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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–20)

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राजपथरूप भव्य जीवनधारा के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 5 अक्‍टूबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, महावीर की वीतरागता, क्राइस्ट की “होली इनडिफरेंस’, बुद्ध की उपेक्षा, कृष्ण की अनासक्ति, इनमें क्या सूक्ष्म समानता व भिन्नता है? इस पर प्रकाश डालें।’

 क्राइस्ट की तटस्थता, बुद्ध की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता और कृष्ण की अनासक्ति, इनमें बहुत-सी समानताएं हैं, लेकिन बुनियादी भेद भी हैं। समानता अंत पर है, उपलब्धि पर है, भेद मार्ग में हैं। अंतिम क्षण में ये चारों बातें एक ही जगह पहुंचा देती हैं। लेकिन चारों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं।

जीसस जिसे तटस्थता कहते हैं, बुद्ध जिसे उपेक्षा कहते हैं, इनमें बड़ी गहरी समानता है। यह जगत जैसा है, इस जगत की धाराएं जैसी हैं, इस जगत के अंतर्द्वंद्व जैसे हैं, इस जगत के भेद और विरोध जैसे हैं, उनके प्रति कोई तटस्थ हो सकता है। लेकिन तटस्थता कभी भी प्रसन्नता नहीं हो सकती। तटस्थता बहुत गहरे में उदासी बन जाएगी। इसलिए जीसस उदास हैं। और अगर वे किसी आनंद को भी पाते हैं, तो वह इस उदासी के रास्ते से ही उन्हें उपलब्ध होता है। लेकिन उनका पूरा रास्ता उदास है। वे इस जीवन के पथ पर गीत गाते हुए नहीं निकलते। तटस्थता उदासी बन ही जाएगी। और जीसस की तटस्थता बहुत उदासी बन गई है।

अगर न मैं यह चुनूं, न वह चुनूं, अगर कोई चुनाव न हो, तो मेरे भीतर की बहने वाली सारी धाराएं रुक जाएंगी। नदी न पूरब बहे, न पश्चिम बहे, न दक्षिण बहे, न उत्तर बहे, तटस्थ हो जाए, तो एक उदास तालाब बन जाएगी। तालाब भी सागर तक पहुंच जाता है, लेकिन नदी के रास्ते से नहीं, सूर्य की किरणों के रास्तों से पहुंचता है। लेकिन नदी जो बीच का नाचता हुआ, गीत गाते हुए रास्ता तय करती है, वह भाग्य तालाब का नहीं है। तालाब सूखता है धूप में, गर्मी में, उत्तप्त होता है, उमड़ता है, भाप बनता है, बादल बनता है, सागर तक पहुंच जाता है। लेकिन नदी की मुदिता, उसकी प्रफुल्लता, उसकी “इक्सटेसी’ तालाब को नहीं मिलती। वह उदासी स्वाभाविक है। सूरज की किरणों में तपना और भाप बनना उदास ही हो सकता है। तालाब नाचता हुआ बादलों पर नहीं चढ़ता, नदी नाचती हुई सागर में उतर जाती है। और तालाब सीधा भी सागर तक नहीं पहुंचता, बीच में भाप बनता है, फिर पहुंचता है। तो जीसस एक उदास बादल की तरह हैं, जो आकाश में मंडराता है और सागर की यात्रा करता है। नाचती हुई नदी की भांति नहीं हैं।

तो बुद्ध और जीसस की जीवन-व्यवस्था में थोड़ी निकटता है, लेकिन एकदम निकटता नहीं, क्योंकि बुद्ध और तरह के व्यक्ति हैं। जहां जीसस की तटस्थता जीसस को उदास कर जाती है, वहां बुद्ध की उपेक्षा बुद्ध को सिर्फ शांत कर जाती है, उदास नहीं। उतना फर्क है। बुद्ध की उपेक्षा सिर्फ शांत कर जाती है। न वहां उदासी है जीसस जैसी, न वहां कृष्ण जैसा नाचता हुआ गीत है, न महावीर जैसा झरता हुआ अप्रगट सुख और आनंद है। बुद्ध शांत हैं। तटस्थ हैं वे। तटस्थता तो उदासी ले ही आएगी। वे सिर्फ तटस्थ नहीं हैं। वे उपेक्षा को उपलब्ध हैं। पाया है कि यह भी व्यर्थ है, पाया है कि वह भी व्यर्थ है। इसलिए उत्तेजित होने का उन्हें कोई उपाय नहीं रहा है। उन्हें कोई भी “आल्टरनेटिव’, कोई भी विकल्प उत्तेजित नहीं कर पाता। सब विकल्प समान हो गए हैं। जीसस के लिए तटस्थता है, सब विकल्प समान नहीं हो गए हैं। जीसस अभी भी कहेंगे, यह ठीक है और वह गलत है; यह करो और वह मत करो। यद्यपि वे दोनों तटस्थ हैं, लेकिन बहुत गहरे में उनका चुनाव जारी है। बुद्ध अचुनाव को, “च्वॉइसलेसनेस’ को उपलब्ध होते हैं। बुद्ध को अगर हम ठीक से समझें तो बुद्ध के लिए न कुछ सही है, न कुछ गलत है। सिर्फ चुनाव ही गलत है और अचुनाव सही होना है। “च्वॉइस’ गलत है, “च्वॉइसलेसनेस’ सही है।

इसलिए जीसस अपनी तटस्थता, “होली इनडिफरेंस’ में भी मंदिर में जाकर कोड़ा उठा लेते हैं और सूदखोरों को कोड़े से पीट देते हैं। उनके तख्ते उलट देते हैं। यहूदियों के मंदिर में, “सिनागॉग’ में पुरोहित ब्याज का काम भी करते थे। हर वर्ष लोग इकट्ठे होते थे मेले पर और तब वे उन्हें उधार दे देते थे और सूद लेते थे। और सूद की दरें इतनी बढ़ गई थीं कि लोग अपना मूल तो कभी चुका नहीं पाते थे, ब्याज भी नहीं चुका पाते थे और जिंदगी भर मेहनत करके बस इतना ही काम करते थे कि वे हर वर्ष आकर और पुरोहितों को उनके ब्याज का पैसा चुका जाएं। पूरे मुल्क का धन “सिनागॉगों’ में इकट्ठा होने लगा था। तो जीसस कोड़ा उठा लेते हैं, तख्ते उलट देते हैं सूदखोरों के।

जीसस “इनडिफरेंट’ हैं, तटस्थ हैं, लेकिन चुनाव जारी है। वे कहते हैं कि इस जगत के प्रति एक तटस्थता चाहिए। लेकिन इस जगत में अगर गलत हो रहा है, तो जीसस चुनाव करते हैं। लेकिन बुद्ध को हाथ में हम कोड़ा उठाए हुए नहीं सोच सकते। उनका कोई चुनाव नहीं है। उनका कोई चुनाव ही नहीं है। अचुनाव के कारण वे गहरी “साइलेंस’ को, एक गहरी शांति को उपलब्ध हुए हैं। इसलिए बुद्ध को समझते वक्त शांति सबसे महत्वपूर्ण शब्द है। तो बुद्ध की प्रतिमा से जो भाव प्रगट होता है और झरता है चारों तरफ, वह शांति का है। तालाब भी कम-से-कम धूप की किरणों में भाप बनता है और आकाश की तरफ उड़ता है। बुद्ध इतने शांत हैं कि वे कहते हैं मैं सागर की तरफ जाने की भी उत्तेजना नहीं लेता हूं, सागर को आना हो तो आ जाए। वे उतनी भी यात्रा करने की तैयारी में नहीं हैं। उतनी यात्रा भी तनाव है।

इसलिए बुद्ध ने सागरवाची जितने भी प्रश्न हैं, सबको इनकार कर दिया। कोई पूछे, ईश्वर है? कोई पूछे, ब्रह्म है? कोई पूछे, मोक्ष है? कोई पूछे, आत्मा का मरने के बाद क्या होता है? इस तरह के जितने भी प्रश्न हैं वह, बुद्ध उनको हंसकर टाल देते हैं; वह कहते हैं, यह पूछो ही मत। क्योंकि अगर कुछ भी है, तो उस तक की यात्रा पैदा होती है और यात्रा अशांति बन जाती है। वह कहते हैं, मैं जहां हूं, वहीं हूं। मुझे कोई यात्रा नहीं करनी, मुझे कोई चुनाव नहीं करना है। इसलिए बुद्ध की उपेक्षा अगर बहुत गहरे में देखें, तो सिर्फ संसार की उपेक्षा नहीं है–जीसस की उपेक्षा सिर्फ संसार की उपेक्षा है, लेकिन परमात्मा का चुनाव जारी है–बुद्ध की उपेक्षा परमात्मा की भी उपेक्षा है। वह कहते हैं, परमात्मा को भी पाना है तो यह भी तो मन की “डिज़ायर’, तृष्णा औरर् ईष्या है। आखिर नदी क्यों सागर को पाना चाहे? और नदी सागर को पाकर पा भी क्या लेगी? अगर सागर में ज्यादा जल है, तो मात्रा का ही फर्क पड़ता है। नदी में भी जल है और सागर के जल में और नदी के जल में फर्क क्या है? बुद्ध कहते हैं, हम जो हैं, हैं। और वहीं शांत हैं। इसलिए बुद्ध की उपेक्षा यात्रा-विहीन है। बुद्ध के गहरे चेहरे पर, बुद्ध की आंखों में यात्रा नहीं देखी जा सकती है। वे स्थिर हैं, ठहर गई हैं, वहीं हैं। जैसे कोई झील बिलकुल शांत हो। न नदी की तरफ भागती हो, न आकाश की तरफ उड़ती हो, बिलकुल शांत हो, एक लहर भी न उठती हो, एक “रिपिल’ भी पैदा न होती हो, ऐसे बुद्ध का होना है।

स्वभावतः बुद्ध की शांति “निगेटिव’ होगी, नकारात्मक होगी। उसमें कृष्ण का प्रगट आनंद नहीं हो सकता, उसमें महावीर का अप्रगट आनंद भी नहीं हो सकता। लेकिन जो इतना शांत होगा, इतना शांत होगा कि जिसे सागर तक पहुंचने की इच्छा भी नहीं है, क्या वह अंततः आनंद को उपलब्ध नहीं हो जाएगा? हो जाएगा, लेकिन वह बुद्ध की भीतरी दशा होगी। उनके अंतरतम में वह आनंद का दीया जलेगा। लेकिन बाहर उनकी सारी-की-सारी आभा, उनका जो प्रभामंडल है, वह शांति का होगा। दीये की गहरी ज्योति तो जहां होगी वहां तो आनंद होगा, लेकिन उसका प्रभामंडल सिर्फ शांति का होगा। बुद्ध को हिलते-डुलते सोचना भी कठिन मालूम पड़ता है। बुद्ध की कोई चिंतना करे, सोचे, तो ऐसा भी नहीं लगता कि यह आदमी उठकर चला भी होगा। उनकी प्रतिमा देखें तो वह ऐसी गलती है जैसे यह आदमी सदा बैठा ही रहा होगा। यह उठा भी होगा, हिला भी होगा, डुला भी होगा, इसने पैर भी उठाया होगा, इसने ओंठ भी खोला होगा, यह बोला भी होगा, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। बुद्ध की प्रतिमा “जस्ट स्टिलनेस’ की प्रतिमा है। जहां सब चीजें ठहर गई हैं, जहां कोई “मूवमेंट’ नहीं है। किसी तरह की कोई गति नहीं है। तो बुद्ध की आभा जो है, वह शांति की है।

बुद्ध की उपेक्षा समस्त तनावों की उपेक्षा है, चाहे वे तनाव मोक्ष के ही क्यों न हों! कोई आदमी मोक्ष ही क्यों न पाना चाहे, बुद्ध कहेंगे कि पागल हो! कहीं मोक्ष है! कोई कहे, आत्मा पानी है, तो बुद्ध कहेंगे, पागल हो, कहीं आत्मा है? असल में जब तक पाना है तब तक, बुद्ध कहेंगे, तुम न पा सकोगे। तुम उस जगह खड़े हो जाओ जहां पाना ही नहीं है। तब तुम पा लोगे, लेकिन यह बात वह कभी साफ कहते नहीं हैं। क्योंकि अगर वह इतना भी कहें कि तब तुम पा लोगे, तो हम तत्काल पाने को दौड़ पड़ेंगे। तो बुद्ध सिर्फ निषेध करते जाते हैं। वह कहते हैं, न परमात्मा है, न आत्मा है, न मोक्ष है, कोई भी नहीं है, है ही नहीं कुछ। क्योंकि जब तक कुछ है, तब तक तुम पाना चाहोगे और जब तक तुम पाना चाहोगे तब तक तुम न पा सकोगे। क्योंकि जो भी पाना है वह ठहरकर, रुककर, मौन में, थिरता में, शून्य में पाना है। और तुम्हारी चाह, तुम्हारी तृष्णा तुम्हें दौड़ाती रहेगी। तृष्णा मूल है बुद्ध के लिए और उपेक्षा सूत्र है तृष्णा से मुक्ति का। चुनो ही मत, पूछो ही मत कि कहीं जाना है। मंजिल बनाओ ही मत। मंजिल नहीं है कोई।

जीसस के लिए मंजिल है। इसलिए जगत के प्रति वे एक “होली इनडिफरेंस’, पवित्र तटस्थता की बात करते हैं, लेकिन परमात्मा के प्रति उनकी “इनडिफरेंस’ नहीं हो सकती। अगर वैसा कोई “इनडिफरेंट’ आदमी है, तो वह “अनहोनी इनडिफरेंस’ होगी, वह अपवित्र तटस्थता होगी। पवित्र तटस्थता संसार के प्रति है। अगर हम जीसस से पूछें कि बुद्ध तो कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं, कैसा परमात्मा? कोई आत्मा नहीं है; कैसी आत्मा? न कुछ पाने को है, न कोई पाने वाला है। बुद्ध तो कहते हैं, जब यह भाव ही तुम्हारा पूरा बैठ जाएगा–इसलिए बुद्ध जो बातें करते हैं वे बहुत अदभुत हैं। अगर उनसे पूछो कि कोई भी नहीं है? तो वह कहते हैं यह जो हमें दिखाई पड़ रहा है, सिर्फ संघट है, सिर्फ संघात है, सिर्फ एक “कंपोजीशन’ है। जैसे एक रथ है, उसका चाक अलग कर लें, घोड़े अलग कर लें, बल्ली अलग कर लें, तो फिर रथ पीछे नहीं बचता। रथ सिर्फ एक जोड़ है। ऐसे ही तुम भी एक जोड़ हो। यह सारा जगत एक जोड़ है। चीजें टूट जाती हैं, पीछे कुछ भी नहीं बचता–न कोई आत्मा, न कोई परमात्मा। और यही पाने योग्य है। लेकिन, यह सदा बुद्ध भीतर कहते हैं। यह कभी बाहर नहीं कहते। इसलिए जो बहुत गहरे समझ सकते हैं वही समझ पाते हैं, अन्यथा बुद्ध के पास से तृष्णालु व्यक्ति सभी लौट जाते हैं। जिनको कुछ भी पाना है वे कहते हैं, यह आदमी व्यर्थ है। इसके पास पाने को कुछ भी नहीं है, सिर्फ शांत होने को हम नहीं आए, हम कुछ पाने को आए हैं। और बुद्ध उन पर हंसते हैं, क्योंकि वे कहते हैं, शांत होकर ही पाया जा सकता है। वह जो परमात्मा है, शांत होकर ही पाया जा सकता है। वह जो आत्मा है, शांत होकर ही पाया जा सकता है। वह जो मोक्ष है…लेकिन तुम इनको लक्ष्य मत बनाओ। तुम अगर मुझसे पूछोगे, मोक्ष है? और मैं कहूं, है, तो तुम तत्काल लक्ष्य बना लोगे। और लक्ष्य की तरफ दौड़ता आदमी कभी शांत नहीं होता है। इसलिए बुद्ध की अपनी तकलीफ है। उनकी उपेक्षा शांति में ले जाती है–इतनी गहरी शांति में, जहां कोई यात्रा ही नहीं है।

महावीर की वीतरागता बुद्ध की शांति से मेल खाती है, थोड़ी दूर तक, क्योंकि इस जगत में वे भी उपेक्षा के पक्ष में हैं। और थोड़ी दूर तक महावीर की वीतरागता जीसस से मेल खाती है, क्योंकि उस जगत में मोक्ष के प्रति उनका चुनाव है। महावीर मोक्ष के प्रति अचुनाव में नहीं हैं। क्योंकि महावीर कहेंगे कि अगर मोक्ष भी नहीं है, तो फिर शांत होने का भी प्रयोजन क्या है? फिर अशांत होने में हर्ज भी क्या है! अगर कुछ पाने को ही नहीं है, तो फिर चुप और मौन बैठने का प्रयोजन भी क्या है! महावीर कहेंगे कि सब छोड़ा जाए, तो कुछ पाने को है। और जो पाने को है, उसी के लिए सब छोड़ा जा सकता है। इसलिए मोक्ष के प्रति महावीर की उपेक्षा नहीं है। वीतरागता उनकी इस जगत का जो द्वंद्व है उसके पार ले जाने वाली है। निर्द्वंद्व की उपलब्धि का मार्ग है। लेकिन महावीर की वीतरागता किसी उपलब्धि का मार्ग है। बुद्ध की उपेक्षा अनुपलब्धि का द्वार है, जहां सब शून्य हो जाएगा और सब खो जाएगा।

बुद्ध का संन्यास एक अर्थ में पूर्ण है। उसमें परमात्मा की भी मांग नहीं है। महावीर के संन्यास में मोक्ष की जगह है। और महावीर यह कहते हैं कि संन्यास संभव ही नहीं है अगर मोक्ष नहीं है, तो किसलिए? क्योंकि महावीर का चिंतन बड़ा वैज्ञानिक है और “कॉज़ल’ है। महावीर कहते हैं कि बिना “कॉज़लिटी’ के, बिना कार्य-कारण के कुछ होता ही नहीं। इसलिए वह बुद्ध से राजी न होंगे कि हम सिर्फ शांत हो जाएं बिना किसी वजह के। महावीर कहते हैं, अशांत होने की भी वजह होती है और शांत होने की भी वजह होती है। वे कृष्ण से भी राजी न होंगे इस बात के लिए कि हम सब कुछ स्वीकार कर लें। क्योंकि महावीर कहते हैं कि अगर हम सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं, तो हम आत्मवान ही नहीं रह जाते, हम पत्थर की तरह हो जाते हैं। आत्मा के होने का अर्थ ही है, “डिसक्रिमिनेशन’। महावीर कहते हैं, आत्मवान होने का अर्थ है, विवेक। यह ठीक है और यह गलत है, इस बात का विवेक ही आत्मवान होने का अर्थ है। और जो गलत है उसे छोड़ते जाना है, और राग भी गलत है और विराग भी गलत है, इसलिए दोनों को छोड़ देना है, और वीतरागता को पकड़ लेना है। महावीर के लिए वीतरागता उपलब्धि है और वीतरागता से मोक्ष है।

तो महावीर सिर्फ शांत नहीं हैं, शांत तो हैं ही लेकिन आनंदित भी हैं। मोक्ष की उपलब्धि की किरणें उनके भीतर ही नहीं फैलतीं, उनके शरीर से चारों तरफ नाचने लगती हैं। इसलिए, अगर हम महावीर और बुद्ध को साथ-साथ खड़ा करें, तो बुद्ध बिलकुल “पैसिव साइलेंस’ में हैं, जैसे हों ही न। महावीर “एक्टिव साइलेंस’ में हैं, बहुत होकर हैं, बहुत मजबूती से हैं। हां, उनके होने में चारों तरफ आनंद की प्रखरता है। लेकिन अगर कृष्ण के पास महावीर को खड़ा करें, तो महावीर का आनंद भी “साइलेंट’ मालूम पड़ेगा, शांत मालूम पड़ेगा, और कृष्ण का आनंद भी आंदोलित मालूम पड़ेगा। कृष्ण नाच सकते हैं, महावीर नाच नहीं सकते। अगर महावीर के नाच को देखना है, तो उनकी शांति, मौन, उनकी स्थिरता में ही देखना होगा। वह दिखाई पड़ सकता है, उनके रोएं-रोएं से, उनकी श्वास-श्वास से, उनकी आंख के हिलने-डुलने से, उनके चलने से। सब तरफ से उनका आनंद दिखाई पड़ेगा, लेकिन वे नाच नहीं सकते। यह नाच देखना पड़ेगा, यह “इनडाइरेक्ट’ है, यह परोक्ष है।

तो महावीर की वीतरागता प्रगट रूप से आनंद को घोषित करती है। इसलिए महावीर की प्रतिमा और बुद्ध की प्रतिमा में वही फर्क है। महावीर की प्रतिमा में आनंद प्रगट होता मालूम पड़ेगा, महावीर के बाहर कुछ जाता हुआ मालूम पड़ेगा, बुद्ध एकदम भीतर चले गए हैं, उनके बाहर कुछ जाता हुआ मालूम नहीं पड़ता। वह बिलकुल ऐसे हो गए हैं जैसे न हों। महावीर ऐसे हो गए हैं जैसे पूरी तरह हैं। उनके अस्तित्व की घोषणा समग्र है, इसलिए महावीर ईश्वर को इनकार कर देते हैं, लेकिन आत्मा को इनकार नहीं कर पाते। महावीर कह देते हैं, कोई परमात्मा नहीं है। हो भी कैसे सकता है! मैं ही परमात्मा हूं। इसलिए महावीर कहते हैं, आत्मा ही परमात्मा है। तुम सब परमात्मा हो, कोई और अलग परमात्मा नहीं है। यह घोषणा उनके प्रगाढ़ आनंद, “एक्सटेसी’ से निकलती है। हर्षोन्माद में वे यह घोषणा करते हैं कि मैं ही परमात्मा हूं। कोई और ऊपर परमात्मा नहीं है। क्योंकि महावीर कहते हैं, अगर मुझसे ऊपर कोई भी परमात्मा है, तो फिर मैं कभी पूरी तरह स्वतंत्र न हो पाऊंगा। स्वतंत्रता की फिर कोई संभावना न रही। कोई एक परमात्मा ऊपर बैठा ही है। अगर मेरे ऊपर कोई एक नियंता है, जिसके कानून से जगत चलता है, तो मेरी मुक्ति का क्या अर्थ है! कल अगर वह सोच ले कि वापिस भेज दो इस मुक्त आदमी को संसार में, तो मैं क्या कर सकूंगा? इसलिए महावीर कहते हैं स्वतंत्रता की “गारंटी’ सिर्फ इसमें है कि परमात्मा न हो। परमात्मा और स्वतंत्रता दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते हैं। इसलिए परमात्मा को इनकार कर देते हैं, लेकिन आत्मा को बड़ी प्रगाढ़ता से घोषित करते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। इसलिए महावीर में प्रगट आनंद दिखाई पड़ता है। वह उनकी वीतरागता।

वीतरागता में वे बुद्ध से सहमत हैं अचुनाव के लिए। राग और विराग में चुनाव नहीं करना है। लेकिन संसार और मोक्ष में चुनाव नहीं करना है, इस बात मग वे बुद्ध से राजी नहीं हैं। वे कहते हैं, संसार और मोक्ष में तो चुनाव करना ही है। इस मामले में वे जीसस से राजी हैं। इस मामले में जीसस की तटस्थता उनके करीब आती है। लेकिन जीसस का परमात्मा परलोक में है। और मरने के बाद ही जीसस प्रसन्न हो सकते हैं, जब परमात्मा से मिल जाएं। महावीर का कोई परमात्मा परलोक में नहीं है। महावीर का परमात्मा भीतर है और वह यहीं पाकर प्रसन्न हैं। इसलिए जीसस उदास हैं, और महावीर उदास नहीं हैं।

कृष्ण की अनासक्ति का भी तीनों से कुछ तालमेल है और कुछ बुनियादी भेद हैं। कृष्ण को अगर हम इन तीनों का इकट्ठा जोड़, और कुछ ज्यादा कहें, तो कठिनाई नहीं है। कृष्ण की अनासक्ति उपेक्षा नहीं है। कृष्ण कहते हैं, जिसके प्रति उपेक्षा हो गई, उसके प्रति हम अनासक्त नहीं हो सकते क्योंकि उपेक्षा भी विपरीत आसक्ति है। रास्ते से मैं गुजरा और मैंने आपकी तरफ देखा ही नहीं। देखने में भी एक आसक्ति है, न देखने में भी एक आसक्ति है। सिर्फ विपरीत आसक्ति है कि नहीं देखूंगा। और फिर कृष्ण कहते हैं, उपेक्षा किसके प्रति, क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसके प्रति भी उपेक्षा हुई, वह परमात्मा ही है। यह जगत पूरा-का-पूरा ही अगर परमात्मा है, तो उपेक्षा किसके प्रति? और उपेक्षा करेगा कौन? और जो उपेक्षा करेगा वह अहंकार से मुक्त कैसे होगा? उपेक्षा करेगा कौन? मैं करूंगा उपेक्षा? बुरे की उपेक्षा करूंगा अच्छे के लिए, संसार की उपेक्षा करूंगा मोक्ष के लिए। करेगा कौन? और करेगा किसकी? इसलिए उपेक्षा जैसे नकारात्मक और “कंडेनमेटरी’, निंदात्मक शब्द का उपयोग कृष्ण नहीं कर सकते।

तटस्थता का भी उपयोग वह नहीं कर सकते हैं। क्योंकि कृष्ण कहेंगे कि परमात्मा खुद भी तटस्थ नहीं है, तो हम कैसे तटस्थ हो सकते हैं? तटस्थ हुआ नहीं जा सकता। कृष्ण कहते हैं हम सदा धारा में हैं, तट पर हो नहीं सकते। जीवन एक धारा है, जीवन का तट कोई है ही नहीं जिस पर हम खड़े हो जाएं और तटस्थ हो जाएं और हम कह दें, हम धारा के बाहर हैं। हम जहां भी हैं धारा के भीतर हैं, हम जहां भी हैं जीवन में हैं, हम जहां भी हैं अस्तित्व में हैं, तट पर हम खड़े हो नहीं सकते। होना ही, अस्तित्व ही धारा है। इसलिए तटस्थ हम होंगे कैसे? हां, नदी के किनारे हम तट पर खड़े हो जाते हैं। नदी बहती जाती है, हम तट पर खड़े रहते हैं। लेकिन जीवन की ऐसी कोई नदी नहीं है जिसके किनारे हम खड़े हो जाएं। जीवन की नदी का कोई किनारा ही नहीं है। तो तटस्थता शब्द का प्रयोग वे नहीं कर सकते, उपेक्षा शब्द का वे प्रयोग नहीं कर सकते।

वीतराग शब्द का वे इसलिए प्रयोग नहीं कर सकते कि वे यह कहते हैं कि अगर राग बुरा है, अगर विराग बुरा है, तो है ही क्यों? बुरे का अस्तित्व भी कैसे हो सकता है! या तो हम ऐसा मानें कि जगत में दो शक्तियां हैं–एक शुभ की, परमात्मा की शक्ति है; एक अशुभ की, शैतान की शक्ति है। जैसा कि जरथुस्त्र मानते हैं, जैसा कि ईसाई मानते हैं, जैसा कि मुसलमान मानते हैं। उन सबकी तकलीफ यही है कि अगर जगत में अशुभ है, तो फिर अशुभ की शक्ति हमें अलग करनी पड़ेगी परमात्मा से। क्योंकि परमात्मा अशुभ का स्रोत! वह जरथुस्त्र नहीं सोच पाए, मुहम्मद नहीं सोच पाए, जीसस भी राजी नहीं हैं। इसलिए शैतान, “डेविल’, अशुभ की हमें कोई जगह बनानी पड़ती है। कृष्ण यह कहते हैं कि अगर अशुभ भी है, अलग भी है, तो भी क्या, वह परमात्मा की आज्ञा से है, या परमात्मा की आज्ञा के बिना है? उसके होने में भी परमात्मा के सहारे की जरूरत है या वह स्वतंत्र रूप से है? अगर वह स्वतंत्र रूप से है, तब वह ठीक परमात्मा के समतुल शक्ति हो गई। फिर इस जगत में शुभ कभी भी फलित नहीं हो सकता। फिर वह हारेगा भी क्यों? हारने की जरूरत भी क्या है? फिर इस जगत में दो परमात्मा हो गए। और इस जगत में दो परमात्मा की कल्पना असंभव है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि शक्ति तो एक है, और उसी शक्ति से सब उठता है। जिस शक्ति से स्वस्थ फल लगता है वृक्ष में, उसी शक्ति से सड़ा हुआ फल भी लगता है। उसके लिए किसी अलग शक्ति के होने की जरूरत नहीं। और जिस चित्त से बुराई पैदा होती है, उसी चित्त से भलाई पैदा होती है, उसके लिए अलग शक्ति की जरूरत नहीं है। शुभ और अशुभ एक ही शक्ति के रूपांतरण हैं। अंधकार और प्रकाश एक ही शक्ति के रूपांतरण हैं। इसलिए कृष्ण यह कहते हैं कि मैं दोनों को छोड़ने को नहीं कहता, दोनों को उसकी समग्रता में जीने को कहता हूं।

अनासक्ति का अर्थ, एक के पक्ष में दूसरे के प्रति आसक्ति नहीं, शुभ के पक्ष में अशुभ की आसक्ति नहीं, अशुभ के पक्ष में या विपक्ष में शुभ की आसक्ति नहीं–आसक्ति ही नहीं। चुनाव ही नहीं। और जीवन जैसा है, इस समग्र जीवन की पूर्ण स्वीकृति और इस समग्र जीवन के प्रति स्वयं का पूर्ण समापन, पूर्ण समर्पण। अनासक्ति का अर्थ यह है कि मैं अलग हूं ही नहीं, एक ही हूं इस जगत से। कौन चुने, किसको चुने? जगत जैसा करवा रहा है वैसा मैं लहर की तरह सागर में बहा जा रहा हूं। मैं अलग हूं ही नहीं।

इसमें कुछ समानताएं मिलेंगी।

कृष्ण बुद्ध जैसी शांति को उपलब्ध हो जाएंगे, क्योंकि कुछ उन्हें पाना नहीं है। जो भी है, वह पाया हुआ है। वे महावीर जैसे वीतराग दिखाई पड़ेंगे किन्हीं क्षणों में, क्योंकि उनके आनंद का कोई पारावार नहीं है। वे जीसस जैसे परमात्मा की घोषणा करते दिखाई पड़ेंगे। इसलिए नहीं कि इस लोक और परलोक में परमात्मा कहीं बैठा है, बल्कि सब कुछ परमात्मा ही है। कृष्ण की अनासक्ति समग्र समर्पण है, “मैं’ का न हो जाना है। “मैं’ है ही नहीं, यह जानना है। इसके जान लेने के बाद जो हो रहा है, वह हो रहा है। इसमें कोई उपाय ही नहीं है। इसमें हम कुछ कर सकते हैं, ऐसा है ही नहीं। इसमें हमारे द्वारा कुछ हो सकता है, इसकी कोई संभावना ही नहीं है। कृष्ण अपने को एक लहर की तरह सागर में देखते हैं। कोई चुनाव नहीं करना है, इसलिए कोई आसक्ति नहीं है। अनासक्ति की यह स्थिति अगर ठीक से हम समझें तो स्थिति नहीं है, “स्टेट आफ माइंड’ नहीं है, यह समस्त “स्टेट आफ माइंड’ को छोड़ देना है, समस्त स्थितियों को छोड़ देना है और अस्तित्व के साथ एक हो जाना है।

इस एकता में कृष्ण वहीं पहुंच जाते हैं जहां अपनी-अपनी संकरी गलियों से महावीर पहुंचते हैं, जीसस पहुंचते हैं, बुद्ध पहुंचते हैं। लेकिन उनके चुनाव पगडंडियों के हैं। कृष्ण का चुनाव राजपथ का है। पगडंडियों वाले भी पहुंच जाते हैं, राजपथ वाला भी पहुंच जाता है। पगडंडियों की सुविधाएं भी हैं, असुविधाएं भी हैं। राजपथ की सुविधाएं हैं, असुविधाएं भी हैं।

व्यक्तिगत चुनाव है। कुछ लोग हैं जो पगडंडियों पर ही चलना पसंद करेंगे। उन्हें चलने का मजा ही तब आएगा जब पगडंडी होगी, जब वे अकेले होंगे, जब न कोई आगे होगा न पीछे होगा, जब भीड़ के धक्के न होंगे और जब प्रतिपल उन्हें रास्ता खोजना पड़ेगा घने जंगल में, तभी उनकी चेतना को चुनौती होगी। वे पगडंडियों को खोजकर ही पहुंचेंगे। कुछ लोग हैं, जो पगडंडियों पर चलना बिलकुल आनंदपूर्ण न पाएंगे। अकेला होना उन्हें भारी पड़ जाएगा। सबके साथ होना ही उनका होना है, सबके साथ ही उनका आनंद है। आनंद उनके लिए सहजीवन, सहयोग, साथ में है, संग में है। वे राजपथ पर चलेंगे। निश्चित ही पगडंडियों पर चलने वाले उदासी से चल सकते हैं। राजपथ पर जहां लाखों लोग चलेंगे, वहां नाचते हुए ही चला जा सकता है, वहां गीत गाते हुए ही चला जा सकता है। पगडंडियों पर चलने वाले शांति से चल सकते हैं। राजपथ पर चलने वालों पर अशांतियों के बादल भी आते रहेंगे। उनको उनके लिए भी राजी होना पड़ेगा, यही उनकी शांति होगी। पगडंडियों पर चलने वाले अपनी निपट निजता के आनंद में तल्लीन हो सकते हैं, राजपथ पर चलनेवालों को दूसरों के सुख-दुख में भागीदार भी होना पड़ेगा। यह सब भेद होंगे। लेकिन कृष्ण, जैसा मैंने कहा, “मल्टी-डायमेंशनल’ हैं, उनका चुनाव राजपथ का है।

और ठीक से अगर हम समझें, तो परमात्मा तक पहुंचने का कोई एक मार्ग नहीं है। जो जहां है, वहीं से एक हर एक के लिए मार्ग बन सकता है कि वह परमात्मा तक पहुंच जाए। परमात्मा तक पहुंचने के लिए कोई बना हुआ मार्ग नहीं है। सब अपने तरफ से, अपने ढंग से पहुंच सकते हैं। पहुंचने पर यात्रा एक ही मंजिल पर पूरी हो जाती है। उनकी भी जो वीतरागता से जाते हैं, उनकी भी जो तटस्थता से जाते हैं, उनकी भी जो उपेक्षा से जाते हैं, उनकी भी जो आनंद से जाते हैं।

मंजिल एक है, रास्ते अनेक हैं। और प्रत्येक व्यक्ति को उसके क्या अनुकूल है, उसे चुन लेना चाहिए। उसे इसकी बहुत चिंता में नहीं पड़ना चाहिए कि कौन गलत है, कौन सही है? उसे इसकी फिक्र में पड़ जाना चाहिए कि मेरे अनुकूल, मेरे स्वभाव के अनुकूल क्या है?

“भगवान श्री, अभी आपने कृष्ण के अचुनाव के संबंध में कहा। परंतु गीता में उल्लेख है कि उत्तरायण का सूर्य हो तब जिसका अंत हो तो मोक्ष होता है। यदि दक्षिणायण का सूर्य हो तो क्या कोई तकलीफ पड़ती है? और स्थितप्रज्ञ और भक्त के विषय में गीता में जो बात कही है, इन दोनों में क्या समानता या भिन्नता है?

स्थितप्रज्ञ मनुष्य सुख में अनुद्विग्न रहेगा और दुख में भी अनुद्विग्न रहेगा, तो ऐसी मुसीबत खड़ी होने की शक्यता नहीं कि सुख-दुख दोनों में उसकी संवेदनशीलता, “सेंसिटिविटी’ “ब्लंट’ हो जाए? अगर सुख को सुख की भांति और कष्ट को कष्ट की भांति न ले, तो उसकी संवेदना को “हयूमन’ कैसे कहेंगे हम?’

 

ह सूत्र बहुत बहुमूल्य है। कृष्ण का यह कहना कि सुख और दुख में अनुद्विग्न रहे, वही स्थितप्रज्ञ है। यह प्रश्न बहुत अच्छा है, अर्थपूर्ण है कि यदि सुख में कोई सुखी न हो और दुख में कोई दुखी न हो, तो क्या उसकी संवेदनशीलता, उसकी “सेंसिटिविटी’ मर नहीं जाएगी?

दो उपाय हैं सुख और दुख में अनुद्विग्न होने के। एक उपाय यही है जो प्रश्न में उठाया गया है। एक उपाय यही है कि अगर संवेदनशीलता मार डाली जाए, तो सुख सुख जैसा मालूम न होगा, दुख दुख जैसा मालूम न होगा। जैसे कि जीभ जला दी जाए तो न प्रीतिकर स्वाद का पता चलेगा, न अप्रीतिकर स्वाद का पता चलेगा। जैसे आंखें फोड़ डाली जाएं तो न अंधेरे का पता चलेगा, न उजाले का पता चलेगा। जैसे कि कान नष्ट कर दिए जाएं, तो न संगीत का पता चलेगा, न विसंगीत का पता चलेगा। सीधा रास्ता यही मालूम पड़ता है कि संवेदशीलता नष्ट कर दी जाए, “सेंसिटिविटी’ मार डाली जाए, तो व्यक्ति दुख-सुख में अनुद्विग्न हो जाएगा। और साधारणतः कृष्ण को न समझने वाले लोगों ने ऐसा ही समझा है। और ऐसा ही करने की कोशिश की है। जिसको हम संन्यासी कहते हैं, त्यागी कहते हैं, विरक्त कहते हैं, वह यही करता रहा है, वह संवेदनशीलता को मारता रहा है। संवेदनशीलता मर जाए, तो स्वभावतः सुख-दुख का पता नहीं चलता।

लेकिन, कृष्ण का सूत्र बहुत और है। कृष्ण कहते हैं, सुख-दुख में अनुद्विग्न। वह यह नहीं कहते हैं कि सुख-दुख में असंवेदनशील, वह कहते हैं सुख-दुख में अनुद्विग्न। सुख-दुख के पार, उनके विगत, उनके आगे, उनके ऊपर। साफ है यह बात कि सुख-दुख अगर पता ही न चलें, तो सुख-दुख में अनुद्विग्नता का क्या अर्थ होगा? कोई अर्थ नहीं होगा। मरा हुआ आदमी सुख-दुख के बाहर होता है, अनुद्विग्न नहीं होता।

नहीं, इसलिए मैं दूसरा ही अर्थ करता हूं।

एक और मार्ग है जो कृष्ण का मार्ग है। अगर कोई व्यक्ति सुख को पूरा अनुभव करे–पूरा–इतना पूरा अनुभव करे कि बाहर रह ही न जाए, सुख में पूरा हो जाए, सुख के प्रति पूरा संवेदनशील हो, तो अनुद्विग्न हो जाएगा; क्योंकि उद्विग्न होने को बाहर कोई बचेगा नहीं। अगर कोई व्यक्ति दुख में डूब जाए, “टोटल’ दुख में डूब जाए, तो दुख के बाहर दुखी होने को कौन बचेगा? कृष्ण जो कह रहे हैं वह संवेदनशीलता का अंत नहीं है, संवेदनशीलता की पूर्णता की बात है। अगर हम पूरे संवेदनशील हो जाएं–समझें कि मुझ पर दुख आया। यह मुझे पता चलता है कि दुख आया, क्योंकि दुख से अलग खड़ा होकर मैं सोचता हूं। मैं ऐसा कहता हूं कि मुझ पर दुख आया, मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि मैं दुखी हो गया हूं। और जब हम यह भी कहते हैं कि मैं दुखी हो गया हूं, तब भी फासला बनाए रखते हैं। हम ऐसा नहीं कहते कि मैं दुखी हूं।

इसे थोड़ा समझना उपयोगी होगा।

हम जिंदगी में सब चीजों को तोड़कर रख देते हैं, जब कि वे सत्य नहीं हैं। जब मैं किसी से कहता हूं कि मुझे तुमसे प्रेम है, तब भाषागत ठीक बात कही जाने पर भी अस्तित्वगत रूप से गलत है। जब मुझे किसी से प्रेम होता है तो ऐसा नहीं होता है कि मुझे किसी से प्रेम है, बल्कि ऐसा होता है कि मैं किसी के प्रति प्रेम हूं। मैं पूरा ही प्रेम होता हूं। मेरे पार कुछ बच ही नहीं रहता जो कि प्रेम न हो। और अगर मेरे पार इतना भी कोई बच रहता है जो कहने को भी हो कि मुझे उससे प्रेम हो गया है, तो मैं पूरा प्रेम में नहीं चला गया हूं। और जो पूरा प्रेम में नहीं चला गया है, वह प्रेम में गया ही नहीं है, वह जा ही नहीं सकता। जब हम पर सुख आते हैं, दुख आते हैं, तब हम पूरे उनमें नहीं हो जाते हैं। अगर हम पूरे हो जाएं और उसके बाहर हमारे भीतर कुछ भी न बचे, तो कौन कहेगा, कौन उद्विग्न होगा, कौन पीड़ित होगा? मैं दुख ही हो जाऊं। तो संवेदनशीलता तो पूर्ण होगी, अपनी पूरी त्वरा में, अपनी पूरी चरमता में होगी। क्योंकि मेरी पुलक-पुलक दुख से भर जाएगी, मेरा रोआं-रोआं दुख से भर जाएगा; मेरी आंख, मेरी श्वास, मेरा अस्तित्व दुख हो जाएगा। लेकिन तब उद्विग्न होने को कोई नहीं बचेगा। मैं दुखी हूं, उद्विग्न कौन होगा?

ऐसे ही जब सुख आए तो मैं पूरा सुख हो जाऊं, तो उद्विग्न कौन होगा? मैं सुखी हो जाऊंगा। और अगर सुख और दुख में मैं इस तरह पूरा होता चला जाऊं, तो कभी भी सुख और दुख की “कंपेरीज़न’, तुलना करने का मौका कैसे आएगा, कौन तौलेगा? कि जब मैं दुखी था तो बहुत बुरा था, अब जब मैं सुखी हूं तो बहुत अच्छा हूं। और अब आगे भी सुख ही होना चाहिए, दुख नहीं होना चाहिए। प्रतिपल हमारे पूरे अस्तित्व को घेर ले, तो संवेदनशीलता समग्र होती है, पूर्ण होती है, लेकिन उद्विग्नता खो जाती है। उद्विग्नता का कोई कारण नहीं हो जाता। कोई कारण नहीं रह जाता।

एक मित्र मेरे पास आए, अभी दो दिन पहले, और उन्होंने कहा कि मैं सिगरेट पीता हूं और इससे बड़ा परेशान हूं। मैंने कहा कि मालूम होता है तुमने अपने को दो हिस्सों में तोड़ा होगा–एक सिगरेट पीने वाला, एक परेशान होने वाला। नहीं तो यह कैसे संभव है? या सिगरेट पिओ, या परेशान होओ। ये दो बातें एकसाथ तभी संभव हैं, जब तुमने अपने को दो हिस्सों में तोड़ लिया, तुमने अपने दो “सेल्फ’ बनाए, दो आत्माएं कर लीं–एक सिगरेट पिए चली जाती है और एक जो पश्चाताप किए चली जाती है। अब वह जो पश्चाताप करती है वह पश्चाताप करती रहेगी जिंदगी भर, और जो सिगरेट पीती है वह जिंदगी भर सिगरेट पीती रहेगी। जो पश्चाताप करती है वह कभी-कभी नियम-व्रत भी लेगी और जो पश्चाताप नहीं करती है, सिगरेट पीती है, वह नियम-व्रत तोड़ेगी। मैंने उनसे कहा, या तो तुम सिगरेट ही पिओ, या पश्चाताप ही करो। दो-दो काम एक-साथ करोगे तो कष्ट पैदा होता है। सिगरेट पिओ तो सिगरेट पीने वाले हो जाओ। फिर पीछे बचाओ मत अपने को। वह जो दूर खड़ा होकर कहे कि बुरा कर रहे हो, भला कर रहे हो, उसे पार मत बचाओ। और मैंने उनसे कहा, अगर किसी दिन सिगरेट पिओ और पूरे हो जाओ, तो पूरा आदमी सिगरेट छोड़ भी सकता है। क्योंकि तब वह पूरी तरह कर सकता है, छोड़ना भी। जब पीना पूरा कर सकता है, तो छोड़ना भी पूरा कर सकता है। और तब इस तरह की दुविधा में नहीं जीता है। या तो वह पूरी तरह पीता है, तब भी आनंदित होता है। या पूरी तरह छोड़ देता है और तब भी आनंदित होता है।

यह जो अधूरा-अधूरा बंटा हुआ आदमी है यह पीते वक्त कष्ट पाता है–पश्चाताप वाले हिस्से से कि बुरा कर रहे हो। नहीं पीते वक्त कष्ट पाता है–पीने वाले हिस्से से कि मौका चूक रहे हो। इसके कष्ट का कोई अंत नहीं, यह कष्ट झेले ही चला जाता है। यह हर हालत में उद्विग्न होगा। उद्विग्नता इसका भाग्य बन जाएगी, नियति बन जाएगी। यह अनुद्विग्न हो ही नहीं सकता। अनुद्विग्न वही हो सकता है जो “टोटल’ है, जो पूरा है। क्योंकि तब उद्विग्न होने को कोई बचता नहीं। जो पूरा है, जो समग्र है किसी स्थिति में, जो भी स्थिति आती है उसके साथ समग्र रूप से एक होता है, कुछ बचता नहीं पीछे, ऐसा व्यक्ति साक्षी के पर जा चुका। साक्षी सिर्फ साधन है, सिद्धि नहीं है। कृष्ण साक्षी नहीं हैं, अर्जुन को कह रहे हैं कि तू साक्षी हो जा। कृष्ण सिद्ध हैं। सिद्ध का मतलब यह है कि अब इतना भी फासला नहीं तोड़ा जाता कि कौन देख रहा है और कौन देखनेवाला है। अब तो सिर्फ देखने की क्रिया रह गई है, जिसके दो छोर हैं। एक छोर पर लोग कहते हैं दिखाई पड़नेवाला है, एक छोर पर लोग कहते हैं देखने वाला है। अब देखना पूरा हो गया, वह इकट्ठा है।

साक्षी जगत को दो में तोड़ता है–“आब्जेक्ट’ और “सब्जेक्ट’ में; देखने वाले में, दिखाई पड़ने वाले में। साक्षी कभी भी अद्वैत नहीं है। साक्षी द्वैत की अंतिम सीमारेखा है। वह जगह है जहां तख्ती लगी है कि अब अद्वैत शुरू होता है। लेकिन साक्षी हुए बिना कोई अद्वैत में मुश्किल से जा पाता है। साक्षी होने का मतलब है, हमने बहुत में तोड़ना बंद किया, दो में तोड़ना शुरू किया। अनेक में तोड़ना बंद किया, द्वैत में तोड़ा। दो में तोड़ने के बाद बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि जो आदमी साक्षी होगा उसे साक्षी होने में भी कभी-कभी वे क्षण बीच-बीच में आएंगे जब वह पाएगा कि न साक्षी रह गया था, न जिसका साक्षी था वह रह गया था, सिर्फ साक्षी होना रह गया था। ये जो क्षण उसे दिखाई पड़ने शुरू होंगे–जैसे कि मैं किसी को प्रेम करता हूं; तो प्रेम करने वाला है, प्रेम किया जा रहा है, वह है; लेकिन प्रेम में ऐसे क्षण आते हैं जब करने वाला भी नहीं बचता, जिसे किया जा रहा है वह भी नहीं बचता, सिर्फ प्रेम की एक लहर बचती है जो दोनों को छूती है। एक लहर रह जाती है जिसके एक छोर पर करने वाला होता है, एक छोर पर किया जाने वाला होता है। एक प्रेम की लहर रह जाती है। और प्रेम के जो गहरे क्षण हैं, उसमें प्रेमी और प्रेमिका, प्रेमी और प्रेमपात्र नहीं बचते, प्रेम ही बचता है। वे अद्वैत के क्षण हैं। साक्षी में भी ऐसे क्षण आते हैं जब अद्वैत के क्षण होते हैं। “सब्जेक्ट’–“आब्जेक्ट’ मिट जाते हैं, सिर्फ “कांशसनेस’ रह जाती है, जिसके दो छोर रह जाते हैं–एक दूर वाला छोर, एक पास वाला छोर। पास वाला छोर, जिसे हम “मैं’ कहते रहे हैं, दूर वाला छोर, जिसे हम “तू’ कहते रहे हैं। लेकिन अब ये एक ही लहर के दो छोर हो जाते हैं। जिस दिन स्थिति पूर्णता को उपलब्ध हो जाती है और कभी नहीं खोती, उस दिन साक्षी मिट जाता है। उस दिन सिद्ध रह जाता है।

कृष्ण साक्षी नहीं हैं। हां, कृष्ण अर्जुन से साक्षी होने की बात कह रहे हैं। लेकिन कृष्ण पूरे समय साक्षी होने की बात भी कह रहे हैं और उस क्षण की भी चर्चा चलाए जा रहे हैं जबकि साक्षी भी मिट जाएगा। वे साधन की भी बात कर रहे हैं, वे साध्य की भी बात कर रहे हैं। वे रास्ते की भी बात कर रहे हैं, वे मंजिल की भी बात कर रहे हैं। जब वे कह रहे हैं कि सुख-दुख में अनुद्विग्न, तब वे साक्षी की बात नहीं कर रहे हैं। हालांकि गीता समझने वाले बहुत लोगों ने ऐसा ही समझा कि वे साक्षी की बात कर रहे हैं। यही समझा है कि सुख के तुम साक्षी हो जाओ, देखते रहो, भागो मत, तो अनुद्विग्न हो जाओगे। दुख को देखते रहो, भागो मत, तो अनुद्विग्न हो जाओगे। लेकिन अगर दुख और सुख को कोई देखे ही, तो देखना भी एक तनाव और उद्विग्नता होगी। और पूरे वक्त “डिफेंस’ की हालत होगी। और पूरे वक्त अपने को बचाता रहेगा आदमी। और अगर यह पता ही न चलता हो कि कौन सुख है, कौन दुख है, क्योंकि अनुद्विग्न होने में पता नहीं चलना चाहिए फिर। अगर पता चलता है कि यह सुख रहा, यह दुख रहा, तो उद्विग्नता हो रही है किसी तरह की, और दोनों में भेद हो रहा है। अगर यह पता चल रहा है साक्षी को कि यह सुख है और यह दुख है, तो उद्विग्नता है; लेकिन सूक्ष्म है, दिखाई नहीं पड़ रही है। उद्विग्नता जारी है। सुख और दुख का फर्क जारी है। और जब तक फर्क है, तब तक उद्विग्नता है।

मैं जो कह रहा हूं, बहुत और बात कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि “टोटल इनवॉल्वमेंट’, साक्षी की तरह दूर खड़े होना नहीं, अभिनेता की तरह पूरी तरह कूद जाना। पूरी तरह कूद जाना! एक ही हो जाना! नदी आपको डुबाती है, क्योंकि आप अलग हैं। आप नदी ही हो गए, ऐसी बात कह रहा हूं। अब कैसे डुबायेगी! किसको डुबायेगी, कौन डूबेगा, कौन चिल्लायेगा–बचाओ? जो स्थिति है जिस पल में, उस पल में पूरी तरह एक हो जाना। और जब वह पल बीत गया, दूसरा पल आएगा, आपको पल के साथ पूरे एक होने की कला आ गई, तो आप पल के साथ एक होते चले जाएंगे। और तब बड़े मजे की बात है, दुख भी आएगा और आपको निखार जाएगा। सुख भी आएगा और आपको निखार जाएगा। दुख भी आपको कुछ दे जाएगा और सुख भी आपको कुछ दे जाएगा। तब दुख भी मित्र मालूम होगा और सुख भी मित्र मालूम होगा। तब अंत के, जीवन के अंतिम क्षण में विदा होते वक्त आप अपने सुखों को भी धन्यवाद दे सकेंगे, अपने दुखों को भी धन्यवाद दे सकेंगे, क्योंकि दोनों ने मिलकर आपको बनाया। यह दिन ही नहीं है जो आपको बनाता है, इसमें रात भी सम्मिलित है। यह उजाला ही नहीं है जो आपकी जिंदगी में, अंधेरा भी आपकी जिंदगी है। और यह जन्म ही नहीं है जो खुशी का अवसर है, मृत्यु भी उत्सव का क्षण है।

लेकिन, यह तभी होगा जब हम प्रतिपल को पूरा जी लें। तब हम यह न कह पाएंगे कि दुख विपरीत था और सुख साथी था, दुख शत्रु था। नहीं, तब हम ऐसा ही कह पाएंगे कि दुख दायां हाथ था, सुख बायां हाथ था। दोनों के साथ हम चल पाए। दुख बायां पैर था, सुख दायां पैर था, दोनों हमारे पैर थे। लेकिन जो पूरा हुआ है। अब यह बड़े मजे की बात है, जब आप अपना बायां पैर उठाते हैं तब आप आधे नहीं उठाते, आप पूरे ही अपने बाएं पैर के साथ होते हैं। जब आप दायां पैर उठाते हैं, तब पूरे ही आप अपने दाएं पैर के साथ होते हैं। जब आप चुप होते हैं तब भी आपको अपनी चुप्पी में पूरा होना चाहिए, जब आप बोलते हैं तब अपने बोलने में पूरा हो जाना चाहिए।

विकल्प जब हम चुनते हैं तभी उद्विग्नता शुरू होती है। और जब तक चुनने वाला अलग खड़ा है, तब तक चुनाव जारी रहता है। इसलिए साक्षी बहुत ऊंची अवस्था नहीं है, मध्य अवस्था है। कर्ता के बजाय अच्छी है, इसी अर्थ में कि कर्ता सीधा छलांग नहीं लगा सकता अद्वैत में। साक्षी “जंपिंग बोर्ड’ के करीब पहुंच जाता है, जहां से छलांग हो सकती है। लेकिन साक्षी भी तट पर खड़ा है और कर्ता भी तट पर खड़ा है। कर्ता जरा तट से दूर खड़ा है, जहां से सीधी छलांग नहीं हो सकती। साक्षी तट के बिलकुल किनारे खड़ा है, जहां से छलांग हो सकती है। लेकिन दोनों ने जब तक छलांग नहीं ली, तब तक दोनों एक ही भूमि के टुकड़े पर खड़े हैं। छलांग के बाद अद्वैत बच रहता है।

तो यहां जो अनुद्विग्नता की बात कृष्ण कहते हैं, वह अद्वैत की बात है। उद्विग्न होने वाला ही न बचे, वह पूरा ही डूब जाए। इसलिए मैं मानता हूं कि कृष्ण की यह जो दृष्टि है, यह “एंटी सेंसिटिविटी’ की नहीं है, यह संवेदनशीलता के विपरीत नहीं है, बल्कि पूर्ण संवेदनशीलता की उपलब्धि की है।

असल में दक्षिणायण और उत्तरायण की जो बात कृष्ण ने गीता में कही है, वह हमारे सूर्य और हमारे दक्षिणायण और उत्तरायण की नहीं है। इस पृथ्वी पर जो सूर्य उत्तर और दक्षिणायण होता रहता है, उसकी कोई बात नहीं है। कि दक्षिणायण के सूर्य के समय मुक्ति हो जाएगी, मोक्ष हो जाएगा। उत्तरायण के सूर्य के समय मुक्ति नहीं होगी, मोक्ष नहीं होगा। यह हमारे सूर्य, हमारी पृथ्वी की बात नहीं है। यह बहुत “सिंबॉलिक’ है।

यह हमारे भीतर चित्त के प्रकाश-सूर्य की बात है। और जैसे हमने इस पृथ्वी को दो हिस्सों में बांटा हुआ है, ऐसा ठीक हमने मनुष्य के व्यक्तित्व को दो हिस्सों में बांटा हुआ है। उस मनुष्य के व्यक्तित्व के भीतर सूर्य की, प्रकाश की, या सत्य की–जो भी हम नाम देना पसंद करें–एक गति है। और मनुष्य के भीतर चक्रों की एक व्यवस्था है। अगर उस व्यवस्था में एक विशेष जगह तक प्रकाश का अनुभव शुरू नहीं हुआ है, तो व्यक्ति मुक्त नहीं होता है। एक विशेष जगह तक भीतरी अंतर्जीवन में सूर्य का प्रवेश हुआ है, तो व्यक्ति मुक्त होता है। वह लंबी चर्चा होगी, उसे फिर कभी उठाना ठीक होगा, अभी इतना ही समझ लेना उचित है कि बाहर के उत्तरायण और दक्षिणायण की बात वह नहीं है। भीतर भी हमारे सूर्य की गति की व्यवस्था है। भीतर भी हमारा एक अस्तित्व है, जहां प्रकाश की गतियां हैं। उन प्रकाश की गतियों की वह चर्चा है। और उसमें यह कहा है कि उत्तरायण के चक्रों पर जब प्रकाश होगा, ऐसी स्थिति में जीवन से छूटा हुआ व्यक्ति जन्म-मरणरूपी बंधन से मुक्त हो जाता है। वह फिर अपने को सदा मुक्त पाता है। ऐसे ही जैसे हम कहते हैं कि सौ डिग्री पर पानी गर्म होता है तो भाप बन जाता है। सौ डिग्री के नीचे होता है तो भाप नहीं बनता। ऐसी एक विशेष भीतरी सूर्य की व्यवस्था की बात की है। वह जब हम चक्रों की और अंतर्शरीरों की पूरी बात समझें तभी खयाल में आ सकती है, इसलिए उसे फिलहाल न उठाएं, अभी इतना भर समझ लेना उचित है।

“भगवान श्री, स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या समानता है और क्या भिन्नता है, यह भी प्रश्न के पिछले अंश में था।’

स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या भेद या समानता है? स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, जो अब भक्त नहीं रहा, भगवान हो गया। भक्त का अर्थ है, जो भगवान होने की यात्रा पर है। भक्त रास्ते में है, स्थितप्रज्ञ पहुंच गया है। रास्ता वही है, पहुंचना वहीं है। लेकिन यह मुकाम पर पहुंचे हुए आदमी का नाम है, स्थितप्रज्ञ। और भक्त यात्री का नाम है जो चल रहा है।

समानता होगी ही, क्योंकि रास्ता और मंजिल जुड़े होते हैं–अन्यथा रास्ता मंजिल तक कैसे पहुंचेगा। समानता होगी ही, क्योंकि मंजिल सिर्फ रास्ते की पूर्णता है। जहां रास्ता पूरा हो जाता है, वहां मंजिल आ जाती है। समानता होगी ही, क्योंकि जो रास्ते पर है वह एक अर्थ में मंजिल पर ही है, थोड़ा फासला है, बस। “डिस्टेंस’ का फासला है। अंतर जो है, वह पहुंचने का और पहुंचते होने का है। भक्त चल रहा है, स्थितप्रज्ञ बैठ गया, पहुंच गया। इसलिए भक्त के लिए वे सारी अपेक्षाएं हैं, जो स्थितप्रज्ञ की उपलब्धि बनेंगी। क्योंकि तभी वह वहां तक पहुंच सकेगा।

भक्त की आखिरी मंजिल उसका भक्त होना मिट जाने की है। जब तक वह भगवान न हो जाए, तब तक तृप्ति नहीं हो सकती। भक्त कितना ही चिल्लाए और रोए परमात्मा के मिलन को और मिलन हो भी जाए और दोनों आलिंगनबद्ध खड़े भी हो जाएं, तो भी भक्त का चिल्लाना बंद नहीं होगा। क्योंकि आलिंगन कितने ही निकट हो फिर भी दूर है। और हम किसी को कितने ही छाती से लगा लें, फिर भी दोनों के बीच फासला है। अंतर तो पूर्ण तभी मिट सकता है जब एक ही हो जाएं। इंच भर का अंतर भी उतना ही है जितना लाख मील का अंतर है। अंतर में कोई फर्क नहीं पड़ता। इंच के हजारवें हिस्से का अंतर भी उतना ही अंतर है जितना कि लाख मील का अंतर है। तो भक्त की तृप्ति तब भी नहीं हो सकती जब भगवान की छाती से लगकर वह बैठ जाए, तब भी नहीं हो सकती। तब भी फासला है।

यह तकलीफ तो प्रेमी की है। प्रेमी का कष्ट यही है कि वह कितने ही पास आ जाए, तो भी दुखी रहेगा। प्रेमी को कितना ही पा ले तो भी दुखी रहेगा। अगर यह बात समझ में आ जाए तो उसका दुख असल में यह है कि जब तक वह प्रेमी ही न हो जाए तब तक दुखी रहेगा, और यह होना बड़ा मुश्किल है। प्रेम के तल पर तो होना मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। कैसे यह होगा! कितने ही पास आते हैं, इसलिए प्रेमी जितने पास जाएंगे उतना ही कष्ट शुरू होने लगेगा। क्योंकि जितने पास आएंगे उतना “डिसइलूज़नमेंट’ होगा। दूर थे तो यह खयाल था कि पास आने से सुख मिल जाएगा। फिर जब पास ही आ गए, अब कैसे सुख मिलेगा! अब और पास आने का कोई उपाय ही न रहा। और तब प्रेमी एक-दूसरे पर क्रोधित होना शुरू हो जाते हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरा कुछ बाधा डाल रहा है; दूसरा कोई नुकसान पहुंचा रहा है, दूसरा शायद ठीक से प्रेम नहीं कर रहा है; दूसरा शायद धोखा दे गया, दूसरा शायद किसी और के प्रेम में पड़ गया है, यह प्रेमी की चिंता शुरू हो जाती है पास आने पर। असली कारण यह है कि प्रेमी तब तक तृप्त नहीं हो सकता जब तक कि वह इतने निकट न आ जाए कि दूरी ही न बचे। यह तो तभी हो सकता है जब वह एक हो जाए।

इसलिए जो भी प्रेमी हैं, वे आज नहीं कल भक्त बनने शुरू हो जाएंगे, क्योंकि तब फिर शरीरधारी व्यक्ति के इतने निकट आना असंभव है। तब अशरीरी परमात्मा के निकट ही इतना आया जा सकता है, जहां कि कोई फासला ही न बचे। तो सब प्रेमी आज नहीं कल भक्त बनेंगे और सब प्रेम-निवेदन आज नहीं कल प्रार्थना बन जाते हैं। अंततः बनने ही चाहिए। अन्यथा दुख देते रहेंगे। जो प्रेमी भक्त नहीं बन पाता, वह सदा दुखी रहेगा। क्योंकि आकांक्षा उसकी भक्त की है और मांग वह प्रेम से पूरी करना चाह रहा है। चाहता कुछ और है, कर कुछ और रहा है। चाहता वह यह है कि बिलकुल एक हो जाऊं, इतना फासला भी न रहे कि मैं और तू का फासला भी बचे, चाहता वह यह है। लेकिन जिससे वह यह करना चाह रहा है उससे यह नहीं हो सकता है। उससे मैं और तू का फासला बना ही रहेगा। दो व्यक्ति कभी इतने निकट नहीं आ सकते जहां कि मैं और तू का फासला गिर जाए, सिर्फ दो अव्यक्ति इतने निकट आ सकते हैं जहां मैं और तू का फासला मिट जाए। परमात्मा अव्यक्ति है। जिस दिन भक्त भी अव्यक्ति हो जाएगा, उस दिन उपलब्धि हो जाएगी। जब तक भक्त बचा है–परमात्मा तो है ही नहीं इस अर्थ में, जिस अर्थ में भक्त है। परमात्मा का तो होना न-होने जैसा है। उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है।

यह बड़े मजे की बात है। यह थोड़ा खयाल में लेना जरूरी है।

अगर हम निरंतर पूछते हैं–दुनिया में सारे भक्तों ने पूछा है–कि परमात्मा प्रगट क्यों नहीं होता? क्योंकि अगर परमात्मा प्रगट हो जाए तो उससे मिलन असंभव है। सिर्फ अप्रगट से ही पूर्ण मिलन हो सकता है। भक्तों ने निरंतर पूछा है कि तुम छिपे क्यों हो? सामने क्यों नहीं आते हो? अगर वह सामने आ जाए तो इतना बड़ा पर्दा गिर जाएगा कि फिर मिलन हो ही नहीं सकता है। वह छिपा है, इसलिए मिलने की संभावना है। वह अदृश्य है, इसलिए उसमें डूबा जा सकता है। वह दृश्य बन जाए तो दीवाल बन जाएगी और मिलन असंभव है।

एक बहुत अदभुत फकीर इकहार्ट ने कहा है, परमात्मा को धन्यवाद दिया है कि तेरी अनुकंपा अपार है कि तू दिखाई नहीं पड़ता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू पकड़ में नहीं आता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू खोजे से कहीं भी नहीं मिलता, कहीं भी नहीं पाते हैं तुझे। क्यों है तेरी अनुकंपा अपार? क्योंकि इस भांति तू हमें भी यह निरंतर सिखाए जाता है कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि खोजे से न मिलो, कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि दिखाई न पड़ो, जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि न-होने जैसे हो जाओ, तब तक मिलन असंभव है। भगवान तो अरूप है, जिस दिन भक्त भी अरूप हो जाता है उस दिन मिलन हो जाता है। इसलिए बाधा सिर्फ भक्त की तरफ से है, भगवान की तरफ से कोई बाधा नहीं है।

स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, भक्त जो अरूप हो गया। अब वह भगवान को भी नहीं चिल्लाता, क्योंकि कौन चिल्लाए? अब वह प्रार्थना भी नहीं करता, क्योंकि कौन करे? किसकी करे? या अब हम ऐसा कह सकते हैं कि वह जो भी करता है वही प्रार्थना है। या अब वह जो भी चिल्लाता है या नहीं चिल्लाता है, वही भगवान के लिए निवेदन है। अब हम दोनों तरह से कह सकते हैं। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है कि मनुष्य भी वैसा हो गया जैसा परमात्मा है। भक्त का अर्थ है कि उसने यात्रा तो शुरू की परमात्मा की तरफ, लेकिन अभी वह मनुष्य है। और उसकी सब आकांक्षाएं, अपेक्षाएं मनुष्य की हैं। मीरा कितनी चिल्ला रही है। उसके गीत बड़े अदभुत हैं। इस अर्थ में अदभुत हैं कि वे बड़े मानवीय हैं। उसकी सारी चिल्लाहट एक प्रेमी की चिल्लाहट है। एक भक्त की। वह कहती है कि सेज सजा दी और तुम आ जाओ। अब मैं तुम्हारे लिए द्वार खोल कर प्रतीक्षा कर रही हूं। ये सब मानवीय प्रतीक्षाएं हैं।

भक्त का मतलब है, मनुष्य जो परमात्मा की तरफ चल पड़ा, लेकिन अभी मनुष्य है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा, अब वह किसी की तरफ नहीं जा रहा है, अब जाने का कोई सवाल नहीं रहा, अब वह जहां है वहीं है और वहीं परमात्मा तो सदा था, सिर्फ हम अरूप हो जाते, हम अदृश्य हो जाते, हम न हो जाते। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा। और जो अपने को खो देता है, वह पा लेता है। स्थितप्रज्ञ ने अपने को खो दिया, इसलिए पा लेता है। भक्त अभी पाने चला है, और खुद है। अनुभव उसे धीरे-धीरे मिटाएगा। कबीर का वचन है कि खोजते-खोजते फिर मैं ही खो गया। और कोई उपाय न था। खोजने निकले थे किसी को। आखिर में पाया कि खोज ने खुद को ही छीन लिया। “हेरत हेरत हे सखी, गया कबीर हेराय’। खोजने निकले थे सखी, लेकिन आखिर ऐसा हुआ कि वह तो मिला नहीं, खुद ही खो गए। लेकिन जिस दिन खो गए, उस दिन खोज पूरी हो जाती है। उस दिन वह मिला ही हुआ है।

लाओत्से का बहुत अदभुत वचन है। लाओत्से कहता है, “सीक एंड यू विल नाट फाइंड’ खोजो और तुम न पा सकोगे। “डू नाट सीक एंड फाइंड’। मत खोजो और पाओ। “बिकाज़ ही इज़ हियर एंड नाव’। वह अभी और यहीं है। खोज की वजह से तुम दूर निकल जाते हो। क्योंकि कोई भी यहीं और अभी नहीं खोजेगा। खोज का मतलब ही कहीं और है। तो खोजने कोई मक्का जाएगा, कोई मदीना जाएगा, कोई काशी जाएगा, कोई मानसरोवर जाएगा, कैलास जाएगा। खोजने कहीं जाएगा, …हां-हां, कोई मनाली जाएगा।…और वह वहीं है, यहीं है, अभी है। इसलिए खोजने वाला उसे जब तक खोजता है तब तक खोता चला जाता है। जिस दिन खोजने वाला खोज-खोज कर थक जाता है और मिट जाता है और गिर जाता है, तब वह मनाली में गिरे, कि मक्का में, कि मदीना में, काशी में, कि कैलाश पर, वह कहीं भी गिर जाए, कहीं भी, वह जहां भी गिर जाए वहीं पाता है कि वह मौजूद है। वह सदा मौजूद है, हमारी मौजूदगी बाधा है। हम गैर-मौजूद हो जाएं।

भक्त अभी मौजूद है, स्थितप्रज्ञ गैर-मौजूद हो गया। भक्त की अभी “प्रेजेंस’ है, स्थितप्रज्ञ की कोई “प्रेजेंस’ नहीं है। वह “एब्सेंट’ हो गया। वह अब है नहीं। यह भी समझ लेना जरूरी है कि जब तक भक्त “प्रेजेंट’ है तब तक ईश्वर “एब्सेंट’ रहेगा। जब तक भक्त मौजूद है, तब तक ईश्वर गैर-मौजूद है। और इसलिए भक्त ईश्वर को “प्रॉक्सी’ की तरकीब से मौजूद करता रहता है। कभी मूर्ति बनाकर रख लेता है, कभी मंदिर बना लेता है, यह “प्रॉक्सी’ है। इससे कोई हल नहीं है। यह भक्त का ही बनाया हुआ खेल है। यह भी थोड़े दिन में ऊब जाएगा। अपने ही बनाए हुए भगवान से बहुत तृप्ति नहीं मिल सकती। कैसे मिलेगी, कब तक मिलेगी? “प्रॉक्सी’ पकड़ में आ ही जाएगी। तब वह फेंक देगा मूर्तियों-वूर्तियों को। वह कहेगा मैं उसी को चाहता हूं, जो है। लेकिन वह तभी मिलता है जब मैं नहीं हूं, एक ही शर्त है उसकी। मेरा होना ही दीवाल है, मेरा न-होना द्वार बन जाता है। बस भक्त और स्थितप्रज्ञ में उतना ही फर्क है।

स्थितप्रज्ञ द्वार है, भक्त अभी दीवाल है। दीवाल हम भी हैं, लेकिन भक्त ऐसी दीवाल है जिसके भीतर चीख-पुकार शुरू हो गई, भक्त ऐसी दीवाल है जिसने दरवाजे होने की तरफ श्रम शुरू कर दिया। हम ऐसी दीवाल हैं जो आराम से विश्राम कर रहे हैं। जिनकी कोई यात्रा शुरू नहीं हुई है।

“सेक्स’ के संबंध में श्रीकृष्ण के विद्रोही और क्रांतिकारी अनुदान पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें।

दो पूरक प्रश्न भी हैं।

* बोलो-बोलो, पहले बोलो।

“श्रीकृष्ण के प्रति स्त्रियों के अति आकर्षित होने में क्या कारण थे? हजारों-लाखों गोपियां उनके पीछे दीवानी थीं, और उनके सहवास से ही उन्हें तृप्ति मिलती थी, ऐसा क्यों होता था?

यदि प्रेमपूर्णता से कामशून्यता आती है, तो कामशून्यता की उपलब्धि के बाद कैसे बच्चे पैदा होंगे? अर्थात कामशून्यता में संभोग कैसे घटित होगा? क्या आत्म-समाधि, ब्रह्म-समाधि और निर्वाण-समाधि के बाद संभोग संभव है? क्योंकि संभोग के लिए प्राणों की चंचलता आवश्यक है न?’

* इस संबंध में बहुत-सी बात तो हो गई है, इसलिए कुछ थोड़ी-सी बातें और खयाल में ले लेनी चाहिए।

कृष्ण के प्रति आकर्षण लाखों स्त्रियों का ठीक ऐसा ही है जैसे पहाड़ से पानी भागता है नीचे की तरफ और झील में इकट्ठा हो जाता है? अगर हम पूछेंगे तो उत्तर यही होगा कि क्योंकि झील झील है। गङ्ढा है, पानी गङ्ढे में भर जाता है। गिरता है पर्वत के शिखर पर, भरता है झील में। पर्वत के शिखर पानी को नहीं रोक पाते हैं। पानी का स्वभाव है कि वह गङ्ढे को खोजे, क्योंकि वहीं वह निवास कर सकता है।

अगर हम इसको ठीक से समझें तो स्त्री का स्वभाव है कि वह पुरुष को खोजे। वह पुरुष में ही निवास कर सकती है। पुरुष का स्वभाव है कि वह स्त्री को खोजे, वह स्त्री में निवास कर सकता है। यह स्वभाव है। यह वैसे ही स्वभाव है जैसे और जीवन की सारी चीजों का स्वभाव है। जैसे आग का कुछ स्वभाव है, जैसे पानी का कुछ स्वभाव है, ऐसे ही पुरुष होने का स्वभाव है कि वह स्त्री में अपने को खोजे। अगर ठीक से हम समझें तो पुरुष का मतलब है, वह स्त्री में अपने को खोजता है। स्त्री का मतलब है, वह जो पुरुष में अपने को खोजती है। स्त्रैण होने का मतलब ही यही है कि जो पुरुष के बिना अधूरी है। पुरुष होने का मतलब यही है, जो स्त्री के बिन अधूरा है। अधूरा होना स्त्री-पुरुष का होना है। इसलिए उनकी निरंतर खोज है। और जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो “फ्रस्ट्रेशन’ है। जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो दुख है, पीड़ा है, परेशानी है। जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो स्वभाव के प्रतिकूल होने के कारण कष्ट है, संताप है, चिंता है।

कृष्ण के प्रति इतने आकर्षण का एक ही कारण है कि कृष्ण पूरे पुरुष हैं। जितना पूर्ण पुरुष होगा उतना आकर्षक हो जाएगा स्त्रियों को। जितनी स्त्री पूर्ण होगी उतनी आकर्षक हो जाएगी पुरुषों को। पुरुष की पूर्णता कृष्ण में पूरी तरह प्रगट हो सकी है। महावीर कम पुरुष नहीं हैं। ठीक कृष्ण जैसे ही पूरे पुरुष हैं। लेकिन महावीर की पूरी साधना, अपने पुरुष होने को छोड़ देने की साधना है। महावीर की पूरी साधना वह जो स्त्री-पुरुष के नियम का जगत है, उसके पार हो जाने की साधना है। फिर भी इस सारी साधना के बावजूद भी महावीर की भिक्षुणियां चालीस हजार हैं और भिक्षु दस हजार हैं। फिर भी स्त्रियां ही ज्यादा आकर्षित हुई हैं। जहां चार साधु महावीर के पीछे थे वहां तीन स्त्रियां हैं और एक पुरुष है। तो अगर महावीर के पास भी चालीस हजार संन्यासिनियां इकट्ठी हो जाती हैं, ऐसे व्यक्ति के पास जिसकी सारी साधना पुरुष और स्त्री होने के “ट्रांसेंडेंस’ की है, पार जाने की है, जो अपने पुरुष होने को इनकार करता है, किसी के स्त्री होने को इनकार करता है, जो कहता है कि यह संसार की बातें हैं, इनसे पार सब है। लेकिन वह भी स्त्रियों के लिए आकर्षक है। महावीर को छू भी नहीं सकतीं वे स्त्रियां। महावीर के निकट भी नहीं बैठ सकतीं आकर। लेकिन फिर भी स्त्रियां महावीर के लिए कम दीवानी नहीं हैं। हालांकि इस बात को हम इस तरह कभी देखा नहीं गया। और जो दस हजार पुरुष महावीर के पास आए हैं, इनकी भी अगर हम कभी बहुत खोजबीन करें तो पता चलेगा कि इनके चित्त में कहीं-न-कहीं स्त्रैणता है। होगी। जरूरी नहीं है कि एक आदमी शरीर से पुरुष हो तो मन से भी पुरुष हो। ऐसा भी जरूरी नहीं है कि एक स्त्री शरीर से स्त्री हो तो मन से भी स्त्री हो। मन जरूरी रूप से शरीर के साथ सदा तालमेल नहीं रखता। या बहुत कम तालमेल भी रखता है। कई बार ऐसा हो जाता है कि शरीर पुरुष का होता है, लेकिन चित्त स्त्री की तरफ झुका हुआ होता है। तो जो पुरुष महावीर के पास इकट्ठे होते हैं, अगर न दस हजार का भी ठीक कभी कोई मानसिक-परीक्षण हो सके, तो हम पाएंगे कि इसमें भी स्त्री-चित्त की बहुतायत है। होगी ही। महावीर आकर्षक तभी हो पाते हैं जब भीतर है। महावीर का आकर्षण आधी बात है। हमारा चित्त भी तो उस तरफ बहना चाहिए।

तो कृष्ण के साथ तो और भी अदभुत स्थिति है। कृष्ण तो कुछ छोड़कर भागे हुए नहीं हैं। स्त्रियां उनके पास सिर्फ साध्वी होकर खड़ी रह सकती हैं, ऐसा नहीं है। सिर्फ उनको देख सकती हैं, ऐसा नहीं है। कृष्ण के साथ नाच भी सकती हैं। तो अगर कृष्ण के पास लाखों स्त्रियां इकट्ठी हो गईं हों, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। सहज है। बिलकुल सरलता से है।

बुद्ध वैसे ही पूर्ण पुरुष हैं। इसलिए बहुत मजेदार घटना घटी है। बुद्ध ने स्त्रियों को दीक्षा देने से इनकार कर दिया। बुद्ध ने इनकार कर दिया कि स्त्रियों को दीक्षा नहीं देंगे। क्योंकि बुद्ध के सामने खतरा बिलकुल साफ है। वह खतरा यह है कि स्त्रियां दौड़ पड़ेंगी और भारी भीड़ स्त्रियों की इकट्ठी हो जाएगी। और जरूरी नहीं है कि ये स्त्रियां साधना के लिए ही आतुर होकर आई हों, बुद्ध का आकर्षण बहुत कीमती हो सकता है। कोई कृष्ण के पास जो गोपियां पहुंच गईं हैं, वे कोई परमात्म-उपलब्धि के लिए ही पहुंच गईं, ऐसा नहीं है। कृष्ण भी काफी परमात्मा हैं। इन कृष्ण के पास होना भी बड़ा सुखद है। तो कृष्ण को तो इसकी चिंता नहीं होती कि कौन किसलिए आया है, क्योंकि कृष्ण का कोई चुनाव नहीं है, लेकिन बुद्ध को चुनाव है। और बुद्ध सख्ती से इनकार करते हैं कि स्त्रियों को दीक्षा नहीं देंगे। और बड़े दिनों तक यह संघर्ष चलता है और स्त्रियों का बड़ा आंदोलन चलता है। और स्त्रियां सख्ती से बुद्ध की इस बात की खिलाफत करती हैं कि हमारा क्या कसूर है कि हमें दीक्षा नहीं मिलेगी! और बड़ी मजबूरी में और बड़े दबाव में और बड़े आग्रह में बुद्ध राजी होते हैं। अब यह थोड़ा सोचने जैसा मामला है, कि बुद्ध का इतनी देर तक यह कहे चले जाना कि नहीं दूंगा दीक्षा, क्योंकि बुद्ध को इसमें साफ एक बात दिखाई पड़ती है कि जो सौ स्त्रियां आती हैं उसमें निन्यानबे के आने की संभावना का कारण बुद्ध हैं, बुद्धत्व नहीं। यह साफ दिखाई पड़ रहा है। यह इतना साफ दिखाई पड़ रहा है कि बुद्ध “रेज़िस्ट’ करते हैं।

लेकिन तब कृशा गौतमी नाम की एक स्त्री बुद्ध को कहती है कि क्या हम स्त्रियों को बुद्धत्व नहीं मिलेगा? फिर आप कब दुबारा आएंगे हमारे लिए? और अगर हम चूके तो जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। हमारा कसूर क्या है? हमारा स्त्री होना कसूर है? यह सौवीं स्त्री है, निन्यानबे वाली स्त्री नहीं है। इस कृशा गौतमी के लिए बुद्ध को झुकना पड़ता है। यह बुद्ध के लिए नहीं आई है, बुद्धत्व के लिए आई है। वह कहती है हमें तुमसे प्रयोजन नहीं है, लेकिन तुम्हारे होने का लाभ पुरुष ही उठा पाएंगे? हम सिर्फ स्त्री होने से वंचित रह जाएंगे? स्त्री होने का ऐसा दंड हमें मिल रहा है! और आप भी इतने चुनाव करते हैं? तो कृशा गौतमी को आज्ञा दी जाती है। फिर द्वार खुल जाता है। और फिर वही होता है जो महावीर के पास हुआ। पुरुष कम पड़ जाते हैं, स्त्रियां रोज ज्यादा होती चली जाती हैं।

आज भी मंदिरों में स्त्रियां ज्यादा हैं, पुरुष कम हैं। तब तक पुरुष मंदिरों में कम होंगे, जब तक स्त्री तीर्थंकर और स्त्री अवतारों की मूर्तियां मंदिर में न हों। तब तक कम होंगे। क्योंकि सौ जाते हैं, उसमें से निन्यानबे बहुत सहज कारणों से जाते हैं, एक ही असहज कारण से जाता है।

कृष्ण के पास तो बहुत ही सरल बात है। कृष्ण के लिए तो कोई बाधा ही नहीं है। कृष्ण तो जीवन की समग्रता को अंगीकार कर लेते हैं। और कृष्ण अपने पुरुष होने को स्वीकार करते हैं, किसी के स्त्री होने को स्वीकार करते हैं। सच तो यह है कि कृष्ण ने शायद भूलकर भी जरा-सा भी अपमान किसी स्त्री का नहीं किया। जीसस के वचनों में भी संभावना है, महावीर के वचनों में भी, बुद्ध के वचनों में भी–स्त्री के अपमान की संभावना है। और कारण सिर्फ इतना ही है कि वे अपने पुरुष होने को मिटाना चाह रहे हैं, और कोई कारण नहीं है। स्त्री से कोई वास्ता नहीं है। महावीर, या बुद्ध, या जीसस अपने “सेक्सुअल बीइंग’ को, अपने “बायोलाजिकल बीइंग’ को, अपने जैविक अस्तित्व को पोंछ डालना चाह रहे हैं। स्वभावतः, स्त्री उनको न पोंछने देगी। स्त्री पास पहुंचेगी तो उनका पुरुष होना प्रगट हो सकता है। उनके पुरुष होने को भोजन मिलता है। लेकिन जीसस जैसे उदास आदमी के पास भी, जीसस जैसे जिसके ओंठ पर बांसुरी नहीं है, उसके पास भी स्त्रियां इकट्ठी हो गईं। और जीसस की सूली पर से लाश जिन्होंने उतारी, वे पुरुष न थे, वे स्त्रियां थीं। उस युग की सर्वाधिक सुंदरी स्त्री मेरी मेग्दलीन, उसने उस लाश को उतारा। पुरुष तो भाग गए थे, स्त्रियां रुकी थीं। पुरुष तो जा चुके थे। पर स्त्रियां रुकी थीं। और जीसस ने स्त्रियों के लिए सम्मान का कभी एक वचन नहीं कहा।

महावीर कहते हैं कि स्त्रियां स्त्री-पर्याय से मोक्ष न जा सकेंगी। उन्हें एक बार पुरुष का जन्म लेना होगा, फिर वे मोक्ष जा सकती हैं। बुद्ध तो उनको दीक्षा ही देने से इनकार करते हैं कि हम दीक्षा ही न देंगे। और जब दीक्षा भी दे दी तब भी उन्होंने जो वचन कहे, वह बहुत ही हैरानी के हैं। बुद्ध ने कहा कि मेरा जो धर्म हजारों साल चलता, अब वह पांच सौ साल से ज्यादा नहीं चल पाएगा; क्योंकि स्त्रियां दीक्षित हो गईं हैं।

“इस कथन में सच्चाई तो थी!’

* सवाल यह नहीं है। सवाल यह नहीं है! बुद्ध की तरफ से कथन में सच्चाई थी। बुद्ध की तरफ से कथन में सच्चाई थी, क्योंकि बुद्ध का जो मार्ग है, उस मार्ग में, या महावीर का जो मार्ग है उस मार्ग में स्त्री के लिए उपाय नहीं है बहुत। लेकिन महावीर और बुद्ध बड़े आकर्षक हैं और स्त्री आ जाती है। सचाई उनके मार्ग के संदर्भ में है, सचाई “एब्सोलूट’ नहीं है। स्त्री के लिए कोई बाधा नहीं है मोक्ष जाने से–कोई बाधा नहीं है। लेकिन मार्ग अन्यथा होगा। महावीर वाले मार्ग से नहीं हो सकता। ऐसे ही जैसे कि दो रास्ते हों पहाड़ पर, एक सीधी चढ़ाई का गोल रास्ता हो और वहां एक तख्ती लगी हो कि स्त्रियां यहां से। बस इतना ही फर्क है। यह रास्ते के संदर्भ में सच है, महावीर के रास्ते के संदर्भ में यह बिलकुल सच है कि स्त्री जा नहीं सकती मोक्ष। अगर महावीर के मार्ग से ही जाने की किसी स्त्री की जिद्द हो तो उसे एक बार पुरुष के रूप में लौटना जरूरी है। क्योंकि सीधी चढ़ाई का रास्ता है। चढ़ाई के कई कारण हैं।

बड़ा कारण तो यह है कि न कोई परमात्मा है महावीर के रास्ते पर, न कोई संगी-साथी। न ही कोई है जिसके कंधे पर हाथ रखा जा सके। स्त्री का व्यक्तित्व अपने-आप में ऐसा है कि कोई झूठा कंधा भी मिल जाए तो भी ठीक है। उसको कंधे पर हाथ चाहिए। वह किसी के कंधे पर हाथ रखकर आश्वस्त हो जाती है। यह उसके व्यक्तित्व का ढंग है। इसमें कोई, और कोई कारण नहीं है। पुरुष किसी के कंधे पर हाथ रखे तो दीन अनुभव करता है अपने को। स्त्री किसी के कंधे पर हाथ रखे तो उसकी गरिमा बढ़ जाती है। स्त्री जब किसी के कंधे पर हाथ रख कर चलती है तब उसकी शान अलग है। जब वह अकेली चलती है तब दीन होती है। और पुरुष किसी के कंधे पर हाथ रखकर चलता है तो उसकी दीनता प्रगट होती है।

“गांधी जी भी तो दो स्त्रियों के कंधे पर हाथ रखकर चलते थे।’

* इसकी पीछे बात करनी पड़ेगी। यह जो गांधी जी की बात उठाई है, वह भी एक क्षण में ले लेनी चाहिए। गांधी जी स्त्रियों के कंधे पर हाथ रखकर चले हैं, शायद इस भांति के वे पहले पुरुष हैं। कोई कभी किसी स्त्री के कंधे पर हाथ रखकर नहीं चला है।

“बूढ़े थे, इसलिए?’

* नहीं, बूढ़े नहीं थे। बूढ़े नहीं थे तब भी वे रखते थे। गांधीजी का स्त्री के कंधे पर हाथ रखकर चलना किसी विशेष घोषणा के लिए है। इस मुल्क में, जहां सदा ही स्त्री ने पुरुष के कंधे पर हाथ रखा हो, जहां सदा ही स्त्री अद्र्धांगिनी रही हो–और नंबर दो की अद्र्धांगिनी, नंबर एक की कभी नहीं–जहां स्त्री सदा ही पीछे रही हो, आगे कभी नहीं; जहां स्त्री का होना ही “सेकेंड्री’ हो गया हो, द्वितीय कोटि का हो गया हो, वहां गांधी को लगता है कि किसी पुरुष को यह घोषणा करनी चाहिए कि स्त्री के कंधे भी इतने कमजोर नहीं, उस पर भी हाथ रखा जा सकता है। यह एक लंबी परंपरा के खिलाफ एक प्रयोग है, और कुछ भी नहीं, और कोई कारण नहीं है। हालांकि, गांधीजी स्त्रियों के कंधे पर हाथ रखे हुए बहुत सुंदर नहीं मालूम पड़ते हैं, और गांधीजी के हाथ के नीचे दबी हुई स्त्रियां भारी बोझ से ग्रसित होती मालूम होती हैं। असल में यह बिलकुल स्वभाव के प्रतिकूल किया जा रहा है। यह है नहीं ठीक। यह है नहीं ठीक। यह स्त्री और पुरुष के “बीइंग’ के संबंध में गांधी की समझ बहुत नहीं है। सिर्फ एक परंपरा का विरोध है, वह बात अलग है। एक व्यवस्था का विरोध है, वह बात अलग है। लेकिन स्त्री और पुरुष के व्यक्तित्व के संबंध में गांधी की समझ बहुत गहरी नहीं है।

इसलिए गांधी ने बहुत-सी स्त्रियों को करीब-करीब पुरुष बनाकर छोड़ दिया। और स्त्री जाति को फायदा हुआ है ऐसा मैं नहीं कहूंगा। स्त्री जाति को गहरा नुकसान हुआ है। क्योंकि स्त्री को पुरुष नहीं बनाया जा सकता। उसके स्त्री होने का अपना ढंग है। और उसके ढंग की खूबी ही यह है। और यह बड़े मजे की बात है कि न केवल स्त्री जब किसी के कंधे पर हाथ रखती है तो खुद गौरवान्वित होती है, उस पुरुष को भी गरिमा से भर देती है। ऐसा नहीं है, यह कुछ सिर्फ लेना ही नहीं है, उसमें देना भी है। यह सिर्फ कंधे का सहारा लेकर ऐसा नहीं है कि स्त्री को ही कुछ मिल जाता है, पुरुष को भी बहुत कुछ मिलता है। ऐसा पुरुष जिसके कंधे पर किसी स्त्री ने हाथ नहीं रखा, वह भी बहुत दीनता का अनुभव करता है।

यह जो महावीर, बुद्ध, जीसस, इन सारे लोगों के व्यक्ति में, जैविक व्यक्तित्व का निषेध इनकी साधना का हिस्सा है। कृष्ण के जीवन में समस्त की स्वीकृति साधना है। उसमें जैविक भी स्वीकार है, उसमें वह जो “सेक्सुअल बीइंग’ है वह भी स्वीकार है, वह जो काम-शरीर है, निषेध कुछ भी नहीं है। कृष्ण के हिसाब से तो जो निषेध करता है, वह किसी-न-किसी अर्थ में थोड़ा-न बहुत नास्तिक है। असल में निषेध करना ही नास्तिकता है। कितनी मात्रा में कोई करता है–कोई कहता है कि हम शरीर को स्वीकार नहीं करते हैं तो शरीर के प्रति नास्तिक हैं। कोई कहता है हम यौन को स्वीकार नहीं करते, तो यौन के प्रति नास्तिक हैं। कोई कहता है हम ईश्वर को स्वीकार नहीं करते, तो वह ईश्वर के प्रति नास्तिक है। लेकिन अस्वीकृति नास्तिकता का ढंग है। स्वीकृति आस्तिकता है। इसलिए न मैं महावीर को, न बुद्ध को, न जीसस को इतना आस्तिक कह सकता हूं जितना आस्तिक मैं कृष्ण को कहता हूं। समस्त स्वीकृति। निषेध है ही नहीं, निंदा है ही नहीं। जो भी है, उसकी अपनी जगह है अस्तित्व में।

इस वजह से कृष्ण के पास अगर लाखों स्त्रियां इकट्ठी हो सकीं, तो आकस्मिक नहीं है। और पास इकट्ठे होने का कारण न था। महावीर के पास इकट्ठे हों, तो भी एक “डिस्टेंस’, एक “फार्मल डिस्टेंस’ जरूरी है। महावीर के पास भी खड़े हों, तो एक शिष्टाचार का जितना फासला है उतना रखना पड़ेगा। महावीर के गले को स्त्री जाकर मिल जाए तो एकदम अशिष्टता हो जाएगी। न तो महावीर इसे बर्दाश्त करेंगे, न उस स्त्री को इससे कोई सुख और शांति मिलेगी, अपमान ही मिलेगा।

“महावीर किसलिए बर्दाश्त नहीं करेंगे?’

* महावीर इसलिए बर्दाश्त नहीं करेंगे कि महावीर उसे बिलकुल स्वीकार नहीं करेंगे, वह पत्थर की तरह खड़े रह जाएंगे। उनका पूरा अस्तित्व उसे इनकार करेगा। वह कहेंगे नहीं कि मत छुओ। मगर ऐसा लगेगा, कोई शिलाखंड ही हाथों में ले लिया। और स्त्री का अपमान इससे नहीं होता कि कोई कह दे कि मत छुओ, अपमान इससे होता है–वह किसी को छुए और दूसरी तरफ से कोई “रिस्पांस’ न हो, कोई उत्तर न हो। यह सवाल नहीं है। महावीर ऐसे हैं, इसमें कोई उपाय नहीं है। वह कोई स्त्री का अपमान करने जा रहे हैं, ऐसा नहीं है। यह उनका अपना होने का ढंग है। इसलिए स्त्रियां महावीर के आसपास, जिसको हम कहें एक औपचारिक फासला सदा कायम रखती हैं। उनके पास नहीं जाया जा सकता। उनके अस्तित्व का एक घेरा है जिसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता।

लेकिन कृष्ण के साथ स्थिति बिलकुल और है। कृष्ण के साथ अगर कोई स्त्री कोई फासला रखना चाहेगी तो मुश्किल में पड़ जाएगी। वह अगर दूर खड़ी होगी तो पाएगी कि गिरती है पास। अगर कृष्ण के पास जाएगी तो पास आना ही पड़ेगा, जहां तक कि पास जाया जा सकता है। जहां कि आगे जाने का उपाय ही न हो, वह बात दूसरी है। लेकिन जहां तक पास जाया जा सकता है, कृष्ण के पास जाना ही पड़ेगा। जैसे कि कृष्ण पुकारते हुए हैं, एक निमंत्रण हैं। जैसे मैंने कहा कि महावीर एक शिलाखंड की तरह खड़े रह जाएंगे, कोई छुएगा भी तो पता चलेगा कि पत्थर है।

हेनरी थारो के संबंध में इमर्सन ने कहीं कहा है कि अगर हेनरी थारो से हाथ कोई मिलाए, तो ऐसा लगता है वृक्ष की सूखी शाखा को हाथ में ले लिया है। क्योंकि हेनरी थारो उत्तर नहीं देता, सिर्फ हाथ दे देता है। और हाथ बिलकुल मुर्दा होता है। उसमें कुछ नहीं होता, उसमें कोई गर्मी नहीं होती, उसमें कोई धारा नहीं होती। उसमें कुछ होता ही नहीं, सिर्फ हाथ होता है। हेनरी थारो की महावीर से दोस्ती बन सकती है।

कृष्ण के अगर कोई दूर भी खड़ा हो जाएगा तो ऐसा लगेगा, वह छू रहे हैं; वह स्पर्श कर रहे हैं, वह बुला रहे हैं। उनका पूरा अस्तित्व निमंत्रण है, आमंत्रण है। इस आमंत्रण को अगर हजारों स्त्रियों ने स्वीकार किया हो, तो आश्चर्य नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं है। यह सहज हुआ।

रह गई बात यह कि हम पूछते हैं कि क्या कृष्ण के लिए संभोग जैसी बात संभव है? कृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। हमारे लिए संभोग प्रश्न है, कृष्ण के लिए प्रश्न नहीं है। हम नहीं पूछते कि फूलों के लिए संभोग संभव है? हम नहीं पूछते, पक्षियों के लिए संभोग संभव है? हम नहीं पूछते कि सारा जगत संभोग की एक लीला में लीन है? यह सारा अस्तित्व संभोगरत है! आदमी पूछना शुरू करता है कि क्या कृष्ण के लिए संभोग संभव है? क्योंकि आदमी जैसा है, तनाव से भरा हुआ, जीवन के प्रति निंदा से भरा हुआ, उसके लिए संभोग जैसी गहन चीज भी संभव नहीं रह गई है। उसके लिए संभोग जैसा अस्तित्व का क्षण भी जटिल जाल बन गया है। वह भी सिद्धांतों की, दीवालों की ओट में खड़ा हो गया है।

संभोग का अर्थ ही क्या है? संभोग का अर्थ इतना ही है कि दो शरीर इतने निकट आ जाएं, जितने कि प्रकृति उन्हें निकट ला सकती है। और कोई अर्थ नहीं है। दो शरीर अपनी जैविक-निकटता में, “बायोलाजिकल इंटीमेसी’ में आ जाएं। उसके आगे प्रकृति का उपाय नहीं है। प्रकृति की आखिरी जो निकटता है, वह संभोग है। प्रकृति के तल पर जो निकटतम नाता है, वह संभोग है। उसके आगे प्रकृति का उपाय नहीं। उसके आगे फिर परमात्मा का ही क्षेत्र शुरू होता है। लेकिन कृष्ण प्रकृति की निकटता को स्वीकार करते हैं; वह कहते हैं, प्रकृति भी परमात्मा की है।

कृष्ण के लिए संभोग विचारणीय नहीं है, प्रश्न नहीं है, समस्या नहीं है, जीवन का एक तथ्य है। हमें बहुत कठिनाई होगी। हमने संभोग को एक समस्या बना दिया है, जीवन का तथ्य नहीं रखा। अभी हमने और चीजों को नहीं बनाया, हम और चीजों को भी कल बना सकते हैं। हम कह सकते हैं कल कि कृष्ण आंख खोलते हैं कि नहीं? अगर हम कभी एक सवाल उठा लें और सिद्धांत बना लें कि आंख खोलना पाप है, तो फिर यह भी हो जाएगा। फिर हम पूछेंगे कि उन्होंने आंख खोली है कि नहीं? अभी हम नहीं बनाएंगे यह सवाल। अभी हम सवाल उन्हीं चीजों को, जिनको हम सवाल बना लेते हैं, उनको हम पूछते हैं कि ऐसा करेंगे या नहीं?

मेरी अपनी समझ यह है, कृष्ण के जीवन में कोई मर्यादा नहीं है। यही उनका व्यक्तित्व है, यही उनकी विशेषता है। मर्यादा वे मानते ही नहीं। मर्यादा ही उनके लिए बंधन है और अमर्यादा ही उनके लिए मुक्ति है। लेकिन जो अर्थ हम लेते हैं अमर्यादा का, वह उनके लिए नहीं है। हमारे लिए अमर्यादा का अर्थ मर्यादा का उल्लंघन है। कृष्ण के लिए अमर्यादा का अर्थ मर्यादा की अनुपस्थिति है। इसको खयाल में ले लें, नहीं तो कठिनाई होती है। कृष्ण के लिए संभोग विचारणीय नहीं है, फलित होना है तो हो जाता है, हो सकता है। नहीं फलित होता है तो नहीं होना है, नहीं होता है। इसकी चिंतना से वह नहीं चलते हैं। इसको सोचकर नहीं चलते। हमारी बड़ी अजीब हालत है। हमने संभोग को मानसिक, “साइकोलाजिकल’ बना लिया है। हम संभोग को भी सोचते हैं। करते हैं तो सोचते हैं, नहीं करते हैं तो सोचते हैं। संभोग भी हमारा निर्णय बनकर चलता है। कृष्ण के लिए निर्णय नहीं है अगर किसी का प्रेम-क्षण इतने निकट आ जाए कि संभोग घटित हो जाए, “हैपनिंग’ हो जाए, तो कृष्ण “अवेलेबल’ हैं, कृष्ण उपलब्ध हैं। न घटित हो, तो कृष्ण आतुर नहीं हैं। न कृष्ण के मन में कोई विरोध है, न कोई प्रशंसा है। जो हो जाता है, उसमें सहज जीने की सिर्फ राजी, स्वीकृति, स्वीकार है।

मैं फिर दोहराऊं कि हमारे अर्थों में स्वीकार नहीं। क्योंकि हम स्वीकार भी अगर करते हैं तो अस्वीकार के खिलाफ करते हैं। कृष्ण के स्वीकार का मतलब है सिर्फ, कि अस्वीकार नहीं। इसलिए कृष्ण को समझना हमें सबसे ज्यादा जटिल है। महावीर को समझना आसान, बुद्ध को समझना आसान, जीसस को समझना आसान, मुहम्मद को समझना आसान, सारी पृथ्वी पर कृष्ण को समझना सर्वाधिक कठिन है। इसलिए सर्वाधिक अन्याय उनके साथ हो जाना सहज ही हो जाता है। हमारी सारी धारणाएं महावीर, बुद्ध, जीसस और मुहम्मद ने निर्मित की हैं। हमारी सारी धारणाओं का जगत, हमारे विचार, हमारे सिद्धांत, हमारे शुभ-अशुभ की व्याख्या महावीर, बुद्ध, जीसस, मुहम्मद, कन्फ्यूसियस, इनने तय की है। इसलिए इनको समझना हमें सदा आसान है, क्योंकि हम इनसे निर्मित हुए हैं। कृष्ण ने हमें निर्मित नहीं किया। असल में कृष्ण किसी को निर्मित ही नहीं करते, वह कहते हैं, जो है वह ठीक है। निर्माण का सवाल क्या है! तो जो निर्मित करते हैं उनसे हम निर्मित हुए हैं, कृष्ण ने तो किसी को निर्मित किया नहीं, इसलिए कृष्ण को समझना बहुत मुश्किल हो जाता है।

जब भी हम कृष्ण को समझते हैं, तो या तो महावीर का चश्मा हमारी आंख पर होगा, या बुद्ध का चश्मा होगा, या क्राइस्ट का होगा, या कन्फ्यूसियस का होगा, उससे हम कृष्ण को देखेंगे। और कृष्ण कहते हैं, तुम्हें अगर मुझे देखना है तो चश्मा उतार दो। बहुत मुश्किल है मामला! वह चश्मा नहीं उतारोगे तो कृष्ण में कुछ-न-कुछ गड़बड़ दिखाई पड़ेगी। वह आपके चश्मे की वजह से दिखाई पड़ेगी। लेकिन आप चश्मा उतारो, तो कृष्ण अत्यंत सहज पुरुष हैं–अत्यंत सहज पुरुष हैं।

पूछा जा सकता है कि इतनी सहज स्त्री क्यों पृथ्वी पर नहीं हो सकी? एकाध स्त्री तो होनी ही चाहिए थी न! कृष्ण को एकाध जवाब स्त्री को देना चाहिए था। कोई इतनी सहज स्त्री क्यों न हो सकी कि लाखों पुरुष उसके प्रति आकर्षित हों? क्या बात है? क्या कारण है? कुछ कारण हैं। इतना ही कारण नहीं है कि स्त्री दबाई गई। इतना ही कारण नहीं है कि पुरुष ने उसे स्वतंत्रता नहीं दी होने की। क्योंकि यह बात फिजूल है। इसका कोई अर्थ नहीं है। जितनी स्वतंत्रता जिसे चाहिए उतनी सदा मिल जाती है, अन्यथा वह जीने से इनकार कर देता है। नहीं, स्त्री कृष्ण का उत्तर नहीं दे पायी, शायद अभी और हजार दो हजार वर्ष लग जायेंगे, तब शायद स्त्री दे पाये। अभी नहीं दे पायी। अभी देना कठिन भी है। न देने का कारण है। स्त्री का सारा व्यक्तित्व, सारा ढंग, उसके होने की प्राकृतिक व्यवस्था “मोनोगेमस’ है, वह एक पर निर्भर रहना चाहती है।…

“क्लियोपेत्रा जैसी?’

* नहीं, बात करता हूं। …वह एक पर निर्भर रहना चाहती है। उसका चित्त “मोनोगेमस’ है, अब तक, कल भी रहेगा ऐसा जरूरी नहीं है। पुरुष “पोलीगेमस’ है। वह एक उसे कभी भी सुख नहीं दे पाता। पुरुष एक से ऊब जाता है। स्त्री एक से बिलकुल नहीं ऊबती। स्त्री एक के साथ जन्म-जन्म जीने की कामना करती है। एक के साथ फिर दुबारा भी जन्म मिले तो उसी के साथ मिले, वैसी कामना करती है।

यह जो एक-स्त्री-पुरुष का संबंध है, यह पुरुष ने कम तय किया है, यह स्त्री ने ज्यादा तय करवा लिया है। यह पुरुष की वजह से नहीं है, एकपत्नीव्रत, या एक पतिव्रत, यह स्त्री की वजह से है। इसके अब तक “बायोलाजिकल’ कारण भी थे, जैविक कारण भी थे। क्योंकि स्त्री को निर्भर होना है–बहुतों पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता है। इसको खयाल में लेना जरूरी है। स्त्री को कंधे पर हाथ रखना है। बहुत कंधों पर हाथ नहीं रखे जा सकते। निर्भर होना जिसका सुख है, वह बहुतों पर निर्भर होगी तो अनिश्चितमना हो जाएगी, निर्भरता उसकी “इनडिसीसिव’ हो जाएगी, उसमें निर्णय नहीं रह जाएगा। जिसे निर्भर होना है–जैसे एक बेल है, उसे एक वृक्ष पर निर्भर होना है, वह बहुत वृक्षों पर एक-साथ नहीं चढ़ सकती। उसे एक वृक्ष पर ही चढ़ना होगा। लेकिन एक वृक्ष बहुत-सी बेलों को आमंत्रित कर सकता है। और एक वृक्ष पर जितनी बेलें चढ़ जाएं उतनी उसे तृप्ति होगी, क्योंकि उतना ही वह वृक्ष मालूम होने लगेगा। एक पुरुष बहुत-सी स्त्रियों को, हाथों को निमंत्रित कर सकता है कि मेरे कंधे पर रखो, क्योंकि उतना ही उसके पुरुष होने की गहरी रस की स्थिति उसे उपलब्ध होगी।

मगर स्त्री एक पर निर्भर होना चाहेगी। इस एक पर निर्भर होने का कारण चित्त में तो है ही, बहुत ज्यादा “बायोलाजिकल’, शारीरिक कारण है, जैविक कारण है। उसके बच्चे होंगे। उन बच्चों के लिए कोई निर्धारक, कोई नियंता, कोई फिक्र करने वाला होना चाहिए। नौ महीने वह असमर्थ होगी। उसके बाद उसके बच्चे के सम्हाले में उसे सारा वक्त लगाना पड़ेगा। अगर वह बहुतों पर निर्भर है, तो इसमें अनिश्चय पैदा होगी और कठिनाई होगी। इसलिए मैंने कहा कि हजार-दो हजार साल लग जाएंगे, क्योंकि बहुत जल्दी स्त्रियां इनकार कर देंगी वैज्ञानिक विकास के साथ बच्चों को पेट में सम्हालने से। वे तो प्रयोगशालाओं में सम्हाले जाएंगे। जिस दिन स्त्री बच्चे को पेट में रखने से मुक्त हो जाएगी, उस दिन स्त्री भी कृष्ण जैसा व्यक्ति पैदा कर सकती है, उसके पहले नहीं पैदा कर सकती। उसके कारण थे।

यह जो मैंने कृष्ण के सहज होने की बात कही, इसे मनुष्यता जितने गहरे में समझ पाए उतने ही चिंताओं और तनावों और संतापों से मुक्त हो सकती है। आदमी के अधिक तनाव आदमी के अपने ही स्वभाव से संघर्ष के परिणाम हैं। आदमी की अधिक चिंताएं अपने से ही लड़ने की चिंताएं हैं। और मजा यह है कि हम अपने से लड़ सकते हैं, लेकिन जीत नहीं पाते–जीत नहीं सकते। हार ही होती है–हार ही होती है। कभी-कभी कोई जीत जाता है। बड़ी अनूठी वह घटना है, कभी-कभी कोई जीत पाता है। उस कभी-कभी कोई जीतने वाले के अनुसरण में लाखों लोग अपने से लड़ते चले जाते हैं। और ये लाखों लोग सिर्फ चिंतित होते हैं, असफल होते हैं; हारते हैं और परेशान होते हैं।

मेरी अपनी दृष्टि ऐसी है कि महावीर के मार्ग से कभी कोई एकाध आदमी उपलब्ध हो सकता है। लेकिन महावीर के मार्ग पर सौ में से निन्यानबे आदमी चलते हैं। कृष्ण के मार्ग से निन्यानबे आदमी उपलब्ध हो सकते हैं, लेकिन कृष्ण के मार्ग से एकाध आदमी भी नहीं चलता है। महावीर का मार्ग पगडंडी का है, मैंने का। बुद्ध का भी। जीसस का भी। इनके मार्ग बहुत संकरे हैं, बहुत “नैरो’ हैं। और बड़े दुरूह हैं, क्योंकि व्यक्ति को अपने से ही लड़कर गुजरना है। कभी-कभी कोई सफलता उपलब्ध होती है।

कृष्ण का मार्ग राजपथ की तरह है। उस पर बहुत लोग जा सकते हैं। लेकिन, उस पर बहुत कम लोग जाएंगे, बहुत कम लोग जाते हैं। क्योंकि सहज होने की क्षमता ही जैसे आदमी खोता चला गया। असहज होना ही सहज हो गया है। रुग्ण होना ही हमारा स्वास्थ्य हो गया है और स्वस्थ होने की धारणा ही भूल गई है। पुनर्विचार की जरूरत है मनुष्य पर। लेकिन मैं मानता हूं कि पुनर्विचार पैदा हो रहा है। फ्रॉयड के बाद अब भविष्य में कृष्ण रोज-रोज सार्थक होते चले जाएंगे। क्योंकि फ्रॉयड के बाद पहली बार मनुष्य के चित्त की सहजता को स्वीकृति मिलने की भूमिका बन रही है। जैसा मनुष्य है, उस मनुष्य को ही विकसित करना है। अब तक जैसा मनुष्य होना चाहिए, उसको हमने पैदा करने की कोशिश की थी। अब तक आदर्श कीमती था और मनुष्य को उस आदर्श तक पहुंचना ही था जरूरी। अब फ्रॉयड के बाद एक रूपांतरण पूरी दुनिया के जिसको हम कहें बौद्धिक जगत में एक ऊहापोह शुरू हुआ है, वह यह कि हम आदमी को पहुंचाने की सारी कोशिश करके भी पहुंचा नहीं पाए। कभी-कभी कोई एकाध आदमी पहुंच जाता है, उससे कोई हल नहीं होता। वह नियम नहीं है, सिर्फ अपवाद है। और अपवाद सिर्फ नियम को सिद्ध करते हैं और कुछ नहीं करते। वह सिर्फ इतना सिद्ध करते हैं कि सब न पहुंच सकेंगे। फ्रॉयड के बाद पहली दफा “आनेस्ट थिंकिंग’, ईमानदार चिंतन शुरू हुआ है। वह ईमानदार चिंतन यह कह रहा है कि आदमी क्या है, उसको हम समझने चलें।

अब एक पत्नी है, उसकी आकांक्षा है कि उसका पति कभी किसी दूसरी स्त्री को देखकर प्रसन्न न हो। यह आकांक्षा पुरुष के स्वभाव के बिलकुल अनुकूल है। इस आकांक्षा का एक ही परिणाम हो सकता है। अगर पुरुष की आकांक्षा से नीति और नियम निर्धारित किए जाएं तो स्त्री दुखी और पीड़ित हो जाएगी। अगर स्त्री की आकांक्षा से नीति और नियम निर्धारित किए जाएं तो पुरुष दुखी हो जाएगा। और मजा यह है कि दो में से एक दुखी हो जाए तो दूसरा सुखी नहीं हो सकता। उसका कोई उपाय नहीं रह जाता। लेकिन अब तक यही हुआ है।

क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि हम पुरुष और स्त्री दोनों के स्वभाव को समझने की दोनों कोशिश करें? और जब पुरुष किसी स्त्री को देखकर प्रसन्न हो तो पत्नी इससे पीड़ित न हो जाए, और जाने कि यह पुरुष का स्वभाव है। और जब उसकी स्त्री उदास और परेशान दिखाई पड़े तो उसका पति उस पर टूट न पड़े, जाने कि यह स्त्री का स्वभाव है। अगर हम एक संतापहीन, तनावमुक्त जगत पैदा करना चाहते हों, तो हमें व्यक्तियों के स्वभाव को समझने की कोशिश करनी चाहिए। और स्वभाव क्यों है, उसकी जड़ों में जाना चाहिए। और अगर स्वभाव बदलना हो तो जड़ें बदलनी चाहिए, स्वभाव को बदलने की ऊपर से नैतिक चेष्टा नहीं करनी चाहिए। स्त्री तब तकर् ईष्यालु रहेगी, जब तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं है। तब तकर् ईष्यालु रहेगी, जब तक बच्चे का बोझ अकेले उस पर पड़ जाता है। तब तकर् ईष्यालु रहेगी, जब तक उसका होना द्वितीय कोटि की जगह, पुरुष के बराबर आर्थिक स्वावलंबन, पुरुष के बराबर उसकी जैविक मजबूरी से मुक्ति, तो हम स्त्री कोर् ईष्या से तत्काल मुक्त कर सकेंगे। और स्त्री उसी तरह दूसरे पुरुषों में भी रस लेने को आतुर हो जाएगी जैसा पुरुष सदा से रहा है। लेकिन यह अभी तक नहीं हो सका। यह अब हो सकता है। मनुष्य के बाबत हमारी समझ गहरी हुई है।

पुरानी हमारी सारी व्यवस्था मनुष्य की समझ पर निर्भर नहीं थी, बल्कि मनुष्य की जरूरतों पर निर्भर थी। मनुष्य के समाज में क्या जरूरी है, वह हमने नियम बनाए थे। मनुष्य के स्वभाव के लिए क्या जरूरी है, वह हमने नियम नहीं बनाए थे। लेकिन फ्रॉयड के बाद एक क्रांति घटित हुई है। और मैं मानता हूं, फ्रॉयड द्वार बनेगा कृष्ण की वापसी का। कृष्ण वापस लौटेंगे–वह फ्रॉयड के द्वार से लौटेंगे। फ्रॉयड ने बड़ा प्राथमिक काम किया है। अभी बहुत काम उस दिशा में होना जरूरी है। फ्रॉयड और कृष्ण के आने वाले भविष्य में निरंतर अधिक लोगों को कृष्ण के जीवन से रोशनी मिलने की संभावना बढ़ती जाने वाली है। उसकी सहजता धीरे-धीरे हमारे अनुकूल और प्रीतिकर होती जाने वाली है।

और जिस दिन यह हो सकेगा–मेरा अपना मानना है कि महावीर, बुद्ध, जीसस, कन्फ्यूसियस को मानकर हम एक स्वस्थ दुनिया पैदा नहीं कर सके। एक प्रयोग जरूर किया जाने जैसा है कि कृष्ण की तरह देखकर हम दुनिया को एक व्यवस्था दे पाएं। और मेरी अपनी समझ है कि जो दुनिया हमने अब तक पैदा की है, उससे वह दुनिया बेहतर हो सकेगी। क्योंकि अब तक जो दुनिया हमने पैदा की है वह अपवाद को नियम मानकर की है, अब हम नियम को ही नियम मानकर करेंगे।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–100

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मैं प्रेम के पक्ष में हूं—(प्रवचन—बीसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—प्रत्येक मनुष्य समस्याओं से भरा हुआ और अप्रसन्न क्यों है?

2—मैं स्वप्न देखा करती हूं कि मैं उड रही हूं क्या हो रहा है?

3—आपके प्रवचनोपरांत उमंग, लेकिन दर्शन के बाद हताशा ऐसा क्यों?

4—पूरब में एक से प्रेम संबंध, पश्चिम में अनेक से, प्रेम पर आपकी दृष्टि क्या है?

पहला प्रश्न:

 

प्रत्‍येक मनुष्य समस्‍याओं से भरा हुआ और अप्रसन्‍न क्‍यों है?

हली बात, क्योंकि मनुष्य आत्यंतिक रूप से प्रसन्न हो सकता है, इसकी संभावना है, इसीलिए उसकी अप्रसन्नता है। और अन्य कोई भी—कोई पशु, कोई पक्षी, कोई वृक्ष, कोई चट्टान, इतनी प्रसन्न नहीं हो सकती जितना प्रसन्न मनुष्य हो सकता है। यह संभावना, यह आत्यंतिक संभावना कि तुम प्रसन्न, शाश्वत रूप से प्रसन्न हो सकते हो, कि तुम आनंद के पर्वत के शिखर पर हो सकते हो, अप्रसन्नता निर्मित करती है। और जब तुम अपने चारों ओर देखते हो कि तुम बस एक घाटी में हो, एक अंधेरी घाटी और तुम शिखर के ऊपर हो सकते हो : यह तुलना, यह संभावना, और तुम्हारी वर्तमान की वास्तविकता, अप्रसन्नता का कारण है।

यदि तुम बुद्ध होने के लिए नहीं जन्मे होते, तो जरा सी भी अप्रसन्नता नहीं होती। इसीलिए जो व्यक्ति जितना ग्रहणशील होता है वह उतना ही अप्रसन्न है। व्यक्ति जितना संवेदनशील है उतना ही अप्रसन्न होता है। व्यक्ति जितना अधिक सजग है उतनी अधिक उदासी उसको अनुभव होती है, उतना ही वह इस संभावना को और इस विरोधाभास को कि कुछ हो नहीं रहा है और वह अटक गया है, अधिक अनुभव करता है।

मनुष्य अप्रसन्न है, क्योंकि मनुष्य आत्यंतिक रूप से प्रसन्न हो सकता है। और अप्रसन्नता बुरी बात नहीं है। यही वह प्रेरक तत्व है जो तुमको शिखर पर लेकर जाएगा। यदि तुम अप्रसन्न नहीं हो, तो तुम चलोगे ही नहीं। यदि तुम अपनी अंधेरी घाटी में अप्रसन्न नहीं हो, तो तुम ऊपर पर्वत पर आरोहण का कोई प्रयास क्यों करोगे? जब तक कि शिखर पर चमकता हुआ सूर्य एक चुनौती न बन जाए, जब तक कि शिखर का होना ही वहां पहुंचने की दीवानगी भरी अभीप्सा ही न बन जाए, जब तक. कि वह चरम संभावना तुमको खोज लेने और पा लेने के लिए न उकसा दें—जटिल होने जा रहा है यह मामला। वे लोग जो बहुत सजग, संवेदनशील नहीं हैं, बहुत अप्रसन्न नहीं हैं। क्या तुमने कभी किसी मूढ़ को अप्रसन्न देखा है? असंभव। एक मूढ़ अप्रसन्न नहीं हो सकता, क्योंकि वह उस संभावना के प्रति, जिसको वह अपने भीतर लिए हुए है, सजग नहीं है।

तुम इस बात के प्रति सजग हो कि तुम एक बीज हो और वृक्ष हो सकते हो। बस यहीं पर है यह। लक्ष्य बहुत दूर नहीं है, यही तुमको अप्रसन्न कर देता है। शुभ है यह संकेत। गहनता से अप्रसन्नता को अनुभव करना पहला कदम है। निश्चित है कि बुद्ध इस बात को तुमसे अधिक अनुभव करते हैं। इसीलिए उन्होंने घाटी का त्याग कर दिया और उन्होंने ऊपर की ओर चढूना आरंभ कर दिया। छोटी—छोटी बातें जो प्रतिदिन तुम्हारे सामने आ जाती हैं, उनके लिए बड़ी प्रेरणा बन गईं। एक व्यक्ति को रुग्ण देखना, एक वृद्ध व्यक्ति को उसकी लाठी टेक कर चलता हुआ देखना, एक शव को देख लेना उनके लिए पर्याप्त था, उसी रात उन्होंने अपना राजमहल त्याग दिया। वे उस अवस्था के प्रति सजग हो गए जहां वे थे ‘यही मेरे साथ होने जा रहा है। आज नहीं तो कल मैं भी रुग्ण, वृद्ध और मृत हो जाऊंगा, अत: यहां रहने में क्या सार है? इससे पूर्व कि यह अवसर मुझसे छीन लिया जाए मुझे कुछ ऐसा उपलब्ध कर लेना चाहिए जो शाश्वत है।’ उनके भीतर शिखर पर पहुंचने की तीव्र अभिलाषा जाग्रत हो गई। उस शिखर को हम परमात्मा कहते हैं, उस शिखर को हम कैवल्य कहते हैं, उस शिखर’ को हम मोक्ष, निर्वाण कहते हैं; किंतु वह शिखर तुम्हारे भीतर एक बीज की भांति है। उसको प्रस्फुटित होना पड़ेगा। इसलिए अधिक संवेदनशील आत्मा वाले व्यक्तियों को अधिक दुख होता है। मुढ़ को कोई दुख नहीं होता, मूर्खों को कोई पीड़ा नहीं होती। थोड़ा धन कमा कर, एक छोटा सा मकान बना कर वे अपने सामान्य जीवन में पहले से ही प्रसन्न हैं— पर्याप्त हैं उनकी उपलब्धियां। केवल वही उनकी कुल संभावना है।

यदि तुम सजग हो तो लक्ष्य यह नहीं हो सकता, यह नियति नहीं हो सकता, तब तुम्हारे अस्तित्व में तीक्ष्ण तलवार की भांति एक तीव्र संताप का प्रवेश हो जाएगा। यह तुम्हारे अस्तित्व को परम गहराई तक भेद डालेगा। तुम्हारे हृदय से एक दारुण आर्तनाद उठेगा और यह एक नये जीवन का, जीवन की एक नई शैली का) जीवन के एक नये आधार का प्रारंभ होगा।

इसलिए जो पहली बात मैं कहना चाहता हूं वह यह है, अप्रसन्न अनुभव करना आनंदपूर्ण है; अप्रसन्न अनुभव करना एक वरदान है। ऐसा अनुभव न करना मंदमति होना है।

दूसरी बात, मनुष्य पीड़ा में रहते हैं; क्योंकि वे अपने लिए पीड़ा निर्मित किए चले जाते हैं।

इसलिए पहली बात : इसे समझ लो। अप्रसन्न होना शुभ है, किंतुमैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुमको अपनी अप्रसन्नता को और—और निर्मित करते चले जाना चाहिए। मैं कह रहा हूं यह शुभ है, क्योंकि यह तुमको इसके पार जाने के लिए उकसाती है। लेकिन इसके पार चले जाओ, वरना यह शुभ नहीं है।

लोग अपनी पीड़ा की रूप—रेखा निर्मित किए चले जाते हैं। इसका एक कारण है, मन परिवर्तन का विरोध करता है। मन बहुत रूढ़िवादी है। यह पुराने रास्ते पर चलते रहना चाहता है, क्योंकि पुराना पथ जाना—पहचाना है। यदि तुम हिंदू जन्मे हो, तुम हिंदू ही मरोगे। यदि तुम ईसाई जन्मे हो, तुम ईसाई ही मरोगे। बदलते नहीं हैं लोग। एक विशिष्ट विचारधारा तुम्हारे भीतर इस भांति अंकित .है कि तुम इसके परिवर्तित करने से भयभीत हो जाते हो। तुम इसकी पकड़ का अनुभव करते हो, क्योंकि इसके साथ तुम्हारी जान—पहचान है। कौन जाने नया शायद उतना अच्छा न हो जितना पुराना है। और पुराना जाना हुआ है; तुम इससे भलीभांति परिचित हो। हो सकता है कि यह पीड़ापूर्ण हो, लेकिन कम से कम उससे परिचय तो है। प्रत्येक कदम पर, जीवन के प्रत्येक क्षण में तुम कुछ न कुछ निर्णय लेते रहते हो, भले ही तुम इसे जान पाओ या नहीं। निर्णय से तुम्हारा हर क्षण आमना—सामना होता रहता है—पुराने रास्ते का, जिस पर तुम अभी तक चलते रहे हो, अनुगमन करना है, या नये का चुनाव करना है। प्रत्येक कदम पर सड़क दो भागों में बंट जाती है। और लोग दो प्रकार के होते हैं। वे जो भलीभांति चला हुआ रास्ता चुन लेते हैं, निःसंदेह वे एक वर्तुल में घूमते रहते हैं। वे जाने हुए को चुन लेते हैं, और जाना हुआ एक वर्तुल है। वे इसको पहले से ही जान चुके हैं। वे अपना भविष्य ठीक वैसा चुन लेते हैं जैसा उनका अतीत रहा था। वे एक वर्तुल में चलते हैं। वे अपने अतीत को अपना भविष्य बनाए चले जाते हैं। कोई विकास नहीं होता है। वे बस पुनरुक्ति कर रहे हैं, वे रोबोट जैसे, स्वचालित यंत्र हैं।

फिर दूसरे प्रकार का व्यक्ति है, सजग प्रकार का, जो कि सदैव नये को चुनने के प्रति सतर्क रहता है। हो सकता है कि नया और पीड़ा पैदा कर दे, हो सकता है कि नया भटका दे, लेकिन कम से कम यह नया तो है। यह अतीत की एक पुनरुक्ति मात्र नहीं होगी। नये में सीखने की, विकास की, तुम्हारी संभावना को साकार हो पाने की, संभावना होती है।

इसलिए स्मरण रखो, जब कभी भी चुनाव करना हो, अनजाने पथ को चुन लो। लेकिन तुमको ठीक इसका उलटा सिखाया गया है। तुमको सदैव जाने हुए का चुनाव करना सिखाया गया है। तुम्हें बहुत चालाक और होशियार होना सिखाया गया है। निःसंदेह जाने हुए के साथ सुविधाएं हैं। पहली सुविधा यह है कि जाने हुए के साथ तुम अचेतन बने रह सकते हो। वहां पर चेतन होने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम उसी रास्ते पर चल रहे हो, तब तुम करीब—करीब सोए हुए, निद्रागामी की भांति चल सकते हो। यदि तुम अपने स्वयं के घर वापस आ रहे हो और प्रतिदिन तुम उसी रास्ते से आया करते हो, तब तुमको सजग होने की आवश्यकता नहीं है; तुम मात्र अचेतन होकर आ सकते हो। जब दाएं मुड़ने का समय आता है तुम मुड़ जाते हो; किसी प्रकार की सजगता रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसीलिए लोग पुराने रास्तों का अनुगमन करना पसंद करते हैं,’ सजग होने की कोई आवश्यकता नहीं है। और सजगता उपलब्ध किए जाने वाली कठिनतम चीजों में से एक है। जब भी तुम एक नई दिशा में जा रहे हो, तो तुम को प्रत्येक कदम पर सजग होना पड़ेगा।

नये का चुनाव करो। यह तुमको सजगता प्रदान करेगा, सुविधापूर्ण नहीं होने जा रहा है यह। विकास कभी सुविधापूर्ण नहीं होता, विकास कष्टप्रद होता है। पीड़ा के माध्यम से विकास होता है। तुम अग्नि से होकर गुजरते हो, किंतु केवल तभी तुम खरा सोना बनते हो। फिर वह सभी कुछ जो स्वर्ण नहीं है जल जाता है, भस्मीभूत हो जाता है। केवल शुद्धतम तुम्हारे भीतर बचा रहता है। तुमको पुराने का अनुगमन करना सिखाया गया है, क्योंकि पुराने रास्ते पर तुम कम गलतियां कर रहे होगे। लेकिन तुम आधारभूत गलती कर लोगे, और आधारभूत गलती यह होगी कि विकास केवल तभी होता है जब तुम नये के लिए, नई गलतियां करने की संभावना के साथ, उपलब्ध रहते हो। निःसंदेह पुरानी गलतियों को बार—बार दोहराने की काई आवश्कता नहीं है, बल्कि नई गलतियों को करने का साहस और क्षमता जुटाओ—क्योंकि प्रत्येक नई गलती एक सीख बन जाती है, सीखने की एक परिस्थिति बन जाती है। प्रत्येक बार जब तुम भटकते हो तुमको वापस घर लौटने का रास्ता खोजना पड़ता है। और यह जाना और आना, यह लगातार भूल जाना और याद करना, तुम्हारे अस्तित्व के भीतर एक समग्रता निर्मित कर देता है।

सदैव नये का चुनाव करो, भले ही यह पुराने से बुरा प्रतीत होता हो। मैं कहता हूं सदैव नये का चुनाव करो। यह असुविधाजनक लगता है—नये का चुनाव करो। यह असहज है, असुरक्षित है—नये का चुनाव करो। यह कोई नये का प्रश्न नहीं है, यह तुमको अधिक सजग होने को अवसर दैने के लिए है। तुमको लक्ष्य के रूप में दक्षता सिखाई गई है। यह लक्ष्य नहीं है। सजगता है लक्ष्य। दक्षता तुमसे बार—बार पुराने रास्ते का अनुगमन करवाती है, क्योंकि पुराने रास्ते पर तुम अधिक दक्ष होगे। तुम सभी मोड़ और घुमाव जान लोगे। तुमने इस पर इतने वर्षों से या शायद इतने जन्मों से यात्रा की हुई है कि तुम और—और दक्ष हो जाओगे। लेकिन दक्षता नहीं है लक्ष्य। दक्षता यांत्रिकता के लिए लक्ष्य है। यत्र को दक्ष होना चाहिए, लेकिन मनुष्य को? —मनुष्य कोई यंत्र नहीं है। मनुष्य को अधिक सजग होना चाहिए, और यदि इस सजगता से दक्षता आ जाती है, शुभ है, सुंदर है यह। यदि यह दक्षता सजगता की कीमत पर आती है, तो तुम जीवन के विरोध में बड़ा पाप कर रहे हो, और तब तुम अप्रसन्न बने रहोगे। और यह अप्रसन्नता जीवन की एक शैली बन जाएगी। तुम बस एक दुष्‍चक्र में घूमते रहोगे। एक अप्रसन्नता तुमको दूसरी अप्रसन्नता में ले जाएगी और इसी भांति यह सिलसिला चलता चला जाएगा।

सजगता की विषयवस्तु के रूप में अप्रसन्नता एक वरदान है, लेकिन जीवन की एक शैली के रूप में अप्रसन्नता अभिसाप है। इसको अपने जीवन का रंग—ढंग मत बना लो। मैं देखता हूं कि अनेक लोगों ने इसे अपने जीवन का ढंग बना रखा है। वे जीवन का कोई दूसरा ढंग जानते ही नहीं हैं। यदि तुम उनसे कहो तो भी वे नहीं सुनेंगे। वे पूछते चले जाएंगे कि वे अप्रसन्न क्यों हैं, लेकिन वे यह नहीं सुनेंगे कि वे स्वयं ही प्रतिक्षण अपनी अप्रसन्नता निर्मित कर रहे हैं। कर्म के सिद्धात का यही अर्थ है।

कर्म का सिद्धांत कहता है कि तुम्हारे साथ जो कुछ भी घटित हो रहा है वह तुम्हारा किया— धरा है। कहीं किसी अचेतन तल पर तुम इसको निर्मित कर रहे हो—क्योंकि तुम्हारे साथ बाहर से कुछ भी नहीं घटता। प्रत्येक चीज भीतर से उभर कर आती है। यदि तुम उदास हो, तो अपने अंतर्तम अस्तित्व में कहीं न कहीं तुम ही इसको निर्मित कर रहे होगे। वहीं से आती है यह। अपनी आत्मा के भीतर कहीं न कहीं तुम ‘ ही इसको निर्मित कर रहे होगे। यदि तुम पीड़ा में हो, तो निरीक्षण करो, अपनी पीड़ा पर ध्यान दो, तुम इसे किस भांति निर्मित कर लेते हो, ध्यान लगाओ। तुम सदैव पूछा करते हो, ‘पीड़ा के लिए कौन उत्तरदायी है?’ तुम्हारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है। यदि तुम पति हो तो तुम्हारा मन कहे चला जाता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी पीड़ा निर्मित कर रही है। यदि तुम पत्नी हो तो तुम्हारा पति तुम्हारी पीड़ा निर्मित कर रहा है। यदि तुम निर्धन हो तो धनवान तुम्हारी पीड़ा निर्मित कर रहा है। यह मन सदा किसी और पर उत्तरदायित्व थोपे चला जाता है।

इसे बहुत आधारभूत समझ बन जाना चाहिए कि? तुम्हारे अतिरिक्त कोई अन्य उत्तरदायी नहीं है। एक बार तुम इसको समझ लो, चीजें बदलना आरंभ हो जाती हैं। यदि तुम अपनी पीड़ा निर्मित कर रहे हो और तुम इसको प्रेम करते हो तब इसे निर्मित करते रहो। फिर इससे कोई समस्या मत खड़ी करो। तुम्हारे मामले में हस्तक्षेप करना किसी का काम नहीं है। यदि तुम उदास होना चाहते हो, तुमको उदास होने से प्रेम है, तो पूरी तरह से उदास हो जाओ। लेकिन यदि तुम उदास होना नहीं चाहते हो, तब कोई आवश्यकता नहीं है—इसको निर्मित मत करो। निरीक्षण करो कि तुम किस भांति अपनी पीड़ा निर्मित करते हो, उसका ढांचा किस तरह का है? —तुमने अपने भीतर किस प्रकार से इसे तैयार कर लिया है? लोग लगातार अपनी भाव—दशाएं निर्मित कर रहे हैं। तुम दूसरों पर उत्तरदायित्व थोपते चले जाते हो, फिर तुम कभी नहीं बदलोगे। फिर तुम पीड़ा में बने रहोगे, क्योंकि तुम कर ही क्या सकते हो? यदि दूसरे पीड़ा निर्मित कर रहे हैं, तो तुम क्या कर सकते हो? जब तक कि दूसरे न बदल जाएं तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं है। दूसरों पर उत्तरदायित्व थोप कर तुम एक गुलाम बन जाते हो। उत्तरदायित्व को अपने स्वयं के हाथों में ले लो।

कुछ दिन पूर्व एक संन्यासिनी ने मुझको बताया कि उसका पति सदैव उसके लिए समस्याएं उत्पन्न करता रहा है। और जब उसने अपनी कहानी सुनाई, तो ऊपर से ऐसा ही प्रतीत होता कि निःसंदेह उसका पति उत्तरदायी है। अपने पति से उसके आठ बच्चे हैं, और फिर एक अन्य स्त्री से उसके पति के तीन और बच्चे हैं, और अपनी सचिव से एक बच्चा है। अपने संपर्क में आने वाली हर स्त्री से वह सदैव चाहत का खेल खेला करता था। निःसंदेह इस बेचारी स्त्री से हर किसी को सहानुभूति हो जाएगी, उसने कितनी अधिक पीड़ा भोगी है, और यह सब चल रहा है। पति कोई बहुत अधिक कमा भी नहीं रहा है। यह स्त्री उसकी पैली कमाती है और उसको इन बच्चों का भी, जिनको उसने अन्य महिला द्वारा जन्माया है, व्यय वहन करना पड़ता है। निःसंदेह वह बहुत पीड़ा में है, लेकिन कौन उत्तरदायी है? मैंने उससे कहा : यदि तुम वास्तव में पीड़ा में हो तो तुम्हें इस आदमी के साथ रहना क्यों जारी रखना चाहिए? छोड़ दो। तुम्हें बहुत पहले ही छोड़ देना चाहिए था। संबंध जारी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। और वह समझ गई, जो एक दुर्लभ घटना है—बहुत बाद में, बहुत देर से समझी, लेकिन फिर भी अधिक देर नहीं हुई। अब भी उसका जीवन शेष है। अब यदि वह जोर देती है कि वह इस आदमी के साथ रहना पसंद करेगी तो वह अपनी स्वयं की पीड़ा पर जोर दे रही है। तब वह पीड़ा में जाने का मजा ले रही है। तब वह पति की निंदा करने का मजा ले रही है, तब वह हर किसी से सहानुभूति प्राप्त करने का मजा ले रही है। और निःसंदेह वह जिस किसी के भी संपर्क में आएगी वे उस बेचारी महिला के प्रति सहानुभूति व्यक्त करेंगे।

कभी सहानुभूति मत मांगो। समझ की मांग करो, लेकिन सहानुभूति कभी मत मांगो। वरना सहानुभूति इतनी अच्छी लग सकती है कि तुम पीड़ा में बने रहना पसंद करोगे। तब पीड़ा में तुम्हारा निवेश हो जाता है। यदि तुम पीडा में नहीं रहे तो लोग तुमसे सहानुभूति नहीं रखेंगे। क्या तुमने कभी निरीक्षण किया है? — प्रसन्न व्यक्ति के साथ कोई सहानुभूति नहीं रखता। यह कुछ नितांत असंगत बात है। लोगों को प्रसन्न व्यक्ति के साथ सहानुभूति रखना चाहिए, लेकिन उससे कोई सहानुभूति नहीं रखता। वास्तव में तो लोग प्रसन्न व्यक्ति के प्रति शत्रुता अनुभव करते हैं। वस्तुत: प्रसन्न हो जाना बहुत खतरनाक है। प्रसन्न होकर और अपनी प्रसन्नता को अभिव्यक्त करके तुम अपने आपको एक बहुत बड़े खतरे में डाल रहे हों—प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारा शत्रु हो जाएगा, क्योंकि प्रत्येक को अनुभव होगा, ‘तुम प्रसन्न कैसे हो गए मैं अप्रसन्न क्यों हो गया? असंभव, इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है। बस बहुत हो चुका।’

ऐसे समाज में जो अप्रसन्न और पीड़ित व्यक्तियों से मिल कर बना है, प्रसन्न व्यक्ति एक अजनबी है। इसीलिए हमने सुकरात को विष दे दिया, हमने जीसस को मार डाला, हमने मंसूर को सूली दे दी। हम कभी भी प्रसन्न व्यक्तियों के साथ सहजता से नहीं रह पाए। किसी भांति उन्होंने हमारे अहंकारों को अत्यधिक ठेस लगा दी। लोगों ने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, जब वे जीवित थे, तब उन्होंने उनको मार डाला। वे बहुत कम उम्र के थे, केवल तैंतीस वर्ष की आयु थी। अभी तक उन्होंने पूरा जीवन देखा भी नहीं था। वे अपना जीवन बस आरंभ ही कर रहे थे, बस एक कली खिल ही रही थी और लोगों ने उनको मार डाला, क्योंकि वे असहनीय हो गए थे। इतने प्रसन्न ?—प्रत्येक व्यक्ति आहत था। उन्होंने इस आदमी की हत्या कर दी। और फिर उन्होंने उनकी पूजा करना आरंभ कर दिया। जरा देखो—अब वे दो हजार वर्षों से उनकी पूजा करते आ रहे हैं, सूली पर चढ़ा कर जीसस की पूजा हो रही है। लेकिन सूली पर चढ़े हुए जीसस के साथ तुम सहानुभुति कर सकते हो, प्रसन्न जीसस के साथ तुम शत्रुता अनुभव करते हो।

वही यहां पर हो रहा है। मैं एक प्रसन्न व्यक्ति हूं। यदि तुम चाहते हो कि मैं पूजा जाऊं, तो तुमको मुझे सूली पर चढ़ाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। दूसरा कोई उपाय है ही नहीं। फिर वे लोग जो मेरे विरोध में हैं, मेरे अनुयायी बन जाएंगे। लेकिन पहले उन्हें मुझको सूली पर चढ़ा हुआ देखना पड़ेगा, इसके पहले वे अनुयायी नहीं बन सकेंगे। किसी प्रसन्न व्यक्ति की कभी किसी ने पूजा नहीं की है। पहले प्रसन्न व्यक्ति को नष्ट करना पड़ता है। निःसंदेह तब उसकी व्यवस्था की जा सकती है। अब तुम जीसस के साथ सहानुभूति कर सकते हो। जब कभी भी तुम जीसस की ओर देखते हो तुम्हारी आंखों से आंसू निकलना आरंभ हो जाते हैं, बेचारे जीसस, उन्होंने कितने दुख उठाए। नृत्य करते हुए क्राइस्ट उपद्रव उत्पन्न करते हैं।

स्वीडन में एक व्यक्ति जीसस पर एक फिल्म ‘जीसस दि मैन’ बनाने का प्रयास कर रहा है। दस वर्षो से वह कोशिश कर रहा है। लेकिन हजारों बाधाएं हैं। सरकार अनुमति नहीं देगी। जीसस दि मैन? नहीं। क्योंकि जीसस दि मैन का अर्थ होगा कि यह व्यक्ति मेरी मेग्दलीन के साथ प्रेम में पड़ गया होगा, और यह आदमी फिल्म के माध्यम से इस बात को सार्वजनिक प्रदर्शन कर देगा। जीसस ने स्त्रियों से प्रेम किया था। स्वाभाविक है यह, कुछ भी गलत नहीं है इसमें। वे एक प्रसन्न व्यक्ति थे, कभी—कभी वे शराब से प्रेम करते थे। वे उस प्रकार के व्यक्ति थे जो उत्सव मना सकता है। अब जीसस एक व्यक्ति की भांति खतरनाक हैं। और यह आदमी जीसस दि मैन, परमेश्वर का बेटा नहीं, बल्कि आदमी का बेटा, पर एक फिल्म बनाना चाहता है। यह उपद्रव पैदा करने वाला कार्य बन जाएगा। और यदि वह किसी कहानी पर काम करना आरंभ कर देता है तो उसको मेरी के किसी अनैतिक प्रेम संबंध को भी प्रस्तुत करना पड़ेगा, क्योंकि कोई कुंआरी स्त्री जन्म नहीं दे सकती। जीसस जोसफ के पुत्र नहीं थे, यह बात तो निश्चित है। लेकिन उनको किसी का पुत्र तो होना पड़ेगा। सरकार विरोध में है, चर्च विरोध में है। तुम यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हो कि जीसस अवैध संतान हैं! असंभव! फिल्म की अनुमति नहीं दी जा सकती है। और जीसस एक वेश्या मेरी मेग्दलीन के साथ प्रेम करते हुए? —और निश्चित है कि वे प्रेम करते थे। वे एक प्रसन्न व्यक्ति थे। प्रसन्न व्यक्ति के चारों ओर बस प्रेम घटित हो जाता है। उन्होंने जीवन का मजा लिया। यह जीवन परमात्मा का दिया हुआ प्रसाद है, व्यक्ति को इसका मजा लेना चाहिए। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति उत्सव मनाने वाला व्यक्ति होता है।

फिर उन्होंने इस व्यक्ति जीसस को मार डाला, उनको सूली पर चढ़ा दिया, और उसके बाद से वे उनकी पूजा करते चले आ रहे हैं। अब उनको व्यवस्थित किया जा सकता है; वे तुम्हारे भीतर काफी कुछ सहानुभूति उत्पन्न करते हैं। सूली पर लटके हुए जीसस बोधिवृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध से कहीं अधिक आकर्षक हैं। सूली पर चढ़े हुए जीसस अपनी बांसुरी बजाते हुए कृष्ण से अधिक आकर्षक हैं। जीसस विश्वव्यापी धर्म बन गए। कृष्ण? —उनकी चिंता कौन करता है? हिंदू तक उनके चारों ओर नृत्य करती हुई सोलह हजार नारियों के बारे में अपराध—बोध अनुभव करते हैं—असंभव, यह बस एक पौराणिक आख्यान है। हिंदू कहते हैं, यह एक सुंदर काव्य है; और वे इसकी व्याख्याएं किए चले जाते हैं। वे कहते हैं, ये सोलह हजार नारियां वास्तविक स्त्रियां नहीं थीं, ये सोलह हजार नाडिया, तंत्रिकाओं का जाल, मनुष्य के शरीर क भीतर की सोलह हजार तंत्रिकाएं हैं। यह मानव शरीर की प्रतीकात्मक व्याख्या है। कृष्ण आत्मा हैं और सोलह हजार तंत्रिकाएं आत्मा के चारों ओर नाचती हुई गोपियां हैं। फिर सभी कुछ ठीक है। लेकिन यदि वे असली स्त्रियां हैं, तब कठिन है यह मामला, इसे स्वीकार करना बहुत कठिन है।

भारत के एक और धर्म जैनियों ने कृष्ण को इन सोलह हजार स्त्रियों के कारण नरक में डाल रखा है। जैन—पुराणों में वे कहते हैं, कृष्ण सातवें अंतिम नरक में हैं… और वे शीघ्र बाहर भी नहीं आने वाले हैं। वे उस समय तक वहां रहेंगे जब तक कि यह सारी सृष्टि नष्ट नहीं हो जाती है। वे उसी समय बाहर आएंगे जब अगली सृष्टि का आरंभ हो जाएगा; अभी लाखों वर्ष प्रतीक्षा करना होगी। उन्होंने बहुत बड़ा पाप किया है, और बहुत बड़ा पाप हैं—क्योंकि वे उत्सव मना रहे थे। पाप बड़ा है—क्योंकि वे नृत्य कर रहे थे।

महावीर अधिक स्वीकार योग्य हैं; बुद्ध अभी भी अधिक स्वीकार योग्य हैं। कृष्ण अपने धर्म को छोड़ देने वाले एक ऐसे व्यक्ति प्रतीत होते हैं जिन्होंने गंभीर लोगों का भरोसा तोड़ दिया है। वे गैर—गंभीर, प्रसन्न थे—न उदास, न लंबा चेहरा—हंसते हुए, नृत्य करते हुए। और सच्चा रास्ता यही है। मैं तुमसे कहना चाहूंगा, परमात्मा की ओर जाते हुए अपने रास्ते पर नृत्य करते हुए जाओ, परमात्मा की ओर जाने वाले अपने रास्ते पर हंसते हुए जाओ। गंभीर चेहरों के साथ मत जाओ। उस ‘प्रकार के लोगों से परमात्मा पहले से ही काफी ऊब चुका है।

सहानुभूति एक बड़ा निवेश है और उसको केवल तभी जारी रखा जा सकता है जब कि तुम सहानुभूति प्राप्त करते चले जाओ, केवल तभी जब तुम परेशानी में बने रहो। इसलिए यदि एक परेशानी समाप्त हो जाती है तो तुम दूसरी बना लेते हो, यदि एक बीमारी तुमको छोड़ देती है तुम दूसरी निर्मित कर लेते हो। निरीक्षण करो इसका—तुम अपने साथ बहुत खतरनाक खेल खेल रहे हो। यही कारण है कि लोग परेशानी में हैं और अप्रसन्न हैं। वरना कोई आवश्यकता नहीं है।

अपनी सारी ऊर्जा को प्रसन्न होने में अर्पित कर दो, और दूसरों के बारे में चिंता मत करो। तुम्हारी प्रसन्नता तुम्हारी नियति है; इसमें हस्तक्षेप करने का हक किसी को नहीं है। लेकिन समाज हस्तक्षेप किए चला जाता है : यह एक दुष्‍चक्र है। तुम्हारा जन्म हुआ, और निःसंदेह तुम्हारा जन्म एक ऐसे समाज में हुआ जो पहले से ही वहां था, यह विक्षिप्त लोगों का, ऐसे लोगों का समाज है जो सभी परेशान और अप्रसन्न हैं। तुम्हारे माता—पिता, तुम्हारा परिवार, तुम्हारा समाज, तुम्हारा देश सभी तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं। एक छोटे बच्चे का जन्म हुआ है, सारा समाज उस पुर कूद पड़ता है, उसको सभ्य बनाने लगता है, सुसंस्कृत बनाने लगता है। यह इस प्रकार से है जैसे कि किसी बच्चे का जन्म पागलखाने में हुआ हो और सारे पागल उसे सिखाने लगें। निःसंदेह उनको सहायता करनी पड़ती है—बच्चा इतना छोटा है और संसार के बारे में कुछ भी नहीं जानता है। जो कुछ भी वे जानते हैं वे सिखा देंगे। उनके माता—पिता ने और दूसरे विक्षिप्त लोगों ने उन पर जो कुछ थोप दिया था, वे उसी को बच्चे पर थोप देंगे। क्या तुमने देखा है कि जब कभी कोई बच्चा खिलखिलाने और हंसने लगता है तो तुम्हारे भीतर कुछ असहज हो जाता है? तुरंत ही तुम उसको बता देना चाहते हो, इस हंसी इत्यादि को बंद करो और अपना लालीपॉप चूसो! अचानक तुम्हारे भीतर से कोई कहता है, बंद करो! जब कोई बच्चा खिलखिलाना आरंभ करता है, तो तुम्हें ईष्या का अनुभव होता है या किसी और भाव का? तुम एक बच्चे को, बस उसके भर पूर मजे के लिए यहां और वहां दौड़ लगाने और उछल—कूद की अनुमति नहीं दे सकते।

मैंने दो अमरीकन स्त्रियों, दो ईसाई साध्वियों के बारे में सुना है। वे एक पुराने चर्च को देखने के लिए इटली गई थीं। अमरीकन यात्री! चर्च में उन्होंने एक इतालवी महिला को प्रार्थना करते हुए और उसके चार या पांच बच्चों को चर्च के भीतर दौड़ते हुए और खूब शोरगुल करते हुए और पूरी तरह भूल कर कि यह चर्च है, प्रसन्न होते हुए देखा। उन दोनों अमरीकी महिलाओं को यह सहन नहीं हो सका बस बहुत हो चुका। यह चर्च की पवित्रता को भंग करना है। वे उस स्त्री, उनकी मां, के पास चली गईं और उससे कहा, ये बच्चें तुम्हारे हैं? यह चर्च है और यहां पर कुछ अनुशासन बना कर रखना पड़ता है! इनको नियंत्रण में रखा जाना चाहिए। उस महिला ने प्रार्थनापूर्ण आंखों से अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक आनंद के आंसू बहाते हुए उनको देखा और बोली, यह उनके पिता का घर है, क्या वे यहां खेल नहीं सकते? किंतु ऐसा दृष्टिकोण दुर्लभ है, बहुत दुर्लभ है।

मनुष्य—जाति पर विक्षिप्त लोगों का वर्चस्व रहा है—राजनेता, पुरोहित, वे विक्षिप्त हैं, क्योंकि महत्वाकांक्षा एक तरह का पागलपन है—और वे अपना ढंग थोपते चले जाते हैं। जब किसी बच्चे का जन्म. होता है तो वह ऊर्जा का एक उद्वेलन—आनंद, प्रसन्नता, हर्ष, प्रमुदिता का अंतहीन स्रोत—और कुछ नहीं बल्कि उल्लास और प्रफुल्लता से भरा हुआ होता है। तुम उस पर नियंत्रण करना आरंभ कर देते हो, तुम उसके पर कतरना आरंभ कर देते हो, तुम उसकी काट—छांट करने लगते हो। तुम कहते हो, ‘हंसने के कुछ उचित समय हुआ करते हैं।’ हंसने के लिए उचित समय? —इसका अभिप्राय हुआ: जीवित रहने के लिए उचित समय? तुम इसी बात को कह रहे हो, जीवित रहने के लिए उचित समय—तुमको चौबीसों घंटे जीवित नहीं रहना चाहिए। रोने के लिए भी उचित समय हुआ करते हैं। किंतु जब किसी बच्चे को हंसने जैसा लगता हो तो उसको क्या करना चाहिए? उसको नियंत्रण करना पड़ेगा, और जब तुम अपनी हंसी पर काबू पा लेते हो तो यह तुम्हारे भीतर कसैली और खट्टी हो जाती है। वह ऊर्जा जो बाहर जा रही थी भीतर रोक ली जाती है। ऊर्जा को वापस रोक कर तुम अपने भीतर कहीं अवरुद्ध हो जाते हो। बच्चा बाहर जाना, चारों और दौड़ लगाना, उछलना—कूदना और नृत्य करना चाहता है लेकिन अब उसको रोक दिया गया है। उसकी ऊर्जा अतिरेक में प्रवाहित होने के लिए तैयार है, लेकिन धीरे— धीरे वह केवल एक बात सीख लेता है—अपनी ऊर्जा के प्रवाह को रोक देना। इसी कारण से संसार में इतने अधिक अवरुद्ध व्यक्तित्व वाले, इतने तनावग्रस्त, सतत नियंत्रण करने वाले लोग हैं। वे रो नहीं सकते, पुरुष पर आंसू अच्छे नहीं लगते। वे हंस नहीं सकते, हंसी बहुत असभ्यतापूर्ण प्रतीत होती है। जीवन का इनकार कर दिया गया है, मृत्यु की पूजा की जाती है। तुम चाहोगे कि बच्चा के आदमी की भांति व्यवहार करे, और बूढ़े लोग अपने मुर्दा दृष्टिकोणों को नई पीढ़ी पर थोपना आरंभ कर देते हैं।

मैंने नब्बे वर्ष की एक की महिला, एक जागीरदारिन, के बारे में सुना है, जिसके पास कई एकड़ के बगीचे के बीच में बना बहुत बड़ा मकान था। एक दिन वह अपनी संपत्ति की देखभाल हेतु बाहर निकली, बहुत विशाल क्षेत्रफल में विस्तृत थी यह। तालाब के ठीक उस ओर, जंगल के पीछे उसने एक युवा जोड़े को प्रेमालाप में संलग्न देखा। उसने ड्राइवर से पूछा, ये लोग यहां पर क्या कर रहे हैं?—नब्बे वर्ष की उम्र थी उसकी, शायद वह भूल गई हो…ये लोग यहां पर क्या कर रहे हैं? ड्राइवर को सच बताना पड़ गया। बहुत नम्रतापूर्वक उसने कहा, वे युवा लोग हैं। वे सहवास कर रहे हैं। वह की स्त्री अत्यधिक क्रोधित हो उठी और उसने कहा, इस तरह का काम क्या संसार में अभी भी चल रहा है?

जब तुम बूढ़े हो जाते हो, तो क्या तुम सोचते हो कि सारा संसार बूढ़ा हो गया है? जब तुम मर रहे हो, क्या तुम सोचते हो कि सारा संसार मर रहा है? संसार अपने आप को फिर से नया, अपने आप को पुन: नवीनीकृत करता चला जाता है। इसीलिए यह बूढ़े लोगों को दूर ले जाता है और छोटे बच्चे संसार को वापस कर देता है। यह बूढ़े लोगों को छोटे बच्चों में बदल देता है।

अस्तित्व पृथ्वी की जनसंख्या में नये लोगों को सम्मिलित किए चला जाता है—जब कभी यह देखता है कि एक व्यक्ति पूरी तरह से अवरुद्ध हो चुका है—अब वहां न कोई प्रवाह है, न कोई रस है, और यह व्यक्ति बस सिकुड़ रहा है और अनावश्यक रूप से पृथ्वी पर एक बोझ हुआ जा रहा है—तब जीवन उससे वापस ले लिया जाता है। वह व्यक्ति नष्ट हो जाता है, अस्तित्व में वापस चला जाता है। मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है, आकाश आकाश में समा जाता है, वायु वायु से मिल जाती है, अग्नि अग्नि में, जल जल में मिल जाता है। फिर उस मिट्टी में से, उस जल और अग्नि में से एक नये बच्चे का जन्म हो जाता है—प्रवाहमान, युवा, ताजगी भरा, पुन: जीने और नृत्य करने को तैयार। ठीक उसी भांति जैसे वृक्ष पर पुष्प आते हैं, ठीक उसी प्रकार से जैसे कि वृक्ष पुष्पित होता है, यह पृथ्वी बच्चे निर्मित करती है, नये बच्चों का सृजन करती चली जाती है।

यदि तुम वास्तव में प्रसन्न रहना चाहते हो तो तुमको युवा, जीवंत, रोने, हंसने, सभी आयामों के लिए उपलब्ध, प्रत्येक दिशा में प्रवाहित, प्रवाहमान रहना पड़ेगा। तभी तुम प्रसन्न बने रहोगे। लेकिन याद रखो, तुमको कोई सहानुभुति नहीं मिलेगी। लोग तुमको पत्थर मार सकते हैं, लेकिन यह मूल्य है। लोग सोच सकते हैं कि तुम अधार्मिक हो, वे तुम्हारी निंदा कर सकते हैं, वे तुमको गालियां दे सकते हैं, किंतु इसके बारे में चिंता मत करो। इसका जरा भी महत्व नहीं है। वह एक मात्र चीज जिसका महत्व है—वह है तुम्हारी प्रसन्नता।

और तुमको अनेक चीजों को अनकिया भी करना पड़ेगा, केवल तभी तुम प्रसन्न हो सकते हो। समाज के द्वारा जो कुछ भी किया जा चुका है उसको अनकिया करना पड़ता है। जहां कहीं पर तुम अटके हो—तुम हंसने जा रहे हो और तुम्हारे पिता ने तुमको क्रोध से देखा और कहा, रुक जाओ—तुमको पुन: वहीं से आरंभ करना पड़ेगा। अपने पिता से कह दो, कृपया शांत रहिए, अब मैं पुन: हंसने जा रहा हूं। तुम्हारे सिर के भीतर कहीं पर अब भी तुम्हारे पिता तुमको पकड़े हुए हैं. रुक जाओ! क्या तुमने कभी देखा है? यदि तुम गहराई से ध्यान करते हो तो तुम अपने भीतर अपने माता—पिता की आवाज सुन लोगे। तुम रोने वाले थे और मां ने तुमको रोक दिया, और निःसंदेह तुम असहाय थे और जीवित रह पाने के लिए तुमको समझौते करने पड़ते थे। और कोई दूसरा उपाय था भी नहीं। तुमको इन लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था, और उनकी अपनी शर्तें थीं, वरना तुमको उन्होंने दूध नहीं दिया होता, उन्होंने तुमको भोजन नहीं दिया होता, उन्होंने तुमको कोई सहारा नहीं दिया होता। और एक छोटा बच्चा बिना किसी सहारे के कैसे जी सकता है? उसको समझौता करना पड़ता है। वह कहता है, ठीक है। बस जीवित रहने के लिए जो कुछ भी आप कहते हैं मैं वही करूंगा। इसलिए धीरे— धीरे वह नकली बन जाता है। धीरे— धीरे वह अपने स्वयं के विरोध में चला जाता है। वह हंसना चाहता था लेकिन पिता अनुमति नहीं दे रहे थे, इसलिए उसने मुह बंद रखा। धीरे— धीरे वह ढोंगी, पाखंडी हो जाता है।

और पाखंडी कभी प्रसन्न नहीं हो सकता, अपनी जीवन—ऊर्जा के प्रति सच्चा होना प्रसन्नता है। सच्चे होने के कृत्य का परिणाम है—प्रसन्नता। प्रसन्नता कहीं और नहीं है कि तुम जाओ और इसको खरीद लो। प्रसन्नता कहीं और तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रही है कि तुमको रास्ता खोजना पड़ेगा और उस तक पहुंचना पड़ेगा। नहीं, प्रसन्नता सच्चे, प्रमाणिक होने के कृत्य का फल है। तब कभी तुम सच्चे हो, तुम प्रसन्न हो। जब कभी तुम सच्चे नहीं हो, तुम अप्रसन्न हो।

और मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि यदि तुम सच्‍चे नहीं हो तुम अपने आगामी जीवन में अप्रसन्न होओगे। नहीं, यह सब बकवास है। यदि तुम सच्चे नहीं हो, तो ठीक इसी समय तुम अप्रसन्न हो। निरीक्षण करो—जब कभी भी तुम सच्चे नहीं होते हो, तुमको असहजता, अप्रसन्नता अनुभव होती है, क्योंकि ऊर्जा प्रवाहित नहीं हो रही है। ऊर्जा नदी जैसी नहीं है; यह अवरुद्ध, मृत, जमी हुई है। और तुम प्रवाहित होना पसंद करोगे। जीवन एक प्रवाह है; मृत्यु है जमी हुई अवस्था। अप्रसन्नता आती है क्योंकि तुम्हारे अनेक भाग जमे हुए हैं। उनको कभी कार्यरत नहीं होने दिया गया है और धीरे— धीरे तुमने उनको नियंत्रित करने की तरकीब सीख ली है। अब तुम यह भी भूल चुके हो कि तुम किसी चीज को नियंत्रित कर रहे हो। तुम शरीर में अपनी जड़ों को खो चुके हो। अपने शरीर के सत्य में स्थित अपनी जड़ों को खो चुके हो।

लोग भूतों की भांति जी रहे हैं, यही कारण है कि वे पीड़ा में हैं। जब मैं तुम्हारे भीतर झांकता हूं तो मुश्किल से ही मेरा किसी जीवित व्यक्ति से मिलना हो पाता है। लोग भूतों की, प्रेतात्माओं की भांति हो गए हैं। तुम अपने शरीर में नहीं हो; तुम अपने सिर के चारों ओर एक भूत की तरह मंडरा रहे हो, जैसे सिर के चारों ओर कोई गुब्बारा बंधा हुआ हो। एक छोटा सा धागा तुमको शरीर से जोड़े हुए है। यह धागा तुमको जीवित रखता है, कुल इतना है मामला, लेकिन यह जीवन आनंदपूर्ण नहीं है। तुमको चेतन होना पड़ेगा, तुमको ध्यान करना पड़ेगा, और तुमको सभी नियंत्रण छोड़ देने पड़ेंगे, तुम्हें सीखे को अनसीखा, किए हुए को अनकिया करना पड़ेगा और फिर पहली बार तुम पुन: प्रवाहमान हो जाओगे।

निःसंदेह, अनुशासन की आवश्यकता है, लेकिन नियंत्रण की भांति नहीं, बल्कि सजगता की भांति। नियंत्रित अनुशासन मुर्दा करने वाली घटना है। जब तुम सजग, बोधपूर्ण होते हो, तो उस सजगता से एक अनुशासन सरलता से आ जाता है—ऐसा नहीं है कि तुमने उसको थोप दिया है, ऐसा नहीं है कि तुमने इसकी योजना बनाई है। नहीं, पल—पल तुम्हारी सजगता यह निर्णय करती है कि किस भांति प्रतिसंवेदन किया जाए। और एक सजग व्यक्ति इस प्रकार से प्रतिसंवेदन करता है कि वह प्रसन्न बना रहता है, और वह दूसरों के लिए अप्रसन्नता निर्मित नहीं करता है।

यही सब कुछ तो धर्म है प्रसन्न बने रहो, और किसी व्यक्ति के लिए अप्रसन्न हो जाने के लिए कोई परिस्थिति मत निर्मित करो। यदि तुम सहायता कर सकी, तो दूसरों को प्रसन्न करो। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो कम से कम अपने आप को प्रसन्न कर लो।

प्रश्न:

 

मैं स्‍वप्‍न देखा करती हूं, कि मैं उड़ रही हूं, क्‍या हो रहा है?

जी .के. चेस्टरटन ने कहा है फरिश्ते उड़ते हैं, क्योंकि वे अपने आप को हलके ढग से लिया करते हैं। तुम्हें यही हो रहा होगा, अवश्य ही तुम फरिश्ता बनने जा रही हो। होने दो इसको। तुम्हें जितना हलकापन अनुभव होता है, जितनी प्रसन्नता तुमको अनुभव होती है, गुरुत्वाकर्षण बल का खिंचाव उतना ही कम हो जाता है। गुरुत्वाकर्षण बल तुम्हें कब बना देता है। भारीपन पाप है। भारी होने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि तुम अनजीए अनुभवों, अधूरे अनुभवों से भरे हुए हो; कि —तुम बहुत अनकिए कृत्यों, कचरे से भरे हुए हो। तुम किसी स्त्री से प्रेम करना चाहते थे, लेकिन यह कठिन था, क्योंकि महात्मा गांधी इसके विरोध में हैं। यह मुश्किल है, क्योंकि विवेकानंद इसके विरोध मे हैं। यह कठिन है, क्योंकि सारे महान ऋषि और महात्मा ब्रह्मचर्य, काम दमन की शिक्षा दिए चले जाते हैं। तुम प्रेम करना चाहते थे, लेकिन सभी साधु—संत इसके विरोध में थे, अत: तुमने किसी भी प्रकार से स्वयं को नियंत्रण में कर लिया। अब यह तुम पर एक कबाड़ की भांति लदा हुआ है। यदि तुम मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा कि तुमको प्रेम कर लेना चाहिए था। अब भी कुछ खो नहीं गया है, तुमको प्रेम करना चाहिए, इसे पूरा कर लो। मैं जानता हूं कि मुनि और महात्मा सही हैं, लेकिन मैं यह नहीं कहता कि तुम गलत हो।

और इस विरोधाभास को मैं तुम्हें समझाता हूं। मुनि और महात्मागण सही हैं, किंतु यह समझ उनको तब उपलब्ध हुई जब उन्होंने खूब प्रेम कर लिया, उसके बाद उपलब्ध हुई जब वे जी लिए, जब उन्होंने वह. सभी कुछ समझ लिया जो प्रेम में निहित है। तब वे इस समझ पर पहुंचे हैं और ब्रह्मचर्य फलित हुआ है। यह प्रेम के विरोध में नहीं है, यह माध्यम प्रेम ही है जिससे ब्रह्मचर्य फलित होता है। अब तुम पुस्तकों को, शास्त्रों को पढ़ रहे हो, और शास्त्रों के द्वारा तुमको इस प्रकार के खयाल मिलते रहते हैं। ये खयाल तुमको पंगु कर देते हैं। अपने आप में वे खयाल गलत नहीं हैं, किंतु तुम पुस्तकों से उनको ग्रहण कर लेते हो, और वे ऋषिगण उन पर अपने स्वयं के जीवन के माध्यम से पहुंचे हैं। जरा इतिहास में, प्राचीन पुराणों में वापस लौटो और अपने ऋषियों को देखो, उन्होंने पर्याप्त प्रेम किया है, वे जी भर कर जीए हैं, उन्होंने सबलता और सघनता के साथ मानवीय जीवन को आत्यंतिक रूप से जीया है। और फिर धीरे—धीरे वे इस समझ पर पहुंचे हैं।

यह केवल जीवन ही है जो समझ लेकर आता है। तुम क्रोधित होना चाहते थे, किंतु सभी शास्त्र इसके विरोध में हैं, इसलिए तुमने क्रोध कभी न होने दिया। अब वह क्रोध इकट्ठा होता चला जाता हैं—परत दर परत—और तुम उस बोझ को ढोते फिर रहे हो, इसके नीचे करीब—करीब दबे जा रहे हो। यही कारण है कि तुम इतना भारीपन महसूस करते हो। इसे बाहर फेंको, छोड़ दो इसे! किसी खाली कमरे में चले जाओ और क्रोधित हो जाओ, और वास्तव में क्रोधित हो जाओ—तकिए को पीटो, और दीवालों पर क्रोधित हो जाओ, और दीवालों से बातें करो और उन बातों को कहो जिनको तुम सदैव कहना चाहते थे किंतु तुम कह नहीं पाए थे। उत्तेजना में आ जाओ, क्रोधाविष्ट हो जाओ और तुम एक सुंदर अनुभव पर पहुंचोगे। इस विस्फोट के बाद, इस तूफान के बाद, एक मौन तुम पर आएगा, एक मौन तुम पर व्याप्त हो जाएगा, एक ऐसा मौन जिसको तुमने पहले कभी नहीं जाना था, जो तुम्हें निर्भार कर देता है। अचानक तुम हलका अनुभव करते हो।

यह प्रश्न विद्या ने पूछा है। मैं देख सकता हूं कि वह हलकापन अनुभव कर रही है। इसमें और गहरी जाओ, जिससे न केवल स्वप्नों में बल्कि तुम वास्तव में उड़ सको।

यदि तुम अपने अतीत को नहीं ढो रहे हो, तो तुम्हारे पास ऐसा हलकापन होगा—पंख की भांति हलकापन। तुम जीओगे, लेकिन तुम पृथ्वी को स्पर्श नहीं करोगे। तुम जीते हो, लेकिन तुम पृथ्वी पर कदमों के कोई निशान नहीं छोड़ते हो। तुम जीते हो, किंतु तुमसे किसी को एक खरोंच तक नहीं लगती, और तुम्हारा जीवन एक प्रसाद से घिरा हुआ होता है, तुम्हारा अस्तित्व एक आभा, एक दीप्ति होता है। केवल ऐसा नहीं हे कि तुम हलके हो जाओगे, बल्कि जो भी तुम्हारे संपर्क में आएगा वह अचानक किसी बहुत सुंदर, बहुत प्रसादपूर्ण अनुभूति से भर जाएगा। तुम्हारे चारों ओर पुष्पों की वर्षा होगी, और तुममें एक ऐसी सुगंध होगी जो इस पृथ्वी की नहीं होगी। लेकिन यह केवल तब अनुभव होता है जब तुम निर्भार हो जाते हो।

इस निर्भार होने को महावीर ने निर्जरा कहा है—सभी कुछ छोड़ देना। लेकिन छोड़ा कैसे जाए? तुम्हें सिखाया गया है—क्रोधित मत होओ। मैं भी तुम्हें क्रोधित न होना सिखाता हूं लेकिन मैं तुमसे क्रोध न करने को नहीं कहता हूं। मैं कहता हूं क्रोधित होओ। किसी के प्रति, किसी पर क्रोध करने की कोई आवश्यकता नहीं है, उससे जटिलता उत्पन्न होती है। बस शून्यता में क्रोधित हो जाओ। नदी के किनारे पर चले जाओ, जहां पर कोई नहीं हो, और बस क्रोधित हो जाओ, और तुम जो कुछ भी करना चाहो कर लो। क्रोध का जम कर रेचन करने के बाद तुम रेत पर गिर पड़ोगे, और तुम देखोगे कि तुम उड़ रहे हो। एक पल के लिए अतीत खो गया है।

और प्रत्येक भावना के साथ यही किया जाना चाहिए। धीरे— धीरे तुम यह अनुभव करोगे कि यदि तुम क्रोधित होने का प्रयास करो तो तुम भावनाओं की एक श्रृंखला से होकर गुजरोगे। पहले तुम क्रोधित होओगे, फिर अचानक तुम चीखना—चिल्लाना आरंभ कर दोगे, शून्यता में से आएगा यह सब। क्रोध निकल गया, शांत हो गया—तुम्हारे अस्तित्व की एक और परत, उदासी का एक और बोझ छू लिया गया है। प्रत्येक क्रोध के पीछे उदासी होती है, क्योंकि जब कभी भी तुम अपने क्रोध को रोकते हो तुम उदास

हो जाते हो। इसलिए क्रोध की प्रत्येक परत के बाद उदासी की एक परत होती है। जब क्रोध निकल जाता है, तो तुम उदासी अनुभव करोगे, इस उदासी को निकाल फेंको—तुम रोना, सुबकना आरंभ कर दोगे। रोओ, सुबको, आंसुओ को बहने दो। उनमें कुछ गलत नहीं है। संसार की सर्वाधिक सुंदर चीजों में से एक हैं आंसू इतने विश्रांतिदायक, इतने शांतिदायी। और जब आंसू जा चुके हैं, अचानक तुम एक और भावना को देखोगे, तुम्हारे भीतर कहीं गहराई में फैलती हुई एक मुस्कुराहट, क्योंकि जब उदासी निकल जाती है, व्यक्ति एक बहुत स्निग्ध, कोमल, नाजुक, प्रसन्नता का अनुभव करने लगता है। यह आएगी, यह उभरेगी और यह तुम्हारे सारे अस्तित्व पर परिव्याप्त हो जाएगी। और तब तुम देखोगे कि पहली बार तुम हंस रहे हो—पेट की हंसी—स्वामी सरदार गुरदयाल सिंह की भांति एक पेट की हंसी। उनसे सीख लो। वे इस आश्रम में हमारे जोरबा दि ग्रीक हैं। उनसे सीखो कि हंसा कैसे जाए।

जब तक तुम्हारे पेट से तरंगें न उठे तुम हंस नहीं रहे हो। लोग सिर से हंसते है; उनको पेट से हंसना चाहिए। उदासी की निर्जरा हो जाने के बाद तुम हंसी को, करीब—करीब पगला देने वाली हंसी, एक विक्षिप्त सी हंसी को उठता हुआ देखोगे। तुम ऐसे हो जाते हो जैसे कि तुम आविष्ट हो गए हो और तुम जोर से हंसते हो। और जब यह हंसी विदा हो चुकी है तुम हलका, निर्भार, उड़ता हुआ अनुभव करोगे। पहले यह तुम्हारे स्‍वप्‍नों में प्रकट होगा। और धीरे— धीरे तुम्हारी जागी हुई अवस्था में भी तुम अनुभव करोगे कि तुम अब चल नहीं रहे हों—तुम उड़ रहे हो।

हो, चेस्टरटन सही कहता है : फरिश्ते उड़ते हैं, क्योंकि वे अपने आप को हलके ढंग से लेते हैं। स्वयं को हलके ढंग से लो।

अहंकार स्वयं को बहुत गंभीरता से लेता है। अब एक समस्या है; धर्म में अहंकारी लोग अत्यधिक उत्सुक हो जाते हैं। और वास्तव में वे धार्मिक हो पाने के लिए करीब—करीब असमर्थ हैं। केवल वे लोग जो गैर—गंभीर हैं धार्मिक हो सकते हैं, लेकिन वे धर्म में कोई बहुत अधिक उत्सुक नहीं होते। इसलिए एक विरोधाभास, एक समस्या संसार में बनी रहती है। गंभीर लोग, गा लोग, उदास लोग—अपने सिरों में अटके हुए आशंकित लोग, वे धर्म में बहुत उत्सुक हो जाते हैं, क्योंकि धर्म उनके अहंकार के लिए सबसे बड़ा लक्ष्य दे देता है। वे दूसरे संसार का कुछ कर रहे हैं, और सारा संसार बस इसी संसार का कार्य कर रहा है—वे भौतिकवादी हैं, निंदनीय हैं। प्रत्येक व्यक्ति नरक जा रहा है; केवल ये धार्मिक लोग स्वर्ग जा रहे हैं। अपने अंहकारों में वे लोग बहुत—बहुत ताकतवर अनुभव करते हैं। किंतु ये वे ही लोग हैं जो धार्मिक नहीं हो सकते हैं। ये वे ही लोग हैं जिन्होने विश्व के सभी धर्मों को नष्ट कर डाला है।

जब भी किसी बुद्ध का उदय होता है, ये लोग एकत्रित होना आरंभ कर देते हैं। जब वह जीवित होता है वह उनको शक्तिशाली होने की अनुमति नहीं देता। लेकिन जब वह विदा हो जाता है, धीरे— धीरे ये गंभीर लोग गैर—गंभीर लोगों के साथ चालाकी करना आरंभ कर देते हैं। इसी प्रकार से सारे धर्म संगठित हो जाते हैं और सारे धर्म मृत हो जाते हैं। जब बुयरुष यहां होता है वह अपनी मुस्कुराहट बिखेरता रहता है और वह लोगों की सहायता करता रहता है।

इसलिए अनेक बार मैंने यह कहानी कही है, कि बुद्ध एक दिन अपने हाथ में एक फूल लेकर आते हैं और चुपचाप बैठ जाते हैं। कई मिनट बीत गए, फिर कोई घंटा भर हो गया और प्रत्येक व्यक्ति असहज, चिंतित, परेशान है; वे बोल क्यों नहीं रहे हैं? पहले कभी उन्होंने ऐसा नहीं किया था? और वे लगातार फूल को ही देखते रहे जैसे कि वे उन हजारों लोगों को भूल चुके हों जो उनको सुनने के लिए एकत्रित हुए थे। और फिर एक शिष्य महाकश्यप ने हंसना आरंभ कर दिया, पेट की हंसी। उस शांत मौन में उसकी हंसी फैल जाती है। बुद्ध उसकी ओर देखते हैं। उस शांत मौन में उसकी हंसी फैल जाती है। बुद्ध उसकी ओर देखते हैं और उसको निकट बुलाते हैं, फूल उसको दे देते हैं और कहते हैं जो कुछ मैं शब्दों से कह सकता हूं मैंने तुमसे कह दिया है, और जो कुछ मैं शब्दों से नहीं कह सकता हूं उसको मैं महाकश्यप को प्रदान करता हूं—हंसते हुए महाकश्यप को। अपनी विरासत बुद्ध ने हंसी को प्रदान कर दी है? लेकिन महाकश्यप खो जाता है। वे गंभीर लोग जो समझ नहीं पाते चालाकी कर लेते हैं। जब बुद्ध विदा हो जाते हैं, महाकश्यप के बारे में कोई कुछ भी नहीं सुनता है। लेकिन महाकश्यप को क्या हुआ जिसको बुद्ध ने सबसे गुप्त संदेश दिया। वह संदेश जिसको शब्दों द्वारा नहीं दिया जा सकता, वह जिसको केवल मौन और हंसी में लिया और दिया जा सकता है, वह संदेश जिसको केवल आत्यंतिक मौन द्वारा आत्यंतिक हंसी को ही दिया जा सकता है? महाकश्यप को क्या हो गया? बौद्ध शास्त्रों में कुछ भी उल्लेख नहीं है—केवल यही एक मात्र कथा है, बस बात खत्म। जब बुद्ध विदा हो गए महाकश्यप को भुला दिया गया, फिर गंभीर लंबे चेहरे वालों ने संगठन बनाना आरंभ कर दिया। हंसी को कौन सुनेगा? और महाकश्यप वापस लौट कर आएगा, क्यों चिंता करना? —ये गंभीर लोग इतना अधिक लडू—झगडू रहे थे कि वह व्यक्ति जो हंसी को प्रेम करता है प्रतियोगियों की इस पागल भीड़ से बाहर निकल आएगा। बुद्ध संघ बुद्ध के समुदाय का अधिष्ठाता कौन होने जा रहा है? —और राजनीति और संघर्ष, और मतदान और सभी कुछ का प्रवेश हो जाता है। महाकश्यप बस खो जाता है। उसकी मृत्यु कहां हुई—कोई नहीं जानता। बुद्ध के वास्तविक उत्तराधिकारी को कोई नहीं जानता। कई शताब्दिया, लगभग छह शताब्दिया व्यतीत हो गईं, फिर एक अन्य व्यक्ति बोधिधर्म चीन पहुंचता है। पुन: महाकश्यप का नाम सुना जाता है, क्योंकि बोधिधर्म कहता है, मैं संगठित बौद्धधर्म का अनुयायी नहीं हूं। मैंने अपना संदेश सदगुरुओं की सीधी श्रृंखला से लिया है। यह श्रृंखला बुद्ध के द्वारा महाकश्यप को फूल देने से आरंभ हुई थी और मैं छठवां हूं। बीच के अन्य चार कौन थे? —लेकिन यह एक गुप्त बात हो गई है। जब विक्षिप्त लोग अत्यधिक महत्वाकांक्षी हो जाते हैं और राजनीति ताकतवर हो जाती है तो हंसी छिप जाती है। यह एक व्यक्तिगत, अंतरंग संबंध बन जाती है। महाकश्यप ने चुपचाप अपना संदेश किसी को दे दिया होगा और फिर उसने किसी और को दे दिया होगा और इसी प्रकार से किसी ने बोधिधर्म को दिया होगा।

बोधिधर्म चीन किसलिए गया था? झेन बौद्ध लोग शताब्दियों से पूछते रहे हैं, क्यों? यह बोधिधर्म चीन क्यों गया था? मैं जानता हूं उसका कारण है। चीनी लोग भारतीयों से अधिक प्रसन्न, जीवन और छोटी—छोटी चीजों से अधिक आनंदित, अधिक बहुरंगी अभिरुचियों वाले हैं। यही कारण होना चाहिए कि क्यों बोधिधर्म ने इतनी लंबी यात्रा की, उन लोगों को खोजने और पाने के लिए जो उसके साथ हंस सकें, और जो लोग गंभीर नहीं थे, न ही महान विद्वान और दर्शनशास्त्री और यह और वह थे, उसने सारा हिमालय पार किया। नहीं, चीन ने वैसे महान दर्शनशास्त्री उत्पन्न नहीं किए जैसे भारत ने। उसने लाओत्सु और च्चांगत्सु जैसे कुछ महान रहस्यदर्शी निर्मित किए, लेकिन वे सभी हंसते हुए बुद्ध थे। बोधिधर्म की चीन की ओर जाने की खोज को उन लोगों की खोज होना चाहिए जो गैर—गंभीर, हलके थे।

यहां पर मेरा पूरा प्रयास तुमको गैर—गंभीर, हंसता हुआ, हलका बना देने का है। मेरे पास लोग, खास तौर से भारतीय, शिकायत करने आते हैं कि आप किस प्रकार के संन्यासी निर्मित कर रहे हैं? वे संन्यासी जैसे नहीं दिखाई पड़ते। संन्यासी को गंभीर व्यक्ति, लगभग मुर्दा, एक लाश की भांति होना चाहिए। ये लोग हंसते हैं और नृत्य करते हैं और एक—दूसरे का आलिंगन करते हैं। अविश्वसनीय है यह! संन्यासी यह कर रहे हैं? और मैं उनसे कहता हूं और कौन? और कौन यह यह कर सकता है?—केवल संन्यासी लोग ही हंस सकते हैं।

इसलिए विद्या, बहुत अच्छा—हंसो, आनंदित होओ, और—और हलकी हो जाओ।

तीसरा प्रश्न:

 

आपका प्रत्‍येक प्रवचन जीवन में एक नया गुण लेकर आता है। कभी—कभी मैं आपकी उपस्‍थिति से ओत—प्रोत होकर बाहर निकलती हूं, तो कभी—कभी दिग्‍भ्रमित और इसके साथ ही समृद्ध, नई होकर बाहर आती हूं। मैं जीवन के द्वारा प्रेम कियाजाना और प्रेमपूर्ण अनुभव करती हूं। कभी सबसे मधुर दर्शन के बाद भी मैं गहराई से हताश अनुभव करती हूं। क्‍या आप इसके बारे में कुछ कहेंगे?

ह प्रश्न प्रपत्ति ने पूछा है।

हां, मैं जानता हूं कि यह घटित होता है। इसको घटित होना ही है। यह गहन रूप से विचारणीय है; मैं चाहता हूं कि यह इसी प्रकार से घटित हो। जब तुम सुबह के प्रवचन में मुझको सुन रही होती हो तो मैं तुमसे व्यक्तिगत रूप से बात नहीं कर रहा होता हूं। मैं किसी व्यक्ति से व्यक्तिगत रूप से बात नहीं कर रहा हूं। मैं किसी विशेष व्यक्ति से बात नहीं कर रहा हूं मैं बस बोल रहा हूं। निःसंदेह इसमें तुम सम्मिलित नहीं हो, तुम मात्र एक श्रोता हो। यदि मैं तुम्हारे सिरों पर प्रहार करता हूं तो भी सदैव तुम यही सोच लेती हो कि यह दूसरों के लिए है, तुम सदैव बहाने खोज सकती हो : ओशो इसको दूसरों के लिए कर रहे हैं, और अच्छे ढंग से कर रहे हैं। तुम सदैव अपने आप को बाहर रख सकती हो। लेकिन प्रपत्ति, संध्या के समय जब तुम दर्शन में आती हो तो मैं विशेष रूप से तुमसे ही बात कर रहा होता हूं। तब मैं तुम पर चोट करता हू और तुम इससे बच नहीं सकती। और मुझे पता है कि तुमको कई चोटों की आवश्यकता है, क्योंकि तुमको जगाने का कोई और उपाय नहीं है। जगाने वाले अलार्म को झकझोरने वाला और कठोर होना पड़ता है, और जिस समय तुम सोए रहना पसंद करोगी, अलार्म तुमको बाधा पहुंचाता है। वास्तव में, ठीक उन्हीं पलों में जब तुम असल में सोना चाहते थे, अचानक अलार्म बज उठता है।

जब कभी मैं तुम्हारे मन में निद्रा का कोई अंश देखता हूं मुझको तुम्हारे ऊपर जोर से प्रहार करना पड़ता है। और निःसंदेह, दर्शन में तुम मेरा सामना कर रही होती हो, यह एक मुठभेड़ है, और तुम हताश अनुभव करती हो। यदि तुम समझ जाओ तो तुम परितृप्त अनुभव करोगी हताश नहीं, यदि तुम समझ जाओ तो तुम देख लोगी कि मैं क्यों तुम पर इतनी कठोरता से प्रहार करता हूं। मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूं। यह करुणा के कारण होना चाहिए कि मैं तुम पर इतना जोर से प्रहार करता हूं। यदि तुम मुझको समझ सको तो तुम आभारी होगी कि मैंने तुम्हारे ऊपर चोट करने की चिंता की।

मैं तुमको कुछ कहानियां सुनाता हूं :

एक व्यक्ति एक बड़े स्टोर में गया और दैनिक उपयोग की कुछ वस्तुएं खरीदीं। जब वह भुगतान काउंटर खड़ा था तो उसने स्टोर सहायक के पैर पर लात मार दी। फिर उसने क्षमायाचना की, महोदय, मुझको अपनी इस हरकत पर बेहद शर्म और खेद है। यह मेरी एक गलत आदत है।

तो आप इसके बारे में किसी चिकित्सक से संपर्क क्यों नहीं करते? स्टोर सहायक ने पूछा।

अगली बार वह जल्दी ही स्टोर में सामान खरीदने आया। इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ।

मुझको लगता है कि आप ठीक हो गए हैं, सहायक ने कहा, क्या आप मनोचिकित्सक के पास गए मैं गया था, उस व्यक्ति ने कहा।

उन्होंने आपको किस भांति ठीक किया? सहायक ने पूछा।

हुआ यह, उस व्यक्ति ने कहा, जब मैंने उसके पैर पर लात मारी तो उसने वापस मुझे लात मार दी— और बहुत जोर से मारी।

इसलिए याद रखो, जब तुम मेरे पास आती हो, यदि तुम मुझको चोट पहुंचाओ, तो मैं तुम पर बहुत जोर से प्रहार करने वाला हूं। और कभी—कभी तो यदि तुम प्रहार न करो तो भी मैं प्रहार कर देता हूं। तुम्हारे अहंकार को खंडित करना पड़ता है, इसी कारण हताशा. होती है। यह हताशा अहंकार की है, यह हताशा तुम्हारी नहीं है। मैं तुम्हारे अहंकार को अनुमति नहीं देता, मैं इसे किसी भी तरह का दृश्य या अदृश्य सहारा नहीं देता। लेकिन सुबह के प्रवचन में यह बहुत सरल है। जो भी प्रहार मैं करता हूं वह दूसरों के लिए ‘होता है, और जो कुछ भी तुमको अच्छा लगता है तुम्हारे लिए होता है, तुम चुनाव कर सकती हो। लेकिन संध्या दर्शन में नहीं।

तुमको मैं एक कहानी और सुनाता हू।

स्त्री क्या तुम मुझको अपने पूरे हृदय और आत्मा से प्रेम करते हो?

पुरुष. ओह, हां।

स्त्री : क्या तुम सोचते हो कि मैं संसार में सबसे सुंदर स्त्री हूं?

पुरुष ही।

स्त्री क्या तुम सोचते हो कि मेरे होंठ गुलाब की पंखुड़ियों जैसे हैं, मेरी आंखें झील जैसी हैं, मेरे बाल रेशम जैसे हैं।

पुरुष ही।

स्त्री. ओह, तुम कितनी प्यारी बातें करते हो।

सुबह के प्रवचन में, यह बहुत सरल है, तुम जिस पर विश्वास करना चाहो कि मैं तुमसे कह रहा हू विश्वास कर सकती हो। लेकिन संध्या के दर्शन में यह असंभव है।

लेकिन, स्मरण रखो कि तुम्हारी सहायता करने के लिए मैं तुम पर कठोर प्रहार करता हूं। यह प्रेम और करुणा के कारण है। जब कोई अजनबी मेरे पास आता है, मैं उस पर दर्शन तक में कोई प्रहार नहीं करता हूं। वास्तव में मैं कोई संबंध निर्मित नहीं करता हूं क्योंकि मेरी ओर से किया गया संबंध बिजली के झटके जैसा होने जा रहा है। केवल संन्यासियों के साथ मैं और कठोर हूं और जब मैं देखता हूं कि तुम्हारी क्षमता महत्तर है तो मैं कठोर हो जाता हूं। प्रपत्ति में महत क्षमता है। वह सुंदरतापूर्ण ढंग से विकसित और पुष्पित हो सकती है, और बहुत कम समय में यह हो सकता है, लेकिन उसको बहुत: अधिक काट—छांट की आवश्यकता है। इससे पीड़ा होती है। याद रखो, जब कभी पीड़ा हो, सदैव निरीक्षण करो… और तुम देखोगी कि यह अहंकार है जिसको पीड़ा होती है, तुम नहीं हो। अहंकार को गिरा कर, अहंकार को काट—छांट कर, एक दिन तुम, तुम उससे, बादल से बाहर निकल आओगी। और तब तुम मेरे प्रेम को और मेरी करुणा को समझोगी, इससे पहले नहीं।

मुझसे लोग पूछते हैं, ‘यदि हम संन्यासी नहीं हैं, तो क्या आप हमारी सहायता नही करेंगे?’ मैं

सहायता करने के लिए तैयार हूं किंतु तुम्हारे लिए यह सहायता ले पाना कठिन होगा। एक बार तुम संन्यासी हो जाओ, तुम मेरा भाग बन जाते हो। फिर जो कुछ भी मैं करना चाहूं कर सकता हूं और तब मैं तुम्हारी अनुमति लेने की फिकर भी नहीं करता, अब उसकी आवश्यकता न रही। एक बार तुम संन्यासी बन गए, तो तुमने मुझको सारी अनुमति दे दी है, तुमने मुझको पूरा अधिकार दे दिया है। जब तुम संन्यास लेते हो तो तुम मुझको अपना हृदय दिखा कर सहमति दे रहे हो। तुम कह रहे हो : ‘अब मैं यहां हूं जो कुछ आप करना चाहें कर लें।’ और निःसंदेह मुझको अनेक ऐसे भाग काटने पड़ते हैं जो गलती से तुम्हारे साथ जुड़ गए हैं। यह करीब—करीब एक शल्य—क्रिया होने जा रही है। अनेक चीजों को हटाना, निष्‍क्रिय करना पड़ता है। अनेक चीजों को तुम्हारे साथ जोड़ना पड़ता है। तुम्हारी ऊर्जा को नये रास्तों पर जाने के लिए व्यवस्थित करना पड़ता है; यह गलत दिशाओं में गति कर रही है। इसलिए यह लगभग विध्वंस करने और फिर पुन: निर्माण करने जैसा है। यह करीब—करीब एक उपद्रव होने जा रहा है। किंतु स्मरण रखो, कि नृत्य करते हुए सितारों का जन्म उपद्रव में से ही होता है, दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

अंतिम प्रश्न:

 

पूरब में इस बात पर बल दिया जाता है कि व्‍यक्‍ति को प्रेम—संबंध में एक व्‍यक्‍ति एक ही व्‍यक्‍ति के साथ बने रहना चाहिए। पश्‍चिम में अब लोग एक संबंध से दूसरे संबंध में चले जाते है। आप किसके पक्ष में है?

मैं प्रेम के पक्ष में हूं।

मुझको तुम्हारे लिए यह बात स्पष्ट करने दो : प्रेम के प्रति ईमानदार रहो और साथियों की चिंता मत करो। भले ही साथी एक हो या अनेक साथी हों, प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या तुम प्रेम के प्रति ईमानदार हो? यदि तुम किसी स्त्री या पुरुष के साथ रहते हो और उसको प्रेम नहीं करते हो, तो तुम पाप में जीते हो। यदि तुम्हारा किसी से विवाह हुआ है और तुम उस व्यक्ति को प्रेम नहीं करते हो, और फिर भी तुम उसके साथ जीए चले जाते हो., उस स्त्री या पुरुष के साथ प्रेम करते रहते हो, तो तुम प्रेम के विरोध में एक पाप कर रहे हो… और प्रेम परमात्मा है।

तुम सामाजिक औपचारिकताओं, सुविधाओं, सहूइलयतों के लिए प्रेम के विपरीत निर्णय ले रहे हो। यह उतना ही अनुचित है जितना कि तुम जाकर किसी स्त्री के साथ बलात्कार कर लो जिससे तुम्हारा कोई प्रेम नहीं है। तुम किसी स्त्री के साथ बलात्कार करते हो, तो यह एक अपराध है—क्योंकि तुम उस स्त्री से प्रेम नहीं करते और वह स्त्री तुमको प्रेम नहीं करती। लेकिन, यदि तुम किसी स्त्री के साथ रहते हो और तुम उसको प्रेम नहीं करते, तब भी ऐसा ही होता है। तब एक बलात्कार है यह, निःसंदेह यह सामाजिक रूप से स्वीकृत है किंतु यह बलात्कार है—और तुम प्रेम के देवता के विपरीत जा रहे हो।

इसलिए जैसे कि पूरब में लोगों ने अपने संपूर्ण जीवन के लिए एक साथी के साथ रहने का निर्णय ले लिया है, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यदि तुम प्रेम के प्रति सच्चे बने रहते हो तो एक व्यक्ति के साथ रहते रहना सुंदरतम बात है, क्योंकि घनिष्ठता विकसित होती है। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत संभावनाएं तो यही हैं कि वहां कोई प्रेम नहीं होता, केवल तुम साथ—साथ रहते हो। और साथ—साथ रहने से एक प्रकार का संबंध विकसित हो जाता है, जो कि केवल साथ—साथ रहने से बन गया है, प्रेम के कारण नहीं बना है। और इसे प्रेम समझने की गलती मत करना। किंतु यदि ऐसा संभव हो जाए, यदि तुम एक व्यक्ति को प्रेम करो और उसके साथ पूरा जीवन रहते हो, तो एक गहरी घनिष्ठता विकसित होगी, और प्रेम तुम्हारे लिए गहनतर और गहनतर रहस्योदघाटन करेगा। यदि तुम अक्सर अपने जीवन—साथी को बदलते रहो तो यह संभव नहीं है। यह इस प्रकार से है जैसे कि तुम किसी वृक्ष को उखाड़ कर उसका स्थान बदल दो; कुछ समय बाद पुन: बदल दो, तब यह कभी अपनी जड़ों को कहीं जमा नहीं सकता। जड़ें जमाने के लिए वृक्ष को एक स्थान पर बने रहने की आवश्यकता है, तब यह गहराई में जाता है, तब यह और शक्तिशाली हो जाता है। घनिष्ठता अच्छी बात है, और एक प्रतिबद्धता में बने रहना सुंदर है, किंतु आधारभूत आवश्यकता हैं—प्रेम। यदि वृक्ष को ऐसे स्थान पर लगा दिया जाए जहां पर केवल चट्टानें हैं और वे वृक्ष को मारे डाल रही हैं, तब वृक्ष को हटा देना ही बेहतर है। तब यह आग्रह मत करो कि उसको एक ही स्थान पर बने रहना चाहिए। जीवन के प्रति सच्चे बने रहो, वृक्ष को हटा दो, क्योंकि अब यह मामला जीवन के विपरीत जा रहा है।

पश्चिम में लोग बदल रहे हैं—बहुत से संबंध। प्रेम की दोनों उपायों से हत्या होती है। पूरब में इसको मार डाला गया है, क्योंकि लोग परिवर्तन से भयभीत हैं, पश्चिम में इसकी हत्या की गई, क्योंकि लोग एक साथी के साथ लंबे समय तक रहने से भयभीत हैं, भयग्रस्त हैं, क्योंकि यह एक प्रतिबद्धता बन जाता है। इसलिए इससे पहले कि यह एक प्रतिबद्धता बन जाए, बदल डालों। इस प्रकार तुम मुक्त और स्वतंत्र बने रहते हो और एक खास प्रकार की आवारगी बढ़ने लगती है। ओर स्वतंत्रता के नाम पर प्रेम को करीब—करीब कुचल दिया गया है, मौत के मुहाने पर खड़ा है प्रेम। प्रेम को दोनों उपायों से क्षति पहुंची है पूरब में लोग सुरक्षा, सुविधा तथा औपचारिकता से आसक्त हैं; पश्चिम में वे अपने अहंकार की स्वतंत्रता, अप्रतिबद्धता से आसक्त हैं—लेकिन प्रेम को दोनों उपायों के कारण क्षति पहुच रही है।

मैं प्रेम के पक्ष में हूं। न मैं पूर्वीय हूं और न पाश्चात्य, और मैं इस बात की जरा भी चिंता नहीं करता कि तुम किस समाज के हो। मैं किसी समाज का नहीं हूं। मैं प्रेम के पक्ष में हूं। सदैव स्मरण रखो, यदि यह प्रेम का संबंध है, तो शुभ है।

जब तक प्रेम जारी है, उसमें बने रहो, और जितना संभव हो सके उतनी गहराई से प्रतिबद्ध रहो।

जितनी समग्रता से संभव हो सके इसमें रहो, संबंध में डूब जाओ। तब प्रेम तुमको रूपांतरित कर पाने में समर्थ हो जाएगा। किंतु यदि प्रेम नहीं है, तो परिवर्तन कर देना बेहतर है। किंतु तब बदलाहट को अपनी लत मत बन जाने दो, इसको एक आदत मत बनाओ। इसको एक यात्रिक आदत मत बनने दो कि प्रत्येक दो या तीन वर्ष बाद परिवर्तन करना ही है, जैसे कि व्यक्ति को प्रत्येक दो या तीन वर्ष के बाद या प्रत्येक वर्ष के बाद अपनी कार को बदलना पडता है। एक नया मॉडल बाजार में आ गया है, अब क्या किया जाए? —तुमको अपनी कार बदलना ही पडेगी। अचानक तुम्हारी भेंट किसी नई स्त्री से हो जाती है। उसमें कोई खास अंतर नहीं है। स्त्री वैसे ही एक स्त्री है जैसे कि पुरुष एक पुरुष है। अंतर तो गौण हैं, क्योंकि यह प्रश्न ऊर्जा का है। स्त्रैण ऊर्जा तो स्त्रैण ऊर्जा ही है। प्रत्येक स्त्री में सारी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व है, और प्रत्येक पुरुष में सभी पुरुषों का प्रतिनिधित्व है। अंतर बहुत सतही हैं : नाक थोड़ी सी लंबी है या यह कुछ लंबी नहीं है; बाल सुनहरे हैं या काले—छोटे—छोटे अंतर, बस ऊपरी सतह के। गहराई में प्रश्न स्त्रैण ऊर्जा या पुरुष ऊर्जा का है। इसलिए यदि प्रेम है तो उससे आबद्ध रहो। इसको विकसित होने का एक अवसर दो। किंतु यदि यह नहीं है, तो इसके पहले कि तुम प्रेमविहीन संबंध के आदी हो जाओ, परिवर्तन कर लो।

पश्चात्ताप—कक्ष, कफेशनल बाक्स में एक युवा विवाहिता ने पादरी से गर्भ—निरोधक गोलियों के प्रयोग के बारे में पूछा। तुमको उनका उपयोग नहीं करना चाहिए, पादरी ने कहा। वे परमेश्वर के नियम के प्रतिकूल हैं। एक गिलास पानी पी लो।

गोली खाने से पहले या उसके बाद, विवाहिता ने पूछा।

उसके स्थान पर! पादरी ने उत्तर दिया।

तुम मुझसे पूछते हो कि पूर्वीय ढंग का अनुगमन किया जाए या पश्चिमी ढंग का?

