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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–8)

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तीर्थंकर महावीर: अनुभूति और अभिव्यक्ति—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्न:

 महावीर के पहले जो तेईस तीर्थंकर रहे तो महावीर के फेमिली वाले या तो किसी के अनुयायी रहे होंगे–महावीर तो किसी के अनुयायी थे नहीं–तो वे पार्श्वनाथ के अनुयायी थे या किसी के थे, तो यह कैसे हुआ कि महावीर ने जो अपना पथ स्वतः निर्माण किया, जो किसी के अनुयायी नहीं रहे, उनका पथ पार्श्वनाथ के पथ से या उस परंपरा के पथ से मेल खा गया? क्योंकि उनका पथ तो पहले से ही था! और जैन नाम जो है संप्रदाय का, वह महावीर के साथ ही साथ जुड़ा है, उसके पहले वे जो लोग थे, वे क्या कहलाते थे?

समें दोत्तीन बातें समझने जैसी हैं। पहली बात तो यह कि महावीर के साथ ही पहली बार विचार की एक धारा संप्रदाय बनी। महावीर के पहले विचार की एक धारा थी। उस विचार की धारा का आर्य परंपरा से कोई पृथक अस्तित्व न था। वह आर्य परंपरा के भीतर पैदा हुई एक धारा थी। उसका नाम श्रमण था। जैन वह नहीं कहला रही थी तब तक। और श्रमण कहलाने का कारण था। वह कारण यह था, जैसा मैंने पीछे कहा आपको।

मैंने पीछे आपको कहा कि ब्राह्मण-धारा इस बात पर श्रद्धा नहीं रखती है कि श्रम के माध्यम से, साधना के माध्यम से, तप के माध्यम से परमात्मा को पाया जा सकता है। परमात्मा को पाया ही जा सकता है अति विनम्र-भाव में, प्रार्थना में, ह्यूमिलिटी में, अत्यंत दीन-भाव में, जहां हम बिलकुल असहाय हैं, हेल्पलेस हैं, जहां हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं, करने वाला वही है, जहां इस परिपूर्ण दीनता में…जिसको जीसस ने पावर्टी ऑफ दि स्प्रिट कहा है, जो आत्मा में इतना दीन और दरिद्र है, जो यह कहता है कि मैं कर ही क्या सकता हूं–बस मैं मांग सकता हूं, मैं अपने को हाथ जोड़ कर समर्पण कर सकता हूं।

ऐसी एक धारा थी, जो परमात्मा को या सत्य को अत्यंत दीन, अत्यंत विनम्र-भाव से मांगती थी। उससे ठीक भिन्न और विपरीत एक धारा चलनी शुरू हुई, जिसका आधार श्रम था, प्रार्थना नहीं। जिसका आधार यह नहीं था कि हम प्रार्थना करेंगे, पूजा करेंगे और मिल जाएगा। जिसका आधार यह था कि श्रम करेंगे, संकल्प करेंगे, साधना करेंगे। श्रम और संकल्प से जीता जाएगा।

तो आर्य जीवन-दर्शन बड़ी बात है। उस आर्य जीवन-दर्शन में श्रमण सम्मिलित है, ब्राह्मण सम्मिलित है। आर्य पूरी जीवन-दृष्टि की ये दो धाराएं हैं। महावीर पर आकर उस धारा ने अपना पृथक अस्तित्व घोषित किया। महावीर के पहले तक वह धारा पृथक नहीं है।

इसीलिए आदिनाथ का नाम तो वेद में मिल जाएगा, लेकिन फिर महावीर का नाम किसी हिंदू ग्रंथ में नहीं मिलेगा। पहले तीर्थंकर का नाम तो वेद में उपलब्ध होगा पूरे समादर के साथ, लेकिन फिर महावीर का नाम उपलब्ध नहीं होगा। महावीर पर आकर विचार की धारा संप्रदाय बन गई और उसने आर्य जीवन-पथ से अलग पगडंडी तोड़ ली। तब तक वह उसी पथ पर थी। अलग चलती थी, अलग धारा थी चिंतना की, लेकिन थी उसी पथ पर। उस पथ से भेद नहीं खड़ा हो गया था।

और एकदम से भेद खड़ा होता भी नहीं है, वक्त लग जाता है। जैसे जीसस पैदा हुए, तो जीसस के वक्त ही ईसाई धारा अलग नहीं हो गई। जीसस के मर जाने के भी दोत्तीन सौ वर्ष तक यहूदी फोल्ड के भीतर ही जीसस के विचारक चलते रहे। लेकिन जैसे-जैसे भेद साफ होते गए और दृष्टि में विरोध पड़ता गया, कोई जीसस के तीन सौ, चार सौ, पांच सौ साल बाद क्रिश्चियन धारा अलग खड़ी हो पाई। जीसस तो यहूदी ही पैदा हुए और यहूदी ही मरे। जीसस ईसाई कभी नहीं थे।

जैनों के पहले तेईस तीर्थंकर आर्य ही थे, और आर्य ही पैदा हुए, और आर्य ही मरे। वे जैन नहीं थे। लेकिन महावीर पर आकर धारा बिलकुल ही पृथक हो गई, बलशाली हो गई, अपनी ठीक सुचिंतित उसकी दृष्टि हो गई। और इसलिए फिर वह श्रमण न कहला कर जैन कहलाने लगी।

जैन कहलाने का और भी एक कारण हो गया, क्योंकि श्रमण भी बड़ी धारा थी। सभी श्रमण जैन नहीं हो गए फिर। श्रम और संकल्प पर आस्था रखने वाले आजीवक भी थे, बुद्ध भी हैं, और भी दूसरे विचारक थे। तो जब महावीर ने अलग पूरी दृष्टि को दे दिया, पूरा दर्शन दे दिया, तो फिर यह श्रमण-धारा की भी एक धारा रह गई। फिर बुद्ध की धारा भी श्रमण-धारा है, पर वह अलग हो गई। इसलिए फिर इसको एक नया नाम देना जरूरी हो गया और वह महावीर के साथ जुड़ गया। क्योंकि महावीर–जैसे बुद्ध को हम कहते हैं, बुद्धा दि एनलाइटेंड, गौतम बुद्ध जाग्रत पुरुष, वैसे महावीर जिन, महावीर दि कांकरर। कांकरर! महावीर, विजेता, जिसने जीता और पाया।

तो महावीर के साथ पहली दफा…जिन तो बहुत पुराना शब्द है। वह बुद्ध के लिए भी उपयुक्त हुआ है। जिन का तो मतलब जीतना ही है। लेकिन फिर भेदक-रेखा खींचने के लिए जरूरी हो गया कि जब गौतम बुद्ध के अनुयायी बौद्ध कहलाने लगे तो महावीर के अनुयायी जिन के कारण जैन कहलाने लगे। जिन शब्द और जैन शब्द महावीर के साथ प्रकट हुआ। और दो स्थितियां हुईं। एक तो आर्य मूल-धारा से श्रमण-धारा अलग टूट गई और श्रमण-धारा में भी कई पंथ हो गए, जिनमें जैन एक पंथ बना।

इसलिए महावीर के पहले के तीर्थंकर हिंदू फोल्ड के भीतर हैं, वे बाहर नहीं हैं। महावीर पहले तीर्थंकर हैं जो हिंदू फोल्ड के बाहर खड़े होते हैं। समय लगता है किसी विचार को पूर्ण स्वतंत्रता उपलब्ध करने में। वह समय लगा।

दूसरी बात यह कि महावीर निश्चित ही किसी के अनुयायी नहीं हैं, न उनका कोई गुरु है। पर उन्होंने जो कहा, उनसे जो प्रकट हुआ, उन्होंने जो संवादित किया, वे जो तेईस तीर्थंकरों के अनुयायी चले आते थे, उनसे बहुत दूर तक मेल खा गया। महावीर को चिंता भी नहीं है कि वह मेल खाए; वह मेल खा गया, यह संयोग की बात है। नहीं मेल खाता तो कोई चिंता की बात न थी। वह मेल खा गया और वे अनुयायी धीरे-धीरे महावीर के पास आ गए। जैसे आचार्य केशी और दूसरे लोग, जो पार्श्व की परंपरा से जीवित थे, वे महावीर के करीब आ गए। बहुत बार ऐसा होता है।

ऐसा भी नहीं है कि महावीर सब वही कह रहे हैं, जो पिछले तेईस तीर्थंकरों ने कहा हो। बहुत कुछ नया भी कह रहे हैं। जैसे किसी पिछले तीर्थंकर ने ब्रह्मचर्य की कोई बात नहीं की है। और पार्श्वनाथ का जो धर्म है वह चातुर्याम है; उसमें ब्रह्मचर्य की कोई बात नहीं है। महावीर पहली बार ब्रह्मचर्य की बात कर रहे हैं। और बहुत सी बातें हैं जो महावीर पहली बार कर रहे हैं। लेकिन वे बातें पिछले तेईस तीर्थंकरों के विरोध में नहीं हैं। चाहे और उनको आगे बढ़ाती हों, कुछ जोड़ती हों, लेकिन उनके विरोध में नहीं हैं। उनसे भिन्न हो सकती हैं, लेकिन विरोध में नहीं हैं। उनसे ज्यादा हो सकती हैं, लेकिन उनके विरोध में नहीं हैं। इसलिए स्वभावतः उस धारा से संबद्ध लोग महावीर के निकट इकट्ठे हो गए हैं। और महावीर जैसा बलशाली व्यक्ति किसी धारा को मिल जाए तो वह धारा अनुगृहीत ही होगी।

और सच तो यह है कि महावीर के पहले के तेईस तीर्थंकर बड़े साधक थे, सिद्ध थे, लेकिन जिसको सिस्टम मेकर कहें, जो एक दर्शन निर्मित करता है, ऐसा उनमें कोई भी न था। वह महावीर ही व्यक्ति है, जो उनको उपलब्ध हुआ। इसलिए चौबीसवां होते हुए भी वह करीब-करीब प्रथम हो गया। यानी सबसे अंतिम होते हुए भी उसकी स्थिति प्रथम हो गई। अगर आज उस विचारधारा का कुछ भी जीवंत अंश शेष है, तो सारा श्रेय महावीर को उपलब्ध होता है।

सिस्टम-मेकर एक बिलकुल अलग बात है, व्यवस्था और दर्शन बनाने वाला। बहुत तरह के विचारक होते हैं। कुछ विचारक तो हमेशा फ्रैगमेंटरी होते हैं, जो खंड-खंड में सोचते हैं, एक-एक टुकड़े में सोचते हैं, और कभी भी सारे टुकड़ों को इकट्ठा जोड़ कर एक समग्र दर्शन स्थापित नहीं कर पाते हैं। महावीर ने जो इन तेईस तीर्थंकरों की हजारों वर्षों की यात्रा में जो सारे खंड थे, उन सारे खंडों को एक सुसंबद्ध रूप देकर एक दर्शन का रूप दिया, इसलिए जैन-दर्शन पैदा हो सका।

निश्चित ही, जैसा आप पूछते हैं, महावीर के घर-परिवार के लोग किसी पंथ को, किसी विचार को मानते रहे होंगे। लेकिन कोई भी पंथ और कोई भी विचार था, वे सब आर्य-जीवन पथ के ही हिस्से थे। उसमें कोई भेद, कोई भिन्नता नहीं थी। इसलिए यह हो सकता था कि कृष्ण का एक चचेरा भाई तीर्थंकर हो सके और कृष्ण हिंदुओं के परम अवतार हो सके। इसमें कुछ बाधा न थी। विचार-पद्धतियां थीं ये। अभी ये संप्रदाय न थे।

जैसे कि समझें आज, आज कोई कम्युनिस्ट है या कोई सोशलिस्ट है या कोई फैसिस्ट है तो ये विचार-पद्धतियां हैं। एक ही घर में पैदा हुआ एक आदमी कम्युनिस्ट हो सकता है, एक आदमी सोशलिस्ट हो सकता है, एक आदमी फैसिस्ट हो सकता है। लेकिन कभी ऐसा हो सकता है कि जब ये संप्रदाय बन जाएं, तो कम्युनिस्ट का बेटा कम्युनिस्ट हो और सोशलिस्ट का बेटा सोशलिस्ट हो। तब विचार-पद्धतियां न रहीं, तब जन्म से बंधे हुए संप्रदाय हो गए।

महावीर के पहले भारत में विचार-पद्धतियां थीं और आर्य जीवन-दृष्टि सबको घेरती थी। उसमें वेद के क्रियाकांडी लोग थे और ठीक उनके विरोध में उपनिषद के विचारक थे, लेकिन इससे वह कोई अलग बात नहीं हो जाती थी। अब मजा है, यह वेदांत शब्द जो है, वह उसका मतलब ही यह है कि जो मानते यह हैं कि जहां वेद का अंत हो जाता है, वहीं सत्य का प्रारंभ होता है। यानी वेद तक तो सत्य है ही नहीं, जहां वेद समाप्त हुआ, वहां से सत्य शुरू होता है। अब ये वेदांत की दृष्टि वाले लोग भी आर्य जीवन-दृष्टि के हिस्से थे। इससे कोई झगड़ा नहीं था।

उपनिषद इतना ही विरोधी है वेद का, जितना कि बौद्ध विचारक या जैन विचारक–महावीर या बुद्ध। उपनिषद के ऋषि वेद के इतने ही विरोध में हैं। और इतनी सख्त बातें कही हैं कि हैरानी होती है। ऐसी सख्त बातें कही हैं वेद के क्रियाकांडी ब्राह्मणों के लिए उपनिषद तक ने कि आश्चर्य होता है। लेकिन तब तक कोई संप्रदाय नहीं हैं। तब तक सभी एक परिवार के सभी तरह के विचारक हैं। वे सभी एक परिवार की शाखाएं हैं, जो लड़ते भी हैं, झगड़ते भी हैं, विरोध भी करते हैं, लेकिन अभी कोई जन्मना–ऐसा भेद नहीं पड़ गया है कि आदमी जन्म से किसी संप्रदाय का हिस्सा हो गया।

महावीर के साथ पहली दफा आर्य जीवन-पद्धति में एक अलग रास्ता टूट गया। फिर श्रमण जीवन-पद्धति में भी बुद्ध के साथ अलग रास्ता टूट गया। ऐसे ही जैसे एक वृक्ष होता है। नीचे पीड़ होती है, वह तो एक ही होती है। फिर पीड़ एक जगह से दो शाखाओं में टूट जाती है। फिर एक-एक शाखा भी बहुत सी शाखाओं में टूट जाती है। अब हम जो शाखाओं पर बैठे हों, तो हम पूछ सकते हैं कि पीड़ के समय में हमारी शाखा कहां थी? थी जरूर, पर पीड़ में इकट्ठी एक ही जगह थी।

तो भारत में भी जो विचार का विकास हुआ है, वह वृक्ष की भांति है। उसमें पीड़ तो आर्य जीवन-पद्धति है। फिर उसमें दो शाखाएं टूटीं–एक हिंदू, एक श्रमण। फिर श्रमण में भी दो शाखाएं टूट गईं–बौद्ध और जैन। और फिर हिंदुओं में भी जीवन-दर्शन की अनेक शाखाएं टूटी हैं: सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा, वेदांत–ये सब टूटी हैं।

प्रश्न:

अब यह संप्रदाय जो आपने कहा, संप्रदाय तो महावीर के बाद में मालूम होता है।

हां-हां, वही मैं कह रहा हूं न!

प्रश्न:

 

महावीर के टाइम पर तो नहीं?

हीं-नहीं, महावीर के साथ ही टूट गया। अनुभव बहुत बाद में होता है हमें। महावीर के साथ ही टूट गया। महावीर पहले सुसंबद्ध चिंतक हैं जैनों के इस तीर्थंकरों की धारा में।

और महावीर के समय में यह भी भारी विवाद था कि चौबीसवां तीर्थंकर कौन। इसके लिए गोशाला भी दावेदार था। दावेदार था वह कि चौबीसवां मैं हूं। क्योंकि तेईस तीर्थंकर हो गए थे और चौबीसवें की तलाश थी कि चौबीसवां कौन! और जो भी व्यक्ति चौबीसवां सिद्ध हो सकता था, वह निर्णायक होने वाला था, क्योंकि वह अंतिम होने वाला था–एक। दूसरा–उसके वचन सदा के लिए आप्त हो जाने वाले थे, क्योंकि पच्चीसवें तीर्थंकर की बात नहीं थी। तो भारी विवाद था महावीर के समय में। उसमें ये जितने–अजित केशकंबल और संजय और मक्खली गोशाल–ये सब के सब दावेदार थे चौबीसवें तीर्थंकर होने के। परंपरा अपना अंतिम व्यक्ति खोज रही थी कि उसको अंतिम सुसंगति देने वाला व्यक्ति उपलब्ध हो जाए।

तो बुद्ध के और महावीर के समय में कोई आठ तीर्थंकर के दावेदार थे। इन आठ में महावीर विजेता हो गए। परंपरा ने उनमें सब पा लिया जो उसे पाने जैसा लगता था। और वह सील-मोहर बन गए।

संप्रदाय तो फिर धीरे-धीरे बनता है। महावीर के मन में संप्रदाय का सवाल भी नहीं है। कि महावीर संप्रदाय बना रहे हैं, ऐसा सवाल भी नहीं है। नहीं, लेकिन बनाने वाले महावीर ही हैं। महावीर के मन में है या नहीं, यह सवाल नहीं है। महावीर ने जितनी सुसंबद्ध रूप-रेखा दे दी श्रमण जीवन-दृष्टि को, उतनी ही धारा बंध गई।

फिर तो पीछे से घोषणा करने वाले आएंगे अलग होने की। महावीर को अलग होने की घोषणा भी नहीं है। लेकिन अलग होने की घोषणा और न घोषणा का सवाल नहीं है, सवाल यह है कि उन्होंने जितना सुसंबद्ध रूप दे दिया, उससे वह संप्रदाय बना।

संप्रदाय शब्द बहुत पीछे जाकर बदनाम हुआ। शब्द तो बहुत बढ़िया है, संप्रदाय शब्द बहुत बढ़िया है। अंग्रेजी के सेक्ट से उसका मतलब नहीं है। यह तो बहुत पीछे जाकर गंदा हुआ। बहुत पीछे जाकर गंदा हुआ, नहीं तो गंदगी की कोई बात न थी। संप्रदाय का कुल मतलब इतना था कि जहां से मुझे जीवन-दृष्टि मिलती है, जहां से मुझे मार्ग मिलता है, जहां से मुझे प्रकाश मिलता है, तो मुझे हक है उस प्रकाश की धारा में बहने का और चलने का। जो मुझे सत्य दिखाई पड़ता है, उसे मुझे मानने का हक है।

फिर महावीर की बात तो बहुत अदभुत है। यानी महावीर से ज्यादा गैर-सांप्रदायिक चित्त खोजना कठिन है। लेकिन संप्रदाय के जन्मदाता वे ही हैं। गैर-सांप्रदायिक चित्त का मतलब यह होता है, गैर-सांप्रदायिक चित्त और ही बात है, नॉन-सेक्टेरियन माइंड। महावीर के पास सांप्रदायिक चित्त नहीं है। क्योंकि शायद सारी पृथ्वी पर ऐसा दूसरा आदमी ही नहीं हुआ, जिसके पास इतना गैर-सांप्रदायिक चित्त हो। क्योंकि जो किसी भी बात को सापेक्ष दृष्टि से सोचता हो, उसके चित्त में सांप्रदायिकता नहीं हो सकती। बहुत बाद में आइंस्टीन ने रिलेटिविटी की बात कही है। विज्ञान के जगत में सापेक्ष की बात आइंस्टीन ने अब कही, धर्म के जगत में महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले कही। बहुत कठिन था उस वक्त यह कहना, क्योंकि उस वक्त आर्य-धारा बहुत टुकड़ों में टूट रही थी। और प्रत्येक टुकड़ा पूर्ण सत्य का दावा कर रहा था।

असल में सांप्रदायिक चित्त का मतलब यह है कि जो यह कहता हो कि सत्य यहीं है और कहीं नहीं। सांप्रदायिक चित्त का मतलब यह होता है कि सत्य का ठेका मेरे पास है और किसी के पास नहीं। और सब असत्य है, सत्य मैं ही हूं–ऐसा जहां आग्रह हो, वहां सांप्रदायिक चित्त है। लेकिन जहां इतना विनम्र निवेदन हो कि मैं जो कह रहा हूं, वह भी सत्य हो सकता है, उससे भी सत्य तक पहुंचा जा सकता है, तो संप्रदाय निर्मित होगा लेकिन सांप्रदायिक चित्त नहीं होगा वहां। संप्रदाय तो निर्मित होगा। निर्मित होगा इन अर्थों में कि कुछ लोग जाएंगे उस दिशा में, खोज करेंगे, पाएंगे, चलेंगे, अनुगृहीत होंगे उस पंथ की तरफ, उस विचार की तरफ।

महावीर एकदम ही गैर-सांप्रदायिक चित्त हैं। बहुत ही अदभुत है उनकी दृष्टि तो। वे तो जहां बिलकुल ही कुछ न दिखाई पड़ता हो वहां भी कहते हैं कि कुछ न कुछ होगा। चाहे दिखाई न पड़ता हो तो भी कुछ न कुछ सत्य होगा। क्योंकि वे कहते यह हैं कि पूर्ण सत्य भी नहीं होता, पूर्ण असत्य भी नहीं होता। असत्य से असत्य में भी सत्य का अंश होता है। सत्य से सत्य में भी असत्य का अंश होता है। वे कहते यह हैं कि इस जगत पर, इस पृथ्वी पर पूर्ण जैसी चीज नहीं होती। यहां तो सब चीजें अपूर्ण होती हैं।

तो अगर उनसे कोई पूछे कि ऐसा है? तो वे कहेंगे हां है, और साथ ही यह भी कहेंगे कि नहीं भी हो सकता है! और यह भी कहेंगे, हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है!

और यह भी एक कारण बना, महावीर की जो सापेक्षता है, वह भी कारण बना कि महावीर के अनुयायियों और प्रेमियों की संख्या बहुत नहीं बढ़ सकी। क्योंकि संख्या बढ़ने में फैनेटिसिज्म जरूरी हिस्सा है। संख्या तब बढ़ती है, जब दावा पक्का और मजबूत हो कि जो हम कह रहे हैं, वही सही है; और जो दूसरे लोग कह रहे हैं, सब गलत है। तब पागल इकट्ठे होते हैं, क्योंकि इस दावे में उनको रस मालूम होता है। लेकिन एक आदमी कहे: यह भी सही, वह भी सही, तुम जो कहते हो वह भी ठीक, हम जो कहते हैं वह भी ठीक; तीसरा जो कहता है वह भी ठीक; तो ऐसे आदमी के पास पागल इकट्ठे नहीं हो सकते; क्योंकि वे कहेंगे इस आदमी की बातों में क्या मतलब है! यानी यह तो सभी को ठीक कहता है। यह कहता है नास्तिक भी ठीक है, आस्तिक भी ठीक है; क्योंकि दोनों में ठीक का कोई अंश है। तो इसके पास पागल समूह इकट्ठा नहीं हो सकता।

अगर फैनेटिक्स इकट्ठे करने हों तो दावा पक्का मजबूत होना चाहिए। और दावा इतना पक्का मजबूत होना चाहिए कि उसमें संशय की जरा भी रेखा न हो। क्योंकि महावीर की बातों में संशय की रेखा मालूम पड़ती है; वह संशय नहीं है, प्रोबेबिलिटी है, डाउट नहीं है। लेकिन साधारण आदमी को समझना मुश्किल होता है कि संभावना और संशय में क्या फर्क है।

महावीर से कोई कहे, ईश्वर है? तो महावीर कहेंगे, हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। किसी अर्थ में हो सकता है, किस अर्थ में नहीं हो सकता है।

यह महावीर सिर्फ सब सत्यों की संभावनाओं की बात कर रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि मुझे संशय है कि ईश्वर है या नहीं। वे यह नहीं कह रहे कि आई डाउट, कि मैं संशय करता हूं कि ईश्वर है या नहीं। वे यह कह रहे हैं कि प्रोबेबिलिटी है, संभावना है ईश्वर के होने की भी, न होने की भी। संभावना इस कारण है, संभावना इस कारण नहीं है। अगर कोई ऐसा मानता हो कि आत्मा परम शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है, तो ठीक ही कहता है, ऐसा है। और अगर कोई ऐसा मानता हो कि परमात्मा कहीं दूर बैठा हुआ हम सबको खिलौनों की तरह नचा रहा है, तो ऐसा नहीं है। जब वे कहते हैं कि ईश्वर है और ईश्वर नहीं है–दोनों एक साथ–तो ईश्वर के अर्थों में वे भेद करते हैं।

लेकिन महावीर की इतनी सूक्ष्म दृष्टि फैनेटिक नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि दूसरे को गलत एकदम से नहीं कहा जा सकता। और जहां दूसरे को एकदम से गलत न कहा जा सकता हो, वहां अनुयायी इकट्ठे करना बहुत मुश्किल है, एकदम असंभव है। क्योंकि अनुयायी पक्का मान कर आना चाहता है। अनुयायी सिक्योरिटी पूरी चाहता है। वह यह चाहता है कि यह आदमी खुद ही संदिग्ध दिखता है। यह आदमी कहता है, कभी ऐसा है, कभी वैसा है; इस आदमी को खुद ही पक्का अभी पता है या नहीं? यह गुरु होने के योग्य भी है या नहीं? इसकी बात का भरोसा क्या? सुबह कुछ कहता, दोपहर कुछ कहता, सांझ कुछ कहता है! तो अभी इसका खुद का ही कुछ ठिकाना नहीं हो पाया है तो हम इसके पीछे कैसे जाएं?

जब एक आदमी जोर से टेबल पर घूंसा मार कर कहता है कि जो मैं कहता हूं, वह परम सत्य है और बाकी सब गलत है, तो जितने हमारे भीतर कमजोर बुद्धि के लोग हैं, वे उससे एकदम प्रभावित हो जाते हैं।

कमजोर बुद्धि के लिए दावा चाहिए, मजबूत सर्टेन्टी चाहिए। बहुत बुद्धिमान आदमी सर्टेन्टी से चौंक जाता है। बहुत बुद्धिमान आदमी, अगर कोई आदमी दावे से कहे कि यही ठीक है, तो बहुत बुद्धिमान आदमी जरा चौंक जाएगा कि यह आदमी कुछ गलत होना चाहिए, क्योंकि ठीक का इतना दावा बुद्धिमान आदमी नहीं करता। बुद्धिमान आदमी हेजीटेट करता है, झिझक लाता है, क्योंकि जिंदगी बड़ी जटिल है। वह इतनी सरल नहीं है कि हमने कह दिया कि बस ऐसा है। जिंदगी इतनी जटिल है कि उसमें विरोधी के भी सच होने की सदा संभावना है।

इसलिए जो आदमी जितना बुद्धिमान होता चला जाता है, उतने उसके वक्तव्य स्यात होते चले जाते हैं। वह कहता है, स्यात ऐसा हो। फिर वह एकदम से ऐसा नहीं कह देता, ऐसा है ही। लेकिन बुद्धिमान की यह जो बात है, इसे समझने को भी बुद्धिमान ही चाहिए। बुद्धिहीनों को यह बात नहीं जंचेगी।

तो दुनिया में जिन्होंने जितने ज्यादा बुद्धिहीन दावे किए, उनकी संख्या उतनी ज्यादा हो गई। बुद्धिहीन दावा चाहिए, एकदम फैनेटिक असर्शन चाहिए आम आदमी के लिए कि एक ही अल्लाह है और उसके सिवाय दूसरा कोई अल्लाह नहीं। तो फिर आदमी को समझ में आता है कि यह पक्का जानने वाला आदमी है, जो साफ दावा कर रहा है, और जिसके हाथ में तलवार भी है कि अगर तुमने गलत कहा तो हम सिद्ध कर देंगे तलवार से कि तुम गलत हो। कमजोर बुद्धि के लोगों को तलवार भी सिद्ध करती है। बुद्धिमान आदमी तो जिसके हाथ में तलवार देखेगा उसको गलत मान ही लेगा कि तलवार से कहीं सिद्ध होना है कि क्या सही है और क्या गलत है!

तो दुनिया में जितने दावेदार पैदा हुए, उतनी ज्यादा उन्होंने संख्या इकट्ठी कर ली। महावीर संख्या इकट्ठी नहीं कर सके। संख्या इकट्ठी करना बहुत मुश्किल था, एकदम असंभव ही था। क्योंकि महावीर किसको प्रभावित करेंगे?

जो आदमी आता है…गुरु के पास आदमी आता इसलिए है कि आश्वासन मिल जाए पक्का। तो जो गुरु उससे कहता है कि लिख कर चिट्ठी देते हैं हम तुम्हें कि स्वर्ग में तुम्हारी जगह निश्चित रहेगी, वह गुरु समझ में आता है। जो गुरु कहता है कि पक्का रहा, मैं तुझे बचाने वाला रहूंगा, जब सब नरक में जा रहे होंगे, तब मुझे जो मानता है, वह बचा लिया जाएगा, तब वह मानता है कि यह आदमी ठीक है, इसके साथ चलने में कोई अर्थ है।

महावीर का कोई भी दावा नहीं है। इतना गैर-दावेदार आदमी ही नहीं हुआ है। कोई दावा ही नहीं है। आप जो भी कहें…और उसने तो सत्य को इतने कोणों से देखा है, जितना किसी ने कभी नहीं देखा।

त्रिभंगी दुनिया में महावीर से पहले थी। चीजों में तीन संभावनाओं की स्वीकृति महावीर से पूर्व से चली आती थी। जैसे कि कोई कहे यह घड़ा है, तो त्रिभंगी का मतलब यह था कि घड़ा है, घड़ा नहीं भी है। क्योंकि मिट्टी ही तो है, घड़ा कहां है? घड़ा है भी, नहीं भी है। घड़े के अर्थ में घड़ा है भी और मिट्टी के अर्थ में नहीं भी है। मिट्टी के अर्थ में मिट्टी ही है, घड़ा नहीं है। तो हम क्या अर्थ लेते हैं…एक आदमी कह सकता है कि यह तो मिट्टी है, घड़ा कहां? तो उसको गलत कैसे कहोगे? मिट्टी ही तो है। जैसे एक आदमी कहे कि नहीं मिट्टी है ही नहीं, यह तो घड़ा है। क्योंकि मिट्टी तो वह पड़ी बाहर, उसमें इसमें भेद है। तो उसे भी सही मानना पड़ेगा। तो सत्य के तीन कोण हो सकते हैं: है, नहीं है, दोनों है–नहीं भी और है भी। यह तो महावीर के पहले थी।

महावीर ने त्रिभंगी को सप्तभंगी किया। कहा कि तीन से काम नहीं चलेगा, सत्य और भी जटिल है। इसमें चार स्यात और जोड़ने पड़ेंगे। तो बहुत ही अदभुत बात बनी। लेकिन बात कठिन होती चली गई और उलझ गई और साधारण आदमी के पकड़ के बाहर हो गई। ये तीन बातें ही पकड़ के बाहर हैं, लेकिन फिर भी समझ में आती हैं।

घड़ा सामने रखा है। कोई कहता है, घड़ा है। हम कहते हैं, हां, घड़ा है। लेकिन हम एकदम ऐसा नहीं कहते कि हां, घड़ा है। हम कहते हैं, स्यात घड़ा है, क्योंकि दूसरी संभावना बाकी है कि कोई कहे कि मिट्टी ही है, घड़ा कहां। तो हम सिद्ध न कर पाएंगे कि घड़ा कहां है। तो हम कहते हैं, स्यात घड़ा है। स्यात घड़ा नहीं भी है। स्यात घड़ा है भी और नहीं भी है।

महावीर ने इसमें चौथा–चौथी भंग जोड़ी और कहा, स्यात अनिर्वचनीय है। स्यात कुछ ऐसा भी है, जो नहीं कहा जा सकता। यानी इतने से ही काम नहीं चलता है। मिट्टी है, घड़ा है, यह भी ठीक है, लेकिन कुछ बात ऐसी भी है जो नहीं कही जा सकती, जिसे कहना ही मुश्किल है। क्योंकि घड़ा अणु भी है, परमाणु भी है, इलेक्ट्रान भी है, प्रोटान भी है, विद्युत भी है–सब है। और इस सबको इकट्ठा कहना मुश्किल है। घड़ा जैसी छोटी चीज भी इतनी ज्यादा है कि इसको अनिर्वचनीय कहना पड़ेगा।

और एक बात तो पक्की है कि घड़े में जो है-पन है, जो एक्झिस्टेंस है, जो होना है, वह तो अनिर्वचनीय है ही। क्योंकि है की क्या परिभाषा? एक्झिस्टेंस का क्या अर्थ? अस्तित्व का क्या अर्थ? घड़े का भी अस्तित्व है। और अस्तित्व अनिर्वचनीय है। अस्तित्व तो ब्रह्म है।

तो महावीर ने चौथा जोड़ा: स्यात घड़ा अनिर्वचनीय है। पांचवां जोड़ा कि स्यात है और अनिर्वचनीय है। छठवां जोड़ा कि स्यात नहीं है और अनिर्वचनीय है। और सातवां जोड़ा कि स्यात है भी और नहीं भी है और अनिर्वचनीय है। अब यह बात इतनी जटिल होती चली गई, इसलिए अनुयायी खोजना मुश्किल है।

प्रश्न:

 

इसे दुबारा स्पष्ट कर दीजिए!

ह सत्य को सात कोणों से देखा जा सकता है, यह महावीर का कहना है। और बड़ी अदभुत बात है, आठवें कोण से नहीं देखा जा सकता। सात अंतिम कोण हैं। इसलिए सप्तभंग, सात दृष्टियों से सत्य को देखा जा सकता है। और जो एक ही दृष्टि का दावा करता है, वह छह अर्थों में असत्य दावा करता है। क्योंकि छह दृष्टियां वह नहीं कह रहा है। और जो एक ही दृष्टि को कहता है यही पूर्ण सत्य है, वह जरा अतिशय कर रहा है, वह सीमा के बाहर जा रहा है। वह इतना ही कहे कि एक दृष्टि से यह सत्य है, तो महावीर को किसी से झगड़ा ही नहीं है–किसी से भी। यानी ऐसा कोई विचार ही नहीं है, जिससे महावीर का झगड़ा हो। अगर वह विचार इतना कहे कि इस दृष्टि से मैं यह कहता हूं, तो महावीर कहेंगे, इस दृष्टि से यह सत्य है। लेकिन इससे उलटा आदमी आए और वह कहे कि इस दृष्टि से यह मैं कहता हूं असत्य है, तो महावीर उससे कहेंगे, तुम भी ठीक कहते हो। इस दृष्टि से यह असत्य है।

लेकिन तीन की दृष्टि बहुत पुरानी थी। साफ था कि तीन तरह से सोचा जा सकता है: है, नहीं है, दोनों है–है भी, नहीं भी। महावीर ने इसमें चार और दृष्टियां जोड़ी हैं। चौथी दृष्टि ही कीमती है, फिर बाकी तो उसी के ही रूपांतरण हैं, वह अनिर्वचनीय की दृष्टि। कि कुछ है, जो नहीं कहा जा सकता। कुछ है, जिसे समझाया नहीं जा सकता। कुछ है, जो अव्याख्य है। कुछ है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती। वह छोटे से घड़े में भी है। वह कुछ यानी अस्तित्व। वह अस्तित्व बिलकुल ही व्याख्या के बाहर है। उसकी हम क्या व्याख्या करें?

अब यह बड़े मजे की बात है। उपनिषद कहते हैं, ब्रह्म की व्याख्या नहीं हो सकती। बाइबिल कहती है, ईश्वर की व्याख्या कैसे हो सकती है! लेकिन महावीर कहते हैं ईश्वर, ब्रह्म तो बड़ी बातें हैं, घड़े की भी व्याख्या नहीं हो सकती। यानी ईश्वर और ब्रह्म को छोड़ दो, क्योंकि घड़े में भी एक तत्व है ऐसा, अस्तित्व, जो उतना ही अव्याख्य है जितना ब्रह्म। छोटी से छोटी चीज में वह मौजूद है जो अनिर्वचनीय है। इसलिए वह चौथी भंग जोड़ते हैं कि स्यात अनिर्वचनीय है। लेकिन उसमें भी स्यात लगाते हैं। जो खूबी है महावीर की वह बहुत ही अदभुत है। वे ऐसा भी नहीं कह देते कि अनिर्वचनीय है। क्योंकि वे कहते हैं, यह भी दावा ज्यादा हो जाएगा। इसलिए ऐसा कहो, मे बी, स्यात।

स्यात से कभी भी महावीर कोई वचन नीचे नहीं उतारते, वे जो भी कहते हैं, स्यात पहले लगा ही देते हैं। लेकिन स्यात का मतलब शायद नहीं है। स्यात का मतलब शायद नहीं है, शायद में संदेह है। नहीं, महावीर जब कहते हैं कि स्यात, तो उसका मतलब है, ऐसा भी हो सकता है, इससे अन्यथा भी हो सकता है। स्यात शब्द में दो बातें जुड़ी हैं–ऐसा है, इससे अन्यथा भी है। इसलिए कोई दावा नहीं है। इसलिए कोई दावा नहीं है।

और तब वह अनिर्वचनीय पर फिर तीन भंगियों को वापस दोहरा देते हैं। वे कहते हैं, है और अनिर्वचनीय है। कोई चीज है और अनिर्वचनीय है। लेकिन ऐसा भी हो सकता है, कोई चीज नहीं है और अनिर्वचनीय है, जैसे शून्य। शून्य है तो नहीं। शून्य का मतलब ही है, जो नहीं है। लेकिन शून्य अनिर्वचनीय है। सिर्फ इसलिए कि नहीं है, तुम ऐसा मत समझ लेना कि उसकी व्याख्या हो सकती है। न होते हुए भी वह अव्याख्य है। और सातवां वे जोड़ते हैं–है भी, नहीं भी है और अनिर्वचनीय भी है।

तो इन सात कोणों से सत्य को देखा जाने पर, इन सातों ही कोणों से जो व्यक्ति बिना किसी दृष्टि से बंधे देखने में समर्थ है, वह पूरे सत्य को जानने में समर्थ हो जाएगा। लेकिन बोलने में समर्थ नहीं होगा। पूरा सत्य तो जब भी बोला जाएगा, तब इन्हीं भंगियों में बोलना पड़ेगा।

इसलिए महावीर से आप पूछने जाएं, ईश्वर है? तो वे सात उत्तर देते हैं! तो आप चुपचाप घर चले आते हैं कि इस आदमी से क्या लेना-देना। हम साफ उत्तर चाहते हैं। हम पूछने गए हैं, ईश्वर है? तो हम चाहते हैं कि कोई कहे है, कोई कहे नहीं है–बात खतम करे।

आप महावीर से पूछने जाते हैं, वे कहते हैं, स्यात है भी, स्यात नहीं भी है। स्यात है भी, नहीं भी, स्यात अनिर्वचनीय है। स्यात है, अनिर्वचनीय है; स्यात नहीं है, अनिर्वचनीय है। स्यात है भी, नहीं भी है, अनिर्वचनीय है।

आप घर लौट आते हैं कि इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। क्योंकि इस आदमी से हम उतने ही उलझे लौटे, जितने हम गए थे। क्योंकि इस आदमी से हम उत्तर लेने गए थे, इस आदमी ने उत्तर दिया है, लेकिन इतना पूरा उत्तर देने की कोशिश की है कि कम बुद्धि को वह उत्तर पकड़ में नहीं आ सकता।

इसलिए महावीर का अनुगमन नहीं बढ़ सका। महावीर के अनुयायी बढ़े ही नहीं। महावीर के जीवन में जो लोग महावीर से प्रभावित हुए थे, फिर उनकी संतति भर ही महावीर के पीछे चलती रही अंधे की तरह। नए लोग नहीं आ सके, क्योंकि महावीर जैसा व्यक्ति ही पैदा नहीं कर सकी वह परंपरा फिर। क्योंकि उसके लिए बड़ा अदभुत व्यक्ति चाहिए जो इतने भिन्न कोणों से लोगों को आकर्षित कर सके। सीधी-सीधी बात से आकर्षित करना बहुत सरल है। इतनी जटिल बात में आकर्षित करना बहुत कठिन है।

इसलिए महावीर के सीधे संपर्क में जो लोग आए थे, फिर उनके बच्चे ही पीछे खड़े होते चले गए। और जन्म से कोई धर्म का संबंध नहीं है। इसलिए जैन जैसी कोई चीज है नहीं दुनिया में। वे महावीर के साथ ही खतम हो गए। जन्म से कोई संबंध ही नहीं है। इसलिए इस समय पृथ्वी पर जैन जैसी कोई जाति नहीं है। ये सब जन्म से जैन लोग हैं। इनको कुछ पता ही नहीं है।

और बड़े मजे की बात तो यह है कि ये जो जन्म से जैन हैं, ये ऐसे दावे करते हैं, जो महावीर सुन लें तो बहुत हंसें। इनके दावे सब ऐसे हैं, जो महावीर के उलटे हैं। क्योंकि ये कहेंगे कि महावीर तीर्थंकर हैं। खुद महावीर कहेंगे, स्यात हो भी सकता है, स्यात नहीं भी हो सकता है।

प्रश्न:

 

ऐसा हर धर्म में होगा?

हां, हर धर्म में है। लेकिन जैनों में बहुत ज्यादा है। उसका कारण है कि जो बात थी, वह इतनी जटिल है कि उसे सिर्फ जन्म से नहीं पकड़ा जा सकता किसी भी हालत में। जैसे मैं मानता हूं, एक आदमी जन्म से मुसलमान हो सकता है, क्योंकि बात बहुत सरल है, बात में कुछ ज्यादा गहराई नहीं है, बहुत गहराई नहीं है। इसलिए एक आदमी जन्म से भी मुसलमान हो सकता है। बात ही बहुत गहरी नहीं है। जन्म से कोई सूफी नहीं हो सकता, क्योंकि बात बहुत गहरी है। सूफी मुसलमानों का ही फकीरों का एक हिस्सा है, लेकिन जन्म से कोई सूफी नहीं हो सकता। सूफी होने के लिए तो होना ही पड़ेगा। कोई यह कहे कि मेरे बाप सूफी थे, इसलिए मैं सूफी हूं, तो कोई नहीं मानेगा। मुसलमान हो सकता है, कोई दम नहीं है उसमें।

जन्म से जैन होना बिलकुल ही मुश्किल है मामला, असंभव ही है। उसका कारण यह है कि वह मामला ही सूफियों जैसा है। वह बिलकुल ही साधना से उपलब्ध हो, जिन बन जाओ, तो ही जैन बन सकते हो। यानी वह जीत न लो जब तक, बनने का उपाय नहीं है कुछ। और बात इतनी जटिल है, इतनी जटिल है जिसका कोई हिसाब नहीं, जटिलतम है। क्योंकि जीवन ही जटिल है। महावीर कहते हैं कि जीवन ही इतना जटिल है, हम उसको सरल करें, झूठ हो जाता है।

जैसे कि अरस्तू का तर्क है। दुनिया में दो ही तर्क हैं, एक अरस्तू का तर्क है और एक महावीर का तर्क है। दुनिया में कोई तीसरा तर्क नहीं है। दो ही लाजिक हैं दुनिया में, एक अरस्तू का और एक महावीर का। सारी दुनिया अरस्तू के तर्क को मानती है, महावीर के तर्क को कोई मानता नहीं। क्योंकि अरस्तू का तर्क सीधा है, यद्यपि झूठ है।

अरस्तू का तर्क यह है कि अ अ है और अ कभी ब नहीं हो सकता। ए इज़ ए एंड ए कैन नाट बी बी। बी इज़ बी एंड बी कैन नाट बी ए। तर्क यह है कि अ अ है–साफ। और अ कभी ब नहीं हो सकता। ब ब है, ब कभी अ नहीं हो सकता। यह अरस्तू का तर्क है। सारी दुनिया अरस्तू के तर्क को मानती है। वह मानती यह है कि पुरुष पुरुष है, स्त्री स्त्री है; पुरुष स्त्री नहीं हो सकता, स्त्री पुरुष नहीं हो सकती। तर्क यह है, काला काला है, सफेद सफेद है; सफेद काला नहीं, काला सफेद नहीं। अंधेरा अंधेरा है, उजाला उजाला है, ऐसा साफ डिस्टिंक्शन है अरस्तू का। वह चीजों को तोड़ कर अलग-अलग कर देता है। वह कहता है, तर्क का मतलब ही यह है कि सफाई पैदा हो।

महावीर कहते हैं, अ अ भी हो सकता है, अ ब भी हो सकता है। अ यह भी हो सकता है कि अ भी न हो, ब भी न हो, और अ अनिर्वचनीय है। महावीर कहते ही यह हैं। महावीर का…दो ही तर्क हैं जगत में। महावीर कहते हैं कि स्त्री स्त्री भी है, पुरुष भी है। पुरुष पुरुष भी है, स्त्री भी है। पुरुष स्त्री भी हो सकती है, स्त्री पुरुष भी हो सकता है। और अनिर्वचनीय भी है, हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं। इस तर्क को समझना बहुत मुश्किल मामला है। लेकिन सच महावीर ही हैं।

जिंदगी इतनी सरल नहीं है, जैसा अरस्तू समझता है। जिंदगी में कोई चीज न काली है, न सफेद है; जिंदगी में सब चीज ग्रे हैं। काले और सफेद का भेद बिलकुल काल्पनिक है। कोई स्थान ऐसा नहीं है, जो बिलकुल अंधेरा है; और कोई स्थान ऐसा नहीं है, जो बिलकुल प्रकाशित है। असल में गहरे से गहरे प्रकाश में भी अंधकार की मौजूदगी है और अंधकार से अंधकार जगह में भी प्रकाश की मौजूदगी है। ठीक तौला नहीं जा सकता। जिंदगी बिलकुल घुली-मिली है। कौन सी चीज ऐसी है जो बिलकुल ठंडी है और गरम नहीं है? और कौन सी ऐसी चीज है जो बिलकुल गरम है और ठंडी नहीं है? बिलकुल सापेक्ष बातें हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है साफ टूटा हुआ।

तो महावीर कहते हैं, जिंदगी बिलकुल जुड़ी है, एकदम जुड़ी है। एक पैर जिंदगी है, दूसरा पैर मौत है और दोनों पैर साथ चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि एक आदमी जिंदा है और एक आदमी मरा है। मरना और जीना बिलकुल साथ-साथ चल रहा है। अंधेरा और प्रकाश बिलकुल एक ही चीज के हिस्से हैं।

अरस्तू के तर्क से गणित निकलता है, क्योंकि गणित सफाई चाहता है कि दो और दो चार होने चाहिए। और महावीर के गणित से तो दो और दो चार नहीं होते, कभी पांच भी हो सकते हैं, कभी तीन भी हो सकते हैं। ऐसा पक्का नहीं है कि दो और दो चार ही होंगे। जिंदगी इतनी तरल है, इतनी ठोस नहीं है, ऐसी मुर्दा भी नहीं है। तो वहां दो और दो कभी पांच भी हो जाते हैं, कभी दो और दो तीन भी रह जाते हैं।

तो महावीर के तर्क से मिस्टिसिज्म निकलता है, और अरस्तू के तर्क से निकलती है मैथेमेटिक्स। अरस्तू के तर्क से आता है गणित और महावीर के तर्क से आता है रहस्य। क्योंकि रहस्य का मतलब ही यह है कि जहां हम साफ-साफ न बांट सकें कि ऐसा है।

तो महावीर की इस इतनी गहरी दृष्टि में उतरने के लिए केवल किसी के घर में जन्म लेना बिलकुल ही व्यर्थ है। इससे कोई मतलब ही नहीं जुड़ता। इतनी गहरी दृष्टि के लिए तो इस गहरी दृष्टि में उतरने की ही जरूरत है। कोई उतरे तो ही उसे खयाल में आ सके।

तो महावीर के पीछे जो वर्ग खड़ा हुआ, महावीर के इमीजिएट सीधे संपर्क में जो लोग आए थे, वे लोग महावीर से प्रभावित हुए होंगे। अब उनके बच्चों और उनके बच्चों के बच्चों का कोई संबंध नहीं है इस बात से। कोई संबंध ही नहीं है। और इसलिए वे यह भी भूल जाते हैं कि वे कह क्या रहे हैं। जैसे कि अगर कोई जैन मुनि कहता है कि जैन-दर्शन ही सत्य है तो वह भूल रहा है, उसको पता ही नहीं है कि यह तो महावीर कभी नहीं कह सकते। यानी अगर कोई जैन अनुयायी यह कहता है कि महावीर जो कहते हैं, वह ठीक है, तो उसे पता नहीं कि खुद महावीर इसको इनकार कर देंगे। महावीर खुद इसको इनकार कर देंगे।

यानी इतना अदभुत मामला है कि कोई अगर महावीर से यह भी पूछे कि जिस स्यातवाद की, जिस थिअरी ऑफ रिलेटिविटी की आप बात कर रहे हैं, क्या वह पूर्ण सत्य है? तो वे कहेंगे, स्यात। इसमें भी वे स्यात का ही उपयोग करेंगे। वे यह नहीं कह देंगे कि जो स्यातवाद मैंने कहा, यह जो थिअरी ऑफ प्रोबेबिलिटी समझाई कि हर चीजों के सात कोण हैं और सात तरह से देखा जा सकता है–कोई अगर पूछे कि यह तो परम सत्य है? तो महावीर कहेंगे, स्यात। हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, अनिर्वचनीय है। इसके लिए भी वे यही कहेंगे।

तो यह जो जटिलता है, उसकी वजह से अनुयायी का आना बहुत कठिन हो गया, एकदम कठिन हो गया।

फिर महावीर की और भी बातें हैं, जो अनुयायी को आने में एकदम बाधा हैं। जैसे महावीर नहीं कहते कि मैं तुम्हारा कल्याण कर सकूंगा। वे कहते हैं, तुम ही अपना कर लो तो काफी। मैं कैसे कर सकूंगा? कोई किसी का नहीं कर सकता। अपना ही करना होगा। अनुयायी आता है इसलिए कि कोई कर दे। तो जब कोई कहता है कि मेरी शरण आ जाओ, मैं तुम्हें मोक्ष पहुंचा दूंगा, तो अनुयायी आता है। अब यह आदमी कहता है कि मेरी शरण से तुम मोक्ष नहीं पहुंच सकोगे। कोई किसी की शरण से कभी मोक्ष पहुंचा नहीं। तो कौन इसके पास आए? प्रयोजन क्या? स्वार्थ क्या? लाभ क्या? हम तो पूछते हैं, लाभ क्या है, प्रयोजन क्या है, हित कैसे सिद्ध होगा? यह आदमी कहता है कि अपने सिवाय और कोई किसी का हित सिद्ध कर नहीं सकता।

महावीर ने गुरु नहीं बनाया, यह बड़ी मूल्यवान बात है। सच बात यह है कि महावीर खुद भी किसी के गुरु बनना नहीं चाहते। गुरु का कोई प्रयोजन नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। महावीर की दृष्टि ज्यादा से ज्यादा कल्याण मित्र बनने की है, कि मैं तुम्हारे कल्याण में मित्र बन सकता हूं, बस इससे ज्यादा नहीं। गुरु कोई किसी का नहीं बन सकता। क्योंकि गुरु चलता है आगे, शिष्य चलता है पीछे, मित्र चलता है साथ। यानी ज्यादा से ज्यादा तुम मेरे साथ चल सकते हो। मैं तुम्हारे आगे नहीं चल सकता, तुम मेरे पीछे नहीं चल सकते। और यह अपमान भी कोई किसी का कैसे करे कि किसी को पीछे चलाए!

मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन में एक बहुत अदभुत कहानी है। मुल्ला नसरुद्दीन को उसके गांव के कुछ लड़कों ने, मदरसे के लड़कों ने आकर कहा कि हमारे स्कूल में आपका प्रवचन करवाना है, आप चलें। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, हम बिलकुल तैयार हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर सवार होकर चलने को हुए। तो लड़के बड़े हैरान हुए कि मुल्ला गधे पर उलटा बैठ गया। गधे का मुंह इस तरफ और मुल्ला का मुंह उस तरफ, और पीछे लड़कों को कर लिया। रास्ते में सब दुकानों के लोग झांक-झांक कर देखने लगे कि मुल्ला का दिमाग खराब हो गया! क्योंकि गधे पर उलटा बैठा हुआ है! और लड़के भी बड़े पेशोपस में पड़ने लगे, क्योंकि उसके साथ वे भी बुद्धू बन रहे हैं।

तो एक लड़के ने कहा कि मुल्ला, अगर सीधे बैठ जाओ तो बड़ा अच्छा हो, क्योंकि बाजार और आगे बड़ा बाजार आता है, सब लोग देखेंगे और हम भी आपके साथ मुश्किल में पड़ गए हैं। तो मुल्ला ने कहा, तुम समझते नहीं हो, कारण है इसका। अगर मैं तुम्हारी तरफ पीठ करके बैठूं तो तुम्हारा अपमान हो जाए। और अगर तुम मेरे आगे चलो तो भी तुम्हें संकोच लगे कि वृद्ध के आगे कैसे चलें! तो फिर मैंने सोचा, यही तरकीब उचित है कि मैं गधे पर उलटा बैठ जाऊं, आमने-सामने होना अच्छा है। कोई किसी का अपमान नहीं करेगा।

यह जो मुल्ला है, यह बहुत अदभुत आदमी है। इसकी छोटी से छोटी मजाक में भी बड़े गहरे से गहरे सत्य हैं। ऐसे वह बिलकुल सीधा मजाक कर रहा है, लेकिन वह कह यह रहा है कि जो तुम्हारे आगे चलता है, वह भी अपमान करता है, और तुम अगर आगे चलते हो तो तुम उसका अपमान कर देते हो।

महावीर को बिलकुल पसंद नहीं है। न तो उनके आगे किसी को रखना पसंद है, इसलिए कोई गुरु नहीं बनाया, न अपने पीछे किसी को रखना पसंद है, इसलिए किसी को अनुयायी नहीं बनाया। वे कहते हैं, कोई किसी का कल्याण नहीं कर सकता, कोई किसी को स्वर्ग नहीं ले जा सकता, कोई किसी का मुक्तिदाता नहीं है। प्रत्येक को स्वयं होना पड़ेगा। इसलिए अनुयायी होने के सारे रास्ते तोड़े डाल रहे हैं। साथ हो सकते हैं। अनुगमन नहीं हो सकता, सहगमन हो सकता है।

इसलिए जो महावीर का अनुयायी है, वह तो समझ ही नहीं पाएगा। क्योंकि अनुयायी होकर ही उसने सब गलती कर दी है। और महावीर के साथ होना बड़ी हिम्मत की बात है। पीछे होना बड़ी सरल बात है। साथ होना बड़ी हिम्मत की बात है। साथ होने का मतलब है, उन सबसे गुजरना पड़ेगा जिससे महावीर गुजरते हैं। तो हम पीछे ही होना चाहते हैं। इसमें कुछ नहीं करना पड़ता। महावीर को चलना पड़ता है, हम पीछे होते हैं। और पीछे होने की वजह से कभी हम पर कोई इल्जाम भी नहीं हो सकता, क्योंकि हम तो सिर्फ अनुयायी हैं।

तो महावीर के आस-पास बड़ी संख्या नहीं उपस्थित हो सकी। छोटी संख्या उपस्थित हुई, बहुत छोटी संख्या उपस्थित हुई और वह निरंतर छोटी होती चली गई। और अब करीब-करीब शाखा सूख गई बिलकुल। अब उसमें कोई प्राण नहीं रह गए। अब वह बिलकुल सूखी शाखा की तरह चल रहा है। जैसे बहुत दिन तक पत्ते गिर जाते हैं, शाखा सूख जाती है, फिर भी वृक्ष खड़ा रहता है, ऐसा हो गया है।

यह तोड़ा जा सकता है, अगर महावीर को ठीक से समझा जा सके तो यह फिर से तोड़ा जा सकता है। फिर इसमें नए अंकुर आ सकते हैं। और मैं मानता हूं, नए अंकुर आने चाहिए, क्योंकि महावीर…मैं किसी का अनुयायी नहीं, फिर भी चाहता हूं कि इस शाखा में नए अंकुर आने चाहिए। जैसे मैं चाहता हूं कि लाओत्से की शाखा में नए अंकुर आएं, जीसस की शाखा में आएं, क्योंकि ये सब वृक्ष बड़े अदभुत थे। और इन सब वृक्षों के नीचे न मालूम कितने लोगों को छाया मिल सकती है। ये सूख जाते हैं तो वह छाया मिलनी बंद हो जाती है।

लेकिन मजा यह है कि जो इन वृक्षों के नीचे ठहर गए हैं, वे ही इनको सुखाने के कारण हैं। क्योंकि वे पानी नहीं देते वृक्ष को, पूजा करते हैं। अब पूजा से कहीं वृक्ष बढ़ते हैं? पूजा से वृक्ष सूखते हैं। पानी देने से वृक्ष बढ़ते हैं। पानी वे देते नहीं, वे सिर्फ पूजा करते हैं।

तो सब वृक्ष सूख गए हैं। चूंकि इस प्रसंग में महावीर की बात चलती है, इसलिए मैं कहता हूं कि कोई जैन नहीं है। एक सूखा हुआ वृक्ष है, एक स्मृति में, उसके नीचे खड़े हुए लोग हैं, जो पूजा कर रहे हैं।

और वे जो भी कर रहे हैं, उसका महावीर से कोई तालमेल नहीं है। क्योंकि महावीर जैसे अदभुत व्यक्ति से तालमेल बिठाना भी बहुत मुश्किल बात है। और अगर महावीर की जो मैंने समझाई स्यात की दृष्टि, हम समझ लें। और अगर यह स्यात की दृष्टि को ठीक से प्रकट किया जा सके तो आने वाले भविष्य में महावीर के वृक्ष के नीचे बहुत लोगों को छाया मिल सकती है। क्योंकि स्यात की भाषा रोज-रोज महत्वपूर्ण होती चली जाएगी। क्योंकि विज्ञान ने तो उसे एकदम ही स्वीकार कर लिया है।

आइंस्टीन की स्वीकृति बहुत अदभुत है। और इतने अदभुत मामलों में स्वीकार किया है कि हमारी कल्पना के बाहर है। जैसे अब तक समझा जाता था कि जो अणु है, जो अंतिम अणु है, परमाणु है–वह अणु है, एटम है। एटम का मतलब एक बिंदु है, जिसमें लंबाई-चौड़ाई नहीं है। लेकिन फिर प्रयोगों से पता चला कि कभी तो वह बिंदु की तरह व्यवहार करता है, एटम की तरह, और कभी वह लहर की तरह व्यवहार करता है, वेव की तरह। तो बड़ी मुश्किल हो गई। उसको क्या कहें हम? स्यात अणु है, स्यात लहर है। तो एक नया शब्द बनाना पड़ा क्वांटा। क्वांटा का मतलब है, जो दोनों है–बिंदु भी और लहर भी।

यह हो नहीं सकता। अगर हम कहें कि एक चीज बिंदु भी है और लकीर भी तो यूक्लिड आ जाएगा, उसकी आत्मा कहेगी, यह तुम क्या कर रहे हो? बिंदु बिंदु होता है, लकीर लकीर होती है, बिंदु लकीर कैसे हो सकता है? लकीर बिंदु कैसे हो सकती है? लेकिन क्वांटा का मतलब है कि जो परम अणु है, वह बिंदु भी है और लकीर भी। वह कण भी है और लहर भी। ये दोनों बातें कैसे हो सकती हैं? कण लहर कैसे हो सकता है? और लहर तो कण नहीं हो सकती।

लेकिन आइंस्टीन ने कहा कि दोनों संभावनाएं एक साथ हैं, इसलिए रिलेटिविटी। इसलिए ऐसा मत कहो कि बिंदु ही है, कण ही है। ऐसा कहो, स्यात बिंदु है, स्यात लहर है। आइंस्टीन ने वहां रिलेटिविटी को इतने जोर से सिद्ध कर दिया है कि सब चीजें डगमगा गई हैं। जो कल तक एब्सोल्यूट ट्रस्ट पर खड़ी थीं, जो निरपेक्ष सत्य का दावा करती थीं, वे सब डगमगा गई हैं। विज्ञान तो सापेक्ष के भवन पर खड़ा हो गया।

और इसीलिए मैं कहता हूं कि महावीर की स्यात की भाषा को अगर प्रकट किया जा सके तो आने वाले भविष्य में महावीर ने जो कहा है, वह परम सार्थकता ले लेगा, जो उसने कभी नहीं ली थी। यानी आने वाले पांच सौ, हजार वर्षों में महावीर की विचार-दृष्टि बहुत ही प्रभावी हो सकती है। लेकिन उसके स्यात को प्रकट करना पड़े। वह जो उसमें प्रोबेबिलिटी की बात है, उसको प्रकट करना पड़े।

उससे जैनी खुद डरेगा। क्योंकि अनुयायी हमेशा स्यात से डरता है, क्योंकि स्यात सब डगमगा देता है। यानी उसका मतलब यह हुआ कि मधुशाला के लिए अगर कोई पूछे कि मधुशाला बुरी है? तो कहना पड़ेगा, स्यात बुरी है, स्यात अच्छी है; जाने वाले पर निर्भर है कि वह क्या करता है। कोई पूछे, मंदिर अच्छा है? तो कहना पड़े, स्यात अच्छा है, स्यात बुरा है; जाने वाले पर निर्भर करता है कि वह मंदिर में क्या करता है।

महावीर तो ऐसा बोलेंगे, लेकिन अनुयायी ऐसे कैसे बोले? तब तो वह कहेगा कि मधुशाला और मंदिर में फर्क करना मुश्किल हो जाएगा।

तो उसे तो पक्का कहना पड़ेगा, मधुशाला बुरी है और मंदिर अच्छा है। लेकिन तभी वह स्यात से मुक्त हो गया और निश्चय पर आ गया, सर्टेन्टी पर आ गया और बात खतम हो गई। महावीर के साथ चलना मुश्किल है, एकदम मुश्किल है। और इसलिए अनुयायी खड़े हो जाते हैं। और अनुयायी कभी भी किसी अर्थ के नहीं होते।

प्रश्न:

 

मैं मानता ऐसा हूं कि जो कुछ आपने आज तक कहा, वह सब एक ही प्रश्न को विशेष रूप से जन्म देता है। और वह प्रश्न यह है कि आप जो कुछ कह रहे हैं, वह जैन परिभाषा में सम्यक दर्शन के नाम से कहा गया है। और आप इसी पर पूर्ण बल दे रहे हैं–आंतरिक विवेक, जागरूकता। पर एक सम्यक चारित्र्य भी उसका अंग है और वह चारित्र्य बाह्य रूप में भी प्रकट होता है। चाहे वह आता दर्शन में से ही है, पर उसका स्वयं का स्वरूप कुछ बाह्य में भी होता है। जैसे आप अगर अपरिग्रह को लें तो एक असंपृक्ति का अभाव यह तो उसका मूल है, र्मूच्‍छा का अभाव यह तो उसका मूल है, पर बाह्य में वह बाह्य पदार्थों की सीमा बंधती चली जाए, इस रूप में प्रकट भी होना चाहिए, ऐसा जैन-दर्शन की मुझे मान्यता लगती है। इसी आधार पर तो अणुव्रत और महाव्रत का भेद हुआ। आज मेरी र्मूच्‍छा टूट गई, पर सब पदार्थ मुझसे आज छूट नहीं जाते अचानक, क्योंकि मेरी आवश्यकताएं जो हैं, वे धीरे-धीरे ही छूटने वाली हैं: कर्म या संस्कार, उनका बंधन, वह धीरे-धीरे ही टूटने वाला है। और वही आचरण के रूप में आज अणुव्रत से प्रारंभ होगा, कल महाव्रत के रूप में समाप्त होगा। तो आप अगर यह भेद ही न मानें, केवल र्मूच्‍छा टूटना ही अपरिग्रह कर लें तो फिर अणुव्रत, महाव्रत का कोई भेद नहीं! और कोई क्रम नहीं और चारित्र्य नहीं, केवल दर्शन ही है!

समें भी दोत्तीन बातें समझनी चाहिए। एक तो, अणुव्रत से कोई कभी महाव्रत तक नहीं जाता, महाव्रत की उपलब्धि से अनेक अणुव्रत पैदा होते हैं।

प्रश्न:

 

दोनों शब्दों का अर्थ?

हां, मैं बताता हूं। महाव्रत का अर्थ है, जैसे पूर्ण अहिंसा। पूरे अहिंसक ढंग से जीने का अर्थ हुआ महाव्रत–पूर्ण अपरिग्रह, पूर्ण अनासक्ति। अणुव्रत का मतलब है, जितनी सामर्थ्य हो। एक आदमी कहता है कि मैं पांच रुपए का परिग्रह रखूंगा, यह अणुव्रत है। एक आदमी कहता है, मैं नग्न रहूंगा, मैं कोई परिग्रह नहीं रखूंगा, यह महाव्रत है।

साधारणतः ऐसा समझा जाता है कि अणुव्रत से महाव्रत की यात्रा होती है कि पहले पांच रुपए का रखो, फिर चार का रखो, फिर तीन का रखो, फिर दो का, फिर एक का, फिर बिलकुल मत रखना। साधारणतः ऐसा समझा जाता है कि हम छोटे से छोटे का अभ्यास करते-करते बड़े की तरफ जाएंगे।

यह बात ही गलत है। यह हो सकता है कि एक आदमी दस रुपए की जगह पांच रुपए का रखने का अभ्यास कर ले। यह अभ्यास होगा, र्मूच्‍छा नहीं टूट जाएगी। क्योंकि अगर र्मूच्‍छा टूट गई होती तो महाव्रत उपलब्ध होता है। र्मूच्‍छा के टूटते ही महाव्रत उपलब्ध होता है।

महाव्रत का जीवन-व्यवहार में अणुव्रत दिखाई पड़ सकता है। लेकिन र्मूच्‍छा टूटते ही अणु उपलब्ध नहीं होता, महा उपलब्ध होता है। और अगर एक आदमी के पास दस रुपए थे और उसने अभ्यास करके पांच का अणुव्रत साध लिया, कल अभ्यास करके चार का साध लिया, परसों तीन का साध लिया, फिर दो का, फिर एक का, और आखिर में उसने अपरिग्रह भी साध लिया, तो भी र्मूच्‍छा नहीं टूटी है। क्योंकि साधना हमें उसे पड़ता है, जिसकी हमारी र्मूच्‍छा नहीं टूटती। जिसकी र्मूच्‍छा टूट जाती है, उसे हमें साधना नहीं पड़ता, वह सहज आता है।

र्मूच्‍छा टूटी या नहीं इसका एक ही सबूत है कि जो आपसे हो रहा है, वह आपको साधना पड़ा है या कि आया है? अगर आया है तो र्मूच्‍छा टूटी और अगर साधना पड़ा है तो र्मूच्‍छा नहीं टूटी। क्योंकि साधना किसके खिलाफ करनी पड़ती है? अपनी ही र्मूच्‍छा के खिलाफ। मेरा मन तो कहता है दस रुपया रखो और मेरा व्रत कहता है कि पांच रखने चाहिए। तो मैं लड़ता किससे हूं? अपने मन से लड़ता हूं, जो कहता है दस रखो। मन तो दस का है और व्रत पांच का है, तो लड़ता अपने से हूं।

र्मूच्‍छा टूट जाए तो मन ही टूट जाता है। दस का नहीं, पांच का नहीं, दो का नहीं, एक का नहीं–मन परिग्रह का ही टूट जाता है। उस हालत में भी एक आदमी पांच रुपए रख सकता है, लेकिन तब वह सिर्फ जरूरत होगी उसकी, र्मूच्‍छा नहीं। उस हालत में भी पांच रुपए रख सकता है। क्योंकि जीवन-व्यवहार में, जीवन में जहां हम जी रहे हैं, र्मूच्‍छा टूट जाने पर भी एक आदमी मकान में सो सकता है, लेकिन मकान उसका परिग्रह नहीं है।

र्मूच्‍छा टूटने का मतलब यह नहीं कि चीजें छूट जाएंगी। र्मूच्‍छा टूटने का मतलब यह है कि चीजों से हमारा जो लगाव है, वह छूट जाएगा। एक आदमी मकान में सो रहा है। यह मकान मेरा है, र्मूच्‍छा इस मेरे में है। र्मूच्‍छा मकान में सोने में नहीं है। तुम्हारे खीसे में पांच रुपए हैं, इसमें र्मूच्‍छा नहीं है।

मैंने सुना है, एक नदी के किनारे दो फकीर हैं, उनमें विवाद हो रहा है। एक फकीर है जो कहता है, कुछ भी रखना ठीक नहीं पास। वह एक पैसा पास नहीं रखता है। दूसरा फकीर है, जो कहता है कि कुछ न कुछ पास होना जरूरी है, नहीं तो बड़ी मुश्किल पड़ती है। फिर वे नदी के तट पर आए, सांझ हो गई, सूरज ढल रहा है। नाव वाला है, और नाव वाला उनसे कहता है कि एक रुपया लेंगे तो हम पार कर देते हैं, नहीं तो अब मैं जाता नहीं। मेरा गांव इसी तरफ है। मैं तो नाव बांध कर अब घर जा रहा हूं। अब रात हो गई। दिन भर का काम, थक गया हूं।

उन फकीरों को उस तरफ जाना है, जरूरी है। रात वहां पहुंच जाना जरूरी है। उस तरफ लोग प्रतीक्षा करते होंगे। वे परेशान होंगे, हैरान होंगे। इस तरफ घना जंगल है, कहां पड़े रहेंगे! तो वह फकीर एक रुपया निकालता है जो कहता था, कुछ रखना जरूरी है। एक रुपया देता है, वे नाव में दोनों सवार होकर उस तरफ पहुंच जाते हैं। वह फकीर कहता है कि देखो, मैंने कहा था, कुछ रखना जरूरी है, नहीं तो हम उसी पार रह गए होते। वह जो फकीर कहता था, कुछ भी रखना जरूरी नहीं है, छोड़ना जरूरी है, वह कहता है कि तुम रखने की वजह से इस पार नहीं पहुंचे, तुम एक रुपया छोड़ सके, इसलिए हम इस पार पहुंचे। सिर्फ रखने से नहीं इस पार पहुंचे, छोड़ने से ही इस पार पहुंचे।

फिर विवाद शुरू हो जाता है। क्योंकि बड़ी मुश्किल हो गयी। जिसने एक रुपया दिया था, उसने सोचा था कि विवाद जीत गए। उस पार नदी के फिर विवाद चलने लगा है। और अब इस विवाद का कोई अंत नहीं हो सकता। क्योंकि वह दूसरा फकीर यह कहता है कि हम इस पार आए ही इसलिए कि तुम एक रुपया छोड़ सके। छोड़ने से हम इस पार आए। और वह फकीर कहता है, हम आते ही नहीं अगर एक रुपया हमारे पास न होता।

अब मेरा मानना यह है कि कोई तीसरे फकीर की वहां जरूरत है जो कहे कि हो, तभी छोड़ा जा सकता है, न हो तो छोड़ा भी नहीं जा सकता। इसलिए मैं जो कहता हूं, वह यह कहता हूं कि चीजें हों और तुममें छोड़ने की सतत सामर्थ्य हो बस इतनी ही बात है। चीजें न हों, यह सवाल नहीं है। चीजें न हों, यह सवाल नहीं है; सवाल यह है कि तुममें सतत छोड़ने की सामर्थ्य हो।

एक और तुम्हें कहानी कहूं, उससे शायद समझ में आ जाए। एक सम्राट एक संन्यासी से बहुत प्रभावित था। वह नग्न पड़ा रहता संन्यासी एक नीम के वृक्ष के नीचे। उस सम्राट का आदर बढ़ता गया और एक दिन उसने कहा कि यहां नहीं, मेरे पास इतने बड़े महल हैं, आप यहां क्यों नीचे पड़े हैं? आप महल में चलें। सोचा था उसने, संन्यासी इनकार करेगा कि मैं महल में नहीं जा सकता, मैं अपरिग्रही! संन्यासी ने कहा, जैसी मर्जी! वह उठा कर डंडा खड़ा हो गया। सम्राट के मन में बड़ी मुश्किल हुई, सोचा था कि अपरिग्रही है, इनकार करेगा। वह एकदम डंडा उठा कर खड़ा हो गया! कहा, जैसी मर्जी! चलो, महल चले चलते हैं! तब तो सम्राट को बड़ी शंका आने लगी मन में, संदेह आने लगा कि कुछ भूल हो गई मुझसे। आदमी दिखता है महल की प्रतीक्षा ही कर रहा था। सिर्फ नीम के नीचे शायद इसीलिए पड़ा हो कि कोई महल में ले जाने वाला मिल जाए। इसने एक दफा इनकार भी न किया! ऐसा कैसा अपरिग्रही है! अपरिग्रही को तो कहना था, कभी नहीं जा सकता महल में। महल पाप है। वहां मैं कैसे जा सकता हूं?

वह चला आया महल में! फिर भी सम्राट ने कहा, देखें, कोशिश करें, जांच-पड़ताल करें। तो अपना ही, जो उसका कमरा था, जिसमें बहुमूल्य से बहुमूल्य सामान थे, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ गद्दियां थीं, मखमलें थीं, कीमती कालीन थे। उसने ही कहा कि आपको यहां…ठहर सकेंगे न? उसने कहा, बिलकुल मजे से! वह जैसा नीम के नीचे सोया था, वैसे ही वह उस मखमली गद्दे पर सो गया। सम्राट ने अपना सिर ठोंका। उसने कहा, कुछ गलती एकदम हो गई। हम एकदम गलत आदमी को ले आए। क्योंकि परिग्रही को अपरिग्रही तब समझ में आता है, जब वह परिग्रह की दुश्मनी में हो। परिग्रही को, जिसको चीजों से पकड़ है, उसे सिर्फ वही समझ में आता है जो चीजों को पकड़ने से ऐसा डर कर हाथ फैला दे कि नहीं, मैं छू नहीं सकता, ये चीजें पाप हैं। जिसको रुपए से मोह है, वह रुपए को लात मारने वाले को ही आदर देता है। परिग्रही सिर्फ उसको ही समझ सकता है, जो उलटा, ठीक उससे उलटा करे।

सम्राट बहुत मुश्किल में पड़ गया, छह महीने बीत गए हैं। वह फकीर ऐसे रहने लगा जैसे सम्राट रहता है। छह महीने बीत गए हैं, एक सुबह वे अपने बगीचे में टहलते हैं। और सम्राट ने उस फकीर से पूछा कि अब तो मुझमें और आपमें कोई भेद नहीं मालूम पड़ता, बल्कि शायद आप ही ज्यादा सम्राट हैं। यानी मुझे चिंता, फिक्र और सब इंतजाम भी करना पड़ता है। आप तो बिलकुल मजे में हैं! तब तो एक फर्क था जब आप नीम के नीचे पड़े थे, आप संन्यासी थे, मैं सम्राट था। अब तो कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता, बल्कि आप ही ज्यादा सम्राट हैं। तो क्या मैं पूछ सकता हूं कि कोई फर्क बाकी है?

तो उस संन्यासी ने कहा, फर्क पूछते हो? चलो, थोड़ा आगे चले चलें, थोड़ा आगे बताएंगे। बगीचा पार हो गया, गांव निकल गया। सम्राट ने कहा, बता दें। उसने कहा, थोड़ा और आगे चलें। गांव की नदी आ गई, वे नदी के पार हो गए। सम्राट ने कहा, कब बताएंगे? धूप चढ़ी जाती है! उसने कहा, चले चलो। अभी अपने आप पता चल जाएगा। सम्राट ने कहा, क्या मतलब? उस फकीर ने कहा कि अब मैं लौटूंगा नहीं। अब मैं लौटूंगा नहीं! अब तुम चले ही चलो मेरे साथ। सम्राट ने कहा, मैं कैसे चल सकता हूं? मेरा मकान, मेरा महल, मेरा राज्य।

उस फकीर ने कहा, तो तुम लौट जाओ, लेकिन अब हम जाते हैं। अगर फर्क दिख जाए तो दिख जाए। उस फकीर ने कहा कि अगर फर्क दिख जाए तो दिख जाए, क्योंकि अब हम लौटने वाले नहीं। मगर यह मत समझना कि हम कोई तुम्हारे महल से डर गए हैं। तुम अगर कहो कि लौट चलो तो हम लौट जाएं, लेकिन तुम्हारी शंका फिर पैदा हो जाएगी। इसलिए अब हम जाते हैं। अब तुम अपना महल सम्हालो। उस सम्राट से उसने कहा कि इसमें फर्क तुम्हें दिखता है कि हम जा सकते हैं किसी भी क्षण!

अपरिग्रह का मतलब यह नहीं है कि चीजें न हों। क्योंकि चीजें न होने पर जोर जो है, वह चीजें होने पर जो जोर था, उसका ही प्रतिरूप है। चीजें हों या न हों, यह सवाल नहीं है अपरिग्रह का। अपरिग्रह का सवाल यह है कि व्यक्ति चीजों के सदा बाहर है। उसके भीतर कोई चीज नहीं है।

उस फकीर ने कहा कि हम तुम्हारे महल में थे, लेकिन तुम्हारा महल हममें नहीं है। बस, इतना ही फर्क है। तुम महल में कम हो, महल तुममें ज्यादा है। तो हम छोड़ कर कहीं भी जा सकते हैं। हमारे भीतर नहीं है मामला। हम उसके भीतर थे, निकल सकते हैं। कोई महल हमको पकड़ सकता है? और जैसे हम नीम के नीचे सोते थे, वैसे ही तुम्हारे महल में भी सोए। वही आदमी, वैसे ही सोया।

तो महाव्रत से अणुव्रत फलित हो सकते हैं, लेकिन अणुव्रतों के जोड़ से कभी महाव्रत नहीं निकलता। क्योंकि अणुव्रत की कोशिश ही मर्ूच्छित चित्त की कोशिश है। और महाव्रत की तुम कोशिश ही नहीं कर सकते। वह तो अर्मूच्‍छा लाओ तो महाव्रत उपलब्ध होगा। मेरा मतलब समझ लेना! महाव्रत प्रयास से नहीं आ सकता, तुम्हारी र्मूच्‍छा टूट जाए तो महाव्रत फलित होता है, तुम्हारा चित्त महाव्रती हो जाता है। लेकिन जीवन में हजार तरह से अणुओं में प्रकट होगा वह महाव्रत, हजार-हजार अणुओं में।

लेकिन साधक जिसको हम कहते हैं आमतौर से, वह अणुव्रत से चलता है महाव्रत पर पहुंचने की कोशिश में। वह कभी नहीं पहुंचता। वह अणुओं के जोड़ पर पहुंच जाएगा, महाव्रत पर नहीं।

महाव्रत अणुओं का जोड़ नहीं है, महाव्रत विस्फोट है, एक्सप्लोजन है। और जब चेतना पूरी की पूरी विस्फोट होती है, तब उपलब्ध होता है।

महावीर महाव्रती हैं। जीवन तो अणुव्रती होगा। क्योंकि कहीं जाकर भिक्षा मांगेंगे, दो रोटी खा लेंगे। किसी विश्राम के लिए किसी छाया के तले रुकेंगे; चलेंगे, फिरेंगे, बात करेंगे। इस सब में अणु होंगे। लेकिन भीतर जो विस्फोट हो गया, वहां महा होगा।

फिर जो दूसरी बात पूछी है, वह भी इससे संबंधित समझ लेनी चाहिए।

तीन शब्द हैं महावीर के–सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र्य। लेकिन अनुयायियों ने बिलकुल उलटा किया हुआ है। वे कहते हैं, सम्यक चारित्र्य, सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन। वे कहते हैं, पहले चरित्र साधो, तब ज्ञान थिर होगा। जब ज्ञान थिर होगा तो दर्शन होगा। पहले चरित्र को बनाओ, जब चरित्र शुद्ध हो जाएगा तो मन थिर होगा, फिर मन में ज्ञान होगा। जानोगे तुम, जानने से दर्शन उपलब्ध होगा, तो मुक्त हो जाओगे।

स्थिति बिलकुल उलटी है। सम्यक दर्शन पहले है, विज़न पहले मिलना चाहिए, दर्शन पहले होना चाहिए। जिसका हमें दर्शन होता है, उसका हमें ज्ञान होता है। दर्शन है शुद्ध दृष्टि, देखना। जैसे तुम एक फूल के पास से निकले और तुम खड़े हो गए और तुम्हें दर्शन हुआ फूल का। अभी ज्ञान नहीं हुआ। जब दर्शन को तुम समझने की कोशिश करोगे, तुम कहोगे, गुलाब का फूल है, बड़ा सुंदर है, यह ज्ञान हुआ। जब दर्शन को तुम बांधते हो, तब वह ज्ञान बन जाता है। और फिर तुमने फूल तोड़ा और उसकी सुगंध ली, यह चरित्र हुआ। दर्शन जब बंधता है तो ज्ञान बन जाता है, ज्ञान जब प्रकट होता है तो चरित्र हो जाता है। चरित्र अंतिम है, प्रथम नहीं। दर्शन प्रथम है।

तो पहले तो जीवन का सत्य क्या है, इसका दर्शन चाहिए। वह ध्यान से होगा, समाधि से होगा। इसलिए साधना ध्यान और समाधि की है। दर्शन उसका फल होगा। जब दर्शन हो जाएगा और तुम सचेत होओगे दर्शन के प्रति तो ज्ञान निर्मित होगा। और जब ज्ञान निर्मित होगा तो तुम उससे अन्यथा आचरण नहीं कर सकते हो। तुम्हारा आचरण सम्यक हो जाएगा।

प्रश्न:

 

वह आचरण किस रूप में होगा, यही मेरी जिज्ञासा है!

 

ह बहुत रूप में हो सकता है। क्योंकि आचरण बहुत सी चीजों पर निर्भर है, वह सिर्फ तुम पर निर्भर नहीं है। वह आचरण बहुत रूप में हो सकता है। जीसस में एक तरह का होगा, कृष्ण में एक तरह होगा, महावीर में एक तरह होगा। दर्शन बिलकुल एक होगा, ज्ञान में फर्क पड़ जाएगा फौरन। क्योंकि उस दर्शन को ज्ञान बनाने वाला प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग है। ज्ञान में भेद पड़ जाएगा, दर्शन बिलकुल एक होगा। जगत के जितने भी अनुभूति उपलब्ध व्यक्ति हैं, सबका दर्शन एक है, लेकिन ज्ञान सबका अलग होगा। ज्ञान अलग का मतलब यह कि उनकी भाषा, उनके सोचने का ढंग, उनकी शब्दावली, वह सब की सब ज्ञान बनेगी। फिर ज्ञान आचरण बनेगा और आचरण भी भिन्न होगा।

जैसे, जैसे समझ लें कि अगर आज महावीर न्यूयार्क में पैदा हों तो वे नंगे खड़े नहीं होंगे। क्योंकि न्यूयार्क में नंगे खड़े होने का एक ही परिणाम होगा कि वह पागलखाने में बंद करके उनका इलाज किया जाएगा। न्यूयार्क में वे नंगे खड़े नहीं होंगे। क्योंकि न्यूयार्क की परिस्थिति नंगे होने को पागलपन से समानार्थक मानती है। तो इस परिस्थिति में महावीर का आचरण नग्न होने का नहीं होगा, नहीं हो सकता। जिस परिस्थिति में भारत में वे थे, उस दिन नग्नता पागलपन का पर्यायवाची नहीं थी, परम संन्यास का पर्यायवाची थी।

प्रश्न:

 

उत्तरी ध्रुव में वे मांस भी खा सकते हैं, अगर आज पैदा हों?

संभव है। मैं जो बात कर रहा हूं, उसे समझ लें। संभव है, लेकिन मैंने कल रात जो बात की अगर वह तुमने सुनी है, तो वे उत्तरी ध्रुव में भी मांस नहीं खाएंगे। अगर उन्हें मूक जगत से संबंध स्थापित करना हो तो मांस नहीं खा सकते हैं और अगर न संबंध स्थापित करना हो तो मांस खा सकते हैं।

प्रश्न:

 

और मोक्ष हो सकता है?

र मोक्ष हो सकता है। मांस खाने से मोक्ष का कोई विरोध नहीं है, कोई विरोध नहीं है। लेकिन तब वे मनुष्य से ही संबंध स्थापित कर सकेंगे ज्यादा से ज्यादा, और वह संबंध भी बहुत शुद्ध संबंध नहीं होगा। उस संबंध में भी थोड़ी बाधाएं होंगी। अगर पूर्ण शुद्ध संबंध स्थापित करना है तो इस जगत के प्रति किसी तरह की भी चोट जाने-अनजाने नहीं होनी चाहिए, तब संबंध पूर्ण संवाद का स्थापित हो सकेगा। मुझे अगर तुमसे पूरे संबंध स्थापित करने हैं तो मुझे तुम्हारे प्रति पूर्ण अवैर को साधना ही होगा। नहीं तो जितना मेरा वैर होगा, जितना मैं तुम्हें चोट पहुंचा सकता हूं, जितना तुम्हारा शोषण कर सकता हूं, जितनी तुम्हारी हिंसा कर सकता हूं, उसी मात्रा में मैं तुम्हें जो पहुंचाना चाहता हूं, वह नहीं पहुंचा सकूंगा। प्रेम के अतिरिक्त सत्य को पहुंचाने का और कोई द्वार नहीं है।

इसलिए महावीर अगर उत्तरी ध्रुव में पैदा हों और उनको अगर नीचे के मूक पशु जगत और पदार्थ जगत से संबंध स्थापित करना हो तो वहां भी मांसाहार नहीं कर सकेंगे। नहीं कर सकेंगे। लेकिन अगर न करना हो तो यहां भी कर सकते हैं। आखिर इस देश में भी कर सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है अगर वे संबंध…।

इसलिए मैंने जो–अहिंसा की जो मेरी दृष्टि है, वह बात ही और है। यानी अहिंसा को मैं कोई अनिवार्य तत्व नहीं मान रहा हूं मोक्ष जाने का, अहिंसा को अनिवार्य तत्व मान रहा हूं मनुष्य से नीचे की योनियों से संबंध स्थापित करने का।

तो भेद होंगे। भेद होंगे; दर्शन एक होगा, ज्ञान भेद हो जाएगा। और फिर चरित्र तो और भी भेद हो जाएगा। क्यों? क्योंकि दर्शन है शुद्ध स्थिति। न वहां मैं हूं, न वहां कोई और है, सिर्फ विज़न है, सिर्फ दर्शन है, कोई विकार नहीं है वहां। फिर ज्ञान में भाषा आ गई, शब्द आ गए। तो जो भाषा मैं जानता हूं वही आएगी, जो तुम जानते हो वही आएगी।

अब जीसस को पाली-प्राकृत नहीं आ सकती। जब ज्ञान बनेगा तो पाली-प्राकृत या संस्कृत में नहीं बन सकता जीसस का। वह आरमैक में बनेगा। जब कन्फ्यूशियस को भी दर्शन होगा तो दर्शन तो भाषा-मुक्त है, इसलिए वही होगा जो बुद्ध को या महावीर को होगा, लेकिन जब ज्ञान बनेगा तो वह चीनी में बनेगा। इस तल पर ही नहीं, भाषा जो जिस शब्दावली में वह जीया है और पला है!

जैसे महावीर को जब मुक्ति अनुभव होगी तो वे उसे मोक्ष कहेंगे, वे उसे निर्वाण नहीं कह सकते हैं। निर्वाण शब्द में वे पले नहीं हैं। वे उस शब्द में पले नहीं हैं, वह उनका शब्द नहीं है। शंकर को जब अनुभूति होगी उसी मुक्ति की, तो वे कहेंगे ब्रह्म-उपलब्धि। वह ब्रह्म-उपलब्धि शब्द है सिर्फ, बात वही है जो महावीर को मोक्ष में होती है, बुद्ध को निर्वाण में होती है, शंकर को ब्रह्म-उपलब्धि में होती है। लेकिन शब्द अलग है, यह तो टर्मिनोलाजी है। ज्ञान तो बिना टर्मिनोलाजी के नहीं होगा। तो ज्ञान में शब्द आ जाएगा। तो विशुद्धि गई, अशुद्धि आनी शुरू हुई। परम अनुभव जो था, अब वह शाखाओं में बंटना शुरू हुआ।

फिर भी ज्ञान सिर्फ शब्दों की वजह से अशुद्ध है। चरित्र तो और भी नीचे उतरना है। चरित्र तो समाज, लोक-व्यवहार, स्थिति, युग, नीति, व्यवस्था, राज्य, इस सब पर निर्भर होगा। क्योंकि जब मैं शुद्ध दर्शन में हूं, तब न मैं हूं, न कोई और है, सिर्फ दर्शन है। जब मैं ज्ञान में आया तो दर्शन और मैं भी आया वापस। और जब मैं चरित्र में आया तो समाज भी आया। चरित्र जो है, वह इंटर-रिलेशनशिप है समाज के साथ। समाज की एक नीति है अगर, तो चरित्र में वह प्रकट होनी शुरू होगी। अगर दूसरी नीति है तो दूसरी तरह से प्रकट होनी शुरू होगी।

प्रश्न:

 

उनमें कोई भी मिथ्या नहीं?

 

हीं, कोई भी मिथ्या नहीं है। मिथ्या कोई है ही नहीं। कोई भी मिथ्या नहीं है। क्योंकि लोक, परिस्थिति सारी जगह अलग-अलग है, एकदम अलग-अलग है। और उस परिस्थिति से संबंधित होंगे न आप! तो चरित्र बनेगा। चरित्र मुझसे और दूसरे का संबंध है। चरित्र में मैं अकेला नहीं हूं, आप भी हैं।

तो इसलिए चरित्र तो प्राथमिक नहीं है, सबसे आखिरी प्रतिध्वनि है दर्शन की। लेकिन हां, चरित्र में कुछ बातें प्रकट होंगी। जिसका दर्शन होगा, उसकी कुछ बातें प्रकट होंगी। वे कुछ बातें हमारे खयाल में ले सकते हैं। लेकिन उनको बहुत बांध कर मत ले लेना, नहीं तो मुश्किल हो जाती है। उनको बांध लेने से मुश्किल हो जाती है। क्योंकि वे किसी न किसी रूप में परिस्थिति में ही प्रकट होंगी न!

जैसे समझ लें कि सूरज की किरणें आ रही हैं और यह जो खिड़की लगी है नीले कांच की है, और यह जो खिड़की लगी है पीले कांच की है, तो पीले कांच की खिड़की जो किरणें भीतर भेजेगी, वे पीली दिखाई पड़ेंगी, नीले कांच की किरणें नीली दिखाई पड़ेंगी।

अगर तुमने यह मान लिया कि सूरज जब निकलता है तो नीले रंग का होता है तो तुम गलती में पड़ जाओगे, या तुमने मान लिया कि पीले रंग का होता है तो तुम गलती में पड़ जाओगे। तुम इतना ही मानना जो ज्यादा एसेंशियल है कि सूरज जब निकलता है तो अनेक रंगों में प्रकट होता है, लेकिन प्रकाश होता है। तो तुम पीले और नीले में भी तालमेल बिठा पाओगे।

महावीर में वह एक तरह से निकलता है, क्योंकि महावीर का व्यक्तित्व एक तरह का है, बुद्ध में दूसरी तरह से निकलता है, क्राइस्ट में तीसरी तरह से निकलता है, कृष्ण में चौथी तरह से निकलता है। हजार तरह से वह निकलता है। ये सब कांच हैं व्यक्तित्व, प्रकाश तो एक है। फिर इनसे निकलता है। फिर तुम देखने वालों के बीच, जिस समाज में वह आदमी जी रहा है, वे देखने वाले भी संबंधित हो जाते हैं। और संबंध तो तुमसे करना है उसे।

प्रत्येक युग में नीति बदल जाती है, व्यवस्था बदल जाती है, राज्य बदल जाता है।

प्रश्न:

 

बेसिक मॉरेलिटी जैसी कोई चीज नहीं है?

बिलकुल ही नहीं है। बिलकुल ही नहीं है।

प्रश्न:

 

सत्य भी बेसिक मॉरेलिटी नहीं है?

 

, न, न! सत्य मॉरेलिटी का हिस्सा ही नहीं है। सत्य तो अनुभूति का, दर्शन का हिस्सा है, चरित्र का नहीं।

प्रश्न:

 

ब्रह्मचर्य?

 

हीं, वह भी बेसिक नहीं है। वह भी बेसिक नहीं है। अब वही मैं कहता हूं। जैसे कि मोहम्मद हैं, मोहम्मद नौ पत्नियों को रखे हुए हैं। और मैं मानता हूं बड़ा दयापूर्ण है। बड़ा दयापूर्ण है। जिस जगह मोहम्मद पैदा हुए, वहां औरतें चार-पांच गुनी ज्यादा हैं पुरुषों से। स्त्रियों की संख्या पांच गुनी ज्यादा है। पुरुष एक है तो स्त्रियां छह हैं, पांच हैं। क्योंकि जो कबीला है, वह लड़ाकू कबीला है, दिन-रात लड़ता है, पुरुष तो कट जाते हैं, स्त्रियां बच जाती हैं। सारा समाज अनैतिक हुआ जा रहा है, क्योंकि जहां स्त्रियां पांच हों, पुरुष एक हो…और वहां अगर मोहम्मद ब्रह्मचर्य का उपदेश दें, तो वह मुल्क सड़ जाएगा बिलकुल ही। उस मुल्क को मारने वाले सिद्ध होंगे वे। बिलकुल ही सड़ जाएगा मुल्क, मर ही जाएगा मुल्क। क्योंकि ऐसे ही कठिनाई खड़ी हो गई है, क्योंकि चार स्त्रियों को पति नहीं मिल रहे हैं। तो चार स्त्रियां मजबूरी में व्यभिचार में उतर रही हैं। इन चार स्त्रियों के व्यभिचार में उतरने से जो पुरुष हैं, वे भी सब व्यभिचारी हुए जा रहे हैं। इन चार स्त्रियों के लिए कोई व्यवस्था करनी जरूरी है, नहीं तो समाज बिलकुल ही अनैतिक हो जाएगा।

तो अगर महावीर भी वहां हों मोहम्मद की जगह तो मैं मानता हूं कि नौ विवाह करेंगे। क्योंकि उस स्थिति में इसके सिवाय कोई नैतिक तत्व नहीं हो सकता। तो मोहम्मद कहते हैं कि चार विवाह तो प्रत्येक के लिए धर्म है, नीति है। चार तो प्रत्येक करे ही, ताकि कोई स्त्री बिना पति के न रह जाए। और कोई स्त्री बिना पति की पीड़ा न उठाए। और बिना पति की स्त्री व्यभिचार को मजबूर न हो जाए और सारे समाज को गर्हित और कुत्सित रोगों में न घेर दे।

तो मोहम्मद इसके लिए उदाहरण बनते हैं, वे नौ विवाह कर लेते हैं। मेरा मतलब समझ रहे हैं न? यानी मेरी दृष्टि में मोहम्मद जो घटना है…।

प्रश्न:

 

इसका मतलब चरित्र समाज से आया या सम्यक दर्शन से चरित्र आया?

रित्र तो आएगा सम्यक दर्शन से, लेकिन प्रकट होगा समाज में। ये दो बातें हैं उसमें न!

प्रश्न:

 

सम्यक दर्शन प्राप्त होने वाले का जो चरित्र होगा वह समाज को प्राप्त होगा या समाज का उसको प्राप्त होगा?

म्यक दर्शन जिसको प्राप्त हुआ है, उसे एक दृष्टि प्राप्त हुई है करुणा की, कंपैशन की, प्रेम की, दया की। वह दृष्टि प्राप्त हुई है। अब समाज कैसा है? उस दृष्टि को प्रकट होने के लिए जो उपकरण खोजेगा–जैसे मोहम्मद के लिए यही कंपैशन है कि वे चार विवाह का इंतजाम कर दें। और जो चार विवाह का इंतजाम करता हो, अगर वह नौ विवाह खुद करके न बता सके तो चार का इंतजाम करेगा कैसे? आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? मोहम्मद के लिए जो करुणापूर्ण है, वह यही है।

महावीर के लिए यह करुणा की बात नहीं है। महावीर के लिए यह सवाल नहीं है। जिस युग में वे हैं, जहां वे हैं, वहां की यह परिस्थिति नहीं है, इससे कोई संबंध नहीं है। यह कल्पना में भी आना मुश्किल है महावीर के। मोहम्मद के लिए ब्रह्मचर्य कल्पना में आना बहुत मुश्किल है और एकदम बेमानी है। क्योंकि मोहम्मद अगर ब्रह्मचर्य की बात करें तो आप यह समझ लीजिए कि अरब मुल्क सदा के लिए नष्ट हो जाएं, बुरी तरह नष्ट हो जाएं।

तो मैं जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं…।

प्रश्न:

 

लेकिन उत्तर तो एक ही होगा!

 

म्यक दर्शन से करुणा आ जाएगी। करुणा क्या उत्तर लेगी, यह बिलकुल अलग बात है। अब यह हो सकता है कि करुणा यह उत्तर ले कि एक आदमी की टांग सड़ रही है तो उसको काट दे। आप समझ रहे हैं न मेरा मतलब? और दूसरा आदमी कहे कि तुमने टांग काट दी एक आदमी की, तुम्हारी कैसी करुणा है!

गांधीजी के आश्रम में एक बछड़ा बीमार है। और वह इतना तड़फ रहा है, इतना परेशान है। और डाक्टर कहते हैं कि बचेगा नहीं, दोत्तीन दिन में मरेगा, उसको कैंसर हो गया है। तो गांधीजी कहते हैं, उसे जहर का इंजेक्शन दे दें। वह इंजेक्शन दे दिया गया तो सारे आश्रम के ही लोग संदिग्ध हो गए। उन्होंने कहा कि यह आप क्या करते हैं? बड़े-बड़े पंडित गांधीजी के पास इकट्ठे हो गए। उन्होंने कहा, यह तो हद हो गई। गौ-हत्या हो गई। गांधीजी ने कहा, वह गौ-हत्या का पाप मैं झेल लूंगा, लेकिन इतना कष्ट मैं नहीं देख सकता। इस कष्ट को मैं बरदाश्त नहीं करता।

अब गौ-हत्या नहीं होनी चाहिए, ऐसा जो जड़-बुद्धि का आदमी है, वह तो कभी नहीं बरदाश्त कर सकता यह। क्योंकि उसके पास अपना कोई विज़न नहीं, अपनी कोई दृष्टि नहीं है, सिर्फ बंधा हुआ नियम है। लेकिन जिसके पास अपना विज़न है, अपनी दृष्टि है, वह अपनी दृष्टि का उपयोग करेगा, चाहे वह नियम के प्रतिकूल जाती हो, इससे भी कोई सवाल नहीं। लेकिन विशेष परिस्थिति ही निर्भर करेगी। गांधीजी किसी अच्छे बछड़े को नहीं जहर पिला दे सकते हैं।

तो मेरा कहना यह है कि विज़न तो आपका होगा, लेकिन परिस्थिति तो बाहर होगी। बछड़ा बीमार पड़ा है, कैंसर से पड़ा है, तो आपको जहर पिलाना पड़ रहा है। करुणा आपसे आ रही है। करुणा क्या रूप लेगी, कहना कठिन है। कभी तलवार उठा सकती है करुणा और कभी तलवार का निषेध कर सकती है करुणा।

मोहम्मद की तलवार पर मोहम्मद ने लिखा हुआ है, कि मैं शांति के लिए लड़ रहा हूं। इस्लाम का मतलब है शांति, शब्द का मतलब भी शांति है। लेकिन मोहम्मद की परिस्थिति में और जिन लोगों से वे घिरे हैं, वे तलवार के सिवाय दूसरी भाषा ही नहीं समझते, यानी दूसरी भाषा बिलकुल बेमानी है।

प्रश्न:

 

क्राइस्ट ने कोड़े मारे, वह करुणा है?

बिलकुल ही करुणा है। यह भी संभव है। क्राइस्ट जब पहली दफा यहूदियों के बड़े त्यौहार पर, वर्ष के बड़े त्यौहार पर गए तो वह जो बड़ा मंदिर था यहूदियों का, जहां सारा देश इकट्ठा होता, वहां सारे देश के बड़े ब्याजखोर इकट्ठे होते। जो कि प्रतिवर्ष जो लोग आते यात्री, उनको ब्याज पर पैसा देते और उनसे ब्याज लेते। और वह बड़ा खर्चीला त्यौहार था, उसमें लोग हजारों रुपए–गरीब आदमी भी उधार लेकर खर्च करता, और फिर जन्मों तक भी न चुका पाता उन ब्याजों को। तो वे ब्याज की दुकानें, मंदिर के सामने हजारों दुकानें ब्याज की लगी रहतीं। तख्तों पर लोग बैठे रहते उधार देने वाले यात्रियों को। और वह मंदिर के सामने दिया गया उधार साधारण उधार नहीं था। वह चुकाना ही पड़ेगा, नहीं तो नरक जाओगे।

तो जब जीसस वहां गए और उन्होंने जब यह सब देखा कि करोड़ों लोगों का यह शोषण चल रहा है। और मंदिर के पुजारी ही के एजेंट उन तख्तों पर बैठे हुए हैं, जो ब्याज पर पैसा दे रहे हैं और वह पैसे सब मंदिर में चढ़ाए जा रहे हैं। और वह सब पैसे फिर ब्याज से दिए जा रहे हैं। यह जब उन्होंने चक्कर देखा तो उन्होंने उठाया कोड़ा और तख्ते उलट दिए और मारे कोड़े लोगों को। और कहा, भाग जाओ, इस मंदिर को खाली करो!

अब तुमको लगेगा कि यह आदमी कैसा है; जो कहता है, एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा गाल कर देना! यह कोड़ा उठा सकता है?

उठा सकता है। यही आदमी उठाने का हकदार भी है। क्योंकि इसको कोई निजी क्रोध का कोई कारण नहीं है। लेकिन महावीर को कोई ऐसा मौका नहीं है, इसलिए कोड़ा नहीं उठाते हैं, यह दूसरी बात है।

यानी मैं जो कह रहा हूं, वह मैं यह कह रहा हूं कि विज़न तो एक ही होगा, दर्शन तो एक ही होगा, ज्ञान भिन्न होगा क्योंकि शब्द आ जाएगा। और चरित्र और भिन्न होगा, क्योंकि समाज आ जाएगा, परिस्थिति आ जाएगी। उसकी अभिव्यक्ति बदलती चली जाएगी, एकदम बदलती चली जाएगी।

प्रश्न:

 

लेकिन उसमें भी काम तो वही करेगा न?

बिलकुल ही वही काम करेगा। दर्शन ही काम करेगा। असल में जिनके पास दर्शन नहीं है, उनका चरित्र बिलकुल जड़ होता है। वह नियमबद्ध होता है। परिस्थिति भी बदल जाती है तो भी वह नियमबद्ध चलता रहता है! क्योंकि उसे कोई मतलब ही नहीं है, उसकी कोई अपनी दृष्टि तो नहीं है। वह तो नियम पक्का है उसका। तो नियम अपना मानता चला जाता है। चरित्र लेकिन तीसरे वर्तुल पर आता है। इसलिए मैं चरित्र को केंद्र नहीं मानता, परिधि मानता हूं, दर्शन को केंद्र मानता हूं।

प्रश्न:

 

कहा तो महावीर ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य ही है।

हां, हां। मगर बन गया बिलकुल चरित्र प्रथम है। आपका साधु कर क्या रहा है? न तो दर्शन कर रहा है, न ज्ञान कर रहा है; चरित्र साध रहा है। और यह सोच रहा है कि जब चरित्र पूरा हो जाएगा, जब फिर ज्ञान होगा। ज्ञान पूरा होगा, तब दर्शन होगा। वह उलटा चल पड़ा। उससे कभी नहीं होगा, कुछ भी नहीं होगा। वह सिर्फ…।

प्रश्न:

 

यह बहुत उपयोगी रहेगा कि महावीर के जो अनुयायी आज अपने आपको कहते हैं…महावीर का जो दर्शन है, वह दर्शन तो आज भी उपयोगी है। दर्शन तो बदलता नहीं देश-काल के साथ–सम्यक दर्शन। पर महावीर का जो चरित्र है, वह आज किस रूप में प्रकट हो सकता है? क्या अभिव्यक्ति ले सकता है आज की देश-काल परिस्थिति में? यदि आप इसको थोड़ा सा बताएं तो बहुत उपयोगी रहेगा।

सल में, पहली तो बात यह है कि ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए कि महावीर आज होते तो उनका क्या आचरण होता। यह इसलिए नहीं सोचना चाहिए कि महावीर से कोई किसी का बंधन थोड़े ही है कि उनका जैसा आचरण होता, वैसा हमारा हो। जैसा महावीर का आचरण होता, वैसा हमारा हो ही नहीं सकता। जैसा हमारा हो सकता है, महावीर लाख उपाय करें तो वैसा नहीं हो सकता।

इसके कई कारण हैं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। यही तो अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति के आत्मवान होने का। आत्मवान होने का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। इसलिए किसी के आचरण का हिसाब ही मत रखो। वही तो दृष्टि गलत है। आचरण से कोई प्रयोजन नहीं है।

दर्शन कैसे उपलब्ध हो, इसकी फिक्र करो। आचरण तो पीछे से आएगा। जैसे कि तुम यहां आए, तो तुम यह फिक्र नहीं करते कि तुम्हारे पीछे तुम्हारी लंबी छाया आ रही कि छोटी छाया आ रही, दोपहर में आते तो कैसी छाया आती, सांझ आते तो कैसी छाया आती, सुबह आते तो कैसी छाया आती। तुम यह फिक्र नहीं करते। तुम आते हो, छाया तुम्हारे पीछे आती है। दोपहर होता तो लंबी हो जाती, छोटी हो जाती, चौड़ी हो जाती; जैसी होती रहती, तुम्हें फिक्र नहीं उसकी।

सवाल असल में गहरे दर्शन का है, चरित्र तो उसकी छाया है। जैसी धूप होगी, वैसी होती रहेगी। उससे कोई संबंध नहीं है, कोई प्रयोजन ही नहीं है उससे, यानी उसको सोचना ही नहीं है। मेरा कहना यह है कि चरित्र बिलकुल ही अविचारणीय है। उसके विचार की भी जरूरत इसीलिए पड़ती है कि दर्शन का हमें खयाल नहीं रह गया है। इसलिए उसका हम विचार करते हैं।

विचारणीय है दर्शन। और दर्शन, काल-परिस्थिति आबद्ध नहीं है। दर्शन कालातीत, क्षेत्रातीत है। दर्शन तो तुम्हें जब भी होगा तो वही होगा जो किसी को हुआ हो, महावीर से भी कुछ लेना-देना नहीं है। किसी को भी हुआ हो, वह वही होगा। क्योंकि दर्शन ही तब होगा, जब न तुम होओगे, न कुछ और होगा, सब मिट गया होगा, तब तुम्हें होगा। और वह जब दर्शन होगा तो वह अपने आप अपने को रूपांतरित करता है ज्ञान में, ज्ञान अपने आप रूपांतरित होता है चरित्र में। तो उसकी चिंता ही नहीं करनी है, यानी उसका विचार ही नहीं करना है। नहीं तो फिर दूसरा बंधन शुरू होता है। जैसे कि अगर मैं कहूं तुम्हें कि महावीर ऐसा करते, ऐसा करते, ऐसा करते। तो तुम शायद सोचोगे, ऐसा हमें करना चाहिए। नहीं, तुम्हें करने का सवाल ही नहीं है, क्योंकि तुम्हें वह दर्शन नहीं है। तुम्हें वह दर्शन नहीं है। वही तो जैन साधु और जैन मुनि कर रहा है बेचारा। वह कहता है कि वे ऐसा करते थे तो ऐसा हम करते हैं।

मैं एक गांव में गया, ब्यावर। ब्यावर का कलेक्टर आया, उसने मुझसे कहा कि एकांत में बात करना चाहता हूं। मैंने कहा, एकांत सही। उसने दरवाजा बंद कर दिया बिलकुल, सांकल लगा दी। अंदर बैठ कर मुझसे पूछा कि मुझे दो-चार बातें पूछनी हैं। पहली तो यह कि आप जैसा चादर लपेटते हैं, ऐसा लपेटने से मुझे कुछ लाभ होगा?

वह बेचारा बिलकुल ठीक पूछता है। हम उस पर हंसते हैं, लेकिन हमारा सब साधु क्या कर रहा है? वह महावीर कैसे खड़े, कैसे बैठे, कैसी पिच्छी लिए, कैसा कमंडल लिए, मुंह-पट्टी बांधे कि नहीं बांधे–वह कैसे–इसका पक्का कर लेता है, फिर वैसा करना शुरू कर देता है! चूक गया वह बुनियादी बात से।

मैंने उससे कहा कि चादर-वादर से क्या संबंध है! मुझे मौज आ जाए तो कोट-टाई पहन लूं। उसमें क्या दिक्कत है! उससे मैं मैं ही रहूंगा। क्या फर्क पड़ने वाला है? हां, मैंने कहा, तुम्हें फर्क पड़ सकता है मुझे देख कर फिर। तुम समझोगे, अरे, इस आदमी के पास क्या होगा, क्योंकि कोट-टाई बांधे हुए है। यह हो सकता है। लेकिन मुझे क्या फर्क पड़ने वाला है? मैं जैसा हूं, वैसा का वैसा रहूंगा। और तुम जैसे हो, वैसे ही रहोगे, चाहे चादर लपेटो, चाहे नंगे हो जाओ, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। तुम्हें बदलना है।

लेकिन वह बुनियादी भूल है, जो हमें बाहर से–हम सोचते हैं सदा कि बाहर से भीतर की तरफ जाता है जीवन। जीवन सदा भीतर से बाहर की तरफ आता है। और अगर बाहर से किसी ने भीतर को बदलने की कोशिश की तो भीतर तो वही रह जाएगा, बाहर बदल जाएगा। और उस आदमी के भीतर द्वंद्व पैदा हो जाएगा। दोहरा आदमी हिपोक्रेट, पाखंडी हो जाएगा। जो आदमी आचरण से शुरू करेगा, वह पाखंडी हो जाएगा।

प्रश्न:

 

ज्ञान भी बदलेगा? चरित्र अलग होगा मतलब ज्ञान भी अलग होगा, महावीर का आज का ज्ञान भी अलग होगा?

हां ज्ञान भी अलग होगा, दर्शन भर अलग नहीं होगा। दर्शन भर अलग नहीं होगा, वह शुद्धतम है। ज्ञान अलग होगा, क्योंकि आज की सब भाषा बदल गई है, सोचने के ढंग बदल गए हैं। तो आज जब–और इसीलिए तो मुश्किल हो जाती है पहचानने में। पुराने को पकड़ लेने वाले को नए को पहचानने में मुश्किल हो जाती है। अगर मुझे दर्शन है, तो भी मेरी भाषा वह नहीं होने वाली जो महावीर की होगी। तो महावीर को मानने वाला कहेगा कि इस आदमी से अपना कोई तालमेल नहीं है, क्योंकि यह आदमी तो न मालूम क्या कह रहा है। यह तो न मालूम क्या कहता है। यह तो हमारे महावीर कहते नहीं।

महावीर कह नहीं सकते, क्योंकि पच्चीस सौ साल का फासला हो गया। पच्चीस सौ साल में सब चीजों ने स्थिति बदल ली, सब कहीं और पहुंच गईं। सारी बात बदल गई है, दृष्टि बदल गई है, सोचने के ढंग बदल गए हैं, भाषा बदल गई है, सारी अभिव्यक्ति बदल गई, सब बदल गया है। इस सबके बदल जाने पर ज्ञान भिन्न होगा। दर्शन भर भिन्न कभी नहीं होगा, क्योंकि दर्शन होता ही तब है, जब हम यह सब छोड़ कर अंदर जाते हैं। भाषा छोड़ देते हैं, समाज छोड़ देते हैं; धर्म, शास्त्र सब छोड़ देते हैं; शब्द, विचार सब छोड़ देते हैं। जहां सब छूट जाता है, वहां दर्शन होता है। इसलिए दर्शन तो हमेशा वही रहेगा। क्योंकि तुम, कुछ भी छोड़े कोई सब छोड़ना पड़ेगा। मुझे कुछ और छोड़ना पड़ेगा, महावीर को कुछ और छोड़ना पड़ेगा।

महावीर ने डार्विन को नहीं पढ़ा था तो डार्विन को नहीं छोड़ना पड़ा होगा। महावीर ने वेद छोड़े होंगे, उपनिषद छोड़े होंगे। मैंने डार्विन को पढ़ा तो मुझे डार्विन को, माक्र्स को छोड़ना पड़ेगा। यह फर्क पड़ेगा। लेकिन जो भी मेरे पास है, वह छोड़ना पड़ेगा। छोड़ कर दर्शन उपलब्ध होगा कभी भी, इसलिए दर्शन हर काल में एक ही होगा। क्योंकि उसका जोर इस पर है कि तुम जो भी जानते हो, जो भी सीखा है, जो भी पकड़ा है, उस सबको अनलर्न कर दो। लेकिन जब दर्शन हो जाएगा और जब आप ज्ञान बनाएंगे उससे, तब आपकी सब लघनग आ जाएगी।

इसलिए अरविंद जब बोलेंगे तो उसमें डार्विन मौजूद रहेगा। इसलिए अरविंद की सारी भाषा इवोल्यूशनरी हो जाएगी, जो महावीर की नहीं हो सकती। क्योंकि महावीर को डार्विन का कोई पता नहीं। भाषा में डार्विन ने एक जोड़ नहीं दिया है अभी। इसलिए महावीर डार्विन की भाषा नहीं बोल सकते। अरविंद बोलेगा तो डार्विन की भाषा में बोलेगा। तो वह इवोल्यूशन के सारे तत्व ले आएगा पूरे के पूरे।

अब जैसे महावीर माक्र्स की भाषा में नहीं बोल सकते, लेकिन अगर मैं बोलूंगा तो माक्र्स की भाषा बीच में आएगी। तो मैं कहूंगा शोषण पाप है, महावीर नहीं कह सकते। क्योंकि महावीर के युग में शोषण के पाप होने की धारणा ही किसी तरफ से पैदा नहीं हुई थी। उस वक्त तो जिसके पास धन था, वह पुण्य था। धन शोषण है और चोरी है, यह धारणा इधर तीन सौ वर्षों में पैदा हुई। यह धारणा जब इतनी स्पष्ट हो गई तो आज अगर कोई कहेगा कि धन पुण्य है तो आज इस जगत में इसका कोई अर्थ नहीं है, कोई अर्थ ही नहीं है। यानी वह अज्ञानी ही सिद्ध होने वाला है। इससे उसके ज्ञान का कोई मतलब ही होने वाला नहीं।

और इसीलिए अक्सर दिक्कत हो जाती है। न तो हमें पीछे की तरफ लौट कर सोचना चाहिए, नई शब्दावली को पुरानों पर भी नहीं थोपना चाहिए। यानी महावीर को हम इसलिए कमजोर नहीं कह सकते कि उन्हें विकास की भाषा का कोई पता नहीं है। वह भाषा थी ही नहीं, भाषा नई विकसित हुई है।

और जब जितनी नई चीजें विकसित हो जाएं–आज से हजार साल बाद जो लोग दर्शन को उपलब्ध होंगे, वे जो भाषा बोलेंगे, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि इस हजार साल में सब कुछ बदल जाएगा। इस बदली हुई भाषा में फिर ज्ञान पकड़ेगा, फिर ज्ञान प्रकट होगा। अभिव्यक्ति के माध्यम बदल जाएंगे।

जैसे समझ लें कि आज से दो हजार, तीन हजार या पांच हजार साल पहले भाषा भी नहीं थी, शब्द भी नहीं था, तो जो भी कहा जाता था, उसे सिवाय स्मृति में रखने के कोई उपाय नहीं था। तो सारा ज्ञान स्मृति में ही संरक्षित होता था। तो ज्ञान को इस ढंग से बताना पड़ता था कि वह स्मृति में संरक्षित हो जाए। इसलिए पुराने से पुराने जो ग्रंथ हैं, वे सब काव्यमय होंगे। क्योंकि काव्य को स्मरण रखा जा सकता है, गद्य को स्मरण रखना मुश्किल है। कविता स्मरण रखी जा सकती है सुविधा से, गद्य को नहीं रखा जा सकता।

इसलिए जब कि स्मृति के सिवाय और कोई उपकरण न था संरक्षित करने का, तो सारे ज्ञान को पद्य में ही बोलना पड़ता था, उसको गद्य में बोलना बेकार था, क्योंकि गद्य में बोला तो उसको याद रखना बहुत मुश्किल हो जाएगा। तो उसको पद्य में बोलने से वह स्मरण रखने में सुविधा हो जाती थी। आप एक कविता स्मरण रख सकते हैं सरलता से बजाय एक निबंध के, क्योंकि उसमें तुकबंदी है। और वह तुकबंदी आपको गाने की सुविधा दे देती है, गुनगुनाने की सुविधा दे देती है, वह स्मृति में जल्दी बैठ जाती है।

तो इसलिए पुराने से पुराना ग्रंथ हमेशा पद्य में होगा। गद्य बिलकुल नई खोज है। जब लिखा जाने लगा, तब पद्य की कोई जरूरत न रही, फिर यह बेमानी हो गया। नाहक की तुकबंदी जोड़ना और जो न कहना हो वह भी उसमें मिलाना-जुलाना, घटाना; फिजूल की बात हो गई। सीधा गद्य में लिखा जा सकता है। तो फिर नए शब्द आए।

इसलिए नई जो भाषाएं हैं, वे काव्यात्मक नहीं हैं, पुरानी भाषाएं काव्यात्मक हैं। जैसे संस्कृत है। संस्कृत एकदम पोएटिक है। साधारण गद्य भी बोलो तो कविता मालूम पड़े। नई जो भाषाएं हैं, वे पोएटिक नहीं हैं, वे साइंटिफिक हैं, कि आप कविता भी बोलो तो गणित का सवाल मालूम पड़े। तो सारा फर्क पड़ता चला जाता है न!

तो जो उपकरण उपलब्ध होंगे, उनमें ज्ञान प्रकट होगा। इसलिए नई कविता बिलकुल गद्य है। नई कविता पद्य नहीं है। नई कविता को पद्य होने की जरूरत नहीं है। पुराना गद्य भी पद्य है, नया पद्य भी गद्य है। और यह सब बदलते चले जाते हैं रोज-रोज।

तो जो ज्ञान बनेगा, वह दर्शन से उतरेगा नीचे, दूसरी सीढ़ी पर खड़ा होगा और जो उस युग की ज्ञान-व्यवस्था है, उसका अंग होगा। तो ही सार्थक हो पाएगा, नहीं तो सार्थक नहीं होगा। फिर और नीचे उतरेगा तो चरित्र बनेगा। तो हमारे समाज का जो अंतर्संबंध है, वह उस पर निर्भर होगा। आएगा दर्शन से, उतरेगा चरित्र तक। चरित्र सब से ज्यादा अशुद्ध रूप होगा, क्योंकि उसमें दूसरे सब आ गए। ज्ञान और कम अशुद्ध होगा। दर्शन पूर्ण शुद्ध होगा। और दर्शन की उपलब्धि के रास्ते अलग होंगे। चरित्र उसकी उपलब्धि का रास्ता नहीं है।

प्रश्न:

 

महावीर की नग्नता चरित्र का अंग था या दर्शन का अंग?

हुत सी बातें हैं। असल में, महावीर को–जैसा मैंने रात कहा–बहुत सी बातें महावीर को करनी पड़ रही हैं, जो हमारे खयाल में नहीं हैं। वे खयाल में आ जाएं तो हमें पता चल जाएगा कि किस बात का अंग था। वह महावीर के ज्ञान का अंग है–नग्नता जो है–चरित्र का नहीं।

ज्ञान का अंग इसलिए है कि जैसा मैंने कहा कि अगर यह जो विस्तीर्ण ब्रह्मांड है, यह जो मूक जगत है, इससे संबंधित होना है तो वस्त्र तक बाधा है। वस्त्र इतनी बड़ी बाधा है, जिसका हमें कोई खयाल भी नहीं आता। और जितने नए वस्त्र पैदा होते जा रहे हैं, उतनी ज्यादा बाधा है। नवीनतम जो वस्त्र हैं, वे चारों तरफ के वातावरण से आपके शरीर को बिलकुल तोड़ देते हैं। उनमें से बहुत कम भीतर जाता है, बहुत कम बाहर आता है।

अलग-अलग वस्त्र अलग-अलग काम करता है। सूती वस्त्र अलग तरह से तोड़ता है, रेशमी वस्त्र अलग तरह से तोड़ता है, ऊनी वस्त्र अलग तरह से तोड़ता है। नए जो वस्त्र हैं, जिनमें किसी तरह से प्लास्टिक मिला हुआ है या कांच मिला हुआ है, वे और तरह से तोड़ते हैं।

तो जिस व्यक्ति को चारों तरफ के ब्रह्मांड से पूर्ण संपृक्त होना हो उसके लिए किसी तरह के वस्त्र बाधा बन जाएंगे। उसे तो, पूर्ण नग्नता में ही वह एक हो पाएगा। तो महावीर की नग्नता उनके ज्ञान का हिस्सा है, चरित्र का हिस्सा नहीं है। उनको यह साफ समझ में पड़ रहा है कि वह जो कम्युनिकेशन करना है उन्हें, वह इस ब्रह्मांड से बिलकुल एक होकर ही किया जा सकता है।

जैसे अब हम जानते हैं कि कितनी छोटी-छोटी चीजों से फर्क पड़ता है। आप एक रेडियो लगाए हुए हैं। सब द्वार-दरवाजे बंद कर दें, हवा बिलकुल न आती हो, एयरकंडीशन कमरा हो, तो आपका रेडियो बहुत मुश्किल से पकड़ने लगेगा, क्योंकि जो वेव्स आ रही थीं, उन पर बाधा पड़ गई है। एयरकंडीशन कमरे में वह काम करना उसको मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हवा बाहर से आ नहीं रही है, सब बंद है। संपर्क बाहर के तरंगों से उसका टूट गया है। जितने खुले में आप रख रहे हैं, उतना उसका संपर्क बन रहा है। या तो उसे खुले में रखें या एक एरियर बाहर खुले में लगाएं, ताकि एरियर पकड़े और भीतर तक खबर पहुंचा दे।

समझ लो कि हमें कोई ज्ञान न हो रेडियो-शास्त्र का तो हम कहेंगे, यह क्या बात है? रेडियो को बाहर रखने की क्या जरूरत है? एरियर बाहर लटकाने की क्या जरूरत है? अपने घर में रखो। अपने घर में अंदर एरियर लगा लो। सब तरफ द्वार-दरवाजे बंद कर दो।

मनुष्य के शरीर से प्रतिक्षण कंपन बाहर जा रहे हैं और प्रतिक्षण कंपन भीतर आ रहे हैं। महावीर नग्न होकर एक तरह का तादात्म्य साध रहे हैं उस सारे जगत से, जहां वस्त्र भी बाधा बन सकता है। वस्त्र बाधा बनता है। और प्रत्येक वस्त्र अलग तरह की बाधा और सुविधा देता है।

जैसे रेशमी वस्त्र है। अब यह आपको जान कर हैरानी होगी कि जितना रेशमी वस्त्र है, वह आपके शरीर में सेक्सुअल इंपल्स को जल्दी पहुंचाता है बजाय सूती वस्त्र के। तो रेशमी वस्त्र पहने हुए स्त्री ज्यादा सेक्स प्रोवोकिंग है बजाय सूती वस्त्र के। उसी स्त्री को खादी पहना दो तो वह और भी कम सेक्स प्रोवोकिंग है। रेशमी वस्त्र जो है, उसके शरीर में, उसके शरीर से और शरीर के चारों तरफ से जो सेक्स की सारी की सारी वेव्स चल रही हैं, उनको जल्दी से पकड़ता है। वह स्त्रियों को बहुत पहले समझ में आ गया कि रेशमी वस्त्र किस तरह उपयोगी है।

ऊनी वस्त्र जो है, वह बहुत अदभुत है। आप देखते हैं कि सूफी हैं, वह सब सूफी फकीर जो हैं, वे ऊन का वस्त्र ही पहनते हैं। सूफ का मतलब ऊन होता है। जो ऊन के कपड़े पहनते हैं, उनको सूफी कहते हैं। लपेटे हुए हैं कंबल, गर्मी में भी लपेटे रहेंगे कंबल। सर्दी में भी लपेटे रहेंगे, हर वक्त कंबल ही लपेटे रहेंगे।

ऊनी वस्त्र जो है, वह भीतर सब तरह की वेव्स को संरक्षित कर लेता है और इसीलिए आपको ठंड में उपयोगी होता है। ऊनी वस्त्र गर्म नहीं है, सिर्फ आपकी शरीर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देता। ऊनी वस्त्र में गर्मी जैसी कोई चीज नहीं है, सिर्फ आपका शरीर जो गर्मी रिलीज करता रहता है प्रतिपल, वह उसको बाहर नहीं निकलने देता, उसके बाहर पार नहीं हो पाती, वह गर्मी भीतर रुक जाती है। बस वह भीतर रुकी हुई गर्मी ऊनी वस्त्र को गरम बना देती है। नहीं तो ऊनी वस्त्र में गरम होने जैसा कुछ भी नहीं है, सिर्फ आपके ही शरीर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने देता, रोक देता है।

तो सूफी सैकड़ों वर्षों से ऊनी वस्त्र का उपयोग कर रहे हैं। अनुभव यह है कि न केवल गर्मी को बल्कि और तरह के सूक्ष्म अनुभवों को भी ऊनी वस्त्र रोकने में सहयोगी होता है, वह शरीर के भीतर रोक देता है। तो जिन लोगों को किसी सीक्रेसी, एसोटेरिक, कुछ गुह्य विज्ञान में काम करना हो, उनके लिए ऊनी वस्त्र उपयोगी हैं। वे कुछ चीजों को भीतर बिलकुल रोक सकते हैं, जिनको वे प्रकट न करना चाहें।

महावीर की नग्नता बहुत अर्थपूर्ण है, वह उनके ज्ञान का हिस्सा है, चरित्र का नहीं। इसलिए जो लोग चरित्र का हिस्सा समझ कर नंगे खड़े हो जाते हैं, वे बिलकुल पागल हैं, उनको पता ही नहीं कि उससे कोई वास्ता नहीं है। वे तो कुछ वेव्स हैं, जो वे पहुंचाना चाहते हैं सारे लोक में, वे नग्न स्थिति में ही पहुंचाई जा सकती हैं। और जब शरीर में उनकी तरंगें पैदा होती हैं, तो वह नग्न स्थिति में पूरी की पूरी हवाएं उन वेव्स को लेकर यात्रा कर जाती हैं। कपड़े में वे वेव्स भीतर रह जाती हैं। ऊनी कपड़े में बिलकुल भीतर रह जाती हैं। तो सूफी भी जान कर कर रहे हैं, महावीर भी जान कर नग्न खड़े हुए हैं।

लेकिन उस युग की चरित्र-व्यवस्था नग्न खड़े होने की सुविधा देती है। हर युग में महावीर नग्न नहीं खड़े हो सकते। क्योंकि जिस काम के लिए खड़े हो रहे हैं, अगर उस काम में बाधा ही पड़ जाए नग्न खड़े होने से तो बेमानी हो जाएगा। जैसे आज अगर न्यूयार्क में पैदा हों तो मैं कहता हूं, नग्न खड़े नहीं हो सकते।

अब बंबई में भी होना मुश्किल है, बंबई में भी तो रुकावट है। नंगे आदमी के सड़क से निकलने में गवर्नर की परमीशन चाहिए। या फिर उसके भक्त उसको घेर कर चलें, वह बीच में रहे, चारों तरफ भक्त घेरे रहें, ताकि जिनको नंगा नहीं देखना है वे नंगा न देख पाएं। न्यूयार्क में तो वह बिलकुल पकड़ लिया जाएगा, उसको बिलकुल बंद कर दिया जाएगा। तो वह काम की तो बात अलग हुई, काम में बाधा पड़ जाएगी। तो और कुछ रास्ते खोजने पड़ेंगे।

नई परिस्थिति में नए रास्ते खोजने पड़ेंगे, पुराने रास्ते काम नहीं देंगे। वह उस वक्त बिलकुल सरल था। हिंदुस्तान में नग्नता बड़ी सरल बात थी। एक तो ऐसे ही आम आदमी अर्ध-नग्न था, एक लंगोटी लगाए हुए था। तो नग्नता में कुछ बहुत ज्यादा नहीं छोड़ना पड़ता था, जैसा हम सोचते हैं अब। वे तो राजपुत्र थे, इसलिए सब कपड़े-वपड़े थे, बाकी आदमी के पास कपड़े वगैरह कहां थे? एक लंगोटी बहुत थी। तो आम आदमी भी लंगोटी उतार कर स्नान कर लेता था। नग्नता बड़ी सरल थी, एकदम सहज बात थी, उसमें कुछ असहज जैसा नहीं था कि यह कोई बात नई हो रही है।

तो वह परिस्थिति मौका देती थी, हिस्सा तो ज्ञान का था। परिस्थिति मौका देती थी। और ज्ञानवान आदमी वह है, जो ठीक परिस्थिति के मौके का पूरा-पूरा, ज्यादा से ज्यादा उपयोग कर सके; वही ज्ञानवान है, नहीं तो नासमझ है। यानी सिर्फ नंगे होने की जिद कर ले और इसलिए सब काम में रुकावट पड़ जाए, कोई मतलब नहीं है उसका। काम के लिए कोई और रास्ते खोजने पड़ेंगे।

प्रश्न:

 

कल की चर्चा में आपने कहा कि महावीर पिछले जन्म में सिंह थे। और महावीर को पिछले जन्म में अनुभूति हुई। तो क्या प्राणी-मात्र को अवस्था में अनुभूति हो सकती है? या उनको अनुभूति उनके मनुष्य जन्म में हुई?

हां, हां। मैंने पिछले जन्म में जो कहा, सीधे उसका मतलब यह नहीं कि इसके पहले जन्म में।

प्रश्न:

 

इमीजिएट नहीं?

हीं, इमीजिएट नहीं। अनुभूति बहुत मुश्किल है दूसरे प्राणी-जगत में होना। हो सकती है, बहुत ही कठिन है। कठिन तो मनुष्य योनि में भी बहुत है। यानी यहीं मुश्किल से हो पाती है। संभव तो है ही दूसरी योनियों में भी! संभव है, लेकिन अत्यधिक कठिन है, असंभव के करीब है। मनुष्य योनि में ही असंभव की हालत के करीब है, कभी किसी को हो पाती है। पिछले जन्म से मेरा मतलब अतीत जन्मों में। महावीर का जो सत्य का अनुभव हुआ है, वह तो मनुष्य जन्म में ही। लेकिन संभावना का निषेध नहीं है। आज तक ऐसा ज्ञात भी नहीं है कि कोई पशु योनि से मुक्त हुआ हो, लेकिन निषेध फिर भी नहीं है। यानी यह कभी हो सकता है।

और यह तब हो सकेगा, जब मनुष्य योनि बहुत विकसित हो जाएगी। इतनी ज्यादा विकसित हो जाएगी कि मनुष्य योनि में मुक्ति बिलकुल सरल हो जाएगी तो मैं मानता हूं कि जो अभी स्थिति मनुष्य योनि की है, वह पिछली नीची योनियों की हो जाएगी। वहां असंभव होगी, लेकिन कभी-कभी होने लगेगी। यानी मेरा मतलब यह है कि मनुष्य योनि में ही अभी असंभव की स्थिति है। कभी करोड़, दो करोड़, अरब, दो अरब आदमी में एक आदमी उस स्थिति को उपलब्ध होता है। कभी ऐसा आ सकता है वक्त, आना चाहिए विकास के दौर में, जब कि मनुष्य योनि में बड़ी सरल हो जाए यह बात, तो इससे नीचे की योनियों में भी एकाध-दो घटनाएं घटने लगेंगी। अब तक नहीं घटी हैं। अब तक मनुष्य को छोड़ कर किसी योनि से…।

प्रश्न:

 

देवता योनि में भी नहीं?

देवता योनि में कभी भी नहीं हो सकती, पशु योनि में कभी हो सकती है, असंभव है, निषेध नहीं है। लेकिन देव योनि में बिलकुल निषेध है। निषेध का कारण यह है कि देव योनि बहुत–एक तो शरीर नहीं है वहां किसी भी तरह का। देव योनि मनोयोनि है, साइकिक।

तो देव योनि में शरीर न होने की वजह से, जैसा पशु योनि में चेतना का अभाव है, ऐसा देव योनि में शरीर का अभाव है। और शरीर भी साधना में अनिवार्य कड़ी है, उसके बिना साधना करनी भी बहुत मुश्किल है, असंभव ही है। जैसे पशु में बुद्धि न होने से मुश्किल हो गई है, ऐसा देव में शरीर न होने से मुश्किल हो गई है। लेकिन पशु में तो कभी बुद्धि विकसित हो सकती है, देव में कभी शरीर विकसित नहीं हो सकता, वह अशरीरी योनि ही है। तो देव को तो जब भी मुक्ति होती है, तब उसको फिर मनुष्य योनि पर वापस लौट आना पड़ता है।

यानी अब तक मुक्ति का जो द्वार रहा है, वह मनुष्य योनि के अतिरिक्त कोई योनि नहीं है। पशुओं को मनुष्य तक आना पड़ता है और देवताओं को पुनः वापस मनुष्य तक लौट आना पड़ता है। इसलिए मैंने कल रात कहा कि मनुष्य क्रास-रोड पर है, चौराहे पर खड़ा है। जैसे मैं आपके घर तक गया चौराहे से, फिर मुझे दूसरी तरफ जाना है, तो चौराहे पर फिर वापस आऊं।

तो देव योनि बड़ी सुखद है, पशु योनि बड़ी दुखद है। सुखद जरूर है वह, लेकिन सुख अपने तरह के बंधन रखता है; दुख अपने तरह के बंधन रखता है। और सुख से भी ऊब जाती है स्थिति, जैसा दुख से ऊब जाती है। और यह बड़े मजे की बात है कि अगर बहुत सुख में कोई आदमी हो तो वह अपने हाथ से दुख पैदा करना शुरू कर देता है।

अब जैसे कि अमरीका से आते हुए बीटल हैं, हिप्पी हैं, ये सब सुखी घरों के लड़के हैं, अत्यंत सुखी घरों के लड़के हैं। अब इन्होंने दुख अपनी तरफ से पैदा करना शुरू कर दिया, क्योंकि सुख उबाने वाला हो गया।

मुझे बनारस में एक हिप्पी मिला, वह सड़क पर अपना भीख मांग रहा है। करोड़पति घर का लड़का है, दस पैसे मांग रहा है और प्रसन्न है, बहुत प्रसन्न है। झाड़ के नीचे सो जाएगा, दस पैसे मांग कर कहीं होटल में खाना खा लेगा, प्रसन्न है। क्यों प्रसन्न है? वह सुख भी उबाने वाला हो गया। जहां सब सुनिश्चित है, सब सुबह वक्त पर मिल जाता है, सांझ वक्त पर मिल जाता है, सो जाता है, सब सुनिश्चित है। तो आदमी को कोई मौका नहीं रहा जिंदगी अनुभव करने का। तो वह सब तोड़ कर बाहर आ जाएगा।

तो देवता बहुत सुख में हैं, लेकिन सुख उबाने वाला है। और इतनी हैरानी की बात है कि दुख से ज्यादा उबाने वाला है, यह ध्यान में रहे।

प्रश्न:

 

मनुष्य ही देवता बनते हैं?

हां, हां। सुख ज्यादा उबाने वाला है और इसीलिए दुखी आदमी–बोर्डम में आप कभी न पाएंगे दुखी आदमी को। गरीब आदमी आपको बोर्डम में नहीं मिलेगा, ऊबा हुआ नहीं मिलेगा। अमीर आदमी ऊबा हुआ मिलेगा। गरीब आदमी परेशान मिलेगा, ऊबा हुआ नहीं, लेकिन जिंदगी में एक रस उसको होगा। अमीर आदमी को रस भी नहीं होगा जिंदगी में, विरस हो जाएगा।

तो देवताओं के जगत में बोर्डम सबसे ज्यादा उपद्रव है। मनुष्यों के जगत में एंग्जाइटी, मनुष्यों के जगत में चिंता सबसे ज्यादा उपद्रव है, देवताओं के जगत में ऊब, बोर्डम। और यह जान कर आप हैरान होंगे कि कोई पशु कभी बोर्डम में नहीं होता। किसी पशु को आप ऊबा हुआ नहीं देख सकते कि आप किसी कुत्ते को कह सकें कि देखो, बेचारा कितना ऊबा हुआ बैठा है, ऐसा कभी नहीं। कोई पक्षी आपको ऊबा हुआ नहीं दिखाई देगा।

अ    प्रश्न: चिंतित भी नहीं होगा?

चिंतित भी नहीं होगा। न चिंतित है, न ऊब है, क्योंकि चेतना ही नहीं है। जो बोध होना चाहिए इन चीजों का, वह ही नहीं है। आदमी आपको चिंतित मिलेगा। गरीब आदमी ज्यादा चिंतित मिलेगा। अमीर आदमी ज्यादा ऊबा हुआ मिलेगा, ऊब ही उसकी चिंता है।

तो देवताओं के जगत में बोर्डम सबसे बड़ा सवाल और समस्या है–ऊब, एकदम ऊब। सब है और चूंकि शरीर नहीं है, मन की इच्छा करते ही पूरी हो जाती है। आपको कल्पना नहीं है कि अगर आप मन में इच्छा करें और तत्काल पूरी हो जाए तो आप दो दिन बाद इतने ऊब जाएंगे, जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि आपने चाही जो औरत, वह हाजिर हो गई; आपने चाहा जो भोजन, वह हाजिर हो गया; चाहा जो मकान, वह बन गया। और कुछ भी न करना पड़ा, चाह काफी थी। बस, चाही कि हो गया।

तो आप दो दिन बाद इतने घबरा जाएंगे कि कहेंगे इतने जल्दी नहीं, यह तो सब व्यर्थ हुआ जा रहा है। क्योंकि पाने का जो रस था, वह तो गया, वह तो गया। उपलब्ध करने का, जीतने का, प्रतीक्षा करने का जो रस था, वह सब गया। वह वहां कुछ भी नहीं है। न प्रतीक्षा है, न उपलब्धि के लिए श्रम है, न चेष्टा है, न कुछ है। आप बैठे हैं, आपने चाहा और हो गया।

अमीर आदमी इसीलिए ऊब जाता है कि वह बहुत सी चीजें चाहता है और तत्काल हो जाती हैं। गरीब आदमी नहीं ऊबता, क्योंकि चाहता है अभी और पचास साल बाद वे पूरी हो पाती हैं। तो पचास साल तो वह रस में रहता है: अब पूरी होंगी, अब पूरी होंगी, अब पूरी होंगी।

देव योनि ऊब की योनि है, वहां से–सुख की है, लेकिन ऊब की–तो वहां से लौट आना पड़े मनुष्य पर। मनुष्य ही अभी तक चौराहे पर है, जहां से किसी को भी लौटना पड़े।

इसलिए मनुष्य को मैं योनि नहीं कहता, वह चौराहा है। पशु उधर आते हैं, देवता उधर आते हैं, सब उधर आते हैं, पौधे वहां आते हैं, पत्थर वहां आते हैं, सब वहां आते हैं, वह चौराहा है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो चौराहे पर ही रुकने का तय कर लेते हैं तो चौराहे पर रुके रहते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कोई रास्ता चुन लेते हैं तो चुन लेते हैं। वे देवता की तरफ भी जा सकते हैं, वे मुक्ति की तरफ भी जा सकते हैं।

प्रश्न:

 

वापस नहीं लौट सकते?

वापस नहीं लौट सकते। वापस नहीं लौट सकते, उसका कारण है। क्योंकि जो भी हमने जान लिया और जी लिया, उसमें पीछे लौटने का उपाय नहीं रह जाता। जो आपने जान लिया, उसको अनजाना नहीं कर सकते आप। उसे अनजाना करने का असंभव मामला है। और चेतना जितनी आपकी विकसित हो गई, उससे नीचे उसे नहीं गिरा सकते। जैसे कि एक बच्चा पहली क्लास में पढ़ता है तो वह दूसरी क्लास में जा सकता है, पहली क्लास में ही रुक सकता है, लेकिन नीचे नहीं उतर सकता। दूसरी कक्षा में पढ़ता है तो फेल हो जाए तो दूसरी में रुक सकता है, पास हो जाए तो तीसरी में जा सकता है, लेकिन पहली में उतरने का कोई उपाय नहीं है। पहली पास हो चुका। पहली में वापस जाने का कोई उपाय नहीं।

हम तो कर भी सकते हैं उपाय, क्योंकि स्कूल हमारी कृत्रिम व्यवस्था है। लेकिन जीवन की जो व्यवस्था है–जीवन की जो व्यवस्था है, उसमें यह असंभव है। जहां से हम पार हो गए, उत्तीर्ण हो गए, वहां वापस लौटना नहीं।

प्रश्न:

 

शास्त्रों में ऐसे कैसे लिखा है कि इन-इन योनियों में भटकना पड़ता है मनुष्यों को?

 

सिर्फ भयभीत करने को।

प्रश्न:

 

मेरे मन में एक प्रश्न है तादात्म्य के संबंध में। मैं अब तक ऐसा ही समझता रहा कि जिस व्यक्ति को ज्ञान होता है, उसका तादात्म्य संपूर्ण जगत से युगपत होता है। ऐसा नहीं कि स्थावर से कर लिया तो चेतन से नहीं; चेतन से कर लिया तो स्थावर से नहीं। और आपके कहने से ऐसा लगा जैसे महावीर का तादात्म्य जब जड़ के साथ है, वृक्ष के साथ है, तो मनुष्य के साथ नहीं है। अन्यथा जब उनके कानों में जो व्यक्ति कील ठोंक रहा था, वह कील न ठोंक पाता। तो मैं यही मानता रहा अब तक कि तादात्म्य जब होता है तब युगपत सबके साथ हो जाता है। एक-एक के साथ अलग-अलग होता है…?

बिलकुल ठीक, तुम्हारा कहना ठीक ही है। जब पूर्ण तादात्म्य होता है तो युगपत हो जाता है, लेकिन वह मोक्ष में ही होता है। और जो मैंने कहा कि महावीर उन लोगों में से हैं, जो परिपूर्ण रूप से मोक्ष पाने के पहले वापस लौट आए हैं–वह तादात्म्य तो होता है, लेकिन तब महावीर मिट जाते हैं। पूर्ण तादात्म्य में फिर महावीर नहीं रह जाते। इसलिए संदेश पहुंचाने का भी उपाय नहीं रह जाता।

इसलिए जो मुक्त हो जाता है, वह परमात्मा का हिस्सा हो जाता है। परमात्मा कोई संदेश नहीं पहुंचाता आपको। उसका तादात्म्य आप से है। संदेश पहुंचाने के लिए महावीर लौट आए हैं वापस, एक सीढ़ी पहले। ज्ञान पूरा हो गया है, लेकिन अभी डूब नहीं गए हैं सागर में। जैसे एक नदी पहुंच गई है सागर के किनारे और डूबने के पहले है, कि लौट कर एक आवाज दे दे।

जिब्रान ने इस प्रतीक का उपयोग किया है कि मैं उस नदी की भांति हूं, जो सागर में गिरने के करीब पहुंच गई है, और इसके पहले कि सागर में गिर जाऊं, उन सबका स्मरण आता है, जो मार्ग में पीछे छूट गए हैं। वे पथ, वे पहाड़, वे झीलें, वे तट। और क्या एक बार लौट कर देखने की भी आज्ञा न मिलेगी? कि एक बार इसके पहले कि सागर में गिर जाऊं, लौट कर देख लूं–उस सबको जिसके साथ मैं थी और अब कभी नहीं होऊंगी।

तो उस क्षण पर महावीर हैं, जहां से आगे सागर है, जहां पूर्ण तादात्म्य हो जाएगा। पूर्ण तादात्म्य का मतलब जहां महावीर नहीं रह जाएंगे। जैसे बूंद सागर में खो जाएगी। खबर पहुंचानी है तो उसके पहले, फिर खबर पहुंचाने का कोई उपाय नहीं है। किसको खबर पहुंचानी? कौन पहुंचाएगा?

इसलिए मैंने कहा, तीर्थंकर का मतलब है, ऐसा व्यक्ति जो मोक्ष के द्वार से एक बार वापस लौट आया है उनके लिए, जो पीछे रह गए हैं, और उनको खबर देने आता है। तो इस हालत में तादात्म्य सबसे नहीं होगा। इस हालत में तो वह जिससे तादात्म्य चाहेगा और व्यवस्था बनाएगा तादात्म्य की तो ही हो पाएगा। तो वह युगपत नहीं होगा। वह एक विशिष्ट दिशा में एक साथ एक बार होगा, दूसरी दिशा में दूसरी बार होगा, तीसरी दिशा में तीसरी बार होगा। मोक्ष में तो युगपत हो जाएगा। अब महावीर का युगपत है।

प्रश्न:

 

उनकी कोई सेप्रेट एंटाइटी इस समय है मुक्त अवस्था में?

नकी कोई सेप्रेट एंटाइटी नहीं रह जाती। मोक्ष होते ही किसी व्यक्ति का कोई व्यक्तित्व नहीं रह जाता। लेकिन हमारा व्यक्तित्व है, जो हम अमुक्त हैं, इसलिए अगर इस तरह के उपाय हैं, जिनके हम उपाय करें, तो हमारे लिए करीब-करीब वे व्यक्ति की तरह उत्तर उपलब्ध हो सकते हैं। उनका कोई व्यक्तित्व नहीं रह गया है।

प्रश्न:

 

अगर उनका व्यक्तित्व नहीं रहा तो उत्तर उपलब्ध कैसे होगा?

सल में हमारी क्या कठिनाई है कि हम एक ही तरह के व्यक्तित्व को जानते हैं। हम एक ही तरह के व्यक्तित्व को जानते हैं–शरीर का है, मन का है। एक व्यक्ति खो गया अनंत में, है मौजूद, अनंत होकर मौजूद है। आप तो सीमित हैं। अगर आप सागर के तट पर भी जाएंगे, तट पर भी खड़े हो जाएंगे, तो भी सीमित चुल्लू भर पानी ही उससे आप भर सकते हैं। आप करेंगे क्या? सागर होगा अनंत, आप तो चुल्लू भर पानी ही भर सकते हैं।

जो नदी सागर में खो गई है, उसका पता लगाना मुश्किल है कि वह नदी कहां खो गई। गंगा गिर गई सागर में। लेकिन गंगा का कण-कण मौजूद है पूरे सागर में। खो गई है सागर में, मिट नहीं गई, जो था, वह तो है ही अब भी। सीमा की जगह असीम में हो गया है।

ऐसी कुछ व्यवस्था है, ऐसी कुछ विधि है कि सागर के तट पर, जब आप तट पर खड़े होकर गंगा को पुकारें– उसकी विधि है, वह मैं बात करूंगा–कि जब आप सागर के तट पर खड़े होकर गंगा को पुकारें, तो आपको तो चुल्लू भर ही चाहिए, पूरी गंगा भी नहीं चाहिए, पूरा सागर भी नहीं चाहिए। तो वे अणु जो अनंत सागर में खो गए हैं, उस तट पर आपकी पुकार से इकट्ठे हो जाएं। आप चुल्लू भर गंगा ला सकते हैं सागर से।

यह मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं। यह जो पुकार है आपकी उन अणुओं को–क्योंकि वे अणु कहीं खो नहीं गए हैं, वे सब सागर में मौजूद हैं। क्या कठिनाई है कि पुकार पर वे अणु चले न आएं और चुल्लू भर पानी गंगा का आपको सागर से मिल जाए! कठिनाई नहीं है।

चेतना के महासागर में महावीर जैसा व्यक्ति कोई खो गया है, लेकिन खोने के पहले ऐसा प्रत्येक व्यक्ति ऐसे कोड वर्ड्स छोड़ जाता है, जो कभी भी उस अनंत के किनारे खड़े होकर पुकारे जाएं तो उसके अणु आपके लिए उत्तर देने के लिए सामर्थ्यवान हो जाएंगे। इस सबका बड़ा मजा है। इस सबका बड़ा मजा है। इस सबकी पूरी विधि, इस सबका पूरा अपना तकनीक है कि वह कैसे काम करेगा।

वह तकनीक कैसे काम करेगा। जैसे कि समझें, आपने कभी रास्ते पर देखा हो कि एक मदारी दिखा रहा है, एक लड़के की छाती पर ताबीज रख दिया है, ताबीज रखते ही से लड़का बेहोश हो गया है। वह कहता है कि आपकी घड़ी में कितना बजा है, बताता है, आपके नोट का नंबर बताता, आपका नाम बताता, आपके मन में क्या है बताता है। और फिर इसके बाद वह मदारी ताबीज बेचना शुरू कर देता है कि ये छह-छह आने के ताबीज हैं। और ताबीज की यह शक्ति है, जो देख रहे हैं आप अपनी आंखों के सामने।

आपको भी लगता है कि ताबीज की बड़ी भारी शक्ति है। छह आने देकर आप ताबीज खरीद लेते हैं। घर आकर आप कुछ भी करिए, ताबीज से कुछ नहीं होगा। क्योंकि ताबीज की शक्ति ही न थी, मामला बिलकुल दूसरा था। उस लड़के को बेहोश करके, बहुत गहरी बेहोशी में यह कहा गया है कि जब भी यह ताबीज तेरी छाती पर रखेंगे, तब तू फिर बेहोश हो जाएगा, जब भी यह ताबीज तेरी छाती पर रखेंगे। इसको कहते हैं पोस्ट हिप्नोटिक सजेशन। अभी बेहोश है वह, अभी उसको कह रहे हैं कि यह ताबीज पहचान ले ठीक से। आंख खोल। वह बेहोश है, उसे कहा, आंख खोल। यह ताबीज पहचान ठीक से। इतनी चौड़ाई का यह लाल रंग का ताबीज जब भी तेरी छाती पर हम रखेंगे, तभी तू तत्काल बेहोश हो जाएगा।

ऐसा महीनों उसको बेहोश किया जाता है और वह ताबीज बता कर उसके मन में यह सुझाव बिठाया जाता है। फिर उस बच्चे पर जब भी ताबीज रख देते हैं, ताबीज उसने देखा कि वह बेहोशी में गया। वह कोड हो गया। वह ताबीज जो है, कोड लैंग्वेज हो गई। वह सिंबल हो गया, कि ताबीज जैसे ही छाती पर रखा कि वह बेहोश हुआ। तो अब उसको सबके सामने बेहोश नहीं करना पड़ता। नहीं तो बेहोश करने में वक्त लगता है। और फिर कभी होता है, कभी नहीं भी होता है। तो बेहोश करने की शिक्षा पहले दे दी है और ताबीज से एसोसिएशन जोड़ दिया है अब। अब ताबीज जब भी छाती पर रखेंगे, वह बेहोश हो जाएगा।

बेहोश होते ही से वह फैल गया सबमें। वह पढ़ने नहीं आ रहा आपका, अब वह वहीं से पढ़ सकता है आपके खीसे के नोट का नंबर। क्योंकि चेतना बहुत फैली हुई है नीचे। इधर छोटे से चेहरे से दिखाई पड़ रही है, उधर पीछे फैलती चली गई है। अगर यहां से बेहोश कर दी जाए तो वह वहां पूरे से संबंध जोड़ लेती है।

जैसा इस बेहोश के साथ ताबीज का संबंध जोड़ा गया है ऐसा प्रत्येक शिक्षक, जो पीछे भी उपयोगी होना चाहता है और जो उसके पीछे भी उसका सहयोग, उसका मार्गदर्शन चाहेंगे, उनके लिए व्यवस्थित सूत्र छोड़ जाता है कि इन सूत्रों से प्रयोग करने से मैं पुनः उपस्थित हो जाऊंगा।

दक्षिण में एक योगी था, ब्रह्मयोगी, अभी कुछ वर्ष पहले ही। ब्रंटन उससे सबसे पहले आकर मिला। तो उसने अपना एक फोटो दे दिया ब्रंटन को। और उसने कहा कि मैं आपको गुरु बनाए लेता हूं, लेकिन मैं तो लंदन चला जाऊंगा। तो उसने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है? लंदन कोई बहुत दूर तो नहीं। तुम यह फोटो ले जाओ। तुम इस भांति, इस आसन में बैठकर, इस तरह इस फोटो को रख कर एक-दो मिनट एकाग्र होकर फोटो को देखना। और तुम्हें जो प्रश्न पूछना हो तुम पूछ लेना, उत्तर तुम्हें आ जाएगा।

ब्रंटन तो बहुत हैरान हुआ कि यह कैसे होगा! लेकिन वह सारी व्यवस्था की जा सकती है। और ब्रंटन ने जब लंदन में जाकर पहला काम यह किया कि फोटो सामने रख कर दो मिनट एकाग्र होकर उसने कुछ प्रश्न पूछा, उत्तर एकदम आ गया–ठीक उसी ध्वनि में, उसी शब्दावली में, जिसमें ब्रह्मयोगी बोलता है! उसने वे सब लिख रखे, जब भी उसने जो-जो पूछा। पीछे आकर उसने ब्रह्मयोगी को कहा कि मैंने एक दफा यह पूछा था, आपने क्या कहा था? तो जो उसने लिखा था, उसने बताया कि मैंने यह कह दिया था।

अब यह डिवाइस है, यह उपाय है, जिससे काल और क्षेत्र मिट जाते हैं और संबंध हो जाता है।

जो लोग बिलकुल खो गए हैं अनंत में, वे भी पीछे डिवाइस और उपाय छोड़ जाते हैं। सभी नहीं छोड़ जाते हैं, यह उनकी मर्जी पर निर्भर है कि वे छोड़ें या न छोड़ें। कुछ शिक्षक कुछ भी नहीं छोड़ जाते हैं, कुछ शिक्षक कुछ छोड़ जाते हैं। महावीर निश्चित छोड़ गए हैं, बिलकुल निश्चित छोड़ गए हैं कि इस उपाय से संबंध स्थापित हो सकेगा। महावीर का कोई व्यक्तित्व नहीं बनता, लेकिन उस अनंत से उत्तर आ जाता है। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।

तो इसलिए मैंने कहा कि महावीर से अभी भी संबंध स्थापित हो सकता है, अभी भी। कुछ शिक्षकों से संबंध स्थापित होना एकदम असंभव होगा। जैसे जरथुस्त्र, उससे कोई संबंध स्थापित नहीं हो सकता है, क्योंकि उसने कोई उपाय नहीं छोड़ा। वह उसकी अपनी समझ है। वह यह कहता है कि पुराने शिक्षक की क्यों फिक्र करनी? नए शिक्षक आते रहेंगे, तुम उनसे संबंध बनाना, जरथुस्त्र से क्या लेना-देना!

अब वह उसकी अपनी समझ है। महावीर की समझ यह है कि क्या फिक्र तुम्हें, मैं ही काम पड़ सकता हूं फिर भी तो मेरा उपयोग किया जा सकता है। यह अपनी समझ की बात है, लेकिन संबंध बिलकुल ही स्थापित किए जा सकते हैं। लेकिन जो शिक्षक डिवाइस छोड़ गया हो उसी से!

प्रश्न:

 

इसका अर्थ यह हुआ कि महावीर के बाद किसी को भी उन कोड वर्ड्स का नहीं पता।

कोड वर्ड्स का पता है, लेकिन यह पता नहीं है कि ये कोड वर्ड्स हैं। यानी यह तो पता है कि ये शब्द लिखे हैं, लेकिन ये काहे के लिए हैं और इनकी क्या विधि है, यह पता नहीं है। यानी जैसे कि आपको मैं एक लिख कर दे जाऊं…।

प्रश्न:

 

सवाल यह है कि आखिर जब वे गए होंगे…।

हां, कुछ दिन तक पता था, कुछ दिनों तक उसका उपयोग होता रहा। जब तक उपयोग होता रहा, तब तक शास्त्र नहीं लिखे गए। जब तक उपयोग होता रहा तब तक कोई जरूरत न थी शास्त्र की, क्योंकि सीधा कांटैक्ट था। जब उपयोग छूट गया या कुछ लोग खो गए जो जानते थे…।

प्रश्न:

 

सब झगड़े पीछे चलते हैं।

 

गड़े तो पीछे चलने ही वाले हैं, क्योंकि फिर तय करना मुश्किल हो जाता है, पूछना भी मुश्किल हो जाता है।

प्रश्न:

 

आज मतलब महावीर से कांटैक्ट करने वाला कोई नहीं है?

हीं, कोई नहीं है। लेकिन कांटैक्ट आज भी हो सकता है। उनकी परंपरा में तो कोई भी नहीं है। उनकी परंपरा में कोई भी नहीं। उनकी परंपरा में कोई भी नहीं, लेकिन और लोगों ने कांटैक्ट स्थापित किए हैं।

प्रश्न:

 

महावीर से?

हावीर से भी! जैन परंपरा में कोई नहीं है। और लोगों ने कांटैक्ट स्थापित किए हैं। कुछ लोग तो निरंतर श्रम कर रहे हैं। ब्लावट्स्की ने करीब-करीब सभी शिक्षकों से संबंध स्थापित करने की कोशिश की है, उसमें महावीर भी एक शिक्षक हैं।

प्रश्न:

 

और किस-किस ने किए हैं?

ह असल में हुआ क्या है कि ब्लावट्स्की के साथ जितने लोगों ने काम किया…।

प्रश्न:

 

कौन है यह?

ह एक रूसी महिला थी, थियोसाफिस्ट थी, थियोसाफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री थी। और उसके साथ था अल्काट, उसने भी संबंध स्थापित किए, एनी बीसेंट ने…।

प्रश्न:

 

वे तो मर चुके हैं।

वे सब मर चुके हैं।

प्रश्न:

 

आज है कोई ऐसा?

थियोसाफी में भी आज कोई नहीं है, वह स्रोत सूख गया। थियोसाफी में भी कोई नहीं है आज, लेकिन थियोसाफिस्टों ने हजारों साल बाद बड़ी मेहनत की। और जो बड़े से बड़ा काम किया, वह यह किया कि सारे पुराने शिक्षकों से संबंध स्थापित किया, ऐसे शिक्षकों से भी जिनकी कोई किताब भी नहीं बची थी।

प्रश्न:

 

उनको यह मालूम पड़ता है कि वे महावीर के साथ संबंध स्थापित कर रहे हैं या किसी दूसरे के साथ?

हां, वह तो करने की अलग-अलग विधियां हैं प्रत्येक शिक्षक से।

प्रश्न:

 

करने वाले को मालूम पड़ता है?

हां, बिलकुल ही मालूम पड़ेगा। बिलकुल अलग-अलग विधियां हैं। कुछ से संबंध स्थापित नहीं हो सका तो या तो विधि गलत है, या करने वाला नहीं कर पा रहा है ठीक से, या कोई विधि नहीं छोड़ी गई है। तो इधर तो मैं चाहता हूं कि इधर कुछ लोग उत्सुक हों तो बराबर इस विधि पर काम करवाया जाए, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

प्रश्न:

 

तब तो महाराज आपने अवश्य किए होंगे!

ह न पूछिए। यह मत पूछिए।

प्रश्न:

 

किसी ने शब्द छोड़े हैं या नहीं, यह कैसे पता चलेगा?

सके भी उपाय हैं। इसके भी उपाय हैं। उपाय तो सब के हैं।

प्रश्न:

 

वे उपाय क्या हैं?

ह जरा आसान बात नहीं है। वह तो तुम कोशिश करने को तैयार होओ तो मैं बताने को तैयार हूं। समझे न? वह तो आसान बात नहीं।

प्रश्न:

 

महावीर के संबंध में आप जो कुछ कह रहे हैं, वह बहुत मिस्टिकल और रहस्यवादी बनता चला जा रहा है। आप सायंकाल या किसी और समय ऐसा जो सामान्य व्यक्ति की समझ में भी आ जाए और करने लायक हो महावीर का संदेश, वह कहें। क्योंकि यह जो आप कह रहे हैं, यह बहुत ही थोड़े लोगों के पल्ले पड़ने वाली बात लगती है।

 

बात ही ऐसी है, इसमें कोई उपाय नहीं है।

असल में जिन्हें भी करना है, उन्हें असाधारण होने की तैयारी दिखानी पड़ती है। कोई सत्य साधारण होने को कभी तैयार नहीं है, व्यक्तियों को ही असाधारण होकर उसे झेलना पड़ता है।

और सत्य को साधारण किया तो असत्य से भी बदतर हो जाता है। यानी सत्य उतर कर तुम्हारे मकान के पास नहीं आएगा, तुम्हें ही चढ़ कर सत्य की चोटी तक जाना पड़ेगा। और सत्य अगर आ गया तुम्हारे मकान के पास तो बाजार में बिकने वाला होगा, उसका कोई मूल्य नहीं होगा।

अब कल बैठेंगे।


Filed under: महावीर मेरी दृष्‍टी में--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, मनसा स्‍वामी आनंद प्रसाद

एक विश्‍वव्‍यापी खतरा—(प्रवचन—6)

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एक विश्‍वव्‍यापी खतरा—(प्रवचन—छ:)

हिमालय में बसने के ख्याल से भगवान ने मध्य—नवम्बर में अमरीका छोड़ा। लेकिन लगा कि। भारत सरकार के इरादे कुछ और ही थे। तीन ही दिनों में, भगवान के साथ—साथ आए और आठ से पंद्रह वर्षों तक से उनकी देखभाल करते आ रहे उनके पश्‍चात्‍य शिष्यों को—उनका डाक्टर, परिचारिका और कुछ गृहकार्य करनेवाले—तीन सप्ताह के लिए प्राप्त उनके वीसाओं की अवधि बढ़ाने से इनकार कर दिया गया और उन्हें देश छोड़ देने के आदेश दे दिये गये। ठीक उसी समय, एक इटालियन टी.वी दल को भी वीसा देने से मना कर दिया गया, जो भारत आकर भगवान का इंटरब्यू लेना चाहता था।

भारत सरकार ने शीघ्र और प्रभावशाली रूप से इन्हें अलग— थलग कर दिया था। ऐसा लगा कि अमरीकी अटर्नी—जनरल एड मीज की इच्छा (उनका यह कथन प्रकाशित हुआ था: कि ‘‘मैं उस व्यक्ति को सीधे भारत वापिस देखना चाहता हूं ताकि वह फिर कभी दुबारा सुनने या देखने में न आए’‘), भारत का आदेश थी। क्रिसमस के एक दिन पहले भगवान की निजी—सचिव का तीन महीने का वीसा अलंघनीय रूप से रद्द करके उन्हें संध्या से पहले—पहले देश छोड़ देने के आदेश दिये गये। इसके कुछ ही दिनों के भीतर भगवान उत्तर की ओर उड़े जहां वे काठमांडू (नेपाल) में इन निष्काषित लोगों के साथ रह सकें।

वहां उन्होंने प्रवचन देना पुन: शुरू कर दिया, और सैकड़ों भारतीय और पश्‍चात्‍य पर्यटक उन्हें सुनने के निमित्त आ पहुंचे। जो भी हो, शीघ्र ही अत्याचार के चिह्न पुन: प्रगट हो गये—देखभाल करने वालों में से एक को वीसा की अवधि बढ़ाने से इनकार कर दिया गया और अचानक पुलिस ज्यादा ही देखने में आने लगी। एक ऐसे देश के लिए जो पर्यटन पर भारी रूप से निर्भर है, असामान्य कृत्य। साथ ही जो सरकारी मंत्रीगण एवं अधिकारी भगवान को सुनने आया करते थे, उन्होंने आना बंद कर दिया। स्पष्टत: इस छोटे—से पर्वतीय राज्य पर दबाव पड़ना शुरू हो गया था, पर कहां से?

भगवान ने एक विश्व— भ्रमण का प्रारंभ करते हुए मध्य—फरवरी में नेपाल छोड़ दिया—एक विश्व— भ्रमण जो उसी दबाव को घुटने टेकनेवाले अनेकानेक तथाकथित ‘स्वतंत्र’ देशों का पर्दाफाश करने वाला था।

सर्वप्रथम वे ग्रीस के क्रेटे द्वीप गये, जहां उन्हें तीस दिनों का पर्यटक—वीसा मिला। प्रेस की जानकारी में आए बिना वे एक निजी हवाई—पट्टी पर उतरे थे। तो भी, रहस्यमय ढंग से, अगली ही सुबह एथेन्स के समाचारपत्र ‘सेक्स गुरु’ पर सनसनीखेज कहानियों से भरे थे। काम—रंगरलियों की पुरानी अफवाहों को सजाने—संवारने के लिए सात सालों पहले पूना में लिए गये कुछ अर्द्धनग्र लोगों के चित्र प्रकाशित किये गये। आने वाले दिनों में भी ये कहानियां जारी रहीं—स्पष्टतः ये एक सुनियोजित आन्दोलन का अंग थीं।

साथ—साथ यह सारी सामग्री, अनाम व्यक्तियों द्वारा, क्रेटे के ऑर्थोडॉक्स चर्च के बिशपों को भेजी गयी। भगवान के आगमन के पांच दिनों के भीतर ही, ग्रीक ऑथोंडॉक्स चर्च ने उनकी उपस्थिति पर विचार करने के लिए ‘हाई होली सिनॅड’ (उच्च पवित्र धर्मसभा) की बैठक आयोजित की। भगवान को ‘‘जन—सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा’‘ बताते हुए उन्होंने एक घोषणा—पत्र जारी किया, जिसे प्रेस ने छापा। स्थानीय बिशप, मेट्रॉपालिटन ऑफ पेत्रा ने सेक्स गुरु द्वारा अपने नवयुवकों के इर्दगिर्द एक ‘‘जाला बुने जाने’‘ के खतरे का नागरिकों को आगाह करते हुए एक पेष्फलेट वितरित किया। पेष्फलेट ने भगवान पर अपने शिष्यों में मानसिक— ध्वस्तताएं उअन्न करने, ” अकल्पनीय व्यभिचारोत्सव’‘ संचालित करने, खतरों, लुटेरेपन, स्मगलिंग, मादक दवाओं, क्र—अपवंचन और सामान्य अनैतिक व्यवहार के आरोप लगाए। एक प्रेस काकेन्स में बिशप ने उद्घोष किया— ‘‘यह व्यक्ति खतरनाक है. जन—सुरक्षा के लिए संकट.. एक धूर्त जो लोगों के अंतःकरण खरीदता और उन्हें पथभ्रष्ट करता है।’’

अगले ही दिन भगवान ने ग्रीकों पर यह कहते हुए प्रहार किया कि यदि वे सुकरात की मानकर चले होते तो आज समाज के सिरताज होते, लेकिन उसके बजाय वे कट्टरतावादी मूर्खों की मानकर चले और आज तक भी उन्हीं मूर्खों के पीछे लगे चले जा रहे हैं। ग्रीक समाचार पत्रों ने, इसका संदर्भ से अलग हवाला देते हुए, सनसनी उअन्न कर दी। ‘होली सिनॅड’ की आनन—फानन पुन: बैठक हुई, पार्लियामेण्ट में सवाल खड़े किये गये, और एक याचिका फिर से वितरित की गयी। एपीके एथेन्स ब्यूरो के पेट्रिक किन से टेलीफोन पर वार्तालाप के दौरान स्थानीय बिशप ने कहा, ‘‘हमारे पास उनसे छुटकारा पाने की इच्छा और शक्ति,दोनों हैं। या तो वे बोलना बंद करते हैं ( भगवान ने अपने निजी बगीचे में प्रवचन देना प्रारंभ कर दिया था), अथवा हम हिंसा का उपयोग करेंगे। यह एक ऐसे बिंदु तक लाया जाएगा कि खून बहेगा।’’ किन ने कहा कि बिशप एक धार्मिक क्रोधोन्माद में थे और स्वयं जाकर भगवान के मकान पर पत्थर फेंकने तथा उसमें आग लगा देने की बात कर रहे थे।

मार्च 5 को, भगवान के तीस दिवसीय आवास में से सत्रह दिन शेष रहते, सशस्त्र पुलिस उनके घर में घुस आई जबकि वे सो रहे थे, उन्हें बिना कोई कारण बताए अथवा चेतावनी दिये गिरफ्तार किया, और वहां से 3० किलोमीटर दूर हेराक्लिअन बंदरगाह पर ले गयी। उन्हें यह भी नहीं बताया गया कि वे कहां जा रहे थे और उन्हें अपनी दवाएं तक साथ लेने नहीं दिया गया। बंदरगाह पर उन्हें सूचित किया गया कि सरकार द्वारा उनका वीसा रद्द कर दिया गया था और कि वे तुरंत यहां से निष्काषित किये एवं पानी के जहाज द्वारा भारत वापस भेजे जा रहे थे। शिष्यगण पुलिस को 25, ००० डालर का घूंस देकर ही फुसला सके कि वे भगवान को अपने निजी चार्टर्ड जेटप्लेन द्वारा देश छोडने दें। सरकारी अधिकारियों ने प्रेस को वक्तव्य दिया कि उन्हें ‘‘राष्ट्रीय हितों के लिए’‘ देश से निष्काषित किया जा रहा था। इस प्रकार सुकरात, प्लेटो, अरस्‍तू तथा डिमक्रिसी की जन्मभूमि ग्रीस ने एक व्यक्ति को उसके विचारों के कारण देश से निकाल बाहर किया।’’केवल अपने विचारों के कारण, ” पीक फिल्म निर्देशक निकोस कौण्‍डॉरस ने कहा, ‘‘उससे अधिक कुछ नहीं। यदि अभी भी पीस में विचार का नृशंस दमन किया जाता है, तो कल वे मेरे पीछे पडे होंगे, और अगले कल, आपके पीछे। और हम वापस वहीं खड़े होंगे जहां से हम चले थे।’’ कौण्‍डारस ने, जिन्होंने पहले भगवान की आलोचना की थी अखबारों में, उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ बहुत जोरदार आवाज उठाई। उन्होंने कहा कि चर्च ने ‘‘देश की सारी घंटियां’‘ बजा दी हैं भगवान की गिरफ्तारी की विजय का उत्सव मनाने में।’’कैसी विजय?”, उन्होंने पूछा।’’कुछ पुलिस की गाड़ियों ने उस भवन को घेर लिया जिसमें वह भारतीय ठहरा हुआ था, द्वार तोड़ दिया गया— और खिड़कियां। जिस कमरे में वह सो रहा था उसके दरवाजे हिला दिये गये और करीब—करीब बिस्तर में उसे गिस्फतार किया गया। जब कठोर अमरीका ने इस भारतीय सद्गुरु को देश से निष्काषित करने का तय किया तो उसने कोई इमीग्रेशन ( आप्रवास) संबंधी नियम भंग किये जाने का सहारा लिया। यहां तो कोई जरा—सा भी औचित्य नहीं है। एक और मात्र एक जवाब, उसके विचार। यह व्यक्ति जिसे चर्च ने ‘एंटी—क्राइस्ट’ कहा, अपने साथ कुछ भी न लाया था केवल कुछ विचारों को छोड्कर। कोई ड्रग (मादक—द्रव्य) नहीं, कोई अस्र—शस्त्र नहीं, कोई प्रक्षेपास्त्र नहीं। कुछ भी नहीं, केवल विचार.. वह भारतीय हमसे चाहता क्या था? उसके पास एक दृष्टिकोण था, और उसे फैलाने का उसे हर अधिकार था भले ही वह दृष्टिकोण हमें नाराज करता हो। उन्होंने कहा कि उसने सत्ताधीशों का अपमान किया। पर सत्ताधीश एक—दूसरे का अपमान सुबह से रात तक साल के तीन सौ पैंसठ दिन करते हैं। यहां अपमानों के बिना कुछ ठीक से चलता ही नहीं। यह ग्रीक रिवाज है। किंतु अचानक भारतीय ने हमें व्याकुल कर दिया जब उसने साहसपूर्वक कहा कि हमने सुकरात को जहर दिया था—एक सच्चा ऐतिहासिक तथ्य, यदि मुझे ठीक याद है।’’ कौडॉरस ने अंत में कहा, ‘‘उनका निष्काषन शर्म की बात है… .मै शर्मिंदा हूं।

सारे विश्व के प्रेस के सामने, जो भगवान के निर्गमन को अंकित करने इकट्ठा हो गया था, भगवान ने सुरक्षा घेरे के रूप में साथ लगे बीस शस्रधारी पुलिसवालों की ओर इशारा किया और कहा, ‘‘तुम अभी भी उतने ही बर्बर एवं असभ्य हो जितने तुम तब थे जब तुमने सुकरात को जहर दिया था।’’ विदा होते भगवान ने कहा: ‘‘नैतिकता जो दो हजार वर्षों से सिखायी और अमल में लायी जा रही है और मेरे द्वारा सिर्फ कुछ दिनों में नष्ट होने लगी, वह कुछ बहुत मूल्यवान नहीं है।’’ भगवान का अगला पड़ाव था जिनेवा, स्विट्जरलैण्ड, जहां पहुंचने पर उन्हें और उनके साथियों को सात दिन का वीसा दिया गया। पांच मिनट बाद, इसके पहले कि भगवान जेट से बाहर निकलते, बंदूकधारी पुलिस ने उसे घेर लिया, सबको विमान में ही बने रहने का आदेश दिया, और सबके पासपोर्ट वापस मांगे। उन्होंने सबके वीसाओं पर ” अनॅल्ड’‘ (रद्द) की मुहर लगायी और जेट को तुरंत उड़ा ले जाने का आदेश दिया। पीछे, न्याय विभाग की प्रमुख एलिजाबेथ कपि ने कारण बताया कि भगवान के आगमन के कुछ ही पहले एक न्यायिक—आज्ञप्ति जारी की गयी है, जिसमें उन्हें ” अस्वीकार्य व्यक्ति’‘ घोषित किया गया है, ‘‘क्योंकि संयुक्त राज्य अमरीका में वे इमीग्रेशन (आप्रवास) — नियमोल्लंघन के दोषी थे।’’ वे आप्रवास—नियमोल्लंघन ऐसे कृत्य थे जो आमतौर से सारी दुनिया में सैकंडो लोगों द्वारा रोज किये जा रहे हैं—नियमोल्लंघन जिनकी अधिकांश सरकारें (अमरीका सहित) बमुश्किल चिंता लेती हैं, दोष ठहराने की प्रक्रिया से गुजरने की तो बात ही छोड़ दो; नियमोल्लंघन जो निश्रितरूपेण कभी जेल की सजा नहीं लाते ऐसे व्यक्ति पर जिसने कोई और अपराध न किये हों। तब यह व्यंग्यात्मक ही था कि स्विट्जरलैष्ठ—जो जाने, अनजाने, शुइलस को अपेक्षित उन असंख्य लोगों और भूतपूर्व अपराधियों की मेजबान बनती है जब वे अपने स्विस बैंक एकाउंट्स देखने आते हैं, और जिसने चार्ली चेपलिन को घर बसाने दिया जब वे अमरीका से वहां की सरकार द्वारा निकाले गये— भगवान को वापस करे, संगीन की नोक पर, इतने लचर कारणों पर।

तथापि, उसने ऐसा किया। स्विट्जरलैण्ड से भगवान राजनैतिक शरणार्थियों और मानवीय अधिकारों के उस आश्रय—स्थल स्वीडन गये, जहां पहुंचते ही उनके दल को आप्रवास—अधिकारी ने आश्वासन दिया कि वे लोग दो सप्ताह वहां ठहर सकेंगे। बहरहाल, दस मिनट बाद उस वी. आइपी लाउंज पर, जहां वे शहर ले जाने वाले यातायात की प्रतीक्षा कर रहे थे, पुलिस द्वारा बाहर से ताला बंद कर दिया गया, और वे दरवाजों के बाहर ही अपनी बंदूकों को झुलाते खड़े रहे। एक अशुभ सूचन। पुलिस के प्रधान उपस्थित हुए और उन्होंने कहा कि इस दल को तुरंत लौटना पड़ेगा। कारण जो दिया गया वह था कि साथ में जो दो भारतीय है, उनके पास वीसा नहीं है। स्विट्जरलैण्ड की भांति ही, दरवाजे की तालाबंदी, सशस्त्र पुलिस, पुलिस के प्रधान की उपस्थिति कुछ और ही गंभीर बात का इशारा दे रहे थे।

अब तक में, शस्त्रों से सघनरूपेण लैस पुलिस—जो भगवान का नाम कम्प्यूटर में डाले जाते ही वहां अनिवार्यरूपेण प्रगट हो गयी थी—के ” आपातकालीन’‘ बेचैन व्यवहार से साफ होता जा रहा था कि भगवान का कम्प्यूटर—वर्गीकरण काफी गर्म होगा। यह उन्हें ( भगवान को) बाद में पता चलना था कि देशों ने, प्राय: निरपवादरूप से, उन्हें ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा’‘ वर्गीकृत किया था। जो उन्हें उसी वर्ग में रखता है जिसमें आतंकवादी।

स्वीडन से उड़कर भगवान का हवाईजहाज इंग्लैंड आया। अब तक शाम के आठ बज चुके थे और विमानचालकों को विमान उड़ाते 12 घंटों से अधिक हो चुका था। कानून के मुताबिक अब उन्हें कम—से—कम आठ घंटे विश्राम करना ही चाहिए, इसके पहले कि वे उड़ान जारी रखें। विमान का स्वागत कुछ अधिकारियों द्वारा हुआ जिन्होंने पूरे दल को इमीग्रेशन कांउटर पर जाने के आदेश दिये। भगवान ने इन अधिकारियों को बताया कि वे देश में प्रवेश करना नहीं चाहते। वे केवल ट्रांजिट में रात भर रहना चाहते थे और अगली सुबह अपने जेट से चले जाना चाहते थे। उन्हें कहा गया कि उनके लिए यह संभव नहीं था कि रात भर ट्रांजिट में रुक सकें। (वे क्या सोचते थे कि भगवान वहां क्या कर देनेवाले थे)?

उनको और उनके दल को चार घंटे की जांच—पड़ताल से गुजारा गया, और फिर अर्धरात्रि में बताया गया कि प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह बाद में पता चला था कि उनके प्रवेश—निषेध का आदेश उनके आगमन के घंटों पूर्व तैयार किया जा चुका था। आदेश में कहा गया था कि उनका इंग्लैंड द्वारा बहिष्कार ” अमरीका में उन्हें आप्रवास—नियमोल्लंघन का दोषी पाये जाने को देखते हुए सार्वजनिक हित को बढ़ानेवाला’‘ था। महान मसाला! एक ऐसे देश से जो सिख आतंकवादियों को भारत को वापस लौटाना नहीं चाहता, और जिसने, केवल चंद दिनों बाद ही, अपने ‘‘सार्वजनिक हितैषी’‘ तटों से अमरीकी युद्धयानों को उड़ानें भरने की अनुमति दी ताकि वे लीबिया में रास्तों के किनारे खड़े निर्दोष लोगों की हत्या कर सकें।

उनके दल के अन्य सदस्यों को कोई कारण नहीं बताए गये कि वे क्यों रोके गये थे—निश्रित ही उनमें से किसी का भी किसी अपराध में दोषी होने का कोई इतिहास न था। तथापि सब के सब एक छोटी, अंधेरी, गंदी कोठरी में, जो अफ्रीकी और एशियाई शरणार्थियों से भरी हुई थी, रात भर रोक कर रखे गये। अन्य अवसरों की तरह ही सशस्‍त्र पुलिस द्वारा अगली सुबह भगवान अपने विमान पर चढ़ा दिये गये।

इस मामले की समीक्षा करते हुए ‘लेंकेस्टर इवनिंग टेलीग्राफ’ में जॉन क्लार्क ने लिखा: ” 54 वर्षीय भारतीय, भगवान श्री रजनीश, विश्व की अधिकांश सरकारों द्वारा ” अस्वीकार्य व्यक्ति’‘ करार दे दिये गये लगते हैं। बेबी डॉक डुवेलियर और भूतपूर्व राष्ट्रपति मार्कोस अपने रहने के लिए देश खोज लेने में अधिक सफलता—प्राप्त दिखते हैं। लेकिन भगवान, जिसका मतलब होता है सौभाग्यशाली, न तो कोई पदच्युत तानाशाह हैं, न ही किसी गंभीर जुर्म के दोषी। वे सारी दुनियां में फैले 3,5०,००० शिष्यों, जिन्हें संन्यासी कहा जाता है, के आध्यात्मिक गुरु हैं, और इनकी शिक्षाओं का अध्ययन लेंकेस्टर विश्वविद्यालय में किया जाता है जिसके पास सारे यूरोप में सबसे बड़ा धर्म—विभाग है।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘लेंकेस्टर विश्वविद्यालय के व्याख्याता पाल हीलाज़, जो नव— धर्मों के विशेषज्ञ हैं, का अन्य बहुतों के जैसे ही यह अभिमत है कि ब्रिटेन द्वारा गुरु के बहिष्कार के लिए कोई औचित्यपूर्ण कारण नहीं है। मिस्टर हीलाज़, जो भगवान को अपने एक शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए हुए हैं, कहते हैं ” भगवान अपने आलोचकों द्वारा अत्यधिक अराजकतावादी एवं संगठित संस्थानों के लिए एक खतरे के रूप में देखे जाते हैं। वे सामाजिक धारणाओं के बाड़े के बाहर पड़े हुए माने जाते हैं और उसी प्रकार का विरोध उनके प्रति दिखाया जाता है जैसा छठे दशक में हिप्पीज़ के प्रति था।’’ अंत में क्लार्क ने कहा, ‘‘क्या वह प्रतिरोध और आप्रवास—नियमोल्लंघन ब्रिटेन तथा कई अन्य देशों द्वारा भगवान के बहिष्कार को ‘गेचित्य प्रदान करते हैं, यह बात अभी भी उत्तरित होने को बाकी है।’’

लेंकेस्टर विश्वविद्यालय के रिलीजियस स्टडीज़ डिपार्टमेंट की ही जूडिथ थाम्पसन ने समझाया, ‘‘‘भगवान हर उस व्यक्ति पर आक्रमण करते है जो किसी प्रकार का स्थान रखता है, चाहे वह शासन में हो अथवा चर्च में। भगवान विश्वासों पर आक्रमण करने में लगे हैं, अथवा कम से कम उन्हें उभारकर सतह पर लाने में, और यह बात स्वत: विवाद उत्‍पन्न करती है। क्रेटे में उन्होंने इन पर पत्‍थर मारने की धमकी दी, ‘ धार्मिक’ लोगों ने इनके अनुयायियों पर पत्थर फेंकने की धमकी दी यह भय है। वे एक शक्तिशाली एवं खतरनाक व्यक्ति के रूप में देखे जाते हैं, और कोई भी उस तथ्य का आमना—सामना करने को तैयार नहीं है। ये ज्यादा पसंद करेंगे कि वे देश—निकाले में हो और ये उनका स्थान भर लें। मैं समझती हूं कि ये लोग उनको एक उदाहरण भी बना रहे है।’ —यदि तुम ऐसा करोगे, यदि तुम आदेश का पालन नहीं करोगे, तो हम पका करेंगे कि तुम्हें वीसा न मिलें, अपने काम के साथ और आगे बढ़ने के मौके न मिलें।’’

‘वे’ 1986 की वसंत ऋतु में निश्रित ही अपनी सामर्थ्य भर सब कुछ कर रहे थे इस का पका करने हेतु।

ब्रिटेन से उड़कर भगवान आयरलैण्ड आए, जहां, आइरिशों के भोलेपन से, शन्नन के आरामपसंद अधिकारियों द्वारा पूरे दल को तीन महीने का सामान्य पर्यटक—वीसा दिया गया। वे एक हटिल गये, गत 48 घंटों में उनका प्रथम सभ्य विश्राम। अगली सुबह पहली बात हुई कि पुलिस आई, हमारे पासपोर्ट मांगे और वीसाज़ पर ‘‘केन्सेल्ड’‘ (रद्द) की मुहर लगा दी गयी। जो भी हो, एक समस्या थी। विमान अपने गंतव्य (उस समय एंटीगुआ) के लिए उड़ नहीं सकता था, क्योंकि गैंडेर पर ईंधन लेने हेतु उतरने के लिए कनाडा ने अपनी अनुमति देनी नामंजूर कर दी थी—जो कि एक अनिवार्य स्टाप था, क्योंकि भगवान के विमान में होते हुए वह यू.एस.ए. में नहीं उतर सकता था और वह दुनिया में और कहीं तो उतर ही नहीं सकता था—ऐसा लगता था। कोई उपाय न देख, आइरिश अधिकारियों ने भगवान को वहां बने रहने दिया जबकि कनाडा के साथ समझौते की बातचीत जारी रही, बशर्ते कि वे कोई उपद्रव न खड़ा करें। कठिन!…. भगवान, जैसाकि सामान्य है, हाटेल से बाहर न गये, और न कोई मिलने वालों से मिले। किन्तु उससे कुछ मदद न मिली। कुछ ही दिन बीते थे कि प्रेस ने उनका पता लगा ही लिया—वे उनको करीबियन्स में ढूंढते रहे थे, उन शांतिपूर्ण, धूप में शराबोर द्वीप—समूहों को उन्मत्त प्रेस—वक्तव्यों के झोंकों द्वारा भावोत्तेजित करते रहे थे कि भगवान कभी उनके तटों पर न उतर सकें। अंततः प्रेस ने उन्हें निराले आइरिश नगर लिमरिक में खोज निकाला, और रातों रात ‘‘सेक्स गुरु’‘ शीर्षक स्थानीय शांत समाचारपत्रों में प्रगट हो गया। शीघ्र ही विरोधी दलों के राजनैतिक प्रेस—काकेन्सें बुलाने की छीनाझपटी में पड़ चुके थे ताकि वे सरकार से जवाब—तलब कर सकें कि इस खतरनाक व्यक्ति को देश में कैसे आने दिया गया, और स्थानीय धर्म—शिक्षक अपना—अपना बपतिस्मा छोड़ भागे अपने—अपने झुंडों को सरसरी तौर पर पुनराश्वस्त करने कि ‘‘इस नगर के अच्छे, मर्यादित ईसाइयों पर’‘ कोई आपत्ति नहीं आएगी।

इस बीच, भगवान के लिए देश कम होते जा रहे थे। कनाडा ने अब तक टस से मस न की थी। लंदन के लॉयड्स द्वारा इस बांड के बावजूद कि भगवान उनके हवाई अड्डे की तारकोल पट्टी पर पांव न रखेंगे, उनका हवाई जहाज वहां उतर न सकता था। इस देर—दार के कारण भगवान का एंटीगुआ गंतव्य हाथ से निकल गया। जब उनकी उड़ाने यूरोप के चक्कर लगा रही थीं उसी बीच मार्च 6 को, इस करीबियन द्वीप के साथ एक सौदा चुपचाप पका हो गया था उनके वहां जाने का। उस रात हीथ्रो पर पूछताछ के दौरान ब्रिटिश इमीग्रेशन अधिकारियों को इसका पता चल गया। अगली सुबह ब्रिटिश सरकार ने एंटीगुआ सहित कॉमनवेल्थ के सभी करीबियन देशों को राजनैतिक टेलेक्स यह सलाह देते हुए भेजे कि वे भगवान को वहां प्रवेश न करने दें। एंटीगुआ ने सौदा रद्द कर दिया, और मार्च 15 तथा 16 को एपी. तथा यूपी. आई. की अंतर्राष्ट्रीय तार सेवाओं से एंटीगुआ के विदेश—मंत्री एवं इमीग्रेशन ( आप्रवास) —मुख्याधिकारी के प्रेस वक्तव्य गुजरे कि भगवान को वहां उतरने न दिया जाएगा, और कि वे वहां उतर सकेंगे ऐसा अतीत में कभी कोई सवाल ही न था।

मजे की बात है कि, इसके कुछ ही पहले मार्च 13 को बरमूदा में अमरीकी वाणिज्य दूतावास के एक प्रवक्ता ने ( अमरीकी दूतावास ने क्यों? बरमूदा के अपने प्रवक्ता ने क्यों नहीं?) विश्व—प्रेस को एक वक्तव्य जारी किया कि प्रेस की इन खबरों से कि ‘‘सेक्स गुरु’‘ वहां आ सकते है, बरमूदा में हंगामा मच गया है, और कि यदि वे वहां आए तो सरकार उन्हें उतरने न देगी। भगवान के बरमूदा जाने का कभी सवाल न खड़ा हुआ था, अत: प्रश्र यह उठता है कि बरमूदा के प्रेस को ‘‘सेक्स गुरु’‘ —कहानियां किसने दीं, और क्यों? और ऐसा क्यों था कि दुनियां के इतने सारे नानाविध देश—यूरोपियन कम्प्रइनटी के देश, कॉमनवेल्थ के देश, काले देश, गोरे देश, प्रथम दुनियां के देश, तीसरी दुनियां के देश—देश जो इस सदा झगडती दुनियां में कदाचित कभी किसी बात पर सहमत होते है, वे सब के सब अचानक एकमत थे इस व्यक्ति भगवान श्री रजनीश के खिलाफ? इस स्थिति से किसी प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र की बू आनी शुरू हो रही थी, विश्वमंच के पर्दे के पीछे किसी ऐसे अदृश्य हाथ के होने की जो धागे खींच रहा था। क्या इस साम्राज्यशाही—विगत मुक्त एवं स्वतंत्र देशों के युग में ऐसी कोई बात संभव थी?

करीबियन्स पर ताले पड़ जाने से, भगवान के मित्रों की नजर हालैंड पर गयी। आखिरकार, खुले—विचार वाला और सहिष्णु होने के लिए उसकी ख्याति है। एक प्रभावशाली डच बैंकर मित्र ने मार्च के शुरू में न्याय—मंत्रालय में भगवान के वीसा के संबंध में जानकारी की थी। मार्च 14 को, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर जस्टिस ने मिनिस्ट्री की ओर से यह कहते हुए एक प्रेस—वक्तव्य जारी किया कि भगवान हालैंड में संक्षिप्त यात्रा के लिए भी आने नहीं दिये जाएंगे।

कारण यह दिया गया था कि सार्वजनिक व्यवस्था को खतरा हो सकता है क्योंकि डच टीवी. पर ‘‘खास व्यक्तियों, समूहों और संस्थाओं’‘ के संबंध में भगवान के पिछले वक्तव्यों ने कुछ लोगों को अपमानित किया है, और भगवान आए तो ‘‘नकारात्मक प्रतिक्रिया ” पैदा हो सकती है। इसके तुरंत बाद के ही एक प्रेस—इंटरब्यू में, कुछ ही सप्ताहों पहले पोप के हालैंड आगमन की योजना के खिलाफ डच जनता द्वारा एक विशाल प्रदर्शन के बारे में प्रश्र किये जाने पर, मंत्रालय के प्रवक्ता ने जल्दी से इंटरव्यू समाप्त कर दिया। पूर्व में उन्होंने कहा था कि सरकार का निर्णय अमरीका में हुए एक टीवी. इंटरव्यू पर आधारित था जिसमें, उन्होंने कहा, भगवान ने केथोलिसिज्य, पोप, मदर टेरेसा और होमोसेक्यूअत्स (समलैंगिकों) को आघात पहुंचाया था। (हालैंड कब से होमोसेक्यूअत्स से जुड़ गया?) उस ख्यातिनामा डच सहिष्णुता एवम् बोलने की स्वतंत्रता का क्या हुआ?

मानवीय अधिकारों की डच जूरिस्ट कमेटी ने उस पर आश्चर्य किया। मार्च 17 को उसने प्रेस को बताया कि सरकार का निर्णय कानूनी रूप से सही नहीं था, और कि भगवान का बहिष्कार हालैंड से तभी किया जा सकता है जब वे वास्तव में यहां कानून भंग करें। कमेटी ने कहा, यह निर्णय ‘‘मानवीय अधिकारों के खिलाफ था, बोलने की स्वतंत्रता के खिलाफ था, और धर्म की स्वतंत्रता के खिलाफ था।’’

और लोग भी चिंतित थे। डच राष्ट्रीय दैनिक ‘ट्राड’ में मिशेल स्कमिट्र ने सवाल उठाया, ‘‘सार्वजनिक व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है के आधार पर डच सरकार द्वारा भगवान श्री रजनीश को वीसा दिये जाने की अस्वीकृति का बोलने की स्वतंत्रता से क्या संबंध बनता है? ” उन्होंने ग्रीस और इंग्लैंड द्वारा भगवान के बहिष्कार का हवाला दिया, और कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि एक अति विवादास्पद किंतु जगत—प्रसिद्ध दार्शनिक के मूलभूत मानवीय अधिकारों का हनन हुआ है।’’ स्कमिट्र ने जिज्ञासा की कि क्या यूरोपियन सरकारों के कृत्य भगवान के विवादास्पद वक्तव्यों से अधिक बेतुके एवं खतरनाक नहीं हैं, और —सुकरात के मामले का हवाला दिया जिसको, उन्होंने कहा, व्यवस्था ने जहर दे दिया था यह मान कर कि वह ‘‘एथेन्स के युवकों को भ्रष्ट कर रहा था। यह बहुत संभव है, ” स्कमिट्र ने लिखा, ‘‘कि 2,००० वर्ष पुरानी सुकरात दुखान्तिकी का अप्रत्यक्ष पुनराभिनय 1986 की इस वसंत ऋतु में हो रहा हो।’’

एक और डच राष्ट्रीय दैनिक, ‘दे वोक्सक्रांत’ ने मार्च 18 के अपने संपादकीय में सरकार के निर्णय को ‘‘संदेहमय बचकानापन’‘ कहा। इसने व्याख्या की : ‘‘न्याय—मंत्रालय गुरु भगवान श्री रजनीश को वीसा देने से इनकार कर रहा है। आधिकारिक कारण यह है कि विवादास्पद संत का आगमन नीदरलैण्‍डस की शांति एवं व्यवस्था खतरे में डाल देगा। क्या हेग के सरकारी कार्यालय भगवान के समर्थकों और तमाम अन्य दल के लोगों, जो रोष में थे क्योंकि भगवान के कुछ वक्तव्यों से उन्हें गहरी चोट पहुंची थी, के बीच एक बड़ी लड़ाई के डरावने काल्पनिक दृश्यों से संत्रसित हो गये थे? क्या हम मान लें कि इतनी बेलगाम कल्पना वहां थी? यह सच है कि कुछ लोगों—जिनके पास बेतुके की समझ कम है —को हिटलर व होमोसेक्यूअल्‍स के प्रति भगवान के वक्तव्यों से थोड़ी मिचलाहट हुई होगी। औरों ने मजाक कर रहे गुरु के ईसाइयत, पोप और मदर टेरेसा पर कहे गये सख्त शब्दों से गहरी चोट महसूस की होगी। जो भी हो, उनको वीसा न देकर, हम भगवान पर प्रश्र—चिह्न नहीं लगा रहे हैं, ऐसा हम डच सहिष्णुता एवं सत्कारशीलता पर और—किसी की रायें कितनी ही बेतुकी क्यों न हों—बोलने की स्वतंत्रता पर कर रहे हैं। उसके अलावा, डच समर्थकों का एक दल उनके आगमन की बड़ी लालसा से प्रतीक्षा कर रहा है। और जब औरों के हितों के सत्वरूप पर आंच न आ रही हो, तो अल्पसंख्यकों की तीव्र अभिलाषाओं का ख्याल रखना ही होगा। भगवान को वीसा न दिये जाने के पक्ष में सबसे तर्कसंगत बात इस भय का होना है कि वे ‘युद्ध—पीडितों’ के लिए अनावश्यक पीड़ा का कारण बन सकते हैं। पर पर्यटक—वीसा देने से केवल इसलिए इनकार करना कि कोई हिटलर के बारे में कुछ कह सकता है, बहुत दूर तक चले जाना है। वीसा न देकर, सरकार अत्यधिक संकीर्ण—बुद्धि बन रही है।’

’‘दे वोक्सक्रांत’ नें सम्पादकीय का समापन यह पूछते हुए किया: ‘‘क्या यह संभव नहीं है कि और सहिष्णु हुआ जाए, विशेषत एक अल्पसंख्यक दल के प्रति जो आवेगपूर्ण भले हो किंतु निश्रित ही दंगेबाज नहीं है। सवोंपरि रूप से, बोलने की हमारी अमूल्य स्वतंत्रता के प्रति आदर की कमी चिंता का बहुत कारण उपस्थित करती है।’’

डच सरकार न हिली।

जर्मन सरकार भी उतनी ही अविनीत थी। उसने एक आपातकालीन अध्यादेश जारी किया कि भगवान को जर्मनी में न आने दिया जाए क्योंकि उनकी वहां उपस्थिति ‘‘राज्य के हितों के खिलाफ जाएगी।’’ सरकारी प्रवक्ता ने अध्यादेश को ‘‘एहतियाती कदम’‘ बताया। महान! भगवान अपनी पुस्तकों के माध्यम से जर्मनी में सुप्रसिद्ध थे, क्योंकि उनकी कोई 5० से अधिक पुस्तकें फिशर, गोल्डमन, हियने और ड्राएमरनार जैसे ख्यातिनाम प्रकाशकों द्वारा अनुदित एवं प्रकाशित की जा चुकी थीं। सितम्बर में फ्रॅकफुर्ट अपना अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक—मेला आयोजित कर चुका था, जो विश्व का सबसे बड़ा पुस्तक—मेला है। 1986 के लिए विषय था ‘भारत’, और उसके अंतर्गत प्रदर्शित पुस्तकों में एक थी भगवान की अर्द्ध—आत्मकथा का गोल्डमन द्वारा नया अनुवाद, ‘गोल्देने आगेन्बिक—पोर्त्रात ईनर जुगेन्द इन इंदियेन’ (ग्लिम्पसेजू ऑफ ए गोल्डेन चाइल्डहुड)।

विदेश—मंत्री, गेन्शर, ने मेले का उद्घाटन—भाषण देते हुए ‘‘विस्तृतमना बने रहने की आवश्यकता पर जोर दिया ताकि साहित्य में विविधा कायम रखी जा सके।’’ इस बात को देखते हुए कि मेला ” अबाधित सांस्कृतिक सम्वाद’‘ का एक सुंदर नमूना था, उन्होंने कहा ‘‘हम (जर्मन सरकार) सारी सीमाओं के ऊपर उठकर सारी दुनियां में सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक सूचनाओं का एक स्वतंत्र—बहाव निर्मित करना चाहते हैं.. .हम जर्मन अपने अतीत के अनुभव से इस बात को जानते द्र कि इसका क्या मतलब होता है जब पुस्तकें जलायी जाती हैं और लेखकों पर नृशंस अत्याचार किये जाते हैं, और हम अथक श्रम करते रहेंगे अपनी बाहरी और भीतरी, दोनों, स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए, ठीक वैसे ही जैसे हम दूसरों की स्वतंत्रता का जोरदार पक्ष लेने से कभी छूत न होंगे, स्वतंत्रता जो उन्हें मना है और जो दमित है।’’

प्रशंसनीय शब्द। दुर्भाग्य से सरकार उनका पालन करने में असमर्थ थी। सत्ताईस भारतीय (लेखक मेले में आने के लिए आमंत्रित किये गये थे, जो सभी अपेक्षाकृत रूप से जर्मनी में अज्ञात थे। भगवान का आना मना था। यह व्यंग्य पुस्तक—व्यवसाय से न छिपा रहा। पुस्तक प्रकाशकों ही पत्रिका ‘बोर्सेन्‍ल्‍बाट्ट्’ के पुस्तक—मेला अंक में सुप्रसिद्ध पत्रकार रूडोल्फ बकिन ने लिखा, ‘‘उद्घाटन—भाषण में सुंदर आदर्शों की घोषणा—क्या वे सचमुच मान्य है? यदि वैसा है, ” उन्होंने पूछा ‘‘तो जर्मन सरकार ने भगवान का आगमन रोकने हेतु पूवोंपाय क्यों किये? ” बकिन ने इस मनाही को ‘‘सारे परिपक नागरिकों तथा पी.ई.एन वी.एस, बॉर्सन्वेरीन, आदि उन संस्थाओं, जो विचारों की स्वतंत्रता, विचारों के अंतर्राष्ट्रीय विनिमय, और विविधता में विश्वास रखते हैं, के लिए एक चुनौती बताया। भगवान की पुस्तकों की उनमें निहित ‘‘बौद्धिक चमक, मनोवैज्ञानिक गहराई, ‘गैर काव्य—सौंदर्य’‘ के लिए प्रशंसा करते हुए उन्होंने पुरानी कहावत याद की— ”अच्छा लेखक वह है जो धारा के विपरीत तैरता है।’’ उसके अनुसार, उन्होंने कहा, ”भगवान श्री रजनीश को एक बहुत अच्छा लेखक होना ही चाहिए। अमरीका में उन्हें जंजीरें पहनायी गयीं और देश से बाहर निकाला गया, रूस में वे सी. आईए. के एजेण्ट माने जाते हैं और उनके पाठकों के पास के.जी.बी. पहुंचती है, क्रेटे में ईसाई बिशप ने उन्हें पत्थरों से मारे जाने की धमकी दी, और यथार्थत: (निया की सारी सरकारों ने, जिनमें हमारा सावधान जर्मनी भी शामिल है, उन्हें अपने—अपने देश में प्रवेश करने से वर्जित कर दिया है।’’

इटली, जो अपने आप को सारी दुनियां में सर्वाधिक प्रजातांत्रिक मानता है (यह कुछ उन सारी सरकारों में ही गड़बड़ है?), एक दूसरा राष्ट्र था जो इस विश्व— भ्रमण के मामले में एक शर्मनाक भाभा में सामने आया। जनवरी में विलियम राइक बायोएनजटिक इंस्टीप्यूट ऑफ रोम, मिलॅन। डू तूरिन ने सम्मेलनों की एक शृंखला के लिए भगवान को इटली आने का आमंत्रण दिया। यह भ्रमंत्रण वीसा—आवेदन के साथ इटालियन दूतावास, काठमांडू—जहां भगवान उन दिनों रह रहे थे—को भेजा गया। दूतावास, चिर—समादृत युक्ति ‘‘कागजात रोम भेजे जा रहे हैं’‘ का सहारा लेकर, झट विनम्रतापूर्वक दृश्य से बाहर गे गया। रोम ने भी, राइक इंस्टीप्यूट द्वारा और बाद में इटालियन पत्रकारों एवम् टीवी. द्वारा दबाव डाले जाने पर, वैसी ही चिर—प्रतिष्ठित टेक ‘‘मामले की छानबीन हो रही है’‘ का सहारा लिया।

मार्च में ‘राइ’ और ‘कनाले 5 ‘ इटालियन टी.वी. स्टेशनों ने (वे ही जिन्हें भगवान का साक्षात्कार लेने आने के लिए भारत सरकार ने वीसा देने से इनकार कर दिया था) भगवान को इटली आने के लिए संक्षिप्त—वीसा दिये जाने का निवेदन किया ताकि उनका साक्षात्कार लिया जा सके। इटली सरकार ने इनकार कर दिया। समय—समय पर अफवाहें थीं कि इस सब के पीछे वेटिकन के लंबे हाथ लगे हुए थे। निश्रित ही वेटिकन के पास कारण थे कि वह भगवान को अपने घर की अंगनाई में ही न पहुंच जाने देना चाहे। फरवरी के अंत में अंतर्राष्ट्रीय प्रेस भगवान द्वारा पीस में पोप को एंटी—क्राइस्ट (ईसा—विरोधी) कहे जाने का व्यापक प्रचार कर रहा था, और यह कह रहा था कि पोप और ईसाइयत एड्स की बीमारी के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने घोषणा की है कि ‘‘समलैंगिकता (होमोसेक्यूअलिटी) का जन्म मानेस्ट्रीज में हुआ था।’’

इस अफवाह की कि वेटिकन ने भगवान पर कोई भी समाचार, सकारात्मक अथवा नकारात्मक, दिये जाने पर पाबंदी लगा दी है और भी पुष्टि तब हुई जब मार्च में दो प्रमुख समाचार पत्रों ‘रिपप्लिका ‘ और ‘कूरियारे देल्ला सेरा’ ने अचानक भगवान के विश्व—भ्रमण का वृत्तान्त देना बंद कर दिया, जो कि उस समय प्रमुख समाचार बना हुआ था। बाद में उन समाचारपत्रों ने वह दत्तशुल्क—विज्ञापन भी छापने से इनकार कर दिया जिसमें इटली के बुद्धिजीवियों द्वारा भगवान के लिए एक याचिका थी। उस याचिका का जन्म अगस्त में हुआ, जब यह पता चला कि भगवान का वीसा—आवेदन अभी भी ‘‘विचाराधीन’‘ ही था। सैकडों ने इस पर हस्ताक्षर किये, जिनमें फिल्मकार फेलीनी और बटोंलूसी, लेखक, गायक, कलाकार, संगीतज्ञ, शिक्षाविद, वैज्ञानिक, मनस्विकित्सक यहां तक कि राजनयिक भी थे। जैसा कि प्रतिष्ठित मैगजीन ‘‘ल’ इल्‍लूस्ट्रेजाने इतालियाना’‘ ने सितम्बर 1986 में छापा, ‘‘यह एक बड़ा वास्तविक और बहुत गर्म विषय बन गया है। ( भगवान श्री रजनीश) को, और केवल उन्हीं को, हमारे देश ने वीसा देने से इनकार किया है, जो कि हम बहुत भलीभांति जानते है कि सब प्रकार के आतंकवादियों को दिया गया है। विदेश मंत्रालय कोई कारण नहीं बताता, सिर्फ यह कहकर कि मामला विचाराधीन है। यह बहिष्कार क्यों? ”पूछा पत्रिका ने. यह जोड़ते हुए, ‘‘यह सच है कि रजनीश सभी राजनीतिकों एवं धर्मों की सार्वजनिक रूप से आलोचना, जो ‘पोलिश एंटी—पोप करोल वाज्टिला’ के रोमन केथॅलिक चर्च से शुरू होती है, के कारण एक असुखद व्यक्ति हैं। पर क्या उन विचारों को बोलना पर्याप्त कारण है हमारे देश में आने के उनके अधिकार से उनको अभिवचित करने का, जो कि सहिष्णुता पर आधारित सभ्य कानून का अपमान है? राजनयिकों, कलाकारों एवं पत्रकारों का एक समूह ऐसा नहीं सोचता, और उन्होंने एक विरोध—पत्र पर हस्ताक्षर किये है जिसमें यह पत्रिका भी सम्मिलित होती है।’’

याचिका में कहा गया था कि हस्ताक्षरकर्ताओं को ‘‘तर्कसंगत संदेह है कि रजनीश को वीसा न दिये जाने के लिए गहन दबाव डाले गये हैं।’’ आगे कहा गया था, ‘‘हम एक ऐसे देश में रहते है जहां बोलने की स्वतंत्रता एक भारी संघर्ष की कीमत चुका कर प्राप्त की गयी है, और हमारी। मन्यता है कि यह स्वतंत्रता पवित्र एवं अनुल्लंघनीय है। हमारी मांग है कि यह स्वतंत्रता रजनीश को भी उसी प्रकार मिलनी चाहिए जैसे प्रत्येक अन्य व्यक्ति को.. हम आश्वस्त हैं कि इटालियन संस्कृति, धर्मनिरपेक्ष एवं केथॅलिक, दोनों, को दुनियां में किसी भी व्यक्ति से विचारों का मुकाबला करने से भयभीत होने की जरूरत नहीं है चाहे वह कोई श्रद्धाहीन उत्तेजनाकार हो अथवा एक महान आध्यात्मिक प्रवर्तक— अथवा दोनों।’’

इटालियन पत्रिका ‘एपोका’ ने भी अपने 18 जुलाई के अंक में यह पूछते हुए मसले को उठाया कि क्यों इटालियन अधिकारी अभी तक भगवान को वीसा देना नामंजूर कर रहे थे ‘‘जबकि हम सभी जानते है कि बन्दूकों, बमों और घृणा से लैस विभिन्न देशों के आतंकवादी हमारी सीमाओं के भीतर आए हैं। किंतु वे नहीं, ”पत्रिका ने जारी रखा, ‘वे हमारी सीमा पार नहीं कर सकते—क्योंकि। भगवान श्री रजनीश है, 54 वर्षीय, सारी दुनियां में फैले 5००,००० संन्यासियों के प्रमुख। वे पांच महीने पूर्व, डब्‍ल्‍यू राइक इनस्‍टीटूप्यूट के अध्यक्ष, गीदो तासीनारी द्वारा सम्मेलनों की एक श्रंखला में आने के लिए आमंत्रित किये गये थे, किंतु अब तक उन्हें वीसा देने से इन्कार किया गया है। सरकारी सत्ताधीश इस मामले पर अव्याख्य रूप से मौन साधे हुए हैं। ‘एपोका’ विदेश मंत्री से जवाब प्राप्त करने की कोशिश कर चुकी है, किंतु निरर्थक। ‘समस्या हमारे निरीक्षणाधीन है, ‘एक अधिकारी ने हमें बताया, ‘किन्तु यह आवेदनकर्ता के व्यक्तित्व के कारण ज्यादा समय लेगी। और चूंकि आवेदन निरीक्षणाधीन है, हम इससे ज्यादा कोई जानकारी आपको नहीं दे सकते। ‘ हमें संदेह है, ‘‘‘थोक, ‘ ने कहा, ‘‘कि प्रत्येक भारतीय नागरिक को जो इटली आना चाहता हो छ: महीने इंतजार करना पड़ेगा। जैसा भी हो, हम अब एक आधिकारिक प्रश्र विदेशमंत्री गिलिओ अन्द्रेओती को संबोधित करते है: भगवान एक बुद्धिमान व्यक्ति हों, अथवा। एक उत्तेजनाकार, किंतु वह बिना सेना के और बिना घृणा के आ रहे है। वे ऐसी बातें कह सकते है जो अच्छी न लगें, किंतु हम अपना बेहतर परिचय दे रहे होंगे उन्हें इटली आने देने में। और नींद नहीं, तो क्यों नहीं?”

अन्द्रेओती ने उत्तर नहीं दिया। लगता था इटालियन सरकार ने उस पूज्य परम्परा के पीछे शरण ले ली थी कि ‘जांच’ को तब तक लंबाते जाओ जब तक कि मामले में किसी का कोई भी रस बाकी हो, और तब उसे चुपचाप ( और आशापूर्वक) विलीन हो जाने दो।

दुनियां के सारे प्रजातंत्रों के मक्सियों की तरह (एक के बाद एक) गिरते जाने से, भगवान के लिए समय चुकता जा रहा था, जो कि अभी भी आयरलैण्ड में एक छिद्र में बंद हो गये थे। आइरिश सरकार बेचैन हो रही थी—पुलिस भगवान के हाटिल पर नित्य आने लगी, इस सख्त चेतिावनी सहित कि आई. आर.ए. से बम की धमकी है, और कि भगवान कब जा रहे थे। उस

कहावती ऐन मौके पर एक नायक पैदा हो गया। उरुग्‍वे, जो अभी हाल ही उन दक्षिण अमरीकी तानाशाहियों में से एक से छूटा था, दुनियां के सामने अपनी नवीन स्वतंत्रता एवम अनुभवहीन जनतंत्र का प्रदर्शन करने के लिए बेकरार था। भगवान ( और उनके साथ जो करोड़ों डालर जुड़े होते हैं) का स्वागत होगा : ‘‘हमारा देश किसी के प्रति भेदभाव नहीं करता—हमारे यहां माफिया डाकू, नाजी शरणार्थी और दक्षिण अमेरिका की तकरीबन हर तख्ता पलट गयी सरकार के प्रमुख हैं। और निशित ही बोलने और धर्म की सम्पूर्ण स्वतंत्रता।’’ जय—जयकार!

तीन माह के वीसा और भरजेब वायदों के साथ भगवान उरुग्‍वे के लिए रवाना हुए। उनके विमान—चालकों ने, जो उनके साथ गत 1० दिनों से आयरलैण्ड में असहाय छोड़ दिये गये थे, सामान्य विमान—चालन—सीमा से अधिक उड़ने की विशेष अनुमति प्राप्त कर ली थी (कनाडा अभी भी अपनी जमीन पर उनके उतरने से भयभीत था), और दक्षिण अमरीका के लिए विमान का मार्ग बदल लिया—डक्‍कार, सेनेगल होकर।

भगवान 19 मार्च को उरुग्वे पहुंचे। ठीक उसी रात अमरीकी राजदूत उरुग्वे के विदेश—मंत्री से मिलने माटवीडियो में उनके घर गया। संयोग? (यह मुलाकात पूर्वानियोजित न थी)। मंत्री, इंग्लाइसिस, के बारे में कहा जाता था कि उन की नजर यूनाइटेड नेशन्स के सेक्रेटरी—जनरल पद पर है, और उसे जीतने के लिए उन्हें अमरीकी मदद की जरूरत थी। आश्रर्य! —एक आकस्मिक रंग—बदलाहट में, इंग्लाइसिस ने, जिन्होंने भगवान का पर्यटक—वीसा मंजूर किया था, इसके बाद की सरकारी बैठकों में भगवान की उरु—खे में उपस्थिति का कड़ा विरोध किया, केवल आखिर में पीछे हटने लगे जब उन्हें दिखा कि वे स्व—अकेले के अल्पमत में हैं।

उसी बीच भगवान के मित्रगण नवोदित जनतंत्र के वायदों का वापस स्मरण दिलाना प्रारंभ कर दिये। भगवान को एक वर्ष का अस्थायी आवास—पत्र दिया गया, इस बीच उपयोग के लिए जब तक कि उनका स्थायी—आवास का आवेदन—पत्र अनिर्णीत था। सभी राजनैतिक पार्टियों के नेताओं से भेंट की गयी और सबने भगवान के आवेदन—पत्र को समर्थन दिया। (लड़खड़ाती अर्थ—व्यवस्था और विदेशी—मुद्रा की सामान्य दक्षिण अमरीकी आवश्यकता के रहते उन हजारों पर्यटकों का आकर्षण, जो उरु—खे में भगवान से मिलने आएंगे, भारी था)।

तथापि, शीघ्र ही भगवान के मित्रों ने एक अनोखा ढांचा उभरते देखा। अपना समर्थन प्रगट करने के एक सप्ताह के भीतर ही अधिकांश राजनैतिक व्यग्र हुए और आशंकाएं पालने लगे उन ‘सूचनाओं’ का हवाला देते हुए जो उन्हें मिली थीं। और अचानक अंततः वहां, उरुग्वे में, भगवान के विरुद्ध समूचे अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र का पर्दाफाश हुआ। यह एक सच्चा मैक्यावेलियन षड्यंत्र था, सीधा एवं साफ, और विध्वंसक रूप से कारगर। विध्वंसक, क्योंकि राजनयिक रपट के छद्यवेष में व्यंग्य और आयोजित झूठ का उपयोग करते हुए—स्व व्यूह—रचना जो कि राजनयिक असूचनाओं का प्रसारण नाम से जानी जाती है—इसकी रचना गुप्त रूप से काम करने के लिए की गयी थी, जहां चुनौती की कोई संभावना नहीं।

भगवान के मित्रगण दूसरे देशों में सरकारी अधिकारियों द्वारा उन काले एवं दुष्ट तथ्यों का इशारा पा चुके थे, जो भगवान को अस्वीकृत करने के कारण के रूप में उभारे गये थे। इंटरपोल (इंटरनेशनल पोलिस) की फुसफुसाहटें और अफवाहें—चोरी—छिपे बंदूकें आयातित करने के आरोप, ड्रग—व्यापार एवं वेश्यावृत्ति—वे बातें जो कोई भी सरकार एक संभाव्य आवासी के संबंध में सुनना चाहेगी। किंतु वे कभी भी इस योग्य नहीं हुए कि किसी खास आरोप पर मेख बांध सकें ताकि उसका खण्‍डन किया जा सके। ये सब केवल सरकारों से—सरकारों के—बीच ‘परम गोपनीय’ सूचनाएं थीं। बहरहाल, उरुग्वे में भगवान के मित्रों के पास शीर्षस्थ सहायक थे। और वहां उन्होंने उस सारी कार्य—प्रणाली का चिट्ठा खोल लिया जो कारण थीं भगवान के बहिष्कार का, और जो एक—से—दूसरे देश में उनका पीछा करती रही थीं। यह सीधा—साफ था। राजनयिक सूचनाओं के टेलेक्स कई देशों से आते (सभी, संयोगवश, नाटो के सदस्य) जिनमें वीभत्स विवरण होते अपराधों और अन्य कापुरुष कृत्यों के जो तथाकथित रूप से भगवान और उनके अनुयायियों द्वारा किये गये, और साथ में सख्त चेतावनी होती उन घोर आपदाओं के प्रति जो उस देश को घेर लेंगी जिसने भगवान को अपने यहां प्रवेश दिया। इनमें से कुछ टेलेक्सों की प्रतियां, जो सरकारी निर्णयों के लिए आधार बनती थीं, भगवान के मित्रगणों को दी गयीं। वे हक्का—बक्का रह गये—विवरणों में कुछ नहीं था सिवाय निकृष्टतम पीत—पत्रकारिता द्वारा वर्षों—वर्षों के दौरान गढ़ी गयी अतिशय निर्लज्जरूपेण निन्दाअक कल्पनाओं की पुनरावृत्ति। और टेलेक्सों के साथ—साथ पहुंचती थीं अन्य बुराइयों की गोपनीय राजदूतीय कनफुसकिया (कनफुसकी, ताजुब नहीं, क्योंकि सूचना इतनी पेटेन्ट रूप से गढ़ी गयी होती थी कि उसे कागज पर नहीं आबद्ध किया जा सकता था, ‘परम गोपनीय’ कागज पर भी नहीं)।

कोई भी सूचनाएं सच न थीं। पर उनमें छिपा कपटपूर्ण मनोविज्ञान अपना काम करता था। कोई भी सत्तासीन राजनेता जो अंतिम बात चाहेगा वह है: संभाव्य बदनामी। भगवान के आवेदन हाथोंहाथ अस्वीकृत कर दिये जाते थे, बिना किसी खंडन का मौका दिये।

उरुग्वे आने तक। वहां समय और सरकार पहली बार उनके साथ लगते थे। अथक परिश्रम करके, भगवान के मित्रों ने (उन्हें और कहीं जाने को तो था नहीं) भगवान के खिलाफ लगाये गये समस्त आरोपों को एक जगह एकत्र किया, और फिर एक—एक करके उनकी असत्यता स्थापित की। सारहीन अफवाहों को कठोर ठोस तथ्यों का सामना करना पड़ा, कहानियां—किस्से अपने संदर्भ में रख दिये गये, और एक समूचा नया परिप्रेक्ष्य सामने आया। इन खबरों का कि इंटरपोल (इंटरनेशनल पोलिस) के पास कुछ प्रमाण थे, पीछा किया गया। जब उरुग्वे सरकार ने जांच की, तो यह स्वीकार किया गया कि असलियत में इंटरपोल के पास भगवान अथवा उनके साथियों के विरुद्ध कुछ भी न था।

‘तथ्यगत’ राजनयिक सूचना विवरणों के अप्रतिष्ठित हो जाने से, भगवान के खिलाफ व्यूह—रचना बदल दी गयी। अमरीकी राजदूत ने उरुग्वे सरकार को कहा, ” भगवान एक अतिशय बुद्धिमान व्यक्ति हैं। वे एक खतरनाक व्यक्ति भी हैं क्योंकि वे दूसरे लोगों के विचार बदल सकते है। वे एक अराजकतावादी हैं, और देश का सारा सामाजिक ढांचा विनष्ट कर देंगे।’’

उरुग्वे सरकार के विचार विपरीत थे। सारी स्थिति को समझते हुए, अब वे राजी थे कि कोई कारण न था कि भगवान को उनके देश में स्थायी आवास क्यों न दिया जाए। इस आशय का स्वीकारात्मक निर्णय मई 14. 1986 के अपराहून में किया गया. और अगले दिन दुनिया को समाचार से अवगत कराने के लिए एक सरकारी प्रेस—वक्तव्य तैयार किया गया। किसी ने (इंग्लाइसिस?) अमरीकियों को बता दिया। उस रात उरुग्वे के राष्ट्रपति, सेंगुनेट्टि, को वाशिंग्टन. डीसी. से एक टेलीफोन आया यह कहते हुए कि यदि भगवान उरुग्वे में रहे, तो छ: अरब डालर का अमरीकी ऋण वापस कर लिया जाएगा, और भविष्य में कोई ऋण न दिये जाएंगे।

अंततः षड्यंत्र के पीछे लगी शक्ति को अलमारी से बाहर निकलने को मजबूर कर दिया गया था— अमरीका। इसकी राजनयिक असूचना योजना का असाफल्य और अब वह वयस्क बड़े भाई के निपट दबंगपने पर उतर आया था, ठीक वैसे ही जैसा उसने अपनी गैरकानूनी कॉन्ट्रा गतिविधियों के लिए कई मध्य अमरीकी सरकारों से समर्थन प्राप्त करने हेतु किया था। उरुग्वे असहाय था। परेशान, मात खाया हुआ, और बुरी तरह शर्मिन्दा—अपनी स्वतंत्रता के खोखलेपन को उजागर पाकर। तथापि उरुग्वे के पास कोई चारा न था सिवाय घुटने टेक देनेके।

अमरीका ने पेंच पूरी तरह कसा। उसने जितनी जल्दी हो सके भगवान को उरुग्‍वे से बाहर चाहा। उनके मूल तीन महीने के वीसा में अभी भी कुछ सप्ताह शेष थे पूरे होने को, लेकिन एक वर्ष का अस्थायी अनुमतिपत्र तब तक वैध था जब तक उनके स्थायी—आवास के आवेदन पर उन्हें कोई लिखित निर्णय न दिया जाता। उरुग्वे सरकार एक भद्दी स्थिति में थी। आवेदन पर हां कहने (के नतीजों) को वह वहन न कर सकती थी ( अक्षरश:) और वह न भी नहीं कह सकती थी— अस्वीकृति के लिए कोई वैधानिक भूमि न थी, वैसा करना देश के मानवीय अधिकारों के सिद्धान्त और उसके जनतंत्र के अड़े के प्रतिकूल जाता था। इस सबके बजाय उसने दक्षिण अमरीकी तानाशाहियों के अननुकरणीय लहजे में, जो उनकी ही खासियत है, बिलकुल स्पष्ट कर दिया कि भगवान को वीसा अवधि के समाप्त होते ही अपने आवेदन पर किसी निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना चले जाना चाहिए। भगवान के घर के चारों ओर चौबीसों घंटे पुलिस की निगरानी लगा दी गयी, और एक गढ़ पत्र ने उनको शुइलस कमिश्रर से एक ऐसी तिथि पर ‘मिलने’ को आमंत्रित किया जो उनका वीसा समाप्त होने के अगले दिन पड़ती थी। सेंगुनेट्टि लापता हुए—वाशिंग्टन को, रीगन से मिलने को। जिस दिन तीन महीने पूरे हुए, वाशिंग्टन से गृह—मंत्रालय को हर घंटे पर टेलीफोन आता रहा, यह पूछते हुए कि क्या भगवान जा चुके। वे उस शाम निकले, पुलिस कारों

के रक्ष—दल के बीच। एक विस्फोटक ज्वलन शील पदार्थ और चिगारी वातावरण में, और पुलिस के धेरे में, उनका एक वर्षीय आवास पत्र अवैधानिक रूप से जब्‍त कर लिया गया और वे अपने प्रतीक्षारत जेट की ओर झुंडिया लिये गये। उरुग्वे के मित्रों ने, जो अंतिम क्षण तक अपने देश के न्‍याय और निष्पक्षता पर उत्कट विश्वास रखे हुए थे, आंखों में आंसू और हृदयों में मोह—भंग के साथ विदा के लिए होथ हिलाए। उनके चेहरों के भौचक्के अविश्वास ने सब कुछ कह दिया। 19 जून को, भगवान के निकलने के एक दिन बाद, सेंगुनेट्टि और रीगन ने उरुग्वे को दिये गये डेढ़ अरब डालर के नये ऋण की घोषणा वाशिंग्टन से की।

उरुग्वे के न्याय—विभाग के आप्रवास—अधिकारी, जो भगवान के आवेदन पर काम कर रहे थे, अपनी सरकार के इस गैरकानूनी कृत्यों से चौक उठे थे। उन्होंने उनकी ( भगवान की) फाइल में,रिकार्ड के लिए, एक लिखित टिप्पणी जोडी, ‘‘कि उच्च आदेश कि भगवान देश छोड्कर चले जाएं जबानी था, उसके पालन के लिए बिना कोई कारण दिये; कि क्योंकि भगवान का आवेदन अभी भी प्रक्रिया में है, यह आदेश कहनी कार्य—विधि के अनुकूल नहीं है, और मनमाना है, असाधारण त्वरित, भेदभाव—पूर्ण एवं बगैर कारण बताया हुआ है; और कि यह आदेश ‘स्‍थायी—आवास के लिए आवेदन किये हुए एक विदेशी के लिए स्थापित संवैधानिक अधिकारों के विपरीत जाता है।’’ किसी भविष्य की जांच—पड़ताल में यह दस्तावेज इसके लेखकों की खाल बचा सकता है। यह भगवान के काम नहीं आया।

उरुग्वे से उड़कर भगवान जमाइका आए, जहां उन्हें दस दिन का वीसा मिला। उनके उतरने के कुछ ही मिनटों बाद, अमरीकी एअर फोर्स का एक जेट आया और उसमें से दो असैनिक ( सिविलियन) बाहर आए, जिनमें से एक के पास कागजात की एक मिसिल थी। यह 19 जून। 986 का अपराहन था। 2० जून की सुबह पहली बात, सशस्त्र पुलिस (हां, फिर से) उनके घर ‘ आ पहुंची, भगवान और उनके दल के पासपोर्ट मांगे. उनके वीसाओं पर ‘‘केन्सेल्ड’‘ (रद्द) गि मुहर लगायी, और पूरे दल को ठीक उसी दिन देश छोड़ देने का आदेश दे दिया। केवल कारण जो बताया गया वह था, ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए।’’ भगवान के मेजबान ने, जो प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षामंत्री, दोनों के व्यक्तिगत मित्र थे, सारा दिन उनसे संपर्क करने की कोशिश में बिताया। व्यर्थ। उस दिन संपूर्ण सरकार ” अनुपलब्ध’‘हो गयी थी।

अगले दिन स्तंभकार मोरिस कार्गहिल ने मामले का अर्थ ( अथवा अनर्थ) पक्कने की कोशिश करते हुए किंग्सटन के समाचार पत्र में लिखा. ‘‘ऐसा आभास होता है कि गुरु विशेष जिन्हें जमाइका से निकल जाने को कहा गया, वे इस आधार पर अवांछित थे कि वे ‘फ्री सेक्स’ ( मुक्त—यौन) का अनुमोदन करते है। मैंने सोचा होता कि फ्री सेक्स की वकालत करने किसी। व्‍यक्ति के जमाइका आने का मतलब होता कि वह न्यू केशत्स को कोयले भेज रहा था। सो नया क्‍या है? मैं बहुत सारी पत्रिकाओं के पिछले अंकों के जरीए इस गुरु के क्रिया—कलापों पर ध्यान दे रहा था और मैं कोई भी विश्वासोत्‍पादक खास कारण नहीं पाता कि क्यों इतने सारे देश उनके खिलाफ इतनी आक्रामक आपत्ति करें, सिवाय इसके कि शायद आयकर—अपवंचन कारण हो.. असली कारण, मुझे लगता है, उन्हें निकाल भगाने का यह है कि वे लोग जो ऐसे कम्‍यूनों की स्थापना करते हैं जिनके सामाजिक नियम उस देश के नियमों से बहुत हट कर होते है जिसमें कि कम्‍यून स्थित है, वास्तव में चुनौती बन जाते हैं, और संभवत: दुर्बल बना रहे होते हैं, देश के सामाजिक सामंजस्य को। यही कारण है कि ‘जेहोवा’ज विटनेसेज’ और कभी—कभी ‘फ्रीमेसंस’ को बहुत से देशों में इतनी अस्वीकृति (और कभी—कभी नृशंस अत्याचारों) का सामना करना पड़ा है। उन पर संदेह किया जाता है कि वे उन चीजों तक पहुंच रहे हैं जिनको बाकी के हम सब जानते भी नहीं।

किन्तु जमाइका में ‘फ्रीमेसन्स’ का बड़ा सम्मान है, वैसा ही ‘जेहोवा’ज विटनेसेज’ का है, यद्यपि मुझे स्थूल कर लेना चाहिए कि इनमें से द्वितीय के अनुयायियों की मेरे हाथ में उनकी अभागी छोटी पुस्तिकाएं पक्का देने के लिए अनुपयुक्त समयों पर मेरे पास आ धमकने की आदत से मेरे निकृष्टतम रूप प्रगट होते है। यह जमाइका की शानदार सहिष्णुता के बारे में बहुत कुछ कहता है।’’ अथवा संभवत: उस दबाव के बारे में जो इस नन्हे से द्वीप पर डाला गया। कार्गहिल को अमरीकी एअरफोर्स के जेट के आगमन का कुछ पता नहीं था। भगवान के मित्रों को था, और उनको अनुमान भी था कि यह मात्र एक संयोग से ज्यादा कुछ था।

जमाइका से भगवान पुर्तगाल के लिए उड़े। यह एक अप्रत्याशित कदम था—उस देश से पहले से कोई वार्ता नहीं की गयी थी। और एक सौभाग्यपूर्ण संयोग से उनका विमान पहले मेड्रिड उतरा, जो कि उडान—योजना में भूल से विमान के अंतिम गंतव्य के रूप में दर्ज हुआ था। मेड्रिड में भूल जल्द ही सुधार ली गयी, और विमान लिस्वॅन के लिए ऊ चला, किंतु कोई भगवान का पता लगाने की कोशिश कर रहा होता तो अस्थायी रूप से चक्कर में पड़ जाता। एक और सौभाग्यपूर्ण संयोग से लिस्वॅन में भगवान के नाम के विरुद्ध कोई कम्प्यूटर वर्गीकरण नहीं था, और वे चुपचाप देश में बाहर निकल आए एक सामान्य पर्यटक—वीसा पर, और ऐसा लगा कि बिना पहचाने गये। तथापि, कुछ हफ़ों के भीतर पुलिस आ धमकी उस मकान पर जहां वे ठहरे हुए थे—एक मकान जिसमें से, संयोगवश, वे कभी बाहर न गये थे। जल्दी ही पुलिस ने चौबीसों घंटे की निगरानी जारी कर दी, और मकान मालिक और मकान की देखरेख करने वालों को अच्छी तरह डरा देने में सफलता प्राप्त की।

अवश्यंभावी से बचने के लिए, भगवान ने चले जाने का निर्णय लिया। शेष सारी दुनियां उनके लिए बंद हो जाने के कारण, उनके पास कहीं जाने को था नहीं सिवाय भारत वापस लौट आने के—और उनको अकेले जाना था। पश्‍चात्‍य मित्र जो पिछले लगातार आठ से पंद्रह वर्षों तक से उनकी देखभाल करते आ रहे थे, उन्हें इनके साथ आने के लिए भारत सरकार ने वीसा देने से अस्वीकार कर दिया था।

यह लिखे जाने के समय भगवान बम्बई में बैठे हैं, सारी दुनियां से अपने शिष्यों के पत्र पढ़ते हुए, इन वर्णनों के साथ कि उन्हें भगवान से मिलने आने के लिए वीसा देना नामंजूर कर दिया गया है। कुछ जिन्होंने वीसा प्राप्त कर लिये थे, बम्बई हवाई अड्डे पर से वापस लौटा दिये गये। एक मशहूर जर्मन डाक्टर बम्बई पहुंचने पर घंटों पूछताछ में रखे गये, अगले अन्य 24 घंटे एक वायुरहित कोठरी में बिना अन्न—जल के और बिना अपने दूतावास को फोन कर सकने का मौका दिये रखे गये, और फिर वापस जर्मनी के लिए एक विमान पर चढ़ा दिये गये।’’तुम भगवान श्री रजनीश के शिष्य हो, ” उन्हें सूचित किया गया. ” और हम तुम्हें इस देश में नहीं चाहते।’’ कनाडा के एक शरीर—चिकित्सक ने. जो हवाई अड्डे से वापस लौटा दिये गये, अपना नाम आप्रवास—कम्प्यूटर टर्मिनल में देखा जिसके साथ के शब्द थे— ” आचार्य रजनीश का एक शिष्य होने की सूचना, प्रवेश की अनुमति मत दें।’’

आगे क्या होता है देखने को बाकी है। किंतु यह निश्रित ही व्यंग्यपूर्ण है कि एक दुनियां में जहां क्रूर अत्याचारी, आतंकवादी, तानाशाह, जासूस, हत्यारे, डाकू, युद्ध— अपराधी, अंतर्राष्ट्रीय जालसाज, दिवालिए बैंकर और हर किस्म के पथभ्रष्ट लोग कहीं—न—कहीं शरण—स्थल पाने में सफल हो जाते हैं, जहां वे अपना जीवन फिर से शुरू कर सकें, अथवा पुराने मार्ग पर चलते रहें, ऐसी दुनिया में भगवान श्री रजनीश को यह अधिकार भी नहीं कि वे अपने शिष्यों को शिक्षा दे सकें।

उतनी ही व्यंग्यपूर्ण, और दुष्ट, है अमरीका की भूइमका जो उसने इस पूरे मामले में निभायी। वह देश जो कि मार्कोस, ‘‘बेबी डॉक ” डुवलियर, जनरल थिऊ, सेमोसा, लॉन नॉल, बतिस्ता, रट्रॉस्सनेर और पिनोट जैसे कुख्यात खलनायकों को नैतिक सहयोग प्रदान करता है, और कुछ मामलों में तो घर भी. वह इतनी शक्ति खर्च करे, और इतने सारे देशों को चालबाजी से प्रभावित करने में सफल हो सके, यह पका करने हेतु कि भगवान ‘‘फिर कभी दिखायी या सुनायी न पड़े ”सचमुच भयप्रद है। यह उलझन में डालनेवाला भी है।

भगवान क्योंकि बोलने के सिवाय कुछ नहीं करते, इस उलझन का उत्तर, और इस पुस्तक के प्रारंभ में पूछे गये प्रश्र का उत्तर, स्पष्टत: उनके कथनों में ही होना चाहिए। और उस उत्तर को खोज लेना बहुत कठिन भी नहीं है। भगवान ने वर्तमान मनुष्यजाति और विश्व को घेरे समस्याओं के कुछ समर्थ हल निरंतर एवं जोर—जोर से सुझाए हैं। वे हल निहित स्वार्थों के लिए बहुत सुस्वादु नहीं हैं—वास्तव में वे आमना—सामना करा देते है, अहिंसात्मक तरीकों से, समस्त वर्तमान शक्ति— आधारों—संगठित धर्मों राजनैतिक प्रणालियों, सरकारों, यहां तक कि राष्ट्रों—के सम्पूर्ण अंत का, और एक पूर्णतया अभिनव व्यवस्था के सृजन का।

पूना, भारत में ये विचार विश्व—स्तर पर सीमित श्रोताओं के समक्ष कहे जा रहे थे, और भगवान के अमरीका— आवास के शुरू के चार वर्षों में—जब कि वे मौन में थे—कहे न गये थे। लेकिन जुलाई 1985 में, उनकी गिरफ़ातारी और देश—निष्काषन (एक और संयोग?) के कुछ ही महीने पूर्व, भगवान ने पुन: सार्वजनिक रूप से बोलना शुरू कर दिया था। प्रमुखकालीन अमरीकी टीवी. पर उन्होंने अमरीकी सरकार को फटकारे लगायीं, विशिष्ट दृढ़प्रतिज्ञ शब्दों में उसके झूठे प्रजातंत्र की, संविधान के साथ वेश्यागीरी की, और उसकी पाखण्‍डी ईसाइयत की भर्त्सनाएं करते हुए। उनके खरे वक्तव्यों की खबर समाचार—माध्यमों द्वारा उत्कंठापूर्वक सारे अमरीका भर में, और स्विट्जरलैष्ठ, जर्मनी, हालैण्ड, इटली, इंग्लैण्ड और आस्ट्रेलिया में की गयी। उनका लक्ष्य अमरीका सरकार तक ही सीमित नहीं था। वे दुनियां की हर संगठित संस्था पर निठुर रूप से टूट पड़े थे—चाहे वह पूंजीवादी हो, साम्यवादी हो, केथॅलिक हो, समाजवादी हो, फासिस्ट हो…. और सारे के सारे। और उन्होंने क्रांतिकारी एवम् आत्यंतिक विकल्प प्रस्तावित किये। जैसाकि टॉम राबिन्स ने बाद में कहा, ‘‘एक व्यक्ति जिसके पास वे सब किस्म के विचार है, जो न केवल उत्तेजक है, जिनमें सत्य की अनुगूंज है जो नियंत्रण की सनकवालों को इतना भयभीत करती है कि उनके नाड़े खुल जाते है।’’

संभवत: फिर यह उतना आश्रर्यजनक नहीं था कि ये वे ही संस्थाएं थीं, जो सारे भेद—भाव भुलाकर भगवान के खिलाफ एकजुट हो गयी थीं, जिनकी उन्होंने भर्त्सनाएं की थीं—अमरीकी सरकार, के.जी.बी., वेटिकन, और सारी दुनिया की विभिन्न राजनैतिक धारणाओं की सरकारें। यदि उनके विचार हास्यास्पद थे, तो सब ने क्यों नहीं उनकी सिर्फ उपेक्षा कर दी? यदि वे बस गलत थे, तो आसान होता कि उनका खण्डन किया जाता। किंतु उनके विचारों के प्रति किसी चुनौती का आत्यंतिक अभाव, और उन्हें दुनिया से अलग— थलग कर देने और उस प्रकार उन्हें चुप कर देने के विश्वव्यापी षड्यंत्र की बहुत ठोस उपस्थिति, उस अति साफ प्रश्र को उकसाती है:

क्यों यह व्यक्ति इतना खतरनाक माना जाता है? क्या संभवत: इसलिए कि ये जो कह रहे है वह शायद सही है?

