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पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–20

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प्रथम ही अंतिम है—प्रवचन—बीसवां

दिनांक 10 जनवरी; 1975

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—जिस तरह नकारात्मक विचार दुर्घटनाओं के रूप में मूर्त हो जाते हैं उसी तरह क्या विधायक विचार भी शुभ घटनाएं बन सकते हैं?

2—जिसे आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त हुई हो ऐसे व्यक्ति में और बुद्धपुरुष में विकासात्मक अंतर क्या होता हे?

3—आप एक साथ हम सब शिष्यों पर कैसे काम कर सकते हैं?

4—अधिकतम लोग प्रेम की मूलभूत आवश्यकता पूरी क्यों नहीं कर सकते?

पहला प्रश्‍न:

आपने कहा कि नकारात्मक विचार खतरनाक होते हैं क्योंकि वे घटनाओं के घटने को कार्यान्वित कर सकते है। क्या विधायक विचार भी वास्तविक घटनाओं का मूर्त रूप ले सकते हैं? उदाहरण के लिए यदि कोई संबोधि की अभिलाषा करता है तो क्या यही परिणामस्वरूप घट सकती है?

यह तो विधायक विचारों से बहुत ज्यादा मांग करने की बात हो गयी क्योंकि संबोधि द्वंद्वातीत है। यह न तो निषेधात्‍मक है और न ही विधायक। जब दोनों ध्रुवताएं गिर जाती हैं, तो यह घटती है। विधायक विचारों के साथ बहुत सारी बातें संभव हैं, लेकिन संबोधि नहीं। तुम प्रसन्न हो सकते हो, पर आनंदित नहीं। प्रसन्नता आती और चली जाती है; विपरीत इसके साथ हमेशा अस्तित्व रखता है। जब तुम प्रसन्न होते हो, तो प्रसन्नता के ठीक साथ ही अप्रसन्नता प्रतीक्षा में खड़ी होती है। वह पंक्ति में खड़ी होती है। जब तुम प्रेम करते हो, वह विधायक बात है, लेकिन घृणा प्रतीक्षा कर रही होती है अपने समय की।

विधायक द्वैत के पार नहीं जा सकता। यह अच्छा है जहां तक बन पड़े, लेकिन इससे संबोधि की मांग करना तो बहुत ज्यादा हुआ। कभी अपेक्षा मत करना इसकी। नकारात्मक को गिरा देना होता है विधायक को पाने के लिए। विधायक को भी गिरा देना है अनंत को, पार के उस असीम को पाने के लिए। पहले गिरा देना निषेधात्मक को, फिर गिरा देना विधायक को। तब कुछ नहीं बचा रहता। वह ‘कुछ नहीं’ ही संबोधि है। तब कोई मन बचता नहीं।

मन या तो नकारात्मक होता है या स्वीकारात्मक, प्रसन्न होता है या अप्रसन्न, प्रेममय होता है या घृणापूर्ण, क्रोधी होता है या करुणामय; जकड़ा हुआ होता है रात और दिन से, जीवन और मृत्यु से। सारी चीजें संबंधित होती है मन से लेकिन फिर भी तुम नहीं हो संबंधित मन से। तुम उसके पास होते हो। मन के खोल में होते हो, लेकिन उसके पार होते हो।

संबोधि मन की नहीं होती। वह तुम्हारी होती है। यह शान कि ‘मैं मन नहीं हूं, —संबोधि ही है। यदि तुम नकारात्मक बने रहते हो तो तुम मन के खाई वाले हिस्से में होते हो। यदि तुम विधायक होते हो, तो तुम मन के शिखर अंश को प्राप्त कर लेते हो। लेकिन इन दोनों में से कोई भी तुम्हारे अस्तित्व के मानसिक तल को पार नहीं कर सकता। दोनों को गिरा दो।

विधायक को गिराना कठिन होता है। नकारात्मक को गिराना सरल होता है क्योंकि नकारात्‍मक तुम्हें पीड़ा और कष्ट देता है। यह एक नरक होता है, इसलिए तुम गिरा सकते हो इसे। लेकिन जरा देखो तो दुर्भाग्य, तुमने उसे भी नहीं गिराया है। तुम नकारात्मक से भी चिपके रहते हो। तुम दुख से भी ऐसे चिपके रहते हो, जैसे कि वह कोई खजाना हो! तुम चिपकते हो तुम्हारी अप्रसन्नता से मात्र इसलिए क्योंकि यह एक पुरानी आदत हो गयी है। और तुम्हें कुछ न कुछ चाहिए चिपकने को। कोई चीज न पाकर, तुम चिपक जाते हो तुम्हारे नरक से ही। लेकिन ध्यान रहे, नकारात्मक को गिराना आसान है, चाहे यह कितना ही कठिन क्यों न जान पड़ता हो। विधायक को गिराने की तुलना में यह बहुत आसान है क्योंकि वह दुख है, पीड़ा है।

विधायक को गिराने का अर्थ है प्रसन्नता को गिरा देना; विधायक को गिराने का अर्थ हुआ कि उस सबको गिरा देना जो फूलों की भांति जान पड़ता है, वह सब जो सुंदर होता है। नकारात्मक असुंदर होता है; विधायक सुंदर। नकारात्मक है मृसुर विधायक है जीवन। लेकिन यदि तुम नकारात्मक को गिरा सकते हो, तो पहला कदम बढ़ाना। पहले दुख का अनुभव पाओ। कितना दुख दिया जाता है तुम्हें तुम्हारी नकारात्मकता द्वारा। जरा ध्यान दो कि कैसे दुख उभरता है इसमें से। मात्र देखो और अनुभव करो। वही अनुभूति कि नकारात्मक बात दुख निर्मित कर रही है एक अलगाव, एक गिराव बन जायेगी।

लेकिन मन के पास एक बहुत गहन चालाकी है। जब कभी तुम दुखी होते हो, तो यह हमेशा कहता है कि कोई दूसरा है जिम्मेदार। सावधान रहना, क्योंकि यदि इस चालाकी के शिकार हो जाते हो तो फिर नकारात्‍मक को कभी नहीं गिराया जा सकता। इसी भांति ही नकारात्मक स्वयं को छिपा रहा होता है। तुम क्रोधित होते हो तो मन कहता है कि किसी ने तुम्हारा अपमान कर दिया इसलिए क्रोध में हो। यह बात सही नहीं है। किसी ने किया होगा तुम्हारा अपमान लेकिन वह तो मात्र बहाना हुआ। तुम पहले से ही क्रोधित होने की प्रतीक्षा में थे। क्रोध तुम्हारे भीतर संचित हो रहा था। वरना, कोई तुम्हारा अपमान कर देगा और क्रोध नहीं आयेगा।

अपमान इसका एक स्पष्ट कारण दिख सकता है, लेकिन वास्तव में यही नहीं होता कारण। तुम भीतर उबल रहे होते हो। वस्तुत: वह व्यक्ति जो तुम्हारा अपमान करता है, तुम्हें मदद पहुंचाता है। वह तुम्हें मदद पहुंचाता है तुम्हारे भीतर की अशांति को बाहर ले आने में और उसे समाप्त करने में। तुम इतनी बुरी अवस्था में हो कि अपमान भी मदद पहुंचाता है। शत्रु तुम्हारी मदद करता है क्योंकि वह सारी नकारात्‍मकता को बाहर ले आने में तुम्हें मदद देता है। कम से कम तुम कुछ समय के लिए तो निबोंझ हो ही जाते हो।

मन के पास सदा से यह चालाकी है—तुम्हारी चेतना को दूसरे की ओर मोड़ देना। जैसे ही कुछ गलत होता है और तुम खोजना शुरू कर देते हो यह जानने को कि किसने किया है ऐसा। तो उसी खोजने में ही चूक जाते हो, और वास्तविक अपराधी कहीं पीछे छुपा हुआ होता है।

इसे एक परम नियम बना लेना कि जब कभी कुछ गलत हो तो तुरंत अपनी आंखें बंद कर लेना और वास्तविक अपराधी की खोज करना। और तुम उसे देख पाओगे क्योंकि वह एक सत्य है। वह एक वास्तविकता है। यह सच है कि तुम क्रोध संचित कर लेते हो और इसीलिए तुम क्रोधित हो जाते हो। यह सत्य है कि तुम घृणा संचित करते हो और इसीलिए तुम घृणा अनुभव करते हो। कोई दूसरा नहीं है वास्तविक कारण। संस्कृत में दो शब्द है। एक शब्द है कारण—वास्तविक कारण, और दूसरा शब्द है निमित्त—अवास्तविक कारण। और यह निमित्त, अवास्तविक कारण जो कारण की भांति जान पड़ता है लेकिन फिर भी कारण नहीं होता है, तुम्हें ठग लेता है। यह तुम्हें ठग रहा होता है बहुत—बहुत जन्मों से।

जब कभी तुम अनुभव करो कि कुछ दुखदायक घट रहा है तो तुरंत अपनी आंखें बंद कर लेना और भीतर जा पहुंचना, क्योंकि वही होती है असली घड़ी अपराधी को रंगे हाथों पकड़ने की। अन्यथा तुम नहीं पकड़ पाओगे उसे। जब क्रोध तिरोहित हों जाता है, तुम अपनी आंखें बंद करो। तुम कुछ नहीं पाओगे वहां। किसी अत्यंत क्षुब्ध स्थिति में, यह बात मत चूकना। इसे ध्यान बना लेना।

और हो सकता है तुम अनुभव करने लगो कि नकारात्मक को गिराने के लिए किसी विधि की कोई जरूरत नहीं है। नकारात्मक इतना असुंदर होता है और एक ऐसा रोग होता है कि आश्चर्य तो यह है कि कैसे तुम वहन करते हो इसे। इसे गिराना तो कुछ भी नहीं है; इसे वहन करना आश्चर्यजनक है। कैसे इसे तुम वहन किये रहते हो, यही बात पहेली बनी रही है सारे बुद्ध—पुरुषों के लिए। और क्यों तुम अपनी सारी बीमारियों को इतने प्रेमपूर्वक ढोये फिरते हो? तुम उनकी इतनी फिक्र लेते हो; तुम बचाये रहते हो उस सबको जो गलत है। बचाव पाकर सुरक्षा पाकर, वह नकारात्मक ज्यादा और ज्यादा गहरी जड़ें मजबूत कर लेता है तुममें।

एक बार तुम जान लेते हो कि यह तुम्हारी अपनी नकारात्मकता है जो कि समस्या खड़ी करती है, तो यह अपने से गिर जाती है। और जब नकारात्मक मन अपने से गिरता है तो वहां सौंदर्य होता है। यदि तुम उसे गिराने की कोशिश करो तो वह चिपकेगा। क्योंकि उसे गिराने का प्रयास ही बता देता है कि तुम्हारी समझ प्रौढ़ नहीं है। सारे त्याग अप्रौढ़ताएं हैं। तुम उसके लिए पके नहीं, तैयार नहीं हुए। इसीलिए प्रयास की जरूरत है इसे गिराने को। यदि तुम कूड़ा—करकट ढो रहे हो, तो क्या उसे गिरा देने को तुम्हें किसी प्रयास की जरूरत होती है, या मात्र इस समझ की कि यह कूड़ा है? यदि तुम्हें प्रयास चाहिए इसे गिरा देने के लिए, तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम अपनी समझ बढ़ा रहे हो प्रयास सहित। समझ अपने में काफी नहीं है; इसीलिए प्रयास की जरूरत आ पड़ती है।

जिन्होंने जाना है, वे सब कहते हैं कि प्रयास की जरूरत है क्योंकि तुम्हारी समझ मौजूद नहीं है। वह एक बौद्धिक चीज रही होगी, लेकिन तुमने वस्तुत: अनुभव नहीं किया है स्थिति को; वरना तो तुम एकदम ही गिरा देते नकारात्मकता को। एक सांप गुजर जाता है रास्ते से, तो तुम घबड़ाकर एकदम उछल पड़ते हो। उस उछलने में कोई प्रयास नहीं होता। तुम उछलने के लिए निर्णय नहीं लेते, तुम तुम्हारे भीतर कोई तार्किक नियम नहीं बनाते— ‘सांप है वहां, और जहां कहीं सांप है वहां खतरा है; इसलिए मुझे उछलकर दूर होना ही चाहिए।’ तुम कोई धीरे—धीरे बनाया जाने वाला तर्कपूर्ण नियम नहीं बना लेते हो। अरस्तू भी उछलेगा। बाद में वह बना सकता है कोई तर्क—सरणी, पर बिलकुल अभी, जब सांप होता है वहां, सांप फिक्र नहीं करता तुम्हारे तर्क की। सारी स्थिति इतनी खतरनाक होती है कि यह समझ ही कि वह स्थिति खतरनाक है, काफी होती है।

नकारात्मक को गिराने के लिए, किसी प्रयास की जरूरत नहीं, मात्र समझ की जरूरत है। तब वास्तविक समस्या उठ खड़ी होती है—विधायक को कैसे गिराये? और यह इतना सुंदर होता है! और तुम्हारे लिए जिसने कि पार का सत्य जाना नहीं है, यही है प्रसन्नता का चरम बिंदु। यह तुम्हें इतना ज्यादा आनंद देता जान पड़ता है। जरा प्रेम में पड़े प्रेमियों को देखो। उनकी आंखों को देखो। जिस ढंग से वे हाथ में हाथ लिये चलते हैं, वे प्रसन्न होते हैं। उनसे कहना इस विधायक मन को गिरा देने को और वे सोचेंगे, ‘क्या तुम पागल हुए हो?’ इसी की तो प्रतीक्षा करते रहे है वे और अब यह घटित हुआ। और कोई बुद्ध आते हैं और वे कह देते है, ‘गिरा दो इसे।’

जब कोई सफलता पा रहा होता है, ज्यादा और ज्यादा ऊंचे पहुंच रहा होता है सीढ़ी पर, उसे गिरा देने की बात कहने की कोशिश करना। वही तो है उसका उद्देश्य, उसकी दृष्टि में। और यदि वह सोचता भी है इसे गिराने की, तो वह जानता है वह जा पड़ेगा दुख में, क्योंकि विधायक से हटकर कहां बढ़ेगा वह?

तुम जानते हो केवल दो संभावनाएं—विधायक या नकारात्मक। यदि तुम गिराते हो विधायक को, तो तुम सरकते हो नकारात्‍मक की ओर। इसीलिए तो नकारात्‍मक को पहले गिरा देना है। नकारात्मक से कहीं और सरकने को तुम्हारे पास और कुछ नहीं रहता। अन्यथा यदि तुम सकारात्मक को गिरा देते हो, तो तुरंत नकारात्मक प्रवेश कर जाता है। यदि तुम प्रसन्न नहीं होते तो क्या होओगे तुम? अप्रसन्न। यदि तुम मौन नहीं होते हो, तो क्या होओगे तुम? बातूनी।

इसलिए पहले तो नकारात्मक को गिरा देना जिससे एक विकल्प, एक द्वार तो बंद हो जाये। तुम उस रास्ते पर अब गतिमान हो नहीं सकते। अन्यथा ऊर्जा की वही बंधी—बंधायी गति होती है—विधायक से नकारात्मक की ओर, नकारात्‍मक से विधायक की ओर। यदि नकारात्मक का अस्तित्व होता है, तो हर संभावना रहती है कि जिस क्षण तुम विधायक को गिराओ, तुम नकारात्‍मक हो जाओगे।

जब तुम प्रसन्न नहीं होते, तब तुम होओगे अप्रसन्न। तुम नहीं जानते कि एक तीसरी संभावना भी होती है। वह तीसरी संभावना खुलती है केवल तब जब नकारात्मक तो गिराया जा चुका होता है और जब तुमने विधायक भी गिरा दिया होता है। कुछ देर को वह ठहराव होगा। ऊर्जा कहीं नहीं जा सकती; वह नहीं जानती कि कहां प्रवेश करना है। नकारात्मक द्वार बंद हो चुका, विधायक बंद हो चुका है। क्षण भर के लिए तुम मध्य में होओगे और वह क्षण जान पड़ेगा शाश्वत की भांति। वह जान पडेगा बहुत—बहुत लंबा, अनंत।

क्षण भर को तुम ठीक मध्य में होओगे, न जानते हुए कि क्या करना है, कहां जाना है। यह क्षण विक्षिप्तता की भांति लगेगा। यदि तुम न विधायक हो और न ही नकारात्मक, तो क्या हो तुम? क्या है तुम्हारी पहचान? तुम्हारा व्यक्तित्व, नाम और रूप गिरा जाता है विधायक और नकारात्मक के साथ ही। अकस्मात तुम ऐसे कोई नहीं होते जिसे कि तुम पहचान सको—मात्र एक ऊर्जा—घटना होते हो। और तुम नहीं कह सकते कैसा अनुभव कर रहे होते हो तुम। कोई अनुभूति होती नहीं। यदि तुम इसे बरदाश्त कर सको, यदि तुम सह सकते हो इस क्षण को, तो यही सबसे बड़ा त्याग है, सबसे बड़ी तपश्चर्या है। और संपूर्ण योग तुम्हें तैयार करता है इसी घड़ी के लिए। अन्यथा प्रवृत्ति होगी कहीं न कहीं जाने की, लेकिन इस शून्य में नहीं रहने की। वह होगी विधायक या नकारात्मक होने को अनुभव करने की, पर इस शून्य में होने की नहीं। तुम कुछ नहीं हो। यह ऐसा है जैसे कि तुम तिरोहित हो रहे हो। एक विराट शून्य खुल गया है, और तुम उसमें गिरते जा रहे हो।

इसी घड़ी में गुरु की आवश्यकता होती है जो कह सकता हो, ‘प्रतीक्षा करो। भयभीत मत होना। मैं हूं यहां।’ यह तो एक झूठ ही होता है, लेकिन फिर भी तुम्हें जरूरत रहती है इसकी। कोई नहीं है वहां। कोई गुरु भी नहीं हो सकता है वहां, क्योंकि जब तुम्हारा मन समाप्त होता है तो गुरु भी समाप्त हो जाता है। अब तुम नितांत अकेले होते हो, लेकिन अकेले होना इतना भयंकर होता है, इतना डरावना, इतना मृत्यु की भांति, कि कोई चाहिए तुम्हें साहस देने को। यह मात्र एक क्षण की ही बात होती है, और झूठ मदद कर देता है।

और मैं कहता हूं तुमसे, सारे बुद्ध झूठ कहते रहे हैं मात्र तुम्हारे प्रति करुणा होने के कारण ही। गुरु कहता है,

‘मैं हूं यहां। तुम मत करना चिंता; तुम आओ आगे।’ तब आश्वासन मिल जाता है तुम्हें और तुम लगा देते हो छलांग। यह क्षण भर की बात होती है और हर चीज वहीं लटक रही होती है। सारा अस्तित्व आ टिका होता है वहीं; वह पार होने की सीमा रेखा है, उबाल आने का स्थल। यदि तुम कदम उठा लेते हो, तो तुम हमेशा के लिए खो जाते हो मन के प्रति। फिर कभी न कुछ विधायक होगा, न नकारात्‍मक होगा।

तुम भयभीत हो सकते हो। तुम फिर से वापस लौट सकते हो और प्रवेश कर सकते हो नकारात्मक में या विधायक में जो कि सुखद होता है, आरामदेह होता है, जाना—पहचाना होता है। तुम्हें अज्ञात में प्रवेश करना होता है—यही होती है समस्या। पहले तो समस्या होती कि नकारात्मक को कैसे गिराये, जो कि सरलतम बात है—एक पकी हुई समझ की जरूरत होती है। और तुम वह भी नहीं कर पाये हो।

फिर समस्या होती है कि सकारात्मक को कैसे गिराये जो इतना सुंदर होता है और जो तुम्हें इतनी प्रसन्नता देता है। लेकिन यदि तुम नकारात्मक को गिरा देते हो, यदि तुम उतने ज्यादा परिपक्व हो जाते हो, तो तुम दूसरी समझ भी पा लोगे, दूसरा रूपांतरण, जहां तुम देख पाओगे कि यदि तुम विधायक को नहीं गिराते तो नकारात्मक लौट आयेगा।

तब विधायक अपनी सारी विधायकता खो देता है। यह विधायक था केवल नकारात्मकता की तुलना में ही। एक बार नकारात्‍मक फेंक दिया जाता है, तो विधायक भी हो जाता है नकारात्मक क्योंकि अब तुम देख सकते हो कि यह सारी प्रसन्नता क्षणिक होती है। और जब यह क्षण खो जाता है, तो कहां होओगे तुम?

नकारात्मक फिर से प्रवेश करेगा। इससे पहले कि नकारात्‍मक प्रवेश करे उसे गिरा देना। नरक सदा पहुंचता है स्वर्ग के द्वार से ही। स्वर्ग तो मात्र द्वार होता है, वास्तविक स्थान तो नरक है। स्वर्ग द्वारा और स्वर्ग की आस द्वारा तुम प्रवेश करते हो नरक में। वास्तविक स्थान नरक है; स्वर्ग तो मात्र द्वार है। कैसे तुम सदा के लिए द्वार पर ही टिके रह सकते हो? देर—अबेर तुम्हें प्रवेश करना ही है। विधायक से हटकर तुम और जाओगे कहां?

एक बार नकारात्मक गिर जाता है, तो तुम देख सकते हो कि विधायक उसका दूसरा पहलू मात्र ही है—वस्तुत विरोधी नहीं है, न ही विपरीत, बल्कि दोनों एक गठबंधन में होते हैं। वे दोनों ही जुड़े होते हैं किसी संधि से; वे इकट्ठे ही होते है। जब यह समझ जाग उठती है कि विधायक नकारात्‍मक बन जाता है तब तुम गिरा सकते हो इसे।

वास्तव में यह कहना ठीक नहीं कि तुम इसे गिरा सकते हो, यह गिर ही जाता है। यह भी नकारात्मक बन जाता है—तब तुम जान लेते हो कि इस जीवन में प्रसन्नता जैसा कुछ है ही नहीं। प्रसन्नता एक चालबाजी है अप्रसन्नता की ही। यह अंडे और मुर्गी के संबंध की भांति ही है। मुर्गी होती क्या है? यह मार्ग है अंडे को लाने का। और अंडा क्या है? यह एक मार्ग है मुर्गी को ले आने का।

विधायक और नकारात्‍मक वास्तविक विपरीतताए नहीं हैं। वे अंडे और मुर्गी की भांति ही हैं; मां और बच्चा। वे एक दूसरे की सहायता करते अहै एक—दूसरे से आते हैं। लेकिन यह समझ केवल तभी संभव होती है जब नकारात्मक गिरा दिया जाता है। तब तुम गिरा सकते हो विधायक को भी। और तब तुम ठहर सकते हो उस संक्रमण के क्षण में, जो कि महानतम क्षण होता है अस्तित्व में! तुम और कोई क्षण नहीं अनुभव करोगे जो इतना लंबा हो। यह ऐसा होता है जैसे कि वर्ष गुजर रहे हों—खालीपन के कारण। तुम सारे अर्थ, सारे पहलू खो देते हो; सारा अतीत खो जाता है। अचानक हर चीज खाली हो जाती है। तुम नहीं जानते—तुम कहां होते हो, तुम कौन होते हो, क्या घट रहा होता है।

यह पागलपन की घड़ी होती है। यदि तुम इस घड़ी पर पहुंचकर लौट आने का प्रयत्न करते हो, तो तुम सदा पागल रहोगे। बहुत लोग पागल हो जाते हैं ध्यान के द्वारा। इसी घड़ी से वे पीछे हटने लगते हैं। और अब कुछ नहीं होता हट कर सहारा लेने को क्योंकि विधायक और नकारात्मक गिरा दिये गये होते हैं। वे अब विद्यमान नहीं रहते; ‘घर’ अब नहीं रहा वहां। एक बार तुम ‘घर’ छोड़ देते हो तो वह तिरोहित हो जाता है। वह तुम पर निर्भर करता था; वह कोई पृथक तत्व नहीं होता है।

मन एक पृथक तत्व नहीं है। वह तुम पर निर्भर करता है। एक बार तुम छोड़ देते हो उसे, वह वहां नहीं रहता। तुम लौट नहीं सकते या उसका सहारा नहीं ले सकते। यह पागलपन की दशा होती है। तुम्हें अतिक्रमण उपलब्ध नहीं हुआ है, फिर भी तुम वापस आ जाते हो और मन को खोजते हो और तुम पाते हो वह बचा ही नहीं है। ‘घर’ तिरोहित हो चुका है।

इस अवस्था में होना बहुत ही कष्टदायक है। पहली बार वास्तविक व्यथा घटती है। इसलिए तो गुरु की जरूरत होती है; सद्गुरु की, जो तुम्हें वापस न लौटने दे, जो तुम्हें बाध्य कर दे आगे जाने को ही, क्योंकि एक बार तुम वापस मुड़ जाते हो तो फिर से तुम्हें उस जगह लाने में बहुत ज्यादा प्रयास की जरूरत पड़ेगी। हो सकता है उसे तुम बहुत जन्मों तक चूकते रहो क्योंकि अब समझने को भी कोई मन वहां नहीं है।

सूफीवाद में यह भावदशा कहलाती है ‘मस्त’ की भावदशा—पागल की दशा। यह दशा वास्तव में ही कठिन होती है समझने के लिए क्योंकि व्यक्ति होता है और नहीं भी होता—दोनों ही बातें होती हैं। वह एक साथ हंसता और रोता; वह खो देता है सारी निधारित स्थितियां। वह नहीं जानता रोना क्या होता है और हंसना क्या होता है। क्या कहीं कोई असंगति भी है? वह मारता है स्वयं को और आनंद मनाता है। वह उत्सव मनाता है, स्वयं को मारते हुए। वह नहीं जानता क्या कर रहा है वह, कि वह बात हानिकारक है या नहीं है। वह पूर्णतया आश्रित हो जाता है। वह एक छोटे बच्चे की भांति हो जाता है, उसका खयाल रखना पड़ता है।

बिना सद्गुरु के यदि कोई ध्यान में उतरता है तो यही हो सकता है उसका परिणाम। सद्गुरु के साथ, सद्गुरु अवरोध बनकर तुम्हें रोकेगा। वह खड़ा होगा बिलकुल तुम्हारे पीछे ही और वह तुम्हें वापस नहीं जाने देगा। वह एक चट्टान बन जायेगा। और वापस लौटने का कोई रास्ता न पाकर, तुम्हें छलांग लगा ही देनी होगी। तुम्हारी जगह कोई दूसरा नहीं लगा सकता यह छलांग। उस क्षण तुम्हारे साथ कोई नहीं हो सकता। लेकिन एक बार यह छलांग तुम लगा जाते हो तो तुम सभी द्वैत पार कर जाते हो। नकारात्मक और विधायक दोनों चले जाते हैं, और यही है संबोधि।

मैं बात करता हूं विधायक की, ताकि तुम नकारात्मक को गिरा सको। एक बार तुम गिरा देते हो नकारात्‍मक को तो तुम फंदे में आ जाते हो। तब विधायक गिराना ही होता है। एक चरण दूसरे चरण की ओर इस ढंग से ले जाता है कि यदि तुम पहला चरण पा लेते हो तो दूसरा आ ही पहुंचेगा। यह एक श्रृंखला होती है। वस्तुत: पहला चरण ही पाना होता है। फिर सारी दूसरी बातें पीछे चली आती हैं। यदि तुम समझ जाओ, तो पहला ही होता है, अंतिम। आरंभ ही है समाप्ति; प्रथम ही है अंतिम।

दूसरा प्रश्‍न:

ऐसा आध्यात्मिक व्यक्ति जिसने कि उच्च जागरूकता की एक निश्चित मात्रा उपलब्ध कर ली होती है विशिष्ट मानसिक सिद्धियां और योग्यता भी प्राप्त कर ली होती है; और एक संबोधि—प्राप्त व्यक्ति एक जीवंत बुद्ध— कृपया बतायें कि इन दोनों के बीच विकास की दृष्टि से क्या अंतर होता है?

यही है भेद—वह व्यक्ति जो बिलकुल विधायक बन चुका होता है आध्यात्मिक उपलब्धि का व्यक्ति होता है। वह व्यक्ति जो नितांत नकारात्मक हो गया है सबसे अधिक अवनत व्यक्ति होता है। जब मैं कहता हूं नकारात्मक, मेरा मतलब होता है निन्यानबे प्रतिशत नकारात्मक, क्योंकि परम नकारात्मकता संभव नहीं होती। न ही संभव होती है परम विधायकता। दूसरे की जरूरत रहती है। परिमाण बदल सकता है, मात्राएं तो भेद रखती ही हैं। जो व्यक्ति निन्यानबे प्रतिशत निषेधात्मक हो और एक प्रतिशत विधायक, वह सर्वााधक अवनत व्यक्ति होता है, जिसे ईसाई कहते हैं पापी। वह केवल एक प्रतिशत ही विधायक होता है। उसकी भी जरूरत होती है। उसकी निन्यानबे प्रतिशत नकारात्मकता को मदद देने के लिए ही। वह हर चीज में नकारात्मक होता है। जो कुछ भी तुम कहते हो, केवल नकार में ही होती है प्रतिक्रिया। अस्तित्व कुछ भी पूछे, उसका उत्तर केवल ‘नहीं’ ही होता है। वह वैसा ही नास्तिक होता है जो किसी चीज के प्रति हां नहीं कह सकता; जो हां कहने में अक्षम हो चुका है; जो आस्था नहीं रख सकता। यह आदमी नारकीय दुख उठाता है। और क्योंकि वह हर चीज के प्रति ‘नहीं ‘ कहता है, वह एक नकार ही बन जाता है। एक मुंह फाडती नकार—क्रोध की, हिंसा की, दमन की, उदासी की—सब एक साथ। वह बन जाता है एक साकार नरक।

ऐसा व्यक्ति खोजना कठिन होता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति होना कठिन है। बहुत कठिन है निन्यानबे प्रतिशत नरक में रहना। लेकिन तुम्हें समझाने भर को ही मैं बता रहा हूं यह। यह एक गणित के हिसाब से संभावना है। व्यक्ति ऐसा बन सकता है यदि वह ऐसी कोशिश करता है तो। तुम ऐसा व्यक्ति कहीं नहीं पाओगे। हिटलर भी इतना विध्वंसक नहीं है। सारी ऊर्जा ध्वंसात्मक बन जाती है। केवल दूसरों की ही नहीं, बल्कि स्वयं की भी। संपूर्ण अभिवृत्ति ही आत्मघाती होती है। जब एक व्यक्ति आत्‍महत्या करता है तो वह क्या कर रहा होता है? वह अपनी मृत्यु द्वारा जीवन को नकार रहा है। वह ‘नहीं’ कह रहा है परमात्मा के प्रति। वह कह रहा है, ‘तुम निर्मित नहीं कर सकते मुझे। मैं नष्ट कर दूंगा स्वयं को।’

सार्त्र—इस युग के महान विचारकों में से स्व—उसने कहा था कि आत्महत्या एकमात्र स्वतंत्रता है—ईश्वर से स्वतंत्रता। ईश्वर से स्वतंत्रता किसलिए? क्योंकि तब कोई स्वतंत्रता नहीं होती। तुम्हारे पास कोई स्वतंत्रता नहीं होती तुम्हारा अपना निर्माण करने की। जब भी तुम होते हो, तुम स्वयं को पहले से ही निर्मित हुआ पाते हो। जन्म तुम नहीं ले सकते। वह तुम्हारी स्वतंत्रता नहीं है। सार्त्र कहता है, ‘फिर भी मृत्यु तुम ला ही सकते हो; वह तो तुम्हारी स्वतंत्रता है।’ तब तुम निश्रित रूप से कम से कम एक बात तो कहते हो ईश्वर से कि ‘मैं स्वतंत्र हूं।’ यह आदमी जो सदा आत्‍मघात के महागर्त के समीप जीता है, सबसे निम्न है, सबसे बडा पापी है।

अस्तित्ववाद में, जिसका कि उपदेश देता है सार्त्र, ये शब्द बड़े अर्थपूर्ण हो गये हैं—संत्रास, ऊब, उदासी। उन्हें होना ही है अर्थपूर्ण क्योंकि ऐसा आदमी तीव्र पीड़ा में, ऊब में रहेगा ही। एक प्रतिशत विधायकता की जरूरत रहती है। वह हां कहेगा ऊब को, आत्मघात को, पीड़ा को। केवल इन्हीं बातों के लिए ही उसे हां कहने की जरूरत पड़ती है। ऐसा है आधुनिक आदमी जो अंतिम किनारे के और—और निकट आ रहा है। दूसरे शिखर पर अस्तित्व होता है आध्यात्मिक व्यक्ति का। पहला, प्रथम छोर पर पहुंच रहा व्यक्ति पापी है, पतित है। दूसरा शिखर है—निन्यानबे प्रतिशत विधायक तत्व, एक प्रतिशत निषेधात्मकता। वही है आध्यात्मिक व्यक्ति। वह हां कहता है हर चीज को। उसके पास केवल एक ‘नहीं’ होती है और वह नहीं होती ‘नहीं ‘ के विरुद्ध ही; बस इतना ही नकार। वरना वह एक हां है। लेकिन क्योंकि समग्र ‘हां’ का अस्तित्व हो ही नहीं सकता, तो उसे जरूरत पड़ती है नहीं कहने की।

ऐसा आदमी बहुत चीजें प्राप्त कर लेता है क्योंकि विधायक मन तुम्हें लाखों चीजें दे सकता है—यह आदमी प्रसन्न रहेगा, अकंप, सहज, शांत और मौन रहेगा और इन्हीं बातों के कारण मन खिलेगा और अपनी सारी विधायक गुणवत्ताएं दे देगा उसे। उसके पास विशिष्ट शक्तियां हो जायेंगी। वह तुम्हारे विचारों को पढ़ सकता है, वह तुम्हें स्वास्थ्य दे सकता है। उसका आशीष एक शक्ति बन जायेगा। उसके निकट होने मात्र से ही तुम्हें लाभ पहुंचेगा। सूक्ष्म उपायों से वह आशीष दे रहा होता है।

सारी सिद्धिया—वे सारी शक्तियां जिनकी बात योग करता है, और आगे पतंजलि बात करेंगे जिनके बारे में—वे उसे आसानी से उपलब्ध होंगी। वह चमत्कारों से भरा व्यक्ति होगा; उसका स्पर्श चमत्कारिक होगा। कोई भी चीज संभव होगी क्योंकि उसके पास निन्यानबे प्रतिशत विधायक मन होता है। विधायकता एक सामर्थ्य है, एक शक्ति। वह बहुत शक्तिशाली होगा। लेकिन फिर भी वह संबोधि को उपलब्ध तो नहीं है। और वास्तविक बुद्ध की अपेक्षा इस व्यक्ति को तुम आसानी से बुद्ध कहना चाहोगे। क्योंकि संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति तो तुम्हारे पार ही चला जाता है। तुम नहीं समझ सकते उसे; वह अगम्य हो जाता है।

वस्तुत: संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति के पास कोई शक्ति नहीं होती क्योंकि कोई मन नहीं होता उसके पास। वह चमत्कारी नहीं होता। उसका कोई मन नहीं, वह कुछ कर नहीं सकता। वह गैर—क्रियात्मक होने का शिखर है। चमत्कार घट सकते हैं उसके पास। लेकिन वे घटते हैं तुम्हारे मन के कारण ही, उसके कारण नहीं; और यही भेद होता है। एक आध्यात्मिक व्यक्ति चमत्कार कर सकता है; एक प्रज्ञा—पुरुष ऐसा नहीं कर सकता। चमत्कार संभव होते हैं; लेकिन वे घटेंगे तुम्हारे ही कारण, उसके कारण नहीं। तुम्हारी श्रद्धा, तुम्हारी आस्था करेगी चमत्कार। क्योंकि उस घड़ी तुम हो जाते हो एक विधायक मन।

एक स्त्री ने जीसस के चोगे को छू लिया था। वे चल रहे थे भीड़ में, और वह सी गरीब थी और इतनी बूढ़ी कि वह विश्वास न कर सकती थी कि जीसस उसे आशीष देंगे। इसलिए उसने सोचा, जब जीसस गुजरें वहां से, तो उनका चोगा छूने के लिए भीड़ में रहना ही अच्छा होगा। उसने सोचा, यह उनका चोगा है, और वह स्पर्श ही पर्याप्त है। और मैं इतनी गरीब हूं और इतनी बूढ़ी, कौन ध्यान देगा मुझ पर, कौन परवाह करेगा? बहुत सारे लोग होंगे वहां, और जीसस उन्हीं की ओर ध्यान देंगे। इसलिए उसने बस छू भर लिया चोगे को।

जीसस ने पीछे देखा, और वह बोली, ‘मैं स्वस्थ हो गयी।’ जीसस बोले, ‘यह तुम्हारी आस्था के कारण हुआ है। मैंने कुछ नहीं किया है, तुमने यह स्वयं ही किया है।’

बहुत सारे चमत्कार घट सकते हैं, लेकिन जो संबोधि को उपलब्ध होता है वह व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता है। मन ही है कर्ता—सब चीजों का कर्ता। जब मन नहीं होता तो घटनाएं होती हैं लेकिन कोई क्रिया नहीं होती। संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति, वस्तुत: अब होता ही नहीं है। वह अनस्तित्व के रूप में जीवित होता है—शून्यता की भांति। वह एक खाली गर्भगृह होता है। तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो, लेकिन तुम उससे मिलोगे नहीं। वह ध्रुवताओं के पार जा चुका होता है, वह बड़ा विराट अपरिसीम है। तुम खो जाओगे उसमें, पर उसे तुम पा नहीं सकते।

आध्यात्मिक शक्ति से भरा व्यक्ति अभी भी संसार में है। वह ध्रुवीय तौर पर तुम्हारे विपरीत होता है। तुम निस्सहाय अनुभव करते हो; वह शक्तिशाली अनुभव करता है। तुम अस्वस्थ अनुभव करते हो, वह तुम्हें स्वस्थ कर सकता है। ऐसा होगा ही। तुम निन्यानबे प्रतिशत निषेधात्मक हो; वह निन्यानबे प्रतिशत विधायक होता है। वह मिलन ही होता है असमर्थता और सामर्थ्य के बीच। और तुम बहुत ज्यादा प्रभावित हो जाओगे ऐसे आदमी से। और यही बात एक खतरा बन जाती है उसके लिए। जितने ज्यादा तुम प्रभावित होते हो उसके द्वारा, उतना ज्यादा अहंकार मजबूत होता है। नकारात्मक व्यक्ति के साथ, अहंकार बहुत ज्यादा नहीं बना रह सकता क्योंकि अहंकार को चाहिए होती है विधायक शक्ति।

इसीलिए पापियों में तुम बहुत विनम्र व्यक्ति पा सकते हो, लेकिन साधु—महात्माओं में कभी नहीं पा सकते। साधु—महात्मा तो हमेशा ही बड़े अहंकारी होते है। वे ‘कुछ’ होते हैं—शक्तिशाली, चुइंनदा, सर्वोत्कृष्ट, ईश्वर के संदेशवाहक, पैगम्बर। वे कुछ खास होते है। पापी तो विनम्र होता है—स्वयं से ही भयभीत। वह सावधानीपूर्वक बढ़ता है जैसे वह जानता हो कि वह क्या है। ऐसा बहुत बार हुआ कि पापी ने सीधी छलांग ले ली और संबोधि को उपलब्ध हो गया, लेकिन आध्यात्मिक शक्ति वाले व्यक्ति के लिए यह बात कभी सरल नहीं रही क्योंकि वह शक्ति ही बाधा बन जाती है।

पतंजलि इस बारे में बहुत कुछ बतायेंगे। उनके पास संपूर्ण अध्याय है ‘विभूतिपाद’ —शक्ति के इस आयाम को समर्पित सूत्रों का। और उन्होंने यह सारा खंड लिया है तुम्हें खतरे से सावधान करने के लिए ही। क्योंकि अहंकार बहुत सूक्ष्म होता है। यह एक बड़ी सूक्ष्म घटना है और अत्यंत वंचक शक्ति है। और जहां कहीं शक्ति होती है यह उसे सोख लेती है। यह अहंकार एक सोखने की घटना है। इसलिए संसार में, अहंकार खोज लेता है राजनीति, सम्मान, शक्ति, धन—सम्पत्ति। तब यह किसी को भरता है। तब तुम किसी देश के राष्ट्रपति होते हो या प्रधानमंत्री। तब तुम कुछ होते हो या तुम्हारे पास लाखों रुपये होते है तो तुम कुछ होते हो। अहंकार मजबूत हो जाता है।

खेल वही चलता रहता है क्योंकि विधायक तत्व इस संसार से बाहर नहीं है। विधायक संसार के ही भीतर है। यह निषेधात्मक तत्व से बेहतर है, लेकिन फिर खतरा भी ज्यादा है। एक व्यक्ति जो स्वयं को बहुत महान मानता है, इस कारण क्योंकि वह प्रधानमंत्री है या राष्ट्रपति है या कि बहुत धनवान है, तो यह भी जानता है कि वह यह धन—दौलत मृत्यु के पार नहीं ले जा सकता है। लेकिन वह व्यक्ति जो शक्तिशाली अनुभव करता है मानसिक शक्तियों के कारण—अतींद्रिय संवेदनक्षमता, विचार पढ़ लेना, अतींद्रिय दर्शन, अतींद्रिय श्रवण, सूक्ष्म शरीर से यात्रा करना और दूसरों को स्वस्थ कर देने के कारण—ज्यादा अहंकारी अनुभव करता है। वह जानता है कि ये शक्तियां मृत्यु के पार ले जा सकता है। और हां, वे ले जायी जा सकती हैं, क्योंकि यह मन ही होता है जो पुनजग़ॅवत होता है, और ये शक्तियां मन से ही संबंधित होती है।

धन संबंध रखता है शरीर से, मन से नहीं। तुम इसे अपने साथ नहीं बनाये रख सकते। राजनैतिक शक्ति शरीर से संबंधित होती है। जब तुम मर जाते हो, तब तुम कुछ नहीं रहते। लेकिन ये शक्तियां, ये आध्यात्मिक शक्तियां, मन से संबंध रखती हैं, और मन एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। यह वहन किया जाता है। अगले जन्म में बिलकुल प्रारंभ से ही चमत्कारी बच्चे के रूप में पैदा होओगे। एक करिश्मा! तुम्हारे पास होगी एक चुंबकीय शक्ति। इसलिए ज्यादा आकर्षण होता है, और ज्यादा खतरा भी।

ध्यान रहे, आध्यात्मिक होने का प्रयास मत करना। आध्यात्मिक है भौतिक के विपरीत; जैसे कि नकारात्मक होता है विधायक के विपरीत। वस्तुत: वे विपरीत हैं नहीं। दोनों की गुणवत्ता एक ही होती है। एक श्रेष्ठ और सूक्ष्म है; दूसरा स्थूल और निम्न है। लेकिन दोनों हैं एक ही। आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा धोखे में मत आना। और जब कभी आध्यात्मिक शक्तियां तुममें उदित होने लगती हैं, तो तुम्हें हमेशा से ज्यादा सचेत हो जाना पड़ता है। और वे उदित होंगी। जितना ज्यादा तुम ध्यान करते हो, उतना ज्यादा मन सूक्ष्म हो जायेगा। और जब मन सूक्ष्म हो जाता है, तो जो बीज तुम हमेशा अपने भीतर लिये हो वे अंकुराने लगते हैं। अब भूइम तैयार है और मौसम आ गया है। और वे फूल सुंदर होते हैं।

जब तुम किसी को छूकर तुरंत स्वस्थ कर सकते हो उसे, तो कठिन होता है उस प्रलोभन को रोक लेना। जब तुम लोगों का बहुत भला कर सकते हो, जब तुम महान सेवा कर सकते हो, तो इस बात के आकर्षण को रोक लेना बहुत कठिन होता है। और प्रलोभन तुरंत उठ खड़ा होता है। और तुम तर्क बिठा लेते हो और कहते हो कि यह तो मात्र लोगों की सेवा के लिए तुम ऐसा कर रहे हो। लेकिन भीतर झांक लेना—लोगों की सेवा करने से अहंकार उठ रहा होता है, और अब सबसे बड़ी बाधा खड़ी हो जायेगी।

भौतिकता कोई उतनी बड़ी बाधा नहीं है। यह तो ठीक नकारात्मक मन की भांति है। गिराने की दृष्टि से कोई बड़ी बाधा नहीं। यह दुख है। कठिन है विधायक को गिराना, आध्यात्यिकता को गिराना कठिन है। तुम शरीर को सरलता से गिरा सकते हो, लेकिन मन को गिराना वास्तविक समस्या है। लेकिन जब तक तुम भौतिक और आध्यात्मिक दोनों को ही नहीं गिरा देते, जब तक न तो एक रहता है न ही दूसरा, जब तक तुम दोनों के पार नहीं चले जाते, तुम संबोधि को उपलब्ध न हुए।

वह व्यक्ति जो संबोधि को उपलब्ध है, बहुत साधारण हो जाता है। उसके पास कुछ विशिष्ट नहीं है। और यही होती है विशिष्टता। वह इतना साधारण होता है कि सडक पर तुम उसके पास से गुजर सकते हो। तुम आध्यात्मिक व्यक्ति के पास से यूं ही गुजर नहीं सकते। वह अपने चारों ओर एक लहराती तरंग ले आयेगा, वह तरंगायित ऊर्जा होगा। यदि वह सड़क पर तुम्हारे पास से गुजर जाये तो तुम एकदम स्थान कर लोगे उससे चली आयी बौछारों द्वारा। वह आकर्षित करता है चुंबक की भांति।

लेकिन तुम बुद्ध के पास से यूं ही गुजर सकते हो। यदि तुम नहीं जानते हो कि वे बुद्ध हैं, तो तुम नहीं ही जान पाओगे। लेकिन तुम रास्पूतिन से नहीं बच सकते। और रास्पूतिन कोई बुरा व्यक्ति नहीं—रास्पूतिन एक आध्यात्मिक व्यक्ति है। तुम रास्‍पूतिन से बचकर नहीं निकल सकते। जिस घड़ी तुम देखते हो उसे, तुम चुंबकीय आकर्षण में बंध जाते हो। तुम उसी के पीछे चलोगे सारी जिंदगी। ऐसा घटित हुआ जार को। एक बार उसने देखा रास्पूतिन को तो वह तो गुलाम हो गया उसका। उसके पास जबरदस्त शक्ति थी। वह हवा के तेज झोंके की भांति आता होगा; कठिन था उसके आकर्षण से बचना।

बुद्ध के प्रति आकर्षित होना कठिन था। बहुत बार तुम उनसे किनारा काट कर निकल सकते हो। वे इतने सीधे—सरल और इतने साधारण थे! और यही तो होती है असाधारणता। क्योंकि अब नकारात्मक और विधायक दोनों खो जाते हैं। वह व्यक्ति अब विद्युत— क्षेत्र के अंतर्गत नहीं रहता। वह बस है। वह होता है चट्टान की भांति, वृक्ष की भांति। वह होता है आकाश की भांति। वह तुममें प्रवेश कर सकता है, यदि तुम उसे ऐसा करने दो। वह तुम्हारे द्वार तक नहीं खटखटायेगा—नहीं। वह उतना भी सक्रिय नहीं होगा। वह एक बहुत ही मौन घटना के रूप में होता है—वह ‘नाकुछ’ है।

लेकिन वह एक महान बात है उपलब्ध करने की क्योंकि केवल वही जानता है कि क्या होता है अस्तित्व। केवल वही जानता है, क्या है परम तत्व। विधायक और नकारात्मक के साथ तो तुम मन को ही जानते हो। नकारात्मक दुर्बल है, विधायक होता है शक्तिशाली। आध्यात्मिक होने का प्रयास कभी मत करना। वह तो अपने से ही घटेगा। तुम्हें उसके लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं। और जब ऐसा हो जाये तो उससे अलग हो जाना। बहुत—सी कहानियां प्रचलित हैं प्राचीनकाल से। बुद्ध का एक चचेरा भाई था—देवदत्त। उसने बुद्ध से दीक्षा ली। वह चचेरा भाई था और निस्संदेह, गहरे में ईर्ष्या थी उसे। और वह बहुत शक्तिशाली व्यक्ति था रासतिन की भांति ही। जल्दी ही उसने एकत्र करना शुरू कर दिया अपना शिष्य—समुदाय, और वह कहने लगा लोगों से, ‘मैं बहुत कुछ कर सकता हूं और ये बुद्ध कुछ नहीं कर सकते।’

अनुयायी बार—बार आते बुद्ध के पास और कहते, ‘यह देवदत्त एक अलग पंथ निर्मित करने का प्रयत्न कर रहा है और वह कहता है कि वह ज्यादा शक्तिशाली है।’ और वह ठीक कहता था, पर उसकी शक्ति संबंधित थी विधायक मन से। उसने बहुत—सी बातों के लिए प्रयत्न किये। बुद्ध को मारने के बहुत से प्रयत्न कर डाले। उसने मस्त हाथी बनाया। जब मैं कहता हूं उसने मस्त हाथी बनाया, तो मेरा मतलब होता है कि उसने अपनी विधायक शक्ति का प्रयोग किया और यह इतनी शक्तिशाली घटना थी कि हाथी मदमस्त हो गया। वह पागल हुआ दौड़ने लगा; उसने बहुत वृक्ष गिरा दिये। देवदत्त बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि उन वृक्षों के बिलकुल पीछे ही तो बुद्ध बैठे हुए थे, और वह हाथी पागल हुआ जा रहा था। वह तो एक बिलकुल पागल ऊर्जा थी। लेकिन जब हाथी बुद्ध के निकट आया, तो उसने बुद्ध को देखा और शांत होकर बैठ गया गहरे ध्यान में। देवदत्त तो उलझन में पड़ गया।

क्या घट गया था? जब शून्यता होती है तो हर चीज अवशोषित हो जाती है। शून्यता की कोई सीमा नहीं होती। पागलपन सोख लिया गया था। ऐसा नहीं था कि बुद्ध ने कुछ कर दिया था। उन्होंने कुछ नहीं किया था—वे मात्र शून्य थे। हाथी आया और खो दी अपनी ऊर्जा उसने। वह शांत हो गया। वह इतना शांत हो गया कि ऐसा कहा जाता है कि देवदत्त ने बहुत बार कोशिश की, लेकिन फिर वह पागल नहीं बना सका हाथी को।

संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति कोई व्यक्ति ही नहीं होता—यह है एक बात। और दूसरी बात—वह है ही नहीं। लगता है कि वह है, पर वह है नहीं। जितना ज्यादा तुम उसे खोजते हो उतनी ही कम संभावना होती है उसे पाने की। उस खोज में ही तुम खो जाओगे। वह ब्रह्मांड बन चुका होता है। आध्यात्मिक व्यक्ति फिर भी एक व्यक्ति ही होता है।

तो ध्यान रखना, तुम्हारा मन आध्यात्मिक होने की कोशिश करेगा। तुम्हारे मन में ललक रहती है और ज्यादा शक्तिशाली होने की।’ना कुछ’ लोगों के इस संसार में कुछ हो जाने की ललक। इस बात के प्रति सचेत रहना। यदि इसके द्वारा बहुत लाभ भी पहुंचा सकते हो, तो भी यह खतरनाक है। लाभ होता है केवल सतह पर ही। गहरे में तो तुम मार रहे होते हो स्वयं को। और जल्दी ही वह बात खो जायेगी, और तुम फिर से जा पड़ोगे नकारात्मक में ही। वह एक खास ऊर्जा है। तुम उसे खो सकते हो। तुम उपयोग कर सकते हो उसका, फिर वह चली जाती है।

हिदुओं के पास अत्यंत वैज्ञानिक वर्गीकरण है; अन्यत्र कहीं भी वैसा वर्गीकरण नहीं है। पश्चिम में वे नरक और स्वर्ग की शब्दावली में सोचते हैं—मात्र दो चीजें ही। हिंदू सोचते हैं तीन वर्गों की बात—नरक, स्वर्ग और मोक्ष। तीसरे शब्द को पश्चिमी भाषाओं में अनुवादित करना कठिन है क्योंकि कोई और वर्ग अस्तित्व नहीं रखता। तुम कहते हो उसे ‘लिबरेशन’, पर यह वह भी नहीं है। यह एक भाव देती है उसकी एक सुगंध मात्र देती है लेकिन तो भी यह ठीक—ठीक वही नहीं है।

नरक और स्वर्ग होते है वहां। तीसरी अवस्था वहां है ही नहीं। नकाराअक मन अपनी पराकाष्ठा में एक नरक ही है; स्वर्ग यानी परम विधायक मन। लेकिन पार की बात कहां है? भारत में वे कहते हैं कि यदि तुम अध्याअवादी हो, तो जब तुम मरोगे तो तुम स्वर्ग में उत्‍पन्न होओगे। तुम लाखों वर्ष वहां सुखपूर्वक रहोगे, परम सुख भोगोगे हर चीज का। लेकिन फिर तुम्हें वापस आना पड़ेगा फिर से इसी धरती पर। ऊर्जा खो जाने पर तुम्हें वापस आना ही पड़ेगा। तुमने एक विशिष्ट ऊर्जा अर्जित की थी, फिर तुमने उसका उपयोग कर लिया। तुम फिर से आ पड़ोगे उसी परिस्थिति में।

इसीलिए भारतीय कहते हैं कि मत खोजना स्वर्ग को। यदि लाखों वर्ष तक भी तुम सुखी रहो, तो वह सुख सदा के लिए टिकने वाला नहीं होता। तुम गंवा दोगे उसे; तुम वापस कुक आओगे। वह प्रयास योग्य नहीं है। ये वही हैं जिन्हें हिदू ‘देवता’ कहते हैं। वे जो स्वर्ग में रहते हैं, वे लोग जो स्वर्ग में निवास करते है।

वे मुक्त नहीं हैं, संबोधि को उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन वे विधायक है। वे पहुंच चुके हैं अपनी विधायक ऊर्जा के शिखर तक, मनस—ऊर्जा के शिखर तक। वे उड़ान भर सकते हैं आकाश में; वे आकाश के एक स्थल से दूसरे स्थल तक तुरंत जा सकते हैं समय के किसी अंतराल के बिना ही। जिस क्षण वे किसी बात की आकांक्षा करते है; तुरंत वह पूरी हो जाती है समय के किसी अंतराल के बिना ही। यहां तुम करते हो आकांक्षा और वहां अगले क्षण वह पूर्ण हो जाती है। उनके पास सुंदर, नित्य युवा देह होती है। वे कभी वृद्ध नहीं होते। उनके शरीर स्वर्णमय होते हैं। वे स्वर्णनगरियों में युवा स्रियों के साथ रहते हैं; मदिरा, स्त्रियां और नृत्य। और वे निरंतर सुखी रहते हैं। वस्तुत: केवल एक ही मुसीबत होती है वहां, और वह है ऊब। वे ऊब जाते हैं। केवल वही होती है नकारात्मक बात। एक प्रतिशत नकारात्मक और निन्यानबे प्रतिशत सुख—चैन। वे बिलकुल ऊब जाते है, और कई बार वे कोशिश भी करते है पृथ्वी पर आने की। वे आ सकते हैं, और वे आते ही है। और ऊब से बचने के लिए ही वे कोशिश करते हैं मानव—प्राणियों के साथ मिलने—जुलने की।

लेकिन अंतत: वे वापस आ गिरते हैं। यह ऐसा होता है जैसे कि आखिरकार तुम सपने से, सुंदर सपने से बाहर आ जाते हो, वह खत्म हो जाती है बात। हिंदुओं के अनुसार स्वर्ग एक सपना है—एक सुंदर सपना। नरक भी सपना है—एक दुःस्वप्र। लेकिन दोनों है सपने ही क्योंकि दोनों मन से ही संबंधित हैं। इस परिभाषा को खयाल में रखना—वह सब जो मन से संबंधित है, सपना ही है। विधायक, निषेधात्मक कुछ भी हो, मन सपना है। सपने के पार जाना, जाग जाना, बुद्ध हो जाना है।

कठिन होता है बुद्ध पुरुष के विषय में कुछ भी कहना, क्योंकि उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। परिभाषा संभव होती अगर वहां कोई सीमा हो। वह अपार है आकाश जैसा; परिभाषा संभव नहीं है। संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति को जानने का एकमात्र तरीका है, संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति हो जाना। आध्यात्मिक व्यक्ति की व्याख्या की जा सकती है। उसकी अपनी सीमाएं है। वह है मन के भीतर ही, उसकी परिभाषा करने में कोई कठिनाई नहीं।

जब हम विभूतिपाद तक आयेंगे—सिद्धियों, शक्तियों के विषय में कहे गये पतंजलि के सूत्रों तक, तो हम जानेंगे कि वे पूर्णतया व्याख्यायित किये जा सकते हैं। और पश्र्चिम में वैज्ञानिक खोज चल रही है। जिसे कि वे कहते हैं साइकिक, परामनोवैज्ञानिक अनुसंधान। परामनोवैज्ञानिक संस्थाएं संसार भर में विद्यमान हैं। बहुत—से विश्वविद्यालयों में अब परामनोवैज्ञानिक अनुसंधान की प्रयोगशालाएं है। जो पतंजलि कहते है, वह कभी न कभी वैज्ञानिक रूप से वर्गीकृत हो ही जायेगा और सिद्ध हो जायेगा।

एक तरह से यह अच्छा ही है। यह अच्छा है क्योंकि तब तुम जान पाओगे कि यह मन की ही बात होती है जिसका परीक्षण किया जा सकता है यांत्रिक साधनों द्वारा भी। जो कोटिबद्ध और प्रमाणित की जा सकती है। किसी यांत्रिक साधन द्वारा तुम्हें संबोधि की झलक नहीं मिल सकती। यह शरीर की या मन की घटना नहीं है। यह बहुत दुर्बोध है, बहुत रहस्यपूर्ण है।

एक बात खयाल में ले लेना—कभी प्रयत्न मत करना किन्हीं आध्यात्मिक शक्तियों को पाने का। चाहे वे तुम्हारे मार्ग पर स्वयं भी चली आयें तो जितनी जल्दी संभव हो गिरा देना उन्हें। उनके संग—साथ मत बढ़ना और उनकी चालबाजियों को मत सुनना। आध्यात्मिक व्यक्ति तो कहेंगे, ‘इसमें गलत क्या है? तुम दूसरों की मदद कर सकते हो; तुम एक महान उपकारक बन सकते हो।’ वह मत बनना। यही कह देना, ‘मैं शक्ति की खोज में नहीं हूं और कोई किसी की मदद नहीं कर सकता है।’ तुम एक मनोरंजन भरा तमाशा बन सकते हो शक्ति के द्वारा, लेकिन तुम किसी की मदद नहीं कर सकते।

और कैसे तुम मदद कर सकते हो किसी की? हर कोई चलता है उसके अपने कर्मों के अनुसार ही। वस्तुत: यदि कोई आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति तुम्हें छू लेता है और रोग मिट जाता है, तो घटता क्या है? किसी न किसी ढंग से गहरे में तिरोहित होना ही था तुम्हारे रोग को; तुम्हारे कर्म पूरे हो गये थे। यह तो मात्र एक बहाना है कि रोग तिरोहित हुआ आध्यात्मिक व्यक्ति के स्पर्श द्वारा। किसी भी तरह उसे तो तिरोहित होना ही था। क्योंकि तुमने कुछ किया था, इसीलिए रोग था। फिर वह समय आ गया उसके मिट जाने का।

तुम किसी ढंग से किसी की मदद नहीं कर सकते। केवल एक ही होती है मदद, और वह है तुम्हारा वही हो जाना जैसा कि तुम चाहते हो हर कोई हो जाये। तुम बस वही हो जाओ। तुम्हारी मौजूदगी सहायक होगी, न कि तुम्हारा कुछ करना।

बुद्ध क्या करते हैं? वे सिर्फ वहां हैं, मौजूद है प्रवाह की भांति, नदी की भांति। वे जो प्यासे होते हैं, वे आते है। नदी चाहे तुम्हारी प्यास तृप्त करना भी, तो यह असंभव ही होता है यदि तुम तैयार न हो। यदि तुम अपना मुंह नहीं खोलते, यदि तुम झुकते नहीं पानी लेने के लिए, तो चाहे नदी बहती भी हो, तुम रह सकते हो प्यासे ही। और यही है जो घट रहा है। नदी बह रही है और तुम प्यासे ही बैठे हो किनारे पर। अहंकार तो हमेशा प्यासा रहेगा, भले ही वह जो भी प्राप्त कर ले। अहंकार है प्यास। परितृप्ति आत्मा की होती है, अहंकार की नहीं।

तीसरा प्रश्‍न:

आप एक ही समय में हम इतने सारे व्यक्तियों पर कार्य कर लेते हैं क्या है इसका रहस्‍य?

क्योंकि मैं कार्य करता ही नहीं! मैं तो बस होता हूं। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि मेरे पास कितने लोग हैं। यदि मैं कार्य कर रहा होता, तो निस्संदेह किस प्रकार एक ही समय में इतने लोगों पर कार्य कर सकता? मेरे कार्य की गुणवत्ता भिन्न है। वस्तुत: यह कार्य नहीं है। मुझे इन शब्दों का उपयोग करना पड़ता है तुम्हारे कारण। मैं तो मात्र हूं यहां; चीजें घटेंगी अगर तुम भी हो यहीं। मैं सुलभता से मौजूद हूं यदि तुम भी सुलभ हो, तो चीजें अपने से ही घटेंगी; कुछ करने की जरूरत नहीं है।

दो प्राप्यताओं के, दो मौजूदगियो के मिलन की आवश्यकता होती है; तब बातें घटती हैं अपने से ही। जब तुम बीज बोते हो धरती में तो तुम क्या करते हो? क्या करते हो तुम? वहां तो बीज और धरती का मिलन ही होता है, और चीजें अपने से घटती हैं। बस ऐसे ही।

मैं यहां हूं। यदि तुम भी यहां हो तो कुछ घटता है। लेकिन यही है समस्पा—शायद ऐसा लगता हो कि तुम यहा हो और तुम यहां नहीं होते हो। तब कुछ नहीं घटता। मैं यहां हूं। यदि तुम भी होते हो यहां, तो चीजें अपने से घटती हैं। बस ऐसा ही होता है, मैं नहीं कर रहा होता कुछ। यदि इससे भिन्न कुछ होता, तो मैं तुमसे थक गया होता, लेकिन मैं कभी नहीं थकता क्योंकि मै कुछ नहीं कर रहा। तुम मुझे नहीं थका सकते; मैं ऊबा हुआ नहीं हूं। यदि इससे अन्यथा कुछ होता तो मैं थक गया होता। तुम स्वयं से भी ऊबे हुए हो—तुममें से बहुत ऊबे हुए है।

ऐसा हुआ, यहूदी संप्रदाय में कि एक रबाई ने चले जाने की धमकी दे दी। पवित्र दिवस करीब आ रहे थे और ट्रस्टी लोग चिंतित थे इस बारे में कि क्या करना चाहिए। अभी यह कठिन था, तत्काल ही किसी रबाई को खोज लेना, नये रबाई को खोजना। और वह पुराना वाला तो अपनी बात पर अटल .बना हुआ था। उन्होंने उसे राजी कराने का प्रयत्न किया। उन्होंने तीन ट्रस्टियों का एक प्रतिनिधि मंडल भेजा, और उन्होंने ट्रस्टियों से कहा कि उससे कहें, ‘यदि वह ज्यादा वेतन चाहता है, तो स्वीकार कर लेना। या उससे कहना कि वह कम से कम कुछ सप्ताह ही रुक जाये। फिर वह जा सकता है। फिर हम किसी और को ढूंढ पायेंगे। ‘ तो गये वे, और उन्होंने रुकने के लिए राजी किया और उन्होंने हर ढंग से कोशिश की। वे कहते रहे, ‘हम प्रेम करते हैं आपसे और सम्मान करते हैं आपका। क्यों छोड्कर जा रहे है आप?’ पर रबाई बोला, ‘यदि आपकी तरह के पांच व्यक्ति यहां होते, तो मैं यहीं रहता।’

उन्होंने बड़ा सम्मानित अनुभव किया क्योंकि उसने कह दिया था, ‘यदि आपकी तरह के पांच व्यक्ति यहीं होते, तो मैं यहीं रहता। ‘ उन्होंने बहुत अच्छा अनुभव किया और वे बोले, ‘तो ऐसा कोई बहुत मुश्किल तो नहीं होगा। हम तीन तो यहां हैं ही। दो और खोजे जा सकते हैं। ‘ वह रबाई बोला, ‘यह मुश्किल नहीं है; यही तो अड़चन है। आपकी तरह के दो सौ व्यक्ति यहां हैं, और यह बहुत ज्यादा है।’

तुम स्वयं से ही ऊबे हुए हो। जरा देख लेना दर्पण में—तुम ऊबे हुए हो अपने चेहरे से। और तुम कितने सारे हो यहां! फिर मुझे तो भयंकर रूप से ऊब जाना चाहिए। और तुम रोज मेरे पास वही—वही समस्याएं लिये चले आते हो। लेकिन मैं कभी नहीं ऊबता क्योंकि मैं कार्य नहीं कर रहा हूं। यह कोई कृत्य जरा भी नहीं है। तुम इसे प्रेम कह सकते हो, लेकिन कार्य नहीं। प्रेम कभी नहीं ऊबता है। हजार बार तुम मेरे पास फिर—फिर वही समस्याएं ला सकते हो। बहुत समस्याएं होती ही नहीं हैं।

मैं हजारों लोगों को देखता रहा हूं। वही समस्याएं बार—बार दोहराते रहते हैं। तुम्हारी समस्याएं सप्ताह के सात दिनों की भांति ही हैं—उससे कुछ ज्यादा नहीं। फिर सोमवार आता है, फिर से मंगलवार आता है—ऐसा ही चलता चला जाता। लेकिन मैं जरा भी ऊबा हुआ नहीं हूं क्योंकि मैं कार्य नहीं कर रहा हूं। यदि कोई कार्य कर रहा हो, तो निस्संदेह यह बहुत कठिन होता है। तो इसलिए मैं कर सकता हूं काम—क्योंकि मैं कुछ कर नहीं रहा।

तो तुम सब लोगों से, तुमसे ही कुछ अपेक्षित है, मुझसे नहीं। तो तुम ऊब सकते हो किसी दिन मुझसे; वैसी संभावना है। तुम शायद मुझसे भागना चाहो; यह संभव हो सकता है। केवल एक चीज अपेक्षित है तुमसे। यदि तुम वह कर सको, तब कुछ करने की जरूरत नहीं—न तो मेरी तरफ से और न ही तुम्हारी तरफ से। वह चीज है तुम्हारी सुलभ मौजूदगी। तुम अभी और यहीं बने रहो। और फिर इससे कुछ अंतर नहीं पडता कि तुम यहां इस शहर में हो, इस आश्रम में हो, या कि संसार के किसी दूसरे कोने में हो।

यदि तुम्हारी मौजूदगी सुलभ हो, तो बीज अंकुरित होंगे ही। मैं हर कहीं मौजूद हूं। कहीं होने की बात नहीं है। चाहे मैं इस शरीर में भी नहीं रहूं मैं प्राप्य होऊंगा। लेकिन तब तुम्हारे लिए अधिकाधिक कठिन होगा, क्योंकि तुम तो अभी मौजूद नहीं हो जब मैं यहां और अभी इस शरीर में हूं और तुमसे बातें कर रहा हूं। तुम ध्यान देकर नहीं सुन रहे हो। निस्संदेह तुम सुन रहे हो, पर ध्यान नहीं दे रहे हो। तुम मेरी ओर देख रहे हो, पर ‘मुझे’ नहीं देख रहे हो। मुझे देखो।

यह कोई कार्य नहीं है। यह मात्र एक सुलभ प्रेम है, और प्रेम द्वारा हर चीज संभव होती है, हर रूपांतरण संभव होता है।

चौथा प्रश्‍न:

आपने बताया कि प्रेम एक आवश्यकता है। छत लोगों के लिए यह मुख्य आवश्यकता पूरी करनी इतनी कठिन क्यों होती है?

बहुत सारी बातें संबंधित है। पहली एक बात है—समाज प्रेम के विरुद्ध है क्योंकि प्रेम सबसे बड़ा संबंध है, और प्रेम तुम्हें अलग कर देता है समाज से। दो प्रेमी स्वयं में ही एक संसार बन जाते है; वे किसी और की परवाह नहीं करते। इसीलिए समाज प्रेम के विरुद्ध है। समाज नहीं चाहता कि तुम प्रेम करो। विवाह अनुमत है, पर प्रेम नहीं। क्योंकि जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम स्वयं में ही एक संसार बन जाते हो—अलग। तुम चिता नहीं करते कि संसार में दूसरों को क्या घट रहा है। तुम तो उन्हें भूल ही जाते हो। तुम निर्मित कर लेते हो तुम्हारा अपना ही एक निजी संसार।

प्रेम एक ऐसी सृजनात्मक शक्ति है कि वह एक संपूर्ण विश्व बन जाती है। तब तुम अपने केंद्र के चारों ओर ही घूमने लगते हो। और यह बात समाज बरदाश्त नहीं कर सकता है। तुम्हारे माता—पिता, तुम्हारा प्रेम बरदाश्त नहीं कर सकते क्योंकि यदि तुम प्रेम में पड़ते हो तो तुम उन्हें बिलकुल ही भूल जाते हो, जैसे कि वे कभी थे ही नहीं। तब वे सीमांत पर रहते है, कहीं बहुत दूर। कैसे वे करने दे सकते हैं तुम्हें प्रेम? वे तुम्हारे विवाह का इंतजाम कर देंगे। वह इंतजाम उनका ही होगा। तब तुम जीयोगे उस परिवार के एक हिस्से के रूप में।

मुल्ला नसरुद्दीन एक सी के प्रेम में पड़ गया। वह बहुत खुश—खुश घर आया, और जब परिवार के लोग रात्रि का भोजन ले रहे थे, वह कहने लगा उनसे, ‘मैंने तय कर लिया है।’ पिता तुरंत बोले, ‘यह संभव नहीं। यह तो असंभव है। मै ऐसा नहीं होने दे सकता क्योंकि लडकी के परिवार ने उसके लिए एक पैसा भी नहीं छोड़ा है। वह दिवालिया है। बेहतर लड़कियां मिल रही है बेहतर दहेज के साथ। नासमझ मत बन।’

मां बोली, ‘वह लड़की? हम कभी सोच भी न सकते थे कि तुम इतने नासमझ हो सकते हो। वह ऊटपटांग उपन्यासों को पढ़ने के सिवाय कभी कुछ नहीं करती। वह किसी काम की नहीं। वह खाना नहीं पका सकती, वह घर साफ नहीं कर सकती। जरा देखो तो कितने गंदे घर में वह रहती है! ‘

और इसी भांति और आगे बातचीत चलती गयी। अपनी—अपनी धारणाओं के अनुसार हर सदख ने उसे अस्वीकार कर दिया। छोटा भाई बोला, ‘मैं नहीं सहमत उसकी नाक के कारण। नाक इतनी भद्दी है।’ हर किसी की अपनी राय थी।

तब नसरुद्दीन बोला, ‘पर उस लड़की के पास एक चीज है जो हमारे पास नहीं है।’ वे सब इकट्ठे समवेत स्वरों में ही पूछने लगे, ‘क्या है वह? ‘ वह बोला, ‘परिवार! उसके पास परिवार नहीं। उसके साथ वह एक सुंदर बात

माता—पिता प्रेम के विरुद्ध होंगे। वे एकदम प्रारंभ से ही तुम्हें प्रशिक्षित करेंगे। ऐसे ढंग से प्रशिक्षित करेंगे तुम्हें कि तुम प्रेम में पड़ो ही मत। क्योंकि प्रेम विपरीत पड़ेगा परिवार के। और समाज कुछ नहीं है सिवाय एक ज्यादा बड़े परिवार के। प्रेम समाज के, सभ्यता के, धर्म के, पंडित—पुरोहितों के विपरीत पड़ता है। प्रेम एक ऐसी अंतर्प्रस्तता है, एक ऐसी समग्र प्रतिबद्धता है कि यह हर किसी के विपरीत पड़ता है। और हर किसी की तुमसे अपेक्षाएं जुड़ी है।

नहीं, यह बात नहीं होने दी जा सकती। तुम्हें प्रेम न करना सिखाया जाता रहा है। और यही है कठिनाई, यही है अड़चन। यह कठिनाई चली आती है समाज से, संस्कृति से, सभ्यता से—उस सबसे जो कि तुम्हारे आसपास है। लेकिन यही सबसे बड़ी कठिनाई नहीं है। इससे भी बड़ी एक कठिनाई है जो तुमसे ही आती है और वह है कि प्रेम को चाहिए समर्पण। प्रेम की मांग है कि तुम्हें अहंकार गिरा देना चाहिए।

और तुम भी प्रेम के विरोध में हो। तुम चाहते हो प्रेम, तुम्हारे अहंकार का ही एक उत्सव बन जाये; तुम चाहोगे प्रेम तुम्हारा अहंकार सजाने का एक आभूषण बन जाये। तुम चाहोगे प्रेम कुत्ते की भांति तुम्हारे पीछे चले, लेकिन प्रेम कभी किसी के पीछे कुत्ते की भांति नहीं चलता। प्रेम तुमसे चाहता है संपूर्ण समर्पण। ऐसा नहीं है कि सी समर्पण करती है पुरुष को या कि पुरुष समर्पण करता है खी को—नहीं। दोनों समर्पण करते है प्रेम को। प्रेम परमात्मा है। वास्तव में प्रेम ही एकमात्र परमात्मा है। और यह तुम्हारी मांग करता है, दोनों प्रेमियों की, वे इसके प्रति संपूर्णतया समर्पित हो जायें।

लेकिन प्रेमी—क्या कर रहे है वे? पति कोशिश करता है कि पत्नी को उसे समर्पण करना चाहिए और पली की कोशिश रहती है कि पति को उसके प्रति समर्पण कर देना चाहिए। तो प्रेम कैसे संभव है? प्रेम कुछ और ही बात है। उसके प्रति दोनों को ही समर्पण करना चाहिए। और दोनों को उसमें विलीन हो जाना चाहिए।

यही बात सबसे बड़ी बाधा बन जाती है। तुम प्रेम नहीं कर सकते तुम्हारे ही कारण। इस भांति दो अहंकारों के साथ होने से, प्रेम असंभव हो जाता है। और यदि प्रेम असंभव हो जाता है तो प्रार्थना असंभव हो जाती है। यदि प्रेम असंभव हो जाता है तो परमात्मा असंभव हो जाता है। वह सब जो सुंदर है, प्रेम द्वारा ही उपजता है। प्रेम की आधारभूमि तो चाहिए ही; अन्यथा तुम अपंग रह जाओगे। और तब तुम इसकी पूर्ति करने की और पूरी करने की कोशिश करते हो दूसरे तरीकों से, लेकिन कोई चीज इसका अभाव पूरा नहीं कर सकती। कोई प्रतिस्थापन अस्तित्व नहीं रखता।

तुम प्रार्थना किये जा सकते हो, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना में कमी होगी उस प्रसाद की, जो तभी आता है जब कोई प्रेम का अनुभवी हो। कैसे कर सकते हो तुम प्रार्थना? तुम्हारी प्रार्थना तो मात्र कुड़ा—करकट ही होगी—एक शाब्दिक घटना। तुम भगवान से कुछ कहोगे और उससे बोलोगे कुछ, और सो जाओगे, लेकिन इसमें कमी रहेगी किसी आवश्यक गुणवत्ता की। कैसे कर सकते हो तुम प्रार्थना जब तुमने प्रेम ही न किया हो तो? प्रार्थना आती है हृदय से। और तुम्हारा हृदय रहा है बंद, इसलिए तुम्हारी प्रार्थना आती है सिर से। सिर नहीं बन सकता है हृदय।

इसलिए तो संसार भर में लोग प्रार्थनाएं किये जा रहे है। वे मात्र कुछ शारीरिक भंगिमाएं कर रहे होते है, मौलिक तत्व वहां होता ही नहीं। जडविहीन प्रार्थना होती है वह। प्रेम भूमि तैयार करता है। वह आधार तैयार करता है प्रार्थना के अंकुरित होने के लिए। प्रार्थना और कुछ नहीं सिवाय ऊंचे प्रेम के। वह प्रेम जो व्यक्तियों के पार जाता है, वह प्रेम जो व्यक्ति का अतिक्रमण कर जाता है; वह प्रेम जो विकसित होता है समष्टि होने के लिए ही। वह कोई एक अंश नहीं। तो भी तुम्हें जरूरत है अंश के साथ ही सीखने की।

तुम एकदम छलांग नहीं लगा सकते समुद्र में। तैरना तालाब में ही सीखना। प्रेम एक तालाब है जहां तुम सुरक्षित होते हो। वहां तुम सीख सकते हो, तब तुम जा सकते हो सागरों तक, उछलती लहरों वाले विराट सागरों तक। तुम सीधे ही तो छलांग नहीं लगा सकते विराट सागरों में। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम खतरे में पड़ोगे। वैसा संभव नहीं है। प्रेम एक छोटा तालाब है; वहां केवल दो व्यक्ति है। सारा संसार बहुत छोटा हो जाता है। दो के लिए एक दूसरे में प्रवेश करना संभव होता है।

वहां भी तुम भयभीत होते हो। तालाब में भी तुम डरे हुए हो कि तुम कहीं खो न जाओ, डूब न जाओ। तो फिर समुद्र की तो बात ही क्या करनी? प्रेम प्रथम आधार—स्थल है। पहली तैयारी है ज्यादा बड़ी छलांग लगाने की। मैं तुम्हें सिखाता हूं प्रेम। और मैं कहता हूं तुमसे कि जो कुछ लगता हो दांव पर उसकी परवाह मत करना। उसे त्याग देना, चाहे वह कुछ भी हो। सम्मान, धन, परिवार, समाज, संस्कृति, कुछ भी लगता हो दांव पर, उसकी चिंता मत करना। जुआरी हो जाओ क्योंकि प्रेम की भांति और कुछ नहीं है। यदि तुम हर चीज गंवा दो तो भी तुम कुछ नहीं गंवाते यदि तुम प्रेम पा लेते हो तो। यदि तुम प्रेम को खो देते हो, तो तुम कुछ भी प्राप्त कर लो, तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करते। इन दोनों बातों से सावधान रहना।

समाज तुम्हारी मदद नहीं करेगा, वह प्रेम का विरोधी है। प्रेम एक समाज विरोधी शक्ति है। और समाज प्रेम का दमन करने का प्रयत्न करता है। फिर तुम्हारा उपयोग बहुत तरीकों से किया जा सकता है। उदाहरण के लिाग्र यदि तुम वास्तव में ही प्रेम में पड़ते हो, तो तुम्हें सिपाही नहीं बनाया जा सकता है, तुम्हें युद्ध पर नहीं भेजा जा सकता। वैसा असंभव है क्योंकि तुम्हें इन चीजों की परवाह ही नहीं रहती। तुम कहते, ‘देश क्या? देश—भक्ति क्या? मूढ़ताएं हैं। ‘ प्रेम इतना सुंदर फूल है कि जिसने इसे जान लिया, उसे देशभक्ति, राष्ट्रीयवाद, देश और झंडा, ये तमाम बातें मूढ़ताएं दिखने लगती हैं। वास्तविक बात तो तुम चूक ही गये हो।

समाज प्रेम को किसी दूसरी दिशा में मोडने की कोशिश करता है। वास्तविक चीज का तो स्वाद ही नहीं लेने दिया जाता। तब तुम ललकते हो प्रेम के लिए, और तुम्हारा प्रेम किसी दिशा की ओर मोड़ा जा सकता है। वह देशभक्ति बन सकता है; तब तुम हो सकते हो शहीद। तुम छू हो, क्योंकि तुम व्यर्थ गंवा रहे हो स्वयं को। तुम जा सकते हो और मर सकते हो, क्योंकि तुम्हारा प्रेम दूसरे मार्ग पर ले जाया जा चुका है। यदि तुम प्रेम नहीं करते तो तुम्हारा प्रेम धन का प्रेम बन सकता है। तब तुम एक संचयकर्ता, एक जमाखोर बन जाते हो। तब तुम्हारा परिवार प्रसन्न रहता है क्योंकि तुम सुंदर ढंग से चल रहे हो।

तुम तो सीधे आत्मघात ही कर रहे हो, और परिवार प्रसन्न रहता है क्योंकि तुम इतना ज्यादा धन इकट्ठा कर रहे हो। उन्होंने अपने जीवन गंवा दिये, अब वे तुम्हें विवश कर रहे हैं तुम्हारा जीवन गंवा देने के लिए। और वे ऐसा इतने प्रेममय ढंग से करते हैं कि तुम ना भी नहीं कर सकते। वे तुम्हें अपराधी अनुभव करवा देते हैं। यदि तुम धन इकट्ठा करते हो तो वे प्रसन्न होते हैं। लेकिन वह व्यक्ति धन कैसे जमा कर सकता है, जो कि प्रेम करता है? यह कठिन है। प्रेमी जमाखोर कभी नहीं होता। प्रेमी तो बांटता है, वितरित करता है, दिये चला जाता है। एक प्रेमी जमा कर ही नहीं सकता।

जब प्रेम नहीं रहता तो तुम कृपण बन जाते हो क्योंकि तुम भयभीत होते हो। तुम्हारे पास प्रेम का आश्रय नहीं होता, इसलिए तुम्हें जरूरत रहती है किसी और की। धन एक अभाव पूर्ति बन जाता है। समाज भी चाहता है तुम जमा करके रखो, क्योंकि धन किस प्रकार बनाया जाता है? यदि हर कोई प्रेमी बन गया होता, तो समाज बहुत—बहुत समृद्ध हो जाता, लेकिन समृद्ध होता संपूर्णतया अलग ढंग से। वह भौतिक रूप से दखि हो सकता है, लेकिन आध्यात्मिक रूप से वह समृद्ध ही होगा।

फिर भी, वह समृद्धि दिखाई नहीं देती। समाज को चाहिए आखों से दिखने वाला धन। तो सारे संसार में, धर्म, समाज, संस्कृति एक साजिश में हैं क्योंकि तुम्हारे पास तो होती है केवल एक ही ऊर्जा—वह है प्रेम—ऊर्जा। यदि यह ठीक तरह प्रेम में बहती है तो इसे विवश नहीं किया जा सकता कहीं और बहने के लिए। यदि तुम प्रेम नहीं करते, तो तुम्हारे प्रेम का अभाव ही वितान का कोई अनुसंधान बन सकता है।

फ्रायड ने सत्य की बहुत—सी झलकियां पायीं। वह वस्तुत: ही एक अनूठा व्यक्ति था, इसलिए बहुत सारी अंतर्दृष्टियां घटित हुईं उसे। उसने कहा था कि जब कभी तुम किसी चीज में गहरे उतरते हो, तो वह होता है सी में गहरे उतरना ही। और यदि सी न मिले, तो तुम किसी और चीज में गहरे रूप से उतरने की कोशिश करोगे।

तुम शायद देश के प्रधानमंत्री बनने की ओर बढ़ने लगो।

तुम राजनेताओं को प्रेमी के रूप में कभी नहीं पाओगे। वे हमेशा प्रेम का बलिदान कर देंगे अपनी सत्ता—शक्ति की खातिर। वैज्ञानिक कभी न होंगे प्रेमी, क्योंकि यदि वे प्रेमी हो जायें तो वे विश्रांत रहें। उन्हें चाहिए होता है तनाव, एक निरंतर आवेश। प्रेम विश्रांति अनुभव करता है, निरंतर आवेश संभव नहीं होता। वे पागलों की तरह जुटे रहते हैं अपनी प्रयोगशालओ में। वे आविष्ट होते हैं, काम द्वारा अभिभूत होते हैं। रात—दिन वे काम करते रहते है।

इतिहास जानता है कि जब किसी देश की प्रेम—आवश्यकता परिपूर्ण हो जाती है, तो देश कमजोर हो जाता है। तब वह पराजित किया जा सकता है। इसलिए प्रेम की चाह परिपूर्ण नहीं होनी चाहिए। तब देश खतरनाक हो जाता है क्योंकि हर कोई पगलाया हुआ होता है और लड़ने को तैयार रहता है। जरा—सा कारण पाकर ही हर कोई तैयार हो जाता है लड़ने के लिए। यदि प्रेम की आवश्यकता पूरी हो जाती है तो किसे परवाह रहती है? जरा सोचना, यदि वास्तव में ही सारा देश प्रेम में पड़ गया हो और कोई आक्रमण कर दे। तो उस देश के लोग उससे कहेंगे ठीक है, तुम भी आ जाओ और रह जाओ यहीं। क्यों परेशानी उठा रहे हो! हम इतने सुखी हैं, तो तुम भी आ जाओ। देश बहुत विशाल है, तो तुम भी आ जाओ यहां और सुखी बनो। और यदि तुम शासक ही होना चाहते हो तो हो जाओ शासक। कुछ गलत नहीं, यह ठीक है ही। तुम ले लो जिम्मेदारी। यह अच्छा है।

लेकिन जब प्रेम की आवश्यकता परिपूर्ण नहीं होती है, तब तुम हमेशा लड़ने को ही तैयार रहते हो। तुम जरा खयाल में लेना यह बात। अपने मन को ही देखने का प्रयत्न करना। यदि तुमने कुछ दिन अपनी सी से प्रेम नहीं किया होता, तो तुम निरंतर चिड़चिड़े रहते हो। यदि तुम प्रेम करते हो, तो तुम विश्रांति में होते हो। चिड़चिड़ाहट चली जाती है। और तुम इतना ठीक अनुभव करते हो कि तुम क्षमा कर सकते हो। प्रेमी हर बात के लिए क्षमा कर सकता है। प्रेम एक गहन आशीष बना है उसके लिए। तो वह सब क्षमा कर सकता है जो गलत है।

नहीं, नेता तुम्हें प्रेम नहीं करने देंगे क्योंकि फिर सिपाही निर्मित नहीं किये जा सकते। तब तुम कहां पाओगे युद्धखोरों को, विक्षिप्त लोगों को, पागल लोगों को जो कि विध्वंस ही करना चाहेंगे? प्रेम सृजन है। यदि प्रेम की आवश्यकता परिपूर्ण हो जाती है, तो तुम सृजन करना चाहोगे, विध्वंस नहीं। तब सारा राजनैतिक ढांचा ही ढह जायेगा। यदि तुम प्रेम करते हो, तो फिर सारा पारिवारिक ढांचा समग्र रूप से अलग होगा। यदि तुम प्रेम करते हो तो अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र अलग होंगे। वस्तुत: यदि प्रेम आने दिया जाये, तो सारा संसार समग्रतया अलग ही रूप ले लेगा। लेकिन उसे आने नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस ढांचे के अपने न्यस्त स्वार्थ हैं। हर ढांचा स्वयं को आगे की ओर धकेलता है, और यदि तुम कुचले जाते हो तो वह परवाह नहीं करता।

सारी मानवता कुचली गयी है, और सभ्यता का रथ चलता चला जाता है। इसे समझो, इसे देखो, जागरूक हो जाओ इसके प्रति। और फिर प्रेम इतना सीधा—साफ होता है। कुछ और ज्यादा सीधा नहीं होता उससे। सारी सामाजिक आवश्यकताएं गिरा देना—सिर्फ तुम्हारी आंतरिक आवश्यकताओं का ध्यान रखो। यह कोई समाज के विरुद्ध हो जाना नहीं है। तुम तो बस तुम्हारे अपने जीवन को समृद्ध करने की कोशिश ही कर रहे हो। तुम यहां किसी दूसरे की अपेक्षाएं पूरी करने को नहीं हो। तुम यहां हो तुम्हारे अपने लिए, तुम्हारी अपनी परिपूर्णता के लिए।

प्रेम को प्रथम चीज लेना, मौलिक आधार और दूसरी चीजों की परवाह मत करना। पागल लोग तुम्हारे चारों ओर है। वे तुम्हें पागलपन की तरफ धकेलेंगे। समाज के विरुद्ध हो जाने की कोई जरूरत नहीं है। मात्र बहार आ जाना इसकी अपेक्षाओं से, बस इतना ही।

विद्रोही होने की, क्रांतिकारी होने की तुम्हें कोई जरूरत नही, क्योंकि वैसा करना फिर से उसी जगह आ जाना है। यदि तुम्हारा प्रेम परिपूर्ण नहीं होता है तो तुम क्रांतिकारी हो जाओगे, क्यों कि वह भी छिपे रूप में एकविध्वंस ही होता है। और फिर आती है वास्तविक समस्या—तुम्हारे अपने अहंकार को गिरा देने की। प्रेम चाहता है संपूर्ण समर्पण।

इसे होने देना, क्योंकि कुछ और नहीं है जो तुम्हें घट सकता हो। यदि तुम इसे नहीं घटने देते हो तो तुम्हारा जीना व्यर्थ है। और यदि तुम इसे घटने देते हो, तो और बहुत—सी चीजे संभव हो जाती हैं। एक बात दूसरी बात तक ले जाती है। प्रेम सदा प्रार्थना की और ले जाता है। इसीलिए जीसस जोर देते है कि परमात्मा प्रेम है।

आज इतना ही

पहला भाग समाप्‍त।


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जागरूकता की कीमिया—प्रवचन—दूसरा

दिनांक 2 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—मैं क्यों विरोध अनुभव करता हूं स्‍वच्‍छंद, स्‍वाभाविक होने तथा जाग्रत होने के बीच?

2—क्या दमन का योग में कोई विधायक उपयोग है?

3—ध्‍यान के दौरान शारीरिक पीड़ा का विक्षेप हो तो क्या करें?

4—प्रेम संबंध सदा दुःख क्‍यों लाते है।

5—शिष्यत्व के विकास के लिए सदगुरू के प्रेम में पड़ना क्‍या शिष्‍य के लिए जरूरी ही है?

6—बच्‍चे की ध्‍यान पूर्ण निर्दोषता क्‍या वास्‍तविक है?

7—(क) क्‍या दिव्‍य—दर्शन (विजन) भी स्‍वप्‍न ही है?

(ख) निद्रा और स्‍वप्‍न में कैसे सचेत रहा जाये?

(ग) क्‍या आप मेरे सपनों में आते है?

पहला प्रश्न : स्वच्छंद स्वाभाविक होने और जाग्रत होने के बीच मैं विरोध अनुभव क्यों करता हूं?

विरोध है नहीं, लेकिन तुम निर्मित कर सकते हो विरोध। जहां कोई विरोध, कोई संघर्ष न भी हो तो मन संघर्ष बना लेता है। क्योंकि संघर्ष में रहे बिना मन जीवित ही नहीं रह सकता। स्वच्छंद और स्वाभाविक होना तुम्हें, एक सहजस्फूर्त जागरूकता देगा। कोई जरूरत नहीं है जागरूकता के लिये प्रयास करने की; वह पीछे चली आयेगी छाया की भांति। यदि तुम स्वच्छंद और स्वाभाविक रही तो वह आयेगी ही। इसके लिये अतिरिक्त प्रयत्न करने की जरा भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि स्वच्छंद और स्वाभाविक होना स्वत: विकसित होगा जागरूक हो जाने में। या, यदि तुम जागरूक हो, तो तुम स्वच्छंद और स्वाभाविक हो जाओगे। वे दोनों बातें साथ—साथ बनी रहती हैं। लेकिन यदि तुम कोशिश करते हो दोनों के लिये, तो तुम अंतर्विरोध निर्मित कर लोगे। दोनों के लिये एक साथ प्रयत्न करने की कोई जरूरत नहीं है।

जब मैं कहता हूं स्वच्छंद और स्वाभाविक होने को तो क्या होता है इसका अर्थ? इसका अर्थ होता है : मत करना कोई प्रयास। जो कुछ तुम हो बस वही हो जाओ। यदि तुम अजाग्रत हो, तो होओ अजाग्रत, क्योंकि तुम वही हो तुम्हारी स्वच्छंद और स्वाभाविक अवस्था में। अजाग्रत रही। यदि तुम कोई प्रयास करते हो, तो कैसे तुम स्वच्छंद और स्वाभाविक हो सकते हो। बस विश्रांत रहो; जो कुछ अवस्था है स्वीकार करो, और स्वीकार करो अपनी स्वीकृति को भी। वहां से मत सरको। चीजों के शात होते —होते समय गुजरता जायेगा। उस संक्रमण काल में, शायद तुम्हें स्पष्ट बोध न भी हो, क्योंकि चीजें सुव्यवस्थित हो रही हैं। एक बार चीजें सहज, शात हो जाती हैं और प्रवाह स्वाभाविक होता है, तो तुम अचानक विस्मित हो जाओगे अनपेक्षित रूप से, एक सुबह तुम पाओगे कि तुम जाग्रत हो। कोई जरूरत नहीं है कोई प्रयास करने की।

या, यदि तुम काम कर रहे होते हो जागरूकता द्वारा—और दोनों विधियां भिन्न हैं, वे अलग— अलग दृष्टिकोणों से आरंभ होती है—तो मत सोचना स्वच्छंद और स्वाभाविक होने की बात। तुम तो इसे पा लेना जागरूक होने के अपने प्रयास द्वारा। बिना किसी प्रयास की आवश्यकता के जागरूकता के स्वाभाविक बनने में लंबा समय लगेगा और जब तक वह स्थल न आये जहां प्रयास की आवश्यकता नहीं रहती, तब तक जागरूकता उपलब्ध नहीं हुई होती। जब तुम भूल सको सारे प्रयत्नों को और सहज ही जागरूक हो सको, केवल तभी तुमने उसे उपलब्ध किया होता है। तब, बिलकुल युगपत ही, तुम पा लोगे स्वच्छंद और स्वाभाविक होने की घटना को। वे साथ—साथ आती हैं। वे सदा एक साथ घटती हैं। वे दो पहलू हैं एक ही घटना के, तो भी तुम एक साथ उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते।

यह तो ऐसा होता है जैसे कि कोई चढ़ रहा हो पर्वत पर और वहां बहुत सारे मार्ग हों; वे सब पहुंचते हों शिखर पर ही, वे सब एक चरम बिंदु तक पहुंच जाते हों, शिखर पर। लेकिन तुम एक साथ दो मार्गों पर तो नहीं चल सकते न। यदि तुम कोशिश करो, तो तुम पागल हो जाओगे और तुम कभी न पहुंचोगे शिखर तक। कैसे तुम दो मार्गों पर एक साथ चल सकते हो यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि वे सब एक ही शिखर तक ले जाते हैं? व्यक्ति को केवल एक ही मार्ग पर चलना होता है। अंततः जब कोई पहुंचता है शिखर पर, तो वह पायेगा कि सभी मार्ग वहां चरम बिंदु तक पहुंच गये हैं?। चलने के लिये सदा एक ही मार्ग चुनना। निस्संदेह जब तुम पहुंचते हो, तो तुम पाओगे कि सारे मार्ग पहुंचेंगे एक ही जगह, उसी एक शिखर पर।

जागरूक होना एक अलग ही प्रकार की प्रक्रिया होती है। बुद्ध ने इसी का अनुसरण किया। उन्होंने इसे कहा सम्यक—सचेतनता। इस युग में एक दूसरे बुद्ध ने, जार्ज गुरजिएफ ने इसका अनुसरण किया; उन्होंने कहा इसे स्व—स्मरण। एक और बुद्ध, कृष्णमूर्ति, कहे चले जाते हैं जागरूकता की, सचेत रहने की बात। यह होता है एक मार्ग। तिलोपा संबंधित है दूसरे मार्ग से, स्वच्छंद और स्वाभाविक होने का मार्ग और जागरूकता की फिक्र तक न लेने का मार्ग; बस वही हो जाना जो कुछ तुम हो, किसी संशोधन के लिये कोई प्रयास न करते हुए। और मैं कहता हूं तुमसे, तिलोपा का दृष्टिकोण ज्यादा ऊंचा है बुद्ध से, गुरजिएफ से और कृष्णमूर्ति से, क्योंकि वे कोई अंतर्विरोध निर्मित नहीं करते हैं। वे तो सहज ही कहते हैं कि, ‘बस, वही हो जाओ जो कुछ तुम हो। ‘ किसी आध्यात्मिक प्रयास की भी जरूरत नहीं क्योंकि वह भी अहंकार का ही हिस्सा है—कौन प्रयास कर रहा होता है सुधरने का? कौन कर रहा होता है प्रयास जागरूक होने का? कौन प्रयास कर रहा होता है संबोधि को उपलब्ध होने का? यह कौन होता है तुम्हारे भीतर? यह है फिर वही अहंकार। वही अहंकार जो प्रयास कर रहा था देश का राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री होने के लिये, अब वह प्रयास कर रहा होता है बुद्धत्व को उपलब्ध होने के लिये।

बुद्ध ने स्वयं संबोधि को कहा है, ‘अंतिम दुखस्वप्न’। संबोधि अंतिम दुखस्वप्न है क्योंकि फिर, यह एक स्वप्न ही है। और न ही यह केवल स्वप्न है, बल्कि एक दुखस्वप्न है। क्योंकि तुम इसके द्वारा दुखी होते हो। तिलोपा का दृष्टिकोण परम दृष्टिकोण है। यदि तुम इसे समझ सको, तो किसी तरह के किसी प्रयास की जरूरत नहीं होती। तुम तो केवल विश्रांत रही और जीवंत रहो, और हर चीज अपने से ही पीछे चली आती है। व्यक्ति को होना होता है केवल प्रयासहीन; बस शात रूप से बैठना; बसंत ऋतु आती है और घास बढती है स्वयं ही।

दूसरा प्रश्न :

ऐसा समझा गया है अतीत में योग की बहुत प्रणालियां मुख्य रूप से दमन द्वारा ही सिखाई गयी हैं और बिलकुल थोड़े लोग ही इसके द्वारा उपलब्ध भी हुए। क्या यह संभव नहीं कि आज भी दमन की यह विधि शायद एक निश्चित प्रकार के व्यक्ति के अनुकूल पड़ती हो?

पहली तो बात कि यह बिलकुल ही गलत है; जो जानते हैं उनमें से किसी ने कभी दमन नहीं सिखाया।

दूसरी बात, कोई कभी इसके द्वारा उपलब्ध नहीं हुआ। लेकिन हर कहीं खोटे सिक्के विद्यमान हैं। स्वाभाविक होने का मार्ग बहुत सीधा—सरल है। लेकिन तुम्हें यह कठिन दिखता है, क्योंकि अहंकार चाहता है संघर्ष करने के लिये, चुनौती पाने के लिये, विजय पाने के लिये कोई कठिन बात। अहंकार जीवित रहता है निरंतर चुनौती द्वारा। अगर कोई चीज बिलकुल सीधी होती है, तो अहंकार नीचे गिर जाता है। यदि तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होता है सिवाय चुपचाप और शात बैठने के और चीजों को होने देने के, और तुम्हारी ओर से किसी क्रिया के बिना चीजों को उस ओर बढ़ने देने के जिधर कि वे बढ़ रही होती हैं, तो कब तक और कैसे जीवित रहेगा अहंकार? कोई संभावना नहीं इसकी।

स्वच्छंद और स्वाभाविक होने में, अहंकार संपूर्णतया नीचे पटका जाता है। वह तुरंत तिरोहित हो जाता है। क्योंकि अहंकार को तो चाहिये सतत क्रिया। अहंकार तो ऐसे है जैसे साइकिल चलाना—तुम्हें निरंतर पैडल चलाना होता है। यदि तुम साइकिल का पैडल चलाना बंद कर देते हो, तो यह कुछ फीट तक या गज तक जा सकती है पहले के गति—बल के कारण, लेकिन फिर इसे गिरना ही है। साइकिल और सवार दोनों गिर जायेंगे। साइकिल को चाहिये होती है पैडल की लगातार गति। चाहे तुम बहुत धीरे भी चलाओ पैडल, तुम गिर जाओगे। इसे एक निश्चित निरंतर ऊर्जा का पोषण चाहिये।

अहंकार है बिलकुल साइकिल चलाने की भांति ही—तुम्हें निरंतर इसे पोषित करना होता है? यह चुनौती, वह चुनौती, यह क्रिया, वह क्रिया—कुछ पा कर रहना है! एवरेस्ट की चोटी जीतनी ही है, तुम्हें चांद तक तो पहुंचना ही है—कुछ न कुछ सदा भविष्य में ही। तो तुम्हें चलाने ही हैं पैडल, और तभी अहंकार जीवित रह सकता है। अहंकार अस्तित्व रखता है क्रिया की हलचल में। अक्रिया सहित तो, एकदम नीचे ही गिर पड़ती है साइकिल और सवार भी। ज्यों ही सारी क्रिया तिरोहित होती है, उसके साथ ही अहंकार तिरोहित हो जाता है।

इसीलिए अहंकार को सरल चीजें कठिन जान पड़ती हैं, और कठिन चीजें जान पड़ती हैं सरल। यदि मैं तुमसे कहूं कि मार्ग बहुत—बहुत कठिन है, तो तुरंत तुम तैयार हो जाओगे उस पर चलने को। यदि मैं कहूं कि यह बहुत सीधा—सरल है, यह इतना सरल है कि तुम्हें एक कदम भी बढ़ाने की जरूरत नहीं है, यह इतना सीधा है कि तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है, बस बैठे रहना अपने घर में और वह घटेगा, तो तुम भूल ही जाओगे मेरे बारे में और मैं जो कह रहा हूं उसके बारे में। तुम मुझसे दूर ही चले जाओगे जैसे कि तुमने बिलकुल सुना ही न हो। तुम चले जाओगे किसी के पास जो कह रहा होता है कोई नासमझी की बात और निर्मित कर रहा हो तुम्हारे लिए कठिनाई। इसीलिए दमन का अस्तित्व आ बना था, क्योंकि इस संसार में सर्वाधिक कठिन चीज वही होती है, दमन करना। यह करीब—करीब असंभव होता है, क्योंकि यह कभी सफल नहीं होता, यह सदा असफल ही होता है।

तुम कैसे अपने अस्तित्व के एक हिस्से का दमन कर सकते हो किसी दूसरे हिस्से द्वारा? यह तो ऐसा हुआ जैसे कि तुम्हारे बाएं हाथ को हराने की कोशिश करना—तुम्हारे दाएं हाथ द्वारा विजयी होने की कोशिश करते हुए। तुम दिखावा कर सकते हो। थोड़ी सी क्रिया के बाद तुम दिखावा कर सकते हो कि दाया ऊपर है और बायां दब गया है। पर तुम क्या सोचते हो यह दब गया है या जीत लिया गया है?

कैसे तुम अपने अस्तित्व के एक हिस्से को जीत सकते हो दूसरे हिस्से द्वारा? ये मात्र झूठे दावे हैं। यदि तुम दबाते हो कामवासना को, तो ब्रह्मचर्य होगा एक मिथ्याभिमान, एक पाखंड। यह तो बस वैसा ही हुआ कि दायां हाथ वहां पड़ा है और प्रतीक्षा कर रहा है, दिखावा करने में तुम्हें मदद दे रहा है। किसी क्षण फिर उलट सकती है हर चीज। और स्थिति उलटेगी ही। वह जिसे तुमने जीत लिया हो उसे जीतना होता है फिर—फिर, क्योंकि वह हरगिज वास्तविक जीत नहीं होती। अंत में तुम पाओगे कि तुम लड़ते रहे हो अपने सारे जीवन भर और कुछ प्राप्त नहीं हुआ है। वस्तुत: तुम केवल पराजित ही होओगे और कुछ नहीं। तुम्हारा संपूर्ण जीवन पराजित होगा।

जो गुरु जानता है, गुरु जो संबोधि को उपलब्ध होता है वह कभी नहीं उपदेश देता रहा दमन का। लेकिन उनकी उपदेशना रही है, कुछ ऐसी, जो दमन लग सकती है उन लोगों को जो नहीं जानते, इसलिए भेद साफ करने दो मुझे। भेद बहुत सूक्ष्म है। उदाहरण के लिए, बुद्ध और महावीर दोनों ने सिखाया है उपवास करना, दोनों ने सिखाया है ब्रह्मचर्य। क्या वे सिखा रहे हैं दमन? वे सिखा नहीं सकते, और वे नहीं सिखा रहे थे ऐसा।

जब बुद्ध कहते हैं, ‘उपवास करो’ तो क्या अर्थ होता है उनका? तुम्हारी भूख को दबाओं? —नहीं। वे कहते हैं, ‘देखो अपनी भूख को। ‘ शरीर कहेगा, ‘मैं भूखा हूं?’ तुम सिर्फ बैठना अपने भीतर और देखना। कुछ मत करना शरीर को पोषित करने के लिए और न ही कुछ करना भूख को दबाने के लिए। तुम तो सिर्फ देखना भूख को। किसी क्रिया की कोई जरूरत नहीं तुम्हारी तरफ से, और दमन एक क्रिया ही है। जबकि तुम भूख को दमन करो, तो क्या करोगे तुम? तुम उसे देख नहीं पाओगे। वस्तुत:, केवल वही बात होती है जिससे तुम बचोगे।

क्या करेगा वह व्यक्ति जो भूख दबा देना चाहता है और जिसने कि उपवास रखा है, जैसे कि जैन करते हैं हर साल? वह कोशिश करेगा मन को कहीं दूसरी जगह बहलाने की ताकि भूख का अनुभव ही न हो। वह जप करेगा मंत्रों का, या वह चला जाएगा अपने धर्म—नेता के पास उसे सुनने ताकि मन उलझा रहे। —तब उसे कोई जरूरत नहीं रहती उस भूख पर ध्यान देने की जो कि उसमें होती है। यह दमन है। दमन का अर्थ है : कुछ मौजूद है और उसकी ओर तुम देखते नहीं, तुम दिखावा करते हो कि वह नहीँ है वहां। यदि तुम गहरे रूप से व्यस्त होते हो मन में, तो भूख नहीं बेध सकती और अपनी ओर नहीं ला सकती तुम्हारा ध्यान। भूख खटखटाती रहेगी द्वार, लेकिन तुम मंत्र का जप कर रहे होते हो इतनी जोर से कि तुम खटखटाहट सुनते ही नहीं। दमन का मतलब है : अपने भीतर की वास्तविकता से अलग करके मन को कहीं दूसरी ओर लगा देना।

यदि तुमने प्रतिज्ञा की है ब्रह्मचर्य की या तुमने ब्रह्मचारी का जीवन धारण कर लिया है, तो क्या करोगे तुम जब कामेच्छा उठेगी और कोई सुंदर स्त्री पास से गुजर जाएगी तो? क्या तुम शुरू कर दोगे मंत्र का जप—राम, राम, राम? तो तुम अब कर रहे हो बचाव। तुम एक परदा डाल रहे हो तुम्हारी आंखों पर। तुम दिखा रहे हो कि वह स्त्री वहां नहीं है। लेकिन स्त्री तो है और इसीलिए तुम राम नाम का जप कर रहे हो इतनी जोर से।

भारत में, लोगों को प्रात: स्नान करना पड़ता है। मेरे गांव में एक बहुत सुंदर झील है, नदी, और लोग जाते हैं प्रात: स्नान करने को। वहां, बचपन में, पहली बार मैं जाग्रत हुआ दमन की चालाकी के बारे में। नदी का पानी बहुत ठंडा होता था, खासकर सर्दियों में जब लोग जाते थे स्नान करने के लिए। मैं उन्हें देखता था गर्मियों में स्नान करते हुए भी, और वे नहीं जप करते थे—हरे राम, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण। सर्दियों में, क्योंकि नदी इतनी ठंडी होती थी और वे इतनी जोर से जप करते थे कि वे भूल जाते थे नदी को। वे एक डुबकी लगाते और बाहर आ जाते। उनका मन संलग्न होता था जप करने में। सुबह जितनी ज्यादा ठंडी होती, उतना ही ज्यादा तीव्र होता ईश्वर का जप।

अपने बचपन में, उन लोगों को देखते हुए पहली बार मैं सजग हुआ इस चालाकी के बारे में, कि वे क्या कर रहे होते थे इस बारे में। मैं देखता उन्हीं लोगों को गर्मियों में स्नान करते हुए और वे फिक्र नहीं लेते थे राम की, हरि की, कृष्ण की, या किसी की भी। तो फिर क्या सर्दियों में अकस्मात ही वे बन गए होते थे धार्मिक? वे तथ्य से बचने की चालाकी जान गए थे, और वहां तथ्य होता था खटखटाता, आवाज करता और जीता जागता। वे अपने मन को मोड़ लेते थे कहीं दूसरी ओर।

क्या तुमने देखा है रात को लोगों को सुनसान सड़क पर जाते हुए जब कि अंधेरा होता है? वे गीत गाना शुरू कर देते हैं, या कि सीटी बजाना, या कि गुनगुनाना। क्या कर रहे होते हैं वे? —वही चालाकी। गुनगुनाते हुए भूल जाते हैं अंधकार को। जोर से गाना गाते हुए, वे सुनते हैं उनकी अपनी आवाज और अनुभव करते हैं कि वे अकेले नहीं हैं। आवाज एक अनुभूति दे देती है कि वे अकेले नहीं हैं। उनकी अपनी आवाज से घिरने पर, अंधकार तिरोहित हो जाता है उनके लिए। अन्यथा, यदि रात को वे चुपचाप चलते हैं सुनसान सड़क पर, तो उनकी अपनी पगध्वनियां निर्मित करती हैं भय, जैसे कि कोई पीछा कर रहा हो। यह तो एक सीधी तरकीब हुई।

महावीर और बुद्ध नहीं बता सकते और नहीं सिखा सकते ऐसे धोखे। वे सिखाते हैं उपवास के बारे में, लेकिन उनका उपवास समग्र रूप से, गुणात्मक रूप से भिन्न होता है। सतह पर, दोनों उपवास करने वाले एक से ही होंगे, लेकिन गहरे— तल पर भेद अस्तित्व रखता है। गहरे रूप से जो व्यक्ति बुद्ध या महावीर का अनुसरण कर रहा होता है वह उपवास करेगा और कोई क्रियाकलाप नहीं चलाएगा मन में। वह देखेगा और पूरा ध्यान देगा भूख पर। और फिर उदित होती है बहुत—बहुत सुंदर घटना : यदि तुम भूख पर ध्यान दो तो वह तिरोहित हो जाती है। बिना किसी भोजन के वह तिरोहित हो जाती है। क्यों? क्या घटता है भूख पर ध्यान देने से?

जब कामेच्छा उभरती है, तब तुम्हें पूरा ध्यान देना है उस पर—निर्णय न लेते हुए, नहीं कहते हुए कि ऐसा अच्छा है या बुरा। नहीं कहते हुए कि यह पाप है, नहीं कहते हुए कि यह शैतान की शैतानी है। नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं होना चाहिए क्योंकि सारे मूल्यांकन मन से संबंधित होते हैं।

साक्षी का मन से संबंध नहीं। अच्छा, बुरा—तमाम भेद संबंधित होते हैं मन से, और साक्षी होता है अविभक्त, एक। न अच्छा होता है और न बुरा। वह तो मात्र होता है। यदि कोई भूख पर ध्यान देता है या कि कामेच्छा पर पूरा ध्यान देता है—और समग्र ध्यान एक ऐसी ऊर्जा होती है, वह अग्नि ही होती है —कि भूख जल ही जाती है, कामवासना की इच्छा बिलकुल जल जाती है। क्या घटता है? कौन सा रचना —तंत्र होता है भीतर?

तुम भूख अनुभव करते हो। वस्तुत:, तुम कभी भूखे नहीं होते। शरीर भूखा होता है, तुम कभी नहीं होते भूखे। लेकिन तुमने तादात्‍म्‍य बनाया होता है शरीर के साथ। तुम अनुभव करते हो, ‘मैं हूं शरीर।’ इसीलिए तुम अनुभव करते कि तुम भूखे हो। जब तुम ध्यान देते हो भूख पर तो एक दूरी निर्मित हो जाती है, तादात्‍म्‍य टूट कर गिर पड़ता है। तुम अब शरीर नहीं रहते : शरीर भूखा होता है और तुम होते हो द्रष्टा। अचानक, एक आनंदपूर्ण स्वतंत्रता तुममें उदित होती है जहां कि तुम अनुभव करते हो, ‘मैं शरीर नहीं हूं मैं कभी नहीं रहा शरीर। शरीर है भूखा, पर मैं नहीं हूं भूखा। ‘ सेतु टूट जाता है—तुम अलग हो जाते हो। शरीर में कामवासना के लिए इच्छा है क्योंकि शरीर आया है कामवासना में से ही। शरीर की इच्छा है कामवासना के लिए क्योंकि शरीर का हर कोशाणु कामवासनामय है। तुम्हारे माता—पिता ने, गहन कामुक क्रिया में निर्मित किया है तुम्हारे शरीर को। तुम्हारे शरीर के पहले कोशाणु ही आये थे गहन काममय भावावेश द्वारा; वे उसी का गुणधर्म वहन किए रहते हैं। वे कोशिकाएं अपने को बढ़ाती रही हैं, और इसी भाति तुम्हारा सारा शरीर निर्मित हुआ है। तुम्हारा सारा शरीर काम—आवेश है। कामवासना उठती है। शरीर के लिए ऐसा स्वाभाविक है, कुछ गलत नहीं है इसमें। शरीर काम—ऊर्जा है और कुछ नहीं।

शरीर के लिये तो ब्रह्मचर्य संभव नहीं। कामवासना स्वाभाविक है शरीर के लिये। कामवासना शरीर के लिये स्वाभाविक है, और तुम्हारे लिये केवल ब्रह्मचर्य है स्वाभाविक; कामवासना है अस्वाभाविक नितांत अस्वाभाविक। इसीलिये हम इसे कहते हैं ब्रह्मचर्य। अंग्रेजी शब्द ‘सेलिबेसि’ बहुत ठीक नहीं है। वह बहुत साधारण है, सस्ता है। ब्रह्मचर्य का भाव नहीं पहुंचा पाता है। ब्रह्मचर्य प्राप्त किया गया है ‘ब्रह्म’ के मूल से। ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ होता है कि तुम आये हो उपलब्ध होने को, तुम आये हो जानने को कि तुम हो ब्रह्म, परम, दिव्य, कि तुम हो स्वयं परमात्मा।

जब कोई अनुभव करने लगता है वह स्वयं भगवान है, तब उसमें होता है वास्तविक ब्रह्मचर्य। तब कोई समस्या नहीं होती। और घटता क्या है, अदभुत बात तो यह होती है कि जब तुम अलग होते हो, जब सेतु टूट जाता है और शरीर से तुम्हारा तादात्म्य नहीं बना रहता, तो तुम नहीं कहते, ‘मैं शरीर हूं। ‘ तुम कहते हो, ‘मैं शरीर में हूं तो भी शरीर नहीं हूं। मैं रहता हूं इस घर में, पर मैं घर नहीं हूं। मैं इन वस्त्रों में हूं लेकिन वस्त्र नहीं हूं मैं। ‘ जब तुम उपलब्ध कर लेते हो इसे—और मैं कहता हूं ‘उपलब्ध’ क्योंकि बौद्धिक रूप से तो तुम इसे पहले से ही जानते हो, बात उसकी नहीं; तुमने इसका संपूर्ण अनुभव ही नहीं किया है; जब तुम पूरी तरह समझते हो भूख पर गहरा ध्यान देते हुए, या कि काम—वासना पर ध्यान देते हुए, या किसी भी चीज पर—जब तुम करते हो स्पष्ट अनुभव, तो अचानक शरीर और आत्मा के बीच का वह सेतु तिरोहित हो जाता है। जब वहां अंतराल होता है और तुम बन चुके होते हो साक्षी, तब शरीर जीवित रहता है तुम्हारे सहयोग द्वारा।

शरीर नहीं जी सकता बिना तुम्हारे सहयोग के। यही तो घटता है जब शरीर मरता है : शरीर तो बिलकुल वही होता है, केवल अब तुम्हारा सहयोग न रहा। तुम चले गये हो घर से बाहर और इसीलिये शरीर मर गया है। अन्यथा, कोई कभी मरता नहीं। शरीर वही होता है, पर शरीर निर्भर करता था तुम्हारी ऊर्जा पर। निरंतर, तुम्हें शरीर को ऊर्जा का भोजन देना होता है। यह बना रहता है तुम्हारे सहयोग द्वारा ही; इसकी अपनी कोई सत्ता नहीं। ऐसा तुम्हारे द्वारा ही हुआ है कि यह साथ—साथ है, वरना तो यह अलग हो गया होता। तुम इसमें केंद्रीय तथा निश्चित ठोस रूप देने वाले कारक हो।

जब भूख में, यदि कोई ध्यान देता है भूख पर, तब सहयोग नहीं होता। यह एक अस्थायी मृत्यु होती है। तुम शरीर का पोषण कर सहारा नहीं दे रहे होते हो। जब तुम नहीं बढ़ावा दे रहे होते हो शरीर को, तो शरीर कैसे भूख अनुभव कर सकता है? शरीर कुछ अनुभव नहीं कर सकता; अनुभूति होती है तुम्हारे अस्तित्व की। हो सकता है कि भूख वहां हो शरीर में लेकिन शरीर अनुभव नहीं कर सकता है, उसके कोई स्पर्शबोधक नहीं होते।

अब, मात्र कुछ दशकों के भीतर ही, मस्तिष्क के शल्य—चिकित्सक एक बहुत रहस्यमय घटना के प्रति सजग हो गये हैं कि मस्तिष्क, जो अनुभव करता है हर चीज, स्वयं में कोई अनुभूति नहीं होती उसकी। तुम पूरी तरह जानते हुए लेट सकते हो ब्रेन—सर्जन की मेज पर, तुम्हारा सिर खोला जा सकता है और वह काट सकता है तुम्हारे मस्तिष्क की अति सूक्ष्म नसें, तो भी तुम्हें कुछ महसूस न होगा। किसी बेहोशी की कोई जरूरत नहीं। वह खिड़की बना सकता है सिर में, वह सिर में एक सुराख बना सकता है, लेकिन तुम सुराख बनते जाने को अनुभव करोगे मात्र खोपड़ी पर। एक बार वह पहुंच जाता है भीतर तो कोई अनुभूति बिलकुल नहीं होती वहां। यदि वह तुम्हारा पूरा मस्तिष्क भी काट दे तो तुम्हें पता नहीं चलेगा, और तुम होओगे पूरी तरह जागे हुए।

पश्चिम में बहुत लोग जी रहे हैं मस्तिष्क के बहुत सारे हिस्सों को अलग करवा कर, और वे इसे जानते नहीं। बहुत लोग जी रहे हैं अपने मस्तिष्क में निश्चित इलेक्ट्रोड, विद्युत—उपकरण जुड़वाए हुए और उन्हें पता ही नहीं होता। वे अनुभव नहीं कर सकते इलेक्ट्रोड्स को। एक पत्थर तुम्हारे सिर के भीतर रख दिया जा सकता है और तुम कभी अनुभव नहीं करोगे कि वह वहां है, क्योंकि मस्तिष्क में कोई अनुभूति ही नहीं। तो कहां से आती होगी अनुभूति?

मस्तिष्क सूक्ष्मतम भाग होता है शरीर का, सबसे ज्यादा नाजुक, लेकिन उसकी भी कोई अनुभूति नहीं होती। अनुभूति आती है तुम्हारे अस्तित्व से। यह उधार ली जाती है शरीर द्वारा। शरीर की अपनी कोई अनुभूति नहीं होती। जब तुम ध्यान से देखते हो भूख को, तब अगर वह देखना वास्तविक होता है, प्रामाणिक होता है, और तुम बचते नहीं, तो भूख तिरोहित हो जाती है।

महावीर या बुद्ध का उपवास समग्रतया भिन्न उपवास होता है, जैनों और बौद्धों के उपवास से। महावीर का ब्रह्मचर्य समग्र—रूपेण भिन्न है जैन मुनियों के ब्रह्मचर्य से। महावीर बच नहीं रहे, वे तो मात्र देख रहे हैं। ध्यान से देखने पर, वह तिरोहित हो जाता है। साक्षी बनो, तो वह वहां मिलता नहीं। बचाव करने से, वह तुम्हारे पीछे चला आता है। वस्तुत: न ही केवल पीछे आता है, वह तुम्हें आविष्ट करता है।

योग कोई दमन नहीं सिखाता—वह नहीं सिखा सकता। लेकिन योगी हैं जो सिखाते हैं दमन। वे शिक्षक हैं; उन्होंने अपने अंतरतम के अस्तित्व का बोध नहीं पाया है। इसलिये एक भी ऐसा व्यक्ति अस्तित्व नहीं रखता है जो दमन द्वारा बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकता हो। ऐसा संभव नहीं है, यह बिलकुल ही संभव नहीं है। कोई जागरूकता द्वारा प्राप्त करता है, दमन द्वारा नहीं।

तीसरा प्रश्न :

ध्यान में अक्सर शारीरिक पीड़ा बनती है चित्तविक्षेप जब पीड़ा हो रही हो तो क्या आप पीड़ा पर भी ध्यान करने के लिए कहेंगे?

इसी की तो बात कर रहा था मैं। यदि तुम पीड़ा अनुभव करते हो तो उसके प्रति सजग, ध्यानमय रहना, कुछ करना मत। ध्यान सबसे बड़ी तलवार है—यह हर चीज काट देती है। तुम बस ध्यान देना पीड़ा पर।

उदाहरण के लिए, तुम ध्यान के अंतिम चरण में चुपचाप बैठे हुए होते हो, बिना हिले—डुले, और तुम शरीर में बहुत—सी समस्याएं अनुभव करते हो। तुम्हें लगता है कि टल एकदम सुन्न होती जा रही है, हाथ में कुछ खुजली हो रही है, तुम्हें लगता है शरीर पर चींटियां रेंग रही हैं। बहुत बार देख लिया तुमने और वहां चींटियां हैं ही नहीं। वह रेंगाहट भीतर होती है, कहीं बाहर नहीं। तो तुम्हें करना क्या होगा? तुम्हें तो लगता है टांग खत्म हो रही है—ध्यानपूर्ण हो जाओ, अपना समग्र ध्यान ही लगा दो उस ओर। तुम्हें खुजली हो रही है? मत खुजलाना। उससे कोई मदद न मिलेगी। तुम केवल ध्यान दो। अपनी आंखें तक भी मत खोलना। केवल अपना ध्यान लगाना भीतर की ओर और मात्र प्रतीक्षा करना और देखना। कुछ पलों के भीतर ही वह खुजली मिट चुकी होगी। जो कुछ भी घटता है—यदि तुम्हें पीड़ा भी होती है, पेट में या सिर में होती है तीव्र पीड़ा, वह होती है क्योंकि ध्यान में सारा शरीर परिवर्तित होता है। वह बदलता है अपना रसायन। नयी चीजें घटनी शुरू होती हैं और शरीर एक अराजकता में होता है। कई बार पेट पर पड़ेगा प्रभाव, क्योंकि पेट में तुमने दबायी होती हैं बहुत भावनाएं, और वे सब झकझोर दी जाती हैं। कई बार तुम वमन कर देना चाहोगे, तुम अनुभव करोगे मिचलाहट; कई बार तुम सिर में तीव्र पीड़ा अनुभव करोगे। क्योंकि ध्यान परिवर्तित कर रहा होता है तुम्हारे मस्तिष्क के आंतरिक ढाचे को। ध्यान की राह से गुजरते हुए तुम वस्तुत: ही एक अव्यवस्था में होते हो। जल्दी ही चीजें सुव्यवस्थित हो जाएंगी। लेकिन कुछ समय के लिए, हर चीज रहेगी अस्थिर, अव्यवस्थित।

तो तुम्हें करना क्या होता है? तुम सिर्फ देखना सिर की पीड़ा को, उसे देखना। तुम हो जाना द्रष्टा। तुम बिलकुल भूल ही जाना कि तुम कर्ता हो, और धीरे — धीरे हर चीज शात हो जाएगी और इतनी सुंदरता से, इतनी लालित्य—पूर्ण ढंग से शात होगी कि तुम्हें विश्वास नहीं आ सकता जब तक कि तुम उसे जान ही नहीं लेते। केवल पीड़ा ही नहीं मिटती है सिर की—क्योंकि यदि देखते हो तो वह ऊर्जा जो पीड़ा निर्मित कर रही थी, तिरोहित हो जाती है—वही ऊर्जा बन जाती है सुख। ऊर्जा एक ही होती है। पीड़ा या सुख वह एक ही ऊर्जा के दो आयाम हैं। यदि तुम मौन बैठे रह सकते हो और ध्यान दे सकते हो ध्यान— भंग होने की ओर, तो सारी विभ्रांतिया तिरोहित हो जाती हैं। और जब सारी विभ्रांतिया तिरोहित हो जाती हैं, तो तुम अकस्मात सजग हो जाओगे कि सारा शरीर तिरोहित हो चुका है।

वस्तुत: क्या घट रहा था ? क्यों घट रही थीं ये बातें रूम जब तुम ध्यान नहीं करते तो ये नहीं घटतीं। सारा दिन तुम वैसे ही मौजूद होते हो और हाथ कभी नहीं खुजलाता, सिर में कोई दर्द नहीं होता, पेट बिलकुल ठीक—ठाक होता है और टलें ठीक रहती हैं। हर चीज ठीक होती है। वस्तुत: क्या घट रहा था ध्यान में? ध्यान में ये चीजें अचानक क्यों घटने लगती हैं?

शरीर मालिक बना रहा है बहुत लंबे समय से, और ध्यान में तुम शरीर को इसकी मालकियत से बाहर फेंक रहे होते हो। तुम उतार दे रहे हो उसे सिंहासन से। वह चिपकता है; वह हर तरह से कोशिश करता है मालिक बने रहने की। वह तुम्हें विभ्रांत करने को बहुत चीजें निर्मित करेगा जिससे कि ध्यान खो जाये। तुम संतुलन से दूर हट जाते हो और शरीर फिर आ चढ़ता है सिंहासन पर। अब तक, शरीर ही बना रहा है मालिक और तुम बने रहे हो गुलाम। ध्यान द्वारा, तुम बदल रहे हो सारी चीज को ही, यह एक बड़ी क्रांति है और निस्संदेह कोई शासक सत्ता के बाहर होना नहीं चाहता। शरीर राजनीतिया चलाता है—यही तो घट रहा है। जब वह निर्मित करता है काल्पनिक पीड़ा : खुजली, चींटियों का रेंगना तो शरीर कोशिश कर रहा होता है तुम्हारा ध्यान भंग करने की। ऐसा स्वाभाविक है, क्योंकि इतने लंबे समय से शरीर के पास सत्ता बनी रही है। बहुत जन्मों से यह बना रहा सम्राट और तुम बने रहे गुलाम। अब तुम बदल रहे हो—हर चीज उलट—पुलट गयी है। तुम अपने सिंहासन को वापस ले रहे होते हो। ऐसा स्वाभाविक है कि तुम्हारी शाति भंग करने को जो कुछ किया जा सकता है वह कुछ करना ही चाहिए शरीर को। यदि तुम अशात हो जाते हो, तो तुम भटक जाते हो। साधारणतया लोग इन चीजों को दबा देते हैं। वे जप करने लगेंगे किसी मंत्र का। वे नहीं ध्यान देंगे शरीर पर।

मैं तुम्हें किसी प्रकार का दमन नहीं सिखा रहा हूं। मैं सिखाता हूं केवल जागरूकता। तुम मात्र देखो, ध्यान दो। क्योंकि वह झूठ है, तुरंत तिरोहित हो जायेगा वह। जब सारी पीड़ाएं और खुजलाहटें और चींटियां गायब हो चुकी होती हैं और शरीर गुलाम होने के अपने सही स्थान पर जा बैठा होता है, तो अकस्मात इतना आनंद उमगने लगता है कि तुम उसको अपने में समा नहीं सकते हो। अचानक इतना अधिक उत्सव उमड़ने लगता है तुम्हारे भीतर कि तुम उसे अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते; उमड़ने लगती है कहीं पार की समझ की शाति, उमडूने लगता है एक आनंद जो कि इस संसार का नहीं होता।

चौथा प्रश्न :

कल प्रेम के बारे में बोलते हुए आपने कहा कि यह एक आधारभूत आवश्यकता है जिसकी परिपूर्ति करने का प्रयत्न हमें करना चाहिए। आपने यह भी बताया कि यह फिर— फिर दुख ले आता है तो कैसे कोई अर्थपूर्ण ढंग से जी सकता है यदि प्रेम को पूर्ण करने के हमारे प्रयत्नों का अंत सदा दुख पर ही होना होता है?

तुम्हारे सारे प्रयत्नों का अंत सदा दुख पर होता है। केवल प्रेम की ओर किये गये प्रयत्नों का ही नहीं, बल्कि तुम्हारे सारे प्रयत्नों का ही अप्रतिबंध रूप से अंत होता है दुख में, क्योंकि सारे प्रयत्न आते हैं अहंकार से। कोई प्रयत्न सफल होने वाला नहीं, क्योंकि कर्ता ही सारे दुखों का मूल है। यदि तुम प्रेम कर सकते हो बिना प्रेमी के वहां मौजूद हुए तो कहीं कोई दुख न होगा।

बिना प्रेमी की मौजूदगी के प्रेम में होना बहुत—बहुत कठिन जान पड़ता है। प्रेम ‘करने वाला’ उत्पन्न करता है दुख को, प्रेम नहीं। प्रेमी वे चीजें शुरू करता है जो समाप्त होती हैं नरक में। सारे प्रेमी असफल होते हैं, और मैं किसी अपवाद की नहीं कहता, केवल प्रेम कभी असफल नहीं होता। इसलिए तुम्हें समझ लेना है कि तुम्हारे प्रेम में तुम्हें वहां मौजूद नहीं होना चाहिए। प्रेम मौजूद होना चाहिए, लेकिन बिना किसी अहंकार के।

तुम चलो, तो चलने वाला वहां न हो। तुम करो भोजन, लेकिन भोजन करने वाला न हो वहां। जो कुछ जरूरी है तुम्हें करना होगा, लेकिन कोई कर्ता न रहे वहां। यही होता है संपूर्ण अनुशासन। यही है धर्म का एकमात्र अनुशासन। धार्मिक व्यक्ति वह नहीं होता जो किसी एक धर्म से संबंधित होता है। वस्तुत: धार्मिक व्यक्ति किसी एक धर्म से संबंध नहीं रखता है। धार्मिक व्यक्ति वह व्यक्ति है जिसने गिरा दिया है कर्ता को, जो जीता है स्वाभाविक रूप से, और बस अस्तित्व रखता है।

तब प्रेम की एक अलग ही गुणवत्ता होती है—वह आधिपत्य जमाने वाला नहीं होता, वह ईर्ष्यापूर्ण नहीं होता। वह मात्र देता है। कोई सौदा नहीं होता, तुम उसमें अदला—बदली नहीं करते। वह कोई वस्तु नहीं होता, वह एक छलकता हुआ उमडाव होता है तुम्हारे अस्तित्व का। तुम बांटते हो उसे। वस्तुत:, अस्तित्व की उस अवस्था में जहां कि अस्तित्व प्रेम का होता है, प्रेमी का नहीं, तो ऐसा नहीं होता कि तुम किसी एक के प्रेम में पड़ते हो और किसी दूसरे के प्रेम में नहीं होते, तुम प्रेम मात्र में होते हो। यह विषय—वस्तुओं का सवाल नहीं होता।

यह ऐसे है जैसे श्वास लेना। किसके साथ श्वास लेते हो? तुम तो मात्र श्वास लेते हो। कौन होता है तुम्हारे साथ बात इसकी नहीं। यह तो बिलकुल ऐसे होता है : तुम किसके प्रेम में पड़ते हो यह बात असंबंधित हो जाती है, तुम बस प्रेम में होते हो—जो कोई भी हो तुम्हारे साथ। या, चाहे कोई भी न हो तुम्हारे साथ। शायद तुम खाली घर में बैठे हुए होओगे, तो भी प्रेम प्रवाहित हो रहा होता है। अब प्रेम कोई क्रिया नहीं, यह तुम्हारा अस्तित्व है। तुम उसे उतार—पहन नहीं कर सकते हो—यह तुम ही होते हो। यही है विरोधाभास।

जब तुम तिरोहित हो जाते हो तब तुम होते हो प्रेम; जब तुम नहीं होते हो, तब केवल प्रेम होता है। अंततः, तुम संपूर्णतया भूल जाते हो प्रेम को, क्योंकि है कौन वहां उसे याद करने को? तो प्रेम एक फूल की भांति है जो खिलता है, वह सूर्य है जो उदित होता है, सितारों की भांति है जो रात का आकाश भर देते है—वह तो बस घटता है। यदि तुम एक चट्टान का भी स्पर्श करते हो, तो तुम प्रेम पूर्वक स्पर्श करते हो उसे। वह बन चुका होता है तुम्हारा अस्तित्व।

यही अर्थ है जीसस के इस कथन का, ‘ अपने शत्रुओं से प्रेम करो। ‘ सवाल शत्रुओं से प्रेम करने का नहीं है, बात है कि स्वयं ही बन जाना प्रेम। तब तुम कुछ और कर नहीं सकते। चाहे शत्रु भी आ जाये, तुम्हें प्रेम ही करना पड़ता है। कुछ और करने को होता नहीं है। घृणा इतनी मूढ़ता भरी बात है कि वह अस्तित्व रख सकती है केवल अहंकार के साथ। घृणा एक मूढ़ता होती है क्योंकि तुम दूसरे को नुकसान पहुंचा रहे होते हो। और दूसरे से ज्यादा नुकसान तो स्वयं अपने को पहुंचा रहे होते हो। यह मूढ़ता है, क्योंकि वह सारा नुकसान जो तुम पहुंचाते हो, वापस आ पहुंचेगा तुम तक ही। और बहुत बढ़ कर, वह वापस लौट आएगा तुम तक। तुम दब जाओगे लुढ़कते बोझ तले। यह मात्र मूढ़ता है, जड़ता है। सारे पाप मूढ़ताएं हैं और जड़ताएं हैं।

इसीलिए पूरब में हम केवल एक ही पाप जानते हैं, और वह है अज्ञान। और सब कुछ तो मात्र उसमें से आया उत्पादन होता है। जब मैं बोलता हूं प्रेम पर, तो मैं बोलता हूं उस प्रेम के बारे में जहां कि प्रेमी मौजूद नहीं रहता। और यदि तुम्हारा प्रेम तुम तक दुख ला रहा होता है, तो खूब जान लेना कि यह प्रेम नहीं। यह तुम्हारा अहंकार है जो ले आता है दुख। अहंकार विषमय बना देता है हर चीज को, जो कुछ भी तुम छूते हो उसको। वह किंग मिडास की भांति है. जो कुछ भी वह छू लेता था वह बन जाता सोना। अहंकार है किंग मिडास की भांति ही—जो कुछ भी छू लेता है विष बन जाता है। और तुम जानते ही हो कि किन कठिनाइयों और मुसीबतों में जा पड़ा था मिडास। चीजें परिवर्तित हो रही थीं सोने में और फिर भी वह बन गया था दुखी, इतना दुखी जितना दुखी कोई इस पृथ्वी पर कभी नहीं हुआ है। उसने अपनी बेटी को छू लिया जिससे वह प्रेम करता था और वह बन गयी सोना। उसने छुआ अपनी पत्नी को और वह बन गयी सोना। वह भोजन को छूता और भोजन बन जाता सोना। वह पी नहीं सकता था, वह खा नहीं सकता था, वह प्रेम नहीं कर सकता था, वह चल—फिर नहीं सकता था। उसके अपने रिश्तेदार भाग गये। नौकर चाकर भी बहुत दूर खड़े रहते, क्योंकि यदि वे पास आते और संयोगवशात कहीं वह उन्हें छू लेता, तो वे सोने के बन जाते। किंग मिडास तो जरूर बिलकुल पागल ही हो गया होगा।

तो तुम्हारे साथ क्या है? जो कुछ तुम छूते हो बन जाता है विष। चाहे जब हर चीज सोना भी बन जाये तो भी नरक निर्मित हो जाता है। तुम क्या करते हो? तुम छूते हो और चीजें बन जाती हैं विषमय। तुम जीते हो दुख में, लेकिन तुम्हें ढूंढ लेना है इसका कारण। तुम्हारे भीतर ही है वह कारण. वह कर्ता, वह अहंकार, वह ‘मैं’। लेकिन तुम्हें इसमें से गुजरना होगा। मेरे अनुभव से तुम नहीं सीख सकते।

झेन में कहते हैं कि पानी गर्म है या ठंडा, तुम केवल तभी जानते हो यदि तुम उसे पीते हो। मेरा कहना कि ‘अहंकार हर चीज को विष में बदल देता है’, बहुत मदद नहीं देगा। तुम्हें देखना होता है ध्यान से। तुम्हें रहना होता है खूब सतर्क। तुम्हें अनुभव करना पड़ता है और समझना पड़ता है तुम्हारे अपने अहंकार को—कि उसने क्या कर दिया होता है तुम्हारे साथ।

लेकिन अहंकार बहुत चालबाज होता है। जब कभी तुम दुख में होते हो वह सदा यही कह देता है कि कोई दूसरा है इसका कारण। यही तो चालाकी होती है जिस तरह अहंकार स्वयं को बचा लेता hऐ। यदि तुम दुख में होते हो, तुम कभी नहीं सोचते कि कारण तुम्हीं हो। यह सदा कोई दूसरा होता है। पति दुख में है क्योंकि पत्नी निर्मित कर रही है दुख; पत्नी दुख में है क्योंकि पति निर्मित कर रहा है दुख; पिता दुख में है बेटे के कारण। अहंकार सदा जिम्मेदारी फेंक देता है दूसरे के ऊपर।

मैंने देखे हैं लोग जो दुख में हैं क्योंकि उनके बच्चे हैं, और मैंने देखे हैं लोग जो कि दुख में हैं क्योंकि उनके बच्चे नहीं हैं। मैं देखता हूं लोगों को जो प्रेम में पड़ गये हैं और दुखी हैं—उनका संबंध ही उन्हें दे रहा है बहुत तकलीफ, घबड़ाहट, पीड़ा—और मैं देखता हूं लोगों को दुखी जो प्रेम में नहीं पडे हैं, क्योंकि बिना प्रेम के वे दुखी—पीड़ित हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि तुमने तो बिलकुल दृढ़ निश्चय ही कर रखा है दुखी रहने का। जो कुछ भी होती है स्थिति, तुम निर्मित करते हो दुख। लेकिन तुम भीतर कभी नहीं झांकते। कोई चीज भीतर होती है जरूर जो इसे बनाती है—वह अहंकार, कि तुम सोचते हो तुम हो, अहम् की वह धारणा। जितनी ज्यादा बड़ी धारणा होगी अहम् की, उतना ज्यादा बड़ा होगा दुख। बच्चे कम दुख में होते हैं क्योंकि उनका अहंकार अभी विकसित नहीं हुआ है। फिर, जीवन भर लोग सोचते जाते हैं कि बचपन में जीवन स्वर्ग था। इसका एकमात्र कारण बस यही है कि अहंकार को समय चाहिए विकसित होने के लिए। बच्चों में ज्यादा अहंकार नहीं होता है। यदि तुम अपना अतीत याद करने की कोशिश करो तो तुम कहीं एक रुकाव पाओगे। तीन वर्ष की आयु पर या चार वर्ष की आयु पर, अकस्मात स्मृति वहां ठहर जाती है। क्यों?

मनोविश्लेषक गहराई से इस रहस्य की जांच—पड़ताल करते रहे हैं और अब वे एक निष्कर्ष पर आ पहुंचे हैं। वे कहते हैं कि ऐसा होता है क्योंकि अहंकार मौजूद नहीं था। कौन संग्रह करेगा स्मृतियों को? संग्रहकर्ता वहां था ही नहीं। चीजें घटती थीं, अनुभव घटता था, क्योंकि कोई बच्चा तीन वर्ष की आयु तक कोरा कागज ही तो नहीं होता है। लाखों चीजें घट गयी होती हैं। और बच्चे को ज्यादा चीजें घटती हैं वृद्ध व्यक्ति की अपेक्षा, क्योंकि बच्चा ज्यादा जिज्ञासु होता है। प्रत्येक छोटी बात उनके लिए बड़ी बात होती है। लाखों चीजें घट गयी होती हैं उन तीन वर्षों में, लेकिन क्योंकि अहंकार वहां नहीं था, तो कोई चिह्न अवशेष नहीं बच रहता। यदि बच्चा सम्मोहन में होता है, तो वह कर सकता है याद। वह रुकाव—अटकाव के पार जा सकता है।

बहुत से प्रयोगों में सम्मोहित हुए व्यक्तियों को केवल वही चीजें ही याद नहीं आयीं जो जन्म के बाद घटी थीं, बल्कि वे चीजें भी याद आ गयीं जो जन्म के पहले घटी थीं। जब कि वे मा के गर्भ में थे। मां बीमार थी, या कि उसे तीव्र उदर—पीड़ा थी, और बच्चे ने पीड़ा पायी थी। या, बच्चा मा के गर्भ में था, सात या आठ महीने का हो गया था और मां ने संभोग किया था, बच्चा याद करता है उसे। क्योंकि जब मां संभोग करती है, तो भीतर बच्चे का दम घुटता है।

पूरब में यह बात पूर्णतया वर्जित रही है। जब मां गर्भवती हो तो उससे संभोग नहीं किया जाना चाहिए। कोई भी कामवासना युक्त किया खतरनाक होती है बच्चे के लिए क्योंकि बच्चा अपनी श्वास—क्रिया के लिए निर्भर रहता है मां पर। आक्सीजन उपलब्ध होती है मां के द्वारा। जब मां कामवासना की क्रिया में होती है, तो उसके श्वास की लय खो जाती है। सतत लय जब नहीं रहती वहां, तो बच्चे का दम घुटता है, न जानते हुए कि क्या हो रहा है। कामवासना में पड़ते हुए ज्यादा आक्सीजन सोख ली जाती है मां के द्वारा। अब वह वैज्ञानिक तथ्य है। जब ज्यादा आक्सीजन सोख ली जाती है मां के द्वारा, तो बच्चा नहीं पा सकता आक्सीजन। कई बार मृत्यु तक भी संभव होती है; बच्चा मर सकता है। बच्चे को याद रहती हैं ये सारी बातें। तुम्हें भी याद हैं ये सब बातें, वे मौजूद हैं। लेकिन क्योंकि अहंकार नहीं था वहां, वे बातें तुम पर बोझ नहीं बनी हैं।

संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति को चीजें याद रहती हैं इसी भांति। याद रखने को कोई केंद्र नहीं होता उसके पास। उसने संचित कर ली होती है स्मृति, लेकिन वह कोई बोझ नहीं है। यदि वह चाहता है, तो वह झांक लेता है स्मृति में और चीजें ढूंढ लेता है उसमें से, लेकिन वह बोझिल नहीं हुआ होता। स्मृतियां अपने से ही उस तक नहीं आ पहुंचती हैं। वह जांच सकता है, वह चीजें पता कर सकता है, लेकिन सामान्यतया वह बना रहता है खाली आकाश की भांति। कोई चीज स्वयं ही नहीं आती।

तुम प्रभावित किए जाओगे तुम्हारे अपने अनुभव द्वारा, जो मैं कहता हूं उसके द्वारा नहीं। दुख की ओर देखना और सदा प्रयत्न करना कारण ढूंढने का, और तुम कारण पाओगे तुम्हारे स्वयं के भीतर। जैसे ही तुम जान लेते हो कि कारण भीतर है, तो रूपांतरण का बिंदु अपनी परिपक्वता तक पहुंच चुका होता है। अब तुम दिशा बदल सकते हो, अब तुम परिवर्तित हो सकते हो—तुम तैयार होते हो। जब तुम दूसरों पर जिम्मेदारी फेंकते जाते हो तो कोई परिवर्तन संभव नहीं होता है। जब तुम जान लेते हो कि तुम स्वयं जिम्मेदार हो उस तमाम दुख के लिए जिसे तुमने निर्मित किया है कि तुम स्वयं हो अपने नरक, तल्ला ही बड़ी क्रांति घटती है। तुरंत, तुम बन जाते हो स्वयं अपने स्वर्ग।

इसलिए मैं कहता हूं तुम से संबंधों में उतरने के लिए, संसार में बढ़ने के लिए; अनुभव पाने के लिए परिपक्व होने के लिए, पकने के लिए, मंजने के लिए। केवल तभी जो कुछ मैं कह रहा हूं वह अर्थपूर्ण होगा तुम्हारे लिए। अन्यथा, बौद्धिक रूप से तुम समझ लोगे लेकिन अस्तित्वगत रूप से तुम चूक जाओगे।

पांचवां प्रश्न.

