्तर होगा। अगर दुःख हो तो उसका मतलब है, तुमने कुछ स्वभाव के विपरीत किया है। तुम स्वभाव के अनुकूल नहीं हो। तुम स्वभाव के प्रतिकूल चले गए हो। तुमने रास्ता छोड़ दिया है। तुम काँटे—कंकड़ों में पड़ गए हो। तुमसे कुछ भूल हो रही है। जब कोई भूल नहीं होती तो आनंद। जब भूल होती है तो दुःख। जब दुःख हो, तो समझ लेना कि कुछ भूल हो रही है। और जब सुख हो तो समझ लेना भूल नहीं हो रही है। बस इतना ही काफी है।

“साथ ही मैं बिल्कुल पत्थर हो गयी हूँ। रोना तो जैसे सूख ही गया है’। वह पुराना रोना कुछ खास मतलब का था भी नहीं। पुराना गया है, नया आएगा। एक तो रोना है जो दुःख को रोना है। स्वभावतः दुनिया में लोगों ने यही समझा है कि सब रोना दुःख का रोना होता है। क्योंकि उन्होंने दुःख के ही आंसू बहाए हैं। कोई मरा तो रोए। कोई पीड़ा हुई तो रोए। किसी ने अपमान किया तो रोए। कुछ विषाद हुआ तो रोए। हारे तो रोए। लोगों का अनुभव यह है कि रोना दुःख का पर्यायवाची है। इसलिए जब दुःख जाने लगेगा तो रोना भी चला जाएगा। आंसू एकदम बंद हो जाएँगे। सूख जाएँगे। घबड़ाना मत। तुम पत्थर नहीं हो गयी हो, सिर्फ आंसुओं का एक पुराना रिवाज, एक पुराना ढंग और ढर्रा टूट गया। ज़रा रुको, जल्दी ही तुम पाओगी नए आंसू आने शुरू होंगे। वे नए आंसू आनंद के आंसू होंगे। वे रोने से नहीं निकलेंगे, वे दुःख से नहीं निकलेंगे, वे तुम्हारे भीतर के अहोभाव से निकलेंगे। वे तुम्हारे आनंद की एक गहन अभिव्‍यक्‍ति होंगे। तब उन आंसुओं का रंग ही और होता है। मोती फीके हैं उन आंसुओं के सामने। और मोतियों में कोई मूल्य नहीं है उन आंसुओं के सामने। और फूल शरमा जाएँगे उन आंसुओं के सामने। उन आंसुओं की गंध और है। वह गंध पारलौकिक है।

आनंद के आंसू आएँ, इसके पहले एक घड़ी तो जरूर आएगी जब सब आंसू बंद हो जाएँगे। दुःख का सिलसिला टूटेगा तो दुःख के आंसू बंद हो गए। अब सुख का सिलसिला शुरू होगा। धीरे—धीरे इस नयी जीवन—व्यवस्था का अनुभव तुम्हें नयी—नयी दिशाओं में ले जाएगा। उनमें एक दिशा आनंद के आंसुओं की दिशा भी है। मुद्रा! फिर तुम रोओगी। मगर उस रोने में पुराने रोने का कोई अनुभव नहीं होगा। पुराने रोने की कोई छाया नहीं होगी। ये आंसू मुस्कराहट से भरे हुए होंगे। और इन आंसुओं में एक ज्योति होगी। जब आदमी दुःख में रोता है तो आंसुओं में अंधेरा होता है, दुर्गंध होती है; वे आंसू मवाद की तरह होते हैं। और जब आदमी आनंद से रोता है तो वे आंसू गीत होते हैं, उनमें एक सुगंध होती है।

 

अश्क जो दे न उठे लौ सरे—मिजगां आकर

सिर्फ एक कतरए—शबनम है, शरारा तो नहीं

जो आंसू पलकों पर आकर लपट न बन जाए, लौ न बन जाए, ज्योति न बन जाए—

 

अश्क जो दे न उठे लौ सरे—मिजगां आकर

सिर्फ इक कतरए—शबनम है, शरारा तो नहीं

—फिर एक ओस की बूँद है ऐसा आंसू, जो आकर आंखों को ज्योति न दे जाए। असली आंसू तो वही है जो आंख को ज्योति दे, लपट दे; जो आंख को नया जीवन दे; जिसके माध्यम से भीतर छिपी आत्मा आंख से झाँक उठे।

आएँगे, वे आंसू भी आएँगे। प्रतीक्षा करो। और यह मत सोचना कि पत्थर हो गयी हूँ। ऐसा लगेगा, क्योंकि पुरानी तरह का रोना—धोना बंद हो गया, तो लगेगा कि कहीं मैं पत्थर तो नहीं हो गयी। नए के आगमन और पुराने के जाने के बीच में एक अंतराल होता है। उस अंतराल में ऐसी प्रतीति होती है। मगर भय का कोई कारण नहीं है।

 

तीसरा प्रश्न : मनुष्य क्यों व्यर्थ की बातों में उलझा रहता है?

र के कारण। भय के करण। भय किस बात का? एक ही भय है जो लोगों को छाया की तरह पीछा कर रहा है, चौबीस घंटे, जागते—सोते और वह भय यह है कि अगर मैं व्यस्त न रहूँ, उलझा न रहूँ, तो कहीं मुझे मेरे भीतर का शून्य न दिखायी पड़ जाए, कहीं वह अतल खाई न दिखायी पड़ जाए। और वह अतल खाई है। तो भय एकदम झूठ भी नहीं, निराधार भी नहीं। अगर तुम बिल्कुल अव्यस्त हो, कोई काम नहीं है तो तुम अचानक अपने भीतर के शून्य का अनुभव करने लगोगे—रित्तता अनुभव होगी, खाली लगोगे। तुम जल्दी से किसी काम में व्यस्त हो जाओगे। क्योंकि खाली में अहंकार मरता है, गलता है। अहंकारी को तो व्यस्त रहना ही पड़ेगा। व्यस्त रहकर ही अहंकारी अपने को मान सकता है कि मैं कुछ हूँ।

इसलिए लोग बड़े काम करना चाहते हैं—छोटे ही नहीं, बड़े काम करना चाहते हैं। ऐसे काम करना चाहते हैं कि दुनिया—भर को पता चल जाए कि मैंने यह किया, कि मैंने वह किया। छोटे—मोटे काम में रस नहीं आता। क्यों? क्योंकि छोटे—मोटे काम छोटा—मोटा अहंकार ही पैदा कर सकते हैं। अब बुहारी लगाओ, कि खाना बनाओ, कितना बड़ा अहंकार इसमें से पैदा करोगे। लेकिन प्रधानमंत्री हो जाओ, राष्ट्रपति हो जाओ, तो भारी अहंकार पैदा कर सकते हो, कि मैं कुछ विशिष्ट हूँ, साठ करोड़ लोगों में मैं कुछ विशिष्ट हूँ। तो लोग दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं, ऐसी जगह पहुँच जाना चाहते हैं जहाँ कुछ विशिष्ट काम में उलझ जाएँ—अपने को भर लेना चाहते हैं।

मनस्विद कहते हैं कि जो आदमी जितना ही अपने भीतर की शून्यता से घबड़ाया होता है उतना ही पदलोलुप हो जाता है। भीतर जो लोग हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, वे लोग पदलोलुप हो जाते हैं। पद की दौड़ हीनता का प्रक्षेपण है। जो व्‍यक्‍ति सचमुच ही भीतर हीनता से पीड़ित नहीं होता, वह पद की दौड़ में नहीं होता। उसे करना क्या है? वह जैसा है वैसा परम आनंदित है। उसका आनंद प्रधानमंत्री होने में नहीं है, न बहुत धन इकट्ठा कर लेने में है, न बहुत यशस्वी हो जाने में है, उसका आनंद तो वह जैसा है वैसे में ही है। इसी को तो कल रज्जब ने कहा—संतोष से दोस्ती करो। संतोष से दोस्ती कौन करेगा? वही कर सकता है जो अपने भीतर के शून्य के साथ राजी होने का साहस रखता हो। और यह बड़े—से—बड़ा साहस है। दुस्साहस है। इस जगत में और कोई साहस इतना बड़ा नहीं है कि तुम खाली बैठ जाओ। ध्यान में बैठने से बड़ा कोई साहस नहीं है।

तुम थोड़ा सुनोगे तो तुम चौंकोगे। तुम कहोगे—इसमें क्या बड़ा साहस है? एक आदमी पालथी मारकर आंख बंद किए बैठ गया है घड़ी भर, इसमें साहस क्या है? साहस तलवार उठाने में है। नहीं, तलवार उठाने में कुछ साहस नहीं है। यह जो घड़ी—भर आदमी शांत होकर बैठ गया है न—कुछ करने, में शून्य होकर, इसमें साहस है। क्यों? क्योंकि यहाँ जैसे—जैसे भीतर उतरेगा, जैसे—जैसे कृत्य का जगत छूटेगा, विचार का जगत छूटेगा—क्योंकि विचार भी सूक्ष्म कृत्य है, वह मन का कृत्य है। कभी तुम शरीर का काम करते हो, शरीर के काम से छूटो तो तत्क्षण मन का काम शुरू कर देते हो, मगर काम जारी रहता है। जब दोनों काम छूट जाते हैं, फिर क्या बचता है? तुम ही नहीं बचते। इसलिए मैं कहता हूँ—यह साहस है। ध्यान में उतरकर पता चलता है कि मैं कभी था ही नहीं। मेरा होना भ्रांति थी। मेरा होना एक सरासर झूठ था। मैं हूँ ही नहीं। हिम्मत है इस बात को अनुभव करने की कि मैं हूँ ही नहीं? और जो ऐसा जानता है कि मैं हूँ ही नहीं, वही जान सकता है कि परमात्मा है।

तुम दोनों साथ—साथ न हो सकोगे। “प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समायँ’। या तो तुम, या परमात्मा। तुम मिटोगे तो परमात्मा हो सकेगा। तो वह जो शून्य तुम्हारे भीतर है, परमात्मा की ही आभा है। उसका ही चेहरा है। उसके ही रूप—रंग का अंग है। उसी निराकार का एक भाव है।

तुमने पूछा है—”मनुष्य क्यों व्यर्थ की बातों में उलझा रहता है’? अब सार्थक बातें रोज—रोज खोजो भी कहाँ से? सार्थक बात ही क्या है? सभी बातें व्यर्थ की हैं। सुबह से उठे, अखबार पढ़ लिया, तुम सोचते हो, कुछ सार्थक काम कर रहे हो? दिल्ली में किस पागल को जुकाम हो गया और किसको क्या हो गया, तुम सोचते हो कोई तुम सार्थक बातें पढ़ रहे हो? तुम कोई बड़े काम की बातें पड़ रहे हो? फिर बैठकर पत्नी से कुछ बात कर ली, मुहल्ले की गपशप, फिर चले दफ्तर, तुम सोचते हो वहाँ कुछ सार्थक काम कर रहे हो? सार्थक क्या है! इस सारे उपद्रव की सार्थकता इतनी ही है कि दो रोटी मिल जाती है। अब यह बड़े मजे की बात है, आदमी से पूछो कि रोटी किसलिए कमाते हो; वह कहते हैं—जीने के लिए। और उससे पूछो जीते किसलिए हो, वह कहता है—रोटी कमाने के लिए। यह कौन—सी सार्थकता हुई? जीते इसलिए हैं कि रोटी कमाएँ, रोटी किसलिए कमाते हैं कि जीना है। यह तो बड़ा वर्तुल हुआ, “विसियस सर्कल’ हुआ, दुष्ट—चक्र हुआ। इसमें सार कहाँ है? इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, उनको यह बात दिखायी पड़नी शुरू हो जाती है कि यह तो सब असार है! उठे रोज सुबह, चले वही रोटी कमाने, साँझ फिर आकर सो गए, सुबह फिर उठे, फिर चले रोटी कमाने, ऐसे ही आते—जाते एक दिन समाप्त हो गए। पाया क्या? उपलब्धि क्या थी? हाथ क्या लगा? मृत्यु में जो बच सके वही सार्थक है। यह मेरी सार्थक की परिभाषा है। जिसको तुम मृत्यु में भी अपने साथ ले जा सको, वही सार्थक है। और जो मृत्यु में तुम्हारे साथ न जाए, इसी तरफ पड़ा रह जाए, वह सार्थक नहीं। तुम्हारा पद पड़ा रह जाएगा, धन पड़ा रह जाएगा, नाम पड़ा रह जाएगा, मित्र—प्रियजन सब पड़े रह जाएँगे। तुम जब जाने लगोगे अकेले, उस वत्त क्या तुम ले जा सकोगे? तुम्हारा बैंक बैंलेस? क्या ले जा सकोगे? उस वत्त ध्यान ही ले जा सकोगे बस और कुछ न ले जा सकोगे। तो ध्यान का अनुभव एकमात्र सार्थक अनुभव है।

यह तो बड़ी उपद्रव की बात है, उल्टी बात है, तुम जो भी करते हो सब व्यर्थ है। वे जो कुछ घड़ियाँ न—करने की बीतती हैं, वही सार्थक हैं। क्योंकि वही तुम बचाकर ले जा सकोगे। मगर उन थोड़ी—सी घड़ियों में जो तुम शांत हो जाते हो, कुछ भी नहीं करते, मौत का साक्षात्कार करना होता है। मौत और ध्यान बड़े एक—जैसे हैं। ध्यान करनेवाला रोज मौत में उतरता है, रोज मरता है, क्योंकि रोज मिट जाता है। भीतर सन्नाटा हो जाता है। खोजने से भी नहीं पाता अपना आपा कि मैं कहाँ हूँ। कोई आत्मा नहीं मिलती, कोई भीतर नहीं मिलता, सिर्फ सन्नाटा मिलता है। सन्नाटा रोज गहन होता जाता है, खाई रोज गहरी होती चली जाती है। गिरता चला जाता है। और कहीं जगह नहीं मिलती जहाँ पैर टेककर खड़ा हो जाऊँ। यही तो मृत्यु का अनुभव है। इसलिए जिसने ध्यान में बार—बार मरकर देख लिया, जब मृत्यु आती है तो वह घबड़ाता नहीं। क्योंकि यह मृत्यु तो वह रोज ही देखता रहा है। इसलिए ध्यानी मृत्यु के क्षण में निश्चिंत भाव से जाता है। यह तो परिचित बात है! यह तो रोज का मामला है! इतना ही नहीं कि परिचित है, इतना ही नहीं कि रोज की जानी हुई बात है, यह भी उसका अनुभव है कि जितना गहरा इस शून्य में उतरो, उतने ही आनंद का आविर्भाव है। इसलिए वह मृत्यु का स्वागत करता है, अंगीकार करता है, आलिंगन करता है—अतिथि की तरह, मेहमान की तरह, द्वार खोलता है कि आओ, बहुत प्रतीक्षा की है तुम्हारी। और जो व्‍यक्‍ति मृत्यु को स्वागत से अंगीकार कर लेता है, वह मरेगा कैसे? वह मर कैसे सकता है?

अब मैं तुमसे एक विरोधाभास कहना चाहता हूँ— जो मरने को तैयार है, जो ध्यान में मरने को तैयार है, उसकी मृत्यु कभी नहीं होती। वह अमृत का धनी हो जाता है।

लेकिन आदमी व्यर्थ की बातों में उलझा है। न हों बाहर तो खुद ईजाद कर लेता है, खड़ी कर लेता है, झगड़े—झाँसे कर लेता है, उलझा लेता है अपने को। तुम ज़रा खयाल करो, तुम्हारे जितने झगड़े—झाँसे हैं, अगर सब हल हो जाएँ, तुम्हारे व्यवसाय में जितनी चिंताएँ हैं, अगर सब हल हो जाएँ, अगर मैं एक जादू का डंडा उठाऊँ और तुम्हारे सिर के पास फिराऊँ और कहूँ—तुम्हारी सारी चिंताएँ समाप्त; तुम मुझे माफ करोगे? तुम मुझे कभी माफ नहीं करोगे। तुम एकदम आंख खोलकर कहोगे—अब मैं करूँ क्या? सब झगड़े—झाँसे समाप्त, अब मैं करूँ क्या? अब करने को कुछ भी नहीं बचा। तुम माँगोगे, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाओगे कि मेरी चिंताएँ मुझे वापिस दो, मेरी समस्याएँ मुझे वापिस दो; उलझा तो रहता था, लगा तो रहता था।

 

याद की राहगुज़र, जिसपै इसी सूरत से

मुद्दतें बीत गयी हैं तुम्हें चलते—चलते

ख़त्म हो जाए जो दो—चार क़दम और चलो

मोड़ पड़ता है जहाँ दस्ते—फरामोशी का

जिससे आगे न कोई मैं हूँ न कोई तुम हो

साँस थामे हैं निगाहें कि न जाने किस दम

तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़कर देखो

गर्चे वाक़िफ हैं निगाहें कि यह सब धोका है

गर कहीं तुमसे हम—आगोश हुई फिर से नज़र

फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र

फिर इसी तरह जहाँ होगा मुकामिल पैहम

सायए—जुल्फ़ का और जुम्बिशे—बाजू का सफ़र

 

दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है

यां कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं

जिसके पर्दे में मेरा माहे—रवाँ डूब सके

तुमसे चलती रहे यह राह, यूँ ही अच्छा है

तुमने मुड़कर भी न देखा तो कोई बात नहीं

आदमी कल्पनाएँ करता रहता है। कोई मेरे प्रेम में पड़ जाएगा, मैं किसी के प्रेम में पड़ जाऊँगा; आज धन नहीं है, कल धन मिल जाएगा; आज पद नहीं है, कल पद मिल जाएगा; और फिर सोचता है—न भी मिला तो कोई बात नहीं, मगर उलझा तो रहूँगा, चलता तो रहूँगा, लगा तो रहूँगा, व्यस्त तो रहूँगा। व्यस्तता ऐसे ही है जैसे सागर में डूबते हुए आदमी को तिनके का सहारा। पकड़े रहता है। तुम उससे लाख कहो यह तिनका है, यह तुम्हें बचाएगा नहीं, वह कहेगा—चुप रहो, बकवास बंद करो। बचाएगा या नहीं बचाएगा, यह सवाल नहीं है; कम—से—कम यह भ्रांति तो मन को देता है कि बच रहा हूँ।

कागज की नावों में लोग चल रहे हैं! उनसे भूलकर मत कहना कि यह कागज की नाव है, अन्यथा वे नाराज हो जाते हैं। उन्होंने सुकरात को जहर पिलाया—इसीलिए पिलाया कि वह लोगों को जा—जाकर उनको पकड़—पकड़ कर कहने लगा कि तुम जिस नाव में बैठे हो, यह कागज की नाव है। यह डूबेगी। तुमने जो महल बनाया है, यह रेत पर बना है, यह गिरेगा। कौन सुनना चाहता है यह बात? कोई आदमी मजे से अपने महल में रह रहा था—रेत ही सही, गिरेगा तब गिरेगा, अभी तो नहीं गिरा है—अपनी नाव में मस्त सो रहा था, चादर तान ली थी, बाँसुरी बजा रहा था और तुम उससे कहते हो—यह कागज की नाव है! यह अब डूबी तब डूबी! वह कहेगा—जब डूबेगी तब डूबेगी, अभी तो मेरा चैन खराब मत करो, अभी तो मेरी बाँसुरी बजने दो।

इसलिए इस दुनिया में ठीक सद्गुरु जब भी पैदा हुए, आदमी उन्हें माफ नहीं कर पाया। तुमने जीसस को सूली दी, मंसूर की गर्दन काटी; तुमने महावीर के कानों में कीलें ठोंके, तुमने बुद्ध पर पत्थर फेंके। तुम्हारी भी मजबूरी मैं समझता हूँ। मैं नाराज नहीं हूँ। और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम अन्यथा कर सकते थे। तुम्हारी मजबूरी मैं समझता हूँ। तुम्हारी मजबूरी यह है कि इन लोगों ने तुम्हारे सपने तोड़े। ये जुर्मी थे तुम्हारी आंखों में, ये अपराधी थे। तुमने अपराधियों को माफ कर दिया है, लेकिन ज्ञानियों को तुम माफ नहीं कर सके।

तुम्हें पता है? जिस दिन जीसस को सूली हुई, उस दिन दो चोरों को भी उनके साथ ही सूली हुई थी, तीन आदमियों को इकट्ठी सूली दी गयी थी। इजराइल का नियम था, कि प्रतिवर्ष पवित्र दिन के उत्सव में एक व्‍यक्‍ति को सूली से माफ किया जा सकता था। तो पॉयलट ने जो गवर्नर था, उसने यहूदियों को बुलाकर पूछा कि ये तीन आदमियों की सूली लगनी है, इनमें से एक को नियम के अनुसार माफ किया जा सकता है. . .पॉयलट की मर्जी थी कि जीसस माफ हो जाए। इस आदमी का कोई कसूर नहीं था। पॉयलट को लगता था कि मैं किसी तरह इनको समझा लूँ, ये राजी हो जाएँ। फिर उसे यह भी भरोसा था कि स्वभावतः दो आदमियों में, चोर हैं दो, हत्यारे हैं वे, उन्होंने सब तरह के जुर्म किए, सब तरह के अपराध किए हैं; और जीसस के नाम पर न तो कोई खून है, न कोई अपराध है, ज्यादा—से—ज्यादा इसका कसूर इतना ही है कि इसने घोषणा कर दी है कि मैं ईश्वर का बेटा हूँ—यह भी कोई बड़ी बात है! समझ लो कि पागल है। किसी का कुछ बिगाड़ तो दिया नहीं, किसी से कुछ छीन नहीं लिया, इतना ही कहा है कि मैं ईश्वर का बेटा हूँ, इतनी—सी बात के लिए इतनी नाराजगी! पॉयलट सोचता था कि यहूदी पुरोहित राजी हो जाएँगे, जीसस को बचाया जा सकेगा। लेकिन नहीं, यहूदी पुरोहितों ने क्या कहा तुम्हें पता है? उन्होंने कहा—दोनों चोरों में से किसी को भी माफ कर दो जिसको करना हो, मगर जीसस को माफ नहीं किया जा सकता। इसका अपराध बड़ा है।

क्या अपराध है जीसस का? यही अपराध है कि तुम मस्त सो रहे थे, और यह वह आदमी तुम्हें जगाता है। यही अपराध है कि तुम अपने सपने बसा रहे थे और यह आदमी तुम्हारी नींद तोड़ देता है और तुम्हारे सारे सपने बिखेर देता है। आदमी व्यस्त रहना चाहता है। झूठ तो झूठ, सच तो सच, मगर व्यस्त रहना चाहता है। खाली नहीं बैठना चाहता। लोग खाली भी बैठते हैं तो उसमें भी कुछ व्यस्तता का रास्ता खोज लेते हैं। पूछते हैं कि क्या जाप करें? खाली नहीं बैठ सकते। कहते हैं—राम—राम ही जपेंगे, मगर कोई मंत्र दे दो।

मेरे सामने रोज ही यह प्रश्न खड़ा होता है। मैं लोगों को कहता हूँ—चुप बैठो, कुछ मंत्र की जरूरत नहीं है। वे कहते हैं—लेकिन आलंबन तो चाहिए ही, चुप कैसे बैठेंगे, आप इतना ही कह दो कि कोई भी मंत्र दे दो। राम कहो, गायत्री मंत्र हो, नमोंकार मंत्र हो, कुछ भी सही, आप ही कोई खोज दो; कोई भी नाम दे दो हम वही दोहराएँगे लेकिन चुप कैसे बैठें? कुछ व्यस्तता रहेगी। चलो माला दे दो, माला फेरेंगे। तुम सोचते हो कारण, ये माला फेरनेवाले क्या कर रहे हैं? ये व्यस्तता से मुक्‍ति नहीं होना चाहते। अगर बाजार की बातें न सोचेंगे तो माला फेरेंगे। मगर कुछ फेरने को रहे। फेरने को रहे तो मन फेरे खाता रहता है और जीता है। राम—राम करते रहेंगे, मंत्र दोहराते रहेंगे; मंत्र दोहरता रहे तो मन जीवित रहता है।

तुम्हें पता है—मंत्र और मन एक ही धातु से पैदा होते हैं। एक ही शब्द के दो रूप हैं मंत्र और मन। मतलब यह है कि मंत्र के बिना मन जीवित नहीं रह सकता। उसे कोई—न—कोई मंत्र चाहिए ही। मंत्र उसका पोषण है, भोजन है। और ध्यान का अर्थ ही होता है—ऐसी दशा जहाँ मन न रह जाए। अव्यस्तता सीखो। खाली बैठना सीखो। मंत्रों से मुक्‍ति हो जाओ। अजपा सीखो। शब्दों को छोड़ो। सार्थक भी छोड़ो, व्यर्थ भी छोड़ो, सब छोड़ दो। चौबीस घंटे में कम—से—कम एक घंटा ऐसा निकाल लो जब कोई कृत्य तुम्हारे भीतर न हो। जब तुम बिल्कुल शून्य मात्र हो जाओ। न कोई पूजा, न कोई प्रार्थना, न कोई अर्चना। और उसी शून्य में तुम पाओगे—सबसे बड़ी कठिनाइयाँ आएँगी और सबसे बड़े आनंद भी। सबसे बड़ी चुनौतियाँ और सबसे बड़ा जागरण भी। चुनौती कि मरना सीखना होगा। और उसी मृत्यु में आनंद का आविर्भाव है। तुम इधर मरे नहीं, कि उधर परमात्मा जगा नहीं। तुम्हारी मृत्यु उसका जन्म है।

 

चौथा प्रश्न : भगवान, मेरी जिंदगी के “जिग्सा पज़ल’ का जो एक टुकड़ा मुझे अब तक नहीं मिल रहा था, वह कल सुबह अचानक संतोष पर हुए आपके प्रवचन में मेरे हाथ आगया। भगवान, आशिष दें कि फिर न खो जाए।

कृष्ण मुहम्मद, जो चीज हाथ आ जाती है, खोती ही नहीं। हाथ आ जाए, यही बात है। खो जाए तो समझना कि हाथ आयी ही नहीं थी। सत्य खोते नहीं। एक दफा दिखायी पड़ जाएँ, फिर तुम लाख खोने की भी कोशिश करो तो खो न सकोगे। तुम चाहो भी कि इस सत्य से छुटकारा हो जाए तो छुटकारा न हो सकेगा। सत्य से छूटने का उपाय ही नहीं है। बस, तभी तक तुम उससे वंचित रह सकते हो, जब तक उसकी याद नहीं आयी। एक बार याद आ गयी, एक बार बात समझ में आ गयी कि बस हो गया।

संतोष का सत्य बड़ा सत्य है। उस एक सत्य की कुंजी से जीवन के सारे द्वार खुल सकते हैं। और वहीं बहुत कुछ अटका है। तो यह बात तुम्हारी ठीक है कि तुम्हारी जीवन की पहेली में कोई एक चीज चूक रही थी, वह हाथ लग गयी। अक्सर यही है। अधिक लोगों की जिंदगी में एक ही चीज चूक रही है, वह संतोष है। वे खोज रहे हैं और हजार चीजें, खोजना चाहिए संतोष। खोजते हैं परमात्मा को, खोजना चाहिए संतोष। संतोष मिल जाए तो परमात्मा तुम्हें खोजता आ जाए। और तुम खोजते फिरते हो परमात्मा को, बिना संतोष के। परमात्मा तुमसे बचता रहेगा। कौन असंतुष्ट आदमियों से मिलना चाहता है! परमात्मा भागा—भागा है। तुमसे डरा है। तुम उसकी खोपड़ी खा जाओगे।

एक आदमी मरा। एक दुर्घटना में मरा, कार में दुर्घटना हुई। उसका साझीदार भी उसके साथ था कार में, दोनों ही मर गए। दोनों एक—साथ परमात्मा के सामने मौजूद हुए। और परमात्मा ने आज्ञा दी पहले को कि इसे नरक ले जाया जाए और दूसरे को कि इसे स्वर्ग पहुँचाया जाए। उस पहले ने कहा, ठहरिए, कुछ भूल—चूक हो रही है। मैं जिंदगी—भर आपकी प्रार्थना करता रहा और इस दुष्ट ने कभी आपका नाम भी नहीं लिया—यही हमारे बीच सदा विवाद का कारण था, यह नास्तिक है, महानास्तिक, मैं आस्तिक हूँ। सुबह—साँझ—दोपहर पूजा करता था। भूल गए? हाथ में सदा झोली रखता था और माला फेरता था अंदर झोली में। दुकान पर भी लगा रहता था तो भी माला फेरता था। ऐसा कोई दिन नहीं गया जब तुम्हारी याद न की हो। महीने—दो—महीने में सत्यनारायण की कथा भी करवाता था। यज्ञ—हवन में भी दान देता था। मंदिर—मस्जिद भी बनवाए। सब तरह का दान—पुण्य किया था। भूल गए? कुछ चूक हो रही है। मालूम होता है मुझे भेजना चाहते हो स्वर्ग और इसे नरक लेकिन कुछ चूक हो रही है।

ईश्वर ने कहा—नहीं, चूक नहीं हो रही है। तुम्हें नरक जाना होगा, इसे स्वर्ग जाना होगा। कारण, उस आदमी ने पूछा बड़े गुस्से से कि इसका कारण? परमात्मा ने कहा—कारण यही कि तुम मेरा सिर खा गए। न सुबह तुमने मुझे सोने दिया, न रात तुमने मुझे सोने दिया, बस पुकारे जा रहे हो, पुकारे जा रहे हो, आखिर जिंदगी में एक आदमी की धीरज की भी एक सीमा होती है। और तुम लाउडस्पीकर भी लगवा लेते थे कभी—कभी! तुम मुहल्ले—भर को ही परेशान नहीं करते थे, मुझे भी परेशान करते थे। मैं, अगर तुम्हें स्वर्ग में रहना है, तो मुझे कहीं और रहना होगा। हम दोनों साथ नहीं रह सकते।

लोग और सब खोज रहे हैं। कुछ पाएँगे नहीं वे। पा लेने की बात सीधी और साफ है—संतोष। संतोष का अर्थ है—जो है, पर्याप्त है; जितना है, पर्याप्त है। पर्याप्त से ज्यादा है। जो है, उसके लिए अनुगृहीत हूँ। और जो नहीं है, उसकी कोई शिकायत नहीं है।

बस, इसी भावदशा में जो लीन हो जाता है, उसने ही परमात्मा को धन्यवाद दिया। शिकायत करनेवाले लोग धन्यवाद कैसे देंगे? माँग करनेवाले लोग धन्यवाद कैसे देंगे? परमात्मा ने तुम्हारे बिना माँगे बहुत दिया है। तुम्हारी योग्यता से बहुत दिया है। तुम्हारे पात्र में समा सके इससे बहुत दिया है।

संतोष समझ में आ गया कृष्ण मोहम्मद, तो सब समझ में आ गया। चुकेगा नहीं, हाथ से जाएगा भी नहीं। मैं तुम्हारी बात समझता हूँ, तुम कहते हो—आशीष दें। डर लगता है; क्योंकि सत्य जब हाथ में आता है तो घबड़ाहट लगती है कि इतने—इतने समय तक हाथ में नहीं था, आज हाथ लगा है कहीं चूक न जाए। लेकिन मैं तुम्हें याद दिला दूँ, जो भी चीज हाथ लग जाती है, लग ही गयी, फिर छूटती नहीं। सत्य का यही गुणधर्म है। एक बार तुम्हारे हृदय में सत्य की भनक पड़ जाए, तुम दूसरे ही आदमी हो गए। उसी क्षण से सत्य तुम्हें बदलना शुरू कर देगा।

जीसस का प्रसिद्ध वचन है—सत्य मुत्तिदायी है। “ट्रुथ लिबरेट्स’। और संतोष का सत्य तो महा मुत्तिदायी है। संतोषी को मानने की जरूरत ही नहीं कि परमात्मा है या नहीं, चिंता ही करने की जरूरत नहीं। संतोषी को स्वर्ग और नरक का विचार उठाने की आवश्यकता ही नहीं। जन्म—पुनर्जन्म, कर्म इत्यादि की बकवास में पड़ने की जरूरत नहीं। संतोषी तो इसी क्षण उतर गया आनंद में। और उसी आनंद में उतरना परमात्मा के मंदिर की सीढ़ियाँ तय करना है।

जो है, बहुत है। जितना दिया है, खूब दिया है। हम उस दिए हुए को भोग ही कहाँ पाते हैं! हम जीते ही कहाँ! मनस्विद कहते हैं कि हम दो प्रतिशत जीते हैं, अट्ठानबे प्रतिशत तो हम जीते ही नहीं। हम जीने से डरे हुए हैं। हम न्यूनतम जीते हैं। जितना कम—से—कम जीना पड़े उतना जीते हैं। और जीवन के असली आनंद अधिकतम जीने से उपलब्ध होते हैं। जो मिला है, उसे पूरी तरह जिओ। यह सुबह, इसे पूरी तरह जिओ। ये फूल, इन्हें पूरी तरह जिओ। ये लोग, इन्हें पूरी तरह जिओ। और अगर तुम सौ प्रतिशत जिओ तो तुम पाओगे इतनी अहर्निश वर्षा हो रही है उसके वरदानों की और क्या माँगना है? स्वर्ग और कहाँ होगा? स्वर्ग यहाँ है, अभी है, यहीं है।

 

पाँचवाँ प्रश्न : संन्यासी होने के पश्चात हमने जो पाया है, वह सभी को प्राप्त हो यह प्रश्न बार—बार हृदय में उठता है। क्या यह संभव है?

सत्य वेदांत, संभव है और संभव न भी हो तो संभव बनाना। जो मिला है, उसे बाँटो। क्योंकि बाँटोगे तो बढ़ेगा। दया से मत बांटना, क्योंकि दया से बाँटा तो अहंकार फलता है। और अहंकार फल गया तो जो हाथ में है तुम्हारे वह भी खो सकता है। जो तुम्हें मिला है, वह भी तुम भूल जा सकते हो। अहंकार बड़ा खतरनाक जहर है।

दया से मत देना किसी को, करुणा से मत देना किसी को; ऐसा मत देना कि मेरे पास है, तुम्हारे पास नहीं है; मैं ज्ञानी, तुम अज्ञानी; देखो, मैं संन्यासी, तुम संसारी; इस बेचारे को बचाओ, डूब रहा है संसार में, इस भाव से मत देना किसी को। क्योंकि इस भाव में तो भूल हो गयी, अधर्म हो गया। आनंद से देना, करुणा से नहीं। मस्ती से देना। इसलिए देना कि मेरे पास इतना है कि अब मैं करूँ क्या? अब फूल खिल गया तो गंध तो लुटेगी न! अब बादल भर गए जल से तो जल बरसेगा न! अब दीया जग गया तो रोशनी फैलेगी न! यह कोई करुणा का थोड़े ही सवाल है।

तुम क्या सोचते हो, बादल सोच—सोचकर बरसता है कि यह इस गरीब किसान का खेत, इस पर थोड़ा बरसूँ; या यह अमीर का खेत है, जाने भी दो; चलेगा, यह तो इंतजाम कर लेगा, नहर से ले लेगा, कुआं खुदवा लेगा। फूल क्या सोच—सोचकर गंध को बिखेरता है कि यह बेचारा गरीब जा रहा है, इसको गंध मिलती भी नहीं, एकदम से झपट इसकी नाक में प्रवेश कर जाऊँ। नहीं, फूल बँटता है। कोई गुजरे कि कोई न गुजरे। एकांत में खिला हुआ फूल भी अपनी सुगंध को बिखेरता रहता है। कोई जाने कि कोई न जाने। सच तो यह है कि यह कहना कि सुगंध को बिखेरता है, ठीक नहीं है, सुगंध बिखरती है।

जैनों ने ठीक अपने शास्त्रों में शब्द का उपयोग किया है। उन्होंने यह नहीं कहा कि महावीर बोले, उन्होंने कहा—वाणी बिखरी। यह बिल्कुल ठीक शब्द का उपयोग किया है। खूब सोचकर उपयोग किया है। महावीर बोले नहीं, वाणी बिखरी। जैसे फूल से गंध बिखरती है। जैसे सूरज से किरणें बिखरती हैं। जैसे बादल से जल बिखरता है। ऐसे वाणी बिखरी। झरी। बोलनेवाला तो अब वहाँ कोई है भी नहीं। कुछ पक गया है, वह झर रहा है। जिसकी हो मौज, ले जाए। जिसको लेना हो, उसका है।

बाँटना है, आनंद से, मस्ती से, सहजता से। और ध्यान रखना, जो ले जाए उसका धन्यवाद करना। ऐसा मत सोचना कि वह तुम्हारा धन्यवाद करे। कि देखो मैंने तुम्हें ज्ञान दिया, दयान दिया कि अब करो नमस्कार मुझे, कि दो धन्यवाद मुझे, कि देखो मैं तुम्हारा त्राता, तारनहार; कि मैंने तुम्हें बचाया, डूबे जाते थे संसार के दल—दरिद्र में, डूब रहे थे मरुस्थल में, मैंने तुम्हें उबारा। ऐसा भाव मत ले आना। नहीं तो सब मिट्टी हो गया। सोना मिट्टी हो जाता है ऐसे भाव में।

जो तुमसे कुछ ले ले, झुककर उसे नमस्कार करना कि तुम्हारा धन्यवाद, कि मैं तो बाँट ही रहा था, तुम्हारी बड़ी कृपा हुई कि तुमने ले लिया; न लेते तो भी बाँटता, निर्जन में बाँटता, जंगलों में बाँटता, पहाड़ों में फेंकता, तुम्हारी कृपा कि तुमने इतना मूल्य दिया, इतना सम्मान दिया, स्वागत से ले लिया, तुम्हारा धन्यवाद। देना और धन्यवाद करना। धन्यवाद की अपेक्षा मत करना। और तब तुम पाओगे खूब बढ़ेगा। जितना बाँटोगे उससे हजार गुना बढ़ेगा। जीवन के परम सत्य बाँटने से बढ़ते हैं, रोकने से घटते हैं। रोकने से सड़ जाते हैं, उनसे दुर्गंध उठने लगती है। बाँटने से बढ़ते हैं, फैलते हैं, उनकी सुगंध बढ़ती चली जाती है।

तुम पूछते हो—”संन्यासी होने के पश्चात हमने जो पाया है, वह सभी को प्राप्त हो’….. शुभ है यह आकांक्षा। होनी ही चाहिए….. “यह प्रश्न बार—बार हृदय में उठता है’। अब कुछ करो, प्रश्न को उठने ही मत दो। अब इस प्रश्न के लिए कुछ करो। बाँटना शुरू करो। जिस विधि बन सके। अलग—अलग लोगों से अलग—अलग विधि से बनेगा। कोई सुंदर गीत रच सकता है तो गीत रचे। कौन जाने उस गीत को गुनगुनाते किसको होश आ जाए। उस गीत की कौन—सी कड़ी किसके हृदय में टंकार कर दे। जो मूर्ति बना सकता है, मूर्ति बनाए। कौन जाने मूर्ति को देखते—देखते कौन ठहर जाए? किसका हृदय रुक जाए?

कभी गौर से बुद्ध की मूर्ति देखी कि महावीर की मूर्ति देखी? जिसने भी गौर से देखी, वह अगर क्षण—भर को ध्यानस्थ न हो जाए तो उसे मूर्ति देखना ही नहीं आता। उसके पास आंख नहीं वह अंधा है, बुद्ध या महावीर की प्रतिमा को देखते ही तुम्हारे भीतर कुछ ठहर जाता है। उस प्रतिमा में वह कला है। हजारों—हजारों सालों में जाननेवाले कलाकारों ने उस प्रतिमा की रग—रग में ध्यान की अनुभूति को समोया है, ध्यान को आकृति दी है, ध्यान को रूप दिया है, ध्यान को साकार किया है। वे बुद्ध और महावीर की प्रतिमाएँ थोड़े ही हैं। इसलिए कई दफे तुम्हें चिंता भी पड़ती होगी, कभी जैन मंदिर में जाना जहाँ चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ रखी हों, वे सब एक—जैसी लगती हैं। कहीं चौबीस आदमी एक—जैसे होते हैं? दो आदमी भी एक—जैसे नहीं होते, चौबीस कहाँ से होंगे? और चौबीस फिर हजारों साल का फासला है उनमें। ये चौबीस ही एक—जैसे लगते हैं! जो उनकी पूजा भी करते हैं रोज, उनको भी पक्का पता नहीं होता कौन पार्श्वनाथ हैं, कौन नेमिनाथ। पक्का पता करने के लिए उन्होंने नीचे चिह्न बना रखे हैं। हर मूर्ति पर चिह्न हैं कि यह महावीर का चिह्न है, यह पार्श्वनाथ का चिह्न, ये नेमिनाथ का चिह्न। चिह्न के हिसाब से चलना पड़ता है। अगर चेहरा ही देखो तो वह सब चेहरे ही एक—जैसे हैं। उनमें कुछ भेद नहीं है।

क्या कारण होगा?

ये असल में महावीर, पार्श्व या नेमि की प्रतिमाएँ ही नहीं हैं। ये प्रतिमाएँ तो ध्यान की प्रतिमाएँ हैं। यह तो उनके भीतर जो घटा था, उसको रूप दिया है। ये फोटोग्राफ नहीं हैं, ये कैमरे से उतारी गयी तस्वीरें नहीं हैं, ये तो ध्यानी मूर्तिकारों ने भीतर जो अनुभव होता है थिरता का, उस थिरता के अनुभव को संगमरमर में ढाला है। अगर तुम गौर से देखोगे इन प्रतिमाओं को, तुम अचानक पाओगे क्षण—भर को तुम्हारे भीतर भी सब ठहर गया। सब शांत हो गया।

अगर मूर्ति बना सकते हो, तो ध्यान की प्रतिमा बनाओ; अगर गीत गा सकते हो तो ध्यान का गीत गाओ, अगर बाँसुरी बजा सकते हो तो ध्यान को बाँसुरी पर बजने दो। जो भी कर सकते हो….. कबीर कपड़ा ही बुन सकते थे तो कपड़े ही ऐसे बुनते थे कि उनका ध्यान कपड़े के तागेत्तागे में समा जाए। इधर राम का गीत चलता, उधर कपड़ा बुना जाता। रामधुन से बुना जाता। भजन समा जाता।

तुम क्या करते हो, यह सवाल नहीं। तुमसे जैसे बने सके; बोल सकते हो, बोलो, चुप रह सकते हो, तो चुप हो जाओ; लेकिन तुम्हारी चुप्पी को बोलने दो। चुप्पी भी बोलती है। कई बार तो ऐसा होता है, चुप्पी इतना बोलती है जितना बोलना भी नहीं बोल पाता। तुम अनुभव भी करते हो इसका। कभी पत्नी से झगड़ा हो गया, तुम चुप बैठ गए; वह बोले जा रही है, तुम बोल ही नहीं रहे; क्या तुम समझते हो तुम बोल नहीं रहे हो, तुम बोल रहे हो, क्रोध बोल रहा है। अबोल।

अगर क्रोध बोल सकता है, चुप रहकर, प्रेम भी बोल सकता है चुप रह कर। आनंद भी बोल सकता है, ध्यान भी बोल सकता है। तुम्हारे उठने—बैठने में, तुम्हारे मिलने—जुलने में फैलने दो जो तुम्हारे भीतर घना हो रहा है। इसे बिखरने दो। इसे बाँटो—और कंजूसी मत करना। क्योंकि यह ऐसी संपदा है कि रोकने से मर जाती है, बाँटने से जीवित रहती है। ये ऐसी जलधारा है जो बहती रहे तो ताजा रहती है, रुकी, अवरुद्ध हुई कि गंदी हुई।

“संन्यासी होने के पश्चात हमने भी पाया, वह सभी को प्राप्त हो, यह प्रश्न बार—बार हृदय में उठता है। क्या यह संभव है?’ संभव है। नहीं तो मैं तुम्हें कैसे दे पाऊँ? नहीं तो बुद्ध ने कैसे दिया? नहीं तो कृष्ण ने कैसे दिया? संभव है। कठिन तो है देना लेकिन असंभव नहीं है। कठिनाइयाँ तो बहुत हैं। पहली तो कठिनाई यह कि जो तुम्हारे भीतर फलता है, उसे कैसे शब्दों में लाओ? शब्द साथ नहीं देते। कठिनाई यह भी है कि तुम कहते कुछ, सुननेवाला कुछ और समझता। संवाद कठिन है। छोटी—छोटी बातों में झगड़े हो जाते हैं। तुम कुछ कहते, पत्नी कुछ समझती है; पत्नी कुछ कहती, तुम कुछ समझते; तुम दोनों इसी पर लड़ने लगते कि मैंने कुछ कहा, तुमने कुछ समझा। जिंदगी—भर लोग लड़ते रहते हैं कि हमें कोई समझता ही नहीं। मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि हमें कोई समझता ही नहीं। भूलचूक ही करते जा रहे हैं लोग।

कठिनाइयाँ तो हैं। तुम कहोगे कुछ, लोग समझेंगे कुछ। तुम देने जाओगे, लोग समझेंगे लेने आए हैं। तुम बाँटना चाहोगे, लोग बचेंगे, लोग डरेंगे, लोग समझेंगे कि तुम उनको फाँसने आए हो। तुम चाहोगे हृदय उँडेल दें, वे कहेंगे कि भई, हमें चाहिए ही नहीं। हमारा संसार अभी बहुत पड़ा है, अभी ये संन्यास की बात हमसे छेड़ो मत। अभी इसका समय नहीं आया। अभी तो हम जवान हैं, अभी—अभी तो मेरी शादी हुई है, अभी तो नया बच्चा घर में आ रहा है, तुम्हें ध्यान की पड़ी है! बाबा घर में आ रहा है, तुम्हें ध्यान की पड़ी है! अभी यह बात मत छेड़ो। अभी यह बात करनी ही नहीं। जब समय आएगा मैं खुद ही आकर आपसे पूछ लूँगा।

और लोग परेशान भी हो गए हैं, मिशनरी हैं और आर्यसमाजी हैं, और न—मालूम तरहत्तरह के बकवासी हैं, वे लोगों को समझा रहे हैं, पिला रहे हैं कि यह मानो, ऐसा मानो, यही ठीक है, बाकी सब गलत है। लोग घबड़ा गए हैं। लोग कहते हैं—बख्शो हमें! आप होंगे ठीक, मगर हमें बख्शो! हमें अभी दूसरे काम करने हैं। जिंदगी में और भी काम हैं। अब हम इसी बकवास में नहीं पड़े रह सकते कि वेद का क्या अर्थ है? जो भी होगा ठीक ही होगा, आप कहते हैं तो ऐसा ही होगा। कौन सुनने को तैयार है?

कठिनाइयाँ होंगी। पहले तो तुम कह न पाओगे। फिर लोग समझने को तैयार नहीं। और अगर कोई समझने को तैयार हो जाए तो विवाद करेगा, संदेह उठाएगा और तुम उत्तर न दे पाओगे। क्योंकि कुछ ऐसे संदेह हैं जो केवल अनुभव से ही हल होते हैं। और कोई उपाय नहीं है। जिसने कभी प्रेम नहीं किया, वह प्रेम के संबंध में हजार संदेह उठाएगा, और तुम लाख कोशिश करो, समझा न पाओगे। एक ही चीज समझा सकती है कि वह प्रेम करे। लेकिन अगर उसने यह कसम खा ली है कि जब तक मैं पक्का समझ न लूँ कि प्रेम होता है, तब तक करूँगा नहीं। और उसकी बात में भी जान तो मालूम होती है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन तैरना सीखना चाहता था। तो गाँव के एक उस्ताद को पकड़ लिया जो तैरना सिखाते थे बच्चों को। उनके साथ गया नदी पर। घाट से उतर ही रहा था कि काई जमी थी नीचे फर्श पर, और फिसल गया, गिर पड़ा। गिरा तो भागा अपने कपड़े लेकर एकदम घर की तरफ। उस्ताद ने कहा—कहाँ जाते हो, नसरुद्दीन? उसने कहा— जब तैरना सीख लूँगा तभी आऊँगा। ऐसे अगर कहीं पानी में गिर जाऊँ बिना तैरना जाने हुए, तो मुफ्त मारे गए। अब तो तैरना सीख लूँ उस्ताद, तभी नदी आऊँगा। मगर तबसे नदी नहीं गया, तैरना कहाँ सिखोगे? बिस्तर पर लेटकर हाथ—पैर मारोगे? सुविधापूर्ण, अपने कमरे में चारों तरफ दरवाजे बंद कर लिए, लेट गए बिस्तर पर और पटक रहे हैं हाथ—तैरना नहीं आएगा! ऐसे तैरना नहीं आता।

अगर किसी ने यह तय कर लिया कि तैरना आ जाए तभी पानी में उतरूँगा, तो तैरना आएगा ही नहीं। और उसकी बात में बल तो है कि बिना तैरना सीखे पानी में कैसे उतरूँ? यह तर्क एकदम व्यर्थ नहीं है, हँसो मत, उस पर, यही हमारी जिंदगी का तर्क है। हम कहते हैं—पहले ईश्वर को सिद्ध तो करो, फिर हम खोजने निकलें। ध्यान किसी को हुआ है कभी, यह सिद्ध करो, तो हम भी ध्यान करें। मगर कैसे सिद्ध करोगे? ध्यान अंतर्दशा है। ऐसे बाहर रखी नहीं जा सकती निकालकर बाजार में कि सब लोग देख लें। कोई उपाय नहीं है। मुझे क्या हुआ है, वह मैं जानता हूँ। तुम्हें जो होगा, तब तुम जानोगे।

तो अड़चनें तो हैं, समझाने की कठिनाइयाँ हैं, संवाद बहुत मुश्किल है, मगर इन सारी अड़चनों को स्वीकार करके भी बाँटना तो होगा। और फिर लोग ऐसे हैं भी जिनको प्यास है, जो प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कहीं से कोई स्वर मिले, आवाज मिले, पुकार मिले। और यह दुनिया बदलनी है। यह दुनिया गैर—ध्यान के बहुत जी ली और बहुत कष्ट पा ली।

 

हमारे मैकदे का अब निजाम बदलेगा

हम अपना साकी बदलेंगे, जाम बदलेगा

अभी तो चंद ही मैकश हैं बाकी सब तिश्ना

वह वत्त आगया जब तिश्नाकाम बदलेगा

यह अर्शो—फर्श की तफरीक कुछ नहीं “वामिक

बुलंदो—पश्त का मेयारे—खाम बदलेगा

समय आया है, अब छोटी—मोटी मधुशालाओं से काम न चलेगा, इस पूरी पृथ्वी को मधुशाला बनाना है। अब कुछ ही पियक्कड़ हों और बाकी प्यासे ही रहें, ऐसे काम न चलेगा। “हमारे मैकदे का अब निजाम बदलेगा’। अब हमें अपने मदिरालय का प्रबंध और व्यवस्था बदलनी होगी। वही मैं कर रहा हूँ चेष्टा। इसलिए यहाँ हिंदू की बात नहीं हो रही; मुसलमान की बात नहीं हो रही, ईसाई की बात नहीं हो रही—और सबकी बात भी हो रही है। वही कोशिश कर रहा हूँ कि अब यह निजाम बदले। मंदिर में हिंदू जाता है, मुसलमान मस्जिद जाता है, अब यह निजाम बदले। अब इतनी संकीर्णता न रहे। अब सब मंदिर—मस्जिद उसके हों। जो करीब पड़ जाए, वहीं चले गए। मस्जिद करीब हो तो वहीं प्रार्थना कर ली, इसकी फिकर न की कि तुम मुसलमान हो या नहीं? मंदिर करीब हुआ तो वहीं चले गए, इसकी फिकर न की कि तुम हिंदू हो या मुसलमान। महावीर की मूर्ति मिल जाए तो वहीं बैठ गए, वहीं पी लिया, महावीर की सुराही से पी लिया। और बुद्ध की प्रतिमा मिल गयी तो वहाँ पी लिया। और कोई न मिला, तो वृक्ष भी उसी के हैं और आकाश भी उसी का है।

 

हमारे मैकदे का अब निजाम बदलेगा

हम अपना साकी बदलेंगे, जाम बदलेगा

 

अभी तो चंद ही मैकश. . .