किसी का भी नहीं; तुम दिव्य ढंग का अनुगमन करो। और दिव्य ढंग क्या है? —प्रेम के प्रति ईमानदार बने रहो। यदि प्रेम है, तो प्रत्येक बात की अनुमति है। यदि प्रेम नहीं है, तो किसी बात की अनुमति नहीं है। यदि तुम अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करते, तो उसको मत छुओ, क्योंकि यह अनाधिकार चेष्टा है। यदि तुम किसी स्त्री को प्रेम नहीं करते, तो उसके साथ सोओ मत; यह प्रेम के नियमों के प्रतिकूल जाना है, और वही परम निवम है। केवल तब जब तुम प्रेम करते हो, प्रत्येक बात की अनुमति है।

किसी ने हिप्पो के आस्तीन से पूछा, ‘मैं एक नितांत अनपढ़ आदमी हूं और मैं धर्म, वितान की महान पुस्तकें और धर्मशास्त्र नहीं पढ़ सकता हूं। आप मुझे बस एक छोटा सा संदेश दे दीजिए। मैं बहुत मूर्ख हूं और मेरी याददाश्त भी अच्छी नहीं है, —इसलिए कृपया मुझे कोई सार की बात बता दीजिए जिससे मैं उसे याद रख सकूं और उसका अनुपालन कर सकूं।’ अगस्तीन एक बड़े दर्शनशास्त्री, महान संत थे, और उन्होंने बड़े—बड़े उपदेश दिए थे, लेकिन किसी ने उनसे बस सारांश के लिए नहीं पूछा था। उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं और यह कहा गया है कि वे घंटों ध्यानमग्न रहे। और उस व्यक्ति ने कहा, यदि आपने उत्तर खोज लिया है, तो कृपया मुझको बता दीजिए जिससे मैं वापस लौट जाऊं, क्योंकि मैं घंटों से प्रतीक्षा कर रहा हूं। अगस्तीन ने कहा : मैं सिवाय इसके और कुछ नहीं खोज सका हूं प्रेम करो और फिर तुमको हर बात की अनुमति दी जाती है—बस प्रेम।

जीसस कहते हैं : परमात्मा प्रेम है। मैं तुमसे कहना चाहूंगा कि प्रेम परमात्मा है। परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाओ, प्रेम पर्याप्त है। प्रेम के साथ चल पाने का पर्याप्त साहस बनाए रहो। और किसी बात की चिंता मत लो। यदि तुम प्रेम का खयाल कर लेते हो, तो तुम्हारे लिए सभी कुछ संभव हो जाएगा।

पहली बात, किसी स्त्री या पुरुष के साथ जिससे तुमको प्रेम नहीं है, मत जाओ। किसी सनक के चलते मत जाओ, किसी वासना के कारण मत जाओ। खोजो, क्या किसी व्यक्ति के साथ प्रतिबद्ध रहने की आकांक्षा तुममें जाग चुकी है। क्या गहरा संबंध बनाने के लिए तुम पर्याप्त रूप से परिपक्व हो? क्योंकि यह संबंध तुम्हारे सारे जीवन को बदलने जा रहा है। और जब तुम संबंध बनाओ तो इसको पूरी सच्चाई से बनाओ। अपनी प्रेयसी या अपने प्रेमी से कुछ भी मत छिपाओ—ईमानदार बनो। उन सभी झूठे चेहरों को गिरा दो, जिनको पहनना तुम सीख चुके हो। सभी मुखौटे हटा दो। सच्चे हो जाओ। अपना पूरा हृदय खोल दो, नग्न हो जाओ। दो प्रेम करने वालों के बीच में कोई रहस्य नहीं होना चाहिए, वरना प्रेम नहीं है। सारे भेद खोल दो। यह राजनीति है; रहस्य रखना राजनीति है। प्रेम में ऐसा नहीं होना चाहिए। तुमको कुछ भी छिपाना नहीं चाहिए। जो कुछ भी तुम्हारे हृदय में उठता है उसे तुम्हारी प्रेयसी के लिए स्पष्ट रूप से पारदर्शी होना चाहिए। तुमको एक—दूसरे के प्रति दो पारदर्शी अस्तित्व बन जाना चाहिए। धीरे— धीरे तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि तुम एक उच्चतर एकत्व की ओर विकसित हो रहे हो।

बाहर की स्त्री से मिल कर, उससे सच्चाई से मिल कर, उसको प्रेम करते हुए, उसके अस्तित्व के प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता जारी रखते हुए, उसमें विलीन होते हुए, उसमें पिघल कर, धीरे— धीरे तुम उस स्त्री से मिलना आरंभ कर दोगे जो तुम्हारे भीतर है, तुम उस पुरुष से मिलना आरंभ कर दोगी जो तुम्हारे भीतर है। बाहर की स्त्री भीतर की स्त्री की ओर जाने का एक मार्ग भर है; और बाहर का पुरुष भी भीतर के पुरुष की ओर जाने का बस एक रास्ता है। वास्तविक चरम सुख तुम्हारे भीतर घटित होता है, जब तुम्हारे भीतर का पुरुष और स्त्री मिल जाते हैं। हिंदू धर्म के अर्धनारीश्वर प्रतीक का यही अर्थ है। ताने शिव को अवश्य देखा होगा : आधे पुरुष, आधी स्त्री। प्रत्येक पुरुष आधा पुरुष है, आधा स्त्री है; प्रत्येक स्त्री आधी स्त्री है, आधी पुरुष है। ऐसा होना ही है, क्योंकि तुम्हारा आधा अस्तित्व तुम्हारे पिता से आता है और आधा अस्तित्व तुम्हारी मां से आता है। तुम दोनों हो। एक भीतरी चरम आनंद, एक आंतरिक मिलन, एक आंतरिक संयोग की आवश्यकता है। लेकिन उस भीतरी संयोग तक पहुंचने के लिए तुमको बाहर की स्त्री खोजनी पड़ेगी जो भीतरी स्त्री को प्रतिसंवेदित करती हो, जो तुम्हारे आंतरिक अस्तित्व को स्पंदित करती हो। और तब तुम्हारी आंतरिक स्त्री जो गहरी नींद में सो रही है, जाग जाती है। बाहर की स्त्री के माध्यम से तुम्हारा भीतर की स्त्री के साथ सम्मिलन हो जाएगा; और यही सब भीतर के पुरुष के लिए भी होता है।

इसलिए यदि संबंध लंबे समय के लिए चलता है, तो यह बेहतर होगा; क्योंकि आंतरिक स्त्री को जागने के लिए समय चाहिए। जैसा कि पश्चिम में हो रहा है—छूकर भाग जाने वाले संबंध—आंतरिक स्त्री को समय ही नहीं मिलता, आंतरिक पुरुष को समय ही नहीं मिलता कि उठे और जाग जाए। जब तक भीतर कुछ करवट लेता है बाहर की स्त्री जा चुकी होती है.. .फिर कोई और स्त्री दूसरे प्रकार की तरंगें लिए हुए, अन्य प्रकार का परिवेश लिए हुए आ जाती है। और निःसंदेह यदि तुम अपनी स्त्री और अपने पुरुष को बदलते चले जाओ, तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे; क्योंकि तुम्हारे अस्तित्व में इतनी प्रकार की चीजें, इतनी प्रकार की ध्वनियां, कंपनों की इतनी सारी विविधताएं प्रविष्ट हो जाएंगी कि तुम अपनी आंतरिक स्त्री को खोज पाने के स्थान पर उलझ जाओगे। यह कठिन होगा। और संभावना यह है कि तुम्हें परिवर्तन की लत पड जाएगी। तुम बदलाहट का मजा लेना आरंभ कर दोगे। तब तुम खो जाओगे।

बाहर की स्त्री भीतर की स्त्री की ओर जाने का रास्ता भर है, और बाहर का पुरुष भीतर के पुरुष की ओर जाने का मार्ग है। और तुम्हारे भीतर परम योग, रहस्यमय—मिलन, यूनिओ मिस्टिका घटित हो जाता है। और जब यह घटित हो जाता है तब तुम सारी स्त्रियों और सारे पुरुषों से मुक्त हो जाते हो। तब तुम पुरुष और स्त्रीपन से मुक्त हो। तब अचानक तुम दोनों के पार चले जाते हो; फिर तुम दोनों में से कुछ भी नहीं रहते।

यही है अतिक्रमण। यही ब्रह्मचर्य है। तब पुन: तुम अपने शुद्ध कुंआरेपन को उपलब्ध कर लेते हो, तुम्हारा मौलिक स्वभाव तुमको पुन: मिल जाता है। पतंजलि की भाषावली में यही कैवल्य है।

पतंजलि: योग—सूत्र समाप्‍त

(ओशो) एक परिचय

 

त्य की व्यक्तिगत खोज से लेकर ज्वलंत सामाजिक व राजनैतिक प्रश्नों पर ओशो की दृष्टि उनको हर श्रेणी से अलग अपनी कोटि आप बना देती है। वे आंतरिक रूपांतरण के विज्ञान में क्रांतिकारी देशना के पर्याय हैं और ध्यान की ऐसी विधियों के प्रस्तोता हैं जो आज के गतिशील जीवन को ध्यान में रख कर बनाई गई हैं।

अनूठे ओशो सक्रिय ध्यान इस तरह बनाए गए हैं कि शरीर और मन में इकट्ठे तनावों का रेचन हो सके, जिससे सहज स्थिरता आए व ध्यान की विचार रहित दशा का अनुभव हो।

ओशो की देशना एक नये मनुष्य के जन्म के लिए है, जिसे उन्होंने ‘ज़ोरबा दि बुद्धा ‘ कहा है— जिसके पैर जमीन पर हों, मगर जिसके हाथ सितारों को छू सकें। ओशो के हर आयाम में एक धारा की तरह बहता हुआ वह जीवन—दर्शन है जो पूर्व की समयातीत प्रज्ञा और पश्चिम के विज्ञान और तकनीक की उच्चतम संभावनाओं को समाहित करता है। ओशो के दर्शन को यदि समझा जाए और अपने जीवन में उतारा जाए तो मनुष्य—जाति में एक क्रांति की संभावना है।

 

ओशो की पुस्तकें लिखी हुई नहीं है बल्कि पैंतीस साल से भी अधिक समय तक उनके द्वारा दिए गए तात्कालिक प्रवचनों की रिकार्डिंग से अभिलिखित हैं।

 

लंदन के ‘संडे टाइम्स’ ने ओशो को ‘बीसवीं सदी के एक हजार निर्माताओं’ में से एक बताया है और भारत के ‘संडे मिड—डे ‘ ने उन्हें गांधी, नेहरू और बुद्ध के साथ उन दस लोगों में रखा है, जिन्होंने भारत का भाग्य बदल दिया।

आज इतना ही।

 


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–21)

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वंशीरूप जीवन के प्रतीक कृष्‍ण—(प्रवचन—इक्‍कीसवां)

 दिनांक 5 अक्‍टूबर,।970;

सांध्‍या, मनाली (कुलू)

‘’भगवान श्री कृष्ण के संदर्भ में जीसस पर चर्चा करते समय एक बार आपने कहा कि जीसस के’क्रॉस’ से जिस सभ्यता का शरम हुआ उसका अत आधुनिक स्थिति में एटम बन पर जाकर हुआ। और आधुनिक सभ्यता को अभी वर्तमान स्थिति में’क्रॉस या वंशी के बीच चुनाव करना है। कृपया इस बात को फिर स्पष्ट करें। तथा जिस प्रकार’क्रॉस’ की संस्कृति का अंत एटम बन पर हुआ है अभी उसी प्रकार वंशी से जो जीवनधारा चली उसका भी तो अंत सुदर्शनचक्र और महाभारत पर हुआ था। मैं यह पूछना चाहूंगा कि आप’क्रॉस’ और एटम बन का जोड़ बुनेगे कि वंशी और महाभारत का जोड़ भारत के लिये चुनेगे?’’

 क्रॉस’ मृत्यु का सूचक है। कब्र पर लगता है तो उसका अर्थ है, और जब जीवन पर लग जाता है तो खतरनाक है। लेकिन, बहुत सारे तथाकथित धार्मिक लोगों ने मनुष्य के शरीर को कब्र ही समझा है। उनकी इस समझ का परिणाम खतरनाक होने वाला है। और अगर मनुष्य की छाती पर’क्रॉस लटका दिया जाये, जैसे कब पर’क्रॉस’ लगा होता है, तो हम जीवन को स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार की घोषणा करते हैं। हम जीवन को वरदान नहीं मानते हैं, अभिशाप मानते हैं। ईसाइयत — जीसस का नाम नहीं कह रहा हूं — ईसाइयत रेखा समझती रही है कि जो मनुष्य का जीवन है पाप का फल है, ’ओरिजनल सिन’ का फल है। जिसे हम जिंदगी समझ रहे हैं, वह जिंदगी परमात्मा के द्वारा दिया गया वरदान नहीं, परमात्मा के द्वारा दी गयी सजा है।

ऐसा चिंतन गहरे में दुखवादी और’ पैसिमिस्ट’ है। रेखा चिंतन गुलाब के फूल के पास खड़े

होकर कांटों की गिनती करता है, फूल को भूल जाता है। ऐसा चिंतन दो अंधेरी रातों के बीच में एक छोटे—से दिन को देखता है, दो प्रकाशित दिनों के बीच में एक अधेरी रात को नहीं। रेखा चिंतन जीवन के दुखों को बटोर कर इकट्ठा कर लेता है, जीवन के सुखों को विस्मृत कर देता है। असल में दुख को बटोर कर इकट्ठा करना भी रुग्णचित्त का लक्षण है। अस्वाभाविक, भटका हुआ। और फिर उस दुख के आधार पर पूरे जीवन के संबंध में जो’ फिलॉसफी’, जो दर्शन का फैलाव होता है, वह उदासी का, अंधेरे का, निषेध का, नकार का और’ क्रॉस’ का हो जाता है।

जीसस का प्रभाव, शायद वे सूली पर न लटकाये गये होते तो दुनिया पर इतना न पड़ता। शायद दुनिया उन्हें भूल ही गयी होती। लेकिन जीसस का सूली पर लटकाया जाना ही’ क्रिश्चियनिटी’ का जन्म बन गया। आज कोई एक अरब आदमी के करीब ईसाइयत में सम्मिलित हैं। यह मैं जीसस की विजय नहीं मानता हू यह मैं’ क्रॉस’ की विजय मानता हूं। जीसस सूली पर लटके हुये हमारे रुग्ण और उदास चित्तों को बड़े ही ठीक मालूम पड़े, वे हमारे जीवन के प्रतीक ही मालूम पड़े हम सब सूली पर लटके हुये लोग हैं। हम सब दुख में जी रहे लोग हैं। हम सब दुख को ही चुनते हैं, इकट्ठा करते हैं। हम दुख का ढेर लगाये चले जाते हैं। आखिर में दुख ही हाथ में रह जाता है, सुख सब खो जाते हैं।

कृष्ण बिलकुल ही विपरीत व्यक्तित्व है। और कृष्ण की बांसुरी का प्रतीक’ क्रॉस’ से ठीक उलटा है। जैसे बांसुरी को कब्र पर रखने का कोई अर्थ नहीं होता। उसे जिंदा ओंठ चाहिये। और सिर्फ ओंठ ही नहीं चाहिये, नाचते हुये ओंठ भी चाहिये। गाते हुये ओंठ भी चाहिये। और ओंठ ऐसे ही नहीं नाचते और गाते हैं जब तक कि भीतर के प्राण आनंद से उल्लसित नहीं हों। मेरे लिये जीसस के’ क्रॉस’ और कृष्ण की बांसुरी में चुनाव दिखायी पड़ता है। ऐसा नहीं है कि जिंदगी में दुख नहीं हैं, दुख जिंदगी में हैं। लेकिन जो आदमी उन्हे इकट्ठा कर लेता है, जो उन्हें समूहगत रूप से देखने लगता है, उसे फिर सुख दिखायी पड़ने बद हो जाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि जिंदगी में सुख नहीं हैं — सुख हैं। और जो आदमी सुखों को इकट्ठा कर लेता है, और सुखों की उस आनंद—राशि में डूबता है, उसे दुख दिखायी पड़ने बद हो जाते हैं।

जीवन में तो सुख और दुख दोनों हैं। सब कुछ निर्भर करता है व्यक्ति पर कि वह क्या देखता

है। मेरी अपनी समझ ऐसी है कि अगर कोई आदमी गुलाब के फूल को ठीक से देख पाये और प्रेम कर पाये, तो उसे कांटे दिखायी पड़ने बंद हो जाते हैं। क्योंकि जो आंखें गुलाब के फूल से रस जाती हैं, रम जाती हैं, वे आंखें कांटों को देखना बद कर देती हैं। ऐसा नहीं है कि कांटे मिट जाते हैं, बल्कि ऐसा कि कांटे भी गुलाब के साथी और मित्र हो जाते हैं और वे गुलाब के फूल की रक्षा की तरह ही दिखायी पड़ते हैं। वे एक ही पौधे पर फूल की रक्षा के लिये निकले हुये कांटे होते हैं। लेकिन जो आदमी कांटों को चुन लेता है, उसे फूल दिखायी पड़ना बंद हो जाता है। जो आदमी कांटों को चुनता है, वह यह कहेगा कि जहां इतने कांटे हैं वहां एक फूल खिल कैसे सकता है? जहां काटे—ही—काटे हैं, वहां फूल असंभावना है। जरूर मैं किसी भ्रम में हू कि मुझे फूल दिखायी पड़ रहा है। जहां कांटे—ही—काटे हैं, वहा फूल हो नहीं सकता। काटा सत्य हो जाता है, फूल स्वप्न हो जाता है। और जो आदमी फूल को देख लेता है, और देख पाता है और प्रेम कर पाता है और जी पाता है, उस आदमी को एक दिन लगना शुरू होता है कि जिस पौधे पर गुलाब जैसा कोमल फूल खिलता हो, उस पर कांटे कैसे हो सकते हैं। उसके लिये कांटे धीरे—धीरे भ्रम और झूठ हो जाते हैं।

मर्जी है आदमी की कि वह क्या चुने। स्वतत्रा है आदमी को कि वह क्या चुने। सार्त्र का एक वचन बहुत अद्भुत है; उसमें वह कहता है —’वी आर कंडेम्ह टु बी फ्री’। हम मजबूर हैं स्वतंत्र होने को। जबर्दस्ती है हमारे ऊपर स्वतंत्रता। हम सब चुन सकते हैं, सिर्फ एक स्वतंत्रता को नहीं चुन सकते हैं, वह हमें मिली ही हुई है। कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं परतंत्रता चुन सकता हू क्योंकि वह चुनना भी उसकी स्वतंत्रता ही है। इसलिये सार्त्र कहता है —’ कंडेम्ड दु बी फ्री’। कभी भी स्वतंत्रता के साथ किसीने’ कंडेम्‍ड’ शब्द का प्रयोग नहीं किया होगा।

मनुष्य स्वतंत्र है। और परमात्मा के होने की यह घोषणा है। और मनुष्य जो चुनना चाहे, चुन सकता है। यदि मनुष्य ने दुख चुना, तो चुन सकता है। जिंदगी उसके लिये दुख बन जायेगी। हम जो चुनते हैं, जिंदगी वही हो जाती है। हम जो देखने जाते हैं, वह दिखायी पड़ जाता है। हम जो खोजने जाते हैं, वह मिल जाता है। हम जो मांगने जाते हैं, वह’ फुलफिल’ हो जाता है, उसकी पूर्ति हो जाती है।

दुख चुनने जायें, दुख मिल जायेगा। लेकिन, दुख चुनने वाला आदमी अपने लिये ही दुख नहीं चुनता। वहीं से अनैतिकता शुरू होती है। दुख चुनने वाला आदमी दूसरे के लिये भी दुख चुनता है! यह असंभव है कि दुखी आदमी और किसी के लिये सुख देने वाला बन जाये। जो लेने तक में दुख लेता है, वह देने में सुख नहीं दे सकता। जो लेने तक में चुन—चुन कर दुख को लाता है, वह देने में सुख देने वाला नहीं हो सकता। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि जो हमारे पास नहीं है, उसे हम कभी दे नहीं सकते हैं। हम वही देते हैं जो हमारे पास है। यदि मैंने दुख चुना है, तो मैं दुख ही दे सकता हू। दुख मेरा प्राण हो गया है। जिसने दुख चुना है, वह दुख देगा। इसलिये दुखी आदमी अकेला दुखी नहीं होता, अपने चारो तरफ दुख की हजार तरह की तरंगें फेंकता रहता है। अपने उठने— बैठने, अपने होने, अपनी चुप्पी, अपने बोलने, अपने कुछ करने, न करने, सबसे चारों तरफ दुख के वर्तुल फैलाता रहता है। उसके चारों तरफ दुख की उदास लहरें घूमती रहती हैं और परिव्याप्त होती रहती हैं। तो जब आप अपने लिये दुख चुनते हैं तो अपने ही लिये नहीं चुनते, आप इस पूरे संसार के लिये भी दुख चुनते हैं।

तो जब मैंने कहा कि दुख के चुनाव ने मनुष्य को युद्ध तक पहुंचा दिया है। और रेले युद्ध तक, जो कि’ टोटल आइड’ बन सकता है, जो कि समग्र आत्मघात बन सकता है। यह मनुष्य के दुख का चुनाव है जो हमें उस जगह ले आया। हमने सुना है बहुत बार, जानते हैं हम कि कभी कोई आत्मघात कर लेता है, लेकिन हमें इस बात का खयाल नहीं था कि दूखी आदमी आत्मघात कर लेता है यह तो ठीक ही है, एक रेला वक्त भी आ सकता है कि पूरी मनुष्यता इतनी दुखी हो जाये कि आत्मघात कर ले। हमारे बढ़ते हुये युद्ध आत्मघात के बढ़ते हुये चरण हैं। यह दुख के चुनाव से संभव हुआ है। और दुख को जब हम धर्म की तरह चुन लेते हैं, तो फिर अधर्म की तरह चुनने को कछ बचता भी नहीं है। जब दुख को हम धर्म बना लेते हैं, तो फिर अधर्म क्या होगा? जब दुख धर्म बन जाता है, तो गौरवान्वित भी हो जाता है।’ ग्लोरीफाइड’ भी हो जाता है।

यह जो दुख की धारा’ क्रॉस’ के आसपास निर्मित हुई, मैं नहीं कहता जीसस के आसपास, क्योंकि जीसस का’ क्रॉस’ से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। जीसस बिना’ क्रॉस’ के भी हो सकते थे। यह जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, जिन्होंने’ क्रॉस’ दिया, ईसाइयत उनने पैदा की है। मैं निरंतर ऐसा कहता हूं कि ईसाइयत को पैदा करनेवाले जीसस नहीं हैं, ईसाइयत को पैदा करनेवाले वे पंडे और पुरोहित हैं यहूदी, जिन्होंने जीसस को सूली दी। ईसाइयत का जन्म’ क्रॉस’ से होता है, जीसस से नहीं। जीसस तो बेचारा’ क्रॉस’ पर लटकाया गया है, यह बिलकुल ही’ सेकेंड्री’ बात है, इससे कोई लेना—देना नहीं है। वह’ क्रॉस’ महत्वपूर्ण होता चला गया हमारे चित्त में। और जो—जो अपने को’ क्रॉस’ पर अनुभव करते हैं लटका हुआ, सूली पर, चाहे वह सूली परिवार की हो, चाहे वह सूली प्रेम की हो, चाहे वह सूली राष्ट्रों की हो, चाहे वह सूली धर्मों की हो चाहे वह सूली दैनंदिन जीवन की हो, जो लोग भी अनुभव करते हैं कि सूली पर लटके हैं, उन्हें जीवन एक महापाप हो जाता है। वे सारे महापाप को अनुभव करने वाले लोग’ क्रॉस’ से प्रभावित होते चले गये हैं और’ पैसिमिस्टों’ का एक बड़ा गिरोह सारी दुनिया में इकट्ठा हो गया है।

पिछले दो महायुद्ध ईसाई मुल्कों ने लड़े और पैदा किये। गैर—ईसाई मुल्क अगर उन युद्धों में आये भी, घसीटे गये। सिर्फ एक जापान ऐसा मुल्क था, जो गैर—ईसाई था जो युद्ध में आक्रामक की तरह आया था। लेकिन, जापान को अब पूर्वी मुल्क कहना मुश्किल है। जापान बहुत गहरे अर्थों में भूगोल का खयाल छोड़ दें तो अब पश्चिम का हिस्सा है। और जापान के पास भी ’सूसाइड’ की लंबी पंरपरा है, जिसको वे’ हाराकिरी’ कहते हैं। जरा—सा आदमी दुखी हो जाये तो मर जाये, बस इसके सिवा कोई उपाय नहीं है। जैसे कि कल फूल खिलने की कोई संभावना न रही। साझ फूल मुर्झा गया तो मर जाओ, कल सुबह फूल खिलने का कोई उपाय नहीं। इतनी प्रतीक्षा भी नहीं, इतना धैर्य भी नहीं। तो’ हाराकिरी’ वाला एक मुल्क और पश्चिम के’ क्रॉस’ वाले मुल्कों ने इधर पिछले दो बड़े युद्ध लड़े हैं। तीसरा युद्ध पूरी मनुष्यता का अत हो सकता है, जैसे जीसस सूली पर लटके हैं, ऐसी पूरी मनुष्यता सूली पर लटक सकती है। मैं नहीं कहता हू कि इसमें जीसस का हाथ है, मैं कहता हूं’ क्रॉस’ पर लटकाने वाले लोगों का हाथ है। और मैं यह भी नहीं कहता हू कि जीसस से प्रभावित होकर लोग’ क्रॉस’ के पास आये हैं,’ क्रॉस’ से प्रभावित होकर जीसस के पास आये हैं।

दूसरी बात पूछी है, तो मैं मानता हूं कि क्राँसवादी, दुखवादी, ’सैडिस्ट’ सभ्यता मनुष्य को अंतत: आत्मघात में ले जाने वाली है। असल में’ क्रॉस’ को लेकर चलने का कोई अर्थ नहीं है और अगर

जिंदगी’ क्रॉस’ भी रख दे तो उस पर फूल लटका देना भी हमारा चुनाव है।

कृष्ण तो ठीक मुझे विपरीत मालूम पड़ते हैं, उनकी बांसुरी मुझे ठीक विपरीत मालूम पड़ती है। और यह भी मैं आपको कह दू कि जीसस को’ क्रॉस’ पर दूसरे लटकाते हैं, कृष्ण के ओंठों पर कोई दूसरा बांसुरी नहीं रखता। इसलिये यह खयाल में रख लेना जरूरी है कि कृष्ण की बांसुरी उनके व्यक्तित्व का प्रतीक है और जीसस का’ क्रॉस’ उनके व्यक्तित्व का प्रतीक नहीं है। उसे दूसरों ने दिया है, कृष्ण की बांसुरी अपने हाथों से ओंठों पर रखी गयी है। कृष्ण की बांसुरी में मुझे जीवन के अहोभाव, जीवन के अनुग्रह, जीवन के प्रति’ ग्रेटीव्यूड’ का गीत, धन्यवाद, आभार मालूम होता है। कृष्ण का चुनाव जीवन में सुख का चुनाव है। आनंद का चुनाव है। और जैसा मैंने कहा, जो दुख को चुनता है, वह दुख देने वाला बन जाता है, जो आनंद को चुनता है, वह आनंद देने वाला बन जाता है।

तो कृष्ण अगर बांसुरी बजायेंगे — यह भी थोड़ा समझ लेने वाली बात है — कि अगर कृष्ण बांसुरी बजायेंगे तो यह आनंद कृष्ण तक ही सीमित नहीं रहेगा, यह उन कानों तक भी पहुंच जायेगा जिन पर ये बांसुरी के स्वर पड़ते हैं। अगर जीसस को आप सूली पर लटका हुआ देखेंगे और उनके पास से गुजरेंगे तो आप भी उदास हो जायेंगे। और कुछ को अगर नाचते हुये देखेंगे किसी वृक्ष की छाया में और पास से गुजरेंगे, तो आप भी प्रफुल्लित होंगे। सुख भी संक्रामक है, दुख भी संक्रामक है। वे सब फैलते हैं, और दूसरों तक हो जाते हैं। इसलिये जो आदमी अपने लिये दुख चुनता है, वह सारी दुनिया के लिये’ कडेमनेशन’ चुनता है। वह यह कह रहा है कि मैं दुखी होकर अब सारी दुनिया को दुखी होने का निर्णय करता हू। जो आदमी जीवन में सुख का चुनाव करता है, वह सारी दुनिया के लिये गीत और संगीत और नृत्य चुनता है। मैं धार्मिक आदमी उसी को कहता हू जो दूसरे के लिये भी सुख चुनता है। मेरे लिये धार्मिक का अर्थ आनंद के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता है। कृष्ण इन अर्थों में मेरे लिये धार्मिक हैं। उनका सारा होना आनंद के एक स्फुरण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

लेकिन पूछा गया है कि कृष्ण की बांसुरी के बाद भी तो महाभारत का युद्ध हुआ? यह कृष्ण की बांसुरी के बावजूद हुआ। यह कृष्ण की बांसुरी के कारण नहीं हुआ। क्योंकि बांसुरी से युद्ध होने का कोई आंतरिक सबंध नहीं है।’ क्रॉस’ का और युद्ध से तो आंतरिक संबंध है एक’ लाजिकल रिलेशनशिप’ है, लेकिन बांसुरी से युद्ध का कोई भी तार्किक सबंध नहीं है। कृष्ण की बांसुरी के बावजूद युद्ध हुआ। इसका मतलब यह है कि हम इतने दुखवादी हैं कि कृष्ण की बांसुरी भी हमें प्रफुल्लित नहीं कर पायी है। बांसुरी बजती रही है और हम युद्ध में उतर गये हैं। बांसुरी बजती रही, लेकिन हम अहोभाव से नहीं भर पाये हैं। बांसुरी हमारी बांसुरी नहीं हो पायी।

यह भी बहुत मजे की बात है कि दूसरे का सुख अपना सुख बनाना बहुत मुश्किल है। दूसरे का दुख अपना दुख बनाना बहुत आसान है। इसलिये आप दूसरे के रोने में रो सकते हैं, लेकिन दूसरे के हंसने में हंसना मुश्किल हो जाता है। अगर किसी के मकान में आग लग गयी है तो आप सहानुभूति बता पाते हैं, लेकिन किसी का मकान बड़ा हो गया है, तो उसके आनंद में भाग नहीं ले पाते हैं। इसमें बुनियादी कारण हैं।

जीसस के’ क्रॉस’ के साथ हम निकट हो पाते हैं; लेकिन कृष्ण की बांसुरी के साथ हो सकता है हम ईर्ष्या से भर कर लौट जायें। कृष्ण की बांसुरी हममें सिर्फ ईर्ष्या ही जगाये, कोई सहानुभूति

कोई’ एम्पैथी’ पैदा न करे। लेकिन जीसस का’ क्रॉस’ हममें’ एम्पैथी’ पैदा करता है, ईर्ष्या पैदा नहीं करता। जीसस का’ क्रॉस’ इसरलिये भी ईर्ष्या पैदा नहीं कर सकता है कि हम कोई’ क्रॉस’ पर लटकने के लिये तैयार तो नहीं हैं। कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं तो हमारा मन ईर्ष्या से भर सकता है, और ईर्ष्या दुख बन सकती है। सुख में सहभागी होना बड़ी कठिन बात है। दुख में सहभागी होना बड़ी सरल बात है। अति साधारण चित्त का व्यक्ति भी दुख में सहभागी हो जाता है। अति असाधारण चित्त का व्यक्ति चाहिये जो सुख में सहभागी हो सके। दूसरे के सुख में’ पार्टीसिपेट’ करना, दूसरे के सुख में डूबना और दूसरे के सुख को अपने जैसा अनुभव कर पाना बड़ी ऊंचाई की बात है। दूसरे के दुख में कठिनाई नहीं है। इसके बहुत कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि हम दुखी हैं ही,’ आलरेडी’। कोई भी दुखी हो तो हमें कोई दिक्कत नहीं आती, हम उसमें डूब पाते हैं। सुखी हम नहीं हैं। कोई सुखी हो तो हमारा कोई तालमेल नहीं बन पाता। कोई संबंध नहीं बन पाता।

युद्ध हुआ कृष्ण की बांसुरी के बाद भी। और भी मजे की बात है कि जीसस के’ क्रॉस’ के बाद युद्धों की गति बढ़ते—बढ़ते अभी दो हजार साल लगे तब हुआ। कृष्ण तो बांसुरी बजा रहे थे तभी युद्ध हो गया। कृष्ण की बांसुरी के बावजूद यह युद्ध हुआ है, कृष्ण की बांसुरी न तो समझी जा सकी है, न पकड़ी जा सकी है, न पहचानी जा सकी है। यह भी सोचने जैसा है कि कृष्ण तो खुद युद्ध में उतरे हैं, जीसस को युद्ध नहीं में उतारा जा सकता। जीसस से अगर कोई कहेगा कि आप युद्ध में उतरें तो जीसस कहेंगे, पागल हो गये हैं; क्योंकि मैं कहता हूं जो एक चांटा तुम्हारे गाल पर मारे, दूसरा उसके सामने कर देना। और जीसस कहते हैं कि पुराने पैगंबरों ने कहा था कि जो तुम्हारी तरफ ईंट फेंके, तुम उसकी तरफ पत्थर से मारना, और जो तुम्हारी एक आख फोड़े, तुम उसकी दोनों आंखें छीन लेना, लेकिन मैं तुमसे कहता हू जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। और मैं तुमसे कहता हू कि कोई तुम्हारा कोट छीने तो तुम अपनी कमीज भी दे देना। और मैं तुमसे कहता हू कि कोई अगर एक मील तक तुमसे बोझा ढोने को कहे, तो तुम दो मील तक ढो देना। हो सकता है संकोच में वह बेचारा ज्यादा न कह पा रहा हो।

यह जो जीसस है, इसको हम युद्ध में नहीं उतार सकते। अब चीज थोड़ी जटिल मालूम पड़ेगी। जीसस को युद्ध में नहीं उतारा जा सकता। लेकिन कृष्ण युद्ध में उतर जाते हैं। जीसस को इसलिये युद्ध में नहीं उतारा जा सकता है कि जीवन इतना बदतर है कि उसके लिये लड़ने का कोई अर्थ नहीं है। कृष्ण को युद्ध में उतारा जा सकता है। जीवन इतना आनंदपूर्ण है कि उसके लिये लड़ा जा सकता है। इसे थोड़ा समझ लें।

जीसस के लिये जीवन इतना व्यर्थ है, जैसा जीवन है वह इतना दुखपूर्ण है कि आपने एक चांटा मार दिया तो इससे दुख में कोई बढ़ती नहीं होती। कहना चाहिये कि जीसस पहले से ही इतने पिटे हुये हैं कि आपके एक चांटे से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह दूसरा गाल भी सामने कर देते हैं कि आपको उनका गाल फेरने की तकलीफ भी न हो। जीसस इतने दुखी हैं कि उन्हें और दुखी नहीं किया जा सकता। इसलिये जीसस को लड़ने के लिये तैयार नहीं किया जा सकता। लड़ने के लिये तो केवल वे ही तैयार हो सकते हैं जो जीवन के आनंद के घोषक हैं। अगर जीवन के आनंद पर हमला, हो तो वे लड़ेंगे। वे जीवन के आनंद के लिये अपने को दाव पर लगा देंगे। वे जीवन के आनंद को बचाने के लिये कुछ करने को तैयार हो सकते हैं। जीसस को तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध को। महावीर

को भी तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिये। बुद्ध को भी तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिये। सिर्फ कृष्ण को तैयार किया जा सकता है। या एक और आदमी है, मुहम्मद, उसे तैयार किया जा सकता है युद्ध के लिये। मुहम्मद किसी बहुत गहरे रास्ते से कृष्ण के थोड़े समीप आते हैं। पूरा आना तो मुश्किल है, थोड़े समीप आते हैं। जिनको ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ बचाने योग्य है, केवल वे ही लड़ने के लिये तैयार किये जा सकते हैं। जिनको रेखा लगता है कि जीवन में कुछ बचाने योग्य ही नहीं है, उनके लड़ने का क्या सवाल है!

लेकिन कृष्ण युद्धखोर नहीं हैं। युद्धवादी नहीं हैं। हैं तो वे जीवनवादी, लेकिन अगर जीवन पर सकट हो, तो वे लड़ने को तैयार हैं। इसलिये कृष्ण ने पूरी कोशिश की है कि युद्ध न हो। इसके सब उपाय कर लिये गये हैं कि युद्ध न हो। इस युद्ध को टाला जा सके और जीवन बचाया जा सके, इसके लिये कृष्ण ने कुछ भी उठा नहीं रखा है। लेकिन जब ऐसा लगता है कि कोई उपाय नहीं है, और मृत्यु की शक्तियां लड़ेंगी ही, और अधर्म की शक्तियां झुकने के लिये तैयार नहीं हैं, समझौते के लिये भी तैयार नहीं हैं, तब कृष्ण जीवन के पक्ष में और धर्म के पक्ष में लड़ने को खड़े हो जाते हैं।

मेरे देखे कृष्ण के लिये जीवन और धर्म दो चीजें नहीं हैं। वे लड़ने को तैयार हो जाते हैं। स्वभावत:, कृष्ण जैसा आदमी जब लड़ता है, तभी भी प्रफुल्लित और आनंदित होता है; और जीसस जैसा आदमी अगर न लड़े, तो भी उदास मिलेगा। कृष्ण जैसा व्यक्ति जब लड़ता है, तभी भी आनंदित है, क्योंकि लड़ना भी जीवन के एक हिस्से की तरह आया है। इसे कोई जीवन से अलग बांटा नहीं जा सकता। और जैसे मैंने पीछे आपको बार—बार कहा, कृष्ण का जिंदगी में ऐसा चुनाव नहीं है जैसा कि आमतौर से साधुओं और ’यूरिटन्स’ और नैतिकवादियो का होता है। कृष्ण ऐसा नहीं कहते हैं कि युद्ध जो है, वह हर हालत में बुरा है। कृष्ण कहते हैं, युद्ध बुरा भी हो सकता है, अच्छा भी हो सकता है। हर हालत में कोई चीज न बुरी होती है, न कोई चीज हर हालत में अच्छी होती है। ऐसे क्षण होते हैं जब जहर अमृत होता है और अमृत जहर हो जाता है। और ऐसे क्षण होते हैं, जब अभिशाप वरदान बन जाता है और वरदान अभिशाप हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, हर हालत में कुछ तय नहीं है। यह प्रतिपल और प्रति परिस्थिति में तय होता है कि क्या शुभ है। इसे कोई पहले से तय कर के नहीं चल सकता है किए यह शुभ है। परिस्थिति बदले तो कठिनाई हो सकती है। इसलिये कृष्ण तो प्रतिपल निर्णय के लिये राजी हैं। उन्होंने कोशिश कर ली है कि युद्ध न हो, लेकिन देखते हैं कि युद्ध होगा ही, तो फिर बेमन से लड़ना बेकार है। कृष्ण जैसा आदमी बेमन से नहीं लड़ेगा। लड़ने भी जायेगा तो फिर पूरे मन से ही जायेगा। पूरे मन से कोशिश कर ली है, युद्ध न हो। अब युद्ध होगा ही, तो कृष्ण पूरे मन से ही लड़ने जाते हैं। युद्ध करने का उनका खयाल न था कि वह सीधे युद्ध में भागीदार बनेंगे। वह सीधे सक्रिय होंगे युद्ध में, इसका खयाल न था। लेकिन ऐसा क्षण आ जाता है, तो उन्हें सीधे भागीदार हो जाना पड़ता है और वे सुदर्शन हाथ में ले लेते हैं।

जैसा मैंने पीछे कहा, कृष्ण क्षणजीवी हैं। सभी आनंदवादी क्षणजीवी होते हैं। सिर्फ दुखवादी क्षणजीवी नहीं होते। सिर्फ दुखवादी लबा हिसाब रखते हैं। और लंबे हिसाब की वजह से दुखी रहते हैं। वे पृथ्वी जबसे बनी है तबसे सारा दुख इकट्ठा कर लेते हें। और जब जगत का अंत होगा तब तक का सारा दुख इकट्ठा करके अपने ऊपर रख लेते हैं। दुख इतना ज्यादा मालूम पड़ता है कि वे उसके नीचे दबकर मर जाते हैं। आनंदवदी क्षणवादी है। वह कहता है, क्षण के अतिरिक्त अस्तित्व नहीं है। जब भी अस्तित्व है, तब क्षण में है —’मीमेंट टू मॉमेंट’, क्षण से क्षण में उसकी यात्रा है। न वह कल का हिसाब रखता है जो बीत गया, न वह आने वाले कल का हिसाब रखता है जो आनेवाला है, क्योंकि वह कहता है, जो बीत गया वह बीत गया और जो अभी नहीं आया वह अभी नहीं आया है। जो है, इस क्षण में जो है इस क्षण के प्रति पूरी ’रिस्पासिबिलिटी’, इस क्षण के प्रति पूरा—का—पूरा ’रिस्पांस’, इस क्षण के प्रति पूरा खुला होना उसका आनंद है।

दुखवादी ’क्लोज्ड’ है, वह इस क्षण की तरफ देखता ही नहीं। अगर आप उसको फूल के पास ले जायें और कहें कि फूल खिले हैं, वह कहेगा कि सांझ मुर्झा जायेंगे। दुखवादी से आप कहें कि देखें यह यौवन। वह कहेगा, देख लिया बहुत यौवन; सब यौवन बुढ़ापे के अतिरिक्त और कहीं नहीं जाता है। आप उससे कहेंगे, यह सुख है। वह कहेगा, हमने बहुत सुख देखे, जरा उलटा कर देखो, सब सुखों के पीछे दुख छिपा है। हमें धोखा नहीं दिया जा सकता।

दुखवादी विस्तार में देखता है, क्षण में होता ही नहीं। सुखवादी कहता है, सांझ जब मुरझायेंगे — लेकिन सांइा तो आने दो, अभी से दुखी होने का क्या कारण है? आनंदवादी कहता है, सांझ आने दो, अभी से दुखी होने का क्या कारण है? जब फूल ही दुखी नहीं हैं सांझ की वजह से और आनंद से नाच रहे हैं, तो हम क्यों दुखी हो जायें? आने दो सांझ। और मजा यह है कि आनंदवादी चित्त सांइा को गिरते हुये फूलों का भी सुख ले पाता है। क्योंकि किसने कहा कि सिर्फ खिलते हुये फूलों में सुख होता है और गिरते हुये फूलों में नहीं होता? शायद नहीं देखा हमने, वह हमारे दुख के कारण। किसने कहा कि बच्चे ही सुंदर होते हैं और बूढ़े नहीं होते? बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है! और जब कोई आदमी सच में बूढ़ा होता है — कोई रवींद्रनाथ — तो उसके सौंदर्य का कोई हिसाब नहीं है। कोई वाल्ट व्हिटमन, तौ उसके सौंदर्य का बुढ़ापे में कोई हिसाब नहीं है! वाल्ट व्हिटमन को बुढ़ापे में देखकर रेखा लगता है कि और क्या सौंदर्य होगा! असल में बचपन का अपना ठग है सौंदर्य का, जवानी का अपना ढंग है, बुढ़ापे का अपना ठग है, लेकिन ढंगों की फुर्सत किसे है? जब सारे बाल शुभ्र हो जाते हैं और जीवन की जब सारी यात्रा पूरी होने के करीब आती है, तो वैसा ही सौंदर्य होता है जैसा सूर्यास्त का होता है। किसने कहा कि सूर्योदय में ही सौंदर्य है? सूर्यास्त का अपना सौंदर्य है। लेकिन, दुखवादी सूर्योदय के समय भी सौंदर्य नहीं देखता, वह कहता है, क्या पागलपन में पड़े हो, अभी घड़ी भी नहीं बीत पायेगी और यह सब सूर्यास्त हो जाने वाला है। अंधकार छा जायेगा।

कृष्ण क्षणवादी हैं। समस्त आनंद की यात्रा क्षण की यात्रा है। कहना चाहिये यात्रा ही नहीं है, क्योंकि क्षण में यात्रा कैसे हो सकती है; क्षण में सिर्फ डूबना होता है। समय में यात्रा होती है। क्षण में आप लंबे नहीं जा सकते; गहरे जा सकते हैं। क्षण में आप डुबकी ले सकते हैं। क्षण में कोई लंबाई नहीं है, सिर्फ गहराई है। समय में लंबाई है, गहराई कोई भी नहीं है। इसलिये जो क्षण में डूबता है, वह समय के पार हो जाता है। जो क्षण में डूबता है वह ’इटरनिटी’ को, शाश्वत को उपलब्ध हो जाता है। कृष्ण क्षण में हैं, और साथ ही शाश्वत में हैं। जो क्षण में है वह शाश्वत में है। जो समय में है,’टाइम ऐज ए सीरीज’, वह कभी शाश्वत से संबध नहीं जोड़ पाता। वह तो समय के क्षणों का हिसाब लगाता रहता है, कणों का हिसाब लगाता रहता है। जब वह जीता है तब मरने का हिसाब लिखता रहता है। जब सुबह होती है तब वह सांझ की सोचता रहता है। जब प्रेम आता है तब वह बिछोह की सोचता है। जब मिलन होता है तब वह विरह के आंसुओ से पीड़ित हो जाता है।

इसलिये कृष्ण को अगर किसी क्षण में ऐसी घड़ी आ गयी कि सुदर्शन हाथ में ले लेना पड़ा, तो वह पिछले कृष्ण की’ प्रामिस’ के लिये रुके नहीं, जिसने कहा था कि युद्ध में मैं सक्रिय होने को नहीं हू। क्योंकि वह कहेंगे, अब वह कृष्ण ही कहां, जिसने वायदा किया था! अब गंगा वहां कहा है जहां थी, अब फूल वहां कहा हैं जहां थे, अब बादल वहा कहा हैं जहां थे। अब सब बदल गया है, तो मैंने ही कोई ठेका लिया है वही होने का! सब जा चुका है। अब मैं जहां हू वहा हूं। और इस क्षण से मेरा जो’ रिस्पांस’ है, इस क्षण में मेरी जो प्रतिध्वनि है, मेरा वही अस्तित्व है। वे क्षमा नहीं मांगते, वे कोई पश्चात्ताप नहीं करते। वह यह नहीं कहते कि मैंने भूल की थी कि वचन दिया था। वे यह नहीं कहते कि बुरा हो गया, गलत हो गया, मैं दुखी हू पश्चात्ताप कर का, पीछे प्रायश्चित कर दूध। वे यह कुछ भी नहीं कहते। वे क्षण के प्रति बड़े सच्चे हैं।

अब इसको थोड़ा समझना चाहिये।

‘ट बी ट ट द मीमेंट’। वे क्षण के प्रति बहुत सच्चे हैं। वे इतने सच्चे हैं कि क्षण ऐसी घटना

ले आता है जिसका उन्होंने कभी सोचा भी नही था, तो भी वे डूब जाते हैं, कूद जाते हैं। हा, हमें बहुत बार लगेगा कि हमारे प्रति उतने सच्चे नहीं मालूम होते। क्योंकि कहा था कि युद्ध में नहीं उतरेंगे और अब युद्ध में उतर गये। जो क्षण के प्रति सच्चा है वह अस्तित्व के प्रति सच्चा है, लेकिन समाज के प्रति बहुत सच्चा नहीं हो सकता। क्योंकि समाज समय में जीता है और वह’ इंटरनिटी’ में जीता है। समाज समय में जीता है, वह पीछे का हिसाब रखता है, आगे का हिसाब रखता है। ऐसा आदमी क्षण में जीता है, वह हिसाब रखता ही नहीं।

मैंने सुनी है एक कहानी कि एक बहुत बड़े झेन फकीर रिंझाई के पास एक युवक मिलने आया और उस युवक नै कहा कि मैं सत्य की खोज में आपके पास आया हू। तो रिंझाई ने कहा, सत्य की बात छोड़ो, अभी मैं कुछ और पूछना चाहता हू। तुम पेकिंग से आते हो? उसने कहा, हा। तो रिंझाई ने पूछा कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैं? वह आदमी इतनी लंबी यात्रा करके आया है इसके पास। यह सोचकर नहीं आया था कि चावल के दाम बताने पड़ेंगे। तो उस आदमी ने कहा कि माफ करिये और पहले यह आपको सूचना कर दूं ताकि और इस तरह के सवाल आप न पूछ सकें, मैं जिन रास्तों से गुजर जाता हू उन्हें तोड़ देता हूं और जिन’ ब्रिजेज’ को पार कर लेता हूं उन्हें गिरा देता हू और जिन सीढ़ियों से चढ़ जाता हूं उन्हें मिटा देता हू मेरा कोई अतीत नहीं है। रिंझाई ने कहा, फिर बैठो, फिर सत्य की कोई बात हो सकती है। मैंने तो जानने के लिये यह पूछा कि कहीं पेकिंग में चावल के जो दाम हैं वह तुम्हें याद तो नहीं है? अगर वह याद हैं, तो सत्य से मिलाना बहुत मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि सत्य सदा क्षण में है, वर्तमान में है। उसका अतीत से कोई लेना—देना नहीं। और जो अतीत में जीता है, वह वर्तमान में नहीं जी पाता। जो अतीत में जीता है, वह भविष्य में हो सकता है उसका मन, वर्तमान में नहीं हो पाता।

कृष्ण के बावजूद युद्ध हुआ है। और कृष्ण युद्ध में भागीदार हो सके हैं, क्योंकि आनंद का पक्षपाती लड़ भी सकता है। फिर कृष्ण का कहना यह है कि लड़ना जीवन के भीतर का हिस्सा है। जीवन जब तक है, तब तक किसी—न—किसी भांति का युद्ध जारी रहेगा। युद्ध के तल बदलेंगे, युद्ध के आधार बदलेंगे, युद्ध के मार्ग बदलेंगे,’ प्लेन’ बदलेंगे युद्ध के, गुण बदलेगा, लेकिन युद्ध जारी रहेगा। ऐसा नहीं हो सकता है कि युद्ध बंद हो जाये। युद्ध उसी दिन बंद हो सकता है कि या तो मनुष्यता न रहे, समाप्त हो जाये, या मनुष्यता पूर्ण हो जाये। दो ही अर्थों में युद्ध बद हो सकता है। मनुष्य पूर्ण हो जाये तो भी समाप्त हो जाता है, समाप्त हो जाये तो भी समाप्त हो जाता है। मनुष्य जैसा है, वैसे मनुष्य के जीवन में युद्ध जारी रहेगा। फिर खयाल क्या करना है? युद्ध न हो, इसका? नहीं, कृष्ण इतना ही कहते हैं, युद्ध धर्मयुद्ध हो, इतना। शांति धर्मशांति हो, इतना।

अब ध्यान रहे, शांति भी अधार्मिक हो सकती है, और युद्ध भी धार्मिक हो सकता है। लेकिन शांतिवादी सोचता है कि शांति सदा ही धार्मिक है। और युद्धवादी सोचता है कि युद्ध सदा ही ठीक है। कृष्ण कोई वादी नहीं हैं, वे बहुत’ लिक्विड’ हैं, बहुत तरल हैं। जिंदगी में वहा पत्थर की तरह कटी हुई चीजें नहीं हैं, उनकी जिंदगी में। उनकी जिंदगी में सब हवा की तरह है। वे कहते हैं शांति भी — मैं रास्ते से गुजर रहा हूं एक शीत आदमी हू और कोई किसी को लूट रहा है, मैं शांति से गुजर जाऊंगा, क्योंकि मैं कहता हू लड़ना मेरे लिये नहीं है। मैं शांति से गुजर रहा हू लेकिन मैरी शांति अधार्मिक हो गयी; क्योंकि मेरी शांति भी सहयोगी हो रही है किसी के लुटने में और किसी के लूटने में। अनिवार्य नहीं है कि शांति सदा ही धर्म हो। बर्टूंड रसल जैसे लोग,’ पेसिफिस्ट’, शांति को सदा ही ठीक मान लेते हैं। वे मान लेते हैं कि सदा ही ठीक है, शांत होना ही ठीक है। लेकिन ऐसी शांति’ इम्पोटेंस’ भी बन सकती है। ऐसी शांति नपुंसकता हो सकती है।

इसलिये कृष्ण बार—बार अर्जुन को कहते हैं, दौर्बल्य त्याग। मैंने कभी सोचा न था कि दृ, क्तीव हो सकता है, तू नपुंसक हो सकता है। तू कैसी नपुंसकों जैसी बातें कर रहा है! जबकि युद्ध सामने खड़ा हो और जबकि युद्ध कृष्ण की दृष्टि में अधर्म के लिये हो, तब तू कैसी कमजारी की बातें कर रहा है! तेरी शक्ति कहा खो गयी? तेरा पौरुष कहा गया? शांति जरूरी नहीं है कि धर्म हो। युद्ध भी जरूरी नहीं है कि अधर्म हो। कहा जा सकता है कि तब युद्धखोर कह सकते हैं कि हमारा युद्ध धर्म है। कह सकते हैं। जिंदगी जटिल है। कोई उन्हें रोक नहीं सकता। लेकिन, धर्म क्या है, अगर इसका विचार स्पष्ट फैलता चला जाये, तो कठिन होता जायेगा उनका रेखा दावा करना।

कृष्ण की दृष्टि में धर्म” क्या है, वह मैं कहूं। कृष्ण की दृष्टि में जीवन को जो विकसित करे, जीवन को जो खिलाये, जीवन को जो नचाये, जीवन को जो आनंदित करे, वह धर्म है। जीवन के आनंद में जो बाधा बने, जीवन की प्रफुल्लता में जो रुकावट डाले, जीवन को जो तोड़े, मरोड़े, जीवन को जो खिलने न दे, फसलने न दे, फलने न दे, वह अधर्म है। जीवन में जो बाधायें बन जायें, वे अधर्म हैं; और जीवन में जो सीढ़ियां बन जाये, वह धर्म है।

भगवान श्री कृष्ण को सही ढंग से कितने और कब आत्मसात किया? हमें उनको आत्मसात करना हो तो क्या करें?

कृष्ण को आत्मसात कर मनुष्य—सभ्यता और संस्कृति जिन आयामों में प्रवेश कर पायेगी उसकी रूपरेखा प्रस्तुत करने की कृपा करें।

 

कोई किसी दूसरे को आत्मसात कैसे कर सकता है? करे भी क्यों! दायित्व भी वैसा नहीं है। मैं अपने को ही आत्मसात करूंगा, कृष्ण को कैसे करूंगा? और जब कृष्ण खुद को आत्मसात करते हैं, तो कृष्ण को कोई दूसरा आत्मसात करने क्यों जाये? नहीं, दूसरे को आत्मासात करना व्यभिचार है। दूसरे को आत्मसात करना अपने साथ अन्याय है। दूसरे को आत्मसात करने की बात ही गलत है। मेरी अपनी आत्मा है। वह खिलनी चाहिये। अगर मैं दूसरे को आत्मसात करूं तो मेरी आत्मा का क्या होगा? हां, दूसरा मुझपर हावी हो जायेगा, दूसरा मुझपर उढ़ जायेगा, दूसरे को मैं ओढ़ लूंगा, मेरा क्या होगा? मेरा दायित्व मेरे होने के प्रति है।

नहीं, कृष्ण को समझना काफी है, आत्मसात करने की कोई भी जरूरत नहीं है। समझना पर्याप्त है। और समझना इसलिये नहीं कि पीछे जाना है, आत्मसात करना है, एक हो जाना है कृष्ण से। समझना इसलिये कि कृष्ण जैसा व्यक्ति जब खिलता है, तो उसके खिलने के नियम क्या हैं? कृष्ण जैसा व्यक्ति जब अपनी सहजता में प्रगट होता है, तो उसकी सहजता के नियम क्या हैं? मैं भी अपनी सहजता में प्रगट हो सकता हू। कृष्ण को समझने से एक सूत्र तो यह मिलेगा कि .अगर कृष्ण खिल सकते हैं, तो मेरे रोये चले जाने की जरूरत क्या है? जब कृष्ण नाच सकते हैं, तो मैं क्यों न नाच सकूंगा? ऐसा नहीं है कि कृष्ण का नाच और आपका नाच एक हो जायेगा। आपका नाच आपका होगा, कृष्ण का नाच कृष्ण का होगा। लेकिन कृष्ण को समझने से आपके आत्म—आविर्भाव में सहायता मिल सकती है। आत्मसात करने में नहीं, आपके अपने आविर्भाव में सहायता मिल सकती है।

इसलिये पहली बात यह कहता हू कि किसी को आत्मसात करने की जरूरत नहीं है, हालांकि कुछ नासमझों ने करने की कोशिश की है। पूरा तो कोई भी नहीं कर पायेगा, क्योंकि वह असंभव है। मैं दूसरे को ओढ़ ही सकता हूं दूसरे को आत्मा नहीं बना सकता। कितना ही गहरा ओढ़ तो भी मैं पीछे अलग रह ही जाऊंगा। अभिनय ही कर सकता हू दूसरे का, होना तो सदा अपना ही होता है। वह दूसरे का कभी नहीं होता।’ बारोड बीइंग’, उधार आत्मा नहीं होती। हो नहीं सकती। रहूंगा तो मैं मैं ही.। हां, किसी को इतना ओढ़ सकता हूं कि मेरे मैं को मैं भीतर दबाये चला जाऊं, दबाये चला जांऊ, वह मेरे अंतर्गर्भ में छिप जाये और मेरा सारा व्यक्तित्व दूसरे का हो जाये लेकिन मैं फिर भी मैं ही रहूंगा।

कृष्ण को आत्मसात करने की कोशिश बहुत लोगों ने की है, जैसे बुद्ध को करने की कोशिश की है, राम को करने की कोशिश की है, क्राइस्ट को करने की कोशिश की है, लेकिन कोई कभी किसी को आत्मसात नहीं कर पाता है। वह असफलता सुनिश्चित है। जो वैसा करने चलता है, उसने अपनी असफलता को ही नियति बना लिया है। और असफलता ही नहीं होगी, आत्मघात भी होगा। और जो लोग आत्मघात करते हैं साधारणत:, उनको हमें आत्मघाती नहीं कहना चाहिये, क्योंकि वे केवल शरीर—आघाती हैं, वे केवल अपने शरीर की हत्या करते हैं। लेकिन जो दूसरे को आत्मसात करते हैं, वे आत्मघाती हैं। वे अपनी आत्मा को ही मार डालने की कोशिश करते हैं। सब अनुयायी, सब शिष्य, सब अनुकरण करने वाले, सब पीछे चलने वाले आत्मघाती होते हैं।

लेकिन कुछ लोगों ने करने की कोशिश की है। उस कोशिश में दोहरे परिणाम निकलते हैं। एक तो वह आदमी सिर्फ ओढ़ पाता है, अभिनय कर पाता है। दूसरा, उसके ओढ़ने में ही कृष्ण का पूरा रूप बदल जाता है। उसके ओढ़ने में ही। क्योंकि मैं ओढूंगा कृष्ण को तो मेरे ढंग से ओढूं उतना तो कम—से—कम मैं रहूंगा ही। आप ओढ़ोगे तो आपके ढंग से ओढोगे, उतने तो आप कम—से—कम आप रहेंगे ही। इसलिये न केवल अपने साथ व्यभिचार होता है, बल्कि कृष्ण के साथ भी व्यभिचार हो जाता है। जितने भी थियॉलाजियन हैं, जितने भी धर्मशास्त्री हैं, चाहे क्राइस्ट, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, इनके पीछे ओढ़ने की चेष्टा में चलते हैं, वे सब रेखा ही करते हैं। वे मनुष्यता की विफलता की अद्भुत कहानियां हैं। और मनुष्यता के आत्मघाती होने के अद्भुत प्रमाण हैं।

लेकिन, मीरा या चैतन्य जैसे लोग कृष्ण को ओढ़ते नहीं, जरा नहीं ओढते। मीरा कृष्ण को ओढ़ती नहीं। चैतन्य कृष्ण को ओढ़ते नहीं। वे कृष्ण को आत्मसात नहीं करते हैं। वे तो जो हैं, हैं, उसको ही पूरा प्रगट करते हैं। उनके प्रगट होने में, मीरा के प्रगट होने में कृष्ण का व्यक्तित्व ओढ़ा नहीं जाता है। मीरा के प्रगट होने में, या चैतन्य के नृत्य में या चैतन्य के नाच में और चैतन्य के गीतों में कृष्ण ओढ़े नहीं गये हैं, न आत्मसात किये गये हैं। चैतन्य चैतन्य हैं, अपने ढंग के, हां, उनके ढंग में कृष्ण के प्रति जो प्रेम की धारा है, वह है। और जैसे—जैसे यह धारा बड़ी होती है, जैसे—जैसे धारा यह बड़ी होती है, वैसे—वैसे चैतन्य खोते जाते हैं, वैसे—वैसे कृष्ण भी खोते जाते हैं। और एक घड़ी आती है कि सब खो जाता है। उस सब खो जाने में न कृष्ण बचते हैं, न चैतन्य बचते हैं। उस क्षण अगर हम पूछें कि तुम कृष्ण हो कि चैतन्य, तो चैतन्य कहेंगे, मुझे कुछ पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं। मैं हूं। या शायद मैं भी नहीं बचता,’ हूं ही। यह’ प्योर—एक्लिस्टेंस’ है। और यह जो उपलब्धि है, यह चैतन्य का अपने ही आत्मा का फूल है। इसमें कोई ओढ़ना नहीं है, इसमें किसी को आत्मसात करना नहीं है। ऐसी भूल कभी करनी भी नहीं चाहिये। रेक्षी भूल करने का हमारा मन होता है। मन होता है इसलिये कि’ रेडीमेड’ कपड़े खरीद लेना सदा आसान है। तत्काल पहने जा सकते हैं, बड़ी सुविधा जो है। पहनने के लिये रुकना नहीं पड़ता। अगर किसी को खोजना है, तो कब होगी यह बात, नहीं कहा जा सकता। लेकिन अगर कृष्ण को ओढ़ना है, तो अभी हो सकती है। उधार तो कभी भी हो सकता है। कमाई वक्त मारा सकती है, इसलिये ओढ़ने का मन होता है। किसी को भी ओढ़ लें और झंझट के बाहर हो जायें। लेकिन कभी कोई उस तरह झंझट के बाहर नहीं हुआ, और गहरी झंझट के भंवर में पड़ गया है।

इसलिये धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं जो अपना आविष्कार कर रहा है। हां, इस आविष्कार करने में महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट की समझ सहयोगी हो सकती है। क्योंकि जब हम दूसरे को समझते हैं, तब हम अपने को समझने के भी आधार रख रहे होते हैं। जब हम दूसरे को समझते हैं, तब समझना आसान पड़ता है बजाय अपने को समझने के। क्योंकि दूसरे से एक फासला है, एक दूरी है और समझ के लिये उपाय है। अपने को समझने के लिये बड़ी जटिलता है, क्योंकि फासला नहीं समझने वाले में और जिसे समझना है उसमें। समझ के लिये दूसरा उपयोगी होता है। लेकिन उसे समझ लेने के बाद हमारी अपनी ही समझ बढनी चाहिये, हमारी अपने प्रति ही समझ बढ़नी चाहिये।

कभी आपने कई बार अनुभव किया होगा, अगर कोई आदमी आये और अपनी कोई मुसीबत आपके पास लाये, तो आप जितनी योग्य सलाह दे पाते हैं, वही मुसीबत आप पर पड़ जाये तो उतनी योग्य सलाह अपने को नहीं दे पाते हैं। यह बड़े मजे की बात है। क्या मामला है? यह आदमी बड़ा बुद्धिमान है। किसी की भी दिक्कत हो तो उसको सलाह दे पाता है। जब दिक्कत इसी पर आती है, वही दिक्कत, तो अचानक यह खुद सलाह मांगने चला जाता है। नहीं, इतनी निकटता होती है कि

समइाने के लिये अवकाश नहीं मिल पाता। दूसरे को समझना आसान होता है और दूसरे की समझ धीरे—धीरे हमारी अपनी समझ बनती चली जाये तो कृष्ण बाद में भूल जायेंगे, क्राइस्ट भूल जायेंगे, बुद्ध—महावीर भूल जायेंगे, अंततः हम ही रह जायेंगे। आखिर में मेरी शुद्धता ही बचनी चाहिये।

वैसी शुद्धता की उपलब्धि ही मुक्ति है। वैसे परम शूद्ध हो जाने का नाम ही निर्वाण है। वैसे परम— शुद्ध हो जाने का नाम ही भागवत चैतन्य की उपलब्धि है। हां, लेकिन जो कृष्ण को समझ कर वहां तक पहुंचेगा, वह हो सकता है कृष्ण नाम का उपयोग करे,वह कहे कि मैने कृष्ण को पा लिया। यह सिर्फ पुराने ऋण का चुकतारा है, यह सिर्फ पुराने ऋण के प्रतिक अनुग्रह है। और कुछ भी नहीं। वैसे पहुंचने वाला कह सकता है, मैं जीसस को पा लिया हूं। वह सिर्फ जीसस के प्रति, जीसस को समझने से जो समझ उसे मिली थी उसके प्रति ऋण का चुकतारा है। इससे ज्यादा नहीं है। पाते तो सदा हम अतत: अपने को ही हैं। कोई दूसरे को नहीं पा सकता। लेकिन जिस दिन हम अपने को पाते हैं उस दिन कोई दूसरा रह नहीं जाता है। इसलिये हम कोई—न—कोई शब्द का उपयोग करेंगे। जो हमने यात्रा पर उपयोगी पाया होगा, वह हम उपयोग करेंगे। एक छोटी—सी बात, फिर हम ध्यान के लिये बैठें।

प्रश्न का दूसरा हिस्सा है कि कृष्ण की जीवनधारा से प्रभावित होकर मनुष्य—सभ्यता औंर संस्कृति किन जीवन—आयामों में प्रवेश कर पायेगी? इसकी संक्षिप्त रूपरेखा स्पष्ट करें।

उसपर तो बहुत लंबी बात करनी पड़े — वैसे उसकी ही बात कर: रहे हैं इतने दिन से। दो—तीन शब्द कहे जा सकते हैं। मनुष्य की सभ्यता कृष्ण की समझ से सहज हो सकेगी; क्षण—जीवी हो सकेगी, आनंद—समर्पित हो सकेगी; दुखवादी नहीं रहेगी, समयवादी नहीं रहेगी, निषेधवादी नहीं रहेगी, त्यागवादी नहीं रहेगी। अनुग्रहपूर्वक जीवन को वरदान समझा जा सकेगा और जीवन और परमात्मा में भेद नहीं रहेगा। जीवन ही परमात्मा है, ऐसी प्रतिष्ठा धीरे—धीरे बढ़ती जायेगी। जीवन के विरोध में कोई परमात्मा कहीं बैठा है, ऐसा नहीं, जीवन ही परमात्मा है। सुरष्टि के अतिरिक्त कोई स्रष्टा कहीं बैठा है ऐसा नहीं सृष्टि की प्रक्रिया, सृजन की शक्ति,’ क्रिएटिविटी इटसेल्फ’ परमात्मा है।

ये पूरी बातें जो मैंने इस बीच कही हैं, उनको खयाल में लेंगे तो जो मैंने अंतिम बात कही है वह स्पष्ट हो जायेगी। इन दिनों बहुत—सी बातें मैंने आपसे कहीं, कुछ रुचिकर लगी होंगी, कुछ अरुचिकर लगी होंगी। रुचिकर लगने से भी समझने में बाधा पड़ती है, अरुचिकर लगने से भी समझने में बाधा पड़ती हैं। जो रुचिकर लगती है उसे हम बिना समझे पी जाते हैं, जो अरुचिकर लगती है उसे हम बिना समझे द्वार बंद करके बाहर छोड़ देते हैं। मैंने जो बातें कहीं, वह इसलिये नहीं कहीं कि आप उनको पी जायें या द्वार से बाहर छोड़ दे, मैंने सिर्फ इसलिये कहीं कि आप उनको सहजता और सरलता से समइा पायें। मेरी बातों को घर मत ले जाइये। उन बातों को समझने में जो समझ आपके पास आयी हो: जो प्रज्ञा, जो’ विज्डम’ आयी हो उसको भर ले जाइये। फूलों को यहीं छोड़ जाइये, इत्र कुछ बचा हो आपके हात में, उसे ले जाइये। मेरी बातों को ले जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरी बातें वैसी ही बेकार हैं जैसी सब बातें बेकार होती हैं। लेकिन इन बातों के संदर्भ में, इन बातों के संघर्ष में, इन बातों के आमने—सामने’ एनकाउंटर’ में आपके भीतर कुछ भी पैदा हुआ हो — वह तभी पैदा हो सकता है जब आपने पक्षपात न लिये हों; वह तभी पैदा हो सकता है जब आपने रेला न कहा हो कि ठीक कह रहे हैं, ऐसा ही मैं मानता हू कि गलत कह रहे हैं, ऐसा मैं मानता नहीं ह्यू तभी आपमें समझ,’ अंडरस्टैंडिंग’ पैदा हो सकती है।

अगर आपने समझा हो कि यह तो कृष्ण के पक्ष में बोल रहे हैं, हमारे महावीर के पक्ष में नहीं बोलते हैं, तो आप दुख ले जायेंगे, समझ नहीं ले जायेंगे। उसका जुम्मा मेरा नहीं होगा। जुम्मा महावीर का भी नहीं होगा। आपका ही होगा। आपने सोचा, यह तो हमारे जीसस के पक्ष में नहीं बोले, तो आप समझ नहीं ले जायेंगे। या आपने ऐसा समझा कि यह तो हमारे कृष्‍ण के संबध में बोल रहे हैं, तो आप नासमझ ही लौट जायेंगे। आपके कृष्ण से मुझे क्या लेना—देना? न रुचि, न अरुचि; न पक्ष, न विपक्ष; मुझे जो दिखायी पड़ता है उसे सीधा मैने आपकी आंखों के सामने फैला दिया है। और मैं खुद ही क्षणजीवी व्यक्ति हूं इसलिये भरोसे का नहीं हूं। कल क्या कहूंगा, इससे आज कोई’ प्रामिस’ नहीं बनती है, इससे आज कोई आश्वासन नहीं है। आज जैसा मुझे दिखायी पड़ता था, वैसा मैंने कहा। आज जो आपकी समझ में आया हो — समझ में आया हो, उसका मूल्य नहीं है; जो समझ में आने में समइा बढ़ी हो, उसका मूल्य है।

मैं आशा करता हू यह दस दिन में सबके पास थोड़ी—न बहुत समझ का विकास हुआ होगा, थोड़ी—न बहुत दृष्टि फैली होगी, द्वार थोड़े—न बहुत खुले होंगे, सूरज को आने के लिये थोड़ी—बहुत जगह बनी होगी। मैं नहीं कहता हू कि आपके भीतर जब सूरज आये तो आप उसे क्या नाम दें — कृष्ण कहें, कि बुद्ध कहें, कि राम कहें, यह आपकी मर्जी है, नाम आपके होंगे — मैं इतना ही कहता हू दरवाजा आपके चित्त का खुला हो। तो सूरज आ जायेगा। नाम आप पर निर्भर होगा, क्योंकि सूरज अपना कोई नाम कहता नहीं कि मेरा नाम क्या है। वह अनाम है। नाम अपना आप दे लेंगे। लेकिन दरवाजा सिर्फ उनके ही चित्त का खुलता है, जो समझपूर्वक, समइा में, समझ के साथ जीते हैं, पक्षों और धारणाओं और सिद्धांतों के साथ नहीं। सिद्धांतों और धारणाओं .और पक्षों के साथ वे ही लोग जीते हैं जिनको अपनी समझ का भरोसा नहीं है। तो वे पक्के, बंधे—बंधाये, सिमेंट—कांक्रीट के बाजार में बिकते हुये सिद्धांतों को ले आते हैं। समझ तो पानी की तरह तरल है। समइा तो बहाव है, एक’ फ्लो’ है। सिद्धांत, सिद्धांत कोई बहाव नहीं है।

तो अगर आपने सिद्धांतों की आड़ से मुझे सुना हो — चाहे मित्र हों उन सिद्धांतों के, चाहे शत्रु — तो फिर आप नहीं समझ पायेंगे कि मैंने क्या कहा है।

आखिरी बात आपसे कह दू कृष्ण से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है। कृष्ण से कोई संबंध ही नहीं है। कोई कृष्ण के पक्ष में आप हो जायें, इसलिये नहीं कहा है; कि कृष्ण के विपक्ष में आप हो जायें, इसलिये नहीं कहा है। कृष्ण को तो मैंने एक’ कैनवस’ की तरह उपयोग किया, जैसे एक चित्रकार एक’ कैनवस’ का उपयोग करता है।’ कैनवस’ से उसका कोई मतलब ही नहीं होता। कुछ रंग उसे फैलाने होते है’ कैनवस’ पर, वह उन रंगों को फैला देता है। कुछ रंग मुझे फैलाने थे आपके सामने, वह कृष्ण के’ कैनवस’ पर मैंने फैला दिये। मुझे महावीर का’ कैनवस’ भी काम दे जाता है, बुद्ध का’ कैनवस’ भी काम दे जाता है, जीसस का’ कैनवस’ भी काम दे जाता है। और एक’ कैनवस’ पर जिन रंगों का मैं उपयोग करता हू कोई जरूरी नहीं कि दूसरे’ कैनवस’ पर उन्हीं रंगों का उपयोग करूं। और ऐसा भी मुझसे कोई कभी नहीं कह सकता है कि कल आपने जो चित्र बनाया था आज तो उसके बिलकुल विपरीत बना दिया। अगर मैं चित्रकार हूं तो विपरीत बनाऊंगा ही। और अगर सिर्फ’ कापीइस्ट’ हूं तो फिर कल उसी की नकल फिर करूंगा।

इसलिये मेरे वक्तव्यों को जड़ता से पकड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरे वक्तव्यों को समझें

और छोड़ दें। समझ पीछे बाकी रह जायेगी, वक्तव्य छूट जायेगा। इससे एक और फायदा होगा कि किसी दिन मुझे पकड़ने का खतरा पैदा नहीं होगा। नहीं तो मेरे वक्तव्यों को पकड़ा — पक्ष से या विपक्ष से — तो मैं पकड़ा जाऊंगा। नहीं, मुझे कोई हर्जा नहीं होगा। हर्जा आपको हो जायेगा। जब भी हम किसी को पकड़ लेते हैं, तभी हम अपने को खो देते हैं। जब हमारे हाथ सबसे खाली हो जाते हैं तब अचानक हमारे हाथों में हम ही भर जाते हैं। इस आशा में ये सारी बातें कही हैं।

मेरी बातों को इतने प्रेम, इतनी शांति, इतने मौन, इतने आनंद से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

आज इतना ही।


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एक प्रश्‍न खतरे का–(प्रवचन–1)

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ईसामसीह के पश्‍चात सर्वाधिक विद्रोही व्‍यक्‍ति—ओशो

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(अध्‍याय–एक)

‘’भगवान श्री रजनीश ईसा मसीह के बाद सर्वाधिक खतरनाक व्‍यक्‍ति है।‘’ ये भविष्‍यसूचक शब्‍द इस वर्ष के प्रारंभ में कहे थे टॉम राबिन्स ने जो अमरीका के सर्वश्रेष्‍ठ जीवित साहित्‍यिक लेखकों में से एक ‘’गिने जाते है। उस समय उन्‍हें इस बात का पता नहीं था लेकिन भविष्‍य में कुछ ऐसी घटनाएं घटने वाली थीं कि विश्‍व का हर प्रमुख शासक भगवान श्री रजनीश से भयभीत था।

क्‍या?

भगवान श्री रजनीश कौन है?

और वे इतने असामान्‍य रूप से अंतर्राष्ट्रीय विवादास्‍पद व्‍यक्‍ति किस तरह बन गए?

वस्‍तुत: उन्‍हें खतरनाक कहने वाले टॉम राबिन्स पहले व्‍यक्‍ति नहीं है। यह ख्‍याति उन्‍हें बहुत पहले छठे दशक में भारतीय पत्रकारों द्वारा प्राप्‍त हुई थी। जब वे विश्‍वविद्यालय में दर्शन के एक प्राध्‍यापक थे और सेक्‍स, धर्म और राजनीति संबंधी अपने क्रांतिकारी और स्‍पष्‍टवादी विचारों से अतिशय रूढ़िवादी भारतीय जनता को क्रुद्ध कर चुके थे।

सातवें दशक के उत्‍तरार्ध में पाश्‍चात्‍य पत्रकार उनकी और आकृष्‍ट हुए और उन्‍होंने भी अपने विशेषण जोड़ दिये। लेकिन लगभग निरपवाद रूप से, उनमें से जो भी पूना के उनके आश्रम में गए और उन्‍हें सुना, वे लोग भारतीय समकक्षों से कही अधिक विवेकपूर्ण थे। जब वे पश्‍चिम वापिस लौटे तो ‘’असाधारण’’ ‘’विलक्षण’’ ‘’गहन रूप से प्रभावित करने वाले।‘’ ‘’अत्‍यंत विचलित करने वाले’’ और अत्‍यंत चित्‍ताकर्षक’’ जैसे विशेषण अपने साथ ले गए।

पाश्चात्य प्रसार-माध्‍यम के सारे रूप यहां आए, और समीक्षाएं की। 1977 में ‘’वोग’’ पत्रिका की जीन लिएल ने उनके लिए कहा, ‘’वे एक सौम्य,करूण मय और समूचे अखण्‍डित व्‍यक्‍ति…..अत्‍यंत अनुप्राणित, अत्‍यंत सुशिक्षित…ओर विशद व गहन जानकारी रखने वाला ऐसा व्‍यक्‍ति….पहले कभी और कहीं नहीं सुना। जर्मन ‘’कॉस्‍मॉपालिटन’’ मैगजीन की फल्‍रेन्‍स गाल ने उनका वर्णन ‘’करिश्मा पूर्ण’’ कहकर किया, ऐसे जैसे एतिता पेरॅन,मार्टिन लूथर किंग, जॉन एफ. केनेडी और पोप जॉन-तेईसवें। 1979 में दूरदर्शन के निष्ठुर आलोचक अलन विकर ने अपने कार्यक्रम ‘’ विकर्स वलर्ड’’ में कहा: ‘’वे बहुत सुंदर है….बोलते वक्‍त वे बहुत ही प्रभावशाली लगते है।‘’ डच पैनौरमा’’ मैगजीन के मासेंल मियेर, जो 1978 में पूना आए थे। की दृष्‍टि में वे मनोविज्ञान के आचार्य ओर परम बुद्धिमान’’ थे। उन्‍होंने कहा ऐसा व्‍यक्‍ति मैंने सिर्फ किताबों में ही देखा था। वास्‍तविक जीवन में तो देखने की मैं कल्‍पना ही नहीं कर सकता। वे पृथ्‍वी के जीवित चमत्‍कार है।‘’अरगेंटिनिशेस टेगब्‍लाट’’ की मेरीलुइज एलेमन ने 1980 में लिखा। ‘’पूरब तर देशों के लोगों के मन में ‘’भारत’’ अथवा ‘’गुरू’’ शब्‍द सुनते ही बेखटके जो छवि उभरती है, स्‍पष्‍टत: उस सौम्य पवित्र व्‍यक्‍ति नामक लहर पर सवार होना उन्‍होंने स्‍वीकार नहीं किया है, और न ही सर्वज्ञ, करूणा मय सद्गुरू वाली छवि की नकाब उन्‍होंने ओढ़नी चाही है।‘’

रोनाल्‍ड कॉनवे,जो कि ऑस्‍टेलिया में प्राध्‍यापक, लेखक, केथॅलिक तथा वहां के एक अस्‍पताल में वरिष्‍ठ परामर्शक मनोवैज्ञानिक है, 1980 में पूना के आश्रम में आए थे। वे अपनी रिपोर्ट में कहते है। ‘’उनके आस पास कुछ मीटर की दूरी पर होना मात्र कुछ विलक्षण परिणाम लाता है। उसका स्‍त्रोत कुछ भी हो, लेकिन रजनीश में कोई विलक्षण शक्‍ति और चुम्‍बकत्‍व है। जो इतनी स्‍पर्श गोचर है कि महसूस की जा सके……उनको देखकर मुझे लगा कि शायद ईसा मसीह इसी तरह के रहे होंगे।

और ‘’लंदन टाइम्‍स’’ के बना्रर्ड लेविन जिन्‍हें रूढ़िवादी सामाजिक समीक्षकों में तीखे वाग बाणों का प्रयोग करने वाले वरिष्‍ठ सदस्‍य कहा जाता है। जब 1980 में रजनीश आश्रम देखने आए तो उनके उद्गार इस प्रकार थे: ‘’उस व्‍यक्‍ति से मैं एकदम सम्‍मोहित हो गया…..ओर उनके आसपास रहनेवाले लोगों से भी। रजनीश एक अनूठे शिक्षक है। और एक असाधारण चुंबक।‘’

जिन लोगों के बहुत संदेह वादी होने की अपेक्षा थी, उनके ये उद्गार देख कर लगता है कि उन तुलनात्‍मक रूप से प्रारंभिक दिनों में भी भगवान मात्र एक अन्‍य मशहूर किये गये पूर्वीय गुरु नहीं थे। जैसा की ‘’एडीलेड (ऑस्टेलिया) सैटरडे रिव्यू में एलन अटकिन्‍सन ने 1अगस्‍त, 1981 के अंक में लिखा, ‘’यह बात साफ है कि रजनीश कोई साधारण आदमी नहीं है। उनका वर्णन इन शब्‍दों में किया जाता है: एक महान आधुनिक आध्‍यात्‍मिक ऋषि; जीसस और बुद्ध की परंपरा के; बुद्धत्‍व को उपल्‍बध सद्गुरू; पूना के झक्‍की संत; वर्तमान समय के प्रसन्‍नचित जॉन द बैपटिस्ट—और उनके विरोधियों के अनुसार वे क्राइस्‍ट-विरोधी, पागल, संसार के सबसे खतरनाक आदमी। विगत दो वर्षों से पश्‍चिम के मनोवैज्ञानिकों, मानसचिकित्सकों, चर्च से संबंधित लोगों, पत्रकारों तथा व्‍यावसायिक संदेह वादियों के मन में उनकी उपस्‍थिति और उनके प्रभाव के कारण कुतूहल पैदा हो गया है।‘’

साढ़े चार साल बाद, सन् 1986 तक, वही कुतूहल जगाने वाली उपस्‍थिति और प्रभाव दुनिया के लगभग हर देश के लिए अपने-अपने कम्‍प्‍यूटरों में भगवान श्री रजनीश के नाम के आगे लाल सावधान चिन्‍ह अंकित कर लेने का कारण बन गया है—‘’राष्‍ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक’’….. सार्वजनिक कल्‍याण की दृष्‍टि से अहित कारक उपस्‍थिति’’……राज्‍य के हितों के लिए बाधा’’…….प्रवेश कदापि न दें।‘’

क्‍यों?

उनके साथ जुड़ा ‘’खतरनाक’’ विशेषण केवल उनके विचारों के कारण उन्‍हें दिया गया है। आतंकवादी अथवा किसी संघातक गिरोह के नेता के अर्थों में उनके खतरनाक होने का तो कोई कभी सवाल ही नहीं था। समस्‍त ज्ञात वृतान्‍त के अनुसार वे एक ऐसे व्‍यक्‍ति थे जो कभी अपने घर से बाहर नहीं गए, बल्‍कि प्रवचन देने के अलावा जो वास्‍तव में अपने कमरे तक से बाहर नही गए। और जिन्‍होंने बोलने के अलावा और कुछ भी नहीं किया हे। जिन दो देशों में वे रहे—भारत और अमेरिका—उनमें गहरी छानबीन करने के बावजूद भी जिस व्‍यक्‍ति के ऊपर कोई भी जुर्म कायम नहीं किया जा सका, सिवाय इसके कि उन्‍होंने आप्रवास अधिकारियों को झूठे वक्तव्य दिए है।*

फिर जर्मन, स्‍विस, ऑस्‍टेलियन तथा डच सरकारों को1986 में आपातकालीन आदेश क्‍यों पास करने पड़े कि यह व्‍यक्‍ति उनके देश की जमीन पर पाँव तक नहीं रख सकता?

इटली ओर स्‍वीडन ने उन्‍हें पर्यटक-वीसा देने से इन्‍कार कर दिया?

जब हिथ्रो हवाईअड्डे पर उनका जेट आठ घंटे के लिए उतरा तब इंग्‍लैंड ने उनको ट्रांजिट लाउंज में रात भी रूकने की इजाजत क्‍यों नहीं दी? ग्रीस में जब उन्‍हें चार हफ्ते रूकने की अनुमति थी तब उन्‍हें दो हफ्तों के बाद वहां से अचानक निकाल बाहर क्‍यों कर दिया गया—जबकि इन दो हफ्तों में उन्‍होंने अपने घर के बाहर कदम भी नहीं रखा।

जिस जेट प्‍लेन में वे यात्रा कर रहे थे, उसे कनाडा ने ईंधन लेने हेतु पैंतालीस मिनटों के लिए भी क्‍यों नहीं उतरने दिया—ऐसा लिखित गांरटी के बावजूद भी कि वे प्‍लेन के बाहर कदम भी नहीं रखेंगे?

सामान्‍यत: सीधे-सादे करीबियन द्वीप-समूहों ने अखबारों द्वारा प्रसारित मान्‍ एक अफवाह की हल्‍की सी भनक पर की वे वहीं जा रहे है, अपने हवाई अड्डों को सतर्क क्‍यों कर दिया कि उनका हवाई जहाज वहां उतरने ने दें?

जमाइका ने उन्‍हें दस दिन का वीसा देने के बाद, उनके वहां पहुंचने पर उन्‍हें चौबीस घंटे के भीतर देश छोड़ने का आदेश क्‍यों दे दिया?

क्रिश्‍चियन डेमोक्रैटों के एक गुट ने यूरोप की संसद के सामने यह प्रस्‍ताव क्‍यों रखा कि सदस्‍य-देश ऐसे उपास करें जिससे वे ( भगवान श्री रजनीश) कभी भी उन देशों की सीमा में रह न सकें?

वेटिकन ने अपने नियंत्रण के अंतर्गत आनेवाले सभी इतालवी समाचार पत्रों से यह निवेदन क्‍यों किया कि वे उनके नाम तक का उल्‍लेख न करें?

अमरीका अटर्नी जनरल एड मीज़ ने ऐसा क्‍यों कहा कि वे चाहते है कि ‘’वे( भगवान श्री) भारत वापिस हो और फिर कभी देखने-सुनने में न आएं’’ और वे पश्‍चिम जगत में न रहें इसके लिए अमरीकी सरकार को ब्लैक मेल पर क्‍यों उतरना पड़ा?

ऐसी क्‍या बात थी जिससे कि विश्‍व की सर्वाधिक ताकतवर सरकारें एक अकेले आदमी से इतनी भय-भीत हो गई। जिसके पास किसी भी तरह का राजनैतिक पद नहीं था। जो स्‍वयं के सिवाय किसी ओर का प्रतिनिधित्‍व नहीं करता था, और जो बोलने के अतिरिक्‍त और कोई कृत्‍य नहीं करता?

यह कौन आदमी था जिसने अपने खिलाफ कम्युनिस्ट, पूंजीवादी, केथॅलिक, फासिस्‍टों को एक अश्रुतपूर्व पवित्र गठबंधन में जोड़ दिया?

सू एपलटन

*पीत पत्रकारिता द्वारा उत्‍कंठा पूर्वक प्रसारित की गयी अफ़वाहों के ठीक विपरीत, भगवान श्री रजनीश भारत में कभी किसी प्रकार के आरोप के जुर्म में नहीं थे। अमरीका में, चार वर्ष तक प्रात: प्रत्‍येक सरकारी ऐजेंसी द्वारा चलाई गयी जांच-पड़तालों के बाद, केवल क्षुद्र आरोप जो उन पर लगाये जा सके थे कि अमरीका-आगमन पर उन्‍होंने झूठा वक्‍तव्‍य दिया कि उनका उस देश में स्‍थायी आवास का इरादा नहीं था जबकि वास्‍तव में उनका वैसा इरादा था। और कि उन्‍होंने कूद लोगों को ऐसे विवाहों के आधार पर स्‍थायी आवास के लिए आवेदन करने की प्रेरणा दी जिनके बारे में उन्‍हें पता था कि वे विवाह सही नहीं थे। (और ये सब उस समय जब वे सर्वविदित वे सर्वमान्‍य रूप से मौन में थे……..अध्‍यान चार देखें)


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बचपन से उपद्रव–(प्रवचन–2)

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बचपन से उपद्रव—(अध्‍याय—दो)

पीछे जो कुछ होना था उसे देखते हुए, किसी को यह जानकर आश्वर्य न होगा कि भगवान ‘श्री रजनीश बचपन से ही उपद्रवी कहलाए जाते थे। हम अतीत के सिंहावलोकन में न जाएं तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये बड़े नटखट बालक थे, और इनके मशहूर विनोदप्रिय स्वभाव के साथ-साथ इनमें बड़ों के प्रति अनावश्यक व अकारण आदर- भावना की महती कमी तथा सही-गलत, उचित-अनुइचत का दूसरों से निदेंश लेने के बजाय हर चीज का अन्वेषण स्वयं करने की उत्कट कटिबद्धता ने इन्हें एक डरावनी निष्पत्ति बना दिया था, खासकर उन लोगों के लिए जौ इन्हें सामान्य करना अथवा नियंत्रित करना चाहते थे।

1931 के बीतते-बीतते, मध्य भारत के एक छोटे से गांव में, एक जैन व्यापारी परिवार में इनका जन्म हुआ। ये तेरह भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। इनका जन्म ननिहाल में हुआ-और लगता है यही पहली और अंतिम घटना थी जो इन्होंने ‘‘सामान्य’‘ रूप से घटने दी। इनके नाना और नानी, जो एक बड़े मकान में रहते थे, पहली ही नजर में इन पर न्यौछावर हो गये। अगले सात वर्षो तक ये उनके साथ ही रहते रहे।

भगवान श्री इस बात को स्वीकार करते है कि विकास-काल के दौरान नाना-नानी के लाड़-प्यार ने इन्हें बिगाड़ा-स्वेच्छा से कुछ भी करने की इतनी स्वतंत्रता मिली कि इनका स्वभाव अनिर्बंध, अनियंत्रित और अनुशासनहीन हुआ, जो पीछे गांव के बड़े-बूढ़ों और पड़ोसियों की तमाम शिकायतों का कारण बना। लेकिन इनकी इस तरह की परवरिश के (या कहें, उसके अभाव के) साथ ही साथ, ये अपने भीतर एक जन्मजात विद्रोही की चिनगारी लेकर आए थे-यह सिर्फ एक दृढ़-निश्रयी किशोर नहीं था, जो कि सभी आदेशों को ताक पर रख देता था, इस किशोर ने तो मानों समाज के सभी स्थापित नियमों और स्वीकृत आचरण के ढांचों को चुनौती देने का बीड़ा उठा लिया था। और यह हर स्वीकृत विश्वास तथा धारणा पर संदेह किये चला जाता था। इनके ये प्रारंभिक प्रयोग तुलनात्मक रूप से निरीह थे, लेकिन उनमें भावी घटनाओं की पगध्वनि थी।

उदाहरण के लिए, इनका एक पड़ोसी अपनी रोज सुबह-शाम की तीन-तीन घंटे लंबी जोर-शोर से चलने वाली पूजा व भजन-कीर्तन से सबको अशुविधा पहुंचाता था। उसका नाम बालाजी था। इन्होंने बालाजी से पूछा, ‘तुम भगवान से क्या मांगते हो? मेरे दादा तो कहते हैं कि तुम डरपोक हो इसलिए प्रार्थना करते रहते हो। ‘ स्वभावत: बालाजी ने जोर दार इन्कार किया और इस किशोर ने उनकी परीक्षा लेने का तय किया। अगले दिन इन्होंने किसी तरह अपने चार पहलवान मित्रों को राजी कर लिया कि बालाजी को मज़ा चखाया जाए। (अखाड़े में जब-तब जाकर कसरत करने का शौक खुद भी रखते थे)। बालाजी अपनी बगिया में एक खाट बिछा कर सोते थे। पास ही एक कुआं था। आधी रात को उन चार पहलवानो ने, इस लड़के के इशारे पर, सोते बालाजी की खाट उठा कर कुए पर रख दी। फिर सब लोग झाडियो के पीछे छिप गए और उनको जगाने के लिए कुछ पत्थर फेके। जब बालाजी की नींद खुली और उन्होने देखा कि वे कहा है तो उनके मुंह से ऐसी सर्वशक्तिमान चीख निकली कि सारा अड़ोस-पड़ोस जग गया। चारों तरफ इकट्ठी भीड़ के बीच से किशोर रजनीश ने पूछा-‘मामला क्या है? तुमने अपने भगवान को क्यों नहीं पुकारा? तुम हर रोज छ: घंटे अभ्यास करते हो, लेकिन भगवान को तो भूल गए, चीख ही याद आई। ‘

इनके नाना, जो उस गांव के एक प्रभावशाली एवं सम्मानित व्यक्ति थे, खुद भी कुछ शरारती ही थे और लगता है कि उन्हें भी लड़के की इस आदत में मजा आता था जब वह सीधे-सादे किंतु अनुत्तरणीय प्रश्र पूछकर गांव की धार्मिक सभाओं को भंग कर देता, अथवा आगंतुक साधु-महात्माओं को उनके आध्यात्मिक दावे सिद्ध करने के लिए ललकार देता। एक जैन साधु से, जो स्वानुभव के बिना कुछ भी न मानने की शिक्षा दे रहे थे, उसने पूछा कि उन्हें शाश्वत नर्क का कैसे पता है? क्योंकि यदि वह शाश्वत है तो ऐसा संभव ही नहीं कि वे वहां गये हों और फिर बताने के लिए लौट सकें।

एक अन्य अवसर पर उसने पूछा, ‘इस सुंदर विश्व को किसने बनाया?’ जैन गण ईश्वर में विश्वास नहीं करते, सो जैन मुनि ने कहा, ‘किसी ने नहीं बनाया। ‘रजनीश ने कहा, ‘यदि किसी ने नहीं बनाया तो यह अस्तित्व में कैसे आया?.’

इस तरह के सवाल आम तौर पर उस सभा को समाप्त कर देते, और उसके साथ उस साधु की प्रतिष्ठा को भी। उनमें से शायद ही कोई दुबारा लौटा। इनके नाना-नानी को इन पर नाज़ था, और गांव के लोग इन से सावधान रहने लगे थे। रजनीश ने स्वयं कहां है, ”जहां तक मेरी स्मृति जाती है, मै सिर्फ एक ही खेल पसंद करता था-तर्क करना। इसलिए बहुत कम बुजुर्ग मुझे बरदाश्त कर पाते थे। मुझे समझने का तो प्रश्र ही नहीं उठता।’’

सात साल तक ये ऐसे ही ”अनिर्बंध” और अशिक्षित बने रहे। उसी वर्ष इनके नाना का देहान्त हुआ। इन प्रारभिक वर्षो की चर्चा इन्होंने अनेक बार और बडे प्यार से की है। वे कहते हैं ”शुरू से ही मेरे साथ कुछ गडबड हो गई, और उसका कारण था कि प्रथम सात साल मै अपने नाना-नानी के पास रहा। उन दो बूढ़े व्यक्तियों का मुझमें कोई निहितस्वार्थ नहीं था-वे सिर्फ मुझे प्रेम करते थे। मै केवल एक मेहमान था… उनका मेरे प्रति व्यवहार एक ऐसी मनोभूमि से आता था, जो माता-पिता में संभव नहीं.. .उन्होंने मुझे मुझ-सा होने की संपूर्ण स्वतंत्रता दी. .किसी प्रकार मैं सभ्यता की पकड़ के बाहर ही रह गया. .मैं सचमुच एक पका व्यक्तिवादी बन गया, बहुत सख्त.. .एक अनोखे संयोग से मै अपने माता-पिता से बच गया। और जब तक मै उनके पास पहुंचा तब तक करीब-करीब एक स्वतंत्र व्यक्ति बन चुका था। मेरे पंख निकल आए थे। मुझे पता था कि मुझे निर्मित करने के लिए किसी की सहायता की जरूरत नहीं है।’’

लेकिन इनको झेलने के लिए बाकी लोगों को निश्रित ही सहायता की जरूरत पड़ती थी।

नाना के देहान्त के बाद वे और उनकी नानी पिता के गांव गाडरवारा रहने आ गए। वहां पहली बार इन्हें पाठशाला भेजा गया-जैसा कि वे कहते हैं, ”कैदखाने में घसीटा गया।’’

इनके नाना-नानी द्वारा दी गई स्वतंत्रता के कारण इनके भीतर जो आत्मविश्वास तथा प्रभुत्व की मशाल जल उठी थी, उसके फलस्वरूप पाठशाला में इन्हें एक स्पष्टवादी विद्रोही कहलाते देर न लगी। इन्होंने शिक्षा-संहिता की एक प्रति कहीं से प्राप्त कर ली, और कोई शिक्षक यदि इन्हें किसी ऐसे अपराध के लिए दण्डित करता जो कि साफ-साफ उस किताब में निर्दिष्ट न हो तो ये बिना किसी झिझक के उस शिक्षक को प्रधानाध्यापक के पास ले जाते। ये पूछते, ‘इसमें ऐसा कहां लिखा है कि इस उदास, मुर्दा ब्रैकबोर्ड की तरफ देखने के बजाय मैं खिड़की के बाहर बिखरे हुए प्राकृतिक सौंदर्य को नहीं निहार सकता?’ शिक्षक पर प्रश्र खड़े करने, उल्टे जवाब देने, या और किसी तरह की गड़बड़ी पैदा करने के सिलसिले में दण्‍डस्वरूप इनके अधिक समय का कक्षा के बाहर बीतना, भीतर कम, इस बात की गवाही है कि ये हर वह बात करने के लिए कृतसंकल्प थे जिसकी आज्ञा न थी।

जो भी मान्यताएं थीं, उन पर ये संदेह करते। इन्होंने अपने शिक्षक से कहा, ‘एक छोटा बच्चा भी यह देख सकता है कि सीधी रेखा की यूक्लिड की परिभाषा कि उसकी लंबाई तो होती है, चौड़ाई नहीं, मिथ्या है। आप ही ऐसी रेखा खींचकर दिखा दें जिसकी लंबाई तो हो लेकिन चौड़ाई न हो; या ऐसा बिंदु जिसकी न लंबाई है, न चौड़ाई है। ‘ जवाब में इनके शिक्षक ने इन्हें कक्षा से बाहर निकाल दिया और कहा कि जाकर खुद यूक्लिड से यह मामला सुलझाओ।

कई निरर्थक नियमों के खिलाफ विरोध प्रगट करने के लिए ये विद्यार्थियों का नेतृत्व करते। जैसे, गांधी टोपी पहनने की अनिवार्यता (यह नियम हटा लिया गया), विद्यार्थियों के साथ कठोर अनुशासन (कूरता बरतने के खिलाफ इन्होंने पुलिस में शिकायतें दर्ज करायीं)। पाठशाला के अपने पहले दिन ही इन्होंने एक शिक्षक को बरखास्त करवा दिया था जो छोटे बच्चों की गालियां के बीच पेन्सिल डालकर उन्हें दबाता था (स्कूल खत्म होते ही सात वर्षीय रजनीश पहले प्रधानाध्यापक, बाद में पुलिस कमिश्रर, और अंततः नगर निगम के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के पास गये थे)।

यह केवल इनके कृत्यों का नहीं, वरन इनके दृष्टिकोण का कमाल था कि जिसका भी इनसे पाला पड़ता, वह असमंजस में पड़ जाता। उदाहरण के लिए, ये किसी भी सजा को सजा की तरह नहीं बल्कि पुरस्कार की तरह लेते। यदि इन्हें दौड़कर स्कूल के सात चक्कर लगाने के लिए कहा जाता तो ये शिक्षक को धन्यवाद देते और सात की जगह दस चक्कर लगा आते, यह कहकर कि आज सुबह व्यायाम नहीं कर पाया था, यह तो बड़ा अच्छा अवसर मिल गया। यदि सजा के तौर पर इन्हें कक्षा के बाहर खड़े होने को कहा जाता तो ये जोर-जोर से बाहर ताजी और शुद्ध हवा में प्रकृति के साथ खड़े होने के गुणों का बखान करने लगते, और कि कक्षा कितनी गंदी और घुटनकारी है। बौखलाहट में जब शिक्षक इन्हें शारीरिक-दण्ड देने की धमकी देते तो ये तुरंत पिता के एक परिचित वकील के साथ पुलिस में जाने की धमकी देते।

एक शिक्षक ने आर्थिक दण्‍ड देने की कोशिश की और अर्थ-दण्‍ड-रजिस्टर में इनका नाम लिखा। रजनीश ने तुरंत जाकर उस शिक्षक के नाम दुगुना दण्‍ड़ लिख दिया। जब प्रधानाध्यापक ने इनसे कहा कि क्या पागल हो गए हो, तो इन्होंने जवाब दिया कि नियमों में ऐसा तो कहीं लिखा नहीं है कि जब शिक्षक गलत आचरण करे तो विद्यार्थी उसे दण्डित नहीं कर सकता। शिक्षक ने गलत आचरण किया है, पिता को दण्‍ड देकर, क्योंकि पैसे तो उन्हें ही भरने पड़ेंगे, पुत्र को नहीं जिसने कि गलती की है। ‘मेरे पिता को दण्‍ड क्यों मिले? उनका इस मामले से कोई सरोकार ही नहीं। जब तक ये शिक्षक अपना दण्‍ड नहीं भरते तब तक मैं भी अपना दण्‍ड नहीं भरने वाला। ‘ दोनों दण्‍ड आज तक नहीं भरे गये।

ये पाठशाला से अक्सर गैरहाजिर रहते और इसके लिए पिता के नकली पत्र भी बना लाते। इनके शिक्षकों को इनकी गैरहाजिरी से इतनी राहत मिलती कि वे मामले की और खोजबीन करने की झंझट में न पड़ते। जीवन की हर बात का स्वयं अन्वेषण करने की प्यास में इन्होंने शहर और उसके आसपास का सब कुछ छान मारा। फलस्वरूप कुश्तीबाजो, सपेरों, सर्कस के कलाकारों, जादूगरों, पियक्क्कों, संगीतज्ञों और सभी किस्म के बंजारों के साथ इनके न जाने कितने घंटे बीतते। इनके मन में मृत्यु का इतना आकर्षण था कि एक समय था जब ये गांव में होनेवाली हर मौत के पास उपस्थित रहते, भले ये उस आदमी को जानते हों, न जानते हों (इनके परिवारवालों के लिए यह आदत बड़ी लज्जा का कारण बनती क्योंकि वे लोग मुख्यत: जैन-समाज के साथ ही संबंधित होते थे)। ये मेलों में जाते और जैन, हिंदू मुसलमान, सभी धर्मों के उत्सवों में शरीक होते।

ये निरंतर खोज करते रहते, प्रयोग करते रहते-खास कर स्वयं पर। निडर बच्चों का एक छोटा सा दल, जो इनका अनुसरण करने की कोशिश करता था, बहुधा अपने को गहरे पानी में पड़ गया पाता- अक्षरश:।

बरसात में बाढ़ के पानी से उफनती-फुंकारती शकर नदी में ये उसके ऊपर बने बहुत ऊंचे रेलवे।। पुल से छलांग लगा कर अपने साथियों का नेतृत्व करते (एक साथी बहकर डूब भी गया उस तैराकी में)। भंवर के ठीक मध्य में कूद कर उसके द्वारा निगल लिए जाने के प्रयोग भी किये इन्होंने और पाया कि जब ये भंवर से लड़ने के बजाय उसमें स्वयं को छोड़ देते तो नीचे गहराई में जाकर बड़ी सरलता से उसके वेग से बाहर आ जाते थे। इनके साथी इनके पीछे-पीछे रात को नदी के ठीक ऊपर खड़ी पर्वत-चट्टानों की संकरी कगारों को पार करते- ‘‘रौंगटे खड़े कर देने वाला अनुभव’‘, पीछे उनमें से एक मित्र ने बताया।

उन शिक्षकों तथा नगर के अन्य लोगों के मानका के उपाय किये जाते जिन्हें ये समझते कि वे दिखावटी, पवित्र बन रहे तथा पाखण्डी है। एक शिक्षक जो अपने भाषण में साहस और निर्भयता के गुणों पर बढ़-चढ़ कर बोले और उन गुणों की बड़ी सूक्ष्मताओं में गये, शीघ्र ही कसौटी पर थे। रजनीश, जिन्होंने अपनी बहुतेरी गैरहाजिरियो के दौरान एक समय एक मुसलमान सपेरे को सांप पक्कने की कला सिखाने के लिए राजी कर लिए थे, एक बडा सांप थैले में बंद कर लाए। जब रजनीश ने सांप को कक्षा में निकाला तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा यह देखकर कि वे शिक्षक भागकर मेज पर खड़े थे और मदद के लिए चीख-पुकार मचा रहे थे। लड़के ने फिकरा कसा- ‘साहस का महान प्रदर्शन! ‘

एक और अवसर पर रजनीश एक बहुत घमंडी तथा धार्मिक किस्म के शिक्षक को, जो कक्षा में इनके किसी प्रश्र का उत्तर कभी नहीं देते थे, रास्ते पर ले आए। वे शिक्षक गंजे थे और रजनीश ने उनका नामकरण ‘‘मुंडे’‘ कर दिया। शिक्षक ने इस नाम को जरा भी तूल न देने का दिखावा किया। रजनीश ने बीस रुपये इकट्ठे किये (उन दिनों के लिए एक बड़ी रकम, खासकर थोड़ी-सी तनख्वाह के शिक्षक के लिए) और छोटेलाल मुंडे के नाम एक मनीआर्डर भेज दिया। पैसे लेने से पहले मनीआर्डर पर हस्ताक्षर करने जरूरी थे, और मनीआर्डर कक्षा में ले आने के लिए रजनीश ने डाकिये को पहले से ही पटा रखा था। जब उसने कक्षा में आकर मनीआर्डर पर उनका नाम पढ़ा तो कुछ क्षणों के लिए शिक्षक महोदय एक पुण्यात्मा के गुस्से में थरथरा उठे। फिर लोभ ने क्रोध पर विजय पा ली और ‘‘मुंडे’‘ ने पूरी कक्षा के सामने उस नाम से हस्ताक्षर किया। यह असलियत की एक और विजय थी, पाखष्ठ के प्रति एक और पाठ था।

एक और संकीर्णकुइद्ध तथा स्वयं को बड़ा ऊंचा मानने वाले ब्राह्मण शिक्षक का नाम रजनीश ने रखा : ” भोलेनाथ’‘। भोले यानी बुद्ध! शीघ्र ही यह नाम न केवल विद्यार्थियों बल्कि गांव के सभी लोगों की जबान पर चढ़ गया। उन सज्जन की दुबली-पतली व अविराम डाट-डपट करती रहने वाली पली रजनीश को यह नाम कभी न लेने की कड़ी चेतावनी देती रहती। लेकिन पति की शवयात्रा के समय जब वही अपने हाथ पति के गले में डालकर चिल्ला पड़ी – ‘‘हाय मेरे भोले नाथ! ” तो परिस्थिति के इस मजाक पर भीड़ में खड़े रजनीश ठहाका मारकर हंस पड़े और सारे लोगों को चौका दिया।

इनके पिता के पास शिकायतों का तांता लगा रहता, जिन्हें वे बड़े बेमन से सुनते। उन्हें बहुत पहले ही यह पता चल गया था कि बेटे के जीवन में दखल न देना ही उनके लिए बेहतर है। नाना की मृत्यु के बाद जब रजनीश नए-नए उनके पास रहने आए, तब उन्होंने दो बार कोशिश की थी। इस बच्चे के बाल लंबे और बेतरतीब थे-इन्होंने नाना-नानी को कभी अपने बाल काटने नहीं दिये-और यह एक अजीब ढंग की पंजाबी पोशाक पहनता था जो भ्रमण पर आई एक गायक मंडली से इसने नकल कर ली थी, क्योंकि इसे बेहद पसंद आ गयी थी। अपने लंबे बालों और अजीब-सी पोशाक के कारण, जो इनके पिता के इलाके में औरतों द्वारा पहनी जाने वाली पोशाक के समान थी, लोगों को ये लड़की लगते थे। इससे इनको कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन इनके पिता को बड़ा संकोच होता, खासकर जब दुकान से गुजरकर रजनीश घर में जा रहे होते और ग्राहक पूछ बैठते. ‘यह किसकी लड़की है? ‘ लेकिन बार-बार कहने पर भी जब रजनीश ने बदलना न चाहा तो अंततः परेशान और नाराज पिता ने खुद जाकर इनके बाल कटवा दिये। तत्‍क्षण रजनीश एक अफीमची नाई के पास गए, जिससे इन्होंने दोस्ती बना रखी थी (इनके सभी मित्र विचित्र थे) और अपने सिर का मुंडन करने के लिए उसे फुसला लिया। नाई ने बड़े बेमन से यह काम किया, क्योंकि किसी लड़के के सिर के सारे बाल पिता के देहान्त पर ही निकाले जाते थे।

सात साल का यह बालक अपना मुंडा हुआ सिर लेकर पूरे गांव में शान से घूमता रहा और अपने पिता की शर्मिंदगी का मजा लेता रहा, क्योंकि दुकान में पूछताछ करने और सांत्वना देने आने वालों की बाढ़ सी आ गयी। पीछे, जब परिवार के कुछ अन्य लोगों ने इनके पंजाबी कपड़े छिपा दिये ताकि इन्हें पारंपरिक ढंग के कपड़े पहनने को मजबूर किया जा सके तो ये सीधे घर से बाहर और नगन ही दुकान में जाकर खड़े हो गये। इनके कपडे तुरंत लौटा दिये गए।

अपने पर्दाफाश करने के अभियान से इन्होंने परिवार को भी नहीं बख्शा। एक बार इनके घर एक आदमी आया, जिससे इनके पिता मिलना नहीं चाहते थे। उन्होंने रजनीश से कहा, उसे कह दो कि मैं घर में नहीं हूं। इन्होंने दरवाजा खोलकर उस व्यक्ति से कहा, ‘मेरे पिताजी ने आपसे यह कहने के लिए कहा है कि वे घर में नहीं है। ‘ जब इनके परिवार ने इन्हें जबरदस्ती जैन मंदिर ले जाने की कोशिश की, तो ये पहले ही चुपके से खिसक गए और महावीर की प्रतिमा पर कुछ मिठाई रख आए। जब बाद में अपने माता-पिता के साथ ये मंदिर गए तो वहां एक चूहा बैठा था, जो मिठाई खा रहा था और महावीर के चेहरे पर पेशाब कर रहा था। इन्होंने पूछा, ‘यह कैसा भगवान है जो कि चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर सकता?’ जल्दी ही परिवार के लोगों ने आशा छोड़ दी और इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया।

युवा होते-होते रजनीश ने कुछ समय तक राजनीति में भी रस लिया और घंटों मित्रों के साथ गहन चर्चा व बहस करने में बिताते। विद्यालय में तथा विश्वविद्यालय में ये अपनी विवाद-पटुता के लिए विख्यात थे और इन्होंने स्वर्ण-पदक जीते तथा अखिल भारतीय वाद-विवाद प्रतियोगिता का पुरस्कार भी जीता। ये हर बात पर सवाल उठाते रहते। अधिकारी व्यक्तियों द्वारा दिये गये

जीवन की समस्याओं के समाधानों से ये कतई संतुष्ट न थे और निरंतर सवाल उठाते रहते। ये कहते है कि इनकी अभीप्सा तब, जैसी कि अब, केवल यह जानने में थी कि ‘‘जीवन में परम क्या है।’’ गांव के पुस्तकालय की सारी किताबें इन्होंने पढ़ डालीं-उनमें से कई किताबों के कार्डों पर अब भी इनके नाम के सिवाय अन्य कोई नाम नहीं है। और ये स्वयं की खोज में और ध्यान में प्रदीर्घ काल बिताते।

उस कालावधि के युवा रजनीश का वर्णन इतिहास को लिपिबद्ध करने वालों ने बाद में

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की सुरक्षित दूरी से ”प्रतिभाशाली, आत्मवान, स्वतंत्र बुद्धि का व्यक्ति’‘ (प्रो. पाल हीलास, ‘द वे ऑफ द हार्ट’, एकेरियन प्रेस, 1986); और ”असाधारण रूप से बुद्धिमान तथा करिश्मापूर्ण लड़का’‘ (रोनाल्ड कॉनवे, ‘द वीक एंड ऑस्ट्रेलियन ‘, 1981) जैसे शब्दों द्वारा किया है। लेकिन जिन्हें इस धधकते हुए शोले को झेलना पड़ा, उन समकालीन व्यक्तियों की राय कुछ और ही है। इनके रिश्तेदारों से जब बाद के दिनों में पत्रकार मिले है तो उन्होंने युवा रजनीश ‘ का वर्णन ‘‘मनमानी करने वाला, जिद्दी और नटखट’‘ कहकर किया है। जो लोग परिवार के सदस्‍य नहीं थे, उनके शब्दों में तो और भी भर्त्सना थी। उनकी दृष्टि में ये ” अविनीत, निर्लज्ज, अशिष्ट, किसी का आदर न करनेवाले और यहां तक कि राजद्रोही थे।’’ साल के अंत में दी जाने वाली टिप्पणी में इनके शिक्षक और खास कर प्रधानाध्यापक इनकी ‘‘इतनी निंदा करते जितनी कि किसी प्रमाणपत्र में की जा सकती है।’’ इन्होंने एक बार अपने प्राचार्य से कहा, ‘‘यह चरित्र-प्रमाणपत्र नहीं है, यह तो चरित्र-हनन है।’’

जो भी हो, अपनी अनेक गैरहाजिरियो और उतने ही विद्रोही कृत्यों के बावजूद रजनीश उच्च माध्यमिक विद्यालय से उत्तीर्ण होकर बाहर निकले। इन्हें सदा हर विषय में उत्तीर्ण कर दिया जाता ताकि जल्द से जल्द इनसे छुटकारा मिले और ये किसी दूसरे शिक्षक के हवाले पड़े। कोई शिक्षक यह नहीं चाहता था कि ये उसकी कक्षा में एक और साल बिताएं।

इसके उपरान्त रजनीश जबलपुर के एक महाविद्यालय में गये। वस्तुत: ये दो महाविद्यालयों में गये। इन्हें पहला महाविद्यालय छोड़ने के लिए कहा गया क्योंकि वहां के तर्कशास्‍त्र के प्राध्यापक ने उपकुलपति से शिकायत की कि रजनीश इतने सवाल पूछता है कि उनके लिए पढ़ाना मुश्किल हो जाता है। प्राध्यापक ने कुछ भी कहा नहीं कि इनके सवाल शुरू, और हर कक्षा में लंबी, किंतु तर्कपूर्ण, बहस का सिलसिला। जब प्राध्यापक इन्हें डांटते कि इस तरह बहस मत किया करो, तो रजनीश कहते कि इससे तो दर्शन और तर्कशास्र की कक्षा में होने का उद्देश्य ही मारा जाता है। तंग प्राध्यापक ने, जो वृद्ध और सम्मानित व्यक्ति थे,, अल्टिमेटम दे दिया कि ‘ या तो रजनीश बाहर या मैं बाहर।’’

उपकुलपति ने रजनीश को दूसरे महाविद्यालय में जगह दिलवायी, लेकिन इनकी ख्याति इनसे पहले वहां पहुंच चुकी थी जिससे यह शर्त लगायी गयी कि उस महाविद्यालय में ये दर्शनशास्त्र की कक्षा में नहीं आया करेंगे। रजनीश बड़ी खुशी से राजी हो गये।

पुस्तकालय में बैठकर अपने-आप पढ़ना इन्हें पसंद था और पुस्तकें पढ़ने की इनकी कभी तृप्त न होने वाली भूख वहां जारी रही। इनका प्राध्यापकों को परेशान करना भी जारी रहा। इन्होंने देखा कि बहुत कम ही प्राध्यापक पुस्तकालय में कभी आते है। बस फिर क्या था, उनके संबंधित विषय के नवीनतम शान पर पूछ-पूछकर ये उनकी नाक में दम करने लगे। जब इन्होने पाया कि एक प्राध्यापक ऐसे भी थे कि वे कभी यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि वे कोई बात नहीं जानते, तो रजनीश ने उन्हें भरी कक्षा में एक काल्पनिक पुस्तक का नाम लेकर जाल में फंसाया कि क्या उन्होंने ‘‘प्रिन्सिपिया लाजिका’‘ किताब पढ़ी है? जब उन्होंने कहा कि हा, मैंने पढ़ी है, तो रजनीश ने उनकी पोल उपकुलपति के सामने खोली।

नई दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका ‘पेट्रियट’ ने रजनीश के जीवन का पुनरावलोकन 1981 में प्रकाशित करते हुए कहा : ‘‘महाविद्यालय में इन्होंने एक भी ऐसे शिक्षक को नहीं छोड़ा जिसने एक भी झूठ बोला। इन्होंने पूरी परंपरा के खिलाफ विद्रोह किया और अपनी रूढि-विरोधी विचार-प्रणाली से लोगों को निरंतर चौंकाया।’’ अपने प्राध्यापकों को नाराज किये रहने के बावजूद इन्होंने 1957 में दर्शनशास्त्र में एमए की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर अर्जित की और स्वर्ण-पदक प्राप्त किया।

इसी काल के दौरान रजनीश 21 वर्ष की आयु में आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए। उस स्थिति को समझाते हुए इन्होंने कहा है: ” भावनाओं व मनोवेगों से रहित चैतन्य का अनुभव ही आत्मज्ञान है।’’‘ ‘जब चैतन्य बिलकुल शून्य हो तो एक विस्फोट-सा होता है-जो ठीक आण्विक विस्फोट जैसा ही है।’’ यह विस्फोट 21 मार्च, 1953 को घटा जब ये, पूर्व में गौतम बुद्ध की भांति ही, एक निसंग वृक्ष के नीचे बैठे थे। वह वृक्ष अब भी जबलपुर के सार्वजनिक उद्यान में खड़ा है। उस अनुभव को शब्दों में डालते हुए इन्होंने कहा है: ‘‘तुम्हारा पूरा अंतस एक ऐसे प्रकाश से आपूरित हो जाता है, जिसका न कोई स्रोत है, न कोई कारण है, न अतीत है। और एक बार यह घटा तो वह तुम्हारे साथ ही रहता है। वह क्षण भर को भी कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ता। तुम्हारी नींद में भी वह प्रकाश तुम्हारे भीतर बना रहता है। और उस क्षण के बाद तुम्हारा देखने का पूरा परिप्रेक्ष्य ही बदल जाता है।’’

1958 में, जब ये 26 वर्ष के थे, रायपुर के संस्कृत कॉलेज में इन्हें दर्शनशास्त्र का शिक्षक नियुक्त किया गया, उसके कुछ बाद ये जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक बने। रोनाल्ड कॉनवे के वर्णनानुसार ये एक ‘‘प्रतिभाशाली किंतु अपरंपरागत प्राध्यापक’‘ थे, और ये सतत विवादास्पद बने रहे। जैसे, अपने विद्यार्थियों को केवल एक सुनिश्रित पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाने के बजाय ये उनके सामने उस विषय का संपूर्ण चित्र खड़ा करना पसंद करते। इस संबंध में इन्होंने कहा है: ‘‘मैं विद्यार्थियों को वह पढ़ा रहा था जो विश्वविद्यालय ने नियत किया था, लेकिन उन्हें यह भी दिखा रहा था कि उस नियत पाठ्यक्रम में कितना हिस्सा बकवास था। मैं उन्हें अरस्‍तु पढ़ा रहा था, और साथ में यह भी पढ़ा रहा था कि अरस्तू सही नहीं है। मेरा घंटा दो हिस्सों में बंटा हुआ होता-पहले, मैं उन्हें पढ़ाता कि अरस्तू का मतलब क्या है और दूसरे हिस्से में मैं उन्हें बताता कि वह किस प्रकार गलत है। तो, मेरे खिलाफ शिकायतें हुईं, क्योंकि यह पढाने का एक अजीब ढंग था और विद्यार्थी उलझन में पड़ रहे थे।’’

लेकिन ये अत्यंत लोकप्रिय थे और इनकी कक्षाएं ठसाठस भरी होतीं-न केवल अन्य विषयों के विद्यार्थियों से ( आधिकारिक रूप से दर्शनशास्त्र के केवल पांच विद्यार्थी थे) वरन बहुतेरे प्राध्यापकों से भी।

इसी समय रजनीश सारे भारत में भ्रमण भी करने लगे, जैसा कि रोनाल्ड कॉनवे ने लिखा, ‘‘उनके सामने एक ही लक्ष्य था: नींद में चल रहे बुद्धिवादी भौतिकवाद से संवेदनशील लोगों को जगा लेना।’’ नई दिल्ली के ‘पेट्रियट’ ने उसे इस तरह कहना चाहा- ‘‘ये व्यापक भ्रमण पर थे और जहां भी जाते विवादों का अंबार लगा लेते।’’

नौ साल तक अध्यापन-कार्य करने के बाद, 1966 में इन्होंने विश्वविद्यालय से त्यागपत्र दे दिया ताकि अपना पूरा समय यात्राओं और प्रवचनों को दे सकें। इन्होंने कहा, ‘‘विश्वविद्यालय में रहकर सिर्फ 2० विद्यार्थियों को पढ़ाना मुझे समय का मूढ़तापूर्ण अपव्यय लगा, जबकि मैं एक ही सभा में एक साथ 5०,००० लोगों को पढ़ा सकता था। विश्वविद्यालय से मैं विश्व में चला गया।’’ ये देश भर में धर्म-सभाओं में बोलने लगे और ध्यान-शिविर आयोजित करने लगे। एक उत्तेजक और मनोरंजक वक्ता होने के कारण शुरू-शुरू में इन्हें बहुत-से प्रतिष्ठित सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया। लेकिन विवाद खड़े करने में इन्हें जो रस आता था, और प्रत्येक मूल विश्वास या मान्यता पर इनकी अंतहीन, गैर-समझौतावादी चोटों ने-खास कर ऐसे विश्वास जिनके पीछे इन्हें लगता कि सत्य या कोई तर्क नहीं था-जल्दी ही इन्हें स्थापित व्यवस्था का दुश्मन बना दिया। जब पटना में द्वितीय विश्व हिंदू परिषद का सम्मेलन हुआ तो पुरी के शंकराचार्य की अत्यंत कटु आलोचना करते हुए इन्होंने संगठित धर्मों की धज्जियां उड़ायी। गरीबी के साथ भारत की जो सनातन और घिनौनी दोस्ती चल रही है, उस पर इन्होंने निर्ममता से चोट की, और भारत के श्रद्धास्पद महात्मा गांधी को उनके प्रगतिविरोधी तथा टेक्रॉलॉजी-विरोधी विचारों से भारत की आत्मा को पंगु बनाने के अपराध में दोषी ठहराया। इन्होंने कहा कि गांधी जो दरिद्रनारायण का गुणगान करते रहे, उसके कारण गरीब कभी गरीबी से मुक्त न हो सके।

इसी लहजे में इन्होंने एक और राष्ट्रीय नेता मदर टेरेसा पर चोटें कीं। इनका कहना था कि केथॅलिक ईसाइयत को ज्यादा लोग मिलें इसलिए वे अनाथ बच्चों की समस्या का चालाकी से अपने हित में उपयोग कर रही है। संतति-निरोध के खिलाफ उनका जो रवैया है उससे यह साफ जाहिर है कि वे गरीबी हटाने की कोशिश नहीं कर रही है, वरन ज्यादा से ज्यादा हिंदू बच्चे पैदा करवाना चाहती है ताकि अधिक लोगों को केथॅलिक बना सकें और बदले में नोबल-पुरस्कार पा सकें। इनका कहना था कि गरीबी का उसूलन पूर्ण संतति-निरोध और शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है। आध्यात्मिक खोज के लिए समृद्धि का होना अत्यंत जरूरी है, गरीब आदमी भोजन आदि प्राथमिक जरूरतों को पूरा करने में ही इतना उलझा रहता है कि उसे अपनी आत्मिक जरूरतों के बारे में सोचने की सुविधा ही नहीं होती। जिस देश में गरीबी और तथाकथित त्याग का संतत्व से अव्यभिचारी संबंध हो, वहां इन विचारों से लोगों को चोट पहुंचे तो कोई आश्रचर्य नहीं। कुछ वर्षों बाद, इन्होंने धर्मगुरुओं के क्रोध में और भी ईंधन डाल दिया जब इन्होंने संभोग को समाधि का मार्ग कहना शुरू किया।

1969 में रजनीश, जो अब बम्बई में रहने लगे थे, ” भगवान’‘ कहलाए, जिसका अर्थ होता है : सौभाग्यवान। इस बीच इन्होंने राजस्थान स्थित माउंट आबू में अपने विवादास्पद ध्यान-शिविर लेना जारी रखा। मध्य छठे दशक में इन्होंने परंपरागत शांत ध्यान-प्रयोगों से शुरुआत की थी, लेकिन शीघ्र ही इनके ख्याल में आ गया कि आधुनिक मनुष्य, जिसके भीतर विक्षिप्त मानसिक संवेग ‘‘उबल रहे है’‘ के लिए ये कारगर न थे। तब इन्होंने तरह-तरह की विचित्र दिखायी पडने वाली ध्यान-विधियों के प्रयोग शुरू करवाए, ताकि लोग अपने भीतर के तनावों को अबाध बाढ़ के एक अनिर्बंध आवेग में बाहर फेंक सकें, और अंततः जब उनसे खाली हो जाएं तो आंतरिक शांति व मौन में सरक जाएं। ऐसे ही एक शिविर में इन्होंने अपने विख्यात ‘सक्रिय ध्यान’ की शुरूआत करवायी, जो अब सारे विश्व में हर जगह किया जा रहा है।

प्राय: इसी दौरान इन्होंने सार्वजनिक प्रवचन देने बंद कर दिये और इनके आसपास जो खोजी शिष्य इकट्ठे हो गये थे उन पर अपना कार्य केंद्रित किया। तब तक ये बड़ी संख्या में पाश्चात्य अनुयायी आकर्षित करने लगे थे-और उसी मात्रा में भारतीयों द्वारा आक्रोशपूर्ण प्रचार भी।

1974 में ये पूना आ गये जहां छ: एकड़ जमीन पर इनका आश्रम बना। लगता था कि अपने तौर-तरीके बदलने का इनका कोई इरादा न था-तौर-तरीके जो निशित ही गैर-परंपरावादी थे, शायद प्रांत थे, किंतु… .खतरनाक?


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खतरा पूना में पकता रहा–(प्रवचन–3)

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खतरा पूना में पकता रहा—(अध्‍याय—तीन)

(1974—1981)

पूना में जो घटा उसने पश्रिम का ध्यान तुरंत आकर्षित किया। इतना ज्यादा कि 1978 तक भगवान श्री रजनीश के आश्रम में पूरी दुनिया से प्रतिदिन कोई 2,००० से अधिक आगंतुक आते थे, जिनमें, स्वभावत:, पत्रकार भी शामिल थे।

मुख्य आकर्षण भगवान स्वयं थे। जैसा कि बर्नार्ड लेविन ने कहा है, वे एक ” असाधारण चुंबक’‘ थे। उन सात सालों में उन्होंने रोज सुबह प्रवचन दिये केवल उन किन्हीं-कभार अवसरों को छोड्कर जबकि उनका शरीर अस्वस्थ रहा हो। 1978 में मार्सेल मियर ने लिखा: ‘‘वे एक विशाल, खुले सभागृह में बैठते है और रोज सुबह दो घंटों तक लगभग दो हजार लोगों के सामने बिना किसी लिखित टिप्पणी का सहारा लिये बोलते है। उनके प्रवचनों के विषय होते है-झेन, बौद्धधर्म, सूफीवाद, हिंदू धर्म, बाइबिल, फ्रॉयड, हां, एडलर के सिद्धान्त, आधुनिक आणविक भौतिकी, प्रतिष्ठित दार्शनिक तथा पूर्वीय सद्गुरु।’’ पूना के प्रवचनों का जिन लोगों ने भी वर्णन किया है, निरपवाद रूप से उन सबने भगवान की ‘‘विद्वता तथा विषयों के असाधारण विस्तार’‘ का जिक्र किया है।

‘‘उनके संदर्भ, भावदशा और ढंग चकाचौंध कर देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने सभी पूर्वीय सद्गुरुओं के संदेश का सारतत्व पचा लिया है और अधिकांश पाश्रात्य दार्शनिकों तथा मनस्विदों को भी, ” रोनाल्ड कॉनवे ने लिखा, 198० में। उन्होंने आगे लिखा कि जिन अत्यंत असाधारण लोगों से उनकी मुलाकात हुई है, रजनीश उनमें एक है। ‘‘पूर्वीय दर्शन, पाश्रात्य कुइद्धवादी परम्परा तथा मनोविज्ञान से उनका आश्रर्यकारी परिचय है’‘ -रोनाल्ड क्लार्क, प्राध्यापक, धार्मिक अध्ययन विभाग, यूनिवर्सिटी ऑफ ओरेगॅन। ‘‘रजनीश में एक अत्यंत प्रतिभाशाली मस्तिष्क… .एक असाधारण वक्तृत्व कला, एक विशाल सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और एक पूर्वीय ऋषि का करिश्मा साकार हुआ है। उनकी किताबें (जो उनके प्रवचनों से संकलित की जाती है) ध्यान पर मिल सकनेवाली सर्वोपरि मुग्धकारी कृतियां हैं’‘ -क्लाडिओ लेम्परेली, ‘तेक्रीक देल्ला मेदीताज़ने ओरियन्ताले’. (टेक्रीक्स ऑफ ईस्टर्न मेडीटेशन)। ‘‘वे कोई साधारण गुरु नहीं है। उन्होंने बहुत ऊंची शिक्षा पायी है, वे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते है, पूर्वीय धार्मिक परम्पराओं की समूची धारा से परिपूर्णरूपेण परिचित है, उन्हें पूर्वीय और पश्रिमी मनस्विचकित्सा का पूरा विज्ञान भी अवगत है, और इस सबसे भी बढ़कर वे दारुण रूप से हाजिरजवाब है ” -जॉन आर.फ्राय, ‘ फ्रायिग पैन ‘ मैगजीन ( अमेरिका)।

भारतीय पत्रकारों ने भी उनकी गुणवत्ता स्वीकार की है। नई दिल्ली से प्रकाशित बौद्धिक पत्रिका ‘पेट्रियट’ में, 1981 में, के.एम.तलगेरी ने लिखा: ‘‘उनके प्रवचनों को सुनकर लगता है कि वे एक तांत्रिक, सूफी, हसीद, ईसाई रहस्थदर्शी जेन और योगी हैं। उनकी देशनाओ (यदि यह शब्द उचित है) में रहस्यवाद की सभी प्राचीन प्रणालियों का सर्वोत्कृष्ट समाहित है।’’

बर्नार्ड लेविन ने, जो एक आध्यात्मिक नक्शा तैयार करने के लिए पूरब के विस्तृत दौर पर निकले थे और उसी सिलसिले में 198० में कई दफे आश्रम में आए थे (उस नक्शे में भगवान को सर्वोच्च श्रेणी मिली) प्रवचनों का -वर्णन करते हुए ‘दि लंडन टाइप्स’ में लिखा: ‘‘दृश्य है एक विशाल कामचलाऊ सभागार; ‘जो अण्डाकार है-पत्थर के फर्शवाला एक शामियाना-यह चारों तरफ से खुला है, किंतु कपड़े और नालीदार टिन के पतली से बनी हुई सादीसी छत है, जो पतले, अनगढ़ लक्खी के खंभों पर टिकी है। फर्श पर कोई 15०० लोग बैठे हैं, उनमें से नाजुक लोग (जिनमें मैं भी हूं) पतली गद्दयों पर बैठे हैं। वे सब एक संगमर्मर के ऊंचे मंच की ओर मुखातिब होकर बैठे है, जो उस सभागार की एक ओर ठीक मध्य में बनाया गया है, उस पर एक सादी, घूमनेवाली कुर्सी रखी हुई है (जो कि मेरे हिस्से में पड़ी इस जमीन और गद्दी इत्यादि से कहीं अधिक आरामदेह दिखाई दे रही है), स्टैष्ठ पर रखा हुआ एक ध्वनिक्षेपक (माइक्रोफोन) कुर्सी के एक हत्थे पर प्रक्षेपित है, समय है सुबह के पौने आठ। हम पूना में है।

‘‘पहला आश्चर्य है. रंग, वहां बैठा हुआ लगभग अक्षरश: हर व्यक्ति गैरिक वस्त्र पहने हुए है। परिधानों के प्रकार अनेक हैं, केवल रंग को छोड्कर-हालांकि उसके रंगत- भेद (शेड) लगभग पीले से लगभग लाल तक है-जो सब का एक-सा है। दूसरा आश्‍चर्य यह है कि इस गैरिक सागर में आरपार एक गहन मौन व्याप्त है; ध्वनिविस्तारक पर न खांसने का निवेदन सुनायी पड़ता है, लेकिन वह अनावश्यक है, क्योंकि यह मौन अभंग है और ‘मौत के सन्नाटे ‘ से भी गहरा है। उस मौन की संगिनी है, निश्रलता; वह गैरिक-सागर जैसे जम गया हो-पाषाण-मूर्तिओं की कतारों पर कतारें।

‘‘उस सन्नाटे में दरार पड़ती है एक कार के पहियों की चुरमुराहट के साथ एक कीमती इंजन की घुरघुराहट की ध्वनि से। जैसे-जैसे वह निकट आती है, मुझे एक तीसरे आश्रर्य का अनुभव हुआ: मेरी एकमात्र गर्दन है जो उस दिशा में घूमी हुई है।

‘‘एक गैरिक वस्त्रधारी, इस क्षण की सतर्कता से प्रतीक्षा करता हुआ, कार का दरवाजा खोलने के लिए आगे बढ़ता है; उससे बाहर आती है, मनोहर धीमी चाल से, बिना किसी जल्दी में, एक आकृति जो श्वेत परिधान में है, पांवों में सादी सफेद चप्पलें शोभित है। वे मंदगति से सभागृह में आते हैं, हाथ परंपरागत भारतीय नमस्कार की मुद्रा में जुड़े हुए, और फिर संगमर्मरी मंच की सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आते हैं। कुर्सी के सामने खड़े होकर, पूरे 18० डिग्री के कोण में घूमकर वे पूरे सभागृह को अपना मौन अभिवादन पेश करते हैं; गैरिक श्रोता-समूह द्वारा वह अभिवादन प्रस्तरित है। वे लंबे हैं, हालांकि असाधारण रूप से नहीं, सिर का ऊपरी भाग बालरहित लेकिन पीछे लंबे-लंबे झूल रहे बाल, और अत्यधिक घनी, लहराती सफेद दाढी से युक्त। मुस्‍कुराकर वे कुर्सी में बैठ जाते हैं। एक अनुवर्ती आगे बढ़कर उन्हें एक क्लिपबोर्ड थमा देता है। वे उसे अपनी गोद पर रखते है, खोलते हैं, उसमें से एक कागज का टुकड़ा निकालते हैं और पौने दो घंटे तक बिना किसी विराम, झिझक, पुनरुक्ति, लिखित टिप्पणियों का सहारा लिये बोलते हैं।

”…..यद्यपि मैं उनके वक्तृत्व-कौशल की कुछ झलक आपको दे सकता हूं और अवश्य उनके शब्द भी उद्धृत कर सकता हूं लेकिन इस सबका जो विस्मयजनक परिणाम आता है-वह परिणाम जो श्रोता को प्रशा और प्रेम के देदीप्यमान आलोक से नहला देता लगता है-वह कुछ ऐसी बात है जिसे अनुभव करना सरल है, वर्णन करना कठिन।

‘‘उनकी आवाज मंद, मुलायम और असाधारण रूप से सुंदर है, उनकी अंग्रेजी आश्रर्यजनक रूप से मुहावरेदार है और व्याकरण की दृष्टि से लगभग, यद्यपि सर्वथा नहीं, परिशुद्ध है। उनकी भंगिमाओं में एक सम्मोहक लावण्य और मुखरता है। उनकी उंगलियां असाधारण रूप से लंबी है, और वे अपने हाथ, खास कर बाएं का उपयोग अनंत प्रकार से तरह-तरह की अभिव्यक्तियां देने के लिए करते हैं

‘‘वे जो कहते है, वह बहुत शक्तिशाली ढंग से और धाराप्रवाही भाषा में व्यक्त होता है; मैंने जितने भी वक्ता सुने हैं उन सब में वे सबसे विलक्षण हैं, हालांकि उनकी शैली में लोगों को उत्तेजित करने की कोई ध्वनि नहीं है, और वे जो कहते हैं उसके गर्भ में कोई भाषणबाजी या सिखाने का भाव नहीं होता। वे उद्धरणों तथा संदर्भों का खुलकर उपयोग करते हैं ( और लगता है कि ये सब उनके पास लिखे हुए होते है, जैसे कि कुछ मजाक भी, लेकिन इससे अधिक टिप्पणियों का उपयोग वे नहीं करते)। मैंने तीन दिनों में लगातार जो तीन प्रवचन सुने, उनमें उन्होंने बर्ट्रष्ठ रसल, विलियम जेम्स, नॉर्बर्ट वियेनर, ई.ई. कमिग्स, नीत्शे, व्हिट्मन और कुछ अन्य को उद्धृत किया। उनके कुछ संदर्भों पर संदेह होता है : क्या फ्रायड दूसरो की आंखों में झांकने से भयाक्रान्त था; क्या जुग मृत्यु से भयाक्रांत था और जब-जब भी वह इजिप्त की ममीज़ देखने की अपनी पुरानी चाह पूरी करने के लिए यात्रा पर निकलने की तैयारी करता तब-तब मनोदैहिक बीमारी में पड़ जाता था? क्या मनोचिकित्सकों में आत्महत्या करने की दर आम जनता से दुगुनी है? क्या अमेरिकन आदमी एक मकान में औसतन तीन साल रहता है, और क्या अमेरिकन विवाहों की अवधि भी उतनी ही है?

‘‘यदि वह सत्य नहीं है… .रजनीश कोई जानकारी मुहय्या नहीं कर रहे हैं बल्कि हम तक एक सत्य पहुंचा रहे है, जो चेतन विचार और उसकी सारी धरोहर के पार है, ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य की अत्यंत महत्वपूर्ण गतिविधियां मस्तिष्क के पार होती हैं। उनके शब्दों के उद्धरण ले-ले कर मैंने कितने ही पन्ने भर डाले हैं, लेकिन मुझे इसका पूरा-पूरा अहसास है कि उद्धरण उस मनातीत अंतर्दृष्टि का केवल एक तंतु भर पेश करते है, उस आवेश और दृढ़ विश्वास के संदर्भ (जो कि उनके द्वारा बड़ी सावधानी से गूंथे और साकार किये जाते हैं, जबकि उनके पास कोई टिप्पणियों का सहारा भी नहीं होता) से सर्वथा हटकर जिनमें कि वे संजोये गये होते हैं। फिर भी:

‘‘हम भगोड़े कहलाते है, लेकिन अगर तुम्हारे घर में आग लगी हो और तुम भाग निकलो तो कोई तुम्हें भगोड़ा नहीं कहता।’’

‘‘जो आदमी बंटा हुआ है, वह स्वयं का स्वामी कभी. नहीं बन सकता।’’

‘‘मानवता से मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई, मेरी मुलाकात केवल मानवों से हुई है।’’

‘‘लोग मनुष्यता से प्रेम करते हैं और मनुष्यों की हत्या करते है।’’

‘‘जिस तरह बीमारी संक्रामक है, उसी तरह स्वास्थ्य भी संक्रामक है।’’

‘‘तुम औरों को कैसे प्रेम कर सकते हो जबकि तुम स्वयं को प्रेम नहीं करते हो? ”

‘‘यदि तुम स्वेच्छा से नर्क भी जाओ तो तुम वहां प्रसन्न रहोगे, यदि तुम्हें तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग में भी भेजा जाए तो तुम उससे घृणा करोगे।’’

‘‘जो व्यक्ति तुम्हारा गुलाम होता है, तुम भी उसके गुलाम हो जाते हो, गुलामी सदा पारस्परिक

‘‘जो राजनीतिज्ञ सीढी के आखिरी पायदान तक चढ़ जाता है वह छू दिखाई देता है, क्योंकि चढ़ना ही उसकी एकमात्र खूबी है जो वह जानता है और अब आगे चढ़ने के लिए कुछ नहीं बचा। वह उस कुत्ते की भांति है जो हर कार के पीछे भौंकता हुआ दौड़ता है और अगर वह किसी कार से आगे निकल जाए तो बेवकूफ दिखाई देने लगता है।’’

‘‘जो व्यक्ति खुला हुआ नहीं है वह कब में जी रहा है।’’

‘‘जैसा कि मैने कहा, अपने संदर्भों से विलग किये गये ये शब्द रजनीश के प्रवचन का प्रभाव नहीं ला सकते। (ये सारे प्रवचन शब्दशः प्रकाशित हुए हैं। साल भर में लगभग पचास पुस्तकें प्रकाशित होती है और वे सब की सब कैसेट के रूप में भी उपलब्ध हैं)। उनके शब्दों के प्रभाव और रिझावनेपन के अलावा- और एक इनसे भी बड़ी शक्ति, प्रेमसिक्त ऊर्जा का एक प्रवाह, जो आसपास के वातावरण में उनके बोलने के साथ-साथ झरता रहता है-जो है और जो मेरे साथ रह गया है, वह है उनके कथन का गहन आशय।

‘‘प्रवचन के अंत में (जिसे वे निरपवाद रूप से ‘ आज इतना ही’ के साथ समाप्त करते है) वे उसी नाटकीय ढंग से विदा लेते हैं, जिस ढंग से उनका प्रवेश होता है। उनके जाने के बाद मैं भीड़ का निरीक्षण करता रहा, और मेरा वैसा करना बहुत ही शिक्षाप्रद रहा। बहुतेरे तो उसी स्थिति में बैठे रहे जिस स्थिति में वे प्रवचन के दौरान बैठे थे, और उन्होंने जो कुछ सुना था उस पर मौन होकर ध्यान कर रहे थे। कुछ उस संगमर्मर के मंच के पास आए, जिस पर से वे बोले थे, और उसके अरपार साष्टांग पड़ रहे। जाहिर था कि वे गुरु द्वारा निःसारित ऊर्जा तरंगों को पी रहे थे, और सचमुच ही सोचा जा सकता है कि ऊर्जा का कुष्ठ वहां बन ही गया होगा, जिसमें साधक स्वयं को निमज्जित कर सकते हों। कुछ युगल आलिंगनबद्ध हो गये, और देर तक वैसे ही बने रहे; किसी का ध्यान उनकी तरफ नहीं गया, संकोच अथवा झिझक का प्रदर्शन तो दूर रहा, और यह दृश्य मुझे सारे दिन आश्रम में दिखने को था। और इसका स्पष्टीकरण खोजना कठिन नहीं है: रजनीश की शिक्षा, गहरे में, प्रेम की है, और वहां की पूरी हवा इससे आपूर है। जिस प्रेम की ओर वे इशारा करते है वह, अवश्य रूपेण, शरीर का भावोन्माद नहीं है, लेकिन कुछ लोगो का वह यात्रा पथ इस पगडंडी के पास से जाता हो तो इसमें कुछ आश्रर्य की जगह नहीं। इसमें संदेह नहीं कि ये बातें, और साथ में रजनीश की यह दलील कि हम अपने प्राकृतिक आवेगों का अतिक्रमण कर सकें इसके लिए हमें उनमें से सचेतन रूप से गुजरना होगा (क्योंकि यदि हम उनके दमन के असंभव कृत्य में लगे तो वे हमसे बदला लेंगे) और आश्रम में चलने वाले विविध ‘एनकाउंटर ग्रुप’ बाहर के उन अफ़वाहबाजों के दिमाग में होते है जब वे आश्रम के काले कारनामों के किस्से गढ़कर प्रसारित करते है।

”….जैसे ही मैं शेष श्रोताओं के साथ बाहर निकला, मैने एक प्रयोग शुरू किया, जिसे मैने कुछ हफ्तों पहले लंदन में, या निशित रूप से कहें तो सेलफ्रिजेस में किया था। उस पहले मौके पर, मैं खरीद-फरोख्त करने के लिए आयी भीड़ में से एक-एक चेहरे को सजगता से निरखता हुआ-परखता हुआ गुजरा था कि उनमें से कितनों के भीतर वह अखण्‍डता है, वह प्रशांति, जो आंतरिक प्रसन्नता से प्रस्‍फुटित होती है, और उससे यह पता चलता है कि इस आदमी ने अपने भीतर के मालिक को जानकर जीवन की बान परिस्थितियों पर मालकियत पा ली है। मैने कुछ दो सौ चेहरों को निहारा था और उसके बाद मै और न निहार सका था, क्योंकि वहा बिखरी हुई दुख की गाथा जो मैंने देखी वह इतनी सार्वभौम थी, भीतर के अनसुलझे द्वन्द्वों का तनाव, खालीपन और खोयापन, विरह, अपराध-भाव और भय का दर्द।

‘‘अब, बुद्ध सभागार से बाहर निकलते ही, जिन सैकड़ों चेहरों को मैंने देखा, उनमें मुश्किल से मैं एक भी न खोज सका जो लंदन में देखे हुए चेहरों से मिलता-जुलता हो। ये चेहरे खो गये हुए अथवा विरक्त न लगते थे; ये चेहरे उन स्री-पुरुषों के नहीं थे जिन्होंने अपना बोझ एक-दूसरे के कंधों पर डाल दिया था; ये चेहरे उन लोगों के भी नहीं थे जिन्होंने संघर्ष करना छोड़ दिया है और जिस दुनियां का सामना नहीं कर पाए उससे मुंह मोड़ लिया है; लगभग निरपवाद रूप से ये चेहरे प्राणवान थे, अभिव्यंजक थे; मननशील, प्रशांत, दिलचस्पीपूर्ण और उत्सुकता से ओतप्रोत थे। एक शब्द में कहें तो : निदोंष थे।’’

बर्नार्ड लेविन कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं है। फिर भी वे स्वयं और उन जैसे कई सख्त व्यावसायिक पत्रकार जो अपने व्यवसाय का गहन संदेहवाद साथ लेकर आए, इसी तरह की रिपोर्ताज़ लेकर लौटे। डच पत्रकार मासेंल मियर वर्णन करते है कि यह प्रक्रिया उनके साथ किस तरह घटी : ‘‘प्रारंभ के कुछ दिनों तक मैं अभी भी अपने पूर्वाग्रहों को समेटे रहा। धार्मिक पंथों में मुझे कोई खासियत कभी नहीं दिखी, मेरी समूह की भावनाएं उपभोक्ता संगठनों से कभी आगे नहीं गयीं, और मैं गुरुओं के बिना जी सकता था। मैंने ऐसे बहुत से यूरोप के निवासी भारत में घूमते देखे थे जिन्होंने कई सैकड़ो डालरों का मूल्य चुराकर स्वयं को आध्यात्मिक रहस्यों में दीक्षित करवाया था। उसके गहरे अर्थ मेरे सिर के ऊपर से निकल जाते थे, सिर्फ एक कम रहस्यपूर्ण बात को छोड़कर कि शिष्य गरीब होता चला जाता है और गुरु अमीर होता चला जाता है।

”मुझे सचमुच इसका भरोसा नहीं था कि अभी भी सच्चे सद्गुरु होते है। और यदि वे सचमुच कहीं है, तो भगवान रजनीश की भांति इतने प्रगट रूप से स्वयं को प्रदर्शित नहीं करेंगे। मुझे वे निश्‍चित ही बेबूझ लगे, क्योंकि उनके बारे में मैंने जो भी सुन या पढ़ रखा था वह सब सीधे मेरे दिल में उतर गया था। आश्रम के वातावरण से भी मैं कुछ दब सा गया था। मैंने देखा कि बहुत-से लोग आलिंगन कर रहे थे, रो रहे थे, नाच रहे थे, और मैं खुद शारीरिक रूप से इतना उमुक्त नहीं था।

”……मेरे लिए उनके उस प्रथम दर्शन का वर्णन कर पाना कठिन है, जब वे दोनों हाथ जोड़े हुए पारंपरिक नमस्कार की मुद्रा में प्रविष्ट हुए थे। आप कह सकते है कि मैं सीधा ही सम्मोहित हो गया। मेरी आंखों में बिलकुल सहज ही आंसू आ गये। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था क्याकि मेरे साथ कुछ घट रहा था जिस पर मेरा कोई वश नहीं था, और ऐसा मेरे साथ शायद ही कभी हुआ है।

” अंग्रेजी प्रवचनों ने मुझे शब्दशः छिन्न-भिन्न कर दिया। उन्होंने कोई क्रांतिकारी नवीनताओं का उद्घोष नहीं किया, परन्तु उन्होंने मुझे उन तथ्यों के सीधे सम्पर्क में ला दिया जो मेरे भीतर सोये पड़े थे.. .एक तरह की हतोत्साह कर देनेवाली प्रत्यभिज्ञा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुझे तत्क्षण इस बात का यकीन हो गया कि वहां, उस श्वेत कुर्सी पर कोई बैठा था, जो अपने अनुभव से बोल रहा था। मेरे पूर्वाग्रह विलीन हो गए।’’

जीन लियेल ने ‘वले’ मैगजीन ( 1977) में कुछ इसी किस्म का अनुभव वर्णित किया। उन्होंने लिखा : ‘‘इस अनोखे आश्रम को खुद अपनी आंखों से देखने हाल ही में मैं वहां गयी थी। स्काटिश चर्च की दृढ़निष्ठा में पली-बढ़ी मैं, मुझे कई सवाल पूछने थे, कई प्रतिबंधों को पार करना था, लेकिन, बारह दिन तक भगवान के अतुलनीय प्रवचनों को सुनने के बाद, अब सारी अनिश्रितताए विदा हो चुकी है… अपने जीवन-दर्शन में उन्होंने जो भी कहा, मेरे देखे उसमें सत्य का सुनश्रित स्वर था : एक नया अनुभव।’’

इस तरह, भगवान की ख्याति फैल चली, और उसके साथ वे विवाद भी जो वे समय-समय पर खड़े करते थे। जैसाकि रोनाल्ड कॉनवे ने इस बारे में कहा है : ‘‘दूसरा गाल सामने करने का चिर-समादृत सिद्धान्त रजनीश के लिए नहीं है। जहां वे दिव्य और पार्थिव प्रेम की ऐसी चर्चा कर सकते हैं जो हृदय को पिघला दे, वहां वे राजनीतिकों, परंपरागत चर्चों धर्मविदों और जनता के मनपसंद व्यक्तियों पर इस कदर दुःसाहसी उग्रता से प्रहार करते हैं कि उनका सर्वाधिक निष्ठावान श्रोता भी चौक जाए। भारतीय संसद में रजनीश की प्रशंसा भी हुई है और प्रतिवाद भी। पश्रिमी जर्मनी के समाचार पत्र उनके संबंध में विवादों से भरे हुए है, क्योंकि जर्मन राष्ट्रीयता के लोग आश्रम में सबसे अधिक हैं।’’

कॉनवे ने भगवान के एक भारतीय शिष्य के इन शब्दों को उद्धृत किया है : ‘‘चूंकि वे किसी अन्य की तुलना में बहुत आगे की बात देख सकते है भगवान जानते है कि वे चाहे जो भी कहें उन्हें गलत समझा ही जाएगा। इसलिए वे हमारे इस पागल और खतरनाक जगत को जैसा देखते हैं वैसा ही कह देते है, फिर तुम्हें बुरा लगे या भला लगे। वे सभी सनातन धार्मिक कोटियों को समाप्त करने का प्रयास करते है और कहीं पाखष्ठ अथवा वाग्जाल के आडम्बर की हल्की-सी भनक भी आए, तो उसके प्रति वे बहुत निर्दय हो उठते हैं।’’

सेक्स के बारे में समाज के जो दोहरे मानदण्‍ड.है उसके प्रति भगवान निर्दय थे, और उनके इस निर्भीक कथन से कि काम का दमन करने से चित्त उससे आविष्ट हो जाता है, रुढ़िवादी भारतीय प्रेस बहुत कुद्ध हो उठा था। शायद यह पहला मौका था जब वर्णमाला के इन तीन अक्षरों ने उनके पृष्ठों पर एक-दूसरे के अगल-बगल जगह पायी थी। इस विषय पर अपनी अरुचि को भद्दी शीघ्रता से लांघते हुए भारतीय पत्रकारों ने एक नया शब्द गढ़ डाला: ‘सेक्स गुरु’, और फिर शीघ्रता से तदनुरूप बीभत्स कहानियां तैयार करने में लग गये। बिडम्बना यह है, रोनाल्ड क्लार्क के शब्दों में कहें तो, कि वास्तव में रजनीश का लक्ष्य था ‘‘शिष्यों को उनकी काम-ऊर्जा को आध्यात्मिक उपलब्धि की दिशा में नियोजित करने और काम का अतिक्रमण कर जाने की दिशा में मार्गदर्शन करना।’’ सच तो यह है कि भगवान श्री रजनीश की 4०० से भी अधिक प्रकाशित पुस्तकों में केवल एक पुस्तक है जिसके शीर्षक में ‘सेक्स’ शब्द है- ‘फ्रॉम सेक्स टू सुपर-कांशसनेस’ (संभोग से समाधि की ओर)। फिर भी उनको दिया गया अभिधान ‘सेक्स गुरु’ आज तक चला आ रहा है।

अधिकांश अफवाहें जो आज भी उनका पीछा कर रही हैं-और जिसको पीली पत्रकारिता निहुर रूप से पीटे चली जाती है-उनका उद्गम इसी काल में हुआ था। और उनमें से अधिकांश की जड़ें झूठ में थीं। लेकिन यह अधिक सरल था और दकियानूसी पाठकों को रुचिकर था (अधिक प्रतियां बिकती थीं) कि सनसनीखेज कहानियां छापी जाएं बजाय इसके कि यहां जो महत घटना घट रही थी उसको समझाने का प्रयास किया जाए। केवल पेशेवरों ने वैसी कोशिश की। बर्नार्ड लेविन ने लिखा है कि ‘‘इस तरह के आंदोलनों के साथ अनिवार्य व सामान्यरूपेण जुड़नेवाली काले कारनामों की कहानियां, जिनमें कामजन्य अनुचित घटनाओं का इंगित हो, यह

सब यहां भी मौजूद है। उतने ही अनिवार्य हैं नशीली दवाओं के उपयोग के आरोप, बेशक, क्योंकि लंबे बालोंवाले युवकों का संबंध लोकप्रिय कल्पित कथाओं में हमेशा नशीली दवाओं से जोड़ा जाता है ( और रजनीश के शिष्यों में अधिकांश लोग युवा है)। और निश्रित ही ये आरोप पश्चिम में ही पैदा किये, निखारे और छापे गये हैं। फिर भी रजनीश के मुख्यालय में थोड़ी देर को हो आना भी इस तरह की धारणाओं को विदा कर देने के लिए काफी है। अफवाहें हमेशा उसके विषय के संबंध में कम, अफवाह फैलानेवालो के संबंध में ही ज्यादा कहती हैं-हमेशा ऐसा ही होता है-और इस मामले में तो वह जो कहती है वह काफी अर्थगर्भित है।’’

लेविन आगे बढ़कर इसे स्पष्ट करते हैं: ‘‘इस असाधारण गुरु ने जो दुश्मनी अर्जित की है वह आश्रर्यजनक नहीं है। क्योंकि सारे संदेहों से परे, रजनीश एक ऐसा प्रभाव है जो सब कुछ। अस्तव्यस्त कर देता है। प्रवचन सभागार की ओर (जिसे ‘बुद्ध सभागार’ कहते है) ले जाने वाला रास्ता जहां खत्म होता है वहां लिखा है. ‘जूते और मस्तिष्क यहां छोड़ दें। ‘जूते उतारने में कोई समस्या नहीं, लेकिन दूसरे नियम के खिलाफ आदमी की हर प्रवृत्ति आक्रोश करती हुई बगावत कर उठती है। और फिर भी इस बात की प्रत्यभिज्ञा के लिए ध्यान की वर्षों लंबी साधना की जरूरत नहीं है कि जो भी प्राणवान उपलब्धियां और प्रभाव है जो आदमी के जीवन को प्रेरित करते है, अपना काम करने के लिए मस्तिष्क को किनारे कर देते हैं; जैसे कला, श्रद्धा, निद्रा, आनंद, मृत्यु घृणा, हंसी, भय-इनमें से कोई भी मस्तिष्क के तल पर समझे नहीं जा सकते, और न इनके काम करने के ढंग ही। और निश्रित ही, मनुष्य के भीतर एक और ऐसा क्षेत्र है, जो अपने अस्तित्व के लिए मस्तिष्क पर निर्भर नहीं करता और न ही मस्तिष्क से कोई विश्लेषण मांग सकता है, और वह है : प्रेम।

‘‘यही रजनीश का पेशा है, और यही ईसा का पेशा था, और बुद्ध का, और लाओखू का, और उन सब शानोपलब्ध सद्गुरुओं का जो सदियों-सदियों से इन्हीं दो तत्वों के गवाह रहे हैं. कि प्रेम ही वह बल है जो हरे डंठल में से पुष्प को गुजारता है, बाहर लाता है, और कि हमें जो होना है वह हम हैं ही, जो हम होना चाहते हैं या हमें होना चाहिए, वह हम हैं ही। मनुष्य जन्मतः स्वतंत्र है, और हर कहीं वह जंजीरों में जकड़ा हुआ मिलता है। या जैसा कि रजनीश कहते हैं, ‘‘मेरा संदेश है. मन को विसर्जित करो और तुम परमात्मा को उपलब्ध हो जाओगे। सरल-चित्त हो जाओ, और तुम परमात्मा से जुड़ जाओगे। इस ख्याल को छोड़ दो कि तुम विशिष्ट हो। साधारण हो जाओ और तुम असाधारण बन जाओगे। अपनी अंतरात्मा के प्रति प्रामाणिक हो जाओ और समस्त धर्मों का पालन हो जाता है। और जब तुम्हारे पास मन नहीं होता, तब तुम्हारे पास हृदय होता है। जब तुम मन में नहीं होते तभी तुम्हारा हृदय धड़कना शुरू करता है, तभी तुम्हारे पास प्रेम होता है। अ-मन यानी प्रेम। प्रेम है मेरा संदेश। या इसे जब वह अधिक संक्षिप्त रूप में कहते हैं: ‘प्रत्येक व्यक्ति परिपूर्ण पैदा होता है। और प्रत्येक पर परमात्मा के हस्ताक्षर हैं, अपूर्णता सीखी हुई बात है।

पूना का विक्षुब्ध करनेवाला प्रभाव केवल प्रवचनों तक ही सीमित नहीं था। जैसा कि एलन एटकिन्सन ने 1981 में ‘सैटरडे रिव्यू में आश्रम का विश्लेषण करते हुए कहा : ‘‘रजनीश नाम की इस घटना का सबसे आश्रर्यजनक पहलू था उनके द्वारा स्थापित मनस्विकिस्ता समूह, जिनमें हइनया के श्रेष्ठतम मनस्विद तथा मनस्विकित्सक काम कर रहे थे। ये समूह, ‘मन की सफाई’ करने के निमित्त, पश्रिम तथा पूरब में सिखायी जानेवाली ‘चेतना विस्तारक’ विधियों के सर्वाधिक रूपों का उपयोग करते थे।’’

उनके निर्भीक प्रयोगों ने पत्रकारों का ध्यान खींच लिया। ३ हो’ मैगजीन (इटली) ने अपने जुलाई 1978 के अंक में लिखा : ” आज हजारों पश्रिमी मनस्विकित्सकों के लिए-फिर वे राइकवादी हों या जुगवादी, मानवीयतावादी मनोविज्ञान के अनुयायी हों, अमेरिकन, ब्रिटिश, जर्मन हों, रॉजर्स, लैंग और जेनोव के मित्र और सहचर हों, इन सबके लिए पूना एक हकीकत बन गया है, मात्र प्रतीक नहीं। वह विश्व में मनोवैश्लेषिक चिकित्सा का सबसे बड़ा केंद्र है। हर महीने पूना में, या और ठीक से कहें तो भगवान श्री रजनीश आश्रम में, 4० या 5० एनकाउंटर समूह होते हैं। और इसका मतलब हुआ कि 1977 में 1०,००० लोगों ने इसमें भाग लिया। समूह का नेतृत्व करनेवाले, जिनकी संख्या लगभग 5० है, जो सभी पश्रिम के हैं, पूरे समय आश्रम में काम करते हैं.. .मेरी पहली ही यात्रा में जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह यह थी कि वे सब मनस्विकित्सक-जो सुप्रसिद्ध और अपने-अपने देशों में अपने व्यवसाय के अग्रणी व्यक्ति थे- आश्रम में काम करने के लिए अपना व्यवसाय छोड़ आए, संपदाएं छोड़ आए, जहां इन्हें मिलता है दो समय का भोजन, एक बिस्तर, भगवान के प्रवचन में जाने की मुफ्त टिकट, और कुछ नहीं।’’

बर्नार्ड लेविन ने कहा : ‘‘जिन विविध चेतना-विस्तारक चिकित्सा-विधियों का प्रयोग वहां होता है (उनमें मसॉज, रिक़ेक्सॉलॉजी, अलेक्यंडर तकनीक, आक्‍युपंक्चर, राल्फिंग, पॉस्चुरल इंटिग्रेशन, हिप्‍नोसिस, काउंसलिंग, रिबर्थिग, सक्रिय ध्यान और बहुत-से अन्य शामिल हैं) वे सब उन लोगों के संपूर्णता की ओर विकास के लिए बहुमूल्य हैं जो इस आध्यात्मिक सुपर बाजार में खरीदारी करने आते हैं।’’ रोनाल्ड कॉनवे ने लिखा : ‘‘वहां पर सिखायी जाने वाली कई सक्रिय विधियां अहंकार अथवा नाभि पर मनन करने से कोई सरोकार नहीं रखतीं। एक डच मनस्विद ने मुझसे कहा कि उनसे परामर्श लेने के लिए जो लोग आते हैं उनका मानना है कि इस समय आश्रम में संभवत: विश्व का श्रेष्ठतम समूह मनोचिकित्सा केन्द्र है। इस केंद्र के अनेक नेता न्यूयार्क, लंदन, म्‍यूजिक और कैलिफोर्निया में प्रशिक्षित हुए है। बहुतेरे पूरी तरह से शिक्षित डॉक्टर या मनस्विद हैं, जो संन्यास के संस्कृत नामों में छिप गये है। व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित पाश्रात्य संदेहवादियों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि रजनीश सवाधिक प्रतिभावान प्राकृतिक मनस्विदों तथा मनस्विकित्सा के प्रवर्तकों में एक हैं।’’

मासेंल मियर ने 1978 में कुछ चिकित्सा समूहों में भाग लिया था। उनका अनुभव उनके ही शब्दों में : ‘‘इन समूहों में क्या घटा. उसका यथातथ्य बयान कर पाना बहुत मुश्किल है। मोटे तौर पर, हमारे भीतर के जिन पहलुओं को हमने इससे पहले कभी नहीं छुआ था, उनका हमें सख्त सामना करना पड़ता था। मैने ऐसी हरकतें कीं, जिनको रोजमर्रा के जीवन में करने की मैं सोच भी नहीं सकता था। कभी-कभी मैं नर्क के बहुत करीब होता, कभी सातवें स्वर्ग में। कभी मैं लोगों को गहन परिवर्तनों से गुजरते देखता। ये चिकित्सक विश्व के सर्वाधिक योग्य चिकित्सक रहे होंगे। वे खुद संन्यासी है, जिसका और सब बातों के अलावा मतलब हुआ कि वे अपनी सेवाएं निःशुल्क देते हैं। भाग लेने वालों को अपने अहंकार एवम् व्यक्तित्व को छोड्कर शेष समस्त यथार्थ के प्रति सजग होने के लिए कोई 2० विविध विधियों का उपयोग किया जाता है, जिनमें गेस्टाल्ट, एन्काउंटर थेरेपी, बायो-एनर्जी, स्कीमिग एष्ठ हिप्रोसिस थेरेपी, साइकोड्रामा, पूर्वीय विधियां, जैसे जेन ध्यान, योग, ताइ-ची और बौद्ध तथा हिंदू ध्यान की विधियां शामिल है। समूह-चिकित्सा ने मुझ पर गहनतम प्रभाव डाला। मनोवैज्ञानिक वर्तुल में पूना विश्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण ‘विकास-केन्द्र’ के रूप में विख्यात हो गया है।’’

ऊपर जिन ध्यान-पद्धतियों का उल्लेख किया गया है, वे भगवान द्वारा आधुनिक मनुष्य के लिए विशेष रूप से विकसित की गयी है। रहस्यवाद की अनेकों अलग-अलग शाखाओं की प्राचीन विधियों से इन्हें लिया गया है।’’ ध्यान की इन विधियों द्वारा आश्रम सचमुच चेतना में परिवर्तन ला देता है, ” आद्रियस उहूलिग ने ‘नेवे जुरचेर ज़ाइतुंग’ (स्विट्जरलैष्ठ) में लिखा।

उहूलिग ने, जो 1981 की मई में दिल्ली से राजनयिकों के एक दल के साथ आश्रम में आए थे, संन्यासियों और अन्य लोगों के बीच दिखाई देने वाले फर्क का श्रेय भगवान के ‘बुद्धों के मनोविज्ञान’ को, चिकित्सा समूहों और ध्यान को दिया। अंत में उन्होंने कहा, ‘‘रजनीश के अहाते में सचमुच कुछ असाधारण घट रहा है: व्यक्ति मुक्त किये जा रहे हैं, अर्थात, सारे प्रतिबंधों और सामाजिक नियंत्रणों से असंस्कारित किये जा रहे हैं।’’

कनाडा की ‘शेतलेन’ मैगजीन के पाठकों के लिए, जनवरी 1981 में, मारिस रॉय ने इस प्रकार विवरण दिया : ‘‘दरअसल ऐसा लगता है कि पूना का आश्रम हजारों साल पुरानी पूर्वीय परंपराओं का आधुनिक पाश्रात्य विधियों के साथ सम्मिश्रण करने का एक बहुत ही साहसी और फलदायी प्रयास है.. .वह एक साथ एक ध्यान केन्द्र, उत्सव का स्थान और एक विराट प्रयोगशाला है, जहां चेतना का अन्वेषण करने की नई तकनीकें आविष्कृत की जाती है।’’

तो कुल मिलाकर इस सब का अर्थ क्या हुआ?

निश्चय ही, संदर्भ से बाहर लिये जाने पर, सेक्स, सम्मोहन, चीखने-चिल्लाने के एनकाउंटर ग्रुप और अनिर्बंध हषोंन्मादित ध्यान, सब पीली पत्रकारिता को पर्याप्त गोला-बारूद देते थे, जिससे कि वे भगवान और उनके आश्रम पर यदि भयप्रद नहीं तो कम से कम विवादास्पद कहानियां गढ सकें। लेकिन आश्रम सचमुच किस तरह का था?

जिन लोगों ने सिर्फ अफवाहों का पुनलेंखन करके पन्ने भरने के बजाय स्वयं अन्वेषण करना पसंद किया उन्होंने आश्रर्यजनक रूप से एक आदर्श-लोक का चित्र प्रस्तुत किया। बहुतों ने, लेविन की भांति, उन लोगों को देखकर आश्रम का मूल्यांकन किया जिन्होंने अपने जीवन में भगवान के साथ रहने का चुनाव किया था : ‘‘यदि यह सच है, और मैं नहीं देख पाता कि कैसे नहीं होगा, कि वृक्ष की पहचान उसके फलों से की जानी चाहिए, तो भगवान श्री रजनीश के शिष्य-जिन्हें वे नव-संन्यासी कहते है-एक असाधारण रूप से उत्कृष्ट फसल हैं, जो इस बात की गवाह है कि उसका वृक्ष एक विरल किस्म का श्रेष्ठ वृक्ष है। रजनीश आश्रम की सर्वप्रथम गुणवत्ता जो किसी भी आगंतुक को वहां दिखती है-और वह बार-बार दिखती ही चली जाती है-वह यह कि ये लोग कितनी सरलता और निश्रितंता से अपनी आस्था का वरण किये हुए है। यद्यपि ये अडिग रूप से आश्वस्त है (मुझे सिर्फ एक व्यक्ति मिला जिसके भीतर थोड़ा-बहुत संदेह अवशिष्ट था) कि रजनीश ने इन्हें अपने जीवन का अर्थ खोज लेने और अस्तित्व में अपना स्थान प्राप्त कर लेने के योग्य बनाया है, फिर भी इनमें धर्मांधता का कोई लेश न था और अधिकांश लोगों में तो उत्तप्त धमोंत्साह तक न था।’’

एलन एटकिन्सन ने इसी तरह के मापदण्‍ड का उपयोग किया : ‘‘पश्चिम की मनस्विकित्सा विधियों के साथ ध्यान को जोड़कर पूना-तकनीक का विकास बेजोड़ लगता है-और उससे यह सिद्ध होता है कि रजनीश के बारे में कोई कुछ भी क्यों न सोचे, उनके पास निश्रित रूप से, कम से कम, सभी उम्र के और जीवन के सभी क्षेत्रों से लोगों को आकर्षित करने की एक विशिष्ट जन्मजात प्रतिभा है। रजनीश ने पूना में जिस प्रकार के लोगों को आकर्षित किया है उससे पता चलता है कि यह आश्रम आत्मिक सांत्वना देनेवाला केवल एक और स्थान होने अथवा निराश युवकों और बढ़ती उम्र के हिप्पियों का आश्रय-स्थल होने से कितनी दूर लगता है। रजनीश-आन्दोलन के कुछ अत्यंत निष्ठावान शिष्य और कार्यकर्ता डाक्टर, शिक्षक और भूतपूर्व पुरोहित है।’’ जॉन फ्राय ने लिखा कि : ‘‘संन्यासियों का एक असामान्य रूप से बड़ा वर्ग ऐसा है जो भगवान का नाम तक सुनने से पहले सफल हो गये लोगों में था। वे व्यावसायिक रूप से, कलात्‍मक रूप से और शैक्षिक रूप से सफल थे। वे मंजिल पर पहुंच चुके थे।’’

एटकिन्सन द्वारा किये गये वर्णन के अनुसार आश्रम ” अतिशय ऊर्जावान (कर्मठ) और प्रमुदित स्थान था जहां दिन संगीत, नृत्य और गायन से भरपूर होते, साथ-साथ विविध प्रकार के कला-कौशलों और हस्तकलाओं से भी।’’ रोनाल्ड कॉनवे ने लिखा कि ” आश्रम में तेईस डॉक्टर थे, खासी अच्छी संख्या में दंत-चिकित्सक, प्लम्बर, चित्रकार, सब किस्म के मेकेनिक, बढ़ई, मुद्रक, गृह-सज्जा करने वाले, रसोइये-बुकबाइंडर, दर्जी और साबुन बनानेवाले तक। आश्रम का अपना निजी सुसज्जित अस्पताल था, अपनी कार्यशालाएं भोजनालय, डाकघर और दुकान। जिस देश में गंदगी और संदूषण आम हैं, वहां आश्रम की सुविधाएं अत्यंत साफ-सुथरी थीं।

भारतीय समाचार पत्रों ने भी आश्रम के निवासियों के संबंध में अनुकूल रायें दीं। 1981 के जून में ‘डेली’ ने लिखा : ‘‘संन्यासी विश्व भर के प्रतिभाशाली लोगों में से थे। उनमें रायल ड्रामेटिक अकादमी के सदस्य थे, कला, सिनेमा और संगीत जगत के अग्रणी लोग थे, और अत्यंत परिष्कृत पश्चिम से आए हुए कुछ तंत्रविद भी थे। पूना के लोग कुछ भी कहें, किंतु रजनीश के लोगों में एक उत्कृष्टता थी। वे अपने अटपटे ढंग से इस शहर में एक जगमगाहट, एक चमकदमक और एक चारुता लाए। रजनीश आश्रम ने एक ही जगह इतनी प्रतिभा इकट्ठी कर दी थी जितनी शायद ही कोई संस्था दावा कर सके। रजनीश थिएटर ग्रुप बम्बई के रंगमंच पर कुछ बेहतरीन अभिनय कला ले आया। उनके संगीतकारों को आधुनिक पाश्रात्य संगीत की अधिक समझ थी, खास कर जाज और सूज की। कुछ और सृजनात्मक कलाओं के क्षेत्र में रजनीश आश्रम के पास सर्वश्रेष्ठ उद्यान-वैज्ञानिक और हाइड्रोपोनिक-कृषि के विशेषज्ञ थे। आश्रम की कार्यशालाओं में साबुन और प्रसाधन की अन्य वस्तुएं भी बनती थीं।’’

बर्नार्ड लेविन ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया था : ‘‘कार्यशालाएं विस्तीर्ण और प्रभावशाली हैं, ये लोग कोई छींट या लाइनोकट से खिलवाड़ करने में जूझ रहे नौसिखिए नहीं हैं, वरन् सधे हुए कारीगर हैं जो फर्नीचर, धातुओं के सामान, चांदी के जड़ाऊ सामान, स्कीन प्रिंटिंग और उस तरह की अन्य वस्तुएं आंदित कर रहे हैं-उच्च कोटि की। और खास बात यह कि लगभग इन सभी ने बिना किसी पूर्व-प्रशिक्षण के इन कामों को शुरू किया था। उससे भी आगे बढ़कर दूसरी बात कि स्पष्टत: वे अपने काम करने में प्रसन्न है। आश्रम में संन्यासियों के अल्पकालीन आवास को मैंने हॉलीडे कहे जाते सुना है (कई लोग एकाध महीने या ऐसे ही कुछ के लिए आते हैं और बहुधा अपनी वार्षिक छुट्टियों का इसके लिए उपयोग करते हैं), यदि ऐसा ही है, तो यह विलक्षण चिकित्सामय गुणवत्ताओं से भरपूर हॉलीडे है, क्योंकि मुझे एक भी ऐसा आदमी नहीं मिला जिसने इस अनुभव से उपलब्धि की गवाही न दी हो, और ऐसा भी आदमी नहीं मिला जिस पर इस उपलब्धि के प्रगट लक्षण न हों।

खतरनाक?

क्या आप चाहेंगे कि उतने सब के लिए जिम्मेवार व्यक्ति आप के देश में हो?


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महावीर: मेरी दृष्‍टी में –(ओशो)

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महावीर: मेरी दृष्‍टी में

ओशो

(ओशो द्वारा दिए गए पच्‍चीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन)

मैं महावीर का अनुयायी तो नहीं हूं, प्रेमी हूं। वैसे ही जैसे क्राइस्‍ट का, कृष्‍ण का, बुद्ध का, या लाओत्‍से का। और मेरी दृष्‍टी में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है।

और दुनिया में दो ही तरह के लोग होते है, साधारण: या तो कोई अनुयायी होता है, और या कोई विरोधी होता है। न अनुयायी समझ पाता है और न विरोधी ही समझ पाता है। एक और रास्‍ता भी है। प्रेम, जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्‍ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते।

अनुयायी को एक समस्‍या हे कि वह एक से बंध जाता है। और विरोधी को भी यह कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेम को एक मुक्‍ति है। प्रेम को बंधने का कोई कारण नहीं है। ओरजो प्रेम बांधता हो, वह प्रेम ही नहीं है।

तो महावीर से प्रेम करने में महावीर से बंधना नहीं होता। महावीर से प्रेम हुए बुद्ध को, कृष्‍ण को, क्राइस्‍ट को प्रेमकिया जात सकता है। क्‍योंकिजिस चीज को हम महावीर में प्रेम करते है, वह और हजार—हजार लोगों में उसी तरह प्रकट हुई है। महावीर को थोड़ा ही प्रेम करते है। वह जो शरीर है वर्धमानका,वह जो जन्‍मतिथियों में बंधी हुई एक इतिहास रेखा है, एक दिन पैदा होना और एक दिन मर जाना, इसे तो प्रेम नहीं करते। प्रेम करते है उस ज्‍योतिको जो इस मिट्टी के दीए में प्रकट हुई। यह दीया कौन था यह बहुत अर्थ की बात नहीं। बहुत—बहुत दीयों में वि ज्‍योति प्रकट हुई है।

जो ज्‍योति को प्रेम करेगा, वह दीए से नहीं बंधेगा; और जो दीए से बंधेगा, उसे ज्‍योति का कभी पता ही नहीं चलेगा। क्‍योंकि दीए से जो बंध रहा है। निश्‍चित है कि उसे ज्‍योति का पता नहीं चला है। जिसे ज्‍योति का पता चल जाता है उसे दीए की याद भी रहेगी? उसे दिया फिर दिखाई भी पड़गी?

जिसे ज्‍योति दिख जाए, वह दीए को भूल जाएगा। इसलिए जो दीए को याद रखे है, उन्‍हें ज्‍योति नहीं दिखाई दी। और जो ज्‍योति को प्रेम करेगा,वह इस ज्‍योति को, उस ज्‍योति को थोड़े ही प्रेम करता फिरेगा। जो भी ज्‍योतिर्मय है—जब एक ज्‍योति में दिख जाएगा उसे तो कहीं भी ज्‍योति हो वही दिख जाएगा। सूरज में भी घर के जलते हुए दीए में भी। चाँद में भी तारों में, आग में भी जूगनू में—जहां कहीं भी ज्‍योति है वही दिख जाएगी।

लेकिन अनुयायी व्‍यक्‍तियों से बंधे है, विरोधी व्‍यक्‍तियों से बंधे है। प्रेमी भर को व्‍यक्‍ति से बंधने की कोई जरूरत नहीं। और मैं प्रेमी हूं। और इसलिए मेरा कोई बंधन नहीं है। महावीर से। और बंधन न हो तो ही समझ हो सकती है, अंडरस्‍टैंडिग हो सकती है।

 

ओशो


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–पहला)

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महावीर से प्रेम—(प्रवचन—पहला)

मैं महावीर का अनुयायी तो नहीं हूं, प्रेमी हूं। वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का या लाओत्से का। और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है।

और दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं, साधारणतः। या तो कोई अनुयायी होता है, और या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है, न विरोधी समझ पाता है। एक और रास्ता भी है–प्रेम, जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते। अनुयायी को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी यह कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता हो, वह प्रेम ही नहीं है।

तो महावीर से प्रेम करने में महावीर से बंधना नहीं होता। महावीर से प्रेम करते हुए बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को प्रेम किया जा सकता है। क्योंकि जिस चीज को हम महावीर में प्रेम करते हैं, वह और हजार-हजार लोगों में उसी तरह प्रकट हुई है।

महावीर को थोड़े ही प्रेम करते हैं। वह जो शरीर है वर्धमान का, वह जो जन्मतिथियों में बंधी हुई एक इतिहास रेखा है, एक दिन पैदा होना और एक दिन मर जाना, इसे तो प्रेम नहीं करते हैं। प्रेम करते हैं उस ज्योति को जो इस मिट्टी के दीए में प्रकट हुई। यह दीया कौन था, यह बहुत अर्थ की बात नहीं। बहुत-बहुत दीयों में वह ज्योति प्रकट हुई है।

जो ज्योति को प्रेम करेगा, वह दीए से नहीं बंधेगा; और जो दीए से बंधेगा, उसे ज्योति का कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि दीए से जो बंध रहा है, निश्चित है कि उसे ज्योति का पता नहीं चला। जिसे ज्योति का पता चल जाए उसे दीए की याद भी रहेगी? उसे दीया फिर दिखाई भी पड़ेगा?

जिसे ज्योति दिख जाए, वह दीए को भूल जाएगा। इसलिए जो दीए को याद रखे हैं, उन्हें ज्योति नहीं दिखाई दी। और जो ज्योति को प्रेम करेगा, वह इस ज्योति को, उस ज्योति को थोड़े ही प्रेम करेगा! जो भी ज्योतिर्मय है–जब एक ज्योति में दिख जाएगा उसे, तो कहीं भी ज्योति हो, वहीं दिख जाएगा। सूरज में भी, घर में जलने वाले छोटे से दीए में भी, चांदत्तारों में भी, आग में–जहां कहीं भी ज्योति है, वहीं दिख जाएगा।

लेकिन अनुयायी व्यक्तियों से बंधे हैं, विरोधी व्यक्तियों से बंधे हैं। प्रेमी भर को व्यक्ति से बंधने की कोई जरूरत नहीं। और मैं प्रेमी हूं। और इसलिए मेरा कोई बंधन नहीं है महावीर से। और बंधन न हो तो ही समझ हो सकती है, अंडरस्टैंडिंग हो सकती है।

यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि महावीर को चर्चा के लिए क्यों चुना?

बहाना है सिर्फ। जैसे एक खूंटी होती है, कपड़ा टांगना प्रयोजन होता है, खूंटी कोई भी काम दे सकती है। महावीर भी काम दे सकते हैं ज्योति के स्मरण में–बुद्ध भी, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी। किसी भी खूंटी से काम लिया जा सकता है। स्मरण उस ज्योति का जो हमारे दीए में भी जल सकती है।

स्मरण मैं महान मानता हूं, अनुकरण नहीं। और स्मरण भी महावीर का जब हम करते हैं, तो भी महावीर का स्मरण नहीं है वह, स्मरण है उस तत्व का, जो महावीर में प्रकट हुआ। और उस तत्व का स्मरण आ जाए तो तत्काल स्मरण आत्म-स्मरण बन जाता है। और वही सार्थक है, जो आत्म-स्मरण की तरफ ले जाए।

लेकिन महावीर की पूजा से यह नहीं होता। पूजा से आत्म-स्मरण नहीं आता। बड़े मजे की बात है, पूजा आत्म-विस्मरण का उपाय है। जो अपने को भूलना चाहते हैं, वे पूजा में लग जाते हैं। और उनके लिए भी महावीर खूंटी का काम देते हैं, बुद्ध, कृष्ण, सब खूंटी का काम देते हैं। जिसे अपने को भूलना ही हो, वह अपने भूलने का वस्त्र उनकी खूंटी पर टांग देता है। अनुयायी, भक्त, अंधे, अनुकरण करने वाले भी महावीर, बुद्ध, कृष्ण की खूंटियों का उपयोग कर रहे हैं आत्म-विस्मरण के लिए! पूजा, प्रार्थना, अर्चना–सब विस्मरण हैं।

स्मरण बहुत और बात है। स्मरण का अर्थ है कि हम महावीर में उस सार को खोज पाएं, देख पाएं–किसी रूप में, कहीं पर भी–वह सार हमें दिख जाए, उसकी एक झलक मिल जाए, उसका एक स्मरण आ जाए कि ऐसा भी हुआ है, ऐसा भी किसी व्यक्ति में होता है, ऐसा भी संभव है। यह संभावना का बोध तत्काल हमें अपने प्रति जगा देगा, कि जो किसी एक में संभव है, जो एक मनुष्य में संभव है, वह फिर मेरी संभावना क्यों न बने! और तब हम पूजा में न जाएंगे, बल्कि एक अंतर्पीड़ा में, एक इनर सफरिंग में उतर जाएंगे। जैसे जले हुए दीए को देख कर बुझा हुआ दीया एक आत्म-पीड़ा में उतर जाए, और उसे लगे कि मैं व्यर्थ हूं, मैं सिर्फ नाम मात्र को दीया हूं, क्योंकि वह ज्योति कहां? वह प्रकाश कहां? मैं सिर्फ अवसर हूं अभी जिसमें ज्योति प्रकट हो सकती है, लेकिन अभी हुई नहीं।

लेकिन बुझे हुए दीयों के बीच बुझा हुआ दीया रखा रहे, तो उसे खयाल भी न आए, पता भी न चले। तो करोड़ बुझे हुए दीयों के बीच में भी जो स्मरण नहीं आ सकता, वह एक जले हुए दीए के निकट आ सकता है।

महावीर या बुद्ध या कृष्ण का मेरे लिए इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं है कि वे जले हुए दीए हैं। और उनका खयाल और उनके जले हुए दीए की ज्योति की लपट एक बार भी हमारी आंखों में कौंध जाए, तो हम फिर वही आदमी नहीं हो सकेंगे, जो हम कल तक थे। क्योंकि हमारी एक नई संभावना का द्वार खुलता है, जो हमें पता ही नहीं था कि हम हो सकते हैं। उसकी प्यास जग गई। यह प्यास जग जाए, तो कोई भी बहाना बनता हो, उससे कोई प्रयोजन नहीं। तो मैं महावीर को भी बहाना बनाऊंगा, कृष्ण को भी, क्राइस्ट को भी, बुद्ध को भी, लाओत्से को भी।

फिर हममें बहुत तरह के लोग हैं। और कई बार ऐसा होता है कि जिसे लाओत्से में ज्योति दिख सकती है, उसे हो सकता है बुद्ध में ज्योति न दिखे। और यह भी हो सकता है कि जिसे महावीर में ज्योति दिख सकती है, उसे लाओत्से में ज्योति न दिखे। एक बार अपने में ज्योति दिख जाए, तब तो लाओत्से, बुद्ध का मामला ही नहीं है, तब तो सड़क पर चलते हुए साधारण आदमी में भी ज्योति दिखने लगती है। तब तो फिर ऐसा आदमी ही नहीं दिखता, जिसमें ज्योति न हो। तब तो आदमी बहुत दूर की बात है, पशु-पक्षी में भी वही ज्योति दिखने लगती है। पशु-पक्षी भी बहुत दूर की बात है, पत्थर में भी वह ज्योति दिखने लगती है। एक बार अपने में दिख जाए, तब तो सबमें दिखने लगती है। लेकिन जब तक स्वयं में नहीं दिखी है, तब तक जरूरी नहीं है कि सभी लोगों को महावीर में ज्योति दिखे।

उसके कारण हैं। व्यक्ति-व्यक्ति के देखने के ढंग में भेद है। और व्यक्ति-व्यक्ति की ग्राहकता में भेद है। और व्यक्ति-व्यक्ति के रुझान और रुचि में भेद है। एक सुंदर युवती है, जरूरी नहीं सभी को सुंदर मालूम पड़े।

मजनूं को पकड़ लिया था उसके गांव के सम्राट ने। और मजनूं की पीड़ा की खबरें उस तक पहुंची थीं। उसका रात देर तक वृक्षों के नीचे रोना और चिल्लाना, उसकी आंखों से बहते हुए आंसू। गांव भर में उसकी चर्चा। तो सम्राट ने दया करके उसे बुला लिया और कहा कि तू पागल हो गया है? लैला को मैंने भी देखा है, ऐसा क्या है? बहुत साधारण है। उससे सुंदर लड़कियां तेरे लिए मैं इंतजाम कर दूंगा। दस लड़कियां बुला ली थीं उसने। कतार लगवा दी थी द्वार के सामने कि देख!

नगर की सुंदरतम लड़कियां वहां उपस्थित थीं, राजा का निमंत्रण था। लेकिन मजनूं ने देखा तक नहीं और मजनूं खूब हंसने लगा और उसने कहा कि आप समझे नहीं। लैला को देखने के लिए मजनूं की आंख चाहिए। और वह आंख आपके पास नहीं। तो हो सकता है, लैला आपको साधारण दिखे। लैला में मैं ही देख सकता हूं असाधारण, मैं मजनूं हूं।

मजनूं की आंख लैला को पैदा करती है, आविष्कार करती है, उदघाटन करती है। यानी लैला होने के लिए एक मजनूं चाहिए। नहीं तो लैला लैला भी नहीं होती, उसका पता भी नहीं चलता, उसका आविष्कार भी नहीं होता।

और एक-एक व्यक्ति में बुनियादी भेद है। इसलिए दुनिया में इतने तीर्थंकर, इतने अवतार, इतने गुरु हैं। और इसलिए ऐसा हो सकता है कि बुद्ध और महावीर जैसे व्यक्ति एक ही गांव में एक ही दिन ठहरे और गुजरे हों, एक ही इलाके में वर्ष-वर्ष घूमे हों, फिर भी गांव में किन्हीं को बुद्ध दिखाई पड़े हों, किन्हीं को महावीर दिखाई पड़े हों और किन्हीं को दोनों न दिखाई पड़े हों।

तो जब मैं कुछ देखता हूं, तो जो है, दिखाई पड़ रहा है, वही महत्वपूर्ण नहीं है, मेरे पास देखने की एक, एक विशिष्ट दृष्टि है। और वह प्रत्येक व्यक्ति की अलग है। किसी को महावीर में वह ज्योति दिखाई पड़ सकती है। और तब इस बेचारे की मजबूरी है। हो सकता है वह कहे कि बुद्ध में कुछ भी नहीं। और वह कहे, जीसस में क्या है? मोहम्मद में क्या है? लेकिन उसकी नासमझी है। वह जरा जल्दी कर रहा है। वह बहुत सहानुभूतिपूर्ण नहीं मालूम हो रहा है, वह समझ नहीं रहा है। और जब कोई उससे कहेगा कि महावीर में कुछ भी नहीं है, तो वह क्रोध से भर जाएगा। अब भी वह नहीं समझ पा रहा है कि जब मैं कहता हूं कि जीसस में कुछ नहीं दिखाई पड़ता, तो हो सकता है कि किसी को महावीर में कुछ भी न दिखाई पड़े। महावीर में जो है, उसे देखने के लिए एक विशिष्ट आंख चाहिए।

और जमीन पर भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं। बहुत भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं। कोई उनकी जातियां बनाना भी मुश्किल है, इतने भिन्न तरह के लोग हैं। लेकिन एक बार दिख जाए फ्लेम–तब सब भिन्नताएं खो जाती हैं। सब भिन्नताएं दीयों की भिन्नताएं हैं, ज्योति की भिन्नता नहीं है। दीए भिन्न-भिन्न हैं, बहुत-बहुत आकार के हैं, बहुत-बहुत रूप के हैं, बहुत-बहुत रंगों के हैं, बहुत-बहुत कारीगरों ने उन्हें बनाया है, बहुत-बहुत उनके स्रष्टा हैं, उनके निर्माता हैं। तो हो सकता है कि जिसने एक ही तरह का दीया देखा हो, दूसरे तरह के दीए को देख कर कहने लगे, यह कैसा दीया? ऐसा दीया होता ही नहीं! लेकिन जिसने एक बार ज्योति देख ली–चाहे कोई भी रूप हो, चाहे कोई भी आकार हो–जिसने एक बार ज्योति देख ली, दूसरी किसी भी रूप, किसी भी आकार की ज्योति को देख कर वह यह न कह सकेगा, यह कैसी ज्योति है? क्योंकि ज्योतिर्मय का जो अनुभव है, वह आकार का अनुभव नहीं है। और दीए का जो अनुभव है, वह आकार का अनुभव है। ज्योतिर्मय का अनुभव निराकार का अनुभव है।

दीया एक जड़ है, पदार्थ है–ठहरा हुआ, रुका हुआ। ज्योति एक चेतन है, एक शक्ति–जीवंत, भागी हुई। दीया रखा हुआ है। ज्योति जा रही है। और कभी खयाल किया कि ज्योति सदा ऊपर की तरफ जा रही है! कोई भी उपाय करो, दीए को कैसा ही रखो–आड़ा कि तिरछा, उलटा कि नीचा, छोटा कि बड़ा, इस आकार का कि उस आकार का–ज्योति है कि बस भागी जा रही है ऊपर को। कैसी भी ज्योति हो, भागी जा रही है ऊपर को। निराकार का अनुभव है ज्योति में–ऊर्ध्वगमन का। वह सतत ऊपर और ऊपर जा रही है।

और कितनी जल्दी ज्योति का आकार खो जाता है, देर नहीं लगती। देख भी नहीं पाते कि आकार खो जाता है। पहचान भी नहीं पाते, आकार खो जाता है। ज्योति कितनी जल्दी छोटा सा आकार लेती है, फिर निराकार में खो जाती है। फिर खोजने चले जाओ, मिलेगी नहीं तुम्हें। थी अभी–अभी थी और अब नहीं है! लेकिन ऐसा कहीं हो सकता है कि जो था, वह अब न हो जाए?

तो ज्योति एक मिलन है आकार और निराकार का। प्रतिपल आकार निराकार में जा रहा है। हम आकार तक देख पाएं, तो भी हम अभी ज्योति को नहीं देख पाए, क्योंकि वह जो आकार के पार संक्रमण हो रहा है निराकार में, वही है।

और इसलिए ऐसा हो जाता है कि दीयों को पहचानने वाले इन ज्योतियों के संबंध में झगड़ा करते रहते हैं! और दीयों को पकड़ने वाले ज्योतियों के नाम पर पंथ और संप्रदाय बना लेते हैं! और ज्योति से दीए का क्या संबंध है? ज्योति से दीए की संगति भी क्या है? दीया सिर्फ एक अवसर था, जहां ज्योति घटी।

और वह जो ज्योति का आकार दिखा था, वह भी सिर्फ एक अवसर था, जहां से ज्योति निराकार में गई।

वर्धमान तो दीया है, महावीर ज्योति हैं। सिद्धार्थ तो दीया है, बुद्ध ज्योति हैं। जीसस तो दीया है, क्राइस्ट ज्योति हैं। लेकिन हम दीयों को पकड़ लेते हैं। और महावीर के संबंध में सोचते समय वर्धमान के संबंध में सोचने लगते हैं! भूल हो गई। और वर्धमान को जो पकड़ लेगा, वह महावीर को कभी नहीं जान सकेगा। सिद्धार्थ को जो पकड़ लेगा, उसकी बुद्ध से कभी पहचान ही नहीं होगी। और जीसस को, मरियम के बेटे को जिसने पहचाना, वह क्राइस्ट को, परमात्मा के बेटे को कभी नहीं पहचान पाएगा। उससे क्या संबंध है! वे दोनों बात ही अलग हैं। लेकिन हमने दोनों को इकट्ठा कर रखा है–जीसस-क्राइस्ट, वर्धमान-महावीर, गौतम-बुद्ध–दीए और ज्योति को! और ज्योति का हमें कोई पता नहीं है, दीए को हम पकड़े हैं!

मेरा दीयों से कोई संबंध नहीं है। कोई अर्थ ही नहीं देखता हूं उनमें। और फिर दीए तो हम हैं ही। इसकी चिंता हमें नहीं करनी चाहिए। दीए हम सब हैं ही, ज्योति हम हो सकते हैं, जो हम अभी नहीं हैं। ज्योति की चिंता करनी चाहिए। तो इधर महावीर को निमित्त बना कर ज्योति का विचार करेंगे। जिनको महावीर की तरफ से ही ज्योति पहचान में आ सकती है, अच्छा है, वहीं से पहचान आ जाए। जिनको न आ सकती हो, उनके लिए कुछ और निमित्त बनाया जा सकता है। सब निमित्त काम दे सकते हैं।

बहुत विशिष्ट हैं महावीर, इसलिए सोचना तो बहुत जरूरी है उन पर। लेकिन विशिष्ट किसी दूसरे की तुलना में नहीं। आमतौर से हम ऐसा ही सोचते हैं कि जब हम कहते हैं कोई व्यक्ति विशिष्ट है, तो हम पूछते हैं, किससे? जब मैं कहता हूं बहुत विशिष्ट हैं महावीर, तो मैं यह नहीं कहता हूं कि बुद्ध से, कि मोहम्मद से। तुलना में नहीं कह रहा हूं। बहुत विशिष्ट हैं इस अर्थ में, जो घटना घटी उससे। यह जो घटना घटी, यह जो ज्योतिर्मय होने की घटना और निराकार में विलीन हो जाने की घटना घटी, उससे विशिष्ट हैं।

उस अर्थ में जीसस विशिष्ट हैं, मोहम्मद विशिष्ट हैं, कन्फ्यूशियस विशिष्ट हैं। उस अर्थ में वही विशिष्ट है, जो आकार को खोकर निराकार में चला गया। यही है विशिष्टता। हम अविशिष्ट हैं, हम साधारण हैं। साधारण इस अर्थ में कि वह घटना अभी नहीं घटी।

दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं, साधारण और असाधारण। साधारण से मेरा मतलब है, जो अभी सिर्फ दीया हैं, ज्योति बन सकते हैं। साधारण असाधारण का अवसर है, मौका है, बीज है। और असाधारण वह है, जो ज्योति बन गया और गया वहां–उस घर की तरफ जहां पहुंच कर शांति है, जहां आनंद है, जहां खोज का अंत है और उपलब्धि है।

इसलिए विशिष्ट जब मैं कह रहा हूं तो मेरा मतलब यह नहीं है कि किसी से विशिष्ट। विशिष्ट जब मैं कह रहा हूं तो मेरा मतलब है साधारण नहीं, असाधारण। हम सब साधारण हैं और हम सब असाधारण हो सकते हैं। और जब तक हम साधारण हैं, तब तक हम साधारण के बीच में भी साधारण-असाधारण के जो भेद खड़े करते हैं, वे एकदम नासमझी के हैं।

साधारण बस साधारण ही है, वह चपरासी है कि राष्ट्रपति, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ये साधारण के ही दो रूप हैं–चपरासी पहली सीढ़ी पर, राष्ट्रपति आखिरी सीढ़ी पर। चपरासी भी चढ़ता जाए तो राष्ट्रपति हो जाए, और राष्ट्रपति उतरता आए तो चपरासी हो जाए। चपरासी चढ़ जाते हैं और राष्ट्रपति उतर आते हैं, दोनों काम चलते हैं। यह एक ही सीढ़ी पर सारा खेल है–साधारण की सीढ़ी पर।

साधारण की सीढ़ी पर सभी साधारण हैं, चाहे वे किसी भी पायदान पर खड़े हों, वे किसी भी सीढ़ी पर खड़े हों–नंबर एक की, कि नंबर हजार की, कि नंबर शून्य की–इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक सीढ़ी साधारण की है। और इस साधारण की सीढ़ी से जो छलांग लगा जाते हैं, वे असाधारण में पहुंच जाते हैं।

असाधारण की कोई सीढ़ी नहीं है। इसलिए असाधारण दो व्यक्तियों में नीचे-ऊपर कोई नहीं होता। फिर कई लोग पूछते हैं कि बुद्ध ऊंचे कि महावीर? कि कृष्ण ऊंचे कि क्राइस्ट? तो वे अपनी साधारण की सीढ़ी के गणित से असाधारण लोगों को सोचने चल पड़े हैं। और ऐसे पागल भी हैं कि किताबें भी लिखते हैं कि कौन किससे ऊंचा! और उन्हें पता नहीं कि ऊंचे और नीचे का जो खयाल है, वह साधारण दुनिया का खयाल है। असाधारण ऊंचा और नीचा नहीं होता। असल में जो ऊंचे-नीचे की दुनिया के बाहर चला जाता है, वही असाधारण है। तो वहां कैसी तौल कि कबीर कहां कि नानक कहां! और ऐसी किताबें हैं और ऐसे नक्शे बनाए हैं लोगों ने कि कौन किस सीढ़ी पर खड़ा है वहां भी! कि कौन आगे है, कौन पीछे है, कौन किस खंड में पहुंच गया है! वह साधारण लोगों की दुनिया है, और साधारण लोगों के खयाल हैं। वे वहां भी वही सोच रहे हैं!

वहां कोई ऊंचा नहीं है, कोई नीचा नहीं है। असल में ऊंचा और नीचा जहां तक है, वहां तक दीया है। बड़ा और छोटा जहां तक है, वहां तक दीया है। ज्योति बड़ी और छोटी होती नहीं। ज्योति या तो ज्योति होती है या नहीं होती। ज्योति बड़ी और छोटी का क्या मतलब है?

और निराकार में खो जाने की क्षमता छोटी ज्योति की उतनी ही है, जितनी बड?ी से बड़ी ज्योति की। और निराकार में खो जाना ही असाधारण हो जाना है। तो छोटी ज्योति कौन? बड़ी ज्योति कौन? छोटी ज्योति धीरे-धीरे खोती है? बड़ी ज्योति जल्दी खो जाती है? यह वैसी ही भूल है…इसे थोड़ा समझ लेना उचित होगा।

हजारों साल तक ऐसा समझा जाता था कि अगर हम एक मकान की छत पर खड़े हो जाएं और एक बड़ा पत्थर गिराएं और एक छोटा पत्थर–एक साथ–तो बड़ा पत्थर जमीन पर पहले पहुंचेगा, छोटा पत्थर पीछे। हजारों साल तक यह खयाल था, किसी ने गिरा कर देखा नहीं था। क्योंकि यह बात इतनी साफ-सीधी मालूम पड़ती थी और उचित, और तर्कयुक्त, कि कोई यह कहता भी अगर कि चलो जरा छत पर गिरा कर देखें, तो लोग कहते, पागल हो, इसमें भी कोई सोचने की बात है? बड़ा पत्थर पहले गिरेगा। बड़ा मास है, ज्यादा मास है, छोटा पत्थर छोटा सा है, पीछे गिरेगा। बड़ा पत्थर जल्दी आएगा, छोटा पत्थर धीरे आएगा।

लेकिन उन्हें पता नहीं था कि बड़ा पत्थर और छोटा पत्थर का सवाल नहीं है गिरने में, सवाल है ग्रेविटेशन का, सवाल है जमीन की कशिश का। और वह कशिश दोनों पर बराबर काम कर रही है, छोटे और बड़े का उस कशिश के लिए भेद नहीं।

तो जब पहली दफा एक आदमी ने चढ़ कर “पिसा’ के टावर पर और गिरा कर देखा–वह अदभुत आदमी रहा होगा–गिरा कर देखे दो पत्थर छोटे और बड़े। और जब दोनों पत्थर साथ गिरे तो वह खुद ही चौंका। उसको भी विश्वास न आया कि ऐसा होगा। बार-बार गिरा कर देखे कि पक्का हो जाए, नहीं तो लोग कहेंगे कि पागल है, ऐसा कहीं हो सकता है!