मुझे नहीं लगता है कि मैं आपको प्रेमी के रूप में अनुभव कर सकूं इतना ही लगता है कि आप मेरे लिए ठीक हैं क्या पुराने अनुभव के कारण पुरुषों के प्रति बन गए मेरे अनिश्चित भावों के कारण ऐसा है? क्या उच्च स्तर के संबंध के लिए किसी पूर्व अपेक्षा के रूप में आपके साथ प्रेम में पडना होता है?

तुम मुझे बिलकुल ही नहीं समझे हो। तुम अपेक्षित नहीं हो मेरे प्रेमी बनने के लिए—मैं अपेक्षित नहीं हूं तुम्हारा प्रेमी बनने के लिए। लेकिन तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। तुम नहीं समझ सकते कि प्रेम कैसे संभव होता है बिना प्रेमी बने हुए। तुम कर सकते हो मुझे प्रेम बिना मेरे प्रेमी हुए ही; वह होता है उच्चतम प्रकार का प्रेम, शुद्धतम प्रेम।

इसे समझ लेना है, क्योंकि गुरु और शिष्य के बीच का संबंध इस संसार का नहीं होता। गुरु न तो तुम्हारा पिता होता है और न तुम्हारा भाई, न तो तुम्हारा पति होता है और न पत्नी, और न ही तुम्हारा बच्चा। नहीं, वे सारे संबंध जो संसार में विद्यमान हैं, असंगत होते हैं गुरु और शिष्य के बीच। एक अर्थ में वह यह सब कुछ होता है, और दूसरे अर्थ में, इनमें से कुछ नहीं होता। एक खास अर्थ में वह पिता समान होता है। एक निश्चित अर्थ में वह तुम्हारे लिए एक बच्चे की भांति होता है। जब मैं कहता हूं निश्चित अर्थ में तो मेरा मतलब होता है कि वह तुम्हारे प्रति पिता समान होगा, यद्यपि वह शायद उम्र में तुमसे ज्यादा बड़ा न भी हो। वह बहुत युवा हो सकता है, तो भी एक निश्चित अर्थ में वह पितृवत होगा तुम्हारे प्रति क्योंकि वह देता है और तुम ग्रहण करते हो और क्योंकि वह ऊंचे शिखर पर रहता है और तुम घाटी में रहते हो। आयु की दृष्टि से वह शायद तुमसे वृद्ध न हो, लेकिन शाश्वत रूप से वह असीमित रूप से ज्यादा बड़ा होता है तुमसे। और एक निश्चित अर्थ में वह बिलकुल एक बच्चे की भांति होगा तुम्हारे लिए, क्योंकि वह फिर से बच्चा हो गया है। वह संबंध, बहुत सारी चीजों से भरा है। बहुत जटिल। वह तुम्हारा पति नहीं हो सकता क्योंकि वह तुम पर नियंत्रण नहीं रख सकता, और वह तुम्हारे नियंत्रण में हो नहीं सकता। लेकिन एक खास अर्थ में वह पतिवत होता है। तुम्हारा मालिक होने की जरा भी उसकी कामना के बिना तुम उससे आविष्ट हो जाते हो। उसकी ओर से कोई प्रयास हुए बिना तुम्हारा भाव हो ही जाता है प्रेमिका का। क्योंकि गुरु और शिष्य के बीच ऐसा ही संबंध होगा कि शिष्य को स्त्रैण होना ही होता है, क्योंकि शिष्य ग्रहणकर्ता होता है और उसे रहना होता है खुला। वस्तुत: गुरु के साथ उसे गर्भधारी होना होता है। केवल तभी संभव होगा पुनर्जन्म।

एक दूसरे निश्चित अर्थ में गुरु पत्नी की भांति होता है क्योंकि इतना मृदु, इतना स्नेही होता है वह। उसके जीवन में सारे नुकीले कोने तिरोहित हो चुके होते हैं। वह बन गया होता है अधिकाधिक वर्तुल और वर्तुल अपने शरीर में भी, अपने अस्तित्व में भी, वह अधिक स्त्रीत्वमय होता है। इसीलिए बुद्ध ज्यादा स्त्रीत्वपूर्ण जान पड़ते हैं।

नीत्से ने बुद्ध की आलोचना केवल इसी कारण की है : कि वे स्त्रैण पुरुष थे। नीत्से ने कहा कि बुद्ध ने निर्मित की थी भारत की सारी स्त्रैणता, क्योंकि नीत्से के विचार से, पुरुष शक्तिपूर्ण तत्व है और स्त्री का अर्थ है दुर्बलता। एक खास अर्थ में वह ठीक ही कहता है।

बुद्ध स्त्रैण हैं पर वे दुर्बल नहीं हैं। या दुर्बलता की एक अपनी शक्ति होती है जो किसी शक्ति में कभी नहीं हो सकती। एक बच्चा दुर्बल होता है, लेकिन बच्चे में वह शक्ति होती है, जो किसी प्रौढ़ व्यक्ति में नहीं हो सकती।

चट्टान बहुत शक्तिशाली होती है। चट्टान के एकदम किनारे ही कोई फूल होता है—बहुत कमजोर। लेकिन फूल के पास एक शक्ति होती है जो किसी चट्टान के पास कभी नहीं हो सकती। निश्चित रूप से फूल कमजोर होता है : सुबह को वह खिलता है, आता है, शाम तक वह जा चुका होता है। इतना अस्थायी होता है वह! वह इतना अल्पकालिक होता है। इतना क्षणिक। लेकिन फूल में एक अलग प्रकार के आयाम की, एक अलग तरह की गुणवत्ता की शक्ति होती है—वह होता हैं बहुत जीवंत। वस्तुत:, वह इतनी जल्दी मरता है, क्योंकि वह जीया होता है बहुत प्रगाढ़ता से। फूल में रहने वाली जीवन की वही प्रगाढता उसे थका देती है शाम तक। चट्टान जीए चली जाती है क्योंकि वह जीती है बड़े कुनकुने ढंग से। वहां जीवन प्रगाढ़ नहीं होता : बहुत निस्तेज होता है, ढीला—ढीला, उनींदा। चट्टान सोती है, फूल जीता है।

सद्गुरु दुर्बल होता है एक निश्चित अर्थ में, क्योंकि उसकी दुर्बलता की एक अपनी शक्ति होती है। वह स्त्रैण होता है एक निश्चित अर्थ में क्योंकि सारी आक्रामकता जा चुकी है, सारी हिंसा तिरोहित हो चुकी है। पिता की भांति होने की अपेक्षा वह मां की भांति अधिक है। बात बहुत जटिल है, किसी के लिए जरूरी नहीं प्रेमी होना, लेकिन हर किसी के लिए जरूरी है प्रेम में होना।

‘मुझे नहीं लगता है कि मैं आपको प्रेमी के रूप में अनुभव कर सकूं। इतना ही लगता है कि आप मेरे लिए ठीक हैं।’

कितना ठंडापन, कितनी भावशून्यता! ‘मात्र ठीक?’ ‘मात्र ठीक’ पर्याप्त नहीं होता। जब तक मैं ठीक से कुछ ज्यादा नहीं होता तुम्हारे लिए तब तक कुछ नहीं घटेगा। मात्र ठीक होना तो बहुत गणितीय हो जाता है; मात्र ठीक पर्याप्त से कम है। ‘मात्र ठीक’ का अर्थ हुआ कि मैं तुमसे मिलता हूं केवल बाह्य सतह पर, केंद्र पर नहीं। और जब तुम कहते हो कि ‘ आप मेरे लिए ठीक हैं’, तो यह हृदय का संबंध नहीं हो सकता। यह तो केवल बुद्धि का हुआ—मतलबी, होशियार, चालाक, बचाव बनाये हुए, किनारे—किनारे, हृदय के खतरनाक संबंध में न बढ़ता हुआ, वरन सिर्फ बाहर—बाहर बना हुआ, हमेशा भागने को तैयार। यही है ‘मात्र ठीक’ का अर्थ। और ‘मात्र ठीक’ के पास कोई ऊर्जा नहीं होती। वह बात होती है नितांत ठंडी।

तो यदि तुम इसमें से बाहर आकर विकसित नहीं हो सकते, तो बेहतर है कि मुझे छोड़ देना, क्योंकि कुछ नहीं घटेगा। तुम्हारे पास पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती और यदि तुम मेरी ओर त्वरा से नहीं बढ़ रहे होते हो तो मैं तुम्हारी ओर नहीं बढ़ सकता। यह संभव नहीं; तुम्हें बढ़ना होता है।

गुरु और शिष्य के बीच का संबंध कोई हिसाब—किताब लगा कर बनाया संबंध नहीं होता है। जब सद्गुरु हो जाता है तुम्हारे लिए केवल एक मात्र सद्गुरु… ऐसा नहीं होता कि केवल वही है सद्गुरु, बहुत से हैं, लेकिन सवाल इसका नहीं.. .जब शिष्य के लिए सद्गुरु हो जाता है एक मात्र सद्गुरु, जब सारा इतिहास, अतीत और भविष्य फीका पड़ जाता है इस व्यक्ति के सम्मुख, हर चीज मद्धिम पड़ जाती है और केवल यही व्यक्ति बना होता है तुम्हारे हृदय में, केवल तभी कुछ संभव होता है।

इसी कारण बहुत सारी समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। कोई पड़ जाता है बुद्ध के प्रेम में। तब वह कहता है कि ‘बुद्ध ही हैं एकमात्र बुद्ध पुरुष। ‘ तब वह कहता है, ‘ठीक है—जीसस हैं, कृष्ण हैं, तो भी बुद्ध की भांति नहीं हैं। ‘ तब जीसस और कृष्ण बाहर कर दिये गये परिधि पर। केंद्र पर, मंदिर के हृदय में ही, या हृदय के मंदिर में, केवल बुद्ध रहते हैं। शिष्य के लिए यह बात पूर्ण रूप से सत्य होती है। यदि कोई जीसस के प्रेम में पड़ता है तो जीसस आ जाते हैं केंद्र में, बुद्ध, महावीर और मोहम्मद—सभी परिधि पर होते हैं। जब सद्गुरु हो जाता है सूर्य की भांति और तुम उसके चारों ओर घूमते हो पृथ्वी की भांति, नक्षत्र की भांति, वह बन जाता है तुम्हारा केंद्र, तुम्हारे जीवन का सच्चा केंद्र। केवल तभी संभव होता है कुछ, उससे पहले बिलकुल नहीं।

‘मात्र ठीक’ बिलकुल ठीक नहीं। ‘मात्र ठीक’ का तो मतलब हुआ लगभग गलत। ‘मात्र ठीक’ के जाल से निकल आने की कोशिश करना। यदि तुम मेरे पास आते हो उमड़ाव के पूरे अतिरेक से, केवल तभी तुम पाओगे मुझे। यदि तुम मेरे पास आते हो स्वरा से, जितनी तेजी से दौड़ सकते हो उतनी तेजी से दौड़ते हुए, केवल तभी तुम पाओगे मुझे। यदि तुम पूरी तेजी से, बिना आगे पीछे देखे मुझमें कूद पड़ते हो, केवल तभी तुम पाओगे मुझे। यह तो बहुत व्यापारिक रंग—ढंग हो जाता है, जब तुम कहते हो, ‘मात्र ठीक!’ या तो इससे बाहर हो, इससे आगे बढ़ो या मुझसे दूर चले जाओ। शायद कहीं किसी और के प्रेम में तुम पड़ सको। क्योंकि सवाल इसका नहीं कि तुम ‘ अ’ नामक सद्गुरु के या ‘ब’ नामक सद्गुरु के या ‘स’ नामक सद्गुरु के प्रेम में पड़ते हो—बात यह नहीं होती। बात यह होती है कि तुम प्रेम में पड़ते हो। जहां कहीं यह घटता हो, वहीं चले जाओ। यदि संबंध है ‘मात्र ठीक’ तब मैं नहीं हूं तुम्हारा सद्गुरु, तब तुम नहीं हो मेरे शिष्य।

‘क्या, पुराने अनुभव के कारण, पुरुषों के विषय में बन गए मेरे अनिश्चित भावों के कारण ऐसा है?’ नहीं, पुरुषों के लिए तुम्हारे अनिश्चित भावों के कारण ही ऐसा नहीं है। यह तुम्हारे कारण ही है, तुम्हारे अहंकार के कारण। पुरुषों के लिए तुम्हारी अनिश्चितताए भी तुम्हारे अहंकार के कारण हैं। वे भी हैं तो इसी कारण। यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रति समर्पण नहीं कर सकती है, तो ऐसा इसलिए नहीं होता कि पुरुषों की कमी होती है या कि मिलते ही नहीं। ऐसा केवल इस कारण होता है कि स्त्री विकसित नहीं हुई होती। केवल विकसित व्यक्ति समर्पण कर सकता है, क्योंकि विकसित ही इतना साहसी हो सकता है कि समर्पण कर सके। स्त्री बचकानी बनी रही हो, अवरुद्ध रही हो, तो हर पुरुष के साथ समस्या ही आ बनेगी।

और यदि तुम प्रेम में समर्पण नहीं कर सकते, तो तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा किसी भी अन्य तल पर समर्पण करना। सद्गुरु के प्रति भी समर्पण होता है और कोई पुरुष या कोई स्त्री कभी जितने की मांग कर सकते हैं उससे कहीं ज्यादा बड़ा समर्पण होता है। पुरुष मांग करता है तुम्हारे शरीर के समर्पण की, यदि वह तुमसे संबंधित होता है केवल कामवासना के कारण। यदि वह तुमसे प्रेम भी करता है, तब वह मांग करता है तुम्हारे मन के समर्पण की। लेकिन सद्गुरु मांग करता है तुम्हारी ही—मन, शरीर, आत्मा—तुम्हारे समग्र अस्तित्व की। उससे कम से काम न बनेगा।

तीन संभावनाएं होती हैं। जब कभी तुम सद्गुरु के पास आते हो, तो पहली संभावना होती है बौद्धिक रूप से उसके साथ संबंधित होने की, सिर के द्वारा। वह कुछ ज्यादा नहीं। तुम्हें उसके विचार पसंद आ सकते हैं, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं होता कि तुम ‘उसे’ पसंद करते हो। विचार पसंद करना, उसकी धारणाएं पसंद करना, ‘उसे ही’ पसंद करना नहीं है। विचार तुम अलग रूप से ग्रहण कर सकते हो। सद्गुरु के साथ किसी संबंध में जुड्ने की कोई जरूरत नहीं होती। यही घट रहा है प्रश्नकर्ता को। संबंध भौतिक है; इसीलिए यह ‘मात्र ठीक’ है।

एक दूसरी संभावना होती है। तुम हार्दिक रूप से प्रेम में पड़ते हो, तब इसका कोई सवाल नहीं होता किं वह क्या कहता है; सवाल उसका स्वयं का ही होता है। यदि तुम बौद्धिक रूप से मुझसे संबंधित होते हो, तो कभी न कभी तुम्हें दूर जाना ही होगा। क्योंकि मैं स्वयं का खंडन करता चला जाऊंगा। हो सकता है एक विचार तुम्हें अनुकूल पड़े, दूसरा न अनुकूल पड़ता हो। यह विचार तुम पसंद करो, वह विचार तुम पसंद न करो, और मैं करता जाऊंगा स्वयं का खंडन।

और मैं स्वयं का खंडन करता हूं एक खास उद्देश्य से : मैं केवल उन्हीं लोगों को अपने चारों ओर चाहता हूं जो प्रेम में होते हों—उन्हें नहीं जो कि बौद्धिक रूप से कायल होते हैं मेरे। उन्हें दूर फेंक देने को मुझे निरंतर विरोधाभासी बने रहना होता है।

यह एक छंटाई होती है, एक बहुत सूक्ष्म छंटाई। मैं कभी नहीं कहता तुमसे, ‘चले जाओ। ‘ तुम अपने से ही चले जाते हो। और तुम ठीक अनुभव करते हो कि ‘यह आदमी विरोधाभासी था, इसलिए मैं छोड्कर चला आया। ‘ केवल वही जो कि हृदय से संबंधित होते हैं मुझसे, विरोधाभासों की फिक्र नहीं लेंगे। वे इसकी चिंता नहीं करेंगे कि क्या कहता हूं मैं। वे देखते हैं सीधे मेरी ओर। वे जानते हैं मुझे—कि मैं धोखा नहीं दे सकता हूं उन्हें। वे जानते हैं मुझे प्रत्यक्ष रूप से—जो मैं कहता हूं उसके द्वारा नहीं। जो मैं कहता हूं वह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है।

जरा भेद पर ध्यान देना. वह व्यक्ति जो कायल होता है मेरे विचारों का, मुझसे संबंधित होता है विचारों द्वारा; वह व्यक्ति जो प्रेम में पड़ता है मेरे, विचारों से संबंधित हो सकता है, लेकिन ‘मेरे’ द्वारा ही। बड़ा अंतर पड़ता है इस बात से।

फिर होता है तीसरे प्रकार का संबंध जो कि संभव होता है केवल तभी, जब दूसरे प्रकार का संबंध घट चुका होता है। जब तुम वास्तव में ही प्रेम में पड़ते हो, तो प्रेम इतना स्वाभाविक हो जाता है कि तिरोहित हो जाता है। जब मैं कहता हूं ‘तिरोहित’ तो मेरा यह मतलब नहीं होता कि वह तिरोहित हो जाता है, मैं केवल इतना ही कहता हूं कि तुम अब जागरूक न रहे इसके प्रति कि वह वहां है। क्या तुम जागरूक होते हो श्वास के प्रति? जब कुछ गलत घटता है, ही, तभी ही, जब तुम तेज दौड़ रहे होते हो, श्वास दुष्कर हो जाती है। और तुम्हारी श्वास अवरुद्ध हो जाती है। पर जब तुम अपनी कुर्सी पर पड़े आराम कर रहे होते हो और हर चीज ठीक होती है, तो क्या तुम श्वास के प्रति सजग होते हो? नहीं; इसकी कोई जरूरत नहीं होती। जब सिर में दर्द होता है केवल तभी तुम सिर के प्रति सजग होते हो; कुछ गलत हो गया होता है। जब सिर बिलकुल स्वस्थ होता है, तो तुम सिरविहीन होते हो। यही है स्वास्थ्य की परिभाषा. जब शरीर संपूर्णतया स्वस्थ होता है, तुम उसे जानते ही नहीं। यह ऐसे होता है जैसे कि वह वहां है नहीं; तुम देहविहीन हो जाते हो। यही परिभाषा है श्रेष्ठ प्रेम की भी। प्रेम परम है, उच्चतम स्वास्थ्य है, क्योंकि प्रेम व्यक्ति को बनाता है संपूर्ण। जब तुम सद्गुरु से प्रेम करते हो, तो धीरे— धीरे, तुम संपूर्णतया भूल जाते हो प्रेम को। वह इतना स्वभाविक हो जाता है, श्वास की भांति।

तीसरे प्रकार का संबंध आत्मा में उतर आता है, जो कि न सिर का होता है और न हृदय का, बल्कि स्वयं आत्मा का ही होता है। हृदय और सिर दो तहें हैं; उनके पीछे छिपा होता है तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र। इसे तुम कह सकते हो आत्मा, आत्मन, ‘स्व’ या जो कुछ भी तुम कहना चाहो। क्योंकि, वहां शब्दों का कोई भेद अर्थपूर्ण नहीं रहता। तुम इसे कह सकते हो अनात्म—वह भी काम देगा।

सिर तो प्रारंभ है; वहीं अटक मत जाना। हृदय है मार्ग—उससे गुजर जाना, लेकिन वहां भी घर मत बना लेना। अस्तित्व से अस्तित्व, बीईंग से बीईंग, फिर कोई सीमाएं नहीं रहती। वस्तुत: तब, शिष्य और सद्गुरु दो नहीं रहते। वे दो की भांति अस्तित्व रखते हैं, लेकिन चेतना एक प्रवाहित होती है—एक किनारे से दूसरे किनारे तक।

छठवां प्रश्न :

आपने कहा कि स्कूल का बच्चा खिड़की से बाहर झांकता है तब वह ध्यान में होता है। जब मैं ऐसा करता था तो मैं हमेशा सोचता था कि दिन में स्वप्न देखता हूं और बहुत दूर होता हूं ध्यान से क्या मैं इस सारे समय ध्यान में रहता हूं— बिना इसे जाने ही?

हां, बच्चा ध्यान में होता है। लेकिन यह ध्यान होता है अज्ञान के कारण; उसे चले ही जाना है। वह जिसे तुमने अर्जित नहीं किया है तुम्हारे साथ नहीं बना रह सकता है। केवल वही जो तुमने अर्जित किया है, तुम्हारा होता है। बच्चा ध्यानपूर्ण होता है क्योंकि वह अज्ञानी है। उसके पास बहुत विचार नहीं होते बेचैन करने को। बच्चा ध्यानपूर्ण होता है क्योंकि स्वभावतया, जहां कहीं मन सुख पा लेता है, वह मन को वहीं सरकने देता है।

वस्तुत: बच्चा अभी समाज का हिस्सा नहीं हुआ होता। बच्चा अभी भी आदिम होता है, एक पशु की भांति। लेकिन बीज विकसित हो रहा होता है। देर—अबेर वह हो ही जाएगा समाज का। और फिर, सारा ध्यान खो जाएगा, बचपन की वह निर्दोषता खो जायेगी। बच्चा होता है ईदन के बगीचे में आदम और हब्बा की भांति ही। उसे गिरना ही होगा। उसे पाप करना ही होगा। वह फेंक ही दिया जाएगा संसार में, क्योंकि केवल संसार के अनुभव द्वारा ही वह ध्यान उदित होता है जो पका हुआ होता है, जो खो नहीं सकता।

तो दो प्रकार की निर्दोषता होती है : एक होती है अज्ञान के कारण, दूसरी होती है जागरूकता के कारण। बुद्ध हैं बच्चे की भांति, और सब बच्चे हैं बुद्ध की भाति, लेकिन एक विशाल अंतर बना रहता है। सारे बच्चे खो जाएंगे संसार में। उन्हें चाहिए अनुभव, उन्हें जरूरत होती है संसार में फेंक दिये जाने की। और यदि अपने अनुभव द्वारा वे ध्यान को उपलब्ध होते हैं, फिर प्राप्त कर लेते हैं निर्दोषता और बचपन, तो फिर कोई नहीं फेंक सकता उन्हें। अब वह आया हुआ होता है अनुभव में से, उन्होंने सीखा होता है उसे। अब यह उनका अपना खजाना होता है।

यदि हर चीज ठीक रहती है, तो तुम फिर बच्चे बन जाओगे अपने जीवन के अंत में। और यही है सारे धर्मों का लक्ष्य। और यही है पुनर्जन्म का अर्थ, यही होता है अर्थ ईसाइयों के पुनजग़ॅवत होने का। पुनर्जीवन शरीर का नहीं होता, यह तो आत्मा का होता है, फिर से व्यक्ति हो जाता है बच्चे की भांति। फिर वह व्यक्ति हो जाता है निर्दोष, लेकिन यह निर्दोषता आधारित होती है अनुभव में। यदि तुम मर जाते हो फिर से बच्चा बने बिना, तो तुमने अपने जीवन को जीया होता है व्यर्थ ढंग से; तुम जीये होते हो व्यर्थता से; तुमने बिलकुल गंवा दिया है अवसर। और तुम्हें आना होगा फिर से, समष्टि तुम्हें फिर—फिर वापस फेंकती जाएगी।

यही है पुनर्जन्म का सार सिद्धात. जब तक कि तुम स्वयं ही न सीखो, समष्टि संतुष्ट नहीं होती है तुमसे। जब तक कि तुम अपनी ओर से बच्चे नहीं बन जाते—तुम्हारे शरीर के कारण नहीं, बल्कि तुम्हारी बीइंग के कारण—यदि निर्दोषता तुम्हारे द्वारा प्राप्त की जाती है, और निर्दोषता प्राप्त की जाती है, सारे विक्षेपों के बावजूद, उस सबके बावजूद जो वहां है उसे नष्ट कर देने को—अन्यथा तो तुम फेंक दिए जाओगे फिर बार—बार।

जीवन है एक सीखना, यह एक अनुशासन है। इसलिए केवल तुम्हीं नहीं, बल्कि प्रत्येक बच्चा ध्यानपूर्ण रहा है और फिर वह भटक गया। बच्चा नहीं भटकता दूसरों के कारण; एक मूलभूत आवश्यकता होती है। उसे खो देनी पड़ती है वह निर्दोषता। वह पर्याप्त रूप से गहरी नहीं होती, वह बाधाओं में से नहीं गुजर सकती। वह उथली होती है।

तुम जरा सोचना इस बारे में : एक बच्चा निदोंष होता है, पर बहुत उथला होता है। उसमें कोई गहराई नहीं होती। उसकी सारी भावनाएं सतही होती हैं। इस क्षण वह क्रोध में होता है, अगले क्षण वह क्षमापूर्ण हो जाता है; बिलकुल भूल ही गया होता है। वह जीता है बहुत उथला जीवन, उखड़ा हुआ जीवन। उसमें कोई गहराई नहीं होती। अज्ञान के पास निर्दोषता हो सकती है, पर गहराई नहीं हो सकती। गहराई आती है अनुभव से।

बुद्ध में गहराई है, अपरिसीम गहराई। सतह पर तो वे बिलकुल एक बच्चे की भांति हैं, लेकिन अपने अस्तित्व की गहराई में वे बच्चे की भांति बिलकुल नहीं हैं। जन्मों—जन्मों के सारे अनुभव ने उन्हें पका दिया है। कोई चीज व्याकुल नहीं कर सकती उन्हें, कोई चीज उनकी निर्दोषता को नष्ट नहीं कर सकती—कोई चीज नहीं, कोई भी चीज नहीं। अब उनकी निर्दोषता इतनी गहरे में जुड़ गयी होती है कि आधी—तूफान आ सकता है—वस्तुत उसका स्वागत होता है—और वृक्ष उखड़ेगा नहीं। वह तूफान के आगमन पर आनंद मनाएगा। उसे उखाड़ने के तूफान के इस प्रयत्न पर भी वह आनंद ही मनाता है। और जब तूफान गुजर जाता है, वह ज्यादा शक्तिशाली हो जाएगा उससे, दुर्बल नहीं।

यही है भेद : बचपन की निर्दोषता एक भेंट होती है प्रकृति की; निदोंषता जो तुम प्राप्त करते हो तुम्हारे अपने प्रयास द्वारा, वह प्रकृति की दी हुई भेंट नहीं होती, तुमने अर्जित किया होता है उसे। और सदा याद रखना कि जो कुछ तुमने अर्जित किया होता है वह तुम्हारा होता है। कोई चोरी, कोई डकैती संभव नहीं अस्तित्व में। और तुम उसे उधार नहीं ले सकते किसी दूसरे से।

सातवां प्रश्न :

सपनों के विषय में बहुत प्रश्न पूछे जाते रहे हैं। किसी ने पूछा है ‘क्या दिव्य— दर्शन भी स्वप्न होते हैं?’ ‘निद्रा और स्वप्न में कैसे सचेत रहा जाए?’ ‘कई बार मुझे लगता है कि आप मेरे सपनों में आते हैं। ऐसे सपनों के बारे में मुझे क्या सोचना होगा?’

हां, दिव्य — दर्शन वाले सपने होते हैं —इस संसार के नहीं, बल्कि दूसरे संसार के। कई बार तुम्हें मिलती हैं दिव्य झलकियां और यदि तुम ध्यान करते हो, तो तुम्हें अधिकाधिक घटेंगी ये। कुछ समय के लिए वे बन जाएंगी बहुत साधारण घटनाएं। वे ज्यादा ऊंचे सपने हैं। वे चीजों से संबंधित नहीं होते, बल्कि संबंधित होते हैं तुम्हारी अंतर्घटना से। लेकिन फिर भी वे सपने ही होते हैं, इसलिए चिपक मत जाना उनसे। उनके भी पार जाना होता है। यदि तुम बुद्ध को देखते हो तुम्हारे दिव्य—स्वप्न में, तो ध्यान रहे कि यह बुद्ध भी स्वप्न का ही भाग है। निस्संदेह, यह बात सुंदर होती है, आध्यात्मिक होती है, तुम्हारी खोज में बहुत—बहुत सहायक होती है, लेकिन तो भी चिपक मत जाना इससे।

झेन सद्गुरु सदियों से कह रहे हैं कि यदि ध्यान के समय तुम्हें बुद्ध मिल जाएं तो तुरंत मार देना उन्हें। एक क्षण की भी प्रतीक्षा मत करना। यदि तुम नहीं मारते हो उन्हें, तो वे मार देंगे तुम्हें। और वे ठीक कहते हैं।

दिव्य—स्वप्न सुंदर होते हैं, लेकिन यदि तुम उनसे बहुत ज्यादा आनंदित होने लगते हो तो वे खतरनाक हो सकते हैं। तब तुम फिर रुक जाते हो किसी अनुभव के साथ ही। और जब तुम देखते हो बुद्ध को तो यह बात वस्तुत: ही सुंदर होती है। यह वास्तविक की अपेक्षा ज्यादा वास्तविक लगती है, और बहुत प्रसाद होता है .इसमें। दिव्य—दर्शन को देखने मात्र से ही तुम भीतर गहन मौन और गहन शांति अनुभव करते हो। जब तुम कृष्ण को देखते हो उनकी बांसुरी सहित, गीत गाते हुए, तो कौन साथ नहीं बने रहना चाहेगा? साथ रहना ही चाहोगे। फिर—फिर यह दर्शन दोहराया जाए, यही चाहोगे। तब बुद्ध ने ही मार दिया होता है तुम्हें।

जरा खयाल रखना, यही है कसौटी : जो कुछ दिखाई देता है उसे स्वप्न की भांति समझना है; केवल देखने वाला ही वास्तविक होता है। वह सब जो दिखायी देता है, स्वप्न है—अच्छा, बुरा, धार्मिक, अधार्मिक, कामुक, आध्यात्मिक—इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। सपनों में कामवासनामयी अश्लील—लीला होती है, और सपनों में ही आध्यात्मिक लीला भी होती है, लेकिन दोनों लीलाएं ही हैं। व्यक्ति को सब कुछ गिरा देना होता है। सभी अनुभव सपना हैं; केवल अनुभवकर्ता है सत्य। तुम्हें उस स्थल तक पहुंचना होता है, जहां कुछ भी नहीं होता देखने को, कुछ नहीं होता सुनने को, कुछ नहीं होता सूंघने को, कुछ नहीं होता छूने को—केवल होता है विशाल आकाश और अकेले तुम। केवल द्रष्टा बच रहता है। सारे अतिथि चले जाते हैं, मेहमान जा चुके होते हैं, केवल मेजबान बना रहता है। जब यह क्षण आता है, केवल तभी घटती है वास्तविक घटना। इसके पहले, दूसरा सब कुछ सपना ही है।

दूसरा प्रश्न पूछा गया है : ‘निद्रा और स्वप्न में सचेत कैसे रहें?

जिस व्यक्ति ने यह पूछा है, कहता है कि वह जब कभी कोशिश करता है सजग होने की, तो वह सो नहीं सकता। या, यदि नींद आ रही होती है और अचानक उसे याद आता है कि उसे सजग रहना है, तो नींद टूट जाती है। तब वह नहीं सो सकता है—ऐसा कठिन होता है।

निद्रा में जागरूकता का अभ्यास सीधे—सीधे नहीं किया जा सकता है। पहले तुम्हें कार्य करना होता है जाग्रत अवस्था पर। सीधे निद्रा पर ऐसा करने का प्रयत्न मत करना अन्यथा तुम्हारी नींद खराब हो जाएगी। तुम्हारा सारा दिन उत्तेजनापूर्ण हो जाएगा और तुम अनुभव करोगे उदास, सुस्त, उनींदा। ऐसा मत करना।

सदा याद रखना कि एक शृंखला होती है और सीढ़ी—दर—सीढ़ी बढ़ना होता है। पहली सीडी है कि सजग रहना, जबकि जाग रहे होते हो। निद्रा की बात तो बिलकुल ही मत सोचना। पहले तो तुम जागे रहना जबकि दिन में जागे हुए होते हो। और जब तुमने जागरूकता की पर्याप्त ऊर्जा एकत्रित कर ली होती है, केवल तभी दूसरा कदम उठाया जा सकता है, तब वस्तुत: कोई प्रयास होगा ही नहीं। वही ऊर्जा जिसे तुमने दिन में इकट्ठा कर लिया होता है भीतर वह सजग बनी रहेगी। किसी प्रयास की जरूरत न रहेगी। यदि प्रयास की जरूरत होती है, तो निद्रा बाधित होगी, क्योंकि प्रयास निद्रा के विरुद्ध होता .है।

ऐसा संसार भर में घटता है : लाखों लोग अनिद्रा से पीड़ित हैं। सौ में से निन्यानबे रोगी ऐसे हैं कि वे पीड़ित हो रहे हैं क्योंकि वे नींद लाने का कुछ प्रयास करते हैं। प्रयास नींद का विरोधी है। वे बहुत से तरीके आजमाते हैं नींद लाने के और वह प्रयास ही नींद के विरुद्ध हो जाता है। प्रयास तुम्हें सजग बना देता है, प्रयास बना देता है तुम्हें तनावपूर्ण, और नींद तो है प्रयासहीन घटना। तुम एकदम चले जाते हो नींद में। तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं होती है। यदि तुम करते हो, तो नींद संभव न होगी। तुम तो बस अपना सिर रख देना तकिए पर और बिलकुल कुछ मत करना, प्रतीक्षा भी मत करना नींद की। क्योंकि यदि तुम प्रतीक्षा कर रहे हो नींद की तो तुम कुछ कर ही रहे होते हो—प्रतीक्षा कर रहे होते हो। तुम मात्र लेट जाना बिस्तर पर, बत्ती बुझा देना, अपनी आंखें बंद कर लेना और नींद आ जाती है। तुम इसे ला नहीं सकते, यह घटती है। यह कोई कर्म नहीं होता।

और नींद के स्वभाव को समझना बहुत—सी चीजों को समझना है। समाधि भी उसी भांति होती है। इसीलिए आगे चल कर पतंजलि कहेंगे कि निद्रा और समाधि में कुछ समानता होती है। यही है उनकी समानता : निद्रा उतरती है, और ‘सतोरी’ भी और समाधि भी उतरती है, लेकिन इसे ले आने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते। यदि तुम करते हो कोशिश, तो तुम चूक जाते हो। यंदि तुम चूकना नहीं चाहते, तो तुम केवल ठहर जाओ और यह उतरती है।

इसलिए मत करना सजग रहने का कोई प्रयास, जबकि तुम्हें नींद आ रही हो तो। तुम बिगाड़ लोगे अपनी नींद और तुम न पाओगे जागरूकता। तुम इसका अभ्यास करना केवल दिन में। जब दिन में तुम अधिकाधिक सजग हो जाते हो, तो सजगता की वही तरंग ही, अपनी स्वयं की ऊर्जा द्वारा, वह आती है निद्रा में। तुम सो जाते हो फिर भी तुम अनुभव करते हो अपने भीतर एक केंद्र, जो देख रहा है। एक प्रकाश, प्रारंभ में एक छोटा—सा प्रकाश ही, प्रदीप्त हो रहा होता है भीतर, और तुम देख सकते हो। पर प्रारंभ मत करना इसे ही। तुम ऐसा करना जबकि जाग रहे होते हो, और ऐसा घटेगा जब तुम नींद में होते हो।

‘बहुत लोगों को कई बार अनुभव होता है कि आप उनके सपनों में आते हैं तो क्या सोचें ऐसे सपनों के बारे में?

वे एक जैसे नहीं होते। यह तुम पर निर्भर है। कई बार यह होता होगा मात्र पहले प्रकार का स्वप्न; जिसे मैं कहता हूं कूड़ा—करकट, क्योंकि तुम मुझे इतने ध्यानपूर्वक सुनते हो कि एक छाप छूट जाती मन पर। और तुम मुझे सुनते हो निरंतर, प्रतिदिन, तुम करते हो ध्यान, एक छाप मन पर छूट जाती है। वह भारी हो सकती है। कई बार मन को निर्मुक्त करना होता है उसे; वह कूड़ा होता है।

लेकिन स्वप्न दूसरे प्रकार का भी हो सकता है : तुम मुझे ज्यादा नजदीक चाहोगे। और मैंने इतनी सारी बाधाएं निर्मित की हुई हैं, तुम्हें ज्यादा पास नहीं आने दिया जाता है। सुबह तुम देख सकते हो मुझे; वह भी दूर से। शाम को तुम आ सकते हो, और वह भी बहुत कठिनाई से। इसलिए तुम्हें दबाना पड़ता है। वही दमन उत्पन्न कर सकता है दूसरे प्रकार के स्वप्न को। तुम्हें सपना आ सकता है कि मैं आया हूं तुम्हारे पास, या कि तुम आये हो मेरे पास, और बातें कर रहे हो मुझसे।

यह हो सकता है तीसरे प्रकार का : यह अचेतन से आया संप्रेषण हो सकता है। यदि यह होता है तीसरे प्रकार का, तब यह होता है अर्थपूर्ण। यह तुम्हें इतना ही दर्शाता है कि तुम मुझसे भागने का प्रयत्न कर रहे हो। ज्यादा निकट आओ। अचेतन यही कह रहा है, ‘ भागने की कोशिश मत करो और बाहर—बाहर मत बने रहो; ज्यादा करीब आओ।’

यह हो सकता है चौथे प्रकार का : तुम्हारे पिछले जन्म की कोई बात। क्योंकि तुममें से बहुत मेरे साथ रह चुके हैं; तो यह हो सकता है अतीत का कोई अंश। तुम्हारा मन अतीत पथ पर सरक रहा होता है।

यह पांचवीं प्रकार का भी हो सकता है : भविष्य की कोई संभावना। सारे प्रकार संभव होते हैं। ये हैं पाच प्रकार के स्वप्न। यह हो सकता है दिव्य—दर्शन, जो कि एक प्रकार का स्वप्न ही होता है। मैं इसके बारे में बोला नहीं, क्योंकि इसकी अलग गुणवत्ता होती है जागरूकता की गुणवत्ता; वह भी स्वप्न ही है। जाग्रत जीवन भी एक विशाल स्वप्न होता है। लेकिन दिव्य—दर्शन में गुणवत्ता होती है जाग्रत जीवन की। कई बार मैं आता हूं तुम्हारे पास, पर बहुत कम, क्योंकि तुम्हें अर्जित करना होता है इसे। यदि तुम मुझे देखते हो सौ बार, तो निन्यानबे बार यह उन पांच प्रकार के सपनों की ही कोई बात होगी। लेकिन सौवीं बार मैं आता हूं तुम्हारे पास जब तुमने अर्जित किया होता है उसे। तब वह होता है दर्शन ही।

लेकिन धीरे— धीरे तुम्हें सचेत हो जाना होगा कि कौन—सी चीज क्या होती है। बिलकुल अभी तो मैं तुम्हें कसौटी नहीं दे सकता यह आकने की, कि कौन चीज क्या है। तुम्हें स्वयं ही स्वाद लेना पड़ेगा उनका।

तो पहले जब जागरूक हो जाना, जबकि तुम जागे हुए होते हो, दिन में। जागरूकता जबकि तुम जागे हुए. होते हो, दिन में। जागरूकता की अधिकाधिक ऊर्जा एकत्रित करना। इसे इतनी उमड़ती हुई धारा बना लेना कि जब तुम सोते हो तो तुम्हारा शरीर सोता है, तुम्हारा मन सोता है, तो भी वह ऊर्जा, जागरूकता की वह धार इतनी शक्तिशाली रहे कि वह जारी रहे। तब तुम भेद समझ पाओगे। और जब कोई सपनों के भेद समझने योग्य हो जाता है, तो वह एक बड़ी उपलब्धि होती है।

फिर, धीरे— धीरे, कूड़ा—करकट छंट जाता है। पहली प्रकार के स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं, क्योंकि जागरूक व्यक्ति दिन में इतनी संपूर्णता से जीता है कि वह कूड़ा एकत्रित नहीं करता है। कूड़ा—करकट एक अधूरा अनुभव होता है। तुम खा रहे थे, भोजन स्वादिष्ट था, लेकिन तुम बहुत ज्यादा न खा सके क्योंकि तुम मेहमान थे। क्या सोचते होंगे लोग? अधूरा अनुभव अब कूड़ा हो गया। अब रात तुम फिर खाओगे। तुम्हें अनुभव को संपूर्ण करना ही होगा, अन्यथा मन और आगे — आगे चलता चलेगा।

मन किसी अधूरी चीज को पसंद नहीं करता। मन पूर्णतावादी होता है : कोई अधूरी चीज उसे पसंद नहीं। यदि एक दात गिर जाता है तो जीभ फिर—फिर वहीं जाती है क्योंकि कोई चीज अधूरी होती है। अब मन निरंतर वहीं रहेगा। यह बेतुकी बात है क्योंकि मात्र जीभ से छू लेने द्वारा, कुछ घटने वाला नहीं, लेकिन मन कोशिश करेगा बार—बार। पहले ऐसी कोशिश कभी न की गयी थी जब कि दात वहां था, लेकिन अब कुछ अधूरा हो जाता है।

मनसविद कहते हैं, बंदर तक भी—क्योंकि उनके भी तुम्हारी तरह के ही मन होते हैं—यदि तुम आधावर्तुल बनाते हो और चाक वहीं छोड़ देते हो, तो वे वर्तुल को पूरा कर देंगे। बंदर! क्योंकि वे बरदाश्त नहीं कर सकते अधूरे वर्तुल को, वे उसे तुरंत पूरा कर देंगे।

मन सदा कोशिश कर रहा होता है चीजों को पूरा करने की। जब तुम जागरूक हो जाते हो तो पहली प्रकार का स्वप्न तिरोहित हो जाता है। तुम जीवन को इतने संपूर्ण रूप से जीते हो कि कोई जरूरत नहीं रहती उसकी। और फिर, धीरे— धीरे दूसरे प्रकार का स्वप्न तिरोहित हो जाता है, क्योंकि तुम इच्छाओं में नहीं जीते। वह आदमी जो जागरूक होता है, आवश्यकताओं में जीता है, इच्छाओं में नहीं। इसलिए कोई जरूरत नहीं होती किसी आकांक्षापूर्ति की। उसके पास कुछ होता नहीं, अत: वह स्वप्न में किसी देश का राष्ट्रपति कभी नहीं बनता है। उसकी कोई इच्छा नहीं, कोई आकांक्षा नहीं। वह बहुत साधारण ढंग से जीता है। जीवन का स्वाभाविक प्रवाह ही पर्याप्त होता है। भोजन करते हुए परितृप्त अनुभव करता है; पानी पीता है, परितृप्त अनुभव करता है; अच्छी नींद सोता है—तो उतना पर्याप्त होता है; ज्यादा की मांग नहीं की जाती है।

फिर तीसरे प्रकार का स्वप्न तिरोहित हो जाता है। पहले दो प्रकारों के तिरोहित होने से चेतन और अचेतन इतने ज्यादा निकट आ जाते हैं कि स्वप्न में कुछ संप्रेषित करने की कोई जरूरत नहीं रहती। वस्तुत: अचेतन संपर्कित होने लगता है जब तुम पूरी तरह जागरूक होते हो। तब चीजें सीधी—साफ हो जाती हैं; संप्रेषण सही हो जाता है। तब चौथे प्रकार का स्वप्न तिरोहित हो जाता है। जब तुम अपने जीवन में, इतने चैन से भर जाते हो, जाग्रत हो जाते हो, संपूर्णतया परितृप्त हो जाते हो, तो अतीत पूरी तरह गिर जाता है। तुम्हें अतीत में जाने की कोई जरूरत नहीं रहती। तुम इसी क्षण में जीते हो; अतीत तिरोहित हो जाता है, और तब पांचवीं प्रकार का स्वप्न तिरोहित हो जाता है। तुम इतनी समग्रता से इसी क्षण में जीते हो, तुम इतने जाग्रत होते हो, इतने पूर्णरूप से जाग्रत कि तुम्हारे लिए कोई भविष्य नहीं बचता।

और जब सभी पांचों प्रकार के स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं; तो अवास्तविकता मिट चुकी होती है, भ्रम तिरोहित हो चुके होते हैं। अब पहली बार तुम उपलब्ध करते हो वास्तविक के बोध को, ब्रह्म को।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–3

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सवितर्क समाधि: परिधि और केंद्र के बीच—प्रवचन—तीसरा

दिनांक 3मार्च 1975;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

योगसूत्र: (समाधिपाद)

श्रीणवृत्तेरभिजातस्‍येव मणेर्ग्रहीतृहणग्राह्मेषु तत्‍स्‍थतदन्‍जनता समापत्‍ति:।। 41।।

जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है, तब मन बन जाता है। शुद्ध स्‍फटिक की भांति। फिर वह समान रूप से प्रतिबिंबित करता है बोधकर्ता को, बोध को और बोध के विषय को।

तत्र शब्‍दार्थ ज्ञान विकल्‍पै: संकीर्णा सिवतर्का समापत्ति:।। 42।।

सवितर्क समाधि वि समाधि है, जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्‍य नहीं रहता है, जो सच्‍चे ज्ञान के तथा शब्‍दो पर आधारित ज्ञान, और तर्क या इंद्रिय—बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है—जो सब मिश्रित अवस्‍था में मन में बना रहाता है।

मन क्या है? मन कोई वस्तु नहीं है, बल्कि एक घटना है। वस्तु में अपना एक तत्व होता है, घटना तो मात्र एक प्रक्रिया है। वस्तु चट्टान की भांति होती है, घटना लहर की भांति होती है : उसका अस्तित्व होता है, तो भी वह वस्तु नहीं होती। लहर मात्र एक घटना होती है हवा और सागर के बीच की; एक प्रक्रिया, एक घटना।

यह पहली बात है समझ लेने की : कि मन एक प्रक्रिया है, लहर की भांति है या कि एक नदी की भांति है, लेकिन इसमें कोई पदार्थ नहीं होता, यदि इसमें पदार्थ होता, तो यह विलीन नहीं हो सकता था। यदि इसमें कोई पदार्थ नहीं होता तो वह तिरोहित हो सकता है एक भी चिह्न छोड़े बिना। जब लहर खो जाती है सागर में, तो क्या बच रहता है पीछे? कुछ नहीं, एक चिह्न तक नहीं। इसीलिए जिन्होंने जाना है वे कहते हैं कि मन आकाश में उड़ते पक्षी की भांति होता है—कोई एक चिह्न पीछे नहीं बचता, एक निशान भी नहीं। पक्षी उड़ता है पर पीछे कोई राह नहीं छोड़ता, कोई चिह्न नहीं छोड़ता।

मन मात्र एक प्रक्रिया है। वस्तुत: मन अस्तित्व नहीं रखता, केवल विचार ही विचार होते हैं, विचार इतनी तेजी से सरकते हैं कि तुम सोचते और अनुभव करते हो कि वहां कुछ निरंतर अस्तित्व रखता है। एक विचार आता है, दूसरा विचार आता है, फिर दूसरा और वे आते जाते हैं। उनके बीच का अंतराल इतना छोटा होता है कि तुम एक विचार और दूसरे विचार के बीच के अंतराल को नहीं देख सकते। दो विचारों के बीच के अंतराल को नहीं देख सकते। दो विचार जुड़ जाते हैं, वे एक सातत्य बन जाते हैं। उसी सातत्य के कारण तुम सोचते हो कि मन है।

विचार होते हैं, पर कोई मन नहीं होता, ऐसे जैसे कि इलेक्ट्रॉन्स हों लेकिन भौतिक वस्तु न हो। विचार मन का इलेक्ट्रॉन होता है। वह भीड़ की भांति होता है। एक अर्थ में अस्तित्व रखता है और दूसरे अर्थों में अस्तित्व नहीं रखता। केवल व्यक्ति अस्तित्व रखता है। लेकिन एक साथ बहुत सारे व्यक्ति अनुभूति देते हैं एक होने की। एक राष्ट्र अस्तित्व रखता है और अस्तित्व नहीं भी रखता है; केवल व्यक्ति होते हैं वहां। व्यक्ति इलेक्ट्रॉन होते हैं राष्ट्र के, समुदाय के, भीड़ के।

विचारों का अस्तित्व होता है, मन का अस्तित्व नहीं होता। मन तो मात्र एक प्रतीति है। और जब तुम ज्यादा गहरे झांकते हो मन में तो वह तिरोहित हो जाता है। फिर होते हैं विचार, लेकिन जब मन तिरोहित हो जाता है और एक—एक अकेले विचार अस्तित्व रखते हैं, तो बहुत सारी चीजें तुरंत सुलझ जाती हैं। पहली बात तो यह होती है कि तुम तुरंत जान जाते हो कि विचार बादलों की भांति होते हैं —वे आते हैं और चले जाते हैं—और तुम होते हो आकाश। जब कोई मन नहीं बचता, तो तुरंत यह बोध उतर आता है कि तुम अब विचारों में उलझे हुए नहीं हो। विचार होते हैं वहां, तुममें से गुजर रहे होते हैं जैसे कि बादल गुजर रहे हों आकाश से, या कि हवा गुजर रही हो वृक्षों से, विचार तुम में से गुजर रहे होते हैं; और वे गुजर सकते हैं, क्योंकि तुम एक विशाल शून्यता हो। कोई अवरोध नहीं है, कोई बाधा नहीं है। उन्हें रोकने को कोई दीवार नहीं बनी हुई है।

तुम दीवारों से घिरी कोई घटना नहीं हो। तुम्हारा आकाश अपरिसीम रूप से खुला है; विचार आते और चले जाते हैं। और एक बार तुम्हें लगने लगे कि विचार आते हैं और चले जाते हैं तो तुम हो जाते हो द्रष्टा, साक्षी; मन नियंत्रण के भीतर होता है।

मन नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। पहली तो बात : क्योंकि वह होता ही नहीं, तो कैसे तुम उसे नियंत्रित कर सकते हो? दूसरी बात : कौन करेगा मन को नियंत्रित? मन के पार कोई नहीं रहता। और जब मैं कहता हूं कि कोई नहीं रहता, तो मेरा मतलब होता है कि मन के पार रहता है ना—कुछ—एक कुछ—नहीं—पन। कौन करेगा मन को नियंत्रित? यदि कोई कर रहा होता है मन को नियंत्रित, तो वह एक हिस्सा भर होगा, मन का एक अंश ही मन के दूसरे अंश को नियंत्रित कर रहा होगा। यही होता है अहंकार।

मन उस ढंग से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। मन होता ही नहीं, औरे कोई है नहीं उसे नियंत्रित करने को। आतंरिक शून्यता देख सकती है, पर नियंत्रण नहीं कर सकती। लेकिन देखना ही नियंत्रण है। देखने की, साक्षी की वह घटना ही बन जाती है नियंत्रण, क्योंकि मन तिरोहित हो जाता है। यह ऐसे है जैसे किसी अंधेरी रात को, तुम बहुत तेज दौड़ रहे होते हो क्योंकि तुम डर गए हो कि कोई तुम्हारे पीछे आ रहा है, और वह कोई और नहीं सिवाय तुम्हारी अपनी छाया के। जितना तुम भागते हो, छाया उतनी ही ज्यादा निकट होती है तुम्हारे। चाहे जितना तेज तुम भागो, कोई अंतर नहीं पड़ता, छाया वहां मौजूद होती है। जब कभी तुम पीछे देखते हो, छाया को पाते हो। यह कोई तरीका नहीं उससे बचने का और यह नहीं है तरीका उसे नियंत्रित करने का। तुम्हें ज्यादा गहरे देखना होगा छाया में। निष्कंप खड़े रहो और छाया में गहरे झांको और छाया तिरोहित हो जाती है। छाया होती नहीं; वह तो मात्र अनुपस्थिति है प्रकाश की। मन कुछ नहीं है सिवाय तुम्हारी मौजूदगी के अभाव के। जब तुम चुपचाप बैठे होते हो, जब तुम मन में गहरे देखते हो, तो मन बिलकुल तिरोहित हो जाता है। विचार बने रहेंगे, वे अस्तित्वगत होते हैं, लेकिन मन कहीं नहीं होगा।

और जब मन जा चुका होता है तो दूसरा बोध संभव होता है; तुम देख सकते हो कि विचार तुम्हारे नहीं होते। निस्संदेह, वे चले आते हैं; कई बार वे थोड़ी देर आराम करते हैं तुममें र और फिर वे चले जाते हैं। तुम ठहरने का विश्राम—स्थल हो सकते हो, लेकिन वे तुममें से नहीं उमगते। क्या तुमने कभी ध्यान दिया है कि एक भी विचार तुम्हारे अस्तित्व में से नहीं आया होता। वे सदा बाहर से आते हैं। वे तुमसे संबंधित नहीं होते। जडविहीन, गृहविहीन, वे मंडराते रहते हैं। कई बार वे तुममें ठहर जाते हैं विश्राम करने को, बस इतना ही। बादल की भांति पहाड़ की चोटी पर विश्राम करते हुए वे सरकेंगे अपने से ही। तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है। यदि तुम केवल देखते हो, तो नियंत्रण उपलब्ध हो जाता है।

‘नियंत्रण’ शब्द कोई बहुत ठीक नहीं। क्योंकि शब्द हो नहीं सकते बहुत ठीक। शब्दों का संबंध मन से होता है, विचारों के संसार से होता है। शब्द बहुत—बहुत सूक्ष्म, गहरे उतरने वाले हो नहीं सकते; वे उथले होते हैं। नियंत्रण शब्द ठीक नहीं क्योंकि कोई नहीं होता नियंत्रण करने को और कोई नहीं होता नियंत्रित होने को। लेकिन प्रारंभिक रूप में, यह मदद करता है उन कुछ निश्चित चीजों को समझने में जो कि घटती हैं। जब तुम गहराई से देखते हो, तो मन नियंत्रित होता है। अचानक तुम मालिक बन गये हो। विचार होते हैं वहां, पर वे तुम्हारे मालिक नहीं होते। वे कुछ कर नहीं सकते तुम्हारे प्रति, वे केवल आते हैं, और चले जाते हैं। तुम अनछुए ही रहते हो बरसते जल में कमल की भांति : जल की बूंदें पंखुड़ियों पर गिरती हैं, लेकिन वे फिसलती जाती हैं, वे छूती भी नहीं। कमल अनछुआ ही बना रहता है।

इसीलिए पूरब में कमल इतना ज्यादा अर्थपूर्ण बन गया है, इतना अधिक प्रतीकात्मक। सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीक जो पूरब से आया है वह कमल ही है। वह समाए हुए है पूरब की चेतना का संपूर्ण अर्थ। पूरब कहता है, ‘कमल की भांति हो जाओ, इतना भर ही। अनछुए बने रही और तुम हो जाते हो नियंत्रण में। अनछुए बने रहो और तुम हो जाते हो मालिक।’

इससे पहले कि हम पतंजलि के सूत्रों में प्रवेश करें, मन के संबंध में थोड़ी और बातें समझ लेनी हैं! एक दृष्टि से तो, मन लहरों की भांति है—एक अशांति! सागर होता है शात और मौन, अनुत्तेजित; लहरें वहां नहीं हैं या सागर अशांत होता है ज्वार से या तेज हवा से, जब प्रबल लहरें उठती हैं और सारी सतह बिखरती हुई एकदम अराजक हो उठती है।

ये सारे रूपक, सारे प्रतीक मात्र यह समझने में तुम्हें मदद देने को हैं कि भीतर एक सुनिश्चित गुणवत्ता है, स्वभाव है जिसे शब्दों द्वारा नहीं बतलाया जा सकता। रूपक या प्रतीक काव्यमय होते हैं। यदि तुम सहानुभूति द्वारा उन्हें समझने की कोशिश करते हो, तो तुम समझ प्राप्त कर लोगे। लेकिन यदि तुम तार्किक ढंग से उन्हें समझने की कोशिश करते हो, तो तुम सार ही चूक जाओगे। वे प्रतीक हैं।

मन चेतना की अशांति है, जैसे कि लहरों से सागर हो जाता है अशात। कोई बाहरी चीज प्रवेश कर जाती है—हवा। कुछ बाहर का घट गया होता है सागर को, या कि घट गया होता है चेतना को—विचार होते हैं या कि हवा, और वहां चली आती है बेचैन अराजकता। लेकिन अराजकता सदा होती है सतह पर ही। लहरें होती हैं सदा सतह पर ही। गहराई में लहरें कहीं नहीं होतीं। वहां हो नहीं सकतीं क्योंकि गहराई में हवा प्रवेश नहीं कर सकती। तो हर चीज केवल सतह पर ही होती है। यदि तुम भीतर की ओर बढ़ते हो, तो नियंत्रण उपलब्ध हो जाता है। यदि तुम सतह से भीतर की ओर बढ़ते हो, तो जा पहुंचते हो केंद्र तक। अकस्मात, सतह हो जाती होगी अशात, लेकिन तुम नहीं होते अशात।

सारा योग कुछ नहीं है सिवाय केंद्रस्थ होने के, केंद्र की ओर बढ़ने के, वहां बद्धमूल हो जाने के, वहीं अवस्थित हो जाने के। और वहां से, सारा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है। हो सकता है लहरें वहां अब भी हों, लेकिन वे पहुंचती नहीं हैं तुम तक। और अब तुम देख सकते हो कि वे तुमसे संबंधित नहीं हैं; वह तो केवल सतह पर का संघर्ष होता है किसी बाहरी वस्तु के साथ। और जब तुम देखते हो केंद्र की ओर से तो धीरे— धीरे, तुम विश्राम करने लगते हो। धीरे—धीरे तुम स्वीकार लेते हो कि बेशक तेज हवा ही है, लहरें तो उठेंगी, लेकिन तुम्हें चिंता नहीं रहती।

और जब तुम चिंतित नहीं होते तो लहरों पर भी आनंदित हुआ जा सकता है। कुछ गलत नहीं है उनमें। समस्या उभरती है क्योंकि तुम भी सतह पर ही होते हो। तुम सतह पर एक छोटी—सी नाव पर सवार होते हो; तेज हवाएं चली आती हैं, और होता है ऊंचे ज्वार का बहाव; और सारा सागर उन्मत्त हो जाता है। निस्संदेह, तुम चिंतित हो जाते हो, भय के मारे मृत्यु दिखने लगती है तुम्हें। तुम खतरे में होते हो। किसी क्षण लहरें तुम्हारी छोटी—सी नाव को फेंक सकती हैं। किसी क्षण मृत्यु घटित हो सकती है। अपनी छोटी—सी नाव को लिए क्या कर सकते हो तुम ? कैसे रख सकते हो तुम नियंत्रण ग्र यदि तुम लड़ना शुरू कर देते हो लहरों के साथ तो तुम हार जाओगे। लड़ना मदद न देगा। तुम्हें स्वीकार करना होगा लहरों को। वस्तुत: यदि तुम लहरों को स्वीकार कर सको और तुम्हारी नाव को, चाहे कितनी ही छोटी हो, उनके साथ बढ़ने दो और उनके विरुद्ध नहीं, तो कोई खतरा नहीं।

तिलोपा के ‘निर्मुक्त और स्वाभाविक’ का अर्थ यही है। लहरें होती हैं वहां; तुम बस आने देते हो उन्हें। तुम तो बस बढ़ने देते हो स्वयं को उनके साथ, उनके विरुद्ध नहीं। तुम उन्हीं का हिस्सा बन जाते हो। तब बहुत बड़ी प्रसन्नता घटती है। यही है ‘सर्फिंग’ की सारी कला : लहरों के साथ बढ़ना; उनके विरुद्ध नहीं; इतना अधिक बहना—बढ़ना उनके साथ—साथ कि तुम उनसे अलग नहीं रहते। ‘सर्फिंग’ एक बड़ा ध्यान बन सकती है। यह तुम्हें अंतरतम की झलक दे सकती है क्योंकि यह कोई संघर्ष नहीं, यह होने देना है, एक प्रवाह है। तुम यह भी जान जाते हो कि लहरों पर भी आनंदित हुआ जा सकता है—जब तुम सारी घटना को केंद्र से देखते हो।

यह तो ऐसे होता है जैसे तुम कोई यात्री हो और बादल घिर आए हों, बहुत बिजली कड़क रही हो, और तुम भूल गए हो कि तुम कहौ जा रहे हो; तुम भूल चुके हो मार्ग और तुम्हें घर जाने की जल्दी हो। यही घट रहा है सतह पर : एक खोया हुआ यात्री, बहुत सारे बादल घिरे होते है, बिजली कड़कती हुई। जल्दी ही भयंकर बारिश होने लगेगी। तुम घर खोज रहे हो, घर की सुरक्षा खोज रहे हो। फिर अचानक तुम पहुंच जाते हो घर। अब तुम बैठे हो घर के भीतर, अब तुम प्रतीक्षा करते हो बारिश की, अब तुम उससे आनंदित हो सकते हो। अब बिजली चमकने का अपना सौंदर्य होता है। जब तुम बाहर थे, जंगल में खो गए थे तो वह ऐसा नहीं था। लेकिन अब घर के भीतर बैठे हुए सारी घटना बडी सौंदर्यपूर्ण हो जाती है। अब बारिश पड़ती है और तुम आनंद मनाते हो। अब बिजली चमक रही होती है और तुम आनंदित होते हो उससे। बादलों में बड़ी गर्जन होती है और तुम उसका उत्सव मनाते हो, क्योंकि अब भीतर तुम सुरक्षित हो।

एक बार जब तुम केंद्र तक पहुंच जाते हो, तो जो कुछ भी घटता है सतह पर उससे तुम आनंदित ही होते हो। सारी बात यह होती है कि सतह पर संघर्ष नहीं करना है बल्कि उल्टे केंद्र में सरक आना है। तब वहां नियंत्रण हो जाता है, और वह नियंत्रण जो आरोपित नहीं हुआ होता, वह नियंत्रण जो सहज रूप से घटता है जब तुम केंद्र में होते हो।

चेतना में केंद्रित हो जाना ही मन का नियंत्रण है। इसीलिए मत कोशिश करना मन पर नियंत्रण करने की। भाषा तुम्हें भटका सकती है। कोई नहीं कर सकता नियंत्रण, और जो कोशिश करते हैं नियंत्रण करने की, वे पागल हो जाएंगे। वे तो एकदम पागल ही हो जाएंगे। क्योंकि मन पर नियंत्रण करने की कोशिश और कुछ नहीं हैं सिवाय कि मन का एक हिस्सा मन के दूसरे हिस्से को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा होता है।

तुम होते कौन हो जो नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे होते हो? तुम भी लहर हो, निस्संदेह

धार्मिक लहर हो, नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे होते हो। और होती हैं अधार्मिक लहरें। कामवासना है, क्रोध है, ईर्ष्या है, अधिकार जमाने का भाव है और है घृणा। लाखों लहरें अधार्मिक हैं। और फिर होती हैं धार्मिक लहरें, ध्यान, प्रेम, करुणा। लेकिन ये सब होती हैं सतह की सतह पर। और सतह पर धार्मिक हों कि अधार्मिक उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।

धर्म केंद्र में होता है और उस परिप्रेक्ष्य में होता है जो कि घटता है केंद्र द्वारा। अपने घर के भीतर बैठे हुए, तुम देखते हो तुम्हारी अपनी सतह की ओर। हर चीज बदल जाती है, क्योंकि तुम्हारा परिप्रेक्ष्य नया होता है। अकस्मात तुम नियंत्रण में होते हो। वस्तुत: तुम इतने ज्यादा नियंत्रण में होते हो कि तुम सतह को अनियंत्रित छोड़ सकते हो। यह सूक्ष्म होता है। तुम इतने ज्यादा नियंत्रण में होते हो, इतने ज्यादा बद्धमूल, सतह के बारे में निश्चित, कि वास्तव में तुम पसंद ही करोगे लहरों को और ज्वार को और तूफान को। वह सब सौंदर्यपूर्ण होता है; वह ऊर्जादायक होता है। वह एक शक्ति होता है। कुछ है नहीं चिंता करने को। केवल दुर्बल व्यक्तियों को चिंता रहती है विचारों की। केवल दुर्बल व्यक्ति चिंता करते हैं मन की। सशक्त व्यक्ति तो बिलकुल आत्मसात ही कर लेते हैं संपूर्ण को, और इससे ज्यादा समृद्ध होते हैं वे। सशक्त लोग तो अस्वीकार कर्ते ही नहीं किसी चीज को। अस्वीकार किया जाता है कमजोरी के कारण। तुम भयभीत हो। सशक्त व्यक्ति हर उस चीज को आत्मसात कर लेना चाहेगा जो कुछ जीवन देता है। धार्मिक या कि अधार्मिक, नैतिक या कि अनैतिक, दिव्यता या कि शैतान रूपी कोई चीज; उससे कुछ भेद नहीं पड़ता। व्यक्ति हर उस चीज आत्मसात कर लेता है, और वह ज्यादा समृद्ध हो जाता है उससे। उसके पास होती है एक बिलकुल ही भिन्न गहराई। साधारण धार्मिक व्यक्ति उसे पा नहीं सकते हैं; वे तो दरिद्र हैं और सतही हैं।

जरा साधारण धार्मिक व्यक्तियों को मंदिर जाते और मस्जिद और चर्च जाते हुए देखना। वहां तुम सदा पाओगे बिना गहराई के बहुत—बहुत सतही व्यक्तियों को ही। क्योंकि वे अस्वीकृत कर चुके हैं अपने हिस्सों को, वे अपंग हो गए हैं। एक खास ढंग से तो वे लकवा खा गये हैं।

कुछ गलत नहीं है मन के साथ, और कुछ गलत नहीं है विचारों के साथ। यदि कुछ गलत है, तो वह है सतह पर बने रहना, क्योंकि तब तुम संपूर्ण को जानते नहीं और तुम अनावश्यक रूप से पीड़ा भोगते हो एक अंश के कारण, अंश के बोध के कारण। संपूर्ण बोध की जरूरत होती है। वह केवल केंद्र द्वारा संभव होता है, क्योंकि केंद्र से तुम देख सकते हो चारों ओर सभी आयामों में, सभी दिशाओं में—तब तुम देख सकते हो अपने अस्तित्व की संपूर्ण परिधि को। और वह विशाल होती है। वस्तुत: वह वैसी ही होती है जैसी की संपूर्ण अस्तित्व की परिधि होती है। जब तुम केंद्रस्थ हो जाते हो, तो धीरे— धीरे तुम ज्यादा और ज्यादा व्यापक हो जाओगे और ज्यादा से ज्यादा बड़े हो जाओगे। और समाप्ति होती है तुम्हारे ब्रह्म होने पर ही, उससे कम पर नहीं।

दूसरी दृष्टि से मन होता है उस धूल की भांति जिसे कोई यात्री अपने कपड़ों पर एकत्रित कर लेता है। तुम हजारों —लाखों जन्मों से यात्रा और यात्रा कर रहे हो और स्नान कभी किया नहीं। स्वभावतया बहुत धूल इकट्ठी हो चुकी है। कुछ गलत नहीं है इसमें; ऐसा होना ही है। धूल की परतें हैं और तुम सोचते हो कि वे परतें तुम्हारा व्यक्तित्व हैं। तुम्हारा इतना तादात्म्य हो गया है उनके साथ, इतने दिनों तक तुम जी लिए उन धूल की परतों के साथ कि वह तुम्हारी त्वचा की भांति लगती हैं। तुम्हारा तादात्‍म्‍य हो चुका होता है।

मन है अतीत, स्मृति, धूल। हर कोई उसे एकत्रित कर लेता है। यदि तुम यात्रा करते हो तो तुम एकत्रित कर ही लोगे धूल। लेकिन उसके साथ तादात्‍म्‍य बनाने की कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम एक हो जाते हो उसके साथ, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे क्योंकि तुम धूल नहीं हो, तुम चेतना हो। उमर खैयाम कहता है, ‘धूल से धूल तक। ‘जब आदमी मर जाता है, तो क्या होता है? —धूल लौट जाती है धूल में। यदि तुम धूल मात्र हो, तो हर चीज वापस मिल जाएगी धूल में, कोई चीज पीछे नहीं छूटेगी। लेकिन क्या तुम मात्र धूल हो, धूल की परतें हो, या कि ऐसा कुछ तुम्हारे भीतर है जो कि धूल हरगिज नहीं है, पृथ्वी का बिलकुल नहीं है? वह है तुम्हारी चेतना, तुम्हारी जागरूकता।

जागरूकता तुम्हारी सत्ता है, चेतना तुम्हारा होना है, और वह धूल जिसे जागरूकता स्वयं के चारों ओर एकत्रित करती है तुम्हारा मन है। धूल के साथ व्यवहांर करने के दो ढंग हैं। साधारण धार्मिक ढंग है कपड़ों को साफ करना, तुम्हारे शरीर को मल—मल कर साफ करना। लेकिन वे विधिया कुछ ज्यादा मदद नहीं कर सकतीं। चाहे किसी भी तरह तुम साफ कर लो तुम्हारे कपड़ों को, कपड़े इतने गंदे हो चुके होते हैं कि वे फिर से ठीक होने के परे होते हैं। तुम साफ नहीं कर सकते उन्हें। इसके विपरीत जो कुछ भी तुम करते हो वह उन्हें ज्यादा गंदा बना देगा।

ऐसा हुआ : मुल्ला नसरुद्दीन एक बार आया मेरे पास, और वह एक शराबी था। उसके हाथ खाना खाते समय, या चाय पीते समय कांपते रहते। हर चीज गिर जाती उस पर, इसलिए उसके सारे कपड़ों पर चाय और पान के, और भी ऐसी ही चीजों के दाग लगे हुए थे। तो मैंने कहा नसरुद्दीन से, ‘तुम केमिस्ट के पास जाकर कुछ ले क्यों नहीं लेते? ऐसे सोल्‍यूशन हैं जिनसे कि ये दाग धोए जा सकते हैं। ‘

तो चला गया वह, और सात दिन के बाद वह वापस आया मेरे पास। उसके कपड़े बुरी हालत में थे, पहले से ज्यादा बुरी हालत में। मैंने पूछा, ‘क्या बात है? क्या केमिस्ट के पास नहीं गये थे?’ वह बोला, ‘मैं गया था। और वह केमिकल, सोल्‍यूशन तो अद्भुत है! —काम करता है वह। चाय और पान के दाग चले गये हैं’ पर मुझे अब एक दूसरे सोल्‍यूशन की जरूरत है क्योंकि उस सोल्‍यूशन ने कुछ अपने दाग छोड़ दिए हैं!’

धार्मिक लोग तुम्हें साबुन और केमिकल सोल्‍यूशन दे देते हैं धूल पोंछने को, साफ करने को ही, लेकिन फिर वे सोल्‍यूशन कुछ अपने दाग छोड़ देते हैं। इसलिए एक अनैतिक व्यक्ति बन सकता है नैतिक, पर बना रहता है मलिन; अब नैतिक ढंग से होता है ऐसा, पर बना रहता है मलिन। कई बार स्थिति पहले की अपेक्षा बुरी भी हो जाती है।

एक अनैतिक व्यक्ति कई तरह से निर्दोष होता है, कम अहंकारी होता है। एक नैतिक व्यक्ति के मन में बहुत अनैतिकता होती है। जो नयी चीजें उसने इकट्ठी कर ली होती हैं वे हैं : नैतिक, शुद्धतावादी, अहंकारयुक्त दृष्टिकोण। वह अधिक उच्च अनुभव करता है। वह अनुभव करता है विशेष रूप से चुना हुआ है और दूसरा हर कोई नर्क जाने योग्य है। केवल वही जा रहा है स्वर्ग की ओर! और सारी अनैतिकता भीतर बनी रहती है, क्योंकि तुम बाहर से नियंत्रित नहीं कर सकते मन को। कोई उपाय नहीं है। उस ढंग से यह बात होती ही नहीं है। मात्र एक नियंत्रण अस्तित्व रखता है, और वह होता है केंद्र से आया बोध।

मन वह धूल है जो लाखों—लाखों यात्राओं द्वारा इकट्ठी हो चुकी है। सामान्य नियम के विरुद्ध वास्तविक दृष्टिकोण, परम धार्मिक दृष्टिकोण है वस्त्रों को ही फेंक देना। उन्हें धोने की फिक्र मत लेना; उन्हें नहीं धोया जा सकता है। जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुली के बाहर हो जाता है, बस उसी भांति ही सरक जाना और पीछे मुड़कर भी नहीं देखना। ठीक ऐसा ही होता है योग; कि किस प्रकार तुम्हारे व्यक्तित्व से छुटकारा हो। वे व्यक्तित्व ही होते हैं कपड़े।

यह शब्द ‘व्यक्तित्व’, ‘पर्सनैलिटी’ बहुत दिलचस्प है। यह आता है ग्रीक मूल ‘पर्सोना’ से। इसका अर्थ होता है वह मुखौटा, अभिनेता जिनका प्रयोग प्राचीन ग्रीक नाटक में अपने चेहरे छुपाने के लिए किया करते थे। वही मुखौटा कहलाता है पर्सोना, और इसके द्वारा तुम्हारे पास व्यक्तित्व आता है। व्यक्तित्व होता है मुखौटा, तुम नहीं। व्यक्तित्व दूसरों को दिखलाने वाला एक नकली चेहरा है। और बहुत—बहुत जन्मों द्वारा और बहुत—बहुत अनुभवों के द्वारा तुमने बहुत से व्यक्तित्व निर्मित कर लिए हैं। वे सब गंदे हो चुके हैं। तुमने बहुत ज्यादा प्रयोग कर लिया है उनका, और उन्हीं के कारण अपना मौलिक चेहरा एकदम खो दिया है।

तुम नहीं जानते कि तुम्हारा मौलिक चेहरा कौन—सा है। तुम दूसरों को धोखा दे रहे हो और तुम अपने ही धोखे के शिकार हो गए हो। सारे व्यक्तित्व गिराओ, क्योंकि यदि तुम व्यक्तित्व से चिपकते हो तो तुम सतह पर ही बने रहोगे। सारे व्यक्तित्व गिरा दो, और बस स्वाभाविक हो जाओ। तब तुम बह सकते हो केंद्र की ओर। और एक बार जब तुम देखने लगते हो केंद्र से तो कोई मन नहीं बना रहता। प्रारंभ में विचार जारी रहते हैं, लेकिन धीरे — धीरे तुम्हारे सहयोग के बिना, वे कम और कम होते जाते हैं। जब तुम्हारा सारा सहयोग खो जाता है, जब तुम उनके साथ बिलकुल ही सहयोग नहीं करते, तब वे तुम्हारे पास आना बंद कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि वे अब होते ही नहीं; वे मौजूद होते हैं वहां, लेकिन वे तुम तक नहीं पहुंचते।

विचार आते हैं, केवल आमंत्रित मेहमानों की भांति ही। वे बिन बुलाए हुए कभी नहीं आते, यह बात जरा ध्यान में रख लेना। कई बार तुम सोचते हो, ‘मैंने तो कभी नहीं बुलाया था इस विचार को’, लेकिन जरूर गलत होओगे तुम। किसी ढंग से, कभी—तुम शायद उसके बारे में पूरी तरह भूल चुके हो—तुमने ही बुलाया होगा उसे। बिना बुलाए कभी नहीं आते विचार। पहले तुम बुलाते हो उन्हें, केवल तभी आते हैं वे। जब तुम नहीं बुलाते, तो कई बार मात्र पुरानी आदत के कारण ही—क्योंकि तुम पुराने मित्र रहे हो—वे खटखटा सकते हैं तुम्हारा द्वार। लेकिन यदि तुम सहयोग नहीं देते तो धीरे— धीरे वे भूल जाते हैं तुम्हारे बारे में, वे नहीं आते तुम तक। और जब विचार अपने से आने बंद हो जाते हैं, तो वह होता है नियंत्रण। ऐसा नहीं है कि तुम नियंत्रित करते हो विचारों को, तुम तो केवल अपनी सत्ता के आंतरिक मंदिर तक पहुंच जाते हो, और विचार अपने से नियंत्रित होते हैं।

फिर भी एक और दृष्टिकोण से, मन है अतीत, एक अर्थ में है, स्मृति, एकत्रित हुए संचित अनुभव : वह सब जो तुमने किया है, वह सब जो तुमने सोचा है, वह सब जिसकी तुमने आकांक्षा की है, वह सब जिसका तुमने सपना देखा है—हर चीज, तुम्हारा समग्र अतीत, तुम्हारी स्मृति। स्मृति है मन। और जब तक तुम स्मृति से छुटकारा नहीं पा लेते हो, तुम मन को नियंत्रित करने के योग्य न रहोगे।

स्मृति से कैसे छुटकारा हो? वह हमेशा वहां होती हैं तुम्हारे पीछे—पीछे आती हुई। वस्तुत: तुम ही हो स्मृति, तो कैसे छुटकारा हो उससे? तुम अपनी स्मृतियों के अतिरिक्त हो क्या? जब मैं पूछता हूं ‘कौन हो तुम?’ तुम मुझे बताते हो तुम्हारा नाम। यह है तुम्हारी स्मृति। कुछ समय पहले तुम्हारे माता—पिता ने तुम्हें दिया था वह नाम। मैं तुमसे पूछता हूं ‘कौन हो तुम?’ और तुम मुझे बताते हो तुम्हारे परिवार के बारे में, तुम्हारे माता—पिता के बारे में। यह है स्मृति। मैं पूछता हूं तुमसे, ‘कौन हो तुम?’ और तुम बढ़ाते हो मुझे तुम्हारी शिक्षा के बारे में, तुम्हारी डिग्रियों के बारे में कि तुमने एम. ए. किया, या कि तुम्हारे पास पी एच. डी. है या कि तुम इंजीनियर हो या कि तुम आर्किटेक्ट हो। यह है स्मृति।

जब मैं पूछता हूं तुमसे कि कौन हो तुम, तो यदि तुम सचमुच ही भीतर झांकते हो, तो तुम्हारा एकमात्र उत्तर यही हो सकता है कि ‘मैं नहीं जानता। ‘ जो कुछ भी कहते हो तुम, वह होगी स्मृति, तुम नहीं। वास्तविक प्रामाणिक उत्तर तो केवल एक ही हो सकता है कि ‘मैं नहीं जानता’, क्योंकि स्वयं को जानना अंतिम बात ही है। मैं दे सकता हूं उत्तर कि कौन हूं मैं, तो भी मैं दूंगा नहीं उत्तर। तुम इसका उत्तर नहीं दे सकते कि तुम कौन हो, लेकिन तुम तैयार रहते हो उत्तर सहित।

जो जानते हैं वे इस बारे में चुप रहते हैं। क्योंकि यदि सारी स्मृति निकाल फेंक दी जाए, और सारी भाषा निकाल, हटा दी जाए, तो नहीं बताया जा सकता कि मैं कौन हूं। मैं देख सकता हूं तुम में, मैं दे सकता हूं तुम्हें संकेत; मैं इसे दे सकता हूं तुम्हें अपने समग्र अस्तित्व सहित—यही होता है मेरा उत्तर। उत्तर शब्दों में नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि जो शब्दों में दिया जाता है वह स्मृति का, मन का ही हिस्सा होगा, चेतना का नहीं।

कैसे छुटकारा हो स्मृतियों से?—उन्हें देखना, उनका साक्षी बनना। और हमेशा याद रखना इसे : यह तुम्हें घटा है, पर यह तुम नहीं हो। निस्संदेह तुम किसी परिवार में उत्पन्न हुए, लेकिन यही नहीं हो तुम; ऐसा तुम्हें घटित हुआ है। यह तुम्हारे बाहर की घटना है। बेशक, तुम्हें किसी ने कोई एक नाम दे दिया है। इसकी अपनी उपयोगिता है तो भी नाम नहीं हो तुम। निस्संदेह, तुम्हारा एक आकार है, तो भी आकार नहीं हो तुम। रूप तो मात्र एक घर है जिसमें कि तुम्हारा होना घटित हुआ है। और आकार तो एक देह भर है जिसमें तुम्हारा होना घटित हुआ है। और देह तुम्हें दी गयी है तुम्हारे माता—पिता द्वारा। वह एक उपहार है, पर वह तुम नही हो।

देखना और भेद जानना। यही है जिसे पूरब में कहते हैं विवेक और विवेचन : तुम विवेचन करते हो निरंतर। विवेचन करते जाना और एक घड़ी आएगी जब तुमने वह सब मिटा दिया होगा जो तुम नहीं हो। अकस्मात, उस अवस्था में, पहली बार तुम अपना सामना करते हो, तुम साक्षात्कार करते हो तुम्हारी अपनी सत्ता का। सारे तादात्‍म्‍य काटते चले जाओ जो तुम नहीं हो : परिवार, देह, मन। उस शून्यता में, जब हर वह चीज जो तुम नहीं हो, फेंक दी जाती है, तो अचानक तुम्हारी सत्ता उभर आती है। पहली बार तुम स्वयं का साक्षात्कार करते हो, और वह साक्षात्कार बन जाता है नियंत्रण।

यह शब्द ‘नियंत्रण’ वस्तुत: ही असुंदर होता है। मैं नहीं चाहूंगा इसका प्रयोग करना। लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि पतंजलि प्रयोग करते हैं इसका। इस शब्द से ही ऐसा जान पड़ता है कि कोई किसी दूसरे को नियंत्रित कर रहा है।

पतंजलि जानते हैं, और बाद में वे कहेंगे कि तुम उपलब्ध होते हो वास्तविक समाधि को तभी जब कोई नियंत्रण और नियंत्रण करने वाला नहीं होता है।

अब हमें सूत्रों में प्रवेश करना चाहिए।

जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है तब मन बन जाता है शुद्ध स्फटिक की भांति फिर वह समान रूप से प्रतिबिंबित करता है बोधकर्ता को बोध को और बोध के विषय को।

‘जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है…।’ अब तुम समझे कि ‘नियंत्रण में’ से क्या अर्थ है मेरा—तुम होते हो केंद्र में और वहां से तुम देखते हो मन की ओर। तुम बैठे हुए होते हो केंद्र में और वहां से तुम देखते हो मन की ओर। तुम बैठे हुए होते हो घर में और तुम देखते हो बादलों की तरफ, और गर्जन की तरफ, और बिजली और वहां से आती बारिश की तरफ। तुमने गिरा दिए हैं अपने सारे कपड़े—धूल भरे कपड़े और गंदे कपड़े। वस्तुत: कपड़े हैं ही नहीं, मात्र तहें हैं गंदगी की। इसलिए तुम साफ नहीं कर सकते उन्हें। तुमने पा लिया है उन्हें और दूर फेंक दिया है उन्हें। तुम बिलकुल नग्न हो, अपनी अस्तित्वगत नग्नता में या तुमने वह सब हटा दिया है जिसके साथ तुम तादात्‍म्‍य बना चुके हो। अब तुम नहीं कहते कि तुम कौन हो। रूप, नाम, परिवार, देह, मन; हर चीज दूर हट गयी है। केवल वही मौजूद रहा है वहां जो हट नहीं सकता।

यह विधि है उपनिषदों की। वे इसे कहते हैं नेति—नेति। वे कहते हैं, ‘मैं न यह हूं न वह हूं।’ वे कहे जाते हैं और कहे जाते हैं, और एक घड़ी आती है जब केवल साक्षी बचता है, और साक्षी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वह है तुम्हारे अस्तित्व का चरम स्रोत, उसकी असली आंतरिकता ही। तुम इसे अस्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि कौन अस्वीकार करेगा इसे? अब दो अस्तित्व नहीं रखते, केवल एक ही होता है। तब होता है नियंत्रण। तब मन की क्रिया नियंत्रण में रहती है।

तो यह ऐसा नहीं है जैसे कि छोटे बच्चे को जबद्रस्ती माता—पिता द्वारा कोने में धकेल दिया गया हो और उससे कह दिया हो, ‘जाओ वहां चुपचाप बैठ जाओ। ‘ वह लगता है नियंत्रण में है, पर वह होता नहीं। लगता है कि वह नियंत्रण में है, पर वह होता है बेचैन, अवश—भीतर होती है बड़ी हलचल।

एक छोटे बच्चे पर मां ने जबद्रस्ती की। वह खूब दौड़ रहा था चारों तरफ। उसे तीन बार मां ने चुपचाप बैठ जाने को कहा। फिर चौथी बार वह बोली, ‘ अब तुम चुप बैठते हो या कि मैं आऊं और पीटूं तुम्हें।’ और बच्चे समझते हैं कि कब मां का सचमुच ही ऐसा मतलब होता है। वह समझ गया। वह बैठ गया, लेंकिन वह कहने लगा मां से, ‘मैं बाहर चुपचाप बैठा हूं लेकिन भीतर मैं अब भी दौड़ रहा हूं। ‘ तुम बाहरी तौर पर शांत हो जाने के लिए मन पर जबद्रस्ती कर सकते हो; भीतर तो वह दौड़ता ही चला जाएगा। वस्तुत: वह ज्यादा तेज दौड़ेगा क्योंकि मन विरोध करता है नियंत्रण का। हर कोई विरोध करता है नियंत्रण का। नहीं, यह नहीं है कोई ढंग। इस ढंग से तुम स्वयं को मार तो सकते हो लेकिन तुम शाश्वत जीवन को उपलब्ध नहीं हो सकते। यह तो एक प्रकार की अपंगता हुई। जब बुद्ध मौन बैठे होते हैं तो कोई भीतर दौड़ नहीं होती, नहीं। वस्तुत: भीतर वे मौन हो चुके होते हैं, और वह मौन उमड़ कर प्रवाहित हो आया है उनके बाहर। विपरीत नहीं।

तुम बाहरी तौर पर मौन होने के लिये स्वयं पर जबद्रस्ती करते हो, और तुम सोचते हो कि बाहर मौन करने से, भीतर मौन हो जाएगा। तुम समझते ही नहीं मौन का विज्ञान। यदि तुम भीतर मौन होते हो, तो बाहर सब उससे आप्लावित हो जाएगा। वह तो बस भीतर के पीछे चलता है। परिधि अनुसरण करती है केंद्र का, लेकिन केंद्र को परिधि का अनुसरण करने वाला नहीं बना सकते—यह असंभव होता है। तो सदा याद रखना कि सारी धार्मिक खोज भीतर से बाहर की ओर होती है, इससे उल्टी नहीं।

जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है तब मन बन जाता है शुद्ध स्फटिक की भांति।

जब संपूर्ण मौन होता है, तो तुम भीतर बद्धमूल और केंद्रित होते हो; जो कुछ घट रहा होता है, बस उसे देख रहे होते हो। पक्षी चहचहा रहे हैं, उनका कलरव सुनायी देगा; यातायात सड़क पर होता है, शोर सुनाई पड़ेगा। और बिलकुल उसी तरह, मन का आंतरिक यातायात होता है—शब्द होते, विचार होते, आंतरिक वार्ता होती। यातायात की ध्वनियां सुनाई पड़ेगी। लेकिन चुपचाप बैठे रहते हो, कुछ न करते हुए—होते हो एक सूक्ष्म तटस्थता। तुम केवल देखते हो तटस्थ रूप से। तुम इसकी ??? नहीं करते कि यह इस ढंग से है या उस ढंग से। विचार आते हैं या कि नहीं आते हैं, तुम्हारे लिए एक ही बात होती है। न तो तुम उसके प्रति रुचि रखते हो और न ही विरोध। तुम सिर्फ बैठे रहते हो और मन का यातायात चलता रहता है। तुम बैठ सकते हो तटस्थ रूप से, पर ऐसा कठिन होगा, इसमें समय लगेगा। लेकिन तुम जान जाओगे तटस्थ होने का ढंग। यह कोई विधि नहीं, यह एक गुर (नैक) होता है। विधि सीखी जा सकती है, गुर नहीं सीखा जा सकता। तुम्हें बस बैठ जाना होता है और अनुभव करना होता है उसे। विधि सिखायी जा सकती है, गुर नहीं सिखाया जा सकता; तुम्हें सिर्फ बैठना होता है और अनुभव करना होता है। किसी दिन किसी ठीक घड़ी में जब तुम मौन होते हो, तो अचानक तुम जानोगे कि यह कैसे घट गया, किस प्रकार तुम तटस्थ हो गए। यदि एक क्षण को भी जब भीड़ वहां होती है और तुम तटस्थ रहते हो, तो सहसा तुम्हारे और तुम्हारे मन के बीच की दूरी बहुत बड़ी हो जाती है। मन संसार के दूसरे छोर पर है। वह दूरी दर्शा देती है कि उस क्षण तुम केंद्र में होते हो। यदि तुम आए हो गुर का अनुभव करने को, तो किसी समय, कहीं, तुम एकदम केंद्र की तरफ सरक सकते हो। तुम थम सकते हो और तुरंत, एक तटस्थता, एक बड़ी तटस्थता तुम्हें घेर लेती है। उस तटस्थता में तुम मन द्वारा अछूते बने रहते हो। तुम हो जाते हो मालिक।

तटस्थता एक तरीका है मालिक हो जाने का; मन नियंत्रित होता है तो फिर क्या घटता है? जब केंद्र में होते हो, तब मन का भ्रम तिरोहित हो जाता है। भ्रम है, क्योंकि तुम हो परिधि पर। वस्तुत: मन नहीं है भ्रम। मन और तुम जुड़ते हो परिधि पर तो वही है भ्रम। जब तुम भीतर की ओर सरकते हो, तो धीरे— धीरे तुम देखोगे कि मन अपना विभ्रम खो रहा होता है। चीजें स्थिर हो रही होती हैं। चीजें एक सुव्यवस्था में पड़ रही होती हैं। एक निश्चित सुव्यवस्था उतर रही होती है।

मन बन जाता है शुद्ध स्फटिक की भांति।

सारी अशांति, भ्रम, उल्टी—सीधी विचारधाराएं, वह सब कुछ थम जाता है। यह बहुत कठिन होता है समझना कि सारा विभ्रम होता है तुम्हारे परिधि पर होने के कारण ही। और तुम, अपनी बुद्धिमानी के कारण, भ्रम को ठहराने की कोशिश कर रहे हो, वहीं परिधि पर बने रहने से।

मैं बहुत बार एक छोटी—सी कथा कहता रहा हूं : बुद्ध सड़क पर जा रहे हैं और दोपहर का समय है। बहुत गर्मी है। और उन्हें प्यास लगती है। वे कहते हैं अपने शिष्य आनंद से, ‘तुम वापस जाओ। अभी दो या तीन मील पीछे ही हमने एक छोटी—सी नदी पार की थी। तुम मेरे लिए थोड़ा पानी ले आओ। ‘ तो बुद्ध वृक्ष के नींचे विश्राम करते हैं और आनंद चला जाता है नदी पर। लेकिन अब यह कठिन है, क्योंकि जैसे ही वह उसके नजदीक पहुंचता है, तो कुछ बैलगाड़ियां नदी पर से गुजर जाती हैं। नदी बहुत उथली और छोटी है। बैलगाड़ी गुजरने के कारण वह बहुत गंदी हो गयी है। वह सारी धूल जो नीचे बैठ गयी थी, सतह पर आ गयी है—पुराने सूखे पत्ते और हर प्रकार का कूड़ा—कचरा वहां है। पानी पीने योग्य नहीं। आनंद वही कुछ करने की कोशिश करता है, जो कि तुम करोगे—वह नदी में प्रवेश करता है और चीजों को ठहराने की कोशिश करता है, जिससे कि पानी फिर से स्वच्छ हो जाए। वह उसे और ज्यादा गंदा कर देता है। करना क्या होगा? वह वापस चला आता है और वह कहता है, ‘पानी पीने के योग्य नहीं। मैं आगे की एक खास नदी जानता हूं। मैं जाऊंगा और वहां से पानी ले आऊंगा। ‘ लेकिन बुद्ध जोर देते हैं। वे कहते हैं, ‘तुम वापस जाओ। मुझे उसी नदी का पानी चाहिए। ‘ जब बुद्ध जोर देते हैं, तो क्या कर सकता है आनंद? बेमन से वह फिर वापस चला जाता है। अचानक वह सार को समझ लेता है, क्योंकि जब तक वह पहुंचता है, आधी गंदगी फिर से बैठ चुकी होती है। किसी के द्वारा उसे ठहराने की कोशिश किए बिना, वह अपने से ही नीचे बैठ चुकी है। वह समझ गया बात।

तो फिर वह बैठ गया वृक्ष के नीचे और वह देखता था नदी को बहते हुए, क्योंकि आधी मिट्टी अभी भी बाकी थी वहां, कुछ सूखे पत्ते अभी भी सतह पर बचे थे। उसने प्रतीक्षा की। वह करता रहा प्रतीक्षा और देखता रहा और कुछ नहीं किया उसने। जल्दी ही, पानी स्फटिक जैसा हो गया था। झर गए मुर्दा पत्ते जा चुके थे और मिट्टी फिर से तल पर जम चुकी थी। वह दौड़ता हुआ और नाचता हुआ वापस लौटा। वह गिर पड़ा बुद्ध के चरणों पर और वह बोला, ‘मैं अब समझता हूं और यही गलती तो मैं अपने मन के साथ करता रहा अपनी जिंदगी— भर। अब बस मैं बैठ जाऊंगा वृक्ष के नीचे और गुजरने दूंगा मन के प्रवाह को, इसे स्वयं ही ठहर जाने दूंगा। अब मैं कूदूंगा नहीं नदी में और नहीं कोशिश करूंगा चीजों को जमाने की, कोई क्रमबद्धता लाने की। ‘

कोई नहीं ला सकता मन में क्रमबद्धता। व्यवस्था, क्रमबद्धता लाना ही अराजकता निर्मित कर देता है। यदि तुम देख सको और प्रतीक्षा कर सकी, और तुम देख सकते हो तटस्थ रूप से, तो चीजें अपने से ठहर जाती हैं। एक निश्चित नियम होता है; चीजें बहुत समय तक अस्थिर नहीं बनी रह सकतीं, क्योंकि अस्थिर अवस्था स्वाभाविक नहीं होती। वह अस्वाभाविक होती है। चीजों की स्थिर अवस्था स्वाभाविक होती है; चीजों की अस्थिर अवस्था नहीं होती है स्वाभाविक। इसलिए अस्वाभाविक बात घट सकती है कुछ समय तक तो, तो भी वह सदा बनी नहीं रह सकती है। तुम्हारी जल्दबाजी में, तुम्हारी अधीरता में तुम चीजों को ज्यादा गलत बना सकते हो।

जापान में, झेन मठों में, उनके पास एक निश्चित विधि होती है पागल लोगों का उपचार करने की। पश्चिम में वे अभी तक नहीं ढूंढ पाए हैं कोई ऐसी चीज, ऐसी विधि। वे अभी तक अंधेरे में भटक रहे हैं। साधारण पागल व्यक्ति सहायता देने के पार के लगते हैं। और मनोविश्लेषक लगा देते हैं तीन वर्ष, पाच वर्ष, सात वर्ष। और फिर भी, कुछ ज्यादा हासिल नहीं होता इससे। तुमने सारा हिमालय छान मारा और इससे निकलता एक चूहा भी नहीं ढूंढ पाए तुम। इसीलिए केवल बड़े धनपति इसका खर्च उठा सकते हैं, एक ऐश्वर्य की भांति। मनोविश्लेषण एक ऐश्वर्य है। लोग बड़े खुश होते हैं जब उनका मनोविश्लेषण किसी बड़े मनोविश्लेषक द्वारा किया जाता है, जैसे कि यह कोई बड़ी उपलब्धि की बात है। और घटता कुछ नहीं है। लोग एक मनोविश्लेषक से दूसरे तक चलते चले जाते हैं।

जापान में उनके पास एक बहुत सीधी—सी विधि है। यदि कोई पागल हो जाता है तो उसे लाया जाता है मठ में। उनके पास मठ से अलग, एक कोने. में एक बहुत छोटी—सी कुटिया होती है। व्यक्ति को वहां छोड़ दिया जाता है। कोई उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता है। किसी पागल आदमी में कभी मत लेना ज्यादा दिलचस्पी, क्योंकि दिलचस्पी बन जाती है भोजन।

एक पागल आदमी सारे संसार का ध्यान पाना चाहता है; इसीलिए होता है वह पागल। पहली बात तो यह होती है कि वह पागल है, क्योंकि मांगता है ध्यान। यही बात उसे ले गयी है पागलपन में।

इसलिए कोई ज्यादा ध्यान नहीं देता उसकी ओर। वे खयाल रखते हैं, पर वे ध्यान नहीं देते। वे उसे भोजन देते हैं, और वे उसे सुविधापूर्ण बना देते हैं, पर कोई नहीं जाता उससे बात करने को। जो लोग भोजन लाते और दूसरी जरूरत की चीजें लाते, वे भी बात न करेंगे उससे। उससे बात नहीं करने दी जाती, क्योंकि पागल आदमी पसंद करते हैं बात करना। वस्तुत: बहुत ज्यादा बात करना उन्हें ले गया है इस अवस्था की ओर।

मनोविश्लेषण के साथ बात ठीक उल्टी है—मनोविश्लेषक बातें किए चले जाते हैं और घंटों बातें करने देते हैं रोगी को। पागल व्यक्ति इसका बहुत आनंद उठाते हैं, और कोई आदमी सुनता हो इतने ध्यानपूर्वक, तो बहुत सुंदर बात होती है यह।

झेन मठ में कोई नहीं बात करता है पागल आदमी से। कोई नहीं देता ध्यान, कोई खास ध्यान। एक सूक्ष्म तटस्थ ढंग से वे ध्यान रखते हैं, बस इतना ही। वह विश्राम करता है, बैठता है या चुपचाप बिस्तर पर लेटा रहता हैं, और कुछ नहीं करता। वस्तुत: कोई उपचार होता ही नहीं। और वह तीन सप्ताह के भीतर संपूर्णतया ठीक हो जाता है।

अब पश्चिमी मनोविश्लेषक दिलचस्पी लेने लगे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह असंभव है—कि पागल आदमी को उसी के हाल पर ही छोड़ देना! पर यह होती है बौद्ध—दृष्टि, यही होती है योगियों की दृष्टि : कि छोड देना चीजों को, क्योंकि कोई चीज बहुत देर तक स्थिर नहीं रह सकती, यदि तुम उसे उस पर ही छोड़ देते हो। यदि तुम उसे नहीं छोडते, तो वह लंबे समय तक अव्यवस्थित रह सकती है, क्योंकि तुम उसे निरंतर फिर—फिर हिला—डुला रहे होओगे।

प्रकृति घृणा करती है अव्यवस्था से। प्रकृति प्रेम करती है सुव्यवस्था को। प्रकृति संपूर्णतया सुव्यवस्थागत है, अत: अव्यवस्था केवल एक अस्थायी अवस्था हो सकती है। यदि तुम समझ सको इसे, तो मन के साथ कुछ मत करना। पागल मन को उस पर ही छोड़ देना। तुम बस देखना, ज्यादा ध्यान मत देना। इसे खयाल में रख लेना : देखने और ध्यान देने में भेद होता है। जब तुम ध्यान देते हो, तुम बहुत ज्यादा आकर्षित होते हो। जब तुम केवल देखते हो, साक्षी मात्र होते हो तो तुम तटस्थ होते हो।

बुद्ध इसे कहते हैं उपेक्षा, परम और समग्र उपेक्षा। मात्र एक ओर बैठे रहना, नदी बहती रहती है। और चीजें ठहरती जाती हैं; कूड़ा—करकट नीचे तल पर बैठ जाता है और सूखे पत्ते बह चुके होते हैं अकस्मात, नदी स्फटिकवत स्वच्छ होती है।

इसीलिए पतंजलि कहते हैं, ‘जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है, तो मन शुद्ध स्फटिक बन जाता है, और जब मन शुद्ध स्फटिक बन जाता है, तो तीन चीजें प्रतिबिंबित होती हैं उसमें। ‘

फिर वह समान रूप से प्रतिबिंबित करता है बोधकर्ता को बोध को और बोध के विषय को।

जब मन संपूर्णतया साफ होता है, एक सुव्यवस्था बन गया होता है, तो भ्रम नहीं रहता और चीजें थम चुकी होती हैं, तब तीन चीजें प्रतिबिंबित होती हैं उसमें; वह दर्पण बन जाता है, तीन आयामों का दर्पण। बाहर का संसार, विषय—वस्तुओं का संसार प्रतिबिंबित होता है। भीतर का संसार, आत्मपरक चेतना का संसार प्रतिबिंबित होता है। दोनों के बीच का संबंध, वह बोध प्रतिबिंबित होता है और होता है बिना किसी विकार के।

मन के साथ तुम्हारे बहुत ज्यादा घुल—मिल जाने से ही ऐसा होता है कि विकार चला आता है। क्या होता है विकार? मन एक सीधी यंत्र—क्रिया है। यह आंखों की भांति है; तुम आंखों द्वारा देखते हो और संसार प्रतिबिंबित हो जाता है। लेकिन आंखों के पास तो केवल एक आयाम है : वे तो केवल संसार को प्रतिबिंबित कर सकती हैं, वे तुम्हें प्रतिबिंबित नहीं कर सकतीं। मन त्रिआयामी घटना है, बड़ी गहरी। वह सब कुछ प्रतिबिंबित कर सकता है, और बिना किसी विकार के। साधारणतया तो वह विकृत ही करता है। जब कभी तुम देखते हो किसी चीज को यदि तुम मन से अलग नहीं होते, तो चीज बिगड जाएगी। तुम कुछ और देखोगे। तुम इसमें अपना ज्ञान मिला दोगे, अपने भाव मिला दोगे। तुम इसे दृष्टि की शुद्धता सहित नहीं देखोगे। तुम देखोगे धारणाओं सहित, और धारणाएं प्रक्षेपित होंगी उस पर।

यदि तुम उत्पन्न होते हो किसी अफ्रीकी जाति में, तो तुम सोचते हो पतले होंठ सुंदर नहीं होते, मोटे होंठ सुंदर होते हैं। बहुत—सी अफ्रीकी जनजातियों में वे अपने होंठ मोटे और ज्यादा मोटे बनाए चले जाते हैं। वे सब प्रकार के उपाय करते हैं होंठों को ज्यादा और ज्यादा मोटे करने के लिए, विशेषकर स्त्रियां क्योंकि मोटे होंठ सुंदर होते हैं; ऐसी ही धारणा है। प्रजाति के सारे इतिहास में इस बात को कायम रखा है उन्होंने। यदि कोई लड़की पैदा होती है पतले होंठ लेकर, तो वह निम्न अनुभव करती है।

भारत में प्रेम करते हैं पतले होंठों से। यदि वे थोड़े से ज्यादा मोटे होते हैं, तो तुम असुंदर माने जाते हो। ये विचार मन के भीतर चलते हैं और ये विचार इतनी गहरी जड़ में उतर जाते हैं कि वे तुम्हारी दृष्टि धुंधली कर देते हैं। न पतले होंठ और न ही मोटे होंठ, न तो सुंदर होते हैं और न ही असुंदर। वस्तुत: सुंदर और असुंदर विकृत अवधारणाएं हैं। वे तुम्हारी विचारधाराएं हैं, और फिर तुम उन्हें मिला देते हो वास्तविकता के साथ।

ऐसी जनजातियां अस्तित्व रखती रही हैं जो सोने को बिलकुल ही कोई मूल्य नहीं देतीं। जब वे बिलकुल कोई मूल्य नहीं करतीं सोने का, तो वे सोने के वशीभूत नहीं रहती। सारा संसार ऐसा है, सोने द्वारा वशीभूत। मात्र एक निश्चित विचार, और सोना बहुत मूल्यवान हो जाता है।

वस्तुओं के संसार में, वास्तव में, कोई चीज ज्यादा मूल्यवान या कम मूल्यवान नहीं होती है। मूल्यांकन लाया जाता है मन के द्वारा, तुम्हारे द्वारा। कोई चीज सुंदर नहीं, कोई चीज असुंदर नहीं। चीजें होती हैं जैसी वे हैं। उनकी अपनी तथाता में वे अस्तित्व रखती हैं। लेकिन जब तुम सतह पर होते हो और विचारों के साथ सम्मिलित हो जाते हो, तो तुम कहने लगते हो, ‘यह मेरी धारणा है सौंदर्य की। यह मेरी धारणा है सत्य की। ‘ तब हर चीज मुड़—तुड़ जाती है।

जब तुम केंद्र की ओर बढ़ते हो और मन अकेला छूट जाता है, और उस केंद्र से तुम देखते हो मन को, तो तुम्हारा तादात्म्य फिर उसके साथ नहीं रहता। धीरे— धीरे सारे विचार तिरोहित हो जाते हैं। मन स्फटिक की भांति साफ हो जाता है। और उस दर्पण में, मन के त्रि—आयामी दर्पण में, संपूर्ण प्रतिबिंबित हो जाता है : विषय, व्यक्ति, ज्ञान; बोधकर्ता, बोध और बोध का विषय।

‘सवितर्क समाधि, वह समाधि है, जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्य नहीं रहता है, जो सच्चे ज्ञान के और शब्दों पर आधारित ज्ञान, तर्क या इंद्रिय—बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है—जो सब मिश्रित अवस्था में मन में बना रहता है।’

दो प्रकार की समाधि होती है. एक को पतंजलि कहते हैं, ‘सवितर्क’ दूसरी को वे कहते ‘निर्विकल्प’ या ‘निर्वितर्क’। ये होती हैं दो अवस्थाएं। पहले तो कोई उपलब्ध होता है सवितर्क समाधि को; जिसमें कि तर्कसंगत मन अभी भी चल रहा होता है। यह है समाधि, लेकिन फिर भी बौद्धिक दृष्टिकोण पर आधारित होती है। तर्क अभी भी काम कर रहा है, तुम भेद बना रहे होते हो। यह उच्चतम समाधि नहीं होती है, मात्र पहला कदम है। लेकिन यह भी बहुत—बहुत कठिन है, क्योंकि इसमें भी जरूरत पड़ेगी केंद्र की ओर थोड़ा बहुत जाने की।

उदाहरण के लिए : परिधि है वहां, जहां कि तुम बिलकुल अभी खड़े हो, और केंद्र है वहां, जहां कि मैं हूं बिलकुल अभी और दोनों के बीच, ठीक मध्य में, सवितर्क समाधि है। इसका मतलब हुआ कि तुम सतह पर से सरक आए हो; तो भी तुम केंद्र तक नहीं पहुंचे हो अभी तक। तुम सरक आए हो परिधि से पर अभी भी बहुत दूर है केंद्र। तुम ठीक मध्य में हो। अभी तक कुछ पुराना कार्य कर रहा है, और कुछ नया आधे रास्ते तक प्रवेश कर चुका है। और चेतना की इस बीच की अवस्था की परिस्थिति क्या होगी?

सवितर्क समाधि वह समाधि है जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्य नहीं होता है जो सच्चे ज्ञान के…….।

क्या सत्य है, यह भेद वह अभी भी नहीं कर पाएगा, क्योंकि सत्य जाना जा सकता है केवल केंद्र द्वारा ही। उसे जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं। वह नहीं जान सकता सच्चा ज्ञान क्या है। कोई सत्य बूंद—बूंद टपक रहा होता है भीतर, क्योंकि वह सरक आया है परिधि से, ज्यादा निकट आ पहुंचा है केंद्र के। वह अभी केंद्रस्थ नहीं हुआ, तो भी ज्यादा निकट आ पहुंचा है। केंद्र की कोई चीज भीतर झर रही है—कुछ—कुछ प्रत्यक्ष बोध, केंद्र की कुछ झलकियां, लेकिन पुराना मन फिर भी है वहां, पूरी तरह नहीं चला गया। एक वहां,. पुराना मन अभी भी कार्य करता जा रहा है। योगी अभी भी अयोग्य

है भेद करने में कि क्या है सच्चा ज्ञान।

सच्चा ज्ञान वह शान है जो घटता है जब मन किसी विकार से बिलकुल ग्रस्त नहीं होता। एक तरह से मन जब संपूर्णतया तिरोहित हो गया होता है, वह इतना पारदर्शी हो चुका है कि वह वहां है या नहीं, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता।

इस मध्य अवस्था में योगी पड़ा होता है बहुत गहन विभ्रम में।

भ्रम होता है, क्योंकि कोई सत्य होता है और होता है वह ज्ञान, जो उसने अतीत में एकत्रित किया : उन शब्दों का, शास्त्रों का, शिक्षकों का; वह भी वहां होता है। अपना कुछ तर्क कि क्या गलत है और क्या सही; क्या सत्य है और क्या असत्य; और उसके इंद्रिय—बोध की—आख, कान, नाक की कोई चीज—हर चीज वहां होती, घुली—मिली हुई।

यह होती है वह अवस्था, जहां योगी पागल हो सकता है। यदि इस अवस्था में कोई ध्यान रखने वाला नहीं होता, तो पागल हो सकता है योगी, क्योंकि इतने सारे आयाम मिल रहे होते हैं। इतना बड़ा भ्रम होता है और होती है अराजकता। यह ज्यादा बड़ी अराजकता होती है उससे जितनी कि कभी पहले थी, जब कि वह सतह पर था, क्योंकि कुछ नया आ पहुंचा होता है।

केंद्र से अब थोड़ी झलकें आ रही होती हैं उस तक। वह नहीं जान सकता कि क्या यह उस ज्ञान से आ रही होती हैं, जिसे उसने इकट्ठा कर लिया है शास्त्रों से। कई बार अचानक उसे लगता है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, मैं ब्रह्म हूं। अब वह भेद करने योग्य नहीं होता कि यह उपनषिद से आ रहा है, जिसे वह पढ़ता रहा है, या कि उसके स्वयं से। यह एक बौद्धिक निर्णय होता है। ‘मैं संपूर्ण का अंश हूं। संपूर्ण है परमात्मा, तो निस्संदेह मैं हूं परमात्मा। ‘ वह नहीं बता सकता कि यह एक तर्कसंगत शास्त्रीय सूत्र है या यह आ रहा है इंद्रिय—बोध से।

क्योंकि कई बार जब तुम बहुत शात होते हो और इंद्रियों के द्वार बहुत साफ होते हैं, तो उदित हो जाती है परमात्मा होने की अनुभूइत। संगीत सुनते—सुनते, अचानक तुम फिर मानव—प्राणी ही नहीं रह जाते। यदि तुम्हारे कान तैयार होते हैं और यदि तुम्हारे पास संगीत—बोध होता है, तो अकस्मात तुम उठ जाते हो एक अलग ही तल तक। जिस स्त्री को तुम प्रेम करते हो, उससे संभोग करते हुए अचानक आर्गाज्म के चरम पर, तुम अनुभव करते कि तुम ईश्वर हो गए। ऐसा घट सकता है तर्क के द्वारा। यह आ रहा हो सकता है उपनिषदों से, शास्त्रों से, जिन्हें तुम पढ़ते रहे हो, या यह आ रहा होता है केंद्र से। और वह व्यक्ति जो मध्य में है, वह नहीं जानता कि यह कहां से आ रहा है। सभी दिशाओं से घट रही होती हैं लाखों चीजें—अनूठी, अज्ञात, ज्ञात। व्यक्ति पड़ सकता है वास्तविक गड़बड़ में।

इसीलिए जरूरत होती है साधक—समुदाय की, जहां कि बहुत लोग काम कर रहे होते हैं। क्योंकि केवल ये ही तीन स्थल नहीं हैं। परिधि और केंद्र के बीच में, बहुत सारे स्थल होते हैं। रहस्य—साधनालय वह होता है, जहां कई तरह के वर्गों के कई लोग साथ —साथ रहते हैं। और शिक्षालय की ही भांति, प्रथम श्रेणी के लोग होते हैं वहां, द्वितीय श्रेणी के लोग होते हैं, तृतीय श्रेणी के लोग होते हैं; प्राथमिकशाला माध्यमिकशाला, उच्चशाला और फिर विश्वविद्यालय। एक संपूर्ण रहस्य—विद्यालय होता है : बाल विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक। कोई अस्तित्व रखता है वहां एकदम चरम पर, केंद्र पर, जो कि केंद्र बन जाता है, रहस्य—विद्यालय का।

और बहुत सारे लोग होते हैं, क्योंकि वे सहायक हो सकते हैं। तुम मदद कर सकते हो किसी की जो एकदम पीछे हो तुम्हारे। उच्च विद्यालय का व्यक्ति आ सकता है प्राथमिक विद्यालय में और सिखा सकता है। प्राथमिक व्रिद्यालय का एक छोटा लड़का जा सकता है के. जी. मे—किडर—गाटेंन में और कर सकता है मदद।

परिधि से लेकर केंद्र तक, बहुत सारी अवस्थाएं हैं, बहुत सारे स्थल हैं। रहस्य—विद्यालय का अर्थ होता है. जहां सब प्रकार के लोग एक गहरी लयबद्धता में बने रहते हैं, एक परिवार के रूप में रहते हैं : बिलकुल प्रथम से लेकर बिलकुल अंतिम तक, प्रारंभ से लेकर समाप्ति तक, आरंभ से लेकर अंत तक। बहुत सहायता संभव हो जाती है इस ढंग से, क्योंकि तुम उसकी मदद कर सकते हो जो पीछे होता है तुमसे। तुम कह सकते हो उससे, ‘मत चिंतित होओ। बस, बढ़ते रहो। ऐसा घटता है और शांत हो जाता है अपने से ही। इसके साथ ज्यादा मत जुड़ जाना। अलग— थलग बने रहना। यह आता है और चला जाता है। ‘ किसी की जरूरत होती है, जो हाथ बढ़ाकर तुम्हारी मदद करे। और सद्गुरु की जरूरत होती है, जो ध्यान रख सके सारी अवस्थाओं का; शिखर से लेकर एकदम घाटी तक का, जो समग्र बोध पा सकता हो सारी संभावनाओं का।

अन्यथा, सवितर्क समाधि की इस अवस्था में, बहुत से पागल हो जाते हैं। या, बहुत से इतने घबड़ा जाते हैं कि वे दूर भाग आते हैं केंद्र से और चिपकने लगते हैं परिधि से, क्योंकि वहां, कम से कम किसी एक प्रकार की सुव्यवस्था तो होती है। कम से कम कुछ अज्ञात तो प्रवेश नहीं करता है वहां, अपरिचित नहीं आ पहुंचता वहां। तुम परिचित होते हो; अजनबी दस्तक नहीं देते तुम्हारे द्वार पर।

लेकिन जो सवितर्क समाधि तक पहुंच गया है यदि वह परिधि तक वापस चला जाता है, तो कुछ सुलझेगा नहीं। वह फिर वही कभी नहीं हो सकता। अब वह कभी भी पूरी तरह परिधि का नहीं हो सकता। इसलिए वह बात कुछ काम की नहीं। वह परिधि का हिस्सा कभी नहीं हो पाएगा। और वह वहां पर होगा, ज्यादा और ज्यादा भ्रमित। एक बार तुमने जान लिया है किसी चीज को, तो तुम कैसे मदद कर सकते हो स्वयं की, उस बोध से अनजान बन कर? एक बार जान लिया तुमने, तो जान लिया है तुमने। तुम दूर हो सकते हो उससे, तुम बंद कर सकते हो अपनी आंखें, लेकिन तो भी वह होता तो है वहां पर और वह तुम्हारे पीछे पड़ा रहेगा तुम्हारी जिंदगी भर।

यदि रहस्यविद्यालय नहीं होता और सद्गुरु नहीं होता, तो तुम बन जाओगे बहुत जटिल व्यक्ति। संसार से तुम जुड़ नहीं सकते, बाजार का तुम्हारे लिए कुछ अर्थ नहीं रहता; और संसार के पार जाने से तुम डरते रहते हो।

सवितर्क समाधि वह समाधि है जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्य नहीं रहता है जो सच्चे ज्ञान के और शब्दों पर आधारित ज्ञान और तर्क या इंद्रिय— बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है जो सब मिश्रित अवस्था में मन में बना रहता है।

निर्वितर्क समाधि है केंद्र तक पहुंच जाना : तर्क तिरोहित हो जाता है, शास्त्र अब अर्थपूर्ण नहीं रहते, इंद्रिय—संवेदनाएं धोखा नहीं दे सकतीं तुम्हें। जब तुम होते हो केंद्र पर, तो अचानक हर चीज स्वतःसिद्ध सत्य हो जाती है। ये शब्द ठीक से समझ लेने हैं—’स्वतःसिद्ध सत्य। ‘सत्य होते हैं वहां परिधि पर, लेकिन वे स्वत: प्रमाणित हरगिज नहीं होते। किसी प्रमाण की जरूरत होती है, किसी तर्कणा की जरूरत होती है। यदि तुम कहते हो कुछ तो तुम्हें प्रमाणित करना होता है उसे। यदि परिधि पर कहते हो, ‘परमात्मा है’, तो तुम्हें उसे प्रमाणित करना होगा, स्वयं के सामने, दूसरों के सामने। केंद्र पर परमात्मा है, स्वत: प्रमाणित, तुम्हें जरूरत नहीं रहती किसी प्रमाण की। कौन—से प्रमाण की जरूरत होती है, जब तुम्हारी आंखें खुली होती हैं और तुम देख सकते हो सूरज को उगते हुए। लेकिन उस आदमी के लिए जो कि अंधा होता है प्रमाण की जरूरत होती है। क्या प्रमाण की जरूरत होती है, जब तुम प्रेम में होते हो? तुम्हें पता होता है कि वह है; वह स्वत: स्पष्ट है। दूसरे तो मांग कर सकते हैं प्रमाण की। कैसे तुम उन्हें दे सकते हो कोई प्रमाण?

केंद्र पर पहुंचा व्यक्ति स्वयं ही प्रमाण बन जाता है; वह देता नहीं है कोई प्रमाण। जो कुछ वह जानता है वह स्वत: प्रमाणित होता है। ऐसा ही है। वह किसी बौद्धिक निर्णय के रूप में नहीं पहुंचा है ? उस तक। वह कोई शास्त्रीय—सूत्र नहीं होता; वह किसी निष्कर्ष के रूप में नहीं आया है, वह बस वैसा है ही। उसने जान लिया है। इसलिए उपनिषदों में कहीं कोई प्रमाण नहीं है। पतंजलि के यहां कोई प्रमाण नहीं है। पतंजलि तो मात्र व्याख्या कर देते हैं, लेकिन कोई प्रमाण नहीं देते। यही है भेद : जब कोई जानता है तो वह वर्णन ही करता है; जब कोई नहीं जानता है, तो पहले वह प्रमाणित करता है कि यह ऐसा—ऐसा है। जिन्होंने जाना है वे मात्र वर्णन कर देते हैं उस अज्ञात का। वे कोई प्रमाण नहीं देते।

पश्चिम में, ईसाई संतों ने परमात्मा के प्रमाण दिए हैं। पूरब में, हम हंसते हैं इस पर, क्योंकि यह बेतुकी बात है। परमात्मा को प्रमाणित करता हुआ आदमी बेतुका है। कैसे तुम प्रमाणित कर सकते हो उसे? और जब तुम प्रमाणित करते हो परमात्मा जैसे किसी रूप को तो तुम उसे झूठा प्रमाणित करने को ही निमंत्रित कर लेते हो लोगों को। और इन्हीं ईसाई संतों के कारण ही जो कि परमात्मा को प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं, सारा पश्चिम, धीरे— धीरे, परमात्मा विरोधी हो गया है, क्योंकि लोग सदा ही कर सकते हैं खंडन। तर्क एक दो— धारी तलवार होती है : यह काटती है दोनों ओर से। यदि तुम प्रमाणित करते हो कोई चीज, तो वह झूठी प्रमाणित भी हो सकती है। तर्क प्रस्तुत किया जा सकता उसके विरुद्ध।

ईसाई संतों के कारण, जो कि परमात्मा को प्रमाणित करने की कोशिश करते रहे हैं, सारा पश्चिम नास्तिक’ हो गया है। पूरब में हमने कभी ऐसी कोशिश नहीं की; हमने कभी कोई प्रमाण नहीं दिया। जरा उपनिषदों में झांको—स्व भी प्रमाण अस्तित्व नहीं रखता। वे इतना ही कहते हैं, ‘परमात्मा है। ‘ यदि तुम जानना चाहते हो, तुम जान सकते हो। यदि तुम नहीं जानना चाहते तो वह तुम्हारा चुनाव है। लेकिन इसके लिए कोई प्रमाण नहीं है।

वह अवस्था होती है निर्वितर्क समाधि की, वह समाधि जो होती है बिना तर्क की। वह समाधि पहली बार अस्तित्वगत होती है। लेकिन वह भी अंतिम नहीं। एक और अंतिम सोपान अस्तित्व रखता है। उसकी चर्चा हम आगे बाद में करेंगे।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–4) प्रवचन–1

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अष्‍टावक्र: महागीता—(भाग—4)

ओशो

ओशो द्वारा अष्‍टावक्र—संहिता के 152 से 196 सूत्रों पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित दिनांक 26 नवंबंर से 10 दिसंबर 1976 तक ओशो कम्‍यून इंटरनेशनल, पूना में दिए गए पंद्रह अमृत प्रवचनों का संकलन।

खुदी को मिटा, खुदा देखते है—प्रवचन—एक

दिनांक 26 नवंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

बोध की यात्रा में रस, विरस एवं स्व—रस क्या मात्र पड़ाव हैं? कृपा करके समझायें।

रस पड़ाव नहीं है। रस तो गंतव्‍य है। इसके लिए उपनिषद कहते है। रसो वै सः! उस प्रभु का नाम रस है। रस—रूप! रस में तल्लीन हो जाना परम अवस्था है।

पूछने वाले ने पूछा है : रस, विरस और स्व—रस…। शायद जहां रस कहा है, पूछा है, वहा कहना चाहिए पर—रस। पर—रस पड़ाव है। फिर पर—रस से जब ऊब पैदा हो जाती है, तो विरस। विरस भी पड़ाव है। लेकिन विरस तो नकारात्मक स्थिति है; पर—रस की प्रतिक्रिया है। तो कोई विरस में रुक नहीं सकता, वैराग्य में कोई ठहर नहीं सकता। जब राग में ही न ठहर सके तो वैराग्य में कैसे ठहरेंगे! विधायक में न ठहर सके तो नकारात्मक में कैसे ठहरेंगे! भोग में न रुक सके तो योग कैसे रोकेगा! पर—रस से जब ऊब पैदा हो जाती है, अनुभव में आता है कि नहीं, दूसरे से सुख मिलता ही नहीं, अनुभव में आता है कि दूसरे से दुख ही मिलता है, तो जुगुप्सा पैदा होती है। विरक्ति पैदा होती है, विरस आ जाता है। मुंह में कडुवा स्वाद फैल जाता है। किसी चीज में रस नहीं मालूम होता। विरस पड़ाव है—अंधेरी रात जैसा, नकारात्मक, रिक्त।

जब कोई विरस में धीरे — धीरे धीरे— धीरे डूबता है तो स्व—रस पैदा होता है। स्व—रस पर—रस से बेहतर है। अपने में रस लेना ज्यादा मुक्तिदायी है। कम से कम दूसरे की परतंत्रता तो न रही। पर न रहा तो परतंत्रता न रही। स्व आया तो स्वतंत्रता आई। इतनी मुक्ति तो मिली। लेकिन अभी भी पड़ाव है। अब स्व भी खो जाये और रस ही बचे तो अंतिम उपलब्धि हो गई, मंजिल आ गई। क्योंकि जब तक स्व है तब तक कहीं पास किनारे पर ‘पर’ भी खड़ा होगा, क्योंकि ‘मैं’ ‘तू के बिना नहीं रहता। स्व का बोध ही बता रहा है कि पर का बोध अभी कायम है। स्व की परिभाषा पर के बिना बनती नहीं। जब तक ऐसा लग रहा है मैं हूं तब तक स्वभावत: लग रहा है कि और भी है, अन्य भी है। तो यह तो पर की ही छाया है।

स्व और पर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं—साथ रहते, साथ जाते। तो पहले तो स्व—रस बड़ा आनंद देता है। पर—रस में तो सिर्फ सुख की आशा थी, मिला नहीं। विरस तो प्रतिक्रिया थी। पर—रस में मिला नहीं था, इसलिए क्रोध में विपरीत चल पड़े थे, नाराज हो गये थे। वह तो नाराजगी थी। वह

तो क्रोध था। वह कोई टिकने वाली भाव—दशा न थी, नकारात्मक दशा थी।

स्व—रस में रस की कुछ झलक मिलती है। परमात्मा के मंदिर के करीब आ गये; करीब—करीब सीढ़ियों पर खड़े हो गये। पर —रस ऐसा है, परमात्मा की तरफ पीठ किये खड़े हैं। विरस ऐसा है कि परमात्मा की तरफ पीठ करने में क्रोध आ गया; मुंह करने की चेष्टा कर रहे हैं परमात्मा की तरफ; सम्मुख होने की चेष्टा शुरू हुई। स्व—रस ऐसा है, सीढ़ियों पर आ गये। लेकिन स्व को सीढ़ियों पर ही छोड़ आना पड़ेगा, जहां जूते छोड़ आते हैं। बस वहीं। तो भीतर प्रवेश है। तो मंदिर में प्रवेश है। मंदिर का नाम है. रसों वै सः! मंदिर का नाम है. रस! वहा न स्व है न पर है; वह। एक ही है। वहा दो नहीं हैं।

इस अवस्था को ही अष्टावक्र ने स्वच्छंद कहा है। यह पर से भी मुक्त है, स्व से भी मुक्त है। यह छंद ही और है। यह अलौकिक बात है। भाषा में कहना पड़ता है तो कुछ शब्दों का उपयोग करना पड़ेगा। इसलिए बुद्ध ने इसे निर्वाण कहा है, कुछ भी न बचा। जो भी तुम जानते थे, कुछ न बचा। तुम्हारा जाना हुआ सब गया; अज्ञात के द्वार खुले। तुम्हारी भाषा काम नहीं आती। इसलिए बुद्ध निर्वाण के संबंध में चुप रह जाते हैं, कुछ कहते नहीं।

एक, ईसाई मिशनरी ‘स्टेनली जोन्स’ काफी प्रसिद्ध, विश्वप्रसिद्ध ईसाई मिशनरी थे। वे रमण महर्षि को मिलने गये थे। वर्षों बाद मेरा भी उनसे मिलना हुआ। रमण महर्षि से उन्होंने बात की। बुद्धिमान आदमी हैं स्टेनली जोन्स। बहुत किताबें लिखी हैं। और ईसाई जगत में बड़ा नाम है। लेकिन वह नाम बुद्धिमत्ता का ही है; वह किसी आत्म— अनुभव का नहीं है। रमण महर्षि से वे इस तरह के प्रश्न पूछने लगे जो कि नहीं पूछने चाहिए। और रमण महर्षि जो उत्तर देते वह उनकी पकड़ में न आता। जैसे उन्होने पूछा कि क्या आप पहुंच गये हैं? रमण महर्षि ने कहा : ‘कहां पहुंचना, कहा आना, कहां जाना!’ स्टेनली जोन्स ने फिर पूछा. ‘मेरे प्रश्न का उत्तर दें! क्या आप पहुंच गये हैं? क्या आपने पा लिया?’ रमण महर्षि ने फिर कहा : ‘कौन पाये, किसको पाये! वही है। न पाने वाला है कोई, न पाये जाने वाला है कोई।’

स्टेनली जोन्स ने कहा कि देखिए आप मेरे प्रश्न से बच रहे हैं। मैं आपसे कहता हूं कि मैंने पा लिया है, जबसे मैंने जीसस को पाया। मैंने पा लिया। आप सीधी बात कहें।

तो रमण महर्षि ने कहा : ‘अगर पा लिया तो खो जायेगा, क्योंकि जो भी पाया जाता है, खो जाता है। जिससे मिलन होता है, उससे बिछुड्न। जिससे शादी होती है उससे तलाक। जन्म के साथ मौत है। अगर पाया है तो कभी खो बैठोगे। उसको पाओ जो पाया नहीं जाता।

स्टेनली जोन्स ने समझा कि यह तो सब बकवास है। यह कोई बात हुई—उसको पाओ जिसको पाया नहीं जाता! तो फिर पाने का क्या अर्थ? फिर तो उसने रमण महर्षि को ही उपदेश देना शुरू कर दिया।

बहुत वर्षों बाद मेरा भी मिलन हो गया। एक परिवार, एक ईसाई परिवार मुझमें उत्सुक था, स्टेनली जोन्स उनके घर मेहमान हुए। तो उन्होंने आयोजन किया कि हम दोनों का मिलना हो जाये। बडे संयोग की बात कि स्टेनली जोन्स ने फिर वही पूछा : ‘आपने पा लिया है?’ मैंने कहा : ‘यह झंझट हुई। मैं फिर वही उत्तर दूंगा।’उन्होंने कहा : ‘कौन —सा उत्तर? ‘क्योंकि वे तो भूल— भाल चुके थे। मैंने कहा : ‘कैसा पाना, किसका पाना, कौन पाये!’ तब उन्हें याद आया, हंसने लगे और कहा कि : ‘तो क्या आप भी उसी तरह की बातचीत करते हैं जो रमण महर्षि करते थे। मैं गया था मिलने, लेकिन कुछ सार न हुआ। व्यर्थ समय खराब हुआ। इससे तो बेहतर था मिलना महात्मा गांधी से, बात साफ—सुथरी थी। इससे बेहतर था मिलना श्री अरविंद से, बात साफ—सुथरी थी।’

कुछ बात है जो साफ—सुथरी हो ही नहीं सकती। वही बात है जो साफ—सुथरी नहीं हो सकती। जो साफ—सुथरी है, वह कुछ करने जैसी नहीं है। जो बूद्धि की समझ में आ जाये वह समझने योग्य ही नहीं है। जो बुद्धि के पार रह जाता है, वही।

पर—रस भी समझ में आता है, विरस भी समझ में आता है, स्व—रस भी समझ में आता है, क्योंकि ये तीनों ही बुद्धि के नीचे हैं। स्व—रस सीमांत पर है, वहा से बुद्धि के पार उड़ान लगती है। विरस परिधि के पास है; पर—रस बहुत दूर है। लेकिन तीनों एक ही घेरे में हैं, बुद्धि के घेरे में हैं। रस अतिक्रमण है। रस में फिर कोई नहीं बचता।

ऐसी कभी—कभी घड़ी तुम्हारे जीवन में आती है —प्रेम के क्षणों में या प्रार्थना के क्षणों में या ध्यान के क्षणों में। किसी से अगर तुम्हारा गहरा प्रेम है तो कभी—कभी ऐसा उड़ा शिखर भीतर पैदा होता है जब न तो प्रेमी रह जाता न प्रेयसी रह जाती है। तब रस फलता है। तब रस झरता है। वह रस परमात्मा का रस है। इसलिए प्रेम में परमात्मा के अनुभव की पहली किरण उतरती है, या ध्यान की किसी गहरी तल्लीनता में जहां स्व—पर का भेद मिट जाता है, अभेद का आकाश खुलता है, वहा भी परमात्मा झरता है।

तो पूछने वाले ने प्रश्न तो ठीक पूछा है, लेकिन रस.. पूछा रस, विरस, स्व—रस क्या मात्र पड़ाव हैं? रस पड़ाव नहीं है। रस तो स्रोत है और अंतिम मंजिल भी। क्योंकि अंतिम मंजिल वही हो सकता है, जो स्रोत भी रहा हो। हम अंततः स्रोत पर ही वापिस पहुंच जाते हैं। जीवन का वर्तुल पूरा हो जाता है। जहां से चले थे, वहीं आ जाते हैं। या अगर तुम समझ सको तो जहां से कभी नहीं चले, वहीं आ जाते हैं। जहां से कभी नहीं हटे, वहीं पहुंच जाते हैं। जो हैं, वही हो जाते हैं।

मैं तमोमय, ज्योति की पर प्यास मुझको

है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको

स्नेह की दो बूंद भी तो तुम गिराओ

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ

कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूगा

कल प्रलय की आधियों से मैं लडूंगा

किंतु मुझको आज आंचल से बचाओ

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ

दीपक बुझा नहीं, कभी बुझा नहीं और दीपक सुरक्षित है। परमात्मा का आंचल उसे बचाये ही हुए है। तुम्हारा स्नेह भी, तुम्हारा तेल भी कभी चुका नहीं। वही तो तुम्हारी जीवंतता है, वही तो तुम्हारा स्नेह है। तुम्हारा दीया भरा—पूरा है। न तो ज्योति जलानी है, न दीये में तेल भरना है, सिर्फ तुम अपनी ही ज्योति की तरफ पीठ किए खड़े हो। जो है वही दिखाई नहीं पड़ रहा है। या, तुम आंख बंद किए

बैठे हो और जो रोशनी सब तरफ झर रही है, उससे तुम्हारा संपर्क नहीं हो पा रहा है। पलक उठाने की बात है।

बुद्ध से किसी ने पूछा कि ज्ञानी और अज्ञानी में फर्क क्या है? तो बुद्ध ने कहा, पलक मात्र का। सुनते हो! पलक मात्र का! पलक झपक गई—अज्ञानी। पलक खुल गई—शानी। इतना ही फर्क है। अंतस्तल पर जाग गये—सब जैसा होना चाहिए वैसा ही है।

तुम तमोमय नहीं हो, ज्योतिर्मय हो! रस से तुम भरे ही हो। रस के सागर हो। गागर भी नहीं। गागर तो तुम शरीर के कारण अपने को मान बैठे हो। रस के सागर हौ। जिसकी कोई सीमा नहीं, जो दूर अनंत तक फैलता चला गया है—वही ब्रह्म हो तुम! तत्वमसि! रसो वै सः!

दूसरा प्रश्न :

आपने कहीं कहा है कि अत्यंत संवेदनशील होने के कारण आत्मज्ञानी को शारीरिक पीड़ा का अनुभव तीव्रता से होता है; लेकिन वह स्वयं को उससे पृथक देखता है। क्या ऐसे ही आत्मज्ञानी को किसी मानसिक दुख का अनुभव भी होता है? कृपया समझायें!

तिब्बत का महासंत मिलारेपा मरण— शय्या पर पडा था। शरीर में बडी पीड़ा थी। और किसी जिज्ञासु ने पूछा : ‘महाप्रभु! क्या आपको दुख हो रहा है, पीड़ा हो रही है?’ मिलारेपा ने आंख खोली और कहा. ‘नहीं, लेकिन दुख है।’समझे? मिलारेपा ने कहा कि नहीं, दुख नहीं हो रहा है, लेकिन दुख है। दुख नहीं है, ऐसा भी नहीं। दुख हो रहा है, ऐसा भी नहीं। दुख खड़ा है, चारों तरफ घेर कर खड़ा है और हो नहीं रहा है। भीतर कोई अछूता, पार, दूर जाग कर देख रहा है।

ज्ञानी को दुख छेदता नहीं। होता तो है। दुख की मौजूदगी होती है तो होती है। पैर में काटा गड़ेगा तो बुद्ध को भी पता चलता है। बुद्ध कोई बेहोश थोड़े ही हैं। तुमसे ज्यादा पता चलता है, क्योंकि बुद्ध तो बिलकुल सजग हैं। वहां तो ऐसा सन्नाटा है कि सुई भी गिरेगी तो सुनाई पड़ जायेगी। तुम्हारे बाजार में शायद सुई गिरे तो पता भी न चले। तुम भागे जा रहे हो दूकान की तरफ, काटा गड़ जाये, पता न चले—यह हो सकता है। बुद्ध तो कहीं भागे नहीं जा रहे हैं। कोई दूकान नहीं है। काटा गड़ेगा तो तुमसे ज्यादा स्पष्ट पता चलेगा। कोरे कागज पर खींची गई लकीर! तुम्हारा कागज तो बहुत गुदा, गंदगी से भरा है; उसमें लकीर खींच दो, पता न चलेगी; हजार लकीरें तो पहले से ही खिंची हैं। शुभ्र

सफेद कपड़े पर जरा—सा दाग भी दिखाई पड़ता है, काले कपड़े पर तो नहीं दिखाई पड़ता है। दाग तो काले पर भी पड़ता है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता।

तुम्हारे जीवन में तो इतना दुख ही दुख है कि तुम काले हो गये हो दुख से। छोटे—मोटे दुख तो तुम्हें पता ही नहीं चलते। तुमने एक बात अनुभव की? अगर छोटे दुख से मुक्त होना हो तो बड़ा दुख पैदा कर लो, छोटा पता नहीं चलता। जैसे तुम्हारे सिर में दर्द हो रहा है और कोई कह दे कि ‘क्या बैठे, सिरदर्द लिए बैठे हो? अरे, दूकान में आग लग गई।’ भागे, भूल गये दर्द—वर्द। सिर का दर्द गया! एको की जरूरत न पड़ी। दूकान में आग लग गई, यह कोई वक्त है सिरदर्द करने का! भूल ही जाओगे।

बर्नार्ड शा ने लिखा है कि उसको हार्ट अटैक का हृदय पर दौरा पड़ा, ऐसा खयाल हुआ तो घबरा गया। डाक्टर को तत्‍क्षण फोन किया और लेट गया बिस्तर पर। डाक्टर आया, सीढिया चढ़ कर हाफता और आ कर कुर्सी पर बैठ कर उसने एकदम अपना हृदय पकड़ लिया। डाक्टर! डाक्टर ने और कहा कि मरे, मरे, गये! घबड़ा कर बर्नार्ड शा उठ आया बिस्तर से। वह भूल ही गया वह जो खुद का हृदय का दौरा इत्यादि पड़ रहा था। भागा, पानी लाया, पंखा किया, पसीना पोंछा। वह भूल ही गया। पांच—सात मिनट के बाद जब डाक्टर स्वस्थ हुआ तो डाक्टर ने कहा, मेरी फीस। तो बर्नार्ड शा ने कहा, फीस मैं आपसे मांग कि आप मुझसे! डाक्टर ने कहा, यह तुम्हारा इलाज था। मैंने एक उलझन तुम्हारे लिए खड़ी कर दी, तुम भूल गये तुम्हारा दिल का दौरा इत्यादि। यह कुछ मामला न था; यह नाटक था, यह मजाक की थी डाक्टर ने और ठीक की।

बर्नार्ड शा बहुत लोगों से जिंदगी में मजाक करता रहा। इस डाक्टर ने ठीक मजाक की। बर्नार्ड शा बैठ कर हंसने लगा। उसने कहा : यह भी खूब रही। सच बात है कि मैं भूल गया। ये पाच—सात मिनट मुझे याद ही न रही। वह कल्पना ही रही होगी।

बड़ा दुख पैदा हो जाये तो छोटा भूल जाता है। ऐसी घटनायें हैं, उल्लेख, रिकार्ड पर, वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर, कि कोई आदमी दस साल से लकवे से ग्रस्त पड़ा था और घर में आग लग गई, भाग कर बाहर निकल आया। और दस साल से उठा भी न था बिस्तर से। जब बाहर आ गया निकल कर और लोगों ने देखा तो लोगों ने कहा कि ‘अरे, यह क्या! यह हो नहीं सकता! तुम दस साल से लकवे से परेशान हो।’ यह सुनते ही वह आदमी फिर नीचे गिर पड़ा। लेकिन चल कर तो आ गया था। तो लकवा भूल गया।

तुम्हारी अधिक बीमारियां तो सिर्फ इसीलिए बीमारियां हैं कि तुम्हें व्यस्त करने को और कुछ नहीं। छोटी—मोटी बीमारियां तो तुम्हारे खयाल में नहीं आती; बड़ी बीमारी व्यस्त कर लेती है। घर में आग लगी है तो लकवा भूल जाता है। कुछ और बड़ी बीमारी आ जाये तो घर में लगी आग भी भूल जाये। बुद्धपुरुष को तो कोई उलझन नहीं है, कोई व्यस्तता नहीं है—कोरा चैतन्य है। जरा—सी भी सुई गिरेगी तो ऐसी आवाज होगी जैसे बैंड—बाजे बजे। संवेदना इतनी प्रखर है, उस संवेदना के अनुपात में ही बोध होगा! लेकिन फिर भी बुद्धपुरुष दुखी नहीं होता। दुख होता है, लेकिन दुखी नहीं होता। दुखी तो हम तब होते हैं जब दुख के साथ तादात्म्य कर लेते हैं। सिरदर्द हो रहा है, यह तो बुद्ध को भी पता चलता है, लेकिन मेरे सिर में दर्द हो रहा है, यह तुमको पता चलता है। सिर में दर्द हो रहा

है, यह तो बुद्ध को भी पता चलता है; क्योंकि सिर सिर है, तुम्हारा हो कि बुद्ध का हो। और सिर में पीड़ा होगी तो तुम्हें हो या बुद्ध को हो, दोनों को पता चलती है। लेकिन तुम तत्‍क्षण तादात्म्य कर लेते हो। तुम कहते हो, मेरा सिर! बुद्ध का ‘मेरा’ जैसा कुछ भी नहीं है। यह देह मैं हूं ऐसा नहीं है। तो देह में पीड़ा होती है तो पता चलता है।

पूछा है कि जैसे शरीर की पीड़ा का बुद्धपुरुषों को, ज्ञानियों को, समाधिस्थ पुरुषों को तादात्म्य मिट जाता है, मन के संबंध में क्या है रे क्या कोई मानसिक पीड़ा उन्हें होती है?

यह थोड़ा समझने का है।

शरीर सत्य है और आत्मा सत्य है; मन तो भ्रांति है। शरीर की पीड़ा का बुद्ध को पता चलता है, क्योंकि शरीर सत्य है। और आत्मा की तो कोई पीड़ा होती ही नहीं; आत्मा तो शाश्वत सुख में है, सच्चिदानंद है। मन तो धोखा है। मन किस बात से पैदा होता है? मन तादात्म्य से पैदा होता है। तुमने कहा, यह मेरा शरीर, तो मन पैदा हुआ। तुमने कहा, यह मेरा मकान, तो मन पैदा हुआ। तुमने’ कहा, यह मेरी पत्नी, तो मन पैदा हुआ। तुमने कहा, यह मेरा धन, तो मन पैदा हुआ। मन तो मेरे से पैदा होता है। मन तो मेरे का संग्रह है। इसलिए तो महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, सभी के उपदेशों में एक बात अनिवार्य है : परिग्रह से’ मुक्त हो जाओ।’मेरे’ से मुक्त हो जाओ। क्योंकि जब तक तुम ‘मेरे’ से नहीं मुक्त हुए तब तक मन से मुक्त न हो सकोगे।’मेरे’ को हटा लो तो बुनियाद गिर गई, भवन मन का गिर जायेगा।

तुमने देखा, जितना ‘मेरा’ उतना बड़ा मन।’मेरा’ क्षीण हो जाता है, मन क्षीण हो जाता है। तुम जब राजसिंहासन पर बैठ जाते हो तो तुम्हारे पास बड़ा भारी मन होता है। राजसिंहासन से उतर जाते हो, मन सिकुड़ जाता है, छोटा हो जाता है। इसलिए तो इतना बुरा लगता है—पद खो जाये, धन खो जाये—क्योंकि सिकुड़ना पड़ता है। सिकुड़ना किसको अच्छा लगता है! छोटे होना पडता है; छोटे होने में अपमान मालूम होता है, निंदा मालूम होती है, दीनता—दरिद्रता मालूम होती है। तुम्हारी जेब में जब धन होता है तो तुम फैले होते हो।

मुल्ला नसरुद्दीन और उसका साथी एक जंगल से गुजर रहे थे। साथी ने छलांग लगाई, एक नाले को पार करना था, वह बीच में ही गिर गया। मुल्ला छलांग लगा गया और उस पार पहुंच गया। साथी चकित हुआ। मुल्ला की उम्र भी ज्यादा, का हो रहा—कैसी छलांग लगाई! उसने पूछा कि तुम्हारा राज क्या है? क्या तुम ओलंपिक इत्यादि में छलांग लगाते रहे हो 2: कोई अभ्यास किया है? यह बिना अभ्यास के नहीं हो सकता।

मुल्ला ने अपना खीसा बजाया! उसमें कलदार थे, रुपये थे, खनाखन हुए। उसने कहा. ‘मैं समझा नहीं मतलब।’ मुल्ला ने कहा कि अगर छलांग जोर से लगानी हो तो खीसे में गर्मी चाहिए। फोकट नहीं लगती छलांग। तुम्हारा खीसा बताओ। खीसा खाली है, गर्मी ही नहीं है, तो छलांग क्या खाक लगाओगे!