अभी तो थोड़े—से पियक्कड़ हैं दुनिया में। और जिन्होंने पीआ है वही जानते हैं।

….. बाकी सब तिश्ना

बाकी लोग तो सिर्फ प्यासे हैं। तलाश रहे हैं, मगर हाथ कुछ लगता नहीं। खाली—के—खाली रह जाते हैं। खाली आते हैं, खाली जाते हैं।

 

अभी तो चंद ही मैकश हैं बाकी सब तिश्ना

वह वत्त आ गया जब तिश्नाकाम बदलेगा

अब हमें बदलना है। ये मधु घट—घट में ढालना है। यह शराब एक—एक हृदय में उतारनी है। इस दुनिया को ध्यान के बिना रहते बहुत समय हो गया, सिर्फ युद्ध होते हैं, हिंसा होती है; लोग क्रोधित होते हैं, विक्षिप्त होते हैं; इस सारे क्रोध, विक्षिप्तता, युद्धों और हिंसा की ऊर्जा को प्रेम की ऊर्जा में बदलना है।

 

यह अर्शो—फर्श की तफरीक कुछ नहीं “वामिक’

आकाश और पृथ्वी का भेद कुछ भी नहीं है। जरा पीने की कला आ जाए कि पृथ्वी आकाश हो जाती है।

 

यह अर्शो—फर्श की तफरीक कुछ नहीं “वामिक’

बुलंदो—पश्त का मेयारे—खाम बदलेगा

और न कोई नीचा है और न कोई ऊँचा है। ये सब भेदभाव झूठे हैं। न कोई हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न बौद्ध, न जैन, ये सब भेदभाव बचकाने हैं। ये सब दीवालें तोड़ देनी हैं।

बाँटो, तुम्हें जो मिला है उसे बाँटो। होशियारी इतनी ही रखना कि किसी को जबरदस्ती पकड़कर मत पिला देना। क्योंकि जबरदस्ती जो पिलाया जाता है, वह जहर हो जाता है। जो स्वेच्छा से पीया जाता है, वही अमृत है। इसलिए बड़ी परोक्ष प्रक्रिया है लोगों तक अपनी आनंद की अनुभूति पहुँचाने की। किसी की गर्दन सीधी पकड़कर जोर—जबरदस्ती से बदलने की कोशिश मत करना—वही तो चलता रहा है, दुनिया से वही तो बदलना है। घर में बच्चा पैदा हुआ और माँ—बाप ने पकड़ा उसको, इसको जल्दी से जैन बना लो—क्योंकि वे जैन हैं। उनको डर है कि अगर यह जवान हो गया, फिर पता नहीं बना पाएँ, न बना पाएं फिर मजबूत हो जाएगा; फिर इसकी गर्दन पकड़नी इतनी आसान नहीं रहेगी। फिर इसमें बुद्धि जग जाएगी।

इसलिए सारी दुनिया के धर्मगुरु इस कोशिश में रहते हैं कि सात साल के पहले ही बच्चे का बपतिस्मा हो जाए, जनेऊ डाल दिया जाए, सिर घुटाकर चुटैया रख दी जाए, कुछ—न—कुछ कर दिया जाए ताकि मामला खतम हो जाए। यह तय कर दिया उसकी बुद्धि के जागने के पहले कि वह कौन है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई? उसको कुछ गीता रटा दो, कुछ कुरान की आयतें रटा दो, उसे एक—दूसरे से दुश्मनी सिखा दो, उसे आदमी—आदमी के बीच दीवाल खड़ी करना सिखा दो, उसे ब्राह्मण बना दो, शूद्र बना दो, कुछ—न—कुछ बना दो।

बस एक बार यह विकृति छा गयी उसमें, फिर बहुत मुश्किल हो जाता है निकालना, क्योंकि जहर गहरे उतर जाता है। बचपन में जो जहर उतरता है, वह बहुत गहरे उतर जाता है। उससे बुनियाद बन जाती है। फिर सारा भवन उसी पर खड़ा होता है। फिर जिंदगी—भर वह उसी तरह सोचता है। और सोचता है कि मैं सोच रहा हूँ। वह नहीं सोच रहा है, यह जो उसके भीतर कूड़ा—कचरा डाल दिया गया है वही घूम रहा है। वही हवा में उठता—बैठता रहता है। वह कुछ सोचता नहीं।

यह जबरदस्ती काफी चल चुकी, इसका परिणाम क्या है? हिंदू भी नहीं है, मुसलमान भी नहीं है, ईसाई भी नहीं है, कोई भी तो नहीं है यहाँ पृथ्वी पर। बस नाममात्र को हैं। जबरदस्ती कोई धार्मिक हो सकता है? धर्म निजी खोज है, निजता है।

तो तुम्हें मैं याद दिला दूँ, भूलकर भी किसी पर जबरदस्ती मत थोप देना। प्रेम से, जो तुम्हें मिला है, उसको बाँटना। सहज भाव से निवेदन कर देना। और दूसरे को मौका देना कि सोचे। और किसी भय या लोभ को खड़ा मत करना। यह मत कहना कि अगर नहीं हमारी बात मानी तो नरक में पड़ोगे। यह कहते रहे हैं लोग इस जमीन पर कि हमारी बात नहीं मानी तो नरक में पड़ोगे। नरक का ऐसा वीभत्स चित्र खींचते हैं कि जिसमें थोड़ी भी बुद्धि हो वह यही सोचेगा कि मान ही लेने में सार है। नरक में कौन पड़ना चाहता है! और हो न हो कहीं नरक हो ही न! तो मान ही लो।

फिर स्वर्ग का प्रलोभन दिया है कि जो मानते हैं, उनको इस—इस तरह की उपलब्धियाँ होंगी। ऐसे सुंदर सोने के महल, और कल्पवृक्ष, जिनके नीचे बैठो, बात उठे नहीं कि पूरी हो जाए, वासना उठे नहीं कि तत्क्षण पूरी हो जाए; और सुंदर अप्सराएँ जो कभी बूढ़ी नहीं होतीं। तुमने बूढ़ी अप्सरा का नाम सुना? कोई अप्सरा बूढ़ी होती नहीं। उर्वशी अभी भी उतनी ही जवान है जैसी तब थी। सोलह साल पर रुक जाती हैं अप्सराएँ। उसके आगे नहीं जातीं। स्त्रियाँ यहाँ भी कोशिश करती हैं रुकने की, मगर कब तक? कोशिश तो करती हैं, यहाँ भी स्त्रियाँ रुकने की कि रुकी रहें सोलह साल पर, मगर दो—चार—आठ साल में फिर उम्र बदलनी ही पड़ती है क्योंकि फिर वह दिखायी ही पड़ने लगती हैं, उसको कहाँ तक रोकोगे? मगर स्वर्ग में उम्र नहीं बदलती। वहाँ जवान—ही—जवान। न कोई बच्चा है, न कोई बूढ़ा। वहाँ सिर्फ जवानी है। ये मनुष्य की कामना के प्रतीक हैं। और वहाँ राग—रंग ही चलता है और कोई काम नहीं।

तुमने देखा स्वर्ग में कोई देवदूत दुकान कर रहे हैं, खेती—बाड़ी कर रहे हैं—यह कोई कहानी ही नहीं आती! बस, जमी है महफिल, शराब छलक रही है, नाच हो रहा है—इंद्र का दरबार भरा है, अप्सराएँ नाच रही हैं, मस्ती चल रही है। कोई और काम है? इसका पता ही नहीं चलता कि शराब कौन ढालता है? शराब बनाता कौन है? यह शराब की भट्ठी कौन चलाता है? नहीं, इसीलिए तो कल्पवृक्ष ईजाद किए, वहाँ तो जो कल्पना करो, तत्क्षण हो जाता है।

मैंने सुना है, एक आदमी भूल से कल्पवृक्ष के नीचे पहुँच गया। भटक रहा था, पहुँच गया। थका—माँदा था। इतना थका था कि उसने सोचा कि इस वत्त अगर एक बिस्तर मिल जाता, तो गहरी नींद सो लेता। इतना थका था, इतना कि टूटा जा रहा था। उसको हैरानी भी न हुई क्योंकि उसने देखा तत्क्षण एक बिस्तर लग गया। मगर वह इतना थका—माँदा था कि चौंका भी नहीं, जल्दी से सो गया।

थोड़ी देर बाद उसकी नींद खुली तो उसने सोचा कि बड़ा मजा है, यह बिस्तर भी मिल गया! अब चाय इत्यादि भी मिलेगी कि नहीं? तत्क्षण चाय की ट्रे आकाश से उतर आयी। तब थोड़ा उसे भय भी लगा। मगर उसने कहा—चाय तो पी ही लो! उसने चाय तो पी ली, फिर उसने सोचा कि यह मामला क्या है? क्या भोजन वगैरह भी मिलेगा? भोजन भी आ गया। भोजन भी कर लिया। जब भोजन कर लिया और सब तरह से निश्चिंत हो गया, अब उसे ज़रा ज्यादा घबड़ाहट पकड़ी कि यह मामला क्या है; ये थालियाँ, ये बिस्तर, ये उतर कहाँ से रहे हैं? कोई भूत—प्रेत तो नहीं हैं? भूत—प्रेत खड़े हो गए। देखकर उनको उसने कहा कि मारे गए, कि मारा गया।

कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे जो चाहोगे वैसा ही हो जाएगा। तत्क्षण। चाह में और पूर्ति में समय का अंतराल नहीं होगा। खूब प्रलोभन दिए हैं, खूब भय दिए हैं, और इन्हीं के आधार पर आदमियों को फाँसा गया है। तुम न तो किसी को भय देना, न प्रलोभन देना, सिर्फ जो तुम्हें हुआ है उसका निवेदन कर देना। कोई स्वेच्छा से उमंग से भर जाए, तो ठीक। कोई स्वेच्छा से उमंग से न भरे तो उसके पीछे मत पड़ जाना—हाथ धोकर किसी के पीछे मत पड़ जाना।

 

आखिरी प्रश्न : संसार में ही परमात्मा छिपा है, या कि संसार ही परमात्मा है? जब तक जाना नहीं, तब तक तो संसार ही है, परमात्मा कहाँ? तब तक तो परमात्मा की सिर्फ बातचीत—ही—बातचीत है। संसार ही सत्य है अभी तो।

ज्ञान की अवस्था में परमात्मा है ही नहीं, संसार ही है। ज्ञान की अवस्था में परमात्मा ही है, संसार नहीं है और चूँकि ज्ञानियों को अज्ञानियों से बात करनी पड़ती है, इसलिए वे कहते हैं—संसार में परमात्मा छिपा है।

इस बात को समझ लेना। अज्ञानी के लिए संसार ही है, परमात्मा है नहीं। ज्ञानी के लिए सिर्फ परमात्मा ही है, संसार नहीं है। और अज्ञानी ज्ञानी के बीच बात होती है। अब यह बात कैसे चले? दोनों के आधार अलग हैं। अज्ञानी कहता है—कहाँ का परमात्मा? संसार है। और ज्ञानी भी अगर ऐसे ही जिद्दी हो तो वह कहेगा—कहाँ का संसार, सिर्फ परमात्मा है। फिर तो बात न हो सकेगी। तो समझौता करना पड़ता है। वह समझौते के कारण ये सत्य इस तरह कहे जाते हैं, कि संसार में छिपा है परमात्मा। इससे अज्ञानी भी एकदम नाराज नहीं होता। वह कहता है—चलो, संसार तो है; अब रही छिपे की बात, खोजेंगे।

थोड़ा अज्ञानी खोजने में लगता है, तो फिर ज्ञानी दूसरी घोषणा करता है, वह कहता है—छिपा है, ऐसा नहीं, संसार ही परमात्मा है। जो पहली बात मानने को राजी हो गया और खोज पर चला, वह दूसरी बात भी मानने को राजी हो जाता है। क्योंकि संसार में छिपा है, इसका तो मतलब हुआ दो हैं। संसार और उसमें छिपा हुआ परमात्मा। जैसे लोटे में जल भरा है। ऐसे परमात्मा संसार में भरा है। तो यह लोटा अलग, जल अलग। मगर यह घोषणा पहली है करनी ही पड़ती है। दूसरी घोषणा ज्ञानी करता है जब थोड़ा अज्ञानी सरकने लगा ध्यान में, प्रार्थना में, पूजा में, तो उससे कहता है कि अलग—अलग नहीं हैं, एक ही है, संसार ही परमात्मा है। मगर अभी भी दो शब्दों का प्रयोग कर रहा है। संसार शब्द को एकदम नहीं छोड़ दिया है। अज्ञानी को देखकर चलना पड़ता है ज्ञानी को। अज्ञानी की भाषा बोलनी पड़ती है।

फिर अज्ञानी और ध्यान में उतरा और ज्ञान में उतरा, तो एक दिन वह घोषणा करेगा—कोई संसार नहीं है, बस परमात्मा ही है, वही एक है। न तो कुछ छिपा है, न किसी में छिपा है—परमात्मा छिपा थोड़े ही है। परमात्मा से ज्यादा प्रगट क्या है? वही तो प्रगट है, छिपेगा किसमें? उसके अतिरित्त कुछ और है नहीं जिसमें छिप जाए। लेकिन ये घोषणाएँ करनी पड़ती हैं अलग—अलग पात्रता के कारण। भिन्न—भिन्न पात्रता के लोग हैं। तुम देखते नहीं जीवन में इतना परिवर्तन दिखायी पड़ता है लेकिन फिर भी परिवर्तन के पीछे शाश्वत की झलक नहीं मिलती? फूल खिले, फिर झर गए, कल फिर फूल खिले; बसंत आया, गया, पतझड़ हो गयी। फिर बसंत आ गया। बदलाहट होती रहती है, लेकिन किसी गहरे तल पर कुछ भी नहीं बदलता, फूल आते ही रहते हैं। मौत जीत कहाँ पाती है? जीवन होता ही रहता है। जीवन मौत के बावजूद भी चलता ही रहता है। इस शाश्वत चलनेवाले जीवन का नाम ही परमात्मा है।

 

खिजां ने ख़ाक उड़ाई हजार गुलशन में

चमन में फूल मगर मुस्कराए जाते हैं

कितनी ही मौत आए, कितने ही पतझड़ आएँ, लेकिन जिंदगी मुस्कराए चली जाती है। फर्क ही नहीं पड़ता!

 

खिजां ने खाक उड़ाई हजार गुलशन में

चमन में फूल मगर मुस्कराए जाते हैं

ज़रा गौर से देखो! तो पहले तुम्हें ऐसे ही लगेगा कि संसार में परमात्मा छिपा है, फिर ऐसा लगेगा—संसार ही परमात्मा है। फिर ऐसा लगेगा—परमात्मा ही है, संसार कहाँ? ये तीन सीढ़ियाँ हैं।

 

फूलों की तरफ उनकी कतारों की तरफ देख

महके हुए सरशार नजारों की तरफ देख

 

है कश—म—कश इश्क की हर गाम पै दावत

बहकी हुई बदमस्त बहारों की तरफ देख

 

कुंदन की तरह निखरी हुई चाँदनी रातें

बिखरे हुए मदहोश सितारों की तरफ देख

 

यह सहने—चमन कर—मके—शहताब की परवाज

उड़ते हुए बेचैन शरारों की तरफ देख

 

बसती है यहाँ एक खयालात की दुनिया

चश्मों के लहकते हुए धारों की तरफ देख

 

कहता था “हया’ सुब्ह का टूटा हुआ तारा

“कुछ तू भी मशैयत के इशारों की तरफ देख’

 

ज़रा संसार से आते इशारे तो देखो!

 

कहता था “हया’ सुबह का टूटा हुआ तारा

“कुछ तू भी मशैयत के इशारों की तरफ देख’

 

सब तरफ से इशारा हो रहा है, मगर तुम आंख बंद किए खड़े हो। सब तरफ से परमात्मा न—मालूम कितने—कितने रूपों में खबरें भेज रहा है। यह आया हवा का झोंका— यह उसी का झोंका। यह आयी फूलों की गंध, यह उसी की गंध। यह उठा इंद्रधनुष आकाश में, यह उसी का इंद्रधनुष, यह उसी का रंग। ये लोग जो तुम्हारे पास बैठे हैं, यह तुम जो अपने भीतर बैठे हो, ये सब उसी के बैठकखाने हैं। घर—घर में वही बसा है। मगर यह पहली घोषणा कि घर—घर में वही बसा है। फिर दूसरी घोषणा कि वह और घर दो नहीं हैं, एक ही हैं। फिर तीसरी घोषणा—वही है, घर कहाँ?

यह पात्रता के अनुसार है। इनमें कोई भेद नहीं है। पहली कक्षा का पाठ, दूसरी कक्षा का पाठ, तीसरी कक्षा का पाठ। और इस तरह के प्रश्नों को दार्शनिक ढंग से सुलझाने मत जाना। नहीं तो सुलझा तो नहीं पाओगे, और उलझ जाओगे—वैसे ही काफी उलझे हो। इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ—बजाय शास्त्रों में जाने के, सृष्टि में चलो। सब शास्त्र आदमी के रचे हुए हैं, सृष्टि उसकी रची हुई है।

 

फूलों की तरफ उनकी कतारों की तरफ देख

महके हुए सरशार नजारों की तरफ देख

 

है कश—म—कश इश्क की हर गाम पै दावत

बहकी हुई बदमस्त बहारों की तरफ देख

 

कुंदन की तरह निखरी हुई चाँदनी रातें

बिखरे हुए मदहोश सितारों की तरफ देख

 

यह सहने—चमन कर—मके—शहताब की परवाज

उड़ते हुए बेचैन शरारों की तरफ देख

 

बसती है यहाँ एक खयालात की दुनिया

चश्मों के लहकते हुए धारों की तरफ देख

 

कहता था “हया’ सुब्ह का टूटा हुए तारा

“कुछ तू भी मशैयत के इशारों की तरफ देख’

 

आज इतना ही।

 

 

 


Filed under: संतो मगन भया मन मेरा--(रज्‍जब--वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–11

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शून्‍य की झील में प्रेम का कमल है भक्तिग्यारहवां प्रवचन

दिनांक 11 मार्च,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

 सूत्र :

दु:संग : सर्वथैव त्याज्य

कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशाबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्‍वात्    

तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति

कस्तरति कस्तरति मायाम? य : संगास्त्यजति यो

महानुभाव सेवते निर्ममो भवति

यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति,

निस्त्रैगुण्यौ भवति, योगक्षेम त्यजति

: कर्मफलं त्यजति, कर्माणि सन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति

वेदानपि सन्यस्यति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते

स तरति स तरति स लोकांस्तारयति

 

जो नहीं है, उसे निर्बल मत जानना। जो नहीं है, उसमें भी बड़ा बल है। अन्य था, मरु- मरीचिकाए मनुष्य को आकर्षित न करतीं और स्वप्नों पर भरोसा न आता, क्षितिज आमंत्रण न देता, स्वप्न सत्य मालूम न होते।

जो नहीं है, वह भी बड़ा प्रबल है, और मन के लिए “जो है “ उससे भी ज्यादा प्रबल है। मन उसे देख ही नहीं पाता, “जो है “। मन सदा उसका ही चिंतन करता है जो नहीं है, जिसका अभाव है। जो हाथ में नहीं है, मन उसका विचार करता है। जो हाथ में है, उसे तो मन भूल ही जाता है।

मन के इस सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है, तो ही भक्ति-सूत्र समझ में आ सकेंगे। क्योंकि मन के विपरीत जो गया, वही भक्ति को उपलब्ध हुआ। मन के साथ जो चला, वह कभी भगवान तक न पहुंच सकेगा।

भगवान यानी “जो है’’ , भक्ति यानी “जो है’’, उसे देखने की कला।

लेकिन “जो है’’ , वह हमें दिखाई क्यों नहीं पड़ता? ‘’ जो है’’ वह तो हमें सहज ही दिखाई पड़ना चाहिए।’’ जो है’’ उसे खोजने की जरूरत ही क्यों हो?’’ जो है’’ उसे हम भूले ही क्यों, उसे हम भूले ही क्यों, उसे हम भूले ही कैसे? ‘’ जो है’’ उसे हमने खोया कैसे? ‘’ जो है’’ उसे खोया कैसे जा सकता है ?

इसलिए पहली बात समझ लेनी जरूरी है : मन का नियम। मन उसी को जानता है जो नहीं है। तुम्हारे पास अगर दस हजार रुपये हैं तो उन उस हजार रुपयों को मन भूल जाता है।

मन उन दस लाख रुपयों का चिंतन करता है जो होने चाहिए, पर हैं नहीं। मन अभाव का चिंतन करता है। जो पत्नी तुम्हें उपलब्ध है मन उसे भूल जाता है। जो पत्नी उपलब्‍ध नहीं है, जो स्त्री उपलब्ध नहीं है, मन उसकी कल्पनाएं करता है, योजनाएं बनाता है। तुम्हें जो मिला है, मन उसे देखता ही नहीं, मन उसी पर नजर रखता है, जो मिला नहीं है। हा थ की असलियत मत को नहीं भाती, स्वप्न के आभास भाते हैं। मन स्वप्न के भोजन पर जीता है। मन जीता ही स्वप्न के सहारे है।

जब भी तुम आंख बंद करोगे, भीतर सपनों का जाल पाओगे, चलते ही रहते हैं, रुकते ही नहीं। तुम आंख खोले काम में भी लगे हो, तब भी भीतर उनका सिलसिला जारी रहता है, तब भी पर्त दर पर्त सपने भीतर घने होने रहते हैं। तुम देखो या न देखो, लेकिन मन सपने बुनता रहता है। मन का सपनों का ताना- बाना क्षणभर को रुकता नहीं। उसी सपने के जाल का नाम माया है। उसी सपने के जाल में उलझे तुम परेशान और पीड़ित हो।

जो नहीं है उसने तुम्हें अटकाया है। जो नहीं है उसने तुम्हें भरमाया है। जो नहीं है उसने तुम्हारी आखें बंद कर दी हैं, और जो है उसे देखना मुश्किल हो गया है।

रात तुम स्वप्न देखते हो, कितनी बार देखे हैं, हर बार सुबह जागकर पाया, झूठे थे! लेकिन फिर जब रात आज देखोगे स्वप्न तो देखते समय सच मानोगे। झूठ को सच मानने की तुम्हारी कितनी प्रगाढ़ धारणा है! कितनी बार जागकर भी, कितनी बार देखकर भी कि सपने सुबह झूठ सिद्ध हो जाते हैं, फिर भी जब तुम रात स्वप्न देखोगे आज, तो सच मालूम होगा, शक भी न आएगा।

मेरे पास लोग आते हैं, कहते हैं,’’ हमारे मन में श्रद्धा नहीं है। हम बड़े संदेहशील हैं। हमारा निस्तार कैसे होगा? ‘’मैं उनसे कहता हूं,’’ मैंने अभी तक संदेहशील व्यक्ति देखा नहीं। तुम सपनों तक पर श्रद्धा करते हो, सत्य की तो बात ही छोड़ो। तुम सपनों तक पर भरोसा करते हो, उन पर तक तुम्हें अभी संदेह नहीं आया, तो तुम और किस पर संदेह करोगे? जो नहीं है, उस पर भी संदेह नहीं हो पाता, तो’’ जो है’’ उस पर तुम कैसे संदेह करोगे’’?

संदेहशील व्यक्ति मैंने अभी देखा नहीं क्योंकि जो संदेहशील हो वह पहले तो सपनों को तोड़ेगा। जिसने सपने तोड़े उसके भीतर श्रद्धा का जन्म हुआ। जिसने सपने तोड़े, उसने तब सत्य को जानने का मार्ग साफ कर लिया। आज फिर रात जब तुम सपना देखोगे तब फिर खो जाओगे सपने में। ऐसा कितनी बार हुआ है, कितने जन्मों- जन्मों हुआ है! रात की छोड़ो, क्योंकि रात तुम कहोगे कि हम बेहोश हैं, चलो दिन का ही विचार करें। दिन में भी कितनी बार क्रोध किया है, और कितनी बार तय किया है और कितनी बार पछताये हो कि अब नहीं, अब नहीं, बहुत हो गया। फिर जब क्रोध पकड़ लेता है और क्रोध का धुआ जब तुम्हें घेर लेता है, तब तुम फिर बेसुध हो जाते हो, सारे पछतावे, सारे पश्वाताप, सारे निर्णय, संकल्प व्यर्थ हो जाते हैं। क्रोध का जरा सा धुंआ और तुम्हारे पैर उखड़ जाते हैं, जड़े टूट जाती हैं, तुम फिर बेहोश हो जाते हो, तुम फिर बेसुध हो जाते हो। कितनी बार नहीं देखा कि कामवासना व्यर्थ ही भरमाती है, भटकाती है, पहुंचाती कहीं नहीं, दूर से दिखाती है मरूद्यान, पास आने पर मरुस्थल ही पाये जाते हैं। कितनी बार नहीं जाना है इसे! लेकिन फिर तुम भटकोगे, फिर तुम खोओगे। फिर कामवासना पकड़ेगी और तब फिर तुम सपने सजाने लगोगे–और मन कहेगा,’’ हो सकता है, इतनी बार झूठ सिद्ध हुई हो, अब की बार न हो! अपवाद हो सकते हैं। जो अब तक नहीं हुआ, शायद अब हो जाए’’ ।

मन’’ शायद’’ पर जीता है। मन आशा पर जीता है।

उमरखैयाम की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं कि मैंने ज्ञानियों से पूछा कि आदमी अब तक थका नहीं, किस सहारे जीता है? आदमी अब तक विषाद को उपलब्ध नहीं हुआ, किस सहारे जीता है? ज्ञानि उत्तर न पाए। फकीरों से पूछा। फकीर भी उलझे हुए मालूम पड़े।

तब कोई राह न देखकर, उमरखैयाम कहता है कि एक रात मैंने आकाश से पूछा कि तूने तो सभी को चलते देखा, सदियों-सदियों, युगों-युगों से, कितने लोग उठे, आशाओं और सपनों से भरे कितने लोग धूल में गिरे, तूने तो सबको देखा, सब के अरमान मिट्टी में मिलते देखे, तुझे तो पता चल गया होगा अब तक, आदमी किसके सहारे चलता है! अब तक थकता नहीं, रुकता नहीं!

तो आकाश ने कहा,’’ आशा के सहारे’’ ।

तुम्हारा असली आकाश आशा है–जो नहीं हुआ शायद, हो जाए! जो किसी को नहीं हुआ शायद तुम्हें हो जाए। जो कभी किसी को नहीं हुआ, शायद…।

भविष्य को किसने जाना है? सिकंदर हार जाते हैं, लेकिन तुम चले जाते हो, चलते चले जाते हो। दिन में भी तुम सपने देखते हो, रात में ही नहीं। राह पर चलते हो तब भी सपने देखते हो। दुकान पर बैठते हो, बाजार में उठते हो, बैठते हो तब भी सपने देखते हो। सपने तुम्हारे भीतर एक सतत कम है। और इन्ही सपनों के कारण वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है। सपनों की धूल तुम्हारी आंख को दबाए है।

सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है–सिर्फ असत्य से मुक्त हो जाना है। सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है–सिर्फ जो नहीं है, उसे देख लेना है कि नहीं है। द्वार साफ है। परदा उठा हुआ है। परदा कभी था ही नहीं।

कल मैं एक गीत पढ़ता था।

हंस मानसर भूला

सनी मंक में चंचु

हो गए उजले पर मटमैले

कंकर चुनने लगा वही जो

मुक्ता चुगता पहले

क्षण में क्या ऐसा सम्मोहन

जो तू अक्षर भूला?

कमल नाम से बिछुड़

कांस के सूखे तिनके जोरे

अवगुंठित कलियों के धोखे

कुंठित शूल बटोरे

पर में क्या ऐसा आकर्षण

जो परमेश्वर भूला ,

नीर-क्षीर की दिव्य दृष्टि में

अंध वासना जागी

गति का परम प्रतीक बन गया

जड़ता का अनुरागी

क्षण का अर्पित हुआ

साधना का मन्वंतर भूला

हंस मानसर भूला

सनी पैक में चंचु

हो गए उजले पर मटमैले

कंकर चुगने लगा वही जो

मुक्ता चुगता पहले

क्षण में क्या ऐसा सम्मोहन

जो तू अक्षर भूला?

 

 

क्षण में ऐसा क्या आकर्षण हो सकता है जो शाश्वत भूल जाए? असार में ऐसा क्या बल हो सकता है जो सार विस्मृत हो जाए। दूसरे में ऐसी क्या पुकार हो सकती है जो अपना स्वभाव भूल जाए। पर है।

इसलिए पहली बात तुमसे कहता हूं : व्यर्थ के, असार के, जो नहीं है उसके बल को मत भूलना, उसके बल को स्वीकार करना। जो नहीं है उसमें भी शक्ति है। क्योंकि मन का स्वभाव यही है कि वही जी ही सकता है, जो नहीं है उसी के सहारे। जो तुम्हारे पास है अगर तुम उसी को देखो तो मन की जरूरत क्या? जो वर्तमान में है अगर तुम उसी में जीयो तो मन को फैलने का उपाय कहां, अवकाश कहां?

अभी तुम यहां बैठे हो। अगर तुम यहीं हो सिर्फ–मैं हूं, तुम हो और यह क्षण है, तो मन मिट गया, तो मन यहां उठ न सकेगा। हां, तुम सोचने लगो कि दुकान जाना है, दस बजे आफिस पहुंच जाना है–मन प्रविष्ट हुआ। मन के लिए भविष्य चाहिए। तुम अगर एक क्षण बाद की सोचने लगो तो मन जीवंत हुआ। तुम एक क्षण पहले की सोचने लगो, तो मन जीवंत हुआ। तुम अगर अभी हो, यहीं हो, तो मन नहीं हो गया।

वर्तमान मन की मृत्यु है। भविष्य और अतीत मन का जीवन है। न तो अतीत है–जा चुका, न भविष्य है–अभी आया भी नहीं। मन जीता ही,’’ नहीं’’ में है। मन का स्वभाव नकार है—अनस्तित्व, अभाव। मन नास्तिक है। इसलिए मन से कोई कभी आस्तिक नहीं हो पाता। मन के आस्तिक तुम्हें बहुत दिखाई पड़ेंगे–मंदिरों-मस्जिदों में बैठे हैं, पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन पूजा-पाठ वे कर नहीं रहे हैं, उनका मन कहीं और भी आगे गया है। कोई स्वर्ग को मांगता होगा, कोई पुण्य के फल मांगता होगा। कोई परलोक के सुख मांगता होगा, कोई इसी लोक के सुख मांगता होगा, लेकिन मन कहीं और जा चुका है।

मन न हो, तो पूजा। मौन पूजा होगी। मन न हो, तो पूजा होगी, तो प्रार्थना होगी, तो ध्यान होगा। जहां मन नहीं वहीं मंदिर शुरू होता है–मन की मौत पर।

इसे थोड़ा खयाल से समझ लो।

तुम अगर यहीं हो जाओ, इसी क्षण में, फिर कुछ पाने को नहीं है–पाया ही हुआ है। परमात्मा मिला ही हुआ है। तुमने उसे खोया कभी नहीं। खोने की भी भांति है। एक सपने में लीन हो हो। तुम्हें अपने से दूर ले है। विचारों के ऊहापोह में तु तुम गए एक सपना गया म उलझ गए हो। जो तुम्हारे पैर के नीचे है, वही मंजिल दिखाई पड़नी बंद हो गई है। जो तुम्हारे हृदय के भीतर है, इस क्षण भी गुनगुना रहा है, उसी का गीत सुनाई पड़ना बंद हो गया है। तुम अपने से दूर हो गए हो।

भक्ति सूत्र में तुम्हें समझ में आ सकेंगे, अगर तुम मन की इस अवस्था को ठीक से समझ लो और इसके बाहर होने शुरू हो जाओ। स्वप्न से जागो। परमात्मा को पाने की कोई भी जरूरत नहीं है–उसे कभी खोया नहीं है। स्वप्न से जागते ही तुम हसोगे। जैसे आज रात तुम यहां सो जाओ और सपने देखो कि कलकत्ते में हो या लंदन में हो या दिल्ली में हो–और सुबह आंख खुले और तुम पाओ कि पूना में हो, न कलकत्ता थे, ने लंदन थे, न दिल्ली थे–सब सपना था। लेकिन सपने में जब तुम दिल्ली में थे तब तुम सोच भी न सकते थे कि तुम हो पूना में। ठीक ऐसा ही हुआ है। तुम हो तो परमात्मा में, लेकिन तुम्हारा सपना तुम्हें कहीं और बतलाता है।

पहला सूत्र : ‘’ दु :संग का सर्वथा त्याग करना चाहिए’’।

दुःसंग : सर्वथैव त्याज्य :।

क्या है दुःसंग ,

पहला तो मन का संग, दु :संग है।

तुमने भक्ति-सूत्र की व्याख्याएं पढ़ी होंगी, तो उनमें दु: संग कहा है उन लोगों को जो बुरे हैं। उनसे क्या लेना-देना? बुरा आदमी तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा, अपना ही बिगाड़ रहा है।    इसलिए जिन्होंने भक्ति-सूत्र की व्याख्या में लिखा है,’’ बुरे लोगों को साथ छोड़ दो, वे समझे नहीं।

दुःसंग का अर्थ है: मन का साथ छोड़ दो। यही एकमात्र दुःसंग है। तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ दो और मन साथ बनाए रखो तो कोई दु:संग छूटनेवाला नहीं। तुम जहां रहोगे, तुम जैसे रहोगे, वहीं मन दु :संग खड़ा कर लेगा। मन बड़ा उत्पादक है, बड़ा सृजनात्मक है। परमात्मा के बाद अगर कहीं कोई स्रष्टा है तो मन है। कितना सृजन करता है–ना कुछ से। शून्‍य से आकृतियां बना लेता है। शून्‍य में रंग भर देता है। शून्‍य में इन्द्रधनुष उग आते हैं, फूल खिल जाते हैं। और अपने की बनाए ही खेल में कुछ अनुरक्त हो जाता है। अपने ही हाथ से बनाई छायाओं के पीछे दौड़ने लगता है।

इसलिए मेरी व्याख्या है मन का साथ छोड़ दो।

“दु:संग का सर्वथा त्याग करना चाहिए’’ ।

मैं तुमसे नहीं कहता, चोर का साथ छोड़ो। मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोधइाई का साथ छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं, मन का साथ छोड़ो; क्योंकि मन ही चोर है, मन ही क्रोधी है। यह सवाल दूसरे का नहीं है, अन्यथा धार्मिक लोग बड़े कुशल हो गए हैं.. जो लोगों के साथ नहीं उठता- बैठता।

लेकिन साधु तो वही है जिसे दूसरों में बुरा दिखाई न पड़े। साधु तो वही है जिसे सभी जगह साधु का दर्शन होने लगे। साधु तो वही है जिसकी आखें जहां पड़े वहीं साधुता का आविर्भाव हो। तो यह साधु की व्याख्या तो नहीं हो सकती कि चोर का साथ छोड़ दो। कहीं कुछ भूल हो गई। हां, यह यह बात सच है कि अगर तुमने अपने मन के चोर का साथ छोड़ा तो चोरों से तुम्हारा साथ अपने-आप छूट जाएगा।

आखिर चोर से तुम्हारा साथ क्या है;… क्योंकि तुम भी चोर हो। और क्या साथ हो सकता है; दुष्ट से तुम्हारी संगति क्या है;… क्योंकि तुम्हारे भीतर भी दुष्टता है, उसी से सेतु बनता है। बुरे आदमी से तुम्हारा साथ क्यों हो गया है;… तुमने किया है। तुमने निमंत्रण दिया है। बुरा ऐसे ही नहीं आ गया है; तुमने बुलाया है। चाहे तुम खुद भूल भी गए होओगे कि कब बुलावा भेजा था, कब निमंत्रण पत्र लिखा था, लेकिन आया तुम्हारे ही बुलावे पर है।

इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। इस जगत में जो कुछ भी है, व्यवस्थाबद्ध है। यह जगत एक परिपूर्ण व्यवस्था है। अगर तुम्हारा चोर से साथ है तो किन्हीं न किन्हीं रास्तों से तुमने चोर को बुलाया होगा। बीज बोए होंगे, तभी तो फसल काटोगे। चोर से साथ होने का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कहीं चोर है। समान समान से मिलना चाहता है। शराबी से दोस्ती हो गई है, क्योंकि तुम्हारे भीतर शराबी है। हत्यारे से नाता बन गया है, क्योंकि तुम्हारे भीतर हत्या करने की भावना और कामना छिपी है। हिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन जाएगी। अहिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन ही न पाएगी, तालमेल न बैठेगा–छोड़ना ही पड़ेगा, बनना ही मुश्किल हो जाएगा।

तो मेरी व्याख्या को ठीक से समझ लेना अगर मन का साथ छूट जाए, तो और व्याख्याकारों ने जो कहा है, वह तो अपने से घटित हो जाता है, उसकी चिंता ही नहीं करनी पड़ती। इधर भीतर मन गया–क्रोध गया, लोभ गया, मोह गया, काम गया। वे सब मन के ही फैलाव हैं, वे सब मन की ही सेनाएं हैं। मन का सम्राट उन्हीं सेनाओं के सहारे जीता है–इधर मन मरा कि सेनाएंबिखरीं। इधर सम्राट गया कि सम्राज्य गया। तब तुम अचानक पाओगे बुरे से संबंध नहीं बनाना। तुम बनाना भी चाहो तो भी नहीं बनता। वस्तुत: तुम अगर बुरे के पीछे भी जाओगे तो बुरा तुमसे बचेगा, बुरा तुमसे डरने लगेगा। क्योंकि शुभ इतनी बड़ी शक्ति है, प्रकाश इतनी बड़ी शक्ति है कि अंधेरा छिप जाता है। जहां प्रकाश आया, अंधेरा भागा। अंधेरा ढूंढने लगता है कोई स्थान, छुप जाए, बचा ले।

साधु अगर असाधु की दोस्ती करे, तो असाधु या तो भागेगा या मिटेगा। यही स्वाभाविक भी मालूम होता है। लेकिन यह दुनिया बड़ी उलटी है। यहां साधु असाधु से हर रहा है। जरूर साधु झूठा है, असाधु मजबूत है। साधु असाधु से डर रहा है। यह दुनिया तो ऐसी हुई कि दवाएं बीमारियों से हर रही हैं। प्रकाश अंधेरे से भागा हुआ है, डरा हुआ है कि छिप जाऊं, कहीं अंधेरा आकरा मुझे मिटा न दे। तब तो फिर’’ सत्यमेव जयते’’ कभी भी न हो सकेगा, सत्य की विजय फिर कभी न होगी। सत्य तो असत्य से डरा हुआ है।

नहीं, व्याख्या की भूल है। तुम जिसे साधु कहते हो, अगर वह साधु से डरा है तो सिर्फ इसका सबूत देता है कि साधु नहीं है; भीतर असाधु है और डरता है कि असाधु के संग-साथ रहा तो भीतर का असाधु प्रगट होने लगेगा, बाहर आ जाएगा। यही भय है। असाधु नहीं डरता साधु से साथ होने से, कोई भय नहीं है। लेकिन जब सच्चा साधु होगा तो असाधु डरेगा, या तो बचेगा, या भागेगा।

मैंने सुना है, महावीर के समय में एक बहुत बड़ा डाकू हुआ। वह महावीर से बहुत डरता था। वह बूढा हो गया था। उसने अपने बेटे शिक्षा दी कि देख, और सब करना, इस एक आदमी के आसपास मत जाना। यह खतरनाक है, यह अपने धंधे का बिलकुल दुश्मन है। इसके पास गए कि मिटे। तो अगर कभी भूल-चूक से भी तू गुजरता हो और महावीर बोलता हो, तो अपने कानों में अंगुलियां डाल लेना। इसी तरह बामुश्किल मैंने अपने को बचाया है। निश्वित ही इस डाकू से भीतर साधु छिपा रहा होगा, अन्यथा कौन महावीर से बचता है! इसको हर क्या है? यह जानता है कि महावीर ठीक हैं। लेकिन भूल-चूक हो गई। बेटा आखिर बेटा ही था; बाप तो बहुत कुशल पुराना डाकू था, वह बचाता रहा अपने को। बेटा एक दिन जा रहा था रास्ते से। द्यैकइ बाप ने मना किया था, इसलिए मन में आकर्षण भी हो गया कि एकाध शब्द सुन लेने में क्या हर्ज है। ऐसा थोड़ी कि कुछ एकाध शब्द सुन लोगे और सब बदल जाएगा।

तो महावीर बोलते थे, द्वार पर कहीं दूर खड़े होकर एक वाक्य सुना, लेकिन फिर बाप की याद आयी, अंगुलियां कान में डाल लीं। भाग खड़ा हुआ। पर एक वाक्य कान में पड़ गया। महावीर से किसी ने पूछा था कोई प्रश्र, और वे जवाब देते थे। पूछा था प्रेत-योनि के संबंध में, कि प्रेत होते हैं तो कैसे होते हैं, देव होते हैं तो कैसे होते हैं।

फिर वर्षों बीत गए, यह डाकू पकड़ा गया। सम्राट के घर डाका डाला था। सम्राट इसके बाप से परेशान था; बात मर गया, बेटे से परेशान था। और कभी कोई बात पकड़ी न जा सकी थी, उनके खिलाफ जुर्म हाथ में न था, रंगे हाथ वे कभी पकड़े न गए थे। सम्राट ने अपने मनोवैज्ञानिकों से सलाह ली कि इससे सारी बातें निकलवा लेनी हैं; जब हाथ में पड़ गया है तो छोड़ नहीं देना है। कैसे निकलवाए इससे सारी बातें?

तो मनोवैज्ञानिकों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने इसे खूब शराब पिलाई। शराब पिलाकर महल की जो सुंदरतम स्त्रियां थी, उनको इसके चारों तरफ नृत्य करने को कहा। यह आदमी बीच में बैठा है नशे में सरोबोर, वे स्त्रियां नाचने लगीं। ऐसा सुंदर महल इसने कभी देखा न था। वे स्त्रियां इसे अप्सराएं मालूम होने लगीं। नशा! इसे शक होने लगा कि मैं इस लोक में हूं कि परलोक मैं पहुंच गया हूं। इसने किसी को पूछा। तो मनोवैज्ञानिकों ने यही तो उपाय किया था। उन्होंने कहा कि तुम मर गए हो, स्वर्ग में आ गए हो। और अब तुम अपने जीवनभर में तुमने जो भी पाप किए हैं, उन सब का ब्यौरा दे दो, ताकि परमात्मा उन्हें माफ कर दे। उसकी कृपा अनंत है, भयभीत मत हो। तुम अपना एक-एक पाप बोल दो। जो पाप तुम छिपाओगे वही बच रहेगा, जो तुम बता दोगे उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा।

तब जरा डाकू चौंका : ‘’ सब पाप बता दे!’’ तब उसे याद आया, उस दिन का महावीर का वचन कि देवलोक में देवता होते हैं तो उनकी छाया नहीं पड़ती। तो उसने गौर से देखा कि अगर यह देवलोक है…। स्त्रियों की छाया पड़ रही थी, वह सम्हल गया। उसे लगा कि यह सब धोखा है, नशे में हूं। उसने एक भी पाप के संबंध में कुछ भी न कहा। अपने पुण्य की बातें बताई जो उसने कभी भी न किए थे। उसने कहा,’’ पाप तो कभी किए ही नहीं, मैं करूं भी क्या? परमात्मा क्षमा कर सकता है, लेकिन मैंने किए नहीं। पुण्य ही पुण्य किए हैं’’।

सम्राट को उसे छोड़ देना पड़ा। वह जाल काम न आया। वह जैसे ही वहां से छूटा, सीधा महावीर के पास पहुंचा, उनके पैरों में गिर गया, और कहने लगा,’’ तुम्हारे एक वचन ने मेरे प्राण बचाए। अब मैं तुम्हें पूरा-पूरा ही सुन लेना चाहता हूं। इतना ही सुना था, वह भी कुछ बड़ी काम की बात न थी, लेकिन काम पड़ गई। सत्संग काम आ गया। वह भी ऐसी चोरी- चोरी द्वार पर खड़े होकर, एक वाक्य सुना था कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती। तब तो सोचा भी न था कि इसकी कोई सार्थकता हो सकेगी, लेकिन काम पड़ गया, मेरे प्राण बचे। तुमने मुझे बचाया। भयंकर नशे में मुझे डुबाया था और सारा इंतजाम किया था और मैं फंस ही गया था और मैं तैयार ही था बोलने को, ताकि क्षमा कर दिया जाऊं। अब तुम मुझे पूरा ही बचा लो। इस सम्राट से तुमने बचाया, अब तुम मुझे मृत्यु से भी बचा लो। इस मौत से तुमने मुझे बचाया, अब तुम मुझे सारी मौतों से बचा लो। अब मैं तुम्हारी शरण हूं। साधु का एक वचन भी सुन लिया जाए तो असाधु के जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है—बीज पड़ गया। साधु क्या ड़रेगा असाधु से? ड़रे तो असाधु हरे।

मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ देना। मैं तो तुमसे यह कहूंगा कि तुम उन्हें बुरे देखोगे तो तुम बुरे रह जाओगे। तुम अगर उन्हें बुरे मानोगे तो तुम्हारी बुराई कभी मिट न सकेगी। तुम तो एक साथ छोड़ दो—भीतर के अपने मन को—और तत्क्षण तुम पाओगे : संसार में कोई बुरा न रहा। चोर में भी तब तुम्हें परमात्मा ही छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा। हत्यारे में भी तब तुम्हें उसकी ही ज्योति झिलमिलाई दिखाई पड़ेगी। और तुमसे भयभीत होने लगेगा असाधु, क्योंकि तुम असाधुता की मौत सिद्ध होने लगोगे। तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां से अंधकार हटेगा। निश्वित ही तुम्हारा असाधु से साथ छूट जाएगा। मैं छोड़ने को नहीं कहता हूं–छूट जाएगा। तुम्हें छोड़ना न पड़ेगा–असाधु भाग खड़ा होगा, या असाधु रूपांतरित हो जाएगा।

यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है:

“दु:संग का सर्वथा त्याग करना चाहिए’’। …पर दुःसंग है–मन का संग!’’

क्योंकि वह (दु:संग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है”। इतना साफ है सूत्र, पर व्याख्याकारों से ज्यादा अंधे लोग खोजना मुश्किल है।

“क्योंकि वह काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है”।

कौन तुम्हारा सर्वनाश कर सकेगा?… तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं। तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु नहीं है और तुमसे बड़ा न तुम्हारा कोई मित्र है। मन से साथ बना रहे तो तुम अपना ही आत्मघात करते रहोगे। मन से साथ छूट जाए तो तुम्हारे जीवन में नवजीवन का संचार हो जाएगा, पुनर्जन्म को जाएगा।

काम, क्रोध, मोह, समृतिभ्रंश, बुद्धिनाश, सर्वनाश–इन शब्दों को समझो।

काम का अर्थ है: सदा इस आशा से जगत को देखना कि उससे कुछ सुख पाना है। काम का अर्थ है सुख पाने की आकांक्षा से ही चीजों को, व्यक्तियों को, घटनाओं को देखना; आकांक्षा से भरे होकर देखना। जब तुम आकांक्षा से भरकर किसी चीज को देखते हो, तब तुम्हें चीज का सत्स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि तुम्हारी आकांक्षा परदा डाल देती है। तुम जिस चीज को भी वासना से भरकर देखते हो, तुम्हें वही दिखाई पड़ता है जो तुम देखना चाहते हो।

मैं एक मित्र के साथ गंगा के तट पर बैठा था। वे थोड़े बेचैन हो आए। फिर मुझसे कहने लगे,’’ क्षमा करें। आपसे झूठ न कहूंगा, लेकिन मुझे थोड़े समय के लिए छुट्टी दें, मैं उस तट तक जाना चाहता हूं’’ । वे गए। मैंने देखा कि वे क्यों जाना चाहते हैं। सुंदर स्त्री दिखाई पड़ गई है, वह स्नान कर रही है। वे गए बड़ी आतुरता से, फिर लौटे बड़े उदास।

मैने पूछा,’’ क्या हुआ? ‘’उन्होंने कहा,’’ बड़ी भांति हुई। वह स्त्री नहीं है, कोई साधु है। लम्बे बाल…। पीठ की तरफ से दिखाई पड़ा था। जब पास से जाकर देखा तो साधु है, स्त्री नहीं है’’ । मैंने उनसे पूछा कि थोड़ा गौर करो, स्त्री तुम्हें दिखाई पड़ी इसमें तुम इतना ही मत सोचो कि साधु के बालों ने धोखा दे दिया। तुम स्त्री देखना चाहते थे। तुमने आरोपण किया। तुम मुझसे पूछे होते। उतनी दूर जाने की जरूरत न थी।

हम वही देख लेते हैं तो कामना करते हैं। तुम अपने चारों तरफ अपनी ही कामना का संसार रच लेते हो।

दो साधु एक रास्ते से गुजरते थे। एक साधु दूसरे से कुछ बोल रहा था। उसे दूसरे ने कहा कि यहां सुनाई भी नहीं पड़ेगा मुझे कुछ। यह बाजार इतना शोरगुल है! यह ज्ञान की बात यहां मत करो—एकांत में चलकर करेंगे।

वह साधु वहीं खड़ा हो गया। उसने अपनी जेब से एक रुपया निकाला और आहिस्ता से रास्ते पर गिरा दिया। खननखन की आवाज हुई, भीड़ इकट्ठी हो गई। पहले साधु ने पूछा कि मैं समझा नहीं, यह तुमने क्या किया। उसने रुपया उठाया, जेब में रखा और चल पड़ा। उसने कहा,’’ इतना भरा बाजार है, इतना शोरगुल मच रहा है, लेकिन रुपये की जरा सी खनन, न की आवाज–इतने लोग आ गए। ये रुपये के प्रेमी है। नरक में भी भयंकर उत्पात मचा हो और अगर रुपया गिर जाए तो ये सुन लेंगे’’ ।

हम वही सुन लेते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। उस साधु ने कहा,’’ अगर तुम परमात्मा के प्रेमी हो तो यहां भी, बाजार में भी परमात्मा के संबंध में मैं कुछ कहूंगा तो तुम सुन लोगे’’ । कोई दूसरा बाधा नहीं डाल रहा है। हम वही सुनते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। हमें उसी से मिलन हो जाता है जिससे हम मिलना चाहते हैं। इस जीवन में व्यवस्था को ठीक से जो समझ लेता है वह फिर दूसरे को दोष नहीं देता।

ध्यान रखना : कामना तुम्हें कभी सत्य को न देखने देगी। सत्य को देखना हो तो कामना- श्ल्य चित्त चाहिए।

इस बगीचे में कोई चित्रकार आए तो कुछ और देखेगा। कोई लकड़हारा आ जाए तो कुछ और देखेगा। कोई फूलों को बेचनेवाला माली आ जाए तो कुछ और देखेगा। तीनों एक ही जगह आएंगे, लेकन तीनों के दर्शन अलग-अलग होंगे।

कहते हैं, जब संगीत की परम ऊंचाई उपलब्ध होती है तो वीणा शांत भी रखी हो तो संगीतज्ञ को वे स्वर सुनाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, जो उस वीणा से प्रगट हो सकते हैं, जो अभी छुपे हैं, अभी जन्मे भी नहीं। लेकिन कान की उत्कंठा उन्हें भी सुन लेती है जो अभी प्रगट नहीं हुए। अनभिव्यक्त भी अभिव्यक्त हो जाता है। आंख हो देखनेवाली तो बीज में फूल दिखाई पड़ने लगते हैं।

कहते हैं, चमार रास्तों पर लोगों को देखते हैं तो जूतों को ही देखकर आदमी का सब कुछ समझ जाते हैं। जूते की हालत बहुत कुछ बताती है : तुम्हारी आर्थिक दशा, ठीक चल रही है जिंदगी कि ऐसे ही जा रही है, सफलता पा रहे हो कि असफल हो रहे हो, घर से क्रोध में चले आए हो, झगड़कर चले आए हो कि शांति में विदा पाई है–सब तुम्हारे जूते की हालत बता देती है। जूते की शिकन-शिकन में तुम्हारी कथा लिखी है, आत्मकथा है। चमार जूतों को देखता है और सब समझ जाता है। चमार तुम्हारे चेहरे की तरफ देखता ही नहीं। जूतों को देखते-देखते पारंगत हो जाता है। वही उसकी समझ है। वहीं से जानता है।

हजारों लोग तुम रास्तों पर चलते हुए देखोगे, लेकिन सभी लोग एक ही रास्ते पर नहीं चल रहे हैं–एक ही रास्ते पर चल रहे हैं यूं तो, लेकिन सबकी नजर अलग-अलग चीजों पर लगी है। भूखा रेस्तरां, होटल को देखता हुआ चलेगा। जिसने उपवास किया है वही जानता है। फिर कुई भी नहीं दिखाई पड़ता संसार में सिवाय भोजन के। कहते हैं, उपवासे आदमी को चांद भी तैरती हुई रोटी की तरह मालूम होता है।

संसार तुम्हारा चुनाव है। तुम्हारी वासना चुनती है। जिस चीज में तुम उत्सुक नहीं हो वह दिखाई नहीं पड़ती। मेरे पास बहुत से संन्यासियों ने आकर यह कहा है कि संन्यास लेने के पहले कपड़े की दुकानें दिखाई पड़ती थीं, अब, नहीं दिखाई पड़ती। अब दिखाई पड़ने का सार भी नहीं। एक ही कपड़ा बचा–गेरुआ। अब कपड़े की दुकानें हैं भी कि मिट गईं–संन्यासी को क्या लेना-देना। बात ही खत्म हो गई!

जिस बात से हमारा संबंध टूट जाता है, वह विदा हो जाती है संसार से। जिससे हमारा संबंध बना रहता है, उसी को हम देखते चलते हैं। ध्यान रखना, तुम्हारा निर्णय तुम्हीं का नहीं बदलता, सारे संसार को बदल देता है–तुम्हारे संसार को बदल देता है। क्योंकि तुम्हारा संसार तुम्हारा निर्णय है।

काम सत्य को न जानने देगा। क्रोध सत्य को न जानने देगा। क्योंकि क्रोध में तो तुम वैसी अवस्था में पहुंच जाते हो जैसे कोई शराबी। कहीं पड़ते हैं पैर, कहीं तुम रखना चाहते थे। कुछ कह जाते हो, कुछ तुम कहना चाहते थे। पीछे पछताओगे, पहले भी पछताए थे। क्रोध तुमसे ऐसे कृत्य करवा लेता है जो तुम की ही नहीं सकते थे, जो अपने होश में तुमने कभी न किए होते। क्रोध यानी बेहोशी।

मोह : किसी को तुम अपना मानते हो, तो देखने के ढंग बदल जाते हैं। जिसे तुम अपना नहीं मानते, देखने के ढंग बदल जाते हैं। वही कृत्य अगर अपना करे तो तुम्हारा निर्णय कुछ और होता है, वही कृत्य कोई दूसरा करे तो निर्णय और हो जाता है। तुम्हारा न्याय तुम्हारे मोह से मर जाता है, सत्य को देखने की क्षमता धूमिल हो जाती है। दूसरा कुछ करे तो पाप, अपना कुछ करे तो ज्यादा से ज्यादा भूल। तुम अगर वही काम करो तो मजबूरी, और दूसरा करे तो अपराध!

तुमने कभी खयाल किया?.. तुम अगर रिश्वत ले लेते हो, तो मजबूरी, क्या करें, तनख्वाह से काम नहीं चलता। लेना तुम चाहते नहीं, लेकिन मजबूरी है, बाल-बच्चे हैं, घर-द्वार है, चलाना है। जानते हो, गलत है–मगर इतना भी तुम जानते हो कि अपराध तुमने नहीं किया, तुम क्या करो, समाज ने मजबूर कर दिया है। दूसरा जब रिश्वत लेता है तब अपराध है। तब तुम बस   शोरगुल मचाते हो। वस्तुत : तुम्हारा शोरगुल उतना ही बड़ा होता है जितनी तुमने भी रिश्वत ली होती। अपनी भूल को छोटा करने के लिए तुम दूसरे की भूल को बड़ा-बड़ा करके दिखाते हो। तुम संसार में सबकी निंदा करते रहते हो। वही तुम भी करते हो, अन्यथा तुम भी नहीं कर रहे हो।

दूसरे का बेटा असफल हो जाता है, तुम समझते हो, बुद्धिहीन, तुम्हारा बेटा असफल हो जाता है तो शिक्षक की शरारत!

मेरे पास मां-बाप आ जाते हैं, वे कहते हैं, हमारा बेटा फेल कर दिया, जरूर कोई साजिश है। जो भी फेल होता है, वह कहता है साजिश है, लेकिन दूसरे जो फेल हुए हैं, उनकी बुद्धि ही नहीं तो क्या करेंगे!