और जब दौड़ कर उसने विश्वविद्यालय में खबर दी, जिसका वह अध्यापक था, तो अध्यापकों ने कहा कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। छोटा और बड़ा पत्थर साथ-साथ कैसे गिर सकते हैं? छोटा पत्थर छोटा है, बड़ा पत्थर बड़ा है। बड़ा पहले गिरेगा, छोटा पीछे गिरेगा। और उन्होंने जाने से इनकार किया! पंडित सबसे ज्यादा जड़ होते हैं। अध्यापक थे, विश्वविद्यालय के पंडित थे, उन्होंने कहा, यह हो ही नहीं सकता। जाने की जरूरत नहीं। देखने कौन जाए? फिर भी, बामुश्किल प्रार्थना करके वह ले गया। और जब पंडितों ने देखा कि बराबर दोनों साथ गिरे, तो उन्होंने कहा, इसमें जरूर कोई जालसाजी है। क्योंकि ऐसा हो कैसे सकता है? या शैतान का कोई हाथ है! ऐसा हो नहीं सकता। इस उदाहरण को मैं इसलिए कह रहा हूं कि जमीन में एक ग्रेविटेशन है, एक कशिश है, एक गुरुत्वाकर्षण है नीचे खींचने का। और परमात्मा में, निराकार में भी एक ग्रेविटेशन है ऊपर खींचने का, एक कशिश है। यह जो निराकार फैला हुआ है ऊपर, वह चीजों को ऊपर खींचता है। हम जमीन की कशिश को तो पहचान गए हैं, बाकी ऊपर की कशिश को हम नहीं पहचान पाए हैं, क्योंकि जमीन पर हम सब हैं, उस ऊपर की कशिश पर कभी कोई जाता है। और जो जाता है, वह लौटता नहीं, तो कुछ खबर मिलती नहीं। वह जो ऊपर की कशिश है, उसी का नाम ग्रेस है।

इसका ग्रेविटी, उसका ग्रेस; इसका गुरुत्वाकर्षण, उसका प्रभु-प्रसाद। कोई और नाम भी दे दें, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वहां छोटी और बड़ी ज्योति का सवाल नहीं है, कोई ज्योति भर बन जाए, बस। छोटी ज्योति उतनी ही गति से चली जाती है जितनी बड़ी ज्योति–बड़ी से बड़ी ज्योति जाएगी। वह ग्रेस खींच लेती है निराकार की। इसलिए वहां कोई छोटा-बड़ा नहीं है, क्योंकि छोटे-बड़े का वहां कोई अर्थ ही नहीं है।

तो बुद्ध या महावीर, कौन बड़ा, कौन छोटा–यह साधारण लोगों की गणित की दुनिया है, जिससे हम हिसाब लगाते हैं। और साधारण गणित की दुनिया से असाधारण लोगों को नहीं तौला जा सकता, इसलिए वहां कोई बड़ा-छोटा नहीं है। साधारण से बाहर जो हुआ, वह बड़े-छोटे की गणना के बाहर हो जाता है।

इसलिए इससे बड़ी भ्रांति कोई और नहीं हो सकती है कि कोई कृष्ण में, कोई क्राइस्ट में, कोई बुद्ध में, महावीर में तौल करने बैठे। कोई कबीर में, नानक में, रमण में, कृष्णमूर्ति में कोई तौल करने बैठे। कौन बड़ा, कौन छोटा? कोई छोटा-बड़ा नहीं है।

लेकिन हमारे मन को बड़ी तकलीफ होती है, अनुयायी के मन को बड़ी तकलीफ होती है। हमने जिसे पकड़ा है, वह बड़ा होना ही चाहिए। और इसीलिए मैंने कहा कि अनुयायी कभी नहीं समझ पाता। समझ ही नहीं सकता। अनुयायी कुछ थोपता है अपनी तरफ से। समझने के लिए बड़ा सरल चित्त चाहिए। अनुयायी के पास सरल चित्त नहीं होता। विरोधी भी नहीं समझ पाता, क्योंकि वह छोटा करने के आग्रह में होता है, अनुयायी से उलटी कोशिश में लगा होता है।

प्रेमी समझ पाता है। इसलिए जिसे भी समझना हो उसे प्रेम करना है। और प्रेम सदा बेशर्त है। अगर कृष्ण को इसलिए प्रेम किया कि तुम मुझे स्वर्ग ले चलना, तो यह प्रेम शर्तपूर्ण हो गया, इसमें कंडीशन शुरू हो गई। अगर महावीर को इसलिए प्रेम किया कि तुम्हीं सहारे हो, तुम्हीं पार ले चलोगे भवसागर के, तो शर्त शुरू हो गई, प्रेम खतम हो गया। प्रेम है बेशर्त। कोई शर्त ही नहीं है। प्रेम यह नहीं कहता कि तुम मुझे कुछ देना। प्रेम का मांग से कोई संबंध ही नहीं है। जहां तक मांग है वहां तक सौदा है, जहां तक सौदा है वहां तक प्रेम नहीं है।

सब अनुयायी सौदा कर रहे हैं, इसलिए कोई अनुयायी प्रेम नहीं कर पाता। और विरोधी किसी और से सौदा कर रहा है, इसलिए विरोधी हो गया है। और विरोधी भी इसीलिए हो गया है कि उसे सौदे का आश्वासन नहीं दिखाई पड़ता कि ये कृष्ण कैसे ले जाएंगे! तो कृष्ण को उसने छोड़ दिया, इनकार कर दिया। प्रेम का मतलब है बेशर्त। प्रेम का मतलब है वह आंख, जो परिपूर्ण सहानुभूति से भरी है और समझना चाहती है। मांग कुछ भी नहीं है।

तो महावीर को समझने के लिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा, कोई मांग नहीं, कोई सौदा नहीं, कोई अनुकरण नहीं, कोई अनुयायी का भाव नहीं, एक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि कि एक व्यक्ति हुआ, जिसमें कुछ घटा। हम देखें कि क्या घटा, पहचानें कि क्या घटा, खोजें कि क्या घटा। इसलिए जैन कभी महावीर को नहीं समझ पाएगा, उसकी शर्त बंधी है। जैन महावीर को कभी नहीं समझ सकता। बौद्ध बुद्ध को कभी नहीं समझ सकता।

इसलिए प्रत्येक ज्योति के आस-पास जो अनुयायियों का समूह इकट्ठा होता है, वह ज्योति को बुझाने में सहयोगी होता है, उस ज्योति को और जलाने में नहीं! अनुयायियों से बड़ा दुश्मन खोजना बहुत मुश्किल है। इन्हें पता ही नहीं, ये दुश्मनी कर देते हैं।

अब महावीर का जैन होने से क्या संबंध? कोई भी नहीं। महावीर को पता ही न होगा कि वे जैन हैं। और पता होगा तो बड़े साधारण आदमी थे, फिर उस असाधारण दुनिया के आदमी नहीं थे, जिसकी हम बात करते हैं। महावीर को पता भी नहीं हो सकता सपने में कि मैं जैन हूं। न क्राइस्ट को पता हो सकता है कि मैं ईसाई हूं।

और जिनको यह पता है, वे समझ नहीं पाएंगे। क्योंकि जब हम समझने के पहले कुछ हो जाते हैं, तो जो हम हो जाते हैं वह हमारी समझ में बाधा डालता है। जो हम हो जाते हैं, वह हमारी समझ में बाधा डालता है। क्योंकि हम हो पहले जाते हैं, और फिर हम समझने जाते हैं। समझने जाना हो तो खाली मन चाहिए।

इसलिए जो जैन नहीं है, बौद्ध नहीं है, हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, वह समझ सकता है, वह सहानुभूति से देख सकता है, उसकी प्रेमपूर्ण दृष्टि हो सकती है; क्योंकि उसका कोई आग्रह नहीं है। उसका अपना होने का कोई आग्रह नहीं है। और बड़े मजे की बात है कि हम जन्म से ही जैन हो जाते हैं! जन्म से हिंदू हो जाते हैं! मतलब जन्म से ही हमारे धार्मिक होने की संभावना समाप्त हो जाती है।

अगर कभी भी मनुष्य को धार्मिक बनाना हो तो जन्म से धर्म का संबंध बिलकुल ही तोड़ देना जरूरी है। जन्म से कोई कैसे धार्मिक हो सकता है? और जो जन्म से ही पकड़ लिया किसी धर्म को, अब वह समझेगा क्या? समझने का मौका क्या रहा? अब उसके आग्रह निर्मित हो गए, प्रेज्युडिस, पक्षपात निर्मित हो गए। अब वह महावीर को समझ ही नहीं सकता, क्योंकि महावीर को समझने के पहले महावीर तीर्थंकर हो गए, परम गुरु हो गए, सर्वज्ञ हो गए, परमात्मा हो गए। अब परमात्मा को पूजा जा सकता है, समझा थोड़े ही जा सकता है। तीर्थंकर का गुणगान किया जा सकता है, समझा तो नहीं जा सकता है। समझने के लिए तो अत्यंत सरल दृष्टि चाहिए, जिसका कोई पक्षपात नहीं।

इसलिए मैं कह सकता हूं कि महावीर को समझ सका हूं, क्योंकि मेरा कोई पक्षपात नहीं है, कोई आग्रह नहीं है। लेकिन हो सकता है, जो मेरी समझ है, वह शास्त्रों में न मिले। मिलेगी ही नहीं। न मिलने का कारण पक्का है, क्योंकि शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जो बंधे हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जो अनुयायी हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जो जैन हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जिनके लिए महावीर तीर्थंकर हैं, सर्वज्ञ हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जिन्होंने महावीर को समझने के पहले कुछ मान लिया है।

मेरी समझ शास्त्र से मेल न खाए…और यह मैं आपसे कहना चाहता हूं कि समझ कभी भी शास्त्र से मेल नहीं खाएगी। समझ और शास्त्र में बुनियादी विरोध रहा है। शास्त्र नासमझ रचते हैं। नासमझ इस अर्थों में कि वे पक्षपातपूर्ण हैं। नासमझ इस अर्थों में कि वे कुछ सिद्ध करने को आतुर हैं। नासमझ इस अर्थों में कि समझने की उतनी उत्सुकता नहीं है, जितनी कुछ सिद्ध करने की।

एक व्यक्ति हैं, वे आत्मा के पुनर्जन्म पर शोध करते हैं। मुझे किसी ने उन्हें मिलाया। तो उन्होंने मुझसे कहा…हिंदुस्तान, हिंदुस्तान के बाहर, न मालूम कितने विश्वविद्यालयों में वे बोले हैं। यहां के एक विश्वविद्यालय से संबंधित हैं तो उस विश्वविद्यालय में एक विभाग ही बना रखा है जो पुनर्जन्म के संबंध में खोज करता है। कुछ मित्र उन्हें मेरे पास लाए थे मिलाने। बीस-पच्चीस मित्र इकट्ठे हो गए थे। आते ही उनसे बात हुई तो पहले मैंने उनसे पूछा कि आप क्या कर रहे हैं? तो उन्होंने कहा कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है।

मैंने उनसे कहा कि एक बात निवेदन करूं, अगर वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहते हैं, ऐसा कहते हैं, तो आप अवैज्ञानिक हो गए। वैज्ञानिक होने की पहली शर्त यह है कि हम कुछ सिद्ध नहीं करना चाहते, जो है उसे जानना चाहते हैं। वैज्ञानिक होना है अगर, तो आपको कहना चाहिए, हम जानना चाहते हैं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है या नहीं होता है? आप कहते हैं, मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है, तो आपने यह तो पहले ही मान लिया है कि पुनर्जन्म होता है, अब सिर्फ सिद्ध करने की बात रह गई है, सो आप उसको वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर रहे हैं। तो अवैज्ञानिक तो आप हो ही गए।

मैंने कहा, इसमें विज्ञान का नाम बीच में मत डालें व्यर्थ। वैज्ञानिक बुद्धि कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहती, जो है, उसे जानना चाहती है। और शास्त्रीय बुद्धि इसीलिए अवैज्ञानिक हो गई है कि वह कुछ सिद्ध करना चाहती है, जो है, उसे जानना नहीं चाहती। जो है, हो सकता है हमारे मानने, समझने, सोचने से बिलकुल भिन्न हो, विपरीत हो।

तो इसलिए शास्त्रीय बुद्धि का आदमी, परंपरा से बंधा, संप्रदाय से बंधा, भयभीत है, सत्य पता नहीं कैसा हो? और सत्य कोई हमारे अनुकूल ही होगा, यह जरूरी नहीं। और अनुकूल ही होता तो हम कभी के सत्य में मिल गए होते। संभावना तो यही है कि वह प्रतिकूल होगा। हम असत्य हैं, वह प्रतिकूल होगा। लेकिन हम सत्य को अपने अनुकूल ढालना चाहते हैं, और तब सत्य भी असत्य हो जाता है। सब शास्त्रीय बुद्धियां असत्य की तरफ ले जाती हैं।

तो मेरी बात न मालूम कितने तलों पर मेल नहीं खाएगी। मेल खा जाए, यही आश्चर्य है। कहीं खा जाए तो वह संयोग की बात है। न खाना बिलकुल स्वाभाविक होगा।

फिर शास्त्र से मेरी पकड़ नहीं है।

महावीर को खोजने का एक ढंग तो यह है कि महावीर के संबंध में जो परंपरा है, जो शास्त्र हैं, जो शब्द हैं, जो संगृहीत है, हम उसमें जाएं। और उस सारी परंपरा के गहरे पहाड़ को तोड़ें, खोदें और महावीर को पकड़ें कि कहां हैं महावीर। महावीर को हुए ढाई हजार साल हुए। ढाई हजार सालों में जो भी लिखा गया महावीर के संबंध में, हम उस सबसे गुजरें और महावीर तक जाएं। यह शास्त्र के द्वारा जाने का रास्ता है, जैसा कि आमतौर से जाया जाता है। लेकिन मैं मानता हूं कि इस मार्ग से कभी जाया ही नहीं जा सकता है। कभी भी नहीं जाया जा सकता। आप जहां पहुंचेंगे, उसका महावीर से कोई संबंध ही नहीं होगा। उसके कारण हैं। वे थोड़े हमें समझ लेने चाहिए।

महावीर ने जो अनुभव किया, किसी ने भी जो अनुभव किया, उसे शब्द में कहना कठिन है–पहली बात। जिसे भी कोई गहरा अनुभव हुआ है, वह शब्द की असमर्थता को एकदम तत्काल जान पाता है कि बहुत मुश्किल हो गई। परमात्मा का, सत्य का, मोक्ष का अनुभव तो बहुत गहरा अनुभव है, साधारण सा प्रेम का अनुभव भी अगर किसी व्यक्ति को हुआ हो, तो वह पाता है कि क्या कहूं, कैसे कहूं?

नहीं, शब्द में नहीं कहा जा सकता। प्रेम के संबंध में अक्सर वे लोग बातें करते रहेंगे, जिन्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ है। जो प्रेम के संबंध में बहुत आश्वासन से बातें करता हो, समझ ही लेना कि उसे प्रेम का अनुभव नहीं हुआ है। क्योंकि प्रेम के अनुभव के बाद हेजीटेशन आएगा, आश्वासन नहीं रह जाएगा। बहुत डरेगा, वह चिंतित होगा कि कैसे कहूं, क्या कहूं? कहता हूं तो गड़बड़ हो जाती है सब। जो कहना चाहता हूं, वह पीछे छूट जाता है। जो कभी सोचा भी नहीं था, वह शब्द से निकल जाता है। जितनी गहरी अनुभूति, शब्द उतने थोथे और व्यर्थ, क्योंकि शब्द हैं सतह पर निर्मित। और शब्द हैं उनके द्वारा निर्मित, जो सतह पर जीए हैं।

अब तक संतों की कोई भाषा विकसित नहीं हो सकी। जो भाषा है, वह साधारणजनों की है। और साधारणजनों की भाषा में असाधारण अनुभव को डालना ऐसा ही कठिन है, जैसे कि हम संगीत सुनें–जैसे कि हम संगीत सुनें और कोई बहरा आदमी कहे कि संगीत तो मैं सुन नहीं सकता, तो तुम संगीत को पेंट कर दो, चित्र बना दो, तो शायद थोड़ा मैं समझ सकूं। क्या किया जाए संगीत को पेंट करने के लिए? कैसे पेंट करें?

की है कोशिश लोगों ने। राग और रागिनियों को भी चित्रित किया है। लेकिन वे भी उनकी ही समझ में आ सकती हैं, जिन्होंने संगीत सुना हो, बहरे आदमी को वे भी कुछ नहीं समझ पड़तीं। वे भी समझ नहीं पड़तीं। मेघ घिर गए हैं, वर्षा की बूंदें आ गई हैं, और मोर नाचने लगे। और एक लड़की है, और उसकी साड़ी उड़ी जाती है, वह घर की तरफ भागी चली जाती है। उसके पैर के घूंघर बज रहे हैं।

अब किसी राग को किसी ने चित्रित किया है। लेकिन बहरे आदमी ने कभी आकाश के बादलों का गर्जन नहीं सुना, इसलिए चित्र में बादल बिलकुल ही शांत मालूम पड़ते हैं, उनके गर्जन का कोई सवाल ही नहीं उठता। बहरे आदमी ने कभी पैरों में बंधे घूंघर की आवाज नहीं सुनी। तो घूंघर दिख सकते हैं, पर घूंघर से क्या होगा? क्योंकि जो दिखता है घूंघर, वह घूंघर है ही नहीं।

जो दिखता है, वह दीया है; घूंघर तो कुछ और है जो घटता है। वह जो घूंघर दिखता है, वह नहीं है घूंघर। घूंघर तो कुछ और है, जो घटता है। जो दिखता है वह और है। घूंघर सुना जाता है। और जो दिखता है और सुना जाने में बड़ा फर्क है। एक चीज दिखाई पड़ रही है घूंघर, पैर में बंधे, लेकिन जिसने कभी घूंघर नहीं सुना उसे क्या दिखाई पड़ रहा है? उसे एक चीज दिखाई पड़ रही है, जिसका घूंघर से कोई संबंध नहीं।

वह चित्र बिलकुल मृत है, क्योंकि उस चित्र से ध्वनि का कोई जन्म उस आदमी को नहीं हो सकता, जिसने ध्वनि नहीं सुनी।

मगर यह भी आसान है, क्योंकि कान और आंख एक ही तल की इंद्रियां हैं। यह इतना कठिन नहीं है। है तो बिलकुल ही कठिन, लेकिन फिर भी उतना कठिन नहीं है। जब कोई व्यक्ति अतींद्रिय सत्य को जानता है, तो सभी इंद्रियां एकदम व्यर्थ हो जाती हैं और जवाब देने में असमर्थ हो जाती हैं। बोलना पड़ता है इंद्रिय से–और जो जाना गया है, वह वहां जाना गया है, जहां कोई इंद्रिय माध्यम नहीं थी। एक इंद्रिय माध्यम है जानने में तो दूसरी इंद्रिय अभिव्यक्ति में माध्यम नहीं बन पाती। और अगर इंद्रिय माध्यम ही न हो अनुभव का, तो फिर इंद्रिय कैसे अभिव्यक्ति के लिए रास्ता दे सकती है?

इसलिए जो जानता है, वह एकदम मुश्किल में पड़ जाता है। बहुत बार तो वह मौन ही हो जाता है। मौन भी बड़ी पीड़ा देता है, क्योंकि लगता है उसे कि कहूं। लगता है कि कह दूं, क्योंकि चारों तरफ वह उन लोगों को देखता है, जिनको भी यह हो सकता है। और उन्हें दुखी देखता है, और आंसुओं से भरी हुई आंखें देखता है। क्लांत चेहरे देखता है, चिंता से भरे हुए हृदय देखता है। चारों तरफ रुग्ण, विक्षिप्त मनुष्य को देखता है। और भीतर देखता है, जहां परम आनंद घटित हो गया है। और उसे लगता है कि इसे भी हो सकता है जो मेरे निकट खड़ा है। कोई कारण नहीं है, कोई बाधा नहीं है, कोई रुकावट नहीं है। तो इसे कह दूं। और कहने में शब्द एकदम असमर्थ हो जाते हैं।

तो महावीर जैसा व्यक्ति जब बोलता है तो पहला तो झूठ वहां हो जाता है, जब वह बोलता है। और जो उसने बोला, वह एक प्रतिशत भी वह नहीं है जो उसने जाना। फिर भी वह हिम्मत करता है, साहस जुटाता है, और सोचता है शायद नहीं हजार किरणें पहुंचेंगी, तो एक किरण पहुंचेगी। खबर तो पहुंच जाएगी। वह बोलता है।

अगर महावीर की ही वाणी पकड़ कर कोई महावीर की खोज करने जाए तो भी महावीर नहीं मिलेंगे। ठेठ महावीर को सुन कर ही कोई अगर महावीर की वाणी पकड़ कर खोजने जाए, तो एंगल बिलकुल बदल जाएगा। जो महावीर की वाणी को ही पकड़ कर महावीर की खोज में जाएगा, वह कहीं पहुंचेगा, जहां महावीर बिलकुल नहीं होंगे। बिलकुल चूक कर निकल जाएगा बगल से। बिलकुल ही चूक जाएगा। क्योंकि शब्द में नहीं जाना है, जो महावीर ने जाना है। वह जाना है निःशब्द में और हमने पकड़ा शब्द। अब शब्द से हम जहां जाएंगे, वह वहां नहीं ले जाने वाला, जहां निःशब्द में जानने वाला गया होगा।

और फिर पच्चीस सौ साल बाद…महावीर का शब्द जिन्होंने सुना, उनमें से जिन्होंने समझा होगा थोड़ा-बहुत, वे मौन में चले गए होंगे। जिनको थोड़ी भी समझ आई होगी और पकड़ आई होगी, और निःशब्द की झलक का जरा सा इशारा मिला होगा, वे निःशब्द में भागे होंगे। जिनकी समझ में नहीं आया होगा, वे शब्द संग्रह करने में भागे होंगे। तो महावीर के पास जो समझा होगा, वह मौन में गया होगा, जो नहीं समझा होगा, वह गणधर बन गया होगा।

अब यह बड़ा उलटा मामला है। आमतौर से हम सोचते हैं कि महावीर के पास जो गणधर हैं, वे उनके सबसे ज्यादा समझने वाले लोग हैं। इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता। महावीर के पास जो सबसे ज्यादा समझने वाला आदमी होगा, वह तो मौन में चला गया होगा। वह तो गया होगा खोजने वहां। और जो सबसे कम समझने वाला है, वह महावीर क्या बोले हैं, उसको दूसरे तक पहुंचाने की व्यवस्था करने में लग गया होगा। तो गणधर वह नहीं है…।

परिग्रही जो व्यक्ति होगा, वह सब चीज संग्रह करता है–चाहे धन संग्रह करे, चाहे शब्द संग्रह करे, चाहे यश संग्रह करे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक परिग्रह की वृत्ति है मनुष्य के भीतर कि इकट्ठा कर लो। लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं, जिनके इकट्ठे करने में कुछ थोड़ा-बहुत अर्थ भी हो सकता है। जैसे कोई धन इकट्ठा करे, तो धन इकट्ठा करने में थोड़ा अर्थ हो सकता है, क्योंकि धन परिग्रह की वृत्ति से ही पैदा हुआ है, और परिग्रह की वृत्ति का ही वाहन है, और परिग्रह की वृत्ति की ही विनिमय की मुद्रा है। यानी परिग्रही व्यक्ति का ही धन आविष्कार है। तो धन को कोई संग्रह करे तो सार्थक भी है, क्योंकि धन परिग्रह का ही माध्यम है और परिग्रह के लिए ही है। लेकिन जिस अनुभव से महावीर गुजरे हैं, वह अपरिग्रह में घटा। और उनके शब्दों को जो इकट्ठा कर रहा है, वह परिग्रही वृत्ति का व्यक्ति है।

इसलिए अक्सर ऐसा हुआ कि महावीर को उत्सुकता नहीं है शब्द संग्रह की, न बुद्ध को है, न क्राइस्ट को है। नहीं तो महावीर भी किताब लिख सकते हैं। लेकिन महावीर किताब नहीं लिखे, और कृष्ण भी किताब नहीं लिखे, और बुद्ध भी किताब नहीं लिखे, और जीसस भी किताब नहीं लिखे। सिर्फ लाओत्से ने इन असाधारण लोगों में किताब लिखी और वह भी जबरदस्ती में लिखी।

लाओत्से ने अस्सी साल की उम्र तक किताब नहीं लिखी। और लोग कहते रहे कि कुछ लिखो तो वह कहता कि जो लिखूंगा, वह झूठ हो जाएगा और जो लिखना है, वह लिखा नहीं जा सकता। इसलिए इस उपद्रव में मैं नहीं पड़ता। अस्सी साल तक बचा, लेकिन सारे मुल्क में यह भाव पैदा हो गया कि अब बूढ़ा हुआ जाता है, अब मर जाएगा और जो जानता है वह खो जाएगा। फिर लाओत्से अंतिम उम्र में पर्वतों की तरफ चला गया। उसका पता नहीं, वह कब मरा, उसका कुछ पता नहीं। वह पर्वतों में चला गया सब छोड़-छाड़ कर। उसने कहा, इसके पहले कि मृत्यु छीने, मुझे खुद ही चला जाना चाहिए। आखिर मृत्यु की प्रतीक्षा भी क्यों करनी! इतना परवश भी क्यों होना!

तो वह जब चीन की सीमा-रेखा छोड़ने लगा, तो चीन के सम्राट ने उसको रुकवा लिया अपनी चुंगी-चौकी पर, और कहा कि टैक्स चुकाए बिना नहीं जाने देंगे। तो लाओत्से ने कहा, कैसा टैक्स? न हम कोई सामान ले जाते बाहर, न कुछ लाते; अकेले जाते हैं, खाली हैं। सच तो यह है कि जिंदगी भर से खाली हैं, कुछ सामान कभी था ही नहीं जिस पर टैक्स देना पड़े। टैक्स कैसा?

सम्राट ने बहुत मजाक की उससे, और कहा कि टैक्स तो बहुत-बहुत लिए जाते हो, इतनी संपत्ति कभी कोई आदमी ले ही नहीं गया है। सब कुछ न कुछ दे जाते हैं, तुम बोलते ही नहीं हो कि क्या तुम्हारे भीतर है। वह सब चुका दो। कम से कम टैक्स दे दो, संपत्ति मत दो। कम से कम टैक्स तो दे जाओ, नहीं तो हम क्या कहेंगे कि एक आदमी के पास था और बिलकुल ले गया। बिलकुल ले गया चुपचाप। ऐसा नहीं हो सकता, हम चुंगी-चौकी के बाहर नहीं जाने देंगे।

जबरदस्ती लाओत्से को रोक लिया। वह भी हंसा, उसने कहा, बात तो शायद ठीक ही है। ले तो जाता हूं। लेकिन देने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए ले जाता हूं। और कोई…देना मैं भी चाहता हूं। अगर तुम कहते हो तो…।

तो उसने एक छोटी सी किताब लिखी है। उस तरह के असाधारण लोगों में लिखने वाला वह अकेला आदमी है। पर पहला ही वाक्य यह लिखा: कि बड़ी भूल हुई जाती है, जो कहना है, वह कहा नहीं जा सकता; और जो नहीं कहना है, वही कहा जाएगा। सत्य बोला नहीं जा सकता, जो बोला जा सकता है, वह सत्य हो नहीं सकता। बड़ी भूल हुई जाती है। और मैं इसको जान कर लिखने बैठा हूं, इसलिए जो भी आगे पढ़ो, इसको जान कर पढ़ना। जो भी आगे पढ़ो मेरी किताब में, इसे जान कर पढ़ना कि सत्य बोला नहीं जा सकता, कहा नहीं जा सकता; और जो कहा जा सकता है, वह सत्य हो नहीं सकता। दैट व्हिच कैन बी सेड, इज़ नाट दि ताओ; वह जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है। इसे पहले समझ लेना, फिर किताब पढ़ना।

तो किसी ने किताब लिखी नहीं। जिसने लिखी, उसने यह शर्त पहले लगा दी। यानी सच तो यह है कि जो समझ जाएगा, वह इसके आगे किताब पढ़ेगा ही नहीं। मामला ही यह है। लाओत्से होशियार आदमी मालूम होता है। राजा समझा कि हम चुंगी लिए ले रहे हैं, वह गलती में पड़ गया। जो समझेगा वह इसके आगे किताब पढ़ेगा नहीं। बात खतम हो गई। जो नहीं समझेगा, वह पढ़ता रहे, उससे कोई मतलब भी नहीं। तो नासमझ किताबें पढ़ रहे हैं, समझदार रुक जाते हैं।

बुद्ध, महावीर जैसे लोगों ने किताब लिखी नहीं। कारण हैं बहुत। पक्का नहीं है कि जो कहना है, वह कहा जा सकता है। फिर भी कहा। कहने का माध्यम उन्होंने चुना, लिखने का नहीं चुना। उसका भी कारण है। क्योंकि कहने का माध्यम प्रत्यक्ष है, आमने-सामने है। और मैं गया, आप गए, कि खो गया। लिखने का माध्यम स्थायी है, आमने-सामने नहीं है, परोक्ष है। न मैं रहूंगा, न आप रहेंगे, वह रहेगा। वह हमसे स्वतंत्र होकर रह जाएगा।

कहने में भूल होती है, लेकिन फिर भी सामने है आदमी। अगर मैं कुछ कह रहा हूं तो आप मुझे देख रहे हैं, मेरी आंख को देख रहे हैं। मेरी तड़प, मेरी पीड़ा को भी देख रहे हैं। मेरी मुसीबत भी देख रहे हैं कि कुछ है, जो कि नहीं कहा जा सकता, तो हो सकता है आप थोड़ा समझ जाएं। लेकिन एक किताब है। फिर तो न आंख है, न तड़प है, न पीड़ा है। सब साफ-सुथरा, सीधा है। फिर किताब बचती है।

इनमें से किसी ने भी यह फिक्र नहीं की कि बचे। इन सबकी फिक्र यह थी कि कह दें तो बात खतम हो जाए। इससे ज्यादा उसको बचाना नहीं है। लेकिन बचा ली गई। बचाने वाले लोग खड़े हो गए। उन्होंने कहा, इसको बचाना होगा, बड़ी कीमती चीज है, इसको बचा लो।

उन्होंने बचाने की कोशिश की। फिर उनकी बचाई गई किताब पर किताबें चलती आईं। उनकी बचाई गई किताब पर टीकाएं, टीकाएं होती रहीं। और वह बचाना भी महावीर के ठीक सामने नहीं हो सका। उसका कारण है कि शायद महावीर ने इनकार किया होगा, बुद्ध ने इनकार किया होगा कि यह सामने न हो। लिखना मत! तो तीनत्तीन सौ, चार-चार सौ, पांच-पांच सौ वर्ष बाद हुआ। यानी जो लिखा गया है, वह भी सुन कर नहीं लिखा गया है। किसी ने सुना है, फिर किसी ने किसी से कहा है, ऐसे दो-चार पीढ़ी बीत गई हैं, और कहते-कहते-कहते वह लिखा गया है।

तो महावीर ही असमर्थ हैं कहने में। फिर उनको सुनने वाले ने किसी से कहा है, फिर उसने किसी से कहा है, फिर उसने किसी से कहा है, फिर दो-चार-पांच पीढ़ियों के बाद वह लिखा गया। फिर उस लिखे पर टीकाएं चल रही हैं, विवाद चल रहे हैं। वे हमारे पास शास्त्र हैं अब। अगर इन शास्त्रों से–किसी को महावीर से चूकना हो, तो इससे सुगम उपाय नहीं है, इन शास्त्रों में चला जाए। बस वह महावीर पर नहीं पहुंच सकेगा।

तो मैं कोई शास्त्रों से महावीर तक पहुंचने की न तो सलाह देता हूं, और न मैं उस रास्ते से उन तक गया हूं, और न मानता हूं कि कोई कभी जा सकता है। तो मैं बिलकुल ही अशास्त्रीय व्यक्ति हूं। अशास्त्रीय भी कहना ठीक नहीं, एकदम शास्त्र-विरोधी।

फिर महावीर पर पहुंचने का क्या रास्ता है? शास्त्रीय रास्ता दिखाई पड़ता है, इसलिए साधु-संन्यासी शास्त्र खोले हुए खोज रहे हैं कि खोज लें महावीर को। और क्या रास्ता है? और क्या मार्ग है? और अगर सारे शास्त्र खो जाएं, तो साधु-संन्यासियों और पंडितों के हिसाब से महावीर खो जाएंगे। क्या बचाव है? अगर सारे शास्त्र खो जाएं, तो महावीर का क्या बचाव है? महावीर खो जाएंगे।

लेकिन क्या सत्य का अनुभव खो सकता है? क्या यह संभव है कि महावीर जैसी अनुभूति घटे और अस्तित्व के किसी कोने में सुरक्षित न रह जाए? क्या यह संभव है कि कृष्ण जैसा आदमी पैदा हो और सिर्फ आदमी की लिखी किताबों में उसकी सुरक्षा हो? और अगर किताबें खो जाएं तो कृष्ण खो जाएं?

अगर ऐसा है, तो न कृष्ण का कोई मूल्य है, न महावीर का कोई मूल्य है। आदमी के रिकार्ड ही अगर, क्लर्कों के रिकार्ड, गणधरों के रिकार्ड ही अगर सब कुछ हैं, तो ठीक है, किताबें खो जाएंगी और ये आदमी खो जाएंगे।

इतना सस्ता नहीं है यह मामला। इतनी बड़ी घटनाएं घटें जिंदगी में, अरबों-खरबों वर्ष में अरबों-खरबों लोगों के बीच कभी कोई एक आदमी परम सत्य को उपलब्ध होता हो, तो इसके परम सत्य के उपलब्ध होने की घटना सिर्फ कमजोर आदमियों की कमजोर भाषा में सुरक्षित रहे और अस्तित्व में इसकी सुरक्षा का कोई उपाय न हो, ऐसा नहीं है। ऐसा हो भी नहीं सकता।

इसलिए एक और उपाय है। यानी मेरा कहना यह है कि जगत में जो भी महत्वपूर्ण घटता है, महत्वपूर्ण तो बहुत दूर की बात, साधारण गैर-महत्वपूर्ण घटता है, वह भी किन्हीं तलों पर सुरक्षित होता है। महत्वपूर्ण तो सुरक्षित होता ही है, वह तो कभी नष्ट नहीं होता।

इसलिए जो भी महत्वपूर्ण घटा है जगत में कभी भी, वह मनुष्य पर नहीं छोड़ दिया गया है कि आप उसे सुरक्षित करें। यह तो ऐसे ही होगा कि अंधों के एक समाज में एक आदमी को आंख मिल जाए, और उसे प्रकाश दिखाई पड़े, और अंधों के ऊपर निर्भर हो कि तुम उसके अनुभव को सुरक्षित रखना। अंधों पर छूटे यह बात कि तुम्हारे बीच जो एक आंख वाला आदमी पैदा हुआ था, उसे जो अनुभव हुआ, तुम उसे सुरक्षित रखना–तुम वेद बनाना, तुम आगम रचना, तुम गीता लिखना, तुम सुरक्षित रखना। तुम बाइबिल बनाना, तुम सुरक्षित रख लेना।

और अंधे सुरक्षित रख लें। और फिर अंधों पर अंधों की कमेंट्रीज होती चली जाएं, टीकाएं होती चली जाएं। और हजार, दो हजार साल बाद आंख वाले आदमी की देखी गई बात अंधों के द्वारा सुरक्षित की गई हो और अंधों के द्वारा व्याख्याएं की गई हों। और फिर उनके द्वारा हम आंख वाले आदमी की बात को खोजने निकलें, तो हमसे ज्यादा मूढ़ कोई दूसरा नहीं होगा।

तो मैं यह कहना चाहता हूं कि अस्तित्व में कुछ भी खोता नहीं। सच तो यह है कि अभी भी मैं जो बोल रहा हूं, यह कभी खोएगा नहीं। आप भी जो बोल रहे हैं, वह भी नहीं खोएगा। जो शब्द एक बार पैदा हो गया है, वह तक नहीं खोएगा कभी।

आज हम जानते हैं, लंदन में कोई बोल रहा है, तो रेडियो से हम यहां श्रीनगर में उसे सुनते हैं। आज से दो सौ वर्ष पहले नहीं सुन सकते थे। और दो सौ वर्ष पहले कोई मान भी नहीं सकता था कि यह कभी भी संभव होगा कि लंदन में कोई बोलेगा और श्रीनगर में कोई सुनेगा। कोई नहीं मान सकता था। लेकिन क्या आप समझते हैं कि उस दिन लंदन में जो बोला जा रहा था, वह श्रीनगर में नहीं सुना जा रहा था? यानी मेरा मतलब यह है कि उस दिन जो भी ध्वनित्तरंगें लंदन में बोलने से पैदा हो रही थीं, वे श्रीनगर की इस डल झील के पास से नहीं गुजरती थीं?

अगर नहीं गुजरती होतीं तो आज आप रेडियो में भी कैसे पकड़ लेते? अभी भी, यहां से भी गुजर रही हैं सब तरंगें। सारे जगत में अभी जो बोला जा रहा है, वह भी आपके पास से गुजर रहा है। सिर्फ डिवाइस, सिर्फ एक यांत्रिक तरकीब की जरूरत है, जिससे वह पकड़ा जा सके, बस। यानी मेरा कहना यह है कि कृष्ण ने अगर कभी भी बोला है, तो आज भी उसकी ध्वनित्तरंगें किन्हीं तारों के निकट से गुजर रही हैं।

यह भी ध्यान रहे कि लंदन में जो बोला गया है, ठीक आप उसी वक्त नहीं सुन लेते हैं उसे। क्योंकि ध्वनित्तरंगों को आने में समय लगता है। तो जब लंदन में बोला जाता है, तब आप नहीं सुनते हैं, थोड़ी देर बाद सुनते हैं; ठीक उसी वक्त नहीं सुन लेते हैं, थोड़ी देर बाद सुनते हैं। मतलब यह हुआ कि उतनी देर ध्वनित्तरंगें आप तक यात्रा करती हैं।

जो कभी भी बोला गया है, उसकी ध्वनित्तरंगें आज भी यात्रा करते हुए किन्हीं तारों के पास से गुजर रही हैं। और अगर उन तारों के लोगों के पास व्यवस्था होगी यंत्रों की तो वे उन्हें पकड़ लेते होंगे। यानी किसी तारे पर आज भी महावीर के वचन सुने जा सकते हैं, सुने जा रहे होंगे।

इसका क्या मतलब हुआ? इसके और मतलब हुए। इसका मतलब यह हुआ कि इस अनंत आकाश में–अनंत है इसीलिए कुछ नहीं खोता–जो भी पैदा होता है, वह यात्रा करता रहता है।

यह मैं ध्वनि की बात कर रहा हूं, लेकिन और सूक्ष्म तरंगें हैं, जहां अनुभूति की तरंगें शेष रहती हैं। जब हम बोलते हैं, तब ध्वनि की तरंग पैदा होती है, लेकिन जब हम अनुभव करते हैं, तब भी एक घटना घटती है और तरंगें पैदा होती हैं, जो कि और भी सूक्ष्म आकाश में यात्रा करती हैं। तो अगर रेडियो हो सके तो हम आकाश–स्थूल आकाश में घूमती हुई ध्वनित्तरंगों को पकड़ लेते हैं। अगर और कोई व्यवस्था आंतरिक हो सके तो और सूक्ष्म आकाश में हुए अनुभवों की तरंगों को पुनः पकड़ा जा सकता है। यानी इसका मतलब यह हुआ कि मैं यह कह रहा हूं कि जगत में जो भी श्रेष्ठतम अनुभव हुए हैं, जितने गहरे अनुभव हुए हैं, उतने गहरे आकाश के तल पर उनके रिकार्ड सदा सुरक्षित हैं। वे कभी विनष्ट नहीं होते। और आदमियों पर नहीं छोड़ गया है कि वे किताबें लिख कर उनको सुरक्षित कर लें।

इसका मतलब यह हुआ कि अगर हम उन गहराइयों में अपने भीतर उतरें, यदि हम विशिष्ट ध्यान रख कर उतरें, तो हम विशिष्ट व्यक्तियों की अनुभूति से तत्काल प्रत्यक्ष संबंध जोड़ सकते हैं। लेकिन अगर हम कोई विशिष्ट व्यक्ति का ध्यान रख कर न उतरें, तो हम अपनी ही अंतर-अनुभूति में उतर जाते हैं। अपने भीतर गहरे उतरने वाला व्यक्ति उन टयूनिंग्स की भी व्यवस्था कर सकता है, जहां वह महावीर, या बुद्ध, या जीसस, या कृष्ण से संयुक्त हो जाए।

संयुक्त होने का मतलब यह नहीं है कि कृष्ण कहीं बैठे हैं, जिनसे संयोग हो जाएगा। वह दीया तो टूट गया, और वह ज्योति भी खो गई। लेकिन उस ज्योति ने जो अनुभव किया था, उस अनुभव की सूक्ष्म तरंगें अस्तित्व की गहराइयों में आज भी सुरक्षित हैं। और उतनी गहराइयों पर आप उतरें–विशिष्ट ध्यान लेकर।

अगर महावीर का पूर्ण ध्यान लेकर आप उस गहराई पर उतरे हैं तो आपके लिए वे द्वार खुल जाते हैं जहां महावीर की अनुभूतियों की सूक्ष्म तरंगें आपको उपलब्ध हो जाएं। और जब भी दुनिया में कभी इस तरह के अनुभवों से जुड़ा जाता है, तो और कोई जुड़ने का रास्ता नहीं है। इसलिए सब आदमी की किताबें खो जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।

एक द्वीप था, महाद्वीप–अटलांटिस। लंबा समय हुआ, वह डूब गया सागर में। अब वह पृथ्वी पर नहीं है। कभी था। और उसका कोई रिकार्ड शेष नहीं रह गया, क्योंकि रिकार्ड भी डूब गए उस द्वीप के साथ। जैसे कि एशिया डूब जाए–पूरा का पूरा एशिया। परिवर्तन हो और सागर हावी हो जाए, एशिया पूरा डूब जाए। और एशिया के सारे रिकार्ड भी उसके साथ डूब जाएं। और आज तो यह भी है कि एशिया के कुछ रिकार्ड लंदन में भी हैं और न्यूयार्क में भी हैं, जो बच जाएं। उस दिन तो यह भी संभव नहीं था। उस दिन तो हमें पता ही नहीं था दूसरे कुछ का।

अटलांटिस नाम का एक महाद्वीप पूरा का पूरा डूब गया, कई करोड़ वर्ष पहले। लेकिन कुछ लोग जो गहराइयों में उतरते रहे, वे निरंतर इसकी खबर देते रहे कि एक महाद्वीप पूरा का पूरा डूब गया है। और वे इसका रिकार्ड करते चले गए। इसके कोई रिकार्ड नहीं बचे, लेकिन इजिप्त के कुछ फकीरों ने, तिब्बत के कुछ साधकों ने, इसके रिकार्ड्स, इस बात के रिकार्ड कि एक पूरा का पूरा महाद्वीप डूब गया है, यह मेरे अनुभव में आता है। बहुत पहले डूब गया है। और इसकी, कुछ आंतरिक खोज करने वाले लोग इसकी निरंतर खोज में लगे रहे कि वह कैसा द्वीप था? कैसे लोग थे? कैसी उनकी व्यवस्था थी?

और आप जान कर हैरान होंगे कि कुछ लोगों ने निरंतर मेहनत करके, सिर्फ अंतर-अनुभव से, उस महाद्वीप के सारे के सारे नक्शे वापस निर्मित किए। अगर यह एक आदमी ने नक्शे निर्मित किए–उस जाति के लोगों के चेहरे, उस जाति का धर्म, उस जाति की मान्यताएं, खयाल, अनुभूतियां, इन पर सारा का सारा इंतजाम किया–अगर एक व्यक्ति करे तो बड़ा मुश्किल था, क्योंकि इसका पक्का कैसे माना जाए कि यह आदमी कल्पना नहीं कर रहा है? कल्पना कर सकता है। लेकिन अलग-अलग लोगों ने इसके प्रयोग किए और निकटतम सहमतियों पर पहुंच गए कि वह नक्शा ऐसा होगा। और धीरे-धीरे इन लोगों के दबाव में…।

वैज्ञानिक तो पहले बिलकुल इनकार किए कि यह कभी हो ही नहीं सकता, क्योंकि इसका कोई रिकार्ड ही नहीं। ऐसा कोई द्वीप कभी रहा नहीं–महाद्वीप। इसका कोई हिसाब ही नहीं है कहीं भी। लेकिन ये लोग अपना काम करते चले गए और इन लोगों के दबाव में अंततः वैज्ञानिकों को भी चिंतना पड़ी कि कुछ हो सकता है। और इसकी खोज-बीन वैज्ञानिक ढंगों से की गई और पता चला कि ऐसा एक महाद्वीप निश्चित ही डूबा और वह आज भी समुद्र के तल में पड़ा हुआ है। और जहां इन मिस्टिक्स ने कहा था कि वह है, वह करीब-करीब वहां है। और उसके ऊपर बड़ी गहराई की पानी की पर्तें हैं। और इन्होंने जो कहा था कि उसमें इस तरह के पहाड़ होने चाहिए, इन-इन रेखाओं पर, वहां पहाड़ भी हैं। इसका भी वैज्ञानिक अनुसंधान चला। और अब अटलांटिस पर बड़ी खोज चलती है कि क्या वहां से कुछ उपलब्ध हो सकेगा?

लेकिन इसकी पहली खबर देने वाले वे लोग थे, जिनके पास कोई…कोई मतलब न था, और उनकी बात ही बिलकुल झूठ समझी गई। वह जो अटलांटिक महासागर है, उसके नीचे अटलांटिस डूबा हुआ है।

यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं आपको यह खयाल दिला सकूं कि मेरा कोई रास्ता शास्त्र के मार्ग से बिलकुल नहीं है। और मेरी यह भी समझ है कि उस मार्ग से कोई मार्ग भी नहीं है कभी। इसलिए जो भी लोग उस मार्ग पर पड़ गए हैं, वे सिर्फ भटकाने वाले सिद्ध हुए हैं, वे कहीं ले जाने वाले सिद्ध नहीं हुए। सरल वही है। किताब पढ़ने से ज्यादा सरल और क्या हो सकता है! हालांकि कुछ लोगों के लिए वह भी कठिन है। किताब पढ़ने से ज्यादा सरल बात और क्या हो सकती है! लेकिन आकाशिक रिकार्ड्स, जिनकी मैं बात कर रहा हूं, कि अस्तित्व की गहराइयों में अनुभूतियां सुरक्षित रह जाती हैं, वहां से उन्हें वापस पकड़ा जा सकता है, और वहां से उनसे पुनः जीवन-संबंध स्थापित किए जा सकते हैं।

तो मैं यह जो चर्चा करूंगा इधर, उसका शास्त्रों से आप तालमेल खोजने की कोशिश में ही मत पड़ना, उससे कोई संबंध नहीं है। किसी और द्वार से ही मैं चेष्टा करता हूं। उस चेष्टा में जो कुछ मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं आपसे कहता चलूंगा। और इसलिए जब तक कोई और लोग मेरे साथ उस प्रयोग को करने को राजी न हों, तब तक मेरी बात अथारिटेटिव है या नहीं, कुछ निर्णय नहीं हो सकता। उसके निर्णय का कोई उपाय ही नहीं है दूसरा, जब तक कि कुछ लोग इस बात के लिए राजी न हों कि वे मेरे साथ प्रयोग करने को राजी हो जाएं। और तब मैं लिख कर रख दूं कि तुम्हें यह अनुभव होगा, और उन्हें हो जाए, तो फिर कुछ बात बने।

तो उसी आशा में यह सारी बात मैं करूंगा कि कुछ लोग निकल आएं शायद। विवाद का तो इसमें उपाय ही नहीं है कुछ। क्योंकि विवाद किससे करना है? लेकिन हो सकता है कुछ लोग इस प्रेरणा से भर जाएं और हिम्मत जुटाएं, तो आविष्कार हो सकता है। और तभी कोई तौल हो सकती है, जो मैं कह रहा हूं वह कहां तक, कितने दूर तक क्या अर्थ रखता है। अब इसमें इतने उलटे मामले आ जाएंगे और आपके पास कोई उपाय नहीं होगा कि क्या करें!

पश्चिम में एक फकीर था अभी, गुरजिएफ। सारी ईसाइयत का इतिहास यह कहता है कि जुदास ने जीसस को मरवाया, जुदास ने जीसस को तीस रुपयों में बेचा, और जुदास जीसस का दुश्मन है। क्योंकि जुदास…जो आदमी मरवा दे, वह दुश्मन तो है।

प्रश्न: शिष्य नहीं था वह?

शिष्य था, लेकिन दगाबाज था। बिट्रे किया, धोखा दिया, और जीसस को बिकवा दिया और जीसस को सूली उसी वजह से लगी। उसने ही पकड़वाया रात को आकर। जीसस रात में ठहरे हुए हैं और जुदास लाया है दुश्मन के सिपाहियों को और जीसस को पकड़वा दिया है। तो जुदास से ज्यादा गंदा नाम ईसाइयत के इतिहास में दूसरा नहीं है। यानी किसी आदमी को गाली देनी हो तो जुदास कह दो। तो इससे बड़ी कोई गाली नहीं है। जीसस को फांसी लगवाने से बड़ा और बुरा हो भी क्या सकता है?

लेकिन गुरजिएफ पहला आदमी है, जिसने कहा, यह बात सरासर झूठी है। जुदास दुश्मन नहीं है, जीसस का दोस्त है। और पकड़वाने में जीसस का षडयंत्र है, जुदास का नहीं। यानी जीसस चाहते हैं कि पकड़े जाएं और सूली पर लटकाए जाएं। और जुदास उनका सेवक है। और इतना बड़ा सेवक है कि जब जीसस उसे कहते हैं कि तू मुझे पकड़वा, तो उनके बाकी शिष्यों की किसी की हिम्मत नहीं है इस काम को करवाने की। लेकिन जुदास तो सेवक है, वह कहता है: आपकी आज्ञा! जुदास जीसस को पकड़वा देता है।

तो गुरजिएफ ने सबसे पहले यह कहा कि मैं उन गहराइयों से इस बात की खोज, आपको खबर देता हूं कि जुदास दुश्मन नहीं है और जुदास जैसा मित्र पाना मुश्किल है कि जो कि मरवाने तक की आज्ञा को मानने को चुपचाप शिरोधार्य कर ले और चला जाए। इसीलिए…सारी ईसाइयत कहती है कि जुदास के पैर पड़े ईसा ने, पकड़े जाने के पहले। ईसाइयत कहती है, कितना अदभुत था जीसस कि जो पकड़वा रहा था, उसके पैर छुए, पैर धोए।

गुरजिएफ कहता है कि पैर पड़ने योग्य था आदमी जुदास। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है कि जिसने इसमें भी इनकार न किया–जब जीसस ने कहा कि तू मुझे पकड़वा दे और मेरी फांसी लगवानी जरूरी है। अगर मेरी फांसी नहीं लगती तो जो मैं कह रहा हूं, वह खो जाएगा। मेरी फांसी लगती है तो सील-मोहर हो जाएगी। और मेरी फांसी ही अब मेरा काम कर सकती है और कोई उपाय नहीं है। तो तू मुझे फांसी लगवा दे।

फांसी से बचाने वाले मित्र खोजना आसान है, फांसी लगवाने वाला मित्र खोजना बहुत मुश्किल है। लेकिन जब गुरजिएफ ने पहली दफा यह बात कही, तो यह बड़ी मुश्किल का मामला हो गया। और सारी ईसाइयत ने बड़ा विरोध किया कि यह क्या बकवास है? यह तुम क्या कहते हो? यह तो हमारा सब हिसाब पलट गया। यह तो बात ही ठीक नहीं है। लेकिन एक आदमी हिम्मत जुटा कर नहीं आया कि आकर कोशिश करता कि यह आदमी कहता कहां से है। लेकिन मैंने प्रयोग किए और मैं हैरान हुआ कि वह ठीक कहता है: जुदास दुश्मन नहीं है, जुदास ही दोस्त है। वह फकीर ठीक कहता है, वह गलत कहता ही नहीं बिलकुल। मगर बड़ी मुश्किल से खोज पाया होगा, क्योंकि सारा का सारा…।

तो मेरा कहना है कि शास्त्र खोज का रास्ता तो है ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ी रुकावट है, क्योंकि माइंड को ऐसी बातों से भर देता है जो कि हो सकता है नहीं भी हों। और तब उनसे नीचे उतरना, उनके विपरीत जाना, भिन्न जाना ही मुश्किल हो जाता है। एकदम मुश्किल हो जाता है।

और महावीर के संबंध में तो बहुत ज्यादा हुई है यह बात। हद की है, जिसका हिसाब लगाना ही मुश्किल है। बहुत ही हद की है।

गुरजिएफ ने यह जो…तो इसको उसने नाम दिया क्राइस्ट ड्रामा। उसने कहा कि यह सूली-वूली सब खेल है। यह सूली बिलकुल खेल है और नाटक है पूरा रचा हुआ, जिसमें जीसस ने इस खयाल पर अपने मित्र को राजी कर लिया है और अपने आस-पास की हवा को कि जो मैं कह रहा हूं, अब अगर उसे तुम्हें बहुत दूर तक पहुंचाना हो उसकी खबर, तो मेरी फांसी लगवा देना जरूरी है, नहीं तो यह बात खो जाएगी। मेरी फांसी ही मूल्यवान बनेगी।

इसलिए क्रास मूल्यवान बन गया। क्रास का मूल्य, जीसस से ज्यादा मूल्यवान क्रास हो गया।

ये जो…इस तरह की बहुत सी बातें हैं, जो बहुत ही मुश्किल में डालेंगी। लेकिन उनके संबंध में विवाद करने का कोई उपाय नहीं है, उनके संबंध में प्रयोग करने का ही उपाय है। इधर इन दिनों में बहुत बात होगी, जो शायद आपको पहली दफे ही खयाल में आए, पहली दफे ही सुनें आप।

लेकिन इस कारण न तो मैं कहता हूं कि मान लेना कि मैंने कही, और न कहता हूं कि इसलिए इनकार कर देना कि पहली दफे किसी ने कही। अगर सच में ही प्रेम हो तो खोज पर निकलना। उस खोज के मार्ग की भी हम बात करेंगे कि वह कैसे खोज में हम जा सकते हैं। और फिर जो भी प्रश्न इसमें उठते चले जाएंगे, वे सब प्रश्न ले लेंगे।

इस मौके का उपयोग, आप गहरे भी जाएं, भीतर जाएं, उसके लिए भी करना चाहिए। और जो बातें भी मैं कहूंगा, वे बातें भी, आप थोड़े गहरे चलते हैं तो ही आपको साफ भी दिखाई पड़ेंगी, कि मैं कह क्या रहा हूं! यानी किन दृश्यों की बात कर रहा हूं, और किन गहराइयों की बात कर रहा हूं, किस आकाश की बात कर रहा हूं, वह आपको भी थोड़ी सी उसकी कुछ झलक भी मिले, तो ही जो मैं कह रहा हूं वह भी ठीक से समझ में आ सकता है।

इसलिए जब यहां हैं ही इस मौके पर, तो इस शांत और एकांत का तो पूरा उपयोग कर लेना चाहिए। तो मैंने सोचा ही ऐसा है कि आपको अभी मैं डीप मेडिटेशन के लिए, गहरे ध्यान के लिए कुछ सुझाव दे दूं, जिनका आप शेष समय में भी उपयोग करें, और एक घंटे के लिए कहीं भी–पहाड़ के पास, बगिया में, झील पर–एक घंटा बैठ कर भी उपयोग करें।

और दोपहर को, एक घंटे के लिए, आपको मैं व्यक्तिगत समय दूंगा। एक-एक व्यक्ति को कुछ भी उस संबंध में पूछना हो सिर्फ–और किसी संबंध में नहीं–उस संबंध में पूछना हो, उसका कुछ व्यक्तिगत उलझाव हो, अड़चन हो, तो वह उस वक्त बात कर ले। और जितना उसे वक्त चाहिए, उतना बात कर ले, नहीं तो हमेशा अतृप्ति रह जाती है वह।

तो जरूरी नहीं है कि रोज ही सबको वक्त मिल जाए। कल एक-दो, तीन-चार, जितने बात कर सकें, उतने कर लें, और फिर दूसरे बात कर लेंगे। और इतने, दस-पंद्रह दिन का साथ है, तो सबका हो सकेगा। तो दस मिनट, पंद्रह मिनट, जितना जिसको लगे, वह अपना पूरा सुलझाव ले ले।

गहरे ध्यान की पहली जरूरत तो यह है कि उसका स्मरण जितने ज्यादा समय तक रह सके, उतना ही गहरा हो सकता है। तो एक सरल सी प्रक्रिया पर रोज दिन भर खयाल रखें। चलते, उठते, बैठते, सोते, जब तक खयाल रहे श्वास पर खयाल रखें, पूरे वक्त। स्मृति श्वास पर रहे। श्वास भीतर जा रही है तो हमारी स्मृति भी उसके साथ भीतर जाए–बोध भी, कांशसनेस भी–कि श्वास भीतर गई। श्वास बाहर जा रही है तो बोध भी श्वास के साथ बाहर जाए। आप श्वास पर ही तैरने लगें। श्वास पर ही चेतना की नाव को लगा दें। बाहर जाए तो बाहर, भीतर जाए तो भीतर। श्वास के साथ ही आपका भी कंपन होने लगे। और इसे बिलकुल न भूलें कभी। जब भी भूल जाएं, और जैसे ही याद आए, फौरन फिर शुरू कर दें। घूमने गए हैं, बगीचे में गए हैं–कहीं भी गए हैं, कार में बैठे हैं, तो इसको नहीं छोड़ देना है। इसको सतत ही स्मरण रखें।

तो एक तीन-चार दिन में वह स्मरण टिकने लगेगा। और जैसे-जैसे स्मरण टिकेगा, वैसे-वैसे ही आपका चित्त शांत होने लगेगा। ऐसी शांति जो आपने कभी नहीं जानी होगी। क्योंकि जब चित्त पूरा श्वास के साथ चलता है तो विचार अपने आप बंद होने लगते हैं। विचार का उपाय ही नहीं रहता, क्योंकि दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। श्वास पर चित्त होगा तो विचार बंद होंगे, और विचार पर चित्त जाएगा तो श्वास पर चित्त नहीं रह जाएगा। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं, ये असंभव हैं। इसीलिए श्वास पर ध्यान रखने को कह रहा हूं, ताकि विचार वहां से खो जाएं।

और विचार सीधे हटाने हों तो बहुत कठिन है, क्योंकि वह सप्रेशन हो जाता है। यहां हम हटा नहीं रहे विचारों को, विचारों से कोई संबंध ही नहीं। हम तो अपनी पूरी चेतना को दूसरी जगह लिए जा रहे हैं। और चूंकि चेतना वहां नहीं होती जहां विचार हैं, इसलिए उनको हट जाना पड़ता है। यानी हम किसी आदमी को यह नहीं कह रहे हैं कि तुम इस कमरे को छोड़ो, यह कमरा ठीक नहीं है, तुम भागो यहां से, और उस आदमी को यह कमरा अच्छा लग रहा है। नहीं, हम उसको यह कह रहे हैं कि बाहर बगिया है, बड़े अच्छे फूल लगे हैं, आते हो क्या? हम उससे कमरा छोड़ने की बात ही नहीं कर रहे। कह रहे हैं, बाहर फूल हैं, बगिया है, सूरज निकला है, आते हो क्या? हम बाहर आने का निमंत्रण दे रहे हैं, कमरा छोड़ने का आग्रह नहीं कर रहे। बाहर आएगा तो कमरा छूट जाएगा, इसलिए कमरे की हमें चिंता नहीं करनी है।

तो विचार छोड़ने का खयाल ही नहीं करना है, श्वास पर ध्यान चला जाए तो विचार छूट जाते हैं। क्योंकि श्वास बिलकुल दूसरा तल है, जहां विचार नहीं है। और विचार एक दूसरा तल है, जहां श्वास का स्मरण नहीं हो सकता। तो ये बिलकुल ही अपोजिट प्रक्रियाएं हैं। तो अगर एक पर ले जाते हैं तो दूसरे से अपने आप मुक्ति हो जाती है।

तो पूरे समय, ऐसा नहीं कि कभी थोड़ी-बहुत देर। तब फिर गहरा नहीं हो पाएगा। पूरे समय! सुबह उठें तो पहला स्मरण श्वास का। रात सोएं तो अंतिम स्मरण श्वास का। तो अपने आप आपका बोलना कम हो जाएगा। विचार तो कम होंगे ही, बोलना कम हो जाएगा। क्योंकि जब आप बोलेंगे, आपका ध्यान श्वास से हट जाएगा फौरन।

इसलिए मैं मौन रखने को भी नहीं कहता, क्योंकि वे दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकतीं, आप बोले कि श्वास से ध्यान गया। श्वास पर ध्यान रखना है तो बोलना बंद करना होता है। अपने आप हो जाता है। तो कम बोलना पड़ेगा। बहुत कम बोलिए।

नहीं तो अक्सर होता क्या है, इतनी शांत जगह में भी आकर हम जब बातें करते हैं, तो शांत जगह बेमानी हो जाती है। और शांति का जो इंपैक्ट है, वह हममें प्रवेश ही नहीं कर पाता। वह बातों की जो हम दीवाल खड़ी रखते हैं। जैसे कि आप बैठ कर यहां अगर कमरे में बात करने लगे, तो आप भूल जाएंगे कि आप श्रीनगर में हैं, कि इधर डल लेक है, कि पहाड़ी है–सब गया। वह जो बातों का तल है, वह आपको सब भुला देगा। तो जैसे आप बंबई में होते, दिल्ली में होते, वही हो जाएगा, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।

तो बातचीत से बचें और ध्यान उस पर ले जाएं। बातचीत अपने आप क्षीण हो जाएगी। यानी मैं चाहता हूं कि पंद्रह दिन में धीरे-धीरे ऐसा हो जाए कि बातचीत न ही हो जाए। बिलकुल जरूरी है, एसेंशियल है, जैसे कि पानी चाहिए, ऐसी बातचीत रह जाए। अकारण, व्यर्थ, फिजूल बातचीत न रह जाए। तो उसका ध्यान रखें। तो ही गहरा होगा। तो मौन अपने आप!

मौन भी दमन नहीं, कि बोलना ही नहीं है, ऐसा नहीं कह रहा हूं। बोलें, लेकिन बोलना एसेंशियल जो हो वही, जो जरूरत का है, काम का पड़ गया है, उतना; बाकी चुप। और चुप इसलिए कि ध्यान श्वास पर रखना है।

थोड़ा एकांत में भी जाएं, जब भी मौका मिल जाए। साथ मत ले जाएं किसी को, क्योंकि जब दूसरा साथ होता है, तो ध्यान दूसरे पर होता है। बड़ी सूक्ष्मता से अगर खयाल करेंगे, जब भी दूसरा मौजूद हो तो आप उसको भूल नहीं सकते। इस कमरे में आप अकेले बैठे हैं और इस कमरे में एक आदमी को और लाकर बिठाल दिया और आपसे कहा, आपको कोई मतलब नहीं, आपको जो करना है करिए। आप चाहे किताब पढ़ो और चाहे आप कुछ भी करो, वह आदमी यहां मौजूद है, यह आप भूल नहीं सकते। और आपकी चेतना सतत उसके होश से भरी रहेगी। और अगर आप भूल जाओ तो वह भी बुरा मानता है। पत्नी के साथ हो और आप भूल गए हो तो पत्नी भारी बुरा मानती है। पति को अगर पत्नी भूल गई तो पति बुरा मानता है।

असल में हम बुरा ही तब मानते हैं, जब दूसरा हमें भूलता है, उसी सेकेंड में बुरा मानते हैं। क्योंकि हमारी पूरी आकांक्षा, दूसरे की अटेंशन हम पर हो, यह बनी रहती है। और जिसको हम प्रेम वगैरह कहते हैं, मित्रता वगैरह कहते हैं, वह कुछ नहीं है, वह एक-दूसरे पर अटेंशन देने का एक-दूसरे को सुख है, और कुछ भी नहीं। दूसरा मुझे याद रखे हुए है। उसके कारण हैं बहुत गहरे। कारण यह है कि हमको अपना तो कोई स्मरण नहीं है। तो हम अपने अस्तित्व को दूसरे को स्मरण करा कर ही अनुभव कर पाते हैं, और कोई उपाय नहीं है। अगर दूसरा भूल गया तो हम गए।

समझ लीजिए कि आप यहां हैं और आपको बाकी सब मित्र भूल गए, तो आपके होने में क्या रह गया? आप गए। आपका अस्तित्व ही खतम हो गया। आप हो ही नहीं फिर। समझ लें कि पंद्रह दिन यहां हैं और दीपचंद को सारे लोग भूल गए। दीपचंद कहीं जाता है, कोई देखता ही नहीं, कोई नमस्कार नहीं करता, कोई कहता नहीं कहो, कैसे हो? कोई नहीं पूछता, कोई फिकर नहीं करता, कोई देखता ही नहीं उसकी तरफ, कोई ध्यान ही नहीं देता। दीपचंद एकदम मिट गए। क्योंकि दीपचंद अपने भीतर तो कुछ हैं नहीं। एक अटेंशन का ही जोर है, जो कुछ हैं। इसलिए जो अटेंशन देता है, वह प्यारा मालूम पड़ता है। जो नहीं देता, वह दुश्मन मालूम पड़ता है। जो मुंह फेर लेता है, वह दुश्मन है। जो पास आ जाता है, वह मित्र है। और हमारी सारी रिलेशनशिप उसी पर खड़ी है–पति-पत्नी की, प्रेमी-प्रेयसी की, मित्र की, इसकी-उसकी, बाप-बेटे की–सब उसी पर खड़ी है, अटेंशन दो। अगर बाप को लगता है कि बेटा अटेंशन नहीं दे रहा, उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा, तो सब गड़बड़ हो गया। बेटे को लगा कि बाप अटेंशन नहीं दे रहा, तो सब गड़बड़ हो गया।

लोग बीमार पड़ते हैं इसलिए कि दूसरा ध्यान दे। क्योंकि अगर ऐसे ध्यान नहीं मिलता, तो पत्नी बीमार पड़ गई है। तो अब तो पति को ध्यान देना पड़ेगा। अब तो बैठेगा छुट्टी लेकर दफ्तर छोड़ कर। स्त्रियों की तीस प्रतिशत से ज्यादा बीमारियां सिर्फ अटेंशन की बीमारियां हैं। जैसे ही उनको लगा कि ध्यान नहीं दिया जा रहा कि वे बीमार पड़ीं। और फिर कोई और उपाय नहीं है उनके पास कि कैसे आपके ध्यान को आकृष्ट करें।

जिन बच्चों को मां का प्रेम नहीं मिलता, वे निरंतर बीमार पड़ते हैं। बीमार पड़ने का और कोई कारण नहीं है। मां की कमी नहीं है, अटेंशन की कमी है। मां का वहां कोई भारी मतलब नहीं है। और मां से ज्यादा अटेंशन कोई नहीं दे पाता न! इसलिए फिर सब कमी हो गई। नर्स रख दो तुम तो वह दूध पिला देती, अटेंशन नहीं देती; कपड़े पहना देती, अटेंशन नहीं देती। अटेंशन है ही नहीं उसकी उस पर, उसकी अटेंशन अपनी घड़ी पर है कि उसको पांच बजे जाना है। इसलिए बच्चे को फौरन फील होना शुरू हो जाता है कि कुछ कमी हो रही है। यानी कपड़ा नहीं चाहिए, कपड़े से ज्यादा ध्यान चाहिए। ध्यान भोजन है बहुत गहरा, वह न मिले तो चूक हो जाती है।

इसलिए दूसरे को साथ न ले जाएं, नहीं तो वह मांग करता है पूरे वक्त कि आप अटेंशन दो। और आप भी मांग करते हो कि वह अटेंशन दे। और यह सौदा साथ में चलता है, म्युचुअल है, इसलिए दोनों को देना पड़ता है। तो अकेले जाएं थोड़ी देर को। और यहां भी ऐसा ही फील करें कि अकेले हैं। जैसे कोई दूसरा है नहीं साथ। थोड़ी देर के लिए कोई साथ नहीं है, हम अकेले हैं। इसको थोड़ा खयाल करेंगे तो, तो ही आप श्वास पर ध्यान दे पाएंगे, नहीं तो सब्स्टीटयूट दूसरे मिल गए, तो फिर गया मामला।

श्वास पर पूरे वक्त ध्यान रखें। और घंटे, आधा घंटे को कभी भी एकांत में बैठ कर इंटेंस ध्यान रखें। आंख बंद कर लें और श्वास पर ही ध्यान रखें। क्योंकि बाहर चलते, काम करते, बार-बार चूक ही जाता है। क्योंकि इसका खयाल नहीं है न, इसलिए चूक जाता है। अब पैर में कांटा गड़ गया तो अटेंशन कहां ध्यान श्वास पर रहेगा? ध्यान तो कांटे पर चला जाएगा फौरन। प्यास लगी है तो अटेंशन कैसे श्वास पर रहेगा? ध्यान तो पानी पर चला जाएगा।

तो एक घंटे के लिए कहीं एकांत में जाकर बैठ जाएं। रात इतनी बढ़िया होगी, कपड़े-वपड़े पहन कर कहीं भी एक दीवाल से टिक जाएं और बैठे रहें। और पूरा घंटा श्वास में ही बिता दें। तो इन पंद्रह दिनों में इतना बड़ा काम हो जाएगा, जो कि आप अकेले पंद्रह वर्षों में नहीं कर पाएंगे। जो यहां हो सकता है। इसमें दो-चार घटनाएं घटेंगी, उनकी चिंता नहीं करनी है। जैसे कि श्वास पर जितना ध्यान देंगे, नींद कम हो जाएगी। तो उसकी जरा भी चिंता नहीं लेनी है। जितनी देर नींद खुली रहे, बिस्तर पर भी श्वास पर ही ध्यान रखें।

तीन-चार-पांच दिन श्वास पर ध्यान रखने से नींद उड़ भी जा सकती है किसी की, उससे जरा भी चिंता नहीं लेनी है। क्योंकि श्वास पर ध्यान रखने से नींद से जो काम होता है, वह पूरा हो जाता है, और कोई कारण नहीं है। इतना विश्राम मिल जाता है।

नींद दो तरह से खतम होती है–टेंशन से भी और रिलैक्सेशन से भी। चिंता से भी नींद खतम हो जाती है, क्योंकि चिंता इतना तनाव से भर देती है कि मस्तिष्क शिथिल ही नहीं हो पाता तो नींद खतम हो जाती है। और अगर कोई ध्यान का प्रयोग करे तो इतना शिथिल-शांत हो जाता है कि नींद से जो शांति की जरूरत थी, वह पूरी हो जाती है। इसलिए नींद का कोई कारण नहीं रह जाता, वह विदा हो जाती है। तो उसका ध्यान नहीं करेंगे। जरा भी फिकर नहीं करेंगे।

और कुछ अजीब-अजीब अनुभव हो सकते हैं। तो उन पर भी चिंता नहीं करेंगे, वे अलग-अलग सबको हो सकते हैं। एक से होते भी नहीं। तो इसीलिए एक घंटे का दोपहर वक्त दिया है कि वैसा कोई अनुभव हो तो मुझसे अलग बात कर लेना। और उसकी बात किसी दूसरे से आप मत करना। क्योंकि दूसरा सिर्फ हंसेगा और आपको पागल समझेगा। क्योंकि वैसा अनुभव उसको नहीं हो रहा है। इसलिए उसको दूसरे से कहना ही मत कभी। क्योंकि वह सबको अलग-अलग होगा। इसलिए कोई को कभी सिंपैथी नहीं मिलेगी।

हो सकता है किसी को श्वास पर ध्यान देते-देते ऐसा लगे कि उसका शरीर बहुत बड़ा हो गया है, और एकदम फैल गया है, विस्तार हो गया है उसके शरीर का। वह एकदम घबड़ा जाए कि यह क्या हो गया? अब उठ सकेंगे कि नहीं उठ सकेंगे? इतना भारी हो जाए कि बिलकुल पत्थर हो गया। या इतना हलका हो जाए कि ऐसा लगे कि जमीन से ऊपर उठ गया है, कि जमीन और मेरे बीच फासला हो गया है, कि मैं ऊपर उठा जा रहा हूं, कि मैं लौट पाऊंगा कि नहीं लौट पाऊंगा?

कुछ भी लग सकता है। एकदम श्वास पर ध्यान देते-देते अचानक लग सकता है कि सिंकिंग हो रही है, श्वास डूबी जा रही है, और कहीं मैं मर तो नहीं जाऊंगा? गहन अंधकार का अनुभव हो सकता है। तेज चमकती बिजलियों का अनुभव हो सकता है। सुगंध अनुभव हो सकती है, अजीब तरह की दुर्गंध अनुभव हो सकती है। कुछ भी हो सकता है। बहुत तरह की बातें हो सकती हैं।

तो उनको चुपचाप खुद ही अपने भीतर रख लें, उसको किसी से कहना ही मत। उसको तो मुझे, जब मैं आपको प्राइवेट में मिलूंगा दरवाजा बंद करके तब आप मुझ को कह देना। और मुझे कह कर फिर आप दुबारा उसकी कभी किसी से बात मत करना।

उसके कई कारण हैं। एक तो दूसरा कभी उस पर विश्वास नहीं करेगा। कभी नहीं करेगा, उसका कारण है कि वैसा उसको हो नहीं रहा। और वह हंसेगा, और उसकी हंसी आपको नुकसान पहुंचाएगी। बहुत गहरा नुकसान पहुंचाएगी। दूसरी बात है कि हमें जो अनुभव होते हैं, अगर हम उनकी बात कर दें, तो फिर दुबारा नहीं होते। वे दुबारा नहीं होते। क्योंकि वे होते हैं अनायास, और जब हम उनकी बात कर देते हैं तो हम पूरे कांशस हो जाते हैं। तो फिर वे नहीं होते।

और भी एक बड़े मजे की बात है कि ये जो गहरी अनुभूतियां हैं, उनको बिलकुल सीक्रेट की तरह छिपाना चाहिए भीतर, नहीं तो ये बिखर जाती हैं। इनकी जो पोटेंशियल फोर्स है, इनमें भी बड़ी ताकत है। तो जैसे हम तिजोड़ी के भीतर धन को छिपा देते हैं। और जैसे कि हम कपड़े पहनते हैं और शरीर की गर्मी को भीतर रोक लेते हैं। सर्दी पड़ रही है तो हम कपड़े पहने हुए हैं। क्यों पहने हुए हैं? वह एक ही कि सर्दी हमारी गर्मी को खींच लेगी बाहर। शरीर की गर्मी को बाहर ले जाएगी और शरीर मुश्किल में पड़ जाएगा। तो पूरे वक्त हमारा शरीर बाहर के संपर्क में अपनी गर्मी खो रहा है, अपनी शक्ति खो रहा है। जब बहुत गहरी अनुभूतियां हमें होती हैं तो एक पर्टिकुलर टाइप ऑफ एनर्जी, एक खास तरह की शक्ति पैदा होती है उन अनुभवों के साथ। अगर आपने बात की, तो वह तत्काल बिखर जाती है और खो जाती है।

तो उसकी बात ही नहीं करना। निकटतम सगे को भी उसकी बात मत करना। उसको पता ही नहीं चलने देना किसी को, उसको बिलकुल अपने अंदर छिपा लेना, ताकि वह एनर्जी बढ़े, गहरी हो, और और गहरे अनुभवों में ले जाए। इसलिए उसकी बात नहीं करना।

और सबसे मैं अलग ही बात करूंगा कि क्या करना, उसको जो लग रहा है उसके साथ। यह जो जनरल था, वह मैंने कह दिया। इसको आप कल से शुरू करें। और फिर देखेंगे, जैसा होगा वैसी बात करेंगे।

प्रश्न: श्वास पर ध्यान केंद्रित करना और “मैं कौन हूं‘…।

श्वास पर ध्यान केंद्रित करना बहुत गहरा प्रयोग है, बहुत गहरा प्रयोग है। “मैं कौन हूं’ भी बहुत गहरा प्रयोग है, लेकिन बहुत दूसरी दिशा से, बहुत दूसरी दिशा से। वह विचार की दिशा से ही निर्विचार में जाने की कोशिश है। और यह निर्विचार से ही शुरू होता है।

वह जो है विचार ही है, “मैं कौन हूं’ वह विचार ही है। और विचार को ही इतनी तीव्रता में ले जाना है कि जाकर वह निर्विचार में उतार दे आपको। यह जो है निर्विचार से ही शुरू करना है, यहां विचार छोड़ ही देना है।

तो “मैं कौन हूं’ में कुछ लोगों को तनाव भी हो सकता है और कुछ लोगों को परेशानी भी हो सकती है। इसमें किसी को तनाव नहीं होगा, किसी को कोई परेशानी नहीं होगी। और मैं बहुत तरह की विधियों की बात करता हूं। और सिर्फ इस कारण करता हूं कि बहुत तरह के लोग हैं, किसको कौन सी विधि कब पकड़ जाएगी कहना मुश्किल है। फिर जिसको जो पकड़ जाए, वह उससे चला जाए।

और कोई एक सौ बारह विधियां हो सकती हैं। वह भी एक दफा सोच रहे हैं, लाला जी की वह भी इच्छा है, कि एक बार उन एक सौ बारह विधियों पर इकट्ठा मैं एक सात-आठ दिन बैठ कर बात करूं। ताकि एक पूरा संकलन पूरी विधियों का अलग हो जाए। तो उनसे कोई भी व्यक्ति पकड़ ले अपने लिए, उसके लिए क्या उपयोगी हो सकता है। और इसलिए मैं हर कैंप में विधि बदल देता हूं।

आज इतना ही।


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–2)

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 महावीर की समसामयिकता—(प्रवचन—दूसरा)

 प्रश्न:

 आपने कहा कि आप महावीर के संबंध में अंतर्दृष्टि से कुछ बतलाएंगे। और यदि यह जानना हो कि वह जो कुछ आपने जाना, तो हम प्रयोग करके देख लें। मुझे लगता है, एक दूसरा भी साधन है, जिससे आपकी बात की प्रामाणिकता जांची जा सकती है। और वह साधन यह है कि हममें से किसी के जीवन की कोई ऐसी घटना, जो आप, जानना जिसका संभव नहीं है आपके लिए साक्षात, आप यदि बतला दें तो यह प्रामाणिक हो सकता है। क्योंकि आप मेरे जीवन की कोई ऐसी घटना जान गए जो आपने कभी देखी-सुनी नहीं, इसलिए आप महावीर के भी पिछले जीवन को अंतर्दृष्टि से जान सके होंगे। क्या आप इस प्रकार करना पसंद करेंगे?

दोत्तीन बातें समझनी चाहिए।

एक तो महावीर के जीवन की घटना जानना और बात है और महावीर के अंतर्जीवन में क्या घटा, इसे जानना और बात है। महावीर के बाहर के जीवन से प्रयोजन ही नहीं। मुझे प्रयोजन नहीं है, न जानने की उत्सुकता है। लेकिन अंतर्जीवन में क्या घटा, उससे प्रयोजन है, उत्सुकता भी है, उस तरफ दिशा भी, दृष्टि भी है।

तुम्हारे अंतर्जीवन में भी देखा जा सकता है, तुम्हारे बहिर्जीवन से मुझे कोई प्रयोजन नहीं। सच बात तो यह है कि जिसे हम बाहर का जीवन कहते हैं, वह एक स्वप्न से ज्यादा मूल्य नहीं रखता। हमें वह बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, क्योंकि हम उस स्वप्न में ही जीते हैं। जैसे रात कोई सपना देखे, तो सपने में उसे पता भी नहीं चलता कि जो वह देख रहा है, सपना है। लगता है, वह बिलकुल सत्य है। जब तक जाग न जाए, तब तक सपना सत्य ही मालूम पड़ता है। जागते ही सपना एकदम व्यर्थ हो जाता है।

तो मुझे तो बाहर के जीवन से कोई अर्थ ही नहीं है कि महावीर कब पैदा हुए? कब मरे? शादी की या नहीं की? बेटी पैदा हुई कि नहीं हुई? इन सबसे मुझे प्रयोजन ही नहीं, कोई अर्थ ही नहीं है। हुआ हो तो ठीक, न हुआ हो तो ठीक। मैं तो वहां तक कहना चाहता हूं कि महावीर भी हुए हों तो ठीक, न हुए हों तो ठीक। यह महत्वपूर्ण ही नहीं है। जो महत्वपूर्ण है, वह तो अंतर, जो चेतना में गति हुई, जो चेतना में विकास हुआ, जो रूपांतरण हुआ, वह महत्वपूर्ण है।

तो वैसे तो किसी के भी अंतर्जीवन में उतरा जा सकता है। लेकिन तब भी तुम जांच न कर पाओगे, क्योंकि तुम खुद ही अपने अंतर्जीवन से परिचित नहीं हो। अगर फिर भी मेरी बात की जांच करनी हो, तब भी तुम्हें अपने अंतर्जीवन में उतरना पड़े।

दूसरी बात यह है कि तुम्हारे बहिर्जीवन में कोई अगर कुछ घटनाएं बता दे, तो इससे पक्का नहीं होता कि वह महावीर के संबंध में जो बताएगा, वह ठीक होगा। क्योंकि तुम मौजूद हो और तुम्हारे बहिर्जीवन की घटनाओं में उतरना बड़ी साधारण सी कला और ट्रिक की बात है। जो कि एक साधारण सा टेलीपैथिस्ट भी बता सकेगा, एक साधारण सा ज्योतिषी भी बता सकेगा। वह चार आने लेकर भी बता सकेगा। तो बहिर्जीवन का तो कोई मूल्य नहीं। अगर कोई बता भी दे तुम्हारे बहिर्जीवन का तो उससे कुछ प्रामाणिकता नहीं होती कि वह महावीर के अंतस-जीवन के संबंध में जो कहेगा, वह अर्थ रखता है।

असल में बहिर्जीवन का कोई ऐसा संबंध ही नहीं है अंतस-जीवन से। और इसीलिए यह, यह समझने जैसा है कि क्राइस्ट का बाहर का जीवन एक है, और महावीर का बाहर का जीवन दूसरा है, बुद्ध का तीसरा है, फिर भी अंतस-जीवन एक है। और बहिर्जीवन को देखने-विचारने वाले लोग इसीलिए मुश्किल में पड़ जाते हैं।

जिसने महावीर के बहिर्जीवन को पकड़ लिया है, वह बुद्ध को समझना उसके लिए असमर्थ हो जाएगा। क्योंकि जो महावीर के बहिर्जीवन में है, वह सोचता है कि वह अंतस-जीवन से अनिवार्य रूप से बंधा हुआ है। जैसे वह देखता है कि महावीर नग्न खड़े हैं, तो वह सोचता है, जो परम ज्ञान को उपलब्ध होगा, वह नग्न खड़ा होगा। और अगर बुद्ध वस्त्र पहने हुए हैं, तो बुद्ध कैसे परम ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं? बहिर्जीवन की पकड़ के कारण ही अंतस-जीवन के संबंध में इतनी खाइयां खड़ी हो गई हैं। मुझे तो उससे प्रयोजन ही नहीं है।

दूसरी बात, मैं ठीक कह रहा हूं महावीर के संबंध में या नहीं, इस बात की जांच का भी कोई अर्थ नहीं है। अर्थ सिर्फ एक ही है कि वैसे अंतस-जीवन में उतरा जा सकता है या नहीं? यानी मेरी इस बात की जांच-पड़ताल करने का भी कोई अर्थ नहीं है, निरर्थक है, क्योंकि मैं इसलिए कह ही नहीं रहा हूं कि मैं सही हूं या गलत हूं, यह कोई सिद्ध किया जाए; कह ही इसलिए रहा हूं कि तुम जहां हो, वहां से सरक सको और किसी और दिशा में गति कर सको।

इसलिए अगर वह सारी बातचीत तुम्हें अंतस-दिशा में गति देने वाली बन जाती है, तो मैं मान लूंगा कि काफी प्रमाण हो गया। और अगर नहीं बनती है, और सब तरह से प्रमाणित हो जाता है कि जो मैंने कहा वह ठीक था, तो भी मैं मानूंगा कि बात अप्रामाणिक हो गई। यानी मेरे लिए अर्थवत्ता इसमें है कि महावीर के जीवन के संबंध में जो मैं कहूं, वह किसी न किसी रूप में तुम्हारे जीवन को रूपांतरित करने वाला बनता हो। न बनता हो, तो वह कितना ही सही हो तो गलत हो गया, और बनता हो तो सारी दुनिया सिद्ध कर दे कि वह गलत है, तो भी मेरे लिए गलत न रहा।

यानी इसका मतलब यह है, और यही वजह है–इसको समझना बहुत उपयोगी होगा–यही वजह है कि जो लोग जानते रहे हैं, उन्होंने इतिहास लिखने पर जोर नहीं दिया, इतिहास की जगह उन्होंने पुराण पर जोर दिया–मिथ पर।

एक दुनिया है, लोग हैं, जो इतिहास पर जोर दे रहे हैं। एक दूसरी दुनिया है, एक दूसरा जगत है, कुछ थोड़े से लोगों का, जो इतिहास पर कोई जोर नहीं देते, जो मिथ पर जोर देते हैं, पुराण पर जोर देते हैं। और दोनों के भेद को समझना भी उपयोगी होगा।

इतिहास का आग्रह यह होता है कि बाहर घटी हुई घटनाएं तथ्य, फैक्ट्स की तरह संगृहीत की जाएं। पुराण या मिथ इस बात पर जोर देती है कि बाहर की घटनाएं तथ्य की तरह इकट्ठी हों या न हों, निष्प्रयोजन है, वे इस भांति इकट्ठी हों कि जब कोई उनसे गुजरे, तो उसके भीतर कुछ घटित हो जाए। इन दोनों बातों में दृष्टि अलग है।

तथ्य और इतिहास को सोचने वाला महावीर पर जोर देगा, क्राइस्ट पर जोर देगा–कैसा जीवन? मिथ की दृष्टि वाला व्यक्ति तुम पर जोर देगा कि महावीर का कैसा जीवन कि तुम बदल जाओ। इसमें बुनियादी फर्क हुए।

अब यह हो सकता है कि मिथ किसी दृष्टि से अप्रामाणिक मालूम पड़े। जैसे जीसस का सूली पर चढ़ना और फिर तीन दिन बाद पुनरुज्जीवित हो जाना। ऐतिहासिक तथ्य की तरह शायद इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि ऐसा हुआ हो। जैसे जीसस का कुंआरी मां से पैदा होना। ऐतिहासिक तथ्य की तरह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि कुंआरी लड़की से कोई पैदा हो सकता है, जिसका पुरुष से कोई संपर्क न हुआ हो।

बाहर की दुनिया की यह घटना ही नहीं है। बाहर की दुनिया में तो कुंआरी लड़की से कोई लड़का कैसे पैदा होगा? लेकिन जिन्होंने इस पर जोर दिया है उनकी दृष्टि बहुत गहरी है। यह भीतर की घटना को ही वे कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जीसस जैसा बेटा अत्यंत कुंआरी आत्मा से ही जन्म ले सकता है। अत्यंत इनोसेंट। कुंआरा शरीर नहीं, कुंआरी आत्मा, कुंआरे चित्त से।

और यह भी हो सकता है कि शरीर बिलकुल कुंआरा हो और चित्त बिलकुल कुंआरा न हो। इससे उलटा भी हो सकता है कि शरीर कुंआरा न हो और चित्त बिलकुल कुंआरा हो।

जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म वर्जिन गर्ल से ही हो सकता है, कुंआरी लड़की से ही हो सकता है।

यह इतिहास तो नहीं है, लेकिन इतिहास अगर सिद्ध भी कर दे, तो नुकसान ही पहुंचाएगा। यानी मैं मानूंगा कि यह बात प्रमाणित ही रहनी चाहिए कि जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म एक कुंआरे मन से होता है। और अगर किसी मां को जीसस जैसे बेटे को जन्म देना हो, तो उसके चित्त का अत्यंत कुंआरा होना जरूरी है। और कुंआरेपन का कोई संबंध शरीर से है ही नहीं। वर्जिनिटी का कोई संबंध शरीर से नहीं है। शरीर तो यंत्र है, कुंआरापन तो आंतरिक मनोदशा है।

अब जैसे महावीर के पैर को सर्प काट लेता है और दूध बहता है। इसे किसी भी ऐतिहासिक तरह से, वैज्ञानिक तरह से सिद्ध नहीं किया जा सकता। करने वाले करते हों तो गलत करते हैं। वे महावीर को व्यर्थ हरवा देंगे। और जो बात है, जो मिथ है, वह खो जाएगी। वह बात बहुत और है। उस बात में फिर किसी चित्त पर, चित्त के भाव पर ही खयाल है।

सर्प भी काटे, जहर भी महावीर को कोई दे, मारने को भी कोई आ जाए, तो भी महावीर का मन मां से भिन्न नहीं हो पाता है। दूध निकलने का कुल मतलब इतना है कि महावीर का मन मदरली है, वह मातृत्व से भरा हुआ है। मां से अन्यथा वे नहीं हो सकते हैं। उनका होना ही मातृत्व में है। यानी उनके भीतर से कुछ और नहीं निकल सकता है, सिवाय दूध के।

लेकिन न तो शारीरिक अर्थों में और न तथ्य और इतिहास के अर्थों में इस बात का कोई मूल्य है। अब जैसे हम जो भी हिसाब करने जाएंगे–और हम दोनों तरफ एक जैसे लोग होते हैं–कोई कहेगा कि यह बिलकुल गलत है, महावीर के पैर से दूध कैसे निकल सकता है? बात ही झूठी है। और दूसरा व्यक्ति सिद्ध करने की कोशिश करे किसी तरकीब से कि पैर से दूध निकल सकता है!

एक मुनि को मैं सुनने गया। वह मुझसे पहले बोले तो उन्होंने कहा, मैंने वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर दिया है कि महावीर के पैर से दूध निकला। कैसे सिद्ध कर दिया है? तो उन्होंने कहा, ऐसे सिद्ध कर दिया है कि जब मां के स्तन से दूध निकल सकता है, यानी शरीर के किसी अंग से दूध निकल सकता है, तो पैर से क्यों नहीं निकल सकता है?

तो मैंने उनको पूछा कि इसके दो अर्थ हुए। इसका एक अर्थ तो यह हुआ कि महावीर को पुरुष न माना जाए, क्योंकि पुरुष के तो स्तन से भी दूध निकलना मुश्किल है, पैर का तो मामला बहुत दूर है। और अब तक किसी स्त्री के पैर से भी दूध नहीं निकला है। तो दूसरी बात यह मानी जाए कि स्तन का जो यंत्र है, वह महावीर के पैर में लगा हुआ है। जो स्त्री के स्तन में होता है, वह महावीर के पैर में है वैसी यांत्रिक व्यवस्था, जिससे खून दूध में रूपांतरित होता है।

लेकिन मैंने उनसे कहा कि ये बातें अगर प्रमाणित भी हो जाएं कि ऐसा था कि महावीर के पैर स्तन का काम कर रहे थे, तो भी जो मतलब था, वह खो गया। तो महावीर का जो मूल्य था, वह गया। अगर किसी के भी पैर स्तन का काम कर रहे हों तो उससे दूध निकल जाएगा, इसमें फिर महावीर का कुछ होना न रहा। और अगर मां के स्तन से दूध निकलता है तो यह कोई बड़ी खूबी की बात नहीं है, यांत्रिक बात है। अगर सिद्ध भी कर दोगे तो तुम महावीर को पोंछ डालोगे, क्योंकि जो बात थी, वह खो जाएगी।

वह बात कुल इतनी है कि महावीर का प्रत्युत्तर मां का उत्तर होने वाला है–चाहे तुम कुछ भी करो। चाहे तुम जहर डालो, शत्रुता करो, चोट पहुंचाओ, वहां से प्रेम और करुणा ही बह सकता है। वहां से…।

अब दूध का मतलब क्या होता है? दूध का मतलब है, जो तुम्हें पोषण दे सके। और कुछ मतलब नहीं होता। तो महावीर को चाहे तुम गाली दो, महावीर जो भी करेंगे, वह तुम्हारा पोषक ही सिद्ध होगा। वह तुम्हें पोषण ही देगा।

अब हमें कोई गाली दे तो हम जो करेंगे, वह घातक सिद्ध होगा उसके लिए। और हम जो करेंगे दो ही बात कर सकता है, या तो वह घातक सिद्ध हो या पोषक सिद्ध हो। तो महावीर से जो भी प्रत्युत्तर निकलेगा, जो रिएक्शन होगा महावीर का, वह पोषक सिद्ध होने वाला है, इतनी भर बात है उसमें। लेकिन तथ्य में खोजने जाने पर…।

और यह भी जरूरी नहीं है कि किसी दिन सर्प ने काटा ही हो। यह भी जरूरी नहीं है। न यह जरूरी है कि पैर से दूध निकला हो, न यह जरूरी है कि सर्प ने काटा हो। जरूरी कुल इतना है कि महावीर के पूरे जीवन को जिन्होंने भी अनुभव किया है, उन्हें ऐसा लगा है कि इसे अगर हम कविता में कहें तो ऐसा ही कह सकते हैं कि सर्प भी काटे महावीर को, तो दूध ही निकल सकता है।

लेकिन…इसलिए मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। यानी मैं सिद्ध करने जाऊंगा भी नहीं। सिद्ध कर भी सकता होऊं, तो भी सिद्ध करने नहीं जाऊंगा। क्योंकि मेरी दृष्टि ही यह है कि महावीर को प्रसंग बना कर तुम कैसे गति कर सकते हो! और तब हो सकता है, बहुत कुछ जो कहा जाता है, वह छोड़ देना पड़े; बहुत कुछ जो नहीं कहा जाता है, उसे खोज लेना पड़े। और हम जब एक दृष्टि लेकर प्रवेश करते हैं, और अंतस की खोज में चलते हैं…।

अब क्या है, कठिनाई क्या है? अगर समझो कि मैं एक बहुत बहादुर आदमी के संबंध में कहूं कि यह बहुत डरपोक है, तो शायद वह भी मुझसे पहली बार राजी न हो कि आप मेरे संबंध में यह क्या कह रहे हैं! मेरे पास प्रमाणपत्र हैं बहादुरी के, सर्टिफिकेट हैं। मैं सिद्ध कर सकता हूं कि मुझसे बड़ा बहादुर नहीं है, महावीर-चक्र है मेरे पास। युद्ध के मैदान पर कभी पीछे नहीं लौटा हूं।

लेकिन ये प्रमाणपत्र कुछ गलत नहीं करते हैं, फिर भी यह हो सकता है कि वह आदमी भीतर से भयभीत आदमी है। और अक्सर ऐसा हुआ है कि जो व्यक्ति अंतस-चेतन में भयभीत होता है, वह बाहर के कृत्यों में निर्भय सिद्ध करने की कोशिश में लगा होता है। यानी वह बाहर अपने को निर्भय सिद्ध करने के जो उपाय कर रहा है, वह उपाय कर ही इसलिए रहा है कि भीतर जो उसका भय है, वह उसे भूल जाए और मिट जाए।

अब एक व्यक्ति मेरे पास आया कि जिसको कोई नहीं कह सकेगा कि यह आदमी कभी भयभीत होगा। शरीर से बलिष्ठ है, हर तरह के संघर्ष से गुजरा है। जेलें काटी हैं, दबंग है। किसी के सामने खड़ा हो जाए तो वह आदमी हिल जाए। और उस आदमी ने मुझसे कहा कि मैं इतना डरता हूं भीतर कि जब मैं बोलने खड़ा होता हूं तो मेरे पैर कंपने लगते हैं। और मुझे लगता है कि पता नहीं आज मेरे मुंह से शब्द निकलेगा कि नहीं निकलेगा! निकल जाता है, यह दूसरी बात, लेकिन सदा भय यही बना रहता है।

अब इस आदमी को खुद ही खयाल आया है तो ठीक है, नहीं तो इससे कहा जाए कि ऐसा है, तो बहुत मुश्किल हो जाए।

अब अंतस-जीवन के तथ्य हमें ही ज्ञात नहीं हैं और अगर मैं कहूं भी कि आपके संबंध में यह अंतस-जीवन की बात है, तो हो सकता है आप सबसे पहले इनकार करने वाले व्यक्ति सिद्ध हों।

और यह भी ध्यान रहे, आप जितने जोर से इनकार करेंगे, उतने ही जोर से मेरे लिए सही होगा कि वह तथ्य आपके भीतर है, क्योंकि जोर से इनकार इसीलिए आता है। अगर वह तथ्य न हो तो शायद आप कहें, मैं सोचूंगा, मैं खोजूंगा। लेकिन अगर वह तथ्य है, जैसे एक भयभीत आदमी बाहर से बहादुर बनने की कोशिश में लगा है, तो उससे यह कहने पर कि तुम्हारे भीतर भीरुता है, वह इतने जोर से इनकार करेगा कि जिसका कोई हिसाब नहीं।

पर मुझे बाहर के तथ्यों से कोई प्रयोजन ही नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। इसलिए उस तरह की प्रामाणिकता में जाने की मैं कोई तैयारी नहीं दिखाऊंगा। मैं तो एक ही प्रामाणिकता मानता हूं, कि जो मैं कह रहा हूं, वह जिन प्रयोगों से मुझे दिखाई पड़ता है कि ऐसा है, उन प्रयोगों में से कोई भी गुजरने को तैयार हो।

अब जैसे समझ लें, समझ लें एक आदमी है। जैसे पहली दफा दूरबीन बनी, जिससे दूर के तारे देखे जा सकते हैं। दूरबीन बनी और पहले आदमी ने जिसने दूरबीन बनाई, उसने अपने मित्रों को आमंत्रित किया कि तुम आओ और मैं तुम्हें ऐसे तारे दिखला देता हूं जो तुमने कभी नहीं देखे हैं।

तो उन मित्रों ने दूरबीन में से देखने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि हो सकता है, तुम्हारी दूरबीन में कुछ बात हो, जिससे कुछ तारे दिखाई पड़ते हैं, जो नहीं हैं। तुम खुली आंख से कुछ ऐसी बातें बताओ जो दूर की हैं। तो फिर हम मानें कि तुम्हारी दूरबीन में भी कुछ बात हो सकती है। पहले हमें खुली आंख से कुछ बताओ जो कि दूर का है, जो कि हमको नहीं दिखाई पड़ रहा और तुमको दिखाई पड़ता हो। तो फिर हम तुम्हारी दूरबीन से झांकें।

उन्होंने दूरबीन से झांका तो भी उन्होंने कहा कि इसमें कुछ पक्का नहीं होता। इसमें हो सकता है कि दूरबीन की ही करतूत है। मेरी बात समझे न तुम? लेकिन वह आदमी क्या कर सकता है? इसके सिवाय और क्या उपाय है? वह यही कह सकता है कि तुम भी दूरबीन बना लो, जिसमें कि तुम्हें यह पक्का हो जाए कि इस दूरबीन में कोई तरकीब नहीं है। तुम अपनी दूरबीन बना लो और तुम अपनी दूरबीन से झांको।

और मामला इतना जटिल है कि जरूरी नहीं है बहुत कि मैं तुम्हें अंतस-प्रयोगों के लिए कहूं तो तुम्हें ठीक वही दिखाई पड़े, जो मुझे दिखाई पड़ता है। लेकिन एक बात पक्की है कि तुम्हें जो भी दिखाई पड़े, तुम इतना अनुभव कर सकोगे कि जो मैं कह रहा हूं, वह दिखाई पड़ रहा होगा–एक।

दूसरा, तुम यह भी अनुभव कर सकोगे कि जो मैं कह रहा हूं, उसके पीछे जो दृष्टि है, वह तुम्हें कुछ भी दिखाई पड़े तो वह दृष्टि तुम्हारे फौरन समझ में आ जाएगी…कि वह दृष्टि क्या है। और यह भी तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि महावीर मेरे लिए बिलकुल गौण हैं, न क्राइस्ट का कोई मूल्य है, न बुद्ध का कोई मूल्य है। मूल्य है हमारा, जो भटक रहे हैं। और इनको कोई तरफ से, किसी कोण से एक चीज दिखाई पड़ जाए, जो इनकी भटकन को मिटा दे। और एक दिन ये वहां पहुंच जाएं जहां कि कोई भी महावीर कभी पहुंचता रहा है।

तो मेरा प्रयोजन ही भिन्न है। और एक ही उपाय है उस प्रयोजन को…क्योंकि मेरा प्रयोजन तभी सिद्ध होता है, नहीं तो सिद्ध नहीं होता। अगर मैं यह बता भी दूं कि तुम कब पैदा हुए, और तुम्हारी कब शादी हुई, और तुम्हारा कब लड़का पैदा हुआ, तो भी मेरा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता–असिद्ध होता है। क्योंकि फिर मैं तुम्हारे बहिर्जीवन पर ही जोर देता हूं। और तुम्हारी दृष्टि को मैं फिर भी अंतर्मुखी नहीं कर पाता। और तुम बहिर्मुखी जीवन-दृष्टि को ही पुनः-पुनः सिद्ध कर लेते हो। फिर सिद्ध कर लोगे और फिर भीतर उतरने से रह जाओगे।

यानी मेरा कहना यह है कि अगर मेरी बातचीत से तुम्हें बेचैनी पैदा हो जाए, और ऐसा लगने लगे कि पता नहीं, यह बात सही है या झूठ? तो तुम मुझसे प्रमाण मत पूछो, फिर तुम प्रमाण की तलाश में निकल जाओ खुद। तो अगर बात झूठ भी हुई तो भी तुम वहां पहुंच जाओगे, जहां पहुंचना चाहिए, और बात सही भी हुई तो भी तुम वहां पहुंच जाओगे। और जिस दिन तुम वहां पहुंच जाओगे तो जरूरी नहीं है कि तुम लौट कर मुझसे कहने आओ।

जैसे समझ लो कि इस कमरे में आग नहीं लगी है। इस कमरे में आग नहीं लगी है और मैं तुमसे चिल्ला कर कहता हूं कि कमरे में आग लगी हुई है, और मर जाएंगे अगर हम भीतर रहते हैं, चलो बाहर चलें। और तुम कहो कि कोई ताप नहीं मालूम पड़ता, कहीं कोई लपट दिखाई नहीं पड़ती। और मैं तुमसे कहूं, त?ुम तो बस बाहर चले चलो तो तुमको पता चल जाएगा कि मकान में आग लगी थी। और जब तक तुम भीतर हो, दिखाई नहीं पड़ेगा।

और तुम बाहर पहुंच जाओ, सच में ही तुम पाओ कि मकान में आग नहीं लगी थी। लेकिन बाहर जाकर तुम देखोगे: सूरज निकला है जो तुमने कभी नहीं देखा, और ऐसे फूल खिले हैं जो तुमने कभी नहीं देखे, और ऐसा आनंद है जो तुमने कभी अनुभव नहीं किया।

तो तुम मुझे धन्यवाद दे दोगे। तुम मुझे कहोगे, कृपा की कि कहा कि मकान में आग लगी है। क्योंकि हम मकान की भाषा ही समझ सकते थे, सूरज और फूलों की भाषा हम समझ ही नहीं सकते थे। क्योंकि सूरज और फूल हमने कभी देखा नहीं था। अगर तुमने कहा भी होता कि बाहर सूरज है और फूल हैं और आनंद की वर्षा हो रही है, तो हम कहते कि हम कुछ समझे नहीं, कैसा बाहर? कैसा सूरज? कैसा फूल? हम तो एक ही भाषा समझ सकते थे, मकान की। और हम यही समझ सकते थे कि अगर मकान में आग लगी हो तो ही बाहर जाया जा सकता है, नहीं तो जाने की कोई जरूरत नहीं। जब मकान सुरक्षित है तो बाहर जाने की क्या जरूरत?

तो हो सकता है बाहर जाकर तुम पाओ कि मकान में आग नहीं लगी थी, लेकिन फिर भी तुम मुझे धन्यवाद दो, कि ठीक हुआ कि कहा कि मकान में आग लगी है, नहीं तो हम बाहर कभी न आ पाते। और अब हम मकान में भीतर कभी न जाएंगे, यद्यपि उसमें आग नहीं लगी है, लेकिन मकान में होना ही आग में होना है।

मेरा मतलब समझे न तुम? यानी यह जरूरी नहीं है। तुम, तुम बाहर आकर मुझसे यही कहोगे कि मकान में आग तो नहीं लगी है, लेकिन मकान में होना ही आग में होना है। क्योंकि हम चूके जा रहे थे, वह सब जला जा रहा था जीवन, चूका जा रहा था सब कुछ, जो मिल सकता था।

इसलिए बहुत सी बातें हैं। और जिसको आमतौर से हम प्रमाण कहते हैं, मेरी उस पर कोई श्रद्धा नहीं है–किसी तरह के प्रमाण पर। प्रमाण एक ही है कि तुम पहुंच जाओ। और तुम पहुंच जाओ तो इनकार नहीं कर सकते हो, इतना मैं वायदा करता हूं। यानी तुम पहुंच जाओ तो जो मैं कह रहा हूं, उससे तुम इनकार नहीं कर सकते हो, इतना मैं वायदा करता हूं।

अ प्रश्न:

 

एक प्रश्न मेरे मन में उठता है। आपने रात को शास्त्रों के बारे में कुछ बात कही। मुझे ऐसा लगा कि आप जो भी कुछ कहते हैं, वह शास्त्रों में भी उपलब्ध हो ही सकता है। और आप जो कुछ कह रहे हैं, वह भी स्वयं में एक शास्त्र ही बनते चले जा रहे हैं। और जो बातें आप शास्त्रों के संबंध में कह रहे हैं, वह आपकी कही हुई बातों पर भी ज्यों की त्यों लागू हो जाएंगी। जो देखने वाला है, उसे इसमें भी दिखेगा। जो नहीं देखने वाला है, उसे इसमें भी नहीं दिखेगा। और जो देखने वाला है, उसे प्राचीन शास्त्रों में भी दिख ही जाता है। और न देखने वाले को उनमें भी नहीं दिखता। फिर उनकी निंदा का कोई प्रयोजन शेष नहीं रह जाता।

नकी निंदा मैं करता ही नहीं हूं। शास्त्र की निंदा मैं नहीं करता हूं, क्योंकि शास्त्र को मैं निंदा के योग्य भी नहीं मानता हूं। प्रशंसा के योग्य मानना तो दूर, निंदा के योग्य भी नहीं मानता हूं। क्योंकि निंदा भी हम उसकी करते हैं, जिससे कुछ मिल सकता होता और नहीं मिला। निंदा हम उसकी करते हैं, जिससे कुछ मिल सकता होता, अन्यथा मिल सकता होता, और नहीं मिला।

शास्त्र से मिल ही नहीं सकता है। उसकी निंदा का कोई अर्थ नहीं। उसकी निंदा का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि शास्त्र से न मिलना शास्त्र का स्वभाव है। यानी यह शास्त्र का स्वभाव ही है कि उससे सत्य नहीं मिल सकता, इसलिए शास्त्र की निंदा क्या करना? मिल जाए तो आश्चर्य हो जाएगा, असंभव घटना हो जाएगी।

तो मैं तो निंदा नहीं करता हूं शास्त्र की, इतना ही कहता हूं कि शास्त्र से नहीं मिलता है। जैसे समझें कि एक आदमी एक रास्ते से जा रहा है, और किसी जगह पहुंचना चाहता है, और हम उससे कहते हैं यह रास्ता वहां नहीं जाता। इसका मतलब यह नहीं कि हम उस रास्ते की निंदा करते हैं। इसका कुल मतलब इतना है कि हम यह कहते हैं कि वह जहां जाना चाहता है, वहां यह रास्ता नहीं जाता है।

हम यह भी नहीं कहते कि यह रास्ता कहीं नहीं जाता है। यह रास्ता भी कहीं जाता है। लेकिन जहां वह जाना चाहता है, वहां नहीं जाता, बल्कि उससे उलटा जाता है। जैसे प्रज्ञा की खोज में निकले हुए व्यक्ति को शास्त्र व्यर्थ है, क्योंकि शास्त्र का रास्ता प्रज्ञा को नहीं जाता, पांडित्य को जाता है। और पांडित्य प्रज्ञा से बिलकुल उलटी चीज है। पांडित्य है उधार और प्रज्ञा है स्वयं की। और ऐसा असंभव है कि उधार संपदा को कोई कितना ही इकट्ठा कर ले तो वह स्वयं की संपदा बन जाए।

तो जब मैं यह कहता हूं कि शास्त्र से नहीं जाया जा सकता, तो यह भूल कर भी मत सोचना कि मैं निंदा करता हूं, मैं तो सिर्फ शास्त्र का स्वभाव बता रहा हूं। और अगर शास्त्र का स्वभाव ऐसा है, तो मेरे शब्दों को मान कर जो शास्त्र निर्मित हो जाएंगे, उनका स्वभाव भी ऐसा ही होगा। यानी उनसे कोई कभी प्रज्ञा को नहीं जा सकेगा।

अगर मैं ऐसा कहूं कि दूसरों के शास्त्र से कोई प्रज्ञा को नहीं जा सकता लेकिन मेरे शब्द पर अगर कोई शास्त्र बन गया, उससे कोई प्रज्ञा को जाएगा, तब तो गलती बात हो गई। तब तो मैं किसी के शास्त्र की निंदा कर रहा हूं और किसी के शास्त्र की प्रशंसा कर रहा हूं।

नहीं, मैं तो शास्त्र मात्र का स्वभाव बता रहा हूं–वह चाहे महावीर का हो, चाहे बुद्ध का हो, चाहे कृष्ण का हो, चाहे मेरा हो, चाहे तुम्हारा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी का भी शब्द सत्य में ले जाने वाला नहीं है।

हां, लेकिन दूसरी बात सच है कि अगर दिखाई पड़ जाए किसी को तो शास्त्र में दिखाई पड़ सकता है। लेकिन दिखाई पहले पड़ जाए। उसका मतलब यह हुआ कि शास्त्र किसी को दिखला तो नहीं सकता है, लेकिन जिसको दिखाई पड़ता है, उसे शास्त्र में भी दिख सकता है। लेकिन दिखाई पड़ना पहले घट जाए। तो फिर शास्त्र की तो क्या बात, उसे तो पत्थर, कंकड़, दीवाल, पहाड़, सबमें दिखाई पड़ता है। यानी यह सवाल फिर शास्त्र का नहीं रह जाता, जिसे दिखाई पड़ गया, उसे सबमें दिखाई पड़ता है। तो उसे शास्त्र में भी दिखाई पड़ेगा। अब शास्त्र में उसे वही दिखाई पड़ेगा, जो उसे दिखाई पड़ रहा है। और कल तक चूंकि उसे नहीं दिखाई पड़ रहा था, इसलिए शास्त्र अंधे थे। क्योंकि उसका अंधकार था भीतर, अंधकार ही दिखाई पड़ रहा था।

यानी मेरा मतलब यह है कि शास्त्र में हमें वही दिखाई पड़ सकता है, जो हमें दिखाई पड़ रहा है। शास्त्र उससे ज्यादा नहीं दिखला सकते हैं। शास्त्र उससे ज्यादा नहीं दिखला सकते हैं। इसलिए शास्त्र में हम वह नहीं पढ़ते हैं, जो कहने वाले या लिखने वाले का इरादा रहा होगा। शास्त्र में हम वह पढ़ते हैं, जो हम पढ़ सकते हैं। यानी शास्त्र किसी भी अर्थ में हमारे ज्ञान को वृद्धि नहीं देता, शास्त्र उतना ही बता देता है।

जैसे समझ लें, आईना है। आईने में हमें वही दिखाई पड़ जाता है, जो हम हैं। वही दिखाई पड़ जाता है, जो हम हैं। आईना हममें कोई वृद्धि नहीं देता। और कोई यह सोचता हो कि कुरूप आदमी आईने के सामने खड़े होकर सुंदर हो जाएगा, तो वह गलती में है। वह एकदम गलती में है। कोई यह सोचता हो कि अज्ञानी आदमी शास्त्र के सामने खड़े होकर ज्ञानी हो जाएगा, तो वह गलती में है।

हां, ज्ञानी को शास्त्र में ज्ञान दिख जाएगा, अज्ञानी को अज्ञान ही दिखता रहेगा। और मजा यह है कि ज्ञानी शास्त्र में देखने नहीं जाता, क्योंकि जब खुद ही दिख गया है, तो उसे और किसी दूसरे से क्या देखना है? और अज्ञानी शास्त्र में देखने जाता है।

अक्सर ऐसा होता है कि सुंदर आदमी दर्पण से मुक्त हो जाता है, और कुरूप आदमी दर्पण के आस-पास घूमता रहता है। वह जो कुरूपता का बोध है, वह किसी भांति दर्पण से पक्का कर लेना चाहता है कि मिट जाए, नहीं है अब। सुंदर दर्पण से मुक्त हो जाता है। असल में जितनी बार हम दर्पण को देखते हैं, उतना ही हमारा कुरूपता का बोध है। और किसी भांति पक्का कर लेना चाहते हैं कि दर्पण कह दे कि अब हम कुरूप नहीं हैं। विश्वास हमें आ जाए कि अब हम कुरूप नहीं हैं। लेकिन घड़ी भर बाद फिर दर्पण देखना पड़ता है। क्योंकि वह जो कुरूपता का बोध है, वही दर्पण में दिखाई पड़ता है बार-बार।

शास्त्र में वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं।

लेकिन यह बात ठीक है कि आज नहीं कल, मेरे शब्द इकट्ठे हो जाएंगे और शास्त्र बन जाएंगे। और जिस दिन मेरे शब्द शास्त्र बन जाएं, उसी दिन उनकी हत्या हो गई।

फिर भी ध्यान रहे कि मैं किताब का विरोधी नहीं हूं, शास्त्र का विरोधी हूं, और इन दोनों में फर्क करता हूं।

किताब का दावा नहीं है सत्य देने का, किताब का दावा सिर्फ संग्राहक होने का है। किसी ने कुछ कहा था, वह संग्रह किया गया। शास्त्र का दावा सिर्फ संग्राहक होने का नहीं है, शास्त्र का दावा सत्य को देने का है। शास्त्र का दावा यह है कि मैं सत्य हूं।

जो किताब यह दावा करती है कि मैं सत्य हूं, वह शास्त्र बन जाती है। जो किताब सिर्फ विनम्र संग्रह है, और दावा नहीं करती, जैसा कि मैंने कल लाओत्से का कहा कि किताब के पहले उसने लिखा कि जो कहा जाएगा वह सत्य नहीं होगा, इसे समझ कर किताब को पढ़ना। यह शास्त्र नहीं बन रही है यह किताब। यह विनम्र किताब है, यह सिर्फ संग्रह है। और इस किताब को अगर कोई शास्त्र बनाता है तो वह खुद ही जिम्मेवार है। यह किताब उस पर बोझ बनने की तैयारी में नहीं थी। यह किताब उसको मुक्त करने की तैयारी में थी। पूरा इसका भाव यही था।

तो मेरी सारी बातें ऐसी हैं कि अगर उनको काट-पीट न किया जाए तो शास्त्र बनाना मुश्किल है, ज्यादा से ज्यादा किताब बन सकती है। लेकिन शास्त्र बनाए जा सकते हैं। शास्त्र बनाए जाना कठिन नहीं है। क्योंकि शास्त्र कोई बोलता है कुछ, इससे नहीं बनते; कोई पकड़ता है, इससे बनते हैं। यानी शास्त्र महावीर के बोलने से नहीं बनता, गणधरों के पकड़ने से बनता है। और पकड़ने वाले हैं।

तो पकड़ने वाला पकड़ ही न पाए, इसका सारा उपाय हमारी वाणी में होना चाहिए। यानी वह वाणी ऐसी कांटों वाली हो और ऐसे अंगारे से भरी हो कि पकड़ना मुश्किल हो जाए। लेकिन फिर भी अंगारे भी बुझ जाते हैं और एक न एक दिन राख हो जाते हैं और पकड़ने वाले उनको मुट्ठी में पकड़ लेंगे। इसका मतलब सिर्फ यह हुआ कि बार-बार ज्ञानी को पुराने ज्ञानियों की दुश्मनी में खड़ा होना पड़ता है।

अब यह बड़ा उलटा काम है। निरंतर ज्ञानी को पुराने ज्ञानियों की दुश्मनी में खड़ा होना पड़ता है। और यह दुश्मनी नहीं है। इससे बड़ी कोई मित्रता नहीं हो सकती। क्योंकि इस भांति जो राख पकड़ ली गई है, उसको छुड़ाने का कोई और रास्ता नहीं होता।

तो अगर जो महावीर को प्रेम करता है, उसे जैनियों के खिलाफ खड़ा होना ही पड़ेगा। अगर महावीर भी लौट आएं तो उनको भी खड़ा होना पड़ेगा। क्योंकि जो उन्होंने दिया था, वह जीवित अंगारा था। वह पकड़ा नहीं जा सकता था, सिर्फ जीया जा सकता था, समझा जा सकता था। फिर अब राख रह गई है, उसको लोगों ने पकड़ लिया है। और उसको पकड़ कर वे बैठ गए हैं!

तो दुनिया में जो एक करिश्मे की बात दिखाई पड़ती है, आश्चर्यजनक मालूम पड़ती है कि क्यों कभी ऐसा होता है कि कृष्ण के खिलाफ महावीर खड़े हैं? कि महावीर के खिलाफ बुद्ध खड़े हैं? कि बुद्ध के खिलाफ कोई और खड़ा है? यह कैसा अजीब है!

होना तो यह चाहिए कि महावीर बुद्ध का समर्थन करते हों, क्राइस्ट बुद्ध का समर्थन करते हों, मोहम्मद महावीर का समर्थन करते हों; महावीर, कृष्ण, राम का समर्थन करते हों। होना तो यह चाहिए, लेकिन हुआ इससे उलटा ही।

होने का कारण है। इसके पहले कि किसी के जीवन में नए ज्ञान की किरण आए, जैसे ही वह किरण आती है, उसे दिखाई पड़ता है, लोगों के हाथ में राख है। कभी वह भी किरण थी, लेकिन अब राख है। और समझाया न जाए कि यह राख है, तो छुटकारा होने वाला नहीं है।

फिर भी न बुद्ध महावीर के खिलाफ हैं, न महावीर कृष्ण के खिलाफ हैं। खिलाफ हैं शास्त्र बन जाने के। और जो भी शास्त्र बन जाता है, वह सत्य मर जाता है।

तो इसको स्मरण रखें, तो शास्त्र बनने की उम्मीद मिटती है, आशा मिटती है। लेकिन फिर भी बन सकता है, इसलिए लड़ाई जारी रहेगी। इसलिए किसी ज्ञानी पर लड़ाई खतम नहीं हो जाएगी। ज्ञानी होंगे और आने वाले ज्ञानियों को उनका खंडन करना पड़ेगा।

यह बड़ा कठोर कृत्य है। लेकिन प्रेम इतना कठोर भी होता है। यह बड़ा कठोर कृत्य है। यह बड़ा कठोर कृत्य है कि…झेन फकीर हुए हैं, अब झेन फकीर बुद्ध के अनुयायी हैं। लेकिन झेन फकीर अपने अनुयायियों से कहते हैं कि अगर बुद्ध बीच में आए तो एक चांटा मार कर अलग कर देना। और आएगा बुद्ध बीच में तुम्हारे। परम ज्ञान के उपलब्ध होने के पहले बुद्ध तुम्हारे बीच में मार्ग रोकेगा। तो एक चांटा मार कर अलग कर देना।

एक झेन फकीर तो यह भी कहता था कि बुद्ध का मुंह में नाम आए तो कुल्ला करके पहले मुंह साफ कर लेना, फिर दूसरा काम करना।

तो उसके शिष्य पूछते, यह तुम क्या कहते हो? और बुद्ध की मूर्ति रखे हुए हो अपने मंदिर में!

वह कहता, ये दोनों ही सही हैं। बुद्ध से हमारा प्रेम है, लेकिन बुद्ध किसी के आड़े आ जाए, तो उससे हमारी लड़ाई है। और इसके लिए बुद्ध का आशीर्वाद हमको मिला हुआ है। यानी हमने बुद्ध से यह पूछ लिया है कि हम लोगों से यह कहें तो कुछ बुरा तो नहीं कि तुम्हारा नाम मुंह में आ जाए तो कुल्ला करके साफ कर लेना?

अब इसको समझना हमें मुश्किल हो जाएगा इस आदमी को, लेकिन यह आदमी है। और यह ठीक कह रहा है। एक तरफ यह कह रहा है कि हम…एक मूर्ति रखी हुई है और रोज सुबह उसके सामने फूल भी रख आता है! और लोगों को समझाता है कि बुद्ध से बचना, इससे खतरनाक आदमी ही नहीं हुआ! और इसका नाम भी आए मुंह में तो बस कुल्ला करके साफ कर लेना! इतना अपवित्र है यह नाम, अपवित्र! और कहता है बुद्ध से पूछ लिया है और आशीर्वाद ले लिया है, कि हां यह करो!

अब इसके मतलब क्या हैं? इसके मतलब ये हैं कि हर चीज बाधा बन जाती है। असल में जो भी सीढ़ी है, वह मार्ग का पत्थर भी बन सकती है। और जो भी पत्थर है, वह मार्ग की सीढ़ी भी बन सकता है। सब कुछ बनाने वाले पर निर्भर है। और जब पुरानी सीढ़ी पत्थर बन जाती है तो उसे हटाने की बात करनी पड़ती है, उसे मिटाने की बात करनी पड़ती है। यह लड़ाई जारी रहेगी। यह लड़ाई निरंतर जारी रहेगी। इस लड़ाई को रोकना मुश्किल है।

यानी मैं जो कह कर जाऊंगा, कल किसी को हिम्मत जुटा कर उसे गलत कहना ही पड़ेगा। मैं जो कह कर जाऊंगा, मुझे प्रेम करने वाले किसी व्यक्ति को मेरे खिलाफ लड़ना ही पड़ेगा। इसके सिवाय कोई उपाय ही नहीं। क्योंकि वे सुनने वाले उसको पकड़ेंगे और शास्त्र बनाएंगे और कल उससे छुटकारा दिलाना होगा। यानी जो व्यक्ति भी हमारे लिए मुक्तिदायी सिद्ध हो सकते हैं, हम उन्हें बंधन बना लेते हैं। और जब उन्हें बंधन बना लेते हैं तो उनसे भी मुक्ति दिलानी पड़ती है। और जो हमें फिर मुक्ति दिलाता है, हम उसे फिर बंधन बना लेते हैं। लंबी कथा है यह कि मुक्तिदायी विचार भी कैसे बंधन बन जाते हैं, मुक्तिदायी व्यक्ति भी कैसे बंधन बन जाते हैं, फिर कैसे उनसे छुड़ाना पड़ता है।

और इसलिए कोई भी विचार सदा रहने वाला नहीं हो सकता। और इसलिए कोई भी विचार की एक सीमा है प्रभाव की, जीवंत। उस प्रभाव क्षेत्र में जितने लोग आ जाते हैं, और जो जीवंत प्रयोग में लग जाते हैं, वे तो निकल जाते हैं। पीछे फिर राख रह जाती है।

और इसलिए सब तीर्थंकरों, सब अवतारों, सब उन द्रष्टावान लोगों के आस-पास राख का संग्रह हो जाता है। और वह जो राख का संग्रह है, वह संप्रदाय बन जाता है। और फिर वे राख के संग्रह एक-दूसरे से लड़ते हैं, झगड़ते हैं, उपद्रव करते हैं। और तब जरूरत होती है कि कोई फिर खड़ा हो और सारी राख को मिटा दे।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं होता कि वह राख नहीं बन जाएगा, वह बनेगा। जो भी अंगारा जलेगा, वह बुझेगा। जो विचार एक दिन जीवंत होगा, वह एक दिन मृत हो जाएगा। जब महावीर ही मिट जाते हैं, जब बुद्ध ही मिट जाते हैं, तो जो कहा हुआ है, वह भी मिट जाएगा। इस जगत में जिसमें हम जी रहे हैं, इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं है। न कोई वाणी, न कोई विचार, न कोई व्यक्ति–कुछ भी शाश्वत नहीं है। यहां सभी मिट जाएगा। मिट जाने के बाद भी पकड़ने वाला आग्रह उसको पकड़े रखेगा।

और तब किसी को चेताना पड़ेगा कि लहर चली गई है, हाथ तुम्हारा खाली है, तुम कुछ भी नहीं पकड़े हुए हो। अब दूसरी लहर आ गई है, तुम पुरानी लहर के चक्कर में पड़े हो। उसे पकड़े रहे, तो यह नई लहर से भी चूक जाओगे और पुरानी लहर जा चुकी है।

यह जो हमें खयाल में आ जाए, तो मैं शास्त्र की निंदा नहीं कर रहा हूं, शास्त्र की वस्तुस्थिति क्या है, वह कह रहा हूं। और वह जो तुम कहते हो, वह ठीक है। मेरी बहुत सी बातें शास्त्र में मिल जाएंगी–इसलिए नहीं कि वे शास्त्र में हैं, इसलिए कि तुम मेरी बातों को समझ लोगे। अगर मेरी बातें तुम्हें समझ में पड़ गईं, तो तुम्हें शास्त्र में मिल जाएंगी। क्योंकि शास्त्र में तुम्हें वही मिल जाएगा, जो तुम्हारी समझ है। जो तुम्हारी समझ है, वही मिल जाएगा। क्योंकि हम शास्त्र में अपनी समझ डालते हैं।

आमतौर से हम सोचते हैं कि शास्त्र से समझ निकलती है। निकलती नहीं, हम शास्त्र में अपनी समझ डालते हैं। इसीलिए तो गीता की हजार टीकाएं हो सकती हैं। अगर गीता से समझ निकलती हो तो हजार टीकाएं कैसे हो सकती हैं? और कृष्ण के अगर हजार मतलब रहे हों तो कृष्ण का दिमाग खराब रहा होगा। कृष्ण का मतलब तो एक ही रहा होगा। हजार टीकाएं हो सकती हैं, लाख टीकाएं हो सकती हैं, क्योंकि हर एक व्यक्ति अपनी समझ उसमें खोज लेगा। और शब्द इतना बेजान है कि तुम उसे मार-ठोंक कर जहां लाना चाहो, वहां आ जाता है। वह कुछ कर ही नहीं सकता। तुमने उसकी गर्दन में डाली फांस और खींचा, तो तुम जहां लाना चाहते हो, वहां ले आते हो।

तो उसी गीता से शंकर निकाल लेंगे कि जगत सब माया है, और कर्ममुक्त हो जाना ही संदेश है। और उसी गीता से तिलक निकाल लेंगे कि कर्म ही जीवन है, और जीवन सत्य है। उसी गीता से दोनों निकल आएंगे। उसी गीता से अर्जुन निकालता है कि युद्ध में जूझ जाओ।

अर्जुन सुनने वाला है, श्रोता है पहला वह। पहली टीका उसी की है समझो। पहला कमेंटेटर वही है। सुना है उसने। तो सुन ही तो नहीं लिया, जो सुना है उसको समझा है, गुना है, अपना मतलब निकाला है। अर्जुन मतलब निकाल लेता है, युद्ध में जूझ जाओ, और महाभारत का युद्ध हो जाता है। और उसी गीता को गांधी अपनी माता समझते हैं, और अहिंसा का संदेश निकालते हैं।

यानी अब यह बहुत मजेदार मामला है कि अर्जुन हिंसा में उतर जाता है और गांधी उसको जिंदगी भर हाथ में रख कर अहिंसा में चले जाते हैं। तो गीता बेचारी कुछ है कि गीता में कुछ हम डालते हैं?

शास्त्र अपनी बुद्धि को बाहर निकाल कर पढ़ने का उपाय है। भीतर पढ़ना जरा मुश्किल है, इसलिए प्रोजेक्ट कर लेते हैं पर्दे पर। शास्त्र पर्दा बन जाता है। उस पर अपने भीतर को बाहर लिख लेते हैं। फिर हमें दोहरी तृप्ति मिल जाती है। एक तो हमें अपने पर विश्वास नहीं है, तो जब हम गीता में पढ़ लेते हैं अपने को, तो हम मजबूत, पक्के हो जाते हैं कि ठीक है, क्योंकि कृष्ण भी यही कहते हैं। यानी हम, हमें कोई भटक जाने का डर नहीं है, महावीर भी यही कहते हैं, बुद्ध भी यही कहते हैं।

इस भूल में पड़ना ही मत कि अनुयायी ने कभी भी बुद्ध का या महावीर का साथ दिया है, अनुयायी ने बुद्ध और महावीर का साथ लिया है। दिखता हमें ऐसा है कि महावीर के पीछे चल रहा है महावीर का अनुयायी। सच्चाई उलटी है, महावीर का अनुयायी महावीर को अपने पीछे चला रहा है। और चला कर आश्वस्त है कि हम कोई गलती में तो हो नहीं सकते, क्योंकि महावीर साथ हैं। तो वह हर चीज का निकाल लेता है, हर चीज के उपाय निकाल लेता है।

शब्द में कोई अर्थ नहीं है। शब्द तो कोरी ध्वनि है, अर्थ हम डालते हैं। इसलिए ऐसा भी हो जाता है कि शब्द चलते-चलते अपने विरोधी अर्थों के व्यंजक तक भी हो जाते हैं। यानी वही शब्द हजार साल पहले कुछ था, हजार साल बाद ठीक उलटा हो गया।

अब अंग्रेज हिंदुस्तान में आए, तो पहला संपर्क उनका बंगालियों से पड़ा। बंगालियों की मछली की बदबू और उनके शरीर का गंदापन उनको बास देता था। बास की वजह से वे कहते थे बाबू। बाबू का मतलब, बू-सहित–जिसमें बदबू आ रही हो। और अब बाबूजी से ज्यादा कीमती शब्द नहीं है इस वक्त–कि आइए, बाबूजी! वह बदबू की वजह से, सिर्फ गंदगी की वजह से कि बंगाली से बास आती है मछली की, खाने-पीने की।

अभी भी, दूसरा उतना बाबू नहीं हो पाया है; बंगाली बाबू अब भी बाबू है। लेकिन अब आदर का शब्द हो गया है। आदर का इसलिए हो गया है कि अंग्रेज सत्तावान थे। जिसको उन्होंने बाबू कहा, वह आदृत हो गया। और जब अंग्रेज ने बाबू कह दिया और गवर्नर ने किसी को बाबू कहा तो वह बाहर अकड़ कर निकला कि हम कोई साधारण थोड़े हैं, हम बाबू! और दूसरे लोग भी उसको बाबू कहने लगे। अब बाबू बड़ा कीमती शब्द है!

शब्दों की यात्रा है, हम उनमें क्या डालते हैं, यह हम पर निर्भर है। कैसे हम…शब्द में कुछ भी नहीं है, हम उसमें डालते हैं। अर्थ हमारा है, शब्द कोरा, खाली है। शब्द कंटेनर है, डब्बा है खाली। कंटेंट हम डालते हैं। और कंटेंट हमारे हाथ में है बिलकुल कि हम क्या डालेंगे।

इसलिए हर पीढ़ी, हर युग, हर आदमी अपना कंटेंट डाल देता है। जो बहुत कुशल हैं डालने में, वे किसी भी चीज से कोई भी अर्थ निकाल सकते हैं, उन पर कोई शब्द का बंधन ही नहीं है। कोई बंधन ही नहीं है।

तो इसलिए मैं कहता हूं कि…अब मेरी बात समझ में आ जाए तो शास्त्र में मिल जाएगी। शास्त्र की बात तुम्हारी पकड़ में हो तो मेरी बात में मिल जाएगा। लेकिन इसमें पड़ना ही मत। इसमें पड़ना ही मत, क्योंकि यह पड़ना ही गलत दिशा में ले जाता है। जब मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूं, तो सीधा ही मुझे लेना, शास्त्र को बीच में लाना ही मत। सीधा ही मुझे समझने की कोशिश करना, कंपेयर ही मत करना, तुलना ही मत करना कि यह कहां है और कहां नहीं है। होगा तो ठीक, नहीं होगा तो ठीक। सीधे ही समझने की कोशिश उपयोगी है, क्योंकि तभी हम ज्यादा से ज्यादा समझ सकते हैं। और जो हमारी समझ में आ जाए, वह हमें सब जगह दिखाई पड़ने लगेगा।

अ प्रश्न:

 

पढ़ने और सुनने से ज्ञान नहीं होता है तो फिर पढ़ने और सुनने की जरूरत क्या है? और उसके बाद, आप स्वयं इतने समय तक अभी पढ़ा और सुना ही तो रहे हैं! उसमें भेद क्या है?

 

हां, असल में जिंदगी बड़ी विरोधी चीजों से बनी है। और यह बात सच है कि पढ़ने-समझने से, सुनने से, ज्ञान नहीं आ जाता है। अगर यह बोध बना रहे कि पढ़ने और सुनने से ही ज्ञान नहीं आ जाता है, तो पढ़ना-सुनना भी तुम्हारे भीतर ज्ञान को लाने के लिए निमित्त बन सकता है–अगर यह बोध बना रहे कि इससे ही ज्ञान नहीं आ जाता है। और अगर यह खयाल हो जाए कि पढ़ना-सुनना ही ज्ञान दे देता है, तो तुम्हारे भीतर कभी ज्ञान नहीं आएगा। यह निमित्त नहीं बनेगा, यह बाधा बन जाएगी।

अब ये बातें उलटी दिखती हैं ऊपर से। अगर तुम्हें पक्का स्पष्ट है यह कि क्या पढ़ने से मिलेगा, तो तुम्हें पढ़ने से भी कुछ मिल सकता है। क्योंकि तब तुम पढ़ने को नहीं पकड़ लोगे, क्योंकि वह तो तुम्हें स्पष्ट ही है कि पढ़ने से कुछ नहीं मिलता। तब तुम सुनने को नहीं पकड़ लोगे; तब तुम सोचोगे, समझोगे, खोजोगे; वह तुम्हारी जारी रहेगी खोज। और तब पढ़ना भी एक निमित्त बन सकता है तुम्हारी खोज का।

तो शास्त्रों से वे लोग फायदा भी उठा सकते हैं, जो शास्त्रों से नहीं बंधे हैं। जो बिलकुल मुक्त हैं शास्त्रों से। जिन्हें खयाल ही नहीं है कि शास्त्र से ज्ञान मिल सकता है, वे शास्त्रों से भी फायदा उठा सकते हैं। और जिन्हें यह खयाल है कि शास्त्र में सब लिखा है, सब मिल जाएगा, वे शास्त्रों को अपनी छाती पर रख कर सिर्फ डूब जाते हैं और कुछ भी नहीं कर पाते।

अब मेरी बहुत बातें उलटी तुम्हें दिखाई पड़ सकती हैं, क्योंकि जिंदगी ही उलटी है। और यहां बड़े अजीब मामले हैं। यहां ऐसा मामला है कि यहां अगर हमने…समझ लो कि एक आदमी ऐसा पक्का समझ ले कि शास्त्र पढ़ लिया तो सब मिल गया। तो वह पढ़ता रहे शास्त्र, इकट्ठा करता रहे। बहुत इकट्ठा कर ले, और उसको कभी कुछ न मिले, क्योंकि उसने मिलने की सारी बात शास्त्र पर छोड़ दी है तो उसकी अंतर्खोज तो सब खतम हो गई है। जब शास्त्र से मिल जाता है तो अंतर्खोज की जरूरत क्या है? तो इकट्ठा कर लेगा शास्त्र और अंतर्खोज क्षीण होती जाएगी, मर जाएगी। जितना शास्त्र ज्यादा हो जाएगा, उतना अंतर्खोज मर जाएगी।

लेकिन एक आदमी है जो सचेत है पूरा, कि शास्त्र से क्या मिलने वाला है, शब्द ही है वहां। अंतर्खोज जारी रखी है उसने। अंतर्खोज जारी है। तो जितनी अंतर्खोज होती चली जाती है, उतना ही उसे शास्त्र में मिलने लगता है। क्योंकि जितना उसे दिखाई पड़ने लगता है…क्योंकि शास्त्र आखिर जिन्होंने कहा है, उन्होंने जान कर ही कहा है। कहा नहीं जा सकता, मुश्किल है कहना, तो भी जान कर ही कहा है। तो भी जाना है उन्होंने, तो ही कहा है। कोड है वह तो। इसमें कुछ जानने वालों ने कुछ प्रतीक छोड़े हैं।

अब जैसे समझ लें, एक मंदिर है, वहां एक मूर्ति रखी है। यह भी एक कोड है, यह भी एक शास्त्र है। इधर अक्षरों में लिखा है, यहां हमने पत्थर में खोदा है। सब मंदिर कोड लैंग्वेज में हैं। अब नए मंदिर नहीं हैं, क्योंकि नए मंदिर का उससे कोई संबंध नहीं रह गया। जितने नए मंदिर बन रहे हैं, उनका कोई संबंध नहीं है अब। क्योंकि अब हमें पता ही नहीं है, अब हम कुछ और ही हिसाब से बना रहे हैं। नया आर्किटेक्ट जा रहा है उसमें, नई बिल्डिंग की डिजाइन जा रही है, वह सब जा रहा है। लेकिन पुराना, जितना पुराना मंदिर है, उतना कोड लैंग्वेज में है।

मंदिर की एक भाषा है, क्योंकि असल में आदमी की कितनी, कितनी करुणा भी है, कितनी कठिनाई भी है। जिनको एक बार कुछ पता चल गया है, वे चाहते हैं कि वह किसी तरह सुरक्षित रह जाए। शब्द में भी लिखते हैं, पत्थर में भी खोदते हैं, क्योंकि किताब गल जाएगी, जल जाएगी, तो पत्थर में खुदा रहेगा।

तो मंदिर के पत्थर में एक कोड खोदा हुआ है। और सारी व्यवस्था ऐसी की गई है कि जो अंतर्खोज में जाएगा, उसके लिए मंदिर एकदम सार्थक हो जाएगा। एकदम सार्थक हो जाएगा। क्योंकि तब उसे अर्थ ही दूसरे दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। उसे अर्थ दूसरे दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे।

अब तुम अगर मंदिर की बनावट देखो, तो चौकोन मंदिर बनेगा। मंदिर चौकोन होगा, लेकिन उसके ऊपर का जो गुंबद है, वह गोल होगा। यानी दो हिस्सों में मंदिर बंटा हुआ है, नीचे का चौकोन हिस्सा है, ऊपर का गोल हिस्सा है। भीतर तुम जाओगे, तो जहां मूर्ति स्थापित की गई है, उसे कहते हैं गर्भगृह। अब उसे क्यों गर्भगृह कहते हैं? वहां मूर्ति रखी है। उस मूर्ति की तुम्हें परिक्रमा करनी होती है। वह भी नियमित, कितनी करनी, वह भी सब नियमित है। उतनी तुम परिक्रमा करते हो। मंदिर चौकोन है, परिक्रमा गोल है। उस गोल परिक्रमा के बीच में ठीक केंद्र पर एक मूर्ति है। ऊपर भी मंदिर गोल है। अब यह एक कोड लैंग्वेज है।

इंद्रियां हमारे कोने हैं। और एक इंद्रिय में हम चले जाएं तो हम एक दिशा में चले जाएंगे। सब इंद्रियों के ऊपर कहीं न जाने वाली एक गोल स्थिति है, जिससे कोई दिशा नहीं जाती, जिसमें अंदर घूमना पड़ता है। कोना तो एक दिशा की तरफ इंगित करता है, पूरब तो पूरब की तरफ बढ़ते चले गए तो तुम पूरब चले जाओगे अंतहीन। लेकिन गोल घेरे में किसी दिशा की तरफ कोई इंगित नहीं है, वहां तुम्हें अंदर गोल घूमना पड़ता है।

तो एक तो हमारा शरीर है, जिसमें दिशाएं हैं, जिसमें से तुमने कोई भी दिशा पकड़ ली तो तुम अंतहीन जा सकते हो। और शरीर के भीतर हमारा एक गोल परिभ्रमण है–चित्त का, जहां कि तुम कहीं जा नहीं सकते, सिर्फ गोल घूम सकते हो। अगर कभी तुमने विचार पर खयाल किया होगा, तो तुम हैरान होओगे कि विचार सदा गोल घूमता रहता है, उसकी कभी कोई दिशा नहीं होती। तुम एक विचार सोचोगे, दूसरा सोचोगे, फिर तुम पहले पर आ जाओगे। तुमने कल जो सोचा था, फिर आज सोचने लगोगे, फिर कल सोचने लगोगे।

विचार का जो घेरा है, वह वर्तुल है, वह गोल घेरे में घूम रहा है। और तुम विचार में कभी भी सीधे नहीं जा सकते। और उसका वर्तुल सुनिश्चित है। अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर चित्त का थोड़ा विश्लेषण करेगा तो हैरान हो जाएगा, कि वह हमेशा गोल-गोल घूमता रहा–पूरी जिंदगी। वह परिक्रमा है। विचार परिक्रमा है। और अगर तुम विचार की परिक्रमा में ही घूमते रहे तो तुम भगवान तक कभी नहीं पहुंचोगे, क्योंकि वह उस परिक्रमा के ठीक भीतर है। इस परिक्रमा से उतरो तो तुम पहुंच पाओगे। इसके तुम लगाते रहो चक्कर हजार…।

अब दो बातें खयाल में हुईं। एक तो चौकोन दिशाओं वाला, जहां से डायमेन्शंस जाते हैं शरीर के–कि कोई आदमी भोजन के रस में चला गया, कोई आदमी सेक्स के रस में चला गया, कोई आदमी संगीत के रस में चला गया, कोई आदमी सौंदर्य के रस में चला गया–तो ये दिशाएं अंतहीन हैं, ये चली जाएंगी। और जितना तुम इनमें जाओगे, उतना ही तुम स्वयं से दूर निकलते चले जाओगे।

तो इसलिए बाहर के मंदिर के परकोटे को गोल नहीं बनाया है। परकोटा हमारा गोल नहीं है शरीर का, उसमें कोने हैं जिनसे यात्रा हो सकती है। और एक कोने पर तुम यात्रा करोगे तो तुम दूसरे कोनों से विरोध में हो जाओगे, एकदम। और एक ही कोना बढ़ता चला जाएगा। और अपने से निरंतर दूर होते चले जाओगे।

फिर हमारे भीतर…शरीर का परकोटा है, उसके भीतर चित्त का गोल परिभ्रमण है। अगर तुम इसमें घूमते रहे तो अनेक जन्मों तक घूमते रहो इस परिभ्रमण में तो भी परमात्मा तक नहीं पहुंचोगे, सत्य तक नहीं पहुंचोगे। कभी न कभी इस परिभ्रमण से उतर जाना पड़ेगा, अंदर चले जाना पड़ेगा। और मूर्ति जो है, वह बिलकुल थिर है। इसलिए सारी मूर्तियां थिरता की सूचक हैं।

इसलिए कई दफे हैरानी होती है। अब जैसे अभी जो बात चल रही थी न, उस पर इससे भी खयाल तुम्हें आ जाएगा। जैनों की चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं, तुम कोई फर्क नहीं बता सकते उनमें, सिवाय उनके चिह्नों के। अगर चिह्न अलग कर दिए जाएं तो मूर्तियां बिलकुल एक जैसी हैं। उनमें कोई भी फर्क नहीं है। महावीर की मूर्ति पार्श्व की हो सकती है, पार्श्व की नेमी की हो सकती है। सिर्फ नीचे का एक चिह्न भर है, उसको तुम अलग कर दो, तो किसी मूर्ति में कोई फर्क नहीं है।

क्या चौबीस ये आदमी एक जैसे रहे होंगे? क्या यह ऐतिहासिक हो सकता है मामला कि इन चौबीस आदमियों की एक जैसी आंख, एक जैसी नाक, एक जैसे चेहरे, एक जैसे बाल रहे हों? यह तो असंभव है। दो आदमियों का एक जैसा खोजना मुश्किल है। और ये चौबीस बिलकुल एक जैसे रहे हों, जिनमें भेद ही नहीं है कोई!

नहीं, यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं है, यह तथ्य ज्यादा आंतरिक है। क्योंकि जैसे ही व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, सब भेद विलीन हो जाते हैं और अभेद शुरू हो जाता है। वहां सब एक सा चेहरा है और एक सी नाक है और एक सी आंख है। मतलब केवल इतना है कि एक हमारे भीतर ऐसी जगह है, जहां नाक-चेहरे इत्यादि मिट जाते हैं और बिलकुल एक ही, एक ही रह जाता है, एक सा ही रह जाता है।

तो जो लोग एक जैसे हो गए हों, उनको हम कैसे बताएं? तो हमने मूर्तियां एक जैसी बना दी हैं–बिलकुल एक जैसी, उसमें कोई फर्क ही नहीं किया है।

मूर्तियां कभी एक जैसी नहीं रहीं। हो ही नहीं सकतीं। इसलिए मूर्तियों की चिंता ही नहीं करनी पड़ी। महावीर का चेहरा कैसे रहा हो, यह सवाल ही नहीं रहा है। उस चेहरे की हमने बात ही छोड़ दी है। अगर फोटोग्राफ लिया होता तो महावीर की मूर्ति से कोई मेल नहीं खा सकता था कभी भी। क्योंकि फोटोग्राफ सिर्फ बाहर को पकड़ता है, मूर्ति में हमने भीतर को पकड़ने की कोशिश की है। भीतर आदमी एक जैसे हो गए हैं। इसलिए अब इनकी बाहर की मूर्तियों को अलग-अलग रखना गलत सूचना हो जाएगी।

अब यह बड़े मजे की बात है कि भीतर को हमने बाहर पर जिता दिया है। फोटोग्राफ में बाहर भीतर पर जीत जाता है। फोटोग्राफ अलग-अलग होता है। लेकिन ये चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां अलग नहीं हैं, ये बिलकुल एक सी हैं।

अ प्रश्न:

 

इनका लेवल एक हो गया है?

हां, जैसे ही चेतना एक तल पर पहुंच गई है, सब एक हो गया है। यानी अगर इसे हम ठीक से कहें तो उनके चेहरे एक से हो गए, चेहरों में फर्क नहीं रहा। आंखें अलग-अलग रही होंगी, लेकिन जो उनसे झांकने लगा, देखने वाला, वह एक हो गया। ओंठ अलग-अलग रहे होंगे, लेकिन जो वाणी निकलने लगी, वह एक हो गई। भीतर सब एक हो गया।

तो एक गोल परिक्रमा है, जिसके हम चक्कर अनंत जीवन तक लगाते रहें तो भी गर्भगृह में हम प्रवेश नहीं कर पाएंगे। परिक्रमा से उतरना पड़ेगा, तो हम वहां जाएंगे, जहां भगवान को प्रतिष्ठित किया है। और भगवान को अगर हम वहां गौर से देखेंगे तो सब थिर है, सब शांत है। उस मूर्ति में सब शांत है, सब थिर है, जैसे वहां कोई गति ही नहीं है। कोई गति नहीं मालूम पड़ती। कोई कंपन नहीं है।

इसलिए पत्थर की मूर्तियां चुनी गईं, क्योंकि पत्थर हमारे पास सबसे ज्यादा ठहरा हुआ, सबसे ज्यादा ठहरा हुआ तत्व है, जिससे हम खबर दे सकें। सबसे ज्यादा ठहरा हुआ। और उस ठहराव में भी जो हमने रूप-रेखा चुनी है, वह बिलकुल ठहरी हुई है। मूवमेंट की बात ही नहीं है। इसलिए हाथ जुड़े हुए हैं, पैर जुड़े हुए हैं, पैर क्रास्ड हैं, हाथ जुड़े हुए हैं, आंखें आधी बंद हैं।

ध्यान रहे, आंख अगर पूरी बंद हो तो खोलनी पड़ेगी, आंख अगर पूरी खुली हो तो बंद करनी पड़ेगी, क्योंकि अति से लौटना पड़ता है। अति पर कोई ठहर नहीं सकता। अगर आप श्रम करें, तो आपको विश्राम करना पड़ेगा; अगर विश्राम करें बहुत, तो फिर आपको श्रम करना पड़ेगा।

अति पर कोई कभी ठहर नहीं सकता, इसलिए आंख को आधा खुला, आधा बंद रख दिया है–मध्य में, जहां से न यहां जाना है, न वहां जाना है। ठहरने का प्रतीक है वह सिर्फ। सब ठहर गया है, अब कहीं कुछ जाता-आता नहीं। अब कोई गति नहीं है–न पीछे लौटना है, न आगे जाना है, अब कहीं कुछ जाना नहीं है। यह सब ठहरा हुआ, वह बिलकुल केंद्र में है।

तो मंदिर प्रत्येक व्यक्ति का प्रतीक है कि तुम अपने साथ क्या कर सकते हो। या तो तुम बाहर के कोनों से जा सकते हो यात्रा पर, वह इंद्रियों की यात्रा होगी; या तुम भीतर मस्तिष्क के विचार में चक्कर लगा सकते हो, वह परिभ्रमण होगा; और या तुम सबके बीच में जाकर थिर हो जा सकते हो, वह उपलब्धि होगी।

हजार तरह की कोशिश की है–नृत्य में, संगीत में, चित्र में, मूर्ति में, शब्द में–हजार तरह की कोशिश की है। पिरामिड हैं इजिप्त के, बड़े अदभुत सीक्रेट्स हैं उनमें। वह सब खोद डाला उन्होंने कि कभी भी कोई जानने वाले लोग आएंगे, तो ये पत्थर न मिटेंगे। बड़ी मेहनत की, सब खोद डाला है कि कैसे, अंतरात्मा तक पहुंचने का क्या रास्ता है! तो पिरामिड के पूरे पत्थरों में सब इशारे खुदे हुए हैं। पूरे इशारे खुदे हुए हैं।

तो जिन लोगों ने जाना है, उन्होंने बहुत तरह की कोशिश की है कि जो जाना है, वह ठहर, किसी तरह छूट जाए और बाद में जब भी कोई जानने वाला होगा तो फौरन खोल लेगा कि वहां क्या है। वे कीज़ हैं, कुंजियां हैं, जिनसे बहुत ताले खुलते हैं।

लेकिन न आपको ताले का पता है, न आपको कुंजी का पता है। तो आप कुंजी भी लिए बैठे रहते हैं, ताला भी लटका रहता है, कुछ नहीं खुलता। और पहली बात यह है कि अगर जोर से किसी चीज को अंधे की तरह पकड़ लिया तो फिर तुम कभी नहीं कुछ खोल पाओगे।

तो इसलिए पकड़ना मत। जो मैं निरंतर कह रहा हूं, उसका कुल मतलब इतना है कि शास्त्र को पकड़ना मत–पढ़ना, पकड़ना मत। सुनना किसी को, लेकिन बहरे मत हो जाना। पढ़ो, अंधे मत हो जाना। सुनना और पूरी तरह जानते हुए सुनना कि सुनने से क्या हो सकता है। और मैं कहता हूं कि अगर इस तरह सुना तो सुनने से भी हो सकता है। पढ़ने से क्या हो सकता है, अगर ऐसा जानते हुए पढ़ा, तो पढ़ने से भी हो सकता है। हो सकने का मतलब यह कि वह भी निमित्त बन सकता है तुम्हारी भीतर की यात्रा का।

कोई भी चीज निमित्त बन सकती है, लेकिन अंधे होकर पकड़ लेने से सब बाधा हो जाती है। पढ़ो, सुनो, लेकिन प्रत्येक क्षण यह जानते रहो कि खोज मेरी है, और मुझे करनी होगी, इसमें मैं बासा और उधार सत्य नहीं ले सकता हूं। यह अगर स्मरण रहे तो, तो मैं जो कह रहा हूं, वह तुम्हारे लिए बाधा नहीं बनेगा। नहीं तो वह भी बाधा बन जाएगा। वह भी बाधा बन जाएगा।

अब तुमने देखा, खजुराहो के मंदिर हैं। तो जिनकी समझ में कुछ बात आई, उन्होंने कितनी मेहनत से खोदने की कोशिश की है! मंदिर के बाहर की दीवाल पर सारी सेक्स, सारी काम और योनि और यौन, सब खोद डाला है। बड़ी अदभुत बात खोदी है पत्थर पर। लेकिन भीतर मंदिर में नहीं है सेक्स का कोई चित्र, सब बाहर की परिधि पर खोदा गया है। और मतलब यह है सिर्फ कि जीवन की बाहर की परिधि सेक्स से बनी है, काम से बनी है। और अगर मंदिर के भीतर जाना हो तो इस परिधि को छोड़ना पड़ेगा। मंदिर के बाहर ही रहना हो, तो ठीक है, यही चलेगा।

काम, जीवन की बाहर की दीवाल है। और राम, भीतर मंदिर में प्रतिष्ठित है। जब तक काम में उलझे हो, तब तक भीतर नहीं जा सकोगे। लेकिन अगर उन सारे मैथुन चित्रों को कोई घूमता हुआ देखता रहे, देखता रहे, तो कितनी देर देखता है! फिर थक जाता है, फिर ऊब जाता है, फिर वह कहता है अब मंदिर–अंदर चलो। और अंदर जाकर बड़ा विश्राम पाता है, क्योंकि वहां तो एक दूसरी दुनिया शुरू हुई।

तो जब जीवन की अनंत-अनंत यात्राओं में थक जाएंगे हम सेक्स के जीवन से, बाहर-बाहर घूम-घूम कर, तब एक दिन मन कहेगा कि अब बहुत हुआ, अब बहुत देखा, अब बहुत भोगा, अब भीतर चलो।

इस तथ्य को पत्थर में खोद कर छोड़ दिया किन्हीं ने। जिन्होंने जाना उन्होंने छोड़ दिया। तंत्र के अनुभव से यह बात उनको दिखाई पड़ी कि दो ही तरह का जीवन है, या तो काम का या राम का। और काम राम के मंदिर की बाहर की दीवाल है।

तो ऐसा नहीं है कि काम राम का दुश्मन है, सिर्फ बाहर की दीवाल है। राम को वही सुरक्षित किए हुए है चारों तरफ से। राम के रहने का घर उसी से बना है। राम को निवास न मिलेगा, अगर काम न रह जाए। तो काम दुश्मन भी नहीं है, फिर भी काम रोकने वाला है। अगर बाहर ही घूमते रहे, घूमते रहे, तो भूल ही जाओगे कि मंदिर में एक जगह और थी, जहां काम न था। जहां कुछ और शुरू होता था, एक दूसरी ही यात्रा शुरू होती थी।

लेकिन जब ऊब जाओ तभी तो भीतर जाओगे। अभी भी मैं देखता हूं, कभी जाकर खजुराहो बैठ जाता हूं तो जो देखने वाले आते हैं, वे पहले तो बाहर ही घूमते हैं, भीतर मंदिर में कोई सीधा नहीं जाता। कभी कोई गया ही नहीं। भीतर मंदिर में कोई सीधा जा भी कैसे सकता है? उधर बैठ कर देखता हूं तो जो भी यात्री आता है वह पहले बाहर।

और इतने अदभुत चित्र हैं कि कहां भीतर जाना है? कैसा भीतर? और वे इतने उलझाने वाले हैं, और इतने अदभुत हैं कि इतनी तो मैथुन प्रतिमाएं इस अदभुत ढंग से दुनिया में कहीं नहीं खोदी गईं।

असल में दुनिया में कहीं इस गहरे अनुभव को बहुत कम लोग उपलब्ध हुए। इसीलिए इसको खोदने का उपाय न था। खोद ही नहीं पाए वे। अब पश्चिम करीब पहुंच रहा है, जहां हमने हजार, दो हजार साल पहले खोदे, वहां अब पहुंच रहा है, अब वहां सेक्स की परिधि अपनी पूरी तरह प्रकट हो रही है। तो हो सकता है कि सौ, दो सौ वर्षों में वह भीतर के मंदिर को भी निर्मित करे। जोर से परिभ्रमण हो रहा है सेक्स का अब, तो भीतर का मंदिर निर्मित होगा।

तो मैं देखता हूं वहां तो बाहर यात्री घूम रहा है, धूप तेज होती जाती है और यात्री है कि एक-एक, एक-एक, मैथुन चित्र को देखता चला जाता है। थक गया है, पसीना-पसीना हो गया है, सब देख डाला बाहर। फिर वह कहता है चलो, अब भीतर भी देख लें।

बाहर से थक जाएगा, थक जाएगा, थक जाएगा, तो कोई भीतर जाएगा। अब इसको पत्थर में भी खोदा है, कितनी मेहनत की है! इसे किताबों में भी लिखा है। लेकिन किताब में इतना ही लिखना पड़ेगा कि बाहर से जब थक जाओगे, काम से जब थक जाओगे, तब राम की उपलब्धि हो सकती है। लेकिन हो सकता है इतना सा वाक्य किसी के खयाल में ही न आए, हो सकता है इसे पढ़ कर तुम कुछ भी न समझो, तो इसका एक मंदिर भी बनाया है।

इसके और हजार रूप भी खोजे थे–संगीत से भी, नृत्य से भी–सब तरफ से। सब माध्यम से जिसको भी ज्ञात हो गया है, वह कोशिश करेगा तुम्हें खबर देने की। लेकिन फिर भी जरूरी नहीं…अगर तुमने खबर को ही पकड़ लिया, जैसे किसी ने कहा कि ठीक है, अगर यही सत्य है कि खजुराहो के मंदिर में बाहर काम है, अंदर राम है, तो हम इसी मंदिर में ठहरे जाते हैं, झंझट छोड़ें। जब यही सत्य है, और सब सत्य इसमें खोदा हुआ है, तो हम इसी मंदिर के पुजारी हुए जाते हैं।

तो हो जाओ तुम पुजारी, चूक गए तुम बात। अगर तुम समझ जाते तो इस मंदिर से कुछ लेना-देना ही न था, बात खतम हो गई थी। अगर इशारा समझ में आ गया था तो इस मंदिर में अब न भीतर था, न बाहर था कुछ, अब बात खतम हो गई थी। अब तुम कहते कि ठीक है! और तुम लोगों से कहते कि देखना, मंदिर में मत उलझ जाना, मंदिर से कुछ न मिलेगा। और अगर ध्यान रहा कि मंदिर से कुछ न मिलेगा तो शायद खोजो और मंदिर से भी कुछ मिल जाए।

तो मेरी कोई शत्रुता नहीं है। शत्रुता होने का सवाल ही नहीं है। न कोई निंदा है। क्योंकि निंदा करने का क्या अर्थ हो सकता है? जो मैं कह रहा हूं, फिर कह रहा हूं। तो कहे हुए की निंदा करने का क्या अर्थ हो सकता है? जो मैं कह रहा हूं, वह फिर लिखा जाएगा। तो लिखे हुए की निंदा का क्या अर्थ हो सकता है? लेकिन इतनी चेतावनी जरूरी है कि न निंदा करना, न प्रशंसा करना–समझना। समझा तो वह मुक्ति की तरफ ले जाता है।

कुछ और इस संबंध में हो तो बात कर लो, फिर रात अपन अलग बात करेंगे।

अ    प्रश्न: तीर्थंकरों की सारी मूर्तियों की समानता की बात जो है, तो सिर्फ तीर्थंकरों की क्यों, बुद्ध और महावीर में भी वही मूर्तियों की समानता और वही रूप की समानता है। वही क्राइस्ट और राम और कृष्ण, सब में वही समानता है। लेकिन ये अलग-अलग व्यक्ति हुए। इनकी बात छोड़ें, हम केवल बुद्ध और महावीर की बात लें। दोनों समकालीन थे। दोनों में से दोनों ने क्यों नहीं कहा कि जो मैं हूं, वही बुद्ध हैं, जो मेरा रूप है, वही बुद्ध का रूप है? और बुद्ध ने क्यों नहीं कहा कि जो मैं हूं, वही महावीर का रूप है?

यह बहुत विचारणीय बात है। चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां एक जैसी हैं, तो क्यों क्राइस्ट की, क्यों बुद्ध की वैसी नहीं? और न हों–ठीक कहते हैं आप–कम से कम बुद्ध तो महावीर के साथ ही थे, एक ही समय में थे, इन दोनों की मूर्तियां एक जैसी हो सकती थीं!

लेकिन नहीं हैं, और नहीं हो सकती थीं। और कारण हैं। और कारण ये हैं कि यह जो चौबीस तीर्थंकरों की एक धारा है, इस धारा ने एक सोचने का ढंग निर्मित किया है, अभिव्यक्ति की एक कोड लैंग्वेज निर्मित की है इस धारा ने। और यह धारा कोई तीर्थंकर नहीं बनाते हैं, यह धारा तीर्थंकरों के आस-पास निर्मित होती है। यह सहज निर्मित होती है। एक भाषा, एक ढंग, एक प्रतीक की व्यवस्था निर्मित हुई है। शब्दों की परिभाषा और एक ढंग निर्मित हुआ है। और यह ढंग कोई तीर्थंकर निर्मित नहीं करते, उनके होने से निर्मित होता है, उनकी मौजूदगी से निर्मित होता है।

जैसे कि सूरज निकला। अब सूरज कोई आपकी बगिया के फूल निर्मित नहीं करता है, लेकिन सूरज की मौजूदगी से फूल खिलते हैं, निर्मित होते हैं। सूरज न निकले, तो आपकी बगिया में फूल नहीं खिलेंगे। फिर भी सूरज सीधा जिम्मेवार नहीं है आपके फूल खिलाने को।

फिर आपने अपनी बगिया में एक तरह के फूल लगा रखे हैं और मैंने अपनी बगिया में दूसरी तरह के, तो मेरी बगिया में दूसरी तरह के फूल खिलते हैं, आपकी बगिया में दूसरी तरह के। और दोनों सूरज से खिलते हैं, और फिर भी दोनों में भेद होगा। और आपने अपनी बगिया में दस तरह के फूल लगा रखे हैं तो उनमें भी भेद होगा।

तो प्रत्येक धारा में, जैसे कि चौबीस तीर्थंकरों की एक धारा है, वह एक प्रतीक व्यवस्था में वह धारा खड़ी हुई है। तो उसके अपने प्रतीक हैं, अपने शब्द हैं, अपनी कोड लैंग्वेज है। और वह उसके आस-पास जो एक वर्तुल खड़ा हो गया है–उन शब्दों, उन प्रतीकों के आस-पास–वह न दूसरे प्रतीक समझ सकता है, न पहचान सकता है।

बुद्ध की एक बिलकुल नई परंपरा शुरू हो रही है, जिसके सब प्रतीक नए हैं। और मैं मानता हूं कि उसका भी कारण है। असल में पुराने प्रतीक एक सीमा पर जाकर जड़ हो जाते हैं और हमेशा नए प्रतीकों की जरूरत पड़ती है। और अगर बुद्ध यह कह दें कि जो मैं कह रहा हूं, वही महावीर कहते हैं, तो जो फायदा बुद्ध पहुंचा सकते हैं, वह कभी नहीं पहुंचा सकेंगे। महावीर पर एक धारा खतम हो रही है और जड़प्राय होकर नष्ट हो रही है। महावीर अंतिम हैं–एक भाषा के। और वह भाषा जड़ हो गई है और उखड़ गई है, अब उसकी गति चली गई है, टूटने के करीब हो गई है। बुद्ध बिलकुल एक नई धारा के फिर प्रारंभ हैं। इस नई धारा को पूरी चेष्टा करनी पड़ेगी कि वह कहे कि यह महावीर वाली तो है ही नहीं। यानी मजा यह है कि पूरी तरह जानते हुए कि जो महावीर हैं, वही बुद्ध हैं, बुद्ध को पूरे समय जोर देना पड़ेगा और ज्यादा जोर देना पड़ेगा कि कहीं भूल-चूक से भी यह उस धारा से न जुड़ जाए। क्योंकि वह जो मरती हुई धारा हो गई है, जिसका वक्त पूरा हो गया है, विदा हो रही है, अगर उससे यह भी जुड़ गई तो यह जन्म ही नहीं ले पाएगी।

मेरा आप मतलब समझ रहे हैं न? मेरा मतलब यह है, तो बुद्ध को बहुत सचेत होना पड़ेगा। इसलिए–खयाल में आपको आ जाए–महावीर ने बुद्ध के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा है। और महावीर ने कभी बुद्ध का कोई खंडन नहीं किया। लेकिन बुद्ध ने बहुत बार महावीर का खंडन किया, और बहुत शब्द कहे, और बहुत कठोर शब्द कहे।

और इसी वजह से मैं कहता हूं कि महावीर बूढ़े थे और बुद्ध जवान थे, महावीर विदा हो रहे थे और बुद्ध आ रहे थे। और बुद्ध को एकदम जरूरी था यह डिस्टिंक्शन बनाना बिलकुल साफ कि उस व्यवस्था से हमें कुछ लेना-देना नहीं, वह बिलकुल गलत है। क्योंकि लोकमानस में वह विदा होती व्यवस्था हुई जा रही है, और अगर उससे कोई भी संबंध जोड़ा तो नई व्यवस्था के जन्मने में बाधा बनने वाली है और कुछ नहीं होने वाला।

फिर और भी बातें हैं। चाहे कोई व्यवस्था विचार की, चिंतना की, दर्शना की, कितनी ही गहरी क्यों न हो, वह सिर्फ एक पर्टिकुलर टाइप को, एक विशेष तरह के व्यक्तियों को ही प्रभावित करती है। कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है, जो सब तरह के व्यक्तियों के काम आ सके। अब तक नहीं है, न हो सकती है। यानी अब तो यह पक्का माना जा सकता है, वह नहीं हो सकती।

तो महावीर के व्यक्तित्व को जो प्रभावित करती है बात–वह पार्श्व वाली बात उन्हें प्रभावित करती है, नेमी वाली, आदिनाथ वाली उनको प्रभावित करती है–वे उसी टाइप के व्यक्ति हैं। और इस टाइप के बनने में भी अनंत जन्म लगते हैं, एक खास तरह के व्यक्ति बनने में, उनको वह खास तरह की धारा ही प्रभावित कर सकती है।

बुद्ध बिलकुल भिन्न तरह के व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व की अपनी यात्रा है। उन्हें उसमें कुछ रस नहीं मालूम होता। लेकिन मैं मानता हूं कि बुद्ध की चिंतना ने बहुत से लोगों को, जो महावीर से कभी कोई लाभ नहीं ले सकते थे, लाभ दिया। और वे बुद्ध से लाभ ले सके।

लेकिन बुद्ध और महावीर की एक है, मीरा की अपनी चिंतना और अपनी धारा है। अब महावीर और मीरा का व्यक्तित्व बिलकुल उलटा है। अगर महावीर की अकेली चिंतना दुनिया में हो, तो बहुत थोड़े से लोग ही सत्य के अंतिम मार्ग तक पहुंच पाएंगे। क्योंकि मीरा के टाइप के लोग वंचित रह जाएंगे, उससे उनका मेल ही नहीं हो पाता। उससे मेल ही नहीं जुड़ता न कहीं!

तो अनंत धाराएं चलती हैं इसलिए कि अनंत प्रकार के व्यक्ति हैं। और चेष्टा यह है कि ऐसा एक भी व्यक्ति न रह जाए जिसके योग्य और जिसके अनुकूल पड़ने वाली धारा न मिल सके। इसलिए अनंत धाराएं हैं और रहेंगी। और दुनिया जितनी विकसित होती जाएगी, उतनी धाराएं ज्यादा होती जाएंगी।

धाराएं ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा कभी न हो…जैसे समझ लें कि महावीर हैं, अब महावीर की जो जीवन-धारा है, वह एकदम ही जिसको हम कहें पुरुष की है। उसमें स्त्री का उपाय ही नहीं है, एकदम पुरुष की है। और पुरुष और स्त्री के मनस में बुनियादी भेद है। जैसे, स्त्री पैसिव माइंड है। स्त्री के पास जो मन है, वह निष्क्रिय मन है। पुरुष के पास जो मन है, वह एग्रेसिव माइंड है, आक्रामक मन है उसके पास।

इसलिए स्त्री अगर किसी को प्रेम भी करे तो आक्रमण नहीं करेगी। प्रेम भी करे, उसका मन किसी के पास जाने का हो, तब भी वह बैठ कर उसकी प्रतीक्षा करेगी कि वह आए। यानी वह किसी को प्रेम भी करती है तो जा नहीं सकती उठ कर उसके पास, वह प्रतीक्षा करेगी कि वह आए। उसका पूरा का पूरा माइंड पैसिव है। आप आएंगे तो वह खुश होगी, आप नहीं आएंगे तो दुखी होगी, लेकिन इनीशिएटिव नहीं ले सकती कि वह खुद आप तक जाए।

अगर एक स्त्री किसी को प्रेम करती है तो वह कभी प्रस्ताव नहीं करेगी कि मुझे विवाह करना है। वह प्रतीक्षा करेगी कि कब तुम प्रस्ताव करो। किसी स्त्री ने कभी प्रस्ताव नहीं किया विवाह का। हां, वह प्रस्ताव के लिए सारी योजना करेगी, प्रस्ताव लेकिन तुम्हीं करो, प्रस्ताव कभी वह नहीं करने वाली है। और प्रस्ताव किए जाने पर भी कोई स्त्री कभी सीधा हां नहीं भर सकती, क्योंकि हां भी आक्रामक है। और एकदम से हां भरने से पता चलता है कि उसकी तैयारी थी। तो कभी एकदम हां नहीं भरेगी। वह न करेगी। न को धीरे-धीरे, धीरे-धीरे धीमा करेगी। न को धीरे-धीरे हां के करीब ला पाएगी। निगेटिव है उसका माइंड जो है। फिजियोलाजी भी उसकी निगेटिव है, पाजिटिव नहीं है।

इसलिए स्त्रियां कभी किसी पुरुष पर सेक्सुअल हमला नहीं कर सकतीं। कभी हमला नहीं कर सकतीं वे किसी पुरुष पर। क्योंकि पुरुष अगर राजी नहीं है, तो स्त्री किसी तरह का काम-संबंध उससे स्थापित नहीं कर सकती। लेकिन स्त्री अगर राजी भी नहीं है तो भी पुरुष उसके साथ संभोग कर सकता है, व्यभिचार कर सकता है। क्योंकि वह है निगेटिव, पुरुष है पाजिटिव।

महावीर की जो जीवन-चिंतना है, वह एकदम पुरुष की जीवन-चिंतना है। इसलिए महावीर के मार्ग में स्त्री को मोक्ष जाने का उपाय भी नहीं है। अकारण नहीं है वह बात। इसका मतलब यह नहीं है कि स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता, इसका मतलब सिर्फ इतना है कि महावीर के मार्ग से नहीं हो सकता। महावीर के मार्ग में उपाय नहीं है।

इसलिए महावीर के मार्ग में तो स्त्री को एक बार और पुरुष योनि लेनी पड़े, और तब वह, तब वह मोक्ष की तरफ जा सकती है। क्योंकि महावीर की जो व्यवस्था है, वह संकल्प की, विल की, आक्रमण की, बहुत गहरे आक्रमण की व्यवस्था है। उस व्यवस्था में कहीं हारना, टूटना, पराजित होना, उसका उपाय नहीं है।

महावीर कहते हैं, जीतना है तो जीतो। और समग्र शक्ति लगा कर जीतो। एक इंच शक्ति पीछे न रह जाए।

और लाओत्से कहता है अपने एक शिष्य को…उसका शिष्य एक पूछता है कि आप कभी हारे? लाओत्से कहता है, मैं कभी नहीं हारा। तो उसका शिष्य कहता है, कभी तो हारे होंगे जिंदगी में किसी मौके पर? लाओत्से कहता है, बिलकुल नहीं, कभी मैं हारा ही नहीं। तो उसका सीक्रेट क्या था? उसका राज क्या था?

लाओत्से कहता है, राज यह था कि मैं सदा हारा हुआ ही था। इसलिए मेरे हारने का कोई उपाय न था। मैं पहले से ही हारा हुआ था। अगर कोई मेरी छाती पर चढ़ने आता तो मैं जल्दी से लेट जाता, उसको बिठा लेता। वह समझता कि मैं जीत गया और मैं समझता कि खेल हुआ, क्योंकि हम पहले से ही हारे हुए थे। जीते क्या तुम! तो मुझे कोई हरा ही नहीं सकता है, क्योंकि मैं सदा हारा हुआ हूं।

अब यह जो लाओत्से है, यह स्त्री के मार्ग का अग्रणी व्यक्ति है। यह हराने नहीं जाएगी। यह पूरी तरह हार जाएगी और आपको मुश्किल में डाल देगी। स्त्री किसी को हराने नहीं जाएगी। और हराने गई कि मुश्किल में पड़ जाएगी। वह पूरी तरह हार जाएगी, वह टोटल सरेंडर कर देगी, वह कहेगी, मैं तुम्हारी दासी हूं, तुम्हारे चरणों की धूल। और तुम हैरान हो जाओगे, कब वह तुम्हारे सिर पर बैठ गई, तुम्हें पता नहीं चलेगा।

उसके जीतने का रास्ता हार जाना है–पूरी तरह हार जाना, संपूर्ण समर्पण। और जो स्त्री संपूर्ण समर्पण नहीं कर पाती, वह कभी नहीं जीत पाएगी। वह जीत ही नहीं सकती।

इसलिए इस युग में स्त्रियां दुखी होती चली जाती हैं, क्योंकि उनका समर्पण खतम हुआ जा रहा है। और वे भूल कर रही हैं। वे सोच रही हैं कि पुरुष के जैसा हम भी करें। वे उसमें हार जाने वाली हैं। पुरुष का करना और ढंग का है। पुरुष के जीतने का मतलब है जीतना। पुरुष के जीतने का मतलब है जीतना, स्त्री के जीतने का मतलब है हारना। उनका पूरा का पूरा मनस भिन्न है।

इसलिए जो स्त्री जीतने की कोशिश करेगी, वह हार जाएगी। वह कभी नहीं जीत पाएगी, उसका जीवन नष्ट हो जाएगा। क्योंकि वह पुरुष-कोशिश में लगी है जो कि उसके व्यक्तित्व की संभावना ही नहीं है। और इसलिए पश्चिम में स्त्रियां बुरी तरह हार रही हैं, क्योंकि वे पुरुष को जीतने की कोशिश में लगी हैं। वह बात ही उन्होंने छोड़ दी है कि हम समर्पण करेंगे, हम जीतेंगे। पुरुष को जीतने का एक ही उपाय था कि हार जाओ। इस तरह मिट जाओ कि पता ही न रहे कि तुम हो–और तुम पुरुष को जीत लो। पुरुष बच ही नहीं सकता फिर, तुमसे जीत ही नहीं सकता।

लाओत्से कहता है, हम पहले से ही हारे हुए थे, इसलिए हमें कभी कोई हरा नहीं सका। अब लाओत्से और महावीर का मार्ग बिलकुल उलटा है। एकदम ही उलटा है, इसमें कोई मेल ही नहीं है। तो लाओत्से का मार्ग उन लोगों के लिए उपयोगी है जो हारने में समर्थ हैं, और महावीर का मार्ग उनके लिए उपयोगी है जो जीतने में समर्थ हैं। जो सिर्फ जीत ही सकते हैं।

इसीलिए महावीर शब्द उनको मिल गया, महावीर शब्द मिलने का और कोई कारण नहीं है। लड़ने की, आक्रमण की जो चरम क्षमता है, उससे वे महावीर कहलाए, और कोई कारण नहीं है। यानी वहां गुंजाइश ही नहीं छोड़ी उन्होंने किसी तरह के भय की, किसी तरह के समर्पण की। इसलिए महावीर परमात्मा को इनकार करते हैं–भगवान को। उसकी वजह यह है कि अगर भगवान है तो समर्पण करना पड़ेगा। हमसे ऊपर कोई है। यह महावीर नहीं मान सकते कि हमसे ऊपर कोई है। पुरुष यह मान ही नहीं सकता। वह जो पुरुष का चित्त है पूरा, कि उससे ऊपर कोई है, यह असंभव है।

तो महावीर भगवान को इनकार…यह फिलॉसाफिक नहीं है मामला। यह कोई दर्शन-शास्त्र का मामला नहीं है कि महावीर इनकार करते हैं कि कोई परमात्मा नहीं है। तुम ही परमात्मा हो, मैं ही परमात्मा हूं, आत्मा ही शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है। यानी आत्मा ही जब पूर्ण रूप से जीत लेती है तो परमात्मा हो जाती है। ऐसा कोई परमात्मा कहीं नहीं है जिसके पैर में तुम सिर झुकाओ, जिसकी तुम प्रार्थना करो। परमात्मा को इनकार कर देते हैं बिलकुल, क्योंकि परमात्मा है तो समर्पण करना पड़ेगा, परमात्मा है तो भक्ति करनी पड़ेगी, इसलिए परमात्मा का बिलकुल इनकार है।

लाओत्से अपने को इनकार करता है। लाओत्से कहता है: मैं हूं ही नहीं, वही है। क्योंकि मैं अगर थोड़ा सा भी बचा, तो हमला जारी रहेगा, तो लड़ाई जारी रहेगी, अगर मैं जरा इंच भर भी मैं हूं, तो वह मैं लड़ेगा। इसलिए वह कहता है, लाओत्से कहता है, मैं हूं ही नहीं। मैं एक सूखा पत्ता हूं। जब हवाएं मुझे पूरब ले जाती हैं तो मैं पूरब चला जाता हूं; जब हवाएं मुझे पश्चिम ले जाती हैं, मैं पश्चिम चला जाता हूं। मैं एक सूखा पत्ता हूं। जब हवाएं नीचे गिरा देती हैं, गिर जाता हूं; जब हवाएं ऊपर उठा लेती हैं, उठ जाता हूं। क्योंकि मैं हूं ही नहीं; हवाओं की जो मर्जी, वह मेरी मर्जी है। इतना सूखे पत्ते की तरह मैं नहीं हूं तो उसके लिए परमात्मा ही रह जाता है।

और ये दोनों रास्ते एक ही जगह पहुंचा देते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। या तो मैं पूरी तरह मिट जाऊं, तो एक ही बच गया–परमात्मा; या परमात्मा को पूरी तरह मिटा दूं, तो एक ही बच गया–मैं। बस एक ही बच जाना चाहिए आखिर में। दो रहेगा तो उपद्रव है, असत्य है, एक ही बच जाए।

और एक के बचाने के दो उपाय हैं। पुरुष एक ढंग से बचता है एक, कि वह स्त्री को मिटा देता है, अपने में लीन कर लेता है। स्त्री भी एक को बचा लेती है, वह अपने को मिटा देती है और पूरी तरह डूब जाती है। और इसमें जो सवाल है, वह किसी के नीचे-ऊंचे होने का नहीं है, सवाल टाइप ऑफ माइंड का, वह जो हमारे मस्तिष्क का टाइप है, उसका है।

तो महावीर का एक है मार्ग, एक है ढंग। बुद्ध का ढंग दूसरा है। तो बुद्ध की एक नई भाषा खड़ी हो रही है अब, नए प्रतीक खड़े हो रहे हैं। और बुद्ध को समझना है तो उन्हीं प्रतीकों से समझना होगा। बुद्ध की एक नई मूर्ति निर्मित हो रही है।

क्राइस्ट का बिलकुल और है, तीसरा है। क्राइस्ट जैसा तो कोई आदमी नहीं है इनमें फिर। क्राइस्ट तो बिना सूली पर चढ़े हुए सार्थक ही नहीं हैं। और अगर महावीर सूली पर चढ़ें तो हमारे लिए व्यर्थ हो जाएं। जो महावीर को एक धारा में सोचते हैं, उनके लिए बिलकुल व्यर्थ हो जाएं। लेकिन क्राइस्ट बिना सूली पर चढ़े अर्थ ही नहीं पाता है। क्राइस्ट का और तरह का व्यक्तित्व है। कृष्ण का और ही तरह का व्यक्तित्व है, जिसका कोई हिसाब ही नहीं। हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि कृष्ण और महावीर में कैसे मेल बिठाओ। कोई मेल नहीं हो सकता। और ये सब सार्थक हैं। सब सार्थक इस अर्थों में हैं कि पता नहीं आपके लिए कौन सा व्यक्तित्व ज्योति की अनुभूति आपको कराए, किस व्यक्तित्व में आपको दिखे। आपको उसमें ही दिखेगी, जो व्यक्तित्व का आपका टाइप होगा, नहीं तो आपको नहीं दिखेगी।

इसलिए मैं मानता हूं कि यह बड़ा उचित है कि ये सब भिन्न-भिन्न टाइप हैं, ये भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं। इन भिन्न-भिन्न ज्योतियों से भिन्न-भिन्न तरह के लोगों को दर्शन हो सकते हैं। और हो सकता है, अभी भी बहुत संभावनाएं शेष हैं। और हो सकता है उन संभावनाओं के शेष होने की वजह से बहुत बड़ी मनुष्य-जाति अब तक धार्मिक नहीं हो पाती। उसका कारण यह है कि उसकी टाइप का आदमी अब तक ज्योति को उपलब्ध नहीं हुआ।

मेरा आप मतलब समझ रहे हैं न? यानी जिसको वह समझ सकता था, वह आदमी अभी पहुंचा ही नहीं उस जगह, जहां से उसको ज्योति दिखाई पड़ जाए।

तो इसलिए भिन्न होगा। सच एक, जिसको सारे के बीच…जैसा कि मेरी जो दृष्टि है, मेरा अपना प्रयोग रहा। और मैं नहीं समझता कि किसी ने वैसा प्रयोग कभी किया। मेरा प्रयोग यह रहा कि मैं अपने व्यक्तित्व का टाइप मिटा दूं। मेरा प्रयोग यह रहा कि मैं सिर्फ व्यक्ति रह जाऊं, अत्यंत इम्पर्सनल, जिसका कोई टाइप नहीं है।

जैसे कि इस मकान में दो खिड़कियां हैं। इस तरफ से हम देखेंगे तो एक दृश्य दिखाई पड़ता है; उस खिड़की से देखते हैं, दूसरा दृश्य दिखाई पड़ता है। और दोनों दृश्य एक ही बड़े दृश्य के हिस्से हैं। और जिसको मैं इस खिड़की की बात कहूं और वह उस खिड़की पर खड़ा हो, तो वह कहे, सब झूठ है, सरासर झूठ है–कैसी झील? कहां की झील? कुछ नहीं है, सब झूठ बात। मैं भी खिड़की पर खड़ा हूं। मैं भी बाहर देख रहा हूं, झील नहीं है–पहाड़ है। और मैं कहूं कि कैसा पहाड़? झील के अतिरिक्त यहां कुछ नहीं दिखाई पड़ता! और हम लड़ते रहें, क्योंकि दूसरे की खिड़की पर जाना बहुत मुश्किल है। दूसरे की खिड़की पर जाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि दूसरे की खिड़की पर जाना मतलब दूसरे हो जाना, और कोई उपाय नहीं। सारा का सारा व्यक्तित्व दूसरे जैसा हो जाए तो उसकी खिड़की पर आप खड़े हो सकते हैं; वह हो नहीं सकता, वह बहुत मुश्किल मामला है। हजार खिड़कियां हैं जीवन के भवन में, जो खिड़की करीब पड़ रही है जिसके व्यक्तित्व के, वह उस खिड़की पर जाकर ही दर्शन कर सकता है।

लेकिन एक और रास्ता भी है कि हम मकान के बाहर ही क्यों न आ जाएं! दूसरे की खिड़की पर जाना तो बहुत मुश्किल है, लेकिन मकान के बाहर आ जाना मुश्किल नहीं है। और मेरा मानना है, मकान के बाहर आ जाना सब तरह की खिड़की पर खड़े लोगों के लिए एक सा ही आसान है–मकान के बाहर आ जाना। अगर खिड़की को हम पकड़ते हैं तो दूसरे की खिड़की के हम दुश्मन हो जाते हैं। हो ही जाएंगे। और अगर हम मकान के बाहर आ जाते हैं तो हमें पता लगता है कि उस मकान के भीतर जितनी खिड़कियां हैं, वे सब एक ही दृश्य को दिखला रही हैं।

दृश्य बहुत बड़ा है, खिड़कियां बहुत छोटी हैं। खिड़कियों से जो दिखाई पड़ता है वह पूरा नहीं है। अब अगर कभी भी कोई व्यक्ति बाहर आ जाए सारी दृष्टियों को, सारे नय को छोड़ कर, तो उसे दिखाई पड़ता है कि कृष्ण एक खिड़की हैं, राम एक खिड़की हैं, बुद्ध एक खिड़की हैं, महावीर एक खिड़की हैं–लेकिन खिड़कियां ही हैं।

महावीर उन खिड़कियों से छलांग लगा गए हैं बाहर, लेकिन खिड़की रह गई, और उनके पीछे आने वाले खिड़कियों पर खड़े रह गए हैं। महावीर पहुंच गए बाहर, लेकिन खिड़की से गए बाहर। तो महावीर तो निकल गए, खिड़की के पीछे जो उनके साथ आए थे, वे खिड़की पर खड़े रह गए हैं। और वे कहते हैं, जिस खिड़की से महावीर गए हैं, वही सत्य है।

एक बुद्ध वाली खिड़की है, वहां भी लोग सत्य हैं।

और अब दुनिया में संभावना इस बात की हो गई है पैदा कि अब हम मनुष्य को द्वार से बाहर ले जा सकते हैं–खिड़कियों के ही बाहर ले जा सकते हैं। और वहां से जो हमें दिखाई पड़ेगा, उसमें हमें सब एक से मालूम पड़ेंगे, क्योंकि हम खिड़की के बाहर खड़े होकर देखेंगे।

तो मुझे तो बुद्ध और महावीर में कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता–रत्ती भर भी। लेकिन मकान के बाहर खड़े हों तो ही, और नहीं तो फर्क बड़ा है, क्योंकि फर्क खिड़की से निर्मित होता है जिससे वे कूदे। वह खिड़की हमारी नजर में रह गई, वह बिलकुल अलग है।

महावीर का एक ढंग है–अत्यंत संकल्प का, इंटेंस विल का। यानी महावीर कहते यह हैं कि अगर किसी भी चीज में पूर्ण संकल्प हो गया है तो उपलब्धि हो जाएगी। बुद्ध की बिलकुल और ही बात है। बुद्ध कहते हैं कि संकल्प तो संघर्ष है, संघर्ष से कैसे सत्य मिलेगा? संकल्प छोड़ दो, शांत हो जाओ। संकल्प ही मत करो, तो उस शांति में ही मिलेगा। यह भी ठीक है। यह भी एक खिड़की है, ऐसे भी मिल सकता है। और महावीर भी कहते हैं, वह भी ठीक है, वैसे भी मिल सकता है।

तो इस पर हम विचार करें कि ये अलग-अलग मूर्तियां जो बनीं, अलग मंदिर बने, मस्जिदें खड़ी हुईं, इनके अलग-अलग प्रतीक हुए, अलग भाषा बनी, अलग कोड बनी, वह बिलकुल स्वाभाविक थी। और फिर भी कोई अलग नहीं है। यानी कभी न कभी एक मंदिर दुनिया में बन सकता है, जिसमें हम क्राइस्ट की, बुद्ध की, महावीर की एक सी मूर्तियां ढालें। इसमें कोई कठिनाई नहीं। लेकिन बड़ी कठिनाई वह कि आप अगर महावीर को प्रेम करते हैं, तो आप क्राइस्ट की मूर्ति के साथ क्या करेंगे? आप महावीर जैसी ढाल देंगे। तब फिर बात गड़बड़ हो गई। अगर क्राइस्ट को प्रेम करने वाला आदमी महावीर की मूर्ति ढालेगा तो सूली पर लटका देगा, क्योंकि अभी वह कोड और वह लैंग्वेज पैदा नहीं हो सकी, जो सारी मूर्तियों में काम आ सके। लेकिन वह भी हो सकता है, वह भी हो सकता है।

बहुत दिन तक बुद्ध के मरने के बाद बुद्ध की मूर्ति नहीं बनी, क्योंकि बुद्ध इनकार किए हैं कि मूर्ति बनाना मत। और मूर्ति की जगह सिर्फ प्रतीक चला बोधिवृक्ष का, तो बुद्ध की मूर्ति बनानी होती तो बोधिवृक्ष बना देते। वह वृक्ष ही प्रतीक था। धीरे-धीरे वृक्ष के नीचे बुद्ध का आगमन हुआ, बहुत धीरे-धीरे आगमन हुआ। कोई मरने के चार-छह सौ, सात सौ, आठ सौ वर्ष बाद। धीरे-धीरे अकेला वृक्ष प्रतीक रखना मुश्किल हो गया, और बुद्ध की मूर्ति वापस आ गई।

अगर हम झांकना चाहें सबके भीतर, समान के लिए, तो हमें मूर्ति मिटा ही देनी पड़े। फिर हमें एक नया कोड विकसित करना पड़े। जैसे मोहम्मद की कोई मूर्ति नहीं है। और उस कोड के विकास करने में एक प्रयोग है वह। और हिम्मत की है। बुद्ध की मूर्ति नहीं थी, लेकिन पांच-छह-सात सौ साल में हिम्मत टूट गई और मूर्ति आ गई। मुसलमान ने बड़ी हिम्मत जाहिर की है, चौदह सौ साल हो गए, मूर्ति को प्रवेश नहीं करने दिया है। खाली जगह छोड़ी है।

बहुत मुश्किल है, बहुत आसान नहीं है। मन मूर्ति के लिए लालायित होता है। मन कहता है कि कोई रूप? कैसे थे? मन की इच्छा होती है कोई रूप बने। बहुत रूप बना कर लोगों ने देख लिए।

कुछ लोग हैं, जिनके लिए सब रूपों में भूल दिखाई पड़ेगी, तो उन्होंने रूप हटा कर भी देख लिया। रूप नहीं रखा, मोहम्मद को विदा ही कर दिया। मस्जिद खाली रह गई। वह भी कुछ लोगों के व्यक्तित्व की दिशा वही हो सकती है। बहुत मंदिर, बहुत मस्जिद बन गए, कुछ लोगों ने मंदिर-मस्जिद को भी विदा करके देख लिया, तीर्थों को भी विदा करके देख लिया।

सब तरह के लोग हैं इस पृथ्वी पर–अनंत तरह के लोग हैं, अनंत तरह की उनकी इच्छाएं, अनंत तरह की उनकी व्यवस्थाएं। और सबके लिए समुचित मार्ग मिल सके, इसलिए उचित ही है कि यह भेद रहे। लेकिन एक वक्त आएगा, जैसे-जैसे मनुष्यता ज्यादा विकसित होगी, वैसे-वैसे हम खिड़की का आग्रह छोड़ देंगे, व्यक्ति का आग्रह छोड़ देंगे।

यह पहले भी मुश्किल पड़ा होगा, इतना आसान नहीं है यह। इसलिए हमने प्रतीक थोड़े से बचा लिए। चौबीस तीर्थंकर हैं जैनों के। अच्छा तो यह होता कि प्रतीक भी न रहते, लेकिन मन ने थोड़ा सा इंतजाम किया होगा कि एकदम कैसे एक कर दें, तो थोड़ा सा तो चिह्न रखो कि ये कौन हैं? ये कौन हैं? थोड़ा सा चिह्न बना लो। उतने में ही भेद हो गया, उतने में ही भेद हो गया।

तो पार्श्व का मंदिर अलग बनता है, महावीर का मंदिर भी अलग बनता है। उतने से चिह्न ने भी भेद ला दिया। वह चिह्न भी विदा कर देने की जरूरत है। लेकिन मन मनुष्य का बदले, तभी। उसके पहले नहीं हो सकता है।

तो आप ठीक पूछते हैं, जो अनुभव हुआ है, वह तो एक ही है। लेकिन उस अनुभव को कहा गया अलग-अलग शब्दों में।

अब जैसे महावीर हैं। महावीर कहते हैं, आत्मा को पाना परम ज्ञान है। इससे ऊंचा कोई ज्ञान नहीं। और बुद्ध वहीं उसी समय में, उसी क्षेत्र में मौजूद, कहते हैं, आत्मा को मानने से बड़ा अज्ञान नहीं है। और दोनों ठीक कहते हैं। और मैं जानता हूं कि न महावीर इसके लिए राजी हो सकते हैं बुद्ध से और न बुद्ध इसके लिए महावीर से राजी हो सकते हैं। और दोनों जानते हैं भलीभांति कि कोई भेद नहीं है।

आप मेरा मतलब समझ रहे हैं? आप मेरा मतलब समझ रहे हैं, और दोनों राजी नहीं हो सकते हैं। और दोनों जानते हैं भलीभांति कि भेद नहीं है। हम पर करुणा के कारण राजी नहीं हो सकते हैं। राजी हुए कि हमारे लिए व्यर्थ हो जाएंगे।

महावीर इसीलिए बहुत बड़े व्यापक वर्ग को प्रभावित नहीं कर सके, जितना बुद्ध ने इतने बड़े व्यापक वर्ग को प्रभावित किया। और उसका कारण है कि महावीर के पास जो प्रतीक थे, वे अतीत के थे और बुद्ध के पास जो प्रतीक हैं वे भविष्य के हैं। यानी महावीर के पास जो प्रतीक थे उसके पीछे तेईस तीर्थंकरों की धारा थी। प्रतीक पिट चुके थे। प्रतीक प्रचलित हो चुके थे। प्रतीक परिचित हो गए थे।

इसलिए महावीर का बहुत क्रांतिकारी व्यक्तित्व भी क्रांतिकारी नहीं मालूम पड़ सका, क्योंकि प्रतीक जो उन्होंने प्रयोग किए, वे पीछे से आते थे। और बुद्ध का उतना क्रांतिकारी व्यक्तित्व नहीं है जितना महावीर का, वह ज्यादा क्रांतिकारी मालूम हो सका, प्रतीक भविष्य के हैं।

यानी बहुत फर्क पड़ता है। लैंग्वेज जो बुद्ध ने चुनी है, वह भविष्य की है। सच तो यह है कि अभी बुद्ध का प्रभाव और बढ़ेगा। आने वाले सौ वर्षों में बुद्ध के प्रभाव के निरंतर बढ़ जाने की भविष्यवाणी की जा सकती है। क्योंकि बुद्ध ने जो प्रतीक चुने थे, वे आने वाले सौ वर्षों में मनुष्य के और निकट आ जाने वाले हैं, एकदम निकट आ जाने वाले हैं।

यानी मनुष्यता अभी भी उन प्रतीकों से, जिसको कहना चाहिए प्रतीक अभी भी पूरी तरह एग्झास्ट नहीं हो गए, बल्कि करीब आ रहे हैं। वे बहुत करीब आते जा रहे हैं। इसलिए पश्चिम में इस समय बुद्ध का सर्वाधिक प्रभाव है, एकदम बढ़ता जा रहा है। क्राइस्ट…।

अ    प्रश्न:

 

वे क्या प्रतीक हैं?

बुद्ध ने सारे प्रतीक नए चुने, सारी भाषा नई चुनी। जैसे, जैसे कि महावीर ने आत्मा की बात की, बुद्ध ने आत्मा को इनकार कर दिया। बुद्ध ने कहा, आत्मा वगैरह कोई भी नहीं। महावीर ने इनकार किया परमात्मा को–परमात्मा नहीं है, मैं ही हूं। बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की, इनकार करने योग्य भी नहीं माना। समझते हैं न? इनकार करने योग्य भी नहीं माना। बात ही फिजूल है। चर्चा के योग्य भी नहीं है। और मैं हूं, इसको भी इनकार कर दिया। और कहा कि जो अपने मैं के पूर्ण इनकार को उपलब्ध हो जाता है, उसका निर्वाण हो जाता है।

यह जो आने वाली सदी है, धीरे-धीरे उस जगह पहुंच रही है, जहां व्यक्ति अनुभव कर रहा है कि व्यक्ति होना भी एक बोझ है, इसको भी विदा हो जाना चाहिए, इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं है। ईगो, अहंकार भी एक बोझ है, इसे भी विदा हो जाना चाहिए।

फिर महावीर ने जो भी व्यवस्था दी उसमें मोक्ष पाने का खयाल है–कि मोक्ष मिल जाए। उसमें एक उद्देश्य है, एक लक्ष्य है–ऐसा मालूम पड़ता है। जो प्रतीक उन्होंने चुने उनकी वजह से ऐसा मालूम पड़ता है कि मोक्ष एक लक्ष्य है, उसके लिए साधना करो, तपश्चर्या करो, तो मोक्ष मिलेगा। बुद्ध ने कहा कि कोई लक्ष्य नहीं है, क्योंकि जब तक लक्ष्य की भाषा है, तब तक डिजायर है, वासना है, तृष्णा है। तो लक्ष्य की बात ही मत करो। लक्ष्य की बात मत करो, उसका मतलब यह हुआ कि अभी जीओ, इसी क्षण में जीओ, कल की बात ही मत करो।

तो दुनिया, पुरानी दुनिया गरीब दुनिया थी, और गरीब दुनिया कभी भी क्षण में नहीं जी सकती है। गरीब दुनिया को हमेशा भविष्य में जीना पड़ता है। क्योंकि किसी गरीब आदमी से कहो, आज ही जीओ, तो वह कहेगा, क्या आप कहते हैं! कल का क्या होगा?

लेकिन दुनिया बदल गई, एफ्लुएंट दुनिया पैदा हो गई, समृद्ध दुनिया पैदा हो गई। अमरीका में पहली दफा धन इस बुरी तरह बरस पड़ा है कि अब कल का कोई सवाल नहीं। तो बुद्ध की यह बात कि आज ही जीओ, इसी क्षण जीओ, पहली दफे सार्थक हो जाएगी। अब यानी, पहली दफा कल की चिंता करने की जरूरत नहीं है। कल का कोई मतलब ही नहीं है–आएगा आएगा, नहीं आएगा नहीं आएगा।

गरीब दुनिया जो है, वह स्वर्ग बनाती है आगे, वे तृप्तियां हैं। यहां तो सुख मिलता नहीं, तो आदमी सोचता है मरने के बाद। समृद्ध दुनिया जो है, वह स्वर्ग आगे क्यों बनाए? वह आज ही बना लेती है, इसी वक्त बना लेती है। हिंदुस्तान का स्वर्ग भविष्य में होता है, अमरीका का स्वर्ग अभी है और यहीं है।

उसी से हमेंर् ईष्या होती है भौतिकवादी से। वहर् ईष्या का भी कारण है कुछ इसमें। इसलिए हम गाली देते हैं, निंदा करते हैं, वह भी कारण है कि उसका स्वर्ग अभी बना जा रहा है, हमारा स्वर्ग मरने के बाद है। पक्का अभी भरोसा भी नहीं, मरने के बाद होगा कि नहीं होगा।

तो बुद्ध ने जो संदेश दिया, वह बिलकुल तात्कालिक जीने का है, इस क्षण जीने का है। महावीर का जो संदेश है, मैंने कहा कि संकल्प का है। संकल्प टेंशन से चलता है, तनाव से चलता है। उसकी हम धीरे से बात करेंगे कि तनाव संकल्प कैसे ले जाता है। संकल्प की जो प्रक्रिया है, वह तनाव की प्रक्रिया है–परम तनाव की। और मजे की बात यह है कि सब चीजें अगर उनकी पूर्णता तक ले जाई जाएं तो अपने से विपरीत में बदल जाती हैं, यह नियम है। अगर आप तनाव को उसकी एक्सट्रीम पर ले जाएं, तो विश्राम शुरू हो जाता है। जैसे कि मैं इस मुट्ठी को बांधूं, और पूरी ताकत लगा दूं बांधने में, फिर मेरे पास ताकत ही न बचे, तो मुट्ठी खुल जाएगी। क्योंकि जब मेरे पास ताकत नहीं बचेगी, सारी ताकत बांधने में लग जाएगी और आगे ताकत नहीं मिलेगी बांधने को, तो क्या होगा? मुट्ठी खुल जाएगी। और मैं मुट्ठी को खुलते देखूंगा और बांध भी नहीं सकूंगा, क्योंकि सारी ताकत तो मैं लगा चुका हूं। हां, धीरे से मुट्ठी को बांधें तो खुल नहीं सकती मुट्ठी अपने आप, क्योंकि ताकत मेरे पास सदा शेष है, जिससे मैं उसको बांधे रहूंगा।

इसलिए महावीर कहते हैं, संकल्प पूर्ण–पूर्ण संकल्प कर दो। इतना तनाव पैदा होगा, इतना तनाव पैदा होगा कि तनाव की आखिरी गति आ जाएगी। और तनाव की आखिरी गति के बाद तनाव शिथिल हो जाता है। तो ले जाते हैं वे भी विश्राम में, लेकिन उनका मार्ग है पूर्ण तनाव से।

और बुद्ध कहते हैं कि तनाव? तो तनाव तो कष्टपूर्ण होगा। तो जितना तनाव है, वह भी छोड़ दो। अब यह ऐसा हुआ कि समझ लीजिए कि बीच में हम खड़े हैं, आधे तनाव में। महावीर कहते हैं, पूर्ण तनाव, ताकि तनाव से तुम बाहर निकल जाओ। बुद्ध कहते हैं, जितना है, इससे भी पीछे लौट आओ, तनाव ही छोड़ दो। तो भी विश्राम आ जाता है।

तो महावीर की भाषा अब इस सदी में समझ में आना मुश्किल पड़ जाएगी, क्योंकि कोई तनाव पसंद नहीं करता, तनाव वैसे ही बहुत ज्यादा है। आदमी इतना तना हुआ है, इसलिए मैं कह रहा हूं कि फ्यूचर की जो लैंग्वेज है, वह बुद्ध के पास है। इसलिए पश्चिम में कोई महावीर की बात नहीं मानेगा कि और संकल्प करो, और तपश्चर्या करो। वह कहेगा, हम मरे जा रहे हैं वैसे ही। अब हम पर कृपा करो, हमको कोई विश्रांति चाहिए। तो बुद्ध कहते हैं, विश्रांति का यह रहा रास्ता कि जितना तनाव है, यह भी छोड़ दो, टोटल रिलैक्स हो जाओ। यह जंचेगा, क्योंकि तनाव से भरा हुआ आदमी है। जंचेगा यह।

महावीर के पहले के तेईस तीर्थंकरों के लंबे काल में प्रकृति के परम विश्राम में आदमी जी रहा था, कोई तनाव न था, विश्राम ही था जिंदगी। उस विश्राम में महावीर की भाषा सार्थक बन गई, क्योंकि विश्राम की बात सार्थक होती ही नहीं उस दुनिया में। उस दुनिया में आदमी से विश्राम के लिए कहना बिलकुल फिजूल था।

जैसे बंबई के आदमी को आप कहिए कि चलो डल झील पर, बड़ी शांति है, तो उसको समझ में आता है। और डल झील के पास एक गरीब आदमी अपनी बकरियां चरा रहा है, उससे कहो कि तुम कितनी परम शांति में हो। वह कहता है, कभी बंबई के दर्शन करने का मन होता है। उसके मन में बंबई बसी है, कभी बंबई वह जाए। स्वाभाविक, जो जहां है, वहां से भिन्न जाना चाहता है।

तो सारा जगत था प्रकृति की बिलकुल गोद में बसा हुआ–न कोई तनाव था, न कोई चिंता थी। उस स्थिति में संकल्प को बढ़ा कर और तनाव को पूर्ण करने की बात ही अपील कर सकती थी, वह लैंग्वेज उस वक्त काम आ सकती थी। तो वह चली। फिर एक संक्रमण आया। और संक्रमण…इसलिए महावीर उस अर्थ में बहुत प्रभावी नहीं हो सके, बहुत प्रभावी नहीं हो सके। और जो लोग उनके पीछे भी गए, वे भी उनको मान नहीं सके। वह नाममात्र की मान्यता रही और नए लोगों को वे उस दिशा में ला नहीं सके, क्योंकि नया आदमी उसके लिए राजी नहीं हुआ। रोज-रोज संख्या क्षीण होती चली गई।

जैसे दिगंबर जैन मुनि है। श्वेतांबर जैन मुनि महावीर से बहुत दूर है, क्योंकि उसने बहुत समझौते कर लिए। इसीलिए उसकी संख्या ज्यादा है। वह अभी भी है, समझौता करके। दिगंबर जैन मुनि ने समझौता नहीं किया। उसने महावीर की जैसी बात थी, ठीक वैसा ही प्रयोग किया। तो मुश्किल से बीस-बाईस मुनि हैं पूरे मुल्क में। और हर साल एक मरता है तो फिर पूरा नहीं होता। अगर इक्कीस रह जाते हैं तो फिर बाईस करना मुश्किल हो जाता है। एक पच्चीसत्तीस वर्षों में वे बीस-बाईस मुनि मर जाएंगे। पचास साल बाद दिगंबर जैन मुनि का होना असंभव है।

लैंग्वेज चली गई। उसके लिए कोई राजी नहीं है। उसके लिए कोई राजी ही नहीं है। तो एक मरता है तो उसको वे पूरा नहीं कर पाते, दूसरे को नहीं ला पाते।

और जिनको वे आज रखे भी हैं, उनमें से कोई भी शिक्षित नहीं है। यानी एक अर्थों में वे पुरानी सदी के लोग हैं, इसलिए राजी भी हैं। एक शिक्षित आदमी को, ठीक आधुनिक शिक्षा पाए हुए आदमी को दिगंबर मुनि नहीं बन सका अब तक। बन नहीं सकता। उसकी भाषा सब बदल गई। तो अशिक्षित, बिलकुल कम समझ के लोग, गांव के लोग, दक्षिण के लोग–उत्तर का एक जैन मुनि नहीं है दिगंबरों के पास–वही भर बन पाता है। और वह भी आज कोई नहीं बनता। यानी वे भी सब पचपन वर्ष के ऊपर की उम्र के लोग हैं, जो बीस-पच्चीस वर्ष में विदा होते चले जाएंगे। एक मरता है, फिर उसको वे रिप्लेस नहीं कर पाते। वह लैंग्वेज मर गई।

श्वेतांबर मुनि की संख्या बची है, बढ़ती है, क्योंकि वह वक्त के साथ लैंग्वेज को बदलता रहा है, समझौते करता रहा है वह, समझौते के लिए तरकीबें निकालता रहा है। समझौते करके ही वह बचा हुआ है। अब वह रोज समझौते करता जा रहा है। माइक से बोलना है तो माइक से बोलने लगेगा। यह करना है, वह करना है; वह सब समझौते कर रहा है। कल वह गाड़ी में भी बैठने लगेगा, परसों वह हवाई जहाज में भी उड़ेगा; वह सब समझौते कर लेगा। वह समझौते करके ही बच रहा है। लेकिन समझौते करने में वह महावीर से कोई संबंध नहीं रह गया उसका, जो था।

तो मेरा कहना…मैं यह कह रहा हूं कि भविष्य के लिए…लेकिन महावीर की जो साधना है, वह भविष्य के लिए सार्थक हो सकती है। और एक ही उपाय है कि उसे भविष्य की भाषा में फिर से पूरा का पूरा रख दिया जाए।

तो मैं कहता हूं, समझौते जीवन में मत करो, जीवन में समझौता बेईमानी है। समझौता ही बेईमानी है असल में। असल में प्रत्येक युग में, और नई जब भाषा बनती है, तो भाषा बदलो। नए शब्द चुनो, नई दृष्टि चुनो, नया दर्शन चुनो। और मूल साधना का सूत्र खयाल में ले लो।

जैसे मैं कहता हूं कि आज अगर महावीर की नहीं कोई अपील है सारे जगत में, उसका कारण यह है कि उनके पास भाषा बिलकुल ही पिटी-पिटाई है, वह गई। लेकिन अब भी हो सकती है अपील, भाषा इस युग के अनुकूल हो आज, तो आज अपील हो जाए। अपील, आप क्या कहते हैं, इसकी नहीं होती, अपील इस बात की है कि आप उसको कैसे कहते हैं, वह युग के मन के अनुकूल है या नहीं है! नहीं तो वह खो देती है अपील।

तो एक तो इसलिए वे पिछड़ गए कि उन्होंने अतीत की भाषा का उपयोग किया। महावीर एक अर्थ में अतीत के प्रति अनुगत हैं। बुद्ध अतीत के प्रति बिलकुल ही अनुगत नहीं हैं, भविष्य के प्रति हैं। अतीत को इनकार ही कर दिया। इसलिए अपने से पहले किसी परंपरा से उन्होंने नहीं जोड़ा, नई परंपरा को सूत्रबद्ध किया। और भी बहुत कारण हैं, जिनकी वजह से परिणाम नहीं हो सका जितना हो सकता था।

फिर से पुनरुज्जीवित की जा सकती है, भाषा में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन अनुयायी कभी उतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता, क्योंकि उसे लगता है, सब खो जाएगा। भाषा ही उसकी संपत्ति है। वह समझता है कि भाषा ही संपत्ति है, अगर उसको बदला तो सब खो गया। जब कि भाषा संपत्ति नहीं है, भाषा सिर्फ कंटेनर है, डब्बा है; कंटेंट की बात है असल में। मगर हमें पता नहीं कितना फर्क पड़ता है।

अभी मैंने पढ़ा कि एक अमरीकी लेखक ने एक लाख किताबें छपवाईं, लेकिन नहीं बिक सकीं, तीन वर्ष परेशान हो गया। तो उसने जाकर विज्ञापन सलाहकारों से सलाह ली। तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा जो कवर है, वह गलत है; तुमने जो नाम रखा है, वह पिटा-पिटाया है। किताब का नाम जो रखा है, वह पिटा-पिटाया है; और तुम्हारा जो कवर है, वह गलत है, आधुनिक मन के अनुकूल नहीं है। तो इसलिए वह किताब में रखा रहेगा, कभी उस पर नजर ही नहीं पड़ने वाली किसी खरीदने वाले की। किताब तो पीछे देखी जाती है, किताब का कवर तो पहले दिखता है।

तो उसने कवर बदल दिया। नए रंग, नई डिजाइन, आधुनिक कला से संबंधित कर दिया, नाम बदल दिया। वह किताब दस महीने में बिक गई। और भारी प्रशंसा हुई उस किताब की। हमेशा ऐसा होता है, हमेशा ऐसा होता है।

अब महावीर के ऊपर बहुत पुराना कवर है।

अ    प्रश्न:

 

अब नया कवर कौन सा होना चाहिए?