छलांग के लिए गर्मी चाहिए। और धन बड़ा गर्मी देता है।

तुमने खयाल किया, खीसे में रुपये हों तो सर्दी में भी कोट की जरूरत नहीं पड़ती। एक गर्मी रहती है! फिर टटोल कर खीसे में हाथ डाल कर देख लेते हो, जानते हो कि है, कोई फिक्र नहीं; चाहो

तो अभी कोट खरीद लो। लेकिन अगर खीसे में रुपये न हों तो जरूरत भी न हो अभी कोट की तो भी खलता है—लगता दीनता, दस्यिता, छोटापन, सामर्थ्य की हीनता; मन टूटा—टूटा मालूम होता है। तुम जरा गौर से देखना. मन, तुम्हारी जितनी ज्यादा परिग्रह की सीमा होती है, उतना ही बड़ा होता है।’मेरे’ को त्याग दो, मन गया। मन कोई वस्तु नहीं है। मन तो शरीर और आत्मा के एक—दूसरे से मिल जाने से जो भ्रांति पैदा होती है उसका नाम है। मन तो प्रतिबिंब है।

ऐसा समझो कि तुम दर्पण के सामने खड़े हुए। दर्पण सच है, तुम भी सच हो, लेकिन दर्पण में जो प्रतिबिंब बन रहा है वह सच नहीं है। आत्मा और शरीर का साक्षात्कार हो रहा है। शरीर का जो प्रतिबिंब बन रहा है आत्मा में, उसको अगर तुमने सच मान लिया तो मन; अगर तुमने जाना कि केवल शरीर का प्रतिबिंब है, न तो मैं शरीर हूं तो शरीर का प्रतिबिंब तो मैं कैसे हो सकता हूं तो फिर कोई मन नहीं।

बुद्धपुरुष के पास कोई मन नहीं होता। अ—मन की स्थिति का नाम ही तो बुद्धत्व है। इसलिए कबीर कहते हैं, अ—मनी दशा; स्टेट आफ नो माइंड। अ—मनी दशा! उन्मनी दशा! बे—मनी दशा! जहां मन न रह जाये!

मन केवल भ्रांति है, धारणा है, ऐसी ही झूठ है जैसे यह मकान और तुम कहो ‘मेरा’! मकान सच है, तुम सच हो; मगर यह ‘मेरा’ बिलकुल झूठ है; क्योंकि तुम नहीं थे तब भी मकान था और तुम कल नहीं हो जाओगे तब भी मकान रहेगा। और ध्यान रखना, जब तुम मरोगे तब मकान रोयेगा नहीं कि मालिक मर गया। मकान को पता ही नहीं है कि बीच में आप नाहक ही मालिक होने का शोरगुल मचा दिए थे। मकान ने सुना ही नहीं है। तुम नहीं थे, धन यहीं था। तुम नहीं रहोगे, धन यहीं रह जायेगा। सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बनजारा! तो जो पड़ा जायेगा, उस पर तुम्हारा दावा झूठ है। इसलिए तो हिंदू कहते हैं : सबै भूमि गोपाल की! वह जो सब है, परमात्मा का है; मेरा कुछ भी नहीं। जिसने ऐसा जाना कि सब परमात्मा का है, मेरा कुछ भी नहीं, उसका मन चला गया। मन बीमारी है। मन अस्तित्वगत नहीं है। मन केवल भ्रांति है। तुमने राह पर पड़ी रस्सी देखी और समझ लिया सांप और भागने लगे; कोई दीया ले आया और रस्सी रस्सी दिखाई पड़ गई और तुम हंसने लगे—बस मन ऐसा है। दीये से देख लो जरा—मन नहीं है। जैसे रस्सी में सांप दिख जाये, ऐसी मन की भ्रांति है। मन मान्यता है।

तो बुद्धपुरुषो को मन तो होता नहीं, इसलिए मानसिक दुख का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। मानसिक दुख तो उन्हीं को होता है जिनके पास जितना बड़ा मन होता है।

तुम देखो इसे, समझो। गरीब देशों में मानसिक बीमारी नहीं होती। गरीब देश में मनोवैज्ञानिक का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जितना अमीर देश हो उतनी ही ज्यादा मनोवैज्ञानिकों की जरूरत है, मनोचिकित्सकों की जरूरत है। अमरीका में तो शरीर का डाक्टर धीरे— धीरे कम पड़ता जा रहा है और मन का डाक्टर बढ़ता जा रहा है। स्वाभाविक! क्योंकि मन बड़ा हो गया है। धन फैल गया।’मेरे’ का भाव फैल गया। आज अमरीका में जैसी समृद्धि है वैसी कभी जमीन पर किसी देश में नहीं थी। उस समृद्धि के कारण मन बड़ा हो गया है। मन बड़ा हो गया है तो मन की बीमारी बड़ी हो गई है। तो आज तो हालत ऐसी है कि करीब चार में से तीन आदमी मानसिक रूप से किसी न किसी प्रकार से रुग्ण हैं। चौथा भी संदिग्ध है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तीन का तो पक्का है कि चार में से तीन थोड़े अस्तव्यस्त हैं; चौथा भी संदिग्ध है, पक्का नहीं। सच तो यह है कि मनोवैज्ञानिक का भी कोई पक्का नहीं है कि वह खुद भी.। मैं जानता हूं अनुभव से, क्योंकि मेरे पास जितने मनोवैज्ञानिक संन्यासी हुए हैं उतना कोई दूसरा नहीं हुआ है। मेरे पास जिस व्यवसाय से अधिकतम लोग आये हैं संन्यास लेने, वह मनोवैज्ञानिकों का है—थिरैपिस्ट का, मनोविद, मनोचिकित्सकों का। और उनको मैं जानता हूं। उनकी तकलीफ है, भारी तकलीफ है। वे दूसरे की सहायता करने की कोशिश कर रहे हैं। डूबता डूबते को बचाने की कोशिश कर रहा है। वह शायद अपने — आप बच भी जाता, इन सज्जन के सत्संग में और डूबेगा। ऐसा कभी—कभी हो जाता है। कभी—कभी करुणा भी बड़ी महंगी पड़ जाती है।

मैं एक नदी के किनारे बैठा था। सांझ का वक्त था और एक आदमी वहा कुछ चने खा रहा था मछलियों को। हम दोनों ही थे और एक लड़का किनारे पर ही तैर रहा था। वह जरा दूर निकल गया और चिल्लाया कि मरा, डूबने लगा! तो वह जो आदमी चने खा रहा था, एकदम छलांग लगा कर कूद गया। इसके पहले कि मैं कूदू वह कूद गया। मैंने कहा, जब वह कूद गया तब ठीक है। मगर कूद कर ही वह चिल्लाने लगा कि बचाओ —बचाओ! तो मैं बड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा, मामला क्या है? उसने कहा कि मुझे तैरना आता ही नहीं। और एक झंझट खड़ी हो गई—उन दो को बचाना पड़ा। अब यह सज्जन अगर उस बच्चे को बचाने. जब मैं निकाल कर उनको किसी तरह बाहर ले आया तो मैंने पूछा कि कुछ होश से चलते हो, जब तुम्हें तैरना ही नहीं आता..! तो उन्होंने कहा, याद ही न रही। जब वह बच्चा डूबने लगा तो यह मैं भूल ही गया कि मुझे तैरना नहीं आता। यह मामला इतनी जल्दी हो गया। डूबते देख कर कूद पड़ा बस।

पर कूदने के पहले यह तो सोच लेना चाहिए कि तुम्हें तैरना आता है!

पश्चिम में मन विक्षिप्त हुआ जा रहा है। जरूरत! बहुत—से लोग डूब रहे हैं, मन की बीमारी में डूब रहे हैं। बहुत—से लोग उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिकों का जीवन बहुत गौर से देखता रहा हूं, मैं बहुत हैरान हुआ हूं! खुद सिग्मंड फ्रायड मानसिक रूप से रुग्ण मालूम होता है, स्वस्थ नहीं मालूम होता। जन्मदाता मनोविज्ञान का! कुछ चीजों से तो वह इतना घबडाता था कि अगर कोई किसी की मौत की बात कर दे तो वह कैंपने लगता था। यह कोई बात हुई! अगर कोई कह दे कि कोई मर गया.. उसने कई दफा चेष्टा करके अपने को सम्हालने की कोशिश की, मगर नहीं, दो दफे तो वह बेहोश हो गया। यह बात ही कि कोई मर गया कि वह घबड़ा जाये! मौत इतना डराये तो मन बड़ा रुग्ण है।

सच तो यह है कि यह कहना कि मन रुग्ण है, ठीक नहीं; मन ही रोग है। फिर जितना मन फैलता है। आज अमरीका में मन का खूब फैलाव है। धन के साथ मन फैलता है। इसलिए तो मन धन चाहता है। धन फैलाव का ढंग है। धन मन की माग है कि मुझे फैलाओ, मुझे बड़ा करो, गुब्बारा बनाओ मेरा, भरे जाओ हवा, बड़े से बड़ा करो! फिर बड़ा करने से जैसे गुब्बारा एक सीमा पर जा कर टूटता है, वैसा मन भी टूटता है। वही विक्षिप्तता है। तुम बड़ा किए चले जाते हो, बड़ा किए चले जाते हो, एक घड़ी आती है कि गुब्बारा टूटता है।

इसलिए मैं कहता हूं कि बहुत धनिक समाज ही धार्मिक हो सकते हैं। जब गुब्बारा टूटने लगता

है, तब आदमी सोचता है कि कहीं कुछ और सत्य होगा, जिसे हमने सत्य माना था वह तो फूट गया, कि वह तो पानी का बुलबुला सिद्ध हुआ।

बुद्धपुरुष के पास तो कोई मन नहीं है, क्योंकि बुद्धपुरुष के पास ‘मेरा’ नहीं, ‘तेरा’ नहीं, ‘मैं’ नहीं, ‘तू नहीं। रस ही बचा। द्वंद्व तो गया। द्वंद्व के साथ ही भीतर बटाव—कटाव भी चला गया।

मनोवैज्ञानिक सीजोफ्रेनिया की बात करते हैं—मनुष्य के भीतर दो खंड हो जाते हैं; जैसे दो व्यक्ति हो गये एक ही आदमी के भीतर। तुमने भी अनुभव किया होगा। अधिक लोग सीजोफ्रेनिक हैं दुनिया में। तुमने कई दफे अनुभव किया होगा। तुम्हारी पत्नी बिलकुल ठीक से बात कर रही थी, सब मामला ठीक था, जरा तुमने कुछ कह दिया—कुछ ऐसा जो उसे न जंचा—बस बात बदल गई। अभी क्षण भर पहले तक बिलकुल लक्ष्मी थी, अब एकदम दुर्गा का रूप ले लिया, महाकाली हो गई! अब वह चाहती है कि तुम्हारी छाती पर नाचे; जैसे कि शिव की छाती पर महाकाली नाच रही है! तुम चौंकते हो कि जरा—सी बात थी, इतनी जल्दी कैसे रूपांतरण हुआ! यह महाकाली भी छिपी है। यह दूसरा हिस्सा है।

मित्र से सब ठीक चल रहा है, जरा—सी कोई बात हो जाये कि सब मैत्री दो कौड़ी में गई। जन्म—जन्म की मेहनत व्यर्थ गई। जरा—सी बात और दुश्मनी हो गई। जो तुम्हारे लिए मरने को राजी था, वह तुम्हें मारने को राजी हो जाता है। यह सीजोफ्रेनिया है। आदमी का कोई भरोसा नहीं, क्योंकि आदमी एक आदमी नहीं है; भीतर कई आदमी भरे पड़े हैं, भीड़ है।

मन तो एक भीड़ है। तुम बहुत आदमी हो। इस भीड़ का कोई भरोसा नहीं। सुबह तुम कहते हो, आपसे मुझे बड़ा प्रेम है। भरोसा मत करना। शाम को ये ही सज्जन जूता मारने आ जायें! भरोसा मत करना। और ऐसा नहीं कि अभी जो ये कह रहे हैं तो धोखा दे रहे हैं, अभी भी पूरे मन से कह रहे हैं और सांझ भी जूता मारेंगे तो पूरे मन से मारेंगे।

तुम जिसको प्रेम करते हो उसी को घृणा करते हो। और तुमने कभी खयाल नहीं किया कि यह मामला क्या है! जिस पत्नी के बिना तुम जी नहीं सकते, उसके साथ जी रहे हो! उसके बिना भी नहीं जी सकते हो, मायके चली जाती है तो बड़े सपने आने लगते हैं! एकदम सुंदर पत्र लिखने लगते हो। पति ऐसे पत्र लिखते हैं मायके गई पत्नी को कि उसको भी धोखा आ जाता है; सोचने लगती है कि यही आदमी है जिसके साथ मैं रहती हूं! लौट कर धोखा टूटेगा। लौट कर आयेगी तो बस पता चलेगा कि ये तो वही के वही सज्जन हैं जिनको छोड़ कर गई थी। ये एकदम कवि हो गये थे, रूमानी हो गये थे, आकाश में उडे जा रहे थे! और ऐसा नहीं कि ये कोई झूठ लिख रहे थे, पत्र जब लिख रहे थे तो सच ही लिख रहे थे। वह भी मन का एक हिस्सा था। पत्नी के आते ही से वह हिस्सा विदा हो जायेगा, दूसरे हिस्से प्रगट हो जायेंगे।

जिससे प्रेम है उसी से घृणा भी चल रही है। जिससे मित्रता है उसी से शत्रुता भी बनी है। ऐसा द्वंद्व है। इस द्वंद्व में आदमी दुखी है। और इन द्वंद्वों को समेट कर चलने में बड़ी मुसीबत है। इसीलिए तो तुम इतने परेशान हो। ऐसा कचरा—कूड़ा सब सम्हाल कर चलना पड़ रहा है। एक घोड़ा इस तरफ जा रहा है, एक घोड़ा उस तरफ जा रहा है। कोई पीछे खींच रहा है, कोई आगे खींच रहा है। कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है। बड़ी फजीहत है। इस बीच तुम कैसे अपने को सम्हाले चले जा रहे हो, यही आश्चर्य है!

सिग्मंड फ्रायड ने लिखा है कि आदमी, सभी आदमी, पागल क्यों नहीं हैं—यह आश्चर्य है! होने चाहिए सभी पागल। अगर देखें आदमी के मन की हालत तो होने चाहिए सभी पागल। कुछ लोग कैसे अपने को सम्हाले हैं और पागल नहीं हैं; यह चमत्कार है।

बुद्धपुरुषों के पास कोई मन नहीं है, इसलिए मानसिक पीड़ा का कोई कारण नहीं।

तीसरा प्रश्न :

परमहंस रामकृष्ण के जीवन में दो उल्लेखनीय प्रसंग हैं। एक कि वे एक हाथ में बालू और दूसरे में चांदी के सिक्के रख कर दोनों को एक साथ गंगा नदी में गिरा देते थे। और दूसरा कि जब स्वामी विवेकानंद ने उनके बिस्तर के नीचे चांदी का सिक्का छिपा दिया तो परमहंस देव बिस्तर पर लेटते ही पीड़ा से चीख उठे थे। महागीता के वीतरागता के सूत्र के संदर्भ में इन दो प्रसंगों पर हमें कुछ समझाने की अनकंपा करें।

रामकृष्ण के जीवन के ये दोनों प्रसंग अब तक ठीक से समझे भी नहीं गये हैं; क्योंकि जिन्होंने इनकी व्याख्या की है, उन्हें परमहंस दशा का कुछ भी पता नहीं है। इनकी व्याख्या साधारण रूप में की गई है। रामकृष्ण एक हाथ में चांदी और एक हाथ में रेत को रख कर गंगा में गिरा देते हैं, तो हम समझते हैं कि रामकृष्ण के लिए चांदी और मिट्टी बराबर है। स्वभावत:, यह सीधा अर्थ हो जाता है। लेकिन अगर यही सच है कि रामकृष्ण के लिए सोना और मिट्टी, चांदी और मिट्टी बराबर है, तो दोनों हाथों में मिट्टी रख कर क्यों नहीं गिरा देते? एक हाथ में चांदी रख कर क्यों गिराते हैं? कुछ फर्क होगा। कुछ थोड़ा भेद होगा। नहीं, यह व्याख्या ठीक नहीं है।

रामकृष्ण के लिए तो कुछ भी भेद नहीं है। और यह गिराना भी रामकृष्ण के लिए अर्थहीन है। रामकृष्ण विरागी नहीं हैं, वीतरागी हैं। यह विरागी के लिए तो ठीक है कि विरागी कहता है मिट्टी—चांदी सब बराबर, सब मेरे लिए बराबर है, यह सोना भी मिट्टी है। यह विरागी की भाषा है। रामकृष्ण वीतरागी हैं। यह परमहंस की भाषा हो नहीं सकती। फिर रामकृष्ण ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह उनके लिए कर रहे होंगे जो उनके आसपास थे। यह उनके लिए संदेश है। जो राग में पड़ा है, उसे पहले विराग सिखाना पड़ता है। जो विराग में आ गया, उसे फिर वीतरागता सिखानी पड़ती है। कदम—कदम चलना होता है। और रामकृष्ण कहते थे, हर अनुभव से गुजर जाना जरूरी है।

तुम बहुत चकित होओगे, मैं तुम्हें उनके जीवन का एक उल्लेख बताऊं। शायद तुमने कभी सुना भी न हो, क्योंकि उनके भक्त उसकी बहुत चर्चा नहीं करते। जरा उलझन भरा है।

रामकृष्ण ने एक दिन मथुरानाथ को—उनके एक भक्त को—कहा कि सुन मथुरा, किसी को बताना मत, मेरे मन में रात एक सपना उठा कि सुंदर बहुमूल्य सिल्क के कपड़े पहने हुए हूं गद्दा—तकिया लगा कर बैठा हूं और हुक्का गुड़गुड़ा रहा हूं। और हुक्का गुड़गुड़ाते मैंने देखा कि मेरे हाथ पर जो अंगूठी सोने की बड़ी शानदार है, उसमें हीरा जड़ा है। अब तुझे इंतजाम करना पड़ेगा, क्योंकि जरूर यह सपना उठा तो जरूर यह वासना मेरे भीतर होगी। इसको पूरा करना पड़ेगा, नहीं तो यह वासना मुझे भटकायेगी। अगली जिंदगी में आना पड़ेगा, हुक्का गुड़गुडाना पड़ेगा। तो तू इंतजाम कर दे, किसी को बताना मत। लोग तो समझेंगे नहीं।

तो मथुरा तो उनका बिलकुल पागल भक्त था। उसने कहा कि ठीक। वह गया। वह चोरी—छिपे सब इंतजाम कर लाया। बहुमूल्य हीरे की अंगूठी खरीद लाया। शानदार हुक्का लखनवी! बहुमूल्य से बहुमूल्य रेशमी वस्त्र। और आश्रम के पीछे गंगा के तट पर उसने गद्दा—तकिया लगा दिया और रामकृष्ण बैठे शान से गद्दा—तकिया लगा कर अंगुली में अंगूठी डाल कर हुक्का बगल में ले कर गुड़गुड़ाना शुरू किया। वह पीछे छिपा झाडू के देख रहा है कि मामला अब क्या होता है! वे अंगूठी देखते जाते हैं और कहते हैं कि ‘ठीक, बिलकुल वही है। देख ले रामकृष्ण, ठीक से देख ले। और खूब मजा ले ले प्यारे, नहीं तो फिर आना पड़ेगा।’कपड़ा भी छू कर देखते हैं कि ठीक बड़ा गुदगुदा है। कहते हैं, ‘रामकृष्ण, ठीक से देख ले, नहीं तो फिर इसी कपड़े के पीछे आना पड़ेगा। भोग ले!’ हुक्का गुड़गुड़ाते हैं और कहते हैं, ‘रामकृष्ण, ठीक से गुड़गुड़ा ले!’ बस स्व—दों—तीन—चार मिनट यह चला, पांच मिनट चला होगा। फिर खिलखिला कर खड़े हो गये, अंगूठी गंगा में फेंक दी, हुक्का तोड़ कर उस पर यूका और उसके ऊपर कूदे और कपड़े फाड़ कर.। तो मथुरा घबड़ाया कि अब ये कग पागल हो रहे हैं। एक तो पहले ही यह पागलपन था—यह हुक्का गुडुगुड़ाना। किसी को पता चल जाये तो कोई माने भी न! अगर मैं हुक्का गुड़गुडाऊं तो लोग मान भी लें कि चलो गुड़गुड़ा रहे होंगे, इनका कुछ भरोसा नहीं। लेकिन रामकृष्ण हुक्का गुड़गुड़ायें, मथुरा भी किसी को कहेगा तो कोई मानने वाला नहीं है। और अब यह क्या हो रहा है! और उन्होंने गद्दे —तकिए भी उठा कर गंगा में फेंक दिए। नंग— धड़ंग हो गये, सब कपड़े फाड़ डाले और मथुरा को बुलाये कि खतम! अब आगे आने की कोई जरूरत न रही। देख लिया, कुछ सार नहीं है।

रामकृष्ण का कहना यह था कि जो भी भाव उठे, उसे पूरा कर ही लेना। रामकृष्ण भगोड़ापन नहीं सिखाते थे। विराग उनकी शिक्षा न थी। वे कहते थे, राग में हो तो राग को ठीक से भोग लो, लेकिन जानते रहना : राग से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ।

तो यह जो संस्मरण है कि चांदी और मिट्टी को एक साथ में ले कर और गंगा में डाल देते थे, यह जिसके सामने डाली होगी, उस आदमी के लिए इसमें कुछ इशारा होगा। इससे रामकृष्ण की चित्त की दशा का पता नहीं चलता। यह उपदेश है। और जब भी तुम महापुरुषों के, परमज्ञानियो के उपदेश सुनो, तो इस बात का ध्यान रखना कि किसको दिए गये! क्योंकि देने वाले से कम संबंध है, जिसको दिए गये उससे ज्यादा संबंध है। यह किसी धनलोलुप के लिए कही गई बात होगी। कोई धनलोलुप पास में खड़ा होगा। उसको यह बोध देने के लिए किया होगा। रामकृष्ण की चित्त दशा में तो क्या मिट्टी, क्या सोना! इतना भी भेद नहीं है कि अब एक हाथ में सोना और एक हाथ में रेत ले कर याद दिलायें। और अगर विवेकानंद ने उनके तकिए के नीचे चांदी के सिक्के रख दिए और वे पीड़ा से कराह उठे तो विवेकानंद के लिए कुछ शिक्षा होगी। कुछ शिक्षा होगी कि सावधान रहना। कुछ शिक्षा होगी कि तू जा रहा है पश्चिम, वहा धन ही धन की दौड़ है, कहीं खो मत जाना, भटक मत जाना! यह जो पीड़ा से कराह उठे हैं, यह तो सिर्फ विवेकानंद पर एक गहन संस्कार छोड़ देने का उपाय है, ताकि उसे याद बनी रहे, यह बात भूले न, यह एक चांटे की तरह उस पर पड़ गई बात कि रामकृष्ण को चादी छू कर ऐसी पीड़ा हो गई थी। तो चांदी जहर है। कहने से यह बात शायद इतनी गहरे न जाती। कहते तो वे रोज थे। सुनने से शायद यह बात न मन में प्रविष्ट होती, न प्रवेश करती; लेकिन यह घटना तो जलते अंगारे की तरह छाती पर बैठ गई होगी विवेकानंद के। यह विवेकानंद के लिए संदेश था इसमें। सदगुरुओं के संदेश बड़े अनूठे होते हैं।

ऐसा उल्लेख है कि विवेकानंद—रामकृष्ण तो चले गये देह को छोड़ कर—विवेकानद पश्चिम जाने की तैयारी कर रहे हैं। तो वे एक दिन शारदा, रामकृष्ण की पत्नी को मिलने गये। आशा लेने, आशीर्वाद मांगने। तो वह चौके में खाना बना रही थी। रामकृष्ण के चले जाने के बाद भी शारदा सदा उनके लिए खाना बनाती रही, क्योंकि रामकृष्ण ने मरते वक्त कहा आंख खोल कर कि मैं जाऊंगा कहां, यहीं रहूंगा। जिनके पास प्रेम की आंख है, वे मुझे देख लेंगे। तू रोना मत शारदा, क्योंकि तू विधवा नहीं हो रही है, क्योंकि मैं मर नहीं रहा हूं; मैं तो हूं जैसा हूं वैसे ही रहूंगा। देह जाती है, देह से थोड़े ही तू ब्याही गई थी!

तो सिर्फ भारत में एक ही विधवा हुई है शारदा, जिसने चूड़ियां नहीं तोड़ी, क्योंकि तोड्ने का कोई कारण न रहा। और शारदा रोई भी नहीं। वह वैसे ही सब चलाती रही। अदभुत स्त्री थी। आ कर ठीक समय पर जैसा रामकृष्ण का समय होता भोजन का, वह आ कर कहती कि ‘परमहंस देव, भोजन तैयार है, थाली लग गई है, आप चलें।’ फिर थाली पर बैठ कर पंखा झलती। फिर बिस्तर लगा देती, मसहरी डाल देती और कहती, ‘अब आप सो जायें। फिर दोपहर में सत्संगी आते होंगे।’ ऐसा जारी रहा कम।

तो वह परमहंस के लिए—परमहंस तो जा चुके—भोजन बना रही थी। विवेकानंद गये और उन्होंने कहा कि ‘मां, मैं पश्चिम जाना चाहता हूं परमहंस देव का संदेश फैलाने। आज्ञा है? आशीर्वाद है गु: ‘ तो शारदा ने कहा कि ‘विवेकानंद, वह जो छुरी पड़ी है, उठा कर मुझे दे दे।’ सब्जी काटने की छुरी! साधारणत: कोई भी छुरी उठा कर देता है तो मूठ अपने हाथ में रखता है, लेकिन विवेकानंद ने फल तो अपने हाथ में पकड़ा और मूठ शारदा की तरफ करके दी। शारदा ने कहा. ‘कोई जरूरत नहीं, रख दे वहीं। यह तो सिर्फ एक इशारा था जानने के लिए। तू जा सकता है।’ विवेकानंद ने कहा. ‘मैं कुछ समझा नहीं।’ शारदा ने कहा. ‘ आशीर्वाद है मेरा, तू जा सकता है। यह तो मैं जानने के लिए देखती थी कि तेरे मन में महाकरुणा है या नहीं। साधारणत: तो आदमी मूठ अपने हाथ में रखता है कि हाथ न कट जाये और छुरे की धार दूसरे की तरफ करता है कि पकड़ लो, तुम कटो तो कटो, हमें क्या

लेना—देना! लेकिन तूने धार तो खुद पकड़ी और मूठ मेरी तरफ की, बस बात हो गई। तू जा। तुझ आशीर्वाद है। तुझसे किसी की कभी कोई हानि न होगी, लाभ होगा।’

याद रखना, जब गुरु बोले तो शिष्य पर ध्यान रखना, क्योंकि गुरु शिष्य के लिए बोलता है। ये दोनों घटनाएं शिष्यों के लिए हैं। रामकृष्ण के तल पर तो क्या अंतर पड़ता है! न मिट्टी मिट्टी है, न सोना सोना है। मिट्टी भी मिट्टी है, सोना भी मिट्टी है, मिट्टी भी सोना है। सब बराबर है। जहां एक रस का उदय हुआ, जहां सब भेद खो गये, जहां एक ही परमात्मा दिखाई पड़ने लगा—फिर सभी उसके ही बनाये गये आभूषण हैं।

रामकृष्ण परम वीतराग दशा में हैं। विरागी नहीं हैं, न रागी हैं—दोनों के पार हैं। अष्टावक्र जिस सूत्र की बात कर रहे है—सरक्त—विरक्त के पार—वहीं हैं रामकृष्ण।

चौथा प्रश्न :

आप कहते हैं कि ‘भागो मत, जागो! साक्षी बनो!’ लेकिन नौकरी के बीच रिश्वत से और रिश्तेदारों के बीच मांस—मदिरा से भागने का मन होता है। साक्षी बने बिना कोयले की खान में रहने से कालिख तो लगेगी ही। हमें समझाने की मेहरबानी करें!

जब मैं तुमसे कहता हूं? साक्षी बनो, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं तुमसे कहता हूं कि तुम जैसे हो वैसे ही बने रहोगे। साक्षी में रूपांतरण है। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि साक्षी बनोगे तो तुम बदलोगे नहीं। साक्षी तो बदलने का सूत्र है। तुम साक्षी बनोगे तो बदलाहट तो होने ही वाली है। लेकिन वह बदलाहट भगोड़े की न होगी, जागरूक व्यक्ति की होगी।

समझो। तुम डर कर रिश्वत छोड़ दो, क्योंकि धर्मशास्त्र कहते हैं : ‘नरक में सडोगे अगर रिश्वत ली। स्वर्ग के मजे न मिलेंगे अगर रिश्वत ली। चूकोगे अगर रिश्वत ली।’ इस भय और लोभ के कारण तुम रिश्वत छोड़ देते हो—यह भगोड़ापन है। और जिस कारण से तुम रिश्वत छोड़ रहे हो, वह कुछ रिश्वत से बड़ा नहीं है। वह भी रिश्वत है। वह तुम स्वर्ग में जाने की रिश्वत दे रहे हो कि चलो, यहां छोड़े देते हैं, वहां प्रवेश दिलवा देना। तुम परमात्मा से कह रहे हो कि देखो तुम्हारे लिए यहां हमने इतना किया, तुम हमारा खयाल रखना। रिश्वत का और क्या मतलब है?… कि हम तुम्हारी प्रार्थना करते हैं।

तुमने देखा, भक्त जाता है मंदिर में, स्तुति करता स्तुति यानी रिश्वत।’स्तुति’ शब्द भी बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका मतलब होता है. खुशामद। स्तुति करता है कि तुम महान हो और हम तो दीन—हीन, और तुम पतितपावन और हम तो पापी! अपने को छोटा करके दिखाता है, उनको बड़ा करके दिखाता है। यह तुम किसको धोखा दे रहे हो? यही तो ढंग है खुशामद का। इसी तरह तो तुम राजनेता के पास जाते हो और उसको फुलाते हो कि ‘तुम महान हो, कि आपके बाद देश का क्या होगा! अंधकार ही अंधकार है!’ पहले उसे फुलाते हो और अपने को कहते हो, ‘हम तो चरण—रज हैं, आपके सेवक हैं।’ जब वह खूब फूल जाता है, तब तुम अपना निवेदन प्रस्तुत करते हो। फिर वह इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि इतने महान व्यक्ति से इनकार निकले, यह बात जंचती नहीं। मजबूरी में उसे स्वीकार करना पड़ता है। तुम सीधे जा कर मांग खड़ी कर देते, निकलवा देता दरवाजे के बाहर। खुशामद राजी कर लेती है। तुम परमात्मा के साथ भी वही कर रहे हो।

नहीं, यह कुछ रिश्वत से बेहतर नहीं है। यह रिश्वत ही है। यह एक बड़े पैमाने पर रिश्वत है।

यह तो मेरा आदेश नहीं। मैं तुमसे कहता हूं जागो! मैं तुमसे यह नहीं कहता कि रिश्वत लेने से नरक में पड़ोगे, क्योंकि कुछ पक्का नहीं है। अगर रिश्वत चलती है तो वहा भी चलती होगी। अगर ठीक से रिश्वत दे पाये तो वहां भी बच जाओगे। अगर शैतान की जेब गरम कर दी तो तुम पर जरा नजर रखेगा; जरा कम जलते कढाए में डालेगा। या तुम्हें कुछ ऐसे काम में लगा देगा कि तुम. .कढाए में डालने के लिए भी तो लोगों की जरूरत पड़ती होगी.. तुम्हें स्वयं सेवक बना देगा कि तुम चलो, यह काम करो। और पक्का नहीं है कुछ, स्वर्ग के दरवाजे पर भी कोई नहीं जानता कि रिश्वत चलती हो। क्योंकि जो यहां है सो वहा है। जैसा यहां है वैसा वहां है।

इजिप्त का पुराना सूत्र है. ‘एज अबव सो बिलो।’ जैसा ऊपर वैसा नीचे। मैं कहता हूं. जैसा नीचे वैसा ऊपर। क्योंकि एक ही तो अस्तित्व है। यह एक ही अस्तित्व का फैलाव है। तो मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम रिश्वत इसीलिए छोड़ दो कि नरक में न जाओ। अगर नरक में न ही जाना हो तो मैं मानता हूं कि तुम रिश्वत का अभ्यास जारी रखो, काम पड़ेगा। अगर स्वर्ग में जाने का पक्का ही कर लिया हो तो खूब पुण्य के सिक्के इकट्ठे कर लो, वे काम पड़ेंगे।

और तुम्हारे देवी—देवता कुछ बहुत अच्छी हालत में मालूम नहीं होते। तुम अपने पुराण पढ़ कर देख लो, तो इनसे कुछ ऐसी तुम आशा करते हो कि ये कोई साधु—महात्मा हैं, ऐसा मालूम नहीं पड़ता। तुम देखते हो, जरा कोई महात्मा महात्मापन में बढ़ने लगता है, इंद्र का सिंहासन कैपने लगता है! यह भी बड़े मजे की बात है। यह इंद्र को इतनी घबड़ाहट होने लगती है। यहां भी प्रतिस्पर्धा है। यहां भी डर है कि दूसरा प्रतियोगी आ रहा है, कि ये चले आ रहे हैं जयप्रकाश नारायण, घबड़ाहट है! उपद्रव है! जैसा यहां है वैसा वहां मालूम पड़ता है। तपस्वी ध्यान कर रहे हैं, इंद्र घबड़ा रहे हैं। और देवताओं के बीच बड़े उपद्रव हैं। कोई किसी की पत्नी ले कर भाग जाता है, कोई किसी को धोखा दे देता है। यहां तक कि देवता आ कर जमीन पर दूसरों की पत्नियों के साथ संभोग कर जाते हैं; ऋषि—मुनियों की पत्नियों को दगा दे जाते हैं। वे बेचारे ध्यान इत्यादि कर रहे हैं, अपनी माला जप रहे हैं। इन पर तो दया करो! इनका तो कुछ खयाल करो। मगर नहीं, कोई इसकी चिंता नहीं है।

तुम अपने पुराण पढ़ो तो तुम पाओगे तुमसे भिन्न तुम्हारे देवता नहीं हैं। तुम्हारा ही विस्तार हैं। तुम्हीं को जैसे और बड़े रूप में पैदा किया गया हो। तुम्हारी जितनी वृत्तियां हैं, सब मौजूद हैं। कोई वृत्ति कम नहीं हो गई है। धन के लिए लोलुप हैं, पद के लिए लोलुप हैं, वासनाओं से भरे है—अब और क्या चाहिए! और क्या फर्क होने वाला है!

तो अगर तुम डर कर ही भाग रहे हो तो मैं कहता हूं तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। तुम यहां भी चूकोगे, वहा भी चूकोगे। डर कर भागने को मैं नहीं कहता। मैं तो तुमसे कहता हूं : रिश्वत में दुख है। फर्क समझ लेना। नरक मिलेगा, ऐसा नहीं—नरक मिलता है अभी, यहीं। चोरी में दुख है। मैं यह नहीं कहता कि चोरी के फल में दुख मिलेगा। चोरी में दुख है। वह चोर हो जाने में ही पीड़ा है, आत्मग्लानि है, कष्ट है, अग्नि है। कहीं कढ़ाए कोई जल रहे हैं, जिनमें तुम्हें फेंका जायेगा—ऐसा नहीं। चोरी करने में ही तुम अपना कढ़ाहा खुद जला लेते हो। अपनी ही चोरी की आग में खुद जलते हो। झूठ बोलते हो, तुम्हीं पीड़ा पाते हो।

तुमने खयाल नहीं किया कि जब सत्य बोलते हो तो फूल जैसे खिल जाते हो! जब झूठ बोलते हो तो कैसी कालकोठरी में बंद हो जाते हो! एक झूठ बोलो तो दस बोलने पड़ते हैं। फिर एक को बचाने के लिए दूसरा, दूसरे को बचाने के लिए तीसरा—एक सिलसिला है, जिसका फिर कोई अंत नहीं होता।

सच के साथ एक मजा है। सत्य बांझ है, उसकी संतति नहीं होती। सत्य पहले से ही बर्थकंट्रोल कर रहा है। एक दफा बोल दिया, मामला खत्म। उनकी कोई पैदाइश नहीं है कि फिर उनके बच्चे और उनके बच्चे! झूठ बिलकुल हिंदुस्तानी है, लाइन लगा देता है बच्चों की! और बाप पैदा कर रहा है और उनके बेटे भी पैदा करने लगते हैं और उनके बेटे भी पैदा करने लगते हैं—और एक संयुक्त परिवार है झूठ का, उसमें काफी लोग रहते हैं। और एक झूठ दूसरे झूठ को ले आता है। तुम जब झूठ से घिरते हो तो निकलना मुश्किल हो जाता है।

तुम खयाल करना, देखना, एक झूठ दूसरे में ले जाता है। और पहला झूठ छोटा होता है, दूसरा और बड़ा चाहिए; क्योंकि बचाने के लिए बड़ा झूठ चाहिए। फिर झूठ बड़ा होता जाता है। तुम दबते जाते हो झूठ के पहाड़ के नीचे। तुम सड़ने लगते हो।

तुम क्रोध करके देखो। जब तुम प्रेम करते हो तब तुम्हारे भीतर एक सुवास उठती है, एक संगीत! कोई पायल बज उठती है! क्षण भर को तुम स्वर्ग में होते हो। जब तुम क्रोध करते हो, तुम नर्क में गिर जाते हो।

मैं तुमसे कहता हूं कि स्वर्ग और नर्क कहीं भौगोलिक अवस्थाएं नहीं हैं। स्वर्ग और नर्क तुम्हारे चित्त की दशायें हैं। प्रतिक्षण तुम स्वर्ग और नर्क के बीच डोलते हो, जैसे घड़ी का पेंडुलम डोलता है। मैं कहता हूं साक्षी बनो, भगोड़े नहीं। भगोड़े में तो लोभ, मोह, भय। भगोड़ा यानी भय से जो भागा। साक्षी का मतलब है : जो बोध में जागा। तुम जाग कर देखो। फिर जो जाग कर देखने में सुंदर, सत्य, शिवम, जो प्रीतिकर, आह्लादकारी, रसपूर्ण लगे—स्वभावत: तुम उसे भोगोगे। और जो काटा चुभाये, दुख लाये, नर्क लाये, स्वभावत: तुम्हारे हाथ से गिरने लगेगा।

तुम पूछते हो कि ‘आप कहते हैं भागो मत, जागो। साक्षी बनो। लेकिन नौकरी के बीच रिश्वत से और रिश्तेदारों के बीच मांस—मदिरा से भागने का मन होता है।’

भागने से क्या होगा? रिश्तेदार तुम्हारे हैं। तुम दूसरी जगह जा कर रिश्तेदार खोज लोगे। जाओगे कहां? तुम सोचते हो, तुम्हारे गांव में ही शराबी हैं! जिस गांव में जाओगे वहां शराबी हैं। एक नौकरी छोड़ोगे, दूसरी नौकरी पर जाओगे, वहां रिश्वत चल रही है। तुम भागोगे कहां? भागने से कुछ भी न होगा। जागो! कौन तुम्हें जबर्दस्ती शराब पिला रहा है? तुम जाग जाओ, तुम पीयोगे नहीं। तुम कभी नहीं कहते कि फलां आदमी नहीं माना, इसलिए जहर पी लिया। कि नहीं, वह बहुत आग्रह कर रहा था, इसलिए पी लिया। तुम जहर को जानते हो तो पीते नहीं। कोई कितने ही आग्रह करे, कोई कितनी ही खुशामद करे, तुम कहोगे : ‘बंद करो बकवास! यह भी कोई बात हुई! जहर!’ शराब अगर तुम्हें जागरण में जहर दिखाई पड़ गई तो कौन पीता है, कौन पिलाता है? शायद तुम्हारी मौजूदगी दूसरों के पीने में भी बाधा बन जाये। कोई तुम्हें पिला नहीं सकता। कोई उपाय नहीं है।

इस जगत में तुम जो हो, दूसरों पर जिम्मेदारी मत डालो। वह तरकीब है बचने की. ‘क्या करें, रिश्तेदार मांस—मदिरा खाते हैं।’ नहीं, तुम खाना चाहते हो, रिश्तेदारों पर टाल रहे हो। तुम जागना नहीं चाहते; तुम कहते हो, मजबूरी है, करना पड़ता है!

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं. इस दुनिया में कोई चीज तुम मजबूरी से नहीं कर रहे हो। तुम करना चाहते हो, इसलिए कर रहे हो। मजबूरी तो तरकीब है। वह तो तुम्हारा रैशनालाइजेशन है। वह तो तुम कहते हो : ‘ऐसी स्थिति है, नहीं करेंगे तो कैसे चलेगा!’ न चले, क्या करेंगे रिश्तेदार? तुम्हें निमंत्रण पर नहीं बुलायेंगे। अच्छा है। तुम सौभाग्यशाली! धन्यवाद दे देना कि बड़ी कृपा आपकी कि अब नहीं बुलाते।

रिश्वत न लोगे— थोड़ी गरीबी होगी, थोड़ी मुश्किल होगी—ठीक है। मैं तुमसे कह भी नहीं रहा कि तुम ईमानदार रहोगे तो छप्पर खोल कर परमात्मा तुम्हारे घर में धन बरसा देगा। और जो तुमसे ऐसा कहते हैं वे झूठे हैं। और वे तुम्हें धोखा देते हैं। और उनके कारण दुनिया में बड़ी बेईमानी है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं. ‘हम ईमानदार हैं, लेकिन बेईमान मजा कर रहे हैं!’ मैंने कहा : तुमसे कहा किसने कि ईमानदार मजा करेंगे? जिन्होंने कहा, उन्होंने तुम्हें धोखा दे दिया। वह मजे की बात ही तो बेईमान बनने का सूत्र है। बेईमान मजे कर रहे हैं! और तुम ईमानदार हो, तुम मजा नहीं कर रहे! मजा क्या है?

वे कहते हैं ‘बेईमानों ने बड़ा मकान बना लिया।’ तो अगर बड़ा मकान बनाना है तो तुम बड़ा उपाय कर रहे हो। तुम बेईमानी की तकलीफ भी नहीं भोगना चाहते और बड़ा मकान भी बनाना चाहते हो —ईमानदार रह कर! ईमानदार हो तो मकान छोटा ही रहेगा।

लेकिन छोटे मकान के भी सुख हैं! बड़े मकान में ही सुख होते, यह तुमसे कहा किसने? तुमने बड़े मकान में रहते आदमी को सुखी देखा है? मुश्किल से देखोगे। बहुत धन में सुख होता है, ऐसा तुमसे कहा किसने? बड़े से बड़े सम्राट को सुख की नींद आती है? बड़े से बड़े धनी को शाति है? चैन है? नहीं, लेकिन तुम बाहर का रख—रखाव देखते हो। तुम्हारा दिल भी तो इन्हीं चीजों पर है कि ‘मकान तो हमारे पास भी बड़ा हो, कार हमारे पास भी बड़ी हो, धन का अंबार लगे—और लग जाये ईमानदारी से और रिश्वत लेना न पड़े! और हम अपनी माला जपते, ध्यान भी करते रहें और ये सब चीजें भी साथ आ जायें!’ तुम असंभव की मांग कर रहे हो। तो फिर बेईमान के साथ अन्याय हो जायेगा। बेचारा बेईमानी भी करे, बेईमानी की तकलीफ भी भोगे, बेईमानी का नरक भी झेले और बड़ा मकान भी न बना पाये! तुम ईमानदारी का भी मजा लो और बड़े मकान का भी—दोनों हाथ लट्टू! एक हाथ उसको भी लेने दो। वह काफी तकलीफ झेल रहा है। और जितनी तकलीफ झेल रहा है उतना उसको मिल नहीं रहा है, इतना मैं तुमसे कहे देता हूं। जो मिल रहा है वह कूड़ा—कर्कट है; तकलीफ वह बहुत बड़ी झेल रहा है; आत्मा बेच रहा है और कचरा इकट्ठा कर रहा है।

लेकिन तुम्हारी नजर भी कचरे पर लगी है। तुम कहते हो, ‘देखो, उसके पास कचरे का कितना ढेर लग गया है! हमारे पास बिलकुल नहीं है। यहां कोई कचरा डालता ही नहीं है! हम बैठे रहते हैं सड़क के किनारे, यहां कोई कचरा डालता नहीं। बेईमानों के पास लोग कचरा डाल रहे हैं।’

नहीं, तुम्हारी नजर खराब है। तुम बेईमान हो। और कायर हो! तुम बेईमानी की हिम्मत भी नहीं करना चाहते और तुम, बेईमान को जो मिलता है बेईमानी से, वह भी पाना चाहते हो। तुम बिना दौड़े प्रतियोगिता में प्रथम आना चाहते हो। तुम कहते हो. ‘देखो, हम तो बैठे हैं, फिर भी प्रथम नहीं आ रहे! और ये लोग दौड़ रहे हैं और प्रथम आ रहे हैं!’ तो जो दौड़ेंगे, वे प्रथम आयेंगे, लेकिन दौड़ने की तकलीफ, दौड़ने की परेशानी, दौड़ने का पसीना, जद्दोजहद—वे झेलते हैं। तुम बैठे—बैठे प्रथम आना चाहते हो। तुम चाहते हो कि परमात्मा कोई चमत्कार करे। क्यों? क्योंकि तुमने रिश्वत नहीं ली है। रिश्वत लेना पाप हो, न लेना कोई पुण्य नहीं है। चोरी करना पाप हो, न करना कोई पुण्य नहीं है। इसको खयाल में रखो। इतने से कुछ नहीं होगा कि तुमने चोरी नहीं की। चोरी नहीं की तो ठीक है, तुम चोरी करने की तकलीफ से बच गये। और चोरी करने की तकलीफ से जो थोड़े —बहुत सुख का प्रलोभन मिलता है, आशा बंधती है, उससे भी तुम बच गये। तुम झंझट के बाहर रहे। बस इतना क्या कम है पु इतना फल क्या थोड़ा है?

मैं जब तुमसे कहता हूं जागो, तो मेरा मतलब यह है कि तुम जीवन की सारी स्थिति को आंख भर कर देखो। फिर उस देखने से ही क्रांति घटनी शुरू होती है। तुम देखते हो कि जो व्यर्थ है वह दुख देता है। अभी देता है, यहीं देता है, तत्‍क्षण देता है। धीरे— धीरे उस दुख से तुम्हारा छुटकारा होने लगता है। और जब तुम्हारे जीवन के सारे दुख खो जाते हैं तो सुख का सितार बजता है। सुख का सितार तो तुम्हारे भीतर बज ही रहा है। ये जो दुख के नगाड़े तुम बजा रहे हो, इनकी वजह से सितार सुनाई नहीं पड़ता; उसकी आवाज धीमी, बारीक है। सूक्ष्म रस तो बह ही रहा है, लेकिन तुम्हारे आसपास दुख के इत्ने परनाले बह रहे हैं, ऐसी बाढ़ आई है दुख की, कि वह जो रस की क्षीण धार है उसका पता नहीं चलता। वह जो एक किरण है परमात्मा की तुम्हारे भीतर, तुम्हारे कृत्य के अंधकार में खो गई है; तुम्हारे अहंकार की अंधेरी रात में दब गई है।

तुम जरा जागो तो तुम्हारे जीवन में क्रांति अपने— आप आ जायेगी। रिश्तेदार न छोड़ने पडेंगे और न नौकरी से भागना पड़ेगा। यह तो मैं पहली बात कहता हूं। लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारे जीवन में रूपांतरण न होगा। हो सकता है, साक्षी— भाव में जागने पर ऐसी स्थिति आ जाये कि तुम्हारा सारा प्राणपण से जंगल जाने का भाव उठे। वह भगोड़ापन नहीं है फिर।

मैं कहता हूं : सब भगोड़े जंगल पहुंच जाते हैं, लेकिन सब जंगल पहुंचने वाले भगोड़े नहीं हैं। कभी—कभी तो कोई सहज स्वभाव से जंगल जाता है। एक सहज आकांक्षा, कोई भगोड़ापन नहीं है।

जिंदगी से ऊब कर नहीं, डर कर नहीं, किसी पुण्य पुरस्कार के लिए नहीं—जंगल का आवाहन! वह जंगल की हरियाली किसी को बुलाती है! जंगल का रस किसी को खींचता है।

‘कृष्ण मोहम्मद’ यहां पीछे बैठे हैं। वे मिलानो में थे, बड़ी नौकरी पर थे, छोड़ कर आ गये। भगोड़े नहीं हैं, जीवन से भागे नहीं हैं। तो जब यहां आये तो जंगल जा रहे थे, इरादा था कि कहीं पंचगनी में दूर जा कर कुटी बना कर बैठ जायेंगे। इधर बीच में उन्हें मैं मिल गया तो मैंने कहा. ‘कहां जाते हो?’ तो वे राजी हो गये। भगोड़े होते तो राजी न होते। उन्होंने कहा. ‘ठीक है, आप आज्ञा देते हैं तो यहीं रह जाऊंगा।’ भगोड़े में तो जिद्द होती है। शांति की तलाश थी। मैंने कहा. ‘पंचगनी पर क्या होगा? मैं यहां मौजूद हूं इससे बड़ा पहाड़ तुम्हें मिलना मुश्किल है! तुम यहीं रुक जाओ! तुम्हारी कुटिया यहीं बना लो।’ एक बार भी ‘ना’ न कहा।’ही’ भर दी कि ठीक, यहीं रुक जाते हैं। भागे नहीं हैं, लेकिन शांति की तरफ एक बुलावा आ गया है, एक निमंत्रण आ गया है—शात होना है!

तो मैं यह नहीं कहता कि तुम अगर शात हो जाओ, साक्षी बन जाओ, आनंद से भर जाओ तो जरूरी नहीं कह रहा हूं कि तुम रहोगे ही घर में। हो सकता है तुम चले जाओ; लेकिन उस जाने का गुणधर्म अलग होगा। तब तुम कहीं भाग नहीं रहे हो, कहीं जा रहे हो। फर्क समझ लो। भगोड़ा कहीं से भागता है। उसकी नजर, कहां जा रहा है, इस पर नहीं होती; कहां से जा रहा है, इस पर होती है। घर, परिवार, पत्नी, बच्चे—यह भगोड़ा है। लेकिन अगर तुम साक्षी हो तो कभी हिमालय की पुकार आती है। तब तुम हिमालय की तरफ जा रहे हो। तब एक अदम्य पुकार है, जिसे रोकना असंभव है। तब कोई खींचे लिए जा रहा है, तुम भाग नहीं रहे, कोई खींचे लिए जा रहा है। कोई सेतु जुड़ गया है। पुकार आ गई। स्वभाव से अगर तुम जाओ तो सौभाग्यशाली हो। भाग कर गये तो दुख पाओगे।

मैं तुमसे कहता हूं : अगर तुम कभी भाग जाओ और जंगल में बैठ जाओ झाडू के नीचे, तुम रास्ता देखोगे कि कोई आता ही नहीं। रिश्वत का रास्ता नहीं देखोगे; अब रास्ता देखोगे कि कोई भक्त आ जाये, पैर पर कुछ चढ़ा जाये। वह मतलब वही है। चढ़ौतरी कहो कि रिश्वत कहो। राह देखोगे कि कोई भक्त आ जाये, कोई मित्र आ जाये, कोई शिष्य बन जाये तो छप्पर डाल दे। अब वर्षा करीब आ रही है, अब यहां झाडू के नीचे कैसे बैठेंगे। तुम यही सब चिंता—फिक्र में रहोगे। और देर न लगेगी, कोई न कोई बोतल लिए आ जायेगा। क्योंकि जो मांगो इस जगत में, मिल जाता है। यही तो मुश्किल है। एक दिन तुम देखोगे चले आ रहे हैं कोई बोतल लिए, क्योंकि शराब—बंदी हुई जा रही है तो जिनको भी बोतलें भरनी हैं वे भी जंगल की तरफ जा रहे हैं। वहीं जंगल में बनेगी अब शराब। अब तुम कहोगे, यह भी बड़ी मुसीबत हो गई, अब ये आ गये एक सज्जन ले कर बोतल, अब न पीयो तो भी नहीं बनता, शिष्टाचारवश पीनी पड़ती है! साधु—संन्यासी आ जायेंगे गांजा— भांग लिए, तुम वह पीने लगोगे। अब साधु कहे तो इनकार भी तो करते नहीं बनता। और कोई हो तो इनकार भी कर दो; अब साधु ने चिलम ही भर कर रख दी, अब वह कहता है ‘ अब एक कश तो लगा ही लो! और बड़ा आनंद आता है। यह तो ब्रह्मानंद है! और भगवान ने ये चीजें बनाईं क्यों? और फिर शिव जी से ले कर अब तक सभी भक्त इनका उपयोग करते रहे हैं। तुम क्या शिव जी से भी अपने को बड़ा समझ रहे हो?’ तो मन हो जाता है।

तुम भाग कर न भाग सकोगे—जागोगे तो ही..। जाग कर अगर न गये तो भी गये, गये तो

भी ठीक, न गये तो भी ठीक। मगर तब जीवन में एक सहज स्फुरणा होती है।

और मैं तुमसे कहता हूं : अगर तुम जागे रहो तो कालिख से भरी कोठरी से भी निकल जाओगे और कालिख तुम्हें न लगेगी। क्योंकि कालिख शरीर को ही लग सकती है और शरीर तुम नहीं हो, वस्त्रों को लग सकती है, वस्त्र तुम नहीं हो। तुम तो कुछ ऐसे हो जिस पर कालिख लग ही नहीं सकती। तुम्हारा तो स्वभाव ही निर्दोष है। तुम तो सदा से शुद्ध—बुद्ध चिन्मय—मात्र, चैतन्यरूप निराकार हो!

कूटस्थ रहने से कुछ नहीं बनेगा, न तटस्थ रहने से

समष्टि को जीने से, सहने से, जीता है आदमी

अकेला तो सूरज भी नहीं है

उससे ज्यादा अकेलापन तुम चाहोगे?

मृत्यु तक तटस्थता निभाओगे?

सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो

घाट से हाट तक,

हाट से घाट तक

आओ —जाओ

तूफान के बीच गाओ

मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर

तटस्थ हो या कूटस्थ हो, इससे फर्क नहीं पड़ता।

सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो

घाट से हाट तक,

हाट से घाट तक

आओ—जाओ

तूफान के बीच गाओ

मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर!

परमात्मा इतने गीत गा रहा है, तुम भी सम्मिलित होओ। यह परमात्मा का उत्सव जो चल रहा जगत में, यह जो सृष्टि का महायान चल रहा है, यह महोत्सव जो चल रहा है—इसमें तुम दूर—दूर मत खड़े रहो, नाचो, गुनगुनाओ, भागीदार बनो! और भागीदार बन कर भी द्रष्टा बने रहो, यही मेरी शिक्षा है। क्योंकि द्रष्टा में कुछ भेद नहीं पड़ता है। तुम किनारे पर बैठ कर ही द्रष्टा बनोगे तो यह द्रष्टा बड़ा कमजोर हुआ। नदी की धार में और तूफान से खेलते हुए द्रष्टा बनने में क्या अड़चन है? द्रष्टा ही बनना है न—पहाडू पर बनोगे, बाजार में नहीं बन सकते? जब द्रष्टा ही बनना है तो बाजार का भय कैसा? देखना ही है और इतना ही जानना है कि मैं देखने वाला हूं तो तुम पहाड़ देखो कि वृक्ष देखो कि नदी—झरने देखो कि लोग देखो, दूकानें देखो—क्या फर्क पड़ता है? द्रष्टा तो द्रष्टा है, कुछ भी देखे। और जो भी तुम देखो, अगर जानते रहो सपना है—तो फिर क्या अड़चन है?

ऐसा हुआ, रमण महर्षि को अरुणाचल की पहाड़ी से बड़ा लगाव था। वे दिन में कई दफा उठ—उठ कर चले जाते थे पहाड़ी पर। कई दफा! नाश्ता किया और गये! भोजन किया और गये! सो कर उठे

और गये। बीच में सत्संग चल रहा और वे कहेंगे, बस! गये पहाड़ी पर! दिन में कई दफा चले जाते थे। फिर भी पहाड़ी तो बड़ी थी, तो पूरी पहाड़ी पर कई हिस्से थे जहां तक नहीं पहुंच पाते थे।

तो एक दिन अपने भक्तों को कहा कि ‘कल तो मैं उपवास करूंगा ताकि लौटना न पड़े। कैल तो दिन भर भूखा रहूंगा और सांझ तक खोज करूंगा, कई जगह खाली रह गई हैं जहां मैं नहीं पहुंचा इस पहाड़ी पर। दूर से कहीं कोई झरना दिखाई पड़ता है, उसके पास नहीं जा पाया। तो कल तो मैं भोजन नहीं करूंगा।’

तो भक्तों ने कहा. ‘यह बड़ी झंझट की बात है।’ तो रात को खूब उनको भोजन करवा दिया, खूब करवा दिया! उन्होंने बहुत रोका कि भई, बस अब रुको; कल मुझे पहाड़ पर जाना है और तुम इतना करवाये दे रहे हो कि चलना मुश्किल हो जायेगा। लेकिन भक्त न माने, तो उन्होंने कर लिया। साक्षी— भाव वाले आदमी की ऐसी दशा है। ठीक, पहले इनकार करते हैं, फिर कोई नहीं मानता तो वे कहते हैं, चलो ठीक। सुबह उठ कर गये तो एक भक्त को मन में भाव रहा कि ये जा तो रहे हैं, लेकिन दिन भर भूखे रहेंगे, तो वह कुछ नाश्ता बना कर दूर जरा रास्ते के बैठ गया था। सुबह जब ब्रह्ममुहूर्त में वे वहा से जाने लगे तो उसने पैर पकड़ लिए। उसने कहा कि नाश्ता ले आया हूं। उन्होंने कहा. ‘हद हो गई! अरे, मुझे घूमने जाना है, अब तुम देर करवा दोगे!’ तो उसने कहा कि जल्दी से कर लें आप! वे नाश्ता करके चले कि थोड़ी दूर पहुंचे थे कि पांच—सात स्त्रियां चली आ रही हैं। वे कहें कि ये रहे हमारे स्वामी। उन्होंने कहा. ‘क्या मामला?’ उन्होंने कहा. ‘हम भोजन बना कर ले आये।’ उन्होंने कहा : ‘यह तो हद हो गई! अब इनको दुखी करना भी ठीक नहीं, ये न मालूम कितनी रात से आ कर यहां बैठी हैं!’ भोजन कर लिया। स्त्रियों ने कहा : ‘आप घबराना मत। हम दोपहर में फिर आयेंगे, दोपहर का भोजन ले कर।’ उन्होंने कहा. ‘तुम आना मत, क्योंकि मैं दूर निकल जाऊंगा। तुम खोज न पाओगे।’ उन्होंने कहा. ‘ आप फिक्र न करो। एक स्त्री आपके पीछे लगी रहेगी।’ वह एक स्त्री पीछे लगी रही। उन्होंने कहा. ‘यह भी मुसीबत हुई!’ और दोपहर को वे आ गईं खोज—खाज कर, उनको फिर भोजन करवा दिया। अब तो उनकी ऐसी हालत हो गई कि लौटें कैसे!

लौट कर किसी तरह आये। वहां तक भी न पहुंच पाये जहां रोज पहुंच जाते थे। किसी तरह लौट कर आये तो भक्तों ने खूब भोजन तैयार कर रखा था कि लौट कर प्रभु आयेंगे। तो उन्होंने कहा : ‘कसम खाई अब कभी उपवास न करूंगा। यह तो बड़ा.. उपवास तो बड़ा महंगा पड़ गया!’ फिर कहते हैं, रमण ने कभी उपवास नहीं किया। उन्होंने कहा : ‘कसम खा ली, यह उपवास बड़ा महंगा है। इससे तो हम जो रोज भोजन करते रहते थे, वही ठीक था।’

एक साक्षी की दशा है. जो होता है होता है। उपवास किया तो भी जिद्द नहीं है। तुमने अगर उपवास किया होता तो तुम कहते : ‘क्या समझा है तुमने? मेरा उपवास तोड्ने आये! ये मालूम होती हैं, स्त्रियां नहीं हैं, इंद्र की भेजी अप्सरायें हैं। तुम अकड़ कर खड़े हो गये होते, शीर्षासन लगा लिया होता, आंख बंद कर ली होती कि छूना मत मुझे, दूर रहना, उपवास किया है! यह भ्रष्ट करने का उपाय है! लेकिन रमण ने कहा. बेचारी स्त्रियां हैं, इतनी रात आई हैं, अब चलो ठीक है।

एक साक्षी की दशा है, जो देखता चला जाता है। रमण के हाथ में कैंसर हो गया। जो आश्रम का डाक्टर था, कुछ बहुत समझदार नहीं था। आश्रम के ही डाक्टर! उसने उनको बाथरूम में ले जा कर आपरेशन ही कर दिया। उन्होंने कहा भी कि भई तू कुछ खोज—खबर तो कर ले, कि मामला क्या है! उसने कहा. ‘कुछ नहीं, जरा—सी गांठ है।’ उसने भी सोचा नहीं कि कैंसर होगा कि कुछ होगा। गांठ ऊपर—ऊपर थी, उसने निकाल दी, लेकिन फिर और बड़ी गांठ पैदा हो गई। सैप्टिक हुआ अलग, बड़ी गांठ हो गई अलग। फिर गांव के—और वह गांव भी छोटा—मोटा—गांव के डाक्टर ने आ कर आपरेशन कर दिया। फिर मद्रास के डाक्टर आये, ऐसे धीरे— धीरे… कलकत्ते के डाक्टर आये। आपरेशन साल भर चले। कोई चार—पांच दफा आपरेशन हुए। और वे बार—बार कहते कि तुम प्रकृति को अपनी प्रक्रिया पूरी करने दो, तुम क्यों पीछे पड़े हो? मगर उनकी कौन सुनता! उनसे लोग कहते : ‘तुम चुप रही! भगवान, तुम चुप रहो! तुम बीच में न बोलो। ये डाक्टर जानते हैं।’ वे कहते, ठीक है। साल भर में उनको करीब—करीब मार डाला। साल भर के बाद जब डाक्टर थक गये और उन्होंने कहा, हमारे किए कुछ न होगा। तो रमण हंसने लगे। उन्होंने कहा. मैं तुमसे पहले कहता था, तुम नाहक परेशान हो रहे हो। जो होना है होने दो। अब साल भर के बाद इतने आपरेशन करके मेरे मुझे बिस्तर पर भी लगा दिया, सब तरफ से काटपीट भी कर दी—अब तुम कहते हो, हमारे किए कुछ भी न होगा! मैं तुमसे तभी कहता था, आदमी के किए कहीं कुछ होता है! जो होता है होता है। होने दो!

मरने के क्षण भर पहले किसी ने पूछा कि आप फिर लौटेंगे? तो रमण ने कहा. ‘जाऊंगा कहां? आया कब? तो जाऊंगा कैसे? और फिर आने की बात उठा रहे हो! और जिंदगी भर मैंने तुम्हें यही समझाया कि न आत्मा आती और न आत्मा जाती।’

साक्षी— भाव में किसी कृत्य का कोई मूल्य नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि साक्षी— भाव में कोई शराब भी पी ले तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम पीना, मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि आत्यंतिक अर्थों में शराब भी कोई पी ले साक्षी— भाव में तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन साक्षी— भाव पर ध्यान रखना। नहीं तो तुम सोचो, चलो ठीक, हम तो साक्षी हो गये, पी लें शराब! पीने की जब तक कामना रहे तब तक तुम साक्षी नहीं हुए। साक्षी का इतना ही अर्थ होता है : जो होता है, उसे हम होने देते हैं और देखते हैं। हम देखने वाले हैं, कर्ता नहीं हैं। भगोडा कर्ता हो जाता है।

चांदनी फैली गगन में, चाह मन में

दिवस में सबके लिए बस एक जग है

रात में हरेक की दुनिया अलग है

कल्पना करने लगी अब राह मन में

चांदनी फैली गगन में, चाह मन में

मैं बताऊं शक्ति है कितनी पगों में

मैं बताऊं नाप क्या सकता डगों में

पंथ में कुछ ध्येय मेरे तुम धरो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

चीर वन घन भेद मरु जलहीन आऊं

सात सागर सामने हों, तैर जाऊं

तुम तनिक संकेत नयनों से करो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

राह अपनी मैं स्वयं पहच्चान लूंगा

लालिमा उठती किधर से, ज्यान लूंगा

कालिमा मेरे दृगों की तुम हरी तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरी तो!

थोड़ी—सी आंख की कालिख हट जाये तो तुम साक्षी दो गये।

तुम तनिक संकेत नयनों से करो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

प्रभु की जरा प्रतीक्षा शुरू हो जाये तो तुम साक्षी हो गये।

जब तक तुम वासना कर रहे हो वस्तुओं की, तब तक कर्ता रहोगे। जब तुम प्रभु की प्रतीक्षा करने लगोगे, वस्तुओं की कामना नहीं, तब तुम साक्षी होने लगोगे। आंख में जरा प्रतीक्षा आ जाये तो तुम शांत होने लगोगे।

कालिमा मेरे दृगों की तुम हरो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

जरा—सी आंख की कालिख अलग करनी है! कर्ता से मत उलझो। दृष्टि को सुधार लो, साफ कर लो।

ऐसा ही समझो कि तुम्हारे आंख में एक किरकिरी पड गई है, जरा—सा तिनका पड़ गया है। और उसके कारण कुछ दिखाई नहीं पड़ता। किरकिरी अलग हो जाये आंख से, दृष्टि फिर साफ हो जाती है, सब दिखाई पड़ने लगता है। हिमालय जैसी बड़ी चीज भी आंख में जरा—सा रेत का कण पड़ जाये तो हिमालय भी छिप जाता है। रेत का कण हिमालय को छिपा लेता है। रेत का कण हट जाये, हिमालय फिर प्रगट हो गया।

विराट को छिपा लिया है जरा—सी बात ने कि तुम साक्षी नहीं रह गये। इसे तुम जगाना शुरू करो। जैसे—जैसे तुम जागोगे, तुम्हारे भीतर सब मौजूद है, सब प्ले कर ही आये हो, उसका स्वाद फैलने लगेगा। तुम्हें कुछ पाना नहीं है।

अष्टावक्र का परम सूत्र यही है कि तुम जैसे हो ऐसे ही परिपूर्ण हो। जैसे तुम यहां बैठे हो इस क्षण, परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है, अपनी परिपूर्ण लीलाओं में मौजूद है।

श्री रमण को किसी ने पूछा कि क्या आप दावा करते हैं कि अवतार हैं? तो श्री रमण ने कहा. ‘अवतार तो आशिक होता है, ज्ञानी पूर्ण होता है। अवतार का तो मतलब थोड़ा —सा परमात्मा उतरा! ज्ञानी तो पूरा परमात्मा होता है। क्योंकि ज्ञानी जानता है परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी नहीं है।’

पूछने वाला तो शायद यही पूछने आया था कि शायद रमण दावा करें कि मैं अवतार हूं। वह तो विवाद करने आया था, पंडित था! और रमण ने कहा : ‘अवतार! छोटी—मोटी बात क्या उठानी! अवतार नहीं हूं? पूर्ण ही हूं!’

मैं तुमसे कहता हूं. तुम भी पूर्ण हो। प्रत्येक पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण ही पैदा होता है। हम परमात्मा

से पैदा हुए हैं, अपूर्ण हो भी कैसे सकते हैं!

उपनिषद कहते हैं : पूर्ण से पूर्ण को निकाल लो, फिर भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। पूर्ण को पूर्ण में डाल दो, फिर भी पूर्ण उतना का ही उतना है।

हम सब पूर्ण हैं और पूर्ण से ही निकले हैं—और निकल कर भी पूर्ण हैं। इस बोध के अनुभव का नाम ब्रह्मज्ञान, बुद्धत्व, कैवल्य या जो तुम चाहो।

पर ध्यान रखना, लड़ने—झगड़ने में मत उलझ जाना। यह छोड़ना, यह त्यागना, इससे भागना, इससे बचना.. तुम मरोगे, फांसी लग जायेगी! फिर तो जीवन में बहुत झंझटें हैं। फिर झंझटें बहुत विराट हो जायेंगी। इधर से छूटोगे, उधर फंसा पाओगे। उधर से छूटोगे, इधर फंसा पाओगे। तुम तो जहां खड़े हो, एक ही बात कर लो, शाति से देखने लगो जो हो रहा है। बच्चे, पत्नी, मित्र, प्रियजन, कामधाम, दूकान, बाजार, सबके बीच तुम शात होने लगो और देखते रहो। जो होता है होने दो। जैसा होता है वैसा ही होने दो। अन्यथा की मांग न करो। प्रभु जो दिखाये देखो। प्रभु जो कराये करो।

अष्टावक्र कहते हैं. धन्यभागी है वह, जो इस भांति सब छोड़ कर समर्पित हो जाता है। छोटी—छोटी चीजों से शुरू करो। बड़ी—बड़ी चीजों को शुरू मत करना। मन बड़ा उपद्रवी है। मन कहता है. बड़ी चीज पर प्रयोग करो। मैं कहता हूं. साक्षी बनो। तुम कहते हो. अच्छा चलो, साक्षी बनेंगे—कामवासना के साक्षी बनेंगे। अब तू_मने एक बड़ी झंझट उठा ली शुरू से। यह तो ऐसा हुआ कि जैसे पहाड़ चढ़ने गये तो सीधे एवरेस्ट पर चढ़ने पहुंच गये। थोड़ा पहाड़ चढ़ने का अभ्यास पूना की पहाड़ियों पर करो। फिर धीरे— धीरे जाना। एवरेस्ट भी चढ़ा जाता है, आदमी चढ़ा तो तुम भी चढ़ सकोगे। जहां आदमी पहुंचा वहा तुम भी पहुंच सकोगे। एक पहुंच गया तो सारी मनुष्यता पहुंच गई। इसलिए तुमने देखा, जब एडमंड हिलेरी पहुंच गया एवरेस्ट पर तो सारी दुनिया प्रसन्न हुई। प्रसन्नता का कारण? तुम तो नहीं पहुंचे। तुम तो जहां थे वहीं के वहीं थे। लेकिन जब एक मनुष्य पहुंच गया तो भीतर सारी मनुष्यता पहुंच गई। इसलिए तो जब कोई बुद्ध हो जाता है तो जिनके पास भी आंखें हैं वे आह्लादित हो जाते हैं—नहीं कि वे पहुंच गये, मगर एक पहुंच गया तो हम भी पहुंच सकते हैं, इसका भरोसा हो गया। अब बात कल्पना की न रही, सपना न रही—सत्य हो गई।

छोटी—छोटी चीजों से शुरू करना। राह पर चलते हो, साक्षी बन जाओ चलने के। इसमें कुछ बड़ा दाव नहीं है। कोई झंझट भी नहीं है। घूमने गए हो सुबह, साक्षी— भाव से घूमो। शरीर चलता है, ऐसा देखो। तुम देखते हो, ऐसा देखो। भोजन कर रहे हो, साक्षी बन जाओ। बिस्तर पर पड़े हो, अब इसमें तो कुछ अड़चन नहीं है, कोई झंझट नहीं है। आंख बंद करके तकिये पर पड़े हो, नींद नहीं आ रही, साक्षी बन जाओ। पड़े रहो, देखते रहो जो हो रहा है। बाहर राह पर आवाज होती है, कार गुजरती है, हवाई जहाज निकलता है, बच्चा रोता है—कुछ हो रहा है, होने दो; तुम सिर्फ साक्षी बने रहो। ऐसी छोटी—छोटी पहाड़ियां चढ़ो। फिर धीरे — धीरे बड़ी पहाड़ियों पर प्रयोग करना। जैसे—जैसे हाथ में बल आता जायेगा, तुम पाओगे, फिर क्रोध, लोभ, मोह, माया, काम, सब पर प्रयोग हो जायेगा। लेकिन मैं देखता हूं लोग क्या करते हैं। उल्टा ही करते हैं। साक्षी की बात मैंने कही। वे जा कर एकदम बड़े पहाड़ से जूझ जाते हैं। हारते हैं! हारते हैं तो फिर साक्षी का भाव उठा कर रख देते हैं। कहते हैं, यह अपने बस का नहीं! यह तुम्हारे मन ने तुम्हें धोखा दे दिया। मन तुमसे हमेशा कहता है:

‘लड़ जाओ जा कर दारासिह से।’ कुछ थोड़ा अभ्यास करो। नाहक हाथ—पैर तुड़वाने में कुछ सार नहीं। और सीधे दारासिह से लड़ गये जा कर तो फिर लड़ने की बात ही छोड़ दोगे जिंदगी भर के लिए। फिर कहोगे, यह बड़ा झंझट का है, इसमें हाथ—पैर टूट जाते हैं और मुसीबत होती है। हड्डी—पसली टूट गई, फ्रैक्चर हो गया—अब यह करना ही नहीं। मन तुमसे कहता है. एकदम कर लो बड़ा! मन बड़ा लोभी है। वह कहता है : अच्छा साक्षी में आनंद है, तो फिर चलो कामवासना से छुटकारा कर लें। वह तुमसे न होगा अभी। अभी तुम इतनी बड़ी छलांग मत भरो। अभी कोई छोटी—सी बात चुनो, बड़ी छोटी—सी बात चुनो। इतना बड़ा नहीं।

सिगरेट पीते हो, वह चुन लो। धुंआ बाहर— भीतर करते हो, साक्षी— भाव से करो। बैठे, सिगरेट निकाली—साक्षी— भाव से निकालो। आमतौर से सिगरेट पीने वाला बिलकुल बेहोशी में निकालता है। तुम देखो सिगरेट निकालने वाले को, निकालेगा, डब्बी पर बजायेगा, माचिस निकालेगा, जलायेगा। जरा देखते रहो, वह सब आटोमेटिक है, वह सब यंत्रवत हो रहा है। उसे कुछ होश नहीं है। ऐसा सदा उसने किया है, इसलिए कर रहा है। इस सबको तुम होशपूर्वक करो। मैं नहीं कहता, एकदम से सिगरेट पीना छोड़ दो। होशपूर्वक करो। डब्बी को आहिस्ता से निकालो। जितनी जल्दी से निकाल लेते थे, उतनी जल्दी नहीं; थोड़ा समय लो। और तुम चकित होओगे : जितने तुम धीरे से निकालोगे उतने ही तुम पाओगे, धूम्रपान करने की इच्छा क्षीण हो गई। एक दफा ठोंकते हो सिगरेट को, सात दफा ठोंको। धीरे— धीरे ठोंको, ताकि ठीक से देख लो। क्या कर रहे हो! तुम्हें खुद ही मूढ़ता मालूम पड़ेगी कि यह भी क्या कर रहा हूं! आहिस्ता से जलाओ माचिस को। धीरे— धीरे धुंआ भीतर ले जाओ, धीरे— धीरे बाहर लाओ। इस पूरी प्रक्रिया को गौर से देखो कि यह तुम क्या कर रहे हो। धुंआ भीतर ले गये, खांसे, फिर धुआ बाहर लाये, फिर खीसे—इसमें पैसा भी खर्च किया। डाक्टर कहते हैं, कैंसर का भी खतरा है, तकलीफ भी होती है, फेफड़े भी खराब हो रहे हैं! जरा गौर से देखो, सुख कहां मिल रहा है। फिर धुएं को भीतर ले जाओ, फिर धुएं को बाहर लाओ। और गौर से देखो कि सुख कहां है! है कहीं?

मैं तुमसे नहीं कह रहा हूं कि नहीं है। यही मुझमें और तुम्हारे दूसरे साधु—संतों में फर्क है। वे कहते हैं, नहीं है। और बड़ा मजा यह है कि उन्होंने खुद भी पी कर नहीं देखा है। उनसे पूछो कि ‘महाराज, आपने सिगरेट पी? तुम्हें कैसा पता चला कि नहीं है?’ मैं तुमसे यह कह ही नहीं रहा कि नहीं है। मैं तो कहता हूं. हो सकता है हो, और तुम्हें पता चल जाये तो मुझे बता देना। मगर तुम गौर से देखो पहले—है या नहीं? पहले से निर्णय मत करो। गौर से देखोगे तो तुम हैरान हो जाओगे कि तुम कैसा मूढ़तापूर्ण कृत्य कर रहे हो! यह तुम कर क्या रहे हो? हाथ रुक जायेगा। ठिठक जाओगे। इसी ठिठकाव में क्रांति है। इसी अंतराल में से क्रांति की किरण उतरती है।

ऐसा छोटे—छोटे कृत्यों को करो। जाग कर करो। जल्दी रोकने की मत करना, पहले तो जाग कर करने की करना। फिर रुकना अपने से होता है। रुकना परिणाम है। तुम्हारे करने की बात नहीं; जैसे—जैसे बोध सघन होता है, चीजें बदलती हैं।

जहां से खुद को जुदा देखते हैं

खुदी को मिटा कर खुदा देखते हैं

फटी चिदिया पहने भूखे भिखारी

फकत जानते हैं तेरी इतजारी

बिलखते हुए भी अलख जग रहा है

चिदानंद का ध्यान—सा लग रहा है

तेरी बाट देखूं चने तो का जा

हैं फैले हुए पर, उन्हें कर लगा जा

मैं तेरा ही हूं इसकी साखी दिला जा

जरा चुहचुहाहट तो सुनने को आ जा

जो यूं तू इछुडूने —बिछुड़ने लगेगा

तो पिंजरे का पंछी भी उड़ने लगेगा

जरा—जरा…….! अभी पिंजरे के एकदम बाहर होने की जरूरत भी नहीं है। जरा पिंजरे में ही तडुफड़ाने लगो।

जो यूं तू इछुड़ने—बिछुड़ने लगेगा

तो पिंजरे का पंछी भी उड़ने लगेगा

हैं फैले हुए पर, उन्हें कर लगा जा

मैं तेरा ही हूं इसकी साखी दिला जा

धीरे — धीरे साक्षी— भाव से तुम्हें परमात्मा की यह आवाज सुनाई पड़ने लगेगी कि तुम मेरे हो, कि मैं ही तुममें समाया हूं कि तुम मेरे ही फैलाव, मेरे ही विस्तार, कि मैं सागर और तुम मेरी लहर! साक्षी— भाव से परमात्मा तुम्हारा गवाह होने लगेगा। और वहीं है जीवन—रूपांतरण का सूत्र, वहीं है अमृत की धार—जहां से मृत्यु विदा हो जाती है, जहां से देह से संबंध छूट जाते हैं; जहां सपना विसर्जित हो जाता है और उस परम चैतन्य में अलख जग जाती है; उस परम चैतन्य के साथ सदा के लिए संबंध जुड़ जाता है!

आखिरी प्रश्न :

बात भी आपके आगे न जबां से निकली लीजिए आई हूं सोच के क्या—क्या दिल में मेरे कहने से न आ, मेरे बुलाने से न आ लेकिन इन अश्कों की तो तौहीन न कर। क्योंकि मैं तो रजनीश की दुलहनियां!

जिसने पूछा है, भाव से पूछा है। प्रश्न दो तरह के होते हैं—एक तो बुद्धि के और एक हृदय के। बुद्धि के प्रश्नों का तो कोई मूल्य नहीं है—दो कौड़ी के हैं; खुजलाहट जैसे हैं। जैसे खाज खुजलाने का मन होता है ऐसे ही बुद्धि को भी खुजलाने का मन होता है। लेकिन हृदय के प्रश्नों का बड़ा मूल्य है। क्योंकि वे भाव के हैं और आत्मा के ज्यादा करीब हैं। विचार आत्मा से बहुत दूर; कर्म और भी दूर। कर्म सर्वाधिक दूर, विचार उससे कम दूर, भाव उससे कम दूर—और फिर भाव के बाद तो स्वयं का होना है। तो भाव निकटतम है।

जिसने पूछा है, बड़े प्रार्थना के भाव से पूछा है।

‘बात भी आपके आगे न जुबा से निकली।’

जिसने पूछा है, मिलने को आया था। पूछा मैंने. ‘कुछ कहना है?’ नहीं कुछ कह सके। आंख से आंसू भर बहे। बस कहना हो गया। जो कहना था, कह दिया। शब्दों से ही थोड़े कहा जाता है; और भी तो कहने के ढंग हैं; और भी तो कहने के महिमापूर्ण ढंग हैं। शब्द तो सबसे सस्ते ढंग हैं। आंसुओ से कह दी!

‘बात भी आपके आगे न जुबां से निकली

लीजिए आई हूं सोच के क्या—क्या दिल में!’

पूछा तो है पुरुष ने, लेकिन पंक्तियों से शायद तुम्हें लगे किसी स्त्री का प्रश्न है। लेकिन भाव स्त्रैण है। भाव सदा स्त्रैण है। पुरुष का भाव भी स्त्रैण होता है और स्त्री की बुद्धि भी पुरुष की होती है। तर्क पुरुष का, भाव स्त्री का। तो जब कभी कोई पुरुष भी भाव से भरता है तो भी स्त्रैणता गहन हो जाती है।

इसलिए तो भक्तों ने कहा कि परमेश्वर ही एकमात्र पुरुष है. हम तो सब उसकी सखियां हैं।’बात भी आपके आगे न जुबां से निकली

लीजिए आई हूं सोच के क्या—क्या दिल में!’

भक्त हजार बातें सोच कर आता है, हजार—हजार ढंग से सोच कर आता है—’ऐसा कह देंगे, ऐसा कह देंगे!’ प्रेमी हजार बातें सोचता है कि ऐसा कह देंगे, ऐसा कह देंगे। और प्रेमी के सामने खड़े हो कर जुबान बंद हो जाती है। यही तो प्रेम का लक्षण है। तुमने जो रिहर्सल कर रखे थे, अगर प्रेमी के सामने खड़े हो कर तुम सबको पूरा करने में सफल हो जाओ तो असफल हो गये। तो व्यर्थ गया सब मामला। तो तुम नाटक में ही रहे। फिर तुम अपना रिहर्सल दुहरा लिए; तुम जो—जो याद करके आये थे, पाठ पूरा कर दिया।

इसलिए तो मैं देखता हूं कि अभिनेता अच्छे प्रेमी नहीं हो पाते। उनको अभिनय करने में इतनी

कुशलता आ जाती है—इसीलिए। अभिनेता प्रेमी हो ही नहीं पाते। और तुम चकित होओगे, क्योंकि प्रेम का ही धंधा करते हैं, प्रेम का ही अभिनय करते हैं, चौबीस घंटे प्रेम की ही बात करते हैं, लेकिन डायलाग इतने याद हो जाते हैं कि अपनी प्रेयसी के सामने खड़े हो कर वे अपने दिल की कह रहे हैं कि डायलाग ही बोल रहे हैं, कुछ पक्का नहीं होता। अभिनेता प्रेम में बिलकुल असफल हो जाते हैं, क्योंकि प्रेम की बात में बड़े सफल हो जाते हैं। ढंग सीख लेते हैं, आत्मा मर जाती है। यह तो सदा होता है। अगर सच में तुम्हारा प्रेम है तो अचानक तुम सब सोच कर आये, वह कचरा जैसा हो जायेगा। प्रेमी की आंख में आंख डालते ही तुम पाओगे, सोचा—समझा सब बेकार हो गया। नहीं, वह काम नहीं आता; कंकड़—पत्थर हो गये। अब उनकी बात भी उठाना ठीक नहीं है। शब्द छोटे पड़ जाते हैं, प्रेम बड़ा है। इसलिए प्रेम मौन से ही प्रगट होता है।

‘बात भी आपके आगे न जुबां से निकली

लीजिए आई हूं सोच के क्या —क्या दिल में!

मेरे कहने से न आ, मेरे बुलाने से न आ

लेकिन इन अश्कों की तौहीन तो न कर!’

आंसुओ की तौहीन कभी होती ही नहीं। आंसुओ का निमंत्रण तो सदा स्वीकार ही हो जाता है। जिन्होंने रोना सीख लिया उन्होंने तो पा लिया। आंसू से बहुमूल्य आदमी के पास कुछ भी नहीं है। तुम प्रभु के मंदिर में जा कर अगर दो आंसू चढ़ा आये तो तुमने सारे संसार के फूल चढ़ा दिए। और तुम्हारे आसुरों की राह से ही परमात्मा तुममें प्रवेश कर जायेगा।

जान कर अनजान बन जा

पूछ मत आराध्य कैसा

जबकि पूजा— भाव उमड़ा

मृत्तिका के पिंड से कह दे

कि तू भगवान बन जा!

जान कर अनजान बन जा!

तुम किसी भक्त को देखते हो, बैठा है झाडू के किनारे, पत्थर के एक पिंड से प्रार्थना कर रहा है! तुम्हें हंसी आती है। तुम समझे नहीं। तुम बाहर हो उसके अंतर्जगत के। यह सवाल नहीं है। उसके लिए पत्थर पत्थर नहीं है।

पूछ मत आराध्य कैसा

जबकि पूजा— भाव उमड़ा

मृत्तिका के पिंड से कह दे

कि तू भगवान बन जा!

भक्त का भाव जहां आरोपित हो जाता है, वहा भगवान पैदा हो जाता है। भगवान तो सब जगह है; भाव के आरोपित होते ही प्रगट हो जाता है।

तो अगर तुम्हारी आंखों में आंसू आ गये हैं तो ज्यादा देर न लगेगी। तुम्हारी आंखें आसुरों से धुल जाने दो। उन्हीं धुली आंखों में, उन्हीं नहाई हुई आंखों में, सद्यस्नात आंखों में, जिसे तुमने पुकारा है उसका प्रवेश हो जायेगा। तुम्हारी आंखें ही द्वार बन जायेंगी।

रोओ, मन भर कूर रोओ!

खयाल रखना, जिसका यह प्रश्न है उसके लिए अष्टावक्र की गीता सहयोगी न होगी। उसके लिए तो नारद के सूत्र हैं। अष्टावक्र की गीता तो आंख से आंसुओ को विदा कर देती है, आंखें बिलकुल सूख जाती हैं आंसुओ से। अष्टावक्र की गीता में भाव को कोई जगह नहीं है। अष्टावक्र की गीता में भक्ति को, प्रेम को, आराध्य को, पूजा को कोई जगह नहीं है।

तो जिसका प्रश्न है, उससे मैं कहता हूं. जो भी मैं कह रहा हूं अष्टावक्र के संबंध में, तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हारी राह और भी दूसरी है। तुम्हारी राह फूलों— भरी है। तुम्हारी राह पर खूब हरियाली है और पक्षियों के गीत हैं। अष्टावक्र की राह तो रेगिस्तान की है। रेगिस्तान का भी अपना सौंदर्य है। विराट शांति! दूर तक सन्नाटा! लेकिन अष्टावक्र के मार्ग पर वैसी हरियाली नहीं है जैसी भक्त के मार्ग पर। वहां कृष्ण की बांसुरी नहीं बजती।

जिसका प्रश्न है, उसके लिए राह नारद के सूत्रों में है, मीरा के भजनों में है, कबीर की उलटबासियों में है।

‘लेकिन इन अश्कों की तौहीन तो न कर

क्योंकि मैं तो रजनीश की दुलहनिया!’

यह जो प्रेम का वचन है, यह तुम्हें बहुत कुछ देगा। लेकिन इसके लिए तुम एक बात खयाल रखना, इस वचन को पूरा करने के लिए तुम्हें बिलकुल मिट जाना पड़ेगा। यही फर्क है भक्ति में और शान में। ज्ञानी ‘तू को बिलकुल भूल जाता है और ‘तू के भूलते ही ‘मैं’ मिट जाता है। भक्त ‘मैं’ को भूल जाता है और ‘मैं’ के मिटते ही ‘तू’ मिट जाता है। दोनों एक ही परम शून्य को उपलब्ध हो जाते हैं या परम पुण्य को।

लेकिन दोनों की राहें अलग हैं। भक्त अपने ‘मैं’ को परमात्मा के चरणों में समर्पित करते—करते शून्य हो जाता है। ज्ञानी परमात्मा को भी भूल जाता है; पर को ही भूल जाता है तो परमात्मा की जगह कहां! इसलिए तो बुद्ध और महावीर की भाषा में परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं है। परमात्मा यानी पर, दूसरा, अन्य। अन्य तो कोई भी नहीं है। ज्ञानी तो आत्मा में डूबता है और परमात्मा को छोड़ता चला जाता है।

लेकिन आत्यंतिक घड़ी में दोनों रास्ते एक ही जगह पहुंच जाते हैं। या तो तुम इतने ‘मैं’ हो जाओ कि ‘तू, न बचे, तो पहुंच गये। या ‘तू को इतना कर लो कि ‘मैं’ न बचे, तो पहुंच गये। दो में से कोई एक बचे तो पहुंच गये।

जिसका प्रश्न है उससे मेरा कहना है : अष्टावक्र पर बहुत ध्यान मत देना। उससे अड़चन हो सकती है। पीड़ा भी होगी। लेकिन भक्त के मार्ग पर पीड़ा भी मधुर है।

तृप्ति क्या होगी अधर के रस—कणों से

खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से

प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है

प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।

फिर विकल हैं प्राण मेरे!

तोड़ दो यह क्षितिज, मैं भी देख लूं उस ओर क्या है?

जा रहे जिस पंथ से युग—कल्प, उसका छोर क्या है?

फिर विकल हैं प्राण मेरे!

भक्त तो विकल होगा, रोयेगा, विरह की अग्नि में जलेगा, आंसुओ से भरेगा, क्षार— क्षार हो जायेगा, खंड—खंड हो कर बिखर जायेगा। लेकिन इस पीड़ा में बड़ा मधुर रस है। यह पीड़ा दुख नहीं है, यह पीड़ा सौभाग्य है। और अगर तुम राजी रहे तो एक दिन वसंत भी आता है। अगर तुम चलते ही रहे तो पतझड़ से गुजर कर एक दिन वसंत भी आता है।

जब मैंने मरकत पत्रों को पीराते मुरझाते देखा

जब मैंने पतझर को बरबस मधुबन में धंस जाते देखा

तब अपनी सूखी लतिका पर पछताते मुझको लाज लगी

जब मैंने तरु—कंकालों को अपने से भय खाते देखा

पर ऐसी एक बयार बही, कुछ ऐसा जादू—सा उतरा

जिससे विरवों में पात लगे, जिससे अंतर में आह जगी

सहसा विरवों में पात लगे, सहसा विरही की आग लगी

पर ऐसी एक बयार बही, कुछ ऐसा जादू—सा उतरा

एक बार तुम उतर जाओ इस पीड़ा की अग्नि में, भक्ति की अग्नि में, जल जाओ, दग्ध हो जाओ—आता है वसंत, निश्चित आता है। इस पीड़ा को सौभाग्य समझना। धन्यभागी हैं वे जो प्रेम में मिट जाने की सामर्थ्य रखते हैं। परमात्मा उनसे बहुत दूर नहीं है। वे परमात्मा के मंदिर बनने के लिए प्रतिपल तैयार हैं। द्वार खुले और परमात्मा प्रवेश कर जाता है।

नहीं, तुम्हारे आंसुओ की कभी भी तौहीन न होगी—कभी हुई नहीं—कभी भी नहीं हुई है। शब्द चाहे व्यर्थ चले गये हों, आंसू कभी व्यर्थ नहीं गये हैं। और जो परमात्मा के चरणों में आंसू ले कर पहुंचा है, खाली नहीं लौटा है। क्योंकि आंसू ले कर जो गया, वह खाली गया और भर कर लौटा है। जल्दी ही बयार चलेगी, फिर पत्ते लगेंगे, फिर फूल खिलेंगे! वसंत निश्चित आता है!

हरि ओंम तत्सत्!


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–4) प्रवचन–2

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साक्षी आया, दुःख गया—प्रवचन—दूसरा

दिनांक 27 नवंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

हेयोयादेयता तावत्संसार विटपांकर:।

स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचार दशास्थदम्।। 152।।

प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।

निर्द्वद्वो बालबद्धीमानेवमेव व्यवस्थित:।। 153।।

हातुमिच्छति संसार रागी दुखजिहासयर।

वीतरागो हि निर्कुखस्तस्मिब्रपि न खिद्यते।। 154।।

यस्याभिमानो मोक्षेऽयि देहेउयि ममता तथा।

न न ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ।। 155।।

हरो यद्युयदेष्टा ले हरि: कमलजोउयि वा।

तथापि न तब स्वास्थ्य सर्वविस्मरणाद्धतो।। 156।।

हेयोपादेयता तावत्संसार विटपांकुर

स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचार दशास्पदम्।।

‘जब तक तृष्णा जीवित है—जो कि अविवेक की दशा है—तब तक हेय और उपादेय, त्याग और ग्रहण भी जीवित हैं, जो कि संसाररूपी वृक्ष का अंकुर हैं।’

तृष्णा मनुष्य की उलझन की मूल भित्ति है। तृष्णा को ठीक से समझ लिया तो सारे धर्मों का अर्थ समझ में आ गया। तृष्णा को समझ लिया तो दुख का कारण समझ में आ गया। और जिसे दुख का कारण समझ में आ जाये, उसे दुख से मुक्त होते क्षण भर भी नहीं लगता। दुख से नहीं मुक्त हो पाते हैं—सिर्फ इसीलिए कि कारण समझ में नहीं आता। और कारण समझ में न आये तो हम लाख उपाय करें, हम दुख को बढ़ाये चले जायेंगे। अंधेरे में तीर चला रहे हैं; निशाना लगेगा, संभव नहीं है। रोशनी चाहिए। और रोशनी कारण को समझने से तत्‍क्षण पैदा हो जाती है। इस बात को खयाल में लें।

शरीर में कोई बीमारी हो तो पहले हम निदान की फिक्र करते हैं। निदान हो गया तो आधा इलाज हो गया। अगर निदान ही गलत हुआ तो इलाज खतरनाक है, इलाज करना ही मत। क्योंकि दवाएं लाभ पहुंचा सकती हैं, नुकसान भी। जो दवाएं लाभ पहुंचा सकती हैं वे ही नुकसान भी पहुंचा सकती हैं। निदान ठीक न हो, बीमारी पकड़ में न आई हो तो इलाज बीमारी से भी महंगा पड़ सकता है। बीमारी से तो शायद चुपचाप बैठे रहते तो प्राकृतिक रूप से भी छूट जाते, लेकिन अगर गलत औषधि शरीर में पड़ गई तो प्राकृतिक रूप से छुटकारा न हो सकेगा। इसलिए पहले हम चिंता करते हैं निदान की।

शरीर के संबंध में यह सच है कि ठीक निदान हो तो पचास प्रतिशत इलाज हो गया; लेकिन मन के संबंध में तो और अदभुत बात है, वहा तो निदान ही सौ प्रतिशत इलाज है। शरीर के संबंध में पचास प्रतिशत, मन के संबंध में सौ प्रतिशत। क्योंकि मन की बीमारियां तो भांति की बीमारियां हैं, जैसे किसी ने दो और दो पांच गिन लिया, फिर सारा हिसाब गलत हो जाता है। मन की बीमारी कोई वास्तविक बीमारी नहीं है; भ्रांति है, भूल है। समझ में आ गया कि दो और दो चार होते हैं, उसी क्षण सब भ्रांति मिट गई।

मन की बीमारी तो ऐसी है जैसे मरुस्थल में किसी को सरोवर दिखाई पड़ गया। वह धोखा है।

वह तुम्हारी प्यास से ही पैदा हुआ है। वह तुम्हारी प्यास का ही देखा गया सपना है। तुम इतने प्यासे थे कि मान लिया। तुम इतने घबराये थे पानी के लिए कि जरा—सा सहारा मिल गया कि तुमने पानी की कल्पना कर ली। भूखा आदमी, कहते हैं, अगर पूर्णिमा के चाद को भी देखे तो उसे लगता है रोटी आकाश में तैर रही है। भूख प्रक्षेपित होती है।

मन की बीमारियां प्रक्षेपण हैं, प्रोजेक्यान हैं। शरीर की बीमारी का तो आधार है; मन की बीमारी निराधार है। एक बार तुम्हें ठीक—ठीक गणित दिखाई पड़ गया तो फिर ऐसा नहीं है कि मन की बीमारी का निदान होने के बाद तुम पूछोगे, अब औषधि क्या? निदान ही औषधि है।

सुकरात का बड़ा प्रसिद्ध वचन है. ज्ञान ही मुक्ति है।

जीसस की भी बड़ी प्रसिद्ध घोषणा है सत्य को जान लो और सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा। फिर ऐसा नहीं कि सत्य को जानने के बाद तुम्हें मुक्ति के लिए कोई उपाय करना पड़ेगा; जानते ही सत्य को, मुक्ति हो जाती है।

इसलिए तो महावीर ने यहां तक कहा है कि अगर तुम सत्य को जानने वाले की बात ठीक से सुन लो तो श्रवण से ही मुक्ति हो जाती है। इसलिए एक तीर्थ का नाम—श्रावक। सुन कर ही जो मुक्त हो जाता है, वह श्रावक है। जो सुन कर मुक्त नहीं होता और जिसे कुछ करना पड़ता है, वह साधु। मेरे हिसाब में साधु श्रावक से नीची स्थिति में है; ऊंची स्थिति में नहीं। सुन कर ही मुक्त न हो सका, कुछ करना भी पड़ा। उसका बोध प्रगाढ़ नहीं है। सुन कर ही न समझ सका, कुछ करना पड़ा, तब समझ में आया। समझ बहुत गहरी नहीं है। समझ गहरी होती तो सुन कर समझ लेता। समझ गहरी होती तो महावीर को देख कर समझ लेता। देखना काफी था। आंख खोल कर महावीर को देख ले, आंख खोल कर बुद्ध को देख ले या आंख खोल कर कृष्ण को देख ले—क्या बाकी रह जाता है? खुली आंख कि सब साफ हो जाता है।

तो पहला सूत्र है : ‘जब तक तृष्णा जीवित है—जो कि अविवेक की दशा है—तब तक हेय और उपादेय, त्याग और ग्रहण भी जीवित हैं, जो कि संसाररूपी वृक्ष का अंकुर हैं।’

तुम संसार से न छूट सकोगे जब तक तृष्णा है। तृष्णा संसार है।

अब बड़ा मजा होता है, बिना समझे लोग संसार से छूटना चाहते हैं! संसार से भी छूटना चाहते हैं, उसके पीछे भी कारण तृष्णा ही है—स्वर्ग का सुख मिलेगा, कि मोक्ष का परम आनंद बरसेगा, कि समाधि की गहन शांति की दशा में प्रवेश होगा! यह सब तृष्णा है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं. ‘शांत होना है। ध्यान की कोई विधि बता दें कि हम शांत हो जायें।’ उनसे मैं कहता हूं शांत होना हो तो तृष्णा को जानो। ध्यान की विधि से तुम शांत न हो सकोगे। क्योंकि ध्यान की विधि भी करने तुम तृष्णा के कारण ही आये हो। शांत होना है—यह लोभ तुम्हें ले आया है। लोभ के कारण तुम ध्यान करोगे कैसे? जहां तृष्णा का अभाव, वहां ध्यान। फिर ध्यान करना नहीं पड़ता, ध्यान हो जाता है। जो करना पड़े, वह ध्यान ही नहीं। जो हो जाये, वही ध्यान है। जहां तृष्णा न रही, मन की तरंगें अपने— आप शांत हो जाती हैं।

ऐसा समझो कि हवा के झकोरों में, हवा के झोंकों में झील की लहर उठती है, झील की छाती पर लहरें उठती हैं, तुम चेष्टा करते हो एक—एक लहर को शांत करने की, तुम पागल हो जाओगे। हवा रुक जाये तो एक—एक लहर को शांत न करना पड़ेगा, हवा के रुकते ही लहरें अपने से शांत हो जायेंगी। अब मजा यह है कि हवा दिखाई नहीं पड़ती। जो नहीं दिखाई पड़ता, उसको हम भूल जाते हैं। तृष्णा भी दिखाई नहीं पड़ती, हवा जैसी है। है, बहुत गहन है, लेकिन अदृश्य है, हाथ में पकड़ में नहीं आती।

तो जब तुम झील की छाती पर लहरों का तूफान देखते हो तो तुम सोचते हो, लहरों को कैसे शांत करें। और जो मूल कारण है वह अदृश्य है। तुम एक—एक लहर को शांत करने बैठ जाना, एक—एक लहर को लोरी सुनाना कि सो जा, कि प्यारी बिटिया सो जा, मंत्र पढ़ना राम—राम, अल्लाह—अल्लाह या नमोकार और बीच—बीच में आंख खोल कर देखना कि मंत्र का असर हो रहा कि नहीं—लहरें तुम्हारे मंत्रों को सुनने वाली नहीं हैं। लहरें इसलिए नहीं उठी हैं कि मंत्र का अभाव है। अगर मंत्र के अभाव के कारण उठी होतीं तो मंत्र के बोलते ही चुप हो जातीं, बैठ जातीं। लहरें इसलिए उठी हैं कि उनकी छाती पर एक अदृश्य हवा चल रही है, जो हवा उन्हें कंपा रही है। अब पानी कोई पत्थर थोड़े ही है। पत्थर पर लहरें नहीं उठती, पानी पर लहरें उठती हैं। पानी तरल है, तरंगित होता है। अदृश्य हवा के झोंके भी उसे हिला जाते हैं।

तुम्हारे मन में जो तरंगें उठ रही हैं, वे तृष्णा की हवा से उठ रही हैं। अब बहुत लोग हैं जो मन को शांत करना चाहते हैं। एक—एक विचार को शांत करना चाहते हैं। किसी को क्रोध का विचार आता है, वह कहता है, किस तरह शांत हो जाये? किसी को कामवासना उठती है, कहता है, कैसे शांत हो जाये? किसी को लोभ है, किसी को मोह है —सबको शांत करने में लगे हैं। इससे कभी तुम शांत न हो पाओगे। संभावना यही है कि विमुक्त तो न हो, विक्षिप्त हो जाओ।

मेरे देखे सांसारिक आदमी ही ज्यादा शांत होता है तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमियों की बजाय। तो मेरी बात को जरा गौर से सुनना और जरा फिर से जाकर तुम अपने साधु—संन्यासियों को देखना। तुम्हें शायद बाजार में कुछ लोग शांत मिल जायें, तुम्हारे साधु—संन्यासी शांत नहीं हैं। क्योंकि बाजार में तो आदमी को एक ही अशांति है, क्योंकि संसार की ही लहर उसके ऊपर बह रही है, यह जो मंदिर में बैठा है, यह जो आश्रम में बैठा है, यह जो साधु है, महात्मा है—इस पर एक और अशांति सवार हो गई है, शांत होने की तृष्णा जाग गई, मोक्ष पाने की तृष्णा!

सांसारिक तो ऐसी चीजों के पीछे दौड़ रहा है जो ठीक—से कोशिश करो तो मिल भी जायें। जिसको तुम धार्मिक कहते हो, ऐसी चीजों के पीछे दौड़ रहा है जो दौड़ने से मिलती ही नहीं; दौड़ना ही जहां बाधा है; जो रुकने से मिलती हैं। धन के पीछे अगर ठीक—से दौड़ोगे तो धन मिल जायेगा; ऐसी कुछ अड़चन नहीं है। तुमसे भी ज्यादा बुद्धओं को मिल गया तो तुम्हें क्यों न मिल जायेगा! ठीक से मेहनत करोगे तो संसार के विजेता हो सकते हो, सिकंदर हो गया है तो तुम क्यों न हो जाओगे! दौड़ते ही रहे पागल की तरह तो कुछ न कुछ पा ही लोगे, कहीं न कहीं बैंक में बैलेंस हो ही जायेगा; कोई न कोई बड़ा मकान बना ही लोगे।

लेकिन परमात्मा तो दौड़ने से मिलता ही नहीं और सत्य तो दौड़ने से मिलता नहीं। शांति तो दौड़ने से मिलती नहीं। क्योंकि दौडने में ही अशांति है। समझो! दौड़ने में ही अशांति है। जैसे ही कोई नहीं दौड़ता, तृष्णा चुप हो गई। तृष्णा यानी दौड़। तृष्णा यानी कहीं और है सुख, यहां नहीं, अभी नहीं,

कल है, परसों है, अगले जन्म में है, स्वर्ग में है, कहीं और है! ‘कहीं और है सुख’—यही धारणा तृष्णा है। जब यहां नहीं है, कहीं और है—तो कहीं दौड़ना पड़ेगा। यहां तो है नहीं, बैठने से क्या होगा! दौड़ो, भागों! आपाधापी करो! श्रम करो! नहीं दौड़े तो हार जाओगे। आज को कुर्बान करो कल के लिए। आज को बलिदान करो भविष्य के लिए। आज तो है नहीं।

तुम जैसे हो, ऐसे तो सुखी हो नहीं सकते, तो कुछ और बनने की कोशिश करो। ज्यादा धन हो पास, बड़ा मकान हो पास, प्रतिष्ठा हो या पुण्य हो, चरित्र हो, शील हो, ध्यान हों—कुछ करो!

तृष्णा का अर्थ है. तुम जैसे हो वैसे संतोष नहीं मिल रहा। और तृष्णा छोड़ने का इतना ही अर्थ है कि अभी, यहीं, तुम जैसे हो ऐसे ही आनंदित हो जाओ! तृष्णा छोड़ने का अर्थ है. आनंदित अभी होने की कला! तुम जानते हो आनंदित कभी होने की वासना, अभी नहीं! अभी तो कैसे हो सकता है! अष्टावक्र की सारी घोषणा यही है। यह महा क्रांतिकारी उदघोषणा है कि तुम अभी जैसे हो ऐसे ही आनंद को उपलब्ध हो सकते हो, क्योंकि आनंद तुम्हारा स्वभाव है। इसे तुमने क्षण भर को खोया नहीं है। इससे तुम स्मृत नहीं हुए हो। ये लहरें अभी शांत हो सकती हैं—यहीं! लहर के प्राण अदृश्य हवा में हैं; वह जो अदृश्य हवा दौड़ रही है छाती पर, उसमें हैं।

तुम्हारी छाती पर कौन—सी अदृश्य हवा दौड़ रही है? उसी से तुम कैप रहे हो। वह हवा रुक जाये… और हवा तुम्हीं चला रहे हो। तुम्हीं उस हवा को प्राण दे रहे हो, गति दे रहे हो।

तृष्णा का अर्थ है. असंतोष। तृष्णा का अर्थ है. अतृप्ति। तृष्णा का अर्थ है भविष्य, वर्तमान नहीं। जिसके जीवन से भविष्य विदा हो जाता है उसके जीवन से तृष्णा विदा हो जाती है। तृष्णा को फैलने के लिए भविष्य चाहिए।

देखो इस सत्य को! मैं जो कह रहा हूं, यह कोई सिद्धात नहीं है—सीधा तथ्य है।

भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। जो अभी आया नहीं है, हो कैसे सकता है! आयेगा, तब होगा। जब होगा, तब होगा, अभी तो नहीं है। अतीत जा चुका है, भविष्य आया नहीं—इन दोनों के बीच में जो छोटा—सा क्षण है वर्तमान का, वही अस्तित्ववान है। उसके अतिरिक्त सब कल्पना है। अतीत है स्मृति, भविष्य है सपना। जो है अभी इस क्षण, वर्तमान का जो छोटा—सा क्षण, जो झरोखा खुलता है—वही है। तुम इसमें ही तल्लीन हो जाओ! इसमें ही डुबकी लगा लो। वही डुबकी तुम्हारी परमात्मा में डुबकी बन जाती है। शांत हो जाते हो—कुछ बिना किए! प्रसादरूप!

ऐसे ही मैं शांत हुआ, जैसा मैं तुमसे कह रहा हूं। ऐसे ही तुम शांत हो सकते हो। लेकिन भविष्य की आकांक्षा मत करो। भविष्य की आकांक्षा से तनाव पैदा होता है, खिंचाव पैदा होता है। आज तो दुखी रहते हो, कल की आशा खींचे रखती है। कल भी जब आयेगा आज की तरह आयेगा। कल तो कभी आता नहीं। जब आता है आज आता है। और तुमने एक गलत आदत सीख ली—आज दुखी होने की आदत सीख ली। तुम सदा ही दुखी रहोगे। क्योंकि जब भी आयेगा, आज आयेगा। और आज से तो तुम्हारे संबंध—नाते ही गलत हो गये—दुख के। जो नहीं आयेगा वह कल है—और कल तुम सुखी होना चाहते हो! और जो आता है वह आज है—और आज तुम दुखी होने का अभ्यास कर रहे हो!

तृष्णा का अर्थ है : कल में होना; भविष्य में होना, जहां हो वहां न होना, कहीं और होना। और दुखी तो होओगे ही। यह जो तनाव पैदा होगा, यह जो बेचैनी पैदा होगी, ये जो तरंगें उठेगी—ये तुम्हारे प्राण को छेद जायेगी। तुम्हारे जीवन से नृत्य और संगीत खो जाये तो आश्चर्य क्या! तुम्हारी आंखों में शांति न हो और तुम्हारे हृदय में परमात्मा का सितार न बजे तो आश्चर्य क्या! तुम्हारे रग—रोये में, हृदय की धड़कन में, यह जो विराट महोत्सव चल रहा है, इसके साथ सब संबंध छूट जाये, इसका पता—ठिकाना ही भूल जाये—तो आश्चर्य क्या!

वृक्ष अभी सुखी हैं—इसी क्षण! और पक्षी अभी गीत गा रहे हैं; कल के लिए स्थगित नहीं किया है। सूरज अभी निकला है, कल नहीं निकलेगा। और आकाश अभी फैला है; कल का आकाश को कुछ पता ही नहीं। यह सारा जगत मनुष्य को छोड़ कर अभी है, और मनुष्य कभी है—कभी, कहीं और। बस इस अभी और कभी के बीच जो तनाव है, वहां तृष्णा है।

तृष्णा अशांति लाती है। फिर जितनी बड़ी तृष्णा हो उसी मात्रा में अशांति होती है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं. सांसारिक आदमी की अशांति धार्मिक आदमी से ज्यादा बड़ी नहीं, कम है। उसकी तृष्णा ही छोटी चीजों की है, क्षुद्र चीजों की है। एक कार खरीदनी है—यह भी कोई बड़ी तृष्णा है! थोड़ा—बहुत अशांत होगा। एक बड़ा मकान बनाना है—यह भी कोई बड़ी बात है! इतने बड़े मकान हैं ही, बनते ही रहे हैं, बनते —गिरते रहे—यह कोई नई बात नहीं, कुछ बड़ी विशेष बात नहीं। इसकी तृष्णा तो बड़ी छोटी है, क्षणभंगुर है। इसकी तृष्णा का तनाव भी भारी नहीं होने वाला है। लेकिन किसी को मोक्ष जाना है, इसकी तृष्णा बड़ी कठिन है।

तुमने कभी किसी को मोक्ष जाते देखा? बड़े मकान बनाते लोग तुमने देखे, संसार को जीत लेने वाले लोग देखे, धन की राशियां लगा देने वाले लोग देखे—तुमने कभी किसी को मोक्ष जाते देखा? असल में मोक्ष जाने की भाषा ही अज्ञानी की भाषा है।

अष्टावक्र कहते हैं : आत्मा न कहीं जाती न आती। जाना कैसा! जाओगे कहां!

रमण मरने लगे तो किसी ने पूछा कि अब आप जा रहे हैं! उन्होंने आंख खोली, कहा : ‘जाऊंगा कहां! आना—जाना कैसा!’ फिर आंख बंद कर ली। पता नहीं सुनने वाले ने समझा कि नहीं। जाना— आना कैसा! जाना — आना होता ही नहीं। आकाश कहीं जाता— आता?

अष्टावक्र ने कहा कि तुम मिट्टी का घड़ा ले आते हो, तो मिट्टी का घड़ा आता—जाता है; मिट्टी के घड़े के भीतर का जो आकाश है वह कहीं आता—जाता? तुम चलते हो, तुम्हारी आत्मा थोड़े ही चलती है!

संसार चलता है, परमात्मा ठहरा हुआ है। परमात्मा कील है संसार के चाक की। सब चलता रहता है, परमात्मा ठहरा हुआ है। मोक्ष जाना नहीं पड़ता। मोक्ष तो अनुभव है इस बात का कि मैं जहां हूं वहीं मोक्ष है, मैं जैसा हूं ऐसे ही मोक्ष है।

तुम्हें बड़ी अजीब धारणाएं लोगों ने सिखा दी हैं और जिन्होंने सिखाई हैं वे तृष्णातुर लोग हैं। निश्चित ही उन्होंने तृष्णा का पाठ पढ़ा दिया है। ऐसे ही तुम पागल थे, पागलपन को उन्होंने और सजावट दे दी है, और व्याख्या—परिभाषा दे दी है। तुम पागल थे धन पाने को, उन्होंने कहा. ‘इस धन के पीछे क्या पड़े हो, अरे परम धन को पाओ!’ मगर पाने की भाषा जारी है। तुम स्त्रियों के पीछे दौड़ रहे थे, उन्होंने कहा ‘इन स्त्रियों में क्या रखा है, आज नहीं कल सूख कर अस्थिपंजर रह जायेगी!’

मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। उस स्त्री ने कहा कि विवाह के पहले मैं तुमसे एक बात पूछ लेना चाहती हूं। अभी तो मैं जवान हूं सुंदर हूं जब मैं चालीस वर्ष की हो जाऊंगी और मेरे गाल पिचक जायेंगे और बाल सफेद होने लगेंगे और चेहरे पर झुर्रियों के पहले दर्शन होने लगेंगे और मैं बूढ़ी होने लगंगी, तब भी तुम मुझे प्रेम करोगे?

मुल्ला ने कहा : ‘अरे तो चालीस वर्ष में तुम्हारा ऐसा होने का इरादा है? तो वह बात ही खत्म करो! इस झंझट में पड़े ही क्यों! अगर चालीस वर्ष में तुम्हारे ऐसे इरादे हैं—इस चेहरे पर झुर्रियां डाल देने के और बाल सफेद कर लेने के और गाल पिचक जाने के, तो क्षमा करो! अच्छा किया, पहले ही बता दिया शादी के पहले, नहीं तो अभी शादी में उलझ जाते तो और झंझट होती। यह बात ही भूल जाओ।’

तुम्हारा धार्मिक आदमी तुमसे क्या कह रहा है? वह कह रहा है : कहां अस्थिपंजरों के पीछे पड़े हो! स्वर्ग में अप्सरायें हैं, स्वर्ण की उनकी काया है, उन्हें खोजो! पद के पीछे पड़े हो! ये दिर्ल्लियां बनती—बिगड़ती रहती हैं! तुम इस झंझट में न पड़ो। ऊपर एक बड़ी दिल्ली है; वहां जो पहुंच गया, पहुंच गया। यहां की दिल्ली का तो कुछ भरोसा नही—आज तख्त पर, कल नीचे! जो तख्त पर है वह गिरता ही है। दिल्ली पहुंच—पहुंच कर होता क्या है—राजघाट पर कब्र बन जाती है! आखिरी परिणाम हाथ में क्या लगता है? एक और दिल्ली है ऊपर—परमपद! वहां पहुंचो।

यह तुम्हारी तृष्णा को फैलाने की बात हो रही है। तुमसे कहा जाता है क्षणभंगुर को छोड़ो, शाश्वत को खोजो! मगर बात वही है, भाषा वही है, दौड़ वही है, तृष्णा वही है। और बड़े अंधड़ चढ़ेंगे तुम्हारी छाती पर, और बड़ी लहरें उठेंगी! तुम और अशांत हो जाओगे।

मेरे पास जब कोई साधु—संन्यासी आ जाता है तो उसे मैं जितना कंपते और परेशान देखता हूं उतना सांसारिक आदमी को कंपते परेशान नहीं देखता। क्योंकि तुम तो शक्य की खोज में लगे हो, वह तो अशक्य की खोज में लगा है। तुम तो संभव के पीछे पड़े हो, वह असंभव के पीछे पड़ा है। तुम्हारी घटना तो घट सकती है, इसके हजार प्रमाण हैं; उसकी घटना तो कभी घटी, इसका एक भी प्रमाण नहीं है। कौन ने किसको मोक्ष जाते देखा? मैं तुमसे कहता हूं. कोई कभी मोक्ष गया ही नहीं। महावीर मुक्त हुए, मोक्ष थोड़े ही गये। महावीर मोक्ष थोड़े ही गये—जाना कि मुक्त हैं, पहचाना कि मुक्त हैं। इस क्षण में, इस वर्तमान में, इस अस्तित्व के स्वाद में डूब कर पाया कि कैसे पागल थे! उसे खोजते थे जो मिला ही हुआ है!

बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और किसी ने पूछा : ‘क्या पाया?’ तो उन्होंने कहा. ‘मत पूछो! पूछो ही मत। क्योंकि जो पाया, वह मिला ही हुआ था। भूल गये थे, विस्मरण हो गया था, याद न रही थी। अपनी जेब में ही पड़ा था और याददाश्त खो गई थी।’

यह विस्मरण हुआ है, पाना थोड़े ही है! पाया तो हुआ ही है। जानो न जानो, मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। जानो न जानो, तुम परमेश्वर हो, परमात्मा हो!

तो तृष्णा के कारण बाधा पड़ रही है। रुको तो अपने से मिलन हो जाये। तुम भागे— भागे हो, अपने से मिलना नहीं हो पाता। और सबसे मिलना हो जाता है, बस अपने से चूकते चले जाते हो।

हेयोपादेयता तावत्संसार विटपांकुर:।

और तृष्णा में बीज है संसार का। फिर जहां तृष्णा है वहां स्वभावत: चुनाव पैदा होता है—क्या करें, क्या न करें! क्योंकि तृष्णा जिसको करने से भर जाये, वही करें। स्वभावत: भेद पैदा होता है। वही करें, जिससे तृष्णा पूरी हो, वह न करें, जिससे पूरी न हो, उस रास्ते पर चलें, जिससे पहुंच जायेंगे भविष्य की मंजिल पर; उस रास्ते पर न चलें जिससे भटक जायेंगे।

और यहाँ कोई मार्ग नहीं है। अष्टावक्र कोई मार्ग प्रस्तावित ही नहीं करते। अष्टावक्र तो कहते हैं कि तुम जरा भीतर आंख खोलो, तुम जहां हो, मंजिल पर हो!

रिंझाई, एक झेन फकीर, जापान के एक तीर्थ—पहाड़ पर तीर्थ था—उसके नीचे ही राह के किनारे विश्राम कर रहा था। एक दिन, दो दिन, वर्षों हो गये। यात्री आते—जाते। फिर तो लोग पहचानने लगे, जानने भी लगे कि वह वहीं पड़ा रहता है वृक्ष के नीचे। लोग उससे पूछते कि रिंझाई, तुम पहाड़ पर ऊपर नहीं जाते तीर्थयात्रा को पू रिंझाई हंसता और वह कहता : ‘ आये तो हम भी तीर्थयात्रा को थे, लेकिन इस झाडू के नीचे बैठे—बैठे पता चला कि तीर्थ भीतर है, फिर हम यहीं रुक गये, अब कहीं जाने को न रहा।’ लोग कहते कि चलो हम तुम्हें ले चलें वहा। लोगों को दया आती कि कहीं ऐसा तो नहीं कि का हो गया फकीर, पहाड़ चढ़ नहीं सकता। लोग कहते ‘कांवर कर दें? कंधे पर उठा ले?’ प्यारा आदमी था, लेकिन वह कहता कि नहीं, तुम्हीं जाओ, क्योंकि हम तो वहां हैं ही। तुम जहां जा रहे हो, हम वहीं हैं। और तुम जा कर वहां कभी न पहुंचोगे। अगर तुम्हें भी पहुंचना हो तो कभी लौट कर आ जाना, यहीं बैठ जाना।

तीर्थ भीतर है। सत्य भीतर है, क्योंकि सत्य स्वभाव है। इस बात को जितनी बार दोहराया जाये, उतना कम है। क्योंकि तृष्णा का अर्थ है. सत्य मिला नहीं है, पाना है। और जिन्होंने पाया उनकी घोषणा है. सत्य तुम्हारा स्वभाव है; पाना नहीं है, मिला हुआ है। बस इसकी प्रत्यभिज्ञा, रिकग्नीशन, इसकी पहचान पर्याप्त है।

स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचार दशास्पदम्।

और जब तक तृष्णा रहती है, स्पृहा रहती है, वासना रहती है, तब तक निश्चित ही मनुष्य में विवेक पैदा नहीं होता, बोध पैदा नहीं होता। अविवेक की दशा रहती है।

‘अविवेक’ शब्द को भी समझ लो। अविवेक का अर्थ है चंचल मन, आंदोलित मन; लहरों से भरा हुआ चित्त; झील पर लहरें और तरंगें। चंचल अवस्था अविवेक है। अचंचल दशा—लहर खो गई, शांत हो गई, हवा न चली, मौन हो गया, झील दर्पण बन गई—बोध की दशा है, बुद्धत्व की दशा है।

बुद्ध ने कहा है. जिस दिन तुम दर्पण की भांति हो जाओ, कुछ कंपे न, तो फिर जो है वही तुम में झलकने लगेगा, फिर जो है, वही तुम्हारी प्रतीति में आने लगेगा। अभी तो तुम इतने कैप रहे हो कि जो है वह कुछ पकड़ में आता नहीं, कुछ का कुछ पकड़ में आ जाता है।

ऐसा ही समझो कि कोई आदमी कैमरा ले कर दौड़ता चले और चित्र उतारता चले। फिर जब चित्र निकाले जायें, देखे जायें, तो कुछ पकड़ में न आये, सब चीजें गडु—बड्ड हों, कुछ साफ न हो—ऐसी हमारी दशा है। हम दौड़ते हुए, भागते हुए, जीवन को देखने की कोशिश कर रहे हैं। रुको, ठहरो। दौड़ो— भागो मत! ऐसे रुक जाओ कि क्षण भर को सब रुक जाये, सब गति ठहर जाये, अगति का क्षण आ जाये। तो उसी क्षण जो है तुम्हें दिखाई पड़ जायेगा।

संसार की परिभाषा है : भागते — भागते परमात्मा को देखा—संसार। रुक कर संसार को देखा—परमात्मा। ठीक—ठीक चित्र बन जाये, जो है उसका, तो परमात्मा। गलत—सलत चित्र बन जाये, तो संसार।

संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। संसार परमात्मा है, परमात्मा संसार है। तुम्हारे देखने के दो ढंग हैं। एक भागते हुए आदमी ने देखा, तृष्णा के पीछे दौड़ते आदमी ने देखा—ठीक से देखा नहीं, देखने की फुरसत भी न थी, उपाय भी न था, अवकाश भी न था। और एक किसी ने शांत बोधिवृक्ष के नीचे बैठ कर देखा, बिलकुल ठहर कर देखा।

तुम देखते हो बुद्धों की प्रतिमा हमने बनाई है, तीर्थंकरों की प्रतिमा बनाई हैं! तुमने किसी की चलती हुई प्रतिमा देखी है, चलते हुए? किसी की बैठी बनाई है, किसी की खड़ी बनाई है; लेकिन एक बात तय है : सब रुके हैं। जाओ जैन मंदिरों में, बौद्ध मंदिरों में, खोजो—सब रुके हैं। ठहरे हैं। इस ठहराव में ही सत्य का अनुभव है।

‘प्रवृत्ति में राग, निवृत्ति में द्वेष पैदा होता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष द्वंद्वमुक्त बालक के समान जैसा है वैसा ही रहता है।’

सुनो इस अदभुत वचन को!

प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।

निर्द्वदो बालबद्धीमानेवमेव व्यवस्थित:।

अब अगर तुम्हारे मन में तृष्णा है तो दो बातें पैदा होंगी।

यावत् स्पृहा यावत् निर्विचार दशास्पदम्।

जहां चित्त में तरंगें हैं वहां तुम्हारी बोध की दशा खो गई, तुम गहन अंधकार में भर गये; जो है वह दिखाई नहीं पड़ता; तुम्हारी आंखें सुस्पष्ट न रहीं; स्वच्छता खो गई; आंखों का कुंवारापन खो गया; आंखें दूषित हो गईं। तुम्हारी आंख पर विकृति का चश्मा लग गया। तुम्हारी आंखें अब वही नहीं दिखलाती जो है, या तो वह दिखलाती हैं जो तुम चाहते हो, या दौड़ के कारण जो विकृति छलकती है वह दिखलाती हैं। छाया दिखाई पड़ती है, अब सत्य दिखलाई नहीं पड़ता। परछाइयां घूमती हैं अब, प्रतिबिंब उठते हैं; लेकिन इन प्रतिबिंबों से सत्य का कोई भी पता लगाना संभव नहीं है। शोरगुल पैदा होता है, लेकिन संगीत खो गया।

संगीत और शोरगुल में तुमने कोई बहुत फर्क देखा? इतना ही फर्क है कि शोरगुल में व्यवस्था नहीं है और संगीत में व्यवस्था है। शोरगुल में व्यवस्था आ जाये तो संगीत हो जाता है; संगीत की व्यवस्था खो जाये तो शोरगुल हो जाता है। संगीत का इतना ही अर्थ है कि स्वर लयबद्ध हो गये, सब स्वरों के बीच एक सामंजस्य आ गया, एक समवेतता आ गई। अगर सभी स्वर अनर्गल हों, असंगत हों, एक—दूसरे के विपरीत हों, एक द्वंद्व चला रहे, एक कोलाहल पैदा हों—तो संगीत पैदा नहीं होगा; सिर खाने की अवस्था हो जायेगी; विक्षिप्त करने लगेगा, पागल कर देगा।

परमात्मा इस जगत के शोरगुल में संगीत की खोज है; उसे जान लेना है जो इस सबके बीच समस्वर है, जो एक स्वर सारे स्वरों के बीच व्याप्त है।

यावत् स्पृहा यावत् निर्विचार दशास्पदम्।

और जहां—जहां जब तक तृष्णा है तब तक अविवेक रहेगा।

तावत् जीवीत च हेयोपादेयता संसार विटपांकुर।

और तब तक वह जो संसार का मूलबीज है, अंकुर जिससे पैदा होता है, वह भेद करने की बुद्धि भी रहेगी कि यह ठीक और यह गलत।

नीति और धर्म का यही भेद है। नीति कहती है : यह ठीक, यह गलत। और धर्म कहता है : जो है सो है; न कुछ गलत न कुछ ठीक।

अक्सर तुम नैतिक आदमी को धार्मिक आदमी समझ लेते हो और बड़ी भूल में पड़ जाते हो। नैतिक आदमी सज्जन है, संत नहीं। सज्जन का अर्थ है जो ठीक ठीक है, वही करता है। संत का अर्थ है जिसे अब ठीक और गलत कुछ भी न रहा; जो होता है, वही होने देता है। अब कुछ करता नहीं। सज्जन तो कर्ता है, संत अकर्ता है। अक्सर सज्जन को ही संत समझने की भूल हो जाती है। इसलिए तुम सज्जनों को महात्मा कहने लगते हो। महात्मा बड़ी और बात है।

पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक लेन्हा देलवास्तो पूरब आया—गुरु की खोज में। सुनी थी उसने खबर रमण महर्षि की तो वहा गया, लेकिन वहां कुछ उसे बात जंची नहीं। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं वहां गया, लेकिन वहां मुझे कुछ बात जंची नहीं। क्योंकि वहा कुछ भेद ही न मालूम पड़ा कि अच्छा क्या है, बुरा क्या है; क्या होना चाहिए, क्या नहीं होना चाहिए। रमण से उसने पूछा भी कि मैं क्या करूं, क्या न करूं—तो रमण ने यह कहा : ‘देखो करने में मत पड़ो, साक्षी बनो!’ साक्षी! फिर —फिर उसने पूछा कि मुझे कुछ ठीक—ठीक दिशा—निर्देश दें कि मैं चरित्र को कैसे निर्माण करूं, शुभ वृत्ति कैसे बढ़े? क्योंकि शुभ हुए बिना तो कोई कभी परमात्मा तक पहुंच नहीं सकता। और रमण ने कहा : परमात्मा की बात ही छोड़ो। वहा तुम पहुंचे ही हुए हो। शुभ भी पहुंचा हुआ है, अशुभ भी पहुंचा हुआ है। सब वहीं पहुंचे हुए हैं; क्योंकि अशुभ भी उसके बिना जी नहीं सकता; शुभ भी उसके बिना जी नहीं सकता। बुरे में भी वही बैठा है। रावण में भी वही और राम में भी वही। तो तुम तो साक्षी बनो और कर्ता छोडो।

उसने लिखा कि आदमी तो भले लगे, लेकिन जमे नहीं। वहां से वह गया वर्धा, वहा महात्मा गांधी उसे जमे। उसने लिखा कि यह है गुरु कि एक—एक बात को कहता है कि चाय न पीयो, कि सिगरेट न पीयो, कि कितने बजे उठो, कि कितने बजे बैठो, कि कितने कपड़े पहनो और कितने कपड़े न पहनो, कैसा भोजन करो, कैसा भोजन न करो—छोटी—छोटी चीज से ले कर, चटनी से ले कर ब्रह्म तक सारा विचार! चटनी भी नीम की खाना, गांधी जी कहते थे, ताकि स्वाद मरे। यह बात जंची। भोजन में स्वाद मत लेना, रस मत लेना। इसलिए किसी चीज में सुख मत लेना। तो बिना नमक की खा लेना। अगर उसमें भी थोड़ा स्वाद आता हो तो नीम की चटनी मिला लेना।… ये जंचे। गुरु बना लिया गांधी को।

रमण को छोड़ कर गांधी को गुरु बना लिया! तो आश्चर्य मत करना, तुम्हारी भी संभावना यही है। लेन्झा देलवास्तो ने ही कुछ ऐसा नहीं कर लिया; तुम्हारे भी मन की समझ इतनी ही है। तुम भी रमण को न पहचान सकोगे। रमण की तस्वीरें कितने घरों में लगी हैं? रमण की कौन चिंता करता है!

गांधी की तस्वीरें कितने घरों में हैं? घर—घर में हैं, दफ्तर—दफ्तर में हैं! गांधी महात्मा हैं!

तुम तो चकित होओगे यह जान कर कि एक आदमी ने जहां रमण बैठे रहते थे वहां भी उनके पीछे गांधी की तस्वीर टांग दी थी। रमण तो उनमें से थे कि उन्होंने यह भी न कहा कि यह क्या कर रहे हो! उन्होंने कहा, ठीक है, टांग रहे हो तो टांग दो। रमण के पीछे भी गांधी की तस्वीर टंगी थी! सज्जन हमें पहचान में आ जाता है। वह हमारी भाषा बोलता है। तुम्हें भोजन में रस है, वह विरस की भाषा बोलता है—एकदम समझ में आ जाता है। तुम्हें स्त्री में रस है, वह ब्रह्मचर्य की बात करता है—एकदम समझ में आ जाता है। तुम्हें धन की पकड़ है, वह त्याग की बात करता है—एकदम समझ में आ जाता है। भाषा वही है, जरा भी भेद नहीं है। तुम्हारी और सज्जन की भाषा में जरा भेद नहीं है। तुम्हारी दुर्जन की भाषा; उसकी सज्जन की। तुम इधर को जा रहे हो, वह तुमसे विपरीत जा रहा है; लेकिन रास्ता एक ही है। तुम सीडी पर नीचे की तरफ जा रहे हो, वह सीढ़ी पर ऊपर की तरफ जा रहा है; लेकिन सीढ़ी एक ही है। संत तुम्हें बिलकुल समझ में नहीं आता। संत बेबूझ है ओं

प्रवृत्तौ जायते रागो……।

पहले तो लोग प्रवृत्ति में राग रखते हैं—यह कर लें, यह कर लें, यह कर लें! फिर जब बार—बार करके पाते हैं कि सुख नहीं मिलता तो सोचने लगते हैं, निवृत्ति कर लें। वह भी प्रवृत्ति की आखिरी सरणी है। पहले सोचते हैं, भोग लें; और जब भोग में कुछ नहीं मिलता तो सोचते हैं, चलो अब त्याग कर लें, अब त्याग को भोग लें! देख लिया संसार में, कुछ न पाया; अब संन्यासी हो जायें, अब त्यागी हो जायें; स्त्रियों के पीछे दौड़ कर देख लिया, अब स्त्रियों के विपरीत दौड़ कर देख लें; शायद सुख वहा हो। भोजन की खूब—खूब आकांक्षा करके देख ली, कुछ भी न मिला, देह जीर्ण—जर्जर हो गई, अब उपवास करके देख लें!

‘प्रवृत्ति में राग और निवृत्ति में द्वेष…।’

जिस—जिससे राग था प्रवृत्ति में, जहां —जहां हार हो गई, विषाद आया, जीवन का स्वाद खराब हुआ—वहां —वहां द्वेष पैदा हो गया।

तो तुम देखो, तुम्हारा साधु स्त्री को गाली देता रहता है, स्वाद को गाली देता रहता है, भोग को गाली देता रहता है। यह हुआ क्या? यह द्वेष हो गया। जहां राग था, वहां द्वेष हो गया। पहले आग में हाथ डालने का मन होता था; डाल कर देख लिया, हाथ जल गये—अब आग से दुश्मनी हो गई। पहले आकर्षण था, अब विकर्षण हो गया। लेकिन संबंध जुड़ा है, संबंध नहीं जाता।

संत वही है जिसका संबंध ही गया। भोग तो व्यर्थ हुआ ही हुआ, त्याग भी व्यर्थ हुआ। भोग के साथ ही त्याग भी व्यर्थ हो जाये तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होती है। अनीति के साथ ही साथ नीति भी व्यर्थ हो जाये और अशुभ के साथ साथ शुभ भी व्यर्थ हो जाये, क्योंकि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उनमें भेद नहीं है। दुर्जन और सज्जन एक—दूसरे के साथ खड़े हैं। दुर्जन और सज्जन सहयोगी हैं, एक ही दुकान में पार्टनर हैं।

तुम जरा एक ऐसी दुनिया की कल्पना करो जिसमें कोई दुर्जन न हो, क्या वहां सज्जन होंगे? एक ऐसी दुनिया की कल्पना करो कि जहां राम ही राम हों और रावण न हों—राम बचेंगे? राम के बचने के लिए रावण का होना एकदम जरूरी है। रावण के बिना राम हो नहीं सकते। यह भी क्या राम होना हुआ! यह तो बड़ी मजबूरी हुई। यह तुम थोड़ा सोचो। यह तो राम रावण पर निर्भर है। रावण भी न हो सकेगा राम के बिना। ये दोनों ही पात्र रामलीला में जरूरी हैं।

तुम जरा रामलीला खेल कर दिखा दो बिना रावण के! लीला चलेगी नहीं, इंच भर आगे न चलेगी। कथा पहले से ही गिर जायेगी। और जनता पहले से उठ जायेगी कि फिजूल की बकवास है, जब रावण ही नहीं है तो रामलीला होगी कैसे! सीता चुराई जानी चाहिए, युद्ध होना चाहिए—यह कुछ भी नहीं होने वाला है। रामचंद्र जी बैठे हैं वहा, थोड़ी देर भक्त बैठे रहेंगे, राह देखेंगे कि कुछ हो; कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि होने के लिए द्वंद्व चाहिए।

शुभ और अशुभ एक साथ हैं। रामलीला में दोनों सहयोगी हैं। और तुम्हें अगर ठीक—ठीक देखना हो तो कभी—कभी रामलीला देख कर रामलीला के पीछे भी जा कर देखना—पदें के पीछे—तुम राम—रावण को, दोनों को चाय पीते पाओगे, गपशप करते। इधर लड़ रहे थे पर्दे के इस पार, पीछे गपशप कर रहे हैं। ये सब एक ही नाटक—मंडली के सदस्य हैं।

अष्टावक्र का सूत्र यह कह रहा है कि तुम्हें अगर नाटक के बिलकुल बाहर होना है तो तुम्हें सदस्यता छोड़नी पड़ेगी, तुम्हें यह मंडली ही छोड़ देनी पड़ेगी—न राम न रावण। तुम्हें दोनों के द्वंद्व के पार होना पड़ेगा।

प्रवृत्तौ जायते रागो……।

प्रवृत्ति तो है राग।

निवृत्तौ द्वेष एव ही……।

और निवृत्ति है द्वेष। मगर द्वेष भी तो बंधन है। जिस चीज से द्वेष होता है उससे हम बंधे रह जाते, अटके रह जाते हैं। एक खटक बनी रह जाती है। यह कोई मुक्ति तो न हुई।

निर्द्वद्वो बालबद्धीमानेवमेव व्यवस्थित:।

यह सूत्र अदभुत है, स्वर्णसूत्र है।

‘बुद्धिमान पुरुष द्वंद्वमुक्त बालक के समान है, जैसा है वैसा ही है।’

कुछ बनने की चेष्टा नहीं है। बालक का अर्थ होता है जो जैसा है वैसा है। जब उसे क्रोध आ जाता है तो बालक यह नहीं सोचता, करूं कि न करूं! जब उसे प्रेम आ जाता है तो भी यह नहीं सोचता कि प्रगट करना उचित कि नहीं। वह हिसाब नहीं लगाता।

एक अंग्रेज साधक चाडविक ने रमण के संस्मरणों में लिखा है कि वह बड़ा हैरान हुआ। एक दिंने ऐसा हुआ कि एक संन्यासी, पुराणपंथी संन्यासी, विवाद करने आ गया। रमण ने उसे, जो वह पूछता था बार—बार, कहा। लेकिन वह तो सुनने को राजी न था, वह तो अपनी बुद्धि से भरा था, अपने शास्त्र से भरा था। वह तो बड़े उल्लेख, शास्त्रों के उदाहरण दे रहा था और बड़ी तर्क —वितण्डा फैला रहा था। रमण सीधे —साधे! वे उसे सुनते, आधा घंटा उसे सुनते, फिर कहते कि साक्षी— भाव रखो! विवाद में उतरे नहीं। वह संन्यासी और जलने लगा, और क्रोध से भरने लगा। वह खींचना चाहता था विवाद में! शिष्य थोड़े परेशान हुए कि यह व्यर्थ की बात हो रही है, व्यर्थ का समय खराब हो रहा है और व्यर्थ को महर्षि को परेशान किया जा रहा है। लेकिन करें क्या! वह अपने तकिए से टिके महर्षि उसे सुनते। जब बहुत देर हो गई, उन्होंने उसे बार—बार कहा कि मेरी बात थोड़ी—सी है, वह मैंने तुमसे कह दी। जब वह न हुआ सुनने को राजी तो उन्होंने उठा लिया अपना डंडा, भागे उसके पीछे! वह तो घबड़ा कर बाहर निकल गया। उसने सोचा कि यह तो मारपीट की नौबत..। उसने सोचा न था कि शानी पुरुष ऐसा करेगा! लौट कर, डंडा रख कर वह फिर अपना लेट गये। और कोई दूसरे भक्त ने कुछ पूछा, उसका उत्तर देने लगे।

चाडविक ने लिखा है : उस दिन उनका रूप देख कर मन मोह गया! बालवत! छोटे बच्चे जैसे! यह भी न सोचा कि लोग क्या कहेंगे, कि आप और क्रोधित! क्रोधित हुए भी नहीं, क्योंकि क्रोध अगर हो जाये तुम्हें, तो सरकता है। घटना तो बीत जाती है, लेकिन क्रोध का धुआं एकदम से थोड़े ही चला जाता है; घड़ियों रहता है, दिनों रहता है, कभी तो वर्षों रहता है। डंडा ले कर दौड़ भी गये, वापिस आ कर फिर बैठ गये। वह आदमी चला भी गया। वे फिर वैसी बात करने लगे जैसी बात चल रही थी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं है।

गुरजिएफ के संबंध में ऐसे बहुत—से उल्लेख हैं, जब वह बिलकुल पागल हो जाता और एक क्षण में ऐसा ठंडा हो जाता कि भरोसा ही नहीं आता लोगों को कि एक क्षण में कोई इतना उत्तप्त हो सकता है और इतना ठंडा हो सकता है! छोटे बच्चे की भांति!

जीसस का बड़ा प्रसिद्ध उल्लेख है। वे तो कहते थे कि सभी को क्षमा करो, किसी का निर्णय न करो, दुश्मन को भी प्रेम करो। यही उन्होंने अपने शिष्यों को समझाया था। और एक दिन उन्होंने अचानक कोड़ा उठा लिया मंदिर में और मंदिर में जो लोग रुपये—पैसे ब्याज पर देने का धंधा करते थे उनके तख्ते उलट दिये। और अकेले आदमी, ऐसे पागल की तरह हो गये कि भीड़ की भीड़ को बाहर खदेड़ दिया—एक आदमी ने! शिष्य तो बड़े हैरान हुए, क्योंकि वे तो सुनते रहे थे. ‘दुश्मन को प्रेम करो और जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, दूसरा उसके सामने कर देना!’ यह जीसस को हो क्या गया! और जब इन सबको खदेड़ कर जीसस मंदिर के बाहर वृक्ष के नीचे आ कर बैठ गये तो वे वैसे के वैसे थे, जैसे कोई रेखा नहीं खिंची। ईसाई इसको समझा नहीं पाये। ईसाइयों को बड़ी अड़चन रही है इस घटना को समझाने में; क्योंकि अगर यह सच है तो फिर ईसा के वचनों का क्या हो? अगर वचन सच हैं तो फिर ईसा के इस व्यवहार का क्या हो?

एक वृक्ष के नीचे ईसा रुके। भूखे थे। वृक्ष पर देखा कि शायद फल लगे हों; वृक्ष पर फल नहीं थे। तो ईसा ने कहा कि देख, हम आये और तूने फल न दिये तो तू सदा—सदा के लिए बे—फल रहेगा, अब तुममें फल पैदा न होंगे। बर्ट्रेड रसेल ने लिखा है जीसस के खिलाफ, कि यह आदमी बातें तो करता है शांति की, लेकिन वृक्ष पर नाराज हो गया! अब वृक्ष का क्या कसूर है? अगर फल नहीं लगे तो वृक्ष का कोई कसूर है? इसमें नाराज हो जाना और इतना नाराज हो जाना कि सदा के लिए कह देना अभिशाप कि कभी तुझ पर फल न लगेंगे! यह तो बात ठीक नहीं मालूम पड़ती।

रसेल का तर्क भी ठीक है। रसेल ने एक किताब लिखी है. ‘व्हाय आइ एम नाट ए क्रिश्चियन? मैं ईसाई क्यों नहीं?’ उसमें जो दलीलें गिनाई हैं, उनमें एक दलील यह भी है कि जीसस का व्यवहार उच्छृंखल है और जीसस के व्यवहार में शांति नहीं है, अशांति है। निश्चित ही ऐसे उल्लेख हैं जो कि कहते हैं कि अशांति मालूम होती है। इसमें तो नाराजगी क्या होनी?

लेकिन अगर तुम पूरब के मनीषियों से पूछो तो वे कहेंगे. वृक्ष पर नाराज कोई बच्चा ही हो सकता है। थोड़ा सोचना। छोटे बच्चे को देखो, टेबल से धक्का लग जाता है तो टेबल को एक चांटा लगा देता है कि अपनी जगह रह, अगर ज्यादा गड़बड़ किया तो बहुत पिटाई हो जायेगी! दीवाल से सिर टकरा जाता है तो दीवाल को मारने लगता है। यह छोटे बच्चे का व्यवहार है।

रसेल की बात बड़ी विचारपूर्ण है, लेकिन रसेल को कोई पता नहीं है कि एक ऐसी भी दशा है परम मुक्ति की, एक ऐसी दशा है परम कैवल्य की जहां व्यक्ति पुन: बच्चे की भांति हो जाता है। और जीसस का तो प्रसिद्ध वचन है कि जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे, दूसरे नहीं। बहुत कठिन है यह बात स्वीकार करनी, क्योंकि हम संत से तो बहुत संयोजित व्यवहार की आशा रखते हैं। संत से तो हम आशा रखते हैं कि उसके व्यवहार में कोई कमी—खामी न होगी, कोई त्रुटि न होगी। संत से तो हम पूर्ण होने की आशा रखते हैं। क्योंकि संत तो हमारे लिये आदर्श हैं, उसका तो हम अनुकरण करेंगे।

लेकिन तुम सुनो, अष्टावक्र कहते हैं कि परम संत वही है जो बालवत है। पूर्ण नहीं है, समग्र है। पूर्ण और समग्र के भेद को समझ लेना। बच्चा सदा समग्र होता है, पूर्ण कभी नहीं होता। एक समग्रता होती है। बच्चा जब क्रोध करता है तो क्रोध हो जाता है। फिर कुछ नहीं बचता है उसमें, वह आग होता है। इसलिए बच्चे को क्रोधित देखो तो एक सौंदर्य होता है बच्चे में। तुमने न देखा हो, गौर करके देखना। तुम अपने छोटे—मोटे और दूसरे विचार एक तरफ रख देना। जब एक छोटा बच्चा नाराज होता है तो छोटा—सा प्राण, लेकिन ऐसा लगता है सारी दुनिया को हिला देगा। पैर पटकता है पृथ्वी पर जोर से। उसकी नाराजगी में एक बल है, एक सौंदर्य है, एक कौमार्य है, एक कोमलता— और फिर भी एक महाशक्ति! और क्षण भर बाद भूल गया। क्षण भर पहले तुम पर क्रोधित हुआ था और कहता था : ‘अब कभी तुम्हारी शक्ल न देखेंगे, दोस्ती खत्म!’ कट्टी कर ली थी। क्षण भर बाद तुम्हारी गोद में बैठा है। याद ही न रही। बडा असंगत व्यवहार है बच्चे का! लेकिन समग्र है। जब क्रोध में था तो पूरा क्रोध में था, जब प्रेम में है तो पूरा प्रेम में है। उसके प्रेम को ड़सका क्रोध आ कर खराब नहीं करता और उसके क्रोध को उसका प्रेम आ कर खराब नहीं करता; जब होता है तब समग्र होता है, पूरा—पूरा होता है। जो होता है वही होता है; उससे अन्यथा नहीं होता। उसके जीवन में एक प्रामाणिकता है।

बच्चा बिलकुल चरित्रहीन होता है; उसका कोई चरित्र नहीं होता। चरित्र होने के लिए तो बड़ी चालाकी चाहिए। चरित्र होने के लिए तो आयोजन चाहिए, व्यवस्था चाहिए। चरित्र होने के लिए तो बड़ी कुशलता चाहिए, होशियारी चाहिए, तर्क चाहिए, गणित चाहिए। चरित्र का तो अर्थ होता है : सम्हल—सम्हल कर चलो। चरित्र का तो अर्थ होता है : देख—देख कर करो; जो करना हो वही करो जो न करना हो वह मत करो। सोच कर करो कि कल इसका क्या परिणाम होगा? परसों क्या परिणाम होगा? आज तुम ऐसा कहोगे तो क्या प्रतिक्रिया होगी? आज तुम ऐसा करोगे तो क्या प्रतिक्रिया होगी?