तुम क भी गौर करना, मोह तुम्हारी आंख से न्याय को छीन लेता है। काम, क्रोध, मोह, स्मृति भ्रंश। समृति भ्रंश बड़ा महत्वपूर्ण शब्‍द है। बुद्ध ने जिसे सम्यक स्मृति कहा है, यह उसकी विपरीत अवस्‍था है—स्मृति भ्रंश उसकी विपरीत अवस्‍था है। जिसको गुरजिएफ ने सैल्फ- रिमेम्बरिंग कहा है, आत्म-स्मरण, स्मृति भ्रंश उसकी विपरीत अवस्‍था है। जिसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, स्मृति भ्रंश उसकी विपरीत अवs था है। जिसको नानक ने, कबीर ने सुरति कहा है, स्मृतिभ्रंश उसकी उलटी अवस्‍था है।

सुरति स्मृति का ही रूप है। सुरतियोग का अर्थ है : स्मृतियोग—ऐसे जीन कि होश रहे, प्रत्येक कृत्य होश हो, उठो तो जानते हुए, बैठो तो जानते हुए।

एक छोटा सा प्रयोग करो। आज जब तुम्हें फुर्सत मिले घंटेभर की, तो अपने कमरे में बैठ जाना द्वार बंद करके और एक क्षण को सारे शरीर को झकझोरकर हो होश को जगाने की कोशिश करना—बस एक क्षण को—तुम बिलकुल परिपूर्ण होश से भरे हो बैठे हो, आसपास आवाज चल रही है, सड़क पर लोग चल रहे हैं, हृदय धड़क रहा है, सांस ली जा रही है—तुम सिर्फ होश मात्र हो—एक क्षण के लिए। सारी स्थिति के प्रति होश से भर जाना, फिर उसे भूल जाना, फिर अपने काम में लग जाना। फिर घंटे भर बाद दुबारा कमरे में जाकर, फिर द्वार बंद करके, फिर एक क्षण को अपने होश को जगाना—तब तुम्हें एक बात हैरान करेगी कि बीच का जो घंटा था, वह तुमने बेहोश में बिताया, तब तुम्हें अपनी बेहोशी का पता चलेगा कि तुम कितने बेहोशी हो। पहले एक क्षण को होश को जगाकर देखना, झकझोर देना अपने को, जैसे तूफान आए और झाड़-झकझोर जाए, ऐसे अपने को झकझोर डालना, हिला डालना। एक क्षण को अपनी सारी शक्‍ति को उठाकर देखना—क्या है, कौन है, कहां है! ज्यादा देर की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि एक क्षण से ज्यादा तुम न कर पाओगे। इसलिए एक क्षण काफी होगा। बस एक क्षण करके बाहर चले जाना, अपने काम में लग जाना—दुकान है, बाजार है, घर है—भूल जाना। जैसे तुम साधारण जीते हो, घंटेभर जी लेना। फिर घंटे भर बाद कमरे में जाकर फिर झकझोरकर अपने को देखना। तब तुम्हें तुलनात्मक रूप से पता चलेगा कि ये दो क्षण अगर होश के थे, तो बीच का घंटा क्या था! तब तुम तुलना कर पाओगे। मेरे कहने से तुम न समझोगे, क्योंकि हो होश को मैं समझा सकता हूं शब्‍दों में, लेकिन हो होश तो एक स्वाद है। मीठा, मीठा कहने से कुछ न होगा। वह तो तुम्हें मिठाई का पता है, इसलिए मैं मीठा कहता हूं तो तुम्हें अर्थ पता हो गया। मैं कहूं स्मृति, सुरति उससे कुछ न होगा, उसका तुम्हें पता ही नहीं है। तो तुम यह भी न समझ सकोगे कि स्मृतिभ्रंश क्या है। होश को जगाना क्षण भर को, फिर घंटे भर बेहोशी, फिर क्षण भर को होश को जगाकर देखना—तुम्हारे सामने तुलना आ जाएगी, तुम खारे और मीठे को पहचान लोगे। वह जो घंटा बीच में बीता, स्मृतिभ्रंश है। वह तुमने बेहोशी में बिताया—जैसे तुम थे ही नहीं, जैसे तुम चले एक यंत्र की भांति, जैसे तुम नशे में थे—और तब तुम्हें अपनी पूरी जिंदगी बेहोशी मालूम पड़ेगी।

मन बेहोशी है, स्मृतिभ्रंश है। और स्वभावत : इन सबका जोड़ सर्वनाश है।

‘’दु:संग का सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि वह दुःसंग काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश है’’ ।

“ये काम-क्रोधादि पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आते हैं, फिर विशाल समुद्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं’’ ।

आता है सब बड़े छोटे से आकार में, तरंग की भांति। अगर तुमने तरंग को ही न पहचाना और पकड़ा, तो चूक गए। पहले कदम में ही जागना। जब क्रोध की पहली लहर आती है, इतनी सूक्ष्म होती है कि पता भी नहीं चलता, चुमचाप प्रविष्ट हो जाती है; इतनी हवा के हलके झकोर की तरह आती है कि पता भी नहीं हिलता, आवाज भी नहीं होती। पर तभी होश रखा, तो ही; नहीं बीज प्रविष्ट हो गया।

क्रोध की अवस्थाओं का समझो। पहला: क्रोध आ रहा है, अभी आया नहीं; लहर उठी है, लेकिन अभी प्रवेश नहीं हुआ। फिर लहर प्रविष्ट हो गई, बीज भीतर पड़ गया; देर-अबेर सागर बनेगा। फिर यह सागर जोर से झंझावात करता है। उठती हैं लहरें और तटों से टकराती हैं। फिर उतर गया सागर। फिर लहर भ चली गई। किनारा शांत रह गया। ये तीन अवस्थाएं हुईं–क्रोध के पहले, फिर क्रोध की, और क्रोध के बाद।

क्रोध के पहले ही जो लहर को देख लेगा, जो जाग जाएगा, वही बच सकता है। लोग अक्सर जब क्रोध जा चुका होता है तब देखते हैं; लेकिन तब तो क्या करोगे? मेहमान जा चुका! जो होना था हो चुका! अब चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए होत क्या! लेकिन हम पछताते तभी हैं जब चिड़िया खेत चुग जाती है। तुम सभी पछताए हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो क्रोध करक न पछताया हो। लेकिन तुम्हारा पश्वाताप व्यर्थ है। यह तो तब आता है जब सागर उतर चुका। फिर तो तुम करोगे भी क्या? फिर तुम पछता सकते हो और भविष्य के लिए निर्णय ले सकते हो कि अब क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन यह निर्णय भी काम आएंगे? क्योंकि तुमने एक छोटी सी बात भी न सीखी, जिंदगीभर हो गई क्रोध करते, कि जब क्रोध आता है तब तुम्हारा होश नहीं रह जाता, तो निर्णय काम कैसे आएगा? जब क्रोध आता है तब होश नहीं रह जाता, तो निर्णय का भी होश नहीं रह जाता। जब क्रोध चला जाता है, तुम बड़े बुद्धिमान हो जाते हो। क्रोध चले जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता। कामवासना का ज्वर उतर जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता! बुढ़ापे में सभी बुद्धिमान हो जाते हैं। लेकिन उस बुद्धिमता का कोई मूल्य नहीं है।

क्रोध की लहर जब आए…यह सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है:’’ ये काम, क्रोधादि–पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आकार भी समुद्र का आकार धारण कर लेते हैं’’ । बीज से ही सुलझ देना। बो दिया, फिर तो फसल काटनी ही पड़ेगी। फिर पछताना तो एक तरकीब है। वह तरकीब भी बड़ी चालाक है। अकसर लोग क्रोध करके पछताते हैं और सोचते हैं कि बड़े भले लोग हैं, कम से कम पछताते तो हैं। लेकिन मेरे जाने, हजारों लोगों के निर्णयों को देखकर, एक बात तुमसे कहना चाहूंगा: क्रोध करके पछताना पुन: क्रोध करने की तैयारी है। तुम्हारी एक प्रतिमा है तुम्हारे मन में कि तुम बड़े साधु पुरुष, साधुचित हो।

क्रोध करके तुम्हारी प्ररतिमा खंडित हो जाती है, गिर जाती है, सिंहासन से नीचे पड़ जाती है। पछताकर तुम उसे वापस सिंहासन पर रखने की कोशिश करते हो कि’’ भला क्रोध नहीं होता!’’ और फिर तुम समझाते हो कि’’ क्रोध जरूरी भी था, न करते तो हानि होती, ऐसे अगर क्रोध न करोगे तो हर कोई छाती पर चढ़ बैठेगा। आखिर लोगों को डराना तो पड़ेगा ही। मारो मत, कम से कम फुफकारो तो। कोई मारा तो नहीं, किसी की हत्या तो की नहीं-

– सिर्फ फुफकारे’’ !

तुम इस तरह के तर्क अपने लिए खोज लोगे। या तुम कहोगे कि बच्चा था, अगर उसको न डांटते न डपटते, बिगड़ जाता। उसके भविष्य के सु धार के लिए…। तुम हजार बहाने खोज लोगे यह समझाने के लिए कि क्रोध जरूरी था। हालांकि तुम जानते हो कि कोई भी क्रोध जरूरी नहीं है। अगर तुम यह जानते न होते तो तुम यह भी निर्णय करने की चेष्टा क्यों करते कि जरूरी था? यह तर्क भी तुम इसलिए खोजते हो कि भीतर चोट खलती है, भीतर तुम जानते हो कि भूल हुई है। अब भूल को लीपा-पोती करते हो। अब भूल को सजाते हो। सिंहासन पर फिर प्रतिमा को बिठा लेते हो। फिर तुम उसी जगह आ जाते हो जहां क्रो ध करने के पहले थे। इसका अर्थ हुआ : अब तुम फिर पुन : क्रोध करने के लिए उतने ही तत्पर हो जितने पहले थे।

पश्चाताप क्रोध की तरकीब है। पश्वाताप से धर्म का कोई संबध नहीं। धार्मिक व्यक्ति पछताता नहीं। और धार्मिक व्यक्ति व्यर्थ के निर्णय नहीं लेता, व्रत, कसमें नहीं खाता। धार्मिक व्यक्ति तो जब कोई चीज को समझ लेता है तो उसकी समझ ही उसकी कसम है, सकी समझ ही उसका पश्वाताप है, उसकी समझ ही उसकी क्रांति है। तब फिर वह यह नहीं कहता कि मैं क्रोध न करूंगा—वह इतना ही कहता है कि अब जब क्रोध आएगा तो मैं जागुंगा।

इस फर्क को समझ लो।

क्रोध न करूंगा, यह तो बेहोशी आदमी का ही निर्णय है। यह तो तुम बहुत बार कर चुके और बहुत बार झुठला चुके। समझदार आदमी यह कहता है कि एक बात तो मैं समझ गया कि क्रोध जब आता है, मैं बेहोशी हो जाता हूं, इसलिए अब होश रखने की कोशिशी करूंगा। क्रोध करूंगा कि नहीं करूंगा, यह मेरे बस में कहां, बस में ही होता तो पहले ही क भी बंद कर दिया होता। मैं अवश हूं, असहाय हूं। इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि क्रोध न करूंगा—इतना ही कर सकता हूं कि इस बार जब क्रोध आएगा तो होश से करूंगा।

इस फर्क को बहुत गौर से ले लेना : ‘’ क्रोध तो करूंगा, लेकिन होश से करूंगा’’ । और क्रोध अगर होश से किया जाए तो होता ही नहीं। क्रोध होश से करना तो ऐसा ही है जैसे जानते हुए पत् थर को कोई रोटी समझकर भोजन करे। क्रोध होश से करना जो ऐसा ही है जैसे जानते हुए कोई दिवाल से निकलने की कोशिश करे, सिर टकराए, लहूलुहान हो जाए। जानते हुए क्रोध करना ऐसे ही है जैसे जानते हुए कोई आग में हाथ डाले। इसलिए जानते हुए क रूंगा, होशपूर्वक करूंगा…।

‘’होशपूर्वक’’ का अर्थ है कि लहर आएगी तब जानूंगा। तूफान जब जा चुका होगा तब पछताने को कोई अर्थ नहीं है।’’ पकडूंगा प्रारंभ में, बीज में’’ । जिसने पहले पकड़ लिया, वह मुक्त हो जाता है। फिर बीज को, लहर को सागर बनने की सुविधा नहीं होती। आते सब छोटी- छोटी तरंगों की तरह हैं, इसलिए तो धोखा दे जाते हैं।

जब क्रोध आता है, तुम सोचते हो : ‘’किसको पता है? इतना छोटा है, अपने को ही पता नहीं चल रहा’’।

जरा देखना, क्रोध बड़ा नाजुक है, बड़ी हलकी सी लहर आती है। जाते थे तुम रास्ते से, कोई हंसने लगा, उसने कुछ कहा भी नहीं है, तुम्हारे लिए ही हंसा हो, ऐसा भी जरूर नहीं है, तुम ही अकेले नहीं हो, दुनिया बड़ी है। और क्या मतलब तुम्हारे लिए हंसे? लेकिन एक लहर तुम्हारे भीतर सरक जाएगी, तुम तन गए। कुछ खटक गया। कुछ अटक गया। तुम्हारा प्रवाह वैसा ही न रहा जो क्षण भर पहले था। उसकी हंसी पत्थर की तरह भीतर चली गई। तुम और हो गए। अपने चेहरे पर गौर करना, चेहरा तन गया, माथे पर सलवटें आ गईं, ओंठ भिंच गए, दांत कस गए, हाथों में तनाव आ गया।

इस सारी छोटी सी लहर को गौर से देखना। सूक्ष्म निरीक्षण करना, और तुम हैरान होओगे : जैसे-जैसे तुम निरीक्षण करोगे वैसे-वैसे तुम पाओगे कि और भी सूक्ष्म तरंगों का पता चलता है। आदमी हंसा भी नहीं, जिस ढंग से उसने तुम्हारी तरफ देखा और लहर आ गई। या यह भी हो सकता है कि उसने तुम्हारी तरफ देखा नहीं, और लहर आ गई, कि वह राह से तुम्हें बिना देखे गुजर गया कि क्रोध आ गया। तुम्हें और बिना देखे गुजर जाए। तो जानकर तुम्हें अनदेखा किया, उपेक्षा की! अपमान हो गया!

अहंकार घाव की तरह है। जरा-जरा सी चीज से ठोकरें खाता है। जरा-जरा चीजों से विक्षुब्ध हो जाता है। इस सबको जांचना, देखना। कुछ करने की उतनी बात नहीं है जितनी जागकर देखने की बात है। तुम्हारे किए कुछ भी न होगा। तुम अभी हो कहां? तुम अभी हो ही नहीं। होश ही होगा तब तुम पाओगे। बेहोशी में कोई है?

“कौन तरता है? माया से कौन तरता है?… जो सब संगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममतारहित है’’।

“कौन तरता है? माया से कौन तरता है? कौन पार निकल पाता है इस तिलिस्म से, झूठ के तिलिस्म से, इस झूठ के जादू से, मन के इस फैलाव से। कहो उसे माया।

कौन तर पाता है?… जो सब संगों का परित्याग करता है।

तुम जल्दी ही संग हो जाते हो किसी भी चीज के। क्रोध उठा तुम संग हुए, तुम साथ हुए, तुम ने हाथ में हाथ डाल लिया, तुम हमजोली बने। वासना उठी, तुम साथ हुए। संग होना तुम्हारे लिए इतनी तत्परता से होता है कि इधर भाव उठा नहीं कि उधेर तुमने गले में फांसी डाली नहीं। तुम साथ होने को इतने तत्पर हो हर चीज के! यह संग की प्रवृत्ति ही तुम्हें डुबा रही है। जरा दूर-दूर चलो। जरा सहयोग सोच समझकर करो। संग की इतनी जल्दी मत करो। क्रोध आए, आने दो, तुम साथ मत दो, तुम जरा दूर-दूर खड़े रहो अलगाए, अलग-अलग, पृथक-पृथक। क्रोध को ऐसे देखो जैसे कोई और हो। क्रोध को ऐसे देखो जैसे’’ पर’’ है,’’ पर’’ है ही।’’ ‘’स्व’’ तो वही है जो देखनेवाला है, जो द्रष्टा है; शेष सब तो’’ पर’’ है। इस सूत्र का अर्थ है जो सब संगों का परित्याग करता है, इस सूत्र का अर्थ है जो द्रष्टा बनाता है, साक्षी बनता है। फिर व्याख्याकारों ने बड़ी भूलें की हैं। वे कहते हैं’’ कसम खाओ कि क्रोध नहीं करोगे; व्रत जो ब्रह्मचर्य का; धन का त्याग करो; घर द्वार छोड़ो, इसको वे संग-परित्याग कहते हैं, मैं नहीं कहता। क्योंकि मैंने उन लोगों को देखा है, जिन्होंने धन छोड़ दिया और फिर भी धन उनसे नहीं छूटा। और मैंने उन लोगों का देखा है, जिन्होंने घर छोड़ दिए, और कुछ भी नहीं छूटा; क्योंकि घर भीतर है, बाहर नहीं।

गृहस्थ होना एक दृष्किोण है। संन्यस्त होना भी एक दृष्टिकोण है। तुम घर में एक रहकर संन्यस्त हो सकते हो। तुम संन्यासी होकर गृहस्थ रह सकते हो। यह बात जरा सूक्ष्म है। यह इतनी स्‍थूल नहीं है जितनी लागों ने पकड़ रखी है। लोग तो बिलकुल पदार्थवादी हैं जिनको तुम संन्यासी कहते हो, वे भी। जिनको तुम मुनि कहते हो, वे भी पदार्थवादी हैं; क्योंकि उनका त्याग भी पदार्थ का त्याग है, दृष्टि का नहीं। कोई घर को छोड़ देता है, तो उसको तुम त्यागी कहते हो; कोई घर को पकड़ता है तो उसको तुम भोगी कहते हो लेकिन दोनों की नजर घर पर है। दोनों पदार्थवादी हैं, मेटीरियलिस्ट। अभी अध्यात्म का दोनों में से किसी को भी अनुभव नहीं हुआ। अध्यात्म का अर्थ है अब तुम पदार्थ को न पकड़ते हो, न छोड़ते हो, तुम दृष्टियों में रूपांतरण करते हो; तुम दर्शन बदलते हो; तुम अपने देखने का ढंग बदलते हो।

तो मैं तुमसे कहूंगा, जो सब संगों का परित्याग करता है, उसका अर्थ हुआ क्रोध उठता है तो हाथ में हाथ डालकर चल नहीं पड़ता–क्रोध से कहता है,’’ ठीक है मर्जी, तुम उठे; हम भी सोचेगें, निर्णय करेंगे। साथ देने योग्य लगेगा, देंगे; नहीं देने योग्य लगेगा, नहीं देंगे। साथ की अनिवार्यता नहीं है। तुम उठे, इसलिए हम साथ देंगे ही–इस भूल में मत पड़ो। साथ हमारा निर्णय होगा–होशपूर्वक’’ । और तब तुम एक क्रांति होते देखोगे तुम्हारे भीतर।

इस होश की आग में, जो व्यर्थ है जल जाता है। कुंदन बचता है, कचरा जल जाता है।

“जो सब संगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममता- रहित है’’ ।

“महानुभाव” बड़ा प्यारा शब्द है। महानुभाव का अर्थ है जिसके भीतर परम भाव का अवतरण हुआ है; सदगुरु; कोई ऐसा व्यक्ति जिसके भीतर परमात्मा अवतरित हुआ है। महानुभाव जिसके भीतर आत्यंतिक भाव पैदा हुआ है; जो उस भाव दशा में है जिसको हम भगवान कहें। ऐसे व्यक्ति के पास होना। कोई बुद्ध मिल जाए, कोई महावीर, कोइ कबीर, कोई नानक, कोई जीसस, कोई मुहम्मद, तो महानुभाव की सेवा करना।

सेवा का कुल इतना अर्थ है कि सत्संग करना। ऐसे व्यक्ति की छाया में बैठना। जैसे थका- हारा पथिक, धूप से बचने के लिए वृक्ष की छाया के तले बैठ जाता है और शीतल विश्राम पाता है–ऐसे ही किसी महानुभाव की छाया में बैठना। संसार से थका हुआ, हारा हुआ, विचलित व्यक्तित्व, किसी महानुभाव की छाया में औषधि को उपलब्ध हो जाता है जो स्वयं एक हो गया है, उसकी निकटता में तुम भी एक होने लगते हो। जो स्वयं एक हो गया है, उसके पास बैठकर, उसका सत्य संक्रामक होने लगता है।

ध्यान रखना, बीमारी ही नहीं लगती, स्वास्थ्य भी लगता है। ध्यान रखना, बुराई ही नहीं तैरती एक से दूसरे में, सत्य भी संक्रमित होता है। सत्य से ज्यादा संक्रामक कुछ भी नहीं है। अगर तुम सत्य के पास रहे तो तुम उसके रंग में रंग ही जाओगे। अगर तुम बगीचे से गुजरे तो तुम्हारे वस्त्र फूलों की थोड़ी न बहुत गंध ले ही लेंगे।

…’’ जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममता रहित है’’ ।

दो तरह के संबंध हो सकते हैं। एक तो ममता का संबंध है: मेरा बेटा, मेरी मां, मेरी पत्नी…! यहां संबंध’’ मेरे’’ का है। तुम गुरु के साथ’’ मेरे’’ का संबंध मत बनाना। अगर तुमने वहां भी’’ मेरे’’ का संबंध बनाया, तो तुम चूकोगे। तुम गुरु के हो जाना। तुम भला कहना कि मैं गुरु का; लेकिन’’ मेरा गुरु’’ ऐसा मत कहना। तुम धर्म के साथ ममता का संबंध मत बनाना। यह मत कहना कि’’ मेरा धर्म’’–तुम धर्म के हो जाना। लेकिन तुमने’’ मेरा धर्म’’ कहा तो तुमने धर्म को भी इस जमीन पर खींच लिया, बहुत नीचे उतार लिया। तुम कीचड़ में घसीट लाए कमल को।’’ मेरे’’ का जहां भी तुमने आधार बनाया, वहीं तुम्हारा मोह, मन, सब वापस लौट आता है। गुरु के साथ तो’’ मेरे’’ का संबंध मत बनाना। गुरु के साथ तो आत्मा का संबंध बनाना, मन का नहीं; ममता का नहीं, प्रेम का। और ये बड़ी फर्क की बातें हैं।

प्रेम जानता ही नहीं’’ मैं’’ और’’ तू’’ । ममता’’ मैं’’ और’’ तू’’ के बीच चलती है। ममता बड़ी संकीर्ण है। प्रेम विस्तार है–विस्तीर्णता है। अगर तुम ममता से मुक्त हुए और सौभाग्य से तुमने किसी महानुभाव की छाया पा ली, तो तुम्हारी जिंदगी कुछ की कुछ हो जाएगी।’’

आंसू तो बहुत से हैं, आखों में’’ जिगर” लेकिन

बिंध जाए तो मोनी है, रह जाए सो दाना है’’ ।

तब तुम बिंध जाओगे। प्रेम तुम्हें बींध देगा। तुम मोती हो जाओगे।

“आंसू तो बहुत से है, आंखों में’’ जिगर” लेकिन बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है’’ ।

इस संसार में वे ही केवल मोती बन जाते हैं जो किसी महाप्रेम से बिंध जाएं।

…’’ जो निर्जन स्थान में निवास करता है, जो लौकिक बंधनों को तोड़ डालता है, जो तीनों गुणों से परे हो जाता है, और जो योगक्षेम का परित्याग कर देता है’’ ।

 

…’’ जो निर्जन स्थान में निवास करता है”। व्याख्याएं कहती हैं कि जंगल में निवास करता है, मैं नहीं कहता। क्योंकि निर्जन स्थान एक आत्यंतिक दशा का नाम है–ऐसा भीतर कि वहां कोई भी न हो, बस एकाकी तुम्मारा चैतन्य रह जाए, केवल चैतन्य रह जाए। यह कोई भौगोलिक बात नहीं है कि तुम हिमालय चले जाओ कि जंगल में चले जाओ। क्योंकि तुम जंगल भी चले जाओगे तो तुम्हारे मन की भीड़ तो तुम्हारे साथ ही होगी। तुम करोगे क्या जंगल में बैठकर? तुम कल्पना के जाल रचोगे, सपने देखोगे। तुम जंगल में बैठकर भी बाजार में ही रहोगे। तुमने बहुत बार मंदिर जाकर देखा है, करते क्या हो मंदिर में? बैठते हो प्रतिमा के सामने–होते वहां नहीं। बैठते हो मंदिर में, होते कहीं और हो।

धर्म के जगत में स्थितियां स्थान की तरह समझ ली गई हैं और बड़ी भूल हो गई है।’’ निर्जन’’ स्थिति है, स्थान नहीं, तुम्हारे भीतर की एक अन्तर्दशा है, जहां तुम अकेले हो, शद्ध कुंआरे, जहां तुम किसी से बंधे नहीं, जहां तुम आंख बंद करते हो तो सारा जगत समाप्त हो जाता है–बस तुम ही रह जाते हो,’’ मैं’’ का भाव भी नहीं रह जाता, क्योंकि वह भी द्वैत होगा। बस’’ होना’’ होतो है–निराकार, निर्विकार।

…’’ जो निर्जन स्थिति में निवास करता है’’ , स्वभावत : उसके लौकिक बंधन टूट जाते हैं, उसके जीवन में अलौकिक संबंधों का आविर्भाव होता है, वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, मोक्ष के संबंध निर्मित होते हैं। और ध्यान रखना : संसार के संबंध बांधते हैं, मोक्ष के संबंध मुक्त करते हैं, काम बांधता है, प्रेम मुक्त करता है। अगर तुम्हारे प्रेम ने तुम्हें बांधो हो तो समझना कि काम होगा, प्रेम नहीं। प्रेम तो वही जो तुम्हें मुक्त करे। प्रार्थना तो वही जो तुम्हें मुक्त करे।

अगर तुम हिंदू हो गए हो तो बंध गए। यह धार्मिक होने का ढंग नहीं। यह धार्मिक होने की बात ही नहीं। चूक गए। अगर तुम मुसलमान हो गए, बंध गए। तुम धार्मिक हो जाओ, बस काफी है। धार्मिक व्यक्ति न तो हिंदू होता, न मुसलमान होता। धार्मिक व्यक्ति तो उस परम प्रेम में बंधा होता है जो सभी बंधनों को कोट जाता है।

“इश्क की बर्बादियों को रायगा समझा था मैं

बस्तियां निकलीं जिन्हें विरानिया समझा था मैं’’ ।

सोचा था कि प्रेम तो बर्बाद कर देता है।

“इश्क की बर्बादियों को रायगा समझा था मैं’’ ।

और बर्बाद हो जाना तो व्यर्थ हो जाना है।

“बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरानिया समझा था मैं’’ ।

 

लेकिन बात कुछ और ही निकली। जहां मैंने समझा था वीरानिया होंगी, मरुस्थल होंगे, कुछ भी न बचेगा–वहीं मैंने पाया कि सब कुछ पा लिया। तुम्हारे एकांत मैं ही’’ सर्व’’ का साक्षात्कार होता है। तुम्हारे प्रेम की आत्यंतिक घड़ी में ही, तुम पाते हो सब पा लिया, यद्यपि पहले ऐसा ही लगता है कि सब छोड़ रहे हैं, सत्य त्याग रहे हैं मैं तुमसे कहता हूं : त्याग परम भोग का मार्ग है। उपनिषद कहते हैं : ‘’तेन त्यक्तेन भुजीथा :। उन्होंने ही भोगा जिन्होंने त्यागा। या उन्होंने ही त्यागा जिन्होंने भोगा’’ । यह वचन अदभुत है। इसके दोनों अर्थ हो सकते हैं, और दोनों सही हैं। क्योंकि भोग तुम्हारे लिए है ही नहीं, तुम सिर्फ भोग की सोचते हो, करते कहां हां! भोग सिर्फ उनके लिए है जो वर्तमान में जीते हैं। जिन्होंने मन को छोड़ा, वासना को छोड़ा, जो अपने भीतर लौटे, जिन्होंने अपने से संबंध जोड़ा उनके जीवन में परम भोग के स्वर उठते हैं।

“बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरनिया समझा था मैं’’ ।

…’’ जो कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का भी त्याग करता है, कर्मों का त्याग करता, और सब कुछ त्यागकर निर्द्वंद्व हो जाता है। यह भक्त की परिभाषा हो रही है। एक एक चीज को खयाल में लें।

… तीनों गुणों से परे हो जाता है : तमस, रजस सत्व। परम भक्त न तो तामसी होता—हो ही नहीं सकता, क्योंकि तामस तो तुम जितने मन से दबे हाते हो उतना ही होता है। तामस तो मन का अंधकार है, विचारों की भीड़ है, वासनाओं का ऊहापोह है।

भक्ति को उपलब्‍ध व्यक्ति राजस भी नहीं होता। उसके भीतर करने की कोई उद्दाम वासना नहीं होती। वह किसी त्वरा, ज्वर, दौड़ में नहीं होता। उसे कुछ सिद्ध नहीं करना है। उसे कुछ अहंकार के शिखर उपलब्‍ध नहीं करने हैं। उसे राज धानिया जीतनी नहीं है। उसे सिकंदर नहीं होना है। वह तो जो’’ होना है, है, है ही, इसलिए जाना कहां, दौड़ना क्यों? पहुंचने को उसके लिए मंजिल नहीं है। वह अपनी मंजिल पर है।

यह तो हम समझ लेते हैं कि भक्त तामसी नहीं होता, राजसी नहीं होता, लेकिन नारद का यह अदभुत सूत्र कहता है कि भक्त सात्विहाए है। क्योंकि साधुता भी, असा धुता के विपरीत है। कहना परमात्मा को कि वह साधु है, ठीक न होगा, क्योंकि वह साधु असाधु दोनों से परे होना चाहिए। यह कहना कि परमात्मा को साधु ही पा सकेंगे, गलत होगा, क्योंकि फिर असाधुओं का क्या होगा? यह कहना कि साधुओं में ही परमात्मा है, नितांत गलत है, क्योंकि असाधुओं में भी तो वही है। परमात्मा का अर्थ हुआ तब : सर्वातीत, ट्रांसेंडेंटल, जो सभी के पार है।

भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान की ओर अग्रसर है। भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान होने की तरफ प्रतिक्षण रूपांतरित हो रहा है। भक्त भगवान में बदल रहा है। उसकी हर प्रार्थना उसे भगवान बना रही है। उसकी हर पूजा उसे भगवान बना रही है। भक्त और परमात्मा के बीच का फासला कम होता जा रहा है प्रतिपल; जल्दी ही छलांग लग जाएगी; जल्दी ही भगवान में भक्त होगा, भक्त में भगवान होंगे; द्वैत गिर जाएगा।

इसलिए सूत्र कहता है:’’ तीनों गुणों से परे हो जाता है जो, योगक्षेम का परित्याग कर देता है”। न उसे अब कुछ लाभ है, न कुछ हानि है।

…’’ जो कर्मफल का त्याग करता है…’’ क्योंकि जो जब अनुभव करता है कि फल तो भविष्य में होत हैं, और भविष्य मन के बिना नहीं हो सकता है; फल तो कल होगा, और कल बिना मन के नहीं हो सकता। और जिसने मन से ही संग साथ छोड़ दिया, वह कर्मफल की क्या चिंता करे? लाभ तो कल होगा, हानि भी कल होगी। अभी तो न लाभ है, न हानि है। अभी तो बस वही है, जो है।

जो कर्मफल का त्याग करता, स्वभावत: कर्मों का भी त्याग हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह कर्म नहीं करता। नहीं, वह’’ करनेवाला” नहीं रह जाता–परमात्मा करता है अब! अब वह बांसुरी की तरह हो जाता है। गीत गाए परमात्मा तो गीत पैदा होता है, न गाए तो बांस की पोंगरी। गाए तो बांसुरी, न गाए तो बांस की पोंगरी।

बांस की पोंगरी खुद नहीं गाती, सिर्फ माध्यम है। भक्त जानता है कि मैं सिर्फ माध्यम हूं, उपकरण हूं! उसका साधन मात्र!

“और तब सब कुछ त्यागकर निर्द्वंद्व हो जाता है”। और तब कोई द्वंद्व नहीं रह जाता। जब कुछ पाने को न रहा, तो कुछ खोने को भी न रहा। जब कहीं जाने को न रहा, तो कुछ करने को भी न रहा। सब छोड्कर…यही समर्पण है भक्त का। वह उस परम गहराई को उपलब्ध हो जाता है जहां कोई द्वंद्व नहीं। एक गीत मैं पढ़ता था–

“शंख-सीप तो तट पर, लेकिन मोती पारावार में

यहां-वहां का करती रहती

कन्द निरर्थक शोर रे

सांस रोककर तल तक पहंचे

कोई गोताखोर रे

कमठ केकड़ा यहां, सुनहरी

मछली नीर अपार में

जो बंसी लटकाए बैठे

खोते संध्या भोर रे

तरी लिए जो उन तक पहुंचे

वह मछुआ तो और रे

कोई कर्दम यहां, मनोहर

नील कमल मंझधार में’’ ।

गहरे और गहरे…। किनारे पर ही बैठकर बंसी लटकाए समय को व्यर्थ मत गवाओ।’’

शंख-सीप तो तट पर, लेकिन

मोती पलवार में’’ ।

 

…’’जो वेदों का भी भलीभांति परित्याग कर देता है’’ ।

चौकोगे तुम :’’ वेदों का’’ ! कोई आर्यसमाजी मौजूद होगा तो बहुत नाराज हो जाएगा :’’ वेदों का’’ ! लेकिन भक्त का लक्षण यही है।

जो वेदों का भी’’ भलीभांति’’–ऐसा वैसा नहीं—”भलीभांति’’, बिलकुल, सर्वथा, त्याग कर देता है, और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है।

वेद भी खिलौने हैं बुद्धि के। शास्त्र भी समझा लेना है, सांत्वना है, सत्य नहीं। और भक्त तो ज्ञान की तलाश नहीं कर रहा है। भक्त तो प्रेम की तलाश कर रहा है। वेदों से मिल जाए ज्ञान, सूचनाएं, प्रेम कहां मिलेगा? शास्त्रों में कहीं प्रेम है? जल के संबंध में तुम कितना ही समझ लो, उससे कुछ प्यास तो न बुझेगी। सरोवर चाहिए।

भक्त जल के संबंध में शास्त्रों से तृप्त नहीं होता, वह चाहिए’’ ।

 

“इल्म के जहल- से बेहतर है कहीं जहल- का इल्म

मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको’’ ।

ज्ञान की मूढता की बजाय, कता का ज्ञान बेहतर है।’’

मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको’’ ।

यह परम ज्ञान मैंने अपने ही भीतर पाया।

 

कहता है,’’ प्यासा हूं, सरोवन

वेद या कुरान या बाइबिल, कोई भी शास्त्र-वेद यानी सारे शास्त्र शब्दजाल है। उनसे तृप्त मत हो जाना। उनसे जो तृप्त हुआ, वह मूढ है। वह कितना ही जानी हो जाए, उसकी कता नहीं मिटती, उसकी कता भीतर रहती है, पांडित्य को बाहर से आवरण हो जाता है।

“वेदों का जो भलिभांति त्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम प्राप्त कर लेता है। जोर है प्रेम पर, ज्ञान पर नहीं। जानने से क्या होगा? जानने में तो दूरी बनी रहती है। भक्त कहता है, भगवान को जानना नहीं, भगवान होना है। जानने से क्या होगा? भगवान को पीना है। भगववान को उतारना है अपने में। भगवान में उतर जाना है। दूरी मिटानी है। शास्त्र तो बीच में दीवालें बन जाते हैं। जितना ज्यादा तुम जानने लगते हो उतना ही अहंकार प्रगाढ़ होता है। और अहंकार तो बाधा है प्रेम में; उसे तो छोड़ना होगा। धन का अहंकार ही नहीं, ज्ञान का अहंकार भी छोड़ना होगा। जाननेवाले को मिटा ही देना है। कोई भीतर’’ मैं’’ भाव ही न रह जाए। तुम एक श्हन्य हो जाओ। उसी श्ल्य में प्रेम के कमल खिलते हैं–शून्य की झील में प्रेम के कमल! और कोई झील नहीं है जहां प्रेम के कमल खिलते हों। तुम मिट जाओ किचडु में, तो ही कमल खिलते हैं। तुम्हारी कीचड़ से ही कमल उठते हैं।

 

…’’ जो वेदों को भलीभांति परित्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है, वह तरता है, वह तरता है; यही नहीं, वह लोगों को भी तार लेता है”। वह एक नाव बन जाता है। खुद तो तरता ही है, लेकिन इतना ही नहीं कि खुद तरता है, औरों को भी तार देता है, तारणतरण हो जाता है; तारता भी, तरता भी! उसके सहारे न मालूम कितने लोग तर जाते हैं।

जिसके जीवन में प्रेम का फूल खिला, वह न मालूम कितने भौरों को आकर्षित कर लेता है। जिसके जीवन में प्रेम का गीत उठा, न मालूम कितने कंठों में गुनगुनाहट शुरू हो जाती है।’’ घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां

बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके’’ ।

घटे तो आदमी है क्या? एक मुट्ठी भर राख!’’ घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सा बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके’’ ।

और अगर बढ़े तो सारे लोग भी छोटे पड़ जाते हैं, समा न सके। दोनों लोक भी छोटे पड़ जाते हैं। आदमी छोटे से छोटा भी हो सकता है। मन उसे संकीर्ण से संकीर्ण भी कर देता है। आदमी विराट से विराट भी हो सकता है–मन की दीवाल भर टूट जाए, मान का कारागह न

हो।’’ घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके’’ । मन कारागह है; ध्यान मुक्ति है। काम कारागह है; प्रेम मुक्ति है। वेद, शास्त्र कारागृह हैं;

भक्ति मुक्ति है।

 

 

आज इतना ही।

 

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–12

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अभी और यहीं है भक्ति—बारहवां प्रवचन

दिनांक 12 मार्च,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्र-सार :

*भगवान, भक्ति और भोग में क्या कुछ आतरिक तारतम्य है?

 *एक मित्र ने… सुझाव दिया है! कि नारद के सूत्र में सुधार होना चाहिए!

 *क्या कारण है कि कामवासना के उठने पर होश में भी उसकी प्रगाढ़ता बनी रहती है?

 *जिसे आप स्वप्न कहते हैं, वह हमें सत्य मालूम देता है और आपका सत्य हमारे लिए स्वप्नवत है। किसकी गंगा उलटी बहती है?    

 *सत्रह- अठारह वर्ष की उम्र में मेरे पिताजी धूनीवाले बाबा के सान्निध्य में कुछ अनुभव पाकर विक्षिप्त हो गए, समाज में स्वीकृत न हो सके…! अब जीवन के अंतिम चरण में उनके लिए नये जन्म की क्या कोई संभावना है?    

 

 

पहला प्रश्‍न :

 

भगवान, भक्ति और भोग में क्या कुछ आंतरिक तारतम्य है?    

 

 

भोग को जानता है सिर्फ भक्त ही। भक्त के अतिरिक्त भोग को किसी ने जाना नहीं, क्योंकि भोग तो सिर्फ भगवान का ही हो सकता है। जिसे तुम संसार में भोग कहते हो वह तो भोग की छाया भी नहीं, वह तो भोग की दूर की, प्रतिध्वनी भी नहीं, उसे तो भोग का आभास कहना भी गलत होगा—भोग की भांति है।

जिन्होंने परमात्मा को जाना उन्होंने ही भोगा। भोग भक्त और भगवान के बीच का संबंध है। भोग की गंगा बहती है भगवान औरभक्त के किनारों के बीच—एक तरफ भगवान, दूसरी तरफ भक्त, बीच में भोग की गंगा का प्रवाह।

भोग बड़ा बहुमूल्य शब्‍द है—योग से ज्यादा बहुमूल्य। लेकिन मेरे अर्थ को ठीक से समझ लेना। योग तो फिर भी मनुष्य की बुद्धि का जोड़ है, हिसाब- किताब है, विधि-विधान है। भोग बुद्धि का नहीं, हृदय का परमात्मा से जोड़ है, न कोई हिसाब है, न कोई किताब है, न कोई विधि-विधान है। समय समर्पण है, समय निवेदन है।

भक्त अपने को भगवान के चरणों में रख देता है, उसी क्षण से श्वास- आस में भगवान का भोग शुरू हे जाता है।

भोग के अर्थ को जाना तो जा सकता है, कहा नहीं जा सकता, क्योंकि भोग स्वाद की बात है। जिसने लिया हो, वही जानेगा। और जिसने जाना हो, वह भी कह न सकेगा, क्योंकि स्वाद की बात है, गूंगे का गुड है। और सारे स्वाद तो इन्द्रियों के हैं। आंख से रूप का स्वाद मिलता है। कान से स्वर का स्वाद मिलता है। हाथ से स्पर्श का स्वाद मिलता है। परमात्मा

 

 

 

 

 

तुम्हारी समग्रता का स्वाद है। आंख, कान, हाथ, पैर—तुम पूरे के पूरे एक ही लयबद्धता में , एक ही नृत्य में लीन हो जाते हो। आंखें देखती ही नहीं, सुनती भी हैं। कान सुनते ही नहीं, देखते भी हैं। हाथ छूते ही नहीं, गंध भी लेते हैं। तुम्हारी पूरी समग्रता अस्तित्व के

साथ आदोलित होती है। उस घड़ी का नाम स्वाद है।

जिन्हें तुमने संसार में स्वाद जाना है, वे तो केवल इन्द्रियों के आभास हैं, धोखे हैं। जिसने परमात्मा का स्वाद जान लिया, संसार के स्वाद अपने से ही छूट जाते हैं। छोड़ना पड़े तो एक बात पक्की है कि तुमने परमात्मा के स्वाद को नहीं जाना।

इसलिए भक्त त्याग की बात ही नहीं करता। यह कोई सौदा नहीं है कि तुम छोड़ोगे तो परमात्मा को पाओगे। तुम परमात्मा को पा लोगे तो तुम पाओगे, अचानक बहुत कुछ छूटने लगा। जैसे सूखे पते वृक्ष से गिर जाते हैं, ऐसा ही कुछ व्यर्थ हो जाएगा और गिर जाएगा। स्वाभाविक है कि जब परम स्वाद मिले तो क्षुद्र का स्वाद गिर जाए। जब परम भोग सजा हो तो रूखे-सूखे के लिए कौन राजी होगा! जब उसका मंदिर खुले तो कौन क्षुद्र में अपना आवास बनाएगा! इसलिए भक्त के लिए भोग तो बड़ा अनूठा शब्द है।

भक्त अपने को समर्पित करता है। वह कहता है,’’ तुम्हीं सम्हालो। अपने को सम्हालता हूं तो अहंकार निर्मित होता है। अहंकार ही दूरी खड़ी करता है। जितना मैं होता जाता हूं उतना दूर होता चला जाता हूं”। तो भक्त कहता है,’’ तुम्हीं सम्हालो। मैं अपने को बीच में खड़ा न करूंगा। न तो करूंगा जप, न करूंगा तप, न त्याग, न तपश्वर्या–क्योंकि उस सबसे अंहकार निर्मित होता है। उस सबसे लगाता है: मैं कुछ हूं’’ !

करने से स्वभावत:’’ मैं’’ निर्मित होता है। इसलिए भक्ति कोई कृत्य नहीं है। भक्ति शुद्ध समर्पण है।

भक्त कहता है,’’ मैं सम्हाल नहीं सकता अपने को, छोड़ता हूं तुम्हारे चरणों में! तुम्हीं जहां ले जाओ, चलूंगा; तुम्हीं जो कराओ, करूंगा; तुम्हीं श्वास लो, तो श्वास लूंगा, तुम्हीं रुक जाओ तो रुक जाऊंगा’’ । ऐसा समय न्योछावर, सर्वस्व दान–तत्क्षण भोग की घड़ी आ जाती है–इधर तुमने अपने को छोड़ा उधर परमात्मा तुम्हें मिलना शुरू हुआ।

भगवान, भक्ति और भोग, तीनों बड़े जुड़े हुए शब्द हैं। योग तो कहता है, हम टूट गए हैं, जोड़ना पड़ेगा। योग का अर्थ होता है: जोड़। योग शब्द का ही अर्थ होता है: जोड़। योग कहता है: हम टूट गए हैं परमात्मा से, जोड़ना पड़ेगा। भोग का अर्थ होता है: हम जुड़े ही हैं, भोगना श्दुरू करो। देर कैसी? व्यर्थ प्रतीक्षा किसकी कर रहे हो? हम जड़े ही हैं, जोड़ना नहीं है। अगर टूट गए होते तो जोड़ने का फिर कोई उपाय न था। टूटे नहीं हैं, इसलिए जुड़ सकते हैं। जोड़ने की चर्चा की मत उठाओ। जुडे हैं।

तुम हो कैसे सकते हो बिना परमात्मा से जुड़े हुए? एक क्षण को भी न हो सकोगे, एक पल को भी न हो सकोगे। वही श्वास लेगा तो श्वास चलेगी। वही सूरज बनकर चमकेगा तो शरीर को उत्ताप मिलेगा। वही हवाओं में आएगा तो प्राण मिलेगा। वही वर्षा में आएगा तो प्यास बुझेगी। वही भोजन में आएगा तो शक्ति मिलेगी। वही हजार-हजार रूपों में आएगा तो ही तुम जी सकोगे। एक क्षण को भी उससे टूटे कि जीना समाप्त हुआ। उससे जुड़े होने का नाम ही तो जीवन है।

इसलिए भक्त कहता है : टूटना तो हुआ ही नहीं, जोड़ने की बात ही गलत है। भक्त कहता है : जुडे हैं, अब बस भोगना है। भक्त कहता है : तुम जुडे हो और भोग नहीं रहे—कैसे पागल हो! किस बात की प्रती क्षा कर रहे हो? उत्सव की पूरी तैयारी हो चुकी है। सब पूरा- पूरा तैयार है, तुम बैठे कैसे हो उदास? तुम राह किसकी देखते हो? जिसकी तुम राह देखते थे वह आ ही चुका है। वह तुम्हारे भीतर ही निनादित है। तुम किसे पुकार रहे हो? जिसने पुकारा है, वही तो तुम्हारी पुकार है। तुम किसे खोजने चले हो? जो खोजने निकला है, उसमें ही तो छिपा है। भक्त कहता है : भोगो! एक पल भी खोने जैसा नहीं है : तैयारी करनी होती तो समय लगता।       इसलिए भक्ति की दृष्टि बड़ी अनूठी है। योग की दृष्टि में तो समय समाविष्ट है, कुछ करोगे, कल कुछ होगा, फल मिलेगा, बीज बोओगे, फसल उगेगी, काटोगे—हजार उपद्रव हैं—वर्षा होगी, न होगी, संयोग मिलेंगे, बनेंगे, न बनेंगे! लेकिन भक्त कहता है, कल की तो बात ही नहीं। जिसे तुम भोगना चाहते हो वह इसी क्षण तुम्हारे हाथ में है।

ऐसा देखते ही, ऐसी सुध आते ही—इसको ही सुरति, इसको ही स्मृति, इसको ही बोध… ऐसी सुरति आते ही भक्त नाचने लगता है। इसलिए भक्त नाचे। योगियों ने साधा—भक्त नाचे। योगियों ने बड़े विधि-विधान बनाए—भक्तों ने भोगा। योगियों ने आसन, प्राणायाम, व्यायाम किए—भक्तों ने उठा ली वीणा।

उत्सव तैयार ही है। समारम्भ रचा ही हुआ है। यहां देर है ही नहीं। यहां क्षणभर भी खोना अपने ही कारण खोना है, उसके कारण नहीं।

भोग की दृष्टि यह है, परम भोग की, भक्त के भोग की दृष्टि यह है कि एक भी तैयारी की जरूरत नहीं है। समय अनिवार्य नहीं है। इसी क्षण आया हुआ है तुम्हारे द्वार पर परमात्मा। इसी क्षण उसने तुम्हें चारों ओर से घेरा है। उसी का स्पर्श तुम्हें हो रहा है हवाओं में। उसी की श्वास तुम्हारे हृदय को गतिमान किए है। वही है तुम्हारा सोच-विचार। वही है तुम्हारा ध्यान। इस बात की प्रतीति, प्रत्यभिज्ञा, बस काफी है।

इसलिए भक्त एक छलांग लगाता है। योगी का सिलसिला है, सीढ़ियां- दर- सीढ़ियां चढ़ता है। भक्त एक छलांग लगाता है—बोध की छलांग। एक क्षण पहले उदास था, हारा थका था। एक क्षण पहल संतत था। एक क्षण पहले नरक में था, एक क्षण बाद स्वर्ग में।

भक्त चमत्कार है! एक क्षण पहले राख ही राख था, कहीं फूल न दिखाई पड़ते थे। सुधि के आते ही एक क्षण बाद फूल खिल गए। तुम कल्पना ही न कर पाओगे कि यह कैसे हुआ। भक्त के पास भी उत्तर नहीं है। योगी के पास उत्तर है। योगी कहेगा,’’ ऐसा- ऐसा किया, इतना- इतना सा धा, ऐसी-ऐसी विधियां कीं, ऐसे- ऐसे उपाय किए—यह इसका फल है’’ ।

योगी का गणित है। भक्त का कोई गणित नहीं—भक्त का प्रेम है। इसलिए मीरा को किसी ने देखा कभी योग साधते? हां, अचानक एक दिन नाचते देखा। अचानक एक दिन बह चली नाच उठी। इसीलिए तो किसी की समझ में भी न आया, घटना इतनी आकस्मिक थी। कोई भरोसा न कर सका।

महावीर समझ में आते हैं—बारह वर्ष की लंबी तपश्वर्या है। जिनके पास बुद्धि नहीं है उनको भी समझ में आ जाते हैं—इतना श्रम किया, अगर आनंद को उपलब्ध हुए, तो बात हिसाब की है। बुद्ध समझ में आते हैं—छह वर्ष का कठिन श्रम, साधना—फिर आगर आनंद को उपलब्ध हुए, ठीक।

मीरा बेबूझ है! कल तक घूंघट में छिपी थी, किसी को पता भी न था। कभी किसी ने जाना भी न था कि कुछ साधो है इसने। अचानक, पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! घर के लोग भी भरोसा न कर सके—”पागल हो गई! मस्तिष्क खराब हो गया! कहीं ऐसे मिला है परमात्मा ,     बड़ी मुश्किल से मिलता है’’ ।

हमारे अहंकार ने बड़ी मुश्किलें खड़ी कर ली हैं। हमारा अहंकार जो सरलता से मिल जाए, उसके लिए राजी नहीं होता। अहंकार कहता है : पहाड़- पर्वत चढ़ने पड़ेंगे। ऐसा हाथ फैलाने से जो मिल जाए, घर बैठे जो मिल जाए, अहंकार उससे राजी नहीं होता, भरोसा नहीं करता। महावीर को मिला होगा, मीरा को कैसे मिला ,

मीरा का नृत्य आकस्मिक है—लेकिन भक्ति आकस्मिक है! इस बात को ठीक से समझ लेना। भक्ति की कोई सधिना नहीं है, भक्ति सिद्धि है पहले ही क्षण से, सिर्फ बोध की बात है।

 

कभी उन मदभरी आंखों से पिया था इक जाम

आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश नहीं।

 

एक बार झलक मिल जाए, बस काफी है। एक बार परमात्मा की प्रतीति आ जाए, एक बार ऐसे समझ उठ खड़ी हो बिजली की कौंध की तरह कि वह उपलब्ध है, मैं रुका किसलिए, प्रतीक्षा किसकी करता हूं—तो जो नृत्य शुरू होता है, उसका फिर कोई अंत नहीं।

कभी उन मदभरी आखों से पिया था इक जाम

आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश नहीं।

भक्ति का होश बेहोशी जैसा है। भक्त का ध्यान तल्लीनता जैसा है। भक्त का होना न होने जैसा है। भक्त अपने को खोकर ही पाता है। भक्त अपने को डुबाता है, जैसे बूंद गिर जाए सागर में। भक्त जुआरी है।

बूंद जब सागर में गिरती है तो पक्का क्या है कि बचेगी! पक्का क्या है कि खो ही न जाएगी सदा को? पक्का हो भी नहीं सकता। गारंटी होगी भी तो कैसी होगी, कौन देगा?      बूंद मिटने को तैयार होती है, मिटते ही सागर हो जाती है।

लेकिन ध्यान रखना, यह जो भोग है, यह जो परमात्मा और उसके प्रेमी के बीच घटता है, भगवान और भक्त के बीच जो धारा बहती है जीवन की—यह कुछ समझने- समझाने की बात नहीं है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वे सिर्फ इशारे हैं, खयाल में आ जाएं तो कूद पड़ना। यह मैं तुम्हारी, समझ बढ़ जाएगी मेरे कहने से, इसलिए नहीं कह रहा हूं। यह तुम्हारा ज्ञान कुछ थोड़ा और बढ़ जाएगा भक्ति के संबंध में, इसलिए नहीं कह रहा हूं। क्योंकि भक्ति का ज्ञान से क्या लेना-देना ,

एक ऐसा राज भी दिल के निहाखाने में है

लुत्फ जिसका कुछ समझने में न समझाने में है।

बहुत गहरे हृदय के आत्यंतिक तल पर छिपा है रहस्य, न समझ में आता है न समझाने में आता है। भक्ति बेबुझ है। भक्ति एक पहेली है, एक रहस्य है। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, भक्ति उनके लिए नहीं है। वे अपनी बुद्धि के कारण ही खोते चले जाएंगे। जो अपने को समझदार समझते हैं, भक्ति उनके लिए नहीं है। यह तो नासमझों के लिए है। मगर नासमझी को लुत्फ और मजा और। समझदारी बड़ी गरीब है। नासमझी की संपदा बड़ी है। समझदारी तो बड़ी क्षुद्र है–तुम्हारी है। नासमझी विराट है। समझदारी तो ऐसी है जैसे छोटा सा दिया जलता हो, और टिमटिमाती रोशनी हो। नासमझी ऐसी है जैसे विराट अमावस की रात हो, गहन अंधकार हो, और न छोर, कोई सीमा नहीं!