 


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–5)

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मंदिर के आंतरिक अर्थ—(प्रवचन—पांचवां)

”मैं कहता आंखन देखी’’ :

अंतरंग भेंट वार्ता बुडलैड़,

बम्बई दिनांक 12 मार्च 1971

मंदिर तीर्थ तिलक—टीके मूर्ति—पूजा माला मंत्र—तंत्र शाख—पुराण हवन—यज्ञ अनुष्ठान श्राद्ध ग्रह— नक्षत्र ज्योतिष—गणना शकुन—अपशकुन इनका कभी अर्थ थर पर अब व्यर्थ हो गए हैं। इन्हें समझाने की कृपा करें और बताएं कि क्या ये साधना के बाह्य उपकरण थे? रिमेम्बरिग या स्मरण की मात्र बाह्य व्यवस्था थी जो समय की तीव्र गति के साथ पूरी की पूरी उखड़ गयी? अथवा भीतर से भी इसके कुछ अत्तर संबंध थे? क्या समय इन्हें पुन: लेने को राजी होगा?

जैसे हाथ में चाबी हो और उस चाबी को हम कैसे भी सीधा जानने का उपाय करें, या चाबी से ही समझना चाहें, तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता उस चाबी की खोज—बीन से, कि कोई बड़ा खजाना उसके हाथ लग सकता है। चाबी में ऐसी कोई भी सूचना नहीं है जिससे छिपे हुए खजाने का पता लगे। चाबी अपने में बिलकुल बन्द है। चाबी को हम तोड़े—फोड़े, या काटें, तो भले ही लोहा हाथ लगे, या और धातुएं हाथ लग जाएं पर उस खजाने की कोई खबर हाथ न लगेगी, जो चाबी से मिल सकता है। और जब भी कोई चाबी ऐसी हो जाती है जीवन में, कि जिससे खजानों का हमें पता नहीं लगता है, तब सिवाय बोझ ढोने के हम और कुछ भी नहीं ढोते।

और जिन्दगी में ऐसी बहुत सी चाबियां हैं जो किन्हीं खजानों का द्वार खोलती हैं— आज भी खोल सकती है। पर न हमें खजानों का कोई पता है, न उन तालों का हमें कोई पता है जो हमसे खुलेंगे। जब तालों का भी पता नहीं होता और खजानों का भी पता नहीं होता, तो स्वभावत: हमारे हाथ में जो रह जाता है उसको हम चाबी भी नहीं कह सकते! वह चाबी तभी है जब किसी ताले को खोलती हो। उस चाबी से कभी खजानें खुले थे, आज उससे कुछ भी नहीं खुलता है, इसलिए वह बोझिल हो गई है; तो भी मन उसे फेंक देने का नहीं होता। कहीं मनुष्य जाति के अचेतन में वह धीमी—सी गन्ध बनी ही रह जाती है।

चाहे हजारों साल पहले वह चाबी कोई ताला खोलती रही हो, लेकिन मनुष्य की अचेतना में, उससे कभी ताले खुले हैं, कभी कोई खजाने उससे उपलब्ध हुए हैं—इस स्मृति के कारण ही उस चाबी के बोझ को हम ढोए चले जाते है। न कोई खजाना खुलता है अब, न कोई ताला खुलता है! फिर भी कोई कितना ही समझाए कि चाबी बेकार है, उसे फेंक देने का साहस नहीं जुटता है। कहीं किसी कोने में मन के, कोई आशा पलती ही रहती है कि शायद कभी कोई ताला खुल जाए!

मंदिर को ही लें। पृथ्वी पर ऐसी एक भी जाति नहीं है जिसने मंदिर जैसी कोई चीज निर्मित न की हो। उसे मस्जिद कहती हो, चर्च कहती हो, गुरुद्वारा कहती हो—इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। आज तो यह सम्भव है कि हम एक दूसरी जातियों से भी कुछ सीख लें। एक वक्त था, जब दूसरी जातियां हैं भी, इसका भी हमें पता नहीं था। तो मंदिर कोई ऐसी चीज नहीं है, जो बाहर से किन्हीं कल्पना करनेवाले लोगों ने खड़ी कर ली हो। वह मनुष्य की चेतना से ही निकली हुई कोई चीज है। मनुष्य कितनी दूर, कितने ही स्याल में—पर्वत में, पहाड़ में, झील पर, कहीं भी बसा हुआ हो, उसने मंदिर जैसा कुछ निर्मित किया है। मनुष्य की चेतना से ही कुछ निकल रहा है। यह अनुकरण नहीं है; एक दूसरे को देखकर कुछ निर्मित नहीं हो गया है। इसलिए विभिन्न तरह के मन्दिर बने, लेकिन मंदिर बने अवश्य।

बहुत फर्क है, एक मंदिर में और मस्जिद में। उनकी व्यवस्था में बहुत फर्क है। उनकी योजना में बहुत फर्क है। लेकिन आकांक्षा में फर्क नहीं है, अभीप्सा में फर्क नहीं है। मनुष्य कहीं भी हो, कितना ही दूसरों से अपरिचित हो, वह अपनी चेतना में कोई बीज छिपाए है, यह एक बात खयाल में ले लेने जैसी है। दूसरी बात यह भी खयाल में लेनी जरूरी है कि हजारों साल हो जाते हैं, न तालों का पता रह जाता है, न खजानों का। लेकिन फिर भी जिस किसी चीज को हम, किसी बिलकुल अनजाने मोह से ग्रसित ‘लिए चलते है; उस पर हजार आघात होते हैं, बुद्धि उसको सब तरफ से तोड्ने चलती है। युग का, आज का बुद्धिमान जिसे सब तरह से इनकार करता है, फिर भी मनुष्य का मन उसे संभाले चलता है, इस सबके बावजूद।

तो यह बात स्मरण रख लेनी जरूरी है कि मनुष्य की अचेतना में, आज उसे शात नहीं है तो भी, कहीं कोई गूंजती—सी धुन जरूर है जो कहती है कि अभी कोई ताला खुलता था। अचेतना में इसलिए, कि हम में से कोई भी नया पैदा हो गया हो, ऐसा नहीं है। हम में सभी अनेक बार पैदा हो चुके हैं। ऐसा कोई युग न था जब हम न हों। ऐसी कोई घड़ी न थी जब हम न हों। उस दिन जो हमारी चेतना थी, उसी दिन जो हमने चेतना जाना था, वह आज हजारों पर्तों के भीतर दबा हुआ ‘ अचेतन’ बन गया है। उस दिन अगर हमने मंदिर का रहस्‍य जाना था, और उससे हमने किसी द्वार को खुलते देखा था, तो आज भी हमारे अचेतन के किसी कोने में वह स्मृति दबी पड़ी है। बुद्धि लाख इनकार कर दे, लेकिन बुद्धि उतनी गहरी नहीं हो पाती जितनी गहरी स्मृति है।

इसलिए अबू आघातों के बावजूद, और सब तरह से व्यर्थ दिखायी पड़ने के बावजूद भी कुछ चीजें हैं, कि ‘परसिस्ट’ करती हैं, हटती नहीं। नए रूप लेती हैं, लेकिन जारी रहती हैं। यह तभी सम्भव होता है जब कि हमारे अनंत जन्मों की यात्रा में, अनंत— अनंत बार, किसी चीज को हमने जाना है यद्यपि आज भूले हुए हैं। और इनमें से प्रत्येक का बाह्य उपकरण की तरह तो उपयोग हुआ ही है, उनका आंतरिक अर्थ भी है, अभिप्राय भी है। पहले तो मंदिर को बनाने की जो जागतिक कल्पना है, वह यह कि सिर्फ मनुष्य है, जो मंदिर बनाता है। घर तो पशु भी बनाते हैं, घोंसले तो पक्षी भी बनाते हैं, किन्तु वे मन्दिर नहीं बनाते। मनुष्य की, जो भेद रेखा खींची जाए पशुओं से, उसमें यह भी लिखना ही पडेगा कि वह मंदिर बनानेवाला प्राणी है। कोई दूसरा मंदिर नहीं बनाता। अपने लिए आवास तो बिलकुल ही स्वाभाविक है। अपने रहने की जगह तो कोई भी बनाता है। छोटे—छोटे कीड़े भी बनाते हैं, पक्षी भी बनाते हैं; लेकिन परमात्मा के लिए आवास मनुष्य का जागतिक लक्षण है।

परमात्‍मा के लिए भी आवास, उसके लिए भी कोई जगह बनाना! परमात्मा के गहन बोध के अतिरिक्त मंदिर नहीं बनाया जा सकता। फिर परमात्मा का गहन बोध भी खो जाए तो मंदिर बचा रहेगा, लेकिन बनाया नहीं जा सकता बिना बोध के। जैसे आपने एक अतिथि गृह बनाया घर में, वह इसलिए कि अतिथि आते रहे हों घर में कभी। अतिथि न आते हों तो आप अतिथि गृह नहीं बनानेवाले हैं। हालांकि यह हो सकता है कि अब अतिथि न आते हों और अतिथि गृह खड़ा रह गया हो।

तो परमात्मा के लिए भी आवास की धारणा उन क्षणों में पैदा हुई जब परमात्मा सिर्फ कल्पना की बात नहीं थी, अनेक लोगों के अनुभव की बात थी और परमात्मा के अवतरण की जो प्रक्रिया थी, उसके उतरने की, उसके लिए एक विशेष आवास, एक विशेष स्थान, जहां परमात्मा अवतरित हो सके, पृथ्वी के हर कोने पर आवश्यक अनुभव हुआ।

प्रत्येक चीज के अवतरण में, आग्रह में, ‘रिसेटिव’ होने में एक संयोजन है। यों समझें कि अभी जो हमारे पास से रेडियो वेव्‍ज गुजर रही हैं हम उन्हें पकड़ नहीं पाएंगे। रेडियो के उपकरण के बिना उन्हें पकड़ना कठिन होगा। कल अगर एक ऐसा वक्त आ जाए, आ सकता है कि एक महायुद्ध हो जाए, हमारी सारी टेक्नालाजी अस्त—व्यस्त हो जाए, और आपके घर में एक रेडियो रह जाए तो आप उसे फेंकना न चाहेंगे। मान लीजिए अब कोई रेडियो स्टेशन नहीं बचा, अब रेडियो से कुछ पकड़ा नहीं जाता, अब रेडियो सुधारनेवाला भी मिलना मुश्किल है। हो सकता है दस—पांच पीढियों के बाद भी आपके घर में वह रेडियो रखा रहे और तब कोई पूछे कि इसका क्या उपयोग है? तो कठिन हो जाएगा बताना।

लेकिन इतना जरूर बताया जा सकेगा कि पिता आग्रहशील थे इसको बचाने के लिए, उनके पिता भी आग्रहशील थे। इतना उन्हें याद है कि हमारे घर में उसको बचानेवाले आग्रहशील लोग थे, वे बचाए चले गए। हमें पता नहीं, इसका क्या उपयोग है? आज इसका कोई भी उपयोग नहीं है। और रेडियो तोड़कर अगर हम सब उपाय भी कर लें, तो भी इसकी खबर मिलना बहुत मुश्किल है कि इससे कभी संगीत बजा करता था, कि कभी इससे आवाज निकला करती थी। सीधे रेडियो को तोड़कर देखने से कुछ पता चलनेवाला नहीं है [ वह तो सिर्फ एक आग्राहक था, जहां कुछ चीज घटती थी। घटती कहीं और थी, लेकिन पक्की जाती थी। ठीक ऐसे ही मंदिर आग्राहक थे, ‘रिसेप्रिव इंस्ट्रूमेंट’ थे।

परमात्मा तो सब तरफ है। आप भी सब जगह मौजूद है, परमात्मा भी सब जगह मौजूद है। लेकिन किसी विशेष संयोजन में आप ‘एट्यून्‍ड’ हो जाते है। आपकी ‘एट्यून्ड’ मेल खाती है, ताल—मेल हो जाता है। तो मंदिर आग्राहक की तरह उपयोग में आए। वहां सारा इन्तजाम ऐसा था कि जहां दिव्य भाव को, दिव्य अस्तित्व को, भगवत्ता को हम ग्रहण कर पाएं। जहां हम खुल जाएं और उसे ग्रहण कर पाएं। सारा इन्तजाम मंदिर का वैसा ही था। अलग—अलग लोगों ने अलग—अलग तरह से इन्तजाम ‘किया था। इससे कोंई फर्क नहीं पड़ता है कि अलग—अलग तरह से इन्तजाम किया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अलग—अलग रेडियो बनानेवाले लोग( अलग—अलग शक्ल का रेडियो बनाएं। बाकी, बहुत गहरे में प्रयोजन एक है।

इस मुल्क में मंदिर बने। और कोई तीन—चार तरह के ही खास ढंग के मंदिर हैं जिनके रूप से बाकी सारे मंदिर बने है। इस मुल्क में जो मंदिर बने वह आकाश की आकृति के है। यानी जो गुम्बज़ है मंदिर का, वह आकाश की आकृति में है। और प्रयोजन यह है कि अगर आकाश के नीचे बैठकर मैं ओम का उच्चार करूं तो मेरा उच्चार खो जाएगा। क्योंकि मेरी शक्ति बहुत कम है, विराट आकाश है चारों तरफ। मेरा उच्चार लौटकर मुझ पर नहीं बरस सकेगा। मैं जो पुकार करूंगा, वह पुकार मुझ पर लौटकर नहीं आएगी, वह अनंत में खो जाएगी।

मेरी पुकार मुझ पर लौटकर आ जाए, इसलिए मंदिर का गुम्बज निर्मित किया गया। वह आकाश की छोटी प्रतिकृति है, ठीक अर्ध—गोलाकार, जैसा आकाश चारों तरफ पृथ्वी को छूता है—ऐसा एक छोटा आकाश निर्मित किया है गुम्बज़ में। उसके नीचे मैं जो पुकार करूंगा, मंत्रोच्चार करूंगा, ध्वनि करूंगा, वह सीधी आकाश में खो नहीं जाएगी। गोल गुम्बज़ उसे वापस लौटा देगा। जितना गोल होगा गुम्बज़, उतनी सरलता से ध्वनि वापस लौट आएगी, और उतनी ही ज्यादा प्रतिध्वनिया उसकी पैदा होंगी। फिर तो ऐसे पत्थर भी खोज लिए गए जो ध्वनियों को वापस लौटाने में बड़े सक्षम हैं।

अजन्ता का एक बौद्ध चैत्य है, उसमें लगे पत्थर ठीक उतनी ही ध्वनि को तीव्रता से लौटा सकते है, उतनी ही चोट को प्रतिध्वनित करते है, जैसे तबला। आप तबले पर चोट करें, वैसी ही पत्थर पर चोट करें तो उतनी ही आवाज होगी। कुछ विशेष मंत्रों ( ध्वनियों) को, जो बहुत सूक्ष्म है, साधारण गुम्बज़ नहीं लौटा पाता है, उसके लिए उन पत्थरों का उपयोग किया गया।

क्या प्रयोजन है इन सबका? प्रयोजन यह है कि जब आप ओम् का उच्चार करते है, जब बहुत सघनता से, बहुत तीव्रता से आप ओम् का उच्चार करते है; और मंदिर का गुम्बज़ सारे उच्चार को वापस आप पर फेंक देता है, तो एक वर्तुल निर्मित होता है, एक ‘सर्किल’ निर्मित होता है, उच्चार का, ध्वनि का, लौटती ध्वनि का। मंदिर का गुम्बज़ आपकी गंजी हुई ध्वनि को आप तक लौटाकर एक वर्तुल निर्मित करवा देता है। उस वर्तुल का आनन्द ही अदभुत है।

अगर आप खुले आकाश के नीचे ओम् का उच्चार करेंगे तो वर्तुल निर्मित नहीं होगा और आपको भी आनन्द का पता नहीं चलेगा। जब वर्तुल निर्मित होता है तब आप सिर्फ पुकारनेवाले नहीं हैं, पानेवाले भी हो जाते है। और उस लौटती हुई ध्वनि के साथ दिव्यता की प्रतीति प्रवेश करने लगती है। आपकी की हुई ध्वनि तो मनुष्य की है, लेकिन जैसे ही वह लौटती है, वह नये वेग और नयी शक्तियों को समाहित करके वापस लौट आती है। इस मंदिर को, इस मंदिर के गुम्बज को, मंत्र के द्वारा ध्वनि वर्तुल निर्मित करने के लिए प्रयोग किया गया था।

अगर बिलकुल शांत, एकान्त स्थिति में आप बैठकर उच्चार करते हों, तो जैसे ही वर्तुल निर्मित होगा, विचार बन्द हो जाएंगे। वर्तुल इधर निर्मित हुआ, इधर विचार बन्द हुए।

जैसा कि मैंने कई बार कहा है, स्री—पुरुष के संभोग में वर्तुल निर्मित हो जाता है शक्ति का, और जब वर्तुल निर्मित होता है तभी संभोग का क्षण समाधि का इशारा करता है। अगर पद्मासन या सिद्धासन में बैठे बुद्ध और महावीर की मूर्तियां देखें तो वह भी वर्तुल ही निर्मित करने के अलग ढंग हैं। जब दोनों पैर जोड़ लिए जाते हैं और दोनों हाथ पैरों के ऊपर रख दिए जाते हैं तो पूरा शरीर वर्तुल का काम करने लगता है। खुद के शरीर की विद्युत फिर कहीं से बाहर नहीं निकलती। पूरी वर्तुलाकार बनने लगती है। एक सर्किट निर्मित होता है, और जैसे ही सर्किट निर्मित होता है वैसे ही विचार शून्य हो जाते हैं।

अगर इसे विद्युत की भाषा में कहें तो आपके विचारों का जो कोलाहल है वह आपकी ऊर्जा के वर्तुल न बनने की वजह से है। वर्तुल बना कि ऊर्जा शान्त और समाहित होने लगती है। तो मंदिर के गुम्बज से वर्तुल बनाने की बड़ी अदभुत प्रक्रिया है और यही अंतरंग अर्थ भी है उसका।

मंदिर के द्वार पर हमने बाटा लटका रखा है, वह भी सिर्फ इसीलिए आप जब ओम् का उच्चार करें, हो सकता है बहुत धीमे करें कि खयाल में भी न’ आए—पर जोर से घण्टे की आवाज उस वर्तुल का आपको स्मरण दिला जाएगी तत्काल—उस गूंजती हुई ध्वनि का—वर्तुल पर वर्तुल, जैसे पानी में फेंका गया पत्थर हो और लहर पर लहर, रिपल पर रिपल उठाता चला गया हो।

तिब्बती मंदिर में तो घण्टा नहीं रखते, सर्व धातुओं का बना हुआ एक बर्तन रखते हैं घड़े की भांति और उसमें लकड़ी का डण्डा रखते हैं घुमाने के लिए। उसको सात बार अन्दर घुमाकर जोर से चोट करते है। सात बार घुमाने पर, और चोट करने पर ‘मणि पद्ये हुं’, इसकी पूरी आवाज निकलती है—पूरा मंत्र! पूरा घड़ा चिल्लाकर कहता है, ‘मीणू पद्ये हुं’! और एक दफा नहीं, सात बार। आप सात राउच्छ लेकर चोट मारकर उस पर और हाथ बाहर कर लें, फिर सात बार सुनें—ओम् मणि पद्ये हुं ओम् मणि पद्मे हुं—आवाज धीमी होती जाएगी और सात वर्तुल उसके बन जाएंगे।

ठीक आप भी मंदिर के भीतर एक घड़े की तरह जोर से अपने भीतर चोट करेंगे—ओम् मणि पद्ये हुं। मंदिर भी दोहराएगा। आपका रोया—रोया उसे यद्वा करके वापस फेंकेगा। थोड़ी ही देर में न आप रह जाएंगे, न मंदिर रह जाएगा, सिर्फ विद्युत के वर्तुल रह जाएंगे।

ध्यान रहे, ध्वनि जो है विद्युत का सूक्ष्मतम रूप है, यह भी थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि अब विज्ञान भी कहता है कि ध्वनि विद्युत का एक रूप है—सभी कुछ विद्युत का रूप है। लेकिन भारतीय मनीषि की पकड़ थोड़ी सी भिन्न है। वह कहता है, विद्युत भी ध्वनि का रूप है। साउण्‍ड इज दि बेस, इलेक्ट्रिसिटी बेस नहीं है—इसलिए कहा शब्द—ब्रह्म। विद्युत सिर्फ ध्वनि का ही एक रूप है। इसमें बहुत दूर तक समानता खड़ी हो गई। अभी विज्ञान कहने लगा है कि ध्वनि जो है, वह विद्युत का एक रूप है। अब ये थोड़ा—सा फर्क रह गया है कि प्राथमिक कौन है? विज्ञान कहता है कि विद्युत प्राथमिक है। लेकिन भारत की मनीषा तो कहती है कि ध्वनि प्राथमिक है। और ध्वनि की ही सघनता विद्युत है।

विज्ञान कहता है कि विद्युत का एक प्रकार, ध्वनि है। इस बात की बहुत सम्भावना है कि ‘शब्द—ब्रह्म’ की खोज बहुत निकट में विज्ञान को करनी पड़ेगी। ये मंदिर के गुम्बज के नीचे पैदा की गयी ध्वनियों का ही अनुभव है। क्योंकि जब ओम् की सघन ध्वनि की गयी तो साधक ने मंदिर के भीतर थोड़ी देर में जाना कि मंदिर भी मिट गया और मैं भी मिट गया, सिर्फ विद्युत रह गयी। यह किसी प्रयोगशाला में लिया गया निष्कर्ष नहीं है। जिन्होंने ये कहा है, उनके पास कोई प्रयोगशाला नहीं। उनके पास तो एक ही प्रयोगशाला थी, जो उनका मंदिर था। उस मंदिर में उन्होंने जाना है, और यह जाना है कि हम तो ध्वनि से शुरू करते हैं लेकिन अंततः विद्युत ही रह जाती है। इस ध्वनि के अनुभव के लिए मन्दिर का गुम्बज निर्मित किया गया था।

जब पहली दफा पश्‍चिम के लोगों को भारतीय मंदिर देखने को मिले, तो वे उन्हें ‘ अनहाईजिनिक’ मालूम पड़े। स्वभावत: खिड़की—दरवाजे ज्यादा नहीं हो सकते, एक ही रखा जा सकता था, वह भी बहुत छोटा। इसका कारण था कि यह किसी भी तरह, ध्वनि जो पैदा हो रही है भीतर, उसके वर्तुल को तोड़नेवाला न बन जाए। उन विदेशियों को लगा कि ये मंदिर बिलकुल ही अंधेरे, गन्दे और बन्द हैं, जिनमें हवा भी नहीं जाती। उनका चर्च साफ—सुथरा है, खिड़कियां है, दरवाजे हैं, बड़ी खिड़कियां हैं, बड़े दरवाजे हैं। रोशनी भी जाती है, हवा भी जाती है, पूरे ‘हाईजीनिक’ हैं।

मैंने कहा कि जब चाबी भूल जाती है तो कठिनाइयां खड़ी होती है। आज कोई नहीं कह सकता हिन्दुस्तान में, एक आदमी भी, कि हमारे मंदिर में खिड़की क्यों नहीं है, दरवाजा क्यों नहीं है? हमको भी लगा कि सच तो है कि मंदिर ‘अनहाईजीनिक’ हैं। परन्तु कोई यह तर्क न दे सका कि इन मंदिरों के भीतर बीमारी नहीं जाने दी गई। इन मंदिरों में बैठा हुआ पूजा और प्रार्थना करनेवाला आदमी, स्वस्थतम लोगों में से है।

तब यह भी धीरे—धीरे अनुभव में आना शुरू हुआ कि ओम् की ध्वनि का जो आघात है वह अपूर्व रूप से ‘प्यौरीफाई’ करता है। विशेष ध्वनियां हैं जिनके आघात शुद्धता लाते हैं। विशेष ध्वनियां है जिनके आघात अशुद्धता लाते हैं। विशेष ध्वनियां हैं जो वहां बीमारियों को प्रवेश ही नहीं करने देंगी, विशेष ध्वनियां हैं जो वहां बीमारियों को निमंत्रित करती हैं। पर ध्वनि का पूरा शास्त्र खो गया। जिन्होंने कहा था—शब्द ही ब्रह्म है, उन्होंने शब्द के लिए बड़ी से बड़ी बात जो कही जा सकती थी, वह कही। ब्रह्म से बड़ा कोई अनुभव नहीं था, और शब्द से गहरी उन्होंने कोई चीज नहीं जानी थी, जिसका प्रयोग किया जा सके।

सारे राग, सारी रागनियां, सारा संगीत पूरब का है। वह शब्द—ब्रह्म की ही प्रतीतियों का फैलाव हैँ। समस्त रागनियां मंदिरों में पैदा हुईं। समस्त नृत्य पहली दफा मंदिरों में पैदा हुए, फिर हर जगह विकसित हुए। क्योंकि मंदिर में ही ध्वनि का अनुभव करनेवाला साधक था। उसने ध्वनियों में भेद देखे। उसने इतने भेद देखे जिसका कोई हिसाब नहीं।

अभी सिर्फ चालीस साल पहले काशी में एक साधु हुए हैं विशुद्धानन्द। सिर्फ ध्वनियों के विशेष आघात से किसी की भी मृत्यु हो सकती थी, ऐसे सैक्कों प्रयोग विशुद्धानन्द ने करके दिखाए। वह साधु अपने बन्द मन्दिर के गुम्बज में बैठा था जो बिलकुल ‘अनहाईजीनिक’ था।

पहली दफा तीन अंग्रेज डाक्टरों के सामने प्रयोग किया गया। वे तीनों अंग्रेज डाक्टर एक चिड़िया को लेकर अन्दर गए। विशुद्धानन्द ने कुछ ध्वनियां कीं, वह चिड़िया तड़फडायी और मर गयी। उन तीनों ने जांच कर ली कि वह मर गयी। तब विशुद्धानन्द ने दूसरी ध्वनियां कीं, वह चिड़िया तड़फड़ायी और जिन्दा हो गयी! तब पहली दफा शक पैदा हुआ कि ध्वनि के आघात का परिणाम हो सकता है! अभी हम दूसरे आघातों के परिणामों को मान लेते हैं क्योंकि उनको विज्ञान कहता है।

हम कहते है कि विशेष किरण आपके शरीर पर पड़े तो विशेष परिणाम होंगे। विशेष औषधि आपके शरीर में डाली जाए तो विशेष परिणाम होंगे। विशेष रंग विशेष परिणाम लाते हैं। लेकिन विशेष ध्वनि क्यों नहीं? अभी तो कुछ प्रयोगशालाएं पश्‍चिम में, ध्वनियों का जीवन से क्या संबंध हो सकता है, इस पर बड़े काम में रत है।

दो तीन प्रयोगशालाओं में बड़े गहरे परिणाम हुए हैं। इतना तो बिलकुल साफ हो गया है कि विशेष ध्वनि का परिणाम, जिस मां की छाती से दूध नहीं निकल रहा है, उसकी छाती से दूध लाया जा सकता है। विशेष ध्वनि करने पर जो पौधा छह महीने में फूल देता है वह दो महीने में फूल दे सकता है। जो गाय जितना दूध देती है उससे दुगुना दे सकती है—विशेष ध्वनि पैदा की जाए तो।

आज रूस की डेअरीज में बिना ध्वनि के कोई गाय से दूध नहीं दुहा जा रहा है। और बहुत जल्दी कोई फल, कोई सब्जी बिना ध्वनि के पैदा नहीं होगी। क्योंकि प्रयोगशाला में तो यह सिद्ध हो गया है, अब व्यापक फैलाव की बात है। अगर फल, सब्जी, दूध और गाय ध्वनि से प्रभावित होते हैं, तो कोई कारण नहीं है कि आदमी प्रभावित न हो।

स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य ध्वनि की विशेष तरंगों पर निर्भर है। इसलिए तब बहुत गहरी ‘हाईजीनिक’ व्यवस्था थी जो हवा से बंधी हुई नहीं थी। सिर्फ हवा मिल जाने से ही कोई स्वास्थ्य आ जाने वाला है, ऐसी धारणा नहीं थी। नहीं तो यह असम्भव है, कि पांच हजार साल के लम्बे अनुभव में यह खयाल में न आ गया होता! हिन्दुस्तान का साधु बन्द गुफाओं में बैठा है जहां रोशनी नहीं जाती, हवा नहीं जाती। बन्द मंदिरों में बैठा है। छोटे दरवाजे हैं, जिनमें से झुककर अन्दर प्रवेश करना पड़ता है। कुछ मंदिरों में तो रेंगकर ही अन्दर प्रवेश करना पड़ता है। फिर भी स्वास्थ्य पर इसका कोई बुरा परिणाम कभी नहीं हुआ था।

हजारों साल के अनुभव में कभी नहीं आया कि इनका स्वास्थ्य पर बुरा परिणाम हुआ है। पर जब पहली दफा संदेह उठा तो हमने अपने मंदिरों के दरवाजे बड़े कर लिए। खिड़कियां लगा दीं। हमने उनको ‘माडर्नाइज’ किया, बिना यह जाने हुए कि वह ‘माडर्नाइज’ होकर साधारण मकान हो जाते हैं। उनकी वह ‘रिसेटिविटी’ खो जाती है जिसके लिए वह कुंजी है।

ध्वनि से गहरा संबंध है मंदिर की वास्तु—कला का, आर्किकेर का। वह सारा ध्वनि—शाख ही है। किस कोण से ध्वनि की चोट की जाए, उसका हिसाब है। कौन—सी ध्वनि खड़े होकर की जाए और कौन—सी बैठकर की जाए, उसका भी हिसाब है। कौन—सी लेट कर की जाए उसका भी हिसाब है। क्योंकि खड़े होकर उसके आघात बदल जाएंगे, बैठकर उसके आघात बदल जाएंगे। कौन—सी ध्वनियां साथ में की जाएं तो परिणाम अलग होंगे। कौन सी ध्वनियां अलग—अलग की जाएं तो परिणाम अलग होंगे।

इसलिए बड़े मजे की बात है कि वैदिक साहित्य का पश्‍चिम की भाषा में अनुवाद शुरू हुआ तो स्वभावत: पश्‍चिम में भाषा का जो जोर है वह भाषागत है, ध्वनिगत नहीं है, फोनेटिक नहीं है। कोई शब्द लिखा जाए तो वैदिक दृष्टि में उस शब्द के लिखने और बोलने का उतना मूल्य नहीं है जितना उसके भीतर वह विशेष ध्वनि और विशेष ध्वनि की मात्राओं का समाहित होना जरूरी है। संस्कृत का जोर फोनेटिक है, लिंग्‍विस्टिक नहीं। शब्दगत नहीं है, ध्वनिगत है।

इसलिए हजारों साल तक कीमती शास्त्रों को न लिखने की जिद की गयी। क्योंकि लिखते ही जोर बदल जाएगा— ‘एस्फेसिस’ बदल जाएगा। बोलकर ही दिया जाए दूसरे को, लिखकर न दिया जाए, क्योंकि लिखे जाने पर शब्द बन जाएगा, और ध्वनि की जो बारीक संवेदनाएं थीं वह मर जाएंगी। उनका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।

अगर राम को लिख दें हम, तो पढ़नेवाले पचास तरह से पढ़ सकते हैं। कोई ‘र’ पर थोड़ा कम जोर दे, कोई ‘अ’ पर थोड़ा ज्यादा जोर दे, कोई ‘म’ पर थोड़ा कम जोर दे। वह कैसा जोर देगा, वह पढनेवाले पर निर्भर करेगा। लिखने के बाद ध्वनिगत जोर समाप्त हो जाता है। अब उसको फिर डिकोड करना पड़ेगा। इसलिए हजारों सालों तक जिद थी कि कोई शास्त्र लिखा न जाए। कारण? सिर्फ एकमात्र ही था कि उसकी जो ध्वनिगत व्यवस्था है वह न खो जाए। सीधा व्यक्ति के द्वारा ही वह दूसरे को सुनाया जाए।

इसलिए शास्त्र को ‘श्रुति’ कहते हैं, जो सुनकर मिले वही शाख था। जो पढ़कर मिले उसको हमने शास्‍त्र नहीं कहा कभी। क्योंकि उसकी सारी की सारी वैज्ञानिक प्रक्रिया थी, कि उसमें ध्वनि के आघात होंगे—कहां क्षीण होगी ध्वनि, कहां तीव्र होगी। परन्तु उसको लिपिबद्ध करने पर कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और कठिनाई खड़ी हुई। जिस दिन लिपिबद्ध हुए ये शास्त्र उसी दिन इनकी जो मौलिक आंतरिक व्यवस्था थी वह खण्डित हो गयी। फिर कोई जरूरत न रही। आप किसी से सुनकर ग्रहण करें… आप किताब पढ़ सकते हैं, वह बाजार में उपलब्ध है। फिर उसके साथ ध्वनि का कोई सवाल नहीं रहा।

यह भी मजे की बात है कि इन शास्त्रों का कभी जोर न था अर्थ पर। जोर ही नहीं था अर्थ पर। अर्थ पर जोर तो पीछे हमारी पकड़ में आना शुरू हुआ जब हमने उनको लिपिबद्ध किया। क्योंकि लिपिबद्ध कोई भी चीज अगर अर्थहीन हो तो हम पागल मालूम पड़ेंगे। उनको उसमें अर्थ देना ही पड़ेगा। अभी भी वैदिक वचनों में ऐसे वचन हैं जिनके अर्थ नहीं लगाए जा सके। और जिनके अर्थ नहीं लगाए जा सके वही वचन असली है, क्योंकि वे बिलकुल ही ध्वनिगत हैं, उनमें अर्थ था ही नहीं।

जैसे ‘ओम् मणि पद्ये हुं’। यह एक तिब्बती मंत्र है। इसमें सवाल अर्थ का नहीं है।’ ओम्’ में भी सवाल अर्थ का नहीं है। उसमें कोई अर्थ नहीं है। ध्वनिगत चोट है। और उसके परिणाम हैं। जब कोई साधक ‘ ओम् मणि पद्ये हुं’ का आवर्तन करता है बार—बार, तो उसके शरीर के विभिन्न चक्रों पर चोट पड़नी शुरू होती है और वे चक्र सक्रिय होने शुरू होते हैं। इसमें क्या अर्थ है, यह सवाल नहीं है, इसकी क्या ‘युटीलिटी’, उपयोगिता है, यह सवाल है। इसको खयाल में ले लेना जरूरी है कि पुराने शास्त्र अर्थ पर जोर नहीं देते, उपादेयता पर जोर देते हैं—उपयोगिता क्या है, उपयोग क्या है, इस पर जोर देते हैं।

बुद्ध ने किसी से पूछा है कि सत्य क्या है? तो बुद्ध ने कहा, जो उपयोग में आए। सत्य की परिभाषा—जो उपयोग में आ सके। विज्ञान भी यही कहेगा, करेगा सत्य की परिभाषा। विज्ञान भी यही करता है। वह प्रेगमेटिक परिभाषा करेगा। वह यह नहीं कहेगा कि सत्य क्या है, जिसको आप सिद्ध कर देंगे, यह सवाल नहीं है। सत्य क्या है, जो उपयोग में आ सके। आप उपयोग करके दिखा दें। आप कहते है कि हाइड्रोजन—आक्सीजन मिलकर पानी बनते हैं। हमें फिक्र नहीं है कि यह सत्य है या असत्य। आप पानी बनाकर दिखा दें तो सत्य हो जाएगा, न बन सके पानी तो असत्य है।

हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बनते हैं कि नहीं, यह कोई लाजिकल, कोई तर्कगत इसकी वैलिडिटी नहीं है। बनते हों तो बनाकर दिखा दें। बन जाए तो सत्य है, न बनते हों तो सिद्ध हो जाएगा कि असत्य हैं। विज्ञान ने अब जाकर वही व्याख्या पक्की है सत्य की, जो पांच हजार साल पहले धर्म की जो व्यख्या थी। धर्म कहता था, जो उपयोग में आ जाए। जिसका आप उपयोग कर सकें। वैसे ओम् का कोई अर्थ नहीं है, उपयोग है; कोई मीनिंग नहीं है, यूटिलिटी है। मंदिर का कोई अर्थ नहीं है, उपयोग है। और उपयोग में लाना एक कला है और सभी कलाओं के साथ एक खराबी है, कि उनका जीवंत हस्तांतरण नहीं हो सकता।

इधर मैं पढ़ता था, चीन में कोई पन्द्रह सौ साल पहले एक सम्राट था। वह मांस का बहुत शौकीन है, और इतना शौकीन है कि वह अपने सामने ही गाय—बैल को कटवाता है। जो उसका कसाई है, वह पन्द्रह साल से नियमित सुबह आकर उसके सामने जानवर काटता है। एक दिन वह सम्राट पूछता है कि यह तू जो फरसा लाता है काटने को, इसे मैंने तुझे कभी बदलते नहीं देखा। पन्द्रह साल हो गए, इसकी धार मरती नहीं? तो वह कसाई कहता है कि इसकी धार नहीं मरती। धार तभी मरती है जब कसाई कुशल न हो। धार तभी मरती है जब कसाई को पता न हो कि कहां ठीक जगह है, जहां कि फरसा आर—पार हो जाता है और दो हड्डियों के बीच में नहीं आता। यानी ‘ज्वाइंटस’ कहां हैं? यह मेरी पुश्तैनी कला है। इस फरसे की धार सिर्फ मरती ही नहीं बल्कि रोज जानवर काटकर इसकी धार और तेज हो जाती है।

उस सम्राट ने कहा, क्या तू यह कला मुझे भी सिखा सकता है? कसाई ने कहा कि यह बहुत कठिन है। यह तो मै अपने बाप के पास, जबसे मुझे होश है, तब से मैं खड़ा रहा और इसको मैंने ‘इम्बाइब’ किया है, इसको मैंने सीखा नहीं। इसको मैं पी गया हूं। मैं बाप के पास खड़ा रहता था। रोज—रोज यही हो रहा था, दिन में जानवर कट रहे थे, मै पास खड़ा रहता था। कभी उसका फरसा उठाकर लाता था, कभी जानवर के कटे हुए अंगों को उठाकर रखता था। बस मैं पी गया। अगर तुम कभी भी राजी हो तो मेरे पास खड़े रहो, कभी फरसा उठाकर लाओ, कभी रखो, कभी बैठो, कभी देखते रहो। इस हुनर को पी जाओ। मैं वह हुनर सिखा नहीं सकता।

साइंस सिखायी जा सकती है, आर्ट्स सिखाया नहीं जा सकता। विज्ञान हम सिखा सकते हैं, पढ़ा सकते हैं। कला हम सिखा नहीं सकते, कला को तो ‘इम्बाइब’ करना पड़ता. है। ये सारे मंत्र अर्थ नहीं रखते, किन्तु इनका कलात्मक उपयोग है। छोटे—छोटे .बच्चों को हम ‘इम्बाइब’ करवा देते थे। वे मंदिर की कला सीख जाते थे। उन्हें कभी पता भी नहीं चलता था कि वे क्या सीख गए! वे मंदिर में जाने की कला सीख जाते थे। वे मंदिर में बैठने की कला सीख जाते थे, वे मंदिर का उपयोग सीख जाते थे। जब भी मुसीबते होती थीं, वे भागे मंदिर चले जाते थे। मंदिर से वे शांत होकर लौट आते थे। रोज सबेरे वे मंदिर चले आते थे, क्योंकि जो मंदिर में मिलता था वह कहीं भी मिलना मुश्किल था। पर उन्होंने इतने बचपन से पकड़ी थी बात कि उन्हें सभी सिखाया, ऐसा नहीं—इम्बाइब्ड कर गए थे वे, पी गए थे। बहुत सी चीजें हैं जो सिखायी नहीं जा सकतीं। जहां भी कला है वहां सिखाना मुश्किल है।

इस मंदिर की, इन मंदिरों के बीच ध्वनि की जो सारी की सारी संयोजना थी, उसकी एक प्रायोगिक व्यवस्था है। और जब तक शब्द का ठीक ध्वनिगत रूप खयाल में न हो, उसका कोई मतलब नहीं होता। जैसे मंत्र है—हमारे यहां गुरु के द्वारा ही दिया जाए, इस पर जोर था। वह मंत्र आप जानते रहे हैं सदा। हो सकता है गुरु आपके कान में कहे—’राम राम का जाप करो’। और आप हैरान होंगे और कहेंगे कि यह क्या? क्या यह मंत्र गुरु के बिना नहीं मिलता? यह तो दुनिया जानती है कि राम राम कहो, और इस आदमी ने कान में कहा कि राम राम कहो। यह तो पागलपन की बात है। नहीं, गुरु के दिए मंत्र में राम के ध्वनिगत रूप पर जोर होगा, जिसे दुनिया नहीं जानती। वैसे राम के भी पचासों प्रयोग हैं।

वाल्मीकि की सारी कथा हमने सुनी है, लेकिन अब वह कथा बचकानी हो गयी। ऐसी कथा हो गयी कि हम समझने लगे कि वाल्मीकि नासमझ था, गैर पढ़ा लिखा था, गंवार था। वह भूल गया कि गुरु ने कहा था कि ‘राम राम’ का पाठ करना, तो वह ‘मरा मरा’ पाठ करते हुए ज्ञान को उपलब्ध हो गया। ये चाबियां जब खो जाती हैं तो ऐसी गड़बड़ खड़ी हो जाती है। सच बात यह है कि राम के मंत्र के एक रूप का यही हिस्सा है, कि ‘राम राम’ कहते कहते जब आपके भीतर से ‘मरा मरा’ निकलने लगे तभी वर्तुल बना। राम राम गति से कहते हुए, जब बिलकुल स्थिति उल्टी हो जाए और मरा मरा निकलने लगे, तब ठीक ध्वनिगत हो गया। और जब मरा मरा निकलेगा तब एक अदभुत घटना घटती है। और वह घटना यह है कि आप नहीं रहे, आप मर गए। और जब आप मर गएहोते हैं, वही क्षण आपके जप पूरे होने का है। वही क्षण अनुभव काहै, जब आप नहीं हैं, मिट गए।

और यह बड़े मजे की बात है कि अगर यह प्रक्रिया ठीक से की जाए, तो राम का पाठ आप शुरू करेंगे बहुत शीघ्र वह घड़ी आ जाएगी जब राम की जगह ‘मरा मरा’ निकलने लगेगा और आप चाहेंगे भी कहना राम तो न कह पाएंगे। सारा व्यक्तित्व मरा मरा कहेगा। उस वक्त आपकी मृत्यु घटित होगी, जोकि ध्यान का पहला चरण है। और जब आपकी मृत्यु पूरी घटित हो जाए गीतो आप अचानक पाएगे कि मरामरा, राम में रूपांतरित होने लगा। फिर आपके भीतर से राम की ध्वनि निकलनी शुरू होगी। और जो राम की ध्वनि अब निकलेगी आपके भीतर से, तब आपको राम का साक्षातकार होगा, इसके पहले नहीं होगा। बीच में मरा की ध्वनि में रूपांतरण अनिवार्य है।

इसके तीन हिस्से हुए। राम से आप शुरू करेंगे, मरा में आप मिटेंगे, और राम पर फिर पूरा होगा। और जब तक बीच में मरा—मरा की प्रक्रिया पकड़ न ले आपको, तब तक असली राम की प्रक्रिया, जो तीसरे चरण में पूरी होने वाली है, वह नहीं होगी। अगर आप राम राम कहते ही गए, और मरा मरा नही आप बीच में तो पता ही नहीं है—उसके फोनेटिक ‘एमफेसिस’ कांपता नहीं है। उसका ध्वनिगत जो जोर है उस जोर को अगर ठीक .से आपने दिया—जैसे अगर आपने ‘र’ जोर से कहा, ‘म’ धीमे कहा तो ही ‘मरा’ बनेगा नहीं तो नहीं बनेगा। ’र’ पर सारी ताकत लग जाएगी और ‘म’ को ढीला छोड़ दिया तोम’ गड्डे की तरह हो जाएगा, ‘र’ शिखर की तरह हो जाएगा।’र’ एक उतुंग चोटी हो जाएगा और ‘म’ एक खाई हो जाएगा। और इस स्थिति में राम में ‘म’ छोटा करते आप चले जाएं तो बहुत शीघ्र आप पाएंगे कि रूपांतरण हुआ।’म’ शिखर बन जाएगा और ‘र’ खाई बन जाएगा। और ‘मरा’ शुरू हो जाएगा।

जैसे लहरें हैं, हर शिखर के बाद खाई और हर खाई के बाद शिखर! और अभी जो शिखर था वह कुछ देर में खाई हो जाएगा, जो खाई थी फिर शिखर बन जाएगी—ठीक लहर की तरह। ध्वनि की भी लहरें हैं। ठीक ध्वनि के भी उतार—चढ़ाव हैं, आरोह—अवरोह हैं। तो ठीक ध्वनि की व्यवस्था अगर जात न हो तो आप राम राम कहते रहें, कोई परिणाम नहीं होगा। अब जिन्होंने वाल्मीकि के संबंध में यह कहानी प्रचलित की थी कि वह नासमझ था, वह पढ़ा लिखा न था, वह गंवार था, ये सब बातें सत्य हैं कि वह नासमझ था, बे पढ़ा—लिखा था, गंवार था, लेकिन यह बात सच नहीं है कि इसलिए यह ‘मरा मरा’ कहने लगा।

जहां तक इस सूत्र का संबंध है, इस मामले में तो वह पूरा होशियार था। उसे ठीक, पूरे गणित का पता था। इतने मामले का तो उसे पूरा पता था कि राम’ कैसे कहना है कि ‘मरा’ बन जाए। जब मरा बन जाए तभी आप संक्रमण से गुजरेंगे और फिर राम पैदा होगा। वह राम आपके द्वारा कहा हुआ राम नहीं होगा। फिर आप तो मर गए। वह राम जन्मेगा आपके भीतर, वह अजपा होगा। आप उसका जाप नहीं कर रहे, वह हो रहा है जाप।

ध्वनिगत जोर की वजह से श्रुति है। और उसे कोई जाननेवाला, जो ध्वनियों को जानता हो, वही व्यक्ति उसे किसी को दो, तो ही उपयोगी होगा। वही शब्द होंगे, जो किताब में लिखे होगे, सबको मालूम होंगे, फिर भी उनका गणित अलग हो जाएगा। और गणित में ही सारा खेल है। ध्वनि का जो गणित है, आरोह—अवरोह के जो अन्तर हैं, उनका ही सारा खेल है।

तो एक पूरा मंत्र शास्र था, और मंदिर उनकी एक प्रयोगशाला थी। यह उसका आंतरिक मूल्य था, साधक का। और मंदिर में जितने लोगों को परमात्मा का अनुभव हुआ, मंदिर के बाहर नहीं हो सका—यह जानते हुए कि परमात्मा मंदिर के बाहर भी है। वह अनुभव आज मंदिर में भी नहीं हो रहा है। लेकिन मंदिर के भीतर जितने लोगों को अनुभव हुआ उतने लोगों को कभी मंदिर के बाहर नही हुआ। या जिन लोगों को मंदिर के बाहर प्रयोग करना पडे—जैसे महावीर, तो फिर उनको, जो मंदिर में हो रहा था, उसके अलावा दूसरा उपकरण खोजना पड़ा जो ज्यादा जटिल है।

महावीर को उन आसनों को साधना पड़ा वर्षों तक, जिससे कि वर्तुल भीतर बन जाए। वह जो मंदिर का सहारा था वह न लिया जाए। लेकिन वह वर्षों की प्रक्रिया है, और महावीर जैसे संकल्पी के लिए ही संभव है। बाकी अति कठिन हो जाएगी। बुद्ध ने भी मंदिर का सहारा नहीं लिया। लेकिन महावीर के मरने के थोड़े दिन बाद ही मंदिर बनाना शुरू करना पड़ा, और बुद्ध के मरने के बाद भी बनाना शुरू करना पड़ा। क्योंकि जो मंदिर दे सकता है बिलकुल सामान्य जन को, वह बुद्ध और महावीर नहीं दे सकते। बुद्ध और महावीर जो कह रहे हैं करने को, वह सामान्य जन नहीं कर पाएगा।

आज तो अगर हम इस विज्ञान को पूरा समझ लें तो मंदिर से भी श्रेष्ठतर उपकरण खोजे जा सकते हैं। अभी इस पर थोड़ा काम भी चलता है। मंदिर से भी श्रेष्ठतर उपकरण इसलिए खोजे जा सकते हैं क्योंकि अब हम विद्युत के संबंध में ज्यादा जानते हैं। परन्तु इस तरह के बहुत से प्रयोग, खतरे में भी ले जा सकते है, भयानक भी है। लेकिन ठीक उपयोग किया जाए तो जो मंदिर करता था, उसकी हम साइंटिफिक व्यवस्था कर सकते हैं। क्योंकि मंदिर में जो वर्तुल पैदा होता था वह वर्तुल अब और तरह से भी पैदा किया जा सकता है। आप जेब में छोटा—सा यंत्र भी रख सकते हैं जो आपके भीतर विद्युत का वर्तुल बना सके। आप उस विद्युत के यंत्र में ध्वनियों को भी रिकाडेंड रख सकते हैं, जो आपके भीतर ध्वनियों का वर्तुल बना दें। अभी इस पर कुछ काम चलता है। बहुत हैरानी का काम है।

अमरीका में कोई सात आठ वैज्ञानिक बहुत अदभुत काम में लगे हुए है। वह काम यह है कि हमारे जितने सुख—दुख के अनुभव है, सभी हमारे शरीर के किन्हीं केन्द्रों पर विद्युत के प्रवाह के अनुभव है, और कुछ भी नहीं। जैसे, आपके अगर शरीर में सुई चुभाई जाए, पूरे शरीर में, तो सब जगह आपको सुई की चुभन पता नहीं चलेगी। कुछ डेड स्पाट्स हैं आपके शरीर में, जहां आपकी पीठ में हम सुई चुभाते रहेंगे और आपसे पूछेंगे, सुई चुभ रही है? आप कहेंगे, नहीं। किसी की भी पीठ में चुभाकर आप दस—बीस जगह देखें तो आपको दो—चार डेड स्पाट मिल जाएंगे, जहां आप चुभाएंगे और वह कहेगा चुभ नहीं रही है। ठीक वैसे ही दस—पांच ऐसी जगहें है जहां आप जरा ही चुभाएंगे, वह कहेगा बहुत चुभ रही है। ठीक ऐसा ही मस्तिष्क के ‘सेंस’ की बहुत—सी पैथियां हैं, लाखों की संख्या में। और प्रत्येक ग्रंथि का अनुभव है। जब आप कहते है, मुझे सुख हो रहा है तब आपके मस्तिष्क की किसी खास ग्रंथि में से विद्युत बहती है।

समझें कि आप अपनी प्रेयसी के पास बैठे है। उसका हाथ, हाथ में लिए है और कहते है, मुझे सुख हो रहा है। जहां तक वैज्ञानिक का संबंध है वह आपकी खोपड़ी में बताएगा कि फलां जगह से विद्युत बह रही है। और इस सी के साथ सिर्फ दिमाग का एसोसिएशन है आपका, कि इसके पास बैठने से सुख मिलता है। तो उस सहयोग, साहचर्य की धारणा की वजह से खास बिन्दु से आपकी धार बहनी शुरू हो जाती है। लेकिन दो—चार महीने बाद नहीं मिलेगा सुख। क्योंकि किसी बिन्दु से अगर आपने बहुत ज्यादा विद्युत की धारा बहायी तो वह ‘इनसेंसिटिव’ हो जाता है। उसकी संवेदनशीलता मर जाती है। जैसे एक जगह हम कांटा चुभाए जाएं बार—बार, तो आज जितना दर्द आपको होगा, कल नहीं होगा, परसों नहीं होगा। हम चुभाए चले जाएं तो वह जगह ग्रंथि बना लेगी, कांटे को झेल जाएगी, और दर्द बिलकुल नहीं होगा।

जो लोग सितार बजाते है तो उनकी उंगली कट जाती है। पहले बहुत तकलीफ होती है, फिर बजाते ही चले जाते हैं तो उंगली संवेदनहीन हो जाती है। फिर कितने ही तार—वार खींचे जाएं उंगली को पता नहीं चलता। तो आपको जो प्रेम क्षीण हो जाता है कि तीन महीने बाद प्रेम क्षीण हो गया, बड़ा कच्चा प्रेम था—उसका कोई कारण नहीं है। जिस बिन्दु से आपका सुख का प्रवाह हो रहा था वह आदी हो गया। यही सी दो—चार—दस साल आपसे छूट जाए तो फिर सुख दे सकती है।

यह जो वैज्ञानिकों का काम है इसमें अभी तो उनके प्राथमिक प्रयोग थे, वह पशुओं पर थे। चूहों पर अभी उनका एक प्रयोग चलता था। जिसने उनको भी घबरा दिया। चूहा जब संभोग में रत होता है तो उसके मस्तिष्क को उन्होंने खोलकर रखा। खिड़की खुली थी उसके मस्तिष्क की, ताकि उस पूरे मस्तिष्क की जांच हो सके कि जब वह संभोग में जाता है, क्या उसका वीर्य क्षरण होता है, तो उसके मस्तिष्क में कहां से विद्युत बहती है। जब उसके मस्तिष्क की विद्युत की एक किरण पकड़ ली उन्होंने कि यहां से बहती है, तब वहां उन्होंने ‘इलेक्ट्रोड’ लगा लिया। मस्तिष्क बन्द कर दिया और ‘इलैक्ट्रोड’ से जुड़े हुए तार की एक मशीन लगा दी। उस मशीन से उसी मात्रा की, उसी अनुपात की विद्युत बहेगी, जितने अनुपात की विद्युत उसके वीर्य क्षरण में बहती थी। और सामने उसके बटन लगा हुआ है। उस चूहे को बटन दबाना एक दफा बता दिया, कि जैसे बटन दबाया उसे वही आनन्द आया, जो उसको संभोग में आया था।

आप हैरान होंगे कि चूहे ने फिर कोई काम ही नहीं किया चौबीस घण्टे तक। एक घण्टे मे छह—छह हजार बार बटन दबाता रहा। खाना पीना बन्द उसका, और जब तक ‘इलेक्ट्रोड’ काट नहीं दिया उसका, तब तक न खाया, न पिया, न सोया, न इधर—उधर देखा, उसका बस एक ही काम—पूरे चौबीस घंटे, सतत! थककर गिर पड़ा वह बिलकुल, लेकिन वह थकते वक्त तक उसको दबाए चला गया।

वह वैज्ञानिक जो उस पर प्रयोग कर रहा था, उसका कहना है कि उस चूहे ने जितना संभोग का रस जाना, आज तक पृथ्वी पर किसी चूहे ने नहीं जाना। हालांकि संभोग वह कर नहीं रहा था, सिर्फ उस जगह से विद्युत — प्रवाहित थी। उस वैज्ञानिक का दावा है कि बहुत जल्दी ही सेक्स बहुत साधारण सुख रह जाएगा। जिस दिन आदमी को ‘इलेक्ट्रोड’ दे देंगे, तब ऐसा आदमी खोजना मुश्किल होगा जो ‘सेक्स’ के लिए राजी हो जाए। क्योंकि बहू_त शक्ति गंवाकर कुछ खास पाता नहीं।

हम उसके खीसे में एक बैटरी लगा छोटा सा यंत्र दे सकते हैं, वह अपने खीसे में जब भी चाहे दबा ले बटन—सरसराहट फैलेगी, जैसी सेक्स में फैलती है। पर यह खतरनाक भी है। क्योंकि एक बार मनुष्य के मस्तिष्क की सारी व्यवस्था का पता चल जाए तो उसमें कौन—सा हिस्सा संदेह करता है वह काटकर फेंका जा सकता है, कौन—सा हिस्सा क्रोध करता है वह अलग किया जा सकता है—या उसके सारे शरीर का कौन—सा हिस्सा बगावती है, उसके सारे संबंध, उसके सारे तार, डिस्कनेक्ट किए जा सकते हैं। सरकार उसके खतरनाक उपयोग कर सकती है।

लेकिन मनुष्य को सुख देने की दिशा में भी उनसे बहुत उपयोग नहीं हो सकते हैं। उनको तो पता नहीं है; लेकिन मैं मानता है हम मनुष्य को मंदिर भी दे सकते हैं उस व्यवस्था से। वह और भी सरल होगा, इस मंदिर से भी सरल होगा। इस मंदिर में आपके लिए घण्टों, महीनों, वर्षों ध्वनि का आघात पैदा करके जो स्थितिया बनतीं, वे स्थितियां और भी सरलता से पैदा की जा सकती हैं। तो मंदिर मेरे हिसाब से एक बहुत वैज्ञानिक प्रक्रिया थी जो ध्वनि के माध्यम से आपके भीतर सुखद, शांतिदायी, आनंददायी और प्रीतिकर भाव को जगाने का अदभुत काम करती रही। और उस भाव की उपस्थिति में आपका जीवन के प्रति पूरा दृष्टिकोण बदलता जाता।

हां, वैज्ञानिक जो कर रहे हैं उसमें खतरे हैं। खतरा एक ही है कि विज्ञान जो भी करता है वह ‘टेक्नालाजीकल’ हो जाता है—तकनीकी हो जाता है। चेतना की उसमें बहुत जरूरत नहीं रह जाती। हो

सकता है कि ठीक मंदिर जैसी स्थिति भी विद्युत के प्रभाव से पैदा कर दी जाए, लेकिन चेतना के जो चारित्रिक परिवर्तन होते थे वह न हो सकेंगे। जो चेतना को ऊंचाइयां मिलती थीं, जो रूपांतरण, ‘ट्रांसफारमेशन ‘ होता था, वह न हो। आदमी को बटन दबाने से जो मिल जाएगा उससे कोई मूल रूपांतरण नहीं हो सकते। वह उपकरण होंगे इसलिए मंदिर की जरूरत समाप्त होगी, ऐसा मैं नहीं मानता हूं।

और आप पूछते हैं कि क्या आज भी वापस इस परिवर्तित समय में उपयोग में लाए जा सकते हैं? वे लाए जा सकते हैं। लेकिन पुराना पुरोहित मंदिर में जो बैठा है वह इसको उपयोग में लाने के लिए लोगों को नहीं समझा पाएगा। उसके पास चाबी है, लेकिन उसके पास चाबी के पीछे कोई व्यवस्था नहीं है। मंदिर की पूरी दृष्टि और पूरे दर्शन को पुनस्थापित करना आज काम में आ सकता है। और पुराने से भी बेहतर मंदिर हम आज बना सकते हैं, क्योंकि आज सब साधन हमारे पास ज्यादा बेहतर हैं। ज्यादा बेहतर सामान का उपयोग किया जा सकता है जो ध्वनि को हजारगुना कर दे, मैग्रीफाई कर दे। इतनी संवेदनशील दीवारें बनायी जा सकती हैं कि आप एक बार ओम् कहें और दीवारें लाख बार ओम् दोहरा दें।

आज हमारे पास सारे उपकरण ज्यादा बेहतर हैं, यदि कुंजी खयाल में हो। पहले तो हमें एक दरवाजा रखना भी पड़ता था, अब हम बिलकुल बिना दरवाजे का मंदिर रख सकते हैं। उसको हम बिलकुल ही बन्द कर सकते हैं। आज हमारे पास ज्यादा बेहतर उपकरण हैं, ज्यादा बेहतर मंदिर बनाया जा सकता है। तब जिन लोगों ने मंदिर बनाए थे वे बिलकुल झोपड़े में रह रहे थे, उनके पास कोई उपकरण नहीं थे। मिट्टी—गारे से जो वे कर सकते थे, जो सम्भव था उस सीमा के भीतर, उन्होंने वह किया। फिर भी अदभुत किया! हमारे पास आज बहुत अदभुत उपकरण हैं, लेकिन हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। यह तो उसकी अंतर्वस्तु है, मंदिर की।

उसकी बहिर्वस्तु भी है। उसका बाह्य उपयोग भी है। यह तो साधक की बात हुई जो मंदिर जाएगा, साधेगा व्यवस्था में गहरा उतरेगा और साधना में डूबेगा। जो डुबकी लेगा, उसकी बात हुई। लेकिन जो मंदिर के पास से गुजरता था उसको भी फर्क पड़ता था; यद्यपि अब नहीं पडता है। अब तो भीतर जानेवाले पर भी नहीं पड़ता। फर्क पड़ता था उसी दिन, जब भीतर जानेवाला सच में भीतर कुछ कर रहा था। जब एक मंदिर में निरंतर दिन में पच्चीसों, सैकड़ों साधक आकर एक विशेष ध्वनि—व्यवस्था का संचरण करते हैं तो मंदिर चार्ज्‍ड हो जाते हैं। मंदिर फिर भीतर ही ध्वनि नहीं फेंकता, बाहर भी बहुत सूक्ष्म ध्वनियां फेंकना शुरू कर देता है। जीवित हो जाता है। जीवित मंदिर का अर्थ यही था। जीवित प्रतिमा का भी अर्थ यही था कि उस प्रतिमा से ऐसे व्यक्ति को भी संस्पर्श हो जाए, जो उससे संस्पर्श करने आया नहीं था। जो उत्तर दे सके, जो कुछ कर सके।

मंदिर जीवित वही कहता था, जिस मंदिर के पास से आप अनजाने गुजर रहें हों और एकदम आपको लगे कि हवा बदल गयी, एकदम आपको लगे कि कुछ वातावरण और हो गया। आपको पता भी न हो कि मंदिर है पड़ोस में। आप अंधेरी रात में गुजर रहे हों और मंदिर के पास आकर आपको भीतर लगे कि जैसे कोई चीज बदल गयी हो। आप जो सोच रहे थे वह धारा टूट गयी, आप कुछ और सोचने लगे। हत्या की सोच रहे थे और एकदम दया से भर गए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब मंदिर चार्ज्‍ड हो। वहां हर जर्रा—जर्रा, मंदिर की ईंट—ईंट का टुकड़ा—टुकड़ा, द्वार—दरवाजे सब आविष्ठ हो गए हों। मंदिर अब जीवित ध्वनियों का हो।

हर मंदिर के सामने लटका हुआ जो घण्टा है उसे भी चार्ज करने के लिए बड़े अदभुत ढंग से प्रयोग होता है। जो आदमी मंदिर में प्रवेश करे वह घण्टा बजाएगा। यानी वह मंदिर में आने की अपनी सूचना दे रहा है। कभी मंदिर में जाकर घण्टा बजाए सोये मन से नहीं, पूरे होशपूर्वक घण्टा बजाए! घण्टा बजाने से आपके विचार में डिसकंटीन्तुटी पैदा होती है। आप जो सोचते आ रहे थे उसमें ब्रेक लगता है। घण्टे की आवाज विचारों को अस्त—व्यस्त कर जाती है। ये आपके नया होने का एक क्षण है। और घण्टे की आवाज है, उस आवाज में तथा ‘ओम्’ की आवाज में आंतरिक संबंध है। घण्टे की आवाज मंदिरों को चार्ज करती जाती है दिन भर।

इसी प्रकार ओम् की आवाज भी चार्ज करती जाती है। ऐसे अन्तर—संबंधों की मंदिर में कितनी चीजें उपयोग की जाती थीं, चाहे घी से जलनेवाला दीया हो, चाहे जलती हुई सुगन्ध हो, चन्दन हो, फूल हो। और हर देवता के लिए विशेष फूल प्रिय थ्रे। ये कोई देवता के प्रिय होने का सवाल न था, लेकिन हर मंदिर की अपनी ध्वनिसंचरण व्यवस्था थी। उसमें कौन—सी ध्वनि हामोनियस है कौन—सी सुगन्ध के साथ, इस पर पूरा—पूरा ध्यान था। सिर्फ वही फूल लाना है अन्दर मंदिर के, जिससे मंदिर में पैदा होनेवाली ध्वनि के साथ हार्मोनी रहती है और वही सुगंध भी। फिर दूसरे फूल अन्दर नहीं लाए जा सकते। मस्जिद में लोबान जलाया जाएगा, मंदिर में अगरबत्ती जलेगी, धूप जलेगी, उन सबका ध्वनियों से संबंध था।’ अल्लाह’ का जो उच्चार है, उसका जो सघन रूप है, उस रूप के साथ लोबान की सुगन्ध का तालमेल है। ये तालमेल बड़ी भीतरी खोज से मिले थे। यह ऐसे नहीं सोच लिए गए थे। ऊपर से सोचा भी नहीं जा सकता। इनके खोजने की बात आपसे कह दूं।

अगर आप अल्लाह का उच्चार करते जाएं अपने कमरे में बैठकर—उस कमरे में जहां कि पहले कभी लोबान नहीं लाया गया है, और कमरा बन्द कर लें। अल्लाह का उच्चारण भी सिर्फ अल्लाह नहीं, ‘अल्लाहू उसका ठीक उच्चारण है—अल्ला. .हू। हू पर जोर होना चाहिए। धीरे— धीरे अल्लाह छूटता जाएगा और हू शेष रह जाएगा, अपने आप। और जिस दिन ‘हू का ही उच्चार रह जाएगा उस दिन आप अचानक पाएंगे कि आपके कमरे में लोबान की गंध फैल गई है। यह आपके भीतर से आती हुई गन्ध होगी।

लोबान तो सिर्फ उसकी पैरेलल गन्ध है जो बाद में बाजार में खोजी गयी। खोजी इसलिए गई कि ‘हू, के उच्चार से आपके भीतर से जो गन्ध आनी शुरू होती है उससे कोई मेल खाती गन्ध मिल जाए, तो हम मस्जिद में जला दें। क्योंकि वहां ‘हू के उच्चार करनेवाले को सहयोगी हो जाएगी। दोहरा प्रयोग हो जाएगा। उसके भीतर से तो गन्ध जब उठेगी तब उठेगी, हम उसके बाहर पैदा कर देंगे। ओम् के साथ कभी भी, भूलकर भी किसी को लोबान का स्मरण नहीं आ सकता। उसकी चोट अलग जगह है, जहां से वह गन्ध नहीं निकल सकती।

हमारे शरीर में गन्ध के भी क्षेत्र है और हमारे मनोभावों से गन्ध के संबंध है। इसलिए जैन कहते है कि महावीर के शरीर से दुर्गन्ध नहीं निकलती, सुगन्ध ही निकलती थी—और एक विशेष सुगन्ध ही। उस सुगन्ध के आधार पर तीर्थंकर पहचाना जाता रहा। महावीर के वक्त में आठ लोगों को दावा था कि वह तीर्थंकर थे, लेकिन सुगन्ध ने साथ नहीं दिया। आठ लोग दावेदार थे और महावीर से कोई कम नहीं था उन आठों में। ठीक उसी हैसियत के लोग थे। लेकिन उस मंत्र की धारा के लोग नहीं थे जिससे वह सुगन्ध निकले। इस वजह से वे दावे गलत हो गए।

बुद्ध के बाबत भी लोगों का दावा था कि वह भी तीर्थंकर हैं। महावीर से कम उनकी हैसियत जरा भी न थी। बिलकुल उसी हैसियत के आदमी थे। वही स्थिति थी उनकी, लेकिन उस मंत्र परम्परा के नहीं थे इसलिए महावीर का शरीर जो गन्ध दे पाता था वह बुद्ध का शरीर नहीं दे पाता था। निर्णय गन्ध से हुआ अन्ततः। महावीर के पास जाकर एक विशेष गन्ध आनी शुरू हो जाती थी। उस वक्त ऐसे लोग जिन्दा थे जिन्होंने कहा कि ठीक यही पार्श्वनाथ के शरीर से भी गन्ध आती थी। अभी ज्यादा दिन पार्श्वनाथ को मरे नहीं हुए थे। गन्ध की यह स्मृतिसूचक व्यवस्था थी कि जब भी तीर्थंकर पैदा होगा, यही गन्ध होगी। एक विशेष मंत्र की जो अंतिम प्रक्रिया है उसके बाद ही तीर्थंकर हो सकता है। उससे यह गन्ध निकलेगी, वह उसका प्रमाण होगी, उसका दावा नहीं होगा। इसलिए महावीर ने कोई दावा नहीं किया, वह तीर्थंकर हो गए। मक्खली गौशाल ने बहुत दावा किया लेकिन वे तीर्थंकर नहीं हो सके।

आपको हैरानी मालूम होगी कि गन्ध से तीर्थंकर तय होते थे। आसान नहीं था मामला। उतनी ही गहरी परीक्षा चाहिए थी, शब्द कुछ कह नहीं सकते थे। पूरा व्यक्तित्व गन्ध देना चाहिए कि उस व्यक्ति के भीतर वह फूल खिला है! उस मंत्र की अंतिम प्रक्रिया पूरी हो गयी, जहां से तीर्थंकर जन्मता है। नहीं तो उसको तीर्थंकर नहीं मानते। मक्खली गौशाल का दावा था, अजितकेश कंबल कह रहा था, संजय विलट्टिपुत्त सब दावेदार थे। ये सब बड़े लोग थे, किन्तु इन सबके नाम खो गए। उस वक्त ये सब महावीर की हैसियत के लोग थे। इनमें से प्रत्येक के लाखों शिष्य थे और उनका दावा था कि हमारा आदमी तीर्थंकर है। उधर महावीर बिलकुल चुप थे इस मामले में, कभी उन्होंने दावा नहीं किया। और अन्तत: लोगों ने कहा कि तीर्थंकर तो वही आदमी है जिसके शरीर से वही गन्ध प्रवाहित हो रही है!

प्रत्येक मंत्र से होनेवाली अपनी गन्ध है। ओम् का जिन्होंने पाठ किया है उन्होंने गन्ध जानी है। प्रत्येक मंत्र से, भीतर पैदा होनेवाले प्रकाश का भी अनुभव है। उस प्रकाश के आधार पर मंदिर में कितना प्रकाश हो, उसका इन्तजाम किया गया। उससे ज्यादा नहीं। आज जो बिजली के बल्व मंदिर में लगाकर बैठे हैं उनके पागलपन का कोई अन्त नहीं। इससे कोई लेना—देना नहीं है। क्योंकि वहां, ठीक अंतर आकाश में जितना प्रकाश होता था, उतनी ही प्रकाश की व्यवस्था मंदिर में करनी थी। बहुत मद्धिम, अनाक्रमक प्रकाश! इसलिए घी को चुना। बहुत अनाक्रमक, आंख को चोट करता हुआ नहीं। यह एकदम से खयाल नहीं आएगा कि हमने कभी प्रकाश पर आंख के टिकाने का कोई अभ्यास नहीं किया था।

मिट्टी के तेल का दीया जला लें, उस पर घण्टेभर आंख को रोककर देखें। मिट्टी के तेल के दीये पर घण्टेभर के बाद आंख जलेगी, दुख पाएगी और थक जाएगी। और घी के दीये पर घण्टेभर में आपके आंख की ज्योति बढ़ेगी और आंखें ज्यादा शांत और सिग्ध हो जाएंगी। यह हजारों लोगों के अन्तर—अनुभव थे, जिनको बाहर व्यवस्था दी गयी—पैरेलल थे बाहर के। निश्‍चित ही कोई बाहर ठीक वह दीया नहीं खोज सकते जो भीतर हो सकता, लेकिन निकटतम, एप्रोक्सिमेट, जो हो सकता था उस वक्त वह उन्होंने खोज लिया। बाहर हम ठीक वह सुगन्ध नहीं खोज सकते जो भीतर पैदा होगी मंत्र के उच्चार से, लेकिन फिर भी निकटतम हम खोज लेते हैं।

चन्दन सारे मंदिरों में प्रीतिकर हो गया। चंदन का टीका हम जहां लगाते हैं वह आज्ञाचक्र है। मंत्र हैं, जिनके अनुभव से भीतर चंदन की सुगन्ध पैदा होनी शुरू होती है, लेकिन उस सुगन्ध का स्रोत सदा ही आज्ञाचक्र होता है। जब भी वह अनुभव आता है तो ऐसा ही लगता है कि आज्ञाचक्र से सुगन्ध निकल रही है और चारों तरफ

फैल रही है। वही पैरेलल प्रतीक! हमने चंदन घिसकर आज्ञाचक्र पर लगाया। जब भीतर आज्ञाचक्र पर सुगन्ध पैदा होती है तो इतनी शीतलता का अनुभव होता है जैसे बर्फ का टुकड़ा रख दिया है।

ध्यान रहे, शीतल और ठण्‍डी चीज में फर्क है। ठीक वैसा ही फर्क, जैसे कि मिट्टी के तेल के दीये में और घी के तेल के दीये में है। बर्फ ठण्‍डा जरुर है, शीतल नहीं है। बर्फ का, थोड़ी देर के बाद का अनुभव गर्मी का होगा, उत्ताप का होगा। ठंडक जरूर है, शीतल नहीं। जो अंतिम फलश्रुति निकलेगी वह तो उत्ताप ही निकलनेवाली है। आप और गर्म हो गए होते है। लेकिन चंदन शीतल है, अच्छा नहीं है—सिर्फ शीतल है। यह बहुत आर्द्र स्थिति है, और जिसमें डेप्थ है। आपके सिर को हम बर्फ से क्या दें तो वह सिर्फ सतह को छूता है। अब चंदन को लगाकर देखें। आज्ञाचक्र पर बर्फ को लगाकर देखें थोड़ी देर, और बर्फ को अलग रख दें, तो आप पायेंगे कि एक सतह पर उसने छूआ, चमड़ी के पार वह नहीं गया, वहां उत्ताप पैदा कर गया। फिर चंदन को लगा लें। थोड़ी देर के बाद आपको लगेगा कि चमड़ी के पार उसकी शीतलता उतरती जा रही है। चमड़ी के पार! चमड़ी के पार न पहुंचे तो बेकार है, क्योंकि जो चक्र है वह तो चमड़ी के पार है। जिन लोगों को आज्ञाचक्र की गति का अनुभव हुआ और उन्होंने वहां शीतलता जानी, उन्होंने चंदन को खोज लिया। उसकी सुगन्ध भी ठीक वैसी है जैसी भीतर अनुभव हुई।

ये सारे के सारे उपकरण समानान्तर है। और जब मंदिर इन सबसे भरा होता है तो आविष्ट होता है। इसलिए मंदिर में कोई बगैर खान किए न जाए। हम उसके व्यक्तित्व के, क्षणभर को ही सही, पुराने तारतम्य को तोड़ना चाहते है। बिना घण्टा बजाये न जाए, बासे कपड़े पहनकर न जाए। सच तो यह है कि मंदिर में ठीक कपड़े पहनने के लिए जो व्यवस्था थी, वह रेशम की थी। क्योंकि रेशम शरीर की विद्युत को पैदा करने में बड़ा अदभुत था और उसको संरक्षित करने में भी। और कितना ही पहनें, बासेपन का खयाल नहीं पकड़ता। किसी गहरे अर्थ में ताजा बना रहता है। इस सारी व्यवस्था से अगर कोई मंदिर चलता हो तो वह मंदिर चार्ब्द, आविष्ठ हो जाता है। उसके पास से भी कोई गुजरेगा तो उस मंदिर का फील्ड पैदा हो जाता है।

महावीर के बाबत कहा जाता है कि महावीर जहां चलते उससे इतनी—इतनी सीमा के भीतर हिंसा नहीं हो सकती थी। वह उनका चाज्र्ड फील्ड था। इतनी—इतनी सीमा के भीतर हिंसा नहीं हो सकती थी। वह जहां से गुजरेंगे उनका फील्ड उनके साथ चलेगा। वह चलते हुए मंदिर है। उतनी सीमा के भीतर कुछ भी हो रहा हो, वह तत्काल बदल जाएगा। पूरा ‘नोअ—स्फियर’ हो जाएगा। तिलार जार्जिन ने नया एक शब्द गढ़ा है—नोअ—स्फियर’, एटमास्फियर की जगह। एटमास्फियर का तो मतलब होता है, वातावरण। ’नोअ—स्फियर’ को हिन्दी में हम कह सकते है— ‘विचारआवरण’, ‘मनस आवरण’। एक मन का भी आवरण है। उस फील्ड में ऐसी घटनाएं नहीं घटतीं।

इसलिए पुराने गुरु के आश्रम में अगर कोई गलत काम हो जाए तो शिष्यों को सजा नहीं दी जाती थी, गुरु अपने को सजा देता था। उसका मतलब है कि फील्ड नहीं रहा। उसका कोई कारण नहीं था कि शिष्य को कुछ कहा जाए। व्यर्थ है कहना उसको। उसका मतलब यह है कि गुरु की क्षमता नहीं रही। नहीं तो एक विशेष सीमा के भीतर तो वह नहीं हो सकता था जो हुआ है। दोष देने का किसी को कोई कारण नहीं है। गुरु स्वयं पश्रात्ताप करेगा, तपश्‍चर्या करेगा, उपवास करेगा, आत्मशुद्धि करेगा।

मगर गांधीजी ने उसको बहुत गलत पकडा। वह आत्मशुद्धि दूसरे के लिए प्रताड़ना नहीं है। वह इसलिए नहीं है कि इस तरह हम अपने को सताये, तो उससे दूसरे पर दबाव डाल देंगे, और उसका अन्तःकरण बदल देंगे। वह समझ नहीं पाये। उनको उसका पता भी नहीं था। गुरु ऐसा करता था, वह उसको बदलने के लिए नहीं करता था, वह सिर्फ जो फील्ड है उसके आस—पास, उसको बदलने के लिए करता था। और अगर वह फील्ड बदलता है, वह विचार—आवरण बदलता है, तो वह आदमी बदलेगा। वह उसको दबाने के लिए, उसको सताने के लिए नहीं था कि मैं अपने को सता रहा हूं तो तू अब बदल। ऐसा उसके अन्तःकरण—शुद्धि का सवाल नहीं था। अंतःकरण का सवाल नहीं, चारों तरफ की हवा बदल जाने की बात है। वह एक मैगनेटिक फील्ड है, जो हर ऐसा व्यक्ति लेकर चलता है।

ये व्यक्ति गतिमान मंदिर थे। महावीर जैसे व्यक्तियों को हम एक जगह नहीं बिठा सकते हैं। सदा के लिए नहीं बिठा सकते हैं। हमें कुछ ज्यादा स्थिर चाहिए जो गांव की जिन्दगी का केन्द्र बन जाए, जिसके आस—पास गांव बदलता रहे। जहां निरंत्तर हम कुछ डालते रहें मंदिर में जाकर, और मंदिर से हम लेते रहें। जिसका हमें पता भी न चले, यह सब अनजान चुपचाप हो जाए। मंदिर के पास से निकलें तो कुछ हो जाए। कोई भी निकले मंदिर के पास से तो कुछ हो जाए। एक बहुत बड़ा मैगनेटिक फील्ड है मंदिर, बाहर के लिए—स्व बाहरी प्रयोग के लिए। एक बाहरी प्रयोग के लिए उसको खड़ा किया था। जैसे कि चुम्बक के पास लोहा भी आए तो चुम्बकीय मालूम पड़ने लगे, वैसे ही मंदिर के पास कोई आए तो मंदिर उसे घेर ले और छा ले। तो ऐसा मंदिर का क्षेत्र था।

मूसा के जीवन में उल्लेख है कि जब मूसा पहाड़ पर गये, उन्होंने पहाड़ पर दिव्य अग्रि जलते देखी। एक झाड़ी में आग लगी है। पूरी झाड़ी जलती है, चारों तरफ आग है, फिर भी बीच में झाड़ी में फूल खिले हैं और झाड़ी में हरे पत्ते हैं। मूसा परमात्मा की खोज में है, वह एकदम अणे बढ़ा, तो झाड़ी से जोर से आवाज आयी कि ‘नासमझ, जूते सीमा के बाहर छोड़ दे ‘। सीमा वहां कोई न थी, खुला जंगल था। तो मूसा ने चलकर देखा कि सीमा कहां है? और जब उसको अनुभव हो गया कि सीमा यहां है, यानी जहां तक आ मूसा रहा, और जहां से एकदम आगे बढ़ा और उसे लगा कि कुछ बदला, वहां उसने जूते बाहर रख दिए। यह है मैगनेटिक फील्ड! उसने जूते बाहर रख दिये और माफी मांगी कि मुझे क्षमा कर देना, पवित्र भुमि में जूता ले आया।

मंदिर का एक वर्तुल है, उसके अपने आविष्ट क्षेत्र का—जो जीवन्त है, उस जीवत्त वर्तुल का पूरे गांव के लिए उपयोग था। और उससे परिणाम आये थे। हजारों हजारों साल तक भारत के गांव की जो निर्दोषता और पवित्रता थी, उसमें गांव कम जिम्मेवार था, उस गांव का मंदिर आविष्ठ था, वही ज्यादा जिम्मेवार था। तो जिस गांव में मंदिर नहीं था, उससे दीन गांव नहीं था। कितना ही गरीब गांव हो, मंदिर तो उसका होना ही था। मंदिर के बिना सब अस्त—व्यस्त था। हजारों वर्ष तक गांव ने एक तरह की पवित्रता कायम रखी। उस पवित्रता के बड़े अदृश्य स्रोत हैं। पूरब की संस्कृति को तोड्ने के लिए जो सबसे बड़ा काम हो सकता था वह मंदिर के आविष्ट रूप को तोड़ देना था। मंदिर का आविष्ट रूप टूट जाए तो पूरब की पूरी संस्कृति का जो आत्‍मस्रोत है वह बिखर जाता है।

इसलिए आज मंदिर पर भारी संदेह है। और जो भी थोड़ा पढ़ा—लिखा हुआ, जिसे मंदिर के जीवन्त रूप का ‘कोई अनुभव नहीं रहा, उसने केवल शब्द और तर्क सीखे स्कूल और कालेज में। जिसके पास सिर्फ बुद्धि रही और हृदयगत कोई द्वार न रहा, उसे मंदिर के पास जाकर कुछ दिखाई नहीं पड़ा। उसने कहा, कुछ भी नहीं है मंदिर में। धीरे— धीरे मंदिर का अर्थ टूटता चला गया।

भारत पुन: कभी भारत नहीं हो सकता जब तक उसका मंदिर जीवन्त न हो जाए। उसकी सारी कीमिया, सारी अल्केमी ही मंदिर में थी, जहां से उसने सब कुछ लिया था। चाहे बीमार हुआ हो तो मंदिर भागकर गया था, चाहे दुखी हुआ तो मंदिर भागकर गया, चाहे सुखी हुआ तो मंदिर धन्यवाद देने गया था। घर में खुशी आई हो तो मंदिर में प्रसाद चढ़ा आया। घर में तकलीफ आयी हो तो मंदिर में निवेदन कर आया। सब कुछ उसका मंदिर था। सारी आशाएं सारी आकांक्षाऐं सारी अभीप्साएं उसकी मंदिर के आस—पास थीं। खुद कितना ही दीन रहा हो, मंदिर को उसने सोने और हीरे—जवाहरातों से सजा रखा था।

आज जब हम सोचने बैठते हैं तो यह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ता है कि आदमी भूखों मर रहा है और मंदिर की प्रतिष्ठा हो रही है। मंदिर को हटाओ, एक अस्पताल बना लो। एक स्कूल खोल दो। इसमें शरणार्थी ही ठहरा दो। इस मंदिर का कुछ उपयोग कर लो। क्योंकि मंदिर का वास्तविक उपयोग हमें पता नहीं है, इसलिए वह बिलकुल निरुपयोगी मालूम हो रहा है। लगता है उसमें कुछ भी तो नहीं है। फिर मंदिर में क्या जरूरत है सोने की, क्या जरूरत है चांदी की, और मंदिर में क्या जरूरत है हीरों की, जब कि लोग भूखों मर रहे हैं! लेकिन ध्यान रहे भूखों मरनेवाले लोगों ने ही हीरा और सोना बहुत दिन से लगा रखा है। उसके कुछ कारण थे। जो भी उन लोगों के पास श्रेष्ठ था वह मंदिर में रख आए थे। क्योंकि जो भी उन्होंने श्रेष्ठ जाना था वह मंदिर से ही जाना था। इसके उत्तर में उनके पास कुछ देने को नहीं था। न सोना कोई उत्तर था, न हीरे कोई उत्तर थे। लेकिन जो मिला था मंदिर से, उसके प्रति कृतज्ञता से भरकर हम सब कुछ वहां दे सकते थे। जो भी था हम वहां रख आए थे। अकारण नहीं था वह। क्योंकि लाखों साल तक अकारण कुछ नहीं चलता। ये मंदिर के बाहरी उसके आविष्ट रूप के अदृश्य परिणाम थे, जो चौबीस घण्टे तरंगायित होते रहते थे। उसके चेतन परिणाम भी थे। उसके चेतन परिणाम बहुत सीधे साफ थे।

आदमी को निरत्तर विस्मरण है। जो महान है, विस्मृत हो जाता है; और जो क्षुद्र है, चौबीस घण्टे याद रहता है। परमात्मा को याद रखना पड़ता है, वासना को याद रखना नहीं पड़ता, वह याद रहती है। गड्डे में उतर आने में कोई कठिनाई नहीं होती, पहाड़ चढ़ने में कठिनाई होती है। तो मंदिर गांव के बीच में निर्मित करते थे ताकि दिन में दस बार आते—जाते रहें। वह हमारी आकांक्षा को भी निरत्तर जगाए रखे। और ध्यान रहे, हममें से बहुत कम ऐसे हैं जिनकी आकांक्षा सहज आंतरिक रूप से जगती है। हममें से बहुत आकांक्षाएं सिर्फ चीजों को देखकर ही जगती हैं।

अगर हवाई जहाज नहीं था दुनिया में तो आपको हवाई जहाज में उड़ने की कोई आकांक्षा नहीं जगती थी। हां, किसी राइट ब्रदर्स को जगती। जो एकाध आदमी है जो हवाई जहाज बनाता है उसको जगती है क्योंकि वह तो हवाई जहाज निर्माण करता है, लेकिन आप को कभी नहीं जगती। आप हवाई जहाज देखेंगे तो अवश्य जागेगी। हमें चीजें दिखाई पड़ती हैं तो हमारे भीतर उन्हें पाने की आकांक्षा जगती है।

तो मंदिर के रूप में परमात्मा का कहीं न कहीं कोई रूप, साकार रूप हमें दिखाई पड़ता था, जो हम अन्धों के मन में कहीं प्रवेश करता था। खास तौर से उन लोगों के मन में जो कि निराकार के लिए आतुर नहीं हो सकते थे। जो हो सकते थे निराकार के लिए राजी, उनके लिए तो कोई सवाल नहीं था मंदिर का। उन्होंने तो इस लिहाज से मंदिर को नुकसान पहुंचा दिया। उसमें भूल हुई। जो हो सकते थे निराकार से आविष्ट, उन्होंने कहा बेकार हैं मंदिर, उन्हें हटा दो।

मैं खुद ही निरंत्तर कहता रहता हूं कि बेकार हैं, हटा दो। लेकिन धीरे— धीरे मुझे खयाल में आया कि यह मैं कह रहा हूं और मंदिर हट गया तो जिनको आकार से कुछ स्मरण नहीं आया उनको निराकार से कैसे आ सकेगा? तो इस लिहाज से कई बार कठिनाई हुई है। महावीर अगर अपनी हैसियत से बोलेंगे तो कहेंगे, हटा दो। क्योंकि महावीर को कोई जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन कभी आपका खयाल आ जाए तो इसे रोक लेना पड़ेगा। यह आपके लिए चौबीस घण्टे आकांक्षा का एक नया स्रोत बना रहा है।

एक और द्वार भी है जीवन में—दुकान और घर ही नहीं, धन और स्‍त्री ही नहीं—एक और द्वार भी है जीवन में जो न बाजार का हिस्सा है, न वासना का हिस्सा है। न धन मिलता है वहां, न यश मिलता है वहां, न काम तृप्ति होती है वहां। एक जगह और भी है, यह गांव में ही नहीं है, जीवन में एक जगह और है। इसके लिए धीरे — धीरे यह मंदिर रोज आपको याद दिलाता है। और ऐसे क्षण हैं, जब बाजार से भी आप ऊब जाते हैं। तब मंदिर का द्वार खुला है। ऐसे क्षण में तत्काल आप मंदिर में ठहर पाते हैं। मंदिर सदा तैयार है। जहां मंदिर गिर गया वहां फिर बड़ी कठिनाई है, कोई विकल्प नहीं है। घर से ऊब जाएं तो होटल हो सकता है, रेस्तरां हो सकता है। बाजार से ऊब जाएं पर जाएं कहां? कोई अलग डायमेंशन, कोई अलग आयाम नहीं है—बस वही है—वही के वहीं घूमते रहते हैं।

मंदिर एक बिलकुल अलग डायमेंशन है जहां लेने—देने की दुनिया नहीं है। इसलिए जिन्होंने मंदिर को लेन—देन की दुनिया बनाया उन्होंने मंदिर को गिराया। जिन्होंने मंदिर को बाजार बनाया, उन्होंने मंदिर को नष्ट किया। जिन्होंने मंदिर को भी दुकान बना लिया, उन्होंने मंदिर को नष्ट कर दिया। मंदिर लेन—देन की दुनिया नहीं है। सिर्फ एक विश्राम है। एक विराम है, जहां आप सब तरफ के थके—मांदे चुपचाप सिर छिपाते हैं। वहां की कोई शर्त नहीं है कि आप इस शर्त से आओ। इतना धन हो तो आओ, इतना शान हो तो आओ, कि इतनी प्रतिष्ठा हो तो आओ, कि ऐसे कपड़े पहनकर आओ, कि मत आओ। वहां की कोई शर्त नहीं है। आप जैसे हो, मंदिर आपको स्वीकार कर लेगा। कहीं कोई जगह है जहां जैसे आप हो वैसे ही आप स्वीकृत हो जाओगे, ऐसा भी सरल स्थल है।

आपकी जिन्दगी में हर वक्त ऐसे मौके आये होंगे जब कि जो जिन्दगी है तथाकथित, उससे आप ऊबे होंगे, उस क्षण प्रार्थना का दरवाजा खुला होगा! और एक दफा भी वह दरवाजा आपके भीतर भी खुल जाए तो फिर दुकान में भी खुला रहेगा, मकान में भी खुला रहेगा। वह द्वार निरंत्तर पास होना चाहिए, जब आप चाहो वहां पहुंच सको। क्योंकि आपके बीच जिसको हम विराट का क्षण कहें वह बहुत अल्प है। कभी क्षणभर को होता है। जरूरी नहीं कि आप तीर्थ जा सको, जरूरी नहीं कि महावीर को खोज सको, कि बुद्ध को खोज सको। वह क्षण अल्प है, उस क्षण बिलकुल निकटतम आपके कोई जगह होनी चाहिए जहां आप प्रवेश कर सकें। इस स्मृति के अदभुत परिणाम हैं। जैसे छोटे बच्चे हैं—हम सभी छोटे बच्चे थे, और जो भी होगा वह छोटा बच्चा ही होगा पहले तो।

वैज्ञानिक कहते हैं कि सात साल में बच्चा करीब—करीब जो भी आधारभूत हैं, वह सीख लेता है। फिर इसी आधारभूत पर फैलाव हो सकता है। लेकिन नया बहुत कम जोड़ा जाता है। जुड़ता है, उसी दायरे में। कुछ नया नहीं जोड़ा जाता। अगर हमने सात साल के बच्चे तक की जिन्दगी में मंदिर नहीं जोड़ा, तो आप दोबारा नहीं जोड़ पाएंगे। बहुत कठिन हो जाएगा फिर जोड़ना। और यदि जोड्ने की मेहनत की भी गई तो वह कभी गहरा नहीं हो पायेगा, ऊपर ऊपर से रह जाएगा।

तो बच्चा पहले दिन पैदा हुआ और उसकी पहली स्मृति हम मंदिर की बनाना चाहते थे। वह मंदिर के पास ही बड़ा हो, वह मंदिर को जानता हुआ बड़ा हो, वह मंदिर को पहचानता हुआ बड़ा हो। मंदिर उसके अंतरंग का हिस्सा बन जाए। जब वह जिन्दगी में प्रवेश करे तो उसके भीतर मंदिर की एक जगह बन जाए। क्योंकि अंततः वही जगह उसका विश्रामस्थल बनेगी जीवन के अंत में! सारी दौड़— धूप के बाद वही कोना उसका आखिरी घर और निवास होनेवाला है। वह हमें पहले ही बना देना है। एक दफा वह नहीं बना तो फिर बहुत कठिनाई हो जाती है। व्यर्थ की कठिनाई हो जाती है। अभी तो इतनी सरलता से बन सकता है, फिर वह जगह निर्मित नहीं हो सकती। वह फिर कठिनता से भी नहीं बन पाता।

बाहर जो भी लोग जी रहे हैं मंदिर के प्रतिबिम्ब उनके चित्त में उतरने चाहिए। वह उनके अचेतन में इतने गहरे उतर जाएं कि सोच—विचार का भी हिस्सा न रह जाए, वह उनके हिस्से ही हो जाएं। इसलिए सारी पृथ्वी पर, चाहे रूप कोई भी हो— अलग अलग रूप रहे, लेकिन मंदिर अनिवार्य था। मनुष्य जिस सभ्यता और संस्कृति में जिया, उसका वह अनिवार्य अंग था।

अब हम जो दुनिया बनाने जा रहे हैं उसमें मंदिर अनिवार्य नहीं रह गया। कुछ और चीजें अनिवार्य हो गयीं। स्कूल हैं, अस्पताल हैं, पर ये सब अति लौकिक हैं, इनसे कुछ पार का, ‘बियाष्ठ’ का, कोई संबंध नहीं जुड़ता है। सदा ही, वह जो अतिक्रमण कर जाता है जीवन का, उसकी तरफ इशारा बना रहे। सुबह हमारी आंखें खुलें तो मंदिर की घण्टी बजती सुनाई पड़े। रात में सोने जाते हों तो मंदिर का भजन हमें सुनायी पड़े। हम न भी करें, तो भी मंदिर का भजन हमारे कान में पड़े।

महावीर के जीवन में एक कथा है, कि एक आदमी है चोर। मर रहा है, अपने बेटे को उसने कहा, जब बेटे ने पूछा है कि कोई आखिरी शिक्षा है मेरे लिए? तो उसने कहा, एक ही शिक्षा है कि यह जो महावीर नाम का आदमी है उसके पास मत खड़े होना। यह अगर तुम्हारे गांव में बोलता हो तो दूसरे गांव में भाग जाना। यह अगर रास्ते से गुजरता हो तो फौरन गली—कूचे में कहीं भी निकल कर छिप जाना। अगर पता न चले और तुम ऐसी जगह पहुंच जाओ जहां उसकी आवाज सुनायी पड़ गयी तो फौरन कान बंद करके, आंख बन्द करके दौड़ आना। इस आदमी से बचना।

चोर के लड़के ने कहा, लेकिन इतना डरने की इस आदमी से क्या जरूरत है? उसने कहा, में तुमसे कहता हूं, वह मानो। ऐसे आदमियों के पास गए तो अपना धन्धा सदा खतरे में होगा, फिर हम नहीं जी सकते। इनसे बचना। फिर बड़ी मजेदार कथा है। वह बचाता है जिन्दगीभर। सदा भागता रहा। जहां महावीर आते, वह वहां से भाग जाता। लेकिन एक दिन भूल हो गयी। वह एक रास्ते से गुजरता था और आसवन में महावीर बैठे थे, उसे कुछ पता न था। बोल नहीं रहे थे, जब वह आया था पास, तब बोल नहीं रहे थे। अचानक उन्होंने बोलना शुरू किया तो आधा वाक्य उसको सुनायी पड गया। उसने कान बन्द किए और भागा। लेकिन आधा वाक्य सुनायी पड ही गया। अब वह बडी मुश्किल में पड गया। आधा वाक्य! पुलिस उसके पीछे थी, राज्य उसके पीछे था—कोई दस—पन्द्रह दिन बाद वह पक्का गया। वह कुशल चोर था, पीढ़ी दर पीढ़ी का उसका धन्धा था। इतना कुशल चोर था कि राज्य के पास कोई भी प्रमाण न था। जाहिर था चोर वही है, जाहिर था बड़ी चोरी या उसी ने की है। सबको पता था। इसमें छिपा भी कुछ न था, जाहिर रहस्य था। लेकिन फिर भी प्रमाण कुछ न था। कुशल इतना था कि लोगों के घरों में खबर करके चोरी कर लेता था, पर प्रमाण नहीं मिलते। तो सिवाय इसके कोई रास्ता नहीं था कि कोई प्रमाण उससे ही निकलवाया जाए।

उसे गहरा नशा करके बेहोश किया गया, इतना बेहोश रखा कि उसे दो—तीन दिन बिलकुल होश में नही आने दिया। दो तीन दिन के बाद वह होश मे आया। उसने आँख खोली, तो तीन दिन की बेहोशी थी, खुमारी थी। देखा चारों तरफ कि अप्सराएं खड़ी है। उसने पूछा, मैं कहां हूं? तुम मर गए हो और तुम्हें स्वर्ग या नर्क ले जाने की तैयारी की जा रही है।

हम सिर्फ ले जानेवाले है। तुम होश में आ जाओ, इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि हम तुमसे पूछ लें। अगर तुमने जो जो पाप किए हैं वह तुम कह दो तो तुम स्वर्ग जा सकते हो, और न कहो तो नर्क। सत्य बोल दो, बस इतना काफी है। उसका मन हुआ कि बोल दे सत्य, स्वर्ग जाने का मौका न चूके। जब मर ही गया तो अब क्या डर है? लेकिन तभी महावीर का आधा वचन याद आया। जब वह गुजर रहा था उस वक्त महावीर कुछ देवताओं और प्रेतों के संबंध में बोल रहे थे। मृत्यु के पार जो यम ले जाते है उनके संबंध में कुछ इशारे थे। आधा वाक्य उसने सुना था। महावीर कह रहे थे कि वह जो ले जाते है मृत्यु के बाद, उनके पैर उल्टे होते है। उसने उनके पैर देख लिए, वे सब तो सीधे थे। वह सजग हो गया। उसने सोचा इस झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। समझ गया कि कुछ गड़बड मामला है। होश आ गया। उसने कुछ कहा नहीं। उसने कहा, पाप तो कुछ किए नहीं, तो वक्तव्य क्या दूं। नर्क ही ले चलो। पर जब पाप मैंने कुछ किए नहीं तो नर्क तुम ले जाओगे कैसे? उसे छोड़ दिया गया।

वह भागा हुआ महावीर के पास पहुंचा, जाकर उनका पैर पकड़ लिया और कहा कि पूरा वाक्य करो, आधे वाक्य ने बचा लिया। अब तुम्हारा पूरा वाक्य सुन लूं। मै तो भाग रहा था। आधा ऐसे ही सुन लिया था भागते—भागते। उसने बचा ली जिन्दगी, नहीं तो फांसी लग गयी होती! अब तुम पूरा कह दो प्रभु! कि क्या कहना है, नहीं तो फांसी कभी न कभी लगेगी। अब मै आ गया तुम्हारी शरण! तो महावीर अकसर कहा करते थे कि आधा वाक्य भागते हुए जबर्दस्ती सुना गया भी कभी काम का हो जाता है। तो मंदिर के पास से कभी भागता हुआ आदमी, ऐसे अकारण गुजरता हुआ आदमी, कभी उसके भीतर से उठती हुई ध्वनि को, कभी उसके भीतर से आती सुगन्ध को ऐसे ही सुन ले, तो भी काम आ सकती है।

‘मैं कहता आंखन देखी’ :

(अंतरंग भेट वार्ता बुडलैण्‍ड)

बम्बई दिनांक 26 अप्रैल 1971


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–9)

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प्रतिक्रमण: महावीर-सूत्र—(प्रवचन—नौवां)

हावीर ने जो जाना, उसे जीवन के भिन्न-भिन्न तलों तक पहुंचाने की अथक चेष्टा की है। कल हम सोचते थे कि मनुष्य से नीचे जो मूक जगत है, उस तक महावीर ने कैसे संवाद किया, कैसे वह प्रतिध्वनित किया जो उन्हें अनुभव हुआ है। दो बातें छूट गई थीं, वे विचार कर लेनी चाहिए।

एक तो मनुष्य से ऊपर के लोक भी हैं, उन लोकों तक महावीर ने कैसे बात पहुंचाई और मनुष्य तक उन्होंने पहुंचाने के क्या-क्या उपाय खोजे?

देवलोक तक बात पहुंचानी सर्वाधिक सरल है, जो हमें सर्वाधिक कठिन मालूम होगी। क्योंकि देव जैसी कोई चीज की स्वीकृति हमें बहुत कठिन मालूम पड़ती है। जो हमें दिखाई पड़ता है वही सत्य है; जो नहीं दिखाई पड़ता वह हमारे लिए असत्य हो जाता है। और देव उस अस्तित्व का नाम है, जो हमें साधारणतः दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन थोड़ा सा भी श्रम किया जाए तो उस लोक के अस्तित्व को भी देखा जा सकता है, उससे संबंधित भी हुआ जा सकता है।

और साधारणतः यह खयाल है–जैसा अभी पूछा भी–साधारणतः यह खयाल है कि देव कहीं और, प्रेत कहीं और रहते हैं, हम कहीं और। यह बात एकदम ही गलत है। जहां हम रह रहे हैं, ठीक वहीं देव भी हैं, प्रेत भी हैं। प्रेत वे आत्माएं हैं, जो इतनी निकृष्ट हैं कि मनुष्य होने की सामर्थ्य उन्होंने खो दी है और नीचे उतरने का कोई उपाय नहीं है। मनुष्य से नीचे की योनियों में जाने का कोई उपाय नहीं है। और मनुष्य होने की सामर्थ्य भी उन्होंने खो दी है। तो वे एक कठिनाई में हैं, वे नीचे की योनियों में जा नहीं सकतीं, मनुष्य की देह उन्हें उपलब्ध नहीं होती। ऐसी आत्माएं प्रतीक्षा करेंगी तब तक, जब तक या तो उनके योग्य गर्भ उन्हें उपलब्ध हो जाए, या उनके जीवन में परिवर्तन हो, रूपांतरण हो और वे जन्म ग्रहण कर सकें।

देव वे आत्माएं हैं, जो मनुष्य से ऊपर उठ गई हैं, लेकिन मोक्ष को उपलब्ध करने की सामर्थ्य उनकी नहीं है। यह अब प्रतीक्षा में जीवन है। यह कहीं दूर दूसरी जगह नहीं, किसी चांद पर नहीं, ठीक हमारे साथ है। और हमें कठिनाई यह होती है कि अगर हमारे साथ है तो हमें स्पर्श करना चाहिए, हमें दिखाई पड़ना चाहिए। कभी-कभी हमें स्पर्श भी करता है वह अस्तित्व और कभी-कभी किन्हीं क्षणों में दिखाई भी पड़ता है। साधारणतः नहीं, क्योंकि हमारे होने का ढंग और उसके होने के ढंग में बुनियादी भेद है। इसलिए दोनों एक ही जगह मौजूद होकर भी एक-दूसरे को काटने, एक-दूसरे की जगह घेरने का काम नहीं करते।

जैसे इस कमरे में दीए जल रहे हैं और दीयों के प्रकाश से सारा कमरा भरा हुआ है। और मैं आऊं और एक सुगंधित इत्र यहां छिड़क दूं, तो कोई मुझसे कहे कि कमरा तो प्रकाश से बिलकुल भरा हुआ है, इत्र के लिए जगह नहीं है। इत्र पूरे कमरे में फैल कर इत्र भी सुगंध भर दे अपनी। प्रकाश भी भरा था कमरे में, सुगंध भी भर गई कमरे में। न सुगंध प्रकाश को छूती है, न प्रकाश सुगंध को छूता है, न एक-दूसरे को बाधा पड़ती है इससे कि कमरा पहले से भरा है। उन दोनों का अलग अस्तित्व है। प्रकाश का अपना अस्तित्व है, सुगंध का अपना अस्तित्व है, दोनों एक-दूसरे को न काटते, न छूते; दोनों पैरेलल, समानांतर चलते हैं।

फिर कोई तीसरा व्यक्ति आए और एक वीणा बजा कर गीत गाने लगे और हम उससे कहें कि कमरा बिलकुल भरा है, वीणा बज नहीं सकेगी, प्रकाश पूरा घेरे हुए है, सुगंध ने एक-एक कोने को घेर दिया है, अब तुम्हारी ध्वनि को जगह कहां है? लेकिन वह वीणा बजाने लगे और ध्वनि भी इस कमरे को भर ले।

तो ध्वनि को जरा भी बाधा नहीं पड़ेगी इससे कि प्रकाश है कमरे में, कि गंध है कमरे में, क्योंकि ध्वनि का अपना अस्तित्व है। ध्वनि अपनी स्पेस पैदा करती है अलग, उसका अपना आकाश है। गंध का अपना आकाश है, प्रकाश का अपना आकाश है। प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक अस्तित्व का अपना आकाश है और दूसरे को काटता नहीं।

इसलिए जब हमें ये सब सवाल उठते हैं कि कहां रहते हैं देवता, कहां जीते हैं प्रेत, तो हम सदा ऐसा सोचते हैं कि हमसे कहीं दूर! वैसी बात ही गलत है। वे ठीक समानांतर हमारे जी रहे हैं हमारे साथ। और यह बड़ा उचित ही है कि साधारणतः वे हमें दिखाई नहीं पड़ जाते हैं, नहीं तो हमारा जीना बड़ा कठिन हो जाए। और साधारणतः हम उनके स्पर्श में नहीं आते हैं, नहीं तो जीवन बड़ा कठिन हो जाए।

लेकिन किन्हीं घड़ियों में, किन्हीं क्षणों में वे दिखाई भी पड़ सकते हैं, उनका स्पर्श भी हो सकता है, उनसे संबंध भी हो सकता है। और महावीर या उस तरह के व्यक्तियों के जीवन में निरंतर उनका संबंध और संपर्क है, जिसे परंपराएं समझाने में एकदम असमर्थ हैं। यह बातचीत ऐसे ही हो रही है जैसे दो व्यक्तियों के बीच हो रही हो–महावीर की या इंद्र की या और देवताओं की। उस बातचीत में कहीं भी ऐसा नहीं है कि कोई कल्पना-लोक में बात हो रही हो। यह अत्यंत सामने-आमने बात हो रही है।

और किसी एक के साथ ऐसा नहीं हो रहा है, बुद्ध के साथ भी वैसा हो रहा है, जीसस के साथ भी वैसा हो रहा है। जगत के इन सारे व्यक्तियों के साथ, मोहम्मद के साथ वैसा हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे भीतर भी कुछ उनसे संबंधित होने का मार्ग है, लेकिन प्रसुप्त है।

मनुष्य के मस्तिष्क का शायद एक तिहाई भाग काम कर रहा है, दो तिहाई भाग बिलकुल ही काम नहीं कर रहा है। इससे वैज्ञानिक भी चिंतित हैं। अगर हम एक आदमी की खोपड़ी को काटें तो एक तिहाई हिस्सा केवल सक्रिय है, बाकी दो तिहाई हिस्सा बिलकुल निष्क्रिय पड़ा हुआ है। शरीर में और कोई चीज निष्क्रिय नहीं है, सब चीजें सक्रिय हैं, सिर्फ मस्तिष्क का दो तिहाई हिस्सा बिलकुल निष्क्रिय पड़ा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है।

वैज्ञानिकों को भी यह खयाल आना शुरू हुआ है कि यह दो तिहाई हिस्सा जीवन के किन्हीं तलों को स्पर्श करता होगा, अगर सक्रिय हो जाए। अब जैसे उदाहरण के लिए कुछ बातें हम समझें। आपकी आंख देखती है, क्योंकि आंख से जुड़ा हुआ मस्तिष्क का हिस्सा सक्रिय है। अगर वह हिस्सा निष्क्रिय हो जाए, आपकी आंख देखना बंद कर देती है। यह भी हो सकता है अंधे आदमी की आंख बिलकुल ठीक हो, लेकिन मस्तिष्क का वह हिस्सा, जिससे आंख सक्रिय होती है, निष्क्रिय पड़ा है, तो बिलकुल ठीक आंख भी नहीं देख सकेगी।

एक लड़की मेरे पास आती थी। उस लड़की का किसी से प्रेम था और घर के लोगों ने उस विवाह को इनकार कर दिया और उस लड़की को उस युवक को देखने की भी मनाही कर दी, सख्त पाबंदी लगा दी, उसे बिलकुल घर के भीतर कैद कर दिया। वह लड़की दूसरे दिन अंधी हो गई। उसको सब चिकित्सकों को दिखाया। उन्होंने कहा कि आंख तो बिलकुल ठीक है। जांच-पड़ताल की, लेकिन यह भी पक्का है कि उसे दिखाई नहीं पड़ता। उसे दिखाई भी नहीं पड़ रहा है और आंख बिलकुल ठीक है।

वह मित्र मुझे कहे कि बड़ी मुश्किल में हम पड़ गए हैं। पहले तो हमने समझा कि वह सिर्फ धोखा दे रही है, क्योंकि हमने उस पर रुकावट लगाई, इसलिए धोखा दे रही है। लेकिन अब तो डाक्टर भी कहते हैं कि आंख तो ठीक है, लेकिन उसे दिखाई नहीं पड़ रहा।

मानसिक अंधापन है उसे–मेंटल ब्लाइंडनेस है। मानसिक अंधापन का मतलब यह है कि मस्तिष्क का वह हिस्सा जो आंख से जुड़ कर आंख को दिखाने का काम करता है, बंद हो गया। जैसे ही उस लड़की को कहा कि जिसे वह प्रेम करती है, उसे अब नहीं देख सकेगी, हो सकता है उसके मस्तिष्क को यह खयाल आया कि अब देखने का कोई अर्थ ही नहीं है। जिसे हम प्रेम करते हैं उसे ही न देख सकें तो अब देखने की भी क्या जरूरत है? और मस्तिष्क का वह हिस्सा बंद हो गया और आंख ने देखना बंद कर दिया।

बहुत से प्राणी हैं, बहुत सी योनियां हैं, जिनके पास मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो देख सकता है, लेकिन निष्क्रिय है, तो उन प्राणियों में आंखें पैदा नहीं हो पाई हैं। ऐसे प्राणी हैं जिनके पास कान नहीं हैं, वह हिस्सा है जो सुन सकता है, लेकिन निष्क्रिय है; इसलिए कान पैदा नहीं हो पाए। मनुष्य की पांच इंद्रियां हैं अभी, क्योंकि मस्तिष्क के पांच हिस्से सक्रिय हैं, शेष बहुत बड़ा हिस्सा निष्क्रिय पड़ा हुआ है। अब तो वैज्ञानिक को भी यह खयाल में आता है कि वह जो शेष हिस्सा निष्क्रिय पड़ा है, अगर उसमें से कुछ भी सक्रिय हो जाए तो नई इंद्रियां शुरू होंगी।

अब जिस आदमी ने कभी प्रकाश नहीं देखा है, वह कल्पना ही नहीं कर सकता कि प्रकाश कैसा है; और जिसने ध्वनि नहीं सुनी है, वह कल्पना भी नहीं कर सकता है कि ध्वनि कैसी है। और हम समझ लें कि एक गांव हो जिसमें कि सब बहरे हों, तो उस गांव में कभी ध्वनि की चर्चा भी नहीं होगी। चर्चा भी नहीं हो सकती, क्योंकि सवाल ही नहीं है, ध्वनि कभी सुनी नहीं गई। और अगर उन बहरों को कोई किताब मिल जाए, जिसमें लिखा हो कि ध्वनि होती थी या कहीं ध्वनि होती है, तो वे सब हंसेंगे और कहेंगे, यह कैसी बात है! ध्वनि यानी क्या? ध्वनि कहां है? किस जगह है? हम कहां ध्वनि को पकड़ें? कहां ध्वनि हमें मिलेगी? उनके सब प्रश्न संगत होते हुए भी व्यर्थ होंगे।

हमारे मस्तिष्क के बहुत से हिस्से हैं, जो निष्क्रिय हैं और अगर वे सक्रिय हो जाएं तो जीवन और अस्तित्व की अनंत संभावनाओं से हमारे संबंध जुड़ने शुरू होते हैं। जैसे कि थर्ड आई की, तीसरी आंख की बात निरंतर हम सुनते हैं। वह अगर सक्रिय हो जाए, वह हिस्सा जो हमारी दोनों आंखों के बीच का निष्क्रिय हिस्सा है अभी, अगर वह सक्रिय हो जाए तो हम कुछ ऐसी बातें देखना शुरू कर देते हैं, जिनकी हमें कल्पना ही नहीं है।

हवाई जहाज में अगर आप बैठ कर इंजन के पास गए हों तो आपने राडार देखा होगा, जो सौ मील या डेढ़ सौ मील आगे तक के चित्र देता रहता है। इसलिए अब पायलट को हवाई जहाज के भीतर बैठ कर बाहर देखने की कोई जरूरत नहीं है और बाहर देखने का कोई प्रयोजन भी नहीं है, क्योंकि हवाई जहाज इतनी गति से जा रहा है कि अगर चालक देख भी ले कि सामने हवाई जहाज है तो भी उसे बचाया नहीं जा सकता टकराने से, क्योंकि जब तक वह बचाएगा तब तक टकरा ही जाएगा। गति इतनी तीव्र है।

तो अब तो उसे डेढ़ सौ, दो सौ मील दूरी की चीजें दिखाई पड़नी चाहिए। दो सौ मील पर उसे दिखाई पड़े कि बादल है तो अभी वह बचा सकता है। और बचाते-बचाते वह दो सौ मील पार कर जाएगा, यानी बचा पाएगा तब तक बादल के आगे या नीचे या ऊपर हो जाएगा। तो राडार है जो दो सौ मील देख रहा है और राडार पर दो सौ मील आगे वर्षा हो रही है कि बादल जा रहे हैं कि हवाई जहाज है कि दुश्मन है कि क्या है, वह सब राडार पर चित्र आ रहा है।

मनुष्य की जो तीसरी आंख है वह राडार से भी अदभुत है, उसमें कोई स्थान और काल का सवाल ही नहीं है, दो सौ मील का सवाल नहीं है। वह एक बार सक्रिय हो जाए तो कहीं भी क्या हो रहा है, उसके प्रति ध्यानस्थ होकर, उस होने को तत्काल पकड़ा जा सकता है। उस तीसरी आंख की संभावना यह भी है कि आगे क्या होगा, उसकी बहुत सी संभावनाएं पकड़ी जा सकती हैं। पीछे क्या हुआ है, ये संभावनाएं भी पकड़ी जा सकती हैं।

मस्तिष्क का एक और हिस्सा है जो अगर सक्रिय हो जाए, तो हम दूसरे के मन में क्या विचार चल रहे हैं, उनकी झलक पा सकते हैं। और हमारे मन में क्या विचार चल रहे हैं, अगर हम बिना वाणी के उन्हें दूसरे में डालना चाहें तो दूसरे में डाला भी जा सकता है। सवाल है कि मस्तिष्क के हमारे और हिस्से कैसे सक्रिय हो जाएं?

मस्तिष्क का एक हिस्सा है, जो सक्रिय होने से देवलोक से जोड़ देता है। उस जुड़ जाने के बाद जो हमारा दर्शन है, हम खुद मुश्किल में पड़ जाएंगे, क्योंकि हम दूसरों को बता नहीं सकते कि यह हो रहा है।

स्विडनबोर्ग एक अदभुत व्यक्ति हुआ। आठ सौ मील दूर एक मकान में आग लग गई है बारह बजे और वह किसी मित्र के घर ठहरा है और वह एकदम से चिल्लाया है कि पानी लाओ, आग लग गई और भागा और बालटी भर कर पानी लेकर आ गया खुद।

तो उन मित्रों ने कहा, कहां आग लगी है?

तब उसने कहा, अरे-अरे, बड़ी भूल हो गई! बालटी नीचे रख दी। उसने कहा, बड़ी भूल हो गई, वह आग तो बहुत दूर लगी है। लेकिन जब मुझे दिखी तो मुझे ऐसा लगा कि यहीं लगी है। वह तो आठ सौ मील दूर लगी है। वह तो वियना में लगी है, फलां-फलां घर बिलकुल जला जा रहा है। मित्रों ने कहा कि आठ सौ मील दूर का फासला है यहां से, कैसे तुम्हें दिख सकता है? उसने कहा, मुझे दिख रहा है, बिलकुल जैसे कि यहां आग लगी हो और मुझे दिख रहा है।

तीन दिन लग गए खबर लाने में, लेकिन ठीक जिस जगह उसने बताई थी आग लगी थी और जिस जगह उसने बताई थी कि उसके बाद मकान पर चोट नहीं पहुंची, उस मकान तक आग लगी और बुझ गई है, वहीं तक चोट पहुंची थी और आग नहीं लगी थी।

उसने देवताओं के संबंध में बहुत अदभुत बातें कही हैं। संभवतः यूरोप में देवलोक के संबंध में जानकारी रखने वाला वह पहला आदमी है। उसने एक किताब लिखी है–हैवन एंड हेल, स्वर्ग और नर्क। और बड़ी अदभुत किताब है, जिसमें उसने आंखों देखे वर्णन दिए हैं। लेकिन उन पर तो भरोसा करने की बात नहीं उठती एकदम से, क्योंकि हमारे लिए तो वह कुछ भी सब बेमानी है कि ऐसा कहीं हो रहा है। लेकिन स्विडनबोर्ग की जिंदगी में और ऐसी घटनाएं थीं जिनकी वजह से लोगों को मजबूर होना पड़ा कि जो वह कहता होगा, वह ठीक कहता होगा।

एक सम्राट ने यूरोप के उसे अपने घर बुलाया और उससे कहा, मेरी पत्नी मर गई है। तुम उससे संबंध स्थापित करके मुझे कहो कि वह क्या कहती है। उसने दूसरे दिन आकर खबर की कि तुम्हारी पत्नी कहती है कि फलां-फलां अलमारी में ताला पड़ा है, चाबी उसकी खो गई है। वह तुम्हारी पत्नी के वक्त में ही खो गई थी। तो उसका ताला तोड़ना पड़ेगा और उसमें उसने तुम्हारे नाम एक पत्र लिख कर रखा है और उस पत्र में उसने यहऱ्यह लिखा है।

पत्नी को मरे पंद्रह साल हो गए हैं। वह अलमारी कभी खोली नहीं गई थी। बड़ा सम्राट है, बड़ा महल है। चाबी खोजी गई, चाबी नहीं मिल सकी है उसकी, वह पत्नी के पास ही हुआ करती थी। फिर ताला तोड़ा गया है। निश्चित, उसमें एक बंद लिफाफे में पत्र रखा हुआ है, जो पंद्रह साल पहले उसकी पत्नी ने उसे लिखा था। और उसे खोला गया है और जो इबारत स्विडनबोर्ग ने उसे बताई है, वह इबारत उस पत्र में है।

ये जो संभावनाएं हैं मस्तिष्क के और-और तलों के मुक्त हो जाने की, महावीर इन पर अथक श्रम किए हैं, अभिव्यक्ति के लिए। अगर देवलोक के साथ अभिव्यक्ति करनी है तो हमारे मस्तिष्क का एक विशेष हिस्सा टूट जाना चाहिए, एक द्वार खुल जाना चाहिए। वह द्वार न खुल जाए तो उस लोक तक हम कोई खबर नहीं पहुंचा सकते। जैसे मनुष्य तक खबर पहुंचानी हो तो शब्द का द्वार होना चाहिए, नहीं तो पहुंचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा–वैसे ही उस लोक से भी मस्तिष्क के कुछ द्वार खुलने चाहिए। और हमें कठिनाई क्या होती है कि जो हमारी सीमा है इंद्रियों की, उससे अन्यथा को स्वीकार करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

एक आदमी पिछले महायुद्ध में, दूसरे महायुद्ध में ट्रेन से गिर पड़ा। और ट्रेन से गिरने के बाद एक अदभुत घटना घटी, जो कभी नहीं घटी थी जमीन पर। ऐसे बहुत लोगों ने कहा था, लेकिन उसका वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं हो सका था। गिर जाने से उसे दिन में आकाश में तारे दिखाई पड़ने लगे। उसके मस्तिष्क का एक हिस्सा, जो निष्क्रिय भाग है, वह सक्रिय हो गया चोट लगने से और उसे दिन में आकाश में तारे दिखाई पड़ने लगे। तारे खोते नहीं हैं, वे रहते तो हैं, लेकिन सूरज के प्रकाश में ढंक जाते हैं और हमारी आंख समर्थ नहीं है उनको देखने में। लेकिन उस आदमी को दिन में तारे दिखाई पड़ने लगे।

पहले तो लोगों ने समझा, वह पागल हो गया, लेकिन जो-जो उसने सूचनाएं दीं, वे बिलकुल सही थीं! तारे वहां थे और जब प्रयोगशालाओं ने सिद्ध कर दिया कि जहां वह जो बताता है, वहां वह है इस वक्त, तब फिर बड़ा मुश्किल हो गया। लेकिन वह आदमी घबड़ा गया था और उस आदमी को बड़ी मुश्किल हो गई थी। तो उस आदमी के सिर का आपरेशन करना पड़ा, ताकि उसे दिन में तारे दिखाई पड़ने बंद हो जाएं। नहीं तो वह तो बहुत मुश्किल में पड़ गया, उसका तो सब मस्तिष्क चकरा गया।

एक आदमी दूसरे महायुद्ध में युद्ध में चोट खाया, अस्पताल में भर्ती किया गया और उसे ऐसा लगा कि आस-पास कोई रेडियो चला रहा है। तो उसने सब तरफ देखा, अस्पताल में तो कोई रेडियो नहीं चल रहा है, लेकिन उसे साफ सुनाई पड़ रहा है। चोट लगने से कान उसका इस भांति रेडियो-सेंसिटिव हो गया कि वह जिस नगर में था, दस मील के आस-पास के किसी भी स्टेशन को उसका कान पकड़ने लगा और बंद करने का कोई उपाय नहीं था। तो उस आदमी के पागल होने की नौबत आ गई। और जब वह पकड़ने लगा वे ध्वनियां, तो पहले तो शक हुआ। जब उसने नर्सों को, डाक्टरों को कहा, तो उन्होंने कहा, तुम पागल तो नहीं हो गए, यहां तो कोई रेडियो नहीं, सब सायलेंट है! यह सायलेंस-ज़ोन है। यहां कोई रेडियो नहीं बजा सकता। यहां कोई आवाज हमको भी आनी चाहिए।

पर उसने कहा, यह फलां-फलां गीत की कड़ी आ रही है, और इसके बाद यह कड़ी आ रही है, इसके बाद यह कड़ी आ रही है। वे गए भागे हुए, सामने के होटल में जाकर रेडियो खोला, वे कड़ियां आ रही थीं। फिर तो उन्होंने तालमेल बिठाया, वह तो जो इस नगर में थी यह घटना, उस नगर के स्टेशन का सब पकड़ लेता था। मस्तिष्क का उसका एक हिस्सा सक्रिय हो गया था, जो हमारा सक्रिय नहीं है। तब उसका आपरेशन करना पड़ा। क्योंकि वह हिस्सा अगर सक्रिय रहे तो उसकी जिंदगी मुश्किल हो जाए। क्योंकि रेडियो को तो हम बंद कर सकते हैं, वह बेचारा बंद नहीं कर सकता। वह तो चलता चला जाए।

हमारे मस्तिष्क की संभावनाएं अनंत हैं, लेकिन हमें तो स्वभावतः जितनी संभावना हमारी प्रकट हुई है, उसके आगे सब अंधकार मालूम पड़ता है। वह मालूम पड़ेगा ही। वह हमें मालूम पड़ेगा ही।

अभी रूस में एक वैज्ञानिक है, फयादेव। उसने एक हजार मील तक टेलीपैथिक संदेश भेज कर नया चमत्कार उपस्थित किया है–और रूस में! इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि रूस इस तरह की बातों पर अनायास विश्वास करने के लिए कतई तैयार नहीं है।

फयादेव ने मास्को में बैठ कर तिफलिस नगर के–एक हजार मील के फासले पर तिफलिस नगर में उसके मित्र एक बगीचे की झाड़ी में छिपे हुए हैं और पूरे वक्त वायरलेस से संबंध है उनका। और वे मित्र उसे कहते हैं कि दस नंबर की बेंच पर एक आदमी आकर बैठा है, तुम उसे मास्को से सुझाव देकर सुला दो। फयादेव कहता है, मैं पांच मिनट में उसे सुला दूंगा। वह पांच मिनट तक मास्को में बैठ कर चित्त को एकाग्र करके एक हजार मील दूर तिफलिस के फलां बगीचे में दस नंबर की बेंच पर जो आदमी बैठा हुआ है उसकी तरफ तीव्र प्रवाह से विचार भेजता है। और वह आदमी पांच मिनट बाद सो जाता है वहीं बेंच पर!

लेकिन उसके मित्र कहते हैं कि हो सकता है, वह थका-मांदा हो और अनायास सो गया हो, तो तुम उसे तीन मिनट के भीतर अगर उठा दो अब वापस। तो वह उसे फिर वापस सुझाव भेजता है उठने के, वह आदमी तीन मिनट के भीतर उठ आता है। वे मित्र उस आदमी के पास जाते हैं और उससे पूछते हैं। वह अजनबी आदमी है। उससे पूछते हैं, तुम्हें कुछ लगा तो नहीं?

उसने कहा, सच में हैरानी की बात है, कुछ लगा जरूर। पहले मैंने खयाल नहीं किया, जैसे ही मैं बेंच पर आकर बैठा कोई मेरे भीतर जोर से कहने लगा, सो जाओ, सो जाओ, सो जाओ! और मैं बिलकुल थका-मांदा नहीं था, मैं तो सिर्फ किसी की प्रतीक्षा करने इस बगीचे में आकर बैठा हूं, कोई आने वाला है, उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूं। लेकिन इतने जोर से आया यह सो जाने का खयाल मुझे कि मैं सो गया। और अभी-अभी किसी ने मुझे जोर से कहा है कि उठो, उठो, तीन मिनट के भीतर उठ जाना है। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है, क्या बात हो गई है!

फिर तो फयादेव ने बहुत प्रयोग करके बताए, जिनमें उसने यह स्थापित कर दिया कि विचार की तरंगें भी संप्रेषित होती हैं–बिना वाणी के।

सोहन यहां बैठी हुई है। उसके घर में पहली या दूसरी दफा मेहमान था तो वह रात आकर मेरे बिस्तर के नीचे बिस्तर लगा कर सो गई। और उसने मुझसे कहा कि मैं तो आपसे कभी कुछ पूछती नहीं, सिर्फ एक सवाल मुझे पूछना है, आपकी मां का नाम क्या है?

तो उससे मैंने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है! तू आंख बंद कर ले, तुझे जो पहला नाम आ जाए, बोल दे।

अगर वह कहती कि इससे कैसे होगा, कैसे पता चलेगा, तो फिर मैं उसे बता देता। क्योंकि वैसा कहने वाला व्यक्ति फिर संवेदनशील नहीं हो सकता था। उसने बात मान ली, उसने कुछ भी नहीं पूछा। उसने आंख बंद कर ली और उसने कहा कि सरस्वती! मैंने कहा, वही मेरी मां का नाम है। पर उसे विश्वास न पड़ा। उसने कहा, लेकिन मैं यह कैसे मानूं? पता नहीं, आप कोई भी नाम में हां भर दें, आप किसी भी नाम में हां भर दें। तो मैंने कहा, यह तो इतनी कठिन बात नहीं है। तू मेरी मां से भी मिल लेना और यह तो पता लगाया जा सकता है। यह झूठ कितनी देर चल सकती है?

अब उसमें क्या हुआ? कुछ भी नहीं हुआ। वह जब दो मिनट शांत होकर लेट गई, तब मैं मन में सरस्वती, सरस्वती दोहराता रहा। और वह चूंकि उत्सुक थी जानने को, इसलिए उसके विचार शांत हो गए हैं और यह शब्द टेलीपैथिकली ट्रांसफर हो गया। यह शब्द उसके मन में प्रतिध्वनित हो गया। उसने कह दिया कि सरस्वती। यह उसको पता नहीं कि कैसे आ गया।

थोड़े से इस पर प्रयोग करके देखना। रास्ते पर आप चले जा रहे हैं। थोड़े से प्रयोग इसलिए कहता हूं, ताकि आपको कुछ खयाल हो सके। चीजें तो और बहुत बड़ी हैं आगे, लेकिन छोटे से प्रयोग आपको खयाल दे सकते हैं। रास्ते पर आप चले जा रहे हैं और सामने एक आदमी जा रहा है। आप दोनों आंखों की पलकें झपकना बंद करके उसकी चैंथी पर देखते रहना थोड़ी देर, पीछे चलते रहना चुपचाप और देखते रहना और फिर जोर से कहना: पीछे लौट कर देखो! मन में ही। सौ में निन्यानबे मौके पर आदमी लौट कर पीछे देखेगा कि क्या बात है और उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसने लौट कर पीछे क्यों देखा।

ठीक गर्दन पर अगर आपकी दोनों आंखें केंद्रित हों तो कोई भी विचार एकदम से संप्रेषित हो जाता है। लेकिन होना चाहिए आपके पास तीव्रता से संप्रेषण करना। यानी आप अगर साथ में ऐसा कहें कि पता नहीं लौट कर देखेगा कि नहीं देखेगा, तो गड़बड़ हो गया। क्योंकि वह भी संप्रेषित हो गया। संप्रेषित होने की जो बात है, अगर आपने कहा कि लौट कर पीछे देखो और साथ में यह कहा कि पता नहीं लौट कर देखता है कि नहीं, तो यह भी संप्रेषित हो गया। वह भी आदमी को पहुंच गया। ये दोनों कट गए। वह आदमी सीधा चला जाएगा। वह लौट कर पीछे नहीं देखेगा।

हमारे मस्तिष्क की और-और संभावनाओं का हमें ठीक-ठीक बोध नहीं है। देवलोक से संबंधित होने के लिए मस्तिष्क का एक विशेष हिस्सा है, जो सक्रिय होना जरूरी है। सक्रिय होते ही से जैसे कि हम दूसरी दुनिया में प्रवेश कर गए। जैसे रात सोते में हम सपने में प्रवेश कर जाते हैं–एक नई दुनिया। सुबह जाग कर फिर एक दूसरी नई दुनिया शुरू हो जाती है। ठीक वैसे ही एक नई दुनिया में हम प्रवेश कर जाते हैं। यह प्रवेश उतना ही उसी भांति का है, जैसे कि रेडियो आपने ऑन किया और जो ध्वनियां यहां चल रही थीं, वह पकड़ाई जानी शुरू हो गईं। कोई ऐसा नहीं है कि रेडियो ऑन करते वक्त ध्वनियां आनी शुरू हो जाती हैं। ध्वनियां तो इस कमरे में दौड़ ही रही हैं, सिर्फ ऑन करते वक्त पकड़ी जाती हैं।

देवता तो प्रतिक्षण उपस्थित हैं ही, सिर्फ आपके मस्तिष्क की एक व्यवस्था खुल जाने पर वे पकड़े जाते हैं, वे देखे जाते हैं। इसके लिए विशेष योग है कि वह मस्तिष्क का हिस्सा कैसे टूट जाए। उस पर दोत्तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए। एक बात तो कि अगर कोई व्यक्ति समग्र चेतना से सारे शरीर को छोड़ कर सिर्फ दोनों आंखों के बीच में आज्ञा-चक्र पर ध्यान को स्थिर करता रहे, तो जहां हमारा ध्यान स्थिर होता है, वहीं सोए हुए केंद्र तत्काल सक्रिय हो जाते हैं। ध्यान सक्रियता का सूत्र है। शरीर में किन्हीं भी केंद्रों पर ध्यान जाने से सक्रिय हो जाते हैं।

जैसे एक ही खयाल हमें है। सेक्स के सेंटर का अधिक लोगों को अनुभव है। कभी आपने खयाल किया कि जैसे ही आपका ध्यान सेक्स की तरफ जाएगा, विचार जाएगा, सेक्स-सेंटर तत्काल सक्रिय हो जाएगा। जागते में ही नहीं, सोते में भी अगर स्वप्न में भी सेक्स की तरफ खयाल गया तो सेक्स-सेंटर फौरन सक्रिय हो जाएगा। सिर्फ ध्यान जाते से ही! सिर्फ जरा सी कल्पना उठते से भी वासना की, सेक्स का सेंटर फौरन सक्रिय हो जाएगा। एक सेंटर का हमें सामान्य खयाल है, इसलिए मैं उदाहरण के लिए कहता हूं। दूसरे सेंटर्स का हमें सामान्यतः बोध नहीं है। फिर भी एक-दो सेंटर का थोड़ा-थोड़ा हमें बोध है।

जैसे कोई आदमी नहीं मिलेगा जो कहे कि मुझे किसी के प्रति प्रेम हो गया और प्रेम की बात करते वक्त सिर पर हाथ रखे। कोई आदमी नहीं मिलेगा। प्रेम की बात करते वक्त हृदय पर हाथ रखने वाला आदमी मिलेगा। स्त्रियां तो आमतौर से जब प्रेम की बात करेंगी तो उनका हाथ हृदय पर चला जाएगा। वह बिलकुल ही चला जाएगा, वहां सेंटर है, जो प्रेम का ध्यान आते ही सक्रिय होता है।

लेकिन जैसे कोई चिंतित है और विचार में सक्रिय है तो उसका सिर पर हाथ जा सकता है, माथा खुजा सकता है। चिंतित व्यक्ति को ऐसा नहीं होगा कि कहीं और चला जाए, क्योंकि चिंतित व्यक्ति जहां विचार सक्रिय होता है, उसी सेंटर के आस-पास उसकी स्मृति का बोध जाएगा।

आज्ञा-चक्र वह जगह है, जिसे लोपसांग रेम्पा या दूसरे लोग जिसे थर्ड आई कहते हैं, वह जो तीसरी आंख की जगह है, अगर सारा ध्यान वहां केंद्रित हो जाए तो करीब-करीब भीतर एक आंख के बराबर का टुकड़ा बिलकुल ओपन हो जाता है, खुल जाता है, टूट जाता है। ऐसा कोई ऊपर से खोजने जाएगा तो पता नहीं चलेगा, लेकिन भीतर अगर वहां ध्यान केंद्रित हो तो ध्यानी व्यक्ति को निरंतर पता चलेगा कि कोई चीज वहां टूट रही है, कोई छेद वहां हुआ जा रहा है, कोई हैमरिंग वहां चल रही है।

और जिस दिन वह उसे लगता है कि छेद हो गया, उसी दिन उसे वे चीजें, जिन्हें हम देव कहें, प्रेत कहें, उनसे उसके सीधे संबंध स्थापित हो जाते हैं, जो हमारे संबंध नहीं हैं।

तो महावीर की, जिसको हम साधना-काल कह रहे हैं अभिव्यक्ति का माध्यम खोजने के लिए, बहुत समय इस तरह के केंद्रों को सक्रिय और तोड़ने के लिए गया और व्यतीत हुआ। इस तरह के केंद्रों को तोड़ने में जितना ज्यादा ध्यान बिना बाधा के दिया जा सके, उतना उपयोगी है, क्योंकि हैमरिंग का मामला है वह। वह ऐसा है कि अगर आपने पांच चोटें करके आप छोड़ कर चले गए तो दुबारा जब आप आएंगे तो पांच चोटें तब तक विलीन हो चुकीं। यानी आपको फिर अ ब स से शुरू करना पड़ेगा।

यह वजह है कि महावीर को बहुत दिन तक के लिए खाना-पीना, सारे काम, निद्रा सब त्याग कर देनी पड़ी। हैमरिंग सतत होनी चाहिए, इंटेंस होनी चाहिए, सीधी होनी चाहिए, दूसरी कोई भी बाधा बीच में नहीं होनी चाहिए। क्योंकि जैसे ही कोई दूसरी बात आएगी, ध्यान वहां जाएगा। और ध्यान वहां गया कि वहां से जो काम हुआ था, वह अधूरा छूट जाएगा। इस अधूरे काम को न छूट जाए, इसलिए जीवन के सारे काम जो बाधाएं डाल सकते हैं, उन सारे कामों से ध्यान हटा लेना है। सारे ही कामों से ध्यान हटा लेना है, तभी एक केंद्र को पूरी तरह से सक्रिय किया जा सकता है।

तो महावीर जो निरंतर एकांत में खड़े हैं…और यह ध्यान रहे कि महावीर की साधना का अधिकतम हिस्सा खड़े-खड़े व्यतीत हुआ है। दूसरे साधक बैठ कर साधना किए हैं, महावीर का अधिकतम साधना-काल खड़े-खड़े है। महावीर का जो ध्यान का प्रयोग है, वह भी खड़े-खड़े ही करने के लिए है। कुछ कारण हैं उसमें। बैठा हुआ आदमी सो सकता है, लेटा हुआ आदमी सो सकता है। और एक क्षण को भी वहां से ध्यान हट जाए तो पहला काम एकदम से विलीन हो जाता है उस चक्र पर। उस पर सतत काम चाहिए। तो खड़े होकर ही वह काम किया जा सकता है, क्योंकि खड़े हुए आदमी के सोने की संभावना एकदम न्यून हो जाती है, क्षीण हो जाती है।

निद्रा से बचने के लिए बड़े उपाय किए हैं उन्होंने। और कोई कारण नहीं है, सिर्फ कारण इतना है कि उतने देर के लिए ध्यान अलग हो जाएगा और तब हो सकता है कि उतना काम व्यर्थ हो जाए। निद्रा से बचने के लिए भोजन का छोड़ देना बड़ा उपयोगी हिस्सा है–निद्रा से जिसे बचना हो। क्योंकि नींद का पचहत्तर प्रतिशत भोजन से संबंधित है। जैसे ही भोजन पेट में गया तो सारी मस्तिष्क की शक्ति पेट की तरफ आनी शुरू हो जाती है भोजन को पचाने के लिए।

इसलिए भोजन करने के बाद नींद का हमला शुरू हो जाता है। ज्यादा भोजन करने के बाद ज्यादा नींद का हमला शुरू हो जाता है। उसका कुल कारण इतना है कि मस्तिष्क में जो शक्ति काम कर रही है, वह इमरजेंसी की हालत है पेट में भोजन का जाना। उसे पचाना पहले जरूरी है, क्योंकि ज्यादा देर वह बिना पचा रह जाए तो वह पायज़न हो जाएगा, जहर होगा। ज्यादा देर बिना पचा रह जाए तो ठंडा हो जाएगा, पचाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए सारे शरीर से पेट एकदम सारी शक्ति को वापस बुला लेता है। और सबसे पहले मस्तिष्क की शक्ति उतर जाती है नीचे, इसलिए आंखें झपकने लगती हैं, नींद आने लगती है।

तो अगर नींद को बिलकुल ही तोड़ डालना हो तो पेट में कुछ भी नहीं होना चाहिए। इसलिए उपवास के दिन आपको रात में नींद आना मुश्किल बात है। कुछ न खाया हो तो रात नींद आना बहुत मुश्किल बात है, क्योंकि वह शक्ति नीचे आने का उपाय ही नहीं रह जाता। और जो लोग आज्ञा-चक्र पर काम कर रहे हैं, वहां ध्यान देना चाहते हैं, उनकी शक्ति नीचे नहीं आनी चाहिए, वह ऊपर ही लगी रहनी चाहिए, तो ही वह चक्र खुल सकता है। सत्य की अनुभूति से वह चक्र नहीं खुल जाता है, उसकी अनुभूति से ही चक्र नहीं खुल जाता है। हां, उस अनुभूति को उस चक्र के माध्यम से प्रकट करना हो तो ही उसे खोलने की जरूरत पड़ती है।

तिब्बत ने इस दिशा में सर्वाधिक मेहनत की है–उस तीसरी आंख के संबंध में। तोड़ने के लिए अथक श्रम तिब्बत ने किया। और तिब्बत के पास निरंतर ऐसे लोग पैदा होते रहे, जिन्होंने उसका पूरी तरह उपयोग किया है।

आज्ञा-चक्र के टूट जाने के माध्यम से ही देवताओं से जुड़ा जा सकता है, फिर वाणी की कोई जरूरत नहीं है। यहां भीतर भाव पैदा हो और वह आज्ञा-चक्र से प्रतिध्वनित हो जाता है और वह देव-चेतना तक प्रवेश कर जाता है।

ये मैंने दो बातें कहीं। जड़ से संबंधित होना हो तो इतनी शिथिल चेतना चाहिए कि जड़ के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाए। और मनुष्य से ऊपर की योनियों से संबंधित होना हो तो इतनी एकाग्र चेतना चाहिए कि आज्ञा-चक्र टूट जाए। सर्वाधिक कठिन मनुष्य के साथ है कठिनाई। मनुष्य से संबंधित होने के लिए महावीर ने कोई तीन प्रयोग किए हैं।

सबसे पहला प्रयोग तो यह है कि किसी भी मनुष्य को हिप्नोसिस की हालत में, सम्मोहन की हालत में, बेहोश हालत में कोई भी संदेश दिया जा सकता है। और उस वक्त संदेश उसके प्राणों के आखिरी कोर तक सुना जाता है। और उस वक्त चूंकि तर्क बिलकुल काम नहीं करता उसका, विचार काम नहीं करता, चेतना काम नहीं करती, इसलिए न वह विरोध करता है, न विचार करता है। जो कहा जाता है, उसे चुपचाप परिपूर्ण रूप से स्वीकार कर लेता है।

यहां तक कि अगर एक व्यक्ति को बेहोश करके कहा जाए कि तुम घोड़े हो गए हो, तो बराबर चारों हाथ-पैर से खड़ा हो जाएगा! घोड़े की तरह आवाज करने लगेगा! वह यह मान लेगा। उसके बिलकुल अचेतन, अनकांशस तक यह बात प्रविष्ट अगर हो जाए तो जो उसे हम कहेंगे, वह वही हो जाएगा। उसे कहा जाए कि तुम्हें लकवा लग गया है तो उसके शरीर को एकदम लकवा लग जाएगा! फिर वह हाथ-पैर हिला नहीं सकेगा!

सौ में से तीस व्यक्ति सम्मोहित हो सकते हैं। और सौ में से तीस पुरुष और सौ में से पचास स्त्रियां सम्मोहित हो सकती हैं। और सौ में से पचहत्तर प्रतिशत बच्चे सम्मोहित हो सकते हैं। जितना सरल चित्त हो, उतनी शीघ्रता से सम्मोहन प्रवेश कर जाता है।

तो महावीर वर्षों तक उस पर भी काम कर रहे हैं कि सम्मोहन के द्वारा संदेश कैसे पहुंचाया जाए। लेकिन अंततः उन्होंने उस प्रक्रिया का उपयोग नहीं किया है, क्योंकि सम्मोहन के द्वारा संदेश तो पहुंच जाता है, लेकिन कुछ सूक्ष्म नुकसान दूसरे व्यक्ति को पहुंच जाते हैं। जैसे उसकी तर्क-शक्ति क्षीण हो जाती है। जैसे वह परवश हो जाता है। वह धीरे-धीरे दूसरे के ही हाथ में जीने लगता है।

मैं भी इधर सम्मोहन पर बहुत प्रयोग किया और इसी दृष्टि से प्रयोग किया, क्योंकि घंटों मेहनत करनी पड़े, तब एक बात नहीं समझाई जा सकती और दो मिनट बेहोश किसी को किया जाए, वह बात उसमें प्रवेश कराई जा सकती है। लेकिन मैं भी इसी नतीजे पर पहुंचा कि वह उस व्यक्ति में कुछ बुनियादी नुकसान पहुंच जाते हैं। संदेश पहुंच जाएगा, लेकिन वह व्यक्ति ऐसे जीने लगेगा, जैसे उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं रह गई। परवश। कोई और उसे चला रहा है, ऐसे चलने लगेगा।

रामकृष्ण ने विवेकानंद को जो पहला संदेश दिया है, वह सम्मोहन की विधि से दिया गया है–जिसमें उनके स्पर्श से विवेकानंद को समाधि हो गई। वह हिप्नोसिस के द्वारा दिया गया संदेश है। और इसीलिए विवेकानंद सदा के लिए रामकृष्ण का अनुगत हो गया। और भी मजे की बात है कि रामकृष्ण से जिस दिन यह स्पर्श के द्वारा विवेकानंद को एक संदेश पहुंच गया तो विवेकानंद के भीतर एक शक्ति का उदय हुआ, जो उसकी अपनी तो नहीं है, किसी दूसरे के दबाव में उसके भीतर आ गई है।

तो वह एक कमरे में बैठे हुए हैं विवेकानंद और उस आश्रम में दक्षिणेश्वर में एक भक्त भी रहता था, गोपाल बाबू उसका नाम था। उस भक्त का काम यह था कि वह सब तरह के भगवानों की मूर्तियां रखे हुए था अपने कमरे में और दिन भर पूजा ही चलती थी, क्योंकि इतने भगवान थे और एक-एक की दो-दो तीनत्तीन घंटे पूजा करनी पड़ती थी। तो कभी सांझ को भोजन कर पाता, कभी रात भोजन कर पाता। तो ऐसा इतने भगवान और भक्त एक, तो बड़ी मुश्किल तो थी।

विवेकानंद ने कई दफे उससे कहा था कि तू क्या ये पत्थर-वत्थर इकट्ठे करके और सब खराब कर रहा है! जिस दिन विवेकानंद को पहली दफे रामकृष्ण के सम्मोहन-संदेश की उपलब्धि हुई, उस दिन वे कमरे में जाकर बैठे, और उन्हें एकदम से खयाल आया कि इस वक्त तो अगर मैं गोपाल बाबू को कहूं कि जा, सारी मूर्तियों को बांध कर और गंगा में फेंक आ, तो बराबर हो जाएगा। उस वक्त बड़ी तीव्र उनके पास शक्ति है, जिसको कि वह विस्तीर्ण कर सकते हैं। उन्होंने यह कहा–वह सिर्फ मजाक में–कि गोपाल बाबू, सब भगवानों को बांधो और गंगा में फेंक आओ। गोपाल बाबू ने सब–वह दूसरे कमरे में था–सब भगवान एक चादर में बांधे और गंगा में फेंकने चले।

रामकृष्ण घाट में मिले और कहा कि रुक! गोपाल बाबू को कहा कि वापस चलो। जाकर विवेकानंद का दरवाजा खोला और कहा कि तेरी चाबी मैं अपने हाथ में रख लेता हूं, क्योंकि तू तो कुछ भी उपद्रव कर सकता है। और जो तुझे अनुभव आज हुआ है, अब वह तेरे मरने के तीन दिन पहले ही तुझे फिर हो सकेगा, उसके पहले नहीं।

और विवेकानंद को एक समाधि का अनुभव रामकृष्ण के स्पर्श से हुआ और इसके बाद जिंदगी भर तड़फ रही, फिर कभी नहीं हो सका, क्योंकि वह विवेकानंद के बस की बात नहीं है। वह संदेश हिप्नोटिक है। लेकिन मरने के तीन दिन पहले फिर समाधि का अनुभव हुआ। लेकिन वह भी पोस्ट-हिप्नोटिक है, वह भी विवेकानंद का अपना नहीं है। पोस्ट-हिप्नोटिक का मतलब यह है कि वह भी सम्मोहित अवस्था में कहा गया है कि फलां दिन तुझे फिर हो सकेगा, लेकिन चाबी मेरे पास है। तो फलां दिन हो जाएगा।

मैं एक बच्चे पर सम्मोहन के बहुत से प्रयोग करता था, तो उसे मैंने कहा कि एक किताब सामने रखी हुई है, इस किताब के बारहवें पन्ने पर तू पेंसिल उठा कर अपने दस्तखत कर देना, लेकिन आज नहीं, पंद्रह दिन बाद, ठीक ग्यारह बजे दिन दोपहर। और कर ही देना, भूल मत जाना।

और बात खतम हो गई है। वह तो होश में आ गया, अपने स्कूल जाना था, स्कूल चला गया। पंद्रह दिन बीत गए हैं, वह किताब वहीं टेबिल पर पड़ी रही है। लेकिन उसने कभी उस किताब पर दस्तखत नहीं किए। पंद्रहवें दिन–उसका दस बजे स्कूल लगता है–उसने मुझसे कहा कि आज मेरा सिर कुछ भारी है, मैं स्कूल नहीं जाना चाहता। मैंने कहा, तुम सुबह तक बिलकुल ठीक थे! तो उसने कहा, बिलकुल ठीक है, लेकिन अभी-अभी एकदम सिर भारी हुआ, स्कूल जाने का मेरा मन नहीं। मैंने कहा, तुम्हारी मर्जी।

मैं उसी कमरे में बैठा हूं और टेबिल पर किताब रखी है। वह लड़का भी वहीं लेटा हुआ है। ठीक ग्यारह बजे वह उठा है, पेंसिल उठाई है, जाकर जो पेज मैंने कहा था, उसने खोला है और अपने दस्तखत कर दिए। मैं उसको दस्तखत करते वक्त पकड़ा हूं जाकर कि यह तू क्या कर रहा है? बोला कि मैं समझ में नहीं आता क्या कर रहा हूं, न तो मेरा सिर दुख रहा है और न कुछ है, लेकिन बस सुबह से ही ऐसा लग रहा है कि आज स्कूल मत जाना, कोई जरूरी काम करना है; आज स्कूल मत जाना, कोई जरूरी काम करना है। बस भीतर यही चल रहा है। और जब मैंने दस्तखत कर दिए हैं तो मेरे भीतर से ऐसा बोझ उतर गया है, जैसे पहाड़ उतर गया, सिर मेरा बिलकुल ठीक हो गया है। बस यह दस्तखत करके मैं बिलकुल हलका हो गया हूं। पता नहीं यह क्यों दस्तखत मुझे करने थे!

यह पंद्रह दिन पहले दिया गया पोस्ट-हिप्नोटिक सजेशन है, पंद्रह दिन बाद काम करेगा। रामकृष्ण ने एक्जेक्टली यह कहा है कि मरने के तीन दिन पहले तुझे फिर समाधि उपलब्ध होगी, तब तक चाबी मैं रख लेता हूं।

तो रामकृष्ण ने जिस विधि का उपयोग किया, उस विधि को महावीर ने बहुत दूर तक विकसित किया; लेकिन छोड़ दिया, उसका प्रयोग नहीं किया। और मैं भी यह मानता हूं कि विवेकानंद को नुकसान पहुंचा। यानी विवेकानंद कुछ भी अपना कमा कर नहीं जा सके हैं, अपनी कमाई अभी बाकी रह गई। यह हुआ है दूसरे के द्वारा। इसमें विवेकानंद की अपनी कोई उपलब्धि नहीं हो पाई।

इसलिए विवेकानंद बहुत चिंतित और बहुत दुखी थे और बहुत परेशान भी थे। और एक अर्थ में परेशान भी थे, दुखी भी थे, मुश्किल में भी थे और रामकृष्ण से बंधे भी थे। आखिरी समय में भी जो पत्र लिखे हैं उन्होंने, वे बड़े दुख के हैं और बड़ी पीड़ा के हैं और बहुत संताप है उनमें, जैसे जिंदगी एकदम व्यर्थ हो गई और कुछ नहीं पा सके।

रामकृष्ण ने ऐसा क्यों किया? अगर महावीर ने इसका प्रयोग नहीं किया तो रामकृष्ण ने क्यों किया?

कुछ कारण हैं। महावीर खुद वाणी में बहुत समर्थ थे। रामकृष्ण वाणी में बिलकुल असमर्थ थे। और वाणी के लिए विवेकानंद का साधन की तरह उपयोग करना जरूरी हो गया था। नहीं तो रामकृष्ण ने जो जाना था, वह खो जाता। रामकृष्ण ने जो जाना था, वह जगत तक पहुंचाने के लिए रामकृष्ण के पास, खुद के पास वाणी नहीं थी। उस वाणी के लिए विवेकानंद का उपयोग करना जरूरी हो गया। तो विवेकानंद सिर्फ रामकृष्ण के ध्वनि-विस्तारक यंत्र हैं, इससे ज्यादा नहीं। और वह बिलकुल सम्मोहित अवस्था में सारे जगत में घूम रहे हैं, बिलकुल सोई अवस्था में। और रामकृष्ण जो बुलवाना चाह रहे हैं, बोल रहे हैं।

विवेकानंद का उपयोग किया गया है एक साधन की भांति। जो जरूरी था रामकृष्ण के लिए, नहीं तो रामकृष्ण को, जो जाना था उन्होंने, वह उसे किसी को भी नहीं दे पाते। इसलिए विवेकानंद का…विवेकानंद से कहा है रामकृष्ण ने कि तुझे मैं समाधि में नहीं जाने दूंगा, क्योंकि तुझे तो अभी एक बहुत बड़ा काम करना है। और जब भी विवेकानंद ने फिर दुबारा उनसे कहा कि परमहंसदेव, वह दिन जो खुशी मिली थी, जो आनंद मिला था, जो प्रकाश मिला था, वह फिर कब मिलेगा, तो उन्होंने बहुत जोर से उसे डांटा है, डपटा है और कहा कि तू बड़ा लोभी है और बड़ा स्वार्थी है! तू अपने ही आनंद के पीछे पड़ा हुआ है? तुझे तो मैं एक बड़ा वृक्ष बनाना चाहता हूं, जिसके नीचे बहुत लोग छाया में विश्राम करें। और तुझे तो एक बड़ा काम करना है, वह कौन करेगा? तू समाधि में जाएगा तो वह काम कौन करेगा?

महावीर को यह कठिनाई नहीं है। यानी महावीर के पास रामकृष्ण का अनुभव भी है और विवेकानंद की सामर्थ्य भी है। इसलिए दो व्यक्तियों की जरूरत नहीं पड़ती है, एक ही व्यक्ति काफी है।

अक्सर ऐसा हुआ है, अक्सर ऐसा हुआ है। जैसे गुरजिएफ की मैं बात करता हूं निरंतर। गुरजिएफ ने आस्पेंस्की का इसी तरह उपयोग किया, जैसा कि विवेकानंद का उपयोग रामकृष्ण ने किया। गुरजिएफ के पास वाणी नहीं है, बिलकुल नहीं है। आस्पेंस्की के पास वाणी है, बुद्धि है, तर्क है। आस्पेंस्की का पूरा उपयोग किया। तो गुरजिएफ की किताब आप पढ़ें तो समझ ही नहीं सकते हैं कुछ भी, क्योंकि उसके पास वह अभिव्यक्ति है ही नहीं बिलकुल। लेकिन आस्पेंस्की से उसने सब लिखवा लिया है जो उसे लिखना था। और आस्पेंस्की की किताबें इतनी अदभुत हैं, जिनका कोई हिसाब नहीं। और वह गुरजिएफ को जो कहना था, वह सब आस्पेंस्की से कहलवा लिया है। तो आस्पेंस्की का उपयोग यहां फिर उसी तरह किया गया। और यह भी बिना सम्मोहन के प्रयोग के नहीं हो सकता है।

महावीर के पास भी वह साधन उन्होंने खोजा, लेकिन पाया कि वह साधन व्यक्ति को नुकसान पहुंचा जाता है। और उन्हें किसी को अपने साधन की तरह उपयोग करने का सवाल नहीं है, वह तो उसके भीतर संदेश भर पहुंचाने का सवाल है। इसलिए उसका प्रयोग तो उन्होंने बहुत किया, समझा, लेकिन उसका उपयोग कभी भी नहीं किया।

दूसरा रास्ता है कि दूसरा व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो जाए तो फिर मौन में ही बात हो सकती है, फिर कोई जरूरत नहीं है उससे शब्दों का उपयोग करने की, क्योंकि शब्द सबसे असमर्थ चीज है। उससे जो कहा जाए, अक्सर वह पहुंच जाता है जो कहा ही नहीं गया। जो न कहा गया हो, वह उससे पहुंच जाता है। जो समझा जा सकता हो, वह पहुंच जाता है। जो कहा गया हो, वह नहीं पहुंचता है।

तो शब्द के उपयोग से बचा जा सके तो फिर ध्यान का–इसलिए महावीर…।

अब कभी यह खयाल में तुम्हें नहीं आया होगा कि महावीर का जो भक्त है, उसको कहते हैं, श्रावक। श्रावक का मतलब है, ठीक से सुनने वाला। और कोई मतलब नहीं है। दि राइट लिसनर। लेकिन सुनते तो हम सब हैं। सुनते हम सभी हैं, तो सभी श्रावक हैं?

नहीं, सभी श्रावक नहीं हैं। श्रावक वह है, जो ध्यान की स्थिति में बैठ कर सुन सके; उस स्थिति में बैठ कर सुन सके, जहां उसके मन में कोई विचार नहीं है, शब्द नहीं है, कुछ भी नहीं है–मौन है। मौन में जो बैठ कर सुन सके, वह श्रावक है।

यह शब्द आकस्मिक उपयोग नहीं हुआ है। यानी भक्त को श्रावक कहना। श्रोता कहने से काम नहीं चला, क्योंकि श्रोता से मतलब है सिर्फ सुनना। श्रावक का मतलब है, सम्यक श्रवण। लेकिन हम सब सुनते हैं, लेकिन हम श्रावक नहीं हैं। श्रावक हम तब होते हैं, जब हम सिर्फ सुनते हैं और हमारे भीतर कुछ भी नहीं होता। जस्ट लिसनिंग।

गुरजिएफ की मैं अभी बात किया। गुरजिएफ आस्पेंस्की को इसके पहले कि संदेश दे, उसे श्रावक बनाना जरूरी है। वह सुन तो ले, तो वह संदेश को ले जाए। तो आस्पेंस्की को एक जंगल में ले जाकर तीन महीने रहा। उस मकान में तीस व्यक्तियों को वह लाया था, जिनको वह श्रावक बना रहा था, राइट लिसनर्स बना रहा था। तीन महीने उन तीस लोगों को वहां रखा था और उनसे कहा था…एक ही बंगले में जो सब तरफ से बंद कर दिया गया है, जिसमें बाहर जाने का उपाय नहीं है, जिसकी चाबी बाहर से गुरजिएफ खोल कर कभी भीतर आता है, चाबी बंद करके बाहर जाता है। मकान सब तरफ से बंद है। भोजन का इंतजाम है, सारी व्यवस्था है। शर्त यह है कि तीन महीने न तो कोई कुछ पढ़ेगा, न कोई कुछ लिखेगा, न कोई किसी से बात करेगा, न कोई दूसरे को रिकग्नीशन देगा।

तीस आदमी एक मकान के भीतर हैं। और गुरजिएफ ने कहा है कि तुम ऐसे सब समझना कि एक-एक ही यहां हो, तीस यहां नहीं हैं। उनतीस यहां हैं ही नहीं तुम्हारे अलावा। आंख से, गेस्चर से भी मत बताना कि दूसरा है। उसको रिकग्नाइज ही मत करना, प्रत्यभिज्ञा भी न होनी चाहिए। सुबह तुम बैठोगे, कोई निकल रहा है, तो निकलने देना, तुम यह भी मत सोचना कि कोई निकल रहा है। जैसे हवा गुजरती है ऐसे। अगर कोई नमस्कार भी करे तो नमस्कार मत करना, क्योंकि कोई है ही नहीं यहां जिसको तुम नमस्कार कर रहे हो। आंख से भी मत पहचानना कि तुम हो, मुस्कुराना भी मत, भाव भी मत प्रकट करना। और जो आदमी इस तरह के भाव प्रकट करेगा, उसे मैं बाहर निकाल दूंगा, पंद्रह दिन मैं छंटाई करूंगा।

पंद्रह दिन में सत्ताइस आदमी उसने बाहर कर दिए। तीन आदमी भीतर रह गए, उनमें एक रूस का गणितज्ञ आस्पेंस्की भी था। आस्पेंस्की ने लिखा है कि पंद्रह दिन इतनी कठिनाई के थे, दूसरे को न मानना इतना कठिन था, कभी सोचा ही नहीं था यह कि इतनी कठिनाई हो सकती है और दूसरे की उपस्थिति को स्वीकार करने का इतना मन में भाव हो सकता है। इतना कठिन गुजरा, इतना कठिन गुजरा, लेकिन संघर्ष से, संकल्प से, पंद्रह दिन में वह सीमा पार हो गई, दूसरे का खयाल बंद हो गया।

आस्पेंस्की ने लिखा है, जिस दिन दूसरे का खयाल बंद हुआ, उसी दिन से पहली दफा अपना खयाल शुरू हुआ।

अब हम सब अपना खयाल करना चाहते हैं और दूसरे का खयाल मिटता नहीं है, अपना खयाल कभी हो नहीं सकता। जगह खाली नहीं है। कहते हैं आत्म-स्मरण। आत्म-स्मरण कैसे होगा? अनात्म-स्मरण चौबीस घंटे चल रहा है और उसी के बीच आत्म-स्मरण करना चाहते हैं!

तो आस्पेंस्की ने लिखा है कि तब तक मैं समझा ही नहीं था कि सेल्फ-रिमेंबरिंग का मतलब क्या होगा। और बहुत दफे कोशिश की थी अपने को याद करने की, कुछ नहीं होता था। किसको याद करना! तब खयाल में आया। पंद्रह दिन, वह जो दूसरा, दि अदर है, जब वह विदा हो गया तो जगह खाली रह गई और सिवाय अपने स्मरण के कोई मौका ही नहीं रह गया। क्योंकि अब पहली दफे मैं अपने प्रति जागा। सोलहवें दिन सुबह मैं उठा तो मैं ऐसा उठा, जैसा मैं जिंदगी में कभी नहीं उठा था। पहली दफे मुझे मेरा बोध था। और तब मुझे खयाल आया, अब तक मैं दूसरे के बोध में ही उठता था। सुबह उठते ही से दूसरे का बोध शुरू हो जाता था। अपना बोध! और तब वह चौबीस घंटे घेरे रहने लगा, क्योंकि अब कोई उपाय न रहा, दूसरे से भरने की जगह न रही।

एक महीना पूरा होतेऱ्होते उसने लिखा है कि मैं तो हैरानी में पड़ गया, दिन बीत जाते और मुझे पता न चलता कि जगत भी है, वहां बाहर एक संसार भी है, बाजार भी है, लोग भी हैं। ऐसे दिन बीत जाते और पता न चलता। सपने विलीन हो गए। जिस दिन दूसरा भूला, उसी दिन सपने विलीन हो गए, क्योंकि सब सपने बहुत गहरे में दूसरे से संबंधित हैं।

जिस दिन सपने विलीन हुए, उसने लिखा, उसी दिन से मुझे रात में भी स्मरण रहने लगा अपना। रात में भी ऐसा नहीं है कि मैं सोया ही हुआ हूं। रात में भी सब सोया है और मैं जागा हुआ हूं, ऐसा होने लगा।

तीन महीने पूरे होने के तीन दिन पहले गुरजिएफ आया, दरवाजा खोला। आस्पेंस्की ने लिखा है, उस दिन मैंने गुरजिएफ को पहली दफे देखा कि यह आदमी कैसा अदभुत है, क्योंकि इतना खाली हो गया था मैं कि अब मैं देख सकता था। भरी हुई आंख क्या देखेगी! उस दिन गुरजिएफ को मैंने पहली दफा देखा कि ओफ यह आदमी और इसके साथ होने का सौभाग्य! कभी नहीं देखा था। जैसे और लोग थे, वैसा गुरजिएफ था। खाली मन में पहली दफा गुरजिएफ को देखा। और उसने लिखा है कि उस दिन मैंने जाना कि वह कौन है।

गुरजिएफ सामने आकर बैठ गया और मुझे एकदम से सुनाई पड़ा, आस्पेंस्की! पहचाने? तो मैंने चारों तरफ चौंक कर देखा, गुरजिएफ चुप बैठा है। आवाज गुरजिएफ की है, शक-शुबहा नहीं है। फिर भी–उसने लिखा है–कि फिर भी मैं चुप रहा। फिर आवाज आई, आस्पेंस्की, पहचाने नहीं? सुना नहीं? तब उसने चौंक कर गुरजिएफ की तरफ देखा, वह बिलकुल चुप बैठा है। उसके मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा है।

तब वह गुरजिएफ खूब मुस्कुराने लगा और फिर बोला कि अब शब्द की कोई जरूरत नहीं, अब बिना शब्द के बात हो सकती है। अब तू इतना चुप हो गया है कि अब मैं बोलूं तभी सुनेगा? अब तो मैं भीतर सोचूं और सुन लेगा! क्योंकि जितनी शांति है, उतनी सूक्ष्म तरंगें पकड़ी जा सकती हैं।

तुम रास्ते से भागे चले जा रहे हो। तुम्हें किसी ने कहा कि तुम्हारे मकान में आग लग गई है। और रास्ते में मैं तुम्हें मिलता हूं, कहता हूं, नमस्कार। तुमने सुना? तुमने नहीं सुना। तुमने देखा? तुमने नहीं देखा। तुम भागे चले जा रहे हो, तुम्हारे घर में आग लग गई है। दूसरे दिन तुम मुझे मिलते हो, मैं कहता हूं, रास्ते पर मिला था, नमस्कार की, तुमने कोई जवाब नहीं दिया। तुम कहते हो, मैंने तो देखा ही नहीं। मेरे घर में आग लग गई थी। मैं भागा जा रहा था। मुझे न तुम दिखाई पड़े, न मैंने देखा कि तुमने हाथ जोड़े, न मैं इस हालत में था कि हाथ जोड़ सकता था।

अगर मकान में आग लग गई तो तुम्हारा चित्त इतने जोर से चल रहा है कि जोड़े गए हाथ दिखेंगे नहीं, की गई नमस्कार सुनाई नहीं पड़ेगी। अगर चित्त का चक्र धीमा हो गया, धीमा हो गया, धीमा हो गया, ठहर गया, तो जरूरी नहीं है कि मैं बोलूं ही। इतना ही काफी है कि मैं कुछ चाहूं कि तुम तक चला जाए, वह एकदम चला जाता है।

विद्यासागर ने एक संस्मरण लिखा है कि विद्यासागर को बंगाल का गवर्नर एक पुरस्कार देना चाहता था। और विद्यासागर गरीब आदमी थे, पुराने ढंग से रहने के आदी थे। वही पुराना बंगाली कुर्ता है, धोती है, डंडा है। मित्रों ने कहा, इस वेश में गवर्नर के दरबार में जाना ठीक नहीं है। हम तुम्हें नए कपड़े बनाए देते हैं।

विद्यासागर ने बहुत कहा कि मैं जैसा हूं, ठीक हूं। मित्र नहीं माने तो उन्होंने खूब कीमती नए कपड़े बनवाए। कल सुबह जाना है विद्यासागर को गवर्नर के सामने और वह पुरस्कार लेना है। दरबार भरेगा। सांझ को वे घूमने निकले हैं। समुद्र के तट पर से घूम कर लौट रहे हैं। सामने ही एक आदमी, एक मुसलमान मौलवी अपनी छड़ी लिए बड़ी शान से चुपचाप चला जा रहा है। एक आदमी भागा हुआ आया है और मौलवी से कहा, मीर साहब, तेजी से चलिए, मकान में आग लग गई है!

मीर ने कहा, ठीक है! और फिर वह उसी चाल से चल रहा है। विद्यासागर हैरान हो गए, क्योंकि सुना है उन्होंने कि आदमी ने अभी आकर कहा है कि आग लग गई है मकान में, वह उसी चाल से चल रहा है! फिर उस आदमी ने घबड़ा कर कहा कि शायद आप समझे नहीं, मकान में आग लग गई! उसने कहा, मैं समझ गया। फिर वह चाल वैसी रखी!

तब तो विद्यासागर कदम बढ़ा कर आगे गए और कहा, सुनिए, हद हो गई! मकान में आग लग गई, आप उसी चाल से चल रहे हैं!

उसने कहा, मेरी चाल से मकान का क्या संबंध? उस आदमी ने कहा, मेरी चाल से मकान का क्या संबंध? और मकान के पीछे चाल बदल दूं जिंदगी भर की! लग गई है, ठीक है, लग गई है। अब मैं क्या करूंगा?

तो विद्यासागर ने घर आकर कहा कि मुझे वे कपड़े नहीं पहनने हैं। गवर्नर के यहां जाकर जो पहनने थे, वे मुझे पहनने ही नहीं। जिंदगी भर की चाल छोड़ दूं गवर्नर के लिए? यहां एक आदमी के मकान में आग लग गई है, वह उसी चाल से जा रहा है, वह एक कदम नहीं बढ़ा रहा है!

लेकिन ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है और ऐसा आदमी मिल जाए तो ऐसा आदमी श्रावक हो सकता है। समझ रहे हैं न! यह आदमी श्रावक हो सकता है।

तो महावीर की सतत चेष्टा इसमें लगी फिर कि कैसे मनुष्य श्रावक बने, कैसे सुनने वाला बने, कैसे सुन सके। और सुन वह तभी सकता है, जब उसके चित्त की सारी परिक्रमा जो चल रही है विचार की, वह ठहर जाए। तो फिर बोलने की जरूरत नहीं, वह सुन लेगा। ऐसी जो न बोली और सुनी गई वाणी है, उसका नाम दिव्य-ध्वनि है। ऐसी जो न बोली, लेकिन सुनी गई वाणी है, उसका नाम दिव्य-ध्वनि है। दिव्य-ध्वनि का और कोई मतलब नहीं है। बोली नहीं गई है, लेकिन सुनी गई है। दी नहीं गई है, लेकिन पहुंच गई है। सिर्फ भीतर उठी है और संप्रेषित हो गई है।

इस दिशा में बड़ा श्रम करना पड़ा। श्रावक बनाने की कला खोजने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ा। अब तो हम किसी को भी श्रावक कहते हैं, जो महावीर को मानता है, वह श्रावक है। श्रावक महावीर के मरने के बाद होना ही मुश्किल हो गया। वह तो जो महावीर के सामने बैठा था, वह श्रावक था। उसमें भी सभी श्रावक नहीं थे, बहुत से श्रोता थे। श्रोता कान से सुनता है, श्रावक प्राण से सुनता है। श्रोता को शब्द बोले जाएं तो भी सुन ले, जरूरी नहीं है; श्रावक को शब्द बोलने की जरूरत नहीं है और सुनता है।

तो यह श्रावक की, राइट लिसनिंग की कला को विकसित किया, जो बड़ी से बड़ी कला है जगत की। क्योंकि जीसस लोगों को नहीं समझा पाए, वह जो कह रहे थे। क्योंकि उन्होंने सिर्फ इसकी फिक्र की कि मैं ठीक-ठीक कहूं, इसकी फिक्र ही नहीं की कि वह ठीक-ठीक सुन सकता है या नहीं सुन सकता है। मोहम्मद इसकी फिक्र नहीं कर रहे हैं कि वह सुन सकेगा कि नहीं, वे इसकी ही फिक्र कर रहे हैं कि जो मैं कह रहा हूं, वह ठीक होना चाहिए।

वह बिलकुल ठीक है। लेकिन कहना ही ठीक होने से कुछ भी नहीं होता, सुनने वाला ठीक होना चाहिए, नहीं तो कहना सब व्यर्थ हो जाएगा। तुम कहोगे कुछ, सुना कुछ जाएगा, समझा कुछ जाएगा।

इसलिए महावीर के दूसरे बड़े दानों में से मैं श्रावक बनने की कला को मानता हूं, जो बड़े से बड़े कांट्रिब्यूशंस में से एक है कि आदमी श्रावक कैसे बने। तो परिपूर्ण मौन और अभी इन्होंने शब्द उठा दिया–प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण शब्द श्रावक बनने की कला का हिस्सा है। हमें खयाल में नहीं है कि प्रतिक्रमण का मतलब क्या होता है।

आक्रमण का मतलब हम समझते हैं क्या होता है। आक्रमण से उलटा मतलब होता है प्रतिक्रमण का। आक्रमण का मतलब होता है दूसरे पर हमला और प्रतिक्रमण का मतलब होता है सब हमला लौटा लेना, वापस लौट जाना।

हमारी चेतना हमलावर है साधारणतः, एग्रेसन में लगी है। प्रतिक्रमण का मतलब है वापस लौट आना, सारी चेतना को समेट लेना वापस। जैसे सूर्य सांझ को अपनी सारी किरणों का जाल समेट ले, ऐसा अपनी फैली हुई चेतना को मित्र के पास से वापस बुला लेना है, शत्रु के पास से वापस बुला लेना है, पत्नी के पास से वापस बुला लेना है, बेटे के पास से वापस बुला लेना है, मकान से वापस बुला लेना है, धन से वापस बुला लेना है। जहां-जहां हमारी चेतना ने खूंटियां गाड़ दी हैं और जहां-जहां वह फैल गई है, उस सारे फैलाव को वापस बुला लेना है।

प्रतिक्रमण का मतलब है, दि कमिंग बैक। वापस लौट आना है। आक्रमण का मतलब है, दि गोइंग। और प्रतिक्रमण का मतलब है, दि कमिंग। जाना है आक्रमण, आ जाना है, लौट आना है प्रतिक्रमण। तो जहां-जहां चेतना गई है, वहां-वहां से उसे वापस पुकार लेना है कि आ जाओ।

बुद्ध ने एक कहानी कही है। सांझ कुछ बच्चे नदी के तट पर रेत के घर बना रहे हैं। बहुत से बच्चे हैं, कोई घर बनाता है, कोई पैर के ऊपर घर बनाता है, कोई कुछ गङ्ढा खोद रहा है। फिर किसी बच्चे का किसी के घर में पैर लग जाता है। रेत के घर हैं और जहां इतने बच्चे हों, वहां पैर लग जाना भी संभव है; किसी का घर गिर जाता है, मार-पीट भी होती है, गाली-गलौज भी होती है, बच्चे चिल्लाते हैं कि मेरा घर मिटा दिया! कोई बच्चा चिल्लाता है, मेरा घर बरबाद हुआ जा रहा है, क्यों यहां पैर रख रहे हो? यह सब चिल्लाना चलता है, यह सब पुकारना चलता है। झगड़ते हैं, गालियां देते हैं, मारते हैं, पीटते हैं।

फिर सांझ हो जाती है। और नदी के तट से दूर से, घर-घर से बच्चों की मां की पुकार आने लगती है कि लौट आओ, लौट आओ, अब बहुत खेल हो चुका। और बच्चे जो लड़ते थे इस पर कि मेरे घर को लात मत मार देना, अपने ही घर को लात मार कर, तोड़ कर घर की तरफ भागते हुए वापस लौट गए हैं! घर पड़े रह गए हैं टूटे-फूटे; नदीत्तट निर्जन हो गया है; बच्चे घर चले गए हैं। अपने ही घर को लात मार कर, जिस पर लड़े थे कि मेरा घर तोड़ मत देना!

तो बुद्ध कहते हैं, ऐसा एक क्षण आता है जीवन में, जब तुम सब तरफ रेत के घरों को खुद ही लात मार कर घर वापस लौट आते हो।

इसका अर्थ है प्रतिक्रमण। और इसका अगर अभ्यास जारी रहे कि तुम रोज कम से कम घड़ी भर को प्रतिक्रमण कर जाओ, सब तरफ से चेतना को वापस बुला लो, सब रेत के घरों से आ जाओ वापस अपने भीतर, कहीं से संबंध न रखो, असंग हो जाओ, तो प्रतिक्रमण हुआ।

प्रतिक्रमण ध्यान का पहला चरण है, क्योंकि जब तुम लौटोगे ही नहीं, चेतना को वापस न लाओगे, तो ध्यान कौन लगाएगा? अभी तो चेतना ही नहीं है मौजूद, वह तो घर के बाहर गई है, वह तो किसी दूसरे पर भटक रही है, वह तो कहीं और है। उस चेतना को न लौटाओगे तो ध्यान कैसे करोगे? तो प्रतिक्रमण है पहला चरण। सामायिक है दूसरा चरण। सामायिक यानी ध्यान। सामायिक ध्यान से भी अदभुत शब्द है। असल में सामायिक जैसा शब्द ही नहीं है। ध्यान उतना कीमती शब्द नहीं है। महावीर ने जो शब्द उपयोग किया है, वह ध्यान से बहुत ज्यादा कीमती है।

इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा। ध्यान में कहीं न कहीं यह बात छिपी हुई है–जब हम कहते हैं ध्यान करो तो आदमी पूछता है, किसका? ध्यान शब्द में ही कहीं दूसरा छिपा हुआ है। जब हम कहते हैं, ध्यान में जाओ, तो आदमी कहता है, किसके ध्यान में? किस पर ध्यान करें? कहां ध्यान लगाएं? ध्यान कुछ न कुछ रूप में पर-केंद्रित है–शब्द–दि अदर-सेंटर्ड है। उसमें जो सवाल उठता है, किसका ध्यान?

सामायिक को महावीर ने बिलकुल मुक्त कर दिया इस “पर’ से। समय का मतलब होता है आत्मा और सामायिक का मतलब होता है आत्मा में होना, टु बी इन वनसेल्फ।

प्रतिक्रमण है पहला हिस्सा कि दूसरे से लौट आओ, सामायिक है दूसरा कि अपने में हो जाओ। और जब तक दूसरे से न लौटोगे, तब तक अपने में होओगे कैसे? इसलिए पहली सीढ़ी प्रतिक्रमण, दूसरी सीढ़ी सामायिक।

लेकिन वह जो बकवास प्रतिक्रमण के नाम से चलती है, वह कोई प्रतिक्रमण नहीं है। उससे कोई मतलब नहीं है। उससे कोई मतलब ही नहीं है। कि कितने देवी-देवता हैं और कहां कौन बैठा है, उससे प्रतिक्रमण का कोई मतलब नहीं। सबसे लौटा लेना है। कि कितनी योजन क्या दूर है, इससे क्या मतलब है! यह तो दूसरे पर ही भटकना है। सबसे लौटा लेना है।

और प्रतिक्रमण बड़ी अदभुत बात है। चेतना को सब तरफ से असंबंधित कर देना, कि मन में कह देना: पत्नी अब पत्नी नहीं है, बेटा अब बेटा नहीं है, अब मकान अपना नहीं है, अब यह शरीर अपना नहीं है। सब तरफ से लौटा लेना, सब तरफ से काटते चले जाना कि लौट आए अपने पर।

लौट आए तो फिर दूसरी बात शुरू होती है कि अब अपने में कैसे रम जाए, क्योंकि न रम पाई तो फिर दूसरे पर चली जाएगी। अगर लौटा भी ली, अगर बच्चे सांझ घर भी लौट आए और अगर मां न रमा पाई तो बच्चे फिर लौट जाएंगे नदी के तट पर, वे फिर घर बनाएंगे, वे फिर खेलेंगे और फिर लड़ेंगे। लौट आना सिर्फ सूत्र है, लेकिन लौट आते ही रमे कैसे, ठहर कैसे जाए, उसकी चिंता करनी है। अगर नहीं चिंता की तो लौट भी नहीं पाएगी और वापस लौट जाएगी।

तो प्रतिक्रमण सिर्फ प्रोसेस है, ठहराव नहीं है। प्रतिक्रमण सिर्फ प्रक्रिया है, स्वभाव नहीं है। इसलिए कोई प्रतिक्रमण में ही रुकना चाहे तो नासमझी में है। चेतना इतनी शीघ्रता से आती है और इतनी शीघ्रता से लौट जाती है कि पता नहीं चलता। एक दफे सोचती है कि हां मकान–क्या है मेरा; लौटती है एक क्षण को, लेकिन यहां ठहरने को जगह नहीं पाती, फिर पुनः वहीं लौट जाती है।

तो दूसरा सूत्र है सामायिक। वह हम कल बात करेंगे कि सामायिक यानी क्या, कैसे स्वयं में ठहर जाएं। और वह खयाल में आ जाए तो सब खयाल में आ गया। महावीर का जो केंद्र है, वह सामायिक है।

सामायिक शब्द बड़ा अदभुत है। दुनिया में बहुत शब्द लोगों ने उपयोग किए हैं, लेकिन इससे अदभुत शब्द उपयोग नहीं हो सका कोई भी, क्योंकि उसको दूसरे से बिलकुल ही उखाड़ दिया। समय यानी आत्मा और सामायिक यानी अपने में हो जाना। इसमें दूसरे का…कोई यह नहीं पूछ सकता, सामायिक किसकी? पूछोगे तो गलत ही बात पूछ रहे हो, भाषा से ही गलत पूछ रहे हो। कोई यह नहीं पूछ सकता कि सामायिक किसकी? यह सवाल ही नहीं है। ध्यान हो सकता है किसी का, सामायिक किसकी होगी? किसी की भी नहीं होगी।

प्रश्न:

 

आत्मा को समय किस दृष्टि से कहा?

बात करेंगे! बात करेंगे! कल सुबह बात करेंगे।


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–6)

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तीर्थ : परम की गुह्म यात्रा—(प्रवचन—छठवां)

‘गहरे पानी पैठ :

(अंतरंग चर्चा, बुडलैण्‍ड)

बम्बई दिनांक 26 अप्रैल 1971

प्रशांत महासागर में एक छोटे—से द्वीप पर, ईस्टर आईलैंड में एक हजार विशाल मूर्तियां है जिनमें कोई भी मूर्ति बीस फीट से छोटी नहीं है। और निवासियों की कुल संख्या दो सौ है। एक हजार, बीस फीट से बड़ी विशाल मूर्तियां हैं! जब पहली दफा इस छोटे—से द्वीप का पता लगा तो बड़ी कठिनाई हुई। कठिनाई यह हुई कि इतने थोड़े से लोगों के लिए……. और ऐसा भी नहीं है कि कभी उस द्वीप की आबादी इससे ज्यादा हो सकी हो। क्योंकि उस द्वीप की सामर्थ्य ही नहीं है इससे ज्यादा लोगों के लिये जो भी पैदावार हो सकती है वह इससे ज्यादा लोगों को पाल भी नहीं सकती। जहां दो सौ लोग रह सकते हों, वहां एक हजार मूर्तियां विशाल पत्थर की खोदने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ता। एक आदमी के पीछे पांच मूर्तियां हो गयीं। और इतनी बड़ी मूर्तियां ये दो सौ लोग खोदना भी चाहें, तो नहीं खोद सकते। इतना महंगा काम ये गरीब आदिवासी करना भी चाहें तो भी नहीं कर सकते। इनकी जिंदगी तो सुबह से सांझ तक रोटी कमाने में ही व्यतीत हो जाती है। और इन मूर्तियों को बनाने में हजारों वर्ष लगे होंगे!

क्या होगा प्रयोजन इतनी मूर्तियों का? किसने इन मूर्तियों को बनाया होगा? क्यों बनाया होगा? इतिहासविद के सामने बहुत से सवाल थे।

ऐसी ही एक जगह मध्य एशिया में है। और जब तक हवाई जहाज नहीं उपलब्ध था, तब तक उस जगह को समझना बहुत मुश्किल पड़ा। हवाई जहाज के बन जाने के बाद ही यह खयाल में आया, कि वह जगह कभी जमीन से हवाई जहाज उड़ने के लिए एयरपोर्ट का काम करती रही होगी। उस तरह की जगह के बनाने का और कोई प्रयोजन नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि वह हवाई जहाज के उड़ने और उतरने के काम में आती रही हो। फिर वह जगह नयी नहीं है। उसको बने हुए अंदाजन बीस हजार और पंद्रह हजार वर्ष के बीच का वक्त हुआ होगा। लेकिन जब तक हवाई जहाज नहीं बने थे तब तक तो हमारी समझ के बाहर थी। हवाई जहाज बने, और हमने एयरपोर्ट बनाए, तब हमारी समझ में आया कि कभी एयरपोर्ट के काम की होगी जगह। जब तक यह नहीं था, तब तक तो सवाल ही नहीं उठता था। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि तीर्थ को हम न समझ पाएंगे, जब तक कि तीर्थ पुन: आविष्कृत न हो जाए।

अब जाकर, उन ईस्टर आईलैंड की मूर्तियां हैं, उनके जो एयरव्‍यु, आकाश से हवाई जहाज के द्वारा जो चित्र लिए गए उनसे अंदाज लगता है कि वह इस ढंग से बनायी गयी हैं, और इस विशेष व्यवस्था में बनायी गयी हैं कि किन्हीं खास रातों में चांद पर से देखी जा सकें। वह जिस ज्यामिट्री के जिन कोणों में खड़ी की गयी हैं वह कोण बनाती हैं पूरा का पूरा। और अब जो लोग उस संबंध में खोज करते हैं, उनका खयाल यह है कि यह पहला मौका नहीं है कि हमने दूसरे पहों पर जो जीवन है, उससे संबंध स्थापित करने की कामना की है। इसके पहले भी जमीन पर बहुत से प्रयोग किए गए, जिनसे हम दूसरे ग्रहों पर अगर कोई जीवन, कोई प्राणी हो, तो उनसे हमारा संबंध स्थापित हो सके। और दूसरे प्राणी—लोकों से भी पृथ्वी तक संबंध स्थापित हो सकें इसके बहुत से सांकेतिक इंतजाम किए गए।

यह जो बीस—तीस फीट ऊंची मूर्तियां हैं, ये अपने आप में अर्थपूर्ण नहीं हैं; लेकिन जब ऊपर से उड़कर उनके पूरे पैटर्न को देखा जाए, तब इनका पैटर्न किसी संकेत की सूचना देता है। वह संकेत चांद से पढ़ा जा सकता है। पर जिन लोगों ने वह बनाया होगा—जब तक हम हवाई जहाज में उड़कर न देख सके, तब तक हम कल्पना भी नहीं कर सकेंगे. तब तक वह हमारे लिए मूर्तियां थीं। ऐसी इस पृथ्वी पर बहुत सी चीजें है, जिनके संबंध में तब तक हम कुछ भी नहीं जान पाते, जब तक कि किसी रूप में हमारी सभ्यता, उस घटना का पुनर्आविष्कार न कर ले।

अभी मैं दो—तीन दिन पहले बात कर रहा था। तेहरान में एक छोटा—सा लोहे का डिब्बा मिला था। फिर वह ब्रिटिश मुजियम में पड़ा रहा। ये कोई वर्षों उसने प्रतीक्षा की उस डिब्बे ने। वह तो अभी—अभी जाकर पता लगा है कि वह बैट्री है, जो दो हजार साल पहले तेहरान में उपयोग में आती रही। मगर उसकी बनावट का ढंग ऐसा था कि खयाल में नहीं आ सका। लेकिन अब तो उसकी पूरी खोज—बीन हो गयी। तेहरान में दो हजार साल पहले बैट्री हो सकती है, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते! इसलिए कभी सोचा नहीं इस तरह, लेकिन अब तो उसमें पूरा साफ हो गया है कि वह बैट्री ही है। पर अगर हमारे पास बैट्री न होती तो हम किसी भी तरह से, इस डिब्बे को बैट्री खोज नहीं पाते। खयाल भी नहीं आता, धारणा भी नहीं बनती।

तीर्थ पुरानी सभ्यता के खोजे हुए बहुत बहुत गहरे, सांकेतिक, और बहुत अनूठे आविष्कार हैं। लेकिन हमारी सभ्यता के पास उनको समझने के सब रूप खो गए हैं। सिर्फ एक मुर्दा व्यवस्था रह गयी है। हम उसको ढोए चले जाते हैं बिना यह जाने कि वह क्यों निर्मित हुए, क्या उनका उपयोग किया जाता रहा, किन लोगों ने उन्हें बनाया, क्या प्रयोजन था? और जो ऊपर से दिखायी पड़ता है वही सब कुछ नहीं है, भीतर कुछ और भी है जो ऊपर से कभी भी दिखायी नहीं पड़ता।

पहली बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि हमारी सभ्यता ने तीर्थ का अर्थ खो दिया है। इसलिए जो आज तीर्थ को जाते हैं वह भी करीब—करीब व्यर्थ जाते हैं। जो उसका विरोध करते हैं वह भी करीब—करीब व्यर्थ करते हैं। बल्कि विरोध करनेवाला ही ठीक मालूम पड़ेगा, यद्यपि उसे भी कुछ पता नहीं है। वह जिस तीर्थ का विरोध कर रहा है वह तीर्थ की धारणा नहीं है, यद्यपि वह तीर्थ जानेवाला जिस तीर्थ में जा रहा है वह भी तीर्थ की धारणा नहीं है। तो चार—पांच चीजें पहले खयाल में लेनी चाहिए।

एक तो जैसे कि जैनों का तीर्थ है—सम्मेत शिखर। जैनों के चौबीस तीर्थंकर में से बाईस तीर्थंकरों का समाधि—स्थल है वह। चौबीस में से बाईस तीर्थंकरों ने सम्मेत शिखर पर शरीर विसर्जन किए हैं— आयोजित थी यह व्यवस्था। अन्यथा एक जगह पर जाकर इतने तीर्थंकरों का, चौबीस में से बाईस का, जीवन अत होना आसान मामला नहीं है बिना आयोजन के। एक ही स्थान पर, हजारों साल के लंबे फासले में अगर हम जैनों का हिसाब मानें, और मैं मानता हूं कि हमें जहां तक बन सके, जिसका हिसाब हो उसका मानने की पहले कोशिश करनी चाहिए, तब तो लाखों वर्षों का फासला है—उनके पहले तीर्थंकर में और चौबीसवें तीर्थंकर में। लाखों वर्षों के फासले पर एक ही स्थान पर बाईस तीर्थंकरों का जाकर अपने शरीर को छोड़ना विचारणीय है।

मुसलमानों का तीर्थ है—काबा। काबा में मुहम्मद के वक्त तक तीन सौ पैंसठ मूर्तियां थीं। और हर दिन की एक अलग मूर्ति थी। वह तीन सौ पैंसठ मूर्तियां हटा दी गयीं, फेंक दी गयीं। लेकिन जो केंद्रीय पत्थर था मूर्तियों का, जो मंदिर का केंद्र था, वह नहीं हटाया गया। तो काबा मुसलमानों से बहुत ज्यादा पुरानी जगह है। मुसलमानों की तो उम्र बहुत लंबी नहीं है. चौदह सौ वर्ष।

लेकिन काबा लाखों वर्ष पुराना पत्थर है—वह जो काला पत्थर है। और भी दूसरे एक मजे की बात है कि वह पत्थर जमीन का नहीं है, वह पत्थर जमीन का पत्थर नहीं है। अब तक तो वैज्ञानिक. क्योंकि इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था, वह जमीन का पत्थर नहीं है—यह तो तय है। एक ही उपाय था हमारे पास कि वह उल्कापात में गिरा हुआ पत्थर है। जो पत्थर जमीन पर गिरते हैं, वह थोड़े पत्थर नहीं गिरते, रोज दस हजार पत्थर जमीन पर गिरते हैं, चौबीस घंटे में। जो आपको रात तारे गिरते हुए दिखायी पड़ते हैं वह तारे नहीं होते, वह उल्काएं है, पत्थर हैं, जो जमीन पर गिरते है। लेकिन जोर से घर्षण खाकर हवा का, वे जल उठते है। अधिकतर तो बीच में ही राख हो जाते हैं, कोई—कोई जमीन तक पहुंच जाते हैं। कभी—कभी जमीन पर बहुत बड़े पत्थर पहुंच जाते है। उन पत्थरों की बनावट और निर्मिति सारी भिन्न होती है।

यह जो काबा का पत्थर है, यह जमीन का पत्थर नहीं है। तो सीधी व्याख्या तो यह है कि वह उल्कापात में गिरा होगा। लेकिन जो और गहरे जानते है, उनका मानना है, वह उल्कापात में गिरा हुआ पत्थर नहीं है। जैसे हम आज जाकर चांद पर जमीन के चिह्न छोड़ आए हैं—समझ लें कि एक लाख साल बाद यह पृथ्वी नष्ट हो चुकी हो, इसकी आबादी खो चुकी हो, कोई आश्‍चर्य नहीं है। कल अगर तीसरा महायुद्ध हो जाए तो यह पृथ्वी सूनी हो जाए, पर चांद पर जो हम चिह्न छोड़ आए हैं, हमारे अंतरिक्ष यात्री चांद पर जो वस्तुएं छोड़ आए हैं वे वहीं बनी रहेंगी, सुरक्षित रहेंगी। उन्हें बनाया भी इस ढंग से गया है कि लाखों वर्षों तक सुरक्षित रह सकें।

अगर कभी कोई भी जीवन चांद पर विकसित हुआ, या किसी और ग्रह से चांद पर पहुंचा, और वे चीजें मिलेंगी, तो उनके लिए भी कठिनाई होगी कि वे कहां से आयी है? उनके लिए भी कठिनाई होगी! काबा का जो पत्थर है वह सिर्फ उल्कापात में गिरा हुआ पत्थर नहीं है, वह पत्थर पृथ्वी पर किन्हीं और गर्हों के यात्रियों द्वारा छोड़ा गया पत्थर है। और उस पत्थर के माध्यम से उस मह के यात्रियों से संबंध स्थापित किए जा सकते थे। लेकिन पीछे सिर्फ उसकी पूजा रह गयी। उसका पूरा पूरा विज्ञान खो गया; उससे कैसे संबंध स्थापित किया जा सके, वह सारी बात खो गयी। सिर्फ पूजा रह गयी।

रूस का एक आंतरिक्ष यान, जिसमें कोई मनुष्य यात्री नहीं था, खो गया और क्योंकि उसकी जो रेडियो व्यवस्था थी, हमसे वह टूट गयी—उसका रेडियो खराब हो गया। जैसे उसका रेडियो खराब हुआ, हम यह भी पता न लगा सके कि वह कहां गया? वह कहां गया, कहां है? बचा, जला, समाप्त हुआ, हम कुछ भी पता न लगा सके! इस अनंत अंतरिक्ष में अब हम उसका कभी भी पता नहीं लगा सकेंगे; क्योंकि उससे संबंध के सब सूत्र खो गए।

वह अगर किसी ग्रह पर गिर जाए तो उस ग्रह के यात्री भी क्या करेंगे? अगर उनके पास इतनी वैज्ञानिक उपलब्धि हो कि उसके रेडियो को ठीक कर सकें, तो हमसे संबंध स्थापित हो सकता है। अन्यथा उसको तोड़—फोड़ करके वह उनके पास अगर कोई मूजियम होगा तो उसमें रख लेंगे और किसी तरह की व्याख्या करेंगे कि वह क्या है? अगर रेडियो तक उनका विकास हुआ हो तो उन्हें व्याख्या करने की जरूरत न पड़ेगी। तब वह उसके राज को खोल लेंगे। अगर ऐसा न हुआ हो तो वह भयभीत हो सकते है उससे, डर सकते है, अभिभूत हो सकते हैं, आत्‍मर्यचकित हो सकते है, पूजा कर सकते हैं।

काबा का पत्थर उन छोटे से उपकरणों में से एक है जो कभी दूसरे अंतरिक्ष के यात्रियों ने छोड़ा और जिनसे कभी संबंध स्थापित हो सकते थे। यह मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं आपको, क्योंकि तीर्थ हमारी ऐसी व्यवस्थाएं है जिससे हम अंतरिक्ष के जीवन से संबंध स्थापित नहीं करते बल्कि इस पृथ्वी पर ही जो चेतनाएं विकसित होकर विदा हो गयीं, उनसे पुन: पुन: संबंध स्थापित कर सकते हैं।

और इस संभावनाओं को बढ़ाने के लिए जैसे कि सम्मेत शिखर पर बहुत गहरा प्रयोग हुआ—बाईस तीर्थंकरों का सम्मेत शिखर पर जाकर समाधि लेना, गहरा प्रयोग था। वह इस चेष्टा में था कि उस स्थल पर इतनी सघनता हो जाए कि संबंध स्थापित करने आसान हो जाएं। उस स्थान से इतनी चेतनाएं यात्रा करें दूसरे लोक में, कि उस स्थान और दूसरे लोक के बीच सुनिश्रित मार्ग बन जाए। वह सुनिश्‍चित मार्ग रहा है।

और जैसे जमीन पर सब जगह एक—सी वर्षा नहीं होती, घनी वर्षा के स्थल हैं, विरल वर्षा के स्थल हैं, रेगिस्तान हैं जहां कोई वर्षा नहीं होती, और ऐसे स्थान हैं जहां पांच सौ इंच वर्षा होती है। ऐसी जगह हैं जहां ठंडा है सब और बर्फ के सिवाय कुछ भी नहीं बनता, और ऐसे स्थान हैं जहां सब गर्म है, और बर्फ भर नहीं बन सकता।

ठीक वैसे ही पृथ्वी पर चेतना की डेंसिटी और नान—डेंसिटी के स्थल हैं। और उनको बनाने की कोशिश की गयी है, उनको निर्मित करने की कोशिश की गयी है। क्योंकि वह अपने आप निर्मित नहीं होगें, वह मनुष्य की चेतना से निर्मित होंगे। जैसे सम्मेत शिखर पर बाईस तीर्थंकरों का यात्रा करके, समाधि में प्रवेश करना, और उसी एक जगह से शरीर को छोड़ना; उस जगह पर इतनी घनी चेतना का प्रयोग है कि वह जगह चार्ज्‍ड हो जाएगी विशेष अर्थों में। और वहां कोई भी व्यक्ति बैठे उस जगह पर और उन विशेष मंत्रों का प्रयोग करे, जिन मंत्रों को उन बाईस लोगों ने किया है, तो तत्काल उसकी चेतना शरीर को छोड्कर यात्रा करनी शुरू कर देगी। वह प्रक्रिया वैसी ही विज्ञान की है जैसी कि और विज्ञान की सारी प्रक्रियाएं हैं।

तीर्थों को बनाने का एक तो प्रयोजन यह था कि हम इस तरह के चार्ज्‍ड, ऊर्जा से भरे हुए स्थल पैदा कर लें जहां से कोई भी व्यक्ति सुगमता से यात्रा कर सके। करीब—करीब वैसे ही है, जैसे—एक तो होता है कि हम नाव में पतवार लगाकर और नाव को खेवें। दूसरा यह होता है कि हम पतवार को चलाएं ही न, नाव के पाल खोल दें और उचित समय पर, और उचित हवा की दिशा में नाव को बहने दें।

तीर्थ वैसी जगह थी, जहां से कि चेतना की एक धारा अपने आप प्रवाहित हो रही है, जिसको प्रवाहित करने के लिए सदियों ने मेहनत की है। आप सिर्फ उस धारा में खड़े हो जाएं और आपकी चेतना का पाल तन जाए और आप एक यात्रा पर निकल जाएं। जितनी मेहनत आपको अकेले में करनी पड़े, उससे बहुत अल्प मेहनत में यात्रा संभव हो सकती है।

विपरीत स्थल पर खड़े होकर यात्रा अत्यंत कठिन भी हो सकती है। हवाएं जब उल्टी तरफ बह रही हों और आप पाल खोल दें, तो बजाए इसके कि आप पहुंचे और भटक जाएं इसकी पूरी संभावना है।

अब जैसे, अगर आप किसी ऐसी जगह में ध्यान कर रहे हैं जहां चारों ओर नकाराअक भावावेश प्रवाहित होते हैं, निगेटिव इमोशंस प्रवाहित होते हैं। समझ लें कि आप एक जगह बैठ कर ध्यान कर रहे हैं और आपके चारों तरफ हत्यारे बैठे हुए हैं। तो आपको कल्पना भी नहीं हो सकती कि ध्यान करने के क्षण में आप इतने रिसेटिव हो जाते हैं कि आस—पास जो भी हो रहा है वह तत्काल आप में प्रवेश कर जाता है। ध्यान एक रिसेटिविटी है, एक ग्राहकता है। ध्यान में आप ‘वलनेबल’ हो जाते हैं, खुल जाते हैं और कोई भी चीज आप में प्रवेश कर सकती है।

इसलिए ध्यान के क्षण में, आस—पास कैसी तरंगें हैं चेतना की, वह विचार कर लेना बहुत उपयोगी है। अगर ऐसी तरंगे आपके चारों तरफ हैं, जो कि आपको गलत तरफ झुका सकती हैं, तो ध्यान महंगा भी पड सकता है।

और या फिर ध्यान एक जद्दोजहद और एक संघर्ष बन जाएगा। जब कभी ध्यान में आपको अचानक ऐसे खयाल आने लगते जो आपको कभी भी नहीं आए थे, जब ध्यान के क्षण में आपको एक क्षण भी शांत होना मुश्किल होने लगता है कि इससे ज्यादा शांत तो आप बिना ध्यान कै ही रहते हैं, औ कभी अभी ऐसा लगता है। तब आपको कभी खयाल न आया होगा कि ध्यान के क्षण में आस—पास जो भी प्रवाहित होता है वह आप में सुगमता से प्रवेश पा जाता है।

कारागृह में भी बैठकर भी ध्यान किया जा सकता है, पर बड़ा सबल व्यक्तित्व चाहिए। और कारागृह में बैठकर ध्यान करना हो तो प्रक्रियाएं भिन्न चाहिए। ऐसी प्रक्रियाएं चाहिए जो पहले आपके चारों तरफ अवरोध की एक सीमा रेखा निर्मित कर दें, जिसके भीतर कुछ प्रवेश न कर सके। पर तीर्थ में वैसे अवरोध की कोई जरूरत नहीं है। तीर्थ में तीर्थ में ऐसी ध्यान की प्रक्रिया चाहिए जो आपके आस—पास का सब अवरोध सब रईइसिस्टेंस’, सब द्वार—दरवाजे खुले छोड़ दें! हवाएं वहां बह रही हैं।

सैकडों लोगों ने उस जगह से अनंत में प्रवाहित होकर एक मार्ग निर्मित किया है। ठीक मार्ग ही कहना चाहिए जैसे कि हम रास्ते बनाते है सड़को पर एक जंगु में हम एक रास्ता बना देते है। दरख्त गिरा देते है और एक पका रास्ता बना लेते हैं, और दूसरे पीछे चलनेवाले यात्री को बड़ी सुगमता हो जाए। ठीक आत्मिक अर्थों में भी इस तरह के रास्ते निर्मित करने की कोशिश की गयी। कमजोर आदमियों को जिस तरह भी सहायता पहुंचाई जा सके, उस तरह की सहायता, जो शक्तिशाली थे, उन्होंने सदा पहुंचाने की कोशिश की। तीर्थ उनमें एक बहुत बड़ा प्रयोग है।

तो पहला तो तीर्थ का प्रयोजन यह है कि आपको जहां हवाएं शरीर से आत्मा की तरफ बह ही रही हैं, जहां पूरा तरंगायित है वायुमंडल, जहां से लोग ऊर्ध्वगामी हुए, जहां बैठकर लोग समाधिस्थ हुए, जहां बैठकर लोगों ने परमात्मा का दर्शन पाया जहां यह अनूठी घटना घटती रही हैं सैकडों वर्षो तक वह जगह एक विशेष आविष्ट जगह हो गयी। उस आविष्ट जगह में आप अपने पाल को भर खुला छोड़ दें, कुछ और न करें, तो भी आपकी यात्रा शुरू होगी। तो तीर्थ का पहला प्रयोग तो ये था।

इसलिए सभी धर्मों ने तीर्थ निर्मित किए। उन धर्मों ने भी तीर्थ निर्मित किए जो मंदिर के पक्ष में नहीं थे। यह बड़े मजे की बात है क्योंकि मंदिर के पक्ष में कोई तीर्थ निर्मित करे धर्म, समझ में आता है। लेकिन जो धर्म मंदिर के पक्ष में न थे, जो धर्म मूर्ति के विरोधी थे, उनको भी तीर्थ तो निर्मित करना ही पड़ा। मूर्ति का विरोध आसान हुआ, मूर्ति हटा दी वह भी कठिन न हुआ, लेकिन तीर्थ को हटाया नहीं जा सका। क्योंकि तीर्थ का और भी व्यापक उपयोग था जिसको कोई धर्म इनकार न कर सका।

जैसे कि जैन भी मूलतः मूर्तिपूजक नहीं हैं, मुसलमान मूर्तिपूजक नहीं हैं, सिक्ख मूर्तिपूजक नहीं है—बुद्ध मूर्तिपूजक नहीं थे प्रारंभ में—लेकिन इन सबने भी तीर्थ निर्मित किए हैं। तीर्थ निर्मित करने ही पड़े। सच तो यह है कि बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। ठीक है. बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ नहीं रह जाता। फिर एक—एक व्यक्ति जो कर सकता है, करे। लेकिन फिर समूह में खड़े होने का कोई प्रयोजन, कोई अर्थवत्ता नहीं है।

तीर्थ शब्द का अर्थ होता है—घाट। उसका अर्थ होता है ऐसी जगह जहां से हम उस अनंत सागर में उतर सकते हैं। जैनों का शब्द तीर्थंकर तीर्थ से बना है, उसका अर्थ है तीर्थ को बनानेवाला, और कोई अर्थ नहीं है उसका। तीर्थंकर का अर्थ है तीर्थ को बनानेवाला। असल में उसको ही तीर्थ कहा जा सकता है, तीर्थंकर कहा जा सकता है जिसने ऐसा तीर्थ निर्मित किया हो जहां साधारण जन खड़े होते, पाल खोलते, ऐसे ही यात्रा पर संलग्न हो जाएं। अवतार न कहकर तीर्थंकर कहा, और अवतार से बड़ी घटना तीर्थंकर है। क्योंकि परमात्‍मा, आदमी में अवतरित हो यह तो एक बात है, लेकिन आदमी परमात्मा में प्रवेश का तीर्थ बना ले, यह और भी बड़ी बात है।

जैन, परमात्मा में भरोसा करनेवाला धर्म नहीं है, आदमी की सामर्थ्य में भरोसा करनेवाला धर्म है। इसलिए तीर्थ और तीर्थंकर का जितना गहरा उपयोग जैन कर पाए उतना कोई भी नहीं कर पाया। क्योंकि यहां तो कोई ईश्वर की कृपा पर उनको खयाल नहीं है। ईश्वर कोई सहारा दे सकता है, इसका कोई खयाल नहीं है। आदमी अकेला है, और आदमी को अपनी ही मेहनत से यात्रा करनी है।

लेकिन दो रास्ते हो सकते हैं। एक—एक आदमी अपनी—अपनी मेहनत करे। पर तब शायद कभी करोड़ों में एक आदमी उपलब्ध हो पाएगा। चप्पू से भी नाव चलाकर यात्रा तो की ही जा सकती है, लेकिन तब कभी कोई एकाध पार हो पाएगा। लेकेन हवाओं का सहारा लेकर यात्रा बड़ी आसान होती है। तो क्या आध्यात्मिक हवाएं संभव हैं? उस पर ही तीर्थ का सब कुछ निर्भर है। क्या वह संभव है कि जब महावीर जैसा एक व्यक्ति खड़ा होता है तो उसके आस—पास किसी अनजाने आयाम में कोई प्रवाह शुरू होता है? क्या वह किसी एक ऐसी दिशा में बहाव को निर्मित करता है कि बहाव में कोई पड़ जाए, तो बह जाए? .वही बहाव तीर्थ है।

इस पृथ्वी पर तो उसके जो निशान हैं वह भौतिक निशान हैं, लेकिन वे स्थान न खो जाएं इसलिए उन भौतिक निशानों की बड़ी सुरक्षा की गयी है। मंदिर बनाए गए हैं उन जगहों पर, या पैरों के चिन्ह बनाए गए हैं उन जगहों पर या मूर्तियां खड़ी की गई हैं उन जगहों पर और उन जगह को हजारों वर्षों तक वैसा का वैसा रखने की चेष्टा की गयी है। इंचभर भी वह जगह न हिल जाए, जहां घटना घटी है कभी! बड़े—बड़े खजाने गड़ाए गए हैं, आज भी उनकी खोज चलती है।

जैसे कि रूस के आखिरी जार का खजाना अमरीका में कहीं गड़ा है, जो कि पृथ्वी का सबसे बड़ा खजाना है और आज भी खोज चलती है। वह खजाना है, यह पका है, क्योंकि बहुत दिन नहीं हुए. अभी उन्नीस सौ सत्रह को घटे बहुत दिन नहीं हुए। उसका इंच—इंच हिसाब भी रखा गया है कि वह कहां होगा। लेकिन डिकोड नहीं हो पा रहा है, वह जो हिसाब रखा गया है उसको समझा नहीं जा पा रहा है कि एक्लैक्ट जगह कहां है।

जैसे कि ग्‍वालियर में एक बड़ा खजाना ग्‍वालियर फेमिली का है, जिसका फेमिली के पास सारा का सारा हिसाब है, लेकिन फिर भी जगह नहीं पकडी जा रही है कि वह जगह कहां है, वह डिकोड नहीं हो रहा है। नक्‍शा जो है—इस तरह के सब नक्शे गुप्त भाषा में ही निर्मित किए जाते हैं, अन्यथा कोई भी डिकोड कर लेगा। सामान्य भाषा में वे नहीं लिखे जाते।

इन तीर्थों का भी पूरा का पूरा सूचन है। इसलिए जरूरी नहीं है, जैसा कि आम लोग समझ लेते हैं। और वह आम लोग गड़बड़ न कर पाएं इसलिए बड़े उपाय किए जाते हैं। वह मैं आपको कहूं तो बहुत हैरानी होगी। जैसे जहां आप जाते हैं और आपसे कहा जाता है कि यह जगह है जहां महावीर निर्वाण को उलपब्ध हुए—बहुत संभावना तो यह है कि वह जगह नहीं होगी। उससे थोड़ी हटकर वह जगह होगी जहां उनका निर्वाण हुआ। उस जगह पर तो प्रवेश उनको ही मिल सकेगा, जो सच में ही पात्र हैं और उस यात्रा पर निकल सकते हैं। एक फाल्स जगह, एक झूठी जगह आम आदमी से बचाने के लिए खडी की जाएगी, जिसपर तीर्थयात्री जाता रहेगा, नमस्कार करता रहेगा और लौटता रहेगा। वह जगह तो उनको ही बतायी जाएगी जो सचमुच उस जगह आ गए है, जहां से वह सहायता लेने के योग्य हैं या उनको सहायता मिलनी चाहिए। ऐसी बहुत—सी जगह हैं।

अरब में एक गांव है जिसमें आज तक किसी सभ्य आदमी को प्रवेश नहीं मिल सका— आज तक, अभी भी! चांद पर आप प्रवेश कर गए, लेकिन छोटे से गांव अल्‍कुफा में आज तक किसी यात्री को प्रवेश नहीं मिल सका। सच तो यह है कि आज तक यह ठीक हो सका नहीं कि वह कहां है! और वह गांव है, इसमें कोई शक—शुबहा नहीं, क्योंकि हजारों साल से इतिहास उसकी खबर देता है। किताबें उसकी खबर देती हैं। उसके नक्‍शे हैं।

वह गांव कुछ बहुत प्रयोजन से छिपाकर रखा गया है। और सूफियों में जब कोई बहुत गहरी अवस्था में होता है तभी उसको उस गांव में प्रवेश मिलता है। उसकी सीक्रेट ‘की’ है। अल्‍कुफा के गांव में उसी सूफी को प्रवेश मिलता है जो ध्यान में उसका रास्ता खोज लेता है, अन्यथा नहीं। उसकी ‘की’ है फिर तो उसे कोई रोक भी नहीं सकता। अन्यथा कोई उपाय नहीं है। नक्‍शे हैं, सब तैयार है, लेकिन फिर भी उसका पता नहीं लगता, वह कहां है। वह सब एक अर्थ में नक्‍शे थोड़े से झूठ हैं और भटकाने के लिए हैं। उन नक्शो को जो मानकर चलेगा वह अल्‍कुफा कभी नहीं पहुंच पाएगा।

इसलिए बहुत यात्री, योरोप के पिछले तीन सौ वर्षों में सैकड़ों यात्री अल्‍कुफा को ढूंढने गए। उनमें से कुछ तो कभी लौटे नहीं, मर गए! जो लौटे वे कभी कहीं पहुंचे नहीं। वे सिर्फ चक्कर मारकर वापस आ गए। सब तरह से कोशिश की जा चुकी है। पर उसकी कुंजी है। और वह कुंजी एक विशेष ध्यान है; और उस विशेष ध्यान में ही अल्‍कुफा पूरा का पूरा प्रगट होता है। और वह सूफी उठता है और चल पड़ता है। और जब इतनी योग्यता हो तभी उस गांव से गति है। वह एक सीक्रेट तीर्थ है जो इस्लाम से बहुत पुराना है। लेकिन उसको गुप्त रखा गया है। इन तीर्थों में भी जो जाहिर है, इन तीर्थों में भी जो जाहिर दिखायी पड़ते हैं, वे असली तीर्थ नहीं हैं। आस—पास असली तीर्थ हैं।

जैसे एक मजेदार घटना घटी। विश्वनाथ के मंदिर में, काशी में, जब विनोबा हरिजनों को लेकर प्रवेश कर गए, तो करपात्री ने कहा कि कोई हर्ज नहीं, हम दूसरा मंदिर बना लेंगे, और दूसरा मंदिर बनाना शुरू कर दिया। वह मंदिर तो बेकार हो गया। तो दूसरा मंदिर बनाना शुरू कर दिया। साधारणत: देखने में विनोबा ज्यादा समझदार आदमी मालूम पड़ते हैं करपात्री से। असलियत ऐसी नहीं है। साधारणत: देखने में करपात्री निपट पुराणपंथी, नासमझ, आधुनिक जगत और शान से वंचित मालूम पड़ते हैं। यह थोड़ी दूर तक सच है बात। लेकिन फिर भी जिस गहरी बात की वह ताईद कर रहे हैं उसके मामले में वह ज्यादा जानकार हैं।

सच बात यह है कि विश्वनाथ का यह मंदिर भी असली नहीं है, और वह जो दूसरा बनाएंगे वह भी असली नहीं होगा। असली मंदिर तो तीसरा है। लेकिन उसकी जानकारी सीधी नहीं दी जा सकती। और असली मंदिर को छिपाकर रखना पडेगा, नहीं तो कभी भी कोई भी धर्म सुधारक और समाज सुधारक उसको भ्रष्ट कर सकता है। अभी जो विश्वनाथ का मंदिर है खड़ा हुआ, इसको तो नष्ट किया जा चुका है। इसमें कोई उपाय नहीं है, इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है, चाहे नष्ट कर दो।

वह जो दूसरा बनाया जा रहा है वह भी ‘फाल्स’ है। लेकिन एक फाल्‍स बनाए ही रखना पडेगा, ताकि असली पर नजर न जाए। और असली को छिपाकर रखना पड़ेगा। विश्वनाथ के मंदिर में प्रवेश की कुंजियां हैं, जैसे अल्‍कुफा में प्रवेश की कुंजियां हैं। उसमें कभी कोई सौभाग्यशाली संन्यासी प्रवेश पाता है। उसमें कोई ग्रहस्थ कभी प्रवेश नहीं पाया और कभी पा नहीं सकेगा। सभी संन्यासी को भी उसमें प्रवेश नहीं मिल पाते हैं कभी कोई सौभाग्यशाली संन्यासी उसमें प्रवेश पाते हैं। और उसे सब भांति छिपाकर रखा जाएगा। उसके मंत्र हैं और जिनके प्रयोग से उसका द्वार खुलेगा, नहीं तो उसका द्वार नहीं खुलेगा। उसका बोध ही नहीं होगा, उसका खयाल ही नहीं आएगा।

काशी में जाकर इस मंदिर की लोग पूजा, प्रार्थना करके वापस लौट आएंगे। मगर इस मंदिर की भी अपनी एक सेंक्टिटी बन गयी थी। यह झूठा था, लेकिन फिर भी लाखों वर्षों से उसको सच्चा मानकर चला जा रहा था। उसमें भी एक तरह की पवित्रता आ गयी।’

सारे धर्मों ने कोशिश की है कि उनके मंदिर में या उनके तीर्थ में दूसरे धर्म का व्यक्ति प्रवेश न करे। आज हमें बेहूदी लगती है यह बात। हम कहेंगे, इससे क्या मतलब? लेकिन जिन्होंने व्यवस्था की थी, उनके कुछ कारण थे। यह करीब—करीब मामला ऐसा ही है जैसे कि एटामिक इनर्जी की एक लेबोरेटरी है और अगर यह लिखा हो कि यहां सिवाय एटामिक साइंटिस्ट के कोई प्रवेश नहीं करेगा, तो हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। हम कहेंगे, बिलकुल ठीक है, बिलकुल दुरुस्त है। खतरे से खाली नहीं है दूसरे आदमी का भीतर प्रवेश करना!

लेकिन यही बात हम मंदिर और तीर्थ के संबंध में मानने को राजी नहीं हैं, क्योंकि हमें यह खयाल ही नहीं है कि मंदिर और तीर्थ की अपनी साइंस है। और वह विशेष लोगों के प्रवेश के लिए है। आज भी एक मरीज बीमार पड़ा है और उसके चारों तरफ डाक्टर खड़े होकर बात करते रहते हैं। मरीज सुनता है, समझ तो कुछ नहीं पाता क्योंकि डाक्टर एक कोड लेंग्वेज में बात कर रहे हैं। वह लैटिन या ग्रीक शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। वे जो बोल रहे हैं, मरीज सुन रहा है, लेकिन समझ नहीं सकता। मरीज के हित में नहीं है कि वह समझे। इसलिए सारे धर्मों ने अपनी कोड लेंग्वेज विकसित की थी। उसके गुप्त तीर्थ थे, उसकी गुप्त भाषाएं थीं, उसके गुप्त शाख थे। और आज भी जिनको हम तीर्थ समझ रहे हैं उनमें बहुत कम संभावना है सही होने की। जिनको हम शाख समझ रहे हैं उनमें भी बहुत कम संभावना है सही होने की।

वह जो सीक्रेट ट्रेडीशन है, उसे तो छिपाने की निरंतर कोशिश की जाती है। क्योंकि जैसे ही वह आम आदमी के हाथ में पड़ती है, उसके विकृत हो जाने का डर है। और आम आदमी उससे परेशान ही होगा, लाभ नहीं उठा सकता। जैसे अगर सूफियों के गांव अल्‍कुफा में अचानक आपको प्रवेश करवा दिया जाए, तो पागल हो जाएंगे। अल्‍कुफा की यह परंपरा है कि वहां अगर कोई आदमी आकस्मिक प्रवेश कर जाए तो पागल होकर लौटेगा—वह लौटेगा ही! इसमें किसी का कोई कसूर नहीं है।

क्योंकि अल्‍कुफा इस तरह की पूरे के पूरे मनस्तरंगों से निर्मित है कि आपका मन उसको झेल नहीं पाएगा। आप विक्षिप्त हो जाएंगे। उतनी सामर्थ्य और पात्रता के बिना उचित नहीं है कि वहां प्रवेश हो। जैसे अल्‍कुफा

के बाबत कुछ बातें खयाल में ले लें तो और तीर्थों का खयाल में आ जाएगा।

जैसे अल्‍कुफा में नींद असंभव है, कोई आदमी सो नहीं सकता। तो आप पागल हो ही जाएंगे जब तक कि आपने जागरण का गहन प्रयोग न किया हो। इसलिए सूफी फकीर की सबसे बडी जो साधना है वह रात्रि जागरण है, रातभर जागते रहेंगे! और एक सीमा के बाद. एक बहुत सोचने जैसी बात है—एक आदमी नब्बे दिन तक खाना न खाए तो भी सिर्फ दुर्बल होगा, मर नहीं जाएगा! पागल नहीं हो जाएगा!