तो चरित्रवान व्यक्ति कभी समग्र नहीं होता; हिसाबी होता है, किताबी होता है। उसके बही—खाते होते हैं। छोटा बच्चा चरित्रहीन है।’चरित्र—मुक्त’ कहना चाहिए; ‘हीन’ कहना ठीक नहीं, चरित्र—मुक्त। अभी चरित्र पैदा ही नहीं हुआ। अभी समग्र है। अभी तो जो भीतर की सचाई है वही बाहर प्रगट होती है। अगर भीतर क्रोध है तो बाहर क्रोध है। अगर भीतर प्रेम है तो बाहर प्रेम है। अभी भीतर और बाहर

में द्वंद्व पैदा नहीं हुआ। अभी भीतर और बाहर में एकरसता है।

संत पुन: बच्चे की भांति हो जाता है। अब फिर बाहर और भीतर में एकरसता है। संत का कोई चरित्र नहीं होता। चौंकना मत जब मैं ऐसा कहता हूं! संत का कोई चरित्र हो ही नहीं सकता। सज्जन का चरित्र होता है, दुर्जन में दुश्चरित्रता होती है। संत तो चरित्र के पार होता है—चरित्रातीत।

‘बुद्धिमान पुरुष द्वंद्वमुक्त है।’

उसके पास दो का भाव नहीं रह जाता। यह ठीक और यह सही, यह हेय, यह उपादेय; यह शुभ, यह अशुभ, यह माया, यह ब्रह्म—ऐसा कुछ नहीं रह जाता। जो है, है।

‘. ……द्वंद्व मुक्त बालक के समान जैसा है वैसा ही रहता है।’

संत होना सहज होना है।

तुमने तीन शब्द सुने हैं—सविकल्प समाधि; निर्विकल्प समाधि, सहज समाधि। सस्त्रिकल्प समाधि में विचार रहता है। निर्विकल्प समाधि में विचार चला जाता है; लेकिन विचार चला गया है, इसका बोध रहता है। सहज समाधि में वह बोध भी चला जाता है, न विचार रहता, न निर्विचार रहता। सहज समाधि का अर्थ है : आ गये अपने घर, हो गये स्वाभाविक; अब जैसा है वैसा है; जो है वैसा है; उससे अन्यथा की न कोई चाह है न कोई मांग है। इस ‘जैसे हो वैसे ही’ के साथ राजी हो जाने में ही तृष्णा का पूर्ण विसर्जन है। फिर तृष्णा कैसी! फिर तृष्णा नहीं बच सकती है।

निर्द्वद्वो बालवत धीमान् एवं एव व्यवस्थित:।

वही है बुद्धिमान जो निर्द्वंद्व बालक की भांति हो गया। वही है धीमान, उसी के पास प्रतिभा है। जैसा है वैसा ही उसमें ही स्थित, अन्यथा की कोई मांग नहीं, जरा भी तरंग नहीं उठती अन्यथा की! बहुत कठिन है यह बात समझनी। है तो बहुत सरल, लेकिन समझनी कठिन है। क्योंकि हमें जो समझाया गया है वह इसके बिलकुल विपरीत पड़ता है। हमें तो समझाया गया है चोरी छोड़ो, अचोर बनी; झूठ छोड़ो, सच बोलो। यह सच के ऊपर जा रही है बात।

कबीर के जीवन में ऐसा उल्लेख है, कि वे रोज उनके घर भजन करने लोग इकट्ठे होते थे। कबीर तो सहज समाधि में थे, बालवत थे। जब लोग इकट्ठे हो जाते और भोजन का समय होता तो वे उनसे कहते ‘चलो भोजन करके जाना! अब कहां जाते हो, भोजन कर जाओ!’ पति तो ऐसा कहे, लेकिन पत्नी बड़ी मुश्किल में पड़ गई। अब यह कहां से रोज—रोज भोजन लाओ! इतना भोजन! कबीर तो गरीब आदमी थे, कपड़ा बुन कर बेच लेते थे जो थोड़ा—बहुत, वह भी जो भजन इत्यादि से समय बच जाता कभी तो बुन लेते—उसी में काम चलाना था। तो पत्नी ने कहा कि मैं तो न कह सकूंगी, क्योंकि मैं कैसे कहूं कि घर में कुछ भी नहीं है, मैं कैसे खिलाऊं, कहां से लाऊं! उधारी बढ़ती जाती है। बेटे को कहा—कमाल को—कि तू अपने बाप को समझा कि अब यह कहना बंद कर दो, हमारे पास सुविधा नहीं है। लोग भजन करें, जायें, तो जाने दो, उनको रोको मत। हाथ पकड़—पकड़ कर रोकते हो कि बैठो, भोजन करके जाना, कहां जाते हो! लोग जाना भी चाहते हैं, क्योंकि लोगों को पता है कि घर में भोजन की सुविधा नहीं है।

तो कमाल ने कबीर से कहा, एक दफा कहा, दो दफा कहा, तीन दफा कहा, चौथी दफा कमाल नाराज हो गया। कमाल भी कमाल का ही बेटा था। उसने कहा अब बंद करते हो कि नहीं गुम क्या

हम चोरी करने लगें? उधारी चढ़ गई सिर पर, चुकती नहीं। अब तो एक ही उपाय बचा है। अगर तुमने यह जारी रखा तो हम चोरी करने लगेंगे।

कबीर तो खिल गये जैसे कमल खिल जाये। कबीर ने कहा अरे पागल तो पहले क्यों न सोचा! इतने दिन खुद परेशान, तू परेशान, तेरी मां परेशान! और इतने दिन मुझे भी परेशान कर रहे हो! तो पहले क्यों न सोचा?

कमाल तो चौंका। उसने कहा : हद हो गई! इसका क्या अर्थ हुआ! क्या चोरी के लिए भी स्वीकृति! लेकिन कमाल भी कमाल था। उसने कहा. ‘तो ठीक। तो आज चोरी करने जायेंगे। लेकिन आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।’ उसने सोचा कि यह मजाक ही होगी; जब बात मुद्दे की आयेगी और चोरी करने की बात उठेगी तो शायद इनकार कर जायेंगे। लेकिन कबीर ने कहा ‘हा—हां, चलूंगा।’ कमाल भी कमाल ही था! रात आ गया उठ कर आधी रात, कहा कि चलो। अभी भी सोचता था कि आखिरी वक्त में वे नट जायेंगे कि चोरी और कबीर! बात कुछ मेल खाती नहीं। लेकिन कबीर उठ गये, हाथ—मुंह धो कर चल पड़े। कहने लगे : ‘कहां चलना है, चल।’ मगर कमाल भी कमाल ही था। उसने जाकर सेंध लगा दी एक मकान में। उसने कहा, हो सकता है अब रुक जायें। वह भी आखिरी दम तक देखना चाहता था कि मामला कहां तक जाता है। सेंध भी खुद गई। उसने कहा. ‘तो मैं अंदर चला जाऊं?’ कबीर ने कहा : ‘ अब इधर आये किसलिए! तो पागल, आधी रात नींद वैसे ही खराब की! तो जल्दी कर, क्योंकि ब्रह्म—मुहूर्त हुआ जाता है और थोड़ी देर में भजन करने वाले लोग आते होंगे!’

बड़ी अनूठी कहानी है। अनूठी, क्योंकि उसके फिर मुकाबले में कोई कहानी पूरे संत—साहित्य में नहीं है। तो कमाल भीतर चला गया। कमाल भी कमाल ही था। उसने कहा कि ठीक है, शायद जब मैं ले आऊंगा धन तब वे इनकार कर देंगे। वह भी आखिरी दम तक देख लेना चाहता था। बाप का ही बेटा था। कबीर का ही बेटा था। कहा कि तुम अगर आखिरी दम तक कस रहे हो तो मैं भी..। वह ले आया खींच कर अशर्फियों से भरी एक बोरी। बोरी बाहर निकाल रहा था, तभी कबीर ने कहा कि ‘सुन, घर के लोगों को जगा दिया कि नहीं, बता दिया कि नहीं?’ तो उसने कहा : ‘क्या मतलब?’ कहा. ‘घर के लोगों को बता तो दे भाई कम से कम। सुबह भटकेंगे, यहां—वहां खोजेंगे, उनको पता तो होना चाहिए, कौन ले गया! शोरगुल कर दे!’ तो कमाल तो कमाल ही था, उसने शोरगुल कर दिया।और जब कबीर कह रहे हैं तो कर दो शोरगुल! शोरगुल कर दिया तो पकड़ लिया गया। सेंध में से निकल रहा था, घर के लोगों ने पीछे से पैर पकड़ लिए। तो उसने पूछा कबीर से. ‘अब क्या करना? लोगों ने पैर पकड़ लिए हैं।’ तो कबीर ने कहा : ‘पकड़े रहने दे पैर। पैर का करना भी क्या है! सिर मैं तेरा लिए जाता हूं।’ कहते हैं सिर काट लिया, सिर ले गये। घर के लोगों ने पीछे खींच लिया कमाल को। बिना सिर का था तो पहचानना मुश्किल हो गया कि कौन है, क्या है। लेकिन कुछ रंग—ढंग से लगता था कि अपूर्व व्यक्ति है! गंध कुछ ऐसी थी, हाथ—पैर का सौंदर्य ऐसा था, शरीर का अनुपात ऐसा था, कोमलता ऐसी थी, प्रसाद ऐसा था! बिना सिर के भी था तो भी!

किसी ने कहा कि हमें तो ऐसा लगता है कि कबीर का बेटा कमाल है, तो इसे बाहर खंभे पर लटका दें, पहचान हो जायेगी। क्योंकि थोड़ी ही देर में कबीर की मंडली निकलेगी भजन करते, कोई

न कोई पहचान लेगा। तो उन्होंने खंभे पर लटका दिया बाहर। थोड़ी देर बाद मंडली निकली कबीर की भजन करते। पकड़े गये, क्योंकि कमाल का शरीर वहां लटका था। रोज की आदत, पुरानी आदत, ऐसी जल्दी तो छूटती नहीं—जब लोगों को भजन करते देखा तो वह ताली बजाने लगा! वह जो लाश लटकी थी, वह ताली बजाने लगी।

कहानी तो कहानी ही है; सच होनी चाहिए, ऐसा नहीं है। लेकिन बड़ी प्रतीकात्मक है कि कबीर चोरी को भी राजी हो गये; बेटे का सिर काटने को भी राजी हो गये; न चोरी से डरे न हिंसा से डरे। ऐसा हुआ है, ऐसा मैं कह नहीं रहा, लेकिन ऐसा भी हो तो भी आश्चर्य नहीं है। क्योंकि हमारे जो द्वंद्व हैं—चोरी बुरी और अचोरी अच्छी, और हिंसा बुरी और अहिंसा अच्छी—ये हमारे चंचल चित्त की लहरों से उठी हुई धारणायें हैं। हेयोपादेय! यह अच्छा, यह बुरा; यह शुभ, यह अशुभ! कहीं तो कोई एक दशा होगी, न जहां कुछ शुभ रह जाता, न अशुभ। कहीं तो कोई एक दशा होगी निर्द्वंद्व! कहीं तो एक सरलपन होगा, जहां भेद नहीं रह जाता! कहीं तो कोई एक स्थान होना चाहिए, एक स्थिति होनी चाहिए—जहां सब द्वंद्व खो जाते हैं, द्वैत लीन हो जाता है, अद्वैत का जन्म होता है! उसी अद्वैत की बात है।

निर्द्वद्वो बालवत धीमान् एवं एव व्यवस्थित:।

हो जाये जो बच्चे जैसा निर्द्वंद्व, द्वंद्व के पार..।

एक बात और यहां समझ लेना। बच्चे जैसा कहा है; बच्चा ही नहीं कहा है। क्योंकि अगर ऐसा हो तो सभी बच्चे संतत्व को उपलब्ध हो गये। लेकिन बच्चे संतत्व को उपलब्ध नहीं हैं। बच्चे तो अभी भटकेंगे। बच्चे तो भटकने की पहली दशा में हैं, भटकने के पूर्व। संत है भटकने के बाद। वर्तुल पूरा हो जाता है। जहां से चले थे, वहीं आ जाते हैं। अगर तुम्हारा जीवन ठीक—ठीक विकासमान हो, ठीक—ठीक वर्द्धमान हो, अगर तुम्हारा जीवन ठीक से चले—तों जब तुम पैदा हुए, जैसे तुम बच्चे थे वैसे ही मरते वक्त पुन: तुम्हें बच्चे हो जाना चाहिए। तो वर्तुल पूरा हो गया। जहां से चले थे वहीं वापस आ गये; मूलस्रोत उपलब्ध हो गया।

यह अंतिम बालपन की बात हो रही है। बच्चों जैसे का अर्थ है. बच्चे नहीं; जो गुजर चुके जीवन के सारे अनुभवों से और फिर भी बच्चे जैसी सरलता को उपलब्ध हो गये हैं! बच्चे तो बिगड़ेंगे, बच्चे तो बिगड़ने को बने हैं। बच्चे तो अभी तैयार हो रहे हैं बिगड़ने के लिए। अभी निकाले जायेंगे बहिश्त के बाहर। अभी स्वर्ग खोयेगा। अभी उनकी जो निर्दोषता है, वह कोई उपलब्धि नहीं है, वह प्रकृति की भेंट है। सभी बच्चे सुंदर, सभी बच्चे शांत, सभी बच्चे समग्र पैदा होते हैं। फिर धीरे— धीरे विसंगतियां पैदा होती हैं, विरोध पैदा होते हैं। धीरे— धीरे बच्चे का बचपन खोता चला जाता है। पाप पैदा होता है। पाप का इतना ही अर्थ है : भेद शुरू हो गया। कपट पैदा होता है। कपट का इतना ही अर्थ है. हिसाब आ गया। सरलता चली गई। जैसे थे वैसे न रहे। जैसे नहीं हैं, वैसा बतलामें लगे। राजनीति आ गई। कूटनीति आ गई।

बच्चा तो भटकेगा। बच्चे को भटकना ही पड़ेगा, क्योंकि बिना भटके जगत के अनुभव से गुजरने का कोई उपाय नहीं। इस जगत् के बीहड़ बन में भटकना पड़ेगा। संत वह है जो इस बीहड़ बन से गुजर गया; इस सबको देख लिया—अच्छे को भी, बुरे को भी—और दोनों को असार पाया। जिन्होंने

बुरे में सार देखा, वे दुर्जन; जिन्होंने अच्छे में सार देखा, वे सज्जन; जिन्होंने दोनों में सार नहीं देखा, वे संत। जो दोनों के पार हो गये, जिन्होंने दोनों को देख लिया, दोनों को देखा, खूब देख लिया, भरपूर

देख लिया—और दोनों को थोथा पाया……!

मैंने ऐसी दुनिया जानी।

इस जगती के रंगमंच पर

आऊं मैं कैसे क्या बन कर

जाऊं मैं कैसे क्या बन कर

सोचा, यत्न किया जी भरकर

किंतु कराती नियति—नटी है

मुझसे बस मनमानी।

मैंने ऐसी दुनिया जानी।

आज मिले दो, यही प्रणय है

दो देहों में यही हृदय है

एक प्राण है एक श्वास है

भूल गया मैं यह अभिनय है

सबसे बढ़ कर मेरे जीवन

की थी यह नादानी।

मैंने ऐसी दुनिया जानी।

देखा बुरा, भूल गये कि नाटक है। देखा भला, भूल गये कि नाटक है। बुरे में जो भटक गया, हो गया रावण। भले में जो भटक गया, हो गया राम। जिसने बुरे को ओढ़ लिया, हो गया पापी। जिसने भले को ओढ़ लिया, हो गया पुण्यात्मा। जिसने बुरे में जड़ें जमा लीं, हो गया हीनात्मा। और जिसने भले में जड़ें जमा लीं, हो गया महात्मा। लेकिन जिसने दोनों में जाना—

सोचा, यत्न किया जी भरकर

किंतु कराती नियति—नटी है

मुझसे बस मनमानी।

मैंने ऐसी दुनिया जानी।

भूल गया मैं यह अभिनय है

सबसे बढ़ कर मेरे जीवन

की थी यह नादानी।

मैंने ऐसी दुनिया जानी।

और जिसने देखा कि सब नाटक है—बुरा भी, भला भी; रावण भी रामलीला के पात्र, राम भी! जिसने जीवन को अभिनय जाना; जो साक्षी हो कर पार खड़ा हो गया; जिसने कहा, न मैं रावण हूं न मैं राम हूं—वह पार हो गया!

मेरे पास बहुत मित्र पत्र लिख कर भेज देते हैं कि आप कृष्ण पर बोले, बुद्ध पर बोले, जीसस

पर बोले, कबीर, नानक, दादू सहजो, फरीद, सूफियों पर बोले, झेन फकीरों पर बोले; राम को क्यों छोड़ जाते हैं? तुलसी की रामायण को क्यों छोड़ जाते हैं? तुलसीदास पर क्यों नहीं बोलते? राम पर क्यों नहीं बोलते?

कारण है। सज्जन में मेरी बहुत रुचि नहीं है। संत में मेरी रुचि है। राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं। मर्यादा के जो पार है, उसमें मेरी रुचि है। कृष्ण में मेरी रुचि है, क्योंकि कृष्ण मर्यादा—शून्य हैं। कृष्ण से ज्यादा चरित्रहीन व्यक्ति पाओगे संसार में! कृष्ण से ज्यादा गैर— भरोसे योग्य व्यक्ति पाओगे कहीं! किसी बात का पक्का नहीं है। छोटे बच्चे जैसा व्यवहार है। कसम खा ली थी कि शस्त्र न उठाऊंगा, फिर उठा लिया! कसमों का कोई हिसाब रखे! किसको याद रहे कसम! छोटे बच्चे जैसा व्यवहार है!

मुझसे लोग पूछते हैं कि कृष्ण के इस व्यवहार में आप क्या देखते हैं? कुछ भी नहीं देखता हूं —यह सीधा—सरल व्यवहार है। खा ली थी कसम किसी क्षण में; अब वह क्षण गया, नया क्षण आ गया। अब इस नये क्षण की नई स्थिति है। इस नये क्षण का नया संवेग है! इस नये क्षण के लिए नया उत्तर चाहिए! पुरानी कसम से बंधे रहते तो मर्यादा होती। बंधे न रहे। अस्तित्व के नये ढंग के साथ नये हो लिए।

तुमने कृष्ण का एक नाम सुना रणछोड़दास जी! भगोड़ादास जी! भाग खड़े हुए! किसी मौके पर देखा कि भागने में ही सार है तो फिर ऐसा नहीं कि जिद की तरह अड़े रहेंगे कि चाहे जान रहे कि जाये, झंडा ऊंचा रहे हमारा! भाग गये, कि देखा कि परिस्थिति भागने की है, तो इसमें अकड़ न रखी। उनके भक्तों ने भी खूब नाम बना लिया—रणछोड़दास जी!

कृष्ण में एक मर्यादा—पार की प्रभा है। कृष्ण को समझना थोड़ा कठिन है। राम सीधे —साफ हैं। राम में कुछ विशिष्ट नहीं। महिमापूर्ण हैं, मगर विशिष्ट नहीं। महात्मा हैं, लेकिन संत नहीं। इसलिए जान कर छोड़ता रहा हूं। जब परम की ही बात करनी हो तो राम वहां नहीं आते। और इसी की सूचना हिंदुओं ने भी दी। उन्होंने भी राम को अंशावतार कहा; पूर्णावतार कहने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि बात गलत हो जायेगी। कृष्ण को पूर्णावतार कहा। कहा कि यह पूरा—पूरा परमात्मा। पूरा—पूरा परमात्मा का अर्थ हुआ : अब मर्यादा भी नहीं। मर्यादा भी आदमी की होती है। सीमा आदमी की होती है। तो ठीक है राम के लिए मर्यादापुरुषोत्तम नाम, कि पुरुषों में उत्तम मर्यादा वाले, सबसे बड़ी मर्यादा वाले। लकीर के बिलकुल फकीर हैं। यह किसी धोबी ने कह दिया अपनी पत्नी से कि ‘तू रात भर कहां रही? तू मुझे राम समझी है कि वर्षों रह गई सीता रावण के घर और फिर ले आये? छोड़ ये बातें, निकल घर से।’ बस यह बात काफी हो गई कि यह तो मर्यादा टूटती है। तो मर्यादा टूटती है, सीता की अग्नि—परीक्षा भी ले ली, सब तरह उसे कोरा, उसको पूरा पक्का—खरा पाया, फिर भी उसे जंगल छुड़वा दिया। मर्यादा टूटती है!

कृष्ण बड़े और ढंग के हैं। कोई मर्यादा नहीं है। मर्यादा मात्र शून्य है। इसलिए कृष्ण को पूर्णावतार कहा है; परमात्मा जैसे पूरा—पूरा उतरा! परमात्मा संत में पूरा—पूरा उतरता है, महात्मा में बंधा—बंधा उतरता है। और दुर्जन में तो पड़ गया गड्डे में, कीचड—कबाड़ में। जैसे शराबी पड़ा होता है नाली में, ऐसा दुर्जन में परमात्मा नाली में पड़ जाता है, सज्जन में खड़ा हो जाता है, संत में उड़ने लगता है। संत की ही बात मैंने की है अब तक—इस आशा में कि जहां जाना है, जो होना है, उसकी ही बात करनी उचित है; बीच के पड़ावों की क्या बात करनी!

राम एक सराय हैं, मंजिल नहीं। रुक जाना रात भर, अगर कृष्ण समझ में न आते हों तो राम पर रुक जाना, बिलकुल ठीक है। बाहर पड़े रहने की बजाय खुले आकाश के नीचे, धर्मशाला में ठहर जाना, लेकिन धर्मशाला मंजिल नहीं है। इसलिए तुलसी का मेरे मन में कोई बहुत मूल्य नहीं है। स्थिति—स्थापक हैं। कबीर की बात और! कबीर क्रांति हैं! तुलसी—परंपरा। पिटा—पिटाया है। कुछ नया नहीं। कोई मौलिक नहीं। कोई क्रांति का स्वर नहीं है। क्रांति के स्वर सुनने हों तो कबीर में सुनो या नानक में सुनो या फरीद में या अष्टावक्र में सुनो। अष्टावक्र तो महास्रोत हैं क्रांति के। जगत में जितने भी आध्यात्मिक क्रांतिकारी हुए, सब की मूल सूचनायें अष्टावक्र में मिल जायेंगी। अष्टावक्र जैसे मूल स्रोत हैं, हिमालय हैं, जहां से सारी क्रांति की गंगायें निकलीं।

‘रागवान पुरुष दुख से बचने के लिए संसार को त्यागना चाहता है, लेकिन वीतराग दुख—मुक्त हो कर संसार के बीच भी खेद को प्राप्त नहीं होता है।’

‘रागवान पुरुष दुख से बचने के लिए संसार को त्यागना चाहता है!’

हातुमिच्छति संसार रागी दु:खजिहासया।

पहले तो रागी व्यक्ति दुख से बचने के लिए संसार को पकड़ता है; धन को पकड़ता है ताकि दुख से बच जाये, मित्र को पकड़ता है, दुख से बच जाये, परिवार को पकड़ता है, दुख से बच जाये। पहले तो कोशिश करता है संसार की चीजों को पकड़ कर दुख से बचने की; फिर पाता है कि यह पकड़ से तो दुख ही पैदा हो रहा है, दुख से बचना नहीं हो रहा—तो फिर संसार की चीजों को त्यागने लगता है, लेकिन कामना पुरानी अब भी वही है कि दुख से बच जाऊं। पहले पकड़ता था, अब त्यागता है; लेकिन दुख से बचने की वासना वही की वही है।

‘रागवान पुरुष दुख से बचने के लिए संसार को त्यागना चाहता है, लेकिन वीतराग पुरुष दुख—मुक्त हो कर संसार के बीच में भी रहे तो भी खेद को उपलब्ध नहीं होता।’

रागी दुख से ही भागता रहता है—संसार में भागे तो, मंदिर जाये तो, दुकान जाये तो, मस्जिद जाये तो—दुख से ही भागता रहता है। वीतरागी जाग कर दुख से मुक्त हो जाता है; साक्षी बन कर दुख से मुक्त हो जाता है। दुख से भागता नहीं; दुख को देख लेता है भर आंख और दुख खो जाता है।

मुल्ला नसरुद्दीन को उसके मालिक ने एक दिन कहा कि जरा बाहर जा कर देख, सूरज निकला कि नहीं? वह बाहर गया, फिर भीतर आया और कुछ करने लगा जा कर कमरे में। मालिक ने पूछा ‘क्या हुआ? सूरज निकला कि नहीं?’ उसने कहा ‘मैं लालटेन जला रहा हूं। बाहर बहुत अंधेरा है, दिखाई कुछ पड़ता नहीं।’

अब सूरज को देखने के लिए कोई लालटेन जलानी पड़ती है! और जो सूरज लालटेन जला कर दिखाई पड़े, वह सूरज होगा पृ

जैसे ही व्यक्ति को दुख को देखने की क्षमता आ जाती है, दुख खो जाता है। सूरज उगा, रात गई, अंधेरा गया। साक्षी जागा, दुख गया। दुख पैदा ही इसलिए हो रहा है कि हम तादात्म्य के अंधकार में खो गये हैं। सोचते हैं—मैं शरीर, मैं मन, मैं यह, मैं वह—इस वजह से सारी तकलीफ है। जैसे

ही साक्षी जागा, मैं न देह रहा, न मैं मन रहा, मैं तो चिन्मात्र हो गया, चैतन्यमात्र हो गया। उसी क्षण दुख गया।

‘वीतराग दुख—मुक्त हो कर संसार के बीच बना रहता है और किसी खेद को प्राप्त नहीं होता है।’

वीतरागो हि निर्दु:खस्तस्मिन्नपि न खिद्यते।

फिर कहीं भी रहे वीतराग पुरुष, संसार में कि संसार के बाहर… और संसार के बाहर कहां जाओगे! जहां है, वहां संसार ही है। आश्रम में भी संसार है, मंदिर में भी संसार है, हिमालय पर भी संसार है—संसार से जाओगे कहां! जो है, संसार है। इसलिए भागने से तो कोई राह नहीं है। तुम जहां हो वहीं जागने से राह है।

‘जिसका मोक्ष के प्रति अहंकार है और वैसा ही शरीर के प्रति ममता है, वह न तो ज्ञानी है और न योगी है। वह केवल दुख का भागी है।’

यस्याभिमानो मोक्षेउपि देहेउपि ममता तथा।

जिसकी ममता लगी है देह में वह दुख पायेगा।

यस्याभिमानो मोक्षेउपि……।

और जिसका अहंकार मोक्ष से जुड़ गया, वह भी दुख पायेगा।

देहेउपि ममता तथा…….।

और जो शरीर से जुड़ा वह भी दुख पायेगा। धन को तुमने समझा मेरा है, तो दुख पाओगे। धर्म को समझा कि मेरा है, तो दुख पाओगे। संसार को कहा कि जीत लूंगा, तो दुख पाओगे। कहा कि परमात्मा को पा कर रहूंगा, तो दुख पाओगे। तुम हो तो दुख है। तुम दुख के साकार रूप हो। अहंकार दुख की गांठ है। अहंकार कैंसर है; गड़ता रहेगा, चुभता रहेगा, सडता रहेगा।

न च योगी न वा ज्ञानी केवलं दुःख भागसौ।

ऐसा व्यक्ति जिसका शरीर से मोह लगा है या मोक्ष से मोह लग गया, संसार से लगा मोह या परमात्मा से—ऐसा व्यक्ति न तो योगी है, न ज्ञानी है, केवल दुख का भागी है।

अष्टावक्र कह रहे हैं : तुम शरीर से तो छूट ही जाओ, परमात्मा से भी छूटो। संसार की तो भाग—दौड़ छोड़ ही दो, मोक्ष की दौड़ भी मन में मत रखो। तृष्णा के समस्त रूपों को छोड़ दो। तृष्णा मात्र को गिर जाने दो। तुम तृष्णा—मुक्त हो कर खडे हो जाओ। इसी क्षण परम आनंद बरस जायेगा। बरस ही रहा है; तुम तृष्णा की छतरी लगाये खड़े हो तो तुम नहीं भीग पाते।

‘यदि तेरा उपदेशक शिव है, विष्णु है अथवा ब्रह्मा है, तो भी सबके विस्मरण के बिना तुझे स्वास्थ्य नहीं होगा।’

सुनते हो इस क्रांतिकारी वचन को! छोटे—मोटे गुरुओं की तो बात छोड़ो, स्वयं अगर शिव भी उपदेश कर रहे हों और ब्रह्मा और विष्णु, तो भी कुछ न होगा—जब तक तुम जागोगे नहीं। स्वयं परमात्मा भी खड़े हो कर तुम्हें समझाये तो भी तुम समझोगे नहीं, क्योंकि बाहर से समझ आती ही नहीं। समझ का तो भीतर अंकुरण होना चाहिए। कोई दूसरा थोड़े ही तुम्हें जगा सकता है! जागोगे तो तुम जागोगे।

तुम्हारी हालत ऐसी है जैसे जागा हुआ आदमी बन कर पड़ा है कि सो रहा है; अब उसको तुम

हिलाओ—डुलाओ, वह करवट बदल लेता है। सोया होता तो शायद जाग भी जाता; मगर वह जागा हुआ पड़ा है, आंख बंद किए हुए पड़ा है, उठना नहीं चाहता है, उठने की आकांक्षा नहीं है—तो तुम कैसे जगाओगे? जो सोने का धोखा दे रहा है वह कैसे जागेगा? और तुम सोने का धोखा दे रहे हो। तुम्हारे भीतर का जो आत्यंतिक केंद्र है वह जागा ही हुआ है; वह कभी सोया नहीं; सोना वहां घटता नहीं, घट नहीं सकता; उसका स्वभाव जागना है। चैतन्य का अर्थ जागना है। तो तुम सोने का बहाना कर रहे हो। अब बहाने कर रहे हो, तुम्हारी मर्जी!

अष्टावक्र कहते हैं:

हरो यहपदेष्टा ते हरि: कमलजोउपि वा।

तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते।।

जब तक तू सब न भूल जाये जो बाहर से सीखा, तब तक स्वास्थ्य, शांति, सत्य का अनुभव न होगा।

शिव का अर्थ है : जिनके हाथ में जगत के विध्वंस की क्षमता है। विष्णु का अर्थ है : जिनके हाथ में जगत को चलाने की क्षमता है। ब्रह्मा का अर्थ है : जिनके हाथ में जगत को बनाने की क्षमता है। जिसने जगत बनाया वह भी सत्य को नहीं बना सकता तुम्हारे लिए। जगत तो माया है, सपना है—सपना बना लिया ब्रह्मा ने, लेकिन सत्य न बना सकेंगे। और जो इस सपने को चला रहा है सम्हाले हुए है, साधे हुए है, विष्णु, इस विराट लीला को जो चला रहा है—वह भी सत्य को जगाने में समर्थ न हो सकेगा। इतना विस्तार जिसके वश में है, तुम्हारे ऊपर उसका कोई वश नहीं। तुम उसके पार हो। और जो सारे जगत को नष्ट कर सकता है, वह भी तुम्हारे अज्ञान को नष्ट नहीं कर सकता—शिव भी तुम्हारे अज्ञान को नष्ट नहीं कर सकता। अष्टावक्र यह कह रहे हैं कि तुम्हें बाहर से सब भाति मुक्त हो जाना पड़ेगा।

सदगुरु वही है जो तुम्हें बाहर से मुक्त कर दे; जो तुम्हें तुम्हारे ऊपर फेंक दे; जो तुम्हें तुम्हारे ऊपर छोड़ दे; जो तुमसे कहे, भूल जाओ जो बाहर से सीखा, छोड़ दो शास्त्र जो बाहर के हैं, छोड़ दो सिद्धात जो बाहर के हैं, न रहो हिंदू न मुसलमान न ईसाई न जैन न बौद्ध। तुम तो भीतर उतर जाओ, जहां कोई सिद्धात नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई शब्द नहीं। तुम तो उस निर्विचार में डूब जाओ। तुम तो वहां जागो जहां तुम्हारी आत्यंतिक प्रज्ञा का दीया जल रहा है। वहीं से—केवल वहीं से और केवल वहीं से—रूपांतरण संभव है ‘

यह सुनते हैं! इसलिए मैं कहता हूं बार—बार कि कृष्णमूर्ति जो आज कह रहे हैं वह अष्टावक्र की प्रतिध्वनि है। कृष्णमूर्ति कहते हैं : कोई गुरु नहीं! अनेक लोगों को लगता है कि यह तो बड़ी शास्त्र—विपरीत बात है! कहां शास्त्र—विपरीत बात है? शास्त्रों का शास्त्र कह रहा है. ‘कोई गुरु नहीं! ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं।’

लेकिन इसका यह अर्थ मत समझ लेना कि अष्टावक्र की गीता का कोई उपयोग नहीं। यही उपयोग है। शास्त्र वही जो तुम्हें शास्त्र से भी मुक्त करा दे। गुरु वही जो तुम्हें गुरु से भी मुक्त करा दे।

फ्रेडरिक नीत्शे के महाग्रंथ ‘दस स्पेक जरथुस्त्रा’ में, जब जरथुस्त्र अपने शिष्यों से विदा होने लगा तो उसने कहा : ‘आखिरी संदेश! जो मुझे कहना था कह चुका, जो तुम्हें समझाना था समझा चुका। आखिरी बात याद रखना। इस महामंत्र को कभी मत भूलना। जो मैंने कहा उसे भूल जाना, मगर इसे मत भूलना।’

वे सब चौंक कर खड़े हो गये। उन्होंने कहा : ‘क्या शेष रहा है बताने को?’ तो उसने कहा ‘एक बात—बिवेयर आफ जरथुस्त्रा! मैं जा रहा हूं, मुझसे सावधान!’ यह सदगुरु का लक्षण है। जो भी मैंने तुमसे कहा, भूल जाना, कोई चिंता नहीं, लेकिन यह बात कभी भूल कर मत भूलना कि खतरा है कहीं जरथुस्त्र से मोह—आसक्ति न बन जाये; नहीं तो तुम फिर बाहर से उलझ गये। कोई बाहर की स्त्री से उलझा, कोई बाहर के धन से उलझा, कोई बाहर के परमात्मा से उलझा, कोई बाहर के g)रु से उलझ गया—उलझन जारी रही।

मुक्ति है भीतर। मुक्ति है स्वयं में। तुम्हारा स्वभाव मुक्ति है।

हरो यहपदेष्टा ते हरि: कमलजोउपि वा ।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे गुरु भी मिल जायें तो भी.

तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते।

तो भी जब तक सब न भूल जाये जो सीखा, शब्द न भूल जाये, सिद्धात न भूल जाये, विचार न भूल जाये; जब तक निर्विचार निःशब्द मौन में प्रतिष्ठा न हो जाये—तब तक स्वास्थ्य की उपलब्धि नहीं है। स्वास्थ्य यानी मोक्ष। स्वास्थ्य यानी निर्वाण या कहो परमात्मा, परात्पर ब्रह्म, मोक्ष, मुक्ति—जों भी नाम देना चाहो। नाम का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन जो है तुम्हारे भीतर है और बाहर से दबा है। बाहर को हटा दो तो भीतर का जो दबा हुआ फूल है, प्रगट हो जाये। बाहर की कीचड़ में दबा तुम्हारा कमल है। कीचड़ को हटा दो तो कमल खिल जाये। उस खिलने में ही तृप्ति है, संतोष है, महातोष है। उसके बिना असंतोष है।

हरि ओंम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--4) ओशो

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–4

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प्रयास, अप्रयास और ध्‍यान—प्रवचन—चौथा

दिनांक 4 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—प्रकृति विरोध करती है अव्यवस्था का और अव्यवस्था स्वयं ही व्यवस्थित हो जाती है यथासमय तो क्यों दुनिया हमेशा अराजकता और अव्यवस्था में रहती रही है?

2—कैसे पता चले कि कोई व्‍यक्‍ति रेचन की ध्‍यान विधियों से गुजर कर अराजकता के पार चला गया है?

3—मन को अपने से शांत हो जाने देना है, तो योग की सैकड़ों विधियों की क्‍या अवश्‍यक्‍ता है?

4—आप प्रेम में डूबने पर जोर देते है लेकिन मेरी मूल समस्‍या भय है। प्रेम और भय क्‍या संबंधित है?

5—कुछ न करना,मात्र बैठना है, तो ध्‍यान की विधियों में इतना प्रयास क्‍यों करें?

पहला प्रश्न : आपने कहा कि प्रकृति विरोध करती है अव्यवस्था का और अव्यवस्था स्वयं ही व्यवस्थित हो जाती है यथासमय तो क्यों दुनिया हमेशा अराजकता और अव्यवस्था में रहती रही है?

दुनिया कभी नहीं रही अराजकता और अव्यवस्था में, केवल मन रहा है। संसार तो परम रूप से व्यवस्थित है। वह कोई अव्यवस्था नहीं, वह सुव्यवस्था है। केवल मन ही सदा अव्यवस्था में रहता है, और सदा रहेगा अव्यवस्था में ही।

कुछ बातें समझ लेनी होंगी : मन की प्रकृति ही होती है अराजकता में होने की। क्योंकि वह एक अस्थायी अवस्था है। मन तो मात्र एक संक्रमण है स्वभाव से परम स्वभाव तक का। कोई अस्थायी अवस्था नहीं हो सकती है सुव्यवस्थित। कैसे हो सकती है वह सुव्यवस्था में? जब तुम बढ़ते हो एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक, तो बीच की स्थिति अव्यवस्था में, अराजकता में रहेगी ही।

कोई उपाय नहीं है मन को सुव्यवस्थित कर देने का। जब तुम स्वभाव के पार हो रहे होते हो और परम स्वभाव में बढ़ रहे होते हो, बाह्य से अंतस में परिवर्तित हो रहे होते हो, भौतिक से अध्यात्म में परिवर्तित हो रहे होते हो, तो दोनों में एक अंतराल बनेगा ही जब कि तुम कहीं नहीं हो, जब कि तुम इस संसार से संबंध नहीं रखते और अभी भी तुम दूसरे से संबंधित नहीं होते हो। यही है अराजकता—यह संसार छूट गया है, और मृत्यु अभी भी नहीं मिली। मध्य में तो, हर चीज एक अव्यवस्था होती है। और यदि तुम बने रहते हो मध्य में, तो तुम सदा ही अराजकता में रहोगे। मन के पार होना ही होगा। मन कुछ ऐसा नहीं है जिसके साथ रहा जाए।

मन एक सेतु की भांति है : इसे पार करना है; दूसरे किनारे को प्राप्त करना ही है। और तुमने तो सेतु पर ही घर बना लिया है। तुमने सेतु पर रहना शुरू कर दिया है। तुम मन के साथ जुड़ गए हो। तुम पड़े हो जाल में क्योंकि तुम कहीं नहीं हो। और कैसे तुम कहीं न होने वाली जमीन पर व्यवस्थित हो सकते हो? अतीत तुम्हें निमंत्रित करता ही जाएगा : ‘वापस आओ, वापस लौट आओ उस किनारे पर जिसे कि तुम छोड़ चुके हो। ‘ और वापस लौटना होता नहीं, क्योंकि तुम समय में पीछे की ओर बढ़ नहीं सकते। बढ़ना केवल एक ही है, और वह है आगे की ओर—आगे। अतीत तुम पर गहरा प्रभाव बनाये रहता है; क्योंकि तुम होते हो सेतु पर। और अतीत भी सेतु पर होने से तो बेहतर ही लगता है। एक छोटी झोपड़ी भी ज्यादा ठीक होती सेतु पर होने की अपेक्षा। कम से कम वह एक घर तो है; तुम सड़क पर नहीं होते।

मानव प्राणियों का अतीत, वह पशुत्व, उसमें सतत आकर्षण होता है। वह कहता, ‘लौट आओ पीछे। ‘ वह कहता है, ‘कहीं कोई जाना, बढ़ना नहीं है। ‘ तुम्हारे भीतर का पशु तुम्हें पुकारे चला जाता है, ‘वापस आ जाओ। ‘ और इसमें आकर्षण होता है, क्योंकि सेतु की तुलना में बेहतर है यह। तो भी तुम नहीं जा सकते वापस। एक बार कोई कदम उठा लिया जाता है तो उसे अनकिया नहीं किया जा सकता। एक बार जब तुम बढ़ जाते हो आगे, तो तुम वापस नहीं जा सकते। तुम स्वप्न संजोए रख सकते हो, और तुम व्यर्थ गंवा सकते हो अपनी ऊर्जा, वही ऊर्जा जो तुम्हें ले गयी होती आगे।

लेकिन वापस जाना संभव नहीं। कैसे एक युवा व्यक्ति फिर से बच्चा बन सकता है? और कैसे एक वृद्ध फिर से युवा व्यक्ति हो सकता है? —ऐसा संभव हो भी जाए कि विज्ञान करता हो मदद तुम्हारी देह के फिर से युवा होने में। वैसा संभव है, क्योंकि आदमी बहुत चालाक है, और वह देह के कोशाणुओ को धोखा दे सकता है। और वह तुम्हें नया कार्यक्रम दे सकता है और वे लौट सकते हैं पीछे। लेकिन तुम्हारा मन पुराना बना रहेगा। तुम्हारी देह युवा हो सकती है, लेकिन तुम कैसे हो सकते हो युवा? वह सब जिसका अनुभव तुमने किया है तुम्हारे साथ रहेगा। उसे वापस नहीं फेंका जा सकता।

कोई नहीं लौट सकता पीछे। वह किनारा जो छूट जाता है सदा के लिए ही छूट जाता है। तुम फिर से पशु नहीं हो सकते। बेहतर है वापस जाने के उस आकर्षण को और उस सम्मोह—आसक्ति को गिरा देना। जितनी जल्दी तुम गिरा दो उसे, उतना ज्यादा अच्छा है।

व्यक्ति उन चीजों से आनंदित होता है जो उसे अनुभूति दे जाती हैं अतीत की, प्राणी—जगत की। इसीलिए इतना ज्यादा आकर्षण होता है कामवासना का। इसीलिए लोग खाने के प्रति आसक्त होते हैं, खाये चले जाते हैं, भोजन के वशीभूत हो जाते हैं। इसीलिए एक आकर्षण होता है लालच, क्रोध, ईर्ष्या, और घृणा में। वे सब बातें संबंध रखती हैं पशुता के राज्य से : वह किनारा है जिसे तुम छोड़ चुके, पशु—राज्य का किनारा। और है एक दूसरा किनारा जिस तक कि तुम अभी पहुंचे नहीं हो, तुम्हारे सपनों में भी नहीं—वह है प्रभु का राज्य। और इन दोनों के बीच तुम टिके हुए हो मन में।

तुम नहीं जा सकते वापस। कठिन होता है आगे बढ़ना, क्योंकि अतीत तुम्हें खींचे चला जाता है और भविष्य बना रहता है अज्ञात, धुंधला—सा, धुंध की भांति। तुम देख नहीं सकते दूसरा किनारा, वह प्रकट नहीं होता—ऐसा नहीं कि वह बहुत ज्यादा दूर होता है। वह किनारा जिसे तुमने छोड़ दिया, वह दीखता है। वह दूसरा किनारा जिसकी ओर तुम पहुंच रहे हो, वह अदृश्य होता है अपनी प्रकृति के कारण ही। ऐसा नहीं कि वह बहुत ज्यादा दूरी पर है, इसलिए वह अदृश्य है। जब तुमने उसे प्राप्त भी कर लिया होता है, तब भी वह अदृश्य बना रहेगा। वही उसका स्वभाव है, प्रकृति है।

पशु बहुत ज्यादा प्रकट है। कहा है परमात्मा? क्या किसी ने कभी देखा है परमात्मा को? —नहीं देखा किसी ने। क्योंकि सवाल तुम्हारे देखने का या न देखने का नहीं है। परमात्मा है अदृश्यता, पूर्ण अज्ञात, सच्ची अबोधगम्यता। जिन्होंने पाया है वे भी कहते कि उन्होंने देखा नहीं, और वे हुए हैं उपलब्ध। परमात्मा कोई विषय—वस्तु नहीं हो सकता। वह तुम्हारे अपने अस्तित्व की गहनतम गहराई है। कैसे तुम देख सकते हो उसे? वह किनारा जो कि तुम छोड़ चुके बाहरी संसार में होता है, और वह किनारा जिसकी ओर तुम पहुंच रहे हो वह अंतर्जगत है। जो किनारा तुम छोड़ चुके, वह है वस्तुपरक; और जिस किनारे की ओर तुम बढ़ रहे हो, वह आत्मपरक है। यह तुम्हारी स्व—सत्ता की ही आत्मपरकता है। तुम उसे विषय—वस्तु नहीं बना सकते। तुम नहीं देख सकते हो उसे। वह ऐसा कुछ नहीं जिसे कि बदला जा सके विषय—वस्तु में, जिसे कि तुम देख सकी। वह द्रष्टा है, दृश्य नहीं। वह ज्ञाता है, ज्ञात नहीं है। वह तुम हो अपनी सत्ता के गहनतम अंतरतम में।

मन वापस नहीं जा सकता, और नहीं समझ सकता कि आगे कहां जाए। वह अराजकता में रहता है, सदा उखड़ा हुआ, सदा सरकता हुआ न जानते कि कहां सरक रहा है; हमेशा आगे चलता हुआ। मन है एक तलाश। जब लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है, केवल तभी तिरोहित होती है तलाश।

जब तुम संसार को देखते हो तो जरा ध्यान रखना, कि वह एक सुव्यवस्था है। प्रतिदिन सुबह सूरज उगता है बिना किसी भूल के, अचूक। दिन के पीछे रात आती है और फिर दिन आता है रात के पीछे। और रात्रि के आकाश में, लाखों, करोड़ों सितारे अपने मार्ग पर बढ़ते रहते हैं। मौसम एक दूसरे के पीछे आते रहते हैं। यदि आदमी न होता यहां, तो कहां होती अस्त—व्यस्तता? हर चीज ऐसी है जैसी कि होनी चाहिए। सागर लहराता रहेगा और आकाश फिर—फिर भरता रहेगा सितारों से। वर्षा आएगी, और शीत और ग्रीष्म, और हर चीज चलती रहती है संपूर्ण चक्र में। कहीं कोई अस्त—व्यस्तता नहीं है सिवाय तुम्हारे भीतर के। प्रकृति सुस्थिर है जहां कहीं भी वह है। प्रकृति कहीं उन्नत नहीं हो रही है। प्रकृति में कोई विकास नहीं होता है। परमात्मा में भी कोई विकास नहीं है। प्रकृति प्रसन्न है अपनी अचेतना में, और परमात्मा आनंदमय है अपनी चेतना में।

दोनों के बीच तुम होते हो मुसीबत में। तुम होते हो तनावपूर्ण। न तो तुम होते हो अचेतन, और न ही तुम होते हो चेतन। तुम तो बस मंडरा रहे होते हो प्रेत की भांति। तुम किसी किनारे से नहीं जुड़े होते। बिना किन्हीं आधारों के, बिना किसी घर के, मन कैसे आराम से रह सकता है? वह खोजता है, ढूंढता रहता है—कुछ नहीं ढूंढ पाता। तब तुम ज्यादा और ज्यादा थके, निराश और चिड़चिड़े हो जाते हो। क्या घट रहा होता है तुम्हें? तुम एक ही लीक में पड़े होते हो। ऐसा चलता रहेगा जब तक कि तुम ऐसा कुछ न सीख जाओ जो कि तुम्हें निर्विचार कर सकता हो, जो मन को खाली कर सकता हो।

इसी सब को अपने अंतर्गत लेता है ध्यान। ध्यान एक उपाय है—तुम्हारे अंतस को निर्विचार कर देने का, मन को गिरा देने का, सेतु पर से सरकने का, अज्ञात में बढ़ने का और रहस्य में छलांग लगा देने का। इसलिए मैं कहता हूं : हिसाब—किताब मत लगाना, क्योंकि वह मन की चीज है। इसीलिए मैं कहता .हूं कि आध्यात्मिक खोज सीढ़ी दर सीडी नहीं होती, आध्यात्मिक खोज है—एक अचानक छलांग। वह साहस है, वह कोई हिसाब—किताब नहीं। वह बुद्धि की चीज नहीं, क्योंकि बुद्धि है मन का हिस्सा। वह हृदय की अधिक है।

लेकिन तुम ज्यादा गहरे जाओ, तो तुम ज्यादा अनुभव करोगे कि वह हृदय से भी पार की है। वह न तो विचार की है और न ही भाव की है। वह ज्यादा गहरी है, उन दोनों से अधिक समग्र, अधिक अस्तित्वगत। एक बार तुम इस पर कार्य करना शुरू कर देते हो कि अ—मन को कैसे पाया जाए, केवल तभी, धीरे — धीरे शांति तुम पर आ उतरेगी। धीरे—धीरे, मौन आ उतरेगा, और संगीत सुनाई पड़ने लगेगा —अज्ञात का संगीत, अकथित का संगीत। तब हर चीज फिर से व्यवस्था में आ जाती है। अराजकता है मार्ग मन का। ऐसा होना ही है उसे, क्योंकि तुम गिरा देते हो अतीत को जहां कि तुम ठहरे थे और बद्धमूल थे और तुम बढ़ते हो नए भविष्य में जहां तुम फिर ठहर जाओगे और बद्धमूल हो जाओगे।

लेकिन मध्य में है आदमी। आदमी एक होना, एक अस्तित्व नहीं है; आदमी है एक मार्ग। आदमी कुछ है नहीं; आदमी है मात्र एक यात्रा, एक रस्सी खिंची है प्रकृति और परम प्रकृति के बीच। इसीलिए वह होता है तनावपूर्ण। यदि तुम मनुष्य बने रहते हो, तो तुम रहोगे तनावपूर्ण। या तो तुम्हें गिरना होता है मनुष्य तल के नीचे, या तुम्हें स्वयं को उठाना होता है मनुष्य—अतीत तल तक।

केवल मनुष्य है अराजकता में। जरा प्रकृति की ओर देखना—कौवे कांव—कांव करते, चिड़िया चहचहाती, और हर चीज संपूर्ण होती है। प्रकृति में कहीं कोई समस्या नहीं। समस्या का अस्तित्व बनता है मनुष्य के मन द्वारा ही, और समस्या विसर्जित हो जाती जब मानव मन विसर्जित हो जाता है। इसलिए जीवन की समस्याओं को स्वयं मन के द्वारा ही सुलझाने की कोशिश मत करना। ऐसा हो नहीं सकता। वह सब से ज्यादा मूढ़ता की बात होती है जो कि कोई कर सकता है। ठीक से समझ लो कि मन है सेतु—उसे देखना भर है। वह शाश्वत नहीं, वह है अस्थायी।

वह ऐसा है; जब तुम मकान बदलते हो तो पुराना मकान व्यवस्थित था; हर चीज अपनी जगह पर ठीक बैठी थी। फिर तुम बदल लेते हो मकान, फिर फर्नीचर, फिर कपड़े, फिर और दूसरी चीजें। हर चीज जो व्यवस्थित थी अव्यवस्थित हो जाती है, और तुम चले आते हो नए मकान में। हर चीज एक अव्यवस्था हो जाती है। तुम्हें उसे फिर से जमाना होता है। जब तुम बदल रहे होते हो मकान, तुमने छोड़ दिया होता है वह मकान जिसमें कि तुम सदा रहते रहे हो, और दूसरे मकान तक तुम पहुंचे नहीं हो। तुम तुम्हारे सारे सामान सहित गाड़ी में हो रास्ते पर ही।

यही है जो है मन : वह कोई मकान नहीं है, यह मात्र एक मार्ग है गुजर जाने को। और एक बार तुम समझ लेते हो इसे, तो उस पार का कुछ उतर चुका होता है तुम में। समझ कुछ पार की चीज है; वह मन की चीज नहीं है। ज्ञान मन का होता है। समझ मन की नहीं होती। ध्यान दो कि क्यों तुम अराजकता में हो और एक समझ तुम पर प्रकट होने लगेगी।

दूसरा प्रश्न :

कुछ वर्षों तक रेचक विधियों पर कार्य करने के बाद मैं अनुभव करता हूं कि मुझमें एक गहन आंतरिक सुव्यवस्था संतुलन और केद्रण घट रहा है। लेकिन आपने कहा कि समाधि की अंतिम अवस्था में जाने से पहले व्यक्ति एक बड़ी अराजकता में से गुजरता है। मुझे कैसे पता चले कि मैने अराजक अवस्था पार कर ली है या नहीं?

पहली बात : हजारों जन्मों से तुम अराजकता में रहते रहे हो। यह कोई नयी बात नहीं है। यह बहुत पुरानी बात है। दूसरी बात : ध्यान की सक्रिय विधियां जिनका कि आधार रेचन है, तुम्हारे भीतर की तमाम अराजकता को बाहर निकल आने देती हैं। यही सौंदर्य है इन विधियों का। तुम चुपचाप नहीं बैठ सकते, तो भी तुम सक्रिय या अव्यवस्थित ध्यान कर सकते हो बहुत आसानी से। एक बार अराजकता बाहर निकाल दी जाती है, तो तुममें एक मौन घटना शुरू होता है। फिर तुम बैठ सकते हो मौनपूर्ण ढंग से। यदि ठीक से की गयी हों, निरंतर की गई हों, तो ध्यान की रेचक विधियां तुम्हारी अराजकता को एकदम विसर्जित कर देंगी बाहरी आकाश में। तुम्हें पागल अवस्था में से गुजरने की जरूरत न रहेगी। यही तो सौंदर्य होता है इन विधियों का। पागलपन तो पहले से ही बाहर फेंका जा रहा होता है। वह अंतर्गठित होता है विधि में ही।

जैसे पतंजलि सुझाके, तुम वैसे शांत नहीं बैठ सकते। पतंजलि के पास कोई रेचक विधि नहीं है। ऐसा लगता है उसकी कोई जरूरत ही न थी, उनके समय में। लोग स्वभावतया ही बहुत मौन थे, शांत थे, आदिम थे। मन अभी भी बहुत ज्यादा क्रियाशील नहीं हुआ था। लोग ठीक से सोते थे, पशुओं की भांति जीते थे। वे बहुत सोच—विचार वाले, तार्किक, बौद्धिक न थे; वे हृदेय में केंद्रस्थ थे, जैसे कि अभी भी असभ्य लोग होते हैं। और जीवन ऐसा था कि वह बहुत सारे रेचन स्वचालित रूप से घटने देता था।

उदाहरण के लिए, एक लकड़हारे को किसी रेचन की कोई जरूरत नहीं होती। क्योंकि लकड़ियां काटने भर से ही, उसकी सारी हत्यारी प्रवृत्तियां बाहर निकल जाती हैं। लकड़ी काटना पेडू की हत्या करने जैसा ही है। पत्थर तोड्ने वाले को कोई जरूरत नहीं होती रेचनपूर्ण ध्यान करने की। सारा दिन वह यही कर रहा होता है। लेकिन आधुनिक व्यक्ति के लिए चीजें बदल गयी हैं। अब तुम इतनी सुख—सुविधा में रहते हो कि किसी रेचन की कहीं कोई संभावना नहीं है तुम्हारे जीवन में, सिवाय इसके कि तुम पागल ढंग से ड्राइव कर सको।

इसीलिए पश्चिम में हर साल किसी और चीज की अपेक्षा कार दुर्घटनाओं द्वारा ज्यादा लोग मरते हैं। वही है सबसे बड़ा रोग। न तो कैंसर, न ही तपेदिक और न ही कोई और रोग इतनी मृत्यु देता है जिंदगियों को जितना कि कार चलाना। दूसरे विश्वयुद्ध में, एक वर्ष में लाखों व्यक्ति मर गए थे। सारी पृथ्वी पर हर साल ज्यादा लोग मरते हैं पागल कार ड्राइवरों द्वारा ही।

यदि तुम कार चलाते हो तो तुमने ध्यान दिया होगा कि जब तुम क्रोधित होते हो तब तुम कार स्पीड से चलाते हो। तुम एक्सेलेरेटर को दबाते जाते हो, तुम बिलकुल भूल ही जाते हो ब्रेक के बारे में। जब तुम बहुत घृणा में होते, चिढ़े हुए होते तब कार एक माध्यम बन जाती है अभिव्यक्ति का। अन्यथा तुम इतने आराम में रहते हो. किसी चीज के लिए शरीर द्वारा कम से कम काम लेते हो, मन में ही ज्यादा और ज्यादा रहते हो।

वे जो मस्तिष्क के ज्यादा गहरे केंद्रों के बारे में जानते हैं, कहते हैं कि जो लोग अपने हाथों द्वारा कार्य करते हैं उनमें कम चिंता होती है, कम तनाव होता है। तब तुम ठीक से सोते हो क्योंकि तुम्हारे हाथ संबंधित हैं, गहनतम मन से, मस्तिष्क के गहनतम केंद्र से। तुम्हारा दायां हाथ संबंधित है बायें मस्तिष्क से, तुम्हारा बायां हाथ संबंधित है दाएं मस्तिष्क से। जब तुम काम करते हो हाथों द्वारा, तब ऊर्जा मस्तिष्क से हाथों तक बह रही होती है और निर्मुक्त हो रही होती है। लोग जो अपने हाथों द्वारा कार्य करते हैं उन्हें रेचन की जरूरत नहीं होती है। लेकिन जो लोग मस्तिष्क द्वारा कार्य करते हैं, उन्हें जरूरत होती है ज्यादा रेचन की। क्योंकि वे इकट्ठी कर लेते हैं ज्यादा ऊर्जा और उनके शरीरों में कोई मार्ग नहीं होता, उसके बाहर जाने के लिए कोई द्वार नहीं होता। वह मन के भीतर ही चलती चली जाती है। मन पागल हो जाता है।

लेकिन हमारी संस्कृति और समाज में—आफिस में, फैक्टरी में, बाजार में लोग जो सिर के द्वारा यानी ‘हेड’ के द्वारा कार्य करते हैं ‘हेड्स’ कहलाते हैं : हेड—क्लर्क, या हेड—सुपरिन्टैंडेंट; और लोग जो हाथों द्वारा कार्य करते हैं, हैड्स द्वारा वे कहलाते हैं ‘हैड्स’। यह बात निंदात्मक हो जाती है। यह ‘हैड्स’ शब्द ही बन गया है निंदात्मक।

जब पतंजलि कार्य कर रहे थे इन सूत्रों पर, तो संसार पूर्णतया अलग था। लोग थे ‘हैड्स’। विशेष रूप से रेचन की कोई जरूरत नहीं थी। जीवन स्वयं ही एक रेचन था। तब, वे बड़ी आसानी से बैठ सकते थे शात होकर। लेकिन तुम नहीं बैठ सकते। इसीलिए मैं आविष्कार करता रहा हूं रेचक विधियों का। केवल उन्हीं के बाद तुम शाति से बैठ सकते हो, उससे पहले नहीं।

कुछ वर्षों तक रेचक विधियों पर कार्य करने के बाद मैं अनुभव करता हूं कि एक गहन आंतरिक सुव्यवस्था संतुलन और केद्रण मुझ में घट रहा है

अब झंझट मत खड़ी कर लेना; इसे होने देना। अब वही मन अपनी टाग अड़ा रहा है। मन कहता है, ‘ऐसा कैसे घट सकता है? पहले मेरा अराजकता से गुजरना जरूरी है। ‘ यह विचार निर्मित कर सकता है अराजकता का। यही मेरे देखने में आता रहा है : लोग ललकते रहते हैं शाति के लिए, और जब वह घटने लगती है, तो वे विश्वास नहीं कर सकते उस पर। यह इतना अच्छा होता है कि इस पर विश्वास ही नहीं आता। खास करके वे लोग जिन्होंने सदा निंदा की होती है अपनी, वे विश्वास नहीं कर सकते कि वह सब घटित हो रहा है उन्हें। ‘ असंभव! ऐसा घटा होगा बुद्ध को या कि जीसस को, लेकिन मुझको? नहीं, यह तो संभव नहीं है। ‘ वे शाति द्वारा, मौन द्वारा, वैसा घटने पर अशात होकर मेरे पास चले आते हैं। ‘यह सच है, या कि मैं कल्पना कर रहा हूं इसकी?’ क्यों चिंता करनी? यदि यह कल्पना भी है, तो क्रोध के बारे में कल्पना करने से यह बेहतर है; यह कामवासना के बारे में कल्पना करने से तो बेहतर है।

और मैं कहता हूं तुमसे, कोई कल्पना नहीं कर सकता शाति की। कल्पना को जरूरत रहती है किसी रूपाकार की, मौन के पास कोई आकार नहीं होता। कल्पना का अर्थ होता है बिंब में सोचना, और मौन का कोई प्रतिबिंब नहीं होता। तुम कल्पना नहीं कर सकते संबोधि की, सतोरी की, समाधि की, मौन की। नहीं। कल्पना को चाहिए कोई आधार, कोई आकार, और मौन होता है आकारविहीन, अनिर्वचनीय। किसी ने कभी नहीं बनाया इसका कोई चित्र; कोई नहीं बना सकता। किसी ने नहीं गढ़ी इसकी कोई मूरत; कोई कर नहीं सकता ऐसा।

तुम मौन की कल्पना नहीं कर सकते। मन चल रहा है चालाकियां। मन तो कहेगा, ‘यह जरूर कल्पना ही होगी। ऐसा संभव कैसे हो सकता है तुम्हारे लिए? तुम्हारे जैसा इतना मूढ़ व्यक्ति और मौन घट रहा है तुमको? जरूर यही होगा कि तुम कल्पना कर रहे हो। ‘ या, ‘इस आदमी रजनीश ने सम्मोहित कर दिया है तुम्हें। कहीं कुछ तुम्हें धोखा हो रहा होगा। ‘ मत खड़ी कर लेना ऐसी समस्याएं। ऐसे ही जीवन में काफी समस्याएं हैं। जब मौन घट रहा हो, तो उसमें आनंदित होना, उसका उत्सव मनाना। इसका अर्थ हुआ कि अराजक शक्तियां बाहर निकाली जा चुकी हैं। मन खेल रहा है अपना अंतिम खेल। वह खेलता है बिलकुल अंत तक; सर्वथा, पूर्णतया अंत तक वह खेलता ही जाता है, अंतिम घड़ी में जब संबोधि घटने को ही होती है, तब भी मन चलता है अंतिम चालाकी। यह अंतिम लड़ाई होती है।

मत चिंता करना कि यह वास्तविक है या अवास्तविक है, या कि इसके बाद अराजकता आएगी या नहीं। इस ढंग से सोचने द्वारा अराजकता तो तुम ले ही आए हो। यह तुम्हारा विचार होता है जो कि निर्मित कर सकता है अराजकता। और जब वह निर्मित हो जाती है, तो मन कहेगा, ‘ अब सोच लो, मैंने तो ऐसा पहले ही कह दिया था तुमसे। ‘

मन बहुत स्वत: आपूरक होता है। पहले यह तुम्हें दे देता है बीज, और जब वह प्रस्फुटित होता है तो मन कहता है, ‘देख लिया, मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया था कि तुम्हें धोखा हुआ है। ‘ अराजकता पहुंच चुकी और यह लायी गयी है विचार द्वारा। तो क्यों चिंता करनी इस बारे में कि भविष्य में अभी अराजकता आने को है या नहीं? कि वह गुजर गई है या नहीं? बिलकुल इसी घड़ी तुम मौन हो, क्यों नहीं उत्सव मनाते इस बात पर? और मैं कहता हूं तुमसे, यदि तुम मनाते हो उत्सव, तो वह बढ़ता है।

चेतना के इस संसार में और कुछ इतना सहायक नहीं है जितना कि उत्सव। उत्सव है पौधों को पानी देने जैसी बात। चिंता ठीक विपरीत है उत्सव के; यह है जड़ों को काट देने जैसी बात। प्रसन्नता अनुभव करो! नृत्य करो तुम्हारे मौन के साथ। इस क्षण वह मौजूद है—पर्याप्त है। क्यों मांग करनी ज्यादा की? कल अपनी फिक्र अपने आप लेगा। यह क्षण ही बहुत काफी है; क्यों नहीं जी लेते इसे! क्यों नहीं इसका उत्सव मनाते, इसे बांटते, इससे आनंदित होते? इसे बनने दो एक गान, एक नृत्य, एक कविता। इसे बनने दो सृजनात्मक। तुम्हारे मौन को होने दो सृजनात्मक; कुछ न कुछ करो इसका।

लाखों चीजें संभव होती हैं, क्योंकि मौन से ज्यादा सृजनात्मक तो कुछ और नहीं होता है। कोई जरूरत नहीं बहुत बड़ा चित्रकार बनने की, पिकासो की भांति संसार प्रसिद्ध होने की। कोई जरूरत नहीं हेनरी मूर बनने की; कोई जरूरत नहीं महान कवि बनने की। महान बनने की वे महत्वाकांक्षाएं मन की होती हैं, मौन की नहीं।

अपने ढंग से चित्र बनाना, चाहे कितना ही मामूली हो। तुम्हारे अपने ढंग से हाइकू रचना, चाहे वह कितना ही साधारण हो। कितना ही सामान्य हो—तुम्हारे अपने ढंग से गीत गाना, थोड़ा नृत्य करना उत्सव मनाना। तुम पाओगे कि अगला ही क्षण ले आता है ज्यादा मौन। तुम जान जाओगे कि जितना ज्यादा मनाते हो तुम उत्सव, उतना ज्यादा दिया जाता है तुम्हें; जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतने ज्यादा तुम सक्षम हो जाते हो ग्रहण करने में। हर क्षण वह बढ़ता है, बढ़ता ही चला जाता है।

और अगला क्षण सदा ही उत्पन्न होता है इस क्षण से, तो क्यों फिक्र करनी उसकी! यदि यह वर्तमान क्षण शांतिपूर्ण है, तो कैसे अगला क्षण अराजक हो सकता है? कहां से आएगा वह? उसे इसी क्षण से ही उत्पन्न होना होता है। यदि मैं प्रसन्न हूं इस क्षण, तो कैसे मैं अप्रसन्न हो सकता हूं अगले क्षण में?

यदि तुम चाहते हो कि अगला क्षण अप्रसन्नता वाला हो, तो तुम्हें इसी क्षण अप्रसन्न होना होगा, क्योंकि अप्रसन्नता में से ही अप्रसन्नता उत्पन्न होती है। और प्रसन्नता में से उत्पन्न होती है प्रसन्नता। जो कुछ तुम प्राप्त करना चाहते हो अगले क्षण में, तुम्हें उसे बोना होगा बिलकुल अभी। एक बार चिंता को आने दिया जाता है और तुम सोचने लगते कि अराजकता आएगी, तो वह आएगी ही। तुम उसे ले ही आए हो। अब तुम्हें पास रखना ही होगा उसे; वह आ ही पहुंची है! अगली घड़ी की प्रतीक्षा करने की कोई जरूरत नहीं; वह पहले से वहां है ही।

इसे जरा खयाल में ले लेना, और यह सचमुच ही कुछ अजीब बात है : जब तुम उदास होते हो तो तुम कभी नहीं सोचते कि यह बात काल्पनिक हो सकती है। कभी मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा जो कि उदास हो और कहता हो मुझसे कि शायद यह बात काल्पनिक ही है। उदासी संपूर्णतया वास्तविक होती है! लेकिन प्रसन्नता? —तुरंत कुछ गलत हो जाता है और तुम सोचने लगते हो, ‘शायद यह बात काल्पनिक ही है। ‘ जब कभी तुम तनावपूर्ण होते, तो तुम कभी नहीं सोचते कि यह काल्पनिक बात है। यदि तुम सोच सकते हो कि तुम्हारा तनाव और पीड़ा काल्पनिक है, तो वह तिरोहित हो जाएगी। और यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारी शाति और प्रसन्नता काल्पनिक हैं, तो वे तिरोहित हो जाएंगी।

जो कुछ धारण किया जाता है वास्तविकता के रूप में, वह वास्तविक हो जाता है। जो कुछ धारण किया जाता है अवास्तविकता के रूप में, वह हो जाता है अवास्तविक। तुम्हीं हो निर्माता तुम्हारे चारों ओर के सारे संसार के, इस बात को खयाल में ले लेना। प्रसन्नता की, आनंद की घड़ी को पा लेना बहुत दुर्लभ होता है। इसे मत गंवा देना सोचने—विचारने में ही। लेकिन यदि तुम कुछ नहीं करते, तो चिंता के आने की संभावना है। यदि तुम कुछ नहीं करते—यदि तुम नृत्य नहीं करते, यदि तुम गीत नहीं गाते, यदि तुम बांटते नहीं, तो वैसी संभावना होती है। वही ऊर्जा जो हो सकती है सृजनात्मक, वह सृजन कर देगी चिंता का। वह भीतर नए तनाव बनाना शुरू कर देगी।

ऊर्जा को होना है सृजनात्मक। यदि तुम उसका उपयोग प्रसन्नता के लिए नहीं करते, तो वही ऊर्जा प्रयुक्त हो जाएगी अप्रसन्नता के लिए। और अप्रसन्नता के लिए तुम्हारे पास इतने गहरे रूप से बद्धमूल हुई आदतें हैं कि उसके लिए ऊर्जा—प्रवाह बहुत मुक्त और स्वाभाविक होता है। प्रसन्नता लाने के लिए यह एक श्रमसाध्य कार्य होता है।

तो पहले कुछ दिन तुम्हें निरंतर रूप से जागरूक रहना होगा। जब कभी कोई प्रसन्नता की घड़ी आए, होने दो उसकी पकड़ तुम पर, करने दो तुम्हें वशीभूत। इतनी समग्रता से उसका आनंद मनाओ कि अगली घड़ी कुछ अलग तरह की न हो सके। कहां से होगी वह अलग? कहौ से आएगी वह?

तुम्हारा समय निर्मित होता है तुम्हारे भीतर। तुम्हारा समय मेरा समय नहीं है। उतने ही समानांतर समय अस्तित्व रखते हैं जितने कि मन होते हैं। कोई एक समय नहीं है। यदि एक समय होता, तो कठिनाई हो गया होती। तब सारी दुखी मानव—जाति के बीच, कोई बुद्ध नहीं हो सकता था, क्योंकि हम संबंधित होते एक ही समय से। नहीं, वह एक ही नहीं होता है। मेरा समय आता है मुझसे—वह मेरा सृजन है। यदि यह क्षण सुंदर है, तो अगला क्षण जन्मता है ज्यादा सुंदर—यह है मेरा समय। यदि यह क्षण उदास होता है तुम्हारे लिए, तो और ज्यादा उदास क्षण जन्मता है तुममें से—वह है तुम्हारा समय।

समय की लाखों समानांतर रेखाएं अस्तित्व रखती हैं। और कुछ लोग हैं जो अस्तित्व रखते हैं बिना समय के, वे जिन्होंने पा लिया है अ—मन। उनके पास कोई समय नहीं, क्योंकि वे नहीं सोचते हैं अतीत के बारे में, अतीत तो जा चुका; केवल मूढ़ सोचते हैं उसके विषय में। जब कोई चीज जा चुकी होती है, तो वह जा चुकी होती है।

एक बौद्ध मंत्र है : ‘गते, गते, परा गते, परा संगते—बोधि स्वाहा!’ ‘जा चुका, जा चुका, परम रूप से जा चुका; उसे अग्नि में स्वाहा हो जाने दो। ‘ अतीत जा चुका है, भविष्य अभी आया नहीं है। क्यों चिंता करनी उसकी 1: जब आएगा वह, हम देख लेंगे। तुम होओगे मौजूद उसका सामना करने को, क्यों चिंता करनी उसकी? जो चला गया वह चला गया है, नहीं आया हुआ अभी तक आया नहीं। केवल यही क्षण बचा हुआ है, शुद्ध प्रगाढ़ ऊर्जा सहित।

जीयो इसे! यदि यह शांतिपूर्ण है, तो अनुगृहीत होओ। यदि यह आनंदपूर्ण है, तो धन्यवाद दो

परमात्मा को, आस्था रखो इस पर और यदि तुम आस्था रख सकते हो, तो यह विकसित होगी। यदि तुम रखते हो अनास्था, तो तुमने पहले से ही विषाक्त कर दिया इसे।

तीसरा प्रश्न :

आपने कहा कि हमारी ओर से की गयी सब क्रियाएं ज्यादा समस्याएं खड़ी कर देंगी और हमें देखना चाहिए और प्रतीक्षा करनी चाहिए और विश्रांत होना चाहिए और चीजों को अपने से ही शांत होने देना चाहिए तो ऐसा किस प्रकार हुआ कि योग सैकड़ों तरकीबों और अभ्यासों साधनाओं से भरा हुआ है।

तुम्हारे कारण! ऐसा पतंजलि के कारण नहीं हुआ है, ऐसा हुआ है तुम्हारे कारण। तुम नहीं विश्वास कर सकते कि तुम्हारे बिना कुछ किए ही परम सत्य घट सकता है तुमको—तुम नहीं विश्वास कर सकते। तुम्हें कुछ चाहिए करने को। जैसे कि बच्चों को चाहिए खिलौने खेलने के लिए तुम्हें तरकीबें चाहिए खेलने के लिए। और क्योंकि तुम विश्वास नहीं कर सकते कि परमात्मा इतना सरल है और इतने निकटतम रूप से संभव है, अत: तरकीबें खोज ली गयी हैं। वे तरकीबें तुम्हारी मदद न करेंगी परम सत्य तक पहुंचने में। तो क्या करेंगी वे? —वे तो मात्र दर्शा देंगी तुम्हें तुम्हारी मूढ़ता। एक दिन अचानक बोध होने पर कि क्या कर रहे हो तुम, तरकीबें गिर जाती हैं, और परमात्मा उतर आता है। परमात्मा तो सदा से ही है। तरकीबें हैं तुम्हारे कारण; तुम मांग करते हो उनकी।

लोग मेरे पास आते, और यदि मैं कहता हूं उनसे कि कोई जरूरत नहीं कुछ करने की, तो वे कहते हैं ‘फिर भी कुछ दीजिए। कम से कम कोई मंत्र ही दे दीजिए आप ताकि हम उसका जप ही कर सकें। ‘वे कहते कि मात्र शाति से बैठ जाना असंभव है—’हमें कुछ करना है। ‘ तो क्या करूं मैं इन लोगों का? यदि मैं कहता हूं उनसे, ‘शांत होकर बैठो’, तो वे बैठ नहीं सकते। तब कामचलाऊ रूप की कोई चीज निर्मित कर लेनी होती है। मैं दे देता हूं उन्हें कुछ करने को। उसे करते हुए, कम से कम वे कुछ घंटे व्यस्त तो रहेंगे। वे बैठे रहेंगे जपते हुए, कम से कम इस मंत्र की सहायता से, वे किसी का कुछ बुरा तो नहीं करेंगे। वे बैठे ही रहेंगे : वे बुरा कर नहीं सकते। और निरंतर राम, राम, राम—जपते हुए किसी दिन वे जान लेंगे कि वे क्या कर रहे हैं।

एक झेन गुरु अपने शिष्य के पास गया। शिष्य सच्चा प्रामाणिक खोजी था। वह निरंतर ध्यान कर रहा था और उसे उपलब्ध हो गया था वह अंतिम स्थल जहां गिरा ही देना होता है ध्यान; सारी तरकीबें गिरा देनी होती हैं। वे मात्र खिलौने हैं, क्योंकि बिना खिलौनों के तुम रह नहीं सकते। वे इस आशा में दिए जाते हैं कि किसी दिन तुम जान जाओगे कि वे मात्र खिलौने हैं। तुम स्वयं ही फेंक दोगे उन्हें और शांत होकर बैठ जाओगे।

गुरु गया क्योंकि अब सही घड़ी आ पहुंची थी, और शिष्य फिर भी जारी रखे हुए था अपने मंत्र का जप। वह हो गया था आदी। अब वह वशीभूत हो गया था। वह छोड़ नहीं सकता था उसे। यह ऐसा ही है कि जैसे जब कई बार तुम पाते हो कि गाने की कोई निश्चित पंक्ति मन में चलती ही जाती है। यदि तुम चाहते भी हो तो भी तुम गिरा नहीं सक थे उसे। वह लगी रहती है तुम्हारे भीतर, फिर—फिर आ पहुंचती है वह। यह कुछ ऐसी बात नहीं है जिसे कि तुम नहीं जानते।

जब कोई व्यक्ति बरसों तक एक मंत्र दोहराता चला जाता है, तो करीब—करीब असंभव होता है उसे गिरा देना। वह उसकी मांस—मज्जा ही बन जाता है। वह अपनी नींद में भी नहीं गिरा सकता है उसे। जब वह नींद में होता है तो तुम उसके होंठों को देख सकते हो कहते हुए, ‘राम, राम, राम। ‘ यह बात एक अंतर्धारा बन जाती है। निस्संदेह यह एक खिलौना होता है, एक भालू—खा, लेकिन इतना ज्यादा निकट का बन जाता है कि बच्चा सो नहीं सकता इसके बिना।

गुरु गया और एकदम बैठ गया शिष्य के सम्मुख। वह बैठा हुआ था बुद्ध की भांति, जप कर रहा था, अपने मंत्र का। गुरु ले गया था अपने साथ एक ईंट और शुरू कर दिया था उसने ईंट को पत्थर पर रगड़ना : घर्र, घर्र, घर्र। वह करता गया ऐसा बिलकुल मंत्र की भांति ही। पहले तो शिष्य ने यह देखने के प्रलोभन को कि ‘कौन शाति भंग कर रहा है’, रोके रखा; लेकिन फिर वह चीज चलती ही चली गई; घंटों गुजर गये। शिष्य ने अपनी आंखें खोल लीं और बोला, ‘क्या कर रहे हैं आप?’ गुरु ने कहा, ‘मैं इस ईंट को चमकाने की कोशिश कर रहा हूं इसका दर्पण बना देने के लिए। ‘ शिष्य बोला, ‘आप नासमझ हो। मैंने कभी नहीं सोचा था कि आप, जिनकी प्रतिष्ठा बुद्ध—पुरुष के रूप में है, वेश्तनी मूढ़ बात कर सकते हैं। ईंट कभी न बनेगी दर्पण, चाहे कितनी ही जोर से आप इसे लड़ लें पत्थर पर। यह पूरी तरह मिट तो सकती है, लेकिन यह दर्पण न बनेगी। आप बंद कीजिए यह बेतुकी बात। ‘ गुरु हंस पड़ा और बोला ‘तुम भी करो बंद, क्योंकि चाहे कितना ही क्यों न रगड़ी तुम मन की ईंट को, वह कभी न बनेगी अंतरतम आत्मा। वह चमकती जाएगी और चमकती जाएगी और चमकती जाएगी, पर फिर भी वह न बनेगी तुम्हारी आंतरिक वास्तविकता। ‘

मन को गिरा देना है। ध्यान की विधियां, तरकीबें, उस गिराने में मदद देने की चालाकियां हैं लेकिन तब ध्यान भी तो गिरा देना है। अन्यथा, वही बन जाता है तुम्हारा मन।

यह ऐसा है जैसे जब तुम्हारे पैर में कांटा चुभा हो, और तुम दूसरा कांटा पा लो, उस पहले काटे को तुम्हारे पैर में से हटा देने को, दूसरा कांटा मदद करता है, लेकिन तो भी दूसरा कांटा भी पहले की भांति कांटा ही है। दूसरा कांटा कोई फूल नहीं होता। जब पहला निकाला जा चुका होता है दूसरे की मदद से तो क्या करोगे तुम? क्या तुम दूसरे को घाव में रख दोगे क्योंकि उसने बहुत ज्यादा मदद की और काटा इतना महान था कि तुम्हें पूजा करनी पड़ी उसकी! क्या तुम पूजा करोगे दूसरे काटे की? नहीं, तुम दोनों को ही एक साथ फेंक दोगे।

इस बात को खयाल में ले लेना है : मन एक काटा है, और सारी तरकीबें कांटा हैं, पहले काटे को बाहर निकालने की। ध्यान भी एक काटा है। जब पहला काटा बाहर हो जाता है, तब दोनों को साथ—साथ ही फेंक देना होता है। यदि तुम एक घड़ी भी गंवा देते हो, तब पहले काटे के स्थान पर होगा दूसरा कांटा। तुम उसी मुसीबत में पड़े होंगे।

इसीलिए जरूरत होती है सद्गुरु की जो कह सकता हो तुम से, ‘अब आयी है ठीक घड़ी। गिरा दो इस ध्यान को और इस मूढ़ कार्यकलाप को। ‘ जब तक ध्यान तिरोहित ही न हो जाए ध्यान उपलब्ध नहीं हुआ होता है। जब ध्यान व्यर्थ पड़ जाता है, केवल तभी पहली बार तुम हो जाते हो ध्यानी। तरकीबें तुम्हारे लिए आविष्कृत की जाती रही हैं, क्योंकि तुम्हारे पास पहले से ही काटा होता है। कांटा वहां है पहले से ही। किसी उपाय की जरूरत है उसे बाहर ले आने के लिए। लेकिन सदा ध्यान रहे, भूलो मत कभी : कि दूसरा काटा भी काटा है पहले की भांति, और दोनों को ही फेंक देना है।

क्योंकि तुम तो जान नहीं पाओगे, इसीलिए इतना महत्व दिया जाता है गुरु को, गुरु के सत्संग को। जब मन गिर जाता है, तो तुरंत ध्यान बन जाता है मन और फिर से अधिकृत कर लिए जाते हो तुम। अनाधिकृत अवस्था में जब न तो कहीं मन होता है और न ही ध्यान, उस समग्ररूपेण अनाधिकृत मन की अवस्था में, परम सत्य घटता है—उसके पहले कभी नहीं।

ऐसा हुआ कि एक बड़ा झेन गुरु, जब वह संबोधि को उपलब्ध नहीं हुआ था और अभी झेन गुरु नहीं हुआ था और खोज रहा था और ढूंढ रहा था, अपने गुरु के पास गया। गुरु सदा से कहता आ रहा था लोगों से, ‘ज्यादा ध्यान करो। ‘ जो कोई भी आया उसने पायी वही सलाह, ‘ज्यादा ध्यान करो, ज्यादा ऊर्जा ले आओ उसमें। ‘ इस शिष्य ने किया जो कुछ भी वह कर सकता था। वह वस्तुत: उतने ही समग्र रूप से कर रहा था ध्यान जितना कि कोई मानव प्राणी कर सकता है। वह गया गुरु के दर्शन को, और उसे देख गुरु ने खास ध्यान नहीं दिया। चेहरे से खुश न दिखाई पड़ा वह। शिष्य पूछने लगा, ‘बात क्या है? यदि आप ज्यादा कुछ करने को कहें, तो करूंगा मैं कोशिश। लेकिन आप मेरी ओर इतनी उदास दृष्टि से क्यों देख रहे हैं? क्या अनुभव करते हैं कि मैं एक निराशाजनक व्यक्तित्व हूं?’ गुरु ने कहा, ‘नहीं, ठीक उलटी है बात—तुम बहुत कुछ कर रहे हो। थोड़ा कम करो। तुम सब मिला कर ध्यान और झेन से बहुत ज्यादा भर गए हो। थोड़ा—सा कम ही काम दे देगा। ‘

कोई वशीभूत हो सकता है ध्यान द्वारा, और वशीभूत होना एक समस्या है। पहले तुम धन द्वारा सम्मोहित हुए, अब तुम सम्मोहित हो गए ध्यान द्वारा। धन नहीं है समस्या, आविष्ट होना, वशीभूत होना समस्या है। तुम बाजार से वशीभूत थे, अब वशीभूत हुए परमात्मा द्वारा। बाजार कोई समस्या नहीं है, बल्कि वशीभूत होना समस्या हौं व्यक्ति को स्वाभाविक और मुक्त होना चाहिए और किसी चीज द्वारा सम्मोहित नहीं होना चाहिए; न तो मन द्वारा और न ही ध्यान द्वारा। केवल तभी खाली होने पर, सम्मोहन रहित होने पर, जब तुम एकदम उमग रहे होते, प्रवाहमान होते, परम सत्य घटता है तुम में।

चौथा प्रश्न :

आप प्रेम के विषय में बताते हैं और यह कि उस पर ध्यान करना कितना ठीक है लेकिन मेरी वास्तविकता ज्यादा जुड़ी है भय से। क्या आप हमें बताएंगे भय के विषय में और हमारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिए इसके प्रति?

पहली बात तो यह है कि भय प्रेम का दूसरा पहलू है। यदि तुम प्रेम में होते हो, तो भय तिरोहित हो जाता है। यदि तुम प्रेम में नहीं होते, तो भय उठ खड़ा होता है, बड़ा प्रबल भय। केवल प्रेमी होते हैं निर्भय। केवल प्रेम के गहन क्षण में, कोई भय नहीं रहता। प्रेम के गहन क्षण में, अस्तित्व बन जाता है एक घर—तुम अजनबी नहीं रहते, तुम बाहरी व्यक्ति नहीं रहते, तुम स्वीकृत हो जाते हो। यदि एक भी मनुष्य द्वारा तुम स्वीकृत हो जाते हो, तो गहरे में कुछ खिल जाता है—फूल खिलने जैसा कुछ घट जाता है अंतरतम अस्तित्व में। तुम स्वीकृत हो जाते हो किसी के द्वारा, तुम मूल्यवान माने जाते हो; तुम व्यर्थ ही नहीं रहते। तुम्हारी सार्थकता होती है; कुछ अर्थ हो जाता है। यदि तुम्हारे जीवन में कोई प्रेम न रहे, तो तुम भयभीत हो जाओगे। तब हर कहीं भय होगा क्योंकि हर कहीं शत्रु हैं, मित्र हैं नहीं। सारा अस्तित्व पराया जान पड़ता है। तुम लगने लगते हो सांयोगिक—गहरे में उतरे नहीं, बद्धमूल नहीं, घर में नहीं। प्रेम में कोई एक मनुष्य भी तुम्हें दे सकता है इतना गहरा सुख—चैन तो जरा उसकी तो सोचो जब कोई व्यक्ति प्रार्थना को उपलब्ध हो जाता है।

प्रार्थना उच्चतम प्रेम है—समग्र के, संपूर्ण के संग प्रेम। और जिन्होंने प्रेम नहीं किया वे प्रार्थना को नहीं उपलब्ध हो सकते। प्रेम पहला सोपान है और प्रार्थना अंतिम। प्रार्थना का अर्थ हुआ कि तुम संपूर्ण से प्रेम करते हो और संपूर्ण तुम्हें प्रेम करता है। जब किसी एक व्यक्ति के कारण भी इतना गहरा खिलाव तुम्हारे भीतर घट सकता है तो जरा उसकी सोचो जब अनुभव होता है कि संपूर्ण के साथ प्रेम में हो? प्रार्थना होती है जब तुम प्रेम करते हो परमात्मा से और परमात्मा प्रेम करता है तुमसे। और यदि प्रेम और प्रार्थना तुम्हारे जीवन में नहीं, तो वहां होता है केवल भय।

अत: भय वास्तव में प्रेम का अभाव ही है। और यदि भय है तुम्हारी समस्या, तो वह यही दिखाती है मुझे कि तुम देख रहे हो गलत पहलू की ओर। समस्या प्रेम की होनी चाहिए भय की नहीं। यदि भय है समस्या, तो उसका अर्थ हुआ तुम्हें खोज करनी चाहिए प्रेम की। यदि भय है समस्या, तो समस्या वस्तुत: यही है कि तुम्हें ज्यादा प्रेमपूर्ण होना चाहिए, ताकि दूसूरा कोई तुम्हारे प्रति ज्यादा प्रेमपूर्ण हो सके। तुम्हें ज्यादा खुला होना चाहिए प्रेम के प्रति।

लेकिन यही है अड़चन : जब तुम्हें भय होता है तो तुम बंद हो जाते हो। तुम इतना भय अनुभव करने लगते हो कि तुम दूसरे मनुष्य की ओर बढ़ना बंद कर देते हो। तुम एकाकी हो जाना चाहते हो। जब कभी कोई आ जाता है, तुम घबड़ाहट अनुभव करते हो, क्योंकि दूसरा लगता है शत्रु की भांति। और यदि तुम इतने जकड़े गए होते हो भय द्वारा तो यह हो जाता है एक दुश्चक्र। प्रेम का अभाव तुम में भय निर्मित कर देता है, और अब भय के कारण ही तुम हो जाते हो बंद। तुम बिना खिड़कियों वाली बंद कोठरी की भांति हो जाते हो। जब तुम भयभीत होते हो, तो कोई भी आ सकता है खिड़कियों द्वारा, और चारों ओर होते हैं शत्रु। तुम्हें द्वार खोलने में भय होता है क्योंकि जब तुम खोल देते हो द्वार, तब कुछ भी संभव होता है। अत: प्रेम भी जिस समय खटखटाता है तुम्हारा द्वार, तो तुम भरोसा नहीं करते।

कोई पुरुष या कोई स्त्री जो बहुत गहरे रूप से बद्धमूल हो भय में, उसे हमेशा प्रेम में पड़ने से डर लगता है। तब हृदय के द्वार खुल जाएंगे और दूसरा तुम में प्रवेश कर जाएगा, और दूसरा तो है शत्रु। सार्त्र कहता है, ‘दूसरा है नरक। ‘

प्रेमियों ने एक दूसरी वास्तविकता जानी है, दूसरा है स्वर्ग, पूरा स्वर्ग। सार्त्र जरूर गहरे भय में पीड़ा में, चिंता में जी रहा है। और सार्त्र बहुत, बहुत प्रभावकारी हो गया है पश्चिम में। वस्तुत: उससे बचना चाहिए रोग की भांति, एक खतरनाक रोग की भांति। लेकिन वह आकर्षित करता है क्योंकि जो कुछ भी वह कह रहा है, बहुत लोग वही कुछ तो अनुभव करते हैं अपने जीवन में। यही है उसका आकर्षण। निराशा, उदासी, पीड़ा, भय : ये ही हैं सार्त्र के मूल विषय, अस्तित्ववाद के संपूर्ण आंदोलन के विषय। और लोग अनुभव करते कि ये उनकी समस्याएं हैं। इसीलिए जब मैं बात करता हूं प्रेम की निस्संदेह तुम अनुभव करते कि वह तुम्हारी समस्या है ही नहीं। तुम्हारी समस्या तो भय की है। लेकिन मैं कहना चाहूंगा तुमसे कि प्रेम है तुम्हारी समस्या, भय नहीं।

यह ऐसा है : जैसे कि घर में अंधेरा हो और मैं बात करूं प्रकाश की। तुम कहते, ‘आप प्रकाश की ही बात करते जाते हैं। बेहतर होता यदि आप बोलते अंधकार के बारे में, क्योंकि हमारी समस्या तो अंधकार की है। घर भरा हुआ है अंधकार से। प्रकाश नहीं है हमारी समस्या। ‘ लेकिन क्या तुम्हें बात समझ में आती है कि तुम क्या कह रहे हो? यदि अंधकार है तुम्हारी समस्या, तो अंधकार के बारे में बातें करना मदद न देगा। तुम कहते हो कि अंधकार है तुम्हारी समस्या, लेकिन सीधे तौर पर कुछ किया नहीं जा सकता है अंधकार के बोरे में। तुम उसे बाहर निकाल फेंक नहीं सकते, तुम उसे बाहर धकेल नहीं सकते, तुम उसे उतार दूर नहीं कर सकते।

अंधकार एक अभाव है। सीधे—सीधे उसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता है। यदि तुम्हें कुछ करना हो, तो तुम्हें कुछ करना होगा प्रकाश के साथ, अंधकार के साथ नहीं।

ज्यादा ध्यान देना प्रकाश पर—कि कैसे ढूंढो प्रकाश को, कैसे निर्माण करो प्रकाश का, कैसे घर में प्रज्वलित कर लो दीया? और तब अचानक, कहीं कोई अंधकार नहीं रहता।

ध्यान रहे कि समस्या प्रेम की होती है, भय की नहीं। तुम देख रहे हो असद् पक्ष की ओर। तुम जन्मों—जन्मों तक देख सकते हो असद् पक्ष की तरफ और तुम उसे सुलझा न पाओगे।

सदा स्मरण रखना कि अनुपस्थिति को नहीं बना लेना होता है समस्या, क्योंकि कुछ नहीं किया जा सकता है उस विषय में। केवल उपस्थिति को बनाना है समस्या, क्योंकि तभी किया जा सकता है कुछ; उसे सुलझाया जा सकता है।

यदि भय अनुभव होता हो, तो समस्या प्रेम की है। ज्यादा प्रेममय हो जाओ। दूसरे की ओर कुछ कदम बढ़ाओ। क्योंकि भय हर किसी मेँ है, केवल तुम्हीं में नहीं। तुम प्रतीक्षा करते हो कि कोई आए तुम तक और प्रेम करे तुम्हें। तुम सदा ही प्रतीक्षा करते रह सकते हो, क्योंकि वह दूसरा भी भयभीत होता है। और लोग जो भयभीत हैं, एक बात के प्रति तो बिलकुल ही भयभीत हो जाते हैं, और वह है : अस्वीकृत होने का भय।

यदि मैं जाऊं और खटखटाऊं तुम्हारे द्वार, तो संभावना यही होती है कि तुम शायद अस्वीकार ही कर दोगे। वह अस्वीकृति बन जाएगी एक घाव, इसलिए तुम अनुभव करते हो कि न जाना ही बेहतर है। अकेले बने रहना ही बेहतर है। बेहतर है तुम्हारा अपने से ही बढ़ते रहना और दूसरे के साथ अंतरंग न होना क्योंकि दूसरा अस्वीकृत कर सकता है। जिस घड़ी तुम समीप जाते और प्रेम में पहल करते हो, तो पहला भय जो आता है वह यह कि दूसरा तुम्हें स्वीकार करेगा या अस्वीकार कर देगा। वह स्त्री हो या पुरुष, संभावना तो होती है कि करेगा तो शायद अस्वीकार ही।

इसीलिए स्त्रियां कभी पहल नहीं करतीं, वे ज्यादा भयभीत होती हैं। वे सदा प्रतीक्षा करती हैं पुरुष के आने की। वे अस्वीकार करने या स्वीकार करने की संभावना सदा अपने पास ही रखती हैं। दूसरे को कभी संभावना नहीं देतीं, क्योंकि वे पुरुषों की अपेक्षा अधिक भयभीत होती हैं। तो बहुत—सी स्त्रियां उम्र भर इंतजार ही करती रहती हैं। कोई नही आता उनका द्वार खटखटाने को, क्योंकि वह व्यक्ति जो भयभीत होता है, एक खास तरह से, इतना बंद हो जाता है कि वह लोगों को दूर करता है। जरा पहुंच जाओ ज्यादा निकट, और भयभीत आदमी ऐसी तरंगें फेंकता है चारों ओर कि कोई जो निकट आ रहा होता है, दूर कर दिया जाता है। भयभीत आदमी दूर सरकने लगता; उस गतिविधि में भी भय होता है।

तुम बात करते हो किसी स्त्री से—यदि तुम उसके लिए किसी प्रकार का प्रेम या स्नेह अनुभव कर रहे होते हो, तो तुम और— और निकट होना चाहोगे। लेकिन देखना स्त्री के शरीर को, क्योंकि शरीर की अपनी भाषा होती है। स्त्री, अनजाने में ही, पीछे की ओर झुक रही होगी। या वह पीछे ही हटने लगेगी। तुम निकट हो रहे हो, तुम ज्यादा निकट पहुंच रहे हो और वह पीछे हट रही होती है। यदि कोई संभावना नहीं होती पीछे हटने की, यदि कोई दीवार वहां होती है, तो वह दीवार के सहारे टेका लगा लेगी। आगे न झुकते हुए, वह दिखा रही होती है, ‘चले जाओ। ‘ वह कह रही होती है, ‘मत आओ मेरे निकट। ‘

जरा देखना लोगों को बैठे हुए, चलते हुए। ऐसे लोग हैं जो बस हर किसी को दूर कर देते हैं। यदि कोई ज्यादा निकट आता है, तो वे भयभीत हो जाते हैं। और भय प्रेम की तरह की ऊर्जा है, एक निषेधात्मक ऊर्जा। वह व्यक्ति जो प्रेम अनुभव कर रहा होता है विधायक ऊर्जा से भरा—पूरा होता है। जब तुम ज्यादा निकट आते हो, तो ऐसा लगता है जैसे कि कोई चुंबक तुम्हें खींच रहा हो। तुम इस व्यक्ति के साथ हो जाना चाहोगे।

यदि तुम्हारी समस्या भय की है, तब सोचना तुम्हारे व्यक्तित्व के बारे में, ध्यान देना उस पर। तुमने जरूर अपने द्वार बंद कर दिए हैं प्रेम के प्रति, बस इतनी ही बात है। खोल दो उन द्वार—दरवाजों को। निस्संदेह संभावना होती है अस्वीकृत हो जाने की। लेकिन क्यों होना भयभीत? दूसरा केवल ‘नहीं’ ही कह सकता है। ‘नहीं’ की पचास प्रतिशत संभावना वहां है, लेकिन ‘नहीं’ की इस पचास प्रतिशत संभावना के कारण ही, तुम सौ प्रतिशत अप्रेम का जीवन चुन लेते हो।

संभावना है, तो क्यों करनी चिंता? बहुत सारे लोग हैं। यदि एक कह देता है नहीं, तो उसे चोट की भाति मत जान लेना, उसे घाव की भांति मत धारण कर लेना। बस ऐसे मान लेना—प्रेम घटित नहीं हुआ था। बिलकुल यही समझ लेना—दूसरे व्यक्ति ने तुम्हारे साथ बढ़ने जैसा अनुभव नहीं किया। तुम्हारा एक दूसरे से मेल नहीं बैठा। तुम अलग— अलग प्रकार के हो। वस्तुत: पुरुष ने या कि स्त्री ने तुम्हें ‘न’ नहीं कही; यह कोई व्यक्तिगत बात नहीं है। तुम अनुरूप नहीं बैठे; आगे बढ़ जाओ। और यह अच्छा है कि उस व्यक्ति ने ‘न’ कर दी, क्योंकि यदि तुम उस व्यक्ति के अनुरूप नहीं होते और वह व्यक्ति ‘ही’ कह देता है, तो तुम पड़ जाओगे वास्तविक अड़चन में। तुम जानते नही—हो सकता है दूसरे ने तुम्हें मुसीबत की एक पूरी जिंदगी से बचा लिया हो। उसे धन्यवाद देना, और आगे बढ़ जाना, क्योंकि सभी उपयुक्त नहीं बैठते सभी को।

प्रत्येक व्यक्ति इतना बेजोड़ होता है कि यह वास्तव में ही कठिन होता है तुम्हारे साथ उपयुक्त बैठने वाला सही व्यक्ति खोज पाना। किसी बेहतर दुनिया में, कहीं कभी भविष्य में, लोगों में ज्यादा गतिमयता होगी, जिससे कि लोग कोशिश कर सकें और पा सकें अपने लिए ठीक स्त्री और ठीक पुरुष।

गलतियां करने से डरना मत, क्योंकि यदि तुम्हें गलतियां करने का डर होता है तो तुम बिलकुल ही न चलोगे, और तुम पूरी जिंदगी चूक जाओगे। न करने से बेहतर है गलती करना। अस्वीकृत होना बेहतर है मात्र स्वयं तक ही, भयभीत बने रहने से, कुछ आरंभ न करने सें—क्योंकि अस्वीकार ले आता है स्वीकार की संभावना। वह है स्वीकार का दूसरा पहलू।

यदि कोई अस्वीकर करता है, तो कोई स्वीकार करेगा। व्यक्ति को चलते जाना होता है और ढूंढ लेना होता है सही व्यक्ति। जब सही व्यक्ति मिल जाता है, तो कोई चीज खट से कौंध जाती है। वे एक दूसरे के लिए ही बने होते हैं। वे साथ—साथ ठीक बैठते हैं। ऐसा नहीं है कि वहां कोई संघर्ष न होगा, कि गुस्से और झगडे के क्षण न आएंगे; नहीं। यदि प्रेम जीवंत होता है तो संघर्ष भी होगा वहां। कई बार क्रोध के क्षण भी .आएंगे। यह बात इतना ही दर्शाती है कि प्रेम एक जीवंत घटना है। कई बार चली आती है उदासी, क्योंकि जहां कहीं प्रसन्नता अस्तित्व रखती है, उदासी तो वहां होगी ही।

केवल विवाह में कोई उदासी नहीं होती, क्योंकि कोई प्रसन्नता नहीं होती। व्यक्ति केवल बरदाश्त करता है—यह एक समझौता होता है, यह एक नियंत्रित की हुई घटना होती है। जब तुम सचमुच ही जीवन में उतरते हो, तो क्रोध भी होता है वहां। तो जब तुम प्रेम करते हो किसी व्यक्ति को, तो तुम स्वीकार कर लेते हो क्रोध को। जब तुम प्रेम करते हो किसी व्यक्ति को तुम उसकी उदासी को भी स्वीकार कर लेते हो।

कई बार तुम दूर चले जाते हो मात्र फिर से ज्यादा निकट आने को ही। वस्तुत: एक गहरी प्रक्रिया है : प्रेमी लड़ते हैं फिर—फिर प्रेम में पड़ने को ही, ताकि वे फिर और फिर और फिर हनीमून मना सकें। प्रेम से भयभीत मत हो जाना। चीज तो केवल एक ही है जिससे कि किसी को भयभीत होना चाहिए, और वह है भय। भय से भयभीत होना और कभी भयभीत मत होना किसी दूसरी चीज से, क्योंकि भय अपंग कर देता है। वह विषमय होता है, वह आत्मघाती होता है। बढ़ो! उसके बाहर कूद जाओ! जो कुछ तुम चाहते हो वही करो, लेकिन भय को लेकर ही मत ठहर जाना क्योंकि वह नकारात्मक अवस्था होती है। और यदि तुम चूक जाते हो प्रेम को…।

मेरे देखे, प्रेम कोई बड़ी समस्या नहीं है, क्योंकि मैं तुमसे और आगे दूर देखता हूं। यदि तुम प्रेम को चूकते हो, तो तुम चूक जाओगे प्रार्थना को, और मेरे लिए वही है वास्तविक समस्या। तुम्हारे लिए शायद अभी भी यह कोई समस्या न होगी। यदि भय है समस्या, तो प्रेम भी तुम्हारे लिए कोई समस्या नहीं है अभी, तो कैसे तुम सोच सकते हो प्रार्थना के बारे में? लेकिन मुझे दिखाई पड़ता है कि किस प्रकार जिंदगी का पूरा सिलसिला चलता है। यदि प्रेम चूक जाता है तो तुम कभी प्रार्थना नहीं कर सकते, क्योंकि प्रार्थना है ब्रह्मांड का प्रेम। तुम प्रेम से कतरा कर नहीं पहुंच सकते प्रार्थना तक। बहुत लोगों ने की है कोशिश; वे मृत पड़े हैं मठों में। संसार भर में बहुत लोग कर चुके हैं कोशिश। भय के कारण, उन्होंने पूरी तरह प्रेम से बचने की कोशिश की है। वे ढूंढने की कोशिश करते रहे हैं जल्दी पहुंचा देने वाला कोई रास्ता, प्रेम के भय से बच कर सीधे प्रार्थना तक जाता हुआ।

यही कुछ है जो साधु—मुनि करते आ रहे हैं सदियों—सदियों से। ईसाई और हिंदू और बौद्ध—सभी साधु—मुनि यही करते रहे हैं। वे कोशिश करते रहे हैं प्रेम से पूरी तरह कतराने की। उनकी प्रार्थना झूठी होगी। उनकी प्रार्थना में कोई जीवन नहीं होगा। उनकी प्रार्थना कहीं नहीं सुनी जाएगी, और ब्रह्मांड उनकी प्रार्थना का उत्तर नहीं देने वाला है। वे सारे ब्रह्मांड को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं।

नहीं, व्यक्ति को प्रेम में से गुजरना ही होता है। भय से हट कर प्रेम में सरको। प्रेम से, तुम उतरोगे प्रार्थना में। प्रेम के साथ चली आती है निर्भयता। और परम निर्भयता होती है प्रार्थना में, क्योंकि तब मृत्यु का भी बिलकुल भय नहीं रहता। क्योंकि तब कोई मृत्यु होती ही नहीं। अस्तित्व के साथ ही इतने गहरे रूप से तार जुड़ा होता है तुम्हारा —कि भय का अस्तित्व कैसे बना रह सकता है?

इसलिए जरा कृपा करना, भय से आविष्ट मत हो जाना। उससे बाहर कूद पड़ना, और प्रेम की ओर बढ़ने लगना। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि किसी को रुचि नहीं है तुम में। यदि तुम प्रतीक्षा कर रहे हो तो तुम प्रतीक्षा किए चले जा सकते हो। मेरे देखे, तो ऐसा है : तुम प्रेम से बच कर नहीं निकल सकते, अन्यथा तुम आत्मघात करने लगोगे। लेकिन प्रेम बच कर निकल सकता है तुमसे, यदि तुम केवल प्रतीक्षा ही करते रहते हो। बढ़ो! प्रेम एक भावावेश होना चाहिए। वह होना चाहिए भावपूर्ण, जीवंत, प्राणवान। केवल तभी तुम किसी को आकर्षित कर सकते हो, तुम्हारी ओर झुकने के लिए। मुरदा हो, तो कौन परवाह करता है तुम्हारी? मुरदा होते हो, तो लोग छुटकारा पा लेना चाहेंगे तुमसे। मुरदा हो, तो तुम हो जाते हो एक उबाऊ घटना, एक ऊब। तुम्हारे चारों ओर, तुम बनाए रहते हो ऊब की ऐसी धूल—गर्द, कि कोई जो तुमसे मिल जाता हो वह अनुभव करेगा कि यह एक विपत्ति है।

प्रेममय रहना, सक्रिय रहना, निर्भय रहना—और बढ़ जाना। जिंदगी के पास तुम्हें देने को बहुत कुछ है यदि तुम निर्भय रहो तो। और जिंदगी जितना दे सकती है उससे कहीं ज्यादा है प्रेम के पास तुम्हें देने को, क्योंकि प्रेम सच्चा केंद्र है इस जीवन का। उसी केंद्र को पार कर तुम जा सकते हो दूसरे किनारे तक।

मैं इन्हें तीन चरण कहता हूं : जीवन, प्रेम और प्रकाश। जीवन तो पहले से ही वहां है। प्रेम तुम्हें उपलब्ध करना है। तुम इसे चूक सकते हो क्योंकि इसे दिया नहीं जाता है। व्यक्ति को निर्मित करना होता है इसे। जीवन एक सौंपी हुई घटना है; तुम जीवंत हो ही। वहां ठहर जाता है स्वाभाविक विकास। प्रेम तुम्हें खोज लेना है। निस्संदेह इसमें खतरे हैं, बाधाएं हैं, लेकिन वे सभी सुंदर बना देते हैं इसे।

तो तुम्हें खोज लेना होता है प्रेम को। और जब तुम खोज लेते हो प्रेम, केवल तभी तुम पा सकते हो प्रकाश। तब प्रार्थना उदित होती है। वस्तुत: प्रेम में गहरे उतरने पर, वे व्यक्ति, वे प्रेमी धीरे— धीरे, अचेतन रूप से बढ़ने लगते हैं प्रार्थना की ओर। क्योंकि प्रेम के उच्चतम क्षण ही निम्नतम क्षण होते हैं प्रार्थना के। सीमा बिंदु के बिलकुल करीब होती है प्रार्थना।

ऐसा घटा है बहुत प्रेमियों को। लेकिन वे प्रेमी जो अकस्मात शुरू कर देते हैं प्रार्थना, जब वे गहन प्रेम में हों—वे बहुत विरल होते हैं। मौन में एक दूसरे के साथ बैठे हुए ही, एक—दूसरे का हाथ थामे हुए, या कि समुद्र के किनारे साथ—साथ लेटे हुए, अनायास वे अनुभव कर लेते हैं एक अंतर्आवेग, पार उतरने की एक अंत: प्रेरणा।

इसीलिए भय पर बहुत ज्यादा ध्यान मत देना, क्योंकि वह खतरनाक है। यदि तुम बहुत ज्यादा ध्यान देते हो भय पर, तो तुम पोषण कर रहे होते हो उसका, और वह विकसित होगा। भय की ओर पीठ फेर लो और बढो प्रेम की तरफ।

पांचवां प्रश्न :

यदि हमें खड़े रहना है और हमें पानी को अपने से ही ठहरने देना है फिर क्यों हैं ये सारे सक्रिय ध्यान?

यदि तुम बैठ सकते, तो कोई जरूरत न होती किसी ध्यान की। जापान में ध्यान के लिए उनके पास एक शब्द है— ‘झा—झेन’। इसका अर्थ होता है, ‘मात्र बैठना, कुछ नहीं करना। ‘ यदि तुम बैठ सको, कुछ न करते हुए तो यही ध्यान का परम सत्य है। किसी दूसरी चीज की कोई जरूरत नहीं है।

लेकिन क्या तुम बैठ सकते हो? सारी समस्या का मर्म यही है। क्या तुम बैठ सकते हो? क्या तुम बैठ भर सकते हो कुछ न करते हुए? यदि ऐसा संभव होता, केवल बैठ जाना और कुछ न करना, तो हर चीज ठहर गयी होती अपने से ही, हर चीज बहने लगती अपने से ही। तुम्हें आवश्यकता नहीं है कुछ करने की। लेकिन समस्या यही है— क्या तुम बैठ सकते हो?

ऐसा हुआ कि एक गांव के निकट एक छोटी—सी पहाड़ी पर एक आदमी खड़ा था। सुबह हुई ही थी और सूर्य उदित हो चुका था। तीन आदमी चले ही थे सुबह की सैर के लिए और उन्होंने देखा था उस आदमी की ओर। और जैसे कि मन चलते हैं, वे बातें करने लगे इस बारे में कि यह आदमी वहां कर क्या रहा है। एक आदमी ने सुझाया कि वह वहां जरूर अपनी गाय खोज रहा होगा। ‘कई बार उसकी गाय खो जाती है। तब वह पहाड़ी की चोटी पर जा पहुंचता है और उसे ढूंढता है, वहां से वह देखता है सब ओर। ‘ दूसरा आदमी कहने लगा, ‘लेकिन वह सब ओर नहीं देख रहा है। वह तो बस खडा हुआ है, इसलिए यह कारण नहीं हो सकता है। मुझे लगता है वह जरूर सुबह की सैर के लिए आया होगा किसी मित्र के साथ, और मित्र पीछे छूट गया है, अत: वह प्रतीक्षा कर रहा है उसकी। ‘ तीसरे आदमी ने कहा, ‘सही बात यह नहीं है। क्योंकि यदि तुम प्रतीक्षा कर रहे होते हो किसी की, तो कई बार तुम देखते हो पीछे की तरफ। वह तो बिलकुल देख ही नहीं रहा है पीछे। मेरा विचार है कि वह ध्यान कर रहा है। और जरा देखो तो उसके कपड़ों की ओर, वह संन्यासी है। वह जरूर ध्यान कर रहा है। ‘ उनकी बहस इतनी उत्तेजित हो गयी कि वे कह उठे, ‘ अब हमें जाना ही होगा पहाड़ी की चोटी तक और इसी आदमी से ही पूछना होगा कि वह कर क्या रहा है वहां। ‘

मीलों चलकर वे पहाड़ की चोटी तक पहुंचे। पहले आदमी ने पूछा, ‘क्या कर रहे हो तुम यहां? मैं सोचता हूं तुमने अपनी गाय खो दी है और तुम खोज रहे हो उसे। ‘ उस व्यक्ति ने अपनी आंखें खोलीं और वह बोला, ‘नहीं। ‘ दूसरा व्यक्ति एक कदम आगे आया और पूछने लगा, ‘तो जरूर मैं सही होऊंगा। क्या तुम उस किसी का इंतजार कर रहे हो जो पीछे रह गया है?’ वह बोला, ‘नहीं। ‘ तब तीसरा खुश हो गया। वह कहने जगा, ‘तो मैं बिलकुल सही था। क्या तुम ध्यान कर रहे हो?’ वह आदमी बोला, ‘नहीं। ‘ तीनों के तीनों हैरान थे। वे कुछ नहीं समझ पाए थे। तीनों ही बोले, ‘तुम कह क्या रहे हो? तुम हर चीज के लिए कह देते हो नहीं। तो फिर तुम कर क्या रहे हो?’ वह आदमी बोला, ‘मैं सिर्फ यहां खड़ा हुआ हूं कर कुछ नहीं रहा। ‘

यदि ऐसा संभव हो, तो यह होता है ध्यान का परम सत्य। यदि ऐसा संभव न हो, तो तुम्हें प्रयुक्त करनी होंगी विधियां, क्योंकि केवल विधियों द्वारा ऐसा संभव होगा। विधियों द्वारा, एक दिन तुम जान लोगे पूरी निरर्थकता को। ध्यान की सारी कार्य प्रणालियां स्वयं को अपने जूतों के फीतों द्वारा ही खींचने जैसी हैं। ध्‍यान की प्रणालियां बेतुकी हैं, लेकिन व्यक्ति को इसे जानना होता है। यह एक बड़ा बोध है। जब कोई बोध पा लेता है कि उसका ध्यान बेतुका है, तो वह बिलकुल गिर ही जाता है।

महर्षि महेश योगी हैं विधियों के उन्‍मुख, जैसे कि विधियां ही सब कुछ हों। कृष्णमूर्ति हैं, विधियों के एकदम विरूद्ध। और यहां मैं हूं—विधियों के हक में, और विरुद्ध भी। कोई प्रणाली, कोई विधि तुम्हें एक बिंदु तक ले जाती है जहां कि तुम उसे गिरा सकते हो। महर्षि महेश योगी खतरनाक हैं। वे बहुत

लोगों को चला देंगे इस मार्ग पर, लेकिन वे कभी न पहुंचेंगे लक्ष्य तक। क्योंकि मार्ग इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया है। वे लाखों लोगों की शुरुआत कर देंगे विधियों पर, और फिर विधियां इतनी महत्वपूर्ण हो जातीं हैं कि कोई रास्ता नहीं बचता उन्हें गिरा देने का।

फिर हैं कृष्णमूर्ति—हानिरहित, लेकिन व्यर्थ भी। वे कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। कैसे वे पहुंचा सकते हैं नुकसान? वे कभी किसी को मार्ग पर चलाते ही नहीं। वे बात करते हैं लक्ष्य की, और तुम बहुत ज्यादा दूर होते हो लक्ष्य से। तुम महर्षि महेश योगी के जाल में पड़ जाओगे। हो सकता है कृष्णमूर्ति तुम्हें बौद्धिक रूप से आकर्षित करते हों, लेकिन कोई मदद नहीं दे पाएंगे। वे नुकसान नहीं पहुंचा सकते। वे संसार के सर्वाधिक हानिरहित आदमी हैं।

और फिर हूं मैं। मैं तुम्हें मार्ग देता हूं—उसे वापस ले लेने को ही। मैं तुम्हें विधियां देता हूं —एक विधि नहीं, बहुत सारी विधियां—खेलने के खिलौनों की भांति। और प्रतीक्षा करता हूं उस घड़ी की जब तुम सारी विधियों के प्रति कहोगे, ‘स्वाहा, अग्नि की भेंट चढ़ जाओ!’

आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग-4) प्रवचन–3

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प्रेम, करूणा, साक्षी और उत्‍सव—लीला—प्रवचन–तीसरा

दिनांक 28 नवंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

क्राइस्ट का प्रेम, बुद्ध की करुणा, अष्टावक्र का साक्षी और आपकी उत्सव—लीला, इन चारों में क्या फर्क है? क्या ये अलग— अलग चार मार्ग हैं?

अलग— अलग मार्ग नहीं, वरन एक ही घटना की चार सीढ़ियां हैं, एक ही द्वार की चार सीढ़ियां हैं।

क्राइस्ट ने जिसे प्रेम कहा है वह बुद्ध की ही करुणा है, थोड़े से भेद के साथ। वह बुद्ध की करुणा का ही पहला चरण है। क्राइस्ट का प्रेम ऐसा है जिसका तीर दूसरे की तरफ है। कोई दीन है, कोई दरिद्र है, कोई अंधा है, कोई भूखा है, कोई प्यासा है, तो क्राइस्ट का प्रेम बन जाता है सेवा। दूसरे की सेवा से परमात्मा तक जाने का मार्ग है; क्योंकि दूसरे में जो पीड़ित हो रहा है वह प्रभु है। लेकिन ध्यान दूसरे पर है। इसलिए ईसाइयत सेवा का मार्ग बन गई।

बुद्ध की करुणा एक सीढ़ी और ऊपर है। इसमें दूसरे पर ध्यान नहीं है। बुद्ध की करुणा में सेवा नहीं है; करुणा की भाव—दशा है। यह दूसरे की तरफ तीर नहीं है, यह अपनी तरफ तीर है। कोई न भी हो, एकांत में भी बुद्ध बैठे हैं, तो भी करुणा है। फर्क समझ लेना।

राह से तुम गुजरे। एक अंधा आदमी भीख मांग रहा है तो तुमने जो दो पैसे दिए वह करुणा नहीं है; सेवा है। क्षण भर पहले, जब तक तुमने अंधे भिखारी को नहीं देखा था तब तक तुम्हारे मन में कोई करुणा का उदय न हुआ था। अंधे भिखारी को देख कर हुआ, यह तुम्हारी अवस्था नहीं है; सांयोगिक घटना है। अगर अंधा भिखारी न मिलता तो सेवा का भाव पैदा न होता, सहानुभूति पैदा न होती। यह प्रेम दूसरे पर निर्भर है; यह दया है। बुद्ध ने करुणा उस दशा को कहा है जब कोई हो न हो, तुम्हारे भीतर करुणा की तरंग उठती ही रहती है। अंधे को देख कर तो उठती ही है, आंख वाले को देख कर भी उठती है; बीमार को देख कर तो उठती ही है, स्वस्थ को देख कर भी उठती है; गरीब को देख कर तो उठती ही है, अमीर को देख कर भी उठती है।

इस फर्क को खयाल में ले लेना। अमीर को देख कर दया नहीं उठती; स्वस्थ आदमी को देख कर दया उठने का क्या कारण है? शायद ईर्ष्या उठती है, जलन उठती है, द्वेष उठता है। अंधे को देख कर दया उठती है। बुद्ध कहते हैं, करुणा होनी चाहिए चैतन्य की दशा; इसका दूसरे से संबंध न हो। और इस भेद को समझना। यही भेद पूरब और पश्चिम का भेद बन गया।

ईसाई को समझ में नहीं आता कि पूरब के धर्म सेवा—उन्मुख क्यों नहीं हैं? जैसा ईसा ने अंधों को आंखें दीं, कोढ़ियों के पैर दबाये, भूखों को रोटी दी, ऐसा बुद्ध या महावीर करते दिखाई नहीं पड़ते। ईसाई को लगता है कि कुछ चूक हो रही है; बुद्ध और महावीर में कुछ कमी मालूम पड़ती है ईसाई को। सचाई और है। सचाई यह है कि बुद्ध और महावीर के लिए करुणा किसी के प्रसंग में नहीं है, अप्रासंगिक है। करुणा भाव—दशा है। अंधा हो तो, न हो तो, आदमी हो तो, वृक्ष हो तो, पहाड़ हो पर्वत हो तो, कोई न हो तो, शून्य में भी करुणा बरसती रहेगी। जैसे कि स्वात में, निर्जन में किसी वृक्ष पर एक फूल खिला, न कोई यात्री वहा से गुजरता, न कोई प्रशंसक आता, न कोई संभावना है कि चित्रकार आएगा और चित्र बनायेगा, न कोई गायक आएगा और गीत गाएगा, लेकिन फिर भी फूल की सुरभि तो फैलती ही रहेगी, शून्य एकांत में फैलती रहेगी। बुद्ध की करुणा एकांत में खिले फूल जैसी है। कोई आये तो ठीक, न आये तो ठीक। बुद्ध की करुणा में किसी का पता—ठिकाना नहीं लिखा है, वह किसी की तरफ उन्‍मुख नहीं है। वह चित्त की दशा है। यह एक कदम ऊपर है।

क्योंकि जो करुणा दूसरे से बंधी हो, वह करुणा बहुत गहरी नहीं है। समझो, अगर दुनिया में कोई दुख न रह जाए तो फिर ईसाई मिशनरी क्या करेगा? उसकी करुणा तिरोहित हो जायेगी। तो यह तो बड़ी उलझन की बात हुई। इसका मतलब हुआ कि तुम्हें करुणावान बनाये रखने के लिए अंधों और कोढ़ियों का होना जरूरी है। तब तो तुम्हारी करुणा बड़ी महंगी हो गई। तब तो तुम्हारी सेवा के लिए बीमार चाहिए, नहीं तो अस्पताल कैसे खोलोगे? तब तो तुम्हारे परमात्मा तक जाने के लिए अंधे —लूले—लंगड़े भिखारी सीडी की तरह काम कर रहे हैं। नहीं, बुद्ध की करुणा एक कदम ऊपर है। इसका कोई संबंध किसी के दुख से नहीं है। इसका कोई संबंध ही किसी से नहीं है। यह असंबंधित है, असंग है। इसके लिए दूसरे की जरूरत ही नहीं है। इसलिए यह ऊपर है।

जहां तक दूसरे की जरूरत है वहा तक हम संसार के बहुत करीब हैं, बहुत दूर नहीं गये। जहां दूसरे से संबंध मुक्त हो गया, असंग हुए, वहां हम उड़ने लगे आकाश में, पृथ्वी से नाता टूटा। मगर थोड़ी सूक्ष्म है। जीसस की दया, जीसस का प्रेम, जीसस की करुणा सभी की समझ में आ जायेगी; जो बिलकुल अंधे हैं उनको भी समझ में आ जाएगी। कम्मुनिस्ट को भी समझ में आ सकती है। जिसके पास बोध की कोई धारणा नहीं है, जिसके पास ध्यान की कोई किरण नहीं है—उस भौतिकवादी को भी समझ में आ सकती है। क्योंकि बुद्ध की करुणा तो बड़ी अभौतिक है, और जीसस की करुणा बड़ी भौतिक है। इसलिए ईसाई मिशनरी अस्पताल बनायेगा, स्कूल खोलेगा, दवा बांटेगा।

बौद्ध भिक्षु कुछ और बांटता है; वह दिखाई नहीं पड़ता। वह जरा सूक्ष्म है। वह ध्यान बांटेगा, समाधि की खबर लायेगा। वह भी आंखें खोलता है, लेकिन कहीं गहरी; बाहर की नहीं। और वह भी स्वास्थ्य के विचार को तुम तक लाता है, लेकिन आंतरिक स्वास्थ्य के, असली स्वास्थ्य के। क्योंकि वह जानता है, शरीर तो बीमार हो कि स्वस्थ, शरीर तो बीमारी ही है। इसे तुम स्वस्थ भी रखो तो वह भी तो बीमारी है। और आज नहीं कल जाएगा। मौत आने को है। इसलिए पानी पर लकीरें खींचने का कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। लिखना ही हो कुछ तो आत्मा पर लिखो। अस्पताल क्या बनाना; बनाना हो कुछ तो मंदिर बनाओ, बनाना हो कुछ तो चैत्यालय बनाओ। ध्यान की कोई लकीरें खींचो जो साथ जायेंगी, जिनको मौत मिटा न पायेगी।

तो प्रेम……. क्राइस्ट जिसे प्रेम कहते हैं, वह पहली सीढ़ी है।

बुद्ध जिसे करुणा कहते हैं वह दूसरी सीढ़ी है। लेकिन अभी भी करुणा है। गंध का पता नहीं है अब किस पते पर जा रही है, लेकिन जा रही है। किस तक पहुंचेगी, इसका पता नहीं है; लेकिन किसी तक पहुंचेगी, फैल रही है, बिखर रही है।

अष्टावक्र का साक्षी और एक कदम आगे है। अब कहीं कुछ आता—जाता नहीं, सब ठहर गया है, सब शांत हो गया है। जाने में थोड़ी —सी लहर तो होगी ही। अष्टावक्र कहते हैं. आत्मा न जाती है न आती है, अब गंध अपने में ही रम गई है। यह जो आत्मरमण है। क्राइस्ट की करुणा दूसरे के प्रति निवेदित है; बुद्ध की करुणा अनिवेदित, असंग है, लेकिन फिर भी उड़ती हुई हवाओं में किसी नासापुट तक पहुंच जायेगी। न भी पहुंचे, लेकिन उड़ रही है। साक्षी— भाव जाता ही नहीं, ठहर गया, सब शून्य हो गया। क्राइस्ट के प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण है; बुद्ध की करुणा में स्वयं का होना महत्वपूर्ण है, साक्षी में न दूसरा रहा न स्वयं रहा, मैं —तू दोनों गिर गये। जाग कर देखा कि मैं भी झूठ है, तू भी झूठ है। और पूछा है कि ‘ और आपकी उत्सव—लीला में.?’

वह आखिरी बात है। साक्षी में सब ठहर गया, लेकिन अगर यह ठहरा रहना ही आखिरी अवस्था हो तो परमात्मा सृजन क्यों करे? परमात्मा तो ठहरा ही था! तो यह लीला का विस्तार क्यों हो? तो यह नृत्य, यह पक्षियों की किलकिलाहट, ये वृक्षों पर खिलते फूल, ये चांद—तारे, यह विराट विस्फोट! परमात्मा तो साक्षी ही है! तो जो साक्षी पर रुक जाता है वह मंदिर के भीतर नहीं गया। सीढ़ियां पूरी पार कर गया, आखिरी बात रह गई। अब न तू बचा न मैं बचा, अब तो नाच होने दो। अब तो नाचो। कभी तू के कारण न नाच सके, कभी मैं के कारण न नाच सके। अब तो दोनों न बचे, अब तुम्हें नाचने से कौन रोकता है? अब कौन—सा बंधन है? कौन—सी कारागृह की दीवाल तुम्हें रोकती है? अब तो नाचो; अब तो रचाओ रास; अब तो होने दो उत्सव! अब क्यों बैठे हो? अब लौट आओ!

यह लौट आना बिलकुल नये ढंग का है। वहीं लौट आओ जहां से गये थे—उसी बाजार में। लेकिन अब तुम शून्य की भांति आ रहे हो। साक्षी तुम्हारे भीतर है, बुद्ध की करुणा तुम्हारे भीतर है, क्राइस्ट का प्रेम तुम्हारे भीतर है। और एक नई घटना घट गई है : अब तुम्हारे भीतर दुख है ही नहीं, अशांति है ही नहीं, अब तो नाचो। पहले तो नाचने से थक जाते थे और नाचने में भी ज्वर था, ताप था, अब तो सब शीतल हो गया है, अब तो सब चंदन हो गया है, अब तो नाचो! यह जो विराट नृत्य चल रहा है परमात्मा का, इसमें सम्मिलित हो जाओ। अब किनारे क्यों बैठे हो? जरूरी था एक दिन किनारे बैठ जाना, नहीं तो तुम पागल ही बने रहते। एक दिन किनारे बैठ जाना जरूरी था—तटस्थ हुए, कूटस्थ हुए। लेकिन अब!

बहुत—से धर्म रुके हैं। जैसे ईसाइयत जीसस के प्रेम पर रुक जाती है; बहुत गहरी नहीं जाती। बुद्ध का धर्म करुणा पर रुक जाता है। जैन कूटस्थ भाव पर रुक जाते हैं, साक्षी पर रुक जाते हैं। इसलिए तुम पूछो कि जैनों के मोक्ष में क्या हो रहा है? सब पहुंचे हुए सिद्ध पुरुष अपनी— अपनी सिद्धशिलाओं पर बैठे हैं। मगर जरा सोचो इस हालत को, कब से बैठे हैं, और बैठे ही हैं, बैठे ही हैं।

बर्ट्रेंड रसेल ने बड़ा मजाक उड़ाया है, उसने कहा है कि अगर ऐसा सदा बैठे रहना हो अनंत काल तक तो मैं नहीं जाता। इसको तुम थोड़ा विचार करो, सिद्धशिला पर पहुंच गये, आखिरी अवस्था आ गई, अब बैठे हैं, न कोई तरंग उठती है, न कोई गीत, न कोई गुनगुनाहट, न कोई नृत्य, न कोई वीणा बजती है, कुछ भी नहीं होता है। अब कुछ होता ही नहीं है। अब बस बैठे हैं; अब बस बैठे हैं। और यह अब रहेगा अनंत काल तक, अब इससे लौटना संभव नहीं है। यह तो हो गई बात।

जैन कहते हैं, बस पहुंच गये। अब लौटना संभव नहीं है। यह तो फांसी लग गई। अगर इसे गौर से देखोगे तो यह तो संसार से क्या छूटे, और मुश्किल में पड़ गये। रसेल ने ठीक लिखा है कि इससे तो मैं नरक जाना पसंद करूंगा; कम से कम वहा से छूटने का उपाय तो है। कम से कम वहां कुछ तो होता होगा; गपशप तो चलती होगी; समाचार—पत्र तो निकलते होंगे; कुछ होता तो होगा! लेकिन यह मोक्ष तो बड़ा जड़ मालूम पड़ता है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं मोक्ष के बाद भी एक अवस्था है; वही परमात्मा की पूरी अवस्था है। वही कृष्ण की दशा है; वहां लीला—उत्सव शुरू हो जाता है। तुम्हारी धारणा यह है कि लीला—उत्सव तो अज्ञानी के लिए है। यह तो अज्ञानी है जो अभी राग—रंग कर रहा है। तो तुमने अभी राग—रंग का पूरा अर्थ नहीं जाना। अज्ञानी करने की कोशिश करता हो भला, हो कहां पाता है? राग—रंग में ही तो कांटे चुभ जाते हैं; फूल खिलते कहा? आशा है, सपना है; होता कहां है? देखते हो भोगी को, कुछ सुखी दिखाई पड़ता है? चेष्टा कर रहा है; चेष्टा में ही दबा जा रहा है, टूटा जा रहा है, बिखरा जा रहा है। नाचना चाहता है, नाच कहां पाता है? हजार बाधायें आ जाती हैं। सोचता है, कल नाचूंगा, परसों नाचूंगा। बाधाओं का अंत नहीं होता; रोज बाधायें बढ़ती जाती हैं। और आखिर में पाता है कि यह तो मौत द्वार पर खड़ी हो गई। नाचने का समय ही न मिला; तैयारी ही करने में समय बीत जाता है। तैयारी कभी हो नहीं पाती। भोगी भोग कहां पाता?

उपनिषद कहते हैं : तेन त्यक्तेन भुंजीथा; उन्होंने ही भोगा जिन्होंने छोड़ा। यह किसी भोग की नई धारणा की बात है। जिसने पकड़ा वह क्या खाक भोगेगा? वह भोगता कहां दिखाई पड़ता है?

फिर योगी हैं; वे डर गये भोग से और भाग कर खड़े हो गये। अब वे चलते ही नहीं; हिलते ही नहीं। उनको तुम टस से मस नहीं कर सकते; वे अपनी जगह पत्थर हो कर बैठ गये हैं। वे कहते हैं, हिलने में डर है; हिल गये, कैप गये, लहर आ गई; फिर क्या होगा? फिर संसार शुरू हो जायेगा। यह तो भयभीत अवस्था है और भय में अगर कोई ठहर भी गया है तो इस ठहरने में बहुत आनंद नहीं हो सकता। हो सकता है सांसारिक दुख न हो, सांसारिक अशांति न हो, लेकिन इस ठहरने में तो एक तरह की जड़ता होगी। गत्यात्मकता खो गई, गति खो गई। धार नहीं बहती अब, रस नहीं बहता अब। नहीं, आखिरी अवस्था में जब तुम सबसे पार हो गये, तब फिर एक नृत्य की दशा है—वह जो भोगी चाहता है और नहीं कर पाता और वह जो योगी चाहता है और भोग में कहीं उतर न जाये, इस डर से रुका रहता है, और नहीं कर पाता है। भोगी और योगी के पार कोई दशा होनी चाहिए जहां योगी और भोगी दोनों की आकांक्षाएं पूरी हो जाती हैं। अन्यथा जगत में कोई अर्थ न होगा, अर्थहीन होगा जगत। भोगी अकड़ा खड़ा है डर के मारे, वह भी नहीं भोग पाता; योगी अकड़ा खडा है। भोगी भाग—दौड़ में है, ज्वर में है; वह भी नहीं भोग पाता; भाग—दौड़ के कारण नहीं भोग पाता। फुरसत कहां? और योगी डर के मारे नहीं भोग पाता है। फुरसत तो बहुत है। चौबीस घंटे खड़ा है। समझ में नहीं आता क्या करें। माला फेरता है, कुछ समझ में नहीं आता तो माला ही फेरता रहता है। कुछ न कुछ करता रहता है, जिसमें उलझा रहे। राम, राम, राम, राम जपता रहता है। दोनों नहीं कर पाते। होना तो चाहिए किसी घड़ी में; नहीं तो जगत अर्थहीन है। फिर इसमें कोई प्रयोजन नहीं है; फिर यह एक वितण्डा—जाल है। ए टेल टोल्ड बाय एन इडिएट; फुल आफ क्यूरी एंड न्वाइज़, सिग्निफाइंग नथिंग। कोई मूर्ख कहता है कहानी; शोरगुल बहुत मचाता है, हाथ—पैर बहुत तड़फड़ाता है, लेकिन अर्थ कुछ नहीं निकलता। फिर इस जगत में कोई परमात्मा नहीं, फिर कोई सत्य नहीं।

इसलिए चौथी बात : उत्सव—लीला। पहुंच गये। योगी रुकने के कारण नहीं नाच पाता था, भोगी भागने के कारण नहीं नाच पाता था। अब न तो भागना रहा, न रुकना रहा। अब न तो तू रहा, न मैं रहा। अब तो सिर्फ ऊर्जा रही; अब इस ऊर्जा को नाचने से कौन रोके? क्यों रोके? कौन है रोकने वाला? अब एक नये ढंग का नृत्य शुरू होता है। इस नृत्य को ही हमने रास कहा है। यह नृत्य बड़ा अनूठा है। इसमें नाचने वाला होता ही नहीं, सिर्फ नाच होता है। इसमें भोगने वाला होता ही नहीं, भोग ही होता है; सिर्फ रस बहता है शुद्ध। और ऐसी दशा में ही तुम परमात्मा हुए। तो जीवन सार्थक हुआ; यात्रा कहीं पहुंची, कोई मंजिल मिली।

मगर ये चारों एक—दूसरे से जुड़े हुए हैं। तुम्हारी जितनी हिम्मत हो उतना चलना। सबसे कमजोर के लिए ईसाइयत है। वह वहां रुक जाये, दबाता रहे हाथ—पैर मरीजों के, गरीबों को रोटी बांटता रहे; उस तरह के काम में लगा रहे। इसलिए ईसाइयत राजनीति से बहुत दूर नहीं जा पाती, क्योंकि संसार के बहुत करीब है। ईसाइयत वस्तुत: एक तरह की राजनीति ही हो गई है—संसार से बहुत दूर नहीं। बस एक ही कदम तो; संसार बहुत करीब है। खिंच—खिंच आती है संसार में। इसलिए ईसाइयत धन भी बांटती, दवा भी बांटती, सेवा भी करती और इसी तल पर जीती है। ईसाइयत के पास ध्यान जैसी कोई प्रक्रिया नहीं बची। खो गया ध्यान; समाज—सेवा रह गई। समाज—सेवा बुरी बात नहीं है, लेकिन जो समाज—सेवा में ही समाप्त हो गया, उस पर दया करना। वह बहुत कुछ पा सकता था; नहीं पाया, बहुत कुछ हो सकता था, नहीं हुआ। वह क्षुद्र से तृप्त हो गया।

और तुम्हें ऐसा व्यक्ति महात्मा भी मालूम पड़ेगा; क्योंकि तुम्हें भी लगेगा कितना काम कर रहा है। गरीबों के लिए कितना काम कर रहा है, बीमारों के लिए! अशिक्षितों को शिक्षित कर रहा है, रुग्णों का इलाज कर रहा है, अस्पताल खोल रहा है; स्कूल खोल रहा है; धर्मादय चला रहा है; प्याऊ खोल रहा है; प्यासों को पानी मिला रहा है। सीधी बात है, अच्छा काम कर रहा है।

अच्छा काम निश्चित ही है, लेकिन धर्म अच्छे काम पर समाप्त नहीं हो जाता। धर्म जरा ऊंची उड़ान है, अच्छे के भी पार है। इसलिए अगर तुम्हारी महात्मा की यही धारणा हो गई तो तुम्हारा महात्मा बस ईसाई मिशनरी के तल का हो जाएगा, इससे ज्यादा नहीं। तुमने गांधी को महात्मा कहा इसी अर्थ में।

तुम्हें जान कर यह हैरानी होगी कि गांधी ने कई बार अपने जीवन में यह सोचा कि ईसाई हो जायें। जब वे अफ्रीका में थे तो एक बार तो बिलकुल ही तैयार हो गये थे ईसाई होने को। उनके ऊपर ईसाइयत का बड़ा प्रभाव था। वे कहते भला हों कि गीता उनकी माता है, वह सच नहीं है बात। अगर उनके जीवन की धारणा को पूरा समझा जाये तो वे ईसाई ही हैं। क्योंकि उनके जीवन की सारी धारणा ईसाइयत से ही पैदा हुई है। उनके असली गुरु टालस्टाय, रस्किन, थोरो तीनों ईसाई हैं। इन तीन को उन्होंने गुरु कहा है। उनके ऊपर ईसाइयत का भारी प्रभाव है।

बुरा नहीं है ईसाइयत में कुछ भी। यह मैं कह नहीं रहा हूं। ध्यान से सुनना। लेकिन यात्रा वहा समाप्त नहीं होती, शुरू होती है। और जिसने समझ लिया कि यहां समाप्त हो गई, वह अटक गया। खूब करो सेवा, लेकिन सेवक बनकर अगर समाप्त हो गये तो तुमने कुछ पाया नहीं। ध्यानी कब बनोगे?

गांधी के शिष्य विनोबा कहते हैं, सेवा धर्म है। यह जरा गलत पर्याय है। यह तो गलत जोड़ है, गलत गणित है। मैं कहता हूं धर्म सेवा है, पर सेवा धर्म नहीं। धार्मिक व्यक्ति सेवा कर सकता है, लेकिन सेवा ही करने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता। सेवा बड़ी छोटी बात है। तो धार्मिक व्यक्ति के जीवन में सेवा भी हो, यह ठीक है। समझ में आती है बात। लेकिन कोई सिर्फ सेवक हो गया हो तो धार्मिक हो गया तो तुमने धर्म को बड़े संकीर्ण दायरे में बंद कर दिया। तब तो फिर नास्तिक भी अगर सेवा करता हो तो धार्मिक हो गया। क्योंकि सेवा करने के लिए ईश्वर को मानना तो जरूरी नहीं है। बीमार के पैर दाबने में कोई ईश्वर की मान्यता बाधा डालती है? कि ईश्वर को मानोगे तब दाबोगे पैर! तब तो कम्यूनिस्ट भी धार्मिक है, शायद ज्यादा धार्मिक है। अगर सेवा ही धर्म है तो मार्क्स, ऐंजिल्स, लेनिन, स्टेलिन, माओ, ये बड़ी धार्मिक लोग हैं।

लेकिन सेवा पर धर्म को समाप्त करने की बात ही भ्रांत है। धर्म बड़ा है; सेवा एक छोटा अंग बन सकती है। और धर्म के बड़े विस्तार के साथ सेवा जुड़ी हो तो सेवा में भी एक सुगंध होती है। अन्यथा सेवा में भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। बड़े के साथ जुड़ कर छोटा भी महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन छोटे को ही बड़े करने का दावा करना तो बड़े को भी व्यर्थ कर देना है।

बुद्ध की करुणा सेवा से विराट है, बड़ी है। एक और कदम आगे उठा। अब तुम दूसरे से नहीं बंधे हो; अब तुम मुक्त हो। और तुम्हारे भीतर से मुक्त अहर्निश वर्षा होती है। लेकिन इतने पर ही समाप्त धर्म नहीं हो जाता। आधी यात्रा हो गई, लेकिन अभी आधी बाकी है।

फिर तीसरा चरण है—जो कि करीब—करीब लगता है कि धर्म की अंतिम मंजिल आ गई; लेकिन फिर भी अंतिम नहीं है—साक्षी— भाव। अब न तो दूसरा न मैं, बस दोनों को देखने वाला, दोनों के पार जो अतिक्रमण कर जाता, अनुभवातीत साक्षी, वही रहा। यहां लगता है कि धर्म की आखिरी पराकाष्ठा हो गई। नहीं हुई; अभी एक कदम और बाकी है। अभी वर्तुल पूरा नहीं हुआ। जहां से चले थे, अभी वहीं वापिस नहीं आये तो वर्तुल पूरा नहीं हुआ। स्रोत ही मंजिल है। बीज चला, पौधा बना, वृक्ष बना, फूल लगे, फल लगे, फिर बीज आये, तब वर्तुल पूरा हुआ, तब यात्रा पूरी हुई। जहां से चले वहीं आ गये। बच्चा पैदा हुआ, जवान हुआ, का हुआ, हजार—हजार उपद्रवों में पड़ा, और फिर बालवत हो गया; यात्रा पूरी हो गई।

स्रोत ही मंजिल है। जहां से चले थे वहीं पहुंच जाना है। कहां से चलती है यात्रा? संसार से, बाजार से, भीड़— भाड़ से। फिर एक दिन तुम उसी भीड़— भाड़ में आ जाओ। भीड़— भाड़ वही रहेगी, तुम वही नहीं रह गये। फिर तुम नाचो।

अब यह नाच गुणात्मक रूप से और है। इसको मैं उत्सव—लीला कहता हूं। लीला का यही अर्थ होता है। और परमात्मा नाच रहा है। अगर साक्षी पर परमात्मा रुक गया होता तो जगत में इतना नृत्य नहीं हो सकता था। इस रासलीला को देखते हो? चांद नाच रहा, सूरज नाच रहे, पृथ्वी नाच रही, तारे नाच रहे, पूरा ब्रह्मांड नाच रहा है। किसी गहन अहोभाव में लीन, किसी प्रार्थना में डूबा सारा अस्तित्व नाच रहा है। सुनो इसकी झनकार, जगत के पैरों में बंधे अर की आवाज सुनो! तो मीरा ठीक कहती है पद घुंघरू बांध नाची!