भक्त तो अपनी नासमझी से परमात्मा के पास पहुंचता है। और समझदारी से कोई भी पहुंचा है, ऐसा सुना नहीं। समझदारी रोक लेती है, पैर की जंजीर हो जाती है। समझदारी नाच नहीं बन पाती। नाचकर ही कोई पहुंचता है। समझदारी गंभीर हो जाती है।

 

 

एक मित्र ने पूछा है–पूछा नहीं, समझदार होंगे–सुझाव दिया है। सुझाव दिया है कि नारद के सूत्र में कहा गया कि भक्ति से भगवान मिलता है–यह बात ठीक नहीं। भक्ति से शक्ति मिलती है—शक्ति से भगवान मिलता है। सूत्र में सुधार होना चाहिए।

 

 

ऐसी बुद्धिमानी पैर की जंजीर हो जाएगी। ऐसी बुद्धिमानी तुम्हें पहुंचाएगी न, अटका देगी—बुरी तरह अटका देगी। नारद का समझ लो। नारद को समझाने मत चलो। नारद से कुछ मिलता हो, ले लो। नारद को देने मत चलो। तुम्हारे पास अभी है क्या जो तुम दोगे? अगर तुम्हें यह ही पता हो गया होता तो तुम यहां आते क्यों? तुम किसकी तलाश कर रहे हो फिर? लेकिन बुद्धि हिसाब लगा लेती है उन सब चीजों का जिनका उसे कोई पता भी नहीं। बुद्धि उन सब चीजों के संबंध में भी सिद्धांत बना लेती है जिनका स्वप्न भी उसे नहीं आया। तुम्हें न भगवान का पता है, न तुम्हें भक्ति का पता है। हां, तुमने कुछ किताबें पढ़ ली होंगी। किताबों से कुछ तुमने सूचनाएं इकट्ठी कर ली होंगी। अब तुम कुछ तर्कजाल में पड़ गए होओगे। इस तर्कजाल से कोई कभी पहुंचा नहीं। यही अटकाता है।

नासमझी चाहिए। पांडित्य नहीं, बड़ी असहाय भाव की दशा चाहिए। तर्क नहीं, हारा हुआ तर्क चाहिए, मिटा हुआ, टूटा हुआ तर्क चाहिए। जब तक तुम्हें लगता है तुम अपनी रह बना लोगे, तभी तक तुम भटकोगे। तब तक तुम जो राह बनाओगे, वही तुम्हारा भटकाव होगी। जिस दिन तुम असहाय हो जाओगे और पाओगे,’’ मेरे किए कुछ भी नहीं होता। बुद्धि से कुछ समझ में आता नहीं। खूब समझ कर बैठ गया हूं, कहीं पहुंच नहीं पाता’’ ।

… जिस दिन तुम थके-मांदे, हारे-पराजित, असहाय, रोने लगोगे, आंसू बहने लगेंगे—तर्क नहीं चाहिए, आंसू चाहिए—बुद्धि में विचार न उठेंगे, भाव उठने लगेगा, जिस दिन तुम बैठकर सोच- विचार न करोगे, नाचने लगोगे, बुद्धि में तर्क काश शोरगुल नहीं, पैरों में घूंघर बंधे होंगे—उस दिन, उस दिन पहली दफा वर्षा होगी, तुम्हारी भूखी-प्यासी भूमि पर, उस दिन पहली दफा भगवान से तुम्हारा संस्पर्श होगा, भोग का पता चलेगा।

भक्तों ने कुछ कहा नहीं है, जो कहा है, उससे कुछ साफ नहीं होता। भक्तों ने कोई तर्क नहीं किया है। जो बात भी की है, वह इंगित की है, व्याख्या की नहीं है, प्रणाम नहीं है कोई उसमें, सीधे- सीधे वक्तव्य हैं।

अगर भक्तों को समझना हो तो शास्‍त्र में जाने का कोई सार नहीं है—किसी भक्त की आंखों में जाना।

क्या हुस्न का अफसाना महदूद हो लफ़्ज़ों में

आंखें ही कहें उसको आंखों ने जो देखा है।

मीरा की आंखों में या चैतन्य की आंखों में…! वहीं है शास्‍त्र भक्ति का। तो भक्त को समझने का ढंग ही और है। और भक्ति के शास्‍त्र को समझने के आयाम ही और हैं। अगर सोच-विचार से तुम अभी थक नहीं गए हो, अभी थोड़ी और उमंग बची है तड़फड़ा लेने की, तो तुम भक्ति की बातों में अभी मत पड़ो। तो अभी बहुत है—वेदांत है, वेद हैं, उपनिषद हैं। तो अभी योग है, सांख्य है। अभी बहुत शास्‍त्र पड़े हैं। अभी थोड़ा वहां सिर फोड़ लो। जब तुम बिलकुल ही टूट जाओ और जब तुम्हें ऐसा लगे कि कहीं के कोई द्वार नहीं मिलता, जब तुम रोने- रोने को हो जाओ, जब तुम्हारे हृदय से एक आह निकले असहाय अवस्था की—वही प्रार्थना बन जाएगी। वहीं से तुम्हारे जीवन में भक्त का अनुभव शुरू होता है। तुम्हारी हार में ही भक्त पैदा होता है—तुम्हारी जीत से नहीं, तुम्हारी पराजय में, तुम जहां बिलकुल लहूलुहान पड़ गए हो जमीन पर, जहां तुम्हारे पंख क्षत- विक्षत हो गए हैं और अपना किया अब कुछ भी नहीं चलता—उसी क्षण, उस गहन पीड़ा से प्रार्थना उठती है। और तब एक अनूठा अनुभव होता है, कि तुम नाहक ही दौड़- धूप कर रहे थे, भगवान दूर न था, तुम्हारे दौड़ने के कारण दूर मालूम पड़ता था। तुम व्यर्थ ही आयोजन कर रहे थे। तुम्हारे आयोजन ऐसे थे कि उनके कारण ही बा धा पड़ती थी, अवरोध आता था। काश, तुम कुछ न करते और सिर्फ खुली आंख से देख लेते, तो भगवान द्वार पर खड़ा था। तुम्हारी व्यवस्‍था ने ही तुम्हें भटकाया था।

भोग तो स्वाद है—मिलेगा तो मिलेगा। भोग के संबंध में मैं कुछ भी कहूं, उससे हो सकता है भोग का लो भ पैदा हो जाए, लेकिन भोग की कोई समझ न आएगी। इतना ही अगर तुम मेरी बात से समझ लो कि तुम्हारे जीवन में अभी भोग जैसा कुछ भी नहीं है…! तुम्हारे धार्मिक गुरु, तुम्हारे साधु- संत तुम्हें कहते हैं,’’ छोड़ो भोग, पाप है’’ । मैं तुमसे कहता हूं,

“तुमने भोग किया ही नहीं। छोड़ने योग्य तुम्हारे पास है क्या;’’

तुम्हारे साधु-संत तुम्हें समझाते हैं कि संसार के भोगों के कारण ही तुम परमात्मा तक नहीं पहुंच पा रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्मा तक जब तक न पहुंचोगे तब तक तुम्हें पता भी न चलेगा कि जिन्हें तुम भोग कह रहे हो, वे भोग हैं ही नहीं। तुमने कांटों को फूल समझा है। सब तरह से लहूलुहान हो, फिर भी तुम कांटों को फूल समझे चले जाते हो। दुख ही पाते हो जहां तुम सुख खोजते हो, फिर भी तुम सुख माने चले जाते हो।

तुम भोगी नहीं हो, विक्षिप्त भला होओ। तुम भोगी कतई नहीं हो, भूले हुए भला होओ। तुमसे भूल भला हो रही हो, पाप नहीं हो रहा है। तुम पर दया आ सकती है, तुम्हारे ऊपर निंदा आने का कोई कारण नहीं है। इसलिए जो तुम्हें पापी कहते हो, जो तुम्हारी निंदा करता हो और जो तुमसे कहता हो,’’ तुम कुछ ऐसे भोग में पड़े हो जिसके कारण तुम परमात्मा तक नहीं पहुंच पा रहे हो,’’ वह तुम्हें मुक्ति की तरफ ले जा न सकेगा। क्योंकि उसके निषेधों के कारण, उसके विरोधों के कारण तुम्हारा भोग में और आकर्षण बढ़ता चला जाता है–जिसे तुम भोग कहते हो, जो भोग नहीं है। उसके निषेध तुम्हें और लोलुप करते

 

हैं। हजवे मैंने तेरा ऐ शेख! भरम खोल दिया

तू तो मस्जिद में है, नियत तेरी मैख़ाने में है।

 

वह जो मंदिर-मस्जिद में शराब की बुराई कर रहा है, उसकी बुराई भी उसके भीतर के राज को खोले दे रही है। बुराई भी हम उसी की करते हैं जिसमें हमारा रस होता है।

हजवे मैंने तेरा ऐ शेख! भरम खोल दिया—यह जो तूने निंदा की है शराब की, इससे तेरे भीतर का राज भी पता चल गया : तू तो मस्जिद में है, नियत तेरी मैख़ाने में है—तू यहां मस्जिद में बैठा होगा, लेकिन मन तेरा अभी भी मैख़ाने में है।

अगर तुम्हारा धर्मगुरु स्त्रियों की निंदा कर रहा हो तो समझना कि स्त्रियों में रस अभी कायम है। अगर धन को गाली दे रहा हो, उपवास की शिक्षा दे रहा हो, तो समझना कि रस अभी भोजन में है। और उसके विरोध से तुम्हारा रस मिटेगा नहीं, उसके विरोध से बढ़ेगा। क्योंकि जितना ही तुम्हें कोई चीज कही जाए कि बुरी है, निषेध किया जाए, इनकार किया जाए, उतना ही मन को लगता है कि जरूर कुछ होगा, तभी तो इतने सारे धर्मगुरु, इतने मंदिर- मस्जिद इसके विरोध में खड़े हैं।

जिस दरवाजे पर लिखा हो,’’ भीतर झांकना मना है’’, वहां झांकने का मन हो जाता है। तो जिन-जिन चीजों को लोगों ने पाप कहा है उन- उनको करने की आकांक्षा प्रबल हो गई है।

तुम छोटे से बच्चे को देखो! छोटा बच्चा मन का सबूत है, क्योंकि मन सभी के छोटे बच्चों जैसे हैं। उससे तुम कहो कि फलां चीज मत खाना, उसे शायद याद भी न थी, तुमने कहकर और याद दिला दी। उससे कहो कि फलां जगह मत जाना, दुनिया बड़ी है, शायद वह जाता भी न उस जगह, लेकिन तुमने अब सारी दुनिया को इनकार कर दिया और एक ही जगह पर उसका ध्यान आकर्षित कर दिया। अब वहीं जाएगा। तुम्हारे कहने ने ही बता

दिया कि जरूर कुछ राज होगा, अन्यथा कौन किसको मना करता है ,     जरूर कोई बात काम की होगी, रहस्य की होगी!

ईसाइयों की कथा है कि परमात्मा ने आदमी को बनाया और उससे कहा कि यह एक वृक्ष है– ज्ञान का वृक्ष–इसके फल तू मत खाना। बगीचे में अनंत वृक्ष थे, मगर सब वृक्ष व्यर्थ हो गए, अदम की आंखें उसी वृक्ष पर लटक गईं। रात सोते-जागते उसको उसी-उसी की याद आने लगी होगी। स्वाभाविक है। भूल अदम की नहीं, भूल परमात्मा की है। इतने वृक्ष थे, अगर न कहा होता तो मैं समझता हूं शायद अभी तक भी वह खोज न पाया होता, खोजने की जरूरत ही न रही। तुमने तख्ती लटका दी।

जहां-जहां निषेध है, वहां-वहां निमंत्रण हो जाता है। जहां कोई कहे,’’ मत करो’’ , करने की प्रबल आकांक्षा जगती है। अहंकार नहीं के साथ जूझने लगता है, प्रतिरोध पैदा होता है।

जिन चीजों को लोगों ने पाप कहा है, उन्होंने तुम्हें यस लिया। मैं तुमसे कहता हूं, कोई पाप नहीं है, तुम्हारी भूल हो सकती है। भूल है!’’ पाप’’ –तुम्हारी छोटी-छोटी भूलों के लिए बहुत बड़ा शब्द हो गया! इतना बड़ा शब्द का उपयोग ठीक नहीं।

कोई आदमी को भोजन में थोड़ा रस आ रहा है, इसको’’ पाप’’ …! भूल भला हो, पाप क्या है? किसी आदमी को वस्त्र पहनने में सुख मिलता है—भूल भला हो, पाप क्या है? और जिसको वस्त्र पहनने में रस मिलता है वह केवल एक बात की खबर देता है कि उसे अपने आंतरिक सौंदर्य का कोई पता नहीं, उसे आंतरिक सौंदर्य का पता हो जाए तो बाहर की सजावट वह बंद कर देगा।

जो आदमी धन के पीछे दौड़ रहा है, वह इतनी ही खबर देता है कि उसे भीतर के धन की कोई खबर नहीं। जो आदमी बाहर के पदों की तलाश कर रहा है, उसे परमपद की कोई सूचना नहीं मिली, अन्यथा छोड़ देगा। हीरे जिसे मिल जाएं, वह कंकड़-पत्थर छोड़ ही देता है। मैं तुमसे कंकड़-पत्थर छोड़ने को नहीं कहता—मैं तुमसे हीरों का स्मरण करने को कहता हूं।

भक्ति का सारा शास्त्र भगवान के स्मरण के लिए है, संसार के त्याग के लिए नहीं है। वही भेद है भक्ति और योग में। योग कहता है : संसार छोड़ो, परमात्मा मिलेगा। भक्ति कहती है : परमात्मा को खोज लो, संसार छूट जाएगा। भोग परमात्मा का उठ आए तुम्हारे जीवन में, सब भोग अपने से निस्तेज हो जाते हैं। जब सूरज उग जाता है, तारे छिप जाते हैं : जब परम भोग का सूर्य उगता है तो सब टिमटिमाते तारे, अनंत हों तो भी खो जाते हैं। असंख्य हों तो भी खो जाते हैं।

लेकिन ध्यान रखना, तुम्हें लेना पड़ेगा। मैं स्वाद के गीत गा सकता हूं। मेरी आंखों में तुम थोड़ा झांको तो शायद तुम्हें स्वाद की थोड़ी ध्वनि भी सुनाई पड़ जाए। लेकिन स्वाद तो तुम्हें ही लेना पड़ेगा, तभी स्वाद होगा।

और मजा यह है कि कुछ भी करना नहीं है, तुम मालिक पैदा हुए हो। तुम महल की सीढ़ियों पर बैठे रो रहे हो। चाबी तुम्हारे हाथ में है, तुम भूल ही गए हो।

तुम जैसे हो, जहां हो, भक्ति का यह बुनियादी सूत्र है तुम वहीं भोगना शुरू कर दो। तुम जैसे हो, जहां हो, वहीं तुम परमात्मा के स्मरण को उपलब्ध हो जाओ। याद करो उसकी। क्या होगा इसका अर्थ; इसका यह अर्थ होगा, मैं तुमसे यह कहूंगा, अब तुम जब भोजन करो तो भोजन की फिक्र मत करना, परमात्मा को खोजना भोजन में। इसलिए उपनिषद कहते हैं अन्न ब्रह्म। वह बड़े ज्ञानियों की बात है, बड़े पहुंचे हुए पुरुष की बात है। भोजन में भगवान। जब तुम एक सुंदर स्त्री को गुजरते देखो तो स्मरण करना सब सौंदर्य उसी का है। रसो वे सः। सब रस उसी का है। जब तुम फूल को खिला देखो तो उसी को प्रणाम करना, क्योंकि सब खिलना उसी का है। पक्षी गीत गाएं, तब तुम गौर से सुनना। क्योंकि कंठ हों अनेक, गीत तो उसी का है। धीरे-धीरे तुम चारों तरफ जीवन में उसका स्मरण इस तरह करना कि उसके अतिरिक्त तुम्हें कोई दिखाई ही न पड़े।

भक्ति सुगम है, सरल है, सहज है। लेकिन अगर तुम्हें कठिनाई में ही रस हो तो बात और; तो फिर बहुत योग शास्त्र हैं; फिर उलटे-सीधे व्यायाम करने की बहुत सुविधाएं हैं।

 

 

दूसरा प्रश्‍न :

 

आपने कल कहा कि क्रोध को होशपूर्वक देखने पर क्रोध विलीन हो जाता है। लेकिन क्या कारण है कि कामवासना के उठने पर होश में भी उसकी प्रगाढ़ता बनी रहती है। ऐसा क्यों है?

 

 

होश संदिग्ध होता है। होश ही न होगा। अन्यथा, होश के होने पर काम हो कि क्रोध, लोभ हो कि मोह, सभी विसर्जित हो जाते हैं। तो फिर तुमने होश को ठीक से सम्हाला न होगा। तो कहीं चूक हो गई होगी। बजाय यह सोचने के, यह पूछने के, कि होश रहने पर भी कामवासना क्यों नहीं जाती, तुम पुन: अपने होश पर प्रश्र उठाना। ऐसा तो होता ही नहीं। होश का अर्थ तो केवल इतना ही है कि होश के क्षण में तुम्हें कोई भी चीज घेर नहीं सकती, बस। नाम से फर्क नहीं पड़ता–काम है, क्रोध है, मोह है, लोभ है–यह सवाल नहीं है। होश के क्षण में तुम सिर्फ साक्षी रह जाते हो। तो तुम किसी भी चीज से ग्रसित नहीं हो सकते। हां, होश का क्षण खो जाए, तो तुम फिर पुन: ग्रसित हो जाओगे; या होश का क्षण आए ही न, तुम अपने को धोखा दे लो और समझा लो कि होश का क्षण है।

लेकिन यह होश की परिभाषा है, कसौटी है, कि उस क्षण में तुम शुद्ध निर्विकार हो जाते हो। होश के क्षण में तुम भगवान हो जाते हो। उस क्षण में तुम्हें कोई भी चीज पकड़ नहीं सकती; अगर पकड़ लेती हो तो होश का क्षण नहीं है, तुमने किसी तरह अपने साथ आत्मवंचना कर ली है।

उन्हें सआदते-मंजिल रसी नसीब हो गया

वो पांव राहे तलब में जो डगमगा न सके।

यदि तुम्हारे पैर न डगमगाए, तो इसी जीवन में आखिरी मंजिल उपलब्ध हो जाती है। किन पैरों की बात है; होश के पैरों की बात है। अगर होश न डगमगाए तो जिसको कृष्ण ने गीता में’’ स्थितिप्रज्ञ’’ कहा है, कि जिसकी चेतना थिर हो जाती है, जिसकी चेतना में कोई कंपन

नहीं होता, अकंप हो जाती है–उस अकंप दशा में कोई चीज प्रभावित नहीं करती, क्योंकि प्रभावित हुए कि कंपन शुरू हुआ। प्रभाव यानी कंपन, डगमगाहट। तो, मैं यह कहूंगा कि फिर से होश को साधना। और जल्दी न करो, कामवासना बड़ी गहरी वासना है। तुम्हारी भूल मैं समझता हूं कहां हो जाती है। तुमने अभी उड़ना भी नहीं सीखा आंगन में, और तुम बड़े आकाश की यात्रा पर निकल जाते हो; गिरोगे–मुश्किल में पड़ोगे। अभी तुम जरा नदी के किनारे थोड़ा तैरना सीखो, फिर गहरे सागरों में उतरना।

होश के साथ यही कठिनाई है कि तुम सोचते हो, चलो होश का प्रयोग कर लें कामवासना पर। कामवासना सबसे गहरी वासना है। इतनी जल्दी मत करो। पहले ऐसी चीजों पर होश को साधो, जिनमें किनारे पर थोड़ा प्रशिक्षण हो जाए। जैसे राह पर चल रहे हो, होशपूर्वक चलो। सिर्फ चलने के प्रति होश रहे। भूल-भूल न जाओ। याद बनी रहे कि चल रहा हूं–यह बायां पैर उठा, यह दायां पैर उठा। अब यह एक छोटी सी क्रिया है जिसका कोई बंधन नहीं तुम्हारे ऊपर। तुम चकित होओगे कि इसमें भी होश नहीं सधता! भूल-भूल जाओगे।

बैठे हो शांत, श्वास पर होश साधो। बुद्ध ने श्वास पर होश साधने को सब से महत्वपूर्ण प्रक्रिया माना; क्योंकि श्वास चौबीस घंटे चल रही है, तुम न भी कुछ करो तो भी चल रही है। तो इस सहज क्रिया पर होश को साधना आसान होगा। और जब चाहो तब साथ सकते हो–जरा आंख बंद करो, श्वास को देखो और होश को साधो। श्वास भीतर जाए, होशपूर्वक भीतर ले जाओ–जानते हुए जागते हुए, कि आस भीतर जा रही है भीतर पहुंच गई है, वापस लौटने लगी, बाहर गई, बाहर निकल गई फिर भीतर आने लगी–माला बना लो श्वास की–भीतर-बाहर, भीतर-बाहर! एक-एक गुरिया श्वास का सरकाते रहो। तुम चकित होओगे कि यह भी भूल-भूल जाता है। क्षणभर को होश आएगा, फिर मन चला गया दुकान पर, कुछ खरीदने लगा, बेचने लगा, किसी से झगड़ा हो गया; फिर चौंकोगे, पाओगे:’’ अरे! घड़ी बीत गई! कहां चले गए थे, श्वास तो भूल ही गई!’’ फिर पकड़कर ले आओ। इसको मैं किनारे का अभ्‍यास कहता हूं।

श्वास में कुछ झंझट नहीं है। अब तुम या तो क्रोध पर साधोगे…। क्रोध रोज तो होता नहीं, प्रतिपल होता नहीं, कभी-कभी होता है; जब होता है तब इतनी प्रगाढ़ता से होता है कि तुम गहरे में उतर रहे हो; जब होता है तब इतनी बातें दांव पर लग जाती हैं कि शायद तुम सोचोगे:’’ फिर देख लेंगे होश इत्यादी! यह अभी तो निपट लें”।

कामवासना तो बहुत गहरी है, क्योंकि प्रकृति ने उसे बहुत गहरा बनाया है, क्योंकि जीवन उस पर निर्भर है। अगर कामवासना इतनी आसान हो कि तुमने चाहा और छूट जाए, तो तुम शायद पैदा ही न होते, क्योंकि तुमसे पहले बहुत लोग छूट चुके होते; तुम्हारे होने की संभावना न के बराबर होती। माता-पिता नहीं छूट सके, इसलिए तुम हो। तुम भी इतनी आसानी से न छूट जाओगे, क्योंकि तुम्हारे बच्चों को भी होना है; वे भी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ऐसे भाग मत जाना बीच से।

जीवन बहुत कुछ टिका है कामवासना पर। इसलिए उसका छूटना इतना आसान नहीं है। असंभव नहीं है, आसान भी नहीं है। और तुम्हारी यह भूल होगी, अगर तुम इतनी कठिन प्रक्रिया पर पहले ही अभ्‍यास करो। यह मन की तरकीब है। मन हमेशा तुम्हें कठिन चीजें सुझा देता है, ताकि तुम पहले ही दांव में हार जाओ…चारों खाने चित्त! फिर तुम सोचते हो:’’ छोड़ो भी! यह कुछ होने वाला नहीं!’’

मन तुम्हें ऐसी दुविधा में उतारता है जहां तुम हार जाओ और मन जीत जाए। तुम्हारी हार में मन की जीत है। तो मन तुम्हें तरकीबें ऐसी बताता है कि तुम पहली दफा पांव उतारो नदी में कि डुबकी खा जाओ, कि सदा के लिए भयभीत हो जाओ कि यहां जान का खतरा है, जाना ही नहीं!

थोड़े बोधपूर्वक चलो। पहले ऐसी चीजों पर होश साधो जिनका कोई भी बल नहीं है: राह पर चलना, श्वास सका देखना; कोई भी ऐसी चीज–पक्षी गुनगुना रहे हैं गीत, बैठकर शांति से उनका गीत सुनना। सतत होश रहे, इतनी बात है। अखंडित होश रहे, धारा टूटे न। जैसे कि कोई तेल को एक पात्र से दूसरे पात्र में डालता है तो अखंड धारा रहती है तेल की, टूटती नहीं–बस ऐसी होश की तुम्हारी धारा रहे। पक्षी गुनगुनाते रहें गीत, तुम सुनते ही रहो, सुनते ही रहो, सुनते ही रहो; एक क्षण को भी तु कहीं और न जाओ।

तो धीरे-धीरे किनारे का अभ्‍यास करो। जैसे-जैसे अभ्‍यास घना होगा, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर उत्फुल्लता बढ़ेगी। जैसे-जैसे अभ्‍यास घना होगा, तुम्हारे भीतर अपने प्रति आश्वासन, विश्वास बढ़ेगा। फिर तुम धीरे-धीरे प्रयोग करना। वह भी जल्दी नहीं करना।

क्रोध पर भी प्रयोग करने हों तो क्रोध भी हजार तरह के हैं। एक को है जो तुम्हें अपने बच्चे पर आ जाता है। उस पर अभ्‍यास करना आसान होगा क्योंकि बच्चे के क्रोध में प्रेम भी सम्मिलित होता है। फिर एक क्रोध है जो तुम्हें दुश्मन पर आता है, उसमें प्रेम बिलकुल सम्मिलित नहीं है; उस पर अभ्‍यास करना कठिन होगा। तुम क्रोध में भी गौर करना कि कहां अभ्‍यास शुरू करो। जो अति निकट हैं, जिन पर तुम क्रोध करना भी नहीं चाहते और हो जाता है, उन पर अभ्‍यास करो। फिर कुछ हैं जो बहुत दूर हैं–दूर ही नहीं, विपरीत हैं; जिन पर तुम चाहोगे भी कि क्रोध न हो, तो भी भीतर की चाह है कि हो जाए; जिन पर तुम खोजते हो, अकारण भी, कि कोई निमित्त मिल जाए और क्रोध हो जाए–उन पर जरा देर से अभ्‍यास करना। पहले अपनों पर, फिर पड़ोसियों पर, फिर शत्रुओं पर। इतने जल्दी तुम अगर शत्रु पर अभ्‍यास करने चले जाओगे, तो यह ऐसी ही हुआ कि तलवार हाथ में ली और सीधे युद्ध के मैदान में पहुंच गए, कोई प्रशिक्षण न लिया। पहले प्रशिक्षण लो। प्रशिक्षण का मतलब होता है: पहले मित्र के साथ ही तलवार चलाओ। शत्रु के साथ चलाना खतरनाक हो जाएगा। अभी मित्र के साथ खेल-खेल में तलवार चलाओ। जब हाथ सध जाएं, भरोसा आ जाए, सुरक्षा हो जाए, तब थोड़े आगे बढ़ना।

यह मेरे अनुभव में आया है हजारों लोगों पर ध्यान का प्रयोग करने के बाद कि लोग जल्दी ही ऐसा कुछ प्रयोग करते हैं कि जिसमें टूट जाएं, ताकि झंझट खत्म, ताकि फिर अपनी

वापस दुनिया में चले गए कि यह होनेवाला नहीं, यह होता होगा किसी और को—कोई सौ भाग्यशाली, कोई अवतारी पुरुष, कोई संत-महात्मा—यह अपने से होनेवाला नहीं है! मगर पहले ही इस तरह की कोशिश करते हो, जिसमें कि पहले ही कदम पर हार हाथ लगे। यह तुम्हारे मन का जाल है। इस मन से सावधान।

अगर तुमने क्रोध पर होश साधा तो क्या होगा? क्या कसौटी है कि क्रोध पर होश सधा,     प्रमाण क्या होगा? प्रमाण यह होगा कि अगर क्रोध पर होश वस्तुत : सधा तो तुम क्रोध की करुणा का आविर्भाव पाओगे। अगर करुणा पैदा न हो तो होश का धोखा हुआ, सधा नहीं। क्योंकि क्रोध की जो ऊर्जा है, कहां जाएगी? तुम होश साध लोगे, लेकिन क्रोध में जो ऊर्जा पैदा हुई थी, जो शक्‍ति जन्मी थी, वह कहां जाएगी। तुम्हारे होश के सधते ही वह शक्‍ति रूपांतरित होती है।

होश कीमिया है। होश तो एक प्रक्रिया है, जिससे गुजरकर शक्‍तियां रूपांतरित होती हैं, अधोगामी शक्‍तियां ऊर्ध्यगामी होती हैं, तुम ऊध्र्वरेता- बनते हो। नीचे की तरफ जानेवाली ऊर्जाएं ऊपर की तरफ जानेवाले पंख बन जाती हैं।

क्रोध पर अगर होश सधा, करुणा पैदा होगी ही। बुद्ध ने उसे कसौटी कहा है। अगर कामवासना पर क्रोध सधा, महान ब्रह्मचर्य का आविर्भाव होगा, तुम एक अनूठी ऊर्जा, शीतल ऊर्जा से भर जाओगे, तुम्हारे भीतर फूल ही फूल खिल जाएंगे, एक गहरे संतोष, परितोष, तृप्ति तुम्हें घेर लेगी, बिना किसी कारण के तुम महासुख का अनुभव करोगे। ऐसा सुख तुमने संभोग में क भी नहीं जाना था! ऐसे सुख की शायद संभोग में बहुत दूर की प्रति ध्वनि मिली थी। अब तुम पहचान पाओगे कि अरे, संभोग में जिसे जाना था, वह इसी महासुख की बड़ी दूर की छाया थी—जैसे हजार- हजार परदों के पीछे से छिपी हुई रोशनी को तुमने देखा हो, फिर सब परदे उठ गए और तुमने रोशनी का साक्षात दर्शन किया हो!

कामवासना में अगर होश जगेगा तो ब्रह्मचर्य का आविर्भाव होगा। जब मैं ब्रह्मचर्य कहता हूं तो तुम्हारे साधु-संन्यासियों का ब्रह्मचर्य नहीं खोजो जबरदस्ती कामवासना को दबाकर बैठे हैं। उनका ब्रह्मचर्य तो तुम्हारी कामवासना से भी बदतर और रुग्ण हैं। जब मैं ब्रह्मचर्य की बात कहता हूं तो मेरा मतलब है : जिस चैतन्य में कामवासना होश की प्रक्रिया से गुजर गई और जहां अब कुछ भी दमन नहीं, जहां सब कूड़ा-कर्कट जल गया, सिर्फ सोना बचा, जहां सारी कीचड़ कमल हो गई! तुम सुगंध से भर जाओगे। तुम्हें नहीं भर जाओगे, दूसरे भी तुम्हारे पास उस सुगंध के झोकों को अनुभव करने लगेंगे! तुम्हारे पैर जमीन पर होंगे और जमीन पर नहीं पड़ेंगे। तुम रहोगे यहीं, और कहीं और दूसरे लोक से जुड़ जाओगे। तुम जानोगे निश्चित रूप से, क्योंकि इतनी बड़ी घटना है, बिना जाने नहीं घटेगी।

अगर लोभ पर तुम्हारा होश जागा तो तुम्हारे जीवन में दान का जन्म होगा, तुम बांटने लगोगे। और बांटकर तुम ऐसा न अनुभव करोगे कि जिसको तुमने दिया, उस पर तुमने कोई उपकार किया। तुम उलटे यही अनुभव करोगे कि जिसने स्वीकार किया उसने उपकार किया।

जो अंतर की आग, अधर पर

आकर वही पराग बन गई

पांखों का चापल्य सहज ही

आंखों का आकाश बन गया

फूटा कली का भाग्य, सुमन का

सहसा पूर्ण विकास बन गया

अवचेतन में छिपी धृणा ही।

चेतन का अनुराग बन गई।

वह जो-जो अंधेरे में पड़ा है तुम्हारे भीतर, रोशनी जलते ही रूपांतरित होता है।

अवचेतन में छिपी धृणा ही

चेतन का अनुराग बन गई।

धृणा प्रेम बन जाती है।

क्रोध करुणा बन जाता है।

द्वंद्व-लीन मानस का मधु छल

प्राणों का विश्वास बन गया

वृद्ध तिमिर का सित कुंतल दल

दृग का दिव्य प्रकाश बन गया

स्व की चरमशक्ति स्वयं से

छलकर परम विराग बन गई।

जो अभेद है अनायास वह

भाषित हो कर भेद बन गया

सप्तम स्वर तक पहुंच भैरवी

कोमल राग विहाग बन गई

जो अंतर की आग, अधर पर

आ कर वही पराग बन गई।

 

अग्नि पराग बन जाती है। कांटे फूल बन जाते हैं। होश की प्रक्रिया कीमिया है।

मनुष्य अपने भीतर सब लेकर आया है–सब! होश से गुजर जाए तो जिसे तुम संसार कहते हो, वही सत्य बन जाता है। होश से गुजर जो तो जिसे तुमने पत्थर जाना है, वही परमात्मा बन जाता है।

इसलिए होश बहुमूल्य शब्द है। इसे सम्हालना संपदा की भांति। इससे बड़ी और कोई संपदा नहीं है। होश, स्मृति, सुरति, सम्यक बोध–नाम बहुत हैं, बात एक ही है।

 

 

तीसरा प्रश्‍न :

 

 

आपने कहा कि तुम स्वप्न पर श्रद्धा करते हो और सत्य पर संदेह। पर जिसे आप स्वप्न कहते हैं, वह हमें सत्य मालूम देता है और आपका सत्य हमारे लिए स्वप्नवत है। कृपापूर्वक बताएं कि किसकी गंगा उलटी बहती है—आपकी या हमारी? और क्यों और कैसे?

 

 

लोकतंत्र की बात पूछो तो तुम्हारी गंगा सीधी बहती है। लेकिन सत्य से लोकतंत्र का कोई संबंध नहीं। भीड़ से सत्य तय नहीं होता।

तो फिर कसौटी क्या है ,

एक ही कसौटी है कि अगर गंगा सीधी बहती हो तो आनंदित होगी, सहज होगी, संगीतपूर्ण होगी, सागर की तरफ पहुंच रही है, अपना घर पास आ रहा है–प्रतिपल पुलकित होगी, नृत्य करती होगी, समारोहपूर्वक होगी। गंगा अगर उलटी बहती हो तो दीन-हीन होगी, परेशान होगी, तनाव से भरी होगी, दुखी होगी, संतत होगी। तो तुम्हीं सोच लो। अगर तुम प्रसन्न हो, आनंदित हो, तो धन्यभाग, तुम्हारी गंगा सीधी बह रही है। अगर तुम दुखी हो, पीड़ित हो, परेशान हो, तो ऐसा समझ कर मत बैठ जाना कि गंगा सीधी बह रही है, क्योंकि तब तक तो फिर तुम्हारे इस दुर्भाग्य से छूटने का उपाय भी न रहा। अपने- अपने भीतर कस लेना। अपनी-अपनी गंगा है। अगर उलटी बह रही हो तो आनंदपूर्ण नहीं हो सकती। उलटा होकर कोई कभी आनंदपूर्ण हुआ ,     शीर्षासन करके जरा खड़े होकर देखो, कितनी देर कर पाओगे ,

जहां-जहां जीवन में प्रक्रियाएं उलटी हो जाती हैं, वहीं पीड़ा पैदा होती है। पीड़ा का अर्थ ही केवल इतना है। पीड़ा इंगित है, सूचक है कि कहीं कुछ गलत हो गया, कहीं कुछ बात स्वभाव के प्रतिकूल हो गई, स्वाभाविक न रही।

सुख का अर्थ है : सभी कुछ स्वाभाविक है तो सुख है। दुख का अर्थ है : सभी कुछ अस्वाभाविक हो गया है। दुख दुश्मन नहीं है, दुख तो मित्र है, दुख तो खबर दे रहा है कि कहीं कुछ गलत हो गया है, ठीक कर लो। दुख तो यही कह रहा है कि जहां चले जा रहे हो वह मंजिल नहीं है, बदलो, राह बदलो, लौटो! जैसे ही तुम ठीक दिशा में चलने लगोगे, सुख का सरगम बजने लगेगा।

सुख है क्या ?… जब तुम अनुकूल जा रहे हो स्वभाव के। महावीर से किसी ने पूछा : सत्य क्या है? तो महावीर ने कहा : बत्थु सहावो धम्म! जो वस्तु का स्वभाव है, वही सत्य है, वही धर्म है।

मनुष्य दुखी है : स्वभाव के प्रतिकूल है, धर्म के प्रतिकूल है।

तुम अपने भीतर जांच कर लो। अगर दुखी हो, गंगा उलटी बह रही है। फिर देर न करो, क्योंकि ज्यादा देर उलटे बहते रहे तो उलटे बहने का अभ्‍यास हो जाता है। फिर जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी रूपांतरण करो। दुख के साथ बैठकर मत रह जाना, नहीं तो दुख भी आदत बन जाता है। फिर तुम दुख को छोड़ना भी चाहते हो और छोड़ना भी नहीं चाहते, एक हाथ से पकड़ते हो, एक हाथ से हटाते हो, चाहते हो मुक्ति हो जाए दुख से, और बीज भी बोए चले जाते हो, क्योंकि आदत हो गई है।

पर इसको तुम मापदण्ड, कसौटी, निकष समझो। यह कोई मान लेने की अन्यथा मैं हार जाऊंगा। उस दृष्टि से बुद्ध-महावीर सदा हारे हैं, अकेले हैं।

बात नहीं है, अगर भीड़ से सत्य निर्णीत होता है तो बुद्ध गलत हैं, भीड़ सही है। लेकिन सत्य का भीड़ से क्या लेना- देना? सत्य तो भीतरी अनुभव है। उससे दूसरे की तुलना का भी कोई संबंध नहीं है। मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि तुम मुझसे तुलना करो। मैं तुमसे यही कहता हूं कि तुम अपने भीतर ही जांच-परख करो, अवलोकन करो। अगर दुखी हो गंगा उलटी बह रही है। अगर सुखी हो तो सौभाग्य, गंगा बिलकुल सीधी बह रही है। फिर तुम किसी के चक्कर में मत पड़ना। फिर तुम किसी की शिक्षा स्वीकार मत करना। अगर तुम सुख में हो तो सावधान रहना, किसी के पीछे मत चलना, नहीं तो कोई तुम्हारी गंगा उलटी चलवा देगा। अगर तुम सुख में हो तो सुख में जीना। चाहिए ही क्या और?

अगर तुम सुख में हो तो आनंद तक पहुंच जाओगे। सुख प्रमाण है कि ठीक जगह चल रहे हैं, मंजिल आ जाएंगी। अगर तुम दुख में हो तो सुख तक ही पहुंचना मुश्किल है, आनंद तक तो कैसे पहुंचोगे?

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन लेकिन अपना अपना दामन!

फूल तो खिले हैं चारों तरफ, पर कुछ लोग हैं जिन्होंने कांटों को चुनने की आदत बना ली है। अपना- अपना दामन! जो कांटे ही चुनते हैं, फिर पीड़ित होते हैं—फिर भी कांटे चुनना जारी रखते हैं!

काफी समय हुआ, बहुत देर हो गई! काफी जन्मों तक तुम कांटे इकट्ठे किए हो। अभी भी तुम्हारी आंख में सुख का फूल खिला हुआ मालूम नहीं होता। अभी भी तुम्हारे हृदय में वह साज नहीं बज रहा है जिसे सुख का कहें!

चेतो!

बदलो! रूपांतरित होओ!

किसी और से कहने की बात नहीं है—खुद को ही समझ लेने की है।

तुम जिन्हें सत्य कहते हो, अगर वे सत्य हों तो तुम्हारा दामन फूलों से भर गया होता, क्योंकि सत्य से कभी किसी ने दुख पाया नहीं। तुम्हारी हालत ऐसी है कि जितना तुम दौड़- धूप करते हो उतने हाथ खाली होते चले जाते हैं, उतना दामन भिखारी की झोली बनता जाता है, भरता तो नहीं, उलटा खाली होता है। जिंदगीभर दौड़कर आदमी भिखारी की तरह गिरकर मर जाता है–हाथ खाली! सारी जिंदगी की चेष्टा तुम्हारी आत्मा को एक भिक्षापात्र से ज्यादा नहीं बना पाती। कहीं पहुंच नहीं पाते। शायद बचपन में कहीं थे, तो वह भी चूक गया। मंजिल के पास आना तो दूर, शायद और दूर निकल गए।

इसे थोड़ा गौर करो। इसे जांचते रहो।

एक-एक कदम महंगा है अगर गलत दिशा में उठाया जा रहा है, क्योंकि लौटना पड़ेगा। एक- एक कदम महंगा है, क्योंकि फिर पुन : यात्रा करनी पड़ेगी।

तुम्हारे जीवन में जिसे तुम सत्य कहते हो, अगर वह सत्य है तो तुम तृप्ति क्यों नहीं हो? नहीं, मैं तुमसे कहता हूं : रात तुम सोए, नींद में तुम्हें भूख लगी, तुमने एक सपना देखा कि राजमहल में निमंत्रण मिला है, तुम भोज में सम्मिलित हुए हो, तुमने खुब भरपेट भोजन किया—लेकिन सुबह, क्या तुम पाओगे, तुम्हारा पेट भरा है? या कि सुबह तुम पाओगे, कि यह तो सिर्फ रात अपनी भूख को झुठला लेने की तरकीब थी? यह सपना तो भूख को मिटानेवाला न था, भूख को छिपा लेनेवाला था। इससे भूख मिटी नहीं, इससे भूख दब गई। इससे शरीर को कोई तृप्ति और कोई पोषण तो न मिलेगा।

सपने में तुमने कितने ही अच्छे भोजन किए हों, किसी काम के नहीं—रूखी- सूखी रोटी भी शायद ज्यादा पोषक हो अगर सच्ची हो, असली हो।

तुम्हारे सपने सच नहीं हो सकते, अन्यथा तुम तृप्त होते, तुम्हारा पेट भरा होता, तुम्हारी क्षुधा शांत होती, तुम्हारे भीतर चैन की बंसी बजती—वह तो नहीं सुनाई पड़ती। तुम्हारे भीतर तो अहर्निश एक आर्त्रनाद हो रहा है, एक दुख और पीड़ा का शोरगुल मचा है। तुम्हारी वीणा से संगीत उठता नहीं मालूम पड़ता, सिर्फ व्यर्थ का कोलाहल होता हुआ मालूम होता है।

निश्चित ही, तुम जिन्हें सत्य कहते हो, वे स्वप्न हैं।

मेरे सत्य तुम्हें स्वप्न मालूम पड़ेंगे, स्वाभाविक है। लेकिन इतना मैं तुमसे कह सकता हूं : कोलाहल खो गया है। दुख बहुत दूर निकल गया है, उसकी पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती। इतना तुमसे कह सकता हूं : आनंद बरसा है। और अगर तुम समझदार हो, अगर तुममें थोड़ी भी मात्रा समझ की है, तो तुम मेरे स्वप्नों को, जो तुम्हें स्वप्न जैसे मालूम पड़ते हैं, उनको ही चुनना पसंद करोगे अपने सत्यों की बजाय, क्योंकि तुम्हारे सत्यों ने क्या दिया है? माना कि आज तुम्हें मेरे सत्य स्वप्न जैसे मालूम पड़ते होंगे, लेकिन फिर भी अगर तुम समझदार हो तो अपने सत्यों की बजाय मेरे स्वप्न चुनोगे। तुमने अगर सत्य तो बहुत चुनकर देख लिए, कहां पहुंचे? चलो, मेरे सपनों की भी परीक्षा कर लो! दो कदम मेरे साथ भी चलकर देख लो, अपने साथ चलकर तो तुमने बहुत देख लिया।

 

 

आखिरी प्रश्‍न :

 

 

भगवान! मेरे पिता जी सत्रह- अट्ठारह वर्ष की उम्र में धूनीवाले बाबा के पास अकेले गए और वहां से लौटते समय रास्ते में उन्हें कुछ अनुभव हुआ और वे विक्षिप्त हो गए। तब से आज तक वे जीवन को दो विपरीत तलों में बारी- बारी से जीते हैं—एक विक्षिप्तता का और दूसरा सामान्य समाज- स्वीकृत। जब वे विक्षिप्तता की दशा में होते हैं, तब उनका स्वास्थ्य बिलकुल ठीक होता है और वे अभय से भरे होते हैं, साधु-संतो के पास जाते हैं, तीर्थयात्रा करते हैं, चिंता- मुक्त मस्ती से जीते हैं। और जब वे सामान्य दशा में होते हैं, तब रुग्ण हो जाते हैं, भयभीत, चिंतित और गंभीर रहते हैं, और पूरे समय घर में ही बने रहते हैं। आज उनकी उम्र सत्तर वर्ष है। आप कृपाकर मुझे कहें कि इस जीवन में क्या उनकी नियति यही है, या उनके लिए भी जीवन के अंतिम चरण में नये जन्म की कोई संभावना है।

 

नरेन्द्र ने पूछा है। नरेन्द्र के पिता को मैं जानता हूं। उनकी स्थिति का मुझे पूरा-पूरा पता है। और ऐसी दुर्घटना बहुत लोगों के जीवन में घटी है। जो सौभाग्य हो सकता था वह दुर्भाग्य हो गया। समझना जरूरी है।

सत्य की दिशा में कभी-कभी किसी उपलब्ध व्यक्ति के करीब अचानक झलक मिल जाती है। उस झलक के मिलने के बाद स्वभावत: व्यक्ति में दो तल हो जाते हैं। जो झलक मिली, वह किसी और दिशा में खींचती है और उस व्यक्ति का अपना व्यक्तित्‍व किसी और दिशा में खींचता है। एक द्वंद्व उत्पन्न हो जाता है।

फिर वह जो झलक मिली, वह कुछ ऐसी मस्ती से भर देती है–लगता है कि पागलपन है।

न केवल व्यक्ति को लगता है, पागलपन है बल्कि परिवार के लोगों को, प्रियजनों को, मित्रों को, समाज को भी लगता है, पागलपन है। और जब वह व्यक्ति उस झलक से नीचे उतर आता है तो समाज को, परिवार को, मित्रों को लगता है, अब ठीक हुआ। हालत

बिलकुल उलटी है। वह जो पागलपन की दशा है, वही ठीक दशा है।

नरेन्द्र के पिता को अगर बचपन से ही, जब उनको यह घटना घटी, तभी से अगर जबरदस्ती स्वास्‍थ्य लाने की चेष्टा न की गई होती और उनकी विक्षिप्तता को एक भक्त की अहोभाव की दशा समझा गया होता, तो वे कभी के खिल गए होते। लेकिन परिवार ने, घर ने, समाज ने भी समझा कि यह पागलपन है, इसका इलाज होना चाहिए। बहुत इलाज किए गए उनके। जबरदस्ती दवाइयां दी गई उनको।

और वे भी मानते हैं कि यह पागलपन है! पागलपन जैसा लगता ही है, क्योंकि इतना अनूठा लोक शुरू होता है, खुद भी भरोसा नहीं आता। तो वे भी सा थ देते हैं इलाज में, चिकित्सा में। फिर भी जो झ लक मिली थी, वह इतनी महत्वपूर्ण थी कि लाख दवाएं भी उससे नीचे नहीं उतार पाईं, फिर- फिर पकड़ लेती हैं।

कभी उन मद भरी आंखों से पिया था इक जाम

आज तक होश नहीं, होश नहीं, होश नहीं।

फिर-फिर लौट-लौटकर वह झलक उनको पकड़ लेती हैं!

और कितना साफ मामला है अगर समझ लो! जब भी वे पागल होते हैं, तभी वे स्वस्थ होते हैं, तब उनको कोई बीमारी नहीं रह जाती, तब वे बड़े प्रसन्न होते हैं, बड़े मस्त होते हैं! मैंने उनकी मस्ती देखी है। तब वे वैसे होते हैं जैसे हर मनुष्य को होना चाहिए। तब वे गीत गाते हैं। तब सुबह से उन्हें तीन बजे गांव नदी पर स्नान करते देखा जा सकता है—गुनगुनाते, नाचते! वे प्रसन्न होते हैं। उनके सब रोग खो जाते हैं। उनके चेहरे पर रौनक आ जाती है। आंखों में एक चमक आ जाती है। तब वे तीर्थयात्रा पर निकल जाते हैं! तब संतों का सत्संग करते हैं। तब सुबह तीन बजे से भजन गाते हैं। लेकिन गांवभर उनको पागल समझता जब वे मस्त होते हैं। तब उनकी मस्ती का कोई ठिकाना नहीं होता। तब उनके प्याले से उनकी मस्ती बहती है। तब पूरा गांव उनको पागल समझता है। तब उनका इलाज शुरू हो जाता है। जब गांव उनका इलाज कर लेता है, तब वे रुग्ण हो जाते हैं, तब उनकी आंखों की चमक चली जाती है, तब उनके चेहरे की मस्ती खो जाती है, तब बड़े भयभीत हो जाते हैं, तब से घर से निकलने में डरने लगते हैं, तब वे कमजोर हो जाते हैं, रुग्ण हो जाते हैं, बिस्तर से लग जाते हैं–तब लोग कहते हैं,’’ अब ठीक हो गए! अब पागल नहीं हैं’’। अब यह मामला बिलकुल सीधा-साफ है : जब वे पागल हैं, तब वे ठीक हैं। लेकिन समाज को पागलपन लगता है, घर के लोगों को भी पागलपन लगता है। क्योंकि हम यह मान ही नहीं सकते कि कोई आदमी होश में और इतना मस्त हो सकता है। हम सब इतने रुग्ण और परेशान और दीन-हीन, और हमारे बीच अचानक एक आदमी इतनी मस्ती दिखला रहा है, जरूर दिमाग खराब हो गया है! दुखी होना हमारी कसौटी है सामान्य स्वास्थ्य की, प्रसन्नचित्त हो जाने से शक होने लगता है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं,’’ बड़ी शांति मिल रही है; लेकिन घर लौटकर जाएंगे, कुछ लोगों को ऐसा तो न लगेगा कि कुछ गड़बड़ हो गई है?’’ समाज करीब-करीब रुग्ण दशा को स्वास्थ्य मानकर जी रहा है। इसलिए जब तुम्हारे भीतर कोई मस्त हो जाता है तो मुश्किल मालूम होती है।

महावीर मस्त हो गए, तो लोगों ने गांव से निकाल भगाया। महावीर मस्ती में नग्न घूमने लगे, तो लोगों ने गांव में न घुसने दिया। मीरा मस्त हो गई तो प्रियजनों ने जहर भिजवाया कि मर जाए; क्योंकि उसकी मस्ती सारे घर के ऊपर बोझ हो गई; उसकी मस्ती पागलपन हो गई। लोक-लाज छोड़ दी उसने। जो कभी घर से न निकली थी, घूंघट के बाहर न आई थी, वह बाजारों में नाचने लगी। वह आवारा हो गई!

मीर दीवानी हुई; लेकिन उसकी दीवानगी परम स्वास्थ्य है!

यही झंझट नरेन्द्र के पिता के साथ हो गई। अभी भी उपाय है–अगर उनके पागलपन को स्वास्थ्य मान लिया जाए और उनका इलाज न किया जाए, और जब वे पागल हो जाएं तो सार घर उत्सव मनाए और उनके पागलपन में सम्मिलित हो जाए, और उनको आश्वासन दे कि तुम बिलकुल ठीक हो। उनके मन से यह भांति टूट जाए कि मैं गलत हूं, तो उनके भीतर का जो द्वैत पैदा हो गया है, वह विसर्जित हो जाएगा।

वे जिनके पास गए थे–धूनीवाले बाबा–वे एक परमहंस व्यक्ति थे। उनके पास घटना घट गई होगी। वे एक महानुभाव थे। उनकी छाया में कोई बात पकड़ गई होगी। फिर भूले नहीं भूली वह मस्ती, फिर गई नहीं। फिर जमाने बीत गए, पचास साल हो गए उस बात को। लेकिन अगर शुभ की एक झलक मिल जाए तो घेर-घेर लेती है, बार-बार घेर लेती है।

सौभाग्य का क्षण आया था, उसे हमने बदल दिया, रूपांतरित कर दिया, उसे दुर्भाग्य बना दिया।

हुदूदे-कूचा-ए-महबूब है वहीं से शुरू

जहां से पड़ने लगें पांव डगमगाए हुए।

परमात्मा का घर वहीं से पास है, प्रेमी का घर आने लगा करीब—”हुदूदे कूचा-ए-महबूब है वहीं से शुरू’’-उस प्यारे के घर की सीमाएं पास आने लगीं,’’ जहां से पड़ने लगें पांव डगमगाए हुए’’–जहां से मस्ती आने लगे, शराब का नशा छाने लगे–पास है उसका घर।

वे उस घर बहुत पास होकर लौट आए हैं। वे भूलते भी नहीं—भूल भी नहीं सकते। उनका कोई कसूर भी नहीं है। लेकिन समाज नासमझ है, समाज के मूल्य गलत हैं। वे परमहंस हो गए होते, वे पागल होकर रह गए हैं।

उनके बस के बाहर है कि वे उसको भूल जाएं, और हम उन्हें साथ न दे सके कि वे इसको भूल जाते जिसको हम स्वास्थ कहते हैं। उसे तो भूल ही नहीं सकते थे। पचास साल बहुत लंबा वक्त होता है। हर कोशिश की है उन्होंने। खुद भी कोशिश की है। लेकिन मामला कुछ ऐसा है–

वो जो एक रटते-मुहब्बत है मिटाना उसका मेरी ताकत में नहीं, आपकी कुदरत में नहीं।

वह जो प्रेम का एक संबंध है, वह जो एक अहोभाव है, वह जो एक घड़ी है, वह आदमी की ताकत में नहीं कि उसको मिटा दे, अगर हो जाए, और परमात्मा के स्वभाव में नहीं कि उसको मिटा दे।

मेरी ताकत में नहीं, आपकी कुदरत में नहीं।

उनके ’’पागलपन’’ को पागलपन कहने में भूल हो गई है। अभी भी कुछ बात नहीं बिगड़ गई है। अभी भी काश, उन्हें स्वीकार किया जा सके! न केवल स्वीकार, बल्कि अहोभाव से, धन्यभाव से, उनसे कहा जो सके कि हमसे भूल हो गई। अगर परिवार उनसे कह दे कि’’ हमसे भूल हो गई और हम व्यर्थ ही तुम्हें खींचते रहे, वह हमारी गलती थी, हमारी नासमझी थी; हम समझ न पाए कि क्या तुम्हें हुआ है, तुमने कौन सा झरोखा खोल लिया! हम अंधे हैं। और हमने तुम्हें अपनी तरफ खींचने की कोशिश की। उस खींचतान में सब टूट गया। न तुम वहां जा पाए, न तुम वहां के हो पाए। यहां के तुम हो नहीं सकते, वह तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर है’’ ।

जिसकी आंख उस पर पड़ गई, वह लौट नहीं सकता; हां, खींचतान में दुर्दशा हो जाएगी। वही दुर्दशा उनकी हो गई है। उन्हें स्वीकृति चाहिए–सम्मानपूर्वक स्वीकृति चाहिए, ताकि उनके भीतर का भी भाव यह हो जाए कि ठीक हुआ है।

ध्यान रखना, आज की दुनिया में ऐसे बहुत से पागल पागलखानों में बंद है जो आज से हजार साल पहले अगर होते तो परमहंस हो गए होते; और ऐसे भी हुआ है कि आज से हजार साल पहले ऐसे बहुत से पागल परमहंस समझे गए, जो आज होते तो पागलखानों में होते। समाज के मापदण्ड पर बहुत कुछ निर्भर करता है।

 

परमहंस में बहुत कुछ पागल जैसा होता है। पागल में भी बहुत कुछ परमहंस जैस होता है। भेद करना बड़ा मुश्किल है, बड़ा बारीक है। पर अगर भेद न हो सके तो भी मेरा मानना यह है कि पागल को भी परमहंस कहो, हर्जा नहीं है; लेकिन परमहंस को पागल मत कहना। मेरी बात समझ में आई? अगर भेद न भी हो सके, अगर मनस-शास्त्री तय भी न कर पाएं कि सीमा-रेखा कहां है, तो तुम पागल को भी परमहंस कहना, क्या हर्ज है? तुम्हारे परमहंस कहने से वह कुछ ज्यादा पागल न हो जाएगा। लेकिन परमहंस को पागल कभी मत कहना, क्योंकि पागल कहने से, वह जो जहां जा रहा था, जा न पाएगा। और यहां तो अब हो नहीं सकता; वह आधा-आधा हो जाएगा, द्वंद्व हो जाएगा।

 

एक दुर्भाग्य हो गया जो सौभाग्य हो सकता था। अभी भी लेकिन दूर समय नहीं गया है। कभी भी इतनी देर नहीं होती। जब जाग जाओ तभी सुबह है!

 

 

आज इतना ही।

 

 

 

 

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–13

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शून्‍य का संगीत है प्रेमाभक्तितेहरवां प्रवचन

 दिनांक 13 मार्च,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

 सूत्र :

अनिर्वचनीश प्रेमस्वरूपम्

मूकास्वादमवत्

प्रकाशते क्वापि पात्रे

गुणरहित सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्

तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति

भाषयति तदेव चिन्तयति

गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा

उत्तरस्मांदुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति

अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम।

 

प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है–जो कहा न जा सके–जीया जा सके, भोगा जा सके, अनुभव किया जा सके–पर कहा न जा सके।

लहर सागर में है सागर भी लहर में है। लेकिन लहर पूरी की पूरी सागर में है; पूरा का पूरा सागर लहर में नहीं है।

अनुभव सागर जैस है; अभिव्यक्ति लहर जैसी है।. ..थोड़ी सी खबर लाती है, पर बहुत, अनंतगुना पीछे छूट जाता है; जरा सी झलक लाती है, लेकिन बहुत शेष रह जाता है।

शब्द शून्‍य को बांध नहीं पाते–बांध नहीं सकते। शब्द तो छोटे-छोटे आंगनों जैसे हैं। अनुभव का, शून्‍य का, प्रेम का, परमात्मा का आकाश असीम है। यद्यपि आंगन में भी वही आकाश झांकता है, लेकिन आंगन को आकाश मत समझ लेना, अन्यथा कारागृह में पड़ जाओगे। जिसने आंगन को आकाश समझा, उसका दुर्भाग्य, क्योंकि फिर आंगन में ही जीने लगेगा। आंगन से आकाश बहुत बड़ा है। आंगन से स्वाद ले लेना, लेकिन तृप्त मत हो जाना।

शब्द से अनुभव का आकाश बहुत बड़ा है। शब्द से यात्रा शुरू हो, लेकिन शब्द पर यात्रा पूरी न हो जाए। कहीं शब्द को ही सब मत समझ लेना। शब्द में इंगित हैं, इशारे हैं; जैसे राह के किनारे मील के पत्थर हैं, तीर लगे हैं–आगे की तरफ सूचना है। मील के पत्थर को मंजिल मत समझ लेना। सभी शब्द चाहे वेद के हों, चाहे कुरान के, चाहे बाइबिल के–शब्द मात्र सीमित हैं, और प्रेम का अनुभव विराट है।

इसलिए पहला सूत्र है आज का, बहुत अनूठा:’’ अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम्’’ !