हां, उसके लिए भी अपन बात करेंगे। नया कवर हो, बिलकुल हो, बिलकुल हो। और जरूर होना चाहिए, क्योंकि महावीर की धारा का इतना अदभुत अर्थ है कि वह खो जाए, तो नुकसान होगा। मनुष्य-जाति को नुकसान होगा। जैनियों को तो नुकसान होगा कवर बदलने से, मनुष्य-जाति को नुकसान होगा महावीर की धारा के अर्थ के खो जाने से। तो इसलिए मैं मानता हूं जैनियों के नुकसान की चिंता नहीं करनी चाहिए। मनुष्य-जाति की समृद्धि में महावीर आगे भी सार्थक रहें, यह विचार होना चाहिए। तो उस पर–जैसे ही हम उनकी साधना-पद्धति को पूरा समझेंगे तो खयाल में आ जाएगा कि हम उसे क्या दृष्टि दें।

अब जैसे मैं यह कह रहा हूं–जैसे मैं यह कह रहा हूं कि पुराना–उदाहरण के लिए, महावीर की साधना को मैं कहता हूं पूर्ण संकल्प की साधना, प्रैक्टिस ऑफ दि टोटल विल। और जैन परंपरा कहती है, दमन की साधना।

दमन शब्द पिट गया–सार्थक नहीं है, खतरनाक है। फ्रायड के बाद दमन की जो भी साधना बात करेगी, उसका इस जगत में कोई स्थान नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता अब। फ्रायड के बाद दमन का जिस साधना-पद्धति ने प्रयोग किया, वह पद्धति उस शब्द के साथ ही दफना दी जाएगी, वह नहीं बच सकती अब।

और ऐसा नहीं है कि महावीर की साधना दमन की साधना थी। असल में दमन का अर्थ ही और था तब। तब दमन का अर्थ ही और था। फ्रायड ने पहली बार दमन को नया अर्थ दे दिया है, जो कभी था ही नहीं।

तो चल सकता था, काया-क्लेश शब्द हम उपयोग कर सकते थे; अब नहीं कर सकते हैं। अब किसी ने कहा काया-क्लेश, वह गया। उसी शब्द के साथ वह डूब जाएगा पूरा का पूरा उसका सब विचार। क्योंकि काया-क्लेश शब्द आने वाले भविष्य के लिए सार्थक नहीं है, निरर्थक है। और काया-क्लेश का जो मतलब है, वह अब भी सार्थक है। और महावीर की पद्धति में जिसको काया-दमन कहा है, वह अब भी सार्थक है–जो कंटेंट है, वह।

लेकिन यह शब्द बासा पड़ गया और एकदम खतरनाक हो गया। क्योंकि इधर फ्रायड के बाद काया-क्लेश जो दे रहा है, वह आदमी मैसोचिस्ट है, वह आदमी खुद को सताने में मजा ले रहा है। वह आदमी रुग्ण है, मानसिक बीमार है, जो आदमी अपने को सताने में मजा ले रहा है। दो तरह के लोग हैं। जो दूसरों को सताने में मजा लेते हैं वे सैडिस्ट, और जो अपने को सताने में मजा लेते हैं वे मैसोचिस्ट।

अब अगर काया-क्लेश की बात की तो महावीर तक मैसोचिस्ट सिद्ध हो जाने वाले हैं आने वाले भविष्य में। यानी यह जैनियों की नासमझी में वह महावीर फंस जाने वाले हैं। और उनको अब बचाव का कोई उपाय नहीं, वे कुछ खड़े होकर कह नहीं सकते कि क्या कहा जा रहा है!

और अगर महावीर के शरीर को देखो तो पता चल जाएगा कि तुम्हारी काया-क्लेश की बात नितांत नासमझी की है। हां, तुम्हारे मुनि को देखो तो पता चलता है कि काया-क्लेश सच है। महावीर की काया को देख कर लगता है कि ऐसी काया को संभालने वाला आदमी नहीं हुआ है। महावीर को देख कर तो ऐसा ही लगता है। ऐसी सुंदर काया शायद ही कभी कोई…न बुद्ध के पास थी, न क्राइस्ट के पास थी ऐसी सुंदर काया।

अ    प्रश्न: कैसी?

जैसी महावीर के पास सुंदर काया है। जितना सुंदर स्वस्थ शरीर महावीर के पास है, ऐसा किसी के पास नहीं था। और मेरा अपना मानना है कि इतने सुंदर होने की वजह से वे नग्न खड़े हो सके। असल में नग्नता को छिपाना कुरूपता को छिपाना है। हम सिर्फ उन्हीं अंगों को छिपाते हैं, जो कुरूप हैं। इतने परम सुंदर हैं वे कि छिपाने को कुछ भी नहीं है, वे नग्न खड़े हो सके। नग्न खड़े होने में भी वे परम सुंदर हैं। और उनकी परंपरा को पकड़ने वाला जो शब्द पकड़े हुए है काया-क्लेश का कि वे शरीर को सता रहे हैं, वे बिलकुल पागल हैं, क्योंकि सताने वाला शरीर ऐसा नहीं होता, जैसा महावीर का है।

हां, इधर दिगंबर जैन मुनि को देखें तो पता चलता है कि हां, यह शरीर को सता रहा है। एक दिगंबर मुनि अब तक महावीर जैसा शरीर खड़ा करके नहीं बता सका।

तो कहीं कोई भूल हो गई है। महावीर काया-क्लेश किसी और ही बात को कहते हैं। एक आदमी जो सुबह घंटे भर व्यायाम करता है, वह भी काया-क्लेश कर रहा है। आप समझ रहे हैं न? काया-क्लेश वह भी कर रहा है, जो घंटे भर व्यायाम करता है, पसीना-पसीना हो जाता है, शरीर को थका डालता है। और एक आदमी वह भी काया-क्लेश कर रहा है, जो एक कोने में बिना खाए-पीए, बिना नहाए-धोए पड़ा है। वह भी काया-क्लेश कर रहा है। लेकिन पहला आदमी काया के लिए ही काया-क्लेश कर रहा है, और दूसरा आदमी काया की दुश्मनी में काया-क्लेश कर रहा है। दोनों का अगर दस वर्ष ऐसा ही क्रम चला तो दोनों को खड़ा करेंगे तो नंबर एक का तो एक अदभुत सुंदर शरीर वाला व्यक्ति निकल आएगा और दूसरा एक दीन-हीन, मरा हुआ व्यक्ति हो जाएगा।

काया-क्लेश किसलिए? महावीर कहते हैं कि काया का श्रम काया के लिए ही। काया कभी भी वैसी नहीं बन सकती, जैसी बन सकती है; उसके लिए श्रम उठाना पड़ेगा।

तो क्लेश जो अब शब्द है, वह अब घातक और दुश्मनीपूर्ण मालूम पड़ता है। वह महावीर के लिए नहीं है घातक और दुश्मनीपूर्ण। उस शब्द को पकड़ कर हम महावीर की पूरी वृत्ति को ही नष्ट कर देंगे। उस शब्द को बदलना पड़ेगा।

अब महावीर उपवास शब्द का प्रयोग करते हैं। उपवास का मतलब होता है–अपने पास रहना, टु बी नियर वनसेल्फ। और कोई मतलब ही नहीं होता। आत्मा के पास निवास करना–उपवास। जैसे उपनिषद–गुरु के पास बैठना। ऐसे उपवास–अपने पास होना। लेकिन उपवास का फास्टिंग, अनशन अर्थ हो गया है। उपवास का मतलब हो रहा है, अनशन, न खाना।

अब यह उपवास नहीं चल सकता, न खाने वाला। और न खाने पर जोर दिया, तो वह दमन और काया-क्लेश वाली बात है। चार-चार महीने तक कोई आदमी बिना खाए रह सकता है? लेकिन उपवास में रह सकता है। उपवास का मतलब ही और है। उपवास का मतलब है कि एक व्यक्ति अपनी आत्मा में इतना लीन हो गया कि शरीर का उसे पता ही नहीं है, तो भोजन भी नहीं करता है, क्योंकि शरीर का पता हो तो भोजन करे। अपने भीतर ऐसा लीन हो गया है कि शरीर का पता नहीं चलता–दिन बीत जाते हैं, रातें बीत जाती हैं, उसे शरीर का पता नहीं।

एक संन्यासी मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे…मेरे पास सामने ही रुके थे तो आए मुझसे मिलने तो मैंने कहा, आप खाना खाकर जाएं। तो उन्होंने कहा, आज तो मेरा उपवास है। तो मैंने कहा, कैसा उपवास करते हैं? उन्होंने कहा कि इसमें क्या बात है, आप यह भी नहीं जानते कि कैसा उपवास करते हैं? खाना नहीं लेते दिन भर। तो मैंने कहा, इसको आप उपवास समझते हैं? अनशन क्या है फिर? तो उन्होंने कहा, दोनों एक चीज हैं। नाम से कोई फर्क पड़ता है? तो मैंने कहा, फिर आप अनशन करते हैं, अभी उपवास का आपको पता नहीं।

और जब आप अनशन करेंगे तो ध्यान रहे, पूरा वास शरीर के पास होगा, आत्मा के पास होने वाला ही नहीं है। अनशन का मतलब ही यही है कि नहीं खाया; खाने का खयाल है, नहीं खाया, छोड़ा। तो दिन भर शरीर के पास ही मन घूमेगा। भूख लगी, प्यास लगी, कल का खयाल कि कल क्या खाएंगे, परसों क्या खाएंगे–पूरे वक्त एक…।

तो मैंने उनसे कहा कि यह तो उपवास से अनशन बिलकुल उलटा है। दोनों में भोजन नहीं खाया जाता, लेकिन दोनों उलटी ही बातें हैं, क्योंकि अनशन में आदमी शरीर के पास रहता है–चौबीस घंटे, जितना कि खाना खाने वाला भी नहीं रहता। दो दफे खा लिया और बात खतम हो गई है। और अनशन वाला दिन भर खाता रहता है, मन ही मन में खाना चलता है।

उपवास का मतलब है कि किसी दिन ऐसे मौज में आ गए हो तुम अपने भीतर कि अब शरीर की कोई याद ही न रही। और महावीर की जो शरीर की तैयारी है, वह इसलिए है कि जब शरीर की याद न रहे तो शरीर इतना समर्थ हो कि दस-पांच दिन, महीने दो महीने झेल जाए। नहीं तो झेलेगा कैसे? तो यह मुनि का तो झेल ही नहीं सकता।

अगर यह, अगर यह भीतर चला जाए तो यह तो मर ही जाए। क्योंकि इसके पास तो शरीर में जो अतिरिक्त होना चाहिए झेलने के लिए, वह है ही नहीं। इसके पास स्टोरेज ही नहीं है कोई। अगर बहुत बलिष्ठ शरीर हो, तो वह तीन महीने तक तो बिलकुल आसानी से बिना खाए बच सकता है, नष्ट नहीं होगा।

तो महावीर अगर चार-चार महीने का उपवास किए हैं तो इस बात का सबूत है कि उस आदमी के पास भारी बलिष्ठ शरीर था–साधारण नहीं–असाधारण रूप से, कि चार-चार महीने तक उसने नहीं खाया है तो शरीर बचा है, शरीर मिट नहीं गया है इससे कुछ।

यह काया-क्लेश करने वाला तो कभी चार दिन नहीं कर सकता, वह तो चार दिन में मर जाएगा अगर उपवास इसका हो जाए। उपवास का मतलब इसकी आत्मा और चेतना एकदम भीतर चली जाए कि बाहर का इसे खयाल ही न रहे, तो इसका शरीर तो साथ छोड़ देगा फौरन।

लेकिन शब्दों ने जान ले ली है। तो उस संन्यासी को मैंने कहा कि तुम कभी जिस दिन ध्यान करो और किसी दिन ध्यान में ऐसे डूब जाओ कि उठने का मन न हो तो उठना ही मत तुम। जब उठने का मन हो उठ आना, न हो तो मत उठना। तो उसे मैं ध्यान कुछ दोत्तीन महीने कराता था। उसके साथ एक युवक रहता था। उसने एक दिन सुबह आकर मुझे खबर दी कि आज चार बजे से वे ध्यान में गए हैं तो नौ बज गया अभी तक उठे नहीं हैं और उन्होंने कह दिया है कि कभी न उठ आऊं तो उठाना मत। लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है, वे पड़े हैं। मैंने कहा, उन्हें पड़ा रहने दो।

वह युवक दो बजे फिर दोपहर में आया कि…तब तो जरा घबड़ाहट होने लगी, क्योंकि वे पड़े ही हैं–न करवट लेते, न हाथ हिलाते। कहीं कुछ नुकसान तो नहीं हो जाएगा? मैंने कहा, तुम मत डरो, आज उपवास हो गया, तुम हो जाने दो। रात नौ बजे वह फिर आया और उसने कहा, अब तो हमारी हिम्मत के बाहर हो गया मामला, आप चलिए। मैंने कहा, वहां कोई जाने की जरूरत नहीं है, तुम रहने दो।

ग्यारह बजे रात वह आदमी उठा और भागा हुआ मेरे पास आया। और उसने कहा कि आज समझा कि उपवास और अनशन का क्या अर्थ है! कितना भेद है! हो गया उपवास आज। हद का हुआ है। कभी कल्पना ही न की थी कि ऐसा भी उपवास का अर्थ हो सकता है।

जब आप भीतर चले जाते हैं तो बाहर का स्मरण छूट जाता है। उस स्मरण के छूटने में पानी भी छूट जाता है। और शरीर इतना अदभुत यंत्र है कि जब आप भीतर होते हैं तो शरीर आटोमैटिक हो जाता है, अपनी व्यवस्था पूरी करने लगता है, आपको कोई चिंता के लेने की जरूरत नहीं रहती। और शरीर की साधना का मतलब यह है कि शरीर ऐसा हो कि जब आप भीतर चले जाएं तो उसे आपकी कोई जरूरत न हो, वह अपनी व्यवस्था कर ले, वह स्वचालित यंत्र की तरह अपना काम करता रहे, और आपकी प्रतीक्षा करे कि जब आप बाहर आएंगे, तब वह आपको खबर देगा कि मुझे भूख लगी, कि मुझे प्यास लगी, नहीं तो वह चुपचाप झेलेगा और आपको खबर भी नहीं देगा।

तो काया-क्लेश का मतलब है, काया की ऐसी साधना कि काया बाधा न रह जाए, साधक हो जाए, सीढ़ी बन जाए। लेकिन शब्द बड़े खतरनाक हैं, इसलिए इसको काया-क्लेश मत कहो, इसको काया-साधना कहो तो समझ में आ सकता है। इसको क्लेश कहा, तो क्लेश शब्द ऐसा बेहूदा है कि उससे ऐसा लगता है कि सता रहे हो, टार्चर कर रहे हो, तब तो नुकसान होगा।

और उपवास को फास्टिंग मत कहो, अनशन मत कहो; उपवास को कहो आत्मा के निकट होना। निश्चित ही, आत्मा के निकट होकर शरीर भूल जाता है। वह दूसरी बात है, वह गौण बात है, अनशन हो जाएगा, लेकिन वह दूसरी बात है। अनशन करने से उपवास नहीं होता, उपवास करने से अनशन हो जाता है।

और यह सब खयाल में आ जाए तो, तो महावीर की धारा को खो जाने का कोई कारण नहीं, हालांकि वह खोने के करीब खड़ी है। और अगर जैन मुनि और साधु-संन्यासियों के हाथ में रही, तो वह खो ही जाने वाली है, उसका कोई उपाय नहीं। और यह भी ध्यान रहे कि महावीर जैसा आदमी दुबारा पैदा होना मुश्किल है, एकदम मुश्किल है। क्योंकि वैसे आदमी को पैदा होने के लिए जो पूरी हवा और वातावरण चाहिए, वह दुबारा अब संभव नहीं है। जैसा काल, जैसा क्षेत्र चाहिए, वह दुबारा संभव नहीं है।

इसलिए मेरा मानना है, कोई आदमी कभी नहीं खोना चाहिए। जिसने कोई भी मूल्यवान बचाया है, वह बचा रहना चाहिए, ताकि उसके अनुकूल लोगों के लिए वह ज्योति का दर्शन बन सके।

झोरेस्ट नहीं खोना चाहिए, कन्फ्यूशियस नहीं खोना चाहिए, मिलरेपा नहीं खोना चाहिए–कोई नहीं खोना चाहिए। उन्होंने अलग-अलग कोणों से पहुंच कर ऐसी चीज पाई है, जो बचनी ही चाहिए। वह मनुष्य-जाति की असली संपत्ति वह है। लेकिन वे जो उसको खो रहे हैं, वही उसके बचाने वाले मालूम पड़ते हैं कि वे उसके रक्षक हैं, वे उसको खोए चले जा रहे हैं।

आज इतना ही।


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खतरा अमरीका में उभरा—(प्रवचन–4)

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(अध्‍याय—चार)

(1981—1985)

सा लगा कि अमरीकनों ने तो नहीं चाहा। 1981 में चिकित्सा के लिए उन्हें अपने देश में प्रवेश देने के बाद (जिस अधिकारी ने इनको पर्यटक-वीसा प्रदान किया था, पीछे पता चला कि उसका तबादला कहीं और कर दिया गया) उन्होंने अपनी शक्ति भर सब कुछ कर डाला इनसे

छुटकारा पाने के लिए।

स्थायी-आवास के लिए इनका आवेदन नामंजूर कर दिया गया- अमरीकी सरकार ने यह मान्यता देने से इन्कार कर दिया था कि ये धार्मिक शिक्षक थे, जो बात आवास प्राप्त करने के लिए इन्हें योग्यता प्रदान करती थी। सारी दुनिया से धार्मिकों तथा अन्य तमाम व्यवसायों के प्रतिष्ठित लोगों ने जब विरोध का एक मोर्चा खड़ा कर दिया ( अध्याय पांच देखें) तो सरकार को अपना वह फैसला बदलना पड़ा, किंतु तब उसने इनके आवास-आवेदन पर फैसला देना स्थगित कर दिया। उसके बजाय इनके खिलाफ गहनतम खोजबीन का एक ऐसा अभियान प्रारंभ किया जैसा किसी एक व्यक्ति के खिलाफ पहले कभी नहीं किया गया था। अब पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि प्राय: प्रत्येक सरकारी विभाग इसमें सम्मिलित था- ‘इंटर्नल रेव्यू सर्विस’, ‘इमीग्रेशन’, ‘क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन’ ( अटॅर्नी जनरल स्वयं), ‘कस्टम्स एब्द एक्साइज’ और ‘हेल्थ, एजूकेशन तथा वेलफेयर’ विभाग। जैसा कि 1986 में एक प्रेस-काक्रेंस में संयुक्त राज्य अमरीका के ओरेगॅन स्थित अटॅर्नी जनरल ने कहा कि, ‘‘हमारी पहली प्राथमिकता भगवान से छुटकारा पाने और कमुयून को नष्ट करने की थी।’’

प्रेस की नजरों से यह सब बचा न रहा। ओरेगॅन की एक पत्रकार डेल मर्फी ने अपनी पुस्तक ‘दि रजनीश स्टोरी’ में लिखा: ” अटॅर्नी जनरल, गवर्नर, इमीग्रेशन सर्विस को रोकने का कोई उपाय न था’‘….’‘इन सब को कम्युन को नष्ट किए बिना कुछ भी रोक नहीं सकता था। सर्वोपरि रूप से, वे भगवान को नष्ट करना चाहते थे-यह भगवान जो कि गैर-ईसाई था, गैर-यहूदी था, कोई पशु-फार्म वाला (रैचर) न था और जो रॉल्‍स-रॉयस गाड़ियों में चलता था तथा अजीब से कपड़े पहनता था। उन्होंने इसे मृत देखना पसंद किया होता। और वे इसमें सफल भी हो गये होते यदि समय रहते उनके शिष्यों ने उन्हें छड़ा लाने के लिए कदम न उठा लिया होता।’’ जर्मनी के एक प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक ‘सद्यूत्‍शे ज़ाइतुंग’ ने नवम्बर 1985 में लिखा, ”अमरीकी अधिकारियों का लक्ष्‍य कम्‍यून को कुचल देने का लगता है,कीमत चाहे कोई भी चुकानी पड़े।”

उसी महीने सरकार को इसमें सफलता मिल गयी, जब इमीग्रेशन (आप्रवास) -नियमोल्लंघन के दो आरोपों पर मुकदमा न लड़ने की स्वीकृति लेने के बाद भगवान को देश से निष्कासित कर। दिया गया। ( अध्याय एक में पाद-टिप्पणी देखें)। ‘इमीग्रेशन-नियमोल्लंघन’ : यह सरकार की मय हत महंगी और चार साल लम्बी खोजबीन का कुल योग था। प्रेस की निगाहों में आने से यह बात भी रह न सकी कि ” अमरीका में रह रहे हजारों-हजारों लोग ठीक इन्हीं नियमोल्लंघनों के ‘ दोषी’ थे’‘ – ‘ला दोमेनिका देल कूरियरे’, इटली।’’यदि अमरीकी सरकार देश के उन सारे। नागों को इकट्ठा करे जिनकी शादियां झूठी थीं’‘, ‘मिलवॉकी जरनल’ में जोएल मैक्वेली ने। लखा, ‘‘तो उसे स्टेडियमों को जेल बनाना पड़ेगा जैसा कि वहां दक्षिण अमरीका में किया जाता

भगवान को उत्तर केरोलाइना में बंदूक की नोक पर (ठीक से कहें तो बारह भरी हुई बंदूकें) गिरफ़्तार किया गया। उन्हें जमानत पर छोड़ने से पहले बारह दिनों तक जेल में रखा गया। उन दिनों लिये गए उनके चित्रों में उनके हाथों पर हथकड़ियां और कमर तथा पैरों में बेड़ियां दिखाई देती हैं। उनकी नग्न तलाशी ली गयी, लंबा रोब जो वे हमेशा पहनते हैं जप्त कर लिया गया और जेलखाने के शर्ट और पैन्ट उन्हें दिये गए। ओरेगॅन की पत्रकार डेल मर्फी ने भगवान के उस दृश्य का वर्णन किया: ” अभी भी बेड़ियों में, उन्नत और सगर्व चलते हुए वे कष्टपूर्वक-यह कष्टकर रही ही होगा-उस विमान की ऊंची चढ़ाई पर अपना रास्ता तय कर रहे थे जो उन्हें उत्तर केरोलाइना से बाहर ले गया। (सहायतार्थ लगे) हत्थों का वे उपयोग नहीं कर सकते थे क्योंकि उनकी कलाइयां हथकड़ी में थीं। और एक भी व्यक्ति ने उनका हाथ थामने की अथवा सहारा देने की चेष्टा न की। आखिरकार, यह नाजुक व्यक्ति’‘, उन्होंने लिखा, ‘‘समाज के लिए खतरा था न!” जो उनके विरोध में थे उन तक को बड़ा धक्का लगा। ‘सद्युत्से ज़ाइतुंग’ ने पूछा, ” आप्रवास-सेवा संन्यासियों को अत्यंत खतरनाक अपराधी मानती लगती है। इस बात का स्पष्टीकरण और किस तरह किया जाए कि क्यों यात्रियों के इस छोटे-से दल को उत्तर केरोलाइना में गिरफ़ार कर जानवरों की तरह एक-दूसरे के साथ जंजीरों में जक्कूकर शॉर्लट में मेजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया गया? ”

‘अल्वनी डेमोक्रेट-हेराल्ड’ ने (अल्वनी ओरेगॅन के उन शहरों में से था जिन्होंने भगवान और उनके संन्यासियों के खिलाफ निगरानी-समिति बनायी थी) अपने संपादकीय में लिखा: ‘‘यहां किसी के पास भगवान श्री रजनीश के प्रति अफसोस करने के लिए कोई खास कारण नहीं है। लेकिन इस आदमी की गिरफ़ारी के और उसके बाद की तकलीफों के समाचार पत्रों में आ रहे प्रतीयमानत: उल्लसित विवरणों से कुछ अबू तक अनपूछे सवाल उठते हैं। उनके अनगिनत आलोचक-जो कि इस बात से प्रसन्न हैं कि कैसे इस आत्म-घोषित महत्वपूर्ण व्यक्ति को छोटी-सी कोठरी में औरों के साथ रहने के दयनीयकर अनुभव द्वारा नीचा दिखाया गया-उनकी ये शिकायतें सुनकर हंसे होंगे कि उन्हें एक स्टील की बेंच पर बिना किसी तकियों और कम्बलों के सोना पड़ रहा है, और अनवरत धूम्रपान करनेवाले कोठरी के सहभागीदारो के सिगरेटों के धुएं में उन्हें सांस लेनी पड़ रही है। जाहिर है कि आवासी-विदेशी का कानूनी दर्जा पाने के लिए किसी से विवाह करना संघीय अपराध है। गुरु पर अपने शिष्यों के बीच इसी बात का बढ़ावा देने का दोषारोपण किया गया है, हालांकि वे इसका इन्कार करते हैं। जो कुछ भी हो ऐसा नहीं है कि सुविधा के लिए की गयी ऐसी शादियां कभी देखने-सुनने में न आयी हों। अब इस मुकदमे पर ओरेगॅन तथा उत्तर केरोलाइना की अदालतें अनेक अभियोगारोपक एजेन्सियों और वकीलों की पलटनों सहित, इस पात्र द्वारा सहे जाने के लिए फेडरल (संघीय) सरकार की सारी महिमा का बोझ लिए हुए गड़गड़ाहट के साथ चल पड़ी हैं। यदि वे सावधान नहीं हैं, और स्वयं को और स्वयं के निर्दय तौर-तरीकों को संयत नहीं करते हैं, तो वे इस आदमी को शहीद बना देंगे।”

‘दि वेंकूवर कोलंबियन’ में लिखते हुए रेवरंड फारले मेक्सवेल ने इस गिस्कारी को ”भय, संदेह और पूर्वाग्रह की एक और विजय’‘ कहा। उन्होंने सवाल किया, ‘‘इस अनुभव से ईसाई क्या सीख सकते हैं? लगभग 2, ००० साल तक प्रेम, श्रद्धा और उदारता का उपदेश सिखाते रहने के बाद हम आज भी कुछ उन्हीं आदिम शक्तियों को देख सकते हैं जिन्होंने ईसा को सूली पर चढ़ा दिया था। लोगों को धमकी लगी। उन्होंने भय, संदेह और पूर्वाग्रह के भावावेगों से जवाब दिया। इस अनिमंत्रित, अवांछनीय उपस्थिति से देश को छुटकारा दिलाने के लिए स्थापित नेतृत्व ने सभी वर्तमान कानूनों और व्यवस्थाओं का उपयोग किया। गॉस्पल्‍स के उपदेशों ने हमें कम कार्यकुशल बनाया या अधिक सहिष्णु बनाया? ईसा को पकड़ने में रोमन-यहूदी नेतृत्व को तीन साल लगे, और आधुनिक ओरेगॅनवासियो को रजनीश को पक्कने में चार साल लगे। शायद यह 2, ००० साल की प्रेम, श्रद्धा और उदारता की शिक्षा का मापनीय परिणाम है-कानून और व्यवस्था की कार्यकुशलता में 25 प्रतिशत हास अथवा सहिष्णुता में 25 प्रतिशत वृद्धि।’’

शासन के इस व्यवहार से भौचक और भगवान के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित (उन्हें डाइबिटीज, एलर्जिक अस्थमा और चिरकालिक पीठ के दर्द की शिकायत रहती थी) भगवान के अनुयायियों और मित्रों ने उनसे अनुरोध किया कि वे अमरीकी शासन द्वारा किए गए उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लें जिसके अंतर्गत यदि वे तुरंत देश छोड्कर चले जाने का वायदा करें तो दो आरोपों पर वे निवेदन कर सकते हैं और लंबे समय तक खिंचने वाले मुकदमे से बच सकते है। शासन को मुकदमे के समय और खर्च से बचाने के लिए यह अजीब किस्म का अनुनय-समझौता अमरीका में अक्सर किया जाता है। भगवान ने जो ‘एक्से प्ली’ दाखिल की, उसमें उन्होंने यह स्वीकार किया कि शासन के पास सुबूत थे जिनके द्वारा वह जूरी को विश्वास दिला सकता था कि वे स्थायी रूप से निवास करने के उद्देश्य से अमरीका आए थे, और कि उन्होंने झूठे विवाह करवाए थे, लेकिन उसके साथ ही साथ उनकी निदोषिता बनी रही। उन्हें जुर्माना किया गया और पांच साल तक अमरीका में लौटने से निषेध किया गया।

क्यों? किस बात ने एक व्यक्ति के खिलाफ इतने विशाल शासकीय अभियान को जन्म दिया था?

अमरीका में उन साढ़े चार सालों में उन्होंने ऐसा क्या किया था?

शुरुआत के लिए, पहले चार साल वे सार्वजनिक रूप से मौन और एकांत में थे। उन्होंने कोई प्रवचन दिए ही नहीं। उस दौरान वे मध्य ओरेगॅन के एक विशाल रैंच पर ( 126 वर्गमील) रहते थे, जिसे उनके कुछ अनुयायियों ने खरीदा था। वह रैच बिलकुल एकाकी था-निकटतम शहर 2० मील की दूरी पर!, था। बहरहाल, जैसे ही उनकी मौजूदगी का समाचार फैला, यद्यपि वे ‘विश्राम’ और मौन में थे, सारी दुनिया से उनके हजारों अनुयायी वहां आने शुरू हो गये।

उन सबको वहां समायोजित करने के लिए रैच पर एक छोटे-से शहर का निर्माण किया गया, और चार साल के भीतर वहां 6, ००० लोग रहने लगे थे। उनके शिष्यों ने न -कुछ से उस शहर का निर्माण किया था, और वह सभी आगंतुकों के लिए विस्मय का स्रोत था: ” धूलि- धूसरित पहाड़ियों से घिरे प्रदेश के गहन में, जो जॉन वियने की काउबॉय फिल्म ‘रूस्टर कॉगबर्न’ के कारण प्रसिद्ध हो चुका था, वे लोग इस तरह श्रम करते हैं जिस पर हममें से बहुत कम लोगों को विश्वास होगा और उससे भी कम लोग उसे झेल पाएंगे। दिन के बारह घंटे, सप्ताह के सात दिन, वे लगे रहते हैं लगभग-मरुस्थल भूइम को मरूद्यान बना देने में, जो कि मानवीय प्रयास के लिए गौरव की बात है’‘ -जुलाई 1985 में ‘वेस्ट ऑस्ट्रेलियन सण्डे टाइम्स’ में हॉवर्ड सैटलर ने लिखा। उन्होंने आगे लिखा, ‘‘चार वर्षों में, 31० वर्ग किलोमीटर के अपने रैंचो रजनीश’ की घाटियों को उन्होंने मृत भूरे से लहलहाते हरे में बदल दिया है। उनके पास उस इलाके की दूध देनेवाली गायों का स्वस्थतम झुंड है, वे एक साथ 15, ००० लोगों के लिए पर्याप्त तरह-तरह की सब्जियां पैदा करते हैं, और अपने नये मह के बाग से वे घर में बनी अपनी सर्वप्रथम शराब की बोतल निकालने के समीप हैं। भगवान के लोगों की अपनी ट्रेवेल एजेंसी है, ओरेगॅन प्रदेश में चौथी सबसे बड़ी बस-सेवा है, और चार वायुयानों से सज्जित वायु-सेवा भी है। उनका एक साप्ताहिक समाचार-पत्र प्रकाशित होता है और नागरिकों की सुरक्षा के लिए एक सशस्त्र ‘शांति सेना’ है।’’

जॉन फ्राय ने, जो 1983 के पूर्वार्द्ध में रैंच पर आए थे, जब अभी रैंच को खरीदे हुए दो साल भी नहीं हुए थे, निर्माण-गतिविधियों तथा उसमें निहित आर्थिक लागत का वर्णन किया: ‘‘हमने जहां भी देखा वहीं नई इमारतें खड़ी हो रही थीं, विशालकाय डी-9 कैट ट्रैक्टर सड्कों को चौड़ा कर रहे थे, ट्रक, क्रेन, पत्थर तोड्ने वाली मशीनें, कांक्रीट का मिश्रण करने वाली मशीनें, नई जीपें, महान तीस-फीटवाले दुहरे चल-मकान (ट्रेलर), दर्जनों छोटे-छोटे निपुण ए-फ्रेम, और तंबुओं के एक शहर की शुरूआतें-जो ब्रुकलिन के आधे आकार का दिख रहा था, जहां इस जुलाई में 15,००० लोगों को ठहराया जा सकेगा, जब यहां द्वितीय वार्षिक विश्व महोत्सव के लिए दुनिया भर से रजनीशी इकट्ठे होंगे। इसके उपरान्त हमने दूसरा बांध देखा, फिर डेरी, निर्माणाधीन मेथेन उत्‍पादक यंत्र, भक्षक जानवर-निवारक कुशल उपायों से सज्जित चूजा-पालन प्रांगण, पानी से गरम होने वाले विशाल सौर फलकों, और भरपूर वेग से चलने वाली बेकरी से संयुक्त केफेटेरिया, ट्रॅक उद्यान, जिसने पिछले वर्ष 8०,००० डालर कीमत की सब्जियां पैदा कीं और जो संभवत: इस वर्ष उस आंकडे को दुगुना कर देगा, पौधों की नर्सरी, और इस जैसे अन्य बहुत कुछ। और ये अचंभे हमने उतने ही अचंभे के भाव में देखे। मात्र निश्चल खड़े रहकर और चारों ओर न देखते हुए भी यह साफ था कि ये लोग इस जगह पर अब तक 2०-3० मिलियन डालर लगा चुके हैं और यह सिर्फ शुरूआत थी। अगर हमने चारों ओर नजर डालकर उनके कम्प्यूटर देखे होते, और कि उनके ड्राइंग-बोर्ड्स ( आरेख-पट्टों) पर क्या था, तो यह आक्का दुगुना हो जाता।’’ अंत में उन्होंने कहा: ‘‘रजनीशियों के सामुदायिक प्रयासों में न केवल ढेर सारी शुद्ध प्रतिभाशाली प्रवीणता का पूरे समय उपयोग किया जा रहा है, बल्कि बहुत सारा धन भी वहां है।’’

रैच पर पर्यावरण-संरक्षण के लिए अपनायी गयी नीतियों से संवाददाता विशेषरूपेण समोहित होते थे: ” भूमि का सवोंत्तम उपयोग कैसे हो, इस के लिए संन्यासी सब कुछ करते हैं, और उनके आलोचक भी इसे प्रशंसा के साथ स्वीकार करते हैं। उन्होंने ऐसी सिंचाई-व्यवस्थाएं बनायी हैं जिसमें एकबार उपयोग किये जा चुके पानी का ही अधिकतम सिंचाई के लिए उपयोग हो। वे मल-व्यवस्था की अभिक्रिया के लिए प्राकृत्तिक संयंत्र का प्रयोग करते हैं और 7० प्रतिशत उत्सर्ग-द्रव्य की ‘रिसाइकलिंग’ (पुनरावर्तन) करते हैं। पर्यावरणवादियों के लिए उन्होंने एक स्वर्ग निर्मित कर लिया है, ” मेरियेन हूयूवेगॅन ने जर्मन राष्ट्रीय दैनिक ‘सद्युलो जाइतुंग’ में नवंबर 1985 में लिखा था।

ओरेगॅन के एक स्तंभ-लेखक, किर्क बॉन, ने भविष्योक्ति की थी: ‘‘यह संभव है कि किसी दिन पर्यावरणवादी पर्यावरण के साथ तालमेल में जीने के लिए रजनीशपुरम को एक आदर्श की भांति देखेंगे।’’

ऑस्ट्रेलिया की ‘पीओएल’ पत्रिका ने योजना के पीछे छिपे दर्शन की चर्चा की। रैंच के एक संस्थापक का उद्धरण देते हुए उसकी शुरूआत हुई: ‘‘हमारी तमन्ना यह है कि भगवान जबकि सशरीर हमारे बीच हैं तभी उनके योग्य एक तीर्थ बनाया जाए। काम जो हम यहां कर रहे है वह एक संयुक्त प्रयास है एक सुंदर मरूद्यान निर्मित करने का- भौतिक और आध्यात्मिक।’’‘पीओएल’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा: ‘‘दो वर्षों के भीतर भगवान के शिष्यों ने रैंच को सड़कें बनाते हुए, बने-बनाए ढांचों से मकान बनाते हुए, गोदाम, बिजली और जल की व्यवस्था, एक डेरी केंद्र बनाते हुए और नवीनतम कृषि संयन्त्रों का उपयोग करते हुए एक बहु-आयामी कृषक समुदाय बना दिया है। होलस्टीन नस्ल की गौवें समुदाय को दूध, मक्खन, चीज़ तथा दही प्रदान करती हैं।

समुदाय का छ: एक्क का मुर्गियों का फार्म उसे अण्डे प्रदान करता है और भोजनालय से निकले उच्छिष्ट भोजन को ‘रिसाइकल’ करके मुर्गियों का भरण होता है। रैंच की अधिकांश पर्वतीय जमीन भेड़ों और गाय-बैलों के लिए उपयोगी थी, लेकिन विगत 5० वर्षों में बृहत पैमाने पर अति-चराई के कारण जमीन, घास, जल-स्रोत और वन्य-जीवन विनष्ट हो चुके हैं।

‘‘प्रथम परियोजनाओं में से एक. भू-सुधार-कार्यक्रम था, जिसका ध्येय था भू- क्षरण को रोकना, बरसाती पानी के बहाव के वेग को धीमा करना और बंजर पहाड़ियों पर घास को वापस प्रोत्साहित करना। कम्‍यून ने शीघ्रता से 5० एकड़ जमीन पर एक ‘ट्रक फार्म’ विकसित किया जो -अब उनकी जरूरत की लगभग सभी सब्जियां उगाता है, और रैच के टीलों पर सूखी-भूमि-कार्यक्रम शुरू किया जो गेहूं जौ, ओट, राइ और फलियां लाता है। शहद के लिए उन्होंने मधुमक्सियां पाल रखी हैं और यहां तक कि मह के एक बगीचे का भी गर्व से बखान करते हैं।’’

‘पीओएल’ ने शहर के महापौर को यह कहते हुए उद्धृत किया है: ‘‘शहर का विकास प्रकृति के साथ तालमेल रखते हुए ही होगा, जो इस बात का दिग्दर्शक होगा कि लोगों के लिए जीव-पर्यावरण-संबंध-विज्ञान, जिस पर हम सब अपने कल्याण के लिए निर्भर हैं, के साथ एक हितकारी तालमेल में जीना संभव है।

पत्रिका ने आगे लिखा: ‘‘जैसा कि भगवान ने एक बार कहा था, ‘जीव-पर्यावरण-संबंध-विज्ञान (इकॉलॉजी) का अर्थ है संपूर्ण का ख्याल रखना, अस्तित्व में वस्तुओं के परस्पर-निर्भरता के वर्तुल का। हर वस्तु हर अन्य वस्तु पर निर्भर है. न यहां कुछ परम स्वतंत्र है, न हो सकता है। हम अंश हैं, बहुत छोटे अंश, एक चक्र के दांते। किसी को समूचे चक्र के संबंध में जानना ही था। ‘ लेकिन इकॉलॉजी की यह अंतर्दृष्टि आधुनिक टेक्रॉलॉजी का अवमूल्यन नहीं करती- ‘प्रकृति का संतुलन वापिस लौटाने का तरीका यह नहीं है कि हम टेक्रॉलॉजी का त्याग कर दें, ‘ उन्होंने कहा। ‘हिप्पी हो जाने में भी नहीं है-नहीं, जरा भी नहीं। प्रकृति का संतुलन वापिस लौटाने का तरीका है श्रेष्ठतर टेक्रॉलॉजी द्वारा, उच्चतर टेक्रॉलॉजी द्वारा। मैं पूरी तरह विज्ञान के पक्ष में हूं। बाहूय जगत को समग्रत: रूपांतरित किया जा सकता है। हम स्वयं प्रकृति से भी अधिक बेहतर इकॉलाजिकल संतुलन ला सकते हैं। मनुष्य प्रकृति का सर्वोच्च शिखर है, यह मनुष्य ही है जिसके माध्यम से प्रकृति अपनी समस्याएं पुन: सुलझा सकती है।’’पीओएल’ ने इस बात का भी जिक्र किया कि ” भगवान अपने शिष्यों द्वारा अपनायी गयी कम्यूनल (सामुदायिक) जीवन-शैली में और कार्ल मार्क्स के कम्‍यूनिज्य में सुस्पष्ट फर्क करते हैं। भगवान की दृष्टि भारतीय साधु-संतों की परम्परावादी धार्मिक शिक्षाओं से मेल नहीं खाती। वे त्याग, ब्रह्मचर्य, अनुशासन या तप की शिक्षा नहीं देते। उनका संदेश है कि ध्यानी को अनासक्त होकर जीने की कला सीखकर संसार और उसकी पूरी भौतिकता के बीच जीना आना ही चाहिए। ‘बीच बाजार में ध्यान’ कहकर उनके शिष्य ध्यान के प्रति उनके दृष्टिकोण का वर्णन करते हैं।

’’इस दृष्टि के प्रयोग के लिए यह नया शहर रजनीशपुरम एक आदर्श जगह है। निवासियों तथा आगंतुकों के लिए वहां कई खाने-पीने के कद्रदान शाकाहारी रेस्तरां हैं, जिनमें पूर्वीय और मेक्सिकन भोजन और इटालियन पिज़ा भी सम्मिलित हैं; इसके अलावा है बुटिक, किताबों की दुकान, डाकघर, सिटी हाल, अग्‍निशामक केन्द्र, शांति सेना और हाल ही में तैयार हुआ एक खरीदारी केन्द्र जो प्रस्तुत करता है जौहरी की दुकान, सौदर्य कक्ष, डेली, सिनेमा, दवाइयों की दुकान तथा शराब की दुकान।

‘‘यहीं पर रजनीश अंतर्राष्ट्रीय ध्यान विश्वविद्यालय भी है जहां ध्यान, आध्यात्मिक चिकित्सा और आंतरिक विकास में संक्षिप्त तथा लम्बे पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। जकूज़ी से सज्जित एक स्वास्थ्य केन्द्र, जिसमें सोना बॉथ और व्यायाम-शाला शीघ्र ही खुलने को निर्धाारत हैं, जबकि मनोरंजन-सुविधाओं में हाइकिंग, कनूइंग, रेफ्टिंग, तैराकी, नौका-चालन और विड-सर्फिंग उपलब्ध हैं।’’

नवंबर 1984 में, ‘दि यूइजन रजिस्टर-गार्ड’ ने रैंच के संबंध में कुछ आंकड़ों का प्रमाण तैयार किया, यह दर्शाते हुए कि ”… (रैंच) 11० मिलियन डालर लागत का द्योतक है। इस शहर की सरंचना के मूलभूत हिस्से हैं: एक नब्बे फीट ऊंचा मिट्टी का बांध और पैंतीस एकड़ का जलाशय, एक बिजली का सब-स्टेशन और भूमिगत सुविधाएं मल-प्रणाल और जल-व्यवस्था, एक ठोस रद्दी को पुनरावर्तित (रिसाइकल) करने की सुपरिष्कृत व्यवस्था, एक हवाई अड्डा, पैंतीस मील सड़कें, प्रमदवन, और नग्रस्रान के लिए सुरक्षित एक झील, कई गृह-समूह और सौ बसों की एक यातायात-व्यवस्था जो ओरेगॅन की चौथी सबसे बड़ी कही जाती है।’’

1985 तक इसमें जुड़ चुके थे ‘‘एक सैंतालिस कमरों वाला प्रथम श्रेणी का हटिल, एक चिकित्सा उपचार-केन्द्र, एक विद्यालय, एक अखबार और चालीस व्यवसाय। संन्यासियों द्वारा शहर में चारों ओर दस लाख से भी अधिक पौधे लगाए जा चुके थे।’’ – ‘दि एटलांटिक मंथली’ ने खबर दी।

‘दि यूजिन रजिस्टर-गार्ड’ ने उन संन्यासियों के संबंध में भी कुछ अंतर्दृष्टि प्रस्तुत की जो वहां रहते थे। उसने लिखा कि ये : ‘‘पाये जाते हैं- ‘गतवर्ष ओरेगॅन विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों द्वारा किये गये जनसांख्यिक अध्ययनों के अनुसार-युवा ( 34 वर्ष), विवाहित ( 74 प्रतिशत), निःसंतान ( 75 प्रतिशत), श्वेतवर्णीय ( 91 प्रतिशत), और उच्च शिक्षा पाये हुए ( 64 प्रतिशत विश्वविद्यालय के स्नातक थे, 36 प्रतिशत लोगों के पास स्रातकोत्तर उपाधियां थीं)। उनमें से अधिकांश लोग संन्यास लेने से पूर्व सामान्यतया ‘ धार्मिक’ थे। लगभग 85 प्रतिशत लोगों का क़ोई न कोई पूर्ववर्ती धार्मिक संबंधन था ( 3० प्रतिशत प्रोटेस्टेंट, 27 प्रतिशत रोमन केथॅलिक और 2० प्रतिशत यहूदी)।’’ पत्र ने आगे कहा: ‘‘उनसे पुराने विश्वासों को छोड़ने के लिए नहीं कहा

जाता। भगवान को केवल ईसा और बुद्ध जैसे पुराने धार्मिक सद्गुरुओं की शिक्षाओं के पार ले जानेवाले के रूप में देखा जाता है। उन पूर्ववर्ती सद्गुरुओं ने, आवश्यकतावश, अपने संदेश को उस समय की जरूरत के अनुसार ढाला था।’’

जैसा कि जॉन फ्रॉय ने कहा: ‘‘ये संन्यासी परम धीर, आश्वस्त, तनावरहित और आनंदित लोग हैं। इससे भी बढ़कर, जहां तक मैं जानता है वे तेज व सक्षम हैं। इनमें से एक भी वे नीरस और पराजित, व्यसनाधीन, आलसी, भगोड़े, बेमेल, सूनी आंखों वाले विक्षुब्ध लोग नहीं हैं-जो कि, हां, अक्सर कम्‍यूनों में पाए जाते हैं। नहीं, हर्गिज नहीं। यह तो समूचा नवनीत है, बिना किसी तलछट के। और इस पूरे समूह में हिप्पी तो खोजे से नहीं मिलता।

ओरेगॅन के विलमेटे विश्वविद्यालय में राजनीति-विज्ञान के प्राध्यापक, टेड शे ने 1983 में यह निष्कर्ष निकाला था: ”भगवान ने अपनी शिक्षाओं के प्रति पश्रिम यूरोप तथा अमरीका के कुछ सर्वश्रेष्ठ शिक्षित मस्तिष्कों को आकर्षित किया है।’’

जो भी हो, अमरीकी सरकार प्रभावित नहीं हुई। उसने अदालत में शहर की वैधता को चुनौती दी, यह तर्क दे कर कि यह धर्म और राज्य (चर्च एण्‍ड स्टेट) की पृथकता के नियमों के उल्लंघन में है। जबकि यह मुकदमा विचाराधीन था, जो कि बरसों तक चलनेवाली प्रक्रिया थी, नगर निगम को दी जानेवाली सरकारी सेवाएं रोक दी गयीं।

कुछ स्थानीय रैंचर, अधिकांशत: कट्टर ईसाई, भी ‘विदेशी और उसके विचित्र धर्म’ से परेशान थे जो उनके क्षेत्र में आ गया था। उन्होंने कुछ निगरानी जैसी समितियां बनायी थीं और आसपास कारों में बैठकर बंदूकें और तख्तियां लिए घूमते, जिन पर लिखा होता. ‘बेटर डेड दैन रेड’ -लाल होने से मर जाना बेहतर। (संन्यासी अपने कपड़ों के रंग के कारण रईइड’ कहे जाने लगे थे)। उन्होंने टी-शर्ट्स और बेसबॉल खेल में पहनी जानेवाली टोपियां वितरित कीं, जिन पर भगवान के चेहरे पर तनी हुई बंदूकें बनी थीं। उन्होंने सभाएं आयोजित कीं जिनमें बाइबिल की दुहाई पीटनेवाले धर्मोपदेशक चिल्ला-चिल्लाकर रैंच पर रहनेवाले शैतान-समर्थकों और दैत्य-पूजकों के बारे में भीषण चेतावनियां देते। और उन्होंने याचिकाएं वितरित कीं, जिनमें सरकार से मांग की गयी थी कि भगवान और ‘उनके विदेशी पंथ’ के अनुयायियों को वापस उनके अपने देश भेज दिया जाए (इस तथ्य की पूरी उपेक्षा करते हुए कि आधे से काफी अधिक रैंच-निवासी अमरीकी नागरिक

ओरेगॅन स्टेट यूइनवर्सिटी में बीस सालों से भी अधिक से धार्मिक अध्ययन के प्रोफेसर, रोनॉल्ड क्लार्क ने ओरेगॅन मानवीयता समिति द्वारा मंजूर किये गये एक अनुदान के अंतर्गत 1983 का ग्रीष्मकाल स्थिति का अध्ययन करने में बिताया। समिति को प्रस्तुत की गयी अपनी 31 पृष्ठों की रिपोर्ट में उन्होंने लिखा: ” भगवान श्री रजनीश के अनुयायी अपने ओरेगॅन आगमन के समय से एक पंथ-विरोधी हिस्टीरिया के शिकार हुए हैं, अधिकांशत: जिसके कारण रूढ़िवादी ईसाई हैं, जिन्होंने अपने बीच एक अन्य धर्म की उपस्थिति का क्ला विरोध किया है।’’ उन्होंने आगे कहा कि रजनीशिज्य से कहीं ज्यादा गंभीर खतरा इस हिस्टीरिया की तरफ से है। रजनीशिज्य को उन्होंने एक ‘उदित हो रहे धर्म’ की संज्ञा दी और कहा कि ‘‘पूर्वीय धार्मिक परंपराओं से परिचित कोई भी व्यक्ति पहचान लेगा कि रजनीशिज्य एक धर्म है।’’

क्लार्क ने कहा कि ‘‘गलत प्रतिनिधित्व और साहचर्य से पैदा हुए अपराध-भाव’‘ के कारण जो लोग इस पंथ को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं, वे अमरीका के परंपरागत धार्मिक स्वतंत्रता के आश्वासनों को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे है। उन्होंने कहा, ‘‘मैंने रजनीशपुरम के संबंध में कुछ अविश्वसनीय अफवाहें सुनी है’‘, और बताया कि नये धर्मों के संबंध में इस तरह की अफवाहें फैलाने की परंपरा प्राचीन है। उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिया कि ‘पंथ’ एक सुनिश्रित पारिभाषिक शब्द है, जिसका प्रयोग तुलनात्मक रूप से नये, छोटे आंदोलनों का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो धार्मिक मान्यताओं की मूलधारा से काफी हटकर होते है।’’इस परिभाषा के अनुसार रोमन समाज में प्रारंभिक ईसाइयत एक पंथ थी, ”उन्होंने कहा।

क्लार्क, एक भूतपूर्व अभिषिक्त ईसाई धर्मोपदेशक, ने कहा कि प्रारंभिक ईसाइयों को रोमन लोग नास्तिक मानते थे, क्योंकि वे रोमन सम्राटों के आगे अगरबत्ती नहीं जलाते थे। उनके संबंध में यह भी अफवाह थी कि वे सामूहिक काम-रंगरलियां मनाते हैं (एक अफवाह जो भगवान के शिष्यों के साथ अक्सर जोड़ी जाती है) और नरभक्षी हैं क्योंकि ‘प्रेम भोजों’ में जाते थे और ऐसे उत्सवों में सम्मिलित होते थे जिसमें वे ‘किसी के शरीर को खाते और खून को पीते थे’। क्लार्क ने निष्कर्ष में कहा, ‘‘इस इतिहास को हमें थोड़ा तो रोकना चाहिए… .हम एक नित छोटे होते जा रहे ग्रह पर जी रहे हैं और अब हमें धार्मिक अनेकता से हाथ मिलाना ही होगा। बहुत-सी धार्मिक परंपराओं में बहुमूल्य बातें है। भगवान एक रहस्पदर्शी है, और वे आध्यात्मिक मसलों पर उस तरह काम कर रहे है जिस तरह पूरब में समझा जाता है। मैं आशा करूंगा कि अतीत के रक्तरंजित धर्म-युद्ध अब समाप्त हो गये हैं।’’

दुर्भाग्य से उनकी ओर बहुत कम ध्यान दिया गया। अमरीका सरकार ने, जिसके अधिपति कट्टर ईसाई रोनाल्ड रेगन थे, और अटर्नी जनरल के कार्यालय ने, जिसके अधिपति उससे भी अधिक धर्मांध ईसाई एडवर्ड मीज थे, अपना अत्याचार जारी रखा, जिसकी पराकाष्ठा ‘ आप्रवास-अपराधों’ के नाम पर 1985 में भगवान की नाटकीय गिरफ़ारी और देश-निष्कासन में हुई।


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मैं कहता आंखन देखी–ओशो–(प्रवचन–1)

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मैं कहता आंखन देखी

—(ओशो)

(अंधों की बस्‍ती है रोशनी बेचता हूं)

……एक आदमी है, अंधा है। तो हमें ख्‍याल होता है कि शायद उसको अँधेरा ही दिखाई देता होगा। यह हमारी भ्रांति है। अँधेरा देखने के लिए भी आँख के बिना अँधेरा भी दिखाई नहीं पड सकता।….

…..क्‍योंकि अँधेरा जो है, वह आँख का अनुभव है। जिससे प्रकाश का अनुभव होता है, उसी से अंधकार का भी अनुभव होता है। जो जन्‍मांध है, उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं। अँधेरा भी जानेगा कैसे?……

…….मैं वह कहा रहा हूं जो मेरी प्रतीति है, मेरा अनुभव है। मैं वह कहा रहा हूं जो कि शास्‍त्रों की अन्‍तर्निहित आत्‍मा है। मगर शास्‍त्रों के शब्‍द मैं उपयोग नहीं कर रहा हूं। शब्‍द तो बदल दिए जाने चाहिए। अब तो हमें नये शब्‍द खोजने होगे। हर सदी को अपने शब्‍द खोजने होते है। तो मैं वहीं कहा रहा हूं जो बुद्ध ने कहा, कृष्‍ण ने कहा, मुहम्‍मद ने कहा, जीसस ने कहा, लेकिन अपने ढंग से……

——इसी पूस्‍तक से।

सत्‍य सार्वभौम है—(प्रवचन—1)

मैं कहता हूं आंखन देखी,

(अंतरंग भेंट वार्ता)

वुडलैण्‍ड, मुम्‍बई,

दिनांक 28 फरवरी 1971

भगवान श्री, आपका साहित्य पढ़ा है। आपको सुना भी है। आपकी वाणी बड़ी सम्मोहक और बातें बड़ी साफ हैं। आप कभी महावीर पर बोलते हैं कभी कृष्ण पर चर्चा करते हैं कभी बुद्ध की बातें करते हैं कभी क्राइस्ट और मुहम्मद पर भी छत कुछ कह डालते हैं। गीता की अत्यंत प्रभावोत्पादक मीमांसा करते हैं। वेद और उपनिषद का विवेचन करने में भी नही चूकते। यहां तक कि गिरजाघरों में जाकर भी प्रवचन कर आते हैं। ऊपर से आप कहते हैं उपरोक्त व्यक्तियों से मैं किसी से भी प्रभावित नहीं हूं। मेरा इनसे कोई लेना—देना नहीं है। इनको मानते भी नहीं हैं। उधर प्राचीन मान्यताओं और शास्रों पर निरंतर प्रहार करते हैं धर्मों की बुराई करते हैं। फिर क्या आप अपना पंथ या मत चलाना चाहते हैं या आप यह बताना चाहते हैं कि आपका ज्ञान अपार है या आप लोगों को ‘कन्‍फयूज’ करना चाहते हैं? आठों पहर शब्द ही शब्द बोलते हैं। शब्दों से ही समझाते हैं सूचनाएं देते हैं और शब्दों की पकड़ से कहीं पहुंचोगे नहीं यह भी बताते रहते हैं! कहते आप यह हैं कि मुझे मानना नहीं पकड़ना नहीं नहीं तो वही भूल हो जाएगी; और निषेध निमंत्रण है ऐसा भी आप दर्शाते हैं। तो कृपया यह बताएं कि आप क्या हैं कौन हैं और क्या करना चाहते हैं क्या कहना चाहते है: आपका मकसद क्या है?

 

हले तो महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट या मोहम्मद—उनसे मैं प्रभावित नहीं हूं। इसका अर्थ यह कि धर्म की एक खूबी है कि वह एक अर्थ में सदा पुराना है। इस अर्थ में, कि वैसी अनुभूति अनंत लोगों को हो चुकी है। धर्म की कोई अनुभूति ऐसी नहीं है कि कोई व्यक्ति कहे कि वह मेरी है। इसके दो कारण हैं। एक तो धर्म की अनुभूति होते ही ‘मेरा’ मिट जाता है। इसलिए ‘मेरे’ का दावा इस जगत में सब चीजों के लिए हो सकता है, सिर्फ धर्म की अनुभूति के लिए नहीं हो सकता। सिर्फ वही अनुभूति ‘मेरे’ की सीमा के बाहर पड़ती है, क्योंकि इसकी अनिवार्य शर्त है कि ‘मेरा’ मिट जाए तो ही वह अनुभूति होती है। इसलिए कोई व्यक्ति धर्म की अनुभूति को ‘मेरी’ नहीं कह सकता। न ही कोई व्यक्ति धर्म की अनुभूति को नयी कह सकता है। क्योंकि सत्य नया और पुराना नहीं होता। इस अर्थ में मैं महावीर, जीसस, कृष्ण और मोहम्मद के नाम, औरों—औरों के नाम भी लेता हूं। उन्हें अनुभूति हुई है। लेकिन जब मैं कहता हूं मैं उनसे प्रभावित नहीं हूं तो मेरा मतलब यह है कि मै जो कह रहा हूं वह मैं उनसे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूं। मैं खुद भी जानकर कह रहा हूं। और अगर मैं उनका नाम भी ले रहा हूं तो चूंकि मेरा जानना उनसे मेल खाता है इसलिए ले रहा हूं। मेरे लिए कसौटी मेरा अनुभव है। उस कसौटी पर उन्हें भी मैं ठीक पाता हूं इसलिए उनके नाम लेता हूं। इसलिए प्रभावित उनसे जरा भी नहीं हूं। मैं जो भी कह रहा हूं वह उनसे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूं।

मैं जो भी कह रहा हूं अपने ही अनुभव से कह रहा हूं। लेकिन मेरे अनुभव पर वे लोग भी खरे उतरते है। इसलिए उनका नाम भी ले रहा हूं। वे मेरे लिए गवाह हो जाते है। मेरे अनुभवों के लिए वे भी गवाह हैं। लेकिन इस अनुभूति को, जैसा कि मैने कहा, नया नहीं कहा जा सकता। लेकिन एक दूसरे अर्थ में उसे बिलकुल नया भी कहा जा सकता है। और यही धर्म का बुनियादी रहस्य और पहेली है। उसे नया इसलिए कहा जाता है कि जिस व्यक्ति को भी कभी वह अनुभव होगा उसके लिए बिलकुल ही नया है। उसे उसके पहले नहीं हुआ है। किसी और को हुआ होगा। लेकिन किसी और के होने से उसका क्या लेना—देना है। जिस व्यक्ति को भी अनुभव होगा उसके लिए नया है। उसके लिए इतना नया है, कि वह इसकी तुलना भी नहीं कर सकता कि यह कभी हुआ होगा। या किसी को हुआ होगा जहां तक उस व्यक्ति की चेतना का संबंध है, यह अनुभूति पहली ही दफा हुई है। और फिर धर्म की अनुभूति इतनी ताजी और कुंआरी है, ‘वर्जिन’ है, जब भी किसी को होगी उसे यह खयाल भी नहीं आ सकता है कि यह पुरानी हो सकती है।

जैसे फूल सुबह खिला हो, उसकी पंखुड़ी पर ओस हो और अभी सूरज की किरण पड़ी हो, इतनी ताजी है। इस फूल को देखकर, जिसने पहली दफा यह फूल देखा हो, वह यह नहीं कह सकता कि फूल पुराना है। हालांकि रोज सुबह फूल उगते रहे हैं, खिलते रहे है। और रोज सुबह धूप और ओस और सूरज की किरणों ने नए फूलों को घेरा है। रोज किसी की आंखों ने उन फूलों को देखा होगा। लेकिन जिस आदमी ने पहली दफा उस फूल को देखा है वह यह सोच भी नहीं सकता कि यह पुराना हो सकता है। यह इतना नया है कि अगर वह यह घोषणा करे कि सत्य बिलकुल पुराना कभी नहीं होता, सदा नया ही है, एकदम मौलिक ही है, तो भी गलत नहीं है।

धर्म को हम इसलिए पुरातन और सनातन कह सकते है, क्योंकि सत्य सदा है। और धर्म को हम इसलिए नया और नवीनतम कह सकते हैं, नूतन कह सकते हैं, क्योंकि सत्य का अनुभव जब भी होता है, तो जिस व्यक्ति पर भी वह आघात पड़ता है, उसकी प्रतीति एकदम नए की, और ताजे की और कुंआरे की होती है। यदि कोई व्यक्ति इन दोनों में से कोई भी एक धारा पकड़ ले तो वह व्यक्ति कभी असंगत मालूम नहीं पड सकता। अगर वह कहे कि सत्य सनातन है और कभी न कहे कि सत्य नया है, तो आपको कभी कोई अड़चन और असंगति दिखायी नहीं पड़ेगी। क्योंकि कोई ‘इनकसिस्टेंसी’ नहीं है। कोई व्यक्ति पकड़ ले सकता है कि सत्य नया है और नूतन है।

गुरजिएफ से पूछेंगे तो वह कहेगा पुराना है, सनातन है। कृष्णमूर्ति से पूछेंगे तो वह कहेंगे नया है, बिलकुल नया है। पुराने से कुछ वास्ता ही नहीं। पुराना है ही नहीं। ये दोनों व्यक्ति बिलकुल ही संगत मालूम पड़ेंगे। तो जो सवाल आप मुझसे पूछ सकते हैं वह गुरीजएफ से नहीं पूछ सकते। वह सवाल कृष्णमूर्ति से भी नहीं पूछ सकते। लेकिन मेरी अपनी प्रतीति ऐसी है कि यह अर्धसत्य है। ये दोनों अर्धसत्य है। अर्धसत्य सदा ही संगत हो सकता है।’कंसिस्टेंट’ हौ सकता है। पूर्ण सत्य सदा ही असंगत होगा, ‘इनकंसिस्टेंट’ होगा। क्योंकि पूर्ण में विरोधी को भी समाहित करना होगा। अधूरे में हम विरोधी को छोड़ सकते हैं। एक आदमी कहता है प्रकाश ही प्रकाश है बस सत्य, तो वह अंधेरे को असत्य कर देता है। उसके असत्य करने से अंधेरा छूट नहीं जाता, लेकिन वह संगत हो जाता है। जब अंधेरे को इनकार ही कर दिया तो अब कोई सवाल न रहा। उसे कोई संगति बिठालने की जरूरत न रही। उसके वक्तव्य सीधे, साफ और गणित के जैसे हो सकते है। उसके वक्तव्य में पहेली नहीं रह जाएगी।

जो आदमी कहता है अंधेरा ही अंधेरा है, प्रकाश धोखा है उसकी भी कठिनाई नहीं है। कठिनाई उस आदमी की है जो कहता है कि अंधेरा भी है और प्रकाश भी है। और जो आदमी दोनों को स्वीकार करता है वह किसी गहरे अर्थ में यह बात भी स्वीकार करेगा कि दोनों—अंधेरा और प्रकाश—एक ही चीज के दो छोर है। अन्यथा प्रकाश के बढ़ने से अंधेरा नहीं घट सकता, अगर दोनों अलग चीजें हों। अन्यथा प्रकाश के कम होने से अंधेरा नहीं बढ़ सकता, अगर दोनों अलग चीजें हों। लेकिन प्रकाश को कम—ज्यादा करने से अंधेरा कम—ज्यादा होता है। अर्थ साफ है, कि अंधेरा कहीं प्रकाश का ही हिस्सा है। उसका ही दूसरा छोर है। इसे छुओ तो वह भी प्रभावित हो जाता है।

मैं पूरे ही सत्य को कहने की कोशिश में कठिनाई में पड़ता हूं। तो मैं दोनों बातें एक साथ कहता हूं कि सत्य सनातन है, नया कहना गलत है। और कह भी नहीं पाता कि मैं दूसरी चीज भी कहना चाहता हूं कि सत्य सदा नया है, पुराना कहने का कोई अर्थ ही नहीं है। यहां मैं सत्य को उसकी पूरी की पूरी स्थिति में पकड़ने की कोशिश में हूं। और जब भी सत्य को उसकी पूरी स्थिति में पकड़ा जाएगा, जब उसे अनेक अर्थ में पकड़ा जाएगा तो विरोधी वक्तव्य एक साथ देने होंगे। महावीर का स्यातवाद ऐसे ही विरोधी वक्तव्यों का संतुलन है, एक ही साथ। तो ठीक जो कहा है पहले वचन में, दूसरे में उसके विपरीत बोलना पडेगा। क्योंकि उससे, जो विपरीत शेष रह गया है, उसे भी समाहित करना है, उसे भी ‘कोम्‍प्रीहेण्‍ड’ करना है। अगर वह बाहर रह गया तो यह सत्य पूरा नहीं होगा।

इसलिए जो सत्य बहुत साफ दिखायी पड़ते हैं और सुलझे हुए दिखायी पड़ते हैं, वे अधूरे होते हैं। पूरे सत्य की अपनी मजबूरी है, वही उसका सौंदर्य भी है, वही उसकी जटिलता भी है। लेकिन वह जो विपरीत को भी समाहित कर लेना है, वही सत्य की शक्ति भी है।

असत्य अपने से विपरीत को समाहित नहीं कर सकता, यह बहुत मजे की बात है। असत्य अपने से विपरीत के विरोध में खड़े होकर ही जीता है। लेकिन सत्य अपने से विपरीत को भी पी जाता है। तो एक अर्थ में असत्य कभी भी बहुत उलझा हुआ नहीं होता—सीधा—साफ होता है। लेकिन सत्य में उलझाव होंगे, क्योंकि अस्तित्व में उलझाव हैं। और सारा जीवन विरोधी से निर्मित है। बिना विरोध के जीवन में एक भी चीज नहीं है। हां, हमारा मन जो है, हमारा तर्क जो है वह विरोध से निर्मित नहीं है। तर्क जो है हमारा वह संगत होने की चेष्टा है और अस्तित्व जो है वह असंगत होना ही है। अस्तित्व में सब असंगतियां एक साथ खड़ी हैं। जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है। तर्क में विपरीत को काटकर ही चलते है, इसलिए तर्क साफ—सुथरा है। तर्क साफ—सुथरा है—क्योंकि जन्म है तो जन्म है, मृत्यु है तो मृत्यु है। ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते।

हम तर्क में कहते हैं अ, अ है; अ, ब नहीं है। हम कहते हैं जन्म जन्म है, जन्म मृत्यु नहीं है। फिर मृत्यु मृत्यु है, मृत्यु जन्म नहीं है। हम साफ—सुथरा तो कर लेते हैं, गणित तो बिठा लेते हैं, लेकिन जिंदगी का जो राज था वह चूक गए। इसलिए तर्क से कभी सत्य नहीं पकड़ा जा सकता, क्योंकि तर्क, संगत होने की चेष्टा है और सत्य, असंगत होना ही है। असंगति के बिना सत्य का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए जो तर्क से चलेंगे वह संगति को पहुंच जाएंगे, सत्य को नहीं।’कंसिस्टेट’ होगे, बिलकुल संगत होंगे। उन्हें पराजित नहीं किया जा सकता। लेकिन चूक गये, उससे चूक गए, जो था।

मैं तार्किक नहीं हूं यद्यपि निरंतर तर्क का उपयोग करता हूं लेकिन तर्क का उपयोग ही इसलिए करता हूं कि किसी सीमा पर ले जाकर तर्क के बाहर धक्का दिया जा सके। तर्क को न थकाया जाए तो उसके पार होने का उपाय भी नहीं है। सीढ़ी से चढ़ता हूं लेकिन सीडी से प्रयोजन नहीं है; एक क्षण, सीडी को छोड देने से प्रयोजन है। तर्क का उपयोग करता हूं कि तर्कातीत का खयाल आ जाए। तर्क से कुछ सिद्ध नहीं करना चाहता, तर्क से सिर्फ तर्क को ही असिद्ध करना चाहता हूँ।

इसलिए मेरे वक्तव्य अतार्किक होंगे, इल—लाजिकल होंगे। और मै यह कहना चाहूंगा कि जहां तक मेरे वक्तव्य में तर्क दिखायी पड़े वहां तक समझना कि मैं सिर्फ विधि का उपयोग कर रहा हूं। जहां तक तर्क दिखायी पड़े वहां तक मैं सिर्फ इंतजाम बिठा रहा हूं साज जमा रहा हूं। गीत शुरू नहीं हुआ है। जहां से तर्क की रेखा छूटती है वहीं से मेरा असली गीत शुरू होता है। वहीं से साज बैठ गया और अब संगीत शुरू होगा।

लेकिन जो साज के बिठाने को संगीत समझ लेंगे उनको बड़ी कठिनाई होगी। वे मुझसे कहेंगे कि यह क्या मामला है? पहले तो हथौड़ी से लेकर तबला ठोंकते थे, अब हथौड़ी क्यों रख देते हैं? हथौड़ी से तबला ठोंक रहा था, वह कोई तबले का बजाना नहीं था। वह सिर्फ इसलिए था कि तबला बजने की स्थिति में आ जाए, फिर तो हथौडी बेकार है। हथौड़ी से कहीं तबले बजते हैं? तो तर्क मेरे लिए सिर्फ तैयारी है अतर्क के लिए। और यही मेरी कठिनाई हो जाती है कि जो मेरे तर्क से राजी होकर चलेगा वह थोड़ी ही देर में पाएगा कि मैं कहीं उसे अंधेरे में ले जा रहा हूं। क्योंकि जहां तक तर्क दिखायी पड़ेगा वहां तक प्रकाश है, साफ—सुथरी हैं चीजें; लेकिन उसे लगेगा कि मैंने सिर्फ प्रकाश का प्रलोभन दिया था और अब तो मैं अंधेरे में सरकने की बात करने लगा। इसलिए वह मुझसे नाराज होगा और वह कहेगा, यहां तक तो ठीक है अब इसके आगे हम कदम नहीं रख सकते। अब आप अतर्क की बात कर रहे हैं, और हम तो भरोसा किए थे तर्क का। और जो आदमी अतर्क से मोहित है वह मेरे साथ चलेगा ही नहीं, क्योंकि वह कहेगा, आप अतर्क की बातें करें तो ही हम आपके साथ चलते हैं।

मेरे साथ दोनों ही कठिनाई में पड़ेंगे। तर्क वाला थोड़ी दूर चल सकेगा, फिर इनकार करेगा। अतर्क वाला चलेगा ही नहीं। उसे पता ही नहीं है कि थोड़ी दूर चल ले तो मैं अतर्क में ले जाऊंगा। लेकिन मेरी समझ ऐसी है कि जिंदगी ऐसी है। तर्क साधन बन सकता है, साध्य नहीं। इसलिए मैं निरतंर तर्क संगत बातों के आगे—पीछे, कहीं न कहीं अतर्क वक्तव्य भी दूंगा। वे असंगत मालूम पड़ेंगे, वे बिलकुल असंगत मालूम पड़ेंगे, लेकिन वे बहुत सोच—विचार कर दिए गए हैं, वे अकारण नहीं हैं; असंगत हो सकते है, अकारण नहीं हैं। मेरी तरफ कारण साफ है।

एक दफा मैं कहूंगा, महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट, उनसे मैं जरा भी प्रभावित नहीं हूं हूं भी नहीं। उनसे प्रभावित होकर मैंने कुछ भी नहीं कहा है। जो भी मैंने कहा है वह मैंने जानकर कहा है लेकिन जब मैंने जाना है तब यह भी जाना कि जो उन्होंने कहा है वह यही है। इसलिए जब मैं उनका वक्तव्य देने की बात करूंगा, या उनके संबंध में कुछ कहूंगा, तो मैं यह भूल ही जाऊंगा कि मैं उनके संबंध में कह रहा हूं। मैं पूरा का पूरा खड़ा ही हो जाऊंगा। मैं खुद ही खड़ा हो जाऊंगा उनके वक्तव्य में। क्योंकि तब मुझे कुछ फासला ही दिखायी नहीं पड़ता। इसलिए जब भी मैं उनके संबंध में कुछ कहने जाऊंगा तो बहुत गहरे में मैं अपने संबंध में ही कह रहा हूं। इसलिए फिर मैं कोई शर्त नहीं रखूंगा, मै फिर पूरे भाव से डूब जाऊंगा उनको कहने में।

तो जिस व्यक्ति ने यह सुना कि मैं उनसे प्रभावित नहीं हूं और फिर एक दफा मुझे पूरा भाव में डूबा हुआ उनके संबंध में बात करते देखा, तो उसकी कठिनाई स्वाभाविक है। उसकी कठिनाई बिलकुल स्वाभाविक है! वह कहेगा कि प्रभावित नहीं हैं तो उनकी बात करते वक्त इतना क्यों डूब जाते हैं? इतना तो, जो प्रभावित है वह भी नहीं डूबता! जो प्रभावित है वह भी फासला रखता है।

मेरे देखे तो जो प्रभावित है उसको फासला रखना ही पड़ेगा। क्योंकि जो प्रभावित है वह अज्ञानी है। प्रभावित हम सिर्फ अज्ञान में होते हैं, शान में प्रभाव का, ‘इनल्‍यूएंस’ का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जान में हम जानते हैं। ज्ञान में हम प्रभावित नहीं होते हैं, लेकिन समध्वनियां सुनते हैं, रिजोनेन्सेज सुनते हैं। जो हम गा रहे है वही गीत किसी और से भी सुनते हैं। और वह गीत, और वह गानेवाला, वह सब इतना एक हो जाता है कि वहां प्रभावित होने की भी दुई और फासला नहीं है। प्रभावित होने के लिए भी दूसरा होना जरूरी है, अनुयायी होने के लिए भी दूसरा होना जरूरी है। उतना फासला भी नहीं है।

इसलिए जब मैं महावीर के किसी वक्तव्य की व्याख्या करने लग या कृष्ण की गीता पर बोलने लग तब मैं करीब—करीब अपने ही वक्तव्य की व्याख्या कर रहा हूं। कृष्ण केवल बहाना रह जाते हैं। मैं बहुत जल्दी भूल जाता हूं कि कब शुरू किया था उन पर। ये बात खतम हो जाती है। मैं उनसे शुरू ही करता हूं अंत तो मैं अपने ही पर कर पाता हूं। कब वे छूट गए यह भी मुझे पता नहीं!

अब यह बहुत मजे की बात है कि मैंने गीता कभी पूरी नहीं पढ़ी। कभी नहीं पड़ी है पूरी। कई दफा शुरू की है। दो चार दस पंक्तियां पढ़ी और मैंने कहा ठीक है, और मैंने वहीं बंद कर दी। अब जब गीता पर बोल रहा हूं तब पहली दफा ही सुन रहा हूं इसलिए गीता की व्याख्या करने का कोई उपाय नहीं है मेरे पास। व्याख्या तो वह करे जिसने गीता का अध्ययन किया हो, विचार किया हो, और सोचा समझा हो।

अब यह बहुत बड़े मजे की बात है कि कृष्ण की गीता पढ़ते वक्त मैं उसे उठाकर रख देता हूं लेकिन साधारण—सी कोई किताब पढ़ता हूं तो आद्योपांत पढ जाता हूं क्योंकि वह मेरा अनुभव नहीं है। यह बड़ी कठिन बात है। एक बिलकुल साधारण—सी किताब मैं पूरी पढ़ता हूं शुरू से आखिर तक। उस पर मैं रुक नहीं सकता क्योंकि वह मेरा अनुभव नहीं है। लेकिन कृष्ण की किताब उठाता हूं तो दो—चार पंक्तियां पढ़कर रख देता हूं कि बात ठीक है। उसमें आगे मेरे लिए कुछ खुलेगा, ऐसा मुझे नहीं मालूम पड़ता।

यदि मुझे कोई जासूसी उपन्यास पक्का जाए तो मैं पूरा पढ़ता हूं; क्योंकि मुझे सदा उसमें आगे खुलने के लिए बचता है। लेकिन कृष्ण की गीता मुझे ऐसी लगती है जैसे मैंने ही लिखी हो। इसलिए ठीक है, जो लिखा होगा वह मुझे पता है। वह बिना पढ़े पता है। इसलिए जब गीता पर बोल रहा हूं तो मैं गीता पर नहीं बोल रहा हूं। गीता सिर्फ बहाना है। शुरुआत गीता से होती है, बोल तो मैं वही रहा हूं जो मुझे बोलना है, जो मैं बोलता हूं बोल सकता हूं वही बोल रहा हूं। और अगर आपको लगता है कि इतनी गहरी व्याख्या हो गयी, तो इसलिए नहीं कि मै कृष्ण से प्रभावित हूं बल्कि इसलिए कि कृष्ण ने वही कहा है जो मैं कहता हूं। उनमें रिजोनेन्स है। मै जो कह रहा हूं वह व्याख्या नहीं है गीता की। तिलक ने जो कहा है वह व्याख्या है, गांधी ने जो कहा है वह व्याख्या है। वे प्रभावित लोग हैं।

मैं जो गीता में कह रहा हूं वह गीता से कुछ कह ही नहीं रहा हूं। गीता जिस स्वर को के देती है वह मेरे भीतर भी एक स्वर के जाता है। फिर तो मै अपने सुर को पकड़ लेता हूं। मैं अपनी ही व्याख्या कर रहा हूं बहाना गीता का होगा। तो कृष्ण पर बोलते—बोलते कब मैं अपने पर बोलने लगता हूं इसका आपको ठीक—ठीक पता उसी क्षण चलेगा जब आपको लगे कि मैं कृष्ण पर, बहुत गहरा बोल रहा हूं। तब मैं अपने पर ही बोल रहा हूं।

महावीर के साथ भी वही है, क्राइस्ट के साथ भी वही है, बुद्ध और लाओत्सु के साथ और मुहम्मद के साथ भी वही है। क्योंकि मेरे लिए ये सिर्फ नाम के फर्क हैं। मेरे लिए जो मिट्टी के दीये में फर्क होता है वह फर्क है, लेकिन जो ज्योति जलती है, वह एक है। वह मुहम्मद के दीये में जल रही है, कि महावीर के दीये में, कि बुद्ध के दीये में, उससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। कई बार मैं मुहम्मद, महावीर और बुद्ध के खिलाफ भी बोलता हूं तब और जटिलता हो जाती है कि पक्ष में इतना गहरा बोलता हूं फिर खिलाफ बोल देता हूं।

जब भी खिलाफ बोलता हूं तब मेरा खिलाफ बोलने का कारण यही होता है कि अगर कोई भी व्यक्ति दीये पर बहुत जोर देता है तो मैं खिलाफ बोलता हूं। जब भी मैं पक्ष में बोलता हूं तब ज्योति पर मेरा जोर होता है; और जब भी मैं खिलाफ बोलता हूं तब दीये पर मेरा जोर होता है। जब कोई आदमी मुझे दीये से मोहित मालूम पड़ता है, मिट्टी से मोहित मालूम पड़ता है, तब मैं एकदम खिलाफ बोलता हूं। उसकी कठिनाई स्वाभाविक है, क्योंकि उसके लिए महावीर के मिट्टी के दीये और महावीर की चिन्मय ज्योति में कोई फर्क नहीं है, वह एक ही चीज समझ रहा है।

इसलिए जब भी मुझे ऐसा लगता है कि कोई दीये पर बहुत जोर दे रहा है तो मैं बहुत खिलाफ बोलता हूं। जब भी मुझे ऐसा लगता है कि ज्योति की बात कि गयी तब मैं एकदम एक होकर बोलने लगता हूं। और यह फासला है।

महावीर के दीये और मुहम्मद के दीये में बहुत फर्क है। उसी फर्क को लेकर तो जैन और मुसलमान का फर्क है—दीये की बनावट बहुत अलग ढंग की है। क्राइस्ट के दीये और बुद्ध के दीये में बहुत फर्क है—होगा ही। पर वे फर्क शरीर के फर्क हैं, आवरण के फर्क है, आकार के फर्क है। और जिनको भी आवरण और आकार का बहुत मोह है, मेरा मानना है कि उनको ज्योति दिखायी नहीं पड़ेगी। क्योंकि जिसको भी ज्योति दिखायी पड़ जाएगी वह दीये को भूल जाएगा। ज्योति दिखायी पड़ जाए और दीया याद रह जाए, यह असंभव है। दीये की याददाश्त तभी तक है जब तक ज्योति न दिखायी पड़ी हो। अनुयायियों की हालत ऐसी है जैसा कि वे दीये के नीचे खड़े हों जहां अंधेरा होता है, और वहां से देख रहे हों। वहां से ज्योति तो नहीं दिखायी पड़ती, दीये की पेंदी दिखायी पड़ती है। सबकी पेंदियां अलग है, और पेंदी के नीचे घना अंधेरा है। अनुयायी वहीं खड़ा रहता है, और पेंदियो के संबंध में झगड़े और विवाद चलते है।

तो जब भी मैं किसी को पेंदी के नीचे खड़ा देखता हूं तो मैं सख्ती से और खिलाफत में बोलता हूं। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है। क्योंकि अनुयायी के लिए, अनुयायी होने के लिए छाया में खड़ा होना पड़ता है, उसे अंधेरे में खड़ा होना पड़ता है। दीये के नीचे खड़ा होना पड़ता है। इसलिए जितना बड़ा अनुयायी अर्थात उतना ही सेंटर में। परिधि के अनुयायी थोड़ा बहुत दूसरे के बारे में भी समझ लेते हैं। लेकिन ठीक बीच में खड़े हुए अनुयायी कभी नहीं सोच पाते। लेकिन जिसे भी दीये को देखना है उसे परिधि के बिलकुल बाहर आ जाना चाहिए। उस अंधेरे की छाया के बिलकुल बाहर आ जाना चाहिए। और एक बार ज्योति दिख जाए तो दीयो के फर्कों का फासला और विवाद क्या अर्थ रखता है? इसलिए मेरे लिए कोई अंतर नहीं है।

क्राइस्ट पर बोलता हूं कि कृष्ण पर, कि महावीर पर, कि बुद्ध पर, इससे मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता है। मैं एक ही ज्योति की बात कर रहा हूं जो बहुत दीयों में जली है, लेकिन उनसे मै प्रभावित होकर नहीं बोल रहा हूं। बोल तो मैं वही रहा हूं जो मै जानता हूं। लेकिन जब भी ‘रिजोनेन्स’ मुझे मिल जाती है, जब भी मुझे ऐसा लग जाता है कि दूसरी तरफ से भी वही ध्वनि आ रही है, तो इसे मै इनकार भी नहीं कर सकता हूं। क्योंकि यह इनकार करना भी उतना ही गलत होगा। यह फिर ज्योति की तरफ पीठ करके खड़ा हो जाना हो जाएगा। एक तो अनुयायी ने यह गलती की है कि वह पेंदी के नीचे खड़ा हुआ है। फिर यह पीठ करके खड़ा हो जाता है। यह दोनों को मैं एक—सी गल्तियां मानता हूं।

अब अगर कृष्णमूर्ति से आप पूछेंगे तो वह ‘रिजोनेंस’ भी स्वीकार नहीं करेंगे। वह यह भी स्वीकार नहीं करेंगे कि मुझे जो हो रहा है वह कृष्ण को हुआ होगा। वह यह भी स्वीकार नहीं करेंगे कि मुझमें जो हो रहा है वह किसी और को हुआ होगा। वह इसकी चर्चा ही नहीं चलायेंगे। इसे भी मै गलत मानता हूं। क्योंकि सत्य इतना निवैंयक्तिक है; और इससे कोई सत्य की गरिमा में कमी नहीं पड़ती कि वह और को भी हुआ है। गरिमा बढ़ती है, गरिमा कम नहीं होती। सत्य इतना कमजोर नहीं है कि बासा हो जाए, किसी और को हो गया हो तो बासा हो जाएगा! लेकिन इसके इनकार करने का मोह भी गलत है।

तो मेरी कठिनाई यही है कि जहां—जहां मुझे सत्य दिखायी पड़ता है, मैं स्वीकार करूंगा। प्रभावित जरा भी नहीं हूं। और जहां—जहां सत्य के नाम पर कुछ और पकड़े हुए लोग मुझे दिखायी पड़ेंगे वहां मैं इनकार भी करूंगा और विरोध भी करूंगा। और जब भी जो करूंगा उसे पूरे मन से करूंगा, इसलिए और मुश्किल हो जाऊंगा। जब भी जो करूंगा, पूरे मन से करूंगा; समझौते की मेरी वृत्ति नहीं है।

और मैं मानता हूं कि समझौते से कभी भी कोई सत्य पर नहीं पहुंचता। मेरी वृत्ति ऐसी है कि जब भी मैं जो कहूंगा, तब मैं पूरे प्राण से कह रहा हूं। तो अगर किसी ने ज्योति की बात की तो मैं कहूंगा कि महावीर भगवान है, कृष्ण अवतार हैं और जीसस ईश्वर के बेटे हैं; और किसी ने अगर केवल दीये की बात की तो मैं कहूंगा कि वह अपराधी हैं, क्रिमिनल हैं। दोनों ही स्थिति में जिस वक्तव्य को मैं दे रहा हूं मैं पूरा उसके साथ खड़ा हूं।

और जब मैं उस वक्तव्य को दे रहा हूं तब दूसरे वक्तव्य का मुझे स्मरण भी नहीं है। क्योंकि मेरी समझ यह है कि दोनों वक्तव्य अपने में पूरे हैं और एक—दूसरे को काटते नहीं हैं। अगर मुझे ऐसा खयाल हो कि एक—दूसरे को काटते हैं, अगर मैं आपके शरीर से कहता हूं मरणधर्मा है और आपसे कहता हूं कि आप अमृत हो, तो मै इन दोनों को विपरीत वक्तव्य नहीं मानता। और न मैं यह मानता हूं वे कि एक—दूसरे को काटते हैं। न मैं यह मानता हूं कि इन दोनों में समझौते की कोई जरूरत है।

आपका शरीर तो मरेगा ही, इसलिए मरणधर्मा है, और अगर आप समझते है कि आप शरीर ही हैं तो मैं कहता हूं आप मरोगे और इसको मैं पूरे ही बल से कहूंगा। इसमें मैं रत्तीभर गुंजाइश नहीं रखूँगा आपके बचने की। लेकिन आपकी आत्मा की चर्चा है तो मैं कहूंगा, आप कभी पैदा ही नहीं हुए—अजन्मा हो, मरने का कोई सवाल ही नहीं अमर हो, अमृत हो। ये दोनों वक्तव्य अपने में पूरे हैं, एक—दूसरे को कहीं काटते नहीं। इनका आयाम अलग है, इनका डायमेंशन अलग है।

इसलिए निरंतर कठिनाई हो जाती है। और फिर… और कठिनाई इससे जटिल हो जाती है कि मेरे सारे वक्तव्य चूंकि लिखे हुए नहीं हैं, बोले हुए हैं, इसलिए जटिलता और बढ़ जाती है। लिखे हुए वक्तव्य में एक तरह की निरपेक्षता होती है। वह किसी से कहा नहीं गया होता है, लिखा गया होता है। सुननेवाला, पड़ने वाला सामने नहीं होता इसलिए उसमें वह सम्मिलित नहीं हो पाता। वह बाहर होता है। लेकिन जब बोला जाता है कुछ, तो जो सुन रहा है वह इनक्‍लूडेड होता है।

जब भी मैं कुछ बोल रहा हूं तो उस दिये गए वक्तव्य के लिए मैं अकेला जिम्मेदार नहीं हूं वह आदमी भी जिम्मेदार है जिससे मैं बोल रहा हूं। इससे जटिलता भारी हो जाती है। जब भी मैं बोल रहा हूं तो मेरे वक्तव्य की जिम्मेदारी दोहरी है। मैं तो जिम्मेदार हूं ही, लेकिन उस वक्तव्य को उस भांति से निर्मित करवाने में वह आदमी भी जिम्मेदार है जिससे मैं बोल रहा हूं। अगर वह न होता, उसकी जगह कोई दूसरा होता तो मेरा वक्तव्य भिन्न होता। अगर तीसरा होता तो और भिन्न होता, और अगर मैंने शून्य में वक्तव्य दिया होता तो बिलकुल ही भिन्न होता।

तो चूंकि मेरे सारे वक्तव्य बोले गए वक्तव्य हैं, और मै मानता हूं कि बोले गए वक्तव्य ही जीवित होते हैं। क्योंकि वक्तव्य को जीवन दोनों से आता है, बोलनेवाले से और सुननेवाले से। जब बोलनेवाला अकेला बोलता है और सुननेवाला कोई भी नहीं होता तो वह इस तरह का सेतु बना रहा है जिसमें दूसरा किनारा नहीं है। वह सेतु बन नहीं सकता। वह सिर्फ एक किनारे पर खड़ा हुआ सेतु है। वह गिरेगा ही। वह अधर में है। इसलिए जगत के सब श्रेष्ठतम सत्य बोले गए सत्य है, लिखे गए नहीं।

अगर मैं लिखता भी हूं तो पत्र लिखता हूं क्योंकि पत्र करीब—करीब बोला गया है। उसमें दूसरा सेतु है उसमें दूसरा तथ्य है, जिससे मै सेतु बना रहा हूं। पत्र के अलावा मैंने कुछ नहीं लिखा। क्योंकि पत्र मुझे बोलने का ही एक ढंग मालूम हुआ। उसमें दूसरा मेरे सामने है कि मैं किससे बोल रहा हूं। इसलिए हजारों लोगों से जब बोलता हूं तो हजार वक्तव्य हो जाते हैं। इसमें हर बोलनेवाला सम्मिलित हो जाता है तब जटिलता भारी हो जाएगी। लेकिन ऐसा है, और इस जटिलता को जान बूझकर कम करने को मैं उत्सुक नहीं हूं।

मेरी उत्सुकता यह है कि इस जटिलता को समझकर ही आप इस उदघाटित सत्य की सरलता को समझ पाएं तो आपका विकास है। इस जटिलता को कम करने को मैं उत्सुक नहीं हूं। क्योंकि कम यह की जाए तो कट जाएगी। इसको सरल किया जा सकता है। लेकिन तब इसके बहुत से अंग कट जाएंगे। तब यह मुर्दा होगी कटकर। इसकी जटिलता को मैं रत्तीभर कम करने को उत्सुक नहीं हूं। उत्सुक इसमें हूं कि आप जटिलता के भीतर भी सरलता को खोज पाएं तो आपका विकास है। मेरी कठिनाई कम इसमें हो जाए कि मैं इसको सरल कर हूं। वक्तव्य सीधे और गणित के कर दूं। मेरी कठिनाई बिलकुल ही खत्म हो जाएगी।

लेकिन मेरी कठिनाई की मुझे कोई चिंता नहीं। वह कोई कठिनाई है नहीं। आप इतनी जटिलता में भी सरलता को देख पाएं इतने विरोध में भी निर्विरोध सत्य को देख पायें। इतने उल्टे वक्तव्य में भी एक ही तारतम्य देख पाएं तो आपका विकास होता है, आपकी दृष्टि ऊंची उठती है। यह तभी देख पाएंगे जितने आप ऊपर उठेंगे। तभी यह जटिलता आपको सरल हो पाएगी।

ये पहाड़ पर चढ़ते हुए हजार रास्ते एक—दूसरे को काटते हुए बड़े जटिल हैं, लेकिन शिखर पर खड़े होकर एकदम सरल हो जाते हैं। जब सब दिखायी पड़ता है, इकट्ठे, एक ‘पैटर्न’ में, तब मालूम पड़ता है कि सभी पर्वत शिखर की तरफ भाग रहे हैं। न तो वे किसी को काट रहे हैं, और न किसी के विरोध में हैं। लेकिन जब कोई आदमी पहाड़ पर चढ़ता है अपने रास्ते से, तब बाकी सब रास्ते गलत जाते हुए मालूम पड़ते हैं। और ऐसा आदमी जो पहाड़ की चोटी सै कह रहा हो कि सब ठीक है, या कभी किसी से कह रहा हो, कि यह ठीक है और दूसरा गलत है, और कभी उस दूसरे से कह रहा हो कि तेरा ठीक है और पहले वाला गलत है, तो बहुत जटिलता बढ़ जाती है। लेकिन सब वक्तव्य एड्रेस्ट हैं। मेरा प्रत्येक वक्तव्य पता—ठिकाना लिए हुए है। वह किसी से कहा गया है। और उसी से ही कहा गया है और उस विशेष स्थिति में ही कहा गया है।

अगर एक आदमी को मैं डांवाडोल देखता हूं उसके रास्ते पर तो मैं कहता हूं सब गलत है यही ठीक है। लेकिन इसको कहना चाहिए यह जो वक्तव्य है, यह सिर्फ उसकी सुविधा के लिए है। ऊपर आकर तो वह भी जान लेगा और हंसेगा कि दूसरे रास्ते भी ले आते हैं। लेकिन अपने रास्ते पर, जब वह अधूरे में खड़ा था, और उसको यह खयाल आ जाए कि बगल वाला रास्ता भी ले आता है तब वह डांवाड़ोल हो और उस रास्ते पर जाने लगे, और यह उसके चित्त की दशा हो जाए तो कल और तीसरा रास्ता दिखायी पड़े, और वह उस पर भी जाने लगे तो वह कभी पर्वत पर नहीं आ पाएगा। उससे तो मुझे कहना ही पड़ेगा कि तू बिलकुल ठीक चल रहा है। सब गलत है, तू आ। लेकिन उसके पड़ोस में कोई दूसरे रास्ते पर भी चल रहा हो और जब मैं उससे भी बात कर रहा हूं तो उसके साथ भी मेरी वही ‘सिचुएशन’ है। और जब ये दोनों वक्तव्य दोनों को मिल जाते हैं तो कठिनाई हो जाती है।

अभी मैं आपसे कहूं महावीर और बुद्ध को इस कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। क्योंकि उनके वक्तव्य उनके सामने लिखे नहीं गए। पांच सौ साल बाद दूसरों को दिक्कत हुई। जो सवाल आप मुझसे पूछ रहे हैं, यह बुद्ध से नहीं पूछा जा सकता। पांच सौ साल बाद दिक्कत हुई, इसलिए पांच सौ साल बाद पंथ बने। पच्चीस पंथ बने। वक्तव्य दिए गए थे, लिखे गए नहीं थे। इसलिए कभी कम्पेयर नहीं किए जा सके।

आपको मैंने एक बात कही थी। आपको दूसरी कही थी। उनको तीसरी कही थी। आप तीनों छो कभी मौका नहीं मिला लिखित वक्तव्य का, कि आप तीनों कम्पेयर कर लें, तुलना कर लें कि मुझसे यह कहा, तुमसे यह कहा, उनसे यह कहा। ये वक्तव्य निजी थे और आपके भीतर डूब गए थे। जब लिखे गए तब उपद्रव शुरू हुआ। इसलिए पुराने धर्मों ने बहुत दिनों तक अपने शास्त्रों को न लिखे जाने की जिद की, कि वह लिखे न जाएं। क्योंकि लिखे जाते ही कंट्राडिआन साफ हो जाएंगे। जैसे ही लिखा जाएगा, पता चलेगा यह मामला क्या है? जब तक नहीं लिखा गया है तब तक व्यक्तिगत है। जैसे ही लिखा गया कि व्यक्तिगत नहीं रह जाता।

तो जो कठिनाई मेरे सामने है वह बुद्ध, महावीर के सामने नहीं थी। लेकिन अब आगे कोई उपाय नहीं है। अब तो जो भी कहा जाएगा वह लिखा जाएगा और लिखे जाने से… कहा तो गया था व्यक्ति से, लिखे जाने से समाज की संपत्ति हो जाएगी। फिर सब इकट्ठा हो जाएगा, और उस सब इकट्ठे में फिर सूत्र खोजना मुश्किल हो जाएगा। मगर अब ऐसा होगा। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। और मैं मानता हूं अच्छा है। क्योंकि बुद्ध के सामने लिखा गया होता तो बुद्ध इसका उत्तर भी दे सकते थे। पांच सौ साल बाद जब लिखा गया और जब सवाल पूछे गए तो उत्तर देनेवाला कोई भी नहीं था।

इसलिए किसी ने एक वक्तव्य को ठीक माना, उसने एक पंथ बना लिया। उससे विपरीत वक्तव्य को जिसने ठीक माना, उसने दूसरा पंथ बना लिया। जिसके पास जो वक्तव्य था उसने उसके हिसाब से पंथ बना लिया। सारे पंथ: ऐसे जन्मे हैं। मेरे साथ पंथ नहीं जन्म सकेंगे। क्योंकि मेरा सारा उलझाव सीधा—साफ है। कल साफ होगा ऐसा नहीं है, आज ही साफ है। और मुझसे सीधी बात पूछी जा सकती है।

साथ में आपने पूछा है कि शब्दों से ही बोलता हूं और फिर भी निरंतर कहता हूं कि शब्द से कुछ कहा नहीं जा सकता है। बोलनेवाले के लिए शब्द के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। साधारणत: शब्द से ही बोला जाएगा और फिर भी यह सत्य है कि शब्द से बोला नहीं जा सकता। ये दोनों बातें ही सत्य हैं।

शब्द से ही बोला जाएगा, यह हमारी परिस्थिति है। यानी जिस सिचुएशन में आदमी है उसमें शब्द के अतिरिक्त और संवाद का कोई उपाय नहीं है। या तो हम आदमी की परिस्थिति बदलें, तो सिर्फ गहरे साधकों से बिना शब्दों के बोला जा सकता है;. लेकिन गहरी साधना में उनको ले जाने के पहले भी शब्दों का उपयोग करना पड़ेगा। एक घडी आ सकती है, बहुत बाद में, कि बिना शब्दों के बोला जा सके लेकिन वह घड़ी आएगी बहुत बाद में, वह है नहीं। जब तक वह घड़ी नहीं है तब तक शब्द से ही बोलना पड़ेगा। निःशब्द में ले जाने के लिए भी शब्द से बोलना पड़ेगा। यह परिस्थिति है, सिचुएशन है, लेकिन सिचुएशन खतरनाक है।

शब्द से ही बोलना पड़ेगा और यह जानते हुए बोलना पड़ेगा कि शब्द अगर पकड़ लिए गए तो जो हम प्रयास कर रहे थे वह व्यर्थ हो गया। हम प्रयास कर रहे थे कि निःशब्द में ले जाएं बोलें शब्द से। यह मजबूरी थी कोई उपाय न था। अगर शब्द पकड़ लिए गए तो प्रयोजन व्यर्थ हो गया, क्योंकि ले जाना था निःशब्द में। इसलिए शब्द से बोलकर, शब्द के खिलाफ निरंतर बोलना पडेगा, वह भी शब्द में ही बोलना पड़ेगा। उसका भी कोई उपाय नहीं है। चुप हुआ जा सकता है, उसमें कोई कठिनाई नहीं है। वैसे लोग भी हुए हैं जो परिस्थितिगत कठिनाई से चुप हो गए। उनके चुप होने से वे तो झंझट के बाहर हो गए, लेकिन जो उनके पास था वह दूसरे तक नहीं पहुंच पाया।

मेरे चुप हो जाने में मुझे कोई अड़चन नहीं है। मैं चुप हो जा सकता हूं और कोई आत्‍मर्य नहीं कि कभी हो जाऊं! क्योंकि जो कर रहा हूं वह करीब—करीब.. उसको कहना चाहिये ‘इम्पासिबल एफर्ट’ है, वह असंभव को संभव बनाने की चेष्टा है। लेकिन मेरे चुप हो जाने से कुछ हल नहीं होगा। आप तक कोई संवाद नहीं पहुंचेगा। खतरा फिर वही का वही है। पहले शब्द पकड़े जा सकते थे। उनसे डर था कि शब्द पकड़ जाएं तो जो मैं पहुंचाना चाहता था वह नहीं होगा। अब चुप्पी रह जायेगी। अब पहुंचाने की बात ही खत्म हो गयी। लेकिन पहले में एक संभावना थी कि कुछ लोगों तक पहुंच जाएगा। सौ से बात करूंगा तो एक तो शब्द को बिना पकड़े जा सकेगा, निन्यानबे प्रयास व्यर्थ होंगे। एक तो सार्थक हो जाएगा! चुप रहकर वह एक भी संभव नहीं रह जाता! उसका भी उपाय नहीं रह जाता, इसलिए व्यर्थ चेष्टा करनी पड़ती है।

और मजे की बात यह है कि जिसको भरोसा है कि शब्द से कहा जा सकता है वह बहुत ज्यादा नहीं बोलेगा। उसने थोड़ा बोल दिया, बात खत्म हो गयी। लेकिन जिसे भरोसा नहीं है कि शब्द से कहा जा सकता है, वह बहुत बोलेगा। क्योंकि कितना ही बोले उसे पका पता है कि अभी भी पहुंचा नहीं। वह और बोलेगा, और बोलेगा, और बोलेगा। यह जो बुद्ध का चालीस साल निरंतर बोलना है सुबह से सांझ तक, यह इसलिए नहीं है कि शब्द से कहा जा सकता है, इसलिए इतना बोल रहे हैं। यह इसलिए है कि हर बार बोलकर पता लगता है, अभी भी तो नहीं पहुंचा, फ्ति बोलो, और ढंग से बोलो, किसी और रुस्ते से बोलो, कोई और शब्द का उपयोग करो।’

इसलिए चालीस साल निरंतर बोलने में बीत गए। फिर डर भी लगता है, जब चालीस साल निरंतर, बोलूंगा तो कहीं ऐसा न हो कि लोगों को शब्द पकड़ जाए? क्योंकि चालीस साल से शब्द ही तो दे रहा हूं इसलिए फिर निरंतर यह भी चिल्लाते रहे कि शब्द पकड़ मत लेना। पर यह स्थिति है, और इस स्थिति के बाहर जाने के लिए सिवाय इसके कोई मार्ग नहीं है। शब्द से बाहर जाने के लिए शब्द का ही उपयोग करना पड़ेगा। यह करीब—करीब स्थिति ऐसी है, जैसे यह कमरा है। इस कमरे से बाहर जाने के लिए भी इस कमरे में दस—पांच कदम चलने पड़ेंगे, बाहर जाने के लिए भी। क्योंकि जहां हम बैठे हैं, वहां से दस कदम उठाने ही पड़ेंगे बाहर जाने के लिए। हालांकि कोई कह सकता है कि कमरे में ही चलने से कमरे के बाहर कैसे पहुंचोगे? लेकिन कमरे में चलने के ढंग पर निर्भर करता है।

एक आदमी वर्तुलाकार चल सकता है, कमरे में गोल चक्कर काट सकता है। वह मीलों चले तो भी बाहर नहीं पहुंचेगा। लेकिन एक द्वार की तरफ चल सकता है, वर्तुलाकार नहीं, लीनियर होगा उसका चलना, रेखाबद्ध होगा। अगर रेखा कहीं जरा भी मुड़ गयी तो चक्कर खा जाएगा कमरे के भीतर। अगर रेखा बिलकुल सीधी रही तो दरवाजे से निकल भी सकता है। लेकिन दोनों को चलना तो पड़ेगा कमरे में ही। अगर मै उस आदमी से कहूं जो कमरे में कई चक्कर लगा चुका है, उससे मैं कहूं कि दस कदम चलो, बाहर निकल जाओगे। तो वह कहेगा, पागल हो, दस कदम कह रहे हो, मैं मीलों चल चुका और कमरे के बाहर नहीं निकला। उसका कहना भी गलत नहीं है। वह गोल चल रहा है।

और एक बड़े मजे की बात है कि इस जगत में, अगर बहुत प्रयास न किया जाए तो सब चीजें गोल चलती हैं—सब चीजें! गति गोल है, सर्कुलर है। सब गतियां सर्कुलर हैं। अगर आप चेष्टा न करें तो सब चीजें गोल चलेंगी। सीधा चलाना बहुत एफर्ट की बात है।

इस जगत में गति सर्कुलर है—चाहे एटम्स चलें, चाहे चांद चले चाहे आदमी की जिंदगी चले, चाहे विचार चले, इस जगत में जो भी चलता है वह गोल चलता है। इसलिए बड़ी—से—बड़ी साधना सीधा चलना है और वह बड़ा कठिन मामला है। आपको पता ही नहीं चलता कि आप कब गोल हो गए। इसलिए ज्योमेट्री तो कहेगी, सीधी रेखा ही नहीं खींची जा सकती। सब सीधी रेखाएं भी किसी बडे वर्तुल के हिस्से हैं, धोखा देती हैं कि सीधी हैं। कोई सीधी रेखा नहीं है जगत में। स्ट्रेट लाइन खींची नहीं जा सकती, स्ट्रेट लाइन सिर्फ डैफिनेशन में

युक्‍लिड कहता है कि स्ट्रेट लाइन सिर्फ व्याख्या है, कल्पना है, खींची नहीं जा सकती। कितनी ही बड़ी सीधी रेखा खींचें हम, पहले तो हम उसे पृथ्वी पर खीचेंगे और पृथ्वी चूंकि गोल है, इसलिए वह गोल हो जाएगी। इस कमरे में हम सीधी रेखा खींच सकते हैं, लेकिन वह पृथ्वी के बड़े गोल का एक टुकड़ा है।

एक कर्व है?

हां, एक कर्व है। लेकिन कर्व इतनी छोटी है कि हमें दिखायी नहीं पड़ती। उसको हम दोनों तरफ बढ़ाए चले जाएं तो हमको पता चल जाएगा कि पूरी पृथ्वी का सर्किल लगाकर वह गोल घेरा बन गयी है। वस्तुत: तो खींचना शइश्कल ही है। साधना में सबसे बड़ा जो प्रश्र है, गहरे अंतर में, वह यही है कि विचार भी वर्तुल चलते हैं, चेतना भी वर्तुल घूमती है। और जो आरडुअसनेस है, जो तपश्रर्या है वह इस वर्तुल के बाहर छलांग लगाने में है। लेकिन कोई उपाय नहीं है। सब शब्द वर्तुलाकार हैं। कभी हम खयाल नहीं करते कि सब शब्द वर्तुलाकार कैसे हैं? आप जब एक शब्द की व्याख्या करते हैं तो दूसरा शब्द उपयोग करते हैं।

अगर आप डिआनरी उठाकर उसमें देखें मनुष्य, तो लिखा है आदमी। और आदमी का शब्द उठाकर देखें, तो लिखा है मनुष्य। यह बड़ा पागलपन है। यानी हमें इन दोनों का ही पता नहीं है, इसका मतलब यह हुआ! लेकिन डिक्शनरी पढनेवालों को कभी खयाल में नहीं आता कि डिक्शनरी बिलकुल सर्कुलर है। उसमें एक जगह जो व्याख्या दी गई है वही व्याख्या उस शब्द के लिए फिर वहां दे दी गयी है। इसका फल क्या हुआ? इससे मतलब क्या हुआ? मनुष्य आदमी है और आदमी मनुष्य है, तो हम वहीं के वहीं खड़े हैं। इससे व्याख्या हुई कहां? तो सारी व्याख्याएं वर्तुलाकार है, सारे सिद्धांत वर्तुलाकार हैं। एक सिद्धांत को समझाने के लिए दूसरे को उपयोग करना, दूसरे के लिए फिर उसी का उपयोग करना पड़ता है। पूरी चेतना वर्तुलाकार है। इसलिए बूढ़े आखिरी अवस्था में करीब—करीब बच्चों जैसे हो जाते हैं। वर्तुल पूरा हो गया।

शब्द कितने ही बोले जाएं वर्तुल में ही घूमते हैं। शब्दों की बनावट वर्तुलाकार है। सीधी रेखा में वे चल नहीं सकते। अगर आप सीधी रेखा में चलें तो शब्द के बाहर पहुंच जाएंगे, पर शब्दों में हम जीते हैं इसलिए अगर मुझे शब्दों के खिलाफ भी कुछ कहना है तो शब्दों में ही कहना पडेगा। यह बड़ा पागलपन है, लेकिन इसमें मेरा कसूर नहीं है। ऐसी ही स्थिति है। शब्द बोलता रहूंगा, शब्द के खिलाफ बोलता रहूंगा। इस आशा में शब्द बोलूंगा, कि शब्द के बिना आप समझ नहीं सकते हैं। इस आशा में शब्द के खिलाफ बोलूंगा कि शायद शब्द की पकड़ से बच जाएं। अगर ये दोनों घटनाएं घट सकें तो ही मैं आपको जो कहना चाहता हूं वह पहुंचा पाऊंगा। अगर आप सिर्फ मेरे शब्द समझ गए तो भी चूक गए। अगर आप शब्द ही न समझे, तो भी चूक गए। शब्द तो मेरे समझने ही पड़ेंगे लेकिन शब्द के साथ—साथ जो निःशब्द का इंगित है वह भी समझना पडेगा। इसलिए शास्रों के खिलाफ बोलता रहूंगा और इसलिए आज नहीं कल मेरे वचन सब शास्र बन जाएंगे। सब शास्र इसी तरह बने है। ऐसा एक भी कीमती शास्‍त्र नहीं है जिसमे शब्द के खिलाफ वक्तव्य न हो। इसका मतलब यह हुआ कि एक भी ऐसा शाख नहीं है जिसमें शास्त्र के खिलाफ वक्तव्य न हो। चाहे उपनिषद हो, चाहे गीता हो, चाहे कुरान हो, चाहे बाइबिल हो, चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हों। तो ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि मेरे साथ कुछ भिन्न हो जाएगा। वही असंभव कोशिश चलती है, वही चलेगी। शब्द के खिलाफ बोल—बोलकर शब्द बहुत बोल चुका होऊंगा। कोई न कोई उन्हें पकड़ लेगा और शास्त्र बन ही जाएगे, लेकिन इस डर से बोलना बंद नहीं किया जा सकता। क्योंकि सौ के साथ एक के निकलने की संभावना है। न बोलने के साथ एक की भी संभावना खो जाती है। फिर डर इसलिये भी नहीं है कि मेरे शब्दों और शास्त्रों के खिलाफ बोलने वाला कोई न कोई फिर मिल जाएगा, इसलिए डर नहीं है।

अब यहां एक दूसरी उलझन खड़ी हो जाती है। वह यह है कि इस जगत में मेरा काम कभी भी कोई वही आदमी करेगा जो मेरे खिलाफ बोलेगा। यह जो कठिनाई है वह ऐसी है कि आज अगर बुद्ध के पक्ष में काम करना है तो बुद्ध के खिलाफ बोलना पड़ेगा। क्योंकि उनके शब्द किन्हीं के पत्थर की तरह पकड गए और उन पत्थरों को तब तक हटाया नहीं जा सकता, जब तक बुद्ध न हटाया जाए। क्योंकि बुद्ध की प्रतिष्ठा के साथ वह पत्थर उनकी छाती पर जमे हुए हैं। पत्थर को हटाना है तो बुद्ध को गिराना पड़ेगा। तो ही वह पत्थर हटें। अगर बुद्ध को न गिराओ तो वह पत्थर न हटें।

अब मेरे जैसे आदमी की मजबूरी खयाल में आ सकती है कि मुझे बुद्ध के खिलाफ बोलना पड़े, और यह जानते हुए कि उनका काम कर रहा हूं। मगर जिनको बुद्ध के नाम के साथ आग्रह पकड़ गया है, शब्द के साथ आग्रह पकड़ गया है, उन्हें हिलाने का क्या उपाय है? जब तक बुद्ध न हिले तब तक वह नहीं हिल सकते। तो अकारण बुद्ध के साथ झंझट करनी पड़ती है इस आदमी को हिलाने के लिए। जब तक वेद न हिलाया जाए तब तक यह आदमी नहीं हिल सकता। यह वेद को पकड़े बैठा हुआ है। जब इसको पका हो जाए कि वेद बेकार, तभी यह छोड सकता है। एक दफे खाली हो तो कुछ आगे बढ़ सकता है। हालांकि जो वेद ने कहा है वही मैं इससे कहूंगा, खाली होने के बाद। तब जटिलता और बढ़ जाती है। तब अकारण गलत मित्र पैदा हो जाते है और गलत शत्रु पैदा हो जाते है। वैसे सौ में निन्यान्नबे मौके गलत मित्रों और गलत शत्रुओ के ही है। गलत मित्र वह है जो मेरी बात को शाख की तरह पकड़ लेंगे और गलत शत्रु वह है जो कि मेरी बात को शास्त्र की शत्रुता मानकर पकड़ लेंगे, कि मैं दुश्मन हूं शाखों का। मगर ऐसा है, और ऐसा होगा, और इसमें कुछ बेचैनी का कारण नहीं है। क्योंकि सारी स्थिति ऐसी है।

तो आप लिखना नहीं चाहेंगे?

हीं लिखना चाहूंगा। नहीं लिखना चाहूंगा कई कारणों से। एक तो इसलिए कि लिखना मेरी दृष्टि में एब्सर्ड है, बिलकुल व्यर्थ है। व्यर्थ इसलिए कि किसके लिए? यह लिखना मेरे लिए ऐसा है कि पत्र लिखा है, लेकिन पता नहीं मालूम, कि लिफाफे में बंद करके उसको भेजना कहां है? वक्तव्य सदा ही एड्रेस्ड है। लिखते वे लोग हैं जो मास के लिए एड्रेस कर रहे हैं। वह भी एड्रेस कर रहे है अनजान भीड़ के लिए। लेकिन जितनी अनजान भीड़ हो उतनी ही ओछी बातें कही जा सकती है। जितना जाना—माना व्यक्ति हो उतनी ही गहरी बातें कही जा सकती हैं।

गहरे सत्य व्यक्ति से कहे जा सकते हैं। भीड़ से काम चलाऊ बातें कही जा सकता हैं। भीड़ से कभी गहरे सत्य नहीं कहे जा सकते। क्योंकि जितनी बड़ी भीड़ हो उतनी ही समझ कम हो जाती है, और अगर भीड़ बिलकुल अज्ञात हो तो समझ को शून्य मानकर चलना पड़ता है। इसलिए जितना मास लिट्रेचर होगा, बहुत जमीन पर आ जाएगा। आसमान की उडान नहीं रह जाएगी।

अगर कालिदास के काव्य में कोई खूबी है और आज के काव्य में कोई खूबी नहीं है तो उसका कोई फर्क कालिदास और आज के कवि में नहीं है। कालिदास का वक्तव्य एड्रेस्ड है, किसी सम्राट के सामने कहा गया है। किन्हीं दस—पांच चुने हुए लोगों के बीच कही गयी कविता है। आज का कवि अखबार ही छाप रहा है। कोई जिसे चाय की दुकान में पडेगा, कोई मूंगफली खाते हुए पढ़ेगा, कोई हुक्का पीते हुए देख लेगा एक नजर—कौन, वह भी पता नहीं। वह जो अनजान आदमी है उसको तो हमें आखिरी मानकर चलना पड़ रहा है। अगर लिखना हो तो उसको ध्यान में रखकर लिखना पड़ा है।

और मेरी तो तकलीफ यह है कि हमारे बीच जो श्रेष्ठतम हैं उनसे भी कहने में मुश्किल है सत्य। तो हमारे बीच जो निकृष्टतम हैं उनसे तो कहने का कोई उपाय ही नहीं है। हमारे बीच जो श्रेष्ठतम है, जिनको हम कहें चूज़न फ्यू, जो गहरे से गहरा समझ सकते हैं। उनमें से भी सौ से कहूंगा तो एक समझेगा, निन्यान्नबे चूक जाएंगे। तो भीड़ को तो कहने का कोई अर्थ ही नहीं है। और लिखा तो भीड़ के लिए जा सकता है, व्यक्ति के लिए कहा जा सकता है।

दूसरे भी कारण है। मेरा मानना है कि हर मीडियम के साथ कंटेंट बदल जाता है। हर माध्यम के साथ विषय—वस्तु बदल जाती है। आप जैसे ही माध्यम बदलते हैं, विषय—वस्तु वही नहीं रह जाती। माध्यम भी विषय—वस्तु को बदलने के लिए चेष्टा करता है। यह एकदम से दिखायी नहीं पड़ता। जब मैं बोल रहा हूं तब माध्यम और है। एक तो जीवंत है, सुननेवाला भी जीवित मौजूद है, मैं भी जीवित मौजूद हूं।

जब मैं बोल रहा हूं तब यह मुझे सुन ही नहीं रहा है, मुझे देख भी रहा है। मेरे चेहरे की हरकत में फर्क, मेरी आंखों पर जरा—सी बदलती हुई लहर, मेरी उंगली का उठना या गिरना, वह सब उसे दिखाई भी पड़ रहा है। वह सुन भी रहा है, देख भी रहा है। मेरे शब्द ही नहीं सुन रहा है, मेरे ओंठ भी देख रहा है। शब्द ही नहीं कहते, ओंठ भी कहते हैं। मेरी आंखें भी कुछ कह रही है। यह सब इकट्ठा पी रहा है वह। सुन भी रहा है, देख भी रहा है, यह सब इकट्ठा जा रहा है। उसके भीतर कंटेंट अलग होगा इसका। जब वह एक किताब पढ़ रहा है। तब मेरी जगह सिर्फ काले अक्षर हैं, काली स्याही है और कुछ भी नहीं है। तो मैं और काली स्याही, ये इकीवेलेन्ट नहीं है, इनका कोई लेन—देन नहीं है, इनका कहीं कोई संबंध नहीं है।

काली स्याही में न कोई भाव उठते, न कोई दृश्य उठते, न कोई जीवन है। मुर्दा टिका हुआ संदेश है। बहुत बड़ा हिस्सा खो गया जो बोलने के साथ जीवंत है। एक मुर्दा वक्तव्य उसके हाथ में है।

बड़े मजे की बात है कि किताब पढ़ने के लिए इतना अटेंटिव होना जरूरी नहीं है। सुननेवालों में भी फर्क होते हैं। सुननेवाला जब सुनता है तब, और जब पड़ता है तब, दोनों में बुनियादी ध्यान के फर्क हो जाते हैं। सुनते समय आपको पूरा—पूरा एकाग्र होना पड़ता है, क्योंकि जो बोला गया है वह दोहराया नहीं जाएगा। उसको वापस लौटकर नहीं देख सकते। वह खो गया।

प्रतिपल जब मैं बोल रहा हूं तो जो भी बोला जा रहा है वह अनंत खाई में खोता चला जा रहा है। अगर आपने पकड़ लिया तो पकड़ लिया, अन्यथा वह गया। वह फिर नहीं लौटेगा। किताब पढ़ते वक्त कोई डर नहीं है, आप दस दफे लौटकर किताब पढ़ सकते है। इसलिए बहुत अटेंटिव होने की जरूरत नहीं है। इसलिए दुनिया में जब से किताब आयी तब से ध्यान कम हुआ, अटेंशन कम हो गयी। होगी ही वह, कंटेंट बदल गया। किताब के साथ तो ऐसा है न, कि आप भी एक पूरा पन्ना पढ़ जाते है और फिर खयाल में आता है कि अरे, कुछ खयाल में नहीं आया। फिर उल्टा के पढ़ लेते है, लेकिन मुझे उलटाया नहीं जा सकता। मैं गया।

यह बोध, कि जो सुना जा रहा है वह खो जाएगा, एक दफे चूका कि सदा के लिए चूका, वह कभी पुनरुक्त नहीं हो सकेगा, आपकी चेतना को, उसको कहना चाहिये पीक—पिच में रखता है, आपकी चेतना को वह ऊंचे—से ऊंचे शिखर पर रखता है ध्यान के। .फिर जब आप बैठे है आराम से… पढ़ रहे हैं, खो गया, कोई हर्जा नहीं, पन्ने पलटाए, फिर पढ़ गए! समझ कम होती है किताब के साथ, पाठ बढ़ता है।

समझ ध्यान के साथ कम हो जाती है। इसलिए अकारण नहीं है कि बुद्ध या महावीर या जीसस बोलने के माध्यम को चुनते है। लिखा जा सकता था। पर वे बोलने के माध्यम को चुनते है। उसके दोहरे कारण है। एक तो बोलने का माध्यम बड़ा माध्यम है। उसके साथ बहुत चीजें और जुड़ी हैं जो लिखने में खो जाएंगी। इसलिए आप ध्यान रखें, जैसे ही फिल्म आयी, उपन्यास खो गए। क्योंकि फिल्म ने वापस जीवंत कर दी चीज को। उपन्यास को कौन पढ़ेगा? वह मृत है, मृतवत हो गया। उपन्यास ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह सकता। इसकी जान चली गयी। वह विधा खो जाएगी, क्योंकि अब हमारे पास ज्यादा जीवंत माध्यम हैं। मैकलोहान इसको हाट मीडियम कहता है। यह हाट मीडियम है।

तो टेलीविजन है या फिल्म है, यह जीवंत है, इसके खून में गर्मी है। किताब कोल्ड मीडियम है, बिलकुल डेड कोल्ड है, ठण्‍डी है। इसमें कोई जान नहीं है। खून बहता नहीं है इसमें। आपका टेलिफोन खो जाएगा, जिस दिन भी हम विजन जोड़ देंगे उसमें; जैसे रेडियो खो गया टेलिविजन? के सामने। रेडियो अब कोल्ड मीडियम हो गया। टेलीविजन हाट मीडियम होगा। तो बोलना, मेरे हिसाब से हाट मीडियम है। उसमें खून है, गर्मी है।

अभी तक हम भाषा का कोई उपाय नहीं कर सके है, जैसे कि अब मुझे किसी चीज पर जोर देना होता है तो जरा जोर से बोलता हूं। उसका बोलने का त्युएंस बदल जाता है, उसके बोलने की तर्ज बदल जाती है, उसका जोर बदल जाता है। लेकिन शब्द में कोई उपाय नहीं है। शब्द बिलकुल डेड है। प्रेम, चाहे प्रेम करनेवाले ने लिखा हो, चाहे प्रेम न करनेवाले ने लिखा हो, चाहे प्रेम में जलनेवाले ने लिखा हो, चाहे प्रेम को बिलकुल न जाननेवाले ने लिखा हो.. प्रेम प्रेम है। उसमें कोई न्यूएंस नहीं है, उसमें कोई ध्वनि—तरंग नहीं है। वह मुर्दा है।

तो जब जीसस कहेंगे ‘प्रार्थना’, तो उसका मतलब वह नहीं होता जो किताब में कोई भी लिख देता है। जीसस की पूरी जिंदगी प्रार्थना है, वह सिर से अंगूठे तक प्रार्थना है, रोया—रोया प्रार्थना है। जब वह कहते हैं प्रार्थना तो इसका कुछ अर्थ ही और है, जो कि भाषा कोश में नहीं हो सकता। साथ ही जब भी किसी से बोला जा रहा है तब बहुत जल्दी एक ट्यूनिंग निर्मित हो जाती है।’ बहुत जल्दी आपका हृदय, सुननेवाले के हृदय के निकट आ जाता है। द्वार खुल जाते हैं। आपके डिफेंस गिर जाते हैं। सुनते वक्त अगर आप ध्यान से सुन रहे हैं तो आपका सोचना बंद हो ही जाता है—जितने ध्यान से सुन रहे हो उतना सोचना बंद हो जाता है, द्वार खुल जाते हैं। रिसेटीविटी साफ .हो जाती है, ग्राहकता बढ़ जाती है, चीजें सीधे चली जाती हैं और एक दूसरे से हम परिचित हो जाते हैं।

एक बहुत गहरे अर्थ में भीतर से सुर संबंध बन जाते हैं। बोलना ऊपर चलता है, भीतर के सुर संबंध भी यात्रा शुरू कर देते है। पढ़ते वक्त ऐसा कोई सुर संबंध नहीं बनता, क्योंकि बनेगा किससे? पढ़ते वक्त आप समझते नहीं, समझना पड़ता है। सुनते वक्त आप समझते हैं, समझना पड़ता नहीं है। वे अगर मुझे पढते हैं और अगर मैंने जैसा कहा है वैसा ही रिपोर्ट किया गया है, ठीक वैसा अक्षरश:, तो वह भूल जाते हैं कि पढ़ रहे है। थोड़ी देर में उनको लगता है कि वह सुन रहे हैं। पर जरा भी इधर—उधर या हेर—फेर किया गया तो धारा टूट जाती है। तो जिसने मुझे एक दफा सुन लिया है उसके लिए मेरा कहा गया और लिखा हुआ, जब वह पढ़ेगा, तो वह करीब—करीब पढ़ना न होगा, सुनना होगा। और भी फर्क हैं। माध्यम के फर्क बहुत हैं और कन्टेंट बदलता है।

बड़ी कठिनाई तो यह हुई है कि जो हम कहने जा रहे हैं, वह जिस माध्यम से हम कहते हैं, वह उसके साथ बदलता है। जैसा मैं अनुभव करता हूं बदलेगा ही। अगर उसी बात को काव्य में कहना है तो काव्य अपनी ही व्यवस्था थोपेगा, तोड़—फोड़ करेगा, काट—छांट करेगा। अगर उसी को गद्य में कहना है तो बात और होगी—कन्टेंट बदल जाएगा। इसलिए प्राथमिक रूप से सारे के सारे दुनिया के पंथ काव्य में लिखे गए। उसका कारण है; जो कहा जा रहा था वह इतना तर्कातीत था कि उसे गद्य में कहना कठिन पड़ा। गद्य बहुत लाजिकल है, पद्य बहुत इल—लाजिकल है। पद्य में इल—लाजिक को क्षमा किया जा सकता है, गद्य में क्षमा नहीं किया जा सकता। अगर आप कविता में थोड़ा सा बुद्धि के इधर—उधर सरकें तो माफ किया जा सकता है, लेकिन पोज में माफ नहीं किया जा सकता। क्योंकि पोज गहरे में लाजिक है और पोइट्री गहरे में इल—लाजिक

अगर उपनिषद को आप गद्य में लिखें, या गीता को गद्य में लिख दें, तो आप पाएंगे, उसका प्राण खो गया। यह मीडियम बदल गया। वही बात जो पद्य में बहुत प्रीतिकर लगती थी, गद्य में आकर खटकने लगेगी, क्योंकि वह तर्कहीन हो जाएगी। गद्य जो है वह तर्क की व्यवस्था है। उपनिषद तो कहे गए पद्य में, गीता कही गयी पद्य में, लेकिन बुद्ध और महावीर पद्य में नहीं बोले, गद्य में बोले हैं। कारण था—युग बदल गया था पूरा। जब उपनिषद और वेद रचे गए तब एक अर्थ में युग ही पद्यात्मक था। लोग सीधे—सादे थे, तर्क की उनकी मांग ही नहीं थी। उनसे किसी ने कह दिया कि ईश्वर है, तो उन्होंने कहा, है। फिर वह यह भी पूछने नहीं आए कि कैसा है, क्या है? अगर बच्चे को देखें तो आपको पता चल जाएगा कि उस युग के लोग कैसे रहे होंगे।

एक बच्चा आपसे कितना झई कठिन सवाल पूछे, लेकिन कितने ही सरल जवाब से राजी हो जाता है। सवाल कितना ही कठिन पूछे, सरल जवाब हो, राजी हो जाता है। वह पूछेगा, बच्चे कहां से आते हैं? आप कहते हैं कौवा लाता है, वह चला गया खेलने। सवाल उसने भारी, कठिन पूछा था, जिसका अभी बड़े से बड़ा बुद्धिमान भी ठीक से जवाब नहीं दे पा सकता है। सवाल बड़ा कठिन था उसका, उसने अल्टीमेट पूछ लिया था, बच्चे कहां से आते हैं? आपने कहा, कौवे ले आते हैं। इतने में गया। बड़े सरल जवाब से राजी हो गया है।

ध्यान रखें, जवाब जितना पोइटिक होगा बच्चा उतनी जल्दी राजी हो जाएगा। अगर इसको आप पोइट्री में कह देते कि—कौवा—ले— आया, तो वह और भी जल्दी राजी हो जाता। इसलिए छोटे बच्चों की किताब हमें पोइट्री में लिखनी पड़ती है। क्योंकि उसके हृदय में जल्दी से पहुंच जाती है। उसमें धुन होती है, लय होती है। वह उसके मन में जल्दी से उतर जाती है। अभी वह धुन और लय के जगत में जीता है।

बुद्ध और महावीर को गद्य का उपयोग करना पड़ा। क्योंकि युग तार्किक था और लोग भारी तर्क कर रहे थे। लोग सवाल छोटा—सा पूछते, लेकिन बड़े—से—बड़े जवाब से राजी नहीं थे। हालत उल्टी हो गयी थी। बड़े—से—बड़ा जवाब भी उनको काफी नहीं था। क्योंकि पच्चीस सवाल वे और पूछेंगे। इसलिए बुद्धू और महावीर को बिलकुल ही गद्य में बोलना पड़ा।

और अब दुनिया में पद्य में कभी बोला जा सकेगा इसकी कठिनाई है। इसलिए पद्य अब ज्यादा—से—ज्यादा मनोरंजक है। इसमें कोई गहरी बातें नहीं कही जातीं, जबकि दुनिया की प्राथमिक सभी बातें पद्यों में कही गयी हैं। लेकिन पद्य अब मनोरंजन है। कुछ लोग जिनको फुर्सत में कुछ मनोरंजन करना है, करते हैं। लेकिन जो भी कीमती बातें हैं वे अब गद्य में कही जाएंगी। क्योंकि अब आदमी बच्चे जैसा नहीं है, प्रौढ़ है। हर चीज पर तर्क करेगा। गद्य ही उस तक पहुंचेगा। हर माध्यम कंटेंट को बदलता है। पहुंचाने की सुविधा, संभावना को घटाता बढ़ाता है।

और मेरी अपनी दृष्टि तो यह है कि जैसे—जैसे टेक्नालाजी विकसित होती जा रही है वैसे—वैसे बोलने का माध्यम वापस लौट आएगा। बीच में खोया था। क्योंकि किताब ने पकड़ लिया था चीजों को। टेक्नालाजी हमें वापस लौटाए दे रही है। टेलिविजन आ जायेगा। कल थी डायमेंशनल टेलिविजन हो जाएगा। कोई किताब पढ़ने को राजी नहीं होगा। किताब लिखने की कोई जरूरत नहीं होगी।

मैं सारी दुनिया से एक साथ बोल सकता हूं टेलिविजन पर। वह मुझे सीधा ही सुन सकते हैं। बहुत जल्दी, किताब के लिये बहुत खतरे हैं। भविष्य किताब का बहुत अच्छा नहीं है। जल्दी ही, किताब… किताब पढ़ी नहीं जाएगी अब, देखी जाएगी एक अर्थ में। उसको देखने में ट्रांसफार्म करना पड़ेगा। माइक्रो फिल्म्स बन गयी हैं— जिनमें कि किताब को पर्दे पर आप देखेंगे। बहुत जल्दी इनको हम पिक्चर में बदल देंगे। इसमें ज्यादा देर नहीं लगेगी।

मेरी अपनी समझ ऐसी है कि लिखने का माध्यम एक मजबूरी थी। कोई और उपाय नहीं था तो लिखा गया। फिर भी जिन्हें कुछ बहुत बड़ी बात कहनी थी वे अब तक भी बोलने के माध्यम का उपयोग किए हैं। तो मेरे मन में कभी खयाल नहीं आता कुछ लिखने का। एक तो मेरी यह समझ में नहीं आता कि किसके लिए? और दूसरा जब तक मेरे सामने किसी का चेहरा न हो तब तक.. इस वजह से और भी मेरे भीतर कुछ उठता नहीं। क्योंकि मेरे पास एक जो कहने का रस होता है, वह मेरे लिए कारण नहीं है। तो रस होता है कि कुछ कहूं। एक साहित्यकार में और एक ऋषि में वही फर्क है। साहित्यकार को कहने में रस है। कह पाया तो आनंदित है। अभिव्यक्ति बड़ा आनंद है। कह दिया तो जैसे कोई बोझ हल्का हो गया। कोई भारी भी चीज मेरे ऊपर कोई बोझ नहीं है

जब मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो मुझे कहने की वजह से कोई आनंद नहीं आ रहा है। कहकर मेरा कोई बोझ हल्का नहीं हो रहा है। मेरा कहना बहुत गहरे में, एक्सप्रेशन कम और रिस्पांस ज्यादा है। मुझे कुछ कहना ही है आपसे, ऐसा नहीं है। आपको कुछ कहलवाना हो तो ही मेरे भीतर से कुछ आ सकता है। यानी करीब—करीब हालत मेरे मन के भीतर ऐसी है कि अगर आप बाल्टी डाल दें तो ही मेरे कुएं से कुछ आ सकता है। इसलिए धीरे— धीरे आप देखते हैं, मुझे मुश्किल होता जा रहा है। जब तक मुझसे कुछ पूछा न जाए मुझे कहना मुश्किल होता जा रहा है। इसलिए बहुत कठिनाई है आगे कि मैं सीधा बोल पाऊं। वह मुझे भारी पड़ने लगा है इसलिए अब मुझे बहाने खोजने पड़ेंगे।

अगर गीता पर बोल रहा हूं तो उसका कारण है। मुझे बहाना चाहिए। आप कोई बहाना खड़ा कर देंगे, तो मैं बोल दूंगा। आपने बहाना नहीं खड़ा किया तो मेरे लिए मुश्किल हो जाता है कि खूंटी नहीं है तो क्या टांगना है और क्यों टांगना है, वह भी पकड़ में नहीं आता। एकदम खाली बैठा रह जाता हूं। अगर आप नहीं पूछ रहे हैं तो मैं खाली हूं। आप कमरे के बाहर गए तो मैं खाली हूं। परंतु जिसको अभिव्यक्ति देनी है, जब आप कमरे से बाहर गए, तब वह तैयारी कर रहा है। उसके दिमाग में कुछ तैयार हो रहा है। जब वह भारी हो जाएगा तब वह उसको प्रकट करेगा। मैं बिलकुल खाली हूं। आप कुछ बुलवा लेंगे तो बोल दूंगा। आप कोई प्रश्र खड़ा कर देंगे तो कुछ बोल दूंगा। लिखना मुश्किल है। क्योंकि लिखना, जो है.. वे जो भारी हैं, उनके लिए आसान है। वे निकाल लें, वे निकाल दे सकते हैं।

आप अपनी आत्म—कथा क्यों नहीं लिखते?

ह सवाल ठीक है कि मैं अपनी आत्‍म—कथा क्यों नहीं लिखता। यह बहुत मजेदार है। असल में आत्मा के जानने के बाद कोई आत्म—कथा नहीं होती। और सब आत्‍म—कथाएं अहंकार—कथाएं हैं। आत्‍म—कथाएं नहीं हैं, इगो—ग्राफीज हैं। पहला तो यह कि जिसे हम कहते हैं आम—कथा, वह आत्‍म—कथा नहीं है। क्योंकि जब तक आत्मा का पता नहीं है तब तक जो भी हम लिखते हैं वह इगो—ग्राफिज है। वह अहम—कथा है।

इसलिए यह बड़े मजे की बात है कि जीसस ने आत्म—कथा नहीं लिखी, कृष्ण ने नहीं लिखी, बुद्ध ने नहीं लिखी, महावीर ने नहीं लिखी। न लिखी, न कही है। आत्म—कथ्य जो है वह इस जगत में किसी भी उस आदमी ने नहीं लिखा जिसने आत्मा जानी है, क्योंकि आत्मा को जानने के बाद वह ऐसे निराकार में खो जाता है कि जिन्हें हम तथ्य कहते हैं वे सब उखड़कर बह जाते हैं। जिनको हम खूंटियां कहते हैं—यह जन्म हुआ, यह यह हुआ, वह सब उखड़कर बह जाते हैं। इतना बड़ा अंधड़ है आत्मा का आना, कि उस आधी के बाद जब वह देखता है तो पाता है कि सब साफ ही हो गया। वहां कुछ बचा ही नहीं। कोरा कागज हो जाता है। आत्म—कथा लिखने का जो रस है वह आत्मा जानने के पहले है—जरूर है!

इसलिये राजनीतिज्ञ आत्म—कथा लिखेंगे। साधु आत्म—कथा लिखेंगे। लेखक, कवि, साहित्यकार आत्म—कथा लिखेंगे। ये आत्म—कथायें ‘मैं ‘ की ही सजावटें हैं।

तेरा मतलब भी मैं समझा कि उस अनुभव की बात लिखूं जो मुझे हुआ। तो आत्म—कथ्य तो बचता नहीं। इसका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। आत्मा को जानने के बाद आत्म—कथा करीब—करीब ऐसी हो जाती है जैसे कोई अपने सपने देखे। जैसे वह अपने सपनों का ब्योरा लिखे रोज सुबह कि आज मैंने यह सपना देखा, काम मैंने यह सपना देखा, परसों मैंने यह देखा। एक आदमी अगर अपने सपनों की कथा लिखे तो जितनी उसकी कीमत हो सकती है उससे ज्यादा कीमत उसकी नहीं है, जिसको हम यथार्थ कहते हैं।

और ‘जाग गया’ आदमी लिख सकता है —यह कठिन है मामला। क्योंकि जागते से ही पता चलता है कि सपना था, लिखने योग्य भी कुछ नहीं बनता। अनुभव की बात रह जाती है; पर जो जाना है वह भी नहीं लिखा जा सकता। वह नहीं लिखा जा सकता, इसलिए कि लिखते ही बहुत फीका और बेमानी हो जाता है। ये सब उसको ही कहने की कोशिश चलती है निरंतर, बहुत—बहुत विधियों से।

जिंदगीभर उसी को कहता रहूंगा, वह जो हुआ है। उसके अलावा और कुछ कहने को है नहीं। लेकिन उसको भी लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि जैसे ही लिखते हैं उसको, वैसे ही पता चलता है कि यह तो कोई बात नहीं हुई। क्या लिखेंगे? लिख सकते हैं कि आत्मा का अनुभव हुआ। बड़ा आनंद मिला, कि बड़ी शांति मिली। सब बेमानी मालूम होता है। शब्द मालूम होते हैं। बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट पूरी जिंदगी, जो उन्होंने जाना है, उसको ही बहुत रूपों में कहे चले जा रहे हैं। फिर भी थकते नहीं। क्योंकि रोज लगता है कि बाकी रह गया है। फिर उसको और तरह से कहते हैं। वह चुकता नहीं। बुद्ध, महावीर चुक जाते हैं, वह नहीं चुकता। वह कथा कहने को बाकी ही रह जाती है। दोहरी कठिनाइयां हैं। जो कहा जा सकता है वह सपने जैसा हो जाता है। जो नहीं कहा जा सकता है वह कहने जैसा लगता है। फिर यह भी खयाल निरंतर होता है कि उसको सीधा कहने से कुछ भी हो तो प्रयोजन नहीं है।

तुमसे मैं कह दूं मुझे यह हुआ, उससे कुछ प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन तो इससे है कि तुम्हें उस रास्ते पर ले चलूं जहां तुम्हें हो जाए, तो तुम शायद किसी दिन समझ सको कि क्या हुआ होगा। उसके पहले समझ भी नहीं सकते। सीधा यह वक्तव्य कि मुझे क्या हुआ, क्या मतलब रखता है? तुम भरोसा करोगे, यह भी मैं नहीं मानता। तुम भरोसा भी नहीं कर सकोगे! तो तुम्हें गैर भरोसे में डालने से क्या प्रयोजन? नुकसान ही होगा। यही उचित है कि तुम्हें उस रास्ते पर, उस किनारे पर धक्का दिया जाए जहां कि तुम्हें किसी दिन हो जाए। उस दिन तुम भरोसा कर सकोगे। उस दिन तुम जान सकोगे कि ऐसा होता है। नहीं तो भरोसे का भी उपाय नहीं।

जैसे बुद्ध की मृत्यु का वक्त है और लोग पूछ रहे हैं कि आप मर जाएंगे तो कहां जाएंगे? तब बुद्ध क्या कहें? वह कहते हैं, मैं कभी कहीं था नहीं तो मरकर मैं कहां जाऊंगा! मैं कभी कहीं गया. ही नहीं, मैं कभी कहीं था ही नहीं! तब भी पूछने वाले पूछ रहे हैं कि नहीं जरूर कुछ तो बताइए, कहां जाएंगे? वे बिलकुल तथ्य कह रहे हैं।

क्योंकि बुद्ध का मतलब ही है ‘नो—व्हेयर—नेस’ उस स्थिति में कोई, न कहीं होता, और न होने का कोई सवाल होता है। तुम भी अगर शांत पड़कर किसी क्षण रह जाओ तो सिवाय श्वांस चलने के और क्या बचेगा? सिर्फ श्वांस ही रह जाएगी और बचेगा क्या? तो श्वांस वैसे ही रह जाएगी जैसे बबूले में हवा रहती है, और क्या रह जाएगी? वह तो हम कभी खयाल नहीं करते और हमें खयाल में नहीं आता। क्योंकि हम कभी उस क्षण में नहीं होते। कभी दो क्षण को भी मौन होकर बैठ जाओ, तो तुम क्या पाओगे, कि तुममें है क्या सिवाय श्वांस के? विचार नहीं है, तो सिवाय श्वांस के तुममें क्या बचेगा? और तुममें श्वांस का बाहर—भीतर आना, एक बबूले में श्वांस का, एक बैलून में हवा के बाहर—भीतर आने से ज्यादा और क्या है!

तो बुद्ध कहते हैं, मैं एक बबूला था, था कहां? इसलिए जाने का क्या सवाल है? एक बबूला फूट गया, हम पूछते हैं कहां चला गया? हम नहीं पूछते क्योंकि हम पहले से ही जानते हैं कि बबूला था ही कहां। हम नहीं पूछते कहां चला गया? बस ठीक है, था ही नहीं तो जाने की क्या बात है। अब बुद्ध जैसा व्यक्ति अपने को जान रहा है कि बबूला है, तो क्या आत्म—कथा लिखे, क्या अनुभव की बात कहे? और जो भी कहेगा वह मिसअंडरस्टैण्‍ड होनेवाला है।

जापान में एक फकीर हुआ है लिंची। लिंची ने एक दिन सुबह घोषणा की कि हटाओ यह बुद्ध की मूर्तियां वगैरह। यह आदमी कभी हुआ नहीं। अभी उसने बुद्ध की मूर्ति की पूजा की है, अभी उसने कहा हटाओ इस आदमी की मूर्ति, यह सरासर झूठ है। तो किसी ने खड़े होकर कहा, आप क्या कह रहे हैं, आपका मस्तिष्क तो दुरुस्त है? लिंची ने कहा, जब तक मैं सोचता था कि मैं हूं तब तक मैं मान सकता था कि बुद्ध हैं। लेकिन जब मैं ही नहीं हूं हवा का बबूला है, तो यह आदमी कभी हुआ नहीं।

सांझ फिर पूजा कर रहा था वह बुद्ध की, तो लोगों ने कहा, यह क्या कर रहे हो? तुम दोपहर तो कह रहे थे कि यह नहीं हुआ। उसने कहा, लेकिन इसके न होने से मुझे भी न होने में सहायता मिली, तो धन्यवाद दे रहा हूं। लेकिन एक बबूले का एक बबूले को धन्यवाद है, इसमें और कुछ ज्यादा बात नहीं है। लेकिन ये वक्तव्य समझे नहीं जा सकते। लोगों ने समझा कि यह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया है। यह तो बुद्ध के खिलाफ हो गया।

आत्म—कथ्य बचता नहीं। बहुत गहरे में समझो तो आत्मा भी बचती नहीं। आमतौर से यहां तक तो हम समझ पाते हैं कि अहंकार नहीं बचता, क्योंकि हमसे हजारों साल से यह कहा जा रहा है। और कोई वजह नहीं है। हजारों साल से कहा जा रहा है कि अहंकार नहीं बचता तो हम समझ लेते हैं—वर्बली हमको समझ में आ जाता है कि शान की स्थिति में अहंकार नहीं बचता। लेकिन अगर ठीक से समझना चाहें तो आत्मा भी नहीं बचती। पर यह समझने में बहुत घबराहट होती है।

इसलिए तो बुद्ध को हम नहीं समझ पाए। उन्होंने कहा कि आत्मा भी नहीं बचती, अनात्म हो जाते हैं। बहुत कठिन पड़ गया। इस पृथ्वी पर बुद्ध को समझना अब तक सर्वाधिक कठिन पड़ा। क्योंकि महावीर अहंकार तक की बात करते हैं; कि अहंकार नहीं बचता। वहां तक हम समझ सकते हैं। ऐसा नहीं कि महावीर को पता नहीं है कि आत्मा भी नहीं बचती है। लेकिन वे हमारी समझ को ध्यान में रखे हुए हैं कि ठीक है, अहंकार तो छोड़ो, फिर आत्मा तो अपने से छूट जाती है। कोई अड़चन नहीं है उसको कहने की। लेकिन बुद्ध ने पहली दफा वह स्टेटमेंट दे दिया जो बहुत दिन तक सीक्रेट था, जो कहा नहीं गया था।

उपनिषद भी जानते हैं और महावीर भी जानते हैं कि आत्मा नहीं बचती है। क्योंकि आत्मा का खयाल भी अहंकार का ही सूक्ष्म रूप है। लेकिन बुद्ध ने एक सीक्रेट, जो सदा से सीक्रेट था, कह दिया कि आत्मा नहीं बचती। मुश्किल पड गयी। वही लोग जो मानते थे कि अंहकार नहीं बचता, वही लड़ने खडे हो गए। आप बुद्ध की अड़चन समझते हैं? जो लोग मानते थे कि अहंकार नहीं बचता वे ही लडने खडे हो गए कि आप यह क्या कह रहे हैं? आत्मा नहीं बचती तो सब बेकार है। जब हम ही नहीं बचते तो फिर क्या करना है!

बुद्ध ने ठीक कहा। फिर कैसी आत्म—कथा होगी? फिर कोई आत्म—कथा नहीं हो सकती। सब सपने जैसा है, बबूले का देखा हुआ सपना है, बबूले पर बने हुए रंग—बिरंगे किरण के जाल हैं। बबूले के साथ सब खो जाते हैं। ऐसा जब दिखायी पड़ता हो तो बडी कठिनाई होती है। ऐसी जब बिलकुल ही स्पष्ट स्थिति हो तो बहुत कठिनाई हो जाती है।

इस स्थिति के पहले जिस प्रक्रिया या अनुभव से व्यक्ति गुजरता है उसका लिखा जाना उपयोगी है या नहीं?

असल में साधकों के काम पड़ सकती है, लेकिन सिद्ध को लिखना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो सिद्ध की कठिनाई है वह साधक की कठिनाई नहीं है। सिद्ध की कठिनाई ऐसी है कि इस कमरे में भूत नहीं है—है ही नहीं। तुम्हारे लिए है इस कमरे में एक भूत है। जो जानता है उसके लिए भूत नहीं है, हालांकि कभी उसको भी भूत था और उसने एक मंत्र से उसको भगाया था, लेकिन अब वह जानता है कि भूत भी झूठा था और मंत्र भी झूठा था। अब वह किस मुंह से कहे कि मैंने मंत्र से भूत को भगाया।

मेरा मतलब समझे? उसकी तकलीफ तुम्हारे लिए कह रहा हूं। यानी वह जानता है कि भूत तो झूठ था ही, वह कभी था ही नहीं, मंत्र ने सिर्फ अंधेरे में भरोसा दिलाया। अब वह जानता है कि भूत भी झूठा था, भगाया जिस मंत्र से वह मंत्र भी झूठा था। अब वह किस मुंह से तुमसे कहे कि मैंने मंत्र से भूत को भगाया। अब वह कहना बेमानी हो गया। हालांकि तुम्हारे लिए भूत है, और अगर वह कह सके कि मंत्र से मैंने भगाया तो मंत्र तुम्हारे लिए काम पड सकता है। इसलिए वह यह नहीं कहेगा कि मैंने मंत्र से भूत को भगाया। वह तुमसे यही कहेगा कि भूत मंत्र से भगाए जा सकते है। तुम मंत्र का उपयोग करो, भूत भाग जाता है। लेकिन यह तुमसे वह नहीं कहेगा, क्योंकि वह फाल्‍स स्टेटमेंट है। वह यह कहेगा, मैंने मंत्र से भूत को भगाया, क्योंकि अब वह जानता है कि मंत्र उतना ही झूठा था जितना भूत झूठा था।

इसलिए ऐसे व्यक्ति के वक्तव्य बहुत ही कम सेल्फ सेंटरिक होंगे। वह मुश्किल से ही कभी अपने बाबत बोलेगा। वह सदा तुम्हारे लिए तुम्हारे बाबत, और तुम्हारी परिस्थिति के बाबत बोलता रहेगा। यही उसकी तकलीफ है या फिर उसको फाल्स स्टेटमेंट देना पड़े।

तो साधना के प्रोसेस सब भूत हैं?

 

ब भूत हैं! क्योंकि आखिर में जो तुम पाओगे वह तुम्हें सदा से मिला ही हुआ है। आखिर में जिससे तुम छुटकारा पाओगे उससे तुम कभी बंधे ही नहीं हो। लेकिन यह भी कठिनाई है न। यही मैं कहता हूं कि सिद्ध की कठिनाइयां हैं। अगर वह तुमसे यह कह दे कि साधना के सब उपाय झूठे हैं तो तुम्हें दिक्कत में डाल देगा। क्योंकि तब तुम्हारे लिए भूत तो सच्चा रहेगा और साधना के सब उपाय झूठे हो जाएंगे। भूत झूठा हो जाए, तो साधना के उपाय झूठे सार्थक हैं। मेरा मतलब समझे न? भूत तो झूठा नहीं होगा।

यह बड़े मजे की बात है कि गलत गलत कहने से गलत नहीं होता। लेकिन सही, गलत कहने से हम फौरन मान लेते हैं कि गलत है। कोई कितना ही कहे कि क्रोध गलत है, इससे क्रोध गलत नहीं होता। लेकिन कोई कहे कि ध्यान गलत है, तो फौरन गलत हो जाता है। एक सेकेष्ठ नहीं लगता गलत होने में।

कोई आदमी कहे, फलां आदमी संत है, तुम नहीं मान लेते हो। तुमको एक आदमी कहे, फलां आदमी चोर है तो बिलकुल मान लेते हो। कोई आदमी कहे संत है, तो तुम पचास तरकीब से पता लगाओगे कि है कि नहीं! क्योंकि तुम्हें भी बेचैनी रहेगी उसके संत होने से। तुम्हारे अहंकार को चोट लगेगी। तुम कोई न कोई तरकीब निकालकर कर लोग पका कि नहीं है, वह भी संत नहीं है। लेकिन कोई कह दे कि फलां आदमी चोर है—तुम बिलकुल पता लगाने नहीं जाते, तुम बिलकुल मान ही लेते हो कि चोर है! तुम कभी पता नहीं लगाओगे कि आदमी चोर है! क्योंकि तुम्हें सुख मिलता है इस बात को मान लेने में कि हम अकेले ही चोर नहीं हैं, वह भी चोर है।

निंदा इतनी जल्दी स्वीकृत होती है, प्रशंसा कभी स्वीकृत नहीं होती। और प्रशंसा जब तुम स्वीकार भी कर लेते हो, मजबूरी में, कोई उपाय नहीं देखकर, तब भी वह टेंटेटिव होती है। तब भी वह सिर्फ मजबूरी होती है कि कभी मौका मिल जाएगा तो सुधार कर लेंगे। निंदा एब्सलूट हो जाती है, फिर मौका भी तुम्हें मिल जाए सुधार करने का तो तुम नहीं करोगे। ठीक ऐसा ही जीवन में चलता है कि गलत अगर कोई कह दे—गलत है, तो हम सुन लेते हैं। उससे वह गलत नहीं होता है। लेकिन ठीक को अगर कोई कह दे—गलत है, तो हम फौरन मान लेते हैं, क्योंकि हम झंझट से बचेंगे। क्योंकि ठीक में कुछ करना पड़ता है।

क्रोध हो जाता है, ध्यान करना पड़ता है। कोई कह दे—क्रोध गलत है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह होता रहेगा। लेकिन ध्यान करना पड़ता है। कोई कह दे गलत—तो छूट जाएगा।

ध्यान को तो अवस्था बताया आपने क्रिया नहीं?

ही तो दिक्कत है। यही मैं कह रहा हूं कि सिद्ध की दिक्कतें यही हैं कि वह अगर पूरी बात तुमसे कह दे, जैसा उसको अनुभव है, तो तुम भटक जाओगे सदा के लिए। क्योंकि वह तुम्हारा नहीं है मामला। जैसे कि मैंने कह दिया कि ध्यान अवस्था है। बिलकुल सच बात है यह, ध्यान अवस्था है। लेकिन तुम्हारे लिए क्रिया ही होगी, तुम्हारे लिए अवस्था नहीं हो सकती। क्योंकि ध्यान अवस्था है, इससे तुम क्या करोगे। अब कुछ करने को नहीं बचा। बात खतम हो गई। अगर क्रिया है तो तुम कुछ करोगे और अवस्था है तो बात खत्म हो गयी। तुम निश्रित हो गए कि ठीक है।

लेकिन क्रोध जारी रहेगा इसके मानने से कि ध्यान अवस्था है। क्रोध खत्म नहीं होगा। काम जारी रहेगा लोभ जारी रहेगा। तकलीफ यह है कि अगर तुम्हें देखकर कहूं तो मुझे कुछ न कुछ झूठ बोलना ही पड़ता है, और अगर अपने को देखकर कहूं तो जो मैं बोलता हूं वह बेकार है। बेकार ही नहीं, खतरनाक भी है, क्योंकि सुननेवाले तुम हो। तुम्हें गहरे में कुछ न कुछ उससे बाधा पड़नेवाली है। इसलिए अगर मैं ठीक वही कहूं जो मुझे लगता है तो मैं तुम्हारे किसी फायदे में नहीं आ सकता, नुकसान पहुंचा सकता हूं।

जैसा कृष्णमूर्ति का, मैं मानता हूं कि लोगों को नुकसान पहुंचता है। और जितना ज्यादा मैं देख रहा हूं उतना मुझे लगता है कि नुकसान पहुंचता है। क्योंकि वह वही कह रहे हैं जो भीतर है। तुमसे कोई प्रयोजन नहीं है।

मौन में बड़ी शक्ति है। मौन ही सब—कुछ है—फिर यह कोई क्यों कहता है?

मौन में तो बहुत शक्ति है, लेकिन मौन को सुननेवाला चाहिए न!

सुनाने की जरूरत क्यों पडती है?

रूरत इसलिए पड़ती है कि तुम्हें मैं देख रहा हूं कि तुम गड्डे में जा रहे हो। तुम्हें मैं देख रहा हूं कि तुम गिरोगे गड्डे में, तुम हाथ—पैर तोड़ोगे। मैं खड़ा हूं मैं मौन से कह सकता हूं लेकिन मौन से सुनने का तुम्हारे पास कान नहीं है। तो तुम्हें चिल्लाकर ही कहूं कि गड्डे में गिर जाओगे।

उससे क्या शक्ति लुज होती है?

हीं—नहीं, कुछ लूज होती नहीं। जिसको शक्ति का पता चल गया उसका कुछ कभी नहीं खोता। जिसको पता नहीं चला है उसी का सब खोता रहता है। जो कठिनाई है वह यह है कि अगर मैं आत्म—कथा की तरह कुछ लिखूं तो वह या तो झूठ होगी या सच होगी। दो ही उपाय हैं। सच होगी तो तुम्हें नुकसान पहुंचाएगी, झूठ होगी तो मैं वैसा वक्तव्य नही देना चाहूंगा। वह पकड ही नहीं पाएगा। या तो बिलकुल सत्य होगी तो फिर तुम्हारे लिए नुकसान ही पहुंचाने वाली है, क्योंकि तुम जो कर रहे हो, वह सब उससे निकलेगा कि बेकार है। सब बेकार है। और तुम बडी जल्दी राजी हो जाओगे बेकार के लिए।

एक व्यक्ति आए। उन्होंने कहा कि कृष्‍णमूर्ति ने तो कहा कि मेडीटेशन बेकार है तो हमने छोड़ दिया। बहुत अच्छा किया तुमने! अब छोड़ कर तुम्हें क्या मिला? छोड़कर कुछ नहीं मिला। उसे पकड़ा तुमने किस लिए था? पकड़ा इसलिए था कि क्रोध चला जाए, अज्ञान चला जाए। छोड़ने से चला गया? वह नहीं गया। तुमने कैसे छोड़ दिया? कृष्णमूर्ति ने कहा इसलिए छोड़ दिया कि बेकार है मेडीटेशन। जब बेकार है, जब इतना ज्ञानी आदमी कहता हो तो हम काहे के लिए झंझट में पड़े। यही बड़ी मुश्किल की बात है न!

मैं भी जानता हूं कि बेकार है। किसी क्षण में किसी से कहता भी हूं कि बेकार है; लेकिन उसी से कहूंगा जो बहुत कर चुका है और अब बेकार होने को समझ सकता है। जब उस जगह पहुंच गया जहां मेडीटेशन भी छूटनी चाहिए लेकिन बाजार में कहने का कि मेडीटेशन बेकार है, खतरा है बहुत। अभी उसने तो मेडीटेशन की नहीं। जो नासमझ सुन रहे हैं उन्होंने भी कभी की नहीं। उनसे तुम कह रहे हो, बेकार है! वह कभी करेंगे ही नहीं अब। उनको तो बहुत राहत मिल गयी है कि बिना ही किए सब हो गया मामला खत्म।

तो चालीस साल से लोग कृष्णमूर्ति को सुन रहे हैं और नासमझों की भांति बैठे हुए हैं, क्योंकि वह कहते हैं, बेकार है। जब बेकार ही है, और कृष्णमूर्ति कह रहे हैं तो ठीक है। कोई गलत नहीं कह रहे हैं। सारी जिंदगी वह वही कह रहे हैं, वह गलत जरा भी नहीं कह रहे हैं। फिर भी गलत कह रहे है क्योंकि तुम्हारे ऊपर कोई दृष्टि नहीं है। अपनी कहे चले जा रहे हैं।

इसलिए मैं निरंतर इस कोशिश में रहता हूं कि अपने को बचाऊं, अपनी कहूं ही नहीं कुछ। क्योंकि अगर मैं अपनी कहूंगा और ठीक—ठीक कहूंगा, तो तुम्हारे किसी भी काम का नहीं होगा। लेकिन कितना मजा है कि, अगर मैं तुम्हारी कहूं तुम्हारी फिक्र से कहूं तो भी तुम मुझसे कहने आओगे कि आपने ऐसा कह दिया। इसमें यह विरोध आ गया। मैं बिलकुल अविरोध की बात कह सकता हूं लेकिन तब तुम्हारे किसी काम की नहीं होगी। हां, इतनी काम की होगी कि तुम जहां हो वही ठहर जाओगे। तो सिद्ध की कठिनाई है कि वह जो जानता है वह कह नहीं सकता।

इसलिए जो पुरानी व्यवस्था…जो पुरानी व्यवस्था थी एक लिहाज से उचित थी, गहरी थी। तुम्हारी स्थिति के अनुसार बातें कही जाती थीं। तुम कहां तक हो वहां तक बात कही जा सकती थी। सब बातें टेंटेटिव थीं, कोई बात अल्टीमेट नहीं थी। तुम जैसे—जैसे बढ़ते जाओगे वैसे—वैसे हम खिसकाते जाएंगे। तुम्हारी जितनी गति होगी उतना हम पीछे हटाते जाएंगे। हम कहेंगे, अब यह बेकार हो गया, अब इसको छोड़ दो। जिस दिन तुम उस स्थिति में पहुंच जाओगे जब हम कह सकेंगे, परमात्मा बेकार है, आत्मा बेकार है, ध्यान बेकार है, उस दिन कह देंगे। लेकिन यह उसी वक्त कहा जा सकता है जबकि इसके बेकार होने से कुछ भी बेकार नहीं होता। तब तुम हंसते हो, और जानते हो।

अगर मैं कहूं कि ध्यान बेकार है और तुम ध्यान करते चले जाओ तो मैं मानता हूं कि तुम पात्र थे। तुमसे कहा तो ठीक कहा। अगर मैं कहूं कि संन्यास बेकार है और तुम संन्यास ले लो, तो मैं जानता हूं कि तुम पात्र थे और तुमसे ठीक कहा। अब यह जो कठिनाई है, ये कठिनाइयां हैं, ये खयाल में आएंगी धीरे—धीरे…!

‘मैं कहता आखन देखी’ :

अंतरंग भेट वार्ता बुडलैण्‍ड

बम्बई दिनांक 28 फरवरी 1971


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–3)

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तथ्य और महावीर-सत्य—(प्रवचन—तीसरा)

हावीर के जन्म से लेकर, उनकी साधना के काल के शुरू होने तक, कोई स्पष्ट घटनाओं का उल्लेख उपलब्ध नहीं है। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। जीसस के जीवन में भी पहले तीस वर्षों के जीवन का कोई उल्लेख नहीं है। इसके पीछे बड़ा महत्वपूर्ण कारण है।

महावीर जैसी आत्माएं अपनी यात्रा पूरी कर चुकी होती हैं पिछले जन्म में ही। बिकमिंग का, घटनाओं का जो जगत है, वह समाप्त हो चुका होता है पिछले जन्म में ही। इस जन्म में जो उनकी आने की प्रेरणा है, वह उनकी स्वयं की कोई वासना उसमें कारण नहीं है अब, सिर्फ करुणा कारण है। जो उन्होंने जाना है, जो उन्होंने पाया है, उसे बांटने के अतिरिक्त इस जन्म में उनका अब कोई काम नहीं है।

ठीक से समझो तो यही तीर्थंकर होने का अर्थ है।

तीर्थंकर का अर्थ यह है: ऐसी आत्मा, जो अब सिर्फ मार्ग दिखाने को पैदा हुई है। और जो अभी स्वयं ही मार्ग खोज रहा हो, वह मार्ग नहीं दिखा सकता है। जो खुद ही अभी मार्ग खोज रहा है, उसके मार्ग बताने का कोई अर्थ भी नहीं। क्योंकि मार्ग क्या है पूरा, यह मार्ग पर चलने से नहीं, मंजिल पर पहुंच जाने से पता चलता है। चलते समय तो सभी मार्ग ठीक मालूम होते हैं। जिन पर हम चलते हैं, वही मार्ग ठीक मालूम होता है।

और चलते समय कसौटी भी कहां है कि जिस मार्ग पर हम चल रहे हैं, वह ठीक होगा; क्योंकि मार्ग का ठीक होना निर्भर करेगा मंजिल के मिल जाने पर। मार्ग के ठीक होने का एक ही अर्थ है कि जो मंजिल मिला दे। लेकिन यह पता कैसे चलेगा मंजिल मिलने के पहले कि इस मार्ग से मंजिल मिलेगी? यह तो उसे ही पता चल सकता है जो मंजिल पर पहुंच गया। लेकिन जो मंजिल पर पहुंच गया, उसका मार्ग समाप्त हो गया।

और मंजिल पर पहुंच जाना इतना कठिन नहीं है, जितना मंजिल पर पहुंच कर और मार्ग पर लौटना। क्योंकि साधारणतः कोई कारण नहीं मालूम होता कि जो मंजिल पर पहुंच गया हो, वह अब मंजिल पर विश्राम करे।

तो दुनिया में मुक्त आत्माएं तो बहुत होती हैं, क्योंकि मुक्ति की मंजिल पर पहुंचते ही वे खो जाती हैं निराकार में। लेकिन थोड़ी सी आत्माएं फिर अंधेरे पथों पर वापस लौट आती हैं। ऐसी आत्माएं जो मंजिल पर पहुंच कर वापस जगत में लौटती हैं, तीर्थंकर कहलाती हैं। कोई परंपरा उन्हें तीर्थंकर कहती होगी, कोई परंपरा उन्हें अवतार कहती है, कोई परंपरा उन्हें ईश्वर-पुत्र कहती है, कोई परंपरा पैगंबर कहती है। लेकिन पैगंबर, तीर्थंकर, अवतार का जो अर्थ है, वह इतना है सिर्फ–ऐसी चेतना, जिसका अपना काम पूरा हो चुका, और अब लौटने का कोई कारण नहीं रह गया। बहुत कठिन है, यह मैंने कहा।

मंजिल खोजना कठिन है, मंजिल पर पहुंच कर, जब कि परम विश्राम का क्षण आ गया, तब लौटना उन रास्तों पर, जिन रास्तों को बहुत मुश्किल से छोड़ा जा सका और मुक्त हुआ जा सका, अत्यधिक कठिन है। इसलिए उन थोड़ी सी आत्माओं को परम सम्मान उपलब्ध हुआ है, जो मंजिल पाकर रास्ते पर वापस लौट आती हैं। और ये ही आत्माएं मार्गदर्शक हो सकती हैं।

तीर्थंकर का मतलब है, जिस घाट से पार हुआ जा सके। तीर्थ कहते ही उस घाट को हैं, जहां से पार हुआ जा सके। और तीर्थंकर कहते हैं उस घाट को, उस घाट पर उस मल्लाह को, जो पार करने का रास्ता बता दे।

तो महावीर का इस जन्म में और कोई प्रयोजन नहीं है अब। इसलिए पहले बचपन का सारा जीवन घटनाओं से शून्य है। घटनाएं घटने का अब कोई अर्थ नहीं है, वह बिलकुल शून्य है घटनाओं से। इसलिए कोई घटना उल्लिखित नहीं है, उल्लिखित होने का कोई कारण नहीं है।

जीसस का प्रारंभिक जीवन बिलकुल शून्य है घटनाओं से। कोई घटना ही नहीं है।

अब यह बड़ी हैरानी की बात है, आमतौर से जिन्हें हम विशिष्ट पुरुष कहते हैं, उनके बचपन में विशिष्ट घटनाएं घटती हैं–जिन्हें हम विशिष्ट पुरुष कहते हैं। लेकिन वे भी साधारण ही पुरुष होते हैं। सच में जो विशिष्ट है, उसका प्राथमिक जीवन बिलकुल घटना-शून्य होता है।

इस अर्थ में घटना-शून्य होता है कि वह लौटा है किसी और काम से, अपना अब कोई काम नहीं रहा। अपना कोई काम नहीं है, इसलिए उसकी बिकमिंग की, उसके होने की, बढ़ने की कोई घटनाएं नहीं हैं। बस वह चुपचाप बढ़ता चला जाता है। चारों तरफ चुप्पी होती है, वह चुपचाप बड़ा हो जाता है–उस क्षण की प्रतीक्षा में, जब वह जो देने आया है, वह देना शुरू कर दे।

मेरी दृष्टि में तो महावीर को वर्धमान का नाम ही इसलिए मिला। इसलिए नहीं, जैसा कि कहानियों और किताबों में लिखा हुआ है कि उनके घर में पैदा होने से घर में सब चीजों की बढ़ती होने लगी–धन बढ़ने लगा, यश बढ़ने लगा। मेरी दृष्टि में तो नाम ही अर्थ यह रखता है कि जो चुपचाप बढ़ने लगा, जिसके आस-पास कोई घटना न घटी। यानी जिसका बढ़ना इतना चुपचाप था, जैसे पौधे चुपचाप बड़े होते हैं, कलियां फूल बनती हैं–और कभी पता नहीं चलता, कहीं कोई शोरगुल नहीं होता, कहीं कोई आवाज नहीं होती। ऐसा चुपचाप बड़ा होने लगा जो। मैं तो उस नाम में यही अर्थ देखता हूं, जो चुपचाप बढ़ने लगा।

और यह चुपचाप बढ़ना दिखाई पड़ने लगा होगा, क्योंकि घटनाएं न घटना बहुत बड़ी घटना है–बिलकुल घटना न घटना! छोटे से छोटे आदमी के जीवन में घटनाएं घटती हैं, चाहे छोटी। बड़े आदमी के जीवन में बड़ी घटनाएं घटती हैं, चाहे कैसी भी। लेकिन ऐसा व्यक्ति जिसके जीवन में कोई घटना न घट रही हो, जो इतना चुपचाप बढ़ने लगा हो कि चारों तरफ कोई वर्तुल पैदा न होता हो–समय में, काल में, क्षेत्र में–तो वह अनूठा दिखाई पड़ गया होगा, कि कुछ विशिष्ट ही है।

इसलिए शिक्षक उसे पढ़ाने आए हैं तो उसने इनकार कर दिया, क्योंकि वह पढ़ेगा क्या? वह पढ़ा हुआ ही है। शिक्षक पढ़ाने आए हैं तो वर्धमान ने मना कर दिया है, क्योंकि शिक्षकों ने पाया जो वे उसे पढ़ा सकते हैं, वह पहले से ही जानता है। इसलिए कोई शिक्षा नहीं हुई। शिक्षा का कोई कारण न था, कोई अर्थ भी न था। कोई घटना न घटी। वे चुपचाप बड़े हो गए हैं।

और हो सकता है, यह बात भी अनुभव में आई होगी लोगों को। इतने चुपचाप कोई भी बड़ा नहीं होता। ऐसा ही जीसस का जीवन है: बड़े चुपचाप बड़े हो गए हैं।

दूसरी बात ध्यान में रख लेने जैसी है, महावीर के जन्म के संबंध में, अर्थपूर्ण है। जो मिथ, जो कहानी है, वह तो यह है कि वे ब्राह्मण स्त्री के गर्भ में आए, और देवताओं ने गर्भ बदल दिया और क्षत्रिय गर्भ में पहुंचा दिया।

यह बात तथ्य नहीं है, यह कोई तथ्य नहीं है कि किसी एक स्त्री से गर्भ निकाला और दूसरी स्त्री में रख दिया। लेकिन यह बड़ी, बड़ी गहरी बात है। और गहरी बात, कई चीजों की सूचनाएं हैं, वे हमें समझ लेनी चाहिए।

पहली सूचना तो यह है कि महावीर का, जो मैंने सुबह कहा, जो पथ है, वह पुरुष का, आक्रमण का, क्षत्रिय का; वह जो पथ है। महावीर का जो व्यक्तित्व है, और उनकी जो खोज का पथ है, वह क्षत्रिय का है। क्षत्रिय का इस अर्थों में कि वह जीतने वाले का है।

और इसीलिए महावीर जिन कहलाए। जिन का मतलब है, जीतने वाला। जिसका और कोई पथ नहीं है सिवाय जीतने के। जीतेगा तो ही उसका मार्ग है। और इसलिए पूरी परंपरा जैन हो गई। वह जो जिन है…तो यह बड़ी मीठी कहानी चुनी है कि था ब्राह्मणी के गर्भ में, लेकिन देवताओं को उठा कर क्षत्रिय के गर्भ में कर देना पड़ा। क्योंकि वह बच्चा ब्राह्मण होने को न था।

अब ब्राह्मण भी समझने जैसी बात है। ब्राह्मण का अपना मार्ग है। जैसे मैंने कहा कि पुरुष का एक मार्ग है, आक्रमण का; स्त्री का एक मार्ग है, समर्पण का। ब्राह्मण का एक मार्ग है, भिक्षा में मांग लेने का। यानी ब्राह्मण कह यह रहा है कि परमात्मा से लड़ोगे? अशोभन है। समर्पण करोगे? किसके प्रति? उसका अभी कोई पता नहीं है। लेकिन अज्ञात घेरे हुए है चारों तरफ और हम अत्यंत क्षुद्र और दीनऱ्हीन। न हम जीत सकते हैं। और हम समर्पण भी क्या करेंगे? हमारे पास समर्पण करने को भी क्या है? दीनताऱ्हीनता इतनी है। टोटल हेल्पलेसनेस। असहाय हम इतने हैं कि देंगे क्या? देने को क्या है? और छीनेंगे कैसे? तो एक ही मार्ग है कि हाथ फैला दें विनम्रता से और भिक्षा में ले लें।

तो ब्राह्मण का जो मार्ग है, ब्राह्मण की जो वृत्ति है, वह भिक्षुक की है।

तो कहानी यह कहती है कि महावीर जैसा व्यक्ति अगर ब्राह्मणी के गर्भ में भी आ जाए, तो भी देवताओं को हटा कर उसे क्षत्रिय के गर्भ में रख देना पड़ेगा। वह व्यक्तित्व ब्राह्मण का नहीं है। और व्यक्तित्व गर्भ से आते हैं। वह व्यक्तित्व ही जन्मना क्षत्रिय का है–जो जीतेगा; मांग नहीं सकता है। महावीर ऐसा हाथ नहीं फैला सकते। परमात्मा के सामने भी नहीं। किसी के भी सामने नहीं। वे जीतेंगे। जीत कर ही अर्थ है उनकी जिंदगी का।

और इस देश में जो परंपरा थी, उस क्षणों में जो परंपरा थी–सर्वाधिक प्रभावी, वह ब्राह्मण की थी। सर्वाधिक प्रभावी जो परंपरा थी उस दिन, वह ब्राह्मण की थी। वह असहाय, मांग लेने वाले की थी।

अदभुत है वह बात भी। इतनी आसान नहीं, जितना कोई सोचता हो। क्योंकि असहाय होना बड़ी अदभुत क्रांति है। बिलकुल असहाय हो जाना, वह भी एक मार्ग है। लेकिन वह मार्ग बुरी तरह पिट गया था। और इस बुरी तरह पिट गया था कि असहाय ब्राह्मण बड़ा दंभी हो गया था। जो अदभुत घटना घट गई थी वह यह थी, क्योंकि मार्ग तो था असहाय होने का, लेकिन परंपरा इतनी गाढ़ी हो गई थी और मजबूत हो गई थी कि असहाय ब्राह्मण सबसे ज्यादा अकड़ कर सड?कों पर खड़ा था। तो वह ब्राह्मण की जो मौलिक धारणा थी, वह खंडित हो चुकी थी। ब्राह्मण गुरु हो गया था। ब्राह्मण ज्ञानी हो गया था। ब्राह्मण सब के ऊपर बैठ गया था। वह जो असहाय होने की जो धारणा थी, वह खो गई थी। उस बात को तोड़ देना जरूरी था।

इसको बड़े प्रतीक रूप में कथा कहती है कि ब्राह्मणी के गर्भ में आकर भी देवताओं को हटा देना पड़ा। यानी ब्राह्मणी का गर्भ अब महावीर जैसे व्यक्ति को पैदा करने में असमर्थ हो गया था। उसका जो मतलब है, उसका मतलब यह है कि ब्राह्मण की दिशा से अब महावीर जैसे व्यक्ति के पैदा होने की कोई संभावना न थी। सूख गई थी धारा, अकड़ गई थी, एंठ गई थी, गलत हो गई थी। अब क्षत्रिय की धारा से…।

इसलिए जो संघर्ष था उस दिन, वह बहुत गहरे में ब्राह्मण और क्षत्रिय के मार्ग का संघर्ष था। और यह थोड़ी सोचने की बात है।

कोई पूछता है कभी कि क्या क्षत्रिय के अलावा और कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता?

नहीं हो सकता। चाहे वह बेटा ब्राह्मण के गर्भ से ही क्यों पैदा न हो, वह होगा क्षत्रिय ही। तो ही, तो ही उस मार्ग पर जा सकता है। वह मार्ग आक्रमण का है। वह मार्ग विजय का है। वहां भाषा विषय की और जीत की है।

दूसरी बात लोग निरंतर पूछते हैं कि क्या गरीब का बेटा तीर्थंकर नहीं हो सकता? वे सब राजपुत्र थे। क्षत्रिय और राजपुत्र!

वह भी बहुत अर्थपूर्ण है, कि जो अभी इस संसार को ही नहीं जीत पाया, वह उस संसार को कैसे जीतेगा! आक्रमण का मार्ग है न! तो अभी जब इस संसार में ही नहीं जीत पाए तो वहां कैसे जीत लोगे? अभी इतनी छोटी सी जीत नहीं तय कर पाए, उस बड़ी जीत पर कैसे जाओगे?

इसलिए वे चौबीसों बेटे राजपुत्र भी हैं। राजपुत्र इस अर्थ में सूचक है कि जीतने वाला जो है, वह कुछ भी जीतेगा। और जब वह इसको जीत लेगा, तब उसकी तरफ उसकी नजर उठेगी। वह इस लोक को जीत लेगा, तब उस लोक को जीतेगा। जीत के मार्ग पर पहले यही लोक पड़ने वाला है।

ब्राह्मण इस लोक में भी शिक्षा मांगेगा, उस लोक में भी। वह मानता ही यह है कि प्रसाद से ही मिलेगा, जो मिलना है। आक्रमण की बात ही नहीं है कोई। ग्रेस से मिलेगा, प्रभु-कृपा से।

वह जो संघर्ष था, वह ब्राह्मण और क्षत्रिय ऐसी दो जातियों का नहीं, ऐसी दो परंपराओं का! ऐसी दो जातियों का कोई संघर्ष नहीं है, ऐसी दो परंपराओं का, ऐसे दो मार्गों का जो सत्य की खोज पर निकले हैं। और जब एक मार्ग कुंठित हो जाता है–और सब मार्ग कुंठित हो जाते हैं एक सीमा पर जाकर, क्योंकि सब मार्ग अहंमन्य हो जाते हैं, ईगोइस्ट हो जाते हैं एक सीमा पर जाकर।

ब्राह्मण का मार्ग प्राचीनतम मार्ग है। वह कुंठित हो गया था। उसके विरोध में बगावत जरूरी थी। वह बगावत क्षत्रिय से आनी स्वाभाविक थी। और आनी इसलिए स्वाभाविक थी कि हमेशा बगावत ठीक विपरीत से आती है। विद्रोह जो है वह ठीक विपरीत से आता है।

ब्राह्मण है मांगने वाला, क्षत्रिय है जीतने वाला। एक दान और दया में ले लेगा, दूसरा दुश्मन को समाप्त करके लेगा। लेने का उसके लिए और दूसरा अर्थ ही नहीं होता।

तो ठीक बगावत विपरीत वर्ग से आने वाली थी, इसलिए वे क्षत्रिय हैं। इसलिए वह जन्म की कथा बड़ी मीठी है। यानी वह यह बताती है कि अब ब्राह्मण की जो कोख थी, वह बांझ हो गई थी। अब उसमें महावीर जैसा व्यक्ति पैदा नहीं हो सकता। वह परंपरा क्षीण हो गई थी, सूख गई थी–कि ब्राह्मण उस युग में महावीर या बुद्ध की हैसियत का एक भी आदमी पैदा नहीं कर पाया। वह मार्ग सूख गया था। उसने पैदा किए आदमी, लेकिन वक्त लग गया कोई डेढ़ हजार वर्ष का। फिर आया संघर्ष। डेढ़ हजार वर्ष में महावीर और बुद्ध ने जो परंपरा छोड़ी थी, वह सूख गई और जड़ हो गई। तब ठीक विपरीत विद्रोह फिर काम कर गया।

ये जो प्रतीक इस तरह चुने हैं, बड़े अर्थपूर्ण हैं। और इन प्रतीकों को जो जड़ता से तथ्यों की भांति पकड़ लेता है, वह बिलकुल भटक ही जाता है, उसे पता ही नहीं चलता कि क्या अर्थ हो सकता है!

महावीर के जीवन में, जब मैं कहता हूं कोई घटना नहीं घटी, तो कुछ बातें लेकिन सोचने जैसी हैं। जैसे, दिगंबर कहते हैं कि महावीर अविवाहित रहे। मजेदार घटना है! और श्वेतांबर कहते हैं, न केवल विवाहित, बल्कि एक बेटी भी हुई!

कितनी ही चीजें विकृत हो जाएं, लेकिन यह असंभव है कि एक अविवाहित व्यक्ति के साथ पत्नी और लड़की भी जुड़ जाए। यह करीब-करीब असंभव है। लेकिन यह भी असंभव है कि एक विवाहित व्यक्ति और उसकी एक लड़की और दामाद के होते हुए एक परंपरा उसे अविवाहित घोषित करे। ये दोनों बातें असंभव हैं। ये दोनों बातें कैसे संभव हो सकती हैं? अगर विवाह हुआ हो, लड़की हुई हो, दामाद हो, और ये सब बातें तथ्य हों, तो कोई कैसे इनकार कर देगा इस बात को कि यह हुआ नहीं?

यहां फिर समझ लेने जैसा है कि तथ्य जरूरी नहीं कि सदा सत्य हों। यह एक बात समझ लेनी जरूरी है। तथ्य जरूरी नहीं कि सदा सत्य हों। और जिनकी पकड़ सत्य पर है, बहुत बार तथ्यों में बुनियादी हेर-फेर हो जाते हैं। और जो सत्यों को नहीं देख पाते, वे सिर्फ मृत तथ्यों को संगृहीत कर लेते हैं।

इसलिए मेरा मानना है कि महावीर का विवाह जरूर हुआ होगा, लेकिन वे बिलकुल अविवाहित की भांति रहे होंगे। और इसलिए यह संभव हो सकी है बात। उनका विवाह हुआ ही, लेकिन वे अविवाहित की भांति रहे। जिन्होंने तथ्य देखा, उन्होंने कहा, विवाह जरूर हुआ; और जिन्होंने सत्य देखा, उन्होंने कहा, वह आदमी अविवाहित था, अनमैरिड था। अविवाहित होना एक सत्य है और विवाहित होना सिर्फ एक तथ्य है। कोई व्यक्ति बिना विवाहित हुए विवाहित हो सकता है–मन से, चित्त से, वासना से।

और विवाहित होने की वासना क्या है, उसे हम समझ लें। विवाहित होने की वासना है कि मैं अकेला काफी नहीं हूं, पर्याप्त नहीं हूं, दूसरा भी चाहिए जो आए और मुझे पूरा करे। मैरिड होने का मतलब क्या है? विवाहित होने का मतलब क्या है? विवाहित होने का गहरा मतलब यह है कि मैं अपने में पर्याप्त नहीं हूं, जब तक कि कोई मुझे मिले और जोड़े और पूरा न करे।

पुरुष अपर्याप्त है अपने में, आधा है, स्त्री जुड़े–यह विवाहित होने की कामना है, यह विवाहित होने का चित्त है। स्त्री अधूरी है अपने में, पुरुष के बिना खाली-खाली है, पुरुष आए और उसे भरे और पूरा करे–यह विवाहित होने की कामना है।

तो दिगंबरों को मैं कहता हूं, उन्होंने ठीक ही कहा कि महावीर अविवाहित थे। क्योंकि उस व्यक्ति में किसी से पूरे होने की कोई कामना न बची थी, वह पूरा था। कहीं कोई अधूरापन न था, जो किसी और से उसे पूरा करना है।

इसलिए मैं मानता हूं कि श्वेतांबरों से दिगंबरों की आंख गहरी पड़ी, बहुत गहरी पड़ी। बहुत गहरा देखा उन्होंने, कि यह आदमी अविवाहित है। इस साधारण से तथ्य के लिए कि एक स्त्री से इसका विवाह हुआ, इसको विवाहित कहना एकदम अन्याय हो जाएगा।

आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? एकदम अन्याय हो जाएगा इस आदमी को विवाहित कहना, क्योंकि यह आदमी बिलकुल अविवाहित है। और इसलिए यह संभव हो सका कि जिन्होंने गहरे देखा, उन्हें वह अविवाहित दिखाई पड़ा, और जिन्होंने तथ्य देखा, वह विवाह का तथ्य तो ठीक था। विवाह तो हुआ था।

और यह आदमी अपने में इतना पूरा था कि दूसरा इसके पास हो सकता है, दूसरा इसके निकट हो सकता है, दूसरा चाहे तो इससे अपने को भर भी सकता है, लेकिन इस आदमी को दूसरे की अपेक्षा नहीं है। इस आदमी को अपेक्षा नहीं है। इसलिए यह भी हो सकता है कि पत्नी ने पति पाया हो, लेकिन महावीर ने पत्नी नहीं पाई।

इसलिए वह दिगंबरों की आंख गहरी है। वे कहते हैं, पत्नी नहीं थी इस आदमी के पास। यह हो सकता है पत्नी ने पति पाया हो। यह भी हो सकता है कि पत्नी ने इससे पुत्र पाया हो। लेकिन महावीर पिता नहीं थे और न पति थे। यह घटना घटी भी हो, तो अत्यंत बाह्य तल पर घटी है। लेकिन भीतर यह आदमी पूरा था।

यह जो होलनेस है इस आदमी की, इस पर जोर देने के लिए दिगंबरों ने कहा कि नहीं, इस आदमी ने कभी शादी की ही नहीं। मगर उनसे भी, जैसे-जैसे बात आगे बढ़ी, भूल होती चली गई। वे भी तथ्य को इनकार करने लगे। उनको भी खयाल न रहा इस बात का कि तथ्य तो था कि शादी की थी।

और मैं मानता हूं कि यह भी बात अर्थपूर्ण है कि महावीर ने इनकार नहीं किया शादी के लिए। असल में जो शादी के लिए आतुर है वह, और जो शादी का इनकार करता है वह, वे दोनों स्त्रियों को अर्थ देते हैं। इनकार करने वाला भी स्त्री को अर्थ देता है। इनकार करने वाला भी भय जाहिर करता है। इनकार करने वाला भी पलायन करता है। इनकार करने वाला भी मानता है कि स्त्री कुछ है, जो पास होगी तो मैं कुछ और हो जाऊंगा।

महावीर ने न भी न की होगी, इसलिए शादी हो गई होगी। न कर देते तो शादी रुक सकती थी। लेकिन न तक न की होगी। आदमी इतना पूरा था कि न करने तक का उपाय न था। ठीक है, स्त्री आती थी तो आए, न आए तो न आए। ये दोनों बातें अर्थहीन थीं। और यह और घटनाओं से भी लगता है कि यह बात सच रही होगी।

महावीर ने आज्ञा चाही है पिता से कि मैं संन्यासी हो जाऊं? पिता ने कहा, मेरे रहते नहीं। मैं जब तक जीवित हूं, तब तक तुम बात ही मत करना दुबारा। तो अब महावीर चुप हो गए।

अदभुत आदमी रहा होगा। जिसको संन्यास लेना हो, वह ऐसा काम करे कि आज्ञा मांगे, पहली तो बात। जिसको संन्यास लेना है, वह आज्ञा क्यों मांगे? संन्यास का मतलब ही है, जो मोह-बंधन तोड़ रहा है। संन्यास लेना–संन्यास की भी आज्ञा मांगनी पड़ती है?

जैसे कोई आत्महत्या करने की आज्ञा मांगे कि मैं आत्महत्या करना चाहता हूं, आप आज्ञा देते हैं? तो कौन आज्ञा देगा? संन्यास की कभी आज्ञाएं दी गई हैं? संन्यास लिया जाता है। और महावीर ने आज्ञा मांगी संन्यास की कि मैं संन्यास ले लूं? कौन पिता राजी होगा?

और महावीर जैसे बेटे का! ऐसे बेटे हैं, जिनका पिता संन्यास के लिए राजी हो जाए। लेकिन महावीर जैसे बेटे का कोई पिता राजी होगा संन्यास के लिए?

इनकार किया, कहा कि मैं मर जाऊं, तब यह बात करना, यह बात ही मत करना मुझसे। और मजा यह है, घटना यह है, पिता तो बिलकुल स्वाभाविक है, लेकिन यह लड़का बहुत अदभुत है, यह चुप हो गया और फिर इसने बात ही न की। निश्चित ही संन्यास लेने, न लेने से कोई बुनियादी फर्क न पड़ता होगा इसको। इसलिए जोर भी नहीं है कोई, कि ठीक है, नहीं भी हुआ तो भी चलेगा।

पिता मर गए, तो मरघट से लौटते वक्त अपने बड़े भाई से कहा कि मुझे आज्ञा दे दें–अब तो पिता चल बसे–कि अब मैं संन्यासी हो जाऊं। तो बड़े भाई ने कहा, तुम पागल हो गए हो! एक तो पिता के मरने का दुख, और तुम अभी मुझे छोड़ कर चले जाओगे! और घर भी नहीं पहुंचे हो अभी, रास्ते पर हो। मुझसे यह बात कभी मत करना।

तो बड़ी मजेदार घटना है कि महावीर ने फिर बात ही नहीं की, फिर वे घर में ही रहने लगे। लेकिन थोड़े दिन में ही घर के लोगों को पता चला कि महावीर जैसे नहीं हैं–हैं घर में, और नहीं हैं! उनका होना न होने के बराबर है। न वे किसी के मार्ग पर आड़े आते हैं, न वे किसी की तरफ देखते हैं, न कोई उन्हें देखे इसकी आतुरता रह गई है। वे ऐसे हैं जैसे उस बड़े भवन में अकेले हैं, जैसे कोई है ही नहीं। कोई उनसे पूछे, हां और न में जवाब मांगे, तो भी नहीं देते हैं, किसी पक्ष और विपक्ष में नहीं पड़ते हैं, किसी वाद-विवाद में रस नहीं लेते। घर में क्या हो रहा है, नहीं हो रहा है, उन्हें कुछ प्रयोजन नहीं है। अतिथि हो गए हैं।

तो घर के लोगों को लगने लगा कि वे तो गए ही, सिर्फ शरीर रह गया है। तो घर के लोगों ने कहा, शरीर को रोकना भी उचित नहीं। जो जा ही चुका है, हम इतने भी रोकने के भागीदार क्यों बनें! तो घर के लोगों ने प्रार्थना की कि अब आपकी मर्जी, तो आप संन्यास ले लें, क्योंकि हमारी तरफ से तो संन्यास लगता है, पूरा हो ही गया। आप घर में हैं या नहीं, बराबर हो गया। हम क्यों इस पाप के भागीदार हों कि आपको रोकते हैं? और महावीर चल पड़े!

ऐसा जो व्यक्ति है–इसकी शादी के वक्त इसने यह भी नहीं कहा होगा कि नहीं करनी है। क्योंकि नहीं करने में भी तो हम स्त्री को मूल्य देते हैं, दूसरे को मूल्य देते हैं, डरते हैं कि नहीं करनी है। पर शादी के बाद यह ऐसे रहा होगा जैसे कि शादी के पहले रहता था। कुछ फर्क ही न पड़ा होगा। इसलिए जिन्होंने गहरे देखा, उन्होंने माना कि अविवाहित हैं।

जैसा मैंने कल कहा कि जीसस की मां कुंआरी है, और बेटे को जन्म दिया। क्योंकि उतने कुंआरेपन में ही पैदा हो सकता है जीसस जैसा बेटा।

महावीर जैसा व्यक्ति पति हो कैसे सकता है? यानी पति होने की जो धारणा है, वह हम थोड़े सोचें कि महावीर जैसा व्यक्ति पति कैसे हो सकता है?

पति में पहली तो मालकियत है। और जो व्यक्ति जड़ वस्तु पर भी मालकियत नहीं रखना चाहता, वह किसी जीवित व्यक्ति पर मालकियत रखेगा, यह असंभव है। यह कल्पना ही असंभव है। यानी जो धन को भी नहीं कह सकता कि इसका मैं मालिक हूं, वस्तु के साथ भी ऐसा दर्ुव्यवहार नहीं कर सकता–मालिक होने का, वह किसी जीवित स्त्री के साथ मालिक होने का दर्ुव्यवहार असंभव है। पति होना एक तरह का दर्ुव्यवहार है, एक मालकियत है, ओनरशिप है, पजेशन है। महावीर पति नहीं हो सकता।

और महावीर पिता भी कैसे हो सकता है? हां, लड़की जन्मी हो, यह हो सकता है। महावीर पिता कैसे हो सकता है? अब पिता की कामना क्या है, वह भी हम ठीक से समझ लें। पिता की कामना क्या है?

पिता की कामना है स्वयं को, स्वयं की देह को, स्वयं के अस्तित्व को दूसरों के माध्यम से आगे जारी रखना। पिता की कामना का अर्थ क्या है? आखिर कोई पिता होना क्यों चाहता है? कामना यह है कि मैं तो नहीं रहूंगा, कोई फिकर नहीं, लेकिन मेरा अंश रहेगा, रहेगा, और रहेगा। इसलिए बांझ पिता दुखी है, बांझ मां दुखी है। दुख क्या है? दुख एक है, खतम हो गई रेखा जहां हम समाप्त हो रहे हैं, जहां से हममें से कुछ भी नहीं बचेगा जीवित। जैसे एक शाखा, जिसके आगे अब पत्ते आने बंद हो गए। सब सूख गया।

पिता की आकांक्षा क्या है? पिता की आकांक्षा है कि चाहे यह शरीर मर जाए, लेकिन इस शरीर का एक अंश फिर शरीर निर्मित कर लेगा और रहेगा। मैं जीऊंगा दूसरों में। इसलिए तो बाप बेटे को बनाने के लिए इतना आतुर है। बेटे में बाप की महत्वाकांक्षा और अहंकार जीना चाहते हैं, बेटे के रूप में वे बने रहना चाहते हैं।

महावीर जैसे व्यक्ति को बने रहने की आकांक्षा का सवाल ही नहीं। न अहंकार है, न होने की तृष्णा है। न होने का अनुभव करके लौटा हुआ आदमी है यह। जहां सब खो जाता है, वहां से लौटा हुआ आदमी है यह। तो इसको खयाल हो सकता है कि पिता बनूं? हां, यह हो सकता है लड़की पैदा हुई हो।

इस बात को ठीक से समझना। अब यही गड़बड़ हो जाती है, कठिनाई यही हो जाती है। जब लड़की पैदा हुई तो महावीर पिता हैं–ऐसा तथ्य को पकड़ने वाले को दिखेगा। जो सत्य को पकड़ने जाता है, उसके लिए लड़की का होना न होना अप्रासांगिक है। हो सकता है महावीर की पत्नी, जो अपने को पत्नी मानती रही हो, मां भी बनना चाही हो और मां बन गई हो। लेकिन महावीर पिता नहीं बन पाए।

और इसलिए एक धारा में जिन्होंने देखा, उन्होंने बिलकुल इनकार कर दिया कि यह आदमी ऐसा था ही नहीं, यह बात ही झूठ है। लेकिन उन्होंने भी तथ्य को इनकार किया और दूसरों ने तथ्य को पकड़ लिया। और सत्य को देखना बहुत मुश्किल होता है, तथ्य आवरण बन जाता है।

एक छोटी कहानी मुझे याद पड़ती है।

एक गांव के बाहर एक नग्न मुनि ठहरा हुआ है। सम्राट की पत्नियां उसे भोजन कराने गांव के बाहर जा रही हैं। नदी पूर पर है। कोई पुल नहीं, कोई नाव नहीं। तो वे अपने पति से, सम्राट से पूछती हैं, हम क्या करें? कैसे पार जाएं?

तो वे कहते हैं, तुम जाकर नदी से कहना कि मुनि अगर जीवन भर के उपासे हों, तो मार्ग मिल जाए। नदी मार्ग दे दे, अगर उस पार ठहरा हुआ मुनि जीवन भर का उपवास किया हुआ है। तो उन्होंने जाकर कहा है। और कहानी है कि नदी ने मार्ग दे दिया!

वे बहुत बहुमूल्य भोजन बना कर, बहुत स्वादिष्ट मिष्ठान बना कर ले गई हैं। मुनि के सामने रख दिए हैं। मुनि उनकी सारी थालियां साफ कर गए हैं, कुछ भी नहीं बचा है। जब वे लौटने को हुईं, तब वे बड़ी चिंतित हुई हैं कि अभी तो नदी को कह कर हम लौट आए थे कि मुनि अगर जीवन भर के उपासे हों…अब क्या करेंगे? तो वे मुनि से पूछती हैं कि अब हम क्या करें? अभी तो हम कह कर आ गए थे कि आप जीवन भर के उपासे हों, लेकिन अब तो यह नहीं कह सकते। सामने ही भोजन कर लिया है।

तो मुनि ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम जाओ, नदी से वही कहो कि अगर मुनि जीवन भर के उपासे हैं तो नदी राह दे दे!

उन स्त्रियों को बड़ी मुश्किल हो गई। क्योंकि भोजन थोड़ा भी नहीं, बहुत ज्यादा–पूरा ही मुनि कर गए हैं। कुछ छोड़ा भी नहीं है पीछे। और फिर भी सहज कहते हैं कि जाओ नदी से कह दो! बड़ी शंका में, बड़े संदेह में, नदी से जाकर कहा है। खुद पर हंसी आती है कि यह कैसे संभव है अब। लेकिन नदी ने फिर मार्ग दे दिया है!

तो वे लौट कर अपने पति से पूछती हैं कि जाते वक्त जो घटा, वह बहुत छोटा चमत्कार था; लौटते वक्त जो घटा है उस चमत्कार का मुकाबला ही नहीं। जाते वक्त भी चमत्कार हुआ था कि नदी ने मार्ग दिया, लेकिन वह बहुत छोटा हो गया अब। लौटते में भी मिला! और वे मुनि जो कि सब खा गए हैं और फिर भी उपवासे हैं!

उनके पति ने कहा, जो उपवासा ही है, उसी को हम मुनि कहते हैं। भोजन से उपवास का कोई संबंध ही नहीं।

असल में भोजन करने की तृष्णा एक बात है, और भोजन करने की जरूरत बिलकुल दूसरी बात है। भोजन की तृष्णा एक बात है। वह न भोजन करो तो भी हो सकती है। और भोजन करना और उसकी जरूरत बिलकुल दूसरी बात है। वह करो, तो भी हो सकता है तृष्णा न हो। और जब तृष्णा टूट जाती है, और सिर्फ जरूरत रह जाती है शरीर की, तो आदमी उपवासा है। जैसा मैंने सुबह कहा, वह भीतर वास किए चला जाता है। शरीर की जरूरत है, सुन लेता है, कर देता है, इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं है। खुद कभी भी उसने भोजन नहीं किया है।

तो अगर यह हो सकता है, तो फिर महावीर पिता हो सकते हैं। पिता नहीं होंगे, लड़की हो तो भी। और पति नहीं होंगे, पत्नी हो तो भी।

तथ्य अक्सर सत्य को ढांक लेते हैं। और हम सब तथ्यों को ही देख पाते हैं, फैक्ट्स को। और हमारा खयाल होता है कि तथ्य बड़े कीमती हैं। और तथ्य के बहुत पहलू हो सकते हैं।

मैंने सुना है, एक अदालत में एक मुकदमा चला। एक आदमी ने एक हत्या कर दी है। और आंखों देखे एक गवाह ने कहा है कि खुले आकाश के नीचे यह हत्या की गई है। जब हत्या की गई, मैं मौजूद था, और आकाश में तारे थे।

और दूसरे आदमी ने कहा है कि यह हत्या मकान के भीतर की गई है। मैं मौजूद था, चारों तरफ दीवाल से बंद परकोटा था। द्वार पर मैं खड़ा था, चारों तरफ दीवाल थी, मकान था, जिसके भीतर हत्या की गई है।

उस न्यायाधीश ने कहा, मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया है तुमने। क्योंकि एक कहता है, खुले आकाश के नीचे! और दूसरा कहता है, मकान के भीतर!