यह चौथी अवस्था हुई। चैतन्य नाचने लगे; मीरा नाचने लगी। बाउल नाचते हैं, पागल हो कर नाचते हैं। भीतर कोई बचा नहीं, भीतर शून्य हो गये। साक्षी तो शून्य पर ले आता है. जब तुम नाचोगे तब पूर्ण होओगे। साक्षी तो तुम्हें कोरा कर देता है, खाली कर देता है। तुम गये। अब परमात्मा उतरेगा तो नाचेगा।

ध्यान रखना। या फिर परमात्मा को रोकना, उतरने मत देना। इसलिए जैन परमात्मा को इनकार करते हैं। वह लीला से बचने की व्यवस्था है। नहीं तो तुम शून्य हो गये, अब क्या करोगे? अब परमात्मा उतरेगा, और जैसा कि उसकी आदत है नाचने की, वह नाचेगा। वह गीत गायेगा; वह हजार खेल करेगा। लीला उसका स्वभाव है। वह माया रचेगा। माया उसकी छाया है। तो अगर तुम डर गये तो अटक गये। साक्षीभाव में एक तरह का सूखापन रह जायेगा; रसधार न बहेगी, फूल न खिलेंगे, हरियाली न उगेगी, नये—नये अंकुर न आएंगे, वसंत की ऋतु न आएगी।

साक्षी तो एक तरह का पतझड़ है, वह पतझड़ की अवस्था है। फिर वसंत तो आने दो। पतझड़ तो उसी की तैयारी थी; उस पर रुक मत जाना। ही, पतझड़ में भी कभी—कभी वृक्ष सुंदर लगते हैं। नग्न खड़े वृक्ष, आकाश की पृष्ठभूमि में, कभी नग्न वृक्षों के पीछे उगता सूरज, उनकी नंगी शाखायें फैली आकाश में, कभी सुंदर लगती हैं। माना, उनका भी अपना सौंदर्य है। लेकिन वह सौंदर्य रुकने जैसा नहीं है। आने दो पत्ते, उगने दो नये पल्लव, फिर गाने दो पक्षियों को, बनाने दो घोंसलों को, लेकिन अब बड़े और ढंग से बनेगी बात। अब कोई चिंता न होगी, अब कोई तनाव न होगा। यह सब सहज होगा।

मेरी सीमायें बतला दो

यह अनंत नीला नभमंडल

देता मूक निमंत्रण प्रतिपल

मेरे चिर चंचल पंखों को

इनकी परिमिति परिधि बता दो

मेरी सीमायें बतला दो

आदमी सदा सीमा चाहता है, कहीं न कहीं सीमा आ जाये। यह आदमी की चाह सीमा की उसे रोक लेती है। मैं तुमसे कहता हूं; तुम असीम हो, तुम्हारी कोई सीमा नहीं है। आकाश की सीमा ही तुम्हारी सीमा है—अगर आकाश की कोई सीमा हो। आकाश की कोई सीमा नहीं है, तुम्हारी भी कोई सीमा नहीं है। तुम कहीं रुकना मत। तुम जहां रुके वहीं सीमा बन जाएगी! तुम चलते ही रहना, तुम बहते ही रहना। तुम्हारी कोई सीमा नहीं है। तुम असीम से असीम की ओर, पूर्ण से पूर्ण की ओर चलते ही रहना।

यह यात्रा अनंत है। परमात्मा यात्रा है। इसमें बहुत पड़ाव पड़ते हैं, पर यात्रा रुकती नहीं। और आगे, और आगे! और जो आखिरी घटना है वह घटना है लीला की। जब तुम्हें यह दिखाई पड़ता है कि सब खेल है तो तनाव खो जाता है। फिर तुम खेल की तरह लीन हो जाते हो। फिर तुम्हारे भीतर

कोई गंभीरता नहीं रह जाती, तुम बालवत हो जाते हो, छोटे बच्चे की तरह खेलने लगते हो।

वह जो साक्षी पर रुक गया, खतरा है उस रुकने में। उस रुकने में अहंकार फिर खड़ा हो सकता है। मेरे देखे तुम जहां रुके वहीं अहंकार खड़ा हो जाएगा। रुकने का नाम अहंकार है। अहंकार का अर्थ है. सीमा बन गई। यह आ गई जगह, पहुंच गये। जहां तुमने कहा पहुंच गये, वहीं अहंकार है। तुमने कहा नहीं पहुंचे, पहुंचना होता ही नहीं यहां, चलो—चलो, बहो, पहुंचना होता ही नहीं, तो फिर अहंकार निर्मित नहीं हो सकता।

सोचते हो, कोई तुम्हें इस हरी घास पर अकेला बैठा हुए देखे?

सारी दुनिया से तुमको कुछ अलग लेखे!

उठो इस एकांत से दामन छुडाओ, इस महज शांत से

चलो उतर कर नीचे की सड़क पर

जहां जीवन सिमट कर बह रहा है साहस की दिशा में

जहां अतर्कित प्रेम कठोरताओं पर तरल है

सबके बीच में जीवन सरल है

उठो इस एकांत से दामन छुडाओ, इस महज शांत से

जो न शक्ति देता है, न श्रद्धा, सिर्फ उदास बनाता है।

तुमने देखा, जो आदमी साक्षी पर अटका, वह उदास हो जाएगा, सूखे लक्कड़ की भांति हो जाएगा। पल्लव उसमें नहीं फूटते, गीत उसमें नहीं पैदा होते, उसके प्राणों में कोई रुनझुन नहीं रह जाती। मुर्दे की भांति महज शांत है, लेकिन शांति में कोई संगीत नहीं है। शांति निर्जीव है। जीवन नहीं है। कब की शांति, मरघट की शांति। ऐसी शांति नहीं जो बोलती है; ऐसी शांति नहीं जो नाचती है। क्या तुम मरघट की भांति शांत होना चाहते हो?

कन्‍फ्यूशियस से उसके एक शिष्य ने पूछा कि मुझे शांत होना है। तो कन्‍फ्यूशियस ने पूछा. कैसी शांति चाहता है, मरघट की शांति? तो वह तो तू मर कर हो ही जाएगा, उसकी जल्दी क्या है? वह तो हो ही जायेगा। अपनी कब में जब पड़ जायेगा तो शांत हो जायेगा, उसकी जल्दी क्या है? ऐसी क्या जल्दी मरने की? अभी दूसरी शांति खोज, जीवंत!

इस भेद को समझना। मुर्दा शांति को तुम वास्तविक शांति मत समझ लेना। मुर्दा शांति तो एक जड़ अवस्था है। भय के कारण तुमने अपने को सब भांति सिकोड़ लिया; हिलते—डुलते भी नहीं। कभी—कभी तुमने भय में देखा, ऐसा हो जाता है। अक्सर ऐसा होता है कि जब सिंह किसी जानवर पर हमला करता है तो वह जानवर वैसे का वैसा ठिठुर कर खड़ा हो जाता है, जैसे बर्फ जम गई। जो लोग इसका अध्ययन करते रहे हैं वे बड़े हैरान होते हैं कि मामला क्या है। यह मौका तो भागने का था और इस वक्त तो जड़ हो जाना खतरनाक है। लेकिन भय इतना है कि भागने में घबड़ाहट है; भय इतना है कि जड़ हो गया है।

कभी तुमने भी देखा होगा, गहरे भय में तुम एकदम ठहरे रह जाते हो, अवाक; हिलडुल भी नहीं पाते। कभी भय इतना जोर से पकड़ लेता है जैसे पक्षाघात लग गया, लकवा मार गया, खड़े रह गये हिल भी नहीं पाते। जो लोग भयभीत हो गये हैं संसार की अशांति से, वे भय के कारण खडे रह जाते हैं। तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी भय के कारण बैठे रह गये हैं; पदासन में बैठे हैं। उसे तुम पदासन मत समझना; उस पदासन में पद्य तो है ही नहीं—पद्य यानी कमल—वह खिलाव तो है ही नहीं, फूल तो है ही नहीं, सुवास तो है ही नहीं, कहने को पद्यासन है, कमल कहां खिल रहा! कमल के खिलने से तो वे घबड़ा गये हैं; उन्होंने सब पंखुड़ियां समेट ली हैं।

एक साधु मेरे पास मेहमान हुए। सुबह तीन बजे उठ कर वे पदासन में ध्यान करने बैठ गये। मैंने उनसे पूछा : क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि पद्यासन में बैठ कर ध्यान कर रहा हूं। मैंने कहा. यह पदासन है ही नहीं। तुमने कभी किसी कमल को किसी आसन में बैठे देखा है? डोलता है हवा के साथ, सूरज की किरणों के साथ खुलता, जीवंत होता है। आसन में देखा किसी कमल को कभी? आसन में चट्टानें होती हैं, फूल कहीं आसन में होते हैं; डोलते हैं। तो मैंने कहा, अगर कमल जैसा होना है तो डोलो थोड़ा, नाचो थोड़ा, गीत गुनगुनाओ, ऐसे जड़ हो कर मत बैठ जाओ। अगर ऐसा जड़ हो कर ही बैठना है तो कम से कम पद्यासन तो मत कहो, कुछ और नाम खोज लो—जडासन। उठो इस स्वात से दामन छुडाओ, इस महज शांत से।

महज शांत भी कोई शांति है? तुम फर्क समझते हो? एक हरियाली शांति होती है—हरी— भरी, फुदकती—नाचती, धड़कती, श्वास चलती। जगत को देखो, यहां शांति बहुत है! ये वृक्ष शांत खड़े हैं, लेकिन फिर भी जड़ नहीं हैं। हवायें निकलेंगी इनके बीच से और ये डोलेंगे मस्ती में। अस्तित्व शांत है, फिर भी एक गुनगुन है, एक गीत है। झरने शांत हैं, फिर भी एक नाद है, एक नृत्य है। तुम्हारी शांति अगर मुखर न हो, तुम्हारा मौन अगर बोले नहीं, तो सावधान रहना कि यह तुमने एक नई जड़ता पकड़ी। फिर तुम अकड़ कर बैठते हो। उस बैठने में भी तुम बैठे नहीं हो, तुम प्रतीक्षा कर रहे हो कि तुम्हें कोई विशिष्ट समझे।

सोचते हो कोई तुम्हें इस हरी घास पर अकेला बैठा हुआ देखे?

सारी दुनिया से तुमको कुछ अलग लेखे!

इसलिए मैं कहता हूं जब तक संन्यासी वापिस संसार में न आ जाये, भूल ही जाये अलग होना कि कोई अलग लेखे, यह बात ही मिट जाये, तब तक परम संन्यासी न हुआ। इसलिए महावीर की मैं तुमसे बात करता हूं लेकिन कृष्ण की प्रशंसा करता हूं। महावीर को तुम्हें समझाता हूं लेकिन अभीप्सा यही करता हूं कि किसी दिन तुम कृष्ण जैसे हो सकोगे। बाकी सब पड़ाव हैं। वहां से डेरा उखाड़ लेना पड़ेगा; वहा तंबू बांध कर सदा के लिए घर मत बांध लेना। तंबू गड़ा लेना, रात रुक जाना, थक जाओ विश्राम कर लेना, लेकिन चल पड़ना।

चलो उतर कर नीचे की सड़क पर

जहां जीवन सिमट कर बह रहा है साहस की दिशा में

जहां अतर्कित प्रेम कठोरताओं पर तरल है।

सबके बीच में जीवन सरल है।

वह जो दूर—दूर भाग कर बैठा है जंगल में, वह सरल नहीं हो सकता। वह तो जटिल है। उसकी जटिलता ही उसे यहां ले आई है। अब वह यहां जो अकड़ कर बैठा है, यह भी अहंकार है। लौट चलो वहा जहां साधारण जन हैं—सीधे—साधे, जरा भी विशिष्ट नहीं।

आदमी विशिष्टता खोज रहा है। कोई विशिष्टता खोजता है धन के द्वारा कि मेरे पास करोड़ों रुपये हैं तो विशिष्ट हो जाता है—स्वभावत:। क्योंकि करोड़ों रुपये बहुत लोगों के पास नहीं हैं, कुछ लोगों के पास हैं। आकांक्षा होती है धनी की कि वह इतना धनी हो जाये कि आखिरी हो जाये, उसके ऊपर कोई न रहे।

एण्ड्रू कारनेगी की आत्मकथा मैं पढ़ता था। वह अमरीका का सबसे बड़ा धनपति आदमी था। वह अपने सेक्रेटरी से एक दिन पूछता है कि मैं बार—बार सुनता हूं कि यह निजाम का हैदराबाद दुनिया में सबसे बड़ा धनी है, इससे मुझे चोट लगती है। तुम पता लगाओ, इसके पास है कितना?

अब यह जरा मुश्किल बात थी। क्योंकि निजाम हैदराबाद के पास धन तो नहीं था, हीरे—जवाहरात थे; उनका कोई हिसाब—किताब नहीं कि वे कितने के हैं। एण्ड्रू कारनेगी कहता है, जरा पता लगाओ कि कितना है इसके पास तो मैं इसे भी हरा कर बता दूं। मगर कुछ पता तो चले कि है कितना! बस यह कोरी बात चलती है कि सबसे ज्यादा है।

दस अरब रुपया छोड़ कर मरा एण्ड्रू कारनेगी, लेकिन फिर भी उसके मन में एक जरा—सी खटक रह गई थी कि निजाम हैदराबाद, पता नहीं इसके पास ज्यादा हो!

आदमी धन की चेष्टा करता है ताकि विशिष्ट हो जाये। कोई पद की चेष्टा करता है कि राष्ट्रपति हो जाऊं, प्रधानमंत्री हो जाऊं, तो विशिष्ट हो जाऊं। साठ करोड़ के देश में राष्ट्रपति एक ही होगा तो विशिष्ट हो जाता है। कोई ज्ञान इकट्ठा करता है और विशिष्ट हो जाता है। कोई नोबल प्राइज पा लेता है और विशिष्ट हो जाता है। तुम इतना तो कर ही सकते हो न कि किसी पहाड़ पर जा कर आंख बंद करके बैठ जाओ, पद्यासन लगा लो। इतना तो कर ही सकते हो, तो भी विशिष्ट हो जाते हो। और कभी—कभी तो ऐसा होता है, मजेदार है यह दुनिया, राष्ट्रपति तुम्हारे चरण छूने आ सकते हैं, और एण्ड्रू कारनेगी तुम्हारी प्रशंसा कर सकते हैं।

साक्षी होने में भी कहीं विशिष्ट होने का ही भाव न बना रहे। इसलिए मैं तुमसे आखिरी बात कहता हूं : लौट आओ। साक्षी तक जाओ, फिर तो कोई डर न रहा लौटने का। अब तो तुमने जान लिया कि तुम्हारी निष्कलुषता परम है, उसमें कलुष हो ही नहीं सकता। अब तो तुमने जान लिया कि तुम्हारी पवित्रता आत्यंतिक है, तुम पापी हो ही नहीं सकते। अब तो तुमने जान लिया कि तुम किसी कालकोठरी से भी गुजरो तो भी कालिख तुम्हें लग नहीं सकती। अब तो तुम जानते हो; अब तो तुमने देख लिया भीतर का खुला निरभ्र आकाश; अब तो तुमने परम से पहचान कर ली; अब तो तुम्हें स्वास्थ्य के दर्शन हो गये, स्वयं के दर्शन हो गये; अब क्या भय है? अगर तुम रुके हो अभी भी तो शक है कि तुम्हें अभी भी भय है और अभी भी तुमने स्वभाव को पूरा नहीं देखा। अभी भी कहीं कुछ डर किसी कोने —कातर में बैठा है जो कहता है, जाना मत वहां, कहीं उलझ न जाओ, कहीं फिर जंजाल में, संसार में न पड़ जाओ। तो मैं परम शानी उसी को कहता हूं जिसका यह भी भय चला गया। अब जो लौट आता है जगत में वह सरल हो जाता है, सहज हो जाता है।

जापान का एक सम्राट किसी ज्ञानी की तलाश करता था अपनी वृद्धावस्था में। तो वह गया जिन—जिन के बड़े नाम थे उन—उन के दर्शन करने गया। लेकिन कहीं उसे तृप्ति न हुई। उसका का वजीर उसके साथ जाता था। एक दिन उसने कहा कि ऐसे तो आप भटकते रहेंगे और कभी भी तृप्ति

न होगी, क्योंकि जिनके पास आप जाते हैं इनमें से कोई भी सरल नहीं है। ये सब चेष्टारत हैं, प्रयास अभी भी इनका जारी है, भय अभी भी मौजूद है। मैं एक आदमी को जानता हूं, लेकिन मैंने कभी आपसे कहा नहीं है क्योंकि शायद आप मानेंगे भी न। वह राजधानी में ही रहता है, आपके पड़ोस में ही। आपके महल में कई दफे काम भी कर गया है। गरीब आदमी है, मगर मैं कहता हूं कि अगर तुम सच में ही गुरु की तलाश में हो तो उसके चरण गहो।

सम्राट ने कहा, तो मुझे अब तक पता कैसे नहीं चला? और उसकी किसी को खबर क्यों नहीं है? उस वजीर ने कहा, वह इतना सरल है कि खबर भी कैसे हो! और वह संसार में लौट आया है, इसलिए भोगी तो उसको गिनती में ही नहीं लेते और योगी उसकी निंदा करते हैं। वह वापिस आ गया है। अब योगी होने का भी दंभ नहीं है उसके पास।

सम्राट उसके पास गया। उसे तो कुछ भी दिखाई न पड़े कि इसमें खूबी क्या है! क्योंकि वह बिलकुल वैसा साधारण आदमी दिखाई पड़ा जैसे साधारण आदमी होते हैं। वह अपने वजीर से कहने लगा, मुझे कुछ खूबी नहीं दिखाई पड़ती है।

वजीर ने कहा, यही खूबी है। तुम इसी खूबी को जरा गौर से देखो। तुमने कभी आदमी देखा है जो बिलकुल साधारण हो? साधारण से साधारण आदमी भी चेष्टा तो यही करता है कि मैं असाधारण हूं। साधारण से साधारण आदमी भी दंभ तो यही पालता है कि मैं साधारण नहीं हूं। यह आदमी बिलकुल साधारण है। इसकी साधारणता आत्यंतिक है। इसके भीतर विशिष्ट होने की धारणा नहीं रही है। यही इसका संतत्व है।

सबके बीच में जीवन सरल है

उठो इस एकांत से दामन छुडाओ, इस महज शांत से,

जो न शक्ति देता है, न श्रद्धा, सिर्फ उदास बनाता है,

न, तटस्थ होने लायक कमजोर तुम अभी नहीं हुए

लहरें गिनने के दिन भी आ सकते हैं

मगर हाथ जब तक पतवार उठा सकते हैं

कंठ—स्वर जब तक हैया—हो गा सकते हैं

तब तक ऐसी अनंत तटस्थता शर्मनाक है

तटस्थता की तुम्हारे मन पर कैसी बुरी धाक है

उठो सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो

घाट से हाट तक, हाट से घाट तक आओ—जाओ

तूफान के बीच में गाओ

मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर

परमात्मा हैया—हो गा रहा है

तुम्हें उसकी आवाज सुनाई नहीं पड़ती!

माना कि तुम बहरे हो मगर इतने तो नहीं,

और अंधे हो मगर इतने तो नहीं,

परमात्मा सब तरफ हैया—हो गा रहा है

पतवार चला रहा है।

और मैं तुमसे कहता हूं—इस कविता के लेखक ने तो कहा. न, तटस्थ होने लायक कमजोर तुम अभी नहीं हुए—मैं तुमसे कहता हूं कभी नहीं होओगे।

लहरें गिनने के दिन भी आ सकते हैं

मगर हाथ जब तक पतवार उठा सकते हैं

मैं तुमसे कहता हूं कभी नहीं ऐसा होता है कि लहरें गिनने के दिन आयें। तुम सदा ही ऊर्जा से भरे हो, तुम परमात्म—स्वरूप हो; लहरें गिनने के दिन आते ही नहीं।

किनारे पर बैठने का भी एक मजा है। मैं तुमसे कहता नहीं कि उसे तुम मत लो; लेकिन किनारे पर बैठे मत रह जाना। जब किनारे पर बैठ कर तुम अपने स्वभाव को पहचान लो, तटस्थ हो कर जब तुम अपने को जान लो, कूटस्थ हो कर जब भीतर की प्रत्यभिज्ञा हो जाये, तो लौट आना, उठा लेना पतवार!

मगर हाथ जब तक पतवार उठा सकते हैं,

कंठ—स्वर जब तक हैया—हो गा सकते हैं

तब तक ऐसी अनंत तटस्थता शर्मनाक है।

और मैं तुमसे कहता हूं सदा ही हाथ पतवार उठा सकते हैं। और अगर साक्षी के हाथ न उठा सके तो किसके उठायेंगे त्र’ क्योंकि साक्षी नहीं उठाता—साक्षी तो देखता है—परमात्मा उठाता है। साक्षी नहीं नाचता—साक्षी तो देखता है—परमात्मा नाचता है। लेकिन अब वह परमात्मा को रोक नहीं रखता है। वह कहता है, नाचो; हैया—हों करना है हैया—हो करो। अब जैसा हो हो। इसी को अगर तुम ठीक से समझो तो अष्टावक्र बार—बार कहते हैं. जो होता है हो, जैसा होता है वैसा हो—बालवत। खयाल रखना, छोटे बच्चे जैसा होना साक्षी के पार चले जाना है। फिर लीला में उतर आना है।

चलो प्रेम से; रुको करुणा पर; बढ़ो साक्षी तक। साक्षी— भाव में रुक जाने की, ठहर जाने की बड़ी प्रबल आकांक्षा पैदा होती है। खयाल रखना। क्योंकि बड़ा सुखद है साक्षी— भाव; परम शांत है; कोई लहर नहीं उठती; जन्मों—जन्मों का सताया हुआ आदमी जब वहां पहुंचता है तो सोचता है आ गये! मगर मैं तुमसे कहता हूं अभी भी नहीं आये। अगर सोचा कि आ गये तो अभी भी नहीं आये।

यह आने का जो भाव पैदा होता है, यह बहुत—बहुत जन्मों की पीड़ा, चक्कर, उपद्रव, शोरगुल के कारण होता है। यह उसकी प्रतिक्रिया है। थोड़ी देर जब बैठोगे साक्षी की छाया में, विश्राम कर लोगे थोड़ा—अष्टावक्र कहते हैं चित्तविश्रांति—जब चैतन्य में विश्राम कर लोगे, विराम कर लोगे, फिर ऊर्जा उठेगी। विश्राम का अर्थ ही होता है कि तुम फिर श्रम करने को तैयार हो गये। जिस विश्राम से श्रम करने की क्षमता न आये वह विश्राम नपुंसक है। वह विश्राम ही नहीं है। तुम रात भर सोये, तुम कहते हो रात गहरी नींद आई, बड़ा विश्राम हुआ। इसका प्रमाण क्या है? इसका प्रमाण है कि सुबह तुम गड्डा खोदने लगे, कि लकड़ियां काटने लगे। तुम कहते हो रात भर खूब विश्राम किया, अब ऊर्जा भर गई, अब कुछ करने का मन होता है।

साक्षी विश्राम है। लेकिन विश्राम का प्रमाण क्या कि तुम वस्तुत: विश्राम को उपलब्ध हुए? जो आदमी रात विश्राम को उपलब्ध होता है, सुबह काम पर चला जाता है, और जो आदमी रात भर करवट बदलता है, सुबह भी उठने का मन नहीं करता; वह आदमी कहता है विश्राम हो ही नहीं पाया, कैसे जाऊं काम पर? आज तो पूरे दिन बिस्तर में पड़े रहने का मन होता है। जो आदमी सुबह बिस्तर में ही पड़ा रहे, क्या तुम यह कहोगे कि इसने विश्राम कर लिया! तुम भी मानोगे यह बात कि इसका विश्राम पूरा नहीं हो पाया, इसीलिए पड़ा है। जो उठ गया सुबह, उठा ली कुदाली, उठा लिया फावड़ा, चल पड़ा काम पर, तुम भी कहोगे कि रात खूब विश्राम कर लिया मालूम होता है। गीत ग्गुनगुनाते हो और गड्डा खोदने चले हो!

साक्षी तो विश्राम है। इसका प्रमाण कहां मिलेगा? तुम्हारी लीला में; तुम्हारे जगत में फिर वापिस लौट आने में। तुम्हारा नृत्य सबूत होगा, गवाही होगा कि साक्षी का भाव उपलब्ध हुआ। और वर्तुल पूरा हो जाता है।

दूसरा प्रश्न :

बाल—बोध और सम्यक बोध को कृपा करके समझाइये।

तीन शब्द खयाल में लो. अबोध, सम्यक बोध और बाल—बोध।

छोटा बच्चा अबोध है; उसके पास अभी कोई बोध नहीं है। अभी उसे होश नहीं है, बेहोश है। अभी उसका यह अबोध उसे खतरे में ले जाएगा, झंझटें पालेगा; झंझटें पालने के दिन करीब हैं। धन कमायेगा; महत्वाकांक्षा में ‘दौड़ेगा; पागल होगा पद के लिए। प्रेम में पड़ेगा; विवाह करेगा। हजार तरह की झंझटें आने वाली हैं, क्योंकि अबोध है। अभी कुछ बोध तो नहीं है।

फिर जैसे—जैसे झंझटें गहरी होने लगेंगी, वैसे—वैसे समझ बढ़ेगी, प्रौढ़ता आयेगी और धीरे — धीरे यह दिखाई पड़ेगा कि क्या करने से झंझट हो जाती है ज्यादा और क्या करने से झंझट कम होती है। तो सम्यक बोध पैदा होगा। तब वह चुनाव करने लगेगा। वह कहेगा : यह करूं और यह न करूं; यह शुभ है, यह अशुभ है, यह ठीक, यह गलत। सम्यक का अर्थ है ठीक, जो ठीक है वह करूं। ठीक क्या है? जिससे झंझट नहीं बढ़ती, शांति रहती है, सुख रहता है। गैर ठीक क्या है? जिससे झंझट बढ़ती है, उपद्रव बढ़ते हैं और जीवन की शांति छिन जाती है, चैन छिन जाता है। तो सम्यक

बोध पैदा हुआ।

सम्यक बोध ऐसा हो गया गहन कि अब चुनाव भी नहीं करना पड़ता। अब तो जो ठीक है वह सहज ही होता है। अब सम्यक बोध ऐसे गहरे उतर गया प्राणों में, रोएं—रोएं में समा गया, श्वास—श्वास में भिद गया कि अब तो जो ठीक है वही होता है। अब गलत होता ही नहीं। अब चुनाव नहीं करना पड़ता है कि यह गलत और यह ठीक, यह ठीक है इसको करूं और यह गलत इसको न करूं। जब तक चुनाव करना पड़े तब तक सम्यक बोध, जब तक चुनाव की क्षमता ही न हो तब तक अबोध; और जब चुनाव के बिना ठीक होने लगे, सहज ही ठीक होने लगे, तब स्व—बोध, या बाल—बोध, या सहज बोध—जो भी नाम देना चाहो।

तब एक खयाल में ले लेना। जैसा छोटा बच्चा है, उसे कुछ पता नहीं है कि क्या करना क्या नहीं करना, ऐसे ही संत को भी कुछ पता नहीं है कि क्या करना और क्या नहीं करना। इसलिए दोनों में एक समानता है। मगर एक बड़ा भेद भी है। छोटे बच्चे को पता नहीं है कि क्या करना और क्या नहीं करना, क्योंकि वह अबोध है, अभी बुद्धि जागी नहीं है, अभी भेद आया नहीं है। संत को भी पता नहीं कि क्या करना और क्या नहीं करना; बुद्धि जाग भी गई और गई भी। अब जागरण ऐसा स्वाभाविक हो गया है कि जो होता है होता है, जो होता है वही ठीक होता है। सम्यक बोध में हमें ठीक करना पड़ता है और सहज बोध में ठीक होता है।

जैसे तुमने देखा कि दरवाजा है, निकल गये; ऐसा सोचते थोड़े ही हो खड़े हो कर कि निकलें दरवाजे से कि दीवाल से निकलें, कि दीवाल से निकलेंगे तो याद है पहले निकले थे तो सिर में ठोकर खाई थी और निकल भी न पाये थे, और दरवाजे से जब भी निकले तो निकल भी गये, ठोकर भी न खाई, इसलिए चलो दरवाजे से ही निकलना ठीक है। ऐसा तुम इतना हिसाब थोड़े ही करते हो दरवाजे के सामने खड़े हो कर! और जो ऐसा हिसाब करे उस पर तुम्हें शक होगा कि यह निकलेगा दरवाजे से कि नहीं? निकल पाएगा कि नहीं? क्योंकि यह बात ही ऐसी सोच रहा है जिससे शक होता है, इसके मन में दीवाल से निकलने का अभी आकर्षण है।

यह समझा रहा है। यह कहता है, क्रोध बुरा है, पाप है, नरक जाना पड़ता है, क्रोध करना ठीक नहीं है। लेकिन जिसका बोध परिपूर्ण हो गया, वह ऐसा थोड़े ही कहता है कि क्रोध करना ठीक नहीं, कि क्रोध करने से नरक जाना पड़ता है, वह क्रोध करता नहीं है; जैसे दीवाल से नहीं निकलता। वहां सिर्फ सिर टकराता है, कुछ सार नहीं है। सारे अनुभवों का निचोड़ हाथ आ गया है, कुंजी मिल गई है। तुम सुनते हो इस तरह की बातें कि बुद्ध ने कभी क्रोध नहीं किया, कि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, मगर ये हमारे वक्तव्य हैं। ऐसा कहना कि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, ठीक नहीं है। इससे तो ऐसा लगता है, क्रोध करना चाहते थे और नहीं किया। जैसे कि करने का दिल था और रोक लिया, सम्हाल लिया। अगर रोक लिया, सम्हाल लिया, तो महावीर अभी कहीं पहुंचे ही नहीं। नहीं, क्रोध हुआ नहीं। ऐसी चैतन्य की एक दशा है जहां क्रोध होता नहीं है, जहां तुम्हारा चैतन्य ही इतना गहरा होता है कि यह असंभव हो जाता है कि क्रोध करो या सोचो भी या विचार भी करो।

अबोध; बोध, सहज बोध। अबोध अशान की अवस्था है; बोध मध्य की, ज्ञान और अज्ञान मिश्रित; सहज बोध शुद्ध ज्ञान की। और जहां से चीजें चलती हैं वहीं पहुंच जाती हैं। फिर संत छोटे

बच्चे जैसा हो जाता है—बड़े नये अर्थों में।

तुम कभी पहाड़ गये? पहाड़ कभी चढ़े? गोल—गोल चढ़ता है रास्ता। कई दफे तुम उसी जगह फिर आ जाते हो— थोड़ी ऊंचाई पर आते। वही दृश्य, वही खाई, लेकिन थोड़ी ऊंचाई पर। नीचे तुम देख सकते हो रास्ता। तुम ट्रेन से जाते हो माथेरान, चढ़ने लगती तुम्हारी छोटी—सी गाड़ी; कई बार तुम्हें नीचे की पटरियां दिखाई पड़ती हैं जहां से तुम अभी गुजर गये थोड़ी देर पहले। थोड़े ऊपर आ गये, मगर जगह वही, ऊंचाई बदल गई।

संत शिखर पर पहुंच जाता है, बच्चा खाई में खड़ा होता है, लेकिन दृश्य दोनों एक ही देखते हैं। बच्चा अज्ञान के कारण देखता है; संत ज्ञान के कारण देखता है।

जान सकता हूं अगर साहस करूं

श्रृंखला वह जो पवन में वहि में तूफान में है

और चल उत्ताल सागर में

जान सकता हूं अगर साहस करूं

चेतना का रूप वह

जिसमें वृक्ष से झर कर

मही पर पत्ते गिरते हैं

सातवें के बाद और पहले के रंग के पहले

अंधेरा ही अंधेरा है

शब्द के उपरात केवल स्तब्धता है

गज उसकी जतुक सुनते हैं

कि सुनते मीन सागर के हृदय के

इंद्रियों की स्पर्श रेखा के पार

घूमते हैं चक्र अणुओं तारकों परमाणुओं के

जिंदगी जिनसे बुनी जाती

जिन अगम गहराइयों से भागते हैं

छोड़ कर उनको कहीं आश्रय नहीं मिलता।

भागना भर मत। बचपन से भागना भर मत। जीवन की अबोध अवस्था से भागना भर मत। जाग कर देखंऐ?ना, अनुभव करना; भागना किसी चीज से मत। जिस चीज से भी भागोगे उससे कभी मुक्त न हो पाओगे। क्योंकि जिससे भी भाग जाओगे अधूरा अनुभव होगा, अपरिपक्व अनुभव होगा कच्चा अनुभव होगा। तुम तो जो जीवन दिखाये उसे पूरा—पूरा देख लेना, पूरा कर लेना, पक जाना। और फिर तुम्हें लौट कर देखने की जरूरत न रहेगी, फिर तुम जब छोड़ दोगे एक जगह तो छोड़ दोगे, लौट कर देखोगे भी नहीं। कुछ बचा ही नहीं, तुमने सब सार—सार ले लिया। जो छूट गई जगह, अब वहां कुछ बचा ही न था पीछे लौटने को, देखने की कोई बात नहीं। उसकी तुम्हें याद भी न आएगी, स्मरण भी न होगा।

तो हर जीवन की स्थिति को ठीक—ठीक देख लेना। अंततः हाथ में, जो तुम बार—बार ठीक—ठीक

देखते रहे, ठीक—ठीक देखते रहे तो ठीक देखना बच रहता है, और सब चला जाता है। ठीक देखने की कला बच रहती है और सब चला जाता है। वही ठीक देखने की कला का नाम सम्यक बोध है। लेकिन उसको भी तभी तक हम ठीक कहते हैं जब तक गलत होने की थोड़ी—सी संभावना शेष है। जिस दिन गलत होने की संभावना गिर गई, पूरी की पूरी गिर गई, अब गलत की वासना उठती ही नहीं, उस दिन तो सिर्फ बोध रह गया। सहज बोध, सहज समाधि—बालवत!

तीसरा प्रश्न :

इस देश में राम की लीला को रामलीला कहते हैं और कृष्ण की लीला को रासलीला। रामलीला और रासलीला में क्या भेद है?

रामलीला में राम महत्वपूर्ण हैं रासलीला में कोई महत्वपूर्ण नहीं। रामलीला राम का चरित्र है; राम की गरिमा है वहां; राम मध्य में हैं, केंद्र पर हैं। वे मर्यादा, अनुशासन, धर्म, संस्कार, संस्कृति—इन सबसे घिरे बीच में खड़े हैं। कृष्ण की लीला में कृष्ण नहीं हैं—कोई नहीं है। कृष्ण की लीला में परमात्मा है; राम की लीला में राम हैं। कृष्ण की लीला रासलीला है। यह जो अनंत रास चल रहा है परमात्मा का, यह जो अनंत रस बह रहा है, यह जो अनंत नृत्य चल रहा है—इस नृत्य में राम की तो अपनी पसंदगिया—नापसदगिया हैं; कृष्ण की कोई पसंदगी—नापसंदगी नहीं है।

इसलिए मैं फिर से दोहराऊं. राम का चरित्र है; कृष्ण का कोई चरित्र नहीं। चरित्र का अर्थ होता है. योजना, व्यवस्था, चुनाव। राम ने एक ढंग से जीवन को बनाना चाहा है और सफल हुए; जीवन को वैसा बना कर दिखा दिया है। लाख कठिनाइयां थीं, लाख कुर्बानी करनी पड़ी, कुर्बानी कर दी। पिता का घर छोड़ना पड़ा, तो पिता का घर छोड़ दिया। लेकिन पिता ने आज्ञा दी तो आशा का उल्लंघन न किया। जानते हुए भी कि अन्याय हो रहा है, फिर भी अन्याय का प्रतिकार न किया।

राम परंपरागत हैं। रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जायें पर वचन न जाई! दे दिया वचन तो पूरा करना है। जैसा सदा होता रहा है वैसा ही करना—कुल के अनुसार चलना! राम के पास एक समादृत व्यक्तित्व है—परंपरागत! राम में कोई बगावत नहीं है, कोई क्रांति नहीं है। राम ट्रेडिशनल हैं। राम परंपरा हैं, जैसा होना चाहिए वैसा ही किया है। जो समाज को स्वीकार है वैसा ही किया है,

उससे अन्यथा नहीं गये—चाहे कुछ भी, कितनी ही पीड़ा भीतर झेलनी पड़ी हो। सीता को छोड़ा होगा जंगल में जिस दिन तो पीड़ा हुई होगी, लेकिन स्वयं को कुर्बान किया है समाज के लिए। इसलिए समाज ने भी खूब मूल्य चुकाया! समाज ने भी खूब याद किया। जैसा राम का समादर है वैसा किसी का समादर नहीं है। राम ने समाज को समादर दिया, समाज ने राम को समादर दिया।

मुझसे लोग पूछते हैं कि राम के प्रति लोगों का इतना भाव क्यों है? करोड़—करोड़ जनों का राम के प्रति इतना भाव क्यों है? यह पारस्परिक है। राम ने भीड़ के प्रति समादर दिखाया, भीड़ राम के प्रति समादर दिखा रही है। यह लेन—देन है, यह सीधा हिसाब है, यह सौदा है। इसमें कुछ खूबी नहीं है। राम ने अपने को समर्पित कर दिया समाज के लिए। सही और गलत की भी बात न उठाई। यह भी न पूछा कि समाज जो कहता है, वह ठीक है? ठीक की बात उठाओ तो समाज नाराज होता है। राम ने समाज को नाराज किया ही नहीं। उनमें क्रांति का कोई स्वर नहीं—मर्यादा है, व्यवस्था है, शील है। तो राम की लीला में राम बहुत महत्वपूर्ण हैं, चरित्र है। ठीक ही तुलसी ने अपनी राम की कथा को नाम दिया है. रामचरितमानस। वह राम के चरित्र की कथा है। चरित्र का अर्थ होता है. लोगों की मान्यता के अनुसार।

कृष्ण का कोई चरित्र नहीं है। कृष्ण तो मान्यताओं के बिलकुल विपरीत हैं; किसी मान्यता को मानने का कोई आग्रह नहीं है। राम ने अपनी पत्नी छोड़ दी जंगल में; कृष्ण दूसरे की पत्नियों को भी ले आये—जो अपनी थीं भी नहीं! तो समाज इसको क्षमा तो कर नहीं सकता। तो कृष्ण का लोग नाम भी लेते है—तो भी कभी श्री कृष्ण भारत की अंतर्धारा नहीं बन पाये, कभी भीड़ कृष्ण के प्रति बहुत आदर नहीं रखती। और अगर कभी तुम कृष्ण को थोड़ा—बहुत आदर भी देते हो तो वह इसीलिए कि राम उबाने वाले हैं। तो कृष्ण राम हैं भोजन; कृष्ण चटनी हैं। थोड़ा। मगर रस राम में है, पुष्टि उन्हीं से लेते हो। ऐसा कृष्ण का भी थोड़ा रस ले लेते हो कभी—कभी, लेकिन ये राह के किनारे हैं, ये राह पर नहीं पड़ते। राजपथ तो राम का है। कृष्ण तो ऐसा है—पगडंडी जंगल में खो जाने वाली; कभी—कभी टहलने चले जाते हो, कभी रस भी ले लिया। लेकिन खतरनाक हैं कृष्ण!

और जो कृष्ण को मानता है, वह भी कभी ध्यानपूर्वक नहीं देखता कि कृष्ण का जीवन क्या कह रहा है। कृष्ण का जीवन कह रहा है : चरित्र से मुक्त होने की सूचना। कृष्ण के सारे जीवन की प्रस्तावना इतनी है कि चरित्र से मुक्त हो जाओ। चरित्र बंधन है। इसको तो कौन समाज मानेगा! कृष्ण का भक्त भी नहीं मान सकता। वह तो तुम कृष्ण की पूजा कर लेते हो घर में मोर—मुकुट बांध कर और सब.. लेकिन कृष्ण अगर आ जायें एक दिन अचानक तो तुम एकदम घबड़ा जाओगे। राम आयेंगे तो तुम बिलकुल स्वागत कर लोगे, पैर पर गिर पड़ोगे; कृष्ण आ जायेंगे तो तुम थोड़े दिग्म्रमित हो जाओगे, किंकर्तव्यविमूढ़ कि अब क्या करना, इस आदमी को घर में ले चलना कि नहीं! क्योंकि तुम्हारी पत्नी को ले कर भाग जाये..। यह भरोसे का नहीं है। तुम दफ्तर जाओ और यह रास रचाने लगे। एक मूर्ति बना कर पूजा कर लेना एक बात है। लेकिन तुम थोड़ा सोचो, कृष्ण तुम्हारे घर आ जायें तो तुम ठहरा सकोगे? तुम कहोगे. ‘महाराज आप ब्‍लू डायमंड में ठहर जाइये, खर्चा हम उठा लेंगे। मगर हमें बक्यग्ने! बाल—बच्चे वाले हैं! अब आप…।’

पूजा एक बात है। राम की पूजा से तुम्हारा मेल है। राम से तुम्हारा मेल है। राम परंपरागत हैं; सामाजिक हैं, भीड़ के पीछे हैं। तो भीड़ ने राम का खूब आदर किया। राम ने भीड़ का खूब आदर किया। राम में कोई क्रांति नहीं है। राम क्रांतिविरोधी हैं। और स्वभावत: जब कोई व्यक्ति अपने को समाज के लिए बलिदान कर देता है तो समाज उसके व्यक्तित्व को खूब ऊपर उठाता है। तुम्हारे लिए जो मर जाये, स्वभावत: तुम कहोगे शहीद है। तुम भरोसा दिलाते हो लोगों को कि ‘अगर तुम समाज के लिए मरे तो स्वर्ग निश्चित है। शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले! तुम घबड़ाओ मत मर जाओ, हम मेला चलाते रहेंगे! कुंभ मेला भर देंगे तुम्हारी चिता पर।’ सदियों—सदियों तक तुम उन्हें चुकाते हो।

लेकिन क्या कोई शहीद नहीं हैं। और कृष्ण ने तुम्हारे लिए कोई कुर्बानी नहीं की है। तुम उनको पूजते हो जो तुम्हारे लिए मरने को राजी हैं। कृष्ण जीये हैं। कृष्ण जीये हैं। जैसा जीवन सहज भाव से प्रगटा है; जो हुआ है होने दिया है। तुम्हारी दो कौड़ी की धारणाओं का कोई मूल्य नहीं माना है। तुम्हारी सब धारणायें तोड़ दी हैं। तुम्हारी धारणा तुम्हारी है, कृष्ण उसके लिए झुके नहीं। तुम्हारी लकीर पर चलने के लिए कृष्ण राजी नहीं हुए। अमर्याद हैं। उनकी लीला व्यक्ति की लीला नहीं है; उनकी लीला प्रभु—लीला है, वह रासलीला है।

दो ही बातें हैं—या तो कृष्ण लंपट हैं, या तो कृष्ण अपराधी हैं, और या कृष्ण स्वयं परमात्मा हैं। दो के बीच में तुम कहीं नहीं रख सकते उनको। राम बीच में हैं। निश्चित ही बुरे तो हैं ही नहीं। लेकिन तुम ठीक परमात्मा की जगह भी नहीं रख सकते। इसलिए हिंदुओं ने उन्हें कभी पूर्ण अवतार नहीं कहा, कह भी नहीं सकते, क्योंकि पूर्ण अवतार हमारी धारणाओं को मान कर चलेगा? पूर्ण की कोई सीमा होती है? पूर्ण पर कोई हम अपना ढांचा बिठा सकेंगे? पूर्ण तो बहेगा बाढ़ की तरह, हमें तोड़ देगा। पूर्ण कोई नहर थोड़े ही है—बाढ़ आई गंगा है!

राम तो नहर हैं—सरकारी नहर! जितना पानी चाहो, बहाओ, और जहां बहाना चाहो वहा बहाओ। वे आशा के अनुसार चलते हैं। सरकार भी प्रसन्न, समाज भी प्रसन्न! व्यवस्था, स्थिति—स्थापक हैं। जो व्यवस्थित है, जिसके हाथ में स्वार्थ है, न्यस्त स्वार्थ है, उसके पक्ष में हैं। वह कोई भी हो..।

तो राम की तो अस्मिता है। राम अहंकार के पार नहीं हैं। क्योंकि अहंकार के अगर पार हों तो कौन मान कर चले, किसकी मान कर चले! अहंकार के जो पार हो उसका कैसा चरित्र होगा पू बिंदु ही नहीं, केंद्र ही नहीं, तो उसके आसपास चरित्र का चाक कैसे चलाओगे? उसकी कील ही टूट गई तो चाक कैसे चलेगा?

कृष्ण अहंकार—शून्य हैं। अपूर्व हैं! बहुत पार के हैं! बहुत दूर हैं! तुम जब तक अपनी क्षुद्र धारणाओं से मुक्त न होओ—चरित्र की, शुभ की, अशुभ की, द्वंद्व की, द्वैत की; जब तक तुम्हारी तार्किक धारणा न छूटे; जब तक तुम जीवन जैसा है उसको वैसा ही न देखने को समर्थ हो जाओ—तब तक कृष्ण तुम्हारी पकड़ में न आयेंगे। इसलिए कृष्ण की लीला को रासलीला कहा है। वह परमात्मा की लीला है। वह अबूझ है, रहस्यमय है।

राम बिलकुल बूझ के भीतर हैं। राम बिलकुल गणित और तर्क की तरह साफ—सुथरे हैं। तुम इंच भर गलत न पाओगे और इंच भर बेबूझ न पाओगे। राम की कथा बहुत साफ कथा है—स्वच्छ, धुंआ बिलकुल नहीं है। क्या की कथा बड़ी रहस्यपूर्ण है, सब उलझा—उलझा है। कृष्ण की कथा तो जैसे परमात्मा की ही छोटी—सी झलक है।

तुम परमात्मा को देखो, परमात्मा में तुम्हें कोई चरित्र दिखाई पड़ता है? अगर परमात्मा में चरित्र हो तो बुरे आदमी दुनिया में जीने ही नहीं चाहिए।

एक सूफी फकीर बायजीद हुआ। उसके गांव में एक बड़ा दुष्ट आदमी था। सारा गांव उससे परेशान था और फकीरों को तो वह खास तौर से सताता था। एक दिन बायजीद ने रात प्रार्थना की कि ‘हे प्रभु, किसी चीज की सीमा होती है! इतनो को उठाता है, भलों को उठा लिया, अच्छे— भले आदमी हट गये, उठ गये, नर्क चले गये, कहां गये कुछ पता नहीं—यह कहीं नहीं जाता! तू इसको भेज। इसको क्यों रोक रखा है मे और भले सताये जा रहे हैं और यह बुरा फल रहा है। एक सीमा होती है।’ कहते हैं, बायजीद ने आवाज सुनी हृदय के अंतर्तम से आती कि बायजीद, मैं उसे साठ साल से बर्दाश्त कर रहा हूं और जब मैं उसे बर्दाश्त कर रहा हूं तो तू शिकायत करने वाला कौन? तू भी उसे स्वीकार कर।

अगर परमात्मा बुरों के विपक्ष में हो तो बुरे मिट जाने चाहिए, क्योंकि उसकी तो मर्जी काफी है। तुम कहते हो न कि उसकी बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता, तो रावण कैसे सीता चुरा ले गया? पता नहीं हिलता उसकी बिना मर्जी के तो रावण के पीछे उन्हीं की सांठगांठ रही, उन्हीं का इशारा रहा कि रावण चला जा। इशारा कर दिया होगा कि..। अगर उसकी बिना मर्जी के कुछ भी नहीं होता तो बुरा भी उसकी मर्जी से हो रहा है, यह तो मानोगे न! इसको कैसे इनकार करोगे?

इससे बचने के किए धर्मों ने बड़ी तरकीबें खोजी हैं। पारसियों ने दो तत्व मान लिए हैं एक शुभ का तत्व—परमात्मा, एक अशुभ का तत्व, वह परमात्मा का विरोधी है। वह कर रहा बुरे काम। लेकिन वह जो परमात्मा का विरोधी तत्व है, वह परमात्मा की बिना मर्जी के है? तब तो परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता खत्म हो गई। यह कोई तरकीब हुई बचने की?

ईसाई कहते हैं. यह जो बुरा काम हो रहा है, यह शैतान कर रहा है। यही मुसलमान कहते हैं कि बुरा काम शैतान कर रहा है और भले काम परमात्मा कर रहा है। अगर तुमने चोरी की तो यह शैतान ने तुम्हारे दिमाग में रख दिया! मगर शैतान को किसने इस अस्तित्व में रखा है 3: चलो यह भी मान लो कि शैतान ने तुम्हारे दिमाग में रख दिया, उन्होंने यह दफ्तर उनके हाथ में छोड़ दिया होगा; लेकिन शैतान को किसने इस अस्तित्व में रखा दिया है? शैतान को रखा जाना चाहिए, परमात्मा की खोपड़ी में यह किसने रख दिया है?

तुम इससे भाग न सकोगे। कहीं तो तुम्हें परमात्मा की आत्यंतिक जिम्मेदारी स्वीकार करनी पड़ेगी। तुम्हें यह मानना ही पड़ेगा कि किसी न किसी अर्थ में—या तो परमात्मा सर्वशक्तिमान नहीं है, उसकी शक्ति सीमित है, और अगर उसकी शक्ति सीमित है तो पूजा इत्यादि बंद करो। फिर तो बेहतर है शैतान को ही राजी कर लो, क्योंकि हजारों—हजारों साल, करोड़ों—करोड़ों साल से शैतान अभी तक हारा नहीं है; हारेगा कभी, दिखाई नहीं पड़ता। और दुनिया में राम को मानने, परमात्मा को मानने वाला तो एक चलता होगा, शैतान को मानने वाले करोड़ों हैं। उसके अनुयायी ज्यादा हैं निश्चित। उसका धर्म बड़ा है। उसकी शक्ति भी बड़ी दिखाई पड़ती है। फिर तो कोई सार नहीं है परमात्मा की पूजा करने में। अगर सब शक्ति उसकी नहीं है तो जगत में द्वंद्व है, द्वैत है; और दूसरा जो है शैतान, वह बड़ा शक्तिशाली है। या तो यह मानो कि परमात्मा शक्तिशाली नहीं। अगर मानते हो कि परमात्मा शक्तिशाली है, सर्वशक्तिशाली है, सर्वशक्तिमान है तो फिर यह स्वीकार करो कि उसका कोई चरित्र नहीं।

कृष्ण की लीला में उसी परमात्मा की चरित्रहीनता का पूरा प्रतिबिंब है। शुभ को भी वही जिला रहा, अशुभ को भी वही जिला रहा। दिन भी वही बनाता रात भी वही। और जन्म भी वही देता और मौत के द्वार से भी वही तुम्हें ले जाता है। सुख भी वही बरसाता और दुख भी वही। फूल भी उसके हैं और काटे भी उसके। समग्र उसका है। मगर यह बड़ी खतरनाक बात हो गई। इसका मतलब यह हुआ कि तुम्हारी सब धारणायें—शुभ और अशुभ की—व्यर्थ हैं। अगर परमात्मा को जानना है तो धारणाओं से मुक्त हो जाना जरूरी है।

कृष्ण का पूरा जीवन धारणा—मुक्त है। और जिसको कृष्ण के पीछे चलना हो, उसको सारी धारणाओं से मुक्त हो जाना जरूरी है। धारणा—शून्य हो कर ही तुम आह्लाद से भर सकोगे। और तब तुम देखोगे कि जो हो रहा है, ठीक है। बुरा भी ठीक है अपनी जगह। वह भी चाहिए। उसके बिना भी जीवन विरस हो जायेगा। उसके बिना भी जीवन नहीं हो सकेगा। काटे भी चाहिए। कीटों के बिना फूल इतने सुंदर न रह जायेंगे। कीटों के कारण ही फूल इतने सुंदर हैं। फूल ही फूल हों तो बेस्वाद हो जायेंगे। कुरूपता भी चाहिए, तो ही सौंदर्य में कुछ अर्थ है। संसार भी चाहिए, तो ही मोक्ष में कुछ रस है, अन्यथा कोई रस न रह जायेगा अगर मोक्ष ही मोक्ष हो। जीवन में जो संगीत है वह विपरीत स्वरों के बीच सामंजस्य से है।

कृष्ण की लीला कृष्णलीला नहीं कही जाती, रासलीला कही जाती है। वह परम सत्य है। उसमें कृष्ण का कोई चरित्र नहीं है, इसलिए कृष्ण को बीच में नहीं रखा जा सकता। उसमें कृष्ण के नाम से परमात्मा ही बीच में है।

मगर कृष्ण को स्वीकार करना बड़ा कठिन मामला है—उतना ही कठिन मामला है जितना परमात्मा को स्वीकार करना कठिन है। इसलिए तो तुमने छोटी—छोटी मूर्तियां बना ली हैं परमात्मा की—अपने—अपने हिसाब से, क्योंकि पूरे परमात्मा को तो स्वीकार करना बहुत कठिन है। सबने अपने— अपने घर—पूले बना लिए हैं। अपना—अपना घर में ग्रामोद्योग खोल लिया है भगवान बनाने का। अपना बना लिया, मिट्टी के गणेश जी रख लिए, पूजा इत्यादि कर ली, सिरा भी आये, झंझट मिटाई। तुमने अपना भगवान बना लिया है, क्योंकि पूरा भगवान तुम्हें घबड़ाता है, तुम्हें कंपाता है, तुम्हारे प्राण संकट में पड़ जाते हैं!

गांधी कहते थे, गीता उनकी मां है। लेकिन कृष्ण को वे कभी पूरा स्वीकार नहीं कर पाये। और उन्होंने कभी गीता के अलावा कृष्ण की कोई बात नहीं की। चुन लिया। भागवत के कृष्ण नहीं, क्योंकि वहां तो बड़ा उपद्रव है, वहां तो गांधी को बड़ी अड़चन होगी। वहां तो मोर—मुकुट बांधे हुए बांसुरी बजाते कृष्ण से गांधी का क्या मेल होगा! जरा गांधी के ओठों पर बांसुरी रख कर देखो, तो तुम खुद ही कहोगे कि आप कृपा कर बांसुरी वापस दें—या तो आप बांसुरी को नहीं जंचते या आपको बांसुरी नहीं जंचती, मगर बांसुरी वापिस करिए।

गांधी के साथ बांसुरी का कोई मेल नहीं होगा। गीता की वे बात करते थे, लेकिन वह राजनीतिक चाल थी। क्योंकि गीता पर इतने लोगों का भाव है, इसलिए उसे छोड़ नहीं सकते थे। कहते थे ‘गीता—माता’! लेकिन जब मरे तो मुंह से जो नाम निकला, वह था. हे राम! उस वक्त कृष्ण नहीं निकला। कृष्ण की कोई जगह नहीं थी हृदय में।

अब तुम थोड़ा सोचो, जीवन भर कहा. अल्ला ईश्वर तेरे नाम। मरते वक्त अल्लाह भी नहीं निकला—निकला : हे राम! जिन्ना ने फौरन सोचा होगा : ‘देख लो! यही तो मैं कह रहा था जिंदगी भर से कि ‘अल्लाह ईश्वर तेरे नाम’, यह सब राजनीति है, क्योंकि मरते वक्त अल्लाह क्यों न निकला? ‘हे राम’ क्यों निकला?’

मरते वक्त आदमी में राजनीति नहीं रह जाती। मरते क्षण में तो वही निकल आता है जो भीतर था। राजनीति तो जिंदा होने का खेल है, हिसाब—किताब है—अब गोली लग गई, अब कहां फुरसत सोचने की कि क्या निकले! सोचने का मौका मिलता अगर गांधी खाट पर मरते, बीमारी से मरते साधारणत: मरते—तो ‘अल्ला ईश्वर तेरे नाम’ कहते हुए मरते। लेकिन गोली ने सब मामला गड़बड़ कर दिया। हिंदू की गोली थी और वहां भी हिंदू को प्रगट कर गई. हे राम! अनजाने क्षण में निकल गया। उस वक्त कृष्ण भी नहीं निकला। क्यों राम?

गांधी की पकड़ भी मर्यादा की थी—ऐसी छोटी—छोटी चीज में मर्यादा! ऐसी छोटी—छोटी चीज में मर्यादा कि तुम कभी हंसोगे भी। उनके सेक्रेटरीज को यह भी खयाल रखना पड़ता था छोटी—छोटी चीजों का। जिस सेविका ने उनके कपड़े धोये, चादर धोई, वह रस्सी पर डाल आती तो वह पीछे जा कर बता आते कि इसको कैसा डालो। चादर रस्सी पर कैसी डालनी, इरछी—तिरछी न हो—उसकी भी मर्यादा है! उसको सीधा करके डालो। किचिन में पहुंच जाते और समझाते कि सब्जी भी कैसे काटो —उसकी भी मर्यादा है।.. टमाटर को ऐसा सीधा नहीं काट देना चाहिए, क्योंकि हो सकता है जहां से टमाटर वृक्ष से जुड़ा होता है वहां कोई छोटा —मोटा कीड़ा—मकोड़ा छिपा हो, हत्या हो जायेगी! तो पहले उस हिस्से को अलग काट कर करो। …….ऐसी छोटी — मोटी मर्यादा। हर चीज का हिसाब। चिट्ठी आये तो लिफाफे को फेंक मत दो, खोल कर उलटा जोड़ कर फिर लिफाफा बना लो!

ये बातें तो खूब चंजी। जंचने वाली हैं, क्योंकि यही तुम्हारी बुद्धि है। लगा कि यह आदमी तो बड़ा गजब का है! कैसा चरित्र!

कृष्ण बेक हैं। गांधी में सीधा तर्क है—वे राम की ही श्रृंखला में हैं। वे उसी परंपरा में आते हैं। कृष्ण .बेबूझ हैं। कृष्ण की लीला परमात्मा की लीला का छोटा—सा प्रतिबिंब है। अगर तुम कृष्ण को समझ पाये तो तुम सारे अस्तित्व की कथा को समझ लोगे। अगर राम को समझ पाये तो तुम इतना ही समझ पाओगे कि अच्छे आदमी का जीवन कैसा होता है। रावण को समझो तो बुरे आदमी का जीवन कैसा होता है, यह समझ में आ जायेगा। राम को समझो तो अच्छे आदमी का जीवन कैसा होता है, यह समझ में आ जायेगा। कृष्ण को अगर समझो तो तुम समझोगे पारमात्मिक जीवन कैसा होता है, भागवत जीवन कैसा होता है! अच्छा—बुरा दोनों वहां मिलते हैं। अच्छा—बुरा दोनों ही किनारे की तरह हैं, परमात्मा की नदी दोनों के बीच बहती है, दोनों को छूती बहती है। कृष्ण के जीवन में अच्छा भी है, बुरा भी है। कृष्ण का जीवन समग्र है, खंडित नहीं, चुना हुआ नहीं, पूरा का पूरा है, कच्चा है! इसमें चुनाव नहीं है, अनगढ़ है।

इसलिए कृष्ण के चरित्र को हम चरित्र भी नहीं कहते—रासलीला, खेल! और खेल भी कृष्ण का नहीं; जिसका सारा रास चल रहा है, उसी का! उसी बड़ी रासलीला की यह छोटी—सी अनुकृति है।

आखिरी प्रश्न :

प्रभ आप मिले और ‘किती सांगू मी सांगू तुम्हाला, आज आनदी आनंद झाला!’ कितना बताऊं, आज आनंद ही आनंद घटित हुआ है!

यह तो बस शुरुआत है। बढ़े चलें तो जो अभी बूंद की तरह घटा है, कल सागर की तरह हो सकता है। इतने से तृप्त मत हो जाना, राजी मत हो जाना। यह तो केवल भूमिका है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं उसे सुन कर तुम्हें जो आनंद होता है, यह तो केवल भूमिका है; असली किताब तो अभी शुरू ही नहीं हुई है। असली किताब तो अनुभव की है। मेरे शून्य को सुनोगे तो समझ में आयेगी। मेरे शब्द को सुनने से इतना ही हो जाये कि तुम्हें भरोसा बैठे कि ही, इस आदमी के साथ थोड़ी देर चलें, कि चलें देखें थोड़ी देर इस आदमी की आंखों से, कि जिन दृश्यों की यह बात कर रहा है शायद सच हों! इतना भी पैदा हो जाये तुम्हारे भीतर तो भी महाआनंद मालूम होगा, क्योंकि एक किरण उतरी, एक बूंद गिरी। लेकिन यह शुरुआत है।

और जल्दी से अपने को बंद मत कर लेना, क्योंकि बहुत, मैं जानता हूं शब्द में ही उलझे रह गये हैं। उन्हें आनंद हुआ था, फिर वे सुनने में ही आनंद ले रहे हैं। मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि हमें तो आपको सुनने में आनंद आता है; ध्यान इत्यादि में हमारा कोई रस नहीं है।

अब यह बड़े मजे की बात हो गई। यह तो ऐसा हुआ कि तुम डाक्टर के पास गये और तुमने कहा. ‘आप जो प्रिस्कि्रप्शन लिखते हैं, आपके हस्ताक्षर बड़े प्यारे हैं! बड़ा मजा आ जाता है। सम्हाल कर फाइल में रखते हैं। दवा इत्यादि लेने में हमें कोई रस है ही नहीं।’ तो डाक्टर भी सिर फोड़ लेगा। तो क्यों मेहनत करवा रहे? प्रिस्कि्रप्शन सम्हाल कर रख लेते हैं, फाइल में जड़वा लेते हैं फोटो। तुम कहते हो. दवा इत्यादि में हमें कोई रस नहीं।

मैं तुमसे बोल रहा हूं सिर्फ इसलिए, ताकि तुम ध्यान कर सको। मैं तुमसे बोल रहा हूं सिर्फ इसलिए, ताकि तुम प्रेम कर सको। मैं बोलने के लिए नहीं बोल रहा हूं। यह बात जरूर सच है कि जब डाक्टर किसी बीमार को देखने आता है तो डाक्टर को देखते ही बीमार पचास प्रतिशत ठीक हो

जाता है। वे हमारे डाक्टर ललित बैठे हैं, उनसे तुम पूछ सकते हो। मरीज डाक्टर को देखने से पचास प्रतिशत ठीक हो जाता है। डाक्टर का आना ही पर्याप्त है, भरोसा आ गया।

गुरु के मिलते ही पचास प्रतिशत तो सब ठीक हो जाता है—मिलते ही! मगर यहीं मत रुक जाना। जब शब्द सुन कर ऐसा हो सकता है तो सत्य के अनुभव से कैसा होगा! याद रखना, भूलना मत। अनेक शब्द में ही उलझ कर रह जाते हैं, इसलिए तुम्हें चेताता हूं।

यह एक रश्मि!

पर छिपा हुआ है इसमें ही

ऊषा बाला का अरुण रूप

दिन की सारी आभा अनूप

जिसकी छाया में सजता है

जग राग—रंग का नवल साज

यह एक रश्मि!

यह एक बिंदु!

पर छिपा हुआ है इसमें ही

जल श्यामल मेघों का वितान

विद्युत बाला का बज गान

जिसको सुन कर फैलाता है

जग पर पावस निज सरस राज

यह एक बिंदु!

जो कहा जा रहा है, वह तो एक बूंद है। जिसकी तरफ बूंद इशारा कर रही है, वह महासागर है। बूंद तो निमंत्रण है, बुलावा है। अगर बूंद का बुलावा तुम्हें सुनाई पड़ गया तो चल पड़ना नाचते हुए सागर की तरफ—अनुभव के सागर की तरफ! तब बहुत होगा, अपार होगा। तुम सम्हाल न सकोगे, इतना होगा। इतना होगा कि तुम उसमें बह जाओगे। तुम बचोगे ही नहीं, इतना होगा।

और एक बूंद भी सुख देती है। गर्मी के उत्ताप के बाद, जब भूमि फट गई होती है, दरारें पड़ गई होती हैं, और प्रतीक्षा होती है आषाढ़ की और आकाश में पहले बादल घिरते हैं और छोटी—सी बूंदा—बांदी हो जाती है, तो भी एक तृप्ति की लहर फैल जाती है। अभी प्राणों तक पहुंच भी तो नहीं सकती बूंद, क्योंकि बूंद अभी नई—नई आई, थोड़ी—सी आई; अभी तो ऊपर की धूल को भी गीला न कर पायेगी, अभी तो पृथ्वी के प्राणों तक कैसे पहुंचेगी! लेकिन खबर आ गई, वर्षा करीब है।

यह भूमि भली

यह बहुत जली

यह और न अब

जल को तरसे घन बरसे

घन बरसे

भीग धरा गमके

घन बरसे

पर्वत भीगे

घर छत भीगे

भीगे बन

खेत कुटी झरसे

घन बरसे

घन बरसे

भीग धरा गमके

घन बरसे!

बूंद पर रुकना मत। बूंद की आहट सुन कर खोल देना अपने प्राण मेघों के लिए, घनों के लिए। बूंद आ गई है तो मेघ करीब हैं। हो जाना नग्न, ताकि दूर—दूर तक, गहरे—गहरे तक, तुम्हारे अंतरतम

तक प्रवेश हो जाये!

जो भेंट चला था मैं ले कर

हाथों में, कबकी कुम्हलाई

नैनों ने सींचा उसे बहुत

लेकिन वह फिर भी मुरझाई

तब से पथ पुष्पों से निर्मित

कितनी मालायें सूख चुकीं

जिस पग से मैं आया उस पर

पाओगे बिखरी बिखराई

कुम्हला न सकी मुरझा न सकी

लेकिन अर्चन की अभिलाषा!

मैं चुनता हूं हर फूल

अटल विश्वास लिए

ये पूज न पायें प्रेय चरण

लेकिन दुनिया इनकी श्रद्धा को

एक समय पूजेगी ही!

बहुत—बहुत जन्मों से तुम न मालूम कितने पूजा के थाल बना कर चल रहे हो, सजा कर चल रहे हो! बहुत जन्मों से न मालूम कितनी जलती आकांक्षाएं ले कर तुम खोज रहे हो! जब कभी प्रभु का कोई मंदिर करीब तुम्हें दिखाई पड़ेगा, मंदिर का घटनाद सुनाई पड़ेगा, मंदिर से उठती हुई धूप की धुएं की रेखा तुम्हारी नासापुटों को छुएगी—तुम नाच उठोगे! तुम्हारी सदा से अर्चना की जो अभिलाषा थी—हारी बहुत बार, पर हार न पाई—पुनरुज्जीवित हो उठेगी; नये प्राण पड़ जायेंगे।

लेकिन वहीं रुक मत जाना। मंदिर के बाहर बहुत रुक गये हैं, इसलिए कहता हूं। मंदिर के भीतर प्रवेश करना। बाहर इतना है तो भीतर कितना न होगा! शब्द में इतना है तो निःशब्द में कितना न होगा! शब्द तो उधार है। मैं कितना ही कहूं, लाख तुम्हें ठीक से कहूं तो भी ठीक—ठीक तुम तक पहुंचेगा नहीं। शब्द मार डालता है। शब्द सीमा दे देता है असीम को। शब्द के भीतर सिकुड़ना पड़ता है सत्य को। लेकिन अगर तुम आनंदित होने लगो मेरे साथ, सच ही मेरे और तुम्हारे बीच एक रास रचने लगे; मेरा शून्य तुम्हारे शून्य से मिलने लगे; मेरे शून्य के हाथ में तुम हाथ डाल कर नाचने लगो—तो अपूर्व आनंद घटित होगा! महाआनंद होगा!! सच्चिदानंद घटित होगा!!!

छोटे से तृप्त मत होना। इस सूत्र को सदा याद रखना. संसार में तृप्ति; परमात्मा में अतृप्ति। संसार में जो मिले राजी हो जाना। यहां कुछ परेशान होने को है नहीं। रोटी—रोजी मिल जाये, छप्पर मिल जाये—बहुत! खूब प्रसन्न हो जाना। तृप्त हो जाना। और परमात्मा में कितना ही मिले, राजी मत होना, क्योंकि और— और मिलने को है। तुम जहां राजी हो जाओगे, वहीं रुक जाओगे। परमात्मा में तो अतृप्त ही बने रहना। संसार में तृप्त और परमात्मा में अतृप्त—ऐसी साधक की परिभाषा है। परमात्मा में तृप्त और संसार में अतृप्त—ऐसी संसारी की परिभाषा है।

लोग परमात्मा में बिलकुल तृप्त मालूम होते हैं। इतने लोग हैं दुनिया में, उनको परमात्मा से कुछ लेना—देना नहीं। वे कहते हैं : ‘बिलकुल तृप्ति है। आप वहां भले, हम यहां भले! सब ठीक चल रहा है। परमात्मा ऊपर, हम पृथ्वी पर; सब ठीक चल रहा है। अब और करना क्या है। आप भले हम भले।’ कभी जरूरत पड़ती है तो मंदिर में दो फूल चढ़ा देते हैं—औपचारिक कि कोई झंझट खड़ी न करना। सब ठीक ही चल रहा है आपकी कृपा से। लेकिन परमात्मा से कोई अतृप्ति नहीं है कि और मिले कि और मिले; कि बूंद बरसी, अब सागर बरसे! नहीं, कोई जरूरत ही नहीं है।

संसार में बड़ी अतृप्ति है। हजार हैं तो दस हजार हों; दस हजार हों तो लाख हों; लाख हों तो करोड़ हो—वहा अतृप्ति की कोई सीमा नहीं है। कितना ही हो जाये, तो और हो!

तुमसे मैं कहता हूं : साधक का लक्षण है—संसार में तृप्ति और परमात्मा में निरंतर अतृप्ति। ऐसा दिव्य असंतोष तुममें जग जाये तो परमात्मा तुमसे ज्यादा देर दूर नहीं रह सकता। जो इतने प्राणों से पुकारता है, उससे मिलना ही होगा, मिलना ही होता है!

हरि ओंम तत्सत्!


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–4) प्रवचन–4

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सहज ज्ञान का फल है तृप्‍ति—प्रवचन—चौथा

दिनांक 29 नवंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र: उवाज:

तेन ज्ञानफलं प्राप्त योगाभ्यासफलं तथा।

तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु य:।। 157।।

न कदाचिज्जगत्यस्मिंस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति।

यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्मांडमंडलम्।। 158।।

न जातु विषय!: केउपि स्वारामं हर्षयज्यमी।

सल्लकीपल्लवप्रीतिमिवेमं निम्बयल्लवा:।। 159।।

यस्‍तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्याधिवासित।

अभुक्तेषु निराकांक्षी ताइशो भवदुर्लभ:।।160।।

बुभुमुरिह संसारे मुमुमुरपि दृश्यते।

भोगमोक्षनिराकांक्षरई विरलो हि महाशय:।। 161।।

धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा।

कस्यामुदारचित्तस्थ हेयोयादेयता न हि।। 162।।

वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।

यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम्।। 163।।

तेन ज्ञानफलं प्राप्त योगाभ्यासफल तथा।

तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु य:।

‘जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है।’

एक—एक शब्द को ध्यानपूर्वक समझना।

पहली बात. साधारणत: लोग सोचते हैं, एकाकी रमेंगे तो ज्ञान उपलब्ध होगा। यह सूत्र उलटा है। यह कहता है. जो एकाकी रमने में सफल हो गया उसे ज्ञान का फल मिल गया। एकाकी रमने से कोई ज्ञान को नहीं पाता, शान को पाने से एकाकी होने की क्षमता आती है। अकेले भाग जाने से तुम ज्ञान को उपलब्ध न हो जाओगे, हिमालय की कंदराओं में बैठ कर ज्ञान को उपलब्ध न हो जाओगे। तुम तो तुम ही रहोगे, जो बाजार में था वही हिमालय की गुफा में बैठ जायेगा। बाहर की स्थिति को बदलने से भीतर कोई क्रांति न हो जायेगी। घर में हो कि मंदिर में हो, क्या फर्क पड़ेगा? और भीड़ में हो कि अकेले, क्या फर्क पड़ेगा रूम तुम तो तुम ही रहोगे। यह तुम्हारा होना इतनी आसानी से नहीं बदलता। तो कोई संसार को छोड़ कर चला गया है, सोचता है, संसार को छोड़ने से बदलाहट हो जायेगी। बदलाहट हो जाये तो संसार छूट जाता है, लेकिन संसार को छोड़ने से बदलाहट नहीं होती।

यह सूत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मेरी पूरी देशना यही है। लोगों ने अक्सर कारण को कार्य समझ लिया है, कार्य को कारण समझ लिया है। लोग सोचते हैं : भोग छूट जाये तो त्याग फलित हो जायेगा। नहीं, ऐसा नहीं है। त्याग फलित हो जाये तो भोग छूट जाता है। त्याग का रस आ जाये तो भोग विरस हो जाता है। जिसके हाथों में हीरे—जवाहरात आ गये, वह कंकड़—पत्थर नहीं बीनता। लेकिन तुम सोचते हो कि कंकड़—पत्थर बीनना बंद कर देने से हीरे—जवाहरात हाथ में आ जायेंगे, तो तुम बड़ी गलती में पड़े हो। कंकड़—पत्थर न बीनने से केवल कंकड़—पत्थर न हाथ में रहेंगे, हीरे—जवाहरातों के आने का क्या संबंध है?

तुमसे कोई कहता है. धन छोड़ दो तो ज्ञान उपलब्ध हो जायेगा। जैसे कि धन ज्ञान को रोक सकता है! धन की सामर्थ्य क्या? कोई कहता है. परिवार, बच्चे, पत्नी—पति को छोड़ दो तो परमात्मा उपलब्ध हो जायेगा। जैसे पति, परिवार, घर, ये परमात्मा और तुम्हारे बीच आडू बन सकते हैं! परमात्मा को ऐसी क्षुद्र चीजें रुकांवट डाल सकती हैं? ऐसी व्यर्थ की बातों में मत पड़ना। ही, परमात्मा मिल जाये तो तुम्हारा रस इन चीजों से छूट जाता है। छूट जाता है, छोड़ना नहीं पड़ता। फल का अर्थ होता है अपने से हो जाता है, करना नहीं पड़ता।

वृक्ष पर फल लगते हैं, कोई लगाता है? लगते हैं, अपने से लगते हैं। तुम्हारी किसी चेष्टा का परिणाम नहीं हैं। तुम खींच—खींच कर फल नहीं लाते हो। और बाजार से ला कर तुम फल वृक्षों पर लटका दो तो तुम किसको धोखा दे रहे हो? वे फल सत्य नहीं हैं। तो कोई आदमी संसार से चला जाये, बैठ जाये गुफा में, ऊपर से दिखे बड़ा शांत है—फल बाजार से खरीद लाया है—भीतर तो बाजार का कोलाहल होगा।

बायजीद के पास एक युवक आया और उसने कहा कि मुझे अपने चरणों में ले लें, मैं स्ब छोड़ कर आ गया हूं। बायजीद ने कहा : ‘चुप, बकवास बंद! भीड़ तू पूरी साथ ले आया है।’ वह युवक चौंका। उसने अपने चारों तरफ देखा, पीछे देखा—कोई भी नहीं है, भीड़ कहां है? यह बायजीद पागल तो नहीं है! उसने कहा. ‘कैसी भीड़? किस भीड़ की बात कर रहे हैं? मैं सब छोड़ आया, भीड़ भी छोड आया। वे लोग मुझे पहुंचाने आये थे गांव के बाहर तक, मेरे परिवार के लोग रोते भी थे, पत्नी छाती पीटती थी; पर कड़ा जी करके सबको छोड़ आया हूं।’ बायजीद ने कहा. ‘इधर—उधर मत देख; आंख बंद कर, भीतर देख! वे सब वहीं के वहीं खड़े हैं।’

उस युवक ने आंख बंद की, भीड मौजूद थी। पत्नी अभी भी रो रही थी भीतर। अभी भी वह अपने को समझा रहा था; कड़ा कर रहा था जी; बच्चों की याद आ रही थी, मित्रों के चेहरे, जिनको पीछे छोड़ आया है, वे खींच रहे थे। तब उसकी समझ में आया। यहां—वहा भीड़ नहीं थी, आगे —पीछे भीड़ नहीं थी— भीड़ भीतर है।

तुम भाग जाओ जंगल में। भीड़ अगर बाहर ही होती तो तुम अकेले हो जाते, लेकिन भीड़ भीतर है। भीड़ तुम्हारे चित्त में है। तुम्हारा चित्त ही भीड़ है। तो कभी ऐसा भी होता है कि कोई भीड़ में भी अकेला होता है और कभी ऐसा भी कि कोई अकेला बैठा भी भीड़ में होता है। इसलिए ऊपर—ऊपर की बातों में बहुत आग्रह मत करना; बात भीतर की है; बात गहरे की, गहराई की है।

‘जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान का और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है!’

यह फल है—कान्सिक्येन्स। कारण नहीं, कार्य है। सहज फल जाता है। तो जीवन की अंतर्दृष्टि बदलनी चाहिए।

तेन ज्ञानफलं प्राप्त…….

उसे मिल गया ज्ञान का फल, उसे मिल गया योग का फल! किसे? तो परिभाषा की है. तृप्त:! जो तृप्त है! सब भांति तृप्त है! जिसके जीवन में अतृप्ति का कोई स्वर न रहा! जिसके मन में किसी चीज की कोई आकांक्षा न रही! ऐसा कब घटेगा?

तुमने कहावत सुनी है. ‘संतोषी सदा सुखी।’ उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात है. ‘सुखी सदा संतोषी।’ ‘संतोषी सदा सुखी’ से ऐसा लगता है कि किसी तरह संतोष कर लो तो सुखी हो जाओगे।

किसी तरह किया गया संतोष पहले तो संतोष ही नहीं। किसी तरह किया गया संतोष, संतोष का धोखा है। समझा लिया, बुझा लिया मन को, कह दिया कि क्या रखा है संसार में! जब तुम समझाते हो मन को कि क्या रखा है संसार में, तो एक बात पक्की है कि तुम्हारा मन अभी कहता है कि कुछ रखा है संसार में, अन्यथा समझाते किसे? समझाते किसलिए? समझाना सूचक है कि मन अभी कहता है रखा है बहुत कुछ संसार में।

तुम अपने को समझाते हो. ‘क्या रखा कामिनी—काचन में? कुछ भी नहीं है, सब मिट्टी है!’ मगर यह क्यों दोहराते हो? यह तुम्हारा बोध है? ऐसा तुमने देख लिया? ऐसी तुम्हारी दृष्टि का अनुभव हो गया? ऐसी तुम्हारी प्रतीति हो गई? तो अब क्या दोहराना कामिनी—कांचन! बात खत्म हो गई।

सुबह जाग कर तुम ऐसा थोड़े ही बार—बार दोहराते हो कि जो सपना देखा है, झूठ है, जो सपना देखा है, झूठ है। और ऐसा तुम दोहराओ तो स्वभावत: शक होगा कि तुम्हें सपने पर बहुत भरोसा आ गया। अभी तक, अभी तक तुम कहे चले जा रहे हो कि सपना झूठ है! अभी तक सच होने की लकीर तुम्हारे भीतर मौजूद है। अभी तक तुम्हारे भीतर सपने पर भरोसा है। उस भरोसे को काटने के लिए तुम कह रहे हो सपना झूठ है।

हम उन्हीं बातों को समझाते हैं जिनके विपरीत हमारी दशा होती है। तुम समझाते हो कि स्त्री के शरीर में क्या रखा है, सब मल—मूत्र है! मगर यह क्यों समझाते हो? यह किसको कह रहे हो ग्र किसलिए कह रहे हो? थोड़ा इसमें झांक कर देखो, तुम्हें जरूर स्त्री के शरीर में रूप दिखाई पड़ रहा है, सौंदर्य दिखाई पड़ रहा है। वह सौंदर्य तुम्हें बुला रहा है। वह रूप तुम्हें निमंत्रण दे रहा है। उस निमंत्रण से तुम घबड़ा गये हो, डर गये हो। उस निमंत्रण को काटने के लिए तुम समझा रहे हो कि सब. जरा गौर से देखो मल—मूत्र भरा है!

अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे जो ऋषि—मुनि शास्त्रों में लिख गये कि स्त्री के शरीर में मल—मूत्र भरा है, इनमें से कोई भी यह नहीं लिखता कि मेरे शरीर में भी मल—मूत्र भरा है! जैसे कि इनके पास कुछ सोने का शरीर है! और बड़े मजे की बात है कि इनमें से कोई भी नहीं लिखता कि स्त्री के शरीर से ही ये पैदा हुए हैं। तो मल —मूत्र से ही पैदा हुए हैं —और गये —बीते मल—मूत्र होंगे। क्योंकि मल—मूत्र से कोई सोना नहीं आ जाता। इनमें से कोई भी नहीं लिखता कि मेरे शरीर में मल—मूत्र भरा है! स्त्री के शरीर में मल—मूत्र भरा है!

स्त्री के शरीर में आकर्षण है, उस आकर्षण को काटने के लिए ये उपाय कर रहे हैं। ये उपाय सब झूठे हैं। इस तरह आकर्षण कटता नहीं। ऐसे तुम समझा—बुझाकर संतोष कर लो, यह संतोष बस माना हुआ है। इस संतोष से क्रांति न होगी, दीया न जलेगा; तुम रूपांतरित न हो जाओगे, तुम्हारे जीवन में प्रकाश न छा जाएगा; और न ही अमृत की वर्षा होगी।

तृप्त:!

देखो जीवन को गौर से! यहां अतृप्त होने का कारण ही नहीं है। इस क्षण देखो, अभी देखो! यही अष्टावक्र का जोर है कि जो देखना है, अभी देखो, इस क्षण देखो।

अभी तुम मेरे सामने बैठे हो। इस क्षण जरा गौर से अपने भीतर झांको. ‘कहीं कोई अतृप्ति है? कहीं कोई आकांक्षा है? कहीं कोई और होने का मन है? कुछ और होने का मन है?’ अगर शांत हो कर भीतर देखोगे तो पाओगे कि तृप्ति ही तृप्ति लहरें ले रही है। जिसने भी भीतर झांका, उसने पाया कि तृप्ति का सागर है! गहन परितोष! सब भरा—पूरा है! जो चाहिए, मिला हुआ है! जैसा होना चाहिए वैसा है। इससे अन्यथा की मांग में उपद्रव शुरू होता है। तुम जितनी चीज से तृप्त हो सकते थे उतनी परमात्मा ने दी है, उससे ज्यादा दी है। जितने से तुम आनंदित हो सकते थे उतना सारा आयोजन तुम्हारे लिए है। अब तुम देखो ही न और तुम कहीं दौड़े चले जाओ, भागे चले जाओ, तुम्हारी आंखें कोल्हू के बैल की तरह एक दिशा में देखती रहें, और तुम चारों तरफ न देखो, और यह जो महोत्सव चल रहा है इससे तुम्हारा कोई संबंध ही न बने—तो तुम अभागे हो, और कारण तुम्हीं हो!

तृप्त:!

तृप्ति सहज ज्ञान का फल है, जागरण का फल है। जाग कर जिसने देखा, उसने अपने को तृप्त पाया। सोये—सोये जिसने अपने को टटोला, उसने अपने को अतृप्त पाया।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं. ‘हम तृप्त कैसे हो जायें? संतुष्ट कैसे हो जायें?’ मैं कहता हूं : यह गलत सवाल न पूछो। संतुष्ट और तृप्त होने की तुम चेष्टा कर ही रहे हो, करते ही रहे हो, वह नहीं हो पाया। मैं तुमसे कहता हूं यह बात छोड़ो। तुम इतना तो देखो कि तुम कौन हो? क्या हो? बस! पहली बात पहले, प्रथम प्रथम। फिर दूसरे को हम दूसरा सोच लेंगे। तुम एक बात से परिचित हो जाओ कि तुम कौन हो।

रमण महर्षि के पास पाल बटन जब गया तो वह बहुत—से प्रश्न लेकर गया था। लेकिन रमण ने कहा. ‘बस एक ही प्रश्न सार्थक है। यही पूछना सार्थक है कि मैं कौन हूं। बाकी सब प्रश्न अपने से हल हो जायेंगे। तू एक ही प्रश्न पूछ ले।’ तो उसने कहा. ‘ अच्छी बात, यही पूछता हूं कि मैं कौन हूं!’ रमण ने कहा, ‘यह भी तू मुझसे पूछता है! आंख बंद कर और अपने से पूछ ले कि मैं कौन हूं। पूछता जा, खोजता जा। तू है, इतना तो पक्का है। तू है और चेतन है, इतना भी पक्का है। नहीं तो मुझसे पूछने कैसे आता! जीवित है, चैतन्य है, अब और क्या चाहिए? दो महाघटनाओं का मिलन तेरे भीतर हो रहा है।’

चैतन्य और जीवन मिला, अब और क्या चाहिए तृप्ति के लिए! तुम्हें जीवन के वरदान का कोई स्मरण नहीं है। तुम भूल ही गये हो कि तुम्हारे पास क्या है। जीवन है!

सिकंदर जब भारत से वापस लौटता था, एक फकीर को मिलने गया। और फकीर से उसने कहा कि ‘जानते हैं, मैं कौन हूं? सिकंदर महान! सारी दुनिया का विजेता!’ वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा. ‘कभी ऐसे ही सपने मैंने भी देखे थे, मगर मैं समय के पहले जाग गया। तू अभी जागा कि नहीं?’ कौन सपने नहीं देखता सिकंदर होने के! उस फकीर ने कहा. ‘यह कोई नई बात है! हर आदमी यही सपना ले कर पैदा होता है।’ सिकंदर ने कहा ‘मैं समझा नहीं।’ उस फकीर ने कहा. ‘ऐसा सोच, रेगिस्तान में तू खो जाये और प्यास लगे जोर से और कोई आदमी कहे कि एक गिलास जल मैं तुझे दे सकता हूं कितना साम्राज्य तू देने को राजी होगा एक गिलास जल के लिए?’ उसने कहा. ‘आधा दे दूंगा उस क्षण में तो।’ फकीर ने कहा. ‘ और वह जिद्दी हो और कहे कि मैं तो पूरा लूंगा, तो तू पूरा साम्राज्य देने को राजी होगा एक गिलास के लिए?’ सिकंदर ने थोड़ा सोचा और उसने कहा कि ऐसी घड़ी होगी, मरुस्थल में भटका होऊंगा तो पूरा साम्राज्य भी दे दूंगा। वह फकीर खूब खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा ‘तो तुमने कमाया क्या, एक गिलास पानी! मौका पड़ जाये तो एक गिलास पानी खरीद लेना। यह साम्राज्य, इसका कुल मूल्य कितना है? गला जरा अतृप्त होगा तो उसको भी तृप्त न कर पायेगा, तो आत्मा को तो तृप्त कैसे करेगा? गले की प्यास भी न बुझ पायेगी इससे, तो हृदय की प्यास तो कैसे बुझेगी! देह की क्षुधा भी न मिटेगी तो आत्मा की क्षुधा तो कैसे मिटेगी!

उस फकीर ने कहा. ‘बहुत हो गया पागलपन! अब उतर नीचे सपने से! जाग!’

एक ही प्रश्न महत्वपूर्ण है—और वह पूछना है कि मैं कौन हूं। और ऐसा मत सोचना कि तुम पूछते रहोगे मैं कौन हूं मैं कौन हूं, तो उत्तर आ जायेगा; जैसे कि परीक्षा की कापियों में उत्तर आते हैं! नहीं, जब तुम पूछते ही रहोगे, पूछते ही रहोगे, उत्तर तो नहीं आयेगा, एक दिन प्रश्न भी रुक जायेगा। अनुभूति आयेगी, उत्तर नहीं। अनुभव आयेगा! जीवन और चैतन्य, तुम्हारे भीतर जो मिल रहे हैं, जो महामिलन हो रहा, जीवन और चैतन्य हाथ में हाथ डाल कर जो नाच कर रहे हैं, जो नृत्य चल रहा है —उसकी प्रतीति आयेगी, उसका साक्षात्कार होगा। उसी साक्षात्कार में तृप्ति है।

तेन ज्ञानफलं प्राप्ते योगाभ्यासफलं तथा।

जानना कि उन्होंने ही पा लिया शान का फल और जानना कि उन्होंने ही पा लिया योग का फल..।

तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो।

जो तृप्त हो गये और जिनकी इंद्रियां स्वच्छ हो गईं।

यह भी समझने जैसा है। स्वच्छेन्द्रिय! फर्क को खयाल में लेना। अक्सर तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें समझाते हैं. ‘इंद्रियों की दुश्मनी। तोड़ो, फोड़ो, इंद्रियों को दबाओ, मिटाओ! किसी भांति इंद्रियों से मुक्त हो जाओ!’ अष्टावक्र का वचन सुनते हो स्वेच्छन्द्रिय:! इंद्रियां स्वच्छ हो जायें, और भी संवेदनशील हो जायेंगी।

ज्ञान का फल! यह वचन अदभुत है। नहीं, अष्टावक्र का कोई मुकाबला मनुष्य—जाति के इतिहास में नहीं है। अगर तुम इन सूत्रों को समझ लो तो फिर कुछ समझने को शेष नहीं रह जाता है। इन एक—एक सूत्र में एक—एक वेद समाया है। वेद खो जायें, कुछ न खोयेगा, अष्टावक्र की गीता खो जाये तो बहुत कुछ खो जायेगा।

स्वच्छेन्द्रिय! ज्ञान का फल है : जिसकी इंद्रियां स्वच्छ हो गईं, जिसकी आंखें साफ हैं!

तुमने सुना, सूरदास की कथा है! मैं मानता नहीं कि सच होगी। मानता इसलिए नहीं कि सूरदास से मेरा थोड़ा लगाव है। कि एक स्त्री को देखकर उन्होंने आंखें फोड़ लीं—इस भय से कि आंखें गलत रास्ते पर ले जाती हैं। अगर सूरदास ने ऐसा किया हो तो दो कौड़ी के हो गये। ही, जिन्होंने कहानी गढ़ी है, उनकी बुद्धि ऐसी ही रही होगी। आंखें फोड़ लोगे, इससे स्त्री के रूप से छुटकारा हो जायेगा? रात सपने में तो आंख बंद होती है तो क्या स्त्री के रूप से छुटकारा हो जाता है? स्त्री तो और रूपवान हो कर प्रगट होती है। सपने में जैसी सुंदर होती हैं स्त्रियां वैसी कहीं जाग कर तुमने पाईं? यही तो जिंदगी की तकलीफ है कि सपने में मिल जाती हैं और जिंदगी में नहीं मिलती। और जिंदगी में जो भी मिलती है वह सपने की स्त्री से छोटी पड़ती है, इसलिए तृप्त नहीं कर पाती। या पुरुष जीवन में जो मिलता है, वह सपने के पुरुष से छोटा पड़ता है। सपने हमारे बड़े और यथार्थ बड़ा छोटा है। यथार्थ बड़ा फीका है, सपने हमारे बड़े रंगीन हैं, बड़े रुपहले! इंद्रधनुषी हैं सपने, और जिंदगी बस काली—सफेद, इसमें कुछ बहुत रंग नहीं है!

आंख बंद कर लेने से कोई रूप मिटेगा? आंख फोड़ लेने से कुछ रूप की कल्पना खो जायेगी? काश, इतना सस्ता होता तो आंख फोड़ लेते, कान फोड़ लेते, हाथ काट देते! और ऐसा लोगों ने किया है। रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो जननेंद्रिया काट लेता था। अब यह भी कोई बात हुई! स्त्रियां स्तन काट लेती थीं। यह भी कोई बात हुई! जननेंद्रिया काट लेने से कामवासना चली जायेगी? काम की क्षमता चली जायेगी, लेकिन क्षमता जाने से कहीं वासना गई है? तो तुम को से पूछ लो, जिनकी क्षमता चली गई है—वासना चली गई है? सच तो यह है कि बुढ़ापे में वासना जैसा सताती है वैसा जवानी में भी नहीं सताती। क्योंकि जवानी में तो तुम कुछ कर सकते हो वासना के लिए; बुढ़ापे में कुछ कर भी नहीं सकते, सिर्फ तडूफते हो। बूढ़े मन में जिस बुरी तरह वासना पीड़ा बुन कर आ जाती है, कांटे की तरह चुभती है, वैसे जवान मन में नहीं चुभती। शरीर तो का हो जाता है, वासना थोड़े ही की होती है कभी! वासना तो जवान ही रहती है। उसका स्वभाव जवानी है। शरीर थक जाता है, वासना थोड़े ही रुकती है, वह तो दौड़ती ही रहती है। तुम जब थक कर भी गिर जाते हो राह पर, तब भी तुम्हारी वासना अनंत— अनंत यात्राओं पर निकलती रहती है। अगर ऐसा न होता तो दुबारा जन्म ही क्यों होता! अगर बूढ़े की वासना भी की हो गई, शरीर भी क्षीण हो गया, वासना भी क्षीण हो गई, तो मुक्त हो जायेगा, दुबारा जन्म नहीं होगा।

दुबारा जन्म क्यों होता है? वह जो वासना जवान है, वह नये शरीर की मांग करती है। वह कहती है. ‘खोजो नई देह! यह देह तो गई, खराब हुई। अब कुछ नया माडल खोजो। यह पुराना माडल अब काम का न रहा। लेकिन अभी मैं नहीं मरी हूं। नई देह पकड़ो! नई देह के सहारे चलो। लेकिन चलो! फिर से खोजो! इस जीवन में तो नहीं पा पाये, अगले जीवन में शायद मिलन हो जाये, शायद तृप्ति मिले, सुख मिले। फिर खोजो।’

इधर का मरा नहीं कि उधर जन्मा नहीं। मरने और जन्मने में जरा—सी देर नहीं लगती। अक्सर तो ऐसा होता है कि तुम जब के आदमी की लाश ले कर मरघट जा रहे हो तब तक वह किसी गर्भ में प्रवेश कर चुका; तुम जिसकी अब अर्थी सजा रहे हो, वह पैदा हो चुका। इतनी फुरसत कहा है! वासना इतनी प्रगाढ़ है कि तुम्हारी राह थोड़े ही देखेंगे कि अब तुम अर्थी सजाओ, फूल—पत्ती बांटों, मोहल्ले—पड़ोस के लोगों को इकट्ठा करो, बैंड—बाजा बजाओ, मरघट ले जाओ—तुम्हें तो कुछ वक्त तो लगेगा! रोने — धोने में, उपद्रव करने में, तुम्हें कुछ तो समय लगेगा! पहुंचते —पहुंचते लेकिन बूढ़े को इतनी फुरसत कहां है कि तुम्हारी राह देखे! तुम सडी—सडाई लाश को ही जला रहे हो। वहां अब कोई नहीं है। वह तो किसी नये गर्भ में प्रविष्ट हो चुका। वासना क्षण भर की देर नहीं मांगती।

तुमने देखा, जब वासना तुम्हें पकड़ती है, तुम क्षण भर रुक सकते हो? जब क्रोध तुम्हें पकड़ता है, तब तुम यह कहते हो कि चलो कल कर लेंगे? जब क्रोध तुम्हें पकड़ता है, तुम उसी क्षण आगबबूला हो जाते हो। और जब वासना तुम्हें पकड़ती है तो तुम सोचते हो कि चलो, कल, परसों, अगले जन्म में, जल्दी क्या है? जब वासना तुम्हें पकड़ती है तो तुम उतावले हो जाते हो। उसी क्षण होना चाहिए! क्षण में होना चाहिए! एक क्षण की भी देरी सालती है, खटकती है। इधर का मरा, उधर

उसकी वासना उसे नई यात्रा पर ले गई।

तो साधु —संत तुम्हें समझाते रहे हैं. ‘इंद्रियों को काटो, जलाओ, खराब करो।’ नहीं, ज्ञानी ऐसा नहीं कहते।’स्वच्छेन्द्रिय:!’ तुम्हारी इंद्रियां और सेंसिटिव और संवेदनशील हो जायेंगी। तुमसे लोगों ने कहा है : स्वाद को मार डालो।

महात्मा गांधी के आश्रम मैं व्रतों में एक व्रत था. अस्वाद! स्वाद को मार डालो! अष्टावक्र के वचन का क्या अर्थ होगा? स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ अस्वाद हो सकता है? स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ होगा. परम स्वाद। ऐसा स्वाद कि भोजन में भी ब्रह्म का अनुभव होने लगे—स्वच्छेन्द्रिय का अर्थ होता है। स्वाद मार डालो! तो जीभ से, रसना से, जो परमात्मा की अनुभूति हो सकती थी वह मर जायेगी।

पश्चिम का बड़ा विचारक लुई फिशर गांधी जी को मिलने आया। वह उनके ऊपर किताब लिख रहा था। अपने साथ ही उसे उन्होंने भोजन पर बिठाया। वे नीम की चटनी खाते थे, उसकी थाली में भी नीम की चटनी रख दीं—स्वाद खराब करने को! अस्वाद का व्रत चल रहा है तो नीम की चटनी, ताकि थोड़ा—बहुत स्वाद अगर भोजन में से आ जाये तो नीम की चटनी उसको खराब कर दे। फिशर ने सौजन्यतावश जरा—सा चख कर देखा कि यह चीज क्या है! कडुवा जहर! उसने सोचा कि अब कुछ कहना ठीक नहीं। उसको किसी ने चेताया भी था कि सावधान रहना, वे नीम की चटनी देंगे! तो यही है नीम की चटनी! उसने यह सोचा कि बजाय पूरा भोजन खराब करने के इसको एक ही दफा, इस अटे को गटक जाओ, तो फिर कम से कम पूरा भोजन तो ठीक से हो जायेगा, यह झंझट मिटेगी। तो वह पूरी चटनी एक साथ गटक गया। गांधी जी ने कहा कि और लाओ, फिशर को चटनी बहुत पसंद आई!

तुम स्वाद को मार ले सकते हो। कभी—कभी स्वाद अपने से भी मर जाता है, लेकिन तुमने उसमें कुछ महिमा देखी? बुखार के बाद तुम्हारी रसना क्षीण हो जाती है, क्योंकि रसना के जो स्वाद को देने वाले छोटे—छोटे अंकुर हैं वे रोग में शिथिल हो जाते हैं। तो तुम मिठाई भी खाओ तो मीठी नहीं मालूम पड़ती, भोजन में कोई स्वाद नहीं आता, सब तिक्त—तिक्त मालूम होता है, उदास—उदास! लेकिन उससे कुछ महिमा आती है? उससे कुछ आत्मा का अनुभव होता है? और अगर इतना सस्ता हो तो जीभ पर ऐसिड डलवा कर खराब ही कर लो एक बार, बार—बार नीम की चटनी क्या खानी! एक दफा साफ करवा लो, चले जाओ डाक्टर से, वह छील कर अलग कर देगा! बहुत थोड़े —से स्वाद के अनुभव को लेने वाले बिंदु हैं जीभ पर, वह अलग कर देगा। आपरेशन करवा लो। मगर इससे क्या तुम किसी आत्म— अनुभव को उपलब्ध हो जाओगे?

नहीं, न तो आंख के फूटने से रूप में रस जाता, न स्वाद के मिटने से स्वाद में रस जाता। स्वाद ऐसा गहन हो जाये कि भोजन तो मिट जाये और परमात्मा का स्वाद आने लगे।’अन्न ब्रह्म’—उपनिषद कहते हैं कि अन्न ब्रह्म है। तो स्वाद को बढ़ाओ, स्वच्छ करो। स्वाद को विराट करो। स्त्री को देखा, आंख मत फोड़ो; और जरा गौर से देखो कि स्त्री में ब्रह्म दिखाई पड़ने लगे—तो आंख स्वच्छ हो गई। ब्रह्म के अतिरिक्त जब तक तुम्हें कुछ और दिखाई पड़ रहा है, उसका अर्थ इतना ही है कि आंख अभी पूरी स्वच्छ नहीं हुई। जब आंख पूरी स्वच्छ हो जायेगी तो ब्रह्म ही दिखाई पड़ेगा, एक ही दिखाई पड़ेगा। जब सारी इंद्रियां स्वच्छ होती हैं तो सभी तरफ से उसी एक का अनुभव होता है। छुओ तो वही हाथ में आता है। चखो तो वही जीभ पर आता है। देखो तो उसी के दर्शन होते हैं। सुनो तो उसी की पगध्वनि सुनाई पड़ती है। कुछ भी करो.. श्वास लो, तो वही तुम्हारी श्वास में भीतर जाता। सूरज उगता तो वही उगता। रात आकाश तारों से भर जाता तो उसी से आकाश भर जाता है। फूल खिलते हैं तो वही खिलता है। पक्षी चहचहाते हैं तो उसी की चहचहाट है।

जब सारी इंद्रियां स्वच्छ होती हैं तो सभी तरफ से उस एक का अनुभव होने लगता है। जितनी इंद्रियां अस्वच्छ होती हैं उतना ही अनुभव नहीं हो पाता।

यह सूत्र खयाल रखना:

तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु यः

और जिस व्यक्ति की इंद्रियां स्वच्छ हो ,गईं और जिसे उस एक का सब तरफ अनुभव होने लगा, वही एकाकी रमण कर सकता है, क्योंकि अब दूसरा बचा ही नहीं।

इस एकाकी रमण का अर्थ भी समझो। एकाकी का अर्थ अकेलापन नहीं होता। एकाकी का अर्थ होता है एक—पन; अकेलापन नहीं। अकेलेपन का अर्थ होता है. लोनलीनेस। एकाकी का अर्थ होता है. अलोननेस। अकेलेपन का अर्थ होता है : दूसरे की याद आ रही है; दूसरा होता तो अच्छा होता। अकेलेपन का अर्थ होता है. दूसरे की मौजूदगी नहीं है, खल रही है, खाली—खाली लग रही है कोई जगह, बेचैनी हो रही है। बैठे हैं अकेले, लेकिन दूसरे की पुकार उठ रही है। तुम जंगल भाग जाओगे, किसी से बात करने को न मिलेगा तो भगवान से ही बात करोगे; मगर वह तुमने दूसरा पैदा कर लिया। तुम अकेले न रहे। अकेलेपन में आदमी भगवान से ही बात करने लगेगा। उसी को तो तुम प्रार्थना कहते हो। वह बातचीत है। तुमने फिर एक कोई पैदा कर लिया, जिससे बातचीत होने लगी। एक तरह का पागलपन है यह बातचीत।

तुमने पागलखाने में जा कर देखा! तुम देखोगे कि कोई पागल बैठा है अकेला और बात कर रहा है। तुम हंसते हो; लेकिन जब कोई प्रार्थना करता है तब तो तुम नहीं हंसते! यह किससे बात कर रहा है? पागल पर तुम हंसते हो क्योंकि तुम्हें कोई दिखाई नहीं पड़ता और यह किसी से बात कर रहा है। और तुम जब मंदिर में हाथ जोड़ कर कहते हो कि ‘हे पतितपावन, मुझ पर कृपा करो’—तुम किससे बात कर रहे हो? जब तक तुम जानते हो कि परमात्मा दूसरा है, द्या है जिससे बात हो सकती है, वार्ता हो सकती है—तब तक तो तुम्हें परमात्मा का पता ही नहीं। परमात्मा द्या नहीं है—तुम्हारा होना है। तुम हो! अहं ब्रह्मास्मि!

तो जब ऐसा अनुभव होता है कि एक ही है, मैं और तू का विभाजन गिर गया—तब जो घटना घटती है, वह जो फूल खिलता है, वह है एकाकी, अलोननेस! तब वहा दूसरे की गैर—मौजूदगी नहीं खलती; वहां अपनी मौजूदगी में रस आता है। अपनी मौजूदगी में उत्सव होता है। तुम कुछ बोलते ही नहीं—बोलने को कौन बचा? किससे बोलना है? कौन बोले? सब बोल खो जाता है। अबोल हो जाते हो।

तुमने ऐसे वचन सुने होंगे जिनमें कहा गया है कि प्रभु की कृपा हो जाये तो जो बोलते नहीं वे बोलने लगते हैं और जो लंगड़े हैं वे दौड़ने लगते हैं। हालत बिलकुल उलटी है। अष्टावक्र से पूछो, अष्टावक्र कुछ और कहते हैं। अष्टावक्र का सूत्र तुम्हें याद है? कुछ ही दिन पहले हम पढ़ रहे थे। सूत्र है कि जो पहुंच जाता है तो बोलने वाला भी चुप हो जाता है और चलने वाला भी गिर पड़ता है। जो बड़ा उद्यमी था, महाआलसी हो जाता है। आलस्य शिरोमणि! सब दौड़— धाप गई! दौड़ना कहां! जाना कहां! हैं वहीं! वहीं हैं। तो कोई चंचलता न रही। बोलना किससे है! कहना किससे है!

प्रार्थना तभी है—जब कहने को कुछ भी न बचा, कहने वाला न बचा, जिससे कहना था वह भी न बचा। उस मौन के क्षण का नाम है प्रार्थना। बोलकर प्रार्थना को खराब मत कर लेना। कुछ कह कर बात बिगाड़ मत लेना। कुछ कहा कि चूके, क्योंकि कहने में तुमने मान ही लिया कि दो हैं, कि तू है पतितपावन और हम हैं पापी। तुम्हारे भीतर वही बैठा है जिसको तुम पापी कह रहे हो; वही, जिसको तुम पतितपावन कह रहे हो! यह विभाजन तुमने जो खड़ा कर लिया है कि तू ऊपर और हम नीचे; और तू महान और हम क्षुद्र—तुम किसको क्षुद्र कह रहे हो? वही तुम्हारे भीतर, वही तुम्हारे बाहर। एक का ही वास है। एक का ही विस्तार है। इस एक के विस्तार की जब गहन प्रतीति होती है तो एकाकी रमण!

इसका यह मतलब मत समझना कि तुमको हिमालय की गुफा ही में बैठे रहना पड़ेगा। अब तुम जहां भी रहो, तुम एक की गुफा में बैठ गये, अब तुम जहां भी रहो, तुम एकाकी हो! तुम भीड़ में जाओ तो, बाजार में जाओ तो, स्वात में जाओ तो—वही है! एक ही सागर की लहरें हैं, तुम भी उसमें एक लहर हो।

‘जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है……।’

अब खयाल रखना—सदा एकाकी रमण! तुम अगर गुफा में बैठे हो तो सदा तो एकाकी हो ही नहीं सकते। गांव से कोई भोजन तो लायेगा तुम्हारे लिए? तब उतनी देर को तुम एकाकी न रह जाओगे। और कोई कौआ आ कर बैठ गया है गुफा पर और कांव—कांव करने लगा है तो तुम एकाकी नहीं रह गये। अब कौओं का क्या करो! कौए कोई बहुत आध्यात्मिक तो हैं नहीं। संत—पुरुषों का समादर करते हों, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। संत— असंत में भेद करते हों, ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता है। कौए परमज्ञानी हैं; भेद करते ही नहीं, परमहंस की अवस्था में हैं। वे यह थोड़े ही देखेंगे कि आप बड़ा ध्यान कर रहे हैं, माला जप रहे हैं। इसकी जरा भी चिंता न करेंगे। कोई कुत्ता आकर और गुफा में विश्राम करने लगा तो क्या करोगे? अकेले न रहे। अकेले सदा तो कैसे रहोगे? सदा तो अकेले तभी रह सकते हो जब अकेलापन उस परम एकाकी से जुड़ जाये। फिर तुम कहीं भी रहो, कैसे भी रहो—कौआ आये तो भी तुम्हारा ही स्वभाव है और कुत्ता आये तो भी तुम्हारा ही स्वभाव है; कोई न आये तो भी वह मौजूद है, कोई आये तो भी वह मौजूद है, कोई न हो तो अरूप की तरह मौजूद है, कोई हो तो रूप की तरह मौजूद है—मगर हर हालत में एक ही मौजूद है। बाहर— भीतर, ऊपर—नीचे, सब आयामों में, दसों दिशाओं में, एक की ही गज चल रही है!

‘… और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान का और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है।’ ज्ञान फल है; कासिक्वेंस; परिणाम। तो तुम शास्त्र को कितना ही पढ़ लो, इकट्ठा कर लो—ज्ञान न हो जायेगा। खुद के पन्ने उलटो! जरा भीतर चलो। खुद की किताब खोलो। इसको तो कब से बांध कर रखा है, खोला ही नहीं तुमने। जन्म—जन्म हो गये, यह किताब तुम लिए चलते हो, लेकिन कभी खोला नहीं तुमने। तुम दूसरों से पूछते फिर रहे हो कि मैं कौन हूं! तुम हो और तुम्हें पता नहीं, तो दूसरे को क्या खाक पता होगा! तुम्हीं को पता नहीं चल रहा है कि तुम कौन हो, तो दूसरा क्या उत्तर देगा! तुम तो निकटतम हो अपने अस्तित्व के, तुम्हीं चूके जा रहे हो, तो किसी और को तो कैसे पता होगा! दूसरा तो तुम्हें बाहर से देखेगा। भीतर से तो बस अकेले तुम्हीं समर्थ हो तुमको देखने में, कोई दूसरा नहीं। दूसरा तो तुम्हें दृश्य की तरह देखेगा; द्रष्टा की तरह देखने में तो तुम अकेले ही समर्थ हो। और द्रष्टा ही तुम्हारा स्वभाव है।

तो पूछो : ‘मैं कौन हूं?’ यह एक ही बात ध्यान बन जाती है अगर तुम पूछते रहो : ‘मैं कौन हूं?’ और ऐसा भी नहीं है कि तुम इसको शब्द में ही पूछो कि मैं कौन हूं। आंख बंद करके यह भाव रहे कि मैं कौन हूं। इस अन्वेषण पर निकल जाओ। उतरो गहरे —गहरे और देखते चलो; जो —जो चीज तुम्हें दिखाई पड़े और लगे कि यह मैं नहीं हो सकता, उसको भूल जाओ—और गहरे उतरी।

सबसे पहले शरीर मिलेगा, लेकिन शरीर तुम नहीं हो सकते। हाथ कट जाता है तो भी तुम नहीं कटते, तुम्हारा होने का भाव पूरा का पूरा रहता है। तुम बच्चे थे, जवान हो, के हो गये, लेकिन तुम्हारे होने में कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारे होने का भाव ठीक वैसा का वैसा है। शरीर में झुर्रियां पड़ गईं, का हो गया, थक गया, डावाडोल होने लगा, अब गिरेगा तब गिरेगा; लेकिन भीतर, आंख बंद करते ही तुम्हारे चैतन्य में कोई झुर्रियां पड़ी? वह तो उतना ही ताजा है जैसा बचपन में था, वैसा का वैसा है। वहां तो कोई समय की रेखा नहीं पड़ी। समय ने वहा कोई चिह्न ही नहीं छोड़े। समय की छाया ही नहीं पड़ी। समयातीत, कालातीत! तुम वैसे के वैसे हो जैसे तुम आये थे। उसमें जरा भी भेद नहीं पड़ा। तुम शाश्वत हो।

शरीर तुम नहीं हो सकते। शरीर तो क्षणभंगुर है—बदल रहा, बदलता जा रहा, प्रतिपल बदल रहा है! शरीर तो नदी की धार है; घूमता हुआ चाक है। तुम तो ठहरी हुई कील हो।

और एक बात निश्चित है. जो भी हम दृश्य की भांति देख लेते हैं, हम उससे अलग हो गये। शरीर को तो तुम दृश्य की भांति देख लेते हो, तुम उससे अलग हो गये। तुम दर्पण के सामने खड़े होते हो, दर्पण में तुम्हारा दृश्य बनता है, तुम्हारा चित्र बनता है—क्या तुम यह कह सकते हो बस यही तुम हो, इससे ज्यादा नहीं? यह शरीर का चित्र बन रहा है, तुम्हारी चेतना का तो जरा भी नहीं बन रहा। ऐसा कोई दर्पण ही नहीं जिसमें चेतना का चित्र बन जाये। हो भी नहीं सकता ऐसा कोई दर्पण। शरीर सामने खड़ा है, शरीर का प्रतिबिंब दर्पण में खड़ा है; दोनों को देखने वाला दोनों से पार है। तुम शरीर को भी देख रहे हो झुक कर, तुम दर्पण में अपना प्रतिबिंब भी देख रहे हों—तुम कौन हो जो दोनों को देख रहा है? तुम भिन्न हो! तुम इससे अलग हो।

और थोड़े भीतर सरको, फिर विचारों की तरंगें हैं। उनको भी गौर से देखो। पूछो : ‘यह हूं मैं?’ विचार आया गया, एक आया, दूसरा आया, तीसरा आया, सतत श्रृंखला लगी है, धारा बही है—इनमें से कोई भी तुम नहीं हो सकते, क्योंकि तुम तो बने ही रहते हो। विचार आता है, जाता है—कभी सुंदर कभी असुंदर; कभी शुभ कभी अशुभ; कभी उठता है कि सारी दुनिया को प्रेम कर लूं और कभी उठता है कि सारी दुनिया को नष्ट कर दूं; कभी होता है मन करुणा का और कभी होता है मन क्रोध का; क्रोध का धुआं भी उठता है, करुणा की सुगंध भी उठती है—लेकिन तुम तो इन दोनों के पार खड़े देखते ही रहते हो। तुम तो साक्षी हो! नहीं, मन भी तुम नहीं।

और भीतर चलो! ऐसे चलते, चलते, चलते, एक घड़ी आती है जहां जो तुम नहीं हो वह छूट गया; अब वही बच रहता है जो तुम हो, जिसमें से अब कुछ भी इनकार नहीं किया जा सकता। नेति—नेति कहते—कहते —नहीं यह, नहीं यह—आ गये तुम अपने घर में भीतर! अब वही बचा जो अब तक कह रहा था : ‘नेति—नेति; नहीं यह, नहीं यह!’ यही तुम हो। कोई उत्तर नहीं मिल जायेगा लिखा हुआ। कहीं कोई भीतर नेमप्लेट रखी नहीं है, एक शिलापट्ट नहीं है कोई जिस पर लिखा है कि यह तुम हो। लेकिन अब तुम्हें अनुभव होगा। हो जायेगी वर्षा अनुभव की। अस्तित्व तुम्हें घेर लेगा। जीवन और चैतन्य दोनों की गहन प्रगाढ़ प्रतीति होगी, साक्षात्कार होगा।

और यही ज्ञान का फल है। इसके होते ही तुम्हारी इंद्रियां स्वच्छ हो जायेंगी। इसके होते ही जीवन तृप्त हो जायेगा। इसके होते ही तुम अकेले हो गये, मगर अकेलापन नहीं—एकाकी। एकाकी का पन, एकाकीपन। अब परमात्मा ही बचा!

तैर रहीं लहरें

डूब गया सागर

जाग उठे तारे

निंदियाया अंबर

पड़ी रही माटी

चली गई गागर

मुस्का दी बिजुरी

अंसुआया बादर।

मुंदे नयन—सपने

खुली दीठ दर्पण

फलित हुआ चिंतन

अंखुआया दर्शन।

मुंदे नयन—सपने,

खुली दीठ—दर्पण!

तुम अभी आंख बंद किए—किए जी रहे हो। तुम्हें बड़ी हैरानी होगी। तुम तो कहते हो, हम आंख खोल क्रुर जी रहे हैं। तुम्हारी बाहर आंख खुली है तो भीतर आंख बंद है। जिस दिन तुम बाहर से आंख बंद करोगे, भीतर आंख खुलेगी। इस उलटे गणित को खयाल में ले लेना। अगर बाहर ही आंख खुली रही तो भीतर आंख बंद है; भीतर तुम अंधे हो। थोड़ी बाहर आंख बंद करो तो दृष्टि भीतर मुड़े। वही दृष्टि जो बाहर संलग्न है, भीतर मुक्त हो जाती है। अभी तो भीतर सपने ही सपने हैं। अभी भीतर सच कुछ भी नहीं है।

मुंदे नयन—सपने!

यह जो बाहर खुली आंख है, भीतर तो आंख मुंदी है।

मुंदे नयन—सपने!

खुली दीठ—दर्पण।

जरा बाहर से आंख बंद करो ताकि भीतर आंख खुले। इस ऊर्जा को भीतर बहने दो। यह जो बाहर देखने का चाव है इसी चाव को जरा भीतर की तरफ मोड़ो; समझाओ —बुझाओ, फुसलाओ, राजी करो, कहो कि चल जरा भीतर भी देखें। बाहर बहुत देखा, आंखें थक गईं, पथरा गईं—कुछ मिलता तो नहीं। थोड़ा भीतर भी देखें, थोड़ा अपने भीतर भी देखें!

जिसे हम खोज रहे हैं, कौन जाने भीतर ही पड़ा हो! इसके पहले कि तुम सारी दुनिया में खोजने निकल जाओ, अपने घर में खोज लेना। क्योंकि दुनिया बहुत बड़ी है, खोजते —खोजते —खोजते कहीं न पहुंचोगे; कहीं ऐसा न हो कि अंत में पता चले, जिसे हम खोजने चले थे वह घर में ही पड़ा था। और ऐसा ही है। जिन्होंने भीतर खोजा उन्होंने पा लिया और जिन्होंने बाहर खोजा उन्होंने कभी नहीं पाया। निरपवाद रूप से जिन्होंने अब तक खोजा है, पाया है, वे भीतर के खोजी हैं। निरपवाद रूप से जिन्होंने खोजा बहुत और पाया कभी नहीं, वे बाहर के खोजी हैं।

पहली आषाढ़ की संध्या में

नीलाजन बादल बरस गये

फट गया गगन में नील मेघ

पथ की गगरी ज्यों फूट गई

बौछार ज्योति की बरस गई

झर गई बेल से किरण जुही

मधुमयी चांदनी फैल गई

किरणों के सागर बिखर गये।

जरा भीतर चलो—होती है अपूर्व वर्षा।

पहली आषाढ़ की संध्या में

नीलाजन बादल बरस गये

फट गया गगन में नील मेघ

पथ की गगरी ज्यों फूट गई

बौछार ज्योति की बरस गई

झर गई बेल से किरण जुही

मधुमयी चांदनी फैल गई

किरणों के सागर बिखर गये।

तुम्हारे भीतर, तुम्हारे ही भीतर तुम महासूर्यों को छिपाये चल रहे हो। जरा खोलो भीतर की गांठ, जरा भीतर की गठरी खोलो, जरा भीतर की गगरी फोड़ो—किरणे ही किरणें बरस जायेंगी! उन किरणों की वर्षा में ही स्वच्छ हो जाती हैं इंद्रियां। उन किरणों की वर्षा में ही तृप्त हो जाते हैं प्राण। मिल गया फल!

‘हत, तत्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद को नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्मांड—मंडल पूर्ण है।’

दत्तात्रेय के जीवन में उल्लेख है। भीख मांगने एक द्वार पर दस्तक दी। घर में कोई न था; एक क्‍वांरी लड़की थी। माता—पिता खेत पर काम करने गये थे। उस कन्या ने कहा ‘ आप आए हैं, माता—पिता यहां नहीं, आप दो क्षण रुक जायें तो मैं चावल कूट कर आपको दे दूं और तो घर में कुछ है नहीं। चावल कूट दूं? साफ—सुथरे कर दूं? और आपकी झोली भर दूं।’ तो दत्तात्रेय रुके। उस कन्या ने चावल कूटने शुरू किए तो उसके हाथ में बहुत चूड़ियां थीं, वे बजने लगीं। उसे बड़ा संकोच हुआ। यह शोरगुल, यह छन—छन की आवाज, साधु द्वार पर खडा—तो उसने एक—एक करके चूड़ियां उतार दीं। धीरे — धीरे आवाज कम होने लगी। दत्तात्रेय बड़े चौंके। आवाज धीरे— धीरे बिलकुल कम हो गई, क्योंकि एक ही चूड़ी हाथ पर रही। फिर जब वह उन्हें देने आई चावल तो उन्होंने पूछा कि एक बात पूछनी है : ‘पहले तूने चावल कूटने शुरू किए तो बड़ी आवाज थी, फिर धीरे— धीरे आवाज कम होती गई, हुआ क्या? फिर आवाज खो भी गई!’ तो उस लड़की ने कहा कि सोच कर कि आप द्वार पर खड़े हैं, आपकी शांति में कोई बाधा न पड़े, मुझे बड़ा संकोच हुआ, चूड़ियां हाथ में बहुत थीं तो आवाज होती थी, फिर एक—एक करके मैं निकालती गई। आवाज तो कम हुई, लेकिन रही। फिर जब एक ही चूड़ी बची तो सब आवाज खो गई।

तो दत्तात्रेय ने यह वचन कहा.

वासो बहूनां कलहो भवेद्वार्त्ता द्वयोरपि।

एकाकी विचरेद्विद्वान कुमार्या इव कंकण:।।

कहा कि जैसे कुंवारी लड़की के हाथ पर चूड़ियों का बहुत होना शोरगुल पैदा करता है, ऐसे ही जिसके चित्त में भीड़ है, बड़ी आवाज होती है। जैसे कुंवारी लड़की के हाथ पर एक ही चूड़ी रह गई और शोरगुल शांत हो गया, ऐसे ही जो अपने भीतर एक को उपलब्ध हो जाता है, भीड़ के पार, भीड़ जिसकी विसर्जित हो जाती है—वह भी ऐसी ही शांति को उपलब्ध हो जाता है।

कहा. ‘बेटी तूने अच्छा किया! मुझे बड़ा बोध हुआ।’

जिसे बोध की तलाश है, उसे कहीं से भी मिल जाता है। जिसे बोध की तलाश नहीं है, वह बुद्ध—वचनों को भी सुनता रहे, ठीक बुद्ध के सामने बैठा रहे, तो भी कुछ नहीं है। बांसुरी बजती रहती है, भैंस पगुराती रहती है; उसे कुछ मतलब नहीं है।

न कदाचिज्जगत्यस्मिस्तत्वज्ञो हत खिद्यति।

यत एकेन तेनेद पूर्ण ब्रह्मांडमंडलम्।।

(हत, शिष्य! तत्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद को नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्माड—मंडल पूर्ण है।’

यह वचन सीधा—सादा है, लेकिन बड़ा गहरा!

शायद तुमने ज्या पाल सार्त्र का प्रसिद्ध वचन सुना हो जिसमें सार्त्र कहता है।’दि अदर इज हेल।’ दूसरा नरक है। दूसरे के कारण नरक है। जहं। दूसरा है वहा कलह है। दूसरे की मौजूदगी ही कलह है। तो एक तो उपाय है, सस्ता उपाय, कि तुम दूसरे को छोड्कर भाग जाओ, लेकिन यह बड़ा सस्ता उपाय है, कहीं ज्यादा भाग न सकोगे!

मैंने सुना है एक आदमी भाग गया। वह जा कर बैठा एक झाडू के नीचे बड़ा निश्चित कि अब यहां पत्नी भी नहीं, बेटे भी नहीं, अब कोई सताने वाला नहीं, अब परम ध्यान करूंगा! एक कौए ने

आ कर बीट कर दी। वह खड़ा हो गया नाराजगी में। उसने कहा : ‘हद हो गई! घर—द्वार छोड़ कर आये, यह कौआ आ गया।’

दूसरा तो कहीं भी मौजूद हो जायेगा। जब तक कि दूसरे का भाव ही न मिट जाये, जब तक कि दूसरे में दूसरा दिखाई पड़ना ही बंद न हो जाये—तब तक नरक जारी रहेगा।

तुमने कभी खयाल किया, तुम अकेले बैठे हो अपने कमरे में —निश्चित भाव से, विश्राम की एक दशा में—अचानक किसी ने द्वार पर दस्तक दी, दस्तक होते ही तनाव पैदा हो जाता है। वह विश्राम गया। कोई मेहमान आ गये। अब तुम कहते जरूर हो कि देखकर आपको बड़े दर्शन हुए, बड़ा आनंद हुआ, गदगद हो गये! मगर तुम्हारे चेहरे से गदगदपन बिलकुल पता नहीं चलता, न तुम्हारी आंखों में कुछ स्वागत दिखाई पड़ता है। कहते हो लोकाचार के लिए। बिठा भी लेते हो।

मुल्ला नसरुद्दीन के घर ऐसे ही एक दिन एक मेहमान आ गये। बकवासी हैं। वे घंटों बकवास करते हैं। मुल्ला ऊबने लगा। कई तरह से बहाने किए कई दफा घड़ी देखी; मगर वे कुछ .’..! कई दफा जम्हाई ली। मगर जो दूसरों को उबाने में कुशल हो जाते हैं वे इन बातों की चिंता ही नहीं करते। वे तो प्राणपण से अपने कार्य में लगे रहते हैं। वह तो लगा ही रहा, लगा ही रहा। आखिर मुल्ला ने कहा कि अब रात हुई जा रही है, आपको घर पहुंचने में देर होगी। तो बड़ी मजबूरी में वह उठा। उसने कहा कि हौ, बात तो ठीक है, पत्नी भी राह देखती होगी, अब मैं चलूं। मुल्ला बड़े प्रसन्न हुए। वह उठा, दो कदम लिए, टेबल के पास पहुंच कर एक किताब उठाकर देखने लगा। मुल्ला ने कहा, फिर एक झंझट! किताब उलट—पुलट कर उसने वहां रखी किताब, फिर पैंतरा बदला और वापिस लौट आया और उसने कहा कि याद आता है कुछ कहना चाहता था! मुल्ला ने कहा. ‘शायद नमस्ते तो नहीं कहना चाहते?’

लोग हैं, जिन्हें इसकी जरा भी चिंता नहीं, जिन्हें इसका बोध ही नहीं कि कोई अकेला हो तो उसका अकेलापन मत छेड़ो, मत खराब करो। पूरब में तो यह धारणा ही नहीं है। पश्चिम में थोड़ा बोध पैदा हुआ है कि कोई अकेला हो तो उसका अकेलापन मत छेड़ो। यह अत्याचार है, अतिक्रमण है। यहां तो कोई इस बात का खयाल ही नहीं है।

क्यों किसी के अकेलेपन को खंडित करना अनाचार है, अनीति है? इसलिए कि अकेलेपन में ही थोड़ा विश्राम है। जैसे ही दूसरा आया कि विश्राम गया। जैसे ही दूसरा मौजूद हुआ कि दूसरे की मौजूदगी तनाव की तरंगें पैदा करने लगती है। तुम स्वस्थ नहीं रह जाते। तुम सरल नहीं रह जाते। कभी—कभी तुम्हारे बाथरूम में तुम थोड़े सरल होते हो—अकेले! लेकिन अगर तुम्हें पता चल जाये कि कोई कुंजी के छेद से झांक रहा है तो तत्‍क्षण सब सरलता खो जाती है। हो सकता है क्षण भर पहले तुम आईने में मुंह बिचका रहे थे और मजा ले रहे थे या कोई बचपन की धुन गुनगुना रहे थे; मगर पता चल जाये कि कोई, तुम्हारा बेटा ही, छोटा बेटा ही झांक रहा है कुंजी के छेद से, तो भी तुम रुक गये, तुम सरल न रहे, स्वाभाविक न रहे।

हमारे जीवन का अधिकतम तनाव यही है कि दूसरे की आंख हमें बेचैन कर देती है और दूसरे की आंख हमें मुखौटा ओढ़ने के लिए मजबूर कर देती है। तो जो हम नहीं हैं वह दिखलाना पड़ता है। जैसे हम नहीं हैं वैसा बतलाना पड़ता है। मुस्कुराहट नहीं आ रही है तो खींच—खींच कर लानी पड़ती

है। जो नहीं कहना है, कहना पड़ता है। जो भीतर की सरलता और सहजता है, उसे रोकना पड़ता है। और हम भीड़ में ही जीते हैं चौबीस घंटे, तो धीरे — धीरे हमें अपना वास्तविक चेहरा ही भूल जाता है; यही मुखौटे याद रह जाते हैं। दफ्तर जाओ तो मालिक के सामने एक मुखौटा ओढो।

तुमने खयाल किया कि जब तुम दफ्तर जाते हो और चपरासी को पार करते हो, तब तुम एक मुखौटा ओढ़े होते हो चपरासी के पास से गुजरते वक्त! और जब मालिक के कमरे में प्रवेश करते हो, तल्लण मुखौटा बदला! अब तो प्रक्रिया इतनी यंत्रवत हो गई है कि तुम्हें पता ही नहीं चलता; जैसे आदमी, होशियार ड्राइवर, गेयर बदलता है, कुछ पता नहीं चलता, बैठने वाले यात्री को भी पता नहीं चलता। तुम गेयर बदलते रहते हो। चेहरा बदल लिया। चपरासी के पास से ऐसे अकड़ कर निकले थे जैसे वह कोई तुच्छ कीड़ा—मकोडा है। तब एक चेहरा था। मालिक के सामने खुद ही कीड़े—मकोड़े हो गये, पूंछ हिलाने लगे। एकदम चेहरा बदल लिया।

मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक आदमी मिलने आया। नसरुद्दीन को पता नहीं, कौन हैं। तो उसने यह भी नहीं कहा कि बैठिए। हर किसी से तो कोई नहीं कह देता कि बैठिए। लोग तो हिसाब से चलते हैं। उस आदमी ने कहा, शायद आपको पता नहीं कि मैं कांग्रेस का नेता हूं एम. पी हूं। मुल्ला ने कहा : ‘अरे बैठिए, कुर्सी पर बैठिए।’ उठ कर खड़ा हो गया।’ आइये, बड़ी खुशी हुई!’ वह आदमी बोला कि आपको यह भी पता नहीं कि शीघ्र ही मैं कैबिनेट में लिया जाने वाला हूं। तो मुल्ला ने कहा. ‘अरे दो कुर्सी पर बैठिए! एक से कैसे काम चलेगा!’

आदमी को देख कर चौबीस घंटे हम चेहरे बदलते हैं। घर आये तो पत्नी को देख कर एक चेहरा, बेटै को देखकर एक चेहरा। इन सब चेहरों की भीड़ में हमें भूल ही जाता है कि असली चेहरा क्या है।

झेन फकीर अपने साधकों को कहते हैं. सबसे पहले अपना असली चेहरा खोजो, ओरिजिनल फेस! तब काम शुरू होगा। ये झूठे चेहरों से काम नहीं चलेगा, क्योंकि झूठे चेहरों से तुम परमात्मा तब नहीं पहुंच सकते हो। असली चेहरा खोजो। असली चेहरा—जो जन्म के पहले तुम्हारे पास था और मौत के बाद फिर तुम्हारे पास होगा! यह बीच की भीड़ हटाओ।

असली चेहरा! असली चेहरा तो सिर्फ ख्यात में ही खुलता है। लेकिन हम स्वात को बिलकुल भूल गये हैं और परम एकांत तो तभी उपलब्ध होता है जब हमें यह पता चल जाये कि एक ही है। फिर कोई चेहरा नहीं बदलना पड़ता। इसलिए संत पुरुष बालवत हो जाता है, छोटे बच्चे जैसा हो जाता है। यहां कोई दूसरा है ही नहीं, छिपाना किससे है! बचाना किससे है! धोखा किसको देना, कपट किससे करना! कूटनीति कैसी! राजनीति कैसी! यहां एक ही है।

यह तो ऐसे हुआ कि अपने बायें हाथ से दायें हाथ को कोई धोखा दे। ऐसे लोग भी हैं कि बायें हाथ से दायें हाथ को धोखा दे लें।

तुमने कभी किसी को ट्रेन में देखा। मैं अक्सर यात्रा करता था तो मुझे कई दफे ऐसा मौका आ जाता कि सज्जन अकेले ही ताश खेल रहे हैं, दोनों तरफ से चाल चल रहे हैं और इसमें भी सोच रहे हैं कि जीत—हार होगी। अब हद हो गई। अब तुम्हीं खेल रहे हो दोनों तरफ से, तुम्हें दोनों चालें पता हैं—तुम किसको धोखा दे रहे हो त्र: और बायां हाथ जीता कि दायां हाथ जीता, क्या फर्क पड़ेगा! कौन जीता, कौन हारा! लेकिन व्यस्त हैं।

जीवन हमारा एक प्रवंचना है। और प्रवंचना का मूल कारण यह है—अरे की मौजूदगी। अब दूसरे की मौजूदगी हटाने के दो उपाय हैं। सस्ता उपाय है कि तुम जंगल भाग जाओ, वह काम नहीं आता है। अष्टावक्र कहते हैं : एक गहरा उपाय है और वह है कि तुम अपने को पहचान लो और अपनी पहचान से तुम्हें पता चल जाये कि तुम्हीं सबके भीतर व्याप्त हो। एक ही है। यह मैं और तू में जो प्रगट हो रहा है, बायें—दायें हाथ की तरह है। ये एक ही अस्तित्व के दो पंख हैं। फिर कोई धोखा नहीं है। फिर तुम निर्दोष हो जाओगे।

‘हत, तत्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद को नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्मांड—मंडल पूर्ण है।’

फिर खेद कैसा! खेद है दूसरे से। दुख है दूसरे की मौजूदगी में; क्योंकि दूसरे की मौजूद्रगी हमें सीमित करती है, और दूसरे की मौजूदगी हमें झूठे व्यवहार के लिए मजबूर करती है, और दूसरे की मौजूदगी हमारी छाती पर पत्थर की तरह पड़ जाती है।

दूसरा है तो दुख है। अब दूसरे को कैसे मिटा दें! हम उपाय करते हैं जिंदगी में कई तरह से दूसरे को मिटाने के। तुम चाहे जान कर करते हो, चाहे अनजाने। तुमने देखा, पति चेष्टा करता है पत्नी को बिलकुल मिटा दे; उसका कोई अस्तित्व न रह जाये; दासी बना दे। पतियों ने समझाया है सदियों से कि हम परमेश्वर हैं, तुम दासी! पलिया भी कहती हैं कि ठीक। चिट्ठी वगैरह लिखती हैं तो उसमें लिखती हैं आपकी दासी। मगर उसका जो बदला लेती हैं, चौबीस घंटे पति को दिखलाती रहती हैं कि समझ लो कौन है दास! कि आप तो परमेश्वर हो, कहती यही हैं और खींचती रहती हैं टांग।

एक दिन मुल्ला और उसकी पत्नी में झगड़ा हो गया। भागी पत्नी मुल्ला के पीछे; जैसी उसकी आदत है मार दे, चीजें फेंक दे। तो वह घबड़ा कर जल्दी से बिस्तर के नीचे घुस गया। तो पत्नी ने कहा : ‘निकल बाहर, कायर कहीं का!’ मुल्ला ने कहा : ‘छोड़, कौन मुझे निकाल सकता है! इस घर का मालिक मैं हूं, जहां मर्जी होगी वहा बैठेंगे। देखें कौन मुझे निकालता है!’ पत्नी है जरा मोटी—तगड़ी, वह बिस्तर के नीचे घुस नहीं सकती।

पत्नी की पूरी चेष्टा है पति को मिटा दे। क्यों त्र’ यह चेष्टा क्यों है? इसके पीछे बड़ा गहरा कारण है। दूसरे की मौजूदगी खतरनाक है और दूसरा है तो डर है कि कहीं वह मालिक न हो जाये; इसके पहले कि वह मालिक हो जाये, उसे गुलाम बना दो, उसकी गर्दन दबा दो!

बच्चा तुम्हारे घर में पैदा होता है, कहते हो तुम बच्चे को तुम प्रेम करते हो; लेकिन मां —बाप दोनों मिल कर बच्चे को मिटाने में लग जाते हैं। जल्दी लीप—पोत कर इसको खत्म कर दो—इसके पहले कि यह उदघोषणा करे अपने स्वातंप्य की, अपनी स्वच्छंदता की! तुम कहते हो, हम प्रेम करते हैं; लेकिन तुम्हारे प्रेम में कुछ बहुत सचाई नहीं है। तुम प्रेम के नाम पर ही जहर पिलाते हो। पत्नी भी पति से कहती है कि हमें तुमसे प्रेम है। अगर प्रेम है तो मुक्त करो! प्रेम सदा मुक्त करता है। पति भी कहता है कि मुझे तुमसे प्रेम है। यह प्रेम तो लगता है कि ओट है, इस ओट में ही जहर का सारा खेल चलता है। यह तो ऐसा लगता है कि प्रेम की शक्कर में भीतर जहर छिपाया हुआ है। गटक जाओ प्रेम के नाम से और मरो! बच्चे को हम मार डालते हैं। बाप कोशिश करता है, मां कोशिश करती है, परिवार कोशिश करता है, कि बस बच्चे में कोई स्वतंत्रता न हो। इसलिए हम आज्ञाकारिता को बडा मूल्य देते हैं। आज्ञाकारिता का अर्थ. ‘तुम अपने जैसे मत होना; हम जैसे कहें वैसे होना!’ तुम्हारे बाप तुम्हें मार गये, तुम इनको मार डालना। ये अपने बेटों को मारेंगे। ऐसे सदियां—सदियां, पीढ़ियां एक—दूसरे को मारती चली जाती हैं और आदमी बिलकुल मुर्दा है। पीछा ही नहीं छूटता।

अगर तुम्हें बच्चे से प्रेम है, सच में प्रेम है, तो तुम बच्चे को स्वीकार करोगे कि तेरी स्वतंत्रता स्वीकार है, अंगीकार है। और यह अन्याय तुम न करोगे क्योंकि तुम जरा ताकतवर हो तो इसकी गर्दन घोट दो।

खलील जिब्रान ने कहा है. प्रेम देना, मगर अपने सिद्धात मत देना। प्रेम देना, मगर अपना शास्त्र मत देना। प्रेम करना, लेकिन स्वतंत्रता मत छीन लेना। क्योंकि स्वतंत्रता छीन ली तो प्रेम हो ही नहीं सकता। प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम का सबूत ही एक है स्वतंत्रता। प्रेम दूसरे को स्वीकार करता है अपने ही जैसा। प्रेम दूसरे में अपने को ही देखता है।

अपने को तो तुम सदा स्वतंत्र देखना चाहते हो या नहीं? अपने को तो तुम चाहते हो परम स्वातंन्य मिले। तो जिससे तुम्हारा प्रेम है उसको भी तुम परम स्वतंत्रता देना चाहोगे। मगर हम हजार तरह से मिटाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हम डरे हुए हैं। इसके पहले कि हमने अगर न मिटाया, कहीं दूसरा हमें न मिटाने लगे! कहीं दूसरा हमारी छाती पर सवार न हो जाये!

हम कैप रहे हैं। हमारे कंपन का कारण क्या है? क्योंकि दूसरा है। और दूसरे को मिटाने का एक उपाय तो यह है कि दूसरे की गर्दन दबा दो। एक तो उपाय हिटलर का है कि मार डालो दूसरे को, मिटा दो बिलकुल, हत्या कर दो, न रहेगा दूसरा, न दूसरे की कोई अड़चन रहेगी। एक उपाय बुद्ध का है कि दूसरे में झांक कर देख लो और अपने को ही पा लो। न तो मिटाना पड़ता है, न हिंसा करनी पड़ती है, न विध्वंस करना पड़ता है। दूसरे में अपनी ही झलक मिल जाती है। फिर दूसरा नहीं रह गया। और जिसके जीवन में दूसरा नहीं रहा—अष्टावक्र कहते हैं—उसके जीवन में खेद नहीं रहा, उसके जीवन में कोई दुख न रहा।

अगर तुम इस एक की हवा को थोड़ा चलने दो, तुम्हारे जीवन में वसंत आ जाये, तुम्हारे जीवन में बड़ी सुरभि आ जाये!

चल पड़ी चुपचाप

सन सन सन हुआ

डालियों को यों

चितानी—सी लगी

आंख की कलियां

अरी खोलो जरा

हिल स्व—पत्तियों को

जगानी—सी लगी

पत्तियों की चुटकियां

झट दीं बजा

डालियां कुछ

ढुलमुलाने—सी लगीं

किस परम आनंद

निधि के चरण पर

विश्व सांसें, गीत

गाने—सी लगीं

जग उठा

तरु—वृंद जग

सुन घोषणा

पंछियों में चहचहाहट

मच गई

वायु का झोंका

जहां आया वहां

विश्व में क्यों

सनसनाहट मच गई!

जैसे सुबह हवा आती है, फूलों को जगा देती है, पत्तियों को छेड़ देती है, हजार गीत उठा देती है, सोयेपन को गिरा देती है, सपने बिखेर देती है—एक जाग आ जाती है सारे जगत में! ठीक ऐसी ही, अगर तुम एक को देख लो तो तुम्हारे जीवन में एक अपूर्व गंध उठेगी, एक अपूर्व पवन आ जायेगा! तुम्हारी गंदगी, तुम्हारी बंधी हुई हवा, सड़ी हुई हवा से छुटकारा हो जायेगा। तुम्हारी सीमा गई। जहां तुमने एक को देखा, असीम आने लगा, असीम की लहरें आने लगीं। उन असीम की लहरों में ही सुख है, शांति है, चैन है।

चिति क्षिति है अद्वैत

द्वैत में केवल उनका दर्शन

रूप—अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी

बंधा बिंब से दर्पण

अचिर भूत में

व्यक्त भूति में

चिर अवधूत निरंजन

शब्द—मुक्त पर शब्द—युक्त है

चिंत्य अचिंत्य चिरंतन

सत्य शिवम् है

सत्य सुंदरम्

संज्ञा स्वयं विशेषण

व्यर्थ व्याकरण

नीत शांत का

क्या होगा संबोधन

अचिर भूत में,

व्यक्त भूति में,

चिर अवधूत निरंजन!

एक ही छिपा है!

रूप— अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी

बंधा बिंब से दर्पण!

हम और तुम ऐसे बंधे हैं जैसे बिंब का दर्पण, दर्पण का बिंब। तुम खड़े हो जाते हो दर्पण के सामने, तुम अलग दिखाई पड़ते हो, दर्पण में बनता प्रतिबिंब अलग दिखाई पड़ता है, तुम हट जाओ, प्रतिबिंब हट गया! तुम और तुम्हारा प्रतिबिंब दो नहीं हैं; एक ही है।

रूप— अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी

बंधा बिंब से दर्पण!

जैसे तुम्हारा प्रतिबिंब तुमसे बंधा है, ऐसे ही परमात्मा संसार से बंधा है; देह आत्मा से बंधी है; मैं तू से बंधा है। यहां जहां तुम्हें द्वैत दिखाई पड़ रहा है—रात दिन से बंधी है, जीवन मौत से बंधा है। यहां सब बंधा है, इकट्ठा है। थोड़े गौर से देखोगे तो तुम एक को ही पाओगे। उस एक को पा लेने वाला व्यक्ति ही खेद के बाहर हो जाता है।

‘जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते नहीं हर्षित करते हैं, वैसे ही ये कोई भी विषय आत्मा में रमण करने वाले को कभी नहीं हर्षित करते हैं।’

न जातु विषया: केऽपि स्वारामं हर्षयत्त्वमी।

सल्लकी पल्लव प्रीतमिवेम निम्बपल्लवा:।।

जैसे सल्लकी के मीठे पत्तों को हाथी ने चबा लिया हो तो अब तुम लाख उपाय करो, तुम नीम के कड़वे पत्ते चबाने को उसे राजी न कर सकोगे। जिसने स्वाद ले लिया ऊपर का वह नीचे से फिर राजी नहीं होता। जिसने थोड़ा राम का रस ले लिया, काम में उसे रस नहीं आता। जिसे थोड़ी समाधि की झलक मिलने लगी, संभोग व्यर्थ होने लगता है। जिसे थोड़ी ध्यान की हवा आने लगी, धन की पकड़ छूटने लगती है। लेकिन खयाल रखना, विराट पहले आता है, क्षुद्र पीछे जाता है।

‘जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते नहीं हर्षित करते..।’

अब हमारी हालत उलटी हो गई है। तुम्हारे तथाकथित साधु —महात्मा तुम्हें समझाते हैं : छोड़ो संसार को अगर परमात्मा को पाना है। मैं तुमसे कहता हूं. परमात्मा को पाओ अगर संसार को छोड़ना है। फर्क ठीक से समझ लेना। तुमसे कहा जाता है कि व्यर्थ को छोड़ो अगर सार्थक को पाना है। मैं तुमसे कहता हूं. सार्थक का थोड़ा अनुभव करो अगर व्यर्थ को छोड़ना है। व्यर्थ को छोड़ने को तुम्हें राजी किया ही नहीं जा सकता। जिसने सिर्फ नीम के पत्ते ही चखे हों और सल्लकी के स्वादिष्ट पत्तों का जिसे कुछ पता न हो, उससे तुम लाख कहो, उसे भरोसा नहीं आता। उसने तो एक ही स्वाद जाना है; दूसरा हो भी सकता है, यह बात मन में बैठती ही नहीं, श्रद्धा नहीं उपजती। तुम कितना ही कहो,

उसे ऐसा ही लगता है कि ‘लगता है तुम्हारी नीम के पत्तों पर नजर है, मुझसे छीन कर तुम कब्जा कर लोगे या कुछ. क्या इरादा है तुम्हारा भगवान जाने! क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’ और अगर वह छोड़ भी दे नीम के पत्ते, तो भी नीम के पत्तों की जो उसकी आदत पड़ गई है, कड़वेपन का जो अभ्यास हो गया वह इतनी आसानी से न छूट जायेगा। नीम के पत्ते छोड़ भी देगा तो रात सपने में नीम के पत्ते ही खायेगा, विचार में नीम के पत्ते छाया डालेंगे, बच न सकेगा। ऊपर—ऊपर से भागा रहेगा तो भीतर— भीतर से जुड़ा रहेगा। नहीं, क्रांति ऐसे नहीं घटती।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं ‘हम तो भोगी हैं। हम कैसे संन्यास में उतरें?’ मैं उनसे कहता हूं. तुम फिक्र छोड़ो, भोग तुम जानो। तुम संन्यास में उतरो, संन्यास में अगर स्वाद लग जायेगा, अगर सल्लकी के पत्तों में रस आने लगा तो फिर तुम सोच लेना। फिर नीम के पत्ते तुम्हें छोड़ने या नहीं छोड़ने, वह भी तुम जानो; मैं क्यों तुम्हारी पंचायत में पडूं! तुम्हें नीम के पत्ते छोड़ने चाहिए यह भी मैं क्यों कहूं! अगर सल्लकी के पत्तों का स्वाद छुड़ा दे तो ठीक, अगर न छुड़ाये तो ठीकै। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। जैसे ही तुम्हें स्वादिष्ट का अनुभव हो जाता है वैसे ही कड़वे को तुम छोड़ने लगते हो। मैं तुम्हारी झोली हीरे—मोतियों से भर देना चाहता हूं। मैं यह नहीं कहता कि तुम्हारी झोली में तुम जो कंकड़—पत्थर सम्हाले हो, उनको फेंको। तुम खुद ही फेंकने लगोगे। एक बार तुम्हें दिखाई भर पड़ जायें हीरे —जवाहरात, तुम एकदम झोली खाली कर दोगे; क्योंकि वही जगह तो फिर हीरे—जवाहरात से भरनी होगी। तुम कंकड़—पत्थर पकड़े बैठे न रहोगे।

परमात्मा को पहले पुकारो—संसार अपने से चला जाता है। उसकी तुम चिंता ही न लो। संसार को छोड़ने में लगे तो बड़ी झंझट में पड़ जाओगे। सुख तो मिलेगा ही नहीं; वह जो दुख मिल रहा था, वह भी न मिलेगा। और ध्यान रखना, आदमी खाली रहने से दुखी रहना पसंद करता है। यह तुम्हें बहुत हैरानी का लगेगा, लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान की गहरी निष्पत्तियों में एक निष्पत्ति यह भी है कि आदमी खाली होने की बजाय दुखी होना पसंद करता है, कम से कम कुछ तो है। कुछ तो है, भरे तो हैं—दुख से सही!