‘’उस प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है।’’

उसकी व्याख्या हो सके, अभिव्यक्ति न हा सके। ऐसा नहीं कि जिन्होंने जाना, नहीं कहा है; खूब कहा है, बार-बार कहा है, हजार बार कहा है; फिर भी अनुभव किया है, जो कहना चाहते थे, वही नहीं कहा जा पाया है। जो कहा है, बहुत छोटा है; जो कहना चाहते थे, बहुत बड़ा है।

रवींद्रनाथ मरणशैया पर थे। एक मित्र ने कहा,’’ तुम धन्यभागी हो, तुम्हें जो गाना था गा लिया, कहना था कह लिया। तुमने छह हजार गीत रचे हैं। तुम महाकवि हो। तुम तो शांति से, तृप्ति से मृत्यु में विदा हो सकते हो”! रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा,’’ तृप्ति। तृप्ति कैसी; जो कहना चाहता था, अभी भी अनकहा रह गया है; जो गाना चाहता था अभी गा कहां पाया। यही परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि यह तूने क्या किया। कैसे असमय में उठा रहा है मुझे। अभी तो वाद्य बिठा पाया था, साज जमा पाया था। अभी तो गीत जो गाना था, अनगाया रह गया है। अभी फूल खिले नहीं, अभी तो सिर्फ भूमि तैयार हुई थी। बाहर के लोगों ने तो यही समझ लिया कि वाद्य का बिठाना, तबले की ठोंक-पीट, सितार के तारों का जमाना, यही संगीत है’’ ।

अगर कोई कवि कहता हो कि जो गाना था गा लिया है तो समझना कवि छोटा है; गाने को बहुत कुछ होगी ही न, इसलिए गा लिया। अगर कोई चित्रकार कहे कि जो चित्रित करना था कर लिया है, तो समझना कि चित्रित करने को कुछ बहुत ज्यादा न रहा होगा; आंगन ही बनाना था, आकाश नहीं।

सिर्फ छोटे क्षुद्र अनुभव ही प्रगट होते हैं। जितना विराट अनुभव हो, उतना ही अप्रगट रह जाता है; जितना हो विराट, उतना ही अनिर्वचनीय हो जाता है। अनिर्वचनीयता विरटता के अनुपात में होती है।

इसलिए बुद्ध ने कहा है कि’’ तुम सोचते हो, मैं बोला; बोलने की कोशिश की–बोला कहां’’ ! बुद्ध के भक्त–जापान में कहते हैं झेन फकीर–कि बुद्ध बोले ही नहीं। और बुद्ध बोले ही नहीं। और बुद्ध चालिस साल निरंतर बोले।

यही मैं तुमसे कहता हूं,’’ रोज तुम मुझे सुनते हो, मैं बोला नहीं। जो बोलना है, बोला नहीं जा सकता। अनिर्वचतीय है। जो बोल रहा हूं, वह वही है जो बोला जा सकता है; वह वही नहीं है जो मैं बोलना चाहता हूं। मेरे बोलने को तुम मेरी आकांक्षा, अभीप्सा, अभिलाषा मत समझ लेना। मेरा बोलना शब्द की सीमा में है–होगा ही; कोई उपाय नहीं है”।

शून्‍य का संगीत बजाना हो तो वीणा के तार कैसे उठाओगे; तार को ध्वनि करेगा। शून्‍य तो ध्वनि में खो जाएगा। शून्‍य का संगीत उठाना हो तो वीणा तोड़ देनी पड़ेगी। शून्‍य का संगीत उठाना हो तो वीणा को अनुपस्थित हो जाना पड़ेगा। वीणा की मौजूदगी भी बाधा होगी। मौन से ही कहा जा सकता है जो कहना है। लेकिन मौन तुम न समझ सकोगे।

प्रेम अनिर्वचनीय है। लेकिन प्रेम को जो समझना चाहते हैं, शब्द के अतिरिक्त उनके पास कोई और समझ नहीं; इसलिए प्रेम पर भी बोलना होता है।

शून्‍य नहीं होता परिभाषित

रहता मात्र नयन में

मन्वंतर संवत्सर वत्सर

कब बंधते लघु क्षण में?

रहते सभी अनाम, न कोई

कभी पुकारा जाता

रहा जाती अभिव्यक्ति अधूरी

जीवन-शिशु तुतलाता!

सब बोलना तुतलाने जैसा है। बुद्धों के वचन भी तोतले हैं, तुतलाने जैसे हैं। जैसे छोटा बच्चा कुछ कहना चाहता है, बड़े भाव से भरा है, पर शब्‍द नहीं है। शब्‍दों की भी कुछ खोज- बीन कर ले थोड़ी-बहुत, तो बड़े थोड़े से शब्‍द हैं। कहना चाहता है बड़ी बातें, लेकिन एक ही शब्‍द जानता है : ‘’ मां’’ !’’ मां’’ ! उसी से सब कहना है। भूख लगे तो मां- मां, प्यास लगे तो मां- मां, धूप लगे तो मां- मां, शीत लगे तो मां- मां। एक ही शब्‍द है, उसी से सब कहना है। शब्‍द बड़े थोड़े हैं, कहने को बड़ा विराट है। और प्रेम विराट से भी विराटतर है। प्रेम महाशून्य है। प्रेम का अर्थ ही है, जहां तुम मिट जाओ, जहां तुम्हारी खबर न मिले, ऐसी जगह आ जाओ जहां अपने को भी खोजने से खोज न सको।

प्रेम का अर्थ है, जहां तुम मिट जाओ। प्रेम महामृत्यु है। तुम जहां शून्य हो जाते हो वहीं परमात्मा प्रगट होता है, अपने अनंत रूपों में। जहां तुम खो जाते हो, वहीं उसकी वीणा बज उठती है, अनंत स्वर- संगीत तुम्हें घेर लेते हैं। लेकिन तुम बचते नहीं, कहनेवाला नहीं बचता। पहली बात : भाषा छोटी है, संकुचित—थोड़े से शब्‍द, बच्चे के तुतलाने जैसे। फिर दूसरी बात : प्रेम को जानने वाला, जानने में खो जाता है, पिघल जाता है, बह जाता है, बोलनेवाला बचता नहीं। जब बोलने योग्य कुछ होता है जीवन में तो बोलनेवाला नहीं बचता। जब तक बोलने वाला होता है जीवन में तो कुछ बोलने योग्य नहीं होता।

तुम कितना बोलते हो! कभी सोचा? सुबह से सांझ तक बोलते ही रहते हो। कभी विचारा, बोलने को क्या है? रात नींद में भी बड़बड़ाते हो, बोले ही चले जाते हो। कभी ठहरो! क्षणभर को ठिठको! कभी रुककर सोचो! लौटकर देखो, बोलने को क्या है? बोलने को कुछ भी नहीं। मगर बोल- बोलकर ऐसा आभास कर लेते हो कि जैसे बोलने को बहुत कुछ था। कहानी कह-कहकर आभास कर लेते हो कि कहने का कहानी थी। ऐसे झूठी संपदा का भ्रम पैदा होता है। गा-गाकर समझा लेते हो कि गीत पैदा हुआ था, गायक का जन्म हुआ था। बिना जाने, स्वरताल का कोई अनुभव नहीं, लेकिन ठोंकते- पीटते रहते हो वीणा को, शोरगुल होता है। निश्चित ही, उसी शोरगुल को संगीत समझ लेते हो। जब संगीत पैदा होता है तो हा थ रुकने लगते हैं, वीणा छेड़ने में भी डरते हैं।

जितनी होती है गहरी समझ, उतना ही मौन प्रगाढ़ होने लगता है। फिर अगर तुम बोलते भी हो, जानकर बोलते हो, मजबूरी है, दूसरा समझ न सकेगा मौन को, इसलिए मुखर

होते हो। लेकिन एक क्षण को भी यह बात विस्मरण नहीं होती कि जो पाया है वह कहा न जा सकेगा। क्योंकि कहनेवाला भी शेष नहीं रहा उसी पाने में; उसे भी, उसी पाने में उसे दे डाला है। उसे देकर ही पाया है।

“शून्‍य नहीं होता परिभाषित!

और प्रेम शून्‍य है, महाशून्‍य है’’ ।

दो तरह के शून्‍य हैं। एक तो गणित का शून्‍य है; वह किताबों में, कागजों पर, स्लेट- पट्टियों पर होता है। आदमी न हो तो गणित का शून्‍य मिट जाएगा, क्योंकि आदमी न हो तो गणित न होगा। गणित का शून्‍य भी बड़ा बहुमूल्य है। एक के ऊपर रख दो, दस बन जाते हैं। दस के ऊपर रख दो, सौ बन जाते हैं। उस शून्‍य से सारा गणित निकलता है। सारा गणित शून्‍य का ही फैलाव है। लेकिन वह शून्‍य खो जाएगा; वह मनुष्य निर्मित शून्‍य है। गणित का शून्‍य   असली शून्‍य नहीं है; आदमी न होगा, खो जाएगा। लेकिन एक और शून्य भी है–असली शून्‍य–प्रेम का; आदमी हो या न हो, रहेगा।

जब दो पक्षी भी प्रेम में पड़ते हैं, तो उसी शून्‍य में उतर जाते हैं। जब धरती-आकाश प्रेम में डूबते हैं तो उसी शून्‍य में उतर जात हैं। जब दो पौधे लहराते हैं प्रेम की तरंग, तो उसी शून्‍य   में उतर जाते हैं।

प्रेम का शून्‍य जीवन का शून्‍य है। गणित का शून्‍य तो नकारात्मक भाव रखता है। गणित के शून्‍य का अर्थ होता है, जहां कुछ भी नहीं, खाली; यद्यपि उस खाली से सारे गणित का खेल चलता है। तुम शून्‍य को हटा लो गणित से, आंकड़े रह जाएंगे, लेकिन गणित खो जाएगा। सारा विस्तार उसी ना-कुछ का है। लेकिन प्रेम का शून्‍य तो विधायक शून्‍य है। जैसे गणित का सारा विस्तार गणित के शून्‍य का है, ऐसे ही जीवन का सारा विस्तार प्रेम के शून्‍य का है।

तुम पैदा हुए हो–प्रेम की किसी ऊर्जा से। सारे जगत का खेल चलता है–प्रेम की ऊर्जा से। अब तो वैज्ञानिकों को भी शक होने लगा है कि शायद जिसे वे गुरुत्वाकर्षण कहते हैं पृथ्वी का, वह पृथ्वी का प्रेम हो! और जिसे वे ऋण और धन विद्युत का आकर्षण कहते हैं, वह शायद विद्युतीय प्रेम हो! शायद जिसे वे तारों के बीच का संबंध और जोड़ कहते हैं, वह भी चुंबकीय प्रेम हो! शायद अणु-परमाणु जिससे गुंथे हैं–टूटकर छितर नहीं जाते, वह भी प्रेम की ही गांठ हो, वह भी प्रेम का ही गठबंधन हो! होना भी चाहिए, क्योंकि आदमी कुछ अलग-थलग तो नहीं। आया है इसी विराट से, जाएगा, इसी विराट में। जहां से आदमी आता है, वहीं से पौधे आते हैं, वहीं से पत्थर आते हैं। जरूर कोई चीज तो समान होनी ही चाहिए। स्रोत समान है तो कुछ चीज तो समान होनी ही चाहिए। तभी तो तुम पत्थर के पास बैठकर भी अजनबी अनुभव नहीं करते। वृक्ष के पास बैठकर भी अपनापन अनुभव करते हो। सागर भी बुलाता है। हिमालय से भी बात हो जाती है। आकाश को देखते हो तो भी संबंध बनता है, परिवार मालूम होता है।

अस्तित्व परिवार है। और अगर परिवार को तुम समझो, तो परिवार को जोड़नेवाला सेतु और धागे का नाम ही प्रेम है।

इसलिए जीसस का वचन अनूठा है, जब जीसस ने कहा: परमात्मा प्रेम है। जीसस ने यह कहा कि परमात्मा को छोड़ दो तो भी चलेगा, प्रेम को मत छोड़ देना। परमात्मा को भूल जाओ, कुछ हर्जा न होगा; प्रेम को मत भूल जाना। प्रेम है तो परमात्मा हो ही जाएगा। और अगर प्रेम नहीं है तो परमात्मा पत्थर की तरह मंदिरों में पड़ा रह जाएगा, मुर्दा, लाश होगी उसकी, उससे जीवन खो जाएगा।

भक्ति का सारा सूत्र प्रेम है। और प्रेम से सब निकला है–पदार्थ ही नहीं, परमात्मा भी। परमात्मा प्रेम की आत्यंतिक नियति है–अंतिम खिलावट! आखिरी ऊंचाई! संगीत की आखिरी छलांग! परमात्मा प्रेम का ही सघन रूप है। प्रेम को समझा तो परमात्मा को समझा। प्रेम को न समझ पाए तो परमात्मा से चूक हो जाएगी।

इसलिए भक्ति का शास्त्र बड़ा अनूठा है। भक्ति का शास्त्र संसार के विरोध में नहीं है। भक्ति का शास्त्र कहता है, संसार में प्रेम को खोजना, क्योंकि उन्हीं चरणचिह्नों के सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच पाओगे।

हां, एक दृष्टि का रूपांतरण चाहिए। अपने बेटे को प्रेम करना, अपने बेटे की तरह नहीं। वहीं भूल हो जाती है। अपने बेटे को भी प्रेम करना–परमात्मा के एक रूप की तरह। वहीं भूल मिट जाती है। वहीं उलझन छूट जाती है। प्रेम जिसको भी करना, उसमें परमात्मा देखना। और प्रेम से शरुआत होती है। प्रेम के अभाव में, परमात्मा कोरी लफ्फाजी है, शाब्दिक जाल है, तर्क का ऊहापोह है, वाद-विवाद है–सार कुछ भी नहीं।

इसलिए तुम पाओगे बहुतों को, पंडितों को, परमात्मा की चर्चा करते; लेकिन अगर उनकी आंख में तुम्हें प्रेम की किरण न मिले तो समझ लेना, सब धोखा है, सब पाखंड है। प्रेम की किरण हो आंख में तो चर्चा कोई भी चलती हो, परमात्मा की ही चर्चा है। चाहे कोई यह भी कहता हो कि परमात्मा नहीं है–जैसे बुद्ध ने कहा,’’ कोई परमात्मा नहीं’’ –लेकिन बुद्ध धोखा थोड़े दे पाएंगे। किसको धोखा देने का सोचा है बुद्ध ने। बुद्ध पड़ जाएं धोखे में, पड़ जाएं; बाकी, कोई जाननेवाला क्या धोखे में पड़ेगा! बुद्ध की आंख कहती है जो बुद्ध के वचन इनकार करते हों। और बुद्ध शायद इसीलिए इनकार कर रहे हैं कि मुंह से कहने से क्या होगा, अगर आंख में तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता! और आंख में दिखाई पड़ता हो तो मुंह कुछ भी कहता हो, तुम देख ही लोगे।

वह शायद कसौटी थी। वह शायद, जो उनके पास आते थे, उनकी परीक्षा थी। जो परीक्षा में पर उतर गए, उन्होंने बुद्ध के द्वार से–उस गुरुद्वारे में–सब कुछ पा लिया। स्वभावत: बुद्ध कहते रहे कि भगवान नहीं है, और जिन्होंने बुद्ध को जाना, उन्होंने कहा,’’ तुम भगवान हो’’ ! धोखा किसे दे सकते हो?

शून्‍य नहीं होता परिभाषित

रहता मात्र नयन में मन्वंतर संवत्सर, वत्सर

कब बंधते लघु क्षण में ,

रहते सभी अनाम,

न कोई कभी पुकारा जाता

रह जाती अभिव्यक्ति अधूरी

जीवन-शिशु तुतलाता!

हमारे श्रेष्ठतम व्याख्याकार भी तुतला रहे हैं। हमारे श्रेष्ठतम दार्शनिक और मनीषि भी तुतला रहे हैं। मगर उनकी करुणा है कि उसे कहने की कोशिश करते हैं, जो नहीं कहा जा सकता। और तुम्हारी भूल होगी कि उन्होंने जो कहा है, तुम उसे वही समझ लो कि वही सत्य है। उनकी करुणा है, इसलिए कहते हैं, तुम्हारा अज्ञान होगा अगर तुम उसे पकड़ लो।

जिन्होंने वेद की ऋचाएं गाईं, उनकी महाकरुणा है, वे न गाते तो मनुष्यता वंचित रह जाती, वे न गाते तो मनुष्य दरिद्र होता, वे न गाते तो मनुष्य की चेतना इतनी समृद्ध न होती जितनी आज है। लेकिन तुम्हारी भूल होगी कि तुम उन ऋचाओं को पकड़कर बैठ जाओ और तुम समझो कि ऋचाओं में सत्य है या कि ऋचाएं सत्य हैं।

इसलिए तो नारद ने कहा : भक्त सर्वथा वेद का त्याग कर देता है। वेद से मतलब सिर्फ चार वेदों से नहीं है। वेद से मतलब उन सभी शास्त्रों का है जिनमें महाकरुणावान पुरुषों ने अपने अनुभव को परिभाषित करने की असफल चेष्टा की है। असफल इसलिए भी हो जाती है चेष्टा कि जब तुम परमात्मा से के पास पहुंचते हो–तुमने जो मांगा था उससे अनंतगुना मिलना शुरू होता है, तुम्हारी झोली छोटी पड़ जाती है।

एक रूप मांगा था, तुमने

यह सारा संसार दे दिया!

छोटी-सी पुतली के पट पर

किस-किस का प्रतिबिंब उतारू

भीड़ खड़ी है सन्मुख मेरे

किसे छोड़ दूं र किसे पुकारूं

एक कली मांगी थी,

तुमने अपना हार उतार दे दिया!

एक राग मांगा था,

तुमने अपना उठा सितार दे दिया!

एक रंग मांगा था,

तुमने सुरधनु का उपहार दे दिया!

झोली छोटी पड़ जाती है। मांगनेवाले का हृदय छोटा पड़ जाता है। जैसे बूंद में सागर उतर आए, तो जो दशा बूंद की हो जाए, वही भक्त की हो जाती है।

“अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम्!”

प्रेम का स्वरूप व्याख्या के, वर्चन के बाहर है।

’’प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है’’ ।

अनिर्वचनीयता बहुरंगी है, बहुमुखी है, बहुआयामी है। परमात्मा का जब उदघोष होता है तो तुम सुनते हो, परमात्मा बोलता नहीं। तुम भर जाते हो संगीत से, और उसकी वीणा मौन रही आती है। रहस्यपूर्ण है अनुभव।

कभी- कभी तुम्हें अनुभव होगा किसी’’ महानुभाव’’ की छाया में : सदगुरु चुप होगा और अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम भरने लगे, उसने कुछ दिया नहीं प्रगट, अप्रगट में कुछ उंडेल आया, उसने कुछ तुम्हारे हाथों में दिया नहीं—सीधा- साफ, रूपरेखा में आबद्ध—और तुम्हारे हाथ अचानक भर गए।

परमात्मा प्रसाद देता नहीं—तुम्हें मिलता है। दे, तो प्रगट करना आसान हो जाए। बिना दिए मिलता है। बोले, सुना हो, तो दूसरे को भी सुनाना आसान हो जाए।

शून्‍य   से आती है—प्रतीति, अहसास, लहर! मस्ती की तरह तुम्हें घेर लेता है! शब्‍दों की तरह नहीं, शास्‍त्रों की तरह नहीं—शराब की तरह तुम्हें भर देता है। तुम तुम नहीं रह जाते, सब कुछ बदल जाता है, लेकिन कोई हा थ देते हुए मालूम नहीं पड़ते, कोई वीणा बोलती हुई मालूम नहीं पड़ती। सुना जाता है, इलहाम होता है, उदघोषणा होती है। स्रोत का पता नहीं चलता।

तुम चकित, अवाक, रहसपूरित रह जाते हो। उस घड़ी में, हृदय भी रुक जाता है, मन की तो बात ही न करो। विचार ठिठक जाते हैं। सोच- विचार की सारी क्षमता खो जाती है। तुम पहली दफा निर्बोध शिशु की भांति हो जाते हो! कोरे कागज! गोशे- मुS ताक की क्या बात है अल्लाह अल्लाह

सुन रहा हूं में वो नग्मा जो अभी साज में हैं। उत्कंठित कानों की क्या बात कहें! वह गीत जो अभी गाय नहीं गया, जो फूल अभी फूला नहीं, जो बीज अभी टूटा नहीं…।

“सुन रहा हूं मैं वो नग्मा जो अभी साज में है’’ ! अभी साज के बाहर नहीं आया, अभी रूप नहीं लिया—अरूप, मौन! देख रहा हूं उसे जिसने अभी आकार नहीं लिया! मिलन हो रहा है उससे जो अभी जन्मा नहीं। फिर कैसे अभिव्यक्ति होगी, फिर कैसे अभिव्यंजना होगी ,

“अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम्!’’

“गूंगे के स्वाद की तरह!’’

‘’ मूकास्वादमवत्’’ ।

नारद के इस सूत्र को फिर भक्त हजारों तरह से गाते रहे हैं। कबीर कहते हैं : गूंगे केरी सरकस!’’ गूंगे का गुड’’ तो लोकाक्ति बन गया। मगर जन्म हुआ है इसी सूत्र से।

“मूकास्वादमवत्! गूंगे के स्वाद की तरह’’ !

गूंगे के स्वाद को समझें।

गूंगे को कोई अड़चन स्वाद लेने में नहीं है–स्वाद की पूछना मत। स्वाद लेने में गूंगा उतना ही समर्थ है, जितना कोई और, क्योंकि स्वाद की इंद्रिय गूंगे के पास उतनी ही है जितनी तुम्हारे पास! इंद्रिय एक ही है स्वाद की और वाणी की–जिह्वा। इसलिए यह सूत्र पैदा हुआ। जीभ ही स्वाद लेती है, जीभ ही बोलती है। अब सवाल यह है : जब जीभ ही स्वाद लेती है तो बोलने में दिक्कत क्या? जीभ ने ही स्वाद लिया है, बोल दे। किसी और ने लिया होता और हम जीभ से पूछते तो अड़चन हो सकती थी। अब जब तुमने ही स्वाद लिया है तो बोल दो। इसलिए यह सूत्र पैदा हुआ, कि माना, जीभ स्वाद लेती है, लेकिन जीभ के पास दो क्षमताएं अलग-अलग हैं। इसलिए गूंगा बोल तो नहीं सकता, स्वाद तो ले सकता है। इसलिए बोलने की क्षमता और स्वाद की क्षमता को एक मत मानना, वे अलग-अलग हैं। गूंगा बोल नहीं सकता, स्वाद ले सकताहै। तुम बोल भी सकते हो, स्वाद भी ले सकते हो, एक ही जीभ से दोनों काम होते हैं, लेकिन दोनों का कहीं मिलन नहीं होता। नहीं तो गूंगा भी स्वाद न ले सकता। अगर बोलने के कारण गूंगे की जीभ खराब हो गई है, बोल नहीं सकता, तो स्वाद कैसे होगा? पर स्वाद तो बड़े मजे से लेता है। संभावना इस बात की है कि गूंगा तुमसे ज्यादा बेहतर स्वाद लेता हो, क्योंकि बोलने की भी अड़चन वहां नहीं है, वहां उसकी जीभ पूरी की पूरी मुक्त है।

“गूंगे के स्वाद की भांति’’ ।

भक्त अनुभव तो करता है, बोल नहीं पाता। तार्किक पूछते हैं, जब तुम्हें ही अनुभव हुआ है तो बोल क्यों नहीं देते हो?

पश्‍चिम के एक वर्तमान विचारक हैं आर्थर कोएस्लर। सदियों से जो तर्क दोहराया गया है, वही वे आज भी दोहराते हैं। वे यही कहते हैं बार-बार कि जो अनुभव किया जा सकता है, वह बोला क्यों नहीं जा सकता; जब तुमने जान लिया तो जना दो। आखिर अड़चन क्या है? उनका कहने का अर्थ यह है, समस्त तार्किकों के कहने का अर्थ यह है कि संतों को कुछ हुआ नहीं, व्यर्थ ही बकवास है; चूंकि हुआ नहीं है, इसलिए कह नहीं सकते। मगर कहते यह हैं कि हुआ बहुत बड़ा है और कह नहीं पा रहे हैं। हुआ ही नहीं है कुछ।

तार्किक यह कहता है जो हुआ है, उसे कहोगे क्यों न; सिर में दर्द होता है, पता चलता है तो तुम कह देते हो कि कांटे की पीडा है। खुशी होती है, हृदय उत्फुल्ल होता है तो तुम कह देते हो, प्रसन्न हैं, खुश हैं, बहुत आनंदित हैं। तुम सभी बातें कह देते हो जो तुम जान पाते हो; यह परमात्मा की बात के संबंध में गूंगे क्यों हो जाते हो; कहीं ऐसा तो नहीं कि धोखा दे रहे हो; जब सभी और ज्ञान अभिव्यक्त हो जाते हैं, तो यही ज्ञान अनभिव्यक्त क्यों रह जाता है; यह ज्ञान ही न होगा; या तो तुम धोखा दे रहे हो या खुद धोखे में पड़े हो। तार्किक का यह प्रश्र है।

नारद का उत्तर है मूकास्वादमवत्। वे यह कहते हैं, क्या तुम यह कहोगे कि गूंगा बोल नहीं सकता, इसलिए मिठाई खाए तो मिठास नहीं जानता। यह तो मानना पड़ेगा कि मिठास तो

जानता है। तुम गूंगे के चेहरे को देखकर कह सकते हो जब वह मिठाई खा रहा है। फिर मिर्च खिलाकर देख लो! बिना बोले गालियां देगा। आंख में पढ़ी जा सकेंगी। बडबडाएगा, बोल न सकेगा। मगर सब तरह से कह देगा कि दोस्ती खत्म!

बोल तो नहीं सकता गूंगा, यह साफ है, लेकिन समझ लेता है। मिर्च का धोखा न दे पाओगे। मिठाई दोगे तो मिठास होगी, मिर्च दोगे तो तिक्त…उत्तेजना होगी, पीड़ा होगी! पर गूंगा बोल नहीं सकता। इशारे करेगा। प्यास लगती है तो गूंगा अंजलि बढ़ा देगा दोनों हाथों की। प्यास का तो अनु भव हो रहा है, लेकिन प्यास को वह क ह नहीं पाता है। हा थ बढ़ाता है, अंजलि भरता है। फिर जब तुम पानी दे दोगे तो तुम तृप्ति भी लिखी हुई उसके चेहरे पर देखोगे—धन्यवाद भी!

तो जब गूंगे के जीवन में ऐसा हो जाता है, तो जिस बात की सुवि धा तुम गूंगे को देते हो, कम से कम उतनी सुवि धा तो संतों को दे दो—इतनी ही नारद कहते हैं। इतना तो तुम गूंगे को भी क्षमा कर देते हो, भक्तों को इतनी तो क्षमा कर दो। इतना तो संदेह मत करो कि इनको हुआ ही न होगा, इसलिए कह नहीं पाते हैं।

फिर एकाध भक्त की बात होती कि धोखा दे रहा था तो भी ठीक था, अनंत काल में अनंत भक्त हुए हैं, सभी धोखा दे रहे थे? तुम्हारी गालियां खाने को? सूली चढ़ाई जाए, जहर पिलाया जाए, पत्थर मारे जाएं—इसलिए? तुमसे मिला क्या है? धोखा आदमी देता है वहां जहां कुछ मिलता हो। जीसस सको मिला क्या? सूली मिली। सूली पाने को तुम्हें धोखा दे रहे थे ,     सुकरात को मिला क्या? जहर मिला। जहर पीने के लिए तुम्हें धोखा दे रहे थे? मैसूर को मिला क्या? फांसी मिली। फांसी पाने के लिए तुम्हें धोखा दे रहे थे? आत्महत्या ही कर ली होती, तुम्हें इतना कष्ट देने की क्या जरूरत थी? तुमने दिया क्या है भक्तों को जो तुम्हें धोखा दे? धोखा तो बाजार में चलता है जहां कुछ मिलने की आशा हो।

परमात्मा… उस परम का गुह्य अनु भव! पीड़ा भला लाता हो, संसारी की नजरों में यह खयाल भला लाता हो कि तुम पागल हुए, उन्मत्त हुए, तुमने होश गंवाया, समझ खोई, लोक- लाज खोई—और तो क्या मिलता है? निंदा मिलती हो, उपेक्षा मिलती हो, लोगों की हंसी मिलती हो, मसखरे मिलते हों—और क्या मिलता है? धोखा किसलिए? फिर एकाध कोई धोखा देता…। निरपवाद रूप से असंख्य काल में, असंख्य लोगों ने धोखा दिया है? फिर से सोचो। फिर ऐसा करो… कोएस्लर को उसके ही अनुभव से समझाना उचित है।

किसी से प्रेम हो जाता है, तब तुम ठीक- ठीक बता पाओगे किसलिए हो गया? क्या तुम ठीक- ठीक बता पाओगे, प्रेम क्या है? छोड़ो परमात्मा को, प्रेम तो सभी को होता है। हर मां को प्रेम होता है अपने बच्चे से, कौन मां अब तक व्याख्या कर सकी कि प्रेम क्या है! पूछो प्रेम की बात, गूंगी हो जाती है। इतने प्रेमी हुए—मजनूं हो कि फरिहाद हो, हीर-रांझा हो—पूछो प्रेमियों से,’’ क्या है प्रेम? ‘’ठिठककर खड़े रह जाते हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। कोई उत्तर नहीं आता। पर शायद प्रेमी भी पागल होंगे।

फिर अपने जीवन में कुछ ऐसे अनुभव खोजो जो तुम्हें होते हैं और तुम्हीं नहीं कह पाते। रात पूर्णिमा का चांद निकला है, गद गद अहोभाव से तुमने कहा है,’’ सुंदर है!’’ और पड़ोसी कहता है,’’ कहां, क्या है सौंदर्य, बताओ? इसमें क्या सुंदर है’’? अचानक तुम हारे, असफल हो जाते हो। अचानक लगता है, सीमा आ गई। तर्क से समझा न सकोगे। कैसे सिद्ध करोगे कि चांद सुंदर है? है तो है, और अगर किसी को नहीं है तो नहीं है। अचानक विवश हो गए। अचानक अभिव्यक्ति सार्थक न रही। अब तुम लाख समझाने का उपाय करो, तुम जानते हो कि समझा न सकोगे।

सौंदर्य एक प्रतीति है—गूंगे का गुड है। हो अनुभव तो ठीक, दूसरा राजी हो जाए तो ठीक, बिना झंझट किए, अगर उसे भी स्वाद आ जाए तो ठीक। अगर वह भी सिर हिला दे गूंगे की तरह कि ठीक! लेकिन अगर खड़ा हो जाए तर्क करने कि क्या सौंदर्य, तो तुम सुंदरतम स्त्री में भी सिद्ध न कर सकोगे कि सुंदर है। क्या सिद्ध करोगे? नाक की लंबाई से सौंदर्य का कोई लेना- देना है? कैसे सिद्ध करोगे, आंखें मछलियों की तरह हैं? इससे क्या सिद्ध होता है? होंगी मछलियों की तरह, सौंदर्य का क्या लेना-देना है? किसने कहा पहले कि मछलियां सुंदर हैं?    कि होंगे बाल काली घटाओं की तरह, पर काली घटाएं सुंदर हैं, यह तुमसे किसने कहा?      जिनको कडुवे अनुभव हुए हैं, वे कहेंगे : कभी नागिन की भांति! कहां की काली घटाएं ?     सपनों में खोए हो। जमीन पर आओ! अनुभव की बात करो! ये सब कविताएं हैं।

सिद्ध न कर सकोगे। कोई उपाय नहीं है सिद्ध करने का।

मजनूं को उसके गांव के राजा ने बुला भेजा था और कहा था,’’ तू पागलपन बंद कर। यह लैला, जिसके पीछे तू दिवाना है, तेरी दीवानगी सुनकर हमको भी खयाल हुआ था कि देख लें, देखी हमने, काली-कलूटी साधारण- सी स्त्री। तुझ पर दया आती है—दौड़ता रहता है गांव की सड़कों पर, लैला-लैला पुकारता रहता है’’ ।

दया सभी को आने लगी होगी। सम्राट ने अपने महल से दस-बारह सुंदर स्त्रियां लाकर खड़ी कर दीं कि इनमें से तू चुन ले कोई भी। लेकिन मजनूं ने उस तरफ देखा और कहने लगा,’’ लेकिन लैला कहां है? इनमें कोई लैला नहीं है’’। सम्राट ने कहा,’’ मैंने लैला देखी है। तू दीवाना है, पागल है’’ । मजनूं हंसने लगा। उसने कहा कि’’ मजनूं की आंख के बिना तुम लैला देख कैसे सकोगे ,     मजनूं की आंख चाहिए लैला देखने को’’ ।

भक्त की आंख चाहिए भगवान को देखने को। सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। भक्त ही नहीं हार जाते, मजनूं भी हार जाता है। वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि मेरी आंख से देखोगे तो ही…। वह सौंदर्य कुछ ऐसा है कि उसके लिए खास आंख चाहिए—एक दृष्टि चाहिए!

तुम अपने जीवन में ऐसे अनुभव खोज सकोगे निश्‍चित ही। कई बार तुम्हें प्रतीति हुई होगी दूसरा राज़ी हुआ तुम हार गए, कुछ उपाय न रहा कहने का, अचानक बात वापस ले ली, विवाद में कोई सार न था। क्या थी अड़चन?… गूंगे का गुड! तुम्हारा अनुभव था, दूसरे का अनुभव नहीं था, तालमेल न हो सका।

कोएस्लर को भी ऐसे अनुभव निश्चित हुए होंगे, क्योंकि इतना दीन-हीन मनुष्य खोजना मुश्किल है जिसे ऐसा एक भी अनुभव न हुआ हो, जहां शब्‍द सार्थक नहीं होते। कोएस्लर तो बड़ा विचारशील व्यक्ति है, बहुत अनुभव हुए होंगे—प्रेम के, सौंदर्य के, सत्य के, शुभ के, शिवम के—जहां भाषा एकदम टूट जाती है। और अगर तुम दूसरों को इतनी सुविधा देते हो तो नारद को भी इतनी सुविधा दो।

“गूंगे के स्वाद की तरह है’’ ।

मश्वरे होते हैं शेखो- बिरहमन में’’ जिगर’’ ,

रिन्द सुन लेते हैं बैठे हुए मैखाने में।

वे जो पंडितों में चर्चाएं चल रही हैं, उनके लिए शराबियों को सुनने आने की जरूरत नहीं है। रिन्द सुन लेते हैं बैठे हुए मैखाने में! वे जो परमात्मा के संबंध में मश्वरे हो रहे हैं, विवाद हो रहे हैं, इस सबको सुनने उनको मंदिरों और मस्जिदों में आने की जरूरत नहीं है—अपनी मस्ती में डूबे हुए वहीं सुन लेते हैं। खुद परमात्मा को ही सुन लेते हैं, पंडितों और मौलवियों के मश्वरों की किसको फिक्र।

भक्त यानी रिंद। भक्त यानी पियक्कड़। भक्त यानी जिसे शब्‍द से लेना- देना नहीं है, जो मधुशाला में बैठा है। भक्त यानी अनुभव की प्याली को जो उतार गया, अनुभव को पी गया। लागी कैसी लगन

मीरा हो के मगन

गली-गली हरि-गीत गाने लगी

जो भी महलों पली

जोगनी बनी, जोगन चली

आज रानी दीवानी कहाने लगी

… पागल हो गई दूसरों की नजरों में। कुछ पी बैठी! कोई नशा छा गया! कोई मस्ती इतनी बड़ी कि लोक-लाज की चिंता न रही। कुछ ऐसा बड़ा अनुभव कि सारा संसार स्वप्नवत

मालूम हुआ।’’

प्रकाशते क्वापि पात्रे’’ ।

“किसी विरले पात्र में ऐसे प्रेम प्रगट भी होता है’’ ।

… अनिर्वचनीय है। कहा नहीं जा सकता। गूंगे के स्वाद की भांति है। फिर भी नारद कहते हैं, किसी विरले पात्र में, प्रेमी भक्त में ऐसा प्रगट भी होता है। अभिव्यक्त तो नहीं होता, प्रगट होता है। उसके रोएं-रोएं में पुलक होती है। उसके उठने-बैठने में प्रार्थना होती है। उसकी आंखों की पलकों के झेपने में, उसके होने के ढंग में, उसके बोलने में या न बोलने में, उसके चुप रहने में—परमात्मा की भनक आती है।

“प्रकाशते क्वापि पात्रे’’ ।

लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा महापात्र होता है सौभाग्य शाली कि उसमें परमात्मा प्रकाशित होता है। इस भेद को समझ लेना—अभिव्यक्त नहीं, प्रकाशित। प्रगट होता है। कोई मीरा, कोई चैतन्य बह उठते हैं, उनके पात्र के ऊपर से बहने लगता परमात्मा।

वही तो हमने नाच की तरह देखा। वही हमने गीत की तरह सुना। लेकिन उसके लिए भी तुम्हारे पास हृदय का खुला हुआ द्वार चाहिए, अन्य था मीरा पागल मालूम हागी। जहां परमात्मा पैदा होता है, अगर तुम्हारे पास देखने की सम्यक दृष्टि न हो तो पागलपन मालूम होगा। स्वभावत : पागलपन का इतना ही अर्थ होता है कि तुम जिन्हें जीवन के नियम मानते हो, उसके विपरीत कुछ हो रहा है, तुम जि से मर्यादा मानते हो उससे अन्य था कुछ हो रहा है, तुमने जिसे ढांचा बना रखा था अपनी व्यवस्‍था का, उसके पार कोई चला गया, सीमा के बाहर जा रहा है। तुम पागल त भी कहते हो किसी को जब तुम्हारी जीवन- व्यवस्‍था उसकी मौजूदगी से डगमगाने लगती है—या तो वह सही है या तुम सही हो। स्वभावत : तुम्हारी भीड़ है। इसलिए तुम अपने को ही सही मानने के लिए सुविधा जुटा लेते हो। वह अकेला है। मीरा अकेली है। चैतन्य अकेला है। तुम उसे पागल कहोगे तो भी मीरा के पास कोई उपाय नहीं है सिद्ध करने का कि वह पागल नहीं है। लेकिन ध्यान रखना, उसे पागल कहकर तुम चूके जा रहे हो। उसका कुछ बिगड़ता नहीं, तुम चूके जो रहे हो। तुम एक अवसर खोये दे रहे हो।

परमात्मा प्रकाशित हुआ है! आंखों से अपने प्रक्षपात हटाओ! आंखों से अपनी क्षुद्र विचार धारा को अलग करो! धुंधलके को हटाओ, व्यर्थ का, क्योंकि उससे कुछ मिला तो नहीं, उसे पकड़े क्यों बैठे हो? तुम्हारा तर्कजाल, तुम्हारा शब्‍दजाल, तुम्हारा विचारजाल—पाया क्या है तुमने उससे ,     हाथ तो कुछ भी नहीं आया। एक मछली भी तो फांसी नहीं। कोरे के कोरे रह गए हो। प्यासे के प्यासे रह गए हो। छोड़ो सब उसे!

आंख को पक्षपात- मुक्त करके देखो, तो तुम्हें मीरा में या चैतन्य में परमात्मा प्रकाशित दिखाई मालूम पड़ेगा।

अभिव्‍यक्ति तो संभव नहीं है, लेकिन फिर भी उसकी अभिव्यंजना होती है।

“किसी विरले पात्र में, प्रेमी- भक्त में, प्रेम प्रगट भी होता है’’ ।

“यह प्रेम गुण-रहित है, कामना- रहित है, प्रति क्षण बढ़ता है, विच्छेद- रहित है, सूक्ष्म से सूक्ष्म है और अनुभवस्वरूप है’’ ।

प्रेम की तैयारी हो, प्रेम के लिए तुम निरंतर धीरे-धीरे अपने को तैयार करते रहो, तो एक न एक दिन परमात्मा से मिलन हो जाएगा, क्योंकि प्रेम ही उसकी सीढ़ी है। लेकिन तुम जिस ढंग का जीवन जीते हो वह प्रेम से विपरीत है। उसमें तुम धन तो इकट्ठा करते हो, प्रेम नहीं। और अगर विकल्प हो कि धन चुनूं कि प्रेम, तो तुम प्रेम के मुकाबले धन चुन लेते हो, तुम प्रेम बेच देते हो, धन चुन लेते हो। तुम कहते हो,’’ प्रेम फिर देख लेंगे, धन तो अभी ले लें’’ ।

तुम्हारे सामने जब भी कोई विकल्प होता है, तुम प्रेम को तो हमेशा बलिदान करते रहते हो, फिर तुम पूछते हो,’’ परमात्मा कहां है? ‘’उसकी सीढ़ी को तो तुम काट-काटकर बाजार में बेचते रहते हो, फिर एक दिन सीढ़ी टूट जाती है, तुम्हारे और आकाश के बीच कोई संबंध नहीं रह जाता, तब तुम चिल्लाते हो कि परमात्मा कहां है! तब तुम्हें हर लगता है। तब उस भय में तुम यह भी कहते हो कि कोई परमात्मा नहीं है, ताकि यह भरोसा आ जाए कि न कोई परमात्मा है, न किसी सीढ़ी की जरूरत है, न मुझे कहीं जाना है, मैं जैसा हूं ठीक हूं। ऐसी सांत्वना खोजने के लिए तुम परमात्मा को इनकार भी करते हो। फ्रेड्रिक नीत्शे ने घोषणा की है कि परमात्मा मर गया है। किसी ने पूछा,’’ यह घोषणा क्यों? ‘’तो नीत्शे ने कहा,’’ अगर वह जीवित है तो चैन से बैठना संभव न होगा’’ ।

अगर परमात्मा है तो फिर तुम चैन से कैसे बैठोगे? उसे बिना पाए चैन कहां! तो एक ही उपाय है, कह दो कि है ही नहीं। नास्तिक यही उपाय करता है, वह कहता है, परमात्मा है ही नहीं। वह यह कह रहा है कि कहीं जाने की अब हिम्मत नहीं है, पैर थक गए हैं, यात्रा करने का और अब उपाय नहीं है, अगर यह मान लूं कि मंजिल है तो बेचैनी होगी, यही उचित है, समझा लेता हूं अपने को कि मंजिल है ही नहीं।

नास्तिक का एक उपाय है परमात्मा से बचने का। और जिसको तुम आस्तिक कहते हो, उसका भी एक उपाय है परमात्मा से बचने का–वह कहता है,’’ तुम हो, खोजने का सवाल कहां? मंदिर में पूजा कर आते हैं, मस्जिद में तुम्हारी प्रार्थना कर लेते हैं, अब और क्या चाहिए?    इतने से राजी हो जाओ। हर रविवार को चर्च में हो आते हैं। इतना उपकार कुछ तुम पर कम है? राजी हो जाओ। फंदा छोड़ो! हमारा गला छोड़ो’’ !

तो आस्तिक सस्ते उपाय खोजता है–खिलौने, धर्म के नाम पर खिलौने! वह जैसे परमात्मा कोई बच्चा हो, असली कार न लाए, खिलौने की कार ले आए, उसे कहा,’’ देख, यह कार है, रेलगाड़ी है, हवाई जहाज है’’ । परमात्मा जैसे कोई बच्चा हो, तुम अपने मंदिरों-मस्जिदों से उसे भुलाना चाहते हो। तुम कहते हो,’’ देखो, तुम्हारे लिए मंदिर बना दिया, अब और क्या चाहते हो? तुम्हारी सोने की मूर्ति बना दी, अब और ज्यादा मांग न करो। अब हमें चैन से जीने दो हम जहां हैं। अब और न पुकारो। अब और न आह्वान दो। अब और चुनौती न भेजो। हम थक गए हैं’’ ।

मेरे देखे, आस्तिक और नास्तिक में बहुत फर्क नहीं दिखाई पड़ता। आस्तिक की एक तरकीब है उसी परमात्मा से बचने की, नास्तिक की भी उसी परमात्मा से बचने की दूसरी तरकीब है। दोनों बच रहे हैं।

धार्मिक आदमी वह है जो कहता है,’’ तब तक चैन न लेंगे, जब तक तुम्हें पा न लें। अगर तुम्हें बनाने की, तुम्हारी सीढ़ी बनाने को सारा जीवन निछावर करना होगा तो करेंगे। प्रेम के ऊपर सब कुछ गंवा देंगे, लेकिन प्रेम को न गवाएंगे।

“यह प्रेम गुण-रहित है, कामना-रहित है, प्रतिक्षण बढ़ता है’’ ।

यह प्रेम की परिभाषा है, लक्षण है। प्रेम गुण-रहित ही होता है। प्रेम न तो राजसिक होता है, न सात्विक होता है, न तामसिक होता है। प्रेम गुणातीत है। प्रेम संसार के पार है। प्रेम ऐसे ही संसार के पार है जैसे कमल सागर के पार, सरोवर के पार होता है, दूर खड़ा! उठता है सरोवर से, उसी कीचड़ से, फिर भी पार होता है–सरोवर-अतीत। प्रेम ऐसे ही संसार के तीनों गुणों से अतीत है।

… कामना-रहित है। प्रेम की कोई और कामना नहीं है। प्रेम यह नहीं कहता कि मुझे कुछ दो। प्रेम कहता है, बस प्रेम काफी है; इसके पार और कोई मांग नहीं है। प्रेम बस प्रेम से ही तृप्त है। अगर प्रेम ने कुछ और मांगा तो वह प्रेम नहीं, कुछ और होगा–कामना होगी, वासना होगी, लोभ-मोह होगा। प्रेम तो बस प्रेम से तृप्त है। प्रेम के पार कोई गंतव्य नहीं है।

… प्रतिक्षण बढ़ता है। जो प्रेम घटने लगे वह काम रहा होगा। काम प्रतिक्षण घटता है। काम का स्वरूप है: जब तब तक तुम्हें अपना काम-पात्र न मिले, बढ़ता हुआ मालूम होता है। तुम एक स्त्री को चाहते हो, वह न मिले तो कामवासना बढ़ती जाती है, उबलने लगती है, सौ डिग्री पर ज्वर चढ़ जाता है, भाप बनने लगते हो, सारा जीवन दांव पर लगा मालूम पड़ता है; मिल जाए, उसी दिन से घटना शुरू हो जाती है।

काम का लक्षण यह है: जब तक न मिले तब तक बढ़ता है; मिल जाए, घटता है। प्रेम का लक्षण यह है: जब तक न मिले तब तक तुम्हें पता ही नहीं कि बढ़ता क्या है; जब मिलता है तब बढ़ता है। प्रेमी पात्र जैसे ही मिलता है वैसे ही बढ़ता ही जाता है। प्रेम सदा दूज का चांद है, पूर्णिमा का चांद कभी होता ही नहीं; बढ़ता ही रहता है; ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जब घटे। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रेम सतत वर्द्धमान, सतत विकासमान है, सतत गतिमान है, कहीं ठहरता नहीं, प्रवाहरूप है।

…’’ प्रतिक्षण बढ़ता है, विच्छेद-रहित है’’ । डाइवोर्स, विच्छेद कभी होता ही नहीं। मिलन हुआ–सदा को हुआ। मिलन हुआ–शाश्वत हुआ। जब तक मिलन नहीं हुआ तब तक विच्छेद है। मिलन होते से फिर कोई विच्छेद नहीं है।

…’’ सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है’’ । प्रेम से ज्यादा सूक्ष्म और कुछ भी नहीं।

वैज्ञानिक कहते हैं: परमाणु परम सूक्ष्म है।

एक बड़ी अनूठी घटना इस सदी में घटी, इतिहास में आगे कभी उसका ठीक-ठीक मूल्यांकन होगा। एक जर्मन विचारक था–विल्हेम रेक, वैज्ञानिक चिंतक, अनूठा चिंतक। जब अणु- ऊर्जा की खोज चल रही थी, तभी वह प्रेम-ऊर्जा की खोज में लगा था। उस ऊर्जा को उसने नाम दे रखा था–आर्गन, प्रेम-ऊर्जा। उसका कहना था कि अणु-ऊर्जा की खोज से भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रेम की ऊर्जा की खोज है; क्योंकि अणु तो पदार्थ का टुकड़ा है, प्रेम हमारी आत्मा का परम अंश है। स्वभावत: उसने खतरा मोल लिया। जगह-जगह से उसे हटाया गया, जर्मनी से भगाया गया। जिस मुल्क में गया वहीं से हटाया गया। क्योंकि प्रेम के खोजी कहीं भी स्वीकृत नहीं हैं। सारा समाज धृणापर जी रहा है, हिंसा पर जी रहा है। लोगों ने समझा, पागल है। अंतत: उसे पागल करार देकर अमरीका में उसे पागलखाने में बंद भी

रखा। वह पागलखाने में ही मरा। यद्यपि अल्बर्ट आइंस्टीन ने उससे मुलाकात की थी, और जब आइंस्टीन को उसने अपना एक छोटा सा आविष्कार बताया तो आइंस्टीन चकित हो गया था। वह आविष्कार था, वह कहता था कि इस तरह के यंत्र बनाए जा सकते हैं जिनमें प्रेम- ऊर्जा संग्रहीत हो सके। और उसका कहना था कि विश्व में अणु की ऊर्जा से इतना विध्‍वंस होने के करीब है कि अगर हमने इसके समतुल प्रेम की ऊर्जा न बनाई तो पृथ्वी नष्ट हो जाएगी।

तो उसने इस तरह के यंत्र बनाए थे। यंत्र कुछ विशेष न थे, कुछ विशिष्ट न थे, कुछ विशिष्ट धातुओं से बनाई हुई पेटियां थी। उन पेटियों के भीतर मनुष्य को अंधेरे में बिठा दिया जाता है, सब तरफ से बंद। कोई पंद्रह-बीस मिनट शांत बैठने के बाद अचानक ऊर्जा का प्रवाह शुरू होता है, रोएं-रोएं में एक पुलक छा जाती है, एक लालिमा आ जाती है, बैठा हुआ साधक भीतर अनुभव करता है, कुछ घट रहा है, सारे शरीर में लहरें होने लगती हैं, जिसको योगियों ने कुंडलिनी कहा है, जिसको तांत्रिकों ने परम संभोग कहा है, वह घड़ी आ जाती है। जो उसने यंत्र बनाया है वह बड़ा सीधा-सरल है। उसमें ऐसी धातुओं का उपयोग किया है जिनसे ऊर्जा भीतर की तरफ तो आ जाती है, लेकिन बाहर की तरफ नहीं जा सकती। तो वह पेटी चारों तरफ से ऊर्जा को भीतर खींचती है और भीतर बैठे व्यक्ति के ऊपर बरसाने लगती है।

वस्तुत : तीस-चालीस मिनट तक अंधेरे में बैठना ध्यान का एक प्रयोग है। और ध्यान की अवस्था में पेटी की भी कोई जरूरत नहीं, संसार की जीवन-ऊर्जा तुम पर बरसने लगती है। यह तो भक्तों का बहुत प्राचीन अनुभव है। कहीं कोई जरूरत नहीं है। कहीं भी तुम बैठ जाओ शांत होकर। प्रेम के लिए द्वार खुला हो, प्रतीक्षा हो–तुम अचानक पाओगे थोड़ी देर के बाद : जैसे-जैसे तुम्हारा मन शांत होने लगता है, वैसे ही वैसे तरंगें उठने लगती हैं अलौकिक की, तुम पुलकित होने लगते हो–किसी लहर पर सवार हो गए, चले किसी दूर की यात्रा पर! यह तो ध्यान का पुराना प्रयोग है।

लेकिन विल्हेम रेक को पागल करार दे दिया। उसकी पेटियों को जालसाजी करार दे दिया। जालसाजी करार देना आसान हुआ, क्योंकि कोई प्रमाण क्या है कि इनके भीतर ऐसा होता है? यह प्रेम की ऊर्जा को तौलने का थर्मामीटर कहां है? इनके भीतर बैठे हुए व्यक्ति कहते हैं, लेकिन क्या पक्का सबूत है कि उन्होंने भ्रम नहीं कर लिया खुद ही खड़ा, तीस मिनट चुपचाप बैठे रहकर कोई भ्रम बड़ा नहीं कर लिया, आत्मसम्मोहन नहीं कर लिया? इनकी बात का भरोसा क्या है? वैज्ञानिक बुद्धि तो कहती है, प्रमाण चाहिए ठोस। व्यक्ति क्या कहते हैं, यह कोई प्रमाण थोड़े ही है। ठोस प्रमाण चाहिए यंत्र के द्वारा।

अनेक लोगों ने उसकी पेटियों में बैठकर अनुभव किया, लेकिन वह प्रमाण नहीं। उसने अनेक बीमारों को ठीक किया उन पेटियों के भीतर, क्योंकि वह कहता है, प्रेम की ऊर्जा रोग से मुक्त करवा देती है, स्वास्थ्य लाती है। पर उसकी कोई सुन न सका। वह भक्ति का और प्रेम का बड़ा अनूठा प्रयोग कर रहा था।

भक्त सदा से ही इस प्रयोग को करते रहे हैं। वे कहते हैं, तुम्हें चारों तरफ से प्रेम ने घेरा हुआ है। वही परमात्मा है। तुम जरा शांत होकर बैठो। तुम जरा मगन होकर बैठो। तुम जरा चिंता-रहित होकर बैठो। तुम जरा द्वार खोलकर, ग्राहक होकर बैठो। स्वीकार करने की तैयारी से बैठो, और वह बरसने लगेगा। इसी ग्राहकता और स्वीकृति का पुराना नाम प्रार्थना है। प्रार्थना का कुछ और अर्थ नहीं होता। उसका यह मतलब नहीं कि तुम बड़ा शोरगुल मचाओ, चिल्लाओ परमात्मा को। उस सबसे कोई अर्थ नहीं है। हृदय खुला हो, तुमने पात्र उसके सामने कर दिया है, तुम प्रतीक्षारत, धैर्य, शांति से बैठे हो–आएगा! इस आस्था, श्रद्धा से उतरेगा। उतरता है। उतरा ही हुआ है, तुम्हारा संबंध भर जोड़ने की बात है।

…’’ विच्छेद-रहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, अनुभवस्वरूप है’’ ।

लेकिन जीवन को तुमने जिस ढांचे में ढाला है, वह प्रेम के विपरीत है। और तुम्हारे तथाकथित धार्मिक तुम्हें प्रेम के विपरीत ही शिक्षण देते रहते हैं।

सुनो–

 

जिन नयनों का प्रेम-निमंत्रण

तुमने था ठुकराया

उन नयनों में, सजल स्नेहमय

एक नयन था मेरा।

किसी दिन परमात्मा तुमसे कहेगा—

जिन नयनों का प्रेम-निमंत्रण

तुमने था ठुकराया

उन नयनों में, सजल स्नेहमय

एक नयन था मेरा।

तुम समाधि के भ्रम में खोए

मुझे नहीं पहचाना

यह असंग यदि ताना है तो

संग उसी का बाना

जिन सुमनों में मदिर सुरभिमय

एक सुमन था मेरा।

दिव्य गंध को मात्र वासना

कह कर तुमने टाला

बना सहज को सूली

ऋत का पथ विकृत कर डाला

जिन सपनों का सुरधनु जीवन

तुम्हें लगा छल छाया

उन सपनों में रुचिर रंगमय

एक सपन था मेरा।

तुम अभंग के पीछे भूले

भंगुर की गुरु गरिमा

रटा-रटाया ज्ञान बन गया

चेतन की जड़ सीमा

जिन रत्नों का मंगल कंकण

फेंका कह कर माया

उन रत्नों में ज्योतित चिन्मय

एक रत्न था मेरा।

इस संसार में, परमात्मा सभी जगह समाविष्ट है। फूल से भी उसी ने पुकारा है, ठुकराकर पीठ फेरकर चले मत जाना, अन्यथा किसी दिन पछताओगे। जहां से भी तुम्हें आकर्षण मिला है, उस आकर्षण में उसका ही आकर्षण छिपा है। तुमने व्याख्या गलत कर ली होगी। तुम्हारे पंडितों ने तुम्हें कुछ और समझा दिया होगा, भरना दिया होगा। तुमने माया, छाया, छल, भ्रम कहकर पीठ फेर ली होगी। लेकिन वही है। माया भी अगर है तो उसी की है और अगर छाया भी है तो उसी की है और अगर भ्रम है तो उसने ही दिया है, स्वीकार योग्य है।

भक्त का अर्थ है : जिसने उसे उसकी सर्वागीणता में स्वीकार किया, जो कहता है,’’ हम चुनाव न करेंगे। हम कौन? हम कैसे जानेंगे कि तू कौन है और तू कौन नहीं है? हम कहां रेखा खींचें?‘’

जड़ और चेतन की रेखा सब आदमी की खींची हुई है। ऐसा कोई जड़ नहीं है जिसमें चेतन न छिपा हो और ऐसा कोई चेतन नहीं है जो जड़ में आविष्ट न हो, जड़ में जिसने घर न बनाया हो। चट्टान से चट्टान में भी वही सोया है। चैतन्य से चैतन्य में भी वही जागा है। ऐसा अगर तुम्हारे जीवन का दृष्टिकोण हो तो तुम प्रेम के लिए तैयार बनोगे, पात्र बनोगे।

‘’इस प्रेम को पाकर प्रेमी प्रेमी को ही देखता है, प्रेम को ही सुनता है, प्रेम का ही वर्णन करता है, प्रेम का ही चिंतन करता है, प्रेम ही प्रेम, प्रेममय हो जाता है’’ ।

फिर वृक्ष नहीं दिखाई पड़ते—वही वृक्षों की हरियाली में दिखाई पड़ता है! फिर पक्षी नहीं गीत गाते—वही गाता है, पक्षियों के कंठ उधार लेता है। उसके पास बहुत गीत हैं—बहुत कण्ठों की जरूरत है! उसके पास बहुत रंग हैं—इंद्रधनुषों की जरूरत है। उसके पास बहुत रूप हैं, बहुत आकृतियां बनती हैं, तो भी चुकता नहीं है।

उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लो तो पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। इतना विराट अस्तित्व बनता है, बिखरता है, सृष्टि होती है, प्रलय होती है—लेकिन उसकी क्षमता में कोई कमी नहीं आती।

“इस प्रेम को पाकर प्रेमी प्रेमी को ही देखता है, प्रेम को ही सुनता है, प्रेम का ही वर्णन करता है, प्रेम का ही चिंतन करता है’’ ।

 

सबको हम भूल गए जोशो-जुनूं में लेकिन

इक तेरी याद थी ऐसी जो भुलायी न गई।

 

प्रेमी पागल हो जाती है, जुनून में आ जाता है, सब भूल जाता है–”इक तेरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई”! बस एक बात नहीं भूलती। स्वयं को भी भूल जाता है। सब एक बात भुलायी नहीं भूलती–उस प्रेमी की याद भुलाए नहीं भूलती।

“भक्ति गुण-भेद से तीन प्रकार की होती है, उनमें उत्तर-उत्तर कम से पूर्व-पूर्व कम की भक्ति कल्याण्कारिणी होती है”।

ऐसे तो भक्ति एक है। भक्ति यानी प्रेम, ऊर्ध्यमुखी प्रेम। भक्ति यानी दो व्यक्तियों के बीच का प्रेम नहीं, व्यक्ति और समष्टि के बीच का प्रेम। भक्ति यानी सर्व के साथ में प्रेम में गिर जाना। भक्ति यानी सर्व को आलिगंन करने की चेष्टा। और भक्ति यानी सर्व को आमंत्रण, कि मुझे आलिंगन कर ले!