साधारण स्वस्थ आदमी आसानी से नब्बे दिन, बिना खाना खाए रह सकता है। लेकिन साधारण स्वस्थ आदमी इक्कीस दिन भी बिना सोए नहीं रह सकता। तीन महीने बिना खाए रह सकता है, तीन सप्ताह बिना सोए नहीं रह सकता। तीन सप्ताह तो बहुत ज्यादा कह रहा हूं एक सप्ताह भी बिना सोए रहना कठिन मामला है। पर अल्‍कुफा में नींद असंभव है।

एक बौद्ध भिक्षु को सीलोन से किसी ने मेरे पास भेजा। उसकी तीन साल से नींद खो गयी थी, तो उसकी जो हालत हो सकती थी वह हो गयी। पूरे वक्त हाथ—पैर कंपते रहेंगे, पसीना छूटता रहेगा और घबराहट होती रहेगी। एक कदम भी उठायेगा तो डरेगा, भरोसा अपने ऊपर का सब खो गया, नींद आती नहीं है। बिलकुल विक्षिप्त और अजीब सी हालत है। उसने बहुत इलाज करवाया क्योंकि वह.. वह यहां सब तरह के इलाज उसने करवा लिए, कुछ फायदा हुआ नहीं; कोई ट्रैकोलाइजर उसको सुला नहीं सकता था। उसे गहरे से गहरे ट्रैकोलाइजर दिए गए तो भी उसने कहा कि मैं बाहर से सुस्त होकर पड जाता हूं लेकिन भीतर तो मुझे पता चलता ही रहता है कि मैं जगा हुआ हूं।

उसे किसी ने मेरे पास भेजा। मैंने उसको कहा कि तुम्हें कभी नींद आएगी नहीं, ट्रैकोलाइजर से या और किसी उपाय से। तुम बुद्ध का अनापान सती योग तो नहीं कर रहे हो? क्योंकि बौद्ध भिक्षु के लिए वह अनिवार्य है। उसने कहा, वह तो मैं कर ही रहा हूं। उसके बिना तो.. मैं फिर मैंने कहा, तुम नींद का खयाल छोड़ दो।

अनापान सती योग का प्रयोग ऐसा है कि नींद खो जाएगी। मगर वह प्राथमिक प्रयोग है। और जब नींद खो जाए तब दूसरा प्रयोग तत्काल जोड़ा जाना चाहिए। अगर उसको ही करते रहे तो पागल हो जाओगे, मुश्किल में पड़ जाओगे। वह सिर्फ प्राथमिक प्रयोग है, वह सिर्फ नींद हटाने का प्रयोग है। एक दफा भीतर से नींद हट जाए तो आपके भीतर इतना फर्क पड़ता है चेतना में कि उस क्षण का उपयोग करके आगे गति की जा सकती है।

तो मैंने कहा—कोई दूसरी प्रक्रिया तुझे मालूम है? उसने कहा, मुझे दूसरी किसी ने तो अनापान सती बतायी नहीं। बस अनापान सती किताब में लिखी हुई है, और सबको मालूम है। और खतरनाक है उसका किताब में लिखना! क्योंकि उसको करके कोई भी आदमी नींद से वंचित हो सकता है। और जब नींद से वंचित हो जाएगा, तो दूसरी प्रक्रिया का कोई पता नहीं!

इसलिए सदा बहुत—सी चीजें गुप्त रखी गयीं। गुप्त रखने का और कोई कारण नहीं था, किसी से छिपाने का कोई और कारण नहीं था। जिनको हम लाभ पहुंचाना चाहते हैं उनको नुकसान पहुंच जाए तो कोई अर्थ नहीं। तो वास्तविक तीर्थ छिपे हुए और गुप्त हैं। तीर्थ जरूर हैं, पर वास्तविक तीर्थ छिपे हुए, गुप्त हैं। करीब—करीब निकट हैं उन्हीं तीर्थों के, जहां आपके ‘फाल्स’ तीर्थ खड़े हुए हैं। और वह जो फाल्‍स तीर्थ हैं, वह जो झूठे तीर्थ हैं, धोखा देने के लिए खड़े किए गए हैं। वह इसलिए खड़े किए गए हैं कि ठीक पर कहीं गलत आदमी न पहुंच जाए। ठीक आदमी तो ठीक पहुंच ही जाता है। और हरेक तीर्थ की अपनी कुंजियां हैं। इसलिए अगर सूफियों का तीर्थ खोजना हो तो जैनियों के तीर्थ की कुंजी से नहीं खोजा जा सकता। अगर जैनियों का तीर्थ खोजना है तो सूफियों की कुंजी से नहीं खोजा जा सकता। सबकी अपनी कुंजियां हैं, और उन कुंजियों का उपयोग करके तत्काल खोजा जा सकता है। तत्काल…! नाम नहीं लेता, किंतु किसी के तीर्थ की एक कुंजी आपको बताता हूं।

एक विशेष यंत्र जैसे कि तिब्बतियों के होते हैं, जिसमें खास तरह की आकृतियां बनी होती हैं—वे यंत्र कुंजियां हैं। जैसे हिंदुओं के पास भी यंत्र हैं, और हजार यंत्र हैं। आप घरों में भी ‘लाभ शुभ’ बनाकर कभी—कभी आंकडे लिखकर और यंत्र बना लेते हैं, बिना जाने कि किसलिए बना रहे हैं। क्यों लिख रहे हैं यह? आपको खयाल भी नहीं हो सकता है कि आप अपने मकान में एक ऐसा यंत्र बनाए हुए हैं जो किसी तीर्थ की कुंजी हो सकती है। मगर बाप—दादे आपके बनाते रहते हैं और आप बनाए चले जा रहे हैं।

एक विशेष आकृति पर ध्यान करने से आपकी चेतना विशेष आकृति लेती है। हर आकृति आपके भीतर चेतना को आकृति देती है। जैसे कि अगर आप बहुत देर तक खिड़की पर आंख लगाकर देखते रहें, फिर आंख बंद करें तो खिड़की का निगेटिव चौखटा आपकी आंख के भीतर बन जाता है—वह निगेटिव है। अगर किसी यंत्र पर आप ध्यान करें तो उससे ठीक उल्टा निगेटिव चौखटा और निगेटिव आकड़े आपके भीतर निर्मित होते हैं। वह, विशेष ध्यान के बाद आपको भीतर दिखायी पड़ना शुरू हो जाता है। और जब वह दिखायी पड़ना शुरू हौ जाए, तब विशेष आह्वान करने से तत्काल आपकी यात्रा शुरू हो जाती है।

नसरुद्दीन के जीवन में एक कहानी है। नसरुद्दीन का गधा खो गया है। वह उसकी संपत्ति है, सब कुछ। सारा गांव खोज डाला, सारे गांव के लोग खोज—खोजकर परेशान हो गए, कहीं कोई पता नहीं चला। फिर लोगों ने कहा, ऐसा मालूम होता है कि किसी तीर्थ यात्रियों के साथ यात्री निकल रहे हैं, तीर्थ का महीना है। और गधा दिखता है कि कहीं तीर्थ यात्रियों के साथ निकल गया! गांव में तो नहीं है, गांव के आस—पास भी नहीं है, सब जगह खोज डाला गया। नसरुद्दीन से लोगों ने कहा, अब तुम माफ करो, समझो कि खो गया, अब वह मिलेगा नहीं।

नसरुद्दीन ने कहा कि मैं आखिरी उपाय और कर लूं। वह खड़ा हो गया, आंख उसने बंद कर ली। थोड़ी देर में वह झुक गया चारों हाथ—पैर से, और उसने चलना शुरू कर दिया। और वह उस मकान का चक्कर लगाकर, और उस बगीचे का चक्कर लगाकर उस जगह पहुंच गया जहां एक खड्डे में उसका गधा गिर पड़ा था। लोगों ने कहा, नसरुद्दीन हद्द कर दी तुम्हारी खोज ने! यह तरकीब क्या है? उसने कहा, मैंने सोचा कि जब आदमी नहीं खोज सका, तो मतलब यह है कि गधे की कुंजी आदमी के पास नहीं है।

मैंने सोचा कि मैं गधा बन जाऊं। तो मैंने अपने मन में सिर्फ यही भावना की कि ‘मैं गधा हो गया ‘। अगर मैं गधा होता तो कहां जाता खोजने? गधे को खोजने कहां जाता! फिर कब मेरे हाथ झुककर जमीन पर लग गए, और कब मैं गधे की तरह चलने लगा, मुझे पता नहीं। कैसे मैं चलकर वहां पहुंच गया, वह मुझे पता नहीं। जब मैंने आंख खोली तो मैंने देखा, मेरा गधा खड्डे में पड़ा हुआ है।

नसरुद्दीन तो एक सूफी फकीर है। यह कहानी तो कोई भी पढ़ लेगा और मजाक समझकर छोड़ देगा। लेकिन इसमें एक ‘की’ है—इस छोटी—सी कहानी में। इसमें ‘की’ है खोज की। खोजने का एक ढंग वह भी है। और आत्मिक अर्थों में तो ढंग वही है। तो प्रत्येक तीर्थ की कुंजियां हैं, यंत्र हैं। और तीर्थों का पहला प्रयोजन तो यह है कि आपको उस आविष्ट धारा में खड़ा कर दें जहां धारा बह रही हो और आप उसमें बह जाए—स्व।

दूसरी बात—मनुष्य के जीवन में जो भी है वह सब पदार्थ से निर्मित है, सिर्फ पदार्थ पर निर्मित है— मनुष्य के जीवन में जो है, सिर्फ उसकी आंतरिक चेतना को छोड्कर। लेकिन आंतरिक चेतना का तो आपको कोई पता नहीं है। पता तो आपको सिर्फ शरीर का है, और शरीर के सारे संबंध पदार्थ से हैं। थोड़ी—सी अल्केमी समझ लें तो दूसरा तीर्थ का अर्थ खयाल में आ जाए।

अल्केमिस्ट की प्रक्रियाएं हैं, वह सब गहरी धर्म की प्रक्रियाएं है। अब अल्केमिस्ट कहते हैं कि अगर पानी को एक बार भाप बनाया जाए और फिर पानी बनाया जाए, फिर भाप बनाया जाए उसको, फिर पानी बनाया जाए—ऐसा एक हजार बार किया जाए तो उस पानी में विशेष गुण आ जाते हैं जो साधारण पानी में नहीं हैं। इस बात को पहले मजाक समझा जाता था। क्योंकि इससे क्या फर्क पड़ेगा? आप एक दफा पानी को डिस्टिल्ड कर लें फिर दोबारा उस पानी को भाप बनाकर डिस्टिल्ड करले। फिर तीसरी बार, फिर चौथी बार, क्या फर्क पडेगा। लेकिन पानी डिस्टिल्ड ही रहेगा, लेकिन अब विज्ञान ने स्वीकार किया है कि इसमें कालिटी बदलती है। अब विज्ञान ने स्वीकार किया कि वह एक हजार बार प्रयोग करने पर उस पानी में विशिष्टता आ जाती है। अब वह कहां से आती है अब तक साफ नहीं हैं, लेकिन वह पानी विशेष हो जाता है। लाख बार भी उसको करने के प्रयोग हैं और तब वह और विशेष हो जाता है। अब आदमी के शरीर में हैरान होंगे जानकर आप कि पचहत्तर प्रतिशत पानी है। थोडा बहुत नहीं, पहचत्तर प्रतिशत! और जो पानी है उस पानी का केमिकल ढंग वही है, जों समुद्र के पानी का है। इसलिए नमक के बिना आप मुश्किल में पड़ जाते हैं।

आपके शरीर के भीतर जो पानी है उसमें नमक की मात्रा उतनी ही होनी चाहिए जितनी समुद्र के पानी में है। अगर इस पानी की व्यवस्था को भीतर बदला जा सके तो आपकी चेतना की व्यवस्था को बदलने में सुविधा होती है। तो लाख बार डिस्टिल्ड किया हुआ पानी अगर पिलाया जा सके, तो आपके भीतर बहुत—सी वृत्तियों में एकदम परिवर्तन होगा। अब यह अल्केमिस्ट हजारों प्रयोग ऐसे कर रहे थे। अब एक लाख दफा पानी को डिस्टिल्ड करने में सालों लग जाते हैं और एक आदमी चौबीस घंटे यही काम कर रहा था।

इसके दोहरे परिणाम होते हैं। एक तो उस आदमी का चंचल मन ठहर जाता था क्योंकि यह ऐसा काम था, जिसमें चंचल होने का उपाय नहीं था। रोज सुबह से सांझ तक वह यही कर रहा था। थककर मर जाता था, और दिनभर उसने किया क्या? हाथ में कुल इतना है कि पानी को उसने पच्चीस दफा डिस्टिल्ड कर लिया। वर्षों बीत जाते, वह आदमी पानी ही डिस्टिल्ड करता रहता। हमें सोचने में कठिनाई होगी, पहले थोड़े दिन में हम ऊब जाएंगे, ऊबेंगे तो हम बंद कर देंगे। यह मजे की बात है, जब जहां भी ऊब आ जाए वहीं टर्निंग प्वाइंट होता है। अगर आपने बंद कर दिया तो आप अपनी पुरानी स्थिति में लौट जाते हैं, और अगर जारी रखा तो आप नयी चेतना को जन्म दे लेते हैं।

जैसे रात को आपको नींद आती है। रोज आप दस बजे सोते हैं, दस बजे नींद आने लगेगी। अगर आप टिक जाएं दस बजे और सोने से मना कर दें, तो आप आधा घंटे में.. होना तो यह चाहिए था कि नींद और जोर से आए, लेकिन आधा घंटे में यह होगा कि अचानक आप पाएंगे कि सुबह से भी ज्यादा फ्रेश हो गए हैं। और अब नींद आना मुश्किल हो जाएगा। वह जो प्याइंट था, जहां से आप अपनी स्थिति में वापस गिर सकते थे, अगर सो गए होते तो..। तब आप कंटीन्‍यु रखे होते…। आपने भीतर की व्यवस्था तोड़ दी!

तो शरीर से नयी शक्ति वापस आ गयी। शरीर ने देख लिया कि आप सोने की तैयारी नहीं दिखा रहे हैं, जागना ही पड़ेगा। तो शरीर के पास जो रिजर्वायर है, जहां वह शक्ति संरक्षित रखता है, जरूरत के वक्त के लिए, वह उसने छोड़ दी और आप ताजे हो गए। इतने ताजे जितने आप सुबह भी ताजे नहीं होते।

अब एक आदमी ऊब गया है, एक हजार दफे पानी को बदल चुका है। कहते हैं, उसका गुरु कह रहा है, लाख दफे बदलना है दस साल लगें, पंद्रह साल लगें, कि कितने साल लगें। वह ऊब गया है, लेकिन बदले चला जा रहा है, बदले चला जा रहा है। एक घड़ी आएगी जब कि उसे ऐसा लगेगा कि अब अगर मैंने एक दफा और बदला तो मैं गिरकर मर ही जाऊंगा। अब बहुत हो गया। इसको अब मैं न सह सकूंगा, लेकिन उसका गुरु कह रहा है कि बदले जाओ। और वह बदलता ही चला जाता है, और लौटता नहीं है।

उसका ये पानी तो इधर परिवर्तित हो ही रहा है, उसकी चेतना भीतर परिवर्तित होती है। और फिर इस विशिष्ट पानी के प्रयोग से चेतना में परिणाम होते हैं। जैसे गंगा का जो पानी है, अभी तक साफ नहीं हो सका है वैज्ञानिक को, कि कैसे उसमें बहुत—सी विशेषताएं हैं, जो दुनिया की किसी नदी के पानी में नहीं हैं। माना कि दुनिया की नदियों के पानी में न हों, लेकिन ठीक गंगा की बगल से भी जो नदियां निकलती हैं उनके पानी में भी नहीं है। ठीक उसी पहाड़ से जो नदी निकलती है उसके पानी में भी नहीं। एक ही बादल दोनों नदियों में पानी गिराता है और एक ही पहाड़ का बर्फ पिघलकर दोनों नदियों में जाता है, फिर भी उस पानी में वह क्वालिटी नहीं है जो गंगा के पानी .में है।

अब इस बात को सिद्ध करना मुश्किल होगा। कुछ बातें हैं जिनको सिद्ध करना एकदम मुश्किल है। लेकिन पूरी की पूरी गंगा अल्केमिस्ट का प्रयोग है, पूरी की पूरी गंगा! इसको सिद्ध करना मुश्किल होगा, मैं आपसे कहता हूं और बहुत सी बातें जो मैं कह रहा हूं उसमें से बहुत—सी बातें सिद्ध करना मुश्किल होगा। पूरी गंगा साधारण नदी नहीं है। पूरी की पूरी गंगा को अल्केमिकली शुद्ध करने की चेष्टा की गयी है। और इसलिए हिंदुओं ने सारे तीर्थ अपने, गंगा के किनारे निर्मित किए।

एक महान प्रयोग था गंगा को एक विशिष्टता देने का, जो कि दुनिया की किसी नदी में नहीं है। अब तो केमिस्ट भी राजी हैं कि गंगा का पानी विशेष है। किसी नदी का पानी रख लें, सड जायेगा, गंगा का पानी वर्षों नहीं सको। सडेगा ही नहीं, सड़ता ही नहीं। इसलिए गंगा—जल आप मजे से रख सकते हैं। उसके पास आप दूसरी किसी बोतल में पानी भरकर रख दें, वह पंद्रह दिन में सड़ जायेगा। पर गंगा जल अपनी पवित्रता और शुद्धता को पूरा कायम रखेगा। किसी जल में भी आप लाशें डाल दें, वह नदी गंदी हो जायेगी। गंगा कितनी ही लाशों को हजम कर जाएगी और कभी गंदी नहीं होगी।

एक और हैरानी की बात है, कि हड्डी साधारणत: नहीं गलती, पर गंगा में गल जाती है। गंगा पूरा पचा डालती है, कुछ भी नहीं बचता उसमें। सभी लीन हो जाता है पंच तत्व में। इसलिए गंगा में फेंकने का लाश को, आग्रह बना। क्योंकि बाकी सब जगह से पूरे पंच तत्वों में लीन होने में सैकड़ों, हजारों और कभी लाखों वर्ष लग जाते हैं। गंगा का समस्त तत्वों में वापस लौटा. देने के लिए बिलकुल केमिकल काम है। वह निर्मित इसलिए की गयी, वह पूरी की पूरी नदी साधारण पहाड़ से बही हुई नदी नहीं है। बहाई गयी नदी है। पर वह हमारे खयाल में नहीं आ सकता। और गंगोत्री बहुत छोटी—सी जगह है, जहां से गंगा बहती है।

बड़े मजे की बात यह है कि जहां गंगोत्री को यात्री नमस्कार करके लौट आते हैं, वह फाल्स गंगोत्री है। वह सही गंगोत्री नहीं है, सही को सदा बचाना पड़ता है। वह सिर्फ शो है, वह सिर्फ दिखावा है जहां से यात्री को लौटा दिया जाता है, और यात्री नमस्कार करके लौट आता है। सही गंगोत्री को तो हजारों साल से बचाया गया है। और इस तरह निर्मित किया गया है कि वहां साधारणत: पहुंचना संभव नहीं है। सिर्फ एस्ट्रल ट्रेवलिंग हो सकती है सही गंगोत्री पर, सशरीर पहुंचना संभव नहीं है।

जैसा मैंने कहा कि सूफियों का अल्‍कुफा है। इसमें सशरीर पहुंचा जा सकता है। इसलिए कभी कोई भूल—चूक से भी पहुंच सकता है। यानी चाहे कोई खोजनेवाला न पहुंच सके, क्योंकि खोजनेवाले को आप धोखा दे सकते हैं, गलत नक्‍शे पकड़ा सकते हैं। लेकिन जो खोजने नहीं निकला है, अकारण पहुंच जाए तो उसको आप धोखा नहीं दे सकते। वह पहुंच सकता है। लेकिन गंगोत्री पर पहुंचने के लिए, सिर्फ सूक्ष्म शरीर में ही पहुंचा जा सकता है, इस शरीर में से नहीं पहुचा जा सकता। इस तरह का सारा इंतजाम है। गंगोत्री का दर्शन सशरीर कभी नहीं हो सकता, वह एस्ट्रल ट्रेवलिंग है।

ध्यान में इस शरीर को यहीं छोड्कर यात्रा की जा सकती है। और जब कोई गंगोत्री को देख ले, एस्ट्रल ट्रेवलिंग में, तब उसको पता चले कि इस गंगा का पूरा राज क्या है? इसलिए मैंने कहा कि सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जिस जगह से वह गंगा बह रही है वह जगह बहुत ही विशिष्ट रूप से निर्मित है। और वहां से जो पानी प्रवाहित हो रहा है वह अल्केमिकल है। उस अल्केमिकल धारा के दोनों तरफ हिंदुओं ने अपने तीर्थ खड़े किए।

आप यह जानकर हैरान होगे कि हिंदुओं के सब तीर्थ नदी के किनारे हैं और जैनों के सब तीर्थ पहाड़ों पर हैं। जैन उस पहाड़ पर ही तीर्थ बनाएंगे जो कि बिलकुल रूखा हो, जिस पर हरियाली भी न हो, हरियालीवाले पहाड़ पर वह न चढ़ेंगे। हिमालय जैसा बढ़िया पहाड़ जैनों ने बिलकुल छोड़ दिया। अगर पहाड़ ही चुनना था तो हिमालय से बेहतर कुछ भी न था, पर हिमालय को बिलकुल छोड़ दिया। उन्हें सूखा पहाड़ चाहिए, खुला पहाड चाहिए, कम से कम हरियाली हो, कम से कम पानी हो, क्योंकि जैन जिस अल्केमी का प्रयोग कर रहे थे वह अल्केमी शरीर के भीतर जो ‘ अग्नि तत्व’ है, उससे संबंधित है। और हिंदू जो प्रयोग कर रहे थे वह अल्केमी शरीर के भीतर जो ‘पानी तत्व’ है, उससे संबंधित है। दोनों की अपनी कुंजियां हैं, और अलग हैं।

हिंदू तो सोच ही नहीं सकता कि नदी के बिना कैसे तीर्थ हो सकता है? नदी के बिना तीर्थ होने का कोई अर्थ हिंदुओं की समझ में नहीं आ सकता। हरियाली और सौदर्य, और इन सबके बिना तीर्थ हो सकना, उसकी समझ के बाहर की बात है। वह जिस तत्व पर काम कर रहा था, वह जल है। इसलिए उसके सब तीर्थ जल आधारित हैं, जल से निर्मित हैं।

जैन जो मेहनत कर रहा था उसका मूल तत्व अग्रि है, इसलिए तप पर बहुत जोर है। इधर हिंदू शास्‍त्र और हिंदू साधु का जोर बहुत भिन्न है। हिंदू साधना का सूत्र यह है कि संन्यासी को, योगी को दूध, घी, दही, इनक़ी पर्याप्त मात्रा का उपयोग करना चाहिए। ताकि भीतर आर्द्रता रहे—सूखापन न आ जाए। भीतर सूखापन आ जायेगा तो उनकी ‘की’ काम नहीं कर सकेगी—वह आर्द्र रहे।

जैन की सारी की सारी चेष्टा यह है कि भीतर सब सूख जाए, आर्द्रता रहे ही नहीं। इसलिए अगर जैन मुनि ने सान भी बंद कर दिया, तो उसके कारण हैं। उतना भी पानी का उपयोग नहीं करना है। अब आज वह सिवाय गंदगी के कुछ नहीं दिखायी पडेगा। यह जैन मुनि भी नहीं (बता सकता कि वह किसलिए नहीं नहा रहा है? काहे के लिए परेशान है वह बिना नहाये, या क्यों चोरी से स्पंज कर रहा है? लेकिन जल में उनकी ‘की’ नहीं है, उनकी कुंजी नहीं है।

पंच महाभूतों में उनकी कुंजी है, वह है—तप, वह है— अग्रि। तो सब तरफ से भीतर अग्रि को जगाना है। ऊपर से पानी डाला तो उस अपि को जगाने में बाधा पड़ेगी। इसलिए सूखे पहाड़ पर जहां हरियाली नहीं, पानी नहीं, जहां सब तप्त है, वहां. जैन साधक खड़ा है। वह धीरे— धीरे पत्थरों में खडा रहेगा। जहां सब बाहर भी सूखा हुआ है।

दुनिया में सब जगह उपवास हैं, लेकिन सिर्फ जैनों को छोड्कर उपवास में पानी लेने की मनाही कोई नहीं करेगा। सब दुनियां के उपवास में, सब चीजें बंद कर दो, बनी जारी रखो। सिर्फ जैन हैं, जो उपवास में पानी का भी निषेध करेंगे, कि पानी भी नही! साधारण गृहस्थ के लिए भी कहेंगे कि और नहीं हो सकता तो कम से कम रात का पानी त्याग कर दो। साधारण गृहस्थ यही समझता है कि रात्रि का पानी इसलिए त्याग करवाया जा रहा है कि कहीं पानी में कोई कीड़ा—मकोड़ा न मिल जाए, कोई फलां न हो जाए। पर उससे कोई लेना—देना नहीं। असल में अग्रितत्व की कुंजी के लिए तैयारी करवायी जा रही है।

और बड़े मजे की बात है, कि अगर पानी कम लिया जाए, अगर कम से कम, न्यूनतम, जितना महावीर की चेष्टा है उतना पानी लिया जाए, तो ब्रह्मचर्य के लिए अनूठी सहायता मिलती है। क्योंकि वीर्य सूखना शुरू हो जाता है, और अंतर—अग्रि के जलाने के, जो इसके संयुक्त प्रयोग हैं वह बिलकुल सुखा डालते हैं। जरा—सी भी आर्द्रता वीर्य को प्रवाहित करती है, यह उनकी कुंजी है। जैनों ने सारे के सारे अपने तीर्थों का निर्माण नदियों से दूर किया। फिर नकल में कुछ पीछे के तीर्थ खडे कर लिए, उनका कोई प्रयोजन नहीं है, वह आथेंटिक नहीं

जैन आथेटिक तीर्थ पहाड़ पर होगा। हिंदू आथेंटिक तीर्थ नदी के किनारे होगा, हरियाली में होगा, सुंदर जगह होगा। जैन जो भी पहाड़ चुनेंगे वह कई हिसाब से कुरूप होगा, क्योंकि पहाड़ का सौदर्य उसकी हरियाली के साथ खो जाता है। वे सान नहीं करेंगे, दातुन नहीं करेंगे। इतना कम पानी का उपयोग करना है कि दातुन भी नहीं करेंगे। अगर वह पूरी बात समझ ली जाए उनकी, तो फिर उनके जो सूत्र हैं वह कारगर होंगे, नहीं तो नहीं कारगर होंगे। उन सूत्रों की साधना से भीतर की अग्रि भड़कती है, और भीतर की अग्रि के भड़काने का यह निगेटिव उपाय है कि पानी का संतुलन तोड दिया जाए।

इन सारे तत्वों का, भीतर एक बैलेंस है। इस मात्रा में भीतर पानी, इस मात्रा में अग्रि, इन सबका बैलेंस है।

अगर आपको एक तत्व से यात्रा करनी है तो बैलेंस तोड़ देना पड़ेगा और विपरीत से तोड़ना पड़ेगा। तो जो भी अग्रि पर मेहनत करेगा वह पानी का दुश्मन हो जाएगा। क्योंकि पानी जितना कम हो जाए उसके भीतर, उतना उस अग्रि का संचार हो जाए।

गंगा एक अल्केमिक प्रयोग है, एक बहुत गहरा रासायनिक प्रयोग है। इसमें खान करके व्यक्ति तीर्थ में प्रवेश करेगा। इसमें खान के साथ ही उसके शरीर के भीतर के पानी का जो तत्व है वह रूपांतरित होता है। वह रूपांतरण थोडी देर ही टिकेगा, लेकिन उस थोड़ी देर में, अगर ठीक प्रयोग किए जाएं तो गति शुरू हो जाएगी। रूपांतरण तो थोड़ी देर में विदा हो जाएगा लेकिन गति शुरू हो जाएगी।

और ध्यान रहे, जिसने एक बार गंगा के पानी को पानी पीकर जीना शुरू कर दिया, वह फिर दूसरा पानी नहीं पी सकेगा। फिर बहुत कठिनाई हो जाएगी, क्योंकि दूसरा पानी फिर उसके लिए हजार तरह की अड़चनें पैदा करेगा। और भी बहुत जगह इस तरह गंगा जैसी गंगा पैदा करने की कोशिशें की गयीं लेकिन कोई भी सफल नहीं हुई। बहुत नदियों में प्रयोग किए हैं, वह सफल नहीं हो सके, क्योंकि पूरी कुंजियां खो गयी हैं। लोगों को थोड़ा खयाल भले ही होगा कि क्या किया गया होगा, पर मैं नहीं जानता, कितने लोगों को खयाल है। शायद ही दो—चार आदमी हों, जिनको खयाल हो कि अल्केमी का इतना बड़ा प्रयोग हो सकता है।

गंगा में सान, तत्काल प्रार्थना या पूजा, या मंदिर में प्रवेश, या तीर्थ में प्रवेश, यह पदार्थ का उपयोग है अंतर—यात्रा के लिए। तीर्थ में और सब तरह के पदार्थों का भी उपयोग है। सब तीर्थ बहुत खयाल से बनाए गए हैं। अब जैसे कि मिस्र में पिरामिड हैं। वे मिस्र में पुरानी खो गई सभ्यता के तीर्थ हैं। और एक बड़ी मजे की बात है कि इन पिरामिड्स के अंदर.। क्योंकि पिरामिड जब बने तब, वैतानिकों का खयाल है, उस काल में इलेक्ट्रिसिटी हो नहीं सकती। ०

आदमी के पास बिजली नहीं हो सकती। बिजली का आविष्कार उस वक्त कहां? कोई दस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है, कोई बीस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है। तब बिजली का तो कोई उपाय नहीं था। और इनके अंदर इतना अंधेरा है कि उस अंधेरे में जाने का कोई उपाय नहीं है। अनुमान यह लगाया जा सकता है कि लोग मशाल ले जाते हों, या दीये ले जाते हों। लेकिन धुएं का एक भी निशान नहीं है इतने पिरामिड्स में कहीं। इसलिए बड़ी मुश्किल है। एक छोटा—सा दीया घर में जलाइए तो पता चल जाता है। अगर लोग मशालें भीतर ले गए हों तो इन पत्थरों पर कहीं न कहीं धुएं के निशान तो होने चाहिए!

रास्ते इतने लंबे, इतने मोडवाले हैं, और गहन अंधकार है! तो दो ही उपाय हैं, या तो हम मानें कि बिजली रही होगी, लेकिन बिजली की किसी तरह की फिटिंग का कहीं कोई निशान नहीं है। बिजली पहुंचाने का कुछ तो इंतजाम होना चाहिए। दूसरा, आदमी सोच सकता है—तेल, घी के दीयों या मशालों का। पर उन सबसे किसी न किसी तरह के धुएं के निशान पड़ते हैं, जो कहीं भी नहीं हैं। फिर, उनके भीतर आदमी कैसे जाता रहा है? कोई कहे—नहीं जाता रहा होगा, तो इतने रास्ते बनाने की कोई जरूरत नहीं है। पर सीढ़ियां हैं, रास्ते हैं, द्वार हैं, दरवाजे हैं, अंदर चलने—फिरने का बड़ा इंतजाम है। एक—एक पिरामिड में बहुत से लोग प्रवेश कर सकते हैं, बैठने के स्थान हैं अंदर। यह सब किसलिए होंगे? यह पहेली बनी रह गई है, और साफ नहीं हो पाएगी कभी भी। क्योंकि पिरामिड की समझ नहीं है साफ, कि ये किसलिए बनाए गए हैं? लोग समझते हैं, किसी सम्राट का फितूर होगा, कुछ और होगा!

लेकिन ये तीर्थ हैं। और इन पिरामिड्स में प्रवेश का सूत्र ही यही है, कि जब कोई अंतर—अग्रि पर ठीक से प्रयोग करता है तो उसका शरीर आभा फेंकने लगता है, और तब वह अंधेरे में प्रवेश कर सकता है। तो, न तो यहां बिजली उपयोग की गई है, न यहां कभी दीये उपयोग किए गए हैं, न कभी मशाल उपयोग की गई है, सिर्फ शरीर की दीप्ति उपयोग की गई है। लेकिन वह शरीर की दीप्ति अग्रि के विशेष प्रयोग से ही होती है। इनमें प्रवेश ही वही करेगा, जो इस अंधकार में मजे से चल सके। वह उसकी कसौटी भी है, परीक्षा भी है, और उसको प्रवेश का हक भी है, वह हकदार भी है।

जब पहली दफा 19०5 या 1० में एक—एक पिरामिड खोजा जा रहा था, तो जो वैज्ञानिक उस पर काम कर रहा था उसका सहयोगी अचानक खो गया। बहुत तलाश की गई, कुछ पता न चला। यही डर हुआ कि वह किसी गलियारे में, अंदर है। बहुत प्रकाश और सर्चलाइट ले जाकर खोजा, वह कोई चौबीस घंटे खोया रहा। चौबीस घंटे बाद, कोई रात दो बजे वह भाबा हुआ आया, करीब करीब पागल हालत में! उसने कहा, मैं टटोलकर अंदर जा रहा था, कहीं मुझे दरवाजा मालूम पड़ा, मैं अंदर गया और फिर ऐसा लगा कि पीछे कोई चीज बंद हो गई। मैंने लौटकर देखा तो दरवाजा तो बंद हो चुका था! जब मैं आया तब खुला था, पर दरवाजा भी नहीं था कोई, सिर्फ खुला था। जब मैं अंदर गया तो जैसे कोई चट्टान सरककर बंद हो गई। फिर मैं बहुत चिल्लाया, लेकिन कोई उपाय नहीं था। फिर इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था कि मैं और आगे चला जाऊं, और मैं ऐसी अदभुत चीजें देखकर लौटा हूं जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है।

वह इतनी देर गुम रहा, यह पका है, वह इतना परेशान लौटा है, यह पका है; लेकिन जो बातें वह कह रहा है वह भरोसे की नहीं हैं, कि ऐसी चीजें होगी। बहुत खोजबीन की गई उस दरवाजे की, लेकिन दरवाजा दुबारा नहीं मिल सका। न तो वह यह बता पाया कि कहां से प्रवेश किया, न वह यह बता पाया कि वह कहां से निकला। तो समझा गया कि या तो वह बेहोश हो गया, या उसने कहीं सपना देखा, या वह कहीं सो गया। और कुछ समझने का चारा नहीं था।

लेकिन जो चीजें उसने कहीं थी वह सब नोट कर ली गयीं—उस साइकिक अवस्था में, स्वप्नवत अवस्था में जो—जो उसने वहां देखीं। फिर खुदाई में कुछ पुस्तकें मिलीं जिनमें उन चीजों का वर्णन भी मिला, तब बहुत मुसीबत हो गई। उस वर्णन से लगा कि वह चीजें किसी कमरे में वहां बंद हैं, लेकिन उस कमरे का द्वार किसी विशेष मनोदशा में खुलता है। अब इस बात की संभावना है कि वह एक सांयोगिक घटना थी कि इसकी मनोदशा वैसी रही हो। क्योंकि इसे तो कुछ पता नहीं था, लेकिन द्वार खुला अवश्य।

तो जिन गुप्त तीर्थों की मैं बात कर रहा हूं उनके द्वार हैं, उन तक पहुंचने की व्यवस्थाएं हैं, लेकिन उस सबके आंतरिक सूत्र हैं। इन तीर्थों में ऐसा सारा इंतजाम है कि जिनका उपयोग करके चेतना गतिमान हो सके। जैसे कि पिरामिड्स के सारे कमरे, उनका आयतन एक हिसाब में है। कभी आपने खयाल किया, कहीं छप्पर बहुत नीचा हो, यद्यपि आपके सिर को नहीं छू रहा हो, और यही छप्पर थोडा सरककर नीचे आने लगे। हमको दबाएगा नहीं, हम से अभी दो फीट ऊंचा है, लेकिन हमें भास होगा कि हमारे भीतर कोई चीज दबने लगी।

जब नीचे छप्पर में आप प्रवेश करते हैं, तो आपके भीतर कोई चीज सिकुड़ती है। और आप जब एक बड़े छप्पर के नीचे प्रवेश करते हैं तो आपके भीतर कोई चीज फैलती है। कमरे का आयतन इस ढंग से निर्मित किया जा सकता है, ठीक उतना किया जा सकता है जितने में आपको ध्यान आसान हो जाए। सरलतम हो जाए ध्यान आपको, उतना आयतन निर्मित किया जा सकता है, उतना आयतन खोज लिया गया था। उस आयतन का उपयोग किया जा सकता है आपके भीतर सिकुड़ने और फैलने के लिए। उस कमरे के भीतर रंग, उस कमरे के भीतर गंध, उस कमरे के भीतर ध्वनि—इन सबका इंतजाम किया जा सकता है, जो आपके ध्यान के लिए सहयोगी हो जाए।

सब तीर्थों का अपना संगीत था। सच तो यह है कि सब संगीत, तीर्थों में पैदा हुए। और सब संगीत साधकों ने पैदा किए। सब संगीत किसी दिन मंदिर में पैदा हुए, सब नृत्य किसी दिन मंदिर में पैदा हुए। सब सुगंध पहली दफा मंदिर में उपयोग की गई। एक दफा जब यह बात पता चल गई कि संगीत के माध्यम से कोई व्यक्ति परमात्मा की तरफ जा सकता है, तो संगीत के माध्यम से परमात्मा के विपरीत भी जा सकता है, यह भी खयाल में आ गया। और तब बाद में दूसरे संगीत खोजे गए। किसी गंध से जब कि परमात्मा की तरफ जाया जा सकता है, तो विपरीत किसी गंध से कामुकता की तरफ जाया जा सकता है, वे गधे भी खोज ली गईं। किसी विशेष आयतन में ध्यानस्थ हो सकता है तो किसी विशेष आयतन में ध्यान से रोका जा सकता है, वह भी खोज लिया गया।

जैसे अभी चीन में ब्रेन वाश के लिए जहां कैदियों को खड़ा करते हैं, उस कोठरी का एक विशेष आयतन है। उस विशेष आयतन में ही खड़ा करते हैं। और उन्होंने अनुभव किया कि उस आयतन में कमी—बेशी करने से ब्रेन वाश करने में मुसीबत पड़ती है। एक निश्‍चित आयतन, हजारों प्रयोग करके तय हो गया कि इतनी ऊंची, इतनी चौड़ी, इतने आयतन की कोठरी में कैदी को खड़ा कर दो तो कितनी देर में डिटीरीओरेशन हो जाएगा, कितनी देर में खो देगा वह अपने दिमाग को। फिर उसमें एक विशेष ध्वनि भी पैदा करो तो और जल्दी खो देगा। खास जगह उसके मस्तिष्क पर हेमरिंग करो तो और जल्दी खो देगा।

वे कुछ नहीं करते, एक मटका ऊपर रख देते हैं और एक एक बूंद पानी उसकी खोपड़ी पर टपकता रहता है। उसकी अपनी लय है, रिदिम है. बस, टिप—टिप टिप—टिप, वह पानी सिर पर टपकता रहता है। चौबीस घंटे वह आदमी खड़ा है, बैठ भी नहीं सकता, हिल भी नहीं सकता, आयतन इतना है कोठरी का, लेट भी नहीं सकता। वह खड़ा रहेगा और मस्तिष्क में वह टिप—टिप पानी गिरता रहेगा। आधा घंटा पूरे होते होते, तीस मिनट पूरे होते होते सिवाय टिप—टिप की आवाज के कुछ नहीं बचेगा और तब आवाज इतनी जोर से मालूम होने लगेगी, जैसे पहाड़ गिर रहा हो। अकेली आवाज रह जाएगी उस आयतन में और चौबीस घंटे में वह आपके दिमाग को अस्त—व्यस्त कर देगी। चौबीस घंटे के बाद जब आपको बाहर निकालेंगे तो आप वही आदमी नहीं होंगे! उन्होंने आपको सब तरह से तोड़ दिया होगा।

ये सारे के सारे प्रयोग पहली दफा तीर्थों में खोजे गए, मंदिरों में खोजे गए, जहां से आदमी को सहायता पहुंचाई जा सके। मंदिर के घंटे हैं, मंदिर की ध्वनियां हैं, धूप है, गंध है, फूल है, सब नियोजित था। और एक सातत्य रखने की कोशिश की गई। उसकी कंटीनुटी न टूटे, बीच में कहीं कोई व्यवधान न पड़े, अहर्निश धारा उसकी जारी रखी जाती रही। जैसे सुबह इतने वक्त आरती होगी, इतनी देर चलेगी, इस मंत्र के साथ होगी; दोपहर आरती होगी, इतनी देर चलेगी, इस मंत्र के साथ होगी। सांझ आरती होगी; दोपहर आरती होगी, इतनी देर चलेगी, इस मंत्र के साथ चलेगी। यह कम ध्वनियों का उस कोठरी में गूंजता रहेगा। पहला क्रम टूटे, उसके पहले दूसरा रिप्लेस हो जाए। ये हजारों साल तक चलेगा।

जैसा मैने कहा—पानी को अगर लाख दफा पुन: पुन: पानी बनाया जाए भाप बनाकर, तो जैसे उसकी क्वालिटी बदलती है अल्केमी के हिसाब से, उसी प्रकार एक ध्वनि को लाखों दफा पैदा किया जाए एक कमरे में, तो उस कमरे की पूरी तरंग, पूरी गुणवत्ता बदल जाती है। उसकी पूरी क्वालिटी बदल जाती है। उसके बीच व्यक्ति को खड़ा कर देना, उसके पास खड़ा कर देना, उसके रूपांतरित होने के लिए आसानी जुटा देगा; और चूंकि हमारा सारा का सारा व्यक्तित्व पदार्थ से निर्मित है—पदार्थ में जो भी फर्क होते हैं वह हमारे व्यक्तित्व को बदलने लगते हैं! और आदमी इतना बाहर है कि पहले बाहर से ही फर्क उसको आसान पड़ते हैं, भीतर के फर्क तो पहले बहुत कठिन पड़ते हैं। दूसरा उपाय था पदार्थ के द्वारा सारी ऐसी व्यवस्था दे देना कि आपके शरीर को जो—जो सहयोगी हो, वह हो जाए।

तीसरी बात एक और थी। यह हमारा भ्रम ही है आमतौर से कि हम अलग—अलग व्यक्ति हैं—यह बड़ा थोथा श्रम है। यहां हम इत— लोग बैठे हैं, अगर हम शांत होकर बैठें तो यहां इतने लोग नहीं रह जाते, एक ही व्यक्तित्व रह जाता है। एक शांति का व्यक्तित्व रह जाता है। और हम सब की चेतनाएं एक दूसरे में तरंगित और प्रवाहित होने लगती हैं।

तीर्थ ‘मास एक्सपेरीमेंट’ है। एक वर्ष में विशेष दिन, करोड़ों लोग एक तीर्थ पर इकट्ठे हो जाएंगे; एक ही आकांक्षा, एक ही अभीप्सा से सैकड़ों मील की यात्रा करके आ जाएंगे। वे सब एक विशेष घड़ी में, एक विशेष तारे के साथ, एक विशेष नक्षत्र में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। इसमें पहली बात समझ लेने की यह है, कि यह करोड़ों लोग इकट्ठा होकर एक अभीप्सा, एक आकांक्षा, एक प्रार्थना से, एक धुन करते हुए आ गए हैं, यह एक ‘पूल’ बन गया है चेतना का। अब यहां व्यक्ति नहीं है।

अगर कुंभ में देखें तो व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ता। वहां भीड़ है, निपट भीड़, जहां कोई चेहरा नहीं है। चेहरा बचेगा कहा इतनी भीड़ में? फेसलेस एक करोड़ आदमी इकट्ठा हैं। कौन, कौन है? अब कोई अर्थ नहीं रह गया जानने का। कौन राजा है, कौन रंक है? अब कोई मतलब नहीं रह गया। कौन अमीर है, कौन गरीब है? कोई मतलब नहीं रहा, यानी सब फेसलेस हो गया। अब यहां इन सबकी चेतनाएं एक दूसरे के भीतर प्रवाहित होनी शुरू होंगी। अगर एक करोड़ लोगों की चेतना का ‘पूल’ बन सके, एक इकट्ठा रूप बन जाए, तो इस चेतना के भीतर परमात्मा का प्रवेश जितना आसान है उतना आसान एक—एक व्यक्ति के भीतर नहीं है। यह बड़ा कान्टेक्ट फील्ड है।

नीत्से ने कहीं लिखा है—वह सुबह एक बगीचे में गुजर रहा है। एक छोटे—से कीडे पर उसका पैर लग जाता है, तो वह कीडा जल्दी से सिकुड़कर गोल घुंडी बनाकर बैठ जाता है। नीत्से बड़ा हैरान हुआ! उसने कई दफा यह बात देखी है कि कीडों को जरा चोट लग जाए तो वह तत्काल सिकुडकर क्यों बैठ जाते हैं? उसने अपनी डायरी में लिखा कि बहुत सोचकर मुझे खयाल में आया कि वह अपना कान्टेक्ट फील्ड कम कर लेते हैं, बचाव का ज्यादा उपाय हो जाता है। कीड़ा पूरा लंबा है, तो उस पर कहीं पैर पड़ सकता है, क्योंकि ज्यादा जगह वह घेर रहा है। वह जल्दी से छोटी जगह में सिकुड गया, अब उस पर पैर पड़ने की संभावना अनुपात में कम हो गयी। वह सुरक्षा कर रहा है अपनी, वह अपना कान्टेक्ट फील्ड छोटा कर रहा है। और जो कीड़ा जितनी जल्दी यह कान्टेक्ट फील्ड छोटा कर लेता है वह उतना बचाव कर लेता है।

आदमी की चेतना जितना बड़ा कान्टेक्ट फील्ड निर्मित करती है, परमात्मा का अवतरण उतना आसान हो जाता है। क्योंकि वह इतनी बड़ी घटना है! एक बड़ी घटना के लिए, हम जितनी बड़ी जगह बना सकें उतनी उपयोगी है। इंडीवीजुअल प्रेयर, व्यक्तिगत प्रार्थना तो बहुत बाद में पैदा हुई, प्रार्थना का मूलरूप तो समूहगत है। वैयक्तिक प्रार्थना तो तब पैदा हुई जब एक—एक आदमी को भारी अहंकार पकड़ना शुरू हो गया। किसी के साथ ‘पूल—अप’ होना मुश्किल हो गया कि किसी के साथ हम एक हो सकें।

इसलिए जब से इंडीवीजुअल प्रेयर दुनिया में शुरू हुई तब से प्रेयर का फायदा खो गया। असल में प्रेयर इंडीवीजुअल नहीं हो सकती। हम इतनी बड़ी शक्ति का आह्वान कर रहे हैं, तो हम जितना बडा क्षेत्र दे सकें उसके अवतरण के लिए, उतना ही सुगम होगा। तीर्थ इस रूप में एक बड़े क्षेत्र को निर्मित करते हैं, फिर खास घडी में करते हैं, खास नक्षत्र में करते हैं, खास दिन पर करते हैं, खास वर्ष में करते हैं। वह सब सुनिश्‍चित विधियां थीं। इसका अर्थ यह कि उस नक्षत्र में, उस घड़ी में पहले भी कान्टेक्ट हुआ है। और जीवन की सारी व्यवस्था पीरियोडिकल है। इसे भी समझ लेना चाहिए।

जीवन की सारी व्यवस्था कैसे पीरियोडिकल है? जैसे कि वर्षा आती है, एक खास दिन पर आ जाती है। और अगर आज नहीं आती है खास दिन पर, तो उसका कारण यह है कि हमने छेडछाड़ की है। अन्यथा दिन बिलकुल तय है, घड़ी तय है। गर्मी आती है खास वक्त, सर्दी आती है खास वक्त, बसंत आता है खास वक्त—सब बंधा है। शरीर भी बिलकुल वैसा ही काम करता है।

स्त्रियों का मासिक धर्म है, ठीक चांद के साथ चलता रहता है। ठीक अट्ठाइस दिन में उसे लौट आना चाहिए अगर बिलकुल ठीक है, शरीर स्वस्थ है। वह चांद के साथ यात्रा करता है, वह अट्ठाइस दिन में नहीं लौटता तो क्रम टूट गया है व्यक्तित्व का, भीतर कहीं कोई गड़बड़ हो गयी है।

सारी घटनाएं एक क्रम में आवर्तित होती हैं। अगर किसी एक घड़ी में परमात्मा का अवतरण हो गया, तो उस घड़ी को हम अगले वर्ष के लिए फिर नोट कर सकते हैं। अब संभावना उस घड़ी की बढ़ गयी, वह घड़ी ज्यादा पोटेंशियल हो गयी, उस घड़ी में परमात्मा की धारा पुनर्प्रवाहित हो सकती है। इसलिए पुन: पुन: उस घड़ी में तीर्थ पर लोग इकट्ठे होते रहेंगे, सैकड़ों वर्षों तक। अगर यह कई बार हो चुका तो यह घड़ी सुनिश्रित होती जाएगी, वह बिलकुल तय हो जाएगी।

जैसे कि कुंभ के मेले पर गंगा में कौन पहले उतरे, वह भारी दंगे का कारण होता है। क्योंकि इतने लोग इकट्ठे नहीं उतर सकते एक घड़ी में, और वह घडी तो बहुत सुनिश्‍चित है, बहुत बारीक है। उसमें कौन उतरे, उस पहली घड़ी में? जिन्होंने वह घड़ी खोजी है या जिनकी परंपरा और जिनकी धारा में उस घड़ी का पहले अवतरण हुआ है, वह उसके मालिक हैं। वह उस घड़ी में पहले उतर जाएंगे। और कभी—कभी क्षण का फर्क हो जाता है। परमात्मा का अवतरण करीब—करीब बिजली की कौंध जैसा है—कौंधा, और खो गया। उस क्षण में आप खुले रहे, जगे रहे तो घटना घट जाए। उस क्षण में आंख बंद हो गयी, सोये रहे तो घटना खो जाए।

तीर्थ का तीसरा महत्व था—मास एक्सपेरीमेंट, समूह प्रयोग—अधिकतम विराट पैमाने पर उस अनंत शक्ति को उतारा जा सके। और जब लोग सरल थे तो यह घटना बड़ी आसानी से घटती थी। उन दिनों तीर्थ बड़े सार्थक थे। तीर्थ से कभी कोई खाली नहीं लौटता था, इसलिए… तो आज आदमी खाली लौट आता है, खाली लौट आने पर आदमी फिर दोबारा चला जाता है! उन दिनों तो ट्रांसफार्म होकर लौटता ही था। पर वह बहुत सरल और इनोसेंट समाज की घटनाएं हैं। क्योंकि जितना सरल समाज हो, जहां व्यक्तित्व का बोध जितना कम हो, वहां तीर्थ का यह तीसरा प्रयोग काम करेगा, अन्यथा नहीं करेगा।

आज भी अगर आदिवासियों में जाएं तो पाएंगे कि उनमें व्यक्तित्व का बोध नहीं है।’मैं’ का खयाल कम है, ‘हम’ का खयाल ज्यादा है। कुछ तो भाषाएं हैं ऐसी जिनमें ‘मैं’ नहीं है, ‘हम’ ही है। आदिवासी कबीलों की ढेर भाषाएं हैं जिनमें ‘मैं’ शब्द नहीं है। आदिवासी बोलता है, तो बोलता है ‘हम’। ऐसा नहीं है कि भाषा ऐसी है, वहां मैं का कन्सेए ही पैदा नहीं हुआ। और वह इतना जुड़ा हुआ है आपस में कि कई दफा तो बहुत अनूठे परिणाम उसके निकले हैं।

सिंगापुर के पास एक छोटे से द्वीप पर जब पहली दफा पश्‍चिमी लोगों ने हमला किया तो वे बड़े हैरान हुए। जो चीफ था, जो प्रमुख था कबीले का, वह आया किनारे पर, और जो हमलावर थे उनसे उसने कहा कि हम निहत्थे लोग जरूर हैं, पर हम परतंत्र नहीं हो सकते। पश्‍चिमी लोगों ने कहा कि वह तो होना ही पड़ेगा। उन कबीलेवालों ने कहा, हमारे पास लड़ाई का उपाय तो कुछ नहीं है, लेकिन हम मरना जानते हैं—हम मर जाएंगे। उन्हें भरोसा नहीं आया कि कोई ऐसे कैसे मरता है? लेकिन बड़ी अदभुत घटना है।

ऐतिहासिक घटनाओं में एक घटना घट गयी। जब वे .राजी नहीं हुए और उन्होंने कदम रख दिए, द्वीप पर उतर गए, तो पूरा कबीला इकट्ठा हुआ। कोई पांच सौ लोग तट पर इकट्ठे हुए और वह देखकर दंग रह गए कि उनका प्रमुख पहले मरकर गिर गया, और फिर दूसरे लोग मरकर गिरने लगे। मरकर गिरने लगे बिना किसी हथियार की चोट के। शत्रु घबरा गए, वापस लौट गए, यह देख कर। पहले तो उन्होंने समझा कि लोग डरकर ऐसे ही गिर गए होंगे, लेकिन देखा, वह तो खत्म ही हो गए। अभी तक साफ नहीं हो सका कि यह क्या घटना घटी? असल में ‘हम’ की काशेसनेस अगर बहुत ज्यादा हो तो मृत्यु ऐसी संक्रामक हो सकती है। एक के मरते ही फैल सकती है।

कई जानवर मर जाते हैं ऐसे। भेड़ें मर जाती हैं—एक भेड़ मरी, कि मरना फैल जाता है। भेड़ के पास ‘मैं’ का बोध बहुत कम है, ‘हम’ का बोध है। भेड़ों को चलते हुए देखें तो मालूम पड़ेगा कि ‘हम’ चल रहा है, सब सटी हुई हैं एक दूसरे से, एक ही जीवन जैसे सरकता हो। एक भेड़ मरी, तो दूसरी भेड़ को मरने जैसा हो जाएगा, मृत्यु फैल जाएगी भीतर।

तो जब समाज बहुत ‘हम’ के बोध से भरा था और ‘मैं’ का बोध बहुत कम था, तब तीर्थ बड़ा कारगर था। उसकी उपयोगिता उसी मात्रा में कम हो जाएगी, जिस मात्रा में ‘मैं’ का बोध बढ़ जाएगा।

आखिरी बात जो तीर्थ के बाबत खयाल में लेनी चाहिए, वह यह कि सिबालिक ऐक्ट का, प्रतीकात्मक कृत्य का भारी मूल्य है। जैसे जीसस के पास कोई आता है और कहता है, मैंने यह यह पाप किए। वह जीसस के सामने कन्‍फेस कर देता है, सब बता देता है, मैंने यह पाप किए, मैंने यह पाप किए। जीसस उसके सिर पर हाथ रखकर कह देते हैं कि जा तुझे माफ किया। अब इस आदमी ने पाप किए हैं, जीसस के कहने से माफ कैसे हो जाएंगे? जीसस कौन हैं, और उनके हाथ रखने से माफ हो जाएंगे? जिस आदमी ने खून किया, उसका क्या होगा? या हमने कहा, आदमी पाप करे और गंगा में सान कर ले, मुक्त हो जाएगा। बिलकुल पागलपन मालूम हो रहा है। जिसने हत्या की है, चोरी की है, बेईमानी की है, गंगा में सान करके मुक्त कैसे हो जाएगा?

यहां दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो यह, कि पाप असली घटना नहीं है, स्मृति असली घटना है— ‘मेमोरी’। पाप नहीं, ऐक्ट नहीं, असली घटना जो आप में चिपकी रह जाती है, वह स्मृति है। आपने हत्या की है, यह उतना बडा सवाल नहीं है आखिर में। आपने हत्या की है, यह स्मृति कांटे की तरह पीछा करेगी।

जो जानते हैं….. वे जो जानते हैं कि हत्या की है या नहीं, वह नाटक का हिस्सा है, उसका कोई मूल्य नहीं है। न कभी मरता है कोई, न कभी मार सकता है कोई। मगर यह स्मृति आपका पीछा करेगी कि मैंने हत्या की, मैंने चोरी की। यह पीछा करेगी, और यह पत्थर की तरह आपकी छाती पर पड़ी रहेगी। वह कृत्य तो गया, अनंत में खो गया, वह कृत्य तो अनंत ने संभाल लिया। सच तो यह है, सब कृत्य अनंत के हैं; आप नाहक उसके लिये परेशान हैं। अगर चोरी भी हुई है आपसे तो अनंत के ही द्वारा आपसे हुई है। हत्या भी हुई है तो भी अनंत के द्वारा आपसे हुई है, आप नाहक बीच में अपनी स्मृति लेकर खड़े हैं कि मैंने किया। अब यह ‘मैंने किया’, यह स्मृति आपकी छाती पर बोझ है।

क्राइस्ट कहते हैं, तुम कन्‍फेस कर दो, मैं तुम्हें माफ किए देता हूं। और जो क्राइस्ट पर भरोसा करता है वह पवित्र होकर लौटेगा। असल में क्राइस्ट पाप से तो मुक्त नहीं कर सकते, लेकिन स्मृति से मुक्त कर सकते हैं—स्मृति ही असली सवाल है। गंगा पाप से मुक्त नहीं कर सकती, लेकिन स्मृति से मुक्त कर सकती है। अगर कोई भरोसा लेकर गया है कि गंगा में डुबकी लगाने से सारे पाप से बाहर हो जाऊंगा, और ऐसा अगर उसके चित्त में है, उसकी कलेक्टिव अनकांशेस में है, उसके समाज की करोड़ों वर्ष की धारणा है कि गंगा में डुबकी लगाने से पाप से छुटकारा हो जाएगा तो निश्‍चित ही हो जाएगा। पाप से छुटकारा नहीं होगा वैसे, क्योंकि चोरी को अब कुछ और नहीं किया जा सकता, हत्या जो हो गयी, हो गयी लेकिन यह व्यक्ति पानी के बाहर जब निकला तो सिंबालिक एक्ट हो गया।

क्राइस्ट कितने दिन दुनिया में रहेंगे, कितने पापियों से मिलेंगे, कितने पापी कन्‍फेस कर पाएंगे? इसके लिए हिंदुओं ने ज्यादा स्थायी व्यवस्था खोजी है। व्यक्ति से नहीं बांधा, एक नदी से बांधा। यह नदी कन्‍फेशन लेती रहेगी, वह नदी माफ करती रहेगी, यह अनंत तक रहेगी, और ये धाराएं स्थायी हो जाएंगी। क्राइस्ट कितने दिन रहेंगे? मुश्किल से क्राइस्ट तीन साल काम कर पाए, कुल तीन साल। तीस से लेकर तैंतीस साल की उम्र तक, तीन साल में कितने पापी कन्‍फेस करेंगे? कितने पापी उनके पास आएंगे? कितने लोगों के सिर पर हाथ रखेंगे? यहां के मनीषियों ने व्यक्ति से नहीं बांधा, धारा से बांध दिया।

तीर्थ है, वहां जाएगा कोई, वह मुक्त होकर लौटेगा। तो स्मृति से मुक्त होगा, स्मृति ही तो बंधन है। वह स्वप्न जो आपने देखा, आपका पीछा कर रहा है। असली सवाल वही है, और निश्‍चित ही उससे छुटकारा हो सकता है, लेकिन उस छुटकारे में दो बातें जरूरी हैं। बड़ी बात तो यह जरूरी है कि आपकी ऐसी निष्ठा हो कि मुक्ति हो जाएगी। और आपकी निष्ठा कैसे होगी? आपकी निष्ठा तभी होगी जब आपको ऐसा खयाल हो कि लाखों वर्ष से ऐसा वहां होता रहा है। और कोई उपाय नहीं है।

इसलिए कुछ तीर्थ तो बिलकुल सनातन हैं—जैसे काशी, वह सनातन है। सच बात यह है, पृथ्वी पर कोई ऐसा समय नहीं रहा जब काशी तीर्थ नहीं थी। वह एक अर्थ में सनातन है, बिलकुल सनातन है। यह आदमी का पुराने से पुराना तीर्थ है। उसका मूल्य बढ़ जाता है, क्योंकि उतनी बड़ी धारा, सजेशन है। वहां कितने लोग मुक्त हुए, वहां कितने लोग शांत हुए हैं, वहां कितने लोगों ने पवित्रता को अनुभव किया है, वहां कितने लोगों के पाप झड गए—वह एक लंबी धारा है। वह सुझाव गहरा होता चला जाता है, वह सरल चित्त में जाकर निष्ठा बन जाएगी। वह निष्ठा बन जाए तो तीर्थ कारगर हो जाता है। वह निष्ठा न बन पाए तो तीर्थ बेकार हो जाता है। तीर्थ आपके बिना कुछ नहीं कर सकता, आपका कोआपरेशन चाहिए। लेकिन आप भी कोआपरेशन तभी देते हैं कि जब तीर्थ की एक धारा हो, एक इतिहास हो।

हिदू कहते हैं, काशी इस जमीन का हिस्सा नहीं है, डस पृथ्वी का हिस्सा नहीं है, वह अलग ही टुक्का है। वह शिव की नगरी अलग ही है, वह सनातन है। सब नगर बनेंगे, बिगड़ेंगे, काशी बनी रहेगी। इसलिए कई दफा हैरानी होती है, व्यक्ति तो खो जाते हैं—बुद्ध काशी आए, जैनों के तीर्थंकर काशी में पैदा हुए, खो गए। काशी ने सब देखा—शंकराचार्य आए, खो गए। कबीर बसे, खो गए। काशी ने तीर्थंकर देखे, अवतार देखे, संत देखे, सब खो गए। उनका तो कहीं कोई निशान नहीं रह जाएगा, लेकिन काशी बनी रहेगी। वह उन सब की पवित्रता को, उन सारे लोगों के पुण्य को, उन सारे लोगों की जीवन धारा को, उनकी सब सुगंध को आत्मसात कर लेती है और बनी रहती है।

यह जो स्थिति है, यह निश्‍चित ही पृथ्वी से अलग हो जाती है—मेटाफरीकली। यह इसका अपना एक शाश्वत रूप हो गया, इस नगरी का अपना व्यक्तित्व हो गया। इस नगरी पर से बुद्ध गुजरे, इसकी गलियों में बैठकर कबीर ने चर्चा की है। वह सब कहानी हो गयी, वह सब स्वप्न हो गया। पर यह नगरी उन सबको आत्मसात किए है। और अगर कभी कोई निष्ठा से इस नगरी में प्रवेश करे तो वह फिर से बुद्ध को चलता हुआ देख सकता है, वह फिर से पार्श्वनाथ को गुजरते हुए देख सकता है। वह फिर से देखेगा तुलसीदास को, वह फिर से देखेगा कबीर को।

अगर कोई निष्ठा से इस काशी के निकट जाए, तो यह काशी साधारण नगरी न रह जाएगी लंदन या बम्बई जैसी। एक असाधारण चिन्मय रूप ले लेगी, और इसकी चिन्मयता बड़ी शाश्वत है, बड़ी पुरातन है। इतिहास खो जाते हैं, सभ्यताएं बनती और बिगड़ती हैं, आती हैं और चली जाती हैं, और यह अपनी एक अंत: धारा को संजोए हुए चलती है। इसके रास्ते पर खड़ा होना, इसके घाट पर सान करना, इसमें बैठकर ध्यान करने के प्रयोजन हैं। आप भी हिस्सा हो गए हैं एक अंत: धारा के। यह भरोसा कि मैं ही सब कुछ कर लूंगा, खतरनाक है। प्रभु का सहारा लिया जा सकता है, अनेक रूपों में—उसके तीर्थ में, उसके मंदिरों में उसका सहारा लिया जा सकता है। सहारे के लिए वह सारा आयोजन है।

यह कुछ बातें जो ठीक से समझ में आ सकें, वह मैंने कहीं। बुद्धि जिनको देख पाये, समझ पाये, पर यह पर्याप्त नहीं हैं। बहुत—सी बातें हैं तीर्थ के साथ, जो समझ में नहीं आ सकेंगी, पर घटित होती हैं। जिनको बुद्धि साफ—साफ नहीं दिखा पाएगी, जिनका गणित नहीं बनाया जा सकेगा, लेकिन घटित होती हैं।

दो—तीन बातें सिर्फ उल्लेख कर दूं जो घटित होती हैं। जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस—पास किन्हीं आत्माओं की उपस्थिति का अनुभव हो लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी— थोड़ी बहुत नहीं, बहुत गहन। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्यादा है।

जैसे कि कैलाश—कैलाश हिंदुओं का भी तीर्थ रहा है और तिब्बती बौद्धों का भी। पर कैलाश बिलकुल निर्जन है, वहां कोई आवास नहीं है। कोई पुजारी नहीं है, कोई पंडा नहीं है, कोई प्रगट आवास नहीं है कैलाश पर। लेकिन जो भी कैलाश पर जाकर ध्यान का प्रयोग करेगा वह कैलाश को पूरी तरह बसा हुआ पाएगा। जैसे ही कैलाश पर पहुंचेगा, अगर थोड़ी भी ध्यान की क्षमता है तो कैलाश से कभी वह खबर लेकर नहीं लौटेगा कि वह निर्जन है। इतना सघन बसा है, इतने लोग हैं और इतने अदभुत लोग हैं। ऐसै कोई बिना ध्यान के कैलाश जाएगा, तो कैलाश खाली है।

चांद के संबंध में जो लोग और तरह से खोज करते हैं, उनका खयाल नहीं है कि चांद निर्जन है। और जिन्होंने कैलाश का अनुभव किया है वे कभी नहीं मानेंगे कि चांद निर्जन है। लेकिन आपके यात्री को चांद पर कोई नहीं मिलेगा। जरूरी नहीं है इससे कि कोई न हो, पर आपके यात्री को कोई नहीं मिलेगा। जैनों के ग्रंथों में बहुत वर्णन है कि चांद में किस—किस तरह के देवता हैं, कि क्या हैं, पर अब वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं जब पाया गया कि वहां कोई नहीं है। उनके साधु—संन्यासी बड़ी मुश्किल में हैं। वे बेचारे एक ही उपाय कर सकते हैं, उन्हें कुछ और तो पता नहीं है; वह यह कह सकते हैं कि तुम असली चांद पर पहुंचे ही नहीं। वह इसके सिवाय और क्या कहेंगे? अभी गुजरात में कोई मुझे कह रहा था कि कोई जैन मुइन पैसा इकट्ठा कर रहे हैं यह सिद्ध करने के लिए कि तुम असली चांद पर नहीं पहुंचे। ये वे कभी सिद्ध न कर पाएंगे।

आदमी असली चांद पर पहुंच गया है। लेकिन उनकी कठिनाई है कि उनकी किताब में लिखा है कि वहां आवास है! वहां इस—इस तरह के देवता रहते हैं! उनकी किताब में लिखा है, उनको खुद को तो कुछ पता नहीं। किताब तो आवास का कहती है और अब वैज्ञानिक की रिपोर्ट है कि वहां कोई भी नहीं है। अब क्या करना है? तो साधारण बुद्धि जो कर सकती, वह यह है, कि वे लोग चांद पर नहीं पहुंचे। क्योंकि अगर नहीं सिद्ध कर पाए तो यह मानना पड़ेगा कि हमारा शाख गलत हुआ। तो वे जिद बांध रखेंगे कि नहीं, तुम उस जगह नहीं पहुंचे।

एक जैन मुनि ने तो दावे से यह कहा कि कोई वहां पहुंचा ही नहीं। अब इनकार भी नहीं कर सकते, पहुंचे तो जरूर हैं, तो फिर कहां पहुंच गए हैं? कभी—कभी तो हास्थास्पद, रिडीकुलस हो जाती है बात! उन्होंने कहा, कि वहां देवताओं के जो विमान ठहरे रहते हैं चारों तरफ, आप किसी विमान पर उतर गए। वह बड़े विराट विमान हैं। उसी पर उतरकर आप लौट आए हैं, आप ठीक चांद की भुमि पर नहीं उतर सके। यह सब पागलपन है, लेकिन इस पागलपन के पीछे कुछ कारण है। वह कारण यह है कि एक धारा है, कोई अंदाजन बीस हजार वर्ष से जैनों की धारा है कि चांद पर आवास है। पर वह उनके खयाल में नहीं है कि वह आवास किस तरह का है? वह आवास कैलाश जैसा आवास है, वह आवास तीर्थों जैसा आवास है।

जब आप तीर्थ पर जाएंगे तो एक तीर्थ वह काशी है जो दिखाई पड़ती है। जहां आप ट्रेन पर से उतर जाएंगे स्टेशन से, एक तो काशी वह है। परंतु काशी के दो रूप हैं—तीर्थ के दो रूप हैं। एक तो मृण्मय रूप है यह जो दिखाई पड़ रहा है, जहां कोई भी जाएगा सैलानी और घूमकर लौट आएगा। और एक उसका चिन्मय रूप है, जहां वही पहुंच जाएगा जो अंतरस्थ होगा, जो ध्यान में प्रवेश करेगा, तो उसके लिए काशी बिलकुल और हो जाएगी। उधर काशी के सौंदर्य का इतना वर्णन है,, और इस काशी को देखो तो फिर लगता है कि वह कवि की कल्पना है। इससे ज्यादा गंदी कोई बस्ती नहीं है, यह काशी जिसको हम देखकर आ जाते हैं। पर किस काशी की बातें कर रहे हो तुम? किस काशी की बात हो रही है, किस काशी के सौदर्य की जो अपूर्व है, जैसा कोई नगर नहीं आया है इस जगत में। यह सब तुम किसकी बात कर रहे हो? यही काशी अगर है, तब फिर यह सब कवि कल्पना हो गई! नहीं, पर वह काशी भी है। और एक कान्टेक्ट फील्ड है यह काशी, यहां उस काशी और इस काशी का मिलन होता है।

जो यात्री सिर्फ ट्रेन में बैठकर गया है, वह इस काशी से वापस लौटकर आ जाएगा। वह जो ध्यान में भी बैठकर गया है वह उस काशी से भी संपर्क साध पाता है। तब इसी काशी के निर्जन घाट पर उनसे भी मिलना हो जाता है जिनसे मिलने की आपको कभी कोई कल्पना नहीं होती।

मैंने अभी बताया, कैलाश पर अलौकिक निवास है। करीब—करीब नियमित रूप से, नियम कैलाश का रहा है कि कम से कम पांच सौ बौद्ध—सिद्ध वहां रहे ही, उससे कम नहीं। पांच सौ बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति कैलाश पर रहेंगे ही। और जब भी एक उनमें से विदा होगा किसी और यात्रा पर, तो दूसरा जब तक न हो तब तक वह विदा नहीं हो सकता। पांच सौ की संख्या वहां पूरी रहेगी। उन पांच सौ की मौजूदगी कैलाश को तीर्थ बनाती है, लेकिन यह बुद्धि से समझने की बात नहीं है इसलिए मैंने पीछे छोड़ रखी। काशी का भी नियमित आकड़ा है कि उतने संत वहां रहेंगे ही। उनमें कभी कमी नहीं होगी। उनमें से एक को विदा तभी मिलेगी जब दूसरा उस जगह स्थापित हो जाएगा।

असली तीर्थ वही हैं, और उनसे जब मिलन होता है तो तीर्थ में प्रवेश करते हैं। पर उनके मिलन का कोई भौतिक स्थल भी चाहिए। आप उनको कहां खोजते फिरेंगे। उस अशरीरी घटना को आप न खोज सकेंगे, इसलिए भौतिक स्थल चाहिए। जहां बैठकर आप ध्यान कर सकें और उस अंतर्जगत में प्रवेश कर सकें, जहां संबंध सुनिश्‍चित है।

तीर्थ बुद्धि से खयाल में नहीं आएगा, बुद्धि से कोई संबंध नहीं है तीर्थ का। ठीक तीर्थ का अर्थ, जो दिखाई पड़ जाता है वह नहीं है—छिपा है, उसी स्थान पर छिपा है। दूसरी बात, इस जमीन पर जब भी कोई व्यक्ति परम जान को उपलब्ध होकर विदा होता है तो उसकी करुणा उसे कुछ चिह्न छोड़ देने को कहती है.। क्योंकि जिनको उसने रास्ता बताया, जो उसकी बात मानकर चले, जिन्होंने संघर्ष किया, जिन्होंने श्रम उठाया, उनमें से बहुत से ऐसें होंगे जो अभी नहीं पहुंच पाए। उनके पास कुछ संकेत तो चाहिए, जिनसे कभी भी जरूरत पड़ने पर वह संपर्क पुन: साध सकें।

इस जगत में कोई आत्मा कभी खोती नहीं, पर शरीर तो खो जाते हैं। तो उन आत्माओं के संपर्क साधने के लिए सूत्र चाहिए। उन सूत्रों के लिए तीर्थों ने ठीक वैसे ही काम किया जैसे कि आज हमारे राडार काम करते हैं। जहां तक आंखें नहीं पहुंचती वहां तक राडार पहुंच जाते हैं। जो आंखों से कभी देखे नहीं गए तारे, वह राडार देख लेते हैं। तीर्थ बिलकुल आध्यात्यिक राडार का इंतजाम है। जो हमसे छूट गए, जिनसे हम छूट गए, उनसे संबंध स्थापित किए जा सकते हैं।

इसलिए प्रत्येक तीर्थ निर्मित किया गया उन लोगों के द्वारा, जो अपने पीछे कुछ लोग छोड़ गए हैं, जो अभी रास्ते पर हैं, जो पहुंच नहीं गए, और जो अभी भटक सकते हैं। और जिन्हें बार—बार जरूरत पड़ जाएगी कि वह कुछ पूछ लें, कुछ जान लें, कुछ आवश्यक हो जाए। थोड़ी जानकारी उन्हें भटका दे सकती है। क्योंकि भविष्य उन्हें बिलकुल जात नहीं है, आगे का रास्ता उन्हें बिलकुल पता नहीं है। तो उन सबने सूत्र छोड़े हैं, और सूत्रों को छोड़ने के लिए विशेष तरह की व्यवस्थाएं की हैं—तीर्थ खड़े किए, मंदिर खड़े किए, मंत्र निर्मित किए, मूर्तियां बनायीं, सबका आयोजन किया। और सबका आयोजन एक सुनिश्रित प्रक्रिया है, जिसे हम ‘रिचुअल’ कहते हैं, वह एक सुनिश्‍चित प्रक्रिया है।

अगर एक जंगली आदिवासी को हम ले आएं और वह आकर देखे कि जब भी प्रकाश करना होता है तो आप अपनी कुर्सी से उठते हैं, दस कदम चलकर बायीं दीवार के पास पहुंचते हैं, वहां एक बटन को दबाते हैं, और बिजली जल जाती है। वह आदिवासी किसी भी तरह न सोच पाएगा कि इस बटन में और इस दीवार के भीतर इस बिजली के बल्व से कोई तार जुड़ा हुआ है। उसके सोचने का कोई उपाय नहीं है!

उसे यह एक रिचुअल मालूम पड़ेगा कि यह कोई तरकीब है यहां से उठना, ठीक जगह पर दीवार पर जाना, फिर नंबर एक का बटन दबाना। नंबर दो का दबाते हैं तो पंखा घूमने लगता है, नंबर तीन का दबाते हैं तो रेडियो बोलने लगता है। वह देखता है कि उसी खास दीवार के कोने में जाकर आप कुछ तरकीब करते हैं और वहां से कुछ होता है। उसे यह सब रिचुअल मालूम पड़ेगा। एक क्रिया—कांड लगेगा। और समझ लें किसी दिन आप नहीं हैं घर में और बिजली चली गई है। वह आदमी उठा और उसने जाकर पूरा रिचुअल किया, लेकिन बिजली नहीं जली, पंखा नहीं चला, रेडियो नहीं चला। अब वह यही समझेगा कि रिचुअल में कोई भूल हो है

अपने क्रिया—कांड में कोई भूल हो रही है, शायद हमने ठीक कदम न उठाए। कौन से कदम से पहले वह आदमी गया था—पता नहीं, अंदर—अंदर कोई मंत्र भी पढ़ता हो मन में, और बटन दबाता हो! क्योंकि हमने बटन वही दबाया है और बिजली नहीं जल रही है। उस आदिवासी को तो बिजली के पूएर फैलाव का कोई अंदाजा नहीं हो सकता।

करीब—करीब धर्म के संबंध में ऐसा ही है। जिनको भी हम धर्म के क्रिया—काड कहते हैं, वह सब हमारे द्वारा पकड़ लिए गए ऊपरी कृत्य हैं। जो बिलकुल कुछ नहीं जानते भीतरी व्यवस्था को, उनको हम पूरा भी कर लेते हैं, फिर पाते हैं, कुछ नहीं हो रहा है। या कभी हो जाता है, कभी नहीं होता, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। कभी हो जाता है, इससे शक होता है कि शायद होता होगा। फिर कभी नहीं होता तो फिर यह शक होता है कि शायद संयोग से हो गया हो। क्योंकि अगर होना चाहिए तो हमेशा होना चाहिए।

हमें भीतरी व्यवस्था का कोई भी पता नहीं है। जिस चीज को आप नहीं जानते उसको ऊपर से देखने पर वह रिचुअल मालूम पड़ेगी। ऐसा छोटे—मोटे आदमियों के साथ होता हो ऐसा नहीं, जिनको हम बहुत बुद्धिमान कहतै हैं उनके साथ भी यही होगा, क्योंकि बुद्धि ही बचकानी चीज है। बड़े से बडा बुद्धिमान भी एक अर्थ में जुवेनाइल है, बचकाना ही होता है। क्योंकि बुद्धि कोई बहुत गहरे ले जानेवाली नहीं है।

जब पहली दफा ग्रामोफोन बना, और फ्रांस के साइंस एकेडेमी में जिस वैज्ञानिक ने ग्रामोफोन बनाया वह लेकर गया, तो बड़ी ऐतिहासिक घटना घटी तीन सौ साल पहले। फ्रेंच एक्कैमी के सारे बड़े से बड़े वैज्ञानिक सदस्य हाजिर थे, कोई सौ वैज्ञानिक घटना देखने आए थे। उस आदमी ने ग्रामोफोन का रिकार्ड चालू किया, तो जो प्रेसिडेंट था फ्रेंच एकेडेमी का, वह थोड़ी देर तो देखता रहा, फिर उचककर उसने उस आदमी की गर्दन पकड़ ली, जो ग्रामोफोन लाया था। क्योंकि उसने समझा कि यह कोई ट्रिक कर रहा है गले की, यह हो कैसे सकता है? यह गले में अंदर कोई हरकत कर रहा है, कोई तरकीब इसने लगाई है।

यह ऐतिहासिक घटना बन गई, क्योंकि एक वैज्ञानिक से ऐसी आशा नहीं हो सकती थी कि वह जाकर उसकी गर्दन पकड़ ले। वह आदमी तो घबराया, उसने कहा कि आप यह क्या करते हैं? उसने कहा, देखो, तुम मुझको धोखा न दे पाओगे। वह उसका गला दबाए रहा, लेकिन तब भी उसने देखा कि आवाज आ रही है। तब तो वह बहुत घबराया। उस आदमी को कहा, तुम बाहर आओ। उसको बाहर ले गया, लेकिन तब भी आवाज आ रही थी। वह सौ के सौ वैज्ञानिक सकते में आ गए और उनमें से एक ने खड़े होकर कहा कि यह कोई शैतानी है। इसे छूना—ऊना मत, इसमें कुछ न कुछ डेवल जरूर है, शैतान इसमें हाथ बंटा रहा है। यह हो कैसे सकता है? आज हमें हंसी आती है, क्योंकि अब हो गया…! इसका हमें परिचय है। जो नहीं होता तो भी हम वैसी परेशानी में पड़ जाते।

अगर किसी दिन एटम गिरे दुनिया पर, यह सभ्यता हमारी खो जाए, और किसी आदिवासी के पास एक ग्रामोफोन बच जाए, तो उसके गांव के लोग उसको मार डालें। अगर वह ग्रामोफोन बजा दे तो पूरा गांव उसकी जान को आ जाए, क्योंकि वह एक्सप्लेन तो कर नहीं पाएगा, यह बता तो नहीं पाएगा कि ये रेकार्ड कैसे बोल रहा है? यह तो आप भी नहीं बता पाओगे। यह बड़े मजे की बात है, सब सभ्यताएं बिलीफ से जीती हैं। केवल दो—चार आदमियों के पास कुंजियां होती हैं, बाकी तो भरोसा होता है।

आप भी न बता पाओगे कि यह कैसे बोल रहा है? सुन लेते हैं, मालूम है कि बोलता है, भर लिया जाता हे, बाकी बता आप भी न पाओगे कि कैसे बोल रहा है! बटन दबा देते हैं, बिजली जल जाती है, रोज जला लेते हैं। पर आप भी न बता पाओगे कि कैसे जल गई? कुंजियां तो दो—चार आदमियों के पास होती हैं सभ्यता की, बाकी सारे लोग तो काम चला लेते हैं, बस। जो काम चलानेवाले हैं, जिस दिन कुंजियां खो जाए, उसी दिन मुश्किल में पड़ जाएंगे। उसी दिन उनका आत्मविश्वास डगमगा जाएगा। उसी दिन वह घबराने लगेंगे। फिर अगर kk दारु। बिजली न जली, तो कठिन हो जाएगा।

तीर्थ है, मंदिर है, उनका सारा का सारा विज्ञान है। और उस पूरे विज्ञान की अपनी सूत्रबद्ध प्रक्रिया है। एक कदम उठाने सै दूसरा कदम उठता है, दूसरा उठाने से तीसरा उठता है, तीसरा उठता है, पीछे चौथा उठता है और परिणाम होता .है। यदि एक भी कदम बीच में खो जाए, एक भी सूत्र बीच में खो जाए तो परिणाम नहीं होता। एक और बात इस संबंध में खयाल में ले लेनी चाहिए कि जब भी कोई सभ्यता बहुत विकसित हो जाती है और जब भी कोई विज्ञान बहुत विकसित हो जाता है, तो ‘रिचुअल’ सिम्‍प्‍लीफाइड हो जाता है, काफ्लेक्स नहीं रह जाता। जब वह काम विकसित होता है तब उसकी प्रक्रिया बहुत जटिल होती है। पर जब पूरी बात पता चल जाती है तो उसके क्रियान्वित करने की जो व्यवस्था है वह बिलकुल सिम्‍प्लीफाइड और सरल हो जाती

अब इससे सरल क्या होगा कि आप बटन दबा देते हैं और बिजली जल जाती है। लेकिन आप सोच सकते हैं कि जिसने बिजली बनायी, क्या उसने बटन दबाकर बिजली जला ली होगी? अब इससे सरल क्या होगा कि जो मैं बोल रहा हूं वह रिकार्ड हो रहा है। कुछ भी तो नहीं करना पड़ रहा है हमें। लेकिन आप सोचते हैं, इतनी आसानी से वह टेप रिकार्डर बन गया? अगर मुझसे कोई पूछे कि क्या करना पड़ता है, तो मैं कहूंगा, बोल दो और रिकार्ड हो जाता है। लेकिन इस तरह वह बन नहीं गया है।

जितना विज्ञान विकसित होता है उतना ही सिम्‍प्‍लीफाइड प्रोसेस, उतनी ही सरल प्रक्रिया हो जाती है। तभी तो जनता के हाथ में पहुंचती है, नहीं तो जनता के हाथ कभी पहुंच न सकेगी। जनता के हाथ में तो सिर्फ आखिरी नतीजे पहुंचते हैं जिनसे वह काम करना शुरू कर देती है।

धर्म के मामले में भी यही होता है। जब धर्म की कोई खोज होती है, जब महावीर कोई सूत्र खोजते हैं तो आप ऐसा मत सोचना कि सरलता से मिल जाता है। महावीर का तो पूरा जीवन दांव पर लगता है, लेकिन जब आपको मिलता है तब बिलकुल सरलता से मिल जाता है। तब तो आपको भी बटन दबाने जैसा ही मामला हो जाता है। और यही कठिनाई भी है, क्योंकि आखिर में खोजनेवाला तो खो जाता है, बटन आपके हाथ में रह जाता, जिसको आप एक्सप्लेन नहीं कर पाते। फिर आप नहीं बता पाते कि कैसे करेंगे, इससे काम होगा कैसे?

अभी रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक इस बात में उत्सुक हैं कि किसी भी तरह बिना किसी माध्यम के विचार संक्रमण के, टेलीपैथी के सूत्र खोज लिए जाएं। क्योंकि जब .से लूना खो गया है उसके रेडियो के बंद हो जाने से यह खतरा खड़ा हो गया है कि मशीन पर अंतरिक्ष में भरोसा नहीं किया जा सकता है। अगर रेडियो बंद हो गया तो हमारे यात्री सदा के लिए खो जाएंगे, फिर उनसे हम कभी संबंध ही न बना पाएंगे। हो सकता है, वह कोई ऐसी चीजें भी जान लें जो हमें बताना चाहें लेकिन हमसे कोई संबंध न हो पाएगा। तो आल्टरनेट सिस्टम की जरूरत है कि जब मशीन बंद हो जाए तो भी विचार का संक्रमण हो सके।

इसलिए रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक टेलीपैथी के लिए भारी रूप से उत्सुक हैं। अमरीका ने एक छोटा सा कमीशन बनाया है जो तीन साल, चार साल सारी दुनिया में घूमा। उस कमीशन ने जो रिपोर्ट दी वह बहुत घबडानेवाली है, लेकिन वह सब रिचुअल मालूम होता है। क्योंकि उसने देखा कि ऐसी घटना घटती है, लेकिन कैसे घटती है यह वह करनेवाले भी नहीं बता सकते।

उसने लिखा है कि अमरीका में एक छोटा सा कबीला बड़ी हैरानी का काम करता है। हर गांव में एक छोटा—सा वृक्ष होता है एक खास जाति का, जिससे मैसेज भेजने का काम लिया जाता है—वृक्ष से। पति गांव गया हुआ है बाजार में सामान लेने, पत्नी को खयाल आ गया कि वह फलां सामान तो भूल ही गये, तो जाकर उस वृक्ष को कह देती है कि देखो, वहां फलां सामान जरूर ले आना। वह मैसेज डिलीवर हो जाता है। वह आदमी सांझ को लौटता है तो वह सामान ले आता है। कमीशन के लोगों ने देखा, वह तो घबरा देने जैसी बात थी।

हम फोन देखकर नहीं घबड़ाते। हम फोन पर बात करते नहीं घबड़ाते? एक आदिवासी देखकर घबरा जाता है कि क्या मामला है, आप किससे बात केर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं, क्योंकि हमें पूरी सिस्टम का खयाल है इसलिए हम नहीं घबड़ाते। वायरलेस से हम बात करते हैं, तो भी हम नहीं घबड़ाते क्योंकि सिस्टम का हमें पता है और वह परिचित है।

पर यह जानकर हैरान होते हैं कि इस वृक्ष से कैसे संवाद हो रहा है? उस कमीशन के लोगों ने दो—चार दिन सब तरह के प्रयोग करके देख लिए। उन स्त्रियों से पूछा, गांव के लोगों से पूछा। उन्होंने कहा, यह तो हमें पता नहीं, लेकिन ऐसा सदा होता है। यह वृक्ष साधारण नहीं है, यह वृक्ष बड़ी पूजा से स्थापित किया गया है। यह वृक्ष को हम कभी मरने नहीं देते, इसी वृक्ष की शाखा को लगाते चले जाते हैं, यही एक सनातन नियम है। इसको हमारे बाप—दादों ने और उनके बाप—दादों ने, सबने इसका उपयोग किया। यह सदा से ही काम दे रहा है, यह क्या होता होगा?

यह वैज्ञानिक की पकड़ के एकदम बाहर की बात है। और जो कर रहा है, उसको भी पता नहीं है। इस वृक्ष की प्राण ऊर्जा का टेलीपैथी के लिए उपयोग किया जा रहा है। वह कैसे किया गया शुरू, और यह वृक्ष कैसे राजी हुआ, कैसे इस वृक्ष ने काम करना शुरू कर दिया, और हजारों साल से कर रहा है काम, यह उस गांव के लोगों को कुछ पता ही नहीं है। वह ‘कुंजी’ तो खो गयी है, जिसने आविष्कार किया होगा। उसने किया होगा, पर वह काम ले रहे हैं उस वृक्ष से, उस वृक्ष को लगाए चले जा रहे हैं।

अब बुद्ध के बोधि—वृक्ष को बौद्ध नहीं मरने देते। यह इस वृक्ष की बात समझकर आपको खयाल में आ सकेगा कि उसका कुछ उपयोग है। जिस बोधि—वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसको मरने नहीं दिया गया। असली सूख गया, तो उसकी शाखा अशोक ने भेज दी थी लंका में, तो वहां वह वृक्ष था। अभी उसकी शाखा को फिर लाकर पुन: आरोपित कर दिया, लेकिन वही वृक्ष कंटीन्यूटी में रखा गया। इस बोध गया के तीर्थ का उपयोग है, वह इस बोधि—वृक्ष पर निर्भर है सब कुछ।

इस वृक्ष के नीचे बैठकर बुद्ध ने शान पाया। और जब बुद्ध जैसे व्यक्ति के शान की घटना घटती है तो जिस वक्ष के नीचे बुद्ध बैठे थे वह वृक्ष बुद्ध के बुद्धत्व को पी गया हो तो बहुत हैरानी नहीं है! यह असाधारण घटना है —युद्ध का बुद्धत्व को प्राप्त होना, अलौकिक हो जाना है इस व्यक्ति का! उस वक्त एक कौंध बिजली पैदा हुई होगी! —अगर आकाश से बिजली चमकती है और वृक्ष सूख जाता है, तो कोई कारण नहीं है कि बुद्ध में चेतना की बिजली चमके, इतना तेज फैले और वृक्ष किन्हीं नए अर्थों में जीवत न हो जाए। वैसा कोई दूसरा वृक्ष नहीं है।

युद्ध के गुप्त संदेश थे तभी इस वृक्ष को कभी नष्ट नहीं होने दिया गया। और बुद्ध ने कहा था, मेरी पूजा मत करना, इस वृक्ष की पूजा से काम चल जाएगा। इसलिए पांच सौ साल तक बुद्ध की मूर्ति नहीं बनायी गयी। इस बोधि—वृक्ष की मूर्ति बनाकर पूजा चलती थी। पांच सौ साल बाद तक बुद्ध के जितने मंदिर थे वह बोधि—वृक्ष की ही पूजा करते रहे हैं। जो चित्र हैं, उनमें बुद्ध नहीं हैं बीच में, सिर्फ ऑरा है। बुद्ध का प्रकाश है, बोधि—वृक्ष है। असल में यह वृक्ष आत्मसात कर गया है, यह पी गया है उस घटना को, यह चार्ज्‍ड हो गया। इस वृक्ष का जो उपयोग जानते हैं, वे आज भी इस वृक्ष के द्वारा बुद्ध से संबंध स्थापित कर सकते हैं।

तो बोधगया नहीं है मूल्यवान, मूल्यवान वह बोधि—वृक्ष है। उस बोधि—वृक्ष के नीचे बरसों तक बुद्ध संक्रमण करते रहे। उनके पैर के पूरे निशान बनाकर रखे हैं। जब वह ध्यान करते—करते थक जाते तो उस वृक्ष के पास घूमने लगते, वह घंटों उस वृक्ष के पास घूमते रहते। बुद्ध किसी के साथ इतने ज्यादा नहीं रहे जितने उस वृक्ष के साथ रहे, उस वृक्ष से ज्यादा बुद्ध के साथ कोई नहीं रहा। और इतनी सरलता से कोई आदमी रह भी नहीं सकता जितनी सरलता से वह वृक्ष रहा। बुद्ध उसके नीचे सोये भी हैं, बुद्ध उसके नीचे उठे भी हैं, बैठे भी हैं, बुद्ध इसके आस—पास चले भी हैं। बुद्ध ने उससे बातें की होंगी, बुद्ध उससे बोले भी होंगे। उस वृक्ष की पूरी जीवन ऊर्जा बुद्ध से आविष्ठ है।

जब अशोक ने भेजा अपने बेटे महेन्द्र को लंका, तो उसके बेटे ने कहा, मैं भेंट क्या ले जाऊं? उन्होंने कहा, और तो कोई भेंट हो भी नहीं सकती इस जगत में, एक ही भेंट हमारे पास में है कि तुम इस बोधि—वृक्ष की एक शाखा ले जाओ। तो उस शाखा को लगाया, आरोपित किया और उस शाखा को भेज दिया। दुनिया में कभी किसी सम्राट ने किसी वृक्ष की शाखा किसी को भेंट नहीं दी होगी। यह कोई भेंट है? लेकिन सारा लंका आंदोलित हुआ उस शाखा की वजह से। और लोग समझते हैं, महेंद्र ने लंका को बौद्ध बनाया, वह गलत समझते हैं। उस शाखा ने बनाया, महेंद्र की कोई हैसियत न थी! महेन्द्र साधारण हैसियत का आदमी था।

अशोक की लड़की भी साथ में थी संघमित्रा, उन दोनों की उतनी बड़ी हैसियत न थी। लंका का कन्वर्शन इस बोधि—वृक्ष की शाखा के द्वारा किया गया कन्वर्शन है। ये बुद्ध के ही सीक्रेट संदेश थे कि लंका में इस वृक्ष की शाखा पहुंचा दी जाए। ठीक समय की प्रतीक्षा की जाए और ठीक व्यक्ति की। और जब ठीक व्यक्ति आ जाए तो इसको पहुंचा दिया गया। क्योंकि इसी से वापस किसी दिन हिंदुस्तान में फिर इस वृक्ष को लाना पड़ेगा। ये सारी की सारी अंतर्कथाएं हैं, जिसको कहना चाहिए गुप्त इतिहास है, जो इतिहास के पीछे चलता है। इनके लिए ठीक व्यक्तियों का उपयोग करना पड़ता है।

संघमित्रा और महेन्द्र दोनों बौद्ध भिक्षु थे, बुद्ध के जीवन में थे। हर किसी के साथ नहीं भेजी जा सकती थी वह शाखा। जो बुद्ध के पास जिया हो, जिसने जाना हो, और जो इस शाखा को वृक्ष की शाखा मानकर न ले जाए, जीवंत बुद्ध मानकर ले जाए, उसके ही हाथ में दी जा सकती थी। फिर लौटने की भी प्रतीक्षा करनी जरूरी है। उस वृक्ष को ठीक लोगों के हाथ से वापस आना चाहिए। ठीक लोगों के द्वारा वापस आना चाहिए।

इस इतिहास के पीछे जो इतिहास है वह बात करने जैसा है। असली इतिहास वही है, जहां घटनाओं के मूल स्रोत घटित होते हैं, जहां जड़ें होती हैं, फिर तो घटनाओं का एक जाल है, जो ऊपर चलता है। वह असली इतिहास नहीं है। जो अखबार में छपता है और किताब में लिखा जाता है, वह असली इतिहास नहीं है। कभी असली इतिहास पर हमारी दृष्टि हो जाए तो फिर इन सारी चीजों का राज समझ में आता है।

‘गहरे पानी पैठ’.

(अंतरंग चर्चा)

बम्बई दिनांक 6 जून 1971


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–10)

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अप्रमाद: महावीर-धर्म—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्न:

 वह कल जो आपने बताया कि तिब्बत में कुछ ऐसी धारणा मौजूद है जो कि तीसरा नेत्र खुलने वाली और उसके द्वारा भविष्य का ज्ञान हो जाने वाली बात, और वह भी कई सौ वर्ष पूर्व आगे की घटना को जानने वाली उनकी शक्ति–अगर ऐसी बात थी तो आज जो तिब्बत पर संकट आया, इसका ज्ञान तो उन्हें बहुत पहले हो गया होगा, तब आज के संकट के लिए उन्होंने पहले से तैयारी क्यों नहीं की? क्या हम यह मान लें कि आसुरी शक्तियां आध्यात्मिक शक्ति पर भी हावी हो जाया करती हैं और यहां तक कि आध्यात्मिक शक्ति का भी कुछ बस नहीं चलता?

 हली बात तो यह कि जितनी श्रेष्ठ शक्ति हो, उतना ही निकृष्ट शक्ति से लड़ना कठिन है। जैसे कितना ही बुद्धिमान व्यक्ति हो, उसके सिर पर एक लट्ठ मार देने से भी सारी बुद्धिमत्ता बिखर जा सकती है। गांधी जैसे कीमती आदमी को भी एक गोली मार देने से सब अंत हो सकता है।

असल में जितनी श्रेष्ठ शक्ति है, उतनी ही बारीक, उतनी ही सूक्ष्म है। जितनी निकृष्ट शक्ति है, उतनी ही स्थूल और प्रकट है। स्थूल के द्वारा सूक्ष्म को नष्ट कर देना बहुत आसान है। और इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि श्रेष्ठ सभ्यताएं निकृष्ट सभ्यताओं से हार गई हैं, क्योंकि श्रेष्ठ सभ्यताओं ने उतनी सूक्ष्म बातें विकसित की हैं कि वे यह भूल ही गई हैं कि और निकृष्ट बातें भी हैं, जिनकी कि व्यवस्था करनी जरूरी है। तो जब भी निकृष्ट शक्तियों ने या राष्ट्रों ने या सभ्यताओं ने हमला किया है तो श्रेष्ठ सभ्यता हार गई है, निकृष्ट जीत गई है।

अभी भी बुद्धिमान से मूढ़ के, बुद्धिहीन के जीत जाने की संभावना ज्यादा है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को भी एक भैंसा सींग पर उठा कर खतम कर सकता है।

तो इसमें दो बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं। एक तो यह कि जितनी श्रेष्ठ शक्ति है, उतनी शिखर पर होती है; जितनी निकृष्ट शक्ति है, उतनी बुनियाद में होती है। अगर नीचे की बुनियाद कमजोर हो जाए तो ऊपर का शिखर गिर जाएगा, वह कितना ही भव्य हो, स्वर्ण का बना हो। और नीचे की जो बुनियाद है, वह ठोस पत्थरों से बनती है और शिखर सोने का बनता है।

तिब्बत के पास एक बड़ी ही आंतरिक सभ्यता थी, लेकिन उस आंतरिक सभ्यता के पास स्थूल साधन बिलकुल नहीं थे। और अक्सर ऐसा होता है, जिनके पास आंतरिक शांति और आनंद उपलब्ध हो जाता है, वे चिंता भी छोड़ देते हैं बाह्य साधनों की। न वे बड़ी तोप बनाते हैं, न वे बड़ा एटम बनाते हैं। वे उस आंतरिक आनंद और शांति की खोज में ऐसे लीन हो जाते हैं कि बाहर का यह जो सारा समायोजन है, वे कभी भी नहीं कर पाते।

तिब्बत एक अर्थ में सबसे श्रेष्ठ सभ्यताओं में से था और एक अर्थ में सबसे कमजोर सभ्यताओं में से–कि अगर एटम उसके ऊपर गिराया जाएगा तो तिब्बत की बुद्धिमत्ता का कोई अर्थ नहीं हो सकता। जैसे भारत कभी पिछले समयों में बार-बार बर्बरों से हारा, उसका भी कारण यही था कि हम एक भीतर की दुनिया बनाने में लगे थे।

अब एक चित्रकार है, वह अपने घर में श्रेष्ठतम चित्र बना रहा है–पिकासो है या मोनेट है, या कोई भी है। और एक आदमी जाकर छुरे को छाती में भोंक दे तो कोई भी यह नहीं कहेगा कि इतना बड़ा चित्रकार, इतनी बड़ी चित्र की कला और एक छुरी से जीत नहीं सका! कोई यह नहीं कहेगा, क्योंकि हम कहेंगे यह कि वह बेचारा चित्र बनाने में इतना लीन था कि कभी लट्ठ की और व्यायाम की और तलवार की उसने कोई व्यवस्था नहीं की थी और कभी सोचा भी नहीं था कि यह होगा।

तो श्रेष्ठ की तलाश में अक्सर निकृष्ट भूल जाता है। और तिब्बत था आइसोलेटेड, सारे जगत से दूर, अपने में जी रहा था। अपने में जीने की इस सीमा के भीतर उसने कुछ खूबियों की बातें विकसित की थीं। लेकिन कोई भी शारीरिक सभ्यता, तामसिक सभ्यता, जिसको आप आसुरी कह रहे हैं, वैसी कोई भी सभ्यता उस पर हमला करे तो तिब्बत उससे जीत नहीं सकता था, हार सुनिश्चित थी। एक बात।

दूसरी बात, यह बात सच है कि तिब्बत के पास ऐसे लोग थे, हैं, जो भविष्य के संबंध में सूचनाएं दे सकें। लेकिन भविष्य बड़ी अदभुत बात है। भविष्य के संबंध में जो भी सूचनाएं हैं, वे सदा पत्थर की लकीर की तरह सही नहीं होतीं, वे सिर्फ संभावनाएं होती हैं। संभावना का मतलब है कि ऐसा हो सकता है अगर ये स्थितियां रहें, ऐसा नहीं भी हो सकता अगर ये स्थितियां रहें।

एक उदाहरण से मैं समझाऊं। एक ज्योतिषी काशी से बारह वर्ष ज्योतिष का अध्ययन करके वापस लौटता है अपने गांव। जब वह अपने गांव लौट रहा है तो बड़ी पोथियां लाया है ज्योतिष की, बड़ा अध्ययन करके लौटा है और बड़ा निष्णात हो गया है भविष्यवाणी करने में। जब वह अपने गांव के करीब आ रहा है तो नदी की रेत पर उसने देखे हैं कि किसी व्यक्ति के पैरों के चिह्न बने हैं और पैरों में तो वे चिह्न हैं जो चक्रवर्ती को होना चाहिए! भरी दोपहरी है, साधारण सा गांव है, छोटी सी नदी है, गंदी रेत है, उस पर चक्रवर्ती खुले पैर चला हो इसकी कोई आशा नहीं है!

वह तो बहुत घबड़ा गया। उसने कहा अगर चक्रवर्ती एक साधारण गांव में खुली रेत पर नंगे पांव घूमता हो इस भरी दोपहरी में, तो हो गया हल! फिर मेरे पोथे का क्या होगा? मेरे शास्त्र का क्या होगा? उसे तो ऐसा लगा कि अगर यह चक्रवर्ती का पैर ही है–और चिह्न साफ है–तो इन पोथियों को इसी नदी में डुबा देना चाहिए और घर पहुंच जाना चाहिए कि मैं गलत शास्त्र पढ़ गया हूं। पर उसने कहा, इसके पहले मैं पता तो लगा लूं, यह आदमी कहां है?

तो वह पैरों के चिह्नों के पीछे चल कर जाता है तो एक वृक्ष के नीचे बुद्ध को बैठे पाता है। तो वह बुद्ध को देखता है तो बड़ा मुश्किल में पड़ जाता है, चेहरा तो चक्रवर्ती का है, आंख चक्रवर्ती की है; शरीर तो भिखारी का है, भिक्षा-पात्र बगल में रखा हुआ है, नंगे पैर है आदमी! तो वह जाकर कहता है कि महाराज, मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया, बारह वर्ष की सारी साधना व्यर्थ हुई जा रही है। यह आपके पैर में चक्रवर्ती का चिह्न है और आप हैं भिखारी। तो मैं अपने शास्त्रों को नदी में डुबा दूं?

तो बुद्ध उसे कहते हैं, शास्त्र को नदी में डुबाने की जरूरत नहीं है। मैं चक्रवर्ती हो सकता था, वह मेरी संभावना थी, वह मैंने त्याग कर दी। और जब मैं पैदा हुआ था तो ज्योतिषी ने यह कहा था कि यह लड़का या तो चक्रवर्ती होगा या संन्यासी। तो मेरे पिता ने पूछा कि या क्यों लगाते हैं? ज्योतिष में या क्यों लगा रहे हैं आप? तो कहिए कि चक्रवर्ती होगा या संन्यासी। लेकिन आप कहते हैं कि चक्रवर्ती होगा या संन्यासी। तो उस ज्योतिषी ने कहा कि ज्योतिष सदा भविष्य की संभावनाओं की सूचना है। ज्योतिष कभी भी दो और दो चार जैसा सुनिश्चित नहीं है कि कल ऐसा होगा ही। ज्योतिष सिर्फ इतना कह रहा है कि ऐसा भी हो सकता है, अन्यथा भी हो सकता है।

तो भविष्य की जो दृष्टि है, क्योंकि भविष्य में हजार संभावनाएं हैं। जो हो चुका है, वह तो सुनिश्चित हो गया। अतीत सुनिश्चित हो गया, क्योंकि वह हो चुका। हजार संभावनाओं में से एक संभावना वास्तविक हो गई। अतीत इसीलिए मर गया। भविष्य में बहुत द्वार खुलते हैं और अनंत कारण हैं, जिनका संबंध है भविष्य से। इस बात की खबर भी दी जा सकती है, निरंतर खबरें दी जाती रही हैं कि ऐसा हो सकता है। लेकिन यह खबर भी तभी सुनिश्चित हो पाती है, जब हो जाता है।

फिर जिन लोगों को ऐसी अंतर्दृष्टि है भविष्य के संबंध में, कोई मुल्क का मुल्क ऐसी अंतर्दृष्टि वाला नहीं है, सिर्फ दो-चार-दस लोग हैं, वे कहते हैं कि ऐसा हो सकेगा, लेकिन पूरा मुल्क जिसको कि सब अंधकार दिखता है, कुछ सुनता नहीं है, कोई सुनता नहीं। यह तो बहुत कठिन बात है कि अंतर्दृष्टि वाले व्यक्ति की बात हम सुनें और समझें। हां, जब हो जाएगी तो हम कहेंगे कि फलां आदमी ने ठीक कहा था। लेकिन जब तक नहीं हो जाएगी, तब तक वह आदमी भी हमारे लिए एक नासमझ आदमी है, जो व्यर्थ की बातें कर रहा है, जिनसे क्या होने वाला है!

निरंतर यह हुआ है। हिटलर के संबंध में, स्टैलिन के संबंध में, नेहरू के, गांधी के, हजार संबंधों में ज्योतिषियों ने बातें कही हैं। लेकिन तब तक उनका आपको कभी पता नहीं चलता, जब तक कि वह घटना नहीं घट जाती। फिर और भी कठिनाई है कि एक ज्योतिषी हजार बातें कहता है। हजार ही नहीं घटतीं। जो घट जाती है, वह आप कहते हैं कि घट गई; जो नहीं घट जाती, वह भूल जाती है।

पर ज्योतिष और बात है। जिसको तीसरी आंख कहें, तीसरा नेत्र कहें, उससे ज्योतिष से भी ज्यादा गहराई से भविष्य का दर्शन हो सकता है। लेकिन वह दर्शन भी प्रतीकात्मक होता है। यानी वह दर्शन भी ऐसा नहीं होता कि आपको सीधा तथ्य दिख जाता है। प्रतीक दिखते हैं और प्रतीक की आपको व्याख्या करनी पड़ती है। व्याख्या में अक्सर भूल हो जाती है। फिर भी भूल न भी हो तो कोई सुनने को कभी राजी नहीं होता, कोई सुनने को कभी राजी नहीं होता। नहीं राजी होने का कारण यह है कि हमें तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और न दिखाई पड़ने वालों की, अंधों की संख्या बड़ी है, उसमें एक आंख वाले की बात जिस तरह खो जाती है, ये बातें भी खो जाती हैं। फिर भी व्यवस्था करने के उपाय किए गए। आकस्मिक रूप से व्यवस्था करना बहुत मुश्किल हुआ होता।

तिब्बत के पास ग्रंथों की बड़ी ही अदभुत संपदा है, लेकिन दलाई करीब-करीब सभी कीमती ग्रंथों को ले आया है। तिब्बत के पास कीमती लोगों की भी एक संख्या थी, करीब-करीब उन लोगों को भी बचा कर लाया जा सका है। और व्यवस्था चल रही थी, कुछ पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से व्यवस्था चल रही थी। खतरा आसन्न था। व्यवस्था भी चल रही थी। और उस व्यवस्था का ही फल है कि यह संभव हो सका कि दलाई भी निकल सका, नहीं तो दलाई के भी निकलने की उम्मीद नहीं थी।

यह तो आप ठीक कहते हैं, लेकिन सुनता कौन है! बुद्ध ने कहा है कि मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा नहीं चलेगा, लेकिन किसी ने नहीं सुना। बुद्ध का नहीं सुना किसी ने। कहा है साफ कि मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा नहीं चलेगा। तो इंतजाम कर लेने चाहिए थे! लेकिन कोई इंतजाम नहीं किए गए। और जब मुसीबत आ गई, तभी बौद्ध-ग्रंथों को बचा कर भागना पड़ा इस मुल्क के बाहर। लेकिन पहले से कोई इंतजाम नहीं किया गया। हमारी लिथार्जी, हमारा तमस इतना ज्यादा है कि भविष्य अगर बता भी दिया जाए तो कोई बहुत फर्क पड़ने वाला नहीं है। हम सोचते हैं कि बता दिया जाएगा तो फर्क पड़ेगा। कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।

अभी एक अमेरिकन अर्थशास्त्री ने भविष्यवाणी की है–जो कि बिलकुल गणित पर खड़ी है, इसलिए बहुत सही होने की उम्मीद है–कि उन्नीस सौ अठहत्तर के करीब भारत में एक महा अकाल पड़ेगा, जिसमें दस करोड़ लोगों से बीस करोड़ लोगों तक के मरने की उम्मीद हो सकती है। लेकिन भारत में किसी को फिक्र नहीं है।

मैंने दिल्ली में एक बड़े नेता से कहा, तो उन्होंने कहा कि उन्नीस सौ अठहत्तर अभी बड़े दूर है। क्या करिएगा? और उसका दावा एकदम गणित पर खड़ा हुआ है, एकदम गणित पर खड़ा हुआ है। दुनिया की भोजन की व्यवस्था, संख्या की व्यवस्था, इन सब पर खड़ा हुआ है। और उसका कहना है कि ऐसा अकाल न कभी दुनिया में पड़ा था पहले और न कभी पीछे पड़ने की उम्मीद है, जितना बड़ा अकाल भारत को झेलना पड़ सकता है।

लेकिन क्या फर्क पड़ रहा है? पूरी किताब लिखी है, छोटा-मोटा नहीं है वक्तव्य, पूरी किताब है, पूरे गणित के सब ब्यौरे के साथ है। लेकिन भारत में कोई परिणाम नहीं है, न किसी पत्र में कोई रिव्यू है, न नेताओं में कोई चर्चा है, न विचारशील लोगों में कोई बात है! हां, जब पड़ जाएगा अकाल उन्नीस सौ अठहत्तर में, तब हम पीछे कहेंगे कि इस आदमी ने बिलकुल ठीक-ठीक भविष्यवाणी की थी।

हमारा तमस इतना गहरा है। अब तमस की गहराई हम इस तरह नाप सकते हैं, हम सबको पता है कि हम मरेंगे, इसमें किसी को भविष्यवाणी करने की जरूरत नहीं है। हम सब जानते हैं कि एक बात तो निश्चित है कि हम मरेंगे, लेकिन जीते हम इस ढंग से हैं, जैसे कभी नहीं मरेंगे! अब क्या करिएगा? हमें बिलकुल–इसमें तो कोई शक-शुबहा ही नहीं है, किसी ज्योतिषी को, किसी तीसरी आंख वाले आदमी को आकर आपको बताने की जरूरत नहीं है कि आप मरोगे। यह तो बिलकुल ही पक्का है। लेकिन इस पक्के में भी जीते हम ऐसे हैं जैसे हम कभी नहीं मरेंगे। जो आदमी कल सुबह मरने वाला है, वह भी आज सांझ इसी तरह जी रहा है, जैसे कभी नहीं मरेगा। तमस हमारा गहरा है। और भविष्य के प्रति अंधापन गहरा है।

महाभारत में घटना है। वह यक्ष ने जो प्रश्न पूछे हैं। तालाब पर पानी लेने गए हैं नकुल, सहदेव और यक्ष प्रश्न पूछता है, वे उत्तर नहीं दे पाते हैं और बेहोश होकर गिर जाते हैं। पीछे युधिष्ठिर गया है। तो उसमें जो एक प्रश्न है, वह यह है कि मनुष्य के जगत में सबसे ज्यादा चमत्कारपूर्ण बात क्या है? युधिष्ठिर कहता है, यही कि मृत्यु है और कोई मानने को राजी नहीं है।

इससे बड़ी चमत्कारपूर्ण बात ही नहीं है कोई। यानी सबसे ज्यादा सुनिश्चित जो है, उसको सबसे ज्यादा अनिश्चित कर रखा है! बाकी सब अनिश्चित है। बाकी एक बात तो निश्चित ही है–मृत्यु। उसमें तो अनिश्चय का कोई उपाय नहीं है। इसमें तो कोई अपवाद ही नहीं हुआ आज तक। अरबों-खरबों लोग पैदा हुए और मरे हैं। फिर भी प्रत्येक व्यक्ति ऐसे तमस में जीता है कि वह मानने को राजी नहीं है कि वह मरेगा! वह तो जिंदा रहेगा ही, ऐसे भाव से ही जीता है। तो क्या करिएगा?

भविष्य पूरा का पूरा बताया जा सके तो भी आप ऐसे ही जीएंगे, जैसे जी रहे हैं, कोई बहुत फर्क पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि वह भविष्य आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है।

प्रश्न:

 

तमस क्या है–तमस जो कह रहे हैं आप?

मस का मतलब लिथार्जी है, इतना प्रमाद है।

प्रश्न:

 

अहं नहीं?

हीं, अहं नहीं। तमस का मतलब लिथार्जी। इतना आलस्य है कि कल क्या होगा, उसकी कहां…क्या करें? जो होगा, होगा। अभी तो चुपचाप चलते चलो। इतना आलस्य है कि जैसे इस कमरे में आकर खबर कर दी जाए कि कल इस मकान में आग लगेगी तो भी हम ऐसे ही जीते चले जाएं जैसे कल आग नहीं लगनी है, क्योंकि अगर इसको हम मान लें कि कल आग लगेगी तो अभी हमें कुछ करना पड़ेगा। वह करना पड़ेगा, वह इतना भारी पड़ता है कि न करने में जैसा चल रहा है, ठीक चल रहा है।

अगर हम यह मान लें कि मृत्यु निश्चित है तो चाहे दस साल बाद, चाहे बीस साल बाद, इससे क्या फर्क पड़ता है, कि पचास साल बाद। अगर यह पक्का हमारे चित्त पर साफ हो जाए कि मृत्यु निश्चित है तो हमें कुछ करना पड़ेगा। हम जैसे जी रहे हैं फिर हम वैसे नहीं जी सकते, हमें फर्क करना पड़ेगा। और फर्क करने में इतना आलस्य है कि ठीक है, कल देखेंगे, जो होगा, होगा।

और इसको मैं तमस कह रहा हूं। तमस का मतलब है कि एक घना अंधकार का बोझ है हमारे मन पर, जो हमें कुछ भी करने नहीं देता। यानी बता भी दिया जाए तो भी नहीं करने देता, खबर भी कर दी जाए तो भी नहीं करने देता। और नहीं करने का हमारा ऐसा भाव है कि जैसा चल रहा है वैसे रट में हम चुपचाप चलते चले जाते हैं।

इसलिए ऐसा नहीं है कि नहीं बोध है चीजों का। बोध है, लेकिन मुल्क बोध को पकड़ नहीं पाता। बोध कुछ व्यक्तियों को है। उन्होंने चेष्टा की भी है अपनी तरफ से, सारा जो श्रेष्ठ है, वह बचा कर ले आए हैं। और वहां भी सब उपाय छोड़ आए हैं कि श्रेष्ठ वहां भी किसी तरह से बच सके, उसका भी सारा उपाय कर आए हैं।

लेकिन ऐसा ही मामला है जैसे कि एक गांव डूबने वाला हो दस दिन बाद और दस हजार लोग रहते हों और दस आदमियों को अंदाज लग जाए कि गांव डूबेगा और वे गांव भर में चिल्लाते फिरें, कोई उनकी सुने न, लोग उन पर हंसें, तो दस आदमी कितनी बड़ी डोंगी बना सकते हैं बचाने के लिए? यानी आखिर वे बनाने में भी लग जाएं तो एकाध नाव बना लेंगे दस आदमी दस दिन के भीतर, जिसमें कि वे कुछ बचा कर ले जा सकेंगे, लेकिन पूरा गांव तो नहीं बचेगा। यह तो तभी बच सकता था, जब दस हजार लोग उत्सुक हो जाते।

और यह भी हो सकता है कि जिन्हें आगे का दिखाई पड़ रहा है, उन्हें यह भी दिखाई पड़ता हो कि कितना बचाया जा सकता है और कितना खोएगा ही। यह भी कठिन नहीं है। कितना खोएगा ही, यह तय ही है। तो वह भी साफ दिख रहा है तो उसके लिए श्रम का कोई अर्थ भी नहीं। जितना बचाया जा सकता है, उतना बचा लिया गया है; और जो खोने वाला है, उसको स्वीकार कर लिया गया है।

प्रश्न:

 

आप जो कुछ जैन-दृष्टि के बारे में कह रहे हैं, उसमें मुझे ऐसा लगा कि दो-तिहाई बातों से सभी लोग सहमत हो जाएंगे, किंतु एक तिहाई अंश ऐसा है, जिससे सहमति कठिन है।

 

हली बात जो आप कहते हैं सम्यक-दर्शन की, जिसने थोड़ा भी शास्त्र पढ़ा हो, वह यह जानता है कि सम्यक-दर्शन के बिना चारित्र्य का कोई अर्थ नहीं। सम्यक-दर्शन के बिना जो कुछ होता है, वह चारित्र्य कहलाता ही नहीं। यह दृष्टि बहुत स्पष्ट है। और यह भी स्पष्ट है कि चारित्र्य का और कोई अर्थ नहीं है अतिरिक्त आत्मस्थिति के। आत्मा में स्थित हो जाना, यही चारित्र्य का अर्थ है। इन दो अंशों में आपसे सहमति लगती है। पर सम्यक-दर्शन होने के बाद और आत्मस्थिति में पूर्ण स्थिति होने के पहले जो बीच का अंतराल है, उसमें आपकी दृष्टि कुछ मुझे जो परंपरागत दृष्टि है, उससे भिन्न नजर आती है। उसमें ऐसा मानते हैं लोग कि एक चरित्र का क्रमिक विकास है, उस चरित्र का एक बाह्य स्वरूप भी है, जिसे त्रिगुप्ति और पंच समिति इस नाम से अष्टप्रवचनमातृका करके वे कहते हैं–मन, वचन, कार्य का संयम और आहार-व्यवहार में विवेक। यही चारित्र्य का स्वरूप मानते हैं। और यह अष्टप्रवचन समिति जो है, यही पंच व्रतों की रक्षा करने के लिए है। तो पंचव्रत और यह अष्टप्रवचनमातृका, इसका भी एक सुनिश्चित स्थान जैन आचार-मीमांसा में है। आप इस संबंध में क्या कहेंगे? यदि यहां आपकी सम्मति कुछ बने निश्चित और परंपरा से मिल सके तो शत-प्रतिशत सहमति हो जाए, पर यहां न मिल सके तो मुझे लगता है कि दो-तिहाई तो सहमति हो पाएगी, एक तिहाई अंश में नहीं।

नहीं, हो पाएगी तो पूरी हो जाएगी, नहीं हो पाएगी तो बिलकुल ही नहीं हो पाएगी। क्योंकि चरित्र की जैसी धारणा रही है, वैसी धारणा से मैं बिलकुल ही असहमत हूं। और वैसी धारणा महावीर की भी नहीं थी, ऐसा भी मैं कहता हूं।

एक दृष्टि है बाह्य आचरण को व्यवस्थित करने की। असल में बाह्य आचरण को व्यवस्थित वही करता है, जिसके पास अंतर्विवेक नहीं है। अंतर्विवेक हो तो बाह्य आचरण व्यवस्थित होता है, करना नहीं पड़ता है। जिसे करना पड़ता है, वह इस बात की खबर देता है कि उसके पास अंतस-विवेक नहीं है। अंतस-विवेक की अनुपस्थिति में बाह्य आचरण कैसा भी हो, जिसे हम अच्छा कहें या बुरा कहें, दोनों ही स्थिति में–नैतिक कहें, अनैतिक कहें–अंतस-विवेक नहीं है, तो सब आचरण अंधा है, अंधकारपूर्ण है।

निश्चित ही समाज के लिए फर्क पड़ेगा। एक को समाज अच्छा आचरण कहता है, एक को बुरा कहता है। समाज अच्छा आचरण उसे कहता है, जिससे समाज के जीवन में सुविधा बनती है; बुरा आचरण उसे कहता है, जिससे असुविधा बनती है।

समाज को व्यक्ति की आत्मा से कोई मतलब नहीं है। समाज को व्यक्ति के व्यवहार से मतलब है। क्योंकि समाज व्यवहार से बनता है, आत्माओं से नहीं। तो समाज की चिंता यह है कि आप सच बोलें, यह चिंता नहीं है कि आप सत्य हों। आप झूठ हों, कोई चिंता नहीं, पर बोलें सच। आप मन में झूठ को गढ़ें, कोई चिंता नहीं, लेकिन प्रकट करें सच को।

समाज को मतलब, आपका जो चेहरा प्रकट होता है, उससे है; आपकी जो आत्मा अप्रकट रह जाती है, उससे नहीं है। इसलिए समाज इसकी चिंता ही नहीं करता कि भीतर आप कैसे हैं। समाज कहता है, बाहर आप कैसे हैं, बस हमारी बात पूरी हो जाती है। बाहर आप ऐसा व्यवहार करें जो समाज के लिए अनुकूल है, समाज के जीवन के लिए सुविधापूर्ण है, सबके साथ रहने में व्यवस्था लाता है, अव्यवस्था नहीं लाता। समाज की चिंता आपके आचरण से है। धर्म की चिंता आपकी आत्मा से है।

इसलिए समाज इतना फिक्र भर कर लेता है कि आदमी का बाह्य रूप ठीक हो जाए, बस इसके बाद फिक्र छोड़ देता है। बाह्य रूप ठीक करने के लिए वह जो उपाय लाता है, वे उपाय भय के हैं। या तो पुलिस है, अदालत है, कानून है, या पाप-पुण्य का डर है, स्वर्ग है, नरक है। ये सारे भय के रूप उपयोग में लाता है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि समाज के द्वारा आचरण की जो व्यवस्था है, वह भय-आधारित है और बाहर तक समाप्त हो जाती है। परिणाम में समाज केवल व्यक्ति को पाखंडी बना पाता है या अनैतिक, नैतिक कभी नहीं। पाखंडी या अनैतिक। पाखंडी इस अर्थों में कि भीतर व्यक्ति कुछ होता है, बाहर कुछ हो जाता है।

और जो व्यक्ति पाखंडी हो गया, उसके धार्मिक होने की संभावना अनैतिक व्यक्ति से भी कम हो जाती है। इसे समझ लेना जरूरी है। समाज की दृष्टि में वह आदृत होगा, साधु होगा, संन्यासी होगा; लेकिन पाखंडी हो जाने के कारण वह अनैतिक व्यक्ति से भी बुरी दशा में पड़ गया है। क्योंकि अनैतिक व्यक्ति कम से कम सीधा है, सरल है, साफ है। उसके भीतर गाली उठती है तो गाली देता है और क्रोध आता है तो क्रोध करता है। वह आदमी स्पष्ट है, स्पांटेनियस है एक अर्थों में। सहज है, जैसा है, वैसा है। बाहर और भीतर में उसके फर्क नहीं है।

परम ज्ञानी के भी बाहर और भीतर में फर्क नहीं होता। परम ज्ञानी जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर होता है। अज्ञानी जैसा बाहर होता है, वैसा ही भीतर होता है। बीच में एक पाखंडी व्यक्ति है, जो भीतर कुछ होता है, बाहर कुछ होता है। पाखंडी व्यक्ति का मतलब है कि बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है और भीतर अज्ञानी जैसा होता है। पाखंडी का मतलब है कि भीतरी अज्ञानी जैसा–उसके भीतर भी गाली उठती है, क्रोध उठता है, हिंसा उठती है–और बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है, अहिंसक होता है, अहिंसा परमो धर्मः की तख्ती लगा कर बैठता है, सच्चरित्रवान दिखाई पड़ता है, सब नियम पालन करता है, अनुशासनबद्ध होता है। बाहर का उसका व्यक्तित्व लेता है वह ज्ञानी से उधार और भीतर का व्यक्तित्व वही होता है जो अज्ञानी का है।

यह जो पाखंडी व्यक्ति है, जिसको समाज नैतिक कहता है, यह व्यक्ति कभी भी, कभी भी उस दिशा को उपलब्ध नहीं होगा, जहां धर्म है। अनैतिक व्यक्ति उपलब्ध हो भी सकता है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पापी पहुंच जाते हैं और पुण्यात्मा भटक जाते हैं, क्योंकि पापी के दोहरे कारण हैं पहुंच जाने के। एक तो पाप दुखदायी है। प्रकट पाप बहुत दुखदायी है। उसकी पीड़ा है। वह पीड़ा ही रूपांतरण लाती है। दूसरी बात यह है कि पाप करने के लिए साहस चाहिए। समाज के विपरीत जाने के लिए भी साहस चाहिए।

जो पाखंडी लोग हैं, वे मीडियाकर हैं, उनमें साहस बिलकुल नहीं है। साहस न होने की वजह से चेहरा वे वैसा बना लेते हैं, जैसा समाज कहता है–समाज के डर के कारण–और भीतर वैसे रहे आते हैं, जैसे वे हैं। अनैतिक व्यक्ति के पास एक करेज है, एक साहस है।

साहस बड़ा आध्यात्मिक गुण है। पाप की एक पीड़ा है और साहस है, ये दो बातें हैं उसके पास। पाप उसे पीड़ा में ले जाएगा। पाप का अनुभव पीड़ा में ले जाएगा। पाप उसे निरंतर, निरंतर पीड़ा और सफरिंग में डालेगा, दुख और पीड़ा में डालेगा। और दुख और पीड़ा में कोई भी नहीं रहना चाहता। और साहस है उसके पास कि जिस दिन भी वह साहस कर ले, वह उस दिन बाहर हो जाए।

मैं एक छोटी कहानी से तुम्हें समझाऊं। एक ईसाई पादरी एक स्कूल में बच्चों को समझा रहा है, मॉरल करेज क्या है, नैतिक साहस क्या है। तो एक बच्चा उससे पूछता है कि कुछ उदाहरण से समझाएं!

तो वह कहता है कि समझ लो कि तुम तीस बच्चे हो, तुम तीसों पिकनिक पर पहाड़ पर गए हो। दिन भर के थक गए हो, नींद आ रही है, सर्द रात है। उनतीस बच्चे जल्दी से बिस्तर में कंबल ओढ़ कर सो जाते हैं, लेकिन एक बच्चा कोने में घुटने टेक कर परमात्मा की रात्रि की प्रार्थना पूरी करता है। तो वह कहता है कि उस लड़के में मॉरल करेज है, उसमें नैतिक साहस है कि जब उनतीस बिस्तर में सो गए हैं, सर्द रात है, दिन भर की थकान है, जब कि टेंपटेशन पूरा है कि मैं भी सो जाऊं, तब भी वह हिम्मत जुटाता है और एक कोने में खड़े होकर भगवान की प्रार्थना करता है सर्द रात में, तब सोता है जब प्रार्थना पूरी कर लेता है।

महीने भर बाद वह पादरी वापस आया, उसने फिर नैतिक साहस पर कुछ बातें कीं और उसने कहा कि अब मैं तुमसे समझना चाहूंगा कि तुम कुछ उदाहरण देकर समझाओ कि नैतिक साहस क्या है।

तो एक लड़के ने कहा कि जैसा आपने उदाहरण दिया था, वैसा ही उदाहरण मैं देता हूं। तीस पादरी एक पहाड़ पर पिकनिक को गए हुए हैं। दिन भर के थके-मांदे लौटते हैं। सर्द रात है। उनतीस पादरी प्रार्थना करने बैठ जाते हैं और एक पादरी कंबल ओढ़ कर सो जाता है। तो वह जो एक पादरी कंबल के भीतर सो जाता है, उसे मैं मॉरल करेज का उदाहरण, नैतिक साहस का उदाहरण कहता हूं। और जो आपने उदाहरण दिया था, उससे यह उदाहरण ज्यादा नैतिक साहस का है। जब उनतीस पादरी प्रार्थना कर रहे हों और कंडेम कर रहे हों कि नरक जाओगे अगर तुम बिस्तर में सोए, तब एक आदमी चुपचाप बिस्तर में सो जाता है।

नैतिक साहस होता ही नहीं जिन लोगों को हम नैतिक व्यक्ति कहते हैं उनमें। और उनकी नैतिकता वस्तुतः साहस की कमी के कारण होती है, साहस के कारण नहीं।

एक आदमी चोरी नहीं करता। तो आमतौर से हम सोचते हैं कि यह आदमी अचोर है। यह बात झूठ है। चोरी न करना ही अचोर होने का लक्षण नहीं है। चोरी न करने का कुल कारण इतना हो सकता है कि आदमी तो चोर है, लेकिन चोरी करने का साहस भी नहीं जुटा पाता। सौ में निन्यानबे मौके पर ऐसा होता है कि चोरी सब करना चाहते हैं, लेकिन साहस नहीं जुटा पाते। चोरी करना साधारण साहस की बात नहीं है। अंधेरी रात में और दूसरे के घर में अपने घर जैसा व्यवहार करना बहुत मुश्किल बात है।

तो जिनको हम नैतिक कहते हैं, अक्सर साहसहीन लोग होते हैं। और धर्म तो परम साहस की यात्रा है। तो ये साहसहीन लोग, जो कि इसलिए नैतिक होते हैं कि साहस नहीं है, कभी धर्म की यात्रा पर भी नहीं निकलते हैं। लेकिन जिनको हम बुरे लोग कहते हैं, उन बुरे लोगों में एक गुण तो बहुत स्पष्ट है कि वे साहसी हैं, पूरे समाज के विरोध में साहसी हैं। जब उनतीस लोग प्रार्थना कर रहे हैं, तब वे सोने चले गए हैं। जब पूरा समाज प्रार्थना कर रहा है, तब वे सोने चले गए हैं। साहस उनमें अदभुत है।

अब सवाल यह है कि यह साहस उनका पाप की तरफ से हट कर और पुण्य की तरफ कैसे जाए। तो आपको ले जाने की जरूरत नहीं है, पाप की पीड़ा ही अपने आप में इतनी सघन है कि वह आदमी को उससे उठने के लिए मजबूर कर देती है। आज नहीं कल, वह आदमी उठता है।

तो मेरी तो अपनी दृष्टि यह है कि पापी की संभावनाएं धर्म के निकट पहुंचने की ज्यादा हैं–जिसको हम नैतिक व्यक्ति कहते हैं उसके पहुंचने से। और जिस दिन पापी धर्म की दुनिया में पहुंचता है तो वह उतनी ही तीव्रता से पहुंचता है, जितनी तीव्रता से वह पाप में गया था।

नीत्शे ने एक बहुत अदभुत वचन लिखा है। नीत्शे की अंतर्दृष्टि बहुत गहरी है, कम लोगों की ऐसी दृष्टि होती है। नीत्शे ने लिखा है कि जब मैंने वृक्षों को आकाश छूते देखा तो मैंने खोज-बीन की, तो मुझे पता चला कि जिस वृक्ष को आकाश छूना हो उस वृक्ष की जड़ों को पाताल छूना पड़ता है। उसने लिखा है कि तब मुझे खयाल आया कि जिस व्यक्ति को पुण्य की ऊंचाइयां छूनी हों, उस व्यक्ति के भीतर उसकी जड़ों को पाप की गहराइयां छूने की क्षमता चाहिए। अगर कोई पाप का पाताल छूने में असमर्थ है तो पुण्य का आकाश भी नहीं छू सकेगा, क्योंकि ऊपर शिखर उतना ही जाता है, जितनी नीचे जड़ें जा सकती हैं। यह हमेशा अनुपात में जाता है। तो जिस घास की जड़ें भीतर बहुत गहरी नहीं जातीं, वह घास उतना ही ऊपर आता है, जितनी जड़ें जाती हैं।

तो पापी की गति तो है–बुरे की तरफ है–लेकिन जिस दिन अच्छे की तरफ हो जाए, गति उसके पास है, वह अच्छे की तरफ भी जा सकता है।

तो मेरी अपनी दृष्टि यह है कि झूठी नैतिकता–बाहर से थोपी गई–सिखाने का परिणाम यह हुआ कि दुनिया में धर्म कम होता चला गया। अच्छा तो यही हो कि आदमी सीधा हो, चाहे पापी हो, साफ हो, बजाय झूठे, व्यर्थ के आडंबर थोपने के, वैसा ही हो जैसा है। तो इस आदमी की बदलाहट की बड़ी संभावना है कि जैसा वह है, अगर वह दुखद है तो बदलेगा, करेगा क्या!

लेकिन पाखंडी आदमी ने व्यवस्था कर ली है, जैसा है, वह तो छिपा लिया है और जैसा नहीं है, वह व्यवस्था कर ली है उसने। तो समाज से आदर भी पाता है, सुख भी पाता है, सम्मान भी पाता है; और जैसा है, वैसा वह है। इसलिए जो गलत होने की पीड़ा है, वह भी नहीं भोग पाता। वही पीड़ा मुक्तिदायी है।

तो मेरी दृष्टि में पाखंडी समाज से तो सीधा एेंद्रिक समाज ज्यादा अच्छा है। और इसलिए मैं कहता हूं कि पश्चिम में धर्म के उदय की संभावना है, पूरब में अब नहीं है। इसको मैं जैसे भविष्यवाणी कह सकता हूं कि आने वाले सौ वर्षों में पश्चिम में धर्म का उदय होगा और पूरब में धर्म प्रतिदिन क्षीण होता चला जाएगा, क्योंकि पूरब पाखंडी है और पश्चिम स्पष्ट है। पूरब एकदम पाखंडी हो गया है। पश्चिम साफ है। बुरा है तो साफ है।

यह साफ बुरा होना उसको पीड़ा बन जाने वाला है। वह पीड़ा बन गई है और उस पीड़ा से उसको बाहर भी निकलना पड़ेगा। यह हमारा झूठा अच्छा होना पीड़ा भी नहीं बनता है। हम कहीं बाहर भी नहीं निकलते।

असल में पाखंडी आदमी कुनकुनी हालत में होता है, ल्यूकवार्म, कभी भाप नहीं बनता, कभी बर्फ भी नहीं बनता। पापी आदमी बर्फ भी बन सकता है और पापी आदमी भाप भी बन सकता है, क्योंकि ल्यूकवार्म वह होता ही नहीं, कुनकुनी हालत में कभी होता ही नहीं। छोरों पर जीता है। छोरों पर जाने की हिम्मत रखता है।

तो मेरा मानना है कि समाज ने नैतिक शिक्षा देकर समाज को तो किसी तरह सुव्यवस्थित कर लिया है, लेकिन व्यक्ति की आत्मा को भारी नुकसान पहुंचाया है। और यह भी मेरा मानना है कि समाज व्यवस्थित है, यह सिर्फ दिखाई पड़ता है। अगर व्यक्ति झूठे हैं तो व्यवस्था सच्ची कैसे हो सकती है? क्योंकि जो व्यक्ति झूठा है, वह पीछे के रास्ते से तो वह कर ही रहा होगा जो सामने के रास्ते से नहीं कर रहा है। तो समाज इतना ही कर सकता है ज्यादा से ज्यादा कि हर मकान के दो दरवाजे कर देता है। एक सामने का दरवाजा है, जिस पर प्रार्थनाएं, भजन-कीर्तन चलते हैं; एक पीछे का दरवाजा है, जिस पर गाली-गलौज चलती है।

वह पीछे का दरवाजा भी तो समाज का ही हिस्सा है, वह जाएगा कहां? वह उबल-उबल कर बाहर आता रहता है। वे पीछे की गालियां भी बाहर के रास्ते पर गूंजती ही रहती हैं, क्योंकि वे जाएंगी कहां?

झूठे चेहरे कैसे जीए जा सकते हैं? और जब सब आदमी झूठे चेहरे बनाते हों और सबको यह पता हो कि सब चेहरे झूठे हैं, तो समाज एक मिथ्यात्व हो जाता है, और कुछ भी नहीं। इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि धार्मिक व्यक्ति को असामाजिक होना पड़ा है, क्योंकि इस झूठे समाज में वह राजी नहीं हो सका है।

तो बुद्ध अपने भिक्षुओं को जो नाम देते हैं, वह है, अनागरिक। उसको नागरिकता छोड़ देनी पड़ी। उसे मिथ्या समाज की व्यवस्था छोड़ देनी पड़ी। तो भिक्षु का एक नाम है, अनागरिक। वह नागरिक नहीं रहा है अब।

असल में भिक्षु या संन्यासी या साधु का मतलब ही यह है कि वह किसी अर्थों में असामाजिक हो गया है, समाज से उसने नाता तोड़ लिया है, क्योंकि समाज पाखंड का गढ़ है।

और यह जो झूठी नैतिकता है, इसके भी समय होते हैं। जब झूठी नैतिकता बहुत जोर पकड़ती है तो उसकी प्रतिक्रिया जोर पकड़ती है। और झूठी नैतिकता को तोड़ने वाले तत्व सक्रिय हो जाते हैं। जब झूठी नैतिकता को तोड़ने वाले तत्व सक्रिय होते हैं तो अराजकता आती है, स्वच्छंदता आती है। जब स्वच्छंदता तेजी से पकड़ जाती है तो फिर झूठी नैतिकता को समर्थन देने वाले लोग खड़े हो जाते हैं। वे कहते हैं, यह स्वच्छंदता बुरी है, नैतिकता लाओ।

यानी मेरा मानना यह है कि समाज का अब तक का इतिहास झूठी नैतिकता यानी झूठी व्यवस्था और अराजकता, इसके बीच डोलता रहा है। झूठी नैतिकता उतनी ही खतरनाक है, जितनी स्वच्छंदता। और सच तो यह है कि झूठी नैतिकता ही स्वच्छंदता पैदा करने का कारण है। तो अब ये बहुत दिन हो गए इसके बीच डोलते-डोलते। अब इस बात की फिक्र हमें करनी चाहिए कि या तो सच्ची नैतिकता या हम स्वीकार कर लें कि आदमी अनैतिक है, तो अनैतिक होकर कैसे जीएं, उसका इंतजाम कर लें। बजाय आदमी को झूठा बनाने के, सच्चे होने की पहली आधारशिला तो रख दें। और जो नीति कहती है कि सत्य कीमती है, वह भी अगर आदमी को झूठा बनाने का उपाय करती है, तो कैसी नीति है?

तो मेरा कहना है कि अगर आदमी अनैतिक ही है तो इसे हम स्वीकार कर लें और अनैतिक आदमी कैसे जीए इसका इंतजाम कर लें। यह ज्यादा अच्छा होगा। और यह सरलता से धर्म की तरफ ले जाने वाला होगा, क्योंकि अनैतिकता दुख देगी ही। पाप सुख दे ही नहीं सकता।

प्रश्न:

 

मेरे मन में आचार्य जी एक सीधा प्रश्न उठा है। आप स्वयं ब्रह्मचारी हैं। एक व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा है–झूठा, पाखंड-रूप ब्रह्मचर्य का। आप में सत्य ब्रह्मचर्य है। आप उस व्यक्ति को यह मार्ग नहीं दिखलाते कि वह उस पाखंड ब्रह्मचर्य से सत्य ब्रह्मचर्य को प्राप्त कैसे हो, जैसे आप स्वयं हैं। आप उसको यह मार्ग दिखला रहे हैं कि वह पाखंड ब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्य को छोड़ ही दे। उलटी तरफ ले जा रहे हैं! आप अपनी तरफ उसको ले जाइए।

पनी ही तरफ ले जा रहा हूं। अपनी ही तरफ ले जा रहा हूं, क्योंकि कामवासना उतनी खतरनाक नहीं है, जितना पाखंड खतरनाक है। क्योंकि पाखंड मनुष्य की ईजाद है और कामवासना परमात्मा की। तो जो आदमी पाखंडी ब्रह्मचारी है, आप सोचते हैं कि मैं उसको ब्रह्मचर्य से भिन्न ले जा रहा हूं। पाखंडी ब्रह्मचर्य जैसा ब्रह्मचर्य होता ही नहीं। पाखंड ही होता है, भीतर तो गहरी कामुकता होती है।

प्रश्न:

 

उसे कामवासना के माध्यम से ही आप तक पहुंचना होगा, सीधा नहीं पहुंच सकता?

सीधा पाखंड से कैसे सत्य तक पहुंच सकता है? सत्य से ही सत्य तक पहुंच सकता है। कामवासना सत्य है तो कामवासना से ब्रह्मचर्य तक पहुंचा जा सकता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य परम सत्य है। वह कामवासना की समझ से ही उत्पन्न अंतिम अनुभूति है। लेकिन पाखंडी ब्रह्मचर्य जिसने पहले ही थोप लिया है, तो पाखंड से सत्य तक पहुंचने का कोई रास्ता कभी नहीं रहा। पाखंड छोड़ो तो ही सत्य तक पहुंच सकते हो।

अब ये दो बातें समझने जैसी हैं। कामवासना व्यक्ति के जीवन का सत्य है, असत्य नहीं है। इस सत्य को समझने से हम और बड़े सत्य को उपलब्ध हो सकते हैं। यानी ब्रह्मचर्य जो है, वह वासना की ही अंतिम समझ से हुई निष्पत्ति है, वह वासना के विरुद्ध लड़ी गई बात नहीं है। वासना को ही जिसने ठीक से समझा है, जीया है, पहचाना है, वह धीरे-धीरे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है।

लेकिन जिस आदमी ने वासना को जीने से इनकार कर दिया, जानने से इनकार कर दिया, पहचानने से इनकार कर दिया, और एक झूठा ब्रह्मचर्य ऊपर से थोप लिया है, पहले तो इसके झूठे ब्रह्मचर्य को छुड़ाना पड़े और इसको सच-सच बताना पड़े कि तुम कहां हो। क्योंकि कोई भी यात्रा तभी हो सकती है, जब हम पहले यह जान लें कि हम कहां खड़े हैं। अगर मैं इस भ्रम में हूं कि मैं हूं तो श्रीनगर में और मैं भ्रम में हूं कि मैं बैठा हूं हिमालय पर। तो यात्रा शुरू ही नहीं होती, क्योंकि उस हिमालय से यात्रा शुरू नहीं हो सकती, जहां मैं नहीं हूं। यात्रा वहां से शुरू होगी, जहां मैं हूं।

तो इस व्यक्ति को जिसका पाखंडी ब्रह्मचर्य है, पहले तो समझाना पड़े कि पाखंडी ब्रह्मचर्य के भ्रम को तू तोड़, सच में तू कहां है, उसे तू पहचान ले। उस बिंदु से यात्रा शुरू हो सकती है। लेकिन अगर तूने कल्पना में ऐसा मान रखा है कि तू ब्रह्मचर्य को पहुंच चुका, तो अब और ब्रह्मचर्य को पहुंचने का उपाय क्या है! पाखंड का मतलब यह है कि आदमी जहां नहीं पहुंचा है, जान रहा है, मान रहा है कि वहां पहुंच गया है। और जहां है, वहां से इनकार कर रहा है कि वहां मैं नहीं हूं।

अब मैं साधु-संन्यासियों को मिलता हूं तो हैरान हो जाता हूं। सबके सामने तो वे आत्मा-परमात्मा की बातें करते हैं और ब्रह्मचर्य के गुणगान गाते हैं, एकांत में वे पूछते हैं कि सेक्स से कैसे छुटकारा हो! अभी तक मैं एक साधु-साध्वी को नहीं मिला हूं, जिसने एकांत में सेक्स के लिए न पूछा हो कि इससे कैसे छुटकारा हो, हम जले जा रहे हैं इस आग में! लेकिन व्याख्यान वे ब्रह्मचर्य का कर रहे हैं! और लोगों को समझा रहे हैं ब्रह्मचर्य की बातें! और जिस ब्रह्मचर्य की वे समझा रहे हैं, उसे कहीं भी–कहीं से भी वे नहीं छू पा रहे हैं कि वह ब्रह्मचर्य कहां है।

और उसका कारण है। उसका कारण यह है कि पहले तो हमारे व्यक्तित्व का जो सत्य है, उसे हम पकड़ें, उसे समझें, उससे कोई यात्रा हो सकती है।

जो आदमी सेक्स को ठीक से समझ ले, वह आदमी ब्रह्मचारी हुए बिना बच नहीं सकता, उसे ब्रह्मचर्य की तरफ जाना ही होगा। यानी ऐसे कोई ले जाएगा नहीं उसे, उसकी समझ, उसकी अंडरस्टैंडिंग यात्रा बन जाती है।

तो जब तुम यह कहते हो कि मैं उसे उलटे रास्ते, उलटे नहीं ले जा रहा हूं मैं, उलटे वह जा रहा है। और जो भी उसको ब्रह्मचर्य समझा रहा है, उलटा ले जा रहा है। वह उसको कभी भी ब्रह्मचर्य की तरफ नहीं आने देगा। अगर ब्रह्मचर्य की तरफ लाना हो तो उसे कामवासना की पूरी समझ देनी पड़ेगी। और कामवासना के जितने निहित और गहरे छुपे हुए तथ्य हैं, वे सब उसे उघाड़ने पड़ेंगे। उसे उस सम्मोहन को तोड़ना पड़ेगा, जो कामवासना उसे दे रही है। वह सम्मोहन नहीं टूटता तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। इतना होगा, वह बाहर से ब्रह्मचारी हो जाएगा और भीतर से कामुकता हजार गुनी ज्यादा सघन हो जाएगी।

यह जान कर हैरानी होगी तुम्हें कि साधारण रूप से कामुक व्यक्ति इतना कामुक नहीं होता, उसकी कामवासना कभी होती है, कभी नहीं होती; उसके क्षण होते हैं। लेकिन जो व्यक्ति ऊपर से ब्रह्मचर्य थोप लेता है, वह चौबीस घंटे कामुक होता है। वह एक क्षण को भी काम से छुटकारा नहीं पा सकता, क्योंकि जो उसने दबाया है, वह भीतर से निकलने के हजार उपाय खोजता रहता है, वह उसके सारे चित्त को घेर लेता है, उसके पूरे चित्त के रग-रेशे में प्रविष्ट हो जाता है।

अब यह ध्यान देने की बात है कि सेक्स का अपना एक सुनिश्चित सेंटर है। अगर कोई व्यक्ति सामान्य रूप से सेक्स जीवन से गुजर रहा है तो उसके मस्तिष्क में सेक्स कभी नहीं घुसता। वह उस सेंटर पर केंद्रित होता है, सेक्स के सेंटर के आस-पास ही घूमता है। लेकिन जो व्यक्ति पाखंडी ब्रह्मचर्य को धारण कर लेता है, वह सेक्स के सेंटर पर इतना दमन डालता है कि सेक्स की जो प्रवृत्ति है, वह दूसरे सेंटर्स में प्रविष्ट हो जाती है, यानी वह उसके मन और चेतना तक में प्रविष्ट हो जाती है।

वह ऐसा ही मामला है, जैसे आपके घर में एक किचन है, और किचन में धुआं उठता है तो आपने किचन में धुआं के निकलने की व्यवस्था की हुई है। और एक आदमी धुआं निकलने का विरोधी हो जाए और किचन से धुआं निकलने की सब चिमनी बंद कर दे। तो होना क्या है? धुआं उठना बंद हो जाएगा? किचन है तो धुआं होगा। तो अब यह धुआं बैठकखाने में भी घूमेगा, अब यह घर के दूसरे कमरों में भी प्रवेश करेगा, क्योंकि किचन से तो निकलने का रास्ता उसने बंद कर दिया। तो परिणाम यह होने वाला है, वह पूरा घर किचन जैसा हो जाएगा। सब दीवालें काली और सब कमरों में धुआं। और जितना यह धुआं बढ़ेगा, उतना वह घबड़ाएगा, उतना जाकर वह चिमनी को और बंद करेगा, क्योंकि वह यह कहेगा कि इसको दबाना जरूरी है, नहीं तो यह धुआं और बढ़ता चला जा रहा है। उसे पता नहीं कि दबाने से ही बढ़ता चला जा रहा है।

पशु इतने कामुक नहीं हैं आदमी के मुकाबले। और मजे की बात है कि पशु की कामुकता एकदम पीरियाडिकल है। एक वक्त पर वह कामुक होता है, शेष वक्त पर बिलकुल ही भूल जाता है, उसमें कोई काम होता ही नहीं। और उसका कुल कारण इतना है–उसका कुल कारण इतना है कि पशु के चित्त में काम का कोई दमन नहीं है। इसलिए जब वह उसे भोगता है तो पूरा भोग लेता है, फिर शिथिल हो जाता है, शांत हो जाता है।

आदमी जो भोग भी रहे हैं काम को, जिनके बच्चे भी पैदा हो रहे हैं, उनके मन में भी ब्रह्मचर्य की थोथी धारणाएं पकड़ी हुई हैं तो वे भोग भी नहीं पाते पूरा। और जो अभोगा छूट जाता है, वह भोग की मांग करता रहता है। तो पुरुष, सिर्फ मनुष्य चौबीस घंटे और साल भर कामुक है, कोई जानवर चौबीस घंटे और साल भर कामुक नहीं है! फिर भी जो लोग काम को भोग रहे हैं, वे कुछ क्षण के लिए शिथिल भी होते हैं। एक दफा काम का भोग उन्होंने किया तो कम से कम चौबीस घंटे, अड़तालीस घंटे के लिए वे विस्मृत हो जाते हैं। लेकिन साधु-संन्यासी उन घंटों में भी विस्मृत नहीं हो पाते, वे चौबीस घंटे उसी रस में डूबे हुए हैं।

तो जो मैं कह रहा हूं, वह मैं यह कह रहा हूं कि मैं उन्हें ब्रह्मचर्य की तरफ ले जाने की ही बात कर रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि इस सत्य को समझो, इससे भागो मत, डरो मत, भयभीत मत होओ। इसे पहचानो, जागो। इसे जागोगे, पहचानोगे, समझोगे तो यह क्षीण होगा। और एक घड़ी ऐसी आती है कि पूर्ण समझ की स्थिति में सेक्स रूपांतरित होता है, उसकी सारी शक्ति नए मार्गों से उठनी शुरू हो जाती है। और जब वह नए मार्गों से उठती है तो वही शक्ति व्यक्ति को परम अनुभवों तक ले जाने का कारण बनती है। सेक्स शक्ति के विसर्जन का सबसे नीचे का केंद्र है। उसके ऊपर और केंद्र हैं, जिन पर अगर शक्ति उठती चली जाए, उठती चली जाए, तो जिसे हम ब्रह्म-रंध्र कहते हैं, वह सेक्स की ही ऊर्जा के विसर्जित होने का अंतिम केंद्र है–श्रेष्ठतम।

नीचे से सेक्स विसर्जित होता है तो प्रकृति में ले जाता है और जब ब्रह्म-रंध्र से सेक्स की शक्ति विसर्जित होती है तो परमात्मा में ले जाती है। और इन दोनों के बीच की जो यात्रा है, वह यात्रा वही व्यक्ति कर सकता है, जो अत्यंत समझपूर्वक सेक्स की ऊर्जा को ऊपर उठाने के प्रयोग में लग जाए। यानी मेरा कहना यह है कि ब्रह्मचर्य की साधना में सेक्स की समझ पहला कदम है, विरोध नहीं। जिस ऊर्जा को हमें ऊपर उठाना हो, उससे लड़ कर हम नहीं उठा सकते। उसे समझ कर और बड़े प्रेमपूर्ण आमंत्रण से ही ऊपर उठा सकते हैं। क्योंकि लड़ कर तो हम दो हिस्सों में टूट जाते हैं। और दो हिस्सों में टूटे कि हम गए।

पाखंडी व्यक्ति खंड-खंड हो जाता है, कई खंड उसमें हो जाते हैं। और मैं चाहता हूं व्यक्ति हो इंटीग्रेटेड, अखंड, क्योंकि अखंड व्यक्ति ही कुछ रूपांतरण ला सकता है। ब्रह्मचर्य सरल है, अगर थोपा न जाए। ब्रह्मचर्य अति कठिन है, अगर थोप लिया जाए।

तो मैं जो कहता हूं, मैं कहता हूं, समाज को सिखाओ वासना ठीक से, समाज को सम्यक वासना सिखाओ, सम्यक काम सिखाओ।

प्रश्न:

 

महावीर भी यही कहना चाहते हैं?

 

बिलकुल कहेंगे ही। इसके सिवाय उपाय ही नहीं है। इसके सिवाय उपाय ही नहीं है। क्योंकि महावीर भी जिस ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हुए हैं, वह जन्मों-जन्मों की वासना की समझ का ही परिणाम है।

प्रश्न:

 

यह समझ जो है, वह भोग से आएगी या बगैर भोग के भी आ सकती है?

गैर भोग से नहीं आ सकती, कभी नहीं आ सकती। भोग से ही आएगी।

प्रश्न:

 

पिछले जन्म में हो सकता है?

 

भी भी हो सकता है वह भोग, लेकिन आएगी भोग से ही। क्योंकि बिना भोग के कैसे समझ आ सकती है? जिस चीज को मैंने जाना ही नहीं, जीया ही नहीं, उसको मैं समझूंगा कैसे? समझने के लिए मुझे गुजरना पड़ेगा उस मार्ग से। वह कभी भी कोई गुजरा हो, यह सवाल नहीं है, लेकिन बिना गुजरे कभी भी समझ नहीं आ सकती। और बिना गुजरने की जो आकांक्षा है हमारे मन में, वह भय है, वह समझ नहीं आने देगा। वह डर है, वह कहता है, जाओ मत उधर। लेकिन जब जाएंगे नहीं तो जानेंगे कैसे?

जीवन में जो भी हम जानते हैं, वह हम जाकर ही जानते हैं, बिना जाए हम कभी नहीं जानते। और अगर बिना जाए कोई रुक गया तो वह किसी दिन जाने की सिर्फ…।

प्रश्न:

 

इस जन्म में जिसने भोगा है, वह उस समझ को प्राप्त हो सकता है क्या?

बिलकुल ही हो सकता है, कोई सवाल ही नहीं है। यह कोई सवाल ही नहीं है। हम जब भोग रहे हैं, तभी हम समझपूर्वक भोग सकते हैं, गैर-समझपूर्वक भी भोग सकते हैं। अगर हम समझपूर्वक भोगते हैं तो हम ब्रह्मचर्य की तरफ जाते हैं, अगर हम गैर-समझपूर्वक भोगते हैं तो हम उसी में परिभ्रमण करते रहते हैं। यानी सवाल भोगने का नहीं है, सवाल जागे हुए भोगने का है। जो भी हम भोग रहे हैं, वह हम जागे हुए भोग रहे हैं, या सोए हुए भोग रहे हैं?

अब सेक्स के साथ बड़ा मजा है कि जन्मों-जन्मों में लोग उसे भोगते हैं, लेकिन सोए हुए भोगते हैं। इसलिए कभी भी अनुभव हाथ में नहीं आ पाता कुछ भी। सेक्स के क्षण में आदमी बिलकुल मूरूच्छित हो जाता है, होश ही खो देता है। बाहर आता है, जब होश आता है, तब वह क्षण निकल चुका होता है, फिर उस क्षण की मांग शुरू हो जाती है। तो ब्रह्मचर्य की साधना की प्रक्रिया का सूत्र यह है कि सेक्स के क्षण में जागे हुए कैसे रहें! और अगर आप और क्षणों में जागे हुए होने का अभ्यास कर रहे हैं तो ही आप सेक्स के क्षण में भी जागे हुए हो सकते हैं।

ठीक ऐसा ही मृत्यु का मामला है। हम बहुत बार मरे हैं, लेकिन हमें कोई पता नहीं कि हम पहले कभी मरे हैं। उसका कारण है कि हर बार मरने के पहले हम मूरूच्छित हो गए हैं। हर बार हम मरते हैं और मरने के पहले ही हम मूरूच्छित हो जाते हैं। मृत्यु का भय इतना ज्यादा है कि मृत्यु को हम जागे हुए नहीं भोग पाते। और एक दफा कोई मृत्यु में जागे हुए गुजर जाए, मृत्यु खतम हो गई। क्योंकि वह जानता है कि यह तो अमृत हो गया मैं, क्योंकि मरा तो कुछ भी नहीं, सिर्फ शरीर छूटा और सब खतम हो गया। लेकिन हम मरते हैं कई बार, लेकिन हर बार बेहोश हो जाते हैं। और जब बेहोश हो जाते हैं, जब हम होश में आते हैं, तब तक नया जन्म हो चुका है।

तो वह जो बीच की अवधि है मृत्यु से गुजरने की, उसकी हमारे मन में कोई स्मृति नहीं बनती। स्मृति तो तब बनेगी, जब हम जागे हुए होंगे। जैसे एक आदमी को बेहोश हम श्रीनगर घुमा कर ले जाएं, मूरूच्छित स्ट्रेचर पर डाला हुआ है, उसको हमने क्लोरोफार्म सुंघाया हुआ है, श्रीनगर पूरा घुमा दें। हवाई जहाज से दिल्ली वापस पहुंचा दें, वह दिल्ली में फिर जगे। और हम उससे कहें कि तू श्रीनगर होकर आया है। वह कहे, क्या पागलपन की बात है! मैं यहीं सोया था, यहीं जागा हूं। सिर्फ श्रीनगर से गुजर जाना काफी नहीं है, होश से गुजर जाना जरूरी है। और नहीं तो वह आदमी क्लोरोफार्म की हालत में श्रीनगर घूम भी गया और फिर दिल्ली पहुंच कर कहेगा कि मुझे श्रीनगर देखना है। मेरे मन में तो लालसा रह गई श्रीनगर देखने की, वह मैं देख नहीं पाया। वह कैसा है श्रीनगर!

हम मृत्यु से मूरूच्छित गुजरते हैं इसलिए मृत्यु से अपरिचित रह जाते हैं। जो मृत्यु से परिचित हो जाए, वह आत्मा के अमर स्वरूप को जान लेता है।

हम सेक्स से मूरूच्छित गुजरते हैं, इसलिए हम सेक्स से अपरिचित रह जाते हैं। जो सेक्स से परिचित हो जाए, वह ब्रह्मचर्य को जान लेता है।

यानी यह जो मेरा कहना है, मेरा कहना यह है कि किसी भी स्थिति से अगर हम जागे हुए गुजरे हैं तो सब बदल जाएगा। क्योंकि जो हम जानेंगे, वह बदलाहट लाएगा। अगर आपने एक दफा किसी का हाथ पकड़ कर चूमा है और बहुत आनंदित हुए हैं तो दुबारा फिर उस हाथ को चूमें और होश से चूमें, जागे हुए, कि आनंद कहां आ रहा है, कैसा आनंद आ रहा है, आ रहा है कि नहीं आ रहा है। और फिर हाथ को होशपूर्वक चूमें।

एक दिन बुद्ध एक सड़क से गुजर रहे हैं, एक मक्खी उनके कंधे पर आकर बैठ गई। आनंद से बातें कर रहे हैं, ऐसे ही मक्खी को उड़ा दिया, फिर एकदम रुक गए। मक्खी तो उड़ गई, आनंद चौंक कर खड़ा हो गया कि वे क्यों रुक गए। फिर बहुत धीरे से हाथ को ऐसा ले गए कंधे पर!

तो आनंद ने कहा, अब आप यह क्या कर रहे हैं! वह मक्खी तो उड़ चुकी है।

बुद्ध ने कहा, वह जरा गलत ढंग से उड़ा दी मैंने। मैं तुम्हारी बातों में लगा रहा और ऐसे ही बेहोशी में मक्खी उड़ा दी। अब मैं जागे हुए ऐसे उड़ा रहा हूं, जैसे उड़ाना चाहिए था। यह तो मक्खी के साथ दुरुव्यवहार हो गया, मूरूच्छित दुरुव्यवहार हो गया। अब मैं जाग कर उड़ा रहा हूं।

तो किसी का हाथ चूमा हो, बहुत आनंद आया हो, दुबारा हाथ पकड़ लें और अब चूमें और पूरे होशपूर्वक चूमें और देखें कि कौन सा आनंद कहां आ रहा है? तब बहुत हैरान हो जाएंगे। तब पाएंगे, हाथ है, ओंठ हैं, चुंबन भी है, आनंद कहां है? और यह जो अनुभव जागा हुआ होगा तो यह जो हाथ का पागल आकर्षण है, वह विलीन हो सकता है, बिलकुल विलीन हो सकता है।

एक दफा किसी भी अनुभव से होशपूर्वक गुजर जाएं तो वह अनुभव की पकड़ आप पर वही नहीं हो सकती फिर, जो आपकी बेहोशी में थी। अच्छा और तरकीब यह है प्रकृति की कि उसने सब कीमती अनुभव आपको बेहोशी में गुजरवाने का इंतजाम किया हुआ है। क्योंकि नहीं तो आप फिर नहीं गुजरेंगे उससे। और सेक्स प्रकृति की बड़ी गहरी जरूरत है, वह उसकी संतति उत्पादन की व्यवस्था है। तो वह नहीं चाहती कि आप उसको छुएं, या उसमें आप कुछ गड़बड़ करें। तो वहां ले जाकर वह आपको एकदम बेहोशी की हालत में कर देती है। जिसको आप आमतौर से प्रेम इत्यादि कहते हैं, वे सब बेहोश होने की तरकीबें हैं और कुछ भी नहीं, वे हिप्नोटाइज्ड होने की तरकीबें हैं, वे सम्मोहित हो जाने की तरकीबें हैं।

और जब आप सम्मोहित हो जाते हैं पूरे और बिलकुल बेहोश हो जाते हैं तो…। इसलिए वेश्या के साथ संभोग करने में वह सुख आपको नहीं मिलता, जो आपको अपनी प्रेयसी से संभोग करने में मिलेगा। और उसका कारण है कि वेश्या के पास आपकी मूर्च्छा उतनी गहरी कभी नहीं हो पाती। क्योंकि यह तो धंधा, सौदे का काम है। दस रुपए फेंक कर संबंध बनाया है, कोई सम्मोहित होने का सवाल नहीं है बड़ा। इसलिए वेश्या उतनी तृप्ति नहीं दे पाती है, जितनी कि प्रेयसी देती है। उतनी पत्नी भी नहीं दे पाती, जितनी प्रेयसी देती है। क्योंकि पत्नी के पास भी रोज-रोज गुजरने से मूरूच्छित होने का उतना कारण नहीं रह जाता, रूटीन काम हो गया है, संबंध बिलकुल यांत्रिक हो गया है। लेकिन प्रेयसी के पास आपको पहले मूरूच्छित होना पड़ता है और उसे मूरूच्छित करना पड़ता है।

वह जिसको हम फोर-प्ले कहते हैं, सेक्सुअल एक्ट से गुजरने के पहले का जो सब प्रेम का गोरखधंधा है, वह सारा गोरखधंधा एक-दूसरे को मूरूच्छित करने का उपाय है। चूमना है, चाटना है, गले मिलना है, कविताएं सुनाना है, गीत गाना है, अच्छी-अच्छी बातें करना है, एक-दूसरे की तारीफ करना, वह एक-दूसरे को म्युचुअल हिप्नोसिस पैदा करने का उपाय है। जब वे दोनों हिप्नोसिस में आ गए हैं, तब फिर ठीक है, तब फिर वे बेहोश गुजर सकते हैं।

यह जो मेरा कहना है, वह मेरा कहना कुल इतना है कि ऐसी कोई भी क्रिया जिससे हम मुक्त होना चाहते हों, कभी भी हम मूरूच्छित हालत में मुक्त नहीं हो सकते। और पाखंड मूरूच्छित हालत को तो नहीं तोड़ता, उलटे भ्रम पैदा करवा देता है और ऐसी गलत चीजें हमें पकड़ा देता है। लेकिन हम पकड़ते ऐसे ढंग से हैं कि हमें खयाल में नहीं आता।

अब जैसे महावीर हैं। हम निरंतर पूछते हैं, ऐसा महावीर का…?

महावीर हैं, अगर महावीर स्त्रियों को छोड़ कर जंगल चले गए हैं तो हमें लगता है, अगर हमको भी ब्रह्मचर्य साधना हो तो स्त्रियों को छोड़ें और जंगल चले जाएं। तो हम महावीर की बुनियादी बात समझना भूल गए।

महावीर इसलिए जंगल नहीं चले गए हैं कि स्त्रियों को छोड़े जा रहे हैं, महावीर इसलिए जंगल चले गए हैं कि स्त्रियों में कोई रस नहीं रहा। स्त्रियों को छोड़ कर नहीं जा रहे हैं वे, विरस हो गई हैं, अर्थहीन हो गई हैं। यानी जब महावीर जंगल जा रहे हैं तो पीछे स्त्रियों की स्मृति नहीं है उनके मन में। और आप भी जंगल जा रहे हैं स्त्रियों को छोड़ कर तो जितनी स्मृति कभी घर पर नहीं थी, उतनी जंगल जाते वक्त स्त्रियों की स्मृति आपको घेरे हुए है। और आप समझ रहे हैं कि आप वही काम कर रहे हैं, जो महावीर कर रहे हैं!

तो आप भी जंगल में जाकर बैठ जाएंगे, महावीर भी बैठ जाएंगे। महावीर बैठेंगे तो स्वयं में खो जाएंगे, आप आंख बंद करेंगे तो स्त्रियों में खो जाएंगे। और आप लड़ाई लड़ेंगे कि यह तो महावीर ने भी यही किया, जो हम कर रहे हैं। सारी हमारी कठिनाई जो है न कि ऊपर का रूप हमें दिखाई पड़ता है। महावीर जंगल जाते दिखाई पड़ते हैं, महावीर के भीतर क्या घटना घटी, यह हमें दिखाई ही नहीं पड़ता। और वह हमें दिखाई पड़ जाए तो बिलकुल बात और होगी, बिलकुल बात और होगी।

बिना अनुभव के कोई मुक्ति नहीं है। पाप के अनुभव के बिना पाप से भी मुक्ति नहीं है। इसलिए भयभीत होकर जो पाप से रुका हुआ है, वह पाप से मुक्त नहीं होगा। वह सिर्फ पाप करने की शक्ति अर्जित कर रहा है दबा-दबा कर, और आज नहीं कल, वह पाप कर देगा। और पाप करके पछताएगा, पछता कर वह फिर दमन करने लगेगा, दमन करके वह फिर पाप करेगा, और फिर पछताएगा। और एक वीसियस सर्कल है–पाप, पश्चात्ताप; पाप, पश्चात्ताप–घूमता रहेगा।

मैं कहता हूं, पश्चात्ताप भूल कर मत करना कभी, पश्चात्ताप की जरूरत ही नहीं है। पश्चात्ताप का मतलब है, पाप पहले हो गया, पीछे फिर आप पश्चात्ताप कर रहे हैं।

मैं कहता हूं, जान कर पाप करना, होश से पाप करना, पूरे जागे हुए पाप करना। जो भी करना हो, पूरे जागे हुए करना। किसी को गाली भी देना हो तो पूरे जागे हुए देना। तो शायद दुबारा गाली देने का मौका न आए और पश्चात्ताप की भी कोई जरूरत न पड़े।

एक फकीर ने लिखा है कि उसका बाप मर रहा था। बूढ़े बाप के पास वह बैठा था–तब उसकी उम्र कोई पंद्रह-सोलह साल की थी–मरते हुए बाप ने उसके कान में कहा कि तू एक ही ध्यान रखना, किसी भी बात का जवाब चौबीस घंटे के पहले मत देना। और जिंदगी भर का मेरा अनुभव तुझे एक ही सूत्र में कहे जाता हूं–किसी भी बात का जवाब चौबीस घंटे के पहले देना ही मत। इतना तू खयाल रखना।

उस फकीर ने, जब वह बड़ी शांति को उपलब्ध हुआ और लोगों ने उससे पूछा कि तुम्हारा राज क्या है? तो उसने कहा, राज बड़ा अदभुत है। मेरा बाप मर रहा था और उसने मुझसे कहा कि चौबीस घंटे के पहले तुम किसी का जवाब ही मत देना। अगर किसी स्त्री ने मुझसे कहा कि मैं तुझे बहुत प्रेम करती हूं तो मैं चौबीस घंटे तो चुप ही रहा। चौबीस घंटे बाद गया, तब तक तो खतम ही हो चुका था। क्योंकि वह स्त्री तो विदा ही हो चुकी थी दिमाग से ही उसके।

उसने कहा कि यह क्या बात है! हम जब कहे तब तो तुम कुछ उत्तर नहीं दिए! अब आए हो जब कि सब उसका तो नशा ही जा चुका था। किसी ने गाली दी तो वह चौबीस घंटे बाद जवाब देने गया कि भई वह तुमने जो गाली दी थी, उसका हम जवाब देने आए। उस आदमी ने कहा कि लेकिन अब तो सब बात ही खतम हो गई। अब क्या बात! अब तुम क्या जवाब दे रहे हो?

तो उस आदमी ने लिखा है कि मैं जब भी चौबीस घंटे बाद गया, मैंने पाया कि मैं हमेशा लेट पहुंचता हूं। ट्रेन छूट चुकी है। वह तो टे्रन जा चुकी थी, वह तो उसी वक्त हो सकता था। और उसी वक्त अगर होता तो मूरूच्छित होता और चौबीस घंटे सोच-विचार के बाद जब हुआ तो बड़ा जाग्रत था। तो उसने कहा कि कई दफे तो मैं यह कहने गया कि भई तुमने गाली बिलकुल ठीक दी थी। चौबीस घंटे सोचा तो पाया कि तुमने जो कहा था, वह बिलकुल ही ठीक कहा था कि तू बेईमान है। मैं बेईमान हूं।

प्रश्न:

 

यह पाखंड नहीं हुआ?

प्रश्न:

 

यह पाखंड नहीं हुआ?

ये चौबीस घंटे…।

प्रश्न:

 

दबाया उसने उसको?

, दबाने की बात नहीं है। अगर दबाए चौबीस घंटे, तब तो गाली और मजबूत होकर आएगी। चौबीस घंटे समझने की कोशिश की कि क्या उत्तर देना है उस आदमी को? उसके बाप ने कहा यह है कि कोई तुम्हें गाली दे तो मना नहीं करता कि तू गाली मत देना। अगर बाप यह कहता कि तू गाली देना ही मत, चौबीस घंटे बाद क्षमा मांगना, तब तो बात उलटी हो जाती, तब तो वह गाली को दबाता। उसके बाप ने कहा, गाली जरूर देना, चौबीस घंटे बाद देना। लेकिन चौबीस घंटे समझ लेना कि कौन सी गाली देनी है, कौन सी, कितने वजन की देनी है, देनी है कि नहीं देनी है, उसकी गाली का मतलब क्या है। बाप ने यह नहीं कहा कि सप्रेस करना। अगर बाप यह कहता कि चौबीस घंटे बाद क्षमा मांगने जाना तो शायद वह दमन करता। उससे कहा था, तू गाली देना मजे से, लेकिन चौबीस घंटे बाद! इतना अंतराल छोड़ देना।

और यह बड़े मजे की बात है कि कोई भी बुरा काम अंतराल पर नहीं किया जा सकता, तत्काल ही किया जा सकता है। क्योंकि अंतराल में समझ आ जाती है, होश आ जाता है, खयाल आ जाता है।

डेल कार्नेगी ने एक अनुभव लिखा है। उसने लिखा है कि लिंकन पर उसने एक भाषण दिया रेडियो से और जन्मतिथि गलत बोल गया। तो उसके पास कई पत्र पहुंचे गुस्से के कि तुमको जन्मतिथि तक मालूम नहीं है तो तुम भाषण काहे के लिए दिए? और एक स्त्री ने उसको, किसी गांव से अमरीका के, बहुत ही सख्त पत्र लिखा, जिसमें जितनी गालियां वह दे सकती थी, उसने दीं। उसको बड़ा क्रोध आया कार्नेगी को। उसने उसी वक्त रात को उठ कर जवाब लिखा उसका–पत्र। तो जैसी गालियां उसने दी थीं, उससे दुगुनी वजन की गालियां उसने दीं। लेकिन रात हो गई थी देर और नौकर चला गया था तो डाक डाली नहीं जा सकती थी। उसने चिट्ठी दबा कर रख दी।

सुबह उठा, लिफाफे में रखता था, सोचा एक दफा पढ़ लूं। लेकिन अब बारह घंटे का फर्क पड़ गया था। चिट्ठी पढ़ी तो उसे लगा जरा ज्यादती हो रही है चिट्ठी में। उसकी चिट्ठी दुबारा पढ़ी तो उतनी सख्त नहीं मालूम पड़ी, जितनी बारह घंटे पहले मालूम पड़ी थी, क्योंकि अब दुबारा पढ़ी थी। और अपनी चिट्ठी पढ़ी तो लगा कि जरा ज्यादा सख्त उत्तर हो गया है, दूसरा लिखूं।

दूसरा उत्तर लिखा, वह पहले से ज्यादा विनम्र था। लिखते वक्त उसे खयाल आया कि बारह घंटे और रुक कर देखूं कि कोई फर्क पड़ता है क्या। क्योंकि बारह घंटे में इतना फर्क पड़ गया। तो उसने पहली चिट्ठी तो फाड़ कर फेंक दी, दूसरी चिट्ठी दबा कर रख दी।

सांझ को जब दफ्तर से लौटा, उस पत्र को पढ़ा, उसने कहा अभी भी उसमें कुछ बाकी रह गई है चोट। फिर पत्र तीसरा लिखा। पर उसने कहा, इतनी जल्दी भी क्या। उस औरत ने कोई मांग तो की नहीं। कल सुबह तक और प्रतीक्षा कर लें। वह सात दिन तक निरंतर यह करता रहा।

सातवें दिन उसने जो पत्र लिखा, वह पहले पत्र से बिलकुल ही उलटा था। पहला पत्र सख्त दुश्मनी का था, सातवें दिन पत्र बिलकुल मित्रता का था। वह पत्र उसने लिखा। लौटती डाक से उसका उत्तर आया। उस स्त्री ने बड़ी क्षमा मांगी कि मुझसे बड़ी भूल हो गई, क्योंकि उसको भी वक्त गुजर गया था। अगर यह गालियां देता तो उसको क्षमा का मौका भी नहीं मिलने वाला था। वह फिर गाली देती।

और तब डेल कार्नेगी ने लिखा है कि तब से मैंने नियम बना लिया कि किसी भी पत्र का उत्तर सात दिन से पहले देना ही नहीं है।

मेरा मतलब समझ रहे हैं न? इससे होता क्या है, उतना जो वक्त है, उसकी इंटेंसिटी, आपके दिमाग का पागलपन, वह सब क्षीण हो जाता है, और क्षण सोचने के ज्यादा मौके मिल जाते हैं। बर्नार्ड शा कहता था कि मैं पंद्रह दिन के पहले किसी पत्र का उत्तर देता नहीं।

प्रश्न:

 

यह निगेटिवली बराबर है, पाजिटिवली नहीं। वह भी रिजिडिटी हो गई न?

हीं, नहीं, यह सवाल नहीं है कि सात ही दिन आप करेंगे। यह सवाल नहीं है, एक अंतराल चाहिए बीच में।

प्रश्न:

 

विचार चाहिए?

हां, एक विचार का मौका चाहिए। नहीं तो होता क्या है, हम बिना विचार के उत्तर दे रहे हैं। ऐसा नहीं है कि आप भी सात दिन का नियम बना लें।

प्रश्न:

 

उसने किया सात दिन?

सके लिए लगा कि सात दिन में उसका माइंड रिलैक्स हो जाता है।

प्रश्न:

 

कोई ऐसा भी होता है, चौबीस घंटे में भी हो सकता है?

हो सकता है, आदमी-आदमी का अलग-अलग होगा, आदमी-आदमी का अलग-अलग होगा।

प्रश्न:

 

और उसका वह प्रसंग भी ऐसा हो, वह प्रसंग में सात दिन और कोई प्रसंग में बारह घंटा भी हो सकता है?

हो सकता है, बिलकुल हो सकता है।

प्रश्न:

 

तो इसमें वह रिजिडिटी का…?

 

-न! रिजिडिटी का…सात दिन में नुकसान तो हो ही नहीं रहा है कुछ। नुकसान तो कुछ होना नहीं है।

प्रश्न:

 

आप उतनी शांति से अभी दे सकते हैं, यह भी हो सकता है?

 

हां, हां। बिलकुल हो सकता है, बिलकुल हो सकता है। कोई नुकसान तो हो ही नहीं रहा है उसमें। खयाल उसका जो है, वह कुल जमा इतना है कि अंतराल का एक तय कर लिया कि तत्काल उत्तर नहीं देना है, क्योंकि तत्काल उत्तर मूर्च्छा से आ सकता है। ऐसा जरूरी नहीं है। अगर आदमी जाग्रत हो तो तत्काल उत्तर भी मूर्च्छा से नहीं आता है, यह सवाल ही नहीं है। लेकिन हम चूंकि जाग्रत नहीं हैं, इसलिए सवाल है।

तो मैं बर्नार्ड शा का कह रहा था, वह निरंतर पंद्रह दिन के पहले उत्तर ही नहीं देता था। और तब उसने कहा कि पंद्रह दिन तक उत्तर न देने पर कुछ पत्र तो ऐसे हैं, जो खुद ही अपना उत्तर दे देते हैं, देने की जरूरत ही नहीं पड़ती। यानी उनको अगर पहले दिन देना है तो देना पड़ा होता, पंद्रह दिन में वे अपना जवाब खुद ही दे देते हैं, कि जवाब नहीं आ रहा। यानी कुछ से तो छुटकारा हो जाता है; कुछ जो बचते हैं, बहुत कम बचते हैं, जिनका उत्तर फिर देने की जरूरत पड़ती है।

मेरा मतलब केवल इतना है कि हमारा कोई भी अनुभव जितना जागरूक हो सके, विचारपूर्ण हो सके, समझपूर्वक हो सके, उतना अच्छा है; दमन का सवाल नहीं है। और इसलिए मेरी निरंतर यह चेष्टा है कि अनैतिक व्यक्ति को जितना बुरा कहा गया है, वह कहना गलत है। और नैतिक व्यक्ति को जितना भला कहा गया है वह कहना भी गलत है। मेरी समझ यह है कि जीवन की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि व्यक्ति को सरल और सहज होने का उपाय और मौका हो। उसकी न तो निंदा हो, न उसका दमन हो, न उसको जबरदस्ती ढालने-बदलने की चेष्टा हो। लेकिन समझने का विज्ञान और व्यवस्था समाज उसे देता हो। शिक्षा उसे समझने का मौका देती हो।

एक बच्चा स्कूल में गया, हम उससे कहते हैं, क्रोध मत करो, क्रोध बुरा है। हम दमन सिखा रहे हैं। सच्चा और अच्छा स्कूल उसे सिखाएगा कि क्रोध करो, लेकिन जागे हुए कैसे करो, इसकी हम विधि बताते हैं। क्रोध जरूर करो, लेकिन जागे हुए करो, जानते हुए करो, क्रोध को पहचानते हुए करो। हम क्रोध के दुश्मन तुम्हें नहीं बनाते, केवल तुम्हें हम समझदार क्रोध करना सिखाते हैं। ऐसी अगर व्यवस्था हो तो यह व्यक्ति धीरे-धीरे क्रोध के बाहर हो जाएगा, क्योंकि समझपूर्वक कोई कभी क्रोध नहीं कर सकता है।

तो मेरी बात कई दफा उलटी दिखती है। कई दफा ऐसा लगता है इससे स्वच्छंदता फैल जाएगी, अराजकता फैल जाएगी। लेकिन अराजकता फैली हुई है, स्वच्छंदता फैली हुई है। मैं जो कह रहा हूं उसके द्वारा ही स्वच्छंदता मिटेगी, अराजकता मिटेगी।

और जैसा तुमने कल कहा कि मेरी बातों से कई दफे ऐसा हो सकता है कि साधारण आदमी भ्रमित हो जाए, गलत रास्ते पर चला जाए। इस सबमें एक बात तुमने मान ही ली है कि साधारण आदमी ठीक रास्ते पर है। अगर यह मान कर चलोगे तब तो हो सकता है। यानी मैं तो कहता ही हूं कि साधारण आदमी साधारण ही इसलिए बना हुआ है कि वह गलत रास्ते पर है, नहीं तो कोई आदमी ऐसा नहीं है जो असाधारण क्यों न हो जाए। वह साधारण बना ही रहेगा। जिन रास्तों पर वह चल रहा है, वे रास्ते ही उसे साधारण बना रहे हैं। यानी आमतौर से लोग समझते हैं कि साधारण आदमी एक रास्ते पर चल रहा है। मैं मानता हूं कि रास्ते साधारण या असाधारण बनाते हैं। जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं वे साधारण बनाने वाले हैं, वे हमें साधारण बना देते हैं। और वे रास्ते भी हैं, जो असाधारण बना सकते हैं, पर उन पर हम चलेंगे तभी न!

समाज चाहता ही नहीं कि असाधारण व्यक्ति हों। समाज साधारण व्यक्ति चाहता है। क्योंकि साधारण व्यक्ति खतरनाक नहीं होते, साधारण व्यक्ति विद्रोही नहीं होते, साधारण व्यक्ति अद्वितीय नहीं होते। साधारण व्यक्ति व्यक्ति ही नहीं होते, साधारण व्यक्ति सिर्फ भीड़ होते हैं। समाज चाहता है भीड़, उसमें कोई स्वर नहीं होना चाहिए किसी के पास। नेता चाहते हैं भीड़, गुरु चाहते हैं भीड़, शोषक चाहते हैं भीड़। वे कहते हैं क्राउड चाहिए, जिसमें कोई व्यक्तित्व न हो। तो उस भीड़ का उतना ही शोषण किया जा सकता है।

और मैं कहता हूं कि चाहिए व्यक्ति, क्योंकि भीड़ की कभी आत्मा पैदा नहीं होती। और एक ऐसी दुनिया बनाने की जरूरत है, एक ऐसा समाज, जहां व्यक्ति हों। और व्यक्ति अलग-अलग होंगे, अलग-अलग रास्तों पर चलेंगे। लेकिन यही तो व्यवस्था होनी चाहिए कि अलग-अलग रास्तों पर चलने वाले लोग, अलग-अलग व्यक्तित्व वाले लोग भी एक-दूसरे के प्रति कैसे प्रेमपूर्ण हो सकें!

वोल्तेयर के खिलाफ एक आदमी था और उसने वोल्तेयर को इतनी गालियां दीं और इतनी किताबें उसके खिलाफ लिखीं कि वोल्तेयर को नाराज हो ही जाना चाहिए। एक दिन रास्ते पर वोल्तेयर को मिल गया तो वोल्तेयर से उसने कहा कि महाशय, आप तो चाहते होंगे कि मेरी गर्दन कटवा दें, क्योंकि मैं तो आपके खिलाफ ऐसी बातें कह रहा हूं। वोल्तेयर ने कहा, क्या तुम कहते हो, तुम्हारी गर्दन कटवा दूं! नहीं, अगर तुम मुझसे पूछोगे तो तुम जो कह रहे हो उसे कहने का तुम्हारा हक है और अगर इस हक के लिए मुझे अपनी जान गंवानी पड़े तो मैं अपनी जान गंवा दूंगा। तुम जो कह रहे हो, उसे कहने का तुम्हें हक है और इस हक को बचाने के लिए अगर जरूरत पड़े मुझे जान गंवाने की तो मैं जान गंवा दूंगा। हालांकि तुम जो कह रहे हो, वह गलत है, और उसे गलत कहने का हक मैं बचाऊंगा और चाहूंगा कि तुम मेरे हक को बचाने के लिए जान देने के लिए तैयार रहना।

आप मेरा मतलब समझे न? यानी हमारा भिन्न-भिन्न होने का सवाल नहीं है, सवाल हमारी भिन्नता की स्वीकृति का है। अभी जो समाज हमने पैदा किया है, वह भिन्नता को स्वीकार नहीं करता। वह या तो भिन्नता का अनादर करेगा, अपमान करेगा; या पूजा करेगा, सम्मान करेगा; स्वीकार नहीं करेगा। यानी या तो वह भिन्नता को कहेगा कि यह बिलकुल गलत है। और जो भिन्नता नहीं मानेगा कोई व्यक्ति, भिन्न रहता ही चला जाएगा, तो फिर कहेगा, भगवान है। मगर कभी स्वीकार नहीं करेगा कि हमारे बीच में है।

अच्छी दुनिया वह होगी, जहां भिन्नता स्वीकृत होगी; एक-एक व्यक्ति का अद्वितीय होना, यूनीक होना स्वीकृत होगा। और हम एक-दूसरे की भिन्नता को आदर देना सीखेंगे। अभी हम क्या करते हैं?

अभी हम यह करते हैं कि जो हमसे राजी है, वह ठीक; जो हमसे राजी नहीं है, वह गलत। यह बड़ी अजीब बात है! यह बहुत हिंसक भाव है कि जो मुझसे राजी है वह ठीक, जो मुझसे राजी है, मतलब जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं है, मैं जिसे पी गया पूरी तरह, वह ठीक, और जो मुझसे राजी नहीं है वह गलत। यह बहुत ही शोषक, पजेसिव वृत्ति है। इसको मैं हिंसा ही मानता हूं।

और इसलिए मैं मानता हूं कि जो गुरु अनुयायी इकट्ठे करते फिरते हैं, ये हिंसक वृत्ति के लोग हैं। ये कहते हैं हमारे साथ एक हजार लोग राजी हैं, एक हजार लोग मुझे मानते हैं। यानी एक हजार लोगों को इन्होंने मिटा दिया है। एक हजार लोगों के ऊपर यही बैठे रह गए हैं। दस हजार हैं तो इनको और मजा आता है, करोड़ हैं तो और मजा आता है। क्योंकि इतने लोगों को इन्होंने बिलकुल पोंछ कर मिटा दिया। ये खतरनाक लोग हैं।

अच्छा आदमी यह नहीं चाहता कि आप उससे राजी हो जाएं, अच्छा आदमी यह चाहता है कि आप भी सोचना शुरू करें। हो सकता है सोचना आपको मुझसे बिलकुल भिन्न ले जाए।

और मेरा तो निरंतर जोर यह है, मैं यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूं, वह मान लें। मेरा जोर यह है कि आप भी इस भांति सोचना शुरू करें। हो सकता है, सोच कर आप उस जगह पहुंचें, जहां मैं कभी भी आपसे राजी न होऊं, या आप मुझसे राजी न हों, लेकिन आप सोचना शुरू कर दें।

जीवन में सोचना शुरू हो, जागना शुरू हो, दमन बंद हो, अनुगमन बंद हो, तो प्रत्येक व्यक्ति को आत्मा मिलनी शुरू होती है। और आत्मा प्रत्येक को असाधारण बना देती है। अभी हमारे पास कोई आत्मा ही नहीं होती, तब हम साधारण होते हैं।

और फिर मुझे इससे चिंता नहीं पकड़ती कि साधारण आदमी भटक जाएगा, क्योंकि मैं मानता हूं साधारण आदमी भटका ही हुआ है, अब और उसके भटकने का कोई उपाय नहीं है। क्या भटकेगा और? साधारण आदमी है कहां? तो उसे तो अगर हम भटका दें अब, तो वह ठीक रास्ते पर पहुंच जाए। क्योंकि भटका हुआ आदमी अगर भटक जाए अपने रास्ते से तो शायद ठीक रास्ते पर आ जाए। डबल निगेशन हो जाता है न!

प्रश्न:

 

अनुगमन का क्या अर्थ है?

फालोइंग, पीछे चलने वाला।

प्रश्न:

 

मुझे एक बहुत मोटा सा प्रश्न पूछना है।

 

हां, हां, आप प्रश्न कर डालें।

प्रश्न:

 

और वह यह कि जो कुछ आपने कहा, क्या इसका यह अर्थ होगा कि जो लोग आपके विचार सुनें या पढ़ें, और उनमें जो जैन श्रावक के व्रतों का या जैन साधु के व्रतों का पालन कर रहे हैं, उन्हें सत्य की प्राप्ति के लिए पहले वह अपने व्रत तो छोड़ ही देने होंगे, तब ही कुछ हो पाएगा। यानी सारा जैन समाज, जो श्रावक वर्ग और साधु वर्ग का है, वह अपने व्रतों को पहले छोड़े, तब सत्य को पाए? एक तो यह और दूसरा उसके साथ ही जुड़ा हुआ यह भी प्रश्न, कि क्या इन पच्चीस सौ वर्षों में जिन्होंने इन व्रतों का पालन किया श्रावक या साधु के, सबके सब पाखंडी ही थे, कोई उनमें सत्य होने की संभावना नहीं है?

हीं, कभी संभावना नहीं है। असल में व्रत पालने वाला कभी भी पाखंडी होने से नहीं बच सकता है। व्रती पाखंडी होगा ही। उसका कारण है। उसका कारण यह नहीं है कि पच्चीस सौ वर्ष कि पच्चीस हजार वर्ष, यह सवाल नहीं है। सवाल, व्रत को पकड़ता ही वही है, जो भीतर सोया हुआ है। जो भीतर जग गया है, वह व्रत को नहीं पकड़ता, व्रत आते हैं उसके जीवन में।

प्रश्न:

 

उनमें कोई व्यक्ति ऐसा रहा हो, यह संभव नहीं है क्या?

 

संभव ही है न! यह तो ऐसा है जैसे कि कोई आदमी कहे कि कोई आदमी आंख फोड़ ले तो फिर उसे दिखाई पड़ सकता है कि नहीं? मेरी बात समझ लें। तो मैं यह कहूंगा कि चाहे पच्चीस सौ साल तक फोड़े कोई आंख, चाहे पच्चीस हजार साल तक फोड़े, आंख फोड़ कर फिर दिखाई नहीं पड़ेगा। और आंख फोड़ता ही वही है, जिसे दिखाई पड़ने से डर पैदा हो गया है, देखना नहीं चाहता।

व्रत का मतलब क्या है? व्रत का मतलब है, आपकी चित्त-दशा एक है, जिसके विपरीत आप व्रत ले रहे हैं। व्रत यानी दमन का नियम। मैं कामवासना से भरा हूं, ब्रह्मचर्य का व्रत लेता हूं; हिंसा से भरा हूं, अहिंसा का व्रत लेता हूं; परिग्रह से भरा हूं, अपरिग्रह का व्रत लेता हूं।

व्रत परिग्रह का तो नहीं लेना पड़ता किसी को, न हिंसा का लेना पड़ता है, न कामवासना का लेना पड़ता है। क्योंकि जो हम हैं, उसका व्रत नहीं लेना पड़ता; जो हम नहीं हैं, उसका व्रत लेना पड़ता है। तो व्रत का मतलब यह हुआ कि जो मैं हूं, वह उलटा हूं; और उससे ठीक भिन्न, उलटा व्रत ले रहा हूं। उस व्रत को बांध कर मैं अपने को बदलने की कोशिश करूंगा।

निश्चित ही व्रत दमन लाएगा, सप्रेशन लाएगा। मेरा मन तो है लोभ का कि मैं करोड़ रुपए कमा लूं और व्रत लेता हूं कि मैं एक लाख रुपए की ही सीमा बांधता हूं। और मेरा मन है करोड़ वाला। तो मेरे करोड़ वाले मन को मैं लाख वाली सीमा में बांधने की, दबाने की चेष्टा करूंगा। इस चेष्टा का एक ही परिणाम हो सकता है कि मेरा लोभ दूसरी जगह से प्रकट होना शुरू हो। जैसे मेरा मन कहे कि अगर लाख पर तुम रुक गए तो स्वर्ग में तुम्हें जगह मिलेगी।

यह लोभ का नया रूप हुआ। लोभ करोड़ का था, लाख पर बांधने की कोशिश की तो उसकी धाराएं टूट गईं। अब वह स्वर्ग में मांग करने लगा कि वहां अप्सराएं कैसी मिलेंगी, कल्पवृक्ष कैसा मिलेगा, मकान कैसा होगा, भगवान के पास होगा कि दूर होगा!

प्रश्न:

 

पर व्रती को निःशल्य तो होना ही है, यह उसकी कंडीशन है।

हीं-नहीं। असल में व्रती निःशल्य हो ही नहीं सकता, क्योंकि व्रत खुद ही एक शल्य है। व्रत से बड़ी शल्य नहीं है कोई और। अव्रती निःशल्य हो सकता है, व्रती कभी निःशल्य नहीं हो सकता। शल्य तो लगी है न पीछे! कांटा चुभा है छाती में। अब एक स्त्री निकल रही है, वह अपनी पत्नी नहीं तो उसको देखना नहीं, वह चाहे कैसी ही हो। तो अब यह…और जो चुपचाप देख लेता है, वह शायद कम शल्य से भरा हुआ है, कांटा कम है उसके चित्त में। लेकिन जो आंख बंद करके डर कर बैठ जाता है कि हमने तो व्रत लिया है कि अपनी पत्नी के सिवा किसी का चेहरा नहीं देखना है। उसको तो एक कांटा चुभा ही हुआ है चौबीस घंटे।

तो व्रती तो निःशल्य हो ही नहीं सकता, अव्रती निःशल्य हो सकता है। लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अव्रती होने से ही निःशल्य कोई हो जाएगा। अव्रती होना हमारी जीवन की स्थिति है। अव्रती दशा में जागना हमारी साधना है। अव्रती हालत में दो उपाय हैं, अव्रती स्थिति में दो मार्ग हैं–या तो अव्रती स्थिति को व्रत लेकर तोड़ो, लेकिन तब भीतर जागने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। दूसरा रास्ता यह है कि अव्रती स्थिति के प्रति जागो, ताकि अव्रती स्थिति विदा हो जाए। तब जो व्रत से तुम मांग करते थे, वह आएगा, वह तुम्हें लाना नहीं पड़ेगा।

जैसे, जैसे मैंने उदाहरण के लिए अभी कहा कि सेक्स हमारी स्थिति है, ब्रह्मचर्य हमारा व्रत है। सेक्स के प्रति जागना साधना है। जो व्यक्ति सेक्स की स्थिति को अस्वीकार करेगा ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर, उसका सेक्स कभी मिटने वाला नहीं है। व्रत बाहर खड़ा रहेगा, सेक्स भीतर खड़ा हो जाएगा। दमन हो जाएगा। और जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का कोई व्रत नहीं लेता, सिर्फ सेक्स की वस्तुस्थिति को समझने की साधना, प्रयोग करता है, ध्यान करता है सेक्स को ही समझने का, धीरे-धीरे सेक्स विदा होता है और ब्रह्मचर्य आता है। यानी ब्रह्मचर्य तुम्हारे व्रत की तरह कभी नहीं आता, ब्रह्मचर्य तुम्हारी समझ की छाया की तरह आता है। और जब आता है तो तुम्हें कसम नहीं खानी पड़ती किसी मंदिर में जाकर कि मैं ब्रह्मचर्य धारण रखूंगा। क्योंकि कोई सवाल ही नहीं है, आ गया है। इसके लिए कोई कसम की जरूरत नहीं है। और जिसकी तुम कसम खाते हो, उससे तुम सदा उलटे होते हो। और जो तुम होते हो, उसकी तुम्हें कभी कसम नहीं खानी पड़ती है।

प्रश्न:

 

नहीं, पर इतने लंबे काल में जो साधक हुए उनमें कोई ऐसा साधक न हुआ हो, जिसका सहज फलित ब्रह्मचर्य हो?

हां, वह बिलकुल अलग बात है, उसको मैं व्रती कह नहीं रहा। जैसे कुंदकुंद…।

प्रश्न:

 

हां, यही मेरा प्रश्न है।

 

, न। यह तो प्रश्न बिलकुल दूसरा हो गया। तुम जब कह रहे हो कि पच्चीस सौ साल में व्रती, व्रती तो कभी नहीं, चाहे पच्चीस सौ नहीं पच्चीस हजार साल में हो, उससे कोई सवाल नहीं उठता। व्रती तो कभी नहीं पहुंचता। जो पहुंचता है वह सदा अव्रती, प्रज्ञावान व्यक्ति होता है।

प्रश्न:

 

पर इनमें कुछ लोग ऐसे हैं!

हैं न। जैसे कुंदकुंद।

प्रश्न:

 

यही मेरा मतलब है।

 

कुंदकुंद ऐसा व्यक्ति है, जैसा महावीर। कुंदकुंद वैसा ही व्यक्ति है, जैसा महावीर। कुंदकुंद कोई व्रत पाल कर नहीं जा रहा है। कुंदकुंद तो समझ को जगा रहा है। जो समझ रहा है, वह छूटता जा रहा है। जो व्यर्थ है, वह फिंकता चला जा रहा है। लेकिन है अव्रती–अव्रती सम्यकत्वी। और वह जो व्रती सम्यकत्वी है, वह सम्यकत्वी है ही नहीं कभी, वह सदा झूठ है, निपट पाखंड है।

और व्रत पालना ही सरल है, समझ बढ़ाना कठिन है। व्रत पालना बिलकुल सरल है। इसमें क्या कठिनाई है? क्योंकि सिर्फ दबाना है। लेकिन व्रत पालने से कोई कभी कहीं नहीं पहुंचा।

महावीर को भी मैं अव्रती कहता हूं। तो कुंदकुंद को अव्रती, ऐसे उमास्वाति या कुछ और लोगे। ऐसे कुछ लोग हैं। लेकिन जब तुम कहते हो जैन श्रावक, जैन साधु, तो न तो कुंदकुंद जैन हैं, न उमास्वाति जैन हैं।

जैन का मेरा मतलब यह कि इनको पागलपन ही नहीं है जैन होने का, इनको जैन होने का कोई पागलपन नहीं है। जैन होने का पागलपन जिनको है, वे तो कभी नहीं पहुंचते। क्योंकि उनको जैन होने का जो भ्रम है, वह भी व्रत इत्यादि से पैदा होता है, कि मैं रात को खाना नहीं खाता इसलिए मैं जैन हूं; कि मैं पानी छान कर पीता हूं इसलिए मैं जैन हूं; कि मैंने अणुव्रत लिए हुए हैं इसलिए मैं जैन हूं; कि मैं सामायिक करता हूं इसलिए मैं जैन हूं। यानी उसका जैन होना भी व्रतों पर ही निर्भर है। वह चाहे श्रावक है तो श्रावक के व्रत हैं, साधु है तो साधु के व्रत हैं।

लेकिन अव्रती–अव्रती बात ही अलग है। सब अव्रती हैं, लेकिन अव्रती स्थिति में जो प्रज्ञा को जगाता है, तो अव्रती सम्यकत्वी हो जाता है।

प्रश्न:

 

मैं समझता हूं कि ऐसा शास्त्र कह ही रहे हैं कि वह व्यक्ति व्रत-अव्रत दोनों से ऊपर हो जाता है।

ह तो पीछे होगा, पीछे होगा; लेकिन व्रत बांधने वाला कभी नहीं हो पाएगा, व्रत बांधने वाला कभी नहीं हो पाएगा। समझ आएगी तो चीजें मिट जाती हैं। जैसे उदाहरण के लिए, अगर समझ आएगी तो हिंसा मिट जाती है, जो शेष रह जाती है, वह अहिंसा है। शेष रह क्या जाएगा? अहिंसा ही शेष रह जाएगी, जब हिंसा मिट जाएगी।

लेकिन व्रती की हिंसा भीतर होती है और अहिंसा वह थोपता है। तो व्रती की अहिंसा हिंसा के विरोध में तैयार करनी पड़ती है। प्रज्ञावान की हिंसा विदा हो जाती है तो जो शेष रह जाता है, वह अहिंसा है। प्रज्ञावान की अहिंसा हिंसा का विरोध नहीं है, हिंसा का अभाव है। व्रती की अहिंसा हिंसा का विरोध है, अभाव नहीं। और जिसका विरोध है, वह सदा मौजूद रहता है, वह कभी नहीं जाता।

प्रश्न:

 

व्रत निरर्थक है, यह व्रत पालने से ही मालूम पड़ेगा न?

हां, बिलकुल पड़ेगा मालूम और काफी…।

प्रश्न:

 

जैसा आपने भोग के बारे में कहा कि…।

हां, हां। बिलकुल ही, बिलकुल ही मालूम पड़ेगा। और जितने व्रती हैं, उनको जितने जोर से मालूम पड़ता है, उतना आपको नहीं मालूम पड़ता।

प्रश्न:

 

मालूम पड़ने का मतलब छूटना हुआ न?

ठिनाई यह है कि अगर वे इस मालूम पड़ने के प्रति जागने की चेष्टा कर रहे हों! अगर वे भी सेक्स की तरह इसमें मूरूच्छित ही लगे हों कि रोज सुबह मंदिर चले जाते हैं मूरूच्छित और कभी जाग कर नहीं देखा कि चालीस साल से मंदिर गया, क्या मिला? यह प्रश्न ही अगर न पूछा हो तो जन्मों-जन्मों तक व्रत मानते रहेंगे। यह प्रश्न पूछ लिया हो तो अभी टूट जाएगा इसी वक्त। अगर व्रती समझ ले मेरी बात को तो उसको जल्दी समझ में आएगी बजाय आपके। क्योंकि उसको व्रत की व्यर्थता का अनुभव भी है।

लेकिन वह अनुभव को देखना नहीं चाहता, मूर्च्छा की तरह चला जाता है। वह कहता है कि नहीं, अभी नहीं हुआ तो कल होगा, कल नहीं हुआ तो परसों होगा, और कुछ तो हो ही रहा है।

यानी मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मैं इतने दिन से नमोकार का पाठ कर रहा हूं। तो मैं पूछता हूं, क्या हो रहा है? कहता है, बड़ा अच्छा लग रहा है, शांति लग रही है। फिर थोड़ी देर में मुझसे पूछता है, शांति का कोई उपाय बताइए! मैंने कहा, अब मैं कैसे बताऊं? तुम्हें जब मिल ही रही है शांति। तो वह कहता है कि नहीं, अभी कुछ खास नहीं मिल रही है, ऐसा थोड़ा-थोड़ा लगता है।

मैंने कहा, तुम मुझे बिलकुल साफ-साफ कहो, अगर थोड़ा-थोड़ा लगता है तो करते चले जाओ, धीरे-धीरे ज्यादा लगने लगेगा, फिर मुझसे मत पूछो। तुम बिलकुल ईमानदारी से कहो, सच में कुछ हुआ? वह कहता है, कुछ हुआ तो नहीं है! यानी वह जो वह कह रहा था, उसका भी उसे होश नहीं था, वह क्या कह रहा है!

वह कहता है कि मंदिर जाता हूं रोज और वह फिर भी पूछता है, शांति चाहिए! और उसे पूछो तो वह कहता है, मंदिर जाने से बड़ी शांति मिलती है। तो मिलती है तो फिर अब और क्या शांति चाहिए? ठीक है, जाओ। वह कभी जागा हुआ भी नहीं है कि वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है। वह भी सुनी-सुनाई बातें दोहरा रहा है। यानी मंदिर जाने से शांति मिलती है, यह उसने सुना है और मंदिर जाता है। तो अब वह भी कह रहा है कि बड़ी शांति मिल रही है!

तो अगर जागे कोई व्रती तब तो व्रत से एकदम मुक्त हो जाए। अव्रती भी समझ ले तो भी समझ में आ सकता है। क्योंकि ऐसे हम अव्रती भला हों, चाहे हमने कभी कसम खाकर व्रत न लिए हों, लेकिन वैसे किसी न किसी रूप में हम सब व्रती हैं। हमको खयाल में नहीं है। हमको खयाल में नहीं है, जैसे कि आपने शादी की, तो पत्नी-व्रत या पति-व्रत आपने ले लिया, आपको खयाल में नहीं है। मंदिर में जाकर ही नहीं लिया जाता, वह तो हम चौबीस घंटे जो भी हम कर रहे हैं, उसमें व्रत पकड़ रहे हैं हमें। और अगर हम उसके प्रति भी जाग जाएं तो हमको पता चले कि कुछ हुआ नहीं है उस व्रत से। चीजें कहीं बदली नहीं हैं। और चित्त वैसा ही रह गया है जैसा था, चित्त की वही दौड़ है, वही भाग है।

तो वह तो सभी चीजें अनुभव से आती हैं, लेकिन जिंदगी में व्रत चल ही रहे हैं चौबीस घंटे। जैसे एक व्यक्ति है, जो कहता है कि मेरे पिता हैं, इसलिए मैं उनकी सेवा कर रहा हूं। यह व्रत ले रहा है सेवा का। इसको पिता की सेवा करने में कोई आनंद नहीं है। यह कह रहा है, कर्तव्य है। यह व्रती आदमी है। तो यह पिता की सेवा भी कर रहा है और पूरे वक्त क्रोध से भरा हुआ है कि कब छुटकारा हो जाए! यह पैर दाबने से कब मौका अलग मिले! कैसे अलग हट जाऊं! लेकिन यह व्रतपूर्वक कर रहा है। नियमपूर्वक कर रहा है। पिता हैं इसलिए कर रहा है।

अब सच बात तो यह होनी चाहिए कि इसको कभी आनंद नहीं मिलेगा। यानी पिता हैं इसलिए पैर दबाऊं, अगर यह कर्तव्य-भाव है तो आनंद कभी उदय नहीं होगा। और अगर इसे आनंद आ रहा है पैर दबाने में तो फिर व्रत नहीं रह गया, फिर इसकी एक समझ है, एक प्रेम है, एक दूसरी बात है।

एक नर्स है, वह एक बच्चे को पाल रही है तो वह व्रतपूर्वक पाल रही है और मां का व्यवहार कर रही है व्रतपूर्वक। एक मां है, वह अपने बच्चे को पाल रही है। वहां कोई व्रत नहीं है, वहां मां का आनंद ही उस बच्चे को पाल रहा है। और अगर बड़े होकर कोई उस मां से पूछेगा कि तूने अपने बेटे के लिए बहुत किया, तो वह कहेगी, मैं कुछ भी नहीं कर पाई। कुछ भी नहीं कर पाई। जो कपड़े मुझे बेटे को देने थे, नहीं दे पाई। जो खाना देना था, वह नहीं दे पाई। मैं कुछ भी नहीं कर पाई।

लेकिन नर्स से कोई पूछे, तूने फलां लड़के के लिए बहुत किया! वह कहेगी, बहुत किया। पांच बजे सुबह से डयूटी पर जाती थी, शाम पांच बजे लौटती थी। बहुत किया।

कर्तव्य व्रत की भाषा की बात है, प्रेम अव्रत की बात है। लेकिन अव्रत अकेला काफी नहीं है। अव्रत और जागरण–तो अव्रती सम्यकत्व पैदा होता है। और वही क्रांतिकारी सूत्र है। वह कोई भी करे, उससे कोई जैन का लेना-देना नहीं है। कोई मुसलमान करे, कोई ईसाई करे, कोई जरथुस्त्री करे, इससे कोई संबंध नहीं है। घटना उस करने से घटती है।

लेकिन होता क्या है कि परंपराएं धीरे-धीरे सब जड़ नियम हो जाती हैं। और जड़ नियम थोपने की प्रवृत्ति शुरू हो जाती है। और जब जड़ नियम थोप दिए जाते हैं और लोग उन्हें स्वीकार कर लेते हैं तो वे जड़ नियम लोगों को भी जड़ करते हैं, चेतन नहीं करते। इसलिए व्रती व्यक्ति जड़ होता चला जाता है धीरे-धीरे।

प्रश्न:

 

व्रती का जागरण जल्दी फलीभूत होगा या अव्रती का जागरण जल्दी फलीभूत होगा?

जागरण फलीभूत होता है।

प्रश्न:

 

अव्रती का होगा या व्रती का होगा?

जागरण फलीभूत होता है। आप जिस स्थिति में हैं, वहीं जाग जाएं। फलीभूत जागरण होता है, जिस स्थिति में हैं।

हम किसी न किसी स्थिति में हैं ही, और किन्हीं न किन्हीं सीमाओं में बंधे हैं, और कुछ न कुछ कर रहे हैं–कोई दुकान चला रहा है, कोई मंदिर में पूजा कर रहा है, कोई मकान बना रहा है, कोई मंदिर बनवा रहा है–हम कुछ न कुछ कर रहे हैं। कोई उपवास कर रहा है, कोई खाना खा रहा है।

हम जो भी कर रहे हैं, उसके प्रति जागरण फलीभूत होता है। जो भी कर रहे हैं–इससे कोई संबंध नहीं है। एक आदमी चोरी कर रहा है और एक आदमी पूजा कर रहा है–करने के प्रति जागने से फल आना शुरू होता है। चोरी करने वाला चोरी के प्रति जाग जाए तो वही फल आएगा।

प्रश्न:

 

पीछे फोर्स होगा?

हां

प्रश्न:

 

जागरण के पीछे फोर्स होगा न! व्रती का ज्यादा होगा या अव्रती का ज्यादा होगा?

हीं, नहीं। असल सवाल यह है कि अब…यह बड़ी बात है। बड़ी इसलिए है कि कौन सा व्रत? कौन सा व्रत? एक आदमी व्रत लिए है कि पांच दफे माला फेर लेना है, क्या फोर्स होगा इसमें? एक आदमी चोरी करने जा रहा है, इसमें बहुत फोर्स होगा। यह घटना घटना पर निर्भर करेगा कि क्या व्रत, या क्या अव्रत!

लेकिन कुल कीमत की बात इतनी है कि आदमी जो भी कर रहा है, उसके प्रति उसे जाग कर करना है। वह मंदिर जा रहा हो तो भी जागना है और वेश्यालय जा रहा हो तो भी जागना है। जो भी करे, उसे होशपूर्वक करना है। होशपूर्वक करने से जो शेष रह जाएगा, वही धर्म है; जो मिट जाएगा, वही अधर्म है।

प्रश्न:

 

महावीर इस जागरूकता को ही पौरुष और क्षात्र धर्म मान रहे हैं या कोई और भी पौरुष है?

सको ही। इससे बड़ा कोई पौरुष नहीं है। नींद तोड़ने से बड़ा और कोई पौरुष नहीं है।

प्रश्न:

 

नहीं, पर जो आपने यह भेद किया कि एक का मार्ग आत्म-समर्पण का है, दूसरा पौरुष का है, तो नींद तोड़ना तो दोनों में बराबर रहेगा। फिर इसे आप पौरुष का विशेष क्यों कह रहे हैं?

हीं, नहीं, नहीं। बिलकुल ही अलग-अलग रास्ते से नींद टूटेगी। समर्पण करने वाले की नींद में अगर थोड़ा भी पौरुष होगा तो नहीं टूट सकेगी। क्योंकि समर्पण में एकदम स्त्री-भाव चाहिए, एकदम पैसिविटी चाहिए। यानी समर्पण करने में यही पौरुष होगा कि पौरुष बिलकुल न हो और पौरुष करने वाले में यही पौरुष होगा कि उसमें समर्पण का भाव ही न हो जरा भी।

महावीर के हाथ तुम किसी के प्रति नहीं जुड़वा सकते हो। महावीर का हाथ जोड़े हुए कल्पना ही नहीं कर सकते हो कि यह आदमी हाथ जोड़े हुए खड़ा हो कहीं।

प्रश्न:

 

वह अपने आंतरिक शत्रुओं से लड़ाई, यह पौरुष नहीं है।

हीं, नहीं। कोई आंतरिक शत्रु नहीं है सिवाय निद्रा के। कोई आंतरिक शत्रु ही नहीं है सिवाय निद्रा के, मूर्च्छा के, प्रमाद के। और कोई आंतरिक शत्रु नहीं है।

इसलिए महावीर से कोई पूछे, धर्म क्या है? तो वे कहेंगे, अप्रमाद। और अधर्म क्या है? तो वे कहेंगे, प्रमाद। कोई उनसे पूछे कि साधुता क्या है? तो वे कहते हैं, अमूर्च्छा। असाधुता क्या है? तो वे कहते हैं, मूर्च्छा। और सारी साधना का सूत्र है विवेक, अवेयरनेस–कैसे कोई जागे, कैसे कोई होश से भरा हुआ हो।

तो महावीर का पौरुष कोई काम, क्रोध, लोभ से लड़ने में नहीं है। क्योंकि ये तो लक्षण हैं सिर्फ। इनसे तो पागल लड़ेगा, इनसे महावीर नहीं लड़ सकता।

मूर्च्छा है मूल चीज। काम, क्रोध, लोभ, सब उससे पैदा होने वाली चीजें हैं। जैसे कि तुम्हें बुखार चढ़ा। अगर कोई बुद्धिहीन वैद्य तुम्हें मिल गया तो वह तुम्हारे शरीर की गर्मी से लड़ेगा। ठंडा पानी डालेगा तुम्हारे ऊपर कि इसके शरीर की गर्मी कम करो, क्योंकि शरीर की गर्मी ही बुखार है। लेकिन बुद्धिमान वैद्य कहेगा, गर्मी बुखार नहीं है, गर्मी तो केवल खबर देती है कि भीतर कोई बीमारी है। यह तो केवल सूचना है, यह लक्षण है। इससे लड़े तो मरीज मरेगा। बीमारी से लड़ो, ताकि यह लक्षण विदा हो जाए।

अगर भीतर से बीमारी विदा हुई तो शरीर से ताप विदा हो जाएगा, लेकिन शरीर से ताप विदा अगर करने की कोशिश की तो बीमारी का विदा होना जरूरी नहीं है। आदमी मर भी सकता है।

तो काम, क्रोध, लोभ, लक्षण हैं कि भीतर आदमी मूरूच्छित है, सिर्फ खबरें हैं। मूर्च्छा टूटेगी तो ये विदा हो जाएंगे। और अगर मूर्च्छा को बचाते हुए व्रत लेकर इनको खतम करने की कोशिश की तो ये कभी खतम नहीं होने वाले। क्योंकि मूर्च्छा भीतर जारी है, वह नए-नए रूपों में इनको पैदा करती रहेगी। सिर्फ रूप बदल जाएंगे ज्यादा से ज्यादा। एक कोने से न निकल कर दूसरे दरवाजे से झरना निकलेगा।

तो महावीर तो बहुत स्पष्ट हैं कि साधना यानी अमूर्च्छा, संघर्ष यानी अमूर्च्छा, संकल्प यानी जागरण। इसके अतिरिक्त कोई सवाल ही नहीं है उनके लिए।

प्रश्न:

 

आचारांग का एक वाक्य है, उसका अर्थ यह है कि तू बाह्य शत्रुओं से क्यों लड़ता है? अपनी आत्मा के शत्रुओं से ही लड़। यह वाक्य आपके विचार में किसी ढंग से व्याख्येय है या अशुद्ध ही है?

 

मैं तो फिकर नहीं करता सूत्रों, आचारांग वगैरह की। मैं कोई फिकर नहीं करता। क्योंकि जो लोग उन्हें संगृहीत करते हैं, वे कोई बहुत समझदार लोग नहीं हैं। इनकी मैं फिकर नहीं करता। इनसे कोई तालमेल बिठाने का सवाल नहीं है। बैठ जाए, वह आकस्मिक बात है; न बैठे, उसकी कोई जरूरत नहीं है।

आंतरिक शत्रुओं से लड़, यह कहीं न कहीं बुनियादी भूल हो गई है। क्योंकि शत्रुओं शब्द बहुवचन में है। आंतरिक शत्रु से लड़, यह ठीक बात रही होगी, क्योंकि शत्रु एक वचन में है। आंतरिक शत्रु सिर्फ मूर्च्छा है। महावीर हजार बार दोहरा कर यह कह रहे हैं। इसलिए बहुत शत्रु नहीं हैं भीतर, शत्रु एक ही है। और मित्र भी एक ही है, बहुत मित्र भी नहीं हैं भीतर–जागरण मित्र है और मूर्च्छा शत्रु है।

इसलिए सुनने वाले ने कहीं न कहीं भूल कर दी है। आंतरिक शत्रुओं से लड़ने में वह फिर काम, क्रोध, लोभ वाली दुनिया में उतर आया है। वह इन्हीं की बात कर रहा है फिर। क्योंकि शत्रुओं का प्रयोग उसने बहुवचन में किया है। एकवचन में होता तो मैं राजी हो जाता कि बिलकुल ठीक है। भूल हो गई बुनियादी। फिर वह इन्हीं को शत्रु समझ रहा है।

ये शत्रु हैं ही नहीं, शत्रु तो कोई और है। ये उसकी फौजें हो सकती हैं। यानी इनसे लड़ने का कोई मतलब नहीं है। मालिक कोई और है, वह मालिक नई फौजें भेजता रहेगा। अगर पुरानी तुमने हटा भी दीं तो नई फौजें आती रहेंगी। आंतरिक शत्रु से लड़ना है, शत्रुओं से नहीं। अक्सर ऐसा हो जाता है कि हमारी जो समझ होती है वह शत्रुओं से लड़ने में लग जाती है। हमारी जो समझ होती है, हमको यह खयाल में नहीं आता कि शत्रु एक है। हमारा खयाल यह है कि शत्रु बहुत हैं। शत्रु एक ही है।

और इसलिए जो बहुत शत्रुओं से लड़ रहा है, वह बुनियादी भूल कर रहा है; क्योंकि मजा यह है कि अगर काम चला जाए तो लोभ चला जाता है। कभी यह खयाल किया आपने? अगर काम चला जाए, क्रोध चला जाता है। अगर काम चला जाए, मोह चला जाता है। इनमें से एक को विदा कर दो, बाकी तीन को बचा लो तो मैं समझूं कि ये अलग हैं। आज तक असंभव है यह बात। इनमें से कोई एक को विदा कर दे, कहे कि मैंने क्रोध विदा कर दिया, सेक्स विदा नहीं हुआ, असंभव है यह बात। यह हो ही नहीं सकता। यानी कोई अगर यह कहता हो, मैंने लोभ विदा कर दिया, लेकिन अभी काम बचा हुआ है, यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि काम के साथ लोभ अनिवार्य है। यानी वे चार जो तुम्हें दिखाई पड़ रहे हैं–काम, क्रोध, लोभ, मोह–वे कोई चार चीजें नहीं हैं, वे सब संयुक्त हैं। और सबका संयुक्त जो तना है नीचे, वह मूर्च्छा है। वह वहां से शाखाएं निकलती रहती हैं।

अब सब लोग इस उलटे काम में लग जाते हैं। कोई लड़ रहा है क्रोध से कि मुझे क्रोध जीतना है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें क्रोध बहुत ज्यादा है, क्रोध से बचने का उपाय बताइए।

अब वे समझ रहे हैं कि क्रोध उनका शत्रु है। क्रोध शत्रु नहीं है, क्योंकि बाकी अगर तीन की वे फिक्र नहीं कर रहे हैं तो इस क्रोध से कुछ हल होने वाला नहीं है। और चारों की एक साथ फिक्र अगर करनी है तो ऐसा ही जैसे कि एक वृक्ष लगा हुआ है, उसमें कई शाखाएं हैं, एक आदमी एक शाखा काट रहा है, दूसरा आदमी दूसरी शाखा काट रहा है और नीचे के तने पर वे सब आदमी पानी सींचते हैं सुबह उठकर। नीचे के तने पर पानी सींचते हैं रोज और रोज वृक्ष पर चढ़ कर शाखाएं काटते हैं। एक शाखा कटती है तो दो पैदा हो जाती हैं, दो कटती हैं तो चार पैदा हो जाती हैं। और नीचे के तने पर पानी दिए चले जाते हैं। मजा यह है कि क्रोध, लोभ, मोह से हम लड़ते हैं और मूर्च्छा पर पानी दिए चले जाते हैं। और मूर्च्छा से वे सब पैदा होते हैं।

तो जो थोड़ा भी मनुष्य की गहराई में उतरेगा, महावीर जैसा व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि तुम काम, क्रोध, लोभ से लड़ो। जो भी भीतर उतरेगा, वह तो कहेगा, मूर्च्छा से लड़ना है। और लड़ना क्या है? जागना है। और लड़ना यानी जागना होगा। हां, कभी जागा हुआ आदमी लोभी नहीं पाया गया, कामी नहीं पाया गया। और सोया हुआ आदमी कभी अलोभी नहीं हुआ, अकामी नहीं हुआ।

इसलिए मेरे हिसाब में काम, क्रोध, लोभ सोए हुए आदमी के लक्षण हैं। जब ये बाहर दिखाई पड़ते हों तो उसका मतलब है, भीतर आदमी सोया हुआ है, जब ये बाहर न दिखाई पड़ने लगें तो जानना कि आदमी जागा हुआ है। लेकिन इससे उलटी तरकीब में अगर कोई लग जाए कि इनको दिखाई न पड़ने दो, तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

यानी वह व्रती यही कर रहा है। व्रती यह कर रहा है कि क्रोध को दिखाई न पड़ने देंगे। तो न दिखाई पड़े। हो सकता है दबा ले तरकीबों से। लेकिन फिर भी पहचाना जा सकता है। और भीतर तो उसके रहेगा ही। तो कोई ढंग से उसको अगर उकसाए तो क्रोध निकाला जा सकता है। यानी उसके क्रोध नए-नए रूप लेंगे। और हो सकता है कई दफे हम उसको उकसा भी न पाएं, क्योंकि उसको उकसाने की तरकीब हमें पता न हो। और वह अगर तरकीब पकड़ लें तो फौरन उसको उकसाया जा सकता है, मिट नहीं सकता।

व्रत से कभी कुछ नहीं मिटता है, क्योंकि व्रत शाखाओं से लड़ाई है।

प्रश्न:

 

यानी जो फ्रायड ने और आज के मनोवैज्ञानिकों ने निकाला कि दमन से संभव नहीं है, वह महावीर को भी ज्ञात था?

बिलकुल ही। इसके सिवा कोई उपाय ही नहीं है। यानी कभी भी कोई व्यक्ति मुक्त हुआ हो तो दमन से मुक्त नहीं हो सकता है। वह जब भी मुक्त हुआ होगा, तब जागरण से ही मुक्त होगा। यह दूसरी बात है कि उस दिन भाषा साफ नहीं है, अभिव्यक्ति साफ नहीं है। निरंतर अभिव्यक्ति ज्यादा साफ होती चली जाती है।

जैसे समझ लें, न्यूटन ने खबर बताई हमें कि चीजें गिरती हैं, क्योंकि जमीन में गुरुत्वाकर्षण है। कोई हमसे पूछे, तो न्यूटन के पहले चीजें जो गिरती रहीं, वे भी गुरुत्वाकर्षण से ही गिरती थीं?

न्यूटन ने तो अभी तीन सौ साल पहले कहा कि चीजें ऊपर से नीचे गिरती हैं, क्योंकि जमीन खींचती है, गुरुत्वाकर्षण है। कोई आदमी हमसे पूछ सकता है, क्या न्यूटन से पहले चीजें नीचे नहीं गिरती थीं? और अगर गिरती थीं तो क्या वे भी गुरुत्वाकर्षण से ही गिरती थीं?

तो हम कहेंगे, वे भी गुरुत्वाकर्षण से गिरती थीं। जब भी कोई चीज गिरी है, गुरुत्वाकर्षण से ही गिरी है, खबर अभी न्यूटन ने दी है। न्यूटन ने सिर्फ फार्मूलेट किया है। चीजें तो गिर ही रही थीं सदा से, और वे हमेशा ग्रेविटेशन से ही गिर रही थीं। लेकिन यह ग्रेविटेशन शब्द को न्यूटन ने पहली दफा स्पष्ट किया है।

महावीर मुक्त हुए हों कि कृष्ण मुक्त हुए हों, दमन से नहीं हुए, सदा जागरण से हुए। यह बात फ्रायड ने पहली दफा स्पष्ट की है। इस नियम को पहली दफा ठीक-ठीक वैज्ञानिक ढंग से फ्रायड ने कह दिया। और इसलिए अब जो लोग महावीर को समझने के लिए फ्रायड के पूर्व की भाषा का उपयोग कर रहे हैं, वे महावीर को कभी भी आज के युग के लिए उपयोगी नहीं बनने देंगे। क्योंकि वे बुनियादी गलत बातें और गलत शब्द उपयोग करते रहेंगे।

यह भूल निरंतर होती है, क्योंकि महावीर के साथ अनिवार्य रूप से पच्चीस सौ साल पुरानी टर्मिनालाजी जुड़ी हुई है, जब न फ्रायड हुआ है, न माक्र्स हुआ है, न आइंस्टीन हुआ है। तो जो शब्दावली है वह पच्चीस सौ साल पुरानी है। और अगर उसी को पकड़ कर–और वह अनुयायी जो है उसी को पकड़ कर जोर-शोर मचाना चाहता है वह। तो वह कभी भी नहीं उसको उपयोगी बना सकता।

वह तो जैसे-जैसे शब्द बदलते जाते हैं, नए शब्द आते जाते हैं, उनको हमें समझपूर्वक उपयोग करना चाहिए। वैसे घटना जब भी घटी होगी, दमन से कभी भी नहीं घट सकती है। यानी वह वैज्ञानिक असंभावना है, उसका महावीर से कोई लेना-देना नहीं है।

यानी दो ही उपाय हैं, अगर कोई कहे कि दमन से ही महावीर उपलब्ध हुए तो फिर महावीर उपलब्ध न हुए होंगे। या दूसरा उपाय यह है कि अगर वे उपलब्ध हुए तो उन्होंने दमन न किया होगा। यानी इसके सिवाय कोई मार्ग ही नहीं है। तो मैं मानता हूं कि वे उपलब्ध हुए। क्योंकि जैसी शांति और जैसा आनंद और जैसी ज्योति उनके व्यक्तित्व में आई, वह कभी दमित व्यक्ति में आ ही नहीं सकती। दमित व्यक्ति के चेहरे पर, मन पर, सब तरफ टेंशन और तनाव होता है, क्योंकि जो दबाया है, वह दिक्कत देता रहता है। वह तो सिर्फ विमुक्त आदमी के मन में ऐसी शांति हो सकती है, जैसी महावीर के मन में है, जिसने कुछ भी नहीं दबाया है, सब मुक्त हो गया है।

अब मुक्ति और दमन उलटे शब्द हैं, यह हमें खयाल में नहीं है। दमन का मतलब है भीतर दबाया गया, मुक्त का मतलब है छूट गया, विसर्जित हो गया, डिस्पर्स हो गया, सप्रेस नहीं। क्रोध डिस्पर्स हुआ है, विदा ही हो गया है, चला ही गया है, दबाया नहीं।

यह पुंगलियाजी का एक क्वेश्चन रह गया रात का, उनकी बात कर लेनी चाहिए।

प्रश्न:

 

आप बोले कि जागृति आती है तो मूर्च्छा के प्रति जागरूक होना चाहिए, अलग-अलग शाखा से लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। अव्रत अकेला ही जरूरी नहीं है, साथ में जागृति भी जरूरी है। तो मेरा यह कहना है कि जागृति आ जाएगी तो अव्रत आ ही जाएगा न?