तुमने कभी खयाल किया, अगर जीवन में कोई समस्या न हो तो तुम बड़े उदास होने लगते हो। तुम कोई समस्या पैदा कर लेते हो। समस्या पैदा हो जाती है तो तुम उलझ जाते हो; कुछ काम मालूम पड़ता है, व्यस्तता मालूम पड़ती है। लगे तो हो! खाली बैठे आदमी घबड़ाने लगता है—कुछ भी नहीं! कुछ भी नहीं हो तो ऐसा लगने लगता है. मैं भी कुछ नहीं! करने से, कृत्य से अपनी कुछ परिभाषा बनती है, अपना कुछ व्यक्तित्व निर्मित होता है। चलो यह हर्जा नहीं, अस्पताल में पड़े हैं, बीमार हैं, दुखी हैं, पागल हैं—मगर कुछ तो हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि खालीपन की बजाय आदमी पागलपन पसंद कर लेता है, क्योंकि पागलपन में आखिर कुछ तो रूपरेखा है, सब खो तो नहीं गया। लोग इतना तो कहते हैं कि यह आदमी पागल है। पागलखाने में तो हैं। डाक्टर आकर फिक्र तो करता है। मित्र आकर संवेदना तो बतलाते हैं। लोग बात तो गौर से सुनते हैं। कुछ भी नहीं, ना—कुछ, शून्यवत—स्थिति बहुत घबडाती है! प्राण बहुत तड़पते हैं।

मैं इसलिए तुमसे कहता हूं : दुख तुम छोड़ न सकोगे, जब तक तुम्हें सुख का स्वाद न लग जाये।

सुख का स्वाद न लगा तो मैं तुमसे दुख छीनना भी नहीं चाहता, क्योंकि दुख तुम्हारी संपदा है अभी। अभी उसको छाती से लगाये तुम बैठे हो। अभी कुछ तो है, तुम एकदम खाली तो नहीं। तुम एकदम शून्य में तो नहीं पड़ गये, रिक्त तो नहीं हो गये हो। चलो धन सही, मकान सही, परिवार सही—कुछ तो पकड़े बैठे हो! हाथ में कुछ तो है। राख ही सही—तुम चाहे उसको विभूति कहो—राख ही सही, विभूति कह लो उसको, अच्छे नाम रख लो उसके, मगर हाथ में कुछ तो है! नाव कागज की सही, मगर नाव तो है; नाव जैसी तो लगती है कम से कम! डूबेगी तब डूबेगी, मगर अभी तो नाव का भरोसा है। सपना सही, जब टूटेगा तब टूटेगा; मगर अभी तो सहारा है, अभी तो इसके सहारे को पकड़ कर तैरे चले जाते हैं। अभी तो मत छीनो।

जब तक तुम्हें सत्य न मिल जाये, सपना तुमसे छीना भी नहीं जाना चाहिए। और परम ज्ञानी सदा यही चेष्टा करते रहे हैं : सत्य पहले, फिर असत्य अपने से चला जायेगा।

ऐसा समझो कि कमरे में अंधेरा है। एक तो उपाय है कि अंधेरे को धक्के दे —दे कर निकालो तुम, पगला जाओगे, निकलेगा न अंधेरा। दूसरा उपाय है. दीया लाओ, जलाओ रोशनी, अंधेरा अपने से निकल जाता है।

‘जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं होता है और अनभोगे भोगों के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।’

दुनिया में दो चीजें आदमी को पकड़े हुए हैं—एक तो भोगे हुए भोग। जो तुमने भोग लिया उसका स्वाद लग जाता है। जो तुमने भोग लिया उसकी पुनरुक्ति करने की आकांक्षा पैदा होती है—फिर मिले सुख, फिर मिले सुख, फिर से ऐसा हो! तो एक तो भोगा हुआ सुख पकड़ता है। भोगा हुआ सुख यानी अतीत। और एक अनभोगे सुख की आकांक्षा पकड़े रहती है। अनभोगा सुख यानी भविष्य। जो भोग लिया उसकी पुनरुक्ति चाहता है मन और जो अभी भोगा नहीं वह भी भोगने को मिले; इसकी वासना है। इन दो के बीच आदमी पिसता है। दो पाटन के बीच—यें दो पाट हैं—साबित बचा न कोय! एक तो जो भोग लिया है, वह बार—बार पीछा करता है कि फिर भोगो। और एक जो अभी नहीं भोग पाये, उसकी प्रबल आकांक्षा है कि मरने के पहले एक बार भोग लें।

‘जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं और अनभोगे भोगों के प्रति निराकाक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।’

यक्ष भोगेगु भुक्तेगु न भवत्यधिवासित।

अभुक्तेगु निराकांक्षी तादृशो भव दुर्लभ:।।

ऐसा मनुष्य संसार में खोजना बहुत दुर्लभ है जो दोनों पाटों से बच गया हो। और जो बच गया, उसने ही जीवन का सत्य जाना, उसने ही ज्ञान का फल चखा।

तो अतीत से छूटी, अतीत को समझो। जो भोग लिया, उसकी पुनरुक्ति में कुछ सार नहीं। क्योंकि भोग लिया, तब क्या मिला? भोग तो चुके, फिर कुछ मिला तो नहीं; हाथ तो खाली के खाली रहे। अब फिर उसी को भोगना चाहते हो! यह तो बड़ी बेहोशी है। और भोगने से. कुछ नहीं मिला। जो आज भोगा हुआ हो गया है, वह भी कल अनभोगा हुआ था—उसको भोग कर देख लिया, कुछ नहीं पाया। अब दूसरे अनभोगे सुख के पीछे भाग रहे हो! बड़ा मकान बना लिया, अब उसमें कुछ सुख नहीं पा रहे हो, अब और बड़े मकान की सोच रहे हो!

मैंने सुना कि मुल्ला नसरुद्दीन एक सम्राट के घर नौकरी पर था। कमरा साफ कर रहा था सम्राट का। उसकी सुंदर शैया देखकर कई दफे मन लुभा जाता था उसका, कि एक दफा तो लेटकर देख लें! कैसा मजा सम्राट न लेता होगा! ऐसी गुदगुदी थी, मखमली थी, बहुमूल्य थी! सोने—चांदी से जड़ी थी! हीरे—जवाहरात लटके थे चारों तरफ। और उस दिन सम्राट दरबार में व्यस्त था तो उसने सोचा कि एक पांच मिनट लेट लें। लेट गया। लेटा तो झपकी लग गई। सम्राट आया कमरे में तो उसे बिस्तर पर लेटे देखा तो वह बहुत नाराज हुआ। उसे पचास कोड़े मारने का हुक्म दिया गया। कोड़े पड़ने लगे। हर कोड़े पर मुल्ला खूब जोर से खिलखिला कर हंसने लगा।

सम्राट बड़ा हैरान हुआ कि यह पागल है या क्या मामला है! होना चाहिए पागल। एक तो बिस्तर पर लेटा, जानते हुए कि यह अपराध है; और अब हंस रहा है! कोड़े पड़ने लगे और खून की धारें बहने लगीं, चमड़ी उखड़ने लगी और वह खिलखिला कर हंस रहा है! आखिर सम्राट ने पूछा कि ‘रुको, मामला क्या है? कोड़े पड़ते हैं, तू हंसता क्यों है?’

उसने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं तो मुश्किल से पंद्रह मिनिट सोया, आपकी क्या गति होगी! पंद्रह मिनिट में पचास कोड़े! हिसाब तो लगाओ, मैं वही हिसाब लगा रहा हूं भीतर कि इस बेचारे की तो सोचो, आखिर में इसकी क्या गति होगी!

तुम जो सुख भोग लिए हो उनमें से कुछ पाया नहीं—सिवाय दुख के! जरा लौट कर देखो, तुम्हारे अतीत के चिह्नों को जरा गौर से देखो। घाव ही घाव हैं, पाया क्या? रस की आकांक्षा की थी, मिला कहां? अंगारे मिले! जल गये हो जगह—जगह, सारे प्राण जले पड़े हैं, छिदे पड़े हैं—और अब तुम उन भोगों की भी आकांक्षा कर रहे हो जो अभी नहीं भोगे। उनको तो देखो जो भोग रहे हैं! तुम उनको देखकर जरा चौंको, जागो। क्योंकि ऐसा तो कभी नहीं होगा कि कुछ अनभोगा न बचे। अगर तुम यह सोचते हो कि सब भोग लेंगे, सब, तभी जागेंगे तो तुम कभी नहीं जागोगे। क्योंकि जगत तो अनंत है। यहां तो ऐसा कभी नहीं हो सकता कि तुम कह सको : सब भोग लिए! थोड़ी तो बुद्धि का उपयोग करना होगा। थोड़ा विचार, थोड़ा ध्यान, थोड़ा देखना सीखना होगा!

‘इस संसार में भोग की इच्छा रखने वाले और मोक्ष की इच्छा रखने वाले दोनों देखे जाते हैं। लेकिन भोग और मोक्ष दोनों के प्रति निराकांक्षी कोई विरला महाशय ही है!’

मेरे साथ अत्याचार!

प्यालियां अगणित रसों की सामने रख राह रोकी,

पहुंचने दी अधर तक बस आंसुओ की धार।

मेरे साथ अत्याचार!

हर आदमी यही कह रहा है कि मेरे साथ अत्याचार हो रहा है। इतने रस पड़े हैं और मुझे भोगने का मौका नहीं। इतने रस पड़े हैं और हर जगह दीवाल खड़ी है। और संतरी खड़े हैं, पहरा लगा है। हर जगह रुकांवट है।

मेरे साथ अत्याचार!

प्यालियां अगणित रसों की सामने रख राह रोकी,

पहुंचने दी अधर तक बस आंसुओ की धार।

मेरे साथ अत्याचार!

नहीं, कोई तुम्हारे साथ अत्याचार नहीं कर रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि प्यालियों को तुम तक कोई नहीं पहुंचने देता। हर रस की प्याली पहुंचते—पहुंचते आंसुओ की धार हो जाती है। कोई कर नहीं रहा है। असल में प्यालियों में आंसू ही भरे हैं। दूर से तुम्हारी वासना के कारण रसधार मालूम पड़ती है। जब पास आते हो, अनुभव में उतरते हो, तो सब आंसू हो जाते हैं। अपने जीवन को जरा देखो, तलाशो। तुम आंसुओ की धार ही धार पाओगे। और किसी ने कोई अत्याचार नहीं किया; किया है तो तुमने ही किया है।

उस दिन सपनों की झांकी में

मैं क्षण भर को मुस्काया था

मत टूटो अब तुम युग—युग

तक हे खारे आंसू की लड़ियो!

बदला ले लो सुख की घड़ियो!

मैं कंचन की जंजीर पहन

क्षण भर सपने में नाचा था

अधिकार सदा को तुम जकड़ो

मुझको लोहे की हथकडियो!

बदला ले लो सुख की घडियो!

एक—एक छोटा—छोटा सुख कितने गहन दुख में उतार जाता है। जरा—जरा सा स्वर्ग कितने नरक दे जाता है।

उस दिन सपनों की झांकी में

मैं क्षण भर को मुस्काया था

सपनों की झांकी में!

मैं क्षण भर को मुस्काया था

मत टूटो अब तुम युग युग तक

हे खारे आंसू की लड़ियो!

बदला ले लो सुख की घड़ियो!

एक—एक सुख गहन बदला लेता मालूम पड़ता है। एक—एक सुख जब टूटता है तो गहरा विषाद

छोड़ जाता है।

मैं कंचन की जंजीर पहन

क्षण भर सपने में नाचा था

अधिकार सदा को तुम जकड़ो

मुझको लोहे की हथकडियो!

बदला ले लो सुख की घडियो!

तुमने जो—जो सुख सोचा, वही—वही तुमसे बदला ले रहा है। तुमने जो—जो चाहा, मिल गया। मिल गया तो दुख है, नहीं मिला तो दुख है। तुमने चाहा तो बस दुख ही चाहा। मिले तो दुख, न मिले तो दुख। तुम अमीर हो जाओ तो दुखी रहोगे। अमीरों को देख लो! तुम गरीब रह जाओ तो दुखी होओगे। तुम कुंवारे रह जाओ तो दुखी होओगे, तुम विवाहित हो जाओ तो दुखी होओगे। तुम विवाहितों को देख लो! जीवन में तुम जरा हारे हुओं को देखो, जीते हुओं को देखो—सबको दुखी पाते हो। अगर तुमने कभी किसी आदमी को सुखी पाया होगा तो वह वही आदमी है जो हार—जीत दोनों को छोड़ कर अलग खड़ा हो गया; जो द्रष्टा और साक्षी हो गया। न तो हारने वाले सुखी हैं, न जीतने वाले सुखी हैं—दोनों के पार जो अतिक्रमण कर जाता, वही सुखी है.।

बुभुक्षरिह संसारे मुमुसुरपि दृश्यते।

भोगमोक्ष निराकांक्षी विरलो हि महाशय:।

ऐसा कोई विरला ही महाशय है! यह ‘महाशय’ शब्द बड़ा प्यारा है। हमें इसके साथ—साथ एक और शब्द बना लेना चाहिए : क्षुद्राशय। अगर तुम्हारे मन में कोई वासना है तो तुम क्षुद्राशय हो गये; क्योंकि तुम्हारी वासना तुम्हें संकीर्ण कर देती है, तुम्हारा आशय छोटा हो गया, क्षुद्र आशय हो गये। जिसने धन चाहा, वह छोटा हो गया। उसकी चाह ही तो उसकी परिभाषा होगी। उसको तुम कैसे याद करोगे? ऐसे याद करोगे न—धनाकांक्षी! उसकी आकांक्षा धन की है, वह धन से भी छोटा हो गया। धन तो है ठीकरा, वह ठीकरे से गया—बीता हो गया। ठीकरों से गया—बीता ही तो ठीकरों को चाहेगा! किसी ने कुर्सी चाही, वह कुर्सी से छोटा हो गया। क्षुद्राशय! कुर्सी ही चाही न, तो कुर्सी से छोटा ही होगा, तो ही चाहेगा।

मनस्विद कहते हैं : पदाकांक्षी हीन—ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। सभी राजनीतिज्ञ हीन—ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। कभी अच्छी दुनिया होगी तो राजनीतिज्ञ राजधानियों में नहीं होंगे, पागलखानों में होंगे। उनका इलाज होगा। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर पागल पागलखानों से छोड़ दिए जायें और राजनीतिज्ञ पागलखानों में रख दिए जायें, दुनिया बेहतर हो। क्योंकि किन्हीं पागलों ने इतना भयंकर नुकसान कभी नहीं किया; कोई पागल इतना पागल नहीं है जितना पदाकांक्षी पागल होता है।

मनस्विद कहते हैं : जितनी ही भीतर हीनता की ग्रंथि होती है, जितना ही इनफीरियारिटी काफ्लेक्स होता है, जैसे ही लगता है कि मैं कुछ भी नहीं, उतना ही आदमी कम्पंसेट करना चाहता है, उतना ही आदमी जोर से दावा करना चाहता कि मैं यह, मैं यह! राष्ट्रपति! प्रधानमंत्री! मंत्री! कुछ न कुछ! गवर्नर! कुछ न कुछ मैं हूं! यह दावा करना चाहता है। यह दावा जब तक वह कर न ले, तब तक उसे चैन नहीं मिलता; उसकी हीन—ग्रंथि उसको कीड़े की तरह काटती रहती है। क्षुद्राशय!

महाशय कौन है? महाशय वही है जिसके जीवन में कोई ऐसी वासना नहीं है जो संकीर्ण कर दे; जो सभी आयामों में खुला है! महा— आशय : जिसका आशय महान है! और तुम चकित होओगे, अष्टावक्र कहते हैं : मोक्ष को भी चाहा तो भी क्षुद्राशय हो गये, क्योंकि मोक्ष की चाह भी तो चाह ही है। धन से बड़ी, माना; पद से बड़ी, माना—लेकिन मोक्ष की चाह भी आखिर चाह है। अचाह ही तुम्हें महाशय बनायेगी।

‘कोई उदारचित्त ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मृत्यु के प्रति हेय और उपादेय का भाव नहीं रखता।’

कोई उदारचित्त! महाशय यानी उदारचित्त। क्षुद्राशय यानी सकीर्णचित्त। तुम उतने ही संकीर्ण हो जितनी संकीर्ण तुम्हारी वासना है। तुम्हारे हाथ में है। तुम उतना ही छोटा कारागृह बना सकते हो जितनी तुम्हारी वासना है। अगर तुम्हें मुक्त होना हो तो तुम सारी वासना को जाने दो। चाहो ही मत कुछ। तुम इसी क्षण मुक्त हो! मोक्ष की चाह नहीं होती; जब कोई चाह नहीं होती तब जो होता है वही मोक्ष है। मोक्ष वासना का बिंदु नहीं है, वासना का विषय नहीं है। वासना के तीर से तुम मोक्ष के लक्ष्य को संधान न कर सकोगे। मोक्ष कोई लक्ष्य ही नहीं है। मोक्ष तो महाशय होने की अवस्था है। विराट हो गया आशय, कुछ चाह न रही—जिस दिन चाह न रही उसी दिन तुम प्रभु हो गये। प्रभु विराजमान हो गया तुम्हारे भीतर। उस परम तृप्ति में स्वच्छ इंद्रियां हो जाती हैं। उस परम तृप्ति में तुम घर लौट आये, यात्रा समाप्त हुई।

जिसमें न धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन—मृत्यु के प्रति भी कोई हेय—उपादेय का भाव नहीं, वह कोई उदारचित्त विरला…।

धर्मार्थकाममोक्षेयु जीविते मरणे तथा।

कस्यान्दुदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि।।

‘जिसमें विश्व के नाश की इच्छा नहीं है और उसकी स्थिति के प्रति द्वेष नहीं है, वह धन्य पुरुष इसीलिए यथाप्राप्त आजीविका से सुखपूर्वक जीता है।’

वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।

यथाजीविकया तस्माजन्य आस्ते यथासुखम्।।

वह धन्य है व्यक्ति जिसको कोई भी आकांक्षा नहीं है—न तो संसार रहे, इसकी; न संसार न रहे, इसकी। संसार के विनाश के लिए भी उत्सुक नहीं है।

अब तम खयाल करना, जो आदमी मोक्ष की आकांक्षा कर रहा है वह संसार के विनाश में उत्सुक हो गया था है। यह चाहता है : संसार न रहे; यह सब छूटे, यह जाल मिटे; यह सपना टूटे!

‘जिसमें विश्व के नाश की इच्छा नहीं और उसकी स्थिति के प्रति द्वेष भी नहीं…।’

जैसा है ठीक है। जैसा है वैसा ही रहे, अन्यथा की कोई माग नहीं है। ऐसा पुरुष धन्य है। जो मिल जाता है उसमें ही धन्य है। जो प्रभु दे देता है, उसमें ही धन्य है। जो मिला है, उसको प्रसादरूप ग्रहण कर लेता है। जो मिल गया है, वह पर्याप्त है।

‘……इसलिए यथाप्राप्त से सुखपूर्वक रहता है।’

वह यह सोचता ही नहीं कि इससे ज्यादा मिले, और ढंग से मिले, थोड़ा भिन्न मिले। जो मिला है, उससे अन्यथा की पाने की कोई वासना नहीं है। ऐसी अवस्था है ज्ञानी की। ऐसी अवस्था है साक्षी

और इस साक्षी होने में कोई चीज साधनरूप नहीं है। इस साक्षी होने में साक्षी होना ही साधनरूप है। इस साक्षी होने के लिए तुम्हें कुछ आयोजन नहीं करना है। तुम जैसे हो, आयोजन पूरा है; बस आंख बंद करनी है। भीतर उठाना है इस गहन जिज्ञासा को. मैं कौन हूं? उस सबसे संबंध तोड़ते जाना है भीतर जो मैं नहीं हूं। अंततः वही बच रहेगा जो तुम हो और एक बार उसका स्वाद आ गया, वे

स्वादिष्ट फल चख लिए, फिर नीम के कड़वे फलों की चखने की कोई आकांक्षा पैदा नहीं होती। जीवन का परम स्वीकार है इसमें।

अष्टावक्र की वाणी में निषेध नहीं है, नकार नहीं है। जो है, यही परिपूर्ण है। जो है, यही ब्रह्मरूप है। जो है, इसमें ब्रह्म का ही विस्तार है। तुम भी इस विस्तार के अंग बन जाओ। तुम भी अपनी सीमा छोड़ो, त्यागो, लीन बनो, एक बनो। एक बनो तो एकाकी। फिर तुम जहां भी रहो, जैसे भी रहो, जो यथाप्राप्त होगा, वही तुम्हारे लिए उत्सव ले आयेगा। तुम धन्य, तुम कृतज्ञ रहोगे! तुम्हारे जीवन से अहर्निश धन्यवाद उठता रहेगा। वैसे धन्यवाद के सतत उठते रहने से ही पहचाना जाता है कि कोई आदमी धार्मिक है। जैसे फूल से सुगंध उठती रहती है, दीये से प्रकाश झरता रहता है—ऐसे ही धार्मिक व्यक्ति के जीवन में धन्यवाद बरसता रहता है।

हरि ओंम तत्सत्!


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–5

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सूक्ष्‍मतर समाधियां: निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार—प्रवचन—पांचवां

दिनांक 5 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र: (समाधिपाद)

स्‍मृतिपरिशुद्धौ स्‍वरूपशून्‍येवार्थमात्र निर्भासा निर्वितर्का।। 43।।

जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख हू सकता है, तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

एतयैव सविचार निर्विचार च सूक्ष्‍मविषय व्‍याख्‍याता ।। 44।।

सवितर्क और निर्विचार समाधि का जो स्‍पष्‍टीकरण है उसी से समाधि की उच्‍चतर स्‍थितियां भी स्‍पष्‍ट होती है। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की इन उच्‍चतर अवस्‍थाओं में ध्‍यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते है।

सूक्ष्‍मविषयत्‍वं चलिंगपर्यवसानम्।। 45।।

इन सूक्ष्‍म विषयों से संबंधित समाधि का प्रांत सूक्ष्‍म ऊर्जाओं की निराकर अवस्‍था तक फैलता है।

मन स्मृति है; वह कंप्यूटर की भांति है—ठीक—ठीक कहो तो जैविक—कंप्यूटर। यह वह सब संचित कर लेता है जो कि अनुभव किया जाता है, जाना जाता है। बहुत जन्मों द्वारा, लाखों अनुभवों द्वारा मन एकत्रित कर लेता है स्मृति। यह एक विशाल घटना है। लाखों—लाखों स्मृतियां इसमें संग्रहीत हुई होती हैं। यह एक बड़ा संग्रहालय है। तुम्हारे सारे पिछले जन्म इसमें संचित हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक क्षण में भी हजारों स्मृतियां निरंतर एकत्रित हो रही होती हैं। तुम्हारे जाने बिना, मन क्रियान्वित होता ही रहता है। जब तुम सोए होते हो, तब भी स्मृतियां बन रही होती हैं। जब तुम सोए भी हो, यदि कोई चीखता और रोता है, तो तुम्हारी इंद्रियां काम कर रही होती हैं और अनुभव को इकट्ठा कर रही होती हैं। शायद सुबह तुम इसे फिर याद न कर पाओ क्योंकि तुम्हें होश नहीं था लेकिन गहन सम्मोहन में इसे याद किया जा सकता है। गहरे सम्मोहन में, हर वह चीज जिसका तुमने कभी अनुभव किया होता है, जाने में या अनजाने में, वह सब याद किया जा सकता है। तुम अपने पिछले जन्मों को भी याद कर सकते हो। मन का सहज स्वाभाविक विस्तार सचमुच ही विशाल है। ये स्मृतियां अच्छी होती हैं यदि तुम उनका प्रयोग कर सको, लेकिन ये स्मृतियां खतरनाक होती हैं यदि वे तुम्हारा ही प्रयोग करने लगें।

शुद्ध मन वह होता है जो कि अपनी स्मृतियों का मालिक हो। अशुद्ध मन वह मन है जो कि निरंतर प्रभावित होता है अपनी स्मृतियों द्वारा। जब तुम किसी सत्य की ओर देखते हो, तब तुम देख सकते हो बिना उसकी व्याख्या किए हुए। तब चेतना वास्तविकता के साथ सीधे संपर्क में होती है। या, तुम देख सकते हो मन के द्वारा, व्याख्याओं के द्वारा। तब तुम वास्तविकता के संपर्क में नहीं होते। उपकरण के रूप में मन ठीक ही है, लेकिन यदि मन एक ग्रस्तता बन जाता है और चेतना दब जाती है मन के द्वारा तो सत्य भी दब जाएगा मन के द्वारा। तब तुम जीते हो माया में; तब तुम जीते हो भ्रम में।

जब कभी तुम देखते हो सत्य को, यदि तुम देखो उसे सीधे तौर पर प्रत्यक्ष रूप से, बिना मन और स्मृति को बीच में लाए हुए केवल तभी वह होती है वास्तविकता। अन्यथा, वह बन जाती है एक व्याख्या। और सारी व्याख्याएं झूठी होती हैं। क्योंकि सारी व्याख्याएं बोझिल हुई होती हैं, तुम्हारे पुराने अनुभव से। तुम केवल उन चीजों को देख सकते हो जिनका तुम्हारे अनुभव से तालमेल बैठा होता है। तुम वे चीजें नहीं देख सकते जिनका तुम्हारे पिछले अनुभव से तालमेल नहीं होता है, और तुम्हारा पिछला अनुभव ही सब कुछ नहीं है। जीवन कहीं ज्यादा बड़ा है तुम्हारे पिछले अनुभव की अपेक्षा। चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो मन, वह मात्र एक छोटा हिस्सा ही होता है यदि तुम संपूर्ण अस्तित्व की सोचो तो। बहुत छोटा है वह। ज्ञात बहुत छोटा होता है; अज्ञात होता है विशाल और अपरिसीम। जब तुम कोशिश करते हो अज्ञात को ज्ञात द्वारा जानने की, तो तुम चूक जाते हो सार को ही। यही है अशुद्धता। जब तुम अज्ञात को जानने की कोशिश करते हो तुम्हारे भीतर के अज्ञात द्वारा, तब उतरता है एक रहस्योद्घाटन।

ऐसा हुआ. मुल्ला नसरुद्दीन ने नदी में एक बहुत बड़ी मछली पकड़ी। भीड़ इकट्ठी हो गयी, क्योंकि किसी ने देखी न थी कभी इतनी बडी मछली। मुल्ला नसरुद्दीन ने देखा मछली की तरफ, विश्वास न कर सका कि ऐसा संभव था—इतनी बड़ी मछली! खुली—फटी दृष्टि सहित वह घूम लिया मछली के चारों ओर लेकिन फिर भी विश्वास न कर सका। उसने छुआ मछली को लेकिन फिर भी विश्वास न कर सका, क्योंकि उसने सुना—पढा था इतनी बड़ी मछली के बारे में केवल मछेरों की अविश्वसनीय कथाओं में ही। भीड़ भी वहां आ खड़ी हुई थी—अविश्वसनीय दृष्टि सहित ही। तब मुल्ला नसरुद्दीन कहने लगा, ‘कृपया मेरी मदद करें इस बड़ी मछली को वापस नदी में फेंकने में। यह मछली ही नहीं है, यह एक झूठ है।’

कोई चीज सच होती है यदि वह तुम्हारे पिछले अनुभव के अनुकूल बैठती हो। यदि वह अनुकूल नहीं पड़ती, तो वह झूठ होती है। तुम परमात्मा में विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि वह तुम्हारे पिछले अनुभव के अनुरूप नहीं है। तुम ध्यान में विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि तुम रहते आए हो सदा बाजार में, और तुम केवल बाजार की वास्तविकता को जानते हो, गणनापरक मन की, व्यापारिक मन की वास्तविकता को ही। तुम उस उत्सव के बारे में कुछ नहीं जानते—जो है शुद्ध, स्वाभाविक, बिलकुल कारण रहित, अहेतुक।

यदि तुम जीए हो वैज्ञानिक संसार में, तो तुम विश्वास नहीं कर सकते कि कोई चीज सहज—स्फूर्त हो सकती है, क्योंकि वैज्ञानिक जीता है कार्यकारण के संसार में। प्रत्येक चीज सकारण होती है; कोई चीज सहज—स्फूर्त नहीं है। अत: जब वैज्ञानिक सुनते हैं कि कुछ ऐसा संभव है जो कि सहज—स्फूर्त है—जब हम कहते हैं सहज—स्फूर्त, तो हमारा मतलब होता है कि उसका कोई कारण नहीं, अचानक बिना किसी वजह, बिना जाने—बूझे हुआ है वह—वैज्ञानिक तो विश्वास ही नहीं कर सकता। वह तो कहेगा, ‘यह मछली बिलकुल नहीं है, यह एक झूठ है। उसे वापस फेंक दो नदी में।’

लेकिन वे जिन्होंने कि काम किया है आंतरिक संसार में, जानते हैं कि ऐसी घटनाएं हैं जो कि अकारण होती हैं। न ही केवल वे यही जानते हैं, वे जानते हैं कि सारा अस्तित्व ही अकारण है। वह भिन्न होता है, उस वैज्ञानिक मन से समग्रतया विभिन्न संसार होता है वह।

जो कुछ भी तुम देखते हो, इससे पहले कि तुम ठीक से देखो भी, व्याख्या प्रवेश कर चुकी होती है। निरंतर मैं देखता हूं लोगों को। मैं बात कर रहा होता हूं उनसे और यदि वह अनुकूल बैठता है, चाहे उन्होंने अभी कुछ कहा भी नहीं होता है, तो वे मुझे दे देते हैं एक आंतरिक सहमति, ‘हौ’ वे कह रहे होते हैं, ‘ठीक।’ यदि वह नहीं अनुकूल बैठता उनके दृष्टिकोणों के साथ, चाहे उन्होंने कुछ कहा ही नहीं होता, तो ‘नहीं’ लिख दिया गया होता है उनके चेहरों पर। गहन तल पर उन्होंने कहना शुरू कर दिया, ‘नहीं, यह सच नहीं।’

अभी उस रात मैं बात करता था एक मित्र से। वह कुछ ही दिन पहले आया था; वह बहुत नया था। वह विश्वास करता था उपवास करने में, और मैं कह रहा था उससे, ‘उपवास खतरनाक हो सकता है। तुम्हें अपने से ही नहीं चलना चाहिए; तुम्हें किसी विशेषज्ञ से पूछ लेना चाहिए। और यदि तुम मेरी सुनते हो, तो मैं उपवास के हक में बिलकुल नहीं हूं क्योंकि उपवास एक प्रकार का दमन है। शरीर सत्य है। शरीर की भूख सत्य है, शरीर की जरूरत ही सच्ची होती है। बहुत ज्यादा मत खाओ, क्योंकि वह भी शरीर के विरुद्ध है और एक प्रकार का दमन है। और उपवास मत करो, क्योँकि वह भी असत्य है और वह भी दमनात्मक है। वह भी स्वभाव के साथ मेल नहीं खाता है। इसीलिए मैं इसे कहता हूं असत्य।’

कोई भोजन करते जाने की बात से वशीभूत होता है—पागल है वह, और कोई वशीभूत होता है भोजन न करने की बात से—वह भी पागल होता है। दोनों अपने शरीरों को नष्ट कर रहे होते हैं—वे शत्रु हैं—और उपवास का प्रयोग किया जाता रहा है एक चालाकी की भांति।

जब कभी तुम उपवास करते हो, तुम्हारी ऊर्जा क्षीण हो जाती है। वह दुर्बल हो ही जाती है। क्योंकि इसके निरंतर बहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। उपवास करने के तीन—चार दिन बाद, तुम्हारी ऊर्जा इतनी क्षीण हो जाती है कि मन इसमें से अपना नियतांश नहीं ले पाता है, क्योंकि मन एक ऐश्वर्य है। जब शरीर के पास बहुत ज्यादा होता है, तब वह मन को दे देता है। मन बाद की चीज है, संसार में बहुत बाद में पहुंची चीज है। शरीर मूलभूत और प्राथमिक है। पहले शारीरिक आवश्यकताएं परिपूर्ण होनी चाहिए, और केवल इसके बाद ही आती हैं मन की आवश्यकताएं।

यह ऐसा है जैसे कि जब तुम भूखे होते हो, तुम नगर के दार्शनिक को बरदाश्त नहीं कर सकते। जब तुम भूखे होते हो तो दार्शनिक को वहां से सरकना ही होता है। वह नहीं रह सकता है वहां। दार्शनिकता तभी आती है जब समाज धनवान होता है, समृद्ध होता है। धर्म तभी आता है जब समाज समृद्ध हो, जब मूलभूत आवश्यकताएं परिपूर्ण हों। और यही व्यवस्था होती है शरीर की : पहले तो शरीर, फिर दूसरा है मन। यदि शरीर मुसीबत में होता है और अपना आवश्यक नियताश नहीं पा रहा होता है, तब मन का ऊर्जा—नियतांश तुरंत कम हो जाएगा।

और यही है चालाकी जिसे चलाते रहे हैं लोग अपने शरीरों के साथ : जब मन के लिए ऊर्जा—अंश में कटौती हो जाती है, तो मन नहीं सोच सकता क्योंकि सोच—विचार को आवश्यकता होती है ऊर्जा की। और लोग सोचते हैं कि वे ध्यानी बन गए हैं, क्योंकि मन के पास विचार रहे नहीं। यह सच नहीं होता। उन्हें भोजन दे दो और विचार वापस लौट आएंगे। जब ऊर्जा नहीं बह रही होती, तो मन हो जाता है ग्रीष्म के नदी — तल की भांति—नदी बह नहीं रही है, लेकिन किनारे हैं वहां, हर चीज तैयार है। जब कभी वर्षा हो तो फिर से नदी बहने लगेगी। जब कभी वहां ऊर्जा होती है, तो फिर से सांप अपना फन उठा लेगा। सांप मरा नहीं है मात्र मूर्च्छा में है, क्योंकि ऊर्जा उपलब्ध नहीं हो रही है।

उपवास एक चालाकी है झूठी ध्यानमयी अवस्था निर्मित करने की। और उपवास बनावटी ब्रह्मचर्य निर्मित करने की चालाकी भी है—क्योंकि जब तुम उपवास रखते हो, तो ऊर्जा प्रबल नहीँ होती, और काम —केंद्र ऊर्जा नहीं पा सकता।

फिर प्रश्‍न उठ खड़ा होता है व्यवस्था—विज्ञान का : व्यक्ति भोजन द्वारा जीवित रहता है; समाज जीवित है कामवासना द्वारा, जाति जीती है कामवासना द्वारा। तुम यहां पर हो क्योंकि तुम्हारे माता—पिता ने परस्पर प्रेम किया, कामवासना में सरके। यदि तुम सरकते हो कामवासना में तो तुम्हारे बच्चे यहां होंगे, तुम चले जाओगे। यदि तुम नहीं सरकते कामवासना में तब कहीं कोई भविष्य न रहा। तुम जाति के यहां बने रहने में कोई मदद नहीं देते। यदि हर कोई ब्रह्मचारी बन जाता है, तब समाज तिरोहित हो जाएगा। भोजन द्वारा व्यक्ति का शरीर बना रहता है; कामवासना द्वारा जाति का शरीर बना रहता है। लेकिन पहले है व्यक्ति, क्योंकि यदि व्यक्ति ही न हो, तो जाति कैसे बनी—बची रह सकती है? अत: व्यक्ति प्राथमिक होता है, जाति है द्वितीय। जब तुम भरे हुए होते हो ऊर्जा से और शरीर ठीक अनुभव कर रहा होता है, तब तुरंत ऊर्जा भेजी जाती है काम—केंद्र की ओर। अब तुम्हारे पास पर्याप्त है और तुम उसे बांट सकते हो जाति के साथ। जब ऊर्जा—प्रवाह क्षीण होता है तो कामवासना तिरोहित हो जाती है।

जरा दस दिन का उपवास रखना, और दसवें दिन तक तुम्हें लगेगा कि तुम्हें स्त्री में कोई रस ही नहीं रहा है। यदि तुम पंद्रह दिन का और ज्यादा लंबा उपवास रखते हो, तो पंद्रहवें दिन, चाहे कोई बहुत सुंदर प्लेब्बाय और प्लेगर्ल पत्रिकाएं भी वहां पड़ी हों, तुम उन्हें खोल न पाओगे। वे पड़ी रहेंगी वहीं और धूल जम जाएगी उन पर। तुम आकर्षित नहीं होओगे। इक्कीसवें दिन, यदि तुमने उपवास जारी रखा, तो चाहे नग्न स्त्री भी वहां नृत्य कर रही हो, तुम बुद्ध की भांति ही बैठे रहोगे। ऐसा नहीं है कि तुम बुद्ध की भांति हो गए। एक दिन को एकदम ठीक भोजन मिलते ही तुम रस लेने लगोगे प्लेब्बाय में और प्लेगर्ल में। तीसरे दिन ऊर्जा फिर से बह रही होती है; तुम स्त्री में रस लेने लगोगे।

वस्तुत: मनस्विद इसे एक कसौटी बना चुके हैं कि यदि कोई पुरुष स्त्रियों में रुचि नहीं लेता, तो कुछ गलत बात होती है। यदि स्त्री पुरुषों में रुचि नहीं लेती, तो कोई गलत बात होती है। ऊर्जा—प्रवाह क्षीण होता है। और सौ अवस्थाओं में से, निन्यानबे अवस्थाओं में यह बात. सच होती है; वे ठीक कहते हैं। केवल सौवीं अवस्था में वे सही नहीं होंगे क्योंकि वह होगा बुद्ध। बुद्ध के साथ, ऐसा नहीं है कि ऊर्जा क्षीण प्रवाहित हो रही होती है। ऊर्जा उच्चतम होती है, अपने शिखर पर, अपनी सबसे बड़ी विशालता में होती है। लेकिन अब वे एक अलग ही व्यक्ति होते हैं, एक अलग दिशा में बढ़ते हुए जहां दूसरे में उनका रस नहीं, क्योंकि वे पूर्ण परितृप्त हो गए हैं अपने साथ। दूसरे की ओर कोई गति नहीं है, और ऐसा नहीं है कि ऊर्जा का कुछ अभाव है।

जब मैं बात कर रहा था इस नवागत से, तो मैं देख सकता था उसके चेहरे पर कि वह कह रहा है, ‘नहीं।’ उसने एक भी शब्द नहीं कहा, लेकिन मैं जानता था कि वह कह रहा है, ‘मैं इसमें आस्था नहीं रख सकता।’ और फिर वह कहने लगा, ‘मैं उपवास में ही विश्वास करने वाला हूं। जो कुछ भी आप कह रहे हो, मैं उसके साथ कोई तालमेल अनुभव नहीं कर सकता।’

स्मृति के कारण तुम सुन नहीं सकते, स्मृति के कारण तुम देख नहीं सकते; स्मृति के कारण तुम संसार की तथ्यता की ओर नहीं देख सकते। स्मृति आ जाती है बीच में—तुम्हारा अतीत, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारे अनुभव—और वह रंग देती है यथार्थ को। संसार माया नहीं है, लेकिन जब उसकी व्याख्या की जाती है तो तुम जीते हो मायामय संसार में। याद रखना इसे।

हिंदू कहते हैं कि संसार माया है, भ्रम है। जब वे कहते हैं ऐसा, तो उनका अर्थ उस संसार से नहीं जो कि वहां होता है, उनका मात्र इतना ही अर्थ होता है. वह संसार जो तुम्हारे भीतर है—तुम्हारी व्याख्याओं का, तुम्हारे अपने अर्थों का संसार। तथ्य का संसार असत्य नहीं है; वह तो स्वयं ब्रह्म है। वह परम सत्य है। लेकिन वह संसार जिसे तुम्हारे द्वारा निर्मित किया गया है, तुम्हारे मन और स्मृति द्वारा, और जिसमें कि तुम रहते हो, जो तुम्हें घेरे रहता है वातावरण की भांति, वह होता है असत्य। और तुम इसके साथ बढ़ते और इसी में बढ़ते हो। जहां कहीं तुम जाते हो, तुम इसे तुम्हारे चारों ओर लिए रहते हो। यह तुम्हारा वातावरण रूपी घेरा होता है, और इसके द्वारा तुम संसार की ओर देखते हो। तब जो कुछ भी तुम देखते हो, वह सत्य नहीं होता, वह व्याख्या होती है। पतंजलि कहते हैं :

जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख सकता है तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

व्याख्या अवरोध ही है। व्याख्या करते हो और सत्य खो जाता है। बिना व्याख्या बनाए देखो, और सत्य वहां होता है, और वहां सदा से है ही। सत्य हर पल मौजूद होता है। वह किसी दूसरी तरह से हो कैसे सकता है? सत्य का अर्थ है. वह जो कि सचमुच है। जो अपनी जगह से नहीं सरका है क्षण भर को भी। तुम तो बस तुम्हारी व्याख्याओं में जीते हो और तुम निर्मित कर लेते हो तुम्हारा अपना संसार। वास्तविकता लोकगत है, भ्रम व्यक्तिगत है।

तुमने सुनी ही होगी बहुत पुरानी प्राचीन भारतीय कथा। पांच अंधे आदमी एक हाथी को देखने आए। उन्होंने कभी देखा न था किसी हाथी को; वह बिलकुल नयी चीज थी शहर में। उस देश के उस भाग में हाथियों का कोई अस्तित्व न था। उन सबने हाथी को छुआ और महसूस किया, और उन सबने उसकी व्याख्या की जो कुछ भी उन्होंने महसूस किया था उस आधार पर। उन्होंने व्याख्या की अपने — अपने अनुभव द्वारा। एक आदमी कहने लगा, ‘हाथी एक खंभे की भांति है।’—वह हाथी की टागों को छू रहा था। —और वह सही था। उसने अपने हाथों से छुआ था, और फिर उसने याद किया था, खंभों को; वह तो ठीक खंभों की भांति ही था। और इसी तरह ही, उन सबने व्याख्याएं कीं।

ऐसा हुआ कि अमरीका में एक प्राथमिक पाठशाला में एक शिक्षिका ने लड़के—लड़कियों को एक कहानी सुनाई, बिना उन्हें बताए हुए कि वे पांच आदमी जो हाथी के पास आए थे, वे अंधे थे। कहानी मर तनी ज्यादा जानी—पहचानी थी, और शिक्षिका ने अपेक्षा रखी थी कि बच्चे समझ ही जाएंगे। फिर वह पूछने लगी, ‘अब मुझे जरा बताओ वे पांच आदमी कौन थे, जो हाथी को देखने के लिए आए थे?’ एक स्ढ़ौटे बच्चे ने अपना हाथ उठा दिया और बोला, ‘विशेषज्ञ।’

विशेषज्ञ सदा ही अंधे होते हैं। वह लड़का वस्तुत: एक खोजी था। यही है सारी कहानी का सार—तत्‍व। वास्तव में, वे विशेषज्ञ थे। क्योंकि एक विशेषज्ञ बहुत थोड़े के बारे में बहुत ज्यादा जानता है। वह अधिकाधिक संकुचित और संकुचित होता जाता है। विशेषज्ञ लगभग अंधा ही हो जाता है सारे संसार के प्रति, केवल एक खास दिशा में ही वह दृष्टि—संपन्न होता है। अन्यथा वह अंधा ही होता है। उसकी दृष्‍टि ज्‍यादा सीमित और ज्यादा सीमित और ज्यादा सीमित होती जाती है। जितना ज्यादा बड़ा होता है। विशेषज्ञ, उतनी ही सीमित होती है दृष्टि। एक परम विशेषज्ञ को संपूर्ण रूप से अंधा होना होता है। वे कहते है एक विशेषज्ञ वह आदमी होता है जो थोड़े के बारे में ज्यादा और ज्यादा जानता है।

कुछ शताब्‍दियों पूर्व केवल हुआ करते थे चिकित्सक, डाक्टर, जो शरीर के बारे में सब कुछ जानते थे। विशेषज्ञ नहीं होते थे। अब, यदि तुम्हारे हृदय का कुछ बिगड़ा होता है तो तुम विशेषज्ञ के पास जाते हो, दात में कुछ बिगड़ा होता है, तो तुम चले जाते हो किसी दूसरे विशेषज्ञ के पास।

मैंने सुनी है एक कथा कि एक आदमी आया डाक्टर के पास और बोला, ‘मैं बहुत कठिनाई में हूं। मैं ठीक से देख नहीं सकता। हर चीज धुंधली जान पड़ती है।’ डाक्टर कहने लगा, ‘पहले आती हैं पहली चीजें। पहले तो मुझे बताओ तुम कि कौन सी आंख कठिनाई में है, क्योंकि मैं विशेषज्ञ हूं केवल दायीं आंख का ही। यदि तुम्हारी बायीं आंख मुसीबत में है तो तुम दूसरे विशेषज्ञ के पास चले जाओ जो बस मुझसे अगले द्वार पर ही रहता है।’ जल्दी ही बायीं आंख के विशेषज्ञ और दायीं आंख के विशेषज्ञ अलग हो जायेंगे। ऐसा ही होना है क्योंकि विशेषज्ञता होती जाती है ज्यादा सीमित, और ज्यादा सीमित, और ज्यादा सीमित। सारे विशेषज्ञ अंधे होते हैं। और अनुभव तुम्हें बना देता है एक विशेषज्ञ।

सत्य जानने के लिए तुम्हें विशेषज्ञ नहीं होना है। सत्य को जानत्रे के लिए तुम्हें संकुचित, एकांतिक नहीं होना होता है। सत्य के साथ तालमेल बैठाने के लिए तुम्हें अलग रख देना होता है तुम्हारा सारा ज्ञान, एक ओर रख देना होता है उसे। और उसकी ओर देखना होता है एक बच्चे की आंखों द्वारा, किसी विशेषज्ञ की आंखों द्वारा नहीं, क्योंकि वे आंखें तो सदा ही अंधी होती हैं। केवल एक बच्चे के पास होती हैं वास्तविक आंखें—पूरा—पूरा देखती हुई, हर कहीं, सभी ओर, सभी दिशाओं में देखती हुई। क्योंकि वह कुछ जानता नही है। वह सारे समय सारी दिशाओं में बढ़ रहा होता है। जिस क्षण तुम जान जाते हो, तुम कहीं न कहीं पकड़ में आ गए होते हो। यदि तुम फिर से बालक बन सकी और वास्तविकता को देख सकी बिना किसी अवरोध के, व्याख्या के, बिना किसी अनुभव के, ज्ञान के, विशेषज्ञता के—तो पतंजलि कहते हैं, ‘निर्वितर्क समाधि उपलब्ध हो जाती है।’ क्योंकि जब कोई व्याख्या नहीं होती, तब स्मृति शुद्ध हो जाती है और मन चीजों के सच्चे स्वभाव को देखने योग्य हो जाता है।

पतंजलि समाधि को बहुत सारी परतों में बांट देते हैं। पहले तो वे बात करते हैं ‘सवितर्क’ समाधि के बारे में। इसका अर्थ होता है तर्कयुक्त समाधि। तुम अभी भी तार्किक व्यक्ति होते हो, तर्कयुक्त समाधि। फिर वे दूसरी समाधि को कहते हैं ‘निर्वितर्क’, तर्करहित समाधि। अब तुम वास्तविकता के बारे में तर्क नहीं कर रहे होते हो। तुम सत्य की ओर भी तुम्हारे ज्ञान सहित नहीं देख रहे होते। तुम तो बस देख रहे होते हो सत्य की ओर।

वह व्यक्ति जो यथार्थ कौ देखता है तर्कसहित, विवेचना सहित, कभी नहीं देखता सत्य को। वह अपना मन प्रक्षेपित करता है यथार्थ पर। अपने को प्रक्षेपित करने के लिए यथार्थ उसके लिए एक परदे की भांति काम करता है। और जो कुछ भी तुम प्रक्षेपित करते हो, तुम पाओगे वहां। पहले तुम वहां रखते हो उसे, और फिर तुम उसे पा लेते हो वहां। यह एक वंचना है क्योंकि तुम स्वयं रखते हो उसे वहां, और फिर तुम उसे पा लेते हो वहां। वह सच नहीं होता।

नसरुद्दीन एक बार कहने लगा मुझसे, ‘मेरी पत्नी संसार की सर्वाधिक सुंदर स्त्री है।’ मैंने पूछा उससे, ‘मुल्ला तुमने इसके बारे में जाना कैसे?’ वह बोला, ‘कैसे? बहुत सीधी बात है। मेरी पत्नी ने कहा था मुझसे।’ इसी तरह बात चलती रहती है मन में : तुम इसे यथार्थ पर प्रक्षेपित कर देते हो, और फिर इसे तुम पा लेते हो वहां। यह होता है सवितर्क मन का दृष्टिकोण। निर्वितर्क मन, निर्विकल्प मन, कुछ प्रक्षेपित नहीं करता है। वह तो मात्र देखता है उसे जो भी अवस्था होती है।

क्यों तुम अपने मन द्वारा कुछ प्रक्षेपित किए जाते हो यथार्थ पर? —क्योंकि तुम सत्य से भयभीत होते हो। सत्य के प्रति बना एक गहरा भय होता है वहां। ऐसा हो सकता है कि वह तुम्हारी पसंद का न हो। ऐसा हो सकता है कि वह तुम्हारे विरुद्ध हो, तुम्हारे मन के विरुद्ध हो। क्योंकि सच्चाई स्वाभाविक होती है, इसकी परवाह नहीं करती कि तुम कौन हो—तो तुम भयभीत होते हो। सत्य तुम्हारी आकांक्षा पूर्ति नहीं कर सकता, तो बेहतर होता है उसे न देखना। तुम उसे देखते चले जाते हो, जिस किसी बात की तुम आकांक्षा करते हो। इसी तरह तुमने बहुत सारे जन्म गंवा दिए हैं—इधर—उधर की मूर्खताओं में। और तुम किसी दूसरे को मूर्ख नहीं बना रहे हो, तुम स्वयं को ही मूर्ख बना रहे हो। क्योंकि तुम्हारी व्याख्या और प्रक्षेद्यी द्वारा सत्य परिवर्तित नहीं किया जा सकता। तुम केवल पीड़ित होते हो अनावश्यक रूप से। तुम सोचते हो कि द्वार है और द्वार है नहीं; वह दीवार है। तुम कोशिश करते हो उसमें से गुजरने की। फिर तुम पीड़ित होते हो, फिर तुम जड़ हो जाते हो।

जब तक तुम वास्तविकता नहीं देख लेते हो, तब तक तुम उस कारागृह का द्वार कभी न खोज पाओगे जिसमें कि तुम हो। द्वार का अस्तित्व है, लेकिन द्वार का अस्तित्व तुम्हारी आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं हो सकता है। द्वार अस्तित्व रखता है, यदि तुम इच्छाओं को गिरा देते हो तो तुम उसे देख पाओगे। यही है अड़चन : तुम इच्छापूर्ति की धारणा बनाए जाते हो। तुम तो बस विश्वास किए जा रहे हो, और प्रक्षेपित किए जा रहे हो, और हर बार विश्वास टुकड़े—टुकड़े हो जाता है और प्रक्षेपण गिर जाता है। ऐसा बहुत बार घटेगा, क्योंकि तुम्हारे दिवास्वप्न यथार्थ द्वारा परिपूर्ण नहीं किए जा सकते। जब कभी कोई स्वप्न चूर—चूर होता है, एक इंद्रधनुष नीचे जा गिरता है, एक इच्छा मरती है, तुम पीड़ित होते हो। लेकिन तुरंत ही तुम एक और इच्छा, अपनी इच्छाओं का एक और इंद्रधनुष निर्मित करने लगते हो। फिर से तुम बनाने लग जाते हो एक नया इंद्रधनुष जो सेतु होता है तुम्हारे और यथार्थ के बीच।

कोई कहीं चल सकता इंद्रधनुषी सेतु पर? वह लगता है सेतु की भांति; वह होता नहीं है सेतु। वस्तुत: इंद्रधनुष अस्तित्व नहीं रखता; उसकी केवल प्रतीति होती है। यदि तुम जाओ वहां पर तो तुम कोई इंद्रधनुष नहीं पाओगे। यह एक स्वप्न—सदृश घटना होती है। परिपक्वता बनती है इस बोध तक आने में कि, ‘ अब और प्रक्षेपण और व्याख्या नहीं। अब मैं तैयार हूं उसे देखने को जो कुछ है वस्तुस्थिति।’

विटगेस्टीन, इस युग के बड़े प्रखर विचारकों में से एक, उसने अपनी अद्भुत महत्वपूर्ण पुस्तक ‘ ट्रेक्‍टैटस’ आरंभ की इस वाक्य सहित, ‘वर्ल्ड इज आल, दैट इज दि केस।’ तुम स्वप्न देखते जा सकते हे। इसके चारों ओर; उससे मदद न मिलेगी। तुम बंद कर देते हो सपने देखना और समझते हो. ‘वर्ल्ड इज आल रन, दैट इज दि केस।’ क्या तुम बेकार ही अपना जीवन और समय और ऊर्जा नहीं गंवा देते वह कुछ देखने में जो कि वहां है ही नहीं। बंद करो सपने देखना और देखो सत्य को।

यही अर्थ निर्वितर्क समाधि का, समाधि जो होती है बिना तर्क की। यह मात्र एक शुद्ध दृष्टि होती है। तुम इसको लेकर तर्क नहीं करते, तुम्हें तो बस प्रतीति होती है इसकी। तुम कुछ नहीं करते हो इसके बारे में, तुम तो बस इसे वहां होने देते हो और व्यापने देते हो तुममें। सवितर्क समाधि में तुम प्रयत्न करते हो सत्‍य में उतरने का। निर्वितर्क समाधि में तुम सत्य को उतरने देते हो तुम में। सवितर्क समाधि में तुम वास्‍वविकता को उतरने अनुसार बनाने का प्रयत्न करते हो। निर्वितर्क समाधि में तुम प्रयत्न करते हो स्वयं सत्य के अनुसार होने का।

सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते हैं।

फिर पतंजलि ले आते हैं दो और शब्द, सविचार और निर्विचार। सविचार का अर्थ होता है चिंतन— मनन सहित, और निर्विचार का अर्थ होता है बिना चिंतन—मनन के। वे उच्चतर अवस्थाएं हैं उसी घटना की जिसे वे कहते सवितर्क और निवितर्क। सवितर्क समाधि का यदि अनुसरण किया जाए, तो बन जाएगा सविचार।

यदि तुम तर्कपूर्ण ढंग से सोचो और सोचते ही चले जाओ, तो तर्क के पास एक सीमा होगी। वह अपरिसीम नहीं है। तर्क अपरिसीम हो नहीं सकता। वस्तुत: तर्क सारी असीमताओ को नकारता है। तर्क सदा सीमा के भीतर होता है। केवल तभी यह तार्किक बना रह सकता है, क्योंकि असीम के साथ तो प्रवेश कर जाता है अतर्क। असीम के साथ प्रवेश करते हैं रहस्य, गढ़ताएं, असीम के साथ प्रविष्ट होती हैं अद्भुत बातें। इस प्रवेश के साथ, पडोरा—बाक्स खुल जाता है। अत: तर्क कभी बात नहीं करता असीम की। तर्क कहता है कि हर चीज सीमित है और व्याख्यायित की जा सकती है। हर चीज सीमाओं के भीतर है और समझी जा सकती है। तर्क सदा भयभीत होता है असीम द्वारा। वह जान पड़ता है विशाल अंधकार की भांति, तर्क कंपता है उसमें उतरने से। तर्क स्वयं को रखता है राजमार्ग पर, वह कभी शून्य में नहीं सरकता। राजमार्ग पर हर चीज सुरक्षित होती है और तुम जानते हो कि तुम कहां जा रहे होते हो। एक बार तुम अलग कदम रखते हो और शून्य में सरकते हो, तो तुम नहीं जानते कि तुम जा कहां रहे होते हो। तर्क एक बहुत गहरा भय है।

यदि तुम मुझसे पूछो, तो तर्क सब से बड़ा कायर होता है। लोग जो कि साहसी होते हैं सदा तर्क के पार जाते हैं। लोग जो कायर होते हैं तर्क की काराओं के भीतर बने रहते हैं। तर्क सुंदरतापूर्वक सजायी गयी कैद है, वह किसी विशाल आकाश की भांति नहीं है। आकाश सजा हुआ बिलकुल नहीं है। वह अनसजा है, तो भी वह विशाल है। वह है निर्मुक्तता और निर्मुक्तता का अपना सौंदर्य होता है; उसे किसी सजधज की जरूरत नहीं होती। आकाश अपने में ठीक पर्याप्त है। उसे चित्रित करने को किसी चित्रकार की जरूरत नहीं है, उसे सजाने को किसी साज—सज्जा करने वाले की जरूरत नहीं है। संपूर्ण विस्तार ही इसका सौंदर्य है। लेकिन विस्तार भयभीत करने वाला भी होता है, क्योंकि वह इतना विशाल होता है कि मन बिलकुल ठिठक जाता है उसके सामने; मन तो बहुत छोटा जान पड़ता है। अहंकार बिखर—बिखर जाता है उसके सामने, इसीलिए अहंकार तर्क का, परिभाषाओं का, एक खूबसूरत कारागार बना लेता है —हर चीज सुनिश्चित—स्पष्ट होती है। हर चीज होती है अनुभव किए ज्ञात की—और अपने द्वार बंद कर देता है अज्ञात के प्रति। वह बना लेता है एक अपना ही संसार, एक अलग संसार, एक निजी संसार। वह संसार संबंधित नहीं होता है संपूर्ण से; वह अलग किया जा चुका होता है। संपूर्ण के साथ सारे संबंध कट चुके होते हैं।

इसलिए तर्क किसी को नहीं ले जाएगा परमात्मा की ओर, क्योंकि तर्क मानवीय है, और उसने परमात्मा के साथ के सारे सेतु तोड़ लिए हैं। परमात्मा, दिव्य और बीहड़ है; वह है बड़ा रहस्यपूर्ण और बड़ा विशाल। वह एक बड़ा रहस्य होता है जिसकी थाह नहीं पायी जा सकती है। वह कोई पहेली नहीं जिसे तुम हल कर सको, वह एक रहsy है। उसका स्वभाव ऐसा है कि उसे हल नहीं किया जा सकता है। लेकिन यदि तुम निरंतर तर्कपूर्ण ढंग से सोचते चले जाते हो, तो एक घड़ी आ पहुंचेगी जब कि तुम जा पहुंचोगे तर्क की सीमा तक। यदि तुम अधिक और अधिक सोचते चले जाते हो, तो तर्कपूर्ण सोच परिवर्तित हो जाएगी चिंतन—मनन में, विचार में।

पहला चरण है तर्कयुक्त सोच, और यदि तुम जारी रखते हो उसे, तो अंतिम चरण होगा मनन। यदि दार्शनिक आगे बढता जाए, चलता चला जाए, कहीं रुके नहीं, तो किसी न किसी दिन उसे बनना ही होता है कवि, क्योंकि जब सीमा पार की जा चुकी होती है, तो अचानक वहां होती है कविता। कविता है अवलोकन, मनन; वह है विचार।

इसे ऐसे समझो : एक तार्किक दार्शनिक बैठा हुआ है बाग में और देख रहा है गुलाब के फूल को। वह व्याख्या करता है उसकी। वह वर्गीकरण करता है उसका—वह जानता है किस प्रकार का गुलाब है वह, कहां से आया है वह—गुलाब का शरीर—विज्ञान, गुलाब का रसायन। वह हर चीज के बारे में सोचता है तर्कपूर्ण ढंग से। वह वर्गीकृत करता है उसे, परिभाषित करता है उसे, और चारों तरफ कार्य करता है। वस्तुत: वह गुलाब को छूता बिलकुल नहीं है। सिर्फ चारों तरफ—और चारों तरफ घूमता है उसके आसपास चक्कर और चक्कर लगाता है, तमाम इधर—उधर छूता है झाड़ी को, पर गुलाब को छोड़ देता है।

तर्क नहीं छू सकता है गुलाब को। वह काट सकता है उसे, वह रख सकता है उसे खानों में, वह कर सकता है वर्गीकरण, वह लगा सकता है उस पर लेबल—लेकिन वह छू नहीं सकता है उसे। गुलाब तर्क को छूने नहीं देगा। और यदि तर्क चाहे भी तो ऐसा संभव नहीं। तर्क के पास कोई हृदय नहीं, और केवल हृदय छू सकता है गुलाब को। तर्क केवल सिर की बात है। सिर नहीं छू सकता है गुलाब को। गुलाब अपने रहस्य को उद्घाटित नहीं होने देगा सिर के सामने, क्योंकि सिर है बलात्कार की भांति। और गुलाब खोलता है स्वयं को केवल प्रेम के लिए, किसी बलात्कार के लिए नहीं।

विज्ञान बलात्कार है : कविता प्रेम है। यदि कोई व्यक्ति चलता चला जाता है, आइंस्टीन की भांति तो दार्शनिक हो या कि वैज्ञानिक हो या कि तार्किक हो वह बन जाता है कवि। आइंसटीन अपने अंतिम दिनों में कवि बन गया था। एडिंगटन कवि बन गया था अपने अंतिम दिनों में। वे बोलने लगे थे रहस्यों के बारे में। वे आ पहुंचे थे तर्क की सीमा पर। लोग जो सदा तार्किक बने रहते हैं, वे लोग होते हैं जो बिलकुल चरम सीमा तक नहीं गए होते; वे अपनी तर्कपूर्ण तर्कना के एकदम अंत तक नहीं गए होते। वे वस्‍तुत: तर्कपूर्ण होते ही नहीं। यदि वे वास्तव में तर्कपूर्ण हो जाएं, तो एक घड़ी जरूर आती ही है जहां कि तर्क समाप्‍त हो जाता है और कविता आरंभ होती है।

विचार यानी मनन। एक कवि करता क्या है? —मनन करता है। वह मात्र देखता है फूल की ओर वह उसके बारे में सोचता नहीं है। यही है भेद, पर है बड़ा सूक्ष्म। तार्किक सोचता है फूल के बारे में कवि फूल की ही सोचता है, उसके बारे में नहीं। तार्किक चलता है, चक्कर—दर—चक्कर में।

एक कवि सीधे तौर पर चलता है और साक्षात्कार करता है फूल के पूरे सत्य को ही। एक कवि के लिए, एक गुलाब तो गुलाब ही होता है —तेरे में घिरा विषय नहीं होता। वह सरकता है भीतर की और फूल में। अब स्मृति साथ ही भीतर नहीं लायी जाती है। मन एक ओर रख दिया जाता है; वहां होता है एक सीधा संपर्क।

यह उसी घटना की उच्चतर अवस्था है। गुणवत्ता परिष्कृत हो चुकी है तो भी घटना वही है।

इसीलिए पतंजलि कहते हैं, ‘सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म ‘होते हैं।’

कवि होता है सविचार में, और कोई भी जो सविचार में प्रवेश करता है कवि हो जाता है। वह फूल की सोचता है, उसके बारे में नहीं सोचता। वह प्रत्यक्ष होता है और तात्कालिक होता है, लेकिन अब भी भेद होता है वहां। कवि फूल से अलग रहता है। कवि होता है व्यक्ति और फूल होता है विषय। द्वैत अस्तित्व रखता है। द्वैत को पार नहीं किया गया है : कवि फूल नहीं बना है, फूल कवि नहीं बना है। द्रष्टा है द्रष्टा ही, और दृश्य अभी भी दृश्य है। द्रष्टा नहीं बना है दृश्य, दृश्य नहीं बना है द्रष्टा। द्वैत अस्तित्व रखता है।

सविचार समाधि में तर्क गिराया जा चुका होता है पर द्वैत नहीं। निर्विचार समाधि में द्वैत भी गिर जाता है। व्यक्ति बस देखता है फूल को, न स्वयं की सोचते हुए और न फूल की सोचते हुए; बिलकुल ही कुछ न सोचते हुए। वह है निर्विचार. बिना सोच—विचार के, चिंतन—मनन के पार। व्यक्ति होता भर है फूल के साथ, नहीं सोच रहा होता है उसके बारे में। वह न तो होता है तार्किक की भांति और न ही होता है कवि की भांति।

अब आता है रहस्यवादी संत, जो कि बस होता है फूल के साथ। तुम नहीं कह सकते कि वह उसके बारे में सोचता है, या कि वह सोचता है। नहीं, वह मात्र उसके साथ होता है और वहां होने देता है स्वयं को। उस होने देने की घड़ी में, अकस्मात वहां चली आती है एकमयता। फूल फूल नहीं रह जाता, और द्रष्टा एक द्रष्टा नहीं रहता। अकस्मात, ऊर्जाएं मिलतीं और घुलमिल जातीं और एक हो जाती हैं। अब द्वैत का अतिक्रमण हो गया। संत नहीं जानता फूल कौन है और कौन देख रहा है उसे। यदि तुम पूछो संत से, रहस्यवादी से, तो वह कहेगा, ‘मैं नहीं जानता। हो सकता है वह फूल ही हो जो कि देख रहा हो मुझे। हो सकता है वह मैं ही हूं जो देख रहा हूं फूल को। बात परिवर्तनशील है।’ वह कहेगा, ‘निर्भर करता है और कई बार, वहां न तो मैं होता हूं और न ही फूल। दोनों मिट जाते हैं। एकमयी ऊर्जा ही बच रहती है केवल। मैं बन जाता हूं फूल और फूल बन जाता है मैं।’ यह होती है निर्विचार की अवस्था, किसी चिंतन—मनन की नहीं, बल्कि अस्तित्व की।

सवितर्क है प्रथम चरण, निर्वितर्क है उसी दिशा में अंतिम चरण। सविचार है प्रथम चरण; उसी दिशा में, निर्विचार है अंतिम चरण, दो धरातल हैं। तो भी पतंजलि कहते हैं कि वही व्याख्या प्रयुक्त होती है। अब तक सर्वोच्च है निर्विचार।

पतंजलि ज्यादा ऊंची अवस्थाओं तक भी पहुंचेंगे, क्योंकि थोड़ी और बातें स्पष्ट करनी हैं, और वे चलते हैं बहुत धीरे — धीरे —क्योंकि यदि वे बहुत तेज चलें तो तुम्हारे लिए समझना संभव न होगा। हर क्षण वे जा रहे हैं ज्यादा और ज्यादा गहरे में। धीरे — धीरे, कदम—दर—कदम, वे तुम्हें ले जा रहे हैं अपरिसीम सागर की ओर। वे नहीं विश्वास रखते है अचानक—संबोधि में, बल्कि विश्वास रखते हैं

क्रमिक—संबोधि में, इसीलिए उनका आकर्षण बहुत बड़ा है।

बहुत सारे लोग हुए हैं जिन्होंने बातें की हैं अचानक—संबोधि के बारे में, लेकिन वे नहीं आकर्षित कर पाए हैं अधिकांश लोगों को, क्योंकि यह बात बिलकुल अविश्वसनीय है कि अचानक संबोधि संभव होती है। तिलोपा कह सकते हैं ऐसा, लेकिन तिलोपा क्या कहते हैं, बात उसकी नहीं। बात है. क्या कोई समझ लेता है इसे? इसीलिए बहुत से तिलोपा मिट गए, लेकिन पतंजलि का आकर्षण जारी रहता है, क्योंकि कोई नहीं समझ सकता तिलोपा के उन जंगली फूलों को। वे अचानक प्रकट हो जाते हैं अविश्वसनीय रूप से और वे कहते हैं, ‘ अचानक तुम भी बन सकते हो हम जैसे।’ यह बात समझ में आने जैसी नहीं होती। उनके चुंबकीय व्यक्तित्व के प्रभाव में तुम सुन सकते हो उन्हें, लेकिन तुम विश्वास नहीं कर सकते उनका। जिस क्षण तुम छोड़ते हो उन्हें तो तुम कहोगे, ‘यह आदमी कुछ कह रहा है जो मेरे पार का है। यह बात गुजर जाती है मेरे सिर के ऊपर से!’

कई तिलोपा हुए हैं, बोले हैं, प्रयत्न करते रहे हैं, लेकिन वे नहीं कर पाते रहे बहुत सारे लोगों की मदद। कभी—कभार ही कोई समझा होगा उन्हें। इसीलिए तिलोपा को तिब्बत जाना पड़ा था शिष्य खोजने के लिए। यह इतना विशाल देश, और वे नहीं खोज सके एक भी शिष्य। और बोधिधर्म को चीन जाना पड़ा शिष्य खोजने के लिए। यह प्राचीन देश, हजारों साल से कार्य करता रहा है धार्मिक आयामों पर, और उन्हें नहीं मिल सका एक भी शिष्य। हौ, यह कठिन था तिलोपा के लिए, कठिन था बोधिधर्म के लिए एक भी शिष्य को खोजना। कठिन होता है किसी ऐसे को खोजना जो कि समझ सके तिलोपा को, क्योंकि वे बात करते .हैं लक्ष्य की। वे कहते हैं, ‘कोई मार्ग नहीं है, और कोई विधि नहीं है।’ वे खड़े हुए हैं पहाड़ की चोटी पर और वे कहते हैं, ‘कोई मार्ग नहीं है।’ और तुम अपने दुख में खड़े हुए हो अंधकार में और सीलन भरी घाटी में। तुम देखते हो तिलोपा को और तुम कहते हो, ‘शायद—पर कैसे, कोई कैसे पहुंचता है?’ तुम पूछते चले जाते हो, ‘कैसे?’

कृष्णमूर्ति लोगों से कहे चले जाते हैं कि कोई विधि नहीं है, और प्रत्येक प्रवचन के बाद लोग पूछते हैं, ‘फिर कैसे? फिर पहुंचें कैसे?’ वे कंधे उचका भर देते हैं और क्रोधित हो जाते हैं, ‘मैंने कहा है न तुमसे कि कोई विधि है ही नहीं, तो मत पूछना कैसे, क्योंकि कैसे की बात पूछना फिर विधि की बात पूछना ही है।’ और जो पूछते हैं, ये कोई नए लोग नहीं हैं। कृष्णमूर्ति के पास लोग हैं जो उन्हें सुनते आ रहे हैं तीस या चालीस वर्षों से। तुम उनके प्रवचनों में पाओगे बहुत पहले के पुराने लोग। वे निरंतर गुनते रहे हैं उन्हें, धार्मिक भाव से; निष्ठापूर्वक वे सुनते हैं उन्हें। वे हमेशा जाते है—जब कभी वे वहां तो रो है, वे हमेशा जाते और सुनते हैं। तुम करीब—करीब वही चेहरे पाओगे वहां वर्षों —वर्षों तक, और फिर—फिर पूछते हैं अपनी घाटियों से, ‘लेकिन कैसे? ‘—और कृष्णमूर्ति केवल अपने कंधे झटक देते और कह देते हैं, कोई ‘कैसे’ है नहीं। तुम बस समझो, और तुम पहुंच जाओ। कहीं कोई मार्ग नहीं है।

तिलोगा, बोधिधर्म, कृष्णमूर्ति—वे आते और चले जाते हैं। उनसे कोई बहुत मदद नहीं आती। लोग थी जो उन्‍हें सुनते हे, आनंद उठाते हैं उन्हें सुनने का। वे एक निश्चित बौद्धिक समझ तक भी पहुंच जाते हैं, लेकिन वे बने रहते है घाटी में। मैंने स्वयं बहुत से लोगों को देखा है, जो सुनते हैं कृष्णमूर्ति को, लेकिन एक भी ऐसा व्‍यक्‍ति मेरे देखने में नहीं आया जो उन्हें सुन कर अपनी घाटी के पार चला गया हो। वे बने रहते हैं घाटी में और बोलने लगते हैं कृष्णमूर्ति की भांति ही, बस इतना ही। वे कहने लगते हैं दूसरे लोगों को कि कोई रास्ता नहीं और वे बने रहते हैं घाटी में ही।

पतंजलि रहे हैं बड़ी अद्भुत मदद, अतुलनीय। लाखों गुजर चुके हैं इस संसार से पतंजलि की सहायता से, क्योंकि वे अपनी समझ के अनुसार बात नहीं कहते, वे तुम्हारे साथ चलते हैं। और जैसे—जैसे तुम्हारी समझ विकसित होती है, वे ज्यादा गहरे और गहरे और गहरे जाते हैं। पतंजलि पीछे हो लेते हैं शिष्य के; तिलोपा चाहेंगे शिष्य का उनके पीछे चलना। पतंजलि तुम तक आते हैं; तिलोपा चाहेंगे तुम्हारा उन तक चले आना। और निस्संदेह, पतंजलि तुम्हारा हाथ थाम लेते हैं और धीरे— धीरे, वे तुम्हें संभावित उच्चतम शिखर तक ले जाते हैं, वे शिखर जिनकी बात तिलोपा करते हैं लेकिन उस ओर तुम्हें ले नहीं जाते, क्योंकि वे कभी नहीं आएंगे तुम्हारी घाटी तक। वे बने रहेंगे अपने शिखर पर और चिल्लाते रहेंगे वहीं से। वस्तुत: वे क्षुब्ध कर देंगे बहुत सारे लोगों को क्योंकि वे रुकेंगे नहीं।. वे चोटी पर से चिल्लाते रहेंगे, ‘ऐसा संभव है। और कोई रास्ता नहीं है, और कोई विधि नहीं है। तुम बस आ सकते हो। वह घटता है, तुम कर नहीं सकते!’ वे क्षुब्ध कर देते हैं।

जब कहीं कोई विधि नहीं होती, तो लोग क्षुब्ध हो जाते हैं और वे रोक देना चाहेंगे उनको, कि चिल्लाएं नहीं। क्योंकि यदि कोई राह नहीं, तो कैसे कोई बढ़े घाटी से शिखर तक? वह व्यक्ति तो नासमझी की बात कह रहा है। लेकिन पतंजलि बहुत युक्तियुक्त हैं, बहुत समझदार। वे बढ़ते हैं चरण—चरण, वे तुम्हें ले चलते वहां से जहां कि तुम हो। वे आते हैं घाटी तक, तुम्हारा हाथ थाम लेते हैं और कहते हैं, ‘एक—एक करके कदम उठाओ।’

पतंजलि ने कहा, ‘मार्ग है; विधियां हैं।’ और वे वास्तव में बहुत ही बुद्धिमान हैं। बाद में, अंत में वे तुम्हें राजी कर लेंगे विधि को गिरा देने के लिए और मार्ग को गिरा .देने के लिए। न मार्ग है, न विधि; कुछ नहीं है; लेकिन केवल अंत पर।

उस वास्तविक शिखर पर जब कि तुम बिलकुल पहुंच चुके होते हो, जब पतंजलि भी तुम्हें छोड़ देते हैं, तो वहां कोई अड़चन नहीं होती। तुम पहुंचोगे अपने से ही। अंतिम घड़ी में वे बन जाते हैं निरर्थक। अन्यथा, वे होते हैं युक्तियुक्त। और वे बने रहे हैं इतने युक्तियुक्त सारे मार्ग पर कि जब वे बन जाते हैं निरर्थक, तो भी वे आकर्षित करते हैं, तो भी वे बहुत उचित जान पड़ते हैं। क्योंकि पतंजलि जैसा आदमी नासमझी की बात कह नहीं सकता है। वे विश्वसनीय हैं।

सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियां भी स्पष्ट होती हैं लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते हैं।

बाद में, ध्यान के विषय को बना देना होता है ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म। उदाहरण के लिए तुम ध्यान कर सकते हो चट्टान पर, या कि तुम ध्यान कर सकते हो फूल पर, या तुम ध्यान कर सकते हो ध्यानी पर। और तब चीजें ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म होती जाती हैं। उदाहरण के लिए, तुम ध्यान कर सकते हो ओम की ध्वनि पर। पहला ध्यान है इसे जोर से कहने का, जिससे कि वह प्रतिध्वनित हो सके तुम्हारे चारों ओर। वह तुम्हारे चारों ओर एक ध्वनि—मंदिर बन जाए। ओम, ओम, ओम! तुम अपने चारों ओर निर्मित करते हो प्रदोलित तरंगें—अपरिष्कृत; पहला चरण। फिर तुम बंद कर लेते हो तुम्हारा मुंह। अब तुम इसे जोर—जोर से नहीं कहते। भीतर तुम कहते हो, ‘ ओम, ओम, ओम।’ होंठों को नहीं हिलने देना, जीभ को भी नहीं हिलाना। बिना जीभ और बिना होंठों के तुम कहते हो, ‘ ओम’। अब तुम निर्मित कर लेते हो एक आंतरिक वातावरण, एक अंतर्जलवायु ओम की। विषय सूक्ष्म हो गया है। फिर है तीसरा चरण : तुम उसका पाठ भी नहीं करते, तुम मात्र सुनते हो उसे। तुम बदल देते हो स्थिति कर्ता की, तुम सरक जाते हो सुनने वाले की निश्चेष्टता की ओर। तीसरी अवस्था में तुम भीतर भी नहीं उच्चारित करते, ‘ओम’। तुम बस बैठ जाते हो और तुम सुनते हो उस ध्वनि को, नाद को। वह पहुंचता है क्योंकि वह वहां होता है। तुम मौन नहीं हो, इसीलिए तुम सुन नहीं सकते उसे।

‘ओम’ किसी मानवी भाषा का शब्द नहीं। उसका कोई अर्थ नहीं है। इसीलिए हिंदू इसे सामान्य वर्णमाला में नहीं लिखते। नहीं, उन्होंने एक अलग रूपाकार बना लिया है इसके लिए, मात्र भेद बतलाने को ही कि वह वर्णमाला का हिस्सा नहीं है। वह अलग से, अपने से ही अस्तित्व रखता है, और उसका कोई अर्थ नहीं है। यह मानवी भाषा का शब्द नहीं। यह स्वयं अस्तित्व का ही नाद है। निःशब्द का नाद है, मौन का नाद है। जब हर चीज मौन होती है तब सुनाई पड़ता है वह। तो तुम बन जाते हो श्रोता। यह इसी भांति बढ़ता जाता है, ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म ढंग से। और चौथी अवस्था में तुम भूल ही जाते हो हर चीज को, कर्ता को, श्रोता को, और नाद को—हर चीज को। चौथी अवस्था में वहां कुछ नहीं होता।

तुमने देखे होंगे झेन के दस ऑक्सहर्डिंग (बैल की खोज) चित्र। पहले चित्र में एक व्यक्ति खोज रहा है अपने बैल को। बैल कहीं चला गया है घने जंगल में। कहीं कोई चिह्न नहीं, कोई पदचिह्न नहीं। बस चारों ओर देख रहा है, वहां वृक्ष और वृक्ष और वृक्ष हैं। दूसरे चित्र में वह ज्यादा खुश जान पड़ता है—पदचिह्न खोज लिए गए हैं। तीसरे में वह थोड़ा चकित है—बैल की पीठ भर ही वृक्ष के निकट दिखाई दी है, पर फिर भी मुश्किल है भेद कर पाना। जंगल बीहड़ है, घना है। शायद यह एक भ्रम ही हो जो कि वह देख रहा है बैल की पीठ को? हो सकता है वह वृक्ष का हिस्सा भर हो। और शायद वह प्रक्षेपण कर रहा हो। फिर चौथे में, उसने पकड़ ली है बैल की पूंछ। पांचवें में, उसने उसे नियंत्रित कर लिया है। चाबुक के साथ। अब बैल उसके अधीन है। छठे में, वह सवारी कर रहा है बैल की। सातवें में, बैल है गौशाला में और वह है घर में। वह प्रसन्न है, बैल खोज लिया गया है। आठवें में, कुछ नहीं है वहां पर; बैल खोज लिया गया। बैल और उसे खोजने वाला, खोजी और जो खोजा गया है, वे दोनों ही तिरोहित हो चुके हैं। तलाश समाप्त हुई।

प्राचीन काल में यही आठ चित्र थे। यह एक पूरा सेट था। शून्यता अंतिम होती है। लेकिन फिर एक बड़े गुरु ने दो चित्र और जोड़ दिए। नौवां : वह व्यक्ति वापस आ गया है। वह फिर से है वहां पर। और दसवें में वह व्यक्ति केवल वापस ही नहीं आया है, वह बाजार में चला गया है, कुछ चीजें खरीदने के लिए। न ही केवल चीजें खरीद रहा है वह, शराब की बोतल भी पकड़ रखी है उसने! यह वस्तुत: ही सुंदर है। यह संपूर्ण है। यदि समाप्ति हो जाती है शून्यता पर, तो कुछ असंपूर्ण रहता है। आदमी फिर वापस लौट आया है, और केवल वापस ही नहीं लौटा है, वह बाजार में है। न ही केवल बाजार में है, उसने खरीद ली है शराब की बोतल।

संपूर्णता बनती जाती है अधिकाधिक सूक्ष्म, अधिक और अधिक सूक्ष्म। एक घडी आती है जब तुम अनुभव करोगे सर्वाधिक सूक्ष्म ही संपूर्ण है। जब हर चीज खाली हो जाती है और वहां कोई चित्र नहीं होता, खोजी और खोजा हुआ दोनों मिट चुके होते हैं। लेकिन यही सच्चा अंत नहीं है। अभी भी वहां सूक्ष्मता है। आदमी वापस चला जाता है संसार में समग्र रूप से रूपांतरित होकर। वह अब पुराना व्यक्ति न रहा। बल्कि पुनर्जन्म होता है उसका। और जब तुम पुनजार्वित होते हो तो, संसार भी वही नहीं रहता। मदिरा अब मदिरा न रही, विष अब विष न रहा, बाजार नहीं रहा बाजार। अब हर चीज स्वीकृत हो गई है। यह बात सुदर है। अब वह उत्सव मना रहा है। यही है प्रतीक : वह शराब।

तलाश जितनी ज्यादा और ज्यादा सूक्ष्म होती जाती है, और ज्यादा और ज्यादा शक्तिपूर्ण होती जाती है चेतना। और एक क्षण आता है जब चेतना इतनी शक्तिशाली हो जाती है कि तुम सहज स्वाभाविक व्यक्ति की भांति जीते हो संसार में, बिना किसी भय के। लेकिन पतंजलि के साथ चरण—चरण बढ़ना। ध्यान के विषय अधिकाधिक सूक्ष्म होते हैं।

इन सूक्ष्म विषयों से संबंधित समाधि का प्रांत सूक्ष्म ऊर्जा की निराकार अवस्था तक फैलता है।

यही है आठवां चित्र। समाधि का आयाम जो कि जुडा हुआ है, इन ज्यादा सूक्ष्म विषयों के साथ, वह अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है, और एक घड़ी आती है जब आकार मिट जाता है और वहां होता है निराकार।

‘……. —सूक्ष्म ऊर्जा की निराकार अवस्था तक फैलता है।’

ऊर्जाएं इतनी सूक्ष्म होती हैं कि तुम उनका चित्र नहीं बना सकते। तुम मूर्ति नहीं बना सकते उनकी। केवल शून्यता ही दर्शा सकती है उन्हें, एक शून्य; .वह आठवां चित्र। धीरे— धीरे, तुम समझ जाओगे कि कैसे बाकी के ये दूसरे दो चित्र आ पहुंचे।

पतंजलि को मैं धार्मिक जगत का वैज्ञानिक कहता हूं रहस्यवाद का गणितज्ञ कहता हूं अतर्क्य का तार्किक कहता हूं। दो विपरीतताए मिलती हैं उनमें। यदि कोई वैज्ञानिक पढ़ता है पतंजलि के योग—सूत्रों को तो वह तुरंत ही समझ जाएगा। एक विटगेन्क्रीन, एक तार्किक मन तुरंत एक घनिष्ठ संबंध अनुभव करेगा पतंजलि के साथ।

वे पूर्णतया तर्कयुक्त हैं। और यदि वे ले जाते हैं तुम्हें अतर्क्य की ओर, तो वे ले चलते हैं तुम्हें ऐसे तर्कयुक्त सोपानों द्वारा कि तुम हरगिज नहीं जानते कि कब उन्होंने छोड़ दिया तर्क को और वे ले जा चुके तुम्हें उसके पार।

वे बढ़ते हैं दार्शनिक की भांति, चिंतक की भांति। और वे बनाते हैं इतने सूक्ष्म भेद कि जिस क्षण वे तुम्हें ले जाते हैं निर्विचार में, अ—चितन में, तो तुम नहीं जान पाओगे कि कब लग गई छलांग। उन्होंने उस छलांग को बहुत सारे छोटे सोपानों में काट दिया है।

पतंजलि के साथ तुम कभी भी भय अनुभव नहीं करोगे, क्योंकि वे जानते हैं कि कहां तुम अनुभव करोगे भय। वे सोपानों को ज्यादा और ज्यादा छोटा तराश देते हैं, लगभग ऐसे ही जैसे कि तुम समतल भूइम पर चल रहे होओ। वे इतने धीरे — धीरे तुम्हें ले चलते हैं कि तुम नहीं देख सकते कि कब घट गई छलांग, कब पार कर ली तुमने सीमा।

और वे एक कवि भी हैं और एक रहस्यवादी भी हैं—एक बहुत ही विरल सम्मिलन। रहस्यवादी हुए हैं तिलोपा की भांति; महान कवि हुए हैं उपनिषदों के ऋषियों की भांति; महान तार्किक हुए हैं अरस्तु की भांति, लेकिन तुम दूसरे पतंजलि को नहीं पा सकते। वे ऐसे सम्मिलन हैं कि उनके बाद कोई हुआ ही नहीं जिसकी की तुलना की जा सके उनके साथ।

बहुत आसान है कवि होना क्योंकि तुम एक खंड से बने हुए होते हो। यह लगभग असंभव है पतंजलि होना, क्योंकि तुम्हें समझना होता है इतनी सारी विपरीतताओं को, और इतनी सुंदर सुसंगतता में—वे उन सबको संयुक्त किए रहते हैं।

इसीलिए वे आरंभ और अंत बन गए हैं योग की संपूर्ण परंपरा के।

वस्तुत: यह वे नहीं थे जिन्होंने आविष्कार किया योग का। योग तो बहुत ज्यादा पुराना है। योग वहां था बहुत सदियों से पतंजलि से पहले ही। वे आविष्कारक न थे, लेकिन वे करीब—करीब बन गए आविष्कारक और प्रवर्तक—मात्र अपने व्यक्तित्व के दुर्लभ संयोग के कारण। उनसे पहले बहुत से लोगों ने काम किया है और लगभग हर चीज ज्ञात थी, लेकिन योग तो प्रतीक्षा कर रहा था किसी पतंजलि की। और अकस्मात, पतंजलि उस पर बोले, तो हर चीज एक दिशा में उतर गयी और वे बन गए प्रवर्तक। वे प्रवर्तक नहीं थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व विपरीत तत्वों का एक सम्मिलन था, उन्होंने स्वयं में सम्मिलित किए इतने अबोधगम्य तत्व, कि वे हो गए प्रवर्तक या हो गए लगभग प्रवर्तक ही। अब योग सदा जाना जाएगा पतंजलि सहित।

पतंजलि के बाद, फिर बहुतों ने काम किया और बहुत से पहुंच गए योग के अंतरंग की नयी भूमियों तक, लेकिन पतंजलि शिखर बने रहते हैं एवरेस्ट की भांति। यह लगभग असंभव जान पड़ता है कि कभी कोई पतंजलि से ज्यादा ऊंचा शिखर बन पाएगा—लगभग असंभव लगता है। ऐसा विरल संयोग असंभव होता है। तार्किक होना और कवि होना साधारण प्रतिभाओं के लिए संभव है। तुम हो सकते हो तार्किक, एक महान तार्किक, और एक साधारण कवि। तुम हो सकते हो महान कवि और एक बड़े साधारण तार्किक—तीसरे दर्जे के तार्किक। वैसा संभव है; वह कोई बहुत कठिन नहीं। पतंजलि एक प्रतिभावान तार्किक हैं, एक प्रतिभावान कवि हैं, और एक प्रतिभावान रहस्यवादी हैं। अरन्त कालिदास और तिलोपा—सभी एक ही में उतर आए हैं। इसीलिए है आकर्षण।

जितना संभव हो उतने गहरे रूप से समझने की कोशिश करो पतंजलि को, क्योंकि वे मदद करेंगे तुम्हारी। झेन गुरुओं से ज्यादा मदद न मिलेगी। तुम आनंदित हो सकते हो उनसे—ख्य सुंदर घटना होती है वह। तुम श्रद्धा, विस्मय से भर सकते हो; तुम भर सकते हो आश्चर्य से, लेकिन वे मदद न देंगे तुम्हें। दुष्प्राय होगा कि कोई तुम्हारे भीतर पहुंचे जो कि तुम्हें साहस दे सके और तुम्हारी मदद कर सके अतल शून्य में छलांग लगाने में।

पतंजलि देंगे बहुत मदद। वे बन सकते हैं तुम्हारे अस्तित्व की सच्ची नींव, और वे तुम्हें ले जा सकते हैं, धीरे — धीरे। वे तुम्हें ज्यादा समझते हैं किसी और दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा। वे देखते हैं तुम्हारी तरफ और वे उस भाषा को बोलने का प्रयत्न करते हैं, जिसे तुम में से कोई भी समझ पाएगा। वे केवल गुरु ही नहीं हैं, वे एक महान शिक्षक भी हैं।

‘शिक्षाविद जानते हैं कि एक महान णि वह नहीं होता जो कि कक्षा के केवल थोड़े से सर्वोच्च

विद्यार्थियों द्वारा समझा जाता हो—मात्र आगे की बैंच पर बैठे हुए विद्यार्थियों द्वारा—पचास की कक्षा में केवल चार या पांच विद्यार्थियों द्वारा। वह कोई बड़ा शिक्षक नहीं होता। बड़ा शिक्षक वह होता है, जिसे कि अंतिम बैंच पर बैठे हुए भी समझ सकते हों।

पतंजलि केवल गुरु ही नहीं हैं, वे हैं एक शिक्षक भी। कृष्णमूर्ति गुरु हैं, तिलोपा गुरु हैं, लेकिन, वे शिक्षक नहीं हैं। वे समझे जा सकते हैं केवल शिखर व्यक्तित्वों द्वारा। यही है समस्या—सर्वोच्च को जरूरत ही नहीं समझने की। वे अपने से ही बढ़ सकते हैं। कृष्णमूर्ति के बिना भी वे उतरेंगे सागर में और पहुंच जाएंगे दूसरे किनारे तक; थोड़े दिन पहले या बाद में, बात यही होती है। अंतिम बैंच पर बैठे हुए जो कि अपने से नहीं बढ़ सकते, पतंजलि हैं उनके लिए। वे आरंभ करते हैं निम्नतम से और, जा पहुंचते हैं उच्चतम तक। उनकी मदद है सबके लिए। वे केवल थोडे से चुने हुओं के लिए नहीं हैं।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–2) प्रवचन–6

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योग : छलांग के लिए तैयार—प्रवचन—छठवां

दिनांक 6 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—आप जिस किसी भी मार्ग की बात करते है। तो वही लगता है मेरा मार्ग! तो कैसे पता चले कि मेरा मार्ग क्या है?

2— क्‍या समाधि की सभी अवस्थाओं से गुजरना जरूरी है?

क्या गुरु का सान्निध्य सीधे छलांग लगाने में सहायक हो सकता है?

3—पतंजलि की तरह ही क्‍या आप स्‍वयं भी कविता, रहस्‍यवाद और तर्क के श्रेष्ठ जोड़ हैं?

4—प्रार्थना तक पहुंचने के लिए प्रेम से गुजरना क्‍या जरूरी है?

5—पतंजलि आधुनिक मनुष्‍य की न्‍यूरोसिस (विक्षिप्‍तता) के साथ कैसे कार्य करेंगे?

6—आपके प्रवचनों में नींद की झपकी आने का क्‍या कारण है?

7—पतंजलि की विधियां इतनी धीमी और लंबी है, फिर भी आप इन पर, भागते हुए आधुनिक मनुष्‍य के लिए, क्‍यों बोल रहे है।

पहला प्रश्न :

जब आप पतंजलि पर बोलते हैं तो मैं अनुभव करता हूं कि वही है मेरा मार्ग जब आप झेन पर बोलते हैं तब मेरे लिए झेन होता है मार्ग जब आप बोलते हैं तंत्र पर तब तंत्र हो जाता है मेरा मार्ग। तो कैसे पता चले मुझे कि मेरे लिए कौन— सा मार्ग है?

बहुत सीधी—साफ बात है—यानि जब मैं पतंजलि पर बोलता हूं तुम अनुभव करते हो कि पतंजलि तुम्हारे मार्ग हैं। और जब मैं बोलता हूं झेन पर, तुम अनुभव करते हो झेन है तुम्हारा मार्ग। और जब मैं बोलता हूं तंत्र पर, तुम अनुभव करते हो कि तंत्र है तुम्हारा मार्ग। तब तो समस्या अस्तित्व ही नहीं रखती—मैं ही हूं तुम्हारा मार्ग।

दूसरा प्रश्न :

क्या खोजी के लिए समाधि की सारी अवस्थाओं में से गुजरना जरूरी है? क्या गुरु का सान्निध्य कुछ अवस्थाओं को एकाएक पार करने में मदद दे सकता है?

नहीं, वैसा आवश्यक नहीं। सारी अवस्थाओं की व्याख्या पतंजलि द्वारा की गई है क्योंकि सारी अवस्थाएं संभव होती हैं, लेकिन आवश्यक नहीं। तुम बहुत को छोड़ निकल सकते हो। तुम पहले चरण से अंतिम चरण तक भी जा सकते हो; बीच के सारे रास्ते से बिलकुल बचा जा सकता है। यह तुम पर निर्भर करता है, तुम्हारी प्रगाढ़ता पर, तुम्हारी तीव्र खोज पर, तुम्हारी समग्र प्रतिबद्धता पर। गति निर्भर करती है तुम पर।

इसलिए अचानक संबोधि को उपलब्ध होना भी संभव होता है। सारी क्रमिक प्रक्रिया गिराई जा सकती है। बिलकुल इसी क्षण ही, तुम हो सकते हो संबोधि को उपलब्ध। वैसा संभव है, लेकिन यह निर्भर करेगा इस पर कि तुम्हारी खोज कितनी प्रगाढ़ है, तुम कितने उतरे हुए हो उसमें। यदि तुम्हारा केवल एक हिस्सा उसमें है, तब तुम प्राप्त करोगे एक टुकड़ा, एक चरण। यदि तुम्हारा आधा हिस्सा इसमें है, तब तुम तुरंत पार कर जाओगे आधी यात्रा, और फिर वहीं अटक जाओगे। लेकिन यदि तुम्हारा समग्र अस्तित्व होता है इसमें और तुम कोई चीज रोके हुए नहीं होते, तुम सारी चीज को बस घटित होने दे रहे होते हो तो बिलकुल अभी, तो तुरंत सकता है वैसा। समय की कोई जरूरत नहीं होती।

समय की जरूरत होती है क्योंकि तुम्हारा प्रयास अधूरा होता है, आशिक होता है। तुम उसे करते हो, आधे—आधे मन से। तुम करते हो उसे, और तुम करते भी नहीं उसे। तुम एक साथ एक कदम आगे बढ़ते और एक कदम पीछे हटते। दायें हाथ से तुम करते, और बायें हाथ से तुम अनकिया कर देते। फिर वहां होंगी बहुत सारी अवस्थाएं। पतंजलि जिनका वर्णन कर सकते हैं, उनसे कहीं ज्यादा उन्होंने सारी संभव अवस्थाओं का वर्णन कर दिया है। बहुतों को गिराया जा सकता है या सभी को गिराया जा सकता है। संपूर्ण मार्ग को गिराया जा सकता है। तुम्हारे प्रयास में अपना समग्र अस्तित्व ले आओ।

और गुरु का सान्निध्य बहुत मदद दे सकता है, लेकिन वह भी तुम पर निर्भर करता है। तुम शारीरिक रूप से गुरु के निकट रह सकते हो, और तुम शायद बिलकुल ही निकट न हो उसके। क्योंकि गुरु के साथ होने में बात शारीरिक निकटता की नहीं होती, बात होती है कि तुम कितने खुले होते हो उसके प्रति, कितनी आस्था रखते हो तुम, कितना तुम्हारा प्रेम होता है उसके प्रति, तुम्हारे अस्तित्व का कितना तुम दे सकते हो उसे। यदि तुम वास्तव में ही निकट होते हो, उसका अर्थ है यदि तुम आस्था रखते हो और प्रेम करते हो, तो फिर दूसरी और कोई निकटता नहीं। यह बात स्थान की दूरी की नहीं, यह बात है प्रेम की। यदि तुम वास्तव में ही गुरु के निकट होते हो, तो सारे मार्ग, सारी विधियां गिराई जा सकती हैं। क्योंकि गुरु के निकट होना परम विधि है। उसके जैसा और कुछ अस्तित्व नहीं रखता है। उसकी तुलना में और कुछ नहीं है, तब तुम बिलकुल भूल सकते हो तमाम विधियों को, सारे पतंजलियों को; तुम बिलकुल ही भूल सकते हो उनके बारे में। गुरु के निकट होने मात्र से और गुरु को तुम्हारे अस्तित्व में प्रवेश करने देने से ही, यदि तुम बन जाते हो केवल एक ग्रहणशीलता, तुम्हारी ओर से बिना किसी चुनाव के, केवल एक खुला द्वार, तब एकदम इसी क्षण घटना संभव हो जाती है।

और मैं तुम्हें याद दिला देना चाहूंगा कि उन सब विधियों द्वारा जो कि संसार में अस्तित्व रखती हैं, बहुत सारे लोग नहीं पहुंच पाए हैं। बहुत ज्यादा लोग पहुंचे हैं गुरु के निकट होने द्वारा। वह सब से बड़ी विधि है। लेकिन अंतत: हर चीज निर्भर करती है तुम पर।

यही है समस्या, यही है समस्या की असली जड़ कि वह मुझ पर निर्भर नहीं। अन्यथा मैं तुम्हें दे चुका होता पहले ही। तब कहीं कोई समस्या न होती। एक बुद्ध ही काफी होता, और उसने दे दिया होता सबको क्योंकि उसके पास अपरिसीम है; तुम उसे निःशेष नहीं कर सकते। वे और—और दे सकते हैं। और सदा तैयार होते हैं देने को, क्योंकि जितना ज्यादा वे देते हैं, उतना ज्यादा वे पाते हैं। जितना ज्यादा वे बांटते हैं, उतने ज्यादा अज्ञात स्रोत खुलते जाते हैं, अशात नदियां बहने लगती हैं उनकी तरफ।

एक बुद्ध ने ही संबोधि दे दी होती सब प्राणियों को, यदि यह बात गुरु पर निर्भर होती तो। यह निर्भर नहीं है। तुम्हारे अज्ञान में, तुम्हारे मन की अहंकारयुक्त अवस्था में, तुम्हारे बंद कैद हुए अस्तित्व में, तुम अस्वीकार कर दोगे यदि बुद्ध उसे तुम्हें देना भी चाहते हों तो। जब तक तुम न चाहो तुम करोगे अस्वीकार। उसे तुम्हें तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध नहीं दिया जा सकता है। तुम्हें उसे प्रवेश करने देना होता है, और तुम्हें उसे प्रवेश करने देना होता है बड़े बोधपूर्वक, सतर्कता से और सजगता से। केवल गहरी जागरूकता में और गहरी ग्रहणशीलता में उसे ग्रहण किया जा सकता है।

गुरु के समीप होने से, प्रेम और आस्था में उसके निकट होने से, और बिना तुम्हारे अपने चुनाव के जो कुछ वह करना चाहे करने देने से फिर कोई और चीज करने की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन फिर अपेक्षा मत रखना। तब अपने मन के ज्यादा गहरे में भी कोई मांग मत रखना, क्योंकि वही अपेक्षा और मांग ही अड़चन बन जायेगी। तब तुम केवल प्रतीक्षा करना। यदि वह बहुत—बहुत जन्मों तक भी न घटने वाला हो, यदि तुम्हें अनंतकाल तक भी प्रतीक्षा करनी पड़े, तो भी प्रतीक्षा करना और यह प्रतीक्षा उदास घुटी हुई प्रतीक्षा नहीं होनी चाहिए। इसे होना चाहिए प्रतीक्षामय उत्सव। इसे आनंदमय उत्सव होना चाहिए। इसे होना चाहिए आनंद से परिपूर्ण। यही चीजें बताती हैं कि तुम और— और निकट हो सकते हो।

और अकस्मात एक दिन आता है जब गुरु की प्रज्वलित लौ और तुम्हारे अस्तित्व की लौ एक हो सकती है। अचानक एक छलांग लगती है; तुम वहां नहीं होते, और न ही होता गुरु। तुम एक हो गए होते हो। उस एकमयता में, वह सब जो कि गुरु तुम्हें दे सकता है, उसने दे दिया होता है तुम्हें। उसने स्वयं को उंडेल दिया होता है तुममें।

तो खोजी के लिए आवश्यक नहीं होता समाधि की सारी अवस्थाओं में से गुजरना। ऐसा आवश्यक हो जाता है इसलिए क्योंकि तुम पर्याप्त रूप से खोजी नहीं होते हो। तब बहुत सारी अवस्थाएं होती हैं। यदि तुम सचमुच ही प्रगाढ़ होते, सच्चे होते, प्रामाणिक होते, यदि तुम मरने को तैयार होते हो तो इसी क्षण वह घट सकता है।

तीसरा प्रश्न.

आपने कहा कि पतंजलि कविता रहस्यवाद और तर्क के श्रेष्ठ जोड़ हैं क्या आपके पास भी यही संपूर्ण संतुलन नहीं है?

नहीं, मैं तो बिलकुल विपरीत हूं पतंजलि के। पतंजलि के पास एक संपूर्ण जोड़ है कविता, रहस्यवाद और तर्क का। नहीं, मैं तो केवल हूं ‘नेति—नेति’; न तो यह हूं और न ही वह हूं। मेरे पास कविता, रहस्यवाद और तर्क का संपूर्ण संतुलन नहीं है। वस्तुत: मेरे पास न तो संतुलन है और न ही है असंतुलन, क्योंकि—संपूर्ण रूप से संतुलित व्यक्ति के पास असंतुलन भी साथ में ही होता है।

संतुलन केवल तभी अस्तित्व रख सकता है जबकि असंतुलन का अस्तित्व हो। सुसंगतता केवल तभी अस्तित्व रख सकती है जब विसंगति साथ में ही हो। मैं तो हूं एक विशाल शून्यता की भांति, बगैर किसी समस्वरता के; कोई असमस्वरता भी नहीं। कोई संतुलन नहीं, कोई असंतुलन नहीं; कोई पूर्णता नहीं, कोई अपूर्णता नहीं—मात्र एक शून्यता। यदि तुम आते हो मुझ में तो तुम मुझे बिलकुल ही नहीं पाओगे वहां। मैंने स्वयं नहीं पाया, तो तुम कैसे पा सकते हो मुझे?

ऐसा हुआ कि सूफी संत बायजीद के घर में एक चोर घुस गया। रात अंधेरी थी और बायजीद का घर था बिलकुल अंधकार में। क्योंकि वह बहुत गरीब था, वह एक भी मोमबत्ती का खर्च नहीं उठा सकता था। और कोई जरूरत भी न थी क्योंकि वह कभी कुछ करता नहीं था रात को, वह तो बस सो जाता था। जब चोर प्रविष्ट हुआ तो कठिनाई नहीं हुई क्योंकि द्वार सदा खुले रहते थे। चोर प्रवेश कर गया। बायजीद ने किसी की उपस्थिति अनुभव करते हुए कहा, ‘मित्र क्या ढूंढ रहे हो यहां?’

बायजीद जैसे गुरु के निकट होने से ही, एक चोर तक भी झूठ नहीं बोल सका। वह मौजूदगी ही ? ऐसी थी कि उसने अनुभव किया प्रेम और जुब बायजीद बोला, ‘मित्र तुम क्या ढूंढ रहे हो यहां?’ तो वह आदमी बोला, ‘मुझे ऐसा कहने में अफसोस होता है, लेकिन कहना ही चाहिए मुझे! मैं आपसे झूठ नहीं बोल सकता। मैं एक चोर हूं और कुछ पाने आया हूं।’ बायजीद बोला, ‘प्रयत्न बेकार है क्योंकि मैं इस घर में रह रहा हूं तीस वर्षों से, और मैंने कुछ नहीं पाया है। लेकिन यदि तुम कुछ पा सको, तो जरा बता देना मुझे।’

यदि तुम प्रवेश करते हो मुझ में तो तुम मुझे बिलकुल ही नहीं पाओगे वहां, क्योंकि मैं स्वयं रह रहा हूं इस घर में बहुत—बहुत वर्षों से और मैंने किसी को नहीं पाया है वहां। वही है मेरी प्राप्ति; वही है जो पाया है मैंने—कि वहां कोई नहीं है भीतर—वह अंतस सत्ता है अनत्ता। जितना ज्यादा गहरे जाते हो तुम भीतर, उतना ही कम तुम पाओगे अहं जैसी कोई चीज। और जब तुम पहुंच जाते हो भीतर के गहनतम मर्म तक, तो केवल होती है शून्यता, शुद्ध शून्यता, ‘कुछ—नहीं—पन’ का विशाल आकाश मात्र होता है। तो संतुलन कैसे अस्तित्व रख सकता है वहां, और कैसे असंतुलन अस्तित्व रख सकता है वहां?

पतंजलि सर्वाधिक असाधारण व्यक्तियों में से एक हैं, मैं नहीं। पतंजलि ठीक विपरीत हैं। यदि तुम पतंजलि से कहते मुझ पर बोलने के लिए तो वे नहीं बोल पाते। वे बहुत भरे हुए हैं स्वयं से। लेकिन यदि तुम मुझ से कहो बोलने के लिए—पतंजलि पर, तिलोपा पर, बोधिधर्म पर, महावीर पर, जीसस क्राइस्ट पर—तो यह आसान होता है, बहुत आसान, क्योंकि मैं बिलकुल शून्य हूं। मैं किसी के प्रति उपलब्ध हो सकता हूं। मैं किसी को आने दे सकता हूं मेरे द्वारा बोलने के लिए। मैं हूं बांस की खाली पोगरी—कोई व्यक्ति गीत गा सकता है उसके द्वारा, वह बन सकती है बांसुरी।

इसलिए मैं जोड़ नहीं हूं—कविता, रहस्यवाद और तर्क का या किसी भी चीज का। मैं संतुलन बिलकुल नहीं। पर ध्यान रहे, मैं असंतुलन भी नहीं हूं। मैं हूं ‘नेति—नेति’; जिसे उपनिषद कहते हैं—’न तो यह और न ही वह।’ इसीलिए मैं उपलब्ध हूं किसी के लिए भी। यदि पतंजलि जोर देते हैं, चाहते हैं तो वे बोल सकते हैं मेरे द्वारा, कोई झंझट नहीं, कोई रुकावट नहीं।

इसलिए तुम सदा परेशान रहते हो कि जब मैं बोलता हूं पतंजलि पर, तो वे समस्त अस्तित्व का पूरा चरमोत्कर्ष बन जाते हैं। तब मैं भूल जाता हूं बुद्ध, महावीर, जीसस और मोहम्मद के बारे में, जैसे कि वे कभी रहे ही न थे, जैसे कि केवल पतंजलि का ही अस्तित्व रहा हो। क्योंकि उस क्षण मैं पतंजलि के प्रति उपलब्ध होता हूं अपनी समग्रता में। केवल ‘कुछ—नहीं—पन’ वैसा कर सकता है। इसीलिए ऐसा घट रहा है पहली बार। अन्यथा, तुम जीसस को कृष्ण पर बोलते हुए, या कि कृष्ण को बुद्ध पर बोलते हुए नहीं पा सकते थे।

महावीर और बुद्ध एक ही समय में जीए, एक ही देश में, देश के एक ही हिस्से में। वे बिहार के छोटे से प्रदेश में निरंतर घूमते रहे, चालीस वर्ष तक। वे समकालीन थे। कई बार वे इकट्ठे होते एक ही गांव में। एक बार वे ठहरे एक ही धर्मशाला में, पर फिर भी परस्पर बोले नहीं। उनके पास कुछ था उनके भीतर। उनके पास कुछ अपना था कहने को। वे एक दूसरे के लिए उपलब्ध नहीं थे।

मेरे पास अपना कुछ नहीं कहने को—मात्र एक खाली बांस की पोंगरी। यदि तुम कभी मेरी प्रतिमाएं बनाना चाहो, तो बहुत सीधी—सरल है प्रक्रिया; प्रयोग करना खाली बांस का। वही होगी मेरी प्रतिमा; तुम मेरा स्मरण कर सकते हो उसके द्वारा। उससे कोई और अर्थ लगाने की जरूरत नहीं—सिर्फ

एक शून्यता, सिर्फ एक विशाल आकाश। कोई भी पक्षी उड़ान भर सकता है और आकाश की कोई शर्तें नहीं, जैसे कि केवल मानसरोवर झील में हंसों को ही आने दिया जाएगा, लेकिन कौवे नहीं, उन्हें आने देने की आज्ञा नहीं। आकाश उपलब्ध होता है हर एक के लिए; हंस के लिए या कौवे के लिए। एक सुंदर पक्षी हो या एक असुंदर पक्षी—आकाश कोई शर्त नहीं बनाता।

पतंजलि के पास संदेश है, मेरे पास नहीं है। या फिर, तुम कह सकते हो कि ‘कुछ—नहीं—पन’ है मेरा संदेश। और उस ‘कछ—नहीं’ में रहते हुए तुम मेरे ज्यादा निकट हो जाओगे। और ‘ना—कुछ’ में होने से, तुम मुझे समझ पाओगे।

चौथा प्रश्न :

बहुत सारे लोग प्रेम को लेकर काफी निराशा अनुभव करते हैं क्या प्रार्थना तक पहुंचने के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है?

नहीं, यदि तुम प्रेम को लेकर काफी निराशा अनुभव करते हो, तुम सर्वथा निराशा अनुभव करोगे प्रार्थना के विषय में, क्योंकि प्रार्थना और कुछ नहीं है सिवाय प्रेम की खुशबू के। प्रेम है फूल की भांति और प्रार्थना है सुवास की भांति। यदि तुम फूल को प्राप्त नहीं कर सकते, तो कैसे तुम प्राप्त कर सकते हो सुवास को? कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता है प्रेम की। और किसी को ऐसी कोशिश करनी नहीं चाहिए, क्योंकि फिर वहां विफलता ही प्रतीक्षा कर रही होती है और दूसरी कोई चीज नहीं।

तुम प्रेम को लेकर इतने निराश क्यों हो? वही समस्या आ बनेगी प्रार्थना में, क्योंकि प्रार्थना का मतलब है संपूर्ण के साथ, ब्रह्मांड के साथ प्रेम। इसलिए प्रेम की समस्या के ज्यादा गहरे में जाओ, और उसे सुलझा लो इससे पहले कि तुम प्रार्थना के बारे में सोचो। अन्यथा तुम्हारी प्रार्थना झूठी होगी। वह एक धोखा होगा। निस्संदेह तुम्हीं धोखा पाते हो, कोई दूसरा नहीं। वहां कोई ईश्वर नहीं तुम्हारी प्रार्थना सुनने को, जब तक कि तुम्हारी प्रार्थना प्रेम न हो, समष्टि बहरी बनी रहेगी। वह किसी दूसरे ढंग से खुल नहीं सकती—प्रेम ही है चाबी।

तो समस्या क्या है? क्यों कोई प्रेम को लेकर इतनी निराशा अनुभव करता है? बहुत ज्यादा अहंकार तुम्हें किसी से प्रेम न करने देगा। यदि तुम बहुत अहं—केंद्रित हो, बहुत स्वार्थी हो, स्वार्थ से ही जुड़े हो अहं—अभिभूत हो, तो प्रेम संभव न होगा, क्योंकि व्यक्ति को थोड़ा झुकना पड़ता है, और व्यक्ति को अपना दायरा थोड़ा छोड़ना पड़ता है, व्यक्ति को थोड़ा समर्पण करना पड़ता है प्रेम में। चाहे कितना ही थोड़ा हो, व्यक्ति को एक हिस्से का समर्पण करना ही पड़ता है। और किन्हीं निश्चित क्षणों में समर्पण करना होता है संपूर्ण रूप से।

दूसरे को समर्पण करने की ही है समस्या। तुम चाहोगे दूसरा समर्पण कर दे तुम्हें, लेकिन दूसरा भी होता है उसी अवस्था में। जब दो अहंकार मिलते हैं तो वे चाहते हैं कि दूसरे को समर्पण करना चाहिए; और दोनों कोशिश कर रहे होते हैं एक ही बात की। प्रेम बन जाता है एक निराशा भरी चीज।

दूसरे को समर्पण के लिए विवश करने को प्रेम नहीं कहते हैं। वह तो घृणा होती है जो विवश करती है दूसरे को तुम्हारे प्रति समर्पण करने के क्योंकि दूसरे को तुम्‍हारे प्रति समर्पण करने के लिए

विवश करना दूसरे को नष्ट करना है। यही होता है घृणा का स्वभाव। यह एक प्रकार की हत्या हो जाती है। प्रेम है स्वयं का समर्पण दूसरे के प्रति। इसलिए नहीं करना क्योंकि तुम विवश किए गए हो समर्पण करने को, नहीं। यह एक ऐच्छिक चीज होती है; तुम बस आनंदित होते उससे। ऐसा नहीं कि तुम्हें विवश किया जाता है। कभी समर्पण मत करना उस किसी के प्रति जो कि तुम्हें विवश कर रहा हो समर्पण करने को, क्योंकि वह बात हो जाएगी आत्मघात। कभी समर्पण मत करना उस किसी के प्रति जो चालाकी से तुम्हारा इस्तेमाल कर रहा हो, क्योंकि वह होगी गुलामी, प्रेम नहीं। समर्पण करना अपने से, और गुणवत्ता तुरंत बदल जाती है।

जब तुम समर्पण करते हो अपने से, तो वह उपहार होता है; हृदय का उपहार। और जब तुम समर्पण करते हो अपने से, अपनी ही इच्छा से, तुम बस स्वयं को दे देते हो दूसरे को, तब कोई चीज पहली बार खुलती है तुम्हारे हृदय में। पहली बार तुम झलक पाते हो प्रेम की। तुमने केवल सुन —लिया है शब्द, तुम्हें पता नहीं कि उसका मतलब क्या है। प्रेम उन शब्दों में से है जिनका प्रयोग हर व्यक्ति करता है और जानता कोई नहीं कि उनका मतलब क्या है।

कुछ शब्द हैं, जैसे कि ‘प्रार्थना’, ‘प्रेम’, ‘परमात्मा’, ‘ ध्यान’। तुम प्रयोग कर सकते हो इन शब्दों का, लेकिन तुम जानते नहीं कि क्या होता है उनका अर्थ, क्योंकि उनका अर्थ शब्दकोश में नहीं होता है। वरना तो तुम सहायता ले लेते शब्दकोश की; वह बात कठिन नहीं। उनका अर्थ तो जीवन के एक खास ढंग में निहित रहता है। उनका अर्थ है तुम्हारे भीतर के एक सुनिश्चित रूपांतरण में। उनका अर्थ भाषागत नहीं है, उनका अर्थ अस्तित्वगत है। जब तक कि तुम अनुभव से नहीं जान लेते, तुम नहीं जानते—और कोई दूसरा रास्ता नहीं है जानने का।

तुम्हें समर्पण करना होता है अपने से बेशर्त, क्योंकि यदि कहीं कोई शर्त होती है तो वह एक सौदा होता है। यदि वहां यह शर्त भी हो कि ‘मैं तुम्हें समर्पण कर दूंगा, यदि तुम समर्पण कर दो मेरे प्रति’, तो भी, वह समर्पण नहीं होता है। वह कहला सकता है व्यापारिक सौदा, न कि समर्पण।

समर्पण बाजार की चीज नहीं। वह बिलकुल नहीं है अर्थशास्त्र का हिस्सा। समर्पण का अर्थ है बिना किसी शर्त के यह बात, ‘मैं समर्पण करता हूं क्योंकि मैं आनंदित होता हूं मैं समर्पण करता हूं क्योंकि यह बहुत सुंदर है; मैं समर्पण करता हूं क्योंकि समर्पण करने में, अकस्मात मेरा दुख तिरोहित हो जाता है क्योंकि दुख अहंकार की प्रतिच्छाया है।’ जब तुम समर्पण करते हो, अहंकार नहीं रहता। तो कैसे बना रह सकता है दुख? इसीलिए प्रेम इतना प्रसन्न होता है।

जब कभी कोई प्रेम में पड़ता है, अकस्मात ऐसा होता है जैसे कि बसंत खिल आया हो हृदय में। वे पक्षी जो मौन थे चहचहाने लगे, और तुमने कभी नहीं सुना था उन्हें। अचानक भीतर हर चीज खिल उठी और तुम भर जाते हो उस सुवास से जो इस धरती की नहीं होती है। प्रेम इस पृथ्वी की एकमात्र किरण होती है जो संबंध रखती है पार के सत्य से।

तो तुम नहीं टाल सकते प्रेम को और नहीं पहुंच सकते प्रार्थना तक, क्योंकि प्रेम है प्रार्थना का प्रारंभ। यह ऐसा है जैसे कि तुम पूछ रहे हो, ‘क्या हम आरंभ से बच कर पहुंच सकते हैं अंत तक?’ वैसा संभव नहीं। ऐसा कभी घटा नहीं और कभी घटेगा नहीं।

कौन—सी समस्या होती है प्रेम में न: पहली, तुम समर्पण नहीं कर सकते। यदि तुम प्रेम में समर्पण नहीं कर सकते, तो कैसे तुम समर्पण करोगे प्रार्थना में? क्योंकि प्रार्थना समग्र—समर्पण की मांग करती है। प्रेम तो इतना नहीं मांगता है। प्रेम समर्पण मांगता है, लेकिन आशिक समर्पण भी ठीक है। यदि तुम कभी—कभी कुछ—कुछ समर्पण भी करते हो, तो उन क्षणों में भी एक द्वार खुलता है और तुम्हें कुछ अलौकिक की झलक मिलती है। प्रेम बहुत समर्पण की मांग नहीं करता। और यदि तुम प्रेम की मांगों को पूरा नहीं कर सकते, तो कैसे तुम पूरा करोगे प्रार्थना की मांगों को? प्रार्थना नितांत रूप से समर्पण मांगती है। यदि तुम एक ही हिस्से का समर्पण करते हो तो वह तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी। वह नहीं स्वीकार करेगी तुम्हें, यदि कई बार तो तुम समर्पण करते हो और कई बार नहीं करते। प्रार्थना बहुत की मांग करती है। व्यक्ति को गुजरना ही पड़ता है प्रेम से। यदि तुम मुझ से पूछो, तो मैं कहूंगा कि प्रेम पाठशाला है प्रार्थना के लिए—स्म प्रशिक्षण, अनुशासन, ज्यादा ऊंची छलांग लगाने की एक तैयारी। मैं संपूर्ण रूप से हूं प्रेम के पक्ष में।

जो कह रहे हो तुम उसके लिए कोशिश की है लोगों ने; सदियों से कोशिश करते आए हैं लोग। लोग जो प्रेम नहीं कर सकते थे उन्होंने कोशिश की है प्रार्थना करने की। सारे मठ, धर्म—स्थान भरे हुए हैं वैसे ही लोगों से—प्रेम में असफल व्यक्तियों से। प्रेम में निराश होकर, उन्होंने सोचा कि कम से कम वे प्रार्थना की कोशिश तो कर ही सकते थे। लेकिन यदि तुम असफल होते हो प्रेम में, तो कैसे कर सकते हो तुम प्रार्थना? धर्म—स्थानों में, संसार भर में हजारों लोग अपनी प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि प्रेम क्या होता है। तब प्रार्थना बन जाती है मात्र एक शाब्दिक बड़बड़ाहट। तब वे परमात्मा से बातें किए जाते हैं सिर से ही। परमात्मा के साथ संप्रेषण होता है हृदय का। परमात्मा के साथ तुम सिर के द्वारा बात नहीं कर सकते, क्योंकि परमात्मा ऐसी किसी भाषा को नहीं जानता जिसे तुम्हारा सिर जानता हो। वह केवल एक भाषा जानता है, और वह है प्रेम।

इसीलिए जीसस कहते हैं, ‘प्रेम ईश्वर है’, क्योंकि प्रेम एकमात्र मार्ग है उस तक पहुंचने का, और प्रेम एकमात्र भाषा है जिसे वह समझता है। यदि तुम बोलते हो अंग्रेजी में वह नहीं समझेगा। यदि तुम बोलते हो जर्मन में वह बिलकुल नहीं समझेगा। वह पृथ्वी की कोई भाषा नहीं समझता है।

यही कहता हूं मैं, ‘यदि तुम बोलते हो जर्मन, तो बिलकुल नहीं! ‘—क्योंकि जर्मन अधिक पुरुष—चित्तमयी भाषा है। जर्मन अपने देश को कहते हैं, ‘फादरलैंड।’ सारा संसार अपने— अपने देश को कहता है, ‘मदरलैंड।’ जितनी ज्यादा पुरुष—चित्त के अनुकूल होती है कोई भाषा, उसे उतना ही कम समझ सकता है परमात्मा। वस्तुत: परमात्मा पुरुष—चित्त से अधिक स्त्री—चित्त को समझता है, क्योंकि स्त्री—चित्त पुरुष—चित्त की अपेक्षा हृदय के ज्यादा निकट होता है। वह गद्य से ज्यादा पद्य को समझता है। वस्तुत: वह विचारों से ज्यादा भावों को समझता है। वह आसुओ को, मुस्कानों को ज्यादा समझ लेता है धारणाओं की अपेक्षा। यदि तुम पूरे हृदय से रो सकते हो तो वह समझ जाएगा। यदि तुम नृत्य कर सकते हो, तो वह समझ लेगा। लेकिन यदि तुम शब्दों में बोले चले जाओ तो वे मात्र फेंके जा रहे होते हैं शून्यता में—कोई नहीं समझता।

परमात्मा समझता है मौन को और प्रेम बहुत मौन होता है। वस्तुत: जब दो व्यक्ति प्रेम में पड़ते हैं तो वे साथ—साथ चुपचाप बैठना चाहेंगे। जब प्रेम तिरोहित हो जाता है, केवल तभी भाषा बीच में चली आती है। पति और पत्नी निरंतर बोलते जाते हैं क्योंकि प्रेम मिट चुका होता है। सेतु अब वहां नहीं रहा तो किसी तरह वे भाषा का सेतु बना लेते हैं। वे किसी भी चीज की बात करते हैं—अफवाहों की, गप्पबाजियों की—क्योंकि मौन को वे बरदाश्त नहीं कर सकते। जब कभी वे मौन होते हैं, तो अकस्मात वे अकेले पड़ जाते। पत्नी नहीं होती है वहां, पति नहीं होता है वहां—वहां बनी होती है एक विशाल दूरी। भाषा के द्वारा वे स्वयं को धोखा दे लेते हैं कि दूरी वहां है ही नहीं।

गहन प्रेम में, लोग मौन रहते हैं। बोलने की कोई जरूरत नहीं होती। परस्पर बिना कुछ बोले ही वे समझ जाते हैं। वे एक—दूसरे का हाथ पकड़ सकते हैं और चुपचाप बैठे रह सकते हैं। प्रार्थना भी मौन होती है। लेकिन यदि तुम प्रेम में कभी मौन नहीं रहे, तो कैसे तुम मौन रहोगे प्रार्थना में? वह मौन है तुम्हारे और समष्टि के बीच का।

प्रेम है दो व्यक्तियों के बीच का मौन, प्रार्थना है समष्टि और एक व्यक्ति के बीच का मौन। वह समष्टि, वह अखंड संपूर्णता है परमात्मा। प्रेम एक प्रशिक्षण है, वह एक पाठशाला है। मैं कभी नहीं सुझाऊंगा कि तुम उससे बचो। यदि तुम कतराते हो उससे तो तुम कभी नहीं पहुंचोगे प्रार्थना तक। और जब तुम प्रार्थना करते हो, तुम इतनी ज्यादा बातें करोगे तो भी हृदय संप्रेषण नहीं कर पाएगा, नहीं कर पाएगा कोई संवाद।

तो चाहे कितना ही कठिन हो पाठ, कितना ही मुश्किल हो ठंडेपन को समाप्त करना, प्रेम को टाल जाने की कोशिश मत करना। प्रार्थना प्रेम से किया पलायन नहीं है। मत बना लेना उसे पलायन। बहुतों नै किया है वैसा और विफल हुए हैं। तुम संसार के किसी धर्मस्थान में जा सकते हो और जरा देख सकते हो उन मूढ़ों को जो विफल हुए, असफल हुए, क्योंकि उन्होंने प्रेम से बचने का प्रयत्न किया।

व्यक्ति को प्रेम में से गुजरना ही पड़ता है; अन्यथा तुम क्रोधित रहोगे जीवन भर। कैसे तुम प्रार्थना कर पाओगे, यदि तुम जीवन के प्रति गहरा अस्वीकार ही बनाए रहो? कैसे तुम करोगे स्वीकार और कैसे करोगे प्रार्थना? तुम निंदा करने वाले बने रहोगे; स्वीकृति संभव न होगी। प्रेम में, पहली बार तुम स्वीकार करते हो। प्रेम में पहली बार तुम जान पाये कि अर्थ मौजूद है और जीवन अर्थपूर्ण है। प्रेम में, पहली बार तुम अनुभव करते हो कि तुम इस संसार के अपने ही हो, न तो अजनबी हो और न ही कोई बाहरी आदमी। प्रेम में, पहली बार एक छोटा—सा घर निर्मित होता है। प्रेम में, पहली बार तुम अनुभव करते हो शांति। कोई तुम्हें प्यार करता है और तुम्हारे साथ प्रसन्नता अनुभव करता है। पहली बार तुम भी स्वीकार करते हो स्वयं को। वरना, कैसे तुम स्वीकार करोगे स्वयं को? जीवन में एकदम बचपन से ही तुम्हें सिखाया गया है स्वयं को निंदित करना, अस्वीकृत करना।’ऐसा मत करो, वैसे मत बनो’—हर कोई उपदेश देता रहा है तुम्हें और हर कोई कोशिश करता रहा है तुम्हें समझाने की कि तुम बिलकुल गलत हो और तुम्हें स्वयं को सुधारना है।

ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बहुत बीमार थी। वह अस्पताल में थी। मुल्ला रोज आया करता था। वह डाक्टरों से और नर्सों से पूछता रहता उसके बारे में और वे कह देते, ‘उसकी हालत सुधर रही है।’ और उसकी हालत ज्यादा और ज्यादा बिगड़ रही थी रोज, लेकिन डाक्टर और नर्सों ने जारी रखा कहना कि उसकी हालत सुधर रही है, उसमें सुधार हो रहा है। और मैं पूछा करता मुल्ला नसरुद्दीन से, ‘कैसी है तुम्हारी पत्नी?’ वह कहता, ‘डाक्टर कहते हैं, एकदम ठीक; उसकी हालत सुधर रही है। नर्सें कहती हैं, उसमें सुधार हो रहा है। तो जल्दी ही वह जरूर घर आ जाएगी।’ फिर एक दिन वह अचानक चल बसी। तो मैंने पूछा उससे, ‘क्या हुआ नसरुद्दीन?’ उसने अपने कंधे उचकादिए और बोला, ‘मैं समझता हूं वह उस तमाम सुधार को सहन नहीं कर सकी। बहुत ज्यादा था वह सब।’

हर कोई सुधार रहा है तुम्हें; माता—पिता, शिक्षक, पंडित—पुरोहित, समाज, सभ्यता। हर कोई सुधार रहा है, और कोई सह नहीं सकता उतना ज्यादा सुधार! और कुल परिणाम यह होता है कि तुम आदर्श व्यक्ति कभी नहीं हो पाते, बस तुम हो जाते हो स्वयं के निंदक। सर्वांग पूर्णता असंभव है। पूर्ण आदर्श कल्पनात्मक है। सर्वांग पूर्णता संभव ही नहीं; वह सैद्धांतिक होती है, स्वाभाविक नहीं। और हर किसी को बाध्य किया जा रहा है, उसे सुधारने को खींचा और धकेला जा रहा है हर दिशा से। हर कहीं से संदेश आता है कि जो कुछ भी तुम हो, तुम गलत हो—सुधारो। वह बात निर्मित करती है आत्मनिदा; तुम अस्वीकार कर देते हो स्वयं को, तुम सुयोग्य नहीं—बेकार हो, रही हो, अनाप—शनाप हो। यही रहता है मन में।

केवल प्रेम कभी कोशिश नहीं करता तुम्हें सुधारने की। वह तुम्हें स्वीकार करता है जैसे कि तुम होते हो। जब कोई तुम्हें प्रेम करता है, तो तुम बिलकुल सही होते हो, आदर्श होते हो जैसे कि तुम हो। और यदि प्रेमी भी एक दूसरे का सुधार करने की कोशिश कर रहे होते हैं तो वे प्रेमी नहीं। फिर से सारा वही खेल आ बनता है। प्रेम तुम्हें स्वीकार करता है जैसे कि तुम हो, और इस स्वीकृति द्वारा रूपांतरण घटित होता है। पहली बार तुम चैन अनुभव करते हो और तुम आराम पा सकते हो और यह बात अंततः प्रार्थना हो जाने वाली है।

केवल तभी जब कि तुम चैन अनुभव करते हो और विश्रांत होते हो, तो उदित होता है अनुग्रह। मात्र ‘होने’ का अनुग्रह बहुत सुंदर और आनंदमय होता है। प्रार्थना में तुम किसी चीज की मांग नहीं करते, तुम केवल अनुगृहीत होते हो। प्रार्थना है अनुग्रह का अर्पण; वह परमात्मा से कुछ मांगने जैसी बात नहीं। भिखारी वे लोग हैं जो प्रार्थना कभी नहीं कर सकते। प्रार्थना एक अनुग्रह का भाव है, एक गहन कृतज्ञता कि जो कुछ उसने दिया है वह बहुत ज्यादा है। वास्तव में तुम कभी उसे पाने के योग्य न थे। प्रेम द्वारा, सारा जीवन एक उपहार बन जाता है परमात्मा का, और तब तुम अनुभव करते हो धन्यभागी। और अनुग्रह के भाव से उदित होती है प्रार्थना की सुवास।

यह एक बहुत सूक्ष्म प्रक्रिया होती है. प्रेम द्वारा, तुम्हारी अपने प्रति तथा दूसरे के प्रति स्वीकृति; प्रेम की स्वीकृति द्वारा, एक रूपांतरण और एक दृष्टि कि कैसे भी हो जो भी तुम हो, तुम बिलकुल सही हो। और समग्रता स्वीकार करती है तुम्हें। फिर वहां रहता है अनुग्रह। तब उमग आती है प्रार्थना। वह शाब्दिक नहीं होती; संपूर्ण हृदय बस परिपूरित होता है अनुग्रह के भाव से। प्रार्थना कोई क्रिया नहीं है, प्रार्थना तो होने का एक ढंग है। जब वास्तव में ही प्रार्थना मौजूद होती है, तो तुम प्रार्थना नहीं कर रहे होते, तुम प्रार्थना ही होते हो, तुम प्रार्थना में बैठते, तुम प्रार्थना में खड़े होते, तुम प्रार्थना में चलते—फिरते, तुम सांस लेते तो प्रार्थना में।

झलक मिलती है प्रेम द्वारा। क्या कभी तुम पड़े हो प्रेम में? —तब तुम सांस लेते हो प्रेम में, तब तुम चलते हो तो प्रेम में। तब तुम्हारे चरणों में नृत्य की गुणवत्ता होती है, जो कि दिखायी पड़ जाती है दूसरों को भी। तब तुम्हारी आंखों में एक चमक होती है, एक अलग ही चमक होती है उनमें। तब तुम्हारे चेहरे पर एक आभा होती है। तब तुम्हारी आवाज में गुनगुनाहट होती है—किसी गीत की।

वह व्यक्ति जिसने कभी प्रेम नहीं किया ऐसे चलता है जैसे कि वह स्वयं को घसीट रहा हो। वह व्यक्ति जिसने प्रेम किया है, ऐसे तिरता है जैसे कि हवा के पंखों पर तिर रहा हो। वह आदमी जिसने कभी प्रेम नहीं किया नृत्य नहीं कर सकता है। क्योंकि वह अपने अंतरतम में नहीं जानता कि नृत्य क्या है। वह आनंदपूर्ण नहीं हो सकता—उदास होता है, बंद होता है, लगभग मरा हुआ, करीब—करीब कब्र में ही रह रहा होता है। प्रेम दूसरे की ओर सरकने देता है और जब ऊर्जा सरकती है दूसरे की ओर, तो तुम सक्रिय हो जाते हो। जब ऊर्जा सरकती है दूसरे तक, दूसरे से तुम तक, अकस्मात तुम सेतु निर्मित कर लेते हो अपने और दूसरे के बीच। और यह सेतु देगा तुम्हें इसकी पहली झलक, इसकी पहली रूपरेखा कि प्रार्थना क्या होती है। वह एक सेतु होता है तुम्हारे और संपूर्ण के बीच।

मैं कल्पना नहीं कर सकता कि प्रेम में जाए बिना किसी के लिए कैसे संभव होता है प्रार्थना में जाना, इसलिए प्रेम से भयभीत मत हो जाना। प्रेम में मर जाओ, ताकि पुनर्जन्म ले सको। स्वयं को मिटा दो प्रेम में, जिससे कि तुम फिर से युवा और ताजा हो सको। अन्यथा कहीं कोई संभावना नहीं होती है प्रार्थना की। और निराश मत अनुभव करना प्रेम के विषय में, क्योंकि वही है एकमात्र आशा। कहा है जीसस ने, ‘यदि नमक अपनी नमकीनी छोड़ देता है तो कैसे वह फिर से हो सकता है नमकीन?’ और मैं कहता हूं तुमसे, यदि प्रेम निराश हो जाता है, तो कहीं कोई आशा नहीं, क्योंकि प्रेम ही है एकमात्र आशा। तो फिर से आशा कहां पाओगे तुम?

प्रयास को मत गिरा देना, मत स्वीकार करना विफलता को। कोई अस्तित्व रखता है तुम्हारे लिए; तुम अस्तित्व रखते हो किसी के लिए। यदि प्यास है, तो पानी भी जरूर होगा। यदि भूख है, तो भोजन भी जरूर होगा। यदि आकांक्षा मौजूद है, तो उसकी परिपूर्ति के लिए कोई मार्ग जरूर होगा। मत अनुभव करना निराशा। फिर से पुनजावित कर लेना अपनी आशा, क्योंकि केवल एक निराश व्यक्ति ही अधार्मिक होता है। केवल एक निराश व्यक्ति होता है, नास्तिक।

प्रेम है एकमात्र आशा। प्रेम द्वारा, बहुत सारी नयी आशाएं उठ खड़ी होंगी, क्योंकि प्रेम है बीज परम आशा का—जो है परमात्मा। हर एक कोशिश कर लेना। उस आशा—शून्यता में मत जा बैठना। ऐसा कठिन होगा, लेकिन यही बात उपयुक्त बैठती है, क्योंकि इसके बिना तुम अटके हुए होते हो और तुम फिर—फिर वापस फेंक दिए जाओगे जीवन में, जब तक प्रेम का पाठ न सीख लो। और एक बार प्रेम को जान लिया जाता है, तो प्रार्थना बहुत आसान हो जाती है। वास्तव में, प्रार्थना सीखने की तो कोई जरूरत ही नहीं रहती। यह तो अपने से ही आती है यदि तुम प्रेम करते हो तो।

पांचवां प्रश्न :

पतंजलि आधुनिक मन की अविश्वसनीय न्यूरोसिस ( विक्षिप्तता) के साथ कैसे कार्य करेंगे?

मेरी तरह ही! मैं क्या कर रहा हूं यहां पर? —तुम्हारी न्यूरोसिस (विक्षिप्तता) के साथ संघर्ष कर रहा हूं। अहंकार सारी न्यूरोसिस का मूल स्रोत है, क्योंकि अहंकार ही है सारे झूठों का केंद्र, सारे विकारों का केंद्र। सारी समस्या अहंकार की ही होती है। याद तुम बने रहते हो अहंकार के साथ, तो देर—अबेर तुम न्यूरोटिक बन ही जाओगे। तुम बनोगे ही, क्योंकि अहंकार आधारभूत न्यूरोसिस। अहंकार कहता है, ‘मैं हूं संसार का केंद्र’, जो कि है मिथ्या, पागल। केवल यदि परमात्मा हो वहां तो वह कह सकता है ‘मैं’। हम तो केवल हिस्से हैं, हम नहीं कह सकते ‘मैं’। यही दावा ‘मैं’ का, यह न्यूरोटिक है।’मैं’ को गिरा दो और सारी न्यूरोसिस तिरोहित हो जाती है।

तुम्हारे और पागलखाने के पागलों के बीच कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है। केवल अवस्था या परिमाण का ही अंतर है, किसी गुणवत्ता का अंतर नहीं है। तुम शायद अठानबे डिग्री पर होंगे, और वे एक सौ के पार जा चुके हैं। तुम जा सकते हो किसी समय, अंतर कोई बड़ा नहीं है।

पागलखानों में किसी दिन जाना और जरा देखना, क्योंकि वही कुछ बन सकता है तुम्हारा भविष्य भी। देखना जरा पागल आदमी की ओर। क्या घटित हुआ है उसको? वही आशिक तौर पर तुमको घटा है। क्या घटता है पागल आदमी में? —उसका अहंकार इतना वास्तविक हो जाता है कि हर दूसरी चीज झूठ बन जाती है। सारा संसार भ्रममय होता है; केवल उसका आंतरिक संसार, अहंकार और उसका संसार, सत्य होता है। तुम जा सकते हो पागलखाने में किसी मित्र से मिलने, और शायद वह तुम्हारी ओर देखेगा नहीं, वह तुम्हें पहचानेगा भी नहीं। वह सिर्फ बात करेगा अपने उस अदृश्य मित्र से जो कि उसके साथ ही बैठा हुआ है। तुम नहीं पहचाने गए, लेकिन उसके मन का एक कल्पित तत्व पहचाना गया है मित्र के रूप में। वह बात कर रहा है और वही उत्तर दे रहा है।

पागल आदमी वह आदमी है जिसके अहंकार ने पूरा आधिपत्य जमा लिया होता है। ठीक इसके विपरीत होती है अवस्था बुद्ध—पुरुष की जिसने अहंकार गिरा दिया होता है पूरी तरह। तब वह स्वाभाविक होता है। अहंकार के बिना तुम स्वाभाविक होते हो, सागर की ओर बहती नदी की भांति, या कि देवदारों के बीच से गुजरती हवा की भांति या कि आकाश में तैरते बादलों की भांति। अहंकार के बिना तुम फिर से इस विशाल प्रकृति के हिस्से होते हो, निर्मुक्त और स्वाभाविक। अहंकार के साथ तनाव मौजूद होता है। अहंकार के साथ तुम अलग होते हो। अहंकार सहित तुमने सारे संबंधों से स्वयं को काट लिया होता है। यदि तुम संबंध में सरकते भी हो, तो तुम ऐसा क्रमिक—रूप से करते हो। अहंकार तुम्हें किसी चीज में पूरेपन से नहीं जाने देगा। वह हमेशा रोक रहा होता है स्वयं को।

यदि तुम सोचते हो कि तुम अस्तित्व के केंद्र हो तो तुम पागल हो। यदि तुम सोचते हो कि तुम मात्र एक तरंग हो सागर की, संपूर्ण के भाग हो, संपूर्ण के साथ एक हो, तब तुम कभीनहीं हो सकते पागल। यदि पतंजलि यहां होते, तो वे वही कुछ करते जो मैं कर रहा हूं। और ठीक से याद रख लेना कि स्थितियां भेद रखती हैं, लेकिन आदमी करीब—करीब वही है।

अब टेक्यालॉजी आ पहुंची है। वह मौजूद नहीं थी पतंजलि के दिनों में—नए घर हैं, नए साधन हैं। आदमी के आस—पास की हर चीज बदल गयी है, लेकिन आदमी बना हुआ है वैसा ही। पतंजलि के समय में भी, आदमी ऐसा ही था, लगभग ऐसा ही। कुछ ज्यादा नहीं बदला है आदमी में। इस बात को ध्यान में रख लेना है। अन्यथा व्यक्ति सोचने लगता है कि आधुनिक आदमी एक ढंग से निंदित है। नहीं, ऐसा हो सकता है कि तुम किसी कार के पीछे पागल होते हो; तुम चाहोगे स्पोर्ट्स कार और तुम होते हो ने बहुत तनावपूर्ण और इसके द्वारा बहुत चिंता निर्मित हो जाती है। निस्संदेह, पतंजलि के समय में कारें ‘ इत्यादि नहीं थीं, लेकिन लोग बैलगाड़ियों के पीछे पागल हुए जाते थे। यदि अभी भी तुम किसी भारतीय गाव में चले जाओ, तो जिस व्यक्ति के पास तेज बैलगाड़ी होती है वह सम्मानित होता है। एक तेज बैलगाडी हो या कि रॉल्स रॉयस उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता; अहंकार उसी ढंग से परिपूर्ण होता है। विषय—वस्तुओं से कुछ ज्यादा अंतर नहीं पड़ता। आदमी का मन यदि अहंकेंद्रित होता है, तो सदा ढूंढ ही लेगा कुछ न कुछ, इसलिए समस्या किसी चीज की नहीं है।

आधुनिक आदमी आधुनिक नहीं है, केवल दुनिया आधुनिक है। आदमी बना रहता है बहुत प्राचीन, पुराना। तुम सोचते हो तुम आधुनिक हो? जब मैं देखता हूं तुम्हारे चेहरों की ओर, मैं पहचान लेता हूं पुराने चेहरों को। तुम यहां रहते रहे हो बहुत—बहुत जन्मों से और तुम बने रहे हो लगभग वैसे ही। तुमने कुछ नहीं सीखा है क्योंकि तुम फिर वही कर रहे हो—फिर—फिर वही लकीर पीट रहे हो! चीजें बदल गई हैं, मगर आदमी बना हुआ है वैसा का वैसा ही; कुछ ज्यादा नहीं बदला है। कुछ ज्यादा बदल नहीं सकता, जब तक कि रूपांतरण के लिए तुम कोई कदम नहीं उठाते हो।

जब तक कि रूपांतरण तुम्हारा हृदय ही नहीं बन जाता, जब तक कि रूपांतरण तुम्हारे हृदय की धड़कन ही नहीं बन जाता और तुम मन की मूढ़ता को नहीं समझ लेते। जब तुम उसकी पीड़ा को समझ लेते हो—तो तुम उसके बाहर लगा देते हो छलांग।

मन बहुत पुराना है। मन बहुत—बहुत प्राचीन है। वस्तुत: मन कभी हो नहीं सकता नया, वह कभी हो नहीं सकता आधुनिक। केवल अ—मन ही हो सकता है नया और आधुनिक क्योंकि केवल अ—मन हो सकता है ताजा—हर घड़ी ताजा। अ—मन कभी कुछ संचित नहीं करता। दर्पण सदा ही साफ होता है; धूल—धवांस एकत्रित नहीं होती उस पर। मन एक संचयकर्ता है। वह संचय किए चला जाता है। मन तो सदा पुराना होता है; मन कभी नहीं हो सकता है नया। मन कभी नहीं होता है मौलिक; केवल अ—मन होता है मौलिक।

इसीलिए वैज्ञानिक भी अनुभव करते हैं कि जब कोई खोज की जाती है तो वह मन द्वारा नहीं की जाती बल्कि केवल अंतराल में होती है, जहां मन अस्तित्व नहीं रखता है, जैसा कि कई बार नींद में होता है। यह बिलकुल आकेंमिडीज की भांति है जो गणित की एक खास समस्या हल करने की कोशिशें करता रहा और’ उसे हल नहीं कर सका। उसने कोशिश की और कोशिश की, निस्संदेह मन को साथ लेकर ही, लेकिन मन केवल दे सकता है वे उत्तर जिन्हें मन जानता है। वह तुम्हें कोई अज्ञात चीज नहीं दे सकता है। वह एक कंप्यूटर होता है; जो कुछ पोषण तुमने उसका किया होता है, वह उत्तर दे सकता है। तुम कोई नई बात नहीं पूछ सकते। बेचारे मन से कैसे अपेक्षा रखी जा सकती है किसी नयी बात के उत्तर की? ऐसा तो बिलकुल संभव ही नहीं होता। यदि मैं जानता हूं तुम्हारा नाम, तो मैं याद रख सकता हूं उसे क्योंकि मन स्मृति है और स्मरण शक्ति है, लेकिन यदि मैं नहीं जानता हूं तुम्हारा नाम और मैं कोशिश और कोशिश करता रहता हूं तो कैसे मैं याद रख सकता हूं उसे जो कि वहां है ही नहीं!