और एक तीसरे, आंख वाले गवाह ने जिसने खुद ने देखा था, उसने भी कहा कि दोनों ही ठीक कहते हैं–मकान अधूरा बना था, अभी सिर्फ दीवालें उठी थीं। ऊपर आकाश में तारे थे। छप्पर नहीं था मकान पर। और ये दोनों ही ठीक कहते हैं। आकाश में तारे थे और खुले आकाश के नीचे ही हत्या हुई है। और चारों तरफ दीवाल थी और मकान था, यह भी सच है।

जीवन बहुत जटिल है। और एक तो तथ्य ही, एक तो तथ्य ही हम बहुत तरह से देख सकते हैं, और फिर दूसरी गहराई यह कि तथ्य जरूरी नहीं कि सत्य हो। सत्य कुछ और भी हो सकता है, जो तथ्य से विपरीत भी हो सकता है। लेकिन हम चूंकि तथ्यों को ही जानते हैं और सत्यों से हमारा कोई संबंध नहीं, इसलिए अक्सर तथ्यों को पकड़ लेते हैं और तब मुश्किल में पड़ जाते हैं। बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है। बहुत कठिनाई पैदा हो जाती है।

जैसे कि एक उल्लेख है, जैनों के एक तीर्थंकर हैं, श्वेतांबर मानते हैं कि वह स्त्री है और दिगंबर मानते हैं कि वह पुरुष है। ऐसा झगड़ा कैसे हो सकता है? ऐसा झगड़ा भी हो सकता है कि एक व्यक्ति के संबंध में यह झगड़ा भी हो जाए दो परंपराओं में कि वह स्त्री है या पुरुष? अब ये तो बड़ी सीधी तथ्य की बातें हैं। इनमें भी झगड़े हो सकते हैं लेकिन, क्योंकि तथ्य बड़ा झूठ बोल सकते हैं और जब कभी सत्य विपरीत होता है तो और मुश्किल हो जाती है।

यह हो सकता है कि जिस तीर्थंकर के बाबत यह खयाल है, वह स्त्री हो–शरीर से। लेकिन तीर्थंकर हो ही नहीं सकता कोई व्यक्ति, जब तक कि आक्रामक न हो, जब तक कि पुरुष-वृत्ति न हो, जब तक कि संघर्ष और संकल्प न हो। और यह भी हो सकता है कि संघर्ष, संकल्प और आक्रमण ने पूरे व्यक्तित्व को बदल दिया हो। और यह भी हो सकता है कि जब वह संन्यास लिया हो तो स्त्री रहे हों, और जब मुक्त हुए हों तब पुरुष हो गए हों। इसलिए मेरा मतलब समझ लेना। यानी यह पूरा का पूरा फिजिकल ट्रांसफार्मेशन भी संभव है।

ऐसा अभी रामकृष्ण के वक्त में हुआ कि रामकृष्ण ने सारी साधनाएं कीं, जितनी साधनाएं थीं। और सब मार्गों से जाना चाहा, और देखना चाहा कि यह मार्ग ले जा सकता है कि नहीं! तो उन्होंने ईसाइयों की, सूफियों की, वैष्णवों की, भक्तिमार्गियों की, योगियों की, हठयोगियों की, सब तरह की साधनाएं कीं। उसमें उन्होंने एक सखी-संप्रदाय की भी साधना की, जिसमें व्यक्ति अपने को कृष्ण की स्त्री मान लेता है, परिपूर्ण भाव से, सखी हो जाता है, गोपी बन जाता है–पुरुष भी हो, तो भी। वह रात कृष्ण की मूर्ति लेकर साथ सोता है–पति की तरह, पत्नी होकर।

तो रामकृष्ण तो समग्रभाव से स्वीकार कर लिए, और कुछ महीनों तक वे स्त्री का भाव और कामना किए। बड़ी अदभुत घटना घटी। घटना यह घटी कि रामकृष्ण के उस साधना के काल में आवाज बदल गई, और स्त्री की आवाज हो गई! चाल बदल गई! वे फिर पुरुष जैसे न चल सकते थे, वे स्त्रियों जैसे चलने लगे! उनके स्तन उभर आए। और तब घबड़ाहट हुई कि कहीं उनका पूरा शरीर तो रूपांतरित नहीं हो जाएगा, कहीं उनका पूरा का पूरा लैंगिक रूपांतरण न हो जाए! और उन्हें रोका उनके मित्रों ने, भक्तों ने। लेकिन वे तो जा चुके थे, वे कहते थे, कैसा पुरुष? कौन पुरुष? कौन रामकृष्ण? वह तो अब नहीं रहा।

साधना पूरी हो जाने पर भी छह महीने तक उन पर स्त्री के चिह्न रहे। छह महीने तक उनको देख कर लोग बड़े हैरान हो जाते थे कि इनको क्या हो गया, यह क्या हो गया? अगर यह संभव है, तो फिर कोई अगर उन दिनों में उनको देखा हो तो लिख सकता है, वे स्त्री थे।

अब मेरा अपना जानना ऐसा है कि वह व्यक्ति स्त्री ही रही होगी, जब वह साधना के जगत में प्रविष्ट हुई। लेकिन जो साधना चुनी, वह पुरुष की साधना है। और उस साधना ने पूरा का पूरा रूपांतरण किया होगा। न केवल व्यक्तित्व, बल्कि देह भी। और अब तो हम जानते हैं वैज्ञानिक ढंग से भी कि देह बदल सकती है, तीव्र मनोभावों से देह बदल सकती है। और पूर्ण मनोभाव से तो पूरी देह बदल सकती है। तो जिन्होंने तथ्य पकड़ा होगा, उन्होंने देखा होगा कि स्त्री थी। तो स्त्री रही उनकी किताब में। और जिन्होंने रूपांतरण देखा होगा, उनके लिए पुरुष हो गई।

तथ्य को एकदम से अंधे की तरह पकड़ लेना खतरनाक है। सत्य पर नजर होनी चाहिए, तथ्य रोज बदल जाते हैं। यह तथ्य है कि आप पुरुष हैं या स्त्री हैं, यह सत्य नहीं है। सत्य वह है, जो नहीं बदलता। पुरुष स्त्री हो सकते हैं, स्त्रियां पुरुष हो सकती हैं। और बहुत गहरे में कोई आदमी अलग-अलग नहीं होता, स्त्री भी होती है भीतर, पुरुष भी होता है भीतर, मात्रा में फर्क होता है। जिसको हम पुरुष कहते हैं, वह साठ प्रतिशत पुरुष, तो चालीस प्रतिशत स्त्री होता है। जिसको हम स्त्री कहते हैं, तो वह साठ प्रतिशत स्त्री और चालीस प्रतिशत पुरुष होती है।

यह मात्रा बहुत कम भी हो सकती है। यह बहुत सीमांत पर भी हो सकती है। यह इक्यावन प्रतिशत जैसी स्थिति में भी हो सकती है। और तब जरा सा फर्क चित्त का, और रूपांतरण हो जाएगा। दो प्रतिशत की बदलाहट और पूरा व्यक्तित्व बदल जाएगा।

लेकिन मनुष्य-जाति को हमेशा बाधा पड़ी है इस बात से कि वह तथ्यों को बिलकुल अंधे की तरह जकड़ कर पकड़ लेता है। और तथ्य बड़ा झूठ बोल सकते हैं।

महावीर के संबंध में भी जो बातें कही जाती हैं…अब जैसे एक वर्ग मानता है कि वे वस्त्र पहने हुए हैं–चाहे वह देवताओं का दिया हुआ वस्त्र हो, चाहे वह आंखों से न दिखाई पड़ने वाला वस्त्र हो–लेकिन वे वस्त्र पहने हुए हैं, नग्न नहीं हैं। और एक वर्ग मानता है कि वे बिलकुल नग्न हैं। वस्त्र उन्होंने छोड़ दिए हैं। किसी तरह का वस्त्र उनकी देह पर नहीं है। और ये दोनों बातें एक साथ सच हैं।

यह बिलकुल सच है कि महावीर ने वस्त्र छोड़ दिए हैं, वे बिलकुल नग्न हो गए हैं। लेकिन उनकी नग्नता भी ऐसी है कि उसे ढांकने के लिए और वस्त्रों की जरूरत नहीं है, वह खुद ही वस्त्र है।

अब इसे थोड़ा समझना जरूरी होगा। एक आदमी इस भांति वस्त्र पहन सकता है कि नंगा हो। एक आदमी इस भांति के वस्त्र पहन सकता है कि नग्नता को प्रकट करे। यानी वस्त्र ढांकें न, उघाड़ें। सच तो यह है कि नंगा शरीर इतना नंगा नहीं होता, जितना वस्त्र उसे नंगा कर सकते हैं।

जानवरों को देख कर हमें शायद ही खयाल आता हो कि वे नंगे हैं। लेकिन आदमी और स्त्रियां इस तरह के वस्त्र पहन सकते हैं कि उनके वस्त्र पहनने से तत्काल खयाल आए उनके नंगेपन का। और आदमी ने ऐसे वस्त्र विकसित कर लिए हैं कि वे उसके शरीर को उघाड़ते हैं, ढांकते नहीं। जो वस्त्र ढांकता है, उसे कौन पसंद करता है? जो वस्त्र उघाड़ता है! हां, इतना उघाड़ता है कि और उघाड़ने की इच्छा जगे। इतना नहीं उघाड़ देता कि उघाड़ने की इच्छा मिट जाए। उघाड़ता है और उघाड़ने की इच्छा जगाता है। तो ऐसा व्यक्ति वस्त्र पहने हुए भी नंगा है।

ठीक इससे उलटा भी हो सकता है, कि एक व्यक्ति नंगा खड़ा हो गया है और इतना उघाड़ा हो गया है कि उघाड़ने को भी कुछ नहीं बचा। उघाड़ने की कोई इच्छा भी नहीं है उसको। उघड़े हुए होने की कोई कामना भी नहीं है। कोई उघाड़ कर देखे, यह आमंत्रण भी नहीं है। तो उसकी नग्नता भी वस्त्र बन जाए। जब कोई वस्त्रों में नंगा हो सकता है, तो कोई नग्नता में वस्त्रों में क्यों नहीं हो सकता है?

महावीर बिलकुल नग्न थे, लेकिन उनकी नग्नता किसी को भी नग्नता जैसी नहीं लगी है। इसलिए यह स्वाभाविक था यह कहानी का बन जाना कि जरूर वे कोई ऐसे वस्त्र पहने हुए हैं जो दिखाई नहीं पड़ते, जो देवताओं के दिए हैं, देवदूत से हैं। देवताओं ने ऐसे वस्त्र दे दिए हैं उनको, जो दिखाई भी नहीं पड़ते और फिर भी उनकी नग्नता नहीं मालूम पड़ती। तो कहीं कुछ अदृश्य वस्त्र उनको छिपाए हुए हैं। यह धारणा पैदा हो जानी बिलकुल स्वाभाविक थी।

पर महावीर निपट नग्न हैं। असल में निपट नग्न आदमी ही नग्नता से मुक्त हो सकता है। वस्त्रों में ढंके हुए आदमी का नग्नता से मुक्त होना बड़ा मुश्किल है, बड़ा कठिन है। क्योंकि वस्त्रों में जिसे वह ढांकता है, वह उसकी ढांकने की चेतना स्पष्ट है। और जिसे हम ढांकते हैं सचेतन, वह उघड़ जाता है। जिसे हम चेतन रूप से ढांकते हैं, हमारी चेतना, हमारी कांशसनेस उस अंग को उघड़ा हुआ अंग बना देती है। क्योंकि जब हम चेतन होकर उसे ढांकते हैं, तो चेतन होकर दूसरा उसे उघड़ा हुआ देखना चाहता है।

सिर्फ नग्न आदमी ही नंगेपन से मुक्त हो सकता है। अब यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी। वस्त्र से ढंका हुआ आदमी कैसे नंगेपन से मुक्त होगा? कहीं न कहीं, कहीं न कहीं, कहीं न कहीं–कठिन है वह। संभव है, क्योंकि बुद्ध या क्राइस्ट कपड़े पहने हुए हैं। संभव तो है, लेकिन बहुत कठिन है, एकदम कठिन है।

संभव इसलिए है कि जब मैं वस्त्र पहनता हूं तो मैं दो कारणों से पहन सकता हूं। कारण मेरे आंतरिक हो सकते हैं, कि कुछ है, जो मैं छिपाना चाहता हूं; कुछ है, जो मैं नहीं दिखाना चाहता; या कुछ है, जो मैं भयभीत हूं कि दिख न जाए। कारण मेरे आंतरिक हो सकते हैं वस्त्र पहनने में। कारण मेरे एकदम बाह्य भी हो सकते हैं कि अकारण तुम्हें वह क्यों देखना पड़े, जो तुम नहीं देखना चाहते हो। तब मुझसे कोई प्रयोजन नहीं रह गया वस्त्रों का। तब एक अर्थ में मैं वस्त्र नहीं पहने हुए हूं, तुम्हें मैंने वस्त्र पहना दिए।

ये बुद्ध या क्राइस्ट जैसे लोग, जो वस्त्र पहने हुए हैं, ये भी नग्न होने की उतनी ही हैसियत रखते हैं, जितनी महावीर। इनके भीतर कुछ छिपाने को नहीं है। लेकिन हो सकता है दूसरा नग्नता न देखना चाहे, तो दूसरे पर आक्रमण भी क्यों करना! तो दूसरे की आंख पर उन्होंने वस्त्र डाला हुआ है, अपने शरीर पर नहीं। और दूसरे की आंख पर भी वस्त्र डालने का सबसे सरल उपाय यही है कि अपने शरीर पर डाल दो।

क्योंकि मैंने सुना है कि जब सबसे पहले जमीन पर कांटों ने तकलीफ दी, तो एक सम्राट ने बुद्धिमान लोगों को बुला कर पूछा कि क्या करें? कैसे बचें?

तो बुद्धिमानों ने कहा कि एक काम करें, सारी पृथ्वी को चमड़े से ढंक दें। इसलिए कि हम चमड़े पर चलें और कांटे न गड़ें। सम्राट ने कहा, इतना चमड़ा कहां से लाओगे? पृथ्वी बहुत बड़ी है।

बड़ी मुश्किल में पड़ गए बुद्धिमान लोग। बहुत सोचा। बुद्धिमानों को बड़ी चीजें जल्दी सूझ जाती हैं, छोटी चीजों से चूक जाते हैं। तब राजा के एक नौकर ने कहा कि आप भी कैसी पागलपन की बातों में पड़े हैं! और ये इतने-इतने बड़े बुद्धिमान होकर बैठ कर सोच रहे हैं। मैं तो बोलता नहीं इस डर से कि मैं गंवार और कैसे बोलूं! लेकिन यह पागलपन की बात है, अपने पैर को क्यों नहीं चमड़े से ढंका जा सकता! अपने पैर को चमड़े से ढंक लें, सारी पृथ्वी पर चमड़ा है। आप जहां जाओगे वहां चमड़ा होगा। इस पंचायत में क्यों पड़ते हैं आप कि सारी पृथ्वी को ढंकें!

तो आपकी आंख पर वस्त्र डालने की सबसे तरकीब अच्छी, बेहतर यही है कि अपने शरीर पर वस्त्र डाल लो। और क्या उपाय सरल हो सकता है! सबकी आंख पर डालने जाओ तो बहुत बड़ी पृथ्वी है और बड़ी मुश्किल पड़ जाए। तो कुछ लोग इसलिए वस्त्र पहन सकते हैं कि वे आपकी आंख पर वस्त्र डाल देना चाहते हैं, क्योंकि अभी आपकी आंख नग्न को देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकती।

लेकिन यह कठिन है। महावीर की नग्नता पर इसीलिए दो मत खड़े हो गए। महावीर निश्चित ही नग्न हैं। इसमें कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लेकिन बहुत लोगों को महावीर अत्यंत वस्त्र वाले मालूम पड़े होंगे।

मेरे एक मित्र हैं, वे विंध्य प्रदेश के शिक्षा मंत्री थे। एक अमरीकन मूर्तिकार खजुराहो देखने आया। तो भारतीय सरकार ने उन मेरे मित्र को लिखा कि आप विशेष रूप से ले जाएं मूर्तिकार को–वे विंध्य प्रदेश के मंत्री थे–तो उन्हें ठीक से खजुराहो दिखाएं। वे मेरे मित्र बड़े परेशान हुए। वे खजुराहो के पास के ही रहने वाले हैं, निकट दस-बीस मील दूर रहते हैं। खजुराहो को बचपन से जानते हैं। वे बहुत भयभीत हुए कि वह अमरीकन मूर्तिकार क्या विचार लेकर जाएगा! और वह सिर्फ खजुराहो देख कर सीधा वापस लौट जाने को है। सीधा दिल्ली से खजुराहो, और वापस। तो वह भारतीय संस्कृति के संबंध में क्या सोचेगा कि ऐसे मंदिर! और ऐसी नग्न मूर्तियां! ऐसे अश्लील दृश्य!

तो वे बहुत डरे हुए हैं, बड़े भयभीत हैं और बड़ी तैयारी करके गए हैं कि यह जवाब दूंगा, यह जवाब दूंगा, यह जवाब दूंगा, वह पूछेगा तो इस तरह समझाएंगे। बता देंगे कि यह कोई भारतीय-धारा की मूल शाखा नहीं है, यह किनारे से कुछ विक्षिप्त लोगों की, कुछ पागलों की, कुछ नासमझों की, कुछ भोगियों की, कुछ तांत्रिकों की, वाममार्गियों की–ये मंदिर हैं। यह मंदिर कोई ऐसा मंदिर नहीं है कि भारत का मंदिर है। भारत का मंदिर ही नहीं है एक अर्थों में यह।

और भारत के जो, भारत के मन की जो मूल धारा है, वह तो यही कहती है–टंडन कहते थे, पुरुषोत्तमदास टंडन, कि उसको मिट्टी से ढांक दो खजुराहो को, उसको उघाड़ो ही मत! गांधीजी तक राजी थे कि उसको ढंकवा दो! वह तो अगर रवींद्रनाथ बीच में न कूद पड़ते तो वह तो ढंक ही जाता मंदिर। तो मूल धारा तो गांधी और पुरुषोत्तमदास टंडन की ही है। वे ही ठीक कह रहे हैं।

तो वे सब समझ-बूझ कर गए हैं, बड़ी तैयारी करके गए हैं। लेकिन वह आदमी कुछ पूछता ही नहीं। एक-एक मूर्ति गुजरती जाती है, एकदम नग्न मूर्तियां, एकदम मैथुन चित्र। और वे तैयारी में जुटे हैं कि वह पूछे, लेकिन वह कुछ पूछता ही नहीं। वह मंत्रमुग्ध देखता है, आगे बढ़ जाता है। वह पूरे मंदिर में घूम कर निकल आया। वह सीढ़ियां उतर आया, वह गाड़ी में चढ़ने लगा। उसने कुछ कहा ही नहीं कि अश्लील हैं, कि भद्दी हैं, वह तो ऐसा भावविभोर है कि कहीं और खो गया है।

लेकिन मित्र ने कहा कि फिर भी वह खयाल तो ले ही जाएगा–न कहे, शायद शिष्टता, शिष्टाचार के कारण न कहता होगा। तो उन्होंने कहा, सुनिए, आप यह मत सोचिए कि ये अश्लील मूर्तियां कोई भारत की प्रतीक हैं।

उसने कहा, अश्लील! तो मुझे फिर से देखना पड़ेगा। क्योंकि इतनी सुंदर मूर्तियां मैंने कभी देखी नहीं। तो उनके सौंदर्य से मैं ऐसा अभिभूत हो गया कि मैं नहीं देख पाया कि वे अश्लील भी थीं। फिर मुझे वापस ले चलो, अब मैं गौर से देखूंगा कि अश्लील वे कहां हैं? क्योंकि मैं तो अभिभूत था। इतना अभिभूत था उनके सौंदर्य से, उनकी लयबद्धता से, और उनके चेहरों पर प्रकट ज्योति से कि मैं नहीं देख पाया कि वे नंगी हैं। मित्र तो बहुत घबड़ाए कि मूर्तियां नंगी हैं, आप नहीं देख पाए!

हो सकता है, महावीर के पास बहुत लोग आए होंगे, और महावीर के चेहरे में ऐसे डूब गए होंगे, और महावीर की आंखों में, कि हो सकता है लौट गए हों और पता न चला हो कि महावीर नंगे थे। क्योंकि मनुष्य में हमें वही दिखाई पड़ता है, जो उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अगर किसी व्यक्ति में तुम्हें उसका सेक्स दिखाई पड़ता है, तो वह उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, तो दिखाई पड़ता है। अगर उससे बड़ी घटनाएं उसके जीवन में घट गई हों, और उससे बड़ी रोशनी उसमें निकलने लगी हो…।

तो हो सकता है, सैकड़ों लोग महावीर को देख कर गए हों, और उन्होंने गांव में खबर जाकर की हो कि कौन कहता कि महावीर नंगे हैं? फिर से देखना पड़ेगा। जरूर कोई अदृश्य वस्त्र उन्हें घेरे हैं। खयाल तो आता है कि कुछ नंगे थे, देह पर कुछ था नहीं, लेकिन फिर भी नंगे थे, ऐसा दिखाई नहीं पड़ा। ऐसी चोट नहीं हुई कि नंगे हैं। कोई अदृश्य वस्त्र उन्हें घेरे होंगे। कोई देवताओं के वस्त्र उन्हें घेरे हैं, कि वे नग्न हैं और फिर भी नग्न नहीं मालूम पड़ते, नग्नता छिपी है। और तब कहानियां बनती हैं। और तब तथ्य टूटते चले जाते हैं और सत्य देखना मुश्किल हो जाता है।

ये सब बातें इसलिए कह रहा हूं कि हमारे मस्तिष्क में एक बात बहुत साफ हो जाए कि तथ्यों पर जोर सिर्फ नासमझ देते हैं, समझदार का जोर सदा सत्य पर है। और सत्य कुछ ऐसी चीज है कि तथ्य के भीतर से आप देख सकते हैं, लेकिन तथ्य को पकड़ लें तो कभी नहीं देख सकते। फिर आप वहीं रुक जाते हैं। दरवाजा इस कमरे के भीतर लाता है, लेकिन छोड़ दें तो! और दरवाजे को पकड़ लें तो? तो आप द्वार पर रह जाते हैं, आप कमरे के भीतर नहीं आते।

तथ्य के सब द्वार सत्य में जाते हैं, लेकिन जो तथ्य को पकड़ लेता है, वह वहीं अटक कर रह जाता है। और द्वार मकान नहीं है, सिर्फ मकान में आने की खाली जगह है। तथ्य सत्य नहीं है, सिर्फ ओपनिंग है, जहां से आप जा सकते हैं। लेकिन अगर वहीं रुक गए, तो सदा के लिए अटक सकते हैं। और हमारी आंखें तथ्यों को ही देखती हैं।

असल में मैं पदार्थवादी उसको कहता हूं, जो तथ्यों को ही देखता है। मेरी दृष्टि में मैटीरियलिज्म का और कोई मतलब नहीं है–जो तथ्यों को ही देखता है। जो कहता है, इतना रहा तथ्य, बाकी सब फिक्शन है, यह फैक्ट है। तथ्य को गिन लेता है और जोड़ बना लेता है और कहता है, इसके आगे कुछ भी नहीं।

लेकिन मजे की बात यह है कि तथ्य सत्य की सबसे बाहरी परिधि है, सबसे बाहरी परकोटा है। जो भी है, उसके भीतर है। और जितने हम भीतर जाएंगे, उतना तथ्य छूटता चला जाएगा, और सत्य निकट आता जाएगा।

और इसीलिए सत्य को कहने की भाषा तथ्य की नहीं हो पाती। इसलिए सत्य को कहने के लिए नई भाषा खोजनी पड़ती है, जो मिथ की है। सत्य को तथ्य की भाषा में नहीं कहा जा सकता। कहें तो इतिहास बन जाता है।

अब जैसे कि बड़े मजे की बात है, महावीर कभी बूढ़े नहीं हुए! न कोई और दूसरा तीर्थंकर कभी बूढ़ा हुआ! न बुद्ध कभी बूढ़े हुए, न राम, न कृष्ण! इनकी कोई बुढ़ापे की मूर्ति आपने देखी कि ये बूढ़े हो गए हों? यह क्या मामला है? क्या ये लोग जवान ही रह गए? जवानी के आगे नहीं गए? गए तो जरूर होंगे। यह तो असंभव है कि न गए हों। तथ्य तो यही होगा कि महावीर को बूढ़ा होना पड़ेगा। बूढ़े हुए ही होंगे। जब मरना पड़ता है तो बूढ़ा होना पड़ेगा।

लेकिन सत्य यह कहता है कि वह आदमी कभी बूढ़ा नहीं हुआ होगा। जो उसने पा लिया है, वह इतना युवा है, वह इतना सदा जीवन है कि वहां कैसा बुढ़ापा! तो जिन लोगों ने तथ्य पर जोर दिया होता, वे महावीर को बूढ़ा अंकन भी करते। लेकिन सत्य पर जिन्होंने आंख रखी है, तो फिर मिथ बनानी पड़ी कि महावीर कभी बूढ़े नहीं होते। वे कभी बूढ़े ही नहीं होते।

अब कभी आपने खयाल किया कि ये कोई भी कभी बूढ़े नहीं हुए? यह युवा होने की, यह संभावना कहां है? तथ्य में तो नहीं है, इतिहास में तो नहीं है, लेकिन मिथ में है।

और इसलिए मैं कहता हूं, इतिहास से ज्यादा गहरा घुस जाती है माइथॉलाजी। उसकी पकड़ ज्यादा गहरी है। क्योंकि वह उन सत्यों को–लेकिन उनको कहने के लिए उसे फैक्ट छोड़ देने पड़ते हैं, और फिक्शन और कहानी गढ़नी पड़ती है। तो वह कहेगी कि नहीं-नहीं, कृष्ण कभी बूढ़े नहीं होते। बच्चे होते हैं, जवान होते हैं, बस फिर ठहर जाते हैं। फिर बूढ़े नहीं होते।

असल में जो चित्त सदा नया है, और जो चित्त सत्य को जान गया है, वह कैसे वृद्ध होगा? वह कैसे क्षीण होगा? वह क्षीण होता ही नहीं। वह सदा के लिए उस हरियाली को पा गया, जो अब कभी नहीं मिटती। इसलिए युवा होने तक तो यात्रा है उसकी। यानी जब तक कि वह सत्य पाकर युवा नहीं हो गया, तब तक तो वह होता है। बच्चा होता है, पैदा होता है, बड़ा होता है। लेकिन युवा जैसे हो जाता है, जैसे वह पहुंच गया उस बिंदु पर जहां सत्य पा लिया जाता है–जो सदा जवान है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता–वैसे ही फिर उसकी यात्रा शरीर की रुक जाती है।

शरीर की तो नहीं रुकती, शरीर तो बूढ़ा होगा और मरेगा, लेकिन हम उस तथ्य को इनकार कर देते हैं। हम कहते हैं, वह तथ्य गौण है, उसका कोई मतलब नहीं है। वह आदमी भीतर जवान है, वह जवान ही रह गया, वह अब कभी बूढ़ा नहीं होता।

इसीलिए बहुत से इन अदभुत लोगों की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है। मृत्यु का ही उल्लेख नहीं है कि वे मरे कब। और वह उल्लेख इसीलिए नहीं है कि जन्म तक तो बात ठीक है, मरना उनका होता नहीं। तथ्य में तो वे मरे हैं।

इसलिए जैसे-जैसे दुनिया ज्यादा तथ्यगत होती गई, वैसे-वैसे हमारे पास रिकार्ड उपलब्ध होने लगा। जैसे महावीर का रिकार्ड है हमारे पास कि वे कब मरे, लेकिन ऋषभ का नहीं है रिकार्ड उपलब्ध। दुनिया और भी मिथ के ज्यादा करीब थी। अभी लोग तथ्य पर जोर ही नहीं दे रहे थे।

राम का कोई रिकार्ड नहीं है वे कब मरे। इसका कारण यह नहीं है कि वे न मरे होंगे। जिन्होंने सारी जिंदगी की कहानी लिख दी, वे इस एक बात को भर चूक गए! जो कि बड़ी भारी घटना रही होगी मरने की! यानी जन्म का सब ब्यौरा लिखते हैं, बचपन का ब्यौरा लिखते हैं–शादी है, विवाह है, लड़ाई है, झगड़ा है–सब है। सब आता है, सब जाता है, सिर्फ एक बात चूक जाते हैं कि यह आदमी मरा कब!

नहीं, मिथ उसको इनकार कर देती है। वह कहती है, ऐसा आदमी मरता नहीं, ऐसा आदमी परम जीवन को उपलब्ध हो जाता है, इसलिए मृत्यु की बात ही मत लिखो।

इसलिए इस मुल्क में हम जन्म-दिन मनाते हैं, पश्चिम में मृत्यु-दिन। पश्चिम में जो मरने का दिन है, वह बड़ी कीमत रखता है। पूरब में जो जन्म का दिन है, वह बड़ी कीमत रखता है। और उसका कारण है।

उसका कारण है कि हम जन्म को स्वीकार करते हैं, हम मृत्यु को इनकार ही कर देते हैं। पश्चिम में जन्म जितना स्वीकृत है, मृत्यु उससे ज्यादा स्वीकृत है। क्योंकि जन्म तो पहले हो चुका, मृत्यु तो बाद में हुई है। जो बाद में हुआ है, ज्यादा ताजा है, ज्यादा कीमती है।

हम जन्म-दिन की ही बात किए चले जाते हैं। और उसका कारण है कि हम जन्म को तो मानते हैं–बर्थ है, मृत्यु नहीं है। जीवन है, मृत्यु नहीं है।

ये सारे तथ्य अगर तथ्य की तरह पकड़े जाएं, तो मुश्किल हो जाती है। लेकिन अगर हम इनकी गहराई में उतर जाएं और इनके मिथ की जो कोड लैंग्वेज है, जो गुप्त भाषा है उसे खोल दें, तो बड़े रहस्य के पर्दे उठने लगते हैं।

जैसे अब गांधी की हमने मरण-तिथि मनानी शुरू की है, वह पश्चिम की नकल है। अगर महावीर जैसे व्यक्ति का हम मृत्यु-दिन मनाते भी हैं, तो भी उसे मृत्यु-दिवस नहीं कहते, उसे निर्वाण-दिवस कहते हैं। मरता नहीं है वह, सिर्फ निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है। उसको भी मृत्यु-दिवस नहीं कहते हैं। उसको भी कहेंगे निर्वाण-दिवस। मरता नहीं है, और परम जीवन में चला जाता है। निर्वाण-दिवस का मतलब हुआ कि छोटे जीवन से और बड़े जीवन में चला जाता है।

लेकिन इधर जिन लोगों ने तथ्यों पर बहुत सी व्यर्थ की बातों में उलझा दिया है कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और उनके समक्ष वे लोग जो निरंतर सत्य पर जोर देते हैं, आज इस तरह हारे हुए खड़े हैं कि उसे भी समझना बड़ा बेबूझ है। और वे हारे इसलिए खड़े हुए हैं कि वे खुद ही तथ्य से अनुगत हो गए हैं, वे खुद ही तथ्य से हार गए हैं, और उनको भी लग रहा है कि कोई बड़ी भूल-चूक हो गई है, कि तथ्य का हिसाब नहीं रहा, यह बड़ी भूल-चूक हो गई।

मेरी दृष्टि में, तथ्यों का क्या मूल्य है? अगर वे सत्यों को बता पाएं तो ठीक, अन्यथा कोई भी मूल्य नहीं है। शाश्वत की तरफ उनसे इशारा हो जाए तो ठीक, अन्यथा कोई भी मूल्य नहीं है। मील के पत्थर हैं, जो हमें कहते हैं और आगे चले जाओ। लेकिन कुछ नासमझ मील के पत्थरों को पकड़ कर रुक जाते हैं। मील के पत्थरों का क्या मूल्य है, सिवाय इसके कि वे कहें और आगे, और आगे, और आगे!

तथ्य भी मील के पत्थर हैं–सत्य की यात्रा में।

और इसलिए, अगर महावीर के जीवन की प्रारंभिक सारी घटनाओं को उनकी गहराई में, उनकी खोल को छोड़ कर, उनके इसेंस में और सार में पकड़ लिया जाए, तो ही महावीर का उदघाटन होगा। और तो ही हम बाद में, महावीर क्या हो पाते हैं, कैसे हो पाते हैं, उसको हम समझ पाएंगे। उसको समझने की दृष्टि मिल सकती है।

आज इतना ही।


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–4)

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संयम नहीं–महावीर-विवेक—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न:

 आपके कल के प्रवचन में एक बात विशेष नई थी, वह यह कि तीर्थंकर पहले जन्म में ही कृतकृत्य हो चुके होते हैं और करुणावश संसार में दुबारा आते हैं। अगर ऐसा है तो महावीर को इस जन्म में जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं, इसके बाद अगले जन्म में भी करुणावश आने से क्या चीज रोक पाई? यूं तो फिर आते ही रहना चाहिए था। और जो वापस करुणावश आते हैं तो क्या वे अपनी मर्जी से आते हैं कि यह भी आटोमैटिक होता है?

ह बात बहुत महत्वपूर्ण है। मेरी दृष्टि में, जिसके जीवन का कार्य पूरा हो चुका है, वह ज्यादा से ज्यादा एक ही बार वापस लौट सकता है। और वापस लौटने का कारण है। जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता हो, पैडल चलाना बंद कर दे, तो पिछले मोमेंटम से साइकिल थोड़ी देर बिना पैडल चलाए आगे जा सकती है, लेकिन बहुत देर तक नहीं। तो जैसे एक व्यक्ति के जीवन-कार्य पूरे हो चुके तो उसके अनंत जीवन की वासनाओं ने जो मोमेंटम दिया है, जो गति दी है, वह ज्यादा से ज्यादा सौ वर्षों तक, ज्यादा से ज्यादा, उसे एक बार और लौटने का अवसर दे सकती है, उससे ज्यादा नहीं। जैसे पैडल बंद कर दिए हैं तो भी साइकिल थोड़ी दूर तक चलती जा सकती है, लेकिन बहुत दूर तक नहीं।

और यह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न समय की अवधि होगी। क्योंकि पिछले जीवन की कितनी गति और कितनी शक्ति चलने की शेष रह गई है, वह प्रत्येक की अलग-अलग होगी। इसलिए बहुत बार ऐसा भी हो सकता है कि कोई करुणा से लौटना चाहे और न लौट सके।

तो इसलिए महीपाल जी जो दूसरा प्रश्न पूछते हैं वह भी विचारणीय है, “क्या वे अपनी मर्जी से लौटते हैं?’

लौटते तो वे अपनी मर्जी से हैं। लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि सिर्फ मर्जी से ही लौट आएं। अगर थोड़ी शक्ति शेष रह गई है तो मर्जी सार्थक हो जाएगी। और अगर शक्ति शेष नहीं रह गई है तो मर्जी निरर्थक हो जाएगी। उस स्थिति में करुणा दूसरे रूप ले सकती है, लेकिन लौट नहीं सकते हैं वे।

और यह भी समझ लेना उचित है, जैसे मैंने कहा कि साइकिल चलाते वक्त पैडल बंद हो जाएं, जिस दिन वासना क्षीण हो गई, उस दिन पैडल चलने बंद हो गए। लेकिन चाक थोड़ी दूर और चल जाएंगे–अपनी ही मर्जी से। अगर वह व्यक्ति साइकिल से नीचे उतर जाना चाहे तो उसे कोई रोकने वाला नहीं है, वह अपनी ही मर्जी से अब भी बैठा हुआ है, पैडल चलाने बंद कर दिए हैं, वासना क्षीण हो गई है। लेकिन अब भी देह के वाहन का वह उपयोग करता है। तो थोड़ी दूर तक। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अब देह के वाहन को चलाने की कोई शक्ति शेष ही न बची हो।

तो अक्सर इसीलिए ऐसा हो जाता है कि इस तरह की आत्माओं के दूसरे जन्मों का जीवन अति क्षीण होता है। शंकराचार्य जैसे व्यक्ति, जो कि तीस-पैंतीस साल ही जी पाते हैं, उसका और कोई कारण नहीं है, मोमेंटम बहुत कम है। अक्सर ऐसा होता है कि इस तरह की आत्माओं का जीवन अत्यल्प होता है, जैसे जीसस क्राइस्ट, अत्यल्प जीवन मालूम होता है। यह जो अत्यल्प जीवन है, वह इसी कारण है, और कोई कारण नहीं है। मोमेंटम ही इतना है।

अपनी ही मर्जी से लौट सकते हैं, न लौटना चाहें तो कोई लौटाने वाला नहीं है। लेकिन लौटना चाहें तो अगर शक्ति शेष है तो ही लौट सकते हैं।

फिर मैंने कहा कि लेकिन करुणा से कोई नहीं रोक सकता है। शरीर नहीं उपलब्ध होगा, तब दोहरी बातें हो सकती हैं। या तो वैसा व्यक्ति किसी दूसरे के शरीर का उपयोग करे, जैसा कि मक्खली गोशाल ने किया।

यह भी संदर्भ में महावीर के है, इसलिए समझ लेना उचित है। कहानियां कहती हैं कि मक्खली गोशाल बहुत वर्षों तक महावीर के साथ रहा, फिर उसने साथ छोड़ दिया। फिर वह महावीर के विरोध में स्वतंत्र विचारक की हैसियत से खड़ा हुआ। लेकिन जब महावीर ने शिष्यों को कहा कि मक्खली गोशाल तो मेरा शिष्य रह चुका है, मेरे साथ रहा है, तो उसने स्पष्ट इनकार किया। उसने कहा: वह मक्खली गोशाल जो आपके साथ था, मर चुका है। यह तो मैं बिलकुल ही एक दूसरी आत्मा उसके शरीर का उपयोग कर रही हूं। मैं वह व्यक्ति नहीं हूं।

यह बात साधारणतया महावीर के अनुयायी समझते रहे हैं कि झूठ है, लेकिन यह झूठ नहीं है। यह बात बिलकुल ही सच है। मक्खली गोशाल नाम का जो आदमी महावीर के साथ रहा था, वह अति साधारण व्यक्ति था। किन्हीं कारणों से असमय में उसकी मृत्यु हुई और उसकी देह का उपयोग एक दूसरी स्वतंत्र चेतना ने किया, जो तीर्थंकर की ही हैसियत की थी। लेकिन अपना शरीर उपलब्ध करने में असमर्थ थी, तो उसने मक्खली गोशाल के शरीर का उपयोग किया। और इसीलिए इस व्यक्ति का, जो अब यह नया व्यक्ति बना पुराने शरीर में, मक्खली गोशाल, इसका महावीर से कोई मेल नहीं हो सका। यह एक बिलकुल स्वतंत्र चेतना थी, जिसका अलग अपना काम था और वह अपना काम किया उसने। और इसलिए मक्खली गोशाल भी तीर्थंकर होने का एक दावेदार था।

उस युग में अकेले महावीर या बुद्ध ही नहीं थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, संजय वेलट्ठीपुत्त था, प्रबुद्ध कात्यायन था, पूर्ण काश्यप था–ये सबके सब तीर्थंकर की हैसियत के लोग थे। लेकिन सब अलग-अलग परंपराओं के तीर्थंकर थे। उसमें से सिर्फ दो की परंपराएं पीछे शेष रह गईं–एक महावीर की और एक बुद्ध की। बाकी सब परंपराएं खो गईं।

तो एक रास्ता तो यह है कि वैसा व्यक्ति प्रतीक्षा करे असमय में किसी के शरीर के छूट जाने की और उसमें प्रवेश कर जाए। अब उसकी शरीर ग्रहण करने की कोई उसमें शक्ति नहीं है। तो एक तो उपाय यह है। यह भी कई बार प्रयोग किया गया है। दूसरा उपाय यह है कि वह व्यक्ति अशरीरी रह कर थोड़े से संबंध स्थापित करे और अपनी करुणा का उपयोग करे। उसका भी उपयोग किया गया है, कि कुछ चेतनाओं ने अशरीरी हालत से संदेश भेजे हैं, संबंध स्थापित किए हैं।

और जो कल-परसों बात छूट गई थी थोड़ी, जो मैंने कहा कि मूर्तियों का सबसे पहले प्रयोग पूजा के लिए नहीं किया गया है। उसकी तो पूरी साइंस है। मूर्ति का सबसे पहले प्रयोग अशरीरी आत्माओं से संपर्क स्थापित करने के लिए किया गया है।

जैसे महावीर की मूर्ति है। इस मूर्ति पर अगर कोई बहुत देर तक चित्त एकाग्र करे और फिर आंख बंद कर ले तो मूर्ति का निगेटिव आंख में रह जाएगा। जैसे कि हम दरवाजे पर बहुत देर तक देखते रहें, फिर आंख बंद कर लें, तो दरवाजे का एक निगेटिव, जैसा कि कैमरे की फिल्म पर रह जाता है, वैसा दरवाजे का निगेटिव आंख पर रह जाएगा। और उस निगेटिव पर भी ध्यान अगर केंद्रित किया जाए तो उसके बड़े गहरे परिणाम हैं।

तो महावीर की मूर्ति या बुद्ध की मूर्ति का जो पहला प्रयोग है, वह उन लोगों ने किया है, जो अशरीरी आत्माओं से संबंध स्थापित करना चाहते हैं। तो महावीर की मूर्ति पर अगर ध्यान एकाग्र किया और फिर आंख बंद कर ली और निरंतर के अभ्यास से निगेटिव स्पष्ट बनने लगा तो वह जो निगेटिव है, महावीर की अशरीरी आत्मा से संबंधित होने का मार्ग बन जाता है। और उस द्वार से अशरीरी आत्माएं भी संपर्क स्थापित कर सकती हैं। यह अनंत काल तक हो सकता है। इसमें कोई बाधा नहीं है।

तो मूर्ति पूजा के लिए नहीं है, एक डिवाइस है। और बड़ी गहरी डिवाइस है, जिसके माध्यम से जिनके शरीर खो गए हैं और जो शरीर ग्रहण नहीं कर सकते हैं, उनमें एक खिड़की खोली जा सकती है, उनसे संबंध स्थापित किया जा सकता है। तो फिर रास्ता यह है कि अशरीरी आत्माओं से कोई संबंध खोजा जा सके। अशरीरी आत्माएं भी संबंध खोजने की कोशिश करती हैं।

तो करुणा फिर यह मार्ग ले सकती है। और आज भी जगत में ऐसी चेतनाएं हैं, जो इन मार्गों का उपयोग कर रही हैं। थियोसाफी का सारा का सारा जो विकास हुआ, वह अशरीरी आत्माओं के द्वारा भेजे गए संदेशों पर निर्भर है। थियोसाफी का पूरा केंद्र इस जगत में पहली दफा बहुत व्यवस्थित रूप से–ब्लावट्स्की, अल्काट, एनीबीसेंट, लीडबीटर–इन चार लोगों ने पहली दफे अशरीरी आत्माओं से संदेश उपलब्ध करने की अदभुत चेष्टा की है। और जो संदेश उपलब्ध हुए हैं, वे बहुत हैरानी के हैं।

संदेश तो कभी भी उपलब्ध हो सकते हैं, क्योंकि अशरीरी चेतना कभी भी नहीं खोती। लेकिन तब तक आसानी है उस अशरीरी चेतना से संबंध स्थापित करने की, जब तक करुणावश वह भी संबंध स्थापित करने को उत्सुक है। धीरे-धीरे करुणा भी क्षीण हो जाती है। करुणा अंतिम वासना है। है वासना ही। सब वासनाएं जब क्षीण हो जाती हैं तो करुणा ही शेष रह जाती है। लेकिन अंततः करुणा भी क्षीण हो जाती है।

इसलिए पुराने शिक्षक, पुराने मास्टर्स, धीरे-धीरे खो जाते हैं। करुणा भी जब क्षीण हो जाती है, तब उनसे संबंध स्थापित करना अति कठिन हो जाता है। उनकी करुणा शेष रहे तब तक संबंध स्थापित करना सरल है, क्योंकि वे भी आतुर हैं। लेकिन जब उनकी करुणा क्षीण हो गई, अंतिम वासना गिर गई, तब फिर संबंध स्थापित करना निरंतर मुश्किल होता चला जाता है। जैसे कुछ शिक्षकों से अब संबंध स्थापित करना करीब-करीब मुश्किल हो गया है।

महावीर से संबंध स्थापित करना अब भी संभव है। लेकिन उसके पहले के तेईस तीर्थंकरों से किसी से भी संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। और इसीलिए महावीर कीमती हो गए और तेईस एकदम से गैर-कीमती हो गए। उसका बहुत बुनियादी जो कारण है, वह यह है कि अब उन तेईस से कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता है–किसी तरह का भी।

प्रश्न:

 

तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह जो मोक्ष कहलाता है, जहां आत्मा चली गई है और सारे जगत में लीन हो गई है, फिर उस आत्मा से कैसे संबंध स्थापित हो?

 

हूं-हूं, इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। यह मैं पूरी बात कर लूं, फिर आपको कहूं।

तेईस तीर्थंकर इसीलिए एकदम गैर-ऐतिहासिक हो गए मालूम पड़ते हैं। उनके गैर-ऐतिहासिक हो जाने का और कोई कारण नहीं है, वे बिलकुल ऐतिहासिक व्यक्ति थे। लेकिन आध्यात्मिक लोक में उनके अंतिम संबंध का सूत्र भी क्षीण हो जाने के कारण अब उनसे लौट कर कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता।

महावीर से अभी भी संबंध स्थापित हो सकता है। और इसलिए महावीर अंतिम होते हुए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गए–उस धारा में। बुद्ध से अभी भी संबंध स्थापित किया जा सकता है। जीसस से अभी भी संबंध स्थापित किया जा सकता है। कृष्ण से अभी भी संबंध स्थापित किया जा सकता है। हमें पच्चीस सौ वर्ष बहुत लंबे मालूम पड़ते हैं, क्योंकि हमारा कालमान बहुत छोटा है। शरीर से छूट जाने पर पच्चीस सौ वर्ष ऐसे हैं, जैसे क्षण गुजरा हो। मोहम्मद से अभी भी संबंध स्थापित हो सकता है।

इसलिए जिन परंपराओं के शिक्षकों से अभी संबंध स्थापित हो सकता है, वे परंपराएं फैलती-फूलती हैं। जिन परंपराओं के शिक्षकों से अब कोई संबंध स्थापित नहीं हो सकता, वे एकदम सूख कर नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि उनका मूल स्रोत से संबंध ही टूट जाता है। और इसीलिए नए शिक्षक जीतते हुए मालूम पड़ते हैं, पुराने शिक्षक हारते हुए मालूम पड़ते हैं।

अब यह बड़ी हैरानी की बात है कि महावीर से पहले तेईसवें तीर्थंकर को ज्यादा वक्त नहीं हुआ, ढाई सौ वर्ष का ही फासला है, लेकिन उस तीर्थंकर से भी संबंध स्थापित करना मुश्किल हो गया था। इसलिए उस तीर्थंकर के निकट जीने वाले को भी महावीर के पास आ जाना पड़ा। लेकिन एक बुनियादी विरोध भीतर छूट गया, जिसने पीछे परंपरा को दो खंडों में तोड़ने में हाथ बंटाया। क्योंकि मूलतः वे शिक्षक पार्श्व से संबंधित थे, और उनका प्रेम, और उनका समर्पण और उनका द्वार पार्श्व के प्रति खुला था। लेकिन, चूंकि पार्श्व खो गए बहुत जल्दी और उनसे कोई संबंध स्थापित करना संभव न हुआ, इसीलिए महावीर के पास वे आए। लेकिन उनका मन, उनका ढंग, उनका व्यक्तित्व पार्श्व के अनुकूल था। इसलिए दो धाराएं फौरन टूटनी शुरू हो गईं। वे आ गए पास, लेकिन भेद थे।

और इसलिए किसी ने पूछा है कि एक ही समय में दो तीर्थंकर क्यों नहीं होते?

उसका कोई कारण नहीं है। उसका–एक परंपरा में एक ही समय में दो तीर्थंकर नहीं होते, उसका कुल कारण इतना है कि अगर एक तीर्थंकर काम कर रहा है उस परंपरा का, तो दूसरा तत्काल विलीन हो जाता है, उसकी कोई जरूरत नहीं होती। जैसे एक ही कक्षा में एक ही समय में दो शिक्षक की कोई जरूरत नहीं होती। बेमानी है, एकदम बेमानी है, मीनिंगलेस है। उससे सिर्फ बाधा ही पैदा होगी और कुछ भी न होगा। एक उपद्रव ही होगा कि एक ही कक्षा में दो-चार शिक्षक एक ही पीरियड में उपस्थित हो जाएं। तो उसकी वजह से सिर्फ कन्फ्यूजन फैलेगा। एक शिक्षक पर्याप्त होता है। इसलिए एक शिक्षक अगर काम कर रहा है तो दूसरा शिक्षक अगर होने की स्थिति में भी है तो विलीन हो जाता है। उसकी कोई जरूरत नहीं होती।

करुणा पीछे भी काम कर सकती है और पीछे भी संबंध स्थापित किए जा सकते हैं।

तिब्बत चीन के हाथ में चले जाने से जो बड़े से बड़ा नुकसान हुआ है, वह भौतिक अर्थों में नहीं नापा जा सकता। वह सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि बुद्ध से तिब्बत के लामाओं का प्रतिवर्ष एक दिन निकट संपर्क स्थापित होता रहा था। वह परंपरा को घात पहुंच गया।

प्रतिवर्ष बुद्ध पूर्णिमा के दिन पांच सौ विशिष्ट भिक्षु और लामा एक विशेष पर्वत पर, मानसरोवर के निकट, उपस्थित होते रहे थे। यह अत्यंत सीक्रेट, अत्यंत गुप्त व्यवस्था थी। और ठीक पूर्णिमा की रात, ठीक समय पर, बुद्ध का साक्षात्कार पांच सौ व्यक्तियों को निरंतर हजारों वर्षों से होता रहा था। और इसलिए तिब्बत का बौद्ध भिक्षु जितना जीवंत और जितना गहरा था, उतना दुनिया का कोई बौद्ध भिक्षु नहीं था। क्योंकि और किसी के जीवित संपर्क नहीं थे बुद्ध से। एक वर्ष की शर्त पूरी होती रही थी निरंतर–वह बुद्ध पूर्णिमा के दिन। और यह इन दिनों को मनाने का भी कारण यह है कि उन दिनों पर संपर्क आसानी से स्थापित हो सकता है। वे दिन उस चेतना की स्मृति में भी महत्वपूर्ण दिन हैं। और उन महत्वपूर्ण दिनों पर वह ज्यादा करुणा विगलित हो सकती है और वह भी आतुर हो सकती है कि किसी प्यासे से संबंधित हो जाए।

तो ऐसा नहीं कि ठीक पांच सौ भिक्षुओं के समक्ष बुद्ध अपने पूरे रूप में ही प्रकट होते रहे थे। यह भी संभव है। क्योंकि हमारा यह शरीर गिर जाता है, इससे ही ऐसा मत मान लेना कि हमारे सब शरीर की होने की संभावना गिर जाती है। सूक्ष्म शरीर कभी भी रूप-आकार ले सकता है। और अगर बहुत से लोग आकांक्षा करें तो सूक्ष्म शरीर के रूप-आकार ले लेने में कठिनाई नहीं है।

ऐसा होगा सूक्ष्म शरीर कि अगर तलवार उसमें से निकालो तो तलवार निकल जाएगी, कुछ कटेगा नहीं। अत्यंत सूक्ष्म अणुओं का बना हुआ शरीर होगा। मनो-अणुओं का ही कहना चाहिए, साइकिक एटम्स का।

अब तक विज्ञान तो पहुंच सका है जिन अणुओं पर वे मैटीरियल एटम्स हैं, भूत-अणु हैं। लेकिन जिन्होंने और आंतरिक जीवन में खोज की है, वे उन अणुओं की भी खबर दिए हैं, जिनको साइकिक एटम्स कहना चाहिए, मनो-अणु। मनो-अणुओं की भी एक देह है, मनो-काया भी है एक, मेंटल-बॉडी जैसी चीज भी है।

तो अगर बहुत लोग आकांक्षा करें और एकाग्र-चित्त होकर प्रार्थना करें और करुणा शेष रह गई हो किसी चेतना में, अब शरीर नहीं पकड़ सकती है जो, तो वह मनो-देह में प्रकट हो सकती है।

सब मूर्तियां बहुत गहरे में उस मनो-देह को प्रकट करने की एक उपाय मात्र हैं। सब प्रार्थनाएं, सब आकांक्षाएं उस चेतना को विगलित करने के उपाय मात्र हैं कि उससे किसी तरह का संबंध स्थापित हो सके। और यह बहुत इसोटेरिक टेक्नीक्स की बात है।

तो इसलिए मंदिर-मस्जिद में जो सब हो रहा है, वह है तो सब कचरा जो हो रहा है अब, लेकिन जो व्यवस्था है पीछे वह बड़ी अर्थपूर्ण है। और उस अर्थपूर्ण व्यवस्था का उपयोग जो जानते हैं, वे करते ही रहे हैं और आज भी करते हैं। क्षीण होती जाती है निरंतर वह संभावना, क्योंकि वे हमें खयाल ही मिटते जाते हैं कि हम क्या करें।

ऐसा ही है जैसे कि समझें कि तीसरा महायुद्ध हो जाए, दुनिया खतम हो जाए, कुछ लोग बच जाएं और हमारा यह बिजली का पंखा उनको मिल जाए। तो वे अतीत के संस्मरण की तरह इसे रखे रहें कि पता नहीं यह किस काम का था। लेकिन उन्हें कुछ भी समझ में न आ सके कि यह हवा भी करता रहा होगा। क्योंकि न उनके पास बिजली का ज्ञान रह जाए, न उनके पास प्लग का ज्ञान रह जाए, न इस पंखे की आंतरिक व्यवस्था को समझने की उनकी अक्ल रह जाए।

तो हो सकता है, वे अपने म्यूजियम में इस पंखे को रख लें। तार को रख लें। रेल के इंजन को संभाल कर रख लें। और हो सकता है कि पूजा भी करने लगें अतीत के रेलिक्स, अतीत के स्मरणों की तरह। लेकिन उन्हें कोई पता न होगा कि यह रेल का इंजन हजारों लोगों को खींच कर भी ले जाता रहा होगा, क्योंकि न पटरियां बचें, न इंजीनियरिंग के शास्त्र बचें, न कोई खबर देने वाला बचे कि कैसे चलता होगा, कैसे क्या होता होगा। क्योंकि कोई भी व्यवस्था हजारों विशेषज्ञों पर निर्भर करती है।

हो भी सकता है कि एक आदमी ऐसा बच जाए जो कहे कि मैं रेल में बैठा था, और यह इंजन जो था, रेल के डिब्बे खींचने का काम करता था। लेकिन लोग उससे कहें कि तुम चला कर बता दो, तो वह कहे कि मैं सिर्फ बैठा था, मैं चला कर नहीं बता सकता हूं। बाकी इतना मुझे पक्का स्मरण है कि मैं इस गाड़ी में बैठा था, इसमें हजारों लोग बैठते थे और यह गाड़ी एक गांव से दूसरे गांव जाती थी। लेकिन मैं चला कर नहीं बता सकता, मैं बैठा था, इतना पक्का है। और यह बैठने वाला चिल्लाता रहे और किताबें भी लिखे कि यह रेल का इंजन है, इसमें लोग बैठते थे, चलाते थे। लेकिन कोई इसकी सुनेगा नहीं, क्योंकि यह चला कर नहीं बता सकेगा।

तो हर दिशा में–बाह्य या आंतरिक–हजारों उपाय खोजे जाते हैं। लेकिन कभी-कभी आमूल सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं, खो जाती हैं अंधकार में। और खो जाती हैं अगर उनके विशेषज्ञ खो जाएं। हजार कारण होते हैं खो जाने के।

आज मंदिर और मस्जिद बचे हुए हैं; तंत्र, यंत्र, मंत्र, सब बचे हुए हैं बहुत-बहुत रूपों में। लेकिन कुछ उनका मतलब नहीं है। क्योंकि उनसे क्या हो सकता था, इसका कुछ पता नहीं है; वह कैसे हो सकता था, इसका भी कुछ पता नहीं है। और तब जैसे रेल के इंजन की पूजा करे कोई जाति आगे भविष्य में, ऐसा हम मंदिरों में मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं।

हां, कुछ लोगों को स्मृति रह गई थी कि कुछ होता था, उनके पीछे वालों को भी वे कह गए हैं कि कुछ होता था, वे आज भी मंदिरों के घेरे में उनकी सुरक्षा के लिए खड़े हुए हैं। लेकिन उनके पास कुछ भी बताने को नहीं है कि क्या होता था, क्या हो सकता था। वे करके कुछ भी नहीं बता सकते।

चेतनाएं जैसे ही मुक्त होती हैं, मुक्ति के पहले सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए। मुक्ति होती ही उस चेतना की है, जिसकी सारी वासनाएं समाप्त हो गईं।

लेकिन अगर सारी वासनाएं समाप्त हो जाएं तो अमुक्त स्थिति और मुक्त स्थिति के बीच सेतु क्या होगा? दोनों को जोड़ता कौन होगा? तो वह तो आत्मा अपने को पहचान ही न सकेगी, क्योंकि उसने अपने को वासना में ही जाना था। और अगर सारी वासनाएं एक क्षण में समाप्त हो जाएं और दूसरे क्षण कोई वासना न रह जाए तो वह आत्मा अपने को पहचान ही नहीं सकेगी कि मैं वही हूं।

इसलिए जब सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, तब सिर्फ सेतु की तरह एक वासना शेष रह जाती है, जिसको मैं करुणा कह रहा हूं–कंपैशन शेष रह जाता है। यही उसका पुराने जगत से एकमात्र सूत्र होता है, ब्रिज होता है। अमुक्त आत्मा और मुक्त आत्मा के बीच जो एक सेतु है, वह करुणा का है। लेकिन अंततः सेतु के पार हो जाता है सब और करुणा भी चली जाती है।

तो तीर्थंकर का होना करुणा की वासना से होता है। और एक जन्म से ज्यादा असंभव है इस मोमेंटम में जाना, इस गति में जाना। इसलिए एक जन्म से ज्यादा नहीं हो सकते हैं। और जैसा मैंने कहा कि सभी ज्ञानियों को ऐसा हो जाता है, ऐसा भी नहीं है।

इसलिए महावीर की स्थिति में अनेक लोग पहुंचते हैं, लेकिन सभी तीर्थंकर नहीं हो जाते। क्योंकि मुक्ति का आकर्षण इतना तीव्र है, मुक्ति का आनंद इतना तीव्र है कि बहुत बलशाली लोग ही वापस लौट सकते हैं, एक जन्म के लिए ही सही। और ये बलशाली लोग एक जन्म में लौट कर इतना इंतजाम कर जाते हैं, पूरा इंतजाम कर जाते हैं, यानी उनके लौटने का प्रयोजन ही यह होता है असल में कि वे पूरा इंतजाम कर जाते हैं कि जब वे शरीर ग्रहण नहीं कर सकेंगे, तब उनसे कैसे संबंध स्थापित किया जा सकेगा। अब इसकी बहुत व्यवस्था है।

इसलिए…जैसे समझ लें कि एक पिता है, उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं और वह लंबी यात्रा पर जा रहा है, जहां से वह कभी नहीं लौटेगा। तो वह अपने बच्चों के लिए इंतजाम कर जाता है सब तरह का। उन्हें कह जाता है कि इस-इस पते पर चिट्ठी लिखना तो मुझे मिल जाएगी। वह घर में अपना एक चित्र भी छोड़ जाता है कि जब तुम बड़े हो जाओ तो तुम पहचानना कि मैं ऐसा था।

वह उन बच्चों के लिए स्मृति भी छोड़ जाता है कि तुम जब बड़े हो जाओ तो जो मैं तुमसे कहना चाहता था, वह इसमें लिखा है, वह तुम समझ लेना। और जब भी मुझसे संबंध स्थापित करना चाहो तो यह मेरा फोन नंबर होगा। इस विशेष फोन नंबर पर तुम मुझसे संपर्क स्थापित कर सकोगे। मैं नहीं लौट सकूंगा अब। अब लौटना असंभव है।

तो प्रत्येक करुणापूर्ण शिक्षक, एक बार लौट कर सारा इंतजाम कर जाता है कि पीछे उससे कैसे संबंध स्थापित किए जा सकेंगे। जब शरीर खो जाएगा तो उसका कोड नंबर क्या होगा, जिस विशेष मनःस्थिति में जिस मनस-विशेष कोड नंबर पर उससे संपर्क स्थापित हो जाएगा।

सारे धर्मों के विशेष मंत्र कोड नंबर हैं। जिन मंत्रों के निरंतर उच्चारण से ध्यानपूर्वक, चित्त एक विशेष टयूनिंग को उपलब्ध होता है और उस टयूनिंग में विशेष शिक्षकों से संबंध स्थापित हो सकते हैं। वे बिलकुल कोड नंबर हैं, वे बिलकुल टेलीफोनिक नंबर हैं कि चित्त अगर उसी ध्वनि में अपने को गतिमान करे तो एक विशिष्ट टयूनिंग पर उपलब्ध हो जाता है। और वह कोड नंबर किसी एक शिक्षक का ही है, वह दूसरे के लिए काम में नहीं आ सकता। दूसरे के लिए वह उपयोगी नहीं है। और इसीलिए इन कोड नंबरों को अत्यंत गुप्त रखने की व्यवस्था की गई। इसलिए चुपचाप अत्यंत गुप्तता में ही वे दिए जाते हैं।

संबंध स्थापित हो सके, इसलिए बहुत उपाय छोड़ जाते हैं, चिह्न छोड़ जाते हैं, मूर्तियां छोड़ जाते हैं, शब्द छोड़ जाते हैं, मंत्र छोड़ जाते हैं, विशेष आकृतियां, जिनको तंत्र कहें, वे छोड़ जाते हैं। यंत्र छोड़ जाते हैं, जिन आकृतियों पर चित्त एकाग्र करने से विशिष्ट दशा उपलब्ध होगी चित्त की, उस दशा में उनसे संबंध स्थापित हो सकेगा।

लेकिन वह सब खो जाता है। और धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उनसे संपर्क स्थापित होना बंद होता चला जाता है। तो जब उनसे पूरा संपर्क टूट जाता है, तब उनके पास कोई उपाय नहीं रह जाता। और तब वैसे शिक्षक धीरे-धीरे खो जाते हैं, विलीन हो जाते हैं।

ऐसे अनंत शिक्षक मनुष्य-जाति में पैदा हुए हैं। सभी शिक्षकों का अपना काम था, वह उन्होंने पूरा किया और पूरी मेहनत भी की है। कुछ जीवंत परंपराएं हैं, जिनमें कि वह चलता है। जैसे कि तिब्बत का लामा है–दलाई लामा है। बड़ी अदभुत बात है, लेकिन बड़ी कीमत की है।

जब एक दलाई लामा मरता है तो वह सब चिह्न छोड़ जाता है कि मेरा अगला जन्म जो होगा, उसमें तुम मुझे कैसे पहचान सकोगे। वह सारे चिह्न छोड़ जाता है। मेरा अगला जन्म होगा तो तुम मुझे कैसे पहचान सकोगे, ये-ये मेरे चिह्न होंगे। और ये सवाल तुम मुझसे पूछना तो ये जवाब मैं तुम्हें दूंगा। तब तुम पक्का मान लेना कि मैं वही आदमी हूं। नहीं तो तुम पहचानोगे कैसे, तुम मानोगे कैसे कि मैं वही हूं!

तो पिछला दलाई लामा मरा था, जो अभी दलाई लामा है इसका पहला गुरु जब मरा–यह वही आत्मा है–तो वह चिह्न छोड़ कर गया था कि पूरे तिब्बत में खोज-बीन करना इतने वर्षों के बाद और जो लड़का इन चीजों का यह जवाब दे दे समझना कि वह मैं हूं। और वे बातें अत्यंत गुप्त हैं, वे सीलबंद मुहर उत्तर हैं उनके, वह कोई खबर किसी को मिल नहीं सकती।

फिर सारे तिब्बत में खोज शुरू हुई। और सारे तिब्बत में सैकड़ों-हजारों बच्चों से पूछे गए वही सवाल, लेकिन कोई बच्चा कैसे जवाब देता! इस बच्चे ने सब जवाब दे दिए। तो स्वीकृत कर लिया गया कि वह पुरानी आत्मा उसमें उतर आई है। और तब उसको फिर जगह पर बिठा दिया गया। सिर्फ शरीर नया हो गया, आत्मा वही है।

शिक्षक यह भी करते रहे ताकि वे अनंत जन्मों तक निरंतर उपयोगी हो सकें। जब खो जाएं वे जन्मों से, तब भी वे उपयोगी हो सकें, इसकी भी व्यवस्था करते रहे।

तो एक जन्म से ज्यादा तो नहीं हो सकता यह। लेकिन जन्म बंद हो जाने के बाद बहुत समय तक संबंध स्थापित रह सकते हैं। संबंध स्थापित रहने के दो सूत्र रहेंगे: उस शिक्षक की करुणा की वासना शेष रह गई हो जितनी दूर तक और जितने दूर तक उससे संबंध होने के सूत्र साफ और स्मरण में रह गए हों।

इसीलिए जैसा मैंने कल कहा कि तीन-चार सौ, पांच सौ, छह सौ वर्ष तक तो जरूरत नहीं पड़ती है लिखने की कि क्या कहा था, क्योंकि बार-बार संबंध स्थापित करके जांच की जा सकती है कि यही कहा था कि नहीं कहा था। लेकिन जब वे सूत्र क्षीण होने लगते हैं और संबंध स्थापित करना मुश्किल होने लगता है, तब लिखने की बारी आती है।

इसलिए पुराना कोई भी महत्वपूर्ण ग्रंथ सैकड़ों वर्षों तक नहीं लिखा गया, क्योंकि तब तक वे सूत्र थे जिनसे कि संबंध जोड़ कर हम पूछ सकते थे, जान सकते थे कि यही कहा है, यही कहा था? तो लिखने की कोई जरूरत न थी। लेकिन जब संबंध क्षीण होने लगे और वे अंतिम शिक्षक मरने लगे जिनका संबंध हो सकता था, तो फिर उनसे कहा कि अब लिख दिया जाए। अब पूरी बात लिख दी जाए।

जैसे कि सिक्खों के मामले में हुआ। दसवें गुरु के बाद कोई व्यक्ति नजर नहीं आया जो कि ग्यारहवां गुरु हो सकेगा। तो जरूरी हुआ कि ग्रंथ लिख दिया जाए, क्योंकि अब संभावना नहीं है कि कांटैक्ट हो सकेगा। बाकी दस गुरु की जो उनकी परंपरा है, उसमें निरंतर संपर्क स्थापित है। इसलिए वह नानक से टूटती नहीं है। उसमें कोई कठिनाई नहीं पड़ती है। नानक निरंतर उपलब्ध हैं, संबंध जोड़ा जा सकता है। गद्दी पर बिठालने की जो बात थी, वह बात धीरे-धीरे पीछे तो बड़ी स्वार्थ की बात हो गई, लेकिन बड़ी अर्थ की थी। बहुत अर्थ की थी। लेकिन हम सभी अर्थ की बातों को व्यर्थ कर सकते हैं।

अब जैसे कि शंकराचार्य की गद्दियों पर जो शंकराचार्य बैठे हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं, कुछ भी मतलब नहीं। अब उनका गद्दी पर बैठना बिलकुल पोलिटिकल इलेक्शन जैसा मामला है। लेकिन प्राथमिक रूप से शंकराचार्य अपनी जगह उस आदमी को बिठाल गया है, जिससे वह संबंध स्थापित रख सकेगा। और कोई मतलब नहीं है उसका। अपनी जगह उस आदमी को बिठाल दिया जा रहा है, जिससे कि अब वह संबंध स्थापित रख सकेगा। मर कर भी वह मरेगा नहीं इस जगत में। उसका एक संबंध-सूत्र कायम रहेगा। एक व्यक्ति मौजूद रहेगा, जिससे कि वह काम जारी रखेगा। और उस व्यक्ति को वह कह कर जाएगा, समझा कर जाएगा कि वह कैसे व्यक्ति को चुन कर बिठा देगा, ताकि इस व्यक्ति के खो जाने पर भी संबंध-सूत्र जारी रहेगा।

पर वे संबंध-सूत्र खतम हो गए। अब शंकराचार्य से किसी शंकराचार्य का कोई संबंध-सूत्र नहीं है, कांटैक्ट टूट गया। इसलिए अब सब फिजूल बात हो गई। अब उसमें कोई मूल्य नहीं रह गया। अब वह मामला सिर्फ धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा का है कि कौन आदमी बैठे।

तो झगड़े हैं, अदालत में मुकदमे भी चलते हैं और सब निर्णय अदालत करती है कि कौन आदमी हकदार है, गद्दी का हकदार कौन है!

यह निर्णय करने की बात ही नहीं है। यह प्रश्न ही नहीं है निर्णय करने का। क्योंकि यह निर्णय कौन करेगा? यह निर्णय पुराना शिक्षक कर सकता था, पिछला शिक्षक कर सकता था। और तब कई बार ऐसा हुआ है कि बिलकुल ऐसे लोगों के हाथ में गद्दी सौंप दी गई है, जिनके बाबत किसी को कोई खयाल ही न था।

एक शिक्षक मर रहा था चीन में। पांच सौ उसके भिक्षु थे। उसने खबर भेजी कि जो भी भिक्षु चार पंक्तियों में मेरे दरवाजे पर आकर लिख जाए धर्म का सार, उसको मैं अपनी जगह बिठा जाऊंगा, क्योंकि मेरा वक्त विदा का आ गया, अब मैं जाता हूं। तो पांच सौ थे, बड़े ज्ञानी पंडित थे उसमें। और सबको पता था कि कौन जीतेगा, क्योंकि सबसे बड़ा जो पंडित था, वही जीतेगा। उस पंडित ने जाकर द्वार पर लिख दिया है शिक्षक के धर्म को चार सूत्रों में। लिख दिया है कि मनुष्य की आत्मा एक दर्पण की भांति है, उस पर विकार की, विचार की धूल जम जाती है, उस धूल को पोंछ डालने का जो साधन है, वह धर्म है। मनुष्य की आत्मा दर्पण की भांति है, उस पर विकार की, विचार की धूल जम जाती है, उसे पोंछ डालने का जो साधन है, वह धर्म है।

सारे लोग पढ़ गए हैं और सबने कहा कि अदभुत है, बात तो पूरी हो गई। और तो कुछ होता ही नहीं आत्मा में, सिर्फ धूल जम जाती है, उसको सिर्फ झाड़ देने का…। लेकिन गुरु सुबह उठा है, बूढ़ा गुरु अस्सी वर्ष का, उसने देखा। उसने कहा कि यह किस नासमझ ने दीवाल खराब की है, उसको पकड़ कर लाया जाए इसी वक्त!

तो वह पंडित तो एकदम भाग गया। वह इसलिए भाग गया कि उसने कहा कि वह तो गुरु पकड़ लेगा फौरन, क्योंकि यह तो सब किताबों से पढ़ कर उसने लिखा था। सारे आश्रम में चर्चा हुई कि…वह दस्तखत भी नहीं कर गया था नीचे इसी डर से कि अगर गुरु पसंद करेगा तो कह दूंगा जाकर कि मैंने लिखा है, अगर वह नापसंद करेगा तो झंझट के बाहर हो जाएंगे। सारे आश्रम में चर्चा चल पड़ी कि क्या हो गया, इतने अदभुत वचन!

तो एक आदमी आज से कोई बारह साल पहले आया था और बारह साल पहले इस बुङ्ढे के पैर को पकड़ कर उसने कहा था कि संन्यासी होना है मुझे। तो इस बूढ़े आदमी ने पूछा था कि तुझे संन्यासी दिखना है या कि होना है? तो इसने कहा था, दिख कर क्या करेंगे? और दिखना होता तो आपसे पूछने की क्या जरूरत थी? हम दिख जाते। होना है!

तो उसने कहा, तो होना फिर बहुत मुश्किल है। होना है तो फिर एक काम कर। आश्रम में पांच सौ भिक्षु हैं, उनका जो चौका है, जहां चावल बनता है, खाना बनता है, तू चावल कूटने का काम कर। और अब दुबारा मेरे पास मत आना। आना ही मत। जरूरत होगी तो मैं तेरे पास आऊंगा। न किसी से बात करना, न किसी से चीत करना, न कपड़े बदलना, चुपचाप जैसा तू है उस आश्रम के चौके के पीछे चावल कूटने का काम कर। और दुबारा आना मत भूल कर अब मेरे पास। जरूरत होगी तो मैं आ जाऊंगा, नहीं जरूरत होगी तो बात खतम हो गई है।

वह युवक बारह साल पहले से आश्रम के पीछे जाकर चावल कूटता रहा था। लोग धीरे-धीरे उसको भूल ही गए थे, क्योंकि वह और कोई काम ही नहीं करता था। वह आश्रम के पीछे चावल कूटता रहता था। न किसी से बोलता था। सुबह उठता था, चावल कूटता था; शाम थक जाता था, सो जाता था। बारह साल हो गए थे। न कभी गुरु उसके पास गया, न कभी वह दुबारा पूछने आया।

आज सारे आश्रम में एक ही चर्चा थी, तो भोजनालय में भी भिक्षु वही चर्चा कर रहे थे। वह चावल कूट रहा था। उसके पास से दोत्तीन भिक्षु चर्चा करते निकले कि बड़ी हद्द कर दी गुरु ने, इतने सुंदर वचनों को, इतने श्रेष्ठ वचनों को कह दिया कचरा हैं। तो वह चावल कूटने वाला जो बारह साल से चुपचाप चावल कूटता था…लोग उसको भूल ही गए थे, उसके पास से भी निकलते थे तो कौन ध्यान देता था! फिर वे सब बड़े भिक्षु थे, ज्ञानी थे। वह साधारण चावल कूटने वाला था। तो चावल कूटते-कूटते वह भी हंसने लगा। तो उन भिक्षुओं ने रुक कर उसको देखा कि तुम भी हंसते हो! किस बात से हंसते हो? तो उसने कहा कि ठीक ही गुरु ने कहा, क्या कचरा लिखा है। तो उन्होंने कहा कि अरे, तू एक चावल कूटने वाला, बारह साल से सिवाय चावल तूने कुछ और कूटा नहीं, और तू भी वक्तव्य दे रहा है इस पर! तो तुझको पता है कि धर्म क्या है?

उसने कहा, मुझे पता तो है, लेकिन लिखना भूल गया हूं। पता तो मुझे हो गया है, लेकिन लिखना भूल गया है, लिखें कैसे? और धर्म क्या लिखा जा सकता है! इसलिए मैं अपना चावल ही कूटता रहता हूं। खबर तो मुझको भी मिल गई थी कि वह दरवाजे पर लिखने के लिए कहा है, लेकिन एक तो यह कि कौन गद्दी की झंझट में पड़े! और दूसरा यह कि लिखें कैसे?

तो उन भिक्षुओं ने कहा कि अच्छा–वह सिर्फ मजाक में उसको, कि चलो अब यह भी, इसको भी ले चलो–हम लिख देंगे, तू बोल दे। तो उसने कहा कि यह हो सकता है। धर्म के साथ अक्सर यह हुआ है, बोला किसी ने, लिखा किसी ने। यह हो सकता है, क्योंकि हम जिम्मेवार न रहे। हमसे कोई न कह सकेगा कि तुमने लिखा। हम सिर्फ बोले।

चल कर उसने कहा कि मैं बोल देता हूं। उसने बोल दिया और उन भिक्षुओं ने दीवाल पर लिख दिया। वह जो चार पंक्तियां लिखी थीं, जो काट दी थीं गुरु ने, उसके बगल में उसने दूसरी चार पंक्तियां लिखीं। उसने कहा, कौन कहता है कि आत्मा दर्पण की भांति है! जो दर्पण की भांति है, उस पर तो धूल जम ही जाएगी। आत्मा का कोई दर्पण ही नहीं है, धूल जमेगी कहां? जो इस सत्य को जान लेता है वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है।

गुरु भागा हुआ आया और उसको पकड़ लिया और कहा कि तू भाग मत जाना, क्योंकि ऐसे लोग निकल कर भाग जाते हैं। तूने ठीक बात लिख दी। उसने कहा, लेकिन मुझसे गलती हो गई। मैं अपना चावल ही कूटना चाहता हूं। मैं किसी का गुरु वगैरह नहीं होना चाहता।

लेकिन उसके गुरु ने कहा कि तेरे बिना कोई चारा नहीं। तुझसे मेरा संबंध हो सकेगा पीछे भी। उसको अपनी गद्दी दे गया और उसने कहा कि मैं जानता था–उसके बूढ़े गुरु ने कहा कि मैं जानता था–अगर कोई लिख सकेगा तो वह एक चावल कूटने वाला है, जो बारह साल से लौटा नहीं है, चावल ही कूट रहा है। और जिसने इतनी शिकायत भी नहीं की एक बार कि गुरु अब तक नहीं आया, मर जाएंगे तब आएगा क्या? तो मैं जानता था कि उसको मिल ही गया है, इसलिए नहीं लौटा।

तो उसने कहा कि सब मिल गया था। इसलिए आपके आने की प्रतीक्षा भी न थी, आने की जरूरत भी न थी। क्योंकि चावल कूटता रहा, कूटता रहा, कूटता रहा। कुछ दिन तक विचार चले पुराने, क्योंकि नए विचार का कोई उपाय ही न था; न किसी से बात करता, न कुछ पढ़ता। चावल ही कूटता। अब चावल कूटने से विचार कहीं पैदा होते हैं! तो धीरे-धीरे सब विचार मर गए, चावल कूटना ही रह गया। जब सब विचार मर गए और सिर्फ चावल कूटना रह गया तो मैं इतने तेजी से जागा, जिसका कोई हिसाब न था। सारी चेतना मुक्त हो गई।

यह जो खो गया शिक्षक है, वह करुणावश कुछ रास्ते तो छोड़ जाता है पीछे। लेकिन सभी चीजें क्षीण हो जाती हैं। और सभी संपर्क-सूत्र शिथिल पड़ जाते हैं और खो जाते हैं।

प्रश्न:

 

एक दूसरी आपने जो बात कही वह भी कुछ विचित्र लगी। आपने उपवास की जो तुलना दी थी–भोजन कर लिया पर भोजन न करे के समान, विवाह कर लिया पर विवाह न करे के समान। इतना तक समझ में आया, पर संतान उत्पत्ति कर दी और संतान उत्पत्ति न करे के समान! मैथुन किया पर न करे के समान! वह प्रक्रिया तो ऐसी नजर आती है कि बिना वासना और तृष्णा के हो ही न पाए शायद।

हीं, सवाल तो एक ही है सदा। अगर बिना वासना और तृष्णा के भोजन हो सके तो मैथुन क्यों नहीं? सवाल क्या किया, यह नहीं है। सवाल कैसे किया, यही है। अगर किसी भी क्रिया को करते समय पीछे साक्षी खड़ा है और देख रहा है तो कोई भी क्रिया बंधनकारी नहीं है। भोजन करते समय अगर साक्षी पीछे देख रहा है कि भोजन किया जा रहा है और मैं अलग खड़ा हूं तो भोजन सिर्फ शरीर में जा रहा है। पीछे अछूता कोई खड़ा है, जिसको कुछ भी नहीं छू सकता, जो सिर्फ द्रष्टा है भोजन किए जाने का।

अब ध्यान रखें, भोजन शरीर में जा रहा है और मैथुन में शरीर से कुछ बाहर जा रहा है। उसका भी साक्षी हुआ जा सकता है। साक्षी तो किसी भी क्रिया का हुआ जा सकता है, चाहे वह अंतर्गामी हो चाहे बहिर्गामी। असल में जो भोजन में शरीर में जा रहा है, वही मैथुन में शरीर के बाहर जा रहा है। भोजन में क्या जा रहा है भीतर? उसी का सारभूत फिर मैथुन से बाहर जा रहा है। लेकिन यह जा रहा है शरीर में, आ रहा है शरीर में। और अगर चेतना साक्षी हो सके तो बात समाप्त हो गई। तब नदी से गुजर सकते हो और ऐसे कि पांव न भीगें। पांव तो भीग ही जाएंगे। नदी से गुजरोगे तो पांव तो भीगेंगे। लेकिन बिलकुल ऐसे जैसे पांव न भीगें। अगर पीछे कोई साक्षी रह गया है तो बात खतम हो गई।

इसलिए गहरे में प्रश्न साक्षी-भाव का है, टु बी ए विटनेस, सिर्फ, और कुछ भी नहीं। फिर कौन सी क्रिया है, इससे कोई संबंध नहीं है। जैसे ही क्रिया के साक्षी हुए, कर्ता मिट गया। कर्ता मिटा कि कर्म मिट गया, क्रिया रह गई सिर्फ। अब यह क्रिया हजारों कारणों से उदभूत हो सकती है।

तो वह जो तुम कहते हो संतति, बिलकुल ही, बिलकुल ही उसमें कोई वासना न हो। और सच तो यह है कि जब ऐसी संतति पैदा होती है जिसमें कोई वासना न हो, तब केवल शरीर एक उपकरण बना है एक क्रिया का, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हुआ है। चेतना उपकरण नहीं बनी।

लेकिन साधारणतः मैथुन में आदमी बिलकुल खो जाता है, होश तो रह ही नहीं जाता, बेहोश हो जाता है। तब केवल शरीर ही उपकरण नहीं बनता, भीतर आत्मा सो गई होती है, मर्ूच्छित हो गई होती है। और मैथुन का जो विरोध है, वह सिर्फ इसीलिए है कि आत्मा की मर्ूच्छा सर्वाधिक मैथुन में होती है। अगर वहां आत्मा अमर्ूच्छित रह जाए तो बात खतम हो गई। कोई बात ही न रही।

और प्रश्न भोजन का नहीं है। वह भी एक क्रिया है। किसी भी क्रिया में–जैसे अभी तुम मुझे सुन रहे हो, सुनना एक क्रिया है। अगर तुम साक्षी हो जाओ तो तुम पाओगे कि सुना भी जा रहा है और तुम दूर खड़े होकर सुनने को देख भी रहे हो। जैसे मैं बोल रहा हूं और मैं साक्षी हूं, तो मैं बोल भी रहा हूं और पूरे वक्त मैं जानता हूं कि मेरे भीतर अबोला भी कोई खड़ा हुआ है। और असल में अबोला जो खड़ा है, वही मैं हूं। जो बोला जा रहा है, वह सिर्फ उपकरण है, वह साधन है। वह मैं नहीं हूं।

चल रहे हो रास्ते पर और अगर जाग जाओ तो तुम पाओगे: चल भी रहे हो, और कुछ भीतर अचल भी खड़ा है, जो नहीं चल रहा है, जो कभी चला ही नहीं, जो चल ही नहीं सकता है। और अगर चलने की क्रिया में तुम पूरे जाग गए हो तो तुम पाते हो कि चलने की क्रिया हो रही है और भीतर कोई अचल भी खड़ा है। और इस अचल का बोध हो जाए तो तुम किसी दिन कह सकते हो कि मैं कभी चला ही नहीं। और हजारों लोगों ने तुम्हें चलते देखा होगा। और रिकार्ड होंगे तुम्हारे चलने के और फोटोग्राफ होंगे तुम्हारे चलने के कि तुम चले थे, यह रहा फोटो, और अदालत निर्णय देगी कि हां तुम चले थे। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम कहोगे कि वह सिर्फ दिखाई पड़ा था तुम्हें कि हम चले थे। लेकिन भीतर मैं अचल था, कोई नहीं चला था।

तो कौन सी क्रिया है, यह सवाल नहीं है महत्वपूर्ण। क्या क्रिया के भीतर तुम जागे हुए हो? अगर जागे हुए हो तो तुम क्रिया से भिन्न हो गए। और तब क्रिया जगत के बृहत् इस जाल का एक हिस्सा हो गई। जैसे श्वास चल रही है और अगर तुम देख रहे हो तो श्वास का चलना न चलना जगत की विराट व्यवस्था का हिस्सा हो गया और तुम बिलकुल बाहर होकर देखने लगे कि श्वास चल रही है। जैसे तुमने सूरज को उगते और डूबते देखा; सूरज दूर है, लेकिन श्वास कोई बहुत पास थोड़े ही है। फासला इतना ही है। श्वास जरा पास चल रही है।

एक पक्षी मैथुन कर रहा है। वह देह तुमसे थोड़ी दूर है, लेकिन तुम्हारी देह उससे कुछ तुम्हारे पास थोड़े ही है। एक पक्षी को मैथुन करते देख कर तुम यह तो नहीं कहते कि मैं मैथुन कर रहा हूं। तुम कहते हो, मैं देख रहा हूं, पक्षी मैथुन करता है। तुम बाहर हो गए।

एक तल पर जिस दिन चेतना संपूर्ण रूप से साक्षी हो जाती है, यह शरीर दूर खड़े पक्षी से ज्यादा अर्थ का नहीं रह जाता। उतना ही फासला हो जाता है। और तब तुम कह सकते हो–शरीर से हो रहा है।

कठिन मालूम पड़ता है हमें। कठिन इसलिए मालूम पड़ता है कि हम मैथुन में निरंतर मर्ूच्छित हुए हैं, भोजन में मर्ूच्छित हुए हैं। सब चीजों में मर्ूच्छित हुए हैं।

गुरजिएफ एक फकीर था अभी, तो उसका काम था कि लोग उसके पास आएं…तो बहुत अदभुत था वह व्यक्ति। इस सदी में जो थोड़े से दो-चार लोग जानते हैं, उनमें से एक आदमी था। तो वह लोगों को ऐसी चीजें सिखाता था कि तुम सोच ही नहीं सकते। लोगों को कहता, क्रोध करो! और ऐसा अवसर पैदा कर देता कि उनको क्रोध करवाता। जैसे कि आप आए हो तो वह ऐसे उपद्रव खड़े करवा देगा आपके चारों तरफ कि आप क्रोधित हो ही जाओ और आप चिल्लाने लगो और आगबबूला हो जाओ। और सारा इंतजाम होगा कि आपको आगबबूला किया जाए। और फिर वह एकदम से कहेगा: देखो, क्या हो रहा है!

और तुम चौंक गए हो। आंखें लाल हैं और हाथ कंप रहे हैं। और तुम हंसने लगे हो। तुम्हारा हाथ अब भी कंप रहा है और आंखें लाल हैं। तुम्हारे ओंठ फड़क रहे हैं, तुम्हारा मन किसी की गर्दन दबा देने का है। और उसने कहा कि देखो! और तुम्हें याद आ गया कि उसने क्रोध का इंतजाम करवाया सब पूरा का पूरा। अब तुमने देखा और तुम एक क्षण में अलग हो गए हो, क्रोध इधर रह गया है, तुम अलग खड़े हो। और तब सब शांत हो गया है भीतर। शरीर अब भी कंप रहा है।

जैसा कभी तुमने देखा हो, रात सपना देखा हो, डर गए हो, नींद खुल गई, हाथ कंप रहे हैं, सांस तेजी से चल रही है। नींद खुल गई है और सपना टूट गया और अब तुम जानते हो, अब तुम हंसते हो कि सपना था। लेकिन अभी हाथ कंप रहे हैं, अभी सांस धड़क रही है और अभी डर मौजूद है। और तुम जानते हो कि अब तुम जग गए हो और वह सपना था सिर्फ। लेकिन सपने का इंपैक्ट इतने जल्दी थोड़े ही चला जाएगा। शरीर को वक्त लगेगा शांत होने में।

तो वह सब तरह के उपाय करता और लोगों को उन उपायों के बीच में कहता कि जागो! और अगर उस वक्त सुनाई पड़ जाए बात और आदमी जाग जाए…।

तंत्र ने इसके उपाय किए बहुत। नग्न स्त्री को सामने बिठाया हुआ है, और साधक उसे देख रहा है और खोता चला जा रहा है। आंखों में उसके सम्मोहन आता चला जा रहा है, वह भूला चला जा रहा है। तभी कोई चिल्लाता है कि जागो! और वह एक क्षण में जाग कर देखता है। और सब शिथिल हो गया है। नग्न स्त्री सामने रह गई है चित्रवत। उसका कंपता हुआ मन और शरीर रह गया है दूर। और भीतर कोई जाग गया है और देख रहा है। और वह हंसता है कि क्या पागलपन था!

यह सारी की सारी व्यवस्था किसी भी क्षण जागने में उपयोगी हो सकती है। तो ऐसी कोई क्रिया नहीं है, जिसमें न जागा जा सके। हां, मैथुन सर्वाधिक कठिन है। उसका कारण है। उसका कारण है कि मैथुन ऐसी क्रिया है जो मनुष्य के ऊपर प्रकृति ने नहीं छोड़ी। अगर छोड़ दी जाए तो शायद कोई पुरुष, कोई स्त्री कभी मैथुन करने को राजी ही न हो। अगर मनुष्य पर छोड़ दी जाए तो कोई कभी राजी ही न हो। क्योंकि ऐसी एब्सर्ड, ऐसी व्यर्थ, ऐसी बेमानी क्रिया है। तो प्रकृति ने उसके लिए बहुत गहरी हिप्नोसिस डाली है भीतर, इतना गहरा सम्मोहन और मर्ूच्छा डाली है कि उसी मर्ूच्छा के प्रभाव में ही कोई कर सकता है, नहीं तो कर नहीं सकता। मुश्किल पड़ जाए। तो वह मर्ूच्छा गहरी डाली है।

मैं इस पर बहुत प्रयोग करता था और बड़े हैरानी के अनुभव हुए। एक युवक मेरे पास था। तो उस पर मैंने वर्षों हिप्नोसिस के, सम्मोहन के प्रयोग किए। उसको मैंने सम्मोहित करके बेहोश किया है। पास में एक तकिया पड़ा है। और उससे मैं बेहोशी में कहता हूं कि उठने के पंद्रह मिनट बाद तू इस तकिए को चूमना चाहेगा और कोई उपाय नहीं कि तू इसको चूमने से रुक जाए। तुझे इसे चूमना ही पड़ेगा।

अब उसे होश वापस लौटा दिया है। वह होश में आ गया है। अब वह बैठा है। और अब सब लोगों को पता है। पंद्रह लोग अगर बैठे हैं, सबको पता है। अब वह लड़का बार-बार चोरी से उस तकिए को देखता है, जैसे कोई किसी स्त्री को देखता हो। अब वे पंद्रह ही जाग कर उसको देख रहे हैं कि क्या मामला है। वह कभी मौका मिल जाए तो चुपचाप उसे छू लेता है फिर। और उसके मन में इतनी गहरी हिप्नोसिस है कि तकिए ने एक सेक्सुअल अर्थ ले लिया है। और वह खुद भी संकोच कर रहा है कि यह क्या पागलपन है कि वह तकिए को देखूं! लेकिन अब उसका भीतर पूरा मन तकिए की तरफ डोला चला जा रहा है।

अब तकिया यहां रखा है, वह वहां बैठा है। तो वह किसी भी बहाने आकर, यहां पास आकर बैठ गया है। बहाना बिलकुल दूसरा है। क्योंकि तकिए के पास आकर बैठने के लिए वह कैसे कह सकता है? वह कहता है कि मुझे वहां से सुनाई नहीं पड़ता, तो मैं ठीक से आपके पास आकर बैठ जाता हूं।

मैंने तकिया उठा कर इस तरफ रख लिया है। वह इधर तकिए के पास आकर बैठ गया है। अब वह बड़ा बेचैन है। अब वह कहता है कि वहां जरा दीवार से टिक कर बैठना मुझे ठीक होगा। वह आकर दीवार से टिक कर बैठ गया है। वह तकिए की तलाश में है। मैंने तकिया उठाकर, जाकर अलमारी में बंद करके लॉक कर दिया है। और पंद्रह मिनट पूरे हुए जाते हैं और वह बेचैन है, बिलकुल तड़फ रहा है। और वह कहता है, चाबी दीजिए। उस अलमारी में मेरा फाउंटेन पेन रखा हुआ है। तकिए का वह कैसे कहे! वह खुद भी नहीं सोच पा रहा है कि तकिए के लिए मैं कैसे कहूं!

और हम सब बैठे हैं। उसको चाबी दे दी गई है। उसने जाकर ताला खोला है। वह सब तरफ देख रहा है। फाउंटेन पेन उठाता है और झुक कर तकिए को चूम लेता है और एकदम रिलैक्स्ड हो जाता है। अब हम उससे पूछते हैं कि तुम यह क्या कर रहे हो? वह कहता है–एकदम रोने लगता है–कि मेरी समझ के बाहर है कि यह मैं क्या कर रहा हूं। लेकिन वह परेशान है, इस तकिए से मेरा क्या हो गया है! लेकिन मैं इसको चूम कर बड़ा हलका हो गया हूं।

तकिए के प्रति तक यह हालत पैदा की जा सकती है। किसी भी चीज के प्रति हिप्नोसिस दी जा सकती है।

तो प्रकृति ने मैथुन के साथ एक हिप्नोसिस डाली हुई है, एक सम्मोहन डाला हुआ है। उसी सम्मोहन के प्रभाव में सारा खेल चलता है। और इसलिए आदमी बिलकुल विवश पाता है। जब एक सुंदर चेहरा उसे खींचता है तो वह अपनी सामर्थ्य में, होश में नहीं है, बिलकुल बेहोश है।

इस हिप्नोसिस को तोड़ा जाए, इसको तोड़ने की विधियां हैं। और इस हिप्नोसिस को तोड़ने की सबसे बड़ी, सम्मोहन को तोड़ने की सबसे बड़ी विधि साक्षी होना है। तो सम्मोहन एकदम टूट जाता है, कट जाता है एकदम।

और जब सम्मोहन कट जाता है तो महावीर जैसे व्यक्ति को स्त्री में कोई आकर्षण नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन स्त्री को हो सकता है अर्थ और आकर्षण। महावीर को पिता बनने में कोई अर्थ और आकर्षण नहीं है, लेकिन स्त्री को हो सकता है अर्थ और आकर्षण। और महावीर बिलकुल पैसिव आनलुकर की तरह मैथुन से भी गुजर सकते हैं। इसमें कोई, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। एक दफा हिप्नोसिस टूट जाए, बस। सम्मोहन टूट जाए, तब तो किसी भी क्रिया से आदमी देखता हुआ गुजर सकता है।

और जिस दिन मैथुन से कोई देखता हुआ गुजर जाता है, उसी दिन मैथुन से मुक्त हो जाता है। फिर मैथुन में कोई मतलब न रहा, क्योंकि हिप्नोसिस पूरी तरह टूट गई। लेकिन ऐसा व्यक्ति इनकार करने का भी कोई कारण नहीं मानता है। यही हमें खयाल में…ऐसा व्यक्ति इनकार करने का भी कोई कारण नहीं मानता। क्योंकि ऐसे व्यक्ति को इनकार करने में भी कोई अर्थ नहीं है।

जैसे कि उस युवक से कहो कि तुम तकिए को चूमना चाहते हो? तो वह कहेगा, नहीं-नहीं, मैं नहीं चूमना चाहता। क्योंकि बात एब्सर्ड मालूम पड़ती है कि तकिए को और चूमूं! वह इनकार करेगा। हो सकता है वह त्याग करके मंदिर में कसम खा ले कि मैं कसम खाता हूं भगवान की, तकिए को कभी नहीं चूमूंगा। लेकिन तकिए के प्रति उसका पागलपन जारी है। इस कसम में भी वह छिपा है।

इसलिए ब्रह्मचर्य काम से छूट जाना नहीं है, काम से जाग जाना है। तब हम कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी ब्रह्मचर्य कहते हैं, ब्रह्मचर्य को उपलब्ध! और अदभुत है वह। उसकी उपलब्धि बहुत अदभुत है। कितनी हजार-हजार स्त्रियां उसे घेरे हुए हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कृष्ण को कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई संबंध ही नहीं है।

इसलिए वह लीला हम उसे कहते हैं कि वह लीला है, खेल है। जस्ट ए प्ले। और वह पूरे वक्त जागा हुआ है, उसे कोई मतलब नहीं होता है।

जीवन में जीना है तो दो रास्ते हैं। सोकर जीओ–तो भोजन भी सोकर करोगे तुम नींद में, कपड़े भी सोए हुए पहनोगे, प्रेम भी सोए हुए करोगे, सेक्स से भी सोए हुए गुजरोगे। दूसरा एक रास्ता है, जागे हुए–प्रत्येक क्रिया जागे हुए। सेक्स सर्वाधिक गहरी क्रिया है, क्योंकि बायलॉजी और जीव-विज्ञान और पूरी प्रकृति उसमें उत्सुक है कि संतति जारी रहे। इसलिए बहुत गहरी मर्ूच्छा डाली है।

लगता है हमें कठिन, लेकिन कुछ भी कठिन नहीं है। साक्षी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। इसलिए मैंने ऐसा कहा कि महावीर की पत्नी है, लेकिन अविवाहित; महावीर को पुत्री हुई है, लेकिन निःसंतान। महावीर की कोई संतान नहीं है। महावीर की कोई पत्नी भी नहीं है।

हमें दो बातें बड़ी सरलता से समझ में आ जाती हैं। स्त्री की तरफ भागता हुआ आदमी समझ में आ जाता है। स्त्री से भागता हुआ आदमी भी समझ में आ जाता है। स्त्री की तरफ मुंह किए समझ में आ जाता है, स्त्री की तरफ पीठ किए समझ में आ जाता है।

लेकिन ऐसा व्यक्ति जिसके लिए स्त्री ही मिट गई है, चुपचाप खड़ा आदमी हमें समझ में बहुत मुश्किल से आता है। न भागता, न जाता। न स्त्री के प्रति उन्मुख है, न स्त्री से विमुख है। न राग में है, न विराग में है।

इसलिए महावीर के लिए शब्द जो उपयोग हुआ है, वीतराग, बड़ा अदभुत है। वीतराग का मतलब विरागी नहीं है। और जो लोग विरागी समझ रहे हैं, वे समझ ही नहीं पा रहे हैं। वीतराग का मतलब है राग से ही मुक्त। राग में विराग है। राग और विराग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह हो सकता है, एक आदमी राग की दुश्मनी में विरागी हो जाए, विराग की दुश्मनी में रागी हो जाए।

लेकिन वीतरागी का मतलब है कि जिसका राग और विराग गया, जो सहज खड़ा रह गया। न भागता है, न आता है। न बुलाता है, न भयभीत है। वीतराग का मतलब ही यह है कि जहां न राग है, न विराग है।

और महावीर के पीछे चलने वाला जो साधक है, वह राग से विराग को पकड़ता है। राग को बदलता है विराग में। विरागी सिर्फ उलटा रागी है, शीर्षासन करता हुआ रागी, सिर्फ सिर के बल खड़ा हो गया है। रागी कहता है: छुऊंगा, स्पर्श करूंगा, प्रेम करूंगा, जीऊंगा। विरागी कहता है: छुऊंगा नहीं, स्पर्श नहीं करूंगा, प्रेम नहीं करूंगा, जीऊंगा ही नहीं। भय है, खतरा है बंध जाने का। एक बंधने को आतुर है, एक बंधने से भयभीत है। लेकिन बंधन दोनों के केंद्र में है, दोनों की नजर में बंधन है। इसलिए रागी विरागी की पूजा करने में निकल जाएंगे।

वीतरागी को पहचानना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वीतरागी हमारी कटेगरी से, नाप-जोख से बाहर पड़ जाता है एकदम। तराजू के इस पलड़े पर रखो तो भी तौल हो जाती है, तराजू के उस पलड़े पर रखो तो भी तौल हो जाती है। तराजू से उतर जाओ तो तौल कहां? राग एक पलड़ा है, विराग दूसरा पलड़ा है। दोनों पर तौल हो सकती है। लेकिन वीतराग की तौल क्या होगी? वीतराग को कैसे तौलोगे?

महावीर को सताए जाने का जो लंबा उपक्रम है, उस लंबे उपक्रम में वीतरागता कारण है। विरागी को इस मुल्क ने कभी नहीं सताया, यह ध्यान में रहे। और महावीर के जमाने में कोई विरागियों की कमी न थी। विरागी सदा आदृत रहा है। विरागी को कभी नहीं सताया, क्योंकि रागी विरागी को कभी सता ही नहीं सकते।

रागी सदा विरागी को पूजते हैं, क्योंकि रागी को लगता है कि मैं कैसी गंदगी में उलझा हूं! विरागी कैसा मुक्त हो गया है सारी गंदगी से! लेकिन वीतरागी को दोनों सताते हैं–रागी भी और विरागी भी। क्योंकि रागी को लगता है कि यह आदमी कैसा है, यह तो–और विरागी को लगता है कि यह सब तोड़े जा रहा है, सब नष्ट किए जा रहा है।

महावीर को दो तरह के दुश्मन सता रहे हैं। एक जो रागी है, वह सता रहा है, वह पत्थर मार रहा है, वह कह रहा है, यह आदमी विरागी नहीं है। एक विरागी भी सता रहा है। वह कह रहा है, यह आदमी कैसा विरागी है!

वीतरागी को पहचानना ही मुश्किल है। द्वंद्व को हम पहचान सकते हैं, निर्द्वंद्व को नहीं। द्वैत को हम पहचान सकते हैं, अद्वैत को नहीं। और महावीर की पूरी वृत्ति वीतराग की है, पूरा भाव वीतराग का है। और प्रत्येक स्थिति में। क्योंकि वीतरागी के लिए स्थिति का सवाल नहीं है। स्थिति, वह रागी कहता है कि ऐसी स्थिति चाहिए। और विरागी कहता है कि ऐसी स्थिति चाहिए।

रागी कहता है: स्त्री हो, धन हो, पैसा हो, यह सब होना चाहिए, इसके बिना मैं जी नहीं सकता। विरागी कहता है: स्त्री न हो, धन न हो, पैसा न हो, इसके साथ मैं जी नहीं सकता। यानी जीने की दोनों की कंडीशन है, शर्त है। एक की शर्त ऐसी है, एक की शर्त वैसी है। लेकिन दोनों का जीना कंडीशनल है। वीतरागी कहता है: जो हो, जो हो! उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह अछूता खड़ा है। जो आदमी अछूता खड़ा है वह बेशर्त होगा। बेशर्त आदमी को पहचानना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

इसलिए महावीर का जमाना महावीर को बिलकुल नहीं पहचान पाया। बहुत मुश्किल था पहचानना, कठिन था। इसलिए महावीर को निरंतर यातना दी जा रही है, निरंतर सताया जा रहा है।

उस आदमी को हम सताएंगे ही जो हमारे सब मापदंडों से अलग खड़ा हो जाए, जिस पर हम तौल न कर सकें, लेबल न लगा सकें कि यह है कौन। लेबल लगा लें तो हमें सुविधा हो जाती है। एक लेबल लगा दिया कि यह आदमी फलां है, तो फिर हम लेबल के साथ व्यवहार करते हैं, आदमी के साथ नहीं। पक्का पता लगा लिया कि यह आदमी संन्यासी है, लिख दिया संन्यासी है। फिर संन्यासी के साथ जो करना है, हम इसके साथ करते हैं। लिख दिया रागी है, तो जो रागी के साथ करना है, वह हम इसके साथ करते हैं। लेकिन एक आदमी ऐसा है कि जिस पर लेबल लगाना मुश्किल है कि कौन है–यह है कौन!

तो महावीर बरसों तक इस हालत में घूमे हैं कि लोग पूछ रहे हैं, यह है कौन! यह आदमी कैसा है! और महावीर कोई उत्तर नहीं दे रहे, महावीर मौन हैं। क्योंकि है कौन, इसका क्या उत्तर देना है! कोई लेबल होता तो वे उत्तर दे देते। तो महावीर निरंतर मौन हैं। लोग जो कहते हैं, वे चुपचाप खड़े हैं। सब सह लेते हैं।

एक गांव के पास खड़े हैं। गाय चराने वाला अपनी गाय और बैल को उनके पास छोड़ जाता है और कहता है, जरा देखना! मैं अभी लौट कर आता हूं, मेरी कोई गाय खो गई है। तो वे यह भी नहीं कहते कि मैं नहीं देखूंगा, इतना कह दें तो मामला खतम हो जाए। वे यह भी नहीं कहते कि मैं देखूंगा, इतना कह दें तो भी बात खतम हो जाए। वह आदमी एक लेबल लगा ले, झंझट के बाहर हो जाए। महावीर खड़े रहते हैं, जैसे कि सुना अनसुना किया, जैसे प्रश्न पूछा नहीं गया, ऐसे ही खड़े रह जाते हैं।

वह आदमी चला गया खोजने। वह सांझ होते-होते खोज कर लौट कर आता है तो गाय-बैल जो बैठे थे, महावीर के पीछे छोड़ गए थे, वे उठ कर जंगल में चले गए। तो उस आदमी ने महावीर को पूछा कि वे गाय-बैल कहां गए? तब भी वे वैसे ही खड़े हैं, क्योंकि आने-जाने का हिसाब ही नहीं रखते वे। वे वैसे ही खड़े हैं। वह कहता है कि तुमने उसी वक्त क्यों नहीं कह दिया था? तब भी वे वैसे ही खड़े हैं। तब वह आदमी समझता है कि इसने चुरा लिए, इसने कहीं छिपा दिए, आदमी बेईमान है। वह मार-पीट करता है। वे मार-पीट को भी सह रहे हैं। फिर भी वैसे ही खड़े हैं। लेकिन थोड़ी देर में वे गाय-बैल लौट आए हैं जंगल के बाहर, सांझ होने लगी, धूप ढल गई है तो वापस लौट रहे हैं। तो वह आदमी बहुत दुखी होता है, वह क्षमा मांगता है, तब भी वे वैसे ही खड़े हैं!

यह आदमी कोई शर्त में नहीं, कोई लेबल में नहीं, जो हो रहा है, उसमें वैसे ही खड़ा है। अब यह अदभुत घटना है। जो भी हो रहा है। कुछ भी हो रहा हो, इसे इससे मतलब ही नहीं कि क्या हो रहा है। यह हर हालत में वैसे ही खड़ा है और सब चीजों को देख रहा है। इस व्यक्ति को समझने में बड़ी कठिनाई है।

तो पीछे जिन्होंने शास्त्र लिखे, उन्होंने कहा, महावीर बड़े क्षमावान हैं, उन्होंने क्षमा कर दिया है, कोई मारता है तो उसको क्षमा कर देते हैं!

वे समझ नहीं पाए लोग। क्षमा सिर्फ वही करता है, जो क्रोधित हो जाता है। क्षमा जो है, वह क्रोध के बाद का हिस्सा है। महावीर को क्षमावान कहना महावीर को समझना ही नहीं है। महावीर को क्रोध ही नहीं उठ रहा है, क्षमा कौन करेगा? किसको करेगा? महावीर देख रहे हैं। वे ऐसा ही देख रहे हैं कि इस आदमी ने ऐसा-ऐसा किया, पहले मारा, फिर क्षमा मांगी। देख रहे हैं कि ऐसा-ऐसा हुआ। थिंग्स आर सच। और खड़े हैं चुपचाप। और सब देख रहे हैं, इसमें कोई चुनाव भी नहीं कर रहे हैं, वे च्वाइस भी नहीं कर रहे हैं कि ऐसा होना था और ऐसा नहीं होना था।

ऐसे निरंतर-निरंतर-निरंतर वे राग और विराग के बाहर हो गए हैं, चुनाव के बाहर हो गए हैं, अच्छे-बुरे के बाहर हो गए हैं, कौन क्या कहता है, इसके बाहर हो गए हैं।

यह वीतरागता परम उपलब्धि है, जो जीवन में संभव है। यानी जीवन की यात्रा में जो परम बिंदु है, वह वीतरागता का है। वह जीवन का अंतिम बिंदु है, क्योंकि उसके पार फिर मुक्ति की यात्रा शुरू हो गई। वीतराग हुए बिना कोई मुक्त नहीं है। रागी मुक्त नहीं हो सकता, विरागी मुक्त नहीं हो सकता। दोनों बंधे हैं।

लेकिन हम, जो समझते नहीं हैं, तो हम वीतराग का मतलब विरागी करते हैं कि जो राग से छूट गया।

नहीं, विराग राग ही है, सिर्फ उलटा राग है। जो राग मात्र से छूट गया।

राग शब्द बड़ा अच्छा है, समझने जैसा है। राग का मतलब होता है: कलर, रंग। कहते हैं न, राग-रंग! राग का मतलब होता है, रंग। विराग का मतलब होता है: उससे उलटा रंग। आंखें हमारी हमेशा रंगी हैं, कुछ रंग है आंख पर, कोई कलरिंग है। उस रंग से ही हम देखते हैं। तो चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है। चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है आंख का। चीजें वैसी नहीं दिखाई पड़तीं, जैसी वे हैं। तो रंगी आंख कभी सत्य को नहीं देख सकती हैं।

अब एक रागी है, तो उसे राह से एक स्त्री जाती हुई दिखाई पड़ती है तो लगता है स्वर्ग है। स्त्री सिर्फ स्त्री है। रागी को लगता है स्वर्ग है। विरागी बैठा है वहीं एक दरख्त के नीचे, उसको लगता है नरक जा रहा, आंख बंद करो। स्त्री सिर्फ स्त्री है। विरागी को दिखता है नरक जा रहा है। इसलिए विरागी लिखता है अपनी किताबों में–स्त्री नरक का द्वार है। और रागी लिखता है कि स्त्री स्वर्ग है, वही मुक्ति है, वही आनंद है। स्त्रियां सोचेंगी, वे भी ऐसा ही लिखेंगी।

रागी स्त्री को स्वर्ग बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर। विरागी स्त्री को नरक बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर। वीतरागी खड़ा रह जाता है: स्त्री स्त्री है। वह अपने रास्ते जाती है, जाती है; मैं अपनी जगह खड़ा हूं, खड़ा हूं। न वह स्वर्ग है, न वह नरक है। वह उसके बाबत कोई निष्कर्ष नहीं लेता, क्योंकि उसकी आंख में कोई रंग नहीं है, रंग-मुक्त है। इसलिए जो जैसा है, वैसा उसे दिखाई पड़ता है। बात खतम हो जाती है। वह कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं करता। वह कुछ भी अपनी तरफ से नहीं ढालता। न वह कहता है सुंदर है किसी को, न वह कहता है असुंदर है। क्योंकि सुंदर और असुंदर हमारे रंग हैं, जो हम थोपते हैं। चीजें सिर्फ चीजें हैं। न तो कुछ सुंदर है, न कुछ असुंदर है। हमारा भाव है, जो हम उनमें ढाल देते हैं।

अब जैसे हम देखते हैं कि आज सुशिक्षित घर, सुरुचिपूर्ण घर में कैक्टस लगा हुआ है। कैक्टस!

कांटे वाले पौधे?

हां, कांटे वाले पौधे, मरुस्थल में उगने वाले, गांव के बाहर लगते थे–धतूरा, नागफनी–वह आज घर के बैठकखाने में लगा हुआ है! आज से सौ साल पहले अगर उसे कोई बैठकखाने में ले आता तो उस आदमी को हम पागलखाने ले गए होते कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है! नागफनी घर में लगाने की चीज है? लेकिन गुलाब एकदम बहिष्कृत हो गया है, नागफनी आ गई उसकी जगह। सुशिक्षित आदमी के घर में नागफनी लगी हुई है। क्या हो गया? नागफनी एकदम सुंदर हो गई। जो कभी सुंदर न थी। जो कुरूपता का साकार रूप थी सदा, वह आज एकदम सौंदर्य की अनुभूति बन गई! क्या हो गया?

रंग बदल गया। एकदम रंग बदल गया। और हर बार हम रंग से ऊब जाते हैं तो बदल लेते हैं, क्योंकि एक ही रंग में देखते-देखते ऊब हो जाती है। गुलाब-गुलाब को हजार साल तक सुंदर-सुंदर कहते वह ऊब हो गई, कि छोड़ो बाहर करो, इसको घर के बाहर करो। ब्राह्मण-ब्राह्मण को आदर देते बहुत ऊब हो गई, तो अब शूद्र को बिठाओ।

नागफनी शूद्र थी बहुत दिन तक, अब एकदम ब्राह्मण हो गई। गांव के बाहर–अंत्यज। जैसे शूद्र रहता था वैसे नागफनी भी रहती थी बेचारी। एकदम से अभिजात हो गई, घर के भीतर आ गई।

ऊब हो जाती है। और ऊब का मजा है कि ऊब सदा अति पर ले जाती है। जब भी हम एक चीज से ऊबते हैं तो ठीक उससे उलटी चीज पर चले जाते हैं।

जो आदमी नाच-गाने से ऊब जाएगा, एकदम मंदिर चला जाएगा। खाने से ऊब जाएगा, उपवास करने लगेगा। कपड़ों से ऊब जाएगा, त्याग करने लगेगा। धन से ऊब जाएगा, धर्म की तरफ चला जाएगा। मधुशाला से ऊबेगा, मंदिर जाएगा। मंदिर से ऊबा हुआ आदमी मधुशाला की खोज में निकलता है। जहां से हम ऊबते हैं, उलटे हो जाते हैं। राग से ऊब जाते हैं तो विराग पकड़ लेता है। विराग से ऊब जाते हैं तो राग पकड़ने लगता है।

और अगर हम रागियों और विरागियों के मस्तिष्क को खोल कर देख सकें तो बड़ी हैरानी होगी कि उनके भीतर हमें उलटे आदमी मिलेंगे। रागी के भीतर निरंतर विरागी होने का भाव मिलेगा। बुरी से बुरी स्थिति में भी रागी के भीतर विरागी का भाव मिलेगा।

इसलिए रागी विरागी की पूजा करते हैं। वह उनका गहरा भाव है। वे भी होना चाहते हैं यही। और विरागी के भीतर अगर हम झांकें तो रागी के प्रतिर् ईष्या मिलेगी। जैसे रागी के मन में विरागी के प्रति आदर मिलेगा, विरागी के मन में रागी के प्रतिर् ईष्या मिलेगी।

इसलिए विरागी निरंतर रागियों को गाली दे रहा है। वह गालीर् ईष्या-जन्य है। भीतर मन में उसके भी यही कामना है। जो-जो उसकी कामना है, उस-उस के लिए रागी को गाली दे रहा है कि तुम यह-यह पाप कर रहे हो, नरक में सड़ोगे। वह डरा रहा है, धमका रहा है, लेकिन भीतर उसके कामना वही है।

मुझे बड़े से बड़े साधु मिलते हैं। सामने तो आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं, एकांत में सिवाय सेक्स के दूसरी बात ही नहीं उनके चित्त में होती। और बड़े घबड़ाते हैं और कहते हैं, कैसे इससे छुटकारा हो, बस यही घेरे हुए है। चौबीस घंटे परमात्मा की और मोक्ष की चर्चा चल रही है, लेकिन भीतर वासना का दौर चल रहा है पूरे वक्त!

और यह हो सकता है कि मधुशाला में बैठा हुआ, वेश्या के घर में बैठा हुआ एक आदमी कई बार संन्यासी हो जाता हो मन में कि छोड़ो सब बेकार है।

उलटा खींचता रहता है। रागी विरागी हो जाता है, विरागी रागी हो जाता है। जो इस जन्म में रागी है, अगले जन्म में विरागी हो जाए; जो इस जन्म में विरागी है, अगले जन्म में रागी हो जाए।

यह जान कर मैं बहुत हैरान हुआ हूं। इधर कुछ बहुत से गहरे प्रयोगों ने कुछ अजीब से नतीजे दिए हैं, जो कि चौंकाने वाले हैं। जैसे कि एक आदमी है, जो बिलकुल ही राग-रंग में पड़ा हुआ है। उसके पिछले जन्म में उतरने की कोशिश करो तो तुम दंग रह जाओगे कि वह संन्यासी रह चुका है। और संन्यासी रहते वक्त उसने इतना विरोध पाल लिया संन्यासी होने से कि यह जन्म उसका रागी का हो गया।

एक स्त्री मेरे पास आती थी और उसे बड़ी आतुरता थी कि किसी तरह पिछले जन्मों में उतर जाए। मैंने उसे बहुत कहा कि यह आतुरता छोड़, क्योंकि इसमें कठिनाई में पड़ सकती है। उसको बड़ा सती-साध्वी होने का खयाल! और उसे इतना उसका भाव पकड़ा कि मुझे शक ही था कि पिछले जन्म में वह वेश्या रह चुकी होनी चाहिए, नहीं तो इतने जोर से सती-साध्वी होने का भाव नहीं पकड़ता है। वह जिससे ऊब गई है, वह नए जन्म की शुरुआत बन जाती है। फिर भी वह नहीं मानी तो मैंने कहा कि ठीक है, तू प्रयोग कर।

वह छह महीने तक पिछले जन्म में उतरने का, जाति-स्मरण करने का प्रयोग करती थी। और एक दिन आकर एकदम चिल्लाने-रोने लगी और कहा कि मुझे किसी तरह भुलाओ, क्योंकि मैं तो दक्षिण के किसी मंदिर में देवदासी थी, वेश्या थी। और मैं इसको भूलना चाहती हूं, मैं इसे याद ही नहीं करना चाहती हूं कि ऐसा कभी हुआ।

मैंने कहा, जो याद आ गया, उसे भूलना मुश्किल है।

इसलिए प्रकृति ने सारी व्यवस्था की है कि पिछला आपको याद न आए, क्योंकि पिछले आप निरंतर रूप से उलटे रहे होंगे। आमतौर से लोग सोचते हैं कि इस जन्म में जो संन्यासी है, उसने पिछले जन्म में संन्यासी होने का अर्जन किया होगा। ऐसा मामला नहीं है। इस जन्म में जो विरागी है, वह पिछले जन्म में राग के चक्कर में घूम चुका, उस अति को छू चुका, और अब ऊब गया था और नए जन्म में उसने नई व्यवस्था को पकड़ा है।

राग और विराग के बीच हम अनेक जन्मों में घूम चुके हैं। ऐसा नहीं है कि राग-राग में ही घूमते रहे हैं। बहुत बार राग हुआ है, बहुत बार विराग हुआ है, वीतराग कभी नहीं हो सका है और वह कभी होगा भी नहीं, क्योंकि एक अति पर जाकर ठीक पेंडुलम दूसरी अति पर जाना शुरू हो जाता है।

इसलिए मैं कहता हूं कि इसकी फिक्र मत करें कि हमें क्या होना है–रागी कि विरागी। फिक्र इसकी करें कि हम जो भी हों, उसी में हम जागें। हम कुछ होने की चिंता छोड़ दें। तो वह जो जागना है, वह वीतरागता में ले जाएगा। और वह वीतरागता बिलकुल ही भिन्न बात है।

और इसी संदर्भ में यह भी जैसा मैंने कहा जाति-स्मरण का, पिछले स्मरण का, महावीर की बड़ी से बड़ी देनों में अगर कोई देन है तो वह जाति-स्मरण है–पिछले जन्मों का स्मरण। बड़ी से बड़ी जो देन है, वह उस तरह की ध्यान-पद्धतियां हैं, जिनसे व्यक्ति अपने पिछले जन्मों में उतर जाए।

और एक व्यक्ति अगर अपने पिछले जन्मों में उतर जाए और दो-चार जन्म भी जान ले तो बहुत हैरान हो जाएगा। फिर वह वही आदमी नहीं हो सकता जो अभी था। क्योंकि वह पाएगा यह सब तो मैं बहुत बार कर चुका, इससे उलटा भी कर चुका–यह सब मैं बहुत बार कर चुका और कुछ भी नहीं पाया। हर बार घूम कर जैसे कि चाक के स्पोक घूम कर फिर अपनी जगह आ जाते हैं, ऐसे ही मैं घूमा और अपनी जगह आ गया।

कई बार लगा चाक को कि ऊपर पहुंच गया हूं, लेकिन जब उसे लग रहा था ऊपर पहुंचा हूं, तभी नीचे आना शुरू हो गया था। कई बार चाक को लगा कि बिलकुल नीचे गिर गया हूं नरक में, और जब उसको लगा था कि बिलकुल नीचे गिर गया हूं, तभी ऊपर चढ़ना शुरू हो गया। बहुत बार स्वर्ग छुआ, बहुत बार नर्क छुआ। बहुत बार दुख छुए, बहुत बार सुख छुए। बहुत बार राग छुआ, बहुत बार विराग छुआ, सब द्वंद्वों में चक्र घूम चुका है। अगर एक दस-पांच जीवन स्मरण आ जाएं तो यह सब इतनी बार हो चुका है कि अब इसी में चुनाव का कोई मतलब नहीं है।

तो जाति-स्मरण का मतलब यह है कि यह द्वंद्व हम बहुत बार भोग चुके हैं, इन दोनों से हम जाग सकें, इन दोनों में चुनाव का कोई उपाय नहीं। लेकिन मन का नियम यह है कि जो वह करता है, उससे उलटे को चुनता है। इसलिए संन्यासियों के पास रागियों की भीड़ होती है। जो वह चुनता है, अभी कर रहा है, उसके अनकांशस में, अचेतन में उलटे का इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। जब वह सेक्स में होता है, तब उसको ब्रह्मचर्य की बातें खयाल में आने लगती हैं। और जब वह ब्रह्मचर्य साधता है, तब सेक्स की बातें खयाल आने लगती हैं। जब वह भोजन कर रहा होता है, तब वह सोचता है कि भोजन त्याग कैसे करूं और जब भोजन त्याग करता है तब भोजन का स्मरण आने लगता है।

इतना अदभुत है यह मामला हमारा–द्वंद्व में घूमने की व्यवस्था–और हम एक बार एक ही जगह होते हैं, इसलिए दूसरा हमें आकर्षित करता रहता है उलटा। अगर दो-चार जन्मों का यह स्मरण आ जाए कि हम दोनों तरफ घूम चुके हैं तो फिर तीसरा उपाय है। और वह जो तीसरा उपाय है, वही महावीर का उपाय है–वीतरागता। इन दोनों में कोई अर्थ नहीं, तो अब क्या करूं, तीसरा क्या रास्ता है? अगर भोग नहीं, अगर योग नहीं, तो तीसरा क्या रास्ता है?

तीसरा रास्ता सिर्फ यह है कि दोनों के प्रति जाग जाऊं। तो त्रिकोण बन जाता है। जैसे कि एक ट्राएंगल है। उस ट्राएंगल की, उस त्रिकोण की, त्रिभुज की नीचे की एक रेखा है, जिस पर दो द्वंद्व हैं–इधर राग है, उधर विराग है। जो इधर होता है, वह उधर आना चाहता है; जो उधर होता है, वह इधर जाना चाहता है। और इन्हीं दोनों के बीच हम घूमते रहते हैं। जो इन दोनों से जागता है, वह जो ट्राएंगल का, त्रिभुज का ऊपर का छोर है, वहां पहुंच जाता है।

वह वीतराग है। वह दोनों के पार हो गया, न वह राग में है, न वह विराग में है। लेकिन जो राग में खड़ा है और जो विराग में खड़ा है, उन दोनों के लिए बेबूझ हो जाता है कि यह आदमी कहां है। क्योंकि हमारे होने की परिभाषा में दो ही बिंदु हैं–राग और विराग; यह आदमी कहां है? और इस आदमी को समझना मुश्किल हो जाता है। लेकिन समझने का प्रश्न नहीं है। यह आदमी हम दोनों को समझ पाता है और हम दोनों इस आदमी को बिलकुल नहीं समझ पाते।

जाति-स्मरण का प्रयोग महावीर की बड़ी से बड़ी देन है। और मैं समझता हूं उस पर कोई काम नहीं हो सका। असली बात वही है। उस साधना से गुजार कर किसी भी व्यक्ति को वीतरागता में लाया जा सकता है–किसी भी व्यक्ति को! और जब तक उस साधना से कोई नहीं गुजरता, तब तक वह यही होगा कि अगर रागी है तो विरागी हो जाएगा और विरागी है तो रागी हो जाएगा। और ये दोनों एक से मूढ़तापूर्ण हैं, इन दोनों में कोई चुनाव का सवाल नहीं है।

और हमें रोज दिखाई पड़ता है यह कि हम विरोधी को अनजाने चुनने लगते हैं। महलों में जो आदमी बैठा हुआ है, वह निरंतर यह कहता है कि झोपड़ी का मजा यहां कहां! औरर् ईष्या करता है झोपड़ी के आदमी से कि उसकी नींद, उसकी मौज! झोपड़ी में जो बैठा है, वह पूरे वक्त महल के लिएर् ईष्यालु है कि जो महल में हो रहा है वह यहां कहां! झोपड़ी में मरे जा रहे हैं। झोपड़ी वाला महल की तरफ जा रहा है, महल वाला झोपड़ी की तरफ आ रहा है। बड़े शहर वाला छोटे गांव की तरफ भाग रहा है, छोटे गांव वाला बड़े शहर की तरफ भाग रहा है। पूरे समय जहां हम हैं, उससे विपरीत की तरफ हम जा रहे हैं; क्योंकि जहां हम हैं, वहां हम ऊब जाते हैं, वहां हम बोरडम से भर जाते हैं। और जिससे हम ऊब गए हैं, उससे उलटे की तरफ हम जाते हैं।

जैसे पूरब भौतिकवाद की तरफ जाएगा, क्योंकि अध्यात्म से ऊब गया है। और पश्चिम अध्यात्म की तरफ आएगा, क्योंकि भौतिकवाद से ऊब गया है। तो पश्चिम में इस वक्त जो जोर से चिंतना है, वह यह कि क्या है अध्यात्म? कैसे हम आध्यात्मिक हो जाएं? और पूरब की जो इस वक्त चिंतना है पूरी की पूरी, वह यह है कि हम कैसे वैज्ञानिक हो जाएं? कैसे धन आए? कैसे समृद्धि आए? कैसे अच्छे मकान? कैसे अच्छी मशीन?

पूरब का व्यक्तित्व भौतिकवाद की तरफ जा रहा है, पश्चिम का व्यक्तित्व अध्यात्म की तरफ आ रहा है। वही भूल। यह बहुत दफे हो चुका। व्यक्ति में भी वही होता है, समाज में भी वही होता है, राष्ट्र में भी वही होता है। अति, दूसरी अति हमें पकड़ लेती है।

महावीर कहते हैं कि दोनों अतियों में बहुत बार हम घूम चुके, दोनों विरोधों में हम बहुत बार घूम चुके। क्या कभी हम जागेंगे और उस जगह खड़े हो जाएंगे, जहां कोई अति नहीं है, कोई विरोध नहीं है, द्वंद्व नहीं है?

इस स्थिति का नाम वीतरागता है। और यह सभी में है। ध्यान रखें, सभी में है।

जैसे एक आदमी क्रोध कर रहा है। तो क्रोध करके आपने कभी खयाल किया कि आप क्रोध करने के बाद क्या करते हैं? आप पछतावा करते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो क्रोध के बाद पछतावा न करता हो। और अगर मिल जाए तो बहुत अदभुत है। क्रोध करके पछतावा! पछतावा अब दूसरी अति है। क्रोध किया कि पछतावा आया। पछतावे के वक्त आदमी सोचता है कि हम बड़े भले आदमी हैं, देखो हमने क्रोध कर लिया, लेकिन पछतावा भी करते हैं। क्रोध किया कि क्षमा पीछे आएगी। विपरीत आता रहेगा सारे जीवन के सब तलों पर।

यह कभी आपने खयाल किया कि जिसको आप प्रेम करेंगे उसके प्रति आपकी घृणा इकट्ठी होने लगती है? फ्रायड ने पहली दफा इस तथ्य की तरफ सूचना दी कि जिसको आप प्रेम करते हैं, उसके प्रति आपकी घृणा इकट्ठी होने लगती है। क्योंकि प्रेम तो आप कर लेते हैं, फिर प्रेम से ऊबने लगते हैं, अब करेंगे क्या? और जिस व्यक्ति से आप घृणा करते हैं पूरी, उससे बहुत संभावना है कि उसके प्रति आपका प्रेम इकट्ठा होने लगे।

एक यहूदी फकीर था। उसने एक किताब लिखी और किताब बड़ी क्रांतिकारी थी। तो यहूदियों का जो सबसे बड़ा धर्मगुरु था, जो रब्बी था, उसने वह किताब अपने एक मित्र के हाथ उसको भेंट भेजी कि जाकर रब्बी को मेरी किताब भेंट कर आ! और उस यहूदी फकीर ने–हसीद था वह, बगावती फकीर था–उसने कहा कि सिर्फ इतना ही खयाल रखना कि जब तुम रब्बी को किताब दो तो रब्बी क्या कहते हैं, क्या करते हैं, उसे जरा ध्यान से देख लेना। तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं, तुम सिर्फ नोट कर लाना कि उन्होंने क्या कहा, क्या किया, गुस्से में आए, नाराज हुए, किताब फेंकी, कैसा चेहरा था, क्या, सब खबर ले आना।

वह आदमी गया, उसने किताब दी। उसने कहा कि यह फलां-फलां फकीर ने किताब भेजी है। रब्बी ने किताब को तो देखा भी नहीं, हाथ में उठा कर दरवाजे के बाहर फेंक दिया और कहा कि भागो यहां से! इस तरह की किताबों को छूना भी अधर्म और पाप है।

रब्बी की औरत पास में बैठी थी। उसने कहा कि ऐसा क्यों करते हैं! फेंकना भी हो तो वह आदमी चला जाए तो पीछे फेंक सकते हैं। और फिर इतनी हजारों किताबें घर में हैं, एक कोने में उसको भी रख दें, न पढ़ना हो न पढ़ें। लेकिन ऐसा क्यों करते हैं? पर रब्बी आगबबूला हो गया, लाल हो गया।

उस आदमी ने नमस्कार किया, वापस आया। उस फकीर ने पूछा, क्या हुआ?

उसने कहा कि ऐसा-ऐसा हुआ है। रब्बी तो बड़ा खतरनाक है। उसकी पत्नी बहुत भली है। रब्बी ने तो किताब बाहर फेंक दी और कहा कि हटो यहां से, भाग जाओ यहां से। आग हो गया एकदम।

उस फकीर ने कहा, और उसकी पत्नी जो बहुत भली है, जिसको तुम कहते हो, उसने क्या किया? कहा, उसने कहा कि किताब को उठा लाओ। उसने नौकर से किताब बुलवा ली और कहा, घर में इतनी किताबें हैं, यह भी रखी रहेगी, ऐसा भी क्या! और अगर फेंकनी हो तो पीछे फेंक देना, लेकिन सामने ऐसा क्यों करते हो?

तो उस फकीर ने कहा कि रब्बी से तो अपना कभी मेल हो सकता है, लेकिन उसकी पत्नी से कभी नहीं। उस फकीर ने कहा कि रब्बी से तो अपना मेल हो ही जाएगा। रब्बी को तो किताब पढ़नी ही पड़ेगी। वह तो किताब पढ़ेगा ही, मगर पत्नी उसकी कभी नहीं पढ़ेगी।

तो उस आदमी ने पूछा कि आप तो उलटी बात कह रहे हैं। रब्बी बड़ा नाराज था, एकदम आगबबूला हो गया था।

उसने कहा, वह नाराज हुआ था तो थोड़ी देर में नाराजगी शिथिल होगी। नाराज कोई कितनी देर रहेगा? और जब कोई आग में चढ़ जाता है ऊपर तो वापस उसे शांति में लौटना पड़ता है। जब कोई श्रम करता है तो विश्राम करना पड़ता है। जब कोई जागता है तो सोना पड़ता है। उलटा तो जाना ही पड़ता है। तो रब्बी कितनी देर क्रोध में रहेगा? आखिर डिग्री नीचे आएगी, शांत होगा, किताब उठा कर लाकर पढ़ेगा। लेकिन उसकी पत्नी, उससे कोई आशा नहीं, क्योंकि उसकी कोई डिग्री ही नहीं। वह क्रोध में नहीं गई तो क्षमा में भी नहीं लौटेगी। उसने चीजों को इतनी तटस्थता से लिया है कि उससे अपना कोई संबंध नहीं बन सकता।

जब हम क्रोध कर रहे हैं, तभी क्षमा इकट्ठी होनी शुरू हो जाती है। जब हम क्षमा कर रहे हैं, तभी क्रोध इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। जब हम प्रेम कर रहे हैं, तभी घृणा इकट्ठी होने लगती है। जब हम घृणा कर रहे हैं, तभी प्रेम इकट्ठा होने लगता है। और यही द्वंद्व है आदमी का कि जिसको प्रेम करता है, उसको घृणा करता है; जिसको घृणा करता है, उसको भी प्रेम करता है। मित्र सिर्फ मित्र ही नहीं होते, शत्रु भी होते हैं। और शत्रु सिर्फ शत्रु ही नहीं होते, मित्र भी होते हैं। और इसलिए निरंतर यह होता है…।

इधर मैं निरंतर अनुभव करता हूं कि अगर कोई आदमी मुझे बहुत जोर से प्रेम करने लगे तो मैं जानता हूं कि यह आदमी जल्दी जाएगा, क्योंकि इसकी घृणा इकट्ठी होने लगेगी। और मैं उसके लिए चिंतित हो जाता हूं कि यह आदमी जाएगा। और अब इसके बिना जाए लौटने का कोई उपाय नहीं होगा। और कोई आदमी अगर जोर से मुझे घृणा करने लगे, क्रोध करने लगे, तो मैं जानता हूं कि वह आएगा, क्योंकि इतनी घृणा में कैसे जीएगा, वह तो लौटना पड़ेगा।

महावीर कहते हैं, सब द्वंद्व बांधता है। दूसरे से, उलटे से बांध देता है। इसलिए द्वंद्व के प्रति जागने से वीतरागता उपलब्ध होती है। न काम, न ब्रह्मचर्य; तब सच में ही ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। न क्रोध, न क्षमा; तब सच में ही क्षमा उपलब्ध होती है, क्योंकि उससे विपरीत फिर होता ही नहीं। न हिंसा, न अहिंसा; तब सच्ची अहिंसा उपलब्ध होती है, क्योंकि फिर उसके विपरीत कुछ होता ही नहीं।

और इसलिए बहुत भूल हो जाती है। महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि महावीर की अहिंसा वह अहिंसा नहीं है जो हिंसा के विपरीत है। हिंसा के विपरीत जो अहिंसक है, वह तो आज नहीं कल हिंसक हो ही जाएगा। महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल है, क्योंकि वह हिंसा के विपरीत नहीं है। जहां न हिंसा रह गई है, न अहिंसा रह गई है, वहां जो रह गया है, उसको महावीर अहिंसा कह रहे हैं।

तो फिर जब अहिंसा पर बात करेंगे तो खयाल में आ सकेगी। कुछ और हो तो पूछें।

प्रश्न:

 

आपने जो अशरीरी आत्मा के बारे में कहा है, उससे ऐसा लगता है कि इस पर स्वतंत्र रूप से फिर कभी विचार करने की भी आवश्यकता है। कारण है कि उसमें कई प्रश्न हमारे सामने उठते हैं। और हमारी कई आस्थाएं और कई विश्वास, ऐसा लगता है जैसे खंडित हो जाते हैं। और सबसे बड़ी बात–जो विश्वास खंडित होता है, वह बुद्ध पर होता है कि बुद्ध ने मृत्यु और जीवन के रहस्य को जानने के लिए और जीवन और मृत्यु से अभय प्राप्त करने के लिए इतनी साधना की। लेकिन वही बुद्ध दलाई लामा के रूप में केवल अपने जीवन को बचाने के लिए ही चीनियों के उस चंगुल से भाग करके यहां पर आता है! वही बुद्ध जिसने अभय भव, अप्प दीपो भव, वह कहा। वही बुद्ध दलाई लामा के रूप में आकर के एक कावर्ड के रूप में हमारे सामने आ जाता है! तो ये कुछ ऐसी चीजें हैं, जिससे लगता है कि या तो वे बुद्ध झूठ थे या यह दलाई लामा जो उनके चिह्न-रूप में आए हैं, ये झूठ हैं। ऐसे कई प्रश्न हैं।

मझा मैं। यह प्रश्न बहुत अच्छा है, इसको तो ले ही लें। असल में चीजें जैसी हमें दिखाई पड़ती हैं, वैसी ही नहीं होतीं। दलाई लामा को समझना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जिस भाषा में हम सोचने के आदी हैं, उसमें निश्चय ही वह भागा अपने को बचाने को, कायर मालूम पड़ता है। लड़ना था, जूझना था, भागना क्या था! ऐसा ही हमें दिखाई पड़ता है, जो बिलकुल सीधा और साफ है।

लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि दलाई लामा के भागने में बहुत और अर्थ है। ऊपर से यही दिखाई पड़ता है कि दलाई भागा, बचाया अपने को–बड़ा कायर है। सचाई इतनी नहीं है। सचाई ऊपर से ही इतनी दिखाई पड़ रही है। दलाई लामा का भागना अत्यंत करुणापूर्ण, महत्वपूर्ण है। दलाई अगर वहां लड़ता तो हमारी नजरों में वह बहुत बहादुर हो जाता। लेकिन दलाई लामा को कुछ और बचा कर भागना था, जो हमें दिखाई ही नहीं पड़ रहा है, जो कि लड़ने में नष्ट हो सकता था।

समझ लें कि एक मंदिर है और एक पुजारी है। और यह पुजारी किन्हीं गहरी संपत्तियों का अधिकारी भी है, जो इसके मरते ही एकदम खो जा सकती हैं। खो जा सकती हैं इस अर्थों में कि उनसे संबंध का फिर कोई सूत्र नहीं रह जाएगा। और जरूरी है कि इसके पहले कि यह मरे, वे सारे सूत्र और वह सारी संपत्तियों की खबर किन्हीं को दे दे।

दलाई लामा के पास बहुत इसोटेरिक सूत्र हैं, जिसे इस समय जमीन पर मुश्किल से चार-पांच लोग समझ सकें। दलाई लामा का भाग आना अत्यंत जरूरी था। तिब्बत का उतना मूल्य नहीं है, जितना मूल्य दलाई लामा जो जानता है और जो वह किसी को दे सकता है, उसका है। और तिब्बत की हार भी निश्चित थी।

यह भी बहुत समझने जैसी बात है। तिब्बत की हार बिलकुल निश्चित थी। तिब्बत का चीन में डूबना निश्चित था। यह भी दलाई लामा को दिखाई पड़ सकता है, जो दूसरे को दिखाई नहीं पड़ सकता। और अगर ऐसा साफ दिखाई पड़ता हो तो उचित लड़ना नहीं है, उचित चुपचाप हट जाना है–उस सबको लेकर जो बचाना ज्यादा कीमती है। और तिब्बत तो बचेगा नहीं और वह सब बच सकता है भागने से।

और आज दलाई बैठ कर वह सारा प्रयोग कर रहा है। दस-पच्चीस लोगों को साथ लेकर, जिनको लेकर वह भाग आया है कीमती लोगों को, उनको सारी संपदा जो भी वह जानता है, वह दे रहा है। उसके मरने का तो कोई सवाल ही नहीं है। वह तो मरेगा ही। वह तिब्बत में भी मर सकता था, यहां भी मरेगा, मरने से बचने का प्रश्न ही नहीं है।

बहुत बार ऐसा हुआ है। यह पहली बार नहीं हुआ। हिंदुस्तान में बौद्ध भिक्षुओं को भागना पड़ा हिंदुस्तान से। एक वक्त आया कि हिंदुस्तान से बौद्ध भिक्षुओं को भागना पड़ा। और भागना इसलिए जरूरी हो गया कि यहां भूमि बिलकुल बंजर हो गई उनके लिए। उनको ग्रहण करने के लिए, जो उनके पास था, कोई नहीं बचा। अपनी जान का सवाल न था। लेकिन जो वे जानते थे, जो बीज उनके पास थे, जो किसी भूमि में अंकुरित हो सकते थे, उनको भाग कर सारे एशिया में खोज करनी पड़ी कि कहीं और हो सकता है कुछ!

और उन्होंने बड़ी कृपा की कि वे चीन चले गए, तिब्बत चले गए, बर्मा चले गए, थाई चले गए और जाकर उन्होंने वहां बीज आरोपित कर दिए। फिर उनके बीजों से आज फिर बीज लौटने की संभावना बन सकती है।

लेकिन यह हो सकता था, उस वक्त वे भी भिक्षु जो भागे इस मुल्क से कायर मालूम पड़े होंगे। लड़ना था यहां, जाना कहां था! लेकिन जिनके पास कुछ है वे लड़ने से ज्यादा उसको बचाने की फिक्र करेंगे। जैसे कि बुद्ध जिस वृक्ष के नीचे बैठे और बोधि को प्राप्त हुए, वह मूल वृक्ष नष्ट हो गया, लेकिन उसकी एक शाखा अशोक ने लंका भेज दी थी, वह लंका में सुरक्षित रही। अब वापस उसकी एक शाखा उस वृक्ष की जगह आ गई। मूल वृक्ष तो नष्ट हो गया। नष्ट किया ही गया होगा, क्योंकि जब बौद्धों के पैर उखड़ गए तो सब नष्ट कर दिया गया।

आप हैरान होंगे जान कर कि बुद्ध का जो मंदिर है, उसका पुजारी भी ब्राह्मण है, वह बौद्ध नहीं है। वह संपत्ति भी एक ब्राह्मण पुजारी की है–वह मंदिर और सारी व्यवस्था। वह सब नष्ट हो गया। लेकिन अशोक के द्वारा भेजी गई उस वृक्ष की एक शाखा लंका में पल्लवित हो गई। उस शाखा की फिर एक शाखा लाकर हम लगा सके। वह उस वृक्ष का एक बच्चा मौजूद है।

यह तो वृक्ष का मैंने इसलिए कहा कि प्रतीक की तरह खयाल में आ जाए। तिब्बत में फिर वह हालत आ गई कि तिब्बत चीन के हाथ में जाएगा। और कम्युनिज्म जितनी जोर से दुनिया से इसोटेरिक साइंस को खतम कर सकता है, उतनी कोई चीज खतम नहीं कर सकती।

यह आपको खयाल में नहीं है। कम्युनिज्म, जो भी आंतरिक सत्य हैं और उनके जो भी सूत्र हैं, उनको जड़-मूल से काटने में उत्सुक है। और जहां भी जाएगा, वहां सबसे पहले जो काम करेगा, वह उस मुल्क की जो आंतरिक संपदा है, उसको बिलकुल तोड़ डालेगा।

तो तिब्बत कम्युनिस्टों के हाथ में जाने के बाद तिब्बत में जो सबसे पहली चोट होने वाली थी, वह चोट थी उनकी जो…। और तिब्बत बहुत अदभुत था इस अर्थों में कि दुनिया में तिब्बत के पास सर्वाधिक बहुमूल्य संपत्ति है आंतरिक सत्यों की, क्योंकि दुनिया से कटा हुआ जीया। दुनिया की उसे कोई खबर न थी, दुनिया का कोई संबंध न था उसको। दुनिया का तालमेल उससे न था। वह दूर अकेले में, एकांत में चुपचाप पड़ा था। और अतीत की जो भी संपदा थी जानने की, वह सब उसने संरक्षित कर ली थी।

दलाई का भागना बहुत जरूरी था। लेकिन मुश्किल है कि कोई आदमी इसकी तारीफ कर सके, लेकिन मैं तारीफ करता हूं। और मैं मानता हूं दलाई वहां लड़ता–दो कौड़ी की बात थी वह लड़ना न लड़ना। कायर नहीं है आदमी, लेकिन जो बचा कर ले आया है, उसे आरोपित कर देना जरूरी है।

लेकिन इस मुल्क में लोगों को खयाल भी नहीं है कि दलाई के साथ एक बहुत बड़ी मूल शाखा वापस लौटी है, जो यह मुल्क उससे फायदा उठा सकता है। लेकिन मुल्क को कोई मतलब नहीं है! मुल्क को कोई मतलब ही नहीं है! कोई संबंध ही नहीं है दलाई से मुल्क का! वह आपके मुल्क में है, यह घटना बहुत महत्वपूर्ण है। यह आसान न था, उसको ले आना आसान न था। यह बिलकुल अवसर है, वक्त है, समय है कि उसको यहां आ जाना पड़ा है और उसका हम फायदा ले सकते हैं। बहुत से इसोटेरिक, बहुत से गुह्य सत्य हैं, जो उससे पता चल सकते हैं।

लेकिन हमें कोई मतलब नहीं है, हमें कोई प्रयोजन नहीं है! और हमको दिखता ऊपर से यही है…मैं ऐसा नहीं मानता। मैं ऐसा नहीं मानता।

अगर समझ लीजिए कि यहां मैं हूं और मुझे लगे कि इस देश में उस बात से कोई मतलब नहीं हल होने वाला है, नहीं हैं वे लोग…। अब ये बहुत सी बातें हैं, और बहुत और तरह की बातें हैं। अब मैं आपको कहूं कि जिन लोगों से मेरे इस जीवन में संबंध बन रहे हैं, उनमें से मैं बहुतों को पहचानता हूं, जिनसे मेरे पिछले जीवन में संबंध थे। और उनके लिए सारी मेहनत करूं। और कल मुझे ऐसा लगे… चालीस करोड़, पचास करोड़ के मुल्क से मुझे कोई मतलब नहीं है। मतलब दो-चार सौ लोगों से है। चालीस-पचास करोड़ के साथ भी जो मेहनत कर रहा हूं, उन दो-चार सौ लोगों को अपने पास ले आऊं उसके लिए। और कल मुझे ऐसा लगे कि वे दो-चार सौ लोग मेरे करीब आ गए हैं। और कल मुझे ऐसा लगे कि मुल्क समझो कम्युनिस्टों के हाथ में जाता है या ऐसे लोगों के हाथ में जाता है, जो कि जड़ काट देंगे, तो मैं चार सौ लोगों को लेकर कहीं भी भाग जाना पसंद करूंगा।

आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? मैं उन चार सौ लोगों को लेकर भाग जाना पसंद करूंगा। पचास करोड़ से मुझे कोई प्रयोजन ही नहीं है। मैं उन चार सौ लोगों को लेकर भाग जाऊंगा कहीं भी दूर जंगल में। दुनिया को यही लगेगा कि यह आदमी भाग गया, कुछ लड़ा नहीं, वक्त पर काम नहीं आया। लेकिन मैं जानता हूं कि मुझे क्या करना चाहिए।

वह दलाई लामा थोड़े से लोगों को लेकर भाग आया है। और उन थोड़े से लोगों में उन कीमती लोगों को बचा लाया है, जो कि आगे शाखाएं सिद्ध हो सकें। और हो सकता है, दो सौ वर्ष बाद, सौ वर्ष बाद, पचास वर्ष बाद तिब्बत की हवाएं ठीक हो जाएं और दलाई लामा जो बचा ले, वह वापस तिब्बत में आरोपित हो सके। इसकी आशा में लगा हुआ है। जो सारी आशा और आकांक्षा है, जिसके पीछे इतना कष्ट झेलता है कोई, वह आशा और आकांक्षा यह है कि चीज बच जाए। और अगर पचास साल बाद या सौ साल बाद–क्योंकि कोई जिंदगी एक सी थोड़े ही चलती रहती है। पचास, एक सौ साल में सारी चीजें बदल जाएंगी, तो तिब्बत में फिर वापस लौट आया जा सकता है। वे चीजें फिर तिब्बत वापस पहुंच सकती हैं।

लेकिन वे सत्य हमें दिखाई नहीं पड़ते, वह संपदा हमारी आंखों की संपदा नहीं है। वे सारे बहुमूल्य ग्रंथ अपने साथ ले आया है, जो सिर्फ तिब्बती में ही सुरक्षित रहे हैं। वे सब ग्रंथ अपने साथ ले आया है दलाई, जो सिर्फ तिब्बती में सुरक्षित हैं, संस्कृत में नष्ट हो गए हैं। सिर्फ दलाई की संपदा हैं वे और उनको किसी भी हालत में बचाना जरूरी है।

अब यह हम सोचें कि जो आदमी हिंदुस्तान से भिक्षु भाग कर गया तिब्बत या चीन…। हिंदुस्तान में ग्रंथों का सफाया किया गया बुरी तरह से, बौद्धों के सारे सूत्र-ग्रंथ यहां नष्ट किए गए। जो लोग यहां से भाग गए ग्रंथों को लेकर, वे आज चीनी में, तिब्बती में, बर्मी में सुरक्षित हैं। अब वे फिर वापस लौटाए जा सकते हैं। अब ऐसे-ऐसे अदभुत ग्रंथ हमने खो दिए, जिनका कोई हिसाब नहीं है। हमने ही उनको जला डाला, उनका कोई हिसाब नहीं है।

तो उस दिन तो ऐसा ही लगा होगा कि बोधिधर्म चीन क्यों जा रहा है? भागता है जिंदगी से? लेकिन बोधिधर्म ने ध्यान की जो मूल शाखा थी बुद्ध की, उसको नष्ट नहीं होने दिया। उस एक आदमी पर निर्भर था वह मामला। वह एक आदमी मर जाए रास्ते में तो इतनी बड़ी संपदा नष्ट होती थी, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल था।

बुद्ध के जीवन में एक बहुत अदभुत घटना है। एक दिन सुबह-सुबह बुद्ध एक फूल लेकर आए हैं। ऐसा कभी नहीं आते हैं। किसी ने रास्ते में फूल दे दिया है, वे उसको लेकर आकर मंच पर बैठ गए हैं, फिर चुप बैठे रहे हैं। बड़ी देर हो गई, फिर भिक्षु राह देखते-देखते थक गए हैं कि वे बोलें, बोलें, बोलें। फिर बेचैनी शुरू हो गई कि चुप क्यों हैं? बोलते क्यों नहीं? तब वे हंसने लगे हैं। उनकी हंसी सुन कर एक महाकाश्यप नाम का भिक्षु जोर से हंसा है।

यह आदमी कभी बोला ही नहीं था इसके पहले। यह चुप ही रहता था। यह कभी बोलता ही नहीं था। यह जोर से हंसा है। बुद्ध ने उसे बुलाया और उसको हाथ में वह फूल दे दिया और भिक्षुओं से कहा कि जो मैं बोल कर दे सकता था, वह मैंने तुम्हें दिया, जो मैं बोल कर नहीं दे सकता था, वह मैं महाकाश्यप को देता हूं।

कोई चीज ट्रांसफर की गई, जो दिखाई नहीं पड़ती। बुद्ध ने कहा कि जो मैं नहीं दे सकता था शब्द से, वह मैं महाकाश्यप को दिए देता हूं। हजारों साल से यह पूछा जाता रहा कि महाकाश्यप को दिया क्या? कौन सी चीज ट्रांसफर की गई थी? लेकिन अगर शब्द में बुद्ध कह सकते तो वे खुद ही कह दिए होते। तो अब कौन कहे कि क्या हुआ?

महाकाश्यप बुद्ध की आंतरिक संपदा का, इसोटेरिक साइंस का अधिकारी बना। और महाकाश्यप का कोई नाम नहीं होगा, क्योंकि न उसने कोई किताब लिखी। महाकाश्यप का बौद्ध-ग्रंथों में ही नाम खोजना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके नाम का कोई कारण नहीं। लेकिन वह इतनी घटना है। और महाकाश्यप के पास जो था, वह खोज-खोज कर किन्हीं व्यक्तियों को देता रहा, क्योंकि वह मामला देने का था, वह मामला समझाने का नहीं था। जब कोई उस योग्यता में था, तब वह ट्रांसफर कर दिया गया।

महाकाश्यप की परंपरा में भिक्षु था बोधिधर्म। बोधिधर्म हिंदुस्तान से भागा, क्योंकि हिंदुस्तान में उसे कोई आदमी नहीं मिला जिसको वह ट्रांसफर कर दे; जो उसके पास था वह मर जाएगा। वह मर जाएगा, तो हिंदुस्तान से भागा और चीन में एक आदमी को ट्रांसफर किया।

चीन में वह परंपरा कुछ पीढ़ियों तक चली और अंततः उस परंपरा को जापान ट्रांसफर करना पड़ा, क्योंकि कोई आदमी चीन में उपलब्ध नहीं हुआ। अब वह जापान में जिंदा है। अब वह जापान में जिंदा है। जो झेन है, वह महाकाश्यप पहला गुरु है झेन का। और अब वह जापान में है, सुजुकी जापान में उसका आखिरी गुरु है अभी। लेकिन अब ऐसा डर हो गया है कि वह जापान में भी कोई ले सकता है कि नहीं।

तो सुजुकी पूरी जिंदगी से यूरोप और अमरीका में मेहनत कर रहा है किसी को ट्रांसफर कर देने के लिए। रिसेप्टिव माइंड चाहिए न! और जापान में आशा नहीं बनती है अब, क्योंकि जापान एकदम मैटीरियलिस्टिक हुआ है, सारी चेतना जड़ता से भर गई है।

तो एक तरफ जो विकास होता है, दूसरी तरफ पतन हो जाता है कई बार। अब जापान एकदम आधुनिक है, अत्याधुनिक है। तो किसको वह दिया जाए? अब वह बूढ़ा आदमी, हद बूढ़ा आदमी सुजुकी पूरी जिंदगी से यूरोप में भटक रहा है। लेकिन दोत्तीन आदमी उसको मिल गए। फ्रांस में एक फ्रेंच है हूबर्ट बिनायट, एक अमेरिकन है अलेन वाट्स, उसने उनको दे दिया। अब उसका छुटकारा हो गया। अब वे जानेंगे, समझेंगे।

महाकाश्यप के पास जो था, वह हूबर्ट बिनायट के पास है, अलेन वाट्स के पास है। कुछ चीजें इतनी गुह्य हैं, इतनी गहरी हैं कि उसको रिसीव करने के लिए आदमी चाहिए न! पर वह तो सब हमें दिखाई पड़ता नहीं कि वह सब कैसे चलता है। वह सब कैसे जाता है, हमें दिखाई नहीं पड़ता। और जिसके पास है, वह जानता है उसकी तकलीफ को कि क्या करे, वह उसको कैसे पहुंचा दे कि वह बच जाए। मैं तो मर जाऊं, लेकिन कुछ मेरे पास है, तो वह बच जाए। वह मुझसे ज्यादा कीमती है, वह बचना चाहिए, वह कहीं किसी के काम आता रहेगा पीढ़ियों-पीढ़ियों तक।

इसलिए उसको ऐसा मत लें। ऐसा नहीं है मामला।

प्रश्न:

 

जो आपने बोला साक्षी का, तो भोजन शरीर की मांग है; मैथुन, जो सेक्स है, वह अनुभूति है। जब मूर्च्छा होती है, तब यह अनुभूति पैदा होती है। जब साक्षी होता है, तब यह मूर्च्छा हो ही नहीं सकती और अनुभूति हो ही नहीं सकती, तो मैथुन कैसे हो सकता है?

 

साधारणतः ठीक कह रहे हो। साधारणतः बिलकुल ठीक कह रहे हो, बिलकुल ठीक कह रहे हो। लेकिन कोई भी क्रिया दो तरह से हो सकती है: या तो उस क्रिया में डूबो तो, या उस क्रिया के बाहर खड़े रह जाओ तो।

जब डूबोगे तुम उस क्रिया में, तब तुम र्मूच्छित हो जाओगे। जब तुम क्रिया के बाहर खड़े रहोगे तो तुम साक्षी रहोगे। पहली हालत में मैथुन तुम्हारी जरूरत होगी, दूसरी हालत में कोई और जरूरत हो सकती है। और बहुत तरह की जरूरत–जैसा मैंने अभी कहा कि ज्ञान को ट्रांसफर करने की बात है। अब यह तुम हैरान होओगे कि कुछ लोग जो इस स्थिति में पहुंच जाएं, जहां मैथुन बिलकुल अनावश्यक हो गया, फिर भी जिस शरीर की संभावना उनके पास है, उसको वे ट्रांसफर करना चाहें। वे उस शाखा को भी तोड़ न देना चाहें, वह शाखा भी कीमत की है। जैसे बुद्ध जैसा व्यक्ति या महावीर जैसा व्यक्ति।

एक तो आत्मा की यात्रा है, लेकिन एक शरीर भी चाहिए, जो उतनी कीमती आत्मा को पकड़ता हो। वैसे व्यक्ति यह भी न चाहें…क्योंकि महावीर तक आते-आते जो वीर्य-अणु विकसित हुआ है, वह साधारण नहीं है। आत्मा असाधारण है, ऐसा तो है ही, लेकिन जो वीर्य-अणु महावीर तक आते-आते विकसित हुआ है, वह भी साधारण नहीं है। वे उसको भी ट्रांसफर करना चाहें।

तब मैथुन अर्थपूर्ण नहीं है। मैथुन उनका रस नहीं है। तब मैथुन भी एक जैसे भोजन या स्नान या सोना या उठना या बैठना, वैसी ही एक बाह्य जरूरत की चीज है और उपयोगी हो सकती है। बिलकुल उपयोगी हो सकती है। बल्कि हो सकता है कि हजार, दो हजार वर्ष बाद जब कि हमारा ज्ञान जेनेटिक्स का और बढ़ जाएगा–अभी बहुत बढ़ गया है–तो शायद हम नाराज हों जीसस पर कि वह जो वीर्य-अणु की उतनी लंबी यात्रा थी, जो जीसस पर आकर इस भांति फलीभूत हुई, वह वीर्य-अणु की संपदा जारी क्यों न रखी? हम नाराज हो सकते हैं। क्योंकि वह दुबारा नहीं संभव है। वह करोड़ों-लाखों वर्षों की यात्रा के बाद उस तरह का वीर्य-अणु, विशिष्ट वीर्य-अणु जीसस के शरीर में है और जीसस के शरीर के साथ खो जाती है वह शाखा।

मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम? यानी यह हो सकता है। अभी तो संभव नहीं था पहले, लेकिन आज से हजार साल बाद, बल्कि पांच सौ साल बाद, बल्कि शायद पचास साल बाद यह संभव हो जाएगा कि बहुत महत्वपूर्ण व्यक्तियों के वीर्य-अणुओं को हम सुरक्षित रख सकें।

आइंस्टीन जैसे आदमी के वीर्य-अणु को सुरक्षित रखने की जरूरत है, क्योंकि यह संभावना मुश्किल से फलीभूत होती है। यह साधारण संभावना नहीं है। आइंस्टीन जैसे व्यक्ति का वीर्य-अणु सुरक्षित रखने की जरूरत है। और कभी आइंस्टीन जैसी स्त्री उपलब्ध हो जाए, आइंस्टीन के मरने के दो सौ साल बाद–अब तो वीर्य-अणु सुरक्षित रह सकता है–तो उस स्त्री के अणु से इस अणु के संयोग से जो व्यक्ति पैदा किया जा सके, वह ऐसा अनूठा होगा, जैसा आइंस्टीन भी नहीं था।

तो वह तो जैसे-जैसे समझ हमारी बढ़ती है, वैसे-वैसे हम श्रेष्ठ लोगों के वीर्य-अणुओं को नष्ट नहीं होने देंगे, उनको हम बचा कर रखेंगे। और उस वक्त तो कोई और उपाय नहीं था, अब तो यह उपाय है।

अब तो यह उपाय है कि मैथुन अनिवार्य नहीं है, वीर्य-अणु सुरक्षित किया जा सकता है। बिना मैथुन के वीर्य-अणु सक्रिय हो सकता है और उससे संतति हो सकती है। लेकिन उस वक्त यह उपाय नहीं था।

तो मेरा मानना है कि यह भी ध्यान में हो सकता है। बुद्ध ने भी एक बेटे को जन्म दिया, महावीर ने एक बेटी को। और यह खयाल हो सकता है पीछे। लेकिन बहुत कांबिनेशंस की बात है। वह भी संरक्षित रहना चाहिए। पर तब मैथुन रस नहीं है आपका। समझे आप? मैं कह रहा हूं मैथुन में जब रस है, तब आप डूबते हैं; जब रस नहीं है, तब कोई बात नहीं है, तब वह एक बिलकुल यांत्रिक क्रिया है।

प्रश्न:

 

वह बायोलॉजिकल कैसे हो सकता है? बायोलॉजिकल क्या है कि मूरूच्छित होने से पीछे अनुभूति होती है। और बिना अनुभूति के सेक्स कैसे हो सकता है? बायोलॉजिकल कैसे हो सकता है?

नुभूति वगैरह कुछ नहीं होती आपको। जो होता है कुल जमा, वह इतना होता है कि आपके चित्त का तनाव शरीर से शक्ति के बाहर निकल जाने से रिलैक्स हो जाता है, और कुछ नहीं होता आपको। उस रिलैक्सेशन को आप बड़ी अनुभूति समझ लेते हैं। अनुभूति वगैरह कुछ नहीं होती आपको। फिर तनाव इकट्ठा हो जाता है, फिर बोझ इकट्ठा हो जाता है; फिर वीर्य की शक्ति से बाहर निकल जाता है, आप फिर रिलैक्स हो जाते हैं। अनुभूति क्या खाक होती है आपको! अनुभूति हुई क्या है कभी!

अनुभूति हो सकती है, लेकिन उसके सब उपाय दूसरे हैं, वह मामला फिर सेक्स का नहीं। बायोलॉजिकली तो सिर्फ आपके टेंशन को रिलैक्स कर देता है। इसलिए बहुत रिलैक्स लोगों के लिए उसकी जरूरत भी नहीं रह जाती, बहुत टेंस लोगों के लिए जरूरत बढ़ जाती है। जितना टेंशन बढ़ता है, उतना सेक्स बढ़ता है।

पश्चिम में जो इतनी सेक्सुअलिटी है, उसका और कोई कारण नहीं है, चित्त अत्यंत तनावग्रस्त हो गया है, उस तनाव को शिथिल करने के लिए अब एक ही उपाय है कि शरीर से शक्ति बाहर हो जाए। वह रिलीजिंग वाल्व है आपकी शक्ति का, और कुछ नहीं है इससे ज्यादा। तो बहुत जिसको कहें कनसनट्रेटेड शक्ति एकदम से बाहर हो जाती है। सारे शरीर के स्नायु शिथिल हो जाते हैं। उतनी कनसनट्रेटेड शक्ति के निकलने पर शिथिल होना ही पड़ेगा। और यह जो शिथिलता आपको मालूम पड़ती है, आप समझते हैं कि यह आपको सेक्स का अनुभव हो रहा है। यह सिर्फ आया हुआ रिलैक्सेशन काम कर रहा है। दो दिन बाद आप फिर टेंस हो जाते हैं, दस दिन बाद फिर टेंस हो जाते हैं, फिर रिलैक्स होने की जरूरत पड़ जाती है। जैसे कि आपके कुकर में या हीटर में वाल्व लगा हुआ है, ज्यादा गर्मी हो गई तो उस वाल्व से निकल जाती है, वैसा वाल्व है सिर्फ। और बायोलॉजी उसका उपयोग कर लेती है।

इसमें कोई…अनुभूति क्या हो जाती है? अनुभूति कुछ भी नहीं होती। मजा यह है, अनुभूति कुछ भी नहीं होती। लेकिन जब तनाव बढ़ जाता है तो फिर जरूरत हो जाती है तो फिर वह हो जाता है।

इसलिए जो लोग जितने शिथिल, शांति से जीते हैं, उनके लिए उतनी ही अनावश्यक हो जाती है बात। उस स्थिति में भी उनके लिए दूसरे कारण प्रभावित कर सकते हैं, विचार दे सकते हैं और वे मैथुन का भी एक क्रिया की तरह उपयोग कर सकते हैं। वह जो मैं कह रहा हूं, उनके लिए कोई अनुभव वगैरह की बात नहीं है उसमें, कोई अनुभव की बात नहीं है।

प्रश्न:

 

एक जो बात आपने आज कही वह शायद ज्यादा महत्वपूर्ण है और बहुत दिनों से, जो भी जैन धर्म पर सोचते हैं, उनके मन में चक्कर काटती है। आपने कहा, महावीर वीतराग हैं, न रागी हैं, न वैरागी। लोग इसे दूसरी तरह से भी कहते हैं: वे राग-द्वेष दोनों से मुक्त हैं। पर प्रश्न यह है कि मान लीजिए स्त्री का आकर्षण, यह भी व्यर्थ है, स्त्री की रिपल्शन, यह भी व्यर्थ है। समाज की व्यवस्था के लिए यह उपदेश आपका जो है वीतरागता का, वह सामान्य स्तर पर बरता जा सके, इसकी बहुत कम आशा है। यानी चालीस करोड़, पैंतालीस करोड़ लोग वीतराग हो जाएंगे, इसकी आशा बहुत कम है। और जो समाज का नियंत्रण है, उसके लिए संयम चाहे वह ऊपरी भी क्यों न हो, आवश्यक सा प्रतीत होता है। महावीर ने या आपने स्वयं ने इसके लिए क्या सोचा है? क्या समाज की व्यवस्था के लिए वह नियंत्रण जो ऊपरी है और अध्यात्म की दृष्टि से व्यर्थ सा भी है, पर समाज की दृष्टि से तो बहुत उपयोगी है। उस नियंत्रण के बारे में क्या तो महावीर कहना चाहते थे और क्या आप कहना चाहेंगे?

मझा। पहली बात तो यह कि वीतरागता करोड़ों लोगों के लिए कठिन तो है, असंभव नहीं। और कठिन होने का बड़े से बड़ा कारण यह है कि कठिन मान ली गई है–बड़े से बड़ा कारण! यह हमारी धारणा है कि कठिन है–किसी चीज के प्रति–तो वह कठिन हो जाती है। हमारी धारणा ही चीजों को कठिन और सरल बनाती है। जब मैं कहता हूं कठिन है, असंभव नहीं, तो मेरा मतलब यह है कि कठिन भी इसलिए नहीं है कि वीतरागता की प्रक्रिया कठिन है, बल्कि हमारे राग और विराग की पकड़ कठिन है। इसलिए उसे छोड़ने में मुश्किल हो जाती है।

यानी जैसे एक आदमी पहाड़ चढ़ रहा है, और बड़ा बोझ लिए हुए है, गट्ठर बांधे हुए है, पत्थर बांधे हुए है और चढ़ रहा है। और वह आदमी कहता है, पहाड़ पर चढ़ना बहुत कठिन है। तो हम उससे कहें, पहाड़ पर चढ़ना इतना कठिन नहीं है, जितना कठिन तुम्हारा बोझ है, तुम इसे छोड़ सको तो पहाड़ पर तुम बड़ी सरलता से चढ़ सकते हो। असली सवाल पहाड़ पर चढ़ने की कठिनाई का नहीं है, जितना कि तुम बोझ बांधे हुए हो, जिसके साथ तुम नहीं चढ़ सकते, और उसे तुम छोड़ना नहीं चाहते, इसलिए कठिन हुआ जा रहा है। मेरा मतलब समझे न?

एक-एक आदमी जिस तरह के मानसिक बोझ को पकड़े हुए है, उसकी वजह से वीतरागता कठिन है। और अगर वह यह भी मान ले कि कठिन है तो वह बोझ को तो छोड़ता ही नहीं, बल्कि बोझ को और पकड़ लेता है, ताकि सिद्ध हो जाए कि बिलकुल कठिन है, वह सरल है ही नहीं मामला।

सच्चाई में तो यह है हालत कि राग और विराग बहुत ही कठिन है, असंभव है, असंभव है। न तो तुम राग से कुछ उपलब्ध कर पाते हो कभी भी और न विराग से कुछ उपलब्ध कर पाते हो।

प्रश्न:

 

समाज व्यवस्था भी नहीं बन पाती।

मैं बात करता हूं न!

राग से तुम कभी भी कुछ उपलब्ध नहीं कर पाते हो, सिर्फ राग से तुम विराग की प्रवृत्ति उपलब्ध कर पाते हो और विराग से राग की प्रवृत्ति उपलब्ध कर पाते हो। यानी राग की उपलब्धि ही क्या है–सिर्फ विराग को पकड़ा देना। और विराग की उपलब्धि है राग को पकड़ा देना। और यह वीसियस सर्किल है। इसकी उपलब्धि कुछ है ही नहीं। तुम स्वयं को तो कभी उपलब्ध कर ही नहीं सकते दोनों हालत में। तो व्यक्ति ही नहीं बन पाते हो तुम, अगर राग और विराग में पड़े हुए हो तो।

और वह जो लोग कहते हैं कि राग और द्वेष से छूट जाना वीतरागता है, वह बड़ी गलत व्याख्या कर रहे हैं। वे विराग को बचा जाते हैं। राग और द्वेष से मुक्त हो जाना अगर वीतरागता का अर्थ उन्होंने किया, तो वे विराग को बचा जाते हैं। और वह तरकीब है बहुत, शरारत है।

राग का ठीक विरोधी विराग है, द्वेष नहीं। द्वेष तो राग का ही हिस्सा है, विरोधी नहीं है, विरोधी तो विराग है। द्वंद्व विराग का है राग से, द्वेष से नहीं। तो वे तरकीब से बचा गए। उन्होंने विरागी को बचा लिया और विरागी और वीतरागी को उन्होंने सीढ़ी बना दिया, कि विराग से फिर वीतराग की सीढ़ी जाती है।

मैं यह कह रहा हूं: चाहे राग से जाओ, चाहे विराग से, वीतराग होने का फासला दोनों से बराबर है।

प्रश्न:

 

इसे वे निश्चय-दृष्टि कहते हैं, पर व्यवहार-दृष्टि में कहते हैं अंतर है!

 

से हम समझें।

तो दूसरी बात यह कि अगर यह कठिन नहीं है, क्योंकि जो स्वभाव है, वह अंततः कठिन नहीं हो सकता, विभाव ही कठिन हो सकता है। और जो स्वभाव है, वह इतना आनंदपूर्ण है कि उसकी एक झलक मिलनी शुरू हो जाए तो हम कितने ही पहाड़ उसके लिए चढ़ जाते हैं। बस झलक जब तक नहीं मिलती, तब तक कठिनाई है। और झलक राग और विराग मिलने नहीं देते हैं। ये जरा ही सा हटें तो उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाती है। जैसे आकाश में बादल घिरे हुए हैं और सूरज की किरण भी दिखाई नहीं पड़ती, जरा सा बादल सरके और किरण झांकने लगती है। राग और विराग के द्वंद्व की जरा सी भी झांक टूट जाए–खिड़की, तो वीतरागता का आनंद एकदम बहने लगता है। और वह बहने लगे तो कितनी ही यात्रा पर जाना संभव है, कठिन नहीं है।

लेकिन हम क्या करते हैं? हम राग से विराग में जाते हैं, विराग से राग में आते हैं। वे दोनों ही एक से घेरने वाले बादल हैं। इसलिए कभी संध भी नहीं मिलती उसको जानने की। राग-विराग में डोलते हुए मनुष्यों का जो समाज है, वह नियम बनाएगा। बनाएगा ही, क्योंकि राग-विराग में डोलता हुआ आदमी बहुत खतरनाक आदमी है। उसके लिए नियम बनाने पड़ेंगे। और नियम कौन बनाएगा? वही राग-विराग में डोलते हुए आदमी नियम भी बनाएंगे। राग-विराग में डोलते हुए लोग खतरनाक हैं, राग-विराग में डोलते हुए नियम बनाने वाले और भी खतरनाक हैं।

यानी मामला ऐसा है जैसे पागलों का पागलखाना है एक, तो पागलों के लिए कुछ नियम बनाने पड़ेंगे। और नियम बनाने वाले भी पागल हों, तो नियम और खतरनाक होंगे, क्योंकि पागल नियम बनाएंगे–और पागलों के लिए! तो पागल ही खतरनाक हैं, फिर पागल नियम बनाते हैं, तब और खतरा शुरू हो जाता है। तो समाज ऐसे ही खतरे में जी रहा है।

और जब हम यह कहते हैं कि वीतरागता की तरफ जाना है, जो हम यह नहीं कहते कि नियम तोड़ देना है। हम यह नहीं कह रहे। मैं तो यह कह रहा हूं कि जो व्यक्ति थोड?ी सी भी वीतरागता की तरफ गया, उसके लिए नियम अनावश्यक है। यानी वह जीता ही ऐसा है कि उससे किसी को कभी दुख, पीड़ा–यह सब सवाल नहीं है। हां, कोई उससे दुख लेना ही चाहे तो बात अलग है। उसकी मुक्ति है उसे।

महावीर तो ऐसे जीते हैं कि उनसे किसी को दुख-सुख का सवाल नहीं है, लेकिन कोई दुख-सुख लेना चाहता है तो वह लेता है। लेकिन पूरा जिम्मा लेने वाले पर ही है। महावीर का देने का कोई हाथ नहीं है उसमें जरा भी। कोई दुख लेगा, कोई सुख लेगा, वह उस लेने वाले पर निर्भर है। महावीर तो जैसे जीते हैं, वे जीते हैं।

जितना वीतराग चित्त होगा, उतना विवेकपूर्ण होगा। पूर्ण वीतरागता पूर्ण विवेक है। और विवेक के लिए किसी संयम की जरूरत नहीं, किसी नियम की जरूरत नहीं, क्योंकि विवेक स्वयं ही संयम है। अविवेक के लिए संयम की जरूरत है। इसलिए सब संयमी अविवेकी होते हैं। जितनी बुद्धिहीनता होगी, उतना संयम बांधना पड़ता है। यानी बुद्धि की कमी को पूरा वे संयम से करने की कोशिश करते हैं। लेकिन संयम से बुद्धि की कमी पूरी नहीं होती। और अब तक हमने जो समाज बनाया है, वह बुद्धि की कमी को संयम से पूरा करने की कोशिश कर रहा है। इसलिए हजारों साल हो गए, लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा है।

प्रश्न:

 

पर समाज तो बड़ा है, उसे तोड़ दें तो समाज ही…।

ह मैं नहीं कह रहा हूं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह वैसी ही बात है जैसे पागलखाने के लोग कहें कि अगर हम ठीक हो जाएंगे तो पागलखाने का क्या होगा?

फिर पागलखाना ही टूट जाएगा न! अगर लोग विवेकपूर्ण हो जाएं तो समाज तो नहीं होगा, जैसा हम समाज समझते रहे हैं, बिलकुल बुनियादी फर्क हो जाएंगे। लेकिन पहली दफा ठीक अर्थों में समाज होगा।

अभी क्या है–समाज है और व्यक्ति नहीं है। और समाज जो है वह सब व्यक्तियों को अपने घेरे में कसे हुए है। और समाज केवल व्यवस्था का नाम है। व्यवस्था वजनी है और व्यक्ति कमजोर है। व्यवस्था छाती पर बैठी है और व्यक्ति नीचे दबा है।

कल भी व्यवस्था होगी, जिस व्यक्ति की मैं बात कर रहा हूं अगर वह बढ़ जाए–विवेकपूर्ण व्यक्ति, वीतराग चित्त से भरा हुआ व्यक्ति, जीवन के आनंद से भरा हुआ व्यक्ति–तो भी व्यवस्था होगी। लेकिन व्यक्ति की छाती पर नहीं होगी, व्यक्ति के लिए ही व्यवस्था होगी।

अभी हालत यह हो गई है कि व्यवस्था के लिए व्यक्ति हो गया है। और तब भी समाज होगा, लेकिन तब समाज दो व्यक्तियों, दस व्यक्तियों, हजार व्यक्तियों के बीच के इंटर-रिलेशनशिप का नाम होगा, अंतर्संबंध का नाम होगा। व्यक्ति केंद्र होगा, समाज गौण होगा। और समाज केवल हमारे अंतर्व्यवहार की व्यवस्था होगी। और विवेकपूर्ण व्यक्ति का अंतर्व्यवहार किसी बाहरी संयम और नियम से नहीं चलेगा, एक आंतरिक अनुशासन से चलता है। तो जब तक ऐसा नहीं हो जाता है, तब तक जो समाज है, वह चल रहा है, वह चलेगा।

यह ऐसा ही है कि जैसे हम कहें कि सब लोग स्वस्थ हो जाएंगे तो डाक्टरों का और अस्पतालों का क्या होगा?

लोग स्वस्थ हो जाते हैं तो उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह कोई अच्छा काम नहीं है जो डाक्टर और अस्पताल को करना पड़ रहा है। अच्छा लग रहा है, क्योंकि हम बीमार होने का काम किए चले जाते हैं। अच्छा नहीं है, क्योंकि जो हम गलत करते हैं, उसको पोंछने का काम करना पड़ता है सिर्फ, और तो कुछ करना नहीं पड़ता।

तो जैसे-जैसे विवेक विकसित हो, वीतरागता विकसित हो, तो समाज होगा, अंतर्संबंध होंगे, लेकिन वे बड़े गौण हो जाएंगे, व्यक्ति प्रमुख हो जाएगा। और उसका अंतर-अनुशासन असली बात होगी।

इसलिए मेरा कहना यह है कि समाज की व्यवस्था में व्यक्ति को संयम देने की चेष्टा कम होनी चाहिए, विवेक देने की व्यवस्था ज्यादा होनी चाहिए। विवेक से संयम आएगा और संयम से विवेक कभी नहीं आता है।

प्रश्न:

 

पर जब तक विवेक न हो, संयम की आवश्यकता समाज के लिए है?

नी ही रहेगी। वह ऐसा ही है जैसे कि…।

प्रश्न:

 

महावीर भी ऐसा ही समझते थे?

 

मझेंगे ही। इसके सिवाय कोई उपाय ही नहीं है, इसके सिवाय कोई उपाय ही नहीं है। यानी जब तक विवेक नहीं है, तब तक किसी न किसी तरह के नियमन की व्यवस्था बनी रहेगी। लेकिन यह ध्यान में रहे कि किसी नियम की व्यवस्था से विवेक आने वाला नहीं है। इसलिए विवेक को जगाने की सतत कोशिश जारी रखनी पड़ेगी। और संयम और नियम की व्यवस्था को सिर्फ नेसेसरी ईविल, आवश्यक बुराई समझना होगा। वह कोई गौरव की बात नहीं है।

चौरस्ते पर एक पुलिस वाला खड़ा है, इसलिए लोग बाएं-दाएं चल रहे हैं, यह कोई सौभाग्यपूर्ण बात नहीं है। लोगों को दाएं-बाएं चलना चाहिए और पुलिस वाले को विदा होना चाहिए, व्यर्थ एक आदमी को हम परेशान कर रहे हैं। और किस काम के लिए परेशान कर रहे हैं कि वह लोगों को दाएं-बाएं चलाता रहे! और लोग कैसे बुद्धिहीन हैं कि अगर इस चौरस्ते पर पुलिस वाला न हो तो वे बाएं-दाएं भी नहीं चलेंगे!

तो उसका मतलब यह है कि समाज ने बुद्धि पैदा करने की कोशिश ही नहीं की है अब तक! और पुलिस वाले से काम ले रहा है विवेक का! करोड़ों लोग निकल रहे हैं इस सड़क से और एक पुलिस वाला सब्स्टीटयूट हो गया करोड़ों लोगों के विवेक का! यह पुलिस वाला भी विवेकहीन आदमी है। तो वह किसी तरह चला लेता है बाएं-दाएं। लेकिन फर्क क्या पड़ता है? बस बाएं-दाएं चलना हो जाता है, एक्सीडेंट थोड़े कम होते हैं सड़क पर।

लेकिन अगर हमने समझा कि विवेक की कमी इसने पूरी कर दी तो हम गलती में हो गए हैं। यह सिर्फ सूचक है कि विवेक नहीं है। और हमें कोशिश करनी चाहिए कि विवेक आ जाए, ताकि हम इसको विदा कर दें।

नीति, संयम, नियम धीरे-धीरे विदा हो सकें, ऐसा विवेक हमें जगाना चाहिए। जिस समाज में कोई नियम नहीं होगा, कोई संयम नहीं होगा, लोग विवेक से जीते होंगे, वह पहली दफा समाज बना, नहीं तो समाज का सिर्फ धोखा चल रहा है।

प्रश्न:

 

नहीं, इसमें सहमति है, जो आप कह रहे हैं। जहां मतभेद मुझे लगा, जैन-विचारकों के मतभेद, वह जिसको आप कह रहे हैं नियम, यद्यपि वे अंततोगत्वा छोड़ने के लिए हैं और व्यर्थ हैं, उसे वे व्यवहार-दृष्टि नाम देते हैं। तो उस व्यवहार-दृष्टि की कोई आंशिक उपयोगिता है या सर्वथा नहीं है, इस पर मतभेद चलता है जैन-विचारकों में।

ह चलेगा उनमें, वह उनमें चलेगा, क्योंकि विचारक द्रष्टा नहीं है। और वह जो चला रहा है, जैसे कि उन्होंने मान रखा है कि एक व्यवहार-दृष्टि और एक निश्चय-दृष्टि, ऐसी कोई चीज ही नहीं होती। दृष्टि तो एक ही है, निश्चय-दृष्टि। व्यवहार को दृष्टि कहना ऐसा ही है जैसे कि यह कहना कि कुछ लोगों की आंख की दृष्टि होती है, कुछ लोगों की अंधी दृष्टि होती है, ऐसे ही कहना है। हम कहें कि अंधे की भी आंख तो होती है, सिर्फ देखती नहीं; और आंख वाले की भी आंख होती है, सिर्फ देखती है, इतना ही फर्क है; बाकी आंख तो दोनों में ही होती है–तो एक अंधी आंख होती है और एक देखने वाली आंख होती है।

व्यवहार-दृष्टि अंधे की आंख है। वह दृष्टि है ही नहीं। दृष्टि तो एक ही है, जहां से दर्शन होता है, वह तो निश्चय है। व्यवहार की जो सारी बातचीत है और ऐसा दो हिस्से करना कि यह भी एक दृष्टि है और इसकी भी जरूरत है, यह सिर्फ अंधे अपने को तृप्ति देने की कोशिश कर रहे हैं। यानी अंधा यह भी मानने को राजी नहीं है कि मैं अंधा हूं। वह कहता है कि मेरा अंधा होना भी बहुत जरूरी है, आंख की तरफ जाने के लिए मेरे अंधे होने की बड़ी आवश्यकता है, वह यह कह रहा है!

कोई दृष्टि नहीं हैं दो। दृष्टि तो एक ही है। व्यवहार-दृष्टि सिर्फ समझौता है। और अंधों के विचारक हैं अपने। अंधों के ही विचारक होते हैं। आंख मिल गई, वहां से दर्शन शुरू होता है, विचार खतम होता है। वहां कोई सोचता-वोचता नहीं, वहां देखता है। और तब दो टुकड़े हो गए, तब दो टुकड़े हो गए हैं।

और ये दो टुकड़ों ने बड़ा नुकसान किया है। क्योंकि वह व्यवहार-दृष्टि वाला कहता है कि यह भी जरूरी है, पहले तो इसको ही पूरा करना पड़ेगा, फिर इसके बाद दूसरी बात उठेगी, साधते-साधते। व्यवहार-दृष्टि साधते-साधते निश्चय-दृष्टि उपलब्ध होगी–इससे ज्यादा गलत बात नहीं हो सकती। व्यवहार-दृष्टि छोड़ते-छोड़ते निश्चय-दृष्टि उपलब्ध होती है।

प्रश्न:

 

(अस्पष्ट रिकाघडग)

साधने का सवाल ही नहीं है, छोड़ने का सवाल है। यानी अंधेपन को साधते-साधते आंख मिलेगी, ऐसा नहीं है। अंधेपन को छोड़ते-छोड़ते आंख मिलेगी।

व्यवहार-दृष्टि छोड़नी है, क्योंकि वह दृष्टि नहीं, दृष्टि का धोखा है। उपलब्ध तो निश्चय-दृष्टि करनी है। और इसलिए मैं फिर दो भी शब्द नहीं लगाना पसंद करता, क्योंकि वह निश्चय लगाना बेमानी है। वह तो व्यवहार के खिलाफ लगाना पड़ता है। इसलिए मैं कहता हूं अंधापन छोड़ना है, दृष्टि उपलब्ध करनी है। निश्चय का क्या सवाल है? ऐसी भी कोई दृष्टि होती है जो अनिश्चित हो? तो फिर उसको दृष्टि कहना फिजूल है।

और व्यवहार की कोई दृष्टि नहीं होती। ऐसा ही है जैसे एक अंधा आदमी है, अपनी लकड़ी को टेक-टेक कर रास्ता बना लेता है, दरवाजा खोज लेता है। अब वह आदमी कहता है कि लकड़ी की भी बड़ी जरूरत है। ठीक ही कहता है; क्योंकि अंधा है। लेकिन उसे ध्यान रखना चाहिए, वह अगर कहे कि आंख मिल जाए तो भी लकड़ी की जरूरत है, तो हम उसे कहेंगे कि तुम फिर पागल हो, तुम्हें पता ही नहीं कि आंख मिलने से क्या होता है।

व्यवहार-दृष्टि हमारी स्थिति है–अंधेपन की। निश्चय-दृष्टि हमारी संभावना है–आंख की। और जितना हम इसे छोड़ेंगे, जितना हम जागेंगे, उतनी वह उपलब्ध होगी। इसलिए व्यवहार-दृष्टि सीढ़ी नहीं है, जिससे निश्चय-दृष्टि पर पहुंचना है। व्यवहार-दृष्टि बाधा है, जिसे तोड़ना है, ताकि निश्चय-दृष्टि उपलब्ध हो सके।

आज इतना ही।


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–2)

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चिन्मय कौन? अजन्‍मा क्‍या?—(प्रवचन—2)

‘मैं कहता आखन देखी’ :

अंतरंग भेट वार्ता बुडलैण्‍ड

बम्बई दिनांक 7 मार्च 1971

आपने कहा कि यदि शरीर की बात करोगे तो मैं कहूंगा मरणधर्मा है और आत्मा की बात करोगे तो मैं कहूंगा तुम कभी जन्मे ही नहीं। फिर जब बुद्ध कहते हैं कि बस एक बबूला था, जो मिट गया— ‘मैं था ही नहीं तो जाऊंगा कहां? ‘तो फिर चिन्मय कौन? और अजन्मा क्या?

 क तो सागर है, लहरें आती हैं और चली जाती हैं। और सागर बना रहता है। लहरें सागर से जरा भी अलग नहीं हैं, फिर भी लहरें सागर नहीं हैं। लहरें सिर्फ सागर में उठे रूप हैं, आकार हैं, जो बनेंगे, मिटेंगे। जो लहर बनी ही रहे, उसे लहर कहना बेकार है। लहर का मतलब यह है कि आयी भी नहीं और गयी। लहर शब्द का भी मतलब यही है, उठी भी नहीं कि जा चुकी। जिसमें उठती है, वह सदा है; जो उठती है वह सदा नहीं है। यह सदा की छाती पर परिवर्तनशील का नृत्य है। सागर तो अजन्मा है, लहर का जन्म होता है। सागर की कोई मृत्यु नहीं है, लहर की मृत्यु होती है। लेकिन लहर भी जिस दिन यह जान ले कि मैं सागर हूं तो जन्मने और मरने के बाहर हो गयी। जब तक लहर समझती है, मैं लहर हूं तभी तक जन्मने और मरने के भीतर

जो भी है, वह अजन्मा है, उसकी कोई मृत्यु नहीं। क्योंकि जन्म होगा कहां से? शून्य से कुछ पैदा नहीं होता। मृत्यु होगी कहां? शून्य में कुछ खोता नहीं। जो भी है—यानी अस्तित्व, वह तो सदा है। समय कुछ भी अंतर नहीं कर पाता उसमें। काल से कोई रेखा नहीं पड़ती। लेकिन ये जो अस्तित्व है, यही अस्तित्व हमारी पकड़ में नहीं आता। क्योंकि हमारी इंद्रियों की पकड़ में सिर्फ रूप आता है, आकार आता है। नाम—रूप के अतिरिक्त हमारी इंद्रियां कुछ भी पकड़ नहीं पातीं। यह बहुत मजे की बात है कि सागर के किनारे आप सैकड़ों बार खड़े हुए होंगे और अनेक बार कहा होगा कि मैं सागर देखकर लौटा हूं। लेकिन देखी आपने सिर्फ लहरें हैं, सागर आपने कभी देखा नहीं। सागर कभी दिखायी पड़ सकता नहीं।

आप जो भी देखेंगे वह लहर है। इंद्रियां, सिर्फ ऊपर जो हैं, उसे पकड़ पाती हैं, भीतर जो है वह छूट जाता है। ऊपर भी आकार भर को पकड़ पाती हैं, आकार के भीतर जो निराकार है, वह छूट जाता खै तो नाम—रूप का जो जगत है वह इंद्रियों के देखने की वजह से पैदा हुआ है। वह कहीं है नहीं। जो भी नाम—रूप में है वह सब जन्मा है और मरेगा। जो उसके पार है वह सदा है—न वह जन्मा है, न वह मरेगा।

तो जब बुद्ध कहते हैं कि बबूले की भांति मै उठा तो वे दो बातें कह रहे हैं। सच पूछा जाए तो बबूले में होता क्या है? अगर बबूले में हम प्रवेश करें तो हवा का थोड़ा—सा आयतन बबूले के भीतर होता है, उसी हवा का, जो बबूले के बाहर है, जो अनंत होकर फैली है। इस विराट हवा के, और बबूले के भीतर की हवा के बीच पानी की एक पतली—सी दीवार होती है, एक फिल्म की दीवार। जरा—सी पानी की पतली दीवार। जिसको दीवार कहना भी ठीक नहीं है, सिर्फ पानी की पतली फिल्म है। वह पानी की जरा—सी पतली फिल्म, हवा के एक छोटे से हिस्से को कैद कर लेती है। और वही हवा का छोटा—सा हिस्सा कैद होकर बबूला बन जाता है।

स्वभावत: सब चीजें बडी होती हैं, बबूला भी बड़ा होता है; और बड़ा होने पर टूटता है और फूट जाता है। बबूले की हवा बाहर की हवा से मिल जाती है, फिर पानी पानी में मिल जाता है। बीच में जो निर्मित हुआ था वह इंद्रधनुषी अस्तित्व था— रेनबो एक्‍जिस्टेंस’। कहीं कुछ अंतर नहीं पड़ा था शाश्वत प्राणों में, सब वैसे का वैसा था। लेकिन एक रूप निर्मित हुआ, वह रूप जन्मा और मरा।

हम भी अपने को बबूले की तरह देखें, तो रूप का बनना और मिटना है। भीतर जो है, वह सदा से है। लेकिन हमारी आइडेंटिटी, हमारा तादात्म्‍य होता है बबूले से। इसलिए मैं कहता हूं कि अगर आपके शरीर को देखकर कहूं तो कहूंगा कि आप मरणधर्मा है, मर ही रहे है। जन्मे उसी दिन से मर रहे हैं। मरने के सिवाय आपने कोई काम ही नहीं किया है। बबूले को फूटने में सात क्षण लगते होंगे, आपको फूटने में सत्तर वर्ष लगेंगे। समय की अनंत धारा में सात क्षण और सत्तर वर्ष में कोई भी फर्क नहीं है।

सब फर्क हमारी छोटी आंखों के फर्क हैं। अगर समय अनंत है, न उसका कोई प्रारंभ है, न अंत है, तो सत्तर साल और सात क्षण में कौन—सा फर्क होगा? हां, समय अगर सीमित हो, सौ ही साल का हो, तो फिर सत्तर साल में और सात क्षण में फर्क होगा। सात क्षण बहुत छोटे होंगे, सत्तर साल बहुत बड़े होंगे। लेकिन अगर दोनों तरफ कोई सीमा नहीं है, न इस तरफ कोई प्रारंभ है, न उस तरफ कोई अंत है, तो सात क्षण में और सत्तर साल में क्या फर्क है? हमें फिर भी भ्रम हो सकता है कि सात साल में और सत्तर साल में फर्क है। लेकिन अगर हम समय की पूरी धारा को देखें तो क्या फर्क है? अनंत की तुलना में सात क्षण भी उतने ही है, सत्तर वर्ष भी उतने ही हैं। कितनी देर में फूट जाता है बबूला, यह बड़ा सवाल नहीं है। बनता है तभी से फूटना शुरू हो जाता है।

इसलिए मैंने शरीर को मरणधर्मा कहा। शरीर से मेरा मतलब है, नाम—रूप से निर्मित जो दिखायी पड़ रहा है। और आत्मा से मेरा मतलब है, नाम—रूप के गिर जाने पर भी जो होगा, नाम—रूप नहीं थे तब भी जो था। आत्मा से मेरा मतलब है सागर और शरीर से मेरा मतलब है लहर। और ये दोनो ही बातें एक साथ समझनी जरूरी हैं। इन दोनों के बीच अगर भ्रम पैदा हो तो जगत की सारी कठिनाइयां खड़ी हो जाती हैं।

भीतर हमारे वह है जो कभी मर नहीं सकता इसलिए गहरे में हमें सदा ही ऐसा लगता है, मैं कभी न मरूंगा। लाखों लोगों को हम मरते हुए देखते हैं, फिर भी भीतर प्रतीति नहीं होती कि मैं मरूंगा। इसकी गहरे में कहीं कोई ध्वनि पैदा नहीं होती कि मैं मरूंगा। सामने ही लोग मरते रहे हैं और फिर भी हमारे भीतर ‘न मरने का’ भाव कहीं सजग होता है। किसी गहरे पल में, ‘मैं नहीं मरूंगा’ यह बात हमें जाहिर ही होती है। माना कि बाहर के तथ्य झुठलाते है, और बाहर की घटनाए कहती हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है, कि मैं न मरूंगा? तर्क कहते हैं कि जब सब मरेगा तो तुम भी मरोगे। लेकिन सारे तर्कों को काटकर भी भीतर कोई स्वर कहे ही चला जाता है कि मैं नहीं मरूंगा।

इसीलिए जगत में आदमी कभी भरोसा नहीं करता कि वह मरेगा। इसीलिए तो हम इतनी मृत्यु के बीच जी पाते हैं, नहीं तो इतनी मृत्यु के बीच तत्काल मर जाएं। जहां सब मर रहा है, जहां प्रतिपल हर चीज मर रही है वहां हम किस भरोसे जीते हैं? आस्था क्या है जीने की? ट्रस्ट कहां है जीने का? किसी परमात्मा में नहीं है। आस्था इस आधार पर खडी है भीतर, कि हम कितनी ही कहें मृत्‍यु, कितना ही कहे कि मरते है, भीतर कोई कहे ही चला जाता है कि मर कैसे सकते है। कोई आदमी अपनी मृत्यु को कंसीव नहीं करता। इसकी धारणा नही बना सकता कि मैं मरूंगा। कैसी ही धारणा बनाए, वह पाएगा कि वह तो बचा हुआ है। अगर वह अपने को मरा हुआ भी कल्पना करे और देखे, तो भी पाएगा कि ‘मैं देखता हूं।’ मैं बाहर खड़ा हूं।

मृत्यु के भीतर हम अपने को कभी नहीं रख पाते, सदा ही बाहर खड़े हो जाते है। मृत्यु के भीतर कल्पना में भी रखना असंभव है। सत्य में रखना तो बहुत मुश्किल है, हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं ऐसी जिसमें कि मैं मर गया। क्योंकि उस कल्पना में भी मैं बाहर खड़ा देखता रहूंगा। कल्पना करनेवाला बाहर ही रह जाएगा, वह मर नहीं पाएगा। यह जो भीतर का स्वर है वह सागर का स्वर है, जो कह रहा है मौत कहां? मौत कभी जानी नहीं। लेकिन फिर भी हम मौत से डरते हैं—यह हमारे शरीर का स्वर है। और इस दोनों के बीच कन्‍फ्यूजन है।

भीतर स्वर को हम शरीर का स्वर जिस दिन समझ लेते हैं, उसी दिन प्राण कंपने लगते हैं, क्योंकि शरीर तो मरेगा। इसे हम कितना ही झुठलाएं कितना ही विज्ञान खड़ा करें, कितने ही चिकित्सा के शाख बनाए कितनी ही दवाइयों को घेरकर बैठ जाएं और कितने ही चिकित्सकों को चारों तरफ खड़ा कर लें, फिर भी शरीर एक क्षण को नहीं कहता कि मैं बचूंगा। शरीर के पास कोई स्वर नहीं है अमृत का। वह जानता है कि मैं मरूंगा।

शरीर जानता है, वह बबूला है; और हम जानते हैं कि हम बबूले नहीं हैं। जिस दिन हम समझते हैं कि हम बबूले हैं, हमारे जीवन का सारा उपद्रव शुरू हो जाता है। वह जो शाश्वत है हमारे भीतर, जैसे ही लहर के साथ तादात्‍म्‍य कर लेता है वैसे ही कठिनाई में पड़ जाता है। इस तादात्‍म्‍य का नाम अज्ञान है। इस तादात्म्‍य के टूट जाने का नाम ज्ञान है। कुछ फर्क नहीं होता, सब चीजें फिर भी वैसी ही होती हैं। शरीर अपनी जगह होता है, आत्मा अपनी जगह होती है। एक भ्रांति टूट गयी होती है। तब हम जानते हैं, शरीर मरेगा, इससे हम भयभीत नहीं होते। क्योंकि इससे भयभीत होने का उपाय नहीं है। शरीर मरेगा ही। भयभीत होने का वहां उपाय है जहां बचने की संभावना है। आप ऐसी स्थिति में कभी भयभीत नहीं होते, जहां बचने की संभावना ही नहीं होती। बचने की संभावना से ही भय है।

युद्ध के मैदान पर सैनिक जाता है तो घर से जाता है तब तक डरा रहता है। युद्ध के मैदान पर भी कंपा रहता है, लेकिन जब बचाव का सब उपाय समाप्त हो जाता है और बम उसके ऊपर ही गिरने लगते हैं तब वह निर्भय हो जाता है। तब वह आदमी, जो कि जरा—सी गोली चल जाती तो घबरा जाता, वह बमों के बीच, गोलियों के बीच बैठकर ताश भी खेलता है। वह बिलकुल साधारण आदमी है, कुछ विशेष आदमी नहीं है। स्थिति विशेष है। स्थिति ऐसी है जिसमें अब मौत से डरने का कोई अर्थ नहीं है—मीनिंगलेस है। मौत इतनी प्रकट है कि अब बचने का कोई सवाल नहीं है।

फिर भी युद्ध के मैदान पर भी कभी बचने की संभावना है क्योंकि कोई मरता है, कोई बचता है तो इसमें थोड़ा भय सरकता है। लेकिन मृत्यु के मैदान पर तो बचने की कोई संभावना नहीं, कोई भी नहीं बचता। इसलिए अगर यह भ्रांति मेरी टूट जाए, कि मैं शरीर हूं तो उसी के साथ मृत्यु का भय चला जाता है। क्योंकि शरीर मरेगा, यह एक सुनिश्रितता हो जाती है। यह नियति, डेस्टिनी हो जाती है। इसका उपाय नहीं—यह भाग्य है शरीर का, इसमें रत्तीभर हेर—फेर नहीं।

एक तरफ यह स्पष्ट हो जाए कि शरीर मरेगा ही, मृत्यु शरीर का स्वभाव है। मरेगा, ऐसा कहना भी ठीक नहीं। वह मरा हुआ ही है। और जैसे एक तरफ यह स्पष्ट हो वैसे दूसरी तरफ यह स्पष्ट भी हो जाता है कि वह जो शरीर के पार है, वह कभी जन्मा ही नहीं, इसलिए मरने का कोई सवाल नहीं। वहां से भी भय तिरोहित हो जाता है। क्योंकि जो नहीं मरेगा, उसके लिए भी भय कोई कारण नहीं। लेकिन मरेगा ही, इसके लिये भी भय का कोई कारण नहीं। भय इन दोनों के मेल से पैदा होता है। भय इससे पैदा होता है कि भीतर कोई कहता है कि बचूँगा और बाहर कोई कहता है कि कैसे बचोगे? और ये दोनों चीजें मिश्रित हो जाती हैं। ये दो स्वर अलग—अलग वीणाओं से उठ रहे हैं, यह पता नहीं चलता। ये स्वर एक दूसरे में खो जाते हैं और हम इसे एक ही संगीत समझ लेते हैं। वही भूल हो जाती है।

अज्ञान में निरंतर भय है मृत्यु का, फिर भी ऐसे जिए जाने की चेष्टा है जैसे मौत नहीं। अज्ञानी जीता ऐसे ही है जैसे मौत नहीं है, यद्यपि प्रतिपल डरा हुआ जीता है कि मौत है। ज्ञानी ऐसे जीता है जैसे मौत नहीं है। पर प्रतिपल जानकर जीता है कि किसी भी क्षण मौत हो सकती है, पर मौत नहीं है। ये तल का फासला हो गया है—दो तलों पर अस्तित्व टूट गया। परिधि अलग हो गयी, केन्द्र अलग हो गया। लहर अलग हो गयी, सागर अलग हो गया। रूप अलग हो गया अरूप अलग हो गया। फिर ऐसा नहीं कि वह मौत से भाग जाता है। यह भी एक बहुत अदभुत बात है कि जीवन की जो भ्रांतियां हैं वह हमारे जानने से मिटनेवाली भ्रांतियां नहीं हैं। जानने से सिर्फ हमारी पीड़ा मिटती है।

जैसे शंकर ने निरंतर उदाहरण दिया है कि राह में पड़ी है रस्सी और अंधेरे में दिखायी पड़ जाता है कि सांप है। लेकिन वह उदाहरण बहुत ठीक नहीं है क्योंकि पास आ जाने से पता चल जाता है कि यह रस्सी है। जब एक दफा पता चल जाए फिर आप कितनी ही दूर चले जाएं आपको सांप दिखायी नहीं पड़ सकता। लेकिन जीवन का धम इस तरह का नहीं है।

जीवन का भ्रम ऐसे है, जैसे आप सीधी लक्खी को पानी में डाल दें, वह तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। बाहर निकालकर देख लें उसे कि सीधी है, फिर पानी में डाल दें, वह फिर तिरछी दिखायी पडने लगती है। हाथ डालकर पानी में टटोलें, पाएंगे कि सीधी है, लेकिन फिर भी तिरछी दिखायी पड़ती है। आपके ज्ञान से उसके तिरछे होने का रूप नहीं मिटता। हां, लेकिन तिरछी है, इसका भ्रम मिट जाता है।

तो जीवन का जो हमारा भ्रम है यह सांप और रस्सीवाला भ्रम नहीं है, वह पानी में डाली गयी सीधी लकड़ी का तिरछी दिखायी देने का भ्रम है। हम भली— भांति जानते हैं कि लक्खी तिरछी नहीं है, फिर भी तिरछी दिखायी पड़ रही है। बड़े—से—बड़े वैज्ञानिक सब तरह की जांच—परख कर चुका है कि पानी में जाने से लकड़ी तिरछी नहीं होती है, पर उसको भी तिरछी दिखायी पड़ती है। वह तिरछी दिखायी पड़ना इंद्रियगत है, आपके शान से उसका कोई लेना—देना नहीं है।

फर्क यह होगा कि आप तिरछा मानकर व्यवहार नहीं करेंगे, अब आप मानकर चलेंगे कि लकड़ी सीधी है, पर दिखायी यूं पड़ती है कि लकड़ी तिरछी है। यह दो तल पर बंट जाएंगी बातें—जानने के तल पर लकड़ी सीधी होगी, देखने के तल पर लक्खी तिरछी होगी। इन दोनों में कोई भ्रांति नहीं रह जाएगी।

जीने के तल पर शरीर होगा, बाहर के तल पर शरीर होगा, अस्तित्व के तल पर आत्मा होगी। खो नहीं जाएगा कुछ। ऐसा नहीं कि ज्ञानी को संसार खो जाता है, ज्ञानी को संसार नहीं खो जाता। ज्ञानी को संसार ठीक वैसा ही होता है जैसा आपको होता है। शायद और भी प्रगाढ़, साफ और स्पष्ट होता है। रोया—रोया अस्तित्व का साफ उसकी दृष्टि में होता है। खो नहीं जाता, लेकिन अब वह भ्रम में नहीं पड़ता। अब वह जानता है कि रूप उसकी इंद्रियों से पैदा हुए हैं, जैसे लक्खी पानी के भीतर तिरछी दिखायी पड़ती है। क्योंकि किरणों का रूपांतरण हो जाता है

पानी में किरणों की यात्रा बदल जाती है। किरणें थोड़ी झुक जाती हैं, उनकी झुकाव की वजह से लकड़ी तिरछी दिखायी पड़ती है। हवा में किरणें एक तरह से चलती हैं, झुकती नहीं है, इसलिए लकड़ी तिरछी नहीं दिखायी पड़ती। लकड़ी तिरछी नहीं होती, लकड़ियां जिस किरण के आधार पर दिखायी पड़ती हैं, वह तिरछी हो जाती हैं, लेकिन वह तो दिखाई नहीं पड़ती। किरण तिरछी हो जाती है इसलिए लक्खी तिरछी दिखायी पड़ती

अस्तित्व तो जैसा है वैसा है, लेकिन इंद्रियों से गुजरकर, जो ज्ञान की किरण है वह थोड़ी तिरछी हो जाती है। जानने का जो ढंग है, वह बदल जाता है, माध्यम की वजह से। जैसे कि मैंने एक नीला चश्मा लगा लिया, अब चीजें नीली दिखायी पड़ने लगेंगी। मैं चश्मा उतारकर देखता हूं चीजें सफेद हैं। फिर चश्मा लगाता हूं वह फिर नीली दिखायी पड़ती हैं, पर अब मैं जानता हूं कि चीजें सफेद हैं। सिर्फ चश्मे से नीली दिखायी पड़ती है। अब मैं भ्रम में पड़नेवाला नहीं हूं। अब मैं चश्मा नीला लगाए रहूं चीजें नीली दिखायी पड़ती रहेंगी, और मैं जानूंगा भली—भांति कि चीजें सफेद हैं।

ठीक ऐसे ही आत्मा अमृत है, ऐसा जानकर भी शरीर का मरणधर्मा होना चलता रहता है। अस्तित्व सनातन है, ऐसा जानकर भी लहरों का खेल चलता रहता है। लेकिन अब मैं जानता हूं कि वह चश्मे से दिखायी पड़ता है। वह आख है इंद्रिय की, पर ऐसा है नहीं।

इसलिए बुद्ध, महावीर या क्राइस्ट जैसे लोगों के वक्तव्य दो तलों पर है। हमारी कठिनाई यह है कि हम चूंकि दोनों तलों को अपने भीतर भी सम्मिश्रित कर लेते हैं, हम उनके वक्तव्यों को भी सम्मिश्रित कर लेते हैं—स्वभावत:। कभी बुद्ध इस तरह बोल रहे है कि जैसे वह शरीर हैं। जैसे बुद्ध कहते हैं, आनंद, मुझे प्यास लगी है, तू पानी ले आ। अब आत्मा को कोई प्यास नहीं लगती है। प्यास शरीर को लगती है।

अब आनंद सोच सकता है कि बुद्ध कहते है कि शरीर तो है ही नहीं—नाम—रूप है, बबूला है, फिर भी उनको कैसे प्यास लगी? जब जान लिया आपने कि शरीर है नहीं, तो अब कैसी प्यास! फिर बुद्ध दूसरे दिन जब कहते है कि मैं तो कभी पैदा हुआ नहीं, मैं कभी मरूंगा नहीं!’ तब सुननेवाले की कठिनाई शुरू होती है। सुननेवाले की कठिनाई यह है कि वह सोचता है कि ज्ञान में अस्‍तित्व बदल जाएगा। ज्ञान में अस्तित्व नहीं बदलता, सिर्फ दृष्टि बदलती है।

और जब बुद्ध कह रहे है कि आनंद मुझे प्यास लगी है, तब भी वह यह कह रहे है कि आनंद, इस शरीर को प्यास लगी है। तब भी वह यही कह रहे हैं कि यह जो नाम—रूप का बबूला है, इसे प्यास लगी है, अगर नहीं पानी डालेगा तो यह जल्दी फूट जाएगा। वह इतना ही कह रहे हैं। लेकिन सुननेवाले की कठिनाई यह है कि जिस तरह वह अपने अस्तित्व को मिला—जुलाकर जी रहा है दोनों बातों से, और कभी नहीं समझ पाता कि कौन स्वर कहां है, वैसे ही वह अर्थ वहां से भी वैसे ही निकालना शुरू करता है। इसलिए मैने ऐसा कहा।

सीमानवेल ने एक किताब लिखी है, ‘येस्स ऑफ सिगनीफिकेस’ — ‘महत्ता के तल’। जितना महान व्यक्ति होता है उतना ही अनेक महत्ताओं के तलों पर वह एक साथ जीता है। जीना ही पड़ता है। क्योंकि जब जिस तल का व्यक्ति उसके सामने आता है, उसी तल पर उसे बात करनी पड़ती है। नहीं तो बात बेमानी हो जाती है। बुद्ध, अगर बुद्ध की तरह आपसे बातें करें, तो बेकार होगा। आप समझेंगे पागल है।

ऐसा अकसर हुआ है कि इस तरह के लोगों को हमने पागल समझा है। पागल समझने का कारण था। क्योंकि जो बात उन्होंने की, वह बिलकुल पागल की मालूम पड़ी। या तो वह पागल ठहराए जाएंगे अगर अपने तल पर बोलें, और यदि आपके तल पर बोलें तो उनको ग्रेड नीचे लाना पड़ेगा। उस तल पर आना पड़ेगा उन्हें, जहां आप समझ पाएं। वहां वह पागल नहीं मालूम पड़ेंगे। फिर जितने तलों के लोग उनके पास आते है उतने तलों की बात उनको कहनी पड़ेगी।

करीब—करीब बात ऐसी है कि बुद्ध जैसे व्यक्‍ति ने जितने लोगों से बात कही, ऐसा समझ लेना चाहिए कि उतने दर्पण बुद्ध के सामने आए। और सब दर्पणों ने अपनी—अपनी तस्वीर बना ली। कोई दर्पण तिरछा था तो तिरछी तस्वीर बनी। क्योंकि दर्पणों से मेल खानी चाहिए तस्वीर। कोई दर्पण लंबा करके दिखाता था तो लंबी तस्वीर बनी, कोई छोटा करके दिखाता तो छोटी तस्वीर बनी। अन्यथा दर्पण नाराज होते या फिर दर्पणों को तोड़ना पड़ता और ठीक करना पड़ता।

इसलिए बहुत तलों पर वक्तव्य मिलेंगे। कई बार तो एक ही वक्तव्य में बहुत तल हो जाते हैं। क्योंकि ऐसा व्यक्ति बोलना शुरू करता है तब वह अकसर वहीं से शुरू करता है जहां वह होता है। और जब वह बोलना बंद करता है तो अकसर वहीं होता है जहां आप होते हैं। कई दफा तो एक ही वाक्य में लंबी यात्रा हो जाती है। क्योंकि जब वह बोलना शुरू करता है तो वहीं से शुरू करता है जहां वह स्वयं होता है। आपसे बडी अपेक्षाएं रखकर शुरू कुरता है। फिर धीरे— धीरे अपेक्षा उसे नीचे उतारनी पड़ती है। आखिरी वक्तव्य पर वह वहां होता है जहां आप होते हैं।

और ये दो गहरे विभाजन हैं। इसका यह मतलब नहीं कि दोनों बहुत अलग हैं, कि भिन्न है, कि पृथक है। जैसा मैंने कहा, सागर और लहर जैसा है। यह और बड़े मजे की बात है कि सागर तो बिना लहर के कभी हो सकता है, लेकिन लहर कभी बिना सागर के नहीं हो सकती। निराकार तो आकार के बिना हो सकता है, लेकिन आकार कभी निराकार के बिना नहीं हो सकता। लेकिन हम अपनी भाषा में देखें तो उल्टा मजा है। भाषा में निराकार शब्द में आकार है, आकार शब्द में निराकार नहीं है। भाषा में निराकार में आकार को होना ही पड़ेगा, आकार में निराकार न हो तो चल जाएगा। भाषा हमने बनायी है। पर अस्तित्व की हालत उल्टी है। वहां निराकार हो सकता है बिना आकार के। आकार कभी बिना निराकार के नहीं हो सकता है।

पूरे शब्द हमारे ऐसे है — अहिंसा हो कि हिंसा हो। अहिंसा शब्द में हिंसा जरूरी है। हिंसा शब्द में अहिंसा आवश्यक नहीं है। लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि हिंसा, बिना अहिसा के नहीं हो सकती। हिंसा के होने के लिए अहिंसा बिलकुल ही अनिवार्य तत्व है। नहीं तो हिंसा का अस्तित्व नहीं हो सकता। हालांकि अहिंसा, बिना हिंसा के हो सकती है। भाषा हम बनाते हैं और हम अपने हिसाब से बनाते है। हमारे लिए संसार हो सकता है बिना परमात्मा के, परमात्मा कैसे बिना संसार के हो सकता है?