, न। अव्रत है ही हमारा। यानी व्रती का मतलब यह है कि जो नियम बांध कर जी रहा है। अव्रती का मतलब है, जो नियम बांध कर नहीं जी रहा है। अव्रती हम हैं ही, समझे न? उसे लाने का सवाल नहीं है। अव्रती हम हैं ही। कुछ हममें व्रती हैं–मंदिर जाने वाले, मस्जिद जाने वाले, पूजा-पाठ करने वाले, नियम-धर्म से जीने वाले–वे व्रती हैं, बाकी लोग अव्रती हैं। व्रती को व्रत के प्रति जाग जाना चाहिए, अव्रती को अव्रत के प्रति। जो हम कर रहे हैं, उसी के प्रति जाग जाना चाहिए। तो जागने से वह आ ही जाएगा, जो व्रती चेष्टा कर रहा है व्रत से लाने की। वह आ जाएगा, अपने आप आ जाएगा।

प्रश्न:

 

जागरण के साथ विशेषण विवेक का लगाना जरूरी है अथवा नहीं? क्योंकि अविवेकपूर्ण भी जागरण हो सकता है।

हीं, अविवेकपूर्ण जागरण नहीं हो सकता। जागरण अनिवार्य रूप से विवेकपूर्ण होता है। असल में जागरण और विवेक एक ही अर्थ रखते हैं। जैसे हम यह नहीं कह सकते कि जीवित मुर्दा, वैसे ही हम अविवेकपूर्ण जागरण नहीं कह सकते। वे विपरीत शब्द हैं। विवेक यानी जागरण।

विवेक से जो आम खयाल पैदा होता है, वह होता है डिस्क्रिमिनेशन का। इसलिए आप कह रहे हैं। विवेक से आम खयाल होता है कि यह गलत है और यह सही है, ऐसा डिस्क्रिमिनेशन करने का। लेकिन ऐसा डिस्क्रिमिनेशन आप जब तक करते हैं, जब तक आप कहते हैं कि यह ठीक मानूं, यह गलत मानूं, तब तक आपको विवेक नहीं है। तब तक विवेकशील लोगों ने जिसको ठीक जीया है और जिसको उन्होंने गलत माना है, वह आपने पकड़ लिया है।

जिस दिन आपका विवेक होगा, उस दिन यह तय नहीं करना पड़ता, यह गलत है, यह सही है। जो सही है, वह होता है; जो गलत है, वह नहीं होता। जो सही है, वही होता है जागे हुए व्यक्ति से। और जो सोया हुआ है उससे जो गलत है, वही होता है। जागे हुए से गलत नहीं होता, सोए हुए से सही नहीं होता।

तो असंभव ही है यह बात कि कोई अविवेकपूर्ण जागरण हो जाए। क्योंकि जागरण होगा तो अविवेक टिकेगा कहां? ठहरेगा कहां? वह मूर्च्छा में ही टिक सकता था, अंधेरे में ठहर सकता था।

प्रश्न:

 

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में फर्क क्या है?

 

ल पूछ लेना।

ले ही लेते हैं। यह पूछती है, स्वच्छंदता और स्वतंत्रता में फर्क क्या है?

बहुत फर्क है। तीन शब्द लेने चाहिए: परतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वच्छंदता। परतंत्रता का मतलब है कि जो हम कर रहे हैं, वह हम नहीं कर रहे हैं, करवाया जा रहा है। स्वच्छंदता का मतलब यह है कि जो हम कर रहे हैं, वह भी हम नहीं कर रहे हैं, जो हमसे करवाया जा रहा था, उसके उलटे हम कर रहे हैं–स्वच्छंदता का मतलब होता है। परतंत्रता का मतलब होता है, जो हमसे करवाया जा रहा है वह कर रहे हैं। स्वच्छंदता का मतलब होता है कि जो हमसे करवाया जा रहा, वह भर हम नहीं कर रहे हैं, उसके भर हम विपरीत कर रहे हैं। स्वच्छंदता जो है, वह परतंत्रता का दूसरा पहलू है, यानी बगावत की गई परतंत्रता है वह। है परतंत्रता ही। विद्रोह में चली गई परतंत्रता है। रिएक्शनरी स्लेवरी है वह। है तो स्लेवरी ही।

जैसे बाप ने कहा था कि मंदिर जाना! तो एक बेटा मंदिर जा रहा है, क्योंकि बाप कहता है मंदिर जाना। दूसरा बेटा कह रहा है, मंदिर नहीं जा सकते हैं, क्योंकि बाप कह रहा है कि मंदिर जाना। एक परतंत्र है, एक स्वच्छंद है। लेकिन स्वच्छंद जो है, वह परतंत्रता के खिलाफ ही है, वह उसी से जुड़ा हुआ है।

स्वतंत्र का मतलब यह है कि वह न तो इसलिए जाता है मंदिर कि बाप कहते हैं, न इसलिए नहीं जाता है कि बाप कहते हैं। सोचता है, समझता है; ठीक लगता है, जाता है; ठीक नहीं लगता, नहीं जाता है। मगर न तो वह परतंत्र है, न वह स्वच्छंद है।

और मैं स्वतंत्र आदमी चाहता हूं जगत में बढ़ने चाहिए। और जगत में परतंत्रता बढ़ाई जाती है, इसलिए स्वच्छंदता बढ़ जाती है। गुरु कहता है, मेरी आज्ञा पालन करो! तो फिर आज्ञा तोड़ने वाले लड़के पैदा होते हैं। परतंत्रता की प्रतिक्रिया स्वच्छंदता बन जाती है। और जब गुरु कहता है कि जो तुम्हें ठीक लगे उसे तुम मानना, जो ठीक न लगे उसे मत मानना, तब इनडिसिप्लिन नहीं पैदा होती, क्योंकि कोई उपाय नहीं है इनडिसिप्लिन पैदा करने का। तुमने अनुशासन थोपा कि अनुशासनहीनता पैदा हुई। और तुमने स्वतंत्र किया व्यक्ति को, यानी अनुशासन उसे दिया तो फिर अनुशासनहीनता का कोई उपाय नहीं है।

तो जो लोग परतंत्रता थोपेंगे, वे स्वच्छंदता लाएंगे। और जहां स्वच्छंदता दिखाई पड़े, समझना कि परतंत्रता थोपी गई होगी। स्वतंत्रता दोनों से अलग बात है, वह विवेकपूर्ण है।

पुंगलियाजी ने कल एक बहुत बढ़िया सवाल उठाया हुआ है। मैंने पीछे कहा कि देवताओं के पास या भूत-प्रेतों के पास अपनी वाणी नहीं होती। और कल मैंने कहा कि आर्मस्ट्रांग और उसके साथी जब लौट रहे हैं तो नीचे रिसीव करने वाले स्टेशंस पर दस मिनट तक जैसे हजारों भूत-प्रेत रो रहे हों, हंस रहे हों, चिल्ला रहे हों, ऐसी आवाजें पकड़ी गई हैं, जिनकी कि कोई व्याख्या नहीं हो सकी कि वे आवाजें कैसे आईं? तो पुंगलियाजी पूछते हैं कि जब भूत-प्रेतों की वाणी ही नहीं होती तो वे आवाजें कैसे पैदा हुई होंगी?

इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। पिछले महायुद्ध में एक आदमी के अंगूठे में चोट लगी बम के गिरने से। उसे बेहोश हालत में करीब-करीब, अस्पताल में लाया गया। तब वह बीच-बीच में जब भी होश आता था तो यही चिल्लाता था कि मेरा अंगूठा बहुत जल रहा है, आग पड़ रही है मेरे अंगूठे में। रात उसको बेहोश करके उसका पूरा पैर काट दिया गया। क्योंकि पूरा पैर खराब हो गया था, उसको बचाने का कोई उपाय न था। और इतनी असह्य वेदना थी कि पूरे शरीर में पायज़न फैल जाने का डर था। तो उसका घुटने से लेकर नीचे का पैर काट दिया गया।

सुबह जब होश में आया तो उसने फिर चीख-पुकार मचानी शुरू की कि मेरे अंगूठे में बहुत दर्द हो रहा है। तो आस-पास के डाक्टरों ने उसे गौर से देखा, क्योंकि अंगूठा तो अब था ही नहीं। अंगूठे में दर्द कैसे हो सकता है? जब अंगूठा ही नहीं है, यानी अंगूठा तो होना जरूरी है न अंगूठे में दर्द होने के लिए! तो लोगों ने कहा कि तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं है? ठीक से सोच कर कहो। अभी उसको बताया नहीं है कि उसका पैर कटा हुआ है। उसने कहा कि क्या ठीक से सोच कर! मेरा अंगूठा जला जा रहा है, आग पड़ रही है। उन्होंने उसका कंबल उघाड़ा और कहा कि तुम्हारा पैर तो रात साफ कर दिया है, अंगूठा तो है नहीं।

उसने देखा, उसने कहा कि मुझे भी दिखाई पड़ रहा है अंगूठा नहीं है, लेकिन दर्द मेरे अंगूठे में हो रहा है, इसको मैं कैसे इनकार करूं? तब उसकी जांच-परख की गई। और जांच-परख से एक बहुत नया सत्य हाथ में आया, जो कभी खयाल में नहीं था।

जांच-परख से यह सत्य खयाल में आया, पकड़ में आया कि अंगूठे में जो दर्द होता है, सिर तक खबर पहुंचाने वाले जो स्नायुत्तंतु हैं, वे हिलते हैं। अंगूठा सिर में तो है नहीं, अंगूठा तो दूर है, छह फीट दूर। दर्द अंगूठे में होता है, सिर में पता चलता है। तो पता लाने के लिए जो तंतु हैं, वे हिलते हैं बीच में–स्नायु; उन तंतुओं के खास ढंग से हिलने से दर्द पता चलता है।

अंगूठा तो कट गया, वे तंतु उसी खास ढंग से हिले जा रहे हैं। वे तंतु जो आगे के हैं, वे उसी तरह से कंप रहे हैं, जिस तरह दर्द में कंपने चाहिए, तो दर्द का पता चल रहा है। और अंगूठे में पता चल रहा है, जो है ही नहीं। क्योंकि वे तंतु अंगूठे के दर्द की खबर लाने वाले तंतु हैं।

इससे मैं क्या समझा रहा हूं? इससे मैं यह समझा रहा हूं…इसके बाद तो फिर बहुत बड़ी काम की चीजें हाथ लगीं। फिर तो यह पता चला कि आपके कान के पीछे जो तंतु हैं, उनमें खास तरह की चोट करके आपके भीतर खास तरह की ध्वनियां पैदा की जा सकती हैं। जैसे मैंने कहा राम, तो आपके कान के भीतर का तंतु एक खास ढंग से हिला। कोई राम बाहर न कहे, सिर्फ उस तंतु को आपके कान के पीछे इस तरह से हिला दे, जैसे राम बोलते वक्त हिलता है, तो आपके भीतर राम सुनाई पड़ेगा। जैसे आपकी आंख है, उससे रोशनी भीतर जाती है, तंतु एक तरह से हिलते हैं। आपकी आंख को बंद कर दिया जाए और सिर के भीतर इलेक्ट्रोड डाल कर आंख के तंतु इस तरह हिला दिए जाएं जैसा कि वे प्रकाश के वक्त हिलते हैं, आपको भीतर प्रकाश दिखाई पड़ेगा और आप अंधेरे में बैठे हैं।

यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि भूत-प्रेतों या देवताओं के लिए दो उपाय हैं, जिनसे वे वाणी पैदा कर सकें। एक उपाय तो यह है कि वे किसी मनुष्य के शरीर का उपयोग करें, जैसा कि आमतौर से वे करते हैं, तब वे बोल सकते हैं। क्योंकि वे आपके कंठ का और आपके बोलने के यंत्र का उपयोग कर लेते हैं।

दूसरा उपाय यह है कि आपके रिसीविंग सेंटर पर, आपके रेडियो स्टेशन पर, जहां आप रिसीव कर रहे हैं, तो रिसीव आप क्या कर रहे हैं? रिसीव तो सिर्फ आप तरंगें रिसीव करते हैं। ये तरंगें पैदा की जा सकें तो आपका रिसीविंग सेंटर कहेगा कि आवाजें हो रही हैं।

इसीलिए उस दस मिनट में जो आवाजें पकड़ी गईं, उसमें कोई शब्द नहीं पकड़े गए, सिर्फ रोने, हंसने और शोरगुल की आवाजें हैं वे, कोई शब्द नहीं हैं स्पष्ट। शब्द स्पष्ट पैदा करना बहुत कठिन है। लेकिन इस तरह की तरंगें पैदा की जा सकती हैं मंडल में कि वे तरंगें रोने-चिल्लाने, शोरगुल की आवाजें पैदा कर दें।

वे तरंगें ही पैदा की गई हैं। वे तरंगें पैदा करने के लिए वाणी की जरूरत नहीं है। वे तरंगें पैदा करना अलग तरह का उपाय है। वे पैदा की जा सकती हैं।

दो ही उपाय हैं, या तो सीधी तरंगें पैदा कर दी जाएं, और दूसरा उपाय यह है कि किसी मनुष्य के यंत्र का उपयोग किया जाए। तो आमतौर से मनुष्य के यंत्र का उपयोग किया जाता है। लेकिन तरंगें भी पैदा की जा सकती हैं। यानी वहां बोलने वाले की जरूरत नहीं है, बोलने से जो तरंगें मंडल में पैदा होती हैं, वे पैदा कर दी जाएं तो वह…।

और जैसा मैंने कहा कि देव या प्रेत योनि में जो सबसे बड़ी अदभुत खूबी की बात है, वह यह है कि वे जो भी मनोकामना करें, वह पैदा हो जाता है। वे अगर शोरगुल की मनोकामना करें तो शोरगुल पैदा हो जाएगा। कंठ की जरूरत नहीं है, वाणी की जरूरत नहीं है, वह सिर्फ मनोकामना पर्याप्त है।

आज इतना ही।


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–7)

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तिलक—टीके : तृतीय नेत्र की अभिव्यंजना–(प्रवचन–सातवां)

गहरे पानी पैठ:

(अंतरंग चर्चा वुडलैण्‍ड)

बम्‍बई, 12 जून 1971

तिलक—टीके के संबंध में समझने के पहले दो छोटी—सी घटनाएं आपसे कहूं फिर आसान हो सकेगी बात। दो ऐतिहासिक तथ्य हैं।

अट्ठारह सौ अट्ठासी में दक्षिण के एक छोटे—से परिवार में एक व्यक्ति पैदा हुआ। पीछे तो वह विश्वविख्यात हुआ। उसका नाम था रामानुजम, जो बहुत गरीब ब्राह्मण घर का था और बहुत थोड़ी उसे शिक्षा मिली थी।

लेकिन उस छोटे से गांव में भी बिना किसी विशेष शिक्षा के रामानुजम की प्रतिभा गणित के साथ अनूठी थी। जो लोग गणित जानते है, उनका कहना है कि मनुष्य जाति के इतिहास में रामानुजम से बड़ा और विशिष्ट गणितज्ञ नहीं हुआ। बहुत बड़े—बड़े गणितज्ञ हुए हैं, पर वे सब सुशिक्षित थे, उन्हें गणित का प्रशिक्षण मिला था। बड़े गणितज्ञो का साथ—सत्संग उन्हें मिला था, वर्षों की उनकी तैयारी रही थी। लेकिन रामानुजम की न कोई तैयारी थी, न कोई साथ मिला, न कोई शिक्षा मिली, मैट्रिक भी रामानुजम पास नहीं हुआ। और एक छोटे से दफ़र में मुश्किल से क्लर्की का काम मिला। लेकिन अचानक लोगों में खबर फैलने लगी कि इसकी गणित के संबंध में कुशलता अदभुत है। किसी ने उसको सुझाव दिया कि कैम्‍ब्रिज युनिवर्सिटी के उस समय विश्व के बड़े से बड़े गणितज्ञों में एक प्रोफेसर हार्डी थे, उनको लिखो। उसने पत्र तो नहीं लिखा, ज्यामिति की डेढ़ सौ थ्योरम बनाकर भेज दीं। हार्डी तो चकित रह गया। इतनी कम उम्र के व्यक्ति से, इस तरह के ज्यामिति के सिद्धांतों का कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था। उसने तत्काल रामानुजम को यूरोप बुलाया। जब रामानुजम कैम्ब्रिज पहुंचा तो हार्डी जो कि बड़े से बड़ा गणितज्ञ था उस समय के विश्व का, अपने को बिलकुल बच्चा समझने लगा रामानुजम के सामने। रामानुजम की क्षमता ऐसी थी, जिसका मस्तिष्क से संबंध नहीं मालूम पड़ता। अगर आपको कोई गणित करने को कहा जाए तो समय लगेगा। बुद्धि ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकती जिसमें समय न लगे। बुद्धि सोचेगी, हल करेगी, समय व्यतीत होगा, लेकिन रामानुजम को समय ही नहीं लगता था। यहां आप तख्ते पर सवाल लिखेंगे वहां रामानुजम उत्तर देना शुरू कर देगा। आप बोल भी न पाएंगे पूरा, और उत्तर आ जाएगा। बीच में समय का कोई व्यवधान नहीं होगा।

बड़ी कठिनाई खड़ी हो गयी, क्योंकि जिस सवाल को हल करने में बड़े से बड़े गणितज्ञ को छह घण्टे लगेगें ही, फिर भी जरूरी नहीं है कि सही हो, उत्तर सही है या नहीं इसे जांचने में फिर छह घण्टे उसे गुजारने पड़ेंगे। रामानुजम को सवाल दिया गया और वह उत्तर दे देंगे, जैसे सवाल में और उत्तर में कोई समय का क्षण भी व्यतीत नहीं होता।

इससे एक बात तो सिद्ध हो गयी कि रामानुजम बुद्धि के माध्यम से उत्तर नहीं दे रहा है। बुद्धि बहुत बड़ी नहीं है उसके पास, मैट्रिक में वह फेल हुआ था, कोई बुद्धिमत्ता का और लक्षण भी न था। सामान्य जीवन में किसी चीज में भी कोई ऐसी बुद्धिमत्ता नहीं मालूम पड़ती थी। लेकिन बस गणित के संबंध में वह एकदम अतिमानवीय था, मनुष्य से बहुत पार की घटना उसके जीवन में होती थी।

वैसे जल्दी मर गया रामानुजम। उसे क्षय रोग हो गया, वह छत्तीस साल की उम्र में मर गया। जब वह बीमार होकर अस्पताल में पड़ा था तो हार्डी अपने दो तीन गणितज्ञ मित्रों के साथ उसे देखने गया था। उसके दरवाजे पर ही हार्डी ने कार रोकी और भीतर गया। कार का नम्बर रामानुजम को दिखायी पड़ा। उसने हार्डी से कहा, आश्रर्यजनक है, आपकी कार का जो नम्बर है, ऐसा कोई आंकड़ा ही नहीं है, मनुष्य की गणित की व्यवस्था में। यह आंकडा बड़ा खूबी का है। उसने चार विशेषताएं उस आंकड़े की बतायीं। रामानुजम तो मर गया। हार्डी को छह महीने लगे वह पूरी विशेषता सिद्ध करने में। रामानुजम की तो आकस्मिक नजर पड़ गयी

हार्डी को छह महीने लगे, तब भी वह तीन ही सिद्ध कर पाया, चौथी विशेषता तो असिद्ध ही रह गयी।

हार्डी वसीयत छोड्कर मरा कि मेरे मरने के बाद उस चौथी की खोज जारी रखी जाए, क्योकि रामानुजम ने कहा है तो वह ठीक तो होगी ही। हार्डी के मर जाने के बाईस साल बाद वह चौथी घटना सही सिद्ध हो पायी कि उसने ठीक कहा था। उस आक्के में यह खूबी है!

रामानुजम को जब भी यह गणित की स्थिति घटती थी, तब उसकी दोनों आंखों के बीच में कुछ होना शुरू हो जाता था। उसकी दोनों आंखों की पुतलियां ऊपर चढ़ जाती थीं, योग जिस जगह रामानुजम की आंखें चढ़ जाती थीं, उसको तृतीय नेत्र कहता है। उसको तीसरी आंख कहता है। अगर वह तीसरी आंख आरम्भ हो जाए, तीसरी आंख सिर्फ उपमा की दृष्टि से कहता हूं सिर्फ इस खयाल से कि वहां से भी कुछ दिखायी पड़ना शुरू होता है, कोई दूसरा ही जगत शुरू हो जाता है।

जैसे कि किसी आदमी के मकान में एक छोटा—सा छेद हो, वह खुल जाए, और आकाश दिखायी पड़ने लगे। जब तक वह छेद न खुला था तो आकाश दिखायी न पड़ रहा था। करीब—करीब हमारी दोनों आंखों के बीच जो भ्रू—मध्य जगह है, वहा वह छेद है जहां से हम इस लोक के बाहर देखना शुरू कर देते हैं। एक बात तय थी कि जब भी रामानुजम को कुछ ऐसा होता था, उसकी दोनों पुतलियां चढ़ जाती थीं। हार्डी नहीं समझ पाया, पश्‍चिम के गणितज्ञ नहीं समझ पाए, और अभी गणितज्ञ आगे भी नहीं समझ पाएंगे।

एक दूसरी घटना, और तब मैं आपको तिलक—टीके के संबंध में कुछ कहूं तो आपकी समझ में आना आसान होगा; क्योंकि तिलक का संबंध उस तीसरी आंख से है।

उन्नीस सौ पैंतालिस में एक आदमी मरा अमरीका में—एडगर कायसी। चालीस साल पहले उन्नीस सौ पांच में वह बीमार पड़ा और बेहोश हो गया। तीन दिन कोमा में पड़ा रहा। चिकित्सकों ने आशा छोड़ दी, और कहा कि हमें इसे कोमा के बाहर, बेहोशी के बाहर लाने का कोई उपाय नहीं सूझता। और बेहोशी इतनी गहन है कि अब यह शायद ही वापस लौट सके। तीसरे दिन सारी आशा छोड़ दी गयी; सब दवाइयां, सब इलाज कर लिए गए लेकिन होश का कोई लक्षण नहीं उभरा। तीसरे दिन शाम को चिकित्सकों ने कहा, अब हम विदा होते हैं, अब हमारे वश के बाहर है। चार—छह घण्टे में युवक मर जाएगा, और अगर बच गया तो सदा के लिए पागल हो जाएगा, जो कि मरने से भी बुरा सिद्ध होगा। क्योंकि जितनी देर हो रही है उस बीच इसके मस्तिष्क के जो सूक्ष्म तन्तु हैं, वह विसर्जित हो रहे हैं, डिसइन्टीग्रेट हो रहे हैं।

पर अचानक चिकित्सक हैरान हुए। कायसी जो बेहोश पड़ा था बोला, जैसे कि कोई गहरी नींद से अचानक बोले। हैरानी और ज्यादा हो गयी, क्योंकि उसका कोमा जारी था। उसका शरीर अभी भी पूरी तरह कोमा में था। उसके हाथ में आप छुरी भी भोंक दो तो पता नहीं चलती। लेकिन वाणी आ गयी, और कायसी ने कहा कि शीघ्रता करो, मैं एक वृक्ष से गिर पड़ा था, मेरी रीढ़ में पीछे चोट लग गयी है और उसी चोट के कारण मैं बेहोश हूं। अगर छह घण्टे में मुझे ठीक नहीं किया गया तो बीमारी का जहर मेरे मस्तिष्क तक पहुंच जाएगा, फिर मेरा जिन्दा बचना असम्भव हो जाएगा। तुम इस नाम की जड़ी—बूटियां ले आओ और उनको इस तरह से तैयार करके मुझे पिला दो, मैं बारह घण्टे के भीतर ठीक हो जाऊंगा। इतना कहकर कायसी फिर बेहोश हो गया।

जो नाम उसने लिए थे जड़ी—बूटियों के, आशा भी नहीं हो सकती थी कि कायसी को उनका पता हो, क्योंकि चिकित्सा से कभी कोई उसका संबंध नहीं था। चिकित्सकों ने कहा, और तो करने का कोई उपाय नहीं है, यह निपट पागलपन मालूम पड़ता है, क्योंकि ये जड़ी—बूटियां इस तरह का काम करेंगी, यह हमको भी पता नहीं है। लेकिन जब कोई उपाय न था, तो हर्ज भी कुछ नहीं था। वे जड़ी—बूटियां खोजी गयीं। जैसा बताया था कायसी ने, वैसा बनाकर उसे दिया गया। बारह घण्टे में वह होश में आ गया, और बिलकुल ठीक हो गया। होश में आकर वह न बता सका कि उसने ऐसी कोई बात कही थी। वह उन दवाइयों के नाम भी न पहचान सका, वे जडुाई—बूइटयां, जो उसने कही थीं। उसने कहा, यह हो ही कैसे सकता है? मुझे तो कुछ पता नहीं है।

तब एक बहुत अनूठी घटना की शुरुआत हुई। फिर तो कायसी उसमें कुशल हो गया, और उसने अमरीका में तीस हजार लोगों को अपने पूरे जीवन में ठीक किया। जो भी निदान उसने किया वह सदा ठीक निकला, और जिस मरीज ने उससे निदान लिया वह सदा ठीक हुआ, निरपवाद रूप से। लेकिन कायसी खुद भी नहीं समझा सकता था कि उसे होता क्या है? इतना ही कह सकता था कि जब भी मैं आंख बन्द करता हूं कोई निदान खोजने के लिए, मेरी दोनों आंखें ऊपर चढ़ जाती हैं। मुझे ऐसा लगता है कि मेरी पुतलियों को ऊपर खींचे जा रहा है, फिर मेरी दोनों आंखें भ्रू—मध्य में ठहर जाती हैं। तब मैं इस लोक को भूल जाता हूं फिर मुझे पता नहीं क्या होता है। इसे मैं भूलता हूं यहां तक मुझे पता है। फिर क्या होता है, इसका मुझे कोई पता नहीं। लेकिन जब तक मैं इसको नहीं भूल जाता, तब तक वह निदान जो मैं लेता हूं वह नहीं आता है। निदान उसने ऐसे—ऐसे दिए कि एक—दो निदान सोच लेने जैसे हैं।

रथचाइल्ड अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति, अरबपति परिवार है। उस परिवार की एक महिला बीमार थी जिस पर करने को कोई इलाज नहीं बचा था, सब इलाज हो गए थे। फिर कायसी के पास उसको लाया गया। कायसी ने एक दवा का नाम दिया अपनी बेहोशी में। हमारी तरफ से हम उसे कहेंगे बेहोशी ही, लेकिन जो जानते हैं इस रहस्य के बारे में उनकी तरफ से तो वह बड़े होश में है, उनके लिहाज से हम बेहोश हैं। सच तो यह है कि जब तीसरी आंख तक ज्ञान न पहुंचे, तब तक बेहोशी जारी रहती है।

रथचाइल्ड तो अरबपति परिवार था। सारे अमरीका में खोजबीन की गयी उस दवा की, पर वह दवा कहीं मिली नहीं। कोई यह भी नहीं बता सका कि इस तरह की कोई दवा है भी। सारी दुनिया के अखबारों में विज्ञापन दिया गया कि कहीं से भी कोई इस नाम की दवा की सूचना भेजे। कोई बीस दिन बाद स्वीडन से एक आदमी ने जवाब दिया कि इस नाम की दवा है नहीं। बीस साल पहले मेरे पिता ने इस नाम की दवा पेटेंट करवाई थी, लेकिन फिर कभी बनायी नहीं। वह सिर्फ पेटेंट है, कभी बाजार में आयी नहीं। दवा भी हमारे पास नहीं है, पिता मर चुके हैं, और वह प्रयोग कभी सफल हुआ नहीं। सिर्फ फार्मूला हमारे पास है, वह हम पहुंचा देते हैं। वह फार्मूला पहुंचाया गया, वह दवा बनी और वह सी ठीक हो गयी। लेकिन वह दवा कहीं थी नहीं दुनिया के बाजार में, जिसका कायसी को पता हो सके।

दूसरी एक घटना में उसने एक दवा का नाम लिया। उसकी बहुत खोजबीन की गयी, वह दवा नहीं मिल सकी। सालभर बाद अखबारों में उस दवा का विज्ञापन निकला। वह दवा उस वक्त बन रही थी किसी प्रयोगशाला में जब उसने कहा, तब तक उसका नाम भी तय नहीं हुआ था। जो नाम उसने सालभर पहले लिया था उस नाम की दवा सालभर! बाद बाहर आयी। और उसी दवा से वह मरीज ठीक हुआ। कई बार उसने दवाएं बतायीं जो खोजी न जा सकीं और मरीज मर गए। वह भी कहता था, मैं कुछ कर नहीं सकता, मेरे हाथ की बात नहीं है।

मुझे पता नहीं कि जब मैं बेहोश होता हूं तब कौन बोलता है, कौन देखता है, मुझे कुछ पता नहीं। मुझमें और उस व्यक्तित्व में कोई भी संबंध नहीं है। पर एक बात तय थी कि कायसी जब भी बोलता तब उसकी दोनों आंखें चढ़ गयी होती थीं। आप भी जब गहरी नींद में सोते हैं तो आपकी भी दोनों आंखें जितनी गहरी नींद होती है, उतनी ऊपर चली जाती हैं।

अभी तो मनोवैज्ञानिक नींद पर बहुत से प्रयोग कर रहे हैं। आपकी आंख की पुतली कितनी ऊपर गयी है उससे ही तय किया जाता है कि आप कितनी गहरी नींद में हैं। जितनी आंख की पुतली नीचे होती है उतनी गतिमान होती है, ज्यादा। उतना ज्यादा मूवमेंट होता है। और आंख की पुतलियों में जितनी गति होती है, उतनी तेजी से आप सपना देख रहे होते हैं। यह सब सिद्ध हो चुका है वैज्ञानिक परीक्षणों से।

उसको वैज्ञानिक कहते हैं—आर.ई.एम, रैम’ —रैपिड आई मूवमेंट। रैम की कितनी मात्रा है इससे तय होता है कि आप कितनी गति का सपना देख रहे हैं। और आंख की पुतली जितनी नीची होती है, रैम की मात्रा उतनी ही ज्यादा होती है; जितनी ऊपर चढ़ने लगती है, वह जो आंख की तीव्र गति है पुतलियों की रैम कम होने लगती है। और जब बिलकुल थिर हो जाती है आंख वहां जाकर, जहां कि दोनों आंखें मध्य में देखती हैं, ऐसी प्रतीति होती है, वहां जाकर रैम बिलकुल ही बन्द हो जाता है, बिलकुल ही! पुतली में कोई तरह की गति नहीं रह जाती। वह जो अगति है पुतली की वही गहन से गहन निद्रा है। योग कहता कि गहरी सुषुप्ति में हम वहीं पहुंच जाते हैं जहां समाधि में होते हैं फर्क इतना ही होता है, सुषुप्ति में हमें पता नहीं होता है, समाधि में हमें पता होता है। गहरी सुषुप्ति में आंख जहां ठहरती है वहीं गहरी समाधि में भी ठहरती है।

ये दोनों घटनाएं मैंने आपसे कहीं हैं यह इंगित करने को कि आपकी दोनों आंखों के बीच में एक बिन्दु है जहां से यह संसार नीचे छूट जाता है और दूसरा संसार शुरू होता है—वह बिन्दु द्वार है। उसके इस पार वह जगत है जिस जगत से हम परिचित हैं, उसके उस पार एक अपरिचित और अलौकिक जगत है। उस अलौकिक जगत के प्रतीक की तरह सबसे पहले तिलक खोजा गया, और तिलक हर कहीं लगा देने की बात नहीं है। जो व्यक्ति हाथ रखकर आपका वह बिन्दु खोज सकता है वही आपको बता सकता है कि तिलक कहां लगाना

हर कहीं तिलक लगाने से कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। फिर प्रत्येक व्यक्ति का बिन्दु भी एक ही जगह नहीं होता। यह जो दोनों आंखों के बीच तीसरी आंख है, यह प्रत्येक व्यक्ति की बिलकुल एक जगह नहीं होती। अन्दाजन दोनों आंखों के बीच में, ऊपर होती है, पर फर्क होते हैं। अगर किसी व्यक्ति ने पिछले जन्मों में बहुत साधना की है और समाधि के छोटे—मोटे अनुभव पाए हैं तो उसी हिसाब से वह बिन्दु नीचे आता जाता है। अगर इस तरह की कोई साधना नहीं होती है तो वह बिन्दु काफी ऊपर होता है। उस बिन्दु की अनुभूति से यह भी जाना जाता है कि आपके पिछले जन्मों की साधना क्या कुछ है; समाधि की दिशा में?

आपने तीसरी आंख से दुनिया को कभी देखा है? क्या कभी आपके किसी जन्म में ऐसी कोई घटना घटी है? आपका बिन्दु, वह स्थान बताएगा कि ऐसी घटना घटी है या नहीं घटी है। अगर ऐसी घटना बहुत घटी है तो वह बिन्दु बहुत नीचे आ जाएगा। वह करीब—करीब दोनों आंखों के समतल भी आ जाता है, उससे नीचे नहीं आ सकता। अगर बिलकुल समतल बिन्दु हो, दोनों आंखों के बिलकुल बीच में आ गया हो, तो जरा से इशारे से आप समाधि में प्रवेश कर सकते हैं। इतने छोटे इशारे से कि जिसको हम कह सकते हैं, इशारा बिलकुल असंगत है। इसलिए बहुत दफा जब कुछ लोग बिलकुल ही अकारण समाधि में प्रवेश कर जाते हैं तो हमें बड़ी अजीब सी बात मालूम पड़ती है।

जैसे कि जैन साध्वी के जीवन में कथा है। वह लौटती थी कुएं से पानी भरकर, घड़ा गिर गया। और घड़े के गिरने के साथ उसको समाधि लग गयी, और पूर्ण ज्ञान उपलब्ध हुआ। कैसी फिजूल की बात लगती है, घड़े का फूट जाना और समाधि का लगना, कोई संगति नहीं है। लाओत्सु के जीवन में उल्लेख है कि वृक्ष के नीचे बैठा था, पतझड़ के दिन थे, वृक्ष से पत्ते नीचे गिरने लगे, और लाओत्सु परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया। अब वृक्ष से गिरते हुए पत्ते का कोई संबंध नहीं है। लेकिन यह घटना तब घट सकती है जब कि पिछले जन्मों में यात्रा इतनी हो चुकी हो कि वह तीसरा बिन्दु दोनों आंखों के बिलकुल बीच में आ गया हो। क्योंकि तब शायद आखिरी तिनके की जरूरत है और तराजू बैठ जाए। आखिरी तिनका कोई भी चीज बन सकती है।

तो पुराने दिनों में जब भी दीक्षा दी जाती थी, और दीक्षा वही दे सकता है जो आपकी समस्त जन्मों की सार संपदा क्या है, उसे समझ पाता हो, अन्यथा नहीं दे सकता। अन्यथा देने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जहां तक आप पहुंच गए हैं उसके आगे यात्रा करनी है। तो तिलक अगर ठीक—ठीक लगाया जाए, तो वह कई अर्थों का सूचक था। वे सारे अर्थ समझने पड़ेंगे।

पहला तो, वह इस बात का सूचक था कि जब एक बार गुरु ने बता दिया कि तिलक यहां लगाना है ठीक जगह, तो आपको भी उस ठीक जगह का अनुभव होने लगे, तिलक लगाने का पहला प्रयोजन यही है। आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि आप आंख बन्द करके बैठ जाएं और कोई व्यक्ति आपकी दोनों आंखों के बीच में सिर के पास उंगली ले जाए तो बन्द आंख में भी आपके भीतर एहसास होना शुरू हो जाएगा कि कोई आंख की तरफ उंगली किए हुए है—वह तीसरी आंख की प्रतीति है।

अगर ठीक तीसरी आंख पर तिलक लगा दिया जाये, उसी मात्रा, उतने ही अनुपात का तिलक लगा दिया जाए, ठीक जितनी बड़ी तीसरी आंख की स्थिति है, तो आपको पूरा शरीर छोड्कर उसी का स्मरण चौबीस घण्टे रहने लगेगा। वह स्मरण पहला तो यह काम करेगा कि आपका शरीर—बोध कम होता जाएगा, और तिलक—बोध बढ़ता जाएगा। एक क्षण ऐसा आ जाता है जब कि पूरे शरीर में सिर्फ तिलक ही स्मरण रह जाता है, बाकी सारा शरीर भूल जाता है। और जिस दिन ऐसा हो जाए, उसी दिन आप तीसरी आंख को खोलने में समर्थ हो सकते है।

तिलक के साथ जुड़ी हुई साधनाएं थीं कि पूरे शरीर को भूल जाओ, सिर्फ तिलक मात्र की जगह याद रह जाए। इसका अर्थ यह हुआ कि सारी चेतना सिकुड़कर फोकस्‍ड हो जाए तीसरी आंख पर और तीसरी आंख के खोलने की जो कुंजी है वह फोकस्‍ड कांशसनेस है। उस पर चेतना पूरी की पूरी इकट्ठी हो जाए और सारे शरीर से सिकुड़कर उस छोटे से स्थान पर लग जाए। बस, उसकी मौजूदगी से काम हो जाएगा।

जैसे हम सूरज की किरणों को एक छोटे से लेंस के द्वारा एक कागज पर गिरा लें, तो इकट्ठी हो गयी किरणें आग पैदा कर देंगी। वे ही किरणें सिर्फ धूप पैदा कर रही थीं उनसे आग पैदा नहीं होती थी। वे ही किरणें आग पैदा कर सकती हैं, संग्रहीत होने पर। चेतना शरीर पर जब बंटी रहती है तो सिर्फ जीवन का काम चलाऊ उपयोग उससे होता है। चेतना अगर तीसरे नेत्र के पास पूरी इकट्ठी हो जाए, तो जो तीसरे नेत्र की बाधा, जो द्वार, जो बन्दपन है वह टूट जाता है, जल जाता है, राख हो जाता है, और हम उस आकाश को देखने में समर्थ हो जाते हैं जो हमारे ऊपर फैला है।

तिलक का पहला उपयोग यह था कि आपको ठीक—ठीक जगह बता दी जाए शरीर में कि चौबीस घण्टे इस जगह का स्मरण रखना है। सब तरफ से चेतना को सिकोड़कर इस जगह ले आना है। दूसरा यह कि गुरु को रोज—रोज देखने की जरूरत न पड़े, रोज आपके माथे पर हाथ रखने की भी जरूरत न पड़े; क्योंकि जैसे—जैसे बिन्दु नीचे सरकेगा वैसे—वैसे आपको एहसास होगा, और आपका तिलक भी नीचा होता जाएगा। आपको रोज तिलक लगाते वक्त ठीक वहीं तिलक लगाना है जहां उस बिन्दु का आपको एहसास होता हो।

हजार शिष्य हैं एक गुरु के। एक शिष्य आता है, झुकता है, तभी गुरु देख लेता है कि तिलक कहां है? इसकी बात करने की जरूरत नहीं रह जाती। यह देख लेता है कि तिलक नीचे सरक रहा है कि नहीं सरक रहा है! तिलक उसी जगह है कि तिलक में कोई अन्तर पड रहा है! वह कोड है। दिन में दो—चार दफा शिष्य आएगा और गुरु देख लेगा कि तिलक गतिमान है कि नहीं? वह आगे गति कर रहा है, रुका हुआ है या ठहरा हुआ है? किसी दिन स्वयं शिष्य के माथे पर रखकर पुन: देख पाएगा। अगर शिष्य को पता नहीं चल रहा है तिलक के हटने का, तो उसका मतलब है कि चेतना पूरी कि पूरी इकट्ठी नहीं की जा रही है। अगर वह तिलक गलत जगह लगाए हुए है और बिन्दु दूसरी जगह है तो इसका मतलब है कि उसकी कांशसनेस, उसकी रिमेंबरिग, उसकी स्मृति ठीक बिन्दु को नहीं पकड़ पा रही है, वह भी गुरु को पता चल जाएगा।

जैसे—जैसे यह तिलक नीचे आता जाएगा वैसे—वैसे प्रयोग बदलने पड़ेंगे साधना के। यह तिलक करीब—करीब वैसा ही काम करेगा जैसे एक अस्पताल में एक मरीज के पास लटका हुआ चार्ट काम करता है। नर्स चार्ट पर लिख जाती है, कितना है ताप, कितना है ब्लडप्रेशर, क्या है, क्या नहीं? डाक्टर को आकर देखने की जरूरत नहीं होती है, वह चार्ट पर एक क्षण नजर डाल लेता है, बात पूरी हो जाती है। पर इससे भी अदभुत था यह प्रयोग कि माथे पर पूरा का पूरा इंगित लगा था, जो सब तरह की खबर देता। अगर ठीक—ठीक इसका प्रयोग किया जाता तो गुरु को पूछने की कभी जरूरत न पड़ती कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। वह जानता है, क्या हो रहा है। क्या सहायता पहुंचानी है, वह यह भी जानता है। क्या प्रयोग बदलना है, कौन—सी विधि रूपांतरित करनी है, वह भी जानता है, तो साधना की दृष्टि से तिलक का ऐसा मूल्य था।

दूसरा, जो हमारी तीसरी आंख का बिन्दु है, वह हमारे संकल्प का भी बिन्दु है। उसको योग में आज्ञाचक्र कहते हैं। आज्ञाचक्र इसीलिए कहते हैं कि हमारे जीवन में जो कुछ भी अनुशासन है वह उसी चक्र से पैदा होता है। हमारे जीवन में जो भी व्यवस्था है, जो भी आर्डर है, जो भी संगति है, वह उसी बिन्दु से पैदा होती है। इसे ऐसा समझें। हम सबके शरीर में सेक्स का सेंटर है। सेक्स से समझना आसान पड़ जाएगा, क्योंकि वह हम सबका परिचित है, यह आज्ञा का चक्र हम सबका परिचित नहीं है।

हमारे जीवन की सारी वासना और कामना सेक्स के चक्र से पैदा होती है। जब तक यह चक्र सक्रिय नहीं होता तब तक काम—वासना पैदा नहीं होती। काम—वासना लेकर बच्चा पैदा होता है, काम—वासना का पूरा यंत्र लेकर पैदा होता है, कोई कमी नहीं होती।

कुछ मामले में तो बहुत हैरानी की बात है। स्त्रियां तो अपने जीवन के सारे रजकण भी लेकर पैदा होती हैं, फिर कोई नया रजकण पैदा नहीं होता। प्रत्येक सी कितने बच्चों को जन्म दे सकती है वह सब अण्‍ड़े लेकर पैदा होती है—करोड़ों। पहले दिन की बच्ची भी, जब मां के पेट से पैदा होती है, तो अपने जीवन के समस्त अच्छों की संख्या अपने भीतर लिए हुए पैदा होती है। हर महीने एक अच्छा उसके कोष से निकलकर सक्रिय हो जाएगा। अगर वह अच्छा पुरुष वीर्य से मिल जाए, संयुक्त हो जाए, तो बच्चे का जन्म होता है। एक भी नया अच्छा फिर सी में पैदा नहीं होता। लेकिन काम—वासना नहीं पैदा होती है तब तक, जब तक कि काम वासना का चक्र शुरू न हो जाए। वह चक्र जब तक अगति में पडा है, ठहरा हुआ है, तब तक काम का पूरा यंत्र, काम की पूरी आयोजना, शरीर के पास काम की पूरी शक्ति होने के बावजूद भी काम—वासना पैदा नहीं होगी। काम—वासना पैदा होगी, जैसे ही काम का सेन्टर गतिमान होगा, गत्यात्मक होगा।

चौदह वर्ष की उम्र में या तेरह वर्ष की उम्र में वह गतिमान हो जाएगा। गतिमान होते ही जो यंत्र पड़ा था बन्द बिलकुल, वह पूरी सक्रियता ले लेगा। इस एक ही चक्र से, आमतौर से हम परिचित हैं। वह भी इसलिए परिचित हैं कि उसे हम शुरू नहीं करते, उसे प्रकृति शुरू करती है। अगर हमें ही उसे शुरू करना हो, तो इस जगत में थोड़े ही से लोग काम—वासना से परिचित हो पाएंगे। यह तो प्रकृति शुरू करती है, इसलिए हमें पता चलता है, कि वह है।

कभी आपने सोचा है कि जरा सा विचार वासना का, और जननेंद्रिय का पूरा यंत्र सक्रिय हो जाता है। विचार चलता है मस्तिष्क में, यंत्र होता है बहुत दूर, परन्तु तत्काल चक्र सक्रिय हो जाता है। असल में आपके चित्त में काम—वासना का कोई भी विचार उठे, तत्काल सेक्स का सेन्टर उसे अपनी ओर खींच लेता है। उसे उस ओर जाना ही पड़ेगा, जाने की और कोई जगह नहीं है। जैसे पानी गड्डे में चला जाता है, वैसा प्रत्येक सम्बन्धित विचार अपने चक्र पर चला जाता है। तो दोनों आंखों के बीच में जो तीसरे नेत्र की मैं बात कर रहा हूं वही जगह आज्ञाचक्र की है। इस आज्ञा के संबंध में थोडी बात समझ लेनी जरूरी है।

जिन लोगों के भी जीवन मे यह चक्र प्रारम्भ नहीं होगा वह हजार तरह की गुलामियों में बंधे रहेंगे, वे गुलाम ही नौ। इस चक्र के बिना कोई स्वतंत्रता नहीं है। यह बहुत हैरानी की बात मालूम पड़ेगी। हमने बहुत तरह की स्वतत्रता सुनी है—राजनीतिक आर्थिक—ये स्वतंत्रताएं वास्तविक नहीं हैं। क्योंकि जिस व्यक्ति का आज्ञाचक्र मक्रिय नहीं है, वह किसी न किसी तरह की गुलामी में रहेगा। एक गुलामी से छूटेगा दूसरी में पडेगा, दूसरी से छूटेगा तीसरी में पड़ेगा, वह गुलाम रहेगा ही।

उसके पास मालिक होने का तो अभी चक्र ही नहीं है जहां से मालकियत की किरणें पैदा होती हैं। उसके पास संकल्प जैसी, ‘विल’ जैसी कोई चीज ही नहीं है। वह अपने को आता दे सके ऐसी उसकी सामर्थ्य नहीं है, बल्कि उसके शरीर और उसकी इंद्रियां ही उसको आज्ञा दिए चली जाती हैं। पेट कहता है भूख लगी है, तो उसको भूख लगती है। काम—वासना का बिन्दु कहता है, वासना गट्टे, तो उसे वासना जगती है। शरीर कहता है बीमार हूं तो वह बीमार हो जाता है। शरीर कहता है, बूढ़ा हो गया तो बूढ़ा हो गया। शरीर आज्ञा देता है, आदमी आज्ञा मानकर चलता है।

लेकिन यह जो आज्ञाचक्र है, इसके गाते ही शरीर आशा देना बन्द कर देता है और आज्ञा लेना शुरू कर देता है। पूरा का पूरा आयोजन बदल जाता है और उल्टा हो जाता है। वैसा आदमी अगर बहते हुए खून को कह दे, रुक जाओ, तो वह बहता हुआ खून रुक जाएगा। वैसा आदमी अगर कह दे हृदय की धड़कन को कि ठहर जा, तो हृदय की धड़कन ठहर जाएगी। वैसा आदमी कहे अपनी नब्ज से कि मत चल, तो नब्ज चल न सकेगी। वैसा आदमी अपने शरीर, अपने मन, अपनी इन्द्रियों का मालिक हो जाता है। पर इस चक्र के बिना शुरू हुए मालिक नहीं होता। इस चक्र का स्मरण जितना ज्यादा रहे, उतना ही ज्यादा आपके भीतर, स्वयं की मालिकी पैदा होनी शुरू होती है। आप गुलाम की जगह मालिक बनना शुरू होते हैं।

‘योग ने उस चक्र को जगाने के बहुत—बहुत प्रयोग किए हैं। उसमें तिलक भी एक प्रयोग है। स्मरणपूर्वक, अगर कोई चौबीस घण्टे उस चक्र पर बार—बार ध्यान को ले जाता रहे तो बड़े परिणाम आते है। अगर तिलक लगा हुआ है तो बार—बार ध्यान जाएगा। तिलक के लगते ही वह स्थान पृथक हो जाता है, वह बहुत सेंसिटिव स्थान है। अगर तिलक ठीक जगह लगा है तो आप हैरान होंगे, आपको उसकी याद करनी ही पड़ेगी, बहुत संवेदनशील जगह है। सम्भवतः शरीर में वह सर्वाधिक संवेदनशील जगह है। उसकी संवेदनशीलता का स्पर्श करना, और वह भी खास चीजों से स्पर्श करने की विधि है—जैसे चंदन का तिलक लगाना।

सैंकड़ों और हजारों प्रयोगों के बाद तय किया था कि चन्दन का क्यों प्रयोग करना है? एक तरह की रैजोनेंस है चन्दन में, और उस स्थान की संवेदनशीलता में। चन्दन का तिलक उस बिन्दु की संवेदनशीलता को और गहन करता है, और घना कर जाता है। हर कोई तिलक नहीं करेगा! कुछ चीजों के तिलक तो उसकी संवेदनशीलता को मार देंगे, बुरी तरह मार देंगे जैसे आज स्त्रियां टीका लगा रही है। बहुत से बाजारू टीके हैं वे उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है, उनका योग से कोई लेना—देना नहीं है। वे बाजारू टीके नुकसान कर रहे हैं, वह नुकसान करेंगे।

सवाल यह है कि संवेदनशीलता को बढ़ाते हैं या घटाते हैं? अगर घटाते हैं संवेदनशीलता को तो नुकसान करेंगे, अगर बढ़ाते है तो फायदा करेंगे। और प्रत्येक चीज के अलग—अलग परिणाम हैं, इस जगत में छोटे से फर्क से सारा फर्क पड़ता है। इसको ध्यान में रखते हुए कुछ विशेष चीजें खोजी गयी थीं, जिनका ही उपयोग किया जाए। यदि आज्ञा का चक्र संवेदनशील हो सके, सक्रिय हो सके तो आपके व्यक्तित्व में एक गरिमा और इन्टीग्रिटी आनी शुरू होगा, एक समग्रता पैदा होगी। आप एक जुट होने लगते हैं, कोई चीज आपके भीतर इकट्ठी हो जाती है, खण्ड—खण्ड नहीं अखण्ड हो जाती है।

इस संबंध में टीके के लिए भी पूछा है तो वह भी खयाल में ले लेना चाहिए। तिलक से थोड़ा हटकर टीके का प्रयोग शुरू हुआ। विशेषकर स्त्रियों के लिए शुरू हुआ। उसका कारण वही था, योग का अनुभव काम कर रहा था। असल में स्त्रियों का आज्ञाचक्र बहुत कमजोर चक्र है—होगा ही। क्योंकि सी का सारा व्यक्तित्व निर्मित किया गया समर्पण के लिए, उसके सारे व्यक्तित्व की खूबी समर्पण की है। आज्ञाचक्र अगर उसका बहुत मजबूत हो तो समर्पण करना मुश्किल हो जाएगा। सी के पास आशा का चक्र बहुत कमजोर है, असाधारण रूप से कमजोर है। इसलिए सी सदा ही किसी न किसी का सहारा मांगती रहेगी, चाहे वह किसी रूप में हो।

अपने पर खड़े होने का पूरा साहस नहीं जुटा पाएगी। कोई सहारा, किसी के कन्धे पर हाथ, कोई आगे हो जाए, कोई आज्ञा दे और वह मान ले, इसमें उसे सुख मालूम पडेगा।

स्त्री के आज्ञाचक्र को सक्रिय बनाने के लिए अकेली कोशिश इस मुल्क में हुई है, और कहीं भी नहीं हुई। और वह कोशिश इसलिए थी कि अगर सी का आज्ञाचक्र सक्रिय नहीं होता तो परलोक में उसकी कोई गति नहीं होती। साधना में उसकी कोई गति नहीं होती। उसके आज्ञाचक्र को तो स्थिर रूप से मजबूत करने की जरूरत है। लेकिन अगर यह आज्ञाचक्र साधारण रूप से मजबूत किया जाए तो उसके स्‍त्रैण होने में कमी पड़ेगी और उसमें पुरुषत्व के गुण आने शुरू हो जाएंगे। इसलिए इस टीके को अनिवार्य रूप से उसके पति से जोड्ने की चेष्टा की गयी। उसके जोड्ने का कारण है।

इस टीके को सीधा नहीं रख दिया गया उसके माथे पर, नहीं तो उसमें सील कम होगा। वह जितनी स्वनिर्भर होने लगेगी, उतनी ही उसकी कमनीयता, उसका कौमार्य नष्ट हो जाएगा। वह दूसरे का सहारा खोजती है इसमें एक तरह की कोमलता है। पर जब वह अपने सहारे खड़ी होगी तो एक तरह की कठोरता अनिवार्य हो जाएगी। तब बडी बारीकी से खयाल किया गया कि उसको सीधा टीका लगा दिया जाए, नुकसान पहुंचेगा उसके व्यक्तित्व में, उसके मां होने में बाधा पड़ेगी, उसके समर्पण में बाधा पड़ेगी। इसलिए उसकी आशा को उसके पति ही जोड्ने का समग्र प्रयास किया गया। इस तरह दोहरे फायदे होंगे। उसके स्‍त्रैण होने में अन्तर नहीं पड़ेगा

अपने पति के प्रति ज्यादा अनुगत हो पाएगी, और फिर भी उसकी आशा का चक्र सक्रिय हो सकेगा।

इसे ऐसा समझिए, आशा का चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए, उसके विपरीत कभी नहीं जाता। चाहे गुरु से संबंधित कर दिया जाए तो गुरु के विपरीत कभी नहीं जाता, चाहे पति से संबंधित कर दिया जाए तो पति से विपरीत कभी नहीं जाता। आशा चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत व्यक्तित्व नहीं जाता। अगर उस सी के माथे पर ठीक जगह पर टीका है तो वह सिर्फ पति के प्रति तो अनुगत हो सकेगी, शेष सारे जगत के प्रति वह सबल हो जाएगी। यह करीब—करीब स्थिति वैसी है, अगर आप सम्मोहन के संबंध में कुछ समझते हैं तो इसे जल्दी समझ जाएंगे।

अगर आपने किसी सम्मोहक को लोगों को सम्मोहित करते, हिप्रोटाइज करते देखा तो आप एक चीज देखकर जरूर ही चौंके होंगे। वह चीज यह कि अगर सम्मोहन करनेवाला व्यक्ति किसी को सम्मोहित कर दे, या आप खुद किसी को सम्मोहित कर दें तो आपके सम्मोहित कर देने के बाद वह व्यक्ति किसी दूसरे की आवाज नहीं सुनेगा, सिर्फ आपकी सुन सकेगा। बहुत मजे की घटना घटती है। सम्मोहित कर देने के बाद सारे हाल में हजारों लोग चिल्लाते रहें, बात करते रहें, बेहोश पड़ा हुआ आदमी कुछ सुनेगा नहीं। लेकिन जिसने सम्मोहित किया है वह धीमे से भी बोले, तो भी सुनेगा।

यह करीब—करीब, जो मैं आपको टीके के बारे में समझा रहा हूं उससे जुड़ी हुई घटना है। व्यक्ति जैसे ही सम्मोहित किया गया वैसे ही सम्मोहित करनेवाले के प्रति ही सिर्फ उसकी ओपनिंग और खुलापन रह गया है, बाकी सबके लिए क्लोज हो गया। आप उसको कुछ नहीं कह सकते। आप उसके कान के पास कितना ही चिल्लाएं वह बिलकुल नहीं सुनेगा, नगाडे बजाए तो भी नहीं सुनेगा। और जिसने सम्मोहित किया है वह धीमे से भी आवाज दे, कि खड़े हो जाओ, वह तत्काल खड़ा हो जाएगा। उसकी चेतना में सिर्फ एक द्वार रह गया है, बाकी सब तरफ से बन्द हो गयी है। जिसने सम्मोहित किया है, आज्ञाचक्र उससे बंध गया है। बाकी सब तरफ से बंद हो गया है।

ठीक इसी सजेस्टिबिलिटी का, इसी मंत्र का उपयोग सी के टीके में किया गया है। उसको उसके पति के साथ जोड़ देना है, एक ही तरफ उसका अनुगत भाव रह जाएगा, एक ही तरफ वह समर्पित हो पाएगी। शेष सारे जगत के प्रति वह मुक्त और स्वतंत्र हो जाएगी। अब उसके सी तत्व पर कोई बाधा नहीं पड़ेगी। इसीलिए जैसे ही पति मर जाए टीका हटा देना है, वह इसलिए हटा देना है कि अब उसका किसी के प्रति भी अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा।

लोगों को इस बात का कतई खयाल नहीं है, उनको तो खयाल है कि टीका पोंछ दिया, क्योंकि विधवा हो गयी। पोंछने का प्रयोजन है। अब उसके अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा, सच तो यह है कि अब उसको पुरुष की भांति ही जीना पड़ेगा। अब उसमें जितनी स्वतंत्रता आ जाए, उतनी उसके जीवन के लिए हितकर होगी। जरा—सा भी छिद्र वल्‍नरेबिलिटी का, जरा सा भी छेद जहां से वह अनुगत हो सके, वह हट जाए। टीके का प्रयोग एक बहुत ही गहरा प्रयोग है। लेकिन ठीक जगह पर हो, ठीक वस्तु का हो, ठीक नियोजित ढंग से लगाया गया हो तो ही कारगर है अन्यथा बेमानी है। सजावट हो, श्रृंगार हो, उसका कोई मूल्य नहीं है, उसका कोई अर्थ नहीं है। तब वह सिर्फ एक औपचारिक घटना है। इसलिए पहली बार जब टीका लगाया जाए तो उसका पूरा अनुष्ठान है। और पहली दफा गुरु तिलक दे तब उसका पूरा अनुष्ठान से ही लगाया जाए तो ही परिणामकारी होगा, अन्यथा परिणामकारी नहीं होगा।

आज सारी चीजें हमें व्यर्थ मालूम पड़ने लगी है, उसका कारण है। आज तो व्यर्थ है। क्योंकि उनके पीछे का कोई भी वैज्ञानिक रूप नहीं है। सिर्फ उसकी खोल रह गयी है, जिसको हम घसीट रहे हैं। जिसको हम खींच रहे है बेमन, जिसके पीछे मन का कोई लगाव नहीं रह गया है, आत्मा का कोई भाव नहीं रह गया है, और उसके पीछे की पूरी वैज्ञानिकता का कोई सूत्र भी मौजूद नहीं है। यह आज्ञाचक्र है, इस संबंध में दो—तीन बातें और समझ लेनी चाहिए, क्योंकि यह काम आ सकती है, इसका उपयोग किया जा सकता है।

आज्ञाचक्र की जो रेखा है, उस रेखा से ही जुडा हुआ हमारे मस्तिष्क का भाग है। इससे ही हमारा मस्तिष्क शुरू होता है। लेकिन अभी भी हमारे मस्तिष्क का आधा हिस्सा बेकार पड़ा हुआ है साधारणत:। हमारा जो प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली व्यक्ति होता है, जिसको हम जीनियस कहें, उसका भी केवल आधा ही मस्तिष्क काम करता है, आधा काम नहीं करता। वैज्ञानिक बहुत परेशान हैं, फिजियोलोजिस्ट बहुत परेशान हैं कि यह आधी खोपड़ी का जो हिस्सा है, यह किसी भी काम में नहीं आता। अगर आपके इस आधे हिस्से को काटकर निकाल दिया जाए तो आपको पता भी नहीं चलेगा। आपको पता ही नहीं चलेगा कि कहीं कोई चीज कम हो गइए है। क्योंकि उसका तो कभी उपयोग ही नहीं हुआ है, वह न होने के बराबर है।

लेकिन वैज्ञानिक जानते हैं कि प्रकृति कोई भी चीज व्यर्थ निर्मित नहीं करती। भूल होती है, एकाध आदमी के साथ हो सकती है, यह तो हर आदमी के साथ आधा मस्तिष्क खाली पड़ा हुआ है। बिलकुल निष्क्रिय पड़ा हुआ है, उसमें कहीं कोई चहल पहल भी नहीं हुई है। योग का कहना है, कि वह जो आधा मस्तिष्क है वह आज्ञाचक्र के चलने के बाद शुरू होता है। आधा मस्तिष्क आज्ञाचक्र के नीचे के चक्रों से जुडा है, और आधा मस्तिष्क आज्ञाचक्र के ऊपर के चक्रों से जुड़ा हुआ है। नीचे के चक्र शुरू होते हैं तो आधा मस्तिष्क काम करता है, और जब आज्ञा के ऊपर काम शुरू होता है तब शेष आधा मस्तिष्क काम शुरू करता है।

इस संबंध में, हमें खयाल भी नहीं होता, जब तक कोई चीज सक्रिय न हो जाए हम सोच भी नहीं सकते। सोचने का भी कोई उपाय नहीं है। जब कोई चीज सक्रिय होती है तभी हमें पता चलता है।

स्वीडन में एक आदमी गिर पड़ा ट्रेन से। गिरने के बाद जब वह अस्पताल में भर्ती किया गया तो उसे दस मील के क्षेत्र की रेडियो की आवाजें पकड़ने लगीं, उसके कान में। पहले तो वह समझा कि उसका दिमाग कुछ खराब हो रहा है। पहले तो साफ भी नहीं था, उसे गुनगुनाहट मालूम होती थी। लेकिन दो—तीन दिन में ही चीजें साफ होने लगीं तब उसने घबराकर डाक्टर से कहा, यह मामला क्या है? मुझे तो ऐसा सुनाई पड़ता है जैसे कोई रेडियो मेरे कान के पास लगाए हुए है।

डाक्टर ने पूछा, तुम्हें क्या सुनाई पड़ रहा है? उसने जो गीत की कड़ी बताई वह डाक्टर अभी अपने रेडियो से सुनकर आ रहा है। उसने कहा, यह मुझे अभी थोड़ी देर पहले सुनाई पड़ी। और फिर तो स्टेशन बन्द हो गया टाइम बताकर, कि इतना टाइम है। तब रेडियो लाकर, लगाकर, जांच—पड़ताल की गई और पाया गया है कि उस आदमी का कान ठीक रेडियो की तरह रिसेटिव का कम कर रहा है, उतना ही ग्राहक हो गया है।

अन्त में उसका आपरेशन करना पड़ा। नहीं तो यह आदमी पागल हो जाए। क्योंकि आन—आफ का तो कोई उपाय नहीं था। वह चौबीस घंटे चल रहा था, जब तक वह स्टेशन चलेगा तब तक वह आदमी चल रहा था। लेकिन एक बात जाहिर हो गई कि कान की एक यह भी सम्भावना हो सकती है। और यह भी तय हो गया उसी दिन कि इस सदी के पूरे होते—होते हम कान का ही उपयोग करेंगे रेडियो के लिए।

इतने बड़े यंत्रों को बनाने की और ढोने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन तब एक छोटी—सी व्यवस्था, जो कान पर लगाई जा सके और जिसे आन—आफ किया जा सके पर्याप्त होगी। सिर्फ आन आफ किया जा सके, उतनी व्यवस्था! उस आदमी की आकस्मिक घटना से यह एक खयाल जन्मा, बिलकुल आकस्मिक इस जगत में जो—जो नयी घटनाएं घटती है या नये दृष्टिकोण खुलते हैं, वह हमेशा एक्सिडेंटल और आकस्मिक होते हे।

क्योंकि हम अपने पिछले ज्ञान से तो उनका कोई अनुमान नहीं लगा सकते। हम कभी सोच नहीं सकते कि कान भी कभी रेडियो का काम कर सकता है। लेकिन क्यों नहीं कर सकता है मे कान सुनने का काम करता है, रेडियो सुनने का काम करता है। कान रिसेटिविटी है पूरी, रेडियो रिसेटिविटी है पूरी। सच तो यह है कि रेडियो कान के ही आधार पर निर्मित है। माडल का काम तो कान ने ही किया है। कान की और क्या—क्या सम्मावनाएं हो सकती है, ये जब तक अचानक उदघाटित न हो जाएं तब तक पता भी नहीं चल सकता।

ठीक वैसी घटना दूसरे महायुद्ध में घटी। एक आदमी घायल हुआ, बेहोश हो गया और जब होश में आया तो उसे दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने लगे। तारे तो आकाश में होते ही हैं, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह से दिखाई पड़ने बन्द हो जाते है। सूरज की रोशनी बीच में आ जाती है, तारे पीछे पड़ जाते है। सूरज की रोशनी बहुत तेज है, सूरज से तारे बहुत दूर है, उनकी टिमटिमाती रोशनी खो जाती है। यद्यपि वे सूरज से छोटे नहीं है, उनमें से कोई सूरज से हजार गुना बड़ा है, कोई दस हजार गुना बड़ा है, कोई लाख गुना बड़ा है, पर फासला बहुत है।

सूरज से किरण हम तक आती है तो उसे नौ मिनट लगते है। और जो सबसे करीब का तारा है, उससे जो किरण आती हैं उसे चालीस साल लगते हैं। फासला बहुत है। नौ मिनट और चालीस साल, और किरण बहुत तेज चलती है, एक लाख छियासी हजार मील चलती है एक सेकेंड में। सूरज से पहुंचने में नौ मिनट लगते हैं, निकटतम तारे से पहुंचने में चालीस साल लगते हैं। और ऐसे तारे हैं, जिनसे चार हजार साल भी लगते हैं, चार लाख साल भी लगते हैं, चार करोड़ साल भी लगते हैं, चार अरब साल भी लगते हैं। चार अरब साल के ऊपर का हम हिसाब नहीं रख सकते हैं क्योंकि हमारी पृथ्वी को बने चार अरब साल हुए।

वैज्ञानिकों का कहना है कि जब हमारी पृथ्वी नहीं बनी थी, तब जो किरणें चली होंगी, एक दिन जब हमारी पृथ्वी समाप्त हो चुकी होगी तब पार होंगी। उन किरणों को कभी पता नहीं चलेगा कि बीच में किसी पृथ्वी के होने की घटना घट गई। जब पृथ्वी नहीं थी तब वे चलीं और जब पृथ्वी नहीं हो चुकी होगी तब वे पार हो गई होंगी। उनको कभी पता नहीं चलेगा उन किरणों पर कोई यात्री सवार होकर चले तो पृथ्वी कभी थी, इसका कोई भी अन्दाजा नहीं लगेगा।

दिन में वे तारे हैं अपनी जगह। उस आदमी को दिन में भी दिखाई पड़ने शुरू हो गए। उसकी आंख को क्या हो गया? उसकी आंख ने एक नया सिलसिला शुरू किया। आपरेशन करना पड़ा उसकी आंख का, क्योंकि वह आदमी सामान्य नहीं रह गया। वह आदमी बेचैनी में पड गया, वह आदमी कठिनाई में पड़ गया। तब एक बात हुई कि आंख दिन में भी तारों को देख सकती है। अगर आंख दिन में भी तारों को देख सकती है तो आंख की बहुत—सी सम्भावनाएं हैं, जो बडी सुप्त पडी हैं। हमारी प्रत्येक इंद्रिय की बहुत—सी संभावनाएं है जो सुप्त पड़ी हैं। इस जगत में जो हमें चमत्कार दिखाई पड़ते हैं वह सुप्त पड़ी सम्भावनाओं का कहीं से टूट पड़ना है, बस!

कोई सुप्त सम्भावना कहीं से प्रगट हो जाती है, हम चमत्कृत हो जाते है—वह मिरेकल नहीं है। उतना ही चमत्कार हमारे भीतर भी दबा पड़ा है, पर अप्रगट है, वह प्रगट नहीं होता, वह खुल नहीं पाता। कहीं कोई दरवाजे पर ताला पड़ा है, वह नहीं टूट पा रहा है।

अभी मैंने आधे मस्तिष्क के सक्रिय होने की बात की, वह योग की दृष्टि है। और योग की दृष्टि कोई एक—दो दिन, वर्ष दो वर्ष की धारणा की नहीं है, कम से कम बीस हजार साल से योग की यह परिपुष्ट दृष्टि है। विज्ञान की किसी दृष्टि पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता बहुत, क्योंकि जो विज्ञान छह महीने पहले कह रहा था, छह महीने बाद बदलेगा। लेकिन योग की एक परिपुष्ट दृष्टि है, बीस हजार साल की कम से कम। क्योंकि हम जिस सभ्‍यता में रह रहे हैं वह सभ्यता किसी भी हालत में बीस हजार साल से पुरानी नहीं है। यद्यपि यह हमारा भ्रम है कि हमारी सभ्यता पृथ्वी पर पहली सभ्यता है। हमसे पहले सभ्यताएं हो चुकी है और नष्ट हो चुकी हैं और हमसे पहले आदमी करीब—करीब हमारी ऊंचाइयों पर और कभी—कभी हमसे भी ज्यादा ऊंचाईयों पर पहुंच गया और खो गया!

उन्नीस सौ चौबीस में एक घटना घटी। उन्नीस सौ चौबीस में जर्मनी में अणुविज्ञान के संबंध में शोध का पहला संस्थान निर्मित हुआ। अचानक एक दिन सुबह एक आदमी, जिसने अपना नाम फल्कानेली बताया, एक कागज में लिखकर कुछ दे गया। उस कागज में एक छोटी—सी सूचना थी कि मुझे कुछ बातें ज्ञात हैं, कुछ और लोगों को भी ज्ञात है, जिनके आधार पर मैं यह खबर देता हूं कि अणु के साथ खोज में मत पड़ना। क्योंकि हमारी सभ्यता के पहले और भी सभ्यताएं इस खोज में पड़कर नष्ट हो चुकी हैं, इस खोज को बन्द ही कर दें। बहुत खोज—बीन की गई उस आदमी की, कुछ पता नहीं चला।

उन्नीस सौ चालीस में हैसिनबर्ग, एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक था जर्मनी का, जिसने बड़े से बड़ा काम अणु की खोज में किया। उस आदमी के घर फिर एक आदमी उपस्थित हुआ, जिसने फिर उसको एक चिट्ठी दी, उसमें भी फल्कानेली के ही दस्तखत थे। वह नौकर को चिट्ठी देकर बाहर ही चला गया। उस चिट्ठी में उसने हैसिनबर्ग को सूचना दी कि तुम पापी होने का जिम्मा मत लो, क्योंकि यह सभ्यता पहली नहीं है जो अणु—उपद्रव में पड़ी है। इसके पहले सभ्यताएं बहुत बार अणु के खेल में पड़ी और नष्ट हो गईं। मगर उस आदमी का पता नहीं चला।

उन्नीस सौ पैंतालिस में जब पहली दफा हिरोशिमा पर एटम गिरा तो दुनिया के बाहर बड़े वैज्ञानिकों को, जिनका कि हाथ था एटम के बनाने में, फल्कानेली के दस्तखत के पत्र मिले जिसमें उसने कहा था कि देखो अभी भी रुक जाओ। हालांकि तुमने पहला कदम उठा लिया है, और पहला कदम उठाने के बाद आखिरी कदम बहुत दूर नहीं रहता। ओपिनहिमर जो अमरीका का सबसे बड़ा अणुशास्‍त्री था, जिसने कि अणु बनाने में बड़े से बड़ा भाग बंटाया है, उसने तत्काल उस पत्र के मिलते ही अणु आयोग से इस्तीफा दिया और उसने एक वक्तव्य दिया कि ‘वी हैव सिक्त’, हमने पाप किया है। और यह आदमी हर वक्त खबर देता रहा पर यह आदमी कौन है, इसका कोई पता नहीं है। यह आदमी कौन है? इस बात की पूरी सम्भावना है कि वह जो कह रहा है, ठीक कह रहा है। अणु के साथ खिलवाड़ सभ्यताएं पहले भी कर चुकी हैं।

हमने भी महाभारत में अणु के साथ खिलवाड़ कर लिया। उसके साथ हम बर्बाद हुए। असल में करीब—करीब ऐसा है, जैसे कि व्यक्ति बच्चा होता है, जवान होता है, और जवानी में वही भूलें करता है जो उसके बाप ने की थीं। हालांकि बाप का होकर उसको समझाता है कि इन भूलों में मत पड़ना, ये सब गड़बड़ हैं, लेकिन उसके बाप ने भी इस बूढ़े को समझायी थी यही बात। और ऐसा नहीं है कि उस बूढ़े के बूढ़े बाप को समझानेवाला बाप नहीं था, उसने भी समझाया था। पर जवानी में वही भूलें होती हैं, फिर बुढ़ापे में वही समझाहट होती है। बच्चा होता है, जवान होता है, बूढ़ा होता है, मरता है—जैसे व्यक्ति एक चक्र में दौड़कर आदी हो जाता है, ऐसे ही हर सभ्यता भी करीब—करीब एक से स्टेप उठाकर नष्ट होती है। सभ्यताएं भी बचपन में होती हैं, जवान होती हैं, बूढ़ी होती हैं और मरती हैं।

यह जो योग की बीस हजार साल की दृष्टि की बात की, बीस हजार साल की, मैं इसलिए कहता हूं कि बीस हजार साल का हिसाब थोड़ा साफ है। वैसे इसे और भी साफ करना हो तो बीस हजार साल के पहले की जो सभ्यताएं रही हैं, उनको बिना जाने साफ नहीं किया जा सकता। एक आदमी की जवानी ठीक से समझनी हो तो दस आदमियों की जवानी समझनी जरूरी है, अकेली नहीं समझी जा सकती। क्योंकि अकेले का कोई रिफरेंस नहीं होता, कोई संदर्भ नहीं होता है। कैसे समझा जाए, वह क्या कर रहा है? ठीक कर रहा है कि गलत कर रहा है?

एक आदमी का बुढ़ापा समझना हो तो पच्चीस को पर नजर डालनी जरूरी है, नहीं तो सब अधूरा—अधूरा होगा। एक—एक व्यक्ति अपने आप में कुछ भी नहीं बता पाता है। एक—एक घटना अलग कुछ नहीं कहती। इसलिए मैंने कहा कि बीस हजार साल का इतिहास साफ है।

‘बीस हजार साल में योग निरंत्तर एक बात कहता रहा है कि आज्ञाचक्र के साथ जुड़ा हुआ आधा मस्तिष्क है जो बन्द पड़ा है, अगर तुम्हें संसार के पार कुछ जानना है तो उस आधे मस्तिष्क को सक्रिय करना जरूरी है। अगर परमात्मा के संबंध में कोई यात्रा करनी है तो वह आधा मस्तिष्क सक्रिय होना जरूरी है। अगर पदार्थ के पार देखना है तो वह आधा मस्तिष्क सक्रिय होना जरूरी है। उसका द्वार है आज्ञा, जहां आप तिलक लगाते हैं, वह तो करस्पोंडिंग हिस्सा है, आपकी चमड़ी के ऊपर। बस अन्दाजन डेढ़ इंच भीतर— अन्दाजन कहता हूं क्योंकि किसी का थोड़ा ज्यादा, किसी का थोड़ा कम होता है। अन्दाजन डेढ़ इंच भीतर वह बिन्दु है जो द्वार का काम करता है, पदार्थ अतीत, या भावातीत जगत के लिए।

तिब्बत ने तो, जैसा हमने तिलक आविष्कृत किया, वैसे ही ठीक आपरेशन्स भी आविष्कृत किए। ऐसा तिब्बत ही कर सकता था। क्योंकि तिब्बत ने जितनी मेहनत की है मनुष्य के तीसरे नेत्र पर, ‘ थर्ड आई’ पर, उतनी किसी और सभ्यता ने नहीं की है। सच तो यह है कि तिब्बत का पूरा का पूरा विज्ञान और पूरी समझ जीवन के अनेक आयामों की समझ है जो उस तीसरे नेत्र की ही समझ पर आधारित है।

जैसा मैंने कायसी का आपके लिए उदाहरण दिया, कायसी तो एक व्यक्ति है। तिब्बत में तो सैक्कों साल से व्यक्ति जब तक समाधि में न जाए तब तक दवा का कोई पता नहीं लगता था। यह पूरी सभ्यता ही वह काम करती रही है, वे समाधिस्थ व्यक्ति से ही दवा पूछेंगे, उसकी दवा का ही उपयोग करेंगे। बाकी तो सब अंधेरे में टटोलना है। उन्होंने तो आपरेशन्स भी विकसित किए।

ठीक इस डेढ़ इंच के भीतर जो जगह है, उस पर आपरेशन्स करने के भी प्रयोग किए। उस जगह को बाहर से भी तोड्ने की कोशिश की, वह टूट जाती है, बाहर से भी टूट जाती है। लेकिन बाहर से टूटने में और भीतर से टूटने में एक फर्क है, इसलिए भारत ने कभी उसको बाहर से तोड्ने की कोशिश नहीं की। यह मैं आपको खयाल में दे दूं।

उसे भीतर से तोड्ने पर ही आधा मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है। बहुत सम्भावना यह है कि बाहर का आपरेशन नये आधे मस्तिष्क की सक्रियता का दुरुपयोग करेगा। क्योंकि आदमी वही का वही है, उसकी चेतना में कोई साधनागत अन्तर तो हुए नहीं हैं, और उसके मस्तिष्क में नये काम शुरू हो गए। अगर वह आदमी आज दीवार के पार देख सकता है, तो इस बात की बहुत कम सम्भावना है कि वह कुएं में किसी गिरे आदमी हो देखकर निकालेगा। इस बात की ज्यादा सम्भावना है कि किसी के गड़े हुए खजाने को खोदने जाएगा। अगर वह आदमी यह देख सकता है कि उसके भीतरी इशारे से आपको आता दी जा सकती है, तो इस बात की बहुत कम सम्भावना है कि आपसे वह कोई अच्छा काम करवाएगा, इस बात की ज्यादा सम्भावना है कि आपसे अवश्य वह कोई बुरा काम करवाएगा। आपरेशन यहां भी हो सकता था।

भारत को भी उसके सूत्र पता थे, पर भारत ने उसका कभी प्रयोग नहीं किया। नहीं प्रयोग किया इसलिए कि जब तक व्यक्ति की चेतना भीतर से भी इतनी विकसित न हो कि नयी शक्तियों का उपयोग करने में समर्थ हो जाए, तब तक उसे नयी शक्तियां देना खतरनाक है। वह ऐसा है जैसे बच्चे के हाथ में हम तलवार दे दें। बहुत डर तो यह है कि वह दो—चार को काटेगा, लेकिन डर यह भी है कि वह अपने को भी काटेगा। और बच्चे के हाथ में दी गई तलवार से किसी का भी मंगल हो सकेगा, इसकी आशा करना दुराशा मात्र है। चेतना के तल पर, अगर व्यक्ति के भीतर की चेतना विकसित न हो तो उसके हाथ में नयी शक्तियां देना खतरनाक है।

तिब्बत में, जहां हम तिलक लगाते रहे हैं, वहां ठीक भीतर तक भी छेद करने की कोशिश की है, भौतिक उपकरणों से। इसलिए तिब्बत बहुत—सी बातें जान पाया, बहुत से अनुभव कर पाया, लेकिन फिर भी तिब्बत कोई नैतिक अर्थों में महान देश नहीं बन पाया। यह बड़ी आश्रर्यजनक घटना है। तिब्बत बहुत काम कर पाया है, लेकिन फिर भी नैतिक अर्थों में वह एक बुद्ध भी पैदा नहीं कर पाया। उसकी जानकारी बढ़ी, उसकी शक्ति बढ़ी, अनूठी बातों का उसे पता चला; लेकिन उन सबका उपयोग बहुत छोटी बातों में हुआ। उनका बहुत बड़ी बातों में उपयोग नहीं हो सका।

भारत ने कोई सीधा भौतिक प्रयोग करने की कभी चेष्टा नहीं की। चेष्टा यह की कि भीतर की चेतना को इकट्ठा करके इतना कन्सट्रेट, इतना एकाग्र किया जाए कि चेतना की शक्ति से ही वह तीसरा नेत्र खुल जाए, उसके ही प्रवाह में खुल जाए। क्योंकि चेतना के प्रवाह को तीसरे नेत्र तक लाना एक बर्खेबू नैतिक उपक्रम है। उसे इतना ऊपर चढ़ाना है! क्योंकि साधारणत: हमारा मन नीचे की तरफ बहता है।

सच तो यह है कि हमारा मन सेक्स—सेन्टर की तरफ ही बहता रहता है। हम कुछ भी करते हों, हम चाहे धन कमाते हों, चाहे पद की चेष्टा करते हों, चाहे कुछ भी करते हों, यह सब करने के पीछे कहीं गहरे में काम—वासना में खींचती रहती है। धन भी हम कमाते हैं तो इसी आशा में कि उससे काम खरीदा जा सके; और पद की भी हम इच्छा करते हैं इसी आशा में कि पद पर बैठकर हम ज्यादा शक्तिशाली हो जाएंगे, काम को खरीद लेंगे।

इसलिए पुराने दिनों में राजा की इज्जत का पता इससे चलता था कि कितनी रानियां हैं उसके पास? वह ठीक मेजरमेंट था, क्योंकि पद का और कोई मूल्य है क्या? पद का करोगे क्या? कितनी स्रियां तुम्हारे हरम में है, उससे पता चल जाएगा कि तुम कितने बड़े पद पर हो। पद का भी उपयोग, धन का भी उपयोग घूमकर तो काम—वासना के लिए ही होना है।

हम जो भी करेंगे हमारी सारी शक्ति काम केन्द्र की तरफ दौड़ती रहेगी। और जब तक शक्ति काम के केन्द्र की तरफ दौड़ रही है तभी तक, व्यक्ति अनैतिक हो सकता है। अगर शक्ति को ऊपर की तरफ दौड़ाना है तो काम की यात्रा रूपांतरित करनी पड़ेगी। अगर आज्ञाचक्र की तरफ शक्ति को ले चलना है तो काम की यात्रा को बदलना पड़ेगा—उसका पूरा रुख, पूरा ध्यान बदला पड़ेगा, पीठ ही फेर लेनी पड़ेगी नीचे की तरफ से, और मुंह करना पड़ेगा ऊपर की तरफ। ऊर्ध्वमुखी होना पड़ेगा: इस ऊर्ध्वगमन की यात्रा बड़ी नैतिक होगी। इसलिए इंच—इंच संघर्ष होगा, इसमें एक—एक कदम कुर्बानी होगी।

इसमें जो क्षुद्र है उसे खोने की तैयारी दिखानी पड़ेगी, ताकि विराट मिल सके। इसमें कीमत चुकानी पड़ेगी। और इतनी सारी कीमत चुकाकर जो व्यक्ति आज्ञाचक्र तक पहुंचता है उसे जो विराट शक्ति उपलब्ध होती है, वह उसका दुरुपयोग कैसे कर पाएगा? दुरुपयोग का कोई सवाल नहीं उठता। दुरुपयोग करनेवाला तो इस मंजिल तक पहुंचने के पहले समाप्त हो गया होता है। इसलिए तिब्बत में ब्रैक मैजिक पैदा हुआ, इन आपरेशन्स की वजह से। तिब्बत में अध्यात्म कम पैदा हुआ, और जिसको हम कहें कि शैतानी ढंग का उपद्रव, वह ज्यादा पैदा हुआ। इस तरह की गलत ताकत हाथ में आनी शुरू हो गयी।

सूफियों में एक कहानी है, जीसस के बाबत। ईसाईयों में उसका कोई उल्लेख नहीं है, इसलिए मैं सूफियों से कहता हूं। जीसस की बहुत—सी कहानियां सूफियों के पास हैं, ईसाइयों के पास नहीं हैं। कई बार तो बहुत महत्वपूर्ण घटनाएं मुसलमानों के पास हैं, ईसाईयों के पास नहीं, जीसस के जीवन की। यह घटना भी उनमें से एक है। जीसस के तीन शिष्य जीसस के पीछे पड़े। वे उनसे कहते हैं कि हमने सुना है और देखा भी, कि आप मुर्दे को कहते हैं उठ जाओ, और वह उठ जाता है। हमें तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहिए, हमें तुम्हारा स्वर्ग नहीं चाहिए, हमें तो सिर्फ यह तरकीब सिखा दो। यह मरा हुआ आदमी कैसे जिन्दा होता है? जीसस उनसे कहते हैं कि इस मंत्र का उपयोग तुम स्वयं पर कभी न कर पाओगे। क्योंकि तुम मर चुके होगे तो मंत्र का उपयोग कैसे करोगे? और दूसरे के जिलाने से तुम्हें क्या फायदा होगा? मैं तुम्हें वह तरकीब बताता हूं जिससे कि तुम मरो हीन! वह कहते हैं, हमे इससे कोई मतलब नही। आप हमें बहलाएं मत, हमे तो यह मुर्दे की बात बताइए, यह चीज जानने जैसी है। वे इतने पीछे पड़े कि जीसस ने कहा कि ठीक है।

जीसस ने उन्हें वह सूत्र बता दिया, जिस सूत्र के उपयोग से मरा हुआ, जिन्दा हो जाता है। अब वे तीनों भागे। वे उसी दिन जीसस को छोड्कर भाग गए, मुर्दे की तलाश में। उन्होंने कहा कि अब देर करना उचित नहीं, मंत्र में कोई शब्द भूल जाए, कोई गड़बड़ हो जाए, इसका जल्दी प्रयोग करके देख लें। दुर्भाग्य, गांव में गए तो मुर्दा नहीं! दूसरे गांव की तरफ निकले तो बीच में कोई अस्थि—पंजर पड़ा हुआ मिल गया, मुर्दा नहीं मिला, तो उन्होंने कहा कि अब चलो यही सही। मंत्र पढ़ा, जल्दी थी बहुत, वह शेर के अस्थि—पंजर थे। शेर उठकर खड़ा हो गया, वह उन तीनों को खा गया। सूफी कहते हैं कि यही होगा।

अनैतिक चित्त का कुतूहल खतरे में ले जाता है। बहुत बार बहुत से सूत्र जानकर भी छिपा लिए गए बार—बार, कि वह गलत आदमी के हाथ में न पड़ जाएं। सामान्य आदमी को जब भी कुछ दिया गया तो उसे इस ढंग से दिया गया कि जब वह योग्य हो जाए, तभी उसे पता चलता है।

सोचेंगे आप, तिलक के संबंध में मैं क्यों कह रहा हूं। हर बच्चे के माथे पर तिलक लगा दिया, जब कि उसे कुछ पता नहीं है। कभी उसे पता होगा, कभी उसे पता चलेगा तब वह इस तिलक के राज को समझ पाएगा। इशारा कर दिया गया है, ठीक जगह पर निशान बना दिया गया है। कभी जब उसकी चेतना इतनी समर्थ होगी, तब वह इस निशान का उपयोग कर पाएगा। कोई चिंता नहीं कि सौ आदमियों पर लगाया गया निशान, और निन्यान्नबे के काम नहीं पड़ा। कोई फिक्र नहीं, एक की भी काम पड़ जाए तो कम नहीं है। इस आशा में सौ पर लगा दिया गया कि कभी किसी क्षण में उसका स्मरण आ जाएगा तो पता चल जाएगा।

तिलक के लिए इतना मूल्य, इतना सम्मान, कि जब भी कुछ विशेष घटना हो, शादी हो रही हो तो तिलक हो, कोई जीतकर लौट आए तो तिलक हो! कभी आपने सोचा, कि हर सम्मान की घटना के साथ तिलक, यह सिर्फ ‘लॉ ऑफ एसोसिएशन’ का उपयोग है। क्योंकि हमारे चित्त में एक बड़े मजे का मामला है।

हमारा चित्त दुख को भूलना चाहता है और सुख को याद रखना चाहता है। हमारा चित्त लम्बे अर्सें में दुःख को भूल जाता है और सुख को याद रखता है। इसीलिए तो हमें पीछे के दिन अच्छे मालूम पड़ते हैं। बूढ़ा कहता है, बचपन बहुत सुखद था। कोई और बात नहीं है, दुख को ड्राप कर देता है मन हमारा और सुख की शृंखला को कायम रखता है। जब लौटकर पीछे देखता है तो सुख ही सुख दिखायी पड़ता, बीच—बीच के जो दुख थे, उनको गिरा आए हम रास्ते में। कोई बच्चा नहीं कहता, कि बचपन सुखद है। बच्चे जल्दी से जल्दी बड़े होना चाहते हैं। और सब के कहते हैं, बचपन बहुत सुखद है।

जरूर कहीं न कहीं भूल हो गयी है। ये जितने बच्चे हैं, उनको खड़े करके पूछें, तुम क्या होना चाहते हो? वे कहेंगे, हम बच्‍चे होना चाहते हैं। और जितने बूढ़े हैं, उनको पूछें कि क्या होना चाहते हो, वे कहेंगे हम बच्चे होना चाहते हैं। मगर एक बच्चा गवाही नहीं देता तुम्हारे साथ। बच्चा तो चाहता है कितना जल्दी बड़ा हो जाए, इसलिए कई दफा ऐसी कोशिश करता है बड़े होने की, कि जिसका कोई हिसाब नहीं। सिगरेट पीने लगता है, इसलिए कि वह देखता है कि सिगरेट सिम्बल है बड़े आदमी का। कोई और कारण से नहीं, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चों में, सौ में से सत्तर प्रतिशत बच्चे इसलिए सिगरेट पीते हैं कि सिगरेट प्रेस्टीज का प्रतीक है। सिगरेट ताकतवर, बड़े लोग, प्रतिष्ठावाले लोग पीते हैं। वह भी उसे पीकर धुंआ जब उड़ाता है, तो भीतर उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है। ‘सम—बडी’, उसको मालूम पड़ता है कि मैं भी कोई ऐसा वैसा नहीं हूं।

किसी फिल्म पर लिख दें, इसको सिर्फ ‘अडल्ट’ देख सकते हैं, तो बच्चे सब नकली मूंछ लगाकर फिल्म में प्रवेश करेंगे। क्यों? बड़ा होने की बड़ी तीव्र आकांक्षा है, जल्दी। मगर सब के कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था। क्या बात है ऐसी? बात कुल इतनी ही है कि मन दुख को भुला देता है, गिरा देता है। दुख याद रखने जैसी चीज भी नहीं है।

एक बहुत हैरानी का सूत्र पियॉगेट नाम के मनोवैज्ञानिक ने बताया है, चालीस साल तक बच्चों पर मेहनत करके। उसका कहना है कि पांच साल से पहले की किसी .बच्चे को स्मृति नहीं रहती। उसका कुल कारण यह है कि पांच साल की जिन्दगी इतनी दुखद है कि उसे याद नहीं रखा जा सकता। यह हम सोच न सकेंगे! और पियगिट ठीक कहता है, अनुभव से कहता है, भारी अनुभव से कहता है।

आपको अगर कहा जाए कि आपको कब तक की याद है तो आप ज्यादा से ज्यादा पांच साल, चार साल लौट पाते हैं। फिर क्यों नहीं लौटते पीछे की ओर? क्या उस वक्त मेमोरी नहीं बनती थी? बनती थी। क्या उस वक्त घटना नहीं घटती थी? घटती थी। क्या उस वक्त किसी ने गाली नहीं दी, और किसी ने प्रेम नहीं किया? सब हुआ है। पर मामला क्या है? चार साल पहले की स्मृति का कोई रिकार्ड, कोई हिसाब क्यों नहीं है आपके पास?

पियॉगेट कहता है कि वह दिन इतने दुख में बीतते हैं, क्योंकि बच्चा अपने को इतना दीन, इतना कमजोर, इतना हीन, सबसे दबा हुआ, इतना असहाय अनुभव करता है कि उसका कुछ भी याद रखना उसको पसन्द नहीं। वह उसको ड्राप कर देता है, भूल ही जाता है। वह कहता है, चार साल से पहले का मुझे कुछ याद नहीं। क्योंकि बाप ने कहा बैठ, तो उसको बैठना पड़ा। मां ने कहा उठो, तो उसको उठना पड़ा। सब बड़े से बड़े शक्तिशाली थे, उसकी अपनी कोई सामर्थ्य न थी, वह बिलकुल हवा में उड़ता हुआ पता जैसा था, जो कोई कुछ कह दे उसे मानना पड़ता था, सब पर निर्भर था। जरा—सी आंख का इशारा और उसको डर जाना पड़ेगा, उसके हाथ में कुछ भी सामर्थ्य न थी। उसने इसको बन्द कर दिया, वह खयाल ही छोड़ दिया कि मैं कभी था, बात खत्म हो गयी। वह चार साल के पहले की याद नहीं करता।

मजे की बात है—हिप्रोटाइज करके आपको याद करवायी जा सकती है! चार साल के पहले की ही नहीं, मां के पेट में भी जब आप थे, तब की भी स्मृति बनती है। अगर मां गिर पड़ी हो आपकी, तो बच्चे को उसके पेट में स्मृति बनती है कि चोट पहुंची, वह भी याद करवायी जा सकती है। लेकिन साधारणत: होश में वह स्मृति नहीं रहती।

तो इस तिलक को सुख के साथ जोड्ने का उपाय कारण पूर्वक है। जब भी सुख की कोई घटना घटे, तिलक कर दो। सुख याद रहेगा, साथ में तिलक भी याद रहेगा। और धीरे— धीरे सुख अगर तीसरी आंख से संयुक्त हो जाए—यहां लॉ ऑफ एसोसिएशन को थोड़ा समझ लें, पावलफ ने बहुत से प्रयोग किए।

इस सदी में रूसी वैज्ञानिक पावलफ ने एसोसिएशन के उपर सर्वाधिक काम किया है। उसका कहना यह है, कोई भी चीज जोड़ी जा सकती है, सब जोड़ सहयोग के हैं। जैसे कि एक प्रयोग सबको पता है, कि पावलफ एक कुत्ते को खाना देगा, रोटी सामने रखेगा तो लार टपकेगी। तब वह घण्टी बजाता रहेगा, घण्टी से लार टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। कितनी ही घण्टी बजाइए, लार कैसे टपकेगी? लेकिन सटी रखी, लार टपकी, तब घण्टी बजायी।

पन्द्रह दिन वह रोटी के साथ घण्टी बजाएगा, सोलहवें दिन रोटी हटा ली, सिर्फ घपटी बजायी—लार टपकने लगी। हुआ क्या कुत्ते को? घण्टी से लार का कोई भी नैसर्गिक संबंध नहीं है, लेकिन अब संबंध जुड़ गया। रोटी के साथ घण्टी एक हो गयी, घण्टी का बजना रोटी की याद बन गयी। रोटी की गाद, चक्र शुरू हो गया उसके मन में रोटी का, लार टपकनी शुरू हो गयी। घण्टी प्रतीक की तरह आ गयी, वाह रोटी का सिम्बल हो गयी। इसी कानून का उपयोग इस तिलक में किया गया है।

आपके सुख के साथ तिलक को सदा जोडा है। जब भी सुख की कोई घटना घटी .कि तिलक और सुख को एक किया। धीरे— धीरे तिलक और सुख इतने एक हो जाएं कि तिलक को कभी भूला न जा सके, वह आपके स्मरण में टिक जाए, बैठ जाए और जब भी सुख की याद आए, तब आज्ञाचक्र की याद अ। जब भी सुख की याद आए, वह आज्ञाचक्र की याद आए। और सुख की हमें बहुत याद आती है। सुख. चाहे हुआ हो या न हुआ हो, उसकी याद में तो हम जीते हैं। जितना होता है उससे ज्यादा बड़ा करके याद करते रहते हैं पीछे। धीरे— धीरे उसको इतना बड़ा कर लेते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। सुख को हम बड़ा करते रहते हैं, मैग्रीफाई करते रहते हैं। दुख को छोटा करते रहते है, एक ही नियम के अनुसार। आपकी प्रेयसी मिली थी, कितना सुख आया था! आज सोचेंगे तो बहुत बड़ा मालूम पड़ेगा। अभी मिल जाए तो पता चले! एकदम छोटा हो जाए, सिकुड़ जाए। और हो सकता है फिर चौबीस घण्टे बाद आप मैग्रीफाई करें, अहा कितना आनन्द है! वह पीछे हमारा मन सुख को बड़ा करता जाता है।

असल में इतना दुख है जीवन में कि अगर हम सुख को बड़ा न कर पाएं तो जीना बहुत मुश्किल है। इसको बड़ा करके, रस ले—लेकर चलाते हैं। इधर पीछे बड़ा कर लेते हैं, उधर आगे आशा में बड़ा कर लेते हैं, और चलते हैं। तिलक के साथ सुख को जोड्ने का प्रयोजन है कि जब सुख बड़ा हो तो तिलक भी बड़ा हो जाए।

इधर सुख की याद आए तो तिलक की भी याद आए। याद की इस चोट से धीरे— धीरे सुख आज्ञाचक्र से जुड़ जाए, जब भी जीवन में सुख आए तो आज्ञाचक्र का स्मरण आए। और यह हो जाता है। जब यह हो जाता है तो समझिए कि आपने सुख का उपयोग किया, तीसरी आंख को जगाने के लिए। सब सुख की स्मृतियां आशा के चक्र से जुड़ गयीं। हम सुख की धारा का उपयोग कर रहे हैं, उसको चोट करने के लिए। यह चोट जितने मार्गों से पड़ सके, उतनी उपयोगी है।

जिन मुल्कों में तिलक का उपयोग नहीं हुआ वे ऐसे मुल्क हैं जिनको ‘ थर्ड आई’ का कोई पता नहीं है, यह आपको खयाल होना चाहिए। जिन—जिन मुल्कों को तीसरी आंख का थोड़ा भी अनुमान हुआ उन्होंने तिलक का उपयोग किया। जिन मुल्कों को कोई पता नहीं है, वे तिलक नहीं खोज पाए। तिलक खोजने का कोई आधार नहीं था, इसे समझ लें थोड़ा। यह आकस्मिक नहीं है कि कोई समाज उठे और एकदम से टीका लगाकर बैठ जाए, वह पागल नहीं है। अकारण, माथे के इस बीच के बिन्दु पर ही तिलक लगाने की सूझ का कोई कारण भी तो नहीं है, यह कहीं और भी तो लगाया जा सकता है। इसलिए आकस्मिक नहीं है, इसके पीछे कारण हो तो टिक सकता है।

और भी दो—तीन बातें इस संबंध में कहूं। आपने कभी खयाल न किया होगा, जब भी आप चिन्ता में होते हैं तब आपकी तीसरी आंख पर जोर पड़ता है, इसलिए माथा पूरा का पूरा सिकुड़ता है। उसी जगह जोर पड़ता है, जहां तिलक है। बहुत चिन्ता करनेवाले, बहुत विचार करनेवाले लोग, बहुत मननशील लोग, अनिवार्य रूप से माथे पर बल डालकर उस जगह की खबर देते हैं।

और जिन लोगों ने, जैसा पीछे मैंने कहा, पिछले जन्मों में कुछ भी तीसरी आंख पर जोर किया है, उनके जन्म के साथ ही उनके माथे पर अगर आप हाथ फेरे तो आपको तिलक की प्रतीति होगी। उतना हिस्सा थोड़ा—सा धंसा हुआ होगा—थोड़ा सा, किंचित, ठीक तिलक जैसा धंसा हुआ होगा। दोनों तरफ के हिस्से थोड़े उभरे हुए होंगे, ठीक उस जगह पर जहां पिछले जन्मों में मेहनत की गयी है। और वह आप, अंगूठा लगाकर, आंख बन्द करके भी पहचान सकते हैं। वह जगह आपको अलग मालूम पड़ जाएगी। तिलक हो या टीका—टीका तिलक का ही विशेष उपयोग है। लेकिन दोनों के पीछे तीसरी आंख छिपी हुई है।

हिप्रोटिस्ट एक— छोटा—सा प्रयोग करते हैं। चारकाट फ्रांस में एक बहुत बड़ा मनस्विद हुआ है जिसने इस बात पर बहुत काम किए। आप भी छोटा—सा प्रयोग करेंगे तो आपको भी चारकाट की बात ठीक से समझ में आ जाएगी। अगर आप किसी के सामने, उसके माथे पर दोनों आंखें गड़ाकर देखें, तो वह आदमी आपको गड़ाने न देगा। अगर आप किसी के माथे पर दोनों आंखें गड़ाकर देखें तो वह आदमी जितना क्रुद्ध होगा उतना और किसी चीज से नहीं होगा। पर वह अशिष्ट व्यवहार है, वह आप कर नहीं पाएंगे। सामने से तो वह स्थान बहुत निकट है, वह सिर्फ डेढ़ इंच के फासले पर है।

अगर आप किसी के माथे पर, पीछे से भी दृष्टि रखें तो भी आप हैरान हो जाएंगे। रास्ते पर आप चल रहे हैं, कोई आदमी आपके आगे चल रहा है, आप ठीक जहां माथे पर यह बिन्दु है तिलक का, ठीक उसके आर—पार अगर हम एक छेद करें तो पीछे जहां से छेद निकलता हुआ मालूम पड़े, अनुमान करके, उस जगह दोनों आंखें गड़ा लें। और आप कुछ ही सेकेंड आंख गड़ा पाएंगे कि वह आदमी लौटकर आपको देखेगा।

सिर्फ होटल के बरे भर नहीं देखेंगे। उन पर भर आप प्रयोग मत करना किसी होटल में बैठकर। उसका कारण है। सिर्फ वे लोग नहीं देखेंगे—जैसे होटल के बेरे का मैंने आपको कहा, वह जानकर कहा ताकि आपको खयाल में आ जाए। होटल का बेरा भर आपकी तरफ नहीं देखेगा, चाहे आप उसके पीछे माथे की तरफ आंखें गड़ाए—नहीं देखेगा, क्योंकि पूरे वक्त वह गाहकों से बचने की कोशिश में है। जैसे ही उसे पता चल जाए, कोई उसमें उत्सुक है, वह और ज्यादा दूसरी टेबलों के आसपास चक्कर लगाने लगेगा। बस वह भर आपको नहीं देखेगा और कोई भी देखेगा।

अगर आप ठीक थोड़े दिन अभ्यास करें और उस आदमी को सुझाव दें तो सुझाव भी वह आदमी मानेगा। समझ लें, आप उस आदमी के माथे पर आंख गड़ाकर कुछ सेकेंड बिना पलक झंपे देखें, वह आदमी पीछे लौटकर देखेगा। अगर वह आदमी लौटकर देखता है तब आप उसको आशा भी दे सकते हैं। फिर दोबारा उस आदमी को आप कहें कि बाएं घूम जाओ और वह आदमी बाएं घूमेगा, और बड़ी बेचैनी अनुभव करेगा—हो सकता है उसको दाएं जाना हो।

यह आप थोड़ा प्रयोग कर के देखेंगे तो हैरान हो जाएंगे। यह तो पीछे से है जहां से कि फासला बहुत ज्यादा है, सामने से तो बहुत हैरानी के परिणाम होते हैं। जितने लोग भी हल्के किस्म का शक्तिपात करते रहते हैं वह आपके इसी चक्र के कारण करते हैं और कुछ कारण नहीं है। कोई साधु कोई संन्यासी अगर शक्तिपात के प्रयोग करते रहते हैं लोगों पर, तो वह यही कि आपको आंख बन्द करके सामने बिठा लिया है।

आप समझ रहे हैं, वह कुछ कर रहे हैं। वह कुछ नहीं कर रहे हैं। वह सिर्फ आपके ही माथे के इस बिन्दु पर दोनों आंखें गड़ाकर बैठे हैं, लेकिन आप तो आंख बन्द किए बैठे हैं। और इस बिन्दु पर जो भी आपको सुझाव दिया जाएगा, आपको फौरन भ्रांति की प्रतीति हो जाएगी। अगर कहा जाए, भीतर प्रकाश ही प्रकाश है तो आपके भीतर प्रकाश ही प्रकाश हो जाएगा। इधर से आप गए कि वह विदा हो जाएगा। दो चार दिन उसकी हल्की झलक रह सकती है, फिर समाप्त हो जाती है। वह कोई शक्तिपात वगैरह नहीं है, वह सिर्फ आपके आज्ञाचक्र का थोड़ा—सा उपयोग है।

तृतीय नेत्र की अनूठी सम्पदा है, और इसके अपरिसीम उपयोग हैं। उसका सिर्फ सिम्बोलिक रूप तिलक है। जब यहां दक्षिण में पहली दफा ईसाई फकीर आए तो कुछ ईसाई फकीरों ने तो आकर तिलक लगाना शुरू कर दिया। आज से एक हजार साल पहले वेटिकन की अदालत में मुकदमे की हालत आ गयी। क्योंकि यहां जिन ईसाई फकीरों को भेजा था उन्होंने यहां आकर जनेऊ पहन लिया, तिलक भी लगाया और खड़ाऊं भी डाल ली, वह हिन्दू संन्यासी की तरह रहने लगे। वेटिकन की अदालत तक मामला गया कि यह तो बात गलत है। जिन फकीरों ने यह किया था, उन्होंने उत्तर दिए। उन्होंने कहा, यह गलत नहीं है।

तिलक लगाने से हम हिन्दू नहीं हो रहे हैं। तिलक लगाने से तो सिर्फ हमें एक रहस्य का पता चला है, जिसका आपको पता नहीं है। खड़ाऊं को पहनकर हम हिन्दू नहीं हो गए। यह तो हुये पहली दफा हिन्दूओं की समझ का पता चला है कि ध्यान करते वक्त अगर लकड़ी पैर के नीचे हो तो, बिना लकड़ी के जो काम महीनों में होगा, वह लकड़ी के साथ दिनों में हो सकता है। हम हिन्दू नहीं हो गए हैं, लेकिन अगर हिन्दू कुछ जानते हैं तो हम नासमझ होगे कि उसका उपयोग न करें। और निशित ही हिन्दू कुछ जानते हैं।

कोई भी कौम जब बीस हजार साल से निरत्तर धर्म के संबंध में खोज कर रही हो और कुछ भी न जानती हो, तो यह चमत्कार की बात होगी! बीस हजार साल जिसके मनस्वी पूरे जीवन को लगाकर एक ही दिशा में काम करते रहे हैं, जिसके सारे बुद्धिमान लोग हजार—हजार साल तक एक ही दिशा में लगे रहे, एक ही जिनकी आकांक्षा रही हो ‘ कि किस भाँति संसार में जो छिपा हुआ सत्य है, उसका पता चल जाए! वह जो अदृश्य है, वह दिखायी पड़ जाए, वह जो अरूप है उससे पहचान हो जाए, वह जो निराकार है उसमें प्रवेश हो जाए! बीस हजार साल तक जिनकी सारी मेधा ने, सारी प्रतिभा ने एक ही चेष्टा की हो, उनको कुछ भी पता न हो, यही बात आश्रर्य की है! कुछ पता हो यह बात बहुत आश्रर्य की नहीं है। क्योंकि यह पता होना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन पिछले दो सौ साल में एक घटना घटी, जिससे हमको परेशानी हुई।

पिछले दो सौ साल में एक घटना घटी। वह घटना हमारे खयाल में न आए तो वह परेशानी जारी रहेगी। इस देश के ऊपर सैकड़ों बार हमले हुए हैं लेकिन कोई हमलावर ठीक जगह पर हमला नहीं कर पाया। किसी ने धन लूट लिया, किसी ने जमीन पर कब्जा कर लिया, किसी ने मकान और महल ले लिए। लेकिन ठीक जो हमारा अन्तःस्थल था, उस पर कोई हमला नहीं कर पाया। उसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया।

पहली बार पश्रिमी सभ्यता ने इस मुल्क के अन्तःस्थल पर चोट करनी शुरू की। और वह चोट करने का जो सुगमतम उपाय था वह यह था कि आपके पूरे इतिहास को आपसे विच्छिन्न कर दिया जाए। आपके इतिहास में और आपके बीच में एक खाई पैदा हो जाए। बस फिर आप बिना जड़ के हो जाएंगे, अपरूटेड हो जाएंगे। फिर आपकी कोई ताकत न .रह जाएगी। अगर आज पश्‍चिम की सभ्यता को नष्ट करना हो तो सारे पश्‍चिम के मकान गिराने की जरूरत नहीं है, और न सिनेमाघर गिराने की जरूरत है, और न पश्‍चिम की होटलें गिराने की जरूरत है।

सिर्फ पश्‍चिम की पांच युनिवर्सिटीज को नष्ट कर दिया जाए, पश्‍चिम का कल्चर नष्ट हो जाएगा। पश्चिम की जो संस्कृति है, वह सिनेमा ‘बर में, होटल में और कोई नाइट क्लब में नहीं है। वे चलते रहें, इनसे कुछ लेना—देना नहीं है। सिर्फ पश्विम की पांच केन्द्रीय बड़ी यूनिवर्सिटियां नष्ट कर दी जाएं पश्‍चिम एकदम खो जाएगा। दुनिया में असली जो आधार होता है संस्कृति का, वह उसके ज्ञान के सूत्र होते हैं। उसकी जड़ें होती हैं उन ज्ञान के सूत्रों की शृंखला में। ज्यादा देर की जरूरत नहीं है, सिर्फ दो पीढ़ी को इतिहास से वंचित कर दिया जाए तो आगे का मामला टूट जाएगा।

आदमी और जानवर में यही फर्क हैं। जानवर कोई विकास नहीं कर पाते। क्या बात है? कुल इतनी सी बात है कि जानवरों के पास कोई स्कूल नहीं है। जानवर के पास कोई उपाय नहीं है कि अपनी नयी पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी का ज्ञान दे सके, बस और कोई बात नहीं है। जानवर का बच्चा जब पैदा होता है तो उसको वहीं से जिन्दगी शुरू करनी पड़ती है जहां से उसके बाप ने शुरू की थी। जब उसका बच्चा पैदा होगा, वह भी वहीं से शुरू करेगा जहां से उसके बाप ने शुरू की थी। आदमी शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चे को वहां से जिन्दगी शुरू करवा देता है जहां, खुद समाप्त करता है। इसलिए विकास होता है।

सारा विकास पुरानी पीढ़ी के द्वारा नयी पीढ़ी को अपना संचित अनुभव देने में निर्भर है। सोचें, अगर बीस साल के लिए बूढ़े तय कर लें कि हम बच्चों को कुछ न बताएंगे तो वह, बीस साल का नुकसान नहीं होगा, बीस हजार साल में जो इकट्ठा हुआ है, उसका नुकसान हो जाएगा। अगर बीस साल के लिए बूढे तय कर लें, पिछली पीढ़ी तय कर ले कि नयी पीढ़ी को कुछ भी नहीं बताना है तो आप यह मत सोचना कि बीस साल का ही नुकसान होगा और उसको बीस साल में पूरा किया जा सकेगा। नहीं, बीस साल में जो नुकसान होगा उसको पूरा करने में बीस हजार साल लगेंगे। क्योंकि गैप खड़ा हो गया है, पुरानी पीढ़ियों का सबका सब डूब जाएगा।

इन दो सौ साल में भारत के लिए भारी गैप पैदा हुआ। जिसमें उसकी जो भी जानकारी थी उससे उसके सारे संबंध टूट गए। और उसके सारे संबंध एक नयी जानकारी से जोड़े गए जिसका पुरानी जानकारी से कोई संबंध नहीं था। सिर्फ हम सोचते ही हैं आज, कि हम बहुत पुरानी कौम हैं।

सच बात यह है, हम दो सौ साल से ज्यादा पुरानी कौम नहीं हैं, अब हमसे अंग्रेज ज्यादा पुराने हैं। अब हमारे पास जो जानकारी है वह कचरा है, उच्छिष्ट है। वह भी, जो पश्‍चिम हमको दे दे वह हमारी जानकारी है। दो सौ साल के पहले हम जो भी जानते थे वह सब का सब एकबारगी खो गया। और जब किसी चीज के सूत्र खो जाएं तो छूता मालूम पड़ने लगती है। अब अगर आप ऐसे टीका लगाकर निकल जाएं तो शर्म लगती है। कोई भी पूछ ले कि क्या किया, ये कैसे टीका लगाए हो? तो कहेंगे ऐसे ही, कुछ नहीं, पिताजी नहीं माने, या क्या किया जाए फिर? किसी तरह चलना पड़ता है! आज आनन्द और प्रफुल्लता से टीका लगाना बहुत मुश्किल है। हां, बुद्धि न हो तो लगा सकते है, फिर कोई डर ही नहीं है। पर उसका भी कारण यह नहीं है कि आपको पता है इसलिए लगा रहे हैं।

ज्ञान के सूत्र जब गिर जाते हैं और उनका ऊपरी ढांचा रह जाता है तब ढोना बडा कठिन हो जाता है। और तब एक दुर्घटना घटती है कि जो सबसे कम बुद्धिमान होते हैं वह उसको ढोते हैं और जो बुद्धिमान होते हैं, वह दूर खड़े रहते हैं। यह दुर्घटना घटती है! जब कि बुद्धिमान ही जब तक किसी चीज को लेकर चलता है, तभी तक वह सार्थक रहती है। और यह बड़े मजे की बात है कि जब भी दुर्घटना घटती है और ज्ञान के सूत्र खोते हैं तो बुद्धिमान सबसे पहले छटकर अलग हो जाते है, क्योंकि वह बुद्ध बनने को राजी नहीं हैं। हां, जो बुद्ध है वह जारी रखता है, मगर वह उस ज्ञान को बचा नहीं सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। वह कुछ दिन खींचेगा और समाप्त हो जाएगा।

तो कई बार ऐसी घटना घटती है कि बड़ी कीमत की चीजें, जो नासमझ हैं, वह बचाए रखते हैं। और जो समझदार हैं, पहले छोड्कर खड़े हो जाते है। जिंदगी में बड़े दांव—पेंच हैं। अगर ठीक से हमें भारत के यह दो सौ साल का जो अंतराल पड़ गया है वह पूरा करना हो, तो भारत में आज जो—जो काम बुद्धिहीन कर रहे हैं उसको वापस सोचने की जरूरत है—एक—एक बिंदु को। क्योंकि वह अकारण नहीं कर रहे हैं। उनके साथ बीस हजार साल की लंबी घटना है। वह नहीं बता सकते हैं कि क्यों कर रहे हैं? इसलिए उन पर नाराज होने की कोई जरूरत नहीं है। किसी दिन हमको उन्हें धन्यवाद भी देना पड़ सकता है कि कम से कम तुमने प्रतीक तो बचाया था, जिसकी पुन: खोज की जा सकती है।

तो आज भारत में जो बिलकुल ग्रामीण और नासमझ, जिसकी कुछ समझ नहीं है, कोई ज्ञान नहीं है, जिसको हम छू कह सकते हैं, वह जो—जो कर रहा हो उसको फिर से उठाकर दो सौ साल के पहले के सूत्रों से जोड्ने की, और बीस हजार साल की समझ के साथ पुनरुज्जीवित करने की जरूरत है। और तब आप चकित हो जाएंगे। तब आप बिलकुल हैरान हो जाएंगे कि हम किस बड़े आत्मघात में लगे हुए हैं!

‘गहरे पानी पैठ’.

अंतरंग चर्चा ,

बम्बई दिनांक 12 जून 1971

 


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महावीर मेरी दृष्‍टी मैं–(प्रवचन–11)

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सामायिक: महावीर-साधना—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

हावीर की साधना-पद्धति में केंद्रीय है सामायिक। यह शब्द बना है समय से और पहले इस शब्द को थोड़ा सा समझ लेना बड़ा उपयोगी होगा।

पदार्थ का अस्तित्व है तीन आयाम में, थ्री डायमेंशनल है: लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई। किसी भी पदार्थ में तीन दिशाएं हैं यानी पदार्थ का अस्तित्व इन तीन दिशाओं में फैला हुआ है। अगर आदमी में हम पदार्थ को नापने जाएं तो लंबाई मिलेगी, चौड़ाई मिलेगी, ऊंचाई मिलेगी। और अगर प्रयोगशाला में आदमी की काट-पीट करें तो जो भी मिलेगा वह लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई में घटित हो जाएगा। लेकिन आदमी की आत्मा चूक जाएगी हाथ से। आदमी की आत्मा लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई की पकड़ में नहीं आती।

तीन आयाम हैं पदार्थ के, आत्मा का चौथा आयाम है, फोर्थ डायमेंशन है। लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, ये तो तीन दिशाएं हैं, जिनमें सभी वस्तुएं आ जाती हैं। लेकिन आत्मा की एक और दिशा है जो वस्तुओं में नहीं है, जो चेतना की दिशा है, वह है टाइम, वह है समय। समय जो है, अस्तित्व का चौथा डायमेंशन, चौथा आयाम है।

तो वस्तु तो हो सकती है तीन आयाम में, लेकिन चेतना कभी भी तीन आयाम में नहीं होती, वह चौथे आयाम में होती है। जैसे अगर हम चेतना को अलग कर लें तो दुनिया में सब कुछ होगा, सिर्फ समय, टाइम नहीं होगा। समझ लें कि इस पहाड़ पर कोई चेतना नहीं है तो पत्थर होंगे, पहाड़ होगा, चांद निकलेगा, सूरज निकलेगा, दिन डूबेगा, उगेगा, लेकिन समय जैसी कोई चीज नहीं होगी। क्योंकि समय का बोध ही चेतना का हिस्सा है। चेतना के बिना समय जैसी कोई चीज नहीं है। कांशसनेस जो है, उसके बिना समय नहीं है। और अगर समय न हो तो चेतना भी नहीं हो सकती। इसलिए वस्तु का अस्तित्व तो है लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई में, और चेतना का अस्तित्व है काल में, समय की धारा में।

आइंस्टीन ने तो फिर बहुत अदभुत काम किया है इस तरफ और उसने ये चारों आयाम जोड़ कर अस्तित्व की परिभाषा कर दी है। स्पेस और टाइम, काल और क्षेत्र दो अलग चीजें समझी जाती रही हैं सदा से। समय अलग है, क्षेत्र अलग है। आइंस्टीन ने कहा, ये अलग चीजें नहीं हैं, ये दोनों इकट्ठी हैं और एक ही चीज के हिस्से हैं।

तो उसने एक नया शब्द बनाया: स्पेसियोटाइम। टाइम और स्पेस को, दोनों को; काल और क्षेत्र को, दोनों को जोड़ दिया। ये अलग चीजें नहीं हैं। क्योंकि किसी भी चीज के अस्तित्व में, तीन चीजें तो हमें ऊपर से दिखाई पड़ती हैं; तो उसे हम लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई में नाप-जोख सकते हैं, लेकिन अस्तित्व होगा ही नहीं। हम बता सकते हैं कि कौन सी चीज कहां है, किस जगह है, लेकिन अगर हम यह न बता सकें कि कब है, अगर हम समय भी न बता सकें तो उस वस्तु का हमें कोई पता नहीं चलेगा। तो आइंस्टीन ने तो अस्तित्व की अनिवार्यता मान लिया समय को, वह अनिवार्यता है अस्तित्व की।

इस बात का पहला बोध महावीर को हुआ है। पहला बोध उन्हें इस बात का हुआ है कि समय चेतना की दिशा है। चेतना का कोई अस्तित्व अनुभव में भी नहीं आ सकता समय के बिना। समय का जो बोध है, जो भाव है, वह चेतना का अनिवार्य अंग है। तो महावीर ने तो आत्मा को समय ही कह दिया। और इस बात में और भी बातें अंतर्निहित हैं।

इस जगत में सब चीजें परिवर्तनशील हैं। सब चीजें क्षणभंगुर हैं, आज हैं, कल नहीं हो जाएंगी। सब चीजें समय की धारा में बदलती हैं, मिटती हैं, बनती हैं। आज बनती हैं, निर्मित होती हैं, कल बिखरती हैं, परसों विदा हो जाती हैं। सिर्फ इस जगत की लंबी धारा में समय भर एक ऐसी चीज है, जो नहीं बदलता, जो सदा है। इस पूरी धारा में टाइम भर एक ऐसी चीज है, जो कभी नहीं बदलता, जिसके भीतर सब बदलाहट होती है, जो न हो तो बदलाहट न हो सकेगी।

अगर समय न हो तो बच्चा बच्चा रह जाएगा, जवान नहीं हो सकता। कैसे जवान होगा? कली कली रह जाएगी, फूल नहीं हो सकती। क्योंकि परिवर्तन की सारी संभावना समय में है।

तो जगत में सब चीजें समय के भीतर हैं और परिवर्तनशील हैं, लेकिन समय अकेला समय के बाहर है और परिवर्तनशील नहीं है। तो समय अकेला शाश्वत तत्व है, जो सदा था, सदा होगा। और ऐसा कभी भी नहीं हो सकता कि जो न हो। क्योंकि किसी चीज के न होने के लिए भी समय जरूरी है। समय के बिना कोई चीज नहीं भी नहीं हो सकती। जैसे जन्म के लिए समय जरूरी है, मृत्यु के लिए भी समय जरूरी है। बनने के लिए भी समय जरूरी है, मिटने के लिए भी समय जरूरी है।

जैसे उदाहरण के लिए हम इसे ऐसा समझें। यह कमरा है, इसमें से हम सब चीजें बाहर निकाल सकते हैं या बहुत चीजें इस कमरे के भीतर भर सकते हैं, लेकिन इस कमरे के भीतर जो स्पेस है, जो जगह है, उसे हम बाहर नहीं निकाल सकते, कोई उपाय नहीं है। चाहे मकान रहे और चाहे जाए, क्षेत्र तो रहेगा। मकान क्षेत्र में ही बनता है, स्पेस में, और क्षेत्र में ही विलीन हो जाता है, लेकिन क्षेत्र रहेगा, स्पेस रहेगी। ठीक ऐसे ही समझने की जरूरत है कि समय की जो धारा है, उस धारा में सब चीजें बनेंगी, मिटेंगी, आएंगी, जाएंगी, लेकिन समय रहेगा। समय एकमात्र शाश्वत तत्व है, इटरनल एलीमेंट जिसे हम कह सकें–सदा से, और सदा वह समय है।

महावीर आत्मा को समय का नाम इसलिए भी देना चाहते हैं कि वही तत्व शाश्वत, सनातन, अनादि, अनंत, सदा से और सदा रहने वाला है। सब आएगा, जाएगा; वही भर सदा रहने वाला है। इस कारण भी वे आत्मा को समय का नाम देते हैं। और इस कारण भी समय का नाम देते हैं कि आमतौर से–हमें खयाल में नहीं हैं ये बातें, लेकिन महावीर की दृष्टि इस संबंध में भी बहुत गहरी गई–आमतौर से हम समय के तीन विभाग करते हैं: अतीत, वर्तमान और भविष्य। लेकिन यह विभाजन बिलकुल गलत है। अतीत सिर्फ स्मृति में है और कहीं भी नहीं, और भविष्य केवल कल्पना में है और कहीं भी नहीं, है तो सिर्फ वर्तमान। इसलिए समय के तीन विभाजन गलत हैं, अतीत, भविष्य, वर्तमान। समय का तो एक ही अर्थ हो सकता है, वर्तमान जो है, वही समय है।

लेकिन वर्तमान कितना है हमारे हाथ में? अगर कोई पूछे, कितना वर्तमान हमारे हाथ में है? तो क्षण का भी कोई लाखवां हिस्सा हमारे हाथ में नहीं है। तो जो क्षण का अंतिम हिस्सा हमारे हाथ में है, उसको महावीर समय कहते हैं। अंतिम हिस्सा।

जैसे कि पदार्थ को वैज्ञानिकों ने तोड़ कर अंतिम परमाणु पर ला दिया है और अब परमाणु को भी तोड़ कर इलेक्ट्रांस पर ला दिया है। इलेक्ट्रान वह हिस्सा है, जो अंतिम खंड है, जिसके आगे और खंड संभव नहीं। क्योंकि वैज्ञानिक पदार्थ का विश्लेषण कर रहा है, इसलिए उसने पदार्थ के अंतिम खंड को पकड़ने की कोशिश की है। और महावीर चेतना का विश्लेषण कर रहे हैं, इसलिए चेतना का अंतिम एटम पकड़ने की कोशिश की है। उस अंतिम अणु का नाम समय है। समय वह विभाजन है वर्तमान क्षण का, जो हमारे हाथ में होता है।

लेकिन वह इतना छोटा हिस्सा है, जैसे अणु दिखाई नहीं पड़ता, परमाणु दिखाई नहीं पड़ता, ऐसे ही क्षण का वह हिस्सा भी हमारे बोध में नहीं आ पाता। जब वह हमारे बोध में आता है, तब तक वह जा चुका होता है। वह इतना बारीक हिस्सा है, इतना छोटा टुकड़ा है कि जब हम जागते हैं, तब तक वह जा चुका है। यानी हमारे होश से भरने में भी इतना समय लग जाता है कि समय जा चुका है।

जैसे इस क्षण हमारे हाथ में क्या है? अतीत नहीं है, वह जा चुका। भविष्य अभी आया नहीं है। दोनों के बीच में एक बारीक बाल के हजारवें हिस्से का एक छोटा सा टुकड़ा हमारे हाथ में होगा। लेकिन वह इतना छोटा टुकड़ा है कि जब हम होश से भरेंगे उसके प्रति कि यह रहा वर्तमान, तब तक वह जा चुका है, तब तक वह अतीत हो चुका है।

तो महावीर आत्मा को समय इस अर्थ में भी कह रहे हैं कि जिस दिन आप इतने शांत हो जाएं कि वर्तमान आपकी पकड़ में आ जाए, उस दिन आप सामायिक में प्रवेश कर गए। इसका मतलब यह हुआ कि इतना शांत चित्त चाहिए, इतना शांत, इतना निर्मल कि वर्तमान का जो कण है अत्यल्प, छोटा सा कण, वह भी झलक जाए। अगर वह भी झलक जाए तो समझना चाहिए कि हम सामायिक को उपलब्ध हुए, यानी समय के अनुभव को उपलब्ध हुए। समय हमने जाना, हमने देखा, समय को अनुभव किया।

अब तक हमने समय को अनुभव नहीं किया है। हम कहते हैं, हमारे पास घड़ी भी है, हम समय नापते भी हैं, हम बताते भी हैं कि इस समय इतना बजा है, लेकिन जब हम कहते हैं इतना बजा है, वह बज चुका। जब हम कहते हैं कि इस वक्त आठ बजा है। जितनी देर में हमने यह कहा कि आठ बजा है, उतनी देर में आठ बज चुका, घड़ी आगे जा चुकी। जरा कण भर भी सरक गई, आगे हो गई। यानी हम जब भी कुछ कह पाते हैं, अतीत का ही कह पाते हैं। जब भी पकड़ पाते हैं, अतीत को ही पकड़ पाते हैं। ठीक वर्तमान हमारे हाथ से चूक जाता है। और अतीत कल्पना, स्मृति है सिर्फ, वह है नहीं अब। है वर्तमान। एक्झिस्टेंस जो है, अस्तित्व जो है, वह अभी एक समय का है और उस एक समय का हमें कोई बोध नहीं है। क्योंकि हम इतने व्यस्त हैं, इतने उलझे और अशांत हैं कि उस छोटे से क्षण की हमारे मन पर कोई छाप नहीं बन पाती, न हमें वह दिखाई पड़ पाता है। उससे हम चूकते ही चले जाते हैं।

समय से निरंतर चूकते चले जाते हैं हम। तो हम अस्तित्व से परिचित कैसे होंगे? क्योंकि अस्तित्व है समय का। वही है, बाकी तो सब या तो हो चुका या अभी हुआ नहीं है। जो है, उससे ही प्रवेश करना होगा। और उसका हमें बोध ही नहीं हो पाता, उसे हम पकड़ ही नहीं पाते।

तो महावीर इसलिए भी सामायिक कहते हैं और आत्मा को समय कहते हैं कि तुम आत्मा को उपलब्ध तब हुए, जब तुम समय का दर्शन कर लो, उसके पहले तुम आत्मा को उपलब्ध नहीं हो। क्योंकि जब तुम अस्तित्व का ही अनुभव नहीं कर पाते तो तुम्हारे अस्तित्व का मतलब क्या है?

आत्मा तो सबके भीतर है संभावना की तरह, सत्य की तरह नहीं। जैसे एक बीज में छिपा हुआ है वृक्ष, एक संभावना की तरह, सत्य की तरह नहीं। बीज वृक्ष हो सकता है। हम भी आत्मा हो सकते हैं। जब हम यह कहते हैं कि सबके भीतर आत्मा है तो उसका मतलब सिर्फ इतना है कि हम भी आत्मा हो सकते हैं, अभी हैं नहीं। और हम उसी क्षण आत्मा हो जाएंगे, जिस दिन अस्तित्व आमने-सामने हमारे हो जाएगा। उसी क्षण, जब हम अस्तित्व को देखने, जानने, पहचानने में समर्थ हो जाएंगे, उसी क्षण हम भी अस्तित्ववान हो जाएंगे। उसके पहले हम अस्तित्ववान नहीं हैं।

इसे और इस तरह समझा जा सकता है, अतीत और भविष्य मन के हिस्से हैं और वर्तमान आत्मा का हिस्सा है। तो मन हमेशा अतीत और भविष्य में रहता है, या तो पीछे या आगे, यहां इसी वक्त अभी नहीं। नाउ, अब, ऐसी कोई चीज मन में नहीं होती, होती ही नहीं। मन संग्रह है अतीत का और भविष्य की योजनाओं का।

तो मन जीता है अतीत और भविष्य में। और अतीत और भविष्य के बीच में एक अत्यंत बारीक रेखा है, जो दोनों को तोड़ती है, वह वर्तमान है। और वह इतनी बारीक है कि उस बारीक रेखा के अनुभव के लिए हमें अत्यंत शांत होना जरूरी है। जरा सा कंपन कि हम चूक जाएंगे। यानी कंपन जरा सा भी हुआ हममें भीतर, तो उतनी देर में तो वह निकल जाएगी रेखा। हमारा कंपन उसे नहीं पकड़ पाएगा।

इसलिए अकंप चेतना जिस दिन हो जाए–अकंप, कोई कंपन ही नहीं है भीतर, तो छोटा सा कंपन भी समय के क्षण का हमें दिखाई पड़ेगा। वह जो दर्शन है समय का, वह दर्शन हमें अस्तित्व में उतार देता है। यानी ऐसा समझें कि वर्तमान का क्षण ही द्वार है अस्तित्व में प्रवेश का। ब्रह्म में प्रवेश कहें, सत्य में प्रवेश कहें, मोक्ष में प्रवेश कहें, कुछ भी कहें। वर्तमान के क्षण से ही हम प्रविष्ट होते हैं। वही है द्वार। और वह चूक-चूक जाता है।

एक कहानी मैंने सुनी है। सुनी है कि एक अंधा आदमी है, और एक बड़े भारी राजभवन में भटक गया है। बड़ा है भवन, हजारों द्वार हैं उस भवन के, लेकिन एक ही द्वार खुला है, सब द्वार बंद हैं। वह अंधा आदमी द्वारों को टटोलता-टटोलता-टटोलता–बड़ा भवन है! मीलों का उसका घेरा है। द्वारों को टटोलता-टटोलता, कि शायद कोई खुला द्वार मिल जाए। बस, पहुंचा जा रहा है खुले द्वार के करीब। ऐसे हजार द्वार टटोलते-टटोलते वह थक गया है। और जब वह ठीक उस द्वार पर पहुंचा है जो खुला है, तो उसे खुजान उठ गई है। उसने माथे पर खुजाया है और वह द्वार फिर चूक गया! अब फिर हजारों द्वार हैं, फिर हजारों द्वार हैं और वह फिर टटोल रहा है, फिर टटोल रहा है, फिर टटोल रहा है। वह मीलों के चक्कर के बाद फिर उस द्वार पर आया है, लेकिन इतना थक गया है टटोलते-टटोलते कि उसने टटोलना बंद कर दिया है, वह ऊब गया है। वह टटोलना छोड़ देता है कि कब तक टटोलता रहूं? आखिर है भी वह द्वार कि नहीं? लेकिन इतने में वह द्वार फिर निकल गया है। लेकिन क्या करेगा अंधा आदमी! निकलना है तो ऊबे या न ऊबे, फिर टटोलना शुरू करता है। ऐसा वर्षों बीतते हैं उस कथा में, और वह अंधा आदमी बार-बार उस खुले द्वार के पास से आकर चूक जाता है।

वह जो कहानी है, वर्षों, जन्मों तक हम समय के द्वार को टटोलते हुए घूम रहे हैं कि कहां से द्वार मिल जाए मोक्ष का! कहां से द्वार मिल जाए जीवन का! कहां से द्वार मिल जाए आनंद का! टटोलते आते हैं, टटोलते आते हैं। या तो हम बंद द्वार टटोलते हैं जो अतीत के हैं, जो बंद हो चुके, या हम भविष्य के द्वार टटोलते हैं, जो हैं ही नहीं। जो हैं नहीं, उनको हम टटोल नहीं सकते। जो नहीं हो गए हैं, उनको भी टटोल नहीं सकते। लेकिन एक द्वार जो खुला है वर्तमान का, वह बार-बार चूक जाता है। उस वक्त हम और कुछ करने लगते हैं और वह चूक जाता है। या तो माथा खुजाने लगते हैं या कुछ और करने लगते हैं और वह चूक जाता है। मतलब यह है कि जब भी उस द्वार पर हम आते हैं, हम आक्यूपाइड होते हैं, किसी और चीज में व्यस्त होते हैं।

वर्तमान के क्षण में हम सदा व्यस्त हैं, इसलिए वह चूक जाता है। इसलिए सामायिक का अर्थ है, अन-आक्यूपाइड होना, अव्यस्त होना। व्यस्त बिलकुल नहीं हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं, कुछ भी नहीं सोच रहे हैं, तो ही उस समय को हम पकड़ पाएंगे। क्योंकि हम कुछ कर रहे हैं तो चूक जाएंगे, उतनी देर में तो वह निकल गया। वह निकलता ही चला जा रहा है।

महावीर ने यह नाम बड़े गहरे प्रयोजन से दिया है। वे तो यही कहने लगे कि समय ही आत्मा है। और समय को जान लो, समय में खड़े हो जाओ, समय को पहचान लो और देख लो, तो तुम अपने को देख लोगे, अपने को पहचान लोगे, अपने को जान लोगे।

लेकिन समय को जानना ही बहुत मुश्किल बात है। शायद सबसे ज्यादा कठिन बात समय को जानना है। सबसे ज्यादा दुर्लभ, आर्डुअस वर्तमान में खड़े होना है। क्योंकि हमारी पूरी आदत ही या तो पीछे होने की होती है या आगे होने की होती है। पूरा हैबिट फार्मेशन है हमारा।

एक आदमी को पूछो कि क्या कर रहे हो? तो या तो उसे अतीत में पाओगे या उसे भविष्य में पाओगे। या तो वह उन दृश्यों को देख रहा है जो जा चुके; या उन दृश्यों की सोच रहा है जो आएंगे। लेकिन शायद ही कभी किसी व्यक्ति को पाओगे कि वह कहे, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मैं यहीं हूं। ऐसा आदमी ही नहीं मिलेगा। ऐसा आदमी मिल जाए तो समझना वह सामायिक में था उस वक्त, वह उस वक्त ध्यान में था। उस क्षण में वह कहीं भी व्यस्त नहीं था, बस था।

इसे तो हम थोड़ा सोचें। जस्ट बीइंग। कुछ नहीं कर रहे हैं, बस हैं। कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मंत्र भी नहीं जप रहे हैं। श्वास भी नहीं देख रहे हैं। कुछ भी नहीं कर रहे हैं।

जैसे मैं श्वास देखने के लिए कहता हूं, वह अभी सामायिक नहीं है। वह सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि आपकी और व्यर्थ दूसरी व्यस्तताएं छूट जाएं। एक ही व्यस्तता रह जाए कम से कम, बहुत व्यस्तताएं न रहें, एक ही व्यस्तता रह जाए। एक ही व्यस्तता रह जाए तो कहूंगा, अब इससे भी छलांग लगा जाएं। इतनी बहुत सी व्यस्तताएं छूट गईं, एक ही व्यस्तता रह गई कि श्वास ही देख रहे हैं। अब यह ऐसी व्यस्तता है कि न इसमें कोई धन-कमाई का उपाय है, न इससे कोई लाभ है, न कोई–तो यह एक ऐसी व्यस्तता है कि इससे छलांग लगाने में कठिनाई नहीं पड़ेगी। यह एक ऐसी व्यर्थ व्यस्तता है, ऐसी यूजलेस आक्युपेशन है यह कि इस–अगर आप सबसे छूट गए तो इससे छूटने में देर नहीं लगेगी। जैसे ही मैं कहूंगा छोड़ें, तो आप तो बहुत देर से तैयार ही थे कि कब इसको छोड़ दें। बाकी से आप छूट जाएं तो इससे छलांग लगाई जा सकती है।

यह भी लेकिन आक्युपेशन है, यह अभी सामायिक नहीं है। यह सामायिक के पहले की सीढ़ी है सिर्फ छलांग लगाने की। जैसे जंपिंग बोर्ड होता है न नदी के किनारे! तख्ता लगा हुआ है, जिस पर खड़े होकर छलांग लगाई जाती है, ऐसा यह जंपिंग बोर्ड है। यहां अगर आप पहुंच गए हैं तो अब एक ही छलांग में आप सागर में पहुंच सकते हैं।

तो कुछ भी हम कर रहे हैं, तब तक हम चूकते जाएंगे वर्तमान से। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, तब हम उतर जाएंगे। लेकिन यह हमारी समझ के एकदम बाहर हो जाता है कि कोई ऐसा मौका भी हमें मिले, जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, बस हैं।

और अगर यह समझ में आ जाए तो कोई कठिनाई नहीं है बहुत। इसमें क्या कठिनाई है कि कुछ क्षणों के लिए आप बस हो जाएं, कुछ न करें। कमरे में पड़े हैं या कोने में टिके हैं, सिर्फ हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं, बस हैं। आखिर होना इतना कठिन क्या है? वृक्ष हैं, पत्थर हैं, पहाड़ हैं, चांदत्तारे हैं, सब हैं। और शायद वे इसीलिए इतने सुंदर हैं कि समय में कहीं गहरे डूबे हुए हैं। हम शायद इसीलिए इतने कुरूप, इतने परेशान, चिंतित, दुखी और हैरान हैं, क्योंकि समय से भागे हुए हैं, समय के बाहर छिटक गए हैं। जैसे जीवन के मूल-स्रोत से कहीं झटका लग गया है, जड़ें उखड़ गई हैं, हम कहीं और हैं।

दो तरह की क्रियाएं हैं, एक तो हमारे शरीर की क्रियाएं हैं। शरीर की क्रियाएं तो हमारी निद्रा में भी शिथिल हो जाती हैं, बेहोशी में भी बंद हो जाती हैं। शरीर की क्रियाओं को रोकना बहुत कठिन भी नहीं है। शरीर की क्रियाओं से कोई गहरी बाधा भी नहीं है। उसके भीतर हमारी मन की क्रियाएं हैं, मेंटल प्रोसेसेस हैं, वही हैं असली बाधाएं। क्योंकि वे ही हमें समय से चुकाती हैं, शरीर नहीं चुकवाता हमें समय से। शरीर का अस्तित्व तो निरंतर वर्तमान में है।

यह ध्यान रहे कि लोग आमतौर से साधक होने की स्थिति में शरीर के दुश्मन हो जाते हैं, जब कि शरीर बेचारे की कोई दुश्मनी ही नहीं है। शरीर तो निरंतर समय में है। शरीर तो एक क्षण को भी न अतीत में जाता, न भविष्य में जाता; शरीर तो वहीं है, जहां है। शरीर ने तो कभी भी किसी आदमी को नहीं भटकाया है आज तक, भटकाता है मन। क्योंकि मन कहीं-कहीं जाता है; जहां नहीं है वहां जाता है। रात आप सोते हैं, शरीर तो होगा श्रीनगर में, मन कहीं भी हो सकता है। आप दिन में बैठे हैं, शरीर तो है चश्मेशाही पर, मन कहीं भी हो सकता है। शरीर तो सदा वहीं है, जहां है। शरीर अन्यथा हो नहीं सकता, उसका कोई उपाय नहीं है।

लेकिन साधक आमतौर से शरीर से दुश्मनी साध लेता है, जिसने कभी कोई नुकसान पहुंचाया ही नहीं। साधक का गहरे अर्थों में जो प्रयोग है, वह होना चाहिए मन पर। किसी न किसी तरह उसे नो-माइंड की स्थिति में पहुंचना है, अ-मन की। कबीर ने कहा, अमनी। ऐसी अवस्था में पहुंच जाना है जहां मन नहीं है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि मन होगा तो क्रिया होगी। और किसी भी तरह की क्रिया होगी तो मन बना रहेगा। इसलिए मन किसी भी तरह की क्रिया के लिए राजी है। आप कहो, दुकान करो। तो वह कहता है ठीक, दुकान करते हैं। आप कहें दुकान नहीं, पूजा करनी है। वह कहता है चलो, पूजा करते हैं। मन कहता है, कुछ भी करो तो हम राजी हैं। क्योंकि करने मात्र में मन बच जाता है। तब मंत्र जपो, तो वह कहता, चलो हम राजी हैं। कोई भी क्रिया करो तो मन कहता हम बिलकुल राजी हैं।

लेकिन मन से कहो कि हम कुछ भी नहीं करना चाहते, थोड़ी देर को हम कुछ भी नहीं करते, तो मन बिलकुल राजी नहीं है। तो मन पूरी कोशिश करेगा आपको कुछ न कुछ करवाने की। वह यही कहेगा, तो कम से कम इतना ही करो कि मन से लड़ो। विचारों को निकाल बाहर करो, विचार को आने मत देना। ध्यान करो। मन कहेगा चलो, तो ध्यान ही करो, लेकिन कुछ करो जरूर। क्योंकि बिना किए काम नहीं चल सकता। बिना किए कैसे काम चल सकता है?

एक सम्राट जापान का एक झेन मॉनेस्ट्री देखने गया। बड़ी मॉनेस्ट्री है, बड़ा आश्रम है, पहाड़ों पर दूर तक फैले हुए भवन हैं, बड़ा बीच में पगोडा है। सम्राट द्वार पर ही उस आश्रम के प्रधान भिक्षु को कहता है बूढ़े को, कि मैं सब, सब देखने आया हूं, कहां आप क्या करते हैं। एक-एक जगह मुझे दिखा दें, कहां क्या करते हैं।

वह बूढ़ा ले जाता है, जहां भिक्षु स्नान करते हैं। वह कहता है, यहां भिक्षु स्नान करते हैं। वह सम्राट कहता है, इन सब फिजूल की बातों को मुझे मत दिखाइए। असली चीज जहां करते हों, वह बताइए। फिर वह ले जाता है, वह कहता है, भिक्षु यहां पाखाना करते हैं।

वह सम्राट कहता है, क्या बेकार की बातों में आप मेरा समय जाया कर रहे हैं। मैं यह पूछता हूं, भिक्षु जहां जरूरी चीजें करते हों। उस भिक्षु ने कहा, जो-जो जरूरी करते हैं, वह मैं आपको बता रहा हूं। यहां अध्ययन करते हैं, यह पुस्तकालय है। यहां भोजन करते हैं, यह चौका है। यहां व्यायाम करते हैं। उस सम्राट ने कहा कि क्या तुम फिजूल की चीजों में मुझे भटका रहे हो! बीच में जो बड़ा भवन है, वहां क्या करते हैं?

जब सम्राट उससे यह पूछता कि उस बड़े भवन में क्या करते हैं, तो भिक्षु ऐसे हो जाता, जैसे बहरा है, सुनता ही नहीं! दूसरी बातें बताने लगता है। कहता है कि यहां बगीचा लगाते हैं भिक्षु। यहां भिक्षु यह करते हैं, वहां भिक्षु चक्रमण करते हैं, शाम को टहलते हैं। सम्राट फिर पूछता है, यह सब मैं समझ गया, यह सब ठीक है; वहां क्या करते हैं? उस बड़े भवन में क्या करते हैं? बस, उस बड़े भवन की बात से वह ऐसा चुप हो जाता है कि न कोई बड़ा भवन है, न कोई प्रश्न पूछा गया है।

सम्राट उकता गया, परेशान हो गया। दरवाजे पर वापस आ गया है, अपने घोड़े पर सवार हो गया है। उसने कहा, या तो मैं पागल हूं या तुम पागल हो। यह बड़ा भवन जो दिखाई पड़ता है, है या नहीं? और इस बड़े भवन में करते क्या हो? और बोलते क्यों नहीं तुम, बहरे क्यों हो जाते हो? बाकी सब बात सुन लेते हो, यही बात तुम क्यों नहीं सुनते हो?

उस भिक्षु ने कहा, आप मुझे बड़ी मुश्किल में डाल देते हैं। असल में वह जगह ऐसी है, जहां हमें जब कुछ नहीं करना होता है, हम जाते हैं। और आप पूछते हो, क्या करते हो? अब या तो मैं बताऊं कुछ करना, तो गलती हो जाए, और या मैं चुप रह जाऊं। क्योंकि आप करने की ही भाषा समझते हो, इसलिए मैंने स्नानगृह दिखलाया, पाखाना दिखलाया, अध्ययन-कक्ष दिखलाया, जहां हम कुछ करते हैं। आप पूछते हो, वहां क्या करते हो? तो मैं एकदम चुप हो जाता हूं, क्योंकि वहां हम कुछ करते ही नहीं। वहां जिसको करना हो उसे जाने की मनाही है। वहां करने की भाषा चलती ही नहीं। वहां तो जब किसी को कुछ भी नहीं करना होता तो कोई चुपचाप चला जाता है। वह हमारा ध्यान-भवन है।

तो सम्राट ने कहा, समझ गया। तो वहां तुम ध्यान करते हो? तो उस भिक्षु ने कहा, फिर वही भूल हुई जाती है, क्योंकि ध्यान का मतलब ही है कुछ न करना।

जब तक हम कुछ कर रहे हैं, तब तक ध्यान नहीं हो सकता। लेकिन ध्यान शब्द में भी क्रिया जुड़ी हुई है। सामायिक शब्द में वह क्रिया भी नहीं है। ध्यान से लगता है, कुछ करने की बात है। सामायिक में करने को कुछ भी नहीं रह जाता। सामायिक का मतलब ही है, अपने में होना, समय में होना। करना नहीं है वहां, बिकमिंग नहीं है वहां; बीइंग की बात है, होना सिर्फ। करने को कुछ भी नहीं है वहां, सिर्फ हो जाना है अपने में। हम सब भागे-भागे हैं बाहर-बाहर। कुछ न कुछ कर रहे हैं, कुछ न कुछ हो रहे हैं। ऐसा कभी भी नहीं है, जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, कुछ भी नहीं हो रहे हैं; बस हैं।

जैसे आकाश में कभी देखा हो चील को तैरते हुए। चील तैरती है कभी, तब पंख भी नहीं हिलाती। पंख भी ठहर जाते हैं। कुछ भी नहीं करती, बस रह जाती है। कभी चील को पर तौलते देखा हो तो गौर से देखना। न, कुछ भी नहीं करती फिर, ऐसा पर भी नहीं हिलाती। पर भी ठहर गए हैं। हवा पर रह जाती है, तुल जाती है।

वैसा ही कुछ होना भीतर भी है। जब हम सिर्फ तुल जाते हैं, पंख भी नहीं हिलाते, कुछ भी नहीं करते भीतर, सब सन्नाटा और चुप हो जाता है। बस होते हैं। ऐसी जो जस्ट बीइंग की, होने की स्थिति है, अवस्था है; क्रिया नहीं, स्टेट ऑफ बीइंग; स्टेट ऑफ एक्शन नहीं, कर्म नहीं, क्रिया नहीं, कोई प्रोसेस नहीं; जहां हम बस सिर्फ होते हैं, कुछ भी नहीं करते; उस स्थिति का नाम है सामायिक।

इसलिए जब कोई पूछता है सामायिक कैसे करें? तो इससे और गलत सवाल दूसरा नहीं पूछ सकता है। इससे ज्यादा गलत सवाल दूसरा नहीं हो सकता। हमारी सारी भाषा चिंतना करने पर खड़ी है। न करने का हमें कोई खयाल ही नहीं है! लेकिन हम अपने स्वभाव को करने में कभी भी नहीं जान सकेंगे, क्योंकि करना सदा दूसरे के साथ है। सूक्ष्मतम तलों पर जब भी हम कुछ कर रहे हैं, सदा और के साथ कर रहे हैं। और जब भी हम कर्ता बन रहे हैं, तभी हम कुछ और बन रहे हैं, जो हम नहीं हैं। तभी हम कोई अभिनय अपने ऊपर ले रहे हैं, जो हम नहीं हैं।

जैसे एक आदमी दुकानदार बन रहा है, यह एक अभिनय है, एक एक्टिंग है, जो वह अपने ऊपर ले रहा है। कोई आदमी दुकानदार है थोड़े ही। कोई आदमी दुकानदार है? कोई आदमी दुकानदार नहीं है। दुकानदार होना जीवन के इस बड़े नाटक में उसका अभिनय है। एक दूसरा आदमी नौकर बन रहा है, एक तीसरा आदमी मिनिस्टर बन रहा है, एक चौथा आदमी शिक्षक बन रहा है। कोई आदमी शिक्षक है या कोई आदमी नौकर है?

ये अभिनय हैं, जो आदमी ले रहे हैं। जो इस जिंदगी के बड़े नाटक में वे संभालेंगे। और संभालते-संभालते यह भूल जाएंगे कि ये अभिनय थे और हम कुछ और थे, जिन्होंने यह अभिनय स्वीकार किया था। और धीरे-धीरे अभिनय से तादात्म्य हो जाएगा और लगेगा यही हम हैं। तो दुकानदार को फिर बड़ा मुश्किल है दुकानदार न हो जाना–एक क्षण को भी।

मैं कलकत्ता में एक घर में मेहमान था। उस घर की गृहिणी ने मुझे कहा–उसका पति चीफ जस्टिस है हाईकोर्ट का–उसकी पत्नी ने मुझे कहा कि मैं आपसे कहती हूं, क्योंकि वे आपको सुनते हैं, उत्सुक हैं, आपको समझने की कोशिश करते हैं। कृपा करके इतना उनसे कह दें कि कभी-कभी चीफ जस्टिस न हो जाएं तो बड़ा अच्छा रहे। ये चौबीस घंटे चीफ जस्टिस हैं! ईवेन इन बेड! उसने कहा कि बिस्तर में भी, तब भी वे चीफ जस्टिस हैं। तो उनकी वजह से हम बड़े परेशान हैं। वे घर में घुसते हैं और घर एकदम अदालत हो जाती है। बच्चे संभल कर बैठ जाते हैं, सब काम सुचारु रूप से होने लगता है, चीफ जस्टिस आ गए।

अब यह आदमी जो है न, यह जो एक्शन इसने लिया हुआ है, जो नाटक लिया हुआ है, भूल गया है कि वह नाटक है। यह रिलैक्स हो ही नहीं रहा कभी।

हम जानते हैं भलीभांति कि कपड़े का दुकानदार रात में चादर भी फाड़ देता है सपने में, ग्राहकों को बेच देता है सामान। नींद खुलती है, तब पता चलता है कि चादर उसने फाड़ दी! वह दिन भर कपड़ा काट रहा है, फाड़ रहा है, सपने में भी वही कर रहा है! सपने में भी वही हो गया है, जो वह है! सपने में हम वही होते हैं, जो हम चौबीस घंटे दिन में हैं। हम करेंगे क्या!

हमारे एक्शन ने, हमारी क्रिया ने हमारे सारे व्यक्तित्व को चारों तरफ से घेरा हुआ है। ऐसा कभी नहीं है जब कि हम बिलकुल रिलैक्स्ड हैं; और वही हैं, जो हैं, और कुछ अंगीकार नहीं कर रहे हैं, कुछ ऊपर ग्रहण नहीं कर रहे हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं। क्योंकि जब भी हम कुछ करेंगे, कोई अभिनय शुरू हो जाएगा।

और ध्यान रहे, जब तक हम अभिनय में हैं, तब तक हम आत्मा में नहीं हो सकते। आत्मा में अगर होना है तो सब तरह के मंचों से नीचे उतर आना पड़ेगा, सब तरह के अभिनय से नीचे उतर आना पड़ेगा। अभिनय बदल लेना बहुत आसान है। एक दुकानदार संन्यासी हो सकता है, तब वह एक नई दुकान खोल लेगा, तब वह संन्यासी होने के अभिनय में पड़ जाएगा। लेकिन समस्त अभिनयों से कभी घड़ी भर को बाहर उतर जाना, कभी घड़ी भर को–कि आप न दुकानदार रहे, न संन्यासी रहे, न गृहस्थ रहे, न पिता रहे, न मां रहे, न बेटे रहे, न पति रहे, न पत्नी रहे–आपने सब क्रिया और सब अभिनय को उतार कर एक तरफ रख दिया और कहा कि इस वक्त तो मैं वही हो जाता हूं, जो था जन्म के पहले और जो हो जाऊंगा मरने के बाद।

झेन फकीर लोगों से कहते हैं–जब कोई उनके पास आता है तो वे कहते हैं–तुम आंख बंद करके एक काम करो, कोशिश करो खोजने की कि तुम्हारा ओरिजिनल फेस क्या है? जब तुम जन्मे नहीं थे, तुम्हारा चेहरा कैसा था? उससे कहते हैं कि तुम जाकर एक अंधेरे कमरे में बैठ जाओ, जरा इसकी खोज करो कि तुम्हारा ओरिजिनल फेस क्या है? जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारा चेहरा कैसा था? कुछ तो चेहरा रहा होगा।

तो वह आदमी जाता है, सोचता है, कोशिश करता है। क्योंकि हम सबको यह खयाल है कि चेहरा हर हालत में रहना ही चाहिए। और हमें यह खयाल ही नहीं है कि चेहरा सब ग्रहण किया हुआ है। एक भीतर फेसलेसनेस भी है, जहां कोई चेहरा नहीं है।

तो वह आदमी खोजता है कि ओरिजिनल फेस क्या है? मेरा मूल चेहरा क्या है? परेशान हो जाता है, थक जाता है कि मैं जब पैदा नहीं हुआ था तो कैसा था? कैसा मेरा चेहरा था? आकर बार-बार खबर देता है कि शायद ऐसा था। तो वह कहता है कि यह तो तुम इसी की नकल बता रहे हो। यह तो इसी चेहरे से मिलता-जुलता है, जो तुम कह रहे हो। यह कहां था? मां के पेट में यह कहां था? मां के पेट के पहले यह कहां था? जरा और खोजो, और खोजो। खोज चलती है, चलती है, चलती है, किसी दिन विस्फोट होता है और उसे खयाल आता है कि मेरा भीतर कोई चेहरा है भी! चेहरे तो सब बाहर से लिए हुए हैं, सब मुखौटे हैं।

बाजार से एक आदमी मुखौटा खरीद कर शेर बन जाता है तो हम उस पर हंसते हैं और हम मां-बाप से खरीद कर एक चेहरा ले आए, एक मुखौटा, और बड़े प्रसन्न हैं और सोच रहे हैं यह चेहरा मेरा है! यह मुखौटा है बिलकुल, जो जरा गहरी दुनिया के बाजार से खरीदा गया है। जो ठेठ बाजार से नहीं लाया गया, लेकिन फिर भी बाजार से लाया गया है, फिर भी बाहर से लाया गया है। भीतर कोई चेहरा ही नहीं है। भीतर कोई नाम नहीं है। भीतर कोई क्रिया नहीं है। भीतर कोई अभिनय नहीं है।

तो अगर स्वभाव को जानना हो, जो मैं हूं, उसे ही जानना हो तो मुझे सारी क्रिया, सारे चेहरे, सारे अभिनय छोड़ कर थोड़ी देर को तो बाहर खड़े हो जाना पड़ेगा। इस थोड़ी देर को बाहर खड़े हो जाने का नाम सामायिक है। और एक बार मुझे पहचान आ जाए कि मेरा कोई नाम नहीं, मेरा कोई चेहरा नहीं, मेरा कोई शरीर नहीं, मेरा कोई कर्म नहीं, मेरा कोई अभिनय नहीं; मेरा तो मात्र होना है, अस्तित्व मात्र मेरा स्वभाव है और जानना मात्र मेरी प्रकृति है, तो एक मुक्ति, एक विस्फोट होगा, जो विस्फोट व्यक्ति को जीवन के समस्त चक्कर के बाहर तत्क्षण खड़ा कर देता है। और उसे लगता है कि मैं अभिनय में था और इसलिए एक चक्कर था और एक खेल था। अभिनय में ऐसी भूल हो जाती है।

और कई बार खयाल भी नहीं रहता, क्योंकि अभिनय हम जन्म के साथ ही पकड़ लेते हैं। हमारी सारी सभ्यता, सारी संस्कृति, सारी शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को उसका ठीक रोल दे देने की है, और तो क्या है। यानी एक-एक आदमी को उसका ठीक-ठीक अभिनय मिल जाए, इसकी सारी व्यवस्था है। तो हमारी पूरी व्यवस्था ऐसी है कि प्रत्येक व्यक्ति को एक चेहरा मिल जाए, वह बिना चेहरे का न रह जाए। उसको एक काम मिल जाए, एक अभिनय मिल जाए, वह व्यवस्थित हो जाए, अपना नाटक में काम करे, चेहरा निभाए और जिंदगी गुजार दे।

सारी व्यवस्था–जिस आदमी को चेहरा न मिल पाए, अभिनय न मिल पाए, हम कहते हैं, वह आदमी भटक गया, खो गया। उसके पास न कोई काम है, न कोई धाम है। वह क्या करता है, कुछ पता नहीं चलता। वह कौन है, कुछ पता नहीं चलता।

तो हम सब उन आदमियों को सफल कहते हैं, जो आदमी इस अभिनय में जितना तादात्म्य कर लेते हैं और जितने गहरे उतर जाते हैं।

एक चित्रकार था गोगां, वह चालीस वर्ष की उम्र तक ब्रोकर था, एक दलाल था। और सफल दलाल था और खूब कमाया उसने पैसा। पत्नी थी, बच्चे थे। और कभी किसी ने सोचा नहीं था कि गोगां एक रात घर से नदारद हो जाएगा। रात सोया था, पत्नी को नमस्कार करके, बच्चों को प्रेम करके और आधी रात कब चला गया घर से, पता नहीं चला। न कभी किसी दूसरी स्त्री में उत्सुक देखा गया था कि पत्नी यह विचार करे कि कहीं भाग गया किसी स्त्री के साथ। न कभी किसी क्लब में, न किसी शराब में, न किसी जुए में कोई उत्सुकता थी। बड़ा सीधा-सादा, साफ-सुथरा आदमी था। कमाता था, घर था; काम था, घर था, बस इससे ज्यादा कुछ भी न था। बच्चों से प्रेम था, पत्नी से प्रेम था। कोई झगड़ा न हुआ था, कोई घटना न घटी थी। अचानक वह आदमी रात कहां नदारद हो गया, दो साल तक पता न चला!

दो साल बाद पता चला कि वह पेरिस में एक चित्रकार के पास चित्रकला सीख रहा है। घर के लोग भागे गए, पत्नी भागी गई। कहा, तुम्हें क्या हो गया? तुम आए क्यों? तो उसने कहा कि बस ऐसा खयाल आ गया कि कोई जिंदगी भर दलाल होने का ही अभिनय करता रहूंगा? चालीस साल गुजार दिए, उस रात एकदम खयाल आया कि यह क्या कर रहा हूं? क्या दलाल ही बना रहूंगा जिंदगी भर? कोई दलाल होना ही मेरा कोई स्वत्व है?

उसकी पत्नी ने कहा, यह मेरी कुछ समझ में नहीं आता। इसका क्या मतलब है?

उसने कहा, इसका मतलब यह है कि मैंने कहा कि यह कोई मेरा चेहरा तो नहीं है, ग्रहण किया हुआ चेहरा है, तो बदल लें चेहरे को।

तो उसने कहा, हम बच्चे और पत्नी?

तुम्हारे लिए मैं इंतजाम कर आया हूं। लेकिन अब मैं किसी का पति नहीं हूं और किसी का बाप नहीं हूं। क्योंकि यह कोई जिंदगी भर बाप ही बना रहूं और पति ही बना रहूं?

किसी की समझ में नहीं आया कि मालूम होता है आदमी पागल हो गया। दस वर्षों निरंतर मेहनत करके वह दुनिया के श्रेष्ठतम चित्रकारों में एक हो गया। लेकिन एक दिन अचानक लोगों ने पाया कि जब उसके चित्र लाखों में बिकने लगे हैं, वह छोड़ कर चला गया। किसी ने उससे पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? तुम्हारी इतनी प्रतिष्ठा हो गई है अब, इतना तुमने श्रम किया है!

तो उसने कहा कि कोई भी अभिनय मेरा स्वभाव नहीं है। मैं अपने चेहरे की खोज में लगा हूं। मैं किसी नकली चेहरे को पकड़ना नहीं चाहता।

नहीं आपसे कह रहा हूं कि आप जो कर रहे हैं, वह छोड़ कर भाग जाएं। कह रहा हूं कुल जमा इतना कि जो चेहरा आपका सख्त मजबूती से आपने पकड़ लिया है, वही आप हैं, इस भ्रम में न पड़े रहें। वह आपके होने का एक ढंग है, होना नहीं है। वह आपके जीवन-पद्धति का, अभिनय का एक रूप है। जो आप कर रहे हैं, वह जरूरी है; करेंगे, करना है, लेकिन आपकी न करने की भी कोई अवस्था होनी चाहिए, जहां आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं; जहां सारे संबंध, सारी क्रियाएं, सारे अभिनय क्षीण हो गए हैं। आप ही रह गए हैं बस अपने होने में।

ऐसा जो क्षण उपलब्ध हो जाए तो समय का बोध शुरू होता है और व्यक्ति स्वयं में थिर हो जाता है, रुक जाता है। और वह जो अनुभूति है, एक बार भी मिल जाए तो दुबारा कभी खोती नहीं। फिर आप कितना ही कुछ करते रहें, आप प्रत्येक करने में जानते हैं कि न करने की धारा भीतर बह रही है। फिर आप किसी भी अभिनय में लगे रहें, आप जानते हैं कि अभिनय है, थोड़ी देर के बाद मंच से उतर कर घर चले जाना है। यह स्मृति इतनी साफ हो जाती है, इतनी पैनी हो जाती है कि गहरे से गहरे क्षण में भी वह बोध स्पष्ट रहता है, कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर आप अभिनेता होने से तादात्म्य नहीं कर लेते हैं अपना। अभिनय जीवन-व्यवस्था का अंग हो जाता है, लेकिन अभिनय के बाहर आपकी सत्ता की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।

कृष्ण के जीवन-व्यवहार को जो नाम दिया है, वह है लीला। लीला का मतलब यह है–खेल, लीला का मतलब है नाटक; लीला का मतलब है सच्चा नहीं, माना हुआ।

जो व्यक्ति सामायिक को उपलब्ध हो जाएगा, उसका जीवन लीला हो जाएगी। उसका जीवन लीला हो जाएगी, यह ध्यान रहे। उसका जीवन चरित्र नहीं रह जाएगा, चरित्र नहीं है उसका जीवन फिर।

इसलिए राम के जीवन को हम कभी लीला नहीं कहते, वह रामचरित्र है; वह गहरे में चरित्र है, वहां नीति की पकड़ गहरी है, वहां अभिनय भारी है। लेकिन कृष्ण के मामले को हम कहते हैं लीला। क्योंकि वहां चीजें तरल हैं, किसी चीज की पकड़ नहीं है, सब खेल है। और भीतर एक आदमी बाहर खड़ा है, जो खेल के बिलकुल बाहर है।

क्या ऐसा कर सकते हैं आप कि कभी क्षण भर को खेल के बाहर उतर आएं? वे वस्त्र उतार दें जो नाटक के मंच पर पहने थे, और वे चेहरे भी निकाल कर रख दें, और वह मेक-अप भी हटा दें जो काम करता था मंच पर, और खाली घर लौट आएं जैसे आप हैं।

ऐसा, ऐसा अगर कर सकें तो इसके पहले हिस्से का नाम प्रतिक्रमण है, इस लौटने का नाम। और दूसरे हिस्से का नाम, जब आप अपने में ठहर गए हैं–जैसे यह झींगुर बोल रहा है, जैसे वृक्षों में पत्ते लग रहे हैं, जैसे आकाश से चांद की किरणें गिर रही हैं, ऐसे ही किसी क्षण में आप कुछ कर नहीं रहे हैं। जो हो रहा है, हो रहा है। श्वास चल रही है, चल रही है, आप चला नहीं रहे हैं। आंख झपक रही है, झपक रही है, आप झपका नहीं रहे हैं। पैर थक गया है, हिल गया है, हिल गया है, आपने हिलाया नहीं है। और आप बिलकुल ऐसे हो गए हैं जैसे हैं ही नहीं। उस क्षण में आपको पता चल सकेगा कि मैं कौन हूं, मेरी आत्मा क्या है, मेरा अस्तित्व क्या है। और एक बार इसका पता चल जाए तो जीवन फिर दूसरा है। फिर जीवन वही कभी नहीं होगा, जो था। इसे हम कुछ दो-चार उदाहरणों से समझने की कोशिश करें।

एक फकीर है मारपा, वह अपने गुरु के पास गया है। वह तिब्बत में हुआ। वह अपनी गुरु की तलाश में वह अपने गुरु के पास गया है। गुरु लेटा हुआ है। वह गुरु से कहता है, आप इस समय क्या कर रहे हैं? तो उसका गुरु कहता है, किसी समय मैंने कुछ नहीं किया। वह मारपा कहता है, कुछ तो कर ही रहे होंगे। बिना किए कैसे हो सकते हैं? उसका गुरु कहता है, करने वाला कभी हुआ है? बिना किए ही कभी कोई होता है। किया कि गए, नहीं किया कि पाया। तो मारपा कहता है, कुछ समझ में नहीं आता। तो उसका गुरु कहता है, समझने की कोशिश कर रहा है, इसलिए समझ में कैसे आएगा? समझने की कोशिश मत कर। देख, जान, पहचान; समझने की कोशिश मत कर।

एक जर्मन विचारक है हेरीगेल, जापान गया। और जापान में उन्होंने बहुत सी तरकीबें खोजी हैं जिनके माध्यम से वह सामायिक में ले जाना सिखाते हैं, मेडीटेशन में ले जाना सिखाते हैं। उनमें कई हैं, जैसे फ्लावर अरेंजमेंट भी एक है, फूल जमाने की कला भी एक है, जिससे आदमी ध्यान को उपलब्ध हो। जिस दिन फूल जमाने की कला में कोई निष्णात हो जाता है और उसका गुरु पूछता है कि बहुत अच्छे जमाए फूल! तो वह कहता है, ऐसा मत कहें, ऐसा मत कहें; फूल जम गए। कहता है, ऐसा मत कहें; फूल जम गए। मैं केवल निमित्त बन गया, फूल जम गए। मैं सिर्फ निमित्त बन गया, फूल जम गए। मैंने कुछ किया नहीं, फूल जम गए। फूल ऐसे ही जमना चाहते थे। मेरा उन्होंने उपयोग ले लिया और फूल जम गए। मैंने फूल जमाए नहीं।

फूल जमाने से भी सिखाते हैं, तलवार चलाने से भी सिखाते हैं, तीर चलाने से भी सिखाते हैं।

हेरीगेल जिस गुरु के पास गया वह धनुर्विद्या से ध्यान सिखाता था। तीन साल तक हेरीगेल ने धनुर्विद्या सीखी। उसके निशाने अचूक हो गए। उसके निशाने में भूल-चूक बंद हो गई, शत-प्रतिशत ठीक हो गए। लेकिन गुरु है कि रोज कहता है कि नहीं, नहीं, नहीं, अभी कुछ भी नहीं हुआ। वह हेरीगेल कहता है कि मैं परेशान हो गया तीन साल मेहनत करते-करते। मेरा एक निशाना नहीं चूकता है और आप कहते हैं कुछ नहीं हुआ!

उसके गुरु ने कहा, निशाने से लेना-देना क्या है। लेकिन अभी तीर तू चलाता है, चलता नहीं। वह गुरु कहता है, अभी तीर तू चलाता है, तेरा एफर्ट जारी है। हमें निशाने से क्या मतलब! निशाना लगे न लगे, यह गौण बात है। और निशाना क्यों न लगेगा? निशाना लगेगा क्यों नहीं? निशाना लगेगा। निशाने से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन तू तीर चलाता है, तीर अभी चलता नहीं।

तीन साल परेशान हो गया। वह वैसे भी धनुर्विद्या का पहले से अभ्यासी था। जो भी देखने आता है, वह कहता है, हेरीगेल, अदभुत हो तुम। उसका निशाना बाल भी नहीं चूकता है। उसका कोई निशाना नहीं चूकता है, महीनों से उसका निशाना नहीं चूका। लेकिन उसका गुरु है कि रोज कह देता है, नहीं, अभी कुछ नहीं हुआ।

आखिर थक गया हेरीगेल और उसने कहा, अब क्षमा करें, अब मैं लौट जाऊं। लेकिन गुरु ने कहा, सर्टिफिकेट नहीं दे सकूंगा। इतना लिख सकता हूं कि तीन साल मेरे पास रहा, लेकिन असफल लौटता है। वह कहता है कि मेरे सब निशाने ठीक लगते हैं। उसने कहा, निशाने से हमें कोई मतलब ही नहीं है। तू ठीक नहीं है, निशाने से हम क्या करें! हम तुझे देख रहे हैं, निशाने से हमें क्या करना है। तू ही ठीक नहीं है। क्योंकि तू अभी तक भी ऐसा नहीं हो पाया है कि तीर चले, अभी तू तीर चलाता है।

हेरीगेल पश्चिमी आदमी है, उसकी समझ के बाहर है बिलकुल यह बात। वह लिखता है अपनी किताब में कि मेरी समझ के ही बाहर है कि तीर चलेगा कैसे जब तक मैं न चलाऊंगा? यह तो बिलकुल एब्सर्ड है। यह तो बिलकुल निपट बकवास मालूम पड़ती है कि तीर अपने आप चलेगा कैसे, जब तक मैं नहीं चलाऊंगा? और मैं चलाता हूं तो वह कहता है, बाधा पड़ गई। और मैं नहीं चलाऊंगा तो तीर चलता नहीं। और वह कहता है, ऐसा चलाओ जैसा कि तुमने न चलाया हो, बस तीर चल जाए। तुम निमित्त भर रहो। तीर तुमसे चल जाए। तुम मत चलाओ, तुम मत आओ बीच में। तुम क्रिया मत बनो, तुम कर्ता मत बनो।

थक गया आखिर, तीन साल बाद उसने एक दिन कहा कि मैं कल टिकट बुक करवा आया हूं, मैं वापस लौटता हूं। गुरु ने कहा, जैसी मर्जी। हेरीगेल लौट आया है।

दूसरे दिन सांझ को उसका हवाई जहाज है, सुबह वह अंतिम विदा लेने गुरु के पास जाता है। तो गुरु दूसरे शिष्यों को तीर चलाना सिखा रहा है। हेरीगेल एक बेंच पर बैठ गया है। उसके गुरु ने तीर उठाया है, तीर चलाया है। हेरीगेल एकदम से खड़ा हो गया, गया है गुरु के पास, बिना बोले धनुष हाथ में लिया है, तीर चलाया है। गुरु ने कहा, ठीक! तीर चल गया। उसने हेरीगेल ने कहा, लेकिन इतने दिनों से क्यों नहीं हो सका? उसने कहा, तू इतने दिन से कोशिश में लगा था। आज तू कोशिश में नहीं था, आज तू ऐसे ही आकर बैठा था कि विदा ले लेनी है। आज तू कोशिश में नहीं था, ऐसे ही बैठा था कि विदा ले लेनी है।

हेरीगेल ने कहा कि हां, मैं आज तक देख ही नहीं सका आपको। आज मैंने पहली दफा देखा कि तीर चल रहा है और आदमी मौजूद नहीं है। फिर तो मैं उठा। फिर मैं यह भी नहीं कह सकता अब कि उठा–उठ गया। तीर हाथ में आ गया। तीर चल गया। गुरु ने कहा, अब मैं तुझे लिख कर दे सकता हूं। बस, एक ही दिन काफी है, बात खतम हो गई। तुझे समझ में आ गया फर्क।

हम कर्ता हैं, अकर्ता कभी भी नहीं। एक क्षण को भी अकर्ता हो जाएं तो बात हो गई। वह एक क्षण अकर्ता का ही सामायिक का क्षण है।

एक और घटना मुझे याद आती है। चीन में एक हुईऱ्हाई फकीर हुआ, वह अपने गुरु के पास गया है। और वह गुरु से कहता है कि मुझे मोक्ष पाना है, सत्य पाना है। उसका गुरु कहता है, जब तक पाना है, तब तक कहीं और जा; जब पाना न हो, तब मेरे पास आना।

तो वह कहता है, जब मुझे पाना नहीं होगा तो मैं आपके पास किसलिए आऊंगा?

तो उसका गुरु कहता है, मत आना। लेकिन जब तक पाना है, तब तक मुझसे क्या लेना-देना! पाना है, तब तक तू कहीं और जा। क्योंकि पाने की भाषा ही तनाव की भाषा है। जब तक तू कहता है पाना है, तो पाना होगा भविष्य में और तू होगा अभी, और तेरा मन खिंचेगा भविष्य तक सेतु बन जाएगा, तनाव हो जाएगा।

तो वह उससे पूछता है, तो आप कुछ पाने के लिए नहीं करते? उसने कहा कि नहीं, जब तक हम पाने के लिए कुछ करते थे, नहीं पाया; जिस दिन पाना छोड़ दिया, उसी दिन पा लिया। वह कहता है, मेरे बूढ़े गुरु ने मुझसे कहा था, खोजो और खो दोगे; मत खोजो और पा लो। तब मैं भी नहीं समझा था कि मामला क्या है। मत खोजो और पा लो, खोजोगे और खो दोगे। डू नाट सीक एंड फाइंड। खोजो मत और पा लो। मेरे गुरु ने जब मुझसे यह कहा था तो मैंने कहा, ये तो बिलकुल पागलपन की बातें हैं। खोजेंगे नहीं तो पाएंगे कैसे? तो मेरे गुरु ने मुझसे कहा था कि तुम खोजते हो, इसीलिए खो रहे हो; क्योंकि जिसे तुम खोजते हो, उसे तुम पाए ही हुए हो। एक क्षण तुम खोज तो रोको, दौड़ तो रोको; ताकि तुम देख सको कि क्या तुम्हें मिला ही हुआ है। तो उसने कहा, मैं भी तुझसे कहता हूं कि जब तक पाना हो, तू कहीं और खोज ले; और जब न पाना हो, तब आ जाना।

वह युवक बहुत-बहुत आश्रमों में भटकता फिरा। बहुत-बहुत जगह खोज की है। थक गया, परेशान हो गया, कहीं कुछ मिलता नहीं, कहीं कुछ पाया नहीं जा सकता। थका-मांदा वापस लौटा है। उससे उसका गुरु पूछता है, क्या इरादे हैं, और खोजोगे?

वह कहता है, नहीं। मैं बहुत थक गया। कुछ खोजना नहीं है, विश्राम के लिए आया हूं।

तो उसने कहा, आओ। स्वागत है! क्योंकि कभी-कभी जो श्रम से नहीं मिलता, वह विश्राम में मिल जाता है। कभी-कभी जो श्रम से नहीं मिलता, वह विश्राम में मिल जाता है। सच तो यह है कि श्रम से मिलता वह है, जो पराया हो। और विश्राम में वह मिलता है, जो स्वयं में है। विश्राम में ही मिल सकता है, जो स्वयं में है।

सामायिक परम विश्राम है, टोटल रिलैक्सेशन है। न अतीत में जाना, न भविष्य में जाना; न कुछ पाना, न कहीं कुछ खोजना; बस जहां हैं, वहीं रह जाना; तो संपत्ति उघड़ जाती है।

बुद्ध को जिस दिन उपलब्धि हुई, उस दिन सुबह उनसे लोगों ने पूछा कि आपको क्या मिला?

बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं, जो मिला ही हुआ था, वही मिल गया है। जो मिला ही हुआ था!

कैसे मिला?

तो बुद्ध ने कहा, कैसे की बात मत पूछो। जब तक कैसे की भाषा में मैं भी सोचता था, तब तक नहीं मिला; क्योंकि मैं खोजता था। जो मिला ही हुआ था, उसको खोजता था। फिर मैंने सब खोज छोड़ दी। और जिस क्षण मैंने खोज छोड़ी, पाया कि वह तो है; जिसे मैं खोजता था, वह है ही।

असल में स्वभाव का मतलब क्या है? स्वरूप का मतलब क्या है? स्वरूप का मतलब है, जो है ही। और खोज का मतलब है वह, जो नहीं है, उसे हम खोज रहे हैं।

इसलिए जब कोई आदमी आत्मा को खोजने लगता है तो वह एब्सर्ड एफर्ट में लग गया। जब कोई आदमी कहने लगता है मैं आत्मा को खोजूंगा, तब वह पागलपन में लग गया। क्योंकि आत्मा को कौन खोजेगा? कैसे खोजेगा? वह तो है ही हमारे पास, सदा ही है। जब हम खोज रहे हैं तब भी, जब नहीं खोज रहे हैं तब भी। फर्क इतना ही पड़ता है, खोजने में हम उलझ जाते हैं, चूक जाते हैं। नहीं खोजते हैं, दिख जाता है, मिल जाता है, उपलब्ध हो जाता है।

अगर यह बात ठीक से खयाल में आ जाए कि सामायिक है अप्रयास; एफर्ट नहीं, एफर्टलेसनेस। सामायिक है–खोज नहीं, सीकिंग नहीं; नो सीकिंग–अखोज। यह खयाल में आ जाए कि सामायिक कोई लक्ष्य नहीं है, जो भविष्य में है। सामायिक है अभी और यहीं। और अगर हम लक्ष्य को खोजते हुए भटक रहे हैं तो चूकते चले जाएंगे। चूकते ही चले जाएंगे, अनंत जन्मों तक चूकते चल जाएंगे।

तो क्या आप इसी क्षण में हो सकते हैं कुछ भी बिना करे? तो आप वहीं पहुंच जाएंगे, जहां महावीर सदा से खड़े हैं। लेकिन हमारा मन वही-वही प्रश्न बार-बार उठाए जाता है: कैसे करें? क्या करें? कहां जाएं? कहां खोजें?

जो जानते हैं, वे कहेंगे, उसे खोजो जो खोजने की इच्छा कर रहा है। जो जानते हैं, वे कहेंगे, और कहीं मत, जहां से प्रश्न उठा है, वहीं उतर जाओ। वे कहेंगे, जहां यह जो भीतर पूछ रहा है कि आत्मा को कैसे पाएं, मोक्ष को कैसे पाएं, इसी में उतर जाओ। और इसी में उतरने से मोक्ष मिल जाएगा और आत्मा मिल जाएगी। यही है आत्मा, यही है मोक्ष।

लेकिन कहीं कुछ मनुष्य के चित्त की पूरी यांत्रिकता में कुछ बुनियादी भूल है, कुछ चुकाने का उपाय है कि वह चूकता ही चला जाता है। बस एक बारीक सी बात उसके खयाल में नहीं आ पाती कि जो मुझे पाना है, वह मुझे किसी न किसी अर्थों में मिला ही हुआ है।

यह अगर बहुत स्पष्ट रूप से खयाल में आ जाए तो दूसरी बात खयाल में आ जाएगी कि इसे श्रम से नहीं पाना है, इसे विश्राम में पाना है। तब यह भी समझ में आ जाएगा कि पाने की भाषा ही गलत है। जो पाया ही हुआ है, उसका ही आविष्कार कर लेना है। इसलिए आत्म-उपलब्धि नहीं होती, सिर्फ आत्म-आविष्कार होता है। डिस्कवरी है, कुछ ढंका था, उसे उघाड़ लेना है। और ढंका है हमारी खोज करने की प्रवृत्ति से, ढंका है हमारे कहीं और होने की स्थिति से। हम कहीं और न हों तो उघड़ जाएगा, अपने से उघड़ जाएगा, अभी उघड़ जाएगा।

सामायिक न तो कोई क्रिया है, न कोई अभ्यास है, न कोई प्रयत्न है, न कोई साधना है, न कोई साधन है।

एक छोटी सी घटना से समझाऊं। मुछाला महावीर में पहला कैंप हुआ। तो राजस्थान में एक वृद्ध महिला है भूरबाई, वह भी उस कैंप में आई। उसके साथ उसके दस-पच्चीस भक्त भी आए। फिर तो जब भी मैं राजस्थान गया हूं, इधर निरंतर प्रति वर्ष हर जगह भूरबाई आती रही है अपने दस-पच्चीस लोगों को लेकर। सैकड़ों लोग पूजा करते हैं उसकी, सैकड़ों लोग पैर छूते हैं, सैकड़ों लोग उसे मानते हैं। और ऐसे वह निपट साधारण ग्रामीण स्त्री है, न कुछ बोलती, न कुछ बताती। लेकिन लोग पास बैठते हैं, उठते हैं, सेवा करते हैं, चले आते हैं। ज्यादा से ज्यादा वह प्रेम करती है लोगों को, उनको खिला देती है, उनकी सेवा कर देती है और विदा कर देती है। फिर भी लेकिन सैकड़ों लोग उसको प्रेम करते हैं उसके पास जाकर।

तो वह आई। पहले दिन ही सुबह की बैठक में मैंने समझाया कि ध्यान क्या है। जैसे अभी आपसे कहा सामायिक क्या है, वह मैंने कहा कि क्या है। और यह कहा कि करना नहीं है, न-करने में डूब जाना है।

उस भूरबाई के पास एक बहुत बढ़िया व्यक्ति कोई पच्चीस वर्ष से उसकी सेवा करते हैं। कभी तो वह हाईकोर्ट के बड़े एडवोकेट थे, फिर उन्होंने सब छोड़ कर वह भूरबाई के दरवाजे पर ही बैठ गए। उसके कपड़े धोते हैं, उसके पैर दबा देते हैं और आनंदित हैं, वह भी आए थे।

सांझ को जब सब ध्यान करने आए तो उन सज्जन ने मुझे आकर कहा कि बड़ी अजीब बात है, भूरबाई को हमने बहुत कहा कि ध्यान करने चलो, वह खूब हंसती है। वह खूब हंसती है। जब हम उससे बार-बार कहते हैं कि चलो, हम आए ही इसीलिए हैं, तो वह कहती है कि तुम जाओ। और जब हम बहुत नहीं माने तो उसने कहा कि तुम जाते हो कि नहीं यहां से? तुम जाओ यहां से! तुम ध्यान करो।

तो उसने मुझे आकर कहा कि मुझे बड़ी हैरानी हुई कि हम आए किसलिए हैं? और वह तो आती नहीं कमरे को छोड़कर। मैं इधर आया और उसने दरवाजा बंद कर लिया।

तो मैंने कहा, कल जब वह सुबह आए तो उसके सामने ही मुझसे पूछना।

सुबह वह बुढ़िया आई और मेरे पैर पकड़ कर खूब हंसने लगी और कहने लगी, रात बड़ा मजा हुआ। आपने सुबह कितना समझाया कि ध्यान करना नहीं है और हमारा यह एडवोकेट कहता है कि ध्यान करने चलो। तो मैंने इससे कहा, तू जल्दी से जा यहां से, क्योंकि करने वाला रहेगा तो कुछ न कुछ करेगा, तो दूसरों को भी गड़बड़ करेगा। तू जल्दी से जा यहां से, तू ध्यान कर। और जैसे ही यह बाहर आया, मैंने दरवाजा बंद किया और मैं ध्यान में चली गई। और आपने ठीक कहा, करने से नहीं हुआ, वर्षों तक नहीं हुआ करने से। और कल रात हुआ, क्योंकि मैंने कुछ न किया, बस मैं पड़ गई, जैसे मर गई हूं। पड़ी रही, पड़ी रही–हो गया। और यह बेचारा कहता था कि ध्यान करने चलो। और यह इधर ध्यान करने आया और मैं उधर ध्यान में गई। और यह बेचारा चूक गया। इसको आप समझाओ कि यह करने की बात भूल जाए।

करने की बात हमें नहीं भूलती, किसी को भी नहीं भूलती। इसलिए मुझे भी समझने से आप निरंतर चूक जाते हैं कि मैं क्या कह रहा हूं। महावीर को समझने से भी लोग निरंतर चूके हैं कि वे क्या कह रहे हैं।

एक छोटी सी घटना और, फिर हम ध्यान के लिए बैठें।

लाओत्से एक जंगल से गुजर रहा है, उसके साथ उसके दस-पच्चीस शिष्य हैं। किसी राजा का बड़ा महल बन रहा है और जंगल में हर वृक्ष से शाखाएं काटी जा रही हैं, तने काटे जा रहे हैं, लकड़ियां काटी जा रही हैं। पूरा जंगल कट रहा है। सिर्फ एक वृक्ष है बहुत बड़ा, जिसके नीचे हजार बैलगाड़ियां ठहर सकती हैं, उसमें से किसी ने एक शाखा भी नहीं काटी है। तो लाओत्से अपने शिष्यों से कहता है कि जरा जाओ, उस वृक्ष से पूछो कि उसके पास सीक्रेट क्या है? जब सारा जंगल कट रहा है तो यह वृक्ष कैसे बच गया? इस वृक्ष के पास जरूर कोई राज है। जाओ, जरा वृक्ष से पूछ कर आओ।

शिष्य वृक्ष का चक्कर लगा कर आते हैं। लाओत्से ने कहा तो लगा आते हैं, लेकिन वृक्ष क्या कहेगा? लौट कर कहते हैं कि हम चक्कर लगा आए, मगर वृक्ष से क्या पूछें? हां, यह बात जरूर है कि वृक्ष बड़ा भारी है, किसी ने नहीं काटा! बड़ी छाया है उसकी, बड़े पत्ते हैं उसके, बड़े दूर-दूर तक पक्षी विश्राम कर रहे हैं, नीचे हजार बैलगाड़ी ठहर सकती हैं। तो लाओत्से ने कहा, तो फिर जाओ, उन लोगों से पूछो जो दूसरे वृक्षों को काट रहे हैं कि इसको क्यों नहीं काटते? राज जरूर है वृक्ष के पास कुछ।

तो वे गए हैं और एक बढ़ई से उन्होंने पूछा जो लकड़ियां काट रहा है कि तुम इस वृक्ष को क्यों नहीं काटते? तो उस बढ़ई ने कहा, इस वृक्ष को काटना बड़ा मुश्किल है। यह वृक्ष बिलकुल लाओत्से की भांति है। उन शिष्यों ने कहा, लाओत्से की भांति! हम लाओत्से के शिष्य हैं।

तो उन्होंने कहा और भी ठीक हुआ, बिलकुल लाओत्से की भांति! यह बिलकुल बेकार है, किसी काम का ही नहीं है। लकड़ी कोई सीधी नहीं है, सब लकड़ियां तिरछी हैं, किसी काम में नहीं पड़तीं। लकड़ियों को जलाओ तो धुआं देती हैं। जलाने के भी काम की नहीं हैं। यह वृक्ष बिलकुल ही बेकार है, न सीधा है, न काम का है, न किसी मतलब का है। इसे काटे भी कौन? इसलिए यह बचा हुआ है।

वे लौटे और उन्होंने कहा कि बड़ी अजीब बात हुई। बढ़ई ने कहा है कि लाओत्से की भांति है यह वृक्ष। तो लाओत्से ने कहा, बिलकुल ठीक किया। इसी वृक्ष की भांति हो जाओ। न कुछ करो, न कुछ पाने की कोशिश करो। क्योंकि जिन वृक्षों ने सीधे होने की कोशिश की, देख रहे हो, कैसे कट रहे हैं! जिन वृक्षों ने सुंदर होने की कोशिश की, देख रहे हो, कैसी आरी फेरी जा रही है! जिन वृक्षों ने कुछ भी बनने की कोशिश की, उनकी हालत देख रहे हो? एक भर वृक्ष है, जिसने कुछ बनने की कोशिश नहीं की। जो हो गया, हो गया। तिरछा तो तिरछा, आड़ा तो आड़ा, धुआं निकलता है तो धुआं निकलता है। देखो कैसा बच गया है–बिलकुल लाओत्से जैसा। मेरे ही जैसा है, लाओत्से ने कहा। और ऐसे ही हो जाओ अगर बचना हो और बड़ी छाया पानी हो और तुम्हारी शाखाओं में बड़े पक्षी विश्राम करें और तुम्हें कोई कभी काटने न आए।

उसके शिष्यों ने कहा, हम फिर भी ठीक से न समझे कि यह बात क्या है, यह तो और एक पहेली हो गई। वृक्ष से तो हम नहीं पूछ सके, लेकिन जब आप कहते हैं कि मेरे ही भांति यह वृक्ष है तो हम आपसे ही पूछ लेते हैं कि राज क्या है? तो लाओत्से ने कहा, राज यह है कि मुझे कभी कोई हरा नहीं सका, क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ था। मुझे कभी कोई उठा नहीं सका, क्योंकि मैं सदा उस जगह बैठा, जहां से कोई उठाने आता ही नहीं। मैं जूतों के पास ही बैठा सदा। मेरा कोई कभी अपमान नहीं कर सका, क्योंकि मैंने कभी मान की कामना नहीं की।

लाओत्से ने कहा यह कि मैंने कुछ होना नहीं चाहा, कुछ होना ही नहीं चाहा–अ ब स कुछ भी नहीं होना चाहा, धनी नहीं होना चाहा, यशस्वी नहीं होना चाहा, विद्वान नहीं होना चाहा–मैंने कुछ होना ही नहीं चाहा, इसलिए मैं वही हो गया, जो मैं हूं। अगर मैं कुछ और होना चाहता तो मैं चूक जाता। यह वृक्ष–ठीक कहते हैं वे लोग–मेरे ही जैसा है, इसने कुछ नहीं होना चाहा; इसलिए जो था, वही हो गया।

और परम आनंद है वही हो जाना जो हम हैं। जो हम हैं, उसी में हो जाना परम आनंद है। जो हम हैं, उसी में रम जाना मुक्ति है। जो हम हैं, उसी को उपलब्ध कर लेना सत्य है।

सामायिक को अगर ऐसा देखेंगे तो समझ में आ जाएगा। और मंदिरों में जो सामायिक की जा रही है, अगर वहां समझने गए तो फिर कभी समझ में नहीं आएगा। वे सब करने वाले लोग हैं। वे वहां भी सामायिक कर रहे हैं! वे वहां भी व्यवस्था दे रहे हैं–मंत्र है, जाप है, इंतजाम है; सब कर रहे हैं! वह सब क्रिया है और क्रिया के पीछे लोभ है। क्योंकि ऐसी कोई क्रिया ही नहीं, जिसके पीछे लोभ न हो, पाने की कामना न हो। स्वर्ग है, मोक्ष है, आत्मा है; कुछ न कुछ उन्हें पाना है, उसके लिए वे यह क्रिया कर रहे हैं।

और जिसकी अभी पाने की आकांक्षा है, वह सब पा ले, सिर्फ स्वयं को नहीं पा सकता। क्योंकि स्वयं को पाने की आकांक्षा से नहीं पाया जा सकता। क्योंकि पाने की सब आकांक्षा स्वयं के बाहर ले जाती है। जब पाने की कोई आकांक्षा नहीं तो आदमी स्वयं में लौट आता है, अपने घर वापस। यह जो घर वापस लौट आना है और घर में ही ठहर जाना है, इसका नाम सामायिक है।

महावीर ने अदभुत व्यवस्था की है उस अक्रिया में उतर जाने की, होने मात्र में उतर जाने की। जिसकी समझ में आ जाए उसे करने का सवाल नहीं है फिर, और जिसकी समझ में न आए, वह कुछ भी करता रहे, कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।

प्रश्न:

 

एक बात जरा सी, वह अड़तालीस मिनट का इसमें क्या हिसाब है?

कुछ मतलब नहीं है। कुछ मतलब नहीं है। यहां मिनट-विनट का सवाल ही नहीं है, एक समय भर ठहर जाना काफी है।

प्रश्न:

 

पंक्तियां अड़तालीस मिनट में पढ़ी जाती हैं, इसलिए मैंने पूछा।

 

क क्षण का जो हजारवां हिस्सा है, लाखवां हिस्सा, उसमें भी अगर तुम ठहर गए तो बात हो गई।

प्रश्न:

 

ये सूत्र क्यों बांधे हैं सामायिक में? ये सूत्र महावीर के समय से ही बांधे हुए सूत्र हैं?

सूत्र अनुयायी बनाते हैं और बांधते हैं, महावीर का कोई संबंध नहीं है। असल में सदा यह कठिनाई है कि अनुयायी क्या करता है, यह बड़ा मुश्किल मामला है। वह कुछ भी–जो वह कर सकता है, करता है। और वह सब इंतजाम कर देता है पूरा का पूरा। और उसमें जो महत्वपूर्ण था, वह इंतजाम में ही मर जाता है। और अनुयायी बेचारा प्रेम से इंतजाम करता है। वह कहता है, सब व्यवस्थित कर दो। लोग पूछते हैं, क्या करना चाहिए? कितनी देर करना चाहिए? कैसे करना चाहिए? तो कुछ तो इंतजाम करो, नहीं तो लोग कैसे समझेंगे? सामान्य आदमी कैसे समझेगा? सामान्य आदमी के लिए वह इंतजाम कर देता है। उस इंतजाम में सत्य मर जाता है। और फिर वह इंतजाम चलता है और सत्य का उससे कोई संबंध नहीं रह जाता है।

और महावीर जैसे लोगों को समझना ही मुश्किल है पहली बात तो। क्योंकि वे जो बात कह रहे हैं, वह इतनी गहराई की है, और हम जहां खड़े हैं, वह इतने उथलेपन में हैं, बल्कि उथलेपन में भी तट पर खड़े हुए हैं। और वहां से जो हमारी समझ में आता है, वह हम इंतजाम कर लेते हैं। अनुयायी सारी व्यवस्था देता है। और कुछ व्यवस्थापक मस्तिष्क होते हैं, जो सदा व्यवस्था देते रहते हैं। वे किसी भी चीज को व्यवस्थित कर देते हैं। और जब वे व्यवस्थित कर देते हैं तो कुछ चीजें ऐसी हैं, जो व्यवस्था में ही मर जाती हैं। असल में जीवंत कोई भी चीज व्यवस्था में मर जाती है।

तो मेरा कहना है, समझ में आए तो आए, न आए तो न आए, व्यवस्था मत देना; क्योंकि व्यवस्था दी तो जिनकी समझ में भी कभी आ सकता था, उनकी में भी कभी नहीं आएगा फिर। इसलिए उसको अव्यवस्थित ही छोड़ देना; जैसा है वैसा ही छोड़ देना।

प्रश्न:

 

किसी से कहना हो अगर सामायिक, तो क्या कहेंगे?

हां, जो मैंने यह कहा न…।

प्रश्न:

 

सामायिक करना तो है ही नहीं।

हीं, बिलकुल नहीं करना।

प्रश्न:

 

तो क्या कहेंगे? शब्द क्या है उसके लिए?

सका कुल मतलब इतना है कि कुछ देर के लिए, कुछ देर के लिए कुछ भी नहीं करना है; और जो हो रहा है, होने देना है। विचार आते हैं, विचार आने देना; भाव आते हैं, भाव आने देना; हाथ हिले, हिलने देना; पैर करवट बदले, बदलने देना–सब होने देना। थोड़ी देर के लिए कर्ता मत रह जाना, बस साक्षी रह जाना। जो हो रहा है, होने देना। कुछ मत करना। अपनी तरफ से कुछ भी मत करना। तो जो अवस्था उत्पन्न होगी, वह सामायिक है। यानी सामायिक के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। अगर आप कुछ भी न कर रहे हों थोड़ी देर, तो जो हो जाएगा, उसका नाम सामायिक है।

तो वह जो कठिनाई होती है न, कठिनाई यह होती है कि सामायिक तो घटेगी, उसकी फ्लावरिंग होगी। और वह तब होगी, जब आप बिलकुल ही अप्रयास में पड़े हों। जैसे कभी आपने खयाल किया हो, किसी का नाम आपको भूल गया है और आप कोशिश कर रहे हैं याद करने की और वह नहीं याद आ रहा है, और फिर आप ऊब गए और थक गए और आपने कोशिश छोड़ दी, और आप दूसरे काम में लग गए और अचानक वह नाम आ गया है। तो अब अगर कोई कहे कि हमें किसी का नाम भूल जाए और उसे याद करना हो तो हम क्या करें? तो उससे हम क्या कहें?

उससे हम यह कहेंगे कि कम से कम नाम याद करने की कोशिश मत करना। तो वह कहेगा, हमको नाम ही तो याद करना है। और आप यह क्या कहते हैं? उससे हम कहेंगे कि नाम याद करने की कोशिश मत करना तो नाम आ जाएगा। और तुमने कोशिश की तो मुश्किल में पड़ जाओगे, क्योंकि तुम्हारी कोशिश टेंस कर देती है मस्तिष्क को। तो उसमें से जो आना भी चाहिए, वह भी नहीं आ पाता, मस्तिष्क सख्त हो जाता है।

जुजुत्सु एक कला होती है युद्ध की, लड़ाई की, कुश्ती की। तो आमतौर से जब दो आदमियों को लड़ने के लिए हम सिखाते हैं तो हम उसको हमला सिखाते हैं कि तुम दूसरे पर हमला करना। लेकिन जुजुत्सु में वे यह सिखाते हैं कि तुम हमला मत करना, जब दूसरा हमला करे तो तुम बिलकुल राजी हो जाना; कोआपरेट करना उससे, जब दूसरा हमला करे। जैसे वह घूंसा मारे तुम्हारी छाती पर, तो तुम कोआपरेट करना, तुम छाती में उसके घूंसे के लिए जगह बना देना। तुम बिलकुल राजी होकर घूंसे को पी जाना। तो उसके हाथ की हड्डी टूट जाएगी और तुम बच जाओगे।

बहुत कठिन है यह! क्योंकि जब कोई आपकी छाती में घूंसा मारे तो आपकी छाती सख्त हो जाएगी फौरन। बचाव करेगी न! और सख्ती में आपकी हड्डी टूटने वाली है।

जैसे दो आदमी चल रहे हैं एक बैलगाड़ी में बैठे, एक शराब पीए हुए है और एक बिलकुल शराब पीए हुए नहीं है। बैलगाड़ी उलट गई। तो जो शराब पीए हुए है, उसको चोट लगने की संभावना कम है, जो शराब नहीं पीए है, उसको चोट लगेगी। उसका कुल कारण यह है कि वह शराब जो पीए है, वह हर हालत में राजी है। वह उलट गई तो वह उसी में उलट गया, यानी उसने कोई बचाव का उपाय ही नहीं किया। लेकिन वह जो होश में है, वह बैलगाड़ी उलटी तो वह सजग हुआ। उसने कहा, मरे! बचाओ! तो अब वह सब सख्त हो गया। स्ट्रेंड हो गया। तो जो हड्डियां सख्त हो गईं उन पर जरा सी चोट लगी कि वे टूटीं। और वह इसलिए शराब पीने वाला इतना गिरता है सड़कों पर, कभी हड्डी टूटते देखी उसकी बेचारे की? आप जरा गिर कर देखो! तो कुल कारण इतना है कि वह ऐसे गिरता है जैसे बोरा गिर रहा है, उसमें कुछ है ही नहीं। गिर गए तो गिर गए, वह उसी के लिए राजी हो गए। तो उसको चोट नहीं लगती।

तो जुजुत्सु कहता है कि अगर चोट न खानी हो तो ऐसे गिरना, ऐसे गिरना कि जैसे गिरे ही हुए हो, यानी तुम इसका कोई, इसका–नहीं गिरना है ऐसा खयाल ही मत ले आना मन में।

प्रश्न:

 

गिरना भी नहीं है!

हां, गिरना भी नहीं है इस अर्थ में, तो चोट नहीं खाओगे। और दूसरा जब हमला करे तो तुम पी जाना उसके हमले को, तुम राजी हो जाना।

ठीक सामायिक का मतलब भी यह है कि चारों तरफ से चित्त पर बहुत तरह के हमले हो रहे हैं, विचार हमला कर रहा है, क्रोध हमला कर रहा है, वासना हमला कर रही है, सबके लिए राजी हो जाना। कुछ करना ही मत, जो हो रहा है होने देना और चुपचाप पड़े रह जाना। एक क्षण को भी अगर यह हो जाए–एक क्षण को भी मुश्किल है, क्योंकि हम करने को इतने आतुर हैं कि विचार आया नहीं कि हम उस पर सवार हुए, या तो उसके साथ गए या उसके विरोध में गए। हम बिलकुल तैयार ही हैं लड़ने को।

मैं जब समझाना चाहूं तो यही कह सकता हूं कि कुछ न करना, जो हो रहा हो उसको एक घड़ी भर देखना। तेईस घंटे तो हम कुछ करते ही हैं, एक घंटा ऐसा कर लेना कि नहीं कुछ करेंगे, बैठे रहेंगे; जो होगा, होने देंगे; देखेंगे कि यह हो रहा है। इसे सिर्फ देखना है, साक्षी रह जाना है।

साक्षी-भाव ही सामायिक में प्रवेश दिला देता है।

आज इतना ही।


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–8)

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मूर्ति—पूजा : से अमूर्त की और—(प्रवचन—आठवां)

‘गहरे पानी पैठ’.

अंतरंग चर्चा ,

बम्बई दिनांक 16 जून 1971

डाक्टर फ्रेंक रोडाल्फ ने अपना पूरा जीवन एक बहुत ही अनूठी प्रक्रिया की खोज में लगाया। उस प्रक्रिया के संबंध में थोड़ा आपसे कहूं तो मूर्ति—पूजा को समझना आसान हो जाएगा। पृथ्वी पर जितनी भी जंगली जातियां हैं, आदिवासी हैं, वे सब एक छोटे—से प्रयोग से सदा से परिचित रहे हैं। उस प्रयोग की खबरें कभी—कभी तथाकथित सभ्य लोगों तक भी पहुंच जाती हैं। रोडाल्फ ने उसी संबंध में अपना पूरा जीवन लगाया और जिस नतीजों पर वह खोजी पहुंचा है वे बड़े अदभुत हैं।

आदिवासियों में प्रचलित है यह बात कि किसी भी व्यक्ति की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उस व्यक्ति को कोई भी बीमारी भेजी जा सकती है। बीमारी ही नहीं, उसकी मृत्यु भी उसे भेजी जा सकती है। फ्रेंक रोडाल्फ ने अपने जीवन के तीस वर्ष इस खोज में लगाए कि इस बात में कितनी सच्चाई है। क्या यह हो सकता है कि एक व्यक्ति की मिट्टी की प्रतिमा बनायी जाए और उसे कोई भी बीमारी भेजी जा सके? या उसकी मौत भी भेजी जा सके?

अत्यंत संदेह से भरा हुआ चित्त लेकर, वैज्ञानिक की बुद्धि लेकर यह व्यक्ति अमेजान के आदिवासियों के बीच वर्षों तक रहा, बड़ी कठिनाई में पड़ गया क्योंकि घटना को सैकड़ों बार आंखों के सामने घटते देखा। हजारों मील दूर भी वह व्यक्ति हो, तो भी उसकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उस तक विशेष बीमारियां, और उसकी मौत भी भेजी जा सकती है! वर्षों के अध्ययन के बाद यह तय हो गया कि यह घटना घटती है। लेकिन कैसे घटती है, इसके पीछे राज क्या है, इसके पीछे प्रक्रिया क्या है?

रोडाल्फ ने लिखा है कि प्रक्रिया के संबंध में जो बातें मुझे पता चल सकी हैं और जिन पर मैंने स्वयं प्रयोग करके देख लिया है, वे तीन हैं—एक, मिट्टी की प्रतिमा जरूरी नहीं है कि उस व्यक्ति की शक्ल से बिलकुल मिलती—जुलती बने। बनाना भी कठिन है, अति मुश्किल है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उस शक्ल से मिले, महत्वपूर्ण यह है कि उस मिट्टी की प्रतिमा में उस व्यक्ति की शक्ल को प्रतिष्ठित किया जा सके। जैसे अगर कोई मिट्टी की प्रतिमा बनाए आपकी, तो वह तो कोई बहुत बड़ा मूर्तिकार हो तब आप की शक्ल से मिला पाए, तब भी पूरी न मिला पाए। एक साधारण आदमी मिट्टी की प्रतिमा आपकी बनाएगा, तो वह सिर्फ प्रतीक होगी। चेहरा तो नहीं होगा—सिर होगा, हाथ—पैर होंगे, एक दूर का प्रतीक भर होगा।

लेकिन रोडाल्फ का कहना है कि अगर वह व्यक्ति आंख बंद करके और आपकी पूरी की पूरी प्रतिमा को मन में पूरा स्मरण कर सके और उसको इस मिट्टी की प्रतिमा पर आरोपित कर सके, तो यह प्रतिमा आपका प्रतीक बनकर सक्रिय हो जाएगी। उसे प्रतिस्थापित करने की भी व्यवस्था है।

मैंने पीछे तिलक के संबंध में आपसे कहा कि आपके दोनों आंखों के बीच में, तीसरी आंख की संभावना के संबंध में योग का निष्कर्ष है। वह जो तीसरी आंख है आपकी, वह बहुत बड़ी आशा की शक्ति रखती है अपने में। —रस्ता समझ सकते हैं कि बहुत बड़ा ट्रांसमिशन का केंद्र है। अगर आप अपने बेटे को या अपने नौकर को या किसी को कोई आशा देते हैं, बाप अपने बेटे को कहता है, फलां काम कर लाओ, और बेटा इनकार कर देता है तो आप थोड़ा प्रयोग करके देखना। अगर आप दोनों आंखों के बीच में अपने ध्यान को केंद्रित करके बेटे को कहें कि फलां काम कर लो, तब आप देखना कि दस में से नौ मौकों पर इनकार करना असंभव हो जाएगा। और इससे उल्टा करके आप देखना कि आंखों के बीच में ध्यान को केंद्रित मत करना, तो दस में से नौ मौकों पर इनकार करना संभव हो जाएगा।

अगर आप अपनी दोनों आंखों के बीच में ध्यान को केंद्रित करके कोई भी बात फेंकें तो वह साधारण शक्ति की नहीं, असाधारण शक्ति लेकर गतिमान हो जाती है। अगर किसी व्यक्ति की प्रतिमा को मन में रखकर, और उसकी छोटी प्रतिमा को ध्यान में लेकर आज्ञा के चक्र से, अगर गीली मिट्टी के बनाए हुए लोंदे पर फेंक दिया जाए, तो वह मिट्टी का लोंदा साधारण मिट्टी का लोंदा नहीं रह जाता, वह आप की आज्ञा से संक्रामित और आविष्ठ हो जाता है। और अगर उस मिट्टी की प्रतिमा के दोनों आंखों के बीच में आप ध्यान करके कोई भी बीमारी का स्मरण कर सकें, सिर्फ एक मिनट, तो वह व्यक्ति उस बीमारी से संक्रामित हो जाएगा। वह कितनी ही दूर हो, इसका कोई सवाल नहीं उठता। उसकी मृत्यु तक घटित हो सकती है।

रोडाल्फ ने अपने पूरे जीवन के अध्ययन के बाद यह लिखा है कि यह बात सुनने में हैरानी की लगती थी, लेकिन जब मैंने इसके प्रयोग देखे तो मैं चकित रह गया! वृक्षों की प्रतिमा बनाकर, आदिवासियों ने उसके सामने वृक्षों को तत्काल सूखने पर मजबूर कर दिया। वह वृक्ष, जो अभी हरा— भरा था, उसके पत्ते कुम्हला गए। वह वृक्ष जो अभी जीवित मालूम पड़ता था, मरने की प्रक्रिया पर रुग्ण हो गया। पानी डालते रहे, पानी सींचते रहे, किसी तरह का नुकसान वृक्ष को बाहर से नहीं पहुंचने दिया गया; लेकिन महीने भर में वृक्ष सूखकर नष्ट हो गया। जो वृक्ष पर हो सकता है, वह व्यक्ति पर भी हो सकता है।

रोडाल्फ की इस प्रक्रिया की इसलिए मैं बात करना चाहता हूं कि मूर्ति—पूजा भी इसी प्रक्रिया का एक एक विराट आयाम में प्रयोग है। अगर हम व्यक्तियों को बीमार कर सकते है, व्यक्तियों की मृत्यु ला सकते हैं तो कोई भी कारण नहीं है कि हम, जो व्यक्ति मृत्यु के पार जा चुके हैं, उनसे पुन: संबंध स्थापित कर सकें। और कोई कारण नहीं है कि इस जगत में जो विराट व्याप्त है उस विराट के निकट पहुंचने के लिए हम कोई छलांग मूर्ति से ले सकें!

मूर्ति—पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़नेवाला बीच में एक सेतु चाहिए। संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्‍चित ही वह सेतु निर्मित ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे, आपको अमूर्त का तो कोई पता ही नहीं है। चाहे कोई कितनी ही बात करता हो निराकार परमात्मा की, अमूर्त परमात्‍मा की, वह बात ही रह जाती है, आपको कुछ खयाल में नहीं आता।

असल में आपके मस्तिष्क के पास जितने अनुभव हैं वे सभी मूर्त के अनुभव हैं, आकार के अनुभव हैं। निराकार का आपको एक भी अनुभव नहीं है। और जिसका कोई भी अनुभव नहीं है उस संबंध में कोई भी शब्द आपको कोई स्मरण न दिला पाएगा। और निराकार की बात आप करते रहेंगे और आकार में जीते रहेंगे। अगर उस निराकार से कोई भी संबंध स्थापित करना हो, तो कोई ऐसी चीज बनानी पड़ेगी जो एक तरफ से आकारवाली हो और दूसरी तरफ से निराकारवाली हो। यही मूर्ति का रहस्य है।

इसे मैं फिर से समझा दूं आपको। कोई ऐसा सेतु बनाना पड़ेगा जो हमारी तरफ आकारवाला हो, परमात्मा की तरफ निराकार हो जाए। हम जहां खड़े हैं वहां उसका एक छोर तो मूर्त हो, और जहां परमात्‍मा है—दूसरा छोर, उसका अमूर्त हो जाए, तो ही सेतु बन सकता है। अगर वह मूर्ति बिलकुल मूर्ति है तो फिर सेतु नहीं बनेगा, अगर वह मूर्ति बिलकुल अमूर्त है तो भी सेतु नहीं बनेगा। मूर्ति को दोहरा काम करना पड़ेगा। हम जहां खड़े हैं वहां उसका छोर दिखायी पड़े, और जहां परमात्मा है वहां निराकार में खो जाए। इसलिए यह मूर्ति—पूजा शब्द बहुत अदभुत है, और जो अर्थ मैं आपसे कहूंगा, वह आपके खयाल में कभी भी नहीं आया होगा।

अगर मैं ऐसा कहूं कि मूर्ति—पूजा शब्द बड़ा गलत है, तो आपको बड़ी कठिनाई होगी। असल में मूर्ति—पूजा

शब्द बिलकुल ही गलत है। गलत इसलिए है कि जो व्यक्ति पूजा करना जानता है, उसके लिए मूर्ति मिट जाती है। और जिसके लिए मूर्ति दिखायी पड़ती है उसने कभी पूजा की नहीं है, उसे पूजा का कोई पता नहीं है। और मूर्ति—पूजा शब्द में हम दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं—एक पूजा का और एक मूर्ति का। ये दोनों एक ही व्यक्ति के अनुभव में कभी नहीं आते। इसमें मूर्ति शब्द तो उन लोगों का है जिन्होंने कभी पूजा नहीं की; और पूजा उनका है जिन्होंने कभी मूर्ति नहीं देखी।

अगर इसे और दूसरी तरह से कहा जाए तो ऐसा कहा जा सकता है कि पूजा, जो है वह मूर्ति को मिटाने की कला है। वह जो मूर्ति है, आकारवाली, उसको मिटाने की कला का नाम पूजा है। उसके मूर्त हिस्से को गिराते जाना है, गिराते जाना है! थोड़ी ही देर में वह अमूर्त हो जाती हैं। थोडी ही देर में इस तरफ जो मूर्त हिस्सा था; वहाँ से शुरुआत होती है पूजा की और जब पूजा पकड़ लेती है साधक को तो थोड़ी ही देर में वह छोर खो जाता है और अमूर्त प्रगट हो जाता है।

मूर्ति—पूजा शब्द ‘सेल्फ कंट्राडिक्टरी’ है। इसलिए जो पूजा करता है, वह हैरान होता है कि मूर्ति कहां है? और जिसने कभी पूजा नहीं की वह कहता है कि इस पत्थर को रखकर क्या होगा? इस मूर्ति को रखकर क्या होगा? यह दो तरह के लोगों के अनुभव हैं, जिनका कहीं तालमेल नहीं हुआ। और इसलिए दुनिया में बड़ी तकलीफें हुईं।

आप मंदिर के पास से गुजरेंगे तो मूर्ति दिखायी पड़ेगी, क्योंकि पूजा के पास से गुजरना आसान नहीं है। तो आप कहेंगे कि पत्थर की मूर्तियों से क्या होगा? लेकिन जो उस मंदिर के भीतर कोई एक मीरा अपनी पूजा में लीन हो गयी है, उसके लिए वहां कोई मूर्ति नहीं बची। पूजा घटित होती है मूर्ति विदा हो जाती है। मूर्ति सिर्फ प्रारंभ है। जैसे ही पूजा शुरू होती है, मूर्ति खो जाती है। वह जो हमें दिखायी पड़ती है वह इसीलिए दिखायी पड़ती है कि हमें पूजा का कोई पता नहीं है।

और दुनिया में जैसे—जैसे पूजा कम होती जाएगी, वैसे—वैसे मूर्तियां बहुत दिखायी पड़ेगी, और जब बहुत मूर्तियां दिखायी पड़ेंगी, तो पूजा कम हो जाएगी और मूर्तियो को हटाना पड़ेगा, क्योंकि इन पत्थरों को रख कर क्या करिएगा? उनका कोई प्रयोजन नहीं है। साधारणत: लोग सोचते हैं कि जितना पुराना आदमी होता है, जितना आदिम, उतना मूर्तिपूजक होता है। जितना आदमी बुद्धिमान होता चला जाता है, उतना मूर्ति को छोड़ता चला जाता है। सच नहीं है यह बात। असल में पूजा का अपना विज्ञान है। वह जितना ही हम उससे अपरिचित होते चले जाते हैं, उतनी ही कठिनाई होती चली जाती है।

इस संबंध में एक बात और आपको कह देना उचित होगा। हमारी यह दृष्टि नितांत ही भ्रांत और गलत है की आदमी ने सभी दिशाओं में विकास कर लिया है, इवोल्‍यूशन हो गया है। जब हम कहते है विकास तो उससे सा भ्रम पैदा होता है किस भी दिशाओं में विकास हो गया होगा, इवोल्‍यूशन हो गया होगा। आदमी की जिंदगी इतनी बड़ी चीज है, अगर आप एकाध चीज में विकास कर लेते हैं तो आपको पता ही नहीं चलता कि आप किसी दूसरी चीज में पीछे छूट जाते हैं।

अगर आज विज्ञान पूरी तरह विकसित है, तो धर्म के मामले में हम बहुत पीछे छूट गए हैं। कभी धर्म विकसित होता है, तो विज्ञान के मामले में पीछे छूट जाते हैं। कभी ऐसा होता है कि एक आयाम में हम कुछ जान लेते हैं, तो दूसरे आयाम को भूल जाते हैं।

अट्ठारह सौ अस्सी में यूरोप में अलामीरा की गुफाएं मिलीं। उन गुफाओं में बीस हजार साल पुराने चित्र थे और रंग ऐसा कि जैसे कल सांझ को चित्रकार ने किया हो। डॉन मार्सिलानो, जिसने वह गुफाएं खोजी, उस पर सारे यूरोप में बदनामी हुई उसकी। लोगों ने यह शक किया कि अभी इसने पुतवाकर रंग तैयार करवा लिए हैं, अभी गुफा में रंग पोते गए हैं। और जो भी चित्रकार देखने गया उसी ने कहा कि यह मार्सिलानो की धोखाधड़ी है, इतने ताजे रंग पुराने तो हो ही नहीं सकते।

उन चित्रकारों का कहना भी ठीक ही था, क्योंकि वान गॉग के चित्र सौ साल पुराने नहीं हैं, लेकिन वे सब फीके पड़ गए हैं। और पिकासो ने अपनी जवानी में जो चित्र रंगे थे, उसके बूढ़े होने के साथ वे चित्र भी बूढ़े हो गए। आज सारी दुनिया के किसी भी कोने में, चित्रकार जिन रंगों का प्रयोग करते हैं, उनकी उम्र सौ साल से ज्यादा नहीं है। सौ साल में वे फीके हो ही जानेवाले है।

लेकिन जब मार्सिलानो की खोज पूरी तरह सिद्ध हुई, और उन गुफाओं का निर्णायक रूप से निष्कर्ष निकल गया कि वे बीस हजार साल से पुरानी हैं, तो बड़ी मुश्किल हो गई। क्योंकि जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, रंग बनाने के संबंध में वे हम से बहुत विकसित रहे होंगे। हम आज चांद पर पहुंच सकते हैं, लेकिन सौ साल से ज्‍यादा चलनेवाला रंग बनाने में हम अभी समर्थ नहीं हैं। यह थोड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। और बीस हजार साल पहले जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, वे कुछ कीमिया जानते थे, जिसका हमें आज बिलकुल पता नहीं है।

इजिप्‍ट की ममीज हैं, कोई दस हजार साल पुरानी! वह आदमी के शरीर हैं, वह जरा भी नहीं खराब हुए है, वह ऐसे ही रखे हैं, जैसे कल रखे गए हों। और आज तक भी राज नहीं खोला जा सका है कि किन रासायनिक द्रव्यों का उपयोग किया गया था जिससे कि लाशें इतनी सुरक्षित, दस हजार साल तक रह सकीं।

वैज्ञानिक कहते है, वह ठीक वैसी ही है, जैसे कल आदमी मरा हो। किसी तरह का डिटीरिओरेशन, किसी तरह का उनमें हास नहीं हुआ है। पर हम साफ नहीं कर पाए अभी तक, कि कौन से द्रव्यों का उपयोग हुआ है। इजिप्‍त के पिरामिडों पर जो पत्थर चढ़ाए गए हैं, अभी भी हमारे पास कोई क्रेन नहीं है जिनसे हम उन्हें चढ़ा सकें। आदमी के तो वश की बात ही नहीं है, लेकिन जिन लोगों ने वे पत्थर चढ़ाए थे उनके पास क्रेन रही होगी, इसकी संभावना कम मालूम होती है। तो जरूर उनके पास कोई और टेकनीक, कोई तरकीबें रही होंगी, जिनसे वह पत्थर चढ़ाए गए हैं और जिनका हमें कोई अंदाज नहीं है।

और जीवन के सत्य बहु—आयामी हैं। एक ही काम बहुत तरह से किया जा सकता है। और एक ही काम तक पहुंचने की बहुत सी टेकनीक और बहुत सी विधियां हो सकती है। और फिर जीवन इतना बड़ा है कि जब हम एक दिशा में लग जाते हैं तब हम दूसरी दिशाओं को भूल जाते है।

मूर्ति बहुत विकसित लोगों ने पैदा की थी, यह सोचने जैसा है। क्योंकि मूर्ति का संबंध है, वह जो काज्मिक फोर्स है, हमारे चारों तरफ, जो ब्रह्म शक्ति है, उससे संबंधित होने का सेतु है। जिन लोगों ने भी निर्मित विकसित। ही होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था।

हम कहते हैं कि हमने बिजली खोज ली है। निश्‍चित ही हम उन कौमों से ज्यादा सभ्य हैं जो बिजली नहीं खोज सकीं। निश्‍चित ही हमने रेडियो वेब्ज खोज लिए हैं और हम क्षणों में एक खबर को दूसरे मुल्क में पहुंचा पाते हैं। निश्‍चित ही जो लोग सिर्फ अपनी आवाज पर निर्भर करते हैं और चिल्लाकर फर्लांग दो फर्लांग तक आवाज पहुंचा पाते हैं, उनसे हम ज्यादा विकसित हैं।

लेकिन जिन लोगों ने जीवन की परम सत्ता के साथ संबंध जोड़ने का सेतु खोज लिया था, उनके सामने हम बहुत बच्चे हैं। हमारी बिजली, और हमारा रेडियो और हमारे अन्य आविष्कार सब खिलौने हैं। जीवन के परम रहस्य से जुड्ने की जो कला है, उसकी खोज, किसी एक दिशा में जिन लोगों ने बहुत मेहनत की थी, उसका परिणाम थी।

मूर्ति का प्रयोजन है हमारी तरफ, मनुष्य की तरफ आकार हो उसमें, और उस आकार में से कहीं एक द्वार खुलता हो जो निराकार में ले जाता हो। जैसे मेरे घर की खिड़की है, घर की खिड़की तो आकारवाली ही होगी। जब घर ही आकारवाला है, तब खिड़की निराकार नहीं हो सकती। लेकिन खिडकी खोलकर जब आकाश में झांकने कोई जाए तो निराकार में प्रवेश हो जाता है। और अगर मैं किसी को कहूं कि मैं अपने घर की खिड़की को खोलकर निराकार के दर्शन कर लेता हूं और अगर उस आदमी ने कभी खिड़की से झांककर आकाश को न देखा हो तो वह कहेगा, कैसी पागलपन की बात है! इतनी छोटी—सी खिड़की से निराकार का दर्शन कैसे होता होगा? इतनी छोटी—सी खिड़की से जिसका दर्शन होता होगा वह ज्यादा से ज्यादा खिड़की के बराबर ही हो सकता है, उससे बड़ा कैसे होगा? उसकी बात तर्कयुक्त है। अगर उसने खिडकी से झांककर कभी आकाश नहीं देखा है तो उसको राजी करना कठिन होगा। हम उसे समझा न पायेंगे कि छोटी—सी खिडकी भी निराकार आकाश में खुल सकती है। खिड़की का कोई बंधन उस पर नहीं लगता, जिस पर वह खुलती है।

मूर्ति का कोई बंधन अमूर्ति के ऊपर नहीं है, मूर्ति तो सिर्फ द्वार बन जाती है अमूर्त के लिए। इसलिए जिन लोगों ने भी समझा कि मूर्ति, अमूर्त के लिए बाधा है उन्होंने दुनिया में बड़ी नासमझी पैदा करवाई। और जिन्होंने यह सोचा कि हम खिड़की को तोड़कर आकाश को तोड़ देंगे, वह तो फिर निपट ही पागल हैं। मूर्ति को तोड़कर हम अमूर्त को तोड़ देंगे, तो फिर उनके पागलपन का कोई हिसाब ही नहीं! लेकिन मूर्ति को तोड्ने का खयाल उठेगा, अगर पूजा की कला और कीमिया का पता न हो।

दूसरी बात, पूजा कुछ ऐसी चीज है, सब्जेक्टिव, आंतरिक, निजी कि उसकी कोई अभिव्यक्ति और कोई प्रदर्शन नहीं हो सकता। जो भी निजी है इस जगत में, और आंतरिक है, उसका कोई प्रदर्शन संभव नहीं है। मेरे हृदय को काटकर ,.,.. जा सकता है तो प्रेम उसमें नहीं मिलेगा, क्रोध भी नहीं मिलेगा, घृणा भी नहीं मिलेगी क्षमा भी नहीं ”करुणा भी नहीं मिलेगी। फेफड़ा मिलेगा, सिर्फ फुफुस मिलेगा, जो हवा को पंप करने का काम करता है।

और अगर आपरेशन की टेबल पर रखकर मेरे हृदय की सब जांच पड़ताल करके डाक्टर यह सर्टिफिकेट दे दें कि इस आदमी ने कभी प्रेम का अनुभव नहीं किया, घृणा का अनुभव नहीं किया, क्योंकि हमने आपरेशन की टेबल पर सब जांच पड़ताल कर ली है, सिवाय हवा को फेंकने के पंप के और कुछ भी नहीं है भीतर, तो क्या मेरे पास कोई उपाय होगा कि मैं सिद्ध कर सकूं कि मैंने प्रेम किया? या मेरी बात यह टेबल के आस—पास खड़े हुए डाक्टर मानने को राजी होंगे? कठिन है मामला!

डाक्टर इतना ही कह सकते हैं कि आपको भ्रम पैदा हुआ होगा। मैं उनसे यह जरूर पूछ सकता हूं कि आपको कभी प्रेम और घृणा का अनुभव हुआ है? अगर वे तर्कयुक्त है तो वे कहेंगे कि हमें भी इस तरह के भ्रम हुए है, श्रम, इल्‍यूजंस हुए हैं। बाकी टेबल पर जो रखा है वह वास्तविक तथ्य है। यहां सिर्फ हवा को फेंकने का फुफुस है भीतर, हृदय जैसी कोई भी चीज नहीं है।

आंख का आपरेशन करके सारा उपाय कर लिया जाए तो भी इसका कोई पता नहीं चलता कि भीतर सपने देखे गए होंगे। अगर हम एक आदमी की आंख का पूरा यंत्र खोलकर टेबल पर रख लें, तो भी हमें अनंतकाल तक खोज करने पर भी इसका पता नहीं चलेगा कि इस आंख ने रात को बंद हालत में कोई सपने भी देखे होंगे। लेकिन हम सबने सपने देखे हैं। उन सपनों का अस्तित्व कहां है? या तो हमने झूठे सपने देखे, लेकिन झूठे सपने कहने का क्या मतलब होता है? झूठे हैं, तो भी देखे तो हैं ही। वह घटे तो हैं ही, कितने ही असत्य रहे हों, तो भी वह घटना तो हमारे भीतर हुई है। और कितना ही झूठा सपना रहा हो, अगर जोर से घबराहट पैदा हो गई है, और जागकर पाया है तो हृदय धड़कता हुआ पाया है। और कितना ही झूठा सपना द,—रर हो, अगर उसमें रोये हैं और आंख खोलकर देखी है तो आंख में आंसू पाए हैं। कुछ भीतर घटा तो है ही।” आंख के कण—कण को भी तोड़कर देख लेने पर इसका कोई पता नहीं चलता कि भीतर सपने जैसी कोई घटना घटती है। सब सब्जेक्टिव है, आंतरिक है, कोई बाह्य प्रदर्शन संभव नहीं है।

मूर्ति तो दिखायी पडती है, उसका बाह्य प्रदर्शन हो सकता है, वह आंख की तरह है, वह फेफ्ले की तरह है। पूजा दिखाई नहीं पड़ सकती वह प्रेम की तरह है, वह भीतर देखे गए स्‍वप्‍न की तरह है। इसलिए जब आप मंदिर के पास से जाते है तो आपको मूर्ति दिखाई पडती है, पूजा तो कभी दिखाई नहीं पडती। इसलिए अगर मीरा को आपने किसी मूर्ति के आगे नाचते देखा है तो सोचा होगा, पागल है। स्वभावत:, क्योंकि पूजा तो दिखाई नहीं पड़ती है उसकी, इसलिए किसी श्रम में है वह, पत्थर के सामने नाचती है, पागल है!

रामकृष्ण को पहली दफा जब दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी की तरह रखा गया तो दो—चार—आठ दिन में ही बड़ी—बड़ी चर्चाएं कलकत्ते में फैलनी शुरू हो गईं। कमेटी के पास लोग गए, ट्रस्टियों के पास लोग गए और कहा कि इस आदमी को अलग कर दो। क्योंकि हमने बड़ी गलत बातें सुनी है। हमने सुना है कि वह फूल को पहले सूंघ लेता है, फिर मूर्ति को चढ़ाता है। और हमने यह भी सुना है कि प्रसाद को पहले चख लेता है, और फिर प्रसाद को चढ़ाता है। यह तो पूजा भ्रष्ट हो गई!