फिर अचानक वह घट गया। आकेंमिडीज ने कार्य किया, और कड़ा परिश्रम किया क्योंकि राजा प्रतीक्षा कर रहा था उसकी। एक सुबह वह स्नान कर रहा था नग्न, जल में आराम कर रहा था, और अकस्मात बात बुदबुदा कर फूट पड़ी, बिना जाने ही वह यकायक सतह पर आ निकली। वह बाहर कूद गया स्नान कुंड से। वह अ —मन की अवस्था में था। वह सोच भी न सकता था कि वह नग्न था क्योंकि वह मन का भाग है। वह सोच न सका कि सड़क पर नग्न जाने से लोग उसे पागल समझेंगे। वह मन जो कि समाज द्वारा दिया जाता वहां था ही नहीं, वह काम ही नहीं कर रहा था। वह अ — मन की स्थिति में था, एक प्रकार की सतोरी में। वह चिल्लाता हुआ, गली में, भाग चला, ‘यूरेका, यूरेका।’ चीखता चिल्लाता, ‘मैंने उसे पा लिया, पा लिया!’ निस्संदेह लोगों ने सोचा कि वह पागल हो गया।’क्या पाया है तुमने नग्न हो गली में दौड़ते हुए?’ उसे पकड़ लिया गया क्योंकि वह ‘यूरेका’ की पुकार मचाते हुए, महल में प्रवेश करने की कोशिश कर रहा था। उसे तो जेल भेज दिया जाता। मित्रों ने उसे थामा; घर ले आए उसे और बोले, ‘क्या कर रहे हो तुम? यदि तुम्हें कुछ मिला भी है तो जरा उचित वस्त्रों में जाओ, वरना तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे।’

मन के दो संवेगमय क्षणों के बीच सदा एक अंतराल होता है अ—मन का। दो विचारों के बीच एक अंतराल होता है, निर्विचार का एक विराम। दो बादलों के बीच तुम देख सकते हो नीले आकाश को। तुम्हारा स्वभाव है अ—मन का। वहां कोई विचार नहीं होता, विशाल शून्यता के सिवाय, आकाश की नीलिमा के सिवाय कुछ नहीं होता। मन तो बस तैर रहा होता है सतह पर। ऐसा बहुत लोगों को घटित हुआ है।

ऐसा घटा मैडम क्यूरी को। उसे नोबल पुरस्कार मिल गया अ—मन के क्षण के लिए। वह कार्य कर रही थी गणित की एक समस्या पर; परिश्रम का कार्य कर रही थी। कुछ परिणाम नहीं निकल रहा था और महीनों गुजर गए। फिर एक रात, अकस्मात वह अपनी नींद से जाग पड़ी; मेज तक गयी, उत्तर लिखा; वापस अपने बिस्तर पर जाकर सो गई। और उसके बारे में हर चीज भूल गयी। सुबह जब वह मेज तक आयी तो विश्वास न कर सकी कि उत्तर वहां पड़ा था। किसने लिखा था वह? फिर धीरे— धीरे उसे याद आ गया, किसी सपने की भांति ही. ‘ऐसा रात्रि में घटा…’ वही आयी थी और वह हस्तलिपि उसी की थी।

गहरी निद्रा में मन गिर जाता है और अ—मन कार्य करता है। मन सदा पुराना होता है, अमन सदा ताजा, युवा, मौलिक होता है। अ—मन सदा सुबह की ओस की भांति होता है—नितात ताजा, स्वच्छ। मन सदा गंदा होता है। उसे होना ही होता है; वह धूल इकट्ठी कर लेता है। धूल है स्मृति।

जब मैं देखता हूं तुम्हारी तरफ, मैं देखता हूं कि तुम्हारा मन बहुत पुराना है; बहुत सारे पिछले जन्म वहां इकट्ठे हो चुके हैं। लेकिन मैं ज्यादा गहरे भी देख सकता हूं। वहां है तुम्हारा अ—मन, जो कि बिलकुल ही संबंधित नहीं है समय से, इसीलिए न तो वह पुराना है और न ही आधुनिक। मनुष्य तो सदा ही पुराना होता है तो भी मनुष्य में कुछ विद्यमान होता है—वह चेतना—जो न तो पुरानी होती है और न ही नयी, या फिर, बिलकुल नित—नूतन होती है।

छठवां प्रश्न :

हम में से कुछ लोग आपके प्रवचन के दौरान सो जाते हैं या ऊंघती अवस्था में चले जाते हैं आप जरूर देखते ही होंगे ऐसा घटते हुए। क्या यह बात किसी सृजनात्मक विधायक प्रक्रिया का हिस्सा होती है? क्या हमें इसे घटने देना चाहिए इसके बारे में कोई अपराध— भाव अनुभव किए बिना या कि हमें ज्यादा बड़ा प्रयत्न करना चाहिए सजग बने रहने का?

यह थोड़ा जटिल है। पहले तो, बहुत से प्रकार हैं। एक प्रकार ऊंघ वह होती है जो कि आती है यदि तुम मुझे सुनते हो बहुत ध्यानपूर्वक। तब वह निद्रा की भांति नहीं होती है, वह हिप्नोसिस की भांति, सम्मोहन की भांति अधिक होती है। तुम्हारा मेरे साथ इतना गहरा तालमेल बैठ जाता है कि तुम्हारा मन अ—क्रियान्वित होने लगता है। तुम बस सुनते हो मुझे और मुझे सुनते जाना भर ही लोरी जैसा हो जाता है। यदि ऐसी होती है अवस्था तो एक निश्चित उनींदापन वहां होगा ही। लेकिन यह केवल तभी आएगी, जब तुम मुझे बहुत ध्यानपूर्वक सुनो। तब यह बात निद्रा नहीं होती। यह सुंदर है। और तुम्हें इसे लेकर अपराधी नहीं अनुभव करना चाहिए। यदि यह निर्मित होती है मुझे सुनने से, तो कोई समस्या नहीं। वस्तुत: यही होनी चाहिए अवस्था, क्योंकि तब तुम ज्यादा और ज्यादा गहरे में सुन रहे होते हो। तब मैं तुम्हें बेध रहा होता हूं बहुत गहरे रूप से, और तुम उनींदापन अनुभव कर रहे होते हो, क्योंकि मन कार्य नहीं कर रहा होता है। तुम विश्राम में होते। यह ‘होने देने’ की एक अवस्था होती है। तुम मुझे अपने में ज्यादा और ज्यादा गहरे व्याप्त होने दे रहे होते हो। यह शुभ है। कुछ गलत नहीं है इसमें। तुम इसे उनींदेपन की भांति अनुभव करते हो, क्योंकि यह एक निष्कि्रयता होती है। तुम सक्रिय नहीं होते, और वैसा होने की कोई जरूरत भी नहीं।

जब तुम सुन रहे होते हो मुझे, तो सक्रिय होने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि यदि तुम सक्रिय होते हो तो तुम्हारा मन व्याख्या किए चला जाएगा। यह सुंदर है—और कोई जरूरत नहीं अपराधी अनुभव करने की—ऐसा होने दो। इसे अस्त—व्यस्त करने के लिए कोई प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं। मैं तुम्हारे भीतर गहरे में समा जाऊंगा। यह बात सहायक होती है।

भारत में हमारे पास एक विशिष्ट शब्द है इसके लिए। पतंजलि इसे कहते हैं ‘योग तंद्रा’—वह निद्रा जो आती है योग द्वारा। कोई चीज यदि तुम समग्रता से करते हो, तो तुम बहुत आराम अनुभवं करते हो, और वही आराम लगता है निद्रा जैसी। वह निद्रा नहीं होती, वह ज्यादा लगती है हिम्मोसिस की तरह। हिप्नोसिस का अर्थ भी होता है निद्रा, लेकिन एक अलग प्रकार की निद्रा, जिसमें दो व्यक्तियों का गहन तालमेल बैठ जाता है। यदि मैं तुम्हें सम्मोहित करता हूं तो तुम मुझको सुन पाओगे, किसी और चीज को नहीं। सम्मोहित व्यक्ति सुनता है केवल सम्मोहनकर्ता को ही, किसी दूसरे को नहीं। वह मात्र केंद्रित होता है। इस एकांतिक एकाग्रता में, चेतन मन गिर जाता है और अचेतन क्रियान्वित हो जाता है। तुम्हारी गहराई सुनती है मेरी गहराई को, यह एक संप्रेषण होता है, गहराई से गहराई तक का। मन की जरूरत नहीं होती। लेकिन खयाल में रखने की बात यह होती है कि तुम्हें मुझे बहुत ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए, केवल तभी ऐसा घटेगा।

फिर होती है दूसरी प्रकार की निद्रा. तुम मुझे नहीं सुन रहे होते, और मुझे न सुनते हुए इतनी देर केवल यहां बैठे रहने से ही, तुम नींद अनुभव करने लगते हो। या जो मैं कह रहा हूं वह तुम्हारे लिए बहुत ज्यादा होता है, तुम कुछ ऊबा हुआ अनुभव करते हो। या फिर, जो मैं कह रहा होता हूं वह बहुत एक—रस लगता है। ऐसा है क्योंकि जो मैं कहता हूं एक स्वर ही होता है। मैं गा रहा हूं एक ही स्वर लाखों—लाखों ढंग से। पतंजलि, जीसस, बुद्ध, तो बस बहाने हैं। .मैं गा रहा हूं एक ही स्वर, वह एकरस है। यदि तुम अनुभव करते कि वह एकरस है और तुम थोड़ी ऊब अनुभव करते हो या कि तुम उसे समझ ही नहीं सकते, यह तुम्हारे लिए ,बहुत ज्यादा हो जाता है, या फिर वह तुम्हारे सिर के ऊपर से ही गुजर जाता है, फिर तुम नींद अनुभव करने लगते हो, लेकिन वह नींद अच्छी नहीं होती। तब कोई जरूरत नहीं होती मुझे सुनने के लिए यहां आने की; क्योंकि वस्तुत: तुम सुन नहीं रहे होते, तुम सोए हुए होते हो। तो क्यों आना यहां शारीरिक रूप से भी? —कोई जरूरत नहीं।

एक तीसरा प्रकार भी होता है। तुम यदि दूसरे प्रकार के हो, तो तुम्हें सचमुच इस बारे में अपराधी अनुभव करना चाहिए और जब मुझे सुन रहे होते हो तो सजग रहने का ज्यादा प्रयास करना। तो संभव होता है कि पहला प्रकार घट जाए। फिर होता है तीसरा प्रकार जो कि न तो संबंधित होता है सुनने से और न संबंधित होता है तुम्हारे अस्तित्व की ऊबपूर्ण स्थिति से। वह आता है तुम्हारे शरीर से। शायद तुम रात को ठीक से नहीं सो सकते होओगे। बहुत थोड़े लोग ठीक से सोते हैं। जब तुम रात को ठीक से नहीं सोए होते तो तुम कुछ थके — थके होते हो। तुम्हें नींद की भूख होती है और यहां एक मुद्रा में फिर—फिर एक ही व्यक्ति के साथ बैठने से एक ही आवाज बार—बार सुनते हुए, तुम्हारा शरीर उनींदापन अनुभव करने लगता है, जो कि आता है तुम्हारे शरीर से।

यदि वैसी होती है स्थिति तो कुछ कर लेना अपनी नींद का। उसे ज्यादा गहरा बनाना होगा। समय की कोई ज्यादा समस्या नहीं—तुम सो सकते हो आठ घंटे, और यदि वह सोना गहरा नहीं होता तो तुम भूख अनुभव करोगे—नींद के लिए भूखे हो जाओगे—समस्या गहराई की ही है।

हर रात सोने के पहले तुम एक छोटी—सी विधि का प्रयोग कर सकते हो जो कि जबर्दस्त मदद देगी। बिजली बुझा दो: अपने बिस्तर में बैठ जाओ, सोने के लिए तैयार होकर, लेकिन बैठना पंद्रह मिनट के लिए ही। आंखें बंद कर लेना। फिर शुरू कर देना कोई भी एकरस निरर्थक ध्वनि, उदाहरण के लिए : ला, ला, ला—और मन की प्रतीक्षा करना कि वह नयी ध्वनियां भेजे। एकमात्र बात जो ध्यान में रखने की है वह यही कि वे ध्वनियां या शब्द किसी उस भाषा के नहीं होने चाहिए जिसे कि तुम जानते हो। यदि तुम जानते हो अंग्रेजी, जर्मन और इतालवी, तब वे इतालवी, जर्मन, अंग्रेजी के नहीं होने चाहिए। कोई दूसरी भाषा जिसे तुम नहीं जानते स्वीकार करनी होती है—तिब्बती, चीनी, जापानी। लेकिन यदि तुम्हें जापानी आती है, तो गुंजाइश नहीं होती, तब इतालवी सबसे अच्छी होती है। कोई वह भाषा बोलो जिसे तुम नहीं जानते। केवल पहले दिन थोड़ी देर को तुम कठिनाई में पड़ोगे, क्योंकि कैसे तुम वह भाषा बोलोगे जो तुम नहीं जानते? वह बोली जा सकती है और एक बार वे शुरू होती हैं, कोई भी ध्वनियां बेतुके शब्द तो चेतना को बिलकुल बहा देने की और अचेतन को बोलने देने की बात घटेगी।

जब अचेतन बोलता है, तो अचेतन किसी भाषा को नहीं जानता। यह एक बहुत पुरानी विधि है। यह चली आती है प्राचीन विधान से। उन दिनों यह कहलाई जाती थी, ‘ग्लोसोलालिया’। अमेरिका के कुछ चर्च अभी इसका प्रयोग करते हैं। वे इसे कहते हैं, ‘जीभ में बोलना।’ और यह एक अदभुत विधि है, सर्वाधिक गहन और अचेतन में उतर जाने वाली विधियों में से एक। तुम शुरू करते हो, ‘ला, ला ला,’ और फिर तुम चलते चले जा सकते हो किसी भी चीज के साथ जो कि आ जाती है। केवल पहले दिन तुम इसे थोड़ा कठिन अनुभव करोगे। एक बार यह आ जाए तो तुम जान लेते हो इसका ढंग। तब पंद्रह मिनट को प्रयोग करना उस भाषा का जो कि तुम तक पहुंच रही हो, और उसका प्रयोग करना भाषा की गति। वस्तुत: तुम उसमें बोल ही रहे होते हो। ये पंद्रह मिनट तुम्हारे चेतन को इतने गहरे रूप से आराम पहुंचा देंगे, और फिर तुम बस लेट जाते हो और सो जाते हो। तुम्हारी नींद ज्यादा गहरी हो जाएगी। कुछ सप्ताह के भीतर तुम गहराई अनुभव करोगे तुम्हारी निद्रा और सुबह तुम संपूर्ण रूप से ताजा अनुभव करोगे। फिर मैं प्रयत्न भी करूं, तो मैं तुम्हें नींद में नहीं ला सकता।

पहला प्रकार सुंदर है, तीसरा प्रकार एक प्रकार की शारीरिक भुखमरी है, वह रोग है। तीसरे प्रकार का उपचार करना होता है; पहले प्रकार को आने देना होता है। दूसरे प्रकार के बारे में तुम्हें अपराधी अनुभव करना ही चाहिए और हर प्रयास करना चाहिए उससे बाहर आ जाने का।

सातवां प्रश्न.

अब जिस समय कि आधुनिक आदमी इतनी जल्दी में है और पतंजलि की विधियां इतना समय लेती हैं तो किसके प्रति संबोधित कर रहे हैं आप ये प्रवचन?

हां, आधुनिक आदमी जल्दी में है, इसीलिए ठीक विपरीत बात मदद देगी। यदि तुम जल्दी में होते हो, तब पतंजलि सहायक होंगे क्योंकि वे जल्दी में नहीं हैं। वे प्रतिकारक (एंटिडोट) हैं। तुम्हारे मन को जरूरत है एंटिडोट की, विशेषकर पश्चिमी मन को। इस बात की ओर जरा इस ढंग से देखो : अब और कोई दूसरा मन अस्तित्व नहीं रखता सिवाय पश्चिमी मन के, कमोबेश हर जगह ऐसा है, पूरब में भी। पूरब को भी जल्दी है। इसीलिए वह आकर्षित हुआ है झेन में। झेन अचानक संबोधि की आशा दिलाता है। झेन जान पड़ता है इन्स्पेंट कॉफी की भांति, और आकर्षण है उसमें। लेकिन मैं जानता हूं कि झेन मदद न देगा। क्योंकि झेन के कारण नहीं है आकर्षण, आकर्षण है जल्दबाजी के कारण। और तब तुम नहीं समझते झेन को। पश्चिम में जो खबर उड़ी हुई है झेन के बारे में वह लगभग झूठी है। वह पूरी करता है उस मन की आवश्यकता को जो जल्दी में है, लेकिन यह बात सच नहीं झेन के विषय में।

यदि तुम जापान जाओ और पूछो झेन लोगों से, वे प्रतीक्षा करते तीस वर्ष तक, चालीस वर्ष तक प्रतीक्षा करते, सतोरी के घटने की। अचानक संबोधि के लिए भी व्यक्ति को कडा परिश्रम करना होता है। संबोधि अचानक होती है, लेकिन तैयारी लंबी होती है। यह बिलकुल ऐसे होता है जैसे तुम पानी उबालते हो : तुम पानी गर्म करते हो निश्चित डिग्री तक, सौ डिग्री तक, और पानी अकस्मात उड़ जाता है। ठीक—भाप तो अकस्मात बनती है लेकिन तुम्हें ताप को लाना हाता है सौ डिग्री तक। तपने में वक्त लगेगा, और तपन निर्भर करती है तुम्हारी प्रगाढ़ता पर।

यदि तुम जल्दी में होते हो तो कोई ऊष्मा नहीं होती है तुम में, क्योंकि तुम चाहोगे झेन सतोरी पा लेना, या कि जल्दी से संबोधि पा लेना, केवल प्रासंगिक रूप से ही, जैसे कि वह प्राप्त की जा सकती हो, जैसे कि वह खरीदी जा सकती हो। दौड़ते हुए, तुम इसे छीन लेना चाहोगे किसी के हाथ से। इस ढंग से ऐसा नहीं किया जा सकता है। फूल होते हैं, मौसमी फूल होते हैं। तुम बीज बोते हो और तीन सप्ताह के भीतर पौधे तैयार हो जाते हैं। लेकिन तीन महीनों में, पौधों में फूल खिले और चले गए, मिट गए।

यदि तुम जल्दी में हो, तो नशों में रस लेना बेहतर होगा बजाय कि ध्यान, योग, या झेन में रस लेने के, क्योंकि नशे तुम्हें सपने दे सकते हैं, तात्कालिक सपने; कई बार नरक के और कई बार स्वर्ग के सपने। तब मारिजुआना बेहतर होता है ध्यान से। यदि तुम जल्दी में हो, तब कोई शाश्वत चीज तुम्हें नहीं घट सकती, क्योंकि शाश्वतता की चाहिए शाश्वत प्रतीक्षा। यदि तुम शाश्वतता की मांग कर कि वह तुम्हें घट जाए तो तुम्हें तैयार रहना होगा उसके लिए। जल्दबाजी मदद न देगी।

एक झेन कहावत है : यदि तुम जल्दी में होते हो, तो तुम कभी न पहुंचोगे। तुम बैठने भर से पहुंच सकते हो, लेकिन जल्दी करके तुम कभी नहीं पहुंच सकते। वह अधीरता ही बाधा है।

यदि तुम्हें जल्दी है तो पतंजलि हैं प्रतिकारक, एंटिडोट। यदि तुम्हें कोई जल्दी नहीं तो झेन भी संभव है। यह कथन विरोधाभासी जान पड़ेगा, लेकिन यह ऐसा ही है। यही कुछ है वास्तविकता, विरोधाभासी। यदि तुम्हें जल्दी होती है, तब इससे पहले कि संबोधि घटे, तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ती है कई जन्मों तक। यदि तुम्हें कोई जल्दी नहीं होती, तब बिलकुल अभी घट सकती है यह।

मैं तुमसे एक कथा कहता हूं जो कि मुझे बहुत ज्यादा प्यारी है। यह प्राचीन भारतीय कथाओं में से एक है। नारद, पृथ्वी और स्वर्ग के बीच के संदेशवाहक, एक पौराणिक व्यक्तित्व, वे जा रहे थे स्वर्ग की ओर। वे थे डाकिए की भांति ही। वे निरंतर ऊपर—नीचे आते—जाते रहते थे। ऊपर से संदेश लाते, नीचे से संदेश लाते। उन्होंने जारी रखा था अपना काम। वे स्वर्ग के मार्ग पर जाते थे और वे एक बहुत वृद्ध मुनि के बिलकुल पास से गुजरे जो अपनी माला के मनके लिए राम नाम जपते हुए वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। उसने देखा नारद की तरफ और वह बोला, ‘कहां जा रहे हो तुम? क्या तुम स्वर्ग की ओर जा रहे हो? तो मेरे ऊपर एक कृपा करना। पूछना ईश्वर से कि और कितनी प्रतीक्षा मुझे करनी होगी’—इस प्रश्न में ही अधैर्य मौजूद था—’और जरा यह भी याद दिला देना उनको कि तीन जन्मों से मैं ध्यान, तप कर रहा हूं। जो कुछ भी किया जा सकता है, मैंने कर लिया है। हर बात की एक सीमा होती है!’ इसमें मांग थी, अपेक्षा थी, अधीरता थी। नारद बोले, ‘मै जा रहा हूं और मैं पूछूंगा।’

और उस वृद्ध मुनि के एक ओर ही एक दूसरे वृक्ष के नीचे, एक युवा व्यक्ति नाचते हुए और गाते हुए परमात्मा का नाम ले रहा था। मात्र मजाक में ही नारद ने उस युवा व्यक्ति से पूछ लिया, ‘क्या तुम भी चाहोगे कि मैं तुम्हारे बारे में कुछ पूछूं? कि कितना समय लगेगा?’ लेकिन वह युवक इतना ज्यादा डूबा हुआ था आनंद में कि उसने परवाह नहीं की। उसने उत्तर न दिया।

फिर कुछ दिनों के बाद, नारद लौट आए। वे उस वृद्ध से बोले, ‘मैंने पूछा था ईश्वर से और वह हंस पड़ा और बोला—कम से कम तीन जन्मों तक और।’ उस के आदमी ने अपनी माला फेंक दी, और बोला, ‘यह तो अन्याय हुआ। और जो कोई कहता है कि ईश्वर न्यायी है, वह गलत कहता है।’ वह बहुत क्रोध में था। फिर नारद पहुंचे उस युवक के पास जो अभी भी नाच रहा था और कहने लगे वे उससे,. ‘हालांकि तुमने नहीं भी कहा, मैंने पूछ लिया। लेकिन अब मैं भयभीत हूं तुमसे कह देने में, क्योंकि वह का आदमी इतना क्रोध में आ गया कि वह मुझे पीट भी सकता था।’ लेकिन वह युवक तो अभी भी नाच रहा था, पूछने में रुचि न ले रहा था। नारद बोले उससे, ‘मैने पूछा था उनसे, और ईश्वर ने कहा, कह देना उस युवक से कि जिस वृक्ष के नीचे वह नाच रहा है उसी के पत्ते गिन ले; इससे पहले कि वह उपलब्ध हो, उसे उतनी ही बार और जन्म लेना होगा।’ युवक ने सुना और बड़े आनंद में डूब गया—हंसा और कूदा और उत्सव मनाने लगा। वह बोला, ‘इतनी जल्दी? क्योंकि पृथ्वी तो पूरी भरी पड़ी है वृक्षों से, लाखों—लाखों वृक्षों से और बस यही पत्ते और इतनी ही संख्या? इतनी जल्दी? परमात्मा की असीम करुणा है, और मैं इसके योग्य नहीं।’ और ऐसा कहा जाता है कि तुरंत ही वह उपलब्ध हो गया। उसी क्षण शरीर गिर गया। तत्क्षण ही वह संबोधि को उपलब्‍ध हुआ।

यदि तुम्हें जल्दी होती है, तो समय लगेगा इसमें। यदि तुम्हें जल्दी नहीं होती तो यह संभव है बिलकुल इसी क्षण।

पतंजलि प्रतिकारक हैं, एंटिडोट हैं उनके लिए जो जल्दी में होते हैं, और झेन है उनके लिए जो जल्दी में नहीं हैं। और इसके ठीक विपरीत घटता है; जिन लोगों को कोई जल्दी नहीं होती, वे पतंजलि की ओर आकर्षित हो जाते हैं। यह गलत है। यदि तुम्हें जल्दी है, तो अनुसरण करो पतंजलि का, क्योंकि वे तुम्हें खींचते—बढ़ाते चलते चलेंगे और तुम्हें तुम्हारे चेतना—बोध तक ले आएंगे। वे इतने लंबे समय तक मार्ग की बात करेंगे कि वे एक प्रघात होंगे तुम्हारे लिए। और यदि तुम उन्हें प्रवेश करने देते हो स्वयं में, तो तुम्हारी जल्दबाजी तिरोहित हो जाएगी।

इसीलिए मैं बात कर रहा हूं मैं बात कर रहा हूं पतंजलि की तुम्हारे ही कारण। तुम जल्दी में हो और मुझे लगता है कि पतंजलि तुम्हारी अधीरता को गिरा देंगे। वे तुम्हें बढ़ाए चलेंगे; यथार्थ तक लौटा लायेंगे। वे तुम्हें तुम्हारे विवेक—बोध तक ले आयेंगे।

आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–4) प्रवचन–5

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रसो वै स:–प्रवचन—पाँचवाँ

दिनांक 30 नवंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं? समय का सार क्या है? कृपा करके हमें समझायें।

समय को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो घड़ी का समय है, वह तो बाहर है। उससे तुम्हारा कुछ लेना— देना नहीं है। एक तुम्हारे भीतर समय है। उस भीतर के समय से घड़ी का कुछ लेना—देना नहीं है। तो जब भी मैं कहता हूं कि वासना समय है, कामना समय है, तृष्णा समय है—तो तुम घड़ी का समय मत समझना। तुम्हारे भीतर एक समय है। जब हम कहते हैं, बुद्ध और महावीर कालातीत हो गये, तो ऐसा नहीं है कि घड़ी चलती होती है तो उनके लिए बंद हो जाती है। घड़ी तो चलती रहती hऐ—भीतर की घड़ी बंद हो गयी। ध्यान में, समाधि में, भीतर का समय शून्य हो जाता है।

तो भीतर के समय को थोड़ा हम पहचान लें।

तुम जब सुख में होते हो तब तुमने देखा होगा घडी तो पुरानी ही चाल से चलती है, लेकिन तुम्हारे भीतर का समय जल्दी—जल्दी भागने लगता है। किसी प्रियजन से मिलना हो गया तो घंटे ऐसे बीत जाते हैं जैसे पल बीते। घड़ी तो अब भी वैसी ही चल रही है। जब तुम आनंद में होते हो तो समय सिकुड़ जाता है। जब तुम दुख में होते हो तो समय फैल जाता है। जैसे तुम्हारी मां मृत्यु—शैया पर पड़ी है और तुम उसके पास बैठे हो तो घड़ी—घड़ी ऐसी बीतती है जैसे सालों लंबी हो गयी। पल—पल सरकते मालूम पड़ते हैं, घसिटते मालूम पड़ते हैं। सुख में तो समय भागता मालूम पड़ता है। दुख में समय घसिटता मालूम पड़ता है; जैसे लंगड़ी चाल चलता हो। दुख में समय लंगड़ाता है, सुख में ओलंपिक के दौड़ने वालों की चाल से चलता है।

इसका अर्थ हुआ : अगर महासुख की घड़ी आ जाये तो समय इतना तेज हो जाता है कि पता ही नहीं चलता है कि चला। महासुख की घड़ी आ जाये तो समय का परिवर्तन पता नहीं चलता। दुख की घड़ी में, महादुख की घड़ी में बडी लंबाई हो जाती है।

कहते हैं, नरक अनतकालीन है। वहा क्षण भी अनंत काल जैसा लगता होगा, क्योंकि बहुत कठिनाई से गुजरता होगा। स्वर्ग में सभी जल्दी भाग रहा होगा; क्षण भर में बीत जाता मालूम होता होगा। इतनी तेज चाल होगी। अगर महासुख की घड़ी आ जाये…।

महासुख का अर्थ है : जहां दुख भी न रह जाये और सुख भी न रह जाये। आनंद की घड़ी आ जाए—जहां दुख भी न रहा, सुख भी न रहा—तो न तो समय चलता, न दौड़ता। समय होता ही नहीं—कालातीत, समयातीत! समय—शून्य घड़ी आ जाती है। सब ठहर जाता है।

इस भीतर के समय को ही समझने की बात है। बाहर की घड़ी तो वैसे ही चलती रहेगी—तुम शानी हो जाओ, अज्ञानी हो जाओ, सुख में, दुख में; समाधि में। तुम ध्यान में बैठो, घंटों बीत जायें, आंख खोलो तो तुम्हें लगे कि कोई समय बीता ही नहीं; लेकिन घड़ी तो बतायेगी कि तीन घंटे बीत गये। रामकृष्ण ध्यान में, गहरी समाधि में चले जाते थे। छह घंटे बीत गये। भक्त तो घबराने लगते, क्योंकि उनका शरीर बिलकुल ऐसा हो जाता जैसे पत्थर हो गया। वे किसी भीतर के लोक में खो गये। भक्त घबराने लगते कि लौटेंगे कि नहीं लौटेंगे, लौट पायेंगे कि नहीं लौटेंगे! एक बार तो छह दिन तक ऐसी ही दशा बनी रही। श्वास भी ऐसी लगे जैसे ठहर गयी। सब शून्य हो गया मालूम पड़ने लगा। भक्तों ने तो आशा छोड़ दी। जब वे लौटे तो भक्तों ने कहा : आपको पता है, छह दिन..? तो उन्होंने कहा : आश्चर्य है, क्योंकि मुझे तो ऐसा लगा अभी—अभी गया था, अभी— अभी लौट आया, क्षण भर भी नहीं बीता।

यह जो भीतर की प्रतीति है समय की, यह तृष्णा के कारण है। तुम्हारी जितनी तृष्णा होती है, भीतर समय का उतना ही विस्तार होता है। तृष्णा के फैलने के लिए समय की जगह चाहिए, नहीं तो तृष्णा फैलेगी कहां? बाहर जो घड़ी का समय है उसमें तो एक ही पल मिलता है एक बार, दो पल साथ नहीं मिलते। एक पल में क्या तृष्णा करोगे? एक पल में तो सिर्फ जी सकते हो, वासना नहीं कर सकते। वासना की कि पल तो गया। गीत गुनगुना सकते हो, लेकिन तैयारी नहीं कर सकते कि गीत गुनगुनायेंगे। क्योंकि अगर गीत गुनगुनाने की तैयारी की तो यह तो समय गया। इतनी देर रुकता कहां है! वह पल तो आया नहीं कि गया नहीं। इतनी फुर्सत कहा है! वर्तमान में तुम जी सकते हो, लेकिन जीने की योजना नहीं बना सकते।

इसलिए समस्त ध्यानियों ने कहा है. वर्तमान में जीओ, अभी और यहीं! इसके पार तुम्हारी कोई वासना न हो तो समय समाप्त हो गया। समय की जरूरत पड़ती है, क्योंकि हमें कल तो चाहिए ही। कल ने होगा तो कैसे काम चलेगा? फिर कहां, किस कैनवास पर हम अपनी तृष्णा के चित्र फैलायेंगे? कल सुख होगा। आज दुख है, कल की आशा रखते हैं। कल सपना पूरा होगा। कल भी आज की तरह आयेगा; तब तुम फिर और आगे कल पर सपने को फैला दोगे। ऐसे तुम्हारा सपना फैलता जाता है—शन्य आकाश में!

भविष्य है थोड़े ही। जो है, वह तो वर्तमान है। जो गया, वह गया। जो आया नहीं, आया नहीं। अभी जो है, भविष्य और अतीत के बीच में जो छोटा—सा सेतु है, एक पल का—वही है। उस पल में डूब जाओ। जी सकते हो, लेकिन जीने की योजना नहीं बना सकते। सत्य को पा सकते हो, लेकिन सपना नहीं फैला सकते। सत्य तो यहीं खड़ा है द्वार पर, लेकिन तुम्हारी आंखें अगर सपनीली हैं और तुम सपने देख रहे हो, तो तुम्हें समय चाहिए। सपने को देखने के लिए समय चाहिए। सत्य को देखने के लिए समय की कोई भी जरूरत नहीं है। तो जितना बड़ा सपना होगा उतना ही ज्यादा समय चाहिए, उतना ही लंबा समय चाहिए।

तो जितनी वासना होती है उतना ही आदमी मौत से घबराता है। मौत से घबराने का क्या अर्थ

होता है? मौत करती क्या है? मौत समय छीन लेती है। मौत करती क्या है? मौत भविष्य का दरवाजा बंद कर देती है। मौत मौका नहीं देती कि अब आगे और समय है। होशियार आदमियों ने और आगे की भी तरकीब निकाल ली है। वे कहते हैं, फिर जन्म होगा; फिर वासना फैलने लगी। इस जन्म में जो नहीं हुआ, अगले जन्म में कर लेंगे! क्या जल्दी है? फिर वासना ने नये अंकुर ले लिये, नये पत्ते खिलने लगे। उन्होंने मौत को भी झुठला दिया। वह जो मौत घबराहट लाती थी, वह भी मिटा दी। उन्होंने मौत में से भी रास्ता निकाल लिया। मौत का डर इसी बात का डर है कि मौत कहती है. अब आगे कल नहीं। जो कल को मिटा दे, उसी को तो हम काल कहते हैं। काल यानी मृत्यु। अब कल नहीं। प्राण घबड़ाने लगे। आज तो कुछ मिला नहीं। आज तो कभी मिला नहीं। आज तो ऐसे ही खाली गया। कल की ही आशा में जीते थे, वह आशा भी मौत ने छीन ली।

मौत तुमसे कुछ भी नहीं छीनती—सिवाय तुम्हारी आशाओं के। इसलिए जिस आदमी ने आशाएं छोड़ दी हैं, उससे मौत कुछ भी नहीं छीनती। फिर उसके पास छीनने को कुछ है ही नहीं। वह मौत के सामने खड़ा हो जाता है। जिस आदमी ने सपने छोड़ दिये, मौत का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। क्योंकि मौत सिर्फ सपनों को मार सकती है, सत्य को नहीं; झूठ को मार सकती है, सच को नहीं। तो जिस आदमी के सपने नहीं हैं उसके लिए मौत का कोई भय न रहा; मौत समाप्त हो गयी, वह आदमी अमृत हो गया।

जैसे ही तुम सपने से छूटे, समय से छूटे। समय से छूटे कि अमरत्व को उपलब्ध हुए।

अब यहां भी खयाल रखना, साधारण वासनाग्रस्त आदमी की जो अमरता की धारपग़ है, वह भी गलत है। उसकी अमरता की धारणा है : खूब लंबा जीवन, कभी खतम न होने वाला जीवन! यह उसकी अमरता की धारणा है। वह कहता है. जीयेंगे, जीयेगे; मरेंगे कभी नहीं। और आगे, और आगे, और आगे! उसकी अमरता की धारणा समय का फैलाव है.। ज्ञानी जब अमरत्व की बात करता है तो उसका मतलब यह नहीं होता। उसका अर्थ यह नहीं होता कि लंबाई समय की। उसका अर्थ होता है समय की समाप्ति।

इसलिए ज्ञानी और अज्ञानी कभी—कभी एक ही भाषा बोलते हैं, लेकिन उनके अर्थ बिलकुल अलग— अलग होते हैं। ज्ञानी जब कहता है, अमर हो गये तुम, तो वह यह नहीं कह रहा है कि अब तुम सदा रहोगे। अब वह यह कह रहा है बस, वर्तमान ही तुम्हारा रहना है, और कोई रहना नहीं। इस क्षण में तुम हो। बस इतना काफी है। इससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। यह क्षण ही शाश्वत हो गया। कोई लंबाई नहीं है, गहराई है। इस क्षण में से ही तुम गहरे उतर गये। उस गहराई का कोई ओंर—छोर नहीं है, पारावार नहीं है!

पूछा है तुमने. ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं?’

समय की छाया सिर्फ काम है। चाहे काम को समय की छाया कहो या समय को काम की छाया कहो। ज्यादा उचित होगा कि समय काम की छाया है। अगर काम गिर जाता है तो समय गिर जाता है। अगर समय गिर जाये तो काम भी गिर जाता है। लेकिन प्रयास तुम्हें काम को गिराने से ही करना पड़ेगा। क्योंकि बहुत मूल में काम है, कामना है; कुछ चाहिए! जैसा मैं हूं वैसे से राजी नहीं हूं; कुछ और होना चाहिए! बस इसी में काम का बीज है। जो मुझे मिला, काफी नहीं; कुछ और मिलना

चाहिए! जैसा जगत है वैसा नहीं; कुछ और अन्यथा होना चाहिए! मेरे सपनों के अनुकूल नहीं है। मेरा मन प्रफुल्लित नहीं।

रत्ती भर भी अतृप्ति है तो कामना उठ गयी। उसी कामना के फैलाव में समय भी उठ गया। ज्यादा अच्छा होगा कि हम कहें कि समय और काम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जब काम में, तुम्हारी कामना में कोई बाधा डालता है तो क्रोध पैदा होता है। तो क्रोध बहुत मौलिक नहीं है। काम बहुत मौलिक है। क्रोध तो उप—उत्पत्ति, बाइप्रोडक्ट है। तुम जो पाना चाहते थे, किसी ने बाधा डाल दी। तुम भागे चले जा रहे थे धन कमाने, कोई दुश्मन बीच में अड़कर खड़ा हो गया, किसी ने दीवाल बना दी या कोई तुमसे पहले झपट कर ले लिया, जो तुम लेने चले थे—क्रोध पैदा हुआ।

खयाल करना, क्रोध कब पैदा होता है? जब तुम्हारी काम की दौड़ में कहीं कोई अड़चन आ जाती है, कोई अड़चन डाल देता है। तो कभी—कभी तुम्हें ऐसी चीजों पर क्रोध आ जाता है कि तुम हंसोगे, खुद ही हसोगे। तुम पत्र लिखने बैठे थे और फाउंटेन पेन ठीक नहीं चल रहा था, क्रोध में पटक दिया। फाउंटेन पेन को क्रोध में पटक रहे हो, पीछे खुद ही पछताओगे कि यह पारकर कलम खराब हो गयी, नुकसान लग गया। इसको पटकने से क्या अर्थ था? लेकिन बात तो प्रतीकात्मक है। तुम पत्र लिखने बैठे थे, अपनी प्रेयसी को पत्र लिख रहे थे, बड़ी कामना का जाल था, बड़े शब्द उतर रहे थे, कविताएं तैर रही थीं मन में—और यह कलम बीच में बाधा डालने लगी? यह कलम दुश्मन बनने लगी? मैं एक सज्जन को जानता हूं जो क्रिकेट के दीवाने हैं। क्रिकेट का कहीं मैच चलता था, वे रेडियो पर बैठे सुन रहे थे। उनकी पार्टी हार गयी, रेडियो उठा कर पटक दिया! अब तुम्हारी पार्टी के हारने से और रेडियो के पटकने से कोई भी तो लेना—देना नहीं है। रेडियो का कोई कसूर भी नहीं है, मगर गुस्सा आ गया। कुछ और सूझा नहीं, वहा कुछ और था भी नहीं।

जो तुम चाहते हो वैसा न हो तो तुम अंधे हो जाते हो। फिर तुम यह देखते ही नहीं कि तुम क्या कर रहे हो। लोग वस्तुओं को गालियां देते हैं। कार स्टार्ट नहीं हो रही है, उसको गाली देते हैं। सोचते भी नहीं क्या कर रहे हैं। जैसे कि कार जान—बूझकर.. तुम तो जा रहे हो दूकान और कार बीच में खड़ी हो गयी, चलती नहीं, गुस्सा आता है।

तुम अपने गुस्से को गौर से देखना। गुस्सा मौलिक नहीं है। कामवासना जहां भी अड़चन पाती है वहां क्रोध आ जाता है। कामवासना जो पा लेती है, उस पर मोह आ जाता है—कहीं छूट न जाये! इसलिए मोह भी मौलिक नहीं है। तुमने धन पा लिया, फिर तुम उसको तिजोरी में बंद करके बैठ जाते हो। कहते हैं, लोग मर जाते हैं तो भी फिर धन पर सांप बन कर कुंडली मार कर बैठ जाते हैं। मर कर बैठते हों न बैठते हों, जिंदा में बैठे हुए हैं। कुंडली मार कर! कोई ले न जाये! मर जायेंगे मगर खर्च न करेंगे।

मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा नदी में डूब रहा था—बाढू आयी नदी में। एक पुलिस वाले ने अपनी जान को जोखिम में डाल कर उसे बचाया। उसे लेकर घर गया। बेटा दौड़ता हुआ भीतर गया, पुलिस वाला खड़ा रहा कि शायद मां—बाप में से कोई आकर कम से कम धन्यवाद तो देगा। नसरुद्दीन भीतर से आया और उस लड़के ने इशारा किया पुलिस वाले की तरफ। नसरुद्दीन ने कहा क्या आपने ही मेरे बेटे को नदी में बचाया? पुलिस वाला प्रसन्न हुआ कि अब धन्यवाद देगा या कुछ भेंट देगा या

कुछ पुरस्कार। उसने कहा. जी ही, मैंने ही बचाया, बड़ी खतरनाक हालत थी। उसने कहा : छोड़ो जी खतरनाक हालत, बेटे की टोपी कहां है?

वह टोपी कहीं बह गयी है। अब बेटे को बचाया, इसकी चिंता नहीं है, टोपी का मोह.,।

कामवासना जो पा लेती है उस पर मोह मार कर बैठ जाती है। उसे छीन न ले कोई! बड़ी मुश्किल से तो पाया, बड़े द्वार—दरवाजे खटकाये, भीख मांगी, दर—दर भटके, राह—राह की धूल फीकी, किसी तरह से पाये, अब कहीं छूट न जाये! तो जो मिल जाता है, उसे आदमी भोगता तक नहीं, उस पर कुंडली मार कर बैठ जाता है।

इसलिए तुम अमीर से ज्यादा गरीब आदमी न पाओगे। गरीब तो भोग भी लेता है। उसके पास ज्यादा है नहीं कुंडली मारने को। कुंडली मारने के लिए कुछ चाहिए। मिल जाता है, रुपये—दों रुपये कमा लिये, मजा कर लेता है। है ही नहीं बचाने योग्य तो बचाना क्या? बचकर भी क्या बचेगा? लेकिन अमीर, जिसके पास है, वह नहीं भोग पाता, कृपणता पैदा होती है। और बचा लो, और बचा लो! यह भूल ही जाता है कि बचाया किसलिए था। जैसे बचाना ही लक्ष्य हो जाता है!

तो मोह भी बाइ—प्रोडक्ट, वह भी मौलिक नहीं है। फिर जो मिल गया, उतने से तृप्ति कहां होती है! तृप्ति तो होती ही नहीं। अतृप्ति का जाल तो फैलता ही चला जाता है। हजार मिल गये तो दस हजार चाहिए। दस हजार मिल गये तो लाख चाहिए। तुम्हारे और तुम्हारे मिलने के बीच अनुपात सदा वही रहता है। उसमें फर्क नहीं पड़ता। एक रुपया तो दस रुपया चाहिए; एक लाख तो दस लाख चाहिए। दोनों के बीच का अनुपात वही का वही है। दस का अनुपात है।

तुम कभी अपने जीवन के गणित को देखना। तुम बड़े चकित होओगे। जब तुम्हारे पास रुपया था तब तुम दस मांग रहे थे। तुम्हारा दुख इतना का इतना था। क्योंकि नौ की कमी थी। अब तुम्हारे पास लाख रुपये हैं, अब तुम दस लाख मांग रहे। अब भी दुख उतना का उतना ही है, क्योंकि नौ लाख की कमी है। वह नौ की कमी बनी ही रहती है। करोड़ हो जायेंगे तो दस करोड़ मांगने लगोगे। तुम्हारी मांग कभी तुम्हारे पास जो है उसके साथ तालमेल नहीं खाती। उसके आगे झपट्टा मारती रहती है। इस झपट्टा मारते हुए कामवासना के दौड़ते हुए रूप का नाम लोभ है।

तो क्रोध, मोह, लोभ, ये मौलिक नहीं हैं। इसलिए इनसे सीधे मत लड़ना। कुछ लोग इनसे सीधे लड़ते हैं और इसलिए कभी नहीं जीत पाते। जब भी लड़ना हो तो बीज से लड़ना, पत्तों से मत लड़ना। जब भी .लड़ना हो, जड़ काटना, शाखाएं—प्रशाखाएं मत काटना; अन्यथा कभी कोई लाभ न होगा। तुम क्रोध को काटते रहो, कुछ फर्क न होगा। तुम्हारी वासना के वृक्ष पर नये पत्ते लगने लगेंगे। सच तो यह है, जितना तुम काटोगे उतना वृक्ष घना होने लगेगा। इसलिए इनसे तो उलझना ही मत। यह तो गलत निदान हो जायेगा। मूल को पकड़ना।

काम को काटने से क्रोध, मोह, लोभ तीनों अपने— आप क्षीण होते चले जाते हैं। और काम को काटने से धीरे — धीरे समय भी क्षीण हो जाता है। और एक ऐसी दशा आने लगती है जब तुम जहां हो वहां परिपूर्ण रूप से हो; तुम जैसे हो वैसे परम तृप्त, एक गहरा संतोष, लहर भी नहीं उठती! कुछ और होने का भाव भी नहीं उठता। जैसे हैं वैसे! और वैसे ही ठीक! और एक धन्यवाद, एक अहोभाव प्रभु के प्रति एक अनुकंपा! ऐसी घड़ी में समय नहीं रह जाता। ऐसी घड़ी में तुम कालातीत हो जाते हो।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं बार—बार : तुम जो भी करो, ऐसी तल्लीनता से करना कि उस समय समय मिट जाये। वही ध्यान हो गया। अगर तुम जमीन में गड्डा खोद रहे हो बगीचे में तो इतनी तल्लीनता से खोदना कि खोदना ही रह जाये। खोदने में ऐसा रस आ जाये, ऐसी तृप्ति मिलने लगे कि जैसे इसके पार कुछ करने को नहीं है, न कुछ होने को है। तो फिर यह गड्डा खोदना ही ध्यान हो गया। यहीं तुम समय के बाहर हो गये और गड्डा खोदते—खोदते ही तुम पाओगे ध्यान की रसधार बहने लगी। जहां समय गया, वहीं ध्यान।

जहां समय शून्य हुआ, वहीं समाधि।

दूसरा प्रश्न :

आप बार—बार कहते हैं : ‘जो है। उसके स्वीकार में ही सुख है, शांति है, भगवत्ता है।’ मुझे भौतिक तल पर अपने ‘जो है ‘ को बुढ़ापे को छोड़ कर स्वीकारना बहुत कठिन नहीं लगता। लेकिन मानसिक तल पर मेरे पास महत्वाकांक्षा और तज्जनित द्वेष, अप्रेम, हिंसा, विध्वंसात्मक वृत्ति के सिवाय और क्या है! क्या मुझसे अधिक संकीर्ण चित्तवाला और मुझसे बढ़ कर क्षुद्र आशय वाला कोई और हो सकता है? क्या उसे भी स्वीकारूं? और क्या यह संभव है?

पहली बात. जो है, है, स्वीकारो या न स्वीकारो। जो है, है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे अस्वीकार से भी फर्क नहीं पड़ता। अगर बुढ़ापा आ गया, आ गया। तुम्हारे अस्वीकार से क्या फर्क पड़ता है? इतना ही फर्क पड़ेगा कि बुढ़ापे का जो मजा ले सकते थे वह न ले पाओगे। बुढ़ापे में जो एक शालीनता हो सकती थी, वह न हो पायेगी। बुढ़ापे में जो एक प्रसाद हो सकता था, वह खंडित हो जायेगा। बुढ़ापा तो नहीं हट जायेगा। जो है, है। तुम्हारे अस्वीकार करने से मिटता कहां? बदलता कहां? तुम्हारे अस्वीकार करने से कुछ भी तो नहीं होता! तुम्हीं खुद कुछ और गंवा देते हो अस्वीकार में, पाते क्या हो?

जिस व्यक्ति ने अपने वार्धक्य को, अपने बुढ़ापे को परिपूर्ण भाव से स्वीकार कर लिया है, तुम उसके चेहरे पर एक सौंदर्य देखोगे जो कि जवान के चेहरे पर भी नहीं होता। जवानी के सौंदर्य में एक तरह का बुखार है, उत्ताप है। बुढ़ापे के सौंदर्य में एक शीतलता है। जवानी के सौंदर्य में वासना की तरंगें हैं, उद्वेलित चित्त है, चंचलता है। जवानी के सौंदर्य में एक तरह की विक्षिप्तता है, ज्वर है। होगा ही। एक तरह का तूफान है, आधी है।

बुढ़ापे का सौंदर्य ऐसा है जैसे तूफान आया और चला गया, और तूफान के बाद जो शांति हो जाती है, जो गहन शांति छा जाती है। कभी देखा, बादल घुमड़े, आधी आयी, बिजली चमकी, फिर सब चला गया। उसके बाद जो विराम होता है! सब चुप! सारी प्रकृति मौन! वैसी ही शांति बुढ़ापे की है।

अगर स्वीकार कर लो तो बुढ़ापे में प्रसाद है। वह जो के आदमी के सिर के सफेद हो गये बाल हैं, अगर उनको परिपूर्ण भाव से अंगीकार किया गया हो तो जैसे हिमालय के शिखरों पर जमी हुई सफेद बर्फ होती है, ऐसा ही उनका सौंदर्य है।

तो बुढ़ापा तो रहेगा, तुम चाहे इनकार करो चाहे स्वीकार करो। इनकार करने से इतना ही हो जायेगा—स्व तनाव फैल जायेगा बुढ़ापे पर, एक विकृति आ जायेगी, दरारें पड़ जायेंगी बुढ़ापे में। बुढ़ापा और भी कुरूप हो जायेगा, बदतर हो जायेगा। जब मैं तुमसे कहता हूं जो है उसे स्वीकार करो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अगर स्वीकार करोगे तो उसे बदल पाओगे। बदल तो कोई कभी नहीं पाया। बदलाहट तो होती ही नहीं। और अगर कोई बदलाहट होती है तो स्वीकार से होती है। क्योंकि दंश चला जाता है, विष चला जाता है और अमृत हो जाता है।

प्राण में जब क्लांति, जीवन में थकन जब व्यापती है।

स्वप्न सारे टूट कर उड्डीण हो जाते

रूख के पत्ते यथा पतझाडु में

स्वप्न मेरे भी चतुर्दिक टूट कर उड़ने लगे हैं

और मैं दुबली भुजाओं पर उठाये

व्योम का विस्तार, एकाकी खड़ा हूं

इस भरोसे में नहीं कि कोई बड़ा पुरुषार्थ है यह

किंतु केवल इसलिए अब और चारा ही नहीं है।

फिर स्वीकार में एक बात और खयाल रखना। स्वीकार का यह अर्थ नहीं होता कि अब और कोई चारा ही नहीं है। तो फिर स्वीकार नहीं है। फिर तो मजबूरी है। फिर तुमने धन्यभाव से स्वीकार न किया। जिस स्वीकार में स्वागत नहीं है, उसे तुम स्वीकार मत समझ लेना। जब मैं स्वीकार कहता हूं तो स्वीकार का प्राण है स्वागत। स्वीकार का अर्थ ही है कि ‘मैं धन्यभागी हूं कि प्रभु तुमने बुढ़ापा भी दिया! तुमने सौंदर्य की आधी भी दी जवानी में, तुमने यह बुढ़ापे का शांत प्रसादपूर्ण सौंदर्य भी दिया, यह गरिमा भी दी! बचपन की अबोध दशा दी, जवानी की बोध और अबोध की मिश्रित दशा दी; यह बुढ़ापे का शुद्ध बोध भी दिया!

अगर जीवन ऐसे स्वीकार— भाव से चले, जो मिले उसे स्वीकार कर ले, गहरा धन्यवाद हो भीतर, तो तुम पाओगे. तुम्हारे हाथ में एक कुंजी लग गयी जो सभी बंद द्वारों को खोल लेगी। जीवन का कोई रहस्य तुमसे छिपा न रह जायेगा। नाहक सिर मारने से, शोरगुल मचाने से कुछ भी नहीं होता। शोरगुल मचाने वाला अगर किसी दिन स्वीकार भी करता है तो वह हारा— थका। कहता है : ठीक है, अब कोई चारा ही नहीं है।

हमारे पास एक शब्द है ‘समर्पण’। अंग्रेजी में भी शब्द है ‘सरेंडर’, लेकिन समर्पण का ठीक—ठीक पर्यायवाची नहीं है। मुझे बड़ी अड़चन होती है जब मैं पश्चिम से आये किसी खोजी को समर्पण

समझाना चाहता हूं क्योंकि उनके पास ठीक—ठीक शब्द नहीं है। सरेंडर का अर्थ तो समर्पण होता है, लेकिन गलत होता है; ऐसे ही होता है जैसे कि कोई देश किसी से हार जाये तो सरेंडर कर देता है। एक सैनिक दूसरे से हार जाये तो अपने शस्त्र सरेंडर कर देता है। यही समर्पण का अर्थ है अंग्रेजी में या पश्चिम की किसी भी भाषा में।

भारत की भाषा में समर्पण का कुछ और भी अर्थ है। प्रेम में भी समर्पण होता है, युद्ध में ही नहीं। युद्ध में भी हार होती है; लेकिन वह सिर्फ हार है। प्रेम में भी हार होती है; लेकिन प्रेम की हार जीत है। प्रेम में जिसने हारना जान लिया उसने जीतने की कला सीख ली।

शिष्य गुरु के पास समर्पण करता है, यह ऐसा नहीं है जैसे कि दुश्मन दुश्मन के पास समर्पण करता है। जैसे पोरस ने सिकंदर के पास समर्पण किया या जर्मनी ने इंग्लैंड के सामने समर्पण किया—यह वैसा समर्पण नहीं है। तो जब मैं किसी पाश्चात्य खोजी को कहता हूं ‘सरेंडर’, तो वह थोड़ा चौंकता है, सरेंडर! सरेंडर के साथ ही गलत संबंध जुड़े हैं। सरेंडर का मतलब ही यह है कि ‘नहीं’। हारने को कौन राजी है! पूरब में जब हम कहते हैं ‘समर्पण’, तो बड़ा और अर्थ है। उसका अर्थ होता है : अब एक ऐसी जगह आ गयी जहां विश्राम करो। अब लड़ो मत। अब लड़ने से हारोगे। अब तो अगर हार जाओ तो जीत जाओ।

लाओत्सु कहता है. मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं हारा हुआ हूं। तुम मुझे जीत न सकोगे, क्योंकि मेरी जीतने की कोई आकांक्षा नहीं है। तुम मुझे हरा न सकोगे, क्योंकि मैंने पहले ही समर्पण कर दिया है।

और लाओत्सु का सौंदर्य! जीवन जैसा है और जीवन जो दिखाये, और जीवन जो ले आये, उसके लिए पूरा खुला हृदय है। कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है, विरोध नहीं है। किसी तल पर किसी तरह का संघर्ष नहीं है।

पूछा है ‘आप कहते हैं, जो है, है। उसके स्वीकार में ही सुख है।’

उसका स्वीकार ही सुख है। स्वीकार में ही सुख है, ऐसा नहीं। उसमें तो ऐसा भाव है कि स्वीकार करेंगे, फिर सुख होगा। नहीं, स्वीकार ही सुख है। स्वीकार किया नहीं कि सुख हुआ नहीं। साथ ही साथ घट जाता है। करो और देखो। किसी भी चीज को स्वीकार करके देखो।

अस्वीकार में दुख है। अस्वीकार का मतलब ही है कि वासना का जाल फैल गया। अस्वीकार का अर्थ ही है कि हम कुछ और चाहते थे प्रभु और यह तूने क्या करवा दिया? हमने कुछ और मांगा था, यह तूने क्या दे दिया? अस्वीकार का अर्थ है. शिकायत हो गयी। अस्वीकार का अर्थ है. गलत हो गया, यह हमने घोषणा कर दी। स्वीकार का अर्थ है. इस परमात्मा के जगत में गलत होता ही नहीं। गलत हो ही नहीं सकता। उसके रहते गलत हो कैसे सकता है?

एक बहुत बड़े नास्तिक दिदरो ने लिखा है. संसार में इतना गलत हो रहा है कि परमात्मा हो नहीं सकता। यह बात भी जंचती है। मुझे भी जंचती है। अगर तुम मानते हो कि संसार में गलत हो रहा है तो तुम्हारी परमात्मा में श्रद्धा हो ही नहीं सकती। क्योंकि परमात्मा के होते गलत हो कैसे सकता है? दिदरो की दलील यह है कि या तो परमात्मा है तो फिर गलत नहीं हो सकता। या गलत हो रहा है तो कम से कम इतना तो मानो कि परमात्मा नहीं है।

तो जो आदमी कहता है, परमात्मा है और गलत हो रहा है, समझ लेना कि वह झूठा आस्तिक है। उसका परमात्मा बिलकुल झूठा है। अभी गलत तो मालूम हो रहा है। उसी को मैं आस्तिक कहता हूं जो कहता है गलत तो हो ही कैसे सकता है, परमात्मा है! गलत असंभव है। अगर मुझे गलत दिखाई पड़ता है तो मेरे देखने की कहीं कोई भूल हो रही है। मेरी दृष्टि का, मेरी आंख पर कोई पर्दा है। मेरा देखना साफ—सुथरा नहीं है। मैं कुछ का कुछ देख रहा हूं। मगर गलत हो नहीं सकता। अगर हत्यारा भी मुझे मारने चला आया है, तो कुछ ठीक ही हो रहा होगा, क्योंकि गलत हो कैसे सकता है? उसकी मर्जी से हो रहा है। उसकी मर्जी के बिना कुछ हो नहीं सकता।

तो मैं तुमसे कहता हूं. स्वीकार ही सुख है। स्वीकार ही शांति है। और जिस दिन तुम ऐसा स्वीकार कर लोगे कि हत्यारे में भी परमात्मा का ही हाथ है, उस दिन क्या तुम यह सोच पाओगे कि तुम्हारे भीतर परमात्मा के अतिरिक्त कोई और है 2: जब हत्यारे में भी वही दिखाई पड़ेगा, तो तुम अपने में भी उसे देख पाओगे। इसलिए स्वीकार ही भगवत्ता है। तुम भगवान होते हो स्वीकार करके।

पूछा है : ‘मुझे भौतिक तल पर अपने ‘जो है’ को स्वीकार करना कठिन नहीं, लेकिन मानसिक तल पर महत्वाकांक्षा, तज्जनित द्वेष, अप्रेम, हिंसा, विध्वंसक वृत्ति के सिवाय और क्या है? क्या मुझसे अधिक संकीर्ण चित्त वाला और मुझसे बढ़ कर क्षुद्र आशय कोई और हो सकता है?’

अहले—दिल और भी हैं अहले—वफा और भी हैं

एक हम ही नहीं, दुनिया से खफा और भी हैं।

हम पे ही खत्म नहीं मसलके शोरिदासरी

चाक दिल और भी हैं चाक कबा और भी हैं।

सर सलामत है तो क्या संगे —मलामत की कमी

जान बाकी है तो पैकाने—कजा और भी हैं।

नहीं, ऐसा तो भूल कर भी मत सोचना कभी कि तुमसे क्षुद्र आशय कौन होगा! यह सारा संसार, ये सभी लोग कितने ही परमात्मा की बात कर रहे हों, लेकिन इनका परमात्मा बातचीत का है। इनका आशय क्षुद्र है।

विवेकानंद के घर में खाना—पीना नहीं था। बाप मर गये। मां भूखी, खुद भूखे। तो रामकृष्ण ने कहा ‘तू ऐसा कर जाकर प्रभु को क्यों नहीं कह देता? जा मंदिर में, तेरी जरूर सुनेंगे। मुझे पक्का भरोसा है। तू जा और कह। जो मांगेगा, मिल जायेगा।’

विवेकानंद भीतर गये। आधा घंटा बाद आंसुओ से भरे मग्न भाव से डोलते जैसे नशा किया हो, बाहर आये। रामकृष्ण ने कहा. ‘मांगा?’ विवेकानंद ने कहा ‘क्या?’ रामकृष्ण ने कहा. ‘तुझे भेजा था कि मांग ले जो तुझे चाहिए। यह दुख—दारिद्रध अलग कर।’ विवेकानंद ने कहा. ‘मैं तो भूल ही गया। उनके सामने खड़े हो कर मांगना कैसा! उनके सामने खड़े हो कर तो डोलने लगा। उनके सामने खड़े हो कर मांगना कैसा?’

कहते हैं, रामकृष्ण ने तीन बार भेजा और तीनों बार यही हुआ। फिर रामकृष्ण खूब खिलखिला कर हंसने लगे। विवेकानंद ने पूछा कि मैं समझा नहीं परमहंसदेव, आप हंसते क्यों हैं? रामकृष्ण ने कहा : अगर आज तू मांग लेता तो मुझसे तेरे सब संबंध छूट जाते। आज न मांग कर तू मेरे हृदय के बहुत करीब आ गया। क्योंकि यही भक्त का लक्षण है।

सब मांगें क्षुद्र हैं। मांग के साथ जीने वाला मन क्षुद्राशय है। फिर मांग हमारी क्या है, इससे फर्क नहीं पड़ता। यह सारा जगत भिखमंगों से भरा है। हरेक मांग रहा है। कोई धन माग रहा है, कोई ध्यान मांग रहा है। मगर मांग जारी है। कोई कहता है, अच्छा मकान हो। कोई कहता है, मकान—वकान में कुछ फर्क नहीं पड़ता; अच्छा मन दे दो, जिसमें द्वेष न हो, ईर्ष्या न हो! मगर बात तो वही रही।

जब मैं कहता हूं स्वीकार, तो मेरा अर्थ परम स्वीकार से है, जो है! अगर उसने द्वेष दिया, ईर्ष्या दी, वह भी स्वीकार! इसी स्वीकार में तुम एक चमत्कार देखोगे। इस स्वीकार में एक चमत्कार छिपा है। जैसे ही तुम स्वीकार करोगे, तुम चकित हो जाओगे। इस स्वीकार के दीये के जलते ही द्वेष कहां खो गया, पता न चलेगा। क्योंकि द्वेष और ईर्ष्या और जलन तो मांग की ही छायाएं हैं। जैसे ही तुम्हारे जीवन में स्वीकार आ गया, तुम अचानक पाओगे अप्रेम कहां चला गया, पता न चला। दीया स्वीकार का जले तो अप्रेम, हिंसा और घृणा का अंधेरा अपने — आप मिट जाता है।

अप्रेम का अर्थ क्या है? इतना ही अर्थ है कि जैसा मैं चाहता था वैसा आदमी नहीं है यह, तो अप्रेम हो गया।

जिनको हम प्रेम करते हैं, उनको भी हम कहां पूरा प्रेम कर पाते हैं, क्योंकि उनमें भी हजारों भूलें दिखाई पड़ती हैं, हजार कमियां दिखाई पड़ती हैं। क्षण भर पहले प्रेम करते हैं, क्षण भर में क्रोध आ जाता है, क्योंकि कोई कमी आ गयी। पूर्ण तो कहीं कुछ दिखाई पड़ता नहीं। पूर्ण की हमारी ऐसी असंभव कल्पना है, असंभव धारणा है। कोई उसे पूरा कर नहीं सकता। परमात्मा भी तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम मेरी मानो, तुम कुछ न कुछ भूल—चूक उसमें निकाल लोगे। तुम जरूर निकाल लोगे कुछ न कुछ भूल—चूक। असंभव है। शायद इसी डर से वह तुम्हारे सामने खड़ा नहीं होता है। तुम लाख चिल्लाते कि साक्षात्कार हो, लेकिन छिपा है। छिपता रहता है। तुम्हें जानता है, तुम्हारे सामने प्रगट हो कर सिर्फ उपद्रव होगा। तुम हजार कमियां निकाल लोगे।

तुमने कभी इस तरह सोचा कि अगर परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम क्या—क्या कमियां निकाल लोगे? बुद्ध तुम्हारे पास से गुजरे, तुमने कमियां निकाल लीं। महावीर तुम्हारे बीच से गुजरे, तुमने कमियां निकाल लीं। कृष्ण तुम्हारे बीच रहे, तुमने कमियां निकाल लीं। क्राइस्ट में तो तुमने इतनी कमियां निकाल लीं कि सूली लगा दी। सुकरात से तो तुम ऐसे नाराज हुए कि जहर पिला दिया। मंसूर को तुमने काट डाला। फकीरों को, संतों को, तुमने कैसा व्यवहार किया है!

परमात्मा बहुत बार प्रगट भी हुआ है और हर बार उसने पाया कि तुम कमी निकाल लेते हो। एक कहानी मैं पढ़ता था कि ईश्वर स्वर्ग में बैठे —बैठे थक गया है। और उसके किसी सलाहकार ने कहा कि आप कहीं थोड़े दिन के लिए छुट्टी पर क्यों नहीं चले जाते? उसने कहा. ‘कहां जाऊं न: छुट्टी पर कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा : ‘बहुत दिन से आप जमीन पर नहीं गये, वहीं चले जायें।’ तो उसने कहा. ‘न बाबा! जमीन की भूल गये इतनी जल्दी? दो हजार साल पहले मैंने अपने बेटे को भेजा था, जीसस को, क्या हाल किया? वही वे मेरे साथ भी करेंगे!’

तुम भूल निकाल ही लोगे, जब तक कि तुम्हारे जीवन में पूर्ण स्वीकार न हो। और पूर्ण स्वीकार हो तो तुम क्या कोई ऐसी जगह खोज सकते हो जहां परमात्मा दिखाई न पड़े? तब फूल में भी वही

खिलता हुआ मालूम होगा। तब झरने में भी वही बहता मालूम होगा। तब आकाश में भटकते एक शुभ्र बादल में भी तुम उसी को तिरते हुए पाओगे। तब पक्षी की गुनगुनाहट में तुम उसी का उच्चार अनुभव करोगे।

अगर तुम्हारे भीतर स्वीकार है तो तत्‍क्षण उस स्वीकार की क्रांति में सारा जगत रूपांतरित हो जाता है। तुम बचोगे रूपांतरण से? तुम भी रूपांतरित हो जाते हो।

तो मैं तो तुमसे कहता हूं यह तुम्हें बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि तुम्हारे संतों ने यह तो कहा है कि धन न हो तो स्वीकार कर लेना। तुम्हारे संतों ने तुमसे यह तो कहा है, झोपड़ा हो, महल न हो, तो स्वीकार कर लेना। तुम्हारे संतों ने यह तो कहा है कि बेटा घर में पैदा न हो तो स्वीकार कर लेना। लेकिन तुम्हारे संतों ने तुमसे यह नहीं कहा कि क्रोध को भी स्वीकार कर लेना, ईर्ष्या को भी स्वीकार कर लेना, घृणा को भी स्वीकार कर लेना। मैं तुमसे यह भी कहता हूं। क्योंकि मेरा स्वीकार परिपूर्ण है। मैं तुमसे कहता हूं जो हो उसे स्वीकार कर लेना। बाहर की ही स्वीकृति अधूरी स्वीकृति होगी। मैं तुमसे कहता हूं, तुम अपने को भी क्षमा कर दो। तुम्हारे संतों ने कहा है, दूसरों को क्षमा करना। मैं तुमसे कहता हूं तुम कृपा करो, तुम अपने को भी क्षमा कर दो। और ध्यान रखना, जिसने अपने को क्षमा न किया, वह किसी को क्षमा न कर सकेगा। इस सूत्र को समझो।

अगर तुम अपने पर कठोर हो तो तुम दूसरे पर भी कठोर रहोगे। अगर तुम्हारे भीतर द्वेष है और तुम जानते हो कि द्वेष बुरा है, नहीं होना चाहिए, तो तुम दूसरे आदमी में जब द्वेष देखोगे तो उसे क्षमा कैसे करोगे? कहो, कैसे यह संभव होगा? यह तो गणित में बैठेगा नहीं। अगर तुम्हारे भीतर क्रोध है और तुम अपने क्रोध को क्षमा नहीं कर सकते तो जब तुम किसी दूसरे आदमी में क्रोध की झलक देखोगे तो कैसे क्षमा करोगे?

तुम्हारे संत तुमसे बड़ी व्यर्थ की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, क्षमा कर दो दूसरे को।

महात्मा गांधी अपने शिष्यों को कहते थे. अपने साथ कठोर रहना, दूसरे के साथ नम्र। यह असंभव है। यह बात ही गलत है। जो अपने साथ कठोर है, वह जाने— अनजाने दूसरे के साथ भी कठोर होगा। सच तो यह है, जो अपने साथ कठोर है, वह दूसरे के साथ और भी ज्यादा कठोर होगा। तुम जो अपने साथ करोगे, वही तुम दूसरे के साथ भी करोगे। इससे अन्यथा तुम कर नहीं सकते। तो छोटी—छोटी बातों पर तुम दूसरे की निंदा अपने मन में ले आओगे—बड़ी छोटी बातों पर, जिनका कोई मूल्य नहीं! तुम क्षमा न कर सकोगे।

मैं तुम्हें कुछ और ही बात कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं. क्षमा करो स्वयं को भी। क्योंकि स्वयं के भीतर भी वही परमात्मा विराजमान है। क्षमा करो! एक बार करो, दो बार करो, हजार बार करो, क्षमा करो! और तुम जैसे हो वैसा ही परमात्मा ने तुम्हें चाहा, ऐसा स्वीकार करो। उसकी यही मर्जी कि तुममें क्रोध हो। अब तुम क्या करोगे? तुम इसे भी स्वीकार कर लो।

और तुम जरा समझना। जैसे ही तुम स्वीकार कर लोगे क्रोध को भी, तुम्हारे भीतर क्रोध बच सकेगा? क्रोध तो अस्वीकार करने से ही पैदा होता है। क्रोध तो तनाव है, बेचैनी है; जब तुम अस्वीकार करते हो तो पैदा होता है।

तुमने फर्क देखा? जिस चीज को तुम स्वीकार कर लो, उसमें क्रोध नहीं होता। एक आदमी आया, उसने जोर से एक धौल तुम्हारी पीठ पर जमायी। क्रोध आ ही रहा था, तुमने लौट कर देखा अपना मित्र है, बात खत्म हो गयी। क्रोध आ ही रहा था, आ ही गया था, नाक पर खड़ा था। लौट कर देखा होता कि कोई अजनबी है तो तुम जूझ ही पड़े होते। धौल तो धौल है, मित्र ने मारी कि दुश्मन ने मारी, उसमें कुछ फर्क नहीं है। तुम भी फर्क नहीं कर सकते जब तक पीछे लौट कर न देखो। क्या कर सकते हो? कि तुम ऐसे ही खड़े रहो और तुम तय करो कि दुश्मन ने मारी कि दोस्त ने, कैसे फर्क करोगे? क्रोध उठेगा। लौटकर देखोगे दोस्त है, तो बात बदल गयी। क्या हो गया? स्वीकार हो गया। मित्र है, प्रेम में मारी है। दुश्मन है, अस्वीकार हो गया। क्रोध उबलने लगा। चोट तो वही की वही है।

तुमने देखा, मित्र एक—दूसरे को गाली देते हैं, कोई नाराज नहीं होता। सच तो यह है, मित्रता तब तक मित्रता ही नहीं होती जब तक गाली का लेन—देन न होने लगे। तब तक कोई मित्रता है? किसी से पूछो, कैसी मित्रता है? अगर वह कहे गाली का लेन—देन है, तब फिर समझो कि पक्की है। होना भी चाहिए ठीक यही। क्योंकि पक्की मित्रता का अर्थ ही यह है कि जिन बातों से साधारणत: शत्रुता हो जाती थी, उनसे भी अब शत्रुता नहीं होती। गाली भी दे देता है तो भी अपना है। कोई अड़चन नहीं है। स्वीकार है। सच तो यह है, मित्र गाली देता है, उसमें भी रस आता है कि मित्र ने गाली दी। ध्यान रखता है। भूल नहीं गया। अभी भी मैत्री कायम है। वही गाली, वे ही शब्द, किसी और ओंठ से आते हैं तो बस अड़चन हो जाती है।

जहां तुम स्वीकार कर लेते हो, वहा फूल खिल जाते हैं। जहां अस्वीकार कर देते हो, वहीं कांटा चुभ जाता है। मैं तुमसे कहता हूं परम स्वीकार, आत्यंतिक स्वीकार। तुम छोड़ो यह बकवास बदलने की कि यह हो, यह हो, यह न हो। तुम हो कौन? तुम कह दो परमात्मा को : ‘ अब जो तेरी मर्जी हो वैसा हो!’ तुम बदल—बदल कर बदल कहां पाये? एक और यह मजा है।

एक के सज्जन मेरे पास आये, वे कहने लगे कि मुझे क्रोध बड़ा होता है।

मैंने कहा, उम्र कितनी है?

‘अठहत्तर साल!’

‘कितने दिन से क्रोध से लड़ रहे हो?’

उन्होंने कहा, ‘पूरे जीवन से लड़ रहा हूं।’

मैंने कहा, ‘ अब तो समझो। अठहत्तर साल लड़ने के बाद भी क्रोध नहीं गया है, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि लड़ने से कुछ भी नहीं जाता। तुम अब मरते दम तो स्वीकार कर लो, समर्पण कर दो। इससे साफ जाहिर है कि परमात्मा चाहता है तुममें क्रोध हो और तुम चाहते हो न हो। तो तुम हारोगे, परमात्मा जीत रहा है। अठहत्तर साल हो गये हारते —हारते। अब कब तक इरादा है?’ मैंने कहा, ‘तुम मेरी मानो। इसे स्वीकार कर लो। लड़कर तुमने अठहत्तर साल देख लिया, मेरी मान कर एक साल देख लो।’ कुछ बात चोट पड़ गयी। बात कुछ लगी। गणित साफ—साफ लगा अठहत्तर साल! खुद भी सोचा। शायद इस तरह कभी सोचा न होगा पहले कभी।

आदमी सोचता ही कहां है! चलता जाता है, भागता जाता है, करता जाता है। वही—वही करता रहता है जो बार—बार किया है। कुछ परिणाम नहीं होता, फिर भी करता रहता है। निचोड़ता रहता है रेत को कि तेल निकल आयेगा।

‘अठहत्तर साल हो गये’, मैंने कहा, ‘छोड़ो भी, यह रेत है। इससे तेल निकलता ही नहीं। नहीं तो तुम जीत जाते, मजबूत आदमी हो! कितनी दफा अदालत में तुम पर मुकदमे चल चुके हैं?’

वे कहते हैं, कई दफे चल चुके हैं इस क्रोध की वजह से। झगड़ा—झांसा मेरी जिंदगी में ही रहा। जहां—जहां जो करूं, झगड़ा—झांसा। हर बात में उपद्रव। घर में भी नहीं बनती। बेटों से भी नहीं बनती। भाई से भी नहीं बनती। बाप से भी नहीं बनी कभी। बाप चले भी गये, झगड़े में ही गये। जब बाप मरे तो बोलचाल बंद था। पत्नी ऐसे ही मर गयी रो—रो कर। मगर कुछ है कि बात जाती नहीं।

मैंने कहा, ‘तुमने अपनी पूरी चेष्टा भी कर ली है। एक साल अब तुम मेरी मान लो। स्वीकार कर लो।’

साल भर बाद वे मेरे पास आये तो उनको पहचानना मुश्किल था। उनके चेहरे पर ऐसा प्रसाद था. .वे कहने लगे, अपूर्व हुई घटना। स्वीकार मैंने कर लिया और सबको मैंने कह दिया कि मैं क्रोधी आदमी हूं और मैंने अब अन्यथा होने का भाव भी त्याग दिया। मैं वहां से कसम ले कर आ गया हूं कि एक साल तो अब मैं जो हूं सो हूं। अपने बेटों को कह दिया, अपने भाइयों को कह दिया कि अब मुझे स्वीकार कर लो जैसा हूं; मैंने भी स्वीकार कर लिया। और कुछ ऐसा हुआ कि साल तो बीत गया, क्रोध की खबर नहीं आ रही है।

क्या हो गया? तुम जब स्वीकार कर लेते हो, तनाव चला गया। जब तुमने ही मान लिया कि मैं क्रोधी हूं तो तुमने समर्पण कर दिया। अन्यथा हम घूमते रहते हैं एक ही वर्तुल में, जैसे कोल्ह का बैल चलता है; फिर वही, फिर वही, कहीं पहुंचना नहीं होता।

दिशाएं बंद हैं

आकाश उड़ता—फड़फड़ाता है

वहीं फिर लौट आता है।

आंधिया कल जो इधर से जा रही थीं

जा नहीं पायीं

हांफती है बंद बोझिल कुहासे—सी

एक परछाईं

दिशाएं बंद हैं

दीवार को उस पार से कोई हिलाता है

थका फिर लौट आता है

धूप जलता हुआ सागर द्वीप छाहों के

सरक जाते पिघल कर

मछलियां जैसे मरे पल—छिन

उतर आ रोज जाते हैं सतह पर

जाल कंधों पर धरे

दिन सुबह आता है

हर शाम खाली लौट जाता है

दिशाएं बंद हैं

आकाश उड़ता—फड़फड़ाता है

वहीं फिर लौट आता है

तुम्हारी पूरी जिंदगी एक वर्तुल में घूमता हुआ चाक है। इसलिए हिंदुओं ने जीवन को जीवन—चक्र कहा।

देखते हैं, भारत के ध्वज पर जो चक्र बना है, वह बौद्धों का चक्र है। बौद्धों ने जीवन को एक गाड़ी का चक्का माना; घूमता रहता है उसी कील पर, वहीं का वहीं। एक आरा ऊपर आता, फिर नीचे चला जाता; फिर थोड़ी देर बाद वही आरा ऊपर आ जाता है।

तुम जरा चौबीस घंटे अपने जीवन का विश्लेषण करो। तुम पाओगे : क्रोध आता, पश्चात्ताप आता, फिर क्रोध आ जाता। प्रेम होता, घृणा होती, फिर प्रेम हो जाता। मित्रता बनती, शत्रुता आती, फिर मित्रता। ऐसे ही चलते रहते, आरे घूमते रहते, जीवन का चाक घूमता रहता है। चाक की अर्थ है : जीवन में पुनरुक्ति हो रही है।

कब जागोगे इस पुनरुक्ति से? कुछ तो करो! एक काम करो अब तक बदलना चाहा, अब स्वीकार करो! स्वीकार होते ही एक नया आयाम खुलता है। यह तुमने कभी किया ही नहीं था। यह बिलकुल नयी घटना तुम करोगे। और मैं नहीं कह रहा हूं कि लाचारी…। मैं कह रहा हूं, धन्यभाव से! प्रभु ने जो दिया है उसका प्रयोजन होगा। क्रोध भी दिया है तो प्रयोजन होगा। तुम्हारे महात्मा तो समझाते रहे कि क्रोध न हो, लेकिन परमात्मा नहीं समझता है। फिर बच्चा आता है, फिर क्रोध के साथ आता है। अब कितनी सदियों से महात्मा समझाते रहे! न तुम समझे न परमात्मा समझा। कोई समझते ही नहीं महात्माओं की। महात्मा मर कर सब स्वर्ग पहुंच गये होंगे। वहा भी परमात्मा की खोपड़ी खाते होंगे कि अब तो बंद कर दो—क्रोध रखो ही मत आदमी में।

लेकिन तुम जरा सोचो, एक बच्चा अगर पैदा हो बिना क्रोध के, जी सकेगा? उसमें बल ही न होगा। उसमें रीढ़ न होगी। वह बिना रीढ़ का होगा। तुम एक धप्प लगा दोगे उसको, वह वैसे ही का वैसा मिट्टी का लौंदा जैसा पड़ा रहेगा। जी सकेगा? उठ सकेगा? चल सकेगा? गोबर के गणेश जी होंगे। किसी काम के न सिद्ध होंगे।

तुमने कभी खयाल किया, जिस बच्चे में जितनी क्रोध की क्षमता होती है उतना ही प्राणवान होता है, उतना ही बलशाली होता है। और दुनिया में जो महानतम घटनाएं घटी हैं व्यक्तित्व की, वे सभी बड़ी ऊर्जा वाले लोग थे।

तुमने महावीर की क्षमा देखी? महावीर के क्रोध की हमें कोई कथा नहीं बतायी गयी। लेकिन मैं तुमसे यह कहता हूं कि अगर इतनी महाक्षमा पैदा हुई तो पैदा होगी कहां से? महाक्रोध रहा होगा। जैन डरते हैं, उसकी कोई बात करते नहीं। लेकिन यह मैं मान नहीं सकता कि महाक्षमा महाक्रोध के बिना हो कैसे सकती है। अगर इतना बड़ा ब्रह्मचर्य पैदा हुआ है तो महान कामवासना रही होगी, नहीं तो होगा कहां से? नपुंसक को कभी तुमने ब्रह्मचारी होते देखा? और नपुंसक के ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ होगा? सार भी क्या होगा?

तुम यह जरा देखो! जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं और बुद्ध भी क्षत्रिय हैं! और सभी ने अहिंसा का उपदेश दिया है, यह जरा सोचने जैसी बात है, क्षत्रिय घरों में पैदा हुए, तलवारों के साये में जीवन बना, वही शिक्षण था उनका। मार—काट उनकी व्यवस्था थी। खून ही उनका खेल था। और फिर सब एकदम अहिंसक हो गये!

कभी तुमने सुना कि कोई ब्राह्मण अहिंसक हुआ हो? अभी तक तो नहीं सुना। ब्राह्मण में जो बड़ा से बड़ा ब्राह्मण हुआ है, परशुराम, वह बड़े से बड़ा हिंसक था। उसने सारी दुनिया से, कहते हैं, क्षत्रियों को अट्ठारह दफा नष्ट कर दिया। गजब का आदमी रहा होगा! ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ। क्षत्रियों में से तो अहिंसा का सूत्र आया। और परशुराम फरसा लिये आये। कुछ सोचने जैसा है।

कुछ सोचने जैसा है। जहां क्रोध है, हिंसा है, वहीं से अहिंसा पैदा होती है। अहिंसा कायर की नहीं है। कायर की हो भी नहीं सकती। अहिंसा तो उसकी है जिसके पास प्रज्ज्वलित अग्नि है।

परमात्मा क्रोध देता है, क्योंकि यह तुम्हारी ऊर्जा है—कच्ची ऊर्जा है। इसी ऊर्जा को निखारते — निखारते, इसी उर्जा को स्वीकार करके, इस ऊर्जा को समझकर, बूझकर, जागकर तुम एक दिन पाओगे कि यही ऊर्जा क्षमा बन गयी।

क्रोध करुणा बन जाता है—स्वीकार की कीमिया चाहिए। और कामवासना ब्रह्मचर्य बन जाती है—स्वीकार की कीमिया चाहिए। कामवासना से लड़ कर कोई कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता। कामवासना को समझ कर, कामवासना को परिपूर्ण भाव से बोधपूर्वक जी कर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है।

बस एक ही चीज तुम्हारी साथी है—और वह है स्वीकार— भाव में जो सूझ पैदा होती है, जो समझ पैदा होती है। लड़ने वाले के पास समझ होती नहीं। क्रोध से लड़ोगे, उसी लड़ने में समझ गंवा दोगे। काम से लड़ोगे, उसी लड़ने में समझ खो दोगे। लड़ने में कहां समझ? समझ के लिए तो बड़ा स्वीकार— भाव चाहिए। स्वीकार की शांति में समझ का दीया जलने लगता है।

सूझ का साथी मौम दीप मेरा!

कितना बेबस है यह, जीवन का रस है यह

क्षण— क्षण पल—पल बल—बल छू रहा सवेरा

अपना अस्तित्व भूल सूरज को टेरा

मौम दीप मेरा!

कितना बेबस दीखा, इसने मिटना सीखा

रक्त—रक्त बिंदु—बिंदु झर रहा प्रकाश सिंधु

कोटि—कोटि बना व्याप्त छोटा—सा घेरा

मौम दीप मेरा!

जी से लग जेब बैठ, तंबल पर जमा पैठ

जब चाहूं जाग उठे, जब चाहूं सो जावे

पीड़ा में साथ रहे, लीला में खो जावे

मौम दीप मेरा!

सूझ का साथी मौम दीप मेरा!

छोटा—सा दीया है—मोमबत्ती जैसा। लेकिन इसी से सूरज को पुकारा जाता है। इसी ने सूरज को टेरा। इस छोटी—सी मोमबत्ती की ज्योति में जो जल रहा प्रकाश, वह सूरज का ही है। तुम स्वीकार करो। परमात्मा ने इस सारे अस्तित्व को स्वीकार किया है, अन्यथा यह हो ही न। यह परमात्मा ने सारा खेल अंगीकार किया है, अन्यथा यह हो ही न। इसलिए तो हम इसे लीला कहते हैं। परमात्मा अपनी लीला में कैसा तल्लीन है! कहीं कोई अस्वीकार नहीं है। तुम कितने ही बुरे होओ, फिर भी तुम परमात्मा को अंगीकार हो। तुम कितने ही बुरे, कितने ही पापी, कितने ही दूर चले गये होओ, फिर भी परमात्मा को अंगीकार हो।

जीसस कहते थे : जैसे कोई गड़रिया सांझ अपने भेड़ों को ले कर लौटता है, अचानक गिनती करता है और पाता है कि एक भेड़ कहीं खो गयी, तो निन्यानबे भेड़ों को असहाय जंगल में अंधेरे में छोड्कर उस एक भेड़ को खोजने निकल जाता है। लेकर लालटेन, घाटियों में आवाजें देता है और जब वह भेड़ मिल जाती है तो क्या करता है, पता है? जीसस कहते हैं. उस भेड़ को कंधे पर रखकर लौटता है। परमात्मा, जो दूर से दूर चला गया है, उसको भी कंधे पर रखे हुए है। भटके को तो और प्यार से रखे हुए है। जैसे परमात्मा ने सबको अंगीकार किया है, ऐसे तुम भी अंगीकार कर लो। तो तुम्हारे भीतर का दीया जलेगा और तुम्हारे भीतर की छोटी—सी ज्योति सूरज को पुकारेगी। तुम सूरज जैसे हो जाओगे। छोटे से घेरे में सही, लेकिन विराट उतरेगा! तुम्हारे अपान में आकाश उतरेगा!

तीसरा प्रश्न :

रोज सुनता हूं, आंसओं में स्थान होता है, हृदय धडकता है—चाहे आप भक्ति पर बोलें चाहे ध्यान पर। जब गहराई में ले जाते हैं तो गंगा—यमुना स्नान हो जाता है। आपको साकार और निराकार रूप में देखकर आनंद से भर जाता हूं, धन्य हो जाता हूं। प्रेम और ध्यान तब दो नहीं रह जाते। दोनों से उस एक की ही झलक आती है। अनुगृहीत हूं। कोटि—कोटि प्रणाम!

प्रेम और ध्यान यात्रा की तरह दो हैं, मंजिल की तरह एक। जब भी ध्यान प्रेम अपने — आप घट जायेगा। और जब भी प्रेम घटेगा, ध्यान अपने — आप घट जायेगा। तो जो चलने वाला है अभी, वह चाहे प्रेम चुन ले चाहे ध्यान चुन ले, लेकिन जब पहुंचेगा तो दूसरा भी उसे मिल जायेगा। यह तो असंभव है कि कोई ध्यानी हो और प्रेमी न हो। ध्यान का परिणाम प्रेम होगा। जब तुम परिपूर्ण शांत हो जाओगे तो बचेगा क्या तुम्हारे पास सिवाय प्रेम की धारा के? प्रेम बहेगा।

इसलिए जीसस ने कहा है, प्रेम परमात्मा है। अगर तुम प्रेमी हो तो अंततः ध्यान के अतिरिक्त बचेगा क्या? क्योंकि प्रेमी तो खो जाता है, प्रेमी तो डूब जाता है, अहंकार तो गल जाता है। जहां अहंकार गल गया और तुम डूब गये, वहां जो बच रहता है, वही तो ध्यान है, वही तो समाधि है।

दुनिया में दो तरह के धर्म हैं—एक ध्यान के धर्म और एक प्रेम के धर्म। ध्यान के धर्म—जैसे बौद्ध, जैन। प्रेम के धर्म—जैसे इस्लाम, हिंदू ईसाई, सिक्स। मगर अंतिम परिणाम पर कहीं से भी तुम गये… जैसे पहाड़ पर बहुत—से रास्ते होते हैं, कहीं से भी तुम चलो, शिखर पर सब मिल जाते हैं; पूरब से चढ़ो कि पश्चिम से। चढ़ते वक्त बड़ा अलग—अलग मालूम पड़ता है; कोई पूरब से चढ़ रहा है, कोई पश्चिम से चढ़ रहा है। अलग—अलग दृश्यावली, अलग—अलग घाटियां, अलग—अलग पत्थर—पहाड़ मिलते हैं, सब अलग मालूम होता है। पहुंच कर, जब शिखर पर पहुंचते हो, आत्यंतिक शिखर पर, तो एक पर ही पहुंच जाते हो। मार्ग हैं अनेक; जहां पहुंचते हो, वह एक ही है।

शुभ हुआ कि ऐसा लगता है कि प्रेम और ध्यान एक ही बात है। एक ही हैं।

और अगर मुझे प्रेम से और ध्यान से सुना तो करने को कुछ बच नहीं जाता। सुनने में ही हो सकता है। सुनने में न हो पाये तो करने को बचता है। अगर ठीक—ठीक सुन लिया, अगर सत्य की उदघोषणा को ठीक—ठीक सुन लिया तो उतनी उदघोषणा काफी है। कहो, क्या करने को बचता है अगर ठीक से सुन लिया? तो सुनने में ही घटना हो जाती है। क्योंकि कुछ पाना थोड़े ही है; जो पाना है वह तो मिला ही हुआ है। सिर्फ याद दिलानी है।

इसलिए संत कहते हैं, नामस्मरण! बस उसका नाम याद आ जाये, बात खत्म हो गयी। खोया तो कभी है नहीं। अपने घर में ही बैठे हैं, बस खयाल बैठ गया है कि कहीं और चले गये। याद आ जाये कि अपने घर में ही बैठे हैं—बात हो गयी। जैसे सपना देख रहा है कोई आदमी, अपने घर में सोया और सपना देख रहा है कि टोकियो पहुंच गया, कि टिंबकटू पहुंच गया। आंख खुलती है, पाता अपने घर में है; न टिंबकटू है न टोकियो है। तुम कहीं गये नहीं हो; वहीं हो।

तो अगर किसी की उदघोषणा, जो जाग गया हो..। ऐसी ही दशा है, मैं तुम्हें सोया देखता अपने पास और देखता तुम करवट बदल रहे और तुम्हारी आंखें झपक रही हैं। लगता है सपना देख रहे हो, कुछ बुदबुदाते भी हो—तो मैं तुमसे कहता हूं जागो! अगर तुम ठीक से मेरी सुन लो और जाग जाओ तो फिर करने को और क्या बचता है! बात खत्म हो गयी।

जो सुनने में समर्थ नहीं हैं, वे पूछते हैं : ‘हम क्या करें? कुछ विधि बतायें। कुछ उपाय बतायें।’ मगर जो सो रहा है, उसको तुम विधि भी बता दो तो क्या करेगा? वह टिंबकटू में है, तुम उसको कहो कि घर लौट आओ तो वह कहता है. ‘किस ट्रेन से लौटें?’ अब और एक झंझट है। वह घर में ही है।’हवाई जहांज पकड़े कि ट्रेन से आयें कि जहांज पकड़े?’ अब इसको क्या कहा जाये? ट्रेन पकड़ ले? उसमें और खतरा है कि ट्रेन में बैठ कर न मालूम और कहां जायेगा! वैसे ही टिंबकटू पहुंच गया है बिना ट्रेन के। अब यह टिंबकटू से ट्रेन में सवार हो जाये तो यह कहीं और चला। यह घर तो नहीं लौट सकता।

ट्रेन की जरूरत ही नहीं है घर लौटने के लिए। विधि की जरूरत नहीं है, उपाय की जरूरत नहीं है—बोध मात्र काफी है। अबोध में चले गये हो, बोध में लौट आओगे। सो गये, चले गये; जाग

गये, लौट आये।

मौन यामिनी मुखरित मेरी

मधुर तुम्हारी पग पायल सी

इस पायल की लय में मेरी

श्वासों ने निज लय पहचानी

इस पायल की ध्वनि में मेरे

प्राणों ने अपनी ध्वनि जानी

ताल दे रहा रोम—रोम है

तन का उसकी रुनक—झुनक पर

इस अधीर मंजीर मुखर से

आज बांध लो मेरी वाणी

मौन यामिनी मुखरित मेरी

मधुर तुम्हारी पग पायल से

जो मैं तुमसे कह रहा हूं उसमें कुछ सिद्धात नहीं है; बस एक संगीत है। संगीत है कि तुम जाग जाओ। एक तो संगीत होता है जो सुलाता है। लोरी गाती है मां तो बच्चा सो जाता है। फिर एक और संगीत है जो जगाता है। घड़ी का अलार्म बजता है और नींद टूट जाती है।

मैं तुमसे जो कह रहा हूं उसमें कुछ सिद्धात नहीं है। उसमें केवल एक संगीत है, एक स्वर है—जो तुम सुन पाओ तो तुम जागने लगो। उसी स्वर की धारा को पकड़ कर तुम वहां पहुंच जाओगे जहां से तुम कभी हटे नहीं हो। तुम वही हो जाओगे जो तुम हो, जो तुम्हें होना चाहिए। तुम अपने स्वभाव को पहचान लोगे—उसी संगीत की झलक में! और तब निश्चित ही तुम पाओगे कि सुन कर ही गंगा—यमुना में स्नान हो गया।

निश्चित ही, यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं तुम्हारे द्वार पर गंगा—यमुना को ले आया हूं। तुम किनारे मत खड़े रहो, डुबकी ले लो! बहुत हैं ऐसे अभागे—तुममें भी बहुत हैं, जिनके सामने भी गंगा आ जायेगी तो भी वे प्यासे ही खड़े रहेंगे। इतना भी न हो सकेगा उनसे कि झुककर अंजुली भर लें; कंठ जो प्यासे हैं, उन्हें तृप्त कर लें। किनारे पर ही खड़े रह जायेंगे। अगर जरा तुम झुको.. तुम जरा झुको, तो हर जगह तुम प्रभु को पाओ।

तेरे रूप की धूप उजागर पनघट पनघट

छलके रस की गागर पनघट पनघट

तेरी आशाएं बसती हैं बस्ती बस्ती

तेरी मस्ती सागर सागर पनघट पनघट

तुम जरा झुको, तो तुम मदमस्त हो जाओ। तुम जरा अपनी गागर को खोलो तो सागर उतर आये। मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह कोई सिद्धात नहीं, कोई दर्शनशास्त्र नहीं। मैं तुम्हें हिंदू मुसलमान,

ईसाई, सिक्ख, जैन नहीं बनाता चाहता। मैं तुम्हें सिर्फ जगाना चाहता हूं—उसमें, जो तुम हो। मैं तुम्हें कुछ भी नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें वही दे देना चाहता हूं जो तुम्हारा ही है और तुम्हें विस्मरण हो गया है। मैं तुम्हें वही दे देना चाहता हूं जो तुम्हारे भीतर ही पड़ा है। सिर्फ याद दिला देने की बात है। और अगर तुम मेरे स्वर में थोड़े बंध जाओ तो रास रच जाये!

तो जो भी बंध जाता है स्वर में थोड़ी देर को, वह जरूर गंगा—यमुना में पहुंच जायेगा। आंसुओ की धार लग जायेगी! एक नृत्य शुरू होता है, जो बाहर से किसी को दिखाई न पड़ेगा; जो उसका ही भीतरी आंतरिक अनुभव होगा। तुम चाहोगे भी किसी और को समझाना तो समझा न पाओगे। समझाने की कोशिश भी मत करना; क्योंकि उसमें खतरा है कि दूसरा ही तुम्हें समझा देगा कि ‘तुम पागल हो गये हो। कहीं ऐसा हुआ है? सुनकर कहीं सत्य मिला है?’ मैं तुमसे कहता हूं सुनकर ही मिल जाता है; क्योंकि खोया तो है ही नहीं। खोया होता तो सुनकर भी नहीं मिल सकता था। खोया होता तो खोजना पड़ता।

कोई मुझसे आ कर कहता है, ईश्वर को खोजना है। मैं कहता हूं तू खोज, तुझे कभी मिलेगा नहीं। क्योंकि खोया कब, पहले यह तो पूछ! खोया हो तो खोजा जा सकता है। खोया ही न हो तो कैसे खोजेगा?

तो तुम्हें अगर मस्ती आने लगे और तुम्हारे भीतर कोई द्वार खुलने लगे, कोई झरोखा और तुम्हारे भीतर एक शराब ढलने लगे तो तुम किसी को कहना मत, गुपचुप पी जाना! कोई इसे समझेगा नहीं। दूसरे हंसेंगे। कहेंगे. ‘सम्मोहित हो गये हो, कि पागल हो गये, कि खोया तुमने अपनी बुद्धि से हाथ अब। किस चक्कर में पड़ गये हो?’ किसी से कहना मत, चुपचाप पी लेना। क्योंकि जो दूसरों का अनुभव नहीं है, वह दूसरे समझ न पायेंगे।

फगुनाये क्षण में अनगायी गजल उगी

बौराये मन में गीतों की फसल उगी

खुलते भिनसारे बनजारे सपन हुए

नयनों की भाषा अनयारे नयन हुए

श्याम साथ राधा दोपहरी सांझ हुई

अब न रही बाधा, हुई हुई छुई मुई

बौराये मन में गीतों की फसल उगी।

जब तुम करीब—करीब मस्ती में पागल होते हो तभी गीतों की फसल उगती है।

फगुनाये क्षण में अनगायी गजल उगी

जो तुमने अभी तक गायी नहीं, वैसी गजल प्रतीक्षा कर रही है। जो गीत तुमने अभी गुनगुनाया नहीं, वह तुम्हारे बीज में पड़ा है, फूटना चाहता है, तड़प रहा है। उसे मौका दो। अगर मेरे साथ, मेरे संग बैठ तुम थोड़ा नाच लो, गुनगुना लो, तुम थोड़े डोल लो…।

श्याम साथ राधा दोपहरी सांझ हुई

अब न रही बाधा, हुई हुई छुई मुई।

किसी क्षण जब तुम मेरे साथ डोल उठते हो, जिन दूर की ऊंचाइयों पर मैं तुम्हें उड़ा ले चलना

चाहता हूं कभी तुम क्षण भर को भी पंख मार लेते हो, उसी क्षण आंसू बहते हैं। उसी क्षण तुम्हारे भीतर कोई मधुर स्वाद फैलने लगता है। तुम्हारे कंठ में कोई तृप्ति आने लगती है। कहो इसे प्रेम का क्षण, ध्यान का क्षण—स्व ही बात को कहने के दो ढंग हैं।

चौथा प्रश्न :

मुझे जैसा मौका मिलता है वैसा ही ध्यान या कीर्तन या कर्म करके रस ले लेता हूं। इनमें कम या ज्यादा रस का फर्क भी नहीं कर पाता। हरेक परिस्थिति से मन सध जाता है। और इस कारण अपने लिए कोई एक मार्ग नहीं चुन पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन करें।

अब मार्ग की जरूरत नहीं है। अगर तुम हर स्थिति में मन के सधने का मजा लेने लगे हो, अब मार्ग की जरूरत नहीं। औषधि उनके लिए है जो बीमार हों। अगर स्वास्थ्य आने लगा तो अब औषधि की बात ही मत करो। अब तो भूल कर औषधि के पास मत जाना। क्योंकि औषधि, बीमार हो तो लाभ करती है; और अगर स्वस्थ हो तो औषधि नुकसान करती है। औषधि जहर है।

तुम पूछते हो, ‘अब तो हर कहीं कीर्तन में, ध्यान में या कर्म करके रस ले लेता हूं!’

बस तो बात हो गयी। जहां रस आने लगा वहां परमात्मा की ध्वनि आने लगी।

रसो वै सः। उस प्रभु का रूप—रंग रस का है। उस प्रभु का नाम रस है। सुंदरतम नाम रस है। रस ही उसे कहो। जहां रस मिल जाये वहां प्रभु मौजूद है। रस मिले तो समझना कि पास ही कहीं मौजूद है। द्वार—दरवाजे खोल कर स्वागत को तैयार हो जाना. आ गया है! रस उसके पैरों की भनक है, उसके पायल की झनक है। रस उसकी मौजूदगी की खबर है। तो अगर काम में, ध्यान में, प्रार्थना, कीर्तन, भजन में, संगीत में, नाच में, सबमें रस आने लगा तो बात हो गयी। अब तुम्हें कोई जरूरत मार्ग चुनने की नहीं है। ऐसे ही चले चलो।

‘हरेक परिस्थिति में मन सध जाता है।’

तो अब इसको समस्या मत बनाओ। यह तो समस्या का समाधान होने लगा। ऐसा ही होना चाहिए। ऐसा ही तो होना चाहिए।

अब तुम पूछते हो : ‘इस कारण अपने लिए कोई एक मार्ग नहीं चुन पाता।’

अब तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। रस तुम्हारा मार्ग है। अब सब तरफ से रस को चुनते चलो।

कैसी है पहचान तुम्हारी

राह मूलने पर मिलते हो!

कैसी है पहचान तुम्हारी

राह मूलने पर मिलते हो!

पथरा चलीं पुतलियां, मैंने

विविध धुनों में कितना गाया!

दायें बायें ऊपर नीचे

दूर—पास तुमको कब पाया!

धन्य कुसुम पाषाणों पर ही

तुम खिलते हो तो खिलते हो

कैसी है पहचान तुम्हारी

राह मूलने पर मिलते हो!

रस तुम्हारी राह है। और रस का अर्थ होता है : डूबना। रस का अर्थ होता है. भूलना। रस का अर्थ होता है : ऐसे लवलीन हो जाना, ऐसे तल्लीन हो जाना कि मिट ही जाओ।

रस यानी शराबी का मार्ग। और जिसने रस को जान लिया उसके लिए सारा जगत मधुशाला हो जाता है। और तब तुम एक दिन पाओगे कि परमात्मा ही साकी बन कर ढाल रहा है; वही तुम्हें पिला रहा है। वही है पिलाने वाला। वही है पीने वाला। उसी की है प्याली, उसी के रस से भरी है। उसी का रस है सुराही में। वही ढाल रहा है। सब कुछ उसी का है।

रस तुम्हारा मार्ग है। अब और मार्ग खोजने की कोई जरूरत नहीं। बस इतना ही स्मरण रखना : जहां भूल जाओगे वहीं उससे मिलन होने लगेगा।

रच सकते हैं अच्युत ही महा रास

बंधी हुई है उनके ही स्थिर से गोपिकाओं की स्मृति

गूंजता है रागिनियों के वैविध्य में उनका ही ओंकार

व्यक्त है उनकी ही लीला में अव्यक्त ऋतंभरा।

यह जो सारा रसमुग्ध संसार है—यह जो कहीं रस हरा हो कर वृक्षों में बह रहा, कहीं चांद—तारों में ज्योति बन कर झर रहा; यह जो रस से भरा संसार है—कहीं मोर नाच रहा, कहीं बादल घुमड़ आये, यह जो रस से भरा संसार है—पानी के झरनों में, पत्थरों—चट्टानों में या आंखों में—स्व ही सब तरफ से सब रूपों में प्रगट हो रहा है! यह जो रास चल रहा है, यह जो लीला है, यह जो खेल है, इसमें तुम तल्लीन होना सीख गये, इसमें डुबकी लगाने लगे, इसमें ऐसे मंत्रमुग्ध होने लगे कि तुम बचे ही नहीं पीछे, मंत्रमुग्धता ही रही, तल्लीनता ही रही, तुम न रहे; नाच तो बचा, नाचने वाला न बचा—तों रस उपलब्ध होगा। गीत तो बचा, गानेवाला न बचा..!

यहां मैं बोल रहा हूं; अगर बोलने वाला भी पीछे है तो इस बोलने में कुछ बहुत सार नहीं है। यहां तुम सुन रहे हो; अगर सुनने वाला भी मौजूद है तो सुनने में कुछ रस नहीं। इधर बोलने वाला नहीं है, उधर सुनने वाला न हो—तब दोनों की एक गांठ बन जाती है, दोनों बंध जाते हैं, भांवर पड़

जाती है! न बोलने वाला बोलने वाला है, न सुनने वाला सुनने वाला है। जब न गुरु गुरु होता न शिष्य शिष्य होता, जब दोनों एक—दूसरे में ऐसे लीन हो जाते हैं कि पता नहीं चलता कि कौन कौन है; जब सीमाएं एक—दूसरे के ऊपर छा जातीं, सीमाएं टूट जातीं, बिखर जातीं—वहीं, वहीं रस है। रस तुम्हारा

मार्ग है!

पांचवां प्रश्न :

भगवान बुद्ध को किसी ने गाली दी तो उन्होंने कहा, मैं यह भेंट नहीं लेता, इसे वापिस ले जाओ। रमण महर्षि हठी—विवादी के पीछे लाठी ले कर भागे। और आप पर जब किसी ने जूता फेंका तो आपने उसे एक हाथ में ले कर उसके जोड़े जूते की मांग की। आत्मोपलब्ध परुषों के व्यवहार में यह जो भिन्नता दिखती है, क्या उस पर कुछ प्रकाश डालने की अनकंपा करेंगे?

भन्‍नता दिखती ही है, है नहीं। भिन्नता दिखती ही है, क्योंकि परिस्थितियां भिन्न—भिन्न हैं। बुद्ध को जिसने गाली दी, वही आदमी मुझ पर जूता नहीं फेंका। मैं तो ठीक वहीं हूं। रमण को जिस आदमी ने अपमानित किया, वही आदमी मेरे ऊपर जूता नहीं फेंका।

तो जो फर्क पड़ रहा है, वह बुद्धों में नहीं पड़ रहा है। जो फर्क पड़ रहा है वह जूता फेंकने वाले, गाली देने वाले, अपमानित करने वाले से पड़ रहा है। इस भेद को ठीक से समझना।

अगर मुझ पर जूता फेंकने वाला भी वही आदमी होता जिसने बुद्ध को गाली दी थी तो मैं भी उससे कहता कि मैं यह भेंट नहीं लेता। जिसने रमण का अपमान किया था, अगर वही आदमी होता तो मैं भी उसके पीछे लाठी ले कर दौड़ता।

जाग्रत चैतन्य का तो इतना ही अर्थ है कि जैसी परिस्थिति हो उस परिस्थिति में बिना पूर्व—नियोजन के, बिना पूर्व — आयोजन के जो घटे उसे घटने देना। बुद्धपुरुष तो दर्पण की भांति होते हैं।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन को राह के किनारे एक दर्पण पड़ा हुआ मिल गया। उसने उसमें अपना चेहरा देखा : ‘चमत्कार हुआ कि बिलकुल पिता जी जैसे लगते हैं। मगर पिता जी ने फोटो कब उतरवायी? यह भी हद हो गयी! हमको पता ही न चला कि पिता जी ने फोटो कब उतरवा ली! और पिता जी तो मर भी चुके। तो उसने कहा, अच्छा हुआ मिल गयी पड़ी हुई। चलो घर ले चलें, सम्हाल कर रख लें।’ उसने जा कर छिपा कर ऊपर रख दिया।

अब पत्नियों से कोई दुनिया में चीज छिपा तो सकता ही नहीं। ऐसी दबी आंख पत्नी देखती रही कि कुछ लाया है छिपा कर। कुछ छिपा रहा है—रुपये—पैसे हैं या क्या मामला है कि कोई हीरा—जवाहरात लग गया! जब सब सो गये दोपहर में तो वह ऊपर गयी। खोज—खाज कर उसने दर्पण निकाला। देखा।’अरे’, उसने कहा, ‘तो इस राड के पीछे पड़ा है?’ वह समझी कि किसी औरत की फोटू ले आया है।

दर्पण तो दर्पण है। तुम्हारी ही तस्वीर उसमें दिखाई पड़ती है। बुद्धत्व यानी दर्पण। तो बुद्ध जो करते हैं या उनसे जो होता है, ठीक से सोचना, वे करते नहीं, सिर्फ तुम्हारी तस्वीर झलकती है। इसलिए अलग— अलग मालूम होता है। अलग—अलग कुछ भी नहीं है; अलग— अलग हो नहीं सकता। लेकिन परिस्थिति अलग है। क्योंकि एक पात्र बदल गया। असली पात्र तो बदल गया। बुद्ध तो दर्पण मात्र हैं। कृत्य तो उस आदमी का है जो गाली दिया; जो जूता फेंका; जिसने अपमान किया। करने वाला तो वह है। ये बुद्ध तो न करने वाले हैं। तो इनसे तो जो प्रतिबिंब बनता है, वह बनता है। जो बन जाता है, बन जाता है।

अगर तुम इस तरह देखोगे तो तुम चकित हो जाओगे। तब तुम्हें एक बात और भी समझ में आ जायेगी, प्रसंगवशात उसे भी समझ लो।

कृष्ण ने कुछ कहा, अष्टावक्र कुछ कह रहे हैं, बुद्ध ने कुछ कहा, क्राइस्ट ने कुछ कहा—इसमें भी इन्होंने भिन्न—भिन्न बातें नहीं कही हैं। यह भिन्न—भिन्न शिष्यों के कारण ऐसा मालूम पड़ता है। अगर अर्जुन उपलब्ध होता अष्टावक्र को तो गीता ही पैदा होती; कुछ और पैदा नहीं हो सकता था। और अगर कृष्ण को जनक मिलता तो यह अष्टावक्र की महागीता पैदा होती, कुछ और पैदा नहीं हो सकता था। अगर जीसस भारत में बोलते, हिंदुओं से बोलते, तो बुद्ध जैसे बोलते; लेकिन यहूदियों से बोल रहे थे तो फर्क पड़ गया। दर्पण बदला। दर्पण बदला—अपने कारण नहीं। दर्पण बदला—जो उसके सामने पड़ा, उसके कारण। दर्पण के भीतर तो कोई चित्र है नहीं। कोई न हो तो दर्पण खाली हो जाये।

इसलिए अगर बुद्ध और जीसस, नानक और कबीर और मुहम्मद और जरथुस्त्र का मिलना हो जाये तो ऐसा ही होगा, वहा कुछ भी न होगा।

जैसे दर्पण के सामने दर्पण रख दो, क्या होगा? कुछ न बनेगा। दर्पण में दर्पण झलकता रहेगा। ये सब बैठे रहेंगे चुपचाप। ये एक—दूसरे में अपने को ही पायेंगे। यहां कुछ भेद ही न होगा। भेद पैदा होता है—शिष्य के कारण, सुनने वाले के कारण। क्योंकि असली वही है। बुद्ध तो खो गये। वे तो परम शून्य हो गये हैं।

आखिरी प्रश्न—

पूछा है स्वामी आनंद भारती, हिम्मत भाई जोशी ने। प्रश्न तो है भी नहीं, इतना ही लिखा है : हम्मा के प्रणाम!

मगर कुछ कहने का मन उनका हुआ होगा। कई बार ऐसा होता है, कुछ कहने का मन होता है और कहने को भी कुछ नहीं होता। कुछ गाने का मन होता है, गीत कुछ बनता भी नहीं। कुछ धुंधला— धुंधला होता है, साफ पकड़ में नहीं आता, शब्द में बंधता नहीं। सच तो यह है कि जब भी कुछ महत्वपूर्ण होता है तो शब्द में बंधना मुश्किल हो जाता है। तो उस क्षण आदमी क्या करे? कभी रोता है, आंख से आंसू गिरा देता है। वह भी कुछ कह रहा है। कभी हंसता; हंसी से कुछ कह रहा है। कभी चुप रह जाता, अवाक रह जाता; चुप्पी से कुछ कह रहा है। कभी अपने प्रणाम ही निवेदित कर देता, और क्या करे?

हजारों—हजारों सालों से बुद्धपुरुषों के चरणों में लोगों ने सिर रखे हैं—किसी और कारण से नहीं। कुछ करने को सूझता नहीं। कुछ और क्या करें?

पश्चिम में पैरों पर सिर रखने की कोई परंपरा नहीं है। क्योंकि बहुत बुद्धपुरुष नहीं हुए। यह तो बुद्धपुरुषों के कारण पैदा हुई परंपरा। क्योंकि सब खाली मालूम पड़ता है, क्या कहें? धन्यवाद भी देते है तो धन्यवाद शब्द थोथा मालूम पड़ता है। तब एक ही उपाय है कि पूरा सिर चरणों पर रख दें।

तुमने कभी खयाल किया, क्रोध आ जाता है तो तुम जूता उतार कर किसी के सिर पर मार देते हो। क्या कर रहे हो तुम? तुम यह कह रहे हो कि हम अपने पैर तुम्हारे सिर पर रखते हैं—प्रतीकात्मक रूप से। सिर पर पैर रखना बड़ा कठिन काम है—उछलना—कूदना पड़े, हाथ—पैर टूट जायें—तो संकेत के रूप में जूता रख देते हैं सिर पर; कि लो, तुम्हारा सिर और हमारा जूता! —जब क्रोध होता है। और जब कोई बहुत गहन श्रद्धा पैदा हो तब तुम क्या करोगे? तब तुम किसी के चरणों पर अपना सिर रख देते हो कि अब हम और क्या करें। अब कुछ कहने को नहीं।

हिम्मत भाई वर्षों से मेरे साथ जुड़े हैं—बहुत ढंग से जुड़े हैं। कभी दोस्ती में, कभी दुश्मनी में कभी श्रद्धा, कभी अश्रद्धा; कभी मेरे पक्ष में, कभी विपक्ष में—सब रंग में जुड़े हैं! बुरी तरह जुड़े हैं! कच्चा काम नहीं है। सब रंगों से जुड़े हैं। अब तो धीरे— धीरे सब रंग भी चले गये। अब सिर्फ जोड़ रह गया है।

क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!

मिट्टी की अंजलि में मैंने जोड़ा स्नेह तुम्हारा

बाती की छाती दे तुमने मेरा भाग्य संवारा

करूं आरती तो भी दिखते हैं वरदान तुम्हारे

अपने प्राणों के दीप कहां जो बालू!

क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!

छंदों में जो लय लहराती वह पदचाप तुम्हारी

पायल की रुन—झुन पर मेरा राग मुखर बलिहारी

शब्दों में जो भाव मचलते उन पर क्या वश मेरा

अपने को ही बहलाना है तो गा लूं!

क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!

सब तरह से वे मेरे करीब आये हैं। और इसी तरह कोई करीब आता है—सब ऋतुओं से गुजर कर करीब आता है।

गुरु और शिष्य का संबंध एक रंग का नहीं है, सतरंगा है। एक रंग का हो तो बेस्वाद हो जाये। जिसके साथ श्रद्धा जोड़ी है उस पर कई बार अश्रद्धा भी आती है—स्वाभाविक है। जिसके साथ लगाव बांधा है उस पर कभी नाराजगी भी होती है—स्वाभाविक है। जिसको सब दे डालना चाहा है, कभी ऐसा लगता है धोखा तो नहीं हो गया, भूल तो नहीं हो गयी, चूक तो नहीं हो गयी। कभी चिंता भी उठती है, संदेह भी उठता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसे ही धूप—छाव में मन पकता है।

हिम्मत भाई पके और उनका फल गिर गया। अब धूप—छांव का खेल नहीं रहा है। अब वे परम विश्रांति में मेरे पास बैठ गये हैं। इसी भाव को प्रगट करने के लिए उनके मन में यह बात उठी होगी कि लिख कर भेज दें : हम्मा के प्रणाम! मुझे पता है। लिख कर न भी भेजो तो भी पता है। बहुत हैं जो कभी लिख कर कुछ नहीं भेजते, उनका भी पता है। यह घटना कुछ ऐसी है, जब घट जाती है तो पता चल ही जाता है। यह घटना इतनी बड़ी है। जब तुम वस्तुत: झुक जाते हो तो तुम्हारी तरंग—तरंग कहने लगती है, तुम्हारा उठना—बैठना, तुम्हारी आंख का पलक का झपना, तुम्हारे हृदय की धड़कन— धड़कन कहने लगती है कि घटना घट गयी, मिलन हो गया है!

हरि ओंम तत्सत्!


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–1

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गीता दर्शन—(भाग दो)

ओशो

गीता कई अर्थो में असाधारण है। कुरान एक निष्‍ठा का शस्‍त्र है। दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं है। बाइबिल एक निष्‍ठा का शस्‍त्र है; दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं। महावीर के वचन एक निष्‍ठा के वचन है; दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं। बुद्ध के वचन एक निष्‍ठा के वचन है। दूसरी निष्‍ठा की बात नहीं। गीता असाधारण है। मनुष्‍य के अनुभव में जितनी निष्‍ठाएं है, उन सारी निष्‍ठाओं का निचोड़ है। ऐसी कोई निष्‍ठा नहीं है जो मनुष्‍य—जाति में प्रकट हुई हो, जिसके सूत्र बीज—सूत्र गीता में नहीं है।

कृष्‍ण ने पहले सांख्‍य की बात कहीं, अगर अर्जुन राज़ी हो जाए, तो गीता आगे न बढ़ती। लेकिन अर्जुन समझ ने पाये सांख्‍य की बात। इसलिए फिर दूसरी बात कृष्‍ण को करनी पड़ी। अर्जुन वह भी न समझ पाया; फिर तीसरी बात करनी पड़ी; अर्जुन वह भी न समझ पाया फिर चौथी बात करनी पड़ी।

यह गीता को श्रेय अर्जुन को जाता है। यह अर्जुन समझ ही नहीं पाया। वह सवाल उठाता ही रहा। जब एक मार्ग लगा कृष्‍ण को कि नहीं उसकी पकड़ में आता है। नहीं उसके साथ बैठता है तालमैल, तब उन्‍होंने दूसरी बात की; तब तीसरी बात की; चौथी बात की।

मोहम्‍मद को भी अर्जुन मिल जाता, तो कुरान ऐसी ही बन सकती थी; नहीं मिला। महावीर को भी मिल जात, तो उसके वचन भी ऐसे ही हो सकते थे। नहीं मिला। अर्जुन जैसा पूछते वाला कभी—कभी मिलता है। कृष्‍ण जैसे उत्‍तर देने वाले बहुत बार मिलते है।

अर्जुन एक अर्थों में, पूरी मनुष्‍य—जातिने जितने सवाल उठाए है, उन सबका सारभूत है। पूरी मनुष्‍य जाति में मनुष्‍य के मन में जितने सवाल उठाएहै, उन सारे सवालों को वि उठाता चला जाताहै। वह पूरी मनुष्‍य जाति का रिप्रेजेंटेटिव की तरह कृष्‍ण के सामने कड़कर खड़ा हो गया। कृष्‍ण को उसके उत्‍तरदेने पड़े। एक—एक वह पूछता चला गया, एक—एक उन्‍हें उत्‍तर देनें पड़े। वह एक—एक उत्‍तर को नकारता गया; भुलाता गया;दूसरे की खोज करता चला गया।

ओशो

सत्य एक–जानने वाले अनेक—(अध्याय ४)—पहला प्रवचन

श्रीमद्भगवद्गीता—अथ चतुर्थोऽध्यायः

श्री भगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। 1।।

श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु के प्रति कहा।

सत्य न तो नया है, न पुराना। जो नया है, वह पुराना हो जाता है। जो पुराना है, वह कभी नया था। जो नए से पुराना होता है, वह जन्म से मृत्यु की ओर जाता है। सत्य का न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। इसलिए सत्य न नया हो सकता है, न पुराना हो सकता है। सत्य सनातन है।

सनातन का अर्थ, सत्य समय के बाहर है, बियांड टाइम है। वस्तुतः समय के भीतर जो भी है, वह नया भी होगा और पुराना भी होगा। समय के भीतर जो है, वह पैदा भी होगा और मरेगा भी; जवान भी होगा और बूढ़ा भी होगा। कभी स्वस्थ भी होगा और कभी अस्वस्थ भी होगा। समय के भीतर जो है, वह परिवर्तनमय होगा; समय के बाहर जो है, वही अपरिवर्तित हो सकता है।

कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत थोड़ी-सी बात में बहुत-सी बात कही है। एक तो उन्होंने यह कहा कि यह जो मैं तुझसे कहता हूं अर्जुन, वही मैंने सूर्य से भी कहा था, समय के प्रारंभ में, आदि में। इसमें दोत्तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

समय के प्रारंभ का क्या अर्थ हो सकता है? सच तो यह है कि जहां भी प्रारंभ होगा, वहां समय पहले से ही मौजूद हो जाएगा। सब प्रारंभ समय के भीतर होते हैं, समय के बाहर कोई प्रारंभ नहीं हो सकता, क्योंकि सब अंत समय के भीतर होते हैं। कृष्ण जब कहते हैं, समय के प्रारंभ में, तो उसका अर्थ ही यही होता है, समय के बाहर। समय के भीतर अगर कोई प्रारंभ होगा, तो वह शाश्वत सत्य की घोषणा नहीं कर सकता है।

जब समय नहीं था, तब मैंने सूर्य को भी यही कहा है। इस बात को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि सूर्य को भी यही कहा है, इस मेटाफर का, इस प्रतीक का क्या अर्थ हो सकता है?

जो भी अध्यात्म की गहराइयों में उतरे हैं, उन सबका एक सुनिश्चित अनुभव है और वह यह कि अध्यात्म की आखिरी गहराई में प्रकाश ही शेष रह जाता है और सब खो जाता है। जब व्यक्ति अध्यात्म में शून्य होता है, अहंकार विलीन होता है, तो प्रकाश ही रह जाता है, और सब खो जाता है। व्यक्ति जब अध्यात्म की गहराई में उतरता है, तो वह वहीं पहुंच जाता है, जब समय के पहले सब कुछ था। गहरे अनुभव, प्रथम और अंतिम, समान होते हैं।

यही मैंने सूर्य को कहा था, कृष्ण जब यह कहते हैं, तो वे यह कहते हैं, यही मैंने प्रकाश की पहली घटना को कहा था।

इस जगत के प्रारंभ की पहली घटना प्रकाश है और इस जगत के अंत की अंतिम घटना भी प्रकाश है। व्यक्ति के आध्यात्मिक जन्म का भी प्रारंभ प्रकाश है और आध्यात्मिक समारोप भी प्रकाश है।

कुरान कहता है, परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है। बाइबिल कहती है, परमात्मा प्रकाश ही है। कृष्ण यहां प्रकाश को सूर्य कहते हैं। सूर्य को कहा था सबसे पहले, क्योंकि सबसे पहले प्रकाश था; और फिर जो भी जन्मा है, वह प्रकाश से ही जन्मा है। फिर प्रकाश के पुत्र को कहा था, फिर उसके पुत्र को कहा था।

इसमें यह भी समझ लेने जैसा है कि कृष्ण कहते हैं, मैंने। निश्चित ही, यह मैं, वह जो कृष्ण की देह थी अर्जुन के सामने खड़ी, उसके संबंध में नहीं हो सकता। वह देह तो अभी कुछ वर्ष पहले पैदा हुई थी और कुछ वर्ष बाद विदा हो जाएगी। कृष्ण जिस मैं की बात कर रहे हैं, वह कोई और ही मैं होना चाहिए।

जीसस ने अपने एक वक्तव्य में कहा है–किसी ने जीसस को पूछा, अब्राहम के संबंध में आपका क्या खयाल है? अब्राहम एक पुराना पैगंबर हुआ यहूदियों का। पूछा जीसस से किसी ने, अब्राहम के संबंध में आपका क्या खयाल है? तो जीसस ने कहा, बिफोर अब्राहम वाज़, आई वाज़। इसके पहले कि अब्राहम था, मैं था। अब्राहम के पहले भी मैं था।

निश्चित ही, यह मरियम के बेटे जीसस के संबंध में कही गई बात नहीं है। अब्राहम के पहले! अब्राहम को हुए तो हजारों साल हुए!

कृष्ण सूर्य की–जगत की पहली घटना की–फिर मनु की, इक्ष्वाकु की, इनकी बात कर रहे हैं। उन्हें हुए हजारों वर्ष हुए। कृष्ण तो अभी हुए हैं। अभी अर्जुन के सामने खड़े हैं। जिस कृष्ण की यह बात है, वह किसी और कृष्ण की बात है।

एक घड़ी है जीवन की ऐसी, जब व्यक्ति अपने अहंकार को छोड़ देता, तो उसके भीतर से परमात्मा ही बोलना शुरू हो जाता है। जैसे ही मैं की आवाज बंद होती है, वैसे ही परमात्मा की आवाज शुरू हो जाती है। जैसे ही मैं मिटता हूं, वैसे ही परमात्मा ही शेष रह जाता है।

यहां जब कृष्ण कहते हैं, मैंने ही कहा था सूर्य से, तो यहां वे व्यक्ति की तरह नहीं बोलते, समष्टि की भांति बोलते हैं। और कृष्ण के व्यक्तित्व में इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि बहुत क्षणों में वे अर्जुन के मित्र की भांति बोलते हैं, जो कि समय के भीतर घटी हुई एक घटना है। और बहुत क्षणों में वे परमात्मा की तरह बोलते हैं, जो समय के बाहर घटी घटना है।

कृष्ण पूरे समय दो तलों पर, दो डायमेंशंस में जी रहे हैं। इसलिए कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के भीतर हैं, और कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के बाहर हैं। जो वक्तव्य समय के बाहर हैं, वहां कृष्ण सीधे परमात्मा की तरह बोल रहे हैं। और जो वक्तव्य समय के भीतर हैं, वहां वे अर्जुन के सारथी की तरह बोल रहे हैं। इसलिए जब वे अर्जुन से कहते हैं, हे महाबाहो! तब वे अर्जुन के मित्र की तरह बोल रहे हैं। लेकिन जब वे अर्जुन से कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज–सब छोड़, तू मेरी शरण में आ–तब वे अर्जुन के सारथी की तरह नहीं बोल रहे हैं।

इसलिए गीता, और गीता ही नहीं, बाइबिल या कुरान या बुद्ध और महावीर के वचन दोहरे तलों पर हैं। और कब बीच में परमात्मा बोलने लगता है, इसे बारीकी से समझ लेना जरूरी है, अन्यथा समझना मुश्किल हो जाता है।

जब कृष्ण कहते हैं, सब छोड़कर मेरी शरण आ जा, तब इस मेरी शरण से कृष्ण का कोई भी संबंध नहीं है। तब इस मेरी शरण से परमात्मा की शरण की ही बात है।

इस सूत्र में जहां कृष्ण कह रहे हैं कि यही बात मैंने सूर्य से भी कही थी–मैंने। इस मैं का संबंध जीवन की परम ऊर्जा, परम शक्ति से है। और यही बात! इसे भी समझ लेना जरूरी है।

सत्य अलग-अलग नहीं हो सकता। बोलने वाले बदल जाते हैं, सुनने वाले बदल जाते हैं; बोलने की भाषा बदल जाती है; बोलने के रूप बदल जाते हैं, आकार बदल जाते हैं, सत्य नहीं बदल जाता। अनेक शब्दों में, अनेक बोलने वालों ने, अनेक सुनने वालों से वही कहा है।

उपनिषद जो कहते हैं, बुद्ध उससे भिन्न नहीं कहते; लेकिन बिलकुल भिन्न कहते मालूम पड़ते हैं। बोलने वाला बदल गया, सुनने वाला बदल गया और युग के साथ भाषा बदल गई।

महावीर जो कहते हैं, वह वही कहते हैं, जो वेदों ने कहा है; पर भाषा बदल गई, बोलने वाला बदल गया, सुनने वाले बदल गए। और कई बार शब्दों और भाषा की बदलाहट इतनी हो जाती है कि दो अलग-अलग युगों में प्रकट सत्य विपरीत और विरोधी भी मालूम पड़ने लगते हैं।

मनुष्य जाति के इतिहास में इससे बड़ी दुर्घटना पैदा हुई है। इस्लाम या ईसाइयत या हिंदू या बौद्ध या जैन, ऐसा मालूम पड़ते हैं कि विरोधी हैं, राइवल्स हैं, शत्रु हैं। ऐसा प्रतीत होता है, इन सबके सत्य अलग-अलग हैं। इन सबके युग अलग-अलग हैं, इन सबके बोलने वाले अलग-अलग हैं, इन सबके सुनने वाले अलग-अलग हैं, इनकी भाषा अलग-अलग है; लेकिन सत्य जरा भी अलग नहीं है। और धार्मिक व्यक्ति वही है, जो इतने विपरीत शब्दों में कहे गए सत्य की एकता को पहचान पाता है; अन्यथा जो व्यक्ति विरोध देखता है, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं है।

तो कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि यही सत्य, ठीक यही बात पहले भी कही गई है। यहां एक बात और भी खयाल में ले लेनी जरूरी है।

कृष्ण ओरिजिनल होने का, मौलिक होने का दावा नहीं कर रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह मैं ही पहली बार कह रहा हूं; यह नहीं कह रहे हैं कि मैंने ही कुछ खोज लिया है। वे यह भी नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू सौभाग्यशाली है, क्योंकि सत्य को तू ही पहली बार सुन रहा है। न तो बोलने वाला मौलिक है, न सुनने वाला मौलिक है; न जो बात कही जा रही है, वह मौलिक है। इसका यह मतलब नहीं है कि पुरानी है।

अंग्रेजी में जो शब्द है ओरिजिनल और हिंदी में भी जो शब्द है मौलिक, उसका मतलब भी नया नहीं होता। अगर ठीक से समझें, तो ओरिजिनल का मतलब होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का भी अर्थ होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का अर्थ भी नया नहीं होता। ओरिजिनल का अर्थ भी नया नहीं होता।

अगर इस अर्थों में हम समझें मौलिक को, तो कृष्ण बड़ी मौलिक बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, समय के मूल में यही बात मैंने सूर्य से भी कही थी; वही सूर्य ने अपने पुत्र को कही थी; वही सूर्य के पुत्र ने अपने पुत्र को कही थी। यह बात मौलिक है। मौलिक अर्थात मूल से संबंधित, नई नहीं। ओरिजिनल, कंसर्न्ड विद दि ओरिजिन; वह जो मूल-स्रोत है, जहां से सब पैदा हुआ, वहीं से संबंधित है।

लेकिन आज के युग में मौलिक का कुछ और ही अर्थ हो गया है। मौलिक का अर्थ है, कोई आदमी कोई नई बात कह रहा है। मूल की बात कह रहा है। नए अर्थों में कृष्ण की बात नई नहीं है; मूल के अर्थों में मौलिक है, ओरिजिनल है। वह जो सभी चीजों का मूल है, सभी अस्तित्व का, वहीं से इस बात का भी जन्म हुआ है।

मौलिक का जो आग्रह है नए के अर्थों में, अहंकार का आग्रह है, ईगोइस्टिक है। जब भी कोई आदमी कहता है, यह मैं ही कह रहा हूं पहली बार, तो पागलपन की बात कह रहा है।

लेकिन ऐसे पागलपन के पैदा होने का कारण है। इस बार वसंत आएगा, फूल खिलेंगे। उन फूलों को कुछ भी पता नहीं होगा कि वसंत सदा ही आता रहा है। उन फूलों का पुराने फूलों से कोई परिचय भी तो नहीं होगा; उन फूलों को पुराने फूल भी नहीं मिलेंगे। वे फूल अगर खिलकर घोषणा करें कि हम पहली बार ही खिल रहे हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है; स्वाभाविक है। लेकिन सभी स्वाभाविक, सत्य नहीं होता। स्वाभाविक भूलें भी होती हैं। यह स्वाभाविक भूल है, नेचरल इरर है।

जब कोई युवा पहली दफा प्रेम में पड़ता है या कोई युवती पहली बार प्रेम में पड़ती है, तो ऐसा लगता है, शायद ऐसा प्रेम पृथ्वी पर पहली बार ही घटित हो रहा है। प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं से कहते हैं कि चांदत्तारों ने ऐसा प्रेम कभी नहीं देखा। और ऐसा नहीं कि वे झूठ कहते हैं। ऐसा भी नहीं कि वे धोखा देते हैं। नेचरल इरर है, बिलकुल स्वाभाविक भूल करते हैं। उन्हें पता भी तो नहीं कि इसी तरह यही बात अरबों-खरबों बार न मालूम कितने लोगों ने, न मालूम कितने लोगों से कही है।

हर प्रेमी को ऐसा ही लगता है कि उसका प्रेम मौलिक है। और हर प्रेमी को ऐसा लगता है, ऐसी घटना न कभी पहले घटी और न कभी घटेगी। और उसका लगना बिलकुल आथेंटिक है, प्रामाणिक है। उसे बिलकुल ही लगता है; उसके लगने में कहीं भी कोई धोखा नहीं है। फिर भी बात गलत है।

सत्य का अनुभव भी जब व्यक्ति को होता है, तो ऐसा ही लगता है कि शायद इस सत्य को और किसी ने कभी नहीं जाना। ऐसा ही लगता है कि जो मुझे प्रतीत हुआ है, वह मुझे ही प्रतीत हुआ है। यह स्वाभाविक भूल है।

कृष्ण इस स्वाभाविक भूल में नहीं हैं।

ध्यान रहे, की गई भूलों के ऊपर उठना बहुत आसान है; हो गई भूलों के ऊपर उठना बहुत कठिन है। जानकर की गई भूल बहुत गहरी नहीं होती। जानने वाले को, करने वाले को पता ही होता है। जो भूलें सहज घटित होती हैं, बहुत गहरी होती हैं।

अगर हम प्लेटो से पूछें, तो वह कहेगा, जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर हम कांट से पूछें, तो कांट कहेगा, जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर हम हीगल से पूछें, तो हीगल भी कहेगा कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर हम कृष्णमूर्ति से पूछें, तो वे भी कहेंगे, जो मैं कह रहा हूं, मैं ही कह रहा हूं। यह बड़ी स्वाभाविक भूल है।

कृष्ण कह रहे हैं, यही बात–नई नहीं; पुरानी नहीं– अनंत-अनंत बार अनंत-अनंत ढंगों से अनंत-अनंत रूपों में कही गई है।

सत्य के संबंध में इतना निराग्रह होना अति कठिन है। इतना गैर-दावेदार होना, यह दावा छोड़ना है।

ध्यान रहे, हम सब को सत्य से कम मतलब होता है, मेरे सत्य से ज्यादा मतलब होता है। पृथ्वी पर चारों ओर चौबीस घंटे इतने विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य का कोई भी आधार नहीं होता, मेरे सत्य का आधार होता है। अगर मैं आपसे विवाद में पडूं, तो इसलिए विवाद में नहीं पड़ता कि सत्य क्या है, इसलिए विवाद में पड़ता हूं कि मेरा सत्य ही सत्य है और तुम्हारा सत्य सत्य नहीं है।

समस्त विवाद मैं और तू के विवाद हैं, सत्य का कोई विवाद नहीं है। जहां भी विवाद है, गहरे में मैं और तू आधार में होते हैं। इससे बहुत प्रयोजन नहीं होता है कि सत्य क्या है? इससे ही प्रयोजन होता है कि मेरा जो है, वह सत्य है। असल में सत्य के पीछे हम कोई भी खड़े नहीं होना चाहते, क्योंकि सत्य के पीछे जो खड़ा होगा, वह मिट जाएगा। हम सब सत्य को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं।

लेकिन ध्यान रहे, सत्य जब हमारे पीछे खड़ा होता है, तो झूठ हो जाता है। हमारे पीछे सत्य खड़ा ही नहीं हो सकता, सिर्फ झूठ ही खड़ा हो सकता है। सत्य के तो सदा ही हमें ही पीछे खड़ा होना पड़ता है। सत्य हमारी छाया नहीं बन सकता, हमको ही सत्य की छाया बनना पड़ता है। लेकिन जब विवाद होते हैं, तो ध्यान से सुनेंगे तो पता चलेगा, जोर इस बात पर है कि जो मैं कहता हूं, वह सत्य है। जोर इस बात पर नहीं है कि सत्य जो है, वही मैं कहता हूं।

कृष्ण का जोर देखने लायक है। वे कहते हैं, जो सत्य है, वही मैं तुझसे कह रहा हूं। मैं जो कहता हूं, वह सत्य है। ऐसा उनका आग्रह नहीं। और इसलिए मुझसे पहले भी कही गई है यही बात।

नए युग में एक फर्क पड़ा है। नया युग बहुत आग्रहपूर्ण है। महावीर नहीं कहेंगे कि मैं जो कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। वे कहते हैं, मुझसे भी पहले पार्श्वनाथ ने भी यही कहा है। मुझसे पहले ऋषभदेव ने भी यही कहा है। मुझसे पहले नेमीनाथ ने भी यही कहा है। बुद्ध नहीं कहते कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। वे कहते हैं, मुझसे भी पहले जो बुद्ध हुए, जिन्होंने भी जाना और देखा है, उन्होंने यही कहा है।

ऐसी भ्रांति हो सकती है कि ये सारे लोग पुरानी लीक को पीट रहे हैं। नहीं, पर वे यह नहीं कह रहे कि सत्य पुराना है। क्योंकि ध्यान रहे, जो चीज भी पुरानी हो सकती है, उसके नए होने का भी दावा किया जा सकता है। नए होने का दावा किया ही उसका जा सकता है, जो पुरानी हो सकती है, जिसकी पासिबिलिटी पुरानी होने की है। ये दावा यह कर रहे हैं कि सत्य पुराना और नया नहीं है; सत्य सत्य है। हम नए और पुराने होते हैं, यह दूसरी बात है; लेकिन सत्य में इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है।

यह सूर्य निकला, यह प्रकाश है। हम नए हैं। हम नहीं थे, तब भी सूर्य था; हम नहीं होंगे, तब भी सूर्य होगा। यह सूर्य नया और पुराना नहीं है। हम नए और पुराने हो जाते हैं। हम आते हैं और चले जाते हैं।

लेकिन हमारी दृष्टि सदा ही यही होती है कि हम नहीं जाते और सब चीजें नई और पुरानी होती रहती हैं। हम कहते हैं, रोज समय बीत रहा है। सचाई उलटी है, समय नहीं बीतता, सिर्फ हम बीतते हैं। हम आते हैं, जाते हैं; होते हैं, नहीं हो जाते हैं। समय अपनी जगह है। समय नहीं बीतता। लेकिन लगता है हमें कि समय बीत रहा है। इसलिए हमने घड़ियां बनाई हैं, जो बताती हैं कि समय बीत रहा है। सौभाग्य होगा वह दिन, जिस दिन हम घड़ियां बना लेंगे, जो हमारी कलाइयों में बंधी हुई बताएंगी कि हम बीत रहे हैं।

वस्तुतः हम बीतते हैं, समय नहीं बीतता है। समय अपनी जगह है। हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब भी होगा। हम समय को न चुका पाएंगे, समय हमें चुका देगा, समय हमें रिता देगा। समय अपनी जगह है, हम आते और जाते हैं। समय खड़ा है; हम दौड़ते हैं। दौड़-दौड़कर थकते हैं, गिरते हैं, समाप्त हो जाते हैं; सत्य वहीं है।

जिस दिन, कृष्ण कहते हैं, मैंने सूर्य को कहा था; सत्य जहां था, वहीं है। जिस दिन सूर्य ने अपने बेटे मनु को कहा; सत्य जहां था, वहीं है। जिस दिन मनु ने अपने बेटे इक्ष्वाकु को कहा; सत्य जहां था, वहीं है। और कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, तब भी सत्य वहीं है। और अगर मैं आपसे कहूं, तो भी सत्य वहीं है। कल हम भी न होंगे, फिर कोई कहेगा, और सत्य वहीं होगा। हम आएंगे और जाएंगे, बदलेंगे, समाप्त होंगे, नए होंगे, विदा होंगे–सत्य, सत्य अपनी जगह है। इस सूत्र में इन सब बातों पर ध्यान दे सकेंगे, तो आगे की बात समझनी आसान है।

कोई सवाल हो, तो पूछ लें!

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप।। 2।।

इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियों ने जाना। परंतु हे अर्जुन, वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी-लोक में लुप्तप्राय हो गया है।

परंपरा से ऋषियों ने इसे जाना, लेकिन फिर वह लुप्तप्राय हो गया–ये दो बातें। पहली बात तो आपसे यह कह दूं कि परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन नहीं है। साधारणतः हम परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन करते हैं। टे्रडीशन का अर्थ होता है, रीति। ट्रेडीशन का अर्थ होता है, रूढ़ि। ट्रेडीशन का अर्थ होता है, प्रचलित। परंपरा का अर्थ और है। परंपरा शब्द के लिए सच में अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

गंगा निकलती है गंगोत्री से; फिर बहती है; फिर गिरती है सागर में। जब गंगा सागर में गिरती है, और गंगोत्री से निकलती है, तो बीच में लंबा फासला तय होता है। इस गंगा को हम क्या कहें? यह गंगा वही है, जो गंगोत्री से निकली? ठीक वही तो नहीं है; क्योंकि बीच में और न मालूम कितनी नदियां, और न मालूम कितने झरने उसमें आकर मिल गए। लेकिन फिर भी बिलकुल दूसरी नहीं हो गई है; है तो वही, जो गंगोत्री से निकली।

तो ठीक परंपरा का अर्थ होता है कि यह गंगा, परंपरा से गंगा है। परंपरा का अर्थ है कि गंगोत्री से निकली, वही है; लेकिन बीच में समय की धारा में बहुत कुछ आया और मिला।

ऐसा समझें कि सांझ आपने एक दीया जलाया। सुबह आप कहते हैं, अब दीए को बुझा दो; उस दीए को बुझा दो, जिसे सांझ जलाया था। लेकिन जिसे सांझ जलाया था, वह दीए की ज्योति अब कहां है? वह तो प्रतिपल बुझती गई और धुआं होती गई और नई ज्योति आती गई। जिस ज्योति को आपने जलाया था सांझ, वह ज्योति तो हर पल बुझती गई और धुआं होती गई, और नई ज्योति उसकी जगह रिप्लेस होती गई। वह ज्योति तो छलांग लगाकर शून्य में खोती गई, और नई ज्योति का आविर्भाव होता गया। जिस ज्योति को सुबह आप बुझाते हैं, यह वही ज्योति है, जिसको सांझ आपने जलाया था?