भक्ति तो मूलत: एक है, लेकिन व्यक्तियों के भेद से तीन प्रकार की हो जाती है, उनकी हम आगे के सूत्रों में व्याख्या करेंगे।

 

आज इतना ही।

 

 

 

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–14

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असहाय हृदय की आह है प्रार्थनाभक्तिचौदहवां प्रवचन

दिनांक 14 मार्च,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍न-सार :

*भगवान! सामर्थ्य तो कुछ है नहीं और प्यास उठी अनंत की। मिलन होगा? क्या प्रेम और मृत्यु के बीच कोई आंतरिक संबंध है?

 *बहुतेरे आपके संन्यासी ध्यान नहीं करते, कहते हैं, समझ काफी है। क्या उनकी यह समझ काफी है?

 *भगवान! मैं आपसे संन्यस्त नहीं हुआ, फिर भी क्या आप मृत्यु के क्षण में मुझे धक्का देने आएंगे?

 *क्यों आप प्रतिदिन प्रवचन के लिए आने पर और फिर विदा लेते हुए भी हाथ जोड़कर हमें प्रणाम करते हैं?

 *कब किस घड़ी में संन्यासी शिष्य के भीतर से अपेक्षा का भाव गिर जाता है?  

 

 

पहला प्रश्‍न :

 

भगवान! सामर्थ्य तो कुछ है नहीं और प्यास उठी अनंत की! चल पड़ी हूं डगमगाती, क्या मिलन होगा नहीं?

 

 

पूछा है वृद्ध संन्यासिनी सीता ने।

 

पहली बात : सामर्थ्य से कोई कभी परमात्मा से मिला नहीं। सामर्थ्य तो अकड़ है। सामर्थ्य ही तो बाधा है। सामर्थ्य यानी अहंकार। सामर्थ्य यानी दावा। दावे से कभी कोई मिला है ,     दावे ने कभी प्रेम पाया? दावेदार तो हार ही गया, पहले ही कदम पर मंजिल चूक गई।

अगर पता है कि सामर्थ्य नहीं है तो मिलन निश्चित है। असहाय अवस्था में होता है मिलन—जहां तुम्हें लगता है, मेरे किए कुछ भी न होगा, जहां तुम्हारी हार पूरी-पूरी है, जहां तुम्हें लगता है, मेरे किए होगा कैसे, जहां तुम्हारा अहंकार सब भांति धूल-धूसरित होकर गिर पड़ा है, जहां तुम्हें अपनी तरफ से श्वास लेने की भी सामर्थ्य न रही, यात्रा दूर की बात, जहां उठते भी नहीं बनता, जहां पैर भी उठाना चाहो तो नहीं उठता। जहां ऐसा असहाय भाव तुम्हें घेर लेता है, वहीं प्रार्थना का जन्म होता है।

प्रार्थना असहाय हृदय की आह है।

परम असामर्थ्य में ही प्रभु को पाने की सामर्थ्य है। असहाय भाव को गहरा होने दो।

परमात्मा को कोई जीतकर थोड़े ही जीतता है–हारकर जीतता है। वहां हार ही विजय है। वहां जो अकड़कर गया, उसने अपने ही हाथ अपनी गर्दन काट ली। वहां जो गर्दन काटकर गया, पहुंच ही गया।

पूछा है:’’ सामर्थ्य तो कुछ है नहीं और प्यास उठी अनंत की’’ ।

यह भाव शुभ है।

अनंत की प्यास के उठने के लिए अनंत को पाने की सामर्थ्य थोड़े ही चाहिए। जो सामर्थ्य में आ जाए वह तो अनंत होगा भी नहीं। सामर्थ्य की सीमा में जो समा जाए, वह शांत ही होगा, अनंत नहीं; उसकी सीमा होगी, असीम नहीं।

प्यास तुमसे बड़ी है। प्यास इतनी बड़ी है कि तुम उसे अपने भीतर समा न पाओगे, तुम उसमें समा जओगे। तभी प्यास अनंत की प्यास है। अनंत की प्यास भी अनंत ही है। और परमात्मा को पाने के लिए प्यास काफी है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं चाहिए। यही भक्ति का सार-सूत्र है।

योग कहता है, प्यास चाहिए, कुछ और भी चाहिए। भक्ति कहती है, प्यास बस काफी है। बस प्यास चाहिए–इतनी प्यास चाहिए कि तुम प्यास में खो जाओ; तुम प्यास हो जाओ; तुम्हारे भीतर कुछ भी न बचे प्यास के अतिरिक्त; बिलखती-रोती प्यास बचे; शून्‍य में टकराती, उभरती प्यास बचे; तुम्हें पता ही न चले कि तुम हो। और प्यास ही परमात्मा बन जाती है।

अनंत प्यास अनंत का ही भाग है। और अनंत प्यास को जिसने पा लिया, दूर नहीं है, पहुंच ही गया।

स्वभावत: मन को बड़ा डर लगता है: सामर्थ्य तो बड़ी कम है, न के बराबर है; इतने बड़े को पाना चाहा है, परमात्मा को पाना चाहा है! सिर्फ अहंकारी को इसमें कोई भूल नहीं दिखाई पड़ती।

मेरे पास दोनों तरह के लोग आ जाते हैं। अहंकारी कहता है,’’ क्या करूं जिससे परमात्मा को पा लूं?’’ जोर उसका करने पर है। जैसे परमात्मा भी उसके कृत्य का फल होगा! जैसे परमात्मा भी उसकी व्यवस्था में फंसेगा! जाल फेंकना है, मछली फंसेगी–कैसे जाल फेंकूं। निश्चित ही जाल फेंकने वाला मछली से बड़ा है। निश्चित ही जाल मछली से बड़ा है। मछली असहाय, फंसेगी।

अगर तुम परमात्मा की तरफ मछुए की तरह गए हो तो भूल हो गई–तुम परमात्मा की तरफ गए ही नहीं, परमात्मा ने तुम्हें पुकारा ही नहीं, उसकी प्यास उठी ही नहीं।

एक दूसरे तरह का खोजी है–असली खोजी! वह कहता है कि मेरे किए कुछ भी नहीं होता! मैं तो हार गया! क्या फिर भी वह मुझे मिलेगा? उसके पैर डगमगाते हैं। जाल फेंकने की बात दूर रही, उसे अपने अहंकार पर जरा भी भरोसा नहीं होता कि मेरे किए कुछ होगा।

जिस क्षण अहंकार पर भरोसा नहीं होता उसी क्षण अहंकार की मौत होनी शुरू हो गई।

तुम्हें अपने पर बहुत ज्यादा भरोसा है—वही तुम्हारा अपराध है। वही पाप है। जिस क्षण तुम्हें अपने पर भरोसा हट जाएगा और तुम देख पाओगे कि मेरे किए क्या होगा! इतनी छोटी सीमा है मेरी, मेरे जाल क्या हैं? किसको फांसने चला हूं? जाल में विराट को! अनंत को! जिस दिन तुम जाल फेंक दोगे, असहाय गिर पड़ोगे पृथ्वी पर, आंखें आंसुओ से भरी होंगी–मंजिल पूरी हो गई! यह मंजिल कुछ ऐसी नहीं है कि चलकर जाना पड़ता है, यह मंजिल कुछ ऐसी है कि तुम गिरो कि पास आ जाती है!

’’सामर्थ्य तो कुछ भी नहीं है और प्यास उठी अनंत की!

चल पड़ी हूं डगमगाती, क्या मिलन होगा नहीं ?‘’

भक्त सदा कंपता रहता है। इसलिए नहीं कि शक है कि परमात्मा है या नहीं–नहीं वैसा तो कोई संदेह नहीं है–संदेह यह है कि मेरी कोई योग्यता है या नहीं।

इस भेद को समझना।

अहंकारी चलता है, अगर परमात्मा न फंसे उसके जाल में तो सोचता है, होगा ही नहीं। अहंकारी यात्रा करता है, व्यवस्था करता है, आयोजन जुटाता है, अगर परमात्मा नहीं पास आता लगता है तो सोचता है, है ही नहीं, आएगा कहां से! निरहंकारी के पास परमात्मा आता हुआ नहीं लगता, तो यह सवाल नहीं उठता कि परमात्मा नहीं है–यही सवाल उठता है कि मैं बहुत छोटा हूं, पात्र नहीं हूं, मैं बहुत सीमित हूं, मैंने जरूरत से ज्यादा की मांग कर ली है, मैंने ऐसी पुकार को सुन लिया जहां तक उठ पाना मेरे सामर्थ्य में नहीं है।

लेकिन यहीं समझने की बात है।

तुम्हारे गिरने में ही उसका अवतरण है। तुम्हारे मिटने में ही उसका होना है। परमात्मा मिला ही हुआ है–तुम गिरो तो! यह मंजिल दूर नहीं है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच फासला नहीं है। अगर कोई फासला है तो वह तुम्हारे दम्भ का है और अहंकार का है।

 

बच्चन की कुछ पंक्तियां… बहुत प्यारी हैं

 

तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे

और मैंने ही न देखा

एक सुरभित सांस आती थी कहीं से

धूल से, बनफूल से, नभतारकों से

चांद-सूरज से, गगन-अन्त:करण से

या कि मेरी ही शिराओं से, रगों से ,

इत्र की कुछ शीशियों को खोलते ही

मूंदते ही उम्र मेरी कट गई है।

तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे और मैंने ही न देखा!

एक झिलमिल जोत आती थी कहीं से

सरवरों, नद-निर्झरों, सागरों से

बादलों से, बिजलियों की पायलों से

या कि मेरे ही दृगों के दायरों से ,

मृतिका के कुछ दियों को जलाते

“ओ” बुझाते उम्र मेरी कट गई है।

एक हीरक से हृदय में तुम जड़े थे

और मैंने ही न देखा।

तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे

और मैंने ही न देखा

एक अस्फुट गूंज आती थी कहीं से

मधुकरों से, वनविहंगों के परों से

धन-पवन से, पवसी रिमझिम झरन में

या कि मेरे आंसुओ के सीकरों से?

छंद की बहु श्रृंखलाओं को जोड़ते ही,

तोड़ते ही उम्र मेरी कट गई है

किन्तु ढाई अक्षरों में मुक्ति का

गुरू- मंत्र अभिमत गुनगुनाते तुम पड़े थे

और मैंने ही न देखा।

तुम प्रतीक्षा में हमेशा से खड़े थे

और मैंने ही न देखा।

ढाई अक्षरों में—बस प्रेम के ढाई अक्षरों में सारा शास्त्र है भक्ति का!

तुम छोड़ो फिक्र परमात्मा की! आए न आए, छोड़ो उत्तरदायित्व उसी पर! प्यास के अतिरिक्त हमारी सामर्थ्य क्या है? पुकार के अतिरिक्त हम क्या कर सकेंगे? सुने न सुने, जुम्मेवारी उसकी है। तुम पुकारो भर हृदय से! तुम आंसुओ में कंजूसी मत करना! तुम रोने में रुकावट मत डालना! तुम्हारी प्रार्थना इधर पूरी हुई कि तुम अचानक पाओगे : परमात्मा दूर न था, तुममें ही छिपा था। आंसू आंखों को साफ कर गए—दिखाई पड़ने लगा। प्रार्थना हृदय को झकझोर गई, धूल को उड़ा गई—अनुभव होने लगा।

तुम्हारा होना परमात्मा के होने का हिस्सा है, इसलिए तो प्यास है। अनजान की, अपरिचित की, अज्ञेय की तो प्यास भी कैसे होगी? जिसने कभी तुम्हारे कंठ को छुआ ही न हो उसकी आकांक्षा भी कैसे जगेगी? कहीं किसी गहरे तल पर उसने तुम्हारे कंठ को छू ही लिया है। जिसे हमने जाना ही न हो कभी, जाने- अनजाने, सोये-जागे हमने पहचाना ही न हो कभी, उसकी पुकार भी कैसे उठेगी? तुम उस हीरे को खोजने कैसे निकल पड़ोगे, जिस हीरे की झलक ने तुम्हें आकर्षित न कर लिया हो?

इजिप्त के सूफी कहते हैं, तुम खोजने तभी निकलते हो जब वह तुमसे पहले तुम्हें खोजने चल पड़ा होता है। तुम उसे पुकारते तभी हो जब उसने तुम्हें पुकार ही लिया होता है, अन्यथा तुम कैसे पुकारोगे? उनका वक्तव्य बिलकुल सही है। वे कहते हैं, परमात्मा तुम्हें जब चुन लेता है, तभी तुम उसे चुनते हो, उसके पहले तुम चुन ही न सकोगे। तो मैं सीता को कहूंगा, चली चल–डगमगाते सही! और चलने का कोई ढंग ही नहीं है, डगमगाते ही चला जा सकता है। राह बड़ी विराट है! आकाश बहुत बड़ा है, पंख हमारे पास बहुत छोटे हैं। लेकिन दो छोटे से पंखों से भी तो आकाश पार हुआ जाता है। कोई आकाश जैसे बड़े पंख थोड़े ही चाहिए, इतने बड़े पंख होते तो उड़ना मुश्किल हो जाता। आकाश होगा विराट, हमारे पास पंख छोटे सही, हर्ज क्या है!

लाओत्सु ने कहा है, एक-एक कदम से हजारों मील का रास्ता पार हो जाता है। कदम बड़े छोटे हैं। अगर कोई गणितज्ञ बैठ जाए, हिसाब लगाने लगे–हजारों मील का रास्ता है, एक- एक कदम उठता है एक बार में–घबड़ा जाएगा, छाती बैठ जाएगी, हिम्मत ही टूट जाएगी! पर हम जानते हैं, एक-एक कदम से हजारों मील का रास्त पूरा हो जाता है, और एक-एक बूंद से सागर भर जाता है। फिर चिन्ता क्या!

भक्त को चिन्ता नहीं है। यही तो भक्ति का चमत्कार है। जानी चिंतित है। योगी चिंतित है। क्योंकि इन्तजाम बिठाना है, भार अपना है। भक्त निश्चित है। भक्त कहता है,’’ हमने पुकार दिया, अब तुम सुन लो! न सुनो, तुम जानो’’ ! आखिर में, भक्त यह कह रहा है कि अगर तुम न मिले तो तुम्हीं जानो, जिम्मेवारी तुम्हारी है। मिल गए तो तुम्हारी कृपा, न मिले तो कसूर तुम्हारा है, हम कर भी क्या सकते थे? पुकार दिया था!

छोटा बच्चा है। पड़ा है अपने झूले में। चिल्ला रहा है। रो रहा है मां के लिए! क्या करेगा और? आ जाए, मां की अनुकंपा है, न आए, कठोरता है। लेकिन सारा जिम्मा मां का है। आए तो भी, उसका प्रसाद! न आए, तो भी उसकी कठोरता। उस छोटे रोते बच्चे का अपना क्या है, दावा क्या है?

भक्ति की महिमा है कि सब छोड़ दिया परमात्मा पर। भक्त चुपचाप जिए चला जाता है, जैसे वह जिलाता है। और भक्त डगमगाते-डगमगाते भी पहुंच जाता है, और जानी बड़ी मजबूती से पैर रखते हैं और कहीं नहीं पहुंच पाते। यह रास्ता मजबूरी से पैर रखने का नहीं है। यहां डगमगाने वाले पहुंचते हैं।

 

 

दूसरा प्रश्‍न :

 

आप भी जब प्रेम गीत हैं तब मृत्‍यु की महिमा भी बताते हैं। मृत्‍यु महिमा बताने से भी नहीं चूके। क्या प्रेम और मृत्यु के बीच कोई आंतरिक संबंध है?    

 

 

संबंध ही नहीं, प्रेम और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक ही घटना के दो नाम हैं, एक ही चीज को देखने के दो ढ़ंग हैं, दो दृष्टियां हैं। बहुत मुश्किल होगा तुम्हें यह समझाना, क्योंकि तुमने तो अकसर उलटा माना है। तुम तो मृत्यु से बचने को प्रेम की शरण में गए हो। तुमने तो मृत्यु से बचने के लिए प्रेम की सुरक्षा मांगी है—और प्रेम मृत्यु की गोद में जाने से हरे हो। और मृत्यु तो प्रेम की ही गोद है। इसलिए तो तुम्हारे जीवन में प्रेम की मांग बहुत है, प्रेम की वर्षा क भी नहीं होती। चीखते हो, चिल्लाते हो, रोते हो, बुलाते हो, खोजते हो—लेकिन कहीं तुम्हारे भीतर ऐसा विरोधाभास है कि प्रेम की तुम बात तो करते हो, लेकिन घटने नहीं देते।

गौर से देखना अपने प्रेम को तो तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाएगी : तुम प्रेम मांगते भी हो और प्रेम से डरते भी हो। तुमने बहुत गहरे में झांका? प्रेम का बड़ा गहरा भय है! तुम भय भीत हो प्रेम से। ऊपर-ऊपर मांगते भी हो, भीतर- भीतर हरे भी हो, भागे हुए भी हो। ऊपर- ऊपर प्रेम की तरफ चलते हो, भीतर-भीतर किसी विपरीत दिशा में कदम रखते हो।

एक कदम प्रेम की तरफ उठाते हो तो एक कदम प्रेम के विपरीत तत् क्षण उठा लेते हो।

प्रेम में खतरा मालूम होता है, खतरा है। मैं नहीं कहता कि खतरा नहीं है। बड़ा खतरा है। प्रेम से बड़ा कोई खतरा नहीं है। क्योंकि प्रेम को अर्थ है : तुम्हें मिटाना होगा। प्रेम का अ र्थ है : तुम तुम ही न रह जाओगे : तुम वही न रह जाओगे जो प्रेम करने के पहले थे, वह तुम्हारी इकाई, वह अकड़, वह अस्मिता डूबेगी, गलेगी, जलेगी, राख होगी। तुम्हारे राख हो जाने से ही तो प्रेम का फूल खिलेगा। इसलिए तो भय है।

हम प्रेम की बातें करते हैं, प्रेम के गीत भी गाते हैं। प्रेम की कहानियां पढ़ते हैं, कहानियां कहते हैं—ये सब तरकीबें हैं प्रेम से बचने की।

प्रेम का बड़ा प्रगाढ़ भय है। मनस्विदों से पूछो। वे कहते हैं कि प्रेम का बड़ा प्रगाढ़ भय है। हम प्रेम से दूर- दूर रहते हैं, फासला बनाकर रहते हैं। इतने करीब नहीं आते कि सीमाएं मिल जाएं और खो जाएं। इतने पास आने में बड़ा भय लगता है कि फिर लौट सकें न लौट सकें। इसलिए तो हमने बहुत तरह के इंतजाम कर लिए हैं प्रेम के विपरीत। विवाह भी प्रेम के विपरीत एक इन्तजाम है, ताकि प्रेम करना न पड़े। तो जाकर विवाह कर लाते हैं एक स्त्री को या एक पुरुष से विवाह कर लेते हैं। विवाह एक आयोजन है। मां- बाप कर लेते हैं इन्तजाम। जिनका हो रहा है विवाह, उनसे तो पूछने की जरूरत ही नहीं होती। ज्योतिषी से पूछते हैं जिसका कोई लेना- देना नहीं है। और सब बातों का इन्तजाम कर लेते हैं जिनका प्रेम से कोई संबंध नहीं है, कि कुलीन घर है, कि सम्पन्न घर है, सुसंस्कृत लोग हैं, जाति- धर्म- कुल क्या है—यह सब पता कर लेते हैं। इससे प्रेम का कोई भी लेना- देना नहीं है। न तो प्रेम जाति को जानता, न कुल को जानता, न कुलीनता को जानता, न धन को जानता। प्रेम का धन से सबंध क्या है? न रंग को जानता। हइडी- मांस- मज्जा से प्रेम का संबंध क्या है? तुम हिंदू हो कि मुसलमान कि जैन कि ईसाई, प्रेम का लेना-देना क्या है? लेकिन विवाह का इन्तजाम किया है—सारी दुनिया में। यह इन्तजाम बड़ी कुशलता थी। यह इस बात की खबर है कि प्रेम का बड़ा भय है। इसलिए हमने बाल- विवाह किए, क्योंकि इसके पहले कि प्रेम अपना सिर उठाए, विवाह कर देना जरूरी है। अगर प्रेम एक बार सिर उठा ले तो फिर विवाह कठिन हो जाएगा। और एक बार प्रेम की धुन पकड़ जाए, दीवानगी आ जाए, तो विवाह बहुत रूखा-सूखा मालूम पड़ेगा। विवाह प्रेम से हो तो समझ में आता है, हमने उलटी व्यवस्था की : विवाह कर दो और प्रेम करो!

अब प्रेम के साथ एक नियम है कि हो तो हो, न हो तो किया नहीं जा सकता। हां, ढोंग कर सकते हो। दिखावा कर सकते हो। अपने को समझा लेते हो, दूसरे को समझा देते हो कि है, सब ठीक है। लेकिन प्रेम हो तो हो, न हो तो न हो।

प्रेम ऐसी घटना है कि परमात्मा की तरफ से है, तुम्हारे हाथ में नहीं है।

तीन घटनाएं परमात्मा के हाथ में हैं–जन्म, प्रेम और मृत्यु। और बाकी घटनाओं का कोई मूल्य नहीं है जो तुम्हारे हाथ में हैं। तुम किस तरफ की दुकान करते हो, किस दक्तर में बैठते हो, किस राजनीतिक पार्टी के सदस्य हो–इन बातों का कोई मूल्य नहीं है। यह सब बीच का भरावा है। जीवन का सब महत्वपूर्ण परमात्मा के हाथ में है। परमात्मा यानी समय। व्यक्ति के हाथ में नहीं है, समष्टि के हाथ में है। होता है तो होता है।

प्रेम, इसलिए मैं कहता हूं, जन्म और मृत्यु का ही हिस्सा है। प्रेम एक मृत्यु है और एक जन्म भी–पुराना मरता है, नया आविर्भूत होता है, अहंकार गलता है, आत्मा का आविर्भाव होता है। तो हमने प्रेम के लिए इन्तजाम कर लिए हैं और धोखे कर दिए हैं। इसलिए दुनिया में इतने लोग प्रेम करते मालूम पड़ते हैं, लेकिन प्रेम की सुगंध कहां है? जीवन तो दुर्गंध से भरा है धूणा की, युद्ध और रक्तपात, कलह और वैमनस्य। शत्रुता जीवन का आधार मालूम पड़ती है। तुम जीते ही हो लड़ने के लिए, जीते ही हो लड़ते हुए। प्रेम के गीत गाते हो–वे गीत शायद भ्रम हैं। शायद जीवन में जो नहीं मिला, गीत गाकर अपने को समझा लेते हो। गीतों में भरोसा कर लेते हो।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक अनूठी घटना घट सकती थी, वह घट नहीं पाती। लेकिन इसमें समाज का ही कसूर हो, ऐसा नहीं है–व्यक्ति डरा है, इसलिए समाज के हाथ में सूत्र दे दिया है। भय भीतर है। इसलिए मैं जब भी प्रेम की बात करता हूं, मृत्यु की भी बात करता हूं, और जब भी मृत्यु की बात करता हूं तब प्रेम की भी बात करता हूं। मेरे लिए दोनों एक ही ऊर्जा के ढंग हैं।

तुम समझने की कोशिश करो।

प्रेम में तुम्हारा होना डूबता है, वैसे ही जैसे मृत्यु में डूबता है। मृत्यु से थोड़ा ज्यादा भी डूबता है, कम नहीं। क्योंकि मृत्यु में शरीर तो मिट जाता है, मन नहीं मिटता, अहंकार नहीं मिटता, फिर नया जन्म हो जाता है, अहंकार का। नयी यात्रा शुरू हो जाती है। सिर्फ वस्त्र बदल लिए जाते हैं मृत्यु में। प्रेम बड़ी मृत्यु है मृत्यु से–महामृत्यु है। शरीर तो वही रहता है, मन बदल जाता है, अहंकार गिर जाता है। तुम मिट जाते हो और किसी नये का जन्म होता है, जो तुमसे अपरिचित है, जिसे तुमने पहले कभी जाना ही न था। कोई और ही तुम में आविष्ट हो जाता है। क्षणभर पहले और क्षणभर बाद में जमीन-आसमान का भेद हो जाता है। तुम्हारी आंख में किसी और ही ऊर्जा की लहर होती है। तुम्हारे पैर में किसी और ही नृत्य की गति होती है।

 

तुम्हारे हृदय में किसी और ही गीत की गुनगुन होती है। क्षणभर पहले जहां रेगिस्तान था, क्षणभर बाद वहां अनंत-अनंत कमल खिल जाते हैं। यह क्षण में घटता है। यह क्रांति है। यह इतनी बड़ी क्रांति है कि तुम घबड़ाते हो। यह इतना बड़ा रूपांतरण है कि तुम डरते हो। तुम भी चाहोगे, इसे अगर मात्रा-मात्रा में घटे, अगर कदम-कदम घटे, थोड़ा- थोड़ा घटे, होमियोपैथी की मात्रा में घटे। थोड़ा- थोड़ा करके घटे तो तुम भी सोचोगे कि चलो ठीक है। लेकिन यह है आकस्मिक। यह है क्रांति। इसका कोई क्रमिक हिसाब नहीं है, सीढ़ियां-सीढ़ियां नहीं घटता, विस्फोट है, इधर पुराना गया, इधेर नये का आविर्भाव हुआ। और दोनों का कहीं मिलन नहीं होता।

जो प्रेम के लिए तैयार है वह परमात्मा के लिए तैयार है।

भक्ति का आधार प्रेम है। भक्ति का संदेश सिर्फ इतना ही है कि अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम घटा, अगर तुमने प्रेम को घटने दिया, बाधा न डाली, अगर तुमने द्वार दरवाजे बंद न किए भयभीत होकर, और अगर तुमने प्रेम को आने दिया, तुमने स्वागत किया–तो ज्यादा देर न लगेगी, तुम प्रेम के पीछे ही परमात्मा की पगध्चनि सुनोगे, उसे आता हुआ पाओगे। परमात्मा की तुम्हें पूजा करनी पड़ती है, मंदिर-मस्जिद खोजने पड़ते हैं, क्योंकि तुम प्रेम से चूक गए हो। इसलिए तुम्हें नकली मंदिर बनाना पड़ता है, नकली मस्जिद बनानी पड़ती हैं, नहीं तो प्रेम असली मंदिर है, असली मस्जिद है। प्रेम ही गुरुद्वारा है। बाकी तो सब तरकीबें हैं। असली से चूक गए तो नकली को बना लेते हो। मन को समझाते हो, बुझाते हो, सांत्वना करते हो।

प्रेम मिटाएगा। प्रेम तुम्हें निखारेगा। प्रेम तुम्हें जलाएगा अग्नि की तरह। प्रेम की बड़ी पीड़ा है और बड़ा आनंद भी। प्रेम ठीक मृत्यु जैसा है–लेकिन सिर्फ मृत्यु जैसा नहीं, जीवन जैसा भी है : एक छोर पर मृत्यु घटती है, दूसरे छोर पर जीवन घटता है, इधर पुराना मरा, उधर नया जन्मा, इधर रात गई, सुबह हुई, इधर तारे ढले, उधर सूरज निकला, एक द्वार बंद हुआ, दूसरा खुला। तो तुम प्रेम के लिए सोचते मत रहो–द्वार-दरवाजे खोलो! भयभीत किससे हो? यह शरीर तो जाएगा। तुम इसे बचाकर भी रखो तो भी जाएगा। यह अहंकार धूल- धूसरित होगा। यह खोपड़ी गिरेगी मिट्टी में। यह तो मरघट बनने ही वाला है। तुम बचा किसके लिए रहे हो?      तुम संभाल किसके लिए रहे हो? यह कृपणता कैसी? इसके पहले कि सब छीन लिया जाए, बांट दो! फिर तुमसे कोई छीन न सकेगा। इसके पहले कि तुम मिटो, मिट जाओ! फिर तुम्हें कोई मिटा न सकेगा। इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे, तुम प्रेम का आमंत्रण स्वीकार कर लो! फिर तुम्हारी कोई मौत नहीं है।

अब मैं तुमसे एक विरोधाभासी बात कहूं। मैं कहता हूं, प्रेम मृत्यु है, और मैं तुमसे यह भी कहना चाहूंगा कि प्रेम में ही पता चलता है अमृत का। प्रेम में ही पता चलता है कि कुछ है तुम्हारे भीतर जिसकी कोई मृत्यु नहीं। मरकर ही पता चलता है अमृत का। कूड़ा-कर्कट जल जाता है, सोना बच जाता है। जो मर सकता था, मर जाता है। जो नहीं मर सकता, जो अविनाशी है, उसका साक्षात्कार हो जाता है।

मनुष्य ने अपने भय के आधार पर प्रतीक चुने हैं। इसलिए आमतौर से तुम्हें लोग प्रेम के साथ मृत्यु का संबंध जोड़ते हुए नहीं दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि मृत्यु से तो तुम भयभीत हो और तुम सोचते हो प्रेम को तुम चाहते हो। मैं तुमसे कहता हूं: जो प्रेम को चाहता है व मृत्यु को भी चाहता है। क्योंकि जिसने प्रेम के जाना या चाहा, उसने मृत्यु का सुख भी जाना, मृत्यु का रस भी जाना। क्योंकि मृत्यु में ही अमृत का आविर्भाव है। तुम मौत से भयभीत हो, इसलिए तुम प्रेम से भी भयभीत हो। तुम्हारी सारी चिंतन की व्यवस्था तुम्हारे भय को प्रतिबिंबित करती है। जैसे शास्त्रों में लिखा है, परमात्मा प्रकाश है; क्योंकि आदमी अंधकार से डरा हुआ है। परमात्मा दोनों है, अन्यथा अंधकार होगा कैसे? लेकिन सब शास्त्र कहते हैं–कुरान, उपनिषद, वेद–परमात्मा प्रकाश है। फिर अंधकार, फिर रात किसकी? फिर रात का राजा कौन? तब फिर शैतान को गढ़ना पड़ता है, क्योंकि रात का भी कोई राजा होना चाहिए। फिर अंधेरे का एक मालिक बनाना पड़ता है, क्योंकि अंधेरे की भी तो व्यवस्था जमानी होगी। अंधेरे का साम्राज्य किसका है? परमात्मा का ही है। तुम्हारे भय के कारण उपद्रव खड़ा कर रहे हो।

तुम्हारे भय ने परमात्मा को भी दो में बांट दिया। भय तुम्हें ही नहीं बांट रहा है, तुम्हारे परमात्मा तक को विभाजित कर देता है। तुम कहते हो, दिन उसका। रात उसकी ? रात से तुम हरे हो! अंधेरा तुम्हें घबड़ाता है। इस घबड़ाहट के कारण तुम जीवन के बहुत से राज न जान पाओगे, क्योंकि बहुत से राज अंधेरे में छिपे हैं। तुम शांत न हो सकोगे, क्योंकि शांति का स्वभाव अंधेरे जैसा है, प्रकाश जैसा नहीं।

अब तुम्हें घबड़ाता है। इस घबड़ाहट के कारण तुम जीवन के बहुत से राज न जान पाओगे, क्योंकि बहुत से राज अंधेरे में छिपे हैं। तुम शांत न हो सकोगे, क्योंकि शांति का स्वभाव अंधेरे जैसा है, प्रकाश जैसा नहीं।

अब तुम्हें बड़ी कठिनाई होगी।

शांति अंधकार जैसी है, क्योंकि शांति विराम है, विश्राम है। समाधि, पतंजलि ने कहा है, निद्रा जैसी है। तो निश्वित ही शांति अंधकार जैसी होगी, रात्रि जैसी होगी। प्रकाश में उत्तेजना है, यह तो तुमने अनुभव किया ही है। इसलिए तो अगर तुम सो रहे हो और बहुत बड़े-बड़े प्रकाश के बल्ब लगा दिए जाएं तो सो न सकोगे; प्रकाश तुम्हारी आंखों को उत्तेजित रखेगा, तना हुआ रखेगा, विश्राम न लेने देगा। इसलिए तो दिन में सोना मुश्किल है। इसलिए तो सारी प्रकृति रात में सोती है।

विश्राम के लिए अंधकार चाहिए। प्रकाश में एक तनाव है। अगर तुम प्रकाश ही प्रकाश मग रहा, जल्दी पागल हो जाओगे। जरा सोचो, एक महीने सो न सको–बहुत लंबा कह रहा हूं, तीन दिन में ही विक्षिप्त होने की हालत आनी शुरू हो जाती है। तीन दिन अगर जरा भी नींद न आ सके, तो बस सब रुग्ण होना श्दुरू हो जाता है। अंधेरा रोज-रोज चाहिए। अंधेरा भोजन है।

यह बड़े मजे की बात है कि तीन दिन तुम सो सकते हो, कोई खास नुकसान न होगा; लेकिन तीन दिन अगर जागे तो नुकसान हो जाएगा।

मैं एक महिला को देखने गया। वह नौ महीने से बेहोश है। सो रही है! पागल नहीं हो गई है। चिकित्सक कहते हैं, जग भी सकती है, न भी जगे। जग सकती है, क्योंकि मैंने एक घटना सुनी है कि अमरीका में एक महिला बारह साल तक सोयी रही, बारह साल के बाद जगी। बिलकुल ठीक, ताजी! जैसी सोयी थी उतनी ही ताजी! वस्तुत: बारह साल में उसके संगी-साथी बूढे हो गए, वही नहीं हुई, क्योंकि ताजी की ताजी रही। बारह साल जैसे आए ही नहीं उसके लिए। जैसे समय बीता ही नहीं। जैसे घड़ी के कांटे चले ही नहीं, सब ठहरा था। वह गहन निद्रा में रही, विश्राम में रही। उसके चेहरेपर सलवटें न आईं। लेकिन बारह साल जागे नहीं रह सकते। खुद तो पगल हो ही जाते, और न मालूम कितनों को पागल कर दिया होता। जिसको काटते वही पागल हो जाता।

परमात्मा को प्रकाश ही प्रकाश कहा है, अंधकार नहीं! आदमी अपने भय से अपने शब्द बनाता है। तुम अंधेरे से भयभीत हो तो तुम्हें लगता है कि परमात्मा अंधकार–नहीं! प्रकाश! तुमने कभी खयाल किया, प्रकाश तोड़ता है, चीजों को अलग-अलग कर देता है। अभी देखो, सुबह हुई है, तो हर वृक्ष अलग-अलग हो गया; रात अंधेरा होगा, सब एक हो गया। फिर भेद न रहे। कौन आम है, कौन नीम है–फर्क न रहा। नीम और आम भी एक हो गए।

सब बराबर हो गया।

अंधेकार जोड़ता है, प्रकाश तोड़ता है। प्रकाश भेद खड़े करता है, अंधेकार अभेद है।

सूरज का उगना निश्‍चित है

एक दिशा में

किन्तु तिमिर के लिए खुली हैं दसों दिशाएं।

सूरज तो सीमित ही है–एक दिशा से उगता है, पूरब से उगता है तो पूरब से उगता है। अंधकार कहां से उगता है, कभी खयाल किया? सब तरफ से आता है, दसों दिशाओं से आता है। कभी विचार किया? प्रकाश तो कभी होता है, फिर खो जात है। अंधकार सदा है, सदा-सदा है। दीया जलाते हो, टिमटिमाने लगती है रोशनी; अंधेरा मिटता नहीं। दीया गया, अंधेरा वापस अपनी जगह है। कौन दीया अंधेरे के मिटा पाया है! कितनी बार सूरज उगा है, कितनी बार डूबा है। रात पर रेखा भी खिंची? अंधेरे को कोई जरा सी भी परेशानी हुई?

प्रकाश घटना है; अंधकार शाश्वत है। कुछ करो तो प्रकाश होगा। ईंधन चाहिऐ। तुमने देखा, तेल चुक जाएगा, दीया बुझ जाएगा! सूरज का दीया भी बुझेगा–उसका तेल भी, वे कहते हैं, चुक रहा है! चार हजार साल और लगेंगे। लंबा है समय, लेकिन समय की अनंतता में चार हजार साल क्या हैं? बुझ जाएगा। ईंधन चाहिए।

दीया बुझता है–तेल के चुक जाने से। अंधकार बिना ईंधन के है, इसलिए बुझ न सकेगा। कभी न बुझेगा। कितने ही सूरज आएंगे और जाएंगे, कितने ही दीए जलेंगे और बुझेंगे—अंधकार रहेगा और रहेगा!

मृत्यु जीवन से बड़ी है, जैसे प्रकाश से अंधकार बड़ा है। जीवन तो थोड़ी सी चहल-पहल है। जैसे सागर में उठी लहर, नाची, गाई, उमड़ी–खो गई! ऐसा ही जीवन है।

उठती है लहर, नाचे, कूदे, शोरगुल मचाया–मैं हूं, तू है, न मालूम कितनी चर्चा, वार्ता, संघर्ष, युद्ध–खो गई लहर!

अगर गौर से देखो तो परमात्मा अंधेरे जैसा ज्यादा है, प्रकाश की बजाय। और प्रेम मृत्यु जैसा ज्यादा है, बजाय जीवन जैसे। पर हम मृत्यु से भयभीत हैं, तो हम कहते हैं, प्रेम जीवन है। हम जीवन को पकड़ना चाहते हैं। हम जीवन को यस लेना चाहते हैं। हम जीवन को सब भांति छाती से चिपटा लेना चाहते हैं। तो हम कहते हैं, प्रेम जीवन है। लेकिन यह कोई सत्य की प्रतीति नहीं है। जीवन बड़ा छोटा है, मृत्यु बड़ी विराट है!

आखो को अपने पक्षपातों से मुक्त करो। सत्यों को देखो–जैसे हैं। पुन: आज की रात अंधेरे में बैठकर देखना, शायद अंधेरे का सौंदर्य तुमने देखा ही नहीं अब तक भय के कारण। अंधेरा बड़ा मखमली है। उसका स्पर्श बड़ा गुदगुदा है। उसके स्पर्श की कोमलता प्रकाश क्या पाएगा! प्रकाश तो उत्तप्त है। अंधेरा बड़ा शीतल है!

अंधेरे को फिर से विचार करना। विचार नहीं करना—ध्यान करना। आज की रात आंख खोलकर अंधेरे में बैठ जाना और अंधेरे को जरा अनुभठ करना। अंधेरे की अनुभूति तुम्हें मृत्यु की अनुभूति को भी सुखद बना देगी। मृत्यु और अंधेरे को तुम अगर अहोभाव से स्वीकार कर पाओ तो तुम प्रेम के राज को समझ पाओगे, क्योंकि प्रेम भी अंधेरे की तरह सुखद है, शीतल है।

मगर हमारे सब शब्द हमारे भय से आदोलित हैं। अगर हम किसी का स्वागत करते हैं तो हम कहते हैं, गर्म स्वागत! ठंडा स्वागत नहीं। वार्म वैलकम। अब अगर किसी का ठंडा स्वागत करो तो बात ही खराब हो गई। ठंडक में ऐसी खराबी है? तो फिर तुम्हारा असली स्वागत नरक में ही होगा। वार्म वैलकम!

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बीमार थी और उसके चिकित्सक ने कहा कि इसे गरम स्थान पर भेजना पड़ेगा। गरम आब-हवा की जरूरत है। तो उसने कहा कि’’ ठीक है, तो कहां भेज दें? अफ्रीका भेज दें?’’ चिकित्सक ने कहा कि नहीं, उतनी गरमी से भी काम न चलेगा। तो मुल्ला ने कहा,’’ कहां भेज दें फिर?’’ तब उसे तत्क्षण खयाल आया। उसने कहा कि समझ गए, मगर गोली आपको ही मारनी पड़ेगी, मैं नही मार सकता। फिर नरक ही जगह है जहां एकदम उबलती हुई गरमी है।

तुम्हारा भय तुम्हारी भाषा में प्रविष्ट हो गया है, तुम्हारे सोचने के ढंग में प्रविष्ट हो गया है। तुम्हारे प्रतीकों को ग्रसित कर लिया है उसने।

फिर से विचारो!

मृत्यु से हर। किस बात का हर है; तुम्हारे पास क्या है जिसके खो जाने से तुम हरे हो; है क्या; कभी ऐसा सोचो कि मेरे पास है क्या, जो मृत्यु छीन लेगी। तुम्हारे पास कुछ भी तो नहीं है, सिर्फ एक दम्भ है। बस वही छीन लेगी, और तो क्या छीनने को होगा; और दम्भ भी कितनी कोरी चीज है–हवा का गुब्बारा है। इसलिए तो जरा-जरा कोई छेड़ दे तो टूट जाता, फूट जाता। जरा-सा कोई कांटा भी चुभा दे तो प्राण निकल जाते हैं। जरा कोई हंस दे कि पीड़ा हो जाती है, घाव पर चोट लग जाती है।

दम्भ के अतिरिक्त और क्या है तुम्हारे पास जो मौत तुमसे छीन लेगी; प्रेम कहता है, अगर ऐसा ही है, अगर यही हर है, तो दम्भ तो प्रेम में ही छोड़ा जा सकता है, यह अहंकार तो प्रेम में ही डुबाया जा सकता है। फिर तो मौत का कोई हर ही न रह जाएगा। फिर तो कुछ भी न बचेगा।

जिसने प्रेमे को जाना उसने मृत्यु को जाना–और उसने यह भी जाना कि मृत्यु के पार कुछ है। यह अहंकार ही तुम्हें जानने नहीं देता, जागने नहीं देता!

पथ देख बिता दी रैन

मैं प्रिय पहचानी नहीं

तम ने धोया नभ पथ

सुवासित हिमजल से

सूने आगन में दीप

जला दिए झिलमिल

से आ प्रात बुझा गया

कौन अपरिचित, जानी नहीं।

मैं प्रिय पहचानी नहीं।

वही है जीवन में भी,

मृत्यु मग भी,

जलने में भी,

बुझने में भी,

प्रकाश में भी,

अंधकार में भी!

विभाजन मत करो! अन्य था रोओगे। कहोगे—मैं प्रिय पहचानी नहीं। उसी के हाथ हैं—बायां भी, दायां भी! जो तुम्हें उठाता है वही तुम्हें वापस बुला लेता है। जन्म और मृत्यु के बीच में जो थोड़ा-सा अवसर है, लहर के उठने और गिरने के बीच में जो थोड़ी-सी सुविधा है। अवकाश है, उस अवकाश को तुम प्रेम से भर जाने दो! अन्य था अवसर खो गया! अन्य था तुम्हें किसी दिन कहना पड़ेगा आंसू भरी आंखो से—

पथ देख बिता दी रैन

मैं प्रिय पहचानी नहीं।

अपरिचित, जानी नहीं।

आ प्रात बुझा गया कौन

मैं प्रिय पहचानी नहीं।

वही जलाता रात तारों को, वही सुबह बुझाता। हाथ बस उसी के हैं। जिसने ऐसा देखा–शुभ में, अशुभ में; सुंदर में, असुंदर में; सत्य में, असत्य में, साधु में, असाधु में, जिसने

ऐसा देखा कि हाथ उसी के हैं, उसी ने बस देखा, उसी ने बस प्रिय को पहचाना।

 

 

 

तीसरा प्रश्‍न :

 

भगवान, आपके कहे-कहे भी बहुतेरे आपके संन्यासी ध्यान नहीं करते, कहते हैं, समझ काफी है। क्या उनकी समझ काफी है?

 

 

अक्ल बारीक हुई जाती है

रूह तारीक हुई जाती है!

सुनते-सुनते मुझे समझ बढ़ती हो, ऐसा तो पक्का नहीं है, समझदारी बढ़ती है, समझ का खयाल बढ़ता है, सोचना पैना होता जाता है।’’ अक्ल बारीक हुई जाती है!’’

लेकिन ध्यान रखना, यह अक्ल महंगा सौदा हो जाएगी, अगर साथ में यह खयाल न रहा कि’’ रूह तारीक हुई जाती है’’? भीतर आत्मा अंधेरे में खोती जाती है, होश मिटा जाता है, बेहोशी छायी जाती है।

ध्यान रखना, निश्वित ही समझ काफी है। मगर समझ हो तब! ध्यान की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि समझ ध्यान है। उससे बड़ा कोई नहीं। लेकिन समझ हो तब। अपनी-अपनी परख अपने-अपने भीतर कर लेना। किसी दूसरे का सवाल भी नहीं कि कोई दूसरा चिंतित हो। अगर किसी की समझ जग गई है, बात खत्म हो गई। किसी दूसरे को फिक्र भी क्यों हो कि वह ध्यान करता है या नहीं? यह उसके ही अपने ही भीतर सोचने-समझने की बात है। अगर उसे लगता है, समझ जग गई, दीया जल गया–बात खत्म हो गई। अब न उसके जीवन में कोई दुख होगा न उदासी होगी। अब उसके जीवन में न कोई बैचेनी होगी, न कोई अशांति होगी। अगर बेचैनी अभी भी हो, अशांति अभी भी हो, दुर्गंध अभी उठती हो, नरक की लपटें अभी भी पास आती मालूम पड़ती हों, तो फिर धोखा किसको दे रहे हो? तो फिर जान लेना कि समझ नहीं है। तो फिर ध्यान से बचने की कोशिश मत करना। क्योंकि ध्यान की चोट से ही समझ पैदा होगी। हो गई हो, तब कोई जरूरत नहीं है।

अगर स्वर्णकार की आग से तुम गुजर गए हो, सोना निखर गया हो, तो फिर अब कोई जरूरत नहीं है, लेकिन अगर न गुजरे होओ तो बचाव मत करना यह कहकर कि मैं गुजर चुका, नहीं तो कचरा ही बचेगा हाथ में। और कचरा भी रूकता नहीं, बढ़ता है। हर चीज बढ़ती है। जिसे बचाओगे, वह धीरे- धीरे बढ़ता जाएगा। धीरे- धीरे सोने को ढक लेना।

अगर समझ न हो तो इस भांति में मत पड़ना कि समझ है।

कसौटी क्या है? तुम्हारे पास जांचने के लिए उपाय क्या है? जांचने का उपाय है : आनंद, शांति, समस्वरता, संगीत, संतुलन, सम्यकत्व। भीतर तुम देख लेना। अगर भीतर संतुलन है, कोई चील डवाती नहीं, डुबाती नहीं, हवा के झोके आते हैं, निष्कंप तुम बने रहते हो—बात खत्म हो गई। फिर लाख दुनिया कहे कि ध्यान करो, प्रार्थना करो, पूजा करो—क्यों तुम करोगे! सिर में दर्द हो तो औषधि लेना, बीमारी हो तो औषधि लेना।

ध्यान औषधि है। किसी के कहने से लेने की जरूरत नहीं है। क्योंकि लोग कह रह हैं, क्योंकि और लोग ले रहे हैं, इसलिए करने की कोई जरूरत नहीं है। पर यह प्रत्येक का निपटारा उसके ही भीतर होगा।

यह प्रश्र किसी दूसरे ने पूछा है, यह भी बात ठीक नहीं। दूसरे को पूछने का हक ही नहीं है। तुम्हें दूसरे की समझ पर संदेह करने की भी क्या जरूरत है? अगर दूसरा कहता है, समझ जग गई है, इसलिए ध्यान की जरूरत नहीं–जग गई होगी। यह उसकी बात है। अगर न भी जगी होगी तो भी पछतावा उसे होगा कल, तुम क्यों परेशान हो?

लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि जो ध्यान करता है वह चाहता है बाकी भी ध्यान करें। जिसकी पूंछ कटी, वह चाहता है औरों की भी कटे। स्वभावत : वह यह मान नहीं सकता कि’’ हमारी हालत भी अभी ऐसी है कि ध्यान करना पड़े, तुम्हारी ऐसी है कि ध्यान की जरूरत नहीं रही! करवाकर रहेंगे! जरूर तुम धोखा दे रहे हो। हम नहीं पहुंचे अभी, तुम पहुंच गए’’ ,     यह मानने का मन नहीं होता। इसलिए जो ध्यान करता है वह दूसरों को भी करवाएगा। मगर वह बात दुष्टता की है। उसमें सज्जनता जरा भी नहीं।

यह प्रश्र ही दूसरे के पूछने का नहीं है। कोई कहता है, समझ जग गई, इसलिए अब ध्यान की जरूरत नहीं रही–जग गई होगी। सौभाग्य उसका। तुम प्रार्थना करो भगवान से कि तुम्हारी भी जगे, तुम्हें भी जरूरत न रह जाए। यह तो उसके ही सोचने की बात है कि कहीं धोखा तो नहीं दे रहा है! धोखा किसको दे रहा है ? यह किसी और का सवाल नहीं है। लेकिन धोखा देने वाले लोग हैं।

भय होता है ध्यान करने से। लगता है,’’ यह पागलपन और हम करें! यह नाच-कूद हम करें’’ ! हरेक अपने को समझाता है कि हमारी बड़ी प्रतिष्ठा है संसार में। हम जैसा प्रतिष्ठित आदमी, और नाचे, गाए, कूदे–यह शोभा नहीं देता! लेकिन यह भी कहने की हिम्मत नहीं होती कि हम भयभीत हैं, हर लगता है। हम कमजोर हैं। चाहते हैं करें, लेकिन नहीं कर पाते। इतने लोगों के सामने बेपर्दा होने की हिम्मत नहीं होती। एक झूठ को सिरताज बनाए हुए हैं। उघडने की, तथ्य को प्रगट करने की हिम्मत नहीं होती। इस तरह कूदकर चीख- पुकारकर हम जाहिर न करना चाहेंगे कि हमारे भीतर भी चीख-पुकार है। सारे संसार में लोग भीतर में लोग जानते हैं कि हम बड़े शांत हैं। लोग हमें सज्जन मानते हैं। लोग सोच भी नहीं सकते कि हमारे भीतर भी ऐसा पागलपन छिपा पड़ा हो सकता है। भय लगता है, कहीं प्रगट न हो जाएं, उघड न जाएं, कहीं नग्नता पता न चल जाए। वस्त्रों के भीतर नग्न हैं, लेकिन वस्त्रों में ठौका हुआ है। भय, लोकलाज, प्रतिष्ठा, अहंकार की प्रतिमाएं–वे सब बाधाएं हैं। मगर उनको तो स्वीकार करना ठीक नहीं, क्योंकि उनको जो स्वीकार कर ले, उसका तो ध्यान शुरू हो ही गया। जो यह कह दे कि मैं भयभीत हूं। इसने झूठा दम्भ तो न किया। इसने सत्य को स्वीकृति दी। इसके जीवन में अब प्रामाणिकता प्रारम्भ हुई। यह ज्यादा दूर नहीं है, यह जल्दी ही आ जाएगा, समझ भी आएगी, ध्यान भी आ जाएगा। लेकिन यह कहता है, हमें जरूरत ही नहीं है…!

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि दूसरों को करते देखते हैं ध्यान, लगता है कुछ हो रहा है; मगर हम नहीं कर पाते, संकोच है। एकांत में नहीं कर सकते हैं?

जो मूल बात है कि दूसरों से छिपाना है, उसको ही तोड़ना है। तुम एकांत में भी न कर सकोगे, क्योंकि वहां भी हर लगा रहेगा कर तो रहे हैं, कोई पड़ोसी न सुन ले; कहीं पत्नी बीच में न आ जाए और कहे, यह तुम क्या कर रहे हो–पति और परमेश्वर होकर। यह तुम क्या कर रहे हो–हू-हू-हू। दिमाग तो दुरुस्त है कि डाक्टर को बुलाऊं?

वहां भी हर समाया रहेगा। कहीं बच्चे न आ जाए–पिताजी। जो सभी कुछ जानते हैं, अब ऐसे अबोध हो रहे हैं।

हर लगता है। हर के कारण न करते होओ तो कम-से-कम स्वीकार तो करो कि हर है।

कुछ आते हैं, वे कहते हैं कि हमें तो शांत ध्यान बता दीजिए। शांत ध्यान तुमसे अभी हो न सकेगा। अशांति बहुत दबी पड़ी है, उसे निकालना है। वे कहते हैं, ये हमें जंचते नहीं।

 

“तुमने किए? ,

“नहीं, किए भी नहीं हैं’’।

’’तो जंचता क्यों नहीं है’’?