रामकृष्ण को कमेटी ने बुलाया और कहा कि यह क्या कर रहे हैं आप? हमने सुना है कि फूल आप पहले सूंघ लेते हैं, फिर परमात्मा को चढ़ाते हैं, और भोग आप पहले खुद लगा लेते हैं, फिर परमात्मा को चढाते है? रामकृष्ण ने कहा, ही, क्योंकि मैंने मेरी मां को देखा है, वह खाना बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी फिर मुझे देती थी। क्योंकि वह कहती थी कि पता नहीं, तुझे देने योग्य बना भी कि नहीं! तो मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकूंगा, और फूल जब तक मैं न सूंघ लूं तो मैं कैसे चढ़ाऊं? पता नहीं, सुगंधित है भी या नहीं।

पर उन्होंने कहा, तब तो सारी पूजा का विधान टूट जाएगा? रामकृष्ण ने कहा, कैसी बात करते हैं, पूजा का कोई विधान होता है, प्रेम का कोई विधान होता है? कोई कास्टीट्यूशन होता है? कोई विधि होती है? जहां विधि होती है पूजा मर जाती है। जहां विधान हो जाता है, वहीं प्रेम मर जाता है। यह तो आंतरिक उदभाव है, अत्यंत निजी, अत्यंत वैयक्तिक! और फिर भी उसमें एक यूनिवर्सल, एक सार्वभौम तथ्य है जो पहचाना जा सकता है।

जब एक प्रेमी प्रेम करता है और जब दूसरा प्रेमी प्रेम करता है तो दोनों ही प्रेम करते हैं, फिर भी दो ढंग से करते हैं। उनमें बड़े गहरे फर्क होते हैं और फिर भी गहराई में एक समानता होती है। उन दोनों के प्रेम की अपनी निजता, इंडीवीजुएलिटी होती है, और फिर भी दोनों के प्रेम के भीतर कहीं एक ही आत्‍मा का वास होता

पर पूजा तो दिखाई नही पड़ेगी, मूर्ति दिखाई पड़ेगी। और हम एक शब्द बनाए है, मूर्ति—पूजा, जो बिलकुल ही गलत है। पूजा है मूर्ति को मिटाने कागा! अब यह बात बडी अजीब लगती है। क्योंकि भक्त पहले मूर्ति बनाता है, फिर भक्त मूर्ति मिटाता है। मिटाता है बड़े चिन्मय अर्थों से, बनाता है बडे मृण्मय अर्थों में। बनाता है मिट्टी में और मिटाता है परम सत्ता में। इसलिए एक और आपको खयाल दिला दूं।

इस देश में हजारों साल तक हमने मूर्तियां बनायीं और विसर्जित कीं। अब भी हम मूर्तियां बनाते और विसर्जित करते है। कई दफा तो मन को बडी हैरानी होती है। न मालूम कितने लोगो ने मुझे आकर कहा होगा इतनी सुंदर काली की प्रतिमा बनाते हैं और फिर इसको पानी में डाल आते हैं। गणेश को बिठाते है, बनाते हैं सजाते हैं, इतना प्रेम प्रगट करते है और एक दिन उठाकर तालाब में डुबा देते हैं। पागलपन ही हुआ न निपट? पर इस विसर्जन के पीछे एक बड़ा खयाल है।

असल में पूजा का रहस्‍य ही यह है कि बनाओ और विसर्जित करो। इधर बनाओ मूर्ति आकार में, और मिटाओ निराकार में। यह तो प्रतीक है सिर्फ। काली को बनाया है, पूजा है, फिर नदी में डाल आते हैं, आज हमें तकलीफ होती है डाल आने में। क्योंकि हमें पता ही नहीं है इस बात का कि बनाकर अगर हमने पूजा की होती, तो हमने एक और गहरे अर्थों में पहले ही विसर्जन कर दिया होता। लेकिन वह तो हमने किया नहीं। मूर्ति बनाकर रखी, सजायी, बहुत सुंदर बनाई, फिर जब पीडा होती है उसको डुबाने जब जाते हैं; क्योंकि बीच में जो असली काम था वह तो हुआ नहीं।

नहीं, अगर बीच में पूजा की घटना घट जाती तो मूर्ति बनी रहती और हमारे हृदय ने उसे विसर्जित कर दिया होता—परमात्मा में! और तब, जब हम उसे डुबाने जाते नदी में तो वह चली हुई कारतूस की तरह होती उसके भीतर कुछ न होता। काम तो उसका हो चुका होता। लेकिन आज जब आप मूर्ति को डुबाने जाते हैं तो वह चली हुई कारतूस नहीं होती है, भरी हुई कारतूस होती है। कुछ नहीं चला। सिर्फ भरकर रख ली थी कारतूस, और डुबाने जा रहे हैं, तो पीड़ा होनी स्वाभाविक है।

जो लोग उसको डुबा आए थे इक्कीस दिन के बाद उन्होंने इक्कीस दिन में कारतूस चला ली थी। वह इक्कीस दिन में उसको विसर्जित कर चुके थे। पूजा है विसर्जन। मूर्ति का छोर तो हमारी तरफ है, जहां से हम यात्रा शुरू करेंगे और पूजा वह विधि है, जहां से हम आगे बढ़ेंगे। मूर्ति पीछे छूट जाएगी फिर शेष पूजा ही रह जाएगी। मूर्ति पर जो रुक गया उसने पूजा नहीं जानी; पूजा पर जो चला गया, उसने मूर्ति को पहचाना। इस मूर्ति के पीछे, इस मूर्ति के प्रयोग में, इस पूजा में क्या मूल आधार सूत्र है?

एक, जिस परम सत्य की आप खोज में चले हैं, या परम शक्ति की खोज में चले हैं, उसमें छलांग लगाने के लिए कोई जंपिंग बोर्ड, कोई जगह जहां से आप छलांग लगाएंगे! उस परम के लिए कोई जगह की जरूरत नहीं है, पर आपको तो खड़े होने के लिए जगह की जरूरत पड़ेगी, जहां से आप छलांग लगाएंगे। माना कि सागर में कूदने चले है, सागर है अनंत, पर आप तो तट के किसी किनारे पर खड़े होकर ही छलांग लेंगे न? छलांग लेने तक तो तट पर ही होंगे न! छलांग लेते ही तट के बाहर हो जाएंगे। लेकिन पीछे लौटकर तट को इतना धन्यवाद तो देंगे न, कि तुझसे ही हमने अनंत में छलांग ली थी। उल्टा दीखता है।

साकार से निराकार में छलांग हो सकती है? अगर तर्क में सोचने जाएंगे, तो गलत है बात। साकार से निराकार में छलांग कैसे होगी? साकार तो और साकार में ही ले जाएगा। कृष्णमूर्ति से पूछेंगे तो वह कहेंगे, नहीं होगी छलांग। शब्द से निःशब्द में कैसे कूदिएगा। नहीं, पर सब छलांगें साकार से निराकार में होती हैं! क्योंकि गहरे में साकार, निराकार के विपरीत नहीं है, निराकार का ही एक हिस्सा है और अविभाजित हिस्सा है। विभाजित हमें दिखाई पड़ता है, हमारी देखने की क्षमता सीमित है, इसलिए—अन्यथा अविभाज्य है!

जब हम सागर के किनारे खड़े होते हैं और तट को देखते हैं तो स्वभावत: हमें लगता है कि तट सागर से अलग है। वह जो दूसरा तट है सागर के उस पार, बहुत—बहुत दूर, वह अलग है। तो फिर हमें पता नहीं है! तो थोड़ा हमें सागर में नीचे उतरकर देखना चाहिए तो हम पाएंगे, यह तट और दूसरा तट नीचे से जुड़े हैं। अगर हम वैज्ञानिक की भाषा में सोचें, ठीक—ठीक भाषा में सोचें, तो एक बहुत मजेदार घटना पता चलेगी। सागर में मिट्टी है पूरी तरह, और मिट्टी में सागर सब जगह छिपा है। जहां गड्डा खोदिए वहीं पानी निकल आता है। सागर में गड्डा खोदिण्र, मिट्टी निकल आएगी। अगर इसको ठीक वैज्ञानिक भाषा में कहें तो इसका मतलब हुआ कि सागर में मिट्टी की मात्रा जरा कम और पानी की मात्रा ही जरा ज्यादा है। फर्क मात्रा का है, डिग्रीज का है पर दोनों अलग जरा भी नहीं हैं, सब संयुक्त है।

जिसको हम साकार कहते हैं, वह भी निराकार से संयुक्त है। जिसको हम निराकार कहते हैं, वह साकार से संयुक्त है और हम साकार में खड़े है। मूर्ति की दृष्टि, इस सत्य को स्वीकार करके चलती है कि हम साकार में खड़े हैं, वह हमारी स्थिति है। उसको इनकार करने का उपाय नहीं है। और हम जहां खड़े हैं, वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है।

ध्यान रहे, हमें जहां होना चाहिए वहां से यात्रा शुरू नहीं होती; हम जहां हैं वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है। बड़ी तार्किक दृष्टियां वहां से शुरू करती हैं यात्रा, जहां हमें होना चाहिए। जो हम हैं ही नहीं, वहां से यात्रा शुरू नहीं हो सकती। जहां हम है, यात्रा वहीं से शुरू होगी।

हम कहां है? हम मूर्त में जी रहे हैं। हमारी सारी अनुभव की संपदा मूर्त की संपदा है। हमने कुछ भी ऐसा नहीं जाना जो .मूर्त न हो, आकारवाला न हो। हमने सब आकार में जाना है। प्रेम किया है तो आकार को, और घृणा की है तो आकार को; आसक्त हुए है तो आकार में और अनासक्ति साधी है तो आकार में। मित्र बने हैं तो आकार में और शत्रु बनाए है तो आकार में। हमने जो भी किया है वह आकार है। मूर्ति इस सत्य को स्वीकार करती है। और इसलिए अगर हमें निराकार की यात्रा पर निकलना है तो हमें निराकार के लिए भी आकार देना पड़ेगा। निश्चित ही ये आकार अपनी—अपनी प्रतिमा के आकार होंगे। किसी ने महावीर में निराकार को अनुभव किया है, किसी ने कृष्ण में निराकार को अनुभव किया है, किसी ने जीसस में निराकार के दर्शन किए हैं। जिसने जीसस में निराकार के दर्शन किए हैं, जिसने जीसस की आंखों में झांका, और वह दरवाजा मिल गया उसे, जिससे खुला आकाश दिखाई पड़ता है।

जिसने जीसस का हाथ पकड़ा, थोड़ी देर में वह हाथ मिट गया और अनंत का हाथ, हाथ में आ गया। जिसने जीसस की वाणी सुनी, और शब्द नहीं शब्द के जो पार है, उसकी प्रतिध्वनि हृदय में गज गयी, वह अगर जीसस की मूर्ति बनाकर पूजा में लग सके तो निराकार में छलांग के लिए उसे इससे ज्यादा आसान कोई और बात न हो सकेगी।

किसी को कृष्ण में दिखाई पड़ा है, किसी को बुद्ध में, किसी को महावीर में। जहां से भी, और सबसे पहले हमें ‘किसी’ में ही दिखाई पड़ेगा, यह स्मरण रखें। सबसे पहले हमें सीधा, शुद्ध निराकार दिखाई नहीं पड़ जाएगा। शुद्ध निराकार को देखने की हमारी क्षमता और पात्रता नहीं है। निराकार भी बंधकर ही आएगा कहीं तभी हमें दिखाई पड़ेगा। अवतार का यही अर्थ है, निराकार का बंधा हुआ रूप, निराकार की सीमा। उल्टा लगता है, पर यही अर्थ है अवतार का। एक झरोखा, जहां से बड़ा आकाश दिखाई पड़ जाता है—एक झलक! निराकार से सीधी मुलाकात नहीं होगी। पहले तो कहीं आकार में ही उसकी प्रतीति होगी। फिर जिस आकार में उसकी प्रतीति हो जाए, उस आकार से बार—बार उसी प्रतीति में उतरना आसान हो जाएगा।

बुद्ध को जिसने देखा है, बुद्ध की प्रतिमा को देखते ही प्रतिमा भूल जाएगी और बुद्ध सजीव हो उठेंगे। जिसने बुद्ध को चाहा है और प्रेम किया है, उसके लिए ज्यादा देर नहीं लगेगी कि यह पत्थर की प्रतिमा विलीन हो जाए और सजीव व्यक्तित्व स्थापित हो जाए। तो बुद्ध हों, कि महावीर हों, कि कृष्ण हों, कि क्राइस्ट हों, वे सब अपने पीछे व्यवस्थाएं छोड़ गए हैं। जिन व्यवस्थाओं से उनको चाहने वाला व्यक्ति कभी भी उनसे पुन: संबंधित हो जाए। और आकार बहुत बड़ी व्यवस्था है। और मूर्ति को बनाने की जो कला है या विज्ञान है, उसमें बहुत—सी बातों का खयाल और हिसाब रखा गया है। अगर उतनी सारी बातों के हिसाब और खयाल से मूर्ति बनाई गई हो तो गहरे परिणाम ले आएगी। जैसे, दो—तीन बातें खयाल कर लेने जैसी है—

अगर आपने बुद्ध की प्रतिमाएं देखी है तो बुद्ध की प्रतिमाओं को, हजारों प्रतिमाओं को देखकर भी एक बात पकी अनुभव में आ जाएगी कि प्रतिमाएं व्यक्ति की कम, और किसी भाव दशा की ज्यादा हैं। बुद्ध की हजार प्रतिमाएं रखी हों तो वे व्यक्ति की कम, किसी भाव दशा की, स्टेट्स आफ माइंड की प्रतिमाएं ज्यादा हैं। अगर बुद्ध को गौर से देखेंगे, बुद्ध की प्रतिमा पर ध्यान करेंगे तो थोड़ी ही देर में एहसास होना शुरू हो जाएगा एक अदभुत अनुकंपा का—एक महाकरुणा का! जो आपको चारों तरफ से घेरने लगेगी।

बुद्ध का उठा हुआ हाथ, या बुद्ध की आधी मुंदी हुई पलकें, बुद्ध के चेहरे का अनुपात, बुद्ध के बैठने का ढंग, बुद्ध के मुडे हुए पैर, बुद्ध की जो सारी की सारी आनुपातिक व्यवस्था, वहां व्यवस्था किसी गहरे में आपके भीतर करुणा से संबंध जोड्ने का उपाय है।

कोई पूछ रहा था फ्रांस के एक बहुत बड़े चित्रकार सेजा से कि तुम यह चित्र बनाते हो, किसलिए? तो सेजा ने कहा कि इसलिए चित्र बनाता हूं कि मेरे हृदय में जो भाव था, खोजता हूं कि उस भाव के लिए आकार क्या होगा? और आकार बना देता हूं। अगर कोई उस आकार पर ठीक से ध्यान करे तो वह उस भाव को उपलब्ध हो जाएगा जो मेरे भीतर था।

आप जब किसी चित्रकार का चित्र देखते हैं तो सिर्फ आकार देखते हैं, आपको खयाल भी नहीं होता इस बात का कि तब आप चित्रकार की आत्मा को न समझ पाएंगे। एक कागज पर कोई आड़ी—टेढी लकीरें खींच दे, तो सिर्फ आड़ी—टेढी लकीरें नहीं होतीं।

अगर आप उन पर ध्यान करें तो आपके भीतर चित्र उतना ही आड़ा— —टेढ़ा हो जाएगा। क्योंकि चित्त का एक नियम है कि वह जो देखता है, उसके अनुरूप प्रतिध्वनित होता है, रिजोनेंट होता है। अगर उतनी ही लकीरें, आड़ी—टेढ़ी न खींची जाएं और एक विशेष अनुपात में खींची जाएं तो आपका चित्त उनको देखकर उस विशेष अनुपात को उपलब्ध होता है।

एक फूल को देखकर आपको जो खुशी उपलब्ध होती है, आपको पता भी नहीं होगा कि वह फूल की कम, फूल की पंखडियों के अनुपात की है। फूल के होने का जो ढंग है वह आपके भीतर आपके हृदय को भी फूल के होने का ढंग देता है।

अगर एक सुन्दर व्यक्ति कै चेहरे को देखकर आपको आकर्षण पैदा होता है तो आपका कुल कारण इतना ही नहीं है कि उस व्यक्ति का चेहरा किसी हिसाब से सुन्दर है। गहरे में असली कारण यह है कि उस व्यक्ति का सुन्दर चेहरा आपके भीतर सौंदर्य का रिजोनेंस पैदा करता है।

आपके भीतर भी कोई चीज उस सुन्दर के साथ सुन्दर हो उठती है, और कुरूप के साथ कुरूप हो जाती है। कुरूप व्यक्ति के पास बैठकर आपको जो परेशानी होती है वह क्या परेशानी है? सुन्दर व्यक्ति के पास बैठकर आपको जो सुखद प्रतीति होती है वह कौन—सी प्रतीति है? असल में सुन्दर अनुपात आपके भीतर भी सौंदर्य की धारा को बहाता है और आपको सुन्दर बना जाता है।

कुरूप का अर्थ ही केवल इतना है, गैर आनुपातिक, नॉन प्रपोर्शनेट, आड़ा—तिरछा, जिससे भीतर कोई समरस ध्वनि पैदा नहीं होती, संगीत पैदा नहीं होता, विशृंखलता पैदा होती है, अराजकता पैदा होती है, भीतर सब कंपित हो जाता है।

जर्मनी का एक चित्रकार, नृत्यकार पीछे आत्‍महत्‍या करके मरा, निजिंस्की उसका नाम था। जब उसने आत्‍महत्‍या की और उसके घर की जांच—पड़ताल हुई तो जो लोग भी उसके घर में गए वे दस—पन्द्रह मिनट के बाद बाहर आ गए और उन्होने कहा कि उसके घर में जाना ठीक नहीं है। वहां कोई भी आदमी इतने दिन रुक जाए तो आत्महत्या कर लेगा। बड़ी अजीब—सी बात थी। उस घर के भीतर क्या होगा?

निजिंस्की ने एक—एक दीवार को इस तरह से चित्रितकिया था— सिर्फ दो ही रंगों का उपयोग करता था वह, अपने आखिरी दो साल में—लाल सुर्ख और काला। बस ये दो ही रंग का उपयोग करता था—एक—एक दीवार, फर्श, छत सब पुती हुई, पर रंग सिर्फ काला और लाल। दो साल से वह यही काम कर रहा था भीतर, पागल हो गया था, आश्चर्य नहीं! और आत्महत्या भी कर ली तो आश्चर्य नहीं।

जिन लोगों ने उसके मकान को देखा, बाद में उन सभी लोगों ने कहा कि उस मकान के भीतर दो साल कोई भी रह जाए तो पागल होकर रहेगा। और आत्महत्या दो साल तक भी बच जाए करने से यह काफी मालूम पड़ता है। निजिंस्की अदभुत हिम्मत का आदमी रहा होगा। सारा का सारा वातावरण, पूरा का पूरा इतना अराजक था कि जिसका कोई हिसाब नहीं। आप जो भी देखते हैं उसकी प्रतिध्वनि भीतर होती है और आप किसी गहरे अर्थों में उसी जैसे हो जाते हैं। बुद्ध की सारी मूर्तियां करुणा के आस—पास निर्मित हैं, क्योंकि करुणा बुद्ध का आंतरिक संदेश है, कम्पैशन! और करुणा आ जाए, तो बुद्ध कहते है, सब आ गया। करुणा का क्या अर्थ? प्रेम नहीं है करुणा का अर्थ। प्रेम तो हम सबको आता है और चला जाता है।

करुणा ऐसे प्रेम का नाम है जो आती तो है लेकिन फिर जाती नहीं। और प्रेम में तो दूसरे से कुछ न कुछ पाने की, गहरे में सूक्ष्म आकांक्षा होती है। करुणा में इस बात का बोध होता है कि किसो के पास कुछ देने को नहीं है तो कोई देगा कैसे? प्रत्येक इतना दीन है कि देने को तो किसी के पास कुछ नहीं है, इसलिए करुणा है। करुणा में कोई मांग नहीं है, क्योंकि किससे मांगें, किसी के पास कुछ भी नहीं है। दान का कोई खयाल नहीं है, लेकिन इतनी महाकरुणा के आविर्भाव में अपने आप हृदय के द्वार खुल जाते हैं और ही कुछ बंटना शुरू हो जाता है।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा था कि तुम ध्यान करो, पूजा करो, प्रार्थना करो लेकिन स्मरण रखना, पूजा और प्रार्थना और ध्यान के बाद तुम्हें जो शांति मिले, तत्‍क्षण उसे बांट देना—स्प क्षण भी अपने पास मत रखना। तुम्हें मैं अधार्मिक कहूंगा, अगर तुमने एक क्षण भी अपने पास रखा। जब तुम्हें आनन्द का अनुभव हो ध्यान के बाद, तत्‍क्षण प्रार्थना करना कि हे प्रभु उन सबको मिल जाए जिन्हें आवश्यकता है। खोल देना अपना द्वार हृदय का और बह जाने देना जहां—जहां गड्डे हैं! वहां—वहां एक क्षण भी रोकना मत, नहीं तो मैं तुम्हें अधार्मिक कहूंगा। यह जो महाकरुणा है, इसी को बुद्ध ने महामुक्ति कहा है।

तो बुद्ध की सारी प्रतिमाएं इस अनुपात में निर्मित की गयी हैं कि उनकी पूजा करनेवाला व्यक्ति उनके सानिध्य में बैठकर उस रिजोनेन्स को, उस प्रतिध्वनि को उपलब्ध हो जाए जहां वह करुणा का प्रवाह अनुभव करने लगे। अब अगर बुद्ध की प्रतिमा के पास बैठकर पूजा करेंगे तो कैसे करेंगे?

मैं एक उदाहरण ले रहा हूं ताकि आपको और भी खयाल आ सके। अगर बुद्ध की प्रतिमा पर पूजा करनी है, तो पूजा का केन्द्र बुद्ध का हृदय बनाना पड़ेगा। जिसको यह पता नहीं है, वह बुद्ध की मूर्ति से कभी भी परिचित नहीं हो पाएगा। क्योंकि बुद्ध की मूर्ति का जो निहित ध्येय है वह आपके भीतर महाकरुणा का जन्म है। और करुणा का जो केन्द्र है वह हृदय है।

इसलिए बुद्ध की मूर्ति पर ध्यान करते वक्त हृदय पर, बुद्ध के हृदय पर ध्यान रखना पड़ेगा। एक तरफ बुद्ध के हृदय पर ध्यान रखना पड़ेगा और दूसरी तरफ अपने हृदय पर ध्यान रखना पड़ेगा। दोनों के हृदय एक साथ धड़क रहे हैं, इसकी प्रतीति में गहरा उतरना पड़ेगा; और एक क्षण आएगा कि अपना ही हृदय धड़कता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा, बल्कि अपने ही हृदय से जैसे एक धागा जुड़ा हो और बुद्ध की प्रतिमा के भीतर भी हृदय धड़कता हो। यह सिर्फ मालूम ही नहीं पड़ेगा, बुद्ध की प्रतिमा पर ठीक हृदय की धड़कन खुली आंख से भी अनुभव होने लगेगी।

और जब ऐसी धड़कन बुद्धि की प्रतिमा पर अनुभव हो, तो समझना कि बुद्ध में प्राण की प्रतिष्ठा हुई। नहीं तो प्राण की प्रतिष्ठा नहीं है, और पूजा का कोई अर्थ नहीं है। यह नियम है बुद्ध का हृदय, पत्थर की मूर्ति का हृदय जब आपको बिलकुल धड़कता हुआ मालूम पड़ने लगे और ये बिलकुल मालूम पड़ सकता है, पड़ता है। अगर आपके हृदय की धड़कन पर ठीक ध्यान किया गया और बुद्ध के हृदय पर ध्यान किया गया तो दोनों में संयोग स्थापित हो जाता है। तब आपका ही हृदय बुद्ध की प्रतिमा में भी धड़कता है!

जैसे कि दर्पण में आपकी प्रतिछवि दिखायी पड़ती हो! दर्पण में आपने खयाल किया कभी? दर्पण में जो आपकी तस्वीर दिखायी पड़ती है उसका हृदय धड़कता है या नहीं धड़कता है? पर दर्पण में धड़कता है तो हम कहते हैं, ठीक है, दर्पण तो दर्पण है। मूर्ति भी गहरे अर्थो में दर्पण है, एक आध्यत्यिक अर्थों में दर्पण है। और ठीक ऐसे ही मूर्ति में हृदय धड़कता हुआ मालूम पड़ने लगेगा। और जब हृदय धड़कता हुआ मालूम पड़े तब पूजा की शुरुआत होगी। जब तक मूर्ति में हृदय न धडूके तब तक पूजा की शुरुआत नहीं हो सकती, क्योंकि मूर्ति तब तक पत्थर है, तब तक मूर्ति नहीं बनी। यह भी खयाल में ले लें कि तब तक मूर्ति पत्थर है जब तक मूर्ति मूर्ति नहीं बनी, जब तक कि जीवन्त न हो गयी हो, जब तक उसमें प्राण प्रतिष्ठा न हो गयी हो।

अब अगर बुद्ध की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो हृदय पर करना पड़ेगा। अगर महावीर की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो दूसरा केन्द्र है। अगर क्राइस्ट की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो तीसरा केन्द्र है। अगर कृष्ण की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो चौथा केन्द्र है। और दुनियां में जितनी प्रतिमाएं है, प्रत्येक प्रतिमा किसी पृथक केन्द्र पर निर्मित है।

और बड़ी हैरानी की बात यह है कि उन प्रतिमाओं को हजारों साल तक समाज पूजता रहेगा और उसे कुछ पता नहीं होगा कि वह किस केन्द्र की प्रतिमा को पूज रहा है! और अगर केन्द्र का पता नहीं है तो आपका प्रतिमा से कभी कोई संबंध नहीं होगा। आप फूल रखकर आ जाएंगे, धूप जला आएंगे, हाथ जोड़कर घर लौट आएंगे, आप पत्थर के सामने से ही लौट आए। क्योंकि ध्यान रहे, पत्थर को प्रतिमा बनाना पडता है! वह मूर्तिकार नहीं बनाएगा, वह आपको बनाना पड़ेगा! मूर्तिकार तो सिर्फ आकार देगा पत्थर को। पर उसको प्राण कौन देगा? प्राणपूजा करनेवाला देगा!

मूर्ति को प्राण दिए बिना वह पत्थर है। प्राण दिए जाने के बाद पूजा का प्रारम्भ होता है। पूजा क्या है? अगर आप किसी मूर्ति को प्राण देने में समर्थ हो जाएं तो फिर पूजा क्या है? फिर पूजा क्या होगी! जैसे ही मूर्ति को प्राण दिया जा सके वैसे ही वह जीवन्त व्यक्तित्व हो गया।

इसको थोड़ा समझना जरूरी होगा। जैसे ही कोई चीज जीवन्त हो जाए, उसमें आकार और निराकार दोनों समाविष्ट हो जाते है। क्योंकि देह तो आकार है और जीवन निराकार है। जीवन का कोई आकार नहीं है, देह का आकार है। इसलिए मेरा हाथ कोई काट दे तो मेरा जीवन नहीं कइटता। अगर मेरी आंखें बन्द हों और मेरे पूरे शरीर से मेरे पूरे संबंध तोड़ दिए गए हों, और मेरा हाथ काट दिया जाए तो मुझे पता भी नहीं चलेगा। ऐसा किया जा सकता है कि मेरे मस्तिष्क को पूरा का पूरा निकाल लिया जाए बाहर, और उसे बिलकुल पता न चले कि शरीर अलग हो गया, क्योंकि जीवन का कोई आकार नहीं है—जीवन निराकार है।

जहां भी जीवन है वहां आकार और निराकार का मिलन है। पदार्थ का आकार है, चेतना का कोई आकार नहीं। जब तक मूर्ति पत्थर है, तब तक आकार है। और जैसे ही उसको प्राण दिया, प्रतिष्ठा हुई और भक्त ने अपने हृदय को मूर्ति में धड़काया। ध्यान रहे, जो भक्त अपने हृदय को मूर्ति में न डाल सकेगा वह भक्त परमात्मा के हृदय को अपने में डालने की पात्रता न पा सकेगा। पात्रता ही यही है। जैसे ही भक्त अपने हृदय को मूर्ति में डाल पाता है और मूर्ति जीवंत हो जाती है, वैसे ही मूर्ति दोनों बातें हो गयी—एक तरफ आकार रहा और दूसरी तरफ से निराकार का द्वार खुल गया! अब उस द्वार से यात्रा करने का नाम पूजा है।

पूजा के संबंध में पहली बात तो यह कि वह है मूर्त से अमूर्त की यात्रा। उसके एक—एक कदम हैं। बुनियादी आधार, मूल कदम जो है पूजा का वह यह है कि व्यक्ति सेल्फ सैट्रिक है, स्व—केन्द्रित है। हमारी जीने की सारी व्यवस्था ऐसी है कि जैसे ‘मैं’ सारी दुनिया का केन्द्र हूं। ऐसे हम जीते हैं, सब चांद—तारे मेरे लिए घूम रहे हैं, पक्षी मेरे लिए उड़ रहे हैं, सूरज मेरे लिए निकलता है। इस सारे जगत का केन्द्र हूं—’मैं’। साधारण व्यक्ति जिसने पूजा को नहीं जाना, स्व—केन्द्रित होकर जीता है। कुछ भी हो, मैं केन्द्र पर हूं बाकी सारा विश्व मेरी परिधि यही हमारी सब की दृष्टि है। पूजा में इस दृष्टि के विपरीत चलना पड़ेगा। पूजा का सार सूत्र है—केन्द्र कहीं और है, मैं परिधि हूं। अधार्मिक आदमी का सार सूत्र है—मैं केंद्र हूं और सब जगह परिधि है। अगर परमात्मा भी कहीं होगा तो वह परिधि पर है, केन्द्र मैं हूं। वह भी मेरे लिए है।

जब मैं बीमार हो जाऊं तो मेरी बीमारी ठीक कर दे, मेरे लड़के को नौकरी न मिले तो नौकरी लगवा दे। किसी मुसीबत में पड़ जाऊं तो मेरा सहारा बन जाए, वह भी मेरे लिए है। ध्यान रहे, जिस आदमी ने इस भांति सोचा हो कि परमात्मा मेरे लिए है, उसकी आस्तिकता, नास्तिकता से ज्यादा बदतर है। उसे खयाल ही नहीं, वह क्या कह रहा है।

पूजा का अर्थ है, प्रार्थना का अर्थ है, धार्मिक भाव का अर्थ है कि अब तू केन्द्र हुआ और मैं परिधि हूं। जैसे ही मूर्ति जीवंत हो गयी और उसका हृदय धड़कने लगा, जैसे ही यह प्रतीत हुआ कि मूर्ति में प्राण आ गए, निराकार प्रवेश कर गया; वैसे ही जो दूसरा बुनियादी सूत्र है वह यह है, कि अब मैं परिधि पर हूं तू केन्द्र पर है। अब मैं तेरे लिए नाचूंगा, तेरे लिए गाऊंगा, तेरे लिए लिए श्वास लूंगा। अब जो कुछ भी होगा, तेरे लिए होगा।

रामकृष्ण के पास एक बहुत बड़ा ज्ञानी ठहरा हुआ था, तोतापुरी। तोतापुरी ने रामकृष्ण से कहा, तू कब मूर्ति में उलझा रहेगा? अब निराकार की यात्रा पर निकल! तो रामकृष्ण ने कहा, जरूर निकलूंगा। रामकृष्ण सबसे सीखने को सदा तैयार थे, जो भी सिखाने आ जाता था उससे सीखने को तैयार थे। रामकृष्ण ने कहा, जरूर निकलूंगा, लेकिन जरा रुको, मैं जरा मां को भीतर जाकर पूछ आऊं। तोतापुरी ने कहा, कौन मां? रामकृष्ण ने कहा, काली है न जो, उससे मैं जरा पूछ आऊं। तोतापुरी ने कहा, यही तो मैं तुम्हें रोकने को कह रहा हूं कि पत्थर में कब तक उलझे रहोगे? और तुम वहीं पूछने जा रहे हो? तो रामकृष्ण ने कहा, बिना पूछे तो कोई उपाय नहीं। क्योंकि जिस दिन पूजा शुरू हुई थी उस दिन मैं परिधि पर हो गया हूं और मां को केन्द्र पर रख लिया है, अब तो बिना पूछे कोई उपाय नहीं, अब तो मैं हूं ही नहीं। अब मैं जो भी कर सकता हूं वह उन्हीं के लिए है। उनकी आज्ञा हो गयी तो ठीक और उनकी आशा नहीं हुई तो ठीक। उनकी बिना आज्ञा के मोक्ष भी अब व्यर्थ है और उसकी आज्ञा हो नर्क के लिए भी, तो मैं राजी हूं। क्योंकि जिस दिन पूजा की थी उस दिन इसी शर्त पर तो पूजा शुरू हुई थी कि मैं परिधि हो गया, तुम केन्द्र हो। उनसे बिना पूछे अब कुछ भी नहीं हो सकता है। तोतापुरी के तो समझ के बाहर पड़ी बात।

मूर्ति—पूजा छोड़ने के लिए मूर्ति से पूछने जाएंगे रामकृष्ण, तो कैसे छूटेगी मूर्ति—पूजा? जिसको छोड़ना है उससे पूछना क्या है? और छोड़ने के लिए पूछना पड़ता है? रामकृष्ण तब तक भीतर चले गए हैं, तोतापुरी पीछे—पीछे जाकर खड़े हो गए हैं। देखा, रामकृष्ण की आंखों से तरल आंसुओ की धारा बहती है। वह रो रहे हैं और बार—बार कह रहे हैं कि नहीं, आज्ञा दे दे। फिर रोते हैं, कहते हैं, नहीं, आज्ञा दे दे। तोतापुरी राह देखते होंगे, आज्ञा दे दे। फिर प्रसन्न हो गए, फिर नाचने लगे हैं।

तोतापुरी ने कहा, क्या हुआ? कहा, आज्ञा मिल गयी, अब राजी हूं! अब कोई सवाल नहीं है। केन्द्र पर रखने का अर्थ है, अब से मेरा जीवन समर्पित जीवन होगा। पूजा का अर्थ है, समर्पित जीवन—पूजा का अर्थ है, अब मैं ऐसे जिऊंगा जैसे परमात्मा के लिए जी रहा हूं। उठूंगा—बैठूंगा उसके लिए, खाऊंगा—पिऊंगा उसके लिए, बोलूंगा—चुप होऊंगा उसके लिए।

केन्द्र पर जैसे ही किसी ने निराकार को रखा, वैसे ही एक अदभुत प्रवाह शुरू होता है, एक फैलाव शुरू होता है। हम अपने ही हाथ से सिकुड़कर बैठे हैं। बीज टूट जाता है और वृक्ष बनने लगता है। हम सिकुड़कर बैठे हैं, सब तरफ से दबाकर बैठे हैं—’मैं’ —वह टूट जाता है। फिर बड़े अंकुर निकलते हैं और फैलने शुरू हो जाते हैं कि पूरे विराट को घेर लें। और बड़े आश्चर्य की बात है, और धर्म ऐसे बहुत से आश्रयों से भरा हुआ है, कि जो व्यक्ति अपने को बचाता है वह मिटा लेता है और जो अपने को खो देता है वह अपने को पा लेता है—यह पूजा का आधार है।

परमात्मा को रखना है केन्द्र पर, स्वयं को रख देना है परिधि पर! बहुत कठिन है। हमें खयाल ही नहीं होता है कि यह कैसे हो सकेगा, क्योंकि हम पैदा होते से ही अपने को केन्द्र मानकर जीते हैं।

बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे कि तुम जाकर कुछ दिन मरघट में रह आओ। तीन महीने तो अनिवार्य था। कोई भी भिक्षु संन्यास ले, तो उसे तीन महीने मरघट में रहना पड़े। भिक्षु कहते भी कि हम आपके पास सीखने आए हैं, मरघट से क्या होगा? बुद्ध कहते, पहले तुम मरघट में रहो, तीन महीने बाद तुम आ जाना। उससे तुम्हारे ‘मैं’ का केन्द्र शिथिल हो जाए तो आसानी होगी।

तीन महीने, रोज सुबह—सांझ कोई आएगा, कोई मरेगा, कोई जलेगा और तुम देखते रहोगे, देखते रहोगे। कभी तीन महीने में एकाध दिन तो खयाल आएगा कि तुम्हारे लिए यह जगत नहीं चल रहा है। तुम नहीं थे, तब भी चल रहा था। यह आदमी जो तुम्हारे सामने जल रहा है, यह अभी थोडी देर पहले इसी खयाल में था कि जगत मेरे लिए चल रहा. है। जगत को पता भी नहीं चला, यह आदमी समाप्त हो गया है! सागर को खबर भी नहीं हुई और लहर मिट गयी! तुम देखो और देखते रहना, किसी भी दिन, जिस दिन तुम्हें खयाल आ जाए कि यह जगत तुम्हारे लिए नहीं चल रहा है—तुम आ जाना!

उसी दिन आराधना शुरू हो सकेगी, उसी दिन साधना शुरू हो सकेगी। जब तक तुम केन्द्र पर हो तब तक पूजा का, प्रार्थना का, ध्यान का कोई भी उपाय नहीं है। भांति ही लेकिन बहुत मजबूत है। पूजा शुरू होती है इस भ्रांति के विसर्जन से। इसलिए पूजा में ‘मैं’ शब्द गिर जाता है और ‘तू, शब्द महत्वपूर्ण हो जाता है। ‘तू ही है’, यह महत्वपूर्ण हो जाता है।

ध्यान रहे, पहले भक्त मूर्ति को मिटाता है और अमूर्त का द्वार खोलता है। फिर अपने को मिटाता है और पूजा में प्रवेश होता है। मूर्ति के भीतर से अमूर्त का द्वार खोल लेने पर स्वयं को मिटाना सरल हो जाता है। सरल इसलिए हो जाता है कि जैसे दिखायी पड़ता है कि एक पत्थर की मूर्ति भी अमूर्त के लिए द्वार बन गयी और निराकार को दिखाने लगी तो मेरा यह शरीर भी… निराकार के लिए द्वार बन सकता हूं! लेकिन मूर्ति को भूला तो निराकार दिखायी पड़ा। अब स्वयं को अं तो और भी गहरी छलांग लग सकती है।

ध्यान रहे, दो आकारों में तो भेद होता है लेकिन दो निराकारों में कोई भेद नहीं होता। सच तो यह है कि दो का शब्द आकार के लिए ही प्रयोग करना ठीक है, निराकार के लिए दो कहने का कोई अर्थ नहीं—निराकार एक ही होता है। जब मूर्ति निराकार हो गयी और भक्त भी निराकार हो गया तो दो निराकार नहीं बचते, एक ही निराकार हो जाता है। निराकार में तो दो और तीन का सवाल नहीं है, संख्या का उपाय नहीं है। आकार या संख्या, यह तो आधार हैं—लेकिन आधार को व्यवहृत करने की, उसको प्रयोग में लाने की अनेक विधियां हैं।

दो—चार सूत्र समझ लेने जैसे है। जैसे—सूफियों ने पूजा के लिए नृत्य को गहरा मूल्य दिया। भक्तों ने भी दिया—मीरा ने, चैतन्य ने बहुत—बहुत मूल्य दिया। नृत्य की कुछ खूबियां है, जिनके कारण अनेक—अनेक भक्ति की साधनाओं ने नृत्य को चुना। नृत्य की पहली खूबी तो यह है कि नृत्य करते समय अधिकतम यह प्रतीति होती है कि आप शरीर नहीं हैं। नृत्य की जो गति है, जो मूवमेंट है, उस तीव्र गति में, थोड़ी ही देर में आप और आपके शरीर का साथ छूट जाता है। असल में आपकी चेतना और आपके शरीर का साथ, एक एडजेस्टमैंट है, एक संयोजित व्यवस्था है। आप जो काम दिन—रात करते रहते हो सुबह से सांझ तक, उस काम करने में वह संयोग कभी नहीं टूटता है, वह व्यवस्थित है।

गुरजिएफ कहा करता था, जैसे किसी डिब्बे में बहुत सी चीजें रखी हों और कोई जोर से डिब्बे को हिला दे तो उसके भीतर का सब अरेंजमेंट, भीतर की सारी व्यवस्था अस्त—व्यस्त हो जाती है। कोई पत्थर का टुकड़ा नीचे था वह ऊपर आ जाता है, कोई ऊपर था वह बीच में चला जाता है, कोई बीच में था वह किनारे चला जाता है। उस डिब्बे के भीतर चीजों का जो समायोजन था वह सब अस्त—व्यस्त हो जाता है। और अगर उस डिब्बे के पत्थरों को एक ही तरह से रहने की आदत से कोई अहंकार पैदा हो गया हो कि हम है—वह टूट जाता है। उनको पता चलता है कि— ‘मैं नहीं हूं,! यह तो सब टूट गया! यह तो सिर्फ व्यवस्था थी, यह एक अरेंजमेंट था।

तो सूफियों ने, चैतन्य ने, मीरा ने नृत्य का गहरा उपयोग किया। और दरवेश नृत्य तो बहुत ही गहरे हैं। इतने जोर से गति देना है शरीर को, कि फकीर की जितनी सामर्थ्य हो, जितनी ऊर्जा हो, जितनी शक्ति हों—पूरी दांव पर लगा देनी है, शरीर का रोयां रोयां नाचने और कांपने लगे। उस स्थिति में, जो हमारी चेतना और शरीर के बीच में जो संबंध स्थापित हो गया है, वह टूट जाता है। अचानक पता चलता है कि शरीर अलग है, और मैं अलग हूं। पूजा के लिए इसका उपयोग कीमती हो जाता है।

ईसाइयों के दो सम्प्रदाय हुए है—एक सम्प्रदाय अब भी काफी बड़ी प्रभावशाली शक्ति रखता है—केकर्स! एक दूसरा सम्प्रदाय था—शेकर्स। ये नाम सूचक हैं। शेकर्स—उस सम्प्रदाय का नाम था जो शरीर को शेक… इतने जोर से शरीर को कंपाते थे पूजा के वक्त, कि उनका नाम शेकर्स पड गया। शरीर को इतने जोर से कंपाना था—रोयां रोया कंपन बन जाए, ट्रेम्बलिंग हो जाए। घंटों पसीना—पसीना हो जाएगा साधक! मूर्ति के सामने खड़ा है और सारे शरीर को कम्पन दे रहा है। कम्पन इतना तीव्र है कि थोडी ही देर में सारे शरीर से पसीने की धाराएं बहने लगेंगी। और वह घटना घटेगी जहां शरीर से चेतना अलग मालूम पड़ेगी। और अलग मालूम पड़े तो पूजा पर चली आ सकती है।

केकर्स—नाम भी इसलिए पड़ा, क्केकिग का अर्थ भी वही होता है। भूकम्प को कहते हैं आप—अर्थकेक। इतने जोर से शरीर में भूकम्प पैदा करना है कि शरीर के भीतर का जो आयोजन है वह टूट जाए। इस प्रकार नृत्य का उपयोग किया गया पूजा में अनेक—अनेक ढंगों से। और नृत्य ने भारी से भारी सहायता पहुंचाई है स्वयं के भीतर निराकर को अलग कर लेने के लिए। संगीत, भजन और कीर्तन का भी इसी भांति उपयोग हुआ है।

ध्वनिशास्र का कुछ थोड़ा—सा रूप खयाल में ले लेना जरूरी है। फिजिक्स, आज भौतिकशास्त्र जैसा मानता है, उसके हिसाब से, जीवन की जो आखिरी इकाई है, वह विद्युत है। लेकिन भारतीय और पूर्वीय मनीषि जैसा मानते रहे हैं कि पदार्थ की जो अन्तिम इकाई है, वह ध्वनि है, विद्युत नहीं!

आधुनिक विज्ञान मानता है कि विद्युत, पदार्थ की अन्तिम रचना का आखिरी हिस्सा है जिससे सारी चीजें बनी हैं—विद्युत, इलेक्ट्रान्स। पूर्वीय मनीषि मानते हैं कि ध्वनि समस्त पदार्थ का आधारभूत हिस्सा है। दोनों में से कुछ भी सच हो, लेकिन दोनों के बीच एक गहरा संबंध है, वह खयाल में ले लेना चाहिए।

क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, ध्वनि विद्युत का एक रूप है, और भारतीय मनीषि कहते हैं कि विद्युत ध्वनि का एक रूप है—ये दोनों बातें कितनी पृथक मालूम पड़ती हैं लेकिन इस दूसरी सच्चाई की घोषणा से दोनों बातों में पृथकता न के बराबर रह जाती है। वैज्ञानिक कहते हैं, ‘ ध्वनि विद्युत का एक रूप है—ए मोड ऑफ इलैक्ट्रिसिटी ‘। भारतीय मनीषि कहते हैं ‘विद्युत ध्वनि का रूप है—ए मोड ऑफ साऊंड’। सम्भावना यह हो सकती है कि दोनों ही बातें सच हों और एक ही साथ सच हों। और संभावना यह है कि ये दोनों ही बातें सच होंगी और आज नहीं कल, हम उस असली तत्व को खोज लेंगे जिसका एक रूप ध्वनि है और दूसरा रूप विद्युत है, जो इन दोनों के बीच का लिंक है।

शायद अध्यात्म की तरफ से खोज करने के कारण भारतीय मनीषि ध्वनि पर पहुंचा, और पदार्थ की खोज करने के कारण पश्चिमी मनीषि विद्युत पर पहुंचा। ध्यान रहे, स्वयं के भीतर खोज की है भारतीय मनीषि ने, पदार्थ के भीतर नहीं। तो स्वयं के भीतर, आपका जो स्वयं का बोध है, वह ध्वनि का आखिरी हिस्सा है। जब तक आपको अपना बोध रहेगा, आपके भीतर ध्वनि का बोध रहेगा।

जितने आप भीतर गहरे उतरेंगे उतनी ध्वनि सूक्ष्म होती जाएगी..? सूक्ष्म होती जाएगी… सूक्ष्म होती जाएगी। एक घड़ी आखिरी आएगी जब बिलकुल शून्य रह जाएगा; शून्य की भी ध्वनि है— ‘साउन्डलेस साउष्ड’। उसको भारतीय मनीषि अनहद नाद कहते रहे हैं। वह जो नाद है—जबकि ऐसा मालूम पड़ता है जैसे शून्य आ गया। लेकिन शून्य का भी अपना सन्नाटा है, उसकी भी अपनी ध्वनि है। वह उस शून्य के सन्नाटे की आखिरी पकड है। मनुष्य की चेतना में खोज करने की वजह से जो आखिरी चीज मिलती है, निराकार में उतरने के पहले, वह ध्वनि है। इसलिए उनका कहना बिलकुल ठीक था कि अन्तिम तत्व ध्वनि होनी चाहिए।

वैज्ञानिक पदार्थ की खोज करके जिस आखिरी तत्व पर पहुंचते हैं जिसके आगे सब खो जाता है, निराकार आ जाता है, वह विद्युत कण है। सोचने जैसा यह है, कि पदार्थ का जो आखिरी कण. क्या चेतना का आखिरी —क्या उससे पहले होगा या पीछे.. या आगे होगा? निश्‍चित ही चेतना, पदार्थ से ज्यादा गहन वस्तु है। निश्‍चित ही चेतना, पदार्थ से ज्यादा रहस्यमय वस्तु है। और सम्भावना यही है कि चेतना का जो अन्तिम कण हो वह पदार्थ के अन्तिम कण से आगे हो। इसलिए भारतीय मनीषि ध्वनि को विद्युत कण से आगे रखने की दृष्टि से प्रस्तावित किए हुए हैं।

संगीत, कीर्तन, भजन, प्रार्थना, मंत्र, सब ध्वनि के उपयोग हैं। और प्रत्येक ध्वनि के साथ आपके भीतर एक स्थिति पैदा होती है। ऐसी कोई भी ध्वनि नहीं है जो आपके भीतर कोई स्थिति पैदा न कर जाती हो। सब ध्वनियां आपके भीतर एक स्थिति पैदा करती हैं। और अब तो साउण्‍ड इलेक्ट्रानिक पर काम करनेवाले वैज्ञानिकों का खयाल है कि अब तक हम इनकार किये वह ठीक नहीं था। अब तो बात जाहिर और साफ हो गई है, कि जिस पौधे में फूल महीने भर बाद आनेवाले हैं उसके पास अगर एक विशेष प्रकार का वाद्य बजाया जाए तो फूल महीनेभर पहले आ जाते हैं। जो गाय सेर भर दूध देती है उसके पास विशेष ध्वनि बजायी जाए तो उसका दूध बिलकुल खो जाता है, या दुगुना भी हो जाता है। असल में ध्वनि का आघात होता है आपकी चेतना पर। ध्वनि आघात करती है आपके भीतर जाकर। हम तलवार से आपकी सिर्फ गर्दन काट सकते हैं लेकिन ध्वनि की तलवार से आपके मन को भी काट सकते हैं। तलवार आपके मन को न काट पाएगी, लेकिन ध्वनि की धार ज्यादा तीक्ष्ण है जो मन को भी काट जाएगी।

ऐसी ध्वनि की तीव्र धारों के प्रयोग किए गए, जिनसे मन कट जाए, और साधक मिट जाए, भक्त मिट जाए और अनन्त की यात्रा पर निकल जाए। सभी धर्मों ने विशेष ध्वनियों कै प्रयोग किए हैं। विशेष ध्वनियों पर हजारों वर्ष की साधना से बड़े परिष्कार हुए।

अभी एक साधक मेरे पास जापान से था, वह जिस सम्प्रदाय में दो वर्ष साधना करके आ रहा था, वह है—सोटो झेन। उसमें साधक को मुंह मुंह—इस तरह की आवाज करवाई जाती है—चौबीस घण्टे। साधक खाना खा लेता है, विश्राम कर लेता है, बस इतना छोड्कर तीन बजे रात उठ आता है। खान करके बैठ जाता है मुंह.. मुंह… मुँह बोलता रहता है। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, आप कल्पना नहीं कर सकते कि क्या होगा, क्योंकि एक ध्वनि का कभी इतना प्रयोग नहीं किया है।

तीन दिन के बाद उस साधक के भीतर विचार क्षीण हो जाते हैं। मुंह और मुंह की ही आवाज भीतर गूंजने लगती है। एक तूफान भीतर पैदा हो जाता है मुंह… मुंह.. मुंह! सारे शब्द गिर जाते हैं। मुंह की ध्वनि तलवार बन जाती है तीन दिन में, और सब विचारों को काटकर गिरा देती है।

सात दिन पूरे होते—होते उस साधक को ‘मुंह’ की आवाज करनी नहीं पड़ती। वह चाहे बैठा हो, चाहे चल रहा हो, ‘मुंह’ की आवाज अपने आप चलने लगती है। वह उसके रोएं रोएं में व्याप्त हो जाती है। खाना खाना मुश्किल हो जाता है उसको, क्योंकि जब वह खाना खा रहा है तब भी मुंह—मुंह—मुंह की आवाज चल रही है। नींद सात दिन के बाद कठिन हो जाती है, क्योंकि वह सो रहा है लेकिन ओंठ उसके मुंह—मुंह—मुंह में लगे हुए हैं। नींद में वह आवाज उसके भीतर घुसती जा रही है।

इक्कीस दिन पूरे होते—होते वह साधक शेरों की तरह दहाड़ने लगता है—मुं. ह.! और चिल्लाने लगता है। उसकी आंखें बदल जाती हैं। उसका चेहरा बदल जाता है, उसका ढंग बदल जाता है। वह बिलकुल रोरिग….. सिंहनाद करने लगता है— ‘मुंह’ का। और गुरु उसको लगाए रखता है कि वह जारी रखे। जैसे ही सिंहनाद शुरू होता है वैसे ही गुरु उससे कहता है, जोर—जोर से, और जोर से। फिर खाना, पीना, सोना, बन्द हो जाता है। खा ही नहीं सकता, गैप ही नहीं रखता— ‘मुंह’ की आवाज चलती ही रहती है।

चौथे सप्ताह में उसकी नींद, उसका भोजन, उसका खान सब विदा हो जाता है—सिर्फ ‘मुंह’ की आवाज चलती रहती है। वह बिलकुल पागल हो जाता है। ठीक उस जगह पहुंच जाता है जहां पागल आदमी मुश्‍किल से कभी पहुंचता है। उस किनारे पर, जहां उसको कोई होश नहीं है, सिर्फ एक आवाज ‘मुंह’ रह गई है। उससे पूछो नाम तुम्हारा, वह कहेगा—मुंह। एक महीना निरन्तर ऐसा करते उसे अपने शरीर का बोध नहीं रह जाता, बल्कि एक ध्वनि का बोध भर रह जाता है। मैं कौन हूं उसे पता नहीं रहता। उस पर सब पाबंदी रखनी पड़ती है, उसको रोककर रखना पड़ता है, वह कहीं भी जा सकता है, वह कुछ भी कर सकता है। अब उसे कुछ भी पता नहीं है, अब उस पर चौबीस घण्टे विजिल, पहरा रखना पड़ता है।

जिस दिन से उसमें सिंह की आवाज शुरू होती है और खाना—पीना, नींद बन्द हो जाती है, उस दिन से उस पर पूरा पहरा रखना पड़ता है। अचानक आखिरी क्षणों में वह आखिरी आवाजें लगाता है। इतनी भयंकर आवाजें लगाता है कि जिसका कोई हिसाब हम नहीं लगा सकते। जितनी शक्ति होती है वह सारी आवाज में ही निकलती है। जैसे भीतर कोई घाव खुल गया या भीतर कोई प्रेत जग गया है, और वह आवाजें लगाए चला जाता है। आखिरी हुंकार जैसे ही उसकी हो जाती है वैसे ही सब शान्त हो जाता है। जैसे लहर उठी तूफान की आखिरी छलांग लेकर, और गिर गई। जैसे आखिरी क्लाइमेक्स आ गया, आखिरी चरम स्थिति आ गई, और सब चीजें बिखर गयीं। फिर वह आदमी गिर जाता है।

कभी सात दिन, कभी पन्द्रह दिन, और कभी इक्कीस दिन भी वह बिलकुल शान्त पड़ा रहता है। हाथ—पैर भी नहीं हिलाता, सब शान्त हो जाता है। और जब सात दिन, या चौदह दिन या पन्द्रह दिन बाद वह आदमी वापस लौटता है तो वह वही आदमी नहीं होता, वह दूसरा ही आदमी होता है।

तब वे कहते हैं, ‘द ओल्ड मैन हैज डाइड’, वह पुराना आदमी मर गया, अब वह नया आदमी है। इसमें कुछ भी पुराना नहीं खोजा जा सकता है—न इसका क्रोध, न इसका काम, न इसका लोभ, उसका कुछ भी पुराना आदमी नहीं खोजा जा सकता। यह बिलकुल नया आदमी है। इस कष्टी जीव से, पुराने से इसका सातत्य टूट गया है। ‘मुंह ‘ के प्रयोग से, ध्वनि के इतने तीव्र आह्वान से, पूरी चेतना का रूपांतरण हो गया। ओम् भी वैसे ही ध्वनि है।

सारी दुनिया के सब धर्मों के पास अपनी ध्वनियां हैं, जो पूजा में उपयोग की जाती हैं। उनकी पूजा में जैसे—जैसे गहराई बढ़ती जाती है वैसे—वैसे भीतर ध्वनि की चोट से रूपान्तरण होने शुरू हो जाते हैं। भजन, कीर्तन भी विशेष ध्वनियों के आधार हैं, और इसीलिए पुनरुक्ति पर जोर है। अगर आपने एक भजन एक दिन किया, दूसरे दिन दूसरा भजन किया, तीसरे दिन तीसरा भजन किया तो परिणाम नहीं होंगे। सतत चोट चाहिए, एक ही केन्द्र पर सतत चोट चाहिए! जैसे कोई आदमी एक हथौड़ी से कील एक जगह ठोंक दे, फिर दूसरी जगह ठोंक दे, फिर तीसरी जगह ठोंक दे तो उससे कोई उसकी कील ठुकने वाली नहीं है।

एक आदमी एक जगह कुआं खोद ले दो फीट, दो फीट दूसरी जगह खोद ले और तीसरी जगह खोद ले, उससे कोई कुंआ खुदने वाला नहीं है। सतत एक ही बिन्दु पर खुदाई होनी चाहिए, इसलिए पुनरुक्ति पर इतना आग्रह रहा है। इतना आग्रह कि एक महीने भर आदमी ‘मुंह’ और ‘मुंह’ की पुनरुक्ति कर रहा है, या ओम् की ध्वनि लगा रहा है। एक ही गीत की कड़ी को दोहराए चला जा रहा है, एक ही धुन को किए चला जा रहा है।

इसमें खतरा भी है कि अगर इसको मैकेनिकल, यांत्रिक ढंग से किया तो मेहनत बेकार चली जाएगी। लेकिन अगर इसको पूरे प्राण डालकर किया. अगर यों ही आदमी बैठा हुआ मु… मु.. मु करता है, जैसे एक काम कर रहा है तो कुछ परिणाम नहीं होगा। यह ‘मुंह’ इसका प्राण बन जाए, जीवन—मरण का सवाल बन जाए, यह दांव लगा दे अपना सब, यह आवाज ऐसी मुंह से न कर दे। इस आवाज में इसके शरीर का रोया—रोया सम्मिलित हो जाए, इसके एक—एक सेल, एक—एक कोष्ठ की ऊर्जा इसमें लग जाए, इसकी एक—एक स्रायु इसमें संयुक्त हो जाए, खून इसका पुकारने लगे, हड्डियां, मांस—पेशी एक एक चिल्लाने लगे! इसका पूरा का पूरा अस्तित्व ‘मुंह’ की आवाज बन जाए तो ध्वनि के द्वारा परिणाम हो पाएगा।

भक्त भी एक ही कड़ी दोहराए चला जाए वर्षों तक। वह एक ही क्ली दोहराने का प्रयोजन है। चोट करनी है एक ही जगह, और चोट करते ही चले जाना है जब तक कि द्वार खुल ही न जाए। और द्वार खुल जाता है।

पूजा में ध्वनि का, नृत्य का, कीर्तन का इन सबका उपयोग हुआ है और इन सबका उपयोग मूर्ति के सामने है। ताकि किसी भी क्षण यह खयाल न भूल जाए। क्योंकि अकेला नृत्य एक बात है, वह तो नर्तक भी कर रहा है, नर्तकी भी कर रही है, उसको कोई परम ज्ञान उपलब्ध नहीं हो जाता। वह नृत्य के लिए ही नृत्य कर रहा है, तब कोई परम ज्ञान से संबंध न होगा।

यह मूर्ति के सामने चल रहा है सारा क्रम।, उस मूर्ति के सामने चल रहा है जिसमें अपने प्राण डाल दिए है। वह मूर्ति चौबीस घण्टे स्मरण दिलाती रहेगी कि नृत्य के लिए नृत्य नहीं है, यह नृत्य तो परिधि पर है, केन्द्र तो वहां है—केन्द्र तो तू है, उसके लिए सारा नृत्य चल रहा है।

यह स्मरण बना ही रहे पूरे वक्त कि यह नृत्य मूर्ति के आस—पास चल रहा है। यह नृत्य के लिए नृत्य नहीं है, यह किसी परम सत्ता में छलांग लेने की तैयारी है। वह मूर्ति सतत स्मरण दिलाती रहेगी तो ही, अन्यथा नाच नाचनेवाले हैं, वह गीत गानेवाले हैं, भक्तों से बहुत अच्छा गीत गा लेते हैं। उससे कुछ भी न होगा। गानेवाला गाने के लिए गाता है—प्रयोजन गीत है, या प्रयोजन संगीत है। भक्त को संगीत से प्रयोजन नहीं है, भक्त को गीत से प्रयोजन नहीं है, भक्त को राग बिठालने से प्रयोजन नहीं है, भक्त को प्रयोजन कुछ और है।

वह प्रयोजन यह है कि वह इतना मस्त हो जाए, वह इतना छोड़ पाए अपने को, कि कोई भी हो, कोई भी धारा उसे बहा ले जाए अनन्त की तरफ। वह परिधि बन जाए और केन्द्र कोई और बन जाए और वह बह सके, प्रवाहित हो सके। यह सब प्रवाहित होने के लिए एक लिक्किडिटी पैदा हो सके उसमें, सब तरल हो जाए और बहने लगे।

अकसर आपको भक्त रोता हुआ मिल जाएगा, वह दुख से नहीं रोता है, आनन्द से रोता है। और आंसू भीतर जब कुछ तरल होता है तभी बहते हैं—चाहे दुख में तरल हो जाए, चाहे सुख में तरल हो जाए। भीतर जब सब कुछ तरल हो जाता है तभी आंसू बहने शुरू हो जाते हैं। अभी तक वैज्ञानिक ठीक से नहीं बता पाए हैं कि आंसुओ का प्रयोजन क्या है आदमी के शरीर में? ज्यादा से ज्यादा जो खोज पाए है, वह इतना ही खोज पाए हैं कि आंख पर जो धूल वगैरह जम जाती है, उसकी सफाई का प्रयोजन दिखायी पड़ता है। और कोई प्रयोजन नहीं दिखायी पड़ता इन ग्रंथियों का आंख के भीतर। जो आंसुओ की ग्रन्धियां हैं। उनका एक ही प्रयोजन मालूम पड़ता है—आंख की सफाई कर सकें।

लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि आंख की सफाई की जरूरत तभी पड़ती है जब कोई आनन्द में होता है या दुख में होता है! बाकी समय आंख पर धूल नहीं जमती। बाकी समय आंख की सफाई की कोई जरूरत नहीं पड़ती। जब भी भीतर ओव्हरफ्लोइंग होती है, कुछ अतिरेक हो जाता है—चाहे दुख का, चाहे सुख का, तभी आंसू बहना शुरू हो जाता है।

ये आंसू की ग्रनथियां तभी खुलती है जब भीतर कुछ तरल हो जाता है, और बहना शुरू हो जाता है। भक्त भी रोये, पर भक्तों का रोना बहुत अलग है। कोई गैर भक्त नहीं जान सकता कि भक्त क्यों रोये! क्या हुआ उनके भीतर कि वे रो रहे हैं। आप देखेंगे, तो शायद लगेगा कि कोई तकलीफ है जीवन में, तो भगवान के सामने हाथ जोड़कर रो रहे हैं। जो तकलीफ से भगवान के सामने रो रहा है वह तो अभी केन्द्र खुद है, वह अभी भक्त नहीं है, अभी उसे पूजा का कोई पता नहीं है। नहीं, लेकिन एक क्षण ऐसा आता है कि जब चेतना बिलकुल तरल हो जाती है, सब ठोसपन—फ्रोजननेस.. जहां—जहां जम गये हैं भीतर हम, वह सब मिट जाता है, पिघल जाता है। बर्फ के टुकड़े नहीं रह जाते भीतर, तरल पानी हो जाता है, बहाव आ जाता है। तब आसुंओं की धारा अविरल शुरू हो जाती है। वह आंसू किसी परम अनुकम्पा को धन्यवाद देने के लिए बहते हैं—किसी परम प्रसाद को, किसी ‘पेस’ को। कुछ जो उतरना शुरू हुआ है, उसको देने के लिए हमारे पास आंसुओ के सिवाय और कुछ भी नहीं बचता।

वह जो हमें मिला है, उसकी हममें कोई पात्रता नहीं है! जो आनन्द उतरना शुरू हुआ है उसको सम्हालने की भी हमारे पास कोई जगह नहीं है! जो बरस रहा है हमारे ऊपर, वह हम कभी सोच भी नहीं सकते, सपने में भी, कि हमें कभी मिल पाएगा। अब उसको धन्यवाद देने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं है, न शब्द धन्यवाद दे पाएंगे कुछ भी। उस वक्त आंख एक अलग ही ढंग से रोती है।

भक्त की आंख जैसी रोयी है वैसी कभी किसी की आंख नहीं रोयी है। प्रेमी की आंख भी रोती है, पर उसमें वह बात नहीं होती। प्रेमी की आंख में भी बहुत तरह की क्षुद्रताएं इकट्ठी हो जाती हैं, लेकिन भक्त की आंख अकारण ही रोती है। कोई प्रयोजन नहीं है, अब कोई उपाय नहीं है, निरुपाय है भक्त। वह परमात्मा को धन्यवाद देना चाहे तो मुंह से शब्द नहीं निकलता, और जब मुंह नहीं बोलता तब आंख अपने ढंग से बोलना शुरू करती है। पूजा की पूर्णता आंसुओं में है, तरलता में है, बह जाने में है!

बहुत ढंगों से, बहुत प्रकार से मूर्ति का उपयोग इस परम अनुभूति के लिए किया गया है। जो मूर्ति के खिलाफ बोलते हैं उन्हें पूजा का कोई पता नहीं होता। और तब ठीक है, उनके बोलने का उतना ही उपयोग है जितना किसी भी अज्ञानी के बोलने का कोई उपयोग हो सकता है। लेकिन इस सदी में उस तरह की बातें बहुत प्रभावी हो गयी हैं, क्योंकि और लोगों को भी कोई पता नहीं है। और जब किसी को भी कोई पता न हो तो जो भी हमें कहा जाए उसे स्वीकार करने के सिवाय और कोई चारा नहीं रह जाता।

और मन का एक नियम है—निषेध की बात को जल्दी स्वीकार कर लेता है, क्योंकि निषेध की बात में कुछ सिद्ध नहीं करना पड़ता है। एक आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है, तो उसे कुछ भी सिद्ध नहीं करना। वह सदा कह सकता है। जो कहता है, ‘है’ वह सिद्ध करके बता दे। ‘नहीं है’ कहने के लिए कोई भी तो सिद्ध करने की चेष्टा नहीं करनी पड़ती। ‘है’ —तो फिर सिद्ध करने की चेष्टा करनी पड़ती है! इसलिए निषेध को स्वीकार करने के लिए मन बड़ी जल्दी राजी हो जाता है। विधेय को स्वीकार करने के लिए मन बड़ी बाधा डालता है, क्योंकि मन को फिर श्रम उठाना पड़ता है। पूजा एक विधेय है, मूर्ति भी एक विधेय है। इनकार करना हो, कोई कठिनाई नहीं है, कह दो कि नहीं है।

तुर्गनेव ने एक छोटी—सी कहानी लिखी है। लिखा है कि गांव में एक आदमी था—बहुत बुद्धिमान आदमी था, बहुत प्रतिभाशाली आदमी था। उसी गांव में एक महामूढ़ भी था। उस महामूढ़ ने इस बुद्धिमान आदमी से जाकर पूछा कि मुझे भी बुद्धिमान होने का कोई रास्ता बता दो। उस बुद्धिमान आदमी ने पूछा कि तुझे बुद्धिमान दिखना है, कि होना है। क्योंकि ‘होने’ का रास्ता बहुत लंबा है। ‘दिखना’ हो तो बहुत आसान है मामला। उसने कहा, आसान ही बताइए, कठिन अपने से न हो सकेगा। होने की झंझट छोड़िए, दिखना काफी है, दिखने से काम चल जाएगा।

उस बुद्धिमान आदमी ने कहा कि होने में तो कभी भूल—चूक भी हो सकती है, लेकिन दिखने में कभी भूल—चूक नहीं होगी। उस महामूढ़ ने कहा, फिर और भी अच्छा है, आप देर न करिए। उस बुद्धिमान आदमी ने उसके कान में एक मंत्र बोल दिया और उस दिन से गांव में खबर होनी शुरू हो गयी कि वह आदमी बुद्धिमान हो गया। सच ही सारे गांव में खबर फैलने लगी—दूसरे दिन से, सुबह से चर्चा सारे गांव में चलने लगी। क्या मंत्र फूंक दिया! एक छोटा—सा मंत्र, एक निषेध का सूत्र उसे दे दिया।

उसने कहा, जब भी कोई कुछ कहे, फौरन इनकार करो। जैसे कोई कहे कि शूतैं—पूजा में कुछ है, कहो कि कुछ भी नहीं है। बोलो, कहां है! उस आदमी ने पूछा, अगर मुझे पता न हो तो भी? तू पते की फिक्र ही मत कर। तू सिर्फ इनकार करते जाना। कोई कहे कि कालिदास की किताब बहुत अदभुत है। तू कहना, कचरा है—क्या है उसमें? सिद्ध करो! कोई कहे, बिथोवन का संगीत परम स्वर्गीय है, तू कहना कि नर्क में भी ऐसा संगीत बजता है। तुम सिद्ध करो कि स्वर्ग का कैसा है! तू बस एक बात याद रख, इनकार करना और जो गड़बड़ करे, उससे कहना सिद्ध करो।

पंद्रह दिन में वह आदमी गांवभर में महाबुद्धिमान हो गया। लोगों ने कहा, उसका ओंर—छोर पाना कठिन है। किसी ने कहा कि शेक्सपीयर ने इतने सुंदर गीत लिखे। उसने कहा, क्या रखा है, कचरा है। स्कूल के बच्चे लिख सकते हैं। जो शेक्सपीयर की तारीफ कर रहा था, वह डर गया। क्योंकि कुछ भी सिद्ध करना कठिन बात है। और कुछ भी असिद्ध करने से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं है।

हमारी यह सदी बहुत अर्थों में कई तरह की मूढ़ताओं की सदी है। हमारी छूता का जो सबसे बड़ा आधार है वह निषेध है। पूरी सदी कुछ भी इनकार किए चली जाती है। और दूसरे भी सिद्ध नहीं कर पाते तब वे भी निषेध की धारा में खड़े हो जाते हैं। लेकिन ध्यान रहे, जितना निषेधात्मक होगा जीवन, उतना ही क्षुद्र हो जाएगा। क्योंकि इस जगत क। कोई भी सत्य विधेयक हुए बिना उपलब्ध नहीं होता। जितना निषेधात्मक होगा जीवन उतना बुद्धिमान ऊपर से दिखायी पड़ेगा, भीतर बहुत बुद्धिहीन हो जाएगा।

जितना निषेधात्मक होगा जीवन, उतनी ही सत्य की, सौंदर्य की, आनंद की, किसी की किरण भी नहीं उतरेगी। क्योंकि कोई भी महत्तर अनुभव विधायक चित्त में ही अवतरित होता है। निषेधात्‍मक चित्त में कोई भी महत्वपूर्ण अनुभव अवतरित नहीं होता। असल में जिसने कहा, नहीं, उसका मन बंद हो जाता है।

कभी शब्द का खयाल किया है आपने? अपने कमरे को बंद करके जोर से कहकर देखना, ‘नहीं’ —तब आपको पता चलेगा, सारा हृदय सिकुड़कर बंद हो गया है। और उसी कमरे में जोर से कहना— ‘हां’ और आपको पता लगेगा, सारे हृदय ने पंख खोलकर जैसे आकाश में उड़ान ली है।

शब्द ऐसे ही निर्मित नहीं होते हैं। उनकी समानांतर घटना भीतर घटती है। ‘नहीं’ कहते ही भीतर कोई चीज बंद हो जाती है और सिकुड़ जाती है। और ‘हां’ कहते ही कोई चीज खुल जाती है।

सेंट अगस्टीन से किसी ने पूछा, क्या है तेरी प्रार्थना, क्या है तेरी पूजा? तो सेंट अगस्टीन ने कहा, यस, यस, यस माई लॉर्ड! इतनी ही मेरी पूजा है। हां, हां, हां मेरे प्रभु! इतनी ही मेरी पूजा है। इतनी ही मेरी प्रार्थना है। वह तो नहीं समझा होगा कि वह क्या कह रहा है, लेकिन जो हृदय इस पूरे जीवन को ‘हां’ कहने के लिए तैयार हो जाए वह आस्तिक है।

आस्तिकता का अर्थ ईश्वर को ‘हां’ कहना नहीं, ‘हां’ कहने की क्षमता है। नास्तिक का अर्थ ईश्वर को इनकार करना नहीं, नास्तिक का अर्थ, ‘न’ के अतिरिक्त किसी भी क्षमता का न होना। बस, एक ही क्षमता, ‘नहीं’ —तो ठीक है—वैसा आदमी सिकुड़ता जाएगा, सिकुड़ता जाएगा और सड जाएगा। ‘हां’ —और वैसा आदमी खुलता है, और खुलता है, फैलता है और विराट तक उसकी उड़ान संभव हो पाती है।

मूर्ति—पूजा एक बहुत विधायक विधि, एक पोजिटिव उपाय है। पर इतनी बातें सोचकर, समझकर गहरे उतरेंगे तब आपको पता चलेगा कि मूर्ति में, पूजा में, मूर्ति—पूजा में.. मूर्ति तो कहां है? पूजा ही है! मूर्ति तो बस शुरुआत है। और एक पूजा परमात्मा की है, यह भी ठीक है, लेकिन गहरे में तो आपका ही रूपांतरण है। परमात्मा तो बहाना है—उस बहाने, अपने को बदलने में सुविधा मिल जाती है। जिस डाक्टर रोडाल्फ की मैं बात कर रहा था शुरू में, इस आदमी ने एक और महत्वपूर्ण नियम खोजा है, वह मैं आपसे कहूं जो इसके लिए उपयोगी होगा।

जब भी हमारे मस्तिष्क में कोई विचार पैदा होता है तो उस विचार को यात्रा करनी पड़ती है स्नायुओं से, मांसपेशियों से, शरीर के तंत्र से। समझ लो कि मेरे मन में विचार पैदा हुआ कि मैं आपको प्रेम करूं और आपका हाथ अपने हाथ में ले लूं। मेरे मस्तिष्क का यह विचार अपनी यात्रा शुरू करता है। और मेरे शरीर के बहुत से यांत्रिक ढांचे को पार करके मेरी हाथ की अंगुलियों तक आता है।

रोडाल्फ ने मनुष्य के स्नायुओं पर महत्वपूर्ण खोज करके यह पता लगाया है कि जब विचार पैदा होता है कि मैं प्रेम करूं और आपका हाथ अपने हाथ में ले लूं तब अगर उसको हम मान लें कि उसमें सौ शक्ति है, सौ की पोटेशियलिटी है तो उंगली तक पहुंचते—पहुंचते एक ही पोटेंशियलिटी रह जाती है। अगर हम सौ शक्ति मान लें उसमें तो उंगली तक आते एक शक्ति, निन्यान्नबे की शक्ति, बीच के स्न्‍नायुओं में जो ट्रांसफर होने की यात्रा है, उसमें खो जाती है। सभी विचार हमारे व्यक्तित्व की बाहरी पर्त तक आते—आते बिलकुल निर्जीव हो जाते है

इसीलिए तो जब मन में हम सोचते हैं कि किसी का हाथ प्रेम से हाथ में ले लें तब जितना सुखद मालूम पड़ता है, उतना सुखद तब नहीं मालूम पड़ता है जब हम हाथ में हाथ लेते हैं। तब ऐसा लगता है कि कुछ खास न हुआ। यह बात क्या हो गई? यह कुछ खास क्यों न हुआ?

एक आदमी संभोग के संबंध में सोचता रहता है, बड़ा सुख मन में पाता है। लेकिन संभोग के कृत्य में जाकर सिर्फ डिप्रेस्ट होकर लौटता है। पीछे से लगता है कि इसमें कुछ हुआ नहीं। बात क्या हो गयी? मस्तिष्क में जो विचार था वह सौ की पोटेशियलिटी का था। जब तक वह शरीर की परिधि तक आता है तब तक एक की पोटेशियलिटी रह जाती है। और कभी—कभी एक की भी नहीं रह जाती। और कभी—कभी नैगेटिव पोटेशियलिटी भी हो जाती है। अगर रुग्ण शरीर हो तो शरीर की यात्रा में इतनी शक्ति पी जाता है वह विचार कि पहुंचते—पहुंचते निगेटिव हो जाता है। यानी कई बार ऐसा हो जाता है कि जिसका हाथ—हाथ में लेकर सोचा था सुख मिलेगा, उसका हाथ लेकर सिर्फ दुख मिलता है—ऋणात्मक हो जाता है। रोडाल्फ का कहना है कि अगर यही स्थिति है तो आदमी कभी सुख न पा सकेगा।

क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है कि विचार मेरे मस्तिष्क से सीधी छलांग लगाकर आपके मस्तिष्क में प्रवेश कर जाए? धर्म कहता है, ऐसा उपाय है। और रोडाल्फ भी कहता है, उसके अपने हजारों प्रयोगों के आधार पर, कि विचार सीधी छलांग भी लगा सकते हैं। तब, मेरे मन में जो विचार उठा है वह मेरे पूरे शरीर की यात्रा करके मेरे शरीर के माध्यम से आप तक जाए, इस पूरी चैनल का, इस पूएर यंत्र का उपयोग नहीं किया जाता।

तब मैं अपने विचार को अपने आज्ञाचक्र पर आंख बंदकर के रोकता हूं और सीधा उसे छलांग लगाकर आपके आज्ञाचक्र में पहुंचाता हूं। सारी टेलीपैथी, सारा विचार का संक्रमण इसी कला पर निर्भर है। रोडाल्फ ने एक—एक हजार मील दूर तक विचार संक्रमित करके बताए, दूसरे प्रयोगों में।

रूस में हावर्ड ने, और दूसरे प्रयोगों में दूसरे लोगों ने भी बहुत दूर तक विचार का संक्रमण करके बताया। तब कुछ नहीं… अपने विचार को सिकुड़कर अपने आज्ञाचक्र पर इकट्ठा कर लेना है, जैसे कि कोई घूमता हुआ छोटा—सा सूर्य आपके विचार का बन गया और आपके मस्तिष्क में घूमने लगा हो भीतर। उसे छोटा करते जाना है, कन्सट्रेट… कन्सट्रेट—छोटे से छोटा, ताकि वह ज्यादा पोटेंशियल हो जाए। शरीर पर फैलता है तो पोटेशियलिटी कम हो जाती है। उसे इकट्ठा करते जाना है। बस एक छोटा—सा बिंदु रह जाए प्रकाश का, ऐसा अनुभव कर लेना है—कि मेरा विचार एक प्रकाश का छोटा—सा बिंदु रह गया, जितना छोटा कर सकें, उसे छोटा करते जाना। एक घड़ी आती है, जब वह इतना छोटा हो जाता है कि उसके आगे छोटा नहीं हो सकता, वहां घड़ी छलांग लगवा देने की घड़ी है! तब सिर्फ इतना खयाल करना है कि वह मस्तिष्क से छलांग लगाकर दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में चला गया है। वह दूसरा व्यक्ति चाहे कितनी ही दूर हो, सिर्फ आपकी कल्पना में होना चाहिए कि वह दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में प्रवेश कर गया, उसके आज्ञाचक्र पर चला गया। वह ट्रांसफर हो जाएगा! टेलीपैथी, विचार का संक्रमण बिना माध्यम के इस कला पर निर्भर है।

इसलिए बिंदु की साधना धर्म ने बहुत—बहुत रूपों में की है। बिंदु की साधना का यही वैज्ञानिक रूप है। इसका व्यक्ति में भी उपयोग कर सकते हैं और इसको हम परमात्मा के लिए भी उपयोग कर सकते हैं।

जैसे महावीर की मूर्ति रखकर आप बैठें। महावीर की तो चेतना खो गयी अनंत में। लेकिन इस मूर्ति के सामने अगर बैठकर आप अपनी, पूरे के पूरे प्राणों की ऊर्जा को आज्ञाचक्र पर इकट्ठा करके छलांग लगवा दें मूर्ति के मस्तिष्क में, तो तत्‍क्षण वह विचार महावीर की चेतना तक संक्रमित हो जाएगा। इस माध्यम से न मालूम कितने लोगों ने, न मालूम कितने पीछे आनेवाले लोगों को हजारों वर्ष तक सहायता पहुंचायी है। उनके लिए फिर बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट मरे हुए व्यक्ति नहीं रहते, जीवित व्यक्ति रहते है— अभी और यहीं। उनके लिए बात सीधी सामने होती है। और इसका प्रयोग सीधा परमात्म—शक्ति में छलांग लगाने के लिए भी किया जा सकता है। लेकिन परमात्मा का केन्द्र आप कहां खोजेंगे? इस अपने मस्तिष्क में इकट्ठे हुए बिंदु को आप कहां छलांग लगाकर भेजेंगे?

सरल पड़ेगा, एक मूर्ति के माध्यम से इसे संक्रमित कर देना। इसको अनंत में सीधा फेंकने में बड़ी कठिनाई होगी। फेंका जा सकता है अनंत में भी सीधा, लेकिन उसके अलग टेकनीक है। जिन धर्मों ने मूर्ति का प्रयोग नहीं किया उन धर्मों ने उन टेकनीकों का प्रयोग किया है जिनसे अनंत में सीधी छलांग लगाई जा सकती है, लेकिन अति कठिन है।

इसलिए जो धर्म मूर्ति का प्रयोग नहीं करते वे थोड़े—बहुत दिन में घूम—फिरकर मूर्ति का प्रयोग शुरू कर देते है। अब जैसे कि इस्लाम ने मूर्ति का प्रयोग नहीं किया, लेकिन मस्जिद का प्रयोग शुरू हो गया। फकीरों की मजारें बन गयीं, फकीरों की समाधियां बन गयीं—उनका प्रयोग शुरू हो गया। आज भी मुसलमान दुनिया के किसी भी कोने में प्रार्थना करता है तो काबा के पत्थर की तरफ चेहरा करता है, अभी भी। वह काबा का जो पत्थर है वह इस बिंदु को उछालने के लिए काम में लाया जाने लगा—जों जानते है सिर्फ! जो नहीं जानते, वे तो सिर्फ मुंह करके खड़े हो जाते है। ऐसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि काबा पत्थर पर बिंदु को फेंका जाए कि किसी मूर्ति पर फेंका जाए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मूर्ति के चरण चूमे जाएं कि काबा के पत्थर का जाकर बोसा लिया जाए। कोई फर्क नहीं पड़ता, एक ही बात है।

मुहम्मद का कोई चित्र नहीं रखा, मुहम्मद की कोई मूर्ति नहीं बनाई, तो उससे क्या फर्क पड़ता है? दूसरा काम करना पड़ा। यह बड़े मजे की बात है, मुहम्मद का चित्र नहीं बनाया, मूर्ति नहीं बनायी; तो फिर बहुत छोटे फकीरों की मजारों पर फूल चढ़ाने पड़ते है। मुहम्मद के बराबर का सब्स्‍टीट्यूट नहीं खोजा जा सका फिर।

तो अगर कृष्ण आशा देते हों कि कोई फिक्र नहीं, मेरी मूर्ति के चरणों में तू आ जा, तो मैं मानता हूं कि बहुत दूरगामी हैं वे। क्योंकि कृष्ण की समझ यह है कि आदमी मूर्ति से तो बच न सकेगा। अनंत में सीधी छलांग लगानी इतनी दुष्कर है कि कभी करोड़ में एक आदमी लगाएगा। बाकी करोड़ का क्या होगा? अगर कृष्ण की मूर्ति न मिली तो क—ख—ग की मूर्ति मिलेगी जो बिलकुल ही साधारण होगी।

मुहम्मद की मूर्ति से बचने का परिणाम क्या हुआ है? परिणाम यह हुआ है कि गांव में एक फकीर मर जाता है तो उसकी मजार पर मुसलमान इकट्ठा होने लगते हैं। उसमें मुसलमान का कसूर नहीं है, उसमें मनुष्य की वह जो आंतरिक सुविधा है, वही है कारण। मैं भी मानता हूं कि मुहम्मद की मूर्ति से जो पैदा हो सकता वह इस मजार से नहीं हो सकता। हालांकि मुहम्मद जो कह रहे थे, बिलकुल ठीक कर रहे थे कि मूर्ति की कोई जरूरत नहीं है।

मगर करोड़ में एकाध आदमी के लिए वह बात ठीक है। और जिस आदमी के लिए वह बात ठीक है उस आदमी के लिए किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। मूर्ति की नहीं, उसके लिए काबा की भी कोई जरूरत नहीं, उसके लिए कुरान की भी कोई जरूरत नहीं, उसके लिए इस्ताम की भी कोई जरूरत नहीं, गीता की भी कोई जरूरत नहीं, कृष्ण की, बुद्ध की, किसी की भी कोई जरूरत नहीं। उस आदमी के लिए तो सभी कुछ बेकार है। वह सीधा ही जा सकता है। पर बाकी सबके लिए? बाकी सबके लिए सबकी जरूरत है! और उचित यह होगा कि श्रेष्ठतम मिले उन्हें।

जब जरूरत ही है तो उचित होगा कि बजाय हम किसी फकीर की मूर्ति बनाएं गांव के एक अच्छे आदमी की मूर्ति और मजार पूजे, उससे बेहतर है कि बुद्ध या कृष्ण या मुहम्मद या महावीर जैसे व्यक्ति की मूर्ति से यात्रा हो। जब जाना ही है सागर में, तो गांव की बनी डोंगी में यात्रा करना खतरे से खाली नहीं है। तब फिर विशाल पोत में, बड़े जहाज में यात्रा की जा सकती है। जब बुद्ध को नाव उपलब्ध होती हो, तो किसी आदमी ने गांव में ताबीज निकाल दिए हों, या किसी आदमी के आशीर्वाद से कोई बीमार ठीक हो गया हो, उसकी मजार पर इकट्ठा होना बिलकुल पागलपन है।

लेकिन अगर बुद्ध की मूर्ति उपलब्ध न होगी तो आदमी की जरूरत है भीतरी, कि वह कोई दूसरा सन्सील्यूट खोजेगा। ऊपर से दिखाई पडता है कि जिन लोगों ने इनकार कर दिया उन्होंने बड़ी ऊंची बात की। लेकिन् हजारों, लाखों साल का अनुभव था, जिन्होंने इनकार नहीं किया था, उनके साथ भी—उनके साथ भी अनुभव था कि आदमी को जरूरत पड़ेगी ही। वह आदमी की भीतरी कठिनाई है कि वह अनंत पर सीधा नहीं जा सकता, उसे एक बीच में पड़ाव चाहिए। वह पड़ाव जितना श्रेष्ठतम मिल सके उतना बेहतर है।

मूर्ति, दुनिया में ऐसा कोई समाज नहीं रहा आज तक अस्तित्व में, जहां निर्मित न हुई हो। एक भी मनुष्य जाति का कोई कबीला नहीं रहा कहीं, किसी भी कोने में, जहां किसी न किसी भी रूप से मूर्ति निर्मित न हुई हो। स्वभावत: इससे पता चलता है कि मनुष्य की, मनुष्यता की कोई आंतरिक जरूरत मूर्ति से पूरी होती है। सिर्फ हमारी सदी है, जिसे मूर्ति का खयाल टूटना शुरू हुआ है इन दौ सौ, ढाई सौ वर्षों में। मूर्ति, ऐसा मालूम होने लगी है कि वह व्यर्थ का बोझ है—उसे हटा दिया जाए। लेकिन हटाने के पहले अगर मूर्ति—पूजा का पूरा खयाल साफ हो जाए तो मैं नहीं सोचता हूं कि इस जगत में कोई बुद्धिमान आदमी उसे हटाने को राजी होगा। हां, अगर मूर्ति—पूजा का वितान ही खयाल में न रह जाए तो मूर्ति हटानी ही पड़ेगी, उसे बचाया नहीं जा सकता। वह अपने आप ही गिर जाएगी।

आज लोग पूजा भी कर रहे हैं बिना जाने, मूर्ति के सामने हाथ भी जोड़ रहे हैं बिना जाने। कोई हृदय का भाव नहीं रह गया है, सिर्फ औपचारिकता रह गई है। यह औपचारिक लोग ही मूर्ति को मिटवाने का कारण बनेंगे! क्योंकि यह मूर्ति भी पूज आते हैं और इनकी जिंदगी में तो कोई फर्क पैदा नहीं होता! यही खबर लाते हैं कि बेकार है।

एक आदमी चालीस साल से मूर्ति—पूजा कर रहा है और कुछ भी नहीं हो रहा है। वह अपने बेटे को कह रहा है कि तू भी मंदिर चल। वह बेटा पूछने लगा है कि आपको कुछ भी नहीं हुआ है चालीस साल में, आप मुझे कहां और किसलिए ले जाना चाहते हैं? कोई जवाब भी नहीं है उनके पास, क्योंकि हुआ हो तो जवाब की जरूरत नहीं रहती।

सुना है मैंने, ईसप की कथा है एक छोटी—सी, एक सिंह जंगल में एक—एक जानवर से पूछ रहा है—पूछता है एक भालू से कि क्या खयाल है तुम्हारा? जंगल का मैं राजा हूं न? भालू कहता है बिलकुल ही, निश्‍चित ही। कौन इस पर शक कर सकता है? और यही पूछता है एक चीते से। चीता थोड़ा—सा संकोच खाता है। फिर कहता है, नहीं, ठीक ही है बात, बिलकुल ठीक है। आप राजा हैं।

पूछता है वह फिर एक हाथी से। हाथी उसे उठाता है अपनी सूंड में और लपेटकर बहुत दूर फेंक देता है। सिंह नीचे गिरकर वहां से कहता है कि महाशय, अगर आपको जवाब का पता नहीं है तो सीधा मना क्यों नहीं कर देते हैं, फेंकने की क्या जरूरत है? सीधे ही कह दिया होता, इतनी तकलीफ की क्या जरूरत थी? कि आपको मालूम नहीं है, मैं चला जाता! मगर जो हाथी फेंक सकता है उठाकर, वह उसके जवाब देने बैठे!

कौन राजा है, इसके जवाब थोड़े ही देने पड़ते हैं। जो मूर्ति को पूज रहा है उसको जवाब न देना पडे, अगर उसको पूजा का पता हो। उसकी जिंदगी जवाब है। उसकी आंख, उसका उठना, उसका बैठना, वह जवाब बन जाए। लेकिन उसको जवाब देने पड़ते हैं… जवाब देने पड़ते हैं! वे जवाब कुछ भी नहीं हैं। ऐसे ही लोग जो मूर्ति को पूज रहे हैं, मूर्ति को हटवाने का कारण बन गए हैं। पूजा का ही पता नहीं है, बस हाथ में मूर्ति रह गयी है।

इसलिए मैंने पूजा की बात आपसे कही, कि उसे समझ लें, वह इनर टोटल ट्रांसफामेंशन है! अंतर समग्रता से परिवर्तन की व्यवस्था है! मूर्ति तो सिर्फ बहाना है—जैसे किसी खूंटी पर कोई कोट टांग दे—टांगना है कोट! आप मुझे देख लें कि खूंटी पर कोट टांग रहा हूं और आप मुझसे कहने लगे, कि क्या पागलपन है, इस खूंटी से क्या होगा? तो मैं आपसे कहूंगा कि खूंटी से कोई प्रयोजन नहीं है। यह तो कोट टांगने की व्यवस्था है। खूंटी नहीं होती तो फिर किसी खोली पर टांगते, दरवाजे की नोक पर टांगते। वह तो टांगना पड़ेगा। लेकिन कोट टांगते वक्त आपको कोट दिखायी पड़ता है, खूंटी दिखायी नहीं पड़ती; इसलिए आप झंझट खड़ी नहीं करते और सवाल नहीं उठाते।

मूर्ति तो खूंटी है, पूजा है असली चीज, लेकिन मूर्ति—पूजा के वक्त आपको पूजा तो दिखायी नहीं पड़ती, कोट तो दिखायी नहीं पड़ता, खूंटी दिखायी पड़ती है। आप कहते हैं, क्यों दीवार खराब कर रखी है? किसलिए रोक रखा है इस खूंटी को? कोट हो गया अदृश्य खूंटी रह गयी है दृश्य। पूजा का कोई भी पता नहीं है आपके पास! मूर्ति बैठी रह गयी है, तो मूर्ति बड़ी असहाय हो गयी है और बड़ी पराजित हो गयी है। और बच न सकेगी, क्योंकि पूजा का प्राण ही उसे बचा सकता है। इसलिए मैंने पूजा की बात आपसे कही।

‘गहरे पानी पैठ’ :

(अंतरंग चर्चा)

बुडलैंड बम्बई,

दिनांक 16 जून 1971

 


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–12)

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कर्म-सिद्धांत: महावीर-व्याख्या—(प्रवचन—बारहवां)

हली बात तो टंडन जी पूछते हैं, उसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। सामायिक के लिए मैंने जो कहा और वीतरागता के लिए जो कहा, वह बिलकुल समान प्रतीत होगा। क्योंकि सामायिक मार्ग है, वीतरागता मंजिल है। सामायिक द्वार है, वीतरागता उपलब्धि है। और साधन और साध्य अंततः अलग-अलग नहीं हैं, क्योंकि साधन ही विकसित होते-होते साध्य हो जाता है।

तो वीतरागता में परम अभिव्यक्ति होगी उसकी, जिसे सामायिक में धीरे-धीरे उपलब्ध किया जाता है। सामायिक में पूरी तरह थिर हो जाना वीतरागता में प्रवेश है।

वे यह भी पूछ रहे हैं कि स्थित-धी या स्थित-प्रज्ञ कृष्ण ने जिसे कहा है, क्या वह वही है, जो वीतराग है?

निश्चित ही, वह वही है। दोनों शब्द बड़े बहुमूल्य हैं। वीतराग का मतलब है, सब द्वंद्वों के पार जो चला गया, सब दो के पार जो चला गया, एक में ही जो पहुंच गया। अब ध्यान रहे, स्थित-धी या स्थित-प्रज्ञ का अर्थ है, जिसकी प्रज्ञा ठहर गई, जिसकी प्रज्ञा कंपती नहीं। प्रज्ञा उसकी कंपती है, जो द्वंद्व में जीता है। दो के बीच में जो जीता है, वह कंपता रहता है–कभी इधर, कभी उधर। जहां द्वंद्व है, वहां कंपन है। जैसे कि एक दीया जल रहा है, तो दीए की लौ कंपती है, क्योंकि हवा कभी पूरब झुका देती है, हवा कभी पश्चिम झुका देती है। तो दीया कंपता रहता है। दीए का कंपन तभी मिटेगा, जब हवा के झोंके न हों, यानी जब इस तरफ, उस तरफ जाने का उपाय न रह जाए, दीया वहीं रह जाए, जहां है।

तो कृष्ण उदाहरण ही लिए हैं कि जैसे किसी बंद भवन में, जहां हवा का कोई झोंका न जाता हो और दीया थिर हो जाता है ऐसे ही जब प्रज्ञा, विवेक, बुद्धि थिर हो जाती है और कंपती नहीं, डोलती नहीं, तब वैसा व्यक्ति स्थित-धी है, वैसा व्यक्ति, जिसकी बुद्धि थिर हो गई, स्थित-प्रज्ञ है।

वीतराग का भी यही मतलब है, क्योंकि वीतराग का मतलब है कि राग और विराग का द्वंद्व जहां खो गया। जहां द्वंद्व खो गया, वहां कंपने का उपाय खो गया। और जब कंपता नहीं है चित्त तो स्थिर हो जाता है, ठहर जाता है।

महावीर ने द्वंद्व के निषेध पर जोर दिया है, इसलिए वीतराग शब्द का उपयोग किया है। द्वंद्व के निषेध पर जोर है, द्वंद्व न रह जाए। कृष्ण ने द्वंद्व की बात नहीं की है, स्थिरता पर जोर दिया है। इसलिए एक ही चीज को दो तरफ से पकड़ने की कोशिश की है। कृष्ण पकड़ रहे हैं दीए की थिरता से, महावीर पकड़ रहे हैं द्वंद्व के निषेध से। लेकिन द्वंद्व का निषेध हो तो प्रज्ञा थिर हो जाती है, प्रज्ञा थिर हो जाए तो द्वंद्व का निषेध हो जाता है। ये दोनों एक ही अर्थ रखते हैं, इनमें जरा भी फर्क नहीं है।

और उन्होंने पूछा कि एक क्षण को, क्षण के हजारवें हिस्से को–जिसे समय कहें–उसमें अगर ज्ञान उपलब्ध हो गया है, दर्शन हुआ है, तो क्या जीवन-व्यवहार में वह थिर रहेगा?

असल में जीवन-व्यवहार आता कहां से है? जीवन-व्यवहार आता है हमसे। तो जो हम हैं गहरे में, जीवन-व्यवहार वहीं से आता है। अगर झरना पायज़न से भरा है, मूल-स्रोत अगर जहर से भरा है, तो जो लहरें छलकती हैं और जो बिंदु दिखते हैं और बूंदें उचटती हैं, उनमें जहर होता है। और मूल-स्रोत अमृत से भर गया, तो फिर उन्हीं बूंदों में, उन्हीं लहरों में अमृत हो जाता है।

जीवन-व्यवहार हमसे निकलता है, हम जैसे हैं, वैसा ही हो जाता है। हम मर्ूच्छित हैं तो जीवन-व्यवहार मर्ूच्छित होता है। जो हम करते हैं उसमें मर्ूच्छा होती है। हम अज्ञान में हैं तो जीवन-व्यवहार अज्ञान से भरा होता है। और हम अगर ज्ञान में पहुंच गए तो जीवन-व्यवहार ज्ञान से भर जाता है।

जैसे यह कमरा अंधेरे से भरा हो तो फिर हम उठते हैं और निकलने की कोशिश करते हैं तो कभी द्वार से टकरा जाते हैं, कभी दीवाल से टकरा जाते हैं, कभी फर्नीचर से टकरा जाते हैं। बिना टकराए निकलना मुश्किल होता है। और कई बार तो ऐसा होता है कि टकराते ही रहते हैं और नहीं निकल पाते हैं। निकल भी जाते हैं तो भी टकराए बिना नहीं निकल पाते हैं। फिर कोई व्यक्ति हमसे कहे कि एक दीया जला लो। तो हम उससे कहें, दीया जला लेंगे, लेकिन क्या दीए के जल जाने पर फिर हम बिना टकरा कर निकल सकेंगे? क्या फिर हमें टकराना नहीं पड़ेगा? क्या फिर सदा ही हमारा टकराने का जो व्यवहार था, वह बंद हो जाएगा?

तो वह कहेगा कि तुम दीया जलाओ और देखो। क्योंकि दीया जलने पर तुम टकराओगे कैसे? टकराते थे अंधेरे के कारण, दीया जल गया तो टकराओगे कैसे? टकराना भी चाहोगे तो न टकरा सकोगे, क्योंकि चाह कर कभी कोई टकराया है? और द्वार जब दिखाई पड़ेगा तो तुम दीवाल से क्यों निकलोगे? तुम दीवाल से नहीं निकलोगे, द्वार से निकल जाओगे। दीवाल से भी निकलने की कोशिश चलती थी, क्योंकि द्वार दिखाई नहीं पड़ता था।

ज्योति जल जाए भीतर, तो यह ज्योति ऐसी भी नहीं है कि क्षण भर जले और फिर बुझ जाए। क्योंकि ऐसी ज्योतियां हैं–दीया हम जलाएं, फिर बुझ सकता है, फिर टकरा सकते हैं। दीए का तेल चुक सकता है, दीए की बाती बुझ सकती है, हवा का झोंका आ सकता है। हजार घटनाएं घट सकती हैं। जले और दीया जरूरी नहीं है कि जलता ही रहे, बुझ भी सकता है। लेकिन जिस अंतर-ज्योति की हम बात कर रहे हैं, वह ऐसी ज्योति नहीं है, जो कभी बुझती है।

अभी भी, जब हमें उसका पता नहीं है, तब भी वह जल रही है। अभी भी, जब हम उसके प्रति जागे नहीं हैं, तब भी वह जल रही है, सिर्फ हम पीठ किए हैं। बुझी तो वह कभी है ही नहीं, क्योंकि वह हमारी चेतना का आंतरिक हिस्सा है, वह हमारा स्वभाव है। पीठ फेरेंगे, लौट कर देखेंगे तो वह जली हुई पाएंगे। जलेगी नहीं वह, जली हुई थी ही, सिर्फ हमारी पीठ बदलेगी। हम पाएंगे वह जली है।

और ऐसी ज्योति जो कभी बुझी नहीं, जो कभी बुझती नहीं; न तेल है, न बाती है जहां; जो हमारी अंतस-जीवन की अनिवार्य क्षमता है, उसको हमने एक दफा देख लिया तो बात समाप्त हो गई। एक बार हमें पता चल गया ज्योति पीछे है, फिर अब हम चाहें भी कि हम पीठ करके चलें ज्योति की तरफ तो हम न चल पाएंगे, क्योंकि ज्योति की तरफ पीठ करके कौन चल पाया है? कौन चलेगा? एक दफा जान ले। न जाने तो बात अलग है।

इसलिए एक क्षण को भी उसकी उपलब्धि हो जाती है तो वह उपलब्धि सदा के लिए चिरस्थायी हो गई। और उसके अनुपात में हमारा जीवन-व्यवहार बदलना शुरू हो जाएगा, एकदम ही बदल जाएगा। क्योंकि कल जो हम करते थे, वह हम आज कैसे कर सकेंगे? वह करते थे अंधेरे के कारण, अब है प्रकाश, और इसलिए वह करना असंभव है।

प्रश्न:

 

(अस्पष्ट रिकाघडग)

र्म के संबंध में बहुत कुछ समझना जरूरी है, क्योंकि जितनी इस बात के संबंध में नासमझी है, उतनी शायद किसी बात के संबंध में नहीं है। इतनी आमूल भ्रांतियां परंपराओं ने पकड़ ली हैं कि देख कर आश्चर्य होता है कि किसी सत्य चिंतन के आस-पास असत्य की कितनी दीवालें खड़ी हो सकती हैं!

साधारणतः कर्मवाद ऐसा कहता हुआ प्रतीत होता है कि जो हमने किया है, वह हमें भोगना पड़ेगा। हमारे कर्म और हमारे भोग में एक अनिवार्य कार्य-कारण का संबंध है। यह बिलकुल ही सत्य है। जो हम करेंगे, हम उससे अन्यथा नहीं भोगते हैं, भोग भी नहीं सकते हैं। कर्म भोग की तैयारी है। असल में कर्म भोग का प्रारंभिक बीज है, फिर वही बीज भोग में वृक्ष बन जाता है। जो हम करते हैं, वही हम भोगते हैं।

यह बात तो ठीक है, लेकिन कर्मवाद का जो सिद्धांत प्रचलित मालूम पड़ता है, उसमें इस ठीक बात को भी इस ढंग से रखा गया है कि बिलकुल गैर-ठीक हो गया। उस सिद्धांत में कुछ ऐसी बात न मालूम किन्हीं कारणों से प्रविष्ट हो गई है और वह यह है कि कर्म तो हम अभी करेंगे, भोगेंगे अगले जन्म में।

अब कार्य-कारण के बीच कभी अंतराल नहीं होता। कॉज और इफेक्ट के बीच कभी अंतराल नहीं होता, अंतराल हो ही नहीं सकता। अगर अंतराल बीच में आ जाएगा, गैप आ जाएगा, तो कार्य-कारण विच्छिन्न हो जाएंगे, उनका संबंध ही टूट जाएगा। मैं अभी आग में हाथ डालूंगा तो अगले जन्म में जलूंगा, अगर कोई मुझसे कहे, तो यह समझ के बाहर बात हो जाएगी। क्योंकि हाथ मैंने अभी डाला, जलूंगा अगले जन्म में, तो अगले जन्म में और इसके बीच का जो फासला पार हो रहा है तो कारण तो अभी है और कार्य होगा अगले जन्म में।

यह अंतराल किसी भी भांति समझाया नहीं जा सकता। और कार्य-कारण में अंतराल होता ही नहीं, कॉज और इफेक्ट एक ही प्रक्रिया के दो रूप हैं, एक ही प्रोसेस के दो हिस्से हैं–जुड़े हुए, संयुक्त। इस छोर पर जो कारण है, उस छोर पर वही कार्य है। और यह पूरी शृंखला जुड़ी हुई है, इसमें कहीं क्षण भर के लिए भी अगर अंतराल हो गया तो शृंखला टूट जाएगी।

लेकिन इस तरह के सिद्धांत की, इस तरह की भ्रांति की कुछ वजह थी। और वह वजह यह थी कि जीवन में हम देखते हैं, एक आदमी भला है और दुख उठाता हुआ मालूम पड़ता है, एक आदमी बुरा है और सुख उठाता हुआ मालूम पड़ता है। इस घटना ने कर्मवाद के पूरे सिद्धांत की गलत व्याख्या को जन्म दे दिया। इस घटना को कैसे समझाया जाए? अगर प्रतिपल हमारे कार्य और हमारे कारण जुड़े हुए हैं तो फिर इसे कैसे बताया जाए? एक आदमी भला है, सच्चरित्र है, ईमानदार है और दुख भोग रहा है, कष्ट पा रहा है। और एक आदमी बुरा है, बेईमान है, बदमाश है और सुख पा रहा है, पद पा रहा है, यश पा रहा है, धन पा रहा है। तो इस घटना को कैसे समझाया जाए? अगर अच्छे कार्य तत्काल फल लाते हैं तो अच्छे आदमी को सुख भोगना चाहिए। और अगर बुरे कार्य तत्काल बुरा लाते हैं तो बुरे आदमी को दुख भोगना चाहिए। लेकिन यह तो दिखता नहीं। भला आदमी परेशान दिखता है, बुरा आदमी परेशान नहीं भी दिखता है। तो इसको कैसे समझाएं?

इसको समझाने के पागलपन में सब गड़बड़ हो गई। तब रास्ता एक ही मिला और वह यह कि जो अच्छा आदमी दुख भोग रहा है, वह अपने पिछले बुरे कर्मों के कारण। और जो बुरा आदमी सुख भोग रहा है, वह अपने पिछले अच्छे कर्मों के कारण। हमें एक-एक जीवन का अंतराल खड़ा करना पड़ा इस स्थिति को समझाने के लिए।

लेकिन इस स्थिति को समझाने के दूसरे उपाय हो सकते थे। और सच में दूसरे उपाय ही सच हैं। यह स्थिति इस तरह समझाई नहीं गई, बल्कि कर्मवाद का पूरा सिद्धांत विकृत हो गया। और कर्मवाद की जो उपादेयता थी, वह भी नष्ट हो गई। कर्मवाद की उपादेयता यह थी कि हम प्रत्येक व्यक्ति को यह कह सकें कि तुम जो कर रहे हो, वही तुम भोग रहे हो, इसलिए तुम ऐसा करो कि तुम सुख भोग सको, आनंद भोग सको। उपादेयता यह थी, उसका जो गहरे से गहरा परिणाम होना चाहिए था व्यक्ति-चित्त पर, वह यह था कि तुम जो कर रहे हो, वही तुम भोग रहे हो। तो अगर तुम क्रोध कर रहे हो तो तुम दुख भोगोगे–भोग ही रहे हो, इसके पीछे ही वह आ रहा है छाया की तरह। अगर तुम प्रेम कर रहे हो, शांति से जी रहे हो, दूसरों को शांति दे रहे हो, तो तुम्हारी शांति तुम अर्जित कर रहे हो, जो आ रही है पीछे उसके, जो तुम्हें मिल जाएगी–मिल ही गई है।

यह तो अर्थ था उसका। लेकिन इस सिद्धांत का इस तरह का उपयोग करना जीवन की इस घटना को समझाने के लिए–उस अर्थ को नष्ट कर दिया। क्योंकि कोई भी व्यक्ति इतना दूरगामी चित्त का नहीं होता कि वह अभी कर्म करे और अगले जन्म में मिलने वाले फल से चिंतित हो। होता ही नहीं इतना दूरगामी चित्त। अगला जन्म–अंधेरे में खो जाना है बातों का। क्या पक्का भरोसा है अगले जन्म का? पहले तो यही पक्का नहीं कि अगला जन्म होगा। दूसरा, यह पक्का नहीं कि जो कर्म अभी फल नहीं दे पा रहा, वह अगले जन्म में देगा। और अगर एक जन्म तक रोका जा सकता है फल को तो अनेक जन्मों तक क्यों नहीं रोका जा सकता?

फिर दूसरी बात यह है कि मनुष्य का जो चित्त है, वह तत्काल-जीवी है। यानी चित्त की यह क्षमता ही नहीं है कि वह इतनी दूर तक की व्यवस्था को पकड़ सके, वह जीता है तत्काल। तो वह कहता है कि ठीक है, अगले जन्म में जो होगा होगा; अभी जो हो रहा है, वह हो रहा है। और अभी मैं सुख से जी रहा हूं, अभी मैं क्यों चिंता करूं अगले जन्म की?

तो जो उपादेयता थी, वह भी नष्ट हो गई; और जो सत्य था, वह भी नष्ट हो गया। सत्य यही था कि कर्म का सिद्धांत, जैसे विज्ञान में कॉज और इफेक्ट का, कार्य-कारण का सिद्धांत है और सारा विज्ञान उस पर खड़ा हुआ है। अगर कार्य-कारण के सिद्धांत को हटा दो तो सारा विज्ञान का भवन गिर जाएगा।

ह्यूम ने इंग्लैंड में इस बात की कोशिश की कि कार्य-कारण का सिद्धांत गलत सिद्ध हो जाए। और वह बहुत कुशल और अदभुत विचारक था। उसने कहा कि तुमने कार्य-कारण देखा कब है? उसने कहा कि तुमने यह देखा कि एक आदमी ने आग में हाथ डाला और तुमने यह देखा कि आदमी का हाथ जल गया, लेकिन तुम यह कैसे कहते हो कि आग में डालने से जल गया? दो घटनाएं तुमने देखीं। आग में हाथ डाला, यह देखा; हाथ जला हुआ निकला, यह देखा; लेकिन आग में डालने से जला, इस बीच के सूत्र को तुम कैसे पहचान गए? तुम्हें यह कहां से पता चला? कुल इतना भी हो सकता है कि ये दोनों घटनाएं कार्य-कारण न हों, सिर्फ सहगामी घटनाएं हों।

जैसे, ह्यूम ने कहा कि दो घड़ियां हमने बना लीं, दो घड़ी लटका दीं दीवाल पर, जिनमें भीतर कोई संबंध नहीं है, लेकिन ऐसी व्यवस्था की कि एक घड़ी में जब बारह बजेंगे, तब दूसरी घड़ी बारह के घंटे बजाएगी। तो यह व्यवस्था हो सकती है, इसमें क्या तकलीफ है? एक घड़ी में जब बारह पर कांटा जाएगा तो दूसरी घड़ी बाहर के घंटे बजा देगी। कार्य-कारण सिद्धांत मानने वाला कहेगा कि जब इसमें बारह बजते हैं, तब इसमें बारह के घंटे बजते हैं, इनके बीच कार्य-कारण का संबंध है, जब कि वे सिर्फ पैरेलल चल रही हैं, कोई संबंध वगैरह है ही नहीं।

तो ह्यूम ने कहा कि हो सकता है, प्रकृति में कुछ घटनाएं पैरेलल चल रही हैं। यानी इधर तुम आग में हाथ डालते हो, उधर हाथ जल जाता है, और दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है। क्योंकि संबंध कभी देखा ही नहीं गया, घटनाएं देखी गईं। तुम दोनों का संबंध कैसे जोड़ते हो?

तो ह्यूम ने बड़ी चेष्टा की कार्य-कारण के सिद्धांत को गलत सिद्ध करने की। अगर ह्यूम जीत जाता तो पश्चिम में साइंस गिर जाती, साइंस खड़ी नहीं हो सकती। क्योंकि साइंस खड़ी हो रही है इस आधार पर कि चीजों के संबंध जोड़े जा सकते हैं। एक आदमी को कैंसर है, टी.बी. है, तो हम कारण-कार्य के हिसाब से तो इलाज कर पाते हैं कि उसको जो जर्म्स हैं, यह दवा देने से मर जाएंगे। यह दवा उनके लिए कारण बनेगी और मृत्यु का कार्य हो जाएगी, तो हम इलाज कर लेते हैं। फलां बम पटकने से इतनी आग पैदा होगी, इतने लोग मर जाएंगे, तो बम बन जाता है। सारा विज्ञान ही कार्य-कारण के सिद्धांत पर खड़ा है। अगर ह्यूम जीत जाए तो सारा विज्ञान गिर जाए।

धर्म भी विज्ञान है और वह भी कार्य-कारण के सिद्धांत पर खड़ा है। और अगर चार्वाक जीत जाए तो धर्म गिर जाए पूरा का पूरा। जो ह्यूम विज्ञान के खिलाफ कह रहा है, वही चार्वाकों ने धर्म के खिलाफ कहा। उन्होंने कहा कि खाओ-पीयो, मौज करो, क्योंकि कोई पक्का भरोसा नहीं है कि जो बुरा करता है, उसको बुरा ही मिलता है। क्योंकि देखो न! एक आदमी बुरा कर रहा है और भला भोग रहा है–कहां कार्य-कारण का कोई संबंध है इसमें? एक आदमी भला कर रहा है और पीड़ा झेल रहा है। कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है।

इसलिए चार्वाकों ने कहा, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्! अगर ऋण लेकर भी घी पीने को मिले तो पीयो, क्योंकि ऋण चुकाने की जरूरत क्या है? इसकी अनिवार्यता कहां है? सवाल असली में घी मिलने का है, वह कैसे मिलता है, यह सवाल ही नहीं है। और तुमने ऋण से लिया और नहीं चुकाया, इसका फल मिलेगा; ये सब पागलपन की बातें हैं। कहां फल मिल रहे हैं! ऋण लेने वाले मजा कर रहे हैं, न लेने वाले दुख भी उठा रहे हैं। कोई कार्य-कारण का सिद्धांत नहीं है।

ह्यूम ने इंग्लैंड में विज्ञान के खिलाफ जो बात कही, अगर ह्यूम जीत जाए तो विज्ञान का जन्म नहीं होता, अगर चार्वाक जीत जाए तो धर्म का जन्म नहीं होता। क्योंकि चार्वाक ने भी यही कहा कि इसमें कोई संबंध ही नहीं है। असंबद्ध क्रम है घटनाओं का। तो चोर मजा कर सकता है, अचोर दुख उठा सकता है। क्रोधी आनंद कर सकता है, अक्रोधी पीड़ा उठा सकता है। इसमें कोई संबंध ही नहीं है। सब जीवन के कर्म असंबद्ध हैं, इनमें कोई संबंध ही नहीं है। और अगर कहीं संबंध भी दिखाई पड़ता हो तो वह सिर्फ पैरेललिज्म की भूल है। वह सिर्फ इसलिए दिखाई पड़ जाता है कि चीजें समानांतर कभी-कभी घट जाती हैं, बस और कोई मतलब नहीं है। लेकिन बुद्धिमान आदमी इस चक्कर में नहीं पड़ता है, चार्वाक ने कहा, बुद्धिमान आदमी तो जानता है कि किसी कर्म का किसी फल से कोई संबंध नहीं है। इसलिए जो सुखद है, वह करता है, चाहे लोग उसे बुरा कहते हों, चाहे भला कहते हों। क्योंकि दुबारा न लौटना है, न दुबारा कोई जन्म है।

चार्वाक के विरोध में ही महावीर का कर्म का सिद्धांत है। इस विरोध में ही कि न तो वस्तु-जगत में कार्य-कारण के बिना कुछ हो रहा है और न चेतना-जगत में कार्य-कारण के बिना कुछ हो रहा है। विज्ञान में तो स्थापित हो गई बात। ह्यूम हार गया और विज्ञान का भवन खड़ा हो गया। लेकिन धर्म के जगत में अब भी ठीक से स्थापित नहीं हो सकी बात। और न होने का जो बड़े से बड़ा कारण बना, वह यह कि विज्ञान तो कहता है अभी कारण, अभी कार्य; और ये धार्मिक तथाकथित व्याख्याकार कहने लगे, अभी कारण, अगले जन्म में कार्य! बस इससे सब गड़बड़ हो गया। यानी धर्म का भवन खड़ा नहीं हो सका, इस अंतराल में सब बेईमानी हो गई। क्योंकि यह अंतराल एकदम झूठ है। कार्य और कारण में अगर कोई संबंध है तो उनके बीच में गैप नहीं हो सकता, क्योंकि गैप होगा तो फिर संबंध क्या रहा? डिस्कंटिन्यूटी हो गई, चीजें असंबद्ध हो गईं, अलग-अलग हो गईं, फिर कोई संबंध न रहा। और यह व्याख्या नैतिक लोगों ने खोज ली, क्योंकि वे समझा नहीं सके जीवन को।

तो पहली तो बात मैं आपको जीवन को समझाऊं, जिसकी वजह से यह अंतराल टूटे। मेरी अपनी समझ यह है कि प्रत्येक कर्म तत्काल फलदायी है–तत्काल, इमीजिएट। जैसे मैंने क्रोध किया तो मैं क्रोध करने के क्षण से ही क्रोध का भोगना शुरू कर देता हूं। ऐसा नहीं कि अगले जन्म में क्रोध का फल भोगूंगा। क्रोध करता हूं और क्रोध का दुख भोगता हूं। यानी क्रोध का करना और दुख का भोगना युगपत चल रहा है, साथ चल रहा है। क्रोध तो विदा हो जाता है, लेकिन दुख का सिलसिला और भी देर तक चलता रहता है।

तो पहला हिस्सा कारण हो गया, दूसरा हिस्सा कार्य हो गया। ऐसा असंभव है कि कोई आदमी क्रोध करे और दुख न झेले। ऐसा भी असंभव है कि कोई आदमी प्रेम करे और आनंद अनुभव न करे। क्योंकि प्रेम करने की क्रिया में ही, प्रेम करने के कृत्य में ही प्रेम का आनंद झरना शुरू हो जाता है। एक आदमी रास्ते पर गिरे हुए किसी आदमी को उठाए–उठाए अभी और अगले जन्म तक प्रतीक्षा करे, ऐसा नहीं–उठाने के क्षण में ही, वह जो उठाने का आनंद है, भरपूर, उसके हृदय को भर जाता है। ऐसा नहीं है कि उठाने का कृत्य अलग है और फिर आनंद कहीं और प्रतीक्षा कर रहा है, जो मिलेगा। तो कहीं कोई हिसाब-किताब रखने की जरूरत नहीं है।

इसीलिए महावीर भगवान को विदा कर सके। अगर हिसाब-किताब रखना है जन्मों-जन्मों तक तो फिर नियंता की व्यवस्था जरूरी हो जाएगी। यह ध्यान में रहे, महावीर नियंता को बिलकुल विदा कर सके। क्योंकि उन्होंने कहा, नियम काफी है, नियंता की कोई जरूरत नहीं है। नियंता की जरूरत वहां होती है, जहां नियम का लेखा-जोखा रखना पड़ता हो। क्रोध मैं अभी करूं और किसी जन्म में मुझे फल मिलता हो तो इसका हिसाब कहां रहेगा? इसका हिसाब किस व्यवस्था में संरक्षित रहेगा? यह कहां लिखा रहेगा कि मैंने किया था क्रोध और मुझे यह-यह फल मिलना चाहिए, कितना क्रोध किया था, कितना फल मिलना चाहिए।

अगर सारे व्यक्तियों के कर्मों की कोई इस तरह की व्यवस्था हो कि अभी हम कर्म करेंगे और फिर कभी अनंतकाल में भोगेंगे तो बड़े हिसाब-किताब, एकाउंट्स की जरूरत पड़ेगी, बड़ी खाते-बहियां होंगी। नहीं तो कैसे होगा यह? तो फिर इस सबके इंतजाम के लिए एक एकाउंटेंट जनरल की भी जरूरत ही पड़ जाएगी, जो सब हिसाब-किताब रखता हो। और परमात्मा को बहुत से लोगों ने एकाउंटेंट जनरल की तरह ही सोचा हुआ है। वह सब नियंता है, सारे नियम की देख-रेख रखता है कि नियम पूरे हो रहे हैं या नहीं।

लेकिन महावीर ने बड़ी वैज्ञानिक बात कही। उन्होंने कहा, नियम पर्याप्त है, नियंता की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि नियम स्वयंभू काम करता है। जैसे आग में हाथ डालते हैं, हाथ जल जाता है। यह आग का स्वभाव है कि वह जलाती है, यह हाथ का स्वभाव है कि वह जलता है। अब डालने की बात है, डालने से संयोग हो जाता है। डालना कर्म बन जाता है और पीछे जो भोगना है, वह फल बन जाता है। इसमें किसी को भी व्यवस्थित होकर खड़े होने की, आग को कहने की जरूरत नहीं कि अब जला–यह आदमी हाथ डालता है। हाथ डालना और जलना यह बिलकुल ही स्वयंभू नियम के अंतर्गत हो जाते हैं।

नियम है, नियंता नहीं है, लॉ है, लॉ गिवर नहीं है–महावीर के हिसाब में।

क्योंकि महावीर कहते हैं कि अगर नियंता हो तो नियम में गड़बड़ होने की सदा संभावना है। क्योंकि कोई प्रार्थना करे, हाथ जोड़े, खुशामद करे नियंता की, नियंता किसी पर खुश हो जाए, किसी पर नाराज हो जाए, तो कभी आग में हाथ जले और कभी न जले। कभी भक्त, जैसे प्रहलाद, आग में न जले, क्योंकि भगवान उस पर प्रसन्न हैं।

तो महावीर कहते हैं कि अगर ऐसा कोई नियंता है तो नियम सदा गड़बड़ होगा। क्योंकि वह जो नियंता का एक तत्व और एक व्यर्थ की परेशानी खड़ी करता है। अब प्रहलाद उसका भक्त है तो वह उसको नहीं जलाता आग में, पहाड़ से गिराओ तो उसके पैर नहीं टूटते! और दूसरे किसी को गिराओ तो उसके पैर टूट जाते हैं। तो फिर पारशियलिटी और पक्षपात शुरू होगा। प्रहलाद की पूरी कथा पक्षपात की कथा है। उसमें अपने आदमी की फिक्र की जा रही है, उसमें अपने व्यक्ति के लिए विशेष सुविधाएं और अपवाद दिए जा रहे हैं।

महावीर कहते हैं, अगर ऐसे अपवाद हैं, तब फिर धर्म नहीं हो सकता। धर्म का बहुत गहरे से गहरा मतलब होता है, दि लॉ। धर्म का मतलब ही होता है नियम, और कोई मतलब ही नहीं होता। धर्म का मतलब ही होता है नियम। और नियम पर अगर एक ऊपर नियंता भी है तो फिर सब गड़बड़ हो जाएगी। कभी ऐसा हो सकता है कि टी.बी. के जर्म्स किसी दवा से मरें, और कभी ऐसा हो सकता है कि टी.बी. के जर्म्स प्रहलाद की तरह भगवान के भक्त हों और दवा कोई काम न करे। इसमें क्या कठिनाई है! फिर नियम नहीं हो सकता। अगर नियंता है तो नियम में बाधा पड़ेगी।

इसलिए महावीर नियम के पक्ष में नियंता को विदा कर देते हैं। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है, नियम के पक्ष में नियंता को विदा कर देते हैं। वे कहते हैं, नियम काफी है, और नियम अखंड है। नियम से प्रार्थना, पूजा, पाठ से बचने का कोई उपाय नहीं है। बस नियम से बचने का एक ही उपाय है कि नियम को समझ लो कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है इसलिए हाथ मत डालो। इसको समझ लेना जरूरी है। अगर नियंता है तो फिर यह भी हो सकता है कि नियंता को राजी कर लो और हाथ डालो। क्योंकि नियंता उपाय कर देगा कि नहीं जलाते। अच्छा, ठहरो, आग को कह देगा, रुको अभी, इस आदमी को जलाना मत।

तो महावीर कहते हैं कि चार्वाक को अगर मान लिया जाए तो भी जीवन अव्यवस्थित हो जाता है, क्योंकि वह कहता है कि दो कर्मों के बीच में कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। और महावीर कहते हैं कि अगर भगवान को मानने वालों को मान लिया जाए तो वे भी यह कहते हैं कि अनिवार्य संबंध के बीच में एक व्यक्ति है, जो अनिवार्य संबंधों को भी शिथिल कर सकता है। इसलिए वे कहते हैं, चार्वाक भी अव्यवस्था में ले जाता है, भगवान को मानने वाला भी अव्यवस्था में ले जाता है। ये दोनों एक ही तरह के लोग हैं। चार्वाक नियम को ही तोड़ कर अव्यवस्था पैदा कर देता है और भगवान को मानने वाला नियम के ऊपर भी किसी को स्थापित करके।

तो महावीर यह पूछते हैं कि वह भगवान नियम के अंतर्गत चलता है? अगर नियम के अंतर्गत चलता है तो उसकी जरूरत क्या है? यानी अगर भगवान आग में हाथ डालेगा तो उसका हाथ जलेगा कि नहीं? अगर जलता है उसका हाथ भी, तो वह भी वैसा ही है, जैसे हम हैं। और अगर ऐसा है कि भगवान के लिए अपवाद है कि वह आग में हाथ डाले तो नहीं जलता है, बल्कि शीतल मालूम होती है आग, तो ऐसा भगवान खतरनाक है, क्योंकि इस भगवान से जो भी दोस्ती बनाएंगे, वे आग में हाथ भी डालेंगे और शीतल होने का उपाय भी कर लेंगे।

इसलिए महावीर कहते हैं कि हम नियम को तो इनकार नहीं करते क्योंकि नियम का इनकार करना अवैज्ञानिक है, नियम तो है। और हम नियंता को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि नियंता की स्वीकृति नियम में फिर बाधा डालती है।

तो जो विज्ञान ने अभी पश्चिम में इस तीन सौ वर्षों में उपलब्ध किया है कि विज्ञान सीधे नियम पर निर्धारित है, सीधे नियम की खोज, कॉज एंड इफेक्ट के कानून की खोज है। और विज्ञान कहता है, किसी भगवान से हमें कुछ लेना-देना नहीं, हम तो प्रकृति का नियम खोज लेते हैं और नियम कारगर है। ठीक यही बात पच्चीस सौ साल पहले महावीर ने चेतना के जगत में कही कि नियंता को हम विदा करते हैं और चार्वाक को हम मान नहीं सकते, क्योंकि वह सिर्फ अव्यवस्था है, अराजकता है। दोनों के बीच में एक उपाय है, वह यह है कि नियम शाश्वत है, अखंड है और अपरिवर्तनीय है। और उस अपरिवर्तनीय नियम पर ही धर्म का विज्ञान खड़ा हो सकता है।

लेकिन उस अपरिवर्तनीय नियम में पीछे के व्याख्याकारों ने जो जन्मों का फासला किया, उसने फिर गड़बड़ पैदा कर दी। यह तीसरी गड़बड़ थी। पहली गड़बड़ थी चार्वाक की, दूसरी गड़बड़ थी भगवान के भक्त की, तीसरी गड़बड़ थी दो जन्मों के बीच में अंतराल पैदा करने वाले की। और महावीर को फिर झुठला दिया गया।

यह असंभव ही है कि एक कर्म अभी हो और फल फिर कभी। फल इसी कर्म की शृंखला का हिस्सा होगा, इसी कर्म के साथ मिलना शुरू हो जाएगा। हम जो भी करते हैं, हम उसे भोग लेते हैं। और अगर यह हमें पूरी सघनता में स्मरण हो जाए तो हमारे जीवन में और हमारे कर्म में अनिवार्य अंतर पड़ने वाला है। अगर यह बोध बहुत स्पष्ट हो जाए कि मैं जो भी कर रहा हूं, वही भोग रहा हूं; या जो मैं भोग रहा हूं, वह मैं जरूर कर रहा हूं।

एक आदमी दुखी है, एक आदमी अशांत है, और वह आपके पास आता है और पूछता है, शांति का रास्ता चाहिए। अशांत है तो वह सोचता है, किसी पिछले जन्मों का कर्मफल भोग रहा हूं। बड़ी गलत व्याख्या में पड़ा हुआ है। अशांत है तो उसका मतलब है कि वह जो अभी कर रहा है…।

अच्छा, पिछले जन्म में जो किया है, आज उसे अनकिया, अनडन करने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जो मैं अभी कर रहा हूं, उसे अनकिया करने की अभी मेरी सामर्थ्य है। अगर मैं आग में हाथ डाल रहा हूं, मेरा हाथ जल रहा है, और अगर मेरी मान्यता यह है कि पिछले जन्म के किसी पाप का फल भोग रहा हूं तो मैं हाथ डाले चला जाऊंगा, क्योंकि पिछले जन्म के कर्म को मैं बदल कैसे सकता हूं? यह तो होगा ही। इधर आग में हाथ डालूंगा, जलूंगा और गुरुओं से पूछूंगा कि शांति का उपाय बताइए, क्योंकि हाथ बहुत जल रहा है। और वे गुरु भी यह मानते हैं कि पिछले जन्म के फल के कारण जल रहा है। तो वे भी नहीं कहते कि हाथ बाहर खींचो, क्योंकि हाथ जल रहा है तो उसका मतलब हाथ अभी डाला जा रहा है। और अभी डाला गया हाथ बाहर भी खींचा जा सकता है, लेकिन एक जन्म पहले डाला गया हाथ आज कैसे बाहर खींचा जा सकता है?

तो इस व्याख्या ने कि दो जन्मों के बीच और अनंत जन्मों में फल का भोग चलता है, मनुष्य को एकदम परतंत्र कर दिया। परतंत्रता पूरी हो गई, क्योंकि पीछा तो बंधा हुआ हो गया, अब उसमें कुछ किया नहीं जा सकता।

तो मेरा मानना है कि सब कुछ किया जा सकता है इसी वक्त, क्योंकि जो हम कर रहे हैं, वही हम भोग रहे हैं।

एक मित्र मेरे पास आए, कोई दो या तीन वर्ष हुए। उन्होंने कहा कि बहुत अशांत हूं। अरविंद आश्रम गया, वहां भी शांति नहीं मिली; रमण आश्रम गया, वहां भी शांति नहीं मिली; शिवानंद के वहां गया, वहां भी शांति नहीं मिली। कहीं शांति नहीं, सब धोखा-धड़ी है, सब बातचीत है। कहीं कोई शांति नहीं मिलती। पांडिचेरी में किसी ने आपका नाम ले दिया तो वहां से सीधा यहां चला आ रहा हूं।

तो मैंने कहा, अब तुम सीधे एकदम मकान के बाहर हो जाओ, क्योंकि इसके पहले कि तुम जाकर कहीं कहो कि वहां भी शांति नहीं मिली…। मैंने उनसे पूछा कि तुम अशांति खोजने किससे पूछने गए थे–अरविंद से, रमण से, मुझसे? अशांति तुमने पैदा की, तुमने किस-किस से सलाह ली थी? कौन है गुरु तुम्हारा? उन्होंने कहा, नहीं, मेरा कोई गुरु नहीं, अशांति के लिए मैंने किसी से नहीं पूछा।

मैंने कहा, अशांति के लिए तुम खुद ही गुरु हो, पर्याप्त हो और शांति हमने ठेका लिया हुआ है तुम्हारे लिए? शांति तुम हमसे पूछोगे, न मिले तो हम धोखा सिद्ध होंगे! यानी मजा यह है, न मिले तो धोखा मैं सिद्ध होऊंगा। अशांति तुम पैदा करो, शांति मैं तुम्हें दूं, और न दे पाऊं तो धोखा मैं हूं!

मैंने उनसे कहा कि कृपा करके इतना ही खोजो कि तुम्हें अशांति कैसे मिल रही है, बस। जिस ढंग से तुम अशांति पा रहे हो, उस ढंग को बदलो। वह ढंग अशांति देने वाला है। वह कारण है तुम्हारी अशांति का। तो उसको तो तुम देखना नहीं चाहते! तो वह आदमी कहता है कि वह तो जन्मों-जन्मों का है हिसाब अशांति का। तो मैंने कहा, जन्मों-जन्मों कोशिश करनी पड़ेगी फिर अब शांति के लिए। फिर इतनी जल्दी होने वाला भी नहीं। पर मैं तुमसे कहता हूं कि हो सकता है, क्योंकि मैं कहता हूं जन्मों-जन्मों की बात नहीं है, तुम अभी कर रहे हो अशांति के लिए सब उपाय।

मैंने कहा, तुम दोत्तीन दिन रुक जाओ कृपा करके, तुम अपनी अशांति की चर्चा करो मुझसे। क्या-क्या अशांति है, कैसे-कैसे पैदा हो रही है, क्या-क्या हो रहा है।

तीन दिन वह आदमी रुका था। तो चूंकि मैं तो शांति की कोई तरकीब बता ही नहीं रहा था, उसको अपनी अशांति की ही बात करनी पड़ी। धीरे-धीरे उसकी बात खुली। उसका एक ही लड़का है, लखपति आदमी है, बड़ा ठेकेदार है, एक ही लड़का है। जिस लड़की से वह नहीं चाहता था शादी करे, उस लड़की से उस लड़के ने शादी कर ली। तो दरवाजे पर बंदूक लेकर खड़ा हो गया जब वे दोनों आए और कहा कि सिर्फ लाश अंदर जा सकती है घर के तुम्हारे। नहीं तो वापस लौट जाओ! अब मुझसे तुम्हारा कोई संबंध नहीं।

तो मैंने उससे पूछा, उस लड़की में कोई खराबी है? कहा, नहीं, लड़की में तो कोई खराबी नहीं, लड़की तो एकदम ठीक है। तो मैंने कहा, उस लड़के और लड़की के संबंध में कोई पाप है? नहीं, वह भी पाप नहीं है। तो फिर मैंने कहा, मामला क्या है? आपकी नाराजगी क्या है? सिर्फ इतना ही न कि आपके अहंकार को तृप्ति न मिली, लड़के ने आपकी आज्ञा न मानी? और अहंकार तो अशांति लाता है।

अब उस लड़के को बाहर निकाल दिया है। बड़े आदमी का लड़का है, पढ़ा-लिखा भी नहीं था ठीक से, वह दिल्ली में कोई अस्सी-नब्बे रुपए महीने की नौकरी कर रहा है। और लाखों रुपए सब उसके ही हैं। अब यह बाप तड़प रहा है। तो अब यह अरविंद आश्रम जा रहा है, इधर जा रहा है, उधर जा रहा है। मैंने कहा कि तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है, लड़के से जाकर क्षमा मांगो। तुम्हारा अहंकार तुम्हें दुख दे रहा है। और अहंकार दुख देता है। और तुम्हारा अहंकार से किया गया कृत्य अशांति ला रहा है। मैंने कहा, तुम अपने दिल की बात कहो, तुम्हारे मन में लड़के को वापस लाने का है?

हां, बिलकुल है। वही मेरा लड़का है, अब मैं कितना पछता रहा हूं। हम बुङ्ढे-बुङ्ढी हैं दोनों, मरने के करीब हैं, सब उसका है। और जब हमें पता चलता है, वह नब्बे रुपए महीने की नौकरी कर रहा है दिल्ली में, तो हमारी बिलकुल नींद उचट गई है। और अब यह भी लगता है, उस लड़की का भी क्या कसूर है!

तो मैंने कहा, इसमें तो कोई बात नहीं, जब तुम बंदूक लेकर खड़े हो सकते थे तो जाकर क्षमा मांग सकते हो। तुम प्रेम का नियंत्रण करोगे? तुम्हारा लड़का है माना, लेकिन प्रेम करने का हक तो उसका ही है, तुम्हारा तो नहीं है इसमें बीच में बाधा डालने का कुछ। तुमने बाधा डाली है, तुम दुख भोग रहे हो। मैंने कहा कि तुम अब पहला काम करो कि तुम सीधे चले जाओ दिल्ली और उस लड़के से क्षमा मांग लो।

उसकी बात समझ में आ गई। वह आदमी दिल्ली गया, उसने क्षमा मांगी। एक पंद्रह दिन बाद उसका पत्र आया कि मैं हैरान हूं और आपने ठीक कहा, मुझे शांति कहीं नहीं मिलती। वह लड़के और बहू घर आ गए और मैं इतना आनंदित हूं, जितना मैं कभी भी नहीं था; इतना शांत हूं, जितना मैं कभी भी नहीं था।

अब हमारी कठिनाई यह है कि हम जो कर रहे हैं, वही अशांति ला रहा है, तब तो कुछ बदलाहट अभी की जा सकती है, इसी वक्त। और अगर कभी कुछ किया था, वह अशांति ला रहा है, तब तो बदलाहट का कोई उपाय नहीं। और यह जो पैदा करना पड़ा हमें सिद्धांत, वह जिंदगी की इस घटना को समझाने के लिए कि उलटी स्थिति दिखाई पड़ती है। उसका कारण दूसरा है।

जैसे, मेरी अपनी समझ में अगर एक बुरा आदमी सफल होता है, सुखी होता है। तो बुरा आदमी एक बहुत बड़ी कांप्लेक्स, जटिल घटना है। हो सकता है वह झूठ बोलता है, बेईमानी करता है; लेकिन उसमें कुछ और भी गुण हैं, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते। वह साहसी हो सकता है, हिम्मतवर हो सकता है, पहल करने वाला हो सकता है, इनीशिएटिव लेने वाला हो सकता है, बुद्धिमान हो सकता है, एक-एक कदम को जिंदगी में समझ कर उठाने वाला हो सकता है–बेईमान हो सकता है, चोर हो सकता है। ये सब बातें हो सकती हैं। बुरा आदमी इतनी बड़ी घटना है कि उसके एक पहलू को कि वह बेईमान है, देख कर अगर आपने निर्णय करना चाहा तो आप गलती में पड़ जाएंगे।

और एक अच्छा आदमी भी बड़ी घटना है। अब हो सकता है अच्छा आदमी चोरी भी नहीं करता, बेईमानी भी नहीं करता, लेकिन हो सकता है बहुत भयभीत आदमी हो, शायद इसीलिए चोरी और बेईमानी न करता हो, बिलकुल साहस की कमी हो, साहस कर ही न पाता हो, जोखिम उठा न पाता हो, बुद्धिमान न हो, बुद्धिहीन हो। क्योंकि अच्छा होने के लिए कोई बुद्धिमान होना बहुत जरूरी नहीं है। बल्कि अक्सर ऐसा होता है कि बुद्धिमान आदमी का अच्छा होना मुश्किल हो जाता है, बुद्धिहीन आदमी अच्छा होने के लिए मजबूर होता है। कोई उपाय नहीं, क्योंकि बुद्धिहीनता बुरे होने में फौरन फंसा देती है। तो बुद्धिहीन हो। लेकिन हम इन सब बातों को नहीं तौलेंगे। हम तो कहेंगे, आदमी अच्छा है, झूठ नहीं बोलता, मंदिर जाता है, इसको सफलता मिलनी चाहिए, इसको सुख मिलना चाहिए।

मेरी अपनी मान्यता है, सफलता मिलती है साहस से। अगर बुरा आदमी भी साहसी है तो सफलता ले आएगा। हां, अगर अच्छा आदमी साहसी है तो बुरे आदमी से हजार गुनी सफलता लाएगा, लेकिन सफलता मिलती है साहस से। बुरे तक को मिल जाती है सफलता।

सफलता मिलती है बुद्धिमानी से। अगर बुरा आदमी बुद्धिमान है तो सफल हो जाएगा। अगर अच्छा आदमी बुद्धिमान है तो हजार गुना सफल हो जाएगा। लेकिन सफलता अच्छे होने भर से नहीं आती, सफलता आती है बुद्धिमानी से, विचार से, विवेक से।

और तब हम क्या करते हैं कि हम ऐसा पकड़ लेते हैं एक-एक गुण कि यह आदमी देखो कितना अच्छा है, मंदिर जाता है, रोज प्रार्थना करता है, लेकिन पैसा इसके पास बिलकुल नहीं है। अब मंदिर और प्रार्थना करने से पैसे के होने का क्या संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। पैसा कमाना पड़ेगा। और अगर यह नहीं कमा रहा है तो भटक जाएगा, नहीं पैसा कमा पाएगा। और अगर यह सच में अच्छा आदमी है तो पैसा नहीं कमा पाया, यह पीड़ा भी इसके मन में नहीं होगी। क्योंकि नहीं कमा पाया तो मैंने नहीं कमाया, बात खतम हो गई है। और इसके मन में यह द्वेष भी नहीं होगा कि फलां आदमी बुरा है और वह कमा रहा है।

अगर कोई अच्छा आदमी यह कहता है कि मैं सुखी नहीं हूं, क्योंकि मैं अच्छा हूं, और वह आदमी सुखी है, क्योंकि वह बुरा है, तो यह आदमी बुरे होने का सबूत दे रहा है। यहर् ईष्या से भरा हुआ आदमी है। यह बुरे आदमी को जो-जो मिला है, सब चाहता है और अच्छा रह कर पाना चाहता है। यानी इसकी आकांक्षा ही बड़ी बेहूदी है, इसकी आकांक्षा हद की बेहूदी है।

एक तो यह बुरा भी नहीं होना–वह बेचारा बुरा भी हो, बुरे होकर उसने दस लाख रुपए कमा लिए हैं तो दस लाख रुपए कमाने में बुरे होने का सौदा चुकाया है, बुरे होने की पीड़ा झेली है, बुरे होने का दंश भी झेला है, कांटा भी झेला है। यह इन कामों को भी नहीं करना चाहता, न बुरा होना चाहता है, न बुरे होने का दंश झेलना चाहता, न स्वर्ग बिगाड़ना चाहता, न कर्मफल बिगाड़ना चाहता, यह कुछ नहीं बिगाड़ना चाहता। यह आदमी मंदिर में पूजा करना चाहता है, घर बैठना चाहता है, उसको जो दस लाख मिले वह भी चाहता है!

और जब इसको नहीं मिलते तो यह कहता है कि फिर अब यही है कि मेरे पिछले जन्मों का कोई बुरे कर्म का फल भोग रहा हूं और वह आदमी किसी पिछले जन्म के अच्छे कर्म का फल भोग रहा है। अभी तो, अभी तो जो कर रहा है, वह तो उसको फल देने वाला नहीं था, अगले जन्म में लेकिन पाएगा कष्ट, नर्क भोगेगा; ऐसे वह सांत्वना भी दे रहा है अपने को। वह जोर् ईष्या है–तो इस आदमी को वह अगले जन्म में नर्क भेज कर सुख भी पा रहा है कि चलो कोई बात नहीं, आज हम दुख भोग रहे हैं, अगले जन्म में हम तो स्वर्ग में होंगे, तुम नर्क में होओगे।

यह सारी की सारी बात ने कर्म की पूरी वैज्ञानिक चिंतना को एकदम ही मूढ़तापूर्ण कर दिया। मेरा मानना है कि कर्म का फल तत्काल है, लेकिन कर्म बहुत जटिल बात है। साहस भी कर्म है, उसका भी फल है; साहसहीनता भी कर्म है, उसका भी फल है। बुद्धिमानी भी कर्म है, उसका फल है; बुद्धिहीनता भी कर्म है, उसका भी फल है। इनीशिएटिव लेना, पहल करना, जोखिम उठाना भी कर्म है; उसका भी फल है। जोखिम न उठाना, घर में बैठे रहना, वह भी एक कर्म है; उसका भी फल है। और इन सारे कर्मों का इकट्ठा फल होता है। तो इकट्ठे फल को हम किसी एक कारण से जोड़ेंगे तो हम मुश्किल में पड़ जाते हैं। और एक कारण से नहीं जोड़ा जा सकता। बुरे आदमी सफल हो सकते हैं, क्योंकि सफलता के कोई कारण उनके भीतर होंगे। अच्छे आदमी असफल हो सकते हैं, क्योंकि असफलता के कोई कारण उनके भीतर होंगे। बुरे आदमी सुखी भी हो सकते हैं, क्योंकि सुख के भी कोई कारण उनके भीतर होंगे। और अच्छे आदमी दुखी भी हो सकते हैं, क्योंकि दुख के भी कोई कारण उनके भीतर होंगे।

अब जैसेर् ईष्या दुख देती है और अच्छा आदमी अगरर् ईष्यालु है तो दुख पाएगा। और हो सकता है बुरा आदमीर् ईष्यालु न हो और सुख पाए। अब इसमें कैसे उससे सुख छीना जा सकता है? अच्छा आदमी, हो सकता है, स्वार्थी हो और दुख पाए और बुरा आदमी स्वार्थी न हो और सुख पाए।

मेरे एक प्रोफेसर थे, शराब पीने की आदत थी और यूनिवर्सिटी में उनसे ज्यादा बुरे आदमी का किसी को खयाल ही नहीं था कि एकदम बुरे आदमी हैं। कितनी स्त्रियों से उनका संबंध रहा है, इसका कुछ ठिकाना नहीं था। शराब पीते थे, जुआ खेलते थे। लेकिन मेरा उनसे दोस्ताना था और मुझे कभी-कभी अपने घर ले जाते और मुझे घर सुलाते।

मैंने देखा, लेकिन बड़े मजे की बात, कभी शराब वे अकेले न पीते थे, कभी नहीं। दस-पांच मित्रों को इकट्ठा न कर लें तो शराब न पीएं। दस-पांच मित्रों को बुला न लाएं तो सांझ का खाना न खाएं, उस दिन उपवास ही हो जाए। मैंने उनसे कहा, यह क्या? वे कहते, अकेले भी क्या खाना! दस होते हैं तभी खाने का सुख आता है।

यह आदमी शराब पीता है माना, और शराब पीने के जो दुख हैं, वह भोगेगा, भोगता है। लेकिन यह आदमी बड़े अदभुत अर्थ में निःस्वार्थी है। उन पर कभी पैसा न बचता, दस-पंद्रह तारीख तक उनका पैसा खतम। क्योंकि अकेले खाना नहीं खाना है, अकेले शराब नहीं पीनी है, अकेले कुछ करना ही नहीं है। वे कहते कि मैं सोच ही नहीं सकता कि कोई आदमी अकेले बैठ कर कैसे खाना खाता है? यह बात ही सोचने की नहीं। क्योंकि अगर हम खाने में भी साझीदार नहीं बना सकते तो जिंदगी बेकार है।

मैं उनके घर जितने दिन रुकता, मैंने देखा, उन्होंने कभी शराब न पी। तो मैंने उनसे कहा कि मैं आपके घर न रुकूंगा, क्योंकि मेरे कारण आप शराब पीने से रुकते हैं।

उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, तुम्हारे होने से इतना मुझे आनंद मिलता है कि शराब पीने का खयाल ही नहीं आता। वह तो पीता ही तब हूं, जब कोई आनंद नहीं जिंदगी में। तुम जब मेरे पास होते हो तो इतना आनंदित मैं होता हूं कि शराब पीने का सवाल ही नहीं है।

अब यह जो आदमी है, यह आदमी कई अर्थों में सुखी था। यह आदमी कई अर्थों में सुखी था। इसका सुख देख कर कई कोर् ईष्या हो जाएगी। लेकिन इसके सुख के अपने कारण थे। यह कई अर्थों में दुखी था, लेकिन दुख तो हम किसी का देखने नहीं जाते!

यह भी ध्यान रखना, जरूरी बात है। दुख तो हमें किसी का दिखता नहीं, सुख दिखता है। क्योंकि दुख तो आदमी के भीतर होता है, सुख बाहर फैल जाता है। असल में सुख की किरणें सदा बाहर बिखर जाती हैं, सुख फैलता है बाहर और दुख आदमी भीतर सिकोड़ लेता है।

तो दुख तो हमें किसी का दिखता नहीं, दुख सिर्फ अपना दिखता है और सुख सदा दूसरे का दिखता है। दुख सदा अपना दिखता है और सुख सदा दूसरे का दिखता है। ऐसे ही शुभ कर्म तो हमें अपना दिखता है और अशुभ कर्म दूसरे का दिखता है। क्योंकि हमारा अहंकार कभी मान नहीं पाता कि हम भी अशुभ कर्म कर रहे हैं।

तो हमारे अहंकार को भी सुविधा मिलती है कि अशुभ कर्म अगर किए भी होंगे तो किसी और जन्म में किए होंगे। अभी तो मैं कभी नहीं कर रहा हूं, अभी तो मैं एकदम शुभ कर्म कर रहा हूं और दुख भोग रहा हूं।

अब यह समझ लेने जैसी है। साइकिक मामला इतना है सिर्फ, मनोवैज्ञानिक, कि अपने कर्म को प्रत्येक व्यक्ति शुभ मानता है, क्योंकि अहंकार को इससे तृप्ति मिलती है, और अपने दुखों की गिनती करता है, सुखों की कभी गिनती नहीं करता। क्योंकि जो सुख हमें मिल जाता है, उसकी गिनती ही भूल जाती है, जो सुख नहीं मिल पाता, वह हमारी गिनती में होता है। जो मकान हमारे पास है, हमें कभी नहीं लगता कि इससे हमें कोई बड़ा सुख मिल रहा है।

हां, सड़क पर एक भिखमंगा निकलता है, वह कहता है, देखो, कितना आदमी सुखी है! और उस मकान के भीतर जो रह रहा है, उसको कभी पता ही नहीं चलता कि मैं भी सुखी हूं। वह सड़क का भिखमंगा कहता है कि कितना सुखी है यह आदमी। और यह आदमी इस मकान वाला भी बड़े महल के बाहर से निकलता है तो कहता है, कितना सुखी है यह आदमी। कैसा मकान, कैसा महल! उस महल में रहने वाले को कोई पता नहीं अपने सुख का।

सुख के हम आदी हो जाते हैं और दुख के हम कभी आदी नहीं हो पाते। तो दुख दिखता ही रहता है और सुख दिखना बंद हो जाता है। अपना दुख दिखता है, अपने शुभ कर्म दिखते हैं कि मैंने यह-यह किया, यह-यह अच्छा किया। क्योंकि अहंकार अपने गलत कर्म को छिपा देता है, मिटा देता है और अपने अच्छे कर्मों की लंबी कतार बढ़ा कर खड़ा कर लेता है।

और तब एक मुश्किल खड़ी हो जाती है, दूसरे के अशुभ कर्म दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि दूसरे को शुभ मानना भी हमारे अहंकार को दुख देता है कि हमसे भी कोई अच्छा हो सकता है! साधारण आदमी को छोड़ दें, बड़े से बड़े साधु से कहें कि आपसे भी बड़ा साधु एक गांव में आ गया, वह और भी पवित्र आदमी है। आग लग जाएगी। क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि मुझसे ज्यादा पवित्र आदमी कोई है!

तो दूसरे की अपवित्रता हम खोजते रहते हैं निरंतर, इसीलिए निंदा में इतना रस है। निंदा में और कोई कारण नहीं है। निंदा का इतना रस है। शायद उससे गहरा कोई रस ही नहीं है। न संगीत में आदमी को इतना आनंद आता है, न सौंदर्य में, जितना निंदा में आता है। सौंदर्य छोड़ सकता है, संगीत छोड़ सकता है, सब छोड़ सकता है; अगर गहरी निंदा का मौका मिल जाए तो उस रस को वह नहीं चूकेगा! अगर हम लोगों की बातचीत पता लगाने जाएं तो सौ में से नब्बे प्रतिशत बातचीत किसी की निंदा से संबंधित होगी!

निंदा में रस है, क्योंकि दूसरे को छोटा दिखाने में अपना बड़ा होने का खयाल है। इसलिए हर आदमी दूसरे को छोटा दिखाने की कोशिश में लगा हुआ है। इसीलिए अगर कोई हमसे आकर कहे कि फलां आदमी बहुत अच्छा है, तो हम एकदम से नहीं मान लेते। हम कहेंगे भई, आपकी बात सुनी, जांच-पड़ताल करेंगे, खोज-बीन करेंगे। क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता कि आदमी इतना अच्छा हो। अब कहां इतने अच्छे आदमी होते हैं! ये सब बातें हैं। सब दिखते हैं ऊपर से अच्छे, भीतर से तो कोई अच्छा होता नहीं।

लेकिन एक आदमी हमसे आकर कहता है कि फलां आदमी बिलकुल चोर है, हम कभी नहीं कहते कि हम खोज-बीन करेंगे। हम कहते हैं, बिलकुल होगा ही। यह तो होता ही है। सब चोर हैं ही।

जब कोई किसी की बुराई करता है तो हम बिना खोज-बीन के मान लेते हैं, तर्क भी नहीं करते, विवाद भी नहीं करते! लेकिन जब कोई किसी की अच्छाई की बात कहता है तो हम बड़े सचेत हो जाते हैं, हजार तर्क करते हैं, और फिर भी भीतर संदेह को रखते हैं। और जांच रखते हैं जारी कि कहीं कोई मौका मिल जाए और हम बता दें कि देखो, वह तुम गलत कहते थे कि यह आदमी अच्छा था। इस आदमी में ये-ये चीजें दिखाई पड़ गईं।

हम दूसरे को छोटा दिखाना चाहते हैं। दूसरे को बड़ा मानना बड़ी मजबूरी में होता है। अत्यंत कष्टपूर्ण है यह, किसी को बड़ा मानना। इसलिए जिसको हम बड़ा भी मान लें अगर किसी मजबूरी में, तो भी हमारे मन में हम जांच-पड़ताल जारी रखते हैं कि कोई मौका मिल जाए तो इसको छोटा सिद्ध कर दें। कोई तरकीब मिल जाए, कोई मौका मिल जाए कि इसको छोटा सिद्ध कर दें तो हम निश्चिंत हो जाएं, वह एक बोझ उतर जाए सिर से।

तो आदमी दूसरे का देखता है अशुभ और दूसरे का देखता है सुख, अपना देखता है शुभ और देखता है दुख। भारी उपद्रव हो गया। तब वह कर्मवाद के सिद्धांत में यह सब घुस गया।

मेरी मान्यता यह है कि अगर कोई सुख भोग रहा है तो वह कुछ ऐसा जरूर कर रहा है जो सुख का कारण है, क्योंकि बिना कारण के कुछ भी नहीं हो सकता। अगर एक डाकू भी सुखी है तो उसमें कुछ कारण हैं उसके सुखी होने के। और अगर एक साधु भी सुखी नहीं है तो उसके कारण हैं।

अब अगर दस डाकू साथ होंगे तो उनमें इतनी ब्रदरहुड, इतना भाईचारा होगा, जितना दस साधुओं में कभी सुना ही नहीं गया है। सुना ही नहीं गया है। कभी नहीं सुना गया है कि दस साधुओं में कोई भाईचारा, कोई दोस्ताना, कोई मित्रता। लेकिन दस डाकुओं में ऐसा भाईचारा, ऐसी मित्रता। तो मित्रता के सुख हैं, वह डाकू भोगेगा। साधु कैसे भोगेगा उस सुख को? डाकू कभी एक-दूसरे से झूठ नहीं बोलेंगे, बोलेंगे ही नहीं। लेकिन साधु एक-दूसरे से बिलकुल झूठ बोलते रहेंगे। तो सच बोलने का एक सुख है, जो वे भोगेंगे, जो साधु नहीं भोग सकता।

प्रश्न:

 

अकस्मात जो घटनाएं हो जाती हैं, उसकी क्या वजह है?

कोई घटना अकस्मात नहीं होती। असल में उस घटना को हम अकस्मात कहते हैं, जिसका कारण नहीं खोज पाते। ऐसी घटनाएं होती हैं जिनका कारण हमारी समझ में नहीं पड़ता, लेकिन कोई घटना अकस्मात नहीं होती।

प्रश्न:

 

जैसे लाटरी निकलती है जो…?

कोई अकस्मात नहीं है वह भी। वह भी अकस्मात नहीं है। क्योंकि हमें दिखता है कि अकस्मात है।

मैं एक घटना बताऊं। पुंगलिया यहां बैठे हुए हैं, कोई चार-पांच वर्ष पहले उन्होंने एक नई गाड़ी ली और मुझे लेने वे नासिक आए। ऐसे माणिक बाबू आते हैं मुझे हमेशा लेने पूना से, पर उन्होंने माणिक बाबू को रोक दिया कि मेरी नई गाड़ी है, मैं लेकर आता हूं।

तो वे नई गाड़ी लेकर आए। लेकिन उनकी लड़की ने उनको कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि आपकी गाड़ी में वे आते नहीं। पर यह ऐसी बात थी कि जिसका कोई मतलब न था। जब वे लेकर जा रहे हैं गाड़ी में तो आएंगे क्यों नहीं? शायद उन्होंने सोचा कि शायद मैं दूसरी गाड़ी में आ जाऊं या कुछ हो जाए। बात खतम हो गई। मैं उस रात, मुझे भी ऐसा खयाल हुआ कि कुछ उपद्रव रास्ते में हो सकता है। मैंने कहा कि कोई बात नहीं है।

सुबह बारह बजे के करीब हम निकले वहां से। तो वह जो ड्राइवर था, वह नया था पुंगलिया का। वह इतनी तेजी से भगा रहा था कि मुझे दोत्तीन बार ऐसा मन में लगा कि यह कहीं भी गाड़ी उतरेगी। लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। एक रास्ते में एक गाड़ी को हम लोग क्रास किए–कोई एक डाक्टर की, बंगाली डाक्टर की गाड़ी को–तो उस गाड़ी में जो महिला बैठी थी, उसको भी लगा कि यह गाड़ी कहीं गिरेगी। और वह एक दो मिनट बाद ही जाकर एक्सीडेंट हो गया। वह गाड़ी उतर गई नीचे और रेत में उलटी हो गई, चारों व्हील ऊपर हो गए। छोटी स्टैंडर्ड हैराल्ड गाड़ी थी। और माणिक बाबू घर सोए, तो उन्होंने सपना देखा कि मेरे हाथ में बहुत चोट आ गई है। अब इससे कोई संबंध नहीं था इन सारी बातों का।

और आखिर में यह हुआ कि पूना मैं माणिक बाबू की ही गाड़ी में पहुंचा, क्योंकि वे फिर मुझे लेने आए। तो पुंगलिया की लड़की को जो खयाल हुआ था कि वह अपनी गाड़ी में आते नहीं, वह भी सही हो गया। हमारी गाड़ी उलट गई। पीछे से वह डाक्टर की गाड़ी आकर रुकी, उसने कहा कि मेरी पत्नी ने अभी कहा था कि यह गाड़ी गिर न जाए। यह जिस ढंग से जा रही है, यह कहीं गिर न जाए। तो मैंने कहा, ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिए। और वह तो हम सोच ही रहे थे, तभी गिर गई है आपकी गाड़ी।

दिखेगा ऊपर से बिलकुल अकस्मात–अकस्मात ही है, लेकिन एकदम अकस्मात नहीं मालूम होता। एकदम अकस्मात नहीं मालूम होता। इतना ही मालूम होता है कि शायद कारण हमें पता नहीं चलते हैं। कारण हमें पता नहीं चलते हैं, कारण हमारे खयाल में नहीं हैं। और अगर इस बात का पूरा विज्ञान थोड़ा विकसित, समझ में आ जाए, तो कारण भी समझ में आ सकेंगे।

अब जैसे मैं कहूं, यहां सोवियत रूस के कुछ हिस्सों में, बाकू के इलाके में हजारों साल से सबसे बड़ा मेला लगता था दुनिया का, जहां एक देवी का मंदिर है, अग्नि देवी का, और वर्ष के खास दिन में उसमें अपने आप ज्वाला प्रज्वलित हो जाती है। कोई आग लगानी नहीं पड़ती, कोई ईंधन डालना नहीं पड़ता। और जब ज्वाला प्रज्वलित होती है तो वह आठ-दस दिन तक चलती है, तो आठ-दस दिन वहां मेला लगता है और करोड़ों लोग इकट्ठे होते हैं। और बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना थी। और कोई कारण समझ में नहीं आता था। क्योंकि न कोई ईंधन है, न कोई वजह है।

फिर कम्युनिस्ट वहां आए तो उन्होंने तो मंदिर-वंदिर उखाड़ दिया, मेला-वेला बंद करवा दिया। और खुदाई करवाई तो वहां तेल के गहरे झरने निकले, मिट्टी के तेल के। लेकिन सवाल यह उठा कि वह एक खास पर्टिकुलर दिन पर वर्ष में आग लगती थी। तेल के झरने से गैस बनती है, गैस जल भी सकती है घर्षण से, लेकिन वह कभी भी जल सकती है।

लेकिन तब खोज-बीन से पता चला कि पृथ्वी जब एक खास कोण पर होती है, तभी वह गैस घर्षण कर पाती है, इसलिए खास दिन आग जल जाती है।

जब बात साफ हो गई तो मेला बंद हो गया, अग्नि देवता विदा हो गए। अब वहां कोई नहीं जाता, क्योंकि अब…अब भी वहां जलती है आग, अब भी खास दिन पर जब पृथ्वी एक खास कोण पर होती है, तभी वह गैस जो इकट्ठी हो जाती है वर्ष भर में, वह फूट पड़ती है और आग लग जाती है। तब तक वह अकस्मात था, अब वह अकस्मात नहीं है। अब हमें कारण का पता चल गया है।

प्रश्न:

 

इस कहानी में जो आपने आगे कहा, यह जो गाड़ी उलट गई, उसके बाद का मैं कहता हूं। गाड़ी उलट गई, आप सब बच गए उसमें। तो सबका कहना था आप जैसी पुण्य आत्मा उसमें थी, इसलिए सब बच गए। वह बात सबने मान ली, कि आप उसमें थे, इसलिए सब बच गए। उसका स्पष्टीकरण क्या है?

हीं, असल में होता क्या है, असल में होता क्या है, हम सब बचना चाहते हैं। हम सब बचना चाहते हैं और बचने के लिए, अगर बच जाएं तो भी कोई कारण हम खोज लेंगे, न बच जाएं तो भी कोई कारण हम खोज लेंगे। कारण हम स्थापित कर दें कोई, यह एक बात है और कारण की खोज बिलकुल दूसरी बात है।

मेरा मतलब आप समझे न? यानी एक तो यह होता है कि हम जो होना चाहते हैं, उसके लिए भी हम कोई कारण खोज लेते हैं। और इसके भी पीछे एक बुनियादी बात है और वह यह है कि बिना कारण के कोई भी चीज कैसे होगी, यह बुनियादी सिद्धांत हमारे भीतर काम कर रहा है। अगर चारों आदमी बच गए और जरा भी चोट नहीं पहुंची तो कोई न कोई कारण इसका होना ही चाहिए।

अगर ठीक से समझें तो इतने दूर तक तो साइंटिफिक है मामला, क्योंकि अकारण यह भी नहीं हो सकता। लेकिन कारण क्या होगा, वह हमें पता नहीं है, तो हम कुछ भी कल्पित कर लेते हैं। हम यह कह सकते हैं कि एक अच्छा आदमी था, इसलिए बच गए। और अगर मान लो न बचते, तो भी हम कोई कारण खोज लेते। तब भी हम कारण खोज लेते कि एक बुरा आदमी था, इसलिए मर गए।

इसमें एक ही बात पता चलती है वह यह कि आदमी अकारण किसी बात को मानने को राजी नहीं है, और यह बात ठीक है। लेकिन इससे वह जो कारण बताता है, वे कारण ठीक हैं, यह जरूरी नहीं है। उन कारणों की तो वैज्ञानिक परीक्षा होनी चाहिए। जैसे कि मुझे बिठाल कर दो-चार दफे गाड़ी गिरानी चाहिए।

आप मेरा मतलब समझे न? और अगर मेरे साथ दो-चार दफे गिराने से जो भी गिरें, वे सब बच जाएं, तो फिर जरा पक्का होगा। और अगर न बचें तो पुंगलिया जी गलत कहते हैं। वैसा कुछ मामला नहीं है। मेरा मतलब यह है कि वैज्ञानिक परीक्षण के बिना कोई उपाय नहीं है। कारण तो हम मानते हैं। और एक बात ठीक है उसमें, वह यह कि अकारण कोई आदमी किसी बात को मानने को राजी नहीं है, होना भी नहीं चाहिए। लेकिन दूसरी बात ठीक नहीं है, तब हमें कोई भी कल्पित कारण नहीं मान लेना चाहिए। कोई भी कल्पित कारण नहीं मान लेना चाहिए।

उतना हमें ध्यान रखना चाहिए कि कारण को भी हम फिर स्थापित करने के लिए प्रयोग करें। क्योंकि अगर कारण सही है तो निरपवाद सही हो जाएगा। दो-चार-दस दफे मुझे गिरा कर देखेंगे तो उससे पता चलेगा कि भई, सबको चोट लगती है कि नहीं लगती।

और मजे की बात यह है कि चोट अगर लगी तो थोड़ी सिर्फ मुझको ही लगी थी उसमें, बाकी किसी को बिलकुल नहीं लगी थी। थोड़ा सा जो भी लगा था वह मेरे ही पैर में लगा था, बाकी तो किसी को नहीं लगा था। तो अगर बुरा आदमी कोई था भी उसमें तो मैं ही था। क्योंकि किसी को जरा, जरा सी भी खरोंच भी नहीं किसी को आई थी।

तो वह तो बाकी हम कल्पित आरोपण करते हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन अकस्मात कुछ भी नहीं है। अकस्मात कुछ भी नहीं है, क्योंकि अकस्मात अगर हम मान लें तो कार्य-कारण का सिद्धांत गया, एकदम गया। एक बात भी अगर इस जगत में अकस्मात होती है तो सारा सिद्धांत गया, फिर कोई सवाल नहीं है उसके बचने का। अकस्मात कुछ होता ही नहीं, हो ही नहीं सकता। क्योंकि होने के पीछे कारण के बिना होने का उपाय ही नहीं है। कारण होगा ही।

अब जैसे एक आदमी है और उसको लाटरी मिल जाती है, तो बिलकुल ही अकस्मात बात है। क्योंकि अब इसमें तो कोई कारण हम खोज नहीं सकते कि इसमें क्या कारण खोजें? इसमें क्या कारण खोजें? एक आदमी को लाटरी मिल जाती है तो हमें कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन एक लाख आदमियों ने अगर लाटरी के टिकट भरे हैं और एक आदमी को मिल गई है, तो किसी दिन अगर वैज्ञानिक क्षमता हमारी बढ़े और एक लाख लोगों के चित्तों का विश्लेषण हो सके तो मैं आपको कहता हूं, वह कारण मिल जाएगा जो इस आदमी को मिलने का वजह है।

अब हो सकता है इन एक लाख लोगों में सबसे ज्यादा संकल्प का आदमी यही है, यह हो सकता है। और सबसे ज्यादा सुनिश्चित इसी ने मान लिया है कि लाटरी मुझे मिलने वाली है, यह हो सकता है। एक उदाहरण दे रहा हूं। और हजार कारण हो सकते हैं। अगर इन लाख लोगों में सबसे संकल्पवान आदमी जो है, विल पावर का आदमी जो है, उसके मिलने की संभावना ज्यादा है, क्योंकि उसके पास एक कारण है, जो दूसरों के पास कारण नहीं है। अभी इस पर बहुत प्रयोग चलते हैं।

अगर हम एक मशीन से ताश के पत्ते फेंकें, या मशीन से हम पांसे फेंकें, तो मशीन तो कोई विल नहीं होती मशीन में, मशीन पांसे फेंक देती है। अगर सौ बार पांसे फेंकते हैं तो समझ लीजिए, दो बार बारह का अंक आता है। तो यह अनुपात हुआ मशीन के द्वारा फेंकने का। तो मशीन का तो कोई विल नहीं है, कोई इच्छा नहीं है। मशीन तो सिर्फ फेंक देती है पांसे, हिला देती है, फेंक देती है। सौ बार फेंकने में दो दफे बारह का अंक आता है।

अब एक दूसरा आदमी है जो हाथ से पांसे फेंकता है, और हर बार भावना करके फेंकता है कि बारह का अंक आए। वह सौ में बीस बार बारह का अंक ले आता है। आंख बंद है उसकी, हाथ देख नहीं सकता कि पांसा कैसा है, क्या है, और वह बीस बार ले आता है। एक तीसरा आदमी है, जो कितने ही उपाय करता है कि बारह का आंकड़ा आ जाए, लेकिन सौ में दो बार भी नहीं ला पाता। यानी दो बार जो कि मशीन भी ले आती है, जो कि बिलकुल ही कांबिनेशन का सवाल है, वह दो बार भी नहीं ला पाता!

यह जो बीस बार लाता है, इस आदमी से हम दुबारा प्रयोग करवाते हैं कि तू इस बार पक्का कर कि बारह का आंकड़ा नहीं आने देना है। तो वह आंकड़ा फेंकता है तो बीस बार नहीं आता, समझो पांच बार आता है, तीन बार आता है, दो बार आता है।

तो अब सवाल होगा यह कि भीतर की विल काम करती है! इस पर हजारों प्रयोग किए गए हैं और यह निर्णीत हो गया है कि भीतर का संकल्प पांसे तक को प्रभावित करता है, भीतर का संकल्प ताश के पत्तों को प्रभावित करता है, भीतर का संकल्प घटनाओं को बांधता है और प्रभावित करता है। और भीतर का संकल्प भी हजारों उस आदमी के अनुभवों का और कारणों का परिणाम होता है। वह भी आकस्मिक नहीं है कि किसी आदमी को भीतरी संकल्प मिल गया। भीतरी संकल्प भी उसके हजारों उन अनुभवों और कारणों का फल होता है, जिनसे वह गुजरा।

समझ लीजिए कि एक आदमी है और उसने तय किया कि मैं बारह घंटे तक आंख नहीं खोलूंगा। और वह आदमी बैठ गया और बारह घंटे में उसने तीन ही घंटे बाद आंख खोल ली, तो इस आदमी का भावी संकल्प क्षीण हो जाएगा, इस आदमी के संकल्प की शक्ति क्षीण हो जाएगी। अगर वह बारह घंटे तक आंख बंद किए बैठा ही रहा, कोई उपाय नहीं किए जा सके कि वह आंख खोले बारह घंटे में, तो यह आदमी अब एक कर्म कर रहा है, जिसका फल होगा कि इसका भीतरी संकल्प मजबूत हो जाएगा।

जीवन बहुत जटिल है और उसमें कोई बात कैसे घटित हो रही है, यह कहना एकदम ही मुश्किल है। आज मुश्किल है, लेकिन इतना कहना निश्चित कहा जा सकता है कि हो रही है तो पीछे कारण होगा, चाहे ज्ञात हमें न हो, चाहे अज्ञात हो। अब जो भी हो रहा है हमारे चारों तरफ…।

दक्षिण में एक बड़े संगीतज्ञ का जन्मदिन मनाया जा रहा है पचहत्तरवां। बूढ़ा हो गया है, उसके हजारों शिष्य हैं और वे सब भेंटें चढ़ाने आए हैं, क्योंकि हो सकता है अगले वर्ष वह जीए भी नहीं। और उसके हजारों भक्त हैं, प्रेमी हैं, वे सब भेंट चढ़ाने आए हैं। रात दो बजे तक भेंट चलती रही है। लाखों रुपयों की भेंट चढ़ गई है। राजा हैं, रानियां हैं, जिन्होंने उससे सीखा है, वे सब देने आए हैं।

आखिर में दो बजे एक भिखारी जैसा आदमी एक इकतारा लिए हुए द्वार पर आया है। तो सिपाही ने उससे कहा, तुम कहां जाते हो? उसने कहा कि मैं भी कुछ भेंट कर आऊं। उन्होंने कहा, तुम्हारे पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तो उस भिखारी ने कहा कि जरूरी नहीं है कि जो दिखाई पड़े, वही भेंट किया जाए। जो नहीं दिखाई पड़ता, वह भी भेंट किया जा सकता है। तंबूरा भी उसने सिपाही के पास रख दिया और भीतर गया। भीतर जाकर उसने पैर पर सिर रखा।

उस भिखारी की उम्र मुश्किल से तीस-बत्तीस वर्ष है। तो बूढ़ा गुरु तो उसे पहचान भी नहीं सका। उसने कहा कि तुमने कब मुझसे सीखा, मुझे याद नहीं पड़ता। उसने कहा, मैंने कभी आपसे नहीं सीखा, क्योंकि मैं एक भिखारी का लड़का हूं। लेकिन महल के भीतर आप बजाते थे, मैं बाहर बैठ कर सुनता था और वहीं मैं भी कुछ सीखता रहा। लेकिन अब आज धन्यवाद तो देने आना ही चाहिए। सीखा तो आप से ही है। द्वार की सीढ़ी के बाहर बैठ कर ही सीखा है, कभी भीतर नहीं आ सका, क्योंकि भीतर आने का कोई उपाय नहीं था। आज भी आना बड़ी मुश्किल से हुआ। एक छोटी सी भेंट लाया हूं, अंगीकार करेंगे? इनकार तो न कर देंगे?

तो उस गुरु ने सहज ही कहा कि नहीं-नहीं, इनकार कैसे कर दूंगा? पर देखा कि उसके पास कुछ है तो नहीं। हाथ खाली हैं, कपड़े फटे हैं। कहां की भेंट है! कैसी भेंट है! कहा, नहीं-नहीं, इनकार कैसे कर दूंगा? तुम जो दोगे, जरूर ले लूंगा।

उसने आंख बंद की और ऊपर जोर से कहा, हे भगवान! मेरी बाकी उम्र मेरे गुरु को दे दे, क्योंकि मैं जीकर भी क्या करूंगा! और यह कहते ही से वह आदमी मर गया।

यह ऐतिहासिक घटना है। संकल्प इतना प्रबल अगर किसी आदमी का है तो यह हो सकता है, यह बहुत कठिन नहीं है। और वह गुरु कोई पंद्रह वर्ष और जीया जिसकी एक ही साल में मर जाने की आशा थी। यह ऐसा व्यक्ति अगर लाटरी पर नंबर लगा दे…।

प्रश्न:

 

कोइंसीडेंस नहीं कहा जा सकता इसको?

कोइंसीडेंस हमें दिखेगा, क्योंकि हमें कारण तो दिखाई पड़ते नहीं। वही तो, वही तो ह्यूम कहता है कि सब कोइंसीडेंस है। वही ह्यूम कहता है, क्योंकि कारण कहां दिखाई पड़ रहे हैं? जिनमें हमें दिखाई पड़ जाते हैं, उसमें तो हम राजी हो जाते हैं। जिसमें नहीं दिखाई पड़ते, कोइंसीडेंस, संयोग मालूम पड़ता है।

लेकिन संयोग भी बड़ा अदभुत है कि एक आदमी कहे कि मेरी उम्र चली जाए और उसी वक्त उसकी उम्र चली जाए। इतना एकदम आसान नहीं है संयोग भी। हो सकता है, लेकिन यह होना भी एकदम आसान नहीं मालूम पड़ता। और वह वहीं गिर जाए और ढेर हो जाए।

इतने संकल्प का आदमी अगर लाटरी का नंबर लगा दे, तो बहुत कठिन नहीं है कि निकल आए। यानी मैं कह कुल इतना रहा हूं कि बहुत से कारण हैं, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते हैं। नहीं पड़ने की वजह से अंधेरे में हम टटोलते हुए लगते हैं और हमको लगता है ऐसा हो रहा है, वैसा हो रहा है, आकस्मिक दिखता है। आकस्मिक कुछ भी नहीं है।

प्रश्न:

 

किसी एक को मिलनी थी लाटरी, इसलिए उसको मिली है, ऐसा नहीं कहा जा सकता? किसी एक को तो मिलनी ही थी लाटरी, इसलिए उसको मिल गई।

 

ब यह है जो मामला न, इसकी भविष्यवाणी भी की जा सकती है कि किसको मिलेगी। इसकी भविष्यवाणी भी की जा सकती है। ऐसी भविष्यवाणी करने वाले लोग भी हैं, जो एक लाख लोग लाटरी लगाए हुए हैं, उनमें से बता सकें कि किसको मिलेगी। तब क्या करोगे?

तब तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा, तब तो बहुत कठिन हो जाएगा कि यह…हिटलर की मृत्यु को बताने वाले लोग हैं कि किस दिन हो जाएगी। गांधी की मृत्यु को बताने वाले लोग हैं कि किस दिन हो जाएगी। चीन किस दिन हमला करेगा भारत पर, इसको बताने वाले लोग हैं। हमला होगा, इसको बताने वाले लोग हैं।

एक अर्थ में हम कह सकते हैं, सब संयोग है।

प्रश्न:

 

लेकिन हिरोशिमा में दो लाख व्यक्ति भी एक साथ मर गए!

हां, हां, मरे। दो लाख व्यक्ति भी एक साथ मर सकते हैं। दो लाख व्यक्ति भी एक साथ मर सकते हैं। क्योंकि हमें ऐसा लगता है न! किसी न किसी दिन तो ऐसा होगा कि सारी पृथ्वी एक साथ मरेगी। यह हमें लगता है कि यह कितना आकस्मिक है कि दो लाख आदमी एक साथ मर गए! क्योंकि इन दो लाख व्यक्तियों के भीतर भी हमारा कोई प्रवेश नहीं है। इन दो लाख व्यक्तियों की संभावनाओं के भीतर भी हमारा कोई प्रवेश नहीं है। और ऊपर से ऐसा ही दिखता है कि बिलकुल आकस्मिक है कि एटम गिरा।

लेकिन कोई पूछे कि हिरोशिमा ही पर क्यों गिरा? हिरोशिमा कोई महत्वपूर्ण नगर न था, टोकियो पर गिर सकता था। हिरोशिमा पर क्यों गिरा? नागासाकी पर क्यों गिरा?

यह जब तक हमें पूरा का पूरा भीतर प्रवेश न हो जाए कारणों के, जिनका कि प्रवेश नहीं है, जब तक कि हम हिरोशिमा के लोगों के भीतर न घुस सकें, कोई नहीं कह सकता कि हिरोशिमा में जापान में सबसे ज्यादा सुसाइडल लोग हों। यह मैं कहता हूं। यह कोई नहीं कह सकता कि जापान के सारे नगरों में सबसे ज्यादा आत्मघाती लोग हिरोशिमा में हों, इसलिए हिरोशिमा एटम को आकर्षित करता हो। मेरा आप मतलब समझ रहे हैं न? यानी मेरा मतलब यह है कि हिरोशिमा क्यों? हिरोशिमा क्यों मरने के लिए चुना गया है?

प्रश्न:

 

वह तो आर्डर्स होंगे न?

यानी ये आर्डर्स भी, इतने बड़े जापान में हिरोशिमा को ही चुना जाए! हिरोशिमा का आपने नाम भी नहीं सुना होगा पहले कभी। हिरोशिमा को चुना जाए यह आकस्मिक, यानी मैं यह कह रहा हूं, आकस्मिक नहीं हो सकता। यह भी भीतर कार्य-कारण लिए होगा। हिरोशिमा हो सकता है पृथ्वी पर सबसे ज्यादा आत्मघाती लोगों का नगर है, और वह आकर्षित करता है कि उसे मारा जाए और उसका चित्त आकर्षित करता है।

अब यह जान कर हैरानी होगी आपको कि अगर एक मोटर में एक्सीडेंट हो जाए, एक एयरोप्लेन में एक्सीडेंट हो जाए, चूंकि चित्त को तो हम जानते नहीं, कोई नहीं कह सकता कि उस हवाई जहाज पर बैठे हुए लोगों के चित्त में क्या चल रहा है और वह किस भांति परिणाम ला सकता है। यह कोई नहीं कह सकता।

मेहरबाबा की जिंदगी में कुछ दोत्तीन घटनाएं हैं बड़ी अदभुत। एक मकान उनके लिए बनाया गया। उनके लिए ही बनाया गया और उस मकान में वे प्रवेश करने गए। दरवाजे पर खड़े होकर–यानी प्रवेश का उत्सव मनाया जा रहा है, फूल-झाड़ लगाए गए हैं, दीए जलाए गए हैं–दरवाजे पर खड़े होकर वे दो मिनट रुके और वापस लौट आए। उन्होंने कहा, इस मकान में मैं नहीं जाऊंगा। तो लोगों ने कहा, क्या मतलब है आपका इस मकान में न जाने से? उन्होंने कहा, बस। और मुझे कुछ नहीं लगता, लेकिन बस दरवाजे पर मैं एकदम ठिठक…मैं मकान में नहीं जाता।

वह मकान उसी रात गिर गया। इस आदमी को भी साफ नहीं है कि क्या हुआ, लेकिन सीढ़ी पर उसको एकदम झिझक मालूम हुई है और उसने इनकार कर दिया।

मेहरबाबा एक दफा हिंदुस्तान से यूरोप जाते हैं हवाई जहाज से और अदन में वापस चढ़ने से इनकार कर देते हैं। उनकी टिकट तो है आगे तक की। अदन पर जहाज रुका है, वे नीचे एयरपोर्ट पर उतरे हैं और उसके बाद वे एकदम इनकार कर देते हैं कि मैं जहाज पर नहीं चढ़ सकता। और वह जहाज गिर जाता है।

जापान में एक घटना घटी, पिछले महायुद्ध में एक अमरीकी जनरल जा रहा है एक हवाई जहाज से किसी मिलिट्री के काम से किसी दूसरे मिलिट्री के कैंप में। वह घर से निकल गया है सुबह आठ बजे। उसकी टाइपिस्ट भागी हुई उसके घर पहुंची कोई सवा आठ बजे और उसकी पत्नी से कहा कि जनरल कहां हैं? उसने कहा, क्यों? कहा कि रात मैंने एक सपना देखा, मैं उनको कह दूं। मैं बहुत डर गई हूं, मगर पहले तो मैंने सोचा कहना कि नहीं, इसलिए इतनी देर हो गई। क्या सपना देखा? उसकी पत्नी ने पूछा।

तो वह अपना सपना बताती है। बताती है कि मैंने देखा कि जनरल जिस हवाई जहाज से आज जा रहे हैं, वह टकरा जाता है बीच में। उसमें जनरल हैं, पायलट है और एक औरत है, तीन लोग हैं। वह टकरा जाता है, हालांकि मरता कोई नहीं। टकरा जाता है, तीनों बच जाते हैं। लेकिन मुझे ऐसा सपना आया तो मैंने कहा…।

तो उसकी पत्नी ने कहा कि तुम्हारा सपना यहीं से गलत हो गया, क्योंकि जनरल और पायलट दो ही जा रहे हैं, उसमें कोई औरत नहीं है। उसमें कोई औरत है ही नहीं। और वे तो निकल चुके हैं। फिर भी वह पत्नी और वह दोनों कार से एयरपोर्ट पहुंचते हैं। लेकिन जब वे पहुंचे हैं, तब जनरल जा चुका है। लेकिन एयरपोर्ट पर पता चलता है कि एक औरत भी गई है। एक औरत ने वहीं आकर कहा कि मेरा पति बीमार है–वह किसी मिलिट्री आदमी की औरत है–मेरा पति बीमार है और मुझे कोई इस वक्त जाने का उपाय नहीं, तो मुझे आप ले चलें तो बड़ी कृपा होगी। तो जनरल ने कहा, पूरा हवाई जहाज खाली है, कोई बात नहीं, तुम चलो। एक औरत गई है।

तब उसकी पत्नी भी घबड़ा गई। और वे एयरपोर्ट पर ही हैं कि उनको खबर मिलती है कि वह जहाज टकरा गया है, लेकिन मरा कोई नहीं। और उस लड़की ने, जिसको टाइपिस्ट को यह सपना आया है, उसने ठीक कितनी बड़ी चट्टान है, जिससे वे टकराते हैं, कैसी जगह है, वहां कैसे दरख्त हैं, वह सब उसने कहा हुआ है। वह सब शब्द-शब्द सही निकल गया। लेकिन अगर यह सपना नहीं है तो बात अकस्मात है। लेकिन अगर यह सपना है पीछे तो बात एकदम अकस्मात नहीं है, कुछ फोर्सेस काम कर रही हैं, कुछ कारण काम कर रहे हैं, जिनका तालमेल आधा घंटे, घंटे भर बाद होकर, उस जहाज को गिरा देने वाला है।

जिंदगी जैसी हम देखते हैं, उतनी सरल नहीं है, सब चीजें समझ में नहीं भी आती हैं। लेकिन इतनी बात तो समझ में आती ही है कि अकारण कुछ भी नहीं है। कर्म के सिद्धांत का बुनियादी आधार यह है कि अकारण कुछ भी नहीं है। दूसरा बुनियादी आधार यह है कि जो हम कर रहे हैं, वही हम भोग रहे हैं और उसमें जन्मों के फासले नहीं हैं। और जो हम भोग रहे हैं, हमें जानना चाहिए कि हम उस भोगने के लिए जरूर कुछ उपाय कर रहे हैं–चाहे सुख हो, चाहे दुख हो, चाहे शांति हो, चाहे अशांति हो।

प्रश्न:

 

जो बच्चे अंगहीन पैदा हो जाते हैं, अंधे हो जाते हैं या और अस्वस्थ पैदा हो जाते हैं, उसमें उन्होंने कौन सा कर्म किया है, जिसकी वजह से वे हो गए?

हां, बहुत कारण हैं। अब यह सारी बात समझने जैसी है असल में। और महीपाल जी ने एक सवाल पूछा है, वह भी उसमें आ जाए। एक बच्चा अंधा पैदा होता है तो दो घटनाएं घट रही हैं, अगर वैज्ञानिक से पूछेंगे तो वह कहेगा, इसके मां-बाप के जो अणु मिले, उनमें अंधेपन की गुंजाइश थी। वैज्ञानिक यहां समझाएगा। वह भी अकारण नहीं मानता इसको, वह भी कारण मानता है। लेकिन कारण वह विज्ञान के खोजेगा। वह कहेगा, जो मां-बाप के अणु मिले, उन अणुओं से अंधा बच्चा ही पैदा हो सकता था। अंधा बच्चा पैदा हो गया है। उन अणुओं में कुछ कमी थी केमिकल, रासायनिक, जिससे कि आंख नहीं बन पाई, आंख नहीं बनी। वैज्ञानिक यह कहेगा। वह भी अकारण नहीं मानता इसको।

लेकिन धार्मिक कहेगा कि बात इतनी ही नहीं है, और भी पीछे कारण हैं। जो आदमी मरा–क्योंकि विज्ञान के लिए तो आदमी सिर्फ जन्मता है, जन्म के पहले कुछ भी नहीं है। इसीलिए विज्ञान पूरा वैज्ञानिक नहीं है। क्योंकि जब विज्ञान कहता है कि अंधे बच्चे के पैदा होने के पीछे कारण हैं, तो वह अंत में इस बात को इनकार कैसे कर सकता है कि पैदा होने के पीछे भी और कारण हैं, सिर्फ अंधे होने के पीछे ही नहीं। यानी वह इतना तो मानता है कि अंधा पैदा होगा, क्योंकि अणुओं में कुछ ऐसा कारण है, जिससे अंधा पैदा होना है। लेकिन पैदा ही क्यों होगा? यह पैदा ही क्यों होगा यह आदमी? वह बस अणुओं के मिलने पर शुरुआत मानता है। उसके पीछे?

धर्म कहता है, उसके पीछे भी कार्य-कारण की शृंखला है, उसको भी तोड़ा नहीं जा सकता। तो धर्म यह कहता है कि जो आदमी मरा, जो आदमी मरा, मरते वक्त तक ऐसी स्थितियां हो सकती हैं कि वह आदमी खुद भी आंख न चाहे। समझ लें इसको। ऐसी स्थितियां हो सकती हैं कि वह आदमी खुद भी आंख न चाहे। या ऐसे उसके कर्मों का पूरा का पूरा योग हो सकता है उस क्षण में कि आंख संभव न रहे। और ऐसा आदमी अगर मरे तो ऐसी आत्मा उसी मां-बाप के शरीर में प्रवेश कर सकेगी, जहां अंधे होने का संयोग जुड़ गया है। यानी ये दोहरे कारण हैं।

अब जैसे मैं उदाहरण के लिए कहूं, एक लड़की को मैं जानता हूं, जिसकी आंख चली गई। और आंख सिर्फ इसलिए चली गई कि उसके प्रेमी से उसे मिलने को मना कर दिया गया, देखने को मना कर दिया गया। और उसके मन में भाव इतना गहरा हो गया इस बात का कि जब प्रेमी को ही नहीं देखना है तो फिर देखना भी क्या है! यह भाव इतना संकल्पपूर्ण हो गया कि आंख चली गई। और किसी इलाज से आंख नहीं लौटाई जा सकी, जब तक कि उसको प्रेमी से मिलने नहीं दिया गया। मिलने से आंख वापस लौट आई। उसके मन ने ही आंख का साथ छोड़ दिया।

तो मरते क्षण में, मरते वक्त में आत्मा के पूरे के पूरे जीवन की व्यवस्था, उसका चित्त, उसके संकल्प, उसकी भावनाएं, सब काम कर रही हैं। इन सारी संकल्पों, इन सारी भावनाओं, इस सारे कर्म शरीर को, इस सारे संकल्प शरीर को लेकर वह इस शरीर को छोड़ती है। नया शरीर हर कोई ग्रहण नहीं कर लिया जाएगा। वह उसी शरीर की तरफ सहज नियम से आकर्षित होगी, जहां उसकी इच्छाएं, जहां उसके कर्म, जहां उसकी भावनाएं पूरी–पूरी की पूरी उपलब्ध हो सकती हैं।

तो दो कारण यहां मिल रहे हैं, यानी दो कॉजल सीरीज यहां क्रास हो रही हैं। एक शरीर के अणुओं की और एक आत्मा की। शरीर के अणुओं से बनेगा शरीर, लेकिन उस शरीर को चुनेगा कौन?

यहां हम पचास मकान बनाएं, पचास ढंग के मकान बनाएं। आप मकान खरीदने आएं, आप पचास में से हर कोई मकान नहीं चुन लेते। आप पचास को खोजते हैं, फिर आप एक मकान चुन लेते हैं। वह एक मकान आप चुनते हैं न! तो आपके भीतर उसके चुनाव के कारण होते हैं। हो सकता है एस्थेटिक आपके खयाल हों, तो बड़ा सुंदर मकान चाहिए। हो सकता है सुविधा के, कनवीनिएंस के खयाल हों, तो सुविधापूर्ण मकान चाहिए। बड़ा चाहिए कि छोटा चाहिए कि कैसा चाहिए, वह आपके भीतर है।

तो दोहरे कॉजल हैं। एक तो इंजीनियर मकान बना रहा है, उसके भी मकान पचास बनाए तो उसके भी कारण हैं पचास मकान बनाने के, वह भी हर कुछ नहीं बना देगा। उसके अपने भीतरी कारण हैं, अपनी दृष्टि है, अपने विचार हैं, अपनी धारणाएं हैं। फिर आप चुनाव करने आए, पचास में से एक आपने चुना। तो यहां दोहरी कारण शृंखलाओं का मिलन हुआ। एक इंजीनियर की कारण शृंखला, हो सकता है आप पचास में से कोई भी न चुनें; वापस चले जाएं कि यहां मुझे कुछ पसंद नहीं पड़ता! और आपकी अपनी शृंखला, इन दोनों ने क्रास किया, और आपने एक खास मकान चुना।

जो शरीर हमने चुना है, वह हमने चुना है, वह हमारा चुनाव है–चाहे अचेतन, चाहे हमें ज्ञात न हो, लेकिन जो शरीर हमने चुना है, वह हमने चुना है।

प्रश्न:

 

इसमें भी कर्म का भाग है?

निश्चित ही न! कार्य-कारण से अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता। वह हमने–हमारा चुनाव है, हमारी च्वाइस है।

प्रश्न:

 

मैं एक गांव गया, उसमें बच्चे जो हैं, सौ में से तीस दो साल बाद मर जाते हैं। लेकिन ऐसी व्यवस्था है कि सौ के सौ ही जिंदा रखे जाएं और नस्ल सुधारी जा सकती है!

 

हां, हां। बिलकुल सुधारी जा सकती है, बिलकुल सुधारी जा सकती है। तो फिर वे बच्चे पैदा नहीं होंगे उस गांव में जो दो साल में मरने हैं।

मेरा मतलब समझ लें आप। एक गांव है, उसमें अभी हर दस में से आठ बच्चे मर जाते हैं। तो इस गांव में वे ही बच्चे आकर्षित होते हैं, जिनकी दो साल से ज्यादा जीने की संभावना नहीं है। अगर इस गांव की नस्ल सुधार दी जाए, तो इसका मतलब हुआ कि इंजीनियर ने दूसरे मकान बनाए। अब इसमें वे यात्री आकर्षित होंगे जो कि कभी आकर्षित नहीं हुए थे। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? इस गांव में अब वे बच्चे पैदा होंगे, जो बच्चे सौ साल जिंदा रहने के लिए आए हुए हैं, वे पहले भी पैदा होते कहीं।

प्रश्न:

 

लेकिन यह सब गांव में ऐसा किया जा सकता है!

ब गांव में किया जा सकता है, तो प्लैनेट्स बदल जाएंगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यानी एक गांव बदलता है, दूसरा गांव, यह सवाल नहीं है। अगर पूरी पृथ्वी पर हम सौ साल की उम्र तय कर लें तो इस पृथ्वी पर सौ साल से कम पैदा होने वालों का उपाय बंद हो जाएगा, उनको दूसरे प्लैनेट्स चुनने पड़ेंगे।

प्रश्न:

 

तब तो फिर दूसरे जन्म तक कर्म गया न!

मेरा मतलब नहीं समझे। दूसरे जन्म तक तुम जाओगे, और तुमने जो किया है, तुमने जो भोगा है, उसी से तुम निर्मित हुए हो। इसको भी समझ लेना ठीक जरूरी है।

समझ लें, मैंने पानी बहाया इस कमरे में–एक गिलास पानी लुढ़का दिया। पानी बहा, उसने एक रास्ता बनाया, दरवाजे से निकल गया। फिर पानी बिलकुल चला गया। धूप आई, सब सूख गया, सिर्फ एक सूखी रेखा रह गई। पानी नहीं है बिलकुल अब, लेकिन पानी जिस मार्ग से गया था, वह मार्ग रह गया है।

आपने दूसरा पानी उलटाया, अब इस दूसरे पानी की हजार संभावनाओं में नौ सौ निन्यानबे संभावना यह है कि वह उसी मार्ग को पकड़ ले, क्योंकि वह लीस्ट रेजिस्टेंस का है, उसमें झगड़ा ज्यादा नहीं है। दूसरा मार्ग बनाना पड़ेगा फिर, फिर धूल हटानी पड़ेगी, कचरा हटाना पड़ेगा, तब पानी मार्ग बना पाएगा। बना हुआ मार्ग है, यह पानी उस मार्ग को पकड़ लेगा और उसी से फिर बह जाएगा। पुराना पानी नहीं था, सिर्फ सूखी रेखा रह गई थी।

तो मेरा कहना है कि एक जन्म से दूसरे जन्मों में कर्म के फल नहीं जाते, लेकिन कर्म और फल जो हमने किए और भोगे, उनकी एक सूखी रेखा हमारे साथ रह जाती है। उसको मैं संस्कार कहता हूं। कर्मफल नहीं जाते, मैंने पिछले जन्म में गाली दी थी तो फल वहीं भोग लिया है, लेकिन गाली मैंने दी थी और तुमने नहीं दी थी गाली, तो मैंने गाली का फल भी भोगा, तुमने वह फल भी नहीं भोगा। तो मैं एक और तरह का व्यक्ति हूं। मेरे पास एक सूखी रेखा है गाली देने और गाली का फल भोगने की। वह सूखी रेखा मेरे साथ है। इस जन्म में मेरे साथ संभावना है कि कोई गाली दे तो मैं फिर गाली दूं, क्योंकि वह सूखी रेखा जो है, लीस्ट रेजिस्टेंस की वजह से फौरन मैं पकड़ लूंगा। कल रात हम दोनों सोएं, हम सब लोग सो जाएं। आप अलग ढंग से जीए दिन में, मैं अलग ढंग से जीया। जो मैंने जीया वह गया, लेकिन मैं जीया था न उसे! तो सूखी रेखाएं मेरे साथ रह गईं।

प्रश्न:

 

मरने के बाद तो कोई श्रीमंत के यहां जन्मता है, कोई गरीब के यहां जन्मता है!

 

हां न! बिलकुल जन्म सकता है। बिलकुल जन्म सकता है। वह भी हमारी सूखी रेखाएं ही काम कर रही हैं। वह भी हमारी सूखी रेखाएं ही काम कर रही हैं।

हमारा जो चित्त है, हमारे चित्त के जो आकर्षण हैं, हमने जो किया और भोगा है, उसने हमें एक खास कंडीशनिंग दी है, एक खास संस्कारबद्धता दी है। वह खास संस्कारबद्धता हमें खास मार्गों पर प्रवाहित करती है।

वे खास मार्ग सब रूपों में कारण से बंधे होंगे, चाहे वह समृद्ध के घर पैदा हो, चाहे गरीब के घर पैदा हो, चाहे वह हिंदुस्तान में पैदा हो, चाहे अमरीका में पैदा हो, चाहे सुंदर हो चाहे कुरूप हो, चाहे जल्दी मरने वाला कि देर तक जीने वाला, इन सारी चीजों में उस आदमी ने जो किया है और भोगा है, उसकी संस्कारशीलता काम करेगी ही। अकारण यह कुछ भी नहीं है। अकारण यह कुछ भी नहीं है।

इसलिए कोई मुझसे कहता है कि जैसे कल समाजवाद आ जाएगा…।

प्रश्न:

 

कॉज एंड इफेक्ट दोनों खतम नहीं हो गए उस वक्त?

कॉज-इफेक्ट तो खतम हो गए। जैसे आपने आग में हाथ डाला, आपका हाथ आग से बाहर निकाल लिया तो डालना खतम हो गया, आपका हाथ जला, वह भी खतम हो गया, हाथ की जलन भी खतम हो गई, लेकिन जला हुआ हाथ पास रह गया–जला हुआ हाथ। आग नहीं, डालना नहीं, जला हुआ हाथ। मेरा मतलब आप समझे न?

प्रश्न:

 

पिछले कर्म का जो अल्टीमेट फल है, वही चला न अगले जन्म में?

ल-वल नहीं चलने वाला है, फल तो खतम हो गया।

प्रश्न:

 

हाथ जलने के कारण उसके हाथ में कुछ निशान रह गए।

ये जो निशान हैं न, ये जो निशान हैं, यह न तो जलन है, न आग है।

प्रश्न:

 

फल तो उसी जलने का है?

ल तो जलन था, वह तुमने भोग लिया, अब हाथ तुम्हारा जल नहीं रहा है।

प्रश्न:

 

यह भी तो एक प्रकार का फल ही है कि हाथ आपका कुरूप हो गया।

 

सको मैं कह रहा हूं, यह सूखी रेखा है। सिर्फ चिह्न रह गया कि तुम्हारा हाथ जला था। तुम आग में…।

प्रश्न:

 

फल तो उसी का है?

 

हीं, तुम फल का मतलब ही नहीं समझते न! फल का मतलब ही यह होता है–फल का मतलब है जलन। यह तो इसको हम, इसको…कॉज तो था आपका हाथ डालना, इफेक्ट था आपके हाथ का जलना; लेकिन यह घटना घटी तो इस घटना के सूखे संस्कार पीछे रह जाएंगे, क्योंकि यह घटना आपको घटी। और आपको नहीं घटी तो आपका हाथ जला हुआ नहीं है। यह सिर्फ खबर है इस बात की कि इस आदमी ने हाथ डाला था, इस बात की भर खबर है। इसको मैं कंडीशनिंग कहता हूं, इसको संस्कार कहता हूं, फल नहीं कहता। फल तो जलन थी जो भोग लिया तुमने।

तो हम प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने फलों को भोगने की खबरें भर लिए हुए हैं अपने साथ। और वे खबरें भी हमें प्रभावित करती हैं। प्रभावित करती हैं इस अर्थों में कि वे हमें लीस्ट रेजिस्टेंस के मार्ग सुझाती हैं। जिस आदमी ने पिछले दस जन्मों में हत्या की है बार-बार, उसकी बहुत संभावना इस जन्म में भी हत्या करने की है।

उसका कारण यह है कि दस जन्मों से हत्या करने की उसकी जो वृत्ति है, जो भाव है, जो संस्कार है, वह निरंतर गहरा होता चला गया है। और उसको सरल यही दिखाई पड़ता है, अगर किसी से झगड़ा हो तो पहली बात यही सूझती है कि मार डालो। पहली, दूसरी बात नहीं सूझती उसको। यह निकटतम का रास्ता है जिस पर सूखी रेखा बनी है, पानी पकड़ कर बह जाता है।

प्रश्न:

 

टेंडेंसी हो गई है?

टेंडेंसी है, उसकी वृत्ति। और इसमें फर्क क्यों कर रहा हूं मैं? फर्क बहुत गहरा है। क्योंकि वृत्ति सिर्फ सूखी है, उसमें कोई प्राण नहीं है। अगर आप बदलना चाहें तो इसी वक्त बदल सकते हैं। लेकिन अगर आप कहते हैं फल, तो फल सूखा नहीं है, फल हरा है, फल भोगना पड़ेगा, उसको आप बदल नहीं सकते। जैसे आग में हाथ डाला है और अगर अगले जन्म में जलना है, तो जलना पड़ेगा। क्योंकि हाथ डालना तो हो चुका, आधा काम पूरा हो चुका, अब आधा काम पूरा करना पड़ेगा।

लेकिन मेरा कहना यह है कि आग में हाथ डाला है तो यह आदमी आग में हाथ डालने की वृत्ति वाला है, इस जन्म में भी इससे डर है कि यह आग में हाथ डाल न दे। क्योंकि इसकी आदत, इसके बार-बार आग में हाथ डालने की व्यवस्था भय पैदा करती है।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह आग में हाथ डालने को बंधा है। यह चाहे तो न डाले। मेरा फर्क समझ रहे हैं न? इसका मतलब यह होता है अंततः कि कर्मों की निर्जरा नहीं करनी है आपको। कर्मों की निर्जरा प्रतिकर्म के साथ होती ही चली जाती है, सिर्फ सूखी रेखा रह जाती है। इस सूखी रेखा से आपका जाग जाना ही काफी है। इसलिए मोक्ष या निर्वाण सडन, तत्काल हो सकता है।

पुरानी जो हमारी धारणा है, उसमें सडन नहीं हो सकता, क्योंकि आपने जितने कर्म किए हैं, उनके फल आपको भोगने ही पड़ेंगे अभी। जब आप सारे फल भोग लेंगे, तब आपकी मुक्ति हो सकती है–एक। और इन फल भोगने में अगर आपने फिर कुछ कर्म कर लिए तो फिर बंध हो जाएगा। और यह अंतहीन शृंखला होगी।

यानी मैं यह कह रहा हूं कि आप प्रति बार कर्म करके फल भोग लेते हैं। निर्जरा तो वहीं हो जाती है, रह जाती है सिर्फ वृत्ति कर्म करने की। कर्म नहीं, फल नहीं, सिर्फ टेंडेंसी। और टेंडेंसी अगर आप होश से भर जाते हैं तो अभी विदा हो जाती है, इसी वक्त विदा हो जाती है। उसको विदा करने में कोई उसका विरोध नहीं है।

प्रश्न:

 

इस थ्योरी की जरूरत क्या है फिर? सूखी रेखा की थ्योरी की जरूरत क्या है फिर?

सकी जरूरत है। उसकी जरूरत…।

प्रश्न:

 

आपने कहा, नियंता की जरूरत नहीं, जैसे महावीर के बारे में कहा, तो इस सूखी रेखा की थ्योरी की जरूरत क्या है?

 

थ्योरी की जरूरत नहीं है, तथ्य है यह। जैसे समझ लें कि आज दिन भर मैंने क्रोध किया, तो जब-जब मैंने क्रोध किया, मैंने दुख भोगा। गाली खाई, झगड़ा हुआ, उपद्रव हुआ, अशांत हुआ। फिर मैं सो गया आज रात। आपने दिन भर क्रोध नहीं किया, आप दिन भर प्रेम से लोगों से मिले-जुले, आनंदित रहे, आप भी सो गए।

सुबह हम दोनों एक ही कमरे में सोकर उठे। मेरी चप्पल कमरे में मेरे बिस्तर के पास नहीं मिली मुझे, आपकी भी नहीं मिली। आपकी संभावना बहुत कम है कि आप एकदम क्रोध में आ जाएं, मेरी संभावना बहुत ज्यादा है कि मैं एकदम क्रोध में आ जाऊं। वह जो कल का दिन है उसकी सूखी रेखा मेरे साथ है। मेरा टाइप बन गया न! दिन भर जो आदमी क्रोध किया है, वह कहेगा, कहां है मेरी चप्पल? वह सुबह से ही उपद्रव शुरू हो गया उसका फिर।

मेरा आप मतलब समझ रहे हैं न? वह कर्म-वर्म तो गए। कल जो मैंने गाली दी थी, वह भी गई, जो गाली का दुख था, वह भी गया, लेकिन गाली देने वाला आदमी मैं, जिसने दिन भर गाली दी, वह तो शेष हूं। और मुझमें और आपमें कोई भेद तो होना चाहिए न! क्योंकि आपने दिन भर गाली नहीं दी और मैंने दिन भर गाली दी, और सुबह अगर ऐसा हो जाए कि कोई भेद न रहे, तब तो फिर व्यवस्था गई। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? भेद तो रहेगा ही मुझमें और आपमें, क्योंकि हम दोनों अलग ढंग से जीए। मैं क्रोध में जीया, आप प्रेम में जीए, तो हममें भेद तो रहेगा। वह भेद टेंडेंसी का होगा, वह भेद वृत्ति का होगा।

प्रश्न:

 

फल का नहीं होगा?

ल का नहीं होगा।

प्रश्न:

 

फल तो खतम हो गया।

हां, फल तो गया। फल तो गया!

प्रश्न:

 

संस्कार या वृत्ति हमारे साथ रह जाएगी।

हां, टोटल कंडीशनिंग हमारे साथ रह जाएगी। और यह जो समग्र संस्कार है हमारा, इस समग्र संस्कार के प्रति हमारी मर्ूच्छा ही कारण होगी इसको चलाने का। जैसे समझ लें कि कल मैंने क्रोध किया दिन भर और सुबह मैं सोचूं कि बहुत क्रोध किया, बहुत दुख पाया और जाग जाऊं तो जरूरी नहीं है कि चप्पल पर मैं क्रोध–यानी मेरे भीतर क्रोध करने की अनिवार्यता नहीं है, सिर्फ मर्ूच्छा ही अनिवार्यता होगी। अगर मैं सोए-सोए फिर कल जैसा ही व्यवहार करूं तो क्रोध चलेगा, और अगर जाग जाऊं तो क्रोध टूट जाएगा।

इसलिए अंततः मेरी दृष्टि में कर्म की निर्जरा तो हो गई है सदा, लेकिन कर्म की सूखी रेखा रह गई है। और वह सूखी रेखा हमारी मर्ूच्छा है। अगर हम मर्ूच्छित रहें तो हम वैसा ही काम करेंगे। अगर हम जाग जाएं तो काम इसी वक्त बंद हो जाए।

इसलिए मैं कहता हूं, एक क्षण में मुक्ति हो सकती है। आप करोड़-करोड़ जन्मों में क्या किए हैं, इससे कुछ लेना-देना नहीं रह गया है। सिर्फ आप जाग जाएं, इससे ज्यादा कोई शर्त नहीं है। यह मेरा फर्क समझ रहे हैं? क्यों मैं ऐसी व्याख्या कर रहा हूं, उसका बुनियादी अंतर पड़ेगा।

वह जो व्याख्या है आपकी, उसका तो मतलब यह है कि अगर करोड़ जन्म में आपने कर्म किए हैं तो आपको फल भोगने के लिए शेष हैं अभी। वे जब तक आप नहीं भोग लेते, तब तक कोई उपाय नहीं है। और उनको भोगने में काल व्यतीत होगा। भोगने में काल व्यतीत होगा, भोगने में भी नए कर्म होंगे, क्योंकि आप बचेंगे कैसे?

अगर पुरानी व्याख्या सही है तो मैं मानता हूं, कोई कभी मुक्त हो ही नहीं सकता। उसका कारण है। उसका कारण है कि कल मैंने कितने पाप किए, कितनी बुराइयां कीं, वे सब इकट्ठी हैं, उनका फल भोगना है। और फल मैं बिलकुल, कैसे भोगूंगा? जब मुझे कोई गाली देने आएगा–क्योंकि मैंने पिछले जन्म में उसे गाली दी थी, तो कोई मुझे गाली देने आएगा तो फिर कर्म शुरू होगा न! वह फिर मुझे गाली देगा। और जब मैंने पिछले जन्म में गाली दी थी तो गाली देने की मेरी टेंडेंसी तो है ही। और वह जब मुझे फिर गाली देगा, फिर गाली का सिलसिला–मैं कुछ तो करूंगा। और सिलसिला जारी रहेगा। और सिलसिले का अंत क्या है? क्योंकि अगर एक कर्म भी शेष रह गया है तो उसको भोगने में फिर नए कर्म निर्मित हो जाएंगे। और नए कर्म निर्मित होते चले जाएंगे, होते चले जाएंगे। और एक भी अगर कभी शेष है तो यह निर्मिति बंद कैसे होगी?

मेरा मानना यह है कि अगर वह बात सही है तो दुनिया में कोई कभी मुक्त हुआ ही नहीं। लेकिन दुनिया में मुक्त लोग हुए हैं, और वे इसीलिए मुक्त हो सके हैं कि कर्म आगे के लिए शेष नहीं रह जाते, कर्म तो पीछे ही चुकतारा हो जाता है, सिर्फ रह जाती है सोई हुई वृत्ति। और अगर आदमी सोया ही रहे तो उन्हीं-उन्हीं कर्मों को दोहराता चला जाता है, जाग जाए तो दोहराना बंद कर देता है। यानी मुझे कोई मजबूर नहीं कर रहा है कि मैं क्रोध करूं सिवाय मेरी मर्ूच्छा के। और अगर मैं जाग गया हूं तो मैं कहता हूं, ठीक है, इस रास्ते से बहुत बार जा चुके, बहुत दुख उठा चुके।

इसलिए महावीर ने बड़ी कोशिश की प्रत्येक व्यक्ति को पिछले जन्मों के संबंध में स्मरण दिलाने की। उस स्मरण दिलाने का सिर्फ एक प्रयोजन है कि यह पता चल जाए कि तुम क्या-क्या कर चुके हो, क्या-क्या भोग चुके हो। इन रास्तों से तुम कितनी बार गुजर चुके हो, अब इन्हीं पर गुजरते रहोगे? इसका सिर्फ एक प्रयोजन है कि अगर स्मरण आ जाए किसी व्यक्ति को उसके दो-चार जन्मों का कि उसने बहुत बार धन कमाया, धन कमाने में बहुत बार बेईमानी की, बहुत बार प्रेम किया, बहुत बार क्रोध किया, बहुत बार यश कमाया, बहुत बार अपमान सहा, मान सहा। सब कर चुका है वह, जो अब फिर कर रहा है।

और अगर उसको यह दिखाई पड़ जाए कि यह मैं बहुत बार कर चुका तो यह मीनिंगलेस हो गया। अब इसको फिर दुबारा किसलिए कर रहा हूं? और यह चोट अगर उसको पड़ जाए तो वह अभी जाग जाए और कहे कि अब बहुत कर चुका यह, अब इसके करने का क्या मतलब? कितनी बार धन कमाया, फिर हुआ क्या?

तो यह जागरण उसकी जो सूखी रेखा उसको पकड़े हुए है, उसके तोड़ने का कारण बन जाए। इसलिए सडन एनलाइटेनमेंट की संभावना है। सच तो यह है कि जब भी कभी मुक्ति होती है, वह सडन है।

प्रश्न:

 

सम्यक स्मृति इसी को कही जा सकती है?

हां, कह सकते हैं।

प्रश्न:

 

एकाघडग टु दैट विल पावर आर संकल्प, डिफरेंट टाइप इज़ डेवलप्ड डयू टु दैट संस्कार?

हां-हां, बिलकुल ही।

प्रश्न:

 

नाट दैट कॉज एंड इफेक्ट!

-न।

प्रश्न:

 

दैट इज़ आल गॉन?

हां, बिलकुल ही चला जाता है।

प्रश्न:

 

(अस्पष्ट रिकाघडग)

न्याय कुछ भी नहीं है। अन्याय कुछ भी नहीं है। तब अन्याय इसलिए कुछ भी नहीं है कि जो हम कर रहे हैं, वह हम भोग रहे हैं। वह उससे अन्यथा नहीं हो सकता।

इसमें एक बात और समझ लेनी जरूरी है। पुराना खयाल क्या था? पुराना खयाल यह था कि मैं अगर महीपालजी को चांटा मारूं तो किसी जन्म में वह मुझे चांटा मारें। कर्मफल का ऐसा खयाल है। इसका तो मतलब यह हुआ कि अगर मैंने महावीर को चांटा मार दिया तो जब तक वे मुझे चांटा न मार लें, वे भी मुक्त नहीं हो सकते। यानी मेरा कृत्य भी उनकी अमुक्ति बन जाएगा।

समझ लीजिए, मैंने महीपालजी को चांटा मारा और वह इसी जन्म में मुक्त हो सकते हैं? नहीं हो सकते–अगले जन्म में जब तक मुझे चांटा न मार लें। क्योंकि नहीं तो मुझे चांटा कौन मारेगा? वह हिसाब कैसे पूरा होगा?

प्रश्न:

 

तो अगला जन्म लेना पड़े!

ह उनको मेरे पीछे लेना पड़े। जो कि बिलकुल ही व्यर्थ बात है। नहीं, मेरा कहना यह है कि मैं जब उनको चांटा मारता हूं तो मुझे वह चांटा मारेंगे, ऐसा फल नहीं होता, मैं चांटा मारता हूं, मेरे चांटा मारने में जिस वृत्ति से मैं गुजरता हूं, वह मुझे दुख दे जाती है। उनसे कुछ चांटा-वांटा लौटने का सवाल नहीं है। उनसे कोई चांटा…।

हां, मैंने उन्हें चांटा मारा, अगर चांटे को वे साक्षी-भाव से देखते रहें तो वे नया कर्म नहीं बांधते हैं, क्योंकि वे सिर्फ साक्षी रहते हैं। मैंने चांटा मारा और उन्होंने देखा, वे कुछ भी नहीं कर रहे हैं मतलब। अगर वे मेरे चांटा मारने से मुझे चांटा मारें तो वह मेरे चांटे का फल नहीं है, वह उनका कर्म है, जिसका फल उनको भोगना पड़ेगा। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए।

मैंने चांटा मारा है उनको, और अगर वे चुपचाप देखते रहें और समझें कि यह बेचारा पागल है, चांटा मारता है। और कुछ न करें, समझें, अपने रास्ते बढ़ जाएं। तो उन्होंने कोई कर्मबंध नहीं किया, मैंने कर्म किया और उसका फल भोगा। वह मेरे इस कर्मबंध की शृंखला से उन्होंने कोई संबंध नहीं जोड़ा। लेकिन अगर वे मुझे चांटा मारें, उत्तर दें, तो वह मेरे चांटे का उत्तर नहीं है। मेरे चांटे का उत्तर तो मैं ही भोग रहा हूं, इस चांटे का उत्तर वही भोगने वाले हैं। यह उनकी अपनी कर्म-शृंखला है, इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।

और अन्याय कुछ भी नहीं है, अन्याय कुछ भी नहीं है। अन्याय इसलिए कुछ भी नहीं है कि मैं चांटा मारता हूं तो मैं दुख भोग लेता हूं। और जिसको मैं चांटा मारता हूं तो सवाल उठता है कि उसके साथ तो अन्याय हो गया।

प्रश्न:

 

आपने कहा कि चांटा मारने से दुख होगा ही, लेकिन ऐसी भी वृत्ति होती है कि मैं चांटा भी मारूं और आनंद भी लूं?

मझें इसे थोड़ा। हां, हां, इसकी भी बात कर लेंगे, इसकी बात करेंगे।

मैंने चांटा मारा किसी को तो मैंने कर्म किया, उसका मैंने समझ लीजिए दुख भोगा, फल भोगा, लेकिन जिसको मैंने चांटा मारा उसके साथ तो अन्याय हो गया–और मैं कहता हूं अन्याय कुछ भी नहीं है। अब मेरा कहना यह है कि मेरा चांटा मारना आधा हिस्सा है। और चांटा भी मैं उसी को मारता हूं जो चांटे को आकर्षित करता है। वह दूसरा हिस्सा है जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। यह असंभव है, यह असंभव है कि मैं उसको चांटा मार दूं जो चांटे को आकर्षित नहीं करता है।

तो जो चांटे को आकर्षित करता है, उसी को चांटा पड़ता है। और आकर्षित करने की वजह से जितना दुख उसको उठाना है, वह उठाता है। वह आकर्षण में उसका हिस्सा है। यानी कोई आदमी इस दुनिया में अकेला मालिक नहीं होता, गुलाम भी उसके साथ गुलाम होना चाहता है, नहीं तो यह संबंध बन ही नहीं सकता है।

तो हम तो मालिक को थोप देते हैं कि तुमने क्यों गुलाम बनाया इस आदमी को? लेकिन हम कभी नहीं पूछते कि यह आदमी गुलाम बनना चाहता था? अगर यह नहीं बनना चाहता था तो असंभव था इसे गुलाम बनाना। इसे गुलाम बनाना ही असंभव था।

एक फकीर हुआ है डायोजनीज, उसको कुछ लोगों ने पकड़ लिया। रास्ते से गुजरता था, नंगा फकीर था, उसे कुछ लोगों ने पकड़ लिया। उसने पूछा, कहां ले जाते हो पकड़ कर? तो उन लोगों ने कहा, हम गुलामों को पकड़ कर और बेचते हैं बाजारों में। डायोजनीज ने कहा, बहुत बढ़िया! चलो चलते हैं। पर वे लोग बड़े हैरान हुए, क्योंकि कोई आदमी को पकड़ो गुलामी के लिए तो वह भागता है, बचना चाहता है। डायोजनीज ने कहा, हाथ-वाथ छोड़ दो, क्योंकि मैं खुद ही चलता हूं। क्योंकि जो तुम्हारे साथ नहीं जाना चाहता, उसे तुम जंजीर बांध कर भी नहीं ले जा सकते। मैं तो चलता ही हूं। जंजीरें-वंजीरें अलग कर लो।

वे उसे ले गए हैं। वह उनके साथ ही चला गया। क्योंकि डायोजनीज यह कहता था कि जो हो जाए, मैं उसी के साथ चला जाता हूं, यानी मैं इसमें कोई बाधा डालता ही नहीं। मैं इसमें कोई बाधा डालता ही नहीं।

उसे जाकर खड़ा कर दिया। वह बहुत तगड़ा फकीर था, बहुत स्वस्थ आदमी था। वह ठीक महावीर जैसा आदमी था और वैसा ही नग्न रहता और वैसा ही सुंदर था। उसे चौखटे पर खड़ा कर दिया जहां नीलाम, बिक्री होती थी गुलामों की। और बेचने वाले ने चिल्लाया कि कौन इस गुलाम को खरीदता है? उसने कहा, चुप। यह मत कहना। आवाज मैं ही लगा देता हूं। उसने चौखटे पर खड़े होकर कहा कि कोई एक मालिक को खरीदने को हो, तो आ जाए। उस आदमी ने कहा उस तख्ती पर खड़े होकर कि अगर किसी को किसी मालिक को खरीदना हो तो आ जाए। तो लोग बड़े चौंके, भीड़ लग गई। और लोगों ने कहा, क्या मजाक की बात है!

तो डायोजनीज ने कहा कि मैं तो हर हालत में मालिक ही रहूंगा। ये लोग मुझे पकड़ कर भी लाए–मैंने कहा, बंद करो, हटाओ ये जंजीरें। तो इन्होंने जल्दी से हटा लीं। क्योंकि मैंने कहा, मैं ऐसे ही चलता हूं, क्या ये जंजीरें रखने की बात है? मैं तो मालिक हूं। इनसे पूछो, इनको मैं कितना डांटता-डपटता ला रहा हूं, ये जो मुझे पकड़ कर लाए हैं। और इनका कितना सुधार किया। इनको कितना ठीक किया मैंने। इनसे पूछो। और हालत सच में यही थी कि जो उसे पकड़ कर लाए थे, बड़े डरे हुए थे और वह आदमी बड़ी अकड़ से खड़ा हुआ था। उसने कहा, इसलिए मैंने कहा कि कोई भूल में गुलाम समझ कर मत खरीद लेना। क्योंकि जो गुलाम होना चाहे, वही गुलाम हो सकता है। हम तो मालिक ही हैं। तो किसी को मालिक खरीदना हो तो खरीद ले।

तो एक राजा को क्रोध आ गया। उसने कहा कि यह क्या बात करता है! तो उसने उसे खरीद लिया। खरीद लिया, उसे घर ले जाकर कहा कि इसकी टांग तोड़ डालो। इसकी टांग तोड़ डालो। तो डायोजनीज ने टांग आगे कर दी। उसने टांग आगे कर दी। राजा ने कहा, तुड़वा रहे हैं यह टांग! उसने कहा, तुम क्या तुड़वा रहे हो? हम खुद ही आगे कर रहे हैं। हम मालिक हैं। तुड़वाओगे तुम तब, जब हम बचाएं। तोड़ो! लेकिन ध्यान रहे, नुकसान में पड़ जाओगे, क्योंकि जो खरीदा है मुझको, फिर मैं किसी काम का न रह जाऊंगा। टांग टूट गई, फिर मैं काम का क्या रहूंगा? तुम्हारी मर्जी। यह टांग रही। राजा को भी खयाल आया कि बात तो सच है, इसकी टांग तुड़वा दी तो यह एक और बोझ! और उसने कहा, मैं तो मालिक हूं और मालिक हो जाऊंगा। क्योंकि टांग टूटने से फिर मैं बैठा ही रहूंगा। उस राजा ने कहा, रहने दो, इस आदमी की टांग मत तोड़ो। उसने कहा, देखते हो तुम। मालकियत किसकी चली? डायोजनीज ने कहा, मालकियत किसकी चल रही है?

यह मैं कह रहा हूं कि जब एक आदमी गुलाम होता है, तब किसी न किसी रूप में, पैसिवली, वह गुलामी को आमंत्रित करता है। जब एक मालिक होने की प्रवृत्ति वाला आदमी और गुलाम होने की प्रवृत्ति वाले आदमी मिल जाते हैं तो तालमेल बैठ जाता है। एक गुलाम बन जाता है, एक मालिक हो जाता है। इसे ऐसा समझना चाहिए कि जैसे हम प्लग लगाते हैं न, तो उसमें हम वह जो पिन लगा रहे हैं, वही मतलब नहीं रखतीं, वे जो छेद हैं भीतर, वे भी मतलब रखते हैं। वे प्लग और छेद, जब पिन और छेद मेल खा जाते हैं तो बैठ हो जाती, नहीं तो नहीं होती।

जब मैं किसी को चांटा मारता हूं तो इतना ही काफी नहीं है कि मैंने चांटा मारा, वह आदमी किसी न किसी पैसिव ढंग से छेद का काम कर रहा है, चांटे को निमंत्रित कर रहा है, नहीं तो यह असंभव है।

इसलिए मैं कहता हूं, अन्याय असंभव है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं, जो तुम दूसरी बात कहती हो, तो फिर हमें अन्याय मिटाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?

नहीं, वह कोशिश हमें करनी चाहिए। क्यों? उसका कारण है। हमें एक ऐसी दुनिया बनानी चाहिए, जहां न कोई चांटे को आकर्षित करता हो, न कोई चांटा मारने को उत्सुक होता हो। अन्याय कभी भी नहीं है। अन्याय का कुल मतलब इतना हो सकता है कि अभी ऐसे लोग हैं दुनिया में जो चांटा मारने को भी उत्सुक हैं और ऐसे लोग भी हैं दुनिया में जो चांटा खाने को उत्सुक हैं। अन्याय घटना में नहीं है, अन्याय इस स्थिति में है–इसको समझ लेना। यानी कोई घटना अन्यायपूर्ण नहीं है, घटना तो हमेशा जस्टीफाइड है। जो हो रहा है, वैसा ही होता है, वैसा ही हो सकता था।

जैसा तुमने पूछा कि सतियां होती थीं, तो सतियां होती इसलिए थीं कि कुछ स्त्रियां मरने को राजी थीं आग में, कुछ लोग आग में जलाने को राजी थे, तो नियम चलता था। अन्याय कुछ भी न था। जो स्त्रियां जलने को राजी नहीं थीं, वे उस दिन भी नहीं जलाई गईं। और जो स्त्रियां जलने को आज भी राजी हैं–सती की व्यवस्था नहीं है, लेकिन वे स्टोव से आग लगा लेती हैं, जहर डाल लेती हैं, कुछ भी करती हैं। यानी मेरा कहना यह है कि जो स्त्रियां नहीं–सारी स्त्रियां तो सती नहीं हो जाती थीं, कुछ स्त्रियां सती होती थीं।

और अगर तुम हिसाब लगाने जाओ तो जितनी औरतें आज आग लगा कर मरती हैं, वह अनुपात ज्यादा नहीं पाओगे, वह उतना ही पाओगे। इसको बड़ा सोचने जैसा मामला है। सती की व्यवस्था आग में जलने वाली औरतों के लिए सुविधा थी। कुछ लोग जलाने वाले भी हैं, वे अब भी जलवाने का इंतजाम करते हैं। इंतजाम बदल जाते हैं।

प्रश्न:

 

किसी को ढकेल कर भी मारते थे, ढकेल कर भी सती करते थे।

केल कर भी सती आप कर सकते हैं।

प्रश्न:

 

सती?

हां, हां, ढकेल कर ही किया जाता था। लेकिन वह जिसको ढकेल कर भी किया जाता था, उसके भी ढकेले जाने की आंतरिक पूरी की पूरी मनोवृत्ति होती थी, नहीं तो नहीं हो सकता, यह असंभव है। यानी मैं यह कह रहा हूं कि घटना जब भी घटती है तो उसके दो पहलू हैं और उसमें हम एक ही पहलू को जिम्मेवार ठहराते हैं, वह हमारी गलती है, दूसरा पहलू उतना ही जिम्मेवार होता है।

जैसे हम कहते हैं अंग्रेजों ने आकर हमको गुलाम बना लिया, यह आधा हिस्सा है। हम गुलाम होने की तैयारी में थे, यह दूसरा हिस्सा है, जो हमें खयाल में नहीं आता। और जब तक हम गुलाम होने की तैयारी में थे, गुलाम रहते। यह दूसरी बात थी कि अंग्रेज बनाते, कि हूण बनाते, कि फ्रेंच बनाते, यह गौण बात थी, लेकिन गुलामी घटती, क्योंकि गुलामी की हमारी तैयारी थी।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कहता हूं कि सती की प्रथा जारी रहना चाहिए। मैं कहता यह हूं कि यह प्रथा तो गलत है। प्रथा इसलिए गलत है कि जलाने वाला भी गलत काम कर रहा है, जलाया जाने वाला भी गलत कर रहा है। ये दोनों आदमी गलत हैं। दुनिया ऐसी होनी चाहिए, जहां न कोई जलाने को उत्सुक है, न कोई जलने को उत्सुक है। ऐसी अच्छी दुनिया हमें बनाए जाना चाहिए। लेकिन जो हो रहा है, वह तो न्याययुक्त है। इससे ज्यादा न्याययुक्त हो सकता है, और ज्यादा न्यायमुक्त हो सकता है। लेकिन जो होता है, वह हमेशा जस्टीफाइड है इस अर्थों में कि वही हो सकता था। आदमी की क्वालिटी और जीवन और चेतना बदले तो कुछ और होना शुरू हो जाएगा।

अन्याय सिर्फ एक है कि जैसी जीवन-व्यवस्था है, वह हमें बहुत दुख में डाल रही है। और दुख हम ही बना रहे हैं, कोई और बना नहीं रहा है। इससे बेहतर जीवन-व्यवस्था हो सकती है, जो ज्यादा हमें सुख में ले जाए, ज्यादा आनंद में ले जाए। और वैसी व्यवस्था के लिए हमें चेष्टारत होना चाहिए–व्यक्तिगत रूप से भी, सामूहिक रूप से भी।

अब जैसे कि उदाहरण के लिए मैं कहूं, जैसे रूस में समाजवाद है और सारे लोगों की संपत्ति बराबर हो गई है। तो लोग पूछते हैं कि जहां संपत्ति बराबर नहीं है, वहां तो अन्याय हो रहा है। लेकिन जहां संपत्ति बराबर नहीं है, वहां संपत्ति बराबर होने की कोई कर्म-रेखा, कोई संस्कार उस मुल्क की चेतना में है?

आखिर नहीं हैं तो क्यों अन्याय हो रहा है? जिस मुल्क में समानता का संस्कार अर्जित नहीं हुआ है चेतना में, वहां असमानता है, वह जस्टीफाइड है। जस्टीफाइड इस अर्थों में कि जो हमारी चेतना है, वह हमारा फल है।

अगर रूस की चेतना उस जगह पहुंच गई है सामूहिक रूप से जहां कि संपत्ति की समानता संस्कार का हिस्सा हो गई तो ठीक है, उन्होंने समानता स्थापित कर ली है। और इसका परिणाम यह होगा कि रूस में वे आत्माएं जन्म लेने लगेंगी, जिनमें समानता के भाव का उदय हुआ है और जो असमानता के भाव की आत्माएं हैं, वे रूस में जन्म लेना बंद कर देंगी। हमें सिर्फ एक तरफ से देखने पर कठिनाई मालूम पड़ती है। अगर दोनों तरफ से देखेंगे, टोटल देखेंगे, तो रूस में वे आत्माएं पैदा होना बंद हो जाएंगी जो असमानता में ही जी सकती हैं।

प्रश्न:

 

जब से दुनिया बनी है, वे अभी शुरू हुईं पैदा होनी, जब से यह समाजवाद आया रूस में?