ये दो चीजें अलग नहीं है। इसलिए इसमें जो विराट है वह क्षुद्र के बिना हो सकता है। लहर के बिना सागर के होने में कोई भी बाधा नहीं, लेकिन लहर कैसे होगी सागर के बिना? लहर इतनी छोटी है—और अपने होने के लिए चारों तरफ सागर से बंधी है। सब तरफ सागर उसको पकड़े हुए है, तो ही वह है। सब तरफ सागर ने उसको उठाया, तो वही वह है। सब तरफ सागर उसको सम्हाले है, तो ही वह है। सागर छोड़ दे तो वह गयी।

तो ये दो अलग नहीं है, लेकिन फिर भी मैं कहता हूं—अलग हैं। अलग इसलिए कहता हूं कि लहर को भ्रम न हो जाए, वह अपने को अमृत, निराकार और शाश्वत न समझ ले। अलग है, तो श्रम हो सकता है, श्रम की कठिनाई पैदा हो सकती है। अगर एक ही है तो भ्रम नहीं होगा। और अगर एक का ऐसा अनुभव हो जाए तब तो वह कहेगी कि मैं हूं ही नहीं, सागर ही है।

जैसे जीसस बार—बार कहते हैं कि मैं कहां हूं वही है पिता जो ऊपर है। मैं नहीं हूं—वही है। हमें दिक्कत होती है। हमें बहुत कठिनाई होती है। क्योंकि या तो हम ऊपर पिता को खोजना चाहते हैं कि वह कौन है ऊपर कहां है? और या फिर इस आदमी को हम पागल समझते हैं कि आदमी क्या कह रहा है। तुम्हीं तो हो, और कौन है? पर जीसस यही कह रहे है कि लहर मैं नहीं हूं सागर ही हूं। पर हमें लहरों के सिवाय किसी चीज का कभी कोई दर्शन नहीं हुआ। इसलिए सागर हमारे लिए सिर्फ शब्द है। जो है वस्तुत:, वह हमारे लिए केवल शब्द है और जो मात्र दिखायी पड़ता है, वह हमारे लिए सत्य है।

इसलिए मैंने कहा कि शरीर मरणधर्मा है, मृत्यु है। चैतन्य, चिन्मय मरणधर्मा नहीं है, वरन अमृत्त्व है। और उस अमृत्त्व के ऊपर ही सारी मृत्यु का खेल है।

सागर और लहर को तो हमें समझने में कठिनाई नहीं होती, क्योंकि हमने कभी सागर और लहर में इतनी दुश्मनी नहीं मानी। लेकिन मृत्यु में और अमृत में हमें बडी मुश्किल होती है, क्योंकि हमने बड़ी दुश्मनी मान रखी है। दुश्मनी हमारी मानी हुई है। सागर और लहर जब मैं कहता हूं तो आपको कठिनाई नहीं होती, आप कहते है बड़े निकट के अस्तित्व हैं, ठीक कहते हैं।

लेकिन मृत्यु और अमृत तो बड़े विपरीत है। पदार्थ और परमात्मा तो बड़े विपरीत हैं। जन्म और मृत्यु तो बड़े विपरीत है। ये तो एक नहीं हो सकते। ये भी एक ही हैं। मृत्यु को जितना गहरे जाकर जानेंगे, पाएंगे परिवर्तन से ज्यादा नहीं है। लहर भी परिवर्तन से ज्यादा नहीं है। अमृत को भी जितना खोजेंगे—पाएंगे, वह शाश्वत, इटरनिटी है और कुछ भी नहीं है।

इस जगत में जो जो हमें विपरीत दिखायी पड़ता है वह अपने विपरीत पर ही निर्भर होता है। हमारे दिखायी पड़ने में विपरीत के कारण बड़ी अड़चन है। हम मृत्यु को और अमृत को बिलकुल अलग रखते हैं। लेकिन मृत्यु जी नहीं सकती अमृत के बिना। उसको भी होने के लिए अमृत से ही थोड़ा सहारा उधार लेना पड़ता है, जितनी देर होती है उतनी देर अमृत के ही कंधे पर हाथ रखना पड़ता है। झूठ को भी थोड़ी देर चलना हो तो सत्य के कंधे पर थोड़ा हाथ रखना पड़ता है। झूठ को भी थोड़े कदम रखने हों तो उसको कहना पड़ता है, मैं सत्य हूं।

सत्य शायद दावा नहीं करता कि मैं सत्य हूं लेकिन झूठ सदा दावा करता है कि मैं सत्य हूं। बिना दावा के वह चल नहीं सकता इंचभर, चला कि गिरा! उसको चिल्लाकर घोषणा करनी पड़ती है कि सम्हल जाओ मै आ रहा हूं मैं सत्य हूं। वह सब प्रमाण लेकर साथ चलता है कि मैं सत्य क्यों हूं। सत्य, कोई प्रमाण लेकर नहीं चलता। उसके लिए झूठ के सहारे की कोई भी जरूरत नहीं है। वह सहारा लेगा तो दिक्कत में पड़ेगा झूठ सहारा न लेगा तो दिक्कत में पड़ जाएगा।

अमृत के लिए मृत्यु के सहारे की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन मृत्यु की घटना तो अमृत के सहारे ही घटती है। शाश्वत के लिए परिवर्तन की कोई जरूरत नहीं, लेकिन परिवर्तन की घटना शाश्वत के बिना नहीं घट सकती। इतना जरूर तय है कि जो परिवर्तनशील है वही हमारी स्थिति है, हम सिर्फ परिवर्तनशील को ही जानते हैं। इसलिये जब भी शाश्वत के संबंध में सोचते हैं तो हम परिवर्तनशील से ही कुछ अनुमान लगाते हैं। और कोई उपाय नहीं है।

हमारी हालत ऐसी है जैसा कि अंधेरे में खड़ा आदमी अंधेरे से ही प्रकाश का अनुमान लगाए। उसके पास और कोई उपाय नहीं है। यद्यपि अंधकार भी प्रकाश का ही धीमा रूप है, अंधकार भी प्रकाश के बहुत कम होने की स्थिति है। कोई अंधकार ऐसा नहीं है जहां प्रकाश न हो। क्षीण होगा, क्षीण भी कहना ठीक नहीं है, सिर्फ हमारी इंद्रियों की पकड़ के लिए क्षीण है। हमारी इंद्रियां नहीं पकड़ पातीं उसे। अन्यथा हमारे पास से इतने बड़े प्रकाश के बवण्डर निकल रहे हैं जिसका कोई हिसाब नहीं कि हम देख लें तो हम अंधे हो जाएं।

जब तक एक्सञ्जे नहीं थी, हम सोच भी नहीं सकते थे कि आदमी के भीतर भी किरणें आर—पार हो रही है। हम सोच भी नहीं सकते थे कि आदमी के भीतर की हड्डी की तस्वीर भी किसी दिन बाहर आ जाएगी। आज नहीं कल और गहरी किरण खोज ली जाएगी और हम एक बच्चे की मां के पेट में, जो पहला अणु है उसके आर—पार किरण को डाल सकेंगे तो हम उसकी पूरी जिंदगी देख लेंगे कि वह क्या क्या हो जाएगा। इसकी सारी संभावनाएं हैं।

हमारे पास से बहुत तरह का प्रकाश गुजर रहा है, पर हमारी आख नहीं पकड़ रही है। नहीं पकड़ती है इसलिए हमारे लिए अंधेरा है। जिसे हम अंधेरा कहते हैं, उसका कुल मतलब इतना ही है कि ऐसा प्रकाश जिसे हम नहीं पकड़ रहे हैं, इससे ज्यादा नहीं। लेकिन फिर भी अंधेरे में खड़े होकर कोई आदमी प्रकाश के बाबत जो भी अनुमान लगाएगा वह गलत होंगे। माना कि अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है, फिर भी अंधेरे से प्रकाश की बाबत जो भी अनुमान लगाये जायेंगे वे गलत होंगे। माना कि मृत्यु भी अमृत का एक रूप है, फिर भी मृत्यु से अमृत के बाबत जो भी अनुमान लगाए जाएंगे वे गलत होंगे। हम अमृत को जान लें तो ही कुछ होता है, अन्यथा कुछ भी नहीं होता।

मृत्यु से घिरे हुए व्यक्ति अमृत से जो मतलब लेते हैं उनका मतलब इतना ही होता है केवल, कि हम नहीं मरेंगे, जो कि बिलकुल गलत है। अमृत का मलतब है अमर। मृत्यु से घिरे आदमी के अर्थ की पहुंच इतनी है कि मैं मरूंगा नहीं। पर जो जानता है अमृत को, उसका मतलब है कि ‘मैं कभी था ही नहीं।’

जो नहीं जानता है वह कहता है, ‘मैं कभी मरूंगा नहीं ‘ —सदा रहूंगा, कभी भी मरूंगा नहीं। इन दोनों का फर्क दुनियादी है, गहरा है। मरने को जाननेवाला आदमी कहता है कि ठीक पका हो गया न, कि आत्मा अमर है? फिर मैं कभी नहीं मरूंगा। वह हमेशा फ्यूचर ओरिऐंटेड होगा। उसका जो मतलब होगा, वह भविष्य में होगा। फिर मैं कभी नहीं मरूंगा। जो आदमी जान लेगा अमृत को वह कहेगा, मैं कभी था ही नहीं, मैं कभी हुआ ही नहीं। वह हमेशा पास्ट ओरिऐंटेड होगा। चूंकि सारा वितान हमारा मृत्यु के हाथ में घिरा हुआ है, इसलिए सारा विज्ञान भविष्य की बात करता है। और सारा धर्म चूंकि अमृत के आस—पास घिरा था इसलिए वह अतीत की बात करता है—ओरिजिन की, एण्‍ड की नहीं।

स्रोत, मूल स्रोत क्या है? धर्म कहता है, जगत कहां से पैदा हुआ, कहां से हम आए? धर्म कहता है कि अगर इस बात को ठीक से जान लें कि जहां से हम आए हैं, वह स्रोत क्या है तो हम निश्रित हो जाएंगे कि कहां हम जाएंगे। क्योंकि जहां से हम आए हैं उससे अन्यथा हम जा नहीं सकते। जो हमारा मूल है वही हमारी डेस्टिनी है, वही हमारी नियति है, वही हमारा अन्त है। जो हमारा आदि है, वही हमारा अंत है।

इसलिए सारे धर्म की चितना ‘ आदि ‘ की खोज में है। व्हाट इज दि ओरिजिन, जगत आया कहां से है? अस्तित्व कहां से पैदा हुआ, आत्मा कहां से आयी, सृष्टि कहां हुई! सारी चितना धर्म की पीछे की खोज है, आखिर की। और सारा विज्ञान आगे की खोज है। हम जा कहां रहे हैं, हम पहुंचेंगे कहां? हम हो क्या जाएंगे? कल क्या होगा? अंत क्या है? उसका कारण यह है कि विज्ञान की सारी खोज मरणधर्मा कर रहा है।

धर्म की सारी खोज उनकी है जिनके मृत्यु की बात समाप्त हो गयी है। और मजे की बात यह है कि मृत्यु सदा भविष्य में है। मृत्यु का अतीत से कोई लेना—देना नहीं है। जब भी आप मृत्यु के संबंध में सोचेंगे, अतीत का कोई सवाल ही नहीं, बात ही खत्म हो गयी।

मृत्यु सदा आनेवाले कल में है। और जीवन जहां से आया है वह सदा ‘कल था’। जहां से जीवन आ रहा है, जहां से गंगा आ रही है वह तो गंगोत्री से आ रही है। जहां गिरेगी, वह सागर है। जहां मिटेगी वह ‘कल है’। जहां बनी है वह ‘कल था’।

मृत्यु से घिरा आदमी जो भी अर्थ निकालेगा वह मृत्यु के ही अनुमान होंगे। इसलिए दूसरे तल की बात पहले तल का अनुमान नहीं है। दूसरे तल की बात दूसरे तल का अनुभव है। यह भी बहुत मजे की बात है कि जो दूसरे तल को जान लेता है वह पहले को तो जानता ही है, लेकिन जो पहले को जानता है वह जरूरी रूप से दूसरे को नहीं जानता है।

इसलिए अगर हमने बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट को प्रज्ञावान कहा, बुद्धिमान कहा, तो हमारा उन्हें बुद्धिमान कहने का कारण दूसरा है। वे दो तलों को जानते हैं, हम एक तल को जानते हैं। इसलिए उनकी बात हमसे ज्यादा अर्थपूर्ण है। क्योंकि जितना हम जानते हैं उतना तो वे जानते ही हैं। इसमें तो अड़चन नहीं है, उन्होंने भी मृत्यु को जाना है। उन्होंने भी दुःख जाना है, उन्होंने भी क्रोध जाना है, उन्होंने भी हिंसा जानी है। उतना तो वे जानते हैं जितना हम जानते है। लेकिन वे कुछ और भी जानते हैं जो हम नहीं जानते। उतना तल परिवर्तन है।

पश्‍चिम के मुल्कों में ज्ञान जो है वह उसी तल पर एक्‍यूमुलेशन है, उसी तल पर। आइन्‍स्‍टिन जितना ही जानता हो, हम जो जानते है, हममें और उसमें केवल कांटिटेटिव अंतर होगा। जैसे, हम इस टेबल को ही नाप पाते हैं, उसने सारे विश्व को नाप लिया। यह अंतर परिमाण का है, मात्रा का है। कोई गुणात्मक अंतर नहीं है। यानी कुछ ऐसा वह नहीं जानता है जो कि मुझसे भिन्न है। हां, मेरे का ही विस्तार है। मैं कम जानता हूं वह ज्यादा जानता है। मेरे पास एक रुपया है, उनके पास करोड़ रुपए हैं। लेकिन जो मेरे पास है, उससे भिन्न उसके पास नहीं है।

बुद्ध और महावीर को जब हम कहते हैं ज्ञानी, तो हमारा मतलब दूसरा है। यह हो सकता है कि हमारे तल पर हम ही उनसे ज्यादा जानते हों। लेकिन हमारा उन्हें शानी कहने का मतलब है कि वे दूसरे तल पर कुछ जानते हैं, जिसका हम कुछ भी नहीं जानते। एक नयी यात्रा उन्होंने शुरू की है, कालिटेटिव अंतर है। इसलिए ऐसा हो सकता है कि महावीर को आइन्स्‍टिन के सामने खड़ा करें तो आइस्टीन जो जानता है उस मामले में महावीर बहुत ज्यादा ज्ञानी सिद्ध न हों; उतना एक्यूमुलेशन उनके पास न हो। वे कहेंगे, मैं तो टेबल ही नाप सकता हूं तुम सारे संसार को नाप लेते हो। तुम दूर चांद—तारों की भी लंबाई बता देते हो, मैं नहीं बता सकता। मैं तो इस कमरे को ही नाप लूं तो बहुत है।

लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि तुम मुझसे ज्यादा ज्ञानी नहीं हो। क्योंकि तुम जो जानते हो, वह कन्सीवेबल है। अगर कमरा नापा जा सकता है तो तारे भी नापे जा सकते हैं। इसमें कहीं कोई क्रांति घटित नहीं हो गयी है। आइंस्टीन के भीतर कोई मुटेशन नहीं हो गया है। यह कोई दूसरा आदमी नहीं। यह आदमी वही है। हां, उसमें ही ज्यादा कुशल है जिसमें हम अकुशल हैं। उसमें ही ज्यादा गतिमान है जिसमें हम मंद—गति हैं। उसमें ही दूर तक गया जिसमें हम थोड़ी दूर गए हैं। उसमें ही गहरा गया जिसमें हम बाहर से ही लौट आए। लेकिन कहीं और नहीं है उसका प्रवेश।

बुद्ध या महावीर या इस तरह के लोग जिनको हमने बुद्धिमान कहा, उनसे हमारा प्रयोजन है कि जो तल है जानने का, मृत्यु का, उसके पार वे वहां गए जहां अमृत है, और उनकी बात का मूल्य है। इसे यों समझें कि एक आदमी जिसने कभी शराब नहीं पी, उसकी बात का बहुत मूल्य नहीं है। लेकिन एक आदमी जिसने शराब पी,. और शराब के पार भी गया, उसकी बात का बहुत मूल्य है। जिसने शराब पी नहीं, वह बचपन है, उसने कोई प्रौढ़ता नहीं पायी। उसका वक्तव्य चाइल्डिश है। इसलिए शराब नहीं पीनेवाले कभी भी शराब पीनेवालों को समझा नहीं पाते। क्योंकि नहीं पीनेवाले चाइल्डिश मालूम होते है, बचकाने। शराब पीना… पीनेवाला उसकी बात का मूल्य करता है।

यूरोप और अमरीका में एक संगठन है, शराब पीनेवालों का— ‘अल्कोहल्‍स—अनानिमस’, एक बहुत व्यापक आंदोलन है। इसमें सिर्फ वे ही लोग सम्मिलित हो सकते हैं जो शराब में गहरे हुए हैं। और यह शराब पीने वालों का आंदोलन है लेकिन इसमें सिर्फ शराब पीनेवाले ही सम्मिलित हो सकते हैं। और यह हैरानी की बात है कि शराब पीनेवालों की मंडलियां किसी भी नए शराब पीने वाले की फौरन शराब छुडवा देती हैं। क्योंकि वह मेन्नोर्ड है। शराब पीनेवाला उसकी बात समझ पाता है। क्योंकि जो कह रहा है वह अनुभवी है। गैर अनुभव से नहीं कह रहा है उसने भी पिया है वह भी इसी तरह गिरा है, वह भी इन्हीं कठिनाइयों से गुजरा है और पार हुआ है। उसकी बात का कोई मूल्य है।

पर फिर भी यह मैंने उदाहरण के लिए कहा है—शराब पियो, कि न पियो, कि पीने के बाद छोड़ दो, बहुत तल का फर्क नहीं है। हां एक तल के भीतर ही सीढ़ियों का फर्क है। लेकिन एक बार अमृत का अनुभव हो जाए तो सारा तल परिवर्तित हो जाए। अगर बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट जैसे लोगों की बात का इतना गहरा परिणाम हुआ तो उसका कारण यह था। हम जो जानते थे, वे जानते ही हैं। हम जो नहीं जानते, वह भी वे जानते हैं। और जो उन्होंने नया जाना है उस नए जानने से वे कह रहे हैं कि हमारे जानने में दुनियादी भूलें हैं।

भगवान श्री महावीर पर हुई चर्चा में आपने बताया था कि महावीर पूर्व जन्म में ही परम उपलब्धि को प्राप्त हो चुके थे। केवल अभिव्यक्ति के लिए करुणावश उन्होने पुन: जन्म धारण किया था। इसी प्रकार कृष्ण के बारे में भी आपका कहना था कि वे तो जन्म से ही सिद्ध थे। अब जब जबलपुर में आपकी और मेरी जो वार्ता हुई थी उससे मुझे ऐसा आभास हुआ था कि जो बात महावीर और कृष्ण के बारे में आपने बतायी थी वही बात आप पर भी घटित होती है। अतएव प्रश्न उठता है यदि ऐसी बात है तो आपको किस करुणावश जन्म लेना पड़ा। इस संबंध में अपने पूर्व जन्मों और पूर्व जन्मों की उपलब्धियों पर भी प्रकाश डालने की कृपा करें ताकि वे साधक के लिए उपयोगी हो सकें 1 और यह भी कि पिछले जन्म और इस जन्म में समय का कितना अंतराल रहा?

समें बहुत—सी बातें खयाल में लेनी पड़ेगी। पहली तो यह कि ऐसे व्यक्तियों के जन्म के संबंध में यह जान लें कि जब उनकी एक जन्म में ज्ञान की यात्रा पूरी हो गयी हो तो अब व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह चाहे तो एक जन्म और ले और चाहे तो न ले। बिलकुल स्वतंत्रता की स्थिति है। सच तो यह है कि वही एक जन्म स्वतंत्रता से लिया गया होता है। अन्यथा कोई जन्म स्वतंत्रता का नहीं है। चुनाव नहीं है बाकी जन्मों मे। बाकी जन्म तो हमारी वासना की बहुत मजबूरियां हैं। लेने पड़े हैं। जैसे धकाए गए हैं या खींचे गए हैं, या दोनों ही बातें एक साथ हुई है। धकाए गए हैं पिछले कर्मों से, खींचे गए हैं आगे की आकांक्षाओं से। और यो हमारा जन्म साधारणत: बिलकुल ही परतंत्र घटना है। उसमें चुनाव का मौका नहीं है।

सचेतन रूप से हम चुनते हैं कि हम जन्म लें। सचेतन रूप से सिर्फ एक ही मौका आता है चुनने का, और वह तब आता है जब पूरी तरह व्यक्ति ने स्वयं को जान लिया होता है। वह घटना घट गयी होती है कि अब जिसके आगे पाने को कुछ भी नहीं होता। ऐसा क्षण आ जाता है जब वह व्यक्ति कह सकता है कि अब मेरे लिए कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि मेरे लिए कोई वासना नहीं है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं न पाऊं तो मेरी कोई पीड़ा है। यह बहुत ही शिखर का क्षण है, पी कहै। इस शिखर पर ही पहली दफा स्वतंत्रता मिलती है।

ये बडे मजे की बात है जीवन के रहस्यों में कि जो चाहेगे कि स्‍वतंत्र हों वे स्वतंत्र नहीं हो पाते। और जिनकी कोई चाह नहीं रही वे स्वतंत्र हो जाते हैं। जो चाहते हैं कि यहां जन्म ले लें, वहां जन्म ले लें उनके लिए कोई उपाय नहीं है। और जो अब इस स्थिति में है कि उनके लिए कहीं जन्म लेने का कोई सवाल नहीं रहा, अब वह इस सुविधा में हैं कि वह चाहें तो कहीं भी जन्म ले लें। लेकिन यह भी एक ही जन्म के लिए संभव हो सकता है। इसलिए नही कि एक जन्म के बाद उसे स्वतंत्रता नहीं रह जाएगी जन्म लेने की। स्वतंत्रता तो सदा होगी। लेकिन एक जन्म के बाद स्वतंत्रता के उपयोग करने का भाव ही अकसर खो जाता है। वह अभी रहेगा। इस जन्म में यदि आपको घटना घट गयी परम अनुभव की, तो स्वतंत्रता तो मिल गयी आपको। लेकिन जैसा कि सदा होता है, स्वतंत्रता मिलने के साथ ही स्वतंत्रता का उपयोग करने की जो भाव—दशा है वह एकदम नहीं खो जाएगी। उसका भी उपयोग किया जा सकता है। पर जो बहुत गहरे जानते हैं वह कहेंगे कि यह भी एक बंधन है।

इसलिए जैनों में, जिन्होंने इस दिशा में सर्वाधिक गहन खोज की, उनकी खोज की कोई भी तुलना नहीं है सारे जगत में। उन्होंने सिर्फ तीर्थंकर—गोत्रबंध उसको नाम दिया। यह आखिरी बंधन है—स्वतंत्रता का बंधन। आखिरी, कि इसका उपयोग कर लेने का एक मन है। वह मन ही है। इसलिए सिद्ध तो बहुत होते है, तीर्थंकर सभी नहीं होते। परमज्ञान को कई लोग उपलब्ध होते हैं, लेकिन तीर्थंकर सभी नहीं होते। तीर्थंकर होने के लिए, यानी इस स्वतंत्रता का उपयोग करने के लिए एक विशेष तरह के कर्मों का जाल इनमें होना चाहिए। शिक्षक होने का, टीचरहुड का एक लंबा जाल होना चाहिए। अगर वह पीछे है, वह तो… वह आखिरी धक्का देगा। और जो जाना गया है, वह कहा जाएगा। जो पाया गया है, वह बताया जाएगा। जो मिला है, वह बांटा जाएगा।

इस स्थिति के बाद सारे लोग दूसरा जन्म यानी एक जन्म और लेते हैं, ऐसा नहीं है। कभी करोड़ों में एकाध लेता है। इसलिए जैनों ने तो करीब—करीब औसत तय कर रखी है कि एक सृष्टि—कल्प में सिर्फ चौबीस जन्म धारण करते हैं। वह बिलकुल औसत है—जैसे हम कह सकते हैं, आज बंबई की सड्कों पर कितने एक्सीडेंट हुए। पिछले तीस साल का सारा औसत निकाल लेंगे तो आज हम कह सकते हैं कि बंबई में इतने एक्सीडेंट हुए। वह करीब—करीब सही होनेवाले हैं। ठीक ऐसे ही चौबीस का जो औसत है, वह औसत है। वह अनेक कल्पों के स्मरण का औसत है, अनेक कल्पों के। अनेक बार सृष्टि के बनने का और मिटने का जो सारा का सारा स्मरण है, उस स्मरण में अंदाजन सबका हम भाग दें, वह चौबीस है। यानी एक पूरी सृष्टि के बनने और मिटने के बीच चौबीस व्यक्ति ऐसा बंध कर पाते हैं, कि वह एक जन्म का और उपयोग करें।

इसमें दूसरी बात भी खयाल रख लेनी चाहिए कि जब हम कहते हैं बंबई में इतने एक्सीडेंट होंगे आज, तो हम लंदन के एक्सीडेंट की बात नहीं कर रहे हैं। या हम कहते हैं मरीन ड्राइव के रास्ते पर इतने एक्सीडेंट होंगे, फिर हम बंबई के और रास्तों की भी बात नहीं कर रहे हैं।

जैनों का जो हिसाब है वह उनके अपने रास्ते का है, उसमें जीसस की गणना नहीं होगी। कृष्‍ण और बुद्ध की भी गणना नहीं होगी। लेकिन एक बहुत मजे की बात है कि जब हिंदुओं ने भी गणना की तब वह चौबीस अनुपात पड़ा, उनके रास्ते पर और जब बुद्धों ने गणना की तब चौबीस अनुपात पड़ा, उनके रास्ते पर। इसलिए चौबीस अवतारों का खयाल उन्हें आ गया। चौबीस तीर्थंकरों का जैनों में था ही और चौबीस बुद्धों का खयाल बौद्धों को आ गया।

इसका कभी बहुत गहरा हिसाब ईसाइयत ने और इस्लाम ने लगाया नहीं। लेकिन इस्लाम ने यह जरूर कहा कि मुहम्मद पहले आदमी नहीं पहले और लोग हो गए और जिन चार लोगों के भी मुहम्मद ने इशारे किये कि मुझसे पहले चार लोग हुये, वे इशारे दो कारणों से अधूरे और भिन्नमय हैं। वे इसलिये अधूरे और भिन्नमय हैं कि मुहम्मद के पीछे मुहम्मद का रास्ता नहीं है। मुहम्मद का रास्ता मुहम्मद से शुरू होता है। महावीर जितनी स्पष्टता से गिना सके अपने पीछे के चौबीस आदमी, उतना दूसरा नहीं गिना सका दुनिया में। क्योंकि महावीर पर वह रास्ता करीब—करीब पूरा होता है। तो अतीत के बाबत बहुत साफ हुआ जा सकता था। मुहम्मद के आगे मामला था, उसके बाबत साफ होना बहुत कठिन था।

जीसस ने भी पीछे के लोगों की गणना करवायी थी। लेकिन वह भी धुंधली है, क्योंकि जीसस का भी रास्ता नया शुरू होता है। बुद्ध ने पीछे के लोगों की कोई साफ गणना नहीं करवायी, सिर्फ कभी—कभी बात की। इसलिए चौबीस बुद्धों की बात है, पीछे के नाम एक भी नहीं हैं। इस मामले में जैनों की खोज बड़ी गहरी है और बहुत प्रामाणिक रूप से है। बहुत मेहनत की है उस मामले में। एक—एक व्यक्ति का पूरा ठिकाना, हिसाब सारा रखा है। प्रत्येक रास्ते पर अंदाजन चौबीस लोग हैं। ऐसे लोग ही एक जन्म और लेते हैं शान के बाद। वह जन्म, मैंने कहा, करुणा से होगा।

इस जगत में बिना कारण कुछ भी नहीं हो सकता। और कारण केवल दो ही हो सकते हैं—या तो कामना हो, या करुणा हो। तीसरा कोई कारण नहीं हो सकता। या तो मैं कुछ लेने आपके घर जाऊं, या कुछ देने आऊं। तीसरा कोई उपाय क्या हो सकता है? आपके घर में लेने जाऊं तो कामना हो, या कुछ देने आऊं तो करुणा हो। तीसरा आपके घर आने का कोई अर्थ नहीं, कोई कारण नहीं, कोई प्रयोजन नहीं है।

कामना से जितने जन्म होंगे वह सब परतंत्र होंगे। क्योंकि आप मांगने के संबंध में स्वतंत्र कभी भी नहीं हो सकते। भिखमंगा कैसे स्वतंत्र हो सकता है? भिखमंगे के स्वतंत्र होने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि सारी स्वतंत्रता देनेवाले पर निर्भर है, लेनेवाले पर क्या निर्भर हो सकता है। लेकिन देनेवाला स्वतंत्र हो सकता है। तुम न भी लो, तो भी दे सकता है? लेकिन तुम न दो, तो ले नहीं सकता।

महावीर और बुद्ध का जो सारा का सारा दान है वह हमने लिया, यह जरूरी नहीं है। वह दिया उन्होंने, इतना निश्रित है। लेना, अनिवार्य रूप से नहीं निकलता, लेकिन दिया उन्होंने अवश्य। जो मिला, उसे बांटने की इच्छा स्वाभाविक है, पर वह भी अंतिम इच्छा है। इसलिए उसको भी बंध कहा है, जो जानते हैं उन्होंने उसको भी कर्म—बंध ही कहा है। वह भी बंधन है, आखिरी।

लेकिन आना तो मुझे आपके घर तक पडेगा हीं—चाहे मैं मांगने आऊं, चाहे देने आऊं। आपके घर से बंधा तो रहूंगा ही। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आपके घर से न भी बंधा रहूं पर आना तो पड़ेगा ही आपके घर तक। और बडी जो कठिनाई है वह यह है कि चूंकि आपके घर सदा मांगनेवाले ही आते हैं और आप भी सदा कहीं मांगने ही गए हैं, इसलिए जो देने आएगा उसके समझने की कठिनाई स्वाभाविक है। और यह भी मैं आपसे कहूं कि इसलिए एक बहुत जटिल चीज पैदा हुई है। चूंकि आप देने को समझ ही नहीं सकते, इसलिए बहुत बार ऐसे आदमी को आपसे लेने का भी ढोंग करना पड़ा। आपके लिए यह बात बिलकुल ही समझ के परे है कि कोई आदमी आपके घर देने आया हो, तो वह आपके घर रोटी मांगने आ गया

इसलिए महावीर के सारे उपदेश जो हैं, वह किसी घर में भोजन मांगने के बाद दिए गए उपदेश है—वह सिर्फ धन्यवाद है। आपने जो भोजन दिया उसके लिए धन्यवाद है। अगर महावीर भोजन मांगने आए तो आपकी समझ में आ जाता है। वह पीछे धन्यवाद देने में दो शब्द कहकर चले जाते हैं। आप इसी प्रसन्नता में होते हैं कि रोटी हमने दी है, बड़ा काम किया। करुणा में आप इसको भी न समझ पाएंगे, क्योंकि करुणा की दृष्टि को यह भी देखना पड़ता है कि आप ले भी सकेंगे? और अगर आपको देने का कोई भी उपाय न किया जाए तो आपका अहंकार इतनी कठिनाई पाएगा कि बिलकुल न ले सकेगा।

इसलिए यह अकारण नहीं है कि महावीर और बुद्ध भिक्षा मांगते हैं। यह अकारण नहीं है। क्योंकि आप उस आदमी को बरदाश्त ही नहीं कर सकते जो सिर्फ दिए चला जाए। आप उसके दुश्मन हो जाएंगे। आप उसके बिलकुल दुश्मन हो जाएंगे। यह बहुत उल्टा लगेगा देखने में कि जो आदमी आपको दिए ही चला जाए, आप उसके दुश्मन हो जाएंगे, क्योंकि वह आपको देने का कोई मौका ही नहीं दे रहा है। आपसे वह कुछ मांगता ही नहीं है। तो कठिनाई हो जाती है।

इसलिए वे छोटी—मोटी चीजें आपसे मांग लेते हैं। कभी भोजन मांग गया, कभी उसने कहा कि चीवर नही है, कभी उसने कहा कि ठहरने की जगह नही है। उसने आपसे कुछ मांग लिया, आप देकर निश्रित हो गए। आप बराबर हो गए। लेवल हेन्‍डेड। बराबर हाथ आ गया। आपने कुछ दिया। बल्कि सदा आपने यही जाना कि आपने तो कुछ ज्यादा दिया, उसने तो कुछ भी नहीं दिया, बस दो शब्द कहे। हमने तो एक मकान दे दिया, हमने एक दुकान दे दी या हमने एक थैली भेंट कर दी—हमने कुछ दिया! उसने क्या दिया, उसने दो बातें कह दीं। बुद्ध ने तो अपने—अपने संन्यासी को भिक्षु ही नाम दे दिया कि तू भिक्षु के साथ ही चल, तू भिखारी होकर ही दे सकेगा, तुझे देना है। ढंग तू रखना मांगने का, और देने का इंतजाम करना।

करुणा की अपनी कठिनाइयां हैं और उस तल पर जीने वाले आदमी की बड़ी मुसीबतें हैं। उसकी मुसीबतें हम समझ ही नहीं सकते। वह ऐसे लोगों के बीच जी रहा है जो न उसकी भाषा समझ सकते हैं, जो सदा ही उसे मिसअंडरस्टैड करेंगे, जो उसे कभी समझ ही नहीं सकते। यह अनिवार्यता है। इसमें उसको कोई हैरानी नहीं होती। जब आप उसे गलत समझते हैं तब कोई हैरानी नहीं होती है, क्योंकि स्वाभाविक है यह, यह होगा ही। आप अपनी जगह सेही तो अनुमान लगाएंगे। तो जिन लोगों के जीवन में, पिछले जन्मों में अगर बहुत ज्यादा बांटने की क्षमता का विकास न हुआ हो, तो वह ज्ञान होते ही तत्काल तिरोहित हो जाता है। दूसरा जन्म उसका नहीं बनता।

इस संबंध में यह भी समझ लेने जैसा है कि बुद्ध और महावीर और इन सबका सम्राटों के घर में पैदा होना एक और गहरे अर्थ से जुड़ा हुआ है। जैनों ने तो स्पष्ट धारणा बना रखी थी कि तीर्थंकर का जो जन्म हो, वह सम्राट के घर में ही हो। और मैंने पीछे बात भी की है कि महावीर का गर्भ तो हुआ था एक ब्राह्मणी के गर्भ में, लेकिन कथा है कि देवताओं ने उस गर्भ को निकालकर क्षत्रिय के गर्भ में पहुंचाया। उसे बदला। क्योंकि तीर्थंकर को सम्राट के घर में ही पैदा होना है। कारण? यह सिर्फ इसलिए है कि सम्राट के द्वार पर पैदा होकर अगर वह भिखारी हो जाए तो लोगों पर अधिक प्रभावशाली होगा। लोग ज्यादा समझ सकेंगे उसे, क्योंकि सम्राट से उनकी सदा ही लेने की आदत रही है। शायद उस आदत की वजह से थोडा—सा जो यह देने आया है, वह भी इसे ले सकेंगे।

सम्राट की तरफ सदा ही ऊपर देखने की आदत रही है। वह सड़क पर भीख मांगने भी खड़ा हो जाएगा तो बिलकुल ही उसे नीचे नहीं देखेंगे, वह पुरानी आदत थोड़ा सहारा देगी। इसलिए यह टेक्रिकल है, तकनीकी खयाल था वह। क्योंकि उसे उस घर से ही पैदा करके लाना चाहिए। और चूंकि चुनाव उसके हाथ में था इसलिए इसमें कठिनाई न थी। चुना जा सकता था।

इन सारे लोगों का, महावीर या बुद्ध का, सारा जान पिछले जन्म का है। वह सारा का सारा इस जन्म में बंटता है। पूछा जा सकता है कि यह ज्ञान अगर पिछले जन्म का है तो महावीर और बुद्ध इस जन्म में भी साधना करते हुए दिखायी पड़ते है। इससे ही सारी भांति पैदा हुई है। क्योंकि महावीर फिर साधना क्यों करते है, बुद्ध साधना क्यों करते हैं? कृष्ण ने ऐसी कोई साधना नहीं की; महावीर और बुद्ध ने साधना की। यह साधना सत्य को पाने के लिए नहीं है। सत्य तो पा लिया गया है, लेकिन उस सत्य को बांटना, पाने से कोई कम कठिन बात नहीं है। थोड़ा ज्यादा ही कठिन है। और अगर एक विशिष्ट तरह के सत्य देने हों तो बात और कठिन होती है। जैसे कि कृष्ण का सत्य जो है, वह विशेष तरह का नहीं है। कृष्ण का सत्य बिलकुल निर्विशेष है। इसलिए कृष्ण जैसी जिंदगी में हैं, वहीं से उसको देने की कोशिश में सफल हो सके।

महावीर और बुद्ध के सत्य बहुत ही स्पेशलाइज्‍ड हैं। वह जिस मार्ग की बात कर रहे. हैं, वह मार्ग बहुत ही विशिष्ट है। और वह मार्ग इस भांति विशिष्ट है कि अगर महावीर किसी से कहें कि तू तीस दिन उपवास कर ले और उसे पता हो कि महावीर ने कभी उपवास नहीं किया, वह सुनने के लिए राजी नहीं हो सकता। वह यह सुनने के लिए राजी ही नहीं हो सकता। महावीर को बारह साल लंबे उपवास, सिर्फ जिनको उन्हें कहना है, उनके लिए करने पड़े हैं। अन्यथा इनको उपवास की बात ही नहीं कही जा सकती। महावीर को बारह वर्ष मौन उनके लिए रहना पड़ा है जिनको बारह दिन मौन रखवाना हो। नहीं तो महावीर की बात ये सुननेवाले नहीं ??

बुद्ध की तो और भी एक मजेदार घटना है। बुद्ध एक बिलकुल नयी साधना—परंपरा को शुरू कर रहे थे, महावीर कोई नयी साधना—परंपरा को शुरू नहीं कर रहे थे। महावीर के पास तो पूर्ण विकसित विज्ञान था एक, जिसमें वे अंतिम थे, प्रथम नहीं। शिक्षकों की एक लंबी परंपरा थी, बड़ी शानदार परंपरा थी। यह बहुत सुशृखलित परंपरा थी, जिसमें शृंखला इतनी साफ थी जो कभी नहीं खोई। जिसमें परंपरा से जो मिली हुई धरोहर थी वह कभी भी खोई नहीं। महावीर तक तो वह इतनी ही सातत्यपूर्ण थी कि जिसका कोई हिसाब नहीं। इसलिए महावीर को कोई नया सत्य नहीं देना था। एक सत्य देना था जो चिरपोषित था, और चिर परंपरा से जिसके लिए बल था। परंतु महावीर को अपना व्यक्तित्व तो खड़ा करना ही था कि जिस व्यक्तित्व से लोग उन्हें सुन सकें। नहीं तो लोग सुन नहीं सकेंगे। यह मजे की बात है कि जैनों ने महावीर को सर्वाधिक याद रखा और बाकी तेईस को सर्वाधिक भूल गए। यह भी बहुत आत्‍मर्यजनक है, क्योंकि महावीर आखिरी है। न तो पायोनियर है, न तो प्रथम हैं। न ही कोई नया अनुदान है महावीर का। जो जाना हुआ था, बिलकुल परखा हुआ था, उसको ही प्रकट किया है। फिर भी महावीर सर्वाधिक याद रहे और बाकी तेईस बिलकुल ही पौराणिक जैसे हो गए, माइथोलाजिकल हो गए। और अगर महावीर न होते तो तेईस का आपको नाम भी पता न होता। उसका गहरा कारण, महावीर ने जो बारह साल अपने व्यक्तित्व को निर्मित करने का प्रयास किया, वह है। अन्य तीर्थंकरों ने व्यक्तित्व निर्माण नहीं किया था। ये अपनी साधना संभाल रहे थे।

महावीर का बहुत व्यवस्थित उपक्रम था। साधना में कभी व्यवस्थित उपक्रम नहीं होता। महावीर के लिए साधना का एक अभिनय था, जिसको उन्होंने बहुत सुचारु रूप से पूरा किया। इसलिए महावीर की प्रतिभा जितनी निखरकर प्रकट हुई उतनी बाकी तेईस की नहीं निखरी। वे सब फीके हो गए। महावीर ने बिलकुल कलाकार की तरह व्यक्तित्व को खड़ा किया। शुनियोजित था मामला। क्या उन्हें करना है इस व्यक्तित्व से, उसकी पूरी तैयारी थी। उस पूरी तैयारी के साथ वह प्रकट हुए।

बुद्ध पहले थे इस अर्थ में, कि वह एक नया सूत्र साधना का लेकर आए। इसलिए बुद्ध को एक दूसरे ढंग से गुजरना पड़ा। यह बहुत मजे की बात है, और उससे भ्रांति पैदा हुई कि बुद्ध साधना कर रहे हैं। बुद्ध को भी पहले ही जन्म में अनुभव हो चुका है। इस जन्म में उन्हें अनुभव बांटना है। लेकिन बुद्ध के पास कोई सुनियोजित परंपरा नहीं है। बुद्ध की खोज एकदम निजी, वैयक्तिक खोज है। उन्होंने एक नया मार्ग तोड़ा है। उसी पहाड़ पर एक नयी पगडंडी तोड़ी है, जिस पर राजपथ भी है।

महावीर के पास बिलकुल राजपथ है। जिसकी चाहे उदघोषणा करनी हो, जिसे चाहे लोग भूल गए हों, लेकिन जो बिलकुल तैयार है। परंतु बुद्ध को एक रास्ता तोड़ना है इसलिए बुद्ध ने एक दूसरी तरह की व्यवस्था की, इस जन्म में। पहले सब तरह की साधनाओं में वे गए। और प्रत्येक साधना से गुजरकर उन्होंने कहा, बेकार है। यह मजे की घटना है। हर तरह की साधना में गये और कहा कि बेकार है इससे कोई कहीं नहीं पहुंचता। और अंत में अपनी साधना की घोषणा की कि इससे मैं पहुंचा हूं और इससे पहुंचा जा सकता है।

यह बहुत ही, जिसको कहना चाहिए मैनेल्ड थी बात, बहुत व्यवस्थित थी। जिसको भी नयी साधना की घोषणा करनी हो उसे पुरानी साधनाओं को गलत कहना ही पड़ेगा। और अगर बुद्ध बिना गुजरे कहते गलत, जैसा कि कृष्‍णमूर्ति कहते हैं, तो इतना ही परिणाम होता जितना कृष्णमूर्ति का हो रहा है। क्योंकि जिस बात से आप गुजरे नहीं है, उसको आप गलत कहने के भी हकदार नहीं रह जाते।

अभी कोई यहां से गया होगा कृष्णमूर्ति के पास, उसने कुंडलिनी के लिए पूछा होगा, उन्होंने कहा, सब बेकार है। तो मैंने उससे कहा कि तुम्हें उनसे पूछना था कि आप अनुभव से कह रहे हैं या बिना अनुभव से? कुंडलिनी के प्रयोग से आप गुजरे हैं, या बिना गुजरे कह रहे हैं? अगर बिना गुजरे कह रहे हैं तो बिलकुल बेकार बात कह रहे हैं। अगर गुजरकर कह रहे हैं तब तो दो सवाल पूछने चाहिए, कि गुजरने में आप सफल हुए हैं कि असफल होकर कह रहे हैं? अगर सफल हुए हैं, तो नानसेंस कहना गलत है। अगर असफल हुए हैं तो ऐसा मान लेना जरूरी नहीं है कि आप असफल हुए हैं इसलिए और लोग भी असफल हो जाएंगे। तो बुद्ध को सारी साधनाओं से गुजरकर लोगों को दिखा देना पड़ा कि यह भी गलत है, यह भी गलत है, यह भी गलत है। इससे कोई कहीं नहीं पहुंचता। अब जिससे मैं पहुंचा हूं वह मैं तुमसे कहता हूं। महावीर ने उन्हीं साधनाओं से गुजरकर घोषणा की है कि यह सही है, परंपरा से तैयार है। बुद्ध ने घोषणा की कि वह सब गलत है, और एक नयी दिशा खोजी। मगर ये दोनों ही व्यक्ति पिछले जन्मों से उपलब्ध हैं।

कृष्ण भी पिछले जन्म से उपलब्ध हैं। लेकिन कृष्ण कोई विशेष मार्ग साधना का नहीं दे रहे हैं। कृष्ण जीवन को ही साधना बनाने का मार्ग दे रहे है। इसलिए किसी तपश्चर्या में जाने की उन्हें कोई जरूरत नहीं रही बल्कि वह बाधा बनेगी। अगर महावीर यह कहें कि दुकान पर बैठकर भी मोक्ष मिल सकता तो महावीर का खुद का व्यक्तित्व बाधा बन जाएगा। महावीर से लोग पूछेंगे कि फिर तुमने क्यों छोड़ दिया? कृष्ण अगर जंगल तपश्चर्या करने जाएं और फिर युद्ध के मैदान पर खड़े होकर कहें कि युद्ध में भी मिल सकता है, तो फिर बात नहीं सुनी जा सकती। फिर तो अर्जुन भी कहता कि क्यों धोखा देते है मुझे। आप खुद जंगल में जाते हो और मुझे जंगल जाने नहीं देते।

तो यह प्रत्येक शिक्षक के ऊपर निर्भर करता है कि वह क्या देनेवाला है? इसके अनुकूल उसको सारी जिंदगी खड़ी करनी पड़ेगी। बहुत बार उसे ऐसी व्यवस्थाएं जिंदगी में करनी पड़ेगी जो कि बिलकुल ही आर्टिफीशियल हैं। मगर जो उसे देना है उसे देने के लिए उनके बिना मुश्किल है। वह नहीं दिया जा सकता।

अब इसमें मेरे बाबत पूछते है, जो थोड़ा कठिन है। मुझे सरल पड़ता है बुद्ध या कृष्ण या महावीर की बात पूछने में। दो तीन बातें खयाल में लेकिन ली जा सकती हैं। एक तो पिछला जन्म कोई सात सौ साल के फासले पर है। इसलिए बहुत कठिनाई भी है। महावीर का पिछला जन्म केवल ढाई सौ साल के फासले पर है। बुद्ध का पिछला जन्म केवल अठहत्तर साल के फासले पर है। बुद्ध के तो इस जन्म में वे लोग भी मौजूद थे जो पिछले जन्म की गवाही दे सके। महावीर के जन्म में भी इस तरह के लोग मौजूद थे जो अपने पिछले जन्मों में महावीर के जन्म का स्मरण कर सके।

कृष्ण का जन्म कोई दो हजार साल बाद हुआ इसलिए कृष्ण ने जितने नाम लिए है वह सब नाम अति प्राचीन हैं। और उनका कोई स्मरण नहीं जुटाया जा सकता। सात सौ साल लंबा फासला है। जो व्यक्ति सात सौ साल बाद पैदा होता है, उसके लिए लंबा फासला नहीं है। क्योंकि जब हम शरीर के बाहर हैं तब एक क्षण और सात सौ साल में कोई फर्क नहीं है। क्योंकि टाइम स्केल हमारा शरीर के साथ शुरू होता है। शरीर के बाहर कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप सात सौ साल रहे हैं या सात हजार साल रहे हैं। लेकिन शरीर में आते ही अंतर पड़ता है।

और यह भी बड़े मजे की बात है कि यह जो पता लगाने का उपाय है कि एक व्यक्ति का, जैसे अपना ही मैं कहता हूं कि मै सात सौ साल नहीं था, तो इस सात सौ साल का मुझे कैसे पता लगेगा? यह भी सीधा पता लगाना बहुत कठिन है। यह भी मैं उन लोगों की तरफ देखकर पता लगा सकता हूं जो इस बीच में कई दफा जन्मे। समझिए कि एक व्यक्ति मुझ से सात सौ साल पहले परिचित था मेरे पिछले जन्म में। बीच में मेरा तो गैप है, लेकिन वह दस दफा जन्म ले चुका। और उसके दस जन्मों की स्मृतियों का संग्रह है। उसी संग्रह से मैं हिसाब लगा सकता हूं कि मैं बीच में कितनी देर तिरोहित था। नहीं तो नहीं हिसाब लगा सकता। हिसाब लगाना कठिन हो जाता है। क्योंकि हमारा जो टाइम स्केल है, जो नाप का हमारा पैमाना है, वह शरीर के पार का जो टाइम है उसका नहीं है; शरीर के इस तरफ जो टाइम है उसका है।

करीब—करीब ऐसा है, जैसे मेरी एक क्षण को झपकी लग जाए, मैं सो जाऊं और एक सपना देखूं। और सपने में देखूं कि वर्षों बीत गये—ऐसा सपना देखूं और क्षण बाद आप मुझे उठा दें और कहें कि आपको झपकी लग गयी। तब मैं आपसे पूछूं कि कितना समय गुजरा और आप कहें कि क्षणभर नहीं बीता होगा। मैं कहूं कि यह कैसे हो सकता है? क्योंकि मैंने तो वर्षों लंबा सपना देखा है। सपने में, एक क्षण में वर्षों लंबा सपना देखा जा सकता है। टाइम स्केल अलग है। और सपने से लौटकर अगर उस आदमी को इस जगत में कोई भी उपाय न मिले जानने का कि मैं कब सोया था, तो पता लगाना मुश्किल है, वह कितनी देर सोया। वह तो यहां जो घड़ी रखी है वह बताती है कि जब मैं जाग रहा था तब बारह बजे थे और अभी सोकर उठा हूं तो बारह बजकर एक ही मिनट हुआ। वह आपकी तरफ देखता है। आप अभी यहीं बैठे हैं तो ही पता लगता है, अन्यथा पता नहीं लगता। यों सात सौ साल का पार होना जाना गया है।

और दूसरी बात आपने पूछी कि क्या मैं पूरे ज्ञान को लेकर पैदा हुआ? तो इसमें दो बातें समझनी पड़ेगी जो थोड़ी भिन्न हैं।

कहना चाहिए करीब—करीब पूरे शान को लेकर पैदा हुआ। करीब—करीब इसलिए कहता हूं कि जानकर कुछ चीजें बचा ली हैं। जानकर भी बचायी जा सकती है। इस संबंध में भी जैनों का हिसाब बहुत वैज्ञानिक है। जैनों ने ज्ञान के चौदह हिस्से तोड़ दिए है। तेरह इस जगत में, और चौदहवां अंदर चला जाएगा। तेरह गुण—स्थान कहते हैं उनको। तेरह लेयर्स हैं—इनमें कुछ ऐसे गुण—स्थान हैं जिनकी छलांग लगायी जा सकती है, जिनसे बचकर निकला जा सकता है। जिन्हें छोड़ा जा सकता है, जो आप्शनल हैं।

जरूरी नहीं है कि उनसे गुजरा जाए। उनको पार किया जा सकता है। लेकिन उनको पार करनेवाला व्यक्ति तीर्थंकरबंध को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। वह जो आपानल है, शिक्षक को तो वह भी जानना चाहिये जो अनिवार्य है वह साधक के लिए तो पर्याप्त है, लेकिन शिक्षक के लिए पर्याप्त नहीं है। वैकल्पिक भी जानना पड़ता है। इन तेरह में कुछ गुण—स्थान वैकल्पिक हैं। ऐसी कुछ जान की दिशाएं है जो कि सिद्ध के लिए आवश्यक नहीं हैं, वह सीधा मोक्ष जा सकता है। लेकिन शिक्षक के लिए जरूरी हैं।

दूसरी बात, इसमें एक सीमा के बाद, जैसे बारहवें गुणस्थान के बाद, वह जो दो शेष अवस्थाएं रह जाती हैं उनको लंबाया जा सकता है। उनको एक जन्म में पूरा किया जा सकता है, दो जन्म में पूरा किया जा सकता है, तीन जन्म में पूरा किया जा सकता है। और उनको लंबाने का उपयोग किया जा सकता है।

जैसा मैंने कहा, पूरा ज्ञान हो जाने के बाद… तो एक जन्म के बाद कोई उपाय नहीं है। एक जन्म से ज्यादा सहयोगी नहीं हो सकता व्यक्ति। लेकिन बारहवें गुण—स्थान के बाद अगर दो गुण—स्थानों को रोक लिया जाए तो वह बहुत जन्मों तक सहयोगी हो सकता है। और उसे रोकने की संभावना है। बारहवें गुण—स्थान पर करीब—करीब बात पूरी हो जाती है, लेकिन मैं कहता हूं करीब—करीब। जैसे कि सब दीवारें गिर जाती हैं और सिर्फ एक पर्दा रह जाता है, जिसके आर—पार भी दिखायी पड़ता है। लेकिन फिर भी पर्दा होता है। जिसको हटाकर उस तरफ जाने की कोई कठिनाई नहीं है। उस तरफ जाकर जो देखने को मिलेगा, वह यहां से भी देखने को मिल रहा है। यानी अंतर भी नहीं पड़ता।

इसीलिए मैं कहता हूं करीब—करीब। एक कदम हटाकर उस तरफ चला जाना हो जाए तो एक जन्म और लिया जा सकता है। लेकिन उस पर्दे के इस पार खड़ा रहा जाए तो कितने ही जन्म लिए जा सकते हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पार जाने के बाद एक बार से ज्यादा इस तरफ आने का कोई उपाय नहीं है।

पूछा जा सकता है कि महावीर और बुद्ध को भी यह खयाल था? यह सबको साफ रहा है। फिर इसका तो और उपयोग किया जा सकता था। लेकिन बहुत स्थितियों में बुनियादी फर्क है। यह बड़े मजे की बात है कि परम जान को उपलब्ध होने के बाद केवल बहुत ही एडवांस्ट साधकों पर उपयोग किया जा सकता है उसके शान का, और कोई उपयोग किया नहीं जा सकता। जिन लोगों पर बुद्ध और महावीर काम कर रहे थे जन्मों से, जो उनके साथ चल रहे थे बहुत रूपों में, उनके लिए एक जन्म काफी था।

कई बार तो ऐसा हुआ कि एक जन्म भी जरूरी नहीं रहा। इस जन्म में अगर शान हो गया बीस साल की उम्र में एक आदमी को, और साठ साल उसको जिंदा रहना है तो बचे चालीस साल में ही यदि काम हो सका तो बात समाप्त हो गयी। कोई लौटने की जरूरत न रही। लेकिन अब हालतें बिलकुल अजीब हैं। अब जिसको हम कह सकें बहुत विकसित साधक, वह न के बराबर है। अगर उन पर भी काम करना हो तो भविष्य के शिक्षकों को अनेक जन्मों के लिए तैयारी रखनी पड़ेगी। तभी उन पर काम किया जा सकता है, नहीं तो काम नहीं किया जा सकता। तब बात और थी कि महावीर या बुद्ध को, जब भी वे छोड़ते थे अपना आखिरी जीवन, तब सदा उनके पास कुछ लोग थे जिनको आगे का काम सौंपा जा सके, आज वह हालत बिलकुल नहीं

आज, आदमी का पूरा का पूरा ध्यान बाह्यमुखी है। और इसलिए आज शिक्षक के लिए ज्यादा कठिनाई है जो कभी भी नहीं थी। क्योंकि एक तो उसे ज्यादा मेहनत करनी पड़े, ज्यादा अविकसित लोगों के साथ मेहनत करनी पडे और हर बार मेहनत के खो जाने का डर है। फिर ऐसे आदमी मिलने मुश्किल होते हैं जिनको काम सौंपा जा सके। जैसे कि नानक के मामले में हुआ।

गोविंद सिंह तक, दस गुरुओं तक काम सौंपनेवाला आदमी मिलता गया। गोविंद सिंह को सिलसिला तोड़ देना पड़ा। बहुत कोशिश की। यानी गोविंद सिंह ने इतनी कोशिश की इस जमीन पर जैसी कभी किसी को नहीं करनी पड़ी कि एक आदमी मिल जाए ग्यारहवां सिलसिला जारी रखने के लिए। लेकिन एक आदमी नहीं मिल सका। क्लोज कर देना पड़ा, फिर बात खत्म हो गयी। ग्यारहवां आदमी अब नहीं होगा। क्योंकि यह जो होना है यह इस कंटीन्यूटी में ही हो सकता है, जरा—सा भी ब्रेक हो तो यह नहीं हो सकता। इसमें जरा—सी भी अंतराल हो जाए तो कठिनाई है। फिर यह नहीं हो सकता। वह जो दिया जाना है वह कठिन हो जाएगा।

बौद्ध धर्म को हिंदुस्तान से चीन जाना पड़ा, क्योंकि चीन में आदमी उपलब्ध था जिसको दिया जा सकता था। लोग समझते हैं कि हिंदुस्तान से कोई बौद्ध धर्म का प्रचार करने बौद्ध भिक्षु चीन गए, गलत है खयाल। यह ऊपर से जो इतिहास को देखते हैं उनकी समझ है। हुईनेन नाम का आदमी चीन में उपलब्ध था जिसको कि दिया जा सकता था। और बड़े मजे की बात है कि हुईनेन आने के लिए राजी नहीं था। जो कठिनाई है इस जगत की वह बहुत अदभुत है। हुईनेन आने को राजी नहीं था। क्योंकि उसे भी अपनी संभावनाओं का कोई पता नहीं था। बौद्ध धर्म को यहां से यात्रा करनी पड़ी। और एक वक्त आया कि चीन से भी हटा देना पडा और जापान में जाकर देना पड़ा।

यह जो सात सौ साल का फासला रहा कई लिहाज से कठिनाई का है। दो लिहाज से कठिनाई का है—एक तो जन्म लेने की कठिनाई रोज बढ़ती जाएगी। जो भी व्यक्ति किसी स्थिति को उपलब्ध हो जाएगा, उसे जन्म खोजना कठिन होता जाएगा। बुद्ध और महावीर के वक्त कोई कठिनाई नहीं थी। रोज ऐसे गर्भ उपलब्ध थे। जहां ऐसे व्यक्ति पैदा होते थे।

खुद महावीर के वक्त में आठ परम ज्ञानी हुए थे बिहार में, ठीक महावीर की स्थिति के। अलग—अलग आठ मार्गों से वे काम कर रहे थे। निकटतम स्थिति के तो हजारों लोग थे। थोड़े बहुत नहीं थे, हजारों लोग थे जिनको काम कभी भी सौंपा जा सकता था। जो संभालेंगे, आगे बढ़ा देंगे।

आज तो किसी को जन्म लेना हो, तो आगे और हजारों साल प्रतीक्षा करनी पड़े तब वह दूसरा जन्म ले सके। इस बीच उसने जो काम किया था वह सब खो जाता है। इस बीच जिन आदमियों पर काम किया था उनके दस जन्म हो जाएंगे, दस जन्मों की पते उनके ऊपर हो जाएंगी, जिनको काटना कठिन हो जाएगा।

अब तो किसी भी शिक्षक को पर्दे के पार होने में काफी समय लेना पड़ेगा। उसे अपने को रोकना पड़ेगा। और अगर कोई पर्दे के पार हो गया तो वह दूसरा जन्म लेने को, आगे एक भी जन्म चुनने को राजी नहीं होगा क्योंकि वह बेकार है। उसका कारण है। एकजन्म भी लेना बेकार है। क्योंकि किसके लिए लेना है? उस एक में अब काम नहीं हो सकता।

यानी मुझे पता हो कि इस कमरे में आकर घंटेभर में काम हो जाएगा तो आने का मतलब है। और अगर काम हो ही नहीं सकता तो उचित नहीं है। उचित एक कारण से और नहीं है। करुणा इस संबंध में दोहरे अर्थ रखती है। एक तो आपको जो देना है, वह भी करुणा चाहती है। लेकिन वह यह भी जानती है कि अगर सिर्फ आपसे कुछ छीन लिया जाए और दिया न जा सके तो आपको और खतरे में डाल दे। आपका खतरा कम नही होता, बढ़ जाता है। अगर मै आपको कुछ दिखा सकता हूं तो दिखा दूं यदि न दिखा सकूं, और आपको जो दिखायी पड़ता था उसमें भी आप अंधे हो जाएं तो और कठिनाई हो जाती है।

इस सात सौ साल में दो तीन बातें और खयाल में लेनी चाहिए। पहली तो यह कि कभी मेरे खयाल में नहीं था कि उसकी बात उठेगी, लेकिन अभी अचानक पूना में बात उठ गयी। मेरी मां आयी होगी, उसको रामलाल पुंगलिया ने पूछा होगा कि मेरे बारे में पहले से पहला उनको कोई अनुभव ध्यान में हो तो मुझे बता दें। मैं तो सोचता था कि उसकी बात कभी उठने—उठाने की संभावना ही नहीं होगी। और मुझे पता ही नहीं था कि कब उनकी बात हुई। अभी उन्होंने मीटिंग में इसको जाहिर किया। मेरी मां ने उनको कहा कि मैं तीन दिन तक रोया नही। और तीन दिन तक मैंने दूध नहीं पिया। यह उनको, मेरा पहला स्मरण है। और यह ठीक

सात सौ वर्ष पहले, पिछला जो मेरा जन्म था, उसमें मरने के पहले इक्कीस दिन के एक अनुष्ठान की व्यवस्था थी। इक्कीस दिन पूर्ण उपवास करके मैं वह शरीर छोड़ दूंगा। उससे कुछ प्रयोजन थे। लेकिन वह इकीस दिन पूरे नहीं हो सके। तीन दिन बाकी रह गए। वे तीन दिन इस बार, इस जन्म में पूरे करने पड़े। वह कंटीन्युटी है वहां से। वहां बीच का समय नहीं अर्थ रखता कोई भी। तीन दिन पहले हत्या ही कर दी गयी पिछले जन्म में। इक्कीस दिन पूरे नहीं हो सके, तीन दिन पहले हत्या कर दी गयी और वह तीन दिन छूट गए। वह तीन दिन इस जन्म में पूरे हुए। वह इक्कीस दिन अगर पूरे हो जाते उस जन्म में, तो शायद आगे एक जन्म से दूसरा जन्म लेना कठिन हो जाता। अब इसमें बहुत—सी बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं।

उस पर्दे के पास खड़े होना और पार न होना बड़ा कठिन है। उस पर्दे से देखना और पर्दे को न उठा लेना बहुत कठिन है। यह कब उठ जाता है इसका ठीक होश रखना भी कठिन है। उस पर्दे के पास खड़े रहना और पर्दे को न उठाना करीब—करीब असंभव मामला है। वह संभव हो सका, क्योंकि तीन दिन पहले हत्या कर दी गयी। इसलिएनिरंतरइधरमैंनेबहुतबारकईसिलसिलोंमेंकहाहैकिजैसेजीससकीहत्याकेलिएजुदास की कोशिश रही। जीसस से दुश्मनी नहीं है कास की।

तो जिस आदमी ने मेरी हत्या कर दी उस में भी दुश्मनी नहीं है। हालांकि वह दुश्मन की तरह ही लिया गया। दुश्मन की तरह ही लिया जाएगा। वह हत्या कीमती हो गयी। वह तीन दिन चूक गए मृत्यु के क्षण में। उस जीवन की पूरी साधना के बाद वह तीन दिन जो कर सकते थे, इस जन्म में इकीस वर्षो में हो पाया। एक—एक दिन के लिए सात—सात वर्ष चुकाने पड़े।

इसलिए मैं कहता हू कि उस जन्म से पूरा ज्ञान लेकर मैं नही आया, कहता हूं करीब—करीब! पर्दा उठ सकता था, लेकिन तब एक जन्म होता, अभी एक जन्म और ले सकता हूं। अभी एक जन्म की संभावना और है। लेकिन वह इस पर निर्भर करेगा कि मुझे लगे, कि कुछ उपयोग हो सकेगा कि नहीं। इस जन्मभर पूरी मेहनत करके देख लेने से पता लगेगा कि कुछ उपयोग हो सकता है तो ठीक है, अन्यथा वह बात समाप्त हो जाती है। उसका कोई प्रयोजन नहीं। हत्या उपयोगी हो गयी। 1

जैसा मैने कहा कि समय का स्केल बदलता है, वैसा चित्त की दशाओं में भी समय का स्केल भिन्न होता है। जन्म के वक्त, समय बहुत मंद गति होता है। मृत्यु के वक्त बहुत तीव्र गति होता है। समय की गति का हमें कभी कोई खयाल नहीं, क्योंकि हम तो समझते हैं कि समय की कोई गति नहीं होती। हम तो समझते हैं कि समय में सब गति होती है। अभी तक बड़े—से—बड़े वैज्ञानिक को भी समय में भी गति होती है, टाइम वैलोसिटी भी है। इसका कोई खयाल नहीं है। और इसलिए खयाल नहीं है कि टाइम वैलोसिटी अगर हम बना लें, समय की गति बना लें, तो बाकी गति को नापना मुश्किल हो जाएगा।

समय को हमने स्थिर रखा है। हम कहते हैं कि एक घंटे में तीन मील चला, लेकिन अगर घंटा भी तीन मील में कुछ चला हो तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। हमने घंटे को स्थिर किया है। उसको हमने स्टेटिक मान लिया। उसको हमने स्थिर कर लिया है कि यह तय है। नहीं तो सब अस्त—व्यस्त हो जाएगा। तो समय को हमने स्टेटिक बनाया हुआ है। यह बडे मजे की बात है कि समय ही सबसे ज्यादा नान—स्टेटिक है, समय सबसे ज्यादा तरल है और गतिमान है।

समय यानी परिवर्तन! उसको हमने बिलकुल फिक्स्‍ड खड़ा कर रखा है, खूंटे की तरह गाड़ दिया है। उसको गाड़ा इसलिए है कि हमारी सारी गतियों को नापना मुश्किल हो जाएगा। यह जो समय की गति है, यह भी चित्त—दशा के अनुसार कम और ज्यादा होती है। बच्चे की समय की गति बहुत धीमी होती है, बूढ़े की समय की गति बहुत तीव्र होती है, बहुत कम्पैक्ट हो जाती है, सिकुड जाती है। थोड़े स्थान में समय ज्यादा गति करता है बूढ़े के लिए। बच्चे के लिए ज्यादा स्थान में समय बहुत धीमी गति करता है।

प्रत्येक पशु के लिए भी गति अलग—अलग होती है। आदमी का बच्चा चौदह साल में जितनी गति कर पाता है, कुत्ते का बच्चा बहुत थोड़े महीनों में ही उतनी गति कर लेता है। कई पशुओं के बच्चे और भी जल्दी गति कर लेते हैं। कुछ पशुओं के बच्चे करीब—करीब पूरे पैदा होते हैं। जमीन पर उन्होंने पैर रखा कि उनमें, और उनके एडल्ट में कोई फर्क नहीं होता। वे पूरे होते हैं।

इसीलिए पशुओं को समय का बहुत बोध नहीं है। गति बहुत तीव्र होती है। इतनी तीव्रता से हो जाती है कि बच्चा पैदा हुआ घोड़े का और चलने लगा। उसे पता ही नहीं चलता कि पैदा होने और चलने के बीच में समय का फासला है। आदमी के बच्चे को समय का फासला पता चलता है, इसलिए आदमी समय से पीडित प्राणी है। समय से बहुत परेशान है, एकदम कंपित है। समय जा रहा है। समय भागा जा रहा है।

तो उस जन्म के आखिरी क्षण में तीन ही दिन में काम हो सकता था, क्योंकि समय कम्पैक्ट था। कोई एक सौ छह वर्ष की उम्र थी। और समय बिलकुल कम्पैक्ट था। गति तीव्रता से हो सकती थी। तीन दिन की बात वह इस जन्म के बचपन से शुरू हुई। वहां तो अंत था, पर इक्कीस वर्ष इस जन्म में उसको पूरा होने में लगे। कई बार अवसर चूका जाए तो एक—एक दिन के लिए सात—सात साल चुकाने पड़ सकते हैं। तो इस जन्म में पूरा लेकर नहीं आया, करीब—करीब पूरा लेकर आया। लेकिन अब मेरी सारी व्यवस्था मुझे अलग करनी पड़ेगी।

मैने कहा, महावीर को एक व्यवस्था करनी पड़ी। एक तपश्चर्या, जिसके माध्यम से वह दे सके। बुद्ध को दूसरी व्यवस्था करनी पड़ी—स्व—स्व तपश्चर्या को गलत करके, एक तपश्‍चर्या। मुझे बिलकुल व्यर्थ ही, जो महावीर—बुद्ध को कभी नहीं करना पड़ा, वह करना पड़ा। मुझे व्यर्थ ही सारे जगत में जो भी है, वह पढ़ना पड़ा—बिलकुल व्यर्थ उसका कोई प्रयोजन नहीं। क्योंकि आज के जगत को अगर कोई भी मैसेज दी जा सकती है तो न तो उपवास करनेवाले की आज के जगत को कोई फिक्र है, न आंखें बंद करके बैठे आदमी की कोई फिक्र है। आज के जगत को अगर कोई भी मैसेज जा सकती है, अगर कोई भी तपश्चर्या जा सकती है तो वह आज के जगत के पास जो एक बौद्धिक ज्ञान का विराट अंबार लग गया है, उस सबको आत्मसात करके ही दी जा सकती है। दूसरा कोई उपाय नहीं है।

इसलिए मैंने पूरी जिंदगी किताब के साथ लगायी। और मैं आपसे कहता हूं कि महावीर को तकलीफ भूखे रहने में नहीं हुई। क्योंकि जिससे मुझे लेना देना नहीं है, उस पर मुझे व्यर्थ ही श्रम करना पड़ा है। लेकिन उस श्रम के बाद ही आज के युग के बात सार्थक हो सकती थी, अन्यथा नहीं हो सकती। और कोई उपाय नहीं। आज का युग उस बात को ही समझ सकेगा, अन्यथा नहीं समझ पाएगा।

यह अगर खयाल में आ जाए तो कठिन नहीं है बहुत, कि आपको अपने पिछले जीवन का भी थोड़ा— थोड़ा खयाल आने लगे। और मैं चाहूंगा कि जल्दी वह खयाल आपको लाऊं। क्योंकि वह खयाल आने लगे तो एक बड़ी समय की और शक्ति की बचत हो जाती है। अकसर यह होता है कि आप हर बार वहां से शुरू करते हैं जहां से आपने छोड़ा नहीं था। यानी करीब—करीब आप हर बार अ ब स से शुरू करते है। अगर आपको पिछला स्मरण आ जाए तो आपको अ ब स से शुरू करना नहीं होता है, जहां आपने छोड़ा था उसके आगे आप शुरू करते है और तब कोई गति हो पाती है, नहीं तो गति नहीं हो पाती।

अब यह समझने जैसा है। पशुओं की कोई गति नहीं हो पायी है। वैज्ञानिक बहुत परेशान हैं कि पशु वहीं के वहीं रिपीट करते रहते हैं। बंदर के पास करीब—करीब आदमी से थोड़ा ही कम विकसित मस्तिष्क है। मगर विकास का अंतर बहुत भारी है, जितना मस्तिष्क में अंतर नहीं है। बात क्या है? क्या कठिनाई है? इस वर्तुल में बंदर आगे क्यों नहीं बढ़ते? वह ठीक वहीं है जहां दस लाख साल पहले थे। और अभी तक हम सोचते थे कि विकास हो रहा है सब में, लेकिन यह असंदिग्ध है बात।

डार्विन की यह बात बहुत संदिग्ध है। क्योंकि लाखों साल से बंदर वहीं के वहीं हैं। वह विकसित नहीं हो रहा है। गिलहरी गिलहरी है, वह विकसित नहीं हो रही है। गाय गाय है, वह विकसित नहीं हो रही है। तो विकास, सिर्फ होने से नहीं हो रहा है, कहीं कोई और बात में फर्क पड़ रहा है। हर बंदर को अपना प्रारंभ वहीं से करना पड़ता है जहां उसके बाप को करना पड़ा है। उस बाप ने जहां अंत किया वहां से बंदर प्रारंभ नहीं कर पाता। बाप कम्‍युनिकेट नहीं कर पाता है, यही सारी कठिनाई है।

बाप ने जहां तक पाया अपनी जिंदगी में, वह अपने बेटे को वहां से शुरू करवा नहीं पाता। बेटा फिर वहीं शुरू करता है जहां बाप ने शुरू किया था। फिर विकास होगा कैसे? हर बार हर बेटा फिर वहीं से शुरू करता है। एक वर्तुल है जिसमें घूमकर फिर वहीं से आरंभ हो जाता है। करीब—करीब ऐसी स्थिति जीवन के आत्मिक विकास की भी है। आप अगर इस जन्म को फिर वहीं से शुरू करते हैं जहां आपने पिछला जन्म शुरू किया था, तो आप कभी विकसित नहीं हो पाएंगे। आध्यात्मिक अर्थों में आपका कभी कोई इवोल्यूशन नहीं हो पाएगा। फिर अगले जन्म में आप वहीं से शुरू करेंगे जहां से शुरू किया था। हर बार अंत करेंगे, हर बार शुरू करेंगे। शुरुआत का बिंदु अगर वही रहा जो पिछला था तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा।

विकास का मतलब है, पिछला अंतिम बिंदु इस जन्म का पहला बिंदु बन जाए। नहीं तो विकास नहीं हो सकता। मनुष्य ने विकास कर लिया, क्योंकि उसने भाषा खोज ली कम्‍युनिकेट करने को। बाप जो कुछ जान पाता है वह अपने बेटे को दे जाता है, शिक्षा दे जाता है। एजुकेशन का मतलब ही इतना कि वह बाप की पीढी ने जो जाना, वह बेटे की पीढ़ी को सौंप देगी। बेटे को वहां से शुरू न करना पड़ेगा जहां से बाप की पीढ़ी को करना पड़ा। बेटा वहां से शुरू करेगा जहां बाप अंत कर रहा है, तो फिर गति हो जाएगी। तब यह स्पायरल जो है सर्कुलर नहीं होगा, स्पायरल हो जाएगा। यह फिर एक ही जगह नहीं घूमेगा, ऊपर उठने लगेगा। यह पहाड़ की तरह ऊपर की तरफ चढ़ने लगेगा।

जो मनुष्य के विकास में सही है, वह एक—एक व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में भी सही है। आपके और आपके पिछले जन्म के बीच कोई कम्‍युनिकेशन नहीं है। आपने अपने पिछले जन्म से अभी तक कोई बातचीत नहीं की। आपने कभी पूछा नहीं कि कहां छूटा था मैं? —वहां से शुरू करूं, नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि फिर वही मकान बनाऊं जहां मैंने पहले भी ईंटें भरी थीं, बुनियाद रखी थी, और मर गया। और फिर ईंटें भरूं, फिर बुनियाद रखूं और फिर मर जाऊं। हमेशा बुनियाद ही भरता रहूं तो शिखर कब उठेगा?

इसलिए मैंने जो यह थोड़ी—सी पिछले जन्म की बात की वह इसलिए नहीं कही कि मेरे बाबत आपको कुछ पता हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। वह सिर्फ इस कारण कह दी कि शायद उससे आपको थोड़ा खयाल आना शुरू हो, पिछले जन्म की थोड़ी तलाश शुरू हो। क्योंकि उसी दिन आपके जीवन में आध्यात्मिक क्रांति होगी उत्क्रांति होगी, जिस दिन आप पिछले जीवन के आगे इस जीवन में कदम उठाएंगे! अन्यथा अनेक जन्म भटक जाएंगे और कहीं भी नहीं पहुंचेंगे। वही पुनरुक्त हो जाएगा।

पिछले जीवन और इस जीवन के बीच ‘ चाहिए। पिछले जीवन में जो जो आपने पाया था उसकी शिक्षा अपने भीतर लें, और अपनी उसकी आगे कदम उठाने की क्षमता चाहिए। इसलिए महावीर और बुद्ध ने सबसे पहले पिछले जन्मों की विराट चर्चा की, इसके पहले शिक्षकों ने कभी नहीं की थी।

उपनिषद वेद के शिक्षकों ने जान की बात कही थी, परम ज्ञान की बात कही। लेकिन कभी भी पिछले जन्मों के वितान से उसको जोड्ने की बहुत चेष्टा नहीं की। महावीर तक आते आते यह बात साफ हो गयी। यह बहुत साफ हो गयी कि सिर्फ इतना कहना काफी नहीं है कि तुम क्या हो सकते हो, यह भी बताना जरूरी है कि तुम क्या थे? क्योंकि तुम जो थे, उसके आधार के बिना तुम वह नहीं हो सकोगे जो हो सकते हो। इसलिये महावीर और बुद्ध का पूरा चालीस साल का समय लोगों को उनके पिछले जन्म स्मरण कराने में बीता। और जब तक एक आदमी पिछला जन्म स्मरण न कर ले तब तक वह कहते थे, आगे की फिक्र मत कर। तू पहले पीछे की पूरी फिक्र कर ले। साफ—साफ उस नक्‍शे को देख ले, तू कहां तक चल चुका है। फिर आगे कदम रख। अन्यथा दौड़ होगी, व्यर्थ होगी। कहीं तू फिर उसी रास्ते पर दौड़ता रहा, जिस पर तू पहले भी दौड़ चुका है, तो सार क्या होगा? इसलिए पुनर्स्मरण अत्यंत अनिवार्य कदम था।

अब आज की कठिनाई यह है, पुनर्स्‍मरण कराया जा सकता है, पिछले जन्मों का स्मरण कठिन जरा भी नहीं है। लेकिन साहस नाम की चीज ही खो गयी है। और पिछले जन्म का स्मरण तभी कराया जा सकता है जब कि इस जन्म की कैसी ही कठिन स्मृतियों में भी आप शांत रह सकते हों, अन्यथा नहीं करवाया जा सकता। क्योंकि यह तो कुछ कठिन नहीं है। पिछले जन्म की स्मृतियां टूटेंगी तो बहुत कठिन होगा। और ये स्मृतियां तो इंस्टालमेंट में मिलती हैं, वह तो इकट्ठी मिलेंगी। इसमें तो आज की तकलीफ आज झेल लेते हैं, कल भूल जाते हैं। कल की तकलीफ कल झेल लेते हैं, परसों भूल जाते हैं।

पिछले जन्म की स्मृति तो पूरी की पूरी इकट्ठी टूट पड़ेगी—इकट्ठी। फ्रेग्मेन्टस में नहीं आएगी। वह तो पूरी की पूरी आप के ऊपर आ जाएगी, एक साथ। उसको झेल पाएंगे कि नहीं झेल पाएंगे? उसके झेलने की कसौटी तभी मिलती है जब इस जन्म की सारी स्थिति में आपको कोई तकलीफ मालूम न पड़ती हो। इससे कोई पीड़ा नहीं, कोई अड़चन नहीं होती। कुछ भी हो जाए, कोई अंतर नहीं पड़ता। इस जीवन की कोई स्मृति आपके लिए चिंता न बनती हों, फिर ही पिछले जन्म की स्मृति में उतारा जा सकता है, नहीं तो वह महाचिंता हो जाए। और उस महाचिंता का द्वार तभी खोला जा सकता है जब झेलने की क्षमता और पात्रता हो।

‘मैं कहता आखन देखी’.

(अंतरंग भेट वार्ता)

बुडलैंड बम्बई

दिनांक 7 मार्च 1971


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–3)

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आकाश जैसा शाश्वत है सत्‍य—(प्रवचन—3)

‘मैं कहता आंखन देखी’.

(अंतरंग भेट वार्ता)

बुडलैंड बम्बई

दिनांक 10 मार्च 1971

भगवान श्री जिस इक्कीस दिन के अनुष्ठान की ओर आपने संकेत किया है क्या वह साधना या तत्वानुभूति किसी परम्परागत थी? क्योंकि आपके अभिव्यक्तिकरण से निरन्तर ऐसा भास होता है कि आप भी निशित ही किसी टीचर एवं तीर्थंकर की पद्धति का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी के अलर्गत यह जानने का साहस भी करना चाहता हूं कि आप किसी परम्परा की अध्यात्म—शृंखला की क्ती को जोड़ना चाहते हैं या बुद्ध की भांति किसी पहाड़ में नया मार्ग काटने का प्रयास कर रहे है?

 रम्परा से चली आनेवाली धारा तो परम्परागत है ही। बुद्ध का मार्ग भी अब नया नहीं है। जो परम्परा से चलते रहे वह तो मार्ग पुराना हो ही गया। लेकिन जो परम्परा को तोड़कर नयी परम्परा निर्मित करते रहे वह मार्ग भी अब नया नहीं है। उस भांति भी बहुत लोग चल चुके। जैसे बुद्ध ने एक नयी पद्धति तोड़ी। महावीर पुरानी परम्परा को मानकर चल पड़े। लेकिन महावीर की शृंखला में भी पहले आदमी ने पद्धति तोडी थी। वह मार्ग भी सदा से पुराना नहीं था। महावीर की शृंखला के पहले तीर्थंकर ने वही काम किया था जो बुद्ध ने किया। परम्परा मानकर चलना भी पुराना है।

नयी परम्पराएं तोड़ना भी नयी घटना नहीं है। नहीं तो परम्पराएं कैसे निर्मित होंगी। आज तो दोनों ही बातें पुरानी हैं। और इसलिए इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि आज की स्थिति में दोनों ही बातों से भिन्न किसी चीज की जरूरत है। क्योंकि दोनों तरह के लोग आज मौजूद हैं। अगर जार्ज गुरजिएफ को हम देखें तो वे किसी पुरानी परम्परा के सूत्र को स्थापित करेंगे; महावीर की तरह उसका काम है। अगर जे. कृष्णमूर्ति को देखें तो कोई नयी परम्परा का सूत्रपात करेंगे; बुद्ध के जैसा उनका काम है। पर दोनों बातें पुरानी हैं। बहुत परम्पराएं तोड़ी जा चुकी हैं और बहुत नयी परम्पराएं, बनायी जा चुकी हैं। जो आज नयी परम्परा होती है वही कल पुरानी हो जाती है। जो आज पुरानी दिखायी पड़ती है वह कल नयी है। आज की स्थिति न तो ठीक वैसी है जहां महावीर शाश्वत हो सके, और न ठीक वैसी है जहां बुद्ध शाश्वत हो सके। क्योंकि लोग पुराने से तो बुरी तरह ऊब गए हैं।

एक और नयी घटना घटी है; लोग नये से भी बुरी तरह ऊब रहे हैं। क्योंकि सदा से ऐसा खयाल था कि नया जो है, वह पुराने के विपरीत है। अब मनुष्य उस जगह है जहां उसे साफ दिखायी पड़ता है कि नया केवल पुराने का प्रारम्भ है। नये का मतलब है जो पुराना होगा। हमने नया कहा नहीं कि पुराना होना शुरू हो गया। अब नये का भी आकर्षण नहीं है। पुराने के प्रति विकर्षण था!

एक जमाना था, पुराने के प्रति आकर्षण था, बड़ा आकर्षण था। कोई चीज जितनी पुरानी थी उतनी कीमती थी क्योंकि उतनी परखी हुई थी, उतनी जानी पहचानी थी। उतनी प्रायोगिक थी, उतने अनुभव से गुजरी थी। परीक्षित थी भली—भांति। भय न था, निरापद थी। चलने में किसी तरह के संदेह की जरूरत न थी।

श्रद्धावान हुआ जा सकता था। इतने लोग चल चुके थे, इतने पैर पड़ चुके थे, इतने लोग पहुंच चुके थे कि नये चलनेवाले को आंख बन्द करके भी चलना हो तो चल सकता था। अंधे के लिए भी मार्ग था। जरूरत न थी कि वह बहुत संदेह करे, बहुत विचार करे, बहुत खोजे, बहुत निर्णय करे। और फिर अज्ञात में बहुत निर्णय हो नहीं सकता। और कितना ही संदेह कोई करे, अज्ञात की छलांग अन्तत: श्रद्धा तक ही लगती है। सन्देह ज्यादा से ज्यादा इतना ही कर सकता है कि किसी श्रद्धा तक पहुंचा दे। ताकि अन्ततः छलांग श्रद्धा से ही लगे। पर वैसे पुराने का आकर्षण भी खो गया। उस पुराने के आकर्षण के खो जाने के कारण थे।

पहला कारण तो यही बना कि पुराने की परम्परा, जब तक एक व्यक्ति के लिए एक ही परम्परा का परिचय था तब तक तो असुविधा न थी, लेकिन जब पुरानी परम्पराएं एक साथ एक व्यक्ति को परिचित हुईं तब अशुविधा पैदा हुई। जो आदमी हिन्दू घर में पैदा हुआ था, हिन्दू वातावरण में जिया था, हिन्दू मन्दिर के पास बड़ा हुआ था, हिन्दू मन्दिर की घण्टे की ध्वनि दूध के साथ खून में चली गयी थी, हिन्दू मन्दिर का देवता वैसा ही हिस्सा था हड्डी, खून, मांस का, जैसे हवा, पहाड़, पानी सब था। और कोई प्रतियोगी न था। कोई मस्जिद न थी, कोई चर्च न था। कभी दूसरा कोई स्वर किसी दूसरी परम्परा का मन के भीतर पडा न था।

तो पुराना इतना वास्तविक था कि उसमें प्रश्‍न नहीं लगाया जा सकता था। वह हम से भी इतने पहले था कि हम उसमें ही बड़े होते और खड़े होते थे। उससे अन्यथा हम सोच ही नहीं सकते थे। फिर मन्दिर के पास मस्जिद आ गयी, चर्च आ गया, गुरुद्वारे आए। सारी परम्पराएं एक साथ एक—एक व्यक्ति पर टूट पड़ी। जैसे जैसे गति हुई, स्थान छोटे होते चले गए और सारी परम्पराएं एक साथ टूट पड़ी। कन्‍फ्यूजन स्वाभाविक था। तब कोई भी चीज असंदिग्ध रूप से नहीं ली जा सकती थी, क्योंकि सन्देह करने के लिए दूसरा सूत्र भी सामने खड़ा था। अगर मन्दिर घण्टे देकर पुकार कर रहा है कि आओ, भरोसा करो, तो पास ही मस्जिद अजान दे रही है कि गलत है, वहां भूलकर भी मत जाना! ये दोनों बातें एक साथ प्रवेश कर गयीं।

यह जो सारी दुनिया में इतना सन्देह है, उस सन्देह का मौलिक कारण मनुष्य की बुद्धिमानी का बढ़ जाना नहीं है। मनुष्य उतना ही बुद्धिमान है, जितना सदा था। मनुष्य की बुद्धि पर बहुत से संस्कारों का एक साथ पड़ जाना है—स्वविरोधी संस्कारों का। और हर रास्ता दूसरे रास्ते को गलत कहेगा ही। यह मजबूरी है। इसलिए नहीं कि दूसरा रास्ता गलत है, दूसरा रास्ता गलत है इसलिये नहीं, बल्कि दूसरे रास्ते को गलत कहना ही होगा। दूसरे रास्ते को गलत न कहा जाए तो स्वयं को सही कहने की जो शक्ति है, जो बल है, वह टूट जाता है और बिखर जाता है। असल में स्वयं को सही कहना हो, तो दूसरे को गलत कहना अनिवार्य हिस्सा है। उसी की पृष्ठभूमि में स्वयं को सही कहा जा सकता है।

तो जब तक एक—एक परम्परा का अपना मार्ग था, और विजातीय मार्ग कहीं मिलते नही थे, कहीं कोई चौरस्ते नहीं थे, कहीं कोई चौराहे नहीं थे जहां विजातीय मार्ग भी मिलते हों—जब सब धाराएं अपने में बंटकर अलग—अलग बहती थीं, तब पुराने का गहन आकर्षण था। ऐसे युग में, ऐसे समय में, महावीर जैसा व्यक्तित्व बड़ा उपयोगी था, सहयोगी था। लेकिन जैसे—जैसे धाराएं अनेक हुईं, प्रतियोगी हुईं, बहुत हुई, पुराना संदिग्ध हो गया और नये का मूल्य बढ़ा। नये मूल्य के लिए भी प्रतियोगी थे। लेकिन पुरानी धारा के खिलाफ जब भी नया प्रतियोगी खड़ा हो जाए और जब सब पुरानी धाराएं मन को सिर्फ विभ्रम में डालती हों और कुछ तय न हो पाता हो, तो पुरानी में से चुनने की बजाय नये को चुनना मनुष्य के लिए सरल पड़ता है।

कई कारण हैं। पहला कारण तो यह कि पुरानी धाराओं का तीर्थंकर, पैगम्बर लाखों साल पहले हुआ। उसकी आवाज धुंधली हो जाती है बहुत। नये का पैगम्बर अभी मौजूद होता है, सामने। उसकी आवाज घनी हो जाती है। पुरानी जो परम्परा है, वह फिर भी पुरानी भाषा बोलती है, क्योंकि जब वह निर्मित हुई थी तब की भाषा बोलती है। नया तीर्थंकर, नया बुद्ध, नयी भाषा बोलता है। अभी निर्मित हो रही है। पुराने शब्दों के साथ जो संदेह जुड़ गया उन शब्दों को वह हटा देता है। वह नये शब्दों को लाता है जो एक तरह से कुंआरे हैं, जिन पर भरोसा ज्यादा आसान है।

तो नये का आकर्षण क्रमश: बढा, जैसे—जैसे परम्पराएं साथ हुईं, इकट्ठी हुईं; और करीब—करीब हम चौराहे पर जीने लगे जहां सभी रास्ते मिलते हैं, और हर घर के पास सभी रास्ते टूटते हैं। तो नये का आकर्षण बढ़ा लेकिन अब नये का आकर्षण भी नहीं है। क्योंकि अब हमें यह भी पता चला कि सब नये, अन्तत: पुराने हो जाते हैं। और जो भी पुराने हैं वे कभी नये थे। और अभी हमें यह भी पता चला कि नये और पुराने में शायद शब्दों का ही फासला है। नये की बड़ी गति थी।

इधर कोई तीन सौ वर्षों से नये ने वही प्रतिष्ठा ले ली थी जो कभी पुराने की थी। जैसे कभी पुराना होना सही होने का प्रमाण था वैसे ही नया होना सही होने का प्रमाण हो गया। इतना ही काफी है बताना कि नयी है बात, और लोग भरोसा करेंगे। जैसे पहले काफी था कि पुरानी है बात और लोग भरोसा करने लगते थे। अब किसी चीज को पुराना कहना अपने हाथ से उसको निंदित करना था। इसलिए प्रत्येक धारा नये होने की चेष्टा में लग गयी। और प्रत्येक धारा ने नये व्यक्ति पैदा किए जिन्होंने नये की बातें कीं। पुराना समाप्त नहीं हुआ, पुराने रास्ते चलते ही रहे, नये रास्ते भी चल पड़े। उन्हें भी नये चलनेवाले मिल गए। और जब नये की तीव्रता पकड़ती है तो एक अनूठी घटना घटी।

जैसे पुराना सदा तय करता था कि कितना पुराना है, तो सारे धर्म चेष्टा करते थे कि उनकी परम्परा से ज्यादा पुरानी कोई परम्परा नहीं है। अगर जैनों से पूछें तो वे कहेंगे कि उनकी परम्परा से ज्यादा पुरानी कोई परम्परा नहीं है। वेद भी बाद के हैं। अगर वेद से पूछें तो वे कहेंगे कि वेद काफी पुराना है। उससे तो पुराने का कोई सवाल ही नहीं है। वे तो प्राचीनतम है। उसको पीछे खींचने की कोशिश की जाएगी, क्योंकि पुराने की प्रतिष्ठा थी। फिर ऐसे ही नये की प्रतिष्ठा जब बननी शुरू हुई तो प्रश्‍न उठा, कितना नया?

तो आज से अगर पचास साल पहले अमरीका में, जहां कि नये की बहुत पकड़ थी, सबसे ज्यादा नया समाज था—तो दो पीढ़ियां थीं, क्योंकि बूढ़ों की पीढ़ी थी, जवानों की पीढ़ी थी, आज से पचास साल पहले। लेकिन आज अमरीका में दो पीढ़ियां नहीं हैं। आज हालत बहुत अजीब है। आज चालीस सालवाले की अलग पीढ़ी है, तीस सालवाले की अलग पीढ़ी है। बीस सालवाले की अलग पीढ़ी है। पन्द्रह सालवाले की अलग पीढ़ी है। तीस सालवाले कहते है, तीस साल के उपर भरोसा करना ही मत किसी पर। पच्चीस सालवाले तीस सालवाले पर भी उतने ही संदेह से भरे है, कि बूढ़े हो गए। लेकिन उनके पीछे जो बीस सालवाला जवान है वह कह रहा है कि यह भी जा चुके है। हाईस्कूल के बच्चे भी अब जवानों को का समझ रहे हैं जो आज पच्चीस साल के हैं। क्योंकि वे समझते हैं, कि तुम गए’ गुजरे हो, जा चुकी पीढ़ी। यह कभी सोचा भी न गया था कि इतनी पीढ़ियां होंगी। दो पीढ़ी का खयाल था, एक जवान पीढ़ी है, एक बूढ़े की पीढ़ी। लेकिन जवान की पीढ़ी में भी परतें हो जाएंगी और बीस साल का आदमी पच्चीस साल के आदमी को समझेगा कि वह गया—गुजरा है, आउट आफ डेट है।

जब इतने जोर से नये की पल्लू होनी शुरू होगी तो नये का आकर्षण भी खो जायेगा। क्योंकि आकर्षण बन भी नहीं पाएगा और नया पुराना हो जायेगा। आकर्षण बनने में भी समय लगता है। और धर्म कोई कपड़ों की फैशन की भांति नहीं है कि आप छह महीने में बदल लें। वह कोई मौसमी फूल के बीज नहीं हैं कि चार महीने पहले लगाया और चार महीने बाद समाप्त कर दिया। धर्म तो ऐसे वटवृक्ष हैं जो हजारों—लाखों साल में तो पूरे हो पाते है। और जब ऐसा खयाल हो कि हर दो चार दस साल में बदल डालना है तो वटवृक्ष लगेंगे ही नहीं। तब फिर मौसमी फूल ही लग सकते है। नये का आकर्षण भी खोने लगा।

यह मैने इसलिए कहा कि मैं साफ कर सकूं कि मेरी मनोदशा बिलकुल तीसरी है। न तो मैं मानता हूं कि महावीर की भाषा कारगर हो सकती है, परम्परा की। न मैं मानता हूं कि नये का ही आग्रह कारगर हो सकता है। दोनों ही गए। अब तो मैं मानता हूं कि शाश्वत का आग्रह अर्थपूर्ण है—पुराने का भी नहीं, नये का भी नही—जो सदा है।

सदा का मतलब है कि जो न पुराना होता है, न नया हो सकता है। पुराना नया दोनों ही सामयिक घटनाएं है और धर्म दोनों में काफी परेशान हो लिया। पुराने के साथ बंधकर भी परेशान हो लिया और अब नये के साथ बंधकर भी उसने देख लिया। कृष्णमूर्ति अभी भी नये का आग्रह लिए चले जाते हैं। उसका कारण है कि उनके पास जो पकड़ है वह 1915 और 1920 के बीच की है, जब कि नये का आकर्षण जमीन पर था। जो पकड़ है वह 1915 और 1920 के बीच की है, जब कि नया प्रभावी था। वह अभी भी वही कहे चले जाते हैं। लेकिन अब नये को कहने का भी कोई मतलब नहीं है।

अब तो इस पृथ्वी पर एक ही सम्भावना है। सब परम्पराएं इतनी निकट आ गयीं हैं कि अब कोई परम्परा एक्सस्मृसिवली कहे कि मैं ठीक हूं तो अब उस पर सन्देह पैदा होगा। कभी इस बात के कहने से विश्वास आता था कि कोई परम्परा कहती थी कि मैं ठीक हूं और निरपेक्ष, एब्सल्‍यूट अर्थों में ठीक हूं—कभी इससे श्रद्धा बनती थी। अब इसी से अश्रद्धा बन जायेगी कि कोई कहे कि मैं बिलकुल निरपेक्ष अर्थों में ठीक हूं यह उसके पागलपन का सबूत होगा।

यह सबूत होगा कि वह आदमी बहुत बुद्धिमान नहीं है। यह सबूत होगा कि बहुत सोच विचार वाला नहीं है। यह सबूत होगा कि बहुत मतान्ध है, अन्धा है, डॉगमेटिक है। बट्रेंब्द रसेल ने कहीं लिखा है कि मैंने किसी बुद्धिमान आदमी को कभी बेझिझक बोलते नहीं देखा। बुद्धिमान में तो झिझक होगी ही, हैजीटेशन होगा ही। सिर्फ बुद्ध बेझिझक बोल सकते हैं।

रसेल यह कह रहा है कि सिर्फ अज्ञानी कह सकते हैं कि, बस पूर्ण सत्य यह रहा। ज्ञान के बढ़ने के साथ ऐसी निरपेक्ष घोषणाएं नहीं हो सकतीं। इस युग में अब कोई एक परम्परा को ठीक कहने का आग्रह करे तो इसीलिये वह परम्परा को नुकसान पहुंचाने वाला हो जाएगा। ठीक दूसरी बात भी, कब्र कोई कहे कि जो मैं कह रहा हूं वह बिलकुल नया है, बेमानी हो गयी। क्योंकि इतने नये की उदघोषणा होती है और आखिर में बहुत गहरे में पाया जाता है कि वही है।

कितने रूपों में बातें कही जाती हैं, रूप जरा हटाकर देखें तो कपड़े हट जाते हैं और पीछे पाया जाता है, वही है। इसलिए नये की घोषणा भी बहुत अर्थ नहीं रखती। पुराने की घोषणा भी बहुत अर्थ नहीं रखती।

मेरी दृष्टि में भविष्य का जो धर्म है, कल जिस बात का प्रभाव होनेवाला है, जिससे लोग मार्ग लेंगे, और जिससे लोग चलेंगे, वह है—सनातन का, इटरनल का आग्रह। हम जो कह रहे हैं वह न नया है, न पुराना है। न वह कभी पुराना होगा और न उसे कभी कोई नया कर सकता है। हां, जिन्होंने पुराना कहकर उसे कहा था उनके पास पुराने शब्द थे, जिन्होंने नया कहकर उसे कहा उनके पास नये शब्द हैं। और हम शब्द का आग्रह छोड़ते हैं।

इसलिए मैं सभी परम्पराओं के शब्दों का उपयोग करता हूं जो शब्द समझ में आ जाए। कभी पुराने की भी बात करता हूं कि शायद पुराने से किसी को समझ में आ जाए, कभी नये की भी बात करता हूं कि शायद नये से किसी को समझ में आ जाए। और साथ ही यह भी निरंत्तर स्मरण दिलाते रहना चाहता हूं कि सत्य नया और पुराना सत्य नहीं होता।

सत्य आकाश की तरह शाश्वत है। जैसे वृक्ष लगते हैं आकाश में, खिलते है, फूल आते हैं, वृक्ष गिर जाते है। वृक्ष पुराने, बूढ़े हो जाते है। वृक्ष बच्चे और जवान होते हैं—आकाश नहीं होता। एक बीज हमने बोया और अंकुर फूटा, अंकुर बिलकुल नया है, लेकिन जिस आकाश में फूटा, वह आकाश! फिर बड़ा हो गया वृक्ष। फिर जराजीर्ण होने लगा। मृत्यु के करीब आ गया वृक्ष। वृक्ष बूढ़ा है, लेकिन आकाश जिसमें वह हुआ है, वह आकाश बूढ़ा है? ऐसे कितने वृक्ष आए और गए, और आकाश अपनी जगह है—अछूता, निर्लेप। सत्य तो आकाश जैसा है।

शब्द वृक्षों जैसे हैं। वे लगते हैं, अंकुरित होते हैं, पल्लवित होते हैं, खिल जाते हैं, मुरझाते हैं, गिरते हैं, मरते हैं, जमीन में खो जाते हैं। आकाश अपनी जगह ही खड़ा रहता है! पुरानों का जोर भी शब्दों पर था और नयों का जोर भी शब्दों पर है। मैं शब्द पर जोर ही नहीं देना चाहता हूं। मैं तो उस आकाश पर जोर देना चाहता हूं कि जिसमें शब्दों के फूल खिलते हैं, मरते हैं, खोते हैं और आकाश बिलकुल ही अछूता रह जाता है। कहीं कोई रेखा भी नहीं छूट जाती।

मेरी दृष्टि में सत्य शाश्वत है—नए पुराने से अतीत, ट्रांसेडेंटल है। हम कुछ भी कहें और कुछ भी करें, हम उसे न नया करते हैं, न हम उसे पुराना करते हैं। जो भी हम कहेंगे, जो भी हम सोचेंगे, जो भी हम विचार निर्मित करेंगे, वह आएंगे और गिर जाएंगे। सत्य अपनी जगह खड़ा रहेगा।

इसलिए वह भी नासमझ है जो कहता है, मेरे पास बहुत पुराना सत्य है। क्योंकि सत्य पुराना नहीं होता। क्योंकि आकाश पुराना नहीं होता। वह भी उतना ही नासमझ है जो कहता है कि मेरे पास नया सत्य है, मौलिक है। आकाश पुराना भी नहीं होता, आकाश मौलिक और नया भी नहीं होता।

इस तीसरे तत्व की घोषणा को मैं भविष्य के लिए मार्ग मानता हूं। क्यों मानता हूं? क्योंकि इस तत्व की घोषणा, बहुत सी परम्पराओं के जाल से जो उपद्रव पैदा हो गया है, उसे काटने वाली होगी। तब हम कहेंगे ठीक है, वे वृक्ष भी खिले थे आकाश में और ये वृक्ष भी खिल रहे हैं आकाश में! अनन्त वृक्ष खिलते हैं आकाश में, इससे आकाश को कोई फर्क नहीं पड़ता। आकाश में बहुत अवकाश है, बहुत स्पेस है। हमारे वृक्ष उसको रिक्त नहीं कर पाते और न भर पाते हैं। हम इस श्रम में न रहें कि हमारा कोई भी वृक्ष पूरे आकाश को भर देगा।

हमारे कोई भी शब्द, हमारी कोई भी धारणाएं कोई भी सिद्धान्त सत्य के आकाश को भर नहीं पाते। सदा गुंजाइश है। हजार महावीर पैदा हों तो भी कोई अत्तर नहीं पड़ता, करोड़ महावीर पैदा हों तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। करोड़ बुद्ध पैदा हो जाएं तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। कितने ही बड़े वे वटवृक्ष हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वटवृक्ष?एं के बड़े होने से आकाश के बड़ेपन को नहीं नापा जाता है। हालांकि स्वाभाविक वटवृक्षों के नीचे जो घास के तिनके हैं उन्हें आकाश का कोई पता नहीं होता, वटवृक्ष का ही पता होता है। और उनके लिए वटवृक्ष भी इतना बड़ा होता है कि इससे भी बड़ा कुछ हो सकता है, इसकी कल्पना भी सम्भव नहीं

तो अब इस दुर्गम स्थिति में जहां कि सारी परम्पराएं एक साथ खड़ी हो गयी हैं और आदमी के मन को एक साथ आकर्षित कर रही हैं चारों तरफ से, सब परम्पराएं सब तरह का आकर्षण पैदा कर रही हैं—पुराने हैं, नये है, रोज नये पैदा होनेवाले विचार हैं, वे सब मनुष्य को खीच रहे हैं। और उन सब के खींचने की वजह से मनुष्य ऐसी स्थिति में है कि वह ‘कि कर्त्तव्य विमूढ़’ है। वह करीब—करीब खड़ा हो गया है। वह कहीं जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। क्योंकि वह कहीं भी कदम बढ़ाए तो सन्देह पैदा होता है। श्रद्धा कहीं भी नहीं आती। सब श्रद्धा पैदा करवानेवाले ही उसको अश्रद्धा की हालत में खडा कर दिए हैं।

श्रद्धा तो जिस ढंग से पैदा की जाती थी उसी ढंग से अब भी पैदा की जा रही है। कुरान कहे जा रहे कि वह ठीक है, धम्मपद कहे जा रहे हैं कि वह ठीक है। स्वभावत: जो भी कहेगा कि मैं ठीक हूं उसे यह भी कहना पड़ता है कि दूसरा गलत है। दूसरे को भी यही कहना पड़ता है कि मैं ठीक हूं यही कहना पड़ता है कि दूसरा गलत है। और स्थिति ऐसी है कि खड़े हुए आदमी को ऐसा लगता है कि सभी गलत हैं। क्यों? क्योंकि खुद को ठीक कहने वाला तो एक है, लेकिन उस को गलत कहने वाले पचास हैं।

ठीक का दावा एक—एक अपने लिए कर रहा है, और उसके गलत होने का दावा बाकी पचास लोग कर रहे हैं कि वह गलत है। गलत कहे जाने का इतना बड़ा इम्पैक्ट होगा कि जो एक चिल्ला रहा है कि मैं ठीक हूं उसकी आवाज खो जाएगी उन पचास में जो कह रहे हैं कि वह गलत है। यद्यपि कि उन पचास के साथ भी यही हालत है। क्योंकि वह सब अपने को ही अकेला ठीक कहेंगे, बाकी पचास फिर उनको भी गलत कहेंगे। एक आदमी के सामने पचास लोग कहते हैं, गलत है, और एक आदमी कहता है, ठीक है। स्वभावत: वह चलनेवाला नहीं है। वह खड़ा हो जायेगा।

यह जो मनुष्य की आज की स्थिति है खड़े हो जाने की, उसके पीछे सबकी श्रद्धाएं और सब श्रद्धाओं की मांग, कि आ जाओ मेरे पास, दिक्कत डाल रही है। उन की पुरानी आदत है, वह कहे चले जा रहे हैं। यह स्थिति मिट सकती है एक ही तरह से : वह यह कि एक ऐसा आन्दोलन चाहिए जगत में, जो यह ठीक है या वह ठीक है, इसका बहुत आग्रह नहीं करता। खड़ा होना गलत है और चलना ठीक है, इसका आग्रह करता है। इसके लिए इतनी व्यापक दृष्टि की जरूरत है कि जो आदमी जहां जाना चाहे, वहां कैसे वह ठीक जा सके, यह बताने की सामर्थ्य हो। दुरूह है यह मामला।

मुसलमान होना आसान है, ईसाई होना आसान है, जैन होना आसान है। बंधी हुई लीक है, बंधी हुई परम्परा है। एक परम्परा से परिचित होना आसान है। एक युवक मेरे पास आया कोई आठ दिन पहले। वह मुसलमान है, वह संन्यासी होना चाहता है। मैंने सलाह दी, तू संन्यासी हो जा। उसने कहा, मेरी गर्दन दबा देंगे वे सारे लोग। मैंने कहा, तू संन्यासी जरूर हो जा, लेकिन ‘मुसलमान न रह’ यह मैं नहीं कह रहा हूं। तू मुसलमान रहते हुए संन्यासी हो जा।

उसने कहा, क्या फिर मैं गेरुआ वस्‍त्र पहनकर मस्जिद में नमाज पढ़ सकता हूं? मैंने कहा, पढ़नी ही पड़ेगी। उसने कहा, मैं तो नमाज पढ़ना छोड़ चुका आपको सुनकर। मैं तो ध्यान कर रहा हूं। मैं तो जाता नहीं मस्जिद आज सालभर से, और मुझे अपूर्व आनन्द हुआ है। जाना भी नहीं चाहता।

मैंने कहा, जब तक ध्यान तेरा उस जगह न आ जाये कि नमाज और ध्यान में कोई फर्क न रहे, तब तक समझना कि ध्यान अभी पूरा नहीं हुआ। इसे वापस नमाज पढ़ने भेजना ही पड़ेगा मस्जिद में। इसे मस्जिद से तोड़ना खतरनाक है। क्योंकि इसे मस्जिद से तोड़कर किसी मन्दिर से नहीं जोड़ा जा सकता है। क्योंकि जिस विधि से हम तोड़ते हैं वही विधि इसको इस भांति विकृत कर जाती है कि फिर यह किसी मन्दिर से नहीं जुड़ सकता। तो न तो पुराने मन्दिरों के बीच प्रतियोगिता खड़ी करनी है, और न नया मन्दिर खड़ा करना है। जो जहां जाना चाहे, खडा न रहे, जाए।

मेरे सामने जो पसपैक्टिवहै, जो परिप्रेक्ष्य है, वह यही है—कि जो भी व्यक्ति, उसकी क्षमता हो, जो उसकी पात्रता हो, जो उसका संस्कार हो, जो उसके खून में प्रवेश कर गया हो, जो सुगमतम हो उसके लिए, उस पर ही मै उसे गतिमान करता हूं। तो मेरा कोई धर्म नहीं है और मेरा कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि अब कोई भी रास्तेवाला धर्म, सम्प्रदायवाला धर्म, भविष्य के लिए नहीं है। सम्प्रदाय का अर्थ है रास्ता। अब कोई भी रास्तेवाला धर्म भविष्य के लिए काम का नहीं है।

अब ऐसा धर्म चाहिए जो एक रास्ते का आग्रह न करता हो, जो पूएर चौरस्ते को घेर ले। जो कहे सब रास्ते हमारे हैं। तुम चलो भर! तुम जहां से भी चलोगे वहीं पहुंचोगे। सब रास्ते वहीं ले जाते हैं। आग्रह यह है कि तुम चलो, खड़े मत रहो।

तो कोई नयी धारणा या कोई पर्वत पर नया मार्ग तोड्ने की मेरी उत्सुकता नहीं, मार्ग बहुत हैं। चलनेवाला नहीं है। मार्ग की कमी नहीं है कि मार्ग कम हैं इसलिए हम एक नया मार्ग तोडे। मार्ग बहुत हैं। मार्ग ज्यादा और चलने वाले कम हैं। करीब—करीब मार्ग सूने पड़ ए हैं जिन पर कोई चलने वाला वर्षों से नहीं गुजरा है। सैकड़ो वर्षों से, हजारों वर्षो से कई मार्ग सूने पड़े हैं। कोई राहगीर नहीं आया उन पर। क्योंकि पर्वत पर चढ़ने की जो सम्भावना थी, वही टूट गयी। पर्वत के नीचे इतना विवाद है, इतनी कलह है कि सारी कलह का पूरा का पूरा परिणाम वह प्रत्येक व्यक्ति को थका देनेवाला, घबरा देनेवाला, खड़ा कर देनेवाला है। इतनी विवंचना में कोई चल नहीं सकता।

यहां एक बात खयाल में ले लेनी जरूरी है, फिर भी मेरी दृष्टि इलेक्टिक नहीं है। मेरी दृष्टि गांधी जैसी नही है कि मैं चार कुरान के वचन चुन लूं और चार गीता के वचन चुन लूं और कहूं कि दोनों में एक ही बात है। दोनों में एक बात है नहीं। मैं कहता हूं कि सब रास्तों से चलकर आदमी वहीं पहुंच जाएगा, लेकिन सब रास्ते एक नहीं हैं। रास्ते बिलकुल अलग—अलग हैं। अगरगीता और कुरान को एक बताने की कोशिश की जाती है तो तरकीब है।

यह बड़ी मजेदार बात है कि गांधी गीता को पढ लेंगे, फिर कुरान को पढ़ लेंगे। कुरान में जो बातें गीता से मेल खाती हैं वह चुन लेंगे, बाकी बातें छोड़ देंगे। फिर बाकी बातें क्या हुईं? जो मेल नहीं खाती और जो विपरीत पड़ती हैं वे छोड़ देंगे। पूरे कुरान को गांधी कभी नहीं राजी हो सकते। पूरी गीता को राजी हैं।

इसलिए मैं कहता हूं.. इलेक्टिक। पूरे गीता को राज़ी है, फिर गीता के समानान्तर कुछ मिलता हो कहीं कुरान में तो उसके लिए राजी हैं। इसमें राजी होने में कोई कठिनाई नहीं है। इसको तो कोई भी राजी हो जाएगा। मैं कहता हूं कि मैं आपसे बिलकुल राज़ी हूं उतनी दूर तक, जहां तक कुरान गीता का अरबी रूपांन्तर है, बस। उससे इंच भर ज्यादा नहीं। वह तो कुरान वाला भी राजी हो जाता है।

लेकिन यह बहुत मजेदार प्रयोग होगा कि कुरानवाले से आप गीता में चुनवाएं कि कौन—कौन—सीबात का मेल है तो आप बिलकुल हैरान हो जाएंगे। जो चीजें वह चुनेगा वह गांधी ने कभी नहीं चुनीं। वह बहुत भिन्न चीजें चुनेगा। इसको इलेक्टिसिज्य कहता हूं। यह चुनना है, यह पूरे की स्वीकृति नहीं है। स्वीकृति तो हमारी ही है। उससे आप भी मेल खाते हो कहीं, तो आप भी ठीक हो। ठीक तो हम ही हैं अन्तत:। लेकिन आप भी उतनी दूर तक ठीक हो, इतनी कहने की हम सहिष्णुता दिखलाते है कि जितनी दूर तक आप हम से मेल खाते हैं। यह कोई बहुत सहिष्णुता नहीं है।

और यह प्रश्‍न कोई सहिष्णुता का नहीं है। यह तो आकाश जैसी उदारता की बात है, सहिष्णुता की नहीं है। टालरेंस का नहीं है। यह नहीं है कि हिन्दू एक मुसलमान को सह जाए, यह नहीं है कि ईसाई एक जैन को सहे। सहने में ही हिंसा भरी हुई है। मैं यह नहीं कहता कि कुरान और गीता एक ही बात कहती हैं। कुरान तो बिलकुल अलग बात कहता है। उसका अपना इडीवीजुअल स्वर है। वहीं उसकी महत्ता है। अगर वह भी वही कहता है जो गीता कहती है, तो कुरान दो कौड़ी का हो गया। बाइबिल तो कुछ और ही कहती है, जो न गीता कहती है, न कुरान कहता है। उनके सबके अपने स्वर हैं।

महावीर वही नहीं कहते जो बुद्ध कहते हैं, बड़ी भिन्न बातें कहते हैं। लेकिन इन भिन्न बातों से भी अन्तत: जहां पहुंचा जाता है, वह एक जगह है। इसलिए मेरा जोर मंजिल की एकता पर है, मार्ग की एकता पर नहीं है। मेरा जोर है, वह यह है, कि अन्ततः ये सारे मार्ग वहां पहुंच जाते हैं जहां कोई भेद नहीं ०.

ये मार्ग बड़े भिन्न हैं। और किसी भी आदमी को भूलकर दो मार्गों को एक समझने की चेष्टा में नहीं पड़ना चाहिए। अन्यथा वह किसी पर भी न चल पाएगा। माना कि ये सब नावें उस पार पहुंच जाती हैं, लेकिन फिर भी दो नावों पर सवार होने की गलती किसी को भी नहीं करनी चाहिए। अन्यथा नावें पहुंच जाएंगी, दो नावों पर चढ़नेवाला नहीं पहुंचेगा। वह मरेगा, वह डूबेगा कहीं। माना कि सब नावें नावें हैं, फिर भी एक ही नाव पर चढना होता है, पहुंचना हो तो।

हां, किनारे पर खड़े होकर बात करनी हो कि सब नावें नावें हैं, तो कोई हर्जा नहीं है। सब नावें एक ही हैं, तो भी कोई हर्जा नहीं। लेकिन यात्रा करने वाले को तो नाव पर कदम रखते ही चुनाव करना पड़ेगा। इस चुनाव के लिए मेरी परम स्वीकृति है सबकी। बहुत कठिन होगा, क्योंकि बड़ी विपरीत घोषणाएं हैं।

एक तरफ महावीर हैं जो चींटी को भी मारने को राजी न होंगे। पैर फूंककर रखेंगे। दूसरी तरफ तलवार लिए मुहम्मद हैं। तो जो भी कहता है कि दोनों एक ही बातें करते है, वह गलत कहता है। यह दोनों एक बात कह नहीं सकते। ये बातें तो बड़ी भिन्न कहते हैं और अगर एक बात बताने की कोशिश की गयी तो किसी—न—किसी के साथ अन्याय हो जाएगा। या तो मुहम्मद की तलवार छिपानी पड़ेगी और या महावीर का चींटी पर पैर फूंककर रखना भुलाना पड़ेगा।

अगर मुहम्मद का माननेवाला चुनेगा तो महावीर से वह हिस्से काट डालेगा जो तलवार के विपरीत जाते होंगे। और महावीर का माननेवाला चुनेगा तो तलवार को अलग कर देगा मुहम्मद से, और सिर्फ वे ही बातें चुन लेगा जो अहिंसा के ताल—मेल में पड़ती हों। बाकी यह अन्याय है।

इसलिए मैं गांधी जैसा समन्वयवादी नहीं हूं। मैं सारे धर्मों के बीच किसी सिंथीसिस और किसी समन्वय की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो यह कह रहा हूं कि सारे धर्म अपने निजी व्यक्तिगत रूप में जैसे हैं वैसे मुझे स्वीकृत हैं, मैं उनमें कोई चुनाव नहीं करता। और मैं यह भी कहता हूं कि उनके वैसे होने से भी पहुंचने का उपाय है।

सारे धर्मों ने जो अलग—अलग अपने रास्ते बनाए हैं, उन रास्तों के जो भेद हैं, वह रास्तों के भेद हैं। जैसे,— मेरे रास्ते पर वृक्ष पड़ते हैं और आपके रास्ते पर पत्थर ही पत्थर हैं। आप जिस कोने से चढ़ते हैं पहाड़ के, वहां पत्थर ही पत्थर हैं और मैं जिस रास्ते से चढ़ता हूं वहां वृक्ष ही वृक्ष हैं। कोई है कि सीधा पहाड़ पर चढ़ता है बड़ी चढ़ाई है और पसीने से तर बतर हो जाता है; कोई है कि बहुत मद्धिम और घूमते हुए रास्ते से चढ़ता है।

रास्ता लम्बा जरूर है लेकिन थकता कभी नहीं, पसीना कभी नहीं आता। निशित ही ये लोग अपने—अपने रास्तों की अलग—अलग बात करेंगे। इनके वर्णन बिलकुल अलग होगे। फिर प्रत्येक के रास्ते पर मिलनेवाली कठिनाईयों का हिसाब भी अलग होगा। और प्रत्येक कठिनाई से जूझने की साधना भी अलग होगी। यह सब अलग होगा।

अगर हम इन रास्तों की चर्चा को देखें तो हम इनमें शायद ही कोई समानता खोज पाएं। और जो समानता कभी दिखायी पड़ती है वह रास्तों की नहीं है। वह समानता उन वचनों की है जो पहुंचे हुए लोगों ने कहे। वह रास्तों की जरा भी नहीं है। केवल उन वचनों की है, जो शिखर पर पहुंचे लोगों ने कहे हैं।

फिर भाषा ही का फर्क रह जाता है, चाहे अरबी का, कि पाली का, कि प्राकृत का, कि संस्कृत का, उन शब्दों में जो मंजिल की घोषणा के लिए कहे गए हैं। बाकी मंजिल के पहले सारे फर्क बहुत वास्तविक हैं। और मैं नहीं कहता कि उनको भुलाने की जरूरत है।

तो मैं कोई नया रास्ता नहीं तोड़ना चाहता। न ही किसी पुराने रास्ते को, बाकी रास्तों के खिलाफ, सही कहना चाहता हूं। मैं कहना चाहता हूं कि सभी रास्ते सही हैं, भले ही भिन्न हों क्योंकि हमारे मन में सही होने का एक ही मतलब होता है कि वह एक से हैं। हमारे मन में एक भाव होता है कि दो चीजें तभी सही हो सकती हैं जब एक—सी हों। एक—सी होना कोई अनिवार्यता नहीं है। सच तो यह है कि दो एक सी चीजों में अकसर नकल होगी, सही नहीं होंगी। चाहे एक नकल हो, या दोनों ही नकल हों, एक तो पकी ही नकल होगी। दो बिलकुल ही वास्तविक चीजें बिलकुल अलग होती हैं। उनका व्यक्तित्व भिन्न होता ही है।

इसमें मैं आत्‍मर्य नहीं मानता कि मुहम्मद और महावीर के मार्ग में भेद हैं। न होता भेद तो एक चमत्कार था। जो कि बिलकुल अस्वाभाविक है। महावीर की सारी परिस्थितियां भिन्न हैं, मुहम्मद की सारी परिस्थितियां भिन्न हैं। मुहम्मद को जिन लोगों के साथ काम करना पड़ रहा है, बिलकुल भिन्न हैं। महावीर को जिनके साथ काम करना पड़ रहा है, वह बिलकुल भिन्न हैं। सारी संस्कारगत धारा है मुहम्मद के लोगों की, बिलकुल और और महावीर के पास जो धारा है वह बिलकुल और है। यह सब इतना भिन्न है कि इसमें महावीर और मुहम्मद का मार्ग नहीं हो सकता। और आज भी सबकी स्थितियां भिन्न हैं। उन भिन्न स्थितियों को ही ध्यान में रखकर जाना पड़ता है। तो मैं, न तो कोई नया मार्ग तोड्ने को उत्सुक हूं न किसी पुराने मार्ग को, शेष पुराने मार्गों के खिलाफ सही कहने को उत्सुक हूं।

दो बातें हैं—सभी सही है जो टूटे मार्ग वे, जो आज टूट रहे हैं वे, और जो कल टूटेंगे वे भी, जो अभी नहीं टूटे हैं वे भी सही हैं। आदमी खड़ा न रहे—चले। गलत से गलत मार्ग से चलनेवाला भी आज नहीं कल पहुंच जाएगा। और सही से सही मार्ग पर खड़ा रहनेवाला कभी नहीं पहुंच सकता। असली सवाल चलने का है। और जब कोई चलता है तो गलत मार्ग से मुक्त हो जाना अड़चन नहीं है। लेकिन जब कोई खड़ा रह जाता है तो पता ही नहीं चलता कि जहां खड़ा है वह सही है कि गलत। चलने से पता चलता है कि सही है या गलत है।

अगर आप किसी भी सिद्धान्त को मानकर बैठ जाएं तो कभी पता नहीं चलता है कि वह सही है या गलत। आप उसका प्रयोग करें और चलें और आपको फौरन पता चलता है कि वह सही है या गलत। कोई भी विचार, कर्म बनकर ही सही या गलत होने की कसौटी पर कसा जाता है, अन्यथा कोई कसने का उपाय नहीं है। तो मेरी उत्सुकता है, चलें। और मैं प्रत्येक को उसको मार्ग पर ही सहारा देने को उत्सुक हूं। स्वभावत: महावीर के लिए यह आसान नहीं था।

आज यह आसान है, और रोज आसान होता चला जाएगा, क्योंकि आज करीब—करीब ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो अपने दो चार छह जन्मो में, दो चार छह धर्मों में पैदा न हो चुका हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। एक—एक आदमी चार—चार, छह—छह धर्मों में पैदा हो चुका है। इधर पिछले पांच सात सौ वर्षों में जैसी बाहरी निकटता बढ़ी है वैसी ही भीतरी आत्मा के आवागमन की निकटता भी बढी है। जोकि स्वाभाविक है, बढ़ेगी ही।

जैसे, उदाहरण के लिए, आज से दो हजार साल पहले कोई ब्राह्मण मरता तो शूद्र के घर में पैदा होता, सौ मैं निन्यानबे मौके पर सम्भव नहीं था। शूद्र के घर में पैदा नहीं हो सकता था। आत्मा का आवागमन इतना ही कठिन था। क्योंकि आवागमन ही नहीं था। चित्त तो सारे संस्कार लेता है। जिस शूद्र को कभी छुआ नहीं, जिसकी छाया से बचे, जिसकी छाया पड़ गयी तो सान किया, अलंध्य खाई रही जिसके और हमारे बीच।

मरने के बाद आत्मा यात्रा नहीं कर सकती। क्योंकि यात्रा जो चित्त कराएगा वह चित्त बिलकुल ही खिलाफ है। कोई यात्रा नहीं हो सकती। इसलिए महावीर के समय तक बहुत कभी ऐसा मौका होता था कि कोई आदमी कोई धर्म परिवर्तन में पैदा हो जाए। यह सम्भव नहीं था। धाराएं इतनी बंधी थीं, लीकें इतनी साफ थीं कि आप इस जन्म में ही अपने धर्म के भीतर घुमते थे। ऐसा नहीं है, आप अगले जन्म में भी उसी धर्मों के भीतर घूमते थे। अब यह सम्भव नहीं रहा। अब चीजें जैसे बाहर उदार हो गयी हैं वैसे भीतर भी उदार हो गयी हैं। वह चित्त की बात है।

आज मुसलमान के साथ बैठकर खाना खाने में किसी ब्राह्मण को कोई तकलीफ कम हुई है और भी कम होती चली जाएगी। और जिसको कम नहीं हुई है वह आज का आदमी नहीं है। उसके पास चित्त पांच सौ साल पुराना है। आज के आदमी को तो बिलकुल कम हो गयी है। आज तो सोचना भी उसे बेहूदा मालूम पड़ता है कि इस तरह की बात सोचे। इससे भीतरी आवागमन का भी द्वार खुल गया है, यह खयाल में ले लेना जरूरी है।

इधर पांच सौ वर्ष में रोज द्वार खुलता चला गया है। वह जो भीतर का द्वार खुल गया है उसके कारण, आज कुछ बातें कही जा सकती हैं। अगर मैंने अपने पिछले जन्मों में अनेक मार्गों पर घूमकर देखा हो तो मेरे लिए बहुत आसान हो जाता है कि मैं कुछ कह सकूं। अगर आज एक तिब्बती साधक मुझसे पूछता हो तो उससे मैं कह सकता हूं। लेकिन तभी कह सकता हूं जब कि किसी न किसी यात्रा में तिब्बतन जो मिल्‍यू है, तिब्बती जो वातावरण है, उसमें मैं जिया हूं अन्यथा मैं नहीं कह सकता हूं। और अगर मैं कहूंगा तो ऊपरी होगा, बहुत गहरा नहीं हो सकता। जब तक कि मैं किसी जगह से नहीं गुजरा होऊं तब तक मैं बहुत कुछ नहीं कह सकता।

अगर मैंने कभी नमाज नहीं पढ़ी है तो मैं नमाज के लिए कोई सहायता नहीं दे सकता हूं। और दूंगा तो बहुत ऊपरी होगी। किसी मूल्य की नहीं होगी। लेकिन अगर मैं किसी भी मार्ग से नमाज से गुजरा हूं तो मैं सहायता दे सकता हूं। और अगर मैं एक दफा भी गुजरा हूं तो मैं जानता हूं कि नमाज से भी वहीं पहुंचा जाता है, जहां किसी प्रार्थना से पहुंचा जाता होगा। और तब मैं इलेक्टिक नहीं हूं। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि हिन्दू मुसलमान को एक होना ही चाहिए, इसलिए दोनों ठीक हैं। तब मेरे कहने का कारण बहुत और है। तब मैं जानता हूं कि वे दोनों की पद्धतियां भिन्न है, लेकिन जो प्रतीति है भीतर, वह एक है। और यह स्थिति आगे भी जो मैं कह रहा हूं उसके अनुकूल होती चली जाएगी। भविष्य के लिए आनेवाले सौ वर्षों में इतना आवागमन तीव्र हो जाएगा आत्माओं का, क्योंकि जितने बन्धन बाहर टूटेंगे, उतने भीतर टूट जाएंगे।

यह जानकर आप हैरान होंगे कि जिन्होंने बाहर बन्धन बहुत सख्ती से तय किए थे, उनका आग्रह भी बाहर के बन्धन के लिए नहीं था। भीतर का इन्तजाम था। इसलिए कभी भी इस मुल्क की वर्ण व्यवस्था को बहुत वैज्ञानिक रूप से समझा नहीं जा सका। जैसा आज हमें लगता है कि कितना अन्याय किया होगा उन लोगों ने कि एक तरफ वही ब्राह्मण उपनिषद लिख रहा है और दूसरी तरफ वही ब्राह्मण शूद्रों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करने की व्यवस्था कर रहा है। यह संगत नहीं है बातें। या तो सब उपनिषद झूठे हैं, जो लिखे नहीं गये कभी, क्योंकि उसी ब्राह्मण से नहीं निकल सकते जिस ब्राह्मण से शूद्र की व्यवस्था निकल रही है। और अगर उससे ही शूद्र की व्यवस्था निकली हो, तो हम जो व्याख्या कर रहे हैं उसमें कहीं भूल हो गयी है। निकली उसी से है। वही मनु एक तरफ इतनी ऊंची बात कह रहा है जिसका कोई हिसाब नहीं।

नीत्से कहा करता था कि मनु से ज्यादा बुद्धिमान आदमी पृथ्वी पर नहीं हुआ। लेकिन अगर मनु के वचन हम देखें तो शूद्रों और वर्णों के बीच जितनी अलंध्य खाइयां उसने निर्मित कीं, उतनी किसी और आदमी ने नहीं कीं। वह अकेला आदमी जो तय कर गया उसको आज भी नहीं हिला पा रहे है आप। पांच हजार साल की धारा पर वह छाया है। आज भी सारा कानून, सारी व्यवस्था, सारी समझ, सारी बुद्धिमानी, सारी राजनीति उसके खिलाफ लगी हुई है, उस पांच हजार साल पहले मरे हुए आदमी के। लेकिन वह जो व्यवस्था दे गया है उसको हटाना बहुत मुश्किल पड़ रहा है।

राजा राममोहन राय से लेकर गांधी तक सारे हिन्दुस्तान के डेढ़ सौ वर्षों के समझदार, सारे समझदार आदमी मनु के खिलाफ लड़ रहे हैं। और वह एक आदमी, और वह भी पांच हजार साल पहले हो गया! वह कोई छोटी समझ का आदमी नहीं है। ये सब बचकाने हैं उसके सामने—बिलकुल जुविनायत्स हैं। गांधी या राजा राममोहन राय बिलकुल बचकाने हैं। आज सारी स्थिति विपरीत हो गयी है, फिर भी मनु एकदम हिल नहीं पा रहा है। उसको हिलाना कठिन है। क्योंकि कारण भीतर है।

सारी व्यवस्था ऐसी थी कि एक आदमी इस जन्म में अगर नमाज पड़ता रहा है तो मनु चाहता है कि वह अगले जन्म में भी नमाज वाले घर में ही पैदा हो। नहीं तो जो काम तीन जन्म में हो सकता है, एक ही परम्परा में पैदा होकर, वह तीस जन्मों में भी नहीं हो सकता। हर बार शृंखला टूट जाएगी और जब भी वह आदमी रास्ता बदलेगा तब फिर अ ब स से शुरू करेगा। पुराने से आगे नहीं जोड़ा जा सकेगा।

एक आदमी पिछले जन्म में मुसलमान के घर में था और इस जन्म में हिन्दू के घर में पैदा हो गया, अब वह फिर क ख ग से शुरू कर रहा है। पिछली यात्रा बेकार हो गयी, पुंछ गयी। उसका कोई अर्थ न रहा।

वह ऐसा हुआ कि जैसे एक बच्चा एक स्कूल में पढ़ा था छह महीने, फिर निकल आया, फिर दूसरे स्कूल में भर्ती हुआ फिर पहली क्लास में भर्ती हुआ, फिर छह महीने बाद तीसरे स्कूल में भर्ती हो गया, उन्होंने फिर उसे पहली क्लास में भर्ती कर लिया। वह स्कूल बदलता चला गया। यह शिक्षित कब होगा?

मनु का खयाल था यह और बड़ा कीमती है, कि उस व्यक्ति को उसी विचार—तरंगों के जगत में वापस पहुंचा दें जहां से वह छोड़ रहा है। फिर से शुरू न करना पड़े। जहां से छोड़ा वहां से शुरू कर सके। और यह तभी हो सकता था जब बहुत सख्ती से व्यवस्था की जाए। इसमें थोड़ी भी ढील—पोल से नहीं चलता। अगर इसमें इतना भी होगा कि कोई हर्जा नहीं है शूद्र से विवाह कर लो। लेकिन मनु ज्यादा बुद्धिमान है, वह जानता है कि जब शूद्र से विवाह कर सकते हो तो तब कल शूद्र के घर में गर्भ लेने में कौन सी कठिनाई पड़ेगी? जब शूद्र की लड़की को गर्भ दे सकते हो तो शूद्र की लड़की में गर्भ लेने में कौन—सी अड़चन रह जाएगी? कोई तर्क संगत अड़चन नहीं रह जाती। अगर गर्भ लेने से रोकना है तो गर्भ देने से रोकना पड़ेगा।

इसलिए विवाह पर सख्त पाबन्दी लगा दी। उसने इंचभर हिलने नहीं दिया। क्योंकि यहां इंचभर हिल गए तो पीछे की सारी व्यवस्था, वह सारी की सारी अस्त—व्यस्त हो जाएगी। लेकिन वह अस्त—व्यस्त हो गयी। अब शायद उसे व्यवस्थित करना कठिन पड़ेगा। कठिन क्या, मैं समझता हूं असम्भव है। अब हो नहीं सकता। सारी स्थिति ऐसी है, कि अब नहीं हो सकता। अब उन्हें और सूक्ष्म रास्ते खोजने पड़ेंगे, मनु से भी ज्यादा सूक्ष्म। मनु बहुत बुद्धिमान था, लेकिन व्यवस्था बहुत स्कूल थी। इसलिए स्कूल व्यवस्था आदमी के लिए अन्यायपूर्ण हो जाएगी। बहुत बाह्य, बाहर से रोकी थी, भीतर को सम्हालने के लिए—जो आज नहीं कल कठिन हो ही जाएगी—स्टिफ जैकिट बैठ गयी ऊपर, वह लोहे की हो गयी।

आज हमें और सूक्ष्म तल पर प्रयोग करने पड़ेंगे। सूक्ष्म तल पर प्रयोग करने का मतलब यह है कि आज हमें प्रार्थना और नमाज को इतना तरल बनाना पड़ेगा कि जिसने पिछले जन्म में नमाज छोड़ी हो वह इस जन्म में अगर प्रार्थना भी शुरू करे तो वहां से शुरू कर सके जहां नमाज छोड़ी। इसका मतलब यह हुआ कि प्रार्थना और नमाज इतनी तरल, लिक्विड होनी चाहिए कि प्रार्थना से नमाज शुरू की जा सके। नमाज से प्रार्थना शुरू की जा सके। मन्दिर के घण्टे सुनते—सुनते कान ऐसे न हो जाएं कि किसी दिन सुबह अजान की आवाज अजनबी मालूम पड़े। मन्दिर के घण्टों और अजान की आवाज में कहीं कोई आतरिक तालमेल बनाना पड़ेगा। और इस बनाने में कोई कठिनाई नहीं है। यह बिलकुल बनाया जा सकता है।

और इसलिए भविष्य के लिए एक बिलकुल नये धर्म की, नयी धार्मिकता की, न्यू रिलीजियसनेस—नया धर्म नहीं कहना चाहिए—नयी धार्मिकता की जरूरत पडेगी। मनु का सारा इन्तजाम टूट गया। बुद्ध, महावीर की सारी परम्पराएं विशृखल हो गयीं। उन्हीं आधारों पर कोई नये प्रयोग करना चाहेगा तो वे मजबूरी में टूट जाएंगी। गुरजिएफ ने बहुत कोशिश की, वह टूट गया। कृष्णमूर्ति चालीस साल से मेहनत करते हैं, कुछ बनता नहीं। सारी स्थिति अन्यथा हो गयी। इस अन्यथा स्थिति में बिलकुल ही एक नयी धारणा.?.

नयी धारणा—नयी इस अर्थ में, जैसा कि हमने कभी प्रयोग ही नहीं की। एक तरल धर्म की धारणा है। सब धर्मों के, वे जैसे है वैसे ही, सही होने की धारणा। दृष्टि मंजिल पर, आग्रह चलने का! कहीं भी कोई चले, और हर दो रास्तों के बीच इतनी निकटता कि किसी भी रास्ते से दूसरा रास्ता शुरू हो सके। इन रास्तों के बीच इतना फासला नहीं कि एक रास्ते पर चलनेवाला जब दूसरे पर शुरू करे तो उसे दरवाजे पर आना पडे वापस—नहीं, वह जहां से दूसरे रास्ते से हटे, वहीं से दूसरे रास्ते से मिल जाए।

तो जिनको कहना चाहिए—लिंक रोड्स, रास्तों को जोड़ने वाली शृंखला, कड़ियां! मंजिल से जोड़नेवाले रास्ते सदा से है। दो रास्तों को जोड़नेवाली कड़ियां सदा से नहीं हैं। मंजिल तक जाने की तो कोई कठिनाई नहीं है। कोई भी एक रास्ते को पकड़े, मंजिल तक पहुंच जाएगा। लेकिन अब ऐसा है कि एक रास्ते पर शायद ही कोई पूरा चल पाए। जिन्दगी रोज अस्त—व्यस्त होती रहेगी। भौतिक अर्थों में भी और मानसिक अर्थों में भी अस्त—व्यस्त होती रहेगी।

एक आदमी हिन्दू घर में पैदा होगा, हिन्दू गांव में बड़ा होगा और फिर जिन्दगी हो सकती है, वह यूरोप में बिताए। एक आदमी अमेरिका में पैदा होगा और हिन्दुस्तान के जंगल में जिन्दगी बिताए। लन्दन में बड़ा होगा, वियतनाम के गांव में जिएगा। यह रोज होता जाएगा। भौतिक अर्थों में भी रोज वातावरण बदलेगा और आन्तरिक अर्थों में भी इतना ही वातावरण बदलेगा। यह बदलाहट इतनी ज्यादा होती जाएगी कि अब हमें लिंक्स बनानी पड़ेगी, सब रास्तों के बीच।

कुरान और गीता एक नहीं है। कुरान और गीता के बीच एक कड़ी बांधी जा सकती है। तो मैं एक ऐसे संन्यासियों का जाल भी फैलाना चाहता हूं जो कड़ियां बन जाएं। मस्जिद में नमाज भी पढ़ें, चर्च में भी प्रार्थना करें, और मन्दिर में भी गीत गाएं। महावीर के रास्ते पर भी चलें, बुद्ध की साधना में भी उतरें, सिक्खों के पन्थ पर भी प्रयोग करें और लिंक निर्मित करें। और ऐसे व्यक्तियों का जीवित जाल, जो लिंक बन जाए! और ऐसी एक धार्मिक अवधारणा कि सब धर्म भिन्न होते हुए एक हैं! अभिन्न होकर एक नहीं है, भिन्न होते हुए, बिलकुल भिन्न होते हुए, अपनी—अपनी निजता में भिन्न होते हुए एक हैं। एक, क्योंकि एक जगह पहुंचाते हैं। एक, क्योंकि परमात्मा की तरफ चलाते है।

तो मेरा काम कुछ तीसरे तरह का है। और वैसा काम ठीक से हुआ नहीं, कभी हुआ नहीं। कुछ छोटे—छोटे कभी प्रयोग किए गए, बहुत छोटे। लेकिन सदा असफल हुए। रामकृष्ण ने थोड़ी—सी मेहनत की। पर वह प्रयोग भी बहुत पुराने नहीं हैं, इधर बस दो सौ वर्ष के बीच प्राथमिक कदम उठाए गए। रामकृष्ण ने मेहनत की, लेकिन खो गयी। विवेकानन्द ने उसे फिर वापस हिन्दू रंग दे दिया पूरा का पूरा। वह बात खो गयी।

नानक ने कोशिश की थी पांच सौ साल पहले, और थोड़ी पीछे भी कोशिश हुई, लेकिन वह भी खो गयी। नानक ने गुरु गन्ध में सारे हिन्दू र मुसलमान संतों की वाणी इकट्ठी की। नानक गीत गाते, तो मर्दाना—स्व मुसलमान तंबूरा बजाता। कभी किसी दूसरे को तंबूरा बजाने नहीं दिया उन्होंने। उन्होंने कहा कि गीत हिन्दू गाता हो तो मुसलमान तंबूरा तो बजाए। गीत और तंबूरा कहीं तो एक हो जाए। मक्का और मदीना की यात्रा की, मस्जिदों में नमाज पढ़ी नानक ने, पर खो गयीं। तत्काल सारी चीज को इकट्ठी करके नया पंथ खड़ा हो गया।

और भी सूफी फकीरों ने कुछ मेहनत की। और कहीं—कहीं कुछ और मेहनत हुई लेकिन सारी मेहनत प्राथमिक ही रही, वह अभी तक बन नहीं पायी। उसके दो कारण थे। युग भी पूरा नहीं निर्मित हुआ था। लेकिन अब युग पूरा निर्मित हुआ जा रहा है। अब एक बड़े पैमाने पर श्रम किया जा सकता है।

मेरी दिशा बिलकुल तीसरी है। न पुराने को दोहराना है, न नये की कोई बात है। पुराने और नये में, सब में जो है, उस पर चलने का आग्रह है। कैसे भी चलें उसकी स्वतंत्रता है।

भगवान श्री जिस शाश्वत की बात जिस सनातन की बात आपने की है— क्या उसका बोध सात सौ वर्ष पूर्व आपको हो चुका था— और उसी सांकेतिक में भी आज आप सारी बात कर रहे हैं—अथवा आज की परिस्थितियों में उस शाश्वतता वाली बात का बोध होता है?

शाश्वत का बोध सभी को हुआ है। बोध में कहीं कोई अड़चन नहीं है। बोध की अभिव्यक्ति में अड़चन पड़ती है। शाश्वत का बोध महावीर को भी है, बुद्ध को भी है, लेकिन महावीर पुराने की भाषा में उस शाश्वत के बोध को अभिव्यक्त करते हैं; बुद्ध नये की भाषा में उस शाश्वत को अभिव्यक्त करते हैं।

मैं उसे शाश्वत की ही भाषा में अभिव्यक्त करना चाहता हूं। और जो आप पूछते हैं कि क्या सात सौ वर्ष पहले मुझे हो गया था? करीब—करीब हो गया था, परन्तु अभिव्यक्ति तो आज ही दूंगा। क्योंकि सात सौ साल पहले भी जो जाना हो, वह भी जब आज कहा जाएगा, तो जानने में अन्तर नहीं पड़ेगा, कहने में बहुत अन्तर पड़ेगा। सात सौ साल पहले यही नहीं कहा जा सकता था, कोई कारण ही नहीं था कहने का। स्थिति करीब—करीब ऐसी है जैसे कभी वर्षा में इन्द्रधनुष बन जाता है।

यह बहुत मजेदार घटना है। आप जहां खड़े होते हैं वहां से इन्द्रधनुष दिखायी पड़ता है। इन्द्रधनुष तीन चीजों पर निर्भर होता है। वर्षा के कण, पानी के कण होने चाहिए हवा में, भाप होनी चाहिए हवा में। उन कणों को या भाप को काटनेवाली सूरज की किरणें एक विशेष कोण पर होनी चाहिए। और आप एक खास जगह में खड़े होने चाहिए। अगर आप उस जगह से हट जाएं तो इन्द्रधनुष खो जाएगा। इन्द्रधनुष के बनाने में सिर्फ सूरज की किरणें और पानी की बूंदें ही काम नहीं करती हैं, आपका खास जगह खड़ा होना भी काम करता है। सिर्फ सूरज की किरणें और पानी नहीं बनाते इन्द्रधनुष को, आपकी आंख खास जगह से देखकर भी उतना ही हिस्सा बंटाती है उसके निर्माण में। यानी सूरज के कांस्टीटबुएस्स एलीमेंट्स जो हैं, उनमें आप भी एक हैं। तीन में से कोई भी हट जाए तो इंद्रधनुष खो जाएगा।

तो जब भी सत्य अभिव्यक्त होता है तब भी तीन चीजें होती हैं। सत्य की अनुभूति होती है। वह न हो तब तो सत्य की अभिव्यक्ति नहीं होती। सूरज न निकला हो तो कोई इन्द्रधनुष बनने वाला नहीं है, आप कहीं भी खड़े हो जाएं और वर्षा के कण कुछ भी करें। तो सूर्य की तरह तो सत्य की अनुभूति अनिवार्य है। लेकिन सत्य की अनुभूति हो, सत्य को सुननेवाला भी मौजूद हो लेकिन बोलनेवाला ठीक कोण पर न हो तो नहीं बोला जा सकता।

जैसा कि मेहर बाबा को मैं मानता हूं। वह कभी उस ठीक कोण पर नहीं खड़े हो पाए जहां से उनकी अनुभूति और सुननेवाले के बीच इन्द्रधनुष बन जाता। वह कभी उस कोण पर न खड़े हो पाए। बहुत—से फकीर मौन रह गए। मौन रहने का कारण है। वे भी कोण पर नहीं खड़े हो पाए ठीक, जहां से कि अभिव्यक्ति का कोण बन सके। वह भी अनिवार्य है। नहीं तो सत्य की अनुभूति एक तरफ रह जाएगी, सुननेवाला एक तरफ रह जाएगा, यदि बोलनेवाला मौजूद नहीं हो ठीक जगह पर। लेकिन बोलनेवाला भी ठीक जगह पर हो, ठीक बोलने में समर्थ हो, लेकिन सुननेवाला—वह भी तो कांस्टीस्तुएंट है! वह भी सात सौ साल पहले जिससे मैं बोलता वह भी मेरे बोलने में हिस्सा होता।

इसलिए मैं यही नहीं बोल सकता जो मैं आपसे बोलता हूं। और आप यहां न बैठे हों तो भी मैं यही नहीं बोल सकूंगा। क्योंकि आप भी, जो मैं बोल रहा है उसमें उतने ही अनिवार्य हिस्से हैं। आपके बिना भी नहीं बोला जा सकता। यह तीनों चीजें जब एक निश्‍चित ट्यूनिंग पर आती हैं, एक निशित ध्वनि—तरंग पर मेल खाती हैं, तब अभिव्यक्ति हो पाती है। इसमें जरा—सी भी चूक हुई कि सब खो जाता है। इन्द्रधनुष एकदम बिखर जाता है। सूरज फिर कुछ नहीं कर सकता। पानी की बूंदें कुछ नहीं कर सकतीं। एक भी चीज कहीं से हिल गयी कि इन्द्रधनुष तत्काल खो जाता है।

सत्य की अभिव्यक्ति तो वह ‘रेनबो एक्वस्टेंस’ है। वह बिलकुल ही इन्द्रधनुष की भांति है। पल—पल खोने को तत्‍पर है। जरा—सा इधर—उधर चूके कि वह खो जाएगी। सुननेवाला जरा—सा चूका, इन्द्रधनुष खो जाएगा। बोलनेवाला जरा—सा चूका कि बोलना व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए सात सौ साल की बात तो दूर है, सात दिन पहले भी आपसे मैं यही नहीं कह सकता था, और सात दिन बाद भी यही नहीं कह सकूंगा। क्योंकि सब बदल जाएगा। सूरज नहीं बदलेगा, वह जलता रहेगा। लेकिन सूरज के अलावा, सत्य की अनुभूति के अलावा, वह जो दो और अनिवार्य तत्व हैं—सुननेवाला और बोलनेवाला—वह दोनों बदल जाएंगे।

इसलिए बोध तो सात सौ साल पहले का है, लेकिन अभिव्यक्ति तो आज की है— अभी की है। आज की भी नहीं, कहनी चाहिए— अभी की! कल भी जरूरी नहीं है कि ऐसी ही हो। कठिन है कि ऐसी ही हो, उसमें बदलाहट होती ही जाएगी।

आत्मा जब शरीर छोड़ देती है और दूसरा शरीर धारण नहीं करती है उस बीच के समयातीत अंत्तराल में जो घटित होता है—उसका तथा जहां वह विचरण करती है उस वातावरण के वर्णन की कोई सम्भावना हो सकती है? और इसके साथ जिस प्रसंग में आपने आत्मा का अपनी मर्जी से जन्म लेने की स्वतंत्रता का जिक्र किया है तो क्या उसे जब चाहे शरीर छोडने अथवा न छोडने की भी स्वतंत्रता है?

हली तो बात, शरीर छोड़ने के बाद और नया शरीर ग्रहण करने के पहले जो अन्तराल का क्षण है, अन्तराल का काल है, उसके संबंध में दो—तीन बातें समझें तो ही प्रश्‍न समझ में आ सके। एक तो यह कि उस क्षण जो भी अनुभव होते हैं वे स्वप्नवत हैं, ड्रीम लाइक हैं। इसलिए जब होते हैं तब तो बिलकुल वास्तविक होते हैं, लेकिन जब आप याद करते हैं तब सपने जैसे हो जाते है। स्वप्नवत इसलिए हैं वे अनुभव, कि इन्द्रियों का

उपयोग नहीं होता। आपके यथार्थ का जो बोध है, यथार्थ की जो आपकी प्रतीति है, वह इन्द्रियों के माध्यम से है, शरीर के माध्यम से है।

अगर मैं देखता हूं कि आप दिखायी पड़ते हैं, और छूता हूं तो छूने में नहीं आते तो मैं कहता हूं कि फेंटम .हैं। हैं नहीं आप यहां। यह टेबल मैं छूता हूं और छूने में नहीं आती और हाथ मेरा आर—पार चला जाता है तो मैं कहता हूं झूठ है। मैं किसी श्रम में पड़ा हुआ हूं। कोई हेलुसिनेशन है। आपके यथार्थ की कसौटी आपकी इन्द्रियों के प्रमाण हैं। तो एक शरीर छोड़ने के बाद दूसरा शरीर लेने के बीच इन्द्रियां तो आपके पास नहीं होतीं, शरीर आपके पास नहीं होता। तब जो भी आप को प्रतीतिया होती हैं, वह बिलकुल स्वप्नवत हैं—जैसे आप स्वप्न देख रहे हैं

जब आप स्वप्न देखते हैं तो स्वप्न बिलकुल ही यथार्थ मालूम देता है, रूप में कभी सन्देह नहीं आता। यह बहुत मजे की बात है। यथार्थ में कभी—कभी सन्देह आ जाता है। रूप में कभी सन्देह नहीं आता। स्वप्न बहुत श्रद्धावान हैं। यथार्थ में कभी—कभी ऐसा होता है कि जो दिखायी पड़ रहा है वह सच में है या नहीं? लेकिन स्वप्न में ऐसा कभी नहीं होता कि जो दिखायी पड़ रहा है वह सच में है या नहीं। क्यों? क्योंकि रूप इतने से सन्देह को सह नहीं पाएगा, टूट जाएगा, बिखर जाएगा।

यह स्वप्न इतनी नाजुक घटना है कि इतना—सा सन्देह ही मौत के लिए काफी है। इतना खयाल आ जाए कि कहीं ये स्वप्न तो नहीं हैं, कि स्वप्न टूट गया। या आप समझिए कि आप जाग गए। तो स्वप्न के होने के लिए अनिवार्य है कि सन्देह तो कणभर भी न हो। कणभर सन्देह भी, बड़े से बड़े, प्रगाढ़ से प्रगाढ़ स्वप्न को छिन्न—भिन्न कर जाएगा—तिरोहित कर देगा।

स्वप्न में कभी पता नहीं चलता जो हो रहा है, क्या वह सचमुच हो रहा है? यही लगता है कि बिलकुल हो रहा है। इसका यह भी मतलब हुआ कि स्वप्न जब होता है तब यथार्थ से ज्यादा यथार्थ मालूम पड़ता है। यथार्थ कभी इतना यथार्थ मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि यथार्थ में सन्देह सुविधा है। स्वप्न तो अति यथार्थ होता है। इतना अति यथार्थ होता है कि रूप के दो यथार्थ में विरोध भी हो, तो विरोध दिखायी नहीं पड़ता।

जैसे एक आदमी चला आ रहा है। वह अचानक कुत्ता हो जाता है। और आपके मन में यह खयाल भी नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है। अभी आदमी था, अभी कुत्ता हो गया! नहीं, यह भी खयाल में नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है—बस हो गया! और हो सकता है। इसमें कहीं सन्देह नहीं है। जागने पर आप सोच सकते हैं कि यह क्या गड़बड़ हुई, लेकिन स्वप्न में कभी नहीं सोच सकते। स्वप्न में यह बिलकुल ही रीजनेबल है, इसमें कहीं कोई असंगति नहीं है। बिलकुल ठीक है। एक आदमी अभी मित्र था और एकदम बन्दूक तानकर खड़ा हो गया। तो आपके मन में कहीं ऐसा सपने में नहीं आता कि अरे, मित्र होकर बन्दूक तानते हो? इसमें कोई असंगति नहीं है। रूप में असंगति होती ही नहीं।

स्वप्न में सब असंगत भी संगत है। क्योंकि जरा सा शक, कि स्वप्न बिखर जाएगा। लेकिन जागने के बाद? जागने के बाद सब खो जाता है। कभी खयाल न किया होगा कि जागकर ज्यादा से ज्यादा घण्टेभर के बीच ही सपना याद किया जा सकता है, इससे ज्यादा नहीं। आमतौर से तो पांच सात मिनट में खोने लगता है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा, बहुत जो कल्पनाशील है वह भी एक घण्टे से ज्यादा स्वप्न की स्मृति को नहीं रख सकता—नहीं तो आपके पास सपने की स्मृति ही इतनी हो जाएं कि आप जी न सकें। घण्टेभर के बाद जागने के भीतर स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं। आपका मन स्वप्न के धुएं से बिलकुल मुक्त हो जाता है।

ठीक ऐसे ही दो शरीरों के बीच का जो अन्तराल का क्षण होता है, उसमें जो भी होता है, वह बिलकुल ही यथार्थ लगता है—इतना यथार्थ, जितना हमारी आंखों और इन्द्रियों से कभी हम नहीं जानते। इसलिए देवताओं के सुख का कोई अल नहीं! क्योंकि अप्सराएं जैसी यथार्थ उन्हें होती हैं, इन्द्रियों से स्रियां वैसी यथार्थ कभी नहीं होती हैं। इसलिए प्रेतों के दुख का अन्त नहीं! क्योंकि जैसे ही दुख उन पर टूटते हैं, ऐसे ही यथार्थ दुख आप पर कभी नहीं टूट सकते। तो जिन्हें हम नरक और स्वर्ग कहते हैं, वह बहुत प्रगाढ़ स्वप्न अवस्थाएं हैं—बहुत प्रगाढ़! जैसी आग नरक में जलती है वैसी आग आप यहां नहीं जला सकते। उतनी यथार्थ आग नहीं जला सकते। हालांकि बड़ी इनकसिस्टेंट आग है।

कभी आपने देखा है कि नरक की आग का जो—जो वर्णन है, उसमें यह बात है कि आग में जलाए जाते हैं, जलते नहीं। मगर यह इनकसिस्टेंसी खयाल में नहीं आती कि आग में जलाया जा रहा हूं आग भयंकर है, तपन सही नहीं जाती और जल बिलकुल नहीं रहा हूं। मगर यह इनकसिस्टेंसी बाद में खयाल आती है। उस वक्त खयाल में नहीं आती।

दो शरीरों के बीच का जो अन्तराल है उसमें दो तरह की आत्माएं हैं—एक तो बहुत बुरी आत्‍माएं हैं, जिनके लिए गर्भ मिलने में वक्त लगेगा। उनको मैं प्रेत कहता हूं। दूसरी भली आत्माएं जिन्हें गर्भ मिलने में देर लगेगी, उनके लिए योग्य गर्भ चाहिए, उन्हें मैं देव कहता हूं। इन दोनों में बुनियादी कोई भेद नहीं है—व्यक्तित्व भेद है, चरित्रगत भेद है, चित्तगत भेद है।

योनि में कोई भेद नहीं है। अनुभव दोनों के भिन्न होंगे। बुरी आत्‍माएं बीच के उस अन्तराल से इतने दुखद अनुभव लेकर लौटती हैं, उनकी ही स्मृति का फल नरक है। जो—जो उस स्मृति को दे सके हैं लौटकर, उन्होंने ही नरक की स्थिति साफ करवायी है। बिलकुल ड्रीम लैंड है, कहीं है नहीं। लेकिन जो उससे आया है वह मान नहीं सकता क्योंकि आप जो दिखा रहे हैं, यह उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह कहता है, यह जो आग है बहुत ठंडी है। उसके मुकाबले कुछ भी नहीं है जो मैंने देखी। यहां जो घृणा और हिंसा है वह कुछ भी नहीं है जो मैं देखकर चला आया हूं। वह जो स्वर्ग का अनुभव है, वह भी ऐसा ही अनुभव है। सुखद सपनों का और दुखद सपनों का भेद है। वह पूरा का पूरा ड्रीम पीरिएड है।

यह बहुत तात्विक है, और समझने की बात है कि वह बिलकुल ही रूप है। यह हम समझ सकते हैं, क्योंकि हम भी रोज सपना देख रहे हैं। सपना आप तभी देखते हैं जब आपके शरीर की इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं। एक गहरे अर्थ में आपका संबंध टूट जाता है तो आप सपने में चले जाते हैं। सपने भी रोज ही दो तरह के देखते हैं—स्वर्ग और नरक के—या तो मिश्रित होते हैं—कभी स्वर्ग, कभी नरक; या कुछ लोग नरक के ही देखते हैं, कुछ लोग स्वर्ग के ही देखते हैं।

कभी सोचे कि आपने सपना रात आठ घण्टा देखा। अगर इसको आठ साल लम्बा कर दिया जाए तो आपको कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि टाइम का बोध नहीं रह जाता, समय का कोई बोध नहीं रह जाता। वह जो घड़ी बीतती है, उस घड़ी का कोई स्पष्ट बोध नहीं रह जाता। लेकिन उस घडी का बोध पिछले जन्म के शरीर और इस जन्म के शरीर के बीच पड़े हुए परिवर्तनों से नापा जा सकता है। पर वह अनुमान है। खुद उसके भीतर समय का कोई बोध नहीं है।

और इसलिए, जैसे क्रिश्रिएनिटी ने कहा कि नरक सदा के लिए है। वह भी ऐसे लोगों की स्मृति के आधार पर है जिन्होंने बड़ा लम्बा सपना देखा। इतना लम्बा सपना कि जब वे लौटे हैं तो उन्हें पिछले अपने शरीर के और इस शरीर के और इस शरीर के बीच कोई संबंध स्मरण न रहा। इतना लम्बा हो गया। बतलाया कि वह नरक तो अनन्त है, उसमें से निकलना मुश्किल है। अच्छी आत्माएं सुखद सपने देखती हैं, बुरी आत्माएं दुखद सपने देखती हैं। सपनों से ही पीड़ित और दुखी होती हैं।

तिब्बत में जब आदमी मरता है, तो उसको मरते वक्त जो सूत्र देते हैं वह इसी के लिए है। ड्रीम सीक्रेंस पैदा करने के लिए है। आदमी मर रहा है तो वह उसको कहते हैं कि अब तू यह—यह देखना शुरू कर। सारा का सारा वातावरण तैयार करते हैं। अब यह मजे की बात है, लेकिन वैज्ञानिक है—कि सपने बाहर से पैदा करवाए जा सकते हैं। जैसे रात आप सो रहे हैं, आपके पैर के पास अगर गीला पानी या भीगा हुआ कपड़ा आपके पैर के पास घुमाया जाए तो आप में एक तरह का सपना पैदा होगा। हीटर से पैर में थोड़ी गर्मी दी जाए तो दूसरे तरह का सपना पैदा होगा। अगर ठष्ठक दी गयी पैर में, शायद आप सपना देखें कि वर्षा हो रही है, शायद सपना देखें कि बर्फ पर चल रहे हैं। गर्म पैर किए, तो शायद सपना देखें—रेगिस्तान में चले जा रहे हैं। तपती हुई रेत है, सूरज जल रहा है, पसीने से लथपथ हैं। आपके बाहर से सपने पैदा किए जा सकते हैं। और बहुत—से सपने आपके बाहर ही से पैदा होते हैं। रात छाती पर हाथ रख गया जोर से तो सपना ‘आता है कि कोई छाती पर चढ़ा हुआ बैठा है— आपका ही हाथ रखा हुआ है।

ठीक एक शरीर छोड़ते वक्त, वह जो सपने का लम्बा काल आ रहा है जिसमें आत्माएं शरीर में शायद जाएं न जाएं जो वक्त बीतेगा बीच में, उसका सीक्रेंस पैदा करवाने की सिर्फ तिब्बत में साधना विकसित की गयी है। उसको वह बार्डो कहते हैं। पूरा इत्तजाम करेंगे, उसका सपना पैदा करेंगे। उसमें जो—जो शुभ वृत्तियां रही हैं उसकी जिन्दगी में, उन सबको उभार देंगे। जिन्दगीभर भी उनकी व्यवस्था करने की कोशिश करेंगे कि मरते वक्त वह उभारी जा सकें।

जैसा मैंने कहा कि सुबह उठकर घण्टेभर तक आपको सपना याद रहता है। ऐसा ही नए जन्म पर कोई छह महीने तक, छह महीने की उम्र तक करीब—करीब सब याद रहता है। फिर धीरे— धीरे खोता चला जाता है। जो बहुत कल्पनाशील हैं, या बहुत संवेदनशील हैं, वह थोड़ा कुछ ज्यादा याद रखते हैं। जिन्होंने अगर किसी तरह की जागरूकता के प्रयोग किए हैं पिछले जन्म में, तो वह बहुत देर तक याद रख ले सकते हैं।

जैसा सुबह एक घण्टे तक सपना याददाश्त में घूमता रहता है, धुएं की तरह आपके आस—पास मंडराता रहता है, ऐसे ही रात सोने के घंटेभर पहले ही आपके ऊपर स्वप्न की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। ऐसे ही मरने के भी छह महीने पहले आपके ऊपर मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए छह महीने के भीतर मौत प्रिडिक्टेबल है। एक्सीडेंट भी बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। कोई एक्सीडेंट बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। हमें लगता है, क्योंकि हमारी व्यवस्था के कुछ भीतर नहीं घटित हो रहा। लेकिन कोई दुर्घटना सिर्फ दुर्घटना नहीं है। दुर्घटना भी सकारण है। छह महीने पहले मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है, तैयारी शुरू हो जाती है।

जैसे रात में नींद के एक घण्टे पहले तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए सोने के पहले घण्टे भर का वक्त है, वह बहुत सजेस्टिबल है। उससे ज्यादा सजेस्टिबल कोई वक्त नहीं है। क्योंकि उस वक्त आपको शक होता है कि आप जागे हुए हैं, लेकिन आप पर नींद की छाया पड़नी शुरू हो गयी होती है। इसलिए दुनियां के सारे धर्मों ने सोने के वक्त घण्टे भर, और सुबह जाय ने के बाद घण्टे भर प्रार्थना का समय तय किया है—संध्या काल!

संध्याकाल का मतलब सूरज जब डूबता है, उगता है, तब नहीं। संध्या काल काम तलब है सोने से पहले, जब आप नींद में जाते हैं, बीच का समय। सुबह जब आप नींद से टूटकर जागने में आते हैं, तब, बीच की संध्या। वह जो मिडिल पीरियड है, उसका नाम है संध्या। सूरज से कोई लेना—देना नहीं है। वह तो बंध गया सूरज के साथ जब एक जमाना ऐसा था कि सूरज का डूबना हमारा नींद का वक्त था और सूरज का उगना हमारे जागने का वक्त था। तो एसोसिएशन हो गया था और खयाल में आ गया कि सूरज जब डूब रहा है तो संध्या और सूरज जब उग रहा है तब संध्या।

लेकिन अब संध्या का वह खयाल छोड़ देना चाहिए। क्योंकि अब कोई सूरज के डूबने के साथ सोता नहीं और सूरज के उगने के साथ उठता नहीं। जब आप सोते हैं उसके घण्टेभर पहले संध्या, और जब आप उठते हैं उसके घण्टेभर बाद संध्या। संध्या का मतलब धुंधला क्षण—दो स्थितियों के बीच में।

कबीर ने अपनी भाषा को संध्या भाषा कहा है। कबीर कहता है कि न तो हम सोये हुए बोल रहे है, न हम जागे हुए बोल रहे हैं। हम बीच में हैं। हम ऐसी मुसीबत में हैं कि हम तुम्हारे बीच से भी नहीं बोल रहे हैं कि हम तुम्हारे बाहर से भी नहीं बोल रहे। हम बीच में खडे हैं, बार्डर लेण्‍ड पर। वहां, जहां से हमें वह दिखायी पड़ रहा है जो आंखों से दिखाई नहीं पड़ता और जहां से हमें वह भी दिखाई पड़ रहा है जो आंखों से दिखायी पड़ रहा है। देहरी पर खड़े हैं। तो हम जो बोल रहे हैं उसमें वह भी है जो नहीं बोला जा सकता है, और वह भी है जो बोला जा सकता है। इसलिए हमारी भाषा संध्या—भाषा है। इसके अर्थ को तुम जरा सम्हालकर निकालना।

यह जो सुबह का एक घण्टे का वक्त है, और सांझ सोने के पहले भी घण्टे भर का वक्त है, यह बहुत मूल्यवान है। ठीक ऐसे ही छहमहीने जन्म के बाद का वक्त और छहमहीने मरने के पहले का वक्त है। लेकिन जो लोग रात के घण्टे भर का और सुबह के घण्टे भर का समय का उपयोग नहीं जानते, वे शुरू के छह महीने का और बाद के छह महीने का भी उपयोग नहीं जानते। जब संस्कृतियां बहुत समझदार थीं इस मामले में तो पहले छह महीने बड़े महत्वपूर्ण थे। बच्चे को पहले छह महीने में ही सब कुछ दिया जा सकता है, जो भी महत्वपूर्ण है। फिर कभी नहीं दिया जा सकता। फिर बहुत कठिन हो जाता है। क्योंकि उस वक्त वह संध्याकाल में है, सजेस्टिबल है। लेकिन हम बोलकर कुछ नहीं समझा सकते उसको, और चूंकि बोलने के सिवाय हमे और कुछ रास्ता मालूम नहीं है कहने का, इसलिए अड़चन है।

ऐसे ही मरने के पहले छहमहीने का वक्त बहुत कीमती है। उधर बच्चे को हम समझा नहीं पाते छहमहीने, तो लगता है कि ये गए। इधर बूढ़े के हमें छह महीने पता नहीं होते कि कब छह महीने रहे। ये दोनों मौके चूक जाते हैं। लेकिन जो आदमी सुबह का घण्टेभर का उपयोग करे और रात के घण्टेभर का ठीक उपयोग करे तो मरने के छह महीने पहले उसको पका पता चल जाएगा कि अब मरना है। जो आदमी रात सोने के पहले घण्टेभर प्रार्थना में व्यतीत कर दे उसे स्पष्ट बोध होने लगेगा कि संध्या काल क्या है। वह इतना बारीक और सूक्ष्म अनुभव है, कि न तो वह जागने जैसा है, न सोने जैसा। इतना बारीक और अलग है कि अगर उसकी प्रतीति होनी शुरू हो गयी तो मरने के छह महीने पहले आपको पता लगेगा कि अब वह प्रतीति रोज दिनभर रहने लगी है।

वही प्रतीति, जो घण्टेभर रात सोते वक्त आपके भीतर आती है, वह मरने के पहले छह महीने स्थिर हो जाएगी। इसलिए मरने के पहले के छह —महीने तो पूरी साधना में डुबा देने हैं, वही छह महीने ‘बारडो’ के लिए उपयोग किए जाते हैं जिसमें ड्रीम ट्रेनिंग देते हैं कि अब अगली यात्रा में तुम क्या करोगे। वह कोई ठीक मरते वक्त नहीं दी जा सकती एकदम। उसके लिए तैयारी छह महीने की चाहिए। और जो आदमी इस छह महीने में तैयार हुआ हो उसी आदमी को उसके अगले जन्म के पहले छह महीने में ट्रेनिंग दी जा सकती है, अन्यथा नहीं दी जा सकती है। क्योंकि इस छह महीने में वे सारे सूत्र उसे सिखा दिये जाते हैं, जिन सूत्रों के आधार पर उसके अगले छह महीने में उसको ट्रेनिंग दी जा सके।

इस सब की पूरी की पूरी अपनी वैज्ञानिकता है और इस सबके अपने सूत्र और राज हैं। और सारी चीजें तय की जा सकती हैं। वे जो अनुभव हैं उस बीच के कि जो आदमी सारी प्रक्रिया से गुजरा हो वह छह महीने के बाद भी याद रख सकता है। लेकिन, याददाश्त सपने की रह जाती है। यथार्थ की नहीं होती। स्वर्ग—नरक दोनों ही सपने की याददाश्त हो जाती है। विवरण दिए जा सकते हैं। उन्हीं विवरणों के आसार पर सारी दुनिया में स्वर्गो—नरकों का सब लेखा—जोखा निर्मित हुआ है। लेकिन विवरण अलग— अलग हैं, क्योंकि सबके स्वर्ग —नरक अलग — अलग होंगे।

क्योंकि स्‍वर्ग—नरक कोई स्‍थान नहीं है, मानसिक दशाएं हैं। इसलिए जब ईसाई स्वर्ग का वर्णन करते हैं तो वह और तरह का है। वह और तरह का इसलिए है कि जिन्होंने वर्णन किया है उन पर निर्भर है। भारतीय जब वर्णन करते हैं तो और तरह का होगा, जैन और तरह का करेंगे, बौद्ध और तरह का करेंगे। असल में हर आदमी अलग तरह की खबर लाएगा।

करीब—करीब स्थिति ऐसी है जैसे हम सारे लोग कमरे में सो जाएं और कल उठकर सब अपने—अपने सपनों की चर्चा करें। हम सब एक ही जगह सोये थे। हम सब यहीं थे, फिर भी हमारे सपने अलग—अलग हैं। वह हम पर निर्भर करेंगे। इसलिए स्वर्ग और नरक बिलकुल वैयक्तिक घटनाएं हैं। लेकिन मोटे हिसाब बांधे जा सकते है—कि स्वर्ग में सुख होगा, कि नरक में दुख होगा, कि दुख के क्या रूप होंगे, कि सुख के क्या रूप होंगे। ये सारे ब्‍यौंरे, जो भी दिए गए हैं अब तक, वे सभी सही हैं, चित्त—दशाओं की भांति।

और पूछा है कि जन्म को चुन सकता है व्यक्ति तो क्या अपनी मृत्यु को भी चुन सकता है? इसमें भी दों—तीन बातें खयाल में लेनी पड़ेगी। एक, जन्म को चुन सकने का मतलब यह है कि चाहे तो जन्म ले। यह तो पहली स्वतंत्रता है ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति की। चाहे तो जन्म ले, लेकिन जैसे ही हमने कोई चीज चाही कि चाह के साथ परतंत्रताएं आनी शुरू हो जाती हैं।

मैं मकान के बाहर खड़ा था। मुझे स्वतंत्रता थी कि चाहूं तो मकान के भीतर जाऊं। मकान के भीतर मैं आया, लेकिन मकान के भीतर आते ही मकान की सीमा और मकान की परतंत्रताएं तत्काल शुरू हो जाती हैं। तो जन्म लेने की स्वतंत्रता जितनी बड़ी है, मरने की स्वतंत्रता उतनी बड़ी नहीं है। साधारण आदमी को तो मरने की कोई स्वतंत्रता नहीं, क्योंकि उसने जन्म को अभी नहीं चुना। लेकिन फिर अभी जन्म की स्वतंत्रता बहुत बड़ी है, टोटल है एक अर्थ में, कि वह चाहे तो इनकार भी कर दे, न चुने।

लेकिन चुनने के साथ बहुत—सी परतंत्रताएं शुरू हो जाती हैं। क्योंकि वह सीमाएं चुनता है। वह विराट जगह को छोड्कर संकरी जगह में प्रवेश करता है। अब संकरी जगह की अपनी सीमाएं होंगी।

अब वह एक गर्भ चुनता है। साधारणत: तो हम गर्भ नहीं चुनते हैं इसलिए कोई बात नहीं है। लेकिन वैसा आदमी जब गर्भ चुनता है, उस वक्त उसके सामने लाखों गर्भ होते हैं। उनमें से ही कोई एक गर्भ चुनता है। हर गर्भ के चुनाव के साथ वह परतंत्रता की दुनिया में प्रवेश कर रहा है। क्योंकि गर्भ की अपनी सीमाएं हैं। उसने एक मां चुनी, एक पिता चुना। उन मां और पिता के वीर्याणुओं की जितनी आयु हो सकती है वह उसने चुन ली। यह चुनाव हो गया। अब इस शरीर का उसे उपयोग करना पड़ेगा।

आप बाजार में एक मशीन खरीदने गए हैं, एक दस साल की गारण्टी की मशीन आपने चुन ली। अब सीमा आ गयी एक। यह वह जानकर ही चुन रहा है। इसलिए परतंत्रता उसे नहीं मालूम पड़ेगी। परतंत्रता हो जाएगी, लेकिन यह जानकर चुन रहा है। आप यह नहीं कहते कि मैंने यह मशीन खरीदी, दस साल चलेगी, तो अब मैं गुलाम हो गया। आपने ही चुनी है, दस साल चलेगी यह जानकर चुनी है, बस बात खत्म हो गयी। इसमें कहीं कोई पीड़ा नहीं है, इसमें कही कोई दंश नहीं है। यद्यपि यह वह जानता है कि यह शरीर कब समाप्त हो जाएगा। और इसलिए इस शरीर के समाप्त होने का जो बोध है, वह उसे होगा। वह जानता है, कब समाप्त होगा। इसलिए इस तरह के आदमी में एक तरह की व्यग्रता होगी जो साधारण आदमी में नहीं होती है।

अगर हम जीज़स की बातें पढ़ें तो ऐसा लगता है, वह बहुत व्यग्र हैं। जैसे अभी कुछ होनेवाला है, अभी कुछ हो जानेवाला है। उनकी तकलीफ वह लोग नहीं समझ सकते, जो सुन रहे हैं। क्योंकि उन के लिए मृत्यु का कोई सवाल नहीं और जीसस के लिए तो वह सामने खड़ी है। जीसस को पता है कि यह हो जानेवाला है। इसलिए अगर जीसस आपसे यह कह रहे हैं, यह काम कर लो और आप कहते हैं, कल कर लेंगे। तब जीसस की कठिनाई यह है कि वह जानता है कि कल वह कहने को नहीं होगा।

तो चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हों, चाहे जीसस हों, इतनी व्यग्रता बहुत ज्यादा है। बहुत तीव्रता से भाग रहे हैं। क्योंकि वह सारे मुर्दों के बीच में वह ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें सब पता है। सब लोग तो बिलकुल निश्‍चित हैं। पर ऐसे आदमी को जल्दी होगी ही। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह सौ साल जियेगा कि दो सौ साल जियेगा। सारा समय छोटा है। वह तो हमें सारा समय छोटा नहीं मालूम पड़ता क्योंकि वह कब खत्म होगा, इसका हमें कुछ पता नहीं। खत्म भी होगा, यह भी हम भुलाये रखते हैं।

जन्म की स्वतंत्रता तो बहुत ज्यादा है। लेकिन जन्म कारागृह में प्रवेश है, तो कारागृह की अपनी परतंत्रताएं हैं, वह स्वीकार कर लेनी पड़ेगी। और ऐसा व्यक्ति सहजता से स्वीकार करता है, क्योंकि वह चुन रहा है। अगर वह कारागृह में आया है तो लाया नहीं गया है, वह आया है। इसलिए वह हाथ बढ़ाकर जंजीरें डलवा लेता है। इन जंजीरों में कोई दंश नहीं है, इनमें कोई पीडा नहीं है। वह अंधेरी दीवारों के पास सो जाता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि किसी ने उससे कहा नहीं कि वह भीतर जाए। वह खुले आकाश के नीचे रह सकता था। अपनी मर्जी से आया है, यह उसका चुनाव है।

जब परतंत्रता भी चुनी जाती है तो स्वतंत्रता है। अगर स्वतंत्रता भी बिना चुनी मिलती है तो परतंत्रता है। स्वतंत्रता परतंत्रता इतनी सीधी बंटी हुई चीजें हैं। अगर हमने परतंत्रता भी स्वयं चुनी है तो वह स्वतंत्रता है और अगर हमें स्वतंत्रता भी जबर्दस्ती दे दी गयी है तो वह परतंत्रता ही होती है, उसमें कोई स्वतंत्रता नहीं होती। फिर भी, ऐसे व्यक्ति के लिए बहुत—सी बातें साफ होती हैं, इसलिए वह चीजों को तय कर सकता है।

जैसे उसे पता है कि वह सत्तर साल में चला जाएगा तो वह चीजों को तय कर पाता है। जो उसे करना है, वह साफ कर लेता है। चीजों को उलझाता नहीं। जो सत्तर साल में सुलझ जाए वैसा ही काम कर लेगा। जो कल पूरा हो सकेगा, वह निपटा देगा। वह इतने जाल नहीं फैलाता जो कि कल के बाहर चले जाएं। इसलिए वह कभी चिन्ता में नहीं होता। वह जैसे जीता है वैसे ही मरने की भी सारा_ई तैयारी करता है। मौत भी उसके लिए एक प्रिपरेशन है, एक तैयारी है।

एक अर्थ ‘में वह बहुत जल्दी में होता है, जहां तक दूसरों का संबंध है। जहां तक खुद का संबंध है, उसकी कोई जल्दी नहीं होती। क्योंकि कुछ करने को उसके लिए बचा नहीं होता है। फिर भी इस मृत्यु को, वह कैसे घटित हो, इसका चुनाव कर सकता है। कब घटित हो, इसकी व्यवस्था भी है, सीमाओं के भीतर सत्तर साल उसका शरीर चलना है तो सीमाओं के भीतर वह सत्तर साल में ठीक मूमेंट दे सकता है मरने का, कि वह कब मरे; कैसे मरे, किस व्यवस्था और किस ढंग में मरे!

एक झेन फकीर औरत थी, उसने कोई छह महीने पहले अपने मरने की खबर दी। उसने अपनी चिता तैयार करवायी। वह चिता पर सवार हो गयी, उसने सबको नमस्कार कर लिया, फिर सारे मित्रों ने आग लगा दी। तब एक साधु जो देख रहा था खड़ा हुआ, उसने जोर से पूछा, अब आग की लपटें लग गयीं और वह जलने के करीब होने लगी। उसने पूछा उससे, कि वहां भीतर गर्मी तो बहुत मालूम होती होगी? तो वह फकीर औरत हंसी और उसने कहा कि तुम जैसे छू हो, अभी भी इसी तरह के सवाल उठाये जा रहे हो? तुम्हें कोई काम लायक बात पूछने की नहीं खयाल में आयी। यह तो तुम्हें भी दिखायी पड़ रहा है; और आग में बैठूंगी तो गर्मी लगेगी या नहीं लगेगी, यह मुझे भी पता है।

पर यह उसका चुनाव था। वह हंसती हुई जल जाती है। वह अपनी मृत्यु के क्षण को चुनती है। उसके हजारों शिष्य इकट्ठे हो गए हैं। उनको वह दिखाकर जाना चाहती है कि हंसते हुए मरा जा सकता है। जिनके लिए हंसते हुए जीना भी मुश्किल है उनके लिए यह संदेश बड़े काम का है कि हंसते हुए मरा जा सकता है!

मृत्यु को शुनियोजित किया जा सकता है, वह व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि वह कैसा चुनाव करता है। लेकिन, सीमाओं के भीतर सारी बात होती है। असीम नहीं है मामला। इस कमरे के भीतर रहना पड़ेगा मुझे, लेकिन मैं किस कोने में बैठूं यह मैं तय कर सकता हूं। बायें सोऊ कि दाएं सोऊ, यह मैं तय कर सकता हूं। ऐसी स्वतंत्रताएं होंगी। और ऐसे व्यक्ति अपनी मृत्यु का निशित ही उपयोग करते हैं। कई बार प्रकट दिखायी पड़ता है उपयोग, कई बार प्रकट दिखायी नहीं पड़ता।

लेकिन ऐसे व्यक्ति अपने जीवन की प्रत्येक चीज का उपयोग करते हैं, मृत्यु का भी उपयोग करते हैं। असल में वह आते ही अब किसी उपयोग के लिए हैं। उनका अपना कोई प्रयोजन नहीं रह गया होता है। अब उनका आना किसी के काम पड जाने के लिए है। तो वह जीवन के प्रत्येक चीज का उपयोग करते है। पर बड़ा कठिन है कि हम उनके प्रयोग को समझ पाएं। जरूरी नहीं है! अकसर हम समझ नहीं पाते। क्योंकि जो भी वह कर रहे हैं, हमें तो कुछ पता नहीं होता और हमें पता करवाकर कुछ किया भी नहीं जा सकता।

अब जैसे बुद्ध जैसा आदमी नहीं कहेगा कि मैं कल मर जानेवाला हूं। क्योंकि कल मरना है तो आज कह देने का मतलब होगा, कि कल तक जो भी जीवन का उपयोग हो सकता था वह मुश्किल हो जाएगा। ये लोग आज से ही रोना—धोना, चिल्लाना शुरू कर देंगे। इन चौबीस घण्टे का जो उपयोग हो सकता था वह भी नहीं हो सकता। तो कई बार वैसा व्यक्ति चुपचाप रह जाएगा… कई बार वैसा व्यक्ति चुपचाप रह जाएगा, कई बार घोषणा भी करेगा——जैसी तत्काल परिस्थिति होगी, पर इतनी सीमा तक वह तय करता है।

ज्ञान के बाद का जन्म, जन्म से लेकर मृत्यु तक पूरा का पूरा एक शिक्षण है, पर खुद के लिए नहीं। एक अनुशासन है, खुद के लिए नहीं। और हर बार स्ट्रेटेजी बदलनी पड़ती है, क्योंकि सब स्ट्रेटेजी पुरानी पड जाती हैं, बोझिल हो जाती हैं, और लोगों को समझने में मुश्किल पड़ जाती है।

अब गुरजिएफ का उदाहरण लें। महावीर कभी पैसा नहीं छुएंगे, पर गुरजिएफ से आप एक सवाल पूछेंगे तो वह कहेगा, सौ रुपये पहले रख दो। सौ रुपए बिना रखे वह सवाल भी स्वीकार नहीं करेगा। सौ रुपए रखवा लेगा, तब एक सवाल का जवाब देगा। हो सकता है एक वाक्य बोले, हो सकता है दो वाक्य बोले। फिर दूसरी बार पूछो, फिर सौ रुपए रख दें। अनेक बार लोगों ने कहा, आप यह क्या करते हैं? जो उसे जानते थे वे हैरान होते थे, क्योंकि ये रुपए यहां आए और यहां बंट जानेवाले हैं। कुछ भी होनेवाला नहीं है उनका। गुरजिएफ उन्हे रखने वाला है एक क्षण को ऐसा भी नहीं है, वह इधर—उधर बट जाने वाले हैं। फिर किसलिए सौ रुपए मांग लिए?

गुरजिएफ ने कहा, कि जिन लोगों के मन में सिर्फ रुपए का मूल्य है उन्हें परमात्मा के संबंध में मुफ्त कहना गलत है—एकदम गलत है। क्योंकि उनकी जिन्दगी में मुफ्त की चीज का कोई मूल्य नहीं होता। और गुरजिएफ कहता है कि हर चीज के लिए चुकाना पड़ेगा कुछ। जो चुकाने की तैयारी नहीं रखता, कुछ भी चुकाने की तैयारी नहीं रखता, उसको पाने का हक भी नहीं है। लेकिन लोग समझते हैं कि गुरजिएफ को पैसे की बडी पकड़ है। जो दूर से ही देखते हैं उनको लगता है कि पैसे की बड़ी पकड़ है, बिना पैसे को सवाल का जवाब भी नहीं देता

पर मैं मानता हूं कि जिस जगह था वह पश्रिम में, जहां पैसा एकमात्र मूल्य हो गया, वहां उसी तरह के शिक्षक की जरूरत थी। एके—एक शब्द का मूल्य ले लेता, क्योंकि वह जानता है कि जिस शब्द के लिए तुमने सौ रुपए दिए हैं जिसको, तुमने सौ रुपए देने की तैयारी दिखायी जिस शब्द के लिए, तुम उसको ही ले जाओगे, बाकी तुम कुछ ले जानेवाले नहीं हो।

गुरजिएफ बहुत—से ऐसे काम करेगा जो बिलकुल ही कठिन मालूम पड़ेंगे। उसके शिष्य बहुत मुश्किल में पड जाएंगे, वे कहेंगे, यह आप न करते तो अच्छा था। और वह जान—बूझकर करेगा। वह बैठा है, आप उससे मिलने गए हैं, वह ऐसी शक्ल बना लेगा कि ऐसा लगे जैसे ठीक गुण्‍ड़ा, बदमाश है। साधु तो बिलकुल नहीं है। बहुत दिन तक सूफी प्रयोग करने की वजह से आंखों के कोण को वह तत्काल कैसा भी बदल सकता था। और आंखों के कोण के बदलने से पूरी शक्ल बदल जाती है।

एक गुण्‍डे में और एक साधु में आंख के अलावा और कोई फर्क नहीं होता। बाकी तो सब एक—सा ही होता है। आंख का कोण जरा ही बदला कि साधु गुन्डा हो जाता है, गुन्डा साधु हो जाता है। आंखें उसकी बिलकुल ढीली थीं दोनों। आंखों को वह ऐसे घुमाता कि उनकी पुतलियां कैसे ही कोण ले सकती हैं। यह एक सेकेण्‍ड में ही कर लेता। बगलवाले को पता ही नहीं चलता कि उसने दूसरे को गुण्‍डा दिखा दिया है और आए हुए आदमी को घबरा दिया है। बगलवाला आदमी एकदम घबरा जाता कि यह आदमी कैसा है, मैं कहां आ गया? उसके मित्रों ने धीरे— धीरे पक्का उसे कि वह इस तरह कई लोगों को परेशान करता है और उससे पूछा कि आप यह क्या करते हैं? हमें पता ही नहीं चलता है कि वह बेचारा आया था, आपने उसे गड़बड़ा दिया।

तो गुरजिएफ कहता है कि वह आदमी, अगर मैं साधु भी होता तो मुझ में गुण्‍डा खोज लेता। थोड़ी देर लगती। मैने उसका वक्त जाया नहीं करवाया। मैंने कहा, तू देख ले, तू जा। क्योंकि तू नाहक दों—चार दिन चक्कर लगाएगा, खोजेगा तू यही। मैं तुझे खुद ही सौंपे देता हूं। अगर वह इसके बाद भी रुक जाता तो मैं उसके साथ मेहनत करता। इसलिए बहुत मुश्किल मामला है। जो गुरजिएफ को गुष्ठा समझकर चला गया, अब कभी दोबारा नहीं आएगा।

लेकिन गुरजिएफ का जानना गहरा है। वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, यह आदमी यही खोज लेता। इसको खुद मेहनत करनी पड़ती, वह काम मैंने हल कर दिया। इसके चार दिन खराब नहीं हुए और मेरे चार दिन खराब नहीं हुए। अगर यह सच में ही किसी खोज में आया था, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, यह फिर भी रुकता। यह मेरे बावजूद रुके तो ही रुका, मेरी वजह से रुके तो मैं इसे रुकना नहीं कहूंगा। यह खोजने आया हो तो रुके, धैर्य रखे, थोड़ी जल्दी न करे। इतने जल्दी नतीजे लेगा कि मेरी आंख जरा ऐसी हो गयी तो उसने समझा कि आदमी गड़बड़ है। इतने जल्दी नतीजे लेगा तो मुझमें कुछ—न—कुछ उसे मिल जाएगा और वह नतीजे लेकर चला जाएगा।

यह शिक्षक पर निर्भर करेगा कि वह क्या करता है, कैसे करता है। बहुत बार तो जिन्दगीभर पता नहीं चलता है कि उसके करने की व्यवस्था क्या है। पर वह जिन्दगी के प्रत्येक क्षण का उपयोग करता है—जन्म से लेकर मृत्यु तक। एक भी क्षण व्यर्थ नहीं गंवाता है। उसकी कोई गहरी सार्थकता है, किसी बड़े प्रयोजन और किसी बडी नियति में उपयोग है।

‘मैं कहता आंखन देखी’ :

(अंतरंग भेट वार्ता)

बुडलैण्‍ड बम्बई

दिनांक 10 मार्च 1971


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–5)

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सत्य की महावीर-उपलब्धि—(प्रवचन—पांचवां)

हावीर के बचपन के संबंध में थोड़ी सी बातें कल सोचीं। जैसा मैंने कहा, तीर्थंकर की चेतना का व्यक्ति पूर्णता को छूकर लौटा होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि महावीर के लिए इस जीवन में करने को कुछ भी बाकी नहीं रहा है, सिर्फ देने को बाकी रहा है, पाने को कुछ भी बाकी नहीं रहा है। यह बात अगर समझ में आए तो इस बात की बड़ी गहरी निष्पत्तियां होंगी। पहली निष्पत्ति तो यह होगी कि साधारणतः महावीर के संबंध में जो समझा जाता है कि उन्होंने त्याग किया, वह बिलकुल व्यर्थ हो जाएगी।

आज इस बात को समझ लेना ठीक से जरूरी है कि महावीर ने कभी भी भूल कर कोई त्याग नहीं किया है। त्याग दिखाई पड़ा है, महावीर ने कभी भी नहीं किया है। और जो दिखाई पड़ता है, वही सत्य नहीं है, क्योंकि जो दिखाई पड़ता है वह देखने वालों पर ज्यादा निर्भर होता है बजाय इसके कि जो उन्होंने देखा।

भोग से भरे हुए लोगों को किसी भी चीज का छूटना त्याग मालूम पड़ता है। और इसलिए महावीर के जीवन पर जिन्होंने लिखा, उन्होंने रत्ती-रत्ती एक-एक चीज का हिसाब बताया है कि क्या-क्या छोड़ा, कितने बड़े महल थे, कितना बड़ा राज्य था, कितने हाथी थे, कितने घोड़े थे, कितने मणि-माणिक्य थे–उस सबका एक-एक हिसाब दिया है! यह हिसाब देने वाले भोगी चित्त के लोग थे, इतना तो निश्चित होता है, क्योंकि इन्हें हीरे, मणि-माणिक्य, घोड़ेऱ्हाथी और महल बहुत मूल्यवान मालूम होते थे। इनको महावीर ने छोड़ा, यह घटना इनके लिए बहुत चमत्कारपूर्ण मालूम हुई होगी। क्योंकि भोगी चित्त कुछ भी छोड़ने में समर्थ नहीं है, वह सिर्फ पकड़ सकता है, छोड़ नहीं सकता। हां, उससे छुड़ाया जा सकता है, लेकिन छोड़ नहीं सकता। और जब वह देखता है कि कोई व्यक्ति सहज ही छोड़ कर जा रहा है तो इससे ज्यादा महत्वपूर्ण और चमत्कारपूर्ण घटना उसे मालूम नहीं हो सकती।

लेकिन महावीर जैसी चेतना कुछ भी छोड़ती नहीं है, क्योंकि उस तल पर कुछ भी पकड़ने का भाव ही नहीं रह जाता है। जो पकड़ते हैं, वे छोड़ भी सकते हैं। जो पकड़ते ही नहीं हैं, जिनकी कोई क्लिंगिंग नहीं है, उनके छोड़ने का भी कोई सवाल नहीं है।

महावीर ने कुछ भी नहीं त्यागा है। जो व्यर्थ है, उसके बीच से वे आगे बढ़ गए हैं। लेकिन हम सबको दिखाई पड़ेगा कि बहुत बड़ा त्याग हुआ। और ऐसा दिखाई पड़ने में हम पकड़ने वाले चित्त के परिग्रही लोग हैं, यही सिद्ध होगा, और कुछ भी सिद्ध न होगा। महावीर त्यागी थे, ऐसा तो नहीं है, लेकिन महावीर को जिन लोगों ने देखा, वे भोगी थे, इतना सुनिश्चित है। भोगी के मन में त्याग का बड़ा मूल्य है। उलटी चीजों का ही मूल्य होता है। बीमार आदमी के मन में स्वास्थ्य का बड़ा मूल्य है, स्वस्थ आदमी को पता भी नहीं चलता। बुद्धिहीन के मन में बुद्धिमत्ता बड़ी मूल्यवान है, लेकिन बुद्धिमान को कभी पता भी नहीं चलता। जो हमारे पास नहीं है, उसका ही हमें बोध होता है। और जो हम पकड़ना चाहते हैं, उसे कोई दूसरा छोड़ता हो तो भी हम आश्चर्य से चकित रह जाते हैं।

लेकिन यहां मैं महावीर के भीतर से चीजों को कहना चाहता हूं। महावीर कुछ भी नहीं छोड़ रहे हैं। और जो व्यक्ति कुछ छोड़ता है, छोड़ने के बाद उसके पीछे छोड़ने की पकड़ शेष रह जाती है। जैसे एक आदमी लाख रुपए छोड़ दे, तो लाख रुपए छोड़ देगा, लेकिन लाख रुपए मैंने छोड़े, यह पकड़ पीछे शेष रह जाएगी। यानी भोगी चित्त त्याग को भी भोग का ही उपकरण बनाता है। भोगी चित्त धन को ही नहीं पकड़ता, त्याग को भी पकड़ लेता है। असल सवाल तो क्लिंगिंग माइंड का है, पकड़ने वाले चित्त का है। वह अगर सब कुछ त्याग कर दे तो वह इस सबका हिसाब-किताब रख लेगा अपने मन में कि क्या-क्या मैंने त्यागा है, कितना मैंने त्यागा है। ऐसे त्याग का कोई भी मूल्य नहीं है। यह भोग का ही दूसरा रूप है, परिग्रह का ही दूसरा रूप है।

लेकिन एक और तरह का त्याग है, जहां चीजें छूट जाती हैं, क्योंकि चीजों को पकड़ने से हमारे भीतर की कोई तृप्ति नहीं होती, बल्कि चीजों को पकड़ने से हमारे भीतर का विकास अवरुद्ध होता है।

हम चीजें पकड़ते क्यों हैं? चीजों को पकड़ने का कारण क्या है? हम चीजों को पकड़ते हैं, क्योंकि चीजों के बिना एक इनसिक्योरिटी, एक असुरक्षा मालूम पड़ती है। अगर मेरा कोई भी मकान नहीं है तो मैं असुरक्षित हूं, किसी दिन सड़क पर पड़ा हो सकता हूं, हो सकता है मर रहा होऊं और मुझे कोई छप्पर न मिले। तो असुरक्षित हूं, इनसिक्योरिटी है, इसलिए मकान को जोर से पकड़ता हूं। धन को जोर से पकड़ता हूं, क्योंकि कल का क्या भरोसा! तो कल के लिए कुछ इंतजाम चाहिए।

जिस व्यक्ति के मन में जितनी असुरक्षा का भाव है, वह उतना चीजों को जोर से पकड़ेगा। लेकिन जिस चेतना को यह पता हो गया है कि चेतना के तल पर कोई असुरक्षा है ही नहीं, वहां न कोई भय है, वहां न कोई पीड़ा है, न कोई दुख है, वहां न कोई मृत्यु है–ऐसा जिसे पता चल गया है, वह कुछ भी नहीं पकड़ता। पकड़ता था असुरक्षा के कारण, असुरक्षा न रही तो पकड़ भी न रही। और जो अपने भीतर प्रविष्ट हुआ है वह तो प्रतिक्षण और प्रतिपल इतने आनंद से भर गया है कि कल का सवाल कहां है कि कल क्या होगा! आज काफी है!

जीसस निकलते थे एक बगीचे के पास से और बगीचे में फूल खिले हैं। और जीसस ने अपने शिष्यों से कहा: देखते हो इन फूलों को! सोलोमन, खुद सोलोमन भी, अपनी पूरी समृद्धि में इतना शानदार न था।

एक बड़ा सम्राट सोलोमन जिसने सारी पृथ्वी के धन को इकट्ठा कर लिया था। वह भी अपनी पूरी समृद्धि में और साम्राज्य में इन साधारण से फूलों के मुकाबले न था। देखते हो इनकी शानदार चमक, इनकी मुस्कुराहट, इनका नाच! और साधारण से गरीब लिली के फूल हैं! तो किसी शिष्य ने पूछा है, कारण क्या है? राज क्या है इसका कि सोलोमन लिली के फूलों से भी ज्यादा शानदार न था?

तो जीसस ने कहा, फूल अभी जीते हैं, सोलोमन कल के लिए जीता था। फूल अभी हैं, उन्हें कल की कोई भी चिंता नहीं। आज काफी है। और तुम भी फूलों की तरह हो रहो कि आज काफी हो जाए।

तो जिसके लिए आज का, अभी का यह क्षण काफी है, आनंद से भरा है, वह कल के क्षण की चिंता नहीं करता। इसलिए कल के क्षण के लिए इकट्ठा करने का पागलपन भी उसके भीतर नहीं है। वह जीता है। तो ऐसा व्यक्ति कुछ पकड़ता नहीं, छोड़ने का सवाल ही नहीं है। छोड़ना तो आता है पीछे। त्याग तो आता है पीछे। जब पकड़ आ जाए तो सवाल उठता है कि छोड़ो। ऐसा व्यक्ति पकड़ता ही नहीं।

और ध्यान रहे, जिसको पकड़ आ गई है, अगर वह छोड़ेगा तो पकड़ तो बाकी रहेगी, छोड़ने को पकड़ लेगा। वह पकड़ तो उसकी आदत का हिस्सा हो गई है। उसने धन पकड़ा था, अब वह त्याग पकड़ लेगा। उसने मित्र पकड़े थे, अब वह परमात्मा पकड़ लेगा। पति-पत्नी पकड़े थे, अब वह पुण्य-पाप-धर्म इत्यादि पकड़ लेगा। कल खाते-बही पकड़े थे, अब वह शास्त्र पकड़ लेगा। शास्त्र भी खाते-बही ही हैं। और धर्म भी सिक्का है, जो कहीं और चलता है। और पुण्य भी मोहरें हैं, जो कहीं काम पड़ती हैं। अब वह उनको पकड़ लेगा।

इसलिए ध्यान देने की यह बात है कि जो व्यक्ति पकड़ने के चित्त से भरा है, वह अगर त्याग करेगा तो भी त्याग नहीं होने वाला है। इसलिए सवाल त्याग करने का नहीं है, सवाल पकड़ने वाले चित्त की वस्तुस्थिति को समझ लेने का है। अगर हमारी समझ में आ गया कि यह है चित्त पकड़ने वाला और पकड़ना व्यर्थ हो गया, तो पकड़ विलीन हो जाएगी–त्याग नहीं होगा–पकड़ विलीन हो जाएगी और चीजें ऐसे दूर हो जाएंगी, जैसे वे दूर हैं ही।

कौन सा मकान किसका है? एक पागलपन तो यह है कि पहले मैं यह मानूं कि यह मकान मेरा है। और फिर दूसरा पागलपन यह है कि मैं इसका त्याग करूं कि इस मकान का मैं त्याग करता हूं।

लेकिन ध्यान रहे, अगर यह मकान मेरा नहीं है तो मैं त्याग करने वाला कौन हूं? त्याग में भी मेरी मालकियत तो शेष है। मैं कहता हूं, यह मकान मैं त्याग करता हूं। मैं ही त्याग करता हूं न! और त्याग मैं कर सकता हूं उसका, जो मेरा है ही नहीं? तो त्याग करने वाला यह मान कर ही चलता है कि यह मकान मेरा है।

और वस्तुतः जो त्याग की घटना घटती है, वह इस सत्य से घटती है कि किसी को पता चलता है कि यह मकान, यह मेरा है ही नहीं, तो त्याग कैसा! मेरा नहीं है, यह बोध पर्याप्त है, कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। जो मेरा नहीं है, वह छूट गया। और चीजें थोड़े ही हमें बांधे हुए हैं, चीजें और हमारे बीच में मेरे का एक भाव है जो बांधे हुए है।

एक मकान है, उसमें आग लग गई है। और घर का मालिक रो रहा है, चिल्ला रहा है। और फिर भीड़ में से कोई कहता है, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? आपको पता नहीं, आपके बेटे ने मकान बेच दिया है, और पैसे मिल गए हैं। बेटे ने खबर नहीं दी आपको? और वह आदमी एकदम हंसने लगा। और उसने कहा, ऐसा है क्या?