भीतर दावानल है। भीतर ज्वालामुखी है। तुम डरते हो कि फूट जाएगा, निकल जाएगा बाहर। किसी तरह अपने के संहाले रहे। किसी तरह प्रतिष्ठा बनाई है, प्रतिमा बना ली है।

जैन मुनि मेरे पास आत हैं। कुछ तेरामथी जैन साधु आए। प्रतिष्ठित साधु हैं। सारे देश में उनका नाम है। वे कहने लगे कि ध्यान तो करना है, लेकिन किसी को पता न चले—श्रावकों को पता न चले! मैंने उनको कहा कि’’ श्रावक से तुम डरते हो! श्रावक तुमसे डरें, समझ में आता है। तुम श्रावकों से डरते हो’’? हंसने लगे। कहने लगे, आप बात तो ठीक कहते हैं, लेकिन हम उनपर निर्भर हैं। और वैसे तो वे इस पक्ष में भी नहीं हैं कि हम आपके पस आएं। हम चोरी- छिपे आए हैं। एक श्रावक आपका भक्त है, वह ले आया है। उसके घर गए थे। यहां का तो किसी को पता नहीं है, कहीं का और बता कर बीच में आ गए हैं। लेकिन ध्यान करना है।

उनकी पीड़ा मैं समझता हूं।

मैंने उनको कहा कि कोई बात नहीं, चलो, एकांत कमरे में ध्यान कर लो। जाते वक्त कहने लगे, पर एक खयाल रखना कि कोई फोटो न ले ले। मैंने कहा,’’ यह तो होगा। फोटो तो ली जाएगी। इतना तो करने दो’’। उनकी फोटो ले ली है। बाद में मुझे मिलने आए थे। कहने लगे, आप किसी को बताना मत! मैंने कहा कि मैं किसी को बताऊं तो भी आप रोक न सकोगे, फोटो है।

इतना भय है—साधु- संन्यासी जिसको कहते हैं, उसको! गृहस्थ की तो बात ही छोड़ दो।

भय के कारण अगर तुम समझदारी की बातें कर रहे हो तो तुम धोखा अपने को दे रहे हो। और निश्वित ही तुम समझदारी की बातें करना चाहो तो खूब कर सकोगे। मुझे सुनते-सुनते समझ तो नहीं आए, समझदारी तो आ ही जाती है। समझदारी समझ का समझदारी खोटा सिक्का है।

सुहबते-रिंदा से वाइज कुछ न हासिल कर सका

बहका-बहका-सा मगर तर्जेकलाम आ ही गया।

धोखा है।

शराबीयों के साथ भी रहे….

सुहबते-रिंदा से वाइज कुछ न हासिल कर सका

वह धर्मोपदेशक के साथ भी रहा, मस्तों के साथ भी रहा कुछ हासिल तो न कर सका। क्योंकि मस्ती हासिल करने के लिए तो पहले कुछ खोना पड़ता है, वह तो महंगा सौदा है। वह तो हिम्मतवरों का काम है। वह तो जुआरियों का मामला है, दुकानदारों का नहीं। सुहबते-रिंदा से वाइज कुछ न हासिल कर सका बहका-बहका-सा मगर तर्जेकलाम आ ही गया।

लेकिन शराबियों की बातें सुनते-सुनते कहने का बहका-बहका ढंग तो आ ही गया। बस उतना ही हो रहा है–बहुतों को। इधर शराब की चर्चा चलती है, उधर’’ तुम्हें बहका-बहका साततर्जेकलाम आ ही गया’’? उधर तुम ऊंची बातें करने लगते हो। बात में तुमसे कोई जीत न सकेगा, यह बात पक्की है। मगर ध्यान रखना, कहीं बात ही बात में तुम अपने को मत गंवा बैठना! तो यह बात फिर महंगी हो जाएगी।

 

 

चौथा प्रश्‍न :

 

भगवान, मैं आपका एक साधक हूं, लेकिन संन्यस्त नहीं हुआ। फिर भी क्या मेरी मृत्यु के क्षण में आप धक्का देने आएंगे? यदि हां, तो मुझे उस क्षण की तैयारी के लिए क्या करना चाहिए? सन्यास……..!

 

 

क्योंकि जो तुम जिंदगी में न पा सकोगे उसे मरकर पा सकोगे, इसकी संभावना कम है। अगर तुम जिंदगी में मेरे साथ न हो सके तो मुझसे तुम आशा रखो कि मौत में तुम्हारे साथ रहूंगा—जरा जरूरत से ज्यादा आशा कर रहे हो। नहीं कि मेरी तरफ से कोई बाधा है। मैं कोशिश करूंगा। लेकिन जब जिंदगी में तुम साथ न हो सक तो मृत्यु में तुम मेरे साथ को ले सकोगे? जब होश में थे तब मेरे साथ को न ले सके तो जब तुम बेहोशी में खोने लगोगे, तुम तब सहयोग कर सकोगे? कठिन होगा तुम्हारी तरफ से। मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं है। मेरी तरफ से आश्वासन है। लेकिन मैं कुछ कर न पाऊंगा। मैं चिल्लाऊंगा और तुम न सुनोगे। मैं हाथ पकडू, और तुम हाथ छुडाओगे। मैं तुम्हें धक्का दूंगा और तुम मुझे दुश्मन जानोगे।

जब जिंदगी में तुम हिम्मत न जुटा सके, जब होश था, जब थोड़ी समझ थी, जब थोड़ा प्रकाश था–जब तुम प्रकाश में मुझे न पहचान सके तो अंधेरे में तुम मुझे पहचान लोगे? कठिन हो जाएगा।

करेंगे मर के बका-ए-दवाम क्या हासिल

जो जिंदा रह के मुकामे हयात पा न सके।

मरकर, सोच रहे हो कि जीवन का लक्ष्य जब जीवित रहते न मिल सका…!

नहीं, ऐसी भूल मत करो। अभी समय है। देर हुई, पर बहुत देर कभी भी नहीं हुई है। अब यहां आ ही गए हो तो रीते मन लौट जाओ।

पनघट तक आ कर भी गागर

 

रीती लौट रही है!

इसे शीश पर धर कर लायी

पनिहारिन बेचारी

सीचूंगी तुलसी का चौरा

आंगन की फुलवारी

पर माटी की इस काया में

ओझल छेद कहीं है

परघट तक आ कर भी गागर

रीती लौट रही है!

साधक हो,

अब संन्यस्त हो कर ही लौटो!

संन्यास का अर्थ क्या है? इतना ही अर्थ है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा है। और क्या अर्थ है? इतना ही अर्थ है कि तुम अपना हाथ मेरे हाथ में देने को राजी हो–बेहिचक। पागलपन भी करवाऊं तो भी तुम भरोसा रखोगे कि कुछ मतलब होगा। भरोसे के अतिरिक्त संन्यास का कोई और अर्थ नहीं है। इस भरोसे में ही तुम्हारे खो जाने का उपाय होने लगता है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम संन्यास के लिए तैयार हैं, लेकिन दो बातें हम न कर सकेंगे–माला और गेरुआ न पहनेंगे। तो मैं उनसे पूछता हूं,’’ तो फिर तैयारी और क्या है? आपकी माला बनाकर मुझे पहनाएंगे? संन्यास का फिर अब क्या मतलब है? फिर मुझे आपके हिसाब से चलना पड़ेगा–क्या करना, यह साफ-साफ कर लें, नहीं तो पीछे झंझट हो, अदालत जाना पड़े। सोचा क्या है तुमने? ’’

जानता हूं मैं भी कि कपड़ों से क्या होता है, माला से क्या होता है! यह मुझे भी पता है। कुछ कपड़े और माला पहनने से तुम स्वर्ग पहुंच जाओगे, ऐसा भी नहीं है। लेकिन कपड़ा और माला तो सिर्फ इंगित है तुम्हारी तरफ से कि पागल होने की तैयारी है, कि अब हम राजी हैं, कि अगर दीवाना बनाओगे तो उसके लिए भी राजी हैं।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बैठा था अपने घर के द्वार पर। एक कार रुकी। आदमी रास्ता भूल गया था और उसने पूछा कि बंबई की तरफ जाने का रास्ता…। तो मुल्ला ने उसे ठीक-ठीक सूचनाएं दीं, कि पहले बाएं जाओ, फिर चौरस्ते से दाएं मुड़ना, फिर…। कोई दो घंटे बाद वह आदमी फिर वापस आया। वहीं मुल्ला बैठा था। उसने पूछा,’’ हद हो गई! तुम्हारी एक-एक सूचना का ठीक-ठीक पालन किया, वहीं के वहीं आ गए’’ । मुल्ला ने कहा,’’ अब तुमको ठीक सूचना दूंगा। यह तो केवल परीक्षा थी कि तुम्हें सूचनाएं पालन करने की अक्ल भी है या नहीं’’ ।

 

यह माला और गेरुआ–यह तो तुम घूमकर यहीं आओगे। इससे कहीं तुम परमात्मा तक नहीं पहुंच जाने वाले। मगर यह तो केवल सूचना थी कि देखें पालन कर सकते हो, फिर कुछ आगे की बात करें। यह ही न संभलती हो तो फिर भैंस से सामने बीन बजाना ठीक नहीं।

संन्यास का कुल इतना अर्थ है कि तुम कह सको—यह कौन छा गया है दिलो-दीदा पर कि आज अपनी नजर में आप हैं नाआशना से हम!

तुम अपनी ही नजर में अपने प्रति ऐसा अनुभव करने लगे कि खुद से अजनबी हो गए हो। तुम्हें तुमसे दूर करना है। मेरे पास तुम्हें करने के उपाय को कोई और अर्थ नहीं है, तुम्हें तुमसे दूर करना है। मेरे पास तुम हो जाओ, यह तो केवल विधि है, ताकि तुम अपने से दूर हो जाओ।

 

यह कौन छा गया है दिलो-दीदा पर कि आज–यह कौन हृदय पर और आंखों पर छा गया है, अपनी नजर में आप हैं नाआशना से हम–कि अपनी ही नजर में अपने से दूर हुए जाते हैं। बस इतना ही अर्थ है।

 

 

पांचवा प्रश्‍न :

 

 

एक पुरानी धारणा है कि महानुभाव और श्रेष्ठजन यदि अपने से छोटों को प्रणाम करें तो उससे छोटों को पाप लगता है। स्पष्टत : इससे उनके अहंकार को पोषण मिलेगा। फिर क्यों आप प्रतिदिन प्रवचन के लिए आने पर और फिर विदा लेते हुए भी हाथ जोड़कर हमें प्रणाम करते हैं?

 

 

…..ताकि तुम्हें याद बनी रहे कि तुम छोटे नहीं हो, ताकि तुम्हें याद बनी रहे कि तुम भूल–भला गए होओ, तुम्हारा स्वरूप भगवान का है, ताकि तुम्हें याद बनी रहे कि भगवता तुम्हारी संपदा है। हां, अगर तुम अपना अहंकार बढ़ा लो तो भूल हो जाएगी। और अगर तुम अपनी भगवता को जगा लो तो पुण्य हो जाएगा।

पाप और पुण्य तो तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर है। मेरे लिए कोई उपाय नहीं है सिवाय इसके कि तुममें भगवान को देखूं। जैसे ही जो अपने में देखा, वही सब में दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।

सीधी-चेरछी हर रेखाएं

तेरा रूप उभर आता है

चाहा कितनी बार कि कोई

 

अन्य दूसरा चित्र बनाऊं

तेरी आकृति की कारा से

अपने मन को मुक्त कराऊं

पर हर दर्पन में तेरा

प्रिय प्रतिबिम्ब उतर आता है।

तुम्हें देखता हूं जरूर, पर तुम दिखाई नहीं पड़ते वहां, जो दिखाई पड़ता है उसी को प्रणाम करता हूं। तुम भी धीरे-धीरे मेरे प्रणाम के सहारे उसकी खोज करो। इस भूल में मत पड़ना कि तुम्हें प्रणाम किया है। तो अहंकार बढ़ेगा। तो भूल हो जाएगी। तो तुमने फूलों को भी कांटा बना लिया।

तुम्हें प्रणाम किया है–तुम्हें नहीं, तुम्हारे स्वभाव को; तुम्हारी धारणा को नहीं कि तुम कौन हो–तुम्हारे सत्य को कि वस्तुत: तुम कौन हो। तुम भी उसी की याद करना। उसकी याद उठने लगे तो मेरे प्रणाम से तुम्हारी खोज को बड़ी गति आ जाएगी।

 

 

आखिरी प्रश्‍न :

 

कब, किस घड़ी में संन्यासी शिष्य के भीतर से अपेक्षा का भाव पूर्णतया गिर जाता है?

 

 

अपेक्षा तब तक रहेगी तब तक तुम्हें अनुभव नहीं हुआ कि जीवन में कुछ भी मिलने को नहीं है। जीवन केवल आश्वासन देता है, पूरा नहीं करता। जीवन एक धोखा है। दूर से लगते हैं बड़े मरूद्यान, पास आने पर मरुस्थल सिद्ध हो जाते हैं। दूर से लगता है बड़ा सौंदर्य। दूर से ढोले बड़े सुहावने! पास आने पर सब कुरूप हो जाता है। जितना तुम्हारा यह अनुभव गहरा होने लगेगा कि सब सौंदर्य दूरी का है, और जीवन का सारा रस भविष्य में है, वर्तमान में कभी भी नहीं है; लगता है मिला, मिला, मिला, मिलता कभी नहीं; पास आते मालूम पड़ते हो, पहंचते कभी नहीं। यह मंजिल कुछ ऐसी है कि दूर हटती चली जाती है। जैसे क्षितिज है, आकाश छूता है पृथ्वी को, लगता है यह दस- पांच मील के फासले पर छू रहा है; बढ़ो, बढ़ता जाता है–दूरी सदा उतनी ही रहती है। जिस दिन तुम्हें यह प्रतीति होगी जीवन की सर्वांगीण दिशाओं से कि यहां सब सिर्फ निमंत्रण है, आशा है, पूरा कुछ भी नहीं होता, उसी दिन तुम्हारी अपेक्षा गिर जाएगी। अपेक्षा गिरते ही संसार तिरोहित हो जाता है। क्योंकि अपेक्षा में ही संसार है। आशा में ही संसार है। और जैसे ही संसार तिरोहित हो जाता है, तुम अचानक पाते हो: तुम परमात्मा से घिरे हो।

मैं तुमसे यह कह रहा हूं–यह बड़ा मुश्किल होगा समझना–मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि यह पृथ्वी को छुआ है; यहीं छुआ है, कहीं जाने की जरूरत न रही।

सुधा कल्पना मात्र, गरल का दावा सोलह आने सच है

सुधा कल्पना मात्र, गरल का दावा सोलह आने सच है

कभी किसी ने चखा न देखा केवल नाम चला आता है

पर विष बिकता चौराहे पर जो खाता है, मर जाता है।

सुधा कल्पना मात्र, गरल का दावा सोलह आने सच है।

 

जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ेगा कि संसार में सुधा तो केवल कल्पना मात्र है, अमृत को केवल बातचीत है, सपना है; जहर सत्य है–उसी दिन हाथ रुक जाएंगे। जानकर कोई गरल को पी सका है? जहर को जानकर कोई पी सका है? पीते हो तुम इसी आशा में कि जहर नहीं है, अमृत है। होगा जहर, मानते हो अमृत, इसलिए पीते हो।

जहां-जहां तुमने अब तक सुख चाहा था, वहां-वहां सुख मिला? जब मिलता है तब दुख मिलता है। लेकिन अदभुत हो तुम! फिर-फिर तुम आगे उसी-उसी में फिर सुख मांगने लगते हो। तुम पाठ लेते ही नहीं।

महाभारत में कथा है कि पांडव वन में भटक रहे हैं, अज्ञातवास के समय। प्यास लगी है। एक भाई झील पर गया है। झुका ही था पानी भरने को…स्वच्छ स्फटिक जैसी झील, उत्तल कंठ, भाई प्यासे मर रहे हैं, कि अचानक एक आवाज आई। यक्ष, कोई प्रेतात्मा झील की, बोली,’’ रुक! जब तक मेरे प्रश्रों का उत्तर न देगा तब तक अगर पानी को छुआ तो मर जाएगा। मेरे प्रश्रों का उत्तर दे दे, फिर पानी ले जा सकता है।

पूछा,’’ क्या प्रश्र हैं?’’ प्रश्र ऐसे थे कि उत्तर भाई न दे पाया और पानी ले जाने की कोशिश की, गिर पड़ा। पहला प्रश्र यह था कि मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार क्या है! ऐसे चार भाई आए और गिर गए, फिर युधिष्ठिर का आना हुआ। वही सवाल। यक्ष ने कहा,’’ ये चार मरे पड़े हैं। यही गति तुम्हारी भी होगी। मेरे प्रश्रों का पहले उत्तर दे दो, क्योंकि मैं यहां उलझन में पड़ा हूं।

मेरी उलझन यह है कि मुझे अभिशापित किया गया है कि जब तक मैं इन पांच प्रश्रों के उत्तर न लाऊंगा, तब तक मुझे इसी प्रेतात्मा में आबद्ध रहना पड़ेगा। मैं पूछ-पूछ मरा जा रहा हूं, सदियां बीत गईं, कोई उत्तर नहीं देता। मेरे छुटकारे का क्षण दूर हटा जा रहा है। अगर तुम उत्तर दोगे तो ही इस झील का पानी पी सकोगे। यह झील तरकीब है मेरी। और इस झील के आसपास दूर-दूर तक मैने सूखा फैला रखा है, कि जो भी आए, प्यासा हो, जल की तलाश में झील तक आए, मेरे जाल में फंसे। तुम उत्तर दे दो। मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार क्या है?

युधिष्ठिर ने कहा कि मनुष्य अनुभव से भी सीखता नहीं। और कहते हैं कि यक्ष राजी हो गया। यही उत्तर है। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी बेबूझ घटना यही है कि रोज तुम सुख मांगते हो, रोज दुख पाते हो, फिर वही सुख मांगते हो। सोचते हो अमृत पी रहे, कंठ में जाते ही गरल हो जाता है। रोज-रोज यह होता है, फिर से रोज-रोज वही प्याली भर लेते हो, रोज-रोज उसी रस से भर लेते हो जिससे कल भी दुख पाया था, परसों भी दुख पाया था, पिछले जन्मों में भी दुख पाया था। जिस क्षण तुम्हें यह बोध हो जाएगा, उसी क्षण अपेक्षा गिर जाती है। प्याली हाथ से छूट जाती है। संन्यास इस परम प्रज्ञा का नाम है।

 

 

आज इतना ही।

 

 

 

 

 


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–15

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हृदयसरोवर का कमल है भक्तिपद्रहवा प्रवचन

दिनांक 15 मार्च, 1976,

श्री रजनीश आश्रम, पूना

 सूत्र :

अन्यस्मात् सौलम्यं भक्तौ

प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात्

शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च

लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात्

न तदसिद्धौ लोकव्यवहारो हेय : किन्तु फलत्यागस्तत्सा धन च कार्यमेव

स्त्री धननास्तिकवैरिचरित्र न श्रवणीयम्

अभिमानदम् भादिक त्याज्यम्

तदर्पिताखिलाचार : सन् कामक्रो धाभिमानादिक तस्मिन्नेव करणीयम्

 

 

क्ति तो एक है।

बुद्ध ने कहा है, जैसे सागर को कहीं से भी चखो, खारा है : ऐसा ही सत्य भी है—एक स्वाद है, एक रस है। फिर भी नारद ने भक्ति के तीन विभाजन किए हैं। परा भक्ति के वे विभाजन नहीं हैं, गौणी भक्ति के विभाजन हैं।

तो पहला विभाजन : पराभक्ति मुख्याभक्ति, वह तो एक स्वरूप है। फिर गौणी भक्ति : दोयम, नीची, मनुष्यों के अनुसार। चूंकि मनुष्य तीन प्रकार के हैं, इसलिए स्व भावत : उनकी भक्ति भी तीन प्रकार की हो जाती है।

प्रकाश का तो एक ही रंग है, लेकिन कांच के टुकड़े से प्रकाश निकल जाए तो सात रंग का हो जाता है—कांच उसे सात रंगों में वि भाजित कर देता है। ऐसे ही तो इन्द्र धनुष बनता है। वर्षा के दिनों में, हवा में, वायुमण्डल में छोटे- छोटे पानी के कण झूलते होते हैं, उन पानी के कणों से निकलती सूरज की किरण सात हिस्सों में टूट जाती है। तो वर्षा के दिन हों, सूरज निकला हो, इन्द्र धनुष बन जाता है। किरण तो एकरंगी है, लेकिन सतरंगी हो जाती है। भक्ति तो एकरंगी है, लेकिन मनुष्य तीन तरह के हैं, इसलिए गौण अर्थ में भक्ति तीन तरह की हो जाती है। उन्हें भी समझ लेना जरूरी है, क्योंकि बड़ी बहुमूल्य बात उनमें छिपी है। सत्व, रज, तम—ऐसे तीन मनुष्य के वि भाजन हैं। स्वभावत : आदमी जो भी करेगा, उसका कृत्य उससे प्रभावित होता है। सात्वि भक्ति करेगा तो सत्व के हस्ता क्षर होंगे। राजसी

भक्ति करेगा तो भक्ति में भी राजस गुण समाविष्ट हो जाएगा। तामसी भक्ति करेगा तो तमस से बचा न सकेगा अपनी भक्ति को।

सात्वि भक्ति का अर्थ होता है: व्यक्ति पापों के विमोचन के लिए, अंधकार से मुक्त होने के लिए, मृत्यु से पार जाने के लिए भक्ति कर रहा है। भक्ति में आकांक्षा है सात्वि पुरुष की भी, इसलिए वह पराभक्ति नहीं। पराभक्ति में तो कोई भी आकांक्षा नहीं है–सत्व की भी नहीं है। पराभक्ति में तो परमात्मा को पाने को आकांक्षा भी नहीं है। क्योंकि जहां अकांक्षा है, वहां मनुष्य आ गया। तुम्हारी आकांक्षा तुम्हारी है। तुम्हारी आकांक्षा से जो भी गुजरेगा, तुम्हारी आकांक्षा के रूप को ले लेगा। तुम्हारी आकांक्षा उसे विकृत कर देगी। तुम्हारी आकांक्षा उसे श्दुद्ध कर देगी। उसका कुआरापन खो जाएगा। आकांक्षा भ्रष्ट करती है। तो सत्व की आकांक्षा भी यद्यपि बड़ी ऊंची आकांक्षा है, पर कितनी ही ऊंची हो, गौरीशंकर की चोटी कितनी ही ऊंची हो, ऐसे पृथ्वी से ही रहती है। आकांक्षा के जाल से संबंध बना रहता है। अभी भी मन में कुछ पाने का खयाल होता है–परमात्मा नहीं, मोक्ष सही; लेकिन पाने का खयाल होता है। और जहां तक पाने का खयाल है, वहां तक संसार है।

तुम अगर मोक्ष को भी चाहोगे तो तुम्हारा मोक्ष तुम्हारे संसार का ही फैलाव है। तुम मोक्ष की भी कल्पना क्या करोगे? तुम्हारे कांच के टुकड़े से, तुम्हारी आकांक्षा के टुकड़े से गुजरकर मोक्ष भी मोक्ष न रह जाएगा। तुम मोक्ष में भी अगर मांगोगे तो फिर-फिर संसार को ही मांग लोगे, थोड़ा सुधार कर, थोड़ा रंग-रोगन बदलकर। लेकिन तुमसे ही जुड़ा रहेगा तुम्हारा मोक्ष। इसीलिए तो तुम्हारा मोक्ष स्वर्ग के रूप में प्रगट होता है, मोक्ष के रूप में नहीं। मनुष्य की आकांक्षा से गुजरकर मोक्ष पतित हो जाता है, स्वर्ग बन जाता है। स्वर्ग, मोक्ष का पतन है। स्वर्ग का अर्थ है कि तुमने संसार में जो चाहा था और न पा सके थे, उसे तुम अब परलोक में चाहते हो। सुंदर स्त्रियां चाही थीं, न मिल सकीं; मिलीं, सुंदर सिद्ध न हुई। जिन्हें नहीं मिलीं वे भी तड़फकर मरे; जिन्हें मिलीं, वे और भी तडुफकर मरे। सुंदर पुरुष चाहे थे, न मिल सके; जो मिला, उसी को कुरूप पाया; जो मिला, उसी को क्षुद्र में ग्रसित पाया। आकांक्षा शेष रह गई, भरी न। मन तडुफता रह गया, प्यास बुझी न। बहुत घाटों से पानी पिया, लेकिन कोई पानी मन को न भाया, कोई पानी रास न आया। घाट तो बहुतेरे मिले, लेकिन ऐसा कोई घाट न मिला कि घन बन जाता।

तो तुम्हारे स्वर्ग में अप्सराएं पैदा हो जाएंगी। वह तुम्हारी ही वासना का विस्तार है। तो तुम स्वर्ग में रच लोगे उन स्त्रियों को जो तुम यहां न पा सके। द्यैकइ स्वर्ग के सारे मित्र पुरुषों ने बनाए हैं, अप्सराएं हैं। अगर स्त्रियां बनातीं तो स्वभावत: सुंदर पुरुषों को रचती। अप्सराएं ऐसी कि सोलह वर्ष पर उनकी उम्र ठहर जाती हैं, फिर बढ़ती नहीं। उर्वशी अभी भी सोलह ही साल की है, सदियों पहले भी सोलह साल की थी, सदियों बाद भी सोलह साल की रहेगी!

मनुष्य की आकांक्षा थी कि स्त्री सोलह पर ठरह जाती। कोई स्त्री वहां ठहरती नहीं, हालांकि स्त्रियां ठहरने की कोशिश भी करती हैं। सोलह के बाद बड़ी मुश्किल से बढ़ती हैं, बड़ी बैचेनी से बढ़ती हैं, दो-दो तीनतीन चार-चार साल में एक-एक साल बढ़ती हैं–फिर भी बढ़ना तो पड़ता ही है। समय किसी को क्षमा नहीं करता। मौत को पीछे हटाने का कोई उपाय नहीं है। युवावस्था को सदा पकड़े रखने की कोई सुविधा नहीं। यहां तो सभी हाथ से खोया चला जाता है।

तो फिर स्वर्ग तो है, वहां तो हमारे स्वप्न ही साकार हुए हैं। वहां तो कोई समय बाधा देने को नहीं है। वहां तो कोई मौत द्वार पर नहीं दस्तक देती। वहां तो बुढापा आकर खड़ा नहीं हो जाता। स्वर्ग में स्त्रियों के शरीर से पसीने की बदबू नहीं आती, सुगंध आती है, सुवास आती है। चहा हमने यहां था, हो न सका। बहुत इत्र-फुलेल छिड़के, बहुत सुगधिया खोजीं, फिर भी पसीने की यू छिपाए छिपती नहीं, प्रगट हो ही जाती है। शरीर की गंध, कितना ही भुलाओ, भूलती नहीं।

स्वर्ग में, पहली तो बात, पसीना निकलता ही नहीं। शीतल समीर! सुबह ही बना रहता है, दोपहर नहीं होती। और शरीर से सुगंध आती है। स्वर्ण-कायाएं हैं स्वर्ग में। और सोने में सुगंध है।

मुसलमानों के स्वर्ग में शराब के झरनों का भरोसा दीलाते हैं। आदमी का मन तो देखो! छोड़ता भी है पाने के लिए ही छोड़ता है। यह भी कोई छोड़ना हुआ? एक हाथ से छोड़ा नहीं, दूसरे हाथ से पकड़ लिया। और यहां प्यालियां छोड़ता है, शराब यहां प्यालियों में मिलती है, झरने और नदियां नहीं बहती–स्वर्ग में नदियां बहाता है। यहां तो शराब तुम्हें अपने में उतारनी पड़ती है, वहां तुम शराब में उतर जाओगे। डुबकियां लेना, तैरना!

उमर खय्याम ने कहा है कि धर्मगुरुओ, अगर यह बात सच है कि स्वर्ग में शराब है तो थोड़ा हमें यहां अभ्‍यास कर लेने दो। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे, न तुम्हें पीना आता है, न पिलाना आता है। तुम वहां करोगे भी क्या? तुम्हारा अभ्‍यास विपरीत है। उमर खय्याम ने ठीक ही मजाक की है। उमर खय्याम एक सूफी संत था, कोई शराबी नहीं। शराब तो उसका प्रतीक है परमात्मा के लिए। वह यह कह रहा है कि अगर परमात्मा उस लोक में मिलता है तो हमें उसका स्वाद यहीं लेने का अभ्‍यास करना होगा। अगर यहां अभ्‍यास न किया तो वहां पहुंच कर भी उसका स्वाद न ले सकोगे, भोग न कर सकोगे। छोड़ो वहां की फिक्र! यहां उसके स्वाद में रमो। तब जब उसके झरने बहने लगें तो तुम डुबकी भी ले सको। अगर यहां डरे शराब से, हाथ-पैर कंपे, तौबातौबा करते रहे, तो वहां जब झरने देखोगे बहते तो तुम्हारे तो प्राण सूख जाएंगे। तुम्हें तो जगह न मिलेगी बचने की। लेकिन शराब छोड़ी है यहां बड़े बेमन से, इसलिए स्वर्ग में उसका इन्तजाम कर लिया है।

हिंदुओं ने कल्पवृक्ष बना रखा है स्वर्ग में। यहां जो-जो नहीं मिलता, सब कल्पवृक्ष के नीचे मिल जाएगा। कल्पवृक्ष का अर्थ ही यह होता है कि उसके नीचे बैठते से ही वासना पूरी हो जाती है। वासना पूरी करने को कोई कृत्य नहीं करना पड़ता। यहां संसार में तो बड़ा दौड़ो, फिर भी नहीं पहुंचते–यह हमारा अनुभव है सभी का। कितना भ्रम करो, फिर भी फल क्या हाथ लगता है! राख रह जाती है हाथ में! सिकंदर भी खाली हाथ मरते हैं। धूल भरी रह जाती है मुंह में। कब्र प्रतीक्षा कर रही है। कितने ही दौड़ो, कितनी ही चेष्टा करो, अंतत: कब्र में ही गिर जाते हो। छोटे गिरते वहीं, बड़े गिरते वहीं, भिखारी और सम्राट गिरते वहीं, गरीब और अमीर गिरते वहीं, जानी और मूढ गिरते वहीं–सब मौत में गिर जाते हैं, सब धूल- धूसरित हो जाते हैं। कितना श्रम करो, मिलता क्या है?

यह हमारा संसार का अनुभव है, तो हमने स्वर्ग में कल्पवृक्ष बनाया। वहां श्रम नहीं करना पड़ता। इधन तुमने सोचा उधर पूरा हुआ। सोचने और पूरे होने मग क्षण का भी फासला नहीं होता। इधर उठा भाव उधर फल हुआ। जीवन का अनुभव यह है कि जिंदगीभर भाव करो, दौड़ो, श्रम करो, उपाय करो, आयोजन करो–सब निष्फल,! इसके विपरीत हमने स्वर्ग में कल्पवृक्ष बनाए। कुछ भी न करो, सिर्फ सपना उठे, सिर्फ लकीर उठे भाव की, इधर भाव उठ नहीं पाया, तुम जान भी न पाओगे, तुम जाग भी न पाओगे कि भाव उठा कि बाहर फल उपस्थित हो जाएगा। यह सांसारिक मन की ही आकांक्षा है।

इसलिए सारी दुनिया के सवर्ग अलग-अलग हैं, क्योंकि हर मुल्क के रहनेवाले के जीवन के दुख-सुख के अनुभव अलग हैं। तिब्बत का स्वर्ग सूर्य-प्रदीप्त है, रोशनी ही रोशनी है, उत्तप्त है, क्योंकि तिब्बत बर्फ की पीड़ा से पीड़ित है। हिंदुओं का स्वर्ग, शीतल बहार, सुबह की ठंडी हवा, वातानुकूलित है। हिंदू परेशान हैं सूरज से। आग-वगैरह का इंतजाम तो नरक में किया है दूसरों के लिए। स्वभावत: जो हमारा दुख है यहां, वह हमने नरक में; और जो हमने चाहा था, जो सुख था, हमारी कामना था, उसे हमने स्वर्ग में..।

स्वर्ग तुम्हारी कामना है, तुम्हारी चाह की कल्पना है, तुम्हारी चाह का काव्य है, तुम्हारा रोमांस है। नरक: तुम्हारी पीड़ा का इकट्ठा जोड़। तुमने बांट दिया। सारी पीड़ा नरक में रख दी और सारे सुख स्वर्ग में रख दिए–और बिना यह जाने कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं: अलग-अलग होते ही नहीं।

सुंदर स्त्री में ही कुरूप स्त्री छिपी है। सुंदर पुरुष मग ही कुरूप छिपा है। जीवन में ही मौत खड़ी है। जवानी में ही बुढापा झांक रहा है। जरा गौर से देखो तो जवानी में ही तुम्हें बुढापा झांकता हुआ दिखाई पड़ जाएगा। ठेठ भरी जवानी में तुम्हें झुकी कमर, हाथ में लकड़ी टेकता हुआ बूढा दिखाई पड़ जाएगा। जरा गौर से देखो, सुंदरतम देह में तुम्हें अस्थि-कंकाल दिखाई पड़ जाएंगे। जरा गौर से देखो, जहां तुम्हें यौवन की विभा दिखाई पड़ती है, वहीं तुम्हें चिता की लपटें दिखाई पड़ जाएंगी। थोड़ी गहरी आंख चाहिए। जरा देखने की गहराई चाहिए, बस।

सुख और दुख अलग नहीं किए जा सकते। संसार के सुख और दुख सम्मिलित हैं। मनुष्य के तर्क ने, विचार ने सुख को अलग करके स्वर्ग बना लिया; दुख को अलग करके नरक बना लिया। स्वभावत: नरक उनके लिए जिन्हें तुम पसंद नहीं करते, दुश्मनों के लिए, परायों के

लिए–स्वर्ग अपने लिए, अपनों के लिए, जिन्हें तुम चाहते हो, जिन्हें तुम सुख देना चाहते थे, न दे सके, उनके लिए।

इसलिए जो भी मरता है, सभी’’ स्वर्गीय’’ हो जाते हैं। खयाल किया तुमने, जो भी मरता है, मरते से ही स्वर्गीय हो जाता है। क्योंकि मरने की चर्चा, मरने का दुख प्रियजन उठाते हैं, दूसरों को तो लेना-देना क्या है! किसको पड़ी है कि नारकीय कहे कि नरक चले गए! किसको लेना- देना है! फिर मरे के संबंध मग कोई बुरी बात कहता भी नहीं। दुश्मन भी मर जाए तो भी अब मरे से कुछ बुरा कहना शोभा नहीं देता, अशोभन लगता है। स्वर्ग गए, स्वर्गीय हो गए! कोई शक भी नहीं उठाता कि ये स्वर्गीय हो गए, ये स्वर्गीय होने योग्य थे! लेकिन प्रियजन हैं, वे चाहते हैं स्वर्ग जाएं।

भक्ति–पराभक्ति–कुछ भी नहीं मांगती–परमात्मा को भी नहीं–और परमात्मा को पा लेती है। परमात्मा को पाने का ढंग ही यही है–न मांगना। बिना मांगे मोती मिलें! मांगा कि तुमने परमात्मा की शक्ल अपनी वासनाओं में ढाल ली।

तुम जरा सोचो, तुम किस तरह का परमात्मा चाहोगे। कभी विचार करो। तो तुम पाओगे कि तुम्हारी कामना का ही प्रतिबिम्ब होगा। किस तरह का परमात्मा चाहोगे? तो तुम पाओगे, तुम रंग भरने लगे परमात्मा में अपने ही। किरण टूट गई, सतरंगी हो गई। स्वभाव खो गया। सत्य अब सत्य न रहा। तुम जब सारी वासना को, कामना को छोड्कर देखते हो तो वह दिखाई पड़ता है, जो है।

परमात्मा की चाह भी परमात्मा के मार्ग में बाधा है। इसलिए परम भक्त सिर्फ भक्ति करता है, मांगता कुछ भी नहीं। परम भक्त सिर्फ प्रार्थना करता है, प्रार्थी नहीं होता–इसे खयाल में लेना। परम भक्त सिर्फ प्रार्थना करता है, प्रार्थी नहीं होता। उसकी प्रार्थना कुछ मांगने की नहीं होती। उसकी प्रार्थना अहोभाव की होती है, वह धन्यवाद देता है। वह कहता है,’’ ऐसे ही इतना दिया, कुछ पात्रता न थी, कोई योग्यता न थी। तू भी खूब है! लुटा रह है! मुझे दिया, जिसकी कोई पात्रता न थी! न देता तो शिकायत कहां करते, किससे करते! न देता तो शिकायत किस मुंह से करते! कोई कारण न होता। इतना दिया! पारावार दिया, विस्तार दिया! जीवन दिया, अस्तित्व दिया। धड़कता हुआ हृदय, प्रेम से भरे प्राण दिए! प्रार्थना की संभावना दी! परामात्मा की संभावना दी! मोक्ष का द्वार दिया! सब दिया!”

तो परम भक्त प्रार्थना करता है धन्यवाद के लिए। उसकी प्रार्थना अहोभाव है। उसकी प्रार्थना कृतज्ञता का उच्छवास है! वह मंदिर में धन्यवाद देने जाता है कि तेरी बड़ी कृपा है, तेरी बड़ी अनुकंपा है! तेरे जैसा औघड़ दानी नहीं देखा!

लेकिन यह पराभक्ति है। और ऐसा भक्त भगवान को पा लेता है। मुझे फिर दोहराने दें : जो मांगता नहीं, उसे मिल जाता है। जो मांगता है वह मांगने के कारण ही दूर पड़ जाता है। क्यों? मांग का शास्त्र समझो।

जब तुम कुछ मांगते हो तो मांगनेवाला अपनी मांग पर ध्यान रखता है। जब तुम कुछ मांगते हो तो तुम परमात्मा से भी बड़ी उस चीज को बता रहे हो जो तुम मांगते हो। अगर

तुम गए मंदिर में और तुमने कहा कि स्वर्ग मिल जाए, हे प्रभु! बहुत दुख पा लिया, अब और दुख न दे! अब तो सुख की छाया दे! तो तुम यह कह रहे हो अगर तुम मेरे सामने तुझे पाने अर स्वर्ग को पाने का विकल्प हो तो मैं स्वर्ग चुनता हूं। तुम यह कह रहे हो कि तेरा हम उपाय की तरह उपयोग कर लेते हैं, साधन की तरह; क्योंकि तेरे बिना मिलेगा न। अपने किए तो कर लिया बहुत, कुछ पाया नहीं–अब तेरा सहारा ले लेते हैं। ऐसे तो भीतर मजबूरी है कि चाहा तो यही था कि अपने ही हाथ से पा लेते; नहीं मिल सका, चलो ठीक, मांग लेते हैं, तेरी खुशामद कर लेते हैं; तेरी स्तुति कर लेते हैं!

यह एक तरह की रिश्वत है। यह एक तरह का फुसलावा है कि चलो, तुझे राजी कर लें, तेरे हाथ मघें है। लेकिन भीतर बेचैनी है। और जो तुम मांगते हो, वह बताता है।

मैंने सुना है, एक सम्राट युद्ध से घर वापस लौटता था। उसकी एक हजार रानियां थीं, उसने खबर भेजी कि मैं क्या तुम्हारे लिए ले आऊं। किसी ने कहा, हीरों का हार ले आना। किसी ने कहा, उस देश में कस्तूरी-मृग की गंध मिलती है, वह ले आना। किसी ने कहा, वहां के रेशम का कोई मुकाबला नहीं, तो रेशम की साड़ी ले आना। ऐसे बहुत लोगों ने बहुत कुछ मांगा। सिर्फ एक पत्नी ने कहा, तुम घर आ जाओ, तुम बहुत हो। उस दिन तक उसने इस रानी पर कोई खयाल ही न किया था। हजार रानियों में एक थी, कहीं थी; नम्बर थी, कोई व्यक्ति नहीं थी; लेकिन घर लौटा तो उसे पटरानी बना दिया। और रानियों ने कहा,’’ यह क्या हुआ? किस कारण?’’ उसने कहा,’’ इस ने अकेले कहो कि तुम घर आ जाओ। और कुछ नहीं चाहिए; तुम आ गए, सब आ गया। इसने मेरा मूल्य स्वीकारा। तुममें से किसी ने हीरे मांगे, किसी ने साड़ियां मांगी, किसी ने इत्र मांगा, और हजार चीजें मांगी–मेरा उपयोग किया। ठीक है, तुमने जो मांगा, तुम्हारे लिए ले आया। इसने कुछ भी न मांगा। इसके लिए मैं आया हूं”।

परमात्मा उसके द्वार पर दस्तक देता है जिसने कुछ भी न मांगा; जिसने कहा, ऐसे ही बहुत दिया है, बस मेरा धन्यवाद स्वीकार कर लो।

तो पराभक्ति तो धन्यवाद है। उसकी हम बात छोड़े। वह तो आत्यन्तिक है। लेकिन मनुष्यों में तो सात्वि मनुष्य है। वह कहता है,’’ छुटकारा हो जाए संसार से, पाप से मुक्ति मिले। अधंकार में बहुत जी लिए, प्रकाश चाहिए प्रभु! तमसो मा ज्योतिर्गमय! मृत्योर्मा अमृतं गमय! अब मृत्यु से मुझे अमृत की तरफ ले चलो! असतो मा सद्रमय! असत्य से मुझे सत्य की तरफ ले चलो”! बड़ी सात्वि पुकार है। आदमी कल्पना कर सके, उसकी आखिरी ऊंचाई है। और क्या तुम कल्पना करोगे; उसके पार तो कल्पना के पंख कट जाते हैं। उसके पार तो शून्‍य का विराट आकाश है। उसके बाद तो परमात्मा ही है। यह सत्पुरुष की आकांक्षा है–इसको नारद ने कहा, सात्वि भक्ति। मगर इसको गौणी भक्ति कहा है, याद रखना यह मुख्या नहीं है। यह परा नहीं है। यह कोई आखिरी बात नहीं है।

फिर उससे नीची भक्ति है: राजसी भक्ति। तुम मांगते हो–बडा राज्य मिल जाए, सत्कार मिले, सम्मान मिले, राष्ट्रपति हो जाओ कि प्रधानमंत्री हो जाओ। कि चुनाव में लड़ते हो

तो मंदिर जाते हो! दिल्ली के सभी राजनेताओं के गुरु हैं। जैसे ही जीते, भूल जाते हैं, वह बात दूसरी; मगर हारे कि गुरु के पास पहुंच जाते हैं।

यश मिले, कीर्ति मिले, धन मिले, पद मिले–यह राजसी मन का लक्षण है। अहंकार की तृप्ति हो, अस्मिता बढ़े, मैं कुछ हो जाऊं! फिर किसी भी रूप में मांगते हो। तो अगर तुम मंदिर में गए और तुमने यश, धन, कीर्ति मांगी; सुयश फैले, मेरे परिवार, मेरे कुल का नाम सदा रहे–तो तुम्हारी भक्ति और भी नीचे गिर गई, राजसी हो गई।

उससे भी नीचे तामसी भक्ति है। तामसी व्यक्ति राज्य भी नहीं मांगता, यशकीर्ति भी नहीं मांगता–वह कहता है, फलां आदमी मर जाए; इस पर दुख का पहाड़ गिर पड़े; चाहे इसे मिटाने में मैं मिट जाऊं, मगर इसे मिटाकर रहूंगा। उसका मन क्रोध से, तमस से; उसका मन हिंसा से, ईष्या से–आदोलित होता है–विनाश से!

ये तीन गौणी भक्तिया हैं। इन तीन में उत्तर-उत्तर कम में पूर्व-पूर्व की भक्ति कल्याणकारिणी होती है। तामसी से राजसी ज्यादा कल्याणकारिणी है। राजसी से सात्वि.::)ईइा ज्यादा कल्याणकारिणी है। और इन तीनों से पराभक्ति ज्यादा कल्याणकारिणी है।

लेकिन एक बड़ी अनूठी बात है जो समझ लेनी चाहिए–वह यह कि भक्ति का सेत्र तीनों में है। क्योंकि ऐसे तामसी व्यक्ति भी हैं तो सीधा छुरा मार आएंगे, जो भगवान के मंदिर न जाएंगे पूछने कि आज्ञा है, कि इस आदमी को मिटाना है; जो मिटा ही देंगे, जो भगवान को बीच में भी न लेंगे, इस बुरे काम के लिए भी बीच में न लेंगे, भले काम की तो बात दूर। यह तामसी व्यक्ति कम-से-कम मंदिर तक तो जाता है; इसके जाने का कारण गलत है, माना, मगर जाता ठीक जगह है। गलत आकांक्षा से जाता है, लेनिक जाता ठीक के पास है। इतना तो कम-से-कम ठीक है ही। आखें इसकी धुंधली हैं, परदा है क्रोध की-कोई बात नहीं। अगर प्रार्थना करता ही रहा, रोता ही रहा प्रार्थना में, तो शायद आंख से धुंधलका हट जाएगा।

जो आदमी धन के लिए पद के लिए मांगने गया है, कब तक मांगेगा; कभी तो जानेगा, समझेगा कि यह मैं क्या मांग रहा हूं! मांगते-मांगते, प्रार्थना करते-करते होश भी तो सम्हलेगा कम-से-कम पाएगा तो मंदिर में अपने को–कभी होश भी आ जाए। गलत कारण से ही सही, लेकिन ठीक जगह तो है–कभी झलक मिल जाए, तो शायद सात्वि हो जाएगा। किसी दिन पाएगा कि मांगा परमात्मा से धन और मिला; बड़ी भूल हो गई, कुछ और बड़ी बात मांग लेते। धन मांगा, क्या पाया! मिल भी गया, तो भी कुछ न पाया। पर अब शिकायत भी किसकी करें, खुद ही मांगा था। पद पा लेगा, लेकिन पद पाकर पाएगा, सिवाय खींचातानी के और कुछ भी नहीं है।

कुर्सी पर कोई ठीक से बैठ थोड़े ही पाता है! कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है; कोई कुर्सी को उलटाने की कोशिश कर रहा है। जो कुर्सीयों पर हैं, उनको जरा गौर से देखो! दो-चार दिन से ज्यादा भी राजधानी से बाहर रहने में घबड़ाहट लगती है: उधर कोई कुर्सी उलटा न दे! प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति परदेशाग की यात्रा पर जाने मएं डरते हैं; जब तक गए तब तक, इधर लौटकर आने का मौका ही न आए! बहुत बार ऐसा हो जाता है : राष्ट्रपति गए बाहर, फिर लौट ही न सके, क्योंकि तब तक यहां दूसरों ने उलटा दी कुर्सी, कोई और चढ़ा बैठा। रात चैन से सो नहीं सकते। राजनीतिज्ञ और चैन से सो जाए तो राजनीतिज्ञ ही नहीं। करवटें बदलता रहता है, दांव बिठाता रहता है, रातभर शतरंज की चालें चलतारहता है। बड़ा खेल है बड़ी बेचैनी से भरा है। मिल भी गया पद तो पाओगे कि कुछ मिला नहीं, कुछ और मांग लिए होते, मौका आया और क्या मांग बैठे। अवसर मिला था, यह क्या क्ड-कचरा मांगकर घर आ गए! देनेवाला सामने खड़ा था, मांगा भी तो क्या मांगा! तो किसी दिन शायद सत्व की ऊर्जा उठे और तुम्हारे मन में भाव उठे : असतो मा सद्रमय। असत्य से सत्य की तरफ ले चल प्रभु!

अगर सत्व की प्रार्थना जारी रही, तो किसी-न-किसी दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा :’’ परमात्मा से, और सत्य को मांग रहा हूं! परमात्मा को ही मांग लेता! जब मालिक हो तो नासमझी है। जब देनेवाला ही आकर हृदय में विरजमान होने को राजी है, तो माजिक को ही मांग लूं। फिर और सब तो इसके साथ आ ही गया। सत्य आया, प्रकाश आया, अमृत आया–वह सब तो इसका अनुषंग है। वे तो इसकी छायाएं हैं। तो मैं छायाएं मांग रहा हूं’’? तब मांगते-मांगते मांग भी निखरती है, सुधरती है। प्रार्थना गलत भी श्दुरू हो तो भी शुरू तो होती है।

अल्लाह अल्लाह ये तेरी तर्कीतलब की बुसअतें

रपता-रक्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया

अव्वल-अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें

आखिर आखिर इक मुकामे बेमुकाम आ ही गया।

ये तेरे त्याग और भोग की विशाल उलझनें, हे परमात्मा! लेकिन चलते रहे: रक्ता-रपता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया!

बहुत तरह के सौंदर्यों ने घेरा है–स्त्री का सौंदर्य था, फूलों का सौंदर्य था, धन का सौंदर्य था, पद का सौंदर्य था–लेकिन रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया, उस पुण्य का सौंदर्य आ ही गया, खोजते-खोजते, टटोलते-टटोलते।

अल्लाह अल्लाह ये तेरी तर्कीतलब की बुसअतें।

कितने भोग, कितने त्याग, कितनी उलझनें, कितनी विशालताए। भा आकाश है, लेकिन फिर भी–

रपता-रक्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया।

अव्वल अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें।

पहले-पहले एक-एक कदम पर मुसीबतें खड़ी थीं, हजारों रास्ते खुलते थे, चुनाव कर मुश्किल था। चुतते थे, भूलें हो जाती थीं। हजार रास्ते खुलते हों तो जो भी चुनोगे, पछतावा बना रहेगा कि नौ सौ निन्यानबे छोड़ दिए, पता नहीं वहां क्या था!

और जिंदगी में कुछ तो चुनाव ही होगा। धन चुनो, पद छूट जाता है। पद चुनो, धन त्यागना पड़ता है। स्त्री चुनो, पद छूट जाता ह। पद चुनो, ब्रह्मचर्य धारण करना पड़ता है। कुछ-न-कुछ झंझट खड़ी रहती है। एक चुनो, दूसरा छूटता है, दूसरा चुनो, एक छूटता है। और मन में यह पछतावा बना ही रहता है कि पता नहीं दूसरा विकल्प कहीं ज्यादा सुंदर हुआ होता। इसलिए मैं ऐसा आदमी नहीं पाता जो सुखी हो, क्योंकि नौ सौ निन्यानबे विकल्प सभी ने छोड़े हैं। एक चुनोगे तो नौ सौ निन्यानबे छूट जाते हैं।

राजनीतिज्ञ आता है। वह कहता है,’’ कहां की झंझट में पड़ गया! इससे तो थोड़ा धन कमा लेते!” क्योंकि राजनीतिज्ञ को सदा जिसके पास धन है, उसके पैर दबाने पड़ते हैं, उसे पीड़ा बनी रहती है।

धनपति आता है। वह कहता है,’’ इतनी मेहनत से धन कमाया, इससे तो इतनी मेहनते में तो राष्ट्रपति या प्रधानमत्रि हो गए होते। इन लुच्चे-लफंगों की जाकर खुशामद करनी पड़ती है। लाइसेंस चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए…!

जिसको देखो, वही दुखी है। क्योंकि तुम कुछ भी पाओगे, वह पाना किसी कीमत पर होगा और वह कीमत तुम्हें चुकानी पड़ेगी। यहां मुक्त तो कुछ मिलता नहीं। एक चुनो, नौ सौ निन्यानबे की कीमत चुकानी पड़ती है। रास्ते पर खड़े हो, हजार रास्ते खुलते हैं, तुम एक पर ही जा सकते हो। मन में यह बात तुम भूलोगे कैसे कि कहीं नौ सौ निन्यानबे रास्तों पर कोई मंजिल पर ले जानेवाला मस्तान रह गया हो। और जब तुम कहीं भी न पहुंचोगे, तब तो पछताओगे निश्वित ही कि यह रास्ता तो गलत चुन ही लिया। और चाहे ठीक न हों, एक बात तो पक्की हो ही जाएगी कि यह गलत है।

दूसरे भी ऐसे ही पछता रहे हैं।

अव्वल अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें

आखिर आखिर इक मुकामे बेमुकाम आ ही गया। लेकिन फिर धीरे-धीरे जब टटोलता ही रहता है, टटोलता ही रहता है तो वह मंजिल आ जाती है जो आखिरी मंजिल है, बेमुकाम है, वह मुकाम, जिसके पार फिर कोई और मंजिल नहीं है, जो आखिरी है, जिससे कि फिर कोई रास्ता नहीं खुलता, जिसमें पहुंचे कि पहंचे, जिसमें डूबे कि डूबे, जिसमें खोए तो खोए–जैसे सागर में सरिता खो जाती है।

आखिर-आखिर इक मुकामे बेमुकाम आ ही गया!

आज का पहला सूत्र : ‘’ अन्यस्मात् सौलम्यं भक्तौ’’ ।

अन्य सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है।

अन्य सब की अपेक्षा! योग है, तंत्र है, ज्ञान है, तप है, त्याग है–सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है। क्यों? सुलभता क्या है भक्ति की? सुलभता यही है कि और सब तो मनुष्य को करने पड़ते हैं—भक्ति होती है। सुलभता यही है कि और सब में तो मनुष्य को अपने ही सिर पर बोझ रखकर चलना पड़ता है—भक्ति में समर्पण है, बोझ परमात्मा को दे देना है।

एक सम्राट अपने रथ से आ रहा है। राह पर उसने एक बूढे आदमी को अपनी गठरी ढोते देखा, दया आ गई। रथ रोककर उसे कहा,’’आ जा, तू भी बैठ जा, कहां उतरना है, उतार देंगे’’। वह रथ में तो बैठ गया। गरीब आदमी, रथ में कभी बैठा नहीं, सिकुड़ा-सिकुड़ा डरा-डरा… ठीक से बैठा नहीं कि कहीं ज्यादा गरीब आदमी को वजन न पड़ जाए। और तो और, सिर से गठरी भी न उतारी। सम्राट ने कहा कि गठरी नीचे रख दे, अब गठरी क्यों सिर पर रखी है ,

उसने कहा कि नहीं मालिक, इतना ही क्या कम है कि मुझको चढ़ा लिया, अब और गठरी का वजन भी आपके रथ पर रखूं, नहीं नहीं, यह मुझसे न होगा।

और इससे क्या फर्क पड़ता है कि जब तुम बैठे हो, तो गठरी तुम सिर पर रखो कि नीचे रखो? योगी की गठरी सिर पर है, भक्ति की रथ में। वह कहता है, परमात्मा पर सब छोड़ दिया,’’ अब तू ही सम्हाल!’’ वह एक ही कदम उठात है भक्त। जानी को बहुत कदम उठाने पड़ते हैं, क्योंकि जानी बड़ा कुशल है, बड़ा होशियार है। योगी को एक-एक सीढ़ी चढुनी पड़ती है। भक्ति एक छलांग है। भक्त कहता है कि अब हमारी समझ के बाहर है। हमारी समझ से चलेंगे तो पक्का है कि कभी न पहुंचेगे। तुझ पर भरोसा करते हैं।

जैसे हम कहते हैं, प्रेम अंधा है, लेकिन प्रेम के पास ऐसी आंख हैं जो आंखवाला के पास भी नहीं हैं। भक्त कहता है, सौंपा तेरे पास! तूने दिया जन्म, तूने दिया जीवन, तू ही चला! यह पतवार ले! हम निश्वित सोते हैं। तू वैसे ही चला रहा है, हम नाहक बीच-बीच में आते है।

योगी तैरता है नदी की धारा के विपरीत। भक्त बहता है नदी के साथ। इसलिए सुगम है। भक्त कहता है,’’ हम बहेंगे। अगर तुझे गलत जगह ले जाना हो तो ले जा, हम वहीं जाने को राजी हैं’’ । यह भक्त की हिम्मत है। भक्ति बड़ा साहस है–दुस्साहस है। जुआरी जैसा दांव लगाता है भक्त अपना सारा, अपने पास कुछ भी नहीं रखता। वह कहता है,’’ ठीक है, अब तुझे गलत ही ले जाना है तो स्वीकार है। अगर डुबाना है तो सही, डुबा’’ ।

जरा सोचो। जरा इस बात का स्वाद लो। जरा इसको भीतर हृदय में उतरने दो : अगर तुझे डुबाना है, सही, डुबा! तो क्या किनारा मिल न जाएगा इसी डूबने में? तो क्या मंझधार में किनारा उपलब्ध न हो जाएगा? क्योंकि जो डूबने को राजी हो गया, उसे कैसे डुबाओगे ?