 

चेतना का जो विकास है न! चेतना का जो विकास है, समानता बहुत विकसित चेतना की स्थिति है। असमानता सामान्य स्थिति है। आप, दूसरे के साथ अपने को समान मानने के लिए तैयार होना भी बड़ी उपलब्धि है, कि दूसरा मेरे समान है! चित्त तो यही कहता है कि यह हो कैसे सकता कि दूसरा मेरे समान है? असमानता सहज वृत्ति है। विषमता पैदा करना इसीलिए सामान्य रहा।

समानता पैदा करने वाली चेतनाएं पैदा हुईं–महावीर उन चेतनाओं में से एक हैं–लेकिन ये व्यक्तिगत थीं। अब धीरे-धीरे उसकी सघनता बढ़ी है और सघनता उस जगह पहुंच गई है कि अब समान करने वाली चेतनाओं का भी एक बड़ा अंश पृथ्वी पर है। जिस दिन असमान वृत्ति वाली चेतनाएं क्षीण होती चली जाएंगी, वृत्ति क्षीण होती चली जाएगी, उस दिन सारी पृथ्वी पर समानता हो जाएगी। लंबा वक्त लगता है। लेकिन लंबा वक्त भी हमको दिखता है, क्योंकि हमारा वक्त का हिसाब ही बहुत छोटा सा है।

अब मनुष्य को हुए मुश्किल से दस लाख वर्ष हुए हैं। और जिसको हम मनुष्य कहते हैं, उसको तो मुश्किल से दस हजार साल हुए। पृथ्वी को बने दो अरब वर्ष हुए। और पृथ्वी बड़ी नई सी चीज है, कोई बहुत पुरानी चीज नहीं है। तारे हैं, जिनका कि कोई हिसाब लगाना मुश्किल है, कितने पुराने हैं। और जहां अंतहीन समय की धारा है, वहां दस-पांच हजार वर्ष का क्या मतलब होता है? कोई मतलब नहीं होता है। मनुष्य अभी भी बिलकुल ही बालपन में है। इवोल्यूशन की जो व्यवस्था है, उसमें अभी हम बिलकुल बच्चों की तरह हैं। अभी हम जवान भी नहीं हुए, बूढ़ा होना तो बहुत दूर की बात है। तो अभी थोड़ी सी बातें प्रकट होनी शुरू हुई हैं।

जैसे कि एक बच्चा है, वह चौदह साल का हुआ और उसमें सेक्स का भाव उठा, और लोग कहें कि चौदह साल से यह क्या कर रहा था? चौदह साल इसमें सेक्स का भाव नहीं उठा? चौदह साल गुजर गए, सेक्स का भाव नहीं उठा? जिंदगी आधी गुजर गई और सेक्स का भाव नहीं उठा, अभी उठा? लेकिन एक स्टेज है बच्चे की कि वह चौदह साल, पंद्रह साल का, सोलह साल का हो जाए तो प्रकृति उसको मानती है इस योग्य कि अब वह सेक्स की वृत्ति में उतरे।

मनुष्य-जाति की भी एक स्टेज होगी, जहां आकर प्रकृति मानेगी कि अब तुम समान हो सकते हो, अब तुम उस योग्यता के हो गए। वह दस हजार वर्ष लग जाएंगे, क्योंकि वह पूरी मनुष्य-जाति का सवाल है, एक व्यक्ति का सवाल नहीं है। हां, एक व्यक्ति तो कभी भी समान होने की वृत्ति को उपलब्ध हो सकता है। उसी को हम सम्यकत्व कहते हैं, समता कहते हैं, जो समान होने की–जिसके मन से यह भेद ही मिट गया है कि कौन नीचा है, कौन ऊंचा है, यह सवाल ही चला गया।

तो कोई महावीर, कोई बुद्ध इसको उपलब्ध हो जाए, इसमें अड़चन नहीं है। लेकिन मनुष्य-जाति इस तल पर आने में तो हजारों वर्ष ले लेती है।

अन्याय नहीं है इस अर्थ में कि प्रत्येक चीज अपने कारणों से न्याययुक्त है। अन्याय है इस अर्थों में कि जिंदगी इससे भी ज्यादा आनंदपूर्ण, ज्यादा शांति की, ज्यादा सौरभ की हो सकती है, उसकी दिशा में हमें कोशिश करनी चाहिए। तुम यह कहती हो कि फिर हम कोशिश भी क्यों करें? लेकिन तुम यह मान लेती हो कि कोशिश जैसे हम कर रहे हैं, वह कोशिश करना भी हमारे कर्म के संस्कार की पूरी व्यवस्था का हिस्सा होता है, वह न करने का तुम्हारा सवाल भी व्यर्थ है।

प्रश्न:

 

कोशिश करने का भी कारण है?

हां, कारण है। कारण यही है कि तुम दुख को नहीं झेल सकती हो, नहीं देख सकती हो, तो उसे बदलने की कोशिश करती हो। तो हम जब यह सोचने लगते हैं कि न करें, तब हम गलती में पड़ जाते हैं। न करने के लिए कारण जुटाना बहुत मुश्किल है। और वही तो न करने का जिस दिन कारण जुटा लोगी, उस दिन सामायिक हो जाएगी और मोक्ष हो जाएगा। यानी मेरा मतलब समझ गईं न? करने का कारण ही हमने जुटाया है सब। जिस दिन हम उस हालत में आ जाएंगे कि हम कह सकें कि न करना भी काफी है, अब कुछ नहीं करते।

प्रश्न:

 

इस नियम के बाहर हो जाएंगे?

 

तो नियम के हम बाहर हो जाएंगे। उस स्थिति का ही नाम मोक्ष है, जो करने के बाहर हो गया। लेकिन जो करने के भीतर है, वह तो कुछ न कुछ करता ही रहेगा, करता ही रहेगा।

प्रश्न:

 

(अस्पष्ट रिकाघडग)

हां, हां, ठीक है न! ठीक कहते हैं। और वह जो पुंगलिया जी कहते हैं, वह भी समझ लेना चाहिए। वह यह कहते हैं कि एक आदमी हो सकता है जो चांटा मारने में दुख न उठाए, आनंदित हो। बिलकुल हो सकता है। एक आदमी हो सकता है, जो किसी को चांटा मारे और दुख बिलकुल न उठाए और आनंदित हो। तो हमको लगेगा, फिर इसके साथ क्या होगा?

लेकिन हमें खयाल नहीं है कि जो आदमी चांटा मारने में आनंदित हो, वह आदमी नहीं रह गया, वह आदमी से बहुत नीचे उतर गया, बहुत ही नीचे उतर गया। और उसने चांटा मारने में इतना खोया, जितना कि चांटा मार कर दुखी होने वाला नहीं खोता है।

इसको जरा खयाल रख लेना। चांटा मार कर जो दुखी होता है, वह तो बहुत थोड़ा सा फल भोगता है, लेकिन जो चांटा मार कर आनंदित होता है, उसने तो भारी फल भोग लिया, उसका तो विकास का तल एकदम नीचे चला गया। वह तो एकदम जंगली हो गया, उसने दस हजार, बीस हजार, पच्चीस हजार साल में जो आदमी ने विकास किया, सब खो दिया। वह वहां चला गया। उसका विकास तो इतना पिछड़ गया कि उसको तो जन्मों-जन्मों का चक्कर हो जाएगा, जिसमें कि वह वापस उस जगह आए, जहां चांटा मारने से दुख होता है। मेरा मतलब समझ रहे हैं न आप? यानी फल वह भी भोग रहा है, बहुत भारी फल भोग रहा है, साधारण फल नहीं भोग रहा है। और उसका फल बहुत गहरा है, बहुत गहरा है।

हां, पूछो।

प्रश्न:

 

आपने जो कहा कि आदमी पर जन्मतः कर्म की सूखी रेखा अंकित होती है तो पुनर्जन्मों का शरीर इसे धारण कर लेता है। आपने बोला कि एक आदमी हत्या करता है दस-बारह जन्म तक, उसको हत्यारा होने की संभावना रहती है। पहले आपने यह बोला था कि जो वेश्या होती है, उसका सप्रेशन जैसे साध्वी होने का होता है। तो वेश्या की सूखी रेखा, कर्मों से तो उसको वेश्या ही होना चाहिए, वेश्या ही होने की शक्यता रहती है!

 

ठीक कहते हैं। साधारणतः, साधारणतः…तुम समझते हो दमन कर्म नहीं है? असल में हमारी कठिनाई क्या है, दमन कर्म है। दमन भी कर्म है, भोग भी कर्म है, वेश्या होना भी एक कर्म है।

प्रश्न:

 

दमन भी कर्म है?

मन भी उसका एक कर्म है। समझे न?

प्रश्न:

 

उसकी भी सूखी रेखा है?

हां, तो दमन की भी सूखी रेखा रह जाती है। संन्यासी है एक, साध्वी है एक…।

प्रश्न:

 

तो यह सूखी रेखा से वह सूखी रेखा ज्यादा हो जाती है?

 

जारों सूखी रेखाएं हैं। असल में होता क्या है कि हम कांप्लेक्सिटी को नहीं समझ पाते। हम समझते हैं कि कोई एकाध रेखा है। हजारों हमारे कर्म हैं, हजारों रेखाएं हैं, हजारों रेखाओं का काट है, जाल है। उस सब जाल की निष्पत्ति हम हैं।

एक वेश्या है और प्रतिदिन जब भी वह वेश्या के काम से गुजरती है, तभी दुखी होती है। सामने उसके एक संन्यासिनी रहती है और वह दिन-रात सोचती है कि कैसा जीवन है अदभुत उसका! कैसा अच्छा होता कि मैं संन्यासिनी हो जाती! तो दोहरी रेखाएं पड़ रही हैं। वेश्या होने का कर्म कर रही है, उसकी एक रेखा पड़ रही है, लेकिन उससे भी प्रबल रेखा इसकी पड़ रही है कि वह वेश्या होने से पीड़ित है और नहीं होना चाहती और संन्यासिनी होना चाहती है।

सामने संन्यासिनी रह रही है, वह सुबह से सांझ तक साध रही है अपने को, ब्रह्मचर्य साध रही है। लेकिन जब भी वेश्या के घर में दीया जलता है और सुगंध निकलती है और संगीत बजने लगता है, तब उसका मन डांवाडोल हो जाता है, और वह सोचती है, पता नहीं वेश्या कैसा आनंद लूट रही होगी! तो साध्वी भी दो रेखाएं बना रही है: एक रेखा बना रही है वह साध्वी होने की और एक रेखा बना रही है वह वेश्या होने के आकर्षण की।

अब इन सबके तालमेल पर निर्भर करेगा अंततः कि साध्वी वेश्या हो जाए कि वेश्या साध्वी हो जाए। मेरा मतलब समझे न तुम? हां, जिंदगी में हजार-हजार रेखाएं काम कर रही हैं। सीधी रेखा नहीं है कोई, सीधा रास्ता नहीं है। हजार पगडंडियां कट रही हैं। और…।

प्रश्न:

 

मल्टी कॉजल है?

ल्टी कॉजल है, मल्टी कॉजल है। और तुम खुद कभी थोड़ी देर इधर जाते हो, फिर थोड़ी देर इधर जाते हो। तुम भी कोई सीधी रेखा में ही नहीं चले जा रहे हो। कभी तुम अच्छे आदमी होने की रेखा में दो कदम चलते हो, दस कदम बुरे आदमी के होने में हट आते हो। तुम्हारी जिंदगी भी कोई ऐसी नहीं है कि तुम एक रास्ते पर सीधे चले जा रहे हो। तुम बार-बार चौरस्ते पर लौट आते हो, पीछे चले जाते हो, आगे जाते हो, बाएं-दाएं जाते हो, सब तुम घूम रहे हो। इस सब का टोटल हिसाब होगा। हिसाब मतलब यह कि तुम्हारे चित्त पर इस सबके संस्कार होंगे। वे सब संस्कार एक-दूसरे को काटेंगे। आखिरी हिसाब में जो कट कर तुम्हारी रेखा बन जाती है, वह तुम्हारा व्यक्तित्व निर्माण करेगी।

और फिर भी ऐसा नहीं है कि तुम इकहरा व्यक्तित्व लेकर पैदा होते हो। तुम अनंत संभावनाएं लेकर पैदा होते हो। एक बच्चा पैदा हुआ, उस बच्चे के संन्यासी होने की संभावना है, क्योंकि उसने संन्यासी होने की भी एक रेखा बांधी है; उसके गुंडा होने की भी संभावना है, उसने वह भी रेखा बांधी है। वह अनंत संभावनाएं लेकर पैदा हुआ है। अनंत सूखी रेखाएं उसे आमंत्रित करेंगी। अब कौन सी प्रबल सिद्ध हो जाएगी, वह उस पर बह जाएगा।

तो हमारी सारी कठिनाई जो होती है–क्योंकि नियम जो होते हैं, वे जब समझाता है कोई, तो वे सीधी रेखा में होते हैं, समझे न? और जिंदगी जो है, वह बहुत सी रेखाओं का काट-पीट है। जब समझाने मैं बैठता हूं तो तुम एक नियम समझते हो तो तुमको तत्काल दूसरा खयाल आता है कि उसका क्या होगा। और समझाने में उपाय नहीं है कोई सब इकट्ठा समझाने का।

समझे न? सब इकट्ठा समझाने का उपाय नहीं है। अगर मैं क्रोध समझाऊंगा तो क्रोध समझाऊंगा, घृणा समझाऊंगा तो घृणा समझाऊंगा, प्रेम समझाऊंगा तो प्रेम समझाऊंगा, दया समझाऊंगा तो दया समझाऊंगा। और तुम एक साथ सब हो–दया भी, प्रेम भी, घृणा भी, क्रोध भी–सब एक साथ हो तुम। वे तुम्हारी सब संभावनाएं हैं। कोई तुम्हें अभी प्रेम से बात करेगा तो तुम एकदम प्रेमपूर्ण हो जाओगे और कोई आदमी छुरी दिखाएगा, तुम क्रोधपूर्ण हो जाओगे। तुम सब हो।

तो व्यक्ति तो है मल्टी कॉजल, अनंत कारण से भरा हुआ। और जब समझाने हम बैठते हैं तो एक ही कारण को चुनना पड़ता है। भाषा जो है, वह रेखाबद्ध है; और जिंदगी जो है, वह अनंत रेखाओं का जाल है।

इसलिए भाषा में बहुत भूल होती है। क्योंकि भाषा ऐसी सीधी जाती है एक रेखा में। मैं करुणा समझाऊंगा तो करुणा समझाता चला जाऊंगा। अब करुणा ही के साथ ही साथ एकदम से क्रोध कैसे समझाऊं? घृणा कैसे समझाऊं? वह समझाना मुश्किल है। फिर उनको अलग समझाऊंगा। ये सब अलग-अलग रेखाएं बन जाएंगी। और व्यक्ति में ये सब रेखाएं अलग-अलग नहीं हैं, सब इकट्ठी जुड़ी खड़ी हैं, सब इकट्ठी जुड़ी खड़ी हैं।

प्रश्न:

 

तो जो बलवान रेखा है, उससे वह शरीर धारण कर लेगा! और जो दूसरी कमजोर रेखाएं हैं उसकी छाया उसके साथ आएगी ही?

 

बिलकुल साथ होगी, बिलकुल साथ होगी, बिलकुल साथ होगी। सब साथ होगा।

प्रश्न:

 

एक कमरा है, उसमें मच्छर हैं, चींटियां हैं, मक्खियां हैं, तो एक मन होता है कि यह फ्लिट लगा दूं, एक मन होता है उस वक्त फ्लिट नहीं लगाऊं। उसमें मन की स्थिति बड़ी डांवाडोल हो जाती है। तो उसमें क्या उचित है?

चित तो वही है, जो आप कर सकोगे, करोगे। समझे न आप? जो आप कर सकोगे, वही करोगे। और उचित मान कर अगर चले तो आप मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर मैंने कह दिया कि फ्लिट लगाना उचित नहीं, तो रात भर मुझको गाली दोगे, क्योंकि वह मच्छर तो काटेंगे ही। या मैंने कह दिया फ्लिट लगाना उचित है, तो आप समझोगे कि हिंसा आपने की, फल मैं भोगूंगा।

इसलिए उचित-अनुचित का सवाल नहीं है, आप सोचो और जीओ। जो ठीक लगे, करो।

आज इतना ही।


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–13)

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जाति-स्मरण: महावीर-उपाय—(प्रवचन—तेरहवां)

 हले थोड़ी सी बातें प्रश्नों के संबंध में ही लें।

यह जरूर पूछा जा सकता है कि यदि पता हो, एक दुर्घटना होने वाली है, तो रुक जाना चाहिए, क्यों जाना?

मैंने जो मेहरबाबा का उदाहरण दिया, वह सिर्फ समझाने को। इस बात को समझाने को कि क्या होने वाला है इसे भी जानने की पूरी संभावना है। लेकिन जो उन्होंने किया, मैं उसके पक्ष में नहीं हूं। उनका उतर जाना या मकान में न ठहरना, इसके मैं पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि मेरी मान्यता यह है कि जीवन में अगर पूर्ण आनंद और पूर्ण शांति उपलब्ध करनी हो तो स्वयं को प्रवाह में ऐसे छोड़ देना चाहिए जैसे किसी ने नदी में अपने को छोड़ दिया हो–जो तैरता नहीं है, जो सिर्फ बहता है, जो हो रहा हो, उसमें सहज बहता है।

जीसस को जिस दिन सूली लगी, उसके एक क्षण पहले जीसस ने जोर से चिल्ला कर कहा, हे परमात्मा, यह क्या करवा रहा है!

शिकायत आ गई, और परमात्मा गलत कर रहा है, यह भी आ गया, और जीसस परमात्मा से ज्यादा जानते हैं, यह भी आ गया। लेकिन तत्क्षण जीसस को समझ में आ गई बात कि भूल हो गई। तो दूसरा वाक्य जो उन्होंने कहा, वह यह कहा कि मुझे क्षमा कर। मैं क्या जानता हूं! तेरी मर्जी पूरी हो। फिर तो इसके बाद जो आखिरी वचन उन्होंने बोला, उसमें कहा कि इन सब लोगों को माफ कर देना, क्योंकि ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

यह उन लोगों की तरफ इशारा करके कहा, जो उन्हें सूली दे रहे थे। और मेरी अपनी समझ यह है कि जिस क्षण जीसस ने यह कहा कि हे परमात्मा, यह क्या कर रहा है, यह क्या करवा रहा है, यह क्या दिखला रहा है, तब तक वे जीसस ही हैं। और जैसे ही उन्होंने समग्र मन से यह कहा कि तेरी मर्जी पूरी हो, क्षमा कर, उसी क्षण वे क्राइस्ट हो गए।

तो मैंने जो यह कहा कि मेहरबाबा लौट गए मकान से या हवाई जहाज से उतर गए, इसका बहुत गहरा अर्थ यह है कि व्यक्ति का अहंकार अभी शेष है, अभी सुरक्षित है, अभी विश्व के प्रवाह में वह अपने अलग होने को, अपने पृथक होने को, अपने को बचाने को आतुर और उत्सुक है।

तो जो मैंने कहा, तो मैंने यह नहीं कहा कि जो किया है, वह ठीक किया। कहा मैंने कुल इतना है कि इस बात की संभावना है कि पूर्व से जाना जा सके। लेकिन परम स्थिति तो यही है कि जीवन एक बहाव हो–तैरना भी न रह जाए। जिंदगी जहां ले जाए और जो हो, उसके साथ चुपचाप राजी हो जाना है। ऐसी स्थिति को ही मैं आस्तिकता कहता हूं। मैं कहूंगा मेहर बाबा आस्तिक नहीं हैं।

अब मुश्किल होगी यह बात समझना। आस्तिकता का मतलब ही यह है। मृत्यु भी आए तो वह वैसे ही स्वीकृत है, जैसा जीवन स्वीकृत था। भेद क्या है मृत्यु और जीवन में? मकान के बचने में और गिरने में फर्क क्या है? कहूंगा तो मैं गलत ही वैसा करने को। मैं तो राजी नहीं हूं। जिंदगी जैसी सहज जाती है चुपचाप, मौन, जैसे पौधे अंकुरित होते हैं, फूल बनते हैं–इतना ही शांत और चुपचाप बहाव होना चाहिए। जिसमें अहंकार कोई अवरोध ही नहीं डालता, कोई बाधा ही नहीं डालता। तो ही मुक्ति, तो ही मुक्ति पूरे अर्थ में संभव है। इसलिए मैं तो वैसा करने को गलत ही कहता हूं।

और दूसरी बात भी इसने पूछी है, वह भी बहुत अच्छी है। यदि संकल्प से सब हो सकता है, तब तो फिर कुछ भी किया जा सकता है–धन भी, यश भी–कुछ भी इकट्ठा किया जा सकता है, चाहे परोपकार के लिए, चाहे परस्वार्थ के लिए।

यह भी थोड़ा समझने जैसा है। निश्चित ही किया जा सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है, लेकिन वही कर सकेगा, जो अभी धन के नीचे जी रहा है।

अभी कल ही बात होती थी, रामकृष्ण को कैंसर हो गया और रामकृष्ण के भक्त उनसे कहने लगे कि आप एक बार क्यों नहीं कह देते हैं मां को कि कैंसर ठीक करो!

तो रामकृष्ण ने कहा, दो बातें हैं। एक तो जब मैं उसके सामने होता हूं, तब कैंसर भूल ही जाता है। यानी ये दो बातें एक साथ होती ही नहीं। जब मैं उस दशा में होता हूं, तब कैंसर होता ही नहीं; और जब कैंसर होता है, तब मैं उस दशा में नहीं होता। इन दोनों का कहीं तालमेल नहीं होता। और अगर हो भी जाए तो मैं परमात्मा को कहूं कि कैंसर ठीक कर दे, इसका मतलब हुआ कि मैं परमात्मा से ज्यादा जानता हूं। इसलिए जो हो रहा है, उसे सहज स्वीकार के और कोई मार्ग नहीं।

विवेकानंद बहुत गरीब थे। पिता मरे विवेकानंद के तो बहुत कर्ज छोड़ गए। तो कई लोगों ने विवेकानंद को कहा, रामकृष्ण के पास जाते हो, उनसे पूछ लो कोई तरकीब, कोई रास्ता कि धन उपलब्ध हो जाए, कर्ज चुका दो। ऐसी हालतें थीं कि दिन-दिन भर विवेकानंद भूखे घूमते रहते, खाने को नहीं था। या घर में इतना कम खाने को होता कि मां अकेली खा सकती या विवेकानंद खा सकते, तो वे कहते, आज मैं मित्र के घर निमंत्रित हूं, तुम खाना खा लो, मैं खाना खाकर लौटता हूं। और वे भूखे हंसते हुए घर आ जाते कि बहुत ही बढ़िया खाना आज मित्र के घर मिला। इतना भी नहीं था घर में उपाय, इंतजाम।

तो मित्रों ने कहा, रामकृष्ण से पूछ लो। और रामकृष्ण के पास विवेकानंद गए और कहा कि क्या करूं, बहुत गरीबी है। उन्होंने कहा, इसमें कहने की क्या बात है। सुबह मां को कह देना प्रार्थना के बाद कि ठीक कर दे, सब इंतजाम कर दे। विवेकानंद गए, प्रार्थना करके वापस लौटे। रामकृष्ण ने पूछा, कहा? तो विवेकानंद ने कहा कि मुंह ही न खुला, क्योंकि यह बात ही अशोभन मालूम पड़ी कि प्रार्थना से भरे चित्त में और पैसे को ले आया जाए।

फिर दूसरे दिन, फिर तीसरे दिन, भूखे हैं, रोटी नहीं मिल रही है, कर्जदार पीछे पड़े हैं, और रामकृष्ण रोज-रोज पूछते हैं: क्यों, आज कहा? तो वह लौट कर कहते हैं कि नहीं परमहंसदेव, यह नहीं हो सकेगा, क्योंकि जब प्रार्थना में होता हूं, तब इतना बड़ा धनी हो जाता हूं कि निर्धनता कहां, कैसी! कौन निर्धन! और जब प्रार्थना के बाहर आता हूं, तब फिर वही निर्धन हो जाता हूं, जो था। तो जब प्रार्थना के बाहर होता हूं, तब तो मन करने लगता है कह दूं, लेकिन जब प्रार्थना में होता हूं तो मुझसे धनी कोई होता ही नहीं।

संकल्प जितना-जितना प्रगाढ़ होता चला जाएगा, उतना ही उसका उपयोग कम होता चला जाएगा।

यह समझने जैसी बात है। असल में संकल्प के उपयोग की हमारी जो चित्त-वृत्ति है, वह संकल्प के न होने के कारण ही है। जैसे-जैसे संकल्प होता जाएगा घना, प्रगाढ़, वैसे-वैसे संकल्प का उपयोग बंद होता चला जाएगा।

इस जगत में सिर्फ शक्तिहीन ही शक्ति के उपयोग की बात सोचते हैं। इस जगत में जिनके पास शक्ति है, वे कभी उपयोग करते ही नहीं, क्योंकि शक्ति की उपलब्धि में ही शक्ति के अनुपयोग की संभावना भी छिपी है। आकस्मिक, अनायास कुछ होता हो, हो जाता हो; लेकिन सचेत, विचारपूर्वक कोई ऐसा उपयोग नहीं होता। और फिर हमें ऐसा लगता है–हमें ऐसा लगता है, क्योंकि धन हमारे लिए मूल्यवान मालूम होता है।

एक छोटा बच्चा है, खिलौने उसे बहुत मूल्यवान हैं। और उसका पिता उससे कहता है कि भगवान से मैं जो भी प्रार्थना करूं, वह हो जाए। तो वह कहता है, मेरे लिए खिलौने क्यों नहीं मांग लेते? तो वह बाप कहे, पागल, खिलौने मांग कर भी क्या करेंगे!

लेकिन बाप के लिए खिलौने बेकार हो गए हैं, और यह कल्पना के बाहर है कि परमात्मा से खिलौने मांगने जाया जाए। लेकिन बच्चे को यह समझ के बाहर है कि खिलौने जैसी बढ़िया चीज भगवान से क्यों नहीं मांग लेते हो! सबूत हो जाएगा कि कैसा भगवान है, कैसी शक्ति है।

खिलौने जब तक हमें सार्थक हैं, तब तक हमें लगता है कि अगर भगवान भी मिल जाए तो खिलौने ही मांग लेंगे। अगर संकल्प जग जाए तो धन ही ले लेना है। ऐसे चित्त में संकल्प जगेगा भी नहीं, यह भी ध्यान रहे। ऐसे चित्त की हमारी धारणा होगी तो संकल्प कभी जगेगा नहीं। संकल्प जग सकता है अगर ये चित्त की धारणाएं चली जाएं। और संकल्प जग जाए तो फिर इनका प्रयोग करने का उपाय नहीं, क्योंकि वे धारणाएं छूटें, तभी संकल्प जगता है।

यानी कठिनाई कुछ ऐसी है कि जैसा बैंक के संबंध में कहा जाता है कि बैंक उस आदमी को पैसे उधार देता है, जिसे पैसे की कोई जरूरत नहीं है। और जिस आदमी को जरूरत हो, उसे बैंक पैसा उधार नहीं देता, क्योंकि जिसे जरूरत हो उससे लौटने की संभावना नहीं है। तो बैंक पक्का पता लगा लेता है कि इस आदमी को पैसे की जरूरत तो नहीं है तो फिर बैंक जितना चाहे उतना उधार देता है। और पक्का पता लग जाए कि इस आदमी को पैसे की बहुत जरूरत है तो बैंक हाथ खींच लेता है, पैसे नहीं देता।

यह बड़ा उलटा है नियम। होना तो ऐसा ही चाहिए था कि जिसे पैसे की जरूरत हो, उसे बैंक पैसा दे। लेकिन बैंक उसको पैसा नहीं देता। बैंक सिर्फ उसी को पैसा देता है, जिसको कोई जरूरत नहीं है।

यह जो विराट शक्ति है परमात्मा की, यह उन्हीं को उपलब्ध हो जाती है, जिन्हें कोई जरूरत नहीं है। और जिन्हें जरूरत है, उन्हें उपलब्ध नहीं होती!

जीसस का एक बहुत अदभुत वचन है, आश्चर्यजनक है, कहा है कि जो अपने को बचाएगा, वह नष्ट हो जाएगा; और जो अपने को खोने को राजी है, उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता है। जो मांगेगा, उससे छीन लिया जाएगा; और जो छोड़ कर भागने लगेगा, उसे दे दिया जाएगा।

असल में मांगने वाला चित्त संकल्प कर ही नहीं सकता, इसे ध्यान रखना। उसका कारण है क्योंकि मांगने वाला चित्त इतना दीन और दरिद्र होता है कि संकल्प जैसी बड़ी संपदा उसके पास नहीं हो सकती। असल में न मांगने वाला ही संकल्प कर सकता है। लेकिन हम संकल्प भी इसलिए करना चाहते हैं कि कुछ मांग लेंगे और तब सारी कठिनाई हो जाती है, सारी असुविधा हो जाती है।

तीसरी बात भी इधर ही कर लेनी चाहिए। जैसा मैंने कहा कि महावीर को कोई फर्क नहीं पड़ता, शादी हो तो ठीक, न हो तो ठीक, सब बराबर है। एक सीमा पर सब बराबर है। और जहां सब बराबर है, वहीं मुक्ति है। और जहां तक भेद है, वहां तक मुक्ति नहीं है। जहां तक शर्त है हमारी, च्वाइस है कि ऐसा होगा तो ही ठीक और ऐसा होगा तो सब गलत हो जाएगा, वहां तक हम बंधे हुए लोग हैं। क्योंकि बांधता क्या है? च्वाइस ही बांधती है। चुनाव ही बांधता है। मैं कहता हूं बस ऐसा, तब तो ठीक, शांत रहूंगा, आनंदित रहूंगा; ऐसा हुआ तो फिर मैं अशांत हो जाऊंगा, गैर-आनंदित हो जाऊंगा। तो फिर मेरी शांति और अशांति और मेरा आनंद और निरानंद बंधे हुए हैं कहीं। मैं मुक्त नहीं हूं। ऐसा नहीं है कि मैं हर हालत में आनंदित रहूंगा।

जो आदमी हर हालत में आनंदित है, उसकी कोई शर्त नहीं है। उसकी तो यह भी शर्त नहीं है कि वह बीमार रहे कि स्वस्थ, जिंदा रहे कि मर जाए, शादी हो कि न हो, मकान हो कि न हो। उसको कोई शर्त ही नहीं है। बेशर्त जीता है। जो भी हो, जीता है।

तो यह पूछना जरूरी है। लेकिन शायद मेरे संबंध में कुछ तुम्हें पता नहीं, इसलिए ऐसा पूछते हो। शादी के लिए मना तो मैंने कभी किया ही नहीं। मना करने की कोई बात ही नहीं है, क्योंकि मना भी वही करता है, जिसके मन में कहीं हां छिपा हो। हां छिपा होता है तो ही न सार्थक होती है। और कई बार तो ऐसा होता है कि न का मतलब ही हां होता है, यानी न सिर्फ ऊपर ही ऊपर होती है, हां भीतर होती है।

मैं तो विश्वविद्यालय से लौटा तो घर के लोग चिंतित ही थे कि, सबसे बड़ी चिंता यही थी, शादी ही बड़ी चिंता थी। तो मुझसे पहली ही रात मेरी मां ने पूछा कि शादी के संबंध में क्या खयाल है?

तो मैंने उससे कहा कि दोत्तीन बातें समझने जैसी हैं। उठा दिया सवाल तो बहुत ही अच्छा है। पहला तो यह कि मैंने अब तक शादी नहीं की, इसलिए मुझे कोई अनुभव नहीं, तो मेरे हां और न दोनों ही गैर-अनुभवी के होंगे, तो क्या मतलब है उन हां और न का। तुमने शादी की है, तुम्हारा जिंदगी का अनुभव है। तो तुम पंद्रह दिन सोच लो और मुझे पंद्रह दिन सोचने के बाद कहना कि तुमने अगर शादी करके कोई ऐसा आनंद पाया हो, जिससे तुम्हारा बेटा वंचित न रह जाए, तो तुम मुझसे कह देना, मैं शादी कर लूंगा। और अगर तुम्हें लगता हो कि शादी करके तुमने कोई आनंद नहीं पाया, और तुम्हें शादी के बाद कई दफे ऐसा खयाल आया हो कि न की होती तो ही अच्छा था, तो तुम मुझे सचेत कर देना कि कहीं मैं कर न बैठूं।

प्रश्न:

 

यह तो न ही हो गई!

, मेरी तरफ से न न है, न हां है। मेरी तरफ से मैं कोई बात ही नहीं कर रहा। मेरी तरफ से कोई कंडीशन ही नहीं, कोई शर्त ही नहीं है। मैंने बात सीधी सामने रख दी, क्योंकि मेरा कोई अनुभव नहीं है, अभी मैंने शादी की नहीं है। कर सकता हूं, इसकी कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन जो मुझे प्रेम करते हैं, उनको इतना तो मेरे लिए सोचना ही चाहिए कि उन्होंने जो अनुभव किया है, वह अगर ऐसे किसी आनंद का है, जिससे मैं वंचित रहूं तो उन्हें दुख होगा, तो मैं शादी कर लूंगा। फिर मुझसे पूछना ही मत, मुझसे कहना शादी करो। और अगर कहीं तुम्हारा ऐसा अनुभव हो कि तुमने दुख पाया हो, दुख ही पाया हो, तो यह तो मां होने के नाते पहला काम तुम्हारा होगा कि कहीं भूल-चूक से मैं शादी न कर लूं, तुम मुझे सचेत कर देना। तुम्हारी बात सुन कर मैं फिर कुछ विचार कर लूंगा।

पंद्रह दिन बाद उसने मुझे कहा, मुश्किल में डाल दिया है, क्योंकि खोजने गई हूं तो कैसा आनंद! अब मैं तो नहीं कह सकती थी कि करो, वैसे तुम्हारी मर्जी।

मैंने कहा तो अब जब मेरी मर्जी होगी, मैं तुमसे कहूंगा। यानी तब तक के लिए बात तो स्थगित हो गई न। जब मेरी मर्जी होगी, मैं तुमसे कहूंगा। और वह मर्जी नहीं हुई। न मैंने कभी नहीं कहा है, अभी भी नहीं कहा है। अभी भी कोई समझाने-बुझाने वाला आ जाए तो मैं राजी हो सकता हूं। इसमें क्या मुश्किल है! इसमें कोई तकलीफ की बात नहीं है। इसमें कोई अड़चन भी नहीं है।

मेरे पिता के एक मित्र थे। बड़े वकील थे, बड़े तार्किक थे। तो पिता ने उनको कहा कि आप आकर जरा समझाएं। वे आ गए। दूसरे गांव रहते थे। रात आकर रुके।

तो बड़े दबंग आदमी थे, बड़े वकील थे, बड़े तार्किक, बड़े नेता थे। मुझसे आते ही से कहा कि चाहे कितने ही दिन मुझे रुकना पड़े यहां, मैं यह सिद्ध करके जाने वाला हूं कि शादी बड़ी उपयोगी है। मैंने कहा, इसमें देर की जरूरत ही नहीं। आज ही, इतने दिन क्या रुकने की जरूरत है, आप मुझे समझा दें, अभी मैं राजी हो जाऊंगा। लेकिन ध्यान रहे, यह एकतरफा तो नहीं रहेगा मामला!

उन्होंने कहा, क्या मतलब?

मैंने कहा कि आप समझाएंगे तो मुझे भी कुछ बोलने का हक होगा?

बिलकुल हक होगा।

मैंने कहा कि अगर आपने सिद्ध कर दिया कि शादी करना आनंदपूर्ण है, तो मैं कल सुबह हां भर दूंगा। शादी हो जाए। और अगर कहीं यह सिद्ध हो गया कि आनंदपूर्ण नहीं है, तो आपका क्या इरादा है, आप शादी छोड़ने को राजी हैं? क्योंकि अकेला एकतरफा तो ठीक नहीं है न यह सब, यह तो अन्याय हो जाएगा। यानी मैं तो दांव लगाऊं जिंदगी, और आप बिना दांव के लड़ते हों, तब तो मजा नहीं आएगा।

उन्होंने कहा कि ठहर जाओ, मैं सुबह तुमसे बात करूंगा। सुबह मेरे उठने के पहले वे जा ही चुके थे। पिता से कह गए थे कि मैं इस झंझट में नहीं पड़ता। इस झंझट की मुझे कोई जरूरत नहीं।

संदिग्ध तो हमारा मन है भीतर। फिर बाद में बहुत वर्ष बाद जब मुझे मिले, तो उन्होंने कहा कि तुमने मुझे बहुत चिंता में डाल दिया, रात भर मैं सो नहीं सका। और फिर मैंने कहा कि यह ज्यादती होगी, क्योंकि मैं खुद ही छोड़ने की हालत में रहता हूं निरंतर। यह बिलकुल ज्यादती होगी। तो मैंने कहा कि इस बात में मुझे पड़ना ही नहीं है, और मैं हार जाता, क्योंकि मैं तो भीतर से ही कमजोर था। यानी मैं तो खुद ही इस पक्ष का हूं कि यह बहुत गलती हो गई है, लेकिन अब कोई उपाय नहीं।

मैंने लेकिन मना नहीं किया अभी तक। कोई समझाने वाला नहीं आया, कोई क्या करे, इसमें कोई उपाय नहीं है। इसलिए उसकी चिंता नहीं लेनी चाहिए।

प्रश्न:

 

कर्म के संबंध में महीपाल जी पूछते हैं कि यह जो विकास हो रहा है, पशु-पक्षी हैं, मनुष्य योनि तक आ रहे हैं, यह सहज विकास का ही परिणाम है आटोमेटिक, अपने आप चल रहा जो विकास है, या कि उनकी सचेत चेष्टा भी इसमें सहयोगी है?

विकास दो तलों पर चल रहा है। डार्विन की खोज बड़ी गहरी है लेकिन एकदम अधूरी है। डार्विन ने शरीरों के विकास पर सारा का सारा सिद्धांत निर्धारित किया है।

शरीरों में एक विकास-क्रम मालूम पड़ता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि कभी न कभी, कुछ लाख वर्ष पहले बंदर के ही शरीर से मनुष्य के शरीर की गति हुई होगी। ऐसा बंदर के शरीर-व्यवस्था, उसके मस्तिष्क, उसकी हड्डी, मांस-पेशियां, सब ऐसी खबर देती हैं कि उससे ही मनुष्य का शरीर आया होगा। और ऐसे खोज करते-करते कहा जा सकता है कि किसी न किसी रूप में मछली से सारी जीवनऱ्यात्रा शुरू हुई होगी। और मछली भी किसी न किसी प्रकार के पौधे से ही आई होगी। इस सबके लिए लंबा वैज्ञानिक अन्वेषण हुआ है। और यह बात तय हो गई है कि इस तरह एक क्रमिक विकास शरीर में हो रहा है।

लेकिन चूंकि विज्ञान आत्मा की फिक्र ही नहीं करता, इसलिए उसकी बात एकदम अधूरी है। यह बात बिलकुल ही ठीक है कि शरीरों में विकास हो रहा है, लेकिन यह अधूरी है। और आधे सत्य असत्य से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं, क्योंकि आधे सत्यों में सत्य होने का भ्रम पैदा होता है, पूर्ण सत्य होने का भ्रम पैदा होता है।

यह विकास का आधा हिस्सा है। आधा हिस्सा है, जिसके लिए महावीर जैसे लोगों की खोज कीमती है। वे यह कहते हैं कि चेतना भी विकसित हो रही है। अगर शरीर ही है सिर्फ, तब तो सब विकास आटोमेटिक है। अगर शरीर ही है बस, तब तो सब विकास अपने आप हुआ है। परिस्थितिगत है और प्रकृति के नियम के अनुकूल होता चला जा रहा है। क्योंकि शरीर अकेला अगर हो तो इच्छा का सवाल ही नहीं उठता। लेकिन अगर चेतना भी है तो विकास आटोमेटिक कोई हालत में नहीं हो सकता, क्योंकि चेतना का मतलब ही यह है कि जो आटोमेटिक नहीं है, जिसमें स्वेच्छा है।

एक पंखा चल रहा है, तो पंखे का चलना बिलकुल आटोमेटिक है, यांत्रिक है, स्वचालित है। पंखे की कोई इच्छा काम नहीं कर रही। लेकिन अगर पंखे की आत्मा भी हो तो पंखा कभी कह भी सकता है कि आज बहुत सर्दी है, नहीं चलते। या कह भी सकता है कि आज बहुत थक गए हैं, बस अब नहीं आज चलने का मन है। कभी तेजी से भी चल सकता है–अगर प्रेमी पास आ जाए। और अगर दुश्मन आ जाए तो बंद भी हो सकता है। लेकिन पंखे के पास कोई चेतना नहीं है, इसलिए गति जो है, वह स्वचालित है।

चेतना है, यही इस बात का सबूत है कि विकास स्वचालित, आटोमेटिक नहीं हो सकता, उसमें चेतना सक्रिय रूप से भाग लेगी। और चेतना भाग ले रही है। इसलिए जो हमें विकास दिख रहा है, जितने पीछे हम उतरते हैं, जितने पीछे, उतना ही स्वचालित विकास की मात्रा बढ़ती चली जाती है और सचेष्ट विकास की मात्रा कम होती चली जाती है–जितने पीछे हम हटते हैं।

जैसे अमीबा है, आखिरी, पहला कदम जीवन ने जहां उठाया, तो वहां हम कह सकते हैं कि शायद निन्यानबे प्रतिशत तो आटोमेटिक है, एकाध प्रतिशत विकास स्व-इच्छा से हो सकता है। लेकिन जैसे-जैसे हम ऊपर की तरफ आते हैं, जैसे मनुष्य है, तो मनुष्य के साथ तो मामला ऐसा है कि अगर विकास होगा तो निन्यानबे प्रतिशत स्वेच्छा से होगा, नहीं तो विकास होगा ही नहीं।

और इसीलिए मनुष्य कोई पचास हजार वर्षों से ठहर गया है। यानी मनुष्य में अब कोई विकास परिलक्षित नहीं हो रहा है आटोमेटिक। दस लाख वर्ष के भी जो शरीर मिले हैं, उन शरीरों में भी कोई विकास नहीं हुआ है। दस लाख वर्ष के जो अस्थिपंजर मिले हैं और हमारे अस्थिपंजर में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ा है। न हमारे मस्तिष्क में कोई बुनियादी फर्क पड़ा है।

तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य में तो निन्यानबे प्रतिशत स्वेच्छा पर निर्भर करेगा। कोई बुद्ध, कोई महावीर, यह स्वेच्छा का विकास है। और अगर हम स्वचालित विकास की प्रतीक्षा करते रहें तो एक ही प्रतिशत विकास की संभावना है, जो बहुत धीरे-धीरे घिसटती रहेगी।

जितने पीछे हम जाते हैं, उतना स्वेच्छा कम है, यांत्रिकता ज्यादा है। मनुष्य तक आते हैं तो स्वेच्छा ज्यादा है, यांत्रिकता कम है। लेकिन निम्नतम स्थिति में भी एक अंश स्वेच्छा का है। वह एक अंश स्वेच्छा का ही उसे चेतन बनाता है, नहीं तो चेतन होने का कोई अर्थ नहीं है। यानी चेतन होने का अर्थ ही यह है कि विकास में हम भागीदार हैं और पतन में हम जिम्मेवार हैं। चेतना का मतलब ही यह है कि दायित्व है हमारा, रिस्पांसिबिलिटी है, जो भी हो रहा है उसमें, हम जो हैं उसमें, हम जो हो सकते हैं उसमें। अंततः हम जिम्मेवार हैं। सारा विकास–चाहे पशु, पक्षी, मछली, कीड़े-मकोड़े, पौधा–कोई भी विकसित हो रहा हो, उसकी भी इच्छा सक्रिय होकर काम रही है।

पहचानना मुश्किल है हमें, पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है कि हम कैसे पहचानें! पशु-पक्षियों को हम कैसे जानें कि उनकी स्वेच्छा से वे विकसित होकर और ऊंची योनियों में प्रवेश कर रहे हैं!

एक ही रास्ता है। और रास्ते हो सकते हैं लेकिन सरलतम एक ही है। और वह यह है कि जो मनुष्य-चेतनाएं आज हैं, अगर हम उन्हें उनके पिछले जन्मों में उतार सकें तो हम पा जाएंगे पता इस बात का कि वे पिछले जन्मों में पशुओं और पौधों से भी होकर आए हैं।

जाति-स्मरण के गहरे प्रयोग महावीर ने किए हैं। और प्रत्येक व्यक्ति जो उनके निकट आता, उसे जाति-स्मरण के प्रयोग में ले जाते, ताकि वह जान सके कि उसकी पिछली यात्रा क्या है। यहां तक भी वह जान सके कि वह पशु कब था, कैसा पशु था, क्या पशु होने में उसने किया कि वह मनुष्य हो सका। और अगर यह उसे पता चल जाए कि पशु होने में उसने कुछ किया, जो उसे मनुष्य बनाया, तो उसे खयाल में हो सकता है कि मनुष्य होने में कुछ करे तो और ऊपर जा सकता है। कुछ करने से ही वह आया है।

महावीर एक व्यक्ति को समझा रहे थे। रात है। महावीर का संघ ठहरा। हजारों साधु-संन्यासी ठहरे हुए हैं। एक बड़ी धर्मशाला में निवास है। एक राजकुमार भी दीक्षित हुआ है, लेकिन वह नया दीक्षित है। पुराने साधुओं को ज्यादा ठीक जगह मिल गई है। वह जो बीच का रास्ता है धर्मशाला का, उस पर ही सोया हुआ है। रात भर उसे बड़ी तकलीफ हुई है, उसे बड़ा कष्ट हुआ है। एक तो यह भारी अपमान है, वह राजकुमार था। कभी जमीन पर चला नहीं था और आज गलियारे में सोना पड़ा है। वृद्ध साधुओं को कमरे मिल गए हैं। वह गलियारे में पड़ा हुआ है। रात भर कोई गलियारे से निकलता है, फिर उसकी नींद टूट जाती है।

वह बार-बार सोचने लगा कि बेहतर है, मैं लौट जाऊं। बेहतर है, इससे तो अच्छा था, जो था, वही ठीक था। यह क्या पागलपन में मैं पड़ गया हूं! ऐसा गलियारों में पड़े-पड़े तो मौत हो जाएगी। यह तो व्यर्थ की जिंदगी हो गई। यह मैंने क्या गलती कर ली!

सुबह महावीर ने उसे बुलाया और कहा कि तुझे पता है कि पिछले जन्म में तू कौन था?

मुझे कुछ पता नहीं।

तो महावीर उससे उसके पिछले जन्म की कथा कहते हैं। वे उससे कहते हैं कि पिछले जन्म में तू हाथी था। और जंगल में आग लगी, सारे पशु, सारे पक्षी भागे, तू भी भागा। जब तू पैर उठा रहा था और सोच रहा था कि किधर को जाऊं, तभी तूने देखा कि एक छोटा सा खरगोश तेरे पैर के नीचे आकर बैठ गया। उसने समझा कि पैर छाया है, बचाव हो जाएगा। और तू इतना हिम्मतवर था कि तूने नीचे देखा कि खरगोश है तो तूने फिर पैर नीचे नहीं रखा। तू फिर पैर ही ऊंचा किए खड़ा रहा। आग लग गई, तू मर गया, लेकिन तूने खरगोश को बचाने की मरते दम तक चेष्टा की। उस कृत्य की वजह से तू आदमी हुआ है। उस कृत्य ने तुझे मनुष्य होने का अधिकार दिया है। और आज तू इतना कमजोर है कि रात भर गलियारे में सो नहीं सका तो भागने की सोचने लगा!

तो उसे याद आती है अपने पिछले जन्म की। और उसे पता चलता है कि ऐसा था। तब फिर बदल जाता है। तब सब बदल जाता है। तब भागने का, पलायन का, छोड़ने का, जरा से कष्ट से भयभीत हो जाने का, सारी बात समाप्त हो जाती है। अब वह ज्यादा सुदृढ़ संकल्प पर खड़ा हो जाता है। वह एक नई भूमि उसे मिल जाती है कि मैं…यह संभव ही नहीं रहता उसके लिए, सोचना भी संभव नहीं रहता।

तो एक रास्ता यह है कि हम व्यक्तियों को उनके पिछले जन्म-स्मरणों में ले जाएं, उससे पता चलेगा कि वे किस योनि से कैसे विकसित हुए, कौन सी घटना थी, जिस घटना ने मूलतः उन्हें हकदार बनाया कि वे ऊपर की जिंदगी में चले जाएं। एक रास्ता यह है। यही सरलतम रास्ता है।

दूसरा रास्ता कठिन है बहुत। और वह रास्ता यह है कि हम दस-पांच पशुओं के निकट रहें और उनसे आंतरिक संबंध स्थापित करें तो हमें पता चल जाए कि उसमें भी अच्छे आदमी हैं, बुरे आदमी हैं; अच्छी आत्माएं हैं, बुरी आत्माएं हैं; अच्छे प्राणी हैं, बुरे प्राणी हैं; सज्जन हैं, दुर्जन हैं। तो हमें पता चले कि वे जो दस कुत्ते हमें दिखाई पड़ रहे हैं, वे सब एक जैसे कुत्ते नहीं हैं। उन दस का अपना व्यक्तित्व है।

स्विट्जरलैंड की एक स्टेशन पर एक कुत्ते का स्मारक बना हुआ है। वह दुनिया में अकेला स्मारक है कुत्ते के लिए। बड़ा स्मारक है। एक आदमी के पास कुत्ता है–उन्नीस सौ तीस या बत्तीस के करीब की घटना है–उसके पास कुत्ता है, वह रोज उसे, जब वह दफ्तर जाता है सुबह दस बजे की ट्रेन पकड़ कर तो उसे स्टेशन छोड़ने आता है। जब वह जाता है तब वह खड़ा हुआ उसे विदा देता रहता है। ठीक पांच बजे जब वह आता है तो पांच बजे की ट्रेन पर वह हमेशा स्टेशन पर खड़ा रहता है, जहां उसका मालिक उतरता है।

ऐसा निरंतर चला है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह सुबह छोड़ने न आया हो, ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि वह ठीक पांच बजे अपने मालिक को लेने न आया हो।

लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि मालिक गया और नहीं लौटा। मालिक तो मर गया। एक दुर्घटना हुई शहर में और मालिक मर गया। पांच बजे कुत्ता लेने आया। गाड़ी आकर खड़ी हो गई, लेकिन मालिक नहीं उतरा। तो फिर उसने एक-एक डब्बे में जाकर झांका, चिल्लाया, पुकारा; लेकिन मालिक नहीं है। फिर तो स्टेशन के लोगों ने उसे भगाने की बहुत कोशिश की, लेकिन किसी भी हालत में वह भागने को राजी नहीं हुआ।

और हर ट्रेन, जो भी ट्रेन आई, उसी ट्रेन पर वह अपने मालिक को खोजता रहा। ऐसा पंद्रह दिन उसने पानी नहीं पीया, खाना नहीं खाया। और वह उसी जगह खड़े हुए मर गया, जहां उसका मालिक उसे रोज पांच बजे की ट्रेन से आकर मिलता था। सब तरह के उपाय किए गए कि वह एक टुकड़ा रोटी का खा ले, उसने इनकार कर दिया; कि वह एक जरा सा पानी पी ले, उसने इनकार कर दिया।

सारे स्विट्जरलैंड के अखबारों में सब तरफ चर्चा हो गई, उस कुत्ते के बड़े-बड़े फोटो छपे। लेकिन उस कुत्ते ने हटने से वहां से इनकार कर दिया। उसको भगाओ, वह फिर पांच-दस मिनट बाद वहां हाजिर है। उसने स्टेशन का पीछा नहीं छोड़ा। और जब तक जिंदा रहा, वह हर गाड़ी पर चिल्लाता रहा, रोता रहा, उसकी आंख से आंसू टपकते रहे। और वह है कि एक-एक डिब्बे में झांक रहा है। कमजोर हो गया है, चल नहीं पाता तो अपनी जगह ही बैठा है और रो रहा है, हर गाड़ी पर। वह वहीं, उसी जगह मर गया, जहां मालिक को उसे मिलना था।

अब ऐसा कुत्ता साधारण कुत्ता नहीं है। ऐसा कुत्ता साधारण कुत्ता नहीं है। इसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है जो कि मनुष्यों तक में कम होता है। यह गति कर जाएगा। इसकी गति सुनिश्चित है। यह उस जगह से ऊपर उठ जाने वाला है। इसने मनुष्य होने का एक बड़ा कदम रख लिया। इसकी चेतना ने एक कदम उठा लिया है, जो इसे आगे ले ही जाएगी। उसका स्मारक बनाया है उसकी स्मृति में। और स्मारक के लायक कुत्ता था। कई आदमी स्मारक के लायक नहीं होते, जिनके स्मारक बने हुए हैं।

तो दूसरा रास्ता यह है कि हम पशु-पक्षियों के निकट उनको जानें-पहचानें। उसके भी प्रयोग किए गए हैं। और बहुत से प्रयोगों के आधार पर ही यह कहा जा सकता है कि विकास हो रहा है, वह स्वेच्छा से हो रहा है। इसलिए सारे प्राणी विकसित नहीं हो पाते हैं। जो श्रम करते हैं उस दिशा में थोड़ा, वे विकसित हो जाते हैं। जो नहीं श्रम करते, वे पुनरुक्ति करते रहते हैं उसी योनि में। अनंत पुनरुक्ति भी हो सकती है। लेकिन कभी न कभी वह क्षण आ जाता है कि पुनरुक्ति भी उबा देती है। और बहुत गहरे प्राणों में ऊपर उठने की आकांक्षा पैदा कर देती है।

तो विकास किया हुआ है, चेतना श्रम कर रही है विकास में। चेतना जितनी विकसित होती चली जाती है, उतने विकसित शरीर भी निर्माण करती है। इसलिए शरीर में भी जो विकास हो रहा है, वह भी जैसा डार्विन समझता है कि स्वचालित है, आटोमेटिक है, वैसा नहीं है।

जितनी चेतना तीव्र विकास ग्रहण कर लेती है, उतना शरीर के तल पर भी विकास होना अनिवार्य हो जाता है। वह होता है पीछे, पहले नहीं होता। यानी किसी बंदर का शरीर अगर कभी आदमी का शरीर बनता है तो तभी जब किसी बंदर की आत्मा इसके पूर्व आदमी की आत्मा का चरण उठा चुकी होती है। उस आत्मा की जरूरत के लिए ही पीछे से शरीर भी विकसित होता है।

आत्मा का विकास पहले है, शरीर का विकास पीछे है। शरीर सिर्फ अवसर बनता है। जितनी आत्मा विकसित होती चली जाती है, उतना विकसित अवसर शरीर को भी बनना पड़ता है। कभी भी मनुष्य और भी आगे गति कर सकता है और ऐसी चेतना विकसित हो सकती है, जो मनुष्य से श्रेष्ठतर शरीरों को जन्म दे सके। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

लेकिन मनुष्य तक आ जाना साधारण घटना नहीं है। लेकिन जो मनुष्य है, उसे खयाल नहीं होता कि मनुष्य तक आ जाना हम ऐसे लेते हैं कि हम पैदा हो गए हैं, और हम जिंदगी ऐसे गंवाते हैं, जैसे कि मुफ्त में मिल गई हो!

मनुष्य हो जाना असाधारण घटना है। लंबी प्रक्रियाओं, लंबी चेष्टाओं, लंबे श्रम और लंबी यात्रा से मनुष्य की चेतना की स्थिति उपलब्ध होती है। लेकिन अगर हमने ऐसा मान लिया कि मुफ्त में मिल गई है–और अक्सर ऐसा होता है। अमीर बाप का बेटा जब घर में पैदा होता है तो वह घर की संपत्ति को मुफ्त में हुआ ही मान लेता है। इसलिए अमीर बाप का बेटा एक ही काम करता है कि बाप की अमीरी कैसे विसर्जित हो जाए, इसकी चेष्टा में लग जाता है। एक आदमी कमाता है तो उसका बेटा गंवाता है। क्योंकि बेटे को अमीरी जन्म से उपलब्ध होती है, उसे लगता है कि यह तो, यह तो है, अब इसका करना क्या है! उसे कभी खयाल भी नहीं होता कि कितने श्रम से वह अमीरी खड़ी की गई है।

फोर्ड एक दफे इंग्लैंड आया। स्टेशन पर उतर कर उसने इंक्वायरी आफिस में जाकर पूछा कि लंदन में सबसे सस्ती होटल कौन सी है? संयोग से इंक्वायरी वाला आदमी फोर्ड को पहचानता था, चेहरे को जानता था। उसने कहा, आप! सस्ती होटल पूछते हैं! आप फोर्ड ही हैं न?

उसने कहा, हां, मैं फोर्ड ही हूं। सस्ती होटल कौन सी है सबसे ज्यादा? उसने कहा, मुझे हैरानी में डालते हैं। आपका बेटा आता है तो वह आते ही से पूछता है, सबसे महंगी होटल कौन सी है!

उसने कहा, वह फोर्ड का बेटा है, मैं फोर्ड हूं। मैं गरीब आदमी था, मुश्किल से श्रम करके पैसा कमा पाया हूं। वह अमीर आदमी पैदा हुआ है, वह श्रम करके गरीब होने की कोशिश करेगा। मैं गरीब आदमी था। मैं सचेत हूं पूरी तरह कि कैसे कमा पाया हूं। वह अमीर बेटा है, वह फोर्ड का लड़का है। साधारण का लड़का है? फोर्ड ने कहा कि वह किसी साधारण आदमी का लड़का है? हेनरी फोर्ड का लड़का है। उसको ठहरना ही चाहिए महंगी से महंगी में। लेकिन मैं ठहरा हेनरी फोर्ड, तो मुझे तो…।

वह हेनरी फोर्ड एक पुराना कोट पहने रहता था, जो वह वर्षों से पहनता था। वह कभी बदलता ही नहीं था उसको। वह फट गया तो सिलवा लेता, ठीक करवा लेता। किसी मित्र ने कहा कि आपको यह कोट शोभा नहीं देता।

हेनरी फोर्ड ने कहा, लोग मुझे पहचानते हैं कि मैं हेनरी फोर्ड हूं, कोई भी कोट पहनूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे लोग भलीभांति पहचानते हैं कि मैं हेनरी फोर्ड हूं, कोई भी कोट पहनूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह तो मेरे बच्चों के लिए है कि शानदार कोट पहनें, ताकि लोग पहचान सकें कि हेनरी फोर्ड के लड़के हैं। उनको कौन पहचानेगा! और मेरा तो चलता है। मेरा यह कोट कैसा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं क्या पहनता हूं, इससे क्या फर्क पड़ता है! लेकिन मेरे बेटों को कीमती कोट चाहिए, तभी वे पहचाने जा सकेंगे कि किसके बेटे हैं, हेनरी फोर्ड के बेटे हैं।

होता क्या है कि हम एक जन्म में जो कमाते हैं, दूसरे जन्म में वह हमारी सहज उपलब्धि होती है। यानी दूसरे जन्म में वह हमें संपत्ति की तरह मिलती है, जो हमने पिछले जन्म में कमाया है। और पिछला जन्म हमें भूल जाता है जैसे कि बेटे को बाप का श्रम भूल जाता है। ऐसा हमें भी, हमारी पिछली अवस्था में जो हमने कमाया है, पिछले जन्म में, वह इस जन्म में भूल जाता है। इस जन्म में हमारी उपलब्धि होती है वह। और तब हमें खयाल भी नहीं रह जाता, और तब हम अक्सर गंवाना शुरू करते हैं।

यह धन के बाबत ही नहीं होता, यह पुण्य के बाबत भी यही होता है, यह ज्ञान के बाबत भी यही होता है, चेतना के बाबत भी यही होता है, कि फिर हम अवसर का उपयोग और बढ़े, इसके लिए नहीं कर पाते। तो जो हो गया है, वहीं हम अटक जाते हैं। इसलिए बहुत लोग एक ही योनि में बार-बार पुनरुक्त होते हैं। लाख बार भी पुनरुक्त हो सकते हैं। नीचे कोई नहीं जाता। नीचे जाने का कोई उपाय नहीं है! पीछे कोई नहीं लौट सकता। लेकिन जहां हैं, वहीं पुनरुक्त हो सकता है या आगे जा सकता है।

दो ही उपाय हैं–या तो आगे जाएं या जहां हैं वहीं भटकते रह जाएं। और जहां हैं, अगर आप वहीं भटकते हैं तो विकास अवरुद्ध हो जाएगा, रुक जाएगा। और अगर आगे जाते हैं तो विकास फलित होगा।

विकास चेष्टा निर्भर है, संकल्प निर्भर है, साधना निर्भर है। इसीलिए इतना बड़ा प्राणी-जगत है, लेकिन मनुष्यों की संख्या बहुत कम है। बढ़ती भी है तो बहुत धीमे बढ़ती है। आज हमें लगता भी है कि बहुत जोर से बढ़ रही है, तो भी वह हम सिर्फ मनुष्य को ही सोचते हैं, इसलिए ऐसा लगता है। अगर हम प्राणी-जगत को देखें तो असंख्य प्राणी-जगत में क्या हमारी संख्या है! हमसे ज्यादा छोटी जाति का कोई प्राणी नहीं है इस जगत में। एक घर में इतने मच्छर हो सकते हैं जितनी पूरी मनुष्य-जाति है। और कितनी करोड़ों योनियां हैं और एक-एक योनि में कितने असंख्य व्यक्ति हैं!

इतने थोड़े से लोग, जैसे एक मंदिर कोई बनाए और बड़ी भारी नींव भरे, फिर उठते-उठते-उठते-उठते आखिर मीनार पर एक छोटी सी कलगी उठी रह जाए। ऐसा बड़ा भवन है जीवन का, उसमें मनुष्य की कलगी बड़ी छोटी सी ऊपर उठी रह गई है। उसकी कोई, अगर हम सारे प्राणी-जगत को देखें तो हमारी कोई संख्या ही नहीं है। हम एक बड़े समुद्र में एक छोटी बूंद से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन अगर हम मनुष्यों को देखें तो हमें बहुत ज्यादा मालूम पड़ता है कि काफी, साढ़े तीन अरब आदमी हैं। और हमें चिंता हो गई है कि हम कैसे बचाएंगे इतने आदमियों को, कैसे खाना जुटाएंगे, कैसे मकान बनाएंगे, क्या करेंगे। लेकिन यह कोई बड़ी संख्या नहीं है।

और ध्यान रहे, मेरी अपनी जो समझ है, जब जरूरत पैदा होती है, तो नए उपाय तत्काल विकसित हो जाते हैं। जैसे आने वाले पचास वर्षों में आदमी जन्म को, जीवन को रोकने की सब चेष्टाएं करेगा, लेकिन जीवन रुकेगा नहीं। चेष्टा बहुत की जाएगी लेकिन जीवन रुकेगा नहीं। चेष्टा का फल इतना ही हो सकता है कि जितनी तीव्रता से गति हो, शायद वह न हो। लेकिन इन आने वाले पचास वर्षों में भोजन के नए रूप विकसित हो जाएंगे।

जैसे हम समुद्र के पानी से भोजन निकाल सकेंगे। जैसे सिंथेटिक फूड विकसित हो जाएंगे, जो हम फैक्ट्री में बना सकेंगे। जैसे हवा से सीधा भोजन खींचा जा सकेगा या सूरज की किरण से सीधा भोजन लिया जा सकेगा। आने वाले पचास वर्षों में भोजन के बिलकुल नए रूप विकसित होंगे, जो कभी नहीं थे पृथ्वी पर।

और दूसरी बात जो मैं समझता हूं, बहुत कीमत की है, लेकिन खयाल में नहीं है। जैसे बड़ी चेष्टा चली चांद पर जाने की, अब मंगल पर जाने की चलेगी, यह चेष्टा पृथ्वी पर संख्या के अधिक बढ़ जाने का आंतरिक परिणाम है। यह ऊपर से दिखाई पड़ता है कि रूस और अमरीका में दौड़ लगी हुई है चांद पर जाने की, लेकिन बहुत गहरे में संख्या मनुष्य की आने वाले सौ वर्षों में इतनी तीव्रता से बढ़ने का डर है–वह हमें खयाल नहीं है, वह हमारा अनकांशस भय है–कि नई जमीन की खोज शुरू हो गई, जहां हम आदमी को पहुंचा सकें। ऐसा सदा हुआ।

एक जमाना था आदमी खानाबदोश था, एक जगह से दूसरी जगह भटकता रहता था, क्योंकि एक जगह का खाना खतम हो जाता था, फल टूट गए, तो दूसरी जगह चला जाता था। फिर आदमी इतने हो गए कि एक जगह के फल नहीं टूटे, सभी जगह के फल एक साथ टूटने लगे तो दूसरी जगह कहां जाओ। तो फिर जमीन पर हमें पैदावार करनी पड़ी, खेती करनी पड़ी। फिर खेती भी पर्याप्त नहीं साबित हुई, तो हमें औद्योगिक व्यवस्था करनी पड़ी। अब वह भी पर्याप्त साबित नहीं होगी, तो हमें नई व्यवस्थाएं करनी पड़ें।

और अंतिम व्यवस्था यह होगी कि पृथ्वी इतनी भारग्रस्त हो जाए, क्योंकि इतने प्राणी अगर व्यक्ति उनके मुक्त होने लगें बड़ी संख्या में नीचे की योनियों से, तो कहीं दूसरी जगह हमको खोजनी पड़े। वह जगह हम कोई दूसरे कारणों से खोजते रहेंगे, यह दूसरी बात है, क्योंकि हमें बहुत कुछ साफ नहीं है कि क्या होता है भीतर। लेकिन भीतर अचेतन शक्ति धक्के देती रहेगी कि पृथ्वी के बाहर जगह खोजो, क्योंकि आज नहीं कल, पृथ्वी के बाहर बसने की जरूरत पड़ ही जाने वाली है।

जैसा मैंने कहा कि जब नई चेतना विकसित होती है, तो नए शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं। जब एक चेतन समाज की संख्या बढ़ती है, तो नए ग्रह-उपग्रह बसाने पड़ते हैं। पहला जीवन भी जो इस पृथ्वी पर आया है, वह भी वैज्ञानिक नहीं बता पाते कि कैसे आ गया। वैज्ञानिक विकास बता पाते हैं, लेकिन विकास तो किसी चीज का होता है, जो हो। विकास तो बाद की बात है। जीवन आया कहां से? जीवन आ कैसे गया? विकास तो ठीक है कि मछली आदमी बन गई। लेकिन मछली, वह प्राण कहां से आया? कि कोई कहे पौधा मछली बन गया, तो पौधे में वह प्राण कहां से आया? यानी प्राण को कहीं न कहीं से आने की जरूरत है।

और इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं दूसरी बात, और वह यह कि जब एक मां गर्भ के योग्य होती है, तो एक आत्मा उसमें प्रवेश करती है। जब एक पृथ्वी या एक उपग्रह जीवन के योग्य हो जाता है, तो दूसरे ग्रहों-उपग्रहों से जीवन वहां प्रवेश करता है। और कोई उपाय नहीं है। यानी जो पहला जीवाणु है, वह सदा ट्रांस-माइग्रेट करता है। उसके सिवा कोई उपाय नहीं है। वह किसी दूसरे ग्रह से…हो सकता है उस ग्रह पर जीवन समाप्त होने के करीब आ गया हो, तो पहला जीवन वहां से आएगा।

इसी संबंध में यह भी समझ लेना जरूरी है, जो आपने पूछा कि बुद्ध और महावीर या मैं या कोई भी, जो इतना श्रम करते हैं कि लोग विकसित हों, तो कहीं ऐसा कभी हुआ है?

ऐसा बहुत बार हुआ है। क्योंकि हमारी दृष्टि बहुत छोटी है। और हम जानते कितना हैं? अगर आदमी का इतिहास हम जानते हैं तो मुश्किल से जीसस के बाद व्यवस्थित रूप से, दो हजार वर्ष से।

इसलिए इतिहास जीसस से शुरू होता है। इसलिए तो हम लिखते हैं ईसा के बाद और ईसा के पहले। ईसा के बाद का इतिहास व्यवस्थित है, उसके पहले सब धूमिल है। फिर भी अगर हम बहुत खींचें तो पांच हजार साल से पहले का हमें कुछ अंदाज नहीं बैठता।

पृथ्वी पर आदमी दस लाख वर्षों से है। पृथ्वी दो अरब वर्षों से है। लेकिन पृथ्वी बहुत नया जन्म है। सूरज पृथ्वी से कई हजार अरब वर्ष पहले से है। लेकिन हमारा सूरज सारे जगत में सबसे नया सूरज है। और जो चारों तरफ हमें तारे दिखाई पड़ते हैं, वे सब महासूर्य हैं, जिनमें हमारा सूरज बहुत छोटा है। पृथ्वी से सूरज साठ हजार गुना बड़ा है, लेकिन यह सबसे छोटा तारा है। इससे करोड़-करोड़, दो-दो करोड़ गुने बड़े तारे हैं। ये हमें छोटे-छोटे दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि फासला अंतहीन है।

सूरज से हम तक किरण आने में दस मिनट लगते हैं–सूर्य की किरण आने में। और किरण की गति होती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। दस मिनट सूरज से आने में लगते हैं।

जो सूरज के बाद निकटतम तारा है, उससे चार वर्ष लगते हैं हम तक किरण के आने में! गति वही है–एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड! सूरज के बाद जो निकटतम तारा है, उससे चार वर्ष लग जाते हैं आने में! रोशनी चलेगी आज, आएगी चार वर्ष बाद! इतना हमारा फासला है। लेकिन वह निकटतम तारा है। उसके बाद जो तारा है, उससे सात वर्ष लगते हैं हम तक आने में! और उसके बाद फासले बढ़ते चले जाते हैं।

ऐसे तारे हैं कि जब पृथ्वी बनी थी, यानी दो अरब वर्ष पहले, तब की उनकी रोशनी चली, अब आ पाई है! और ऐसे तारे हैं कि जब पृथ्वी नहीं थी, तब उनकी रोशनी चली थी, वह अब पहुंच पा रही है!

और ऐसे तारे हैं कि जिनकी रोशनी अभी तक नहीं पहुंची है। और ऐसे भी तारे होंगे, जिनकी रोशनी कभी नहीं पहुंचेगी! पृथ्वी बनेगी और मिट चुकी होगी, और उनकी चली हुई रोशनी आएगी, तब तक पृथ्वी बन कर जा चुकी होगी, तब उनकी रोशनी पहुंचेगी!

यह जो अंतहीन विस्तार है, इस अनंत विस्तार में अनेक पृथ्वियां हैं, अनेक पृथ्वियों पर जीवन है। उन जीवनों ने अनेक बार अंतिम स्थिति भी पाई है। असल में बुद्ध, महावीर या क्राइस्ट जैसे लोग न केवल मनुष्य-जाति के अतीत में प्रवेश करते हैं, बल्कि जीवन की समस्त संभावनाएं समस्त लोकों में, उनमें भी प्रवेश करने की कोशिश करते हैं। और वहीं से आश्वासन पाते हैं इस बात का कि पूर्णता बहुत बार हो चुकी है। वह आश्वासन आकस्मिक नहीं है। वह आश्वासन इस बात का है कि पूर्णता बहुत बार हो चुकी है। लेकिन हमारी दृष्टि बहुत छोटी है।

एक कीड़ा है, वह वर्षा में पैदा होता है, फिर वर्षा में ही मर जाता है। उससे कोई कहे कि वर्षा फिर आएगी; तो वह कहेगा, कभी सुना नहीं, कभी आई नहीं; न मेरे मां-बाप ने कहा, न मेरे पुरखों ने कोई किताब में लिखा। वर्षा एक ही बार आती है। क्योंकि कोई कीड़े ने दो बार वर्षा नहीं देखी। क्योंकि वह कीड़ा तो वर्षा ही में पैदा होता है, वर्षा ही में मर जाता है। किसी पुरखे ने नहीं देखी कभी उसके, तो अनुभूति का कोई सवाल नहीं है। और स्मृति लिखने का और स्मृति बचाने का कोई सवाल नहीं है।

हम पृथ्वी पर ही जीते हैं और पृथ्वी पर ही मर जाते हैं। और जानने की सीमा इतनी छोटी है कि हमें पता नहीं कि इस अंतहीन विस्तार में, इस पूरे ब्रह्मांड में कितने-कितने लोकों में जीवन है। उस जीवन से भी संबंध स्थापित करने की निरंतर चेष्टाएं की गई हैं। वैज्ञानिक चेष्टा तो अब चल रही है, धार्मिक चेष्टा बहुत पुरानी है। और संबंध स्थापित किए गए हैं। उन संबंधों ने बड़े आश्वासन दिए हैं। और उन आश्वासनों ने यह भरोसा दिया है कि अगर कहीं भी जीवन और गहराई में विकसित हुआ है, और आनंद में विकसित हुआ है, कि मनुष्य दिव्य हो गया है कहीं, तो यहां भी हो सकता है। कोई बाधा नहीं।

फिर दूसरा और बड़ा आश्वासन यह है कि जो व्यक्ति इस तरह की कोशिश कर रहा है, वह तो उपलब्ध हो ही गया है। और जिस दिन उसने जान लिया है कि यह हो सकता है, उस दिन संभावना खुल गई कि सबके लिए हो सकता है। कोई बाधा नहीं है। अगर हम स्वयं बाधा न बनें तो वह संभावना खुल सकती है। पृथ्वी पर भी वह होगा। देर लग सकती है, लेकिन समय के इतने बड़े प्रवाह में देर का कोई अर्थ ही नहीं होता। कोई अर्थ ही नहीं है देर का। बस देर हमारे छोटे मापदंड की वजह से है। नापने का गज बहुत छोटा है, उससे हम नापते हैं, बहुत लंबा मालूम पड़ता है।

अभी बुद्ध को या महावीर को हुए वक्त ही कितना हुआ? ढाई हजार वर्ष हुए। हमारे लिए बड़ा लंबा फासला है। लेकिन जिस विस्तार की मैं बात कर रहा हूं, उसमें ढाई हजार वर्ष का क्या मतलब है? कोई भी तो मतलब नहीं है। कोई भी तो मतलब नहीं है। ढाई हजार वर्ष का क्या मतलब होता है? हमारे नाप की बात है।

एक चींटी एक आदमी के ऊपर चढ़ जाती है तो समझती है हिमालय पर पहुंच गई। निश्चित ही, नाप है। एक आदमी सो रहा है और एक चींटी उसके ऊपर चढ़ गई है, तो वह सोचती है हिमालय पर पहुंच गई है! और पहुंच ही गई है। इसमें कोई झूठ भी नहीं है। क्योंकि चींटी और आदमी का अनुपात है। चींटी का नाप कितना?

हमारा नाप कितना? बहुत छोटा नाप है। और वह छोटा नाप हमारी जिंदगी के हिसाब से है। सत्तर साल या सौ साल हमारी जिंदगी है, तो उससे हम नापते हैं।

लेकिन जैसे व्यक्तियों के अतीत में उतरने की संभावना है, कुछ शिक्षकों ने जीवन के अतीत में भी उतरने की चेष्टा की है। वह अलग यात्रा है और अलग उसकी विधियां हैं। यह जीवन को पूरा मान लिया है, एक इस पृथ्वी का जीवन। यह पृथ्वी का जीवन कहां से आता है? किन लोकों से?

उन लोकों में भी…इस जीवन के भीतर कहीं न कहीं उन लोकों की स्मृति भी दबी है। उन लोकों में भी इस स्मृति से प्रवेश हो सकता है। विज्ञान शायद प्रवेश नहीं भी कर पाएगा। क्योंकि चांद पर विज्ञान पहुंचा, बड़ी कीमती घटना घटी है। लेकिन अब अगर मंगल पर पहुंचना है तो एक वर्ष जाने में और एक वर्ष आने में लगेगा। और सूर्य के जितने उपग्रह हैं, उनमें किसी पर जीवन नहीं है पृथ्वी को छोड़ कर। सूर्य के उपग्रह को छोड़ कर अगर किसी दूसरे सूर्य के उपग्रह पर जाना है, तो मनुष्य की उम्र काम की नहीं है। यानी अगर दो सौ वर्ष आने-जाने में लगें, तो पिता जाए और बेटा लौटे। कोई उपाय नहीं है। और कोई उपाय नहीं है।

लेकिन दो सौ वर्ष बहुत छोटा है। जिस तारे से चार वर्ष लगते हैं प्रकाश आने में, तो जिस दिन हम प्रकाश की गति का वाहन बना लें, उस दिन चार वर्ष लगेंगे हमको आने में, आने-जाने में आठ वर्ष लग जाएंगे।

लेकिन प्रकाश की गति का वाहन कभी हो सकेगा? क्योंकि बड़ी कठिनाई यह है कि प्रकाश की गति जिस चीज में भी हो जाए, वही प्रकाश हो जाएगा। यानी वह किरण ही हो जाएगी वह चीज। अगर उतनी गति पर किसी भी चीज को चलाया तो वह ताप की वजह से किरण हो जाएगी। तो प्रकाश की गति असंभव मालूम पड़ती है। क्योंकि प्रकाश की गति पर एक हवाई जहाज चला, तो जैसे ही वह उतनी गति पकड़ेगा कि वह जलेगा, पिघलेगा और प्रकाश हो जाएगा। क्योंकि उतने ताप पर, उतनी गति पर उतना ताप पैदा हो जाता है, और उतने ताप पर किरण बन जाती है। वह प्रकाश इसीलिए तो प्रकाश है कि उतनी गति से चल रहा है।

तो प्रकाश की गति पर किसी दिन वाहन ले जाया जा सकेगा, यह असंभव है। तो विज्ञान कभी दूसरे जीवनों से संबंध बना सकेगा, यह करीब-करीब असंभव बात है। लेकिन इतना हो सकता है कि विज्ञान की इस सारी खोज-बीन के बाद यह हमें खयाल में आ सके कि धर्म यह संबंध बना सकता है।

यह जान कर आपको हैरानी होगी कि जैसे ही अंतरिक्ष की यात्रा शुरू हुई है, रूस और अमरीका दोनों ही योग में अत्यधिक उत्सुक हो गए हैं। अमरीका ने एक कमीशन बिठाया तीन-चार मनोवैज्ञानिकों का, सारी दुनिया का चक्कर लगाओ और क्या विचार का संप्रेषण बिना माध्यम के हो सकता है, इसकी खबर लाओ। इसकी खबरें लाई गई हैं। क्योंकि इस बात का डर है कि एक अंतरिक्ष में यात्री गया है और उसका यंत्र बिगड़ जाए, वह कोई खबर न दे सके तो वह अंतहीन में खो जाएगा। उसका फिर हमें दुबारा कभी पता भी नहीं लगेगा कि वह कहां गया। तो एक सब्स्टीटयूट व्यवस्था होनी ही चाहिए कि अगर यंत्र भी खो जाए तो वह सीधा विचार के संप्रेषण से खबर दे सके।

अगर विचार का संप्रेषण सीधा हो सके तो ही संभावना है कि हम दूसरे लोकों के जीवन से संबंध स्थापित कर सकें। क्योंकि तब विचार को गति का सवाल ही नहीं है। विचार में समय लगता ही नहीं। सिर्फ एक ही यात्रा है इस जगत में, विचार की, जिसमें समय नहीं लगता। यानी अगर मैं विचार संप्रेषित कर सकता हूं, तो मैंने संप्रेषित किया और आपने पाया, इसके बीच में पल भी नहीं गिरता। वह जिसको महावीर समय कहते हैं, पल का भी लाखवां हिस्सा, वह भी नहीं गिरता। विचार समयातीत संप्रेषित होता है, ट्रांसफर होता है। तो किसी दिन विचार के संप्रेषण से ही दूसरे जीवनों से संबंध स्थापित हो सकता है।

महावीर, बुद्ध, जीसस, जरथुस्त्र ऐसे जीवन की तलाश में हैं। और संबंध स्थापित करने की पूरी चेष्टा की गई है और कुछ बातें खोज भी ली गई हैं कि वह संबंध स्थापित हो सकता है, हुआ है। उस संबंध के आधार पर कामना बनती है, आशा बनती है कि पृथ्वी पर भी यह हो सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। तो वह खयाल में लेने की बात है।

और अंतिम बात, सुबह जो मैंने कहा उससे साफ हुआ होगा कि एक ही जन्म नहीं है। जन्मों की एक लंबी यात्रा है। हम जो आज हैं, वह हम एकदम आज के ही नहीं हैं। हम कल भी थे, परसों भी थे। एक अर्थ में हम सदा थे। किन्हीं भी रूपों में–कभी पशु में, कभी पक्षी में, कभी पत्थर में, कभी खनिज में, कभी इस ग्रह पर, कभी किसी और ग्रह पर–हम सदा थे। होने के साथ हम एक हैं। अस्तित्व में हमारी प्रतिध्वनि सदा थी। लेकिन मूर्च्छित से मूर्च्छित थी। अमूर्च्छित होती चली गई है, जाग्रत होती चली गई है।

अभी हम सबको लगता है कि महावीर की बात करते हैं, लेकिन हममें से सभी थे। जरूरी नहीं है कि महावीर से संबंधित हुए, जरूरी नहीं कि महावीर के पास थे, जरूरी नहीं कि महावीर के प्रदेश में थे, लेकिन सब थे। कहीं होंगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन सब थे। यह भी हो सकता है कि हममें से कोई महावीर के ठीक निकट भी रहा हो। उस गांव में भी रहा हो, जहां से महावीर गुजरे हों। जरूरी नहीं कि हम मिलने गए हों। क्योंकि महावीर गांव से गुजरें तो कितने लोग मिलने जाते हैं? यह कोई आवश्यकता नहीं। एक गांव में ठहरे भी हों तो दस-बीस लोग भी मिले हों तो ठीक है, नहीं मिले हों तो भी जरूरी नहीं।

हम सदा थे और हम सदा रहेंगे। हां, मूर्च्छित या अमूर्च्छित, दो बातें हो सकती हैं। अगर मूर्च्छित रहे हों तो हमारा होना, न होना बराबर था। जब से हम अमूर्च्छित होते हैं, जागते हैं, चेतन होते हैं, तभी से हमारे होने में कोई अर्थ है। और जितने हम चेतन होते चले जाते हैं उतना ही हमारा होना गहरा होता जाता है। उतना ही एक्झिस्टेंस, अस्तित्व जो है, वह प्रगाढ़, समृद्ध होता चला जाता है। शायद उस अर्थ में होना हमारा अभी भी नहीं है। अभी भी बस हम हैं।

यह जो होने की लंबी यात्रा है, इसमें बहुत बार शरीर बदलने जरूरी हैं। क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, उसकी सीमा है, वह चुक जाता है। असल में कोई पदार्थ से निर्मित वस्तु शाश्वत नहीं हो सकती। पदार्थ से जो भी निर्मित होगा, वह बिखरेगा। जो बनेगा, वह मिटेगा।

तो शरीर बनता है, मिटता है; बनता है, मिटता है। लेकिन पीछे जो जीवन है; वह न बनता, न मिटता। वह सदा नए-नए बनाव लेता है। पुराने बनाव नष्ट हो जाते हैं, फिर नए बनाव लेता है। ये नए बनाव उसकी संस्कार, उसकी कंडीशनिंग, उसने पिछले जीवन में क्या जीया, क्या भोगा, क्या किया, क्या जाना–इन सबका इकट्ठा सार अंश हैं।

उसे समझने के लिए दोत्तीन बातें समझ लेनी चाहिए। एक तो शरीर हमें दिखाई पड़ता है, जो हमारा ऊपर है। एक और शरीर है, ठीक इसके जैसे ही आकृति का, जो इस शरीर में व्याप्त है। उसे सूक्ष्म शरीर कहें, सटल बाडी कहें, कार्मण शरीर कहें, कर्म शरीर कहें–कुछ भी नाम दें–मनो-शरीर कहें, काम चलेगा। इस शरीर से ठीक बिलकुल ऐसा ही, अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित सूक्ष्म देह है। जब यह शरीर गिर जाता है, तब भी वह देह नहीं गिरती। वह देह आत्मा के साथ यात्रा करती है। उस देह की खूबी है कि आत्मा की जैसी मनोकामना होती है, वह देह वही आकार ग्रहण कर लेती है। पहले वह देह आकार ग्रहण करती है, और तब उस आकार की देह में वह प्रवेश कर सकती है।

अगर एक सिंह मरे, तो उसके शरीर के पीछे जो छिपा हुआ सूक्ष्म शरीर है, वह सिंह का होगा, लेकिन वह मनो-काया है। मनो-काया का मतलब यह है कि जैसे हम पानी एक गिलास में डालें, तो उस गिलास का हो जाए रूप उसका, बर्तन में डालें, तो बर्तन जैसा हो जाए, बोतल में भरें, बोतल जैसा हो जाए। हमारी स्थूल देह सख्त है, पत्थर के बर्फ की तरह। और हमारी सूक्ष्म देह तरल, लिक्विड है। वह किसी भी आकार को ग्रहण कर सकती है तत्काल।

तो अगर एक सिंह मरे और उसकी आत्मा विकसित होकर मनुष्य बनना चाहे, तो मनुष्य शरीर ग्रहण करने के पहले उसकी सूक्ष्म देह मनुष्य की आकृति को ग्रहण कर लेती है। वह उसकी मनो-आकृति है। सुंदर, कुरूप, अंधा, लंगड़ा, स्वस्थ, बीमार–वह उसकी मनो-आकृति है, जो उसकी देह को पकड़ जाती है। सूक्ष्म शरीर जैसे ही देह ग्रहण कर लेता है, मनो-आकृति बन जाता है, वैसे ही उसकी खोज शुरू हो जाती है गर्भ के लिए।

अब यह भी समझना जरूरी है कि एक व्यक्ति, एक स्त्री और पुरुष जीवन में अनेक संभोग करते हैं, लेकिन सभी संभोग गर्भ नहीं बनते। और यह भी जान कर हैरानी होगी कि एक संभोग में एक व्यक्ति के इतने वीर्याणु नष्ट होते हैं, जिससे अंदाजन एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते थे। यानी एक पुरुष अगर जिंदगी में साधारणतः आमतौर से कोई तीन हजार से लेकर चार हजार संभोग करता है, और एक संभोग में अंदाजन एक करोड़ बच्चों की संभावना के बीज हैं।

तो अगर एक पुरुष के सारे अणु प्रयुक्त हो सकें और वास्तविक बन सकें, तो एक पुरुष अंदाजन चालीस करोड़ बच्चों का पिता बन सकता है। एक पूरा राष्ट्र एक पुरुष के बीज अणुओं से संभावना ले सकता है। स्त्री की यह संभावना नहीं है, क्योंकि उसका महीने में सिर्फ एक ही बीज परिपक्व होता है। वह महीने में सिर्फ एक व्यक्ति को जन्म दे सकती है। लेकिन एक भी नहीं दे पाती, क्योंकि नौ महीने फिर वह एक व्यक्ति उसके व्यक्तित्व को रोक लेता है।

लेकिन सभी संभोग सार्थक नहीं होते। और उसका कारण यह है…अभी तक वैज्ञानिक नहीं सोच पाते, उसका कारण क्या है। सभी संभोग सार्थक क्यों न हों? स्त्री का बीज मौजूद है, पुरुष के एक करोड़ बीज एकदम से हमला करते हैं। और ध्यान रहे, जो बाद में प्रकट होते हैं गुण, वे बीज में ही छिपे होते हैं। पुरुष के सारे वीर्याणु एग्रेसिव होते हैं, हमलावर होते हैं, तेजी से हमला करते हैं। स्त्री का बीज पैसिव, प्रतीक्षा करता, अवेटिंग में होता है। वह हमला नहीं करता। वह सिर्फ बैठा हुआ प्रतीक्षा करता है।

ये जो एक करोड़ वीर्याणु हैं, इतनी तेजी से गति करते हैं कि कांप्टीशन वहीं शुरू हो जाता है! यह जान कर आप हैरान होंगे, वहां से प्रतियोगिता शुरू हो जाती है! वहां जो प्रतियोगिता में आगे निकल जाता है, वह जाकर स्त्री-अणु से एक हो जाता है। जो पीछे छूट जाता है, वह हार जाता है; थक जाता है, समाप्त हो जाता है।

लेकिन प्रत्येक बार संभोग गर्भ नहीं बनता, उसका वैज्ञानिक कारण नहीं खोज पाते अब तक, और नहीं खोज पाएंगे। उसका कारण यह है कि गर्भ तभी बन सकता है, जब वैसी आत्मा प्रवेश करने के लिए आतुर हो, उत्सुक हो। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। दो अणु मिलते हैं, इतना हमें दिखाई पड़ता है। स्त्री और पुरुष के अणुओं का मिलन सिर्फ अपरचुनिटी है, जन्म नहीं है; सिर्फ अवसर है, जिसमें एक आत्मा उतर सकती है–सिर्फ अवसर मात्र, जिसमें एक आत्मा उतर सकती है।

प्रश्न:

 

लेकिन अब तो संभावना है बगैर संभोग के ही उतर सकती है।

संभोग से कोई संबंध ही नहीं है संभावना का। संबंध तो सिर्फ दो अणुओं के मिलन का है। वह मिलन संभोग के द्वारा हो रहा है, यह प्रकृति की व्यवस्था है; कल सीरिंज के द्वारा हो सकता है, वह विज्ञान की व्यवस्था हो जाएगी।

प्रश्न:

 

उनमें से हर एक अणु भी उसमें इस्तेमाल हो सकते हैं?

हां, वे हो सकते हैं। और वे तभी हो सकेंगे, जब इतनी आत्माएं जन्म लेने के लिए आतुर और उत्सुक हो जाएं कि गर्भ व्यर्थ हो जाए। और इसीलिए मैं कह रहा हूं कि सब जरूरतें अनुकूल तैयार होती हैं, वह हमारे खयाल में नहीं आता। यानी अब तक इस बात की जरूरत ही नहीं पड़ी थी कि हम वीर्य-अणु को और स्त्री-अणु को प्रयोगशाला में जाकर बच्चा पैदा करें, लेकिन अब जरूरत पड़ जाएगी। पड़ जाएगी इसलिए कि स्त्री की संभावना समाप्त होने के करीब आ गई। वह एक बच्चे को नौ महीने में जन्म दे सकती है। एक स्त्री कितने ही बच्चे जन्म दे तो बीस-पच्चीस बच्चों से ज्यादा जन्म नहीं दे सकती। अधिकतम जन्म देने वाली स्त्री ने छब्बीस बच्चों को जन्म दिया। उसकी संभावना इससे ज्यादा नहीं है।

लेकिन अगर मनुष्य आत्माओं का तीव्र आगमन हो, तो फौरन उपाय करने पड़ेंगे। वह हमको दिखता नहीं कि हम किसलिए उपाय कर रहे हैं। आखिर हम ये उपाय किसलिए कर रहे हैं? तभी वह संभव हो सकता है। और तब तो एक व्यक्ति के पूरे के पूरे चालीस करोड़ बीजाणुओं का भी गर्भाधारण हो सकता है। लेकिन वह होगा तभी, जब आत्मा आने को, उतरने को आतुर हो।

और मेरा मानना है कि ये जो एक करोड़ की संभावना है एक संभोग में, और एक व्यक्ति में चालीस करोड़ की संभावना है, यह संभावना ही इसलिए है कि आज नहीं कल, हजार वर्ष बाद, दस हजार वर्ष बाद, इतनी जीव आत्माएं मुक्त होंगी कि इन सब अणुओं की जरूरत पड़ने वाली है। नहीं तो यह बेमानी है, इनका कोई मतलब नहीं है। और प्रकृति बेमानी कोई काम करती ही नहीं। जो भी शरीर में है, उसकी कोई गहरी सार्थकता है। वह हमें पता हो या हमें पता न हो। और अगर आज उसकी सार्थकता नहीं तो कल उसकी सार्थकता हो सकती है।

एक मां और एक बाप के व्यक्तित्व से निर्मित जो बीजाणु हैं, वे संभावना बनते हैं एक ऐसे व्यक्ति की, जो इन दोनों की संभावनाओं से तालमेल खाता हो, उसके जन्म की संभावना बनते हैं। इसलिए जो लोग समझ सकते हैं इस विज्ञान को, वे यह भी निश्चित करवा सकते हैं बहुत गहरे में कि कैसे बच्चे उनको पैदा हों! कैसे बच्चे उनको पैदा हों–क्योंकि उनकी मनोदशा, उनके मनोभाव, संभोग के क्षण में उनकी चित्त-स्थिति निर्धारित करेगी।

तो यह जो महावीर और इन सबके संबंध में हमें ढेर कहानियां प्रचलित मिलती हैं, वे किसी अर्थ में सार्थक हैं। जैसे कि महावीर के संबंध में है कि इतने स्वप्न आते हैं। या बुद्ध के संबंध में कि इतने स्वप्न आते हैं।

स्वप्न आते हैं या नहीं आते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सिर्फ इतना है कि ऐसे स्वप्न जिस चित्त में आते हों, उस चित्त की एक विशिष्ट अवस्था होगी तो ये स्वप्न आएंगे। सब स्वप्न सबको नहीं आते। चित्त की अवस्था पर स्वप्न निर्भर होते हैं।

एक आदमी क्रोधी है तो वह ऐसे स्वप्न देखता है, जिनमें क्रोध होगा। एक आदमी कामी है तो ऐसे सपने देखता है, जिनमें काम होगा। एक आदमी लोभी है तो ऐसे सपने देखता है, जिनमें लोभ होगा। स्वप्न वे ही हैं, जो व्यक्ति के चित्त की अवस्थाएं हैं।

महावीर जैसा व्यक्ति पैदा हो तो साधारण मनोदशा में पैदा नहीं हो जाता। उसके माता-पिता के भीतर चित्त की, शरीर की एक विशिष्ट अवस्था जरूरी है, तभी वैसी आत्मा प्रवेश कर सकती है। और उसके पहले के लक्षण भी जरूरी हैं। वे लक्षण भी होंगे। वे लक्षण भी जरूरी हैं। प्रतीक हैं वे लक्षण सिर्फ। वे इस बात की खबर देते हैं कि चित्त…।

जैसे कि फ्रायड कहता है–अभी फ्रायड ने जो काम किया वह बहुत कीमती है–वह कहता है कि अगर कोई आदमी सपने में मछली देखता है, तो वह सेक्स का प्रतीक है मछली जो है। अब यह हजारों सपनों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला कि मछली देखना जो है, वह किसी अर्थ में सेक्स से संबंधित है। मछली जो प्रतीक है, वह जननेंद्रिय का प्रतीक है। यह गलत भी हो सकता है उसका खयाल। लेकिन जो हजार सपने उसने अध्ययन किए हैं, उनमें ऐसा लगता है कि यह हो सकता है।

अभी तक महावीर के सपनों या बुद्ध के सपनों का कोई मनोवैज्ञानिक अध्ययन नहीं हुआ, उनकी माताओं के सपनों का। हो सकता है। लेकिन बड़ी कठिनाई है जो, वह यह है कि ऐसे व्यक्ति बहुत संख्या में पैदा नहीं हुए, इसलिए तौल बिठालने के लिए उपाय नहीं है बहुत। तौल नहीं बिठाली जा सकती कि अगर महावीर की मां को सफेद हाथी दिखाई पड़े, तो साधारणतः सफेद हाथी दिखाई पड़ते ही नहीं, पहली बात। एक तो हाथी ही मुश्किल से दिखाई पड़ता है। आप इतने यहां लोग बैठे हैं, शायद ही किसी को सपने में हाथी दिखाई पड़े। और हाथी अगर दिखाई भी पड़े तो वह सफेद हो, इसकी संभावना और न्यून हो जाती है।

अब महावीर की मां को अगर सफेद हाथी दिखाई पड़ता है, तो अब यह अपवाद एक ही है। यानी इस तरह के अगर सौ, दो सौ सपने अध्ययन न किए जा सकें, तो सफेद हाथी किस बात का प्रतीक है, यह तय करना मुश्किल है।

लेकिन कोई फ्रायड ने पहली दफा यह काम नहीं किया है। जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की माताओं को देखे गए सपनों में तालमेल है। और उसकी फिक्र की जाती रही है कि तीर्थंकर पैदा होता है, तो उसकी मां को क्या सपने आते हैं उसके पहले। उसकी चित्त-दशा क्या है! कितनी शांत है, अशांत है, आनंदपूर्ण है, प्रेमपूर्ण है, घृणापूर्ण है, क्रोधपूर्ण है; कैसी है–पवित्र है, दिव्य है, साधारण है, क्षुद्र है–कैसी है। यह बिलकुल ठीक है कि ऐसी ही चित्त की विशिष्ट दशा में ऐसी आत्मा उतर सकती है।

चंगेज खां या तैमूरलंग पैदा हों तो भी फिक्र की जानी चाहिए कि कैसे सपने उनकी माताएं देखती हैं। फिक्र नहीं की गई है। हिटलर पैदा हो, स्टैलिन पैदा हो, तो कैसे सपने उनकी मां देखती है, इसकी भी फिक्र की जानी चाहिए। तो शायद हमें यह साफ हो सके कि चित्त की एक विशिष्ट दशा में ऐसी आत्मा प्रविष्ट होती है।

इतना तो तय है कि हर दशा में हर आत्मा प्रविष्ट नहीं होती है। मां और बाप सिर्फ अवसर बनते हैं आत्मा के उतरने के, अवतरण के। आत्मा एक शरीर को छोड़ती है, जैसे ही मरती है मूर्च्छित हो जाती है, और जन्म तक मूर्च्छित ही रहती है। यानी मां के पेट के नौ महीने भी मूर्च्छित ही रहते हैं साधारणतया। लेकिन कुछ आत्माएं सचेत मरती हैं, तो वे मां के पेट में भी सचेत हो सकती हैं। जो सचेत मरेगा, वह मां के पेट में भी सचेत होगा।

इसलिए ये कहानियां बहुत आकस्मिक नहीं हैं कि मां के पेट में भी कुछ सीखा जा सके और बाहर की बातें सुनी जा सकें या बाहर के अर्थ ग्रहण किए जा सकें। यह बहुत असंभव नहीं है। अगर कोई चेतना सचेत रूप में मरी है, मरते वक्त पूर्ण चेतन थी, होश नहीं खोया था, शरीर होशपूर्वक छोड़ा, तो वह आत्मा होशपूर्वक शरीर ग्रहण भी करेगी। और मां के पेट में भी होशपूर्वक होगी।

लाओत्से के संबंध में कहा जाता है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ, क्योंकि पैदा होते से ही उसने ऐसे लक्षण दिखाए जो कि अत्यंत वृद्ध ज्ञानी में होने चाहिए। और बड़े बचपन से उसमें ऐसी बातें दिखाई पड़ने लगीं, जो कि बड़े अनुभव के बाद ही हो सकती हैं।

सचेतन रूप से मरा हुआ व्यक्ति सचेतन रूप से पैदा हो सकता है।

तो महावीर के मां के पेट में संकल्प करने की बात अर्थ रखती है। इस बात का संकल्प करने की बात कि अपने माता-पिता को दुख नहीं दूंगा। उनके जीते-जी संन्यास नहीं लूंगा। इस बात का संकल्प गर्भ में किया गया है, यह अर्थपूर्ण हो सकता है। लेकिन सामान्यतया हम मरते समय बेहोश हो जाते हैं और जन्म तक वह बेहोशी जारी रहती है।

असल में प्रकृति की यह व्यवस्था है मूर्च्छा करने की। जैसे हम आपरेशन करते हैं एक आदमी का, तो मूर्च्छित कर देते हैं, ताकि मूर्च्छा में जो भी हो उसे पता न चल सके, क्योंकि पता चलना बहुत घबड़ाने वाला भी हो सकता है। इसलिए प्रकृति की व्यवस्था है मरने के पहले मूर्च्छित और जन्म तक मूर्च्छा ही रहेगी।

और इस मूर्च्छा में जो भी होगा, जैसा मैंने कहा है कि आत्मा ग्रहण करेगी, तो वह बिलकुल आटोमेटिक है। आटोमेटिक का मतलब यह है कि आत्मा का रुझान जैसा है अचेतन, वह उस तरफ यात्रा कर जाएगी।

सचेतन रूप से जन्म बहुत कम लोग लेते हैं। वे ही लोग सचेतन रूप से जन्म ले सकते हैं, जिन्होंने पिछले जीवन में चेतना की बड़ी गहरी उपलब्धि की है, वे सचेतन रूप से जन्म ले सकते हैं। और तब वे जानते हैं पिछले जन्म को, मृत्यु को, मरने के बाद को।

तिब्बत में एक प्रयोग होता है–बारदो। दुनिया में जिन लोगों ने खोज की है मृत्यु के बाबत, उसमें सबसे ज्यादा खोज तिब्बत में हुई है। बारदो एक अदभुत प्रयोग है। जब एक आदमी मरता है तो भिक्षु उसके आस-पास खड़े होकर बारदो का प्रयोग करते हैं। जब वह मर रहा होता है, तब वे उसे चिल्ला कर कहते हैं कि होश रख, होश रख, सम्हल, बेहोश मत हो जाना, क्योंकि एक बड़ा मौका आया है, जो फिर दुबारा सौ वर्ष बाद शायद आए। यह मरने का मौका अगर सौ वर्ष बाद आए, तो उसे हिलाते हैं, जगाते हैं।

आप हैरान होंगे, आस्पेंस्की नाम का एक अदभुत विचारक चलते-चलते मरा, लेटा नहीं। अभी मरा, एक दस-पंद्रह साल पहले। और अपने सारे शिष्यों को इकट्ठा कर लिया मरने के पहले और चलता रहा और उसने कहा कि मैं होश में ही मरूंगा। मैं लेटना भी नहीं चाहता कि कहीं झपकी न लग जाए। चलता ही रहा।

जो लोग मौजूद थे, उन लोगों ने लिखा है कि जो अनुभव हमें हुआ उस दिन, वह हमें कभी नहीं हुआ था, कि कोई आदमी इतने होश से मर सकता है! टहलता ही रहा और कहता रहा कि बस अब यह होता है, अब यह होता है, अब यह होता है। अब मैं यहां डूब रहा हूं, अब मैं इस जगह पहुंच रहा हूं, अब बस इतने सेकेंड में सांस चली जाएगी। वह एक-एक चीज को नाप कर बोलता रहा। और पूरा सचेत मरा। मरा तब खड़ा था।

बारदो में वे उस आदमी को चिल्ला-चिल्ला कर सचेत करते हैं कि जागे रहना, सो मत जाना। हिलाते हैं, उसको पूरी कोशिश करते हैं, उसको कहते हैं कि देखो ऐसा-ऐसा होगा, घबड़ाओ मत, बेहोश मत हो जाना। और फिर एक-एक…अगर वह आदमी होश में रह जाता है तो फिर बारदो की प्रक्रिया आगे चलती है। फिर उसको बताते हैं कि अब ऐसा होगा देख, गौर से देख भीतर कि अब ऐसा होगा, अब ऐसा होगा, अब शरीर से इस तरह छूटेगा। अब शरीर छूट गया है। तू घबड़ाना मत। तू मर नहीं गया। शरीर छूट गया है, लेकिन देख तेरे पास देह है, गौर से देख। घबड़ा मत। वे सारा, वह पूरा प्रयोग करवाएंगे मरते वक्त।

वह मरने की प्रक्रिया बहुत कीमती है, कि उस वक्त अगर किसी को सचेत रखा जा सके तो उसके जीवन में एक क्रांति हो गई, जो बहुत अदभुत है। लेकिन रखा उसको ही जा सकता है, जो जीवन में सचेत होने का प्रयोग कर रहा हो, नहीं तो नहीं रखा जा सकता।

मैं जिस श्वास के अभ्यास के लिए आप से कह रहा हूं, अगर वह जारी रखते हैं तो मृत्यु के वक्त में कोई संपत्ति काम नहीं आएगी, कोई मित्र काम नहीं आएगा, वह श्वास की जागरूकता ही सिर्फ काम आती है। क्योंकि जो श्वास के प्रति जागरूक है, श्वास जैसे-जैसे डूबने लगती है, वह अपनी जागरूकता जारी रखता है। और श्वास के डूबने के साथ वह देखता है कि मृत्यु उतरने लगी, श्वास जाने लगी और मृत्यु उतरने लगी। और उसने श्वास का इतना जागरूक होने का अभ्यास किया है कि जब श्वास बिलकुल नहीं रह जाती, तब भी वह जागा रह जाता है।

बस, वही प्वाइंट है, जहां से उसकी नई यात्रा शुरू हो गई जागरण की। तब फिर उसका जन्म एकदम जागरूक जन्म है। और एक दफा कोई जागरूक मर जाए, फिर दूसरी जिंदगी बिलकुल दूसरी है, क्योंकि पिछले जन्म का कुछ भी नहीं भूलता फिर। वह गैप नहीं आता बीच में विस्मृति का, जो भुला दे। कंटिन्यूटी जारी रहती है।

वे बारदो में बड़ी चेष्टा करते हैं। अब मैं कितना चाहता हूं कि बारदो जैसी स्थिति इस मुल्क में पैदा की जाए, जो कभी नहीं हो सकी। यहां मरने के नाम से फिजूल मूर्खतापूर्ण बातें प्रचलित हैं, जिनका कोई लेना-देना नहीं है। कोई मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं जगा पाए हैं कि मरते हुए आदमी के लिए हम सहयोगी हो जाएं।

सहयोगी हम हो सकते हैं। और उसी माध्यम से वह व्यक्ति जब दुबारा जन्म लेगा तो उसके जन्म की पिछली यात्रा उसके सामने रहेगी सदा। वह आदमी दूसरे ढंग का हो जाएगा। उसके दूसरे जन्म में साधना अनिवार्य हो जाएगी। अब वह दूसरे जन्म को खोने को तैयार नहीं हो सकता है।

वह जो सूक्ष्म शरीर है, जिसकी मैंने बात कही, उसी सूक्ष्म शरीर में वे सूखी रेखाएं बनती हैं जो सुबह मैंने कहीं। वे सूखी रेखाएं बनती कहां हैं? वे कर्म जो हमने किए और वे फल जो हमने भोगे, वह जो हम जीए, उस सबकी सूक्ष्म रेखाएं उस सूक्ष्म शरीर पर बनती हैं। वह जो सूक्ष्म शरीर है–इसीलिए उसका एक नाम मैंने कहा, कार्मण शरीर।

तो महावीर का तो बहुत स्पष्ट खयाल है कि जो भी हमने जीया और भोगा उसके भोग के कारण विशेष प्रकार के परमाणु हमारे सूक्ष्म शरीर से जुड़ जाते हैं। जैसे एक क्रोधी आदमी है, तो वह एक विशेष प्रकार के परमाणु अपने सूक्ष्म शरीर में जोड़ लेता है।

अब ये हमको…अब तो साइंस बहुत सी बातें कहती है। साइंस कहती है कि जब आप क्रोध में होते हैं तो आपके खून में खास तरह का पायज़न छूट जाता है। जब आप प्रेम में होते हैं, तब एक दूसरे तरह का ड्रग आपके खून में छूट जाता है। जब एक आदमी किसी स्त्री या कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रति दीवानी या पागल हो जाती है प्रेम में, तो उसके खून में साइकोडेलिक ड्रग्स छूट जाते हैं, जिनकी वजह से सम्मोहन पैदा हो जाता है, और स्त्री उतनी सुंदर दिखाई पड़ने लगती है, जितनी वह है नहीं।

अगर आपको किसी स्त्री से प्रेम नहीं है तो एल.एस. डी. का एक इंजेक्शन लगा कर किसी भी स्त्री को देखें, जिससे आपका प्रेम नहीं, और आप एकदम दीवाने हो जाएंगे। क्योंकि एल.एस.डी. का इंजेक्शन जो है, वह आपके शरीर में वे ड्रग्स छोड़ देता है, जो प्रेमी के शरीर में अपने आप छूटते हैं। बस उन ड्रग्स के छूटते से कोई भी स्त्री आपको अपूर्व सुंदरी दिखाई पड़ेगी, यह सवाल नहीं है कि फलां स्त्री। एक साधारण सी कुर्सी ऐसी अद्वितीय दिखाई पड़ती है एल.एस.डी. का ड्रग लेने के बाद कि जैसी कोई स्त्री भी कभी सुंदर नहीं दिखाई पड़ी होगी। एक साधारण सा फूल इतना सुंदर हो जाता है, अलौकिक हो जाता है।

तो एल.एस.डी. की शरीर में गति होने से सब बदल जाता है। तो जब हम क्रोध करते हैं, तब एक तरह का पायज़न; प्रेम करते हैं, तब एक तरह का एंटी-पायज़न, और इस तरह के सारे के सारे रस शरीर में छूटते रहते हैं। यह तो शरीर के तल पर हो रहा है। लेकिन सूक्ष्म शरीर के तल पर भी हो रहा है। जब आप क्रोध कर रहे हैं तो सूक्ष्म शरीर के साथ विशेष तरह के परमाणु संबंधित हो रहे हैं, जब आप प्रेम कर रहे हैं तो विशेष तरह के परमाणु संबंधित हो रहे हैं।

इस शरीर के छूट जाने पर वह सूक्ष्म शरीर ही सूखी रेखाओं की तरह आपके भोगे गए जीवन को लेकर नई यात्रा शुरू करता है। और वह सूक्ष्म शरीर ही नए शरीर ग्रहण करता है। इसलिए वह अंधा हो सकता है। इसलिए वह काना हो सकता है। इसलिए वह लंगड़ा हो सकता है। बुद्धिमान हो सकता है, बुद्धिहीन हो सकता है।

प्रत्येक मृत्यु में स्थूल देह मरती है। फिर अंतिम मृत्यु है महामृत्यु–जिसे हम मोक्ष कहते हैं, उसमें वह सूक्ष्म शरीर भी मर जाता है। जिस दिन सूक्ष्म शरीर मर जाता है, उस दिन व्यक्ति का मोक्ष हो गया।

यह शरीर तो हर बार मरता है। वह भीतर का शरीर हर बार नहीं मरता। वह तभी मरता है, जब उस शरीर के रहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता–जब व्यक्ति न कुछ करता है, न भोगता है, न कर्ता बनता है, न किसी कर्म को ऊपर लेता है, न कोई प्रतिक्रिया करता है। जब व्यक्ति सिर्फ साक्षी मात्र रह जाता है, तब सूक्ष्म शरीर पिघलने लगता है, बिखरने लगता है।

साक्षी की जो प्रक्रिया है, वह सूक्ष्म शरीर को ऐसे पिघला देती है, जैसे सूरज निकले और बर्फ पिघलने लगे। साक्षी के निकलते ही सूक्ष्म शरीर के परमाणु पिघल कर बहने लगते हैं।

जिस दिन सूक्ष्म शरीर समाप्त हो जाता है, उस दिन आदमी कह सकता है…और यह पिघलना ऐसा ही अनुभव होता है, जैसे कि आपको सर्दी-जुकाम पकड़ गया है और जुकाम उतर रहा है तो आप अनुभव करते हैं, किसी को बता नहीं सकते कि अब जुकाम नीचे उतर रहा है। सूक्ष्म शरीर का पिघलना साक्षी को इसी तरह पता चलता है कि कोई चीज भीतर पिघल कर बहती चली जा रही है।

और जिस दिन सूक्ष्म शरीर पिघल जाता है, आत्मा और शरीर बिलकुल पृथक दिखाई पड़ने लगते हैं। सूक्ष्म शरीर जोड़ है। वह पृथक नहीं दिखाई पड़ने देता। वह दोनों को जोड़ कर रखता है। और जिस दिन ये पृथक दिखाई पड़ जाते हैं, वह आदमी कह देता है, अब यह आखिरी यात्रा है। अब इसके बाद लौटना मुश्किल है।

बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ तो बुद्ध ने कहा, वह घर गिर गया, जो सदियों से नहीं गिरा था। वह घर के बनाने वाले कारीगर विदा हो गए, जो सदा उस घर को बनाते थे। अब मेरे लौटने की कोई उम्मीद न रही; क्योंकि मैं कहां लौटूंगा! वह घर ही न रहा, जिसमें सदा लौटता था!

और वह घर जो है, वह है सूक्ष्म शरीर का घर। हमारे सारे कर्म, हमारे कर्मों के फल, हमारा भोग, हमारा जीया हुआ जीवन, वह सब उस सूक्ष्म शरीर पर जैसे स्लेट पट्टी पर रेखाएं बन जाती हैं, वैसा बन जाता है।

उस सूक्ष्म शरीर को गलाना ही साधना है। अगर मुझसे कोई पूछे कि तपश्चर्या का क्या मतलब, तो मैं कहूंगा, सूक्ष्म शरीर को गलाना तपश्चर्या है।

और तप शब्द का उपयोग इसीलिए करते हैं कि तप का मतलब होता है, तीव्र गर्मी, जैसे सूर्य की गर्मी। ऐसी गर्मी भीतर साक्षी से पैदा करनी है कि सूक्ष्म शरीर पिघल जाए और गल जाए, तप का मतलब वह है। तप का मतलब धूप में खड़े होना नहीं है। वह पागल है आदमी जो धूप में खड़े होकर तप कर रहा है। एक और धूप की बात है। एक और तप की बात है। भीतर जो पैदा करनी है, जिससे सूक्ष्म शरीर गल जाए और बह जाए।

जब महावीर को कहते हैं महातपस्वी, तो उसका मतलब यह नहीं है कि धूप में खड़े हुए शरीर को सता रहे हैं। और जब महावीर को कहते हैं काया को मिटाने वाले, तो उस काया का इस काया से कोई मतलब नहीं है। उस काया का मतलब ही उस काया से है, वह जो भीतर की काया है। वही असली काया है। यह तो बार-बार मिलती है।

आप इस कमीज को अपनी काया नहीं कहते, क्योंकि रोज इसे बदल लेते हैं। शरीर को काया कहते हैं, क्योंकि जिंदगी भर उसे नहीं बदलते। महावीर भलीभांति जानते हैं कि यह शरीर भी तो कई बार बदल लेते हैं। लेकिन एक और काया है, जो कभी नहीं बदलती। बस एक ही बार खतम होती है, बदलती नहीं।

तो उस काया के पिघलाने में लगा हुआ जो श्रम है, वही तपश्चर्या है। और उस काया को पिघलाने के लिए जो प्रक्रिया है, वही साक्षी-भाव, सामायिक या ध्यान है। और वह हमारे स्मरण में आ जाए और उसके प्रयोग से हम गुजर जाएं तो फिर कोई पुनर्जन्म नहीं है।

पुनर्जन्म रहा है सदा, रहेगा, अगर हम कुछ न करें। लेकिन ऐसा हो सकता है कि फिर पुनर्जन्म न हो। तब हम विराट जीवन के साथ एक हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि हम मिट जाते हैं, ऐसा नहीं कि हम समाप्त हो जाते हैं, बस ऐसा ही जैसे बूंद सागर हो जाती है। मिटती-विटती नहीं, लेकिन मिट भी जाती है। बूंद की तरह मिट जाती है, सागर की तरह रह जाती है।

इसलिए महावीर कहते हैं, आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। लेकिन नहीं समझे उनके पीछे वाले कि क्या मतलब है। मतलब इसका है कि आत्मा की बूंद खो जाती है उसमें जो परमात्मा है, वह एक हो जाती है।

उस एकता में, उस परम अद्वैत में परम आनंद है, परम शांति है, परम सौंदर्य है।


Filed under: महावीर मेरी दृष्‍टी में--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–9)

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ज्योतिष : अद्वैत का विज्ञान—(प्रवचन—नौवां)

‘ज्‍योतिष : अद्वैत का विज्ञान’ :

(प्रश्‍नोतर चर्चा) बुडलैंड बम्बई,

दिनांक 9 जूलाई 1971

प्रश्‍न–

मैं भगवान श्री के चरणों में निवेदन करूंगा कि हम एक नये विषय पर आप से मार्गदर्शन चाहते हैं और वह विषय है ज्योतिष। यह अछूता विषय है और भगवान श्री के श्रीमुख से इस पर कभी चर्चा नहीं हुई है। मैं भगवान श्री के चरणों में पुन: निवेदन करता हूं कि आज आप ज्योतिष के संबंध में हमें कुछ कहें।

ज्‍योतिष शायद सबसे पुराना विषय है और एक अर्थ में सबसे ज्यादा तिरस्कृत विषय भी है। सबसे पुराना इसलिए कि मनुष्य जाति के इतिहास की जितनी खोजबीन हो सकी उसमें ऐसा कोई भी समय नहीं था जब ज्योतिष मौजूद न रहा हो। जीसस से पच्चीस हजार वर्ष पूर्व सुमेर में मिले हुए हड्डी के अवशेषों पर ज्योतिष के चिन्ह अंकित है। पश्‍चिम में, पुरानी से पुरानी जो खोजबीन हुई है, वह जीसस से पच्चीस हजार वर्ष पूर्व इन हड्डियों की है। जिन पर ज्योतिष के चिह्न और चंद्र की यात्रा के चिह्न अंकित हैं। लेकिन भारत में तो बात और भी पुरानी है।

ऋग्वेद में पच्चान्नबे हजार वर्ष पूर्व ग्रह—नक्षत्रों की जैसी स्थिति थी उसका उल्लेख है। इसी आधार पर लोकमान्य तिलक ने यह तय किया था कि ज्योतिष नब्बे हजार वर्ष से ज्यादा पुराने तो निश्‍चित ही होने चाहिए। क्योंकि वेद में यदि पच्चान्नबे हजार वर्ष पहले जैसे नक्षत्रों की स्थिति थी, उसका उल्लेख है, तो वह उल्लेख इतना पुराना तो होगा ही। क्योंकि उस समय जो स्थिति थी नक्षत्रों की उसे बाद में जानने का कोई भी उपाय नहीं था। अब जरूर हमारे पास ऐसे वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हो सके हैं कि हम जान सकें अतीत में कि नक्षत्रों की स्थिति कब कैसी रही होगी।

ज्योतिष की सर्वाधिक गहरी मान्यताएं भारत में पैदा हुईं। सच तो यह है कि ज्योतिष के कारण ही गणित का जन्म हुआ। ज्योतिष की गणना के लिए ही सबसे पहले गणित का जन्म हुआ। और इसीलिए अंकगणित के जो अंक है वे भारतीय हैं, सारी दुनिया की भाषाओं में। एक से लेकर नौ तक जो गणना के अंक हैं, वे समस्त भाषाओं में जगत की, भारतीय है। और सारी दुनिया में नौ डिजिट या नौ अंक स्वीकृत हो गए हैं। वे नौ अंक भारत में पैदा हुए और धीरे— धीरे सारे जगत में फैल गए।

जिसे आप अंग्रेजी में नाइन कहते हैं वह संस्कृत के नौ का ही रूपांतरण है। जिसे आप एट कहते है, वह संस्कृत के अष्ट का ही रूपान्तरण है। एक से लेकर नौ तक जगत की समस्त सभ्य भाषाओं में गणित के नौ अंकों का जो प्रचलन है वह भारतीय ज्योतिष के प्रभाव में ही हुआ है।

भारत से ज्योतिष की पहली किरणें सुमेर की सभ्यता में पहुंचीं। सुमेरवासियो ने सबसे पहले, ईसा से छह हजार वर्ष पूर्व पश्‍चिम के जगत के लिए ज्योतिष का द्वार खोला। सुमेरवासियो ने सबसे पहले नक्षत्रों के वैज्ञानिक अध्ययन की आधार शिलाएं रखीं। उन्होंने बड़े ऊंचे, सात सौ फीट ऊंचे मीनार बनाए और उन मीनारों पर सुमेर के पुरोहित चौबीस घण्टे आकाश का अध्ययन करते थे।

दो कारणों से— एक तो सुमेर के तत्वविदों को इस गहरे सूत्र का पता चल गया था कि मनुष्य के जगत में जो भी घटित होता है, उस घटना का प्रारंभिक स्रोत नक्षत्रों से किसी न किसी भांति सम्बन्धित है।

जीसस से छह हजार वर्ष पहले सुमेर में यह धारणा थी कि पृथ्वी पर जो भी बीमारी पैदा होती है, जो भी महामारी पैदा होती है वह सब नक्षत्रों से सम्बन्धित है। अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार भी मिल गए है। और जो लोग आज के विज्ञान को समझते हैं वे कहते हैं कि सुमेरवासियों ने मनुष्य जाति का असली इतिहास प्रारंभ किया। इतिहासज्ञ कहते हैं कि सब तरह का इतिहास सुमेर से शुरू होता है।

उन्नीस सौ बीस में चीजेवस्की नाम के एक रूसी वैज्ञानिक ने इस बात की गहरी खोजबीन शुरू की और पाया कि सूरज पर हर ग्यारह वर्षों में पीरियोडिकली बहुत बड़ा विस्फोट होता है। सूर्य पर हर ग्यारह वर्ष में आणविक विस्फोट होता है। और चीजेवस्की ने यह पाया कि जब भी सूरज पर ग्यारह वर्षों में आणविक विस्फोट होता है तभी पृथ्वी पर युद्ध और क्रांतियों के सूत्रपात होते हैं। और उसके अनुसार विगत सात सौ वर्षों के लम्बे इतिहास में सूर्य पर जब भी कभी ऐसी घटना घटी है, तभी पृथ्वी पर दुर्घटनाएं घटी हैं।

चीजेवस्की ने इसका ऐसा वैज्ञानिक विश्लेषण किया था कि स्टैलिन ने उसे उन्नीस सौ बीस में उठाकर जेल मैं डाल दिया था। स्टैलिन के मरने के बाद ही चीजेवस्की छूट सका। क्योंकि स्टैलिन के लिए तो अजीब बात हो गयी! मार्क्स का और कम्‍युनिस्‍टों का खयाल है कि पृथ्वी पर जो क्रांतियां होती हैं उनका मूल कारण मनुष्य—मनुष्य के बीच आर्थिक वैभिन्य है। और चीजेवस्की कहता हैं कि क्रांतियों का कारण सूरज पर हुए विस्फोट हैं।

अब सूरज पर हुए विस्फोट और मनुष्य के जीवन की गरीबी और अमीरी का क्या संबंध? अगर चीजेवस्की ठीक कहता है तो मार्क्स की सारी की सारी व्याख्या मिट्टी में चली जाती है। तब क्रांतियों का कारण वगीर्य नहीं रह जाता, तब क्रांतियों का कारण ज्योतिषीय हो जाता है। चीजेवस्की को गलत तो सिद्ध नहीं किया जा सका क्योंकि सात सौ साल की जो गणना उसने दी थी इतनी वैज्ञानिक थी और सूरज में हुए विस्फोटों के साथ इतना गहरा संबंध उसने पृथ्वी पर घटने वाली घटनाओं का स्थापित किया था कि उसे गलत सिद्ध करना तो कठिन था। लेकिन उसे साइबेरिया में डाल देना आसान था।

स्टैलिन के मर जाने के बाद ही चीजेवस्की को खूश्चेव साइबेरिया से मुक्त कर पाया। इस आदमी के जीवन के कीमती पचास साल साइबेरिया में नष्ट हुए। छूटने के बाद भी वह चार—छह महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह सका। लेकिन छह महीने में भी वह अपनी स्थापना के लिए और नये प्रमाण इकट्ठे कर गया। पृथ्वी पर जितनी महामारियां फैलती हैं, उन सबका संबंध भी वह सूरज से जोड़ गया है।

सूरज, जैसा हम साधारणत: सोचते हैं ऐसा कोई निष्कि्रय अग्नि का गोला नहीं है, वरन अत्यन्त सक्रिय और जीवन्त अग्‍नि—संगठन है। और प्रतिपल सूरज की तरंगों में रूपांतरण होते रहते हैं। और सूरज की तरंगों का जरा—सा रूपांतरण भी पृथ्वी के प्राणों को कंपित करता है। इस पृथ्वी पर कुछ भी ऐसा घटित नहीं होता जो सूरज पर घटित हुए बिना घटित हो जाता हो।

जब सूर्य का ग्रहण होता है तो पक्षी जंगलों में गीत गाना चौबीस घण्टे पहले से ही बन्द कर देते हैं। पूरे ग्रहण के समय तो सारी पृथ्वी मौन हो जाती है, पक्षी गीत गाना बन्द कर देते हैं और सारे जंगलों के जानवर भयभीत हो जाते हैं, किसी बड़ी आशंका से पीड़ित हो जाते हैं।

बन्दर वृक्षों को छोड्कर नीचे आ जाते हैं। वे भीड़ लगाकर किसी सुरक्षा का उपाय करने लगते है। और एक आश्रर्य कि बन्दर जो निंरत्तर बातचीत और शोर—गुल में लगे रहते हैं, सूर्य ग्रहण के वक्त इतने मौन हो जाते हैं जितने कि साधु और संन्यासी भी ध्यान में नहीं होते हैं! चीजेवस्की ने ये सारी की सारी बातें स्थापित की हैं।

सुमेर में सबसे पहले यह खयाल पैदा हुआ था। फिर उसके बाद पैरासेल्सस नाम के स्विस चिकित्सक ने इसकी पुर्नस्थापना की। उसने एक बहुत अनूठी मान्यता स्थापित की, और वह मान्यता आज नहीं तो कल समस्त चिकित्सा विज्ञान को बदलनेवाली सिद्ध होगी। अब तक उस मान्यता पर बहुत जोर नहीं दिया जा सका क्योंकि ज्योतिष तिरस्कृत विषय है—सर्वाधिक पुराना, लेकिन सर्वाधिक तिरस्कृत, यद्यपि सर्वाधिक मान्य भी।

अभी फ्रांस में पिछले वर्ष गणना की गई तो सैंतालिस प्रतिशत लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं कि वह विज्ञान है—फ्रांस में! अमरीका में पांच हजार बड़े ज्योतिषी दिन रात काम में लगे रहते हैं। और उनके पास इतने गाहक हैं कि वे पूरा काम भी निपटा नहीं पाते हैं। करोड़ों डालर अमरीका प्रति वर्ष ज्योतिषियों को चुकाता है। अन्दाज है कि सारी पृथ्वी पर कोई अठहत्तर प्रतिशत लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं। लेकिन वे अठहत्तर प्रतिशत लोग सामान्य हैं। वैज्ञानिक, विचारक, शुइद्धवादी ज्योतिष की बात सुनकर ही चौक जाते हैं।

सी. जी. जुग ने कहा है कि तीन सौ वर्षों से विश्वविद्यालयों के द्वार ज्योतिष के लिए बन्द हैं, यद्यपि आनेवाले तीस वर्षों में ज्योतिष इन बन्द दरवाजों को तोड़कर विश्वविद्यालयों में पुन: प्रवेश पाकर रहेगा। प्रवेश पाकर रहेगा इसलिए कि ज्योतिष के संबंध में जो—जो दावे किए गए थे उनको अब तक सिद्ध करने का उपाय नहीं था, लेकिन अब उनको सिद्ध करने का उपाय है।

पैरासेल्सस ने एक मान्यता को गति दी और वह मान्यता यह थी कि आदमी तभी बीमार होता है जब उसके और उसके जन्म के साथ जुड़े हुए नक्षत्रों के बीच का तारतम्य: टूट जाता है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। उससे बहुत पहले पाइथागोरस ने यूनान में, कोई ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व, आज से कोई पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व पाइथागोरस ने प्लेनेटरी हार्मनी, ग्रहों के बीच एक संगीत का संबंध है—इसके संबंध में एक बहुत बड़े दर्शन को जन्म दिया था।

छै और पाइथागोरस ने जब यह बात कही थी तब वह भारत और इजिप्‍त इन दो मुल्कों की यात्रा करके वापस लौटा था। और पाइथागोरस जब भारत आया तब भारत बुद्ध और महावीर के विचारों से तीव्रता से आप्लावित था। पाइथागोरस ने भारत से वापस लौटकर जो बातें कही हैं उसमें उसने महावीर और विषेशकर जैनों के संबंध में बहुत सी बातें महत्त्वपूर्ण कहीं है। उसने जैनों को जैनोसोफिस्ट कहकर पुकारा है। सोफिस्ट का मतलब होता है दार्शनिक और जैनों का मतलब तो जैन! तो जैन दार्शनिक को पाइथागोरस ने जैनोसोफिस्ट कहा है। वे नग्‍न रहते हैं, यह बात भी उसने की है।

पाइथागोरस मानता था कि प्रत्येक नक्षत्र या प्रत्येक ग्रह या उपग्रह जब यात्रा करता है अंतरिक्ष में, तो उसकी यात्रा के कारण एक विशेष ध्वनि पैदा होती है। प्रत्येक नक्षत्र की गति एक विशेष ध्वनि पैदा करती है। और प्रत्येक नक्षत्र की अपनी व्यक्तिगत निजी ध्वनि है। और इन सारे नक्षत्रों की ध्वनियों का एक ताल—मेल है, जिसे वह विश्व की संगीतबद्धता, हार्मनी कहता था।’

जब कोई मनुष्य जन्म लेता है तब उस जन्म के क्षण में इन नक्षत्रों के बीच जो संगीत की व्यवस्था होती है वह उस मनुष्य के प्राथमिक, सरलतम, संवेदनशील चित्त पर अंकित हो जाती है। वही उसे जीवनभर स्वस्थ और अस्वस्थ करती है। जब भी वह अपनी उस मौलिक जन्म के साथ पायी गई, संगीत व्यवस्था के साथ ताल—मेल बना लेता है तो स्वस्थ हो जाता है। और जब उसका ताल—मेल उस मूल संगीत से छूट जाता है तो वह अस्वस्थ हो जाता है।

पैरासेत्सस ने इस संबंध में बड़ा महत्त्वपूर्ण काम किया है कि वह किसी मरीज को दवा नहीं देता था जब तक उसकी जन्मकुष्डली न देख ले और बड़ी हैरानी की बात है कि पैरासेल्सस ने जन्मकुष्डलियां देखकर ऐसे मरीजों को ठीक किया जिनको कि अन्य चिकित्सक कठिनाई में पड़ गए थे और ठीक नहीं कर पाते थे। उसका कहना था, जब तक मैं यह न जान लूं कि यह व्यक्ति किन नक्षत्रों की स्थिति में पैदा हुआ है तब तक इसके अंतर्संगीत के सूत्र को भी पकड़ना सम्भव नहीं है। और जब तक मैं यह न जान लूं कि इसके अंतर्संगीत की व्यवस्था क्या है तो इसे कैसे हम स्वस्थ करें। क्योंकि स्वास्थ्य का क्या अर्थ है, इसे थोड़ा समझ लें!

अगर साधारणत: हम चिकित्सक से पूछे कि स्वास्थ्य का क्या अर्थ है तो वह इतना ही कहेगा कि बीमारी का न होना। पर उसकी परिभाषा निगेटिव है, नकारात्मक है और यह दुखद बात है कि स्वास्थ्य की परिभाषा हमें बीमारी से करनी पड़े; स्वास्थ्य तो पाजिटिव चीज है, विधायक अवस्था है। बीमारी निगेटिव है, नकारात्मक है। स्वास्थ्य तो स्वभाव है, बीमारी तो आक्रमण है।

तो स्वास्थ्य की परिभाषा हमें बीमारी से करनी पड़े, यह बात अजीब है। घर मैं रहनेवाले की परिभाषा मेहमान से करनी पड़े, यह बात अजीब है। स्वास्थ्य तो हमारे साथ है, बीमारी कभी होती है। स्वास्थ्य तो हम लेकर पैदा होते हैं, बीमारी उस पर आती है। पर हम स्वास्थ्य की परिभाषा अगर चिकित्सकों से पूछें तो वे यही कह पाते हैं कि बीमारी नहीं है तो स्वास्थ्य है। पैरासेल्‍सस कहता था, यह व्याख्या गलत है। स्वास्थ्य की पाजिटिव डेफिनेशन, विधायक परिभाषा होनी चाहिए। पर उस पाजिटिव डेफिनेशन को, उस विधायक व्याख्या को कहां से पकड़ेगे?

तब पैरासेल्सस कहता था, जब तक हम तुम्हारे अन्तर्निहित संगीत को न जान लें—क्योंकि वही तुम्हारा स्वास्थ्य है, तब तक हम ज्यादा से ज्यादा तुम्हारी बीमारियों से तुम्हारा छुटकारा करवा सकते हैं। लेकिन हम एक बीमारी से तुम्हें व्यासे और तुम दूसरी बीमारी को तत्काल पकड़ लोगे। क्योंकि तुम्हारे भीतरी संगीत के संबंध में कुछ भी नहीं किया जा सका। असली बात तो वही थी कि तुम्हारा भीतरी संगीत स्थापित हो जाए।

इस संबंध में, पैरासेस्सस को हुए तो कोई पांच सौ’वर्ष होते हैं, उसकी बात भी खो गयी थी। लेकिन अब पिछले बीस वर्षों में, उन्नीस सौ पचास के बाद दुनिया में ज्योतिष का अब पुनअर्ग़वर्भाव हुआ है। और आपको जानकर हैरानी होगी कि कुछ नए विज्ञान पैदा हुए हैं, जिनके संबंध में आपसे कह दूं तो फिर पुराने विज्ञान को समझना आसान हो जाएगा।

उन्नीस सौ पचास में एक नई साइंस का जन्म हुआ। उस साइंस का नाम है कास्मिक केमिस्ट्री, ब्रह्म—रसायन। उसको जन्म देनेवाला आदमी है, जियारजी जिआरडी। यह आदमी इस सदी के कीमती से कीमती, थोड़े से आदमियों में एक है। इस आदमी ने वैज्ञानिक आधारों पर प्रयोगशालाओं में अनन्त प्रयोगों को करके, यह सिद्ध किया है कि जगत, पूरा जगत एक आर्गनिक यूनिटी है।

पूरा जगत एक शरीर है। और अगर मेरी उंगली बीमार पड़ जाती है तो मेरा पूरा शरीर प्रभावित होता है। शरीर का अर्थ होता है कि टुकड़े अलग—अलग नहीं हैं, संयुक्त हैं, जीवन्त रूप से इकट्ठे हैं। अगर मेरी आंख में तकलीफ होती है तो मेरे पैर का अंगूठा भी उसे अनुभव करता है। और अगर, मेरे पैर को चोट लगती है तो मेरे हृदय को भी खबर मिलती है। और अगर मेरा मस्तिष्क रुग्ण हो जाता है तो मेरा शरीर पूरा का पूरा बेचैन हो जाएगा। और अगर मेरा पूरा शरीर नष्ट कर दिया जाए तो मेरे मस्तिष्क को खड़े होने के लिए जगह मिलनी मुश्किल हो जाएगी। मेरा शरीर एक आर्गनिक यूनिटी है—एक एकता है जीवन्त। उसमें कोई भी एक चीज को छुओ तो सब तरंगित होता है, सब प्रभावित हो जाता है।

कास्मिक केमिस्ट्री कहती है कि पूरा ब्रह्माण्ड एक शरीर है। उसमें कोई भी चीज अलग—अलग नहीं हैं, सब संयुक्त है। इसलिए कोई तारा कितनी ही दूर क्यों न हो, वह भी जब बदलता है तो हमारे हृदय की गति को बदल जाता है। और सूरज चाहे कितने ही फासले पर क्यों न हो, जब वह ज्यादा उत्तप्त होता है तब हमारे खून की धाराएं बदल जाती है— हर ग्यारह वर्षों में!

पिछली बार जब सूरज पर बहुत ज्यादा गतिविधि चल रही थी और अग्‍नि के विस्फोट चल रहे थे तो एक जापानी चिकित्सक तोमातो बहुत हैरान हुआ। वह चिकित्सक स्त्रियों के खून पर निरंत्तर काम कर रहा था बीस वर्षों से। स्त्रियों के खून की एक विशेषता है जो पुरुषों के खून की नहीं है। उनके मासिक धर्म के समय उनका खून पतला हो जाता है और पुरुष का खून पूरे समय एक—सा रहता है। स्त्रियों का खून मासिक धर्म के समय पतला हो जाता है, या गर्भ जब उनके पेट में होता है तब उनका खून पतला हो जाता है। पुरुष और सी के खून में यह एक जुनियादी फर्क तोमातो अनुभव कर रहा था।

लेकिन जब सूरज पर बहुत जोर से तूफान चल रहे थे आणविक शक्तियों के—जो कि हर ग्यारह वर्ष में चलते हैं, तब वह चकित हुआ कि पुरुषों का खून भी पतला हो जाता है। जब सूरज पर आणविक तूफान चलता है तब पुरुष का खून भी पतला हो जाता है। यह बड़ी नयी घटना थी, यह इसके पहले कभी रिकार्ड नहीं की गयी थी कि पुरुष के खून पर सूरज पर चलनेवाले तूफान का कोई प्रभाव पड़ेगा। और अगर खून पर प्रभाव पड सकता है तो फिर किसी भी चीज पर प्रभाव पड़ सकता है।

एक दूसरा अमरीकन विचारक है फ्रेंक ब्राउन। वह अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए सुविधाएं जुटाने का काम करता रहा है। उसकी आधी जिन्दगी अन्तरिक्ष में जो मनुष्य यात्रा करने जाएंगे उनको तकलीफ न हो इसके लिए काम करने की रही है। सबसे बडी विचारणीय बात यही थी कि पृथ्वी को छोड़ते ही अन्तरिक्ष में न मालूम कितने प्रभाव होंगे! न मालूम कितनी धाराएं होंगी, रेडिएशन की किरणों की—वह आदमी पर क्या प्रभाव करेंगी?

लेकिन दो हजार साल से ऐसा समझा जाता रहा है अरस्‍तु के बाद, पश्‍चिम में, कि अन्तरिक्ष शून्य है, वहां कुछ है ही नहीं। दो सौ मील के बाद पृथ्वी पर हवाएं समाप्त हो जाती हैं, और फिर अन्तरिक्ष शून्य है। लेकिन अन्तरिक्ष यात्रियों की खोज ने सिद्ध किया कि वह बात’ गलत है। अन्तरिक्ष शून्य नहीं है, बहुत भरा हुआ है। और न तो शून्य है, न मृत है—बहुत जीवन्त है। सच तो यह है कि पृथ्वी की दो सौ मील की हवाओं की पर्तें सारे प्रभावों को हम तक आने से रोकती हैं। अन्तरिक्ष में तो अदभुत प्रवाहों की धाराएं बहती रहती हैं—उनको आदमी सह पायेगा या नहीं!

आप यह जानकर हैरान होंगे और हंसेंगे भी कि आदमी को भेजने के पहले ब्राउन ने आलू भेजे अन्तरिक्ष में। क्योंकि ब्राउन का कहना है कि आलू और आदमी में बहुत भीतरी फर्क नहीं। अगर आलू सड़ जायेगा तो आदमी नहीं बच सकेगा और अगर आलू बच सकता है तो ही आदमी बच सकेगा। आलू बहुत मजबूत प्राणी है। और आदमी तो बहुत संवेदनशील है। अगर आलू भी नहीं बच सकता अन्तरिक्ष में और सड़ जायेगा तो आदमी के बचने का कोई उपाय नहीं। अगर आलू लौट आता है जीवंत, मरता नहीं है और उसे जमीन में बोने पर अंकुर निकल आता है तो फिर आदमी को भेजा जा सकता है। तब भी डर है कि आदमी सह पायेगा या नहीं।

इससे एक और हैरानी की बात ब्राउन ने सिद्ध की कि आलू जमीन के भीतर पड़ा हुआ, या कोई भी बीज जमीन के भीतर पड़ा हुआ बढ़ता है… सूरज के ही संबंध में! सूरज ही उसे जगाता, उठाता है। उसके अंकुर को पुकारता और ऊपर उठाता है।

ब्राउन एक दूसरे शाख का भी अन्वेषक है। उस शास्त्र को अभी ठीक—ठीक नाम भी मिलना शुरू नहीं हुआ है। लेकिन अभी उसे कहते हैं—प्लेनेटरी हेरिडिटी, उपग्रही वंशानुक्रम। अंग्रेजी में शब्द है, होरोस्कोप। वह यूनानी होरोस्कोपस का रूप है। होरोस्कोपस, यूनानी शब्द का अर्थ होता है, ‘मैं देखता हूं जन्मते हुए मह को।’

असल में जब एक बच्चा पैदा होता है तब उसी समय पृथ्वी के चारों ओर, क्षितिज पर अनेक नक्षत्र जन्म लेते हैं, उठते हैं। जैसे सूरज उगता है सुबह…। जैसे सूरज उगता है सुबह और सांझ डूबता है, ऐसे ही चौबीस घण्टे अन्तरिक्ष में नक्षत्र उगते हैं और डूबते हैं।

जब एक बच्चा पैदा हो रहा है.. समझें, सुबह छह बजे बच्चा पैदा हो रहा है, वही वक्त सूरज भी पैदा हो रहा है। उसी वक्त और कुछ नक्षत्र पैदा हो रहे हैं। कुछ नक्षत्र डूब रहे हैं। कुछ नक्षत्र ऊपर हैं, कुछ नक्षत्र उतार पर चले गए, कुछ नक्षत्र चढ़ाव पर हैं।

यह बच्चा जब पैदा हो रहा है तब अन्तरिक्ष की—अन्तरिक्ष में नक्षत्रों की एक स्थिति है। अब तक ऐसा समझा जाता था और अभी भी अधिक लोग, जो बहुत गहराई से परिचित नहीं हैं वे ऐसा ही सोचते हैं कि चांद—तारों से आदमी के जन्म का क्या लेना देना! चांद—तारे कहीं भी हों, इससे एक गांव में बच्चा पैदा हो रहा है, इससे क्या फर्क पडेगा!

फिर वे यह भी कहते हैं कि एक ही बच्चा पैदा नहीं होता, एक तिथि में, एक नक्षत्र की स्थिति में लाखों बच्चे पैदा होते हैं। उनमें से एक प्रेसिडेंट बन जाता है किसी मुल्क का, बाकी तो नहीं बन पाते। एक उनमें से सौ वर्ष का होकर मरता है, दूसरा दो दिन का ही मर जाता है। एक उसमें से बहुत बुद्धिमान होता है और एक निर्बुद्धि ही रह जाता है।

तो साधारणत: देखने पर पता चलता है कि इन ग्रह—नक्षत्रों की स्थिति का किसी के बच्चे के पैदा होने से, होरोस्कोप से क्या संबंध हो सकता है? यह तर्क सीधा और साफ मालूम होता है! फिर चांद—तारे एक बच्चे के जन्म की चिन्ता तो नहीं करते? और फिर एक बच्चा ही पैदा नहीं होता, एक स्थिति में लाखों बच्चे पैदा होते हैं, पर लाखों बच्चे एक से नहीं होते, इन तर्कों से ऐसा लगने लगा..! तीन सौ वर्षों से यह तर्क दिये जा रहे हैं कि कोई संबंध नक्षत्रों से व्यक्ति के जन्म का नहीं है।

लेकिन ब्राउन, पिकाडी और इन सारे लोगों की, तोमातो.. इन सबकी खोज का एक अदभुत परिणाम हुआ है और वह यह कि ये वैज्ञानिक कहते हैं कि अभी हम यह तो नहीं कह सकते कि व्यक्तिगत रूप से कोई बच्चा प्रभावित होता होगा, लेकिन अब हम यह पके रूप से कह सकते हैं कि जीवन प्रभावित होता है। एक बात, व्यक्तिगत रूप से बच्चा प्रभावित होगा, हम अभी नहीं कह सकते हैं, लेकिन जीवन निश्‍चित रूप से प्रभावित होता है। और अगर जीवन प्रभावित होता है तो हमारी खोज जैसे—जैसे सूक्ष्म होगी वैसे—वैसे हम पाएंगे कि व्यक्ति भी प्रभावित होता है।

इससे एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है—जैसा सोचा जाता रहा है, वह तथ्य नहीं है। ऐसा सोचा जाता रहा है कि ज्योतिष विकसित विज्ञान नहीं है। प्रारंभ उसका हुआ फिर वह विकसित नहीं हो सका। लेकिन मेरे देखे स्थिति उलटी है, ज्योतिष किसी सभ्यता के द्वारा बहुत बड़ा विकसित विज्ञान है लेकिन फिर वह सभ्यता खो गयी और हमारे हाथ में ज्योतिष के अधूरे सूत्र रह गए।

ज्योतिष कोई नया विज्ञान नहीं है जिसे विकसित होना है, बल्कि कोई विज्ञान है जो पूरी तरह विकसित हुआ था और फिर जिस सभ्यता ने उसे विकसित किया वह खो गयी। और सभ्यताएं रोज आती हैं और खो जाती है। फिर उनके द्वारा विकसित चीजें भी अपने मौलिक आधार खो देती हैं, सूत्र भूल जाते हैं, उनकी आधारशिलाए खो जाती हैं।

विज्ञान, आज इसे स्वीकार करने के निकट पहुंच रहा है कि जीवन प्रभावित होता है। और एक छोटे बच्चे के जन्म के समय उसके चित्त की स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसे बहुत सेंसिटिव फोटो—प्लेट की। इस पर दो—तीन बातें और खयाल में ले लें, ताकि समझ में आ सके कि जीवन प्रभावित होता है। और अगर जीवन प्रभावित होता है, तो ही ज्योतिष की कोई संभावना निर्मित होती है, अन्यथा निर्मित नहीं होती।

जुड़वा बच्चों को समझने की थोड़ी कोशिश करें। दो तरह के जुड़वा बच्चे होते हैं। एक तो जुड़वा बच्चे होते हैं जो एक ही अण्डे से पैदा होते हैं। और दूसरे जुड़वा बच्चे होते हैं जो होते तो जुड़वा हैं लेकिन दो अण्डों से पैदा होते है। मां के पेट में दो अच्छे होते हैं, दो बच्चे पैदा होते हैं। कभी—कभी एक अण्‍डे होता है और एक अण्‍डे के भीतर दो बच्चे होते है। एक अण्‍डे से जो दो बच्चे पैदा होते है वे बड़े महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि उनके जन्म का क्षण बिलकुल एक होता है। दो अस्त्रों से जो बच्चे पैदा होते हैं उन्हें जुड़वा हम कहते जरूर है लेकिन उनके जन्म का क्षण एक नहीं होता है।

और एक बात समझ लें कि जन्म दोहरी बात है। जन्म का पहला अर्थ तो है गर्भधारण। ठीक जन्म तो उसी दिन होता है जिस दिन मां के पेट में गर्भ आरोपित होता है—ठीक जन्म! जिसको आप जन्म कहते है वह नम्बर दो का जन्म है—जब बच्चा मां के पेट से बाहर आता है। अगर हमें ज्योतिष की पूरी खोजबीन करनी हों—जैसा कि हिन्दुओं ने की थी, अकेले हिन्दुओं ने की थी और उसके बड़े उपयोग किए थे—तो असली सवाल यह नहीं है कि बच्चा कब पैदा होता है, असली सवाल यह है कि बच्चा कब गर्भ में प्रारम्भ करता है अपनी यात्रा—गर्भ कब निर्मित होता? है! क्योंकि ठीक जन्म वही है।

इसलिए हिन्दुओं ने तो यह भी तय किया था कि ठीक जिस भांति के बच्चे को जन्म देना हो उस भांति के ग्रह—नक्षत्र में यदि सम्भोग किया जाए और गर्भ धारण हो जाए तो उस तरह का बच्चा पैदा होगा। अब इसमें मैं थोड़ा पीछे आपको कुछ कहूंगा क्योंकि इस संबंध में भी काफी काम इधर हुआ है और बहुत—सी बातें साफ हुई हैं। साधारणत: हम सोचते है कि जब एक बच्चा सुबह छह बजे पैदा होता है तो छह बजे पैदा होता है, इसलिए छह बजे प्रभात में जो नक्षत्रों की स्थिति होती है उससे प्रभावित होता है।

लेकिन ज्योतिष को जो गहरे से जानते हैं वे कहते हैं कि वह छह बजे पैदा होने की वजह से पह—नक्षत्र उस पर प्रभाव डालते हैं—ऐसा नहीं! वह जिस तरह के प्रभावों के बीच पैदा होना चाहता है उस घड़ी और नक्षत्र को ही अपने जन्म के लिए चुनता है। यह बिलकुल भिन्न बात है। बच्चा जब पैदा हो रहा है, ज्योतिष की गहन खोज करनेवाले लोग कहेंगे कि तब वह अपने पह—नक्षत्र चुनता है कि कब उसे पैदा होना है। और गहरे जाएंगे तो वह अपना गर्भाधारण भी चुनता है।

प्रत्येक आत्मा अपना गर्भाधारण चुनती है कि कब उसे गर्भ स्वीकार करना है, किस क्षण में। क्षण छोटी घटना नहीं है। क्षण का अर्थ है कि पूरा विश्व उस क्षण में कैसा है। और उस क्षण में पूरा विश्व किस तरह की सम्भावनाओं के द्वार खोलता है। जब एक अच्छे में दो बच्चे एक साथ गर्भ धारण कर लेते हैं तो उनके गर्भाधारण का क्षण एक ही होता है और उनके जन्म का क्षण भी एक होता है।

अब यह बहुत मजे की बात है कि एक ही अच्छे से पैदा हुए दो बच्चों का जीवन इतना एक जैसा होता है… इतना एक जैसा होता है कि यह कहना मुश्किल है कि जन्म का क्षण प्रभाव नहीं डालता। एक अच्छे से पैदा हुए दो बच्चों का आई. क्यू, उनका बुद्धि—माप करीब—करीब बराबर होता है। और जो थोड़ा—सा भेद दिखता है, वे जो जानते हैं, वे कहते हैं वह हमारी मेजरमेन्ट की गलती के कारण है। अभी तक हम ठीक मापदष्ठ विकसित नहीं कर पाए हैं जिनसे हम बुद्धि का अंक नाप सकें। थोड़ा सा जो भेद कभी पडता है वह हमारे तराजू की भूल—चूक है।

अगर एक अण्डे से पैदा हुए दो बच्चों को बिलकुल अलग—अलग पाला जाए तो भी उनके बुद्धि—अंक में कोई फर्कनहीं पड़ता— एक को हिन्दुस्तान में पाला जाए और एक को चीन में पाला जाए और कभी एक दूसरे को पता भी न चलने दिया जाए! ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जब दोनों बच्चे अलग—अलग पले, बडे हुए, लेकिन उनके बुद्धि—अंक में कोई फर्क नहीं पड़ा।

बड़ी हैरानी की बात है, बुद्धि—अंक तो ऐसी चीज है कि जन्म की पोटेशियलिटी से जुड़ी है। लेकिन वह जो चीन में जुड़वा बच्चा है एक ही अच्छे का, जब उसको जुकाम होगा, तब जो भारत में बच्चा है उसको भी जुकाम होगा। आमतौर से एक अच्छे से पैदा हुए बच्चे एक ही साल में मरते हैं। ज्यादा से ज्यादा उनकी मृत्यु में फर्क तीन महीने का होता है और कम से कम तीन दिन का पर वर्ष वही होता है। अब तक ऐसा नहीं हो सका है कि एक ही अंडे से पैदा हुए दो बच्चों की मृत्यु के बीच वर्ष का फर्क पड़ा हो। तीन महीने से ज्यादा का फर्क नहीं पड़ता है। अगर एक बच्चा मर गया है तो हम मान सकते हैं कि तीन दिन के बाद या तीन महीने के बीच दूसरा बच्चा भी मर जाएगा।

इनके रुझान, इनके ढंग, इनके भाव समानांतर होते हैं। और करीब—करीब ऐसा मालूम पड़ता है कि ये दोनों एक ही ढंग से जीते हैं। एक दूसरे की कापी की भांति होते हैं। इनका इतना एक जैसा होना और बहुत—सी बातों से सिद्ध होता है।

हम सबकी चमडिया अलग—अलग हैं, इण्‍डीवीजुअल हैं। अगर मेरा हाथ टूट जाए और मेरी चमड़ी बदलनी पड़े तो आपकी चमड़ी मेरे हाथ के काम नहीं आएगी। मेरे ही शरीर की चमड़ी उखाड़कर लगानी पडेगी। इस पूरी जमीन पर कोई आदमी नहीं खोजा जा सकता, जिसकी चमड़ी मेरे काम आ जाए। क्या बात है? शरीर शासी से पूछें कि क्या दोनों की चमडी की बनावट में कोई भेद है? चमड़ी के रसायन में कोई भेद है? चमड़ी में जो तत्व निर्मित करते हैं चमड़ी को, उसमें कोई भेद है—तो कोई भेद नहीं है!

चमड़ी में जो तत्व निर्मित करते हैं चमड़ी को, उसमें कोई भेद है तो कोई भेद नहीं है! मेरी चमड़ी और दूसरे आदमी की चमडी को अगर हम रख दें एक वैज्ञानिक को जांच करने के लिए तो वह यह न बता पाएगा कि ये दो आदमियों की चमडिया हैं। चमडियों में कोई भेद नहीं है, लेकिन फिर भी हैरानी की बात है कि मेरी चमड़ी पर दूसरे की चमड़ी नहीं बिठायी जा सकती। मेरा शरीर उसे इनकार कर देगा। वैज्ञानिक जिसे नहीं पहचान पाते कि कोई भेद है, लेकिन मेरा शरीर पहचानता है। मेरा शरीर इनकार कर देता है कि इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

हां, एक ही अच्छे से पैदा हुए दो बच्चों की चमड़ी ट्रांसप्लांट हो सकती है सिर्फ। एक दूसरे की चमड़ी को एक दूसरे पर बिठाया जा सकता है, शरीर इनकार नहीं करेगा। क्या कारण होगा? क्या वजह होगी? अगर हम कहें, एक ही मां—बाप के बेटे हैं तो दो भाई भी एक ही मां—बाप के हैं, उनकी चमड़ी नहीं बदली जा सकती। सिवाय इसके कि ये दोनों बेटे एक क्षण में निर्मित हुए है और कोई इनमें समानता नहीं है।

क्योंकि उसी मां और उसी बाप से पैदा हुए दूसरे भाई भी हैं, उन पर चमड़ी काम नहीं करती है। उनकी चमड़ी एक दूसरे पर नहीं बदली जा सकती। सिर्फ इनका बर्थ मूमेंट… बाकी तो सब एक है—वही मां बाप हैं—सिर्फ एक बात बड़ी भिन्न है और वह है इनके जन्म का क्षण! क्या जन्म का क्षण इतना महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है? — कि उम्र भी दोनों की करीब—करीब, बुद्धि—माप करीब—करीब… दोनों की चमडियों का ढंग एक—सा, दोनों के शरीर के व्यवहार करने की बात एक—सी, दोनों बीमार पड़ते हैं तो एक—सी बीमारियों से, दोनों स्वस्थ होते हैं तो एक—सी दवाओं से—क्या जन्म का क्षण इतना प्रभावी हो सकता है? ज्योतिष कहता रहा है, इससे भी ज्यादा प्रभावी है, जन्म का क्षण।

लेकिन आज तक ज्योतिष के लिए वैज्ञानिक सहमति नहीं थी, पर अब सहमति बढ़ती जाती है। इस सहमति में कई नये प्रयोग सहयोगी बने हैं। एक तो, जैसे ही हमने आर्टीफीशियल सेटेलाइट, हमने कृत्रिम उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़े वैसे ही हमें पता चला कि सारे जगत से सारे ग्रह—नक्षत्रों से, सारे ताराओं से निरंत्तर अनंत प्रकार की किरणों का जाल प्रवाहित होता है जो पृथ्वी पर टकराता है। और पृथ्वी पर कोई भी ऐसी चीज नहीं है जो उससे अप्रभावित छूट जाए।

हम जानते है कि चांद से समुद्र प्रभावित होता है, लेकिन हमें खयाल नहीं है कि समुद्र में पानी और नमक का जो अनुपात है वही आदमी के शरीर में पानी और नमक का अनुपात है—द सेम प्रपोर्शन। और आदमी के शरीर में पैंसठ प्रतिशत पानी है और नमक और पानी का वही अनुपात है जो अरब की खाड़ी में है। अगर समुद्र का पानी प्रभावित होता है चांद से तो आदमी के शरीर के भीतर का पानी क्यों प्रभावित नहीं होगा! अभी इस संबंध में जो खोजबीन हुई है उसमें दो तीन तथ्य खयाल में ले लेने जैसे हैं, वह यह कि पूर्णिमा के निकट आते—आते सारी दुनिया में पागलपन की संख्या बढ़ती है। अमावस के दिन दुनियां में सबसे कम लोगे पागल होते हैं, पूर्णिमा के दिन सर्वाधिक। चांद के बढ़ने के साथ अनुपात पागलों का बढ़ना शुरू होता है। पूर्णिमा के दिन पागलखानों में सर्वाधिक लोग प्रवेश करते हैं और अमावस के दिन पागलखानों से सर्वाधिक लोग बाहर आते है। अब तो इसके स्टेटिक्स उपलब्ध हैं।

अंग्रेजी में शब्द है, लुनाटिक—लुनाटिक का मतलब होता है, चांदमारा। कार.. .हिन्दी में भी पागल के लिए चांदमारा शब्द है। बहुत पुराना शब्द है और लुनाटिक भी कोई तीन हजार साल पुराना शब्द है। कोई तीन हजार साल पहले भी आदमियों को खयाल था कि चांद पागल के साथ कुछ न कुछ करता है, लेकिन अगर पागल के साथ करता है तो गैर—पागल के साथ नहीं करता होगा? आखिर मस्तिष्क की बनावट, आदमी के शरीर के भीतर की संरचना तो एक जैसी है। हां, यह हो सकता है कि पागल पर थोड़ा ज्यादा करता होगा, गैर—पागल पर थोड़ा कम कर सकता होगा।

यह मात्रा का भेद होगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि गैर—पागल पर बिलकुल नहीं करता होगा। अगर ऐसा होगा तब तो कोई पागल कभी पागल न हों, क्योंकि फिर सब गैर—पागल ही पागल होते। पहले तो काम गैर—पागल पर ही करना पड़ता होगा चांद को।

प्रोफेसर ब्राउन ने एक अध्ययन किया है। वह खुद ज्योतिष में विश्वासी आदमी नहीं थे। अविश्वासी थे और अपने पिछले लेखों में उन्होंने बहुत मजाक उड़ायी थी ज्योतिष की। लेकिन पीछे उन्होंने खोजबीन के लिए सिर्फ एक? काम शुरू किया। मिलिट्री के बड़े—बड़े जनरल्‍स की उन्होंने जन्म कुण्‍डलियां इकट्ठी कीं— डाक्टर्स की, अलग—अलग प्रोफेशंस की, व्यवसायों की—बडी मुश्किल में पड गए इकट्ठी करके। क्योंकि पाया कि प्रत्येक प्रोफेशन के आदमी एक विशेष मह में पैदा होते हैं। एक विशेष नक्षत्र—स्थिति में पैदा होते हैं।

जैसे जितने भी बड़े प्रसिद्ध जनरल्‍स हैं, मिलिट्री के सेनापति हैं, योद्धा हैं—उनके जीवन में मंगल का भारी प्रभाव है। वही प्रभाव प्रोफेसर्स की जिन्दगी में बिलकुल नहीं है। ब्राउन ने जो अध्ययन किया, कोई पचास हजार व्यक्तियों का—जो भी सेनापति हैं उनके जीवन में मंगल का प्रभाव भारी है। आमतौर से जब वे पैदा होते हैं तब मंगल जन्म ले रहा होता है। उनके जन्म की घडी मंगल के जन्म की घड़ी होती है।

ठीक उससे विपरीत जितने पैसीफिस्ट हैं दुनिया में, जितने शान्तिवादी हैं, वह कभी मंगल के जन्म के साथ पैदा नहीं होते। एकाध मामले में यह संयोग हो सकता है, लेकिन लाखों मामले में संयोग नहीं हो सकता। गणितज्ञ एक खास नक्षत्र में पैदा होते हैं, कवि उस नक्षत्र में कभी पैदा नहीं होते। यह कभी एकाध के मामले में संयोग हो सकता है, लेकिन बड़े पैमाने पर संयोग नहीं हो सकता।

असल में कवि के ढंग और गणितज्ञ के ढंग में इतना भेद है कि उनके जन्म के क्षण में भेद होना ही चाहिए। ब्राउन ने कोई दस अलग—अलग व्यवसाय के लोगों का, जिनके बीच तीव्र फासले हैं, जैसे कवि हैं और गणितज्ञ है या युद्धखोर सेनापति हैं और एक शान्तिवादी बर्ट्रेंड रसल है, एक आदमी जो कहता है, विश्व में शान्ति होना चाहिए और एक आदमी नीत्से जैसा, जो कहता है जिस दिन युद्ध न होंगे उस दिन दुनिया में कोई अर्थ न रह जाएगा।

इनके बीच बौद्धिक विवाद ही है सिर्फ या नक्षत्रों का भी विवाद है? इनके बीच केवल बौद्धिक फासले हैं या इनकी जन्म की घड़ी भी हाथ बंटाती है। जितना अध्ययन बढ़ता जाता है उतना ही पता चलता है कि प्रत्येक आदमी जन्म के साथ विशेष क्षमताओं की सूचना देता है। ज्योतिष के साधारण जानकार कहते हैं कि वह इसलिए ऐसा करता है क्योंकि वह विशेष नक्षत्रों की व्यवस्था में पैदा हुआ।

मैं आपसे कहना चाहता हूं कि विशेष नक्षत्रों की व्यवस्था में पैदा होने को उसने चुना। वह जैसा होना चाह सकता था, जो उसके होने की आंतरिक संभावना थी, जो उसके पिछले जन्मों का पूरा का पूरा रूप था जो उसकी संयोजित अर्जित चेतना थी वह इस नक्षत्र में ही पैदा होगी।

हर बच्चा, हर आनेवाला नया जीवन इनसिस्ट करता है, जोर देता है अपनी घड़ी के लिए— अपनी घड़ी में ही पैदा होना चाहता है, अपनी घड़ी में गर्भाधान लेना चाहता है—दोनों अन्योन्याश्रित हैं, इण्टर डिपेंडेंट हैं।

मैंने आपसे कहा, जैसे समुद्र का पानी प्रभावित होता है, सारा जीवन पानी से निर्मित है। पानी के बिना कोई जीवन की संभावना नहीं है। इसलिए यूनान में पुराने दार्शनिक कहते थे, पानी से ही जीवन जन्मा है या पानी ही जीवन है। या पुराने भारतीय या चीनी और दूसरे दुनिया की मैथोलाजीस भी कहती हैं—आज विकास को माननेवाले वैज्ञानिक भी कहते हैं कि जीवन का जन्म पानी से है।

शायद पहला जीवन काई, वह जो पानी पर जम जाती है—वही जीवन का पहला रूप है, फिर आदमी तक विकास। जो लोग पानी के ऊपर गहन शोध करते हैं, वे कहते हैं पानी सर्वाधिक रहस्यमय तत्व है। जगत से, अन्तरिक्ष से तारों का जो भी प्रभाव आदमी तक पहुंचता है उसमें मीडियम, माध्यम पानी है। आदमी के शरीर के जल को ही प्रभावित करके कोई भी रेडिएशन, कोई भी विकीर्णन मनुष्य में प्रवेश करता है। जल पर बहुत काम हो रहा है और जल के बहुत से मिस्टीरियस, रहस्यमय गुण खयाल में आ रहे हैं।

सर्वाधिक रहस्यमय गुण तो जल का जो खयाल में अभी दस वर्षों में वैज्ञानिकों को आया है वह यह है कि सर्वाधिक संवेदनशीलता जल के पास है—सबसे ज्यादा सेंसिटिव। और हमारे जीवन में चारों ओर से जो भी प्रभाव गतिमान होते हैं वह जल को ही कम्पित करके गति करते हैं। हमारा जल ही सबसे पहले प्रभावित होता है। और एक बार हमारा जल प्रभावित हुआ तो फिर हमारा प्रभावित होने से बचना बहुत कठिन हो जाएगा। मां के पेट में बच्चा जब तैरता है तब भी आप जानकर हैरान होंगे कि वहू ठीक ऐसे ही तैरता है जैसे सागर के जल में। और मां के पेट में भी जिस जल में बच्चा तैरता है उसमें भी नमक का वही अनुपात होता है जो सागर के जल में है। और मां के शरीर से जो—जो प्रभाव बच्चे तक पहुंचते हैं उनमें कोई सीधा संबंध नहीं होता।

यह जानकर आप हैरान होंगे कि मां और उसके पेट में बननेवाले गर्भ का कोई सीधा संबंध नहीं होता, दोनों के बीच में जल और मां से जो भी प्रभाव पहुंचते हैं बच्चे तक वह जल के माध्यम से ही पहुंचते हैं। सीधा कोई संबंध नहीं है। फिर जीवनभर. भी हमारे शरीर में जल का वही काम है जो सागर में काम है।

सागर की बहुत—सी मछलियों का अध्ययन किया गया है। ऐसी मछलियां है, जो जब सागर का पूर उतार पर होता है, जब सागर उतरता है, तभी सागर के तट पर आकर अण्डे रख जाती है। सागर उतर रहा है वापस। मछलियां रेत में आएंगी, सागर की लहरों पर सवार होकर, अण्डे देंगी, सागर की लहरों पर वापस लौट जाएंगी। पंद्रह दिन में फिर सागर की लहरें फिर उस जगह आएंगी तब तक अण्‍डे फूटकर उनके चूजे बाहर आ गए होंगे। आनेवाली लहरें वापस उन चूजों को सागर में ले जाएंगी।

जिन वैज्ञानिकों ने इन मछलियों का अध्ययन किया है वे बड़े हैरान हुए हैं। क्योंकि मछलियां सदा ही उस समय अच्छे देने आती हैं जब सागर का तूफान उतरता होता है। अगर वह चढ़ते तूफान में अण्‍डे दे दें तो अण्‍डे तो तूफान में बह जाएंगे। वह अण्‍डे तभी देती है जब तूफान उतरता होता है, एक—एक. कदम सागर की लहरें पीछे हटती जाती हैं। वह जहां अण्‍डे देती है वहां लहरें दुबारा नहीं आती फिर, नहीं तो लहरें अण्‍डे बहा ले जाएंगी।

वैज्ञानिक बहुत परेशान रहे हैं कि इन मछलियों को कैसे पता चलता है कि सागर अब उतरेगा। सागर के उतरने की घड़ी आ गयी। क्योंकि जरा—सी भी भूल—चूक समय की और अण्‍डे तो सब बह जाएंगे! और उन्होंने भूल—चूक कभी नहीं की लाखों साल में, नहीं तो वे खत्म हो गयी होतीं। उन्होंने कभी भूल की ही नहीं। पर इन मछलियों के पास क्या उपाय है जिनसे ये जान पाती है? इनके पास कौन—सी इन्द्रिय है जो इनको बताती है कि अब सागर उतरेगा? लाखों मछलियां एक क्षण में किनारे पर इकट्ठी हो जाएंगी। इनके पास जरूर कोई संकेत—लिपि, इनके पास कोई सूचना का यंत्र होना ही चाहिए। करोड़ों मछलियां दूर—दूर हजारों मील सागर तल पर इकट्ठे होकर अण्डे रख जाएंगी एक खास घड़ी में।

जो अध्ययन करते है, वे कहते हैं कि चांद के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। चांद से ही इनको संवेदनाएं मिलती हैं। इन मछलियों को उन संवेदनाओं से पता चलता है कि कब उतार पर, कब चढ़ाव पर..। चांद से रे उन्हें धक्के मिलते हैं उन्हीं धक्कों के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है कि उनको पता चल जाए। यह भी हो सकता है… कुछ का खयाल था कि सागर की लहरों से कुछ पता चलता होगा।

तो वैज्ञानिकों ने इन मछलियों को ऐसी जगह रखा जहां सागर की लहर ही नहीं है। झील पर रखा, अंधेरे कमरों पर पानी में रखा। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है। जब चांद ठीक घड़ी पर आया… अंधेरे में बन्द हैं मछलियां, उनको चांद का कोई पता नहीं, आकाश का कोई पता नहीं, पर जब चांद ठीक जगह पर आया, तब समुद्र की मछलियां जाकर तट पर अण्‍डे देने लगीं—तब उन मछलियों ने पानी में ही अण्‍डे दे दिए। उनका पानी में ही अण्‍डे छोड़ देना. क्योंकि कोई तट नहीं, कोई किनारा नहीं—तब तो लहरों का कोई सवाल न रहा! अगर कोई कहता हो कि दूसरी मछलियों को देखकर यह दौड़ पैदा हो जाती होगी, तो वह भी सवाल न रहा। अकेली मछलियों को रखकर भी देखा। ठीक जब करोड़ों मछलियां सागर के तट पर आएंगी.. इनके दिमाग को सब तरह से गड़बड़ करने की कोशिश की—चौबीस घण्टे अन्धेरे में रखा ताकि उन्हें पता न चले कि कब सुबह होती है, कब रात होती है—चौबीस घण्टे उजाले में भी रखकर देखा, ताकि उनको पता ही न चले कि कब रात होती है—झूठे चांद की रोशनी पैदा करके देखी कि रोज रोशनी को कम करते जाओ, बढ़ाते जाओ, लेकिन मछलियों को धोखा नहीं दिया जा सका। ठीक चांद जब अपनी जगह पर आया तब मछलियों ने अण्डे दे दिए। जहां भी थीं, वहीं उन्होंने अण्डे दे दिए।

हजारों—लाखों पक्षी हर साल यात्रा करते हैं, लाखों—हजारों मील की। सर्दियां आनेवाली हैं, बर्फ पड़ेगी तो बर्फ के इलाके से पक्षी उड़ना शुरू हो जाएंगे। हजारों मील दूर किसी जगह वे पड़ाव डालेंगे। वहां तक पहुंचने में भी उन्हें दो महीने लगेंगे, महीना भर लगेगा। अभी बर्फ गिरनी शुरू नहीं हुई, महीनेभर बाद गिरेगी। ये पक्षी कैसे हिसाब लगाते हैं कि महीने भर बाद बर्फ गिरेगी, क्योंकि अभी हमारी मौसम को बताने वाली जो वेधशालाएं हैं वे भी पकी खबर नहीं दे पाती है,।

मैंने तो सुना है कि कुछ मौसम की खबर देनेवाले लोग पहले ज्योतिषियों से पूछ जाते हैं सड्कों पर बैठे हुए कि आज क्या खयाल है—पानी गिरेगा कि नहीं?

आदमी ने अभी जो—जो व्यवस्था की है वह बचकानी मालूम पड़ती है। यह पक्षी स्व—डेढ़ महीने, दो महीने पहले पता करते हैं कि अब बर्फ कब गिरेगी? और हजारों प्रयोग करके देख लिया गया है कि जिस दिन पक्षी उड़ते हैं, हर पक्षी की जाति का निश्‍चित दिन है। हर वर्ष बदल जाता है वह निश्‍चित दिन क्योंकि बर्फ का कोई ठिकाना नहीं। लेकिन हर पक्षी का तय है कि वह बर्फ गिरने के एक महीने पहले उड़ेगा तो हर वर्ष वह एक महीने पहले उड़ता है। बर्फ दस दिन बाद गिरे तो वह दस दिन बाद उड़ता है। बर्फ दस दिन पहले गिरे तो वह दस दिन पहले उड़ता है। यह बर्फ के गिरने का कुछ निश्‍चित तो नहीं है, यह पक्षी कैसे उड़ जाते हैं महीने भर पहले पता लगाकर!

जापान में एक चिड़िया होती है जो भूकम्प आने के चौबीस घण्टे पहले गांव खाली कर देती है। साधारण गांव की चिड़िया है। हर गांव में बहुत होती हैं। भूकम्प आने के चौबीस घण्टे पहले चिड़िया गांव खाली कर देगी। अभी भी वैज्ञानिक दो घण्टे के पहले भूकम्प का पता नहीं लगा पाते। और दो घण्टे पहले भी अनसटेंन्टी होती है, पका नहीं होता है। सिर्फ प्रोबेबिलिटी होती है, सम्भावना होती है कि भूकम्प हो सकता है। लेकिन चौबीस घण्टे पहले जापान में तो भूकम्प का फौरन पता चल जाता है। जिस गांव से चिड़िया उड़ जाती है उस गांव के लोग समझ जाते है, भाग जाओ—चौबीस घण्टे का वक्त है। वह चिड़िया हट गई, गांव में दिखाई नहीं पड़ती। इस चिड़िया को कैसे पता चलता होगा?

वैज्ञानिक अभी दस वर्षों में एक नयी बात कह रहे हैं और वह यह कि प्रत्येक प्राणी के पास कोई ऐसी अन्तर—इन्द्रिय है जो जागतिक प्रभावों को अनुभव करती है। शायद मनुष्य के पास भी है लेकिन मनुष्य ने अपनी बुद्धिमानी में उसे खो दिया है। मनुष्य अकेला ऐसा प्राणी है जगत में जिसके पास बहुत—सी चीजें हैं जो उसने बुद्धिमानी में खो दी हैं और बहुत—सी चीजें जो उसके पास नहीं थीं उसने बुद्धिमानी में उसको पैदा करके खतरा मोल लिया है। जो है उसे खो दिया है, जो नहीं है उसे बना लिया है।

लेकिन छोटे—से—छोटे प्राणियों के पास भी कुछ संवेदना के अन्तर—स्रोत हैं। और अब इसके लिए वैज्ञानिक आधार मिलने शुरू हो गए हैं कि अन्तर—स्रोत हैं। ये अन्तर—स्रोत इस बात की खबर लाते हैं कि इस पृथ्वी पर जो जीवन है वह आइसोलेटेड, पृथक नहीं है। यह सारे ब्रह्माण्ड से संयुक्त है। और कहीं भी कुछ घटना घटती है तो उसके परिणाम यहां होने शुरू हो जाते हैं।

जैसा मैं आपसे कह रहा था पैरासेल्सस के संबंध में। आधुनिक चिकित्सक भी इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि जब भी सूर्य पर अनेक बार धब्बे प्रकट होते है… ऐसे भी सूर्य पर कुछ धब्बे हैं, डाट्स, स्पाट्स होते हैं—कभी वे बढ़ जाते हैं, कभी वे कम हो जाते हैं। जब सूर्य पर स्पाट्स बढ़ जाते हैं तो जमीन पर बीमारियां बढ़ जाती है। और जब सूर्य पर काले धब्बे कम ये जाते हैं तो जमीन पर बीमारियां कम हो जाती हैं। और जमीन से हम बीमारियां कभी न मिटा सकेंगे, जब तक सूर्य के स्पाट्स कायम हैं।

हर ग्यारह वर्ष में सूरज पर भारी उयात होता है, बड़े विस्फोट होते हैं। और जब ग्यारह वर्ष में सूरज पर विस्फोट होते हैं और उत्पात होते है तो पृथ्वी पर युद्ध और उत्पात होते हैं। पृथ्वी पर युद्धों का जो क्रम है वह हर दस वर्ष का है। महामारियों का जो क्रम है वह दस और ग्यारह वर्ष के बीच का हैं। क्रान्तियों का जो क्रम है वह दस और ग्यारह वर्ष के बीच का है।

एक बार खयाल में आना शुरू हो जाए कि हम अलग और पृथक नहीं हैं, संयुक्त हैं, आर्गेनिक हैं तो फिर ज्योतिष को समझाना आसान हो जाएगा। इसलिए मैं ये सारी बातें आपसे कह रहा हूं।

कुछ आदमी को ऐसा खयाल पैदा हो गया था— अब भी है कि ज्योतिष एक सुपरस्टीशन, एक अन्धविश्वास है। बहुत दूर तक यह बात सच भी मालूम पड़ती है। असल में वही चीज अन्धविश्वास मालूम पड़ने लगती है जिसके पीछे हम वैज्ञानिक कारण बताने में असमर्थ हो जाएं। वैसे ज्योतिष बहुत वैज्ञानिक है और विज्ञान का अर्थ ही होता है कि कॉज और एफेक्ट के बीच, कार्य और कारण के बीच संबंध की तलाश!

ज्योतिष कहता यही है कि इस जगत में जो भी घटित होता है उसके कारण हैं। हमें शात न हो, यह हो सकता है। ज्योतिष यह कहता है कि भविष्य जो भी होगा वह अतीत से विच्छिन्न नहीं हो सकता, उससे जुड़ा हुआ होगा। आप कल जो भी होंगे वह आज का ही जोड़ होगा। आज तक आप जो हैं वह बीते हुए कल का जोड़

ज्योतिष बहुत वैज्ञानिक चिन्तन है। वह यह कहता है कि भविष्य अतीत से ही निकलेगा। आपका आज कल से निकला है, आपका आनेवाला कल आज से निकलेगा। और ज्योतिष यह भी कहता है कि जो कल होनेवाला है वह किसी सूक्ष्म अर्थों में आज भी मौजूद होना चाहिए।

अब इसे थोड़ा समझें। अब्राहम लिंकन ने मरने के तीन दिन पहले एक सपना देखा। जिसमें उसने देखा कि उसकी हत्या कर दी गयी है और ह्वाइट हाउस के एक खास कमरे में उसकी लाश पड़ी हुई है। उसने नंबर भी कमरे का देखा। उसकी नींद खुल गई। वह हंसा, उसने अपनी पली को कहा कि मैंने एक सपना देखा है कि मेरी हत्या कर दी गयी है….. फलां—फलां नंबर! उसी मकान में तो वह सोया हुआ है ह्वाइट हाउस के। इस मकान के फलां नंबर के कमरे में मेरी लाश पड़ी है। मेरे सिरहाने तू खड़ी हुई है और आस—पास फलां—फलां लोग खड़े हुए हैं। हंसी हुई, बात हुई—लिंकन सो गया, पली सो गयी! तीन दिन बाद लिंकन की हत्या हुई और उसी नंबर के कमरे में और उसी जगह उसकी लाश तीन दिन के बाद पड़ी थी और उसी क्रम में आदमी खड़े थे।

अगर तीन दिन बाद जो होनेवाला है वह किसी अर्थों में आज ही न हो गया हो तो उसका सपना कैसे निर्मित हो सकता है? उसकी सपने में झलक भी कैसे मिल सकती है! सपने में झलक तो उसी बात की मिल सकती है जो किसी अर्थ में अभी भी कहीं मौजूद हो। तो हम उसकी एक ग्लिम्‍प्स, खिड़की खोले और हमें दिखायी पड़ जाए लेकिन खिड़की के बाहर मौजूद हो! लेकिन कहीं मौजूद हो। ज्योतिष का मानना है कि भविष्य हमारा अज्ञान है इसलिए भविष्य है। अगर हमें ज्ञान हो तो भविष्य जैसी कोई घटना नहीं है। वह अभी भी कहीं मौजूद

महावीर के जीवन में एक घटना का उल्लेख है, जिस पर एक बहुत बडा विवाद चला। और महावीर के सामने ही महावीर के अनुयायियों का एक वर्ग टूट गया। और पांच सौ महावीर के मुनियों ने अलग पंथ का निर्माण कर लिया उसी बात से। महावीर कहते थे, जो हो रहा है वह एक अर्थ में हो ही गया। अगर आप चल पड़े तो एक अर्थ में पहुंच ही गए। अगर आप बूढे हो रहे हैं तो एक अर्थ में बूढ़े हो ही गए!

महावीर कहते थे, जो हो रहा है, जो क्रियमाण है—वह हो ही गया। महावीर का एक शिष्य वर्षा—काल में महावीर से दूर था, बीमार था। उसने अपने एक शिष्य को कहा कि मेरे लिए चटाई बिछा दो। उसने चटाई बिछानी शुरू की। मुड़ी हुई, गोल लपटी हुई चटाई को उसने थोडा—सा खोला, तब महावीर के उस शिष्य को खयाल आया कि ठहरो, महावीर कहते हैं—जो हो रहा है, वह हो ही गया! तू आधे में रुक जा! चटाई खुल तो रही है, लेकिन खुल नहीं गयी—रुक जा!

उसे अचानक खयाल हुआ कि यह तो महावीर बडी गलत बात कहते हैं। चटाई आधी खुली है, लेकिन खुल कहां गई! उसने चटाई वहीं रोक दी। वह लौटकर वर्षा—काल के बाद महावीर के पास आया और उसने कहा कि आप गलत कहते हैं कि जो हो रहा है, वह हो ही गया! क्योंकि चटाई अभी भी आधी खुली रखी है—खुल रही’ थी, लेकिन खुल नहीं गई! तो मैं आपकी बात गलत सिद्ध करने आया हूं। महावीर ने उससे जो कहा, वह नहीं समझ पाया होगा, वह बहुत बाल बुद्धि का रहा होगा, अन्यथा ऐसी बात लेकर नहीं आता।

महावीर ने कहा, तूने रोका—रोक ही रहा था.. और रुक ही गया! वह जो चटाई तू रोका—रोक रहा था… रुक गया! तूने सिर्फ चटाई रुकते देखी, एक और क्रिया भी साथ चल रही थी, वह हो गयी! और फिर कब तक तेरी चटाई रुकी रहेगी? खुलनी शुरू हो गयी है—खुल ही जाएगी. तू लौटकर जा! वह जब लौटकर गया तो देखा, एक आदमी खोलकर उस पर लेटा हुआ है। विश्राम कर रहा था। इस आदमी ने सब गड़बड़ कर दिया। पूरा सिद्धांत ही खराब कर दिया।

महावीर जब यह कहते थे कि जो हो रहा है वह हो ही गया तो वह यह कहते थे, जो हो रहा है वह तो वर्तमान है, जो हो ही गया वह भविष्य है। कली खिल रही है—खिल ही गई—खिल ही जाएगी.. वह फूल तो भविष्य में बनेगी! अभी तो खिल ही रही है, अभी तो कली ही है—लेकिन जब खिल ही रही है तो खिल जाएगी। उसका खिल जाना भी कहीं घटित हो गया।

अब इसे हम जरा और तरह से देखें, थोड़ा कठिन पड़ेगा।

हम सदा अतीत से देखते हैं। कली खिल रही है। हमारा जो चिन्तन है, आमतौर से वह पास्ट ओरिएंटेड है, वह अतीत से बंधा है। कहते हैं, कली खिल रही है, फूल की तरफ जा रही है, कली फूल बनेगी… लेकिन इससे उल्टा भी हो सकता है! यह ऐसा है जैसे मैं आपको पीछे से धक्का दे रहा हूं आपको आगे सरका रहा हूं। ऐसा भी हो सकता है, कोई आपको आगे से खींच रहा है—गति दोनों तरह हो सकती है। मैं आपको पीछे से धक्का दे रहा हूं और आप आगे जा रहे है।

ज्योतिष का मानना है कि यह अधूरी दृष्टि है कि अतीत धक्का दे रहा है और भविष्य हो रहा है। पूरी दृष्टि यह है कि अतीत धक्का दे रहा है और भविष्य खींच रहा है। कली फूल बन रही है, इतना ही नहीं है—फूल कली को फूल बनने के लिए पुकार भी रहा है! खींच भी रहा है! अतीत पीछे है, भविष्य आगे है। अभी वर्तमान के क्षण में एक कली है। पूरा अतीत धक्का दे रहा है कि खुल जाओ। पूरा भविष्य आह्वान दे रहा है, खुल जाओ! अतीत और भविष्य दोनों के दबाव में कली फूल बनेगी।

अगर कोई भविष्य न हो तो अतीत अकेला फूल न बना पाएगा। क्योंकि भविष्य में अवकाश चाहिए फूल बनने के लिए। भविष्य में जगह चाहिए, स्पेस चाहिए। भविष्य स्थान दे तो ही कली फूल बन पाएगी। अगर कोई भविष्य न हो तो अतीत कितना ही सिर मारे, कितना ही धकाये—मैं आपको पीछे से कितना ही धक्का दूं लेकिन सामने एक दीवार हो तो मैं आपको आगे न हटा पाऊंगा, आगे जगह चाहिए। मैं धक्का दूं और आगे की जगह आपको स्वीकार कर ले, आमंत्रण दे दे कि आ जाओ, अतिथि बना ले, तो ही मेरा धक्का सार्थक हो पाए। मेरे धक्के के लिए भविष्य में जगह चाहिए। अतीत काम करता है, भविष्य जगह देता है।

ज्योतिष की दृष्टि यह है कि अतीत पर खड़ी हुई दृष्टि अधूरी है, आधी—वैज्ञानिक है! भविष्य पूरे वक्त पुकार रहा है, पूरे वक्त खींच रहा है। हमें पता नहीं, हमें दिखाई नहीं पड़ता। यह हमारी आंख की कमजोरी है, यह हमारी दृष्टि की कमजोरी है। हम दूर नहीं देख पाते। हमें कल कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।

कृष्णमूर्ति की जन्म कुण्‍डली देखें कभी तो हैरान होंगे। अगर ऐनी बीसेन्ट और लीड बीटर ने फिक्र की होती और कृष्णमूर्ति की जन्म कुण्‍डली देख ली होती तो भूलकर भी कृष्णमूर्ति के साथ मेहनत नहीं करनी चाहिए थी।

क्योंकि जन्‍म कुण्‍डली में साफ है बात कि कृष्णमृर्ति जिस संगठन से सम्बन्धित होंगे, उस संगठन को नष्ट करनेवाले होंगे—जिस संस्था से सम्बन्धित होंगे, उस संस्था को विसर्जित करवा देंगे—जिस संगठन के सदस्य बनेंगे, वह संगठन मर जाएगा।

लेकिन ऐनी बीसेन्ट भी मानने को तैयार नहीं होती। कोई सोच भी नहीं सकता था, लेकिन हुआ यही। थियोसाफी ने उन्हें खड़ा करने की कोशिश की थी। थियोसाफी को उनकी वजह से इतना धक्का लगा कि वह सदा के लिए मर गया आन्दोलन। फिर ऐनी बीसेन्ट ने ‘स्टार ऑफ द ईस्ट’ नाम से बड़ी संस्था खड़ी की। फिर एक दिन कृष्णमूर्ति उस संस्था को विसर्जित करके अलग हो गए। ऐनी बीसेन्ट ने पूरा जीवन उस संस्था को खड़ा करने में समर्पित किया और नष्ट किया अपने को। लेकिन उसमें कृष्णमूर्ति का भी कुछ बहुत हाथ नहीं है। वह जिन नक्षत्रों की छाया में पैदा हुए हैं उन नक्षत्रों की सीधी सूचना है। वह किसी संस्था में भी डिस्ट्रक्टिव सिद्ध होंगे। किसी भी संस्‍था के भीतर वह विघटनकारी सिद्ध होंगे।

भविष्य एकदम अनिश्‍चित नहीं है। हमारा ज्ञान अनिश्‍चित है। हमारा अज्ञान भारी है। भविष्य में हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हम अन्धे है। भविष्य का हमें कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता। नहीं दिखायी पड़ता है इसलिए हम कहते हैं कि निशित नहीं है, लेकिन भविष्य में दिखायी पड़ने लगे… और ज्योतिष भविष्य में देखने की प्रक्रिया

तो ज्योतिष सिर्फ इतनी ही बात नहीं है कि ग्रह—नक्षत्र क्या कहते हैं, उनकी गणना क्या कहती है? यह तो सिर्फ ज्योतिष का एक डायमेंशन है, एक आयाम है। फिर भविष्य को जानने के और आयाम भी हैं।

मनुष्य के हाथ पर खिंची हुई रेखाएं हैं, मनुष्य के माथे पर खिंची हुई रेखाएं हैं, मनुष्य के पैर पर खिंची हुई रेखाएं हैं। पर ये भी बहुत ऊपरी हैं। मनुष्य के शरीर में छिपे हुए चक्र हैं। उन सब चक्रों का अलग—अलग संवेदन है। उन सब चक्रों की प्रतिपल अलग—अलग गति है, फ्रीकेंसी है। उनकी जांच है। मनुष्य के पास छिपा हुआ, अतीत का पूरा संस्कार बीज है।

रान हुब्बार्ड ने एक नया शब्द, एक नयी खोज पश्‍चिम में शुरू की है—पूरब के लिए तो बहुत पुरानी है! वह खोज है—टाइम ट्रेक। हुब्बार्ड का खयाल है कि प्रत्येक व्यक्ति जहां भी जिया है इस पृथ्वी पर या कहीं और किसी ग्रह पर—आदमी की तरह या जानवर की तरह या पौधे की तरह या पत्थर की तरह— आदमी जहां भी जिया है अनंत यात्रा में—उस…… पूरा का पूरा टाइम ट्रेक, समय की पूरी की पूरी धारा उसके भीतर अभी भी संरक्षित है। वह धारा खोली जा सकती है। और उस धारा में आदमी को पुन: प्रवाहित किया जा सकता है।

हुब्बार्ड की खोजों में यह खोज बड़ी कीमत की है। इस टाइम ट्रेक पर हुब्बार्ड ने कहा है कि आदमी के भीतर इनप्रेन्स है। एक तो हमारे पास स्मृति है जिसमें हम याद रखते हैं कि कल क्या हुआ, परसों क्या हुआ। यह स्मृति काम—चलाऊ है, यह रोजमर्रा की है। जैसे हर आदमी दुकान पर या आफिस में रोजमर्रा की बही रखता है। वह काम—चलाऊ होती है। वह रोज बेकार हो जाती है। वह असली नहीं है। वह स्थायी भी नहीं है। यह हमारी काम—चलाऊ स्मृति है जिसमें हम रोज काम करते हैं, इसे रोज फेंक देते हैं। और इससे गहरी एक स्मृति है जो काम—चलाऊ नहीं है, जो हमारे जीवन के समस्त अनुभवों का सार है, अनंत—अनंत जीवन पथों पर लिए गए अनुभवों का सार इकट्ठा है।

उसे हुब्बार्ड ने इनग्रेन कहा है। वह हमारे भीतर इनग्रेड हो गयी है। वह भीतर गहरे में दबी हुई पड़ी है पूरी की पूरी। जैसे कि एक टेप बन्द आपके खीसे में पड़ा हो। उसे खोला जा सकता है। और जब उसे खोला जाता है तो महावीर उसको कहते थे जाति—स्मरण, हुब्बार्ड कहता है, टाइम ट्रेक—पीछे लौटना समय में। जब उसे खोला जाता है तो ऐसा नहीं होता कि आपको अनुभव हो कि आप रिमेम्बर कर रहे हैं। ऐसा नहीं होता है कि आप याद कर रहे हैं— ‘यू री—लिव’! जब वह खुलती है, जब टाइम ट्रेक खुलता है तो आपको ऐसा अनुभव नहीं होता है कि मुझे याद आ रहा है! न, आप पुन: जीते हैं।

समझ लें, अगर टाइम ट्रेक आपका खोला जाए, जो कि खोलना बहुत कठिन नहीं है और ज्योतिष उसके बिना अधूरा है। ज्योतिष की बहुत गहनतम जो पकड़ है वह तो आपके अतीत के खोलने की है क्योंकि आपका अतीत का अगर पूरा पता चल जाए तो आपका पूरा भविष्य पता चलता है। क्योंकि आपका भविष्य आपके अतीत से जन्मेगा। आपके भविष्य को आपके अतीत को जाने बिना नहीं जाना जा सकता है। क्योंकि आपका अतीत आपके भविष्य का बेटा होनेवाला है, उसी से पैदा होगा। तो पहले तो आपके अतीत की पूरी स्मृति—रेखा को खोलना पड़े.. अगर आपकी स्मृति—रेखा को खोल दिया जाए.. जिस की प्रक्रियाएं है और विधियां हैं!

आप अगर समझ लें कि आपको याद आ रहा है कि आप छह वर्ष के बच्चे हैं और आपके पिता ने चांटा मारा है तो आपको ऐसा याद नहीं आएगा कि आपको याद आ रहा है कि आप छह वर्ष के बच्चे हैं और पिता चांटा मार रहे हैं।’यू विल री—लिव इट ‘। आप इसको पुन: जिएंगे और जब आप इसको जी रहे होंगे, अगर उस वक्त मैं आप से पूछूं कि तुम्हारा नाम? तो आप कहेंगे, बबलू आप नहीं कहेंगे पुरुषोत्तमदास। छह वर्ष का बच्चा उत्तर देगा। आप री—लिव कर रहे हैं उस वक्त, आप स्मरण नहीं कर रहे हैं, पुरुषोत्तमदास स्मरण नहीं कर रहे हैं कि जब मैं छह वर्ष का था.. न, पुरुषोत्तमदास छह वर्ष के हो गए! वह कहेंगे, बबलू! उस वक्त वह जो—जो जवाब देंगे वह छह वर्ष का बच्चा बोलेगा।

अगर आपको पिछले जन्म में ले जाया गया है और आप याद कर रहे हैं कि आप एक सिंह हैं तो अगर उस वक्त आपको के दिया जाए तो आप बिलकुल गर्जना कर पड़ेंगे। आप आदमी की तरह नहीं बोलेंगे। हो सकता है आप नाखून पंजों से हमला बोल दें। अगर आप याद कर रहे हैं कि आप एक पत्थर हैं और आपसे कुछ पूछा जाए तो आप बिलकुल मौन रह जाएंगे, आप बोल नहीं सकते। आप पत्थर की तरह ही रह जाएंगे।

हुब्बार्ड ने हजारों लोगों की सहायता की है। जैसे एक आदमी है जो ठीक से नहीं बोल पाता, हुब्बार्ड का कहना है कि वह बचपन की किसी स्मृति पर अटक गया है। उसके आगे नहीं बढ़ पाया है। तो वह उसके टाइम ट्रेक पर उसको वापस ले जाएगा। उसके इनग्रेन को तोड़ेगा और जब छह वर्ष का हो जाएगा—जहां रुक गयी थी, जहां से वह आगे नहीं बढ़ा, फिर जहां वह वापस पहुंच जाएगा… टूट जाएगी धारा! वह आदमी वापस लौट आएगा। तब वह तीस साल का हो जाएगा। वह जो बीच में फासला था चौबीस साल का वह उसको पार कर देगा और हैरानी की बात है कि हजारों दवाइयां उस आदमी को बोलने में समर्थ नहीं बना पाई थीं लेकिन यह टाइम ट्रेक पर लौटकर जाना और पुन: वापस लौट आना… वह आदमी बोलने में समर्थ हो जाएगा! आप को बहुत दफे जो बीमारियां आती हैं वह केवल टाइम ट्रेक की वजह से आती हैं। बहुत सी बीमारियां हैं, जैसे दमा। दमा के मरीज की तारीख भी तय रहती है। हर साल ठीक वक्त पर ठीक तारीख पर उसका दमा लौट आता है और इसलिए दमा के लिए कोई चिकित्सा नहीं हो पाती। क्योंकि दमा असल में शरीर की बीमारी नहीं है, टाइम ट्रेक की बीमारी है, कही स्रक हो गयी, कहीं मेमोरी अटक गयी है और जब फिर वही आदमी उस समय को स्मरण कर लेता है—बारह तारीख, बरसा का दिन… उसको बारह तारीख आयी, बरसा का दिन आया—वह तैयारी कर रहा है, वह घबरा रहा है कि अब होनेवाला है।

आप हैरान होंगे कि इस बार उसको जो दमा होगा, ‘ही इज री—लिविग’ —वह दमा नहीं है। वह सिर्फ पिछले साल की बारह तारीख को री—लिव कर रहा है। मगर अब उसका आप इलाज करेंगे, आप उसको झंझट में डाल रहे हैं। उसका इलाज करने से कोई मतलब नहीं है। क्योंकि वह एक साल पहलेवाला आदमी अब है ही नहीं जिसका इलाज किया जा सके। आप दवाएं बेकार खा रहे हैं क्योंकि दवाएं उस आदमी में जा रही हैं जो अभी है और बीमार वह आदमी है जो एक साल पहले था।

इन दोनों के बीच कोई तारतम्य नहीं है, कोई संबंध नहीं है। आपकी हर दंवा की असफलता, उसके दमा को मजबूत कर जाएगी और कह जाएगी कि कुछ नहीं होनेवाला है। वह अगले साल की तैयारी फिर कर रहा है। सौ में से सत्तर बीमारियां टाइम ट्रैक पर घटित हो गयी, पक्क गयी, जकड़ गयी बातें हैं जो हम लौट—लौटकर जी लेते हैं।

ज्योतिष सिर्फ नक्षत्रों का अध्ययन नहीं है—वह तो है ही! वह तो हम बात करेंगे—साथ ही ज्योतिष और अलग—अलग आयामों से मनुष्य के भविष्य को टटोलने की चेष्टा है कि वह भविष्य कैसे पकड़ा जा सके। उसे पकड़ने के लिए अतीत को पकड़ना जरूरी है। उसे पकड़ने के लिए अतीत के जो चिह्न आपके शरीर पर और आप के मन पर छूट गए हैं उन्हें पहचानना जरूरी है। आपके शरीर पर भी चिह्न हैं, आपके मन पर भी चिह्न हैं। और जब से ज्योतिषी शरीर के चिह्नों पर बहुत अटक गए हैं तब से ज्योतिष की गहराई खो गयी, क्योंकि शरीर के चिह्न बहुत ऊपरी हैं।

आपके हाथ की रेखा तो आपके मन के बदलने से इसी वक्त भी बदल सकती है। आपके आयु की जो रेखा है, अगर आपको भरोसा दिलवा दिया जाए हिप्रोटाइज करके कि आप पन्द्रह दिन बाद मर जाएंगे और आपको रोज बेहोश करके पन्द्रह दिन तक यह भरोसा पका बिठा दिया जाए कि आप पन्द्रह दिन बाद मर जाओगे, आप चाहे मरो या न मरो, आपके उम्र की रेखा पन्द्रह दिन के समय पहुंचकर टूट जाएगी। आपकी उम्र की रेखा में गैप आ जाएगा। शरीर स्वीकार कर लेता है कि ठीक है, मौत आती है।

शरीर पर जो रेखाएं हैं वह तो बहुत ऊपरी घटनाएं हैं। भीतर गहरे में मन है और जिस मन को आप जानते हैं वही गहरे में नहीं है। वह तो बहुत ऊपर है, बहुत गहरे में तो वह मन है जिसका आपको पता नहीं है। इस शरीर में भी गहरे में जो चक्र हैं, जिनको योग चक्र कहता है, वह चक्र आपकी जन्मों—जन्मों की संपदा का संग्रहीत रूप है। आपके चक्र पर हाथ रखकर जो जानता है वह जान सकता है कि कितनी गति है उस चक्र की। आपके सातों चक्रों को छूकर जाना जा सकता है कि आपने कुछ अनुभव किए हैं कभी या नहीं।

मैं सैकड़ों लोगों के चक्रों पर प्रयोग किया हूं। तो मैं हैरान हुआ कि एकाध या ज्यादा से ज्यादा दो चक्रों के सिवाय, आमतौर से तीसरा चक्र शुरू ही नहीं होता, उसने गति ही नहीं की है कभी, वह बन्द ही पड़ा है। उसका कभी आपने उपयोग ही नहीं किया। तो वह आपका अतीत है। उसे जानकर अगर एक आदमी मेरे पास

आए और मैं देखूं कि उसके सातों चक्र चल रहे हैं तो उससे कहा जा सकता है कि यह तुम्हारा अंतिम जीवन है, अगला जीवन नहीं होगा। क्योंकि सात चक्र चल गए हों तो अगले जीवन का अब कोई उपाय नहीं है। इस जीवन में निर्वाण हो जाएगा, मुक्ति हो जाएगी।

महावीर के पास कोई आता तो वे फिक्र करते इस बात की कि उस आदमी के कितने चक्र चल रहे हैं। उसके साथ कितनी मेहनत करनी उचित है, क्या हो सकेगा उसके साथ? मेहनत करने का कोई परिणाम होगा या नहीं होगा? या कब हो पाएगा? या कितने जन्म लगेंगे? भविष्य को टटोलने की चेष्टा है ज्योतिष— अनेक—अनेक मार्गों से। उनमें एक मार्ग, जो सर्वाधिक प्रचलित हुआ, वह मह नक्षत्रों का प्रभाव मनुष्य के ऊपर—उसके लिए वैज्ञानिक आधार रोज—रोज मिलते चले जाते हैं। इतना तय हो गया है कि जीवन प्रभावित है। और जीवन अप्रभावित नहीं हो सकता है।

दूसरी बात ही कठिनाई की रह गयी—क्या व्यक्तिगत रूप से? —क्या एक—एक व्यक्ति भी प्रभावित है? यह जरा चित्ता वैज्ञानिकों को लगती है कि एक—एक व्यक्ति—तीन अरब, साढ़े तीन अरब, चार अरब आदमी हैं जमीन पर—क्या एक—एक आदमी अलग—अलग ढंग से..? लेकिन उनको कहना चाहिए, यह इतनी परेशानी की बात क्या है!

अगर प्रकृति एक—एक आदमी को अलग—अलग ढंग का अंगूठा दे सकती है, इंडीवीजुअल और पुनरुक्त नहीं करती है—इतनी बारीकी से हिसाब रख सकती है प्रकृति कि एक—एक आदमी को जो अंगूठा देती है, वह इंडीवीजुअल, उसकी छाप किसी दूसरे आदमी की छाप फिर कभी नहीं होती। अभी ही नहीं, कभी नहीं होती! जमीन पर अरबों आदमी रहे हैं और अरबों आदमी रहेंगे लेकिन मेरे अंगूठे की जो छाप है वह दोबारा फिर नहीं होगी।

आप हैरान होंगे मैंने एक अंडे के दो जुड़वा बच्चों की बात कही। उनके भी अंगूठे एक जैसे नहीं होते। उनके भी दोनों अंगूठों की छाप अलग होती है। अगर प्रकृति एक—एक आदमी को इतना व्यक्तित्व दे पाती है, अंगूठे जैसी बेकार चीज को हम सबको, जो बेकार ही है, कुछ खास प्रयोजन का नहीं मालूम पड़ता, उसको इतनी विशिष्टता दे पाती है तो एक—एक व्यक्ति को आत्मा और जीवन विशिष्ट न दे पाए, कोई कारण नहीं मालूम होता। पर विज्ञान बहुत धीमी गति से चलता है और ठीक है, वैज्ञानिक होने के लिए उतनी धीमी गति ठीक है। जब तक तथ्य पूरी तरह सिद्ध न हो जाएं तब तक इंच भी आगे सरकना उचित नहीं है।

प्रोफेट्स, पैगंबर तोर छलांगें भर लेते हैं। वह हजारों, लाखों साल बाद जो तय होगी उसकी कह देते हैं। विज्ञान तो एक—एक इंच सरकता है। अब प्राइमरी स्कूल के बच्चे के दिमाग में जो बात आ सके—वही बात! वह बात नहीं जो कि प्रोफेट्स और विज़नरीज़—सपने देखनेवाले लोग जो दूर—दूर की चीजें देख लेते हैं उनकी समझ में आ सकें—उतनी बात! नहीं, उससे विज्ञान का उतना प्रयोजन नहीं है। तथ्य—प्रयोगित तथ्य पर ही उसकी दृष्टि है। सपने देखने की उसे सुविधा नहीं है। पर पैगम्बर तो सपनों में भी सत्य को खोल लेते हैं। उनके लिए तो भविष्य भी वर्तमान का ही फैलाव है।

ज्योतिष मूलतः चूंकि भविष्य की तलाश है, और विज्ञान चूंकि मूलतः अतीत की तलाश है—विज्ञान इसी बात की खोज है कि काज क्या है, कारण क्या है, और ज्योतिष इसी बात की खोज है कि इफैक्ट क्या होगा, परिणाम क्या होगा? इन दोनों के बीच बडा भेद है। लेकिन फिर भी विज्ञान को रोज—रोज अनुभव होता है! कुछ बातें जो अनहोनी लगती थीं, लगती थीं—कभी सही नहीं हो सकतीं, वह सही होती हुई मालूम पड़ती हैं। जैसा मैंने पीछे आपको कहा, अब वैज्ञानिक इसको स्वीकार कर लिए हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जन्म के साथ बिल्ट—इन, अपना व्यक्तित्व लेकर पैदा होता है, इसको पहले वह मानने को राजी नहीं थे। ज्योतिष इसे सदा से कहता रहा है। जैसे समझें एक बीज है—आम का बीज, आम के बीज के भीतर किसी—न—किसी रूप में जब हम आम के बीज को बो देंगे तो जो वृक्ष पैदा होता है उसकी बिल्ट—इन प्रोग्रेम होना चाहिए। उसका बू प्रिंट होना चाहिए—नहीं, तो यह आम का बीज बेचारा.. न कोई विशेषतों की सलाह लेता है, न किसी यूनिवर्सिटी में शिक्षा पाता है!

यह आम के वृक्ष को कैसे पैदा कर लेता है! फिर इसमें वैसे ही पत्ते लग जाते हैं, फिर इसमें वैसे ही आम लग जाते हैं। इस बीज, गुठली के भीतर छिपा हुआ कोई पूरा—का—पूरा प्रोग्रेम चाहिए, नहीं तो बिना प्रोग्रेम के यह बीज क्या कर पायेगा। इसके भीतर सब मौजूद चाहिए। जो भी वृक्ष में होगा वह कहीं—न—कहीं छिपा ही होना चाहिए। हमें दिखाई नहीं पड़ता, काट पीटकर हम देख लेते हैं—कहीं दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन होना तो चाहिए। अन्यथा आम के बीज से फिर नीम निकल सकती है। भूल—चूक हो सकती है। लेकिन कभी भूल—चूक होती दिखाई नहीं पड़ती। आम ही निकल आता है, सब रिपीट हो जाता है, फिर वही पुनरुक्त कर जाता है।

इस छोटे से बीज में अगर सारी की सारी सूचनाएं छिपी हुई नहीं हैं कि इस बीज को क्या करना है, कैसे अंकुरित होना है, कैसे पत्ते, कैसी शाखाएं कितना बड़ा वृक्ष, कितनी उम्र का वृक्ष, कितना ऊंचा उठेगा—यह सब इसमें छिपा होना चाहिए। कितने फल लगेंगे, कितने मीठे होंगे, पकेंगे कि नहीं पकेंगे, यह सब इसके भीतर छिपा होना चाहिए। अगर आम के बीज के भीतर यह सब छिपा है तो आप जब मां के पेट में आते हैं तो आपके बीज में सब छिपा नहीं होगा?

अब वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि आंख का रंग छिपा होगा, बाल का रंग छिपा होगा। शरीर की ऊंचाई छिपी होगी, स्वास्थ्य—अस्वास्थ्य की सम्भावनाएं छिपी होंगी। बुद्धि का अंक छिपा होगा, क्योंकि इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि आप विकसित कैसे होंगे? आपके पास अग्रिम प्रोग्रेम चाहिए—कोई हड्डी कैसे हाथ बन जायेगी, कोई हड्डी कैसे पैर बन जायेगी! चमड़ी का एक हिस्सा आंख बन जायेगा, एक कान बन जायेगा। एक हड्डी सुनने लगेगी, एक हड्डी देखने लगेगी—यह सब कैसे होगा?

वैज्ञानिक पहले कहते थे, सब संयोग है, लेकिन संयोग शब्द बहुत अवैज्ञानिक मालूम पड़ता है। संयोग का मतलब है, चांस। तो फिर कभी पैर देखने लगे और कभी हाथ सुनने लगे—और इतना संयोग नहीं मालूम पड़ता! इतना व्यवस्थित मालूम पड़ता है… ज्योतिष ज्यादा वैज्ञानिक बात कहता है। ज्योतिष कहता है, सब बीज को उपलब्ध है। हम अगर बीज को पढ़ पाएं अगर हम डी—कोड कर पाएं अगर हम बीज से पूछ सकें कि तेरे इरादे क्या है—तो हम आदमी के बाबत भी पूर्व घोषणाएं कर सकते हैं!

वृक्षों के बाबत तो वैज्ञानिक घोषणा करने लगे। बीस साल में आदमी के बाबत बहुत सी घोषणाएं वे करने लगेंगे। और अब तक हम सब समझते रहे कि सुपरस्टीटस है ज्योतिष, एक विश्वास मात्र है। लेकिन यदि घोषणाएं विज्ञान करेगा तो वह ज्योतिष भी हो जायेगा। और विज्ञान घोषणा करने लगेगा। बहुत पुराने ज्योतिषी, ज्योतिष का पुराने से पुराना इजिप्तियन एक ग्रंथ है जिसको पाइथागोरस ने पढ़कर और यूनान में ज्योतिष को पहुंचाया।

वह ग्रंथ कहता है—काश, हम सब जान सकें, तो भविष्य बिलकुल नहीं है। चूंइक हम सब नहीं जानते, कुछ ही जानते हैं—इसलिए जो हम नहीं जानते, वह भविष्य बन जाता है। हमें कहना पड़ता है, शायद ऐसा हो! क्योंकि बहुत कुछ है जो अनजान है। अगर सब जाना हुआ हो तो हम कह सकते हैं कि ऐसा ही होगा। फिर इसमें रत्तीभर फर्क नहीं होगा. आदमी के बीज में भी अगर सब छिपा है!

आज जो मैं बोल रहा हूं किसी न किसी रूप में मेरे बीज में यह सम्भावना होनी चाहिए थी, अन्यथा मैं यह कैसे बोलता। अगर किसी दिन यह सम्भावना हो सकी और हम आदमी के बीज को देख सकें तो मेरे बीज को देखकर मैं क्या बोल सकूंगा जीवन में, उसकी घोषणा की जा सकती है। क्या हो सकूंगा, क्या नहीं हो सकूंगा, क्या बनूंगा, क्या नहीं बनूंगा, क्या घटित होगा, उस सबकी सूचना हो सकती है और कोई आश्रर्य नहीं है कि हम आज नहीं कल आदमी के बीज में झांकने में समर्थ हो जाएं।

जन्म कुंडली या होरोस्कोप उसका ही टटोलना है। हजारों वर्ष से हमारी कोशिश यही है कि जो बच्चा पैदा हो रहा है वह क्या हो सकेगा? हमें कुछ तो अन्दाज मिल जाए तो शायद हम उसे सुविधा दे पाएं। शायद हम उससे आशाएं बांध पाएं। जो होने वाला है, उसके साथ हम राजी हो जाएं।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने जीवन के अन्त में कहा है कि मैं सदा दुखी था। फिर एक दिन मैं अचानक सुखी हो गया। गांवभर के लोग चकित हो गए कि जो आदमी सदा दुखी था और जो आदमी हर चीज का अंधेरा देखता था वह अचानक प्रसन्न कैसे हो गया—जो हमेशा पेसिमिस्ट था, जो हमेशा देखता था कि कांटे कहां—कहां ??!

एक बार नसरुद्दीन के बगीचे में बहुत अच्छी फसल आ गई। सेव बहुत लगे—ऐसे कि वृक्ष लद गए! पड़ोस में एक आदमी ने पूछा, सोचा उसने कि अब तो नसरुद्दीन कोई शिकायत न कर सकेगा —कहा कि इस बार तो फसल ऐसी है कि सोना बरस जायेगा, क्या खयाल है, नसरुद्दीन! नसरुद्दीन ने बड़ी उदासी से कहा, और सब तो ठीक है लेकिन जानवरों को खिलाने के लिए सड़े सेव कहां से लाओगे? उदास बैठा है वह। जानवरों को खिलाने के लिए सडे सेव कहां से लाओगे, सब सेव अच्छे हैं, कोई सड़ा हुआ ही नहीं! एक मुसीबत है।

वह आदमी एक दिन अचानक प्रसन्न हो गया तो गांव के लोगों को हैरानी हुई तो गांव के लोगे ने पूछा कि तुम और प्रसन्न—नसरुद्दीन! क्या राज है इसका? नसरुद्दीन ने कहा, आई हेव लर्न्ट टु कोआपरेट विद दि इनइवीटेबल। वह जो अनिवार्य है मैं उसके साथ सहयोग करना सीख गया हूं। बहुत दिन लड़कर देख लिया। अब मैंने यह तय कर लिया है कि जो होना है, होना है! अब मैं सहयोग करता हूं इनइवीटेबल के साथ— जो अनिवार्य है उसके साथ मैं सहयोग करता हूं। अब दुख का कोई कारण न रहा। अब मैं सुखी हूं।

ज्योतिष बहुत बातों की खोज थी। उसमें जो अनिवार्य है, उसके साथ सहयोग—वह जो होने ही वाला है, उसके साथ व्यर्थ का संघर्ष नहीं, जो नहीं होनेवाला है, उसकी व्यर्थ की मांग नहीं, उसकी आकांक्षा नहीं! ज्योतिष मनुष्य को धार्मिक बनाने के लिए, तथाता में ले जाने के लिए, परम स्वीकार में ले जाने के लिए उपाय था। उसके बहु आयाम है।

हम धीरे— धीरे एक—एक आयाम पर बात करेंगे। आज तो इतनी बात, कि जगत एक जीवंत शरीर है, आर्गनिक यूनिटी है। उसमें कुछ भी अलग—अलग नहीं है—सब संयुक्त है। दूर से दूर जो है वह भी निकट से निकट जुडा है—अजुडा कुछ भी नहीं है। इसलिए कोई इस भांति में न रहे कि वह आइसोलेटेड आइलैंड है। कोई इस भांति में न रहे कि कोई एक द्वीप है छोटा—सा— अलग— थलग।

नहीं, कोई अलग— थलग नहीं है, सब संयुक्त है और हम पूरे समय एक दूसरे को प्रभावित कर रहे हैं और एक दूसरे से प्रभावित हो रहे हैं। सड़क पर पड़ा हुआ पत्थर भी, जब आप उसके पास से गुजरते हैं तो आपकी तरफ अपनी किरणें फेंक रहा है। फूल भी फेंक रहा है। और आप भी ऐसे नहीं गुजर रहे हैं, आप भी अपनी किरणें फेंक रहे हैं।

मैने कहा कि ?चांद—तारों से हम प्रभावित होते हैं। ज्योतिष का और दूसरा खयाल है कि चांद—तारे भी हमसे प्रभावित होते हैं, क्योंकि प्रभाव कभी भी एकतरफा नहीं होता। जब कभी बुद्ध जैसा आदमी जमीन पर पैदा होता है तो चांद यह न सोचे कि चांद पर उनकी वजह से कोई तूफान नहीं उठते। बुद्ध की वजह से कोई तूफान चांद पर शांत नहीं होते! अगर सूरज पर धब्बे आते हैं और तूफान उठते हैं तो जमीन पर बीमारियां फैल जाती है। तो जमीन पर जब बुद्ध जैसे व्यक्ति पैदा होते हैं और शान्ति की धारा बहती है और ध्यान का गहन रूप पृथ्वी पर पैदा होता है तो सूरज पर भी तूफान फैलने में कठिनाई होती है—सब संयुक्त है!

एक छोटा—सा घास का तिनका भी सूरज को प्रभावित करता है। और सूरज भी घास के तिनके को प्रभावित करता है। न तो घास का तिनका इतना छोटा है कि सूरज कहे कि तेरी हम फिक्र नहीं करते और न सूरज इतना बड़ा है कि यह कह सके कि घास का तिनका मेरे लिए क्या कर सकता है—जीवन संयुक्त है!

यहां छोटा—बड़ा कोई भी नहीं है, एक आर्गनिक यूनिटी है—एकात्म है। इस एकात्म का बोध अगर खयाल में आए तो ही ज्योतिष समझ में आ सकता है, अन्यथा ज्योतिष समझ में नहीं आ सकता है।

इस पर मैंने यह आज बात कही, कल और आयामों पर हम धीरे— धीरे बातें करेंगे।

‘ज्योतिष : अद्वैत का विज्ञान’ :

(प्रश्रोत्तर चर्चा)

बुडलैण्‍ड बम्बई दिनांक 9 जुलाई 1971


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–14)

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महावीर: परम समर्पित व्यक्तित्व—(प्रवचन—चौदहवां)

प्रश्न:

 महावीर को ऐसा कोई गुरु अथवा पंथ क्यों नहीं मिल सका, जिनके चरणों में महावीर अपना आत्मसमर्पण कर सकें? महावीर ऐसा क्या चाहते थे?

जीवन में बहुत कुछ है, जो दूसरे से नहीं मिल सकता है। और जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सत्य है, सुंदर है, उसे दूसरे से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। जो दूसरे से पाया जा सकता है, परम अर्थों में उसका कोई मूल्य नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे हम दूसरे से पा लेते हैं, वह हमारे प्राणों से विकसित हुआ हुआ नहीं होता।

वह ऐसा ही है जैसे कि कागज के फूल कोई बाजार से ले आए और घर को सजा ले। वृक्षों से आए हुए फूलों की बात और है, वे जीवंत हैं। यह भी हो सकता है कि कोई उधार वृक्षों के फूल भी ले आए, तो भी वे मृत हो जाते हैं। थोड़ी-बहुत देर गुलदस्ते में धोखा दे सकते हैं जीवित होने का, लेकिन फिर भी वे जीवित नहीं हैं। सत्य के फूल तो कभी भी उधार नहीं मिलते हैं। इसलिए जो भी सत्य को खोजने निकला हो, वह गुरु को खोजने नहीं निकलता है। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए। जो सत्य को खोजने निकला है, वह गुरु को खोजने नहीं निकलता है। हां, असत्य को कोई खोजने निकला हो तो गुरु की खोज बहुत जरूरी है। सत्य की खोज में गुरु एकदम अनावश्यक है। सत्य की खोज में गुरु अनावश्यक है, लेकिन शिष्यत्व, सीखने की क्षमता, एटिटयूड ऑफ डिसाइपलशिप बहुत कीमती है।

महावीर ने कोई गुरु कभी नहीं बनाया। असल में अगर कोई शिष्य होने को तैयार है, तो उसे गुरु बनाने की जरूरत ही नहीं है, तब सारा जीवन ही गुरु बन जाता है। जो व्यक्ति सीखने को तैयार है, वह सब जगह से सीख लेता है–उन जगहों से भी, जहां सीखने की कोई उम्मीद न थी।

गुरु तो बनाते ही वे हैं, जिनके शिष्य होने की क्षमता बड़ी छोटी है। जो सबके शिष्य नहीं हो सकते हैं, वे गुरु बनाते हैं। जो इस अनंत जीवन से नहीं सीख सकते, वे किसी एक को पकड़ कर सीखने की कोशिश करते हैं। और जो अनंत से न सीख सकता हो, वह एक से सीख सकेगा, इसकी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि अनंत भी जिसे सिखाने में असमर्थ है, उसे एक कैसे सिखा सकेगा!

असली सवाल सीखने की क्षमता का है। और जिसके पास सीखने की क्षमता है, वह गुरु नहीं बनाता, सीखता चला जाता है, क्योंकि गुरु बनाना बंधना है। गुरु बनाना एक तरह का बंधन निर्मित करना है। वह इस बात की चेष्टा है कि सत्य पाएंगे तो इस व्यक्ति से, और कहीं से, सब तरफ से अंधे हो जाएंगे।

सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी एक व्यक्ति से प्रवाहित हो रही हो। सत्य तो पूरे जीवन पर छाया हुआ है। अगर हम सीखने को तत्पर हैं, उत्सुक हैं, रिसेप्टिव हैं, ग्राहक हैं, तो सत्य सब जगह से सीखा जा सकता है। एक गुरु लाख समझाए कि जिंदगी असार है, और एक गुरु लाख समझाए कि कल मौत आ जाएगी, चेत जाओ, और अगर हम सीख न सकते हों तो आवाज कान में सुनाई पड़ेगी और समाप्त हो जाएगी। और अगर कोई सीख सकता है तो एक वृक्ष से गिरते हुए सूखे पत्ते को देख कर भी सीख सकता है कि जिंदगी असार है। और अभी जो हरा था, अभी सूख गया है; कल जो जन्मा था, आज मर गया है। और एक सूखा पत्ता गिरता हुआ भी एक व्यक्ति को जीवन की सारी व्यर्थता का बोध करा जा सकता है। लेकिन सीखने की क्षमता न हो तो यह बोध कोई भी नहीं करा सकता।

महावीर में सीखने की अदभुत क्षमता है, इसलिए उन्होंने गुरु नहीं बनाया। गुरु खोजा भी नहीं, बस सीखने निकल पड़े, खोजने निकल पड़े। बीच में किसी व्यक्ति को लेना नहीं चाहा, क्योंकि उधार ज्ञान लेने की उनकी कोई आकांक्षा नहीं है।

और उधार भी कभी ज्ञान हो सकता है? और सब चीजें उधार हो सकती हैं, ज्ञान उधार नहीं हो सकता। ज्ञान तो उसका ही होता है, जो पाता है। दूसरे को देते ही व्यर्थ हो जाता है। इसलिए गुरुओं की कमी न थी महावीर के जीवन में, सब तरफ गुरु मौजूद थे। शास्त्रों की कमी न थी, शास्त्र मौजूद थे। सिद्धांतों की कमी न थी, सिद्धांत मौजूद थे। लेकिन महावीर ने सबकी तरफ पीठ कर दी, क्योंकि शास्त्र की तरफ मुंह करना या सिद्धांत की तरफ या गुरु की तरफ, बासे और उधार के लिए उत्सुक होना है। वे निपट अपनी खोज पर चले गए। स्वयं ही पा लेना है।

और जो स्वयं न मिले, वह दूसरे से मांग कर मिल भी कैसे सकता है? मिलने का मार्ग भी क्या है, राय भी क्या है? दूसरे से ज्यादा से ज्यादा शब्द मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, सत्य नहीं। इसलिए महावीर ने किसी गुरु के प्रति समर्पण नहीं किया।

यह भी समझ लेने जैसी बात है कि समर्पण ही करना हो तो क्षुद्र के प्रति, सीमित के प्रति क्या! समर्पण ही करने कोई राजी हो गया हो तो समस्त के प्रति क्यों नहीं? सच तो यह है कि एक के प्रति समर्पण असली में समर्पण नहीं है। एक के प्रति समर्पण में शर्त है।

जब मैं कहता हूं कि फलां व्यक्ति के प्रति मैं समर्पण करूंगा और फलां के प्रति नहीं, तो मैं शर्त रख रहा हूं; क्योंकि मैं मानता हूं कि यह ठीक है, दूसरा गलत है; यह पा लिया है, दूसरा नहीं पाया है; इससे मिलेगा, दूसरे से नहीं मिलेगा; यही दे सकता है, दूसरा नहीं दे सकता है। तब समर्पण कैसा हुआ? सौदा हुआ। जिससे हमें मिलेगा, जिससे हम पा सकते हैं, इसकी आकांक्षा को ध्यान में रख कर अगर समर्पण किया गया हो तो समर्पण कैसा हुआ? बड़ा सौदा हुआ, लेन-देन हुआ।

समर्पण का तो अर्थ यह है: बिना शर्त, बिना आकांक्षा के स्वयं को छोड़ देना।

तब कोई किसी व्यक्ति के प्रति कभी समर्पित नहीं हो सकता, समर्पित तो हो सकता है सिर्फ परमात्मा के प्रति। और परमात्मा का मतलब है समस्त। अगर परमात्मा भी एक व्यक्ति है, तो भी समर्पण नहीं हो सकता। जैसे अगर किसी ने परमात्मा को राम मान लिया है तो राम के प्रति समर्पण है उसका, कृष्ण के प्रति समर्पण नहीं है।

एक बड़े प्रसिद्ध संत के जीवन में उल्लेख है कि उन्हें, वह राम के भक्त हैं, उन्हें कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया है, तो बांसुरी बजाते कृष्ण की मूर्ति को उन्होंने नमस्कार करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि मैं तो धनुर्धारी राम के प्रति ही झुकता हूं, और अगर चाहते हो कि मैं झुकूं तो धनुष-बाण हाथ में ले लो!

यानी झुकने वाला शर्त लगाएगा! वह यह भी शर्त लगाएगा कि तुम कैसे खड़े होओ–धनुष-बाण लेकर कि बांसुरी लेकर! तुम्हारी कैसी शक्ल हो, तुम्हारी कैसी आंखें हों–इस सबकी वह शर्त लगाएगा! और समर्पण में शर्त हो सकती है? यानी कोई यह कहे कि तुम ऐसे हो जाओ तो मैं समर्पण करूंगा, तो समर्पण क्या रहा? समर्पण का तो अर्थ ही सदा बेशर्त है, अनकंडीशनल।

तो मैं मानता हूं कि महावीर का समर्पण है, लेकिन किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, समस्त के प्रति। और समस्त के प्रति जिनका समर्पण है, उनका हमें समर्पण पता नहीं चलता। क्योंकि पता कैसे चलेगा? हम तो व्यक्तियों के समर्पण को ही समझ पाते हैं कि यह आदमी फलां आदमी के प्रति समर्पित है, तो हमें समझ में आता है। लेकिन एक आदमी समस्त के प्रति समर्पित है–उस पत्थर के प्रति भी जो सड़क पर पड़ा है, और आकाश के तारे के प्रति भी, और फूल के प्रति भी, और आदमी के प्रति भी, और बच्चे के प्रति भी, और जानवर के प्रति भी। जो समस्त के प्रति समर्पित है, उसका समर्पण हमारी पहचान में नहीं आएगा, क्योंकि हमारा मापदंड सीमित, सौदे का है। जैसे अगर मैं एक व्यक्ति को प्रेम करूं तो समझ में आ सकता है कि मैं प्रेम करता हूं। लेकिन अगर मेरा समस्त के प्रति प्रेम हो तो समझ में आना मुश्किल हो जाएगा कि इस आदमी का शायद किसी से भी प्रेम नहीं है! क्योंकि हम प्रेम को पहचान ही तब पाते हैं, जब वह व्यक्ति से बंध जाए। अगर वह फैला हो, अनबंधा हो, असीम हो, तो हम नहीं पहचान पाते।

इसलिए महावीर को समझने वाले सोचते रहे हैं कि महावीर ने किसी के प्रति समर्पण नहीं किया। यह बात ही झूठ है। असल में महावीर ने किसी के प्रति इसीलिए समर्पण नहीं किया कि किसी के प्रति समर्पण करने से शेष के प्रति असमर्पण हो जाता है। अगर टोटल सरेंडर है, अगर पूर्ण समर्पण है, तो पूर्ण के प्रति ही हो सकता है। अपूर्ण के प्रति, सीमित के प्रति, पूर्ण समर्पण नहीं हो सकता।

अब तक किसी ने भी इस तरह नहीं सोचा है महावीर के प्रति कि वे समर्पित व्यक्ति थे। मैं कहता हूं कि वे बिलकुल ही पूर्ण समर्पित व्यक्ति थे। लेकिन पूर्ण समर्पित व्यक्ति किसी के प्रति समर्पित नहीं होता। वे किसी के आगे सिर नहीं झुकाएंगे, इसलिए नहीं कि अहंकार है कि किसी के प्रति सिर नहीं झुका सकते हैं; बल्कि इसीलिए कि किसी के प्रति सिर झुकाना किसी के प्रति सिर न झुकाना बनता है। और जिसका सिर झुका ही हुआ है सबके प्रति, अब वह कैसे अलग-अलग खोजने जाए कि इसके प्रति झुकूं और उसके प्रति न झुकूं? उसका किसी के प्रति झुकने का कोई सवाल नहीं है।

और ध्यान रहे, जो व्यक्ति किसी के प्रति झुकता है, वह किसी के प्रति सदा अकड़ा रहता है। और जो व्यक्ति किसी के चरण छूता है, वह किसी से चरण छुआने की आतुरता में रहता है। मैं एक बड़े संन्यासी के आश्रम में गया था। एक बड़े मंच पर संन्यासी बैठे हुए हैं, उनके मंच के नीचे ही एक छोटा तख्त है, उस पर एक दूसरे संन्यासी बैठे हैं, उस तख्त के नीचे और संन्यासी बैठे हुए हैं।

उन बड़े संन्यासी ने मुझसे कहा कि आप देखते हैं मेरे बगल में कौन बैठा हुआ है? मैंने कहा, मुझे जरूरत नहीं है; कोई बैठा है जरूर, कोई जरूरत नहीं है। नहीं, उन्होंने कहा, आपको शायद पता नहीं, वे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे। साधारण आदमी नहीं हैं! लेकिन बड़े विनम्र हैं, कभी मेरे साथ तख्त पर नहीं बैठते, हमेशा छोटे तख्त पर नीचे बैठते हैं।

मैंने कहा, वह मुझे दिखाई पड़ रहा है, लेकिन उनसे भी नीचे तख्त पर कुछ लोग बैठे हुए हैं। उनके प्रति विनम्र नहीं हैं? उनसे ऊंचे तख्त पर बैठे हुए हैं! और मैंने कहा, वे आपके मरने की प्रतीक्षा देख रहे हैं कि जब आप मरें तो वे इस तख्त पर बैठें और वे जो नीचे बैठे हैं, वे सरक कर उनके बगल के तख्त पर बैठ जाएंगे। और वे भी लोगों से कहेंगे कि यह आदमी बड़ा विनम्र है, कभी मेरे साथ नहीं बैठता। और मैंने कहा कि यह आदमी विनम्र है क्योंकि आपके साथ नहीं बैठता, आप कैसे आदमी हैं? इसको भी तो सोचना जरूरी है कि आप कैसे आदमी हैं? आप बड़े ईगोइस्ट, बड़े अहंकारी आदमी मालूम होते हैं, कि इसके साथ बैठने से आप अविनय समझेंगे कि यह साथ बैठ गया तो यह आदमी अहंकारी है! आप कैसे आदमी हैं, जो साथ बैठने में दूसरे के अविनय को समझेंगे, नीचे बैठने में विनय को! लेकिन वह भी आदमी बिलकुल नीचे नहीं बैठा हुआ है। वह प्रतीक्षा कर रहा है सिर्फ आपकी।

सब चेले प्रतीक्षा करते हैं कि कब गुरु हो जाएं। और सब समर्पित व्यक्ति–किसी के प्रति समर्पित व्यक्ति– दूसरों के समर्पण की मांग करते हैं। क्योंकि जो वे इधर देते हैं, वह दूसरे से मांग करते हैं।

यह निरंतर आपने देखा होगा कि जो आदमी किसी की खुशामद करेगा, वह आदमी अपने से पीछे वाले लोगों से खुशामद मांगेगा। जो आदमी किसी की खुशामद नहीं करेगा, वह खुशामद भी नहीं मांगेगा। ये दोनों बातें एक साथ चलती हैं। जो आदमी बहुत विनम्रता दिखलाएगा, वह आदमी दूसरों से विनम्रता की मांग करेगा।

महावीर को समझना इस अर्थ में कठिन हो जाता है। वे किसी के प्रति समर्पित नहीं हैं, कोई उनका गुरु नहीं है, किसी के चरण नहीं छुए हैं, किसी के चरणों में नहीं बैठे हैं, किसी के पीछे नहीं चले हैं, तो समझना हमें कठिन हो जाता है। लेकिन मेरी अपनी दृष्टि यही है कि वे इतने समर्पित व्यक्ति हैं, वे समस्त के प्रति इस भांति झुके हुए हैं कि अब और किसके लिए झुकना है? और क्यों झुकना है?

एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि आप फलां-फलां आदमी को महात्मा मानते हैं कि नहीं? मैंने कहा, तुम अगर मुझसे कहते कि आदमी को महात्मा मानते हैं कि नहीं, तो मैं जल्दी से राजी हो जाता। तुम कहते हो, फलां-फलां व्यक्ति को! अब उसमें यह बात छिपी है कि मैं एक व्यक्ति को महात्मा मानूं तो दूसरों को हीनात्मा मानूं, इसके सिवाय कोई चारा नहीं है। एक को महात्मा मानने में दूसरे को हीनात्मा मानना ही पड़ेगा, नहीं तो उसे महात्मा कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

तो मैंने कहा कि मैं किसी को हीनात्मा मानने को राजी नहीं हूं, इसलिए महात्मा भी एकदम विदा हो जाता है मेरे मन से। मेरे लिए कोई महात्मा नहीं है, क्योंकि कोई हीनात्मा नहीं है। और एक को महात्मा बनाओ तो हजार, लाख, करोड़ को हीनात्मा बनाना जरूरी है, नहीं तो काम चलता नहीं। यानी एक महात्मा की रेखा खींचने के लिए करोड़ हीनात्माओं का घेरा खड़ा करना पड़ता है, तब एक महात्मा बन सकता है, बनाया जा सकता है।

लेकिन यह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता! यह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता कि एक महात्मा बनाने में करोड़ों लोगों को हीनात्मा की दृष्टि से हम देखना शुरू कर देते हैं।

महावीर किसी को न महात्मा मानते हैं, न किसी को हीनात्मा मानते हैं। महावीर इस विचार में ही नहीं पड़ते। वे एक-एक की गिनती ही नहीं कर रहे हैं। समस्त जीवन का सीधा समर्पण है, इसलिए व्यक्ति बीच में आता नहीं।

और इसी तरह, इस संबंध में, इस प्रश्न से संबंधित दूसरी बात भी मैं आपको याद दिला दूं, कि चूंकि महावीर ने किसी को गुरु नहीं बनाया, इसलिए जितने लोगों ने महावीर को गुरु बनाया, उन सबने महावीर के साथ अन्याय किया है। क्योंकि समझ ही नहीं पाए उस आदमी को। यानी जो आदमी किसी को कभी गुरु नहीं बनाया, वह कभी किसी को शिष्य बनाने की बात भी नहीं सोच सकता है। ये संयुक्त बातें हैं। क्योंकि जब वह अपने ही लिए नहीं यह मानता है ठीक कि किसी को गुरु की तरह ऊपर स्थापित करे, वह यह कैसे मान सकता है कि कोई उसे गुरु की तरह स्थापित करे?

इसलिए महावीर के जो अपने को शिष्य और अनुयायी समझते हों, वे महावीर के साथ बुनियादी अन्याय कर रहे हैं। उस आदमी को समझ ही नहीं पा रहे हैं। जिस महावीर ने अपने से पहले चले आए किसी शास्त्र को मान्यता नहीं दी, तो जिन्होंने महावीर का शास्त्र बना लिया, उन्होंने महावीर के साथ जो व्यभिचार किया है, उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। महावीर ने अपने से पहले के किसी–किसी भी व्यक्ति को ऐसा नहीं कहा कि उससे मुझे मिल जाएगा, या वह मुझे देने वाला हो सकता है। बात ही नहीं उठाई इसकी। मुझे ही पाना होगा। उस महावीर के पीछे लाखों लोग हैं, जो यह कहते हैं कि तुम्हीं हमें पहुंचा दो, तुम्हीं हमें मिला दो, तुम्हीं हमारा कल्याण करो, तुम्हीं हमारे नाव, खिवैया, जो कुछ हो तुम्हीं हो!

उस महावीर के प्रति ये बातें ऐसी अशोभन हैं! लेकिन खयाल में नहीं आतीं। खयाल में नहीं आतीं, क्योंकि हम महावीर को समझ ही नहीं पाए।

यह भी पूछा है उस प्रश्न में कि ऐसा महावीर क्या खोज रहे थे, जिसकी वजह से वे किसी गुरु के पास नहीं गए?

निश्चित ही, वे ऐसी कोई चीज खोज रहे थे, जो किसी गुरु से कभी किसी को नहीं मिली है। हां, कुछ चीजें हैं, जो गुरु से मिल जाती हैं। असल में जीवन का बाह्य ज्ञान सदा गुरु से ही मिलता है। गणित सीखनी है, भूगोल सीखनी है, इतिहास सीखना है, इन सबका कोई आत्म-ज्ञान नहीं होता। ऐसा नहीं होता कि एक आदमी आंख बंद करके बैठ जाए और भूगोल सीख जाए। और किसी गुरु के पास न जाए और भाषा सीख जाए, ऐसा नहीं होता। असल में जो चीजें जीवन के बाहर के फैलाव से संबंधित हैं, वे सब की सब किसी से सीखनी पड़ती हैं।

लेकिन कुछ बात ऐसी भी है, जो बाहर के फैलाव से संबंधित ही नहीं है, जो मेरी अंतस चेतना में ही छिपी है, उसे कभी किसी गुरु से नहीं सीखना पड़ता है। जैसे कोई भूगोल, सोचता हो कि मैं आंख बंद करके अंतर्यात्रा करूं और जगत की भूगोल जान लूं, जैसी गलती वह करेगा, ऐसा ही वह भी आदमी गलती करेगा, जो अंतर्यात्रा करना चाहता हो और किसी गुरु के पास चला जाए, जैसा भूगोल सीखने के लिए जाना पड़ता है–और किसी गुरु के पास सीखने की कोशिश करने लगे, वह भी वैसी ही भूल करेगा।

कुछ है, जो दूसरे से सीखा जाता है और स्वयं सीखा ही नहीं जा सकता। और कुछ है, जो स्वयं ही सीखा जाता है और दूसरे से कभी भी नहीं सीखा जा सकता।

महावीर उसी परम सत्य की खोज पर थे, इसलिए कोई–वे किसी के पास नहीं गए, उन्होंने किसी को बीच में नहीं लेना चाहा। क्योंकि बीच में ले लेने से ही शुद्धता नष्ट हो जाती है।

अगर मैं प्रेम की खोज में हूं तो मैं किसी को बीच में नहीं लेना चाहूंगा। अगर मैं सत्य की खोज में हूं तो भी मैं किसी को बीच में नहीं लेना चाहूंगा। अगर मैं सौंदर्य की खोज में हूं तो भी मैं अपनी आंखों से ही सौंदर्य देखना चाहूंगा, मैं दूसरों की आंखें उधार नहीं लेना चाहूंगा। क्योंकि वे आंखें दूसरों की होंगी, अनुभव दूसरे का होगा, मुझे क्या हो सकता है?

इसलिए महावीर उस परम सत्य की खोज में हैं, जो स्वयं में ही छिपा है। और किसी के पास न मांगने गए, न हाथ जोड़ने गए, न प्रार्थना करने गए।

इससे कोई ऐसा न समझ ले कि बहुत अहंकारी व्यक्ति रहे होंगे। क्योंकि साधारणतः हमारा खयाल यह है कि जो किसी के प्रति सिर नहीं झुकाता, नमस्कार नहीं करता, किसी के चरणों में नहीं बैठता, किसी को आदर नहीं देता, किसी को सम्मान नहीं देता, वह आदमी बड़ा अहंकारी है।

लेकिन जो आदमी किसी को सम्मान नहीं देता, जो आदमी किसी को आदर नहीं देता, वह आदमी किसी से आदर मांगता है, किसी से सम्मान मांगता है तो अहंकार की खबर मिलती है। लेकिन जो आदमी न आदर देता, न मांगता, उसे कैसे अहंकारी कहोगे? जो न गुरु बनाता, न बनता, जो न शास्त्र मानता, न शास्त्र रचता, उसे कैसे अहंकारी कहोगे? अत्यंत विनम्र व्यक्ति है, सीधी खोज पर गया है, सीधा रास्ता अपना खोज रहा है, किसी को साथ नहीं लेना चाहता। कोई साथ हो भी नहीं सकता। अकेले के रास्ते हैं, अकेले की यात्राएं हैं।

प्लोटिनस ने एक किताब लिखी है और उस किताब में उसने कहा है कि बहुत सी यात्राएं थीं जो सबके साथ हुईं, बहुत सी खोजें थीं जिनमें मित्र थे, बहुत सी संपत्ति थी जिसमें साथी-सहयोगी थे। फिर एक ऐसी खोज आई, जहां न मित्र थे, न संगी था, न कोई साथी था–फ्लाइट ऑफ दि अलोन टु दि अलोन; अकेले की उड़ान थी अकेले की तरफ। और कोई बीच में न था। और जरा भी बीच में ले लेते तो बस भटकन शुरू हो जाती थी। क्योंकि उड़ान ही अकेले की अकेले की तरफ थी।

इसलिए महावीर बहुत सचेत हैं। उतने ही लोग अगर महावीर को प्रेम करने वाले भी सचेत होते तो दुनिया ज्यादा बेहतर होती। बुद्ध को प्रेम करने वाले, क्राइस्ट को प्रेम करने वाले भी अगर इतने ही सचेत होते तो दुनिया बहुत बेहतर होती। तब दुनिया में धर्म होता–जैन न होता, हिंदू न होता, मुसलमान न होता, ईसाई न होता। क्योंकि हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन गुरुओं से बंधी हुई धारणा से पैदा होते हैं। अगर गुरु की धारणा ही टूट जाए तो दुनिया में आदमियत होगी, धर्म होगा, लेकिन पंथ न होंगे। और तब सारी वसीयत हमारी हो जाएगी।

आज एक ईसाई के लिए महावीर अपने नहीं मालूम पड़ते, क्योंकि कुछ लोगों ने उन्हें अपना बना रखा है। और जब कुछ लोग किसी को अपना बनाते हैं तो शेष लोगों के लिए वह पराया हो जाता है। आज क्राइस्ट जैनियों के लिए अपने नहीं मालूम पड़ते, क्योंकि कुछ लोगों ने उन्हें अपना बना लिया है। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग भी किसी बड़े सत्य को अपना बनाने का दावा करते हैं, वे शेष मनुष्य-जाति को वंचित कर देते हैं उस सत्य की संपदा से, उसकी वसीयत से, उसके हेरीटेज से।

अगर गुरु के आस-पास पागलपन पैदा न हो, श्रद्धा पैदा न हो, अंध-भक्ति पैदा न हो, गुरुडम पैदा न हो, तो संप्रदाय विदा हो जाएं। तब क्राइस्ट भी हमारे हों, मोहम्मद भी हमारे हों, महावीर भी हमारे हों, बुद्ध भी हमारे हों, सारी दुनिया की समस्त जाग्रत चेतनाएं हमारी हों। और तब हम इतने समृद्ध हों, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।

लेकिन हम दरिद्र हैं और हम दरिद्र अपने हाथों से हैं। महावीर दरिद्र नहीं होना चाहे, इसलिए उन्होंने किसी को नहीं पकड़ा। जो किसी को पकड़ेगा, वह दरिद्र हो जाएगा। वे पूर्ण समृद्ध हो गए, क्योंकि सब कुछ उनका था। कुछ न था, जिसका निषेध करना है; कुछ न था, जिसको इनकार करना है; कुछ न था, जिसको पकड़ना है। जो पकड़ेगा, वह निषेध करेगा। जो पकड़ेगा, वह इनकार करेगा। जो एक को पकड़ेगा, वह दूसरे को छोड़ने की भी जिद करेगा।

महावीर समग्र के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं।

और इसलिए, इसलिए ये सवाल उठ सकते हैं कि क्यों गुरु नहीं? क्यों शास्त्र नहीं? क्यों प्राचीन तीर्थंकर हुए उनको क्यों मान्यता नहीं? यह प्रश्न उठ सकता है। लेकिन यह प्रश्न व्यर्थ है, यह हमारे उस चित्त से उठता है, जो बिना गुरु बनाए, बिना शास्त्र पकड़े, बिना संप्रदाय बनाए एक क्षण नहीं रह सकता।

प्रश्न:

 

इसी संबंध में महावीर की उन शर्तों का क्या अभिप्राय है? वह भी तो वे लेते थे कि मैं ऐसा होगा, कि सामने भिक्षा देने वाला ऐसा व्यक्ति होगा तो ही लूंगा, नहीं तो नहीं लूंगा। जैसे चंदन वाला है…।

भिप्राय है।

प्रश्न:

 

हां, उसका क्या अर्थ है? वह शर्त क्या है?

 

भिप्राय है। महावीर, जैसा मैंने कहा–अगर मेरी बात समझ में आ गई हो तो ही अभिप्राय समझ में आ सकता है–जैसा मैंने कहा कि महावीर की खोज पूरी हो चुकी थी। इस जन्म में वे खोज नहीं कर रहे हैं, इस जन्म में वे सिर्फ बांटने आए हैं। इस जन्म में उनकी अपनी कोई खोज नहीं है।

और इसलिए महावीर ने एक बहुत गहरा प्रयोग किया, जो कि मनुष्य-जाति में कभी किसी ने नहीं किया था। महावीर ने यह प्रयोग किया है कि अगर मैं बांटने ही आया हूं और मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं है, तो अगर विश्वसत्ता मुझे भोजन देना चाहे तो ठीक, न देना चाहे तो मैं भोजन भी क्यों लूं? अगर विश्वसत्ता मुझे जीवन देना चाहे तो ठीक, न देना चाहे तो मेरे जीवन का भी क्या अर्थ है?

अब महावीर का कोई निजी स्वार्थ नहीं है, अब होने की कोई आकांक्षा नहीं है, जिसको हम जिजीविषा कहते हैं, लस्ट फार लाइफ, वह महावीर में नहीं है। इसलिए महावीर ने बड़े अनूठे काम किए।

महावीर भोजन लेने निकलते तो वह पहले अपने मन में एक संकल्प बना लेते कि आज ऐसे घर में भोजन लूंगा जिस घर के सामने दो गाएं लड़ती हों, गायों का रंग काला हो, स्त्री खड़ी हो, एक पैर बाहर हो, एक पैर भीतर हो, आंख से आंसू बहते हों, ओंठों पर हंसी हो–ऐसा कुछ भी, वे एक धारणा कर लेते सुबह और तब वे भिक्षा मांगने निकलते। अगर यह धारणा पूरी हो जाती कहीं, तो वे भिक्षा ग्रहण कर लेते उस द्वार पर, अन्यथा वे वापस लौट आते।

इसका मतलब बहुत गहरा है। और जैन तो नहीं समझ सके कि मतलब क्या है। इसका मतलब यह है कि महावीर यह कह रहे हैं कि अगर अब विश्व की पूरी सत्ता की इच्छा हो तो ही मैं जीता हूं, अपनी तरफ से मैं जीता ही नहीं। तो अगर भोजन देना हो तो–यानी मैं मांगने नहीं जा रहा हूं अब, कोई मुझे दे रहा है, इसलिए भी मैं नहीं लूंगा, अब मैं किसी का अनुग्रह भी नहीं मान रहा हूं। अब तो परिपूर्ण जगत की सत्ता भी अगर आज मुझे भोजन देना चाहती हो तो ठीक, अन्यथा मैं वापस लौट आता हूं। लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा कि विश्व की सत्ता ने मुझे भोजन दिया? तो मैं एक शर्त ले लेता हूं, वह शर्त विश्व की सत्ता पूरी कर दे तो मैं समझूं कि भोजन उससे आया। न देने वाले को मैं धन्यवाद दूंगा, क्योंकि अब यह सवाल ही न रहा। न देने वाले को मैं धन्यवाद दूंगा, क्योंकि देने वाले का कोई सवाल न रहा। न मैं अनुगृहीत हूं किसी का।

और बड़ी गहरी बात है और वह यह है कि जो व्यक्ति पूर्णता को उपलब्ध हुआ, लौटा, अब उसके लिए कर्म जैसी कोई चीज नहीं है। और कर्म होता है इच्छा से, और कर्म का जन्म होता है आकांक्षा से।

तो अब महावीर यह कहते हैं कि अब मैं यह भी इच्छा नहीं करता कि भोजन मुझे मिलना ही चाहिए, यह भी विश्व की सत्ता पर छोड़ देता हूं। यह पूरे के प्रति समर्पण है। अगर, अगर पूरी हवाएं, पहाड़, पत्थर, पर्वत, आदमी की चेतना, जानवर, पशु, देवी-देवता–जो भी है–अगर उस पूरे की आकांक्षा है कि महावीर एक दिन और जी जाए तो इंतजाम करो, अन्यथा अपना कोई इंतजाम नहीं। इसका मतलब गहरे में यह है–इसलिए मैं शर्त लगा देता हूं, क्योंकि मुझे पता कैसे चलेगा? मुझे पता कैसे चलेगा कि यह किसी ने मुझे भोजन दिया या पूरे जगत के अस्तित्व ने मुझे भोजन दिया?

तो महावीर बड़ी पेचीदा शर्तें लगाते हैं, जिनका पूरा होना भी मुश्किल मालूम होता है, कि अब एक स्त्री एक पैर बाहर किए हो, एक पैर भीतर किए हो, राजकुमारी हो, हाथ में हथकड़ियां पड़ी हों, आंख से आंसू गिरते हों, मुंह से हंसी आती हो–ऐसा किसी द्वार पर मुझे कोई मिल जाएगा तो उस द्वार से मैं भोजन कर लूंगा।

फिर जरूरी नहीं है कि उस द्वार पर भोजन देने वाला हो। उस द्वार पर महावीर को भोजन देने वाला हो, यह भी जरूरी नहीं। ऐसा द्वार मिल जाए आज, यह भी जरूरी नहीं। ऐसी स्थिति बने, यह भी जरूरी नहीं। महावीर बिलकुल ही अनहोनी की कल्पना करके घर से निकलते हैं, अपनी भिक्षा के लिए निकलते हैं। यह अनहोना अगर पूरा हो जाए तो महावीर अपने मन में जानते हैं कि विश्व की सत्ता ने एक दिन जीने के लिए और दिया है। यानी मैं अपनी तरफ से, अपनी जिद से नहीं टिका हूं। जरूरत है अस्तित्व को तो मैं आ रहा हूं, नहीं तो मैं एक दिन भी जीने की आशा नहीं करता। अपनी तरफ से जीने का कोई अर्थ नहीं है।

इसलिए यह बड़ा सार्थक है। और ऐसा प्रयोग कभी किसी ने नहीं किया है जगत में। कभी किसी व्यक्ति ने नहीं किया। बहुत अनूठा है।

आज भी जैन मुनि करते हैं, लेकिन श्रावक उनको पहले ही बता जाते हैं कि ऐसा-ऐसा कर लेना, या वे श्रावकों को बता देते हैं! और कुछ बंधे हुए इंतजाम कर रखे हैं उन्होंने! एक घर के सामने दो केले लटके हों तो वहां हम भोजन ले लेंगे! और सब मुनियों का सबको पता चल जाता है कि वह किस तरह की बातें करते हैं, तो दस-पांच घरों में लोग अपने घर के सामने केला लटका लेते हैं दो! एक स्त्री थाल लेकर खड़ी हो जाती है! एक स्त्री बच्चे को लेकर खड़ी हो जाती है! ऐसे दस-पांच बंधे हुए नियम हैं उनके, वे बंधे हुए नियम दस घरों में पूरे कर दिए जाते हैं! एक घर का उनका काम बैठ जाता है और वह अपना ले लेते हैं।

अब भी चलता है, दिगंबर जैन मुनि वैसा ही करता है रोज भोजन लेने के पहले। पच्चीस चौके सज जाते हैं, पच्चीस चौकों के सामने वह घूमता है, पच्चीस चौकों में उसकी बात पूरी हो जाती है। और सबके सीक्रेट्स सबको पता रहते हैं। और वे सब पता हो गए हैं, सब हो जाता है, उसमें कोई कठिनाई नहीं होती।

मगर महावीर ने जो प्रयोग किया था, बहुत ही अनूठा था। वह ऐसी हैरानी से भरी हुई धारणा लेकर चलते थे कि जिसमें उपाय कम ही था कि वह अपने आप घट जाए, जब तक कि विश्वसत्ता राजी न हो। इसलिए महावीर एक-एक दिन, एक-एक दिन जी रहे हैं–अपने लिए नहीं, अगर जरूरत है परमात्मा को तो ही।

और उनका पूरा जीवन इस बात का प्रमाण है कि जिस व्यक्ति को विश्वसत्ता के लिए जरूरत है, वह उसके लिए आयोजन करती है। पूरी विश्वसत्ता भी मिल कर उसके लिए आयोजन करती है, जिसके होने का, जिसकी एक-एक श्वास का परिणाम है। और जिसकी श्वास से, जिसके होने से, जिसके जीने से, जिसकी आंख से, जिसके चलने से कुछ घटित हो रहा है, जो कि कल्प-कल्प बीत जाएं तो दुबारा घटित मुश्किल से होता है। तो विश्वसत्ता को उसकी जरूरत है–उसके अस्तित्व की।

तो एक-एक दिन और एक-एक दिन की लीज़ पर महावीर जी रहे हैं। यानी ऐसा भी नहीं है कि इकट्ठा एक दिन तय कर लिया तो बारह साल के लिए काफी हो गया। ऐसा भी नहीं है, एक-एक दिन की लीज़ है कि आज जी लूंगा, और इनकारी हो तो बात खतम है।

यह इस बात की खबर है कि यह आदमी अपनी तरफ से जीने का कोई मोह, कहीं भी नहीं रह गया। बड़ी कीमती है वह बात। और कोई व्यक्ति चाहे तो बराबर वैसा जी सकता है। लेकिन तभी जी सकता है, जब अपने जीवन का मोह विदा हो गया हो। तब पूरा अस्तित्व हमारे प्रति मोहपूर्ण हो जाता है, यह मैं कहना चाहता हूं। जैसे ही किसी व्यक्ति का अपने जीवन के प्रति मोह विदा हो जाता है, उसी क्षण सारा अस्तित्व उसके प्रति मोहपूर्ण हो जाता है। और सारा अस्तित्व उसे बचाने के सब उपाय करने लगता है। और उसकी सब ढंग की, बेढंग की शर्तें भी स्वीकार करने लगता है। यानी उसके ढंग-बेढंग की शर्तों का फिर हिसाब नहीं रह जाता। फिर वह क्या कहता है, क्या नहीं कहता है, कैसा उठता है, कैसा बैठता है, सबकी स्वीकृति हो जाती है। सारा जगत एक गहरे प्रेम से उसे घेर लेता है और उसके लिए जो भी किया जा सके, वह करने का उपाय करता है।

बुद्ध के, जिस दिन बुद्ध घर त्याग किए, उस रात जो कथा प्रचलित है, बहुत मधुर है। बुद्ध जब घर से चले तो उनका जो घोड़ा है, वैसा घोड़ा नहीं है दूर-दूर के लोकों में। उसके पैरों की टाप ऐसी है कि बारह-बारह कोस तक सुनी जाती है। आधी रात है, बुद्ध उस घोड़े पर सवार होकर चले हैं। तो घोड़े की टाप तो इतनी होगी कि सारा महल जाग जाए, सारा गांव जाग जाए। तो कहानी यह कहती है कि घोड़े की टाप के नीचे देवता फूल रखते चले जाते हैं, टाप फूलों पर पड़ती है, ताकि गांव में कोई जाग न जाए। क्योंकि बहुत-बहुत कल्पों के बाद कभी कोई व्यक्ति इतना बड़ा महाअभिनिष्क्रमण करता है। कभी ऐसा अवसर आता है अस्तित्व को कि कोई ऐसा व्यक्ति…।

फिर द्वार पर वे पहुंचे हैं नगर के तो द्वार पर बड़ी-बड़ी कीलें हैं, जिन्हें पागल हाथी भी धक्के मारें तो खुल नहीं सकते हैं। और जब वे द्वार खुलते हैं तो उनकी इतनी आवाज होती है कि पूरा नगर सुनता है उनकी आवाज को। असल में सुबह उनकी आवाज को सुन कर ही नगर उठता है, जब वह द्वार खुलता है नगर का। अब वह द्वार खुल जाएगा और आवाज हो जाएगी और हो सकता है बुद्ध रोक लिए जाएं, और वह जो होने वाला है, न हो पाए।

तो देवता उस दरवाजे को ऐसे खोल देते हैं, जैसे वह बंद ही न था। ये जो सारी कहानियां हैं ये तो प्रतीक हैं, ये सब प्रतीक हैं। लेकिन सूचक ये इस बात के हैं–ऐसा कहीं घटा नहीं है, कहीं कोई घोड़े के नीचे फूल नहीं रख गया है। नहीं, सूचक हैं सिर्फ इस बात के कि हम वह कहना चाहते हैं कि ऐसे व्यक्ति के लिए सारा जगत, सारा अस्तित्व मात्र सुविधा देने लगता है। क्योंकि इस अस्तित्व मात्र को इस आदमी की जरूरत पड़ जाती है।

हम सबको अस्तित्व की जरूरत है। हम सबके लिए अस्तित्व की आवश्यकता है–हमारे लिए। श्वास चले इसलिए हवा की जरूरत है, प्यास बुझे इसलिए पानी की जरूरत है, गरमी मिले इसलिए सूरज की जरूरत है। सारे अस्तित्व की हमें जरूरत है अपने लिए, लेकिन कभी-कभी वैसा व्यक्ति भी पैदा होता है, जिसके लिए अस्तित्व को लगने लगता है कि उस आदमी के होने की जरूरत है। वह हो जाए, और थोड़ी देर रह जाए, और थोड़ी देर रह जाए। वह उसके लिए कोई असुविधा न आ जाए।

और महावीर इस बात को जानते हैं। और अस्तित्व के साथ मजे का जुआ खेल रहे हैं, ऐसा जुआ किसी आदमी ने नहीं खेला। यानी वह बिलकुल ही दांव की बात है कि ठीक है अब, अब जिलाना हो तो आज ऐसा इंतजाम हो जाए, नहीं हो तो हम वापस लौट आएंगे। न कोई शिकायत है पीछे लौटने की, न कोई नाराजगी है। इतनी ही खबर है कि अस्तित्व कहता है अब तुम्हारी जरूरत नहीं, वह हम स्वीकार कर लेंगे और विदा हो जाएंगे। इस वजह से वैसा भाव लेकर वे चलते हैं। न तो…।

लेकिन उसको नहीं समझ पाया जा सका, उसको समझा ही नहीं जा सका। ऐसा आदमी चुनौती दे रहा है परमात्मा को। यह चैलेंजिंग है ऐसा आदमी कि ठीक है, रखना हो तो इतना इंतजाम, अन्यथा जाते हैं।

प्रश्न:

 

महावीर को पारिवारिक या सामाजिक कौन सा असंतोष था? क्या उनका गृह-त्याग जवाबदारियों से पलायन नहीं है?

महावीर को कौन सा पारिवारिक, सामाजिक असंतोष था? और क्या उनका गृह-त्याग उत्तरदायित्व से पलायन नहीं है?

हली बात तो यह कि महावीर को न कोई पारिवारिक असंतोष था और न कोई सामाजिक असंतोष था। इस जन्म में तो व्यक्तिगत असंतोष भी कोई नहीं था। इस जन्म में, जिससे दुनिया महावीर को पहचानी है, इस जन्म में तो व्यक्तिगत भी असंतोष कोई न था।

लेकिन पिछले जन्मों में…। आमतौर से तीन तरह के असंतोष होते हैं: पारिवारिक असंतोष, सामाजिक असंतोष या नितांत वैयक्तिक असंतोष। पारिवारिक असंतोष आर्थिक हो सकता है, विवाह-दांपत्य का हो सकता है, शरीर की सुविधा-असुविधा का हो सकता है।

वैसा असंतोष जिसे है, वैसा आदमी कभी धार्मिक नहीं बनता, क्योंकि वैसा आदमी उसी तरह के असंतोष को मिटाने में लगा रहता है। वैसा आदमी, जिसको हम कहें अत्यधिक भौतिक, मैटीरियलिस्ट होता है।

फिर सामाजिक असंतोष है। व्यवस्था है समाज की, नीति है, नियम है, शोषण है, धन है, राज्य है, संपत्ति है, वितरण है, यह सब है; ऐसा असंतोष भी होता है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक क्रांतिकारी, सुधारक, रिफार्मिस्ट, रिवोल्यूशनरी, ऐसी दिशा में चला जाता है। ऐसा व्यक्ति भी धार्मिक नहीं होता।

धार्मिक तो होता है वह व्यक्ति जिसके असंतोष का न समाज से कोई संबंध है, न परिवार से कोई संबंध है, न संपत्ति से कोई संबंध है, न शरीर से कोई संबंध है। जिसके असंतोष की एक ही अर्थवत्ता है, एक ही अर्थ है और वह यह है कि मेरा होना मात्र अभी ऐसा नहीं है कि जिससे मैं संतुष्ट हो जाऊं। जिसका अल्टीमेट कंसर्न, जिसकी आखिरी चिंता इस बात की है कि मैं जैसा हूं, क्या ऐसा ही होना काफी है, पर्याप्त है? अगर हिंसक हूं तो हिंसक होना ही काफी है, पर्याप्त है? अगर क्रोधी हूं तो क्रोधित होना ही काफी है, पर्याप्त है? अशांत हूं तो बस अशांत ही होना ठीक है? दुखी हूं, अज्ञानी हूं, सत्य का कोई पता नहीं, प्रेम का कोई अनुभव नहीं, क्या बस ऐसा होना काफी है?

एक ऐसा असंतोष है, जो इस भीतरी जगत से उठता है, जहां व्यक्ति कहता है नहीं, अज्ञान नहीं, अंधकार नहीं, दुख नहीं, अशांति नहीं, क्रोध नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं, कोई नहीं; ऐसा जीवन चाहता हूं, जहां यह कुछ भी न हो, क्योंकि इसके रहते जीवन जीवन ही कहां है! इस आंतरिक असंतोष से धार्मिक व्यक्ति का जन्म होता है।

इस जीवन में तो महावीर का यह असंतोष भी नहीं है, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति का जन्म हो चुका है। लेकिन पिछले जन्म में, पिछले जन्मों में उनका नितांत असंतोष, डिसकंटेंट जो है, वह आध्यात्मिक है; न तो सामाजिक है, न पारिवारिक है। आध्यात्मिक असंतोष बड़ी कीमत की चीज है। और जिसमें नहीं है, वह कभी उस यात्रा पर जाएगा ही नहीं, जहां आध्यात्मिक संतोष उपलब्ध हो जाए।

जिस असंतोष से हम गुजरते हैं, उसी तल का संतोष हमें उपलब्ध हो सकता है। अगर धन का असंतोष है तो ज्यादा से ज्यादा धन मिलने का संतोष उपलब्ध हो सकता है। लेकिन बड़े मजे की बात है, जिस तल पर हमारा असंतोष होगा, उसी तल पर हमारा जीवन होगा। प्रत्येक व्यक्ति को खोज लेना चाहिए कि मैं किस बात से असंतुष्ट हूं? तो उसे पता चल जाएगा कि वह किस तल पर जी रहा है।

अब यह हो सकता है कि एक आदमी महल में जी रहा है, लक्जरी में, विलास में, भोग में; और एक आदमी लंगोटी बांध कर संन्यासी की तरह खड़ा है नंगा धूप में, सर्दी में, वर्षा में; इससे कुछ पता नहीं चलता कि कौन धार्मिक है। पता तो चलेगा–इस व्यक्ति के भीतर डिसकंटेंट क्या है? इस व्यक्ति के भीतर असंतोष क्या है?

हो सकता है महल में जो है, उसके भीतर एक ही असंतोष है कि यह सब महल किस मतलब का है! यह धन किस मतलब का है! और उसे एक असंतोष पकड़ा हुआ है कि मैं उसे कैसे पाऊं–वह जो मेरा स्वरूप है, वह जो मेरा अंतिम आनंद है–उसे मैं कैसे पाऊं? सोता है महल में, लेकिन असंतोष उसका उस तल पर चल रहा है, तो वह व्यक्ति आध्यात्मिक है, धार्मिक है।

और एक आदमी लंगोटी बांधे सड़क पर खड़ा है, मंदिर में प्रार्थना कर रहा है, पूजा कर रहा है, लेकिन प्रार्थना में मांग यही कर रहा है कि आज अच्छा भोजन मिल जाए, ठहरने को जगह मिल जाए, इज्जत मिल जाए, अनुयायी मिल जाएं, भक्त मिल जाएं, आश्रम मिल जाए। अगर वह इसी तरह की प्रार्थना मंदिर में भी कर रहा है तो वह आदमी धार्मिक नहीं है।

हमारा असंतोष हमारी खबर देता है कि हम कहां हैं। महावीर इस जन्म में तो किसी असंतोष में नहीं हैं, लेकिन पिछले सारे जन्मों में उनके असंतोष की एक लंबी यात्रा है। वह निरंतर यही है कि मेरा अस्तित्व, मेरा सत्य, मेरी वह स्थिति, जहां मैं परम मुक्त हूं, न कोई सीमा है, न कोई बंधन है–वह कहां है? वह कैसे मिले? उसकी खोज जारी है।

ऐसी खोज वाला व्यक्ति भी, ऐसी खोज पूरी हो गई ऐसा व्यक्ति भी, दूसरों के पारिवारिक असंतोष को मिटाने के लिए उत्सुक हो सकता है, दूसरों के सामाजिक असंतोष को मिटाने के लिए भी उत्सुक हो सकता है। ऐसा व्यक्ति निपट संत भी रह सकता है, क्रांतिकारी भी बन सकता है, सुधारक भी बन सकता है। लेकिन ऐसे व्यक्ति की स्वयं की चिंता इन तलों पर नहीं है। उसकी चिंता एक अलग ही तल पर है। और बहुत कम लोग हैं, जिनके जीवन में आध्यात्मिक असंतोष होता है। अगर हम लोगों के सिर खोल कर देख सकें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे, उनके असंतोष बड़े ही नीचे तल पर होते हैं। और जिस तल पर असंतोष होता है, उसी तल पर व्यक्ति होता है।

नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बात कही है। नीत्शे ने कहा है, अभागा होगा वह दिन, जिस दिन आदमी अपने से संतुष्ट हो जाएगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन आदमी अपने से संतुष्ट हो जाएगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य की आकांक्षा का तीर पृथ्वी के अतिरिक्त और किन्हीं तारों की तरफ न मुड़ेगा। आकांक्षाओं का तीर पृथ्वी को छोड़ कर और किन्हीं तारों की तरफ न मुड़ेगा।

लेकिन हम सबकी आकांक्षाओं के तीर पृथ्वी से भिन्न कहीं भी नहीं जाते। और हम सबकी…बड़ी अदभुत बात है कि हम सब चीजों से अतृप्त होते हैं, सिर्फ अपने को छोड़ कर। एक आदमी मकान से अतृप्त होगा कि मकान ठीक नहीं, दूसरा बड़ा मकान बनाऊं। एक आदमी अतृप्त होगा, यह पत्नी ठीक नहीं, दूसरी पत्नी चाहिए। एक आदमी अतृप्त होगा कि यह बेटा ठीक नहीं, दूसरा बेटा चाहिए। एक आदमी अतृप्त होगा, ये कपड़े ठीक नहीं, दूसरे कपड़े चाहिए। लेकिन अगर हम खोजने जाएं तो ऐसा आदमी मुश्किल से मिलता है, जो न मकान से अतृप्त है, न कपड़ों से, न पत्नी से, न बेटों से, जो अपने से अतृप्त है। और जो कहता है, यह मैं आदमी ठीक नहीं, यह और तरह का आदमी चाहिए। जब कोई आदमी इस तरह की भाषा में अतृप्त होता है कि और तरह का आदमी चाहिए, अपने प्रति ही असंतुष्ट हो जाता है, तब उसके जीवन में धर्म की यात्रा शुरू होती है।

महावीर जरूर असंतुष्ट रहे हैं, वही यात्रा उन्हें उस तक लाई है, जहां तृप्ति और संतोष उपलब्ध होता है। क्योंकि जिस दिन व्यक्ति अपने को रूपांतरित करके उसे पा लेता है, जो वह वस्तुतः है, उस दिन परम तृप्ति का क्षण आ जाता है। उसके बाद फिर कोई अतृप्ति नहीं है। उसके बाद उस व्यक्ति की फिर कोई अतृप्ति नहीं है। फिर अगर वह जीता है एक क्षण भी, तो वह दूसरों की अतृप्ति को कैसे तृप्ति के मार्ग पर दिशा दे सके, उसके लिए ही जीता है। पर उसकी अपनी यात्रा समाप्त हो जाती है।

साथ ही उसमें एक बात और पूछी है कि क्या उनका गृह-त्याग दायित्व से पलायन नहीं है, एस्केप नहीं है?

गृह-त्याग महावीर ने कभी किया ही नहीं है। गृह का त्याग वे करते हैं, जिन्हें गृह के साथ पकड़, क्लिंगिंग, आसक्ति होती है। महावीर ने तो वही छोड़ दिया है, जो घर नहीं था। यह हमें खयाल में आना जरा मुश्किल होता है, क्योंकि हम तो मिट्टी-पत्थर के घरों को घर समझे हुए हैं। जो घर नहीं था, महावीर ने उसका ही त्याग किया है। इसलिए गृह-त्याग का तो शब्द ही भ्रांत है।

असल में महावीर घर की खोज में निकले हैं, अगृह को छोड़ कर गृह की खोज में चले गए हैं। जो घर नहीं था, उसे छोड़ा है; और जो घर है, उसकी खोज में गए हैं। और हम जो घर नहीं है, उसे पकड़े बैठे हैं; और जो घर हो सकता है, उसकी तरफ आंख बंद किए हुए हैं! एस्केपिस्ट हम हैं, पलायनवादी हम हैं।

पलायन का क्या मतलब होता है?

एक आदमी कंकड़-पत्थरों को पकड़ ले और हीरों की तरफ आंख बंद कर ले और दूसरा आदमी कंकड़-पत्थर छोड़ दे और हीरों की खोज पर निकल जाए–पलायनवादी कौन है? एस्केपिस्ट कौन है? क्या आनंद की खोज पलायन है? तो फिर दुख में जीना पलायन नहीं होगा। क्या ज्ञान की खोज पलायन है? तो फिर अज्ञान में जीना पलायन नहीं होगा। तो क्या परम जीवन की खोज पलायन है? तो फिर क्षुद्र जीवन पलायन नहीं होगा।

पहली तो बात, महावीर ने कोई गृह-त्याग नहीं किया, वे गृह की खोज में ही गए हैं। और दूसरी बात, पलायन शब्द हमारे खयाल में नहीं आता कि उसका मतलब क्या हो सकता है।

आमतौर से आदमी सोचता है कि जो आदमी दायित्व से भागता है, उत्तरदायित्व से, जिम्मेवारी से, रिस्पांसिबिलिटी से, वह पलायनवादी है। ठीक सोचता है। लेकिन पक्का पता है कि रिस्पांसिबिलिटी क्या है? दायित्व क्या है?

महावीर जैसा आदमी एक दुकान पर बैठ कर दुकान चलाता रहे, यह दायित्व होगा जगत के प्रति, जीवन के प्रति? महावीर जैसा व्यक्ति एक घर में बैठ कर बाल-बच्चों को बड़ा करता रहे, यह दायित्व होगा जीवन के प्रति, जगत के प्रति? इससे बड़ी और ज्यादा इर्रिस्पांसिबिलिटी क्या होगी? महावीर जैसे व्यक्ति के लिए इस तरह के क्षुद्रतम घेरे में खड़े होकर क्षुद्र में ही सब खो देने से ज्यादा बड़ी और दायित्वहीनता क्या हो सकती है?

बड़े दायित्व जब पुकारते हैं, छोटे दायित्व छोड़ देने पड़ते हैं। बड़े दायित्व की पुकार चूंकि हमारे जीवन में नहीं है, इसलिए हमें देख कर बड़ी मुश्किल होती है। हमें देख कर बड़ी मुश्किल होती है कि यह आदमी सब जिम्मेवारियां छोड़ कर जा रहा है। यह आदमी बड़ी जिम्मेवारियां ले रहा है, यह हमारे खयाल में नहीं है।

और महावीर जैसा व्यक्ति कितनी बड़ी जिम्मेवारियां ले रहा है, उसका हमारे, उसको धारणा बनानी भी कठिन है, उसकी कल्पना करनी भी कठिन है।

एक घर को आदमी छोड़ता दिखता है, करोड़ घर के लोग उसके घर के लोग हो जाते हैं। एक आंगन को छोड़ता है, सारा आकाश का विस्तार उसका आंगन हो जाता है। एक पत्नी को, एक बेटे को, एक प्रियजन को छोड़ कर जाता है, सारा जगत उसका प्रियजन और मित्र हो जाता है। लेकिन हमने हमेशा उसे जो छोड़ा है, उस भाषा में सोचा है। जिस विस्तार पर वह फैला है, वह हमने सोचा नहीं! और जो इस एक को छोड़ कर गया, उसे भी छोड़ कर कहां गया?

बुद्ध के जीवन में बड़ी मधुर घटना है कि बुद्ध लौटे हैं घर बारह वर्ष बाद। पत्नी नाराज है, क्रुद्ध है। वह व्यंग्य में, मजाक में–बुद्ध का बेटा एक दिन का था, जब वे छोड़ कर गए थे रात, वह अब बारह वर्ष का हो गया है राहुल–उसे सामने कर देती है और व्यंग्य करती है, मजाक करती है, टांट करती है और कहती है कि ये तुम्हारे पिता हैं, पहचान लो। ये जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं, यही तुम्हारे पिता हैं, इन्हीं ने तुम्हें जन्म दिया था और एक ही दिन बाद ये भाग गए थे! इनसे पूछ लो, तुम्हारे लिए क्या कमाई इन्होंने छोड़ी? तुम्हारा दायित्व क्या निभाया है? यही रहे तुम्हारे पिता–ये जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं, यही सज्जन तुम्हें जन्म देकर एक ही रात बाद भाग गए थे! इन्होंने जगा कर भी मुझे नहीं कहा था कि मैं जाता हूं। इनसे अपना देय, भाग मांग लो, ये तुम्हारे पिता हैं!

भिक्षु सन्नाटे में आ गए। आनंद घबड़ाने लगा कि इस पागल को पता नहीं कि किससे क्या कह रही है। बुद्ध से यह कह रही है! और बुद्ध बहुत आनंदित हो राहुल से कहे कि निश्चित ही बेटा, मैं तेरा पिता हूं, हाथ फैला, कि जो संपत्ति मैंने तेरे लिए इकट्ठी की, तुझे दान कर दूं। लेकिन हाथ तो खाली हैं! और बुद्ध की पत्नी हंसती है कि हाथ में कुछ है! हाथ में कुछ दिखता तो नहीं, फिर भी बेटा हाथ फैला दे। और उस भीड़ में कैसा अपमानित बुद्ध को वह कर रही है! राहुल ने, उस बारह वर्ष के लड़के ने हाथ फैला दिए हैं।

बुद्ध ने अपना भिक्षापात्र उसके हाथ में दे दिया और कहा, तू दीक्षित हुआ। तू दीक्षित हुआ, क्योंकि बुद्ध जैसा पिता तुझे ऐसी ही संपदा दे सकता है, जो तुझे भी बुद्ध बना दे। तू दीक्षित हुआ। मैंने बहुत दिन भटका, तुझे क्यों भटकाऊं? मुझे देर लगी भटकने में, तुझे क्यों भटकाऊं?

यशोधरा तो रोने लगी है। सब लोग चिल्लाने लगे कि यह क्या पागलपन हो रहा है! एक बेटा छोड़ गए थे, तुम घर से भाग गए हो, सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त हो गई, उस बेटे को भी लिए जाते हो? तो बुद्ध कहते हैं कि और भी जिनको चलना हो, उनको भी ले जाने को मैं तैयार हूं। क्योंकि जो मैंने वहां पाया है, अपने बेटे को कैसे छोड़ जाऊं वहां ले जाने से? जिस हीरों की खदान पर मैं पहुंच गया हूं, अपने बेटे को न ले जाऊं? उसे तो ले जाऊंगा, लेकिन और भी जिनको जाना हो, वे भी आ जाएं।

लगेगा हमें कि दायित्व छोड़ कर बुद्ध भाग गए। लेकिन मैं कहता हूं कि जैसा बुद्ध थे, वैसा ही रह कर दायित्व भी क्या पूरा कर लेते? कितने बाप हुए हैं, और कितने बेटे हुए हैं, किसने क्या दायित्व पूरा कर लिया! लेकिन बुद्ध ने दायित्व पूरा किया है। एक बाप जो कर सकता था ज्यादा से ज्यादा बेटे के लिए वह बुद्ध ने किया है। और जो कुछ जाना था, जो पाया था, उसके सामने खोल दिया है।

लेकिन इस दायित्व को पहचानना हमें मुश्किल हो जाए। शायद दुख के भार को हस्तांतरित करने को ही हम दायित्व समझते हैं! अज्ञान की यात्रा को और गति देने को ही हम दायित्व समझते हैं! तो फिर पलायनवादी मालूम पड़ेंगे महावीर-बुद्ध जैसे लोग, लेकिन वे पलायनवादी नहीं हैं।

एक बात और समझनी चाहिए इस संबंध में कि पलायन वह करता है, जो दुखी हो; भागता वह है, जो दुखी हो; भागता वह है, जो डरता हो; भयभीत हो; भागता वह है, जिसे शक हो कि जीत न सकूंगा। ऐसा आदमी हमें भागता दिखता है। इस घर में आग लगी हो और एक आदमी इस घर के बाहर निकले, उसे आप भागने वाला तो न कहेंगे। उसे कोई यह तो नहीं कहेगा, एस्केपिस्ट है! घर में आग लगी थी और यह बाहर निकल आया! कोई उसे न कहेगा कि यह पलायनवादी है कि जब घर में आग लगी थी, तब तुम बाहर निकल आए और जब घर में आग नहीं थी, तब मजे से रहते थे! घर में आग लगी थी, तभी तो रहना था, तभी तो पता चलता कि तुम पलायनवादी तो नहीं हो।

लेकिन घर लगी आग में कोई भागने वाले को पलायनवादी नहीं कहेगा। क्योंकि घर में आग लगी हो तो कोई भाग नहीं रहा है, भागने का सवाल ही नहीं है। घर में आग लगी हो तो विवेक की बात है कि कोई बाहर हो जाए। विवेकपूर्ण है, बाहर हो जाए। हो सकता है बाहर के लोग कहें कि तुम पलायनवादी हो। घर में आग लगी, बाहर आ गए।

महावीर जैसे व्यक्ति जहां से भी हटते हैं, भागते नहीं हैं। जहां-जहां आग है, हटते हैं। हटना एकदम विवेकपूर्ण है। और इसलिए भी हटते हैं कि जहां-जहां दुख जन्मता है, जहां-जहां दुख उत्पन्न होता है, जहां-जहां व्यर्थ ही दुख बढ़ता है और फैलता है, वहां खड़े रहने का क्या अर्थ है? क्या प्रयोजन है? वहां से वे हटते हैं। हटते सिर्फ इसलिए हैं कि और बेहतर जगह हैं, जहां आग नहीं है।

समझें कि आप बीमार पड़े हैं और आप इलाज कराने चले जाएं और डाक्टर आपसे कहे, बड़े पलायनवादी हैं आप, बीमारी से भागते हैं? एस्केपिस्ट हैं! अब बीमारी आई है तो भोगें, जीएं, भागना क्या है? वह आदमी कहेगा, मैं बीमारी से नहीं भागता; लेकिन बीमारी में, बीमारी में खड़े रहने में न तो कोई बुद्धिमत्ता है, न कोई अर्थ है। मैं स्वास्थ्य की खोज में जाता हूं, वह आनंदपूर्ण है।

तो हम बीमार आदमी को कभी नहीं कहते कि तुम डाक्टर के यहां मत जाओ, क्योंकि यह पलायन है। एक अंधेरे में खड़ा आदमी अगर सूरज की रोशनी की तरफ आता है तो हम नहीं कहते कि पलायनवादी है। लेकिन हम महावीर जैसे लोगों को क्यों पलायनवादी कहना चाहते हैं?

उसका कारण है। उसका कारण सिर्फ यह है कि अगर हम महावीर जैसे लोगों को सिद्ध कर दें कि पलायनवादी हैं तो हम जहां खड़े हैं, वहां से हमें हटने की कोई जरूरत न रह जाए। हम निश्चिंत हो जाएं कि यह आदमी गड़बड़ था। हम जहां खड़े हैं, हम बिलकुल ठीक हैं। हम सब मिल कर इसको तय कर दें कि यह आदमी सिर्फ भगोड़ा है, भागता है जिंदगी से। हम बहादुर लोग हैं, हम जिंदगी में खड़े हुए हैं।

किस जिंदगी में खड़े हैं हम? जहां जिंदगी है ही नहीं। और बहादुरी क्या है? और उस बहादुरी से हमें क्या उपलब्ध हो रहा है?

जिन लोगों ने महावीर को महावीर का नाम दिया, उन्होंने महावीर को पलायनवादी नहीं समझा था इसीलिए। शायद कारण तो यही है कि हम अपनी कमजोरी की वजह से जहां से नहीं हट सकते हैं, वहां से महावीर अपने साहस की वजह से हट जाते हैं। लेकिन हम अपनी कमजोरी को भी छिपाते हैं और जस्टीफाई करते हैं! हम उसके भी न्याययुक्त कारण खोज लेते हैं! और कोई नहीं मानना चाहता कि हम कमजोर हैं। और तब हमारे बीच से अगर एक बहादुर आदमी हटता हो…।

बड़ा मुश्किल है हिम्मत जुटाना। घर में आग लगी हो और घर में पचास आदमी हों और हर आदमी मानता ही न हो कि घर में आग लगी है, तो जिस आदमी को आग लगी दिखाई पड़ती हो वह घर के बाहर निकलता हो, तो वे कहेंगे कि यह पलायनवादी कहां भागा चला जा रहा है!

हमने दुनिया के श्रेष्ठतम लोगों को सदा पलायनवादी कहा है। उसका कारण है। स्टीफन ज्विग ने आत्महत्या की। लेकिन आत्महत्या करने के पहले उसने एक पत्र लिखा और उस पत्र में उसने लिखा कि ध्यान रहे, कोई यह न समझे कि मैं पलायनवादी हूं। और यह भी ध्यान रहे, कोई यह न समझे कि मैं कायर या कावर्ड हूं। बल्कि मेरा नतीजा तो यह है जिंदगी भर का कि लोग चूंकि मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, इसलिए जिंदा रहे चले जाते हैं। मैं भी बहुत दिन तक हिम्मत नहीं जुटा पाया, इसलिए मैं जिंदा रहे चला गया हूं। लेकिन अब मुझे साफ दिखाई पड़ गया है कि इस तरह की जिंदगी अगर रोज जीनी है, तो मैं इसको तोड़ता हूं। और ध्यान रहे कि मैं तोड़ता हूं सिर्फ इसलिए कि मैं हिम्मतवर हूं; और तुम नहीं तोड़ते हो, क्योंकि तुम हिम्मतवर नहीं हो। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे मरने के बाद लोग कहेंगे कि कावर्ड था, कायर था, पलायनवादी था–मर गया, भाग गया जिंदगी से।

ज्विग बहुत कीमती बात कह रहा है। और ज्विग उस जगह खड़ा है, जहां से या तो आदमी आत्महत्या करता है या आत्म-साधना में जाता है। ज्विग उस जगह खड़ा है, जहां जिंदगी व्यर्थ हो गई, जिसे हम जिंदगी कहते हैं। वही रोज सुबह का उठना, वही सांझ सो जाना, वही काम; वही पुनरुक्त वासनाएं, वही पुनरुक्त भोग, वही पुनरुक्त क्रोध, काम, लोभ; वही रोज-रोज, रिपीटेडली वही! एक मशीन की तरह हम घूमते चले जाते हैं। ज्विग उस जगह पहुंच गया है, जहां वह कहता है कि अगर यही जिंदगी है तो मैं खतम करता हूं अपने को। और ध्यान रहे कि मैं कायर नहीं हूं।

और मैं भी कहता हूं कि वह कायर नहीं है। हां, वह गलती करता है, कायर नहीं है। वह चूक गया एक बिंदु को जिसको महावीर नहीं चूकते। महावीर भी उस जगह पहुंचते हैं। दुनिया के सभी वे लोग जिनकी जिंदगी में क्रांति घटित होती है, एक दिन उस जगह पहुंचते हैं, जहां या तो आत्महत्या या साधना, इसके सिवाय विकल्प नहीं रह जाता। या तो जैसे हम हैं, उसको खतम करो फिजिकली, शरीर से मिटा दो; या जैसे हम हैं, उसे बदलो, रूपांतरित करो आत्मिक अर्थों में, ताकि हम दूसरे हो जाएं।

ज्विग आत्महत्या कर लेता है। कायर नहीं है, है तो बहादुर ही, लेकिन भूल से भरा है। क्योंकि आत्महत्या से क्या होगा? जीवन की आकांक्षा फिर नए जीवन बना देगी। महावीर जैसे व्यक्ति आत्महत्या नहीं करते, आत्मा को ही रूपांतरित करने में लग जाते हैं। वे कहते हैं कि आत्महत्या करने से क्या होगा? आत्मा को ही बदल डालें, नई ही आत्मा कर लें, नया ही जीवन कर लें।

लेकिन हमें दोनों भागे हुए लग सकते हैं। और इसके लगने के पीछे कारण भी हैं, क्योंकि सौ में से निन्यानबे लोग निश्चित ही भागते हैं। सौ संन्यासियों में निन्यानबे संन्यासी एस्केपिस्ट ही होते हैं। और उन निन्यानबे के कारण सौवें को पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है। निन्यानबे तो इसीलिए भागते हैं कि बीमारी है, झगड़ा है, पत्नी मर गई है, दिवाला निकल गया है; कुछ ऐसे कारण हैं, जो उन्हें कहते हैं कि इस झंझट से दूर हो जाओ। लेकिन ऐसे आदमी अगर इस झंझट से भागते हैं तो नई झंझटें खड़ी कर लेते हैं, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि वह आदमी तो वही का वही था, वह नई झंझटें निर्मित कर लेता है।

ऐसा आदमी तो एस्केपिस्ट कहा जा सकता है, पलायनवादी, महावीर जैसा व्यक्ति नहीं। क्योंकि वह कोई नई झंझट खड़ी ही नहीं करता है और किसी भय से नहीं भागता है, किसी समझ, किसी ज्ञानपूर्ण चेतना में सीढ़ी बदल देता है, दूसरी सीढ़ी पर चला जाता है।

इसको मैं ऐसा मानता हूं कि अगर कोई आदमी भाग रहा हो किसी से डर कर तो एक बात है, और एक आदमी भाग रहा हो कुछ पाने को, तो बिलकुल दूसरी बात है। वह आदमी भी दौड़ता है जिसके पीछे बंदूक लगी है और वह आदमी भी दौड़ता है जिसे हीरों की खदान दिखाई पड़ गई है। लेकिन एक के पीछे बंदूक का भय है, इसलिए भागता है; एक को हीरों की खदान दिख गई, इसलिए भागता है।

दूसरे आदमी को भी आप भागने वाला नहीं कह सकते, एस्केपिस्ट नहीं कह सकते, पलायनवादी नहीं कह सकते। गतिवान कह सकते हैं, दौड़ने वाला कह सकते हैं; भागने वाला नहीं। किसी चीज से भाग नहीं रहा है वह, कहीं जा रहा है। कहीं से नहीं जा रहा है, कहीं जा रहा है। उसकी दृष्टि की जो एंफेसिस है, जो जोर है, वह जिस चीज से जा रहा है, वहां से उसका जोर नहीं है, जहां जा रहा है, वहां जोर है। दोनों हालत में वह जगह छूट जाती है, लेकिन दोनों हालतों में बुनियादी फर्क है।

महावीर कहीं से भी भागे हुए नहीं हैं। लेकिन निन्यानबे भागे हुए संन्यासियों में एक गया हुआ संन्यासी पहचानना, बहुत मुश्किल हो जाती है, एकदम मुश्किल हो जाती है। और वह मुश्किल हमारी समझ में ऐसी बाधाएं खड़ी कर देती है कि उसके दो ही रास्ते रह जाते हैं: या तो हम सौ ही संन्यासियों को गया हुआ मान लेते हैं और या हम सौ ही संन्यासियों को भागा हुआ मान लेते हैं, जब कि जरूरत इस बात की है कि हम ठीक से जांच-पड़ताल करें कि कोई आदमी पाने गया है या कोई आदमी सिर्फ छोड़ कर भागा है। पाने गया हो तो जरूर कुछ चीजें छूट जाती हैं।

आप सीढ़ियां चढ़ रहे हों, दूसरी सीढ़ी पर पैर रखते हैं, पहली सीढ़ी छूट जाती है। पहली सीढ़ी से आप भागते नहीं हैं, सिर्फ पहली सीढ़ी छूटती है, क्योंकि दूसरी सीढ़ी पर पैर रखना जरूरी है। जो लोग ऊंची सीढ़ियों पर पैर रखते हैं, नीची सीढ़ियां छूटती हैं; भागते नहीं हैं, न वे छोड़ते हैं।

और नीची सीढ़ियों से जो भागता है, छोड़ता है, डरता है; वह ऊंची सीढ़ी पर नहीं पहुंच पाता, और नीचे की सीढ़ियों पर उतर आता है। क्योंकि डरा हुआ, ऊंचा कहां जा सकता है! जो इतनी ही ऊंचाई से डर रहा है, वह और ऊंचाई पर और डर जाने वाला है। उसका भागना सिर्फ उसे और नीचे की सीढ़ियों पर ले आता है।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर एक गृहस्थ भाग कर संन्यासी हो जाए तो और बड़ा महागृहस्थ हो जाता है। उसकी गृहस्थी के जाल और भी ज्यादा हिपोक्रेट, पाखंडी हो जाते हैं। फिर भी वह पैसा इकट्ठा करता है, लेकिन कल वह कमा कर इकट्ठा करता था, अब वह कमाने वालों को फंसा कर इकट्ठा करता है। अब उसका जाल जरा गहरा, सूक्ष्म, चालाकी का हो जाता है। कल भी वह मकान बनाता था, अब भी बनाता है! कल बनाए हुए मकानों को मकान कहता था; अब उनको आश्रम, मंदिर और सब नाम देता है! कल जो करता था, वही अब करता है। कल भी अदालत में खड़ा होता था, अब भी अदालत में खड़ा होता है। कल भी अदालत में लड़ता था, अब भी अदालत में लड़ता है। लेकिन लड़ने का–कल व्यक्तिगत संपत्ति थी उसकी, आज आश्रम की संपत्ति है, उसके झगड़े हैं।

भागा हुआ व्यक्ति और नीची सीढ़ियों पर उतर जाता है। लेकिन ऊपर की सीढ़ी पर जो जाएगा, उसकी भी सीढ़ी छूटती है। यह बारीक है पहचान और खयाल से हमें देखनी चाहिए। लेकिन यह हमें समझ में भी तब आएगी, जब हम अपनी जिंदगी में इसकी पहचान करें कि हम कहीं से भागे हैं या कहीं गए हैं?

यहां आप सब मित्र आए हैं, कोई आ भी सकता है, कोई भागा हुआ भी हो सकता है। एक आदमी सिर्फ इसलिए भागा हुआ हो सकता है कि बेचैन हो गए, परेशान हो गए, पत्नी सिर खाए जाती है, दफ्तर में मुश्किल है, काम ठीक नहीं चलता है, चलो एक पंद्रह दिन के लिए सब भूल जाओ। ऐसा आदमी भी आ सकता है यहां मेरे पास।

वह भागा हुआ आदमी है। वह आया हुआ दिखाई पड़ेगा, आ नहीं सकता। क्योंकि जिससे वह भागा है, वह उसका पीछा करेगा। वह सब भय, वे सब चिंताएं इस पहाड़ पर भी उसे घेरे रहेंगी। हां, थोड़ी-बहुत देर के लिए बातचीत में मुझसे भूल जाएगा, लेकिन फिर लौट कर सब पकड़ लेगा। और पंद्रह दिन बाद, जिस उलझन से वह आया था, वह उलझन पंद्रह दिन में कम नहीं हो जाने वाली, पंद्रह दिन में और बढ़ गई होगी उसकी गैर-मौजूदगी में। पंद्रह दिन बाद वह उसी उलझन में फिर खड़ा हो जाएगा, और भी दुगनी परेशानी लेकर वहीं पहुंच जाएगा।

लेकिन कोई आया हुआ भी हो सकता है, कहीं से भागा हुआ नहीं है वह। कहीं कोई ऐसी बात न थी, जिससे भाग रहा है; बल्कि कहीं कुछ पाने जैसा लगा है, इसलिए चला आया है। यह आदमी आ सकेगा यहां सच में। और यहां आकर वह पीछे को सब भूल गया होगा, क्योंकि कहीं आया है, कहीं से भागा नहीं है। और यहां से लौट कर दूसरा आदमी होकर भी जा सकता है। और आदमी बदल जाए तो सारी परिस्थितियां बदल जाती हैं।

मैं महावीर को पलायनवादी नहीं कहता हूं।


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–15)

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महावीर: अस्तित्व की गहराइयों में—(प्रवचन—पंद्रहवां)

हावीर ने न तो नियंता को स्वीकार किया, न किसी समर्पण को, न किसी गुरु को, न शास्त्र को, न परंपरा को, तो यह प्रश्न बिलकुल ही स्वाभाविक उठ सकता है कि क्या यह महावीर का घोर अहंकार नहीं था? क्या महावीर अहंवादी नहीं थे? यह प्रश्न स्वाभाविक है। और जो व्यक्ति परमात्मा को स्वीकार करता है, नियंता को, नियंता के प्रति समर्पण करता है, गुरु को स्वीकार करता है, गुरु के प्रति समर्पण करता है, शास्त्र-परंपरा के प्रति झुकता है, साधारणतः हमें विनम्र, विनीत, निरहंकारी मालूम पड़ेगा। इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।

पहली तो बात यह कि परमात्मा के प्रति झुकने वाला भी अहंकारी हो सकता है। और यह अहंकार की चरम घोषणा हो सकती है उसकी कि मैं परमात्मा से एक हो गया हूं। अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा अहंकार की चरम घोषणा भी हो सकती है। यानी ऐसा हो सकता है कि मैं साधारण मनुष्य होने को राजी नहीं हूं। मेरा अहंकार इस बात के लिए राजी नहीं है कि मैं साधारण मनुष्य हूं, मैं परमात्मा होने की घोषणा के बिना राजी ही नहीं हो सकता हूं।

नीत्शे ने कहा है कि यदि ईश्वर है तो फिर एक ही उपाय है कि मैं ईश्वर हूं, और यदि ईश्वर नहीं है तो बात चल सकती है। अगर ईश्वर है तो फिर मेरे अहंकार को इससे नीचे उपाय नहीं है कोई कि मैं ईश्वर हो जाऊं।

ईश्वर के प्रति समर्पण भी ईश्वर होने की अहंता से पैदा हो सकता है, एक बात।

दूसरी बात यह खयाल रखनी चाहिए कि समर्पण में अहंकार सदा मौजूद ही है, समर्पण करने वाला सदा मौजूद ही है। समर्पण कृत्य है अहंकार का ही।

एक आदमी कहता है कि मैंने परमात्मा के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया है–यहां हमें लगता है कि परमात्मा ऊपर हो गया और यह नीचे, यह हमारी गलती है। समर्पण करने वाला कभी भी नीचा नहीं हो सकता, क्योंकि कल चाहे तो समर्पण वापस लौटा सकता है, कल कह सकता है कि अब मैं समर्पण नहीं करता हूं।

असल में कर्ता कैसे नीचे हो सकता है? समर्पण में भी कर्ता सदा ऊपर है, वह कहता है, मैंने समर्पण किया है परमात्मा के प्रति। और अगर मैं नहीं है तो समर्पण कोई कैसे करेगा? किसके प्रति करेगा? इसे समझ लें तो महावीर की स्थिति समझ में आ सकती है।

महावीर नितांत ही निरहंकार हैं। यानी उतना अहंकार भी नहीं है कि मैं समर्पण करूं। वह मैं तो चाहिए न समर्पण करने को! वह समर्पण करने का कर्तृत्व भाव चाहिए। और जैसा मैंने कहा कि जो व्यक्ति समर्पण करता है, वह समर्पण मांगता है। वह मांग एक ही सिक्के का हिस्सा है दूसरा। महावीर अगर समर्पण मांगते, करते न, तब तो अहंकारी होते, लेकिन महावीर ने समर्पण किया भी नहीं, मांगा भी नहीं। यह परम निरहंकारिता, अल्टीमेट ईगोलेसनेस हो सकती है। और मेरी दृष्टि में है। यानी समर्पण करने योग्य भी तो अहंकार चाहिए। आखिर मैं ही समर्पित होऊंगा न! नियंता को भी मैं ही स्वीकृत करूंगा न!

महावीर के अस्वीकार में ऐसा नहीं है कि नियंता नहीं है, ऐसा अस्वीकार है। अस्वीकार का कुल मतलब इतना ही है कि स्वीकार नहीं है। इसे ठीक से समझ लेना जरूरी है।

अस्वीकार का मतलब यह नहीं है कि अस्वीकार पर जोर है, कि महावीर सिद्ध करते घूम रहे हैं कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई ईश्वर नहीं है। न, यह वे सिद्ध करते नहीं घूम रहे हैं। उनके अस्वीकार का कुल इतना ही मतलब है कि वे सिद्ध करते नहीं घूम रहे हैं कि ईश्वर है, नियंता है। अस्वीकार जो है, वह फलित है। अस्वीकार घोषणा नहीं है, अस्वीकार पर जोर भी नहीं है। वे सिर्फ स्वीकृति की बातें नहीं कर रहे हैं, न समर्पण की बात कर रहे हैं। न वे यह कह रहे हैं कि कोई गुरु नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है, कोई परंपरा नहीं है। यह भी वे नहीं कह रहे हैं। बस वे गुरु के प्रति समर्पित नहीं हैं, शास्त्र के प्रति समर्पित नहीं हैं, परंपरा के प्रति समर्पित नहीं हैं। यह फलित है। यह हमें दिखाई पड़ता है कि वे समर्पित नहीं हैं।

लेकिन समर्पण के लिए भी अहंकार चाहिए। अगर कोई व्यक्ति नितांत अहंकारशून्य हो जाए तो कैसा समर्पण? कौन करेगा समर्पण? समर्पण कृत्य है, एक्शन है। और कृत्य के लिए कर्ता चाहिए। और अगर कर्ता नहीं है तो समर्पण जैसा कृत्य भी असंभव है।

फिर जब कोई कहता है मैंने समर्पण किया, तो समर्पण से भी मैं को ही भरता है। समर्पण भी उसके मैं का ही पोषण है, मैं कोई साधारण नहीं हूं, मैं ईश्वर के प्रति समर्पित हूं।

एक संत के पास–तथाकथित संत कहना चाहिए– सम्राट अकबर ने खबर भेजी कि बड़ा उत्सुक हूं दर्शन को, मिलने को, तुम्हें सुनने को। तथाकथित संत ने खबर भिजवाई वापस कि हम तो सिर्फ राम के दरबार में झुकते हैं। हम ऐसे आदमियों के दरबारों में नहीं झुका करते।

यह व्यक्ति क्या कह रहा है यह? यह कह रहा है कि हम तो सिर्फ राम के सामने झुकते हैं, ऐसे आदमियों के सामने नहीं झुका करते। और अब हम राम के दरबार के दरबारी हो गए, हम कोई आदमी के दरबार के दरबारी होंगे?

ऊपर से दिखता है कि यह आदमी कितनी बढ़िया बात कह रहा है! लेकिन बड़े गहरे अहंकार से निकली हुई बात मालूम पड़ती है। अभी इसे आदमी और राम में फर्क है। और यह निरंतर यह भी कहे चला जा रहा है कि सब में राम हैं–अकबर भर को छोड़ देता है, अकबर भर में राम नहीं हैं! सबमें राम-सीता को देखे चला जा रहा है, लेकिन अकबर में अटक जाता है! और वहां उसका अहंकार घोषणा कर देता है कि मैं कोई ऐसा आदमी थोड़े ही हूं कि आदमियों के दरबारों में बैठूं। मैं तो राम के दरबार में! राम के दरबार में होने की यह घोषणा भी बड़े गहरे अहंकार की सूचना है।

इससे यह मत समझ लेना कि जिन्होंने भगवान को स्वीकार किया है, वे अहंकारशून्य होंगे। हो सकता है यह अहंकार की अंतिम चेष्टा हो। अहंकार भगवान को भी मुट्ठी में ले लेना चाहता है। उसकी तृप्ति नहीं होती संसार को मुट्ठी में लेने से, तो आखिर में भगवान को भी ले लेना चाहता है।

महावीर के पास एक सम्राट गया। और उस सम्राट ने कहा कि सब है आपकी कृपा से। राज्य है, संपदा है, अंतहीन विस्तार है, सैनिक हैं, सुख है, सुविधा है, शक्ति है, सब है। लेकिन इधर मैंने सुना है कि मोक्ष जैसी भी कोई चीज है, तो मैं उसको भी विजय करना चाहता हूं! क्या उपाय है? कितना खर्च पड़ेगा? सम्राट ने कहा, उपाय क्या है? खर्च इत्यादि क्या पड़ेगा? सब लगा सकता हूं।

हंसे होंगे महावीर। क्योंकि एक आदमी ने–वह सम्राट है, उसने सब जीता है, उसने बहुत इंतजाम कर लिया है, अब इधर खबर मिली है कि मोक्ष जैसी भी एक चीज है और ध्यान जैसी भी एक अनुभूति है तो उसके लिए भी खर्च करने को तैयार है! यानी ऐसा न रह जाए कि कोई कहे कि इस आदमी को मोक्ष भी नहीं मिला, ध्यान भी नहीं मिला।

तो महावीर ने उससे कहा, खरीदने को ही निकले हो तो तुम्हारे ही गांव में एक श्रावक है, उसके पास चले जाना। उससे पूछ लेना कि एक सामायिक कितने में बेचेगा? एक ध्यान कितने में बेचता है? खरीद लेना। उसको उपलब्ध हो गया है।

नासमझ सम्राट उस आदमी के घर पहुंच गया और बड़ा हैरान हुआ देख कर कि वह तो अत्यंत दरिद्र आदमी है। तो उसने सोचा इसको तो पूरा ही खरीद लेंगे, सामायिक का क्या सवाल है! यानी इसमें कोई झंझट ही नहीं है। इस पूरे आदमी को ही चुकता खरीदा जा सकता है। यह तो कोई बात ही नहीं है, यह तो बड़ी सरल बात है।

तो उससे उसने पूछा है कि एक सामायिक, महावीर ने कहा है कि खरीद लो उस आदमी से जाकर! तो वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा कि चाहो तो मुझे खरीद लो, लेकिन सामायिक खरीदने का कोई उपाय नहीं है। सामायिक तो पानी होती है, उसे खरीदा नहीं जा सकता।

लेकिन अहंकार उसको भी खरीदने निकलता है, भगवान को भी खरीदने निकलता है। अहंकार भगवान को भी छोड़ नहीं देना चाहता मुट्ठी के बाहर। ऐसा कोई न कहे कि बस तुम्हारे पास धन ही धन है और कुछ भी नहीं, धर्म बिलकुल नहीं है। अहंकार धर्म को भी खरीदने जाता है! लेकिन हमें यह दिखाई पड़ना बहुत मुश्किल होता है! असल में कठिनाई क्या है, हमारे मन में दो चीजें हैं, या तो अहंकार है या विनम्रता है। विनम्रता अहंकार का ही रूप है, यह हमारे खयाल में नहीं है। निरहंकार का हमें पता ही नहीं है।

अहंकार अहंकार की विधायक घोषणा है। विनम्रता अहंकार की निषेधात्मक, निगेटिव घोषणा है। और निरहंकार की कोई घोषणा नहीं है, विनम्रता की भी नहीं।

इसलिए कोई महावीर को विनम्र नहीं कह सकता। यह बड़ा मुश्किल होगा कहना। महावीर को विनम्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विनम्र होता ही वही है, जिसके भीतर अहंकार होता है। हां, अहंकार को दबाता है, झुकाता है, मिटाता है, गलाता है। वह कहता है, मैं तो धूल से भी पैरों में हूं। लेकिन होता है। इससे फर्क नहीं पड़ता। उसके होने में रत्ती भर फर्क नहीं है। वह कहेगा, मैं धूल से भी–तेरे चरणों की धूल भी नहीं हूं–धूल से भी नीचे हूं, लेकिन हूं। होने की घोषणा जारी रहती है!

इसलिए हम अहंकारी को समझ सकते हैं, जो कहे कि सब कुछ मैं हूं। हम विनम्र को समझ सकते हैं, जो कहे कि मैं कुछ भी नहीं, आपके चरणों की धूल हूं। लेकिन निरहंकारी को हम नहीं समझ सकते। क्योंकि न तो वह यह घोषणा करने आएगा कि मैं सब कुछ हूं, और न वह यह घोषणा करने आएगा कि मैं आपके पैरों की धूल हूं। वह घोषणा ही नहीं करेगा, क्योंकि निरहंकार की कोई घोषणा ही नहीं है, वह अघोषणा है।

तो महावीर जो नियंता, परमात्मा, गुरु, कोई चरण झुकने के लिए, इन सबके प्रति जो कोई, कोई संबंध नहीं रखते हैं, उसका कारण यह नहीं है कि अहंकारी हैं, उसका कारण कुल इतना है कि न वे अहंकारी हैं, न विनम्र हैं। और विनम्र न होने से हमको कठिनाई होती है, क्योंकि हम दो ही तल पर सोच सकते हैं, या तो विनम्र या अहंकारी। और हम भूल जाते हैं कि वे दोनों एक ही चीज की मात्राएं हैं।

निरहंकारी को तौलना एकदम मुश्किल हो जाएगा। मुश्किल इसलिए हो जाएगा कि हमारे पास तौल ही नहीं है, हमारे पास तराजू ही दो का है, हमारे पास तराजू ही अहंकार का है। यानी हमें ऐसा लगता है कि जिस आदमी में कम अहंकार है, वह विनम्र है, जिसमें ज्यादा अहंकार है, वह अहंकारी है। लेकिन निरहंकार का मतलब ही और होता है। वह विनम्र भी नहीं होता, अविनम्र भी नहीं होता, असल में इस भाषा में वह होता ही नहीं है। और तब उसकी घोषणाएं इन तलों पर प्रकट नहीं होतीं। फिर फलित अर्थ हम लेते हैं।

महावीर नियंता के प्रति, गुरु के प्रति, परंपरा के प्रति न तो विनम्र हैं, न अविनम्र हैं। ठीक से समझा जाए तो ये बातें असंगत हैं महावीर के लिए, इससे कुछ लेना-देना नहीं है।

मैं इस बड़े वृक्ष के पास से निकलूं और नमस्कार न करूं तो आप कोई भी मुझे अविनम्र नहीं कहेंगे। लेकिन एक महात्मा के पास से निकलूं और नमस्कार न करूं तो आप कहेंगे अविनम्र है! लेकिन यह भी हो सकता है कि मेरे लिए दरख्त और महात्मा बिलकुल बराबर हों। यानी मेरे लिए असंगत हो, यह बात असंगत हो, इस बात से ही मुझे कुछ लेना-देना न हो। लेकिन आपकी तौल में एक स्थिति में मैं विनम्र हो जाऊंगा, एक स्थिति में अविनम्र हो जाऊंगा, और जब कि मुझे इसका कुछ पता ही न था।

एक फकीर एक गांव से निकल रहा है और एक आदमी एक लकड़ी उठा कर उसको मारा है पीछे से। चोट लगने से लकड़ी उसके हाथ से छूट गई है और एक तरफ गिर गई है। उस फकीर ने पीछे लौट कर देखा, लकड़ी उठा कर उस आदमी के हाथ में दे दी और अपने रास्ते चला गया।

एक दुकानदार यह सब देख रहा है, उसने फकीर को बुलाया कि कैसे पागल हो! तुम्हें उसने लकड़ी मारी, उसकी लकड़ी छूट कर गिर गई तो तुमने सिर्फ इतना ही कृत्य किया कि उसकी लकड़ी उसको उठा कर वापस देकर अपने रास्ते पर चले गए?

तो उस फकीर ने कहा, एक दिन मैं एक झाड़ के नीचे से गुजरा था, उसकी एक शाखा गिर पड़ी मेरे ऊपर तो मैंने कुछ न किया। मैंने कहा, संयोग की बात कि जब शाखा गिरनी थी, हम उसके नीचे आ गए। तो शाखा सरका कर, रास्ते के किनारे करके मैं चला गया था। संयोग की बात कि इस आदमी को लकड़ी मारनी होगी, हम पड़ गए। तो अब इसकी लकड़ी छूट गई थी तो उसको उठा कर देकर–और हम क्या कर सकते हैं–हम अपने रास्ते चल पड़े। जो मैंने वृक्ष के साथ व्यवहार किया था, वही मैंने इस आदमी के साथ भी किया है।

एक स्थिति ऐसी हो सकती है, जहां हमारे प्रश्न असंगत हो जाते हैं, इर्रिलेवेंट हो जाते हैं। क्योंकि हम जब सोचते हैं तो हम दो ही में सोच सकते हैं, द्वंद्व में सोच सकते हैं। और जो लोग भी द्वंद्व के बाहर होते हैं, वे हमेशा मिसअंडरस्टुड होते हैं। यह उनका भाग्य है, यह उनकी नियति है कि उनको कभी नहीं समझा जा सकेगा। क्योंकि जिस तल पर हम समझ सकते थे, उस तल पर उनका कोई भी रूप नहीं बनता है कि वे कैसे आदमी हैं।

महावीर अविनम्र हैं, ईगोइस्ट हैं, विनम्र हैं, हंबल हैं, कुछ तय करना मुश्किल है। क्योंकि ऐसा कोई प्रसंग ही नहीं, जिसमें वे कोई भी घोषणा करते हों। तब हमारे ऊपर ही निर्भर रह जाता है कि हम निर्णय कर लें। और हमारे निर्णय वे ही होने वाले हैं, जो हमारी तौल है, हमारा मापदंड है। महावीर उस तौल के बाहर हैं।

इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि महावीर से ज्यादा निरहंकारी थोड़े ही लोग हुए हैं। हां, महावीर से ज्यादा विनम्र लोग हुए हैं, महावीर से ज्यादा अहंकारी लोग हुए हैं, लेकिन महावीर से ज्यादा निरहंकारी लोग मुश्किल से हुए हैं। महावीर से ज्यादा विनम्र आदमी मिल जाएगा जो झुक-झुक कर, जमीन पर झुक-झुक कर नमस्कार करेगा। महावीर झुकेंगे ही नहीं, क्योंकि कौन झुके? किसके लिए झुके? वह बात ही व्यर्थ है। वह बात ही व्यर्थ है।

फिर जब कोई आदमी झुकता है तो हम कहते हैं, विनम्र। लेकिन किसलिए झुकता है? किसी अहंकार की पूजा में? किसी अहंकार की पूजा में ही झुकता है न! किसी अहंकार के पोषण में ही झुकता है न! और महावीर तो कहते हैं कि मेरा अहंकार तो बुरा है ही, किसी का भी अहंकार बुरा है। मैं झुकूं और आपकी बीमारी बढ़ाऊं, यह भी बेमानी है। यानी अगर इसे हम ठीक से समझें तो मैं झुकूं आपके चरणों में और आपके दिमाग को फिराऊं, यह भी पाप है। मैं तो झुकूंगा, आपको बड़ा रस भी आएगा कि यह आदमी बड़ा विनम्र है। लेकिन रस ही इसलिए आएगा कि आपके अहंकार को तृप्ति मिलती चली जाएगी।

तो महावीर से तो कोई पूछे तो वे कहेंगे कि देवताओं का दिमाग भी आदमियों ने खराब कर दिया है। अगर कहीं भगवान भी है तो अब तक पागल हो गया होगा। यह जो झुकना चल रहा है, यह दूसरे के अहंकार को पोषण चल रहा है…।

निरहंकारी न तो अहंकार में जीता, न अहंकार को पोषण देता, इसलिए उसके जीवन का तल, उसकी अभिव्यक्ति बिलकुल बदल जाती है। उसे पकड़ पाना मुश्किल हो जाता है कि हम उसे कहां पकड़ें और कहां तौलें। इसलिए महावीर के साथ भी कठिनाई मालूम हो सकती है।

दूसरा कपिल पूछते हैं–क्या पूछा तुमने?

प्रश्न:

 

आप बेशर्त प्रेम कहते हैं। तो फिर महावीर शर्त क्यों लगाते हैं?

 

मैं कहता हूं कि प्रेम सदा बेशर्त है। प्रेम सदा बेशर्त है, क्योंकि जहां शर्त है, वहां सौदा है। जहां हम कहते हैं कि मैं तब प्रेम करूंगा, जब ऐसा हो। जब मैं कहता हूं कि मैं प्रेम करूंगा, जब तुम ऐसा करो या ऐसे हो जाओ, या ऐसे बनो, तब मैं तुम्हें प्रेम करूंगा, ऐसा आदमी प्रेम को शर्त से बांध रहा है और ऐसा आदमी प्रेम को खो रहा है।

महावीर की जिन शर्तों की बात की है, वे प्रेम के संबंध में नहीं हैं। महावीर यह नहीं कहते कि जगत ऐसा करे तो मैं प्रेम करूंगा, जगत मुझे भोजन दे तो मैं प्रेम करूंगा। नहीं, यह बात ही नहीं है, प्रेम का मामला ही नहीं है। महावीर तो यह कहते हैं कि अगर जगत को मेरे प्रति प्रेम हो, अगर अस्तित्व को मेरे प्रति प्रेम हो तो मुझे कैसे पता चले? मैं कैसे जानूं कि यह सारा अस्तित्व मुझे बचाना चाह रहा है और उपयोगी मान रहा है और समझ रहा है कि मैं जीऊं एक क्षण और तो इसके लिए फायदा हो जाए? यह मुझे कैसे पता चले? इसे मैं कैसे जानूं? तो महावीर कहते हैं कि मैं कुछ शर्त लगाए देता हूं, जिनकी पूर्ति मुझे खबर दे देगी कि अभी जीना है, अभी काम का हूं। मेरा मतलब समझे न?

महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि ये शर्तें जगत पूरी करेगा तो मैं प्रेम करूंगा। जगत के प्रति प्रेम तो है ही, यह सवाल ही नहीं है शर्त का कोई। शर्त प्रेम पाने के लिए नहीं बांधी जा रही है, सिर्फ इस बात की जानकारी के लिए बांधी जा रही है कि अगर मुझे जिलाना हो तो जगत मुझे जिलाए, मैं नहीं जीऊंगा। महावीर यह कह रहे हैं कि मैं अपनी तरफ से जीने का उपक्रम नहीं करूंगा, यह मेरी चेष्टा नहीं होगी कि मैं जीऊं। असल में हो भी यही सकता है। क्योंकि जिसका मैं ही मिट गया हो, अब उसे जीने की लालसा, जिजीविषा क्या हो सकती है! अब तो यही हो सकता है कि अगर जरूरत हो…।

जैसे समझो, मैं बोल रहा हूं। बोलने के दो कारण हो सकते हैं। या तो बोलना मेरी भीतरी वासना हो कि मैं बिना बोले न रह सकूं, यानी मुझे बोलना ही पड़े। अगर इस कमरे में कोई भी न हो तो दीवाल से बोलना पड़े, तब बोलना मेरी विक्षिप्तता होगी। क्योंकि तब बोलने से मैं–बोलने वाले से मेरा कोई संबंध ही नहीं है। मैं भीतर बेचैन हूं और मुझे कुछ बोलना है, निकालना है। जैसे पागल बोलता है, रास्ते पर अकेले में भी बोलता है, दीवाल से भी बोलता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि सुनने वाले बैठे हों तो जरूरी नहीं है कि बोलने वाला आदमी पागल न हो, यह कोई जरूरी नहीं है। यह तो पता तब चलेगा, जब हम उसे अकेली दीवाल के पास छोड़ दें और वह न बोले।

अगर बोलना भीतरी पागलपन है तो सुनने वाला सिर्फ बहाना है, निमित्त है, उस पर जबरदस्ती थोपा जा रहा है। लेकिन अगर बोलना भीतरी पागलपन नहीं है और मेरी अपनी कोई जरूरत नहीं है, और मुझे लगता है कि तुम्हारी जरूरत है, तुम्हारे काम आ जाऊं, तब मैं शर्तें लगा दूंगा। ताकि मुझे पता तो चल जाए कि मैं तुम्हारे लिए बोल रहा हूं कि अपने लिए बोले जा रहा हूं?

तो मैं कहूंगा, चुप बैठना तो ही मैं बोलूंगा। यानी मुझे यह तो पता चल जाए कि तुम सुनने को तैयार हो, तुम सुनने को आए हो। अगर तुम सुनने को ही नहीं हो, तब भी मैं बोले चला जा रहा हूं, तब वह मेरा भीतरी पागलपन हो गया। तो मैं एक शर्त लगा दूंगा कि तुम चुप होकर सुनना, तुम बैठ कर सुनना, तो मैं बोलूंगा। और जिस क्षण तुम उठ कर खड़े हो जाओ या बोलने लगो, मैं बोलना बंद कर दूंगा, विदा हो जाऊंगा। मेरा मतलब समझ रहे हैं न?

महावीर यह कह रहे हैं इस पूरे अस्तित्व से कि अगर जरूरत हो दरख्तों को, अगर हवाओं को, सूरज को, चांदत्तारों को, परमात्मा को, टोटल को–परमात्मा महावीर के लिए व्यक्ति नहीं है–समग्र को अगर जरूरत हो मेरी, तो बताए जाना कि मेरी जरूरत है, तो मैं चलता चला जाऊंगा। जिस दिन तुम कह दोगे कि जरूरत नहीं है, तो अब मेरी कोई जरूरत नहीं है एक इंच भी आगे जाने की।

तो महावीर की जो शर्त है, वह प्रेम के लिए लगाई गई शर्त नहीं है; वह शर्त अपने होने के लिए लगाई गई शर्त है कि मैं अभी बिखर जाऊंगा इसी क्षण। एक क्षण भी मैं नहीं कहूंगा कि और मुझे रुक जाने दो। अभी मुझे कुछ कहना था, अभी मुझे कुछ करना था, यह सवाल नहीं है। तुम्हारी खबर आ जाए, तो मैं अभी बिखर जाऊंगा।

प्रश्न:

 

दुबारा उनका आना भी जगत की जरूरत है?

बिलकुल ही जगत की जरूरत है। जगत की ही जरूरत है। लेकिन जैसे ही किसी व्यक्ति को आनंद उपलब्ध होता है, जैसे ही किसी व्यक्ति को आनंद उपलब्ध होता है, वैसे ही सारे जगत के प्राण उससे पुकार करने लगते हैं कि बांटो। क्योंकि जगत इतना दुख में है, इतनी पीड़ा में है, इतने कष्ट में है कि जब भी कभी कोई एक व्यक्ति भी आनंद को उपलब्ध हो जाता है तो सारे जगत के प्राणों से यह पुकार घूम-घूम कर उसके पास पहुंचने लगती है कि बांटो। वह बांटना ही लौटाता है। वह बांटने की जो, जो चारों तरफ से उठा हुआ दबाव है, वही लौटाता है। यह एकदम से हमें दिखाई नहीं पड़ता।

मुझे लोग पूछते हैं, आप किसलिए बोलते हैं? तो उनका सवाल ठीक ही है, क्योंकि बोलता मैं हूं तो सवाल मुझसे ही पूछा जाएगा।

यह खयाल में आना कठिन है कि कोई सुनने को आतुर हो गया है, इसलिए बोलता हूं। जगत की स्थिति में तो घटनाएं उलटी ही घटेंगी। मैं बोलूंगा, तब सुनने वाला आएगा। लेकिन अंतस जगत में घटना इससे बिलकुल भिन्न है। कोई सुनने वाला पुकारेगा, तभी मैं बोलूंगा। जैसे कि हम नदी के किनारे खड़े हो जाएं तो नदी में दिखाई पड़ता है कि सिर नीचे है और पैर ऊपर हैं, लेकिन वस्तुतः जो किनारे पर खड़ा है, उसका सिर ऊपर है और पैर नीचे हैं। लेकिन नदी में जो प्रतिबिंब बनता है, वह उलटा बनता है।

जीवन में जो प्रतिबिंब बनते हैं, वे उलटे बनते हैं, अंतस तल पर जो प्रतिबिंब हैं, वे बिलकुल उलटे हैं। अंतस तल में सुनने वाला पहले मौजूद हो जाता है, तब बोलने वाला आता है। बाहर के जगत में बोलने वाला पहले दिखाई पड़ता है, तब सुनने वाला इकट्ठा होता है। यह हमें खयाल में न आए तो मुश्किल हो जाती है।

महावीर को नहीं कह सकोगे जाकर कि आप क्यों बोल रहे हो? क्योंकि महावीर कहेंगे कि तुम क्यों सुन रहे हो? तुम सुनने पहले आ गए हो, तब मैं बोलने आया हूं।

मगर हमें यह दिखाई नहीं पड़ेगा, क्योंकि जिस जगत में हम जीते हैं वह छाया का, प्रतिफलन का, रिफ्लेक्शन का जगत है। वहां चीजें सीधी नहीं हैं, वहां चीजें उलटी हैं। वहां बिलकुल चीजें उलटी हैं। वहां हमें सब चीजें उलटी दिखाई पड़ती हैं, जैसी वे नहीं हैं। और तब हम उसी हिसाब से सब सोचते हुए चलते हैं।

अगर महावीर तुम्हारे गांव में भी आएंगे तो तुम कहोगे कि क्यों आए हैं आप यहां? और मजा यह है कि तुम्हीं ने बुलाया था। लेकिन तुम्हारे बुलाने के प्रति भी तो तुम चेतन नहीं हो, उतने भी तो तुम कांशस नहीं हो! और महावीर को यह पीड़ा भी झेलनी पड़ेगी कि तुम्हीं ने बुलाया था और तुम्हीं पूछोगे कि कैसे आप आए हैं यहां?

बुद्ध एक गांव में जा रहे हैं, सुबह-सुबह का वक्त है, वे उस गांव में प्रवेश करने को हैं और एक लड़की, एक ग्रामीण लड़की, एक किसान लड़की अपने पति के लिए भोजन लेकर खेत की तरफ जाती है। तो रास्ते में बुद्ध को कहती है कि मैं जब तक न लौट आऊं, बोलना शुरू मत कर देना। तो बुद्ध उससे कहते हैं, तेरे लिए ही तो मैं आ रहा हूं भागा हुआ, अगर तू न होगी तो बोलना शुरू करके भी क्या करूंगा! आनंद बहुत मुश्किल में पड़ जाता है, वह पूछता है, आप यह क्या कहते हैं? इस लड़की के लिए भागे चले आ रहे हैं दूसरे गांव से! उन्होंने कहा, इसी लड़की के लिए। और देखो, वही लड़की मुझसे कहती है कि बोलना शुरू मत कर देना, जब तक मैं न आ जाऊं। और मैं उसी के लिए आ रहा हूं।

फिर वह लड़की चली गई है। गांव में बुद्ध पहुंच गए हैं, भीड़ इकट्ठी हो गई है। लोग कहते हैं, अब आप बोलें, अब आप शुरू करें। और बुद्ध चारों तरफ देखते हैं, वह लड़की अभी तक नहीं लौटी। और आनंद कहते हैं कि लोग क्या कहेंगे कि आप उस लड़की के लिए रुके हैं। आप बोलिए! तो बुद्ध ने कहा, मैं जिसके लिए आया हूं, और जो रास्ते में मुझे कह भी गई कि रुकना, यह कैसे हो सकता है कि मैं बोल दूं! सांझ घिरने लगी, लोग विदा होने लगे, तब वह लड़की भागी हुई आई और वह कहती है कि बड़ी मुश्किल में पड़ गई। पति बीमार हो गया। उसको कोई कीड़ा काट गया, कुछ हो गया। मैं वहां उलझ गई और मैं बड़ी परेशान थी कि कहीं आप बोलना शुरू न कर दें।

बुद्ध कहते हैं, लेकिन तेरे बिना बोल कर करता भी क्या? तेरे लिए भागा हुआ आया हूं। तुझे पता नहीं, तूने मुझे पहले बुलाया है, मैं पीछे चला हूं।

लेकिन हमारी दुनिया में जहां हम जीते हैं, वहां चीजें बिलकुल उलटी हैं। वहां बुद्ध पहले आए हैं, पीछे लड़की सुनती है। और तब हमारे सब सवाल उलटे हैं। क्योंकि हमारे सब सवाल जहां से उठते हैं, वहां चीजें बिलकुल उलटी हैं।

और महावीर के प्रेम में कोई शर्त नहीं है। शायद उतना बेशर्त प्रेम ही कभी नहीं हुआ, बिलकुल बेशर्त है प्रेम। लेकिन महावीर अपने अस्तित्व के लिए शर्तें बांध रहे हैं। वे जो शर्तें हैं, वे अपने अस्तित्व के लिए हैं; वे तुम्हारे प्रेम के लिए नहीं हैं। वे यह हैं कि कहीं ऐसा न हो जाए कि तुम्हारा प्रेम भी विदा हो चुका है, अस्तित्व को जरूरत नहीं है और मैं जीए चला जाऊं, तब बेमानी हो जाएगी बात। एक क्षण भी नहीं, एक क्षण भी मुझे खबर कर देना।

और कोई परमात्मा को महावीर मानते नहीं हैं जो कि खबर कर दे। कोई भगवान नहीं है जो कह दे कि अब बस लौट आओ। यह तो पूरा अस्तित्व, समग्र ही खबर करे तो ही पता चलने वाला है, और कोई उपाय नहीं है। महावीर अगर किसी भगवान को मानने वाले हों तो यह कह देंगे कि मुझे कह देना कि मैं विदा हो जाऊं।

लेकिन यह समग्र अस्तित्व कैसे कहेगा? हवाएं कैसे कहेंगी? फूल कैसे कहेंगे? वृक्ष कैसे कहेंगे? चांदत्तारे कैसे कहेंगे? एक्झिस्टेंस कैसे कहेगा? तो महावीर कहते हैं कि मैं शर्त लगा लेता हूं, ताकि मुझे पता चलता जाए कि बस अब इसके आगे नहीं जाना, अब बात खतम हो गई, मेरी जरूरत विदा हो गई, मैं चुकता हो गया।

इस करुणा को हम नहीं समझ सकते कि एक क्षण भी वे हम पर बोझ की तरह नहीं जीना चाहते हैं। वे एक क्षण को भी बोझ नहीं बनना चाहते हैं, क्योंकि जो मुक्ति बनने की कामना लेकर खड़ा हो, वह बोझ नहीं बन सकता है। शर्त जो है, वह अपने अस्तित्व के लिए है, वह प्रेम के लिए नहीं है। प्रेम तो सदा बेशर्त है, लेकिन अपना अस्तित्व सदा सशर्त होना चाहिए। अपना अस्तित्व बेशर्त हो जाए तो बहुत मुश्किल की बात है। वह प्रेम के ऊपर भारी पड़ेगा, बहुत भारी पड़ जाएगा।

प्रश्न:

 

एक और बात है। मेहरबाबा की बता रहे थे आप, कि दो बार एक्सीडेंट जब होने लगा तो वह बच गए। क्योंकि उनको पहले पता चल गया था। लेकिन आप पत्ते की भांति अपने आपको खुला छोड़ना चाहते हैं। और तीसरा, जब दलाई लामा तिब्बत से आए तो आपने उसको ठीक बोला। तो यह कैसे एक-दूसरे से…?

हां, हां, हां। असल में मेहरबाबा को मैं कहूंगा गलत, क्योंकि बचना चाहते हैं वे खुद।

प्रश्न:

 

मेहरबाबा के अंदर जो प्रेरणा उठी वह परमात्मा की उठी थी?

ह दूसरी बात है, इसको फिर पीछे पूछ लेना।

मेहरबाबा को मैं कहूंगा गलत, क्योंकि वे खुद बचना चाहते हैं। प्रेरणा परमात्मा की होती तो उस हवाई जहाज में किसी को भी न बैठने दिया होता। वह हवाई जहाज तो गिरा ही, मेहरबाबा ही बच गए न! उस हवाई जहाज के लोग मरे ही। प्रेरणा परमात्मा की होती तो वह कहते, हवाई जहाज को नहीं जाने दूंगा। चाहे मुझे मार डालो, इसको आगे नहीं बढ़ने दूंगा। प्रेरणा अपने ही जीवन-अस्तित्व की है। तो खुद तो बच गए हैं, हवाई जहाज तो चला गया है। उस मकान में, जिसमें वे ठहरने गए थे, खुद तो नहीं ठहरे, लेकिन किसी को उन्होंने नहीं कहा कि इसमें कोई मत ठहरे। मकान रात गिर गया, कोई ठहर भी सकता था। मेहरबाबा को मैं गलत कहूंगा, क्योंकि बचने की आकांक्षा अपनी है।

और दलाई को मैं गलत नहीं कहूंगा, क्योंकि अपने बचने की कोई आकांक्षा ही नहीं है। दलाई के लिए बचना तो यही सरल हुआ होता कि वह वहीं रह जाता और चीनियों के साथ हो जाता। तो दलाई को बचना ज्यादा सरल था, वह ज्यादा सुविधापूर्ण था। दलाई तो मुश्किल में पड़ा, अपने लिए तो मुश्किल में पड़ गया, बचा रहा है कुछ जो सबके काम का है।

इस फर्क को समझ लेना। मेहरबाबा बच रहे हैं खुद; दलाई बचा रहा है कुछ, जो सबके काम का है। और उस बचाने में दलाई अपनी जान को दांव पर लगा रहा है। मेरा खयाल ले रहे हो तुम? दलाई अपनी जान को दांव पर लगा रहा है। दलाई का भागना दांव पर लगाना है जान को। और एक अर्थ में शायद वह कभी नहीं लौट सकेगा अब। वह रुक जाता, सुलह कर लेता, वह राजा भी बना रह सकता था, वह पद पर भी हो सकता था। इसमें कोई कठिनाई न थी, सारा यश, वैभव, सब चल सकता था। बात कुल इतनी थी कि वह चीन को स्वीकृति दे देता कि तुम हमारे मालिक हो, हम तुम्हारे उपनिवेश हैं, बात खतम होती थी।

नहीं, इसने अपने को नहीं बचाना चाहा, यह सब खोकर, सब बरबाद करके, सारी जिंदगी को कष्ट में डाल कर भागा है कुछ और बचाने को, जो इसके अपने बचने से भी ज्यादा मूल्यवान है। जो यह मरेगा तो भी कोई हर्ज नहीं, लेकिन कुछ बच जाएगा जो आगे काम पड़ सकता है। इसका हमें खयाल नहीं है।

तो मैं जब कहता हूं अहंकार के लिए बचाना, अपने लिए बचाना, तो दो कौड़ी की बात है। उस अर्थ में तो आदमी को पत्ते की तरह जीना चाहिए। सूखे पत्ते की तरह, हवाएं जहां ले जाएं। लेकिन जहां तक सबके हित में आने वाली कोई बात हो, सबके कल्याण में आने वाली कोई बात हो और कुछ ऐसी संपदा हो, जो कि मेरे होने न होने से संबंधित नहीं है, पीछे भी काम पड़ सकती है, उसके बचाने के लिए जरूर कुछ श्रम किया जा सकता है। महावीर भी वह श्रम कर रहे हैं।

यह जो मैं फर्क कर रहा हूं, वह फर्क सिर्फ इतना है कि तुम अपने स्वार्थ के लिए उपयोग कर रहे हो कि तुम्हारा कोई भी स्वार्थ नहीं है? उसी दृष्टि से एक को गलत कहूंगा, एक को सही कह दूंगा। निर्णायक बात यह होगी कि उसका अपना कोई स्वार्थ है निजी या कि बृहत्तर।

दलाई को कोई छाती में छुरा मार दे तो दिक्कत नहीं है, कठिनाई नहीं है, लेकिन जो उसके पास है–और निश्चित ही एक ऐसी इसोटेरिक साइंस उसके पास है, जो इस समय पृथ्वी के दो-चार लोगों की समझ में आ सकती है, पास होने की तो बात दूर है। क्योंकि पिछले डेढ़-दो हजार वर्ष से सारी दुनिया से टूट कर अलग तिब्बत एक प्रयोग कर रहा है।

हमें खयाल में नहीं होता यह। हमें खयाल में नहीं होता। दूसरा महायुद्ध हुआ, दूसरा महायुद्ध जर्मनी जीत सकता था, सिर्फ एक आदमी जर्मनी छोड़ कर भाग गया और हारना पड़ा, वह आइंस्टीन। जर्मनी जीत सकता था। जर्मनी के हारने का कोई कारण न था, लेकिन जो सीक्रेट्स थे, वे एक आदमी के हाथ में थे–आइंस्टीन के। और वह था यहूदी। और यहूदियों को सताए जाने के कारण आइंस्टीन ने जर्मनी छोड़ दिया।

जो एटम बम अमरीका में बना, वह बर्लिन में बना होता। सीक्रेट एक आदमी के पास था, एक ही आदमी के पास था बस। वह सीक्रेट जाकर अमरीका में उपयोगी हो गया। एटम वहां बना, हिरोशिमा पर गिरा। वह हो सकता था लंदन पर गिरता कि न्यूयार्क पर गिरता कि मास्को पर गिरता, कुछ पक्का नहीं था। एक बात पक्की थी कि आइंस्टीन के बिना वह कहीं भी नहीं गिर सकता था। जहां आइंस्टीन होता, वह वहीं, उसके ही काम में आने वाला था।

आज तो तुम हैरान होओगे कि इतनी कीमत कभी नहीं थी लोगों में। आज दुनिया में दस-बारह वैज्ञानिकों की इतनी कीमत है कि अरबों रुपए देकर एक वैज्ञानिक को चुरा लेना काफी बड़ी बात है। खरबों खर्च हो जाएं, कोई फिक्र नहीं है, एक वैज्ञानिक को फुसला लेना काफी बड़ी बात है। एक वैज्ञानिक से एक सीक्रेट लेना काफी बड़ी बात है। क्योंकि वह दस-बारह ही लोगों के आज हाथ में सारी बात है दुनिया की।

जिस तरह पदार्थ के विज्ञान के संबंध में यह स्थिति हो गई है, ठीक वैसी स्थिति अध्यात्म विज्ञान की भी है। आज मुश्किल से दुनिया में दो-चार लोग हैं, जो उस गहराई पर समझते हैं। लेकिन उनके पास भी पूरा का पूरा हजारों वर्षों के अनुभव का सार नहीं है।

एक घटना तुम्हें बताऊं। एक आदमी था गुरजिएफ। गुरजिएफ ने अपनी जिंदगी के पहले वर्ष एक अदभुत खोज में लगाए, जैसा कि इस सदी में किसी आदमी ने नहीं किया, पिछली सदियों में भी किसी ने नहीं किया। पंद्रह-बीस मित्रों ने यह निर्णय लिया कि दुनिया के कोने-कोने में जो भी आध्यात्मिक सत्य छिपे हैं, वे सब अलग-अलग कोनों में चले जाएं और उन सत्यों को खोज कर, जब खोज लें तो लौट आएं और बीसों मिल कर सब अपने अनुभव बता दें, ताकि एक सुनिश्चित विज्ञान बन सके।

ये बीस आदमी दुनिया के कोनों-कोनों में चले गए। इनमें कोई तिब्बत जाने वाला था, कोई भारत, कोई ईरान, कोई इजिप्त, कोई यूनान, कोई चीन, कोई जापान; ये सारे दुनिया में फैल गए। इन बीसों आदमियों ने बहुत खोज की, पूरी जिंदगी लगा दी। क्योंकि एक-एक आदमी की जिंदगी बहुत छोटी थी, जो जानने को था वह बहुत ज्यादा था।

अब अगर एक आदमी सूफियों के पास सीखने जाए तो पूरी जिंदगी लग जाती है। क्योंकि सूफियों की व्यवस्था यह है कि एक फकीर एक सूत्र सिखाएगा, वर्ष लगा देगा, दो वर्ष लगा देगा; फिर कहेगा कि अब तुम फलां आदमी के पास चले जाओ, इसके आगे वह तुमसे बात करेगा। तो दूसरे फकीर के पास चले जाओगे। और वर्ष, दो वर्ष तो सेवा करो उसकी, हाथ-पैर दाबो उसके, वह जो कहे मानो। क्योंकि कुछ बातें ऐसी हैं, कुछ बातें ऐसी हैं कि वे तुम्हें तभी दी जा सकती हैं, जब तुम इतना धैर्य दिखलाओ, नहीं तो तुम उसके योग्य नहीं, पात्र नहीं। तो वह धैर्य अगर उतना न हो तो तुम्हारा पात्र टूट जाएगा, वे चीजें तुम्हें नहीं दी जा सकतीं।

उन बीस लोगों ने सारी दुनिया में खोज-बीन की और वे बीस लोग बूढ़े होते-होते करीब लौट कर मिले। उनमें से कुछ तो मर गए। कुछ कभी नहीं लौटे, कहां खो गए, पता नहीं चला। लेकिन चार-छह जो मित्र लौटे, उन्होंने जो-जो सूचनाएं दीं, उन सूचनाओं के आधार पर गुरजिएफ ने एक पूरी साइंस खड़ी की। उसमें उन सूत्रों की पकड़ उसके हाथ में आ गई, जो सारी दुनिया में फैले हुए हैं।

आध्यात्मिक विज्ञान के संबंध में तिब्बत के पास सबसे बड़ी संपदा है। और दलाई लामा के लिए उपयोगी है कि वह सबकी फिक्र छोड़ दे, तिब्बत की भी फिक्र छोड़ दे, तिब्बत का भी बनना-मिटना उतना कीमत का नहीं है। तिब्बत के लोग इस राज्य में रहते हैं कि उस राज्य में, यह भी बड़े मूल्य की बात नहीं है। वे किस तरह की व्यवस्था बनाते हैं समाज की, शासन की, वह भी मूल्यवान नहीं है। मूल्यवान यह है कि इन डेढ़ हजार वर्षों में एक प्रयोगशाला की तरह तिब्बत ने जो काम किया है, वे सूत्र नष्ट न हो जाएं; उनको भाग कर बचाना जरूरी है।

मेरा मतलब कुल इतना है। न मेहरबाबा से कोई मतलब है मुझे, न दलाई लामा से कोई मतलब है। मेरा मतलब कुल इतना है कि एक तो दिशा वह है, जहां हम परम कल्याण के लिए कुछ बचा रहे होते हैं और एक दिशा वह है, जहां हम अपने कल्याण के लिए कुछ बचा रहे होते हैं। दोनों में फर्क करना जरूरी है।

प्रश्न:

 

अहिंसा का विधायक स्वरूप क्या है? और महावीर ने किसी की शारीरिक सहायता क्यों नहीं की?

हिंसा शब्द से ही निगेटिव का, निषेध का, नकारात्मक का बोध होता है। बोध होता है, हिंसा नहीं। तो अहिंसा शब्द ही नकारात्मक है। महावीर ने क्यों उस शब्द को चुना? वे प्रेम भी चुन सकते थे। प्रेम विधायक शब्द है, वह पाजिटिव है।

अहिंसा का मतलब होता है, किसी को दुख नहीं देना है। प्रेम का मतलब होता है, किसी को सुख देना है। अहिंसा का मतलब है, किसी को दुख नहीं देना है। इसलिए निषेधात्मक है। यानी अगर मैंने आपको दुख नहीं दिया तो मैं अहिंसक हो गया। प्रेम विधायक शब्द है। प्रेम का मतलब है, किसी को सुख देना है। तो मैंने आपको दुख नहीं दिया, इतने से ही काफी बात नहीं हल होती, मैंने आपको सुख दिया कि नहीं? अगर सुख दिया तो ही प्रेम पूरा होता है।

तो प्रेम तो विधायक शब्द है। जीसस ने प्रेम का उपयोग किया। अहिंसा निषेधात्मक शब्द है और महावीर ने अहिंसा का उपयोग किया। इसलिए समझना बहुत जरूरी है। महावीर क्यों ऐसा प्रयोग करते हैं कि किसी को दुख नहीं देना है?

इसमें बड़ी गहराइयां छुपी हुई हैं। ऊपर से देखने पर यही लगेगा कि प्रेम शब्द का प्रयोग ही ज्यादा ठीक हुआ होता। और जहां तक समाज का संबंध है, शायद ज्यादा ही ठीक हुआ होता। क्योंकि जिन लोगों ने महावीर का अनुगमन किया, उन्होंने किसी को दुख नहीं देना, इसको सूत्र बना लिया। और एक अर्थ में किसी को दुख न देने के कारण वे सिकुड़ते चले गए, क्योंकि किसी को सुख तो देना नहीं है, बस दुख नहीं देना है। चींटी पैर से न दबे, इतना काफी हो गया! चींटी भूखी मर जाए, इससे क्या लेना-देना है? यानी चींटी अपने कर्मों का फल भोगती होगी। चींटी भूखी मर जाए, इससे कोई प्रयोजन नहीं है हमारा। हमने चींटी को पैर से दबा कर नहीं मारा, हमारा काम पूरा हो गया!

महावीर का निषेधात्मक शब्द समाज के लिए महंगा पड़ा। और जो लोग अनुगमन किए, उनके लिए तो भारी महंगा पड़ा। इसलिए हिंदुस्तान में जैनियों से ज्यादा स्वार्थी लोग खोजने मुश्किल हैं–सेल्फिश। क्योंकि वह अहिंसा का जो अर्थ पकड़ा गया, वह यह था कि किसी को दुख नहीं देना, बस बात खतम हो गई। अपने को इससे ज्यादा किसी से कोई प्रयोजन नहीं है। और प्रयोजन तो तब बनता है, जब हम किसी को सुख देने जाएं, तब हमारे रास्ते बनते हैं।

तो रास्ते सब टूट गए। तो आइलैंड्स की तरह, महावीर के पीछे जो लोग गए, वे एक-एक द्वीप की तरह हो गए–अपने में बंद। हम किसी को दुख न दें, बात पूरी हो गई। यह निषेधात्मक रूप खतरनाक सिद्ध हुआ। अच्छा हुआ होता, अनुयायियों के लिए तो अच्छा हुआ होता कि महावीर ने प्रेम का ही प्रयोग किया होता। लेकिन महावीर ने प्रेम का प्रयोग नहीं किया, यह बहुत कीमती बात है। और महावीर की दृष्टि बहुत गहरी है।

अहिंसा शब्द का प्रयोग करना बड़ा अदभुत है। उसके कारण हैं। पहला तो कारण यह है कि किसी को दुख नहीं देना, यह कोई साधारण बात नहीं है। इसका मतलब इतना ही नहीं होता कि हम किसी को चोट न पहुंचाएं। अगर बहुत गहरे में देखें तो किसी क्षण में किसी को सुख न देना भी उसको दुख देना हो सकता है। उतने दूर तक अनुयायी की पकड़ नहीं हो सकी। मैं आपको दुख न दूं, यह तो ठीक है; बहुत मोटा सूत्र हुआ कि आपको चोट न पहुंचाऊं, आपकी हिंसा न करूं, तलवार न मारूं।

लेकिन किसी क्षण में यह भी हो सकता है कि मैं आपको सुख न पहुंचाऊं तो निश्चित रूप से आपको दुख पहुंचे। लेकिन यह पकड़ में आना साधारणतः मुश्किल था।

लेकिन महावीर इसको साफ कह सकते थे। वह भी उन्होंने साफ नहीं कहा और उसके भी कारण हैं। क्योंकि महावीर की गहरी समझ यह है कि कभी-कभी किसी को सुख पहुंचाने से भी उसको दुख पहुंच जाता है। यानी कभी-कभी आक्रामक रूप से किसी को सुख पहुंचाने की चेष्टा भी उसको दुख पहुंचा सकती है। यानी यह जरूरी नहीं कि आप सुख पहुंचाना चाहते हैं, इससे दूसरे को सुख पहुंच जाएगा। इसलिए सुख पहुंचाने में भी आक्रामक चित्त न हो, यानी सुख पहुंचाना भी चेष्टा का हिस्सा न हो, क्योंकि सुख पहुंचाने में भी दुख पहुंचाया जा सकता है।

सच तो यह है कि अगर कोई अति कोशिश करे किसी को सुख पहुंचाने की तो उसको दुख पहुंचाता ही है। अगर बाप अपने बेटे को सुख पहुंचाने की बहुत कोशिश में रत हो जाए; उसके सुधार, उसकी नीति, उसकी व्यवस्था को ज्यादा रचने लगे और सोचे कि इससे इसे सुख पहुंचेगा, तो संभावना इसी बात की है कि बेटे को दुख पहुंचे। और संभावना इसी बात की है कि दुख के कारण बाप जो भी चाहता है, बेटा उसके विपरीत चला जाए।

इसलिए अच्छे बाप अच्छे बेटों को पैदा नहीं कर पाते। बुरे बाप के घर अच्छा बेटा पैदा भी हो सकता है, अच्छे बाप के घर पैदा होना बड़ा अपवाद है। अच्छा बाप बेटे को अनिवार्यतः बिगाड़ने का कारण बनता है। क्योंकि वह उसे इतना सुख पहुंचाना चाहता है, और इतना शुभ बनाना चाहता है–सुख के लिए ही–कि बेटे पर उसका यह सुख पहुंचाना भी बोझ हो जाता है। यह भी भार हो जाता है, यह भी वजन हो जाता है।

यह बड़े मजे की बात है कि हम यदि किसी से सुख लेना चाहें तो ही ले सकते हैं, कोई हमको पहुंचा नहीं सकता। इसे समझ ही लेना चाहिए। अगर मैं किसी से सुख लेना चाहूं तो ही ले सकता हूं। सुख इतनी सूक्ष्म चित्त-दशा है कि कोई मुझे पहुंचाना चाहे तो नहीं पहुंचा सकता, मैं लेना चाहूं तो ही ले सकता हूं। इसलिए महावीर ने पहुंचाने पर जोर ही नहीं दिया, बात ही छोड़ दी। हां, जो लेना चाहे, उसे दे देना, क्योंकि नहीं दोगे तो उसे दुख पहुंचेगा।

इसलिए जोर है इस बात पर कि तुम किसी को दुख भर मत पहुंचाना। बस तुम्हारा काम इतना ही काफी है कि तुम किसी को दुख मत पहुंचाना। कोई अगर तुमसे सुख लेना चाहे तो दे देना, वह भी सिर्फ इसीलिए कि अगर तुम न दोगे तो उसे दुख पहुंचेगा। लेकिन तुम सुख पहुंचाने भी मत चले जाना, क्योंकि तुम अगर कहीं सुख पहुंचाने गए तो तुम सिवाय दुख पहुंचाने के और कुछ भी नहीं कर पाओगे। क्योंकि एग्रेसिव, आक्रामक सुख पहुंचाने वाला आदमी दुख ही पहुंचाता है। उसका कारण है कि असल में आक्रमण दुख पहुंचाता है। अगर जबरदस्ती हम किसी को सुखी करना चाहें तो जितना दुखी हम उसे कर देंगे, इतना दुखी हम कभी भी उसे नहीं कर सकते थे। इसका मतलब यह हुआ कि जबरदस्ती किसी को भी सुखी नहीं किया जा सकता है। और जबरदस्ती में हिंसा शुरू हो जाती है।

तो महावीर की पकड़ तो बहुत गहरी है, बात तो वे ठीक कह रहे हैं। और भी एक गहराई है जो मैं समझता हूं कि आज तक महावीर को समझने वाले लोगों को समझ में नहीं आई। और वह यह है: अंततः परम स्थिति में जहां अहिंसा पूर्ण रूप से प्रकट होती है या प्रेम प्रकट होता है–कोई भी नाम दें, क्योंकि परम स्थिति में न विधेय है, न नकार है। निगेटिव और पाजिटिव का द्वंद्व प्राथमिक स्थितियों में है, परम स्थितियों में दोनों नहीं हैं। तो परम स्थिति, तो महावीर जैसा व्यक्ति, महावीर जैसी स्थिति का व्यक्ति–वह प्रश्न भी पूछा है कि उन्होंने कभी किसी के शरीर को क्यों सहायता नहीं पहुंचाई? उन्होंने कभी क्यों किसी गिरे हुए को नहीं उठाया? उन्होंने कभी क्यों किसी भूखे को पानी नहीं पिलाया, रोटी नहीं खिलाई? उन्होंने कभी किसी बीमार के पास बैठ कर पैर क्यों नहीं दाबे? महावीर ने कभी किसी के शरीर की कोई सेवा नहीं की। सवाल तो पूछने जैसा है।

उसका भी कारण है। परम अहिंसा की स्थिति में व्यक्ति किसी को दुख तो पहुंचाना ही नहीं चाहता, सुख भी नहीं पहुंचाना चाहता। क्यों? बहुत गहरे में देखने पर सुख और दुख एक ही चीज के दो रूप हैं। जिसे हम सुख कहते हैं, वह दुख का ही एक रूप है; और जिसे हम दुख कहते हैं, वह भी सुख का ही एक रूप है। बहुत गहरे जो देखेगा, वह पाएगा कि जिसे हम सुख कहते हैं, अगर उसकी मात्रा थोड़ी बढ़ा दी जाए तो वह दुख में बदल जाता है।

आप भोजन कर रहे हैं, बड़ा सुखद है। और आप ज्यादा भोजन करते चले जाते हैं, और एक सीमा आती है कि सुख दुख में बदलना शुरू हो गया।

आप मुझे प्रेम से आकर मिले, मैंने आपको गले से लगा लिया, बड़ा सुखद है–एक क्षण, दो क्षण। लेकिन मैं हूं कि छोड़ता ही नहीं हूं, तब आप तड़फने लगे हैं कि अब इन बांहों से कैसे छूट जाएं। और पांच मिनट, और सुख दुख में बदल गया है। और अगर आधा घंटा हो गया तो आप पुलिस वाले को चिल्लाते हैं कि मुझे बचाइए, क्योंकि यह आदमी मुझे छोड़ता नहीं है।

किस क्षण पर सुख दुख में बदल गया, बताना बहुत मुश्किल है। एक क्षण तक झलक थी सुख की, दूसरे क्षण दुख शुरू हो गया।

एक प्रेमी है, एक प्रेयसी है, दोनों घड़ी भर को मिलते हैं, बड़ा सुखद है। फिर पति-पत्नी हो जाते हैं। और बड़ा दुखद हो जाता है। पश्चिम में, सारी दुनिया में जहां प्रेम विवाह आया, वहां एक अनुभव हुआ कि प्रेमी जितना एक-दूसरे को सुखी कर सकते हैं, उतना ही दुखी कर देते हैं। बड़ी अजीब बात है। असल में सुख कब दुख में बदल जाता है, कहना मुश्किल है।

सब सुख दुख में बदल सकते हैं। और ऐसा कोई दुख नहीं है, जो सुख में न बदल सके। सब दुख भी सुख में बदल सकते हैं। सुख और दुख एक-दूसरे में रूपांतरित हो सकते हैं। जैसे आपको कोई एक दुख है, कैसा ही दुख है, कितना ही गहरा दुख है, उस दुख में भी आप संभावनाएं देख सकते हैं सुख की।

एक मां है, वह नौ महीने पेट में बच्चे को रखती है, दुख ही उठाती है। प्रसव है, बच्चे का जन्म है, असह्य दुख उठाती है। लेकिन सब दुख सुख में बदलता जाता है। आशा आगे सुख की, दुख को झेलने में समर्थ बना देती है। बल्कि प्रसव-पीड़ा भी एक सुख की तरह ही आती है। बच्चे का बोझ भी सुख की तरह ही आता है। उस बच्चे को बड़ा करना लंबे दुख की प्रक्रिया है, लेकिन मां का मन उसे सुख बना लेता है।

दुख को हम सुख बना ले सकते हैं। अगर आशा, संभावना, आकांक्षा, कामना तीव्र हो तो दुख सुख बन जाता है। सुख को हम दुख बना ले सकते हैं, अगर सुख में सब आशा, सब संभावना क्षीण हो जाए तो सुख एकदम दुख बन जाता है। यानी इसका मतलब यह हुआ कि सुख और दुख में कोई मौलिक भेद नहीं है, हमारी दृष्टि का भेद है। हम कैसे देखते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। हम कैसे देखते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। हमारे देखने पर ही सुख दुख का रूपांतरण हो जाता है।

एक आदमी के पैर में घाव है और डाक्टर आपरेशन करता है, आपरेशन का दुख भी सुख बन जाता है, क्योंकि एक पीड़ा से छुटकारे की आशा काम कर रही है। आदमी जहरीली से जहरीली दवाई, कड़वी से कड़वी दवाई पी जाता है, क्योंकि बीमारी से दूर होने की आशा काम कर रही है।

आशा भर हो तो दुख को सुख बनाया जा सकता है और आशा क्षीण हो जाए तो सब सुख फिर दुख हो जाते हैं।

महावीर कहते यह हैं कि बहुत गहरे में, अंतिम चरम स्थिति में न तो तुम किसी को सुख पहुंचाना, न तुम किसी को दुख पहुंचाना। लेकिन इसका क्या मतलब? इसका मतलब यह कि तुम सबसे टूट जाना? सबसे दूर खड़े हो जाना? मिट जाना तुम सबके लिए? तुम्हारे उनके बीच एक अंतहीन फासला पैदा कर लेना?

नहीं, यह मतलब नहीं है। बहुत अदभुत बात है। जिस दिन कोई व्यक्ति उस स्थिति में पहुंच जाता है, जहां न वह किसी को सुख पहुंचाना चाहता, न दुख पहुंचाना चाहता, वहीं से वह व्यक्ति अनिवार्यरूपेण सबको आनंद पहुंचाने का कारण बन जाता है। इसे समझ लेना जरूरी है। आनंद पहुंचाने का कारण ही तभी कोई व्यक्ति बनता है, जब वह सुख और दुख के चक्कर से मुक्त होता है खुद, और उस दृष्टि को उपलब्ध होता है जहां सुख और दुख का कोई मूल्य नहीं रह जाता।

पर आनंद को हम जानते नहीं। हमें कोई दुख पहुंचाए तो हम पहचान जाते हैं कि यह आदमी बुरा, हमें कोई सुख पहुंचाए तो हम पहचान जाते हैं यह आदमी अच्छा; लेकिन हमें कोई आनंद पहुंचाए तो हम बिलकुल नहीं पहचान पाते कि यह आदमी कैसा?

पहली तो बात यह कि हम आनंद ही नहीं पहचान पाते। पहली तो बात यह कि हम आनंद को ही नहीं पकड़ पाते कि कैसा आनंद पहुंचाया जा रहा है! और आनंद उस चेतना से सहज ही विकीर्णित होने लगता है, जो चेतना अब सुख और दुख के द्वंद्व के पार चली जाती है–न खुद की दृष्टि से, न दूसरे की दृष्टि से अब किसी को सुख पहुंचाना है, न दुख पहुंचाना है। ऐसे व्यक्ति के जीवन से सहज ही आनंद की किरणें चारों तरफ फैलने लगती हैं।

निश्चित ही, जिनके पास आंखें होती हैं, वे उस आनंद को देख लेते हैं; जिनके पास आंखें नहीं होतीं, अंधे होते हैं, वे नहीं देख पाते हैं। लेकिन चाहे सूरज को कोई देख पाए, चाहे न देख पाए; जो देखता है उसको भी सूरज गर्मी पहुंचाता है और जो नहीं देखता, उसको भी गर्मी पहुंचाता है। फर्क इतना पड़ता है कि नहीं देखने वाला कहता है, कैसा सूरज? कहां का सूरज? गर्मी में फर्क नहीं पड़ता सूरज की। जो जीवन अंधे को मिलता है, वही आंख वाले को मिलता है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अंधा कहता है, कैसा सूरज? किस सूरज को धन्यवाद दूं? कोई सूरज कभी देखा नहीं, किसी ने कभी कोई गर्मी पहुंचाई नहीं। गर्मी अगर पहुंची है तो वह मेरी अपनी है। क्योंकि उसे सूरज का तो कोई पता नहीं है। आंख वाला जानता है कि गर्मी सूरज से आई है और इसीलिए अनुगृहीत भी है, धन्यवाद भी करता है, कृतज्ञ भी है, एक ग्रेटीटयूड का भाव भी है।

लेकिन बहुत मुश्किल है। हम तो यही देख पाते हैं कि महावीर किसी के पैर दाब रहे हों तो हमें समझ में आए कि वह किसी की सेवा कर रहे हैं।

यह ऐसा ही है, जैसे घर में छोटे बच्चे होते हैं, और अगर एक भिखमंगा आए और मैं उसे सौ रुपए का नोट उठा कर दे दूं और बच्चा मुझसे बाद में पूछे कि आपने एक भी पैसा उसको नहीं दिया। क्योंकि सौ रुपए के नोट का उसे कोई अर्थ ही नहीं होता, वह पहचानता है पैसों को। वह कहता है, एक पैसा उसको नहीं दिया, आप कैसे कठोर हैं! आया था मांगने, कागज पकड़ा दिया? भूखा था, कागज से क्या होगा? एक पैसा दे देते कम से कम। और वह लड़का जाकर गांव में कहे कि बड़ी कठोरता है मेरे घर में, एक भिखमंगा आया था तो उसको कागज का टुकड़ा पकड़ा दिया! कागज के टुकड़े से किसी की भूख मिटी? एक रोटी भी दे देते, एक पैसा दे देते कम से कम। लेकिन पैसे का सिक्का बच्चा पहचानता है, रुपए के सिक्के का उसे कोई मतलब नहीं है, और सौ रुपए के नोट का कोई अर्थ नहीं है।

महावीर निकल रहे हैं एक रास्ते से, एक आदमी किनारे पर समझो लंगड़ा होकर पड़ा है। हम पैसे के सिक्के पहचानने वाले लोग हैं। अगर महावीर उतर जाएं और उसके पैर दबाएं तो हम एक फोटो निकाल लें, अखबार में छापें कि बड़ा अदभुत सेवक है। लेकिन महावीर निकलते वक्त और क्या उसको चुपचाप दान करते हुए चले गए हैं, वह हमें दिखाई नहीं पड़ सकता, उसको भी नहीं दिखाई पड़ सकता। वह जो, जो लंगड़ा पड़ा है किनारे, वह भी यह कहेगा, कैसा दुष्ट आदमी है कि मैं यहां लंगड़ा पड़ा हूं और वह चुपचाप चला जा रहा है।

लेकिन किसी के चुपचाप चलने में इतनी किरणें झर सकती हैं, इतनी तरंगें पैदा हो सकती हैं, इतना दान हो सकता है कि हाथ का महावीर उपयोग भी न करना चाहें। हाथ के उपयोग का कोई मतलब भी नहीं है। क्योंकि महावीर की गहरी से गहरी दृष्टि यह है कि जो शरीर नहीं है, उसे शरीर से कोई सहायता नहीं पहुंचाई जा सकती।

वह जो लंगड़ा पड़ा है, वह पैर से लंगड़ा है। लेकिन हमें खयाल नहीं है इस बात का कि दुख पैर के लंगड़े होने से नहीं पहुंचता, दुख तो लंगड़ा हूं इस चित्त के भाव से, इस आत्म-भाव से पहुंचता है।

और जरूरी नहीं है कि उस लंगड़े का आप पैर ठीक कर दें तो कोई लाभ ही हो जाए, यह भी जरूरी नहीं है। महावीर के तल पर क्या जरूरी है, वह वे जानते हैं। जानने का मतलब यह है कि कितनी करुणा वे उस पर फेंक सकते हैं, वे फेंक कर चुपचाप गुजर जाएंगे। और यह भी क्या बात करनी कि कोई जाने कि करुणा किसने फेंकी!

मैंने सुना है कि एक सूफी फकीर को एक रात किसी फरिश्ते ने दर्शन दिए और कहा कि परमात्मा बहुत खुश है और चाहता है कि तुम कुछ मांग लो, तो मैं वरदान दे दूं। पर उसने कहा कि जब परमात्मा खुश है तो इससे बड़ा और वरदान क्या हो सकता है? बात खतम हो गई। मिल गया सब, जो मिलना था। लेकिन उस फरिश्ते ने कहा, नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा। कुछ मांगो! कुछ भी मांगो!

पर उसने कहा कि अब कोई कमी ही न रही। जब परमात्मा खुश है, अब कमी क्या रही? और जब परमात्मा ही खुश हो गया तो अब खुशी ही खुशी है, अब दुख आएगा कहां से? तो अब मैं मांगूं क्या? अब मुझे भिखारी मत बनाओ, अब तो मैं सम्राट हो गया। क्योंकि जब परमात्मा मुझ पर खुश है तो अब मुझे भिखारी मत बनाओ, अब मुझे क्षमा कर दो, अब मुझे मांगने को मत कहो।

लेकिन फरिश्ता है कि नहीं मानता है। तो उसने कहा कि अब तुम नहीं मानते हो तो तुम्हीं दे जाओ, मैं नहीं मांगूंगा। तुम्हें जो देना हो, दे जाओ। तो उस फरिश्ते ने कहा कि मैं तुम्हें यह वरदान देता हूं कि तुम जिसको छू दो, मरा हो तो जिंदा हो जाए, बीमार हो तो स्वस्थ हो जाए, वृक्ष सूख गया हो तो हरे पल्लव निकल आएं, हरे फूल निकल आएं। उसने कहा, वह देते हो तो वह तो ठीक; लेकिन सीधा मुझे मत दो। सीधा मुझे मत दो। कहीं ऐसा न हो कि मुझे लगने लगे कि मेरे हाथ से यह बीमार ठीक हुआ। सीधे मत दो। क्योंकि बीमार को तो फायदा पहुंच जाएगा, मुझे नुकसान पहुंच जाएगा।

तो उस फरिश्ते ने कहा, और क्या उपाय हो सकता है?

उस फकीर ने कहा कि मेरी छाया को दे दो, कि मैं जहां से निकलूं अगर छाया पड़ जाए किसी वृक्ष पर और वह सूखा हो तो हरा हो जाए; लेकिन मुझे दिखाई भी न पड़े, क्योंकि मैं तब तक निकल ही चुका था। मैंने सूखा ही वृक्ष देखा था। मुझे पता भी नहीं चलेगा कि कब हरा हो गया। अगर किसी मरीज पर पड़ जाए, वह स्वस्थ हो जाए, लेकिन मुझे पता न चले। मुझे पता न चले, मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता। मैं मैं की झंझट में ही नहीं पड़ना चाहता।

फिर कहते हैं, उस फरिश्ते ने उसे वरदान दे दिया। फिर वह सूखे खेतों के पास से निकलता तो वे हरे हो जाते। और सूखे वृक्षों पर उसकी छाया पड़ जाती तो वर्षों के सूखे वृक्षों में पत्ते निकल आते। और बीमार ठीक हो जाते और मुर्दे जिंदा हो जाते, अंधों को आंख मिल जाती, बहरों को कान मिल जाते। यह सब उसके आस-पास घटित होने लगा, लेकिन उसे कभी पता नहीं चला। उसे पता चलने का कोई कारण न था, क्योंकि उसकी छाया से ये घटित होते थे। सीधा उसका कोई इनवाल्वमेंट, सीधा कुछ भी संबंध न था।

असल में जो परम स्थिति को उपलब्ध होते हैं, उनका होना मात्र करुणा है, उनकी मौजूदगी, प्रेजेंस मात्र। जो भी होता है, वह उनकी छाया से हो जाता है, उन्हें सीधा कुछ करना नहीं पड़ता। असल में जिनके पास वैसी छाया नहीं है, उन्हें सीधा कुछ करना पड़ता है। लेकिन वे पैसे के सिक्के हैं। हमें हिसाब मिल जाता है उनका कि इस आदमी ने कितनी सेवा की, कितने कोढ़ियों की मालिश की, कितने बीमारों का इलाज किया, कितने अस्पताल खोल कर पैर दबाए बीमारों के। ये बिलकुल कौड़ियों की बातें हैं, इनका कोई भी मूल्य नहीं है बहुत गहरे में।

श्री अरविंद को आजादी के शुरू के दिनों में आंदोलन में वह अति आतुर थे, और शायद उनसे प्रतिभाशाली कोई व्यक्ति हिंदुस्तान की आजादी के आंदोलन में कभी नहीं था। लेकिन अचानक एक मुकदमे के बाद वे सब छोड़ कर चले गए। मित्र उन्हें घेरे हुए पहुंचे कि जिससे प्रेरणा मिलती थी, वह आदमी चला गया। जाकर अरविंद से कहा कि तो आप भाग आए? अरविंद ने कहा, मैं भाग नहीं आया। पैसे-कौड़ी का काम तुम्हीं कर लो, वह तुम कर सकोगे। मैं कुछ और बड़े काम में लगता हूं, जो मैं कर सकता हूं।

क्या काम आप बड़ा करोगे?

उन्होंने कहा, वह तुम उसकी चिंता मत करो।

और यह जान कर कठिनाई होती है हमें कि इस मुल्क में भारत की स्वतंत्रता के लिए जितना काम अरविंद ने किया, उतना किसी ने भी नहीं किया। लेकिन भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में अरविंद का नाम शायद ही लिखा जाए। क्योंकि कौड़ियों से हिसाब रखने वाले लोग, अरविंद ने जो किया, उसका कोई हिसाब नहीं रख सकते। वह आदमी चौबीस-चौबीस घंटे जाग कर सारे प्राणों से इस मुल्क को जिस भांति आंदोलित करने की चेष्टा कर रहा है, उसका हम कोई हिसाब नहीं रख सकते! कैसे रखेंगे?

यानी यह हो सकता है कि गांधी में जो बल है, वह बल अरविंद का है, लेकिन इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। सुभाष में जो ताकत है, वह ताकत अरविंद की है। हिंदुस्तान की पूरे इस बगावत के और विद्रोह के और स्वतंत्रता के इतिहास में जो सबसे कीमती आदमी है वह कभी हिंदुस्तान की आजादी के इतिहास में उसका नाम उल्लेख नहीं होगा, यह पक्का मानो। लेकिन वह इस तल पर काम कर रहा है, जिस तल पर हमारी कोई पकड़ नहीं है। वह उन तरंगों को पैदा करने की कोशिश कर रहा है, जो मुल्क की सोई तंद्रा को तोड़ दें, जो विद्रोह के भाव को जगाएं, जो क्रांति की एक हवा लाएं। लेकिन हमें खयाल में नहीं है।

और जिस दिन कभी हजार, दो हजार साल बाद विज्ञान समर्थ होगा इन सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने में, शायद उस दिन हमें इतिहास बिलकुल बदल कर लिखना पड़े। जो लोग हमें बहुत बड़े-बड़े दिखाई पड़ते हैं इतिहास में, वे दो कौड़ी के हो सकते हैं; और जिन्हें हम कभी नहीं गिनते थे, वे एकदम परम मूल्य पा सकते हैं। क्योंकि वह जब तक सिक्का, सौ रुपए का नोट पहचान में न आए, तब तक बड़ी कठिनाई है।

अब अभी वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर एक फूल खिल रहा है…तो समझ लो एक फूल खिल रहा है, माली सुबह पानी डाल जाता है, खाद डाल देता है और घर चला जाता है। और एक संगीतज्ञ उसी के पास बैठ कर वीणा बजाता है। कल जब बड़े-बड़े फूल खिलें तो संगीतज्ञ को कौन धन्यवाद देने जाएगा? संगीतज्ञ से मतलब क्या है फूल का? माली को लोग पकड़ेंगे कि तूने इतना बड़ा फूल खिला दिया! तेरे खाद और पानी और तेरी सेवा ने!

लेकिन अब ध्वनि-शास्त्र कहता है कि माली कुछ भी क्या कर सकता है। उसके करने का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। लेकिन अगर व्यवस्था से संगीत पैदा किया जाए तो फूल उतना बड़ा हो जाएगा, जितना कभी भी नहीं हुआ था। जितनी उसकी बीज की संभावना ही थी पूर्ण, मैक्जिमम; उतनी संभावना को प्रकट हो जाएगा। ऐसा संगीत भी बजाया जा सकता है कि फूल सिकुड़ कर छोटा रह जाए। अब वह सिर्फ ध्वनियों का खेल है।

जब ध्वनियां फूलों को बड़ा कर सकती हैं, तो कोई वजह नहीं कि विशिष्ट चित्त की तरंगें देश की चेतना को ऊपर उठाती हों; बगावत, स्वतंत्रता की गति पैदा करती हों। लेकिन हम उसे नहीं पहचान सकेंगे। हम कैसे पहचानेंगे?

अब ये रूस और अमरीका, दोनों के वैज्ञानिक इस चेष्टा में संलग्न हैं कि क्या इस तरह की ध्वनित्तरंगें पैदा की जा सकती हैं कि पूरे मुल्क में लिथार्जी छा जाए? और इसमें वे काफी दूर तक सफल होते चले जा रहे हैं। कोई कठिनाई नहीं है कि आने वाला युद्ध बमों का युद्ध ही न हो, वह सिर्फ ध्वनित्तरंगों का युद्ध हो, आलस्य छा जाए। यानी रूस के रेडियो स्टेशंस इस तरह की ध्वनि-लहरियां पूरे भारत पर फेंक दें कि पूरे भारत का आदमी एकदम आलस्य में पड़ जाए। यानी उसको कुछ लड़ने का सवाल ही न रहे, कोई भाव ही न रहे। सैनिक एकदम सो जाएं। और हमारी कुछ समझ में न आए कि यह क्या हो गया, या धीरे-धीरे पहुंचाने पर हमें पता ही न चले कि यह कब हो गया। यह धीरे-धीरे होता चला जाए। और हमारे भीतर जो सक्रियता है, वह सारी की सारी छीन ली जा सके।

इस पर बड़ा काम चलता है। क्योंकि आखिर चारों तरफ ध्वनि की तरंगें हमें घेरे हुए हैं, उन पर निर्भर है कि हम क्या करें। लेकिन उससे भी गहरी तरंगें हैं, जिनका अभी विज्ञान को भी ठीक-ठीक पता नहीं हो पाता। उन तरंगों पर काम करने वाले लोग हैं।

महावीर ने कभी किसी की सेवा नहीं की और यह एक उनके ऊपर इल्जाम रहेगा। लेकिन तब तक यह इल्जाम रहेगा, जब तक हम पैसे के सिक्के पहचानते हैं। जिस दिन हम सौ रुपए के नोट पहचानना शुरू कर देंगे, उस दिन यह इल्जाम नहीं रह जाएगा। बल्कि हमको पता चलेगा जो पैर दबा रहे थे, वे इसीलिए दबा रहे थे कि और बड़ा कुछ वे नहीं कर सकते थे, इसलिए पैर दबा कर तृप्ति पा रहे थे। लेकिन पैर दबाने से होना क्या है?

महावीर की अहिंसा उस तल पर है, जिस तल पर सुख-दुख पहुंचाने का भाव भी विदा हो गया है, जहां सिर्फ महावीर जीते हैं–एक प्रेजेंस।

विज्ञान में इन्हीं तत्वों को कैटेलिटिक एजेंट कहते हैं। कैटेलिटिक एजेंट कहते हैं इन्हीं तत्वों को। ऐसे तत्वों को जिनकी मौजूदगी कुछ करती है, जो खुद कुछ नहीं करते हैं–कैटेलिस्ट। जो खुद कुछ करते ही नहीं, यानी जिनका कोई दान ही नहीं होता काम में, लेकिन जिनकी मौजूदगी के बिना भी कुछ नहीं हो सकता, जिनकी मौजूदगी से ही कुछ हो जाता है।

अब जैसे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन, इन दोनों को आप पास ले जाएं तो वे मिलते नहीं, अलग-अलग ही रहे आते हैं, पानी नहीं बनता। लेकिन बीच से बिजली चमक जाए, वे दोनों मिल जाते हैं। और विज्ञान बहुत खोज करता है, बिजली की चमक कोई भी कांट्रिब्यूशन नहीं करती, उन दोनों के मिलाने में उसका कोई दान नहीं है, सिर्फ उसकी प्रेजेंस, उसकी मौजूदगी में बस वे मिल जाते हैं। उससे न कुछ जाता, न कुछ आता; न कुछ मिलता, न कुछ छूटता; बस वह मौजूद हो जाती है और वे मिल जाते हैं।

जिस भांति भौतिक तल पर कैटेलिटिक एजेंट हैं, कैटेलिस्ट हैं, हमारे खयाल में नहीं है कि आध्यात्मिक तल पर भी कुछ लोगों ने उस स्थिति को छुआ है, जहां उनकी मौजूदगी सिर्फ काम करती है, जहां वे कुछ भी नहीं करते। यानी महावीर की मौजूदगी इतने काम कर देगी उस जगत में, जब वे मौजूद हैं उस लोक में, उस युग में, और महावीर कुछ भी नहीं करेंगे, वे सिर्फ हो जाएंगे, उनका होना काफी है। चेतना के तल पर उनकी मौजूदगी हजारों-लाखों चेतनाओं को जगा देगी, स्वस्थ कर देगी; यह सब हो जाएगा।

लेकिन अभी इसकी खोज-बीन होनी बाकी है वैज्ञानिक तल पर। आध्यात्मिक तल पर तो खोज-बीन पुरानी है, पूरी हो चुकी है, लेकिन विज्ञान की भाषा में समझाया जा सके, यह कभी हमने सोचा ही नहीं है। इस तरफ हम कभी सोचते नहीं हैं। यह कभी आप सोचते ही नहीं हैं कि आप हर हालत में वही नहीं होते, आप हर उपस्थिति में बदल जाते हैं।

अगर आप मेरे सामने हैं तो आप वही आदमी नहीं हैं, जो घड़ी भर पहले थे; और मेरे सामने नहीं हैं तो आप वही आदमी नहीं होंगे, जो आप मेरे सामने थे। आपके भीतर कुछ ऐसा उठ आएगा, जो आपके भीतर कभी नहीं उठा था। और मैं उसमें कुछ भी नहीं कर रहा हूं। वह उठ सकता है, मौजूदगी में ही उठ सकता है।

तो बहुत गहरे तल पर काम करने वाले लोग हैं, बहुत गहरे तल पर सेवा है। लेकिन हम चूंकि पैसों के सिक्के पहचानते हैं, इसलिए कठिनाई हो जाती है। महावीर पर यह इल्जाम रहेगा, इसको अभी मिटाया नहीं जा सकता। लेकिन मैं मानता हूं कि जिस दिन यह मिटेगा, उस दिन जिनकी वजह से यह इल्जाम था, वे एकदम दो कौड़ी के हो जाने वाले हैं। और महावीर एक नए अर्थ में प्रकट होंगे, जिसका हिसाब लगाना अभी मुश्किल है।

अरविंद ने जरूर एक चेष्टा की है इस युग में, भारी चेष्टा की है, बड़ा श्रम उठाया है इस दिशा में, लेकिन उनको भी पहचानना मुश्किल पड़ता है और उनको भी साथ और सहयोग नहीं मिल पाता। यह हमारी कल्पना के ही बाहर है कि एक गांव में एक आदमी के हट जाने से पूरा गांव बदलता है। वह कुछ भी नहीं करता था आदमी, बस था, तो भी गांव बदलता है।

जबलपुर में एक फकीर थे–कल ही मौनू उनकी बात करती थी–एक फकीर थे मग्घा बाबा। तो वे ऐसे अदभुत आदमी हैं कि उनकी चोरी भी हो जाती है–उनकी! उन्हें कोई अगर उठा कर ले जाए तो वे चले जाते हैं! उनकी कई दफे चोरी हो चुकी है, वर्षों के लिए खो जाते हैं! क्योंकि कोई गांव उनको चुरा कर ले जाता है। क्योंकि उनकी मौजूदगी के भी परिणाम हैं। अभी वे दो साल से चोरी चले गए हैं। इधर दो साल से बड़ी मुश्किल हो गई है, उनका कोई पता नहीं चलता, कौन ले गया उनको उठा कर!

ऐसा कई दफा हो चुका है कि उनको किसी ने उठा कर गाड़ी में रख लिया तो वे यह भी नहीं कहते कि क्या कर रहा है? वे यह भी नहीं कहते, वे बैठ जाते हैं। वे यह भी नहीं पूछते, कहां ले जा रहा है? काहे के लिए ले जा रहा है? यह सब बात ही नहीं करते वे।

मगर उनकी मौजूदगी के परिणाम हैं। और ये लोगों को पता चल गए हैं, तो उनको लोग चुरा कर ले जाते हैं। और जिस गांव में वे होते हैं, जिस घर में वे होते हैं, वहां की सब हवा बदल जाती है। और वे कुछ भी नहीं करते, वे पड़े रहते हैं, सोए रहते हैं ज्यादातर! न वे कुछ कभी बोलते, न कुछ चालते; लोग आकर उनकी सेवा करते रहते हैं। ऐसा अक्सर हो जाता कि उनको चौबीस घंटे ही नहीं सोने देते। क्योंकि उनके कोई पांव दबा ही रहे हैं दो-चार लोग।

एक दफे मैं रात उनके पास से गुजरा, कोई दो बजे रात थी, मैंने उनको कहा तो उन्होंने मुझसे कहा कि मुझ पर कुछ कृपा करो, लोगों को समझाओ। चौबीस घंटे दबाते रहते हैं। और दो-चार आदमी इकट्ठे दबा रहे हैं! और वह बेचारा बूढ़ा आदमी लेटा है, कोई पैर दबा रहा है, कोई सिर दबा रहा है। क्योंकि उनकी सेवा का आनंद भी है और उनके पास होने का ही आनंद है। कोई जरूरत नहीं कि वे कुछ कहें। वे कभी आमतौर से बोलते नहीं। यह हमें खयाल में ही नहीं है।

और इसलिए दूसरी बात भी जो किसी प्रश्न में पूछी है, वह मैं ले लूं, इससे संबंधित है, वह यह पूछी है कि जैसे जैनों के चौबीस तीर्थंकर–बहुत बड़ी तो विशाल पृथ्वी है, इस विशाल पृथ्वी पर इस छोटे से भारत में और इस छोटे से भारत में भी दोत्तीन प्रदेशों में ही ये चौबीस तीर्थंकर क्यों हुए? ये हर कहीं क्यों नहीं हो गए?

ये हर कहीं नहीं हो सकते। क्योंकि प्रत्येक की मौजूदगी दूसरे के होने की हवा पैदा करती है। यह चेन है। इसमें ऐसा नहीं है मामला, यानी इसमें वह जो एक मौजूद था, उसने उस क्षेत्र की, उस प्रदेश की, उस व्यवस्था की चेतना को एकदम ऊंचा उठा दिया। इस ऊंची उठी चेतना में ही दूसरा तीर्थंकर पैदा हो सकता है, एक शृंखला है उसमें।

और यह भी जान कर आप हैरान होंगे कि जब दुनिया में महापुरुष पैदा होते हैं, तो करीब-करीब एक शृंखला की तरह सारी पृथ्वी को घेरते हैं, और उसका कारण होता है चेन। जैसे कि समझें जरथुस्त्र, लाओत्से, मेंशियस, च्वांगत्से चीन में हुए–पांच सौ साल के घेरे में! महावीर, बुद्ध, गोशालक, अजित, संजय, ये सब हुए; पूर्ण, ये सब हुए; उसी पांच सौ वर्ष के बीच में बिहार में! सिर्फ बिहार में, छोटे से प्रदेश में! उन्हीं पांच सौ वर्षों में एथेंस में सुकरात, अरस्तू, प्लेटो–उन्हीं पांच सौ वर्षों में! इन पांच सौ वर्षों में सारी पृथ्वी पर एक चेन घूम गई।

क्योंकि जब एक…जैसे कि अब विज्ञान समझता है चेन एक्सप्लोजन: कि अगर हम एक हाइड्रोजन बम के एटम को फोड़ दें तो उसकी गर्मी से पड़ोस का दूसरा हाइड्रोजन एटम फूट जाएगा; उसकी गर्मी से तीसरा; उसकी गर्मी से चौथा। और एक हाइड्रोजन बम के फूटने पर पृथ्वी नहीं बचेगी, क्योंकि चेन-एक्शन में सारे पृथ्वी के हाइड्रोजन एटम्स टूटने लगेंगे।

सूरज इसी तरह गर्मी दे रहा है। सिर्फ पहली दफा एक हाइड्रोजन एटम एक्सप्लोड हुआ होगा कभी, अरबों-खरबों वर्ष पहले। वह कैसे हुआ होगा, यह दूसरी बात है। वह भी हुआ होगा किसी बड़े तारे की मौजूदगी से, जो करीब से गुजर गया होगा। इतना गर्म रहा होगा वह तारा कि उसके करीब से गुजरने से एक एटम टूट गया होगा; उसके टूटने से उसके पड़ोस का एटम टूटा, उसके टूटने से उसके पड़ोस का। और तब से सूरज के आस-पास जो हीलियम गैस इकट्ठी है, उसके एटम्स टूटते चले जा रहे हैं। उन्हीं से हमको रोज गर्मी मिल रही है। और इसीलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार साल बाद सूरज ठंडा हो जाएगा। क्योंकि अब जितने एटम्स बचे हैं, वे चार हजार साल में खतम हो जाएंगे। वह चेन एक्सप्लोजन चल रहा है।

जैसा पदार्थ के तल पर शृंखलाबद्ध एक्सप्लोजन होता है कि इस मकान में आग लग गई तो पड़ोस के मकान में आग लग जाए; पड़ोस के मकान में लग गई तो उसके पड़ोस में आग लग जाए। और हो सकता है यहां किसी ने एक दीया जलाया था और उस दीए से आग पकड़ गई और पूरा गांव जल जाए–चेन पकड़ जाए।

तो जब कभी एक्सप्लोजन होता है चेतना का तो चेन पकड़ जाती है एकदम। यानी एक आदमी महावीर की कीमत का पैदा होता है तो वह संभावना पैदा कर देता है उस कीमत के सैकड़ों लोगों के पैदा होने की।

ऊपर से दिखता है कि बुद्ध और महावीर दुश्मन हैं, लेकिन महावीर के एक्सप्लोजन का फल हैं बुद्ध। फल इस अर्थों में कि अगर महावीर न हों तो बुद्ध का होना मुश्किल है। ऊपर से लगता है कि अजित, पूर्ण काश्यप, गोशालक, सब विरोधी हैं; लेकिन किसी को खयाल नहीं है इस बात का कि वे सब एक ही चेन के हिस्से हैं। वह एक का एक्सप्लोजन जो हुआ है, तो हवा बन गई है, उसकी प्रेजेंस ने सारी चेतनाओं को इकट्ठा कर दिया है और आग पकड़ गई है। अब इस आग पकड़ने में जिनकी संभावना ज्यादा होगी, वे उतनी तीव्रता से फूट जाएंगे।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि एक युग में एक तरह के लोग सारी पृथ्वी पर पैदा हो जाते हैं। एक वक्त में, एक प्रदेश में एकदम से प्रतिभा प्रकट होती है। यह प्रतिभा के भी आंतरिक नियम और कारण हैं। तो चौबीस तीर्थंकरों का पैदा होना सीमित क्षेत्र में, वहीं-वहीं, एक ही देश में, उसका कारण है। उस तरह की प्रतिभा के एक्सप्लोजन के लिए, विस्फोट के लिए हवा चाहिए, इसलिए चेन।

प्रश्न:

 

चेन में चौबीस ही क्यों होते हैं? पच्चीस नहीं होते, तीस नहीं होते?

हां, उसका भी कारण है। उसका कारण–संख्या से कुछ भी संबंध नहीं है। असल में पच्चीस होते हैं, छब्बीस होते हैं, सत्ताईस होते हैं, कितने ही हो सकते हैं, उसका कोई संबंध नहीं है।

लेकिन जब किसी चेन में एक बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा हो जाता है–एक चेन में; यानी चौबीस तीर्थंकरों की चेन में महावीर सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली व्यक्ति है। वह इतना प्रतिभाशाली है कि उसके आस-पास के लोगों को लगा कि अब किसी की कोई जरूरत नहीं है इस चेन में। परम बात हमें उपलब्ध हो गई है। जो जानना था, वह जान लिया गया है; जो पहचानना था, वह पहचान लिया गया है; जो कहना था, वह कह दिया गया है।

और अनुयायी तो हमेशा डरा होता है। वह डरा होता है कि अगर प्रतिभा के लिए आगे द्वार रखो खुले, तो प्रतिभा हमेशा विद्रोही है और प्रतिभा हमेशा अस्तव्यस्त कर देती है, अराजक है। तो अनुयायी भयभीत होता है, वह अपनी सिक्योरिटी के लिए व्यवस्था कर लेता है। वह कहता है, अब बस ठीक।

प्रश्न:

 

बीस तलक क्या कम है?

हां, कम ही हैं। महावीर के मुकाबले कोई आदमी नहीं है। महावीर के मुकाबले कोई आदमी ही नहीं है उन चौबीस में ही। यह अकारण नहीं है कि महावीर केंद्र बन गए। यह अकारण नहीं है। उन चौबीस में महावीर के मुकाबले कोई आदमी नहीं है। ज्ञान तो वही उपलब्ध होता है सबको, लेकिन महावीर के बराबर टीचर नहीं है कोई, अभिव्यक्त नहीं कर पाता है कोई।

प्रश्न:

 

समझा नहीं पाता?

मझा नहीं पाता है, खबर नहीं पहुंचा पाता है।

प्रश्न:

 

आज की दुनिया में महावीर की प्रतिभा का कोई हो सकता है?

होता ही रहता है। वह तो अगर जैन मना कर देते हैं तो पच्चीसवां जो है, वह नंबर एक बन जाता है किसी दूसरी शृंखला का। उसका कोई कारण नहीं है। अगर पच्चीसवां होता तो बुद्ध को अलग शृंखला की जरूरत न पड़ती, बुद्ध पच्चीसवें हो जाते।

कठिनाई जो है–कठिनाई जो है कि जब भी कोई परंपरा अपने अंतिम पुरुष को पा लेती है, ऊंचाई से ऊंचाई, तो फिर वह उसके बाद दूसरों के लिए द्वार बंद कर देती है–स्वाभाविक रूप से, क्योंकि फिर उपद्रव वह नहीं लेना चाहती। क्योंकि नई प्रतिभा नया उपद्रव लाती है। इसलिए वह सुनिश्चित हो जाती है। वह कहती है, हमारी बात पूरी हो गई, हमारा शास्त्र पूरा हो गया, अब हम शृंखलाबद्ध हो जाते हैं, अब हम दूसरे को मौका नहीं देंगे। इसीलिए फिर वह जो पच्चीसवां–व्यक्ति तो निरंतर पैदा हो रहे हैं–उस पच्चीसवें को नई शृंखला का पहला होना पड़ता है। बुद्ध पच्चीसवें हो गए होते, कोई कारण न था, कोई बाधा न थी, अगर इन्होंने द्वार खुले रखे होते।

लेकिन एक और कारण हो गया कि बुद्ध मौजूद थे उसी वक्त और द्वार बंद कर देने एकदम जरूरी हो गया–अनुयायी को जरूरी हो गया। क्योंकि अगर बुद्ध आते हैं तो सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। अस्तव्यस्त यह हो जाएगा कि बहुत कुछ जो महावीर कह रहे हैं, उसको अस्तव्यस्त कर देंगे, नई व्यवस्था देंगे। वह नई व्यवस्था मुश्किल में डाल देगी। इसलिए एकदम बुद्ध की मौजूदगी की वजह से एकदम दरवाजा बंद कर दिया कि चौबीस से ज्यादा हो ही नहीं सकते, और चौबीसवां हमारा हो चुका है।

प्रश्न:

 

यह अनुयायियों ने किया?

नुयायियों की व्यवस्था है सारी। अनुयायी बहुत भयभीत है, एकदम भयभीत है। समझ लें कि आप मुझे प्रेम करने लगे और मेरी बात आपको ठीक लगने लगे, तो आप एकदम दरवाजा बंद कर देंगे, क्योंकि आपको यह लगेगा कि दूसरा आदमी अगर आता है और फिर वह ये सब इनकी बातें गड़बड़ कर दे तो आपको पीड़ा होगी उससे। तो आप दरवाजा ही बंद कर देंगे कि बस, अब कोई जरूरत नहीं।

इसलिए मोहम्मद के बाद मुसलमानों ने दरवाजा बंद कर दिया! उनकी शृंखला में मोहम्मद अद्वितीय आदमी आ गया। जीसस के बाद ईसाइयों ने दरवाजा बंद कर दिया। जीसस के पहले बहुत पैगंबर हुए, लेकिन जीसस के बाद उन्होंने एकदम बंद कर दिया! यह जो बंद करना है…। बुद्ध के बाद बौद्धों ने बंद कर दिया, अब कोई बुद्ध पुरुष नहीं पैदा होगा। एक मैत्रेय की कल्पना चलती है कि कभी बुद्ध एक और अवतार लेंगे मैत्रेय का, लेकिन वह भी बुद्ध ही लेंगे, वह कोई दूसरा आदमी नहीं होने वाला है।

प्रश्न:

 

हिंदुस्तान में अभी कोई आध्यात्मिक तल पर ऐसी कोई श्रृंखला रामकृष्ण, विवेकानंद या अरविंद, इनके जैसे व्यक्तियों की कोई श्रृंखला चल रही है? इन दो सौ, तीन सौ साल में ऐसा कोई हुआ है?

हां, यहां सबसे ज्यादा प्रभावशाली आदमी इन दोत्तीन सौ वर्षों में रमण और कृष्णमूर्ति हैं पीछे। लेकिन न तो रमण के पीछे शृंखला बन सकी, और कृष्णमूर्ति के पीछे भी नहीं बनेगी। कृष्णमूर्ति बनाने के विरोध में हैं। और रमण के पीछे बन नहीं सकी। उस कीमत का आदमी नहीं मिला जो बढ़ा सके आगे बात को या कुछ जोड़ दे सके। रामकृष्ण को विवेकानंद मिले। विवेकानंद बहुत शक्तिशाली व्यक्ति हैं, अनुभवी नहीं हैं। तो शक्तिशाली होने की वजह से उन्होंने चक्र तो चला दिया, लेकिन चक्र में ज्यादा जान नहीं है, इसलिए वह जाने वाला नहीं है। रामकृष्ण बहुत अनुभवी हैं, लेकिन टीचर होने की, तीर्थंकर होने की कोई स्थिति उनकी नहीं है। शिक्षक वे नहीं हो सकते।

इसलिए पहली दफा…ऐसा कई दफा होता है कि जब कोई व्यक्ति शिक्षक नहीं हो सकता तो वह दूसरे व्यक्ति के कंधे पर रख कर शिक्षण का काम करता है। तो रामकृष्ण ने विवेकानंद के कंधे पर रख कर हाथ शिक्षण का काम विवेकानंद से ले लिया है।

लेकिन गड़बड़ हो गई। गड़बड़ यह हो गई कि रामकृष्ण अपने आप शिक्षक हो नहीं सकते, वह संभावना ही नहीं है। और विवेकानंद अनुभवी नहीं हैं, इसलिए विवेकानंद माऊथपीस हो गए रामकृष्ण के। और विवेकानंद ने जो कहा, उससे रामकृष्ण का कौड़ी भर संबंध नहीं है। बहुत गड़बड़ हो गई। इतना अस्तव्यस्त हो गया सब मामला।

और फिर रामकृष्ण की मृत्यु हो गई, फिर विवेकानंद रह गए। और विवेकानंद ने जो शक्ल दे दी उस पूरी व्यवस्था को, वह विवेकानंद की है। विवेकानंद एक बहुत बड़े आर्गनाइजर हैं, बड़े व्यवस्थापक हैं। अगर विवेकानंद का ही अनुभव होता खुद, तो एक चेन शुरू हो जाती, लेकिन वह नहीं हो सकी। क्योंकि विवेकानंद का खुद का कोई अनुभव नहीं है और जिसका अनुभव है, वह व्यवस्थापक नहीं है! वह टूट गई।

रमण के साथ हो सकती थी घटना, क्योंकि उसी कीमत के आदमी हैं, जिसके बुद्ध या महावीर; लेकिन वह नहीं हो सका, क्योंकि कोई आदमी नहीं उपलब्ध हो सका। कृष्णमूर्ति उसके विरोध में हैं, इसलिए कोई सवाल उठता नहीं।

प्रश्न:

 

पश्चिम में है कि नहीं चेन?

श्चिम में भी चेन है, पश्चिम में भी फकीरों की चेन है। जैसे जीसस की चेन चली थोड़े दिन तक, फिर उस चेन का द्वार बंद हो गया। उसके बाद दूसरी चेन चली।

प्रश्न:

 

आज इन सौ, दो सौ वर्षों में कोई नाम है पश्चिम में।

हां, हां, अभी है न! जैसे एकहार्ट जर्मनी में हुआ, तो अदभुत कीमत का आदमी हुआ, लेकिन शिक्षक नहीं है। हजार संभावनाएं इकट्ठी हों, तब कहीं एक चेन गति पकड़ती है; नहीं तो नहीं पकड़ती। एकहार्ट बहुत कीमत का आदमी है, जीसस की कीमत का आदमी है; लेकिन चेन नहीं पकड़ सकी, क्योंकि वह कोई शिक्षक नहीं है। वह बातें कहता है, वे बेबूझ हो जाती हैं, वह समझा नहीं पाता।

और बातें बेबूझ हैं। समझाने की बहुत समझ न हो तो उनको समझाया ही नहीं जा सकता। एकदम कंट्राडिक्टरी बातें हैं, बहुत समझ हो तो ही उनके कंट्राडिक्शंस को मिटाया जा सकता है और समझ के करीब लाया जा सकता है।

बोहमे हुआ जर्मनी में, वह भी चेन बन सकता था, लेकिन नहीं बन सका।

कैथलिक चेन कुछ अर्थों में जिंदा धीरे-धीरे चल रही है; लेकिन कोई बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति नहीं है जो कि उसको गति दे सके।

सब चेन धीरे-धीरे मर जाती हैं। जैसे जापान में झेन की चेन चलती है, उसमें अभी भी एक प्रतिभाशाली आदमी था सुजुकी, लेकिन वह मर गया। उसने बड़ी कोशिश की कि वह गति दे दे, लेकिन वह गति नहीं हो पाई।

और फिर होता क्या है, कठिनाई क्या होती है? जब कोई महापुरुष एक शृंखला को जन्म दे जाता है तो अगर उसके पास बहुत छोटे-मोटे लोग इकट्ठे हो जाएं और वे उसके दावेदार हो जाएं तो दोहरा नुकसान पहुंचता है। वे तो खुद चला नहीं सकते कुछ, सिर्फ मार सकते हैं। दूसरा नुकसान यह पहुंचता है कि कोई अगर प्रतिभाशाली व्यक्ति उस चेन में पैदा भी हो जाए तो उसे चेन के बाहर कर देते हैं वे फौरन! वह जो नासमझों की भीड़ है, वह उसे एकदम बाहर कर देती है!

असल में जीसस यहूदी चेन का हिस्सा हो सकता था। तो यहूदियों के तीर्थंकर हुए हैं बहुत अदभुत। खुद जॉन था, जिसने जीसस को बपतिस्मा दिया। वह बड़ा कीमती व्यक्ति था, जीसस की कीमत का आदमी था। और उसने जीसस को निकट लेकर सत्संग दिया। लेकिन यहूदी भीड़ जीसस को बरदाश्त नहीं कर सकी, इतने कीमती आदमी को। तो उसने, भीड़ ने बाहर कर दिया उनको। इसलिए यहूदियों का बेटा यहूदियों के बाहर हो गया और ईसाइयत शुरू हो गई!

ईसाइयत–अब ईसाइयत के बीच जो भी कीमती आदमी पैदा होता है, ईसाइयत उसको बाहर कर देती है फौरन! होता क्या है कि वह जो भीड़ नासमझों की इकट्ठी हो जाती है, वह फिर किसी प्रतिभा को बरदाश्त नहीं करती। और जो प्रतिभा चेन को जिंदा रख सकती है, उसको वह बाहर कर देती है, तब नई चेनें शुरू हो जाती हैं। ऐसे दुनिया में कोई पचास चेन चली हैं, मरी हैं। थोड़ा-बहुत चलती हैं, टूटती हैं, मिट जाती हैं।

और इसलिए मेरा कहना है कि दुनिया को जितना आध्यात्मिक लाभ पहुंच सकता था इन सबसे, वह नहीं पहुंच पाया। और अब हमें चाहिए कि हम सारी व्यवस्था तोड़ दें संप्रदाय की, ताकि प्रतिभा को बाहर निकालने का उपाय भी न रह जाए कहीं से भी। वह निकालने की बात ही नहीं रह जाती।

अब जैसे मैं मानता हूं कि किसी भी, किसी भी–जैसे थियोसाफी की चेन थी; बड़ी कीमती चेन थी, उसे ब्लावट्स्की ने शुरू किया और कृष्णमूर्ति तक वह आई। लेकिन कृष्णमूर्ति इतने ज्यादा बोल्ड साबित हुए, इतने साहसी, कि थियोसाफिस्ट ही बरदाश्त नहीं कर सके! तो थियोसाफिस्टों ने तो बाहर कृष्णमूर्ति को कर दिया! थियोसाफिस्ट चेन मर गई। वह मर गई इसलिए कि जो कीमती आदमी उसको आगे गति दे सकता था, उसको तो बाहर निकाल दिया।

अगर दुनिया से संप्रदाय मिट जाएं, सीमाएं मिट जाएं, तो विस्फोट ज्यादा व्यापक हो सकता है। विस्फोट छू नहीं पाता। जैसे समझो, इस मकान में आग लगी है तो पड़ोस के मकान में इसीलिए आग लग सकती है कि वह इससे जुड़ा हुआ है, और अगर बीच में एक गली है तो नहीं लग सकती–गैप है बीच में। अब अगर रमण पैदा भी हो जाएं तो ईसाई से उनका कोई संबंध नहीं जुड़ता, क्योंकि एक गैप है, मकान अलग-अलग ही हैं।

तो चेन बहुत दफे पैदा होती है, शृंखला आग की, लेकिन अलग-अलग टुकड़े बना कर रखे हुए हैं, वह उसी में भटक कर मर जाती है, बाहर जाने का उपाय नहीं। और दुबारा अगर कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति हो तो वह खुद ही भीड़ जो है घरों की, वह उसे निकाल बाहर कर देती है कि हमारे घरों में इसे रहने नहीं देना, यह आग लगवा देगा। और उसको फिर नया घर बनाना पड़ता है। और नया घर मुश्किल पड़ता है। मुश्किल पड़ने का मतलब यह होता है कि वह मुश्किल से जिंदगी भर में थोड़े-बहुत लोग इकट्ठे कर पाता है, और फिर उसके साथ यही होता है।

तो अब तक आध्यात्मिक जगत में जो नुकसान पहुंचता रहा है मनुष्य को, वह इसलिए पहुंचता रहा है कि संप्रदाय हैं, सीमाएं हैं–वे बहुत सख्त और मजबूत हो जाती हैं। पच्चीसवां तीर्थंकर पैदा हो सकता है निरंतर, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। छब्बीसवां होगा, इसमें कोई सवाल ही नहीं है। कोई सीमा नहीं है, कोई संख्या नहीं है।

प्रश्न:

 

महावीर का कुछ काम बाकी रहे, तब पच्चीसवां होगा?

काम तो खतम होता ही नहीं यहां। महावीर का थोड़े ही कोई काम है! महावीर का कोई काम नहीं है। काम तो यहां अज्ञान और ज्ञान की लड़ाई का है। काम तो यहां मर्ूच्छा और अमर्ूच्छा का है। महावीर का थोड़े ही कोई काम है।

प्रश्न:

मोहमडंस में भी हुए हैं मोहम्मद के बाद?

हां न! मोहम्मद के बाद बहुत लोग हुए, लेकिन उनको निकाल दिया मुसलमानों ने बाहर। जैसे बायजीद हुआ, बाहर निकाल दिया फौरन! जैसे कि मंसूर हुआ, तो गर्दन उड़ा दी उसकी! तो मोहम्मद के बाद जो भी कीमती आदमी हुए, वह अलग हिस्सा हो गया सूफियों का। वह एक अलग ही टुकड़ा हो गया, वह उसको, उसको मुसलमान फिक्र नहीं करता उसके मानने की! वह उसको फौरन अलग कर देंगे। वह कीमती जो आदमी हुआ, वह अलग हो जाएगा।

और फिर सूफियों में भी सिलसिले बढ़ते चले जाएंगे! जैसे कि मंसूर हुआ तो मंसूर को जो मानने वाला है, वह अगर उसके बीच में कोई आदमी पैदा हुआ जो मंसूर…।

प्रश्न:

 

सूफी किसे कहते हैं?

सूफी मुसलमानों के बीच में क्रांतिकारी रहस्यवादियों का वर्ग है। जैसे कि बौद्धों में झेन फकीरों का वर्ग है, ऐसा वह वर्ग है। जैसे यहूदियों में हसीद फकीरों का वर्ग है। ये सब बगावती लोग हैं, जो परंपरा में पैदा होते हैं, लेकिन इतने कीमती हैं कि उनको बगावत करनी पड़ती है।

अब जैसे कि मोहम्मद के पीछे नियम बना कि एक ही अल्लाह है और उस अल्लाह का एक ही पैगंबर है मोहम्मद। सूफियों ने कहा कि एक ही अल्लाह है, यह तो बिलकुल सच है; लेकिन एक ही पैगंबर नहीं है मोहम्मद, पैगंबर हजार हैं।

बस झगड़ा शुरू हो गया। सूफियों ने कहा, पैगंबर हजार हैं, पैगंबरों की क्या गिनती है! यानी ईश्वर एक है, यह तो ठीक है। तो मुसलमान जब मस्जिद में नमाज पढ़ता है तो वह कहता है, एक ही परमात्मा है और एक ही उसका पैगंबर, मोहम्मद। सूफी भी मस्जिद में नमाज पढ़ता है, लेकिन वह कहता है, एक ही परमात्मा है, लेकिन पैगंबर तो हजार हैं। यानी पैगंबर का क्या हिसाब है? संदेश लाने वाले तो हजार हैं।

लेकिन यह मुसलमान इसको बरदाश्त नहीं कर सकता। क्योंकि यह कहता है, महावीर भी ठीक, बुद्ध भी ठीक, जीसस भी ठीक, ये सभी पैगंबर हैं! इसमें कोई बाधा नहीं है। एक की ही खबर लाने वाले ये अनेक लोग हैं। मगर यह मुसलमान की बरदाश्त के बाहर है।

अभी मैंने एक किताब, कोई एक मेरा वक्तव्य था, वह छपा। तो उसमें मैं महावीर के साथ मोहम्मद और ईसा का नाम लिया। तो एक बड़े जैन मुनि हैं, जिनके बहुत भक्त हैं, उनको वह किताब किसी ने दी तो उन्होंने उसे उठा कर फेंक दिया और कहा कि मोहम्मद का नाम और महावीर के साथ? कहां मोहम्मद और कहां महावीर! महावीर सर्वज्ञ, तीर्थंकर और मोहम्मद साधारण अज्ञानी! कहां इसका मेल बिठालते हैं! दोनों का नाम साथ ले दिया, यही पाप हो गया! फिर उन्होंने कहा, इसको मैं पढ़ ही नहीं सकता आगे।

तो वही मोहम्मद का मानने वाला भी कहेगा न कि महावीर का नाम मोहम्मद के साथ ले दिया? कहां मोहम्मद पैगंबर और कहां महावीर! क्या रखा है महावीर में?

तो वह जो सूफी कहेगा कि सब पैगंबर उसी के, वह बरदाश्त के बाहर हो जाएगा।

अज्ञानियों की भीड़ में ज्ञान सदा बरदाश्त के बाहर है, इसलिए कठिनाई हो जाती है।

और शृंखलाएं चलती हैं और मर जाती हैं। अब तक कोई शृंखला ऐसी नहीं बन पाई…।

प्रश्न:

 

आप जो कहते हैं कि जीसस क्राइस्ट, कृष्ण, मोहम्मद, इन सबका नाम साथ में ले रहे हैं तो आपका मानना यह है कि सबकी चेतना सरीखी है, या सब कौमों को साथ में करना है इसलिए आप कहते हैं?

हीं, नहीं, सबको साथ करना ही नहीं है, सबकी सरीखी है, वे साथ हैं ही।

प्रश्न:

 

चेतनाएं सबकी सरीखी हैं?

बिलकुल सरीखी हैं, साथ करने का सवाल ही नहीं है। साथ करके भी क्या फर्क…?

प्रश्न:

 

सबको साथ करने के लिए आप नाम नहीं लेते?

रा भी नहीं, जरा भी नहीं। उनकी चेतना बिलकुल सरीखी है।

प्रश्न:

 

अभिव्यक्ति सबकी अलग-अलग है?

 

भिव्यक्ति बिलकुल अलग-अलग है, होने ही वाली है। मोहम्मद मोहम्मद हैं, महावीर महावीर हैं, अभिव्यक्ति अलग-अलग होगी। मोहम्मद जो बोलेंगे, वह मोहम्मद का बोलना है, अपनी भाषा होगी, अपनी परंपरा के शब्द होंगे। महावीर की अपनी भाषा होगी, अपनी परंपरा के शब्द होंगे। अभिव्यक्ति अलग-अलग होगी, अनुभूति बिलकुल एक है।

प्रश्न:

 

सबकी एक-एक अभिव्यक्ति है, तो उनके सुनने वाले वही साधना में लग जाते हैं। आपकी तो सब अभिव्यक्तियां अलग-अलग हैं, तो आपके सुनने वालों का क्या होगा?

 

हूं! सुनने वालों को बड़ी कठिनाई है मेरे। मेरे सुनने वालों को बड़ी कठिनाई है। क्योंकि अगर मैं कोई एक ही बात कहता, तब तो बहुत आसान था मेरे पीछे चलना।

एक तो पहली बात, मैं पीछे नहीं चलाना चाहता, तो जरूरत ही नहीं पीछे चलने की मेरे।

दूसरी बात यह है कि मैं चीजों को इतना आसान भी नहीं बना देना चाहता, जितनी कि आसान बना कर नुकसान हुआ है। संप्रदाय इसीलिए बने हैं।

तो मैं तो उन सारी धाराओं की बात करूंगा और उन सारे नियमों की बात करूंगा, उन सारी पद्धतियों की, उन सारे रास्तों की जो मनुष्य ने कभी भी अख्तियार किए हैं। शायद इस तरह की कोशिश कभी भी नहीं की गई।

रामकृष्ण ने थोड़ी सी कोशिश की थी, लेकिन रामकृष्ण समझाने में बिलकुल असमर्थ थे। तो रामकृष्ण ने सभी साधना-पद्धतियों का प्रयोग किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि सब रास्ते अलग हैं, पहाड़ की चोटी पर सब एक हो जाते हैं। लेकिन उनके पास कोई नहीं था उपाय कि वे इसको कह सकते। फिर उन्होंने जो साधना-पद्धतियां भी अख्तियार की थीं, वे भी बंगाल में जो उन्हें उपलब्ध थीं; सारे जगत के बाबत उनका विचार भी उतना विस्तीर्ण नहीं था।

मैं तो एक प्रयोग करना ही चाहता हूं कि सारी दुनिया में अब तक जो भी किया गया है परम जीवन के पाने की दिशा में, उस सबकी सार्थकता को एक साथ इकट्ठा ले आऊं। निश्चित ही मैं कोई संप्रदाय नहीं बना सकता। लेकिन मैं चाहता ही हूं कि संप्रदाय मिट जाएं। मैं अनुयायी भी नहीं बना सकता, क्योंकि मैं चाहता ही हूं कि अनुयायी हो ही न।

चाह मेरी यह है कि मनुष्य ने जो अब तक खोजा है और जो इस तरह बिखर गया है और ऐसा मालूम होता है कि उलटा बिखर गया है, वह एकदम निकट आ जाए। इसलिए मेरी बातों में बहुत बार विरोधाभास मिलेंगे, क्योंकि मैं कभी किसी मार्ग की बात जब कर रहा होता हूं तो उस मार्ग की बात कर रहा होता हूं; जब दूसरे मार्ग की बात कर रहा होता हूं तो उस मार्ग की बात कर रहा होता हूं।

और इन दोनों मार्गों पर अलग-अलग वृक्ष मिलते हैं, अलग-अलग चौराहे मिलते हैं, इन दोनों मार्गों पर अलग-अलग मंदिर का आवास है, इन दोनों मार्गों पर अलग-अलग रास्ते की अनुभूतियां हैं। अलग-अलग रास्ते की अनुभूतियां अलग-अलग हैं, परम अनुभूति समान है।

तो वह तो मैं जिंदगी भर जब बोलता रहूंगा, धीरे-धीरे जब तुम्हें सब साफ हो जाएगा कि मैं हजार रास्तों की बातें कर रहा हूं, तब तुम्हें खयाल में आएगा। और फिर तुम्हें जो ठीक लगे रास्ता, उससे तुम चले जाना। लेकिन एक फर्क पड़ेगा–मेरी बात सोच कर, समझ कर जो गति करेगा उसे एक फर्क पड़ेगा–कि वह किसी भी रास्ते पर जाए, जो उसे अनुकूल हो; लेकिन वह दूसरे की दुश्मनी की बात नहीं करेगा। क्योंकि वह इतना ही कहेगा कि यह मेरे लिए अनुकूल है। यही रास्ता सत्य है, ऐसा नहीं–यह रास्ता मेरे लिए अनुकूल है, इतना ही सत्य है। पड़ोसी के लिए दूसरा रास्ता अनुकूल हो सकता है।

तब यह हो सकता है कि पति फकीर, मुसलमान, सूफियों को मानता हो; पत्नी मीरा के रास्ते पर जाती हो; बेटा हिंदू हो कि जैन हो कि बौद्ध हो। तब एक परम स्वतंत्रता हो रास्तों की। और हर घर में रास्तों के बाबत थोड़ा सा परिचय हो, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए रास्ता चुन सके कि उसके लिए क्या उचित हो सकता है, उसके अनुकूल क्या हो सकता है।

अभी क्या कठिनाई है–एक आदमी जैन घर में पैदा हो जाता है और हो सकता है महावीर का रास्ता उसके लिए अनुकूल ही नहीं है; बिलकुल ही अनुकूल नहीं है और वह कभी कृष्ण के रास्ते पर नहीं जाएगा, जो कि उसके लिए अनुकूल हो सकता था! एक आदमी कृष्ण के मानने वाले घर में पैदा हो गया तो वह महावीर के बाबत कभी सोचेगा ही नहीं! और हो सकता है, उसे कृष्ण का रास्ता बिलकुल अनुकूल न हो और वह महावीर के रास्ते से जा सकता था।

तो मेरा काम ही यह है, इतना भी काम अगर पूरी जिंदगी में हो जाए कि मैं सारे रास्तों को निकट खड़ा कर सकूं, एक पर्सपेक्टिव में, एक दृष्टि में वे दिखाई पड़ने लगें, एक झलक में आदमी उन्हें देख सके, पहचान सके और निष्पक्ष होकर सोच सके और फिर अपनी स्थिति के साथ तौल कर सके कि कौन सा रास्ता मेरे लिए है! लेकिन तब वह दूसरे की दुश्मनी नहीं है।

तुमने जो कपड़े पहने हुए हैं, वह तुम्हारी मौज है…।

प्रश्न:

 

रास्तों का भी विश्लेषण किसी वक्त करें!

 

रना है, जरूर करना है, जरूर करना है। ऐसे तो होते ही चला जाता है। अब जैसे महावीर की मैंने बात की तो इसमें महावीर के रास्ते का पूरा विश्लेषण हो जाएगा। कल मोहम्मद की बात करूंगा तो उनका हो जाएगा। परसों क्राइस्ट की बात करूंगा तो उनका हो जाएगा। कृष्ण की करूंगा तो उनका हो जाएगा। वह होता चला जाएगा। व्यक्तियों को चुन कर भी मैं बात कर लेना चाहता हूं और फिर शास्त्र को चुन कर भी बात कर लेना चाहता हूं। जैसे गीता को, कुरान को, बाइबिल को–उनको भी चुन कर बात कर लेना चाहता हूं।

अगर एक पूरी जिंदगी में इतना भी काम हो सके तो बड़ा तृप्तिदायी है।

प्रश्न:

 

तब तो एक निवेदन है!

हां

प्रश्न:

 

क्योंकि जिंदगी सीमित है, आप इस जिंदगी के बारे में जानते हैं कि कितने दिन आपको रहना है। कहीं ऐसा न हो कि जो कुछ आप सोच रहे हैं, वह अधूरा रह जाए। तो इसे किसी दूसरे को देने वाली बात भी आपके ध्यान में रहनी चाहिए।

 

ह तो आप ठीक कहते हैं। यह तो आप ठीक कहते हैं। यह भी बात ठीक है कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। और यह भी बात ठीक है कि इतना बड़ा काम है, उसे एक आदमी जिंदगी में कर पाए, न कर पाए। भरोसा एक ही है कि काम में मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, अगर जिंदगी की मर्जी होगी तो पूरा काम ले लेगी, मर्जी नहीं होगी तो नहीं लेगी। यानी उसकी मुझे कोई जिद्द भी नहीं कि वह पूरा होना ही चाहिए। इसमें जिद्द की भी क्या बात है? वह पूरा होना ही चाहिए, यह भी कोई बात नहीं है।

और आप जो कहते हैं, वह ठीक ही कहते हैं; पर वह भी इन्हीं लोगों में से धीरे-धीरे जो मेरे करीब आते हैं, वे लोग खड़े हो सकेंगे जो थोड़ी साधना में गति करें, तो निश्चित ही उनसे काम लिया जा सकता है–उनसे काम लिया जा सकता है। और वह भी जिंदगी को लेना होगा तो ही।

उसको भी, उसको भी मेरे मन में कल के लिए भी हिसाब नहीं है। यानी जब आप मुझसे बात करते हैं तो मैं कहता हूं, लेकिन मेरे मन में कल का भी हिसाब नहीं है। कल आएगा तो जो काम जिंदगी को लेना होगा, वह ले लेगी। और नहीं लेना होगा तो ठीक है, कल नहीं आएगा। इसमें मेरा कोई आग्रह जरा भी नहीं है। इसलिए अत्यंत निश्चिंत हूं। कोई तनाव भी नहीं है उसका।

अब जैसे महावीर के संबंध में यह कह रहा हूं, यह मैं कभी बैठ कर सोचा नहीं हूं। आप से बात हो रही है तो सोचता चलता हूं। कल क्राइस्ट के बाबत क्या कहूंगा, मुझे खुद पता नहीं है, सोचता चलूंगा। इधर मेरी अपनी भीतरी जो स्थिति है, वह यह है कि बिलकुल छोड़ा हुआ हूं, और जहां परमात्मा ले जाए, जहां बहा दे और जो करवा ले। और न करवाना हो तो उसकी मर्जी है, उसमें भी मेरी तरफ से कोई, कोई आग्रह नहीं किसी तरह का। और उसे काम लेना होता है तो वह हजार तरह से काम ले लेता है। उसके उपयोग का है तो हजार तरह से वह पूरा करवा लेता है।

और आप जो कहते हैं, वह भी ठीक कहते हैं, कुछ लोग तैयार भी करवा ले सकता है। वह भी उसके ही हाथ की बात है।

एकाध प्रश्न और कर लें।

प्रश्न:

 

आपने कहा कि इसलिए कि श्रृंखला नहीं चले तथा संप्रदाय ही न रहे, तो आपका जो कहना है कि मैं हर धर्म को आपके सामने पेश करूंगा। तो इससे संप्रदाय तो खड़ा रहेगा–जो हर धर्म का आदमी नए ढंग से पकड़ेगा और उसमें हर धर्म वाले आदमी होंगे। आप ऐसा क्यों नहीं सोचते कि सब धर्म का कोई एक नया स्वरूप आ जाए?

 

पने आप आ जाएगा।

प्रश्न:

 

इस पर आप जोर क्यों नहीं देते?

पने आप आ जाएगा। अगर हम, सब धर्मों को समझने की सदबुद्धि हममें आ जाए तो अपने आप आ जाएगा, उस पर जोर देने की जरूरत नहीं है। यानी अभी तक जो झगड़ा है, वह इसी बात का है कि प्रत्येक धर्म वाला समझता है कि सत्य का मेरा ठेका है और बाकी सब असत्य हैं। अगर मैं सबके भीतर सत्य को तुम्हें बता सकूं तो यह बात टूट जाती है, इसको जोर देने की जरूरत नहीं है। यह तो तुम, सुनते-सुनते टूट जाएगी। सुनते-सुनते तुम उस जगह पहुंच जाओगे कि तुम्हें कहना मुश्किल हो जाएगा कि मैं हिंदू हूं, कि मैं मुसलमान हूं, कि ईसाई हूं।

अगर तुम सुनते-सुनते न पहुंच जाओ और मुझे जोर देना पड़े तो वह जोर तो जबरदस्ती हो जाएगी। यानी मेरा कहना यह है कि अगर मेरी बात सुनते-सुनते ही तुम कहीं पहुंच गए तो ठीक, अब पीछे से जोर भी देना पड़े, तो फिर तो ठीक नहीं है।

प्रश्न:

 

आपके तरीके से तो ठीक है यह, मगर भविष्य में आदमी इस बाजू कनवर्ट हो जाए…।

 

किस बाजू?

प्रश्न:

 

ये बाजू–संप्रदाय के बाजू। नए ढंग से पकड़े तो आपका कहना ठीक है, आप उस स्टेज तक सोच सकते हैं…।

 

ए ढंग से पकड़ा ही अगर, तो नया ढंग क्या है मेरा, कि पकड़े न। समझे न मेरी बात? यानी मेरा कहना यह है कि जब तक पकड़ता है, तब तक पुराना ढंग है, नहीं पकड़ता तो ही नया ढंग है। और मेरी बात सुनते-सुनते उसकी पकड़ छूट जाए, क्लिंगिंग छूट जाए, तो बात खतम हो गई।

भय तो सदा है। जो तुम कहते हो, भय तो सदा है। भय इसलिए सदा है कि लोग भयभीत हैं, और कोई कारण नहीं है। तो उनको सब जगह भय दिख जाता है। भय चित्त में है तो सब जगह भय दिखता है, भय चित्त में न हो तो फिर कहीं भय नहीं दिखता।

प्रश्न:

 

क्या मनुष्य-उपयोगी दृष्टि से पशु-हिंसा न्यायसंगत है?

हूं, यह प्रश्न बहुत बढ़िया है। क्या मनुष्य-उपयोगी दृष्टि से पशु-हिंसा न्यायसंगत है?

सिर्फ मनुष्य-उपयोगी दृष्टि से ही न्यायसंगत नहीं है, और सब दृष्टि से न्यायसंगत हो सकती है। पशु-हिंसा जो है वह सिर्फ मनुष्य-उपयोगी दृष्टि से ही न्यायसंगत नहीं है, बाकी सब दृष्टि से न्यायसंगत है।

इसलिए मनुष्य से नीचे के तलों पर हम पशु-हिंसा को अन्याय नहीं कहते और न कह सकते हैं। उस तल पर जीवन ही सब कुछ है और जीवन के लिए जो भी किया जा रहा है, वह सब ठीक है।

पशु और मनुष्य में फर्क ही क्या है? पशु और मनुष्य में फर्क एक ही है कि मनुष्य सचेत हुआ है, जाग्रत हुआ है, स्वचेतन हुआ है, सेल्फ-कांशस हुआ है। उसने चीजों में देखना शुरू किया है। उसके लिए भोजन इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना भोजन का साधन महत्वपूर्ण है। एक बार वह भोजन से चूक सकता है, लेकिन मनुष्यता से नहीं चूक सकता। मनुष्य होने का मतलब यह है कि मनुष्यता कुछ इतनी कीमती चीज हो गई है…।

मैंने एक कहानी पढ़ी है, हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। एक गांव में उपद्रव हो गया, दंगा हो गया। एक परिवार भागा। पति है, उसकी पत्नी है, एक बच्चा साथ है। दो बच्चे कहीं खो गए। गाएं थीं, भैंसें थीं, वे सब खो गईं, सिर्फ एक गाय साथ में बचा पाए। लेकिन उस गाय का छोटा बछड़ा था, वह भी खो गया। वे सब जंगल में छिपे हैं। दुश्मन हैं आस-पास, मशालें दिखाई पड़ रही हैं। कहीं पता न चल जाए! वह बच्चा रोना शुरू करता है। वह मां घबड़ा जाती है। वह पहले उसका मुंह बंद करती है, उसे दबाती है, रोकती है। लेकिन वह जितना दबाती है, उतना रोता है। फिर वह मां और बाप उसकी गर्दन दबा देते हैं, क्योंकि जान बचाने के लिए अब कोई उपाय नहीं है। वह अगर चिल्लाता है तो अभी दुश्मन आवाज सुन लेगा और मौत हो जाएगी। उसकी गर्दन दबा देते हैं।

लेकिन तभी उस गाय के बछड़े की आवाज कहीं दूसरे दरख्तों के पास से सुनाई पड़ती है और वह गाय जोर-जोर से चिल्लाने लगती है। और उस गाय को चिल्लाते सुन कर दुश्मन पास आने लगता है। बच्चे की गर्दन दबानी आसान थी, गाय की गर्दन भी नहीं दबती। गाय को मारो कैसे? कोई उपाय भी नहीं मारने का।

तो वह औरत अपने पति से कहती है कि तुमसे कितना कहा कि इस हैवान को साथ मत ले चलो! वह औरत अपने पति से कहती है, तुमसे कितना कहा कि इस पशु को साथ मत ले चलो! अब मुश्किल में डाल दिया है।

और वह पति कहता है कि मैं यह विचार कर रहा हूं कि पशु कौन है–हम या यह गाय! पशु कौन है? हमने अपने बच्चे को मार डाला है अपने को बचाने के लिए! तो हैवान कौन है? मैं इस चिंता में पड़ गया हूं।

वे दुश्मनों की मशालें करीब आती चली जाती हैं, वह गाय भागती है, क्योंकि उसी तरफ उसके बछड़े की आवाज आ रही है। वह दुश्मनों के बीच घुस जाती है, लोग उसे आग लगा देते हैं। वह जल जाती है, लेकिन बछड़े के लिए चिल्लाती रहती है! तो वह पति कहता है कि मैं पूछता हूं कि पशु कौन है? आज मेरी तरफ पहली दफा जिंदगी में खयाल उठा कि किसको हम मनुष्य कहें, किसको हम पशु कहें?

यह सवाल बड़ा बढ़िया है। यह पूछता है, मनुष्य-उपयोगी दृष्टि से…शायद उसका खयाल यह है कि मनुष्य के लिए जरूरी है कि वह पशुओं को मारे, नहीं तो मनुष्य बच नहीं सकेगा।

एक अर्थ में यह बात बिलकुल ठीक है। यह इस अर्थ में ठीक है कि मनुष्य अगर शरीर के तल पर ही बचना चाहता हो तो शायद पशुओं को मार ही रहा है, मारता ही रहे। लेकिन मनुष्य अगर मनुष्यता के आत्मिक तल पर बचना चाहता हो तो पशुओं को मार कर तो कभी नहीं बच सकता है, वह तो असंभव है।

एक बार हमें यह खयाल में आ जाए कि देहधारी मनुष्य को बचाना है, सिर्फ उसके शरीर को बचा लेना है या मनुष्यता को बचाना है, अदेहधारी मनुष्यता को?

तो सवाल बिलकुल अलग-अलग हो जाएंगे। देहधारी मनुष्य को बचाते हैं तो हम हैवान से ऊपर नहीं हैं, पशु से ऊपर नहीं हैं। और अगर हम उसके भीतर की मनुष्यता को बचाने के लिए कुछ सोचते हैं तो शायद पशु-हिंसा किसी भी तरह समर्थन नहीं की जा सकती।

लेकिन कहा जाएगा, फिर आदमी बचेगा कैसे? आदमी बचने के उपाय खोज लेता है, जैसे ही उसका बचना मुश्किल में पड़ जाए। सिंथेटिक फूड्स बनाए जा सकते हैं। समुद्र के पानी से जितना पृथ्वी भोजन देती है, इससे करोड़ गुना भोजन निकाला जा सकता है। हवाओं से सीधे भोजन पाया जा सकता है।

एक बार यह तय हो जाए कि मनुष्यता मर रही है तो फिर हम मनुष्य को बचाने के हजार उपाय खोज सकते हैं। यह तय न हो तो फिर ठीक है। फिर हम मनुष्य को बचा लेते हैं देहधारी दिखाई पड़ने वाले, लेकिन भीतर कुछ गहरा तत्व खो जाता है। वह गहरा तत्व तभी खो जाता है, जब हम, जब हम किसी को दुख देने को तत्पर और उत्सुक हो जाते हैं। किसी को दुख देने का जो भाव है, वही हमें नीचे गिरा देता है। तो किसी को हम दुख दें और मनुष्य बने रहें, इन दोनों बातों में कठिनाई है।

यह बात सच है कि आज तक ऐसी स्थिति नहीं बन सकी कि एकदम से मांसाहार बंद कर दिया जाए, एकदम से पशु-हिंसा बंद कर दी जाए तो आदमी बच जाए। लेकिन नहीं बन सकी तो इसीलिए नहीं बन सकी कि हमने उस बात को खयाल में नहीं लिया है, अन्यथा बन सकती है, कोई कठिनाई नहीं है। और आने वाले दो-चार सौ वर्षों में बन सकती है, क्योंकि अब हमारे पास वे वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हो गए हैं, जिनसे अब पशुओं को मारने की कोई जरूरत नहीं है, उसके बिना काम चल सकता है।

अब तो जिसको हम कहें, कृत्रिम मांस भी बनाया जा सकता है। आखिर गाय घास खाकर करती क्या है? घास खाकर मांस बनाती है। मशीन क्यों नहीं हो सकती जो घास खाए और मांस बनाए? इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

दूध कृत्रिम बन सकता है, मांस कृत्रिम बन सकता है, सब कृत्रिम बन सकता है। जब सब बन सकता है तो अब मैं कहता हूं कि–अतीत की बात मैं छोड़ देता हूं, जब कि सब नहीं बन सकता था–लेकिन अब जब कि सब बन सकता है तो मनुष्य के सामने एक नया चुनाव फिर खड़ा हो गया है और वह चुनाव यह है कि अब जब सब बन सकता है, तब पशु-हिंसा का क्या मतलब?

पीछे कठिनाइयां थीं। आदमी को बचाना भी मुश्किल था, यह भी मैं समझता हूं। शायद अतीत में आदमी नहीं बचाया जा सकता था। शरीर ही नहीं बचाया जा सकता था, जब शरीर ही न बचता तो आत्मा क्या बचाते आप? शरीर बिलकुल सारभूत था, जिसे बचाएं तो पीछे आत्मा भी बच सकती है, मनुष्यता भी बच सकती है। शरीर नहीं बचाया जा सकता था।

इसलिए बुद्ध ने थोड़ा सा समझौता किया। समझौता यह किया कि मरे हुए पशु का मांस खाया जा सकता है। यह समझौता सिर्फ उस स्थिति का समझौता था। समझौता विचारपूर्ण था, लेकिन इस कारण बुद्ध पशु-जगत से संबंध स्थापित करने में असमर्थ हो गए–जैसा मैंने पीछे कहा।

महावीर समझौते के लिए राजी नहीं हुए, उसका कारण यह नहीं था, उसका कारण कुल इतना था कि अगर पशु-जगत तक संदेश पहुंचाना था तो यह समझौता नहीं माना जा सकता। बुद्ध ने समझौता माना कि मरे हुए जानवर को खाया जा सकता है।

लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई, क्योंकि आदमी को समझौते देना बहुत महंगा है। आज चीन में, जापान में सब दुकानों पर लगा रहता है कि यहां मरे हुए जानवर का ही मांस मिलता है। जैसा हमारे यहां लिखा रहता है, यहां सब शुद्ध घी मिलता है।

प्रश्न:

 

गहरे में प्लांट-लाइफ और पशु-लाइफ में क्या अंतर है?

 

अंतर बहुत है। अंतर बहुत है। पशु विकसित है, बहुत विकसित है पौधे से। बहुत विकसित है। विकास के दो हिस्से उसने पूरे कर लिए हैं। एक तो पौधे में गति नहीं है, मूवमेंट नहीं है। थोड़े से पौधों को छोड़ कर जो पशुओं और पौधों के बीच में हैं यात्रा के। कुछ पौधे हैं, जो जमीन में चलते हैं, जो जगह बदल लेते हैं, जो आज यहां हैं तो कल सरक जाएंगे थोड़ा। साल भर बाद आप उनको उस जगह न पाएंगे, जहां साल भर पहले पाया था। साल भर में वे यात्रा कर लेंगे थोड़ी सी। पर वे पौधे सिर्फ बहुत दलदली जमीन में होते हैं। जैसे अफ्रीका के कुछ दलदलों में पौधे होते हैं, जो रास्ता बनाते हैं अपना, चलते हैं, जो अपने भोजन की तलाश में इधर-उधर जाते हैं।

नहीं तो पौधा ठहरा हुआ है। ठहरे हुए होने के कारण बड़े गहरे बंधन उस पर लग गए हैं। ठहरे हुए होने के कारण वह कोई खोज नहीं कर सकता किसी चीज की। जो आ जाए, बस वही ठीक है, उससे अन्यथा कोई उपाय नहीं है उसके पास। पानी नीचे हो तो ठीक है, हवा ऊपर हो तो ठीक, सूरज निकले तो ठीक, नहीं तो गया वह।

तो यह जो उसकी जड़ स्थिति है, ठहरी हुई, उसमें प्राण तो प्रकट हुआ है, जैसा पत्थर में उतना प्रकट नहीं हुआ है। वैसे पत्थर भी बढ़ता है, बड़ा होता है। और दुख की भी संवेदना पत्थर को किसी तल पर होती है। लेकिन पौधे को दुख की संवेदना बहुत बढ़ गई है। चोट भी खाता है तो दुखी होता है। शायद प्रेम भी करता है, शायद करुणा भी करता है। लेकिन बंधा है जमीन से तो परतंत्रता बहुत गहरी है। तो उस परतंत्रता के कारण चेतना जितनी विकसित हो सकती है…।

अब यह हमें खयाल में नहीं है कि मूवमेंट से चेतना विकसित होती है। जितनी हम गति कर सकते हैं, जितनी स्वतंत्रता से, उतनी चेतना को नई चुनौतियां मिलती हैं; नए अवसर, नए मौके; नए दुख, नए सुख; उतनी चेतना जगती है। नए का साक्षात्कार करना पड़ता है।

वृक्ष के पास उतनी चेतना नहीं है। तो वृक्ष करीब उस हालत में हैं, जिस हालत में आप भी क्लोरोफार्म में हो जाते हैं। उस हालत में है वृक्ष की चेतना। जैसे कि एक जानवर को क्लोरोफार्म दे दें, या एक आदमी को क्लोरोफार्म दे दें, तो जिस वक्त क्लोरोफार्म में दस मिनट आप बेहोश हों, उस वक्त आप वृक्ष की स्थिति में हैं। आप मूव नहीं कर सकते, हाथ नहीं उठा सकते, चल-फिर नहीं सकते, कोई गर्दन काट जाए तो कुछ नहीं कर सकते।

तो प्रकृति उतनी ही चेतना देती है, जितना आप कर सकते हों। अगर पौधे को इतनी चेतना दे दी जाए कि उसकी कोई गर्दन काटे, वह उतना ही दुखी हो जितना आदमी होता है, तो पौधा बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि गर्दन तो कोई रोज काटेगा उसकी। इसलिए इतनी मर्ूच्छा चाहिए क्लोरोफार्म वाली कि कोई गर्दन भी काटे तो भी चले।

पशु पौधे के आगे का रूप है, जहां पशु ने गति ले ली है। अब उसकी गर्दन काटो तो वह उस हालत में नहीं है, जिसमें कि पौधा है। अब उसकी पीड़ा बढ़ गई है, संवेदना बढ़ गई है, उसका सुख भी बढ़ गया है। और गति ने उसको विकसित किया है।

लेकिन पशु भी एक तरह की निद्रा में चल रहा है, सोम्नाबुलिज्म में है। क्लोरोफार्म की हालत नहीं है, लेकिन एक निद्रा की हालत है। उसे अपना कोई पता ही नहीं है। यानी वह जीता है हमेशा चैलेंज और स्टिमुलस और रिस्पांस में।

जैसे एक कुत्ता है, उसको आपने झिड़का तो वह भागता है। आपका झिड़कना ही महत्वपूर्ण है, उसका भागना सिर्फ रिस्पांस है। आपने रोटी डाल दी तो खा लेता है। आपने प्रेम किया तो पूंछ हिलाता है। उसका, जो भी वह कर रहा है, कर्म वह कोई भी नहीं करता, सिर्फ रिएक्ट करता है, सिर्फ प्रतिकर्म करता है, कर्म नहीं करता। अपनी तरफ से कुत्ता कुछ नहीं करता, कोई जानवर नहीं करता अपनी तरफ से, बस जो होता रहता है, उसमें वह भागीदार होता रहता है। भूख लगती है तो घूमने लगता है, प्यास लगती है तो घूमने लगता है। कोई कुत्ता फास्ट नहीं कर सकता। भूख न लगे तो बात दूसरी है, तो फिर वह खा नहीं सकता। जैसे अगर कुत्ता बीमार है तो फास्ट कर जाएगा फौरन, फिर उस दिन वह दिन भर नहीं खाएगा और घास खाकर वोमिट भी कर देगा।

कुत्ते को अगर खाने की स्थिति नहीं है तो कुत्ता खा नहीं सकता। आदमी खाने की स्थिति में नहीं है तो भी खा सकता है। कुत्ते को अगर खाने की स्थिति है तो उपवास नहीं कर सकता, करना पड़े वह बात दूसरी है। आदमी पूरा भूखा है तो भी उपवास कर सकता है। यानी इसका मतलब यह है कि आदमी एक्ट कर सकता है, कुत्ता सिर्फ रिएक्ट करता है। कुत्ता सिर्फ प्रतिक्रिया करता है और आदमी कर्म करता है।

लेकिन सभी आदमी कर्म भी नहीं करते। इसलिए बहुत कम आदमी आदमी की हैसियत में हैं। अधिकतम आदमी प्रतिकर्म ही करते हैं। यानी किसी ने आपको प्रेम किया तो आप प्रेम करते हैं। और किसी ने गाली दी, फिर आप प्रेम करें तो कर्म हुआ। किसी ने आपको प्रेम किया और आपने प्रेम किया तो यह प्रतिकर्म हुआ। यह वैसे ही है, जैसे कुत्ता पूंछ हिलाता है उसको रोटी डालो तो; इसमें उसमें कोई बुनियादी फर्क नहीं है। हां, कोई आदमी आपको गाली देता, और आप प्रेम कर सकें, तो कर्म हुआ।

तो मैं यह कह रहा हूं कि कुछ पौधे सरकने लगे हैं, वे जानवर की दिशा में प्रवेश कर रहे हैं। कुछ जानवर भी थोड़ा-बहुत रिएक्ट करते हैं–बहुत थोड़ा, कुछ जानवर– वे आदमी की दिशा में सरक रहे हैं। कुछ आदमी भी कर्म करते हैं, वे और ऊपर के चेतना लोकों की तरफ सरक रहे हैं। फर्क है स्वतंत्रता का। जितने हम नीचे जाते हैं, पत्थर सबसे ज्यादा परतंत्र है, पौधा उससे कम, पशु उससे कम, तथाकथित मनुष्य उससे कम, महावीर-बुद्ध जैसे लोग बिलकुल कम। अगर हम ठीक से समझें तो सारे विकास को हम स्वतंत्रता के हिसाब से नाप सकते हैं।

और इसलिए मेरा निरंतर जोर स्वतंत्रता पर है।

कौन व्यक्ति कितनी स्वतंत्रता अर्जित करे जीवन में, उतनी चेतना की तरफ जाता है। और स्वतंत्रता बहुत प्रकार की है। बहुत प्रकार की है–गति की स्वतंत्रता, विचार की स्वतंत्रता, कर्म की स्वतंत्रता, चेतना की स्वतंत्रता; यह सब होनी चाहिए। जितनी ये पूर्ण होती चली जाती हैं, उतना मोक्ष की तरफ बढ़ा जा रहा है। धर्म की भाषा में कहें तो जीवन मुक्त होने की तरफ जा रहा है। तो जितना हम नीचे जाते हैं, उतना अमुक्त है।

पत्थर कितना अमुक्त है! एक ठोकर आपने मार दी तो कुछ भी नहीं कर सकता, रिएक्ट भी नहीं कर सकता। यानी आप एक ठोकर मार देते हैं तो प्रतिकर्म करने में भी असमर्थ है, कि उसको दिल आ जाए कि इसकी खोपड़ी खोल दें तो भी नहीं कर सकता कुछ। लात सह लेता है, पड़ा रह जाता है। जहां पड़ गया, वहीं पड़ गया। कोई उपाय नहीं है उसके पास। तो सबसे ज्यादा बद्ध अवस्था है।

पत्थर जो है, वह बद्ध आत्मा है। महावीर जो हैं, वह प्रबुद्ध आत्मा हैं, मुक्त आत्मा हैं। बद्ध होने से और मुक्त होने तक, बंधन से और मुक्ति तक की यात्रा है, उसी में तल हैं। और मोटी सीढ़ियां हमने बांट ली हैं, लेकिन सब सीढ़ियों पर अपवाद हैं।

जैसे समझ लें कि पचास सीढ़ियां हैं और आदमी चढ़ रहे हैं उस पर। कोई आदमी पहली सीढ़ी पर खड़ा है, कोई आदमी दूसरी सीढ़ी पर खड़ा है, कोई आदमी पहली सीढ़ी से उठ गया है, लेकिन अभी दूसरी सीढ़ी पर पैर रखा नहीं है, तो वह बीच में है। कोई आदमी दूसरी सीढ़ी पर खड़ा है, कोई आदमी तीसरी सीढ़ी पर खड़ा है, और कोई आदमी दूसरी और तीसरी के बीच में है अभी। अभी पार कर रहा है, दूसरी से पैर उठा लिया है, तीसरी पर अभी रखा नहीं है।

तो इस तरह मोटे में देखें तब तो हमको ऐसा लगता है, पत्थर है, पौधा है, लेकिन कुछ पत्थर पौधे की हालत में पहुंच रहे हैं। इसलिए कुछ पत्थर जो हैं, वे बिलकुल पौधे जैसे हैं। उनकी डिजाइन, उनके पत्ते, उनकी शाखाएं, वे बिलकुल पौधे जैसे हैं। वे पौधे की तरफ बढ़ रहे हैं।

कुछ पौधे बिलकुल पशुओं जैसे हैं। कुछ पौधे अपना शिकार भी खोजते हैं। पक्षी उड़ रहा है आकाश में तो वे चारों तरफ से पंखे बंद कर लेते हैं, उसको फांस लेते हैं अंदर। कुछ पौधे प्रलोभन भी डालते हैं। उनके ऊपर की थालियों पर बहुत मीठा, बहुत सुगंधित रस भर लेते हैं वे, ताकि पक्षी आकर्षित हो जाएं। और वे जैसे ही उस पर बैठते हैं कि चारों तरफ के पत्ते बंद हो जाते हैं। कुछ पौधे अपने पत्तों को पक्षियों के शरीर में प्रवेश कर देते हैं और वहां से खून खींच लेते हैं। वे पौधे अब पौधे की हालत में नहीं हैं, वे पशु की तरफ गति कर रहे हैं।

कुछ पशु मनुष्य की तरफ गति कर रहे हैं। इन पशुओं में मनुष्य जैसी बहुत सी बातें दिखाई पड़ जाएंगी। जैसे बहुत से कुत्तों में, बहुत से घोड़ों में, बहुत से हाथियों में, बहुत सी गायों में बहुत मनुष्य जैसी बातें दिखाई पड़ जाएंगी।

जिन-जिन जानवरों से मनुष्य संबंध बनाता है, उन-उन जानवरों से संबंध बनाने का कारण ही यही है। सभी जानवरों से मनुष्य संबंध नहीं बनाता। जिनको हम पैट एनीमल्स कहते हैं, उनसे संबंध बनाने का कारण यही है कि वे कहीं किसी तल पर हमसे मेल खाते हैं, कहीं किन्हीं भावनाओं में हमसे उनका मेल है। लेकिन फिर भी सभी, उसी जाति के सभी पशु भी एक तल पर नहीं होते हैं, कुछ आगे बढ़े होते हैं, कुछ पीछे हटे होते हैं।

प्रश्न:

 

देखने में ऐसा आता है कि जो लोग आमतौर पर नॉन-वेजिटेरियन हैं, उनमें यह करुणा की भावना और यह मनुष्यता की भावना देखने में ज्यादा आती है। जैसे वेस्टर्न कंट्रीज में, वे ही लोग मनुष्य की सेवा ज्यादा करते हैं। हम इधर हिंदुस्तान में वेजिटेरियन होते हुए भी हमारे में कोई करुणा की भावना, कोई मनुष्यता की भावना–देखने में ऐसा लगता है रह ही नहीं गई!

 

हां, उसके कारण हैं। उसके कारण हैं। क्योंकि अगर आप करुणा के कारण वेजिटेरियन हुए हैं, शाकाहारी हुए हैं, तब तो बात अलग है। और जन्म के कारण शाकाहारी हैं तो इससे कोई संबंध ही नहीं है। इससे कोई संबंध ही नहीं है करुणा का। यानी आप क्या खाते हैं, इससे करुणा का संबंध नहीं है। आपकी करुणा क्या है, इससे आपके खाने का संबंध हो सकता है।

तो इस मुल्क में जो शाकाहारी है, वह जबरदस्ती शाकाहारी है। उसके चित्त में शाकाहार नहीं है, उसके चित्त में कोई करुणा ही नहीं है।

फिर मांसाहारी जो है, उसके मन की कठोरता बहुत कुछ उसके भोजन, उसकी जीवन-व्यवस्था में निकल जाती है और वह मनुष्य के प्रति ज्यादा सदय हो सकता है। और आपको वह भी मौका नहीं है, आपकी कठोरता निकलने को कोई मौका ही नहीं है, वह मौका सिर्फ मनुष्य की तरफ है।

यानी मेरा कहना यह है कि एक शाकाहारी आदमी है, उसमें आधा पाव कठोरता है, समझ लें; और एक मांसाहारी आदमी है, उसमें भी आधा पाव कठोरता है। तो मांसाहारी आदमी ज्यादा करुणावान सिद्ध होगा जीवन में बजाय शाकाहारी के। क्योंकि वह जो आधा पाव कठोरता है उसकी, और दिशाओं में बह जाती है; और आपकी आधा पाव कठोरता है, वह कहीं बहने का उपाय नहीं है, वह सिर्फ आदमी की तरफ ही बहती है, वह फिर आदमी को ही चूसती है।

इसलिए पूरब के मुल्कों में जहां शाकाहार बहुत है, बड़ा शोषण है, बड़ी कठोरता है और आदमी-आदमी के बीच के संबंध बहुत तनावपूर्ण हैं। और आदमी आदमी के प्रति ऐसा दुष्ट मालूम पड़ता है, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और बाकी मामलों में बड़ा हिसाब लगाता है वह कि चींटी पर पैर न पड़ जाए, पानी छान कर पीता है! वह जो कठोरता के बहने के और इतर उपाय थे, वे सब बंद हो जाते हैं, फिर एक ही रह जाता है कि वह आदमी से आदमी का उसका संबंध बिगड़ जाता है।

तो मेरा कहना है, शाकाहार का मैं पक्षपाती हूं इसलिए नहीं कि आप शाकाहारी हों, बल्कि इसलिए कि आप करुणावान हों, बल्कि इसलिए कि आप उस चित्त-दिशा में पहुंचें, जहां से जीवन के प्रति कठोरता क्षीण होती है। जब कठोरता क्षीण हो जाएगी आपकी तो वह पशु के प्रति भी क्षीण होगी, मनुष्य के प्रति भी क्षीण होगी।

कठोरता तो क्षीण नहीं होती, जन्म के साथ शाकाहारी हो जाता है आदमी, तो मुश्किल पड़ जाती है। इसलिए एकदम हमें दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि जीवन एक तरह की बहुत सी शक्तियों का तालमेल है। उसमें अगर कोई भी शक्तियां भीतर पड़ी रह जाती हैं तो मुश्किल पड़ जाती है।

जैसे उदाहरण के लिए, इंग्लैंड भर में विद्यार्थियों का कोई विद्रोह नहीं है! सारी जमीन पर आज इंग्लैंड अकेला मुल्क है, जहां विद्यार्थियों की कोई बगावत, कोई उपद्रव नहीं है! और उसका कुल कारण यह है कि इंग्लैंड के बच्चों को तीन घंटे से कम खेल नहीं खेलना पड़ता। तीन घंटे हाकी, फुटबाल; इस तरह थका डालते हैं कि जब तीन घंटे में उसकी सारी की सारी जितनी उपद्रव की प्रवृत्ति है, वह सब निकास पा जाती है, वह घर शांत लौट आता है। इंग्लैंड के लड़कों को उपद्रव करने को कहो तो उपद्रव की हालत में वे नहीं हैं। जिन मुल्कों में खेल बिलकुल नहीं है, जैसे हमारा मुल्क है, जैसे फ्रांस है, खेल करीब-करीब न के बराबर है, तो उपद्रव बहुत ज्यादा है।

अब वह खयाल में नहीं आता है कि उसका एक बैलेंस है, उसकी एक नियत व्यवस्था है कि एक लड़के को कितना उपद्रव करना जरूरी है। चाहे उपद्रव आप व्यवस्था से करवा लें–खेल का मतलब है व्यवस्थित उपद्रव। उसका और कोई मतलब नहीं है। एक लट्ठ मार रहा है एक गेंद में एक आदमी, वह उतना ही है जैसा किसी खोपड़ी में मारे, उतना ही रस उसमें आ जाता है। उसमें कोई फर्क नहीं है। तो व्यवस्थित उपद्रव अगर करवाते हैं तो उपद्रव कम हो जाएगा। और अगर व्यवस्थित उपद्रव नहीं करवाते तो फिर अव्यवस्थित उपद्रव बढ़ेगा। और इन सबकी भीतर हमारे एक निश्चित मात्रा है, जो निकलनी चाहिए एक उम्र में। एक उम्र में उसका निकलना बहुत जरूरी है।

अब जैसे हमारा सारा काम है। एक आदमी जंगल में लकड़ी काटता है; यह आदमी एक दुकान पर बैठे आदमी से ज्यादा करुणावान हो सकता है। उसका कारण है कि काटने-पीटने का इतना काम करता है वह, कि काटने-पीटने की जो वृत्ति है, वह रिलीज हो जाती है। वह ज्यादा दयालु मालूम पड़ेगा। और एक दुकान पर बैठा आदमी है, काटना-पीटना कुछ नहीं हो पाता, तो वह आदमी को जितना काट-पीट सकता है, उसका उपाय खोजता है। वह जंगल में भी कर सकता था।

एक चरवाहा है, वह आप देखें, भेड़ों को चरा रहा है। उसके चेहरे पर एक शांति मालूम पड़ेगी। उसका कारण है कि वह जानवरों के साथ जो व्यवहार कर रहा है–डंडा मार रहा है, गाली दे रहा है, कुछ भी कर रहा है; जानवर कुछ नहीं कर रहे हैं। वह व्यवहार आप भी करना चाहते हैं, लेकिन कोई नहीं मिलता। किससे करें? पत्नी से करते हैं, बेटे से करते हैं, नए-नए बहाने खोजते हैं कि बेटे का सुधार कर रहे हैं, कि यह कर रहे हैं, वह कर रहे हैं, लेकिन भीतरी कारण बहुत दूसरे हैं!

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि एक किसान है गांव का, वह ज्यादा आपको शांत मालूम पड़ता है। उसका और कोई कारण नहीं है, उसका कारण है कि काट-पीट के इतने काम उसको मिल जाते हैं दिन भर में–वृक्षों को काट रहा है, पौधों को काट रहा है, जानवरों को मार रहा है–कि वह हलका हो जाता है। इतना ही आपको भी मिल जाए तो आप भी हलके हो जाएं। यह मिल नहीं पाता, तो ये आपको नए रास्ते निकालने पड़ते हैं इसके लिए। कोड़ा आप भी किसी को मारना चाहते हैं। कैसे मारें? तो हमारे मन की जो ये सारी वृत्तियां हैं, फिर ये नए रास्ते खोजती हैं, ये नए उपाय खोजती हैं। और वे नए उपाय और खतरनाक सिद्ध हो जाते हैं।

इसलिए मेरा कहना है कि वृत्तियां जानी चाहिए। आचरण बदलने का जोर गलत है। इसलिए मैं किसी को नहीं कहता कोई शाकाहारी हो। मैं कहता हूं, अगर मांसाहार करना है तो मांसाहार करो। इतना कहता हूं कि यह कोई बहुत ऊंची चित्त की अवस्था न हुई, कुछ और ऊंची चित्त की अवस्थाएं हैं, जो तुम खोजो। उनको खोजने से मांसाहार हो सकता है चला जाए, वह ठीक होगा। लेकिन मांसाहार चला जाए और आपकी स्थिति वही रहे, तो आप दूसरी तरह के मांसाहार शुरू करेंगे, जो ज्यादा महंगे साबित होने वाले हैं।

तो हिंदुस्तान कठोर हो गया है। और हिंदुस्तान में जो लोग गैर-मांसाहारी हैं, बहुत दुष्ट हैं। हम कहते हैं एक आदमी को कि एक मुसलमान बहुत दुष्ट होता है। वह कभी-कभी दुष्ट होता है, मगर कभी-कभी दुष्ट होकर ऐसा हलका और शांत होता है। ऐसे एक साधारण मुसलमान को लगता है कि दुष्ट होता है, लेकिन कभी-कभी। जब मौका आता है तो ठीक से दुष्टता कर लेता है, लेकिन फिर रिलीज हो जाता है।

और एक जैनी है, मौका ही नहीं आता कभी दुष्टता करने का, चौबीस घंटे दुष्टता करता रहता है। फैली हुई दुष्टता है, इंटेंस नहीं है। इंटेंस नहीं निकल पाती तो फैल जाती है। और फैली हुई दुष्टता ज्यादा खतरनाक है। एक आदमी कभी दो-चार साल में एक दफा दुष्ट हो जाए, ठीक है। एक आदमी चौबीस घंटे दुष्ट रहे और चौबीस घंटे शरारत करता रहे कुछ न कुछ, और शरारतें ऐसी खोजे कि जिसमें आप उसको कुछ कह भी न सकें, तो वह ज्यादा, ज्यादा महंगा पड़ जाएगा।

इसलिए बड़े आश्चर्य की बात है कि बारबेरियंस हैं, जो कच्चे आदमी को खा जाएं, लेकिन बड़े सरल हैं, बहुत सरल हैं। एकदम सरल हैं और खा जाएं कच्चे आदमी को पकड़ कर! मगर बड़े सरल हैं और सरलता बड़े इनोसेंट हैं।

आप जाकर कारागृह में देखें कैदियों को। मैं जब भी कारागृह में गया तो बहुत हैरान हुआ हूं। कैदी एकदम सरल मालूम पड?ता है, उन लोगों की बजाय जो मजिस्ट्रेट बने बैठे हैं। बड़ी हैरानी की बात है!

एक मजिस्ट्रेट की शक्ल देखें और उसके सामने कारागृह में जिसको उसने दस साल की सजा दे दी उस आदमी की शक्ल देखें, तो आप दस साल वाले को ज्यादा इनोसेंट पाएंगे! और यह जो मजिस्ट्रेट है, जिसने कभी चोरी नहीं की, कभी हत्या नहीं की, बड़ा कठोर मालूम पड़ेगा।

अब हो सकता है कि दस साल सजा देने में इस आदमी के भीतरी रस हों–कानून तो ठीक ही है, कानून सिर्फ बहाना हो, तरकीब हो, खूंटी हो–इस आदमी के भीतर रस हैं और आदमियों को सताने का यह उपाय खोज रहा है।

मनोवैज्ञानिक तो यह कहते हैं कि हर आदमी मजिस्ट्रेट क्यों नहीं होता? कुछ आदमी मजिस्ट्रेट होने के लिए आतुर रहते हैं। हर आदमी शिक्षक क्यों नहीं होता? कुछ आदमी शिक्षक होने के लिए आतुर रहते हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि शिक्षक वे लोग होना चाहते हैं, जो बच्चों को सताना चाहते हैं, उनके भीतर टार्चर करने की वृत्ति है। और उनको इकट्ठे बच्चे कहां मिलेंगे? बहुत मुश्किल है। किसी के बच्चे को सताओ तो दिक्कत है, अपनों को सताओ तो भी दिक्कत है। तीस बच्चे मुफ्त मिल जाते हैं, तनख्वाह भी मिलती है ऊपर से, और उनको ढंग से टार्चर करते हैं! और वे कुछ कर भी नहीं सकते, बिलकुल निहत्थे हैं।

अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इसकी…मैं तो यह मानता ही हूं कि दुनिया अच्छी होगी तो पहले, आदमी के शिक्षक होने के पहले पूरी साइको-एनालिसिस होनी चाहिए कि यह आदमी कहीं सताने वाला तो नहीं है! और सौ में सत्तर शिक्षक सताने वाले मिलेंगे! यानी जिनको अगर आप शिक्षक न होने देते तो वे और कहीं सताते, वे इधर सताएंगे।

अच्छा, दिन भर सता कर शिक्षक बड़ा सीधा-सादा हो जाएगा। जब वह लौटता है घर, तब वह बड़ा अच्छा आदमी मालूम पड़ता है। तो बच्चों के मां-बाप को वह बहुत भला आदमी मालूम पड़ता है कि कितना भला आदमी है! वह भला आदमी है, क्योंकि उसका सब बुरापन तो वह निकाल लेता है पांच घंटे में। तो मां-बाप कहते हैं कि तेरा शिक्षक बहुत भला आदमी है। उसका बेटा कहता है, कैसे मानें? क्योंकि चौबीस घंटे सता रहा है। और उसके कारण हैं, उसके कारण हैं, वे दिखाई नहीं पड़ते हैं।


Filed under: महावीर मेरी दृष्‍टी में--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–16)

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महावीर: अनादि, अनीश्वर और स्वयंभू अस्तित्व—(प्रवचन—सोलहवां)

प्रश्‍न :

 कपिल ने पूछा है कि इस जगत का, इस जीवन का प्रारंभ कब हुआ? कैसे हुआ?

ह महावीर के प्रसंग में भी बात बड़ी महत्वपूर्ण है। इसलिए महत्वपूर्ण है कि महावीर उन थोड़े से चिंतकों में से एक हैं, जिन्होंने प्रारंभ की बात को ही अस्वीकार कर दिया है। महावीर यह कहते हैं कि प्रारंभ संभव ही नहीं है। अस्तित्व का कोई प्रारंभ नहीं हो सकता। अस्तित्व सदा से है और कभी ऐसा नहीं हो सकता कि अस्तित्व नहीं हो जाएगा, ऐसा कभी नहीं हो सकता। प्रारंभ की और अंत की बात ही वे इनकार करते हैं। और मैं भी उनसे सहमत हूं।

प्रारंभ की धारणा ही हमारी नासमझी से पैदा होती है। क्योंकि हमारा प्रारंभ होता है और अंत होता है, इसलिए हमें लगता है कि सब चीजों का प्रारंभ होगा और अंत होगा! लेकिन अगर हम हमारे भीतर भी गहरे में प्रवेश कर जाएं तो हमें पता चलेगा, हमारा भी कोई प्रारंभ नहीं है और कोई अंत नहीं है। एक चीज बनती है और मिटती है, तो हमें यह खयाल हो जाता है कि जो भी बनता है वह मिटता है। यह ठीक है, लेकिन बनना और मिटना, प्रारंभ और अंत नहीं हैं। क्योंकि जो चीज बनती है, वह बनने के पहले किसी दूसरे रूप में मौजूद होती है; और जो चीज मिटती है, वह मिटने के बाद फिर किसी दूसरे रूप में मौजूद हो जाती है।

तो महावीर कहते हैं, जीवन में सिर्फ रूपांतरण होता है, न तो प्रारंभ है और न कोई अंत है।

प्रारंभ असंभव है, क्योंकि अगर हम यह मानें कि कभी प्रारंभ हुआ तो यह भी मानना पड़ेगा, उसके पहले कुछ भी न था। फिर प्रारंभ कैसे होगा? अगर कुछ भी न था उसके पहले तो प्रारंभ होने का उपाय भी नहीं है। अगर हम यह मान लें कि कुछ भी नहीं था तो समय भी नहीं था, टाइम भी नहीं था; स्पेस भी नहीं थी, स्थान भी नहीं था; प्रारंभ कैसे होगा? प्रारंभ होने के लिए कम से कम समय तो पहले चाहिए ही, ताकि प्रारंभ हो सके। और अगर समय पहले है, स्थान पहले है, तो सब पहले हो गया। क्योंकि इस जगत में मौलिक रूप से दो ही तत्व गहराई में हैं, टाइम और स्पेस।

तो महावीर कहते हैं, प्रारंभ की बात ही हमारी नासमझी से उठी है। अस्तित्व का कभी कोई प्रारंभ नहीं हुआ। और जिसका कभी कोई प्रारंभ न हुआ हो, उन्हीं कारणों से उसका कभी अंत भी नहीं हो सकता। क्योंकि अंत होने का मतलब होगा, एक दिन सब न हो जाए, कुछ भी न बचे। यह कैसे होगा?

इसलिए अस्तित्व अनादि है और अनंत है–न तो कभी शुरू हुआ है, न कभी अंत होगा; सदा है, सनातन है।

लेकिन रूपांतरण रोज है। कल जो रेत था, वह आज पहाड़ है; आज जो पहाड़ है, वह कल रेत हो जाएगा। लेकिन होना नहीं मिट जाएगा। रेत में भी वही था, पहाड़ में भी वही होगा। आज जो बच्चा है, कल जवान होगा, परसों बूढ़ा होगा, बाद विदा हो जाएगा। लेकिन जो बच्चे में था, वही जवान में होगा, वही बुढ़ापे में होगा, वही मृत्यु के क्षण में विदा भी ले रहा होगा। वह जो था, वह निरंतर होगा। अस्तित्व का अनस्तित्व होना असंभव है। और अनस्तित्व से भी अस्तित्व नहीं आता है।

इसलिए महावीर ने स्रष्टा की धारणा ही इनकार कर दी। इसलिए महावीर ने कहा, जब सृष्टि प्रारंभ ही नहीं होती, जब कभी शुरुआत ही नहीं होती, तो शुरुआत करने वाले की फिजूल धारणा को क्यों बीच में लाना? जब शुरुआत ही नहीं होती तो स्रष्टा की कोई जरूरत नहीं है।

यह बड़े साहस की बात थी उन दिनों। महावीर ने कहा, सृष्टि है और स्रष्टा नहीं है। क्योंकि अगर स्रष्टा होगा तो प्रारंभ मानना पड़ेगा। और महावीर कहते हैं, स्रष्टा भी हो तो भी शून्य से प्रारंभ नहीं हो सकता।

और फिर मजे की बात यह है कि अगर स्रष्टा था तो फिर शून्य कहना व्यर्थ है। तब था ही कुछ, और फिर उस होने से ही कुछ होता रहेगा। जिसे, साधारणतः जिसको हम आस्तिक कहते हैं–वस्तुतः वह आस्तिक नहीं होता–साधारणतः आस्तिक की दलील यही है कि सब चीजों का बनाने वाला है तो परमात्मा भी होना चाहिए जगत को बनाने के लिए।

लेकिन नास्तिकों ने और गहरा सवाल पूछा और उसका जवाब आस्तिक नहीं दे पाए। वे यह पूछते हैं कि अगर सब चीजों का बनाने वाला है तो फिर परमात्मा को बनाने वाला भी होना चाहिए। और तब बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है। अगर हम परमात्मा का बनाने वाला भी मानें तो इनफिनिट रिग्रेस हो जाएगी। फिर तो अंतहीन विवाद हो जाएगा, क्योंकि फिर उसका बनाने वाला चाहिए, फिर उसका, फिर उसका, फिर उसका…। इसका अंत कहां हो? किसी भी कड़ी पर यही सवाल उठेगा: इसका बनाने वाला?