अब भी वही मकान जल रहा है। अब भी आदमी वही है, सब भीड़ वही है, लेकिन अब वह उसका मकान नहीं रह गया है। मकान बेचा जा चुका है, अब वह मेरा नहीं है। वह हंस रहा है और अब वह ऐसी हलकी बातें कर रहा है जैसी कि और सारे लोग कर रहे थे कि बहुत बुरा हो गया, कि मकान जल गया है।

लेकिन तभी उसका बेटा भागा हुआ आता है। वह कहता है, वह आदमी बदल गया है। रुपए अभी मिले नहीं थे, सिर्फ बेचा था, लेकिन वह आदमी बदल गया है। और वह आदमी फिर चिल्लाने लगा है कि मैं मर गया, मैं लुट गया, अब क्या होगा! एक क्षण में मेरा फिर जुड़ गया है–मकान मेरा ही है और जल रहा है!

तो मकान के जलने की पीड़ा है या मेरे के जलने की? और अगर मेरे के जलने की पीड़ा है तो जो आदमी कहता है मेरा मकान, उसकी भी पकड़ है, जो आदमी कहता है मेरा मकान, मैं त्याग करता हूं, उसकी भी पकड़ है। लेकिन जो आदमी कहता है कौन सा मकान मेरा है! कोई मकान मुझे पता नहीं चलता कि मेरा कौन सा मकान है। मेरा कोई मकान ही नहीं है, मैं बिलकुल बिना मकान के हूं। अगृही का मतलब यह है। अगृही का मतलब यह नहीं है कि जिसने घर छोड़ दिया। अगृही का मतलब यह है कि जिसने पाया कि कोई घर है ही नहीं। इसे ठीक से समझ लेना।

संन्यासी को हम कहते हैं अगृही, गृहस्थ नहीं। लेकिन कौन है अगृही? जिसने घर छोड़ दिया? उसका घर बाकी है। वह चाहे पहाड़ों में, चाहे हिमालय में चला जाए, उसका घर बाकी है। जिस घर को छोड़ आया है, वह भी उसका घर है। अगृही का मतलब है जिसने पाया कि घर तो कहीं है ही नहीं। होमलेस! घर है ही नहीं। यहां घर कहीं है ही नहीं। कोई घर मेरा नहीं है।

संन्यासी का मतलब यह नहीं है कि जिसने पत्नी का त्याग किया। संन्यासी का मतलब है कि जिसने पाया कि पत्नी कहां है? संन्यासी का मतलब यह नहीं है कि जिसने साथी छोड़ दिए। संन्यासी का मतलब जिसने पाया कि साथी कहां है? खोजा और पाया कि नोव्हेयर, साथी तो कहीं भी नहीं है कोई, बिलकुल अकेला हूं।

यह दोनों बातों में बुनियादी भेद है। पहले में हम कुछ पकड़ कर छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, दूसरे में हम पाते हैं कि पकड़ का उपाय ही नहीं है, किसको पकड़ें? कहां पकड़ने जाएं?

तो महावीर कुछ त्याग नहीं रहे हैं। जो उनका नहीं है, वह दिखाई पड़ गया है। इसलिए कोई पकड़ नहीं है। इसलिए यह कहना बिलकुल व्यर्थ की बात है कि वे सब छोड़ कर जा रहे हैं। वे जान कर जा रहे हैं कि कुछ भी उनका नहीं है। और अगर हम इस बात को समझ लेंगे तो महावीर के बाबत, समस्त त्याग के बाबत हमारी दृष्टि ही दूसरी हो जाएगी। तब हम लोगों को यह न समझाएंगे कि तुम छोड़ो और तुम त्याग करो। हम लोगों को समझाएंगे तुम देखो कि तुम्हारा है क्या? तुम्हारा है कुछ?

एक सम्राट था–इब्राहिम। उसके द्वार पर एक संन्यासी सुबह से ही बड़ा शोरगुल मचा रहा है और पहरेदार से कहता है, मुझे भीतर जाने दो, मैं इस सराय में ठहरना चाहता हूं। और वह पहरेदार कहता है, तुम पागल हो गए हो! संन्यासी हो कि पागल हो? यह सराय नहीं, यह सम्राट का महल है, उनका निवास स्थान है। तो वह कहता है, फिर मैं उसी सम्राट से बात कर लूं, क्योंकि हम तो सराय समझ कर इसे आए हैं और इसमें ठहरना चाहते हैं।

वह धक्का देकर भीतर चला जाता है। सम्राट भी आवाज सुन रहा है, सब बातें सुन रहा है और उससे कहता है, तुम आदमी कैसे हो! यह मेरा निजी महल है, मेरा निवास है, यह सराय नहीं, सराय दूसरी जगह है।

वह संन्यासी कहता है, मैं समझा कि पहरेदार ही नासमझ है। आप भी नासमझ हैं! पहरेदार क्षमा के योग्य था। आखिर बेचारा पहरेदार ही था। आपको भी यही खयाल है कि आपका निवास-स्थान है, आपका घर है?

सम्राट ने कहा, खयाल! यह मेरा है। खयाल नहीं है यह मेरा, यह मेरा है ही।

संन्यासी ने कहा, बड़ी मुश्किल में पड़ गया मैं। कुछ दो-चार-दस साल पहले मैं आया था, तब भी यही झंझट हो गई थी। और मैंने कहा कि मैं इस सराय में ठहर जाऊं, तब तुम्हारी जगह एक दूसरा आदमी बैठा हुआ था और वह कहता था, यह मेरा महल है। यह मकान मेरा है!

तो उस इब्राहिम ने कहा, वे मेरे पिता थे। उनका अब देहावसान हो गया।

उस फकीर ने कहा, मैं उनके पहले भी आया था, तब एक और बुङ्ढे को पाया था। वह भी इसी जिद्द में था कि यह उसका है! जब यहां हर बार मकान के मालिक बदल जाते हैं, रहने वाले बदल जाते हैं, तो इसको सराय कहना चाहिए कि निवास? और मैं फिर आऊंगा कभी, पक्का है कि तुम मिलोगे? वायदा करते हो? और तुम न मिले तो फिर बड़ी दिक्कत हो जाएगी। फिर कोई मिलेगा, वह कहेगा मेरा है। तो मुझे ठहर ही जाने दो। यह सराय ही है, किसी की नहीं है। जैसे तुम ठहरे हो, वैसे मैं भी ठहर सकता हूं।

इब्राहिम उठा सिंहासन से, उस फकीर के पैर छुए और कहा कि तुम ठहरो, लेकिन अब मैं जाता हूं। उसने कहा, लेकिन कहां जाते हो? उसने कहा कि मैं तो इसी भ्रम में ठहरा हुआ था कि यह मकान है। अगर सराय हो गया तो बात खतम हो गई। जो मैं ठहरा था तो इन दीवालों की वजह से थोड़े ही ठहरा था। ठहरा था इस वजह से कि मेरा है, मकान है, निवास है। लेकिन अब तुम कहते हो सराय है; तो ठीक है, तुम ठहरो, मैं जाता हूं।

वह सम्राट छोड़ कर चला गया। इस सम्राट ने त्याग किया? नहीं, मकान नहीं था, सराय थी–यह दिखाई पड़ गया, बात खतम हो गई। सराय का कोई त्याग करता है? सराय का कोई त्याग नहीं करता। सराय में ठहरता है और विदा होता है।

ऐसा बोध महावीर जन्म के साथ लेकर पैदा हुए हैं। ऐसा बोध हम चाहें तो इस जन्म में भी उपलब्ध हो सकता है। और ऐसे बोध के लिए जो जरूरी है, वह संपत्ति का त्याग नहीं, संपत्ति के सत्य का अनुभव है। संपत्ति का त्याग हो सकता है उतना ही अज्ञानपूर्ण हो, जितना संपत्ति का संग्रह था। इसलिए प्रश्न संग्रह और त्याग का नहीं है, प्रश्न सत्य के अनुभव का है। संपत्ति क्या है? है कुछ मेरी?

यह बोध त्याग बनता है। लेकिन ऐसा त्याग किया नहीं जाता। इसलिए ऐसे त्याग के पीछे कर्ता का भाव इकट्ठा नहीं होता। ऐसे त्याग के पीछे कर्ता का भाव इकट्ठा नहीं होता। और जिस कर्म के पीछे कर्ता का भाव इकट्ठा नहीं होता, उस कर्म से कोई बंधन पैदा नहीं होता है। और जिस कर्म से भी कर्ता का भाव पैदा होता है, वह कर्म बंधन का कारण हो जाता है। यानी कर्म कभी नहीं बांधता, कर्म के साथ कर्ता का भाव जुड़ा हो तो ही बांधता है। और कर्ता का जो भाव है, वही हमारा कारागृह है–अहंकार।

तो महावीर से अगर कोई कहे कि यह तुमने त्याग किया? तो वे हंसेंगे, कहेंगे, किसका त्याग? जो मेरा नहीं था, वह नहीं था, यह मैंने जान लिया। त्याग कैसे करूं? त्याग दोहरी भूल है–भोग की दोहरी भूल। भोग पीछा नहीं छोड़ रहा है।

तो पहली तो बात यह समझ लें कि महावीर जैसे व्यक्ति को त्यागी कहने की भ्रांति में कभी नहीं पड़ना चाहिए, सिर्फ अज्ञानी त्यागी हो सकते हैं, ज्ञानी कभी त्यागी नहीं होते। ज्ञानी इसलिए त्यागी नहीं होते, क्योंकि ज्ञान तो त्याग है ही, उसे त्यागी होना ही नहीं पड़ता। उसके लिए कोई प्रयास, कोई इफर्ट, कोई श्रम नहीं उठाना पड़ता। अज्ञानी को त्याग करना पड़ता है और श्रम लेना पड़ता है, संकल्प बांधना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है। अज्ञानी को त्याग करना पड़ता है। अज्ञानी के लिए त्याग एक कर्म है। और इसलिए अज्ञानी का जब त्याग होता है तो अज्ञानी त्याग किया, ऐसे कर्ता का निर्माण कर लेता है। यह कर्ता उसका पीछा करता है। और यही कर्ता गहरे में हमारा परिग्रह है। संपत्ति हमारा परिग्रह नहीं है–कर्ता, वह जो डुअर है, मैंने किया, वही हमारा…।

कभी आपने सोचा, रात आप सपना देखते हैं और नींद में आपने एक आदमी की हत्या कर दी। सुबह आप उठे और आपको याद आया कि सपने में एक आदमी की हत्या कर दी है। फिर क्या आप ऐसा कहते हैं कि यह हत्या मैंने की? चूंकि ऐसा नहीं कहते, इसलिए कोई पश्चात्ताप भी नहीं पकड़ता है। आप सुबह बिलकुल हलके-फुल्के हैं। एक आदमी की हत्या की है रात, और सुबह आप मस्त हैं। क्योंकि सपने में आप द्रष्टा रहे, कर्ता नहीं हो पाए। सुबह आप जानते हैं सपना देखा था। सुबह आप जानते हैं–सपना देखा था। इसलिए रात हत्या कर दी है, तो अब सुबह से हाथ-पैर नहीं धो रहे हैं, पछता नहीं रहे हैं और घबड़ा भी नहीं रहे हैं कि पाप हो गया। आप जानते हैं कि देखा था सपना। या हो सकता है सपने में आप संन्यासी हो गए हों, सब त्याग कर दिया हो, लेकिन सुबह आप हंसते हैं, क्योंकि फिर द्रष्टा हो गए आप। आप द्रष्टा हो गए फिर।

हां, हो सकता है सपने में जब सोए रहे हों तो हत्या करके भागे हों, छाती धड़क गई हो, पसीना छूट गया हो, छिप गए हों कि अब फंसे, अब फंसे। और हो सकता है सपने में जब त्याग किया हो तो अकड़ कर चले हों, फूलमालाएं पहनी हों, रास्ते पर जुलूस निकले हों, स्वागत- सत्कार हुआ हो और अकड़ कर समझा हो कि हां मैंने सब कुछ त्याग कर दिया। लेकिन सुबह जाग कर आप कहते हैं सपना था। सपना था का मतलब यह कि मैं द्रष्टा था।

अब इस बात को ठीक से समझ लेना कि जिस चीज के हम द्रष्टा हो जाते हैं, वह सपना हो जाती है। जिस चीज के भी हम द्रष्टा हो जाते हैं, वह सपना हो जाती है। और जिस चीज के हम कर्ता हो जाते हैं, वह सत्य हो जाती है। चाहे वह सपना ही हो, जब हम कर्ता हो जाते हैं सपने में, तो वह सत्य हो जाता है सपना। और चाहे जीवन का सत्य ही क्यों न हो, जब हम द्रष्टा हो जाते हैं, तब वह सपना हो जाता है।

यानी सपने को अगर सत्य बनाना हो तो कीमिया, जो केमिकल फार्मूला है, वह यह है कि आप द्रष्टा भर मत होना। अगर सपने को सत्य बनाना हो तो उसकी केमिस्ट्री यह है कि आप द्रष्टा भर मत होना, आप कर्ता हो जाना, तो सपना बिलकुल सत्य हो जाएगा। और ठीक इससे उलटी कीमिया यह है कि आप जिसको सत्य कहते हैं, उसके आप द्रष्टा हो जाना, कर्ता भर मत बनना, और सब सत्य एकदम सपना हो जाएगा।

तो महावीर छोड़ कर इसलिए नहीं जा रहे हैं कि अपना था और छोड़ना है, और छोड़ रहे हैं। नहीं, एक सपना टूट गया और द्रष्टा हो गए हैं और बाहर हो गए हैं। अब कोई लौट कर उनसे कहे भी कि कितनी संपदा थी जो वह छोड़ी? तो वे कहेंगे, सपने की कोई संपदा होती है? सपने में कोई त्याग होता है?

भोग भी सपना है, त्याग भी सपना है, क्योंकि दोनों हालत में कर्ता मौजूद है। इसलिए ज्ञानी न त्यागी है, न भोगी है, सिर्फ द्रष्टा रह गया है। और इसलिए जो भी द्रष्टा रह जाए उसके जीवन से भोग और त्याग दोनों एक साथ विदा हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि त्याग बच रहता है और भोग विदा हो जाता है। भोग और त्याग एक ही सिक्के के दो पहलू थे, वह फिंक जाता है। और दूसरी दृष्टि से देखें तो इसका अर्थ ही वीतराग हुआ।

अगर मैं कर्ता नहीं हूं तो वीतरागता फलित हो जाएगी और अगर मैं कर्ता हूं तो या राग फलित होगा या विराग फलित होगा, या भोग होगा या त्याग होगा, या दुख होगा या सुख होगा। द्वंद्व में सब कुछ होगा, लेकिन निर्द्वंद्व कुछ भी नहीं हो पाएगा।

तो महावीर त्याग करते हैं, ऐसी धारणा है। जो उन्हें मानते हैं, उनके अनुयायी हैं, उनके पीछे चलते हैं, उन सबकी ऐसी धारणा है कि वे त्याग करते हैं, महात्यागी हैं। और मुझे लगता है, इसमें वे केवल अपने भोग की वृत्ति की खबर दे रहे हैं, महावीर का उन्हें कुछ भी पता नहीं है। और यह सवाल महावीर का नहीं है, दुनिया में जब भी किसी व्यक्ति से त्याग हुआ है तो वह ऐसे ही हुआ है।

मैंने सुना है, एक फकीर रात एक सपना देखा। और सुबह उठा, तो जो शिष्य उसका पास से गुजरता था, उसने कहा, सुनो जरा, मैंने एक सपना देखा है, क्या तुम उसकी व्याख्या करोगे? तुम व्याख्या कर सकोगे? मैंने एक बहुत अदभुत सपना देखा है। उसने कहा, ठहरिए, मैं अभी व्याख्या किए देता हूं। वह शिष्य गया और पानी का भरा हुआ घड़ा उठा लाया। उसने कहा, जरा आप अपनी आंख धो डालिए। वह गुरु खूब हंसने लगा है। तभी एक दूसरा शिष्य गुजर रहा है, उसने कहा, सुनो-सुनो, एक मैंने बहुत अदभुत सपना देखा है और इस नासमझ को मैंने कहा था कि व्याख्या कर, तो यह पानी का घड़ा ले आया और कहता है कि मुंह धो डालिए। तुम व्याख्या करोगे?

उसने कहा, एक दो क्षण रुकें, मैं अभी आया। वह एक कप में चाय लेकर आ गया है और कहा, अगर मुंह धो लिया हो तो थोड़ा चाय पी लें। तो गुरु खूब हंस रहा है और वह कहता है कि अगर आज यह घड़ा न लाया होता तो इसको मैंने कान पकड़ कर बाहर कर दिया होता और अगर आज तू चाय लेकर न आ गया होता तो अब इस आश्रम में ठहरने का उपाय न था। सपने की कहीं व्याख्या करनी होती है? सपना सपना दिख गया, बात खतम हो गई। सपने की भी कहीं व्याख्या करनी होती है? तो ठीक ही किया कि पानी ले आया, उसने कहा, हाथ-मुंह धो डालिए, बात खतम हो गई, अब क्या मामला है। अब हाथ-मुंह धो डालना ही काफी है। अब और कोई व्याख्या की जरूरत नहीं।

सपने की कोई व्याख्या नहीं करनी होती। व्याख्या सदा सत्य की होती है, सपने की नहीं हो सकती। सपने की क्या व्याख्या? सपने का बोध त्याग है। सपने का बोध! जो जीवन हम जी रहे हैं, वह एक सपने की भांति है–इस बात का बोध, फिर कहां कुछ पकड़ता है?

मैंने सुना है, एक सम्राट का बेटा मर रहा है। वह उसकी खाट के पास बैठा है। चार दिन, पांच दिन, दस दिन बीत गए हैं और बेटा रोज डूबता जा रहा है। और एक ही लड़का है और बचने की कोई उम्मीद नहीं। वही आशा थी बुढ़ापे की, वही भविष्य था। वह सम्राट न सो पाता है, न जग पाता है, बेचैन है, परेशान है। और चिकित्सकों ने कह दिया है कि आज रात बेटे के बचने की कोई उम्मीद नहीं।

तो सम्राट उसी के पास कुर्सी रखे बैठा है, कब बेटे की सांस टूट जाए, कुछ पता नहीं। जितनी देर साथ रह लें, उतना ही अच्छा। कई दिन का जगा है, कोई रात दो बजे सम्राट की नींद लग गई है। और उसने एक सपना देखा है कि उसके बारह बेटे हैं, इतने सुंदर, इतने स्वस्थ, जैसे कभी देखे नहीं, जैसे कभी किसी के हुए नहीं। बड़ा चक्रवर्ती सम्राट है, सारी पृथ्वी का राजा है। अदभुत स्फटिक के महल हैं। स्वर्ण-पथ हैं। सुंदर नारियां हैं, सुंदर पत्नियां हैं, सब सुख हैं। कोई सुख की कमी नहीं।

और तभी वह जो बेटा बाहर पड़ा था, वह मर गया है। राजा की पत्नी चिल्ला कर रोई है। सपना टूट गया है। और राजा चुपचाप बैठा रह गया है। थोड़ी देर चुप रहा, फिर हंसने लगा, फिर रोने लगा, फिर हंसने लगा। उसकी पत्नी ने कहा, आपको क्या हो गया! आप पागल तो नहीं हो गए?

उसने कहा, पागल? कह नहीं सकता पहले पागल था कि अब पागल हो गया हूं। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। रानी ने कहा, मुश्किल? मुश्किल की क्या बात है? और क्या मुश्किल है, बेटा मर गया है, यही बड़ी मुश्किल है।

उसने कहा, यह सवाल न रहा। अब मैं दिक्कत में हूं कि मेरे बारह बेटे मर गए, उनके लिए रोऊं कि मेरा एक बेटा यह मर गया मैं इसके लिए रोऊं–मैं रोऊं किसके लिए? या तेरह के लिए इकट्ठा रोऊं? तो तेरह के लिए इकट्ठा रोना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि तेरह होते नहीं। वे बारह एक सपने के थे और जब मैं उस सपने में था, तब यह था ही नहीं लड़का, कहां गया था मुझे पता नहीं, खो गया था। और अब जग गया हूं तो यह एक ही बचा है, अब वे बारह खो गए हैं। और जैसे उन बारह के साथ यह एक बिलकुल भूल गया था, वैसे इस एक के साथ वे बारह बिलकुल भूल गए हैं। क्या सच है क्या झूठ है, मैं इस मुश्किल में पड़ गया हूं। रोऊं तो किसके लिए रोऊं? उन बारह के लिए रोऊं या इस एक के लिए रोऊं? या तेरह के लिए रोऊं? और तेरह का जोड़ नहीं बनता। और या फिर किसी के लिए न रोऊं। क्योंकि एक सपना बनता है, एक टूट जाता है, एक बनता है, दूसरा बन जाता है। रोऊं किसके लिए? मैं पागल था। अब मैं पागल नहीं हूं।

तो इस राजा को हम यह न कहेंगे कि इसने अपने बेटे का मोह त्याग दिया। नहीं, यह बात ही व्यर्थ होगी अब। अब हम यह न कहेंगे कि इसने बेटे का मोह त्याग दिया, यह अनासक्त हो गया, यह निर्मोही हो गया। नहीं, यह हम कुछ भी न कहेंगे। अब हम सिर्फ इतना ही कहेंगे कि बेटा सत्य न रहा। निर्मोही होने के लिए भी बेटे का सत्य होना जरूरी है। मोही होने के लिए भी बेटे का सत्य होना जरूरी है। अब हम इतना ही कहेंगे, बेटा एक सपना हो गया, बात खतम हो गई। अब यह राजा को बेटे का मोह छूट गया, ऐसा नहीं; बेटा सत्य ही न रहा।

और अगर बेटा सत्य न रहे तो क्या बाप सत्य रह जाएगा? इससे हम और थोड़ा भीतर जाएंगे तो पता चलेगा कि जब बेटा असत्य हो गया तो बाप की क्या सत्यता रह जाएगी? उन बारह बेटों के साथ वह बाप भी तो मर गया, जो सपने में था, वह अब कहां है? इस बेटे के साथ इसका बाप भी मर गया, वह अब कहां है?

अगर जीवन का एक कोना भी सपना हो जाए–इसे ध्यान से ले लें–अगर जीवन का एक कोना भी सपना हो जाए तो आप फिर पूरे जीवन को सपना होने से न बचा सकेंगे, क्योंकि सब इंटरलिंक्ड है। अगर बेटा असत्य है तो बाप असत्य हो गया। फिर सत्य क्या बचेगा? सब संबंध असत्य हो गए। अगर जीवन का एक कोना भी दिखने लगे कि सपना है तो वह सपना पूरे जीवन पर फैल जाएगा और सपने का एक कोना अगर दिखने लगे यह सत्य है तो वह सत्य पूरे सपने पर फैल जाएगा।

यहां जिंदगी के जो अनुभव हैं, वे टोटल हैं, खंड-खंड नहीं हैं। ऐसा नहीं कह सकता कोई आदमी कि एक चीज भर मेरे लिए जीवन में सपना होगी, बाकी सब सत्य है। अगर ऐसा कोई आदमी कहता है तो वह गलती में पड़ा हुआ है, सपना उसे कुछ भी नहीं हुआ है। सपना होगा तो पूरा सपना हो जाता है। और सत्य होगा तो पूरा सत्य रहता है। सपने और सत्य के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता–बारह बेटे और एक बेटे को जोड़ा नहीं जा सकता, तेरह नहीं हो सकते।

महावीर को ऐसा जो बोध है, वह बोध उनका त्याग बन गया है। ऐसा हमें दिखा कि त्याग बन गया है, क्योंकि हम भोगी हैं और हम सिर्फ त्याग की भाषा समझ सकते हैं। और इसलिए हैरानी होगी, त्यागियों के पास भोगी इकट्ठे हो जाते हैं, क्योंकि सिर्फ भोगी ही त्याग को पकड़ पाते हैं। और यह अदभुत बात है कि महावीर जैसे अपरिग्रही के लिए, अगृही के लिए, महावीर जैसे सब कुछ त्याग में खड़े व्यक्ति के पीछे जो वर्ग इकट्ठा हुआ, वह अत्यंत भोगी, अत्यंत परिग्रही है! अब महावीर के पीछे जैनों की जो परंपरा खड़ी है, वह जैनों से ज्यादा धनी, परिग्रही, सब इकट्ठा करने वाले लोग इस मुल्क में दूसरे नहीं हैं।

यह थोड़ा विचारणीय है। इसके पीछे अर्थ है। इसके पीछे अर्थ यह है कि त्याग की भाषा भोगी को बहुत पकड़ती है और भोगी आस-पास इकट्ठा खड़ा हो जाता है। और एक उलटा जाल बन जाता है। और यह सदा हुआ है।

अब जीसस जैसे आदमी के पीछे–जो कहता है, जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे दूसरा कर देना; जो कहता है, कोई तुम्हारा कोट छीने तो कमीज भी दे देना–उस आदमी के पीछे जो लोग इकट्ठे हुए, उन्होंने जितनी तलवार चलाई जमीन पर और जितना खून किया, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।

असल में, जो बहुत घृणा से भरे हैं उन्हें प्रेम की भाषा एकदम पकड़ लेगी। वह उनकी कमी है। वे उसे पूरा कर लेना चाहते हैं। भोगी त्याग से अपने को पूरा कर लेना चाहता है। खुद नहीं त्याग कर सकता, कोई बात नहीं, त्यागी को पकड़ लेता है। प्रेम की जिनके मन में कमी है, वे कुछ नहीं कर सकते खुद तो एक प्रेम का संदेश देने वाले को पकड़ लेते हैं। सारी दुनिया में सदा ऐसा हुआ है। अनुयायी अक्सर गुरु से उलटे होते हैं, क्योंकि उलटी चीजें लोगों को आकर्षित करती हैं और पास बुला लेती हैं। और ये जो उलटे लोग हैं, ये जो भी रिकार्ड स्थापित करते हैं, वह एकदम गलत होता है, क्योंकि वह इनका सूचक होता है।

इसलिए दुनिया के उन सारे लोगों के संबंध में…मन का जो द्वंद्व है और उलटा होना है, उसमें एक-दो बातें और समझ लेनी जरूरी हैं। हम सबके मन दो खंडों में बंटे हुए हैं–चेतन और अचेतन में बंटे हुए हैं। एक मन जिसे हम जानते हैं और एक मन जिसे हम खुद भी नहीं जानते हैं। और मन के रहस्यों में जो सबसे कीमती रहस्य है, वह यह है कि जो हमारे चेतन मन में होता है उससे ठीक उलटा हमारे अचेतन मन में होता है।

अगर चेतन मन में कोई आदमी बहुत विनम्र है, बहुत हंबल, तो अचेतन मन में बहुत ईगोइस्ट, बहुत अहंकारी होगा। यानी चेतन मन से ठीक उलटा उसका अचेतन होगा। अचेतन उलटा ही होता है। और हमें उसका कोई पता नहीं होता कि हमारा ही मन का बड़ा हिस्सा पीछे छिपा हुआ हमसे उलटा है। और वह अचेतन ही इसलिए हो जाता है कि हम उलटे हिस्से को दबाते जाते हैं, वह पीछे अंधेरे में छिपता चला जाता है। जो हमें प्रीतिकर है, उसे हम चेतन में बचा लेते हैं; और जो अप्रीतिकर है, उसे पीछे हटा देते हैं। यह जो पीछे हमारे मन बैठा हुआ है, यह ठीक उलटा होता है–जैसे हम ऊपर से दिखाई पड़ते हैं, उससे।

तो ऊपर से जो आदमी त्याग की बहुत प्रशंसा कर रहा हो, उसके अचेतन में भोग की आकांक्षा होती है। और अगर किसी आदमी ने जान कर त्याग किया, चेष्टा करके त्याग किया, तो त्याग करते से ही उसका मन भोग की आकांक्षा में लीन हो जाएगा। क्योंकि वह पीछे छिपा हुआ मन अपनी मांग शुरू कर देगा। और इसलिए आप कोई भी काम करके देखें, हमेशा मन उलटी बातें करता रहेगा।

अगर कोई आपको गाली दे और आप झगड़ा करके लड़ लें तो घर लौट कर आप पाएंगे कि पश्चात्ताप हो रहा है: यह ठीक नहीं किया, यह बुरा किया कि गाली का जवाब गाली से दिया कि क्रोध किया। लेकिन आप ऐसा मत सोचना कि आपने इससे उलटा किया होता तो कोई फर्क पड़ने वाला था।

अगर कोई ने गाली दी होती और आप बिना गाली दिए हुए चुपचाप घर लौट आए होते तो मन कहता कि बहुत बुरा किया, ऐसे चुपचाप लौट आना ठीक है क्या? जब उसने गाली दी थी तो अन्याय को सहना उचित है क्या? आप जो करके आएंगे, मन उलटे का सुझाव पीछे से देना शुरू करेगा। आप जो भी निर्णय लेंगे, उससे उलटा निर्णय भी आपके मन में संगृहीत होगा।

इसलिए गुरजिएफ एक फकीर था, तो जब भी कोई साधक उसके पास आता तो आठ-दस दिन तो उसे खिलाना-पिलाना, और इतनी शराब पिलाना जिसका कोई हिसाब नहीं। उसकी बड़ी बदनामी हो गई, इसलिए कोई उसके पास न जाए कि वह शराब पहले पिलाएगा। और वह तो नियम था। जो शराब पीने को इनकार करे, उसे तो वह सीमा के भीतर न घुसने दे, अपने पास न आने दे। और आठ-दस दिन रात दो-दो बज जाएंगे, तीनत्तीन बज जाएंगे, वह शराब पर शराब पिलाए जाएगा अपने हाथ से। और इन आठ-दस दिनों में जब वह आदमी बार-बार बेहोश हो जाएगा, तभी गुरजिएफ उसका अध्ययन करेगा कि वह आदमी है कैसा। क्योंकि जो वह ऊपर से दिखला रहा है, उससे ठीक उसका उलटा भीतर बैठा हुआ है।

तो वह यह कहता था कि मैं तुम्हारे फाल्स फेस से, तुम्हारे झूठे चेहरे के साथ मेहनत नहीं करूंगा। तुम्हारे भीतर क्या है, उसे मुझे जान लेना जरूरी है।

अब वह जो आदमी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कर रहा था, वह शराब पीकर एकदम गालियां बक रहा है। ये गालियां बकने वाला आदमी भीतर बैठा है।

कभी आपने सोचा, शराब गालियां बना सकती है? शराब के पास कोई ताकत नहीं है कि गालियों को निर्मित कर दे। गालियां भीतर दबा ली हैं और सदवचन ऊपर इकट्ठे कर लिए हैं। तो जब शराब पीते हैं तो चेतन मन बेहोश हो गया। अब वह जो भीतर है, वह निकलना शुरू हो गया।

यह बड़े आश्चर्य की बात है, अगर साधु-संतों को शराब पिलाई जाए तो उनके भीतर से हत्यारे, व्यभिचारी निकलेंगे। और अगर व्यभिचारियों को शराब पिलाई जाए तो उनके भीतर से साधु-संत की झलक भी मिल सकती है, क्योंकि उलटा भीतर बैठा हुआ है। वह जो आदमी निरंतर पाप कर रहा है, वह निरंतर आकांक्षा कर रहा है: कब छुटकारा होगा इससे? कैसे इससे बाहर निकलूंगा? यह सब क्या हो रहा है? इससे मैं कैसे बाहर जाऊं?

यह जो बात है कि हम अपने से उलटा अपने भीतर इकट्ठा कर लेते हैं, अगर यह हमारे खयाल में हो तो हम महावीर को भूल कर त्यागी नहीं कहेंगे। भूल कर त्यागी कहेंगे ही नहीं। क्योंकि महावीर जैसा व्यक्तित्व इंटिग्रेटेड होता है, उसके भीतर दो खंड नहीं होते, एक ही होता है। अगर वह भोग करेगा तो पूरा, अगर त्याग करेगा तो पूरा, इसमें दो हिस्से नहीं होते। वह जो भी करेगा, उसमें पूरा मौजूद होगा। जैसे हम समुद्र को कहीं से भी चखें और वह खारा होगा, ऐसे महावीर जैसे व्यक्ति को हम कहीं से भी पकड़ें, वह वही होगा, जैसा है।

हम ऐसे नहीं हैं। हमें अलग-अलग कोनों से पकड़ा जाए तो हममें से अलग-अलग आदमी निकलेंगे। मंदिर में हममें से एक आदमी निकलता है, शराबखाने में हममें से दूसरा आदमी निकलता है, मित्र के साथ तीसरा निकलता है, दुश्मन के साथ चौथा निकलता है, दुकान पर पांचवां निकलता है, ताश खेलते वक्त छठवां निकलता है। हमारे भीतर के आदमी का हिसाब नहीं है कि हमारे कितने चेहरे हैं, जो हम वक्त-वक्त पर निकाल लेते हैं।

ठीक अर्थों में त्याग उसी व्यक्ति से फलित हो सकता है, जिसका व्यक्तित्व पूरा अखंड हो गया। ऐसे व्यक्ति का भोग भी त्याग ही है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति में दो हिस्से ही नहीं हैं। इसमें उलटे हिस्से नहीं हैं इस व्यक्ति के भीतर। इसलिए इसमें दूसरे व्यक्तित्व के उदय होने की कभी कोई संभावना नहीं है।

लेकिन हमने तो द्वंद्व की भाषा में सब सोचा है। दो में तोड़े बिना हम सोच नहीं सकते। तो हम कहेंगे: महावीर त्यागी हैं, भोगी नहीं। हम कहेंगे: क्षमावान हैं, क्रोधी नहीं। हम कहेंगे: अहिंसक हैं, हिंसक नहीं। हम कहेंगे: दयापूर्ण हैं, क्रूरतापूर्ण नहीं। हम दो हिस्सों में तोड़त्तोड़ कर चलेंगे। और तब हम महावीर जैसे व्यक्ति को कभी भी नहीं समझ पा सकते हैं।

अखंड व्यक्ति में द्वंद्व विलीन हो जाता है। न वहां त्याग है, न वहां भोग। वहां एक नई ही घटना घटी है, जिसके लिए शब्द खोजना मुश्किल है। या तो हम उसे त्यागपूर्ण भोग कहें या भोगपूर्ण त्याग कहें। एक ऐसी घटना घटी है, जिसे एक शब्द से चुन कर नहीं पकड़ा जा सकता। या तो हम उसे क्रोधपूर्ण क्षमा कहें या क्षमापूर्ण क्रोध कहें। दो टुकड़ों को अलग करके नहीं कहा जा सकता।

और क्रोधपूर्ण क्षमा का क्या मतलब होता है? क्षमापूर्ण क्रोध का क्या मतलब होता है? कोई मतलब नहीं होता। वे मीनिंगलेस हैं, अर्थहीन हैं। जिसे हम कहें मित्रतापूर्ण शत्रु या शत्रुतापूर्ण मित्र, इसका क्या मतलब होगा? इसका कोई मतलब नहीं होगा। या तो शत्रु का मतलब होता है या मित्र का मतलब होता है। इन दोनों को मिला देने से कोई मतलब नहीं होता।

इसलिए ठीक रास्ता यह है कि हम दोनों का निषेध कर दें, वहां दोनों नहीं हैं। न वहां त्याग है, न वहां भोग है। लेकिन हमारा मन होता है कि वहां है क्या? वहां कुछ तो होना चाहिए! वहां है क्या? न वहां घृणा है, न वहां प्रेम है। न वहां हिंसा है, न वहां अहिंसा है। फिर वहां है क्या?

तो चूंकि हम समझने में मुश्किल हो जाएंगे कि वहां क्या है, इसलिए हमने उचित समझा है कि जो बुरा है, उसे इनकार कर दो, जो भला है, उसे स्थापित कर दो। कह दो: महावीर भोगी नहीं हैं, त्यागी हैं; कह दो: हिंसक नहीं हैं, अहिंसक हैं; क्रोधी नहीं हैं, क्षमावान हैं। लेकिन द्वंद्व को बचा लो।

अब हमने कभी सोचा ही नहीं है कि जो आदमी क्रोधी नहीं है, वह क्षमा कैसे करेगा? जिसे कभी क्रोध नहीं हुआ, वह क्षमा कैसे करेगा? किसको क्षमा करेगा? कैसे क्षमा करेगा? क्षमा के पहले क्रोध अनिवार्य है। और जो आदमी भोगी नहीं है, वह त्यागी का उसका क्या अर्थ होता है? कोई अर्थ ही नहीं होता। क्योंकि भोगी ही सिर्फ त्यागी हो सकता है। वे दोनों जुड़े हैं साथ-साथ, इकट्ठे हैं। लेकिन हमारी कल्पना में चूंकि यह नहीं आता, इसलिए हम एक खंड को हटा कर एक को बचा लेना चाहते हैं।

असल में वह हमारी आकांक्षा का सबूत है, महावीर के सत्य का नहीं। हम चाहते हैं कि हमारे भीतर क्रोध न हो, क्षमा हो; हिंसा न हो, अहिंसा हो; परिग्रह न हो, अपरिग्रह हो; बंधन न हो, मोक्ष हो। यह हमारी चाहना है। और हमारी चाहना बताती है कि क्या है। घृणा है, चाहते हैं हम प्रेम हो! हिंसा है, चाहते हैं अहिंसा हो! बंधन है, चाहते हैं मुक्ति हो! हमारी चाह दो बातें बताती है। हमारी चाह का मतलब ही होता है, जो नहीं है, उसकी ही चाह होती है। हम हैं कुछ और, और चाहते ठीक उलटे को हैं, इसी को हम थोप लेते हैं। जिन्हें हम आदर्श पुरुष बना लेते हैं, उन पर थोप देते हैं। और उस व्यक्ति को समझना मुश्किल हो जाता है।

क्या यह संभव नहीं है कि एक व्यक्ति में दोनों न हों? इसमें कठिनाई क्या है? इसमें कठिनाई क्या है कि एक व्यक्ति में न प्रेम हो, न घृणा हो? जरूरी क्यों है कि इन दो में से कोई एक हो ही? न भोग हो, न त्याग हो। जरूरी क्या है कि दोनों में से कोई एक हो ही? लेकिन हमारी कंसेप्शन में, हमारी धारणा में आना मुश्किल हो जाएगा कि ऐसा आदमी कैसा होगा, जिसमें दोनों नहीं हैं।

और जिसमें दोनों नहीं हैं, वही अखंड हो सकता है, नहीं तो खंड-खंड होगा, टुकड़े-टुकड़े में होगा। और जिसमें दोनों नहीं हैं, वही मुक्त हो सकता है, क्योंकि द्वंद्व में कोई मुक्ति कभी संभव नहीं है। और इसलिए महावीर जैसे व्यक्ति बेबूझ हो जाते हैं, हमारी पकड़ के बाहर हो जाते हैं।

चीन में एक दस चित्र हैं। और किसी अदभुत चित्रकार ने वे दस चित्र बनाए हैं। पहला चित्र है, जिसमें एक आदमी अपने घोड़े पर सवार जंगल की तरफ जा रहा है। पहले चित्र में घोड़े पर सवार एक आदमी जंगल की तरफ जा रहा है। लेकिन कुछ बात ऐसी है कि आदमी कहीं और जाना चाहता है, घोड़ा कहीं और जाना चाहता है, इसलिए बड़ा तनाव है। और घोड़ा वहां कैसे जाना चाहे, जहां आदमी जाना चाहता है? घोड़ा घोड़ा है, आदमी आदमी है। और आदमी को घोड़ा कैसे समझे? घोड़े को आदमी कैसे समझे? तो घोड़ा किसी और रास्ते पर जाना चाहता है, आदमी किसी और रास्ते पर जाना चाहता है। बड़े तनाव में दोनों उस चित्र में हैं।

दूसरे चित्र में घोड़ा आदमी को पटक कर भाग गया है। असल में आदमी ने घोड़े पर चढ़ने की कोशिश की तो घोड़ा आदमी को पटकेगा। अब जिस पर हम चढ़ेंगे, वह हमको पटकेगा। तो आदमी को पटक कर घोड़ा भाग गया। आदमी पड़ा है परेशान और घोड़ा भाग गया है!

तीसरे चित्र में आदमी घोड़े को खोजने निकला है। घोड़े का कहीं कोई पता नहीं चल रहा है। जंगल ही जंगल है और आदमी घोड़े को खोजने निकला है।

चौथे चित्र में घोड़े की पूंछ एक वृक्ष के पास भर दिखाई पड़ती है–सिर्फ पूंछ। पांचवें चित्र में आदमी पास पहुंच गया है और पूरा का पूरा घोड़ा दिखाई पड़ता है। और छठवें चित्र में आदमी ने घोड़े की पूंछ पकड़ ली है। और सातवें चित्र में आदमी फिर घोड़े पर सवार हो गया है। और आठवें चित्र में फिर घोड़े पर सवार होकर घर की तरफ वापस लौट रहा है। नौवें चित्र में घोड़े को बांध दिया है, आदमी उसके पास बैठा है, घोड़ा बिलकुल शांत है, आदमी बिलकुल शांत है। दसवें चित्र में दोनों खो गए हैं, सिर्फ जंगल रह गया है–न घोड़ा है, न आदमी है।

ये दस चित्र पूरी साधना के चित्र हैं। लेकिन आखिरी चित्र में दोनों खो गए हैं। लड़ाई ही खो गई है, द्वंद्व ही खो गया है। नौ चित्रों में बहुत तरह से लड़ाई चली है। और जब तक लड़ाई चलती रही है, जब तक दोनों हैं, तब तक कुछ न कुछ उपद्रव होता रहा है। लेकिन आखिरी चित्र में दोनों ही खो गए हैं; अब न घोड़ा है, न घोड़े का मालिक है, कोई भी नहीं है, खाली चित्र रह गया है।

जिंदगी में द्वंद्व की लड़ाई है। क्रोध से हम लड़ रहे हैं, घृणा से हम लड़ रहे हैं, हिंसा से हम लड़ रहे हैं, भोग से हम लड़ रहे हैं। तो जिससे हम लड़ रहे हैं, उस पर हम सवार होने की कोशिश कर रहे हैं। और जिस पर हम सवार होने की कोशिश कर रहे हैं, वह हमको पटके दे रहा है, बार-बार पटक रहा है। तो भोगी त्यागी होने की कोशिश करता है, रोज-रोज पटकें खा जाता है, फिर गिर जाता है, फिर परेशान हो जाता है।

एक घर में मैं मेहमान था कलकत्ते में। उस घर के बूढ़े आदमी ने मुझसे कहा कि मैंने ब्रह्मचर्य की जीवन में तीन बार प्रतिज्ञा की। बहुत व्यंग्यपूर्ण बात थी यह, क्योंकि ब्रह्मचर्य की अगर तीन बार प्रतिज्ञा लेनी पड़े तो ऐसा ब्रह्मचर्य है कैसा? क्योंकि एक ही बार लेनी चाहिए प्रतिज्ञा ब्रह्मचर्य की। तो मैं तो खूब हंसने लगा, लेकिन मेरी बगल का आदमी नहीं समझ सका जो वहां पास बैठा था। उसने कहा, आपने बड़ी साधना की!

वह बूढ़ा भी हंसने लगा। तो उस आदमी ने पूछा कि फिर बस तीन ही बार ली, फिर चौथी बार नहीं ली? तो उस बूढ़े आदमी ने कहा कि तुम यह मत सोचना कि तीसरी बार सफल हो गया। नहीं, तीन बार असफल होकर फिर मैंने हिम्मत ही छोड़ दी, चौथी बार नहीं ली।

और उस बूढ़े आदमी ने मुझे कहा कि जब मैंने बिलकुल छोड़ दिया खयाल ही कि लड़ना ही नहीं है–क्योंकि तीन दफा हार चुका, बहुत हो चुका–तो मैं एकदम हैरान हुआ, मुझ पर सेक्स की इतनी कम पकड़ कभी भी नहीं थी। जिस दिन मैंने यह तय किया कि अब लड़ना ही नहीं, अब जो है सो ठीक है–और मेरी पकड़ एकदम ढीली हो गई। और मेरी पकड़ बड़ी जोर से थी, क्योंकि मैं इतना संकल्प कर रहा था, इतना व्रत कर रहा था।

असल में व्रत, संयम, त्याग, संघर्ष कर किससे रहे हैं हम? जिससे हम कर रहे हैं, उसको हमने मान लिया। जिससे हम लड़ने लगे, उसको हमने समान स्वीकृति दे दी। और अगर हम उस पर कभी किसी बेमौके चढ़ भी जाएंगे तो कितनी देर चढ़े रहेंगे? अगर आप एक दुश्मन की छाती पर बैठ भी जाएं तो जिंदगी भर तो नहीं बैठे रहेंगे, कभी तो उसकी छाती छोड़ेंगे। और दुश्मन अगर कोई दूसरा होता तो अपने घर चला जाता। यह दुश्मन ऐसा नहीं है कि दूसरा है, अपना ही हिस्सा है। जिस दिन आप छोड़ेंगे, वह वापस लौट कर खड़ा हो जाता है।

और एक मजे की बात है कि जिसको आप दबाते हैं–तो आपके ही दो हिस्से, आप ही दबाने वाले, आप ही दबने वाले तो जिसे आप दबाते हैं वह तो विश्राम कर लेता है हिस्सा और जो दबाता है, वह थक जाता है। तो थोड़ी देर में उलटा सिलसिला शुरू हो जाता है। इसलिए जिस चीज को आप दबाइएगा थोड़े दिन में आप पाएंगे कि आप उससे दबे हुए हैं। क्योंकि जो हिस्सा दब गया, वह विश्राम कर रहा है। और जो दबा रहा है, उसको श्रम करना पड़ रहा है। श्रम करने वाला थकेगा, विश्राम करने वाला सबल हो जाएगा। इसलिए रोज उलटा परिवर्तन हो जाता है।

लड़ेंगे तो हारेंगे। और दबाएंगे तो गिरेंगे। लेकिन खोज बिलकुल दूसरी बात है।

पहले चित्रों में वह आदमी घोड़े पर जबरदस्ती सवार हो रहा है। दूसरे चित्रों में वह खोज पर निकला है। खोज लड़ाई नहीं है। तो एक आदमी क्रोध से लड़ रहा है, यह एक बात है। और एक आदमी क्रोध की खोज में निकला है कि क्रोध क्या है, यह बिलकुल दूसरी बात है। और जब वह खोज पर निकला है, तब उसे पूंछ दिखाई पड़ गई है। थोड़ा सा दिखा है। फिर पूंछ के करीब और चला गया है तो पूरा घोड़ा दिखाई पड़ गया है। फिर उसने घोड़े को पकड़ लिया है, क्योंकि जिसे हम समझ लेते हैं, उससे लड़ना नहीं पड़ता, उसे हम ऐसे ही सहज पकड़ लेते हैं, क्योंकि वह अपना ही हिस्सा है। उससे लड़ना क्या है? वह अपना ही हाथ है। बाएं को दाएं हाथ से लड़ाएं तो क्या फायदा होगा? वह घोड़े को लेकर घर की तरफ चल पड़ा है। उसने घोड़े को लाकर घोड़े की जगह बांध दिया है, वह उसके पास चुपचाप बैठा हुआ है। वह अब लड़ नहीं रहा है, न सवार हो रहा है। अब कोई संघर्ष ही नहीं है, घोड़ा अपनी जगह है, वह अपनी जगह है। क्रोध अपनी जगह बैठा है, आदमी अपनी जगह बैठा है। चुपचाप दोनों अपनी जगह बैठे हैं। और दसवें चित्र में दोनों विलीन हो गए हैं। क्रोध भी विलीन हो गया है, क्रोध से लड़ने वाला भी विलीन हो गया है। तब क्या रह गया है? एक खाली चित्र रह गया है। दसवां चित्र बहुत अदभुत है, वह कोरा ही कैनवस है, उसमें कुछ भी नहीं है।

इसलिए कई बार ऐसा हुआ कि वे दस चित्र जब किसी को भेंट किए गए, किसी ने किए, तो उसने कहा कि नौ तो ठीक हैं, दसवें की क्या जरूरत है? क्योंकि वह बिलकुल खाली कैनवस का टुकड़ा है। तो उसे कहा गया कि दसवां ही सार्थक है, बाकी नौ तो सिर्फ तैयारी है। बाकी नौ में कुछ नहीं है, जो है वह इस दसवें में है। तो आदमी पूछता है, लेकिन इसमें कुछ भी तो नहीं है!

उस चेतना में कुछ भी नहीं है, कोई द्वंद्व नहीं, सब खो गया है, रिक्तता रह गई है, खाली आकाश रह गया है, शून्य रह गया है। कोई द्वंद्व नहीं है, सब अखंड हो गया है।

ऐसा अखंड व्यक्ति ही देने में समर्थ है। खंडित व्यक्ति देने में समर्थ नहीं है। और इसलिए ऐसा अखंड व्यक्ति ही तीर्थंकर जैसी स्थिति में हो सकता है। मेरा कहना है, यह महावीर लेकर ही पैदा होते हैं। और जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह हमारी भ्रांतियों की कथा है।

और हम कभी चीजों के बहुत पास जाकर नहीं देखे हैं, सदा दूर से देखे हैं। बहुत फासले से हम देखते हैं चीजों को। पास से हम देख भी नहीं सकते, क्योंकि पास से देखना हो तो खुद ही गुजरना पड़े उनसे। इसके पहले देख भी नहीं सकते। यानी महावीर घर से कैसे गए हैं, इसे हम कैसे देख सकते हैं, क्योंकि वैसे हम कभी अपने घर से गए ही नहीं। यह हमारे लिए देखना मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है सिर्फ कि हम पास से कभी गुजरे ही नहीं किसी चीज के कि हम भी देख लेते। बहुत फासला है। कोई गुजरता है और हम देखते हैं, भूल हो जाती है। क्योंकि जब कोई गुजरता है तो उसकी बाह्य व्यवस्था भर दिखाई पड़ती है। उसका भीतरी अनुभव दिखाई नहीं पड़ता। और सब कथाएं, जो भी लिखा गया है, वे एकदम बाहर से खींचे गए चित्र हैं।

और बाहर से यही दिखाई पड़ता है कि महल था, महल छोड़ दिया; धन था, धन छोड़ दिया; पत्नी थी, पत्नी छोड़ दी; प्रियजन, रिश्तेदार, निकट-मित्र, सब छोड़ दिए। यही दिखता है। यही दिख सकता है। और तब त्याग की एक व्यवस्था हम खड़ी करेंगे और उस त्याग की व्यवस्था में बहुत से लोग छोड़ने की कोशिश करेंगे और मर जाएंगे और दिक्कत में पड़ जाएंगे। बहुत लोग यही कोशिश करेंगे कि हम भी छोड़ दें मकान को, लेकिन मकान पीछा करेगा।

एक जैन मुनि थे। वे बीस वर्ष पहले अपनी पत्नी को छोड़ कर गए। उनकी जीवन-कथा किसी ने लिखी तो मेरे पास वह लाया। तो यूं ही मैं उसे उलटा-पलटा कर देखता था। तो उसमें एक वाक्य मुझे पढ़ने को मिला। बीस साल हो गए हैं पत्नी को छोड़े हुए, काशी में रहते हैं। पत्नी मरी है, तार आया है, तो उन्होंने तार पढ़ कर कहा कि चलो, झंझट छूटी। तो उस जीवन-कथा लिखने वाले ने लिखा है: कैसा परम त्यागी व्यक्ति, कि पत्नी मरी तो सिर्फ एक वाक्य मुंह से निकला कि चलो झंझट छूटी। और कुछ भी न निकला।

मैंने–वे लेखक खुद किताब लेकर आए थे–मैंने उनसे कहा कि इस किताब को बंद करो, किसी को बताना मत। उसने कहा, क्यों? मैंने कहा, तुमको यह पता नहीं कि तुम क्या लिखे हो इसमें! अगर ऐसा ही हुआ है तो फिर बीस साल पहले जिस पत्नी को छोड़ कर तुम्हारा मुनि चला गया था, उसकी झंझट बाकी थी? यानी अब उसके मरने से कहता है, झंझट छूटी! तो झंझट बाकी थी। किसी न किसी चित्त के तल पर झंझट जारी थी। यह पत्नी के मरने की प्रतिक्रिया नहीं है, यह प्रतिक्रिया चित्त के भीतर झंझट चलने की है। झंझट खतम हुई पत्नी के मरने से! पत्नी के छोड़ने से भी पूरी न हुई वह झंझट? क्योंकि वह पत्नी है, यह भी न मिटा। क्योंकि उस पत्नी को छोड़ा है, यह भी न मिटा। क्योंकि उस पत्नी का क्या होता होगा, यह भी न मिटा। यह कुछ भी न मिटा। तो अब वह मर गई तो झंझट छूटी।

मैंने कहा, और यह भी हो सकता है कि तुम्हारे इस मुनि ने कई दफे चाहा हो कि पत्नी मर जाए, क्योंकि इसका यह कहना इसकी भीतरी आकांक्षा का सबूत भी हो सकता है। इसने कई बार चाहा हो कि यह मर जाए। शायद छोड़ने के पहले इसने चाहा हो कि यह मर जाए, वह नहीं मरी, तो इसने शायद बाद में भी कई दफे सोचा हो कि यह मर जाए। क्योंकि यह शब्द बड़ा अदभुत है और इसके पूरे अचेतन की खबर लाता है।

एक दूसरी घटना सुनाता हूं। एक फकीर गुजर गया है। उसका एक शिष्य है, जिसकी बड़ी ख्याति है। इतनी ख्याति है, गुरु से भी ज्यादा। और लोग कहते हैं, वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है–शिष्य जो है, वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। लाखों लोग इकट्ठे हुए हैं, गुरु मर गया है। वह शिष्य मंदिर के द्वार पर ही बैठा छाती पीट-पीट कर रो रहा है। तो लोग बड़े चौंके हैं, क्योंकि ज्ञानी और रोए!

तो दो-चार जो निकट हैं, उन्होंने कहा, यह आप क्या कर रहे हो? सब जिंदगी भर की इज्जत पर पानी फिर जाएगा। आप और रोते हो! ज्ञानी और रोए!

तो उस आदमी ने आंखें ऊपर उठाईं और कहा, ऐसे ज्ञानी से छुटकारा चाहता हूं, जो रो भी न सके। नमस्कार! इतनी भी आजादी न बचे तो ऐसा ज्ञानी मुझे नहीं होना। क्योंकि ज्ञान की खोज हम आजादी के लिए किए हैं। ज्ञान एक नया बंधन बन जाए और मुझे सोचना पड़े कि क्या कर सकता हूं, क्या नहीं कर सकता हूं, तो मैं क्षमा चाहता हूं। तुमसे कहा किसने कि मैं ज्ञानी हूं?

फिर भी उन लोगों ने कहा कि ठीक है, यह तो ठीक है। लेकिन आप ही तो समझाते थे कि आत्मा अमर है और आत्मा नहीं मरती। आप काहे के लिए रो रहे हैं? उसने कहा, आत्मा के लिए, पागल, रो कौन रहा है? वह शरीर भी बहुत प्यारा था। वह शरीर भी बहुत प्यारा था। और वैसा शरीर अब दोबारा नहीं हो सकेगा। अद्वितीय था वह। आत्मा के लिए रो कौन रहा है? शरीर कुछ कम था क्या प्यारा!

फिर उस आदमी ने कहा, उस फकीर ने कहा कि तुम मेरी चिंता मत करो, क्योंकि मैंने ही अपनी चिंता छोड़ दी है। अब तो जो होता है, सो होता है। हंसी आती है तो हंसता हूं, रोना आता है तो रोता हूं। अब मैं रोकता ही नहीं कुछ, क्योंकि अब रोकने वाला भी कोई नहीं है। कौन रोके? किसको रोके? क्या रोकना है? क्या बुरा है, क्या भला है? क्या पकड़ना है, क्या छोड़ना है? सब जा चुका है। जो होता है, होता है। जैसे हवा चलती है तो वृक्ष हिलते हैं, वर्षा आती है तो बादल आते हैं, सूरज निकलता है तो फूल खिलते हैं–बस ऐसा ही है। न तुम फूल से जाकर कहते हो कि क्यों खिले हो, और न तुम बादल की बदलियों से कहते हो कि तुम क्यों आई हो, और न तुम सूरज से कहते हो कि क्यों निकले हो। तो मुझसे क्यों पूछते हो कि क्यों रो रहे हो? कोई मैं रो रहा हूं! रोना आ रहा है। मैं कोई रोने वाला नहीं हूं।

वे तो बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं। और किसी एक ने कहा कि आप तो कहते थे, सब माया है, सब सपना है।

तो वह कहता है, अभी मैं कब कह रहा हूं कि सब माया नहीं, सब सपना नहीं! मेरा रोना–अगर उतनी ठोस देह भी सत्य साबित न हुई, उतनी ठोस देह भी सत्य साबित न हुई, तो मेरे ये तरल आंसू कितने सत्य हो सकते हैं? वह आदमी यह कह रहा है, उतनी ठोस देह भी असत्य हो गई, सपना हो गई, तो मेरे तरल आंसू कितने सत्य हो सकते हैं!

इसे समझना हमें मुश्किल हो जाएगा। उस मुनि को समझना बहुत आसान है, जिसने कहा कि झंझट छूटी। क्योंकि हमारा चित्त भी वैसा ही है, वह द्वंद्व में ही जीता है। इतना निर्द्वंद्व होना बहुत मुश्किल है कि जहां रोना भी क्रिया न रह जाए, जहां उसके भी हम कर्ता न रह जाएं, जहां उसके भी हम द्रष्टा हो जाएं, जहां उसे भी हम रोकें न, टोकें न, कुछ बंधन न डालें, कुछ व्यवस्था न बांधें; जो होता हो, होता हो। जैसे वृक्षों में पत्ते आते हों और जैसे आकाश में तारे निकलते हों, ऐसा ही सब हो जाए। ऐसा अखंड व्यक्ति ही सत्य को उपलब्ध होता है और ऐसे अखंड व्यक्ति से ही सत्य की अभिव्यक्ति हो सकती है।

लेकिन इतना अखंड हो जाना ही सत्य की अभिव्यक्ति के लिए काफी नहीं है। अखंड व्यक्ति भी, हो सकता है, सत्य को बिना अभिव्यक्त किए मर जाए। और बहुत से अखंड व्यक्ति सत्य को बिना प्रकट किए ही समाप्त हो जाते हैं। यह ऐसा ही है जैसे कि सौंदर्य को जान लेना सौंदर्य को निर्मित करना नहीं है।

एक आदमी सुबह के उगते सूरज को देखता है और अभिभूत हो गया सौंदर्य से, लेकिन यह अभिभूत हो जाना पर्याप्त नहीं है कि वह एक चित्र बना दे सुबह के सूरज उगने का। अभिव्यक्त कर दे इसको, जरूरी नहीं है। तुम सुबह बैठे हो वृक्ष के नीचे और एक पक्षी ने गीत गाया और तुम डूब गए संगीत में। तुमने अनुभव किया है संगीत, लेकिन जरूरी नहीं कि वीणा उठा कर तुम गीत को पुनर्जन्म दे दो।

यानी सत्य की अनुभूति एक बात है और अभिव्यक्ति बिलकुल दूसरी बात है। बहुत से अनुभूति-संपन्न व्यक्ति बिना अभिव्यक्ति दिए समाप्त हो जाते हैं।

दुनिया में कितने लोग हैं जो सौंदर्य को अनुभव नहीं करते। लेकिन कितने कम लोग हैं, जो सौंदर्य को चित्रित कर पाते हैं। कितने लोग हैं, जिनके प्राणों को आंदोलित नहीं कर देता संगीत। लेकिन कितने कम लोग हैं, जो संगीत को अभिव्यक्त कर पाते हैं। कितने लोग हैं, जिन्होंने प्रेम नहीं किया! लेकिन प्रेम की दो कड़ियों में, प्रेम की दो कड़ी लिख पाना बिलकुल दूसरी बात है।

तो यहां दोत्तीन बातें कहूं, ताकि आगे का सिलसिला खयाल में रह सके। पहली बात, अनुभूति हो जाना अखंड की पर्याप्त नहीं है अभिव्यक्ति के लिए, कुछ और करना पड़ता है अभिव्यक्ति के लिए–अनुभूति के अतिरिक्त। और अगर वह और न किया जाए तो अनुभूति होगी और व्यक्ति खो जाएगा। तीर्थंकर वैसा अनुभवी है, जो कुछ और करता है–अभिव्यक्ति के लिए।

इसलिए महावीर की जो बारह वर्ष की साधना है, वह मेरे लिए सत्य-उपलब्धि के लिए नहीं है। सत्य तो उपलब्ध है, उसकी अभिव्यक्ति के सारे माध्यम खोजे जा रहे हैं उन बारह वर्षों में। और ध्यान रहे, सत्य को जानना तो कठिन है ही, सत्य को प्रकट करना और भी कठिन है। सत्य को उपलब्ध करना तो कठिन है, उससे भी ज्यादा कठिन है यह कि सत्य को कम्युनिकेट करना। तो महावीर की…।

आप पूछ सकते हैं कि अगर महावीर को सब मिल गया है तो फिर यह तपश्चर्या, यह साधना, यह उपवास, यह बारह वर्षों का लंबा काल, यह क्या हो रहा है? क्या कर रहे हैं वे? अगर मैं कहता हूं कि वे तो पाकर लौटे हैं, तो यह क्या कर रहे हैं?

तो जितना गहरा मैंने देखने की कोशिश की, उतना मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ये अभिव्यक्ति के सब उपकरण खोजे जा रहे हैं। और अभिव्यक्ति बहुत तलों पर महावीर ने करने की कोशिश की है, जिसकी कि कम शिक्षकों ने फिक्र की है कभी भी। यानी जीवन के जितने तल हैं और जीवन के जितने रूप हैं, सब रूपों तक सत्य की खबर पहुंचाने की अदभुत तपश्चर्या महावीर ने की है।

यानी मनुष्य से ही नहीं बोल देना है, क्योंकि मनुष्य तो सिर्फ जीवन की एक छोटी सी घटना है। जीवन की यात्रा की मनुष्य सिर्फ एक सीढ़ी है। एक ही सीढ़ी पर सत्य नहीं पहुंचा देना है, मनुष्य के पीछे की सीढ़ियों पर भी पहुंचा देना है। मनुष्य से भिन्न सीढ़ियों पर भी पहुंचा देना है। यानी पत्थर से लेकर और देवता तक भी सुन सकें, इसकी सारी व्यवस्था खोजने में बारह वर्ष व्यतीत हुए हैं। जो चेष्टा है, वह यह है कि जीवन के सब रूपों से कम्युनिकेशन और संवाद हो सके, सब रूपों पर अभिव्यक्त किया जा सके। तो वह तपश्चर्या सत्य-उपलब्धि के लिए नहीं है, वह तपश्चर्या सत्य की अभिव्यक्ति खोजने के लिए है। और तुम हैरान होओगे, सुबह सूरज को देख कर सौंदर्य को अनुभव कर लेना बहुत सरल है, लेकिन उगते हुए सूरज को चित्रित करने में हो सकता है जीवन लग जाए, तब आप समर्थ हो पाएं।

विनसेंट वानगॉग ने अंतिम जो चित्र चित्रित किया है, वह है सूर्यास्त का। यह इधर मनुष्य-जाति में हुए दो-चार बड़े चित्रकारों में एक है वानगॉग। और अंतिम चित्र उसने सूर्यास्त का…और सूर्यास्त का चित्र पूरा करके ही उसने आत्महत्या कर ली थी। और लिख गया था कि जिसे चित्रित करने के लिए जीवन भर से कोशिश कर रहा था, वह काम पूरा हो गया। और अब सूर्यास्त ही चित्रित हो गया। अब और रहने का अर्थ क्या है? और इतनी आनंदपूर्ण घड़ी से मरने के लिए और अच्छी घड़ी अब न मिल सकेगी। सूर्यास्त चित्रित हो गया है। और वह मर गया है।

और इस चित्र को चित्रित करने के लिए–आप हैरान हो जाएंगे कि इस चित्र को चित्रित करने के लिए उसने कैसी मुश्किलें उठाईं। उसने सूर्य को कितने रूपों में देखा। सुबह से भूखा खेतों में पड़ा रहा, जंगलों में पड़ा रहा, पहाड़ों पर पड़ा रहा। सूरज की पूरी यात्रा, उसके भिन्न-भिन्न चेहरे, उसकी भिन्न-भिन्न स्थितियां, उसके भिन्न-भिन्न रंग, उसका भिन्न-भिन्न–वह तो प्रतिपल भिन्न होता चला जा रहा है। उगने से लेकर डूबने तक उसकी सारी यात्रा।

ओरिलीज में, जहां यूरोप में सबसे ज्यादा सूरज तपता है, वहां एक वर्ष तक–थोड़ा नहीं–एक वर्ष तक वह सूरज का उगना और डूबना देखता रहा। पागल हो गया। क्योंकि इतनी गर्मी सहना असंभव हो गई। एक वर्ष तक निरंतर आंखें सूरज पर टिकीं, आंखों ने जवाब दे दिया और सिर घूम गया। एक साल पागलखाने में रहा। जब पागलखाने से वापस हुआ तो उसने कहा, अब चित्रित कर सकूंगा। क्योंकि जब जीया ही न था, उसे देखा ही न था, उसके साथ ही न रहा था तो कैसे चित्रित करता?

एक सूर्यास्त को चित्रित करने के लिए एक आदमी एक वर्ष तक सूरज को देखे, पागल हो जाए, तब चित्रित कर पाए, तो सत्य को–जिसका कि कोई प्रकट रूप नहीं दिखाई पड़ता–उसे कोई जाने, फिर शब्द में, और-और माध्यमों से उसे पहुंचाने की कोशिश करे, तो उसके लिए लंबी साधना की जरूरत पड़ेगी।

महावीर की जो साधना है, वह अभिव्यक्ति के उपकरण खोजने की साधना है। कठिन है, बहुत ही कठिन है। तो उसे समझने की हम कोशिश करेंगे कि वे उस साधना में कैसे वह अभिव्यक्ति के लिए एक-एक, एक-एक सीढ़ी खोज रहे हैं, एक-एक मार्ग खोज रहे हैं, कैसे वे संबंध बना रहे हैं अलग-अलग जीवन की स्थितियों से, योनियों से, कैसा संबंध स्थापित कर रहे हैं।

वह हमारे खयाल में आ जाएगा तो पूरी दृष्टि और हो जाएगी, सोचने की बात ही और हो जाएगी।


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–6)

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अभिव्यक्ति की महावीर-साधना—(प्रवचन—छठवां)

प्रश्न:

 जैसा आपने कल बताया कि महावीर का बारह वर्ष का साधना-काल, जो कुछ उन्होंने पिछले जन्म में परमावस्था तक प्राप्त किया था, उसे विश्व के सभी तलों को लाभ हो, उसकी अभिव्यक्ति की खोज थी। तो फिर उनके पिछले जन्मों-जन्मों की साधना या तप क्या था, जिससे उनके बंधन कट कर उन्हें सत्य की उपलब्धि हो सकी?

 स संबंध में सबसे पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि तप या संयम से बंधनों की समाप्ति नहीं होती, बंधन नहीं कटते। तप और संयम कुरूप बंधनों की जगह सुंदर बंधनों का निर्माण भर कर सकते हैं। लोहे की जंजीरों की जगह सोने की जंजीरें आ सकती हैं, लेकिन जंजीर मात्र नहीं कट सकती है। क्योंकि तप और संयम करने वाला व्यक्ति वही है जो अतप और असंयम कर रहा था, उस व्यक्ति में कोई फर्क नहीं पड़ा है।

एक आदमी व्यभिचार कर रहा है। इसके पास जो चेतना है, इसी चेतना को लेकर अगर कल यह ब्रह्मचर्य की साधना करने लगे तो व्यभिचार बदल कर ब्रह्मचर्य होगा, लेकिन इस व्यक्ति की भीतर की चेतना जो व्यभिचार करती थी, वही ब्रह्मचर्य साधेगी। और इसलिए व्यभिचार जैसे एक बंधन था, वैसे ब्रह्मचर्य भी एक बंधन ही सिद्ध होने वाला है।

इसलिए सवाल तप और संयम का नहीं है, बंधन की निर्जरा उनसे नहीं होगी। सवाल है चेतना के रूपांतरण का, चेतना के बदल जाने का। और चेतना को बदलने के लिए बाहर के कर्म का कोई भी अर्थ नहीं है। चेतना को बदलने के लिए भीतर की मूर्च्छा के टूटने का प्रश्न है।

चेतना के दो ही रूप हैं–मूर्च्छित और अमूर्च्छित। जैसे कर्म के दो रूप हैं–संयमी और असंयमी। बदलाहट अगर कर्म में की गई तो संयम आ सकता है असंयम की जगह, लेकिन चेतना इससे अमूर्च्छित दशा में नहीं पहुंच जाएगी मूर्च्छित से। भीतर व्यक्ति सोया हुआ है, प्रमाद में है, वह अप्रमाद में कैसे पहुंचे?

महावीर की पिछले जन्मों की साधना अप्रमाद की साधना है, अवेयरनेस की साधना है। भीतर हमारी जो जीवन चेतना है, वह कैसे परिपूर्ण रूप से जागी हुई हो, वह सोई हुई न हो। महावीर ने इसे विवेक कहा है। इसलिए वे कहते हैं: विवेक से उठे, विवेक से बैठे, विवेक से चले, विवेक से भोजन करे, विवेक से सोए भी। अर्थ यह है कि उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते, प्रत्येक स्थिति में चेतना जाग्रत हो, मूर्च्छित नहीं।

इसे थोड़े गहरे में समझना उपयोगी होगा। हम रास्ते पर चलते हों, तो शायद ही हमने कभी खयाल किया हो कि चलने की जो क्रिया हो रही है, उसके प्रति हम जागे हुए हैं। हम भोजन कर रहे हैं, तो शायद ही हमें स्मरण रहा हो कि भोजन करते वक्त जो भी हो रहा है, उसके प्रति हम सचेत हैं। चीजें यंत्रवत हो रही हैं। रास्ते के किनारे खड़े हो जाएं और लोगों को रास्ते से गुजरते देखें। तो ऐसा लगेगा मशीनों की तरह वे चले जा रहे हैं। ऐसे लोग भी दिखाई पड़ेंगे जो हाथ हिला कर किसी से बातें कर रहे हैं और साथ में कोई भी नहीं है। ऐसे लोग भी मिलेंगे, जिनके ओंठ हिल रहे हैं और बात चल रही है, लेकिन साथ में कोई भी नहीं है। किसी स्वप्न में खोए हुए, निद्रा में डूबे हुए ये लोग मालूम पड़ेंगे। दूसरे के लिए ही नहीं है ऐसा, हम अपने को भी देख सकें, अपना भी खयाल कर सकें तो यही प्रतीत होगा।

जीवन में हम ऐसे जीते हैं, जैसे किसी गहरी मूर्च्छा में पड़े हों। हमने जिन्हें प्रेम किया है, वह मूर्च्छा में। हमें पता नहीं क्यों। हम नहीं बता सकते कोई कारण। हमने जिनसे घृणा की है, वह मूर्च्छा में। हम जब क्रोध किए हैं, तब मूर्च्छा में। हम जैसे भी जीए हैं, उस जीने को एक सजग व्यक्ति का जीना तो नहीं कहा जा सकता–एक सोए हुए व्यक्ति का जीना है।

कुछ लोग हैं जो रात्रि में, नींद में भी उठ आते हैं। एक बीमारी है निद्रा में चलने की–सोम्नाबुलिज्म। नींद में उठते हैं, खाना खा लेते हैं, घर में घूम लेते हैं, किताब पढ़ लेते हैं, फिर सो जाते हैं। सुबह उनसे पूछिए, वे कहेंगे, कौन उठा! कोई भी नहीं उठा।

अमरीका में एक आदमी था जो रात निद्रा में उठ कर अपनी छत से पड़ोसी की छत पर कूद जाता था, फिर वापस कूद आता था। अस्सी-नब्बे मंजिल के मकानों की छत पर से कूदना और बीच में दस-बारह फीट का फासला! यह रोज चल रहा था। धीरे-धीरे पड़ोसियों को पता चला कि वह रोज रात यह करता है। एक दिन लोग, सौ-पचास लोग नीचे इकट्ठे रहे रात देखने के लिए। वह तो बेचारा नींद में करता था। होश में तो वह भी नहीं छलांग लगा सकता था, जागा हुआ। वह तो नींद में करता था। जैसे ही वह छलांग लगाने को हुआ, नीचे के लोगों ने जोर से आवाज की और उसकी नींद टूट गई और वह बीच खड्ड में गिर गया और प्राणांत हो गया। और यह वह वर्षों से कर रहा था, लेकिन वह कभी मानता नहीं था कि मैं यह करता हूं।

निद्रा में बहुत से काम हम करते हैं, लेकिन जागे हुए भी हम किसी सूक्ष्म निद्रा में जीते हैं। इसे महावीर ने प्रमाद कहा है। जागे हुए भी, चलते हुए भी, होश से भरे हुए भी हमारे भीतर एक धीमी सी तंद्रा का जाल फैला हुआ है।

जैसे एक आदमी ने आपको धक्का दे दिया और आप क्रोध से भर गए। कभी आपने सोचा कि यह क्रोध आपने जान कर किया है या कि हो गया है? जैसे बिजली की बटन दबाई है और पंखा चल पड़ा है, तो हम पंखे को नहीं कह सकते कि पंखा चल रहा है। पंखा सिर्फ चलाया जा रहा है। और एक आदमी ने आपको धक्का दिया और आपके भीतर क्रोध चल पड़ा, तो हम यह नहीं कह सकते कि आपने क्रोध किया है। हम इतना ही कह सकते हैं कि बटन किसी ने दबाई और क्रोध चल पड़ा। आप भी नहीं कह सकते कि मैं क्रोध कर रहा हूं। क्योंकि जो आदमी यह कह सकता है, मैं क्रोध कर रहा हूं, उस आदमी को कभी क्रोध करना संभव नहीं है। क्योंकि वह अगर मालिक है तो करेगा ही नहीं। अगर मालिक नहीं है तो ही कर सकता है।

हमारी सारी जीवन की क्रिया सोई-सोई है। स्लीप वाकर्स हैं हम सब। नींद में चल रहे हैं। इसे महावीर ने कहा है प्रमाद। यह है मूर्च्छा। और साधना एक ही है कि कैसे हम क्रिया मात्र में जागे हुए हो जाएं। क्योंकि जैसे ही हम जागेंगे, वैसे ही रूपांतरण चेतना का शुरू हो जाएगा।

आपने कभी खयाल किया कि रात जब आप सोते हैं, तब आपकी चेतना बिलकुल दूसरी हो जाती है, वही नहीं रहती जो जागने में थी! सुबह जब आप जागते हैं तो चेतना वही नहीं रहती, जो सोने में थी। चेतना मूल रूप से दूसरे तलों पर पहुंच जाती है निद्रा में, रात को। जो आपने कभी सोचा नहीं था, वह आप कर सकते हैं रात। जो कभी आप कल्पना नहीं कर सकते थे कि पिता को मार डालें, वह आप रात में हत्या कर सकते हैं। और जरा भी दंश नहीं होगा मन को। और दिन में जो भी आप थे, जो आपके संबंध थे, वे सब खो गए निद्रा में। एक करोड़पति निद्रा में वैसा ही साधारण हो गया है, जैसा एक दरिद्र भिखमंगा सड़क पर सोया हुआ।

एक फकीर था। उसके गांव का सम्राट एक दिन उसके पास से निकल रहा था, तो उस सम्राट ने उससे पूछा कि हममें और तुममें फर्क क्या है? और फर्क तो निश्चित है। तुम भिखारी हो एक गांव के सड़क पर भीख मांगने वाले, मैं सम्राट हूं। उस आदमी ने कहा, जरूर फर्क है, लेकिन जहां तक जागने का संबंध है, वहीं तक। सोने के बाद हममें तुममें कोई फर्क नहीं, क्योंकि सोने के बाद न तुम्हें खयाल रह जाता है कि तुम सम्राट हो और न मुझे खयाल रह जाता है कि मैं भिखारी हूं। तो खेल जगने का है।

कभी आपको खयाल है कि सोने में आपको यह भी पता नहीं रह जाता कि आप कौन हैं। जो आप जागने में थे, उसका भी पता नहीं रह जाता। आपकी उम्र क्या है, यह भी पता नहीं रह जाता। आपका चेहरा कैसा है, यह भी पता नहीं रह जाता। आप बीमार हैं कि स्वस्थ, यह भी पता नहीं रह जाता। निश्चित ही चेतना किसी और ही तल पर सक्रिय हो जाती है, इस तल से एकदम हट जाती है।

तो नींद और जागने की साधारण स्थितियों से हम जान सकते हैं कि अगर हम जागने को भी समझें कि वह भी एक तंद्रा है, तो वह तंद्रा जिसकी टूट जाती होगी, वह बिलकुल ही नए लोक में प्रवेश कर जाता है।

साधना का एक ही अर्थ है कि हम कैसे सोए-सोए जीने से जागे-जागे जीने में प्रवेश कर जाएं। और महावीर की पूरी साधना ही इतनी है कि सोना नहीं है, जागना है। जागने की प्रक्रिया क्या होगी? जागने की प्रक्रिया जागने का ही प्रयास होगी!

जैसे किसी आदमी को हमें तैरना सिखाना है तो वह हमसे कहे कि तैरना सीखने का कोई रास्ता बताएं; क्योंकि मैं तो तभी पानी में उतरूंगा, जब मैं तैरना सीख जाऊं, बिना तैरना सीखे मैं पानी में कैसे उतर सकता हूं! तो बात तो वह बिलकुल दलील की कह रहा है और ठीक कह रहा है, बिना तैरना जाने पानी में उतरना खतरनाक है। लेकिन सिखाने वाला कहेगा कि अगर तुम बिना तैरे पानी में उतरने को राजी नहीं हो तो तैरना कैसे सिखाया जा सकता है? क्योंकि तैरना सीखने की एक ही तरकीब है कि तैरो। तैरना सीखने की और कोई तरकीब नहीं है। तैरने के अलावा कोई तरकीब नहीं है, तैरना शुरू करना पड़ेगा। पहले हाथ-पैर तड़फड़ाओगे, उलटा-सीधा गिरोगे, डूबोगे-उतराओगे, लेकिन तैरना शुरू करना पड़ेगा। उसी शुरुआत से धीरे-धीरे तैरना व्यवस्थित हो जाएगा और तैर सकोगे।

लोग भी पूछते हैं, जागने की तरकीब क्या है? जागने की कोई तरकीब नहीं है–जागना ही पड़ेगा। पहले हाथ-पैर तड़फड़ाने पड़ेंगे, गलत-सही होगा, डूबना-उतराना होगा, क्षण भर को जागेंगे फिर सो जाएंगे, ऐसा होगा, लेकिन जागना ही पड़ेगा। निरंतर जागने की धारणा से धीरे-धीरे जागना फलित हो जाता है।

तो जागने की तरकीब का मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम जो भी करें, यह हमारा प्रयास हो, यह हमारा संकल्प हो कि हम उसे जागे हुए करेंगे। और अगर आप इसकी कोशिश करेंगे तो आप पाएंगे कि नींद बड़ी गहरी है, एक क्षण भी नहीं जाग पाते हैं कि नींद पकड़ लेती है।

जैसे एक छोटा सा काम है रास्ते पर चलने का, और आप तय करके चलें कि आज मैं रास्ते पर जागा हुआ ही चलूंगा, तब आपको पता चलेगा कि निद्रा कितनी गहरी है और निद्रा का क्या मतलब है! आप एक सेकेंड एकाध-दो कदम उठा पाएंगे और स्लिप हो जाएगा दिमाग, चलने की क्रिया से हट जाएगा, और कहीं चला जाएगा। फिर आपको खयाल आएगा कि मैं तो फिर से सो गया, जागना तो भूल गया था, यह चलना तो भूल गया था। क्षण भर को भी पूरी तरह जाग कर चलना मुश्किल है, क्योंकि नींद बहुत गहरी है। लेकिन हमें नींद का पता नहीं चलता, क्योंकि हमें जागने का कोई पता ही नहीं है। तो तुलना नहीं है हमारे पास।

अभी जिसको हम जागना और सोना कहते हैं, जिस आदमी की नींद…समझो एक आदमी ऐसा पैदा हो जो रात सो न सके, तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि वह जिस हालत में है, वह जागी हुई हालत है। इस सोए और जागने में उसे कोई फर्क तभी हो सकता है, जब वह दूसरी स्थिति को भी समझ ले।

जब महावीर जैसे लोग कहते हैं कि हम सोए हुए जी रहे हैं तो हमारी समझ में नहीं पड़ती बात, क्योंकि जाग कर जीने का क्षण भर का अनुभव भी हमें नहीं है, तुलना कहां से हो? कंपेरिजन कैसे हो? कहां तौलें? तो इसका तो थोड़ा सा प्रयास करेंगे। एक क्षण को भी अगर जाग कर चल लेंगे दो कदम, तो आप पाएंगे कि एक बिलकुल ही अलग चित्त की दशा है। लेकिन क्षण भर में खो जाती है और नींद फिर पकड़ लेती है। जैसे बादल जरा सी देर को हटते हैं, सूरज दिख भी नहीं पाता कि फिर घिर जाते हैं।

और नींद का हमारा लंबा अभ्यास है। और अकारण नहीं है नींद का अभ्यास, कारण हैं उसमें। कारण हैं उसमें। पहला कारण तो यह है कि सोए हुए जीना बड़ा सुविधापूर्ण है, कन्वीनिएंट है, बहुत सुविधापूर्ण है।

इसलिए सुविधापूर्ण है कि सोए हुए जीने में क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है; क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं; इसकी कोई विभेदक रेखा नहीं खिंचती। जागे हुए व्यक्ति को फौरन विभेद-रेखा खड़ी हो जाती है कि यह करने जैसा, यह न करने जैसा। और फिर जो न करने जैसा है उसे करने में वह एकदम असमर्थ हो जाता है।

और अभी जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं उसमें निन्यानबे प्रतिशत ऐसा है, जो न करने जैसा है–जिसे हम सोए रहें तो ही कर सकते हैं, जागे तो नहीं कर सकेंगे; जो जाग जाता है, वह नहीं कर पाता है। तो भीतर कहीं भय भी है कि जैसे हम हैं, उसमें कहीं सब आमूल उपद्रव न हो जाए। इसलिए सोए हुए चलना ही ठीक मालूम पड़ता है।

दूसरी बात है कि सोए हुए लोगों के साथ सोए हुए होने में ही सरलता पड़ती है। चारों तरफ लोग सोए हुए हों और एक आदमी जाग जाए तो उसकी कठिनाई आप नहीं समझ सकते कि उसकी कठिनाई कैसी होगी।

मेरे एक मित्र, वे पागल हो गए। पागल हो गए उन्नीस सौ छत्तीस के करीब। तो घर से भाग गए और एक अदालत में पकड़े गए, कुछ उन पर मुकदमे चले। लेकिन मजिस्ट्रेट ने कहा, वह पागल है। तो उन्हें छह महीने की सजा दी गई, लेकिन सजा उनकी पागलखाने में कटे। और लाहौर के पागलखाने में वे भेज दिए गए।

वे मुझे कहते हैं कि दो महीने तो मेरे बड़े आनंद से कटे, क्योंकि मैं भी पागल था और सब वहां पागल थे, कोई तीन सौ पागलों का एक जमाव था। बड़ा आनंद ही आनंद था। बल्कि बाहर मैं कष्ट में था। क्योंकि मेरा तालमेल ही नहीं बैठता था किसी से। क्योंकि सब ठीक थे, मैं पागल था। तो मैं जो करता, उनको न जंचता, वे जो करते, मुझको न जंचता। पागलखाने में पहुंच कर जैसे मैं स्वर्ग में पहुंच गया। जाकर मैंने जो पहला काम किया, वह परमात्मा को, उस मजिस्ट्रेट को धन्यवाद दिया, जिसने मुझे पागलखाने भेज दिया। सब अपने जैसे लोग थे, बहुत ही बढ़िया था।

लेकिन दो महीने बाद बड़ी मुसीबत हो गई। छह महीने की सजा हुई थी और दो महीने बाद पागलखाने में कहीं एक डब्बा मिल गया रखा हुआ फिनायल का, और वे उसको उठा कर पी गए। पागल आदमी थे, वे फिनायल पी गए पूरा। फिनायल पीने से उनको पंद्रह दिन तक इतने कै-दस्त हुए कि सारी सफाई हो गई और सब गर्मी निकल गई और वे बिलकुल ठीक हो गए। पंद्रह दिन बाद वे बिलकुल ठीक हो गए। यानी उस पागलखाने में वे गैर-पागल हो गए। और वे डाक्टरों को कहने लगे कि अब मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं और अब मेरी बड़ी मुसीबत हो गई है।

लेकिन वहां कौन मानता था! क्योंकि डाक्टरों ने कहा, यहां सभी पागल यह कहते हैं कि हम ठीक हैं, यहां कोई–यह कोई बात है, यह तो सब पागल रोज ही कहते हैं कि हम ठीक हैं, कोई पागल कभी मानता है कि हम पागल हैं! उन्होंने जितना ही समझाने की कोशिश की, कोई समझने को राजी ही नहीं था। छह महीने की सजा पूरी करनी पड़ी।

वे मुझसे कहते थे कि चार महीने मेरे इतने कष्ट में कटे कि ऐसा नरक में कोई किसी को न डाले। क्योंकि सब थे पागल और मैं हो गया ठीक, कोई मेरी टांग खींच रहा है, कोई मेरा कान घुमा रहा है, कोई धक्का ही मार देता है, कोई पानी ही डाल देता है ऊपर लाकर, सो रहा हूं तो कोई घसीट कर दो कदम चार कदम आगे कर जाता है। यह मैं भी करता रहा होऊंगा दो महीने, लेकिन तब हम सब साथी थे, तब कभी खयाल न आया था कि यह गलत कर रहा है।

अब बड़ी मुश्किल हो गई। और अब मैं करने में असमर्थ हो गया कि मैं भी यही करूं। अब मैं किसी की टांग न खींच सकता और किसी पर पानी न डाल सकता। मैं बिलकुल ठीक था और वे सब पागल थे और उनकी जो मर्जी आती, वे करते। कोई चलते चपत ही मार जाता, कोई बाल ही खींच जाता। जो जिसकी मर्जी। कोई आकर कंधे पर बैठ जाता, कोई गोदी में बैठ जाता। चार महीने निरंतर यही भगवान से प्रार्थना रही कि या तो जल्दी बाहर कर या फिर पागल कर दे। क्योंकि यह तो बड़ा इनकन्वीनिएंट हो गया, यह तो बड़ा असुविधापूर्ण हो गया।

पागलखाने में किसी आदमी के ठीक हो जाने की जो तकलीफ है, वही सोए हुए जगत के बीच जागने की तकलीफ है। क्योंकि वह आदमी फिर सोए हुए आदमी के ढंग, व्यवहार नहीं कर सकता। और सोया हुआ आदमी तो अपने ढंग जारी रखता है।

तो महावीर जैसे लोग जिस कष्ट में पड़ जाते हैं, उस कष्ट का हम हिसाब नहीं लगा सकते। हम हिसाब ही नहीं लगा सकते, क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि वह कष्ट कैसा है। क्योंकि हम सोए हुए लोगों के बीच में एक आदमी जाग गया। हमारी उसकी भाषा बदल गई। हमारी उसकी चेतना बदल गई। वह एकदम अजनबी हो गया–ऐसा स्ट्रेंजर, ऐसा अजनबी, जो कि कोई अजनबी नहीं होता।

अगर एक तिब्बती भारत में आ जाए या आप तिब्बत में चले जाएं तो जो अजनबीपन है, वह सिर्फ भाषा के शब्दों का है, बहुत ऊपरी अजनबीपन है, भीतर के आदमी एक जैसे हैं। क्रोध उसको आता है, क्रोध आपको आता है। घृणा उसको आती है, घृणा आपको आती है।र् ईष्या में वह जीता है,र् ईष्या में आप जीते हैं। फर्क है तो इतना किर् ईष्या का आपका शब्द अलग है,र् ईष्या का उसका शब्द अलग है। थोड़े दिन में पहचान हो जाएगी कि ये सब शब्द हमारे हैं। मेल खा जाएंगे और अजनबीपन मिट जाएगा।

यानी साधारणतः पृथ्वी के अलग-अलग कोनों पर रहने वाले को हम स्ट्रेंजर कहते हैं, अजनबी कहते हैं, लेकिन वह अजनबीपन बड़ा छोटा है, सिर्फ भाषा का है। आदमी-आदमी एक जैसे हैं। लेकिन जब कोई आदमी सोई हुई पृथ्वी पर जागा हुआ हो जाता है, तो जो अजनबीपन शुरू होता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि अब भाषा का भेद नहीं है, अब तो सारी चेतना का भेद पड़ गया। सब आमूल बदल गया है। अगर हमें कोई गाली देता है तो हमारे भीतर क्रोध उठता है, उसे अगर कोई गाली देता है तो उसके भीतर करुणा उठती है। इतनी चेतना का फर्क हो गया है। क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि एक आदमी बेचारा गाली देने की स्थिति में आ गया, कितनी तकलीफ में न होगा! और उसके भीतर से करुणा बहनी शुरू होती है।

और हमारे लिए समझना आसान है, अगर आप मुझे गाली दें और मैं भी आपको गाली दूं तो आपका मैं मित्र हूं, क्योंकि आपकी ही दुनिया का निवासी हूं। आप मुझे गाली दें और मैं आपको प्रेम करूं तो आप जितना क्रोध से भरेंगे मेरे प्रति, उतना गाली देने वाले के प्रति नहीं भरेंगे।

नीत्शे ने एक बहुत अजीब बात और बड़ी अदभुत, लेकिन मजाक में कही है। नीत्शे ने कहा है कि जीसस कहते हैं कि जो आदमी तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, दूसरा तुम उसके सामने कर देना। तो नीत्शे ने कहा है कि इससे बड़ा अपमान दूसरे आदमी का कोई और हो सकता है? एक आदमी तुम्हारे गाल पर चांटा मारे और तुम दूसरा उसके सामने कर दोगे, तो इससे ज्यादा इंसल्टिंग, इससे ज्यादा अपमानजनक और कोई स्थिति दूसरे आदमी के लिए हो सकती है? तुमने तो उसको कीड़ा-मकोड़ा बना दिया। यानी तुमने उसकी आदमियत भी स्वीकार न की। तुमने इतना भी न कहा कि ठीक है, तूने एक चांटा मारा, एक चांटा हम भी मारेंगे। तो तुम बराबर हो गए होते। तुम तो एकदम आसमान में चले गए और वह एकदम जमीन पर रेंगता हुआ कीड़ा हो गया। यह अपमान बरदाश्त नहीं किया जा सकता।

नीत्शे ने लिखा है: यह अपमान बरदाश्त के बाहर है। तुमने उस आदमी को तो बिलकुल ही मिटा दिया, आदमी भी स्वीकार न किया तुमने। और तुमने ऐसा दर्ुव्यवहार किया उसके साथ, जिसका कोई हिसाब नहीं। यह सदव्यवहार न हुआ, नीत्शे कहता है, यह तो बहुत दर्ुव्यवहार हो गया। सदव्यवहार तो यही था कि समानता के साथ एक चांटा तुमने भी मारा होता, तो हम दोनों बराबर तो हो गए होते, हम एक ही तल पर होते। तुम पहाड़ पर खड़े हो गए, हम खाई में पड़ गए।

वह ठीक कह रहा है। गाली देने वाला उत्तर में आई गाली से इतना नाराज न होगा, क्योंकि यह उसकी अपनी भाषा है। गाली आनी चाहिए, गाली दी इसलिए गई है। लेकिन अगर उत्तर में करुणा लौटे तो उसके क्रोध का हिसाब नहीं रह जाएगा। उसके अपमान और उसकी पीड़ा को हम नहीं समझ सकते हैं। वह इसका बदला लेगा।

तो सोए हुए आदमियों के भीतर एक अनजानी स्वीकृति है इस बात की कि अगर जीना है सबके साथ तो चुपचाप सोए रहो। पागलों के साथ रहना है तो पागल बने रहो। और भीतरी भी हमें डर है, क्योंकि सब बदल जाएगा, सब बदलने की हम हिम्मत नहीं जुटा पाते।

इसलिए साधक का पहला लक्षण है–अनजान, अपरिचित, अनहोनी के लिए हिम्मत जुटाना। उसके लिए हम हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, साहस ही नहीं जुटा पाते हैं। हम कहते भी हैं कि हमको शांति चाहिए, हमको सत्य चाहिए, लेकिन हम सब ये बातें इस तरह करते हैं कि जैसे हम हैं, वैसे में ही सब मिल जाए। हमें बदलना न पड़े। हमने जो व्यवस्था कर रखी है, जो मकान बना रखा है, जो संबंध बना रखे हैं, उनमें कोई हेर-फेर न करना पड़े, सब जैसा है वैसा रहे, और कुछ मिल जाए।

लेकिन हमें यह पता ही नहीं है कि अगर अंधे आदमी को आंख मिलेगी तो उसके सब संबंध बदल जाएंगे, क्योंकि कल के संबंध अंधे आदमी के संबंध थे। कल वह जिस आदमी का हाथ पकड़ कर रास्ता चलता था, अब हाथ पकड़ने से इनकार कर देगा।

और हो सकता है, जिसका हाथ पकड़ कर वह चला था उसे हमेशा यह खयाल रहा था कि मैं उसका सहारा हूं। कल वह हाथ पकड़ने के लिए इनकार कर देगा। वह कहेगा, क्षमा करो, मेरे पास आंख है, मैं चल सकता हूं। तो यह आदमी भी नाराज होगा, जिसका उसने सदा हाथ पकड़ा था, क्योंकि अब वह सहारा नहीं मांगता है। सहारा देने का भी सुख है। सहारा देने का भी अहंकार है।

तो अंधे आदमी ने एक तरह के संबंध बनाए थे और आंख वाला आदमी दूसरे तरह के संबंध बनाएगा। सोए हुए आदमी ने एक तरह की दुनिया बसाई है, जागा हुआ आदमी उस दुनिया को बिलकुल ही अस्तव्यस्त कर देगा। तो वह भी डर है भीतर हमारे। वह साहस भी नहीं है।

लेकिन अगर थोड़ा सा साहस हम जुटा पाएं तो जागनाा कठिन नहीं है। क्योंकि जो सो सकता है, वह जाग सकता है, चाहे कितनी ही गहरी नींद में सोया हो, जो सोया है, उसमें जागने की क्षमता शेष है। एक आदमी यहां कितनी ही गहरी नींद में सोया हुआ है, हम उसके पास जागे हुए बैठे हैं। हम दोनों बिलकुल भिन्न हालत में हैं। अगर उस सोए हुए आदमी पर खतरा आएगा तो उसको पता नहीं चलेगा, जागे हुए आदमी पर खतरा आएगा तो उसे पता चलेगा।

इस मकान में आग लग गई है तो सोए हुए आदमी को कोई पता नहीं चलेगा कि मकान में आग लग गई है, जब तक कि वह जाग न जाए। लेकिन जागे हुए आदमी को फौरन पता चला है कि आग लग गई। ये दोनों आदमी इस मकान में हैं–एक सोया है, एक जागा है। मकान में आग लग गई, सोया हुआ आदमी सोया हुआ है निश्चिंत, जागे हुए आदमी को चिंता पकड़ गई है। लेकिन फिर भी ये दोनों आदमियों में बुनियादी भेद नहीं है, क्योंकि सोया हुआ आदमी एक क्षण में जाग सकता है और जागा हुआ आदमी एक क्षण में सो सकता है।

यह जो साधारण तल पर जागना और सोना है, ठीक ऐसे ही जो व्यक्ति जाग गया है, वह जानता है कि जो सोए हैं, वे जाग सकते हैं। लेकिन वहां एक फर्क है। इस साधारण तल पर जागने और सोने में बुनियादी फर्क नहीं है। क्योंकि जिसे हम जागना कह रहे हैं, वह थोड़ी सी कम डिग्री में सोना ही है और जिसको हम सोना कह रहे हैं, वह थोड़ी कम डिग्री में जागना ही है। उन दोनों में डिग्री का ही भेद है। लेकिन उस तल पर, परम जागरण के तल पर, निद्रा और जागने में डिग्री का भेद नहीं है, मौलिक रूपांतरण का भेद है। इसलिए सोया हुआ आदमी जाग सकता है, लेकिन जागा हुआ आदमी सो नहीं सकता। उस तल पर कोई जागा हुआ आदमी फिर कभी नहीं सो सकता।

यह रूपांतरण ऐसे है जैसे कि हम दूध को चाहें तो दही बना सकते हैं, लेकिन फिर दही से वापस दूध नहीं बना सकते। लेकिन पानी को हम बर्फ बना सकते हैं, बर्फ को हम फिर पानी बना सकते हैं। क्योंकि बर्फ और पानी में क्रम का भेद है, सिर्फ गर्मी के क्रम का भेद है, रूपांतरण नहीं हो गया है। जो बर्फ है, वह कल पानी था, वह कल फिर पानी हो सकता है, सिर्फ गर्मी का फर्क पड़ जाए। जो अभी पानी है वह कल बर्फ हो सकता है, भाप हो सकता है। वे सब एक ही चीज की क्रमिक अवस्थाएं हैं।

लेकिन दूध अगर दही हो जाए तो फिर वापस दूध बनाने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि दही सिर्फ दूध की एक अवस्था नहीं है, मौलिक रूपांतरण है। वह चीज ही नई हो गई है। सब बदल गया। लेकिन दूध दही हो सकता है, दही दूध नहीं हो सकता।

निद्रा से जागरण आ सकता है, लेकिन जागरण से फिर निद्रा का कोई उपाय नहीं। यह जागरण की जो विधि है, वह विधि सिर्फ एक है कि हम जागने की कोशिश करें। जो भी हम कर रहे हैं उसमें हम जागे हुए होने की कोशिश करें।

जैसे अभी आप मुझे सुन रहे हैं तो आप दो तरह से सुन सकते हैं–बिलकुल सोए हुए सुन सकते हैं। सोए हुए सुनने में–मैं बोल रहा हूं, आपके कानों पर चोट पड़ रही है, आप मौजूद नहीं हैं। सोए हुए सुनने का मतलब है, मैं बोलूंगा, सुनेंगे भी आप और नहीं भी सुनेंगे। सुनेंगे इस अर्थों में कि आपके पास कान हैं, तो कानों पर आवाज की चोट पड़ती रहेगी। आवाज की चोट पड़ती रहेगी, भीतर ध्वनि गूंजती रहेगी, आप समझेंगे कि सुनाई पड़ रहा है। लेकिन आप अगर मौजूद नहीं हैं, आप एब्सेंट हो सकते हैं, आप भीतर से अनुपस्थित हो सकते हैं, आप कहीं और हों, तो आप यहां सो गए। आप यहां सो गए।

एक युवक खेल रहा है, हाकी खेल रहा है। पैर में चोट लग गई, खेल में मस्त है। पैर से खून बह रहा है। सारे दर्शकों को दिखाई पड़ रहा है कि पैर से खून टपक रहा है, जगह-जगह बिंदुओं की कतार बन गई है, लेकिन उसे कोई पता नहीं। उसका ही पैर है, उसे पता नहीं है, बात क्या है?

वह पैर के पास अनुपस्थित है। वह खेल में उपस्थित है। जहां ध्यान है, जहां उपस्थिति है, वहां वह है। जहां ध्यान नहीं है, जहां उपस्थिति नहीं है, वहां निद्रा है। खेल खतम हुआ है और एकदम से उसने पैर पकड़ लिया है कि उफ, मैं तो मर गया, कितनी चोट लग गई, कितना खून बह गया। इतनी देर मुझे पता क्यों नहीं चला?

पता हमें सिर्फ उसका चलता है जहां हम उपस्थित होते हैं। अगर ठीक से समझें तो ध्यान की अनुपस्थिति ही निद्रा है। तो जो हम कर रहे हैं, अगर ध्यान वहां अनुपस्थित है तो निद्रा है और ध्यान अगर वहां उपस्थित है तो जागरण है। प्रत्येक क्रिया में ध्यान उपस्थित हो जाए, अटेंशन उपस्थित हो जाए, तो जागरण शुरू हो गया।

महावीर जिसे विवेक कहते हैं, उसका यही अर्थ है। क्रिया मात्र में ध्यान की उपस्थिति का नाम विवेक है। क्रिया में ध्यान की अनुपस्थिति का नाम प्रमाद है।

महावीर का एक भक्त उनसे मिलने आया, एक सम्राट उनसे मिलने आया है। रास्ते में ही उस सम्राट के बचपन का एक साथी महावीर से दीक्षित होकर संन्यासी हो गया है, वह भी रास्ते में तपश्चर्या कर रहा है। तो सम्राट ने सोचा अपने उस मित्र को भी देखते चलें। जब वह मित्र के पास गया है तो वह राजा–जो कभी राजा था अब संन्यासी हो गया है–नग्न खड़ा है, आंखें बंद हैं, एकदम शांत है। उसके मित्र सम्राट ने खूब नमस्कार किया और मन में बहुत कामना की कि कब ऐसी शांति मुझे भी उपलब्ध होगी!

फिर वह महावीर से मिलने गया। महावीर से उसने पूछा कि मैंने प्रसन्नचंद्र को देखा खड़े हुए, वे अत्यंत शांत हैं, कितने अदभुत हो गए हैं वे!र् ईष्या होती है मन में। मैं पूछता हूं आपसे कि इस शांत अवस्था में अगर उनकी देह छूट जाए तो वे कहां जाएंगे?

तो महावीर ने कहा, जिस समय तुम वहां से गुजरते थे, अगर उस वक्त प्रसन्नचंद्र की देह छूट जाए तो वह सातवें नरक में गिरेगा।

तो वह सम्राट तो एकदम हैरान हो गया। उसने कहा, क्या कहते हैं आप–सातवें नरक में! तो हमारा क्या होगा? सातवें नरक के नीचे और कोई नरक है? हां, हमारा क्या होगा? अगर वह शांत मुद्रा में खड़ा हुआ प्रसन्नचंद्र सातवें नरक में गिरेगा, तो हमारा क्या होगा?

महावीर ने कहा, नहीं, तुम समझे नहीं मेरा मतलब। जब तुम आए, तब प्रसन्नचंद्र ऊपर से शांत दिखाई पड़ रहा था, भीतर बड़ी कठिनाई में पड़ा था। तुमसे पहले ही तुम्हारे वजीर निकले थे, तुम्हारे सैनिक निकले थे। उन्होंने भी खड़े होकर प्रसन्नचंद्र को देखा था। और एक वजीर ने कहा कि देखो मूरख, सब छोड़-छाड़ कर यहां खड़ा है! छोटे-छोटे बच्चे हैं इसके, वजीरों के हाथ में सब छोड़ आया है। वे सब हड़पे जा रहे हैं। जब तक बच्चे बड़े होंगे, तब तक सब समाप्त ही हो गया होगा। इसने किया है विश्वास और उधर विश्वासघात हो रहा है। और यह मूढ़ बना यहां खड़ा है! ऐसा उसके सामने कहा था। ऐसा जैसे ही उसने सुना था कि उसका हाथ तलवार पर चला गया–जो अब नहीं थी। लेकिन सदा थी तलवार उसके बगल में, हाथ तलवार पर चला गया भीतर। तलवार उसने बाहर निकाल ली। उसने कहा कि वे वजीर क्या समझते हैं अपने को, अभी मैं जिंदा हूं! अभी प्रसन्नचंद्र मर नहीं गया! एक-एक की गर्दन उतार दूंगा। और जब तुम उसके पास आए तब वह गर्दनें उतार रहा था। उस वक्त अगर वह मर जाता तो वह सातवें नरक में पड़ जाता, क्योंकि वह जहां था, वहां नहीं था। वह गहरी निद्रा में चला गया था। चेहरा उसका जो दिखाई पड़ रहा था, वह एक जगह था और वह कहीं और जगह चला गया था। सब सो गया था। वह बिलकुल निद्रा में था। वह सपना देख रहा था, क्योंकि न तलवार थी हाथ में, न वजीर थे सामने, लेकिन गर्दनें काट डालीं उसने। तो तुम जब निकले थे, तब वह सातवें नरक में गिर जाता। लेकिन अब अगर पूछते हो इस वक्त तो वह श्रेष्ठतम स्वर्ग पाने का हकदार हो गया है।

उसने कहा, अभी तो घड़ी भर भी नहीं हुई हमें वहां से गुजरे! महावीर ने कहा, जब उसने तलवार रख दी नीचे तो जैसी उसकी सदा आदत थी युद्धों के बाद अपने मुकुट को संभालने की, उसने मुख–सिर पर हाथ ले गया, लेकिन सिर पर तो घुटी हुई खोपड़ी थी, वहां कोई मुकुट न था। तब एक सेकेंड में वह जाग गया, सारी निद्रा से वापस आ गया, सब स्वप्न खंड-खंड हो गया। और उसने कहा कि यह मैं क्या कर रहा हूं! न तलवार है पास में, न वजीर हैं। और मैं प्रसन्नचंद्र नहीं हूं अब, जो तलवार उठा सके। उसके उठाने का तो मैं खयाल छोड़ कर आया हूं। और क्षण में वह लौट आया है। इस समय वह बिलकुल वहीं खड़ा है। अभी वह स्वर्ग का हकदार है।

हम सोए हैं तो हम नरक में हो जाते हैं, हम जागे हैं तो हम स्वर्ग में हो जाते हैं। यह जागने की चेष्टा हमें सतत करनी पड़ेगी। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं। एक क्षण में भी हो सकता है। कितनी तीव्र हमारी प्यास है, कितना तीव्र संकल्प है, इस पर निर्भर करेगा।

तो महावीर ने अपने पिछले जन्मों में अगर कुछ भी साधा है तो साधा है विवेक, साधा है ध्यान। और इस जागरण की जितनी गहराई बढ़ती चली जाती है, उतने ही हम मुक्त होते चले जाते हैं, क्योंकि बंधने का कोई कारण नहीं रह जाता; उतने ही हम पुण्य में जीने लगते हैं, क्योंकि पाप का कोई कारण नहीं रह जाता; उतने ही हम अपने में जीने लगते हैं, क्योंकि दूसरे में जीना भ्रामक हो जाता है। उतना ही व्यक्ति शांत है, उतना ही आनंदित है, जितना जागा हुआ है। जिस दिन पूर्ण जागरण की घटना घट जाती है, एक्सप्लोजन हो जाता है, चेतना के कण-कण, कोने-कोने से निद्रा विलीन हो जाती है, उस दिन के बाद फिर लौटना नहीं है, उस दिन के बाद फिर परिपूर्ण जागना है। ऐसी परिपूर्ण जागी हुई चेतना ही मुक्त चेतना है। सोई हुई चेतना बंधी हुई चेतना है।

इसलिए ध्यान से समझना, पाप नहीं बांधता है कि हम पुण्य से उसको मिटा सकें, मूर्च्छा बांधती है। मूर्च्छित पाप भी बांधता है, मूर्च्छित पुण्य भी बांधता है। असंयम नहीं बांधता है, मूर्च्छा बांधती है। मूर्च्छित असंयम भी बांधता है, मूर्च्छित संयम भी बांधता है। और इसलिए यह बहुत समझ लेने जैसा है कि कोई अगर असंयम को संयम बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा, पाप को पुण्य बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा, क्रूरता को दान बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा–क्योंकि वह सिर्फ क्रिया बदल रहा है और भीतर की चेतना वैसी की वैसी अमूर्च्छित बनी है।

और कई बार उलटा भी हो जाता है। उलटे का मतलब यह है कि कई बार लोहे की जंजीर ही ठीक है, क्योंकि उसे तोड़ने का मन भी करता है और सोने की जंजीर गलत है, क्योंकि उसे संभालने का मन करने लगता है। क्योंकि सोने की जंजीर को जंजीर समझना बहुत मुश्किल है, सोने की जंजीर को अक्सर आभूषण समझ लेना आसान है।

इसलिए पापी भी कई बार जागने के लिए आतुर हो जाता है और जिसको हम साधु कहते हैं, वह जागने को आतुर नहीं होता। फर्क ऐसा ही है, जैसे कि कोई आदमी दुखद स्वप्न देख रहा है, सपना ही है; और एक आदमी सुखद स्वप्न देख रहा है, सपना ही है; लेकिन सुखद सपना देखने वाला जागना नहीं चाहता। चाहता है और थोड़ी देर सो लूं! सपना बहुत सुखद है, कोई तोड़ न दे, और थोड़ी देर सो लूं। लेकिन दुखद स्वप्न वाला, नाइटमेयर वाला, एकदम जाग जाता है हड़बड़ा कर। पापी दुखद स्वप्न देख रहा है, पुण्यात्मा सुखद स्वप्न देख रहा है। इसलिए बहुत बार डर है कि पापी जाग जाए और पुण्यात्मा रह जाए।

इसलिए मैं यह कहता हूं कि इसकी फिक्र ही मत करना कि पाप को हम कैसे पुण्य बनाएं, असंयम को संयम कैसे बनाएं, हिंसा को अहिंसा कैसे बनाएं, कठोरता को दया कैसे बनाएं। इस चक्कर में ही मत पड़ना। सवाल यह है ही नहीं कि हम क्रिया को कैसे बदलें, सवाल यह है कि कर्ता कैसे रूपांतरित हो। अगर कर्ता बदल जाता है तो क्रिया अनिवार्यरूपेण बदल जाती है, क्योंकि तब कुछ चीजें करने में असमर्थ हो जाता है और कुछ चीजें करने में समर्थ हो जाता है। भीतर से कर्ता बदला, चेतना बदली…तो फिर मैं कहता हूं, पाप वह है, जो सजग व्यक्ति नहीं कर सकता है। मेरी पाप की परिभाषा यह है कि पाप वह है, जो जागा हुआ व्यक्ति करने में असमर्थ है; और पुण्य वह है, जो जागे हुए व्यक्ति को करना ही पड़ता है। पुण्य वह है, जो जागे हुए व्यक्ति की अनिवार्यता है, इनएविटेबिलिटी है। और पाप वह है, जो सोए हुए व्यक्ति की अनिवार्यता है।

इसलिए ऐसे भी पुण्य हैं जो छिपे हुए पाप हैं, क्योंकि आदमी सोया हुआ है। दिखता पुण्य है, वह होगा पाप ही, क्योंकि आदमी सोया हुआ है। सोया हुआ आदमी पुण्य कर कैसे सकता है? इसलिए पुण्य दिखाई पड़ेगा, लेकिन भीतर पाप छिपा होगा। और ऐसा भी संभव है कि जागा हुआ व्यक्ति कुछ ऐसे काम करे, जो आपको पाप समझ में आएं और वे पाप न हों, क्योंकि जागा हुआ व्यक्ति पाप कर ही नहीं सकता है। इसलिए दोनों तरह की भूलें संभव हैं।

कबीर को एक रात ऐसा हुआ। कबीर थोड़े से जागे हुए लोगों में से एक है। रोज लोग आते हैं कबीर के घर सुबह, भजन-कीर्तन चलता है। कबीर के पास बैठते हैं। फिर जाने लगते हैं तो कबीर कहता है, खाना तो खा जाओ! कभी दो सौ, कभी चार सौ, गरीब आदमी है! कबीर का बेटा और पत्नी परेशान हो गए और उन्होंने कहा कि हमारे बरदाश्त के बाहर है, हम यह कैसे संभाल पाएं! कहां से इंतजाम करें! आपने तो इतना कह दिया कि बस भोजन कर जाओ, यह भोजन हम कहां से लाएं?

कबीर ने कहा कि भोजन लाने की व्यवस्था इतनी कठिन नहीं है, जितना घर आए आदमी को खाने के लिए न कहें, यह कठिन है। यह हो नहीं सकता कि कोई घर आए, मैं उसको कहूं खाना मत खाओ। कुछ इंतजाम करो।

आखिर कब तक इंतजाम चलता? उधारी भी ले ली गई। उधारी भी चढ़ गई। फिर एक दिन सांझ लड़के ने कहा कि अब बरदाश्त के बाहर हो गया, कोई हम चोरी करने लगें? कबीर ने कहा, अरे यह तुम्हें खयाल क्यों न आया अब तक! कबीर ने कहा, यह तुम्हें अब तक खयाल क्यों न आया!

लड़के ने तो क्रोध में कहा था, लेकिन यह सुन कर लड़का हैरान हुआ कि कबीर कहते हैं यह तुम्हें खयाल क्यों न आया! तो लड़के ने और बात को सिर्फ जांचने के लिए कहा, तो क्या चोरी करने जाऊं मैं? कबीर ने कहा, हां! अगर मेरी जरूरत हो तो मैं भी चलूं।

तो लड़के ने और जांचने के लिए कहा कि अच्छा ठीक है, मैं चलता हूं, उठो आप। पर उसकी समझ के बाहर हो गई यही बात कि कबीर और चोरी करने! समझ रहे हैं कबीर कि नहीं समझ रहे मैं क्या कह रहा हूं!

फिर जाकर उस लड़के ने एक घर में दीवाल खोद डाली, सेंध लगा दी। वह कबीर से कहता है, जाऊं भीतर? कबीर कहते हैं, बिलकुल चला जा। वह भीतर गया है। वह वहां से एक बोरा गेहूं का खिसका कर लाया है बाहर। बाहर बोरा निकल आया है तो कबीर उसे उठाने लगे हैं, और फिर उस लड़के से पूछा, घर के लोगों को कह आया है कि नहीं कि एक बोरा ले जाते हैं?

उसने कहा कि चोरी है यह! यह कोई मांग कर, कोई दान ले जा रहे हैं या किसी से भेंट ले जा रहे हैं! तो कबीर ने कहा, यह नहीं हो सकता। तू जाकर कह आ घर में। यही कह आ कि हम चोरी करके एक बोरा ले जाते हैं। लेकिन घर के मालिक को खबर तो कर देनी जरूरी है!

बड़ी अदभुत बात है। दूसरे दिन लोगों ने कबीर से पूछा तो कबीर ने कहा कि बड़ी गलती हो गई। गलती ऐसे हो गई कि यह भाव ही चला गया कि क्या मेरा है और क्या उसका है। तब बाद में खयाल आया कि चोरी तो उसी भाव का हिस्सा था कि वह उसकी चीज है। जब मेरी कोई चीज न रही तो किसी की कोई चीज न रही। पर इतनी बात जरूर थी कि उसके घर से लाते थे, सुबह ढूंढेगा, परेशान होगा। तो इतनी खबर कर देनी चाहिए कि एक बोरा ले जाते हैं।

अब इस आदमी को समझना हमें बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसके चोरी करने में भी इतना अदभुत पुण्य है, क्योंकि उसे यह भाव ही खो गया है कि क्या दूसरे का है, क्या पराया है। कबीर जैसा व्यक्ति अगर चोरी भी करने चला जाए तो भी पुण्य है और हम जैसा व्यक्ति अगर दान भी करता हो तो भी चोरी है। क्योंकि दान में भी हमारी जो वृत्ति है और मूर्च्छा होगी, वह चोरी की ही है। दान में भी हमें लगता है कि मेरा है और मैं दे रहा हूं। और कबीर को चोरी में भी नहीं लगता कि उसका है और मैं ले रहा हूं।

यह जो फर्क है, हमें खयाल में आ जाए तो खयाल में आ जाएगा। वह दान हमारा पाप है, क्योंकि उसमें मेरा मौजूद है। और कबीर की चोरी को भी कोई परमात्मा कहीं बैठा हो तो पाप नहीं कह सकता, क्योंकि वहां मेरा नहीं है। हां, इतनी ही बात थी कि घर के लोगों को खबर तो कर देनी चाहिए, नहीं तो सुबह बेचारे ढूूढेंगे। वह जो खबर करवाने भेजा है, वह इसलिए नहीं कि चोरी बुरी चीज है, बल्कि सुबह घर के लोग नाहक ढूंढें, परेशान हों, खोजें कि कहां चला गया बोरा। तो इतना जगा कर तू खबर कर आ, मैं घर चलता हूं। यह जो…ऐसा बहुत बार हुआ है और हमें समझना मुश्किल हो जाता है।

अब जैसे कृष्ण भी हैं। अर्जुन समझ नहीं पाया कृष्ण को। अर्जुन समझ लेता तो बात ही और होती। अर्जुन भाग रहा है कि ये मेरे प्रियजन हैं, ये मर जाएंगे। तो कृष्ण उसको कहते हैं, पागल, कभी कोई मरता है? न कोई मरता, न कोई मारता। अब कृष्ण किस तल पर खड़े होकर कह रहे हैं, अर्जुन को कुछ खबर नहीं। अर्जुन जिस तल पर खड़ा है, वही समझेगा न! अर्जुन समझ रहा था कि मेरे हैं। कृष्ण कहते हैं, कौन किसका है?

यह दो बिलकुल अलग तलों पर बात हो रही है। और मैं समझता हूं कि गीता को पढ़ने वाले निरंतर इस भूल में पड़े हैं, क्योंकि यह बिलकुल, बिलकुल भिन्न तलों पर यह बात हो रही है।

अर्जुन कहता है, ये मेरे हैं; मेरे प्रियजन हैं, मेरे गुरु हैं, मेरे भाई के रिश्तेदार हैं, मेरे रिश्तेदार हैं; साले हैं, बहनोई हैं, मामा हैं, फूफा हैं; ये सब खड़े हैं; ये मेरे हैं। कृष्ण जिस जगह खड़े हैं, वहां से वे कहते हैं, कौन किसका है? कोई किसी का भी नहीं है। अपने ही तुम नहीं हो, कौन किसका है?

अर्जुन समझ लेता है: तो फिर ठीक है, जब कोई अपना नहीं तो मारा जा सकता है। पीड़ा तो अपने की थी; अब अपना कोई नहीं है तो मारा जा सकता है।

अर्जुन कहता है कि मर जाएंगे तो पाप लगेगा। कृष्ण कहते हैं, कभी कोई मरा या कभी किसी ने मारा? और शरीर के मारने से कहीं वह मरता है जो भीतर है? यह बिलकुल और तल से कही जा रही है बात। अर्जुन सोचता है, जब कोई मरता ही नहीं तो मारने में हर्ज भी क्या है? मारो।

और यह भूल निरंतर चलती रही है, यानी मैं मानता हूं कि अगर अर्जुन कृष्ण को समझ जाए तो महाभारत कभी हो न। लेकिन अर्जुन समझा ही नहीं। और समझने की कठिनाई जो थी, वह मैं मानता हूं, कठिनाई सिर्फ यही है कि कृष्ण जिस चेतना में खड़े होकर कह रहे हैं, वह अर्जुन की चेतना नहीं है। सवाल अर्जुन की चेतना के बदलने का है, सवाल अर्जुन को समझाने का नहीं है। और वह जो अर्जुन ने समझा वह उसने किया।

अब अगर कबीर का बेटा कल कबीर मर जाए और कल उसके घर में खाना न हो तो वह चोरी कर लाए, क्योंकि वह कहे कि चोरी में पाप ही क्या है, क्योंकि खुद कबीर ने साथ दिया था चोरी में। लेकिन कबीर जिस चोरी को गया था, वह बात और थी; और कमाल जिस चोरी को चला जाए, उनका बेटा, यह बात और है। ये दो तल की बातें थीं, जिनमें भूल बहुत निश्चित हो जानी संभव है।

और ऐसी ही भूल कृष्ण और अर्जुन के बीच हो गई है और वह भूल अब तक नहीं मिट सकी है। और हजार-हजार टीकाएं लिखी गई हैं गीता पर, लेकिन किसी को भूल खयाल में नहीं है कि भूल बुनियादी हो गई है।

तो दो अलग चेतनाओं के बीच हुई बात में निरंतर भूल हो गई है, क्योंकि जो कहा जाता है, वह समझा नहीं जाता। जो समझा जाता है, वह कहा ही नहीं गया है।

तो इसलिए मेरा जोर निरंतर यह है कि हम कर्म को बदलने के विचार में न पड़ें। हम चेतना को बदलने के विचार में पड़ें, क्योंकि चेतना से कर्म आता है, चेतना बदल जाती है तो कर्म बदल जाते हैं।

महावीर की पूरी साधना विवेक की साधना है, संयम की नहीं। क्योंकि विवेक से संयम छाया की तरह आता है। लेकिन निरंतर यह समझा गया है कि महावीर संयम की साधना कर रहे हैं। और वह बुनियादी भूल है।

प्रश्न:

 

मुक्त आत्माओं में करुणा शेष रह जाती है और करुणा भी वासना का ही एक सूक्ष्मतम रूप है–ऐसा आपने कहा। वासना में सदा द्वंद्व रहता है, सदा दो रहते हैं, परस्पर-विरोधी दो। ऐसी स्थिति में करुणा का विरोधी कौन सा तत्व है जो मुक्त आत्माओं में शेष रह जाता है?

 

हली बात तो यह कि करुणा वासना का सूक्ष्म रूप है, ऐसा नहीं, करुणा वासना का अंतिम रूप है। इन दोनों में भेद है। अंतिम रूप का मतलब मेरा यह है कि वासना और निर्वासना के बीच जो सेतु है। चाहें तो हम करुणा को वासना का अंतिम रूप कह सकते हैं और चाहें तो करुणा को निर्वासना का प्रथम रूप कह सकते हैं। वह बीच की कड़ी है जहां वासना समाप्त होती है और निर्वासना शुरू होती है।

करुणा सूक्ष्म रूप नहीं है वासना का। अगर सूक्ष्म रूप हो तो करुणा में भी द्वंद्व होगा। वासना में सदा द्वंद्व है। वासना में निर्द्वंद्व कभी भी कोई नहीं हो सकता। इसलिए वासना में दुख है, क्योंकि जहां द्वंद्व है, वहां दुख है। तो वासना चाहे कितनी ही सुखद हो, उसके पीछे उसका दुखद रूप खड़ा ही रहेगा, वह जा ही नहीं सकता।

इसलिए सब वासना एक सीमा पर अपने से विपरीत में बदल जाती है। प्रत्येक वासना का विरोधी तत्क्षण मौजूद ही रहता है, वह कभी अलग होता ही नहीं। क्योंकि जब हम प्रेम की बात करते हैं, तभी घृणा खड़ी हो जाती है। जब हम क्षमा की बात करते हैं, तभी क्रोध खड़ा हो जाता है। जब हम दया की बात करते हैं, तभी कठोरता आ जाती है। यानी अगर ठीक से समझें तो दया जो है, वह कठोरता का ही अत्यंत अत्यंत कम कठोर रूप है। यानी जो फर्क है, वह इस तरह का है, जैसे ठंडे और गर्म में। गर्म और ठंडे में फर्क क्या है? गर्म-ठंडी दो चीजें नहीं हैं। गर्म-ठंडी दो चीजें नहीं हैं, एक ही तापमान के दो तल हैं।

इसलिए इसे ऐसा समझें तो बहुत ठीक से समझ में आएगा। एक बर्तन में गर्म पानी रखा है, एक बर्तन में बिलकुल ठंडा पानी रखा है। आप दोनों में अपने दोनों हाथ डाल दें–एक आइस-कोल्ड ठंडे पानी में और एक उबलते हुए गर्म पानी में। फिर दोनों हाथों को निकाल कर एक ही बाल्टी में डाल दें, जिसमें साधारण पानी रखा है। और तब आप हैरान हो जाएंगे, आपका एक हाथ कहेगा कि पानी बहुत ठंडा है और आपका एक हाथ कहेगा कि पानी बहुत गर्म है। और पानी बिलकुल एक है बाल्टी में। आपके हाथ की गर्मी और ठंडक पर निर्भर करेगा कि आप इस पानी को क्या कहते हैं और आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि इस पानी को क्या कहें। क्योंकि एक हाथ खबर दे रहा है कि ठंडा है, एक हाथ खबर दे रहा है कि गर्म है।

कठोरता और दया इसी तरह की चीजें हैं, इनमें जो भेद है, वह भेद अनुपात का है। और तब यह भी हो सकता है कि एक बहुत कठोर आदमी को, जो चीज बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े, एक बहुत दयापूर्ण आदमी को बहुत कठोर मालूम पड़े। यह रिलेटिव होगा, सापेक्ष होगा।

तैमूरलंग जैसे आदमी को जो बात बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े, वह गांधी जैसे आदमी को अत्यंत कठोर मालूम पड़ सकती है। दोनों हाथ हैं, लेकिन कौन ठंडा कौन गर्म, तो पानी की खबर वे वैसी देंगे।

नैतिक पुरुष जो है, वह इसी द्वंद्व में जीता है, इसके बाहर नहीं जाता। कठोरता छोड़ो, दया पकड़ो; शोषण छोड़ो, दान पकड़ो; हिंसा छोड़ो, अहिंसा पकड़ो। नैतिक व्यक्ति कहता है कि वह जो बुरा है, वह छोड़ो; और जो अच्छा है, उसे पकड़ो। लेकिन वह यह भूल जाता है कि जिसे वह अच्छा कह रहा है, वह उसी बुरे की अत्यंत छोटी, कम, कम विकसित अवस्था है। वह उससे भिन्न और विरोधी नहीं है।

लेकिन जैसे ही व्यक्ति वासना से निर्वासना के जगत में प्रवेश करता है तो बीच की एक बफर-स्टेट जिसको कहना चाहिए, दो अवस्थाओं के बीच का एक खाली रिक्त स्थान, उस रिक्त स्थान में भी सेतु हैं। करुणा वैसा सेतु है। इसलिए करुणा कठोरता का उलटा नहीं है। करुणा और दया समानार्थक नहीं हैं। दया कठोरता की उलटी है।

और इस फर्क को ठीक से समझ लेना उपयोगी होगा। जब मैं किसी व्यक्ति पर दया करता हूं तो ध्यान में दूसरा व्यक्ति होता है, जिस पर मैं दया कर रहा हूं–भूखा है, दीन है, दया योग्य है। दया का जो ध्यान है, वह दूसरे की दीनता पर, दुख पर, दरिद्रता पर है। दूसरा केंद्र में है। और जब मैं कठोर होता हूं तब भी दूसरा केंद्र में है कि दूसरा दुश्मन है, दूसरा बुरा है; उसे मिटाना जरूरी है।

दया और अदया, दोनों में दृष्टि-बिंदु दूसरे पर होता है। करुणा का दूसरे से कोई संबंध नहीं है। करुणा का मतलब है कि दूसरा कैसा है, इससे प्रयोजन ही नहीं है। मैं कैसा हूं, यह प्रयोजन है–मैं करुणापूर्ण हूं। जैसे एक दीया जल रहा है और उससे रोशनी गिर रही है। पास से कौन निकलता है, इससे दीया रोशनी कम और ज्यादा नहीं करता। कौन पास से निकलता है–अच्छा आदमी कि बुरा आदमी, कि दीन कि दरिद्र, कि धनवान, कौन निकलता है पास से–हारा हुआ कि जीता हुआ–दीया जलता रहता है। कोई नहीं निकलता तब भी जलता रहता है, क्योंकि दीए का जलना दूसरे पर निर्भर नहीं है, दीए का जलना उसकी अंतर-अवस्था है।

एक भिखारी सड़क पर निकला तो आप दयापूर्ण होंगे, लेकिन एक सम्राट निकला तो फिर कैसे दयापूर्ण होंगे? अगर भिखारी निकला तो आप दयापूर्ण होंगे और सम्राट निकला तो आप दया की आकांक्षा करने लगेंगे, क्योंकि दया जो थी, वह दूसरे से बंधी थी, आप पर निर्भर नहीं थी। लेकिन महावीर जैसे व्यक्ति के पास से कोई निकले, दीन, भिखारी कि सम्राट, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, करुणा बरसती रहेगी। करुणा बरसती रहेगी–सम्राट पर भी उतनी ही करुणा है, भिखारी पर भी उतनी ही करुणा है। क्योंकि करुणा दूसरे पर निर्भर नहीं है। महावीर का अपना दीया है, जो जल रहा है, जिससे रोशनी गिर रही है।

तो इसलिए करुणा को निरंतर शब्दकोश में दया का जो पर्यायवाची बनाया जाता है, वह बुनियादी भूल है, एकदम भूल है। दया बात ही और है। और दया कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। हां, बुरी चीजों में अच्छी है। बुरी चीजों में अच्छी है। वह कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है।

करुणा बात ही और है। करुणा के विपरीत कुछ भी नहीं है। करुणा में द्वंद्व नहीं है। दया में विपरीत सदा मौजूद है; क्योंकि दया जो है सकारण है, उसमें कारण है, कंडीशन है कि वह आदमी दीन है इसलिए दया करो; वह आदमी भूखा है, इसलिए रोटी दो; वह आदमी प्यासा है, इसलिए पानी दो। उसमें कंडीशन है। उसमें दूसरे आदमी की शर्त है।

करुणा अनकंडीशनल है। वह दूसरा कैसा है, इससे कोई संबंध नहीं है। मैं करुणा ही दे सकता हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसा है, कौन है, क्या है। इससे कोई संबंध नहीं है। अगर कोई भी नहीं है तो करुणापूर्ण व्यक्ति अगर अकेले में खड़ा है, अगर महावीर एक वृक्ष के नीचे अकेले खड़े हैं और दिन बीत जाते हैं और कोई नहीं निकलता वहां से, तो भी करुणा झरती रहती है और प्रतीक्षा करती है। इससे कोई संबंध नहीं है।

एक फूल खिला है एक निर्जन में और उसकी सुगंध फैल रही है। रास्ते से कोई निकलता है तो उसे मिल जाती है, कोई नहीं निकलता तो भी सुगंध झरती रहती है। फूल का सुगंध देना स्वभाव है, राहगीर को देख कर नहीं कि कौन निकल रहा है, इसको जरूरत है कि नहीं! यह सवाल ही नहीं है। यह फूल का आनंद है।

करुणा जो है, वह अंतस-अवस्था है, इनर स्टेट ऑफ माइंड है। दया जो है, वह एक रिलेशनशिप है। वह मेरी अवस्था नहीं है, मैं किससे जुड़ा हूं, इस पर निर्भर करती है। तो दया उधर से भी ले सकता हूं, इधर से भी दे सकता हूं। किससे जुड़ा हूं, इस पर निर्भर करेगी बात।

करुणा अंतर-अवस्था है और वासना का अंतिम छोर कहें। अंतिम छोर इस अर्थों में कि उसके बाद फिर निर्वासना का जगत शुरू होता है, या निर्वासना का प्रथम छोर कहें, इस अर्थों में कि उसके बाद निर्वासना शुरू होती है।

और वासना का जगत द्वंद्व का जगत है। वासना का जगत द्वंद्व का जगत है। यह थोड़ा समझने जैसा होगा। वासना द्वैत का जगत है, जहां दो के बिना काम नहीं चलेगा, सब चीजें विरोधी पर होंगी–अंधेरा तो प्रकाश और जन्म तो मृत्यु, ऐसा विरोध जहां होगा। वासना द्वैत का जगत है। और वासना और निर्वासना के बीच में जो सेतु है, वह अद्वैत का है। वासना है द्वैत, जहां हम स्पष्ट कहेंगे दो हैं; और बीच का जो सेतु है, वह है अद्वैत, जहां हम कहेंगे दो नहीं हैं। अभी हम दो का उपयोग करेंगे। पहले कहते थे दो हैं, अब हम कहेंगे दो नहीं हैं। और निर्वासना का जो जगत है, वहां तो हम यह भी नहीं कह सकते कि अद्वैत, क्योंकि वहां दो का शब्द भी उठाना गलत है।

वासना है द्वैत और निर्वासना में तो संख्या का सवाल ही नहीं है। यानी यह भी कहना गलत है वहां कि दो नहीं। बीच का जो सेतु है, वहां हम कह सकते हैं दो नहीं। क्योंकि वासना छूट गई और निर्वासना अभी आती है। बीच का जो छोटा अंतराल है, उस अंतराल में करुणा है। करुणा अद्वैत है। अद्वैत के भी ऊपर एक लोक है, जहां से यह भी कहना गलत है कि अद्वैत है, जहां हम कहें दो नहीं। दो हैं, ऐसी एक सार्थकता थी, फिर दो नहीं, ऐसी एक सार्थकता थी। और अब कुछ भी कहना मुश्किल है, मौन हो जाना ही ठीक है। अब एक और दो और तीन का कोई सवाल ही नहीं उठता, वह है निर्वासना।

लेकिन इसके पहले कि हम संख्या से असंख्या में पहुंचें, सीमा से अ-सीमा में पहुंचें, बीच में निषेध का एक क्षण, निषेध की एक यात्रा है, वह करुणा है। करुणा, कंपैशन का विरोधी कोई भी नहीं है। दया का विरोधी है, करुणा का विरोधी कोई भी नहीं है।

बुद्ध ने उसे करुणा कहा है। महावीर उसे ही अहिंसा कहते हैं। जीसस उसे ही लव, प्रेम कहते हैं। ये शब्दों की पसंदगियां हैं। लेकिन वे सेतु पर इंगित कर रहे हैं। करुणा से गुजरना पड़ेगा–बुद्ध कहते हैं। अहिंसा से गुजरना पड़ेगा–महावीर कहते हैं। प्रेम से गुजरना पड़ेगा–जीसस कहते हैं। ये सिर्फ शब्द-भेद हैं। सेतु एक ही है। दो सेतु भी नहीं हैं वहां, एक ही सेतु है, जहां से हम द्वंद्व से छूटते हैं और द्वंद्व-मुक्त में जाते हैं। बीच में एक जगह है–उसे मैंने कहा करुणा, अहिंसा, प्रेम, जो भी हम कहना चाहें–इसका विरोधी कोई भी नहीं है।

सब चीजों के विरोधी हैं, कुछ चीजों के विरोधी नहीं हैं। और जिनके विरोधी नहीं हैं, वे ही सेतु बनते हैं। और फिर आगे तो न पक्ष है, न विपक्ष है; कोई भी नहीं है। आगे तो कोई भी नहीं है। वहां न पक्ष है, न विपक्ष है। विरोधी का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि वह भी नहीं है जिसका विरोधी हुआ जा सके।

प्रश्न:

द्रष्टा-भाव में संसार स्वप्न ही है, ऐसा आपका कहना है। किंतु यह व्यक्तिपरक, सब्जेक्टिव दृष्टिकोण की बात हुई। वस्तुपरक, आब्जेक्टिव दृष्टि से संसार क्या स्वप्न ही है? इस संबंध में महावीर की दृष्टि शंकराचार्य के मायावाद से कहीं भिन्न है?

 

सल में स्वप्न हम देखते हैं…।

प्रश्न:

 

जरा प्रश्न समझा दें सरल भाषा में।

हां, वह उन्होंने यह पूछा है…कल मैंने रात कहा कि अगर स्वप्न में कर्ता-भाव आ जाए तो स्वप्न सत्य हो जाता है। इससे ठीक उलटे, जिसे हम सत्य कहते हैं, यथार्थ, उसमें अगर कर्ता-भाव खो जाए तो वह सत्य भी स्वप्न हो जाता है। यानी अहंकार जो है, वही सूत्र है, चाहो तो स्वप्न को सत्य बना लो और चाहो तो सत्य को भी स्वप्न कर दो।

वह मैंने कल कहा, वह उसी संबंध में उन्होंने पूछा है कि इसका क्या यह मतलब हुआ कि अगर समझ लें कि मुझे दिखाई पड़ने लगे कि जगत स्वप्न है तो क्या सचमुच ही जगत नहीं है या कि यह स्वप्न होने का भाव सिर्फ सब्जेक्टिव है, मेरा आत्मपरक है? मुझे ऐसा लग रहा है कि यह मकान नहीं है, सब सपना है। लेकिन क्या इसका यह मतलब मान लिया जाए कि सच में ही मकान नहीं है, आब्जेक्टिवली? खाली जगह है यहां, मकान है ही नहीं? जैसा कि रात सपने का मकान खो जाता है, ऐसा ही यह मकान भी क्या इतना ही असत्य है? तो फिर शंकर के मायावाद में कि सब जगत माया है, इल्यूजन है और महावीर के द्वैतवाद में–क्योंकि महावीर जगत को माया नहीं कहते हैं–क्या फर्क है?

इसमें बहुत बातें समझने जैसी होंगी। पहली बात तो यह समझने जैसी होगी कि स्वप्न भी असत्य नहीं है, स्वप्न भी सत्य है। स्वप्न का भी अपना होना है। स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है, एक्झिस्टेंस है। जब आप रात सपना देखते हैं तो साधारणतः हम सुबह जाग कर कहते हैं कि सब सपना था, कुछ भी न था, लेकिन जो न हो तो सपने तक में नहीं हो सकता है।

स्वप्न के बाबत बड़ी भ्रांति है। स्वप्न असत्य नहीं है, स्वप्न की अपनी तरह की सत्ता है, अपने तरह का सत्य है उसका। वह अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं का लोक है, अत्यंत तरल परमाणुओं का लोक है, अत्यंत साइको-एटम्स का, मनो-परमाणुओं का लोक है। असत्य नहीं है। असत्य का मतलब है, जो है ही नहीं।

तो तीन चीजें हैं। असत्य, जो है ही नहीं। सत्य, जो है। और इन दोनों के बीच में एक स्वप्न है, जो न तो उस अर्थों में नहीं है, जिस अर्थों में खरगोश के सींग या बांझ मां का बेटा, जो इस अर्थों में नहीं है ऐसा नहीं कह सकते और न इस अर्थों में कह सकते हैं कि है जैसे पहाड़, जो दोनों के बीच है। जो है भी किसी सूक्ष्म अर्थ में और जो नहीं भी है किसी सूक्ष्म अर्थ में।

शंकर का भी माया से यही मतलब है। शंकर के साथ बड़ी भूल हुई है। शंकर का भी इल्यूजन या माया से यही मतलब है। शंकर कहते हैं, तीन यथार्थ हैं–सत्, असत् और मध्य का माया।

प्रश्न:

 

तो उसे मिथ्या कहें?

हां, मिथ्या कहें। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मिथ्या से भी लोगों को खयाल होता है कि जो नहीं है।

एक तो ऐसी चीज है, जो है ही नहीं। और एक ऐसी चीज है, जो बिलकुल है। और एक ऐसी चीज है जो दोनों के बीच में है; जिसमें दोनों की क्वालिटीज मिलती हैं, दोनों के गुण मिलते हैं। स्वप्न असत्य नहीं है। हां, जागरण जैसा सत्य नहीं है, और तल का सत्य है।

तो पहले तो स्वप्न असत्य नहीं है, स्वप्न का अपना सत्य है। और अगर स्वप्न के सत्य की खोज में कोई जाए तो जितना सत्य उसे बाहर की दुनिया में मिल सकता है, इतना ही सत्य वहां भी मिल सकता है। लेकिन हम तो बाहर की दुनिया में ही नहीं जा पाते तो स्वप्न की दुनिया में जाना तो बहुत मुश्किल है। स्वप्न की दुनिया में प्रवेश भी बहुत मुश्किल है, क्योंकि बिलकुल छायाओं का लोक है, जहां अत्यंत तरल चीजें हैं, जिन पर मुट्ठी बांधना मुश्किल है।

स्वप्न में भी खोज की जा सकती है, की गई है, की जाती रही है। और जो लोग स्वप्नलोक की गहराइयों में गए हैं, वे बहुत हैरान हो गए हैं। वे हैरान हो गए हैं कि जिसको हम स्वप्न कहते हैं, वह बहुत गहरे अर्थों में हमारे सत्य के लोक से बहुत ज्यादा जुड़ा है। एकदम असत्य नहीं है।

बहुत से स्वप्न तो हमारे पिछले जन्मों की स्मृतियां हैं, जो कभी सत्य थे। बहुत से स्वप्न हमारे भविष्य की झलक हैं, जो कभी सत्य होंगे। और बहुत से स्वप्न हमारी अंतर्यात्राएं हैं मनो-जगत में, जिनका हमें कोई पता नहीं चलता। क्योंकि इस देह से वे यात्राएं नहीं होतीं, वे और सूक्ष्म देहों से यात्राएं होती हैं।

तो एक तो स्वप्न को असत्य नहीं मैं कहता हूं। फर्क इतना ही कर रहा हूं कि स्वप्न में जितना सत्य दिखाई पड़ता है, वह सत्य स्वप्न के सत्य होने से नहीं आता, वह सत्य हमारे कर्ता होने से आता है। और अगर हमारा कर्तापन मिट जाए तो हमारे लिए स्वप्न मिट जाएगा। स्वप्न का सत्य तो बना ही रहेगा, हमारे लिए स्वप्न मिट जाएगा।

मेरा मतलब समझे आप? अगर हमारा कर्तापन का भाव मिट जाए, अगर मैं नींद में जाग जाऊं और मुझे खयाल आ जाए कि यह स्वप्न है और मैं तो सिर्फ देख रहा हूं तो स्वप्न एकदम विलीन हो जाएगा। इसका यह मतलब नहीं है कि स्वप्न के सत्य नष्ट हो गए। स्वप्न के सत्य अपने तल पर बने रहेंगे। जैसे समझ लें कि मैंने एक दूरबीन लगाई और दूरबीन से मैंने आकाश देखा और मुझे वे तारे दिखाई पड़े जो खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ते थे। फिर मैंने दूरबीन हटा दी, अब मुझे वे तारे फिर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, तो मैं यह तो नहीं कहूंगा कि वे तारे मिट गए मेरी दूरबीन हटाने से। नहीं, दूरबीन होने से प्रकट हुए थे, अब अप्रकट हो गए।

कर्ता-भाव से स्वप्न में सत्य प्रकट हुआ था, अब अप्रकट हो गया। ठीक ऐसे ही जागने में जो चीजें हमें दिखाई पड़ रही हैं, वे हैं, उनकी अपनी सत्ता है, वे इल्यूजरी नहीं हैं, उनकी अपनी सत्ता है। और महावीर को भी निकलना हो, शंकर को भी निकलना हो तो दरवाजे से ही निकलेंगे, दीवाल से नहीं निकल जाएंगे। शंकराचार्य को भी निकलना हो तो दीवाल से नहीं निकलेंगे, कि इल्यूजरी दीवाल है, वह क्या करेगी? निकलेंगे दरवाजे से ही।

इल्यूजरी कहने का मतलब बहुत दूसरा है, माया कहने का मतलब बहुत दूसरा है, स्वप्नवत कहने का मतलब बिलकुल दूसरा है। मतलब दूसरा यह है कि दीवाल का अपना एक सत्य है, आब्जेक्टिव वस्तु का अपना एक सत्य है। लेकिन वह सत्य एक बात है और हम कर्ता होकर, मोहग्रस्त होकर, अहंग्रस्त होकर उस पर और सत्य प्रोजेक्ट कर रहे हैं, जो उसमें कहीं भी नहीं है।

जैसे यह मकान है, इस मकान का तो अपना सत्य है, लेकिन यह मकान “मेरा’ है, यह बिलकुल ही सत्य नहीं है। यह “मेरा’ बिलकुल मेरे प्रोजेक्शन की बात है। यह मकान को पता भी नहीं होगा। और तीन काल में इसको पता नहीं चलेगा कि मैं किसका था।

और कई बार–इसकी भ्रांतियां गहरी हैं–जैसे हम कहते हैं, यह देह मेरी है। और आपको खयाल होना चाहिए कि इस देह में करोड़ों कीटाणु जी रहे हैं और वे सब समझ रहे हैं, यह देह उनकी है। और उनमें से किसी को पता नहीं कि आप भी इसमें हैं एक, आपका बिलकुल पता नहीं है। जब आपको कैंसर हो गया और एक, या एक घाव हो गया, एक नासूर हो गया और दस कीड़े उसमें पल रहे हैं, तो आप सोच रहे हैं कि ये मेरी देह को खाए जा रहे हैं। कीड़ों को खयाल भी नहीं हो सकता, कीड़ों की अपनी देह है। वे इसमें जी रहे हैं। और जब आप उन्हें हटाते हैं तो उनके स्वत्व से वंचित कर रहे हैं। आप समझ रहे हैं कि आपकी देह है।

इस देह में कितने लोग देह बनाए हुए हैं! अरबों-खरबों कीटाणु, सेल्स देह बनाए हुए हैं। और सब यह मान रहे हैं कि उनकी देह है।

तो जब हम यह कह रहे हैं कि वस्तु की तो अपनी सत्ता है, इस देह की अपनी सत्ता है, लेकिन मेरी है, यह बिलकुल स्वप्नवत है। और जिस दिन आप जागेंगे तो देह रह जाएगी, मेरा नहीं रह जाएगा। और अगर मेरा न रह जाए तो देह बहुत और अर्थों में प्रकट होगी, जिस अर्थों में कभी प्रकट नहीं हुई थी। वह मेरे की वजह से उसने दूसरा ही रूप ले लिया था, एकदम दूसरा रूप ले लिया था।

तो जब मैं कह रहा हूं कि अगर हम जाग जाएं और कर्ता मिट जाए, साक्षी रह जाए तो भी वस्तुओं का सत्य रहेगा, लेकिन तब वह वस्तु-सत्य रह जाएगा, तब मैं उसमें कुछ प्रोजेक्ट नहीं करूंगा, प्रक्षेप नहीं करूंगा।

और तब एक बहुत बड़ी दुनिया मिट जाएगी एकदम से। जिसको आप अपना बेटा कह रहे हैं, उसको आप अपना बेटा नहीं कह सकेंगे, शायद बेटा भी नहीं कह सकेंगे। अगर आप बिलकुल साक्षी हो गए तो आप सिर्फ एक पैसेज रह जाएंगे–सिर्फ पैसेज रह जाएंगे, एक द्वार रह जाएंगे, जिससे वह व्यक्ति आया। लेकिन आप पिता नहीं रह जाएंगे।

और बहुत गहरे में देखेंगे तो आपका शरीर का मैल आपने झाड़ दिया, इस मैल के आप पिता नहीं कहलाते, तो आप अपने वीर्य-अणुओं के कैसे पिता हो सकते हैं? यह मैल भी शरीर में उसी तरह पैदा होता है जैसे वीर्य-अणु पैदा होते हैं। ये नाखून आप काट कर फेंक देते हैं और कभी नहीं कहते कि मैं इनका पिता हूं। ये बाल आप काट कर फेंक देते हैं और कभी नहीं कहते कि मैं इनका पिता हूं। कभी लौट कर नहीं देखते। जिस शरीर ने ये सब पैदा किए हैं, उसी शरीर ने वीर्य-अणु भी पैदा किए हैं। आप कौन हैं? आप कहां हैं? यानी मैं यह कह रहा हूं कि अगर हमें ठीक से साक्षी-भाव हो जाए तो कौन पिता है! कौन मालिक है! क्या मेरा है! यह सब एकदम विदा हो जाएगा। और ये अगर सारे अंतर्संबंध एकदम से विदा हो जाएं तो जगत बिलकुल दूसरे अर्थों में प्रकट होगा। तब जगत होगा, आप होंगे, लेकिन बीच में कोई संबंध नहीं होगा। जो हम बांधते हैं, वह सब विदा हो जाएगा।

तो जब मैं यह कहता हूं कि आप अगर जाग जाएंगे तो जगत स्वप्नवत हो जाएगा, इसका मेरा मतलब यह नहीं है कि जगत झूठा हो जाएगा, कि जगत रहेगा ही नहीं। जगत और अर्थों में रहेगा, जिन अर्थों में आज है, उन अर्थों में नहीं रह जाएगा। स्वप्न भी बचता है, वह भी कहीं खो नहीं जाता, उसकी भी अपनी सार्थकता है। और आप हैरान होंगे कि अगर थोड़ी चेष्टा करें तो एक ही स्वप्न में हजार बार प्रवेश कर सकते हैं।

हमको क्यों स्वप्न इल्यूजरी मालूम पड़ता है? उसका कारण है कि आप एक ही स्वप्न में दुबारा प्रवेश नहीं कर पाते। और एक ही मकान में दुबारा जग जाते हैं, तो यह मकान सच्चा मालूम होने लगता है, क्योंकि बार-बार इसी मकान में आप जगते हैं रोज सुबह। यही मकान फिर, यही मकान फिर, यही मकान फिर। यही दुकान, यही मित्र, यही पत्नी, यही बेटा, तो यह बार-बार…।

अगर समझ लें कि हर बार सुबह आप जागें और मकान दूसरा हो जाए तो आपको मकान का सत्य भी उतना ही झूठा हो जाएगा जितना सपने का हो जाता है, कि इसका क्या भरोसा, कल सुबह क्या हो जाए! और सपने में आप एक ही दफे जा पाते हैं, दुबारा उस सपने को आप कंटिन्यू नहीं कर पाते। क्योंकि आप जागने में ही अपने मालिक नहीं हैं, सोने की मालकियत तो बहुत दूर की बात है, तो आप उसी सपने में फिर कैसे जा सकते हैं?

लेकिन उस तरह की पद्धतियां और व्यवस्थाएं हैं कि एक ही स्वप्न में बार-बार जाया जा सकता है। और तब आप हैरान हो जाएंगे कि स्वप्न इतना ही सत्य मालूम होगा जितना यह मकान। क्योंकि आज स्वप्न में अगर एक स्त्री आपकी पत्नी थी तो कल वह नहीं रह जाएगी, कल आप खोजें कितना ही, तो भी पता नहीं चलेगा वह कहां गई। लेकिन अगर ऐसा हो सके–और ऐसा हो सकता है–कि रोज रात आप सोएं और एक निश्चित स्त्री रोज रात सपने में आपकी पत्नी होने लगे, ऐसा दस वर्ष तक चले, तो आप ग्यारहवें वर्ष पर यह कह सकेंगे कि रात झूठ है? आप कहेंगे, जैसा दिन सच्चा है, ऐसे रात भी सच्ची है।

स्वप्न को स्थिर करने के भी उपाय हैं। उसी स्वप्न में रोज-रोज प्रवेश किया जा सकता है, तब वह सच्चा मालूम होने लगेगा। और अगर हम गौर से देखें तो रोज-रोज हम उसी मकान में सुबह जागते भी नहीं हैं जिसमें हम कल सोए थे, क्योंकि मकान बुनियादी रूप से बदल जाता है। अगर हमारी दृष्टि उतनी भी गहरी हो जाए कि बदलाहट को हम देख सकें तो जिस पत्नी को आपने कल रात सोते वक्त छोड़ा था, सुबह आपको वही पत्नी उपलब्ध नहीं होती है। उसका शरीर बदल गया, उसका मन बदल गया, उसकी चेतना बदल गई, उसका सब बदल गया।

लेकिन उतनी सूक्ष्म दृष्टि भी नहीं है हमारी कि हम उतनी गहरी दृष्टि से जांच कर सकें कि सब बदल गया है, यह तो दूसरा व्यक्ति है। इसलिए आप कल की अपेक्षा करके झंझट में पड़ जाते हैं। कल शांत थी वह बड़ी और बड़ी प्रसन्न थी और सुबह से नाराज हो गई है। तो आप कहते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है? क्योंकि आप अपेक्षा कल की लिए बैठे हुए हैं। कल उसने बहुत प्रेम किया था और आज बिलकुल पीठ किए हुए है, तो आपको लगता है कि यह तो कुछ गड़बड़ हो रहा है। लेकिन आपको खयाल नहीं है कि सब चीजें बदल गई हैं।

जिस दिन हम बहुत गहरे में इधर घुस जाएं, यानी मैं यह कह रहा हूं कि अगर गहरे स्वप्न में जाएं तो स्वप्न भी मालूम होगा वही है, और अगर गहरे इस सत्य में जाएं तो पता चलेगा कि वही कहां है, रोज बदलता चला जा रहा है। कहने का मेरा प्रयोजन इतना ही है कि इन सारी स्थितियों में–चाहे स्वप्न, चाहे जागरण–अगर साक्षी जग जाए तो एक बिलकुल ही नई चेतना का आरंभ होता है, लेकिन उससे कोई जगत मिथ्या हो जाता है, झूठ हो जाता है, ऐसा नहीं। उससे सिर्फ इतना ही हो जाता है कि जो कल तक का जगत हमने बनाया था, वह विदा हो जाता है और एक बिलकुल नया जगत, पहली दफे आब्जेक्टिव, पहली दफे वस्तुपरक सत्य सामने आता है। जो हमने बनाया था, वह विदा हो जाता है। जो हमने क्रिएट किया है, खुद सृजन कर लिया है, वह नदारद हो जाता है, वह विदा हो जाता है।

महावीर इसीलिए उसको माया का उपयोग नहीं करना चाहते, क्योंकि माया से ऐसा लगता है कि जैसे सब झूठ है। इसलिए वे उपयोग नहीं करते हैं। वे कहते हैं, वह भी सत्य है, यह भी सत्य है। लेकिन दोनों सत्यों के बीच में हमने बहुत से झूठ गढ़ रखे हैं, वे विदा हो जाने चाहिए। तब पदार्थ भी अपने में सत्य है और परमात्मा भी अपने में सत्य है। और बहुत गहरे में दोनों एक ही सत्य के दो छोर हैं।

शंकर उसके लिए माया का उपयोग करते हैं, उसमें भी कुछ हर्ज नहीं है, वह भी उपयोग किया जा सकता है। क्योंकि जिसमें हम जी रहे हैं, वह बिलकुल इल्यूजरी है, बिलकुल माया जैसी बात है।

एक आदमी है, रुपए गिन रहा है और गिन-गिन कर ढेर लगाता जा रहा है, तिजोड़ी बंद करता जा रहा है। रोज गिनता है, तिजोड़ी बंद करता है। अगर हम उसके मनो-जगत में उतरें तो वह रुपयों की गिनती में जी रहा है। और बड़े मजे की बात है कि रुपए में क्या है जिसकी गिनती में कोई जीए! कल सरकार बदल जाए और वह कह दे पुराने सिक्के खतम और उस आदमी का पूरा का पूरा मनो-लोक एकदम तिरोहित हो गया। वह एकदम नंगा खड़ा रह गया, अब कोई गिनती नहीं है उसके पास।

मेक-बिलीफ के जगत में हम जी रहे हैं। और ऐसे ही सिक्के हमने सब तरफ बना रखे हैं–परिवार के, प्रेम के, मित्रता के–सब ऐसे ही सिक्के बना रखे हैं। कल सुबह एकदम सब नियम बदल जाएं…।

मुझे एक मित्र ने एक पत्र लिखा। बहुत बढ़िया पत्र लिखा। कुछ लोग जो मेरे साथ थे, वे साथ नहीं रह गए, तो उन्होंने मुझे पत्र लिखा। और हम सबको यह भ्रांति होती है कि जो साथ है, वह सदा साथ हो। यह बिलकुल पागलपन है। जितनी देर साथ है, बहुत है। जिस दिन अलग हो गया, अलग हो गया। जैसे साथ होना एक सत्य था, वैसे अलग होना एक सत्य है। साथ ही बना रहे, तो फिर हम एक माया के जगत में जीना शुरू कर देते हैं, एक्सपेक्टेशंस के, अपेक्षाओं के। आप मेरे मित्र हैं, तो बात काफी है इतना। लेकिन कल भी आप मेरे मित्र हों, तो फिर मैंने कल्पना के जगत में जीना शुरू कर दिया। फिर मैं दुख भी पाऊंगा, पीड़ा भी पाऊंगा। अपेक्षा मैंने बना ली। कल का कौन जानता है! कल क्या हो जाए! रास्ते कभी हमारे पास आ जाते हैं, कभी दूर चले जाते हैं। कभी एक-दूसरे का रास्ता कटता भी है। कभी बड़े फासले हो जाते हैं।

तो कुछ मित्र मुझे छोड़ कर चले गए हैं, तो एक मित्र ने मुझे एक कहानी लिखी। उसने लिखा कि यूनान में एक बार ऐसा हुआ कि एक साधु था। एथेंस नगर में उस साधु पर मुकदमा चला। उसकी बातों को एथेंस नगर के न्यायाधीशों ने कहा कि ये लोगों को बिगाड़ देने वाली हैं, इसलिए हम तुम्हें नगर-निकाला देते हैं, नगर से बाहर कर देते हैं।

साधु नगर से निकाल दिया गया। वह एथेंस छोड़ कर दूसरे नगर में गया। दूसरे नगर के लोगों ने उसका बड़ा स्वागत किया, क्योंकि उस साधु की जो मान्यताएं थीं, उस नगर के लोगों से मेल खा गईं।

उस नगर का एक नियम था कि जो भी नया आदमी उस नगर में मेहमान बने, सारा नगर मिल कर उसका मकान बना दे। तो राज ने ईंटें जोड़ दीं, ईंट बनाने वाले ने ईंटें ला दीं, पत्थर वाला पत्थर लाया, बढ़ई लकड़ी लाया, खपड़ा लाने वाला खपड़ा लाया। सारे गांव के लोगों ने श्रम किया, जल्दी ही उसका एक बहुत शानदार मकान बन गया।

वह उस मकान में जिस दिन प्रवेश करने को था, मकान बन गया है, प्रवेश होने की तैयारी हो रही है, साधु द्वार पर आया है, तभी गांव एकदम से पूरे मकान पर टूट पड़ा। छप्पर वाला छप्पर ले गया, ईंट वाले ने ईंट निकाल ली, दरवाजे वाला अपना दरवाजा निकालने लगा। सब चीजें एकदम अस्तव्यस्त हो गईं, सारा मकान टूटने लगा।

तो उस साधु ने खड़े होकर पूछा कि यह क्या बात है? मुझसे कोई गलती हो गई क्या?

तो जो लोग सामान लिए जा रहे थे, उन्होंने कहा, नहीं, तुम्हारी गलती का सवाल नहीं, हमारा कांस्टिटयूशन बदल गया। यानी कल तक हमारे विधान में यह बात थी कि जो भी नया आदमी गांव में आए और रहे, उसका हम मकान बनाएं। रात की धारा-सभा में वह हमने खतम कर दिया। हमारा विधान जो है, वह बदल गया। दि कांस्टिटयूशन हैज चेंज्ड। इसलिए हम अपना-अपना सामान लिए जा रहे हैं, बात खतम हो गई। अब यह तुम्हारा प्रवेश हो जाता तो मुश्किल पड़ता, इसलिए हमें जल्दी करनी पड़ रही है। क्योंकि तुम्हारे प्रवेश के बाद पुराना कांस्टिटयूशन लागू हो जाता। अभी तुम्हारा प्रवेश नहीं हुआ, इसलिए हम इसे लिए चले जाते हैं।

उन मित्र ने मुझे यह कहानी लिखी और मुझे पूछा, वाज़ साधु ऐट फाल्ट? क्या साधु की कोई भूल थी?

तो मैंने उनको उत्तर दिया कि साधु की एक ही भूल थी कि उसने आदमियों के बनाए हुए नियम को ज्यादा मूल्य दे दिया था। जो आदमी नियम बनाते हैं, वे कभी भी तोड़ सकते हैं। यानी जो मकान बनाने का तय करते हैं, कल गिराने का तय कर सकते हैं।

साधु की भूल इतनी ही थी कि उसने यह भी क्यों पूछा दरवाजे पर खड़े होकर कि क्या मुझसे कोई भूल हो गई? यह भी नहीं पूछना था। उसे जानना चाहिए था कि ठीक है, जो मकान बनाते हैं, वे गिरा सकते हैं। नियम बदल गया था। और साधु ने नियम को अपना सम्मान समझ लिया, यह भूल हो गई थी उससे। वह उसका सम्मान नहीं था, वह सिर्फ नियम का सम्मान था। नियम बदल गया, सारी बात खतम हो गई।

हम एक जिंदगी में जीते हैं, जो हमारे बनाए हुए नियमों, बनाई हुई मान्यताओं, बनाई हुई व्यवस्थाओं की है। वह जैसे ही हम जागेंगे, वे एकदम इल्यूजरी मालूम पड़ेगी।

पत्नी एकदम इल्यूजरी मालूम पड़ेगी, स्त्री सत्य रह जाएगी। स्त्री होगी एक, लेकिन पत्नी एकदम माया मालूम पड़ेगी। वह हमारी बनाई हुई व्यवस्था है। एक युवक रह जाएगा, लेकिन बेटा होना उसका एकदम खो जाएगा। मकान रह जाएगा, लेकिन मेरा होना एकदम तिरोहित हो जाएगा। धन का ढेर रह जाएगा, लेकिन फिर गिनती का रस एकदम खो जाएगा, उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। जगत होगा वस्तुपरक, लेकिन हमने सब्जेक्टिवली, आत्मा से उसमें जो उंडेल दिया है और मान लिया है कि वहां है, वह एकदम तिरोहित हो जाएगा। जैसे कोई जादू की दुनिया से एकदम जाग गया हो, और सब खो जाए; वृक्ष और वृक्ष में लगे फल, सब विदा हो जाएं; और चीजें जैसी हैं, वैसी रह जाएं। वस्तु रह जाएगी, लेकिन हमारी कल्पित वस्तु एकदम विदा हो जाएगी।

इस अर्थ में मैंने कहा कि स्वप्न भी सत्य बन जाता है, अगर हम उसमें लीन हो जाते हैं। और जिसे हम सत्य कहते हैं वह भी स्वप्नवत हो जाएगा, अगर हम अपनी लीनता को तोड़ लेते हैं।

प्रश्न:

 

महावीर पूर्व-जन्म में ही पूर्ण हो गए, यह आपका कहना है। किंतु वर्तमान जीवन में अभिव्यक्ति के साधन खोजने के लिए उन्हें तपश्चर्या करनी पड़ी। पूर्ण में यह अपूर्णता कैसी? क्या पूर्णता में ही अभिव्यक्ति के साधनों की उपलब्धि शामिल नहीं है?

 

हीं, पूर्णता की उपलब्धि में अभिव्यक्ति के साधन सम्मिलित नहीं हैं। अभिव्यक्ति की पूर्णता उपलब्धि की पूर्णता से बिलकुल अलग पूर्णता है। असल में पूर्णता भी एक नहीं है, अनंत पूर्णताएं हैं। इससे हमें बड़ी कठिनाई होती है। पूर्णता एक चीज नहीं है, अनंत पूर्णताएं हैं। पूर्णताएं भी अनंत हैं। अनंतानंत महावीर तो कहते हैं। एक दिशा में एक आदमी पूर्ण हो जाता है, इसका यह मतलब नहीं है कि वह और सब दिशाओं में पूर्ण हो गया।

एक आदमी चित्र बनाता है और चित्र बनाने में पूर्ण हो गया। इसका यह मतलब नहीं है कि वह संगीत बजाने में पूर्ण हो जाएगा, कि वीणा बजा सकेगा। वीणा की अपनी पूर्णता है। वीणा की अपनी दिशा है। और कोई अगर वीणा बजाने में पूर्ण हो गया तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह नाचने में पूर्ण हो जाएगा। नाचने की अपनी पूर्णता है। मल्टी डायमेंशनल है पूर्णता जो है। बहुआयाम हैं पूर्णता के।

प्रश्न:

 

क्या बहुआयामी पूर्णता किसी को मिली है?

हीं, असंभव ही है। असंभव ही है कि कोई व्यक्ति समस्त पूर्णताओं में पूर्ण हो जाए। इसलिए असंभव है कि कुछ पूर्णताएं तो ऐसी हैं कि एक में होंगे तो दूसरे में फिर हो ही नहीं सकेंगे, वे विरोधी पूर्णताएं हैं।

जैसे समझ लें कि एक पुण्यात्मा पूर्ण हो जाए, तो फिर पाप की पूर्णता में पूर्ण नहीं हो सकता। पाप की भी अपनी पूर्णता है। यानी पाप की भी अपनी पूर्णता है! और कोई अगर पाप में पूर्ण हो जाए तो वह कैसे पुण्य में पूर्ण होगा? तो न केवल पूर्णताएं अनंत हैं, पूर्णताएं विरोधी भी हैं। तो सब…कोई यह तो सोच ही नहीं सकता कि कोई व्यक्ति समस्त दृष्टि से पूर्ण हो जाए। ऐसा नहीं हो सकता।

परमात्मा की जो धारणा है, वह धारणा इस लिहाज से कीमती है। इसीलिए परमात्मा की धारणा का जो मतलब है, वह यह है कि सिर्फ परमात्मा सब दिशाओं में पूर्ण है। क्योंकि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, वह सब व्यक्तियों में से अनंत दिशाओं में पूर्णता प्राप्त कर रहा है। परमात्मा अगर कोई व्यक्ति हो तो वह भी पूर्ण नहीं हो सकता सब दिशाओं में। लेकिन पापी से भी वह एक तरह की पूर्णता पा रहा है, पुण्यात्मा से दूसरी तरह की पूर्णता पा रहा है।

तो परमात्मा के अनंत-अनंत जो हाथ हम चित्रों में देखते हैं, उसका कारण कुल इतना है। अनंत हाथों से वह पूर्ण हो रहा है, इसलिए हो सकता है। हम दो हाथों से कैसे पूर्ण होंगे? सब हाथ उसके ही हों, तब तो ठीक है, फिर कोई कठिनाई नहीं रह गई। फिर अगर महावीर एक दिशा में पूर्ण हों और हिटलर दूसरी दिशा में पूर्ण हो जाए तो कोई परमात्मा को कठिनाई नहीं पड़ती, क्योंकि हिटलर के हाथ भी उसके हैं और महावीर के हाथ भी उसके।

परमात्मा को छोड़ कर और कोई सब दिशाओं में पूर्ण नहीं हो सकता। और परमात्मा व्यक्ति नहीं है, इसीलिए। वह शक्ति है–सबकी ही शक्ति का समग्रीभूत नाम है। इसलिए उसको तो छोड़ दें, लेकिन कोई भी व्यक्ति कभी भी इस अर्थ में पूर्ण नहीं होता। उसकी अपनी दिशा होती है, उसमें वह पूर्ण हो जाता है।

अनुभूति की एक दिशा है और अभिव्यक्ति की बिलकुल दूसरी। और अनुभूति के लिए जो करना पड़ता है, अभिव्यक्ति के लिए करीब-करीब उससे उलटा करना पड़ता है। इसलिए दोनों साधी जा सकती हैं, लेकिन एक साथ नहीं। एक सध जाए तो फिर दूसरी साधी जा सकती है।

इसलिए कभी अनुभूति की पूर्णता के साथ अभिव्यक्ति की पूर्णता नहीं होती, क्योंकि अनुभूति में जाना पड़ता है भीतर और अभिव्यक्ति में आना पड़ता है बाहर। और ये बिलकुल ही उलटे आयाम हैं। अनुभूति में छोड़ना पड़ता है सबको, और हो जाना पड़ता है बिलकुल स्व, सब छोड़ कर बिलकुल एक बिंदु। और अभिव्यक्ति में फैलना पड़ता है, सबको जोड़ना पड़ता है। अभिव्यक्ति में दूसरा महत्वपूर्ण है, अनुभूति में स्वयं ही महत्वपूर्ण है। उलटी दिशाएं हैं बिलकुल। जानना मौन में है और बताना वाणी में है। तो जो जानेगा, उसको मौन होना पड़ेगा और जब बताने जाएगा तो फिर शब्द की साधना करनी पड़ेगी।

इसलिए जरूरी नहीं है कि जो अभिव्यक्ति दे रहा हो, वह जानता भी हो। यह जरूरी नहीं है। हो सकता है सिर्फ अभिव्यक्ति हो, तब वह उधार हो जाएगी। किसी और ने जाना होगा, वह सिर्फ अभिव्यक्ति दिए चला जा रहा है। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है कि अकेली अभिव्यक्ति वाला आदमी भी बड़ा ज्ञानी मालूम पड़ता है। उसके पास अनुभूति कोई भी नहीं है। सिर्फ उसने उधार अनुभूतियां बटोर ली हैं। पंडित ऐसे ही आदमी को मैं कहता हूं, जिसके पास अभिव्यक्ति है, अनुभूति नहीं। ऐसे भी लोग हैं जिनके पास अनुभूति है, लेकिन अभिव्यक्ति नहीं।

बुद्ध से एक दिन किसी ने जाकर पूछा कि आप इतने वर्षों से समझाते हैं, कितने ऐसे लोग हैं जो उसी सत्य को उपलब्ध हो गए हों जिसको आप हो गए हैं? बुद्ध ने कहा, बहुत। यहीं बैठे हुए हैं। उस आदमी ने पूछा, लेकिन आप जैसा तो इनमें से कोई भी नहीं दिखाई पड़ता–आप जैसा महिमाशाली! तो बुद्ध ने कहा, थोड़ा ही सा फर्क है। मैंने अभिव्यक्ति भी साधी है। अनुभूति में तो वे मेरी जगह पहुंच गए हैं। अभिव्यक्ति! तो जब तक अभिव्यक्ति न साधें, तुम्हें उनका पता भी नहीं चलेगा। क्योंकि जब वे तुमसे कहेंगे, तब तुम जानोगे। उन्हें हो गया है, इससे थोड़े ही जानोगे।

केवल-ज्ञानी और तीर्थंकर में यही फर्क है। तीर्थंकर भी केवल-ज्ञानी से ज्यादा नहीं है, सिर्फ अभिव्यक्ति और है उसके पास। केवल-ज्ञानी तीर्थंकर से इंच भर कम नहीं है; अनुभूति में वहीं है, जहां वह है; सिर्फ अभिव्यक्ति नहीं है उसके पास।

प्रश्न:

 

केवल-ज्ञानी के पास?

 

भिव्यक्ति नहीं है। अभिव्यक्ति साध ले तो वह भी टीचर हो जाता है, वह भी शिक्षक हो जाता है। अभिव्यक्ति न साधे तो अनुभूति तो होती है, सिद्ध होता है, लेकिन बंद हो जाता है; सब तरफ फैला नहीं पाता कि जो उसने जाना है, उसे कह दे।

तो अनुभूति की पूर्णता तो महावीर को पिछले जन्म में हुई है, अभिव्यक्ति की पूर्णता के लिए उन्हें इस जन्म में साधना करनी पड़ी। और मैं कहता हूं कि अनुभूति की पूर्णता उतनी कठिन चीज नहीं है, जितनी अभिव्यक्ति की पूर्णता कठिन चीज है। बहुत ही कठिन है। क्योंकि अनुभूति में मैं अकेला ही हूं, जो भी मुझे करना है, अपने से ही करना है। अभिव्यक्ति में दूसरा सम्मिलित हुआ जा रहा है। इसलिए दूसरे को जानना, समझना, दूसरे तक पहुंचाना; दूसरे की भाषा है, दूसरे का अनुभव है, दूसरे का व्यक्तित्व है; करोड़-करोड़ तरह के व्यक्तित्व हैं, करोड़-करोड़ योनियों में बंटा हुआ प्राण है, उन सब पर प्रतिध्वनि हो सके, उन सब तक खबर पहुंच सके; पत्थर भी सुन ले और देवता भी सुन ले; उस सबकी फिक्र साधना बहुत बड़ी बात है।

इसलिए केवल-ज्ञान तो बहुत लोगों को उपलब्ध होता है, लेकिन तीर्थंकर बहुत कम लोग बन पाते हैं। उसका कारण यह है, केवल-ज्ञान तो अनंत-अनंत लोगों को उपलब्ध होता है, परिपूर्ण ज्ञान की अनुभूति तो करोड़ों लोगों को होती है, लेकिन जिसको हम शिक्षक कह सकें, तीर्थंकर कह सकें–जो बता भी सके कि ऐसे हुआ है–ऐसा मुश्किल से कभी होता है।

इसलिए मैंने कल कहा, वह पहले जन्म में तो…पर हमारा क्या होता है, हम पूर्णता को बड़े टोटेलिटेरियन सेंस में लेते हैं।

प्रश्न:

 

इसीलिए गड़बड़ हो जाती है?

हां, इसलिए गड़बड़ हो जाती है।

प्रश्न:

 

तो पूर्णता कहते हुए अलग-अलग कहना पड़ेगा?

 

बिलकुल अलग कहना पड़े, बिलकुल अलग कहना पड़े…।

प्रश्न:

 

तो जब आप पूर्णता कहते हैं, तो उसमें अलग-अलग करना पड़ेगा?

लग-अलग करना ही पड़े, क्योंकि कोई व्यक्ति अनुभूति में पूर्ण हो सकता है और अभिव्यक्ति बिलकुल न हो। अनेक लोग जाने हैं और मौन रह गए, फिर कहा ही नहीं उन्होंने। खोज ही नहीं सके मार्ग कहने का वे। खोज ही नहीं सके।

जैसा मैंने कल कहा। जैसे कि आप अभी जाएंगे डल झील पर और सौंदर्य को देखेंगे। और हो सकता है कि सौंदर्य का पूर्ण अनुभव आपको हो जाए, लेकिन इससे यह मतलब नहीं कि आप आकर एक पेंटिंग बना सकें जिसमें आप डल झील को पेंट कर दें। इससे यह मतलब नहीं है। और यह भी हो सकता है कि आपसे कम अनुभव किसी को हो और वह आकर पेंट कर दे, क्योंकि पेंट की कुशलता अलग बात है। मेरा मतलब समझे न आप?

पेंटिंग की कुशलता बिलकुल अलग बात है अनुभूति की कुशलता से। अनुभूति तो आपको हो सकती है डल झील पर जाकर सौंदर्य की, सारा प्राण भीग जाए, लेकिन आपसे कोई कहे कि रंग उठा कर और ब्रुश उठा कर जरा पेंट कर दें, तो आप कहें, यह मुझसे नहीं हो सकेगा।

प्रश्न:

 

दोनों होता तो पूर्णता कहते उसको?

र भी दिशाएं हैं न! और भी दिशाएं हैं, और भी दिशाएं हैं, क्योंकि जब आप डल झील पर गए थे तो आपने सोचा होगा कि आप सिर्फ देख रहे हैं। वह सौंदर्य सिर्फ देखने का नहीं था। अगर आप बहरे होते तो इतना सौंदर्य आपको दिखाई न पड़ता।

उसमें चिड़ियों की आवाज भी छिपी थी, उसमें लहरों की छप-छप भी छिपी थी, उसमें सब था जुड़ा हुआ। अगर आप बहरे होते तो आप देख तो लेते, लेकिन आपके देखने में कमी रह गई होती। उसमें आस-पास जो सुगंध आ रही थी, वह भी उस सौंदर्य का हिस्सा थी।

हमको कभी पता नहीं चलता कि जब कोई एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है तो वह कभी नहीं सोचता कि उसके शरीर की गंध भी उसमें कोई तीस परसेंट हिस्सा लेती है, कम नहीं। यानी वह कितनी ही सुंदर हो, अगर उसकी गंध उसको मेल नहीं खाती है तो वह बिलकुल ही तालमेल नहीं बैठ सकता, कभी तालमेल नहीं बैठ सकता। उसके शरीर की एक गंध है जो उसे भीतर से आकर्षित करती है। और पर्टिकुलर गंध है, जो पर्टिकुलर लोगों को आकर्षित करती है, नहीं तो नहीं करती। यानी वह कितनी ही सुंदर हो, जरा सी गंध उसकी विपरीत हो, तो कभी तालमेल नहीं होगा, विरोध बना ही रहेगा, झंझट खड़ी ही रहेगी और आप कभी सोच भी नहीं पाएंगे कि उसके शरीर की गंध बाधा दे रही है। तो जैसे कि सौंदर्य बड़ी चीज है, उसमें गंध भी सम्मिलित थी, उसमें ध्वनि भी सम्मिलित थी, उसमें रंग भी सम्मिलित थे, उसमें सब सम्मिलित था। वह एक टोटल बात थी। आप आकर अगर पेंट भी कर लो और मैं आपसे कहूं कि झील पर जो संगीत अनुभव हुआ था, वह बजाओ। आप कहोगे, वह मैं नहीं कर सकता हूं। तब भी आप पेंट करके सिर्फ आंख से जो देखा गया था, वही पेंट कर पा रहे हो; कान से जो जाना गया था, वह आप नहीं कर पा रहे हो; नाक से जो जाना गया था, वह आप नहीं कर पा रहे हो। तो भी पूर्णता पूर्णता नहीं है।

तब फिर मेरा कहना ऐसा है कि अगर हम संपूर्णता के लिए रुकेंगे तो शायद कोई आदमी कभी पृथ्वी पर संपूर्ण नहीं रहा और न हो सकता है। असंभव है। और असंभव के बहुत भीतरी कारण हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। जैसे जिस आदमी की आंख रंगों को देखने लगेगी बहुत गहराई में, उस आदमी के कान धीमे-धीमे शक्ति खो देते हैं। इसलिए अंधों के पास कान की जो शक्ति होती है, आंख वालों के पास कभी नहीं होती। इसलिए अंधा जैसा संगीतज्ञ हो सकता है, आंख वाला कभी नहीं हो सकता। उसका कारण है कि भीतर शक्ति की सीमा है। अगर वह पूरी आंख से बहने लगती है तो दूसरी इंद्रियों से खींच लेती है; अगर पूरे कान से बहने लगती है तो दूसरी इंद्रियों से खींच लेती है।

तो अंधे के पास कान की ताकत सदा ज्यादा होती है, क्योंकि आंख की जो शक्ति बच गई है, वह क्या करे, वह कानों से बह जाती है। तो अगर कोई व्यक्ति संगीत में बहुत कुशल हो जाए तो कान तो ट्रेंड हो जाएगा, लेकिन आंखें मंदी हो जाएंगी, स्पर्श क्षीण हो जाएगा। और दिशाओं में वह एकदम सिकुड़ जाएगा।

शक्ति सीमित है और अनुभूति अनंत है। इसलिए सिर्फ परमात्मा को छोड़कर, जो कि सभी शक्ति का जोड़ है, कोई व्यक्ति कभी संपूर्ण नहीं होगा। हां, लेकिन एक-एक दिशा में पूर्णता पा लेने से वह परमात्मा में लीन हो जाता है और परमात्मा में लीनता पाने से वह समग्र में पूर्ण हो जाता है। वह बिलकुल दूसरी बात है।

इसे थोड़ा खयाल में लेना चाहिए। जैसे कोई नदी कभी पूर्ण नहीं होगी, लेकिन सागर में खोकर पूर्ण हो जाती है। नदी रहते नहीं होगी पूर्ण, क्योंकि उसके किनारे होंगे, तट होंगे। लेकिन सागर में होकर वह पूर्ण हो जाती है।

जब तक कोई व्यक्ति है, तब तक वह एक दिशा में ही पूर्ण हो सकता है, दो दिशा में हो सकता है, तीन दिशा में हो सकता है, लेकिन समस्त पूर्णताओं को नहीं पकड़ सकता। लेकिन एक दिशा में भी कोई पूर्ण हो जाए तो वह उस द्वार पर खड़ा हो जाता है, जहां से परमात्मा में प्रवेश संभव है–एक दिशा में भी पूर्ण हो जाए। यानी पूर्णता जो है वह किसी भी दिशा से लाई गई हो, परमात्मा के द्वार पर खड़ा कर देती है। और अगर वहां से वह अपने को छोड़ दे और खो जाए तो वह परमात्मा के साथ एक हो गया। उस अर्थ में वह अब संपूर्ण हो गया। लेकिन अब वह रहा ही नहीं। अब वह नदी रही नहीं, अब वह सागर ही हो गई है।

अनंत-अनंत पूर्णताओं की दृष्टि अगर हमारे खयाल में हो तो हम और बहुत सी बातें समझ सकेंगे। तब हम समझ सकेंगे कि सर्वज्ञ का क्या मतलब होगा। तब हम पागलपन में नहीं पड़ेंगे। तब हम इतना ही कहेंगे कि महावीर, स्वयं को जानने में जो भी जाना जा सकता था, वह सब जान लिए हैं। सर्वज्ञ का यह मतलब होगा। फिर यह मतलब नहीं होगा कि वह साइकिल का टायर फट जाए तो उसको जोड़ना भी जानते हैं। उसका यह मतलब नहीं होगा कि आदमी को टी.बी. हो जाए तो उसकी दवाई भी जानते हैं। सर्वज्ञ का यह मतलब नहीं होगा।

लेकिन महावीर को पकड़ने वालों ने सर्वज्ञ का कुछ ऐसा मतलब पकड़ लिया है कि जो भी जाना जा सकता है, वह सब वे जानते हैं। आइंस्टीन को भी वे जानते हैं, मोजार्ट को भी वे जानते हैं, बीथोवन को भी वे जानते हैं, सबको वे जानते हैं। यह बिलकुल फिजूल, गलत बात है।

सर्वज्ञ का इतना ही मतलब है कि जिस पूर्णता की एक दिशा को उन्होंने पकड़ा है, उसमें वे सर्वज्ञ हो गए हैं। आत्मज्ञान की दिशा में वे सर्वज्ञ हैं। जो भी आत्मज्ञान की दिशा में जाना जा सकता है, वह सब उन्होंने जान लिया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है, इसका यह मतलब नहीं है कि वे आपको कोई बीमारी है तो वह जानते हैं; भविष्य में क्या होगा, वह जानते हैं; कल क्या होगा, वह जानते हैं; कल क्या हुआ था, वह जानते हैं! इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है। इनसे कोई मतलब नहीं है।

और इस तरह बहुत तरह के लोग सर्वज्ञ हो सकते हैं, चूंकि मैंने कहा कि पूर्णताएं अनंत हैं, तो अनंत तरह के लोग सर्वज्ञ हो सकते हैं।

प्रश्न:

 

इसी तरह हमारे केवल-ज्ञान भी फलित पैदा हुआ। वह भी एक ही…।

 

सका हां, उसका मतलब ही इतना ही है। केवल-ज्ञान तो शब्द ही बहुत अदभुत है, हमें खयाल में नहीं आता। केवल-ज्ञान का मतलब है…केवल-ज्ञान का मतलब क्या होता है? उसका मतलब सिर्फ इतना होता है कि जहां ज्ञेय न रहा, जहां ज्ञाता न रहा, बस ज्ञान रह गया। जस्ट नोइंग। केवल-ज्ञान का मतलब है, जस्ट नोइंग। न कुछ जानने को शेष रहा, न कोई जानने वाला शेष रह गया। बस ज्ञान ही शेष रह गया। जानने की क्षमता ही सिर्फ शेष रह गई।

प्रश्न:

 

वह हर चीज की…?

हीं, बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं। वह हर चीज से हम जोड़ कर ही दिक्कत में पड़ जाते हैं। जानने की शुद्ध क्षमता शेष रह गई है उसमें। यह क्षमता पूर्ण है। पूर्ण इस अर्थ में नहीं कि वह सब जानता है, पूर्ण इस अर्थ में कि जैसे समझ लें। समझ लें कि एक आदमी है, वह गीत गाने की पूर्ण क्षमता को उपलब्ध हो गया है। इसका यह मतलब नहीं कि उसने सब गीत गाए, क्योंकि गीत अनंत हैं। इसका यह मतलब भी नहीं कि वह सब गीत गाएगा, क्योंकि गीत अनंत हैं। इसका यह मतलब नहीं कि इस वक्त वह गा रहा है। लेकिन गीत गाने की पूर्णता को उपलब्ध हो गया है।

उसका मतलब यह है कि अब वह जो भी गीत गाना चाहे, गा सकता है। लेकिन जब वह एक गीत गाएगा तब दूसरा गीत न गा पाएगा। तब एक गीत बांध लेगा उसको। जब तक वह कुछ नहीं गा रहा है, तब तक वह कोई भी गीत गा सकता है। सिर्फ क्षमता है यह। यानी केवल-ज्ञान जो है, वह जस्ट नोइंग–क्षमता है।

प्रश्न:

 

जान सब गया।

-न-न! जान सकता है।

प्रश्न:

 

जान सकता है!

हां, जानने की क्षमता उसकी शुद्ध निर्मल हो गई है, वह कुछ भी जान सकता है।

प्रश्न:

 

उसकी प्रकटता क्या है? बाहर के लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा?

 

हां, उसकी अपन पीछे बात करेंगे।

वह सिर्फ जानने की…जैसे कि आईना है। आईने का क्या मतलब है? उसके पास एक क्षमता है कि वह दर्पण हो सकता है। जरूरी नहीं है कि इस वक्त उसमें कोई छाया बन रही हो, किसी आदमी का चेहरा बन रहा हो, वह खाली पड़ा हो। लेकिन कोई भी चेहरा सामने आए तो जाना जा सकता है। दर्पण जाने जा सकने की क्षमता रखता है। वह उसकी पोटेंशियलिटी है। जरूरी नहीं है कि इस वक्त कोई उसके सामने खड़ा हो, वह जाने। हां, कोई भी खड़ा हो जाए तो वह जानेगा। लेकिन एक खड़ा हो जाए तो दूसरे को जानना मुश्किल हो जाएगा और दो खड़े हो जाएं तो तीसरे को जानना मुश्किल हो जाएगा। और दस आदमी उसको घेर लें तो पीछे करोड़ों की भीड़ हो तो उसको जानना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन इनमें से कोई भी आदमी उसके सामने खड़ा हो तो वह जान सकेगा।

केवल-ज्ञान का मतलब है ज्ञान की शुद्धता उपलब्ध हो गई है। ज्ञान नहीं, नालेज नहीं–नोइंग। समझ लेना चाहिए जो फर्क है। नालेज नहीं उपलब्ध हो गई है–नोइंग। हां, जानने की क्षमता उपलब्ध हो गई है। अब वह जिस दिशा में भी लगा देगा, उसी दिशा में पूर्णता को जान लेगा। हां, पूर्णता को जान लेगा, जिस दिशा में लगा देगा। लेकिन एक दिशा में लगाएगा, तो दूसरी दिशाओं से तत्काल वंचित हो जाएगा।

और मजा यह है कि शुद्ध ज्ञान की क्षमता में जीना इतना आनंदपूर्ण है कि फिर उसे कोई लगाता नहीं। यह जो मामला है न, शुद्ध दर्पण होना इतना आनंदपूर्ण है कि कौन प्रतिबिंब बनाए!

इसलिए केवल-ज्ञानी सब जानना छोड़ देता है। जानने की जैसे ही शुद्धता उपलब्ध होती है, जानना ही छोड़ देता है। क्योंकि अब सब जानना उसके जानने की क्षमता पर ऊपर छाएगा और उसके जानने की क्षमता को अशुद्ध करेगा, आवरण बनेगा।

तो अब यह बड़े मजे की बात है, केवल-ज्ञानी जो कि जान सकता है किसी भी चीज को, सब जानना छोड़ देता है। जानता ही नहीं फिर वह। फिर जानने की क्षमता में ही रम जाता है। वह इतना आनंदपूर्ण है कि कौन सी बाधा ले वह! जानने की क्षमता ही इतनी आनंदपूर्ण है कि वह क्यों जानने जाए किसी को? अज्ञान जानने जाता है और ज्ञान ठहर जाता है। अज्ञान जानने जाता है, क्योंकि अज्ञान में जिज्ञासा है कि जानूं। और जब ज्ञान की क्षमता उपलब्ध होती है तो ज्ञान ठहर जाता है, वह जानने जाता ही नहीं है, क्योंकि जानने का कोई सवाल भी नहीं रह जाता!

अज्ञान भटकाता है, यात्रा करवाता है। ज्ञान ठहरा देता है। अब यह मजे की बात है, अज्ञानी इसलिए जानते हुए मिल जाएंगे और केवल-ज्ञानी बिलकुल ही मौन हो जाएगा, जानता हुआ भी नहीं मालूम पड़ेगा। क्योंकि अज्ञानी चेष्टा कर रहा है निरंतर–यह जानूं, यह जानूं, यह जानूं।

तो यह केवल-ज्ञान की तो धारणा ही बहुत अदभुत है, लेकिन उसको इस तरह विकृत किया हुआ है जिसका कोई हिसाब नहीं। उसका हमने कुछ ऐसा मतलब निकाल लिया है कि जो सब जानता है! नहीं, जो सब जान सकता है! इन दोनों में बिलकुल भिन्नता है। और जो जान सकता है, वह जानेगा, यह जरूरी नहीं है। आमतौर से तो यही जरूरी है कि वह जानेगा ही नहीं। अब इस झंझट में ही नहीं पड़ेगा। अब वह झंझट में ही नहीं पड़ेगा।

इसलिए अगर मैं आपसे कहूं कि केवल-ज्ञानी सब जान सकता है और कुछ भी नहीं जानता है, तो आप इसमें विरोध मत समझना। सब जान सकता है और कुछ भी नहीं जानता है। अब वह किसी दिशा में जाता ही नहीं, वह चुप खड़ा हो जाता है।

यह खड़ा होना ही इतना आनंदपूर्ण है, इतना मुक्तिदायी है! और अगर वह किसी दिशा में गया तो परमात्मा में नहीं जा सकेगा, यह बात और समझ लेनी चाहिए। किसी भी दिशा में गया हुआ व्यक्ति परमात्मा में नहीं जा सकेगा, क्योंकि परमात्मा सब दिशाओं का जोड़ है। और एक दिशा में गया हुआ व्यक्ति शेष दिशाओं के विपरीत पड़ जाता है।

इसलिए जिस व्यक्ति को परिपूर्ण ज्ञान की क्षमता उपलब्ध होगी, वह तत्काल सब दिशाएं छोड़ देगा और परमात्मा में लीन हो जाएगा। परमात्मा का मतलब है, नो व्हेयरनेस। और दिशा का मतलब होता है, समव्हेयर। अगर किसी भी दिशा में जा रहे हैं तो कहीं जा रहे हैं। और परमात्मा का मतलब है कहीं नहीं जा रहे हैं, सब कहीं में लीन हो गए हैं। तो जो उस पूर्ण स्थिति पर पहुंचता है, जहां सिर्फ जानना ही शेष रह जाता है, वह एकदम डूब जाता है।

प्रश्न:

 

वह सर्वव्यापी हो गया?

हो ही गया, हो ही गया। जैसे कि एक बूंद सागर में गिरी और सर्वव्यापी हो गई, क्योंकि वह सागर से एक ही हो गई। और जब तक वह दिशा पकड़े रहता है, तब तक वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता।

जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाएंगे, वे नष्ट हो जाएंगे। जो अपने को खो देंगे, वे सब पा लेंगे। बचाओ मत अपने को, खो दो। लेकिन खो वही सकता है, जिसका अब कोई किनारा नहीं, किनारे खोने की हिम्मत होनी चाहिए। नदी यदि किनारा पकड़े रहे तो सागर में कैसे जाए? तो फिर डेल्टा पर खड़ी हो जाए, कि यह तो खोना हुआ जा रहा है, सब किनारा छूटा जा रहा है!