तुमने कभी देखा, जिंदा आदमी डूब जाता है नदी में, मुर्दा तो ऊपर आ जाता है! जरूर मुर्दे को कोई तरकीब मालूम है जो जिंदा को नहीं मालूम। जिंदा आदमी डूब जात है, चेष्टा करता था बचने की, लड़ रहा था नदी से, शोरगुल मचाता था, चिल्लाता था कि बचाओ-बचाओ, अपना सब किया था जो कर सकता था और डूब गया। मुर्दे को क्या तरकीब मालूम है? मरते ही आदमी ऊपर आ जाता है, लाश तैरने लगती है।

भक्त जीते-जी मर जाता है। वह कहता है, हम हैं ही नहीं, तू ही है। अगर भटकेगा तो तू भटकेगा, हम कहां भटकेंगे! अगर डूबेगा तो तू डूबेगा, हम कहां डूबेंगे। अगर तुझे डूबने में मजा है तो हम कौन हैं जो बीच में बाधा डालें।

हम हैं ही कौन! हम तो एक भ्रम हैं—

सत्य तो तू है!

इसलिए भक्ति सुगम है।

लड़खड़ा के जो गिरा पांव पे साकी के गिरा

अपनी मस्ती से तसदहुक ये मुझे होश रहा।

लड़खड़ा के जो गिरा पांव पे साकी के गिरा।

भक्त लड़खड़ाकर गिर जाता है। वह कोई सम्हलकर खड़े रहनेवालों में से नहीं है। लेकिन इतना उसकी बेहोशी में भी होश रहता है कि वह गिरता साकी के पैरों पर है, वह गिरता परमात्मा के पैरों पर है। इतनी बेहोशी में भी इतना होश रखता है, बस कि पैर तेरे हों फिर क्या गिरना और क्या खड़ा होना–सब बराबर है। क्या मिटना और क्या होना–सब बराबर है! रात और दिन बराबर हैं। जन्म और जीवन, मौत और जीवन बराबर हैं। तेरे पैर पर!

भक्ति सुगम है। लड़खड़ाकर गिरना भी अगर न हो सकेगा तो फिर और क्या होगा? जरा सोचो? जरा ध्यान करो! भक्ति यह कहती है कि गिर पड़ो। योगी सम्हलकर खड़ा होता है, साधता है। भक्ति कोई साधना नहीं है। हम कहते हैं, भक्ति-साधना! भाषा बड़ी कमजोर है। भक्ति साधना नहीं है। इसलिए पुराने दिनों में फासला बहुत साफ था—भक्ति थी उपासना। और बाकी साधनाएं हैं। योग साधो, ध्यान साधो–साधनाएं हैं। भक्ति है उपासना।

उपासना का अर्थ होता है :’’ उसके’’ पास होना, बस। उप+आसान =’’उसके’’ पास बैठ जाना, गिर जाना उसके चरणों में। और’’ उसके’’ चरण सब जगह हैं। इसलिए तुम यह मत पूछना कि कहां गिरे! इसीलिए तो बेहोशी में भी इतना होश रहा आता है। अगर’’ उसके’’ चरण कहीं एक जगह होते, काबा में होते कि काशी में होते, तो तुम पूना में कितने ही होश से गिमे, क्या फर्क पड़ता है!

कबीर जिंदगीभर काशी रहे, मरते वक्त काशी छोड़ दी। लोग मरते वक्त काशी जाते हैं। मरने के लिए ही काशी जाते हैं–काशी-करवट। तो काशी में रहते ही हैं मरे-खुरे लोग, मरने की तैयारी कर रहे हैं। तुम अगर काशी जाओ तो बूढे, बुढ़ियाएं, विधवाएं तैयारी में बैठी हैं, घाटों पर, कि करवट कब हो जाए। क्योंकि खयाल है कि काशी मरे तो उसके चरणों में मरे। खयाल है कि काशी मरे तो स्वर्ग। त्राथत है।

कबीर हट गए। भक्तों ने कहा,’’ यह क्या कर रहे हैं; जिंदगीभर काशी रहे, अब मरते वक्त हटते हैं; कबीर ने कहा, अगर काशी में मरने के कारण उसके पास पहुंचे तो फिर उसके चरण बड़े सीमित हो गए। तो काशी के पास एक छोटा-सा गांव है मगहर। जैसे काशी की कहावत है कि काशी में जो मरता है, स्वर्ग जाता है, वैसी ही कहावत मगहर के संबंध में है कि मगहर में तो मरता है, गधा होता है। मगहर में कोई मरे न, इसलिए मगहर के लोगों ने फैला दिया होगा कि मरते वक्त सब लोग काशी पहुंच जाएं। यह होशियारों की तरकीब रही होगी। कबीर मरते वक्त मगहर पहुंचे गए। उन्होंने कहा कि अगर यहां मरकर उसके चरणों में पहुंचे तो ही कोई बात है। मगहर में ही मरे।

पैर उसके बड़े हैं। पैर उसके सब जगह हैं। एक बार यह समझ में आ जाए कि वही है, तुम कहीं भी गिमे, साकी के पैरों में ही गिरे। यह तुम्हारे होश का इतना सवाल नहीं है जितना इस समझ का सवाल है कि उसके पैर ही सभी जगह हैं। वही है। कण-कण में वही है। क्षण-क्षण में वही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

भक्ति सुगम है, क्योंकि भक्ति कइाइ न कोई विधि है, न विधान है।

रामकृष्ण को दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी रखा तो अड़चन हो गई ट्रस्टियों को, निकालने की नौबत आ गई। क्योंकि रामकृष्ण पुजारियों जैसे पुजारी तो न थे–पुजारी थे ही नहीं, भक्त थे। पुजारी और भक्त में बड़ा फर्क है। पुजारी यानी धंधे में लगा है, व्यवसायी है। गुरजिएफ का कल रात मैं एक वचन पढ़ता था। उसके बहुत अदभुत वचनों में एक वचन है कि अगर धर्म से छुटकारा पान हो तो धर्मगुरुओं के पास रहो, छुटकारा हो जाएगा–देखकर सारा उपद्रव, जाल, षडयंत्र। एक बात पक्की है कि पुजारियों को भगवान पर बिलकुल भरोसा नहीं है–हो ही नहीं सकता। पुजारियों के पास तो तुम्हें भी समझ में आ जाएगा कि यह सब जाल है। रोज पूजा करते हैं, पुजारी को कुछ होता नहीं, खुद को कुछ नहीं होता, खुद भीगा ही नहीं, कर आता है पूजा, घर आ जाता है, तनख्वाह ले लेता है, निपटारा हो जाता है। प्रार्थना भी बेच देता है। पूजा भी बेच देता है।

रामकृष्ण पुजारी न थे, भक्त थे। वहीं मुश्किल हो गई। तो कभी तो आधी रात पूजा शुरू हो जाती, कभी दिन भर पूजा न होती। उन्होंने कहा कि यह नहीं चलेगा, यह किस तरह की पूजा है? व्यवस्था होनी चाहिए, विधि-विधान होना चाहिए। रामकृष्ण ने कहा, फिर संभलो अपना मंदिर, यह हमसे न होगा। जब हृदय से ही न उठती हो तो हम कैसे करेंगे? करके क्या धोखा देंगे भगवान को?

और धोखा देकर उसको हम धोखा दे कैसे पाएंगे! दुनिया को धोखा हो जाएगा कि पूजा हो रही है, लेकिन उसको थोड़े ही धोखा होगा! तुम हमको फसाओगे, नरक भिजवाओगे। वह देख ही लेगा कि यह आदमी धोखा दे रहा है। यह हमसे न होगा। कभी रात दो बजे उठता है भाव। यह अपने हाथ में नहीं है। उठता है तब उठता है, जब नहीं उठता है नहीं उठता है। कभी दिन-दिन भर पूजा चलती भूखे-प्यासे, और कभी दिन बीत जाते और मंदिर खाली पड़ा रहता और कोई दीया भी न जलता। रामकृष्ण ने कहा, जब जलेगा, प्रामाणिकता से जलेगा, जब नहीं जलेगा, नहीं जलेगा। हम क्या करें, उसकी मर्जी, जलवाना होता तो भाव जगाता। जब सभी उस पर छोड़ दिया, तब यह भी क्य हिसाब अपने पास रखना। जब उसको दीये की जरूरत होगी, बुला लेगा, और जब उसको घटनाद सुनना होगा, बुला लेगा, और जब उसे गीत सुनने का रस आएगा, कहेगा,’’ रामकृष्ण गाओ’’ ! हम गाएंगे, नाचेंगे। अब जब सुननेवाला ही वहां नहीं है, अभी उसकी मौज ही नहीं है, यायद सोता हो विश्राम करता हो, तो हम नाहक बीच में खलल डालें? तुम हमको मत फंसा देना।

खैर, बात टली कि चलो, चलने दो, बात जंची भी कि बात तो ठीक है। फिर और उलझनें आने लगीं। यह भी मना चला कि यह भी पता चला कि यह पहले खुद ही को भोग लगा

 

 

 

 

 

 

लेता है–वहीं मंदिर मग खड़े- खड़े–जो थाली भगवान के लिए आई है, पहले खुद चख लेता है। फिर जूठा! फिर जरा ज्यादा हो गई बात। ट्रस्टियों ने कहा,’’ अब जरा सीमा के बाहर हो गई। इसका क्या हिसाब है? ‘’रामकृष्ण ने कहा,’’ हिसाब! मुझे पता है। मेरी मां जब भी कुछ बनाती थी, पहले खुद चखती थी, जब खुद ही न जंचे तो मुझे नहीं देती थी। तो मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकता। जूठा! वही मुझसे चख रहा है। लेकिन मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकता, क्योंकि पता नहीं चखाने योग्य है भी! जब अच्छी चीज बनती है तो मैं चढ़ाता हूं, जब नहीं बनती अच्छी चीज तो नहीं चढ़ाता। यह भगवान का चढ़ा रहे हैं, कोई खेल नहीं है।’’ यह भक्त था, यह पुजारी नहीं था।

भक्ति सुगम है, अगर हृदय उत्फुल्लित हो। भक्ति बिलकुल सरल है। अगर तुम्हारे पास हृदय हो

—क्या पूजन क्य अर्चन रे!

पदरज को धोने उमड़े आने लोचन में जलकण रे!

अक्षत पुलकित रोम, मधुर मेरी पीड़ा का कंपन रे!

क्या पूजन क्य अर्चन रे!

तो कोई गंगाजल थोड़े ही चढ़ाना पड़ता है, आंसू ही उमड़े आते हैं।

पदरज को धोने उमड़े आते लोचन में जलकण रे!

अक्षत पुलकित रोम–यह जो पुलकित रोम है, यही अक्षत है। यह तो आनंद से विभोर होती हुई भाव-दशा है, यही अक्षत है।

मधुर मेरी पीड़ा का कंपन रे! और इसी पीड़ा को चढ़ाता हूं। जो मेरे पास है वही चढ़ाता हूं। जो मैं हूं वही चढ़ाता हूं। क्या पूजन क्या अर्चन रे!

तो भक्त की कोई विधि नहीं है, विधान नहीं है। इसलिए सुगम है।

हुए शूल अक्षत मुझे धुलि चंदन

अगरु प्ले-सी सांस सुधिगंध-सुरभित

बनी स्नेह लौ आरती चिर अकंपित

हुआ नयन का नीच अभिषेक जलकण

हुए शूल अक्षत मुझे धूलि चंदन

प्रेम की बात है : धूलि को चढ़ा दो, चंदन हो जाती है। और नहीं तो चंदन जिंदगीभर घिसते रहो। घिस रहे हैं लोग जिंदगीभर से चंदन–और चंदन धूलि हो गया। धूलि को चढ़ा दो। बात, तुम क्या चढ़ाते हो, इसकी है ही नहीं—कौन चढ़ाता है, किस हृदय से चढ़ाता है!

हृदय हो तो भक्ति सुगम है। हृदय न हो तो भक्ति सबसे ज्यादा दुर्गम हो जाती है।

“अन्य सबकी अपेक्षा भक्ति सुलभ है’’ ।

जब नारद ने ये वचन कहे थे, तब जरा भी इनको समझाने की जरूरत न रही होगी। वे लोग, वह समय और था। हृदय स्वाभाविक था। बुद्धि बड़ी दूर थी। चेष्टा करके लोग बुद्धि का उपाय करते थे, उपयोग करते थे। सहज तो हृदय का उपाय था, उपयोग था।

आज बात उलटी हो गई है। आज सब तरह मालूम पड़ता है भक्ति को छोड्कर। आज योग साधना हो, कोई कठिन नहीं मालूम पड़ता। इसलिए तो योग का इतना प्रचार सारी दुनिया में होता चला जाता है। आसन लगाओ, व्यायाम करो, प्राणायाम करो, शीर्षासन करो—समझ में आता है, बुद्धि के पकड़ में आता है। यह बात जरा पैदगलिक है, पार्थिव है। समझ में आता है।   वैज्ञानिक की भी समझ में आता है। इसलिए बहुत-से योगी अमरीका और यूरोप में जाकर वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाओं में बैठे हैं, तार वगैरह लगवाकर जांच करवा रहे हैं। वैज्ञानिक को भी समझ में आता है कि अगर एक खास ढंग से श्वास ली जाए तो रक्तचाप कम हो जाता है, एक खास ढंग से श्वास ली जाए तो मस्तिष्क की गतिविधि अल्फा तरंगों से भर जाती है–वैसे ही जैसे गहरी नींद में होता है, शांत हो जाती है। यह तो वैज्ञानिक की भी समझ में आता है कि सारी चीजें शारीरिक हैं, बुद्धि इनको पकड़ पाती है।

भक्त को तुम बिलकुल न पकड़ पाओगे। रामकृष्ण की तुम कितनी ही जांच करो, हाथ कुछ भी न आएगा। हां, किसी योगी को अगर प्रयोगशाला में ले जाओ, बहुत कुछ हाथ में आएगा, क्योंकि उसके उपकरण भी पौदगलिक हैं, पार्थिव हैं। श्वास की जांच हो सकती है। रक्तचाप की जांच हो सकती है। मस्तिष्क के भीतर चलती विद्युततरंगों की जांच हो सकती है। और यह बात सिद्ध हो सकती है प्रयोग से कि एक विशेष प्राणायाम करने से शरीर और मन को लाभ होता है। लेकिन आत्मा की क्या जांच होगी? हृदय को कैसे पहचानोगे? अभी तक प्रेमी को पकड़ने का, प्रेमी को जांचने का कोई उपाय नहीं मिला, तो भक्ति की तो बात ही मुश्किल है।

तो भक्ति, जब नारद ने यह सूत्र लिखा था, निश्वित ही अन्यस्यात् सौलम्यं भक्तौ–तब भक्ति बड़ी सुलभ थी। भक्ति अब भी सुलभ है, आदमी जटिल हो गया है। आदमी बड़े कठिन हो गए। आदमी बड़े सोच-विचार में उलझ गए, खोपड़ी में जकड़ गए, हृदय तक जाने के द्वार- दरवाजे बंद हो गए। हृदय करीब-करीब भूल ही गया है।

जब मैं तुमसे हृदय की बात कर रहा हूं, तब अगर तुम्हें ज्यादा से ज्यादा याद आएगी तो फेफड़ों की याद आएगी। जहां धुक- धुक चल रही, श्वास चल रही है–वह फेफड़ा है, हृदय नहीं। वह फेफड़ा तो बदला जा सकता है, प्लास्टिक का लगाया जा सकता है। हृदय भी प्लास्टिक का हो सकता है? फेफड़ा हो सकता है और शायद इस फेफड़े से बेहतर होगा, क्योंकि प्लास्टिक जल्दी खराब नहीं होता। और प्लास्टिक आसानी से बदला जा सकता है। जिस दिन प्लास्टिक के फेफड़े होंगे उस दिन लोग हृदय के दौरे से न मरेंगे। बदल देंगे। पार्ट ही बदलने की बात है। ले गए गैरेज में, बदलवा लाए, दूसरा लगवा लिया।

लेकिन हृदय कहीं और है। फेफड़े से हृदय का कोई सीधा संबंध नहीं है। फेफड़ा और हृदय पास-पास हैं, यह बात सच है। जहां फेफड़ा है, उसी के पीछे कहीं छिपा हुआ हृदय है।

फेफड़ा शरीर का हिस्सा है, हृदय आत्मा का। यहां बड़ी भूल हो जाती है। इसलिए तुम जब प्रेम से भरते हो तो तुम फेफड़े पर हाथ रखते हो–वस्तुत : तुम हृदय पर हाथ रखना चाहते हो, लेकिन फेफड़ा भी वहीं पास है। इसलिए जब तुम वैज्ञानिक से कहोगे कि मेरा हृदय बड़ा प्रफुल्लित हो रहा है भगवान से, तो वह कहेगा हम जांच करके देखे लें। वह फेफड़े की जांच करेगा, क्योंकि फेफड़े की जांच हो सकती है।

योग का संबंध तो फेफड़े से है, भक्ति का संबंध हृदय से है। ज्ञान का संबंध तो खोपड़ी से है, सिर से है, विचार की व्यवस्था से है। भक्ति का संबंध भाव की व्यवस्था से है। भक्ति का संबंध भाव की व्यवस्था से है। वह बड़ी और बात है। वह दूसरा ही आयाम है। तो तुम जब सोच-विचार छोड़ोगे, जब तुम सोच-विचार का सर्मपण करोगे, जब तुम उसके चरणों में रख आओगे–फूल वगैरह बहुत रख चुके, अब तो विचारों को रख आओ उसके चरणों में। चढ़ाना हो तो सिर चढ़ाओ, बाकी कुछ चढ़ाने जैसा नहीं है। सिर चढ़ जाए तो तुम एक नए केन्द्र-बिन्दु से जीने लगोगे—हृदय से। और तब भक्ति बड़ी सुलभ है। हृदय सजीव हो, हृदय जीवंत हो, हृदय पुन : गतिवान हो जाए, हृदय के सरोवर में फिर तरंगें उठें, हृदय के वृक्ष पर फिर फूल-फल लगें–तो भक्ति बड़ी सुलभ है। इसलिए भक्ति का जो अनिवार्य कदम है, वह श्रद्धा है।

तर्क विचार में ले जाता है, श्रद्धा, भाव में। तर्क अगर सफल हो तो अहंकार में ले जाता है, अगर विफल हो तो विषाद में। श्रद्धा निरहंकार में ले जाती है, अगर सफल हो, अगर असफल हो तो संताप में। लेकिन श्रद्धा असफलता जानती ही नहीं। अगर श्रद्धा हो तो सहल ही होती है। तर्क की सफलता सुनिधित नहीं है, सफल हो तो अहंकार को प्रगाढ़ कर जाएगा, असफल हो तो अहंकार को क्षत-विक्षत कर जाएगा। श्रद्धा सफल ही होती है, अगर हो। हां, अगर न हो तो असफल होती है, लेकिन न होने को असफल होना कहना ठीक नहीं।

…’’ क्योंकि भक्ति स्वयं प्रमाणरूप है और इसके लिए अन्य प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं’’। तर्क प्रमाण जुटाते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं,’’ ईश्वर को प्रमाण क्या है’’? वे सिर के बल ईश्वर को खोजने चले हैं’’। वे तर्क के सहारे ईश्वर को खोजने चले हैं। वे कहते हैं,’’ प्रमाण क्या है? पहले सिद्ध करें कि ईश्वर है’’। उनको पता ही नहीं है कि ईश्वर को सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जाए तर्क ईश्वर को सिद्ध करता है वही तो उस तक पहुंचने में बाधा है। इसे थोड़ा खयाल में लेना। जिसको तुमने अमृत समझा है, वही तो जहर है वहां। इसलिए तर्क अगर कोई ईश्वर को सिद्ध भी कर दे, तो एईश्व्र सिद्ध नहीं होता–तर्क ही सिद्ध होता, तर्क ही सिद्ध होता है। इससे तर्क ईश्वर से ऊपर हो जाता है, नीचे नहीं। और ईश्वर के ऊपर कोई चीज हो जाए ईश्वर कहां रहा! ईश्वर सर्वोपरि है।

थोड़ा भाव करो। ईश्वर सर्वोपरि है। इसलिए तर्क से सिद्ध नहीं हो सकता, नहीं तो तर्क उसके ऊपर हो जाएगा। फिर जब तर्क से सिद्ध हुआ तो वह तर्क के लिए मोहताज हो जाएगा। और

जो तर्क से सिद्ध हो सकता है, वह तर्क से असिद्ध भी हो सकता है। तर्क दोधारी तलवार है। और तर्क वेश्या जैसा है। वह पक्ष में भी हो सकता है, विपक्ष में भी हो सकता है। व्‍यक्‍ति है तर्क। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम अगर गए वकील के पास तो वह तुम्हारे पक्ष में हो जाता है। तुम्हारा विरोधी चला जाए, वह उसके पक्ष में हो जाएगा। पैसे की बात है।

एक रास्ते पर एक बच्चा रो रहा था। और एक दूसरा बच्चा बड़े क्रोध में भुनभुनाया खड़ा था। और तीसरा बच्चा आइसक्रीम खा रहा था। राह चलते किसी राहगीत ने पूछा, क्या मामला है, यह बच्चा क्यों रो रहा है? तो आइसक्रीम खाते बच्चे ने कहा,’’ इसकी आइसक्रीम उस दूसरे लड़के ने छीन ली थी, इसलिए रो रहा है’। तो उसने कहा,’’ लेकिन आइसक्रीम तो उस दूसरे लड़के के पास नहीं है, वह क्रोध में भुनभुनाया खड़ा है! आइसक्रीम तो तुम खा रहे हो’’ । उसने कहा,’’ मैं उस लड़के का वकील हूं’’ ।

वकील को आइसक्रीम से मतलब है।

तर्क वकील है। उसकी कोई निष्ठा नहीं है। वह तुम्हारे साथ हो सकता है, वह तुम्हारे विपरीत हो सकता है। इसलिए जिन तर्कों से उसे असिद्ध भी किया गया है। इसलिए तो नास्तिक और आस्तिक के बीच का द्वंद्व समाप्त नहीं होता, वह कभी होगा भी नहीं। वह तो बदलता रहता है। कभी नास्तिक जीतता मालूम पड़ता है, कभी आस्तिक जीतता मालूम पड़ता है। लेकिन वस्तुत : दोनों नहीं जीतते—तर्क जीतता है, वकील जीतता है। जितने तर्क परमात्मा के लिए दिए गए हैं, ठीक वे ही तर्क परमात्मा के विपरीत दिए गए हैं, कोई फर्क नहीं है उनमें।

इसलिए जिसने तर्क के आधार पर अपनी श्रद्धा बनाई, उसने रेत पर अपना भवन बनाया, वह खिसक जाएगी रेत। अगर तुम तर्क के कारण आस्तिक हो तो तुम नास्तिक ही हो, छिपे हुए, प्रच्छन्न, तुममें कोई आस्तिकता नहीं।

तुम मुझसे परिभाषा पूछो नास्तिक की : जिसकी तर्क में श्रद्धा है वह नास्तिक। जिसकी श्रद्धा में श्रद्धा है वह आस्तिक। इसलिए परम आस्तिकाग ने कोई तर्क नहीं दिए हैं, उनके वक्तव्य सीधे वक्तव्य हैं। उपनिषद सिर्फ कहते हैं, ईश्वर है। तुम पूछो’’ क्यों’’? वे कहते हैं कि क्यों का क्या सवाल—है। जानना हो, जान लो, न जानना हो, मत जानो। चलना हो उसकी तरफ, चल पड़ो, पीठ करना हो, पीठ कर लो। लेकिन उसका होना तुम्हारे सोच-विचार पर निर्भर नहीं है। तुम्हारा सोच- विचार ही उसके होने पर निर्भर है।

विवेकानंद बहुत ज्ञानियों के पास गए। नास्तिक थे। प्रगाढ़ तार्किक थे। फिर रामकृष्ण के पास भी गए। सोचा था, वही विवाद जो दूसरी जगह कर लिया था वहां भी कर लेंगे। वहां जरा मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि जाकर उन्होंने शुरू किया, मण्डली साथ ले गए थे दस- पंद्रह मित्रों की, जो देखने गए थे, और जो सब सोचकर गे थे कि बड़ी फजीहत होगी इस गरीब रामकृष्ण की—गरीब ही लगता है। तार्किक को भक्त तो दीन- हीन लगता है कि बेचारे को कुछ पता नहीं, क्योंकि तर्क के सिक्के पहचानता है तार्किक और वे सिक्के इसके पास दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए गरीब है। विवेकानंद ने अपनी पुरानी अकड़ से, पुराने ढंग से पूछा कि क्या ईश्वर है, सिद्ध कर सकते हैं? रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा,’’ सिद्ध करने की बात ही पूछना बेकार है। तुझे जानना है? तुझे देखना है? तुझे मिलना है? अभी मिलवा दूं? तैयारी है?’’

यह सोचा ही नहीं था कि कोई आदमी ऐसी बात कहेगा। इसका उत्तर तैयार भी न था। क्योंकि तार्किक तो सभी चीजों का रिहर्सल किए होता है। उसके पास कुछ सहज उत्तर नहीं हो सकते–तैयार ही होते हैं। यह तो सोचा भी नहीं था कि कोई आदमी यह कहेगा। बहुतों के पास गए थे, वे पंडित थे; उनसे कहा कि सिद्ध करो ईश्वर है! वे सिद्ध करने में लग गए। फिर उनके तर्क पकड़कर काट डाले। इस आदमी ने कहा कि बकवास छोड़ो, इतना समय किसके पस खराब करने को है! तुझे देखना है? तू हां कह या न!

वह मण्डली थोड़ी शंकित हो गई कि यह मामला क्या है! ऐसा सोचा ही न था कि ईश्वर से ऐसा कुछ…। और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें, रामकृष्‍ण ने अपना पैर उनकी छाती से लगा दिया। अब यह कोई ढंग है! ये कोई सज्जन शिष्टाचार के ढंग हैं। यह बेचारा तर्क लेकर आया है, सिद्ध करने की बात लेकर आया है। यह कोई बात हुई! यह कोई व्यवहार हुआ! और विवेकानंद बेहोश हो गए। और जब होश में आए तो सारी दुनिया बदल गई थी। भागे, घबड़ा गए बहुत, यह क्या हो गया! कुछ समझ में न आए। कुछ-का-कुछ हो गया। यह आदमी कहीं और घसीटकर ले गया, किसी और अज्ञात लोक में! चादतारों के पार कहीं! सारी सीमाएं उखड़ गईं। सब विचार वगैरह दूर, बहुत दूर सुनाई पड़ने लगा। अपने ही विचार बहुत दूर सुनाई पड़ने लगे। अपने से ही नाता न रहा। अस्त-व्यस्त, डिसओरियंटेड! जड़ें उखड़ गईं। भागने लगे। रामकृष्ण ने कहा,’’ कहां भागता है? जब भी फिर देखना हो, आ जाना”।

नास्तिक गया! फिर विवेकानंद ने लिखा है कि बहुत चेष्टा की कि इस आदमी के पास न जाऊं, कितना अपने को बचाया, पर कुछ खींचने लगा। कोई अदम्य, कोई अज्ञात पर! लाख उपाय करूं, लेकिन सोते-जागते यही आदमी याद आने लगा। वह चरण छाती पर पड़ जाना! पुराना मर ही गया!

कहां फंस गए–विवेकानंद सोचे! अच्छे-भले थे। सब चलता था। तर्क था, बुद्धिमत्ता थी, पांडित्य था, अकड़ थी, अहंकार था, प्रतिभा थी। लोग मानते थे। अगर न गए होते रामकृष्ण के पास तो भारत में एक बड़ा महापंडित और एक बड़ा दार्शनिक पैदा हुआ होता। हीगल और कांट की हैसियत का व्यक्ति भारत पैदा करता। लेकिन रामकृष्ण ने सब गड़बड़ा दिया। बहुत बचने की कोशिश की, न बच सके; रोक-रोककर भी जाना पड़ता। और हर बात इस आदमी का सान्निध्य कुछ तोड़ देता। और हर बार यह आदमी किसी और लोक में ले जाता। इसकी मौजूदगी ने द्वार खोल दिया।

आस्तिक कोई तर्क की बात नहीं है।

“क्योंकि भक्ति स्वयं प्रमाणरूप है’’ ।

“स्वयंप्रमाणत्वात्!’’ इसके लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।

परमात्मा मौजूद है–तुम्हारी मौजूदगी चाहिए। सोच-विचार का परमात्मा ने सब तरफ से तुम्हें घेरा है।

तू अबोध, आग्रह-निग्रह का

भेद नहीं कर पाया

जो स्वरूप में स्थित है उसमें

स्वयं अरूप समाया

जिन चरणों का सहज आगमन

तुम्हें न क्षण भर भाया

उन चरणों में अरुण विभामय

एक चरण था मेरा।

रही चेतना बनी अहिल्या

जागी नहीं अभागी

जान-बूझ कर बधिर बन गया

अनहद का अनुरागी

जिन वचनों का नम्र निवेदन

तुम को लगा पराया

उन वचनों में दिव्य अर्थमय

एक वचन था मेरा।

जो तुमने सुना है, उसमें परमात्मा भी बोला है। जो तुमने देखा है उसमें परमात्मा दृश्य हुआ है। तुमने जो छुआ है, उसमें तुमने परमात्मा को भी छुआ है। क्योंकि वह सब जगह मौजूद है, सब तरफ मौजूद है। वही मौजूद है। उसके अतिरिक्त और किसी चीज की कोई मौजूदगी नहीं है। जरा उतरो, अपने विचारों के परी-लोक से नीचे उतरो! जरा अपने विचाराग के व्यर्थ उत्ताप को नीचे लाओ। जरा अपने ज्वर को कम करो। थोड़े शांत होकर जरा देखो! भाव से जरा भरो! वही है! उसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। वह स्वयं प्रमाणरूप है। वह स्वयंसिद्ध है।

“भक्ति शातिरूपा और परमानंदरूपा है’’ ।

उसके लिए प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। तुम शांत हो जाओ–उसका प्रमाण मिल जाता है। तुम्हारे विचार में, तुम्हारी तर्कसरणी में नहीं, तुम्हारी शांति में उसका प्रमाण मिलता है।’’ भक्ति शातिरूपा और परमानंदरूपा है’’ ।

जैसे ही तुम शांत हुए, परमानंद उतरा। उसी परमानंद में परमात्मा का साक्षात्कार है। हमने आनंद को उसकी परिभाषा माना है, इसलिए उसको सच्चिदानंद कहा है। हमने किसी और चीज को उसकी परिभाषा नहीं माना। सत्, चित् और आनंद! वह है, यानी सत्। वह चैतन्यस्वरूप है, यानी चित्। वह आनंद स्वरूसप है, यानी आनंद। सच्चिदानंद।

तुम क्या करो जिससे वह तुम्हारे पास झलक आए? तुम क्या करो, जिससे तुम्हारी आंख से घूंघट उठे?

भक्ति शातिरूपा है! तुम शांत हो जाओ! इसलिए सारे ध्यान, सारी प्रार्थना, सारा पूजन- अर्चन, सब एक ही बात के पास हैं : तुम शांत हो जाओ। तुम उसे देखना चाहते हो? शांत हो जाओ। उत्तेजित न रहो। जैसे ही तुम ठहरे, शांत हुए–वह पास आया। जैसे ही तुम ठहरे, शांत हुए–वह सुनाई पड़ा।

“लोकहानि की चिंता भक्त को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह अपने आपको और लौकिक, वैदिक कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुका है’’ ।

यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है : लोक हानि की चिंता! लोग क्या सोचते, अच्छा सोचते कि बुरा सोचते, तुम्हें पागल समझते कि बुद्धिमान समझते, तुम्हें दीवाना मानते हैं… लोग क्या सोचते हैं, लोक में तुम्हारी प्रतिष्ठा बनती है भक्ति से या खोती है–यह चिंता भक्त को नहीं करनी चाहिए। क्योंकि भक्त ने अगर यह चिंता की तो वह भक्त ही न हो पाएगा।

लोग सदा ही ठीक को प्रतिष्ठा नहीं देते, अकसर तो गैर-ठीक को ही प्रतिष्ठा देते हैं, क्योंकि लोग गैर-ठीक हैं। लोग अकसर ही सत्य का सम्मान नहीं करते, क्योंकि लोग झूठे हैं। लोग झूठ का ही सम्मान करते हैं। लोगों के सम्मान पर मत जाना। लोक में हानि हो कि लाभ हो, यह तुम विचार ही मत करना, अन्यथा भक्ति को कदम न उठ सकेगा। भक्त को तो इतना साहस चाहिए कि लोग अगर उसे पागल समझ लें तो वह स्वीकार कर ले कि ठीक है। परमात्मा के लिए पागल हो जाना संसार की समझदारी से बहुत बड़ी समझदारी है। परमात्मा के लिए पागल हो जाना संसार की समझदारी से ज्यादा बहुमूल्य है, चुनने-योग्य है। धन की खोज में समझदार रहना कोई बड़ी समझदारी नहीं है। पद की खोज में बुद्धिमान रहना कोई बड़ी बुद्धिमानी नहीं, धौखा है।

बना कर कोटि सीमाएं हृदय को बांधती दुनिया

विशद विस्तार कर सकना बहुत मुश्किल हुआ जग में। हजार सीमाएं संसार बनाता है। हजार दीवालें खड़ी करता है। संसार एक बड़ा कारागह है।

बना कर कोटि सीमाएं हृदय को बांधती दुनिया

विशद विस्तार कर सकना बहुत मुश्किल हुआ जग में। तो जिसको भी उठना है पार, उसे इन सीमाओं और इन सीमाओं के आसपास बंधे हुए जाल की उपेक्षा करनी होगी। नहीं कि तुम जानकर संसार की सीमाएं तोड़ो; नहीं कि तुम जानकर उनकी मर्यादा के विपरीत जाओ–लेकिन अगर ऐसा हो जाए कि मार्यादा और परमात्मा में कुछ चुनना हो तो तुम मर्यादा मत चुन लेना। हां, अगर परमात्मा को चुनकर भी मार्यादा सम्हलती हो, शुभ। अगर परमात्मा को खोजते हुए संसार की व्यवस्था भी सम्हलती हो, सौभाग्य। तो जानकर मत तोड़ना।

इसलिए तत्क्षण नारद दूसरा सूत्र कहते हैं:’’ जब तक भक्ति में सिद्धि न मिले, तब तक लोक-व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए, किन्तु फल त्यागकर उस भक्ति का साधन करना चाहिए’’। धीरे-धीरे, संसार न छूटे अभी, कोई जरूरत भी नहीं है लेकिन संसार से कुछ फल पाने की आकांक्षा छोड़ देनी चाहिए। कारागह में रहने से लोग जो पूजा देते हैं उस पूजा को कह देना चाहिए, कोई जरूरत नहीं; उस पूजा की आकांक्षा छोड़ देनी चाहिए। तो तुमने असली बुनियाद तो गिरा दी। फिर थोथी मर्यादा रह गई। अगर परमात्मा को खोजते वह मर्यादा भी सम्हलती है, बड़ी अच्छी बात है। लेकिन ध्यान रखना, किसी भी कीमत पर परमात्मा का धागा न छूटे हाथ से। चाहे सारा संसार भी छूट जाए, सब मर्यादा टूटे, सब तरह से हानि हो जाए, संसार की दृष्टि से तुम सब तरह से विक्षिप्त और पागल समझ लिए जाओ, तो भी फिक्र मत करना। क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त और सब पागलपन है।

 

अजां दी काबे में नाकूस दैर में फैका

कहां-कहां तेरा आशिक तुझे पुकार आया।

उसका प्रेमी सब जगह खोजता है–मंदिर में,

मस्जिद में। अजां दी काबे में नाकूस दैर में फूंका।

मंदिरों में शंख फूंके, अजान दी काबे में।

कहां-कहां तेरा आशिक तुझे पुकार आया।

 

सब जगह पुकार आता है, लेकिन न वह मंदिर में है, न वह मस्जिद में है। जिस दिन यह दिखाई पड़ जाता है, आशिक को उस दिन न मंदिर की कोई मर्यादा है, न मस्जिद की कोई मर्यादा है। नहीं कि जानकर वह कोई मंदिर-मस्जिद को तोड़ेगा–तोड़ने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन हिंदू नहीं रह जाएगा, मुसलमान नहीं रह जाएगा। इसको कहने की भी कोई जरूरत नहीं कि इसकी उदघोषणा करे कि न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं। लेकिन नहीं रह जाएगा। नहीं रह जाएगा। भीतर कोई रेखा न रह जाएगी, हिंदू-मुसलमान की, वह मर्यादा गई, वह सीमा गई। भगवान का भक्त तो बस भगवान को भक्त होता है, कोई विशेषण नहीं उसका।

 

न बुतकदे से काम न मतलब हरम से था

महवे खयाले-यार रहे हम जहां रहे।

 

न तो कोई मस्जिद से लेना- देना है न मंदिर से कोई संबध है। महवे खयाले-यार रहे—उसकी याद से भरे रहें—हम जहां रहें : मंदिर में बैठे तो, मस्जिद में बैठे तो, कुरान पढ़ी तो, बाइबिल पढ़ी तो कोई तोड़ने की सी थी जरूरत नहीं है, लेकिन भीतर से मुक्ति हो जाए, भीतर से तुम निपट मनुष्य हो जाओ। बस धार्मिक होना। प्रार्थना तुम्हारा गुण हो जाए।

“स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए’’ । ऐसा ही सूत्र का अनुवाद किया गया है, मैं नहीं करता हूं।

“स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्र न श्रवणीयम’’ ।

सूत्र का सीधा-सा अर्थ होता है : स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र सुनने योग्य नहीं है। दोनों में बड़ा फर्क हो जाता है।’’ नहीं सुनना चाहिए’’ —आदेश हो जाता है। सुनने योग्य नहीं है’’ —सिर्फ तथ्य का वक्तव्य है।’’ नहीं सुनना चाहिए’’ —इसमें तो हर मालूम होता है, जैसे घबड़ाहट है, जैसे स्त्री के पास उतर आएगा। यह तो फिर भक्ति ही न हुई, यह तो दमन हुआ। जैसे कि नास्तिक की बात सुनकर उसकी आस्तिकता कंपित होने लगेगी। तो यह कोई आस्तिकता हुई? ऐसी नपुंसक आस्तिकता का कोई मूल्य नहीं है। इसे तो फेंक ही दो खुद ही। जो नास्तिक की बात सुनने से कैप जाती हो, तो जानना कि भीतर नास्तिक छिपा है, ऊपर- ऊपर आस्तिकता आरोपित कर ली है।

 

आस्तिक नास्तिक की बात सुनने से डरेगा? नास्तिक हरे, समझ में आता है। नहीं, धन की बात सुनने से आस्तिक भयभीत होगा? तो फिर इसे परम धन का स्वाद ही नहीं मिला। तुमने क भी देखा? अगर तुम्हें हीरों की परख हो तो क्या तुम कंकड़-पत्थरों से डरोगे? क्या तुम यह कहोगे कि हीरों के पारखी को कंकड़-पत्थरों की चर्चा नहीं सुननी चाहिए। हीरों की जिसे परख है, कंकड़-पत्थरों की चलने दो चर्चा। तुम उसे थोड़े ही भुला सकोगे जिसे हीरों की परख है। हां, अगर परख झूठी हो, हो ही न, मान ली हो कि है, तो फिर कंकड़-पत्थर भी लुभा सकते हैं।

 

नहीं, तो मैं इस सूत्र का अनुवाद ठीक- ठीक वही करता हूं जो नारद ने कहा है : न श्रवणीयम्! सुनने योग्य नहीं है। मैं नही कहता कि सुनना चाहिए। तुम्हें लगेगा कि थोड़ा-सा फर्क है भाषा का, लेकिन थोड़ा नहीं है—सारा गुण धर्म बदल जाता है। एक छोटा-सा शब्‍द सारा गुण धर्म बदल देता है। सुनने योग्य नहीं है, यह बात समझ में आती है। व्यर्थ है।’’ नहीं सुनना चाहिए’’? इससे तो लगता है, सार्थक है और हर है, न केवल सा र्थक है, बल्कि परमात्मा से भी ज्यादा बलशाली है।’’ सुनने योग्य नहीं है’’? इससे पता चलता है, निरर्थक है, व्यर्थ समय मत गवाना। जिसको हीरों की परख है, वह कंकड़-पत्थर की व्यर्थ चर्चा में समय न गवाएगा, यह बात पक्की है। लेकिन अगर कोई कंकड़-पत्थर लेकर आ जाए तो भाग भी न खड़ा होगा कि आंख बंद कर लेगा, कि चिल्लाने लगेगा : ‘’बचाओ, बचाओ। मारा, मारा गया! यह कंकड़-पत्थर ले आया’’। ऐसी घबड़ाहट न दिखाई पड़ेगी। वह यह ही कहेगा,’’ व्यर्थ, क्यों कंकड़-पत्थरों को यहां ले आए? हीरों को पहचान चुका हूं—कहीं

 

और ले जाओ’’ ।

 

 

 

 

 

 

अगर आस्तिक के पास नास्तिक अपनी बात लेकर आएगा तो प्रेम से आस्तिक कहेगा,’’ अब नहीं प्रभावित कर सकेगी यह बात। वह वक्त जा चुका। थोड़े दिन पहले आना था। जरा देर करके आए’’ । नास्तिक को बिठाकर उसकी बात भी सुन लेगा, क्योंकि नास्तिक में भी बोलता तो परमात्मा ही है। खेल है समझो, खूब खेल खेल रहा है! अपना ही खंडन करता है! ऐसा हुआ, रामकृष्ण को केशवचंद्र मिलने आए। वे बड़े प्राकण्ड तार्किक थे, भारत में बहुत कम ऐसे तार्किक पिछली दोतीन सदियों में हुए। उन्होंने बड़ा तर्क का विस्तार किया। वे तो रामकृष्ण से विवाद, शास्त्रार्थ करने आए थे। और रामकृष्ण उनका तर्क सुनने लगे और प्रफुल्लित हो- होकर उठ आते और उनको छाती से लगाते। जरा थोड़े चकित हुए : ‘’आदमी पागल है, बावला है! हम खंडन कर रहे हैं ईश्वर का’’ ! उन्होंने कहा कि’’ समझे कुछ? ‘’ मैं ईश्वर का खंडन कर रहा हूं कि ईश्वर नहीं है।’’ रामकृष्ण ने कहा,’’ उसी को तो समझकर तुम्हें छाती से लगाता हूं। उसकी बड़ी महिमा है! अपना खंडन किस मले से कर रहा है! तुम्हें देखकर मुझे उसके चमत्मकार पर और भी बड़ा     प्रेम हो आया है। क्या मजा है! क्या खेल! खूब धोखा देने की तरकीब है! लेकिन मुझे धोखा न दे सकेगा। इसलिए मैं गले लगा रहा हूं। तुमको नहीं—उसको कह रहा हूं कि तू मुझे धोखा न दे पाएगा, पहचान चुका हूं तुझे। तेरा सब खेल जानता हूं।

थके-हारे केशवचंद्र वापस लौटे। चैन छिन गया। नींद खो गई! इस आदमी ने हिला दिया। खंडन न किया इनका। बात सुनने से इनकार भी न किया। बेचैन भी न हुए। उलटे प्रफुल्लित होने लगे। उलटे कहने लगे,’’ तुम जैसा बुद्धिमान जब दुनिया में है तो परमात्मा होना ही चाहिए, अन्यथा इतनी बुद्धि कहां से होगी! संसार पत्थर ही नहीं हो सकता, केशव! तुम जैसा बुद्धिमान यहां दुनिया में है। इसमें चैतन्य छिपा है। तुम कहते हो कि परमात्मा नहीं है, मैं तुम्हारी मानूं कि तुमको देखूं और तुम्हें पहचानूं? तुम्हें दिखता हूं तो उसका सबूत?

उसकी खबर मिलती है। तुम्हें सुनूं कि तुम्हें समझूं’’?

नहीं आस्तिक न तो स्त्री से परेशान होता, न धन से, न नास्तिक से, न बैरी से। ये भी कोई बातें हुई! हां, लेकिन एक बात पक्की है कि सुनने योग्य नहब है। न श्रवणीयम्! फिजूल है। इनमें कोई रस नहीं लेता। कोई सुनाने आ जाए तो सुन लेगा, लेकिन भयभीत नहीं है।

“अभिमान, दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए’’ ।

बड़ा अनूठा सूत्र है : ‘’सब आचार भगवान के अर्पण कर चुकने पर यदि काम, क्रोध, अभिमान, आदि हों, तो उन्हें भी उसके प्रति ही समर्पित करना चाहिए।

क्या करोगे अगर हों फिर भी? छोड़ चुके सब, लेकिन फिर भी न छूटते हों तो क्या करोगे? भक्त क्या करेगा? भक्त कहेगा,’’ अब इनको भी तू सम्हाल! तूने ही दिए, तू ही वापस ले ले’’। यही तो भक्ति की सुगमता है और परम ऐश्वर्य है। भक्ति की महिमा है कि भकित किसी तरह का द्वंद्व खड़ा नहीं करती। वह यह भी नहीं कहती कि अपने अहंकार से अहो। चढ़ा दो भगवान के चरणों में—उसी का दिया है! त्वदीयं वस्तु तुम्यमेव समर्पये! तेरी चीज है, तू ही ले ले! गोविंद ने दी है, गाविंद को ही लौटा दो। अगर फिर भी न छूटता हो तो भी क्या करोगे, स्वीकार कर लो कि तेरी जैसी मर्जी! अगर तू क्रोध करवाता है तो क्रोध करते रहेंगे! अगर तुझे अहंकार ही करवाना है तो अहंकार करते रहेंगे।

लेकिन जरा समझो इस बात को। अगर तुमने उस पर छोड़ दिया तो क्रोध कर सकोगे?    क्रोध करने के लिए’’ मैं हूं’’ यह अकड़ होनी ही चाहिए, नहीं तो क्रोध होगा ही कैसे।’’ मैं’’ पर ही चोट लगती है तभी तो क्रोध होता है। अहंकार समर्पण के बाद हो ही कैसे सकता है ,     समर्पण का अ र्थ ही यह होता है कि तू सम्हाल, और अगर तू कहे कि ठीक, अभी तुम ही रखो थोड़ी देर तो रखे रहेंगे!

ऐसा हुआ, गुरजिएफ के पास कै थरिन मैन्सफल्डि एक बड़ी लेखिका आई। सिगरेट पीने की उसे अत थी—श्रंखलाबद्ध! एक सिगरेट से दूसरी सिगरेट जला ले। गुरजिएफ ने कहा,’’ सिगरेट पीना बंद! थोड़ा अपना संकल्प जगाओ’’ ! सालभर बीत गया, मैन्सफल्डि ने सिगरेट न पी। सालभर बाद वह बड़ी प्रसन्न हुई कि अदभुत हो गया, मैं भी अदभुत हूं कि जो छूटे न छूटती थी, वह भी छोड़ दी! सालभर बाद वह गुरजिएफ के पास आई। उसने कहा,’’ साल भर हो गया, सिगरेट नहीं पीती हूं’’ । गुरजिएफ ने उसकी तरफ देखा और कहा,’’ कराहों लोग हैं जो सिगरेट नहीं पीते’’ ! वह थोड़ी झिझकी। उसने कहा,’’ झिझकाना क्या! थोड़ा संकल्प जगा! पी! एक दिन कहा था, छोड़… थोड़ा संकल्प जगा’’ ।

समझ गई कैथरिन, बात ठीक है। पहले सिगरेट पकड़ी थी, अब सिगरेट नहीं पीती, इस बात ने पकड़ लिया। तो गुरजिएफ का वचन बड़ा महत्वपूर्ण है। उसने कहा,’’ करोड़ों लोग हैं जो सिगरेट नहीं पीते, इसमें बात ही क्या? ले पी! न पीना कोई गुण है? पहले पीने में जकड़ी थी, अब न पीने में जकड़ गई’’ !

तो गुरजिएफ के पास अगर गैर-मांसाहारी आते तो वह मांस खिला देता, मांसाहारी आते तो मांस छुड़वा देता, शराबी आते तो शराब छीन लेता, गैर-शराबी आ जाते तो उनको डटकर पिसवा देता कि छोड़, यह क्या पकड़े बैठा है!

वह जो थोड़ी-सी झिझक आ गई कैथरिन मैन्सफल्डि को, गुरजिएफ ने कहा, यह तेरी झिझक ड़र है।

इसको ऐसा समझो कि तुम भगवान के पास गए, अहंकार चढ़ाया और भगवान ने कहा, अभी थोड़ी देर रखो, तो क्‍या करोगे? भगवान की मानोगे कि अपनी ही धुनोगे? कि कहोगे कि नहीं, हम तो छोड्कर रहेंगे? कि हमने तो चढ़ा दिया! तो उस’’ हम’’ में ही तो अहंकार रह जाएगा। और अगर उसकी मान ली, कहा,’’ ठीक तेरी मर्जी’’! ले आए कंधे पर रखकर वापस। उसी रखने में छूट गया। क्योंकि बात ही क्या रही अब, जब उस पर ही छोड़ दिया, और उसने कहा कि रखो। तो अपनी मानें कि उसकी मानें!

मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, हम तो सब आपके लिए छोड़ते हैं। एक युवती आई। उसने कहा,’’ मैं सब आपके लिए छोड़ती हूं, जो आप कहेंगे वह करूंगी’’। मैने कहा, अच्छी बात है। उसने कहा, मगर मुझे यहां से जाना नहीं है, यहीं इसी आश्रम में रहना है। मैंने कहा कि नहीं, जाना पड़ेगा। उसने कहा, कि मैं जा नहीं सकती, अब तो आप जो कहेंगे वही करूंगी। अब बोलो, क्या करना है। मैने कहा,’’ तू मेरी सुनती है कि अपनी’’? वह कहती है बिलकुल मैं सब छोड़ ही चुकी, अब तो मैं यहीं रहूंगी। अब तो मैं जो आप कहेंगे वही करूंगी।

वह यह दोहराए चली जा रही है। उसे बात दिखाई ही नहीं पड़ रही कि मैं कह रहा हूं कि तू जा। अगर सच में वह छोड़ चुकी है तो वह कहेगी,’’ ठीक, आप कहते हैं तो जाती हूं, आप कहेंगे तो आ जाऊंगी’’ । अगर वह इतना कह देती तो उसी वक्त मैं उसे रोक लेता, लेकिन वह न कह सकी। उसका यह कहना कि सब छोड़ती हूं, छोड़ना नहीं है। उस तरकीब से वह मुझे भी चलाना चाहती है अपने हिसाब से।

तुम जातेहो भगवान को चढ़ोन, लेकिन चढ़ाते तुम इस बात से हो कि’’ ध्यान रखना, एहसान किया है, भूल न जाना! सब चढ़ा दिया है’’ । जैसे उसे तुम कुछ नया दे आए हो जो उसका नहीं था!

नारद का यह सूत्र समझ लेना : ‘’सब आचार भगवान को अर्पण कर चुकने पर यदि काम, क्रोध, अभिमान आदि हों तो उन्हें भी उसके प्रति ही समर्पित मानना चाहिए’’ ।

परमात्मा सदा तुम्हारे पास है। एक बार तुम उसके हाथों में अपने को छोड़ो–सर्व, समय, पूर्ण भाव से। रत्तीभर भी पीछे मत बचाना। यह आग्रह भी मत बचान कि मैंने सब छोड़ा। इतना भी’’ मैं’’ पीछे मत बचाना।

इतने दिन था बंद, आज ही वातायन खोला है

कहता रहा वसंत, गंध को यों ही मत लौटाओ

चिंतित रहा अनंत, स्वयं को सीमित नहीं बनाओ

अब तक था हत्चेत, आज ही हद-चिंतन बोलो है।

अपने रुग्ण विमूर्छित मन को प्राणवायु पहुंचाओ

तिमिरग्रस्त लोचन को फिर से परम विभा दिखलाओ

जीवन-रण के इस क्षण में फिर नरारण बोला है

छिपा हुआ जो द्वंद्व, उसे ही परमानंद बनाओ

बिछुड़ गई जो बूंद, उसे ही महा समुद बनाओ

बन कर फिर प्रारम्भ स्वयं ही पारायण बोला है।

 

 

परमात्मा चारों तरफ बोल रहा है, संदेश दे रहा है, इंगित-इशारे। प्रतिपल तुम्हें ले चलना चाहता है वापस घर। तुम सुनते ही नहीं हो। तुम अपनी ही कहे चले जाते हो। सब छोड़ो उस पर। छोड़ना भी उसी पर छोड़ो। इतने दिन था बंद, आज ही वातायन खोला है।

खोलो खिड़की! आने दो उसकी हवाओं को भीतर!

कहता रहा वसंत, गंध को यों ही मत लौटाओ!

बहुत बार लौटाया है। कितनी बार कितने अनंत कालों में, कितनी अनंत बार लौटाया है!

कहता रहा वसंत, गंध को यों ही मत लौटाओ चिंतित रहा अनंत, स्वयं को सीमित नहीं बनाओ

अब तक था हत्चेत, आज ही हृद्-चिंतन बोला है।

एक तो सिर का विचार है, और एक हृदय का चिंतन है, वह बड़ी अलग बात है। अब तक था हत्चेत।

खोपड़ी बोलती रही, हृदय सोता रहा!

अब था हत्चेत, आज ही

हद-चिंतन बोला है

अपने रुग्ण विमूर्छित मन को

प्राणवायु पहुंचाओ

तिमिरग्रस्त लोचन को फिर से

परम विभा दिखलाओ

जीवन-रण के इस क्षण में

फिर नारायण बोला है।

प्रतिपल जहां भी जीवन है,

वहीं उसकी गूंज है।

हर कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र है।

जीवन-रस के इस क्षण

में फिर नारायण बोला है

छिपा हुआ जो द्वंद्व,

उसे ही परमानंद बनाओ।

वही ऊर्जा, जिससे तुम दुखी हो रहे हो, वही आनंद बन जाती है; वही दुर्गंध से भरी हुई खाद फूलों में सुगंध बन जाती है; वही कीचड़-कर्कट कमल बन जाता है।

छिपा हुआ जो द्वंद्व उसे ही

परमानंद बनाओ

बिछुड़ गई जो बूंद,

उसे ही महा समुद बनाओ।

 

फिर से डाल दो बूंद को वापस समुद्र में। कुछ बिछुड़ा थोड़े ही है। गिरते ही बूंद फिर महासागर हो जाती है। दूर-दूर मत रखो, अलग-थलग मत रहो।

बिछुड़ गई जो बूंद,

उसे ही महा समुद बनाओ

बन कर फिर प्रारंभ स्वयं ही

पारायण बोला है।

 

आज इतना ही।

 

 


Filed under: भक्‍ति सूत्र--(नारद) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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