तो महावीर कहते हैं कि आस्तिक भूल में है और इसलिए नास्तिक का उत्तर नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि आस्तिक बुनियादी भूल कर रहा है। महावीर परम आस्तिक हैं खुद भी, लेकिन वे कह रहे हैं, बनाने वाले को बीच में लाने की जरूरत नहीं है, अस्तित्व पर्याप्त है। न कोई बनाने वाला है, इसलिए यह भी सवाल नहीं कि उसका बनाने वाला कहां है।

महावीर के परमात्मा की धारणा अस्तित्व की गहराइयों से निकलती है; अस्तित्व के बाहर से नहीं आती, सुपर इंपोज्ड नहीं है। अस्तित्व अलग और परमात्मा अलग बैठ कर उसको जैसे कि कुम्हार घड़ा बना रहा हो, ऐसा नहीं है कोई परमात्मा। इसी अस्तित्व में जो सारभूत विकसित होतेऱ्होते अंतिम क्षणों तक विकास को उपलब्ध हो जाता है, वही परमात्मा है।

तो परमात्मा की धारणा में महावीर के लिए विकास है। यानी परमात्मा की धारणा अस्तित्व का सारभूत अंश है, जो विकसित हो रहा है।

साधारण आस्तिक की धारणा–परमात्मा अलग बैठा है और जगत को बना रहा है, तब प्रारंभ की बात है। उसी आस्तिक की नासमझी को वैज्ञानिक भी पकड़े हुए चला जाता है। हालांकि वह ईश्वर को इनकार कर देता है, लेकिन फिर भी वह सोचता है कि बिगनिंग कब हुई? प्रारंभ कब हुआ?

हां, यह हो सकता है, इस पृथ्वी का प्रारंभ कब हुआ, इसका पता चल जाएगा। यह पृथ्वी कब अंत होगी, यह भी पता चल जाएगा। लेकिन पृथ्वी जीवन नहीं है, जीवन का एक रूप है। जैसे मैं कब पैदा हुआ, पता चल जाएगा। मैं कब मर जाऊंगा, यह भी पता चल जाएगा। लेकिन मैं जीवन नहीं हूं, जीवन का सिर्फ एक रूप हूं। जैसे हम एक सागर में जाएं, एक लहर कब पैदा हुई, पता चल जाएगा; एक लहर कब गिरी, यह भी पता चल जाएगा; लेकिन लहर सिर्फ एक रूप है सागर का। सागर कब शुरू हुआ? सागर कब अंत होगा? और अगर सागर का भी पता चल जाए तो फिर सागर भी एक लहर है और बड़े विस्तार की।

अंततः जो है गहराई में, वह सदा से है; उसकी ऊपर की लहरें आई हैं, गई हैं, बदली हैं; आएंगी, जाएंगी, बदलेंगी; पर जो गहराई में है, जो केंद्र में है, वह सदा से है।

और यह हमारे खयाल में आ जाए तो प्रारंभ का प्रश्न समाप्त हो जाता है, अंत का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। सूरज ठंडा होगा, क्योंकि सूरज गरम हुआ है। जो गरम होगा, वह ठंडा होगा–वक्त कितना लगता है, यह दूसरी बात है। एक दिन सूरज ठंडा था, एक दिन सूरज फिर ठंडा हो जाएगा। एक दिन पृथ्वी ठंडी होगी। इनके भी जीवन हैं। असल में हमें खयाल में नहीं है। पृथ्वी भी…।

इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। हम कहते हैं कि मैं जीवित हूं, लेकिन हम कभी खयाल नहीं करते कि हमारे शरीर में करोड़ों कीटाणु भी जीवित हैं। उन कीटाणुओं का अपना जीवन है। और उन सारे कीटाणुओं से मिले हुए शरीर में एक और जीवन है, जो हमारा है।

पृथ्वी का अपना एक जीवन है। इसलिए महावीर कहते हैं उसकी अपनी, यह पृथ्वी काया है उस जीव की, उसका अपना जीवन है। उस पृथ्वी पर पौधे, पक्षियों, मनुष्यों, इन सबका अपना जीवन है; लेकिन पृथ्वी का अपना जीवन है, पृथ्वी की खुद अपनी जीवन-धारा है। उसका जन्म हुआ है, वह मरेगी। सूरज का अपना जीवन है, चांद का अपना जीवन है, वह भी शुरू हुआ है, उसका भी अंत होगा। लेकिन जीवन का, अस्तित्व का, एक्झिस्टेंस का कोई अंत नहीं है। ऐसा ही समझ लें कि अस्तित्व का एक सागर है, उस पर लहरें उठती हैं, आती हैं, जाती हैं; लेकिन पूरे अस्तित्व का कभी प्रारंभ हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता।

इसे ऐसा समझना चाहिए, हमारे सारे तर्क एक सीमा पर जाकर व्यर्थ हो जाते हैं। हम यहां लकड़ी के तख्तों पर बैठे हुए हैं। कोई हमसे पूछ सकता है, आपको कौन संभाले हुए है? तो हम कहेंगे, लकड़ी के तख्ते। फिर कोई पूछ सकता है, लकड़ी के तख्तों को कौन संभाले हुए है? तो हम कहेंगे, जमीन। और कोई पूछ सकता है, जमीन को कौन संभाले हुए है। तो शायद हम कहें कि ग्रहों-उपग्रहों का ग्रेविटेशन है, वह जमीन को संभाले हुए है। फिर कोई पूछे कि ग्रह-उपग्रह को कौन संभाले हुए है? तो शायद हम और खोजते चले जाएं। लेकिन अंततः कोई पूछे कि इस टोटल को, इस समग्र को, इस पूरे को–जिसमें सब आ गया है; ग्रह, उपग्रह, तारे, पृथ्वी, सब–इस सबको कौन संभाले हुए है? तो हम उससे कहेंगे, अब बात जरा ज्यादा हो गई। इस सबको कौन संभाले हुए है, यह प्रश्न असंगत है। क्योंकि हमने कहा, सबको कौन संभाले हुए है? अगर संभालने वाले को हम बाहर रखते हैं तो सब अभी हुआ नहीं, और अगर उसे भीतर कर लेते हैं तो बाहर कोई बचता नहीं जो उसे संभाले। सबको कोई भी नहीं संभाले हुए है, सब स्वयं संभला हुआ है। एक-एक चीज को एक-एक दूसरा संभाले हुए है, लेकिन दि टोटल, उसे कोई भी नहीं संभाले हुए है, वह स्वयं संभला हुआ है, वह स्वयंभू है।

इसलिए महावीर कहते हैं, जीवन स्वयंभू है–न इसका कोई बनाने वाला, न कोई इसका मिटाने वाला; यह स्वयं है। क्योंकि वे यह कहते हैं कि इससे क्या फायदा कि तुम एक आदमी को और लाओ बीच में, फिर कल यही सवाल उठे कि उसको कौन बनाने वाला है? फिर तुम किसी और को लाओ, फिर वही सवाल उठे। फिर परमात्मा का प्रारंभ कब हुआ, यह सवाल उठे। और फिर परमात्मा की मृत्यु कब होगी, यह सवाल उठे। इन सवालों में जाने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए महावीर उस हाइपोथीसिस को, उस परिकल्पना को एकदम इनकार कर देते हैं।

और मेरी अपनी समझ है कि जो लोग भी अस्तित्व की गहराई में गए हैं, वे स्रष्टा की धारणा को इनकार ही कर देंगे। उनकी परमात्मा की धारणा स्रष्टा की, क्रिएटर की धारणा नहीं होगी, उनकी परमात्मा की धारणा जीवन के विकास की चरम-बिंदु की धारणा होगी।

यानी सामान्यतया जिसको हम आस्तिक कहते हैं, उसका परमात्मा पहले है। महावीर की जो आस्तिकता, जो महावीर की है, उसमें परमात्मा चरम विकास है। और इसलिए रोज होता रहेगा ऐसा। एक लहर गिर जाएगी और सागर हो जाएगी, लेकिन दूसरी लहरें उठती रहेंगी। तो इसलिए कोई कभी अंत नहीं हो जाएगा। लहरें उठती रहेंगी, गिरती रहेंगी, सागर सदा होगा।

इसलिए आस्तिक वह है, जो लहरों पर ध्यान नहीं देता; उस सागर पर ध्यान देता है, जो सदा है। आस्तिक वह है, जो बदलाहट पर ध्यान नहीं देता; उस पर ध्यान देता है, जो कभी भी नहीं बदला है। आस्तिक वह है, जो अपरिवर्तनीय पर जिसकी दृष्टि चली जाती है, फिर परिवर्तन सब सपना हो जाता है। क्योंकि क्या मतलब है? फिर जीवन का यथार्थ विलीन हो जाता है और जीवन के यथार्थ की जगह स्वप्न की सत्ता खड़ी हो जाती है। क्या मतलब है?

मरते वक्त, एक आदमी मर रहा है, उससे हम पूछें कि सच में ही तूने जिस स्त्री को प्रेम किया था, वह तूने किया ही था या कि कोई सपना देखा था? तो मरते आदमी को तय करना बहुत मुश्किल है कि जिंदगी में उसने जो लाखों कमाए थे, वे कमाए ही थे या कि कोई सपना देखा था?

बर्ट्रेंड रसेल ने एक बहुत मजाक की है। बर्ट्रेंड रसेल ने यह मजाक की है कि मरते वक्त मैं तय नहीं कर पाऊंगा कि जो हुआ, वह सच में हुआ था या कि मैंने एक सपना देखा है! और कैसे तय करूंगा? दोनों में फर्क क्या करूंगा कि वह सच में हुआ था?

आप ही पीछे लौट कर देखिए जो बचपन गुजर गया, वह आपका एक सपना था या कि सच में था? आज तो आपके पास सिवाय एक स्मृति के कुछ भी नहीं रह गया है। और मजे की बात यह है कि जिसे हम जीवन कहते हैं, उसकी स्मृति भी वैसी ही बनती है, जैसा हम सपना कहते हैं, उसकी स्मृति बनती है।

इसलिए छोटे बच्चे तय भी नहीं कर पाते। छोटा बच्चा रात में अगर सपना देख लेता है कि उसकी गुड्डी किसी ने तोड़ दी तो सुबह रोता हुआ उठता है और पूछता है, मेरी गुड्डी तोड़ डाली गई है। उसे अभी साफ नहीं है कि उसने जो सपना देखा उसमें और जाग कर जो गुड्डी देख रहा है उसमें फर्क है। उसके लिए एक कंटिन्युटी है। दिन में वह देखता है, वह एक सपना है; रात जो देखता है, वह एक सपना है! या रात जो देखता है, वह एक सत्य है; सुबह जो देखता है, वह एक सत्य है! अभी उसे फासला, फर्क नहीं है। इसलिए हो सकता है सपने में डरा हो और जाग कर रोता रहे। और समझाना मुश्किल हो जाए, क्योंकि हमें पता ही नहीं है उसके कारण का कि वह डरा किस वजह से है। हो सकता है सपने में किसी ने उसे मार दिया हो और वह रोए चला जा रहा है जाग कर। उसके लिए फासला नहीं है अभी। जो लोग थोड़े जीवन की गहराई में उतरेंगे, वे अंत में फिर इस जगह पर पहुंच जाते हैं कि फासले फिर खो जाते हैं।

च्वांगत्से चीन में एक अदभुत विचारक हुआ। एक रात सपना देखा, सुबह उठा और बहुत परेशान था! मित्रों ने पूछा, आप इतने परेशान? हमारी परेशानी होती है, हम आप से सलाह लेते हैं। आज आप परेशान हैं! क्या हो गया आपको? उसने कहा कि आज मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। रात मैंने एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं और फूल-फूल पर भटक रहा हूं।

तो मित्रों ने कहा, इसमें क्या परेशान होने की बात है! सपने सभी देखते हैं। उसने कहा, नहीं, इससे परेशान होने की बात नहीं। अब मैं इस चिंता में पड़ गया हूं कि अगर रात च्वांगत्से नाम का आदमी सोया और तितली हो गया सपने में, तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह सपने की तितली अब सो गई है और सपना देख रही है च्वांगत्से हो जाने का? क्योंकि जब आदमी सपने में तितली हो सकता है तो तितली सपने में आदमी हो सकती है। अब मैं सच में हूं या कि तितली सपना देख रही है–अब यह मैं कैसे तय करूं? कैसे तय करूं? उसने खूब मजाक में डाल दिया है।

और वह जिंदगी भर लोगों से पूछता रहा कि मैं कैसे तय करूं? कैसे तय हो इस बात का?

जैसे ही कोई आदमी गहरे जीवन में उतरेगा–वहीं से सपने आते हैं, वहीं से जीवन भी आता है। सब लहरें वहीं से आती हैं। इसलिए सब लहरें एक अर्थ में समानार्थी हो जाती हैं। और तब सुख और दुख बेमानी है; तब प्रारंभ और अंत बेमानी है; तब ऐसा होना और वैसा होना बेमानी है; तब एक स्थिति है कि सब स्थितियों में आदमी राजी है।

लेकिन चूंकि हम लहरों का हिसाब रखते हैं, इसलिए हम परम सत्य के बाबत भी पूछना चाहते हैं: वह कब शुरू हुआ? कब अंत होगा?

सूरज बनेगा, मिटेगा–वह भी लहर है। जरा देर चलने वाली है, अरब, दो अरब, दस अरब वर्ष चलेगी। पृथ्वी भी मिटेगी, बनेगी; वह भी एक लहर है। हजारों पृथ्वियां बनी हैं और मिट गई हैं। हजारों सूरज बने हैं और मिट गए हैं। और प्रतिदिन कहीं किसी कोने पर कोई सूरज ठंडा हो रहा है, और किसी कोने पर कोई सूरज जन्म ले रहा है। अभी भी, इस वक्त भी, अभी जब हम यहां बैठे हैं तो कुछ सूरज बूढ़े हो रहे हैं, कोई सूरज मर रहा होगा कहीं; कोई सूरज अभी मरा होगा, कहीं सूरज नया जन्म ले रहा होगा; कई सूरज बच्चे हैं अभी, कई जवान हो रहे हैं। हमारा सूरज भी बूढ़ा होने के करीब पहुंचा जा रहा है, उसकी उम्र ज्यादा नहीं है। वह चार-पांच हजार वर्ष लेगा कि वह ठंडा हो जाएगा। हमारी पृथ्वी भी बूढ़ी होती चली जाएगी, वह भी बूढ़ी होती चली जा रही है। जगत में कोई ऐसी चीज नहीं है…।

पर होता क्या है, एक छोटी सी इल्ली है, वह समझो कि वर्षा में ही पैदा होती है, वह वृक्ष पर चढ़ रही है। वृक्ष उसको बिलकुल सनातन मालूम पड़ता है। उसके बाप भी इसी पर चढ़े थे, उसके बाप भी इसी पर चढ़े थे, उसके बाप भी इसी पर चढ़े थे। यह वृक्ष बिलकुल सनातन मालूम होता है। यह बिलकुल शाश्वत मालूम होता है। यह कभी मिटता हुआ नहीं मालूम होता। इल्ली की हजारों पीढ़ियां गुजर जाती हैं और यह वृक्ष है कि ऐसे ही खड़ा रह जाता है।

तो इल्लियां सोचती होंगी, वृक्ष सनातन हैं, ये कभी नहीं मिटते। वृक्ष न कभी पैदा होते, न कभी मरते; इल्लियां पैदा होती हैं और मर जाती हैं, वृक्ष सदा होते हैं। क्योंकि वृक्ष की उम्र है दो सौ वर्ष और इल्ली एक मौसम में जीती और मर जाती है। उसकी दो सौ पीढ़ियां एक वृक्ष पर गुजर जाती हैं। दो सौ पीढ़ियों में इतना लंबा फासला है।

हमारी दो सौ पीढ़ियों में कितना लंबा फासला है, आपको हिसाब है? महावीर से हमारा फासला कितना है? पच्चीस सौ वर्ष ही न? अगर हम पचास वर्ष की भी एक पीढ़ी मान लें तो कितना सा फासला है! कितनी सी पीढ़ियां गुजरीं! कोई बहुत ज्यादा नहीं।

न तो कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है।

जो है–उसका न कोई प्रारंभ है, न अंत है।

और जिसका प्रारंभ और अंत है, वह केवल एक रूप है, एक आकार है। आकार बनेंगे और बिगड़ेंगे, आकृति उठेगी और गिरेगी, सपने पैदा होंगे और खोएंगे।

लेकिन जो है सत्य, वह सदा है, और सदा है, और सदा है। उसे हम कभी ऐसा भी नहीं कह सकते कि था। सत्य के लिए ऐसा नहीं कह सकते कि था, सत्य के लिए ऐसा नहीं कह सकते कि होगा, सत्य के लिए तो एक ही बात कह सकते हैं कि है, और है, और है। और अगर बहुत गहरे जब कोई जाता है तो वह पाता है कि यह कहना भी गलत है कि सत्य है, क्योंकि जो है, वही सत्य है।

तो सत्य के साथ है को भी जोड़ना बेमानी है; क्योंकि है उसके साथ जोड़ा जा सकता है, जो नहीं है हो सकता हो। हम कह सकते हैं यह मकान है, क्योंकि मकान नहीं है भी हो सकता है। लेकिन सत्य है–इस कहने में कठिनाई है थोड़ी; क्योंकि सत्य नहीं है कभी नहीं हो सकता।

इसलिए सत्य और है पर्यायवाची हैं, सिनानिम्स हैं; इनको दोहरा उपयोग करना एक साथ पुनरुक्ति है। सत्य है, इसका मतलब है कि जो है वह है। इसका और कोई मतलब नहीं है। है यानी है, इसका इतना मतलब है। एक्झिस्टेंस इज़, ऐसा कहना गलत है; इज़नेस इज़ एक्झिस्टेंस। वह जो होना है, जो इज़नेस है, जो है, वही सत्य है। इसलिए सत्य है, इस कहने में भी पुनरुक्ति हो गई, दो शब्द आ गए हैं। है अलग से आ गया है। और है उन चीजों के लिए काम में आता है जो नहीं है भी हो जाती हैं।

इस दृष्टि का थोड़ा सा खयाल आ जाए तो सब बदल जाता है–सब बदल जाता है। तब पूजा और प्रार्थना नहीं उठती, तब मंदिर और मस्जिद नहीं खड़ी होती, लेकिन सब बदल जाता है। आदमी मंदिर बन जाता है। आदमी का उठना, चलना, बैठना, सब पूजा और प्रार्थना हो जाती है। क्योंकि जब इतना विस्तार का बोध आता है तो अपनी क्षुद्रता एकदम खो जाने का अर्थ रखने लगती है। फिर उसका कोई मतलब नहीं रह जाता, उसका कोई अर्थ नहीं है।

मैं हूं इसका अर्थ नहीं है; मैं था इसका अर्थ नहीं है; मैं होऊंगा इसका अर्थ नहीं है। लेकिन मेरे भीतर जो सदा है, वही सार्थक है। और वह सबके भीतर है, और वह एक ही है। तो व्यक्ति खो जाता है, अहंकार खो जाता है। तब जिसका जन्म होता है, उसी को हम कहें बदला हुआ चित्त, बदली हुई चेतना, ट्रांसफार्म्ड माइंड–जो भी नाम देना चाहें उसे हम दे सकते हैं।

प्रश्न:

 

जड़ और चेतन दो पृथक चीजें हैं या एक ही वस्तु के दो रूप हैं?

 

हीं, बिलकुल पृथक चीजें नहीं हैं। पृथक दिखाई पड़ती हैं। पृथक दिखाई पड़ती हैं। जड़ का मतलब है इतना कम चेतन कि हम अभी उसे चेतन नहीं कह पाते। चेतन का मतलब है इतना कम जड़ कि हम उसे अब जड़ नहीं कह पाते। वे एक ही चीज के दो छोर हैं।

जड़ता ही निरंतर चेतन होती चली जा रही है। और जड़ता चेतन होती चली जा रही है इसीलिए कि जड़ता में भीतर कहीं चेतन छिपा है। फर्क सिर्फ प्रकट और अप्रकट का है, मैनिफेस्टेड और अनमैनिफेस्टेड का है। जिसको हम जड़ कहते हैं, वह अप्रकट चेतन है, जिसकी अभी चेतना प्रकट नहीं हुई है। जिसको हम चेतन कहते हैं, वह प्रकट हो गया जड़ है, जिसका पूरा सब प्रकट है।

एक बीज रखा है और एक वृक्ष खड़ा है, कौन कहेगा कि बीज और वृक्ष एक ही हैं? क्योंकि कहां वृक्ष, कहां बीज! लेकिन बीज में वृक्ष अप्रकट है बस, इतना ही फर्क है। ऐसे दो दिखाई पड़ते हैं, दो हैं नहीं। और जहां-जहां हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहां-वहां दो नहीं हैं। है तो एक ही, लेकिन हमारी देखने की क्षमता इतनी सीमित है कि हम दो में ही देख सकते हैं। वह सीमित क्षमता के कारण, क्योंकि जड़ में हमें चेतन दिखाई नहीं पड़ता, और चेतन को हम कैसे जड़ कहें?

और इसीलिए जो झगड़ा चलता आ रहा है निरंतर से, वह एकदम बेमानी था। जिन लोगों ने कहा कि पदार्थ ही है, वे भी ठीक कहते हैं। वे ठीक कहते हैं इसी अर्थों में कि वे कहते हैं चेतन यानी क्या? सब पदार्थ से ही तो आ रहा है। तो कहा जा सकता है कि पदार्थ ही है, इसमें झगड़ा कहां है? कोई कहता है कि नहीं, पदार्थ है ही नहीं, बस चेतन ही है। वे भी ठीक ही कहते हैं।

वे ऐसे ही लोग हैं, जैसे एक कमरे में आधा गिलास भरा पानी रखा हो और एक आदमी बाहर आए और कहे कि गिलास आधा खाली है, और दूसरा आदमी बाहर आए और वह कहता है, गलत बोलते हो बिलकुल, गिलास आधा भरा है। और दोनों विवाद करें। और तब दो संप्रदाय बन जाएं। और ऐसे लोगों के संप्रदाय बनते हैं, जो भीतर कभी जाते नहीं देखने कि गिलास कैसा है! मकान के बाहर ही जो निर्णय करते हैं, वे संप्रदाय बनाते हैं। दो आदमी खबर लाए हैं कि मकान के भीतर जो गिलास है, वह आधा खाली है एक कहे; और एक कहे बिलकुल ही गलत है यह बात, मैंने अपनी आंख से देखा, गिलास आधा भरा है।

वे दोनों ही ठीक कहते हैं। और दोनों एक साथ ही ठीक हैं। नहीं तो एक भी ठीक नहीं हो सकता उनमें से। सिर्फ उनकी एंफेसिस, उनका जोर भिन्न है। एक खाली पर जोर देकर चला आया है, एक भरे पर।

जो लोग पदार्थ पर जोर दे रहे हैं, वे भी ठीक हैं। उनके जोर में गलती नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि पदार्थ ही है, सब पदार्थ है। यह भी कहा जा सकता है, सब चेतन है। क्योंकि पदार्थ और चेतन दो चीजें नहीं हैं, पदार्थ चेतन की अप्रकट स्थिति है और चेतन पदार्थ की प्रकट स्थिति है।

तो मेरी दृष्टि में जिस दिन दुनिया और ज्यादा संप्रदायों से उठ कर, मतों से उठ कर देखना शुरू करेगी; उस दिन मैटीरियलिस्ट और स्प्रिचुएलिस्ट में कोई झगड़ा नहीं रह जाना चाहिए; उस दिन भौतिकवादी और अध्यात्मवादी में कोई झगड़ा नहीं रह जाना चाहिए। वह आधे गिलास का झगड़ा है।

हां, लेकिन फिर भी मैं पसंद करूंगा कि जोर, सब चेतन है, इस पर दिया जाए। यह मैं क्यों पसंद करूंगा, जब कि वह बात भी ठीक है? पसंद इसलिए करूंगा कि जब हम इस बात पर जोर देते हैं कि सब पदार्थ है, तो हमारी चेतना के प्रकट होने में बाधा पड़ती है–इस जोर से। जब हम यह कहते हैं, सब पदार्थ है, इस बात में कोई भूल नहीं है। यह बात बिलकुल ठीक हो सकती है, है ही ठीक। लेकिन जब हम इस बात पर जोर देते हैं कि सब पदार्थ है तो हमारी चेतना के विकास में बाधा पड़ती है, क्योंकि हम सोचते हैं, सब पदार्थ है, ठीक है। लेकिन जब हम इस बात पर जोर देते हैं कि सब चेतन है तो हमारी चेतना पर बल पड़ता है और विकास की संभावना उदभूत होती है।

इसलिए अध्यात्मवाद में और पदार्थवाद में बुनियादी भेद नहीं है। भेद सिर्फ इस बात का है कि पदार्थवाद आदमी को रोक सकता है विकास से, क्योंकि जब सब पदार्थ ही है तो बात खतम हो गई। और अध्यात्मवाद विकासशील बना सकता है आदमी को। लेकिन जब कोई पहुंचता है सत्य पर जीवन के, तो वह पाता है, दोनों बातें ठीक थीं, बातों में कोई झगड़ा न था, लेकिन एंफेसिस में फिर भी फर्क पड़ता था। और फर्क उपयोगी था, बहुत उपयोगी था।

एक, भोज के जीवन में एक उल्लेख है कि एक ज्योतिषी आया। भोज का हाथ देखा और ज्योतिषी ने कहा, तुम बड़े अभागे हो। तुम अपनी पत्नी को भी मरघट पहुंचाओगे, अपने बेटों को भी मरघट पहुंचाओगे। तुम्हें घर के एक-एक सदस्य को मरघट पहुंचाना पड़ेगा, सबके बाद में तुम मरोगे। भोज तो बहुत नाराज हो गया और उसने ज्योतिषी को हथकड़ियां डलवा दीं और कहा कि इसे बंद कर दो। आदमी कैसा है, कैसी अपशकुन की बातें बोलता है!

कालीदास चुपचाप बैठा था, वह खूब हंसने लगा। उसने कहा कि ज्योतिषी कुछ अपशकुन नहीं बोलता, सिर्फ बोलने की समझ नहीं है, जोर गलत चीज पर देता है।

कालीदास ने जब यह कहा तो भोज ने कहा, क्या मतलब? तो कालीदास ने कहा कि मैं आपका हाथ देखूं? हाथ देख कर कालीदास ने कहा, बहुत धन्यभागी हैं आप! आपकी उम्र बहुत ज्यादा है। और धन्यभागी इस अर्थों में हैं कि न तो आपकी मृत्यु से आपकी पत्नी दुखी होगी, न आपकी मृत्यु से आपके बेटे कभी दुखी होंगे, कोई दुखी नहीं होगा। आप बड़े धन्यभागी हैं। और भोज ने कहा कि जितना इनाम चाहिए लो, ऐसी शकुन की बात करनी चाहिए, अपशकुन की नहीं।

अब यह जो–यह एंफेसिस का फर्क है, लेकिन चित्त पर इसके परिणाम भिन्न होने वाले हैं। पहली बात बड़ा उदास कर गई होगी, दूसरी बात बड़ा प्रसन्न कर गई। और बात बिलकुल एक थी। पहले आदमी ने कुछ भी गलत न कहा था, दूसरे आदमी ने कुछ ज्यादा सही न कह दिया था, लेकिन उनके कहने के ढंग, उनका जोर बदल गया था।

पदार्थवाद मनुष्य को एकदम उदास कर जाता है, बात वही है। अध्यात्मवाद उसे एक पुलक देता है, एक गति देता है, विकास के द्वार खोलता है, कुछ होने की संभावना प्रकट करता

है। इसलिए मैं फिर भी जारी रखूंगा यह बात कहना कि अध्यात्मवाद ही ठीक कहता है, यद्यपि भौतिकवाद गलत नहीं कहता है।

प्रश्न:

 

कब से प्रकृति पैदा हुई, यह तो हाइपोथीसिस है, यह मान कर चलते हैं। और महावीर स्वामी ने जो कहा, इज़ इट नाट दि लिमिटेशंस ऑफ दि नालेज ऑफ वन मैन, दैट वी कैन नाट रियलाइज दि थिंग्स?

हीं, यह सवाल ही नहीं है। यह मनुष्य के ज्ञान की सीमा का सवाल नहीं है, मनुष्य का ज्ञान कितना ही असीम हो जाए तो भी प्रारंभ की संभावना नहीं है।

प्रश्न:

 

जानने की?

हीं, नहीं। जानने की नहीं, प्रारंभ के होने की, जानने का तो सवाल ही नहीं है। अगर प्रारंभ है तो जाना जा सकता है। जो है, वह जाना जा सकता है। अब जो नहीं है, उसके लिए क्या करिएगा? प्रारंभ असंभव है। ज्ञान की सीमा का सवाल ही नहीं है। यानी ऐसा नहीं है कि महावीर यह कहते हैं कि मुझे पता नहीं है कि प्रारंभ है कि नहीं। मैं भी ऐसा नहीं कह रहा हूं कि यह हमारे ज्ञान की सीमा है कि हमें पता नहीं चल सकता कि प्रारंभ कब हुआ।

नहीं, यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि प्रारंभ की अवधारणा, वह जो हाइपोथीसिस है प्रारंभ की, वह इंपासिबल है, वह पासिबल नहीं है। वह इसलिए असंभव है कि प्रारंभ के लिए भी पहले कुछ सदा से होना चाहिए, नहीं तो प्रारंभ भी नहीं हो सकता। यानी प्रारंभ के संभव होने के लिए भी प्रारंभ के पहले अस्तित्व चाहिए, नहीं तो प्रारंभ भी संभव नहीं हो सकता। और जब पहले अस्तित्व चाहिए तो वह प्रारंभ नहीं रह गया। और फिर इसको आप पीछे खींचते चले जाएं।

जैसे समझ लें कि कोई आदमी कहे कि दुनिया की, जगत की एक सीमा है। और हम कहें, भई, हमें तो सीमा का कोई पता नहीं कि एक जगह जगत समाप्त हो जाता है, अस्तित्व एक जगह जाकर समाप्त हो जाता है जिसके आगे कुछ भी नहीं है। तो हम कहें, हमें पता नहीं है। हो सकता है एक दिन आदमी उस जगह पहुंच जाए, जहां जगत समाप्त हो जाता है। क्योंकि हमारा ज्ञान अभी सीमित है, हम बहुत थोड़ा सा ही तो जानते हैं। अभी चांद पर ही तो पहुंच पाए मुश्किल से और जगत तो, अस्तित्व तो बड़ा विस्तीर्ण है। कभी हम पहुंच पाएंगे, नहीं कह सकते। इसलिए अंत के संबंध में हम कैसे कहें?

नहीं, लेकिन मैं कहता हूं कि अंत नहीं हो सकता। अंत असंभव है। अंत इसलिए असंभव है कि किसी भी चीज का अंत सदा दूसरे का प्रारंभ होता है। यानी अगर हम किसी दिन एक ऐसी जगह पहुंच जाएं, जहां एक रेखा आ जाती हो; हम कह सकें जगत अंत हुआ, तो रेखा बनेगी कैसे?

रेखा बनती है दो के अस्तित्व से, एक शुरू होता हो और एक अंत होता हो। जहां आपका मकान खतम होता है, वहां पड़ोसी का शुरू हो जाता है। इसीलिए खतम होता है, नहीं तो खतम होता ही नहीं। जहां कुछ अंत होता है, वहीं प्रारंभ हो जाता है। यानी प्रत्येक अंत प्रारंभ को जन्म देता है और प्रत्येक प्रारंभ अंत को जन्म देता है।

जहां ऐसी स्थिति हो, वहां हम बिना किसी दिक्कत के यह कह सकते हैं कि चाहे कितना ही मनुष्य कहीं पहुंच जाए, ऐसा कभी नहीं होगा कि मनुष्य कह दे कि आ गई जगत की सीमा, अब इसके आगे कुछ भी नहीं है। लेकिन आगे तो होगा। बात खतम हो गई। इतना भी अगर रहा कि उसने कहा कि अब इसके आगे कुछ भी नहीं है; पर आगे तो होगा, स्पेस तो होगी। और तब फिर आगे तो अभी जारी रहा, खतम कहां हो गया?

यानी आप कंसीव नहीं कर सकते ऐसा कि एक जगह ऐसी आ गई, जिसके आगे आगे भी नहीं है। ऐसी जगह कैसे आएगी? और इसलिए इनकंसीवेबल है, इंपासिबल है। न तो अवधारणा हो सकती है और न संभावना है।

महावीर का दावा इसलिए जारी रहेगा। वह दावा किसी भी दिन खंडित नहीं हो सकता। यानी अगर किसी दिन हमने पता भी लगा लिया कि इस दिन पृथ्वी का प्रारंभ हुआ, तो हम पाएंगे कि उसके पहले कुछ है, जिससे प्रारंभ हुआ। फिर उसका पता लगा लिया, तो पता चलेगा उसके पहले कुछ है, जिससे प्रारंभ हुआ। यानी प्रारंभ चूंकि शून्य से नहीं हो सकता है, और अगर शून्य से प्रारंभ हो सके तो फिर शून्य को शून्य कहना गलत होगा। उसका मतलब होगा कि शून्य में भी बीज की तरह कुछ छिपा है, जो प्रकट हो सकता है, फिर वह शून्य नहीं रहा। शून्य का मतलब है जिसमें कुछ भी नहीं छिपा है, जो है ही नहीं।

तो इसका जो कारण है, वह यह नहीं है कि मनुष्य का ज्ञान सीमित है, इसका कारण यह है कि ज्ञान कितना ही बढ़ जाए, प्रारंभ की धारणा असंभव है, प्रारंभ कभी हो ही नहीं सकता। यानी उस प्रारंभ होने की धारणा में ही उसका विरोध छिपा हुआ है। वह कैसे होगा? और जहां से भी होगा, पूर्व-स्थितियों की जरूरत पड़ेगी। और वे पूर्व-स्थितियां प्रारंभ को खंडित कर देती हैं।

प्रश्न:

 

जीवन की भिन्न-भिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर की मानसिक स्थिति का विश्लेषण उपलब्ध नहीं होता। आज जो साहित्य उपलब्ध है, उसके आधार पर उनकी अंतरंग स्थिति का स्पष्टीकरण क्या हो सकेगा?

ह बहुत बढ़िया सवाल है। बढ़िया इसलिए है कि हम सबके मन में उठ सकता है कि भिन्न-भिन्न अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर जैसे व्यक्ति की चित्त-दशा क्या होती है? कोई उल्लेख नहीं है। तो कोई सोच सकता है कि उल्लेख इसलिए नहीं है कि महावीर ने कभी कहा न हो।

यह कारण नहीं है। उल्लेख न होने का कारण बहुत दूसरा है और बहुत गहरा, बुनियादी है। महावीर जैसी चेतना के व्यक्ति में परिस्थितियों से कोई भेद नहीं पड़ता। इसलिए भिन्न-भिन्न परिस्थिति कहने का कोई अर्थ नहीं है। भिन्न-भिन्न परिस्थिति में, प्रतिकूल-अनुकूल में चित्त सदा समान है।

जैसे कि किसी ने गाली दी, तो हम क्रोधित होते हैं; और किसी ने स्वागत किया तो हम आनंदित होते हैं। प्रत्येक स्थिति में हमारा चित्त रूपांतरित होता है। जैसी स्थिति होती है, वैसा चित्त हो जाता है।

इसी को महावीर कहते हैं कि यह बंधन की अवस्था है। स्थिति जैसी होती है, वैसा चित्त को होना पड़ता है तो फिर हम बंधे हुए हैं। स्थिति दुख की होती है तो हमें दुखी होना पड़ता है, स्थिति सुख की होती है तो हमें सुखी होना पड़ता है। इसका मतलब यह हुआ कि चित्त की अपनी कोई दशा नहीं है। चित्त सिर्फ बाहर की स्थिति जो मौका दे देती है, वैसा हो जाता है। इसका अर्थ हुआ कि अभी चित्त उपलब्ध ही नहीं हुआ है, चेतना अभी उपलब्ध ही नहीं हुई है। अभी हम उस जगह नहीं पहुंचे, जहां कि क्रिस्टलाइजेशन हो जाता है, जहां कि हम कुछ हैं और स्थितियां कोई फर्क नहीं लातीं। सुख आए तो, दुख आए तो, प्रतिकूल और अनुकूल जैसी चीज ही नहीं होती एक चित्त-दशा में। जो होता है, वह होता है। और चित्त जैसा है वैसा होता है।

महावीर के इसलिए अंतरंग चित्त में क्या हो रहा है? किसी दिन बहुत शिष्य इकट्ठे हुए होंगे तो महावीर का मन कैसा है? किसी दिन कोई नहीं आया होगा गांव में सुनने तो महावीर का मन कैसा है? किसी दिन सम्राट आए होंगे सुनने और चरणों में लाखों रुपए रखे होंगे और किसी दिन कोई भिखारी भी नहीं आया, तो महावीर का मन कैसा है? किसी गांव में स्वागत-समारंभ हुए होंगे, फूलमालाएं पड़ी होंगी, और किसी गांव में पत्थर फेंके गए और गालियां दी गईं और गांव के बाहर खदेड़ दिया गया, तो महावीर का मन कैसा है? उस प्रश्न में यह पूछा है कि इन-इन स्थितियों में महावीर के भीतर क्या होता है?

असल में महावीर होने का मतलब ही यह है कि भीतर अब कुछ भी नहीं होता। जो होता है, वह सब बाहर ही होता है। भीतर अब कुछ भी नहीं होता है, यही महावीर होने का अर्थ है। यही क्राइस्ट होने का अर्थ है, यही बुद्ध होने का अर्थ है, यही कृष्ण होने का अर्थ है कि अब भीतर कुछ भी नहीं होता। जो भी होता है सब बाहर ही होता है। भीतर बिलकुल अस्पर्शित, अछूता छूट जाता है।

जैसे एक दर्पण है और दर्पण के सामने से कोई निकलता है–कोई सुंदर व्यक्ति, तो दर्पण में सुंदर तस्वीर बनती है। व्यक्ति निकल गया, तस्वीर मिट जाती है, दर्पण दर्पण रह जाता है। फिर एक कुरूप व्यक्ति निकलता है, तस्वीर बनती है कुरूप की, फिर कुरूप व्यक्ति निकल जाता है, दर्पण फिर दर्पण रह जाता है। दर्पण कुछ पकड़ता नहीं। और दर्पण सुंदर को भी वैसे ही झलकाता है जैसे कुरूप को; इसमें भी फर्क नहीं करता।

इसमें भी फर्क नहीं करता कि सुंदर को कुछ ज्यादा रस से झलका दे, कुरूप को जरा कम रस से झलकाए, या कहे कि हटो भी! ऐसा कुछ भी नहीं करता। सुंदर है कि कुरूप है, कौन गुजरता है सामने से इससे मतलब नहीं है। दर्पण का काम है, झलका देता है। गुजर जाता है, मिट जाता है।

लेकिन फोटो-प्लेट है, वह भी दर्पण का काम करती है, लेकिन बस एक ही बार, क्योंकि जो भी उस पर अंकित हो जाता है, उसे पकड़ लेती है, फिर उसे छोड़ नहीं पाती। इसका मतलब यह हुआ कि दर्पण की घटनाएं सब बाहर ही घटती हैं, भीतर कुछ घटता नहीं। भीतर कुछ घट जाए तो जकड़ जाए। फोटो-प्लेट में भीतर घटना घट जाती है, बाहर से कोई निकलता है और भीतर घट जाता है। बाहर से तो निकल ही जाता है, वह आदमी जा भी चुका, लेकिन फोटो-प्लेट फंस गई, वह तो पकड़ गई भीतर से। हम भीतर से पकड़े जाते हैं।

और दो तरह के चित्त हैं जगत में: फोटो-प्लेट की तरह काम करने वाले या दर्पण की तरह काम करने वाले। फोटो-प्लेट की तरह जो काम कर रहे हैं, उन्हीं को महावीर राग-द्वेष से ग्रस्त कहते हैं। असल में फोटो-प्लेट बड़ा राग-द्वेष रखती है। राग-द्वेष का मतलब यह कि जकड़ती है जल्दी से, पकड़ती है जल्दी से, फिर छोड़ती नहीं।

राग भी पकड़ता है, द्वेष भी पकड़ता है, दोनों पकड़ते हैं। एक मित्र की तरह पकड़ता है, एक शत्रु की तरह पकड़ता है और दोनों पकड़ लेते हैं। और चित्त की जो दर्पण की निर्मलता है, वह खो जाती है। हम सब फोटो-प्लेट की तरह काम करते हैं, इसलिए बड़ी मुसीबत में पड़े होते हैं। एकदम चित्त भरता जाता है, भरता जाता है, खाली कभी होता नहीं। और फिर हर स्थिति पकड़ी जाती है। और कोई स्थिति ऐसी नहीं है जो हमारे पास से अस्पर्शित निकल जाए।

महावीर जैसे व्यक्ति दर्पण की तरह जीते हैं। असल में समाधिस्थ व्यक्ति दर्पण की तरह हो जाता है। कोई गाली देता है तो वह सुनता है, जैसे कोई सम्मान करता है तो सुनता है, लेकिन जैसे सम्मान विदा हो जाता है सुनते ही, ऐसे ही गाली भी विदा हो जाती है; भीतर कुछ पकड़ा नहीं जाता।

इसलिए महावीर के अंतरंग चित्त की अलग-अलग स्थितियां नहीं हैं, जिनका वर्णन किया जाए। इसलिए वर्णन नहीं किया गया है। कोई स्थिति ही नहीं है। अब क्या दर्पण को वर्णन करो बार-बार? इतना ही कहना काफी है कि दर्पण है। जो भी आता है सो झलकता है, जो भी चला जाता है, झलक बंद हो जाती है।

अब इसको रोज-रोज क्या लिखो! इसको रोज-रोज क्या कहो! इसे कहने का कोई भी अर्थ नहीं है। न महावीर की, न क्राइस्ट की, न बुद्ध की, न कृष्ण की–किन्हीं की अंतस-परिस्थिति का कोई उल्लेख कभी नहीं किया गया। नहीं किए जाने का कारण है, उल्लेख योग्य कुछ है ही नहीं। एक समता आ गई है चित्त की, वह वैसा ही रहता है।

जैसे मैं निरंतर कहता रहता हूं कि महावीर को कुछ लोग पत्थर मार रहे हैं, या कान में कीले ठोंक रहे हैं, या गांव के बाहर खदेड़ रहे हैं, तो महावीर को मानने वाले कहते हैं कि बड़े क्षमावान थे वे। उन्होंने लौट कर गाली न दी, क्षमा कर दिया और आगे बढ़ गए! लेकिन वे भूल जाते हैं कि क्षमा तभी की जा सकती है, जब मन में क्रोध आ गया हो। क्षमा अकेली बेमानी है। वह क्रोध के साथ ही सार्थक है, नहीं तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है। हम क्षमा कैसे करेंगे, जब हम क्रुद्ध न हुए हों? और वे कहते हैं कि उन्होंने लौट कर गाली न दी, लौट कर क्षमा दी और आगे बढ़ गए, लेकिन लौट कर कुछ दिया! और लौट कर तभी कुछ दिया जा सकता है, जब भीतर कुछ हो गया हो, नहीं तो लौट कर कुछ भी नहीं दिया जा सकता।

तो मैं आपसे कहता हूं, महावीर क्षमावान नहीं थे, क्योंकि महावीर क्रोधी नहीं थे। और महावीर ने लौट कर क्षमा भी नहीं किया। चाहे देखने वालों को लगा हो कि हमने गाली दी और इस आदमी ने गाली नहीं दी, बड़ा क्षमावान है। बस इतना ही कहना चाहिए कि इस आदमी ने गाली नहीं दी। बड़ा क्षमावान है–गलती हो जाती है। उस आदमी ने गाली सुनी, जैसे एक शून्य भवन में आवाज गूंजे और फिर निकल जाए–चाहे गाली की, चाहे भजन की। आवाज गूंजे और निकल जाए, भवन फिर शून्य हो जाए।

इस तल पर, इस चेतना में जीने वाले व्यक्ति सूने भवन की तरह हैं, जिनमें जो भी आता है, वह गूंजा; गूंजता जरूर है, हमसे ज्यादा गूंजता है स्पष्ट; क्योंकि हमारी संवेदनशीलता इतनी तीव्र नहीं होती। क्योंकि हमने इतनी चीजें पहले से भर रखी होती हैं।

जैसे खाली कमरा देखा न? खाली कमरे में आवाज गूंजती है और बहुत फर्नीचर भरा हो तो फिर नहीं गूंजती। हम फर्नीचर भरे हुए लोग हैं, जिसमें बहुत भरा हुआ है। फोटो-प्लेट ने बहुत इकट्ठा कर लिया है। आवाज गूंजती ही नहीं, कई दफा तो सुनाई ही नहीं पड़ती कि क्या सुना, क्या देखा, वह कुछ पता नहीं चलता। सेंसिटिविटी भी कम है।

लेकिन महावीर जैसे व्यक्ति की संवेदनशीलता तो बड़ी प्रगाढ़ है, सब गूंजता है। जरा सी आवाज होती है, सुई भी गिरती है तो गूंज जाती है। लेकिन बस गूंजती है। और जितनी देर गूंज सकती है, गूंजती है, और विदा हो जाती है। महावीर उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करते, न क्षमा की, न क्रोध की। असल में महावीर कहते ही यह हैं कि महावीर का सारा का सारा योग अप्रतिक्रिया योग है, प्रतिक्रिया मत करो। देखो, जानो, सुनो; लेकिन प्रतिक्रिया मत करो। देखो, जानो, सुनो; खूब देखो, खूब जानो, खूब सुनो; लेकिन प्रतिक्रिया मत करो।

प्रश्न:

 

एक ईडियट भी प्रतिक्रिया नहीं करता!

ह इसलिए नहीं करता, क्योंकि न वह सुनता है, न वह जानता है, न वह देखता है।

प्रश्न:

 

ईडियट एक आदमी है…।

हां, हां, वह भी इसीलिए प्रतिक्रिया नहीं करता, क्योंकि देख भी नहीं पाता, सुन भी नहीं पाता, समझ भी नहीं पाता। और इसीलिए–यह बात इसने ठीक पूछी है–ईडियट, मंदबुद्धि, बुद्धिहीन, जड़ नहीं प्रतिक्रिया करता। इसीलिए परम स्थिति में अक्सर जड़ जैसी अवस्था मालूम होने लगती है।

प्रश्न:

 

तो मालूम कैसे पड़े? खयाल में कैसे आए?

तुम्हें मालूम करने की जरूरत नहीं है।

प्रश्न:

 

अपने भीतर देखें…।

 

हां, तुम अपनी फिक्र करो कि हम कहां हैं। यानी बहुत कठिन है फर्क करना। परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति हमें जड़ जैसा मालूम पड़ेगा, क्योंकि हमने जड़ को ही जाना है। अगर आप एक जड़ को गाली दे दें तो हो सकता है, बैठा हुआ सुनता रहे। इसलिए नहीं कि उसने गाली सुनी, बल्कि सिर्फ इसलिए कि वह सुना ही नहीं उसने कि क्या हुआ।

महावीर को गाली दो तो हो सकता है, वे भी वैसे ही बैठे सुनते रहें। इसलिए नहीं कि उन्होंने गाली नहीं सुनी, गाली पूरी तरह सुनी, जैसी किसी आदमी ने कभी न सुनी होगी, सुनी; लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं की। क्योंकि गाली की प्रतिक्रिया क्या करनी है! प्रतिक्रिया करने का फल क्या है? प्रतिक्रिया से लाभ क्या है? प्रयोजन क्या है?

तो अक्सर ऐसा होता है कि परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति ठीक जड़ जैसा मालूम पड़ने लगता है–हमें, क्योंकि हमारी भाषा में हम जड़ को ही पहचानते हैं। लेकिन फर्क तो बहुत होंगे, फर्क तो बहुत गहरे होंगे। वक्त लगेगा पहचानने में। और शायद हम ठीक से कभी पहचान भी न सकें। जब तक हमारे भीतर फर्क होने शुरू न हो जाएं, तब तक शायद ठीक से पहचानना भी मुश्किल है कि क्या हो गया है उस व्यक्ति को।

यह जो कुछ अदभुत सी बात है, लेकिन दो विरोधी अतियां कभी-कभी बिलकुल समान ही मालूम होती हैं। जैसे एक बच्चा सरल मालूम होता है, निर्दोष मालूम होता है; लेकिन अज्ञानी है, ज्ञान बिलकुल नहीं है। परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी बच्चे जैसा मालूम होने लगेगा; इतना ही सरल, इतना ही निर्दोष। शायद बच्चे जैसा व्यवहार भी करने लगेगा। शायद हमें तय करना मुश्किल हो जाएगा कि इस आदमी ने बुद्धि खो दी! यह कैसा बच्चों जैसा व्यवहार कर रहा है! कैसी बाल-बुद्धि का हो गया है!

घूम कर वृत्त वापस लौट आया है। लेकिन दोनों में बुनियादी फर्क हैं। बच्चा अभी निर्दोष दिखता है, लेकिन कल निर्दोषता खोएगा। अभी सरल दिखता है, लेकिन कल जटिल होगा। यह आदमी जटिल हो चुका, निर्दोषता खो चुका; यह पुनः उपलब्धि है, सरलता वापस लौट आई है, निर्दोष फिर हो गया है। अब खोने का सवाल नहीं है। यह जान कर, जीकर वापस लौट आया है। यह उन अनुभवों से गुजर गया है, जिनसे बच्चे को गुजरना पड़ेगा।

बच्चे की सरलता अज्ञान की है, एक संत की सरलता ज्ञान की है। लेकिन दोनों सरलताएं अक्सर एक सी मालूम पड़ेंगी! एक सी मालूम पड़ेंगी–एक संत भी उतना ही सरल हो सकता है, ऐसे ही बच्चों जैसा सरल हो सकता है। और अगर संत बच्चों जैसा सरल न हो सके तो अभी वृत्त पूरा नहीं हुआ, अभी बात वापस नहीं लौटी–अभी बात वापस नहीं लौटी, जटिलता शेष रह गई है, कठिनाई शेष रह गई है। कहीं कोई चालाकी, कहीं कोई कनिंगनेस, कोई कैलकुलेशन शेष रह गया है।

जड़ और परम प्रज्ञावान में भी इसी तरह का वृत्त दिखाई पड़ेगा, जड़ जैसा ही मालूम पड़ेगा। और इसलिए कभी-कभी बहुत भूलें हो जाती हैं। जैसे मैं फकीर नसरुद्दीन की निरंतर बात करता हूं। वह ऐसा ही आदमी था। जो देखने में परम जड़ मालूम पड़े, जिसका व्यवहार परम जड़ का हो, जिसकी कोई भी चीज ऐसे मालूम पड़े कि ईडियट की है, मूढ़ की है, लेकिन जिसमें जो देख सके तो परम ज्ञान भी दिख जाए। एकाध बात मैं बताना चाहूं।

फकीर नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा है। एक तोते को बेचने वाला बाजार में तोता बेच रहा है और जोर से चिल्ला कर कह रहा है कि बहुत कीमती तोता है, बड़े सम्राट के घर का तोता है, इस-इस तरह की वाणियां जानता है, इस-इस भाषा को पहचानता है, इस-इस भाषा को बोलता है। और सैकड़ों लोग इकट्ठे हैं।

नसरुद्दीन भी उस भीड़ में खड़ा हो गया है। कई सौ रुपए में वह तोता नीलाम हुआ और बिक गया! नसरुद्दीन ने कहा कि लोगो, ठहरो! मैं इससे भी बढ़िया तोता लेकर अभी आता हूं। भागा हुआ घर आया, अपने तोते के पिंजड़े को ले जाकर उसने बाजार में खड़ा कर दिया और उसने कहा कि वह क्या तोता था! अब दाम इसके बोलो। और जहां से उसकी बोली खतम हुई, वहां से शुरू करो। लोगों ने समझा कि उससे भी बढ़िया कोई तोता आ गया है। तो उन्होंने बोली शुरू की, लेकिन तब धीरे-धीरे किसी ने कहा…क्योंकि वह तोता जो था, पहला तोता जो था, बार-बार बोलता था, जवाब देता था। कई दफे बोली भी बढ़ाता था, खुद भी बोली बढ़ाता था, अनेक भाषाएं बोलता था, लेकिन यह बिलकुल चुप ही था, यह कुछ बोलता-वोलता नहीं था।

थोड़ी देर में लोगों ने कहा कि लेकिन यह तोता कुछ बोलता है कि नहीं? नसरुद्दीन ने कहा कि बोलने वाले तोतों का क्या मूल्य! यह मौन तोता है, बिलकुल सायलेंट है। यह परम स्थिति को उपलब्ध हो गया है। उन्होंने कहा, हटाओ इसको, एक पैसे में इसे कोई नहीं खरीदेगा। उसने कहा कि बड़े पागल लोग हो तुम! लोगों ने कहा, अरे, यह मूढ़ है नसरुद्दीन! इसकी बातों में क्यों पड़ते हो? यह पागल है, इसको कुछ अक्ल नहीं। इसको निकाल बाहर करो अपने तोते सहित। इसको बाहर निकालो, यह नसरुद्दीन है, वही पागल!

लोगों ने नसरुद्दीन को तोते सहित बाहर निकाल दिया। रास्ते पर लोगों ने पूछा, कहो नसरुद्दीन, तोता बिका कि नहीं? उसने कहा कि क्या बिकता! क्योंकि वहां खरीददार बस वाणी को ही समझ सकते थे, मौन को कोई नहीं समझ सकता; इसलिए हम पीटे भी गए और बाहर निकाले गए। इसलिए हम पीटे गए और बाहर निकाले गए, क्योंकि वहां कोई मौन को समझने वाला न था। मैंने तो सोचा कि जब वाणी के इतने दाम लग रहे हैं तो मौन का तो मजा आ जाएगा!

लेकिन…लेकिन वह आदमी ईडियट, ईडियट लगेगा न बिलकुल! ईडियट है कि कैसा पागल आदमी है! जो तोता बोलता ही नहीं, उसको कौन खरीदेगा?

यह आदमी…नसरुद्दीन निरंतर अपने गधे पर यात्राएं करता है, गधे पर शक्कर भर कर जा रहा है। नदी बड़ी है, गधा नदी में बैठ गया, सारी शक्कर बह गई। नसरुद्दीन ने गधे से कहा कि तू हमसे भी ज्यादा बुद्धिमानी हमको दिखला रहा है? ठहर बेटे! तुझे आगे बतलाएंगे। क्योंकि हम कोई साधारण आदमी नहीं हैं, हम भी तर्क जानते हैं। गधे से कहा, हम भी तर्क जानते हैं! तू हमको तर्क सिखला रहा है!

गधे को वापस लौटा कर लाया, उस पर रुई लादी, उसे नदी के पास ले गया। गधा फिर बैठा। रुई भारी हो गई, गधे का उठना मुश्किल हो गया। उसने आस-पास के लोगों को बुला कर कहा, देखो नसरुद्दीन जीत गया, गधा हार गया! लोगों ने कहा कि तुम बिलकुल जड़बुद्धि हो। तुम गधे से विवाद कर रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, विवाद गधे के सिवाय और किससे करना पड़ता है? इस आदमी ने कहा, और किससे विवाद करना पड़ता है? सब गधों से ही तो झगड़ा है, गधों से ही तो बकवास है। मगर लोगों ने कहा कि छोड़ो उसके गधे को और उसको, वे दोनों एक से हैं, उनकी बातों का कोई मतलब नहीं!

इस आदमी की जिंदगी में ऐसे बहुत मौके हैं, जब कि एकदम समझना मुश्किल हो जाता है कि यह आदमी क्या पागलपन कर रहा है! क्या कर रहा है यह? लेकिन पीछे कहीं कोई बात है!

निकल रहा है रास्ते से, जोर की वर्षा हो रही है, एक मकान के पास बैठ गया है। गांव का जो मौलवी है, वह भी भाग रहा है वर्षा से। नसरुद्दीन दालान में बैठा हुआ चिल्लाता है कि अरे मौलवी! भागते हो? सारे गांव को बता दूंगा। तो मौलवी ने कहा कि मैंने कोई अपराध किया? क्योंकि मौलवी, पंडित, साधु सदा डरे रहते हैं कि गांव को कोई न बता दे। उसने कहा, मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है?

उसने कहा, पाप तुम कर रहे हो। भगवान पानी गिरा रहा है और तुम भाग रहे हो, यह भगवान का अपमान है।

तो मौलवी धीरे-धीरे गया। लेकिन सर्दी पकड़ गई, जुकाम-बुखार हो गया। तीसरे दिन मौलवी अपने घर के बाहर दुलाई वगैरह ओढ़े हुए सर्दी से परेशान बैठा है और पानी गिरा, नसरुद्दीन भागा जा रहा है। तो मौलवी ने कहा कि ठहर नसरुद्दीन, मुझे तो तूने धीरे चलने को कहा था, तू क्यों भाग रहा है?

उसने कहा, भगवान के पानी पर कहीं मेरा पैर न पड़ जाए। और वह भागा।

समझे न? दूसरे दिन जब मौलवी मिला तो उसने कहा कि तू तो बड़ा बेईमान है। तो उसने कहा कि सब समझदार बेईमान पाए जाते हैं। सब समझदार बेईमान हैं। उसने कहा कि अगर ईमानदारी करो तो नासमझ हो जाते हैं। अगर समझदारी हो तो आदमी बेईमान कहते हैं। और फिर व्याख्या हमेशा अपने अनुकूल करनी पड़ती है।

नसरुद्दीन ने कहा, और व्याख्या हमेशा अपने अनुकूल करनी पड़ती है। शास्त्रों का क्या भरोसा! अपने पर भरोसा रखना पड़ता है। व्याख्या सदा अपने अनुकूल करनी पड़ती है। सब बुद्धिमान यही करते रहे हैं, मुझ पर क्यों नाराज होते हो? अपने मतलब से व्याख्या करते हैं। तुम जब पानी में थे तब हमने यह व्याख्या की, जब हम पानी में थे तब हमने दूसरी व्याख्या की। सभी बुद्धिमान यही करते रहे हैं।

यह जो आदमी है, यह जाहिर ईडियट था। लेकिन परम प्रज्ञा को जो लोग उपलब्ध होते हैं, उनमें से एक है वह आदमी। मगर उसे पकड़ना मुश्किल हो जाए। और कई बार उसकी बातें बड़ी बेहूदी हो जाएं, बिलकुल समझ के बाहर हो जाएं।

घर लौट रहा है, एक मित्र ने कुछ मांस दिया है भेंट, और साथ में एक किताब दी है जिस किताब में मांस बनाने की तरकीब लिखी है। किताब बगल में दबा कर मांस हाथ में लेकर बड़ी खुशी से भागा चला आ रहा है। चील ने झपट्टा मारा, मांस ले गई। नसरुद्दीन ने कहा, अरे मूर्ख, जा! क्योंकि बनाने की तरकीब तो किताब में लिखी है।

घर पहुंचा, घर जाकर अपनी पत्नी से कहा, सुनती हो? आज एक चील बड़ी बेवकूफ निकल गई। क्या हुआ? उसने कहा, मैं मांस लेकर आ रहा था, वह मांस तो ले गई, लेकिन तरकीब तो किताब में लिखी है। उसकी औरत ने कहा, तुम बड़े बुद्धू हो। चील इतनी बुद्धू नहीं।

उसने कहा, सभी बुद्धिमानों को मैंने किताब पर भरोसा करते पाया, इसलिए मैं भी किताब पर भरोसा करता हूं।

यह जो आदमी है न, यह बिलकुल एकदम से तो दिखेगा कि कैसा पागल है, एकदम जड़बुद्धि! लेकिन कहीं कोई बात है, कहीं कोई गहरे में उसकी भी अपनी समझ है। और वह इतने बड़े व्यंग्य भी कर रहा है और इतनी सरलता से, और इतने इनोसेंट, कि किसी के खयाल में आएं तो प्राणों में घुस जाएं। खयाल में न आएं तो वह आदमी बुद्धू है। बहुत बार ऐसा हो सकता है कि हमें पकड़ में ही न आ पाए कि क्या बात है। लेकिन उससे कोई–हमें पकड़ में भी तभी आएगा, जब हमारी समझ उतनी गहराई पर खड़ी हो, तभी पकड़ में आ सकता है।

एक प्रश्न और ले लें।

प्रश्न:

 

क्या महावीर की अहिंसा पूर्ण विकसित है? क्या महावीर के आगे अहिंसा का उत्तरोत्तर विकास नहीं हुआ है? गीता और बाइबिल में महावीर से भी अधिक सूक्ष्म रूप हैं।

 

हली बात तो यह कि कुछ चीजें हैं, जो कभी विकसित नहीं होतीं, विकसित हो ही नहीं सकती हैं। ये वे चीजें हैं, जहां हमारा विचार, हमारा मस्तिष्क, हमारी बुद्धि सब शांत हो जाती है और तब हमारे अनुभव में आती हैं। जैसे कोई कहे कि बुद्ध को जो ध्यान उपलब्ध हुआ था, पच्चीस सौ साल हो गए, अब जिन लोगों को ध्यान उपलब्ध होता है, वह आगे विकसित है या नहीं? क्योंकि पच्चीस सौ साल हो गए, पच्चीस सौ साल में लोग और आगे विकसित हो गए हैं, तो ध्यान और आगे विकसित होगा।

नहीं, ध्यान है स्वयं में उतर जाना। स्वयं में कोई चाहे लाख साल पहले उतरा हो और चाहे आज उतर जाए, स्वयं में उतरने का अनुभव एक है, स्वयं में उतरने की स्थिति एक है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई भेद नहीं पड़ता।

महावीर को जो अहिंसा प्रकट हुई है, वह उनकी स्वानुभूति का ही बाह्य परिणाम है। भीतर उन्होंने जाना है जीवन की एकता को और बाहर उनके व्यवहार में जीवन की एकता अहिंसा के रूप में प्रतिफलित हुई है। अहिंसा का मतलब है जीवन की एकता का सिद्धांत। इस बात का सिद्धांत कि जो जीवन मेरे भीतर है, वही तुम्हारे भीतर है। तो मैं अपने को ही कैसे चोट पहुंचा सकता हूं! अगर मेरे भीतर वही जीवन है, जो तुम्हारे भीतर है तो मैं अपने को ही कैसे चोट पहुंचा सकता हूं! मैं ही हूं तुममें भी फैला हुआ।

जिसे यह अनुभव हुआ हो कि मैं ही सब में फैला हुआ हूं या सब मुझसे ही जुड़े हुए जीवन हैं, जीवन एक है, जिसे ऐसा अनुभव हुआ हो, उसके व्यवहार में अहिंसा फलित होती है। ऐसा अनुभव कभी हो तो ऐसा ही होगा, इसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसमें क्राइस्ट को हो कि किसी और को हो। यह अनुभव जीवन की एकता का कम-ज्यादा कैसे हो सकता है? यह थोड़ा समझने जैसा है।

अक्सर हम सोचते हैं कि सब चीजें कम-ज्यादा हो सकती हैं। समझ लें कि आपने एक वृत्त खींचा, एक सर्किल खींचा। कभी आपने सोचा कि कोई सर्किल कम और कोई सर्किल ज्यादा हो सकता है? ऐसा हो सकता है कि जो वृत्त आपने खींचा है एक वृत्त कुछ कम वृत्त हो, दूसरा वृत्त कुछ ज्यादा वृत्त हो?

यह नहीं हो सकता। क्योंकि वृत्त का अर्थ ही यह है कि या तो वृत्त होगा या नहीं होगा, कम-ज्यादा नहीं हो सकता। जो वृत्त कम है, वह वृत्त ही नहीं है। वृत्त ही होता है–या तो होता है या नहीं होता है, इसमें कम-ज्यादा नहीं होता।

जैसे प्रेम है, कोई आदमी कहे कि मुझे थोड़ा कम प्रेम है या थोड़ा ज्यादा प्रेम है, तो शायद उस आदमी को प्रेम का कोई पता नहीं है। प्रेम या तो होता है या नहीं होता है, उसका कोई खंड नहीं होता और उसके कोई टुकड़े नहीं होते। और ऐसा भी नहीं होता कि प्रेम विकसित होता हो। क्योंकि विकसित तो तभी हो सकता है, जब थोड़ा-थोड़ा हो सकता हो। थोड़ा-थोड़ा हो सकता हो, ऐसा भी नहीं होता।

अक्सर हम…लाइकिंग, पसंद विकसित हो जाती है। इसलिए हम सोचते हैं कि प्रेम विकसित हो रहा है। प्रेम कभी विकसित नहीं होता। पसंद और प्रेम में बहुत फर्क है।

प्रेम तो होता है या नहीं होता है।

फिर पसंद विकसित हो सकती है, और बहुत विकसित हो सकती है या कम हो सकती है, बहुत कम हो सकती है। लेकिन प्रेम न कम होता है, न ज्यादा होता है; या तो होता है या नहीं होता। तो ऐसा कोई नहीं कह सकता कि ऐसा वक्त आ जाएगा जब लोग ज्यादा प्रेम कर लेंगे। ऐसा नहीं हो सकता। जीवन के जो गहरे अनुभव हैं, वे होते हैं, या नहीं होते हैं।

महावीर को जो जीवन की एकता का अनुभव हुआ, वही जीसस को हो सकता है, बुद्ध को हो सकता है, मुझे हो सकता है, आपको हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि उसमें किसी को ज्यादा हो जाए और किसी को कम हो जाए। होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा।

तो दुनिया में कुछ चीजें हैं, आंतरिक, जो कभी विकसित नहीं होतीं। असल में विकास का कोई मतलब ही नहीं, क्योंकि जब वे उपलब्ध होती हैं तो पूर्ण ही उपलब्ध होती हैं, या नहीं ही उपलब्ध होती हैं।

समझ लें उदाहरण के लिए, पानी भाप बन रहा है, निन्यानबे डिग्री पर गर्मी हो गई है, अभी भाप नहीं बन गया; अट्ठानबे डिग्री पर था, भाप नहीं बना; नब्बे डिग्री पर था, भाप नहीं बना था; सौ डिग्री पर आया कि भाप बन गया! गर्मी कम-ज्यादा हो सकती है–अस्सी डिग्री, नब्बे डिग्री, पंचानबे डिग्री, निन्यानबे डिग्री। दस बर्तन रखे हैं, सब में अलग-अलग डिग्री का पानी है, उनमें पानी अभी भाप नहीं बन रहा है। गर्मी कम-ज्यादा हो सकती है। कम होगी तो भाप नहीं बनेगा, पूरी हो जाएगी तो भाप बनेगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं हो सकता, जब एक बूंद भी भाप बनती है तो या तो भाप बनती है या नहीं बनती। ऐसा नहीं होता, इससे बीच में इसमें कोई डिग्री नहीं होती। भाप बनने और न बनने में कोई डिग्री नहीं होती। हां, भाप बनने की स्थिति आने तक पानी की डिग्रियां हो सकती हैं।

अज्ञान की डिग्रियां होती हैं, ज्ञान की कोई डिग्री नहीं होती। हालांकि हम सब ज्ञान की डिग्रियां देते हैं! सिर्फ अज्ञान की डिग्रियां होती हैं। एक आदमी कम अज्ञानी, एक आदमी ज्यादा अज्ञानी, यह सार्थक है। लेकिन एक आदमी कम ज्ञानी, एक आदमी ज्यादा ज्ञानी, यह बिलकुल ही असंगत निरर्थक बात है। कम-ज्यादा ज्ञान होता ही नहीं।

हां, अज्ञान कम-ज्यादा हो सकता है। और कम-ज्यादा होने का मतलब इतना ही है कि कम अज्ञानी हम उसको कहते हैं, जिसके पास इनफर्मेशन ज्यादा होती है, ज्यादा अज्ञानी उसको कहते हैं, जिसके पास इनफर्मेशन कम होती है। क्योंकि ज्ञान तो कम-ज्यादा हो ही नहीं सकता। इसलिए अज्ञानियों में भी दो अज्ञानियों में ज्ञान का फर्क नहीं होता, सिर्फ सूचना का फर्क होता है।

एक आदमी युनिवर्सिटी से लौटता है, सूचनाएं इकट्ठी कर लाता है, उसका ही एक भाई गांव में, देहात में रह गया था, वह सूचनाएं इकट्ठी नहीं कर पाया। वे दोनों मिलते हैं तो एक अज्ञानी मालूम पड़ता है, एक ज्ञानी मालूम पड़ता है। दोनों अज्ञानी हैं। एक के पास सूचनाओं का ढेर है, एक के पास सूचनाओं का ढेर नहीं है। तो इसको हम कह सकते हैं कि यह ज्यादा अज्ञानी, यह कम अज्ञानी। मगर यह भी ज्ञान के हिसाब से नहीं है तौल। जब ज्ञान आता है तो बस आता है। जैसे आंख खुल जाएं और प्रकाश दिख जाए, जैसे दीया जल जाए और अंधेरा हट जाए।

तो ज्ञानी कभी छोटे-बड़े नहीं होते। लेकिन हम चूंकि अज्ञानी हैं सब, और छोटे-बड़े की भाषा में जीते हैं, तो हम ज्ञानियों के भी छोटे-बड़े होने का हिसाब लगाते रहते हैं! कोई कहता है कबीर बड़ा कि नानक, कि महावीर बड़े कि बुद्ध, कि राम बड़े कि कृष्ण, कि कृष्ण बड़े कि मोहम्मद; बड़े-छोटे का हिसाब लगाते रहते हैं अपने हिसाब से! कोई बड़ा-छोटा नहीं है वहां। वहां कोई बड़ा-छोटा होता ही नहीं।

उदाहरण के लिए आपको खयाल दूं। आज से तीन सौ, चार सौ साल पहले तक सारी दुनिया में यह खयाल था, अगर हम छत पर खड़े होकर एक बड़ा पत्थर गिराएं और एक छोटा पत्थर साथ-साथ, तो बड़ा पत्थर पहले पहुंचेगा जमीन पर, छोटा पत्थर पीछे! बिलकुल ठीक गणित था, किसी ने गिरा कर देखा नहीं। गणित बिलकुल साफ ही दिखता था, क्योंकि बड़ा पत्थर है, पहले गिरना चाहिए, छोटा पत्थर बाद में गिरना चाहिए!

जिस पहले आदमी ने पिसा के टावर पर खड़े होकर पहली दफा पत्थर गिरा कर देखे, उसको खुद भी शक था कि यह बात तो गलत है, गिराना बेकार ही है, इसलिए किसी को खबर नहीं की उसने पहली दफा, अकेला गया चुपचाप एकांत में। और जब उसने देखा कि बड़ी हैरानी हुई, दोनों पत्थर साथ गिरे! तो उसने दो-चार दफे गिरा कर देखा, कि कहीं कुछ भूल-चूक जरूर हो रही है! क्योंकि बड़ा पत्थर, छोटा पत्थर साथ कैसे गिरेंगे?

फिर जब जाकर उसने युनिवर्सिटी में अपने प्रोफेसर्स को कहा कि दोनों पत्थर साथ गिरते हैं, तो उन्होंने कहा, तुम पागल हो गए हो! ऐसा कभी हुआ है? हालांकि ऐसा कभी किसी ने देखा नहीं था जाकर। फिर भी उसने कहा कि ऐसा हुआ है, दस बार मैंने गिरा कर देख लिया।

प्रोफेसर्स बामुश्किल तो देखने गए। क्योंकि पंडितों से ज्यादा जड़ कोई भी नहीं होता। वे जो पकड़े रखते हैं, उसको ऐसी जड़ता से पकड़ते हैं कि उसको इंच भर हिलने-डुलने नहीं देना चाहते। गए, बामुश्किल, सख्त, कि ऐसा हो नहीं सकता। जब पत्थर गिरे तो उन्होंने कहा, इसमें जरूर कोई शरारत है। इसमें जरूर कोई ट्रिक और तरकीब की बात है; क्योंकि यह हो कैसे सकता है कि बड़ा पत्थर, छोटा पत्थर साथ-साथ गिर जाएं? या तो कोई तरकीब है और या शैतान का इसमें हाथ है। और तुम इस झंझट में मत पड़ो। तुम इस झंझट में पड़ो ही मत। इसमें शैतान कुछ पीछे शरारत कर रहा है, भगवान के नियम गड़बड़ कर रहा है।

असल में बड़े और छोटे पत्थर बड़े और छोटे के कारण गिरते ही नहीं हैं, गिरते हैं जमीन की कशिश के कारण, और कशिश दोनों के लिए बराबर है। छत पर से गिर भर जाएं, फिर बड़ा और छोटा पत्थर का मूल्य नहीं है, मूल्य कशिश का है, वह सबके लिए बराबर है।

एक सीमा है मनुष्य की, उस सीमा के बाहर मनुष्य छलांग भर लगा जाए बस, फिर परमात्मा की कशिश उसे खींचती है, फिर उसे कुछ नहीं करना पड़ता। बस उस सीमा के बाद फिर कोई छोटा-बड़ा नहीं रह जाता, फिर सब पर बराबर कशिश काम करती है। एक सीमा है भर, उसी सीमा को मैं कहता हूं विचार। जिस दिन आदमी विचार से निर्विचार में कूद जाता है, उसके बाद फिर कोई छोटा नहीं है, कोई बड़ा नहीं है; कोई कमजोर नहीं है, कोई ताकतवर नहीं है; कोई फर्क ही नहीं है। बस, एक बार विचार से कोई कूद जाए निर्विचार में, फिर जो जीवन की, अस्तित्व की परम शक्ति है, वह खींच लेती है–एक सा।

तो हमारे सब फर्क कूदने के पहले के फर्क हैं। जब तक हम नहीं कूदे हैं, तब तक के हमारे फर्क हैं। जिस दिन हम कूद गए, उस दिन कोई फर्क नहीं है। महावीर ने जो छलांग लगाई है, वही कृष्ण की है, वही क्राइस्ट की है। जो अनुभव है अहिंसा का, वही अनुभव है, उसमें कोई फर्क नहीं है।

इसलिए कोई विकास अहिंसा में कभी नहीं होगा। महावीर ने भी कोई विकास किया, इस भूल में भी नहीं पड़ना चाहिए। महावीर के भी पहले जिन्होंने छलांग लगाई है, वह अनुभव वही है। उस अनुभव की अभिव्यक्तियों में भेद है, लेकिन न तो महावीर…।

ऐसा कुछ नहीं है कि महावीर ने पहली दफा अहिंसा को अनुभव कर लिया है। लाखों लोगों ने पहले किया है, लाखों लोग पीछे करेंगे। वह अनुभव किसी की बपौती नहीं है।

जैसे हम आंख खोलेंगे तो प्रकाश का अनुभव होगा, यह किसी की बपौती नहीं है। मेरे पहले लाखों, करोड़ों, अरबों लोगों ने आंख खोली है और प्रकाश देखा है; और मैं भी आंख खोलूंगा, तो प्रकाश देखूंगा। और मेरी भी कोई इस पर बपौती नहीं है कि मेरे पीछे आने वाले आंख खोलेंगे तो मुझसे कम देखेंगे कि ज्यादा देखेंगे। आंख खुलती है तो प्रकाश दिखता है।

कोई विकास नहीं हुआ है। कोई विकास हो नहीं सकता है। कुछ चीजें हैं, जिनमें विकास होता है। परिवर्तनशील जगत का जो भी है, वह सब विकासमान है। या पतित होता है, या विकसित होता है।

शाश्वत, सनातन, अंतरात्मा के जगत की जो भी व्यवस्था है, वहां कोई विकास नहीं होता। वहां जो जाता है, वह परम, अंतिम, अल्टीमेट में पहुंच जाता है। वहां कोई विकास नहीं, कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं। वहां सब समान और पूर्ण के निकट होने से, पूर्ण में होने से कोई विकास नहीं। कोई कहे कि परमात्मा में कितना विकास हुआ है? परमात्मा से मतलब समग्र जीवन के अस्तित्व में क्या विकास हुआ है? वहां विकास का अर्थ ही नहीं है।

लेकिन इसे उदाहरण से समझें। एक बैलगाड़ी जा रही है, चाक चल रहे हैं। बैलगाड़ी में बैठा हुआ मालिक भी चल रहा है, बैल भी चल रहे हैं। चाक जोर से घूमते चले जा रहे हैं, बैलगाड़ी प्रतिपल आगे बढ़ रही है, विकास हो रहा है। बैल भी बढ़ रहे हैं, मालिक भी आगे जा रहा है।

लेकिन कभी आपने खयाल किया कि बढ़ते हुए चाकों के बीच में एक कील है, जो हिल भी नहीं रही, वह वहीं की वहीं खड़ी है! कील वहीं की वहीं है! चाक उसके ऊपर घूम रहा है, चाक आगे बढ़ता हुआ मालूम पड़ रहा है, गाड़ी आगे जा रही है, बिलकुल जा रही है; बैल आगे जा रहे हैं, मालिक आगे जा रहा है; मंजिल करीब आती चली जा रही है। लेकिन कील? कील ठहरी हुई है! कील ठहरी है, चाक घूम रहा है। तो कोई कहे कि चाक ने कितनी यात्रा की, तो सार्थक है। लेकिन कोई पूछे कि कील ने कितनी यात्रा की, तो क्या कहिएगा? कहना होगा, कील तो यात्रा एक अर्थ में करती ही नहीं। कील तो वहीं है, वह सिर्फ चाक उसके ऊपर घूमता रहता है; कील थिर है।

और मजे की बात यह है कि थिर जो कील है, उसी पर घूमते हुए चाक का अस्तित्व है। अगर कील भी चल जाए तो चाक गिर जाए। कील नहीं चलती, इसीलिए चाक चल पाता है। कील के न चलने में ही चाक के चलने का प्राण है। कील भी चली कि अभी गाड़ी गई। फिर कोई विकास नहीं होगा।

जो विकास हो रहा है, वह किसी एक चीज के केंद्र पर हो रहा है, जिसमें कोई विकास नहीं हो रहा है। पूर्ण के चारों तरफ विकास का चक्र घूम रहा है और पूर्ण अपनी जगह खड़ा हुआ है। हो सकता है आपने कील पर खयाल ही न किया हो, इसलिए चाक के घूमने को ही देखा हो। लेकिन जिसने कील पर खयाल कर लिया, उसके लिए चाक का घूमना बेमानी हो जाता है।

कबीर ने एक पंक्ति लिखी है कि चलती हुई चक्की को देख कर कबीर रोने लगा और उसने लौट कर अपने मित्रों को कहा कि बड़ा दुख मुझे हुआ, क्योंकि दो पाटों के बीच में मैंने जितने दाने पड़े देखे, सब चूर हो गए, सब मर गए। और दो पाटों के बीच में जो पड़ जाता है, वह चूर-चूर हो जाता है।

उसका लड़का कमाल बैठा था, वह हंसने लगा। उसने कहा कि ऐसा मत कहो। क्योंकि एक कील भी है दो चाकों के बीच में; जो उसका सहारा पकड़ लेता है, वह कभी भी चूर होता ही नहीं। कबीर के बेटे ने कहा, ऐसा मत कहो। एक कील भी है दो चाकों के बीच में–चक्की जिस कील पर चलती है–जो उस कील का सहारा पकड़ लेता है, वह कभी नष्ट होता ही नहीं!

इस पूरे अस्तित्व के विकास के चक्र के बीच में एक कील भी है। उस कील को कोई परमात्मा कहे, धर्म कहे, आत्मा कहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक कील है, जो उसके निकट पहुंच जाता है, उतना ही गतिमान चाकों के बाहर हो जाता है। और उस कील के तल पर कोई गति नहीं है। वह कील निरंतर सतत अगति में ठहरी हुई है, हालांकि सब गति उसी के ऊपर घूम रही है।

तो इतना अगर खयाल में आ जाए तो महावीर जैसे व्यक्ति कील के निकट पहुंच जाते हैं, वहां जहां सब थिर है, जहां कोई लहर भी नहीं उठती, कोई तरंग भी नहीं उठती। वहां जो भी उनका अनुभव है, उसमें कभी विकास नहीं होता। चाहे कोई दूसरा कभी भी वहां पहुंचे, अनुभव वही होगा। कोई तीसरा कभी वहां पहुंचे, अनुभव वही होगा।

कील के पास होने का एक अनुभव है और कील से दूर होने का एक अनुभव है। कील से दूर होने का जो अनुभव है, वह दो पाटों के बीच का अनुभव है, जहां निरंतर गति है। और कील के पास होने का जो अनुभव है, वह दो पाटों के बाहर हो जाने का अनुभव है, जहां कोई गति नहीं है।

जहां गति नहीं, वहां विकास कैसा? जहां गति नहीं, वहां प्रगति कैसी?

तो महावीर की अहिंसा में कोई प्रगति नहीं होगी, न महावीर ने कोई प्रगति की है। अहिंसा का अनुभव है एक, वह जब भी कोई उतरता है तो वह वही है, वह बिलकुल वही है।

आज इतना ही।


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–10)

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ज्योतिष अर्थात अध्‍यात्‍म–(प्रवचन—दसवां)

‘ज्योतिष अर्थात अध्‍यात्‍म :

(प्रश्रोत्तर चर्चा)

बुडलैण्‍ड बम्बई दिनांक 9 जुलाई 1971

कुछ बातें जान लेनी जरूरी हैं। सबसे पहले तो यह बात जान लेनी जरूरी है कि वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य से समस्त सौर्य परिवार का—मंगल का, बृहस्पति का, चंद्र का, पृथ्वी का जन्म हुआ है। ये सब सूर्य के ही अंग हैं। फिर पृथ्वी पर जीवन का जन्म हुआ—पौधों से लेकर मनुष्य तक। मनुष्य पृथ्वी का अंग है, पृथ्वी सूरज का अंग है। अगर हम इसे ऐसा समझे—स्व मां है, उसकी एक बेटी है और उसकी एक बेटी है—उन तीनों के शरीर का निर्माण एक ही तरह के सेल्‍स से, एक ही तरह के कोष्ठों से होता है।

और वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं एम्पैथी का, समानुभूति का। जो चीजें एक से ही पैदा होती है उनके भीतर एक अंतर समानुभूति होती है। सूर्य से पृथ्वी पैदा होती है, पृथ्वी से हम सबके शरीर निर्मित होते हैं। थोड़े ही दूर फासले पर सूरज हमारा महापिता है। सूर्य पर जो भी घटित होता है वह हमारे रोम—रोम में स्पंदित होता है—होगा ही। क्योंकि हमारा रोम—रोम भी सूर्य से ही निर्मित है। सूर्य इतना दूर दिखायी पड़ता है, इतना दूर नहीं है। हमारे रक्त के एक—एक कण में और हड्डी के एक—एक टुकड़े में सूर्य के ही अणुओं का वास है। हम सूर्य के ही टुकड़े हैं। और यदि सूर्य से हम प्रभावित होते हों तो इसमें कुछ आश्रर्य नहीं है—एम्पैथी है, समानुभूति है।

समानुभूति को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। तो ज्योतिष के एक आयाम में प्रवेश हो सकेगा।

अगर एक ही अंडे से पैदा हुए दो बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया जाए तो समानुभूति के संबंध में कुछ प्रयोग किए जा सकते हैं। और इस तरह के बहुत से प्रयोग पिछले पचास वर्षों में किए गए हैं। तो एक ही अंडज जुडवां बच्चों को दो कमरों में बंद कर दिया गया, फिर दोनों कमरों में एक साथ घंटी बजायी गयी है और दोनों बच्चों को कहा गया है’, उनको जो पहला खयाल आता हो वह उसे कागज पर बना लें। या तो पहला चित्र उनके दिमाग में आता हो तो उसे कागज पर बना लें।

और बड़ी हैरानी की बात है कि अगर बीस चित्र बनवाए गए हैं दोनों बच्चों से तो उसमें नब्बे प्रतिशत दोनों बच्चों के चित्र एक जैसे हैं। उनके मन में जो पहली विचारधारा पैदा होती है, जो पहला शब्द बनता है या जो पहला चित्र बनता है, ठीक उसके ही करीब वैसा ही विचार दूसरे जुड़वां बच्चे के भीतर भी बनता और निर्मित होता है।

इसे वैज्ञानिक कहते हैं—एम्पैथी, समानुभूति। इन दोनों के बीच इतनी समानता है कि ये एक से प्रतिध्वनित होते हैं। इन दोनों के भीतर अनजाने मार्गों से जैसे कोई जोड़ है, कोई संवाद है, कोई कम्युनिकेशन है। सूर्य और पृथ्वी के बीच भी ऐसा ही कमुनिकेशन, ऐसा ही संवाद—सेतु है—ऐसा ही संबंध है, प्रतिपल! सूर्य, पृथ्वी और मनुष्य उन तीनों के बीच निरंतर संवाद है, एक निरंतर डायलाग है। लेकिन वह जो संवाद है, डायलाग है वह बहुत गुह्य है और बहुत आंतरिक है और बहुत सूक्ष्म है। उसके संबंध में थोड़ी—सी बातें समझेंगे तो खयाल में आएगा।

अमरीका में, एक रिसर्च सेंटर है—ट्री रिंग रिसर्च सेंटर। वृक्षों में, जो वृक्ष आप काटें तो वृक्ष के तने में आपको बहुत से रिंग्‍स, बहुत से वर्तुल दिखायी पड़ेंगे। फनीर्चर पर जो सौंदर्य मालूम पड़ता है वह उन्हीं वर्तुलों के कारण है। पचास वर्ष से यह रिसर्च केंद्र, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं उन पर काम कर रहा है। प्रो. डगलस अब उसके डायरेक्टर हैं, जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा, वृक्षों में जो वर्तुल बनते हैं, चक्र बन जाते हैं, उन पर ही पूरा व्यय किया है। बहुत से तथ्य हाथ लगे हैं। पहला तथ्य तो सभी को ज्ञात है साधारणत: कि वृक्ष की उम्र उसमें बने हुए रिंग्स के द्वारा जानी जा सकती है—जानी जाती है, क्योंकि प्रतिवर्ष एक रिंग वृक्ष में निर्मित होता है। एक छाल.. .वृक्ष की कितनी उम्र है, उसके भीतर कितने रिंग बने हैं इनसे तय हो जाता है। अगर पचास साल पुराना है, उसने पचास पतझड़ देखे हैं तो पचास रिंग उसके तने में निर्मित हो जाते हैं और हैरानी की बात यह है कि इन तनों पर जो रिंग निर्मित होते हैं वह मौसम की भी खबर देते हैं।

अगर मौसम बहुत गर्म और गीला रहा हो तो जो रिंग है वह चौड़ा निर्मित होता है। अगर मौसम बहुत सर्द और सूखा रहा हो तो जो रिंग है वह बहुत सकरा निर्मित होता है। हजारों साल पुरानी लक्खी को काटकर पता लगाया जा सकता है कि उस वर्ष जब यह रिंग बना था तो मौसम कैसा था। बहुत वर्षा हुई थी या नहीं हुई थी। सूखा पड़ा था या नहीं पड़ा था। अगर बुद्ध ने कहा है कि इस वर्ष बहुत वर्षा हुई तो जिस बोधिवृक्ष के नीचे वह बैठे थे वह भी खबर देगा कि वर्षा हुई कि नहीं हुई। बुद्ध से भूल—चूक हो जाए, वह जो वृक्ष है, बोधिवृक्ष, उससे भूल—चूक नहीं होती। उसका रिंग बड़ा होगा, छोटा होगा।

डगलस इन वर्तुलों की खोज करते—करते एक ऐसी जगह पहुंच गया है जिसकी उसे कल्पना भी नहीं थी। उसने अनुभव किया कि प्रत्येक ग्यारहवें वर्ष पर रिंग जितना बडा होता है उतना फिर कभी बड़ा नहीं होता। और वह ग्यारह वर्ष वही वर्ष है जब सूरज पर सर्वाधिक गतिविधि होती है। हर ग्यारहवें वर्ष पर सूरज में एक रिदम, एक लयबद्धता है, हर ग्यारह वर्ष पर सूरज बहुत सक्रिय हो जाता है। उस पर रेडियो एक्टीविटी बहुत तीव्र होती है। सारी पृथ्वी पर उस वर्ष सभी वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं। एकाध जगह नहीं, एकाध जंगल में नहीं—सारी पृथ्वी पर, सारे वृक्ष रेडियो एक्टिविटी से अपनी रक्षा के लिए मोटा रिंग बनाते हैं। वह जो सूरज पर तीव्र घटना घटती है ऊर्जा की, उससे बचाव के लिए उनको मोटी चमड़ी बनानी पड़ती हैं, हर ग्यारह वर्ष।

इससे वैज्ञानिकों में एक नया शब्द और नयी बात शुरू हुई। मौसम सब जगह अलग होते है। कहीं सर्दी है, कहीं गर्मी है, कहीं वर्षा है, कहीं शीत है—सब जगह मौसम अलग है। इसलिए अब तक कभी पृथ्वी का मौसम, क्लाइमेट ऑफ दी अर्थ—ऐसा कोई शब्द प्रयोग नहीं होता था। लेकिन अब डगलस ने इस शब्द का प्रयोग करना शुरू किया है—क्लाइमेट ऑफ द अर्थ। ये सब छोटे—मोटे फर्क तो है ही, लेकिन पूरी पृथ्वी पर भी सूरज के कारण एक विशेष मौसम चलता है। जो हम नहीं पकड़ पाते, लेकिन वृक्ष पकड़ते हैं। हर ग्यारहवें वर्ष पर वृक्ष मोटा रिंग बनाते हैं, फिर रिंग छोटे होते जाते हैं। फिर पांच साल के बाद बड़े होने शुरू होते हैं, फिर ग्यारहवें साल पर जाकर पूरे बड़े हो जाते हैं।

अगर वृक्ष इतने संवेदनशील हैं और सूरज पर होती हुई कोई भी घटना को इतनी व्यवस्था से अंकित करते हैं तो क्या आदमी के चित्त में भी कोई पर्त होगी, क्या आदमी के शरीर में भी कोई संवेदन का सूक्ष्म रूप होगा, क्या आदमी भी कोई रिंग और वर्तुल निर्मित करता होगा अपने व्यक्तित्व में? अब तक साफ नहीं हो सका। अभी तक वैज्ञानिकों को साफ नहीं है कोई बात कि आदमी के भीतर क्या होता है। लेकिन यह असंभव मालूम होता है कि जब वृक्ष भी सूर्य पर घटती घटनाओं को संवेदित करते हों तो आदमी किसी भांति संवेदित न करता हो। ज्योतिष, जो जगत में कहीं भी घटित होता है वह मनुष्य के चित्त में भी घटित होता है, इसकी ही खोज है।

इस पर हम पीछे बात करेंगे कि मनुष्य भी वृक्षों जैसी ही खबरें अपने भीतर लिए चलता है, लेकिन उसे खोलने का ढंग उतना आसान नहीं है जितना वृक्ष को खोलने का ढंग आसान है। वृक्ष को काटकर जितनी सुविधा से हम पता लगा सकते हैं उतनी सुविधा से आदमी को काटकर पता नहीं लगा सकते। आदमी को काटना सूक्ष्म मामला है और आदमी के पास चित्त है इसलिए आदमी का शरीर उन घटनाओं को नहीं रिकार्ड करता, चित्त रिकार्ड करता है। वृक्षों के पास चित्त नहीं है। इसलिए शरीर ही उन घटनाओं को रिकार्ड करता है।

एक और बात इस संबंध में खयाल में ले लेने जैसी है। जैसा मैंने कहा, प्रति ग्यारह वर्ष मैं सूरज पर तीव्र रेडियो एक्टीविटी, तीव्र वैद्युतिक तूफान चलते हैं—ऐसा प्रति ग्यारह वर्ष पर एक रिदम, ठीक ऐसा ही एक दूसरा बड़ा रिदम भी पता चलना शुरू हुआ है और वह है नब्बे वर्ष का, सूरज के ऊपर। और वह और हैरान करनेवाला

और यह जो मैं कह रहा हूं ये सब वैज्ञानिक तथ्य हैं। ज्योतिषी इस संबंध में कुछ नहीं कहते हैं। लेकिन मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि उनके आधार पर ज्योतिष को वैज्ञानिक ढंग से समझना आपके लिए आसान हो सकेगा। नब्बे वर्ष का एक दूसरा वर्तुल है जो कि अनुभव किया गया है। उसके अनुभव की कथा बडी अदभुत

इजिप्‍त के एक सम्राट ने आज से चार हजार साल पहले अपने वैज्ञानिकों को कहा था कि नील नदी में जब भी जल घटता है, बढ़ता है, उसका पूरा ब्योरा रखा जाए। अकेली नील एक ऐसी नदी है जिसकी चार हजार वर्ष की बायोग्राफी है—उसकी जीवन कथा है पूरी। और किसी नदी की कोई बायोग्राफी नहीं है, उसकी जीवन कथा है पूरी। कब इसमें इंचभर पानी बढ़ा है., उसका पूरा रिकार्ड है—चार हजार वर्ष फैरोहों के जमाने से लेकर आज तक।

फैरोह का अर्थ होता है—सूर्य, इजिप्‍टी भाषा में। फैरोह, जो इजिप्‍त के सम्राटों का नाम था, वह सूर्य के आधार पर है। और इजिप्‍त में ऐसा खयाल था कि सूर्य और नदी के बीच निरंतर संवाद है। और फैरोह, जो कि सूर्य के भक्त थे, उन्होंने कहा कि नील का पूरा रिकार्ड रखा जाए। सूर्य के संबंध में तो हमें अभी कुछ पता नहीं है लेकिन कभी तो सूर्य के संबंध में पता हो जाएगा, तब यह रिकार्ड काम दे सकता है। तो चार हजार साल की पूरी कथा है नील नदी की। उसमें इंचभर पानी कब बढा, इंचभर कब कम हुआ, कब उसमें पूर आया कब पूर नहीं आया। कब नदी बहुत तेजी से बही और कब नदी बहुत धीमी’ बही, इसका चार हजार वर्ष का लंबा इतिहास इंच—इंच उपलब्ध है।

इजिप्‍त के एक विद्वान तस्मान ने पूरे नील की कथा लिखी और अब सूर्य के संबंध में वे बातें ज्ञात हो गयीं जो फैरोद्रों के वक्त ज्ञात नहीं थीं और जिसके लिए फैरोहों ने कहा था, प्रतीक्षा करना! इन चार हजार साल में जो कुछ भी नील नदी में घटित हुआ है वह सूरज से संबंधित है। और नब्बे वर्ष की रिदम का पता चलता है, हर नब्बे वर्ष में सूर्य पर एक अभूतपूर्व घटना घटती है। वह घटना ठीक वैसी ही है जिसे हम मृत्यु कहते हैं—या जन्म कह सकते हैं।

ऐसा समझ लें, सूर्य नब्बे वर्ष में पैंतालीस वर्ष तक जवान होता है और पैंतालीस वर्ष तक बूढा होता है। उसके भीतर जो ऊर्जा के प्रवाह बहते हैं वह पैंतालीस वर्ष तक तो जवानी की तरफ बढ़ते हैं, क्लाइमेक्स की तरफ जाते हैं। सूरज जैसे जवान होता चला जाता है, और पैंतालीस साल के बाद ढलना शुरू हो जाता है, उसकी उम्र जैसे नीचे ढलने—गिरने लगती है और नब्बे वर्ष में सूर्य बिलकुल का हो जाता है।

नब्बे वर्ष में जब सूर्य का होता है तब सारी पृथ्वी भूकंपों से भर जाती है। भूकंपों का संबंध नब्बे वर्ष के वर्तुल से है। सूर्य उसके बाद फिर जवान होना शुरू होता है। वह बड़ी भारी घटना है। क्योंकि सूरज पर इतना परिवर्तन होता है कि पृथ्वी उससे कंपित हो जाए, यह बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन जब पृथ्वी जैसी महाकाय वस्तु भूकंपों से भर जाती है तो आदमी जैसी छोटी—सी काया में कुछ भी न होता होगा? ज्योतिषी सिर्फ यही पूछते रहे हैं! वे कहते हैं, यह असंभव है। पता हो तुम्हें या न पता हो, लेकिन आदमी की काया भी अछूती नहीं रह सकती।

पैंतालीस वर्ष जब सूरज जवान होता है उस वक्त जो बच्चे पैदा होते हैं, उनका स्वास्थ्य अदभुत रूप से अच्छा होगा। और जब पैतालीस वर्ष सूरज बूढ़ा होता है, उस वक्त जो बच्चे पैदा होंगे उनका स्वास्थ्य कभी भी अच्छा नहीं हो पाता। जब सूरज खुद ही ढलाव पर होता है तब जो बच्चे पैदा होते हैं उनकी हालत ठीक वैसी है जैसे पूरब को नाव ले जानी हो और पश्‍चिम को हवा बहती हो। तो फिर बहुत डांड चलाने पड़ते हैं, फिर पतवार बहुत चलानी पड़ती है और पाल काम नहीं करते। फिर पाल खोलकर नाव नहीं ले जायी जा सकती, क्योंकि उल्टे बहना पड़ता है।

जब सूरज ही बूढ़ा होता है, सूरज जो कि प्राण है सारे सौर परिवार का तब, तब जिसको भी जवान होना है उसको उल्टी धारा में तैरना पड़ता है हवा के खिलाफ। उसके लिए संघर्ष भारी है। जब सूरज ही जवान हो रहा होता है तो पूरा सौर परिवार शक्तियों से भरा होगा और उठान की तरफ होगा। तब जो पैदा होता है, वह जैसे पाल वाली नाव में बैठ गया। पूरब की तरफ हवाएं बह रही हैं, उसे डांड भी नहीं चलानी है, पतवार भी नहीं चलानी है, श्रम भी नहीं करना है, नाव खुद बह जाएगी। पाल खोल देना है, हवाएं नाव को ले जाएंगी।

इस संबंध में अब वैज्ञानिकों को प्रतीत होने लगा है कि सूरज जब अपनी चरम अवस्था में आता है तब पृथ्वी पर कम से—कम बीमारियां होती हैं। और जब सूरज अपने उतार पर होता है तब पृथ्वी पर सर्वाधिक बीमारियां होती हैं। पृथ्वी पर पैंतालीस साल बीमारियों के होते हैं और पैंतालीस साल कम बीमारियों के होते हैं। नील ठीक चार हजार वर्षों में हर नब्बे वर्ष में इसी तरह जवान और बूढ़ी होती रही है। जब सूरज जवान होता है तब नील में सर्वाधिक पानी होता है। वह पैंतालीस वर्ष तक उसमें पानी बढ़ता चला जाता है। और जब सूरज ढलने लगता है, बूढ़ा होने लगता है तो नील का पानी नीचे गिरता चला जाता है, फिर वह शिथिल होने लगती है और बूढ़ी हो जाती है।

आदमी इस विराट जगत में कुछ अलग— थलग नहीं है। इस सबका इकट्ठा जोड़ है। अब तक हमने जो भी श्रेष्ठतम घड़ियां बनाई हैं वह कोई भी उतनी टु द टाइम, इतना ठीक से समय नहीं बताती जितनी पृथ्वी बताती है। पृथ्वी अपनी कील पर तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्कर पूरा करती है। उसी के आधार पर हमने चौबीस घंटे का हिसाब तैयार किया हुआ है। और हमने घड़ी बनायी है। और पृथ्वी काफी बड़ी चीज है। अपनी कील पर वह ठीक तेईस घंटे छप्पन मिनट में एक चक्र पूरा करती है। और अब तक कभी भी ऐसा नहीं समझा गया था कि पृथ्वी कभी भी भूल करती है एक सेकेंड की भी। लेकिन कारण कुल इतना था कि हमारे पास जांचने के ठीक उपाय नहीं थे। और हमने साधारण जांच की थी।

लेकिन जब नब्बे वर्ष का वर्तुल पूरा होता है सूर्य का तो पृथ्वी की घड़ी एकदम डगमगा जाती है। उस क्षण में पृथ्वी ठीक अपना वर्तुल पूरा नहीं कर पाती। ग्यारह वर्ष में जब सूरज पर उत्‍पात होता है—जब भी पृथ्वी अपनी यात्रा में नए—नए प्रभावों के अंतर्गत आती है तभी उसकी अंतर्घडी डगमगा जाती है।

जब भी कोई नया प्रभाव, कोई नया काज्मिक इन्‍फ्लुएंस, कोई महातारा करीब हो जाता है तभी ऐसा हो जाता है। और करीब का मतलब, इस महा—आकाश में बहुत दूर होने पर भी चीजें बहुत करीब हैं। क्योंकि सब अदृश्य संबंधों से गुंथा हुआ है। हमारी भाषा बहुत समर्थ नहीं है क्योंकि जब हम कहते हैं, जरा—सा करीब आ जाए तो हम सोचते हैं जैसे कोई हमारे पास आदमी आ गया। नहीं, फासले बहुत बड़े हैं। उन फासलों में जरा—सा भी अंतर पड़ जाता है, जो कि हमें कहीं पता भी नहीं चलेगा तो भी पृथ्वी की कील डगमगा जाती है।

पृथ्वी को हिलाने के लिए बड़ी शक्ति की जरूरत है। इंचभर हिलाने के लिए भी तो महाशक्तियां जब गुजरती है पृथ्वी के पास से, तभी वह हिल पाती है। लेकिन वे महाशक्तियां जब पृथ्वी के पास से गुजरती हैं तो हमारे — पास से भी गुजरती हैं। और ऐसा नहीं हो सकता है कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर लगे हुए वृक्ष कंपित न हों। और ऐसा भी नहीं हो सकता है कि जब पृथ्वी कंपित होती है तो उस पर जीता और चलता हुआ मनुष्य कंपित न हो—सब कंप जाता है।

लेकिन कंपन इतने सूक्ष्म हैं कि हमारे पास कोई उपकरण नहीं थे अब तक कि हम जांच करते कि पृथ्वी कंप जाती है। लेकिन अब तो उपकरण हैं। सेकेंड़ के हजारवें हिस्से में भी कंपन होता है तो हम पकड़ लेते हैं। लेकिन आदमी के कंपन को पकड़ने के उपकरण अभी भी हमारे पास नहीं है। वह मामला और भी सूक्ष्म

आदमी इतना सूक्ष्म है, और होना जरूरी है, अन्यथा जीना मुश्‍किल हो जाएगा। अगर चौबीस घंटे आपको चारों ओर के प्रभावों का पता चलता रहे तो आप जी न पाएंगे। आप जी सकते हैं तभी, जब कि आपको आस—पास के प्रभावों का कोई पता नहीं चलता। एक और नियम है। वह नियम यह है कि न तो हमें अपनी शक्ति से छोटे प्रभावों का पता चलता है और न अपनी शक्ति से बड़े प्रभावों का पता चलता है। हमारे प्रभाव के पता चलने का एक दायरा है।

जैसे समझ लें कि बुखार चढ़ता है तो 98 डिग्री हमारी एक सीमा है। और 11० डिग्री हमारी दूसरी सीमा है। 12 डिग्री में हम जीते हैं। 9० डिग्री से नीचे गिर जाए तापमान तो हम समाप्त हो जाते हैं। उधर 11० डिग्री के बाद जाए तो हम समाप्त हो जाते हैं। लेकिन क्या आप समझते हैं, दुनिया में गर्मी 12 डिग्री की ही होती है?

आदमी बारह डिग्री के भीतर जीता है। दोनों सीमाओं के इधर—उधर गया कि खो जाएगा। उसका एक बैलेंस, संतुलन है। 98 और 11० के बीच उसको अपने को सम्हाले रखना है। ठीक ऐसा ही बैलैंस सब जगह है। मैं आपसे बोल रहा हूं आप सुन रहे हैं— अगर मैं बहुत धीमे बोलूं तो ऐसी जगह आ सकती है कि मैं बोलूं और आप न सुन पाएं। लेकिन यह आपको खयाल में आएगा कि बहुत धीमे बोला जाए तो सुनायी नहीं पड़ेगा, लेकिन आपको यह खयाल में न आएगा कि इतने जोर से बोला जाए कि आप न सुन पाएं। आपको कठिन लगेगा क्योंकि जोर से बोलेंगे तो सुनाई पड़ेगा ही।

नहीं, वैज्ञानिक कहते हैं, हमारे सुनने की भी डिग्री है। उससे नीचे भी नहीं सुन पाते, उससे ऊपर भी हम नहीं सुन पाते। हमारे आस—पास भयंकर आवाजें गुजर रही हैं। लेकिन हम सुन नहीं पाते। एक तारा टूटता है आकाश में, कोई नया ग्रह निर्मित होता है या बिखरता है तो भयंकर गर्जनावाली आवाजें हमारे चारों तरफ से गुजरती हैं। अगर हम उनको सुन पाएँ तो हम तत्काल बहरे हो जाएं। लेकिन हम सुरक्षित हैं क्योंकि हमारे कान सीमा में ही सुनते हैं। जो सूक्ष्म है उसको भी नहीं सुनते, जो विराट है उसको भी नहीं सुनते। एक दायरा है, बस उतने को सुन लेते हैं।

देखने के मामले में भी हमारी वही सीमा है। हमारी सभी इंद्रियां एक दायरे के भीतर है, न उसके ऊपर, न उसके नीचे। इसीलिए आपका कुत्ता आपसे ज्यादा सूंघ लेता है। उसका दायरा सूंघने का आपसे बडा है। जो आप नहीं सूंघ पाते, कुत्ता सूंघ लेता है। जो आप नहीं सुन पाते, आपका घोड़ा सुन लेता है। उसके सुनने का दायरा आपसे बड़ा है। एक डेढ़ मील दूर सिंह आ जाए तो घोडा चौककर खड़ा हो जाता है। डेढ़ मील के फासले पर उसे गंध आती है। आपको कुछ पता नहीं चलता। अगर आपको सारी गंध आने लगें, जितनी गंध आपके चारों तरफ चल रही हैं तो आप विक्षिप्त हो जाएंगे। मनुष्य एक कैप्‍सूल में बंद है, उसका सीमांत है, उसकी बाउंड्री है।

आप रेडियो लगाते हैं और आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। क्या आप सोचते हैं, जब रेडियो लगाते हैं तब आवाज आनी शुरू होती है? आवाज तो पूरे समय बहती ही रहती है। आप रेडियो लगाएं या न लगाएं। लगाते हैं तब रेडियो पकड़ लेता है, बहती तो पूरे वक्त रहती है। दुनिया में जितने रेडियो स्टेशन है, सबकी आवाजें अभी इस कमरे से गुजर रही हैं। आप रेडियो लगाएंगे तो पकड़ लेंगे। आप रेडियो नहीं लगाते हैं, तब भी गुजर रही हैं। लेकिन आपको सुनाई नहीं पड़ रही हैं।

जगत में न मालूम कितनी ध्वनियां हैं जो चारों तरफ हमारे गुजर रही हैं। भयंकर कोलाहल है—वह पूरा कोलाहल हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। ध्यान रहे, वह हमें सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन उससे हम प्रभावित तो होते ही हैं। वह हमारे रोएं—रोएं को स्पर्श करता है। हमारे हृदय की धड़कन— धड़कन को छूता है। हमारे स्नायु—स्नायु को कंपा जाता है। वह अपना काम तो कर ही रहा है। उसका काम तो जारी है। जिस सुगंध को आप नहीं सूंघ पाते उसके अणु आपके चारों तरफ अपना काम तो कर ही जाते हैं। और अगर उसके अणु किसी बीमारी को लाए हैं तो आप को दे जाते हैं। आपकी जानकारी आवश्यक नहीं है किसी वस्तु के होने के लिए।

ज्योतिष का कहना है कि हमारे चारों तरफ ऊर्जाओं के क्षेत्र हैं, एनर्जी फील्‍डस हैं और वह पूरे समय हमें प्रभावित कर रहे हैं। जैसे ही बच्चा जन्म लेता है तो वह जगत के प्रति, जगत प्रभावों के प्रति फंस जाता है। जन्म को वैज्ञानिक भाषा में हम कहें एक्सपोजर, जैसे कि फिल्म को हम एक्सपोज करते हैं कैमरे में। जरा सा शटर आप दबाते हैं एक क्षण के लिए, कैमरे की खिड़की खुलती है और बंद हो जाती है। उस क्षण में जो भी कैमरे के समक्ष आ जाता है वह फिल्म पर अंकित हो जाता है। फिल्म एक्सपोज हो गई। अब दुबारा उस पर कुछ अंकित न होगा— अंकित हो गया। और अब यह फिल्म उस आकार को सदा अपने भीतर लिए रहेगी।

जिस दिन मां के पेट में पहली दफा गर्भाधान होता है तो पहला एक्सपोजर होता है। जिस दिन मां के पेट से बच्चा बाहर आता है, जन्म लेता है, उस दिन दूसरा एक्सपोजर होता है। और यह दोनों एक्सपोजर संवेदनशील चित्त पर फिल्म की भांति अंकित हो जाते हैं। पूरा जगत उस क्षण में बच्चा अपने भीतर अंकित कर लेता है। और उसकी एम्पेथीज, समानुभूतियां निर्मित हो जाती हैं।

ज्योतिष इतना ही कहता है कि यदि वह बच्चा जब पैदा हुआ है तब अगर रात है. और जानकर आप हैरान होंगे कि सत्तर से लेकर नब्बे प्रतिशत बच्चे रात में पैदा होते हैं! यह थोड़ा हैरानी का है. क्योंकि आमतौर से पचास प्रतिशत होने चाहिए। चौबीस घंटे का हिसाब है, इसमें कोई हिसाब भी न हो, बेहिसाब भी बच्चे पैदा हों, तो बारह घंटे रात, बारह घंटे दिन, साधारण संयोग और कांबिनेशन से ठीक है, पचास—पचास प्रतिशत हो जाएं! कभी भूल—चूक दो चार प्रतिशत इधर—उधर हो, लेकिन नब्बे प्रतिशत तक बच्चे रात में जन्म लेते हैं— दस प्रतिशत तक बच्चे मुश्किल से दिन में जन्म लेते हैं। अकारण नहीं हो सकती यह बात, इसके पीछे बहुत कारण

समझें, एक बच्चा रात में जन्म लेता है तो उसका जो एक्सपोजर है, उसके चित्त की जो पहली घटना है जगत में अवतरण की वह अंधेरे से संयुक्त होती है, प्रकाश से संयुक्त नहीं होती। यह तो सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं क्योंकि बात तो और विस्तीर्ण है। सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं—उसके चित्त पर जो पहली घटना है वह अंधकार है। सूर्य अनुपस्थित है। सूर्य की ऊर्जा अनुपस्थित है। चारों तरफ जगत सोया हुआ है। पौधे अपनी पत्तियों को बंद किए हुए हैं। पक्षी अपने पंखों को सिकोड़कर आंखें बंद किए हुए अपने घोंसलों में छिप गए हैं। सारी पृथ्वी पर निद्रा है। हवा के कण—कण में चारों तरफ नींद है। सब सोया हुआ है। जागा हुआ कुछ भी नहीं है। यह पहला इम्पेक्ट है बच्चे पर।

अगर हम बुद्ध और महावीर से पूछें तो वह कहेंगे कि अधिक बच्चे इसलिए रात में जन्म लेते हैं क्योंकि अधिक आत्‍माएं सोयी हुई हैं—एस्लीप हैं। दिन को वे नहीं चुन सकते पैदा होने के लिए। दिन को चुनना कठिन है। और हजार कारण है, एक कारण महत्वपूर्ण है यह भी—अधिकतम लोग सोये हुए हैं, अधिकतम लोग तंद्रित हैं, अधिकतम लोक निद्रा में हैं, अधिकतम लोग आलस्य में, प्रमाद में हैं। सूर्य के जागने के साथ उनका जन्म ऊर्जा का जन्म होगा, सूर्य के डूबे हुए अंधेरे की आडू में उनका जन्म नींद का जन्म होगा। रात में एक बच्चा पैदा हो रहा है तो एक्सपोजर एक तरह का होनेवाला है। जैसे कि हमने अंधेरे में एक फिल्म खोली हो या प्रकाश में एक फिल्म खोली हो तो एक्सपोजर भिन्न होनेवाले हैं। एक्सपोजर की बात थोड़ी और समझ लेनी चाहिए क्योंकि वह ज्योतिष के बहुत गहराइयों से संबंधित है।

जो वैज्ञानिक एक्सपोजर के संबंध में खोज करते हैं वे कहते हैं कि एक्सपोजर की घटना बहुत बड़ी है, वह छोटी घटना नहीं है। क्योंकि जिंदगीभर वह आपका पीछा करेगी। एक मुर्गी का बच्चा पैदा होता है। पैदा हुआ कि भागने लगता है मुर्गी के पीछे। हम कहते हैं कि मां के पीछे भाग रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं। मां से कोई संबंध नहीं है। एक्सपोजर का सवाल है। हम कहते, अपनी मां के पीछे भण रहा है लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, नहीं! पहले हम भी ऐसे सोचते थे कि मा के पीछे भाग रहा है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। और अब सैकड़ों प्रयोग किए गए तो बात स्पष्ट हो गयी है।

वैज्ञानिकों ने सैकड़ों प्रयोग किए। मुर्गी का बच्चा जन्म रहा है, अंडा फूट रहा है, चूजा बाहर निकल रहा है तो उन्होंने मुर्गी को हटा लिया और उसकी जगह एक रबर का गुब्बारा रख दिया। बच्चे ने जिस चीज को पहली दफा देखा वह रबर का गुब्बारा था, मां नहीं थी। आप चकित होंगे यह जानकर कि वह एक्सपोज्‍ड हो गया। इसके बाद वह रबर के गुब्बारे को ही मां की तरह प्रेम कर सका। फिर वह अपनी मां को नहीं प्रेम कर सका। रबर का गुब्बारा, हवा में वह गुब्बारा उड़ेगा या सरकेगा, तो वह पीछे भागेगा। उसकी मां भागती रहेगी तो उसकी फिक्र ही नहीं करेगा। रबर के गुब्बारे के प्रति वह आश्रर्यजनक रूप से संवेदनशील हो गया। जब थक जाएगा तो गुब्बारे के पास टिककर बैठ जायेगा। गुब्बारे को प्रेम करने की कोशिश करेगा। गुब्बारे से चोंच लड़ाने की कोशिश करेगा—लेकिन मां से नहीं।

इस संबंध में बहुत काम लारेंज नाम के वैज्ञानिक ने किया है और उसका कहना है, वह जो फर्स्टमूमेंट ऑफ एक्सपोजर है, बड़ा महत्वपूर्ण है। वह मां से इसलिए संबंधित हो जाता है—मां होने की वजह से नहीं, फर्स्ट एक्सपोजर की वजह से। इसलिए नहीं, कि वह मां है—इसलिए उसके पीछे दौड़ता है; इसलिए कि वही सबसे पहले उसको उपलब्ध होती है—इसलिए उसके पीछे दौड़ता है।

अभी इस पर और काम चला है। जिन बच्चों को मां के पास बड़ा न किया जाए वह किसी सी को जीवन में कभी प्रेम करने को समर्थ नहीं हो पाता—एक्सपोजर ही नहीं हो पाता। अगर एक बच्चे को उसकी मां के पास बड़ा न किया जाए तो स्‍त्री का जो प्रतिबिंब उसके मन में बनना चाहिए वह बनता ही नहीं। और अगर पश्‍चिम में आज होमोसेक्यूअलिटी बढ़ती हुई है तो उसके एक बुनियादी कारणों में वह भी एक कारण है।

हेट्रोसेक्यूअल, विजातीय यौन के प्रति जो प्रेम है वह पश्‍चिम में कम होता चला जा रहा है। और सजातीय यौन के प्रति प्रेम बढ़ता चला जाता है, जो कि विकृति है—लेकिन वह विकृति होगी, क्योंकि दूसरे यौन के प्रति जो प्रेम है पुरुष का स्री के प्रति और स्‍त्री का पुरुष के प्रति वह बहुत—सी शर्तों के साथ है। पहला तो एक्सपोजर जरूरी है—बच्चा पैदा हो तो उसके मन पर क्या एक्सपोज हो! अब यह बहुत सोचने जैसी बात है। दुनिया में स्रियां तब तक सुखी न हो पाएंगी जब तक उनका एक्सपोजर मां के साथ हो रहा है। उनका प्रथम एक्सपोजर पुरुष के साथ होना चाहिए। पहला इम्पेक्ट लड़की के मन पर पिता का पड़ना चाहिए तो ही वह किसी पुरुष को भरपूर मन से प्रेम करने में समर्थ हो पायेगी। अगर पुरुष स्‍त्री से जीत जाता है तो उसका कुल कारण इतना है कि लड़के और लड़कियां दोनों ही मां के पास बड़े होते हैं।

लड़के का एक्सपोजर तो बिलकुल ठीक होता है स्‍त्री के प्रति, लेकिन लड़की का एक्सपोजर बिलकुल ठीक नहीं होता। इसलिए जब तक दुनिया में लड़की को पिता का एक्सपोजर नहीं मिलता तब तक स्त्रियां कभी भी पुरुष के समकक्ष खडी नही हो सकेंगी— न राज नीति के द्वारा, न नौकरी के द्वारा, न आर्थिक स्वतंत्रता के द्वारा। क्योंकि मनोवैज्ञानिक अर्थों में एक कमी उनमें रह जाती है। अब तक की पूरी संस्कृति उस कमी को पूरा नहीं कर पायी। अगर एक छोटा—सा गुब्बारा मुर्गों के लिए इतना प्रभावी हो जाता है, इतना ज्यादा कि उनका चित्त. कि उनका चित्त सदा के लिए उससे निर्मित हो जाता है! तो ज्योतिष कहता है, जो भी चारों तरफ मौजूद है, द होल यूनिवर्स, वह सभी का सभी उस प्रथम एक्सपोजर के क्षण में, उस चित्त के खुलने के क्षण में भीतर प्रवेश कर जाता है। और जीवन भर की सिम्पैथीज और एन्टीपैथीज निर्मित हो जाती हैं। उस क्षण जोन क्षत्र पृथ्वी को चारों तरफ से घेरे हुए हैं वे सभी अनंत अर्थों में चित्त को संकेत कर जाते हैं। नक्षत्र घेरे हुए हैं, उसका कुल मतलब इतना है कि उस क्षण पृथ्वी के ऊपर उन नक्षत्रों की रेडियो एक्टीविटी का प्रभाव पड़ रहा है।

अब वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रत्येक यह की रेडियो एक्टीविटी अलग है। जैसे वीनस——उससे जो रेडियो सक्रिय तत्व हमारी तरफ आते है वह चाँद के रेडियो सक्रिय तत्वों से भिन्न है। जैसे ज्‍यूपिटर—उससे जो रेडियो तत्व हम तक आते हैं वह सूर्य के रेडियो तत्वों से भिन्न हैं। क्योंकि इन प्रत्येक ग्रहों के पास अलग तरह की गैसों और अलग तरह के तत्वों का वातावरण है। उन सबसे अलग—अलग प्रभाव पृथ्वी की तरफ आते हैं। और जब एक बच्चा पैदा हो रहा है तो पृथ्वी के चारों तरफ क्षितिज को घेरकर खड़े हुए जो भी नक्षत्र हैं—ग्रह हैं, उपग्रह है, दूर आकाश में महातारे हैं, वे सब के सब उस एक्सपोजर के क्षण में बच्चे के चित्त पर गहराइयों तक प्रवेश कर जाते है। फिर उसकी कमजोरियां, उसकी ताकते, उसका सामर्थ्य, सब सदा के लिए प्रभावित हो जाता है।

अब जैसे हिरोशिमा में एटम बम के गिरने के बाद पता चला, उसके पहले पता नहीं था। हिरोशिमा में एटम जब तक नहीं गिरा था तब तक इतना खयाल था कि एटम गिरेगा तो लाखों लोग मरेंगे। लेकिन यह पता नहीं था कि पीढ़ियों तक आनेवाले बच्चे प्रभावित हो जाएंगे। हिरोशिमा और नागासाकी में जो लोग मर गए—मर गए! वह तो एक क्षण की बात थी, समाप्त हो गई। लेकिन हिरोशिमा में जो वृक्ष बच गए, जो जानवर बच गए, जो पक्षी बच गए, जो मछलियां बच गयीं, जो आदमी बच गए वे सदा के लिए प्रभावित हो गए।

अब वैज्ञानिक कहते है कि दस पीढ़ियों में हमें पूरा अंदाजा लग पायेगा कि क्या—क्या परिणाम हुए। क्योंकि इनका सब कुछ रेडियो एक्टीविटीज से प्रभावित हो गया। अब जो सी बच गयी है उसके शरीर में जो अंडे है वह प्रभावित हो गए है। अब वह अंडे, कल उनमें से एक अंडा बच्चा बनेगा वह बच्चा वैसा ही बच्चा नहीं होगा जैसा साधारणत: होता है। क्योंकि एक विशेष तरह की रेडियो सक्रियता उस अंडे में प्रवेश कर गयी है। वह लंगड़ा हो सकता है, लूला हो सकता है, अंधा हो सकता है। उसकी चार आंखें भी हो सकती हैं, आठ आंखें भी हो सकती है।

कुछ भी हो सकता है! अभी हम कुछ भी नहीं कह सकते, वह कैसा होगा। उसका मस्तिष्क बिलकुल रुग्ण भी हो सकता है, प्रतिभाशाली भी हो सकता है, वह जीनियस भी पैदा हो सकता है, जैसा जीनियस कभी पैदा न हुआ हो। अभी हमें कुछ भी पता नहीं कि वह क्या होगा। इतना पका पता है कि जैसा होना चाहिए—साधारणत: आदमी, वैसा वह नहीं होगा।

अगर एटम की रेडियो ऊर्जा ऐसा कर सकती है जो कि बहुत छोटी ताकत है—हमारे लिए वह बहुत बड़ी है। एक एटम एक लाख बीस हजार आदमियों को मार पाया हिरोशिमा और नागासाकी में—फिर भी तुलनात्मक दृष्टि में वह बहुत छोटी ताकत है। सूर्य के ऊपर जो ताकत है उसका हम इससे कोई हिसाब नहीं लगा सकते हैं—जैसे अरबों एटम बम एक साथ फूट रहे हों! उतनी रेडियो एक्टीविटी सूरज के ऊपर है : और असाधारण है यह!

क्योंकि सूरज चार अरब वर्षों से तो पृथ्वी को गर्मी दे रहा है और उससे पहले से और अभी भी वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम चार हजार वर्ष तक तो उसके ठंडे होने की कोई भी संभावना नहीं। प्रतिदिन इतनी गर्मी. और सूरज दस करोड़ मील दूर है पृथ्वी से। हिरोशिमा में जो घटना घटी है उसका प्रभाव दस मील से ज्यादा दूर नहीं पड़ता। दस करोड़ मील दूर सूरज है चार अरब वर्षों से तो वह हमें सब, सारी गर्मी दे रहा है, फिर भी अभी रिक्त नहीं हुआ। पर यह सूरज कुछ भी नहीं है। इससे भी महासूर्य हैं। ये सब तारे जो हैं आकाश में, ये महासूर्य है। और इसमें से प्रत्येक से अपनी व्यक्तिगत और निजी क्षमता की सक्रियता हम तक प्रवाहित होती है।

एक बहुत बडा वैज्ञानिक, जो अंतरिक्ष में फैलती ऊर्जाओं के संबंध में अध्ययन कर रहा है, माइकेल गाकलिन, उसका कहना है कि जितनी ऊर्जाएं हमें अनुभव में आ रही हैं उनमें से हम एक प्रतिशत के संबंध में भी पूरा नहीं जानते। जब से हमने कृत्रिम उपग्रह छोड़े हैं पृथ्वी के बाहर, तब से उन्होंने हमें इतनी खबरें दी हैं कि हमारे पास न शब्द हैं उन खबरों को समझने के लिए, न हमारे पास विज्ञान है। और इतनी ऊर्जाएं इतनी एनर्जी चारों तरफ बह रही होंगी; इसकी हमें कल्पना ही नहीं थी। इस संबंध में एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है।

ज्योतिष कोई विकसित होता हुआ नया विज्ञान नहीं है। हालत उल्टी है। ताजमहल अगर आपने देखा है तो यमुना के उस पार कुछ दीवारें आपको उठी हुई दिखाई पड़ी होंगी। कहानी यह है कि शाहजहां ने मुमताज के लिए तो ताजमहल बनवाया और अपने लिए, जैसा संगमरमर का ताजमहल है ऐसी अपनी कब्र के लिए संगमूसा का काले पत्थर का महल वह यमुना के उस पार बना रहा था। लेकिन यह पूरा नहीं हो पाया। ऐसी कथा सदा से प्रचलित थी, लेकिन अभी इतिहासज्ञों ने खोज की है तो पता चला कि वह जो उस तरफ दीवारें उठी खड़ी हैं वह किसी बननेवाले महल की दीवारें नहीं हैं, वह किसी बहुत बड़े महल की, जो गिर चुका—खंडहर है! पर उठती दीवारें और खंडहर एक से मालूम पड़ सकते हैं। एक नये मकान की दीवार उठ रही है— अधूरी है, मकान बना नहीं। हजारों साल बाद तय करना मुश्किल हो जाएगा कि नये मकान की बनी दीवार है या किसी बने बनाए मकान की, जो गिर चुका—उसके बचे खुचे अवशेष हैं, खंडहर हैं।

पिछले तीन सौ सालों से यही समझा जाता था कि वह जो दूसरी तरफ महल खड़ा हुआ है, वह शाहजहां बनवा रहा था, वह पूरा नहीं हो पाया। लेकिन अभी जो खोजबीन हुई है उससे पता चलता है कि वह महल पूरा था। और न केवल यह पता चलता है कि वह महल पूरा था, बल्कि यह भी पता चलता है कि ताजमहल शाहजहां ने खुद कभी नहीं बनवाया। वह भी हिंदुओं का बहुत पुराना महल है, जिसको उसने सिर्फ कनवर्ट किया। जिसको सिर्फ थोड़ा—सा फर्क किया। और कई दफे इतनी हैरानी होती है कि जिन बातों को हम सुनने के आदी हो जाते हैं, फिर उनसे भिन्न बात को हम सोचते भी नहीं!

ताजमहल जैसी एक भी कब्र दुनिया में किसी ने नहीं बनायी। कब ऐसी बनायी भी नहीं जाती। कब्र ऐसी बनायी ही नहीं जाती। ताजमहल के चारों तरफ सिपाहियों के खड़े होने के स्थान हैं। बंदूकें और तोपें लगाने के स्थान हैं, कब्रों की बंदूकें और तोपें लगाकर कोई रक्षा नहीं करनी पड़ती। वह महल है पुराना, उसको सिर्फ कन्वर्ट किया गया है कब्र में। वह दूसरी तरफ भी एक पुराना महल है जो गिर गया, जिसके खंडहर शेष रह गए।

ज्योतिष भी खंडहर की तरह है। एक बहुत बड़ा महल था, पूरा विज्ञान था, जो ढह गया। कोई नयी चीज नहीं है, कोई नया उठता हुआ मकान नहीं है। लेकिन जो दीवारें रह गयी हैं उनसे कुछ पता नहीं चलता कि कितना बड़ा महल उसकी जगह रहा होगा। बहुत बार सत्य मिलते हैं और खो जाते हैं।

अरिस्टीकारस नाम के एक यूनानी ने जीसस से दो सौ, तीन सौ वर्ष पूर्व यह सत्य खोज निकाला था कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वी केंद्र नहीं है। अरिस्टीकारस का यह सूत्र, हेलियो सेंट्रिक सिद्धात कि सूरज केंद्र पर है, जीसस से तीन सौ वर्ष पहले खोज निकाला गया था, लेकिन जीसस के सौ वर्ष बाद टोलिमी ने इस सूत्र को उलट दिया और पृथ्वी को फिर केंद्र बना दिया। और फिर दो हजार साल लग गए केपलर और कोपरनिकस को खोजने में वापस, कि सूर्य केंद्र है, पृथ्वी केंद्र नहीं। दो हजार साल तक अरिस्टीकारस का सत्य दबा पड़ा रहा। दो हजार साल बाद जब कोपरनिकस ने फिर से कहा तब अरिस्टीकारस की किताबें खोजी गयीं। लोगों ने कहा, यह तो हैरानी की बात है।

अमरीका कोलंबस ने खोजा, ऐसा पश्‍चिम के लोग कहते हैं। एक बहुत प्रसिद्ध मजाक प्रचलित है आस्कर वाइल्ड का। वह अमरीका गया हुआ था। उसकी मान्यता थी कि अमरीका और भी बहुत पहले, खोजा जा चुका है। और यह सच है। यह सच्चाई है कि अमरीका बहुत दफे खोजा जा चुका और पुन: पुन: खो गया। उससे संबंध—सूत्र टूट गए।

एक व्यक्ति ने आस्कर वाइल्ड को पूछा कि हम सुनते हैं कि आप कहते हैं, अमरीका पहले ही खोजा जा चुका है। तो क्या आप नहीं मानते कि कोलंबस ने पहली खोज की। और अगर कोलंबस ने पहली खोज नहीं की तो अमरीका बार—बार क्यों खो गया। तो आस्कर वाइल्ड ने मजाक में कहा कि कोलंबस ने पुन: खोज की ही है, रि—डिस्कवर्ड अमेरिका, इट वाज डिसकवर्ड सो मेनी टाइम, बट एवरी टाईम हश्ड— अप। हर बार इसको दबाकर चुप रखना पड़ा, क्योंकि उपद्रव को बार—बार दबाना या भुलाना जरूरी था!

महाभारत अमरीका की चर्चा करता है। अर्जुन की एक पत्नी मेक्सिको की लड़की है। मेक्सिको में जो प्राचीन मंदिर है वह हिंदू मंदिर है जिन पर गणेश की मूर्तियां तक खुदी हुई हैं। बहुत बार सत्य खोज लिए जाते है, खो जाते हैं। बहुत बार हमें सत्य पकड़ में आ जाता है, फिर खो जाता है।

ज्योतिष उन बड़े से बड़े सत्यों में से एक है जो पूरा का पूरा खयाल में आ चुका और खो गया। उसे फिर से खयाल में लाने के लिए बड़ी कठिनाई है। इसलिए मैं बहुत—सी दिशाओं से आपसे बात कर रहा हूं। क्योंकि ज्योतिष पर सीधी बात करने का अर्थ होता है कि वह जो सड़क पर ज्योतिषी बैठा है, शायद मैं उस संबंध में कुछ कह रहा हूं। जिसको आप चार आने देकर और अपना भविष्य फल निकलवा आते हैं। शायद उसके संबंध में या उसके समर्थन में कुछ कह रहा हूं।

नहीं ज्योतिष के नाम पर सौ में से निन्यान्नबे धोखाधड़ी है। और वह जौ सौवा आदमी है, निन्यान्नबे को छोड्कर उसे समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह कभी इतना डागमेटिक नहीं हो सकता कि कह दे कि ऐसा होगा ही। क्योंकि वह जानता है कि ज्योतिष बहुत बड़ी घटना है। इतनी बड़ी घटना है कि आदमी बहुत झिझककर ही वहां पैर रख सकता है।

जब मैं ज्योतिष के संबंध में कुछ कह रहा हूं तो मेरा प्रयोजन है कि मैं उस पूरे—पूरे विज्ञान को आपको बहुत तरफ से उसके दर्शन करा दूं उस महल के। तो फिर आप भीतर बहुत आश्वस्त होकर प्र्वेश कर सकें। और मैं जब ज्योतिष की बात कर रहा हूं तो ज्योतिषी की बात नहीं कर रहा हूं। उतनी छोटी बात नहीं है। पर आदमी की उत्सुकता उसी में है कि उसको पता चल जाए कि उसकी लड़की की शादी होगी कि नहीं होगी। इस संबंध में यह भी आपको कह दूं कि ज्योतिष के तीन हिस्से हैं।

स्व—जिसे हम कहें अनिवार्य, एसेंशियल, जिसमें रत्तीभर फर्क नहीं होता। वही सर्वाधिक कठिन है उसे जानना। फिर उसके बाहर की परिधि है—नान एसेंशियल, जिसमें सब परिवर्तन हो सकते हैं। मगर हम उसी को जानने को उत्सुक होते हैं और उन दोनों के बीच में एक परिधि है—सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य, जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते हैं, न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होंगे। तीन हिस्से करते हैं। एसेशियल—जो बिलकुल गहरा है, अनिवार्य है, जिसमें कोई अंतर नहीं हो सकता है। उसे जानने के बाद उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है।

धर्मों ने इस अनिवार्य तथ्य की खोज के लिए ही ज्योतिष की ईजाद की—उस तरफ गए। उसके बाद दूसरा है—सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य — अगर जान लेंगे तो बदल सकते हैं, अगर नहीं जानेंगे तो नहीं बदल पाएंगे। अज्ञान रहेगा तो जो होना है वही होगा। जान होगा तो अल्टरनेटिब्ज, विकल्प हैं—बदलाहट हो सकती है। और तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस, वह है—नान एसेंशियल। उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है। सब सांयोगिक है। लेकिन —हम जिस ज्योतिष की बात समझते हैं, वह नान एसेंशियल का ही मामला है।

एक आदमी कहता है, मेरी नौकरी लग जाएगी या नहीं लग जाएगी। चांद—तारों के प्रभाव से आपकी नौकरी के लगने, न लगने का कोई भी गहरा संबंध नहीं है। एक आदमी पूछता है, मेरी शादी हो जाएगी या नहीं हो जाएगी। शादी के बिना भी समाज हो सकता है। एक आदमी पूछता है कि मैं गरीब रहूंगा कि अमीर रहूंगा। एक समाज कम्‍युनिस्‍ट हो सकता है, कोई गरीब और अमीर नहीं होगा।

ये नान एसेंशियल हिस्से हैं जो हम पूछते हैं। एक आदमी पूछता है कि अस्सी साल में मैं सड़क पर से गुजर रहा था और एक संतरे के छिलके पर पैर पड़कर गिर पड़ा तो मेरे चांद—तारों का इसमें कोई हाथ है या नहीं। अब कोई चांद—तारे से तय नहीं किया जा सकता कि फलां—फलां नाम के संतरे से और फलां—फलां सड़क पर आपका पैर फिसले। यह निपट गंवारी है। लेकिन हमारी उत्सुकता इसमें है कि आज हम निकलेंगे सड़क पर, छिl कि पर पैर पडकर फिसल तो नहीं जाएगा। यह नान एसेंशियल है। यह हजारों कारणों पर निर्भर है लेकिन इसके होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। इसका बीइंग से, आत्मा से कोई संबंध नहीं है। यह घटनाओं की सतह है।

ज्योतिष से इसका कोई लेना—देना नहीं है। और चूंकि ज्योतिषी इस तरह की बात—चीत में लगे रहते हैं इसलिए ज्योतिष का भवन गिर गया। ज्योतिष के भवन के गिर जाने का कारण यही हुआ। कोई भी बुद्धिमान आदमी इस बात को मानने को राजी नहीं हो सकता कि मैं जिस दिन पैदा हुआ उस दिन लिखा था कि मरीन ड्राइव पर फलां—फलां दिन एक छिलके पर मेरा पैर पड़ जाएगा और मैं फिसल जाऊंगा। न तो मेरे फिसलने का चांद—तारों से प्रयोजन है, न उस छिलके का कोई प्रयोजन है। इन बातों से संबंधित होने के कारण ज्योतिष बदनाम हुआ। और हम सबकी उत्सुकता यही है कि ऐसा पता चल जाए। इससे कोई संबंध नहीं है।

सेमी एसेंशियल हैं कुछ बातें जैसे—जन्म, मृत्यु सेमी एसेंशियल है। अगर आप इसके बाबत पूरा जान लें तो उसमें फर्क हो सकता है। और न जानें तो फर्क नहीं होगा। चिकित्सा की हमारी जानकारी बढ़ जाएगी तो हम आदमी की उम्र लबा कर लेंगे—कर रहे हैं। अगर हमारी एटम बम की खोज—बीन और बढ़ती चली गयी तो हम लाखों लोगों को एक साथ मार डालेंगे—मारा है। यह सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य जगत है, जहां कुछ चीजें हो ‘सकती हैं, नहीं भी हो सकती हैं। अगर जान लेंगे तो अच्छा है। क्योंकि विकल्प चुने जा सकते हैं। इसके बाद एसेंशियल, अनिवार्य का जगत है। वहां कोई बदलाहट नहीं होती।

लेकिन हमारी उत्सुकता पहले तो नान एसेंशियल में रहती है। कभी शायद किसी की सेमी एसेंशियल तक जाती है। वह जो एसेंशियल है, अनिवार्य है, अपरिहार्य है, जिसमें कोई फर्क होता ही नहीं, उस केंद्र तक हमारी पकड़ नहीं जाती, न हमारी इच्छा जाती है।

महावीर एक गांव के पास से गुजर रहे हैं, और महावीर का एक शिष्य गोशालक उनके साथ है, जो बाद में उनका विरोधी हो गया। एक पौधे के पास से दोनों गुजरते हैं। गोशालक महावीर से कहता है कि सुनिये यह पौधा लगा हुआ है—क्या सोचते हैं आप, यह फूल तक पहुंचेगा या नहीं पहुंचेगा। इसमें फूल लगेंगे या नहीं लगेंगे, यह पौधा बचेगा या नहीं बचेगा। इसका भविष्य है या नहीं।

महावीर आंख बंद करके उसी पौधे के पास खड़े हो जाते हैं। गोशालक पूछ्ता है, कहिए आंख बंद करने से क्या होगा, टालिए मत। उसे पता भी नहीं कि महावीर आंख बंद करके क्यों खडे हो गए हैं? वह एसेंशियल की खोज कर रहे हैं। इस पौधे के बीइंग में उतरना जरूरी है, इस पौधे की आत्मा में उतरना जरूरी है। बिना इसके नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा? आंख खोलकर महावीर कहते हैं कि यह पौधा फूल तक पहुंचेगा।

गोशालक उनके सामने ही पौधे को उखाड़कर फेंक देता है, और खिलखिलाकर हंसता है, क्योंकि इससे ज्यादा और अतर्क्य प्रमाण क्या होगा? महावीर के लिए अब कुछ और कहने की जरूरत क्या है? उसने पौधे को उखाड़कर फेंक दिया, उसने कहा कि देख लें। वह हंसता है, महावीर मुझुराते हैं। वे दोनों अपने रास्ते चले जाते हैं।

सात दिन बाद वापस उसी रास्ते पर लौट रहे हैं। जैसे ही महावीर और वे दोनों उस दिन गांव में पहुंचे थे वैसे ही बड़ी भयंकर वर्षा हुई थी। सात दिन तक मूसलाधार पानी पड़ता रहा। सात दिन तक निकल नहीं सके। फिर लौट रहे हैं। जब लौटते हैं तो ठीक उस जगह आकर महावीर खड़े हो गार हैं जहां वे सात दिन पहले आंख बंद करके खड़े थे। देखा कि वह पौधा खड़ा है। जोर से वर्षा हुई, उसकी जड़ें वापस गीली जमीन को पकड़ गयीं और पौधा खड़ा हो गया।

महावीर फिर आंख बंद करके उसके पास खड़े हो गार, गोशालक बहुत परेशान हुआ। उस पौधे को फेंक गए थे। महावीर ने आंख खोली, गोशालक ने पूछा कि हैरान हूं आश्रर्य! इस पौधे को हम उखाड़कर फेंक गए फिर खड़ा हो गया। महावीर ने कहा, यह फूल तक पहुंचेगा। और इसीलिए मैं आंख बंद करके और खड़े होकर इसे देखा!

इसकी आंतरिक पोटेंशियलिटी, इसकी आंतरिक संभावना क्या है? इसके भीतर की स्थिति क्या है? तुम इसे बाहर से फेंक दोगे उठाकर तो भी यह अपने पैर जमाकर खड़ा हो सकेगा? यह कहीं आत्मघाती तो नहीं है—सुसाइडल इंस्टिंक्ट तो नहीं है इस पौधे में, कहीं यह मरने को उत्सुक तो नहीं है! अन्यथा तुम्हारा सहारा लेकर मर जाएगा। यह जीने को तत्‍पर है! अगर यह जीने को तत्पर है तो जिएगा ही। मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़कर फेंक दोगे।

गोशालक ने कहा, आप क्या कहते हैं? महावीर ने कहा, जब मैं इस पौधे को देख रहा था तब तुम भी पास खड़े थे, तुम भी दिखायी पड़ रहे थे। और मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़कर फेंकोगे। इसलिए ठीक से जान लेना जरूरी है कि पौधे की खड़े रहने की आंतरिक क्षमता कितनी है? इसके पास आत्म—बल कितना है। यह कहीं मरने को तो उत्सुक नहीं है कि कोई बहाना लेकर मर जाए तो तुम्हारा बहाना लेकर भी मर सकता है। अन्यथा तुम्हारा उखाड़कर फेंक गया पौधा पुन: जड़ें पकड़ सकता है।

गोशालक को दुबारा उस पौधे को उखाड़कर फेंकने की हिम्मत न पड़ी—डरा। पिछली बार गोशालक हंसता हुआ गया था, इस बार महावीर हंसते हुए आगे बढ़े। गोशालक रास्ते में पूछने लगा, आप हंसते क्यों है? महावीर ने कहा, मैं सोचता था कि देखें, तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है। तुम दुबारा इसे उखाड़कर फेंकते हो या नहीं?

गोशालक ने पूछा कि आपको तो पता चल जाना चाहिए कि मैं उखाड़कर फेंकूंगा या नहीं, तब महावीर ने कहा, वह गैर अनिवार्य है। उखाडकर फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो। अनिवार्य यह था कि पौधा अभी जीना चाहता था। उसके पूरे प्राण जीना चाहते थे, वह अनिवार्य था। वह एसेंशियल था। यह तो गैर अनिवार्य है, तुम फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो— तुम पर निर्भर है। लेकिन तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए हो—हार गए। महावीर से गोशालक के नाराज हो जाने के कुछ कारणों में एक कारण यह पौधा भी था!

जिस ज्योतिष की मैं बात कर रहा हूं उसका संबंध अनिवार्य से, एसेंशियल से, फाउण्‍डेशनल से है। आपकी उत्सुकता ज्यादा से ज्यादा सेमी एसेंशियल तक आती है। पता लगाना चाहते हैं कि कितने दिन जियूंगा, मर तो नहीं जाऊंगा, जीकर क्या करूंगा। जी ही लूंगा तो क्या करूंगा, इस तक आपकी उत्सुकता नहीं पहुंचती। मरूंगा तो मरने में क्या करूंगा, इस तक आपकी उत्सुकता नहीं पहुंचती। घटनाओं तक पहुंचती है, आत्माओं तक नहीं पहुंचती। जब मैं जी रहा हूं तो यह तो घटना है सिर्फ—जीकर मैं क्या कर रहा हूं? —जीकर मैं क्या हूं? —वह मेरी आत्मा है! जब मैं मरूंगा वह तो घटना होगी। लेकिन मरते क्षण में मैं क्या होऊंगा, क्या करूंगा, वह मेरी आत्मा होगी। हम सब मरेंगे। मरने के मामले में सबकी घटना एक—सी घटेगी। लेकिन मरने के संबंध में, मरने के क्षण में हमारी स्थिति सब की भिन्न होगी—कोई मुस्‍कुराते हुए भी तो मर सकता है!

मुल्ला नसरुद्दीन से कोई कुछ पूछता है, और वह अब मरने के करीब है। उससे कोई पूछ रहा है कि आपका क्या खयाल है, मुल्ला! लोग जब पैदा होते हैं तो कहां से आते हैं, मरते हैं तो कहां जाते हैं? मुल्ला ने कहा, जहां तक अनुभव की बात है, मैंने लोगों को पैदा होते वक्त रोते ही पैदा होते देखा। और मरते वक्त रोते ही जाते देखा है। अच्छी जगह से न आते हैं, न अच्छी जगह जाते हैं। इनको देखकर जो अंदाज लगता है, न अच्छी जगह से आते हैं, न अच्छी जगह जाते हैं। आते हैं तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं, जाते हैं तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं।

लेकिन नसरुद्दीन जैसा आदमी हंसता हुआ मरता है। मौत तो घटना है, लेकिन हंसते हुए मरना आत्मा है। तो आप कभी ज्योतिषी से पूछिए कि मैं हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए मरूंगा। पूरी पृथ्वी पर एक आदमी ने नहीं पूछा ज्योतिषी से जाकर कि मैं मरते वक्त हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए मरूंगा। यह पूछने जैसी बात है, लेकिन यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से जुड़ी हुई बात है।

आप पूछते हैं, कब मरूंगा? जैसे मरना अपने आप में मूल्यवान है बहुत! कब तक जियूंगा? —जैसे बस जी लेना काफी है! किसलिए जियूंगा, क्यों जियूंगा, जीकर क्या करूंगा, जीकर क्या हो जाऊंगा? —कोई पूछने नहीं आता! इसलिए महल गिर गया। क्योंकि वह महल गिर जाएगा, जिसके आधार नान एसेंशियल पर रखे हैं। गैर जरूरी चीजों पर जिसकी हमने दीवारें खड़ी कर दी हों, वह कैसे टिकेगा— आधारशिलाए चाहिए।

मैं जिस ज्योतिष की बात कर रहा हूं और आप जिसे ज्योतिष समझते रहे हैं, उससे वह ज्योतिष भिन्न है गुणात्मक रूप से, और गहरा है। उसके आयाम और हैं। मैं इस बात की चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में… अनिवार्य आपके जीवन में और जगत के जीवन में संयुक्त है, लयबद्ध है। अलग—अलग नहीं है। उसमें पूरा जगत भागीदार है। उसमें आप अकेले नहीं हैं।

जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, तब बुद्ध ने दोनों हाथ जोड़कर पृथ्वी पर सिर टेक दिया। कथा है कि आकाश से देवता बुद्ध को नमस्कार करने आए थे कि वह परम ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं। बुद्ध को .पृथ्वी पर हाथ टेके सिर रखे देखकर वे चकित हुए। उन्होंने पूछा, तुम, और किसको नमस्कार कर रहे हो? क्योंकि हम तो तुम्हें नमस्कार करने स्वर्ग से आते हैं। हम तो नहीं जानते कि बुद्ध भी किसी को नमस्कार करे, ऐसा कोई है। बुद्धत्व तो आखिरी बात है। बुद्ध ने आंखें खोलीं और बुद्ध ने कहा, जो भी घटित हुआ है उसमें मैं अकेला नहीं हूं सारा विश्व है। तो इस सबको धन्यवाद देने के लिए सिर टेक दिया है। यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से बंधी हुई बात है—सारा जगत।

इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि जब भी तुम्हें कुछ भी भीतरी आनंद मिले—तत्क्षगा अनुगृहीत हो जाना समस्त जगत के क्योंकि तुम अकेले नहीं हो। अगर सूरज न निकलता, अगर चांद न निकलता, अगर एक रत्तीभर भी घटना और घटी होती तो तुम्हें यह नहीं होनेवाला था जो हुआ है। माना कि तुम्हें हुआ है, लेकिन सबका हाथ है। सारा जगत उसमें इकट्ठा है—एक काज्मिक, जागतिक अंतर संबंध का नाम ज्योतिष है।

बुद्ध ऐसा नहीं कहेंगे कि मुझे हुआ है। बुद्ध इतना ही कहते हैं कि जगत को मेरे माध्यम से हुआ है। यह जो घटना घटी है एनलाइटेनमेंट की, यह जो प्रकाश का आविर्भाव हुआ है, यह जगत ने मेरे बहाने जाना है। मैं सिर्फ एक बहाना हूं। एक क्रास रोड, जहां सारे जगत के रास्ते आकर मिल गए हैं।

कभी आपने खयाल किया है कि चौराहा बड़ा भारी होता है। लेकिन चौराहा अपने में कुछ नहीं होता, वह जो चार रास्ते आकर मिले होते हैं, उन चारों को हटा लें तो चौराहा विदा हो जाता है। हम सब क्रिसक्रास प्वाइंट्स हैं जहां जगत की अनंत शक्तियां आकर एक बिंदु को काटती हैं। वह व्यक्ति निर्मित हो जाता है, इंडीवीजुअल बन जाता है।

वह जो सारभूत ज्योतिष है उसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम अलग नहीं हैं। एक, उस एक ब्रह्म के साथ हैं। उस एक ब्रह्मांड के साथ हैं और प्रत्येक घटना भागीदार है। तो बुद्ध ने कहा है कि मुझसे पहले जो कुछ बुद्ध हुए उनको नमस्कार करता हूं और मेरे बाद जो बुद्ध होंगे उनको नमस्कार करता हूं।

किसी ने पूछा, आप उनको नमस्कार करें जो आपके पहले हुए, यह समझ में आता है क्योंकि हो सकता है, उनसे कोई जाना—अनजाना ऋण हो, क्योंकि जो आपसे पहले जान चुके हैं उनके ज्ञान ने आपको साथ दिया हो, लेकिन जो अभी हुए ही नहीं, उनसे आपको क्या लेना—देना है, उनसे आपको कौन—सी सहायता मिली है मे तो बुद्ध ने कहा, जो हुए हैं उनसे भी मुझे सहायता मिली है, जो अभी नहीं हुए हैं उनसे भी मुझे सहायता मिली है। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं वहां अतीत और भविष्य एक हो गए हैं। वहां जो जा चुका है, वह उससे मिल रहा है जो अभी आने को है। वहां सूर्योदय और सूर्यास्त एक ही बिन्दु पर मिल रहे हैं। तो मैं उन्हें भी नमस्कार करता हूं जो होंगे। उनका भी मुझ पर ऋ??ण है क्योंकि अगर वे भविष्य में न हों तो मैं आज न हो सकूंगा।

इसको समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा.। यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी की बात है। कल जो हुआ है अगर उसमें से कुछ भी खिसक जाए तो मैं न हो सकूंगा। क्‍योंकि मैं एक शृंखला में बंधा हुआ हूं। यह समझ में आता है। अगर मेरे पिता न हौं जगत में तो मैं न हो सकूंगा। यह समझ में आता है। क्योंकि एक कड़ी अगर विदा हो जाएगी तो मैं न हो सकूंगा। अगर मेरे पिता के पिता न हों, तो मैं न हो सकूंगा क्योंकि कड़ी विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मेरा भविष्य, अगर उसमें कोई कड़ी न हो तो मैं न हो सकूंगा, समझना मुश्‍किल पड़ेगा। क्योंकि उससे क्या लेना—देना, मैं तो हो ही गया हूं!

लेकिन बुद्ध कहते हैं कि अगर भविष्य में भी जो होनेवाला है, वह न हो तो मैं न हो सकूंगा। क्योंकि भविष्य और अतीत दोनों के बीच की मैं कड़ी हूं। कहीं भी कोई भी बदलाहट होगी तो मैं वैसे नहीं हो सकूंगा जैसा हूं। कल ने भी मुझे बनाया, आनेवाला कल भी मुझे बनाता है—यही ज्योतिष है—बीता कल ही नहीं, आनेवाला कल भी—जा चुका ही नहीं, जो आ रहा, वह भी—जो सूरज पृथ्वी पर उगे वह नहीं, जो उगेंगे वह भी। वह भी भागीदार हैं। वह भी आज के क्षण को निर्मित कर रहे हैं। क्योंकि जो वर्तमान का क्षण है यह हो ही न सकेगा अगर भविष्य का क्षण इसके आगे न खड़ा हो! उसके सहारे ही यह हो पाता है।

हम सब के हाथ भविष्य के कन्धे पर रखे हुए हैं। हम सबके पैर अतीत के कन्धों पर पड़े हुए हैं। हम सबके हाथ भविष्य के कन्धों पर रखे हुए हैं। नीचे तो हमें दिखायी पड़ता है कि अगर मेरे नीचे जो खड़ा है वह न हो तो मैं गिर जाऊंगा। लेकिन भविष्य में मेरे जौ फैले हाथ हैं, वह जो कन्धों को पक्के हुए हैं, अगर वह भी न हों तो भी मैं गिर जाऊंगा।

जब कोई व्यक्ति अपने को इतनी आन्तरिक एकता में अतीत और भविष्य के बीच जुड़ा हुआ पाता है तब वह ज्योतिष को समझ पात्रा है। तब ज्योतिष धर्म बन जाता है, तब ज्योतिष अध्यात्म हो जाता है। और नहीं तो, वह जो नान एसेंशियल है, गैर जरूरी है उससे जुड़कर ज्योतिष सड़क की मदारीगिरी हो जाता है, उसका फिर कोई मूल्य नहीं रह जाता। श्रेष्ठतम विज्ञान भी जमीन पर गडकर धूल की कीमत के हो जाते हैं। हम उनका क्या उपयोग करते हैं उस पर सारी बात निर्भर है। इसलिए मैं बहुत द्वारों से एक तरफ आपको धक्का दे रहा हूं कि आपको यह खयाल में आ सके—सब संयुक्त है—संयुक्तता, इस जगत का एक परिवार होना या एक आर्गनिक बॉडी होना, एक शरीर की तरह होना।

मैं सांस लेता हूं तो पूरा का पूरा शरीर प्रभावित होता है। सूरज सांस लेता है तो पृथ्वी प्रभावित होती है और दूर के महासूर्य है, वे भी कुछ करते हैं तो पृथ्वी प्रभावित होती है। और पृथ्वी प्रभावित होती है तो हम प्रभावित होते हैं। सब चीज, छोटा—सा रोया तक महान सूर्यों के साथ जुड़कर कंपता है, कंपित होता है। यह खयाल में आ जाए तो हम सारभूत ज्योतिष में प्रवेश कर सकेंगे। और असारभूत ज्योतिष की जो व्यर्थताएं हैं उनसे भी बच सकेंगे। क्षुद्रतम बातें हम ज्योतिष से जोड़कर बैठ गए हैं— अति क्षुद्रतम! —जिनका कहीं भी कोई मूल्य नहीं है। और उनको जोड्ने की वजह से बड़ी कठिनाई होती है, जैसा हमने जोड़ रखा है कि एक आदमी गरीब पैदा होगा तो इसका संबंध ज्योतिष से होगा। नहीं, गैर जरूरी बात अगर आप नहीं जानते हैं तो ज्योतिष से संबंध जुड़ा रहेगा। अगर आप जान लेते है तो आपके हाथ में आ जाएगा।

एक बहुत मीठी कहानी आपको कहूं तो खयाल में आए। जिन्दगी ऐसी ही बेलेन्स है, ऐसा ही सन्तुलन है। मुहम्मद का एक शिष्य है, अली। और अली, मुहम्मद से पूछता है कि बड़ा विवाद है सदा से कि मनुष्य स्वतंत्र है अपने कृत्य में या परतंत्र है—बंधा है कि मुक्त है! मैं जो करना चाहता हूं वह कर सकता हूं या नहीं कर सकता हूं। सदा से आदमी ने यह पूछा है। क्योंकि अगर हम कर ही नहीं सकते कुछ तो फिर किसी आदमी को कहना कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, ईमानदार बनो, नासमझी है!

एक आदमी अगर चोर होने को बदा है तो यह समझाते फिरना कि चोरी मत करो, नासमझी है! या फिर यह हो सकता है कि एक आदमी के भाग्य में बदा है कि वह यही समझता रहे कि चोरी न करो—जानते हुए कि चोर चोरी करेगा, बेईमान बेईमानी करेगा, असाधु असाधु होगा, हत्या करनेवाला हत्या करेगा, लेकिन अपने भाग्य में यह बदा है कि लोगों को कहते फिरो कि चोरी मत करो! —एब्सर्ड है!

अगर सब सुनिश्‍चित है तो समस्त शिक्षाएं बेकार है—सब प्रोफेट्स, सब पैगम्बर, सब तीर्थंकर व्यर्थ हैं। महावीर से भी लोग पूछते हैं, बुद्ध से भी लोग पूछते हैं कि अगर होना है, वही होना है तो आप समझा क्यों रहे हैं—किसलिए समझा रहे हैं।

मुहम्मद से भी अली पूछता है कि आप क्या कहते हैं? अगर महावीर से पूछा होता अली ने, तो महावीर ने जटिल उत्तर दिया होता। और बुद्ध से पूछा होता तो बड़ी गहरी बात कही होती। लेकिन मुहम्मद ने वैसा उत्तर दिया था जो अली की समझ में आ सकता था। कई बार मुहम्मद के उत्तर बहुत सीधे और साफ हैं। अकसर ऐसा होता है कि जो लोग कम पढ़े—लिखे हैं, ग्रामीण हैं उनके उत्तर सीधे और साफ होते हैं—जैसे, कबीर के या नानक के, या मुहम्मद के या जीसस के—बुद्ध और महावीर और कृष्ण के उत्तर जटिल हैं। वह संस्कृति का मक्खन है। जीसस की बात ऐसी है जैसे किसी ने लट्ठ सिर पर मार दिया हो। कबीर तो कहते ही हैं—कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए बाजार में खड़े हैं कबीर। कोई आये हम उसका सिर खोल दें।

मुहम्मद ने कोई बहुत मेटाफिजिकल बात नहीं की। मुहम्मद ने कहा अली, एक पैर उठाकर खड़ा हो जा.! अली ने कहा, हम पूछते हैं कि कर्म करने में आदमी स्वतंत्र है या परतंत्र। मुहम्मद ने कहा, तू पहले एक पैर उठा। अली बेचारा एक पैर, बायां पैर उठा खड़ा हो गया। मुहम्मद ने कहा, अब तू दायां भी उठा ले। अली ने कहा, आप क्या बात करते हैं। तो मुहम्मद ने कहा, अगर तू चाहता पहले तो दाहिना भी उठा सकता था। अब नहीं उठा सकता। मुहम्मद ने कहा कि एक पैर उठाने को आदमी सदा स्वतंत्र है। लेकिन एक पैर उठाते ही तत्काल दूसरा पैर बंध जाता है।

वह जो नान एसेंशियल हिस्सा है हमारी जिन्दगी का, गैर जरूरी हिस्सा है, उसमें हम पूरी तरह पैर उठाने को स्वतंत्र हैं, लेकिन ध्यान रखना, उसमें उठाए गए पैर भी एसेंशियल हिस्से में बन्धन बन जाते हैं। वह जो बहुत जरूरी है वहां भी फंसाव पैदा हो जाता है। गैर जरूरी बातों में फंस जाते हैं। मुहम्मद ने कहा, तू उठा सकता था पहला पैर भी—दाया भी उठा सकता था, कोई मजबूरी न थी। लेकिन अब चूंकि तू बायां उठा चुका इसलिए दायां उठाने में असमर्थता होगी। आदमी की सीमाएं है। सीमाओं के भीतर स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता सीमाओं के बाहर नहीं है।

बहुत पुराना संघर्ष है आदमी के चिन्तन का। अगर आदमी पूरी तरह स्वतंत्र है जैसा ज्योतिषी साधारणत: कहते हुए मालूम पड़ते है, कि सब शुनिश्रित है, जो विधि ने लिखा है वह होकर रहेगा तो फिर सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है। और या फिर जैसा कि तथाकथित तर्कवादी और बुद्धिवादी गुरु कहते हैं कि सब स्वच्छन्द है, कुछ बंधा हुआ नहीं है, कुछ होने का निश्‍चित नहीं है, कुछ अनिश्‍चित है—तो जिन्दगी एक केऑस और एक अराजकता और एक स्वच्छन्दता हो जाती है। फिर तो यह भी हो सकता है कि मैं चोरी करूं और मोक्ष पा जाऊं, हत्या करूं और परमात्मा मिल जाए। क्योंकि जब कुछ भी बंधा हुआ नहीं है और किसी भी कदम से कोई दूसरा कदम बंधता नहीं है और अब कहीं भी कोई नियम और सीमा नहीं है…!

फिर मुझे खयाल आता है मुल्ला नसरुद्दीन का। मुल्ला एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा है और एक आदमी मस्जिद के ऊपर से गिर पड़ा। अजान पढ़ने चढ़ा था मीनार पर, ऊपर से गिर पड़ा। मुल्ला के कन्धे पर गिरा। मुल्ला की कमर टूट गयी। अस्पताल में मुल्ला भर्ती है, उसके शिष्य उसको मिलने गए और शिष्यों ने कहा, मुल्ला, इस र्दुघटना से क्या मतलब निकलता है? हाऊ डू यू इन्टरप्रीट इट, इस घटना की व्याख्या क्या है? क्योंकि मुल्ला हर घटना की व्याख्या निकालता था।

मुल्ला ने कहा, इससे साफ जाहिर होता है कि कर्म का और फल का कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी गिरता है, किसी की कमर टूट जाती है। इसलिए अब तुम कभी कर्मफल के सैद्धान्तिक विवाद में मत पड़ना। यह बात सिद्ध होती है कि गिरे कोई, कमर किसी की टूट सकती है। वह आदमी तो मजे में है, वह मेरे ऊपर सवार हो गया था, फंसा मैं! न मैं अजान पढ़ने चढ़ा, मैं अपने घर लौट रहा था, हमारा कोई संबंध ही न था—फिर भी फंसा मै!

इसलिए आज से कर्मफल के सिद्धांत की बातचीत बन्द! कुछ भी हो सकता है.. .कुछ भी हो सकता है! कोई कानून नहीं है—अराजकता है—नाराज था, स्वाभाविक है! उसकी कमर जो टूट गयी थी।

दो विकल्प सीधे रहे है—एक विकल्प तो यह है कि ज्योतिषी, साधारणत: जैसे सड़क पर बैठनेवाला ज्योतिषी कहता है… वह चाहे गरीब आदमी का ज्योतिषी हो चाहे मोरारजी देसाई का ज्योतिषी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सड़क का है ज्योतिषी जिससे कोई नान एसेंशियल बातें पूछने जाता है कि इलेक्‍शन में जीतेंगे कि हार जाएंगे—जैसे कि आपके इलेक्शन से चांद—तारों का कोई लेना—देना है। वह कहता है, सब बंधा हुआ है। कुछ इंचभर यहां वहां नहीं हो सकता। वह भी गलत कहता है।

और दूसरी तरफ तर्कवादी है। वह कहता है, किसी चीज का कोई संबंध नहीं है। कुछ भी घट रहा है, सांयोगिक है, चांस है—कोइन्सीडेंट है, संयोग है। यहां कोई नियम नहीं है। सब अराजकता है। वह भी गलत कहता है। यहां कोई नियम है। क्योंकि वह बुद्धिवादी कभी बुद्ध की तरह आनंद से भरा हुआ नहीं मिलता’। वह शुद्धवादी ही धर्म और ईश्वर को और आत्मा को तर्क से इनकार कर लेता है लेकिन कभी महावीर की प्रसन्नता को उपलब्ध नहीं होता। जरूर महवीर कुछ करते है, जिससे उनकी प्रसन्नता फलित होती है।

और बुद्ध कुछ करते हैं जिससे उनकी समाधि निकलती है। और कृष्ण कुछ करते हैं जिससे उनकी बांसुरी के स्वर अलग है।

स्थिति तीसरी है और तीसरी स्थिति यह है, जो बिलकुल सारभूत है, जो बिलकुल अंतरतम है वह बिलकुल सुनिश्रित है। जितना हम अपनी केंद्र की तरफ आते हैं उतना निश्‍चय के करीब आते हैं। जितना हम अपनी परिधि की तरफ, सरकमफेरेंस की तरफ जाते हैं उतना संयोग के करीब जाते हैं। जितना हम बाहर की घटना की बात कर रहे है उतनी सांयोगिक बात है। जितनी ही भीतर की बात कर रहे हैं उतनी ही नियम और विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्रित बात हो जाती है। दोनों के बीच में भी जगह है जहां बहुत रूपांतरण होते हैं। जहां जाननेवाला आदमी विकल्प चुन लेता है। नहीं जाननेवाला अंधेरे में वही चुन लेता है जो भाग्य है। जो अंधेरे में है, वह जो संयोग है, उसको पकड़ लेता है।

तीन बातें हुईं। ऐसा क्षेत्र है जहां सब सुनिश्रित है। उसे जानना सारभूत ज्योतिष को जानना है। ऐसा क्षेत्र है, जहां सब अनिश्चित है। उसे जानना अनिश्‍चित है। उसे जानना व्यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा क्षेत्र जो दोनों के बीच में है, उसे जानकर आदमी जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है, जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर या केंद्र के मध्य में आदमी इस भांति जिए कि केंद्र पर पहुंच जाए तो उसकी जीवन की यात्रा धार्मिक हो जाती है। और अगर इस भांति जिए कि केंद्र पर कभी न पहुंच पाए तो उसके जीवन की यात्रा अधार्मिक हो जाती है।

जैसे, एक आदमी चोरी करने खड़ा है। चोरी करना कोई नियति नहीं है। चोरी करनी ही पड़ेगी, ऐसा कोई सवाल नहीं है। स्वतंत्रता पूरी मौजूद है। हां, करने के बाद एक पैर उठ जाएगा, दूसरा पैर फंस जाएगा। करने के बाद न करना मुश्किल हो जाएगा। करने के बाद बचना मुश्‍किल हो जाएगा। किए हुए का सारा का सारा प्रभाव व्यक्तित्व को ग्रसित कर लेगा। लेकिन जब तक नहीं किया है तब तक विकल्प मौजूद है। हां और न के बीच में आदमी का चित्त डोलता है। अगर वह न करे तो केंद्र की तरफ आ जाएगा। अगर वह हां कर दे तो परिधि पर चला जाएगा। वह जो मध्य में है चुनाव, वहां अगर वह गलत को चुन ले तो परिधि पर फेंक दिया जाता है और अगर सही को चुन ले तो केंद्र की तरफ आ जाता है—उस ज्योतिष की तरफ जो हमारे जीवन का सारभूत है।

कुछ बातें मैंने कहीं। आज मैंने एक बात आपसे कही और वह यह कि सूर्य के हम फैले छुए हाथ हैं। सूर्य से जन्मती है पृथ्वी, पृथ्वी से जन्मते हैं हम। हम अलग नहीं हैं, हम जुड़े हैं। हम सूर्य की ही दूर तक फैली हुई शाखाएं और पत्ते है। सूर्य की जड़ों में जो होता है वह हमारे पत्ते के रोएं—रोएं रेशे—रेशे तक फैल जाता है और कंपित कर जाता है। यदि यह खयाल में हो तो हम जगत के बीच एक पारिवारिक बोध को उपलब्ध हो सकते है। तब हमें स्वयं की अस्मिता और अहंकार में जीने का कोई प्रयोजन नहीं है।

और ज्योतिष की सबसे बड़ी चोट अहंकार पर है। अगर ज्योतिष सही है तो अहंकार गलत है, ऐसा समझें। और अगर ज्‍योतिष गलत तो फिर अहंकार के अतिरिक्त कुछ सही होने को नहीं बचता। अगर ज्योतिष सही है तो जगत सही है और मैं गलत हूं अकेले की तरह। जगत का एक टुकड़ा ही हूं मैं, एक हिस्सा ही, और वह भी कितना नाचीज टुकड़ा हूं जिसकी कोई गणना भी नहीं हो सकती।

अगर ज्योतिष सही है तो मैं नहीं हूं—शक्तियों का एक प्रवाह है, उसी में एक छोटी लहर मैं हूं—किसी बड़ी लहर पर सवार! कभी—कभी भ्रम पैदा हो जाता है, कि मैं भी हूं। वह बड़ी लहर खयाल में नहीं रह जाती और बड़ी लहर भी किसी सागर पर सवार है। उसका तो बिलकुल खयाल नहीं रह जाता। नीचे से सागर हाथ अलग कर लेता है। बडी लहर बिखरने लगती है, बड़ी लहर बिखरती है, मैं खो जाता हूं।

अकारण दुख ले लेता हूं कि मिट रहा हूं क्योंकि अकारण मैंने सुख लिया था कि हूं। अगर उसी वक्त देख लेता कि मैं नहीं हूं बड़ी लहर है, बड़ा सागर है। सागर की मर्जी कि उठता हूं सागर की मर्जी कि खो जाता हूं। अगर ऐसी भाव दशा बन जाती है कि अनंत की मर्जी का मैं एक हिस्सा हूं तो कोई दुख न था। हां, वह तथाकथित सुख फिर नहीं हो सकता जो हम लेते रहते हैं। मैंने जीता, मैंने कमाया, वह सुख भी नहीं रह जाएगा। वह दुख भी नहीं रह जाएगा कि मैं मिटा, मैं बर्बाद हुआ, मैं डूब गया, नष्ट हो गया, हार गया, पराजित हुआ, यह दुख ही नहीं रह जाएगा।

और जब यह दोनों सुख और दुख नहीं रह जाते तब हम उस सारभूत जगत में प्रवेश करते हैं, वहां आनंद है। ज्योतिष आनंद का द्वार बन जाता है। अगर हम ऐसा देखें कि वह हमारी अस्मिता को गलाता है, हमारा अहंकार बिखेरता है, हमारी इगो को हटा देता है तो ज्योतिष धर्म है। लेकिन यदि हम बाजार में, सड़क पर ज्योतिषी के पास जाते हैं तो अपने अहंकार की सुरक्षा के लिए पूछते हैं, कि घाटा तो नहीं लगेगा? यह लाटरी तो मिल जाएगी न? कि नहीं मिलेगी? यह धंधा हाथ में लेते हैं, सफलता निश्‍चित है न? अहंकार के लिए हम पूछने जाते हैं और मजा यह है कि ज्योतिष पूरा का पूरा अहंकार के विपरीत है।

ज्योतिष का अर्थ यह है, आप नहीं हो, जगत है। आप नहीं हो, ब्रह्मांड है। विराट शक्तियों का प्रभाव है, आप कुछ भी नही हैं। इस ज्योतिष की तरफ खयाल आए, और तभी आ सकता है जब हम इस विराट जगत के बीच अपने को एक हिस्से की तरह देखें। इसलिए मैंने कहा कि सूर्य से किस भांति सारा का सारा विस्तार संयुक्त है और जुड़ा हुआ है। अगर सूर्य से हमें पता चल जाए कि हम जुड़े हुए हैं तो फिर हमें पता चलेगा कि सूर्य और महासूर्य से जुड़ा हुआ है।

कोई चार अरब सूर्य हैं और वैज्ञानिक कहते हैं, इन सभी सूर्यों का अन्य किसी महासूर्य से जन्म हुआ है। अब तक हमें उसका कोई अंदाज नहीं है। वह कहां होगा? कैसे पृथ्वी अपनी कील पर घूमती है और साथ ही सूरज का चक्कर लगाती है!

ऐसे ही सूरज अपनी कील पर घूमता है और किसी बिंदु का चक्कर लगा रहा है। उस बिंदु का ठीक—ठीक पता नहीं है कि वह बिंदु क्या है जिसका सूरज चक्कर लगा रहा है। विराट चक्कर जारी है। जिस बिंदु का सूरज चक्कर लगा रहा है वह बिंदु और सूरज का पूरा का पूरा सौर परिवार भी किसी और एक महाबिंदु के चक्कर में संलग्न है।

मंदिरों में परिक्रमा बनी है। वह परिक्रमा इसका प्रतीक है कि इस जगत में सारी चीजें किसी की परिक्रमा कर रही हैं। प्रत्येक अपने में घूम रहा है और फिर किसी की परिक्रमा कर रहा है। फिर वे दोनों मिलकर किसी और बड़ी की परिक्रमा करते हैं। फिर वे तीनों मिलकर और किसी की परिक्रमा करते हैं। वह जो अल्टीमेट है, परम है, परात्पर है, जिसकी सभी परिक्रमा कर रहे हैं, उसको ही ज्ञानियों ने ब्रह्म कहा है। उस अंतिम को, जो किसी की परिक्रमा नहीं कर रहा है, जो अपने में भी नहीं घूम रहा है और किसी की परिक्रमा भी नहीं कर रहा है।

ध्यान रखें, जो अपने में घूमेगा वह किसी की परिक्रमा जरूर करेगा। जो अपने में भी नहीं घूमेगा वह फिर किसी की परिक्रमा नहीं करता। वह शून्य और शांत है। वह है धुरी, यह है वह कील जिस पर सारा ब्रह्मांड घूम रहा है, जिससे सारा ब्रह्मांड फैलता है और सिङ्ता है। हिंदुओं ने तो सोचा है कि जैसे कली फूल बनती है, फिर बिखर जाती है ऐसे ही पूरा जगत खिलता है, फैलता है, एक्सपेंड होता है। और फिर प्रलय को उपलब्ध हो जाता है। जैसे दिन होता है और रात होती है ऐसे ही सारा जगत का दिन और फिर सारे जगत की रात हो जाती है।

जैसा मैंने कहा कि ग्यारह वर्ष का एक क्रम है, नब्बे वर्ष का एक क्रम है। ऐसा हिंदू विचारकों का खयाल है कि अरबों—खरबों वर्ष का भी एक क्रम है। उस क्रम में जगत उठता है, जवानहोताहै। पृथ्वियां पैदा होती है, चांद—तारे फैलते है, बस्तियां बसती हैं। लोग जन्मते हैं, करोड़ों—करोड़ों प्राणी पैदा होते हैं—और कोई एक अकेली पृथ्वी पर हो जाते हैं—ऐसा नहीं।

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कम—से—कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन होना चाहिए, कम—से—कम! यह मिनिमम है, न्यूनतम है—इतना तो होगा ही। इससे ज्यादा हो सकता है। इतने बड़े विराट जगत में अकेली पृथ्वी पर जीवन हो, यह संभव नहीं मालूम होता। पचास हजार ग्रहों पर, पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। अनंत फैलाव है, फिर सब सिकुड़ जाता है।

यह पृथ्वी सदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। जैसे मैं सदा नहीं था, नहीं होऊंगा। वैसे यह पृथ्वी सदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। यह सूरज भी सदा नहीं था, सदा नहीं होगा। ये चांद तारे भी सदा नहीं थे, सदा नहीं होंगे। इनके होने और न होने का वर्तुल घूमता रहता है। उस विराट पहिए में हम भी किसी एक पहिए की धुरी पर न होने जैसे कही हैं, और हम सोचते हो कि हम अलग है तो हमारी स्थिति वैसी ही है जैसी कि मुल्लानसरुद्दीन की थी जबकि वह पहली ही बार हवाई जहाज में सवार हुआ था।

मुल्ला नसरुद्दीन एक हवाई जहाज में सवार हुआ। और जल्दी पहुंच जाए इसलिए हवाई जहाज के भीतर चलने लगा—जल्दी पहुंच जाने के खयाल से! स्वाभाविक तर्क है कि अगर जल्दी चलिएगा तो जल्दी पहुंच जाइएगा। यात्रियों ने उसे पकड़ा और कहा कि आप क्या कर रहे हैं, उसने कहा कि मै थोड़ा जल्दी में हूं। जमीन पर जो उसका तर्क था, वही उसका यहां भी था।

वह पहली ही बार हवाई जहाज में सवार हुआ था। जमीन पर वह जानता था कि जल्दी चलिए तो जल्दी पहुंच जाते हैं। हवाई जहाज पर भी वह जल्दी चल रहा था—इसका बिना खयाल किए कि उसका चलना अब असंगत है। अब तो हवाई जहाज चल ही रहा है। वह चलकर सिर्फ अपने को थका ले सकता है—जल्दी नहीं पहुंचेगा। यह हो सकता है कि पहुंचते—पहुंचते इतना थक जाए कि उठ भी न पाए। उसे विश्राम कर लेना चाहिए। उसे आँख बद करके लेट जाना चाहिए। लेकिन नहीं, नसरुद्दीन ऐसी बातों में आने वाला नहीं है और न ही हमारे अन्य बुद्धिमान ही आनेवाले हैं।

धार्मिक व्यक्ति मै उसे कहता हूं जो इस जगत की विराट गति के भीतर विश्राम को उपलब्ध है। जो जानता है कि विराट चल रहा है—जल्दी नहीं है। मेरी जल्दी से कुछ होगा नहीं। अगर मैं इस विराट की लयबद्धता में एक बना रहूं तो वही काफी है, वही आनंदपूर्ण है।

ज्योतिष पर इसीलिए आपसे मैंने इतनी बातें कही हैं कि यह खयाल में आ जाए तो ज्योतिष आपके लिए अध्यात्म का द्वार सिद्ध हो सकता है।

‘ज्योतिष अर्थात अध्यात्म’ :

(प्रश्रोत्तर चर्चा )बुडलैण्‍ड बम्बई

दिनांक 10 जुलाई 1971


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–11)

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मैं कौन हूं?—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

मैं कौन हूं?

से संकलित क्रांति—सूत्र

1966—67

एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर—दूर तक सन्नाटा था। फिर किसी के पैरो की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौटकर देखा, एक युवा साधु खडे थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे, तो देखा कि वे रो रहे है। आंखों से झर—झर आंसू गिर रहे है। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोडी देर तक उनके कन्धे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किन्तु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अन्तत: उन्होंने कहा, ‘मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं।’

मैं क्या कहता? उन्हें और निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूं। प्रेम को न खोजकर जो परमात्मा को खोजता है, वह भूल में ही पड़ जाता है।

प्रेम के मन्दिर को छोड्कर जो किसी और मन्दिर की खोज में जाता है, वह परमात्मा से और दूर ही निकल जाता है।

किन्‍तु यह सब तो मेरे मन में था। वैसे मुझे चुप देखकर उन्होंने फिर कहा. ‘कहिए—कुछ तो कहिए। मैं बड़ी आशा से आपके पास आया हूं। क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन नहीं करा सकते? ‘

फिर भी मैं क्या कहता? उन्हें और निकट लेकर उनकी आंसुओ से भरी आंखें चूम लीं। उन आसुंओं में बड़ी आकांक्षा थी, बड़ी अभीप्सा थी। निश्चय ही वे आंखें परमात्मा के दर्शन के लिए बड़ी आकुल थीं। लेकिन, परमात्‍मा क्या बाहर है कि उसके दर्शन किए जा सकें? परमात्मा इतना भी तो पराया नहीं है कि उसे देखा जा सके!

अन्ततः मैंने उनसे कहा— ‘जो तुम मुझसे पूछते हो, वही किसी ने श्री रमण से पूछा था। श्री रमण ने कहा था : ‘ईश्वर के दर्शन? नहीं, नहीं, दर्शन नहीं हो सकते। लेकिन चाहो तो स्वयं ईश्वर अवश्य हो सकते हो।’ यही मैं तुमसे कहता हूं। ईश्वर को पाने और जानने की खोज बिलकुल ही अर्थहीन है। जिसे खोया ही नहीं है, उसे पाओगे कैसे? और जो तुम स्वयं ही हो, उसे जानोगे कैसे? वस्तुत: जिसे हम देख सकते हैं, वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। दृश्य बन जाने के कारण ही वह हमसे बाहर और पर हो जाता है। परमात्मा है हमारा स्वरूप और इसलिए उसका दर्शन असंभव है। मित्र, परमात्मा के नाम से जो दर्शन होते हैं, वे हमारी ही कल्पनाएं है। मनुष्य का मन किसी भी कल्पना को आकार देने में समर्थ है। किन्तु इन कल्पनाओं में खो जाना सत्य से भटक जाना है।

यह घटना मुझे अनायास याद हो आई है क्योंकि आप भी तो ईश्वर के दर्शन करना चाहते हैं। उसी संबंध में कुछ कहूं इसलिए ही आप यहां एकत्र हुए हैं।

मैं स्वयं भी ऐसे ही खोजता था। फिर खोजते—खोजते, खोज की व्यर्थता शात हुई। ज्ञात हुआ कि जो खोज रहा है, जब मैं उसे ही नहीं जानता हूं तो इस अज्ञान में डूबे रहकर सत्य को कैसे जान सकूंगा?

सत्य को जानने के पूर्व स्वयं को जानना तो अनिवार्य ही है।

और स्वयं को जानते ही जाना जाता है कि अब कुछ और जानने को शेष नहीं है।

आत्मज्ञान की कुंजी के पाते ही सत्य का ताला खुल जाता है।

सत्य तो सब जगह है। समग्र सत्ता में वही है। किन्तु उस तक पहुंचने का निकटतम मार्ग स्वयं में ही है। स्वयं की सत्ता ही चूंकि स्वयं के सर्वाधिक निकट है, इसलिए उसमें खोजने से ही खोज होनी सम्भव है।

और जो स्वयं में ही खोजने मै असमर्थ है, जो निकट ही नहीं खोज पाता है तो दूर कैसे खोज पाएगा? दूर की खोज का विचार निकट की खोज से बचने का उपाय भी हो सकता है।

संसार की खोज चलती है ताकि स्वयं से बचा जा सके और फिर ईश्वर की खोज चलते लगती है। क्या स्वयं के अतिरिक्त शेष सब खोजें स्वयं से पलायन की ही विधियां नहीं है?

भीतर देखें। वहां क्या दिखता है? अंधकार, अकेलापन, रिक्तता? क्या इस अंधकार, इस अकेलेपन, इस रिक्तता से भागकर ही हम कहीं शरण लेने को नहीं भागते रहते हैं? किन्तु इस भांति के भगोड़ेपन से दुख के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगता है। स्वयं से भागे हुए के लिए विफलता ही भाग्य है। क्योंकि जो खोज स्वयं से पलायन है, वह कहीं भी नहीं ले जा सकती है।

और दो ही विकल्प हैं : स्वयं से भागो या स्वयं में जागो। भागने के लिए बाहर लक्ष्य होना चाहिए और जानने के लिए बाहर के सभी लक्ष्यों की सार्थकता का श्रम—भंग।

ईश्वर जब तक बाहर है, तब तक वह भी संसार है, वह भी माया है, वह भी मूर्च्छा है। उसका आविष्कार भी मनुष्य ने स्वयं से बचने और भागने के लिए ही किया है।

मित्र, इसलिए पहली बात तो मुझे यही कहनी है कि ईश्वर, सत्य, निर्वाण, मोक्ष—यह सब न खोजें। खोजें उसे जो सब खोज रहा है। उसकी खोज ही अन्‍ततः ईश्वर की, सत्य की और निर्वाण की खोज सिद्ध होती है।

आत्मानुसंधान के अतिरिक्त और कोई खोज धार्मिक खोज नहीं है।

लेकिन, ‘आत्म ज्ञान’, ‘आत्म दर्शन’, आदि शब्द बड़े भ्रामक हैं। क्योंकि, स्वयं का जान कैसे हो सकता है? ज्ञान के लिए द्वैत चाहिए, दुई चाहिए। जहां दो नहीं हैं, वहां ज्ञान कैसे होगा? दर्शन कैसे होगा? सतत् कैसे होगा? वस्तुत: ज्ञान, दर्शनादि सभी शब्द द्वैत के जगत के हैं। और जहां अद्वैत है, जहां एक ही है, वहां वे एकदम अर्थहीन हो जाते हों तो कोई आश्रर्य नहीं। मेरे देखे, ‘आत्म—दर्शन’ असम्भावना है, वह शब्द ही असंगत है।

मैं भी कहता हूं—स्वयं को जानी। सुकरात ने यही कहा है, बुद्ध और महावीर ने भी यही कहा है। क्राइस्ट और कृष्ण ने भी यही कहा है। फिर भी स्मरण रहे कि जो जाना जा सकता है, वह स्व कैसे होगा? वह तो पर ही हो सकता है। जानना तो पर का ही हो सकता है। स्व तो वह है जो जानता है। स्व अनिवार्यरूप से ताता है। उसे किसी भी उपाय से ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता। तो फिर उसका ज्ञान तो ज्ञेय का होता है। ताता का ज्ञान कैसे होगा? जहां ज्ञान है, वहां कोई जाता है, कुछ ज्ञेय है। वहां कुछ जाना जाता है और कोई जानता है। अब जाता को ही जानने की चेष्टा क्या आंख को उसी आंख से देखने के प्रयास की भांति नहीं है? क्या कुत्तों को स्वयं अपनी ही पूंछ को पकड़ने की असफल चेष्टा करते आपने कभी देखा है? वे जितनी तीव्रता से झपटते हैं, पूंछ उतनी ही शीघ्रता से हट जाती है। इस प्रयास में वे पागल भी हो जाएं तो भी क्या उन्हें पूंछ की प्राप्ति हो सकती है? किन्तु हो सकता है कि वे अपनी पूछ पकड़ लें, लेकिन स्वयं को ज्ञेय बनाना, तो सम्मव नहीं है।

मैं सबको जान सकता हूं लेकिन उसी भांति स्वयं को नहीं। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी सरल घटना कठिन और दुरूह बनी रहती है।

फिर, हम आत्मज्ञान का क्या अर्थ करें? निश्‍चय ही वह वही ज्ञान नहीं है, जिससे कि हम परिचित हैं। वह जाता—ज्ञेय का संबंध नहीं है। इसलिए चाहें तो उसे परम ज्ञान कहें, क्योंकि फिर और कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता है या चाहें तो परम अज्ञान, क्योंकि वहां जानने को ही कुछ नहीं होता है।

पदार्थ—ज्ञान विषय—विषयी का संबंध है, आत्मज्ञान विषय—विषयी का अभाव।

पदार्थ—ज्ञान में ज्ञाता है, और ज्ञेय है; आत्‍मज्ञान में न ज्ञेय है और न ताता। वहां तो मात्र ज्ञान है। वह शुद्ध जान है।

जगत की सारी वस्तुएं ज्ञेय की भांति जानी जाती हैं। असल में जो ज्ञेय है, जेय बनती है, वही है वस्तु—जो जानता है, जाता है, वही है अवस्तु। ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध है—पदार्थ—ज्ञान। किन्तु जहां न ज्ञेय है, न कोई ज्ञाता—क्योंकि जहां ज्ञेय नहीं, वहां ज्ञाता कैसे होगा? वहां जो शेष रह जाता है, जो ज्ञान शेष रह जाता है, वही है आत्मज्ञान?

ज्ञान की पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही है आत्मज्ञान।

और भी उचित है कि हम उसे ज्ञान ही कहें, क्योंकि वहां न कोई आत्म है और न अनात्म। बुद्ध ने ठीक ही किया कि उसे ‘आत्मा’ नहीं कहा। क्योंकि, उस शब्द में अहंता की ध्वनि है और जहां तक अहंता है, वहां तक आत्मा कहां?

इस ज्ञान को पाने की विधि क्या है, मार्ग क्या है, द्वार क्या है?

मैं एक घर में अतिथि था। उस घर में इतना सामान था कि हिलने—डुलने की भी जगह न थी। घर तो बड़ा था, किन्तु सामान की अधिकता से बिलकुल छोटा हो गया था। वस्तुत: वहां सामान ही सामान था और घर था नहीं, क्योंकि घर तो दीवारों से घिरे रिक्त स्थान का ही नाम है। दीवारें नहीं, वह रिक्त स्थान ही गृह है क्योंकि दीवारों में नहीं, रहना उस रिक्त स्थान में ही होता है। रात में गृहपति ने मुझसे कहा— ‘घर में जगह बिलकुल नहीं है, लेकिन जगह लाएं भी कहां से?’ उनकी बात सुन मैं हंसने लगा। मैंने फिर उनसे कहा— ‘रिक्त स्थान आपके घर में पर्याप्त है। वह यहीं है, और कहीं गया नहीं, केवल सामान से आपने उसे ढांक लिया है। कृपाकर सामान बाहर करें तो आप पाएंगे कि वह भीतर आ गया है। वह तो भीतर ही है, सामान के डर से दुबक गया है। सामान हटावें और वह अभी और यहीं है।’

आत्म—ज्ञान की विधि भी यही है।

मैं तो निरंतर हूं। सोते—जागते, उठते—बैठते, सुख में, दुख में—मैं तो हूं ही। ज्ञान हो, अज्ञान हो, मैं तो हूं ही। मेरा यह होना असंदिग्ध है। सब पर संदेह किया जा सके, लेकिन स्वयं पर तो संदेह नहीं किया जा सकता है। जैसा कि देकार्त ने कहा है— ‘संदेह भी करूं तो भी मैं हूं क्योंकि संदेह भी बिना उसके कौन करेगा? ‘ लेकिन, यह ‘मैं ‘ कौन हूं? यह ‘मैं ‘ क्या है? कैसे इसे जानूं? हूं सो तो ठीक लेकिन, क्या हूं? कौन हूं? मैं हूं यह असंदिग्ध है। और क्या यह भी असंदिग्ध नहीं है कि मैं जानता हूं—मुझमें ज्ञान है, चेतना है, दर्शन है?

यह हो सकता है कि जो जानूं, वह सत्य न हो, असत्य हो, स्‍वप्‍न हो, लेकिन मेरा जानना—जानने की क्षमता—तो सत्य है।

इन दो तथ्यों को देखें, विचार करें। मेरा होना—मेरा अस्तित्व और मेरी जानने की क्षमता—मुझमें ज्ञान का होना, इन दोनों के आधार पर ही मार्ग खोजा जा सकता है।

मैं हूं लेकिन ज्ञात नहीं कौन हूं? अब क्या करूं? ज्ञान जो कि क्षमता है, ज्ञान जो कि शक्ति है, उसमें झांकूं, और खोजूं। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प ही कहां है?

ज्ञान की शक्ति है, लेकिन वह ज्ञेय से—विषयों से—ढंकी है। एक विषय हटता है, तो दूसरा आ जाता है।

एक विचार जाता है तो दूसरे का आगमन हो जाता है। ज्ञान एक विषय से मुक्त होता है तो दूसरे से बंध जाता है, लेकिन रिक्त नहीं हो पाता। यदि ज्ञान विषय—रिक्त हो तो क्या हो? क्या उस अंतराल में, उस रिक्तता में, उस शून्यता में ज्ञान स्वयं में ही होने के कारण स्वयं की सत्ता का उद्घाटक नहीं बन जाएगा? क्या जब जानने को कोई विषय नहीं होगा तो ज्ञान स्वयं को ही नहीं जानेगा?

ज्ञान जहां विषय—रिक्त है, वहीं वह स्‍वप्‍नतिष्ठ होता है।

ज्ञान जहां ज्ञेय से मुक्त है, वहीं वह शुद्ध है। और वह शुद्धता—शून्यता—ही आत्मज्ञान है।

चेतना जहां निर्विषय है, निर्विचार है, निर्विकल्प है, वहीं जो अनुभूति है, वही स्वयं का साक्षात्कार है। किंतु यहां इस साक्षात्कार में न तो कोई ज्ञाता है, न ज्ञेय है। यह अनुभूति अभूतपूर्व है। उसके लिए शब्द असम्भव है।

लाओत्से ने कहा है— ‘सत्य के संबंध में जो भी कहो, वह कहने से ही असत्य हो जाता है।’

फिर भी सत्य के’ संबंध में जितना कहा गया है, उतना किस संबंध में कहा गया है? अनिर्वचनीय उसे कहें, तो भी कुछ कहते ही हैं? उसके संबंध में मौन रहें तो भी कुछ कहते ही है?

ज्ञान है शब्दातीत। किन्तु प्रेम उसके आनन्द की, उसके आलोक की, उसकी मुक्ति की खबर देना चाहता है, फिर चाहे वे इंगित कितने ही अधूरे हों और कितने ही असफल वे इशारे हों। गूंगा भी गुड़ के संबंध में कुछ कहता है? वह चाहे कुछ भी न कह पाता हो लेकिन गुड़ कहना चाहता है, यह तो कह ही देता है।

किन्तु सत्य के संबंध में किए गए अधूरे इंगितों को पकड़ लेने से बडी भ्रांति हो जाती है। आत्मज्ञान की खोज में जो व्यक्ति आत्मा को एक ज्ञेय पदार्थ की भांति खोजने निकल पड़ता है, वह प्रथम चरण में ही गलत दिशा में चल पड़ता है।

आत्मा ज्ञेय नहीं है और न ही उसे किसी आकांक्षा का लक्ष्य ही बनाया जा सकता है, क्योंकि वह विषय भी नहीं है।

वस्तुत: उसे खोजा भी नहीं जा सकता क्योंकि यह खोजनेवाले का ही स्वरूप है। उस खोज में खोज और खोजी भिन्न नहीं है। इसलिए आत्मा को केवल वे ही खोज पाते है, जो सब खोज छोड़ देते है और वे ही जान पाते हैं जो सब जानने से शून्य हो जाते हैं।

खोज कों—स्ब भांति की खोज को—छोड़ते ही चेतना वहां पहुंच जाती है, जहां वह सदा से ही है। समाधि के बाद तथागत बुद्ध से किसी ने पूछा— ‘समाधि से आपको क्या मिला?’ तो बुद्ध ने कहा था— ‘कुछ भी नहीं। खोया बहुत कुछ, पाया कुछ भी नहीं। वासना खोई, विचार खोए, सब भांति की दौड़ और तृष्णा खोई और पाया वह जो सदा से ही पाया हुआ है।’

मैं जिसे नहीं खौ सकता हूं वही तो है स्वरूप। मैं जिसे नहीं खो सकता हूं वही तो है परमात्मा।

और सत्य क्या है? जो सदा है, सनातन है, वही तो है सत्य। इस सत्य को, इस स्वरूप को पाने के लिए चेतना से उस सबको खोना आवश्यक है जो कि सत्य नहीं है। जिसे खोया जा सकता है, उस सबको खोकर ही वह जान लिया जाता है, जो सत्य है। रूप खोते ही सत्य उपलब्ध है।

मित्र, मैं पुन: दोहराता हूं—स्‍वप्‍न खोते ही सत्य उपलब्ध है। स्‍वप्‍न जहां नहीं है, तब जो शेष है, वही है स्‍व—सत्ता, वही है सत्य, वही है स्वतन्त्रता।

‘मैं कौन हूं’

से संकलित क्रांति?सूत्र 1966—67


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–12)

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धर्म क्‍या है?—(प्रवचन—बारहवां)

‘मैं कौन हूं’

से संकलित क्रांति?सूत्र 1966—67

मैं धर्म पर क्या कहूं? जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो हैं, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां हैं। शब्द सत्य की ओर जाने के भले ही संकेत हों, पर वे सत्य नहीं है। शब्दों से संप्रदाय बनते हैं, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें हैं।

मनुष्य और मनुष्य के बीच शब्द की दीवारें हैं। मनुष्य और सत्य के बीच भी शब्द की ही दीवार है। असल में जो सत्य से दूर किए हुए है, वही उसे सबसे दूर किए हुए है। शब्दों का एक मंत्र घेरा है और हम सब उसमें सम्मोहित हैं। शब्द हमारी निद्रा है, और शब्द के सम्मोहक अनुसरण में हम अपने आपसे बहुत दूर निकल गए है।

स्वयं से जो दूर और स्वयं से जो अपरिचित है वह सत्य से निकट और सत्य से परिचित नहीं हो सकता है। यह इसलिए कि स्वयं का सत्य ही सबसे निकट का सत्य है, शेष सब दूर है। बस स्वयं ही दूर नहीं है। शब्द स्वयं को नहीं जानने देते हैं। उनकी तरंगों में वह सागर छिप ही जाता है। शब्दों का कोलाहल उस संगीत को अपने तक नहीं पहुंचने देता जो कि मैं हूं। शब्द का धुंआ सत्य की अग्‍नि प्रकट नहीं होने देता है, और हम अपने वस्त्रों को ही जानते—जानते मिट जाते हैं और उसे नहीं मिल पाते जिसके वस्त्र थे, और जो वस्त्रों में था, लेकिन केवल वस्त्र ही नहीं था।

मै भीतर देखता हूं। वहां शब्द ही शब्द दिखाई देते हैं। विचार, स्मृतियां, कल्पनाएं और स्‍वप्‍न, ये सब शब्द ही हैं, और मैं शब्द के पर्त—पर्त घेरों में बंधा हूं। क्या मैं इन विचारों पर ही समाप्त हूं याकि इनसे भिन्न और अतीत भी मुझमें कुछ है? इस प्रश्‍न के उत्तर पर ही सब कुछ निर्भर है। उत्तर विचार से आया तो मनुष्य धर्म तक नहीं पहुंच पाता, क्योंकि विचार, विचार से अतीत को नहीं जान सकता। विचार की सीमा विचार है। उसके पार की गंध भी उसे नहीं मिल सकती है।

साधारणत: लोग विचार से ही वापिस लौट आते हैं। वह अदृश्य दीवार उन्हें वापिस कर देती है। जैसे कोई कुआं खोदने जाए और कंकड़—पत्थर को पाकर निराश हो रुक जाए, वैसा ही स्वयं की खुदाई में भी हो जाता है। शब्दों के कंकड़—पत्थर ही पहले मिलते हैं और यह स्वाभाविक ही है। वे ही हमारी बाहरी पर्त हैं। जीवन—यात्रा में उनकी ही धूल हमारा आवरण बन गई है।

आत्मा को पाने को सब आवरण चीर देने जरूरी हैं। वस्त्रों के पार जो नग्‍न सत्य है, उस पर ही रुकना है। शब्द को उस समय तक खोदे चलना है, जब तक कि निःशब्द का जलस्रोत उपलब्ध नहीं हो जाए। विचार की धूल को हटाना है, जब तक कि मौन का दर्पण हाथ न आ जाए। यह खुदाई कठिन है। यह वस्त्रों को उतारना ही नहीं है, अपनी चमड़ी को उतारना है। यही तप है।

प्याज को छीलते हुए देखा है? ऐसा ही अपने को छीलना है। प्याज में तो अंत में कुछ भी नहीं बचता है, अपने में सब कुछ बच रहता है। सब छीलने पर जो बच रहता है, वही वास्तविक है। वही मेरी प्रामाणिक सत्ता है। वह मेरी आत्मा है।

एक—एक विचार को उठाकर दूर रखते जाना है, और जानना है कि यह मैं नहीं हूं और इस भांति गहरे प्रवेश करना है। शुभ या अशुभ को नहीं चुनना है। वैसा चुनाव वैचारिक ही है, और विचार के पार नहीं ले जाता। यहीं नीति और धर्म अलग रास्तों के लिए हो जाते हैं। नीति अशुभ विचारों के विरोध में शुभ विचारों का चुनाव है। धर्म चुनाव नहीं है। वह तो उसे जानना है, जो सब चुनाव करता है, और सब चुनावों के पीछे है। यह जानना भी हो सकता है, जब चुनाव का सब चुनाव शून्य हो और केवल वही शेष रह जाए तो हमारा चुनाव नहीं है वरन हम स्वयं हैं।

विचार के तटस्थ, चुनाव शून्य निरीक्षण से विचार शून्यता आती है। विचार तो नहीं रह जाते, केवल विवेक रह जाता है। विषय—वस्तु तो नहीं होती, केवल चैतन्य मात्र रह जाता है। इसी क्षण में प्रसुप्त प्रज्ञा का विस्फोट होता है, और धर्म के द्वार खुल जाते हैं। एऐंइऐ

इसी उद्घाटन के लिए मैं सबको आमंत्रित करता हूं। शास्त्र जो तुम्हें नहीं दे सकते, वह स्वयं तुम्हीं में है, और तुम्हें जो कोई भी नहीं दे सकता, उसे तुम अभी और इसी क्षण पा सकते हो। केवल शब्द को छोड़ते ही सत्य उपलब्ध होता है।

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–13)

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विज्ञान की अग्‍नि में धर्म और विश्वास—(प्रवचन—तेहरवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

मैं स्मरण करता हूं मनुष्य के इतिहास की सबसे पहली घटना को। कहा जाता है कि जब आदम और ईव स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाले गए तो आदम ने द्वार से निकलते हुए जो सबसे पहले शब्द ईव से कहे थे, वे थे— ‘हम एक बहुत बड़ी क्रांति से गुजर रहे हैं।’ पता नहीं पहले आदमी ने कभी यह कहा था या नहीं, लेकिन न भी कहा हो तो भी उसके मन में तो ये भाव रहे ही होंगे। एक बिलकुल ही अज्ञात जगत में वह प्रवेश कर रहा था। जो परिचित था वह छूट रहा था, और जो बिलकुल ही परिचित नहीं था, उस अनजाने और अजनबी जगत में उसे जाना पड रहा था। अशांत सागर में नौका खोलते समय ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। ये भाव प्रत्येक युग में आदमी को अनुभव होते रहे हैं, क्योंकि जीवन का विकास तो निरंतर अज्ञात से अज्ञात में ही है।

जो ज्ञात हो जाता है उसे छोड़ना पड़ता है, ताकि जो अज्ञात है वह भी ज्ञात हो सके। जात की ज्योति, ज्ञात से अज्ञात में चरण रखने के साहस से ही प्रज्वलित और परिवर्तित होती है। जो ज्ञात पर रुक जाता है, वह अज्ञात पर ही रुक जाता है। ज्ञात पर रुक जाना ज्ञात की दिशा नहीं है। जब तक मनुष्य पूर्ण नहीं हो जाता है तब तक निरंतर ही पुराने और परिचित को बिदा देनी होगी और नये तथा अपरिचित का स्वागत करना होगा। नये सूर्य के उदय के लिए रोज ही परिचित पुराने सूर्य को बिदा दे देनी होती है। फिर संक्रमण की बेला में रात्रि के अधंकार से भी गुजरना होता है। विकास की यह प्रक्रिया निश्चिय यही बहुत कष्ट प्रद है। लेकिन बिना प्रसव—पीड़ा के कोई जन्म भी तो नहीं होता है।

हम भी इस प्रसव—पीड़ा से गुजर रहे हैं। हम भी एक अभूतपूर्व क्रांति से गुजर रहे हैं। शायद मानवीय चेतना में इतनी आमूल क्रांति का कोई समय भी नहीं आया था। थोड़े—बहुत अर्थों में तो परिवर्तन सदैव होता रहता है, क्योंकि परिवर्तन के अभाव में कोई जीवन ही नहीं है। लेकिन परिवर्तन की सतत प्रक्रिया कभी—कभी वाष्पीकरण के उत्ताप—बिंदु पर भी पहुंच जाती है और तब आमूल क्रांति घटित हो जाती है। वह बीसवीं सदी एक ऐसे ही उत्ताप बिंदु पर मनुष्य को ले आई है। इस क्रांति से उसकी चेतना एक बिलकुल ही नए आयाम में गतिमय होने को तैयार हो रही है।

हमारी यात्रा अब एक बहुत ही अज्ञात मार्ग पर होनी संभावित है। जो भी ज्ञात है, वह छूट रहा है और जो भी परिचित और जाना—माना है, वह विलीन होता जाता है। सदा से चले आते जीवन—मूल्य खंडित हो रहे है और परंपरा की कड़ियां टूट रही हैं। निश्‍चित ही यह किसी बहुत बड़ी छलांग की पूर्व तैयारी है। अतीत की भूमि से उखड़ रही हमारी जड़ें किसी नई भूमि में स्थानांतरित होना चाहती हैं और परंपराओं के गिरते हुए पुराने भवन किन्हीं नये भवनों के लिए स्थान खाली कर रहे हैं?

इन सब में मैं मनुष्य को जीवन के बिलकुल ही अज्ञात रहस्य—द्वारों पर चोट करते देख रहा हूं। परिचित और चक्रीय गति से बहुत चले हुए मार्ग उजाड़ हो गए हैं और भविष्य के अत्यंत अपरिचित और अंधकारपूर्ण मार्गों को प्रकाशित करने की चेष्टा चल रही है। यह बहुत शुभ है, और मैं बहुत आशा से भरा हुआ हूं। क्योंकि यह सब चेष्टा इस बात का सुसमाचार है कि मनुष्य की चेतना कोई नया आरोहण करना चाहती है। हम विकास के किसी सोपान के निकट है। मनुष्य अब वही नहीं रहेगा जो वह था। कुछ होने को है, कुछ नया होने को है।’ जिनके पास दूर देखने वाली आंखें हैं वे देख सकते हैं, और जिनके पास दूर को सुननेवाले कान हैं वे सुन सकते हैं। बीज जब टूटता है और अपने अंकुर को सूर्य की तलाश में भूमि के ऊपर भेजता है तो जैसी उथल—पुथल उसके भीतर होती है, वैसे ही उथल—पुथल का सामना हम भी कर रहे हैं। इसमें घबराने और चिंतित होने का कोई भी कारण नहीं है। यह अराजकता संक्रमणकालीन है।

इसके भय से पीछे लौटने की वृत्ति आत्मघाती है। फिर पीछे लौटना तो कभी संभव नही है। जीवन आगे की ओर ही जाता है। जैसे सुबह होने के पूर्व अंधकार और भी घना हो जाता है, ऐसे ही नये के जन्म के पूर्व अराजकता की पीड़ा भी बहुत सघन हो जाती है।

हमारी चेतना में हो रही इस सारी उथल—पुथल, अराजकता, क्रांति और नये के जन्म की संभावना का केंद्र और आधार विज्ञान है। विज्ञान के आलोक ने हमारी आंखें खोल दी हैं और हमारी नींद तोड़ दी है। उसने ही हमसे हमारे बहुत से दीर्घ पोषित स्‍वप्‍न छीन लिए हैं और बहुत से वस्त्र भी और हमारे स्वयं के समक्ष ही नग्‍न खड़ा कर दिया है, जैसे किसी ने हमें झंकझोर कर अर्धरात्रि में जगा दिया हो। ऐसा ही विज्ञान ने हमें जगा दिया

विज्ञान ने मनुष्य का बचपन छीन लिया है और उसे प्रौढ़ता दे दी है। उसकी ही खोजों और निष्पत्तियों ने हमें हमारी परम्परागत और रूढ़िबद्ध चिन्तना से मुक्त कर दिया है, जो वस्तुत: चिन्तना नहीं, मात्र चिन्तन का मिथ्या आभास ही थी; क्योंकि जो विचार स्वतंत्र न हो वह विचार ही नहीं होता है। सदियों—सदियों से जो अन्धविश्वास मकड़ी के जालों की भांति हमें घेरे हुए थे, उसने उन्हें तोड़ दिया है, और यह सम्भव हो सका है कि मनुष्य का मन विश्वास की कारा से मुक्त होकर विवेक की ओर अग्रसर हो सके

कल तक के इतिहास को हम विश्वास—काल कह सकते हैं। आनेवाला समय विवेक का होगा। विश्वास से विवेक में आरोहण ही विज्ञान की सबसे बड़ी देन है। यह विश्वास का परिवर्तन मात्र ही नहीं है, वरन विश्वास से मुक्ति है। श्रद्धाएं तो सदा बदलती रहती हैं। पुराने विश्वासों की जगह नये विश्वास जन्म लेते रहे हैं। लेकिन आज जो विज्ञान के द्वारा संभव हुआ है, वह बहुत अभिनव है। पुराने विश्वास चले गए हैं और नयों का आगमन नहीं हुआ है। पुरानी श्रद्धाएं मर गई हैं, और नई श्रद्धाओं का आविर्भाव नहीं हुआ है। यह रिक्तता अभूतपूर्व

श्रद्धा बदली नहीं, शून्य हो गई है। श्रद्धा—शून्य तथा विश्वास—शून्य चेतना का जन्म हुआ है। विश्वास बदल जाएं तो कोई मौलिक भेद नहीं पड़ता है। एक की जगह दूसरे आ जाते हैं। अर्थी को ले जाते समय जैसे लोग कंधा बदल लेते हैं, वैसा ही यह परिवर्तन है। विश्वास की वृत्ति तो बनी ही रहती है। जबकि विश्वास की विषय—वस्तु नहीं, विश्वास की वृत्ति ही असली बात है। विज्ञान ने विश्वास को नहीं बदला है, उसने तो उसकी वृत्ति को ही तोड़ डाला है।

विश्वास—वृत्ति ही अंधानुगमन में ले जाती है और वही पक्षपातों के चित्त को बांधती है। जो चित्त पक्षपातों से बंधा हो, वह सत्य को नहीं जान सकता है। जानने के लिए निष्पक्ष होना आवश्यक है।

जो कुछ भी मान लेता है, वह सत्य को जानने से वंचित हो जाता है। वह मानना ही उसका बंधन बन जाता है, जबकि सत्य के साक्षात के लिए चेतना का मुक्त होना आवश्यक है। विश्वास नहीं, विवेक ही सत्य के द्वार तक ले जाने में समर्थ है और विवेक के जागरण में विश्वास से बड़ी और कोई बाधा नहीं है।

यह स्मरणीय है कि जो व्यक्ति विश्वास कर लेता है, वह कभी खोजता नहीं। खोज तो संदेह से होती है, श्रद्धा से नहीं। समस्त ज्ञान का जन्म संदेह से होता है। संदेह का अर्थ अविश्वास नहीं है। अविश्वास तो विश्वास का ही निषेधात्मक रूप है। खोज न तो विश्वास से होती है, न अंधविश्वास से। उसके लिए तो संदेह की स्वतंत्र चित्त—दशा चाहिए। संदेह केवल सत्य की खोज का पथ प्रशस्त करता है।

विज्ञान ने जो तथाकथित ज्ञान प्रचलित और स्वीकृत था, उस पर संदेह किया और संदेह ने अनुसंधान के द्वार खोल दिए। संदेह जैसे—जैसे विश्वासों या अंधविश्वासों से मुक्त हुआ, वैसे—वैसे विज्ञान के चरण सत्य की ओर बढ़े। विज्ञान का न तो किसी पर विश्वास है न अविश्वास, वह तो पक्षपातशून्य अनुसंधान है।

प्रयोग—जन्य ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी मानने की वहां तैयारी नहीं। वह न तो आस्तिक है, न नास्तिक। उसकी कोई पूर्व मान्यता नहीं है। वह कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहता है। सिद्ध करने के लिए उसकी अपनी कोई धारणा नहीं है। वह तो जो सत्य है, उसे ही जानना चाहता है। यही कारण है कि विज्ञान के पंथ और संप्रदाय नहीं बने और उसकी निथत्तियां सार्वलौकिक हो सकीं।

जहां पूर्वधारणाओं और पूर्वपक्षपातों से प्रारंभ होगा वहां अंततः सत्य नहीं, संप्रदाय ही हाथ में रह जाते हैं। अज्ञान और अंधेपन में स्वीकृत कोई भी धारणा सार्वलौकिक नहीं हो सकती। सार्वलौकिक तो केवल सत्य हो सकता है।

यही कारण है कि जहां विज्ञान एक है, वहां तथाकथित धर्म अनेक और परस्पर विरोधी हैं। धर्म भी जिस दिन विश्वासों पर नहीं, शुद्ध विवेक पर आधारित होगा, उस दिन अपरिहार्य रूप से एक ही हो जाएगा। विश्वास अनेक हो सकते हैं, पर विवेक एक ही है। असत्य अनेक हो सकते हैं, पर सत्य एक ही है।

धर्म का प्राण श्रद्धा थी। श्रद्धा का अर्थ है बिना जाने मान लेना। श्रद्धा नहीं तो धर्म भी नहीं। श्रद्धा के हाथ ही उसकी छाया की भांति तथाकथित धर्म भी चला गया।

धर्म विरोधी नास्तिकता का प्राण अश्रद्धा थी। अश्रद्धा का अर्थ है—बिना जाने अस्वीकार कर देना। वह श्रद्धा के ही सिक्के का दूसरा पहलू है। श्रद्धा गई तो वह भी गई। आस्तिकता—नास्तिकता दोनों ही मृत हो गई हैं। उन दो द्वंद्वों, दो अतियों के बीच ही सदा से हम डोलते रहे हैं।

विज्ञान ने एक तीसरा विकल्प दिया है। यह संभव हुआ है कि कोई व्यक्ति आस्तिक—नास्तिक दोनों ही न हो और वह स्वयं को किन्हीं भी विश्वासों से न बांधे। जीवन—सत्य के संबंध में वह परंपरा और प्रचार से अवचेतन में डाली गई धारणाओं से अपने आप को मुक्त कर ले। समाज और संप्रदाय प्रत्येक के चित्त की गहरी पर्तों में अत्यंत अबोध अवस्था में ही अपनी स्वीकृत मान्यताओं को प्रवेश कराने लगते हैं।

हिंदू जैन, बौद्ध, ईसाई या मुसलमान अपनी—अपनी मान्यताओं और विश्वासों को बच्चों के मन में डाल देते हैं। निरंतर पुनरुक्ति और प्रचार से वे चित्त की अवचेतन पर्तों में बद्धमूल हो जाती हैं और वैसा व्यक्ति फिर स्वतंत्र चिंतन के लिए करीब—करीब पंगु—सा हो जाता है। यही कमुनिज्य या नास्तिक धर्म कर रहा है।

व्यक्तियों के साथ उनकी अबोध अवस्था में किया गया यह अनाचार मनुष्य के विपरीत किए जानेवाले बड़े से बड़े पापों में से एक है। चित्त इस भांति परतंत्र और विश्वासों के ढांचे में कैद हो जाता है। फिर उसकी गति पटरियों पर दौड़ते वाहनों की भांति हो जाती है। पटरियां जहां से ले जाती हैं, वहीं वह जाता है, और उसे यही भ्रम होता है कि मैं जा रहा हूं।

दूसरों से मिले विश्वास ही उसके विचारों में प्रकट या प्रच्छन्न होते हैं, लेकिन धम उसे यही कहता है कि ये विचार मेरे हैं। विश्वास यांत्रिकता को जन्म देता है और चेतना के विकास के लिए यांत्रिकता से घातक और क्या हो सकता है?

विश्वासों से पैदा हुई मानसिक गुलामी और जड़ता के कारण व्यक्ति की गति कोलू के बैल की—सी हो जाती है। वह विश्वासों की परिधि में ही घूमता रहता है और विचार कभी नहीं कर पाता।

विचार के लिए स्वतंत्रता चाहिए। चित्त की पूर्ण स्वतंत्रता में ही प्रसुप्त विचार—शक्ति का जागरण होता है और विचार—शक्ति का पूर्ण आविर्भाव ही सत्य तक ले जाता है।

विज्ञान ने मनुष्य की विश्वास—वृत्ति पर प्रहार कर बड़ा ही उपकार किया है। इस भांति उसने मानसिक स्वतंत्रता के आधार भर रख दिए हैं। इससे धर्म का भी एक नया जन्म होगा।

धर्म अब विश्वास पर नहीं, विवेक पर आधारित होगा। श्रद्धा नहीं, ज्ञान ही उसका प्राण होगा। धर्म भी अब वस्तुत: विज्ञान ही होगा। विज्ञान पदार्थों का विज्ञान है। धर्म चेतना का विज्ञान होगा। वस्तुत: सम्यक धर्म तो सदा से ही विज्ञान रहा है।

महावीर, बुद्ध, ईसा, पतंजलि या लाओत्से की अनुभूतियां विश्वास पर नहीं, विवेकपूर्ण आत्‍मप्रयोगों पर ही निर्भर थीं। उन्होंने जो जाना था, उसे ही माना था। मानना प्रथम नहीं, अंतिम था। श्रद्धा आधार नहीं, शिखर थी। आधार तो ज्ञान था। जिन सत्यों की उन्होंने बात की है, वे मात्र उनकी धारणाएं नहीं हैं, वरन स्वानुभूति प्रत्यक्ष हैं। उनकी अनुभूतियों में भेद भी नहीं है। उनके शब्द भिन्न हैं, लेकिन सत्य भिन्न नहीं।

सत्य तो भिन्न—भिन्न हो भी नहीं सकते। लेकिन ऐसा वैज्ञानिक धर्म कुछ अति—मानवीय चेतनाओं तक ही सीमित रहा है। वह लोक धर्म नहीं बना। लोक धर्म तो अंधविश्वास ही बना रहा है। विज्ञान की चोटें अंधविश्वास पर आधारित धर्म को निआण किए दे रही हैं। यह वास्तविक धर्म के हित में ही है। विवेक की कोई भी विजय अंतत: वास्तविक धर्म के विरोध में नहीं हो सकती। विज्ञान की अग्‍नि में अंधविश्वासों का कूड़ा—कचरा ही जल जायेगा, धर्म और भी निखरकर प्रकट होगा।

धर्म का स्वर्ण विज्ञान की अग्‍नि में शुद्ध हो रहा है, और धर्म जब अपनी पूरी शुद्धि में प्रकट होगा तो मनुष्य के चेतना—जगत में एक अत्यंत सौभाग्यपूर्ण सूर्योदय हो जाएगा। प्रज्ञा और विवेक पर आरूढ़ धर्म निश्‍चय ही मनुष्य को अतिमानवीय चेतना में प्रवेश दिला सकता है। उसके अतिरिक्त मनुष्य की चेतना स्वयं का अतिक्रमण नहीं कर सकती, और जब मनुष्य स्वयं का अतिक्रमण करता है तो प्रभु से एक हो जाता है।

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–14)

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मनुष्य का विज्ञान—(प्रवचन—चौदहवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

मैं सुनता हूं कि मनुष्य का मार्ग खो गया है। यह सत्य है। मनुष्य का मार्ग उसी दिन खो गया, जिस दिन उसने स्वयं को खोजने से भी ज्यादा मूल्यवान किन्हीं और खोजों को मान लिया।

मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सार्थक वस्तु मनुष्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। उसकी पहली खोज वह स्वयं ही हो सकता है। खुद को जाने बिना उसका सारा जानना अन्तत: घातक ही होगा।

अज्ञान के हाथों में कोई भी ज्ञान सृजनात्मक नहीं हो सकता, और ज्ञान के हाथों में अज्ञान भी सृजनात्मक हो जाता है।

मनुष्य यदि स्वयं को जाने और जीते, तो उसकी शेष सब जीते उसकी और उसके जीवन की सहयोगी होंगी। अन्यथा वह अपने ही हाथों अपनी कब्र के लिए गड्डा खोदेगा।

हम ऐसा ही गड्डा खोदने में लगे हैं। हमारा ही श्रम हमारी मृत्यु बनकर खड़ा हो गया है। पिछली सभ्यताएं बाहर के आक्रमणों और संकटों से नष्ट हुई थीं। हमारी सभ्यता पर बाहर से नहीं, भीतर से संकट है। बीसवीं सदी का यह समाज यदि नष्ट हुआ तो उसे आत्मघात कहना होगा और यह हमें ही कहना होगा क्योंकि बाद में कहने को कोई भी बचने को नहीं है।

संभाव्य युद्ध इतिहास में कभी नहीं लिखा जाएगा। यह घटना इतिहास के बाहर घटेगी, क्योंकि उसमें तो समस्त मानवता का अन्त होगा। पहले के लोगों ने इतिहास बनाया, हम इतिहास मिटाने को तैयार हैं।

और इस आत्मघाती सम्भावना का कारण एक ही है। वह है, मनुष्य का मनुष्य को ठीक से न जानना। पदार्थ की अनन्त शक्ति से हम परिचित हैं—परिचित ही नहीं, उसके हम विजेता भी है। पर मानवीय हृदय की गहराइयों का हमें कोई पता नहीं। उन गहराइयों में छिपे विष और अमृत का भी कोई ज्ञान नहीं है।

पदार्थाणु को हम जानते है, पर आत्माणु को नहीं। यही हमारी विडम्बना है। ऐसे शक्ति तो आ गई है, पर शान्ति नहीं। अशान्त और अप्रबुद्ध हाथों से आई हुई शक्ति से ही यह सारा उपद्रव है। अशांत और अप्रबुद्ध का शक्तिहीन होना ही शुभ होता है। शक्ति सदा शुभ नहीं। वह तो शुभ हाथों में ही शुभ होती है।

हम शक्ति को खोजते रहे, यही हमारी भूल हुई। अब अपनी ही उपलब्धि से खतरा है। सारे विश्व के विचारकों और वैज्ञानिकों को आगे स्मरण रखना चाहिए कि उनकी खोज मात्र शक्ति के स्तइए न हो। उस तरह की अंधी खोज ने ही हमें इस अंत पर लाकर खड़ा किया है।

शक्ति नहीं, शान्ति लक्ष्य बने। स्वभावत: यदि शान्ति लक्ष्य होगी, तो खोज का केन्द्र प्रकृति नहीं, मनुष्य होगा। जड़ की बहुत खोज और शोध हुई। अब मनुष्य का और मन का अन्वेषण करना होगा। विजय की पताकाएं पदार्थ पर नहीं, स्वयं पर गाड़नी होंगी।

भविष्य का विज्ञान पदार्थ का नहीं, मूलत: मनुष्य का विज्ञान होगा। समय आ गया है कि यह परिवर्तन हो। अब इस दिशा में और देर करनी ठीक नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि फिर कुछ करने को समय भी शेष न बचे।

जड़ की खोज में जो वैज्ञानिक आज भी लगे हैं, वे दकियानूसी है, और उनके मस्तिष्क विज्ञान के आलोक से नहीं, परम्परा और रूढ़ि के अंधकार में ही डूबे कहे जावेंगे। जिन्हें थोड़ा भी बोध है और जागरूकता है, उनके अन्वेषण की दिशा आमूल बदल जानी चाहिए। हमारी सारी शोध मनुष्य को जानने में लगे, तो कोई भी कारण नहीं है कि जो शक्ति पदार्थ और प्रकृति को जानने और जीतने में इतने अभूतपूर्व रूप से सफल हुई है, वह मनुष्य को जानने में सफल न हो सके। मनुष्य भी निश्‍चय ही जाना, जीता और परिवर्तित किया जा सकता

मैं निराश होने का कोई भी कारण नहीं देखता। हम स्वयं को जान सकते हैं और स्वयं के ज्ञान पर हमारे जीवन और अन्तःकरण के बिलकुल ही नये आधार रखे जा सकते है। एक बिलकुल ही अभिनव मनुष्य को जन्म दिया जा सकता है। अतीत में विभिन्न धर्मों ने इस दिशा में बहुत काम किया है, लेकिन वह कार्य अपनी पूर्णता और समग्रता के लिए विज्ञान की प्रतीक्षा कर रहा है। धर्मों ने जिसका प्रारंभ किया है, विज्ञान उसे पूर्णता तक ले जा सकता है। धर्मों ने जिसके बीज बोए हैं, विज्ञान उसकी फसल काट सकता है।

पदार्थ के संबंध में विज्ञान और धर्म के रास्ते विरोध में पड़ गए थे, उसका कारण दकियानूसी धार्मिक लोग थे। वस्तुत: धर्म पदार्थ के संबंध में कुछ भी कहने का हकदार नहीं था। वह उसकी खोज की दिशा ही नहीं थी। विज्ञान उस संघर्ष में विजय हो गया, यह अच्छा हुआ। लेकिन इस विजय से यह न समझा जाए कि धर्म के पास कुछ कहने को नहीं है। धर्म के पास कुछ कहने को है और बहुत मूल्यवान सम्पत्ति है। यदि उस सम्पति से लाभ नहीं उठाया गया तो उसका कारण रूढ़िग्रस्त पुराणपंथी वैज्ञानिक होंगे। एक दिन एक दिशा में धर्म विज्ञान के समक्ष हार गया था। अब समय है कि उसे दूसरी दिशा में विजय मिले और धर्म और विज्ञान सम्मिलित हों। उनकी संयुक्त साधना ही मनुष्य को उसके स्वयं के हाथों से बचाने में समर्थ हो सकती है।

पदार्थ को जानकर जो मिला है, आत्मज्ञान से जो मिलेगा, उसके समक्ष वह कुछ भी नहीं है। धर्मों ने वह सम्भावना बहुत थोड़े लोगों के लिए खोली है। वैज्ञानिक होकर वह द्वार सबके लिए खुल सकेगा। धर्म विज्ञान बनै और विज्ञान धर्म बने, इसमें ही मनुष्य का भविष्य और हित है।

मानवीय चित्त में अनन्त शक्तियां हैं और जितना उनका विकास हुआ है, उससे बहुत ज्यादा विकास की प्रसुप्त सम्भावनाएं हैं। इन शक्तियों की अवस्था और अराजकता ही हमारे दुख के कारण हैं, और जब व्यक्ति का चित्त अव्यस्थित और अराजक होता है तो वह अराजकता समष्टि चित्त तक पहुंचते ही अनन्तगुणा हो जाती है।

समाज व्यक्तियों के गुणनफल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह हमारे अंतर्सम्बन्धों का ही फैलाव है। व्यक्‍ति ही फैलकर समाज बन जाता है। इसलिए स्मरण रहे कि जो व्यक्ति में घटित होता है, उसका ही वृहत रूप समाज में प्रतिध्वनित होगा। सारे युद्ध मनुष्य के मन में लड़े गए हैं और सारी विकृतियों की मूल जड़ें मन में ही हैं।

समाज को बदलना है तो मनुष्य को बदलना होगा; और समष्टि के नये आधार रखने हैं, तो व्यक्ति को नया जीवन देना होगा।

मनुष्य के भीतर विष और अमृत दोनों हैं। शक्तियों की अराजकता ही विष है और शक्तियों का संयम, सामंजस्य और संगीत ही अमृत है।

जीवन जिस विधि से सौन्दर्य और संगीत बन जाता है, उसे ही मैं योग कहता हूं।

जो विचार, जो भाव और जो कर्म मेरे अंत: संगीत के विपरीत जाते हों, वे ही पाप हैं, और जो उसे पैदा और समृद्ध करते हों, उन्हें ही मैंने पुण्य जाना है। चित्त की वह अवस्था जहां संगीत शून्य हो जाय और सभी पूर्ण अराजक हों, नर्क है और वह अवस्था स्वर्ग है, जहां संगीत पूर्ण हो।

भीतर जब संगीत पूर्ण होता है तो ऊपर से पूर्ण का संगीत अवतरित होने लगता है। व्यक्ति जब संगीत हो जाता है, तो समस्त विश्व का संगीत उसकी ओर प्रवाहित होने लगता है।

संगीत से भर जाओ तो संगीत आकृष्ट होता है; विसंगीत विसंगति को आमंत्रित करेगा। हम में जो होता है, वही हम में आने भी लगता है, उसकी संग्राहकता और संवेदनशीलता हम में होती है।

उस विज्ञान को हमें निर्मित करना है, जो व्यक्ति के अंतर्जीवन को स्वास्थ्य और संगीत दे सके। यह किसी और प्रभु के राज्य के लिए नहीं वरन इसी जगत और पृथ्वी के लिए है। यह जीवन ठीक हो तो किसी और जीवन की चिंता अनावश्यक है। इसके ठीक न होने से ही परलोक की चिंता पकडती है। जो इस जीवन को सम्यक रूप देने में सफल हो जाता है, वह अनायास ही समस्त भावी जीवनों को सुदृढ़ और शुभ आधार देने में भी समर्थ हो जाता है। वास्तविक धर्म का कोई संबंध परलोक से नहीं है। परलोक तो इस लोक का परिणाम है।

धर्मों का परलोक की चिन्ता में होना बहुत घातक और हानिकारक हुआ है। उसके ही कारण हम जीवन को शुभ और सुन्दर नहीं बना सके। धर्म परलोक के लिए रहे और विज्ञान पदार्थ के लिए—इस भांति मनुष्य और उसका जीवन उपेक्षित हो गया। परलोक पर शाख और दर्शन निर्मित हुए और पदार्थ की शक्तियों पर विजय पाई गई। किन्तु जिस मनुष्य के लिए यह सब हुआ, उसे हम भूल गए। अब मनुष्य को सर्वप्रथम रखना होगा। विज्ञान और धर्म दोनों का केन्द्र मनुष्य बनना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि विज्ञान पदार्थ का मोह छोड़े और धर्म परलोक का। उन दोनों का यह मोहत्याग ही उनके सम्मिलन की भूमि बन सकेगा।

धर्म और विज्ञान का मिलन और सहयोग मनुष्य के इतिहास में सबसे बड़ी घटना होगी। इससे बहुत सृजनात्‍मक ऊर्जा का जन्म होगा। वह समन्वय ही अब सुरक्षा देगा। उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। उनके मिलन से पहली बार मनुष्य के विज्ञान की उत्‍पति होगी और विज्ञान में ही अब मनुष्य का जीवन और भविष्य है।

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966— 67


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