दिशाओं के तो किनारे होते हैं और परमात्मा जो है, वह डायमेंशनलेस, आयाम-शून्य है, इसलिए वहां कोई किनारा नहीं है। उतनी खोने की क्षमता–उस क्षमता का ही नाम केवल-ज्ञान है, जहां सिर्फ जानना शेष रह जाता है और आदमी डूब जाता है। फिर वह जानने की कोशिश में नहीं पड़ता।

यहां दो संभावनाएं हैं, या तो वह डूब जाए परमात्मा में, जो सामान्यतया होता है, या एक जीवन के लिए वह लौट आए और जहां पहुंचा है उस क्षमता की खबर दे जाए। उसी को मैं करुणा कह रहा हूं। और वह करुणा हो तो उसे अभिव्यक्ति की पूर्णता पानी पड़े। वह एक दूसरा उपाय करना पड़े उसे, क्योंकि अब उसे दूसरे से कहना है।

गूंगा भी जान सकता है सत्य को, लेकिन कह नहीं सकता। गूंगा भी प्रेम कर सकता है, लेकिन कह नहीं सकता। और गूंगे को अगर कहना हो अपनी प्रेयसी को कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तो वाणी सीखनी पड़े। प्रेम करने के लिए वाणी सीखने की जरूरत नहीं है। प्रेम करना एक और बात है। वह गूंगा भी कर सकता है प्रेम। गूंगा इशारों से कुछ बातें कर भी सकता है। लेकिन अगर उसे कहना हो, बताना हो, क्या जाना है उसने प्रेम में, तब फिर उसे और एक दूसरी तरह की पूर्णता पानी पड़े।

महावीर इस जन्म में उस दूसरी तरह की पूर्णता की साधना में लगे हैं।

उस पर रात अपन बात करेंगे कि वह साधना कैसी है।

फिर कल और बात करेंगे।


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समकक्षता का निर्णय—एक खतरनाक मूल्यांकन—(प्रवचन–5)

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समकक्षता का निर्णय—एक खतरनाक मूल्यांकन—(अध्याय—पांच)

1983 में, अमरीकी सरकार द्वारा भगवान श्री रजनीश के धार्मिक नेता न होने का निर्णय लिये जाने से सारी दुनियां के धार्मिक तथा अन्य पेशेवरों की ओर से विरोध का एक तूफान उठ खड़ा हुआ। प्रत्येक ईसाई अवधारणा (केथॅलिक, बेपिटस्ट, चर्च ऑफ इंग्लैण्‍ड, प्रेस्बिटेरियन, केकर लूथरन और ऑर्थाडॉक्स) के विद्वानों,यहूदी रबाइयों, झेन मंदिर के क्रियों, बौद्ध विद्वानों, और सारी दुनियां से धर्म के प्राध्यापकों ने इनके पक्ष में लिखा। ऐसा ही विज्ञान, औषधि, मनोविज्ञान, समाज—विज्ञान, व्यापार एवं कला—लोक की प्रमुख हस्तियों ने भी किया।

उनके संदेश का सार संभवत: सुप्रसिद्ध अमरीकी कवि, लेखक एवं फिल्म निर्माता जेम्स ब्रॉटन के इन शब्दों में सवोंत्तमरूपेण प्रगट हुआ है। उन्होंने लिखा: ” भगवान श्री रजनीश इस सदी के इन अंतिम दशकों के सर्वाधिक असाधारण व्यक्ति है। इतिहास एवं धार्मिक समझ में एक उर्वर नव अंतर्दृष्टि व प्रकाश लानेवाले वे असामान्य योग्यताशील शिक्षक एवं लेखक है। मुझे यकीन है कि आध्यात्मिक परम्परा में यहां एक मस्तिष्क है जिसमें बौद्धिक चमक है और एक लेखक की राजी कर लेनेवाली योग्यता है। ईसाई, बौद्ध, ताओ, सूफी और हिंदू शिक्षाओं, अय विधियों एवं उन सबके महत्व का एक नया बोध उनसे मुझे मिला है। यह भगवान की विशेष प्रतिभा है कि वे सभी प्रकार के अनुभवों की गहन समझ में जाने में लोगों की सहायता इस ढंग से करते है जो आज के समाज के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त, दोनों है। मैं उन्हें अपने इस काल—खण्‍ड की धार्मिक चेतना के लिए प्रमुख बल मानता हूं।’’

एक रोचक तथ्य जो इन पत्रों से प्रगट होता है वह यह कि उनके लेखक, विविध क्षेत्रों के पेशेवर, प्रत्येक भगवान को उनके अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ मानता है। मनोवैज्ञानिकों के उनके बारे में कहा, ” आज विश्व में मनोविज्ञान में सबसे निराले शिक्षक ”—डा.रुडॉल्फ वामसर, प्रोफेसर, मैक्स प्लैंक इन्हीप्यूट फॉर साइकोपैथालॉजी एण्‍ड साइकोथेरेपी, जर्मनी, चेयरमैन, सेवनटीन्थ कांग्रेस ऑफ एक्सपेरीमेन्टल साइकॉलॉजी; और— ‘‘एक असाधारणरूपेण प्रतिभाशाली मनोवैज्ञानिक’‘ —डा. जेम्स एस. गोर्डन, क्लिनिकल एसोसिएट प्रोफेसर, डिपार्टमेण्ट ऑफ साइकियाट्री एण्‍ड कम्प्रइनटी एण्‍ड फेमिली मेडिसिन, जार्जटाउन यूनिवर्सिटी मेडिकल स्कूल, वाशिंग्टन डीसी., यू.एस.ए.।

सामान्यत : सकीर्णमना धर्म—जगत से भी अपनी ऊंची प्रशंसाओं द्वारा भगवान को स्वीकृति देने में धार्मिक लोग एकमत थे। इस विरल उदारता के पीछे एक कारण यह हो सकता है कि भगवान कभी किसी एक अकेले धर्म को अपनाते नहीं देखे गये। पॉल एफनिटर, प्रोफेसर ऑफ थियालॉजी, झेवियर युइनवर्सिटी, सिनसिनाटी, यू.एस.ए. ने लिखा, ”भगवान श्री रजनीश। हिंदूइिज्म, बुद्धइज्य, ताओइज्य, जुडाइज्य और ईसाइयत सहित अनेकों धार्मिक दृष्टिकोणों के विद्वान हैं। उन्होंने न केवल विश्व के धर्मों का अध्ययन किया है बल्कि उन सब की आत्मा एवं आंतरिक सत्य को अनुभव करने एवं सम्प्रेषित करने में सफल हुए है। यद्यपि उनकी जड़ें पूरब मै बनी रहती है, वे किसी एक धर्म की दूसरे धर्मों पर प्रभुता की तलाश में नहीं है।’’ जो भी हो, ‘भगवान ने समस्त व्यवस्थित धर्मों पर जोरशोर से और अनम्य ढंग से हमले किए हैं। यह तथ्य इन अग्रलिखित प्रमाणपत्रों को, जो प्राय : सब के सब व्यवस्थित धर्मों के प्रतिनिधियों के हैं, और भी चौकानेवाला बना देता है।

तुरिन के आर्चिमेण्ड्राइट, ग्रेगोरिओ ने उनके बारे में कहा, ‘‘एक सद्गुरु जो स्वर्ण—युग का प्रारंभ कर रहा है।’’‘’ वे हमारे युग के महान धार्मिक सद्गुरु हैं, ”वेनरेबल पर्मानिण्ट कौंसिल ऑफ दि आर्थोडॉक्स चर्च, इटली के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा। औरों ने उनके वर्णन इस प्रकार किये: ‘‘इस शताब्दी में प्रगट हुए सर्वाधिक विरल व अत्यंत प्रतिभाशाली धर्मवेत्ता ” —होसेन गाकेन कालेज, टोकियो के प्रोफेसर काजूयोशी किनो, विगत तीस वर्षों से एक बौद्ध विद्वान; ” सभी कालों के सर्वाधिक विशिष्ट धार्मिक व्यक्तियों में एक ” —जेम्स आर. ऐजी, दस वर्षों से लूथरन पुरोहित—वर्ग के सदख; ” विश्व के महान जीवित शि क्षको में एक ” —डेनियल मट, पीएच .डी., प्रोफेसर ऑफ स्पाइक स्टडीज, पेजुएट थियॉलाजिकल यूइनयन, केलिफोर्निया; ” एक असामान्य योग्यताशील धार्मिक शिक्षक एवं आध्यात्मिक नेता ” —डा. हेन्स—जुगेंन पेशॅट, प्रोफेसर, हिस्ट्री ऑफ रिलीजन्स, यूनिवर्सिटी ऑफ मारबर्ग, जर्मनी; ” एक अद्वितीयरूपेण प्रतिभाशाली आध्यात्मिक शिक्षक ” —मारिस आरस्टीन, पीएच .डी., प्रोफेसर ऑफ सोशलॉजी, ब्रैडाइस यूनिवर्सिटी, मसाचुसेट्स (यू.एस.ए.);’‘‘’ इस शताब्दी के महान प्रकाश ” —रबाई जोसेफ एच गेल्बरमॅन, दि ट्री ऑफ लाइफ सिनागॉग, न्यूयार्क; ” इस काल के एक अतिशय विशिष्ट एवम् संबुद्ध धार्मिक नेता ” —रेवरेड फ्रैंक स्ट्रिब्रिग, धर्मपुरोहित, सैन्क्र्चुअरी ऑफ लाइट चर्च, टेक्साज़, (यू एस.ए.); ” विश्व— धर्मों के शिक्षक — दल में एक विरल बढ़ोतरी ” —डगलस वी. स्टीअर्स, टी. विस्टार ब्राउन, प्रोफेसर इमेरिटॅस ( अवकाशप्राप्त) ऑफ फिलासॅफी, हेवरफोर्ड कालेज, पेनसिलवानिया, (यू एस .ए.), दर्शनशास्त्र व धर्म पर एक दर्जन पुस्तकों के लेखक, और भूतपूर्व अध्यक्ष, अमेरिकन थिऑलाजिकल सोसायटी, तथा अध्यक्ष, फ्रेण्‍डस वर्ल्ड कमिटी—जोकि केकर्स की अंतर्राष्ट्रीय संस्था है।

कला—जगत से भगवान के लिए इस प्रकार प्रशंसाएं आयीं: ” असामान्य दूरदर्शिता के कलाकार’‘ —बूनो डेमाटिओ, जर्मन कलाकार एवम् ‘द साफ्टवेअर कल्वर इज कमिंग’ तथा ‘जेन्सीट्स डेर बुस्ते’ के लेखक; ‘‘एक निपुण कलाकार ” —पेरिन्धेरी भास्करन उन्नी, जर्मनी, फिल्मकार एवम् अभिनेता; ‘‘शब्दों के असामान्य कलाकार ” —सेमुअल स्क्पीरो, फिल्मकार, केन्स फिल्म महोत्सव में बांज लॉयन पुरस्कार के विजेता।

स्कूल ऑफ इण्टरनेशनल पालिटिक्स, एकॉनामिक्स एण्‍ड बिजनेस, अयामा गाकिन युनिवर्सिटी, टोकियो में इण्टरनेशनल बिजनेस के एक प्रोफेसर ने भगवान का वर्णन मात्र यूं किया— ‘‘सचमुच एक सार्वभौम प्रतिभा”।

विज्ञान—जगत से, डा.एम. डब्‍ल्यू. रान्सबर्ग, प्रोफेसर ऑफ जनरल मेडिसिन एण्‍ड सोसॅलाजी इन मेडिसिन, फ्राइए युइनवर्सिटी, बर्लिन ने भगवान का वर्णन इस प्रकार किया— ‘‘निसंदेह रूप से एक दार्शनिक एवम् वैज्ञानिक।’’ यूनिवर्सिटी ऑफ ओक्लहॉमा, यू.एस.ए. में मेकेनिकल इंजीनियरिग के एक प्रोफेसर तो भगवान का वर्णन करने में इतनी दूर तक चले गये कि इनके बारे में उन्होंने कहा, असंदिग्ध रूप से आज के अग्रणी जीवित जनरल सिस्टम्स इंजीनियर (महा—व्यवस्था अभियंत्री)।’’ उन प्रोफेसर, डारेल हाडेंन, पीएचडी. ने सिस्टम्प्र (व्यवस्था) —सिद्धांत को ऊर्जा घटनाओं की संबद्धिता बताया— ‘‘यहां दागा गया एक गोला सारी दुनियां में सुनायी देता है।’’ उन्होंने यह स्वीकार किया कि मेरे अभियांत्रिकी क्रिया—कलापों में एक भारतीय रहस्यदर्शी एवं धार्मिक नेता के लेखनों का उपयोग अजीब लग सकता है, किंतु उन्होंने कहा, ‘‘इतिहास साक्ष्य है कि समस्त अच्छी अभियांत्रिकी का जन्म उन लोगों से हुआ जिनके पास प्रकृति और भौतिक जगत की सम्बद्धिता की अंतर्दृष्टि थी। भगवान श्री रजनीश का अंतर—संबद्धिता का ज्ञान विचारों का एक उर्वर क्षेत्र है।’’

जैसा कि टेड एलशे, प्रोफेसर, पोलिटिकल साइंस, विलमेटे यूनिवर्सिटी, ओरेगॅन ने निष्कर्ष निकाला— ” भगवान श्री रजनीश स्पष्टत: विश्व के सर्वाधिक असाधारण लोगों में एक हैं।’’

ऐसे लोग जो अपनी आलोचनात्मक मनःशक्तियों का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किये गये हैं, उनके द्वारा ऐसी प्रशस्तियों का आधार क्या था? पत्रों से ही विविध उत्तर प्राप्त होते हैं। प्रोफैसर ओ.ए.बुशनेल, पीएचडी., इमेरिटॅस (सेवामुक्त) प्रोफेसर, मेडिकल माइक्रोबॉयलॉजी एउ ट्रापिकल मेडिसिन एण्‍ड हिस्ट्री ऑफ मेडिसिन, हवाई यूनिवर्सिटी ने व्याख्या की कि उन्होंने क्यों भगवान को ” आज के जीवित सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक एवं आध्यात्मिक नेता ” कहा। उन्होंने लिखा: ” उनके प्रवचन ईसाइयत, बुद्धिज्म, जुडाज्मि, इस्‍लाम और झेन के पहलुओं पर व्याख्या करते और उन्हें पुनरुज्जीवित करते है। उनकी पुस्तकें समकालीनों के लिए अस्तित्व का अर्थ समझाती हैं। उनके प्रवचन एवं विश्लेषण सुकरात, पाइथागोरस जैसे ग्रीक दार्शनिकों, आइन्टीन जैसे पाश्‍चात्‍य वैज्ञानिकों और पूरब कन्‍फ्यूशियस, लाओत्‍सू एवं गौतम बुद्ध की जैसी महान दार्शनिक परंपराओं को नया प्रकाश देते हैं।

”आधुनिक काल में, विशेषत: पाश्‍चात्‍य समाजों में, भौतिकवाद, जीवन की तेज रफ़तार, संबंधों के अस्थायित्व और व्यापक मुकदमेबाजी दैनिक जीवन के हिस्से बन गये है। पारमाण्विक ऊर्जा एवं बायोमेडिसिन जैसे क्षेत्रों में औद्योगिक विकास ने हमारे जीवन को सुखमय बनाया है, परंतु उन्होंने अप्रत्याशित समस्याएं भी निर्मित की हैं, जैसे, पारमाण्विक महाविनाश का भय, लोगों को मशीनों के सहारे जिलाए रखे जाना, आदि, और इस प्रकार चिंताओं को जन्म देकर हमारे रोजमर्रा जीवन को दुखमय भी बनाया है। ऐसे दुर्धर्ष समय में, भगवान श्री रजनीश की पुस्तकें जीवन में अर्थ और वर्तमान मनुष्य की दशा में एक तरोताजा परिप्रेक्ष्य लाती है। वे अध्यात्म जगत के यथार्थों के प्रति सजगता देते हैं, और व्यक्ति के मन को तुष्टि एवं शांति लाते हैं।’’

बुशनेल ने आगे कहा, ” भगवान श्री रजनीश ने साहित्य एवं विज्ञान को महत्वपूर्ण योगदान किया है और हम आनंदित हैं कि हमें उनका पता चला। उन्होंने हमारे जीवन और हमारे कृत्यों को गहनरूप से समृद्ध किया है, ठीक जैसे कि हमारे अन्य समकालीन लोगों के जीवन को भी।’’ मनोवैज्ञानिकों ने अपने जगत में भगवान के अद्वितीय योगदान का श्रेय उनके ‘‘बुद्धों का मनोविज्ञान’‘ अथवा ‘‘तीसरा मनोविज्ञान’‘ को दिया है। नाइजेल डीडब्‍ल्यू. आर्मिस्टीड, पीएचडी., ‘रिकन्सक्टिंग सोशल साइकियाट्री’ (सामाजिक मनोचिकित्सा का पुनर्निमाण) पुस्तक के लेखक और भूतपूर्व व्याख्याता, सामाजिक मनोचिकित्सा, यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड, यूके. ने लिखा: ” अपने धार्मिक प्रवचनों में, जो सब के सब पुस्तक रूप में छपे हैं, उन्होंने मानव—मन की क्रियाओं के बारे में अति गहनतर अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है बजाय किसी भी पेशेवर के जिन्हें अपने कार्यकाल में मैं अब तक जानता हूं। उन्हें पाश्‍चात्‍य मनोविज्ञान का अंतरंग ज्ञान है, चाहे वह मनोविश्लेषक धारा का हो, आचरणात्‍मक का, अथवा मानवीयात्मक का, और उन्होंने स्वयं अपनी धारा— ‘बुद्धों का मनोविज्ञान’ —प्रस्तुत की है, जो उपरोक्त सभी धाराओं का अतिक्रमण कर जाती है (देखें, विशेषत: — ‘दि डिसिप्लिन ऑफ ट्रांसेडेन्स’ चार भागों में, ‘दि बुक ऑफ दि बुक्स’ छ: भागों में, और ‘फिलासाफिया पेरेन्निस’ दो भागों में)। उनके सामने अपनी समस्याएं लानेवाले आगंतुकों एवं शिष्यों के साथ अपने व्यवहार में उन्होंने कार्यरत मनोवैज्ञानिक के रूप में असामान्य योग्यता का परिचय दिया है। ऐसे साक्षात्कारों के अंकन भी पुस्तक—रूप में प्रकाशित हैं, और वे इनकी मनोवैज्ञानिक अंतदृष्टि एवं चिकित्सा—निपुणता की गवाही देते हैं। इस क्षेत्र में इनकी योग्यता किसी भी ऐसे व्यक्तिं से अतिशय बढ़कर है जिनके सम्पर्क में मैं अपने बीस—वर्षीय मनोवैज्ञानिक—जगत से संबंध के दौरान आया हूं।’’

डॉ रुडोल्फ वार्मसर, प्रोफेसर, मैक्स प्लैंक इंस्टीच्‍यूट फॉर साइकोपैथालॉजी एण्ड साइकोथेरॉपी ने मनोविज्ञान को भगवान की देन की समता भौतिकी में आइन्‍स्‍टीन की देन से की है: ‘‘मनोविज्ञान के क्षेत्र में भगवान श्री रजनीश की शिक्षाएं न केवल आधुनिक वैज्ञानिक मनोविज्ञान के स्तर पर है, वरन् वे उससे भी आगे जाती है और विश्व में इस क्षेत्र मैं उपलब्ध किसी भी अन्य वस्तु को बहुत पीछे छोड़ देती है। न केवल वे वर्तमान वैज्ञानिक मनोविज्ञान की सारी धाराओं की पारंगत समझ रखते हैं—उदाहरणार्थ, व्यवहारवाद, मनोविश्लेषण, गेस्टाल्ट मनोविज्ञान, जिन सबको वे एक व्यापक दृष्टि में ग्रहण करते चलते हैं, बल्कि उन्होंने एक नये ढंग के मनोविज्ञान की स्थापना की है, जिसे ‘तीसरा मनोविज्ञान (दि थर्ड साइकोलॉजी) ‘ कहा जाता है। भगवान श्री रजनीश की शिक्षाओं से वैज्ञानिक मनोविज्ञान जिस प्रगति एवं परिवर्तन से गुजरा है उसे समझने के लिए उसकी तुलना केवल भौतिकी की उस प्रगति एवं परिवर्तन से की जा सकती है जिसमें से वह आइन्‍स्‍टीन के कार्यों से गुजरी, अथवा ‘वैज्ञानिक मापन’ के सिद्धान्त में जो बदलाहट वेर्नर हीज़नबर्ग के ‘अनियतत्ववाद के नियम’ के आविष्कार द्वारा हुई। दूसरी ओर, फ्राइए युनिवर्सिटी, बर्लिन के डा. रोन्सबर्ग ने भगवान और उनके कार्य की तुलना मानवविद्या—सिद्धात के संस्थापक रुडोल्फ स्टीनर से की।

गॉय एल. क्लैक्टन, एमए. (कैम्‍ब्रिज), डी.फिल ( ऑक्सन), व्याख्याता, शिक्षा—मनोविज्ञान, यूनिवर्सिटी ऑफ लंडन ने भगवान को ‘‘मनोविज्ञान, मनस्विकित्सा, दर्शनशास्त्र और धर्म के चौराहे पर उपस्थित अनुभव और वाद—विवाद के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सफल शिक्षक ” माना। ‘दॅ लिटिल एड. बुक’, ‘कॅग्रिटिव साइकालॉजी: न्यू डाइरेक्सन्स’, ‘होल्ली हूयूमनः वेस्टर्न एण्‍ड ईस्टर्न विजन्स ऑफ दि सेल्फ एण्‍ड इट्स पफेंक्सन्स’, और ‘लिव एण्ड लर्न: गोथ एण्‍ड चेन्ज इन एवरीडे लाइफ ‘ पुस्तकों के लेखक मि. फ्लैक्सन ने समझाया: ” अपने ध्वनिमुद्रित प्रवचनों, अपनी पुस्तकों और सर्वाधिक महत्वपूर्णरूपेण अपनी प्रायोगिक प्रणालियों द्वारा—जो इन्होंने प्राचीन ध्यान—विधियों एवं आधुनिक मनस्विकित्सा विधियों का संयोग करके तैयार की हैं और जो इनके मार्गदर्शन में संचालित की जाती हैं— अपने पास एकत्र हुए लोगों के भीतर प्रतिभा, करुणा, स्पष्टता एवं शक्ति के संवर्द्धन में इन्हें सफलता मिली है, बहुधा विस्मयजनक सीमा तक। इनका आकर्षण, इनकी अखण्डता और आधुनिक मनुष्य के मनोविज्ञान की इनकी पकड़—सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक, दोनों—इन्हें ‘ आध्यात्मिक ‘ शिक्षकों के बीच बेजोड़ बना देते हैं।’’

बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने असम्बद्धता की आधुनिक समस्या पर भगवान के कारगर होने के उद्धरण दिये हैं; जे. आर. न्यूब्रो, पीएचडी., प्रोफेसर, मनोविज्ञान एवं शिक्षाशास्त्र, वैडरबिल्ट यूनिवर्सिटी, यू.एस.ए. ने ध्यान दिलाया कि ” भगवान श्री रजनीश का काम अमरीका के पुनरुज्जीवन के लिए विचारों एवं प्रेरणा का महत्वपूर्ण स्रोत है। समाज के तल पर, हम समाज के भाव को बहुत कुछ खो चुके है। यथेष्ट कलह है, जिसका कोई कारगर हल नहीं हो सका है, परिणामत: बिखरे समूह हैं जो एकसाथ निपुणता से कुछ भी करने में असमर्थ है। उच्च नैतिक मूल्यों का महत्व नष्ट हो चुका है। मुझे रजनीश का काम इन सभी मुद्दों पर योगदान करता दिखता

परामर्शक फ्राइडमॅन हवोर्का, आस्ट्रेलियन युवा—कार्यकर्ता एवं भूतपूर्व बेप्‍टिस्‍ट पुरोहित ने

लिखा: ”भगवान श्री रजनीश की शिक्षाओं की आत्यंतिक अद्वितीयता उस तथ्‍य तथा ढंग में है जिसमें कि वे पाश्‍चात्‍य दैनंदिन जीवन में कालांतर से खो गये ध्यान के आयाम व अध्‍यात्‍मिकता को वापस लाते है, वे पाश्‍चात्‍य वैज्ञानिक बुद्धि को लेते हैं और उसे अध्यात्म के प्रति खोलने में सफलता प्राप्त करते हैं। भगवान श्री रजनीश जवाब है आधुनिक तनावजन्य पागलपन के, जिसके बारे में विक्टर ई. फ्रेन्क्रेल ने कहा था— ‘निष्प्राण वैज्ञानिक भौतिकवादी जगत मै निराशोन्मत्तता पूर्वक और व्यर्थ रूप से मानवता का अर्थ खोजता आदमी’।’’

जॉन एच. कुक, पीएचडी., रीडर, मनोविज्ञान, यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टॅल, यू.के. ने यह देखते हुए कि भगवान ने ‘‘विशिष्ट एवं मौलिक गुणों वाली’‘ अनेकानेक धार्मिक पुस्तकें लिखी है, कहा: ‘‘वर्तमान समय में बहुत से व्यक्ति जो असंबद्धता महसूस करते है उसका कारगर उपचार प्रदान करने हेतु वे ( भगवान) अनेक भारतीय परम्पराओं से सामग्री लेते है।’’

एक आस्ट्रेलियन मनोचिकित्सक डा.जॉन डब्‍लू हेरिसन, ‘दि साइकालाजिकल बेसिस ऑफ फिजिकल डिसीज’ के लेखक ने लिखा कि रजनीश की पुस्तकों को उन्होंने ‘‘शरीर और मन के बीच संबंधों—जो इस काम में नींव का पत्थर है—की समझ में सर्वाग्रणी पाया है।’’ उन्होंने आगे लिखा कि वे ‘‘मानवी संबंधों और व्यक्तिगत तोष के क्षेत्र—दो क्षेत्र जो कि आगामी दशक में शारीरिक बीमारी के कारण के रूप में सर्वाधिक खोजे जाएंगे—में भगवान श्री रजनीश को एक महान विद्वान मानते है।’’

प्रो. रॉबर्ट मिशेल मार्च ने इस प्रकार कहा, ”( भगवान ने) अंतर्सांस्कृतिक—सम्पेषण एवम् मानवीय उत्थान की विशिष्ट समस्याओं पर नया प्रकाश डाला है।’’ केरोलिन क्रेन, दिवंगत एरिक बर्न की सहयोगी और डा. रिकादों ज़ेरबत्तो, प्रोफेसर, एडोलसेंट सॉइकियॉट्री (किशोर—मनस्विकित्सा), सियना युनिवर्सिटी, उपाध्यक्ष, इटालियन एसोसिएशन फॉर हूयूमनिस्टिक साइकालॉजी, और इटालियन स्वास्थ्य मंत्रालय में ड्रग—एब्यूज पर परामर्शक, जैसे मनोवैज्ञानिकों ने इस मूल्यांकन से सहमति व्यक्त की।

डालार्स.ए. हेनरिक्सेन, प्रोफेसर, मनोविज्ञान एवं सम्प्रेषण, ऑलबोर्ग यूनिवर्सिटी, डेनमार्क ने सारे मनोवैज्ञानिकों के लिए यह निष्कर्ष निकाला: ‘‘दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान और धर्म के समस्त समकालीन शिक्षकों की तुलना में भगवान श्री रजनीश मानव—जीवन पर सर्वाधिक सम्र्पर्ण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सर्वाधिक संतोषजनक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। मानवी—समझ और मानवी विकास के लिए उनका योगदान ठीक वही है जिसकी आज दुनियां को सख्त जरूरत है।’’ कला— क्षेत्र से पत्र—लेखकों ने उनके क्षेत्र में भगवान के योगदान के बारे में ऐसा ही महसूस किया। दो डिमाटिओ ने लिखा: ‘‘मैं उनको केवल एक आध्यात्मिक शिक्षक की भांति ही नहीं देखता वरन् एक असामान्य दूरदर्शिता के कलाकार के रूप में भी… और हमारे जीवनों में उस कुछ और विराट, कुछ और सौंदर्यमय की दृष्टि—अस्तित्व का यह ऐसा स्वाद जिसे प्रत्येक महान

कलाकार अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है, और जिसे मानवता को प्रत्येक के लिए जरूरत है—से विहीन कला अपने—आप में क्या होगी।’’

केन अदम्स, सीनियर लेक्‍चर इन स्कॅल्पचर, सेंट मार्टिन्स कालेज ऑफ आर्ट, लंदन—स्व सुप्रसिद्ध मूर्तिकार जिनकी कृतियां रॉयल अकादमी में प्रदर्शित हुईं और यूके., यू.एस.ए., कनाडा और हालैण्ड के संग्रहालयों में है—ने व्याख्या की कि क्यों उन्होंने भगवान को ‘‘हम सब शेष लोगों के लिए एक देन’‘ बताया। उन्होंने कहा, ‘‘रजनीश ने तैयार किया है बहुत सारे लोगों को उनकी वास्तविक मानवीयता का स्मरण वापस लाने का उपहार, जो उनकी सृजनात्मकता का स्रोत है, फिर भले ही वह अलग—अलग व्यवस्थाओं में कितने ही अलग—अलग प्रकार से अभिव्यक्ति क्यों न पाती हो। ‘मौलिकता मूल पर लौटना है। ‘ यही कारण है कि इतने सारे सृजनात्मक लोग इनके पास पहुंच गये हैं, विज्ञान और कला, दोनों के। रजनीश, ” उन्होंने लिखा, ‘‘विज्ञान और कला के विभाजन का सुंदर ढंग से अतिक्रमण कर जाते हैं। वे एक कठोरता पूर्वक सतर्क मनोवैज्ञानिक हैं, जिसके पास हृदय कवि का है। मनस्चिकित्सा विधियों का उनका शान विश्वकोश—सदृश है, और उसका उपयोग अधिक कर्मठ, उद्यमशील जीवन के जन्म—हित किया जाता है।’’

जापानी आर्ट्स कमेडेशन एसोसिएशन के अकीको हायूगा ने, जो ‘प्रिमिटिव माइड, ‘‘पॉप कल्युरालॉजी’, और ‘नेचुरल रेवॅकान ऑफ सेक्स’ सहित 11 पुस्तकों के लेखक हैं, एक सच्चे झेन कवि की गढ़ संक्षिप्तता में लिखा: ” भगवान श्री रजनीश का अस्तित्व एक महान अर्थ रखता है। कला के लिए उनका संदेश है कि कला और धर्म एक हैं। हमें इस आधार पर वापस लौटना होगा।’’

पत्रों ने विभिन्न कलाओं पर भगवान के प्रभाव को प्रगट किया। उदाहरणार्थ : ‘‘समकालीन संगीत—चिंतन में संगीत के प्रति भगवान के विचार गहनतम एवं सर्वाधिक प्रेरणादायी है। उन विचारों ने सारी दुनियां में सैकड़ो संगीतज्ञों को प्रभावित किया है।’’ —लिखा प्रोफेसर एच.सी. जोशिम—एर्न्स बेरेड ने, जो 21 पुस्तकों के जर्मन लेखक हैं, और टी.वी.एवम् फिल्म निर्माता हैं। इन्होंने आगे कहा, ”अपने निजी लेखन द्वारा मैंने बारम्बार भगवान के उस अधिकार का अनुभव किया है जो वे दर्शन एवं धर्म से लेकर कला एवं संगीत तथा आधुनिक जीवन—शैली तक दर्जनों क्षेत्रों में रखते है। इनमें से अधिकांश विषयों पर भगवान श्री रजनीश को उद्धृत किये बिना शायद ही अब कुछ लिखा जाना संभव रह गया है।’’

रंगमंच क्षेत्र से, रेनर आटेंकेल्‍स, वियना के सुप्रसिद्ध अभिनेता एवं निर्देशक, मैक्स राइनहार्ड के ‘थियेटर इन डेर जोसेफ्स्टाट्र’ के सदस्य, ने लिखा, ‘‘मैंने भारत में उन्हें रंगमंच के विषय में बोलते सुना। यह उस विषय पर सर्वाधिक गहन एवं अंतर्दृष्टिपूर्ण था, जैसा मैने पहले कभी न सुना था, जैसे नये आयाम खुल रहे थे, और गौर करने के लिए नये कोण।’’ वारेन राबर्ट्सन, निर्देशक, वारेन राबर्ट्सन थियेटर वर्कशाप, न्यूयार्क, संस्थापक एवं कलात्मक निर्देशक, एक्टर्स रिपर्टरी थियेटर, न्यूयार्क, तथा ‘फ्री टू एक्ट’ के लेखक, ने लिखा कि जब ब्रिटिश अभिनेता टेरेन्स स्टेम्प द्वारा भगवान की पुस्तकें मेरे ध्यान में लायी गयीं, तो ‘‘मेरे लिए भगवान के ज्ञान की गहराई तथा काव्यात्मक अंतर्दृष्टि का प्रभाव विचलित कर देनेवाला था। वे वास्तविक विरल एवं असामान्य व्यक्ति हैं। कलाओं और विज्ञानों में उनकी अंतर्दृष्टिया इतनी तरोताजा, मौलिक एवं मूल्यवान हैं।’’

हालीवुड के फिल्मी सितारे जेम्स कोबर्न ने लिखा : ‘‘एक अभिनेता के रूप में और एक व्यक्ति कै रूप में, मैं अपने समय की महान प्रतिभाओं से प्रेरणा खोजता रहता हूं। 10 वर्ष पहले जब मैं ‘भारत में भ्रमण कर रहा था, उस समय मैं भगवान श्री रजनीश की शिक्षाओं के सम्पर्क में आया। मैंने तुरंत समझ लिया था कि वे एक विश्व—शिक्षक थे। उनके अविश्वसनीय ध्वनिमुद्रित प्रवचनों ने मुझे (तथा लाखों—लाखों औरों को) आत्म—विकास के मार्ग पर प्रेरित किया है। आज दिन तक उनके शब्द और उनका कार्य मेरे भीतर बसे हुए हैं। उनकी यहां उपस्थिति ऐसे है जैसे एक विशाल घंटा बज रहा हो.. .जागो, जागो, जागो! ”

अमरीकी पुरस्कार—विजेता जेफ गोरमैन ने लिखा कि मेरे लिए ” ( भगवान के) सार्वभौम सत्य और बुद्धिमत्‍ता के वचनों की और जिस काव्यात्मक ढंग से वे स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं, उसकी, तालियां बजाकर प्रशंसा करने के सिवा अन्य कोई चारा नहीं।’’ उन्होंने आगे कहा कि उनकी राय में, भगवान की ‘‘योग्यताएं एक धर्मज्ञ एवं कलाकार के रूप में असाधारण है।’’ दूसरे लेखकों: डेनमार्क के पुरस्कार विजयी लेखक पेटे फिस, जापान से मसानोरी ओए तथा मोतोहिको खुमा, फ्रेन्व—इतालवी उपन्यासकार जीन जोसीपोवीसी, ब्राजील की लेखिका रोज मेरी मुरासे, और सातवें दशक की संस्कृति में झेन को लोकप्रिय बनानेवाले अमरीकी लेखक पॉल रेप्स ने अपनी—अपनी प्रशस्तिया जोड़ी।

कलाकार जैक डब्‍ल्यू. बर्ह्नम ने उनके काम पर भगवान के ‘‘रचनात्मक प्रभाव’‘ का उल्लेख किया। वे स्वयं नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी, यू.एस.ए. में कला के प्रोफेसर है और उन्होंने पाया कि भगवान ‘‘एक महान एवं बहुफलदायक शिक्षक हैं, ऐसे जिनका कला पर प्रभाव आगामी दशकों मैं धीरे— धीरे महसूस किया जाएगा।’’

दूसरे पत्र—लेखकों ने कहा कि वे भगवान को महत्वपूर्ण उनके उस ढंग के लिए मानते हैं जिसके द्वारा उन्होंने पूवीर्य एवम् पाश्‍चात्‍य दर्शनों एवं संस्कृतियों को जोड दिया है। ब्राजील की सर्वाधिक बिकनेवाली लेखिका रोज़ मेरी मुरासे ने महसूस किया कि ‘‘पाश्‍चात्‍य एवं पूर्वीय संस्कृतियों का एकीकरण एकमात्र जरूरी घटक है मनुष्य जाति को और बडी महाविपत्तियो द्वारा स्वयं को विनष्ट करने से बचाने को। रजनीश’‘, उन्होंने कहा, ‘‘ऐसे एकीकरण के लिए अनिवार्य हैं।’’ फेलीसीतस डी. गुडमॅन, पीएचडी., डाइरेक्टर, कुयामुंक इन्द्वीप्यूट, यू.एस.ए., एश्रोपोलॉजी न्व लिंग्विस्टिक्स (मानव—विज्ञान और भाषा—विज्ञान) में लेखक तथा भूतपूर्व युइनवर्सिटी प्रोफेसर ने भी भगवान द्वारा ‘‘पूर्वीय ध्यानमय ढंग और पाश्‍चात्‍य मनोवैज्ञानिक विधियों के सफल संश्लेषण’‘ के सृजन की प्रशंसा की।

इतालवी लेखक, क्लाडियो लेम्पेरेली, ने समझाया कि ‘‘रजनीश जानते है कि आधुनिक विश्व में किसी प्रकार के विभाजन और सीमाएं आगे और अधिक नहीं चल सकते, और कि भविष्य केवल एक सरीखी संस्कृति स्थापित कर देगा। इसलिए वे सारे मार्गों पर प्रत्येक में उसी एक सार्वभौम का अन्वेषण करते हुए चलते है: चाहे वह सूफीवाद हो, वेदांत, योग, झेन, तंत्र, बौद्धधर्म, हसीदधर्म हो, ताओवाद हो, अप्रामाणिक ग्रंथ हों, गुर्जिएफ, पीक दार्शनिक, पाश्‍चात्‍य रहस्यदर्शी हों अथवा आधुनिक मनस्विकित्सक हों।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘सत्य प्रत्येक द्वारा खोजे जाने को उपलब्ध है, किंतु आज कौन उपनिषदों अथवा बौद्ध सूत्रों को पढ़ेगा, और हजारों आबन्धों और चित्तविक्षेपों के बीच कौन उसके लिए समय निकाल सकेगा? रजनीश ”, उन्होंने कहा, ” आज के दैनंदिन जीवन से उदाहरण देते हुए और स्पष्ट एवं सरल धारणाओं का उपयोग करते हुए, इन प्राचीन सत्यों को आधुनिक भाषा में समझाने में समर्थ है। उनके वक्तृत्व की स्पष्टता, उनके चुटकुलों, मजाक और कहानियों का शइक्रया है कि उन्होंने इन सारे मार्गों के पारम्परिक रूप से रूखे एवं वायवी ग्रंथों को सबके लिए सरलता से बोधगम्य बना दिया है। इस प्रकार, ” उन्होंने अंत में कहा, ‘‘रजनीश का कार्य मूलभूत महत्व का है।’’

फ्रांसीसी फिल्म निर्देशक, अभिनेता एवंम् लेखक, अलेक्लेंड्रो जोडोरावस्की सहमत थे: ” भगवान श्री रजनीश एक व्यापक संस्कृति के व्यक्ति है, ” उन्होंने कहा, ‘‘दर्शन एवम् पूर्वीय धर्मों—जैसे जापान, चीन, भारत तथा मध्य—पूर्व के—में उनके स्पष्ट विचार विशेषत: पाश्‍चात्‍य जिज्ञासुओं के लिए अमूल्य है जिनकी ऐसे स्रोतों में सरलता से पहुंच नहीं है।’’

इसी मिज़ाज में अन्य लेखकों ने भगवान की सर्व—आच्छादी जीवनदृष्टि का जिक्र किया: ‘‘इसके पहले कभी मै ऐसे किसी व्यक्ति के संपर्क में नहीं आया था जिसके पास कला, विज्ञान, मानवीय मनोविज्ञान और धार्मिकता को एक में समेटती हुई सुसंगत एवम् विशाल सृजनात्मक दृष्टि हो’‘ —स्विस भौतिक—वैज्ञानिक एवम् लेखक डॉ एर्नाल्ड श्लेगर, पीएचडी. ने लिखा। एक दूसरे वैज्ञानिक, उग्वस्टिन तुइझलिन, बेलोरसियन एकाडमी ऑफ साइंसेज़, मिञ्ज, यू.एस.एस.आर. से भौतिकी एवं गणित में पीएचडी., सम्प्रति प्रोफेसर ऑफ कम्प्यूटर साइंस, दि सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयार्क, इस बात से सहमत थे।

समाज—वैज्ञानिकों ने अपने क्षेत्र व्यवहार—विज्ञान में भगवान के योगदान की चर्चा की: ” भगवान श्री रजनीश दर्शन एवम् धर्म के अध्ययन व व्याख्या में, और व्यक्तिगत सामंजस्य, सृजनात्मकता, और सामाजिक संगठन की समस्याओं पर व्यवहार—विज्ञान के सिद्धांतों के प्रयोग में वास्तविक असामान्य योग्यता के व्यक्ति हैं। भगवान के कार्य का एक महत्वपूर्ण अंश आत्मज्ञान, उसकी उपलब्धि, और दूसरों पर उसके असर से संबंध रखता है। मैं उन्हें इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण आवाज मानता हूं वे वास्तव में अपने कार्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय रूप से विख्यात है’‘ —लिखा रूफस पी. ब्राउनिंग, पीएचडी., प्रोफेसर, राजनीतिशास्त्र, सनफ्रान्सिस्को स्‍टेट यूनिवर्सिटी ने।

मारिस आर. स्टीन, पीएचडी., प्रोफेसर, सोसलॉजी, ब्राडाइस यूनिवर्सिटी, मौसाचुसेट्स (यू.एस.ए) ने लिखा : भगवान ने धर्मों की सामाजिकी, सामाजिक मनचिकित्‍सा और समुदाय—सामाजिकी के क्षेत्रों में प्रतिभाशाली एवं मौलिक साज—सामान प्रस्तुत किया है। विश्‍व के धर्मों के चिरसम्मत ग्रंथों पर उनकी व्याख्याएं अपने— आप में एक विशिष्टता है, जहां तक इन प्राचीन कृतियों की समसामयिक प्रासंगिकता दिखाने की बात है। उनका अपने शिष्यों पर कार्य जैसा कि दर्शन डायरीज में अंकित है, वह इस मात्रा में मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि का परिचय देता है जिस पर कोई भी पाश्‍चात्‍य मनोवैज्ञानिक गर्व अनुभव करेगा। ध्यान—विधियां जो उन्होंने आविष्कृत तो है उनमें रेचन और ध्यान का ऐसा संयोजन है जो हृदय और बुद्धि दोनों को खोलता है।’’

डा. मूली ब्रेक्स, पीएचडी., समाज—विज्ञान, दर्शनशास्त्र एवम् शिक्षाशास्त्र के व्याख्याता, जोहन वोल्फगंग गेटे यूनइवर्सिटी ऑफ फ्रैकफुर्ट ने इसे (?दूसरे ढंग से कहा।’’मुझे पका है, ” उन्होंन लिखा, ”कि इस धार्मिक सद्गुरु की शिक्षाएं और प्रायोगिक मार्गदर्शन जो वे अपने शिष्यों और जो कोई भी आज उसके लिए तैयार हो को देते हैं, वह हमारे युग के एक व्यक्ति का सर्वाधिक गहरा योगदान है इस प्रश्‍न के लिए कि हम कैसे शांति और स्वतंत्रता में अपने जीवन को उत्कृष्ट बना सकते हैं।’’

हरमन वोह्ल, पोलिस कमिश्रर, हेम्बर्ग (प.जर्मनी) ने पाया कि भगवान की शिक्षाओं का ” मेरे जीवन और व्यवसाय पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा है, जो कि, ”उन्होंने कहा, ”अब मनुष्य के पति एक विधायक दृष्टि से बहुत ज्यादा जोर से प्रभावित है।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘एक दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक के रूप में भगवान की असामान्य योग्यताएं मानवीय व्यवहार से संबंधित अनेक क्षेत्रों में अर्थपूर्ण मान्यताएं उपलब्ध करेंगी।’’

डेविड के.ह्वीटन, पीएचडी., प्रोफेसर ऑफ क्रिमिनल जस्टिस, टेन्नीज स्टेट यूनिवर्सिटी ( यू.एस.ए.) ने भी यह निष्कर्ष निकालते हुए सामाजिक व्यावहारिक विज्ञानों में भगवान के योगदान को स्वीकार किया कि ‘‘उनकी जानकारियों के विस्तार को मैं प्रतिभावान स्तर की पाता हूं।

धार्मिक पेशेवरों द्वारा उनके द्वारा की गयी भगवान की प्रशंसा के लिए दिये गए कारण उतने ही। विविध थे जितने कि उनके लेखकों के धर्म। कुछ लोग उनकी जीसस पर दी गयी शिक्षाओं से आकर्षित थे: ‘‘जीसस की शिक्षाओं की उनकी पकड़ और बोध असाधारण है और पाश्‍चात्‍य भौतिकतावादी ईसाइयत के पुरोहितों और जनसामान्य, दोनों को ही उसकी तेज जरूरत है,” —लिखा रेवरेंड फ्रैंक स्ट्रिल्लिंग ने। बीस वर्षों से एंग्लिकन पुरोहित (प्रीस्ट) रेवरेड फ्रेड्ररिक पार्टिंग्टन ने लिखा: ” भगवान की अंतर्दृष्टि एवं समझ के फैलाव से मैं गहराई से प्रभावित हूं। आधुनिक समाज के मनोवैज्ञानिक दबावों का उनका विश्लेषण खबर करता है गहन मनोविज्ञान और वर्तमान अस्तित्ववादी विचारधारा पर उनकी पकड़ की। फिर भी इन अति दुरूह विषयों पर

उनकी शिक्षा बहुत सरलता और संवेदनशीलता से संयुक्त है। इस सूत्र के सहारे आगे बढ़ने पर, उनकी मौलिकता खासकर इस बात में प्रगट है कि वे अपने समुदाय में आत्‍म—जागरण और ध्यान की पूर्वीय विधियों के साथ—साथ पाश्‍चात्‍य मनस्विकित्सा के सर्वश्रेष्ठ ढंगों का उपयोग करते हैं। इसका परिणाम है, मेरी समझ से, व्यक्ति की हमारी समझ में एक महान समृद्धि, और व्यक्ति के घावों का भर उठना। धर्म—वैज्ञानिक तल पर मैं उन्हें उतना ही रोमांचक पाता हूं। वे हमें यहां पश्‍चिम में पूर्वीय आध्यात्मिक खजाने प्रदान करते हैं, और साथ ही जीसस के वचनों पर उनकी कृतियां उनकी सम्पूर्णतम एवम् सर्वाधिक उत्कृष्ट रचनाएं हैं। पर उनसे एक सहक्रिया भी संचालित हो रही है। वे अपने मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक एवम् आध्यात्मिक भागों के जोड़ मात्र से कुछ अधिक हैं। उनसे प्रेम और सृजन की एक ऊर्जा प्रवाहित होती है जो बहुत से लोगों को जीवन का, कर्म का और पूजा का नया अर्थ खोज लेने की सामर्थ्य दे रही है।’’

दूसरे उनकी बौद्ध धर्म पर शिक्षाओं से आकर्षित थे। जापान के सर्वाधिक जाने—माने बौद्ध विद्वान, प्रोफेसर काजूयोशी कीनो ने लिखा: ‘‘यह सद्गुरु इस शताब्दी में प्रगट होनेवाला विरलतम व सर्वाधिक प्रतिभाशाली धर्मज्ञ है। बौद्ध धर्म पर उनकी कृतियां प्रेरणाओं और मौलिक विचारों से ओतप्रोत हैं। बौद्धवाद के विशेषज्ञ के रूप में, बहुत बार मैं उनकी मौलिक एवं सृजनात्मक व्याख्याओं से और उनकी अद्वितीय धार्मिकता से चकित हुआ हूं। उनकी व्याख्याएं बौद्धवाद के सत्यों से आकण्ड आपूरित हैं। जापान में मौजूद विशिष्ट मठवासी साधु भी व्याख्या के इस तल तक नहीं पहुंच सकते।’’

आर.सी. गोडोंन—मेकुचान, पीएचडी., व्याख्याता, अमेरिकन रिलीजियस हिस्ट्री, यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया ने तंत्र—योग पर भगवान की शिक्षाओं का संदर्भ दिया: ‘‘किसी भी मानदण्‍ड से भगवान श्री रजनीश आज अमरीका में सर्वाधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक शिक्षक हैं। उन्होंने आत्म—रूपांतरण के उपाय तैयार किये हैं जो उतने ही उत्तम हैं जितने विविध। उनकी 2० ऐसी पुस्तकें प्रकाशित हैं जो तंत्र—योग के प्राचीन विवेक को उभारती और व्याख्यायित करती हैं।’’

जापानी जेन संतों ने अपने दर्शन की ही सरलता में लिखा: ‘‘मैं भगवान श्री रजनीश का धन्यवाद करता हूं जिन्होंने मेरे लिए यह संभव बनाया कि मैं पारम्पंरिक जेन जीवन को समग्ररूपेण स्वीकार कर सकूं ” —सिकोजेजी जेन टेम्पल, कम्योका के अधिपति शिंकाई टनाका ने कहा।’’ भगवान श्री रजनीश रूपी आश्रर्य से मैं गहनरूपेण हिल गया हूं ‘ —काउ सुगावारा, मुख्य पुरोहित, गोसीजी टेम्पल, मियागी। रेवरेड रेउहो यमादा, मुख्य पुरोहित, चोशीजी (जेन) टेम्पल, बेपु ने लिखा: ” आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में रजनीश बहुत से लोगों को मूल्यवान योगदान करते रहे हैं। विशेषत: महत्वपूर्ण रहा है बहुत से युवा लोगों को ध्यान की आत्मा से परिचित कराने का विलक्षण कार्य जो वे अब तक कर चुके हैं। मिस्टर रजनीश की अनेकानेक विलक्षण उपलब्धियों में से एक है पारम्पंरिक अनुभव और जान के विस्तृत फैलाव का सफलतापूर्व संश्लेषण करने की उनकी क्षमता।’’

विश्वविद्यालयों के धर्मवैज्ञानिक भगवान की शिक्षाओं की विविधता की प्रशंसा करने में लगे। दखे। रोनाल्ड ओ क्लार्क, प्रोफेसर, रिलीजियस स्टडीज, ओरेगॅन स्टेट युनिवर्सिटी ने लिखा: ‘‘रजनीश प्रतिभाशाली बुद्धि एवम् असाधारण विद्वता के व्यक्ति है। वे दोनों, पूर्वीय एवम् पाश्‍चात्‍य यौद्धिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक इतिहास में विस्मयकारी अधिकार का प्रदर्शन करते हैं। ‘ हस्यदर्शी विचारकों और परम्पराओं पर भाष्यों की एक प्रभावशाली संख्या उन्होंने निर्मित की है, शे पूरब में योग, वेदांत, तंत्रवाद, बौद्धवाद, ताओवाद, और जेन से लेकर पश्‍चिम में पीक, ईसाई, यहूदी और इस्लामी रहस्पदर्शिता तक फैली है। उनके प्रकाशित प्रवचन ज्ञान, अंतर्दृष्टि और काव्याअंक सौदर्य के स्रोत हैं। और मैं मानता हूं कि उनकी शिक्षाएं आध्यात्मिक समझ,उत्थान ‘गैर सिद्धि के लिए मानवता की चिर तलाश को एक महत्वपूर्ण योगदान हैं।’’

केलिफोर्निया से रबाई मिशेल ज़ीगलर ने लिखा: ‘‘पूर्वीय धार्मिक परम्पराओं व दर्शनशास्त्रों के एक सुस्पष्ट प्रवक्ता के रूप में रजनीश मेरे सहकर्मियों के बीच सुसम्मानित है। धार्मिक दार्शनिक के रूप में भगवान श्री रजनीश अपने बहुतेरे एशियाई समकालीनों से बहुत ऊंचे हैं। इस व्यक्ति की ही बौद्धिक उपलब्धियों के सम्मान में, ग्रेजुएट थिआलाजिकल यूनियन, बर्कले जैसी प्रतिष्ठित शिक्षण—संस्थाएं उनके विचारों पर कक्षाएं चला रही हैं। इस युग में रजनीश एक स्वतंत्र—विचारणा वाले धार्मिक दार्शनिक हैं, जिन्होंने अपने दृष्टिकोणों पर पर्याप्त वाद—विवाद भडकाया है। पिछली पीढ़ी में महात्मा गांधी की भांति, रजनीश ने सार्थक बौद्धिक एवं धार्मिक वाद—विवाद के लिए प्रेरक शक्ति उपलब्ध करायी है।’’

उन सहकर्मियों में से एक, डाइने मिस्ज़, एम.ए. (रबाइनिक लिट्रेचर) ने लिखा: ‘‘रजनीशके कार्य पर एक परम्परा की छाप नहीं है, बल्कि बौद्धिक भेदन और अंतर्दृष्टि वाले एक व्यक्ति की छाप है, जिसका प्रत्यक्ष ज्ञान मानवी द्विविधा के सस्ते हल अथवा गुह्य उत्तर नहीं सुझाता, बल्कि इसके बजाय जो संवेदनशील पाठक को स्वयं पर लौटा देता है, उस सार्वभौम मानवी आवश्यकता की समझ पर लौटा देता है जिसे संतुष्ट करने का हम सतत प्रयास कर रहे हैं। धार्मिक विषय—वस्तु और आकार की अपनी उदार पहुंच में, वे उन्हें जो उनके संदेश को सुन सकते हैं सभी मानवी अनुभवों के और सभी धार्मिक जिज्ञासाओं के अंतर्बंध पर पहुंचा देते हैं। रजनीश की विद्वता विचलित कर देनेवाली है वे एक सरीखे ज्ञान और सुबोधगम्यता से यहूदी रहस्यदर्शी शिक्षकों पर, जापानी धार्मिक परम्पराओं पर, महान चीनी रहस्पदर्शियों पर, और अपनी जन्मभूमि भारत के कहावती आध्यात्मिक सद्गुरुओं पर लिखते हैं। और वे स्पिनोज़ा और नीत्शे से उतने ही परिचित हैं, जितने ईसामसीह और बुद्ध से। उनके विचारों पर इनके अधिकार की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है वह नव—दृष्टि जिसमें ये हमारे दर्शनों के इन जनकों को देखते हैं।’’

युनिवर्सिटी ऑफ मॉरबर्ग, पछिम जर्मनी से प्रायोगिक धर्म—विज्ञान के प्रोफेसर, गेर्हार्ड मार्सेल

मार्टिन ने लिखा कि उन्हानें ”भगवान के तात्कालिक प्रभाव, शिक्षाओं और पुस्‍तकों को अतिशय प्रेरक’‘ पाया है, ” धार्मिक परम्पराओं को जीवित बनाए रखने के लिए और उन्हें जीवन—आधार बनाने हेतु वर्तमान मिथक का रूप देने के लिए बहुत सारे धक्के देते हुए’‘ —उन्होनई कहा। ट्री ऑफ लाइफ सिनागॉग, न्यूयार्क से रबाई जोसफ एच. गेल्वरमन ने केवल इतना ही कहा: ‘‘मैंने उनकी सारी पुस्तकें पढ़ी है और उनके जीवनदर्शन उनकी महान समझ और सब धर्मों के प्रति सहिष्णुता से जबरदस्त रूप से समृद्ध अनुभव किया है।’’

गेब्रियल लूजर, टी.एच.डी. ने, जो रोमन केथॅलिक धर्मवैज्ञानिक हैं और हास्पिटल मिनिस्ट्री, बर्न, स्विट्जरलैष्ठ में काम करते हैं, भगवान की ध्यान—विधियों की प्रशंसा की। भगवान को ‘‘एक बुद्धिमान व्यक्ति, और एक प्रतिष्ठित मनोवैज्ञानिक’‘ बताते हुए उन्होने लिखा, ” अपनी ध्यान पद्धतियों द्वारा, जिन्हें आशिक रूप से उन्होंने स्वयं आविष्कृत किया है, वे समझते हैं कि हम पाश्‍चात्‍य लोगों को पाश्‍चात्‍य सांस्कृतिक उन्नतियों और सभ्यता के लाभों को छोड़े बगैर कैसे पूर्वीय जुइद्धमत्ता का कुछ पहुंचाया जाए।’’

बेल्जियम में बीस वर्षों से तेमन केथोलिसिज्य की शिक्षक क्रिस्टीन वान डॅर स्पीरन ने उनकी पुस्तकें पसंद कीं क्योंकि वे ‘‘प्रस्तुत करती हैं एक सच्चा विकल्प एक नये आनंदित विश्व और नयी मनुष्यजाति के सृजन का।’’

वेनरेबल पर्मानिंट कॉउन्सेल ऑफ दॅ आथोंडाक्स चर्च ऑल इटली के शष्ट्रीय अध्यक्ष ने स्मरण किया भगवान के ‘‘विशाल योगदान का—मनुष्य की समझ और चैतन्य के उत्थान की दिशा में।’’ भगवान श्री रजनीश ‘‘जग्तप्रसिद्ध है, धर्म, व्यवसाय, जाति, पंथ, देश, संस्कृति, उम्र, शिक्षा और पृष्ठभूमि की सारी सीमाएं पार कर’‘ —लिखा रेवरेड जिल गेर्हार्ड ने, जो चर्च ऑफ रिलीजियस साइन्स, सनफ्रांसिस्को में विगत दस वर्षों से पुरोहित है। वे सनफ्रासिस्को में ग्रेडियो और टीवी. वार्ता—प्रसारण की एक सत्कारिणी भी हैं और उन्होंने आगे कहा, ‘‘मैं बहुत से आध्यात्यिक भीमकायों की उपस्थिति में रही हूं मैंने उनकी कृतियां और धर्मग्रंथ पढ़े हैं, किन्तु मैं ऐसे किसी अन्य अब जीवित को नहीं जानती जो इतना महान धार्मिक शिक्षक अथवा आध्यात्मिक नेता हो जैसे भगवान श्री रजनीश।’’

कुछ विद्यनों ने भगवान के एंतिहासिक संघात की विवेचना की: ”आत्मज्ञानोपलब्ध सद्गुरुओं और उनके धर्मों की घटना पर बहुत वर्षों के व्यावसायिक अध्ययन के बाद, मै स्वयं को यह कहने योग्य मानता हूं कि भगवान श्री रजनीश की उपस्थिति उस सब का जीवंत मूर्त रूप है जो अन्यथा एक शैक्षिक अटकलबाजी, धार्मिक सिद्धांत, अथवा सवोंपरिरूपेण मिथक और किंवदंतियों की सामग्री बन गया है। जीसस को केवल बारह लोगों ने जाना, संभवत: कुछ हजार लोगों ने बुद्ध को पहचाना, आज अब, भगवान श्री रजनीश के मौन को लाखों—लाखों लोग सुनते हैं।’’ —डाँ एग्रेट् कूटर, पी.एच.डी., व्याख्याता, फ्राइए युनिवर्सिटी, बर्लिन।

एल्फ्रेड ब्‍लूम, प्रोफेसर ऑफ रिलीजन, युनिवर्सिटी ऑफ हवाई ने लिखा: ‘‘उनके विचार

समकालीन अर्थ एवम् वैधता रखते हैं। आधुनिक मन की उनकी समझ और उसके प्रति उनकी पहुंच का ढंग महान अंतर्दृष्टि का प्रदर्शन करते हैं जो भारतीय पारम्पंरिक विचारधारा, बौद्धवाद एवम् आधुनिक मनोविज्ञान से मेल खाती है। आध्यात्‍मिक अनुभव एवम् मनोविज्ञान का उनका संयोजन असामान्य एवम् रोचक है। अन्य धार्मिक नेताओं की भांति ही जिन्हें पहले अत्याचार और बहिष्करण का सामना करना पड़ा, यह कहना बहुत कठिन है कि इनकी शिक्षाएं भविष्य में क्या प्रभाव रखेंगी, ठीक वैसे ही जैसे पहली शताब्दी में दो हजार वर्ष बाद जीसस के प्रभाव का कोई नहीं अनुमान लगा सकता था। फिर भी, उनके अधिकांश शिष्यों की शिक्षा के स्तर एवम् पेशों को देखते हुए हम अपेक्षा कर सकते है कि इनकी अंतर्दृ।ष्टयां समूचे समाज में प्रवाहित होंगी।’’

ग्रेगोरिओ, दॅ आर्चिमेन्हाइट ऑफ तूप्रइन (आर्थाडॉक्स केथॅलिक चर्च ऑफ इटली—मास्को पैट्रियाचेंट) ने भी भविष्य की ओर देखा—’‘ भगवान श्री रजनीश के विचारों एवम् कृत्यों से मेव आमना—सामना एक वास्तविक वज्रपात था, ” उन्होंने लिखा। ‘ दो दुनियांओं के बीच, पूर्वीय एवम् पाश्‍चात्‍य, जिन्हें वे सम्पूर्णत: जानते है, यह सद्गुरु एक नयी दुनिया, एक बेहतर दुनिया के जन्म के लिए काम कर सकता है।’’

निष्कर्ष में, ब्रांडाइस युविर्सिटी के प्रोफेसर मारिस आरस्टीन ने अमरीका सरकार से ये अभिवचन कहे: ” भगवान श्री रजनीश एक अद्वितीयरूपेण प्रतिभाशाली आध्यात्यिक शिक्षक हैं। यह खेदजनक है कि वे विवादास्पद बन गये है। किंतु’‘, उन्होने लिखा, ‘‘इस देश को विवादों को पचाने से नहीं हिचकना चाहिए—विशेषत: किसी ऐसे के संबंध में जिसकी बौद्धिक एवम् आध्यात्यिक देनें इतनी विशाल हों।’’

अमरीकी सरकार के कानों पर जूं न रेंगी। उसने भगवान श्री रजनीश को देश छोड़ देने का आदेश दे दिया।


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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–4)

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धर्म की गति और तेज हो!—(प्रवचन—4)

‘मैं कहता आंखन देखी’ :

(अंतरंग भेट वार्ता)

बुडलैण्‍ड बम्बई

दिनांक 12 मार्च 1971

भगवान श्री उस समयातीत अंतराल में आत्मा पर क्या घटित होता है वह तो दर्शाया आपने किंतु एक बात रह गयी कि आत्मा का अशरीरी रूप क्या होता है? वह स्थिर है या विचरण करती है और अपनी परिचित दूसरी आत्माओं को पहचानती कैसे है? और उस अवस्था में आपस में कोई डायलाग की संभावना होती है?

 स संबंध में दो—तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। एक तो स्थिरता और गति ये दोनों ही वहां नहीं होते। और इसलिए समझना बहुत कठिन होगा। हमें समझना आसान होता है कि गति न हो, तो स्थिरता होगी। स्थिरता न हो, तो गति होगी। क्योंकि हमारे खयाल में गति और स्थिरता दो ही संभावनाएं हैं। और एक न हो तो दूसरा अनिवार्य है। हम यह भी समझते है कि वे दोनों एक—दूसरे के विरोधी है।

पहली तो बात, गति और स्थिरता विरोधी नहीं हैं। गति और स्थिरता एक ही चीज की तारतम्यता है। जिसको हम स्थिरता कहते हैं वह ऐसी गति है जो हमारी पकड़ में नहीं आती। जिसको हम गति कहते हैं वह भी ऐसी स्थिरता है जो हमारे खयाल में नहीं आती। यदि बहुत तीव्र गति हो तो भी स्थिर मालूम होगी।

यह ऊपर पंखा है, यह तेज गति से चलता हो तब इसकी तीन पंखुड़ियां दिखायी नहीं पड़ती हैं। बहुत तेज चले तो संभावना ही नहीं है अनुमान करने की कि कितनी पंखुड़ियां हैं! क्योंकि बीच की जो खाली जगह होती है तीन पंखुडियों के इसके पहले कि वह हमें दिखायी पड़े पंखुड़ी उस जगह को भर देती है। यह पंखा इतनी तेज गति से भी चलाया जा सकता है कि हम इसके आर—पार किसी चीज को भी न निकाल पाएं। यह इतना भी तेज चल सकता है कि हम इसको हाथ से छुए और इसकी गति न मालूम पड़े। जब हम किसी चीज को हाथ से छूते हैं, अगर बीच का जो खाली हिस्सा है, वह हमारे हाथ के स्पर्श के पकडने से पहले दूसरी पंखुड़ी फिर नीचे आ जाए तो हमें पता नहीं चलता।

इसलिए विज्ञान कहता है कि हर चीज जो हमें स्थिर मालूम पड रही है वह सब गतिमान है। परगति बहुत तीव्र है। हमारी पकड़ के बाहर है। तो गति और स्थिर होना दो चीजें नहीं हैं। और एक ही चीज की डिग्रियां है। उस जगत में जहां शरीर नही है ये दोनों नहीं होगी। क्योंकि जहां शरीर नही है वहा स्पेस भी नहीं है, टाइम भी नहीं है। जैसा हम जानते हैं; समय और स्थान के बाहर किसी भी चीज को सोचना हमें अति कठिन है। क्योंकि हम ऐसी कोई चीज नहीं जानते जो समय और स्थान के बाहर हो।

तो वहां क्या होगा? अगर दोनों न हो तो हमारे पास कोई शब्द नहीं हैं जो कहे कि वहां क्या होगा। जब पहली दफा धर्म के अनुभव में उस स्थिति की खबरें आनी शुरू हुईं तब भी यह कठिनाई खडी हुई। कहें क्या? ऐसा ठीक समांनातर उदाहरण विज्ञान के पास भी है। जहां कठिनाई खडी हो गयी कि, कहें क्या? जबकि हमारी धारणाओं से भिन्न कोई स्थिति का अनुभव होता है तो बड़ी कठिनाई शुरू हो जाती है।

जैसे कि चालीस साल पहले जब पहली दफा इलेक्ट्रान का अनुभव विज्ञान को हुआ तो सवाल उठा. कि इलेक्ट्रान कण है या तरंग? और बडी कठिनाई खडी हो गयी। न तो उसे कण कह सकते, क्योंकि कण तो ठहरा हुआ होता है, न तरंग, क्योंकि तरंग गतिमान होती है। वह दोनों एक साथ हैं। तब फिर भूल हो जाती है, क्योंकि हमारी समझ में वह दोनों में से एक ही हो सकता है। और इलेक्ट्रान दोनों एक साथ है—क्या भी और तरंग भी। कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह कण है और कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह तरंग है। और अब शब्द ही नहीं है कोई दुनिया की किसी भाषा में—कण—तरंग इकट्ठा कि जिससे हम प्रकट कर सकें।

और जब वैज्ञानिको ने यह देखा तो वैज्ञानिक खुद कहने तो लगे, कि कण—तरंग दोनों है। लेकिन उनके लिए भी कंसीवेबल नहीं रहा है। रहस्य हो गयी बात। और जब आइन्‍स्टीन से लोगों ने कहा कि आप दोनों बातें एक साथ कहते है जो कि तर्क में नहीं आती है, यह थोड़ी रहस्य की बातें हो गयीं हैं। तो आइन्‍स्टीन ने कहा, हम तर्क को मानें कि तथ्य को मानें। तथ्य यही है कि वह दोनों है एक साथ और तर्क यही कहता है कि दोनों में से एक ही हो सकता है।

एक आदमी खड़ा हुआ है या चल रहा है। तर्क कहेगा, दों में से एक ही हो सकता है। आप कहें कि वह खडा भी है और चल भी रहा है—एक साथ। तर्क नहीं मानेगा, तर्क के पास कोई धारणा नहीं है। लेकिन इलेक्ट्रान के अनुभव ने वैज्ञानिकों को कहा कि तर्क की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी, अन्यथा यह होता कि तथ्य को झुठलाओ। सारे प्रयोग कहते हैं कि वह दोनों हैं। यह मैंने उदाहरण के लिए आपसे कहा।

सारे धार्मिक लोगों के अनुभव कहते हैं कि वह स्थिति, दोनों नहीं है। न ठहरी हुई है, न गतिमान है। लेकिन जो भी यह कहेगा कि दोनों नहीं है वह अंतराल का क्षण, यानी एक शरीर के छूटने और दूसरे के मिलने के बीच के क्षण में दोनों बातें नहीं हैं। तो वह समझ के बाहर हो जाएगी। इसलिए कुछ धर्मों ने तय किया है कि वह कहेंगे कि वह स्थिर है; कुछ धर्मों ने तय किया कि वह कहेंगे कि वह गतिमान है। लेकिन यह सिर्फ समझाने की कठिनाई का परिणाम है। अन्यथा कोई इस बात के लिए राजी नहीं है कि वहां स्थिति को, स्थिति कहें कि गति कहें। दोनों नहीं कहे जा सकते। क्योंकि जिस परिवेश में स्थिति और गति घटित होती हैं, वह परिवेश ही वहां नहीं है।

स्थिति और गति दोनों के लिए शरीर अनिवार्य है। शरीर के बिना गति नहीं हो सकती। और शरीर के बिना स्थिति भी नहीं हो सकती। क्योंकि जिसके माध्यम से स्थिति हो सकती है, उसी के माध्यम से गति हो सकती है। अब जैसे यह हाथ है मेरा, मैं इसे हिला रहा हूं या इसे ठहराए हुए हूं? कोई मुझसे पूछ सकता है कि इस हाथ के भीतर जो मेरी आत्मा है, जब हाथ नहीं रहेगा तो वह आत्मा ठहरी हुई रहेगी या गति में रहेगी। दोनों बातें व्यर्थ हैं। क्यों? इस हाथ के बिना न वह गति कर सकती है, न ठहरी हुई हो सकती है। ठहरना और गति दोनों ही शरीर के गुण हैं। शरीर के बाहर ठहरने और गति का कोई भी अर्थ नहीं है। ठीक यही बात समस्त द्वंद्वों पर लागू होती है।

जैसे बोलना .या मौन होना लीजिए। शरीर के बिना न तो बोला जा सकता है और न मौन हुआ जा सकता है। आमतौर से हमारी समझ में आ जाएगी बात की शरीर के बिना बोला नहीं जा सकता; लेकिन मौन नहीं हुआ जा सकता, यह समझ में आना कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम सोचते हैं शरीर के लिए मौन—लेकिन असली बात यह है कि जिस माध्यम से बोला जा सकता है उसी माध्यम से मौन हुआ जा सकता है। क्योंकि मौन होना भी बोलने का एक ढंग है। मौन होना—बोलने की ही एक अवस्था है—’न बोलने की’, लेकिन है बोलने की।

जैसे उदाहरण के लिए एक आदमी है, अंधा है। तो हमें खयाल होता है कि शायद उसको अंधेरा ही दिखायी देता होगा। यह हमारी भ्रांति है। अंधेरा देखने के लिए भी आंख जरूरी है। आंख के बिना अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ सकता। हम आंख बंद करके सोचते हों तो हम गलती में पड़ते हैं। क्योंकि आंख बंद करके भी आंख है, आप अंधे नहीं है। और अगर एक दफा आपके पास आंख रही हो और फिर अंधी हो जाए तो भी आपको अंधेरे का खयाल रहेगा, जो कि झूठ है, जो कि जन्म से अंधे आदमी को नहीं है। क्योंकि अंधेरा जो है, वह आंख का ही अनुभव है। जिससे प्रकाश का अनुभव होता है, उसी से अंधकार का भी अनुभव होता है। जो जन्मांध है, उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं। अंधेरा भी जानेगा कैसे?

कान से आप सुनते हैं। भाषा में ठीक लगता है कि जिसके पास कान नहीं हैं, हम कहेंगे वह नहीं सुन रहा है। लेकिन नहीं सुनने की घटना भी नहीं घटती है बहरे के लिए। नहीं सुनने की भी जो प्रतीति है, वह कान वाले की प्रतीति है। कभी ऐसा होता है कि आप नहीं सुनते हैं। पर कान उसके लिए भी जरूरी है। कान के बिना ‘नहीं सुनने’ का भी कोई पता नहीं चल सकता। वह अंधेरे की तरह है।

तो जिस इंद्रिय से गति होती है, उसी इंद्रिय से ठहराव होता है। और दो में से यदि एक चीज नहीं है तो दूसरी भी नहीं हो सकती। वैसी अवस्था में आत्मा बोलती है या चुप रहती है, दोनों ही बातें संभव नहीं हैं। उपकरण ही नहीं है, बोलने का या चुप रहने का। ये सब उपकरण—निर्भर घटनाएं हैं। इन दोनों के लिए उपकरण चाहिए। जगत के समस्त अनुभव के लिए उपकरण चाहिए। साधन चाहिए, इंद्रियां चाहिए।

जहां भी शरीर नहीं है, वहां शरीर से संबंधित समस्त अनुभव तिरोहित हो जाते हैं। प्रश्‍न उठता है कि फिर वहां कुछ बचेगा? अगर आपके जीवन में कोई भी शरीर के भीतर रहते हुए, अशरीरी अनुभव हुआ हो तो बचेगा। अन्यथा कुछ भी नहीं बचेगा। अगर आपको जीते जी, शरीर के रहते हुए, कोई भी अनुभव हुआ हो, जिसके लिए शरीर माध्यम नहीं था, वह बचेगा। ध्यान के कोई भी अनुभव हों गहरे, तो वह बचेंगे। साधारण अनुभव नहीं बचेंगे ध्यान के, ध्यान में आपको प्रकाश दिखायी पड़ा, वह नहीं बचेगा। लेकिन ध्यान में अगर कोई ऐसा अनुभव हुआ हो जिसमें शरीर ने कोई माध्यम का काम ही नहीं किया हो, आप कह सकते थे कि शरीर था या नहीं मुझे कोई संबंध नहीं रह गया था, तो बच जाएगा। और ऐसे अनुभव के लिए कोई भाषा नहीं है। शरीर रहते हुए हो, तो भी भाषा नहीं। ये सारी कठिनाइयां हैं।

फिर भी इसका यह मतलब नहीं है कि वैसी आत्मा मोक्ष में पहुंच गयी, क्योंकि ये दोनों विवरण एक जैसे लगेंगे। मोक्ष में, और दो शरीरों के बीच में जो अंतराल है इसमें, क्या भेद रहा? भेद पोटिंशियलिटी के, बीज के रहेंगे। वास्तविकता के नहीं रहेंगे। दो शरीरों के बीच में जो अशरीरी व्यवधान है बीच का उसमें आपके जितने संस्कार हैं समस्त जन्मों के, वह बीज—रूप में सब मौजूद रहेंगे। शरीर के मिलते ही वे फिर सक्रिय हो जाएंगे। जैसे एक आदमी के पैर हमने काट दिए, तो भी उसके दौड़ने के जो अनुभव हैं वह विदा नहीं हो जाएंगे। दौड़ नहीं सकता, रुक भी नहीं सकता, क्योंकि दौड़ नहीं सकता तो रुकेगा कैसे! लेकिन अगर पैर मिल जाएं तो दौड़ने की समस्त संस्कार— धारा पुन: सक्रिय हो जाएगी।

जैसे एक आदमी कार चलाता है, और उसकी कार छीन ली। अब वह कार नहीं चला सकता, एक्सीलरेटर नहीं दबा सकता; ब्रेक भी नहीं लगा सकता और कार रोक भी नहीं सकता, वह दोनों ही कार के अनुभव हैं। अब वह कार के बाहर है, लेकिन कार के चलाने का जो भी अनुभव है, वह सब बीज रूप में मौजूद है। वर्षों बाद, एक्सीलरेटर पर ज्यों ही पैर रखेगा, वह कार चला सकेगा। वही आत्मा मोक्ष में संस्कार रहित हो जाती है। दो शरीरों के बीच में सिर्फ इंद्रिय—रहित होती है।

मोक्ष में समस्त अनुभव, समस्त अनुभवजन्य संस्कार, सब कर्म, सब तिरोहित हो जाते हैं। उनकी निर्जरा हो जाती है। इस बीच, और मोक्ष की अवस्था में एक समानता है, दोनों में शरीर नहीं होता है। एक असमानता है—मोक्ष में शरीर नहीं होता, शरीर से संबंधित अनुभवों का ज्ञान भी नहीं होता। यहां शरीर से संबंधित अनुभवों की सब सूक्ष्म तरंगें बीज रूप से मौजूद होती हैं, जो कभी भी सक्रिय हो सकती हैं। और इस बीच जो—जो अनुभव होंगे, वह शरीर जहां नहीं था, वैसे अनुभव होंगे। जैसा मैंने कहा, ध्यान के अनुभव होंगे।

लेकिन ध्यान के अनुभव तो बहुत कम लोगों के हैं। कभी करोड़ में एक आदमी को ध्यान के अनुभव हैं। शेष का क्या कोई अनुभव नहीं होगा? अनुभव होंगे स्वप्न के, स्वप्न में शरीर की कोई इंद्रिय काम नहीं करती।

इस बात की संभावना है कि अगर हम एक आदमी स्वप्न में हो, और उसे स्वप्न में ही रखें और उसके सारे शरीर को काटकर अलग कर दें तो आवश्यक नहीं है कि उसके रूप में जरा—सा भी भंग पड़े। कठिनाई है कि उसकी नींद टूट जाएगी। काश, हम उसे नींद में रख सकें और उसके एक—एक अंग को अलग करते चले जाएं तो उसके स्वप्न में कोई भंग नहीं होगा। क्योंकि शरीर का कोई हिस्सा उसके स्वप्न में अनिवार्य कारण नहीं है। स्वप्न में शरीर बिलकुल सक्रिय नहीं है, शरीर का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। स्वप्न के अनुभव आपके शेष रहेंगे। बल्कि आपके समस्त अनुभव स्‍वप्‍नों का ही रूप लेकर शेष रहेंगे।

अगर कोई आपसे पूछे कि स्वप्न में आप स्थिर होते हैं कि गतिमान होते हैं, तो कठिनाई होगी। स्वप्न से जागते तो यह अनुभव होता है कि अपनी जगह पर पड़े हुए हैं, फिर स्वप्न के भीतर। लेकिन स्वप्न के बाहर आकर पता लगता है कि स्वप्न में तो बड़ी गति है। लेकिन ध्यान रहे, स्वप्न में गति भी नहीं होती। अगर बहुत ठीक से समझें तो स्वप्न में आप भागीदार भी नहीं होते। बहुत गहरे में सिर्फ साक्षी हो सकते हैं। इसलिए स्वप्न में अपने को मरता हुआ भी देख सकते हैं। रूप में अपनी लाश को पडे हुए भी देख सकते हैं। और स्वप्न में अगर आप अपने को चलता भी देखते हैं, तो जिसे आप चलता देखते हैं वह सिर्फ स्वप्न होता है, आप तो देखनेवाले ही होते हैं। स्वप्न को यदि ठीक से समझें तो आप सिर्फ विटनेस होते हैं।

इसीलिए धर्म ने एक सूत्र खोज निकाला कि जो व्यक्ति जगत को स्वप्न की भांति देखने लगे, वह परम अनुभूति को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए जगत को माया और स्वप्न कहनेवाली चितनाएं पैदा होने लगीं। राज उनका यही है कि अगर जगत को हम सपने की भांति देखने लगें तो हम साक्षी हो जाएं। सपने में कभी भी कोई पार्टिसिपेट नहीं होता, हमेशा विटनेस होता है। कभी भी, किसी भी स्थिति में आप सपने में पात्र नहीं होते। भले ही आपको पात्र दिखायी पड़े, आप; लेकिन आप तो वही हैं, जिसको दिखायी पड़ता है, आप हमेशा ही देखनेवाले होते हैं, दर्शक होते हैं।

जितने अनुभव होंगे, बीज के होंगे, शरीर रहित होंगे, स्वप्न जैसे होंगे। जिनके अनुभवों ने दुख को निर्मित किया है वे नरक के स्वप्न देखेंगे—नाइटमेयर्स देखेंगे। जिनके अनुभवों ने सुख को अर्जित किया है, वे स्वर्ग देखते रहेंगे, सुखद होंगे सपने उनके। लेकिन ये सब सपने जैसे अनुभव होंगे। कभी—कभी इसमें और घटनाएं घटेंगी। उन घटनाओं के अनुभव में भी भेद पड़ेगा।

कभी—कभी ऐसा होगा कि ये आत्माएं जो न गतिमान हैं, न चलित हैं; ये आत्माएं कभी—कभी किन्हीं शरीरों में प्रवेश कर जाएंगी। अब यह भाषा की ही भूल है कहना, कि प्रवेश कर जाएंगी। उचित होगा ऐसा कहना कि कभी—कभी कोई शरीर इनको अपने में प्रवेश दे देगा। इन आत्माओं का लोक कुछ हमसे भिन्न नहीं है। ठीक हमारे निकट और पड़ोस में हैं। ठीक हम एक ही जगत में अस्तित्ववान हैं। (यहां इंच—इंच जगह भी आत्माओं से भरी हुई है। यहां जो हमें खाली जगह दिखायी पड़ती है वह भी भरी हुई है।)

अगर कोई भी शरीर किसी गहरी रिसेप्‍टिव हालत में हो, और दो तरह के शरीर, दूसरे ग्रहों के शरीर, गाहक अवस्था में होते हैं। एक तो बहुत भयभीत अवस्था में—यानी जितना भयभीत व्यक्ति हो उसकी खुद ही आत्मा उसके शरीर में भीतर सिकुड़ जाती है। सिकुड़ जाती है, मतलब—शरीर के बहुत हिस्सों को छोड़ देती है खाली। उन खाली जगहों में पास—पड़ोस की कोई भी आत्मा ऐसे बह सकती है जैसे गड्डे में पानी बहता है। तब इसको जो अनुभव होते हैं ठीक वैसे हो जाते हैं जैसे शरीरधारी आत्मा को हो जाते हैं। या बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में कोई आत्मा प्रवेश करती है। बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्मा सिकुड़ जाती है।

लेकिन भय की अवस्था में केवल वे ही आत्माएं सरककर भीतर प्रवेश कर सकती हैं जो दुख स्वप्न देखती हैं। जिन्हें हम बुरी आत्माएं कहें, वे प्रवेश कर सकती है। क्योंकि भयभीत व्यक्ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्थिति में है। उसमें कोई श्रेष्ठ आत्मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्यक्ति गड्डे की भांति है जिसमें नीचे उतरनेवाली आत्माएं ही प्रवेश कर सकती हैं।

प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति शिखर की भांति है जिसमें सिर्फ ऊपर चढनेवाली आत्माएं प्रवेश कर सकती हैं। प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भर जाता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्ठ आत्माओं को हो सकता है। वह भी नहीं कहती तो जिसको इनवोकेशन कहते हैं, आह्वान कहते है, प्रार्थना कहते है उससे भी प्रवेश होता है, लेकिन श्रेष्ठतम आत्माओं का। उस समय अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते हैं जैसे कि शरीर रहते हुए होते हैं, इन दोनों अवस्थाओं में।

तो जिनको देवताओं का आह्वान कहा जाता रहा है उसका पूरा विज्ञान है। ये देवता कहीं आकाश से नहीं आते। जिन्हें भूत प्रेत कहा जाता रहा, वे भी किन्हीं नरकों से, किन्हीं प्रेत—लोकों से नहीं आते। वे सब मौजूद है, यहीं है।

असल में एक ही स्थान पर मल्टीडाइमेंशनल एक्लिस्टेंस है। एक ही बिंदु पर बहुआयामी अस्तित्व है। अब जैसे यह कमरा है, यहां हम बैठे है। हवा भी है यहां। यहां कोई धूप जला दे तो सुगंध भी भर जाएगी, यहां कोई गीत गाने लगे तो ध्वनि तरंगें भी भर जाएंगी। धूप का कोई भी कण ध्वनि तरंग के किसी भी कण से नहीं टकरायेगा।

इस कमरे में संगीत भी भर सकता है, प्रकाश भी भरा है। लेकिन प्रकाश की कोई तरंग, संगीत की किसी तरंग से टकराएगी नहीं। और न संगीत के भरने से प्रकाश की तरंगों को बाहर निकलना पड़ेगा या जगह खाली करनी पड़ेगी। असल में इसी स्थान को ध्वनि की तरंगें एक आयाम में भरती हैं और प्रकाश की तरंग दूसरे आयाम में भरती हैं। वायु की तरंगें तीसरे आयाम में भरती हैं और इस तरह से हजार आयाम इसी कमरे को हजार तरह से भरते है। एक दूसरे में कोई बाधा नहीं पड़ती। एक दूसरे को एक दूसरे के लिए कोई स्थान खाली नहीं करना पड़ता। इसलिए स्पेस जो है, मल्टीडायमेंशनल है।

यहां हमने एक टेबल रखी है, अब दूसरी टेबल नहीं रख सकते इस जगह। क्योंकि एक टेबल एक ही आयाम में बैठती है। जब इस टेबल को रख दिया, तो अब इस स्थान पर यानी इसी टेबल के स्थान पर दूसरी टेबल नहीं रख सकते। वह इसी आयाम की है। लेकिन दूसरे आयाम का अस्तित्व उस टेबल की. वजह से कोई बाधा नहीं पाएगा। ये सारी आत्माएं ठीक हमारे निकट है। और कभी भी इनका प्रवेश हो सकता है। जब इनके प्रवेश होंगे तब ही इनके अनुभव होंगे। वह ठीक वैसे ही हो जाएंगे, जैसे शरीर में प्रवेश पर होते हैं।

दूसरी बात, जब ये व्यक्तियों में प्रवेश कर जाएं तब ये वाणी का उपयोग कर सकते हैं। तब संवाद संभव है। इसलिए आज तक पृथ्वी पर कोई प्रेत या कोई देव प्रत्यक्ष, या सीधा कुछ भी संवादित नहीं कर पाया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि संवाद नहीं हुआ। संवाद हुए हैं। और देवलोक या प्रेतलोक के संबंध में, स्वर्ग और नरक के संबंध में जो भी हमारे पास सूचनाएं हैं वह काल्पनिक लोगों के द्वारा नहीं हैं, वह इन लोकों में रहनेवाले लोगों के ही द्वारा हैं। लेकिन किसी के माध्यम से हैं।

इसलिए बहुत पुराने दिनों से जो व्यवस्था थी वह यह थी—जैसे कि वेद है—तो वेद का कोई ऋषि नहीं कहेगा कि हम इनके लेखक हैं। वह है भी नहीं। इसमें कोई विनम्रता कारण नहीं है कि वह विनम्रतावश कहते हैं कि हम लेखक नहीं हैं। इसमें तथ्य है। ये जो कही गयी बातें हैं, यह उन्होंने कही नहीं हैं, किसी और आत्मा ने उनके द्वारा कहलवायी हैं। और यह अनुभव बड़ा साफ होता है।

जब कोई और आत्मा तुम्हारे भीतर प्रवेश करके बोलेगी तब यह अनुभव इतना साफ है कि तुम पूरी तरह जानते हो कि तुम अलग बैठे हो, तुम बोल ही नहीं रहे हो, कोई और ही बोल रहा है। तुम भी सुननेवाले हो, बोलनेवाले नहीं हो। वैसे बाहर से पता चलाना मुश्किल होगा, लेकिन बाहर से भी जो लोग ठीक से कोशिश करें तो बाहर से भी पता चलेगा। क्योंकि आवाज का ढंग बदल जाएगा, टोन बदल जाएगी, शैली बदल जाएगी, भाषा भी बदल जाती है। उस व्यक्ति को तो भीतर बहुत ही साफ मालूम पड़ेगा।

अगर प्रेत आत्मा ने प्रवेश किया है तो शायद वह इतना भयभीत हो जाए कि मूर्च्छित हो जाए, लेकिन अगर देव आत्मा ने प्रवेश किया है तो वह इतना जागरूक होगा जितना कि कभी भी नहीं था; और तब स्थिति बहुत साफ इसे दिखायी पड़ेगी। तो जिनमें प्रेतात्माएं प्रवेश करेंगी वह तो प्रेतात्माओं के जाने के बाद ही कह सकेंगे कि कोई हममें प्रवेश कर गया। वे इतने भयभीत हो जाएंगे कि मूर्च्छित हो जाएंगे। लेकिन जिनमें दिव्य आत्मा प्रवेश करेगी, वे उसी क्षण भी कह सकेंगे कि यह कोई और बोल रहा है, यह मैं नहीं बोल रहा। यह दो आवाजें एक ही उपकरण का उपयोग करेंगी, जैसे एक ही माइक्रोफोन का दो आदमी एक साथ उपयोग कर रहे हों। एक चुप खड़ा रह जाए और दूसरा बोलना शुरू कर दे। जब शरीर की इंद्रियों का ऐसा उपयोग हो तब संवाद हो पाता है।

इसलिए देवताओं के, प्रेतों के संबंध में जो भी उपलब्ध है जगत में, वह सवांदित है। वह कहा गया है। और कोई जानने का उपाय तो नहीं है, वही उपाय है। और इन सबके पूरे के पूरे विज्ञान निर्मित हो गए हैं। और जब विज्ञान पूरा निर्मित होता है तो बडी आसानी हो जाती है। तब इन चीजों को समझ—बूझ पूर्वक उपयोग कर सकते हैं। लेकिन यह नहीं होता—कि समझ—बूझ पूर्वक उपयोग नहीं करते। तभी घटनाएं घटती हैं। लेकिन फिर विज्ञान तय हो गया था। जैसे कोई दिव्य आत्मा किसी में प्रवेश कर गयी है आकस्मिक रूप से, तो धीरे— धीरे इसका विज्ञान निर्मित कर लिया गया कि किन परिस्थितियों में वह दिव्य आत्मा प्रवेश करती है। वे परिस्थितियां अगर पैदा की जा सकें तो वह फिर प्रवेश कर सकेंगी।

अब जैसे मुसलमान लोबान जलाएंगे। वह किन्हीं विशेष दिव्य आत्माओं के प्रवेश करने के लिए सुगंध के द्वारा वातावरण निर्मित करना है। हिंदू धूप जलाएंगे, या घी के दीये जलाएंगे। ये आज सिर्फ औपचारिक हैं, लेकिन कभी उनके कारण थे। एक विशेष मंत्र बोलेंगे। विशेष मंत्र इनवोकेशन बन जाता है। इसलिए जरूरी नहीं है कि मंत्र में कोई अर्थ हो, अकसर नहीं होता। क्योंकि अर्थवाले मंत्र विकृत हो जाते हैं। अर्थहीन मंत्र विकृत नहीं होते। अर्थ में आप कुछ और भी प्रवेश कर सकते हैं। समय के अनुसार उसका अर्थ बदल सकता है, लेकिन अर्थहीन मंत्र में आप कुछ भी प्रवेश नहीं करवा सकते हैं, समय के अनुसार कोई अर्थ नहीं बदलता।

इसलिए जितने गहरे मंत्र हैं वह अर्थहीन हैं, मीनिंगलेस हैं। उसमें कोई अर्थ नहीं है जिससे कि युग के अनुसार कोई फर्क पड़ेगा। सिर्फ ध्वनियां हैं। और ध्वनि उच्चारण की एक विशेष व्यवस्था है, उसी ढंग से उसका उच्चारण होना चाहिए। उतनी ही चोट, उतनी ही तीव्रता, उतना उतार—चढ़ाव, उतनी चोट होने पर वह आत्मा तत्काल प्रवेश हो सकेगी। अथवा वह आत्मा खो गयी होगी तो उस जैसी कोई अन्य आत्मा प्रवेश हो सकेगी।

दुनियां के सारे धर्मों के जो मंत्र हैं, जैसे कि जैनों का नमोकार है—उसके पांच हिस्से हैं और प्रत्येक हिस्से पर जो इनवोकेशन है, जो आह्वान है, वह गहरा होता जाता है। प्रत्येक पद पर आह्वान गहरा होता जाता है। और गहरी आत्माओं के लिए होता चला जाता है। साधारणत: जैसा लोग समझते हैं, जैसा आज चलता है कि पूरे नमोकार को पढेंगे—यह ठीक स्थिति नहीं है। जिसको पहले पद से संबंध जोड़ना है उसको पहले पद को ही दोहराना चाहिए। बाकी चार को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। उस एक पर ही जोर देना चाहिए। क्योंकि उस पद से संबंधित आत्माएं बिलकुल अलग हैं।

जैसे, नमो अरिहताणम्। उसमें अरिहंत के लिए नमस्कार है। अब ‘अरिहंत’ विशेष रूप से जैनों का शब्द है। जिसने अपने समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया, अरिहंतहार। ’अरि’ का अर्थ है शत्रु ‘हत’ जिसने मार डाले। तो वह ऐसी आत्मा के लिए पुकार है जो अपनी इंद्रियों को बिलकुल ही समाप्त करके बिदा हुई। यह उस आत्मा के लिए पुकार है जिसका सिर्फ एक ही जन्म हो सकता है। इस एक ही पद को दोहराना है विशेष ध्वनि और चोट के साथ।

यह बहुत स्पेसिफिक पुकार है, विशेष पुकार है। इस पुकार के द्वारा इतर जैन दिव्य आत्मा से संबंध नहीं होता। यह एक पारिभाषिक शब्द है, जो शुद्ध जैन दिव्य आत्मा से संबंध जुड़ा पायेगा। इसमें क्राइस्ट से संबंध नहीं हो सकता। इसमें आकांक्षा नहीं है। इसमें बुद्ध से संबंध नहीं हो सकता। यह पारिभाषिक शब्द है, यह पारिभाषिक आत्मा के लिए पुकार है। ठीक ऐसे, अलग—अलग पूरे पांच हिस्सों में पांच अलग तरह की आत्माओं के लिए पुकार है। अंतिम जो पुकार है, ‘नमो लोए सब्ब साहूणं’ वह समस्त साधुओं को नमस्कार है। उसमें विशेष पुकार नहीं है। उसमें साधु आत्मा मात्र के लिए आह्वान है। उसमें जैन और इतर जैन का प्रश्‍न नहीं है। वह किसी भी साधु आत्मा से संबंध जोड्ने की आकांक्षा है। वह बडी जनरलाइज्‍ड पुकार है। कोई विशेष निमंत्रण नहीं है उस पर।

सारी दुनिया के धर्मों के पास ऐसे मंत्र हैं जिनसे संबंध जोड़ा जाता रहा। और तब वह शक्ति—मंत्र बन गए। और जन—जन के बीच महत्ता हो गयी। वह नाम की तरह है। जैसे आपका नाम रख दिया ‘राम’। फिर राम की आवाज दी तो आप चौकन्ने हो गए। ऐसे ही सारे मंत्र हैं। प्रेतात्माओं के लिए भी वैसे ही मंत्र हैं। दोनों का अपना शास्त्र है। व्यक्ति तो खोते चले जाएंगे, आत्माएं बदलती चली जाएंगी। लेकिन ताल—मेल खाती आत्माएं सदा उपलब्ध रहेंगी, जिनसे संबंध जोड़ा जा सके। इस स्थिति में संवाद हो सकता है।

अब मुहम्मद को लीजिए। मुहम्मद ने सदा यही कहा कि मैं सिर्फ पैगंबर हूं सिर्फ पैगाम दे रहा हूं—मैसेंजर। क्योंकि मुहम्मद को कभी ऐसा नहीं लगा कि जो वह दे रहे हैं वह उनका है। इतनी साफ आवाज ऊपर से आयी, जिसे मुसलमान इलहाम कहते हैं, रिवील हुआ—कि कोई अन्य भीतर प्रवेश कर गया, और बोलना शुरू कर दिया। खुद मुहम्मद को भरोसा नहीं आया—कि यह मैं बोल रहा हूं कोई मेरी मानेगा? क्योंकि कभी मैंने बोला नहीं, मेरा कोई परिचय नहीं है लोगों से ऐसा। लोग जानते नहीं हैं कि मैं इस तरह की बात बोल सकता हूं इसलिए कोई मेरा माननेवाला नहीं है।

इसलिए मुहम्मद डरे हुए घर लौटे। और रास्ते में बचे हुए घर आये कि कहीं किसी से बोल न लें, अन्यथा अविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि पीछे कोई भी तो आधार नहीं है, पृष्ठभूमि नहीं है। तो आकर पहले सिर्फ अपनी पत्नी से कहा, और उससे भी कहा कि तुझे भरोसा हो तो करना, नहीं भरोसा हो तो मत करना। और तुझे भरोसा आ जाए तो फिर मैं किसी और से कहूं अन्यथा नहीं कह सकता। क्योंकि जो हुआ है, जो आया है, ऊपर से आया है; वह कोई बोल गया है। वह मेरी नहीं है आवाज! सिर्फ शब्द मेरे हैं, बोल कोई और रहा है। जब पत्नी को भरोसा आया, तो फिर और निकट के किसी से कहा।

मूसा के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ। वाणी उतरी। यह जो वाणियों का उतरना है, वह किसी और बड़ी दिव्य आत्मा के द्वारा किसी का प्रयोग करना है। हर किसी का प्रयोग नहीं हो सकता, उसी का प्रयोग हो सकता है—ऐसा ह्वीकल, वाहन बनने की पवित्रता चाहिए। तब संवाद हुआ। संवाद तो हो सकता है, लेकिन तब दूसरे के शरीर का उपयोग करना पड़ेगा। अभी इस तरह की कोशिश कृष्णमूर्ति के साथ चली, जो असफल हुई।

बुद्ध का एक अवतार होने की बात है—मैत्रेय। बुद्ध ने कहा है कि मैं मैत्रेय के नाम से एक बार और लौटूंगा। बहुत वक्त हो गया, ढाई हजार साल हो गए हैं। और ऐसी प्रतीति है कि कोई योग्य गर्भ नहीं उपलब्ध हो रहा है और मैत्रेय जन्म लेना चाहता है। लेकिन कोई योग्य गर्भ उपलब्ध नहीं है। तब एक दूसरी कोशिश करने की व्यवस्था की गयी कि गर्भ अगर नहीं मिल सकता है तो कोई एक व्यक्ति को विकसित किया जाए और उस व्यक्ति के माध्यम से वह बोल डाले। इसके लिए बड़ा आयोजन चला। सारी थियोसाफी का, पूरा का पूरा आंदोलन सिर्फ एक काम के लिए निर्मित हुआ है कि वह उतना काम कर दे, कि एक ऐसे व्यक्ति को खोज कर तैयार कर दे सब तरह से, जो एक ह्वीकल बन जाए।

मुहम्मद से जो आत्मा संदेश देना चाहती थी उसको यह तकलीफ नहीं हुई, ह्वीकल बनाना नहीं पड़ा, तैयार ही मिला। मूसा से जिस आत्मा ने संदेश दिया उसको भी वाहन बनाने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ी। वाहन मिल गया। बहुत सरल युग थे। वाहन मिलना कठिन नहीं था। अहंकार इतना कम था, इतनी विनम्रता से समर्पण हो सकता था कि कोई दूसरा उपयोग कर ले शरीर का और कोई हट जाए बिलकुल ऐसे ही जैसे उसका शरीर है ही नहीं। अब यह असंभव हो गया। इडीवीजुअलिटी प्रगाढ़ है। व्यक्ति—अहंकार भारी है। कोई इंचभर नहीं हट सकता। कठिन है मामला। तो व्यक्ति तैयार कर लिया गया।

थियोसाफिस्टों ने तीन—चार छोटे बच्चों को चुना, क्योंकि पका भरोसा नहीं कि किस बच्चे का भविष्य क्या हो जाए। उन्होंने कृष्‍णमूर्ति को चुना, उनके एक भाई नित्यानंद को चुना। कृष्ण मैनन को भी पीछे चुना। एक और व्यक्ति जार्ज अरंडेल को भी चुना। नित्यानंद की तो मृत्यु हुई अति चेष्टा करने से, दुर्घटना हुई। नित्यानंद पर इतनी चेष्टा की गयी, कृष्णमूर्ति के भाई पर कि वह ठीक माध्यम बन जाए, मैत्रेय का संदेश देने का। उस चेष्टा में ही उसकी मृत्यु हुई। उसकी मृत्यु से भी कृष्णमुति्र को इतना धक्का पहुंचा कि उनके लिए माध्यम बनने में भी बाधा पड़ी। उसकी मृत्यु उनके लिए तुलना हो गई। कृष्णमूर्ति को नौ साल की उम्र में एनीबीसेन्ट और लीड बीटर ने ले लिया। लेकिन यह एक मजे का खेल है, जगत एक बड़ा ड्रामा है। छोटी शक्तियों का खेल नहीं, बड़ी शक्तियों का खेल है।

जब मैत्रेय की आत्मा की संभावना बढ़ने लगी कि हो सकता है कृष्णमूर्ति में उतर जाए, तो जिस आत्मा ने, देवदत्त नाम का व्यक्ति, जिसने बुद्ध का जीवनभर विरोध किया, बुद्ध के जीवन में बुद्ध की हत्या की अनेक कोशिशें कीं जो बुद्ध का चचेरा भाई था, उसकी आत्मा कृष्णशूइrत के पिता पर हावी हो गयी। और एक मुकदमा चला जो प्रिवीकौसिल तक गया।

यह बात कभी नहीं कही गयी है, यह मैं पहली दफा कह रहा हूं। कृष्णमूर्ति के पिता के द्वारा यह दावा करवाया गया कि उसके बच्चे पर जबर्दस्ती इन लोगों ने कब्जा कर लिया है और उसे वह वापस चाहते हैं। नाबालिग बच्चा है। एनीबीसेन्ट ने जी—जान लगाकर वह संघर्ष किया। फिर भी नियमानुसार वह जीत नहीं सकती थी। क्योंकि नाबालिग बच्चे पर बाप का हक था। अगर बच्चा भी कहे तो भी कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि वह नाबालिग था, उसकी बात का कोई मतलब नहीं हो सकता था।

इसलिए कृष्णमूर्ति को लेकर हिंदुस्तान के बाहर भाग जाना पड़ा। इधर मुकदमा चलाया गया, उधर उसे लेकर भाग जाना पड़ा। इधर मुकदमा चला, उधर एनीबीसेन्ट.. लेकिन तब तक कृष्णमूर्ति को बाहर निकाल लिया गया। मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चला। वहां से भी एनीबीसेन्ट हारी, क्योंकि वह तो कानूनी मामला था। देवदत्त के हाथ में ज्यादा ताकत थी।

अकसर ऐसा होता है कि बुरे आदमियों के हाथ में कानून अधिक सहयोगी हो जाता है। क्योंकि अच्छा आदमी कानून की फिक्र नहीं करता। बुरे आदमी कानून का पहले इंतजाम कर लेते हैं। फिर वह प्रिवीकौसिल में गया। और प्रिवीकौसिल ने, सब कानून को तोड़कर निर्णय दिया कि वह एनीबीसेन्ट के पास जाए। इसके लिए कोई प्रेसीडेंट नहीं था। यह बिलकुल न्यायोचित नहीं थी घटना। इसके लिए कोई नियम नहीं था, यह बिलकुल ही गैरकानूनी था फैसला। लेकिन प्रिवीकौसिल के ऊपर तो कोई उपाय नहीं था। यह निर्णय भी मैत्रेय की आत्मा के द्वारा ही संभव हुआ, नहीं तो संभव नहीं हो सकता था। इसलिए छोटी कोर्टs में इसकी कोशिश नहीं की गयी, क्योंकि उनके ऊपर बड़ी कोर्ट थी, आखिरी कोर्ट में ही उपयोग किया गया और आखिरी अदालत के लिए रोक कर रखा गया।

यह नीचे के तल पर तो एक खेल था, जो इधर दिखायी पड़ रहा था, अखबारों में चल रहा था, अदालतों में मुकदमा लड़ा जा रहा था। यह ऊपर के तल पर भी शक्तियों का एक संघर्ष था। फिर कृष्णमूर्ति पर जितनी मेहनत की गयी, उतनी शायद ही कभी किसी व्यक्ति पर की गयी। व्यक्तियों ने खुद की है अपने ऊपर, इससे भी ज्यादा मेहनत की है, लेकिन दूसरे लोगों ने किसी पर इतनी मेहनत की हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। पर सारी मेहनत के बावजूद भी बात बिगड़ गयी ऐन वक्त पर।

थियोसाफिस्ट्स ने सारी दुनिया से छह हजार लोगों को हालैण्ड में इकट्ठा कर रखा था और घोषणा होनेवाली था कि कृष्णमूर्ति उस दिन अपने व्यक्तित्व को छोड़ देंगे और मैत्रेय के व्यक्तित्व को स्वीकार कर लेंगे। सारी तैयारियां हो गयी थीं। आखिरी इंच की घोषणा थी, एक बिंदु की बात थी कि मंच पर खड़े होकर वह कहेंगे कि अब मैं कृष्णमूर्ति नहीं हूं बस इतनी ही घोषणा बाकी थी। सारी भीतरी तैयारी पूरी थी कि वे इतना कह देंगे कि अब मैं कृष्‍णमूर्ति के व्यक्तित्व को इनकार करता हूं और खाली बैठ जाएंगे, ताकि मैत्रेय की आत्मा प्रवेश हो जाए और बोलना शुरू कर दें।

सारी दुनिया के छह हजार लोग जो समझते थे और उत्सुक थे, प्यासे थे, वह इकट्ठे हुए थे दूर—दूर से आकर, इस घटना को देखने के लिए और मैत्रेय की आवाज को सुनने के लिए। एक अनूठी घटना होनेवाली थी। लेकिन कुछ नहीं हुआ— और ऐन वक्त पर कृष्णमुर्ति ने इनकार कर दिया। देवदत्त ने फिर धक्का दिया। वह जो प्रिवीकौसिल में नहीं हो सका था, वह अंततः आखिरी अदालत में हार गया। देवदत्त ने धक्का देकर ऐन वक्त पर कृष्णमूर्ति से इनकार करवा दिया कि मैं कोई शिक्षक नहीं हूं मैं कोई जगतगुरु नहीं हूं किसी की आत्मा से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है। मैं, मैं हूं और जो मुझे कहना था—वह कह दिया।

. बहुत बड़ा प्रयोग असफल हुआ है, पर एक अर्थ में पहला प्रयोग था उस तरह का, और असफल होने की ज्यादा संभावना थी। उस तल पर आत्माएं संवाद नहीं कर सकती हैं, जब तक वह किसी के शरीर को न ग्रहण कर लें। और उस बीच में उनकी कोई प्रगति नहीं होती। इसीलिए मनुष्य—जन्म फिर अनिवार्य है। जैसे आज कोई मरा और सौ साल तक वह अशरीरी हालत में रहे तो इन सौ साल में किसी तरह का विकास ही नहीं होता। वह जहां मरा था पिछले जन्म में, ठीक वहीं से नए जन्म में प्रवेश करेगा, चाहे कितने ही समय बाद प्रवेश करे। यह विकास का काल नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे रात जहां आप सोते हैं, सुबह आप वही उठते हैं। नींद कोई विकास का काल नहीं है।

इसलिए अगर बहुत—से धर्म नींद के खिलाफ हो गए तो उसका कारण था, वे उसको कम करने में लग गए। क्योंकि उसमें कोई विकास नहीं होता। जहां आप थे, सुबह आप वहीं उठते हैं। ऐसे दो शरीरों के बीच, जहां से आप मरे थे, वहीं आप जन्मते हैं। आपकी स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता। बिलकुल ऐसे, जैसे हमने एक घड़ी बंद कर दी अभी और अब जब हम दुबारा शुरू करेंगे तो वह वहीं से शुरू हो जाएगी जहां हमने बंद की थी। बीच में सब विकास अवरुद्ध है। इसीलिए कोई भी देव—योनि से मोक्ष नहीं जा सकता। देव—योनि से मोक्ष न जाने का कुल कारण इतना ही है कि देव—योनि में कोई कर्मयोनि नहीं है। आप कुछ कर नहीं सकते हैं। कुछ हो नहीं सकता। सपने देख सकते हैं, अंतहीन सपने देख सकते हैं। मनुष्य होने के लिए लौटना ही पड़ेगा।

परिचय की जहां तक बात है, दो प्रेताआएं भी अगर परिचित होना चाहें तो भी दो व्यक्तियों में प्रवेश करके ही परिचित हो सकती हैं। सीधे परिचित नहीं हो सकतीं। करीब—करीब ऐसी हालत है, जैसे हम बीस आदमी इस कमरे में सो जाएं। हम बीस रातभर यहीं होंगे लेकिन नींद से हम परिचित नहीं हो सकते। हमारा जो परिचय है वह जागने पर ही होगा। जब हम जागेंगे तो फिर कन्टीन्यू हो जाएंगे, लेकिन नींद में हम परिचित नहीं हो सकते। तब हमारा कोई संबंध नहीं होता। हां, यह हो सकता है कि एक आदमी जाग जाए, वह सबको देख

इसका मतलब यह है कि अगर एक आत्मा किसी के शरीर में प्रवेश कर जाए, तो वह आत्मा इन सारी आत्माओं को देख सकती है। फिर भी वे आत्माएं उसे नहीं देखेंगी। और अगर एक आत्मा किसी के शरीर में प्रवेश कर जाए तो वह दूसरी आत्माओं को, जो कि अशरीरी हैं, उनके बाबत कुछ जान सकती है। लेकिन वे आत्माएं उसके बाबत कुछ भी नहीं जान सकतीं।

असल में जानना जो है, परिचय जो है, वह भी जिस मस्तिष्क से संभव होता है वह भी शरीर के साथ बिदा हो जाता है। हां, कुछ संभावनाएं फिर भी शेष रह जाती हैं जो कि हो सकती हैं। जैसे अगर किसी व्यक्ति ने जीते—जी मस्तिष्क मुक्त टेलीपैथी या क्लेअरवायंस के संबंध निर्मित किए हों, किसी व्यक्ति ने जीते—जी मस्तिष्क के बिना जानने के मार्ग निर्मित कर लिए हों, तो वह प्रेत या देव—योनि में भी जा सकेगा। पर ऐसे बहुत कम लोग हैं।

इसलिए जिन आत्माओं ने कुछ खबरें दी हैं उस लोक की आत्माओं के बाबत, वे उस तरह की आआएं हैं। यह स्थिति ऐसी है कि जैसे बीस आदमी शराब पी लें, सब बेहोश हो जाएं लेकिन एक आदमी ने शराब पीने का इतना अभ्यास किया हो कि कितनी ही शराब पी ले और बेहोश न हो, तो वह शराब पीकर भी होश में बना रहेगा। जो व्यक्ति शराब पीकर भी होश में बना रह सकता है, वह शराब के अनुभव के संबंध में ऐसा कुछ कह सकता है जो बेहोश रहनेवाले नहीं कह सकते। क्योंकि वह जानने के पहले ही बेहोश हो गए होते हैं।

इस तरह के भी छोटे—छोटे संगठन काम करते रहे हैं दुनिया में जो कुछ लोगों को तैयार करते हैं कि वह मरने के बाद जो लोक होगा, उस लोक के संबंध में कुछ जानकारी दे सकें। जैसे लंदन में एक छोटी—सी संस्था थी। जैसे कुछ बड़े—बड़े लोग— ओलिवर लाज जैसे लोग उसके सदस्य थे। उन्होंने पूरी कोशिश की। जब ओलिवर लाज मरा, उन्होंने पूरी चेष्टा की कि मरने के बाद वह खबर भेज सके। लेकिन बीस साल तक मेहनत करने पर भी कोई खबर न मिल सकी। ऐसी संभावना मालूम होती है कि ओलिवर लाज ने भी बहुत कोशिश की, क्योंकि कुछ और आत्माओं ने खबर दी कि ओलिवर लाज पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन कोई टूयूनिग नहीं बैठ पायी।

बीस साल निरंतर, बहुत दफा ओलिवर लाज ने खटखटाया उन लोगों को, जिनसे उसने वायदा किया था कि मैं खबर भेजूंगा। मैं मरते से ही पहला काम यह करूंगा कि कुछ खबर दे दूं। उसकी सारी तैयारी करवायी गयी थी कि वह खबर दे सकेगा। ऐसा होता था जैसे नींद में सोए आदमी को वह हड़बड़ा दे, घबड़ाकर उसका साथी बैठ जाएगा। ऐसा लगेगा कि ओलिवर लाज कहीं पास में है। लेकिन टूयूनिग नहीं बैठ पायी। ओलिवर लाज तैयार गया, लेकिन कोई दूसरा आदमी तैयार नहीं था—इस योग्य, जो ओलिवर लाज कुछ कहे तो उसे पकड़ ले। बीस साल निरंतर चेष्टा करता रहा।

न मालूम कितनी दफा ऐसा होता कि रास्ते में अकेले कोई जाए, एकदम कोई कंधे पर कोई हाथ रख दे। मित्र जो कि ओलिवर लाज के हाथ के स्पर्श को जानते थे वह एकदम चौंककर कहेंगे कि लाज, लेकिन फिर बात खो जाती है। इसकी बहुत कोशिश चली, बीस साल—उसके साथी तो सब घबरा गए और परेशान हो गए कि यह क्या हो रहा है! लेकिन कोई संदेश, एक भी संदेश नहीं दिया जा सका, हालांकि उसने द्वार बहुत खटखटाए।

दोहरी तैयारी चाहिए। अगर टेलीपैथी का ठीक अनुभव हुआ हो जीते—जी, बिना शब्द के बोलने की क्षमता आयी हो, बिना आंख के देखने की क्षमता आयी हो, तब उस योनि में उस तरह का व्यक्ति बहुत चीजें जान सकेगा। जानना भी सिर्फ हमारे होने पर निर्भर नहीं होता है।

जैसे एक बगीचे में जाएं एक वनस्पतिशाखी भी उस बगीचे में जाए, एक कवि भी उस बगीचे में जाए, और एक दुकानदार भी उस बगीचे में जाए, एक छोटा बच्चा भी उस बगीचे में जाए। वे सभी एक ही बगीचे में नहीं जाते हैं। बच्चा तितलियों के पीछे भागने लगता है, दुकानदार बैठकर अपनी दुकान की बात सोचने लगता है। उसे न फूल दिखायी पड़ते हैं, न कविता दिखायी पड़ती है। कवि फूलों में अटक जाता है, और कविताओं में खो जाता है।

वनस्पति—शास्री कुछ जानता है। उसकी ट्रेनिंग है भारी—पचास साल या बीस साल या तीस साल उसने वनस्पति की जो जानकारी ली है, वही वहां से बोलना शुरू कर देता है। एक—एक जड़, एक—एक पत्ता और एक—एक फूल में उसे दिखायी पड़ने लगता है, जो उनमें से किसी को दिखायी नहीं पड सकता।

ठीक इसी प्रकार उस लोक में भी, जो ऐसे ही मर जाते हैं इस जीवन में शरीर के अतिरिक्त बिना कुछ जाने, उनका तो कोई परिचय, कोई संबंध कुछ नहीं हो पाता। वह तो एक कोमा में, एक गहरी तंद्रा में पड़े रहकर नए जन्म की प्रतीक्षा करते’ हैं। लेकिन जो कुछ तैयारी करके जाते हैं वे कुछ कर सकते हैं। इसकी तैयारी के भी शास्त्र हैं। और मरने से पहले अगर कोई वैज्ञानिक ढंग से मरे, विज्ञानपूर्वक मरे, और मरने की पूरी तैयारी करके मरे, पूरा पाथेय लेकर, मरने के बाद के पूरे सूत्र लेकर कि क्या—क्या करेगा, तो बहुत काम कर सकता है। विराट अनुभव की संभावनाएं वहां हैं—लेकिन साधारणत: नहीं। साधारणत: आदमी मरा, अभी जन्म जाए कि वर्षों बाद जन्मे, वह इस बीच से कुछ भी लेकर, कुछ भी करके नहीं जाता। और इसलिए भी सीधे संवाद की कोई संभावना नहीं है।

इधर कुछ समय से मैं ऐसा महसूस कर रहा हूं कि आप किसी जल्दी में हैं। वह जल्दी क्या है यह जानने में अमसर्थ हूं। लेकिन जल्दी है जरूर और इसकी पुष्टि होती है इधर जनवरी और फरवरी महीनों में अपने कुछ प्रेमियों को लिखे गए आपके पत्रों से। प्रश्‍न उठता है कि जिस करुणा वश आपको जन्म धारण करना पड़ा क्या वह कार्य आप पूरा कर चुके हैं? यदि पूरा कर चुके हैं तो आपके उस कथन का क्या होगा जिसमें आपने कहा था कि मै गांव—गांव चुनौती देते हुए घूमूंगा और मुझे कोई आंख मिल जाएगी जो दीया बन सकती है तो उस पर मैं अपना पूरा श्रम करूंगा। मरते वक्त मैं कहीं यह न कहूं कि सौ आदमियों को खोजता था वे मुझे नहीं मिले?

 

ल्दी है। जल्दी दो—तीन कारणों से है। एक तो कितना भी समय हो तो भी सदा कम है। कितना भी समय हो और कितनी भी शक्ति हो तो भी सदा कम है। क्योंकि काम सदा सागर—जैसा है। शक्ति, समय, अवसर सब चुल्‍लुओं जैसा है। फिर बुद्ध हों कि महावीर, कृष्ण हों कि क्राइस्ट, चुल्लू से ज्यादा मेहनत नहीं हो पाती और काम सदा सागर—जैसा फैला रहता है। इसलिए जल्दी तो सदा ही है। यह तो सामान्य जल्दी है—जो होगी ही। दूसरे भी एक कारण से जल्दी है। कुछ समय तो बहुत स्थिर होते हैं जहां चीजें मंद गति से चलती हैं। जितने हम पीछे जाएंगे, उतना ही हम पाएंगे, कि मंद गति से चलनेवाला समय था। कुछ युग अति तीव्र होते हैं, जहां चीजें बहुत तीव्रता से जाती हैं।

आज हम ऐसे ही समय में हैं जहां सब चीजें तीव्रता में हैं, जहां कोई भी चीज स्थिर नहीं है। धर्म अगर पुराने ढंग और पुरानी चालों से चले तो पिछड़ जाएगा और मिट जाएगा। तब विज्ञान भी बहुत धीमी गति से चलता था, दस हजार साल हो जाते थे और बैलगाड़ी में कोई फर्क नहीं पड़ता था। बैलगाड़ी, बैलगाड़ी ही होती। लोहार के औजार में कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह वही औजार होता था। सब चीजें ऐसे चलती थीं जैसे कि नदी बहुत आहिस्ता सरकती है कि कहीं पता ही नहीं चलता है कि नदी सरकती भी है। किनारे करीब—करीब वहीं के वहीं होते थे। तब धर्म भी इतनी ही गति से चलता था, ताल—मेल था। धर्म अभी भी उसी गति से चलता है। और अन्य सब चीजें बहुत तीव्रता में हैं। तब धर्म अगर पिछड़ जाए, और लोगों के पैर से उसका कोई ताल—मेल न रह जाए, तो आत्‍मर्य नहीं है। इसलिए भी जल्दी है।

जितनी तीव्रता से जगत का पौद्गलिक शान बढ़ता है और जितनी तीव्रता से विज्ञान कदम भरता है, उतनी ही तीव्रता से, बल्कि थोड़ा उससे भी ज्यादा धर्म को गति करना चाहिए। क्योंकि धर्म जब भी आदमी से पीछे पड़ जाए तभी आदमी का नुकसान होता है। धर्म को आदमी से सदा थोड़ा आगे होना चाहिए। क्योंकि आदर्श सदा ही थोड़ा आगे होना चाहिए। नहीं तो आदर्श का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वास्तविकता से आदर्श सदा ही थोड़ा आगे, पार जानेवाला होना चाहिए। यह बहुत बुनियादी फर्क है।

अगर हम राम के जमाने में जाएं तो धर्म सदा आदमी से आगे है और अगर हम आज अपने जमाने में आएं तो आदमी सदा धर्म से आगे है। आज तो सिर्फ वही आदमी धार्मिक हो पाता है, जो बहुत पिछड़ा हुआ आदमी है। उसका कारण है। क्योंकि धर्म से सिर्फ उसके ही पैर मिल पाते हैं। जितना विकासमान हुआ है आज आदमी, उसका धर्म से संबंध छूट गया है—या औपचारिक संबंध रह गया है जो वह दिखाने के लिए रखता है। धर्म होना चाहिए आगे।

अब यह कितनी हैरानी की बात है कि अगर हम बुद्ध और महावीर के जमाने को देखें तो उस युग के जो श्रेष्ठतम लोग हैं वे धार्मिक हैं और अगर हम आज के धार्मिक आदमी को देखें तो हमारे बीच का जो निकृष्टतम आदमी है, वही धार्मिक है। उस जमाने में जो अग्रणी है, चोटी पर है, वह धार्मिक था और आज जो बिलकुल ग्रामीण है, पिछडा हुआ है, वही धार्मिक है। बाकी कोई धार्मिक नहीं है। इसका कारण है। धर्म आदमी ‘से आगे कदम नहीं बढ़ा पा रहा है। इसलिए भी जल्दी है।

फिर इसलिए भी जल्दी है कि कुछ समय इमरजेंसी के होते हैं, आपातकालीन होते हैं। जैसे, आप कभी अस्पताल की तरफ जा रहे होते हैं तब आपकी चाल वही नहीं होती जो आपकी दुकान की तरफ जाने की होती है। वह चाल आपातकालीन, इमरजेंसी की होती है। आज करीब—करीब हालत ऐसी है कि अगर धर्म कोई बहुत प्राणवान आंदोलन जगत में पैदा नहीं कर पाया तो पूरी मनुष्यता भी नष्ट हो सकती है। समय बिलकुल इमरजेंसी का है, अस्पताल की तरफ जाने जैसा है। जहां कि हो सकता है कि हमारे पहुंचने के पहले मरीज मर जाए, हमारे औषधि लाने के पहले मरीज मर जाए। हमारा निदान हो और मरीज मर जाए।

इसका कोई व्यापक परिणाम धार्मिक चिंतकों पर नहीं है। यद्यपि धार्मिक चिंतकों की बजाय सारी दुनिया की नयी पीढ़ी पर और विशेषकर विकसित मुल्कों की नयी पीढ़ी पर इसका बहुत सीधा परिणाम हुआ है। और वह परिणाम यह हुआ है कि आज अगर अमरीका के युवक को मां—बाप यह कहें कि तू यूनिवर्सिटी में पढ़ ले, दस साल पढ़ लेगा तो अच्छी नौकरी मिल जाएगी। तो युवक यह कहता है कि क्या इस बात की गारंटी है कि दस साल बाद मैं बचूंगा या यह आदमी बचेगा? और मां—बाप कै पास जवाब नहीं है। कल का भरोसा सर्वाधिक कम आज अमरीका में है। सर्वाधिक कम! कल बिलकुल गैर— भरोसे का है। कल होगा भी कि नहीं, इसका पका नहीं। इसलिए इतनी जोर से आज को ही भोग लेने की आकांक्षा है। यह आकस्मिक नहीं है। यह बहुत तीव्र… चारों तरफ साफ स्थिति है कि चीजें कल बिखर सकती हैं, बिलकुल! करीब—करीब ऐसी हालत है जैसे कि मरीज खाट पर पड़ा हो और किसी भी क्षण मर सकता हो। ऐसी पूरी आदमियत है।

इसलिए भी जल्दी है कि अगर आपके निदान बहुत धीमे और मद्धिम रहें तो कोई परिणाम होनेवाला नहीं है। इसलिए बहुत तीव्रता में मैं हूं कि जो भी हो सकता है वह शीघ्रता से होना चाहिए। और यह जो मैंने कहा कि गांव—गांव घूमूंगा—वह मैं एक अर्थ में अपने हिसाब में घूम लिया हूं। जिन आदमियों का मुझे खयाल है, वह मेरे ध्यान में हैं। अब उन पर काम करने की बात है। बड़ी कठिनाई तो इसलिए होती है कि मेरे खयाल में कोई आदमी आ जाए इससे उस आदमी के खयाल में मैं आ जाऊं, यह जरूरी थोड़े ही है। और जब तक उसके खयाल में मैं न आ जाऊं, तब तक कुछ काम नहीं हो सकता।

काम शुरू भी किया है। और कब आऊंगा, जाऊंगा —उसका भी प्रयोजन यही है कि काम कर सकूं। क्योंकि मैं आता ही जाता रहूंगा तो काम नहीं हो पाएगा। लोगों को तैयार करके बहुत जल्दी, दो वर्ष में गांव—गांव भेज दूंगा। वह बिलकुल जा सकेंगे। और वैसी स्थिति नहीं आएगी। सौ नहीं, दस हजार आदमी तैयार किए जा सकेंगे। जो बहुत संकट के काल होते हैं, खतरे के भी होते हैं, संभावना के भी होते हैं। उपयोग नहीं किया जाए तो दुर्घटना हो जाती है। उपयोग कर लिया जाए तो बहुत संभावना के हो जाते हैं। बहुत लोगों को तैयार भी किया जा सकता है। बहुत साहस का भी योग है, बहुत—से लोगों को बहुत अशात में छलांग के लिए भी तैयार करवाया जा सकता है—वह होगा!

यह तो जो बाहर की स्थिति है, वह मैंने कही, लेकिन जब भी कोई युग जैसे—जैसे ध्वंस के करीब आता है, तब भीतरी तल पर बहुत—सी आत्माएं विकास के आखिरी किनारे पर पहुंच गयी होती हैं। उनको जरा—से धक्के की जरूरत होती है। जरा—से इशारे से उनकी छलांग लग सकती है। जैसे आमतौर से हम जानते हैं कि मौत करीब देखकर आदमी मौत के पार का चिंतन करने लगता है—एक—एक व्यक्ति जैसे—जैसे मौत निकट आती है, वैसे धार्मिक होने लगता है। मौत करीब आती है तो सवाल उठने शुरू होते हैं मौत के पार के, अन्यथा जिंदगी इतनी उलझाए रखती है कि सवाल ही नहीं उठते। जब कोई पूरा युग मरने के करीब आता है, तब करोड़ों आत्माओं में भी वह खयाल भीतर से आना शुरू होता है। वह भी संभावना है, उसका उपयोग किया जा सकता

इसलिए मैं धीरे—धीरे अपने को बिलकुल कमरे में ही सिकोड़ लूंगा। मैं आने—जाने को समाप्त ही कर दूंगा। अब तो जो लोग मेरे खयाल में हैं, उन पर मैं काम शुरू करूंगा। उनको तैयार करके भेजूंगा और जो मैं अकेला घूमकर नहीं कर सकता हूं वह मैं दस हजार लोगों को घुमाकर करवा सकूंगा।

मेरे लिए धर्म बिलकुल वैज्ञानिक प्रक्रिया है। तो ठीक वैज्ञानिक टेकनीक के ढंग से सारी चीजें मेरे खयाल में हैं। जैसे—जैसे लोग तैयार होते जाएंगे, उनको वैज्ञानिक टेकनीक दे देनी है। वह उस टेकनीक से जाकर काम कर सकेंगे हजारों लोगों पर। मेरी जरूरत नहीं रहेगी उसमें। मेरी जरूरत इन लोगों को खोजने के लिए थी। इनसे अब मैं काम ले सकूंगा। मेरी जरूरत कुछ सूत्र निर्मित करने की थी, वह निर्मित हो गए। एक वैज्ञानिक का काम पूरा हो गया। अब टेक्रीशियंस का काम होगा। एक वैज्ञानिक काम पूरा कर लेता है। उसने बिजली खोज कर रख दी। एक एडिसन ने बिजली का बल्व बना दिया। अब तो गांव का मिस्री भी बिजली के बल्व को ठीक कर लेता है और लगा देता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। इसके लिए किसी एडीसन की जरूरत नहीं है।

अब मेरे पास करीब—करीब पूरा खयाल है। अब जैसे—जैसे लोग तैयार होते जाएंगे, उनको खयाल देकर, प्रयोग करवाकर भेज सकूंगा, वे जा सकेंगे। सब मेरी नजर में हैं। क्योंकि सभी को संभावनाएं दिखायी नहीं पड़ती, अधिक लोगों को तो वास्तविकताएं ही दिखायी पड़ती हैं। संभावनाएं देखना बहुत कठिन बात है। संभावनाएं मेरी नजर में हैं। बहुत सरलता से.. बुद्ध और महावीर के समय में जैसे बिहार के छोटे—से इलाके की स्थिति थी, वैसी दस वर्ष में सारी दुनियां की स्थिति हो सकती है—उतने ही बड़े व्यापक पैमाने पर, लेकिन बिलकुल नए तरह का धार्मिक आदमी निर्मित करना पड़ेगा। नए तरह का संन्यासी निर्मित करना पड़ेगा। नए तरह के ध्यान और योग के प्रयोग की क्रियाएं निर्मित करनी पड़ेगी। वह सब निर्मित हैं, मेरे खयाल में।

जैसे—जैसे लोग मिलते जाएंगे उनको दे दिया जाएगा, वे उनको आगे पहुंचा देंगे। खतरा भी बहुत है, क्योंकि अवसर चूके तो बहुत नुकसान भी होगा। अवसर का उपयोग हो सके तो इतना कीमती अवसर मुश्किल से कभी आता है, जैसे आज है। सभी अर्थों में युग अपने शिखर पर है, अब आगे उतार ही होगा। अब अमरीका इससे आगे नहीं जा सकेगा, बिखराव होगा। यानी छू चुका अपने शिखर को और बिखर गया। अब कोई संभावना नहीं है। इस युग की सभ्यता बिखराव पर है। आखिरी क्षण है।

यह हमको खयाल में नहीं है कि बुद्ध और महावीर के बाद हिंदुस्तान बिखरा। बुद्ध और महावीर के बाद फिर वह स्वर्ण—शिखर नहीं छुआ जा सका। लोग आमतौर से सोचते हैं कि बुद्ध और महावीर की वजह से ऐसा हो गया होगा। बात उल्टी है। असल में बिखराव के पहले ही बुद्ध और महावीर की हैसियत के लोग काम कर पाते हैं, नहीं तो काम नहीं कर पाते। क्योंकि बिखराव के पहले जब सब चीजें अस्त—व्यस्त होती हैं, सब चीजें गिरने के करीब होती हैं।

जैसे व्यक्ति के सामने मौत खड़ी हो जाती है, वैसे ही पूरी सामूहिक चेतना के सामने मौत खड़ी हो जाती है। और समूहगत चेतना धर्म के और अज्ञात के चिंतन में उतरने के लिए तैयार हो जाती है। इसलिए यह संभव हो पाया कि बिहार जैसी छोटी—सी जगह में पचास—पचास हजार संन्यासी महावीर के साथ घूम सके। यह फिर संभव हो सकता है। इसकी पूरी संभावना है। उसकी पूरी कल्पना और योजना मेरे खयाल में है। मेरा जो काम था वह एक अर्थ में पूरा हो गया है। इस अर्थ में पूरा हो गया है कि मैं जिन लोगों को भेजना चाहता था, उन्हें मैंने खोज लिया है। उन्हें भी पता नहीं, मैंने उन्हें खोज लिया है। अब उनको काम करना है और उनको तैयार करके भेज देना है।

इसलिए भी जल्दी है कि जब तक मेरा काम था, तब तक मैं बहुत आश्वस्त था, बहुत जल्दी की बात नहीं थी। मै जानता था, क्या मुझे करना है, वह मैं कर रहा था। अब मुझे दूसरों से काम लेना है। अब उतना आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। जब तक मैं कर रहा था तब मुझे खयाल था कि क्या करना है, बात ठीक थी। जब दूसरों से काम लेना होता है तो कठिनाई और जटिलता पैदा होती है। फिर मैं मित्रों को साफ कह ही देना चाहता हूं कि मैं जल्दी में हूं उन्हें भी जल्दी में होना चाहिए। क्योंकि जिस गति से लोग चलते हुए दिखायी पड़ते हैं, उस गति से वे कहीं नहीं पहुंचने वाले हैं। मुझे तीव्रता में देखकर शायद उनमें भी तीव्रता आ सकती है, अन्यथा आ नहीं सकती।

कई बार जैसे कि जीसस को करना पड़ा। जीसस ने तो कहा कि बहुत जल्दी सब समाप्त होनेवाला है। मगर लोग कितने नासमझ हैं, हिसाब लगाना मुश्किल है। जीसस ने कहा, बहुत जल्दी सब समाप्त हो जाएगा। तुम अपनी आंखों के सामने देखोंगे कि सब नष्ट हो जाएगा। चुनाव का वक्त करीब है। और जो आज नहीं बदलेंगे, उनको बदलने का फिर कोई मौका नहीं बचेगा। जिन्होंने सुना, समझा, उन्होंने अपने को बदला लेकिन अधिक लोग तो पूछने लगे कि कब आएगा वह समय? अभी भी दो हजार साल बाद, ईसाई, पंडित, पुरोहित और थियोलाजिस्ट्स बैठकर विचार कर रहे हैं कि जीसस से कुछ गलती हो गयी मालूम होती है। क्योंकि अभी तक तो वह ‘डे आफ जजमेंट’ आया नहीं। निर्णय का दिन अभी तक नहीं आया, दो हजार साल हो गए। जीसस ने कहा था, अभी, तुम्हारे सामने, अभी यह घटना घटजाएगी। अभी मेरे देखते—देखते चुनाव का वक्त आ जाएगा और जो चूक जाएंगे वह सदा के लिए चूक जाएंगे। वह अभी तक नहीं आया।

यह जीसस से कोई भूल हो गयी या फिर हमने कुछ समझने में भूल कर दी? कुछ हैं कि जीसस को कुछ पता नहीं था, इसलिए बडी गलती की, इसलिए और भी कुछ पता नहीं होगा। कुछ हैं जो कहते हैं कि शास्त्र की व्याख्या में भूल हो गयी। लेकिन उनमें से किसी को पता नहीं कि जीसस जैसे लोग जो कहते हैं, उसके प्रयोजन होते हैं। इतनी तीव्रता जीसस ने पैदा की, उस तीव्रता में जो लोग समझ सके वह लोग रूपांतरित हो गए। और आदमी तीव्रता में ही रूपांतरित होता है। नहीं तो रूपांतरित नहीं होता। उसको अगर पता है कि कल हो जाएगा, तो वह आज तो करेगा ही नही। वह कहेगा, कल करेंगे। उसे अगर पता है, परसों हो जाएगा, तो वह कहेगा, परसों कर लेंगे। उसे अगर पता चलजाए कि कल है ही नही, तो ही रूपांतरण की क्षमता आती

एक लिहाज से बिखराव की जो सभ्यताएं होती हैं, यानी जब सभ्यता बिखरती है तब कल बहुत संदिग्ध हो जाता है। कल का कोई पका नहीं रहता। तब आज ही सिकोड़ना पड़ता है हमें। भोगना हो तो भी आज सिकोड़ना पड़ता है और त्यागना हो तो भी आज सिकोड़ना पड़ता है। नष्ट करना हो स्वयं को तो भी आज ही करना पड़ता है, रूपांतरित करना हो तो भी आज ही करना पड़ता है। तो एक घटना तो घट गयी है कि यूरोप और अमेरिका भोगने के लिए आज तैयार हो गए हैं कि जो करना है, आज कर लो। कल की फिक्र छोड़ दो। पीना है पी ले, भोगना है भोग लो, चोरी करना है चोरी कर लो, खाना है खा लो। जो करना है, आज कर लो। यह एक घटना घट गयी भौतिक तल पर।

मैं चाहता हूं कि आध्यात्मिक तल पर भी यह घटना घट जानी चाहिए कि जो रूपांतरण करना है वह आज कर लो, अभी कर लो। वह ठीक इसके समानांतर घट सकती है। उसकी तीव्रता में मैं हूं कि वह खयाल में आना शुरू हो जाए। निश्रय ही, पूरब से ही वह खयाल आ सकेगा। उसकी हवा पूरब से ही जा सकेगी। पश्चिम इस हवा में जोर से बह सकता है। लेकिन हवा उसकी पूरब से ही जाएगी।

चीजों के पैदा होने का भी स्थान होता है। जैसे सभी वृक्ष सब मुल्कों में नहीं हो जाते हैं। अलग—अलग जड़ें होती हैं, जमीन होती है, हवा होती है, पानी होता है। ऐसे ही सभी विचार भी सभी भूमियों में नहीं हो जाते हैं। भिन्न प्रकार की जड़ें होती हैं, हवा होती है, पानी होता है। विज्ञान पूरब में पैदा नहीं हो सका। उस वृक्ष के लिए पूरब में जड़ें नहीं हैं।

धर्म पूरब में ही पैदा होता रहा, उसके लिए बड़ी गहरी जड़ें हैं, उसकी हवा बिलकुल तैयार है, पानी बिलकुल तैयार है, भुमि बिलकुल तैयार है। अगर विज्ञान पूरब में आया है, तो पश्‍चिम से ही आया है। अगर धर्म पश्‍चिम में जाएगा, तो पूरब से ही जाएगा। कई बार मुकाबला पैदा हो सकता है। जैसे जापान है—मुल्क पूरब का है, लेकिन विज्ञान में पश्‍चिम के किसी भी मुल्क से मुकाबला ले सकता है। फिर भी मजे की बात है, सिर्फ इमीटेट करता है, कभी भी मौलिक नहीं हो पाता। ऐसा भी कर लेता है कि इमीटेशन के आगे मूल भी फीका दिखायी पड़ने लगता है। लेकिन फिर भी होता इमीटेशन है। फिर भी जापान एक चीज इनवेंट नहीं कर पाता—यानी एक आविष्कार नहीं कर पाता। हा, रेडियो बनाएगा तो वह अमेरिका से आगे बनाने लगेगा, लेकिन फिर भी होगी वह नकल। वह नकल में कुशल हो जाएगा। लेकिन होंगे वृक्ष पराए। उनको लगा लेगा, संभाल लेगा। लेकिन नये अंकुर उसके पास अपने नहीं आनेवाले हैं।

ठीक धर्म के साथ, पश्‍चिम में आगे जा सकता है अमेरिका भी। अगर पूरब से हवा पहुंच जाए तो वह एक मामले में पूरब को फीका कर सकेगा। लेकिन फिर भी वह नकल होगी। जो इनीशिएटिव है, जो पहला कदम है वह पूरब के हाथ में है। इसलिए जल्दी, मैं इस फिक्र में हूं कि पूरब से लोग तैयार किए जाएं और पश्‍चिम में भेजे जा सकें। जोर से वहां आग पकड़ लेगी, लेकिन चिंगारी पूरब से ही जानी है।

”मैं कहता आंखन देखी’’ :

अंतरंग भेंट वार्ता बुडलैड़,

बम्बई दिनांक 12 मार्च 1971


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महावीर मेरी दृष्‍टी में–(प्रवचन–7)

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अनुभूति की महावीर-अभिव्यक्ति—(प्रवचन—सातवां)

त्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति कैसे मिले, यही बड़े से बड़ा सवाल महावीर के सामने इस जन्म में था। और यह सवाल इतना बड़ा न होता, क्योंकि महावीर पहले शिक्षक नहीं हैं, जिनके सामने अभिव्यक्ति की बात उठी हो। जिन्होंने भी सत्य को जाना है, उन सभी के सामने यही सवाल है। लेकिन महावीर के सामने सवाल कुछ और बहुत ही गहरे रूप में उपस्थित हुआ था, जैसा कभी नहीं हुआ था। और महावीर के व्यक्तित्व की विशेषताओं में एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने सत्य की जो अनुभूति हुई है, उसकी अभिव्यक्ति को जीवन के समस्त तलों पर प्रकट करने की कोशिश की है।

मनुष्य तक कुछ बात कहनी हो, कठिन तो बहुत है, लेकिन फिर भी बहुत कठिन नहीं है। लेकिन महावीर ने एक चेष्टा की जो अनूठी है और नई है। और वह चेष्टा यह है कि पौधे, पशु-पक्षी, देवी-देवता, सब तक–जीवन के जितने तल हैं, सब तक–उन्हें जो मिला है उसकी खबर पहुंच जाए! फिर महावीर के बाद ऐसी कोशिश करने वाला, ठीक वैसी कोशिश करने वाला दूसरा आदमी नहीं हुआ। असीसी के संत फ्रांसिस ने थोड़ी सी कोशिश की है पक्षियों और पशुओं तक बात पहुंचाने की यूरोप में। और अभी-अभी श्री अरविंद ने बड़ी कोशिश की है पदार्थ तक, मैटर तक चेतना के स्पंदन पहुंचाने की। लेकिन महावीर जैसा प्रयास न तो पहले कभी हुआ था, न महावीर के बाद हुआ है।

तो वे जो बारह वर्ष आमतौर से सत्य की साधना के लिए समझे जाते हैं, वे सत्य की उपलब्धि जो हुई है उसकी अभिव्यक्ति के लिए साधन खोजने के वर्ष हैं। और इसीलिए ठीक बारह वर्षों बाद महावीर सारी साधना का त्याग कर देते हैं। नहीं तो साधना का कभी त्याग नहीं किया जा सकता। सत्य की उपलब्धि की जो साधना है, उसका तो कभी त्याग किया ही नहीं जा सकता। क्योंकि सत्य की उपलब्धि की जो साधना है, वह ऐसी नहीं है कि सत्य उपलब्ध हो जाए तो व्यर्थ हो जाए।

जैसा मैंने सुबह कहा कि सत्य की उपलब्धि का मार्ग है: अमूर्च्छित चेतना, अप्रमाद, विवेक, जागरण, अवेयरनेस। तो ऐसा नहीं है कि जिसको सत्य उपलब्ध हो जाए वह अवेयरनेस, जागरण, अप्रमाद का त्याग कर दे। यह असंभव है। क्योंकि जो सत्य उपलब्ध होगा, उस सत्य की उपलब्धि में जागरण अनिवार्य हिस्सा होगा। यानी वह सत्य भी जागी हुई चेतना का एक रूप ही होगा। इसलिए फिर ऐसा नहीं है कि जागरण छोड़ दिया जाए।

साधना सिर्फ वही छोड़ी जा सकती है, जो परम उपलब्धि की तरफ न हो, बल्कि मीन्स की तरह, साधन की तरह उपयोग की गई हो। जैसे आप यहां एक बैलगाड़ी में बैठ कर आएं, तो यहां उतर कर बैलगाड़ी को छोड़ देंगे, क्योंकि बैलगाड़ी कहीं पहुंचाने का साधन थी, इसके बाद व्यर्थ हो जाती है।

जो साधन कहीं जाकर व्यर्थ हो जाते हैं, वे साध्य के हिस्से नहीं होते, इसलिए व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन जो साधन अनिवार्यतः साध्य में विकसित होते हैं, वे कभी भी व्यर्थ नहीं होते हैं। विवेक कभी भी व्यर्थ नहीं होगा। सत्य की पूर्ण उपलब्धि पर विवेक व्यर्थ नहीं होगा, बल्कि विवेक पूर्ण होगा।

लेकिन महावीर बारह वर्ष की साधना के बाद सब छोड़ देते हैं! और यह भी उनके पीछे चलने वाले चिंतक कभी नहीं विचार कर पाए कि यह कैसी बात है! इसका कोई उत्तर भी नहीं दे पाए। न दे पाने का कारण था, क्योंकि वे समझ ही न सके कि यह केवल अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साधन खोजने का इंतजाम था, आयोजन था। वे माध्यम मिल गए हैं और आयोजन व्यर्थ हो गया है। यानी आयोजन शाश्वत नहीं था, सामयिक था, जरूरत का था, इससे ज्यादा उसका मूल्य नहीं था।

क्या किया जीवन के समस्त तलों तक अपनी अनुभूति की प्रतिध्वनि, तरंग पैदा करने के लिए?

तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो अस्तित्व का मूक अंग है–जैसे पत्थर है, पौधा है, पक्षी हैं, पशु हैं। यह अस्तित्व का मूक अंग है। इसमें फर्क हैं, पत्थर में और पशु में बहुत। लेकिन यह एक विभाग है, जहां पशु और पत्थर के बीच का फासला है, लेकिन मूक है अंग। अगर इस मूक अंग से संबंधित होना हो किसी व्यक्ति को और अपने अनुभव को इस तक पहुंचाना हो, तो उसे परम जड़ अवस्था, परम मूक अवस्था में उतरना पड़ेगा, तभी उसका तालमेल, सामंजस्य इस लोक से हो सकेगा।

उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति वृक्ष के पास बैठ कर परिपूर्ण मूक हो जाए, ऐसा जैसे कि जड़ हो गया, जैसे कि अब उसका शरीर कोई जीवित वस्तु नहीं है, और चेतना उसकी परिपूर्ण शांत होती चली जाए और उस जगह पहुंच जाए जहां एक शब्द नहीं है, तो इस परिपूर्ण मूक अवस्था में वृक्ष से संवाद संभव है।

रामकृष्ण निरंतर ऐसी अवस्था में उतरते रहे, जिसे रामकृष्ण की मैं जड़ समाधि कहता हूं। जहां वे दिनों बीत जाते और बेहोश पड़े रहते। उस बेहोश अवस्था में वे चारों तरफ का जो बेहोश अस्तित्व का हिस्सा है, उससे संबंधित हो जाते।

एक दिन बहुत अदभुत घटना घटी। वे एक नाव से जा रहे हैं, नाव पर बैठे हैं, आंख उनकी बंद है और वे किस क्षण खो जाते हैं, कुछ पता नहीं। आंख बंद है और एकदम से वे चिल्लाए हैं कि मत मारो! मुझे क्यों मारते हो? मैंने क्या बिगाड़ा है? मुझे मारते क्यों हो?

चारों तरफ नाव पर बैठे उनके मित्र और भक्त हैरान हो गए हैं कि उन्हें कौन मार रहा है! और कोई उन्हें मारेगा कैसे! और मारने का कारण भी नहीं कुछ! और कोई मौजूद भी नहीं है! वे उन्हें हिलाते हैं और कहते हैं, क्या हुआ आपको? कहते हैं, कोई मुझे बहुत कोड़े मारता है। चादर उतारी है तो कोड़े के चिह्न हैं पीठ पर। तब तो और हैरानी हो गई! लोगों ने उनसे कहा, लेकिन हम सब मौजूद हैं, किसी ने आपको मारा नहीं! रामकृष्ण ने हाथ उठाया नदी के उस पार, कहा, देखते नहीं वे सब मिल कर मुझे मार रहे हैं।

एक आदमी को कुछ लोग मार रहे हैं। कोड़ों से मार रहे हैं। जब नाव उस तरफ लगी है तो जाकर हैरानी हुई है कि उस आदमी की पीठ पर, जहां कोड़ों के निशान हैं, वहीं रामकृष्ण की पीठ पर कोड़ों के निशान हैं।

यह कैसे संभव हुआ? यह किस अवस्था में संभव हुआ? और यह इतनी अभूतपूर्व घटना है और इतनी ज्यादा पुरानी भी नहीं और इतने आंखों देखे गवाह इसके थे। यह हुआ एक ऐसी चित्त की अवस्था में, जब मूक स्थिति में आस-पास के समस्त जगत से एक तादात्म्य हो जाता है।

और यह ध्यान रहे कि पूछा जा सकता है कि जिस आदमी को मारा गया था, उसी से तादात्म्य हुआ? जो मार रहे थे, उनसे नहीं? और वृक्ष थे, पौधे थे, सड़कों पर चलते लोग थे, नावों में बैठे लोग थे, उनसे नहीं?

तो भी थोड़ी समझने की बात है। आपके पैर में कांटा गड़ जाए तो आपकी चेतना का तादात्म्य कांटे के बिंदु से हो जाता है। सारे शरीर को भूल जाती है चेतना और जहां कांटा गड़ा है, वहीं चेतना खड़ी हो जाती है। पैर में कांटा नहीं गड़ा था तो आपको पैर का पता भी नहीं था। और पैर में कांटा गड़ा है तो अब शरीर में किसी हिस्से का पता नहीं है, बस उसी का पता रह गया है।

तो जब विराट तादात्म्य भी उपलब्ध होता है तो भी जहां दुख है, जहां गड?न है, जहां पीड़ा है, बस वहां तादात्म्य सबसे ज्यादा स्पष्ट और प्रखर हो जाता है।

महावीर ने इस दिशा में मनुष्य-जाति के इतिहास में सबसे गहरे प्रयोग किए हैं। और आप जान कर हैरान होंगे कि महावीर की अहिंसा की जो बात निकली है, वह अहिंसा की बात किसी तत्व-विचार से नहीं निकली है, और न वह अहिंसा की बात इस बात से निकली है कि अहिंसक जो होगा, वह मोक्ष जाएगा। वह अहिंसा की बात निकली है नीचे के जगत से तादात्म्य से। और उस तादात्म्य में जो पीड़ा उन्होंने अनुभव की है नीचे के जगत की, उस पीड़ा की वजह से अहिंसा उनके जीवन का परम तत्व बन गया।

इसमें दो बातें समझने जैसी हैं। आमतौर से यही समझा जाता है कि जो अहिंसक है, वह मोक्ष की साधना कर रहा है। अहिंसा से जीएगा तो मोक्ष जाएगा। लेकिन ऐसे लोग मोक्ष चले गए हैं, जो अहिंसा से नहीं जीए हैं। न तो क्राइस्ट अहिंसक हैं, न रामकृष्ण, न मोहम्मद। ऐसे लोग मोक्ष चले गए हैं, जो अहिंसा से नहीं जीए हैं।

इसलिए जिनको यह खयाल है कि अहिंसा से जीने से मोक्ष जाएंगे, वे महावीर को समझ नहीं पाए हैं। बात बिलकुल ही दूसरी है। महावीर ने नीचे के, मनुष्य से नीचे का जो मूक जगत है, उससे जो तादात्म्य किया है और उसकी जो पीड़ा अनुभव की है, वह पीड़ा इतनी सघन है कि अब उसे और पीड़ा देने की कल्पना भी असंभव है। उसे जरा सी भी पीड़ा पहुंचानी महावीर के लिए असंभव है। इतनी असंभव किसी के लिए भी नहीं रही कभी भी, जितनी महावीर के लिए असंभव हो गई। और यह जिस अनुभव से आया है वह अनुभव था उस जगत को अपने प्राणों में जो अनुभव हुआ है, उसे विस्तीर्ण करने का प्रयोग था।

इस प्रयोग में अहिंसा निर्मित होने में दो बातें बनीं। एक तो यह कि जो पीड़ा अनुभव की, जो सफरिंग उन्होंने अनुभव की नीचे के जगत की, वह इतनी ज्यादा है कि उसमें जरा भी कोई बढ़ती करे किसी भी कारण से तो असह्य है। और दूसरी बात उन्होंने यह अनुभव की कि अगर व्यक्ति पूर्ण अहिंसक न हो जाए तो नीचे के जगत से तादात्म्य स्थापित करना बहुत मुश्किल है। यानी हम तादात्म्य उसी से स्थापित कर सकते हैं, जिसके प्रति हमारा समस्त हिंसक-भाव, आक्रामक-भाव विलीन हो गया हो और प्रेम-भाव का उदय हो गया हो। तादात्म्य सिर्फ उसी से संभव है। तो अगर मूक जगत से तादात्म्य स्थापित करना है तो अहिंसा शर्त भी है, नहीं तो वह तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता।

जैसे मैंने संत फ्रांसिस का नाम लिया। इस आदमी ने पशुओं के साथ संबंध स्थापित करने में बेजोड़ काम किया है, अदभुत काम किया है। तो इस बात की आंखों देखी गवाहियां हैं कि अगर संत फ्रांसिस नदी के किनारे खड़ा हो जाता तो सारी मछलियां तट पर इकट्ठी हो जातीं, सारी नदी खाली हो जाती! तट पर फ्रांसिस का बैठना कि सारी मछलियां…और न केवल मछलियां इकट्ठी हो जातीं बल्कि छलांग लगातीं फ्रांसिस को देखने के लिए। जिस वृक्ष के नीचे बैठ जाता, उस जंगल के सारे पक्षी उस वृक्ष पर आ जाते। न केवल वृक्ष पर आ जाते, उसकी गोद में उतरने लगते, उसके सिर पर बैठ जाते, उसके कंधों को घेर लेते।

संत फ्रांसिस से जब भी किसी ने पूछा कि यह कैसे संभव है, तो उसने कहा, और कोई कारण नहीं है, वे भलीभांति जानते हैं कि मेरे द्वारा उनके लिए कोई भी नुकसान कभी नहीं पहुंच सकता।

और पक्षियों के पास एक इंटयूटिव फोर्स है, एक अंतःप्रज्ञा है, जो हमने बहुत पहले खो दी है। जान कर आप हैरान होंगे कि जापान में एक ऐसी चिड़िया है–साधारण चिड़िया है, जो गांव में आमतौर से होती है और दिन भर गांव में दिखाई पड़ती है–भूकंप आने के चौबीस घंटे पहले वह चिड़िया गांव छोड़ देती है! अभी हमने भूकंप की जांच-पड़ताल के जितने भी उपाय किए हैं, वे भी दो-ढाई घंटे से पहले खबर नहीं दे सकते, और वह खबर भी बहुत विश्वसनीय नहीं होती। लेकिन वह चिड़िया चौबीस घंटे पहले एकदम गांव छोड़ देती है! उस चिड़िया का गांव में न दिखाई पड़ना और पक्का है कि चौबीस घंटे के भीतर भूकंप आ जाएगा। बड़ी कठिनाई की बात रही कि वह चिड़िया कैसे जान पाती है! क्योंकि चिड़िया के पास जानने के कोई यंत्र नहीं हैं, कोई शास्त्र नहीं है, कोई विधि नहीं है।

ऊपर उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले सैकड़ों पक्षी हैं, जो प्रतिवर्ष सर्दी के दिनों में जब बर्फ पड़ेगी तो आकर यूरोप के समुद्र के तटों पर आएंगे। बर्फ जब पड़नी शुरू हो जाती है, तब अगर वे यात्रा शुरू करें तो उनका आना बहुत मुश्किल है, इसलिए बर्फ गिरने के महीने भर पहले वे पक्षी उड़ान शुरू कर देते हैं। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि वे जिस दिन उड़ान शुरू करते हैं, उसके ठीक एक महीने बाद बर्फ गिरनी शुरू होती है। फिर वे हजारों मील का फासला तय करके यूरोप के समुद्रत्तटों पर आते हैं। और बर्फ गिरनी बंद हो इसके महीने भर पहले, वे वापस यात्रा शुरू कर देते हैं! वे कभी नहीं भटकते हैं। यह हजारों मील के रास्ते पर वे कभी नहीं भटकते हैं! वे जहां से आते हैं, ठीक अपनी जगह वापस लौट जाते हैं!

पक्षियों के और पशुओं के जगत में जिन लोगों ने और प्रवेश किया है, वे बहुत हैरान हुए हैं कि उनके पास एक अंतःप्रज्ञा है, एक इंटयूशन है, जो बिना बुद्धि के उन्हें चीजों को साफ कर देती है। इसलिए वे मित्र के पास सुरक्षित हो जाते हैं और शत्रु के पास असुरक्षित हो जाते हैं–इसे कहने की जरूरत नहीं होती। यह जो हमारे हृदय में भाव की धारा उठती है, प्रेम की या घृणा की, उसके स्पंदन काफी हैं कि वे उन्हें स्पर्श कर लेते हैं और वे हमसे सचेत हो जाते हैं।

महावीर ने अहिंसा के तत्व पर जो इतना बल दिया है, उस बल का और कोई कारण नहीं है। एक तो कारण यह है कि नीचे के मूक जगत से पूर्ण अहिंसक वृत्ति के बिना संबंधित होना असंभव है। और दूसरा कारण यह है कि जब उससे संबंधित हो जाएं तो उस मूक जगत की इतनी पीड़ाओं का बोध होता है, इतनी अंतहीन अनंत पीड़ाएं हैं उसकी कि उसमें हम किसी भी भांति थोड़ा भार हलका कर सकें तो शुभ है। भार न बढ़े इसकी भावना भी पैदा हो जानी स्वाभाविक है।

बुद्ध भी इस बात को नहीं समझे। गौतम बुद्ध का भी सत्य के अनुभव को संवादित करने का जो प्रयोग है, वह मनुष्यों से ज्यादा गहराई पर नहीं गया। वह मनुष्य से ज्यादा गहराई पर नहीं गया। असल में सच बात यह है कि न जीसस ने, न बुद्ध ने, न जरथुस्त्र ने, न मोहम्मद ने, किसी ने भी मनुष्यत्तल से नीचे जो एक मूक जगत का फैलाव है, जहां से हम आ रहे हैं, जहां हम कभी थे, जिससे हम पार हो गए हैं…।

महावीर की दृष्टि यह है कि जहां हम कभी थे और जहां से हम पार हो गए हैं, उस जगत के प्रति भी हमारा एक अनिवार्य कर्तव्य है कि हम उसे पार होने का रास्ता बता दें। और उसे खबर पहुंचा दें कि वह कैसे पार हो सकता है।

और मेरी समझ यह है कि महावीर ने जितने पशुओं और जितने पौधों की आत्माओं को विकसित किया है, उतना इस जगत में किसी दूसरे आदमी ने कभी नहीं किया है। यानी आज पृथ्वी पर जो मनुष्य हैं, उनमें से बहुत से मनुष्य सिर्फ इसलिए मनुष्य हैं कि उनकी पशुऱ्योनि में या उनकी पौधे की योनि में या उनके पत्थर होने में महावीर जैसे किसी व्यक्ति ने संदेश भेजे और उन्हें बुलावा भेज दिया था। इस बात की भी खोज-बीन की जा सकती है कि कितने लोगों को उस तरह की प्रेरणा उपलब्ध हुई और वे आगे आए।

यह इतना अदभुत कार्य है कि अकेले इस कार्य की वजह से महावीर मनुष्य के मनस और जीवन के मनस के बड़े से बड़े ज्ञाता बन जाते हैं। यानी अगर उन्होंने अकेले सिर्फ एक ही यह काम किया होता तो भी मनुष्य-जाति के मुक्तिदाताओं में, बल्कि जीवन-शक्ति के मुक्तिदाताओं में उनका स्मरण चिरस्मरणीय होगा–अगर इतना ही काम सिर्फ किया होता।

यह काम बड़ा कठिन है। क्योंकि नीचे के तल पर तादात्म्य स्थापित करना अत्यंत दुरूह बात है। उसके दो कारण हैं। हमसे जो ऊपर है, उससे तादात्म्य स्थापित करना हमेशा सरल है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है उसके तादात्म्य से। जो हमसे ऊपर है, उससे तादात्म्य स्थापित करना बहुत सरल है। यह कहना बहुत सरल है कि मैं परमात्मा हूं, लेकिन यह कहना बहुत कठिन है कि मैं पशु हूं।

चूंकि नीचे अहंकार को चोट लगती है, ऊपर अहंकार को तृप्ति मिलती है। ऊपर तादात्म्य स्थापित कर लेना इसलिए भी आसान है कि हम सब ऊपर जाना चाहते हैं, हमारी गहरी आकांक्षा ऊपर जाने की है। तो हमारे चित्त की ऊपर की तरफ उन्मुखता होती है, खुलाव होता है। जैसे नदी समुद्र की तरफ भाग रही है। समुद्र की तरफ भागना बहुत आसान है, क्योंकि ढाल उस तरफ है, उन्मुखता उस तरफ है। लेकिन कोई नदी, गंगा गंगोत्री की तरफ जाने का विचार करे तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाए, क्योंकि वहां चढ़ाव है और वहां सागर भी नहीं है।

महावीर की यह चेष्टा कि पीछे के लोक, मनुष्य से पीछे की स्थितियों की तरफ लौटना और वहां जो जाना गया है, उसकी तरंगें पहुंचा देना, बड़ा कठिन है। एक तो पीछे का हमें कभी खयाल ही नहीं आता। ध्यान रहे, पीछे का हमें कभी खयाल नहीं आता। हमें सदा आगे का खयाल आता है। जो हम रह चुके हैं, वह हम भूल चुके होते हैं, उससे कोई संबंध भी नहीं रह जाता।

और भूलने का भी कारण है, क्योंकि जो अपमानजनक है, उसे हम स्मरण नहीं रखना चाहते हैं। असल में अतीत जन्मों को भूल जाने का जो कारण है गहरे से गहरा, वह यही है कि हम उन्हें स्मरण रखना नहीं चाहते हैं। क्योंकि हम नीचे से, नीचे से आ रहे हैं, उसको हम भूल जाना चाहते हैं।

एक गरीब आदमी है, वह अमीर हो जाए। तो सबसे पहला काम अमीर होकर जो वह करना चाहता है, वह सब स्मृति के सब चिह्न मिटा देना चाहता है, जो उसकी गरीबी को कभी भी बता सकें कि यह कभी गरीब था। यहां तक कि गरीबी के दिनों में जिनसे उसकी दोस्ती थी, उनसे वह मिलने से कतराने लगता है, क्योंकि उनकी दोस्ती, उनकी पहचान सबको खबर देती है कि आदमी कभी गरीब था। वह अब नए संबंध बनाता है, नई दोस्तियां कायम करता है। वह नीचे को भूल जाता है।

तो जब अमीर आदमी गरीब मित्रों तक को छोड़ सकता है तो पीछे की पशुऱ्योनियां, पक्षियों की योनियां, पौधों की योनियां, पत्थरों की योनियां जो रही हों, उन्हें आकर भूल जाना चाहे, तो आश्चर्य नहीं। फिर उनसे तादात्म्य स्थापित करने की कौन फिक्र करे?

महावीर ने पहली बार चेष्टा की है। और चेष्टा की जो विधि है, उसको भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। अगर किसी भी व्यक्ति को पीछे की अविकसित स्थितियों से तादात्म्य बनाना है तो उसे अपनी चेतना को, अपने व्यक्तित्व को उन्हीं तलों पर लाना पड़ता है, जिन तलों पर वे चेतनाएं हैं। जिन तलों पर वे चेतनाएं हैं, उन्हीं तलों पर लाना पड़ता है।

यह जान कर आप हैरान होंगे कि महावीर का चिह्न सिंह है। और उसका कारण शायद आपको कभी भी खयाल में नहीं आया होगा, और न आ सकता है। और उसका कुल कारण इतना है कि पिछली चेतनाओं से तादात्म्य स्थापित करने में महावीर को सबसे ज्यादा सरलता सिंह से तादात्म्य करने में मिली। कोई और कारण नहीं है। उनका व्यक्तित्व भी सिंह जैसा है। वे पिछले जन्मों में सिंह रह चुके हैं। और इसलिए लौट कर उससे तादात्म्य बनाना उनके लिए एकदम सरल हो गया। यानी सच तो ऐसा है कि जब उनका सिंह से तादात्म्य हुआ तो उन्होंने पूरी तरह जाना होगा कि मैं सिंह हूं। और यह उनका प्रतीक बन गया, चिह्न बन गया।

और उनके व्यक्तित्व में वे बातें भी हैं, जो सिंह में हों। सिंह के व्यक्तित्व की अपनी कुछ बातें हैं–जैसे झुंड में नहीं चलेगा, भीड़ में नहीं चलेगा; अकेला, एकदम अकेला खड़ा रहेगा। महावीर में वैसा गुण है। सिंह में जो आक्रमण है, जीत का, विजय का जो अदम्य भाव है, वह महावीर में है। सिंह में जैसा अभय, फियरलेसनेस है, वह महावीर की साधना का प्रथम सूत्र है। यह चिह्न आकस्मिक नहीं है।

कोई चिह्न कभी आकस्मिक नहीं है। उस चिह्न के पीछे बहुत साइकिक मामला है। पीछे जुंग ने बहुत काम किया इस संबंध में। और उसने आर्च टाइप खोज निकाले। और उसने इस बात की खोज की कि प्रत्येक व्यक्ति के मनस में कुछ चिह्न हैं, जो उस व्यक्तित्व के चिह्न हैं। और अगर उन चिह्नों को समझा जा सके तो हम उस व्यक्तित्व को उघाड़ने में बड़े सफल हो सकते हैं। यह जो महावीर के नीचे सिंह बना हुआ है, यह उस व्यक्तित्व की पहचान की कुंजी है।

पीछे उतर कर तादात्म्य स्थापित करना, चेतना को निरंतर-निरंतर शिथिल, शिथिल और शिथिल, और चेतना को उस स्थिति में ले आना है जहां चेतना में कोई गति नहीं रह जाती, जहां चेतना बिलकुल शिथिल, शांत और विराम को उपलब्ध हो जाती है, और शरीर बिलकुल जड़ अवस्था को। शरीर में कोई कंपन नहीं रह जाता और चेतना बिलकुल ही शिथिल, शून्य हो जाती है। शरीर जब जड़ हो और चेतना शिथिल, शून्य हो तब किसी भी वृक्ष, पशु, पौधे से तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है।

और एक मजे की बात है कि अगर वृक्षों से तादात्म्य स्थापित करना हो तो किसी खास वृक्ष से तादात्म्य स्थापित करने की जरूरत नहीं है। एक वृक्षों की पूरी जाति से एक साथ तादात्म्य स्थापित हो सकता है। क्योंकि वृक्षों के पास व्यक्तित्व अभी पैदा नहीं हुआ, अभी इंडिविजुअलटी पैदा नहीं हुई, अभी वे स्पेसीज की तरह जीते हैं।

यानी जैसे कि गुलाब के पौधे से तादात्म्य स्थापित करने का मतलब है, समस्त गुलाबों से तादात्म्य स्थापित हो जाना। क्योंकि किसी पौधे के पास अभी व्यक्ति का भाव नहीं है, अभी अहंकार और अस्मिता नहीं है।

लेकिन मनुष्यों से अगर तादात्म्य स्थापित करना हो तो बहुत कठिन बात है। हां, आदिवासी जातियों से इकट्ठा तादात्म्य स्थापित अभी भी हो सकता है। क्योंकि वे कबीले की तरह जीते हैं। उनका कोई व्यक्ति नहीं है, एक-एक व्यक्ति नहीं है। लेकिन जितना सभ्य समाज होगा, जितना सुसंस्कृत होगा, उतना मुश्किल हो जाएगा।

जैसे अगर बर्ट्रेंड रसेल से तादात्म्य स्थापित करना हो तो वह सीधा एक व्यक्ति से तादात्म्य स्थापित करना है। अंग्रेज जाति से तादात्म्य स्थापित करने में और किसी से भी तादात्म्य स्थापित हो जाए, बर्ट्रेंड रसेल छूट जाएगा बाहर। उसके पास अपना व्यक्तित्व है।

जितने नीचे हम उतरते हैं, उतना व्यक्तित्व नहीं है, इसलिए एक अर्थ में तादात्म्य पूरी जाति से होता है। और यह जो तादात्म्य है, इस तादात्म्य की स्थिति में जो भी भाव संकल्प किया जाए, वह प्रतिध्वनित होकर उन सारे लोगों तक व्याप्त हो जाता है। जैसे गुलाब के पौधों की जाति से तादात्म्य, आइडेंटिटी स्थापित की गई हो तो उस क्षण में जो भी भावत्तरंग पैदा की जाए, वह समस्त गुलाबों तक संक्रमित हो जाती है।

ऐसी अवस्था में महावीर ने बहुत समय गुजारा। और ऐसी अवस्था को उपलब्ध करने में उन्हें बहुत सी बातें करनी पड़ीं, जो कि पीछे समझाने वालों को बहुत मुश्किल होती चली गईं। जैसे महावीर खड़े हैं और कोई उनके कानों में खीले ठोंक दे, तो महावीर को पता नहीं चलता। पता न चलने का कारण यह है कि जैसे हम पत्थर में खीला ठोंक दें, तो पत्थर को पता चलता है? पत्थर को पता नहीं चलता। क्योंकि चेतना उस जगह है, जहां ऐसी चीजें पता नहीं चलतीं। सब करीब-करीब अचेतन है।

तो महावीर के कान में जब खीले ठोंके जा रहे हैं तो उनको पता नहीं चलता। पता न चलने का कारण यह है कि उस समय वे वैसी चीजों से तादात्म्य कर रहे हैं, जिनको पता नहीं चल सकता खीले ठोंके जाने से।

आप मेरा मतलब समझ रहे हैं? जिस प्राणी-जगत से वे संबंध स्थापित किए हुए खड़े हैं, उस प्राणी को कान में खीला ठोंके जाने से पता नहीं चलेगा, इसलिए महावीर को भी अभी पता नहीं चल सकता है। अगर महावीर का कोई इस वक्त हाथ भी काट लेगा तो उन्हें पता नहीं चलेगा, जैसे कोई वृक्ष की एक शाखा को काट ले। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका तादात्म्य क्या है।

हम सब जानते हैं कि लोग अंगारों पर कूद सकते हैं। तादात्म्य किससे है, इस पर सब बात निर्भर करती है। अगर उस व्यक्ति ने किसी देवता से तादात्म्य किया हुआ है, तो वह अंगारे पर कूद जाए, जलेगा नहीं; क्योंकि वह देवता नहीं जल सकता है। जो सीक्रेट है, वह कुल इतना है, वह आदमी तो फौरन जल जाएगा, लेकिन अगर उसने अपना तादात्म्य किसी देवता से किया हुआ है, उसके साथ अपने को एक मान लिया है और उसकी धुन में नाचता हुआ चला जा रहा है, तो उसके नीचे अंगारों के ढेर लगा देने पर भी उसके पांव पर फफोला भी नहीं आएगा। क्योंकि जिससे उसका तादात्म्य है, चेतना उस वक्त वैसा ही व्यवहार करना शुरू कर देती है।

हमारे तादात्म्य पर निर्भर करता है कि हम कैसा व्यवहार करेंगे। ये जो हम मनुष्य हैं अभी, यह भी गहरे में हमारा तादात्म्य ही है। इसलिए मनुष्य को कैसे व्यवहार करना चाहिए, वैसा हम व्यवहार करते हैं। गहरे में यह भी हमारी मनोभूमि की पकड़ है कि मैं मनुष्य हूं, तो फिर हम मनुष्य जैसा व्यवहार कर रहे हैं।

इस संबंध में बहुत सी घटनाएं खयाल में मुझे आती हैं। महावीर के तो जीवन में बहुत जगह हैं जहां समझना मुश्किल हो जाता है। नहीं समझने की वजह से हम कहते हैं आदमी क्षमावान है, अक्रोधी है, क्रोध नहीं करता, क्षमा…। यह सब ठीक है–क्रोध न करे, क्षमा करे। लेकिन कान में खीला ठुंके और पता न चले, यह अकेले अक्रोधी और क्षमावान को नहीं होने वाला है। कितना ही अक्रोधी हो, अक्रोध अलग बात है, लेकिन कान में खीला ठुंके और पता न चले, यह बिलकुल अलग बात है। यह तभी हो सकता है जब महावीर बिलकुल चट्टान की तरह हों उस हालत में।

सुकरात एक रात खो गया। घर के लोग रात भर परेशान रहे। सुबह मित्र खोजने निकले। तो वह एक वृक्ष के नीचे, जहां बर्फ पड़ी है, सब बर्फ से ढंका हुआ है–उसके घुटने-घुटने तक बर्फ में डूबा हुआ है! वह वृक्ष से टिका हुआ खड़ा है! उसकी आंखें बंद हैं! और वह बिलकुल ठंडा है, सिर्फ धीमी सी सांस चल रही है!

तो उसे हिलाया है। बामुश्किल वह होश में आया है। उसके हाथ-पैर पर मालिश की है। उसे गर्म किया है। कपड़े पहनाए हैं। फिर जब वह थोड़ा होश में आया है, उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे थे?

उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई। रात जब मैं खड़ा हुआ तो सामने कुछ तारे थे, मैं उनको देख रहा था। और कब मेरा तारों से तादात्म्य हो गया, मुझे याद नहीं। और कब मैंने ऐसा जाना कि मैं तारा हूं, मुझे कुछ पता नहीं। और तारे तो ठंडे होते ही हैं, इसलिए मैं ठंडा होता चला गया। और चूंकि मैं तारा समझ रहा था अपने को, इसलिए कोई बात ही नहीं उठी। घर लौटने का सवाल नहीं था। वह तो तुमने जब मुझे हिलाया है, तब मैं जैसे एक दूसरे लोक से वापस लौटा हूं।

हम जहां तादात्म्य कर लेते हैं, वही हो जाते हैं। तादात्म्य की कला बड़ी अदभुत बात है। और जरा सी चूक हो जाए तादात्म्य में तो सब गड़बड़ हो जाए।

महावीर पहला जो अभिव्यक्ति का उपाय खोज रहे हैं, वह है भूत, जड़, मूक जगत; उस सब में तरंगें पहुंचाने का। और ये तरंगें अब तो वैज्ञानिक ढंग से भी अनुभव की जा सकती हैं।

तीर्थ और मंदिर जिस दिन पहली बार खड़े हुए, उनके खड़े होने का कारण बहुत ही अदभुत था, वह यही था। अगर महावीर जैसा व्यक्ति इस कमरे में रह जाए कुछ दिन तो इस कमरे से उसका तादात्म्य हो जाता है। और इस कमरे के रग-रग पर, कण-कण पर उसकी तरंगें अंकित हो जाती हैं। फिर इस कमरे में बैठना किसी दूसरे के लिए बड़ा सार्थक हो सकता है, बड़ा सहयोगी हो सकता है।

इस कमरे में अगर एक आदमी ने किसी की हत्या कर दी हो या आत्महत्या कर ली हो, तो आत्महत्या के क्षण में इतनी तीव्र तरंगों का विस्फोट होता है–क्योंकि आदमी मरता है, टूटता है–इतनी तीव्र तरंगों का विस्फोट होता है कि सैकड़ों वर्षों तक इस कमरे की दीवाल पर उसकी प्रतिध्वनियां अंकित रह जाती हैं।

और यह हो सकता है, एक रात आप इस कमरे में आकर सोएं और रात आप एक सपना देखें आत्महत्या करने का। वह आपका सपना नहीं है। वह सपना सिर्फ इस कमरे की प्रतिध्वनियों का आपके चित्त पर प्रभाव है। और यह भी हो सकता है कि इस कमरे में रहने से आप किसी दिन आत्महत्या कर गुजरें। यह भी बहुत कठिन नहीं है।

तो इससे उलटा भी हो सकता है कि अगर महावीर या मीरा जैसा कोई व्यक्ति इस कमरे में बैठ कर एक तरंगों में जीया हो तो यह कमरा उसकी तरंगों से भर जाएगा। इसके कण-कण में…क्योंकि उधर जो कण दिखाई पड़ रहा है हमें मिट्टी का और इधर जो हममें कण है, उनमें कोई बुनियादी भेद नहीं है। वे सब एक से ही विद्युत के कण हैं। और सब विद्युत के कण तरंगों को पकड़ सकते हैं और तरंगों को दे सकते हैं। कमजोर आदमी को वे तरंगें दे देते हैं और शक्तिशाली आदमी से उनको तरंगें लेनी पड़ती हैं।

मैंने परसों बोधिवृक्ष की बात की थी। इस वृक्ष को इतना आदर देने का और तो कोई भी कारण नहीं है। वृक्ष ही है, बुद्ध उसके नीचे बैठ कर अगर निर्वाण को भी उपलब्ध हुए तो क्या मतलब है? लेकिन मतलब है। मतलब निश्चित है। इस वृक्ष के नीचे निर्वाण की घटना घटी, तो उस क्षण में इतनी तरंगें बुद्ध के चारों तरफ विस्फोट की तरह फैली हैं कि यह वृक्ष उसका सबसे बड़ा गवाह है। और इस वृक्ष के कण-कण में उसकी तरंगों का अंकन है। और आज भी जो उसकी सीक्रेट साइंस जानता है, वह उस वृक्ष के नीचे बैठ कर आज भी उन तरंगों को वापस अपने में बुला ले सकता है।

तो आकस्मिक नहीं था कि हजार-हजार, दो-दो हजार, तीनत्तीन हजार मील का बौद्ध भिक्षु चक्कर लगा कर उस वृक्ष के पास, दो क्षण उस वृक्ष के पैरों में पड़े रहने को आते रहे। आकस्मिक नहीं है। पीछे तो सारी की सारी विज्ञान की बात है। सम्मेद शिखर है या गिरनार है या काबा है या काशी है या जेरुसलम है–उन सबके साथ कुछ संकेत और कुछ गहरी लिपियों में कुछ खुदा हुआ है उनकी तरंगों में।

धीरे-धीरे नष्ट हुआ है। धीरे-धीरे नष्ट हुआ है। करीब-करीब इस समय पृथ्वी पर कोई भी जीवित तीर्थ नहीं है–जीवित तीर्थ! सब तीर्थ मर गए हैं। क्योंकि उनकी सब तरंगें नष्ट हो गई हैं या इतनी तरंगों का उनके ऊपर और आघात हो गया है, इतने लोगों के आने-जाने का, कि वे करीब-करीब कट गई हैं और समाप्त हो गई हैं। लेकिन इस बात में तो अर्थ था ही, इस बात में तो अर्थ है ही। जड़ से जड़ वस्तु पर भी तरंगें क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती हैं।

अभी एक नवीनतम प्रयोग बहुत हैरानी का है। वह प्रयोग यह है कि जैसे-जैसे हम अणु को तोड़ कर और परमाणुओं को तोड़ कर इलेक्ट्रांस की दुनिया में पहुंचे हैं, तो वहां जाकर एक नया अनुभव आया है, जो बहुत घबड़ाने वाला है और जिसने विज्ञान की सारी व्यवस्था उलट दी है।

वह अनुभव यह है कि अगर इलेक्ट्रांस को बहुत खुर्दबीनों से आब्जर्व किया जाए, निरीक्षण किया जाए, तो जैसा वह अनिरीक्षित व्यवहार करता है, निरीक्षण करने पर उसका व्यवहार बदल जाता है, वह वैसा व्यवहार नहीं करता! कोई उसे नहीं देख रहा है तो वह एक ढंग से गति करता है और खुर्दबीन से देखने पर वह डगमगा जाता है और गति बदल देता है!

अब यह बड़ी हैरानी की बात है कि पदार्थ का अंतिम अणु भी मनुष्य की आंख और आब्जर्वेशन से प्रभावित होता है। ऐसे ही जैसे आप अकेले सड़क पर चले जा रहे हैं, कोई नहीं है सड़क पर, फिर अचानक किसी खिड़की में से कोई झांकता है और आप बदल गए। आप दूसरी तरह चलने लगे। अभी जिस शान से आप चल रहे थे, वैसा नहीं चल रहे हैं। अभी गुनगुना रहे थे, गुनगुनाना बंद हो गया।

अपने बाथरूम में आप स्नान कर रहे हैं। गुनगुना रहे हैं या नाच रहे हैं या आईने के सामने मुंह बना रहे हैं। और अचानक आपको पता चले कि बगल के छेद से कोई झांकता है, आप दूसरे आदमी हो गए।

लेकिन आब्जर्वेशन आदमी को फर्क ला दे, यह समझ में आता है; लेकिन अणु भी, परमाणु भी निरीक्षण से डगमगा जाएं, तो बड़ी हैरानी की बात है। और इस बात की खबर देते हैं कि हम कुछ गलती में हैं। वहां भी प्राण, वहां भी आत्मा, वहां भी देखने से भयभीत होने वाला, देखने से सचेत हो जाने वाला, देखने से बदलने वाला मौजूद है।

इन परमाणुओं तक भी महावीर ने खबर पहुंचाने की कोशिश की है। इस खबर पहुंचाने के लिए ही जैसा मैंने कहा, पहले तो वे अनेक बार ऐसी अवस्थाओं में पाए गए, जहां हम कहेंगे कि वे जीवित हैं या मृत हैं, कहना मुश्किल है। और ये अवस्थाएं लाने के लिए उन्हें कुछ और प्रयोग करने पड़े, वे भी हमें समझ लेने चाहिए।

महावीर का चार-चार महीने तक, पांच-पांच महीने तक भूखा रह जाना बड़ा असाधारण है। कुछ न खाना और शरीर को कोई क्षीणता न हो, शरीर को कोई नुकसान न पहुंचे, शरीर वैसा का वैसा ही बना रहे!

शायद ही आपने कभी सोचा हो या जो जैन मुनि और साधु-संन्यासी निरंतर उपवास की बात करते हैं, उनमें से–ढाई हजार वर्ष होते हैं महावीर को हुए–एक भी यह नहीं बता सकता कि तुम चार महीने, पांच महीने का उपवास करो तो तुम्हारी क्या गति होगी! यह महावीर को क्यों नहीं हो रहा है ऐसा? चार-चार, पांच-पांच महीने तक यह आदमी नहीं खा रहा है, बारह वर्ष में मुश्किल से जोड़त्तोड़ कर एकाध वर्ष भोजन किया है न! यानी बारह दिन के बाद एक दिन तो निश्चित ही, कभी दो दिन, कभी दो महीने बाद, कभी-कभी–इस तरह चलाया है।

लेकिन इसके शरीर को कोई क्षीणता उपलब्ध नहीं हुई है। इसका शरीर परिपूर्ण स्वस्थ है–असाधारण रूप से स्वस्थ है, असाधारण रूप से सुंदर है। क्या कारण है?

अब मेरी अपनी जो दृष्टि है, जैसा मैं देख पाता हूं, वह यह है कि जो व्यक्ति नीचे के तल पर पदार्थ के परमाणुओं, पौधों के परमाणुओं, पक्षियों के परमाणुओं को इतना बड़ा दान दे रहा है, अगर ये परमाणु उसे प्रत्युत्तर देते हों तो आश्चर्य नहीं। यह प्रत्युत्तर है। यह परमाणु जगत का प्रत्युत्तर है। जो आदमी पास में पड़े हुए पत्थर की आत्मा को भी जगाने का उपाय कर रहा हो, जो पास में लगे वृक्ष की चेतना को भी जगाने के लिए कंपन भेज रहा हो, अगर ऐसे व्यक्ति को सारे पदार्थ-जगत से प्रत्युत्तर में बहुत सी शक्तियां मिलती हों तो आश्चर्यजनक नहीं है। और उसे वे शक्तियां मिल रही हैं।

आखिर वृक्ष को हम भोजन बना कर लेते हैं। काटते हैं, पीटते हैं, आग पर पकाते हैं। फिर वह जो वृक्ष है, वह जो वृक्ष का पत्ता है या फल है, इस योग्य होता है कि हम उसे पचा सकें और वह हमारा खून और हड्डी बन जाए। बनता तो वृक्ष ही है। और वृक्ष क्या है? मिट्टी ही है। और मिट्टी क्या है? सूरज की किरणें ही हैं। वे सब चीजें मिल कर एक फल में आती हैं, फल हम लेते हैं, हमारे शरीर में पचता है और पहुंच जाता है।

आज नहीं कल विज्ञान इस बात को खोज लेगा कि जो किरणों को पीकर वृक्ष का फल डी विटामिन लेता है, क्या जरूरत है कि इतनी लंबी यात्रा की जाए कि हम फल को लें और फिर डी विटामिन हमें मिले। सूरज की किरण से सीधा क्यों न मिले! या सूरज की किरण को हम एक छोटे कैप्सूल में क्यों न बंद करें और वह आदमी को दे दें। ताकि वह पचास फल खाने में जितना डी विटामिन इकट्ठा कर पाए, एक कैप्सूल उसको पहुंचा दे।

आज नहीं कल विज्ञान उस दिशा में गति करता है। लेकिन विज्ञान की गति और तरह की है, वह छीन-झपट की है। वह छीन-झपट की है। महावीर की भी एक तरह की गति है। और वह गति भी किसी दिन खुल जाएगी। वह गति भी किसी दिन स्पष्ट हो सकेगी कि क्या यह संभव नहीं है–आखिर पानी ही तो हमें बचाता है, हवा बचाती है, सूरज बचाता है, यही सब तो हमारा भोजन बनते हैं–क्या यह संभव नहीं है कि बहुत गहरे प्रतिदान में जो आदमी इन सबके लिए एकात्म साध रहा हो, उसको इनसे भी प्रत्युत्तर में कुछ मिलता हो, जो हमें कभी नहीं मिलता, या मिलता है तो बहुत श्रम से मिलता है!

इस तरह की दो घटनाएं और घटी हैं। अभी यूरोप में एक औरत जिंदा है, जिसने तीस साल से भोजन नहीं किया है! और वह परिपूर्ण स्वस्थ है! और मजे की बात यह है कि वह वैसी ही सुंदर है और वैसी ही स्वस्थ है, जैसे महावीर रहे होंगे! और तीस साल से उसने कुछ भी नहीं लिया, उसके शरीर में नहीं गया। उसके सब एक्स-रे हो चुके हैं, सब जांच-पड़ताल हो चुकी है, उसका पेट सदा से खाली है। तीस साल से उसने कुछ भी नहीं लिया। लेकिन उसका एक छटांक भर वजन भी नहीं गिरता है नीचे! वह परिपूर्ण स्वस्थ है! न केवल वजन नहीं गिरता है बल्कि एक और अदभुत घटना है, जो उसके साथ चलती है।

ईसाइयों में, ईसाई फकीरों में एक तादात्म्य का प्रयोग है, जो स्टिगमेटा कहलाता है। जैसे जीसस को जिस दिन सूली लगी, शुक्रवार के दिन, तो उनके दोनों हाथों पर खीले ठोंके गए। तो जो ईसाई फकीर, जो ईसाई साधक जीसस से तादात्म्य कर लेते हैं, शुक्रवार के दिन वे ऐसा हाथ फैला कर बैठ जाते हैं, और हजारों लोगों के सामने उनके हाथों में अचानक छेद हो जाते हैं और खून बहने लगता है। वह जीसस से तादात्म्य के आधार पर। यानी उस क्षण में वे भूल गए हैं कि मैं हूं, वे जीसस हैं। शुक्रवार का दिन आ गया, और सूली पर वे लटका दिए गए, उनके हाथ फैल जाते हैं। हजारों लोग देख रहे हैं, उनकी गद्दी फटती है और खून बहना शुरू हो जाता है।

इस औरत को, तीस साल से खाना तो लिया नहीं है इसने और तीस साल से प्रति शुक्रवार को सेरों खून इसके हाथ से बह रहा है! दूसरे दिन हाथ ठीक हो जाता है और सब घाव विलीन हो जाते हैं! और उसके वजन में कमी नहीं आती! तो पश्चिम में घटना घटे तो वहां तो बहुत वैज्ञानिक चिंतन चलता है किसी बात पर–बहुत चिंतन, लेकिन उनकी पकड़ में अब तक नहीं आ सका कि बात क्या हो सकती है।

बंगाल में एक औरत थी, उसे मरे कुछ दिन हुए हैं। वह कोई चालीस वर्ष, पैंतालीस वर्ष तक उसने कोई भोजन नहीं किया। बहुत स्वस्थ वह नहीं थी, पर साधारण स्वस्थ थी। पैंतालीस वर्ष भोजन न करने से कोई असुविधा नहीं आ गई थी। चलती-फिरती थी, बूढ़ी औरत थी, सब ठीक था।

उसका पति जिस दिन मरा, उस दिन उसने भोजन नहीं लिया। और घर के लोगों ने कहा, समझाया-बुझाया, भोजन ले लो। उसने कहा, मैं पति के मरने के बाद भोजन कैसे ले सकती हूं! तो घर के लोगों ने और मित्रों ने भी कहा कि ठीक है, एक-दो दिन रहने दो। ठीक भी कहती है, वह कैसे ले सकती है! दो दिन बीत गए, तब फिर लोगों ने कहा। तो उसने कहा कि अब तो पति के मरने के बाद ही सब दिन हैं। यानी अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक दिन कि दो दिन कि तीन दिन, अब तो बाद में ही सब हैं। और जब उस दिन राजी हो गए थे तो अब तुम राजी ही रहो। अब बाद में मैं कैसे भोजन ले सकती हूं? अब बात खतम हो गई है।

वह पैंतालीस साल जिंदा रही। उसने कोई भोजन नहीं लिया। लेकिन वैज्ञानिक उसकी भी चिंतना करते रहे, विचार करते रहे, उनको साफ नहीं हो सका कि बात क्या है।

मेरी अपनी समझ यह है, और महावीर से ही वह समझ मेरे खयाल में आती है…।

प्रश्न:

 

जोधपुर के पास ऐसी ही एक औरत है।

हां, हो सकती है। हो सकती है, कोई कठिनाई नहीं है। सिर्फ सीक्रेट हमारे खयाल में नहीं है। किसी न किसी तरह से परमाणुओं का जगत, सूक्ष्म जगत, सीधा भोजन देता हो, इसके अतिरिक्त और कोई बात नहीं है। वह कैसे देता हो, किस ढंग से देता हो, वे दूसरी बातें हैं। लेकिन सूक्ष्म जगत से सीधा भोजन मिलता हो, और बीच में माध्यम न बनाना पड़ता हो।

महावीर को ऐसा भोजन मिला है। और इसलिए महावीर के पीछे जो भूखे मर रहे हैं, वे बिलकुल पागल हैं। वे निपट शरीर को गला रहे हैं और नासमझी कर रहे हैं। इसलिए महावीर के उपवास को मैं कहता हूं, वह उपवास है, और बाकी जो पीछे लोग अनशन कर रहे हैं, वह सिर्फ मांसाहार है–अपना ही मांस पचा जाते हैं। एक दिन के उपवास में एक पौंड मांस पच जाता है।

तो चाहे हम दूसरे का मांस खाएं कि अपना खाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह मांसाहार ही है। क्योंकि शरीर की जरूरत है उतने की। उतनी कैलरी चाहिए, उतनी गर्मी चाहिए, उतनी शक्ति चाहिए, वह शरीर लेगा। अगर आप बाहर से नहीं देते हैं तो वह शरीर से ही पचा लेगा। तो उतनी चर्बी पचा जाएगा। उस पचाने में आप उपवास समझेंगे। वह उपवास नहीं है।

शरीर में कोई फर्क न आए, शरीर जैसा था वैसा रहे, तब तो जानना चाहिए कि भोजन के सूक्ष्म मार्ग उपलब्ध हो गए हैं। सिर्फ भोजन बंद नहीं किया गया है, भोजन के अति सूक्ष्म मार्ग उपलब्ध हो गए हैं।

और महावीर जो तीन-चार महीने के बाद एकाध दिन भोजन लेते हैं, वह इसलिए नहीं लेते हैं कि एक दिन के भोजन लेने से कोई फर्क पड़ जाएगा। क्योंकि जब चार महीने भोजन के बिना एक आदमी रह सकता है, तो आठ महीने क्यों नहीं? वह भोजन लेना सिर्फ इस बात को छिपाने के लिए है कि जो हो गया है, उसकी बात न करनी पड़े। वह निपट धोखा है। निपट धोखा है वह। वह सिर्फ इस सीक्रेट को छिपाने के लिए है कि अगर साल, दो साल भूखा रह जाए आदमी, तो लोग पूछेंगे यह हुआ कैसे!

और यह हर किसी को बताना खतरनाक भी हो सकता है। सभी बातें सभी को बताने के लिए नहीं भी हैं। सभी बातें सभी को बताने के लिए नहीं भी हैं–यह ध्यान में रखना चाहिए। इसलिए जो बातें भी मैं कह रहा हूं, उनमें कुछ सूत्र छोड़े जा रहा हूं। इसलिए उनका कभी प्रयोग नहीं किया जा सकता। आप उनका प्रयोग नहीं कर सकते हैं।

वह सिर्फ इसलिए कि लोगों को यह सांत्वना रहे कि ठीक है, वे खाना ले लेते हैं। और एक दिन खाना ले लेते हैं दो-चार महीने में, बात खतम हो जाती है।

महावीर पाखाना नहीं जाते, पेशाब नहीं जाते। बड़ी चिंतना की बात रही है कि यह कैसे हो सकता है! महावीर को पसीना नहीं बहता। यह कैसे हो सकता है?

अगर भोजन लेंगे तो यह सब होगा, क्योंकि यह भोजन से जुड़ा हुआ हिस्सा है। अगर आप भीतर डालेंगे तो बाहर निकालना पड़ेगा। लेकिन अगर सूक्ष्मता से भोजन मिलने लगे तो इसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता। निकालने को कुछ है ही नहीं। इतना सूक्ष्म है भोजन कि निकालने लायक कुछ भी उसमें से बचता नहीं है। वह सीधा विलीन हो जाता है।

तो महावीर की अहिंसा को भी इस तरफ से समझने की कोशिश करनी जरूरी है, और तरफ से भी हम समझने की कोशिश करेंगे। महावीर के लंबे उपवास समझ लेने जरूरी हैं कि वह सूक्ष्म भोजन प्राप्त करने की प्रक्रिया उन्हें उपलब्ध है।

काशी में एक संन्यासी था, विशुद्धानंद। और उसने एक अत्यंत प्राचीन विज्ञान को, जो एकदम खो गया था, फिर से पुनरुज्जीवित कर लिया था–वह है सूर्य-किरण विज्ञान। उस आदमी ने इस तरह के लेंस बनाए थे कि एक मरी हुई चिड़िया को ले जाकर आप रख दें, वह उस लेंस से सूरज की किरणों को पकड़ेगा और उस चिड़िया पर डालेगा, थोड़ी देर कुछ करता रहेगा बैठा हुआ और आपके सामने चिड़िया तड़फड़ाएगी और जिंदा हो जाएगी!

और ये प्रयोग पश्चिम के डाक्टरों के सामने भी किए गए और यूरोप से आने वाले ना-मालूम कितने लोगों ने ये प्रयोग अपनी आंख के सामने देखे। जिंदा चिड़िया को बिठाल दें, वह फिर लेंस को रखेगा, फिर कुछ और ढंग से किरणें डालेगा, और कुछ करेगा और चिड़िया मर जाएगी!

उसका कहना था कि सूर्य की किरण से सीधा जीवन और मृत्यु आ सकती हैं, बीच में कुछ और लेने की जरूरत नहीं। सीधा जीवन आ सकता है, सीधी मृत्यु आ सकती है।

और बात में गहरी सच्चाइयां हैं। सारा जीवन जो हमें पृथ्वी पर दिखाई पड़ रहा है, वह सूरज की किरण से बंधा हुआ है। सूरज अस्त हो जाए, सारा जीवन अभी अस्त हो जाएगा। न पौधे होंगे, न फूल होंगे, न पक्षी होंगे, न आदमी होगा–कोई भी नहीं होगा। प्राणी हो सकते हैं, सूरज न हो तब भी, लेकिन देह नहीं होगी। देह और प्राण का संबंध सूरज की किरण से ही जुड़ा है। अदेही हो सकेंगे, देहहीन हो सकेंगे, लेकिन देह नहीं होगी।

और अभी चांद से लौटते वक्त जो एक घटना घटी है, वह विचारणीय है–बहुत ज्यादा विचारणीय है। चांद से वे लौट आए हैं और चांद पर कोई नहीं पाया गया है। कोई पाने को है भी नहीं ऐसे। लेकिन लौटते वक्त उनके नीचे के जो ट्रांसमीटर्स हैं और जो रेडियो स्टेशंस हैं, जहां वे पकड़ रहे हैं, वहां इतने जोर की चीख-पुकार, इतना कोलाहल, इतना रोना, इतना हंसना सुना गया है कि जैसे करोड़-करोड़ भूत-प्रेत एकदम से चिल्ला रहे हों! ये तीन आदमी अगर कोशिश भी करें चिल्लाने की, रोने की, तो भी कोई स्थिति में ये करोड़-करोड़ भूत-प्रेतों की आवाजों का भ्रम पैदा नहीं कर सकते। और उनसे लौटने पर पूछा गया तो उन्होंने कहा, हमें तो कुछ भी पता नहीं! हम तो विश्राम करते चले आ रहे हैं!

यह इस बात की गहरी सूचना है और खबर है कि चांद पर कोई देहधारी तो नहीं है, क्योंकि चांद पर अभी वह स्थिति नहीं पैदा हुई, जहां देह प्रकट हो सके, लेकिन चांद पर अदेही आत्माओं की पूरी उपस्थिति है।

सूर्य की किरणों ने यहां देह और प्राण को जोड़ने में बड़ा उपाय किया है। तो सूर्य की किरणों से सीधा भी कुछ हो ही सकता है। आंख से भी सूरज की किरणें पी जा सकती हैं और जीवनदायी हो सकती हैं। त्राटक के बहुत से प्रयोग सीधे सूरज से जीवन खींचने के प्रयोग हैं। वे सिर्फ एकाग्रता के प्रयोग नहीं हैं। सीधा सूरज से जीवन खींचने के प्रयोग हैं। और एक दफे वह उतर जाए खयाल तो सूरज से कहीं से भी जीवन खींचा जा सकता है।

तिब्बत में एक विशेष प्रकार का योग होता है, जिसको सूर्यऱ्योग ही कहते हैं। तिब्बत में तो भयंकर सर्दी है। सूरज कभी दिखता है, नहीं दिखता है। बर्फ ही बर्फ जमी है। नंगा फकीर भी उस बर्फ पर बैठा रहेगा और आप पाएंगे उसके शरीर से पसीना चू रहा है! नंगा बैठा हुआ है, सारे तरफ से पसीना झर रहा है! बर्फ पर ही नंगा बैठा हुआ है–रात, सूरज का कोई पता नहीं है और पसीना टपक रहा है! उसकी प्रक्रिया है कि सूर्य कहीं भी हो, उससे संबंधित हुआ जा सकता है! उससे संबंधित होते ही ऊष्णता पूरे शरीर में व्याप्त होनी शुरू हो जाती है। बर्फ भी कुछ कर नहीं सकती है।

यह जो मैं कह रहा हूं, वह इस खयाल से कह रहा हूं ताकि आपके खयाल में आ सके कि महावीर ने नीचे के जगत से जो संबंध स्थापित किए तो नीचे के जगत ने भी उत्तर दिए हैं। महावीर को नीचे के जगत ने भी उत्तर दिए हैं। फिर कहानियों में हमने इन्हें पिरो कर लिखा है जो कि कविताएं बन जाती हैं। कहानी है, कविता है, यह कहती है कि महावीर चलते हों तो कांटा अगर सीधा पड़ा हो तो महावीर को देख कर तत्काल उलटा हो जाता है।

ये हमारी कहानियां हैं। और एक बात बहुत गहरी उसमें कहने की कोशिश की गई है, वह यह कि प्रकृति भी महावीर के प्रतिकूल होने की कोशिश नहीं करती, अनुकूल होने की कोशिश करती है। क्योंकि जिसने इतना प्रकृति को प्रेम दिया हो, इतना तादात्म्य दिया हो, वह प्रकृति कैसे उसके प्रतिकूल होने की कोशिश करे!

मोहम्मद के संबंध में कहा जाता है कि मोहम्मद चलते हैं, तो एक बदली उनके ऊपर छाया की तरह चलती रहती है। ऐसा कोई बदली चले, यह जरूरी नहीं है। चल भी सकती है। लेकिन बात जो कहना जरूरी है, वह यह है कि जरूर जो लोग जहां से संबंध बनाते हैं, वहां से कुछ हो सकता है। उत्तर जरूर मिलेंगे। सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर भी आपके प्रेम का उत्तर देता ही है। उत्तर चारों तरफ से आते हैं।

और ध्यान रहे, उत्तर वही होते हैं, जो हम फेंकते हैं–वे ही गूंजते हैं, प्रतिध्वनित होते हैं, लौट आते हैं। तो महावीर की अहिंसा का उत्तर अगर अहिंसा की तरह चारों तरफ से लौटे, तो आश्चर्य की बात नहीं है।

तो पहली तो बात यह है कि महावीर ने नीचे के तल से संबंध स्थापित किए, मूक जगत से। नीचे मूक जगत है। फिर बीच में मनुष्य का जगत है, जो शब्द का जगत है। और फिर मनुष्य के ऊपर देवताओं का जगत है, जो मौन जगत है। ये तीन जगत हैं। मूक का मतलब–जहां वाणी अभी प्रकट नहीं हुई। शब्द का जगत–जहां वाणी प्रकट हो गई। मौन का जगत–जहां वाणी वापस खो गई। देवताओं के पास कोई वाणी नहीं है।

प्रश्न:

 

शरीर भी नहीं है?

रीर भी नहीं है। पशुओं के पास भी कोई वाणी नहीं है। लेकिन शरीर है। वाणी अभी प्रकट नहीं हुई। यंत्र है पशुओं के पास, वाणी प्रकट हो सकती है।

प्रश्न:

 

पशुओं की अपनी भाषा है?

 

हने मात्र को। भाषा नहीं है, सिर्फ संकेत हैं। संकेत कामचलाऊ हैं और बड़े सीमित हैं। यानी जैसे कि मधुमक्खियों के कोई चार संकेत हैं उनके पास। तो वे चार संकेत दे सकती हैं।

प्रश्न:

 

पक्षियों के ऊपर तो हमारे शास्त्र हैं!

 

हूं ?

प्रश्न:

 

पक्षियों की आवाजों के लिए तो ग्रंथ हैं!

हां, हां, पक्षियों से बात की जा सकती है, लेकिन पक्षियों के पास अपनी वाणी नहीं है। आप संबंध जोड़ सकते हैं। पक्षियों के पास अपनी कोई वाणी नहीं है। पक्षी आपसे कुछ कह नहीं सकता है। लेकिन पक्षी कुछ अनुभव कर सकता है। और अगर आप अनुभव के तल पर उससे संबंध जोड़ लें, तो आप जान सकते हैं वह क्या अनुभव कर रहा है। वह आपसे कुछ कहता नहीं, सिर्फ आप उसके अनुभव को जान सकते हैं कि वह क्या कर रहा है।

जैसे एक कुत्ता रो रहा है। तो कुत्ता रोकर आपसे कुछ कह नहीं रहा है। कुत्ते के तो भीतर कुछ हो रहा है, जिससे वह रो रहा है। लेकिन अगर आप संबंध जोड़ सकें उसके भीतर से तो शायद आप पता लगा सकते हैं कि पड़ोस में कोई मरने वाला है, इसलिए रो रहा है। लेकिन कुत्ते को यह भी पता नहीं है कि पड़ोस में कोई मरने वाला है, इसलिए रो रहा है। यह रोने की घटना तो उसके चित्त में इस तरह की तरंगें लग रही हैं पास से आकर कि कहीं मृत्यु, कहीं मृत्यु। और यह बिलकुल मूक अनुभव है। इस मूक अनुभव में वह रो रहा है, चिल्ला रहा है। आपसे कुछ कह सकता नहीं है। कहने का कोई उपाय नहीं है उसके पास। और आप भी उसके चिल्लाने से कुछ नहीं समझ सकते हैं।

तो जो हम कहते हैं कि पशुओं की या पक्षियों की भाषा सीखने के संबंध में बड़े प्रयोग किए गए हैं। निश्चित किए गए हैं और बहुत दूर तक सफलता पाई गई है। लेकिन उसमें उनकी कोई वाणी नहीं पकड़ लेता है। उनके पास कोई शब्द, वर्ण, अक्षर से निर्मित कोई वाणी नहीं है। अनुभूति के तल जरूर हैं। अनुभूति की तरंगें हैं। वे अगर आप पकड़ लें तो आप उन कोड को खोल सकते हैं। आप खोल सकते हैं कि उसको क्या एहसास हो रहा होगा।

तो तीन तल में मैं बांट देता हूं जीवन को। एक मूक, जहां वाणी प्रकट हो सकती है, अभी प्रकट नहीं हुई, जहां सिर्फ अनुभव है, भाव है, शब्द नहीं हैं। दूसरा मनुष्य का जगत, जहां शब्द प्रकट हो गया है, जहां हम शब्द के द्वारा काम करने लगे हैं, बात करने लगे हैं, विचार करने लगे हैं, संवाद करने लगे हैं। तीसरा मनुष्य से ऊपर देवताओं का जगत, जहां वाणी खो गई है, व्यर्थ हो गई है, अब उसकी कोई जरूरत नहीं रही, अब बिना शब्द के ही बातचीत हो सकती है, मौन ही संभाषण बन सकता है।

ये तीन जगत हैं। इनमें सर्वाधिक कठिन पशुओं का जगत मालूम पड़ता है, पौधों का, पक्षियों का, पत्थरों का। लेकिन सर्वाधिक कठिन वह नहीं है। इसमें कठिन देवताओं का जगत भी मालूम पड़ सकता है, क्योंकि जहां शब्द नहीं हैं, वहां अभिव्यक्ति कैसे होती होगी–मौन।

मगर वह भी इतना कठिन नहीं है। सबसे ज्यादा कठिन संभाषण का जगत मनुष्य का है। जिसने संवाद के लिए शब्द ईजाद कर लिए हैं। और शब्द इस तरह ईजाद कर लिए हैं उसने कि करीब-करीब शब्दों के कारण ही संवाद होना मुश्किल हो गया है। सबसे सरल देवताओं का जगत है, जहां मौन विचार हो सकता है।

इसलिए यह जो कहा जाता है कि महावीर के समोशरण में पहली उपस्थिति देवताओं की है, उसका अर्थ सिर्फ इतना ही है। सबसे सरल संभाषण उनसे हो सकता है। शब्द बीच में बाधा नहीं हैं। शब्द बीच में माध्यम ही नहीं हैं। सीधा जो भाव यहां उठे, वह संप्रेषित हो जाता है। बीच में किसी को यात्रा करने की जरूरत नहीं रह जाती।

जैसे हम देखते हैं कि टेलीफोन है, तो टेलीफोन में एक वायर की व्यवस्था है, जो दूसरे फोन से जुड़ा हुआ है। फिर वायरलेस है, जिसमें बीच में कोई वायर नहीं है, सीधा कांटैक्ट है। वायर को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं है। सीधा संप्रेषण हो जाता है। ऐसे ही एक संभाषण शब्द के द्वारा है, जहां शब्द मुझे और आपको जोड़ता है। और एक संभाषण ऐसा भी है, जहां शब्द भी बीच में नहीं हैं, सिर्फ मौन है और मौन में जो अनुभव होता है, वह संप्रेषित हो जाता है।

तो देवताओं के साथ सत्य की वार्ता सबसे ज्यादा सरल है। इसलिए पहली उपस्थिति उनकी रही हो तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। यह स्वाभाविक है।

प्रश्न:

 

ये देवी-देवता सब हुए हैं?

हैं ही। हुए हैं नहीं, हैं ही। उसकी हम धीरे-धीरे बात कर सकेंगे कि क्या उस संबंध में भी थोड़ी बात जान लेनी उचित होगी। पशु-पक्षी भी महावीर के समोशरण में उपस्थित हैं। उन्हें सुनने को उपस्थित हैं। यह भी बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि पशु-पक्षी सुनने को उपस्थित होंगे। मनुष्य भी उपस्थित हैं।

पशु-पक्षियों को जो कहा गया है, शायद उन्होंने भी सुना है; देवताओं को जो कहा गया है, उन्होंने भी सुना है; मनुष्यों को जो कहा गया है, उन्होंने शायद नहीं सुना है। क्योंकि उनके पास शब्द हैं और समझदारी का खयाल है, जो बड़ा खतरनाक है। मनुष्य को यह खयाल है कि मैं सब समझ लेता हूं। यह बड़ी भारी बाधा है।

और शब्द सुनता है, और शब्द को पकड़ने का, संग्रह करने का उसने उपाय ईजाद कर लिया है–भाषा। वह सब संगृहीत कर लेता है। वह कहता है, यही कहा है न, यह सब लिखा हुआ है। शब्द पकड़ लेता है। फिर शब्दों की वह व्याख्या कर लेता है। और भटक जाता है।

इसलिए मनुष्य के साथ बड़ी कठिनाई है। क्योंकि मनुष्य पशु है, लेकिन पशु रह नहीं गया है। मनुष्य देवता हो सकता है, लेकिन अभी हो नहीं गया है। वह बीच की कड़ी है। अगर ठीक से हम समझें तो मनुष्य ठीक अर्थों में प्राणी नहीं है, सिर्फ कड़ी है। पशु से चला आया है वह आगे, लेकिन पशु बिलकुल खो नहीं गया है।

इसलिए जरूरी जो चीजें हैं, वह अब भी भाषा के बिना करता है। जैसे क्रोध आ जाए तो वह चांटा मारता है। प्रेम आ जाए तो वह गले लगाता है। जो जरूरी चीजें हैं, वह अभी भी भाषा के साथ नहीं करता, भाषा अलग कर देता है फौरन। उसका पशु एकदम प्रकट हो जाता है। पशु के पास कोई भाषा नहीं है, तो प्रेम है तो गले लगा लेता है, क्रोध है तो चांटा मार देता है। वह नीचे उतर रहा है। वह भाषा छोड़ रहा है। वह जानता है कि भाषा समर्थ नहीं है। इसलिए जो बहुत जरूरी चीजें हैं, उसमें वह गैर-भाषा के काम करता है। या फिर जो बहुत और ज्यादा जरूरी चीजें हैं, जिनमें भाषा बिलकुल बेकार हो जाती है तो मौन से काम करना पड़ता है।

मनुष्य पशु नहीं रह गया है और अभी देवता भी नहीं हो गया है। वह बीच में खड़ा है। एक तरह का क्रास-रोड, एक तरह का चौरस्ता है, जो सब तरफ से बीच में पड़ता है। और कहीं भी जाना हो तो मनुष्य से हुए बिना जाने का कोई उपाय नहीं है। इस मनुष्य को समझाने की चेष्टा ही सबसे ज्यादा कठिन चेष्टा है। देवता समझ लेते हैं, जो कहा जाता है वैसा ही, क्योंकि बीच में कोई शब्द नहीं होते, व्याख्या करने का कोई सवाल नहीं होता। पशु समझ लेते हैं, क्योंकि उनसे कहा ही नहीं जाता, व्याख्या की कोई बात ही नहीं होती, सिर्फ तरंगें प्रेषित की जाती हैं, तरंगें पकड़ ली जाती हैं।

जैसे कि अब यह टेपरिकार्डर मुझे सुन रहा है। यह भी मुझे सुन रहा है, आप भी मुझे सुन रहे हैं। इस कमरे में कोई देवता भी उपस्थित हो सकता है। यह टेपरिकार्डर कोई व्याख्या नहीं करता, यह सिर्फ रिसीव कर लेता है, सिर्फ तरंगों को पकड़ लेता है। इसलिए कल इसको बजाएंगे तो जो उसने पकड़ा है, वह दोहरा देगा।

पदार्थ के तल पर और पशु के तल पर जो रिसेप्टिविटी है, वह इसी तरह की सीधी है। सिर्फ तरंगें संप्रेषित हो जाती हैं। देवता के तल पर अर्थ सीधे प्रकट हो जाते हैं। मनुष्य के तल पर तरंगें पहुंचती हैं, अर्थ वह खुद खोजता है। तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। तब उसकी सब व्याख्याएं खड़ी हो जाती हैं। व्याख्याओं पर व्याख्याएं खड़ी हो जाती हैं।

जैसा मैंने कहा कि महावीर शायद अकेले व्यक्ति हैं जिन्होंने न मालूम कितने पशुओं, न मालूम कितने पक्षियों, न मालूम कितने पौधों को आमंत्रित किया है मनुष्य की तरफ। दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। वे ही शायद अकेले ऐसे व्यक्ति हैं–और लोगों ने भी चेष्टा की है, बहुत लोगों ने सफलता पाई है–जिन्होंने देवताओं को भी मनुष्य की तरफ आकर्षित किया है। इस पर हम पीछे बात करेंगे। मनुष्यों से कैसे संप्रेषण किया है, वह कल हम बात करेंगे; और देवताओं से कैसे संप्रेषण हो सकता है, वह हम बात करेंगे। बारह वर्ष की पूरी साधना अभिव्यक्ति संप्रेषण की साधना है–कैसे पहुंचाया जा सके जो पहुंचाना है। और जैसे ही वह उनकी साधना पूरी हो गई है, वह उन्होंने छोड़ दी है और वे पहुंचाने के काम में लग गए हैं।

दो छोटे सूत्र अंत में खयाल रख लेने चाहिए। पशु के पास संप्रेषण करना हो तो मूक होना पड़ेगा। मूक का मतलब यह है कि वाणी खो ही देनी पड़ेगी, रह ही नहीं जाएगी भीतर, करीब-करीब मूर्च्छित और जड़ जैसा मालूम पड़ने लगेगा व्यक्ति। लेकिन शरीर जड़ होगा, मन जड़ होगा, चेतना पूरी भीतर जागी होगी, जाग्रत होगी। अगर मनुष्य से संबंध जोड़ना है तो दो उपाय हैं। जो मनुष्य साधना से गुजरें, उनके साथ बिना शब्द के संबंध जोड़ा जा सकता है। क्योंकि साधना से गुजर कर उन्हें उस हालत में लाया जा सकता है, जहां देवता होते हैं। तब वे मौन में समझ सकते हैं। जैसा मैंने कल कहा कि महाकाश्यप को बुद्ध ने कहा कि वह मैंने तुझे दे दिया है, जो मैं शब्दों से दूसरों को नहीं दे सका। और या फिर सीधी वाणी है, जो सीधी उनसे कही जाए, वे उसे सुनें, समझें। लेकिन वे नहीं समझ पाते।

इसलिए महावीर की कथा यह है कि महावीर कहते हैं, गणधर सुनते हैं, गणधर लोगों को समझाते हैं। यह बड़ा खतरनाक मामला है। महावीर किसी को कहते हैं, वह सुनता है, फिर वह जैसा समझता है, वह व्याख्या करके लोगों को समझाता है। बीच में एक मध्यस्थ खड़ा हो जाता है। और महावीर से सीधा संबंध नहीं जुड़ पाता, क्योंकि हम शब्दों को समझ सकते हैं, अनुभूतियों को नहीं। और या फिर हम अनुभूतियों में प्रवेश करें, ध्यान में जाएं, समाधि में उतरें और उस जगह खड़े हो जाएं, जहां शब्द के बिना तरंगें पकड़ी जा सकती हैं। एक रास्ता वह है। और नहीं तो फिर, फिर जो मध्यस्थ होंगे, व्याख्याएं होंगी, शब्द होंगे–सब भटक जाएगा, सब खो जाएगा।

जो भी शास्त्र निर्मित हैं, वे आदमियों को बोले गए शब्दों के द्वारा निर्मित हैं। वे शब्द भी सीधे महावीर के नहीं हैं। वे शब्द भी बीच में किए गए कंमेंटेटर्स के, टीकाकारों के हैं। और फिर हमने अपनी समझ और बुद्धि के अनुसार उनको संगृहीत किया है, अपनी व्याख्या की है। और इसलिए सब लड़ाई-झगड़ा है, सब उपद्रव है।

महावीर ने मौन में क्या कहा है, उसे पकड़ने की जरूरत है। या उन्होंने जिनसे मौन से बोला जा सकता था, उन ध्यानियों से या देवताओं से क्या कहा है, उसे पकड़ने की जरूरत है। या जिनके साथ शब्द का उपयोग असंभव था, उन पक्षियों, पौधों, पत्थरों को क्या कहा, उसे पकड़ना जरूरी है। और जो मैंने पहले दिन कहा, वह सब किसी गहनतम अस्तित्व की गहराइयों में सुरक्षित है। वह सब वापस पकड़ा जा सकता है। सिर्फ उन स्टेट्स ऑफ माइंड में हमें उतरना पड़े, तो हम उसे फिर पकड़ ले सकते हैं।

आज इतना ही।


Filed under: महावीर मेरी दृष्‍टी में--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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