यह वही ज्योति तो नहीं है। वह तो कई बार बुझ गई। लेकिन फिर भी यह दूसरी ज्योति भी नहीं है, जिसको आपने नहीं जलाया था। परंपरा से यह वही ज्योति है। यह उसी ज्योति का सिलसिला है; यह उसी ज्योति की परंपरा है; यह उसी ज्योति की संतति है।

आप आज हैं; कल आप नहीं थे, लेकिन आपके पिता थे। परसों आपके पिता भी नहीं थे, उनके पिता थे। कल आप भी नहीं होंगे, आपका बेटा होगा। परसों बेटा भी नहीं होगा, उसका बेटा होगा। ठीक से समझें, तो जैसे ज्योति जली और बुझी, ठीक ऐसे ही व्यक्ति जलते और बुझते हैं, लेकिन फिर भी एक परंपरा है।

मां और बाप अपने बेटे को ज्योति दे जाते हैं। ज्योति जलती है, फिर नई संतति। अगर हम ठीक से देखें, तो आप हो नहीं सकते थे, अगर हजारों-लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति भी आपकी परंपरा में न हुआ होता। अगर लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति जो आपकी पिता की पीढ़ियों में रहा हो, न होता, तो आप कभी न हो सकते थे। वह गंगोत्री अगर वहां न होती, तो आज आप न होते। आप उसी धारा के सिलसिले हैं, शरीर की दृष्टि से आप उसी के सिलसिले हैं।

और आत्मा की दृष्टि से भी आप सिलसिला हैं, एक परंपरा हैं। यह आत्मा कल भी थी, परसों भी थी–किसी और देह में, किसी और देह में। अरबों-खरबों वर्षों में इस आत्मा की भी एक परंपरा है; शरीर की भी एक परंपरा है। परंपरा का अर्थ है, संतति प्रवाह, कंटिन्युटी।

वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं, कंटीनम। अगर ठीक करीब लाना चाहें, तो परंपरा का अर्थ होगा, कंटीनम–संतति प्रवाह, सिलसिला।

कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से इसी सत्य को ऋषियों ने एक-दूसरे से कहा।

इसमें दूसरी बात भी ध्यान रखें। जोर कहने पर है; जोर सुनने पर नहीं है। इसमें कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने कहा। कृष्ण यह भी नहीं कह रहे कि परंपरा से ऋषियों ने सुना। जब भी कहा गया होगा, तो सुना तो गया ही होगा, लेकिन जोर कहने पर है। कहने वाले का अनिवार्य रूप से ऋषि होना जरूरी है; सुनने वाले का ऋषि होना जरूरी नहीं है। जिसने सुना, उसने समझा हो, जरूरी नहीं है। लेकिन जिसने कहा, उसने न समझा हो, तो कहना व्यर्थ है, कहा नहीं जा सकता।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि कृष्ण कहते हैं कि ऋषियों ने परंपरा से इस सत्य को कहा, परंपरा से पाया नहीं। किसी ने उनसे कहा हो और उनको मिल गया हो, ऐसा नहीं। जाना होगा। जानना और बात है, सुन लेना और बात है।

इसलिए हम पुराने शास्त्रों को कहते हैं, श्रुति, सुने गए। या कहते हैं, स्मृति, मेमोराइज्ड, स्मरण किए गए। ध्यान रहे, शास्त्र जानने वालों ने नहीं लिखे, सुनने वालों ने लिखे हैं।

इस पृथ्वी का कोई भी महत्वपूर्ण शास्त्र लिखा नहीं गया है। सुना गया है और लिखा गया है। गीता भी सुनी गई और लिखी गई। जिसने लिखी, जरूरी नहीं कि वह जानता हो। बाइबिल लिखी गई, कुरान लिखा गया, वेद लिखे गए, महावीर-बुद्ध के वचन लिखे गए। महावीर और बुद्ध ने लिखे नहीं हैं, कहे। जिन्होंने लिखे, उनके लिए वह ज्ञान नहीं था, श्रुति थी। उसे उन्होंने सुना था, उसे उन्होंने स्मरण किया था, उसे उन्होंने लिखा था; संजोया, सम्हाला। कहना चाहिए, शास्त्र एक अर्थ में डेड प्रोडक्ट है। कहना चाहिए, मरे हुए का संग्रह है। जिन्होंने कहा, उन्होंने परंपरा से जाना।

परंपरा से जानने के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ, जैसा साधारणतः लिया जाता है, जिससे मैं राजी नहीं हूं। एक अर्थ तो यह लिया जाता है कि हम शास्त्र को पढ़ लें और जान लें, तो जो हमने जाना, वह हमने परंपरा से जाना। नहीं; वह हमने परंपरा से नहीं जाना। वह हमने केवल रूढ़ि से जाना, रीति से जाना, व्यवस्था से जाना। और उस तरह का जानना ज्ञान नहीं बन सकता। सिर्फ इन्फर्मेशन ही होगा; नालेज नहीं बन सकता। उस तरह का जानना मात्र सूचना का संग्रह होगा, ज्ञान नहीं।

शास्त्र पढ़कर कोई सत्य को नहीं जान सकता है। हां, सत्य को जान ले तो शास्त्र में पहचान सकता है, रिकग्नाइज कर सकता है। शास्त्र पढ़कर ही कोई सत्य को जान ले, तो सत्य बड़ी सस्ती बात हो जाएगी। फिर तो शास्त्र की जितनी कीमत है, उतनी ही कीमत सत्य की भी हो जाएगी। शास्त्र पढ़कर सत्य जाना नहीं जा सकता, सिर्फ पहचाना जा सकता है।

लेकिन पहचान तो वही सकता है, जिसने जान लिया हो, अन्यथा पहचानना मुश्किल है। आप मुझे जानते हैं, तो पहचान सकते हैं कि मैं कौन हूं। और आप मुझे नहीं जानते हैं, तो आप पहचान नहीं सकते। इसलिए सत्य शास्त्रों में सिर्फ रिकग्नाइज होता है, कग्नाइज नहीं होता। जाना नहीं जाता, पुनः जाना जाता है। जानने का मार्ग तो कुछ और है।

इसलिए कृष्ण जिस परंपरा की बात कर रहे हैं, वह परंपरा शास्त्र की परंपरा नहीं है; वह परंपरा जानने वालों की परंपरा है। जैसे परमात्मा ने सूर्य को कहा। लेकिन इसमें स्मरणीय है यह बात कि परमात्मा ने सूर्य को कहा। बीच में किताब नहीं है, बीच में शास्त्र नहीं है। डाइरेक्ट कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही डाइरेक्ट कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही परमात्मा से व्यक्ति में सीधा संवाद है। शास्त्र, शब्द बीच में नहीं है।

मोहम्मद पहाड़ पर हैं। बेपढ़े-लिखे, मोहम्मद जैसे बेपढ़े-लिखे लोग बहुत कम हुए हैं। लेकिन अचानक उदघाटन हुआ; डाइरेक्ट कम्युनिकेशन हुआ। जिसे इस्लाम कहता है, इलहाम। ईसाइयत कहती है, रिवीलेशन। सत्य दिखाई पड़ा। इसलिए हम ऋषियों को द्रष्टा कहते हैं। सत्य देखा गया। पढ़ा नहीं गया, सुना नहीं गया, देखा गया।

पश्चिम में भी ऋषियों को सीअर्स ही कहते हैं। देखा गया; देखने वाले। इसलिए हमने तो पूरे तत्व को दर्शन कहा। दिखाई जो पड़े सत्य, सीधा दिखाई पड़े; सीधा सुनाई पड़े, सीधा परमात्मा से मिले।

लेकिन परमात्मा से मिलने की भी परंपरा है। परमात्मा से आपको ही पहली दफा नहीं मिल रहा है। परमात्मा से अनेकों को और भी पहले मिल चुका है। मिलने वालों की भी परंपरा है। दो परंपराएं हैं, एक लिखने वालों की परंपरा है–लेखकों की। और एक जानने वालों की परंपरा है–ऋषियों की।

इसलिए कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने जाना। यह परंपरा का बोध कि मुझसे पहले भी सत्य औरों को मिलता रहा है इसी भांति।

आपने आंख खोली और सूरज को जाना। जहां तक आपका संबंध है, आप पहली बार जान रहे हैं। लेकिन आपके पहले इस पृथ्वी पर जब भी आंख खोली गई है, सूरज जाना गया है। सूरज को इस भांति जानने की भी एक परंपरा है। आप पहले आदमी नहीं हैं।

और ध्यान रहे, जिस आदमी को भी भ्रम पैदा हो जाता है कि सत्य को मैं जानने वाला पहला आदमी हूं, उसको दूसरा भ्रम भी पैदा हो जाता है कि मैं अंतिम आदमी भी हूं। भ्रम भी जोड़े से जीते हैं, पेअर्स में जीते हैं। भ्रम भी अकेले नहीं होते। जिस आदमी को भी यह खयाल पैदा हो जाएगा कि सत्य को जानने वाला मैं पहला आदमी हूं, मुझसे पहले किसी ने भी नहीं जाना, उस आदमी को दूसरा भ्रम भी अनिवार्य पैदा होगा कि मैं आखिरी आदमी हूं। मेरे बाद अब सत्य को कोई नहीं जान सकेगा। क्योंकि जो कारण पहले भ्रम का है, वही कारण दूसरे भ्रम में भी कारण बन जाएगा। पहले भ्रम का कारण अहंकार है। और ध्यान रहे, जिसका अभी अहंकार नहीं मिटा, उसको सत्य से कोई सीधा संबंध नहीं हो सकता। अहंकार बीच में बाधा है।

इसलिए कृष्ण बहुत जोर देकर कहते हैं कि परंपरा से ऋषियों ने जाना। लेकिन ध्यान रखना आप, परंपरा इस तरह की नहीं कि एक ने दूसरे से जान लिया हो। परंपरा इस तरह की कि जब भी एक ने जाना, उसने यह भी जाना कि मैं जानने वाला पहला आदमी नहीं हूं; न ही मैं अंतिम आदमी हूं। अनंत ने पहले भी जाना है, अनंत बाद में भी जानेंगे। मैं जानने वालों की इस अनंत शृंखला में एक छोटी-सी कड़ी, एक छोटी-सी बूंद से ज्यादा नहीं हूं। यह सूरज मेरी बूंद में ही झलका, ऐसा नहीं; यह सूरज सब बूंदों में झलका है और सब बूंदों में झलकता रहेगा। जब कोई बूंद इतनी विनम्र हो जाती है, तो उसके सागर होने में कोई बाधा नहीं रह जाती।

इसलिए परंपरा का ठीक से अर्थ समझ लेना। अन्यथा हम परंपरा का जो अर्थ लेते हैं, वह एकदम गलत, एकदम झूठ और खतरनाक है। परंपरा का ऐसा अर्थ नहीं है कि मैं सत्य आपको दे दूंगा, तो आपको मिल जाएगा। और आप किसी और को दे देंगे, तो उसको मिल जाएगा। परंपरा का इतना ही अर्थ है कि मैं पहला आदमी नहीं, आखिरी नहीं; जानने वालों की अनंत शृंखला में एक छोटी-सी कड़ी हूं। यह सूर्य सदा ही चमकता रहा है; जिन्होंने भी आंख खोली, उन्होंने जाना है। ऐसी विनम्रता का भाव सत्य के जानने वाले की अनिवार्य लक्षणा है।

दूसरी बात कृष्ण कहते हैं, लुप्तप्राय हो गया वह सत्य।

सत्य लुप्तप्राय कैसे हो जाता है? दो बातें इसमें ध्यान देने जैसी हैं। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया, लुप्तप्राय। करीब-करीब लुप्त हो गया। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया। क्योंकि सत्य यदि बिलकुल लुप्त हो जाए, तो उसका पुनर्आविष्कार असंभव है। उसको खोजने का फिर कोई रास्ता नहीं है।

जैसे एक चिकित्सक किसी आदमी को कहे, मृतप्राय; तो अभी जीवित होने की संभावना है। लेकिन कहे, मर गया, मृत हो गया, तो फिर कोई उपाय नहीं है। मृतप्राय का अर्थ है कि मरने के करीब है; मर ही नहीं गया। लुप्तप्राय का अर्थ है, लुप्त होने के करीब है, लुप्त हो ही नहीं गया।

सत्य सदा ही लुप्तप्राय होता है। क्योंकि एक दफे लुप्त हो जाए, तो फिर मनुष्य की सीमित क्षमता के बाहर है यह बात कि वह सत्य को खोज सके। एक किरण तो बनी ही रहती है सदा। चाहे पूरा सूरज न दिखाई पड़े, लेकिन एक किरण तो सदा ही किसी कोने से हमारे अंधकारपूर्ण मन में कहीं झांकती रहती है। जैसे कि मकान के अंधेरे में द्वार-दरवाजे बंद करके हम बैठे हैं, और खपड़ों के छेद से, कहीं एक छोटी-सी रंध्र से, छोटी-सी किरण भीतर आती हो। इतना सूर्य से हमारा संबंध बना ही रहता है। वही संभावना है कि हम सूर्य को पुनः खोज पाएं, उसी किरण के मार्ग से।

सत्य लुप्तप्राय ही होता है, लुप्त कभी नहीं होता। लुप्तप्राय का अर्थ है कि हर युग में, हर क्षण में, हर व्यक्ति के जीवन में वह किनारा और वह किरण मौजूद रहती है, जहां से सूर्य को खोजा जा सकता है। यही आशा है। अगर इतना भी विलीन हो जाए, तो फिर खोजने का कोई उपाय आदमी के हाथ में नहीं है।

दूसरी बात, लुप्तप्राय सत्य क्यों हो जाता है? जैसे कोई नदी रेगिस्तान में खो जाए; लुप्त नहीं हो जाती, लुप्तप्राय हो जाती है। रेत को खोदें, तो नदी के जल को खोजा जा सकता है। ठीक ऐसे ही, जाने गए सत्य की परंपरा, सुने गए सत्य की परंपरा की रेत में खो जाती है। जाने गए सत्य की परंपरा, द्रष्टा के सत्य की परंपरा, शास्त्रों की, शब्दों की परंपरा की रेत में खो जाती है। धीरे-धीरे शास्त्र इकट्ठे होते चले जाते हैं, ढेर लग जाता है। और वह जो किरण थी ज्ञान की, वह दब जाती है। फिर धीरे-धीरे हम शास्त्रों को ही कंठस्थ करते चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं, इन शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने से ही सत्य मिल जाएगा। और सत्य की सीधी खोज बंद हो जाती है। फिर हम उधार सत्यों में जीने लगते हैं। फिर राख ही हमारे हाथ में रह जाती है।

लेकिन शास्त्रों के रेगिस्तान में भी सत्य सिर्फ लुप्तप्राय होता है, लुप्त नहीं हो जाता। अगर कोई शास्त्रों के शब्दों को भी खोदकर खोज सके, तो वहां भी सत्य खोजा जा सकता है। लेकिन पहचान बड़ी मुश्किल है। पहचान इसलिए मुश्किल है कि जिस सत्य से हम अपरिचित हैं, उसे हम शास्त्रों के शब्दों के रेगिस्तान में खोज न पाएंगे। संभावना यही है कि सत्य तो न मिलेगा, हम भी भटक जाएंगे। ऐसा ही हुआ है।

हिंदू, हिंदू शास्त्रों में खो जाता है। मुसलमान, मुसलमान के शास्त्रों में खो जाता है। जैन, जैन के शास्त्रों में खो जाता है। और कोई यह नहीं पूछता कि जब महावीर को ज्ञान हुआ, तो उनके पास कितने शास्त्र थे! शास्त्र थे ही नहीं। महावीर के हाथ बिलकुल खाली थे। कोई नहीं पूछता कि जब मोहम्मद को इलहाम हुआ, तो कौन-सी किताबें उनके पास थीं! किताबें थीं ही नहीं। कोई नहीं पूछता कि जीसस ने जब जाना, तो किस विश्वविद्यालय में शिक्षा लेकर वे जानने गए थे!

जानने की घटना सदा ही निपट मौन और शून्य में घटी है। और हम सब जानने के लिए शब्द के मार्ग से यात्रा करते हैं। बड़ी उलटी यात्रा है। एक ही लाभ हो सकता है, और वह यह कि खोजते-खोजते इतने थक जाएं, इतने ऊब जाएं, कि शास्त्र को बंद कर दें। इतना ही लाभ हो सकता है। शब्द से इतने परेशान हो जाएं कि शब्द से हाथ जोड़ लें। पढ़ते-पढ़ते इतना समझ में आ जाए कि पढ़ने से कुछ न होगा, इतना ही लाभ हो सकता है।

सत्य के लुप्तप्राय होने की प्रक्रिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। वह उपयोगी है सदा। सत्य के लुप्त होने की एक व्यवस्था है। वह व्यवस्था कैसी है? वह व्यवस्था ऐसी है कि महावीर ने जाना। स्वभावतः, जिसने जाना, वह उससे कहेगा, जिसने नहीं जाना है। क्योंकि दूसरा अगर जानता ही हो, तो कहना फिजूल है।

इसलिए एक बार ऐसा भी हुआ कि महावीर और बुद्ध एक ही गांव में ठहरे, लेकिन मिले नहीं। एक ही गांव में भी कहना ठीक नहीं, एक ही धर्मशाला के दो हिस्सों में ठहरे; एक कोने पर बुद्ध ठहरे, एक पर महावीर ठहरे, एक ही धर्मशाला में। मिलना नहीं हुआ! लोग सोचते हैं, बड़े अहंकारी रहे होंगे। मिलना तो था!

नहीं; अहंकार का कारण नहीं है। मिलना बिलकुल बेमानी, मीनिंगलेस था। कोई अर्थ ही न था मिलने का। मिलना ठीक ऐसे ही था, जैसे दो आईनों को कोई एक-दूसरे के सामने रख दे। बिलकुल बेकार है। आईने के सामने आप खड़े हों, तो सार्थक, कुछ दिखाई पड़ता है। आईने के सामने आईना ही रख दें, तो बिलकुल बेकार है। आईना आईने को रिफ्लेक्ट करता रहता, कुछ नहीं अर्थ होता। आईने आपस में बातचीत नहीं करते। आईने सिर्फ चेहरों से बातचीत करते हैं।

बुद्ध और महावीर को अगर पास बिठा दें, तो जैसे दो शून्य पास बिठा दिए; उनका कोई अर्थ नहीं होता। शून्य को किसी अंक के पास बिठाएं, तो अर्थ होता है। एक के पीछे शून्य रख दें, तो दस हो जाते हैं। दो के पीछे रख दें, तो बीस हो जाते हैं। और दो शून्यों को आस-पास रख दें, तो कुछ मतलब नहीं होता। दो शून्य भी नहीं होते जुड़कर। शून्य दो नहीं होते; शून्य एक ही रहता है। शून्य का कोई जोड़ नहीं होता। बुद्ध और महावीर नहीं मिले, क्योंकि दो शून्य के जुड़ने का कोई अर्थ नहीं था। बात क्या होती? कहने को क्या था? बोलने को क्या था? बताने को क्या था?

इसलिए सत्य को जब भी कोई जानता है, तो जो नहीं जानते, उनसे बोलता है। बस, उपद्रव शुरू हो जाता है। जो नहीं जानता, वह सुनता है। स्वभावतः, जो कहा जाता है, वह कभी नहीं सुना जाता; कुछ और ही सुना जाता है। हम वही सुन सकते हैं, जो हम जानते हैं। अब यह बड़ी कठिनाई हो गई। यह पैराडाक्स हो गया!

हम वही सुन सकते हैं, जो हम जानते हैं। जो हम नहीं जानते, वह हम सुन नहीं सकते। नहीं; सुन तो लेंगे। कान सुनने का काम पूरा कर देंगे। लेकिन भीतर वह जो मन है, वह समझ नहीं पाएगा। नहीं; समझ भी लेगा, लेकिन कुछ और समझ लेगा, जो कहा नहीं गया है। हम वही समझते हैं, जो हम समझ सकते हैं।

कृष्ण अर्जुन से बोल रहे हैं। स्वभावतः, अर्जुन वही समझेगा, जो अर्जुन समझ सकता है। वह तो अर्जुन कभी नहीं समझ सकता, जो कृष्ण बोल रहे हैं। क्योंकि अगर अर्जुन वह समझ सकता, तो कृष्ण का बोलना फिजूल हो जाता, बेकार हो जाता।

गुरु और शिष्य के बीच फासला न हो, तब बातचीत हो सकती है, लेकिन तब बातचीत बेकार हो जाती है। और गुरु और शिष्य के बीच फासला हो, तब बातचीत हो नहीं सकती, हालांकि तब बातचीत की जरूरत होती है! ऐसी स्वाभाविक कठिनाई है।

तो महावीर बोलते हैं उनसे, जो नहीं जानते। बुद्ध बोलते हैं उनसे, जो नहीं जानते। जो नहीं जानते हैं, वे सुनते हैं; सुनकर अर्थ निकालते हैं। अर्थ उनके अपने होते हैं। बुद्ध अगर हजार लोगों में बोलते हैं, तो हजार अर्थ होते हैं। मैं आपसे जो कुछ कहूंगा; इस भूल में मैं नहीं हो सकता कि आप सब उससे एक ही अर्थ निकाल लेंगे। यह असंभव है। जितने यहां मित्र इकट्ठे हैं, उतने ही अर्थ लेकर जाएंगे। उतने अर्थ मेरे बोलने में नहीं हैं, मेरे बोलने में सुनिश्चित एक ही अर्थ है। लेकिन आप अपने अर्थ लेकर जाएंगे।

एडमंड बर्क दुनिया का इतिहास लिख रहा था। कोई पंद्रह साल उसने मेहनत की थी और आधा इतिहास लिख चुका था। पंद्रह साल और, तीस साल; करीब अपनी पूरी जिंदगी की समझदारी का समय वह इतिहास पर लगा रहा था। सुबह से उठता था, तो रात आधी रात तक लिखता ही रहता था। क्योंकि बड़ा था काम और जिंदगी थी छोटी। और भरोसा नहीं था कि किताब पूरी हो सके।

आधी किताब जब पूरी हो गई थी, एक दिन दोपहर को घर के आस-पास जोर से शोरगुल मचा। लेकिन वह तो अपने काम में लगा रहा। शोरगुल बढ़ता चला गया। तब वह उठकर बाहर आया, उसने कहा, बात क्या है! लोग भाग रहे थे। पूछा, बात क्या है? किसी ने कहा, हत्या हो गई। तुम्हारे मकान के पीछे मर्डर हो गया। एक से पूछा; उसने कुछ कहा कि किस तरह हुआ। दूसरे से पूछा; उसने कुछ कहा। वे सब आंखों देखे हुए, चश्मदीद गवाह थे।

बर्क भागा हुआ अपने मकान के पीछे पहुंचा। वहां लोग मौजूद थे। भीड़ लगी थी। लाश सामने पड़ी थी। हत्यारा पकड़ लिया गया था। लेकिन सबके वर्सन अलग थे। देखने वाला कोई कह रहा था कि जिम्मेवार कौन है। कोई कह रहा था कि जो मारा गया, वह ठीक ही मारा गया। कोई कह रहा था, जिसने मारा, उसने बहुत बुरा किया। कोई कह रहा था, हत्यारा जिम्मेवार नहीं है। कोई कह रहा था कि हत्यारा जिम्मेवार है। बर्क ने सबसे पूछा और लौटकर पंद्रह साल जो किताब में मेहनत लगाई थी, उसमें आग लगा दी। उसने लिखा कि जब मेरे घर के पीछे हत्या हो जाए, और आंखों देखने वाले लोगों की गवाहियां अलग हों, तो पांच हजार साल पहले क्या हुआ था, इसको पांच हजार साल बाद मैं लिखूं, यह व्यर्थ है। इस झंझट में मैं नहीं पडूंगा। बर्क ने अपने पत्र में लिखा है कि इतिहास सरासर झूठ है। सच्चा इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता।

जैसे ही कृष्ण बोलते हैं, सत्य बदलने लगा। जैसे ही पहुंचा दूसरे के पास, रूप बदला, लुप्त होना शुरू हुआ। लेकिन यह तो मैंने बाहर की बात कही। अगर हम थोड़े और भीतर पहुंचें, तो और भी एक कठिनाई है। सत्य बोला गया, तब तो लुप्त होता ही है, सुनने वाले के कारण; लेकिन जब बोला जाता है, तो बोलने की प्रक्रिया के कारण भी लुप्त होता है।

असल में सत्य है विराट, और शब्द है संकीर्ण। शब्द बहुत छोटा है, सत्य बहुत बड़ा है। उस सत्य को जैसे ही शब्द में रखने की कोई चेष्टा करता है, कठिनाई शुरू हो जाती है। इसलिए सभी जानने वाले निरंतर कहने के बाद, यह कहते चले जाते हैं कि जो कहना था, वह कहा नहीं जा सका। जो कहना चाहा था, वह अनकहा छूट गया।

रवींद्रनाथ मर रहे थे। एक मित्र आया और उसने कहा कि धन्यभागी हो तुम! तुमने तो छह हजार गीत लिखे। तुम्हें तो तृप्त हो जाना चाहिए, फुलफिल्ड। इतने गीत किसी एक आदमी ने नहीं गाए।

रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा कि बंद करो यह बातचीत। मैं तो परमात्मा से और कुछ कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि जो गीत मैं गाना चाहता था, वह अभी तक गा नहीं पाया। उसी गीत को गाने की कोशिश में छह हजार गीत लिखे जा चुके हैं। लेकिन जो गीत मैं गाना चाहता था वह अब भी अनगाया, अनसंग, अभी भी मेरे भीतर पड़ा है। ये छह हजार असफल चेष्टाएं हैं; छह हजार फेल्योर्स। छह हजार बार कोशिश कर चुका। जो कहना था, वह अभी भी अनकहा है। परमात्मा से प्रार्थना कर रहा हूं कि अभी तो मैं साज ही बिठा पाया था, अभी गाया कहां! और यह तो जाने का वक्त आ गया। यह तो ठोंक-पीटकर अभी साज बिठा पाया था; अभी गाया कहां था! अब कहीं लगता था कि गाने के करीब आ रहा हूं, तो यह जाने का वक्त आ गया!

कबीर से पूछें, नानक से पूछें, मीरा से पूछें, किसी से भी पूछें, वे यही कहेंगे कि जो कहना था, वह हम कह नहीं पाए। वह अनकहा रह गया है। बड़े आश्चर्य की बात है। फिर भी कहा तो है। कबीर ने कहा तो है। मीरा गाई तो। और जो कहना था, वह अनकहा रह गया। बात क्या है?

बात यह है, बात ठीक ऐसी ही है, जैसे कि आप देखें सुबह सूरज को उगते; पक्षियों को गीत गाते; वृक्षों को खिलते, फूलते। फिर घर जाएं, और कोई आपसे पूछे कि थोड़ा वर्णन करें, थोड़ा बताएं, कैसा था सूरज? आप कहें, बहुत कुछ कहें। फिर भी आप पाएंगे कि जो भी आपने कहा, वह धुंधली तस्वीर भी नहीं है, जो आपने देखा था। क्योंकि जो आप कहेंगे, उसमें सूरज की जरा भी गर्मी नहीं होगी। उसमें पक्षियों के गीतों का संगीत नहीं होगा। उसमें हरियाली भी नहीं होगी सुबह की। उसमें सुबह की ठंडी हवाओं की ताजगी भी नहीं होगी। उसमें फूलों के खिलने का आनंदभाव भी नहीं होगा। वह जो सुबह की एक्सटैसी थी, वह जो सुबह की समाधिस्थ अवस्था थी प्रकृति की, वह जो सुबह का ध्यानमग्न रूप था, वह कहीं भी नहीं होगा। और जब आप वर्णन करके चुक चुके होंगे, तो आप कहेंगे कि कहा तो जरूर, लेकिन जो मैंने देखा था, वह इसमें कहीं आया नहीं।

फिर वह आदमी सुनकर किसी और को बताएगा। सत्य लुप्त होना शुरू हुआ। कुछ तो आपने लुप्त किया। क्योंकि कहने में ही, कहने की प्रक्रिया में ही भूल हुई। फिर वह आदमी सुनेगा; फिर वह कहेगा, और सत्य लुप्त होना शुरू हो जाएगा। नदी चली और रेगिस्तान में खोनी शुरू हुई। यात्रा उठी भी नहीं, पहला कदम उठा भी नहीं, कि भटकाव शुरू हुआ। ऐसा है। और अब तक इसके लिए कोई उपाय खोजा नहीं जा सका। आगे भी खोजा नहीं जा सकता है। सदा ऐसा ही रहेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सत्य लुप्तप्राय है। लेकिन लुप्तप्राय! मैं सुबह के सूरज का वर्णन करूं; बिलकुल वर्णन न हो पाए, फिर भी मैं वर्णन सुबह के सूरज का ही कर रहा हूं। आप बिलकुल न समझ पाएं, फिर भी आप थोड़ा तो समझ ही जाएंगे कि सुबह का वर्णन कर रहा हूं। पक्षियों के गीत मेरे वर्णन में सुनाई नहीं पड़ेंगे; लेकिन फिर भी पक्षियों ने गीत गाए हैं, इतना तो मैं कह ही पाऊंगा। सूरज की गर्मी मेरे शब्दों में न होगी; लेकिन सूरज गर्म था, उत्तप्त था, सुखद था, इतनी खबर तो मैं दे ही पाऊंगा। और आप कितना ही गलत समझें, जब आप किसी को कुछ कहेंगे इस संबंध में फिर, बात और बिगड़ जाएगी, लेकिन फिर भी सुबह के सूरज से ही संबंधित होगी।

कितनी ही भूल-चूक होती चली जाए, रेगिस्तान में नदी कितनी ही खोती चली जाए, उसका खोजना भी मुश्किल हो जाए, लेकिन कहीं रेत को उखाड़ने से उसकी बूंदें पकड़ में आ ही जाएंगी। और अगर किसी ने सुबह का सूरज देखा हो, तो हजारवें आदमी की बात को सुनकर भी वह समझ जाएगा कि मालूम होता है, सुबह के सूरज की बात करते हैं। रिकग्नाइज कर सकेगा।

सत्य इतना तो सदा बच जाता है कि रिकग्नाइज किया जा सकता है। उसकी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। सत्य सदा ही लुप्तप्राय हो जाता है, लेकिन लुप्तप्राय होकर भी सत्य मौजूद होता है।

दूसरी बात ध्यान रखने जैसी है कि सत्य कितना ही लुप्तप्राय हो जाए, असत्य नहीं हो जाता है। तभी तो लुप्तप्राय है। अगर असत्य हो जाए, तो सत्य मर गया; फिर बचा नहीं, फिर बिलकुल नहीं बचा।

मेरी तस्वीर उतारी जाए। फिर मेरी तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। फिर उस तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। हर निगेटिव फेंट और फीका होता चला जाएगा। फिर भी तस्वीर मेरी ही रहेगी। और ऐसा भी वक्त आ सकता है हजारवें निगेटिव पर कि बिलकुल पहचानना मुश्किल हो जाए। मैं भी न पहचान सकूं कि यह मेरा निगेटिव है। लेकिन फिर भी निगेटिव मेरा ही रहेगा; कितना ही फीका, कितना ही दूर, कितनी ही दूर की प्रतिध्वनि, लेकिन मेरी ही रहेगी। हो सकता है, मैं भी न पहचान पाऊं, तो भी, तो भी मेरी ही परंपरा में वह तस्वीर होगी।

सत्य के लुप्तप्राय होने का यही अर्थ है कि कितना ही लुप्त हो जाए, फिर भी असत्य नहीं हो जाता है। सत्य की फीकी प्रतिध्वनि उसमें शेष रहती है। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि को पुनः पहचान सकते हैं। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि की प्रत्यभिज्ञा कर सकते हैं।

प्रश्न: भगवान श्री, दो बातें समझनी हैं। आपने सत्य शब्द का उपयोग किया है; और प्रथम दो श्लोक में योग शब्द का उपयोग है। कृपया योग शब्द की परिभाषा व अर्थ समझाएं। और दूसरी बात, ऋषि शब्द के साथ राज शब्द भी जुड़ा हुआ है। ऋषि के बदले राजर्षि शब्द का क्या विशेष अर्थ है?

सत्य है अनुभूति; योग है अनुभूति की प्रक्रिया। सत्य है दर्शन; योग है द्वार। सत्य जाना जाता है; जिससे जाना जाता है, वह है योग। योग और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस मार्ग से यात्रा करनी पड़ती है, वह है योग; और जिस मंजिल पर मार्ग पहुंच जाता है, वह है सत्य। और मंजिल और मार्ग अलग-अलग नहीं हैं। मंजिल मार्ग का ही आखिरी छोर है; मार्ग मंजिल की ही शुरुआत है। पहला कदम भी आखिरी कदम है, क्योंकि पहला कदम आखिरी कदम का प्रारंभ है। और आखिरी कदम भी पहला कदम है, क्योंकि पहले कदम के बिना आखिरी कदम हो नहीं सकता है।

इसलिए मैंने सत्य की बात कही, समझनी ज्यादा आसान होगी। और योग की बात जानकर छोड़ी, क्योंकि आगे योग के संबंध में बहुत बात आएगी और तब योग को विस्तार से समझा जा सकता है।

दूसरी बात पूछी है, राजऋषि कहा है।

साधारणतः जो गलत अर्थ प्रचलित है, वह तो यही है कि अगर कोई राजा ऋषि हो जाए, तो राजऋषि है। गलत है अर्थ; प्रचलित है जरूर। सच तो यह है कि जो भी प्रचलित होता है, उसके सौ में निन्यानबे मौके गलत होने के होते हैं। प्रचलित होने के कारण ही गलत होने के मौके होते हैं। राजऋषि का मेरे लिए तीन दिशाओं से अर्थ है, वह मैं आपको कहूं।

पहला तो यह, जो भी ऋषि होता, वह राजा हो जाता है। राजा ऋषि हो जाता है, ऐसा नहीं। जो भी ऋषि हो जाता है, वह एक तरह की बादशाहत पा लेता है। जो भी ऋषि हो जाता है, वह राजा हो ही जाता है।

सच तो यह है कि बिना ऋषि हुए राजा होने का सिर्फ धोखा होता है, राजा कोई होता नहीं। बिना ऋषि हुए तो भिखारी ही होते हैं, राजा भी। पात्र बड़ा होता है भिक्षा का, इसलिए सबको दिखाई नहीं पड़ता; बहुत बड़ा पात्र होता है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता। या इसलिए भी दिखाई नहीं पड़ता कि बाकी भिखारी जरा छोटे भिखारी होते हैं। भिखारियों में भी हायरेरकी होती है! छोटे भिखारी, बड़े भिखारी, पहुंचे हुए भिखारी! ऐसी उनकी हायरेरकी होती है।

तो राजा जो है, वह भिखारियों के ऊपर सबसे ऊपर है, भिखारियों की धारा में सबसे ऊपर है। पद उसका भिखारियों में परम है। इसलिए भिखारियों की बड़ी दुनिया में राजा भी राजा मालूम पड़ता है; है तो भिखारी ही। जहां तक मांग है, वहां तक भिखारीपन है; जहां तक हम कुछ मांगते हैं और चाहते हैं, वहां तक भिखारी हैं।

स्वामी राम अमेरिका गए, तो वे अपने को बादशाह ही कहते थे। वे जब भी बोलते थे, तो वे राम बादशाह कहते थे–खुद को ही। वे कहते थे कि आज राम बादशाह किसी के घर भोजन करने गए थे। अमेरिका का तत्कालीन राष्ट्रपति राम से मिलने आया था। उसे बड़ा हास्यास्पद लगा यह कि एक फकीर, जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह अपने को बादशाह कहे! तो उसने पूछा कि मुझे थोड़ी हैरानी होती है। और सब तो ठीक है, लेकिन यह बादशाह आप अपने को क्यों कहते हैं?

तो राम ने कहा, इसलिए कि अब ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जिसकी मांग मेरे भीतर बची हो। अब मैं भिखमंगा नहीं हूं। अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे तुम मुझमें लालच पैदा कर सको, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें मुझे तुम लोभ में फंसा सको। इसलिए अपने को बादशाह कहता हूं। और इसलिए भी अपने को बादशाह कहता हूं कि जिस दिन से अपना खयाल छोड़ा, उस दिन से सभी अपना हो गया है। जिस दिन से यह खयाल छूटा कि मेरा है यह, उसी दिन से तेरा का खयाल भी विदा हो गया। सारी दुनिया अब मेरी है। चांदत्तारे मेरे हैं। अब सब मेरा है, क्योंकि अब कुछ भी मेरा नहीं है।

जिस दिन कोई आदमी अपने छोटे-से घर को छोड़ देता है, उस दिन सारी पृथ्वी उसकी अपनी हो जाती है। असल में छोटे-से घर को इतना कसकर पकड़ता है कि पूरी पृथ्वी उसकी अपनी हो कैसे सकती है? हाथ फैले हुए चाहिए पूरी पृथ्वी को पकड़ने के लिए। तब छोटी चीज को कोई पकड़ेगा, तो फिर बड़े के लिए फैलाव नहीं रह जाता।

राम ने कहा, इसलिए भी अपने को बादशाह कहता हूं कि जब भी भीतर देखता हूं, जब भी अपने भीतर झांकता हूं, तभी पाता हूं कि अनंत खजाने, अनंत साम्राज्य, सब मेरा है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरा न हो।

तो राजऋषि का मैं तो अर्थ करता हूं, ऋषि राजा हो जाता है। सभी ऋषि राजऋषि हैं। एक दिशा से ऐसा अर्थ करना चाहूं। दूसरी दिशा से एक और अर्थ करना चाहूं।

योग की दो प्रक्रियाएं प्रचलित रही हैं। या ज्ञान की या जानने की दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा का नाम सांख्य है, और एक निष्ठा का नाम योग है। कृष्ण ने गीता में बहुत-बहुत बार इन दो निष्ठाओं को स्पर्श किया है। सांख्य-निष्ठा का अर्थ है, करना कुछ भी नहीं है, केवल जानना है। करने योग्य कुछ भी नहीं है; सिर्फ जानने योग्य है। रत्तीभर भी कुछ करने की जरूरत नहीं है; सिर्फ जानने की जरूरत है। जानने से ही सब मिल जाएगा। जानने से ही सब हो जाएगा; करने का कोई भी कारण नहीं है।

सांख्य से जो आदमी ज्ञान को उपलब्ध होता है; उसने हाथ भी नहीं हिलाया है। वह राजा की तरह अपने सिंहासन पर ही बैठा रहा है। उसने कुछ किया ही नहीं है। सच तो, उसके बिना कुछ किए सब हुआ है, होता रहा है। राजा का अर्थ ही यही है, उसके बिना कुछ किए सब हो जाए। अगर करना पड़े, तो फिर राजा नहीं है। राजा का जो भीतरी मौलिक अर्थ है, वह यही है कि जिसके बिना किए सब होता हो; जिसके भीतर इच्छा भी पैदा न हो पाए कि पूर्ति सामने मौजूद हो जाए। ठीक इन अर्थों में राजा कभी पृथ्वी पर होते नहीं। लेकिन सांख्य ऐसा ही राजयोग है, बिना कुछ किए सब मिल जाता है।

सांख्य का कहना ही यही है कि तुम करते हो, इसीलिए नहीं मिलता है। सांख्य का कहना यही है कि जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम खोज रहे हो, इसलिए भीतर नहीं देख पाते, क्योंकि खोज में बाहर उलझे रहते हो। करो खोज बंद; रुक जाओ; बैठ जाओ। जैसे सिंहासन पर राजा बैठा हो, ऐसे बैठ जाओ। कुछ मत करो। आंख करो बंद; सब छोड़ो; और पा लो उसे, जो भीतर मौजूद है।

वह सदा से मौजूद है, लेकिन तुम इतने दौड़ रहे हो कि तुम्हारी दौड़ की वजह से तुम वहां न पहुंच पाओगे, जो भीतर है। दौड़ने वाला सदा बाहर जाता है। खोजने वाला बाहर खोजता है। करने वाला बाहर करता है।

ध्यान रहे, सब करना बाह्य है; भीतर कुछ भी नहीं किया जा सकता। भीतर तो वही जाता है, जो नान-डूइंग में, अक्रिया में उतरता है; अकर्म में। जो नहीं करता कुछ, वह भीतर चला जाता है। जो कुछ करता है, वह बाहर भटक जाता है।

तो सांख्य कहता है, भीतर रखी है संपदा। तुम कुछ मत करो, तो पा लो।

लाओत्से ने चीन में कहा है, सीक, एंड यू विल लूज; खोजो, और तुमने खोया। सीक, एंड यू विल नाट फाइंड; खोजो, और तुम कभी न पा सकोगे। डू नाट सीक, एंड फाइंड; मत खोजो, और पा लो।

अब यह सांख्य की निष्ठा है लाओत्से में। खोजो मत, और पा लो। बड़ी उलटी बात है। करीब-करीब ऐसे ही, जैसा मैंने सुना कि एक मछली ने जाकर मछलियों की रानी से पूछा कि सागर के संबंध में बहुत सुनती हूं, कहां है यह सागर? कहां खोजूं कि मिल जाए? कहां जाऊं कि पा लूं? कौन-सा है मार्ग? क्या है विधि? क्या है उपाय? कौन है गुरु, जिससे मैं सीखूं? यह सागर क्या है? यह सागर कहां है? यह सागर कौन है?

वह रानी मछली हंसने लगी। उसने कहा, खोजा, तो भटक जाओगी। गुरु से पूछा, कि उलझन हुई। विधि खोजी, तो विडंबना है। खोजो मत; पूछो मत। उस मछली ने कहा, लेकिन फिर यह सागर मिलेगा कैसे? तो उस रानी मछली ने कहा, सागर के मिलने की बात ही गलत है, क्योंकि सागर को तूने कभी खोया ही नहीं है। तू सागर ही है। सागर में ही पैदा होती है; सागर में ही बनती है; सागर में ही जीती है; सागर में ही विदा होती है; सागर में ही लीन। जो कुछ है, सागर ही है चारों तरफ। लेकिन उस मछली ने कहा, मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता!

मछली को सागर दिखाई नहीं पड़ सकता, क्योंकि हम सिर्फ उसी को देख पाते हैं, जो कभी मौजूद होता है और कभी गैर-मौजूद हो जाता है। हम उसको नहीं देख पाते, जो सदा मौजूद है। सदा मौजूद दिखाई नहीं पड़ता।

जैसे हमें हवा दिखाई नहीं पड़ती, ऐसे ही मछली को सागर दिखाई नहीं पड़ता। न दिखाई पड़ने का कारण सिर्फ यही है कि सदा मौजूद है। हम जब आंख खोले, तब भी मौजूद था। जब हम आंख बंद करेंगे, तब भी मौजूद होगा। जो सदा मौजूद है, एवरप्रेजेंट है, वह अदृश्य हो जाता है। इसलिए परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता है। जो सदा मौजूद है, वह दिखाई नहीं पड़ सकता। दिखाई वही पड़ सकता है, जो कभी मौजूद है, और कभी गैर-मौजूद हो जाता है।

सांख्य की निष्ठा कहती है, कुछ मत करो। करने के भ्रम में ही मत पड़ो। न ध्यान, न धारणा, न योग–कुछ नहीं। कुछ करो ही मत। लेकिन न करना बहुत बड़ा करना है। बाकी सब करना बहुत छोटे-छोटे करना है। बाकी करना सब कर सकते हैं हम। न करना! प्राण कंप जाते हैं। कैसे न करो?

सबसे कठिन करना, न करना है। इसलिए सांख्य सबसे कठिन योग है। सांख्य के मार्ग से जो जाते हैं, वे राजऋषि हैं। जो उस योग को साध लेते हैं, न करने को, निश्चित ही वे ऋषियों में राजा हैं।

लेकिन जो नहीं साध पाते, उनके लिए फिर योग है–यह करो, यह करो, यह करो। ऐसा नहीं कि उस करने से उनको मिल जाएगा। लेकिन करने से थकेंगे, परेशान होंगे, कर-करके मुश्किल में पड़ेंगे; जन्म-जन्म भटकेंगे। आखिर में करने से इतने ऊब जाएंगे कि छोड़कर पटक देंगे और बैठ जाएंगे कि अब बहुत कर लिया; अब नहीं करते। और जब नहीं करेंगे, तब पा लेंगे।

लेकिन करने से गुजरना पड़ेगा उन्हें। उनका योग हठयोग है–जिद्द से, कर-करके। मिलता तो तब है, जब न करना ही फलित होता है, चाहे वह न करने से आया हो, और चाहे करने से आया हो। मिलता तो तभी है, जब न करना फलित होता है। पूर्ण अकर्म, तभी। और अकर्म में जो मिलता है, वह राजा जैसा मिलना है।

मजदूर को करना पड़ता है, तब भोजन मिलता है। दुकानदार को कुछ करना पड़ता है, तब भोजन मिलता है। राजा बैठा है अपने सिंहासन पर; कुछ करता नहीं; सब मिलता है। ऐसा कोई राजा होता नहीं। राजा को भी बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन यह राजा की चरम धारणा है। राजऋषि का यहां जो अर्थ है, वह यही है कि जिसने बिना कुछ किए सब पा लिया, वह ऋषियों में राजा है।

और तीसरी बात, फिर हम सांझ बात करेंगे।

राजऋषि का एक तीसरा अर्थ भी खयाल में लेना जरूरी है। व्यक्ति में दो तरह के जीवन हो सकते हैं: तनाव से भरा, टेंस लिविंग; और रिलैक्स्ड, विश्रामपूर्ण, सहज। फूल देखें वृक्षों पर खिले, तो राजयोगी हैं। खिलने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता; खिल जाते हैं। आकाश में बादल देखें, तो राजयोगी हैं। कुछ करते नहीं; डोलते रहते हैं। कभी आकाश में देखी हो चील, परों को तिराकर रह जाती है थिर; पर भी नहीं हिलाती! डोलती है हवा पर। उड़ती नहीं, तिरती है। तैरती भी नहीं, तिरती है। बस, पंखों को फैलाकर रह जाती है। हवा जहां ले जाए; डोलती रहती है।

राजयोग उस बात का नाम है, उस प्रक्रिया का, जहां व्यक्ति पूर्ण विश्राम में जीता है; कुछ करता नहीं, तिरता है। श्वास भी नहीं लेता अपनी तरफ से। भविष्य का विचार नहीं करता, क्योंकि भविष्य का जो विचार करेगा, वह तैरना शुरू कर देगा; उसके तनाव शुरू हो जाएंगे। अतीत का विचार नहीं करता, क्योंकि जो अतीत का विचार करेगा, वह टेंस हो जाएगा, वह रिलैक्स नहीं हो सकता, वह विश्राम में नहीं हो सकता। पूर्ण वर्तमान में होता है, अभी और यहीं, हिअर एंड नाउ। जो हो रहा है, उसमें है। और चील की तरह तिरता है।

जीसस एक गांव से गुजरे, और अपने शिष्यों से उन्होंने कहा कि देखो इन लिली के फूलों को। खेत में लिली के फूल खिले हैं। जीसस ने कहा, देखो इन लिली के फूलों को। सम्राट सोलोमन अपने पूर्ण वैभव में भी इतना शानदार न था, जितने ये लिली के गरीब फूल शानदार हैं। इनके शानदार होने का राज क्या है?

शिष्य क्या कहते! उन्हें तो राज का कुछ पता नहीं था। जीसस उन लिली के फूलों को दिखाकर यह कह रहे हैं कि लिली के छोटे-छोटे फूल सम्राट सोलोमन से भी ज्यादा शानदार हैं। क्या बात है? सम्राट सोलोमन भी तनाव में जीएगा, लेकिन लिली के फूलों को कोई तनाव नहीं है। न मौत की चिंता है, जो कल होगी; न जन्म की फिक्र है, जो कल हो चुका। कुछ भी करना नहीं है; हो रहा है सब। परमात्मा के हाथ में समर्पित हैं। जो परमात्मा करा रहा है, वह हो रहा है।

राजऋषि का अर्थ है, समर्पित; विश्राम को उपलब्ध व्यक्ति; जो कुछ करता नहीं; जो हो रहा है, उसे होने देता है। स्पांटेनियस, सहज जिसकी जिंदगी है; सहज जिसका जीना है। मौत आ जाए, तो इतनी ही सहजता से मर जाएगा। सम्मान कोई दे, तो इतनी ही सहजता से ले लेगा। और अपमान कोई करे, तो इतनी ही सहजता से पी जाएगा। दुख आए, तो इतनी ही सहजता से स्वीकृत है। और सुख आए, तो इतनी ही सहजता से। कहीं कोई असहजता नहीं है, कोई तनाव नहीं है। जीवन जो भी ले आए, उसके लिए राजी है। यह राजीपन, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी, समग्र स्वीकार।

अगर ठीक से समझें, तो आस्तिकता का भी यही अर्थ है, समग्र स्वीकार। ऐसी चित्त दशा राजऋषि की है। इसलिए कृष्ण राजऋषि शब्द का उपयोग कर रहे हैं।

फिर शेष सांझ।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–2

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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण—(अध्याय—4) दूसरा प्रवचन

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। 3।।

वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए। यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है।

जीवन रोज बदल जाता है, ऋतुओं की भांति। जीवन परिवर्तन का एक क्रम है, गाड़ी के चाक की भांति घूमता चला जाता है। लेकिन चाक का घूमना भी एक न घूमने वाली कील पर ठहरा होता है। घूमता है चाक गाड़ी का, लेकिन किसी कील के सहारे, जो सदा खड़ी रहती है। कील भी घूम जाए, तो चाक का घूमना बंद हो जाए। कील नहीं घूमती, इसलिए चाक घूम पाता है।

सारा परिवर्तन किसी अपरिवर्तित के ऊपर निर्भर होता है।

जीवन के परम नियमों में से एक नियम यह है कि दृश्य अदृश्य पर निर्भर होता है, मृत्यु अमृत पर निर्भर होती है; पदार्थ परमात्मा पर निर्भर होता है। घूमने वाला परिवर्तित जगत, संसार, न घूमने वाले अपरिवर्तित सत्य पर निर्भर होता है। विपरीत पर निर्भर होती हैं चीजें।

इसलिए जो दिखाई पड़ता है, उस पर ही जो रुक जाता है, वह रहस्य से वंचित रह जाता है। जो दिखाई पड़ता है, उसके भीतर जो न दिखाई पड़ने वाले को खोज लेता है, वह रहस्य को उपलब्ध हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, वही योग, वही सत्य पुरातन है, सदा से चला आता है जो। या कहें कि सदा से ठहरा हुआ है जो; वही जो पहले भी ऋषियों ने कहा था, वही मैं तुझसे पुनः कहता हूं। लेकिन पुनः कहता हूं वही, जो सदा से है। कुछ नया नहीं है। कुछ अपनी ओर से नहीं है।

सत्य में अपनी ओर से कुछ जोड़ा भी नहीं जा सकता। सत्य को नया करने का भी कोई उपाय नहीं है। सत्य है। सत्य के साथ सिर्फ एक ही काम किया जा सकता है और वह यह कि हम उसकी तरफ मुंह करके खड़े हो सकते हैं, या पीठ करके खड़े हो सकते हैं। और हम सत्य के साथ कुछ भी नहीं कर सकते हैं। एक ही काम कर सकते हैं, या तो हम जानें उसे, या हम न जानने की जिद करें और अज्ञान में खड़े रहें। लेकिन हम न जानें, तो भी सत्य बदलता नहीं हमारे न जानने से। और हम जान लें, तो भी सत्य बदलता नहीं हमारे जानने से।

हां, बदलते हम जरूर हैं। सत्य को न जानें, तो हम एक तरह के होते हैं। सत्य को जान लें, तो हम दूसरे तरह के हो जाते हैं। सत्य वही है–जब हम नहीं जानते हैं, तब भी; और जब हम जानते हैं, तब भी। ऐसा अगर सत्य न हो, तो फिर सत्य और असत्य में कोई अंतर न रहेगा।

यह बहुत मजे की बात है कि असत्य हमारा इनवेंशन है, हमारा आविष्कार है। सत्य हमारा इनवेंशन नहीं है। सत्य को हम निर्मित नहीं करते, बनाते नहीं। असत्य को हम निर्मित करते हैं और बनाते हैं।

जो मेरे द्वारा बनाया जा सकता है, वह असत्य होगा। और जिसके द्वारा मैं भी बनाया गया, और जिसमें मैं भी लीन हो जाऊंगा, वह सत्य है। कृष्ण नहीं थे, तब भी जो था; कृष्ण नहीं होंगे, तब भी जो होगा; औरों ने भी जिसे कहा, और भी आगे जिसे कहेंगे–वह सत्य है।

सत्य नित्य है। इस नित्य सत्य को अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, मैं पुनः तुझसे कहता हूं। और क्यों कहता हूं, उसका कारण बताते हैं। वह कारण समझ लेने जैसा है। वह कहते हैं, क्योंकि तू मेरा सखा है, मेरा मित्र है, मेरा प्रिय है।

ऊपर से देखने पर यह बात बड़ी अजीब-सी लगेगी कि क्या कृष्ण भी किसी शर्त के आधार पर सत्य को बताते हैं–मित्र है, सखा है, प्रिय है! मित्र न हो, सखा न हो, प्रिय न हो, तो कृष्ण फिर सत्य को नहीं बताएंगे? क्या सत्य को बताने की भी कोई शर्त, कोई कंडीशन है? क्या कृष्ण उसको नहीं बताएंगे जो प्रिय नहीं, मित्र नहीं, सखा नहीं? तब तो कृष्ण भी पक्षपात करते हुए मालूम पड़ेंगे। ऊपर से जो देखेगा, ऐसा ही लगेगा। लेकिन और थोड़ा गहरा देखना जरूरी है। और कृष्ण जैसे व्यक्तियों के साथ ऊपर से देखना खतरनाक है।

कृष्ण जब यह कहते हैं कि मैं तुझे सत्य की यह बात बताता हूं, क्योंकि तू मेरा प्रिय है, क्योंकि तू मेरा सखा है, मेरा मित्र है। इसके पीछे कारण यह नहीं है कि कृष्ण उसे न बताएंगे जो मित्र नहीं, सखा नहीं, प्रिय नहीं। कारण यह है कि जो मित्र नहीं, प्रिय नहीं, सखा नहीं, वह पीठ करके खड़ा हो जाता है सत्य की ओर। प्रिय होने, सखा होने, मित्र होने का कुल प्रयोजन इतना ही है कि अर्जुन मुंह करके खड़ा हो सकता है।

सत्य को जानने की, सत्य को समझने की तैयारी मैत्री में संभव है। शत्रु के साथ हम पीठ करके खड़े हो जाते हैं; द्वार बंद कर लेते हैं। शत्रु का हम स्वागत नहीं कर पाते। कृष्ण तो बताने को राजी हो जाएंगे शत्रु को भी; लेकिन शत्रु अपने द्वार बंद करके खड़ा हो जाएगा। यह शर्त कृष्ण की तरफ से नहीं है।

सत्य तो सभी को उपलब्ध है। सूर्य निकला है, सभी को उपलब्ध है। लेकिन जिसे नहीं उपलब्ध करना है, वह आंख बंद करके खड़ा हो सकता है। नदी बही जाती है, सभी को उपलब्ध है। लेकिन जिसे नहीं नदी के पानी को देखना है, नहीं पानी को पीना है, वह पीठ करके खड़ा हो सकता है। नदी कुछ भी न कर सकेगी। पीठ करके खड़े होने में आपकी स्वतंत्रता है।

इसलिए सत्य को जब भी किसी के पास समझने कोई गया हो, तो एक मैत्री का संबंध अनिवार्य है। अन्यथा सत्य को पहचाना नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, सुना भी नहीं जा सकता।

जिसके प्रति मैत्री का भाव नहीं, उसे हम अपने भीतर प्रवेश नहीं देते हैं। और सत्य बड़ा सूक्ष्म प्रवेश है। उसके लिए एक रिसेप्टिविटी, एक ग्राहकता चाहिए।

जब आप अपरिचित आदमी के पास होते हैं, तो शायद आपने खयाल किया हो, न किया हो; न किया हो, तो अब करें; जब आप अपरिचित, अजनबी आदमी के पास होते हैं, तो क्लोज्ड हो जाते हैं, बंद हो जाते हैं। आपके सब द्वार-दरवाजे चेतना के बंद हो जाते हैं। आप संभलकर बैठ जाते हैं; किसी हमले का डर है। अनजान आदमी से किसी आक्रमण का भय है। न हो आक्रमण, तो भी अनजान आदमी अनप्रेडिक्टिबल है। पता नहीं क्या करे! इसलिए तैयार होना जरूरी है। इसलिए अजनबी आदमी के साथ बेचैनी अनुभव होती है। मित्र है, प्रिय है, तो आप अनआर्म्ड हो जाते हैं। सब शस्त्र छोड़ देते हैं रक्षा के। फिर भय नहीं करते। फिर सजग नहीं होते। फिर रक्षा को तत्पर नहीं होते। फिर द्वार-दरवाजे खुले छोड़ देते हैं।

मित्र है, तो अतिथि हो सकता है आपके भीतर। मित्र नहीं है, तो अतिथि नहीं हो सकता। सत्य तो बहुत बड़ा अतिथि है। उसके लिए हृदय के सब द्वार खुले होने चाहिए। इसलिए एक इंटिमेट ट्रस्ट, एक मैत्रीपूर्ण श्रद्धा अगर बीच में न हो, एक भरोसा अगर बीच में न हो, तो सत्य की बात कही तो जा सकती है, लेकिन सुनी नहीं जा सकती। और कहने वाला पागल है, अगर उससे कहे, जो सुनने में समर्थ न हो।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तू मित्र है, प्रिय है, सखा है, इसलिए तुझे मैं यह पुनः उस सत्य की बात कहता हूं, जो सदा है, चिरस्थाई है, सनातन है, नित्य है।

एक और भी बात ध्यान रख लेनी जरूरी है। कृष्ण यह याद क्यों दिलाते हैं अर्जुन को कि तू सखा है, प्रिय है, मित्र है? इस बात को याद दिलाने की जरूरत क्या है? अर्जुन मित्र है, सखा है, याद दिलाने की क्या जरूरत है? यहां भी एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य खयाल में ले लेना जरूरी है।

हम इतने विस्मरण से भरे हुए लोग हैं कि अगर हमें निरंतर चीजें याद न दिलाई जाएं, तो हमें याद ही नहीं रह जाती। हम प्रतिपल भूल जाते हैं। हमारी स्मृति बड़ी दीन है, और हमारा विवेक अत्यंत रुग्ण है। मित्र को भी हम भूल जाते हैं कि वह मित्र है; प्रिय को भी हम भूल जाते हैं कि वह प्रिय है; निकट को भी हम भूल जाते हैं कि वह निकट है।

दूसरे को भूल जाना तो बहुत आसान है। हम अपने को ही भूल जाते हैं। हमें अपना ही कोई स्मरण नहीं रह जाता है। हम कौन हैं, यही स्मरण नहीं रह जाता है। हम किस स्थिति में हैं, यह भी स्मरण नहीं रह जाता है। हम करीब-करीब एक बेहोशी में जीते हैं। एक नींद जैसे हमें पकड़े रहती है। क्रोध आ जाता है, तब हमें पता चलता है कि क्रोध आ गया। आ गया, तब भी पता बहुत मुश्किल से चलता है। सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें पता चल जाता है। हो गया, तब पता चलता है। लेकिन तब कुछ किया नहीं जा सकता। पक्षी हाथ के बाहर उड़ गया होता है। लोग क्रोध कर लेते हैं, फिर कहते हैं कि हमें पता नहीं, कैसे हो गया! आपने ही किया, आपको ही पता नहीं? होश में थे, बेहोश थे? नींद में थे? लेकिन हम करीब-करीब नींद में होते हैं।

कृष्ण अर्जुन को गीता में बहुत बार याद दिलाते हैं कि तू मेरा मित्र है। बहुत बार, परोक्ष-अपरोक्ष, सीधे भी, कभी घूम-फिर कर भी वे अर्जुन को याद दिलाए चले जाते हैं कि तू मेरा मित्र है। जब भी कृष्ण को लगता होगा, अर्जुन बंद हो रहा है, खुल नहीं रहा है, तभी वे कहते हैं, तू मेरा मित्र है; स्मरण कर। प्रिय है। और इसलिए ही तो तुझसे मैं सत्य की बात कह रहा हूं। यह सुनकर शायद क्षणभर को अर्जुन की स्मृति लौट आए और वह खुला हो जाए, निकट हो जाए, ओपेन हो जाए, और कृष्ण जिस सत्य के संबंध में उसे जगाना चाहते हैं, उस जगाने की कोई किरण उसके भीतर पहुंच जाए। इसलिए कृष्ण बहुत बार गीता में बार-बार कहते हैं उसे कि तू मेरा मित्र है, तू मेरा प्रिय है, तू मेरा सखा है, इसलिए कहता हूं।

यह, जब भी हम किसी के भी प्रति एक इंटिमेसी, एक आंतरिकता से भरे होते हैं, तो एक क्षण में हमारी चेतना का तल बदल जाता है। हम कुछ और हो जाते हैं। जब हम किसी के प्रति बहुत मैत्री और प्रेम से भरे होते हैं, तो हम बड़ी ऊंचाइयों पर होते हैं। और जब हम किसी के प्रति घृणा और शत्रुता से भरे होते हैं, तो हम बड़ी नीचाइयों में होते हैं। और जब हम किसी के प्रति उपेक्षा से भरे होते हैं, तो हम समतल भूमि पर होते हैं।

सत्य के दर्शन तो वहीं हो सकते हैं, जब हम शिखर पर होते हैं, अपनी चेतना की ऊंचाई पर। कृष्ण जो बात कह रहे हैं, अर्जुन छलांग लगाए, तो ही समझ सकता है। अर्जुन अपनी जगह खड़ा रहे, तो नहीं समझ सकेगा। अर्जुन उछले थोड़ा, छलांग लगाए, तो शायद जो सूर्य उसे दिखाई नहीं पड़ रहा अपनी जगह से, उसकी एक झलक मिल जाए। कोई हर्ज नहीं, झलक के बाद वह अपनी जगह पर वापस लौट आएगा। लेकिन एक झलक भी जीवन को रूपांतरित करने का आधार बन जाती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू मित्र मेरा, प्रिय मेरा, इसलिए तुझसे सत्य की बात कहता हूं। यह मित्रता की स्मृति अर्जुन को एक छलांग लगाने के लिए है, ताकि अर्जुन किसी तरह कृष्ण के पास आ जाए।

ध्यान रहे, दो ही उपाय हैं संवाद के। या तो कृष्ण अर्जुन के पास खड़े हो जाएं उसी चित्त-दशा में, जिसमें अर्जुन है, तो संवाद हो सकता है। लेकिन तब सत्य का संवाद मुश्किल होगा। और या फिर अर्जुन कृष्ण की चित्त-दशा में पहुंच जाए, तो फिर संवाद हो सकता है। तब संवाद सत्य का हो सकता है। दोनों के बीच पहाड़ और खाई का फासला है।

यह चर्चा एक पर्वत के शिखर की और एक गहन खाई से चर्चा है। पीक टाकिंग टु दि एबिस। एक पर्वत का शिखर गौरीशंकर, पास में पहाड़ों के गङ्ढ में अंधेरे में दबी हुई खाई से बात करता है। कठिन है चर्चा। भाषा एक नहीं, निकटता नहीं, बहुत मुश्किल है। लेकिन खाई डर न जाए, अन्यथा और अंधेरे में छिप जाएगी और सिकुड़ जाएगी। तो शिखर पुकारता है कि मित्र हूं तेरा, निकट हूं तेरे। खुल; भय मत कर, सिकुड़ मत, संकोच मत कर। द्वार बंद मत कर। जो कहता हूं, उसे भीतर आ जाने दे।

अर्जुन को सब तरह का भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण बहुत-सी बात कहते हैं। पहली बात तो उन्होंने यह कही कि यह सत्य अति प्राचीन है अर्जुन, अति पुरातन है, सनातन, अनादि, सबसे पहले, समय नहीं हुआ, तब भी यह सत्य था। क्यों? इसे याद न दिलाते, तो चल सकता था।

लेकिन अर्जुन से अगर कृष्ण कहें कि यह सत्य मैं ही दे रहा हूं, तो शायद अर्जुन ज्यादा खुल न पाए, शायद बंद हो जाए। शायद इतना भरोसा न कर पाए; शायद इतना ट्रस्ट पैदा न हो। तो कृष्ण शुरू करते हैं अनादि से, किस-किस ने किस-किस से कहा। ऐसे वे अर्जुन को राजी करते हैं, खुलने के लिए, ओपनिंग के लिए, द्वार खुला रखने के लिए।

फिर याद दिलाते हैं कि मित्र है, प्रिय है। और जब अर्जुन को वे पाएंगे कि वह ठीक टयूनिंग, ठीक उस क्षण में आ गया है, जहां मिलन हो सकता है, वहीं वे सत्य कहेंगे। इसलिए गीता में कुछ क्षणों में टयूनिंग घटित हुई है। किसी जगह अर्जुन बिलकुल कृष्ण के करीब आ गया, तब कृष्ण एक वचन बोलते हैं, जो बहुमूल्य है, जिसका फिर मूल्य नहीं चुकाया जा सकता।

लेकिन वह उसी समय, जब अर्जुन और कृष्ण की चेतना तादात्म्य को उपलब्ध होती है, तभी। जब बोलने वाला और सुनने वाला एक हो जाते हैं, एक रस हो जाते हैं, तभी–मैं आपको कहूंगा, याद दिलाऊंगा कि किन क्षणों में–तब महावाक्य गीता में उत्पन्न होते हैं; तब जो कृष्ण बोलते हैं, वह महावाक्य है। उसके पहले नहीं बोला जा सकता। प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

सत्य को बोलना हो, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। सत्य को सुनना हो, तो भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। आज की दुनिया तो बहुत जल्दी में है। इसलिए शायद, शायद इसीलिए सत्य की चर्चा बहुत मुश्किल हो गई है।

मैंने सुना है, एक फकीर के पास एक युवक सत्य की शिक्षा के लिए आया। पर उसने कहा, मुझे जल्दी है, मेरे पिता बूढ़े हो गए हैं। और घर मुझे जल्दी लौट जाना है। यह सत्य मैं कब तक जान लूंगा? उस गुरु ने उसे देखा नीचे से ऊपर तक और कहा, कम से कम तीन वर्ष तो लग ही जाएंगे। उस युवक ने कहा, तीन वर्ष! भरोसा नहीं, मेरे पिता बचें या न बचें। कुछ और जल्दी नहीं हो सकता है? मैं जितना आप कहेंगे, उतना श्रम करूंगा; सुबह से सांझ तक। गुरु ने कहा, तब तो शायद दस वर्ष लग जाएंगे। उस शिष्य ने कहा, आप पागल तो नहीं हो गए? मैं कहता हूं, मैं बहुत श्रम करूंगा। रात सोऊंगा भी नहीं, जब तक आप जगाएंगे जागूंगा। रात-दिन सतत, कभी इनकार न करूंगा। जो भी करने को कहेंगे, करूंगा। लेकिन कुछ जल्दी न हो सकेगा? गुरु ने कहा, बहुत मुश्किल है। तीस वर्ष से कम में होना मुश्किल है।

उस युवक ने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मेरे पिता वृद्ध हैं और मैं जल्दी में हूं। इसके पहले कि वे जगत से विदा हों, मुझे घर लौट जाना है। उस गुरु ने कहा, फिर तू लौट ही जा अभी। क्योंकि पिता वृद्ध हैं, उनके लिए तो मैं कुछ नहीं कह सकता। लेकिन तू जब तक वृद्ध न हो जाए, तब तक यह सत्य नहीं मिलेगा। इसमें साठ-सत्तर वर्ष लग जाएंगे। उस युवक ने कहा, पुरानी बात पर वापस लौट आएं। वह तीन वर्ष वाली योजना ठीक है। गुरु ने कहा, अब लौटना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जो इतनी जल्दी में है, उसे बहुत देर लग जाएगी।

वह शिष्य पूछने लगा, इतनी देर क्यों लग जाएगी जो जल्दी में है? तो गुरु ने कहा, जो जल्दी में है, उसके साथ टयूनिंग बिठानी बहुत मुश्किल है; उसके साथ तालमेल, उसके साथ एक आंतरिक संबंध बिठाना बहुत मुश्किल है। और संबंध न बैठे, तो मैं कह ही न सकूंगा। क्योंकि जो मुझे कहना है, वह तो एक क्षण में भी हो सकता है। लेकिन वह क्षण कब आएगा, सवाल यह है। वह क्षण–तीन वर्ष भी लग सकते हैं, तीस वर्ष भी लग सकते हैं। और अगर तू विश्राम चित्त से, सहजता से, चुपचाप प्रतीक्षा से मेरे पास है, तो शायद वह क्षण जल्दी आ जाए। और तू जल्दी में है, तो तू इतने तनाव और इतनी बेचैनी में है कि वह क्षण कभी भी न आए। क्योंकि बेचैन चित्त के साथ संबंध जोड़ना बहुत कठिन है।

निश्चित ही, कृष्ण को तो अर्जुन के साथ संबंध जोड़ना जितना कठिन हुआ होगा, इतना कठिन बुद्ध को अपने किसी शिष्य के साथ कभी नहीं हुआ; महावीर को अपने किसी शिष्य के साथ कभी नहीं हुआ; जीसस को, मोहम्मद को, कंफ्यूशियस को, लाओत्से को–किसी को अपने शिष्य के साथ इतना कठिन कभी न हुआ होगा। क्योंकि युद्ध के मैदान पर सत्य को सिखाने का मौका कृष्ण के अलावा और किसी को आया नहीं।

कितनी जल्दी न रही होगी! भेरियां बज गईं युद्ध की, शंख-ध्वनियां हो गई हैं, घोड़े बेताब हैं दौड़ पड़ने को; अस्त्र-शस्त्र सम्हल गए हैं; योद्धा तैयार हैं जीवनभर की उनकी साधना आज कसौटी पर कसने को; दुश्मन आमने-सामने खड़े हैं। और अर्जुन ने सवाल उठाए। ऐसी क्राइसिस, ऐसे संकट के क्षण में सत्य की शिक्षा बड़ी ही कठिन पड़ी होगी, बड़ी मुश्किल गई होगी।

इसलिए कृष्ण बहुत बार जो बातें कह रहे हैं अर्जुन से, वह सिर्फ निकट लाने के लिए है, उसे आश्वस्त करने के लिए है। वह भूल जाए, युद्ध है चारों तरफ; वह भूल जाए, जल्दी है; वह भूल जाए, संकट है; और वह सत्य के इस संवाद को सुनने को अंतस से तैयार हो जाए। इस आंतरिक तैयारी के लिए वे बहुत-सी बातें कहेंगे। और जब अर्जुन तैयार होता है, तब वे एक महावाक्य कहते हैं। थोड़े-से महावाक्य गीता में हैं, जिनका सारा फैलाव है।

अर्जुन उवाच:

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। 4।।

अर्जुन ने पूछा, हे भगवान! आपका जन्म तो आधुनिक अर्थात अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है। इसलिए इस योग को कल्प के आदि में आपने कहा था, यह मैं कैसे जानूं?

कृष्ण ने कहा है कि मैंने ही समय के पहले, सृष्टि के पूर्व में, आदि में सूर्य को कही थी यही बात। फिर सूर्य ने मनु को कही, मनु ने इक्ष्वाकु को कही और ऐसे अनंत-अनंत लोगों ने अनंत-अनंत लोगों से कही। स्वभावतः, अर्जुन के मन में सवाल उठे, आश्चर्य नहीं है। वह पूछता है, आपका जन्म तो अभी हुआ; सूर्य का जन्म तो बहुत पहले हुआ। आपने कैसे कही होगी सूर्य से यह बात?

कृष्ण खींचने की कोशिश करते हैं अर्जुन को, कि छलांग ले। अर्जुन सिकुड़कर अपनी खाई में समा जाता है। वह जो सवाल उठाता है, वे सब सिकुड़ने वाले हैं। वह कहता है, मैं कैसे भरोसा करूं?

अब यह बड़े मजे की बात है। यह ध्यान रहे कि जो आदमी पूछता है, मैं कैसे भरोसा करूं, उसे भरोसा करना बहुत मुश्किल है। या तो भरोसा होता है या नहीं होता है। कैसे भरोसा बहुत मुश्किल है।

जो आदमी कहता है, कैसे भरोसा करूं? दूसरी बात के उत्तर में भी वह कहेगा, कैसे भरोसा करूं? यह कैसे भरोसे का सवाल, इनफिनिट रिग्रेस है। इसका कोई अंत नहीं है।

भरोसा किया जा सकता, नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर किसी ने पूछा, कैसे भरोसा करूं, हाउ टु बिलीव, कैसे करूं विश्वास? फिर कठिन है। कठिन इसलिए है कि कैसे का सवाल ही अविश्वास में और गैर-भरोसे में ले जाता है।

अर्जुन संदिग्ध हो गया। यह कैसे हो सकता है? एब्सर्ड, बिलकुल व्यर्थ की बात है; असंगत। संगति भी नहीं, तर्क भी नहीं। कहते हैं, सूर्य को कही थी मैंने यही बात।

देखें, कैसा मजा है! कृष्ण चाहते हैं कि अर्जुन को भरोसा आ जाए, इसलिए वे कहते हैं, सूर्य को भी मैंने कहा था, तुझसे भी वही कहता हूं। कृष्ण चाहते हैं जिससे भरोसा आ जाए; अर्जुन के लिए वही गैर-भरोसे का कारण हो जाता है।

पूछता है, सूर्य से, आपने? आप अभी पैदा हुए, सूर्य कब का पैदा हुआ! जो बात कृष्ण ने कही है, अर्जुन उसके संबंध में सवाल नहीं उठा रहा। वह सत्य क्या है, जो सूर्य से कहा था आपने, वह यह नहीं पूछता। कंटेंट के बाबत उसका सवाल नहीं है। उसका सवाल उस व्यवस्था और कंटेनर के बाबत है, जो कृष्ण ने मौजूद किया। वह कहता है कि कैसे मानूं?

यह ध्यान देने की बात है कि आज तक जगत में सत्य को जानने वाले लोगों ने न जानने वाले लोगों के मन में भरोसे के लिए जितने उपाय किए हैं, न जानने वाले भी कमजोर नहीं हैं, उन्होंने उन सब उपायों को भरोसा न करने का उपाय बना लिया।

जानने वालों ने जितने भी उपाय किए हैं कि न जानने वालों और उनके बीच में भरोसे का एक सेतु, ए ब्रिज आफ ट्रस्ट पैदा हो जाए कि जिसके आधार पर सत्य कहा जा सके; लेकिन न जानने वाले भी अपने न जानने की जिद्द में उस सेतु को टिकने ही नहीं देते। उस सेतु से जो आएगा, उसकी तो बात ही नहीं है। पहले तो वे उस सेतु पर ही संदेह खड़ा करते हैं कि यह सेतु हो कैसे सकता है?

कृष्ण तो कहते हैं, मैं सखा, मित्र, प्रिय! अर्जुन जो सवाल उठाता है, वह बहुत प्रेमपूर्ण नहीं है। क्योंकि प्रेम भरोसा है। प्रेम भरोसा है, निष्प्रश्न भरोसा। जहां सवाल है भरोसे पर, कि क्यों? वहां प्रेम नहीं है। वहां प्रेम का अभाव है।

कभी आपने खयाल किया है कि जब भी जीवन में प्रेम की घड़ी होती है, तब आप क्यों, कैसे, क्या–सब भूल जाते हैं। प्रेम एकदम भरोसा ले आता है। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, तो फिर प्रेम कुछ भी नहीं ला सकता। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, तो प्रेम है ही नहीं।

अर्जुन पूछता है, मानने योग्य नहीं लगती यह बात! यह भी समझ लेने जैसा जरूरी है कि कृष्ण ने क्या कहा था!

सुबह मैंने आपको कहा था, कृष्ण जब कह रहे हैं कि यही मैंने कहा था, तो यह तो कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा हुआ। यह अर्जुन ही पूछे, तब कृष्ण जानेंगे, ऐसा नहीं है। यह कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा हुआ है। और अगर इतना भी कृष्ण नहीं जानते, तो बाकी और कुछ पूछना उनसे व्यर्थ है।

एक बार ऐसा हुआ। रामकृष्ण का चित्र किसी ने उतारा। फिर फोटोग्राफर चित्र को लेकर आया, तो रामकृष्ण उस चित्र के पैर पड़ने लगे। पास-पड़ोस बैठे शिष्यों ने कहा, क्या करते हैं परमहंस देव? लोग पागल कहेंगे! अपने ही चित्र के, और पैर पड़ते हैं? रामकृष्ण खूब हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम क्या सोचते हो कि मुझे इतना भी पता नहीं कि यह मेरा ही चित्र है? और अगर इतना भी मुझे पता नहीं है, तो लोग पागल कहेंगे, तो ठीक ही कहेंगे। अगर इतना भी मुझे पता नहीं, तो लोग जो कहेंगे, ठीक ही कहेंगे।

बहुत बार जिन्होंने जाना है, उन्होंने न जानने वालों को तो सलाह दी ही है; जो नहीं जानते हैं, वे भी जानने वालों को सलाह देने पहुंच जाते हैं। इस बात को भी भूलकर कि जब जानने वालों को भी आपकी सलाह की जरूरत पड़ती है, तो फिर अब उसकी सलाह की आपको कोई जरूरत नहीं रह गई।

रामकृष्ण ने कहा कि यह तो मुझे भी पता है कि तस्वीर मेरी है। और यह कहकर फिर भी पैर पड़े और खड़े होकर तस्वीर को लेकर नाचने लगे। एक शिष्य ने कहा, आप क्या कर रहे हैं? रामकृष्ण ने कहा, कुछ समझने की कोशिश करो। यह चित्र मेरा ही है, इतना ही नहीं, यह चित्र साथ किसी और चीज का भी है। उन्होंने कहा, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती, आपका ही चित्र है। रामकृष्ण ने कहा, यह मेरे शरीर की आकृति है, सो तो ठीक; लेकिन जब यह चित्र लिया गया, तब मैं गहरी समाधि में था। यह समाधि का भी चित्र है, मेरा ही नहीं। मैं तो सिर्फ रूप हूं। और मेरी जगह और भी रूप हो सकता था। लेकिन भीतर जो घटना घट रही थी, उसका भी चित्र है। मैं उसी को नमस्कार कर रहा हूं।

लेकिन वह भीतर की घटना तो हमारी बाहर की आंखों को दिखाई नहीं पड़ती। अर्जुन को भी न दिखाई पड़ी, तो आश्चर्य नहीं है।

अर्जुन ठीक हमारे जैसा सोचने वाला आदमी है, ठीक तर्क से, गणित से, हिसाब से। वह कहता है, आप? स्वभावतः, जो सामने तस्वीर दिखाई पड़ रही है कृष्ण की, वह सोचता है, यही आदमी कहता है? तो इसकी तो जन्मत्तारीख पता है। सूर्य की तो जन्मत्तारीख कुछ पता नहीं है। और यह आदमी जिस दिन पैदा हुआ, उस दिन भी सूरज निकला था। उसके पहले भी निकलता रहा है।

उसका सवाल ठीक मालूम पड़ता है। हमें भी ठीक मालूम पड़ेगा। लेकिन वह इस भीतर के आदमी को देखने में असमर्थ है; हम भी असमर्थ हैं।

कृष्ण जिसकी बात कर रहे हैं, वह इस शरीर की बात नहीं है। वह उस आत्मा की बात है, जो न मालूम कितने शरीर ले चुकी और छोड़ चुकी, वस्त्रों की भांति। न मालूम कितने शरीर जरा-जीर्ण हुए, पुराने पड़े और छूटे! वह उस आत्मा की बात है, जो मूलतः परमात्मा से एक है। वह सूर्य के पहले भी थी। सूर्य बुझ जाएगा, उसके बाद भी होगी।

जहां तक शरीरों का संबंध है, यह सूर्य हमारे जैसे न मालूम कितने करोड़ों शरीरों को बुझा देगा और नहीं बुझेगा। लेकिन जहां तक भीतर के तत्व का संबंध है, ऐसे सूरज जैसे करोड़ों सूरज बुझ जाएंगे और वह भीतर का तत्व नहीं बुझेगा।

लेकिन उसका अर्जुन को कोई खयाल नहीं है, इसलिए वह सवाल उठाता है। उसका सवाल, अर्जुन की तरफ से संगत, कृष्ण की तरफ से बिलकुल असंगत। अर्जुन की तरफ से बिलकुल तर्कयुक्त, कृष्ण की तरफ से बिलकुल अंधा। अर्जुन की तरफ से बड़ा सार्थक, कृष्ण की तरफ से अत्यंत मूढ़तापूर्ण। लेकिन अर्जुन क्या कर सकता है! कृष्ण की तरफ से होगा मूढ़तापूर्ण, उसकी तरफ से तो बहुत तर्कपूर्ण है। यद्यपि अंततः सभी तर्क अत्यंत मूर्खतापूर्ण सिद्ध होते हैं, लेकिन जब तक वे ऊंचाइयां नहीं मिलीं, तब तक अर्जुन की भी मजबूरी है। और उसका सवाल उसकी तरफ से बिलकुल संगत है।

श्री भगवानुवाच:

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।। 5।।

भगवान बोले: हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं, परंतु हे परंतप! उन सबको तू नहीं जानता है और मैं जानता हूं।

कृष्ण ने अर्जुन से कहा, मेरे और तेरे, हे परंतप! बहुत-बहुत अनेक जन्म हो चुके हैं, लेकिन उन्हें तू नहीं जानता और मैं जानता हूं।

इस संबंध में दोत्तीन बातें स्मरणीय हैं।

एक तो, जो हम नहीं जानते, वह नहीं है, ऐसा मानने की जल्दी नहीं कर लेनी चाहिए। अर्जुन जो नहीं जानता है, वह नहीं है, ऐसी निष्पत्ति निकाल लेनी बहुत चाइल्डिश, जुवेनाइल है, बचकानी है। बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते हैं, फिर भी है। हमारे न जानने से नहीं नहीं हो जाता। लेकिन अर्जुन की जो भूल है, वह नेचरल फैलेसी है, बड़ी प्राकृतिक भूल है। हम भी यही भूल करते हैं। मनुष्य की सहज भूलों में एक भूल है, जो नहीं जानते, हम मानते हैं, वह नहीं है। न मालूम किस भ्रांति के कारण हम ऐसा सोचते हैं कि हमारा जानना ही सब कुछ है।

अगर हमारा जानना ही सब कुछ है–अगर मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ इकसठ, एक जनवरी थी या नहीं? आप कहेंगे, थी; मैं था। लेकिन अगर मैं पूछूं कि एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई याददाश्त बताइए, अगर थी! तो क्या किया था सुबह उठकर? दोपहर क्या किया था? सांझ क्या बोले थे? रात नींद आई थी, नहीं आई थी? स्वप्न कौन-सा आया था? आप कहेंगे, कुछ भी याद नहीं है। अगर एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई भी याद नहीं है, तो एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ थी, इसके कहने का हक क्या है? आप कहेंगे, थी तो जरूर, मैं था, लेकिन याद! याद बिलकुल नहीं है।

याद दिलाई जा सकती है। क्योंकि एक गहरा नियम है मन का कि जो भी जाना जाता है, वह कभी भूलता नहीं। विस्मृति असंभव है। जिस बात को हम कहते हैं विस्मृति हो गई, उसका भी इतना ही मतलब है कि हम उसे पकड़ नहीं पा रहे हैं। हम नहीं पकड़ पा रहे हैं, कहां रख गई वह याद, किस कोने-कातर में मन के समा गई!

छोटा मन है, करोड़ों स्मृतियां हैं। मन को छांटना पड़ता है स्मृतियों को। छांट-छांटकर काम की बचा लेता है, बाकी को कचरेघर में डाल देता है। लेकिन कचराघर भी भीतर ही है। जैसे अपने घर में कोई नीचे, तहखाने में चीजों को डालता चला जाता है, जो बेकार हैं। लेकिन बिलकुल बेकार नहीं है, कभी काम में आ सकती हैं, इसलिए इकट्ठी भी करता चला जाता है।

हम भी अपने मन में सब इकट्ठा करते चले जाते हैं। इसलिए जो आपको एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ याद न आती हो, वह आपको सम्मोहित करके, बेहोश किया जाए, तो याद आ जाती है। आप एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ का ऐसे ही वर्णन कर देंगे, जैसे एक जनवरी उन्नीस सौ इकहत्तर का भी करना मुश्किल पड़ेगा। बिलकुल कर देंगे। बेहोशी की, सम्मोहन की अवस्था में सब याद आ जाएगा, सब उठ आएगा।

अभी मनोवैज्ञानिक सम्मोहन के द्वारा जन्म के पहले दिन तक की स्मृति तक ले जाने में समर्थ हो गए हैं। पहले दिन जब आपका जन्म हुआ था, कुछ भी तो याद न होगी उसकी। लोग कहते हैं, इसलिए मान लेते हैं कि हुआ था। अगर कोई दिक्कत आ जाए और सारे प्रमाण पूछे जाएं, तो सिवाय उधार प्रमाणों के कोई प्रमाण न मिलेगा आपके पास। कोई कहता है, इसलिए आप कहते हैं कि मैं पैदा हुआ था। लेकिन आपको कोई याद है? आप विटनेस हैं? उस घटना के गवाह हैं? आप कहेंगे, मैं तो गवाह नहीं हूं। तब बड़ी मुश्किल है। आपके जन्म की गवाही आप न दे सकें, तो दूसरों की गवाही का भरोसा क्या है? जन्म है आपका, गवाही है दूसरे की!

लेकिन पहले दिन जन्म की स्मृति भी भीतर है। और जिन्होंने और गहरे प्रयोग किए हैं, जैसे तिब्बत में लामाओं ने और गहरे प्रयोग किए हैं, तो मां के पेट में भी नौ महीने आप रहे। जन्म का ठीक दिन वह नहीं है, जिसको हम जन्म-दिन कहते हैं। उसके ठीक नौ महीने पहले असली जन्म हो चुका। जिसे हम जन्म-दिन कहते हैं, वह तो मां के शरीर से मुक्त होने का दिन है, जन्म का दिन नहीं। नौ महीने तक सेटेलाइट था आपका शरीर; मां के शरीर के साथ घूमता था, उपग्रह था। अभी इतना समर्थ न था कि स्वयं ग्रह हो सके। इसलिए घूमता था; सेटेलाइट था। अब इस योग्य हो गया कि मां से मुक्त हो जाए, अब अलग जीवन शुरू करे। लेकिन जन्म तो उसी दिन हो गया, जिस दिन गर्भ धारण हुआ है।

तो लामाओं ने इस पर और गहरे प्रयोग किए हैं और नौ महीने की स्मृतियां भी उठाने में सफल हुए हैं। जब मां क्रोध में होती है, तब भी बच्चे की पेट में स्मृति बनती है। जब मां दुखी होती है, तब भी बच्चे की स्मृति बनती है। जब मां बीमार होती है, तब भी बच्चे की स्मृति बनती है। क्योंकि बच्चे की देह मां की देह के साथ संयुक्त होती है। और मां के मन और देह पर जो भी पड़ता है, वह संस्कारित हो जाता है बच्चे में।

इसलिए अक्सर तो माताएं जब बाद में बच्चों के लिए रोती हैं और पीड़ित और परेशान होती हैं, उनको शायद पता नहीं कि उसमें कोई पचास प्रतिशत हिस्सा तो उन्हीं का है, जो उन्होंने जन्म के पहले ही बच्चे को संस्कारित कर दिया है। अगर बच्चा क्रोध कर रहा है, और गालियां बक रहा है, और दुखी हो रहा है, और दुष्टता बरत रहा है, तो मां सोचती है कि यह कहां से, कैसे ये सब कहां सीख गया! दिखता है, कहीं दुष्ट-संग में पड़ गया है।

दुष्ट-संग में बहुत बाद में पड़ा होगा; दुष्ट-संग में बहुत पहले नौ महीने तक पड़ चुका है। और नौ महीने बहुत संस्कार संस्कारित हो गए हैं। उनकी भी स्मृतियां हैं। लेकिन और भी गहरे लोग गए हैं। पिछले जन्मों की स्मृतियों में भी गए हैं।

कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सरलता से कहते हैं कि जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सहजता से कहते हैं कि उनका वचन बड़ा प्रामाणिक और आथेंटिक मालूम पड़ता है।

ध्यान रहे, झिझक कृष्ण में जरा भी नहीं है। जरा-सी भी झिझक बताती है कि आदमी को खुद पता नहीं है। किसी और से पता होगा; सेकेंड हैंड पता होगा।

कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। हमारे और भी जन्म हुए हैं। मैं इसी जन्म की बात नहीं कर रहा हूं। लेकिन वे इतनी सरलता से कहते हैं, जरा भी झिझक नहीं।

और एक बात और ध्यान देने योग्य है। दार्शनिकों और ऋषियों के वचनों में एक फर्क दिखाई पड़ेगा। दार्शनिक जब भी बोलेंगे, तो हाइपोथेटिकल बोलेंगे। वे बोलेंगे, इफ, यदि ऐसा हो, तो ऐसा होगा। ऋषि जब बोलेंगे, तो उनका बोलना स्टेटमेंट का होगा, वक्तव्य का होगा। वे कहेंगे, ऐसा है।

इसलिए जब पहली बार उपनिषद का अनुवाद हुआ पश्चिम में, तो पश्चिम के विचारक बहुत मुश्किल में पड़े कि उपनिषद के लोग कैसे हैं! ये सीधा कह देते हैं कि ब्रह्म है। पहले बताना चाहिए, क्यों, क्या कारण है, क्या दलील है, क्या प्रमाण है; फिर निष्कर्ष देना चाहिए कि ब्रह्म है। ये तो सीधा कह देते हैं, कैटेगोरिकल, हाइपोथेटिकल नहीं। सीधा वक्तव्य दे देते हैं कि ब्रह्म है। इसके आगे-पीछे कुछ भी नहीं। ये वक्तव्य ऐसे दे देते हैं, जैसे कोई कहे, सूरज है।

पश्चिम के जिन लोगों को यह चकित होने का कारण बना, उसका आधार है। पश्चिम में ऋषियों की वाणी बहुत कम पैदा हुई। पश्चिम में दार्शनिक बोलते रहे, फिलासफर्स बोलते रहे। वे जो भी कहते हैं, उसको दलील, आर्ग्युमेंट से कहते हैं। लेकिन ध्यान रहे, दलील और तर्क इस बात की खबर देते हैं कि यह एक निष्कर्ष है, अनुभव नहीं। और सत्य एक अनुभव है, निष्कर्ष नहीं। ट्रुथ इज़ नाट ए कनक्लूजन, बट एन एक्सपीरिएंस। निष्कर्ष नहीं है सत्य। वह दो और दो चार होते हैं, ऐसा जोड़ा गया हिसाब नहीं है, जाना गया अनुभव है।

इसलिए कृष्ण जब कहते हैं कि अर्जुन, तुझे पता नहीं और मुझे पता है। और जब मैं कहता हूं कि सूर्य को मैंने कहा था, तो मैं किसी और जन्म की बात कर रहा हूं। यह इस जन्म की बात नहीं है।

एक और ध्यान देने की बात है, कि ज्ञान कृष्ण के समय या बुद्ध के समय या महावीर के समय में इतना झिझकता हुआ नहीं था, जितना आज है। बहुत बोल्ड था, बहुत साहसी था। जो कहना है, कहता था। आज ज्ञान बहुत झिझकता हुआ है। जो भी कहना है, वह सीधा कहना मुश्किल है। क्या कारण होगा? कारण एक ही है। आज जिसे हम ज्ञान कहते हैं, सौ में निन्यानबे मौके पर उधार होता है, इसलिए झिझकता है।

एक साध्वी ने योग पर एक किताब लिखी, मुझे भेजी। देखा, किताब मुझे बहुत पसंद पड़ी; बहुत अच्छी लिखी। लेकिन दो-चार जगह मुझे ऐसा लगा कि उस साध्वी को योग का या ध्यान का कोई भी अनुभव नहीं है। क्योंकि जो फिजूल बातें थीं, वह तो उसने बड़े बलपूर्वक कहीं, और जो सार्थक बातें थीं, उनमें बड़ी झिझक थी।

फिर दो-चार वर्ष के बाद वह साध्वी मुझे मिली। मैंने कुछ बात न की उस किताब की। थोड़ी देर के बाद उसने कहा, मुझे अकेले में कुछ बात करनी है। मैंने कहा, पूछें। उसने कहा, मुझे ध्यान के संबंध में कुछ बताएं कि कैसे करूं? मैंने कहा, चार वर्ष हुए तुम्हारी किताब देखी थी, तब भी मुझे लगा था कि ध्यान का तुम्हें कुछ पता नहीं होना चाहिए। क्योंकि जो-जो गहरी बात थी, उसमें झिझक थी। और जो-जो बेकार बात थी, बहुत बोल्ड, बहुत साहस से कही गई थी! उसने कहा, मुझे तो कुछ भी पता नहीं। फिर, मैंने कहा, वह किताब क्यों लिखी? उसने कहा, वह तो मैंने दस-पचास किताबें पढ़कर लिखी–लोगों के लाभ के लिए। मैंने कहा, जिस किताब को लिखने से भी तुम्हें लाभ नहीं हुआ, उस किताब को पढ़ने से लोगों को लाभ होगा? तुम लिखने के चार साल बाद भी अभी ध्यान कैसे करें, यह पूछती हो; और तुमने उसमें ध्यान के चार प्रकार होते हैं और क्या-क्या होता है, सब गिनाया हुआ है! उसने कहा, वह सब शास्त्रों में लिखा है।

पर ध्यान को शास्त्रों से जो जानेगा, उसने सूरज नहीं देखा, सूरज की तस्वीर देखी। तस्वीर को हाथ में रखा जा सकता है, सूरज को हाथ में नहीं रखा सकता। तस्वीर जला नहीं सकती, सूरज के पास जाना बड़ा कठिन है। जिसने शास्त्र से ध्यान सीखा, उसने कागज की नाव में यात्रा करने का विचार किया है। खतरनाक है वह यात्रा।

उधार है ज्ञान, इसलिए झिझकता हुआ है। ज्ञान ने साहस खो दिया। बल्कि और मजे की बात है, अज्ञान बहुत साहसी है आज। अज्ञान इतना साहसी कभी भी न था।

ध्यान रहे, अगर चार्वाक को कहना पड़ता था कि ईश्वर नहीं है, तो हजार दलीलें देनी पड़ती थीं, तब चार्वाक कहता था, ईश्वर नहीं है। ईश्वर नहीं है, एक कनक्लूजन था, एक निष्पत्ति थी। हजार दलील देता था और फिर कहता था, देखो, यह दलील, यह दलील, यह दलील; तब मैं कहता हूं कि ईश्वर नहीं है। हजार दलील देता था, तब कहता था कि देखो, मैं कहता हूं, आत्मा नहीं है। ज्ञान बहुत शक्तिशाली था, वह कहता था, ब्रह्म है–बिना दलील के। और अज्ञान बहुत कमजोर था; वह हजार दलील जुटाता था, तब कहता था कि शक होता है आत्मा पर।

आज हालत बिलकुल उलटी है। आज जिसको कहना है, आत्मा नहीं है, बिना दलील के कहता है, आत्मा नहीं है, ईश्वर नहीं है; कोई दलील देने की जरूरत नहीं है। और जिसको कहना है, ईश्वर है, वह हजार दलीलें इकट्ठी करता है कि यह कारण, यह कारण, इसलिए। जैसे कि कुम्हार घड़े को बनाता है, ऐसे भगवान जगत को बनाता है। कुम्हार, भगवान को सिद्ध करने के लिए दलील है। बेचारा कुम्हार, उसका कोई हाथ नहीं! इतनी कमजोर दलीलों पर कहीं ज्ञान खड़ा हुआ है?

ज्ञान अनुभव है।

जब कृष्ण कहते हैं, बिना दलील; कृष्ण आर्ग्युमेंट नहीं दे रहे हैं। कोई आर्ग्युमेंट ही नहीं देते। वे कहते हैं, अर्जुन तुझे पता नहीं और मुझे पता है, इसलिए मैं कहता हूं। वे दलील नहीं जुटाते।

यह वक्तव्य सीधा और साफ है। और सीधा और साफ जब भी वक्तव्य होता है, तो वह प्राणों के अंतस्तल को छेद पाता है। दलीलें जहां नहीं पहुंचती हैं, वहां सीधे वक्तव्य पहुंच जाते हैं। प्रमाण जहां नहीं पहुंचते, वहां आंखों की गवाही पहुंच जाती है।

अर्जुन दलील मांग रहा है। कृष्ण दलील नहीं दे रहे। अर्जुन दलील ही मांग रहा है, कि कोई सर्टिफिकेट दिखाओ कि तुम थे। तुम सूरज के पहले थे? कहीं किसी कारपोरेशन के दफ्तर में कहीं कोई जन्मत्तारीख? कहीं कुछ लिखा-पढ़ी है? नहीं; वे इतना ही कहते हैं कि अर्जुन, तू जानता नहीं और मैं जानता हूं।

इतना साहस था जब सत्य में, तब अगर सत्य परिणाम लाता था, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और आज अगर अज्ञान साहसी है, तो अज्ञान दुष्परिणाम लाता है, तो भी कुछ आश्चर्य नहीं है।

आज नास्तिक सारे जगत में जिस भाषा में बोलता है, वह उसी ताकत की भाषा है, जिस ताकत में कभी कृष्ण, महावीर और बुद्ध बोले। आज उस ताकत की भाषा में माक्र्स, स्टैलिन और माओत्से तुंग बोलते हैं। उसी ताकत की भाषा में। आज अगर पुरी के शंकराचार्य को बोलना है, तो ताकत नहीं है; तो फिर शास्त्र, वेद, पुराण, उन सबसे इकट्ठा करके बोलना है।

पुरी के शंकराचार्य कहते हैं कि कोई अगर सिद्ध कर दे कि शास्त्रों में लिखा है कि गौवध होता था यज्ञों में, कोई अगर सिद्ध कर दे कि शास्त्रों में लिखा है, तो मैं गौवध का विरोध छोड़ दूंगा। बड़ी कमजोर दुनिया है। कोई अगर सिद्ध कर दे कि शास्त्रों में लिखा है कि गौवध होता था, तो पुरी के शंकराचार्य, गौवध बंद हो, ऐसा आंदोलन छोड़ने को तैयार हैं! दलील और प्रमाण कोई दे दे।

लेकिन इतना साहस नहीं सत्य में कि वह सीधा कहे कि सब शास्त्रों में लिखा हो कि गौवध होता था, तो भी गौवध नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा हमारी आत्मा कहती है कि यह गलत है–ऐसा। ऐसा नहीं कह सकता कोई हिम्मतवर आज, तब फिर अर्थ नहीं है। कोई ऐसा नहीं कह सकता कि तुम नहीं जानते और मैं जानता हूं। लेकिन ऐसा कोई कहना चाहे, तो नहीं कह सकता। कहना चाहे, तो बहुत मुश्किल में पड़ेगा।

ठीक ऐसी मुश्किल में पड़ेगा, मैंने सुना है, एक साधक एक गुरु के पास बहुत दिन तक था। गुरु उससे कहता कि इस तरह ध्यान करो कि तुम बचो ही न, बिलकुल मर जाओ, तभी परमात्मा मिलेगा। उसने कई तरह की कोशिशें कीं, लेकिन मर कैसे जाए? रोज गुरु के पास आता और गुरु कहता कि तुम अभी भी हो! फिर ध्यान क्या खाक होगा? मिटोगे नहीं, मरोगे नहीं, ध्यान नहीं होगा। वह बेचारा रोज लौट जाता। फिर दूसरे दिन सुबह आता कि फिर अपनी खबर कर दे कि अभी तक ध्यान हुआ नहीं। गुरु उसे देखते से ही कहता, अरे! तुम अभी भी जिंदा हो?

एक दिन उसने सोचा, यह कब तक चलेगा! सुबह वह पहुंचा, गुरु के दरवाजे पर खड़ा ही हुआ था; गुरु ने कहा, अरे! उसने कहा, मत कहो। और एकदम गिरा और मर गया। वहीं गिरा और मर गया। आंखें बंद कर लीं, सांस रोककर पड़ रहा। गुरु पास आया, उसने कहा कि बिलकुल ठीक। अच्छा, मैंने तुम्हें कल एक सवाल दिया था, उसका जवाब तो दो। उस आदमी ने एक आंख खोली और कहा, उसका जवाब तो अभी तक नहीं मिला। उसके गुरु ने कहा, मूरख, मरे हुए लोग जवाब नहीं देते। उठ, और अपने घर जा! मर गया था, तो मर जाना था। जवाब देने की इतनी क्या जल्दी थी? लेकिन मरने का कोई नाटक नहीं हो सकता है।

अब यह जो गुरु कह रहा है कि मर जा, वह समझ ही नहीं पा रहा है, किस मृत्यु की बात हो रही है। जब गुरु कह रहा है, अरे, फिर तू आ गया, तब भी वह नहीं समझ पा रहा है कि किसके आने की बात हो रही है। जिस अहंकार के मरने के लिए वह गुरु बात कर रहा है, वह उसके खयाल में नहीं आता। ज्यादा से ज्यादा उसे खयाल में आया कि इस शरीर को गिरा दो, आंख बंद करके पड़े रह जाओ। और क्या हो सकता है?

शरीर केंद्रित दृष्टि शरीर के बाहर की बातों को सुन नहीं पाती। अर्जुन भी शरीर केंद्रित है। उसकी सारी चिंतना, उसका सारा संताप शरीर केंद्रित, बाडी ओरिएंटेड है। वह कहता है, ये मेरे प्रियजन मर जाएंगे। कृष्ण कहते हैं, ये कोई नहीं मरने वाले हैं। ये पहले भी थे और फिर भी रहेंगे। वही-वही सवाल लौट-लौटकर चला आता है। अभी कृष्ण पहले समझाते हैं कि कोई ये मरेंगे नहीं। ये पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे। तू इनकी फिक्र मत कर। कुछ समझता नहीं है अर्जुन। अब वह फिर वही पूछता है, आप! आप सूर्य के पहले कहां थे? आप तो अभी पैदा हुए हैं!

वही शरीर से बंधी हुई दृष्टि! लेकिन कृष्ण एक सीधा वक्तव्य देते हैं। दलील दे सकते थे। लेकिन जिनके पास अनुभव है, वे दलील हमेशा पीछे देते हैं, वक्तव्य पहले दे देते हैं। जिनके पास अनुभव नहीं है, वे दलील पहले देते हैं, वक्तव्य पीछे देते हैं। जिनके पास अनुभव है, वे दलील का उपयोग सिद्ध करने के लिए नहीं करते। वे दलील का उपयोग ज्यादा से ज्यादा समझाने के लिए करते हैं।

तो पहली तो बात यह समझ लें कि कृष्ण ने बेझिझक कहा कि तू नहीं जानता और मैं जानता हूं। इतना बेझिझक अनुभव ही हो सकता है। लेकिन गुरु भी झिझकते हुए हो सकते हैं। और तब अगर शिष्य झिझकते हुए हो जाएं, तो बहुत कठिनाई क्या है? गुरु भी सोच-विचार करके उत्तर देते हों, तो फिर शिष्य भी उत्तर से वंचित रह जाएं, तो हैरानी क्या है?

यह सोच-विचार नहीं है कृष्ण की तरफ, यह सीधी प्रतीति है कि तू नहीं जानता। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक अंधे आदमी से कोई आंख वाला कहे कि सूरज है; मैं जानता हूं और तू नहीं जानता। यह इतनी ही सरल और सीधी बात उन्होंने कही है।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। 6।।

मैं अविनाशी स्वरूप अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूं।

कृष्ण यहां चेतना कैसे प्रकट होती है पदार्थ में, परमात्मा कैसे आविर्भूत होता है प्रकृति में, अदृश्य कैसे दृश्य के शरीर को ग्रहण करता है, अलौकिक कैसे लौकिक बन जाता है, अज्ञात असीम अनंत कैसे सीमा और सांत में बंधता है, उसका सूत्र कहते हैं।

वे कहते हैं, मैं और लोगों की भांति जन्मा हुआ नहीं हूं।

यहां एक बात तो सबसे पहले ठीक से समझ लें कि जब वे कहते हैं, मैं और लोगों की भांति जन्मा हुआ नहीं हूं, तो इसका जैसा अब तक मतलब लिया जाता रहा है, वैसा मतलब नहीं है। लोग कहेंगे कि यहां वे कह रहे हैं कि मैं भगवान का अवतार हूं, बाकी लोग नहीं है। ऐसा नहीं कह रहे हैं। यहां वे इतना ही कह रहे हैं कि जन्मता तो कोई भी नहीं है, लेकिन दूसरे मानते हैं कि वे जन्मते हैं; और जब तक वे मानते हैं कि जन्मते हैं, तब तक मरते हैं। उनकी मान्यता ही उनकी सीमा है। यहां वे कह रहे हैं, मैं औरों की भांति जन्मा हुआ नहीं हूं। यहां उनका प्रयोजन है कि मैं जानता हूं भलीभांति, जैसा कि और नहीं जानते–कि मैं अजन्मा हूं, मेरा कभी जन्म नहीं हुआ।

एक बहुत सोचने और खयाल में और कभी भीतर खोजने जैसी बात है। कितना ही मन में सोचें, आप यह कभी सोच न पाएंगे, इनकंसीवेबल है, इसकी कल्पना नहीं बनती कि मैं मर जाऊंगा। कितनी ही कोशिश करें इसकी कल्पना बनाने की, कल्पना भी नहीं बनती कि मैं मर जाऊंगा। इसका खयाल ही भीतर नहीं पकड़ में आता कि मैं मर जाऊंगा। इसीलिए तो इतने लोग चारों तरफ मरते हैं, फिर भी आपको खयाल नहीं आता कि मैं मर जाऊंगा। भीतर सोचने जाओ, तो ऐसा लगता ही नहीं कि मैं मरूंगा। भीतर मृत्यु के साथ कोई संबंध ही नहीं जुड़ता।

कल्पना करें, अगर आपको ऐसी जगह रखा जाए जहां कोई न मरा हो और आपने कभी मरने की कोई घटना न देखी हो, आपने मृत्यु शब्द न सुना हो, आपको किसी ने मौत के बाबत कुछ न बताया हो, क्या आप अपने ही तौर अकेले ही कभी भी सोच पाएंगे कि आप मर सकते हैं? नहीं सोच पाएंगे। यह निजी एकांत में आप न खोज पाएंगे कि आप मर सकते हैं, क्योंकि मृत्यु की कल्पना ही भीतर नहीं बनती।

भीतर जो है, वह मरणधर्मा नहीं है। भीतर जो है, वह मरणधर्मा नहीं है; वह अजन्मा भी है। असल में वही मरता है, जो जन्मता है। जो नहीं जन्मता, वही नहीं मरता है।

कृष्ण कहते हैं, मैं अजन्मा हूं, अजात, जो कभी जन्मा नहीं, अनबॉर्न। और इसलिए अनडाइंग हूं, मरूंगा भी नहीं। औरों की भांति मैं जन्मा हुआ नहीं हूं, अर्जुन!

और तो सभी मानते हैं कि उनका जन्मदिन है। उनके मानने में ही उनकी भ्रांति है। ऐसा नहीं है कि वे जन्मे हैं, जन्मे तो वे भी नहीं हैं। लेकिन जिस दिन वे जान लेंगे कि वे जन्मे नहीं हैं, वे भी मेरे ही भांति हो जाएंगे, वे भी मेरे ही रूप हो जाएंगे।

यह जो अजन्मा है, जो कभी जन्मता नहीं है, वह भी तो आया है। वह भी तो उतरा है, आविर्भूत हुआ है। वह भी तो पैदा हुआ है। वह भी तो जन्मा ही है। कृष्ण भी तो जन्मे ही हैं।

कहानी है कि जरथुस्त्र पैदा हुआ, तो जैसे कि और बच्चे रोते हैं, जरथुस्त्र रोया नहीं, हंसा। अब जरथुस्त्र वैसे ही थोड़े-से लोगों में एक है, जैसे कृष्ण। शायद पृथ्वी पर अकेला एक ही बच्चा जन्म के साथ हंसा है, वह जरथुस्त्र। घबड़ा गए लोग। घबड़ा ही जाएंगे। बच्चा पैदा हो और हंसने लगे खिलखिलाकर, तो घबड़ा ही जाएंगे। क्योंकि हंसना बच्चे के लिए स्वाभाविक नहीं है, रोना बिलकुल स्वाभाविक है।

लेकिन कभी आपने सोचा कि बच्चे के लिए अगर रोना स्वाभाविक है, तो बूढ़े के लिए रोते हुए मरना स्वाभाविक नहीं होना चाहिए। क्योंकि जो बच्चे के लिए स्वाभाविक है, बूढ़े को कम से कम अनुभव से इतना तो हो जाना चाहिए कि वह बच्चे के पार चला जाए।

बच्चा रोता हुआ पैदा हो, माफ किया जा सकता है। बूढ़ा रोता हुआ मरे, तो माफ नहीं किया जा सकता। जिंदगी इतना भी न सिखा पाई कि बचपन में जन्म के साथ जो हुआ था, वह कम से कम मृत्यु के साथ न हो!

लेकिन बच्चे रोते हुए पैदा होते हैं और बूढ़े रोते हुए मरते हैं। असल में दोनों छोर हमेशा मिल जाते हैं। असल में दोनों छोर बराबर एक से हो जाते हैं। बूढ़ा रोता हुआ मरता है, तो हमारी समझ में आता है कि क्यों मरता है रोता हुआ, जिंदगी छूट रही है इसलिए। इसलिए हम सोचते हैं, रो रहा है। जिसे हम जिंदगी जानते थे, वह हाथ से जा रही है, इसलिए रो रहा है। लेकिन बच्चा क्यों रोता है? ठीक वही बात जो बूढ़े की है। उसकी भी कोई जिंदगी छूटती है। हमें दूसरा छोर दिखाई पड़ रहा है उसके छूटने का। बूढ़े का पहला छोर दिखाई पड़ रहा है छूटने का; बच्चे का दूसरा छोर दिखाई पड़ रहा है छूटने का।

असल में बूढ़ा जो रोता है, वही रोना बच्चे के जन्म तक जारी रहता है। वे एक ही चीज के दो छोर हैं। इधर बूढ़ा रोता है, यह एक पर्दा गिरा नाटक का। यह आदमी पर्दे के पीछे गया, रोता हुआ पर्दे के पीछे गया। पर्दे के पीछे उतरा, रोता हुआ उतरा। उधर उसका जन्म हो रहा है, इधर उसकी मौत हुई थी। इधर एक आदमी मरा, उधर जन्मा। रोता हुआ मरता है, रोता हुआ जन्मता है।

जरथुस्त्र से किसी ने बाद में पूछा कि हमने सुना है, तुम हंसते हुए पैदा हुए! तो जरथुस्त्र ने कहा कि ठीक सुना है, क्योंकि मैं उसके पहले हंसता हुआ मरा। हम हंसते हुए चले आ रहे थे पर्दे के पीछे से। लोगों ने पूछा, तुम हंसते हुए क्यों मरे? तो जरथुस्त्र ने कहा, हंसते हुए इसलिए मरे कि लोग रो रहे थे और हम समझ रहे थे कि हम मर ही नहीं रहे हैं, वे व्यर्थ रो रहे हैं; तो हंसी आ गई।

कृष्ण कहते हैं, अजन्मा हूं मैं। यहां जिस मैं की बात कर रहे हैं, वह परम मैं, परमात्मा का मैं। मेरा कोई जन्म नहीं; फिर भी उतरा हूं इस शरीर में। तो फिर इस शरीर में उतरना क्या है? उसको वे कहते हैं, योगमाया से।

इस शब्द को समझना जरूरी होगा, क्योंकि यह बहुत की, बहुत कुंजी जैसे शब्दों में से एक है, योगमाया। योगमाया से, इसका क्या अर्थ है? इसका क्या अर्थ है? थोड़ा-सा सम्मोहन की दो-एक बातें समझ लें, तो यह समझ में आ सकेगा।

योगमाया का अर्थ है–या ब्रह्ममाया कहें या कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–अर्थ यही है कि अगर आत्मा चाहे, आकांक्षा करे, तो वह किसी भी चीज में प्रवेश कर सकती है। आकांक्षा करे, तो किसी भी चीज के साथ संयुक्त हो सकती है। आकांक्षा करे, तो जो नहीं होना चाहिए वस्तुतः, वह भी हो सकता है। संकल्प से ही हो जाता है।

सम्मोहन के मैंने कहा एक-दो सूत्र समझें, तो योगमाया समझ में आ सके। वह भी एक ग्रेटर हिप्नोसिस है। कहें कि स्वयं परमात्मा अपने को सम्मोहित करता है, तो संसार में उतरता है, अन्यथा नहीं उतर सकता। परमात्मा को भी संसार में उतरना है–हम भी उतरते हैं, तो सम्मोहित होकर ही उतरते हैं। एक गहरी तंद्रा में उतरें, तो ही पदार्थ में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए जाग जाएं, तो पदार्थ के बाहर हो जाते हैं। और सम्मोहन में डूब जाएं, तो पदार्थ के भीतर हो जाते हैं।

अगर किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया जाए–जो कि दुनिया में हजारों जगह प्रयोग किए गए हैं, खुद मैंने भी प्रयोग किए हैं और पाया कि सही हैं–आपको अगर सम्मोहित करके बेहोश किया जाए, फिर आपके हाथ में एक कंकड़ रख दिया जाए साधारण सड़क का उठाकर और कहा जाए, अंगारा रखा है आपके हाथ में। आप चीख मारकर उस कंकड़ को–मेरे लिए–और आपके लिए उस अंगारे को फेंक देंगे और चीख मारेंगे, जैसे अंगारे में हाथ जल गया।

यहां तक तो हम कहेंगे, ठीक है। आदमी गहरी बेहोशी में है। उसे भ्रम हुआ कि अंगारा है। लेकिन बड़ा मजा तो यह है कि उस बेहोश आदमी के हाथ पर फफोला भी आ जाएगा। फफोला होश में आने पर भी रहेगा, उतनी ही देर, जितनी देर असली अंगारे से पड़ा हुआ फफोला रहता है। यह फफोला क्या है? यह योगमाया है। यह फफोला सिर्फ संकल्प से पैदा हुआ है, क्योंकि अंगारा हाथ पर रखा नहीं गया था, सिर्फ सोचा गया था।

ठीक इससे उलटा भी हो जाता है। अलाव भरे जाते हैं और लोग अंगारों पर कूद जाते हैं और जलते नहीं। वह भी संकल्प है। वह भी गहरा संकल्प है, इससे उलटा। सम्मोहन में अंगारा हाथ पर रख दिया जाए और कहा जाए, ठंडा कंकड़ रखा है, तो फफोला नहीं पड़ेगा। भीतर हमारी चेतना जो मान ले, वही हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं कि मैं–परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं कि मैं–अपनी योगमाया से शरीर में उतरता हूं।

शरीर में उतरना तो सदा ही सम्मोहन से होता है। लेकिन सम्मोहन दो तरह के हो सकते हैं। और यही फर्क अवतार और साधारण आदमी का फर्क है। अगर आप जानते हुए, कांशसली, सचेत, शरीर में उतरें–जानते हुए–तो आप अवतार हो जाते हैं। और अगर आप न जानते हुए शरीर में उतरें, तो आप साधारण व्यक्ति हो जाते हैं। सम्मोहन दोनों में काम करता है। लेकिन एक स्थिति में आप सम्मोहित होते हैं प्रकृति से और दूसरी स्थिति में आप आत्म-सम्मोहित होते हैं, आटो-हिप्नोटाइज्ड होते हैं। आप खुद ही अपने को सम्मोहित करके उतरते हैं। कोई दूसरा नहीं, कोई प्रकृति आपको सम्मोहित नहीं करती।

साधारणतः हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है। मैं मरूंगा। हजार इच्छाएं मुझे पकड़े होंगी, वे पूरी नहीं हो पाई हैं। वे मेरे मन-प्राण पर अपने घोंसले बनाए हुए बैठी हैं। वे मेरे मन-प्राण को कहती हैं कि और शरीर मांगो, और शरीर लो; शीघ्र शरीर लो, क्योंकि हम अतृप्त हैं; तृप्ति चाहिए। जैसे रात आप सोते हैं। और अगर आप सोचते हुए सोए हैं कि एक बड़ा मकान बनाना है, तो सुबह आप पुनः बड़ा मकान बनाना है, यह सोचते हुए उठते हैं। रातभर आकांक्षा प्रतीक्षा करती है कि ठीक है, सो लो। उठो, तो वापस द्वार पर खड़ी है कि बड़ा मकान बनाओ।

रात आखिरी समय, सोते समय जो आखिरी विचार होता है, वह सुबह के समय, उठते वक्त पहला विचार होता है। खयाल करना तो पता चलेगा। अंतिम विचार, सुबह का पहला विचार होता है। मरते समय आखिरी विचार, जन्म के समय पहला विचार बन जाता है। बीच में नींद का थोड़ा-सा वक्त है। वह खड़ा रहता है; इच्छा पकड़े रहती है। और वह इच्छा आपको सम्मोहित करती है और नए जन्म में यात्रा करवा देती है।

जब कृष्ण कह रहे हैं, औरों की भांति, तो फर्क इतना ही है कि और अपनी-अपनी इच्छाओं के सम्मोहन में नए जन्म में प्रविष्ट हुए हैं। उन्हें कुछ पता नहीं है। जानवरों की तरह गलों में रस्सियां बंधी हों, ऐसे बंधे हुए खींचे गए हैं इच्छाओं से। इच्छाओं के पाश में बंधे पशुओं की भांति बेहोश, मूर्च्छित वे नए जन्मों में प्रविष्ट हुए हैं। न उन्हें याद है मरने की, न उन्हें याद है नए जन्म की; उन्हें सिर्फ याद हैं अंधी इच्छाएं। और वे फिर जैसे ही शक्ति मिलेगी, शरीर मिलेगा, अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लग जाएंगे। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने पिछले जन्म में भी पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने और भी पिछले जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने जन्मों-जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं को वे पुनः पूरा करने में लग जाएंगे। एक वर्तुल की भांति, एक विसियस सर्कल की भांति, दुष्टचक्र घूमता रहेगा।

कृष्ण जैसे व्यक्ति जानते हुए जन्मते हैं, किसी इच्छा के कारण नहीं, कोई अंधी इच्छा के कारण नहीं। फिर किसलिए जन्मते होंगे? जब इच्छा न बचे, तो कोई किसलिए जन्मेगा? जब इच्छा न बचे, तो नए जन्म को धारण करने का कारण क्या रह जाएगा? इच्छा तो मूर्च्छित-जन्म का कारण है। फिर क्या कारण रहेगा? अकारण तो कोई पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अकारण कोई पैदा होता भी नहीं। लेकिन जब इच्छा विलीन हो जाती है–और जब इच्छा विलीन हो जाती है तभी–करुणा का जन्म होता है, कम्पैशन का जन्म होता है।

कृष्ण, बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति करुणा के कारण पैदा होते हैं। जो उन्होंने जाना, जो उनके पास है, उसे बांट देने को पैदा होते हैं। लेकिन यह जन्म कांशस बर्थ, सचेष्ट जन्म है। इसलिए उनकी पिछली मृत्यु जानी हुई होती है; यह जन्म जाना हुआ होता है। और जो व्यक्ति अपनी एक मृत्यु और एक जन्म को जान लेता है, उसे अपने समस्त जन्मों की स्मृति वापस उपलब्ध हो जाती है। वह अपने समस्त जन्मों की अनंत शृंखला को जान लेता है।

इसलिए जब कृष्ण कह रहे हैं कि तुझे पता नहीं, मुझे पता है। और मैं औरों की भांति मूर्च्छित नहीं जन्मा हूं; सचेष्ट, अपनी ही योगमाया से, अपने को ही जन्माने की शक्ति का स्वयं ही सचेतन रूप से प्रयोग करके इस शरीर में उपस्थित हुआ हूं। तो वे एक बहुत आकल्ट, एक बहुत गुह्य-विज्ञान की बात कह रहे हैं।

इस रहस्य की बात को ऊपर से समझा ही जा सकता है। जानना हो, तब तो भीतर ही प्रवेश करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। और कठिन नहीं है यह बात कि आप औरों की भांति की दुनिया से हटकर कृष्ण की भांति दुनिया में प्रवेश कर जाएं। औरों से हटने और कृष्ण के निकट आने का एक ही रास्ता है।

इस सत्य को पहचान लेना है कि भीतर जो है, वह अजन्मा है, उसका कोई जन्म नहीं है। पहचान लेना, दोहराना नहीं। नहीं तो दोहराने की तो कोई कठिनाई नहीं है। सुबह बैठकर हम दोहरा सकते हैं कि आत्मा अजर-अमर है, आत्मा अजर-अमर है। दोहराते रहें, उससे कुछ भी न होगा। जानना पड़ेगा कि मेरे भीतर जो है, वह कभी नहीं जन्मा है।

कैसे जानेंगे? पीछे लौटना पड़ेगा; भीतर, चेतना में, एक-एक कदम पीछे जाना पड़ेगा। याद करनी पड़ेगी लौटकर। अभी अगर लौटकर याद करेंगे, तो आमतौर से पांच साल तक की याद आ पाएगी, पांच साल की उम्र तक की, उसके पहले की याददाश्त खो गई होगी। बहुत बुद्धिमान और बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति होंगे, तो तीन साल तक की याद आ पाएगी, उसके पहले की याद खो गई होगी।

वह जो आखिरी याद है आपकी–समझ लें कि तीन साल की उम्र की आखिरी याद आपको आती है कि वह मेरी आखिरी याद है, उसके बाद शून्य हो जाता है–तो रोज रात को उस आखिरी याद को ही याद करते हुए, करते हुए सो जाएं, उसी को याद करते हुए सो जाएं। पता न चले कि कब आप याद करते रहे और कब नींद आ गई। उसको ही याद करते रहें, याद करते रहें, करते रहें, और नींद को आ जाने दें। आपकी याद करने की प्रक्रिया चलती ही रहे, जब तक कि आप सो ही न जाएं। जब तक होश रहे, चलाए रखें। तो वही याद हुक का काम करती है। जैसे कि कोई मछली को पकड़ता है कांटा डालकर। वह आखिरी याद आपके अचेतन चित्त में अंदर उतर जाती है। और किसी और याद को पकड़कर सुबह तक वापस आ जाती है। सुबह आपको एकाध और याद आएगी, जो तीन साल से भी पीछे की है। फिर उसका उपयोग करें।

और रोज ऐसा उपयोग करते रहें और रोज आप पाएंगे कि आप जन्म के करीब सरक रहे हैं। फिर आपको एक दिन वह भी याद आ जाएगी, जिस दिन आपका जन्म हुआ। फिर उसको पकड़कर ध्यान करते रहें रात सोते वक्त, और तब आपको मां के पेट की याद आनी शुरू हो जाएगी। और तब आपको गर्भ-धारण की याद आएगी। फिर उसको पकड़ लें, उस पर प्रयोग करते रहें। और तब आपको पिछले जन्म की मृत्यु की याद आएगी।

फिल्म उलटी चलेगी निश्चित ही, फिल्म उलटी चलेगी। पिछले जन्म की याद में पहले मृत्यु की याद आएगी, फिर आप बूढ़े होंगे, फिर जवान होंगे, फिर बच्चे होंगे, फिर जन्म होगा। याद उलटी होगी, जैसे फिल्म की रील को हम उलटा चला रहे हों। इसलिए पहचानने में थोड़ी कठिनाई होगी, वैसी कठिनाई होगी कि जैसे अगर फिल्म को हम उलटा चला दें या किसी उपन्यास को उलटा पढ़ना शुरू करें, तो कठिनाई हो। लेकिन अगर दो-चार दफे पढ़ें, तो उलटे पढ़ने का भी अभ्यास हो जाएगा। और एक दफा उलटा पढ़ लें, तो फिर सीधा भी पढ़ सकते हैं।

पहली दफा बहुत कठिनाई होगी, क्योंकि कुछ समझ में नहीं आएगा। उलटा-उलटा लगेगा सब। कैसा उलटा नहीं हो जाएगा! पहले मरेंगे, फिर बूढ़े होंगे, कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर जवान होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर बच्चे होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। सब उलटा होगा।

लेकिन एक बार स्मृति आ जाए, तो कृष्ण जो कह रहे हैं, औरों में आपकी गिनती न रह जाएगी। और औरों में गिनती न रह जाए, यही लक्ष्य है। औरों में गिनती रही आए, तो जीवन व्यर्थ है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। 7।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। 8।।

हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तबत्तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं,

अर्थात प्रकट करता हूं।

साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग-युग में प्रकट होता हूं।

अंतिम श्लोक की बात कर लें, फिर कल सुबह। मैंने कहा, कृष्ण जैसे लोग करुणा से पैदा होते हैं। वासना से नहीं, करुणा से। वासना और करुणा का थोड़ा भेद समझें, तो यह सूत्र समझ में आ जाएगा।

वासना होती है स्वयं के लिए, करुणा होती है औरों के लिए। वासना का लक्ष्य होता हूं मैं, करुणा का लक्ष्य होता है कोई और। वासना अहंकार केंद्रित होती है, करुणा अहंकार विकेंद्रित होती है। ऐसा समझें कि वासना मैं को केंद्र बनाकर भीतर की तरफ दौड़ती है; करुणा पर को परिधि बनाकर बाहर की तरफ दौड़ती है।

करुणा, जैसे फूल खिले और उसकी सुवास चारों ओर बिखर जाए। करुणा ऐसी होती है, जैसे हम पत्थर फेंकें झील में; वर्तुल बने, लहर उठे और दूर किनारों तक फैलती चली जाए।

करुणा एक फैलाव है, वासना एक सिकुड़ाव है। वासना संकोच है, करुणा विस्तार है।

कृष्ण कहते हैं, करुणा से; युगों-युगों में जब धर्म विनष्ट होता है, तब धर्म की पुनर्संस्थापना के लिए; जब अधर्म प्रभावी होता है, तब अधर्म को विदा देने के लिए मैं आता हूं।

यहां ध्यान रखें कि यहां कृष्ण जब कहते हैं, मैं आता हूं, तो यहां वे सदा ही इस मैं का ऐसा उपयोग कर रहे हैं कि उस मैं में बुद्ध भी समा जाएं, महावीर भी समा जाएं, जीसस भी समा जाएं, मोहम्मद भी समा जाएं। यह मैं व्यक्तिवाची नहीं है। असल में वे यह कह रहे हैं कि जब भी धर्म के जन्म के लिए और जब भी अधर्म के विनाश के लिए कोई आता है, तो मैं ही आता हूं। इसे ऐसा समझें, जब भी कहीं प्रकाश के लिए और अंधकार के विरोध में कोई आता है, तो मैं ही आता हूं। यहां इस मैं से उस परम चेतना का ही प्रयोजन है।

जो भी व्यक्ति अपनी वासनाओं को क्षीण कर लेता है, तब वह करुणा के कारण लौट आ सकता है; युगों-युगों में, कभी भी, जब भी जरूरत हो उसकी करुणा की, कोई लौट आ सकता है। उस व्यक्ति का कोई नाम नहीं रह जाता, कि वह कौन है। क्योंकि सब नाम वासनाओं के नाम हैं। जब तक मेरी वासना है, तब तक मेरा नाम है, तब तक मेरी एक आइडेंटिटी है।

इसलिए कृष्ण मुझसे नहीं कह सकते कि तुम कृष्ण हो। लेकिन अगर मेरे भीतर कोई वासना न रह जाए, निर्वासना हो जाए, तो कोई अहंकार भी नहीं रह जाएगा, मेरा कोई नाम भी नहीं रह जाएगा। तब मेरा जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है। अगर आपके भीतर कोई वासना न रह जाए, तो आपका जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है।

असल में ठीक से समझें, तो हमारी अशुद्धियां, हमारे व्यक्तित्व हैं। और जब हम शुद्धतम रह जाते हैं, तो हमारा कोई व्यक्तित्व नहीं रह जाता। इसलिए कहीं भी कोई पैदा हो…।

मोहम्मद ने कहा है कि मुझसे पहले भी आए परमात्मा के भेजे हुए लोग और उन्होंने वही कहा। उनके ही वक्तव्य को पूरा करने मैं भी आया हूं।

जब जीसस का जन्म हुआ, तो सारी दुनिया से बुद्धिमान लोग जीसस के गांव पहुंचे, बड़ी हजारों मील की यात्रा करके। क्योंकि जो भी इस पृथ्वी पर बुद्धिमान थे और जानते थे, उनको तत्काल अनुभव हुआ कि कोई करुणा से प्रेरित आत्मा फिर जन्म गई। इसकी ध्वनियां उन तक पहुंचीं, इसकी लहरें उन तक पहुंचीं।

जब बुद्ध का जन्म हुआ, तो हिमालय से एक महायोगी उतरकर बुद्ध के गांव आया। बुद्ध के द्वार पर खड़ा हुआ। बुद्ध के पिता बुद्ध को लेकर योगी के चरणों में रख दिए और कहा कि आशीर्वाद दें, शुभ वचन कहें, शुभ कामनाएं करें। लेकिन वह योगी रोने लगा। तो बुद्ध के पिता बहुत चिंतित हुए। उन्होंने कहा, कोई अपशगुन है? आप रोते हैं! उस योगी ने कहा, मेरे रोने का कारण दूसरा है। अपशगुन नहीं, महाशगुन है। मैं रोता हूं इसलिए कि उस आदमी का जन्म हुआ फिर, जिसकी कोई वासना नहीं है, जो करुणा से आया है। लेकिन मैं उसके चरणों में बैठने से वंचित रह जाऊंगा, क्योंकि मेरी तो मौत की घड़ी करीब आ रही है। उसके लिए नहीं रोता, अपने लिए रोता हूं। क्योंकि ऐसी चेतना जन्मी है, उसी को खोजते मैं हिमालय से यहां तक आया हूं।

जब भी कोई महाकरुणावान चेतना पृथ्वी पर उतरती है, तो जिनके हृदय भी पवित्र हैं, उनके हृदयों में कंपन शुरू हो जाते हैं। उन तक खबरें पहुंच जाती हैं। वह लहर, वह झील पर पड़ा हुआ पत्थर उन तक लहरें ले जाता है। वे उस ध्वनि तरंग को समझ पाते हैं, वे भागे हुए चले आते हैं।

रोने लगा वह महायोगी। उसने कहा, दुखी हूं, क्योंकि मैं मर जाऊंगा। मेरी तो मौत करीब आ गई, और मैं बुद्ध के चरणों में न बैठ पाऊंगा। अभी ही नमस्कार कर लेता हूं। उस बच्चे के पैरों में सिर रखकर वह योगी चला गया।

जब कृष्ण कहते हैं, तो आमतौर से लोग भूल समझ लेते हैं। वे समझ लेते हैं कि अगर आज अधर्म होगा, दुष्ट होंगे, साधु कष्ट में होंगे, तो कृष्ण लौट आएंगे। कृष्ण नहीं लौटेंगे। जो भी लौटेगा, वही कृष्ण है। कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है। जहां भी कोई लौटेगा, वही कृष्ण है। लेकिन जब भी जरूरत होती है, अंधेरा घना होता है, तो कोई प्रकाश किरण लौट आती है। क्यों लौट आती है? करुणा के कारण। जरूरत हो तो ही लौटती है, अन्यथा कोई जरूरत नहीं।

आपके घर में कोई बीमार हो तो डाक्टर आता है, न हो तो कोई जरूरत नहीं। अंधेरा हो तो ठीक, अंधेरा न हो तो कोई जरूरत नहीं। अगर पिछली पीढ़ी में ऐसी आत्माएं मरी हों जो कि वासना से मुक्त हो गई हों, लेकिन पृथ्वी पर कोई जरूरत न हो, तो वे न लौटेंगी। लेकिन अगर जरूरत हो, तो लौट आ सकती हैं।

जरूरत सदा है। अब तक तो ऐसा कोई समय नहीं आया, जब जरूरत न रही हो। जरूरत सदा है। पृथ्वी सदा ही अंधेरे से भरी है। पृथ्वी सदा ही अधर्म से भरी है। लौटना ही पड़ता है। लेकिन लौटने का प्रयोजन स्वयं की कोई वासना नहीं है। लौटने का प्रयोजन दूसरों पर करुणा है।

इस करुणा के दो कारण उन्होंने कहे, असाधुओं के विनाश के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए; साधुओं के उद्धार के लिए। ये जरा कठिन हैं दोनों बातें। इन्हें थोड़ा-सा खयाल में ले लेना जरूरी है।

दुष्टों के विनाश के लिए! क्या दुष्टों की हत्या कर देंगे? मार डालेंगे दुष्टों को? तब तो खुद ही दुष्ट हो जाएंगे। फिर वह करुणा न हुई।

दुष्टों के विनाश का क्या अर्थ होता है? दुष्टों के विनाश का एक ही अर्थ होता है कि दुष्टों में दुष्टता न रह जाए, तो दुष्टों का विनाश हो जाता है। दुष्टों के विनाश का अर्थ यह नहीं कि तलवार से दो टुकड़े कर देंगे। क्योंकि तलवार से दो टुकड़े करने में दुष्ट का तो कुछ विनाश न होगा, जिसने विनाश किया वह भी दुष्ट हो जाएगा। दुष्ट के विनाश का क्या अर्थ है? दुष्ट के विनाश का अर्थ है, दुष्ट की दुष्टता खो जाए। दुष्टता मिट जाए, तो ही दुष्ट का विनाश हुआ।

साधुओं के उद्धार के लिए! यह और कठिन बात है। साधु का तो अर्थ ही यही है कि जिसके उद्धार की किसी को जरूरत न हो। साधु अगर अपना उद्धार न कर सके, तो साधु कैसा? दुष्ट न कर सके, समझ में आता है। कृष्ण कहें कि दुष्टों के उद्धार के लिए, चलेगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, दुष्टों के विनाश के लिए और साधुओं के उद्धार के लिए। तो साधारणतः हम सोचते हैं, शायद साधुओं को दुष्ट सताते होंगे, तो उनके उद्धार के लिए।

साधु बड़ा कमजोर है, अगर दुष्ट उसे सता पाए। असल में दुष्ट अगर साधु को सताए, तो दुष्ट को ही बदलना पड़ता है; साधु को नहीं बदलना पड़ता। दुष्ट साधु को सताकर अपनी ही बदलाहट के उपाय में लग रहा है। साधु को नहीं सता पाता।

साधु को दुनिया में कोई भी नहीं सता पाता। और अगर साधु को दुष्ट सता पाते हैं, तो साधु के नाम से दूसरे ढंग के दुष्ट ही बैठे होंगे, अन्यथा नहीं। साधु नहीं होंगे। साधु को सताने का उपाय नहीं है। इसलिए भी उपाय नहीं है कि साधु का मतलब ही यही है कि जिसे अब सताओ और चाहे सम्मान करो, दोनों बराबर हो गए। उसे सताओगे कैसे? उसे जूते की माला पहना दो कि फूल की माला पहना दो, वह दोनों के लिए धन्यवाद देकर अपने रास्ते पर चल पड़ेगा। साधु को सताने का उपाय नहीं है। जिसे हम नहीं सता सकते, वही साधु है।

फिर यह कृष्ण कहते हैं, साधु के उद्धार के लिए! और यह भी बड़े मजे की बात है कि जिस युग में साधु हों, उसमें भी दुष्टों को साधु न सुधार पाएं और कृष्ण को आना पड़े, तो साधु बिलकुल नपुंसक हैं, इम्पोटेंट हैं। फिर साधु किसलिए हैं?

नहीं; जिस युग में दुष्ट होते हैं, उस युग में साधु भी साधु नहीं होते। असल में दुष्टता से भरे हुए युग दुष्टों के युग होते हैं और पाखंडी साधुओं के युग होते हैं। साधु के उद्धार के लिए अर्थात पाखंड से उद्धार के लिए।

और मजा यह है कि दुष्ट का विनाश करना पड़ता है। क्योंकि दुष्टता कुछ है, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड कुछ है नहीं, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड से सिर्फ उद्धार किया जा सकता है। दुष्टता का विनाश किया जा सकता है। दुष्टता का पाजिटिव अर्थ है। पाखंड सिर्फ एक चेहरा है, जिससे उद्धार किया जा सकता है। जिसे उतारकर रख दिया नीचे, तो पीछे का आदमी प्रकट हो जाता है।

साधु के उद्धार के लिए और दुष्ट के विनाश के लिए! और जिस युग में साधु नहीं होते, उस युग में दुष्ट होते हैं। लेकिन साधु सदा होते हैं, तो फिर साधु पाखंडी होते हैं।

पाखंडी साधु के उद्धार के लिए! अन्यथा साधु अगर सच में साधु है, तो कृष्ण से कहेगा, क्षमा करें। आप कष्ट न करें, मैं उद्धार कर लूंगा। अपना उद्धार तो कर ही लूंगा। आपको नाहक कष्ट न दूंगा। आप क्यों परेशान होते हैं!

अगर साधु सच में साधु होगा, तो दुष्ट उसे दुश्मन नहीं मालूम पड़ेगा। दुष्ट उसे सताता हुआ भी मालूम नहीं पड़ेगा। लेकिन साधु के भीतर भी दुष्ट ही छिपा रहता है। फर्क, साधु और दुष्ट के बीच, चेहरों का होता है। और इस अर्थ में दुष्ट कहीं ज्यादा ईमानदार, और साधु कहीं ज्यादा बेईमान होता है।

बेईमानी से उद्धार करना पड़े। धर्म का जब विनाश होता है, तो साधु होंगे कहां? क्योंकि अगर साधु होंगे, तो धर्म का विनाश कैसे होगा? धर्म का विनाश तभी होता है, जब साधु नहीं होते। जब साधु नहीं होते, तभी धर्म का विनाश होता है। और जब धर्म का विनाश होता है, तभी अधर्म प्रभावी होता है।

मैं एक सभा में था। एक बड़े साधु करपात्री जी बोले। बोलने के बाद उन्होंने जनता से कुछ नारे लगवाए। उन्होंने पहला नारा लगवाया, धर्म की जय हो। तीन बार लोग चिल्लाए, धर्म की जय हो। फिर पीछे उन्होंने नारा लगवाया, अधर्म का नाश हो।

मैंने उनके साथ बैठे साधु से कहा, जब धर्म की जय हो गई, तो अधर्म बचेगा कैसे? धर्म की जय हो गई, अधर्म का नाश हो गया। यह तो ऐसे ही हुआ कि लोगों से हम कहें कि दीए जलाओ, और फिर कहें, अंधेरा हटाओ। दोनों बातें बेमानी हैं। दीया जल गया, तो बात खतम हो गई। जब धर्म की जय हो गई तीन बार, अब कृपा करके अधर्म का नाश मत करवाएं। अधर्म नाश हो गया। और अगर धर्म की जय से नाश नहीं हुआ, तो अधर्म के नाश के नारे लगाने से नाश होने वाला नहीं है।

धर्म नहीं होता, क्योंकि धर्म के लिए भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। धर्म को भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। वह जगह साधुओं के हृदय हैं। अगर साधु न हों, तो धर्म को पैर रखने की जगह नहीं मिलती। धर्म तब अटक जाता है, त्रिशंकु हो जाता है, आकाश में भटक जाता है।

धर्म को पैर रखने के लिए साधुओं के हृदय चाहिए, अधर्म को पैर रखने के लिए असाधुओं के हृदय चाहिए। अधर्म भी खड़ा नहीं हो सकता; अधर्म भी हमारे सहारे खड़ा होता है, हमारे सहारे प्रकट होता है। धर्म भी हमारे सहारे प्रकट होता है। साधु हों, तो धर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। असाधु हों, अधर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। और जब अधर्म होता है, दुष्ट होते हैं; साधु नहीं होते, धर्म नहीं होता; तो कृष्ण कहते हैं कि मैं, अर्थात कोई भी चेतना जो अपनी सब वासनाओं से मुक्त हो जाती है, लौट आती है करुणावश–साधुओं के उद्धार के लिए, असाधुओं के विनाश के लिए।

शेष कल सुबह हम बात करेंगे।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–3

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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन—(अध्याय 4)—तीसरा प्रवचन

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। 9।।

हे अर्जुन! मेरा यह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक है। इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है,

किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।

जीवन विपरीत ध्रुवों का संगम है, अपोजिट पोलेरेटीज का। यहां प्रत्येक चीज अपने विपरीत के साथ मौजूद है; अन्यथा संभव भी नहीं है। अंधेरा है, तो साथ में जुड़ा हुआ प्रकाश है। जन्म है, तो साथ में जुड़ी हुई मृत्यु है। जो विपरीत हैं, वे सदा साथ मौजूद हैं।

जो हमें दिखाई पड़ता है, वह लौकिक है। जो हमारी इंद्रियों की पकड़ में आता है, वह लौकिक है। जिसे हमारी आंख देखती और कान सुनते और हाथ स्पर्श करते हैं, वह लौकिक है। हमारी इंद्रियों के जगत का नाम लोक है। लेकिन इंद्रियों की पकड़ के बाहर भी कुछ सदा मौजूद है, वह अलौकिक है।

इंद्रियां जिसे नहीं पकड़तीं, हाथ जिसे स्पर्श नहीं कर पाते, वाणी जिसे प्रकट नहीं करती, मन जिसे समझ नहीं पाता, वह भी सदा मौजूद है; उस मौजूद का नाम अलौकिक है। वह लोक के साथ ही निरंतर उपस्थित है।

जो व्यक्ति इंद्रियों पर ही अपने को समाप्त कर लेता है, उसे अलौकिक का कोई संस्पर्श नहीं हो पाता। जो ऐसा मानकर बैठ जाता है कि इंद्रियां ही सब कुछ हैं, वह अलौकिक से वंचित रह जाता है।

कृष्ण कहते हैं, मेरा यह जीवन अलौकिक है।

जीवन सभी का अलौकिक है। जन्म और मृत्यु लौकिक है, जीवन अलौकिक है। शरीर में जीवन है, लेकिन शरीर जीवन नहीं है। फूल में सौंदर्य है, लेकिन सौंदर्य फूल नहीं है। दीए में ज्योति है, लेकिन ज्योति दीया नहीं है। यद्यपि ज्योति दीए के बिना प्रकट न हो सकेगी; इंद्रियों की पकड़ में न आ सकेगी। सौंदर्य फूल के बिना तिरोहित हो जाएगा, खोजे से भी मिलेगा नहीं।

जीवन भी जन्म और मृत्यु के दो तटों के बीच बहती हुई धारा है। दोनों तट न होंगे, धारा दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। लेकिन फिर भी स्मरण रखें, तट धारा नहीं है। और ऐसा भी हो सकता है कि धारा सूख जाए; तट बने रहें और धारा न हो। तट बिना धारा के भी हो सकते हैं। तट स्थूल हैं, दिखाई पड़ते हैं; धारा सूक्ष्म है, अगर तट न हों तो दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी।

जीवन सभी का अलौकिक है, लेकिन कृष्ण जोर देकर कहते हैं, मेरा जीवन अलौकिक है। इस जोर का कारण क्या है? इस जोर के दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि दूसरों का जीवन अलौकिक नहीं है, कृष्ण का जीवन अलौकिक है; ऐसा जो अर्थ लेंगे, वे भूल में पड़ेंगे। जीवन तो सभी का अलौकिक है, कृष्ण का ही नहीं। फिर कृष्ण क्यों जोर देकर कहते हैं कि मेरा जीवन अलौकिक है?

वे इसलिए जोर देकर कहते हैं कि जिस दिन कोई अपने भीतर के अलौकिक जीवन को जानेगा, उस दिन वह मुझसे भिन्न नहीं रह जाता; वह मुझसे एक ही हो जाता है। उस दिन से उसका जीवन उसका नहीं रह जाता, परमात्मा का ही हो जाता है। मेरा जीवन अलौकिक है, ऐसा जानते ही, जीवन मेरा नहीं रह जाता। इस तथ्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

जैसे ही बूंद ने जाना कि वह सागर है, वैसे ही बूंद बूंद नहीं रह जाती; सागर ही हो जाती है। जैसे ही व्यक्ति ने जाना कि मेरे भीतर कुछ असीम भी मौजूद है, वैसे ही वह व्यक्ति नहीं रह जाता, असीम हो जाता है।

यहां कृष्ण उस असीम की तरफ से ही कहते हैं कि मेरा जीवन अलौकिक है। इसलिए जो भी इस अलौकिक का दर्शन कर लेता है, वह मुझे उपलब्ध हो जाता है। इसलिए वे कहते हैं, मरकर वह व्यक्ति नए जन्म को नहीं उपलब्ध होता, वह मुझे उपलब्ध हो जाता है।

जन्म का अर्थ है, बूंद अभी अपने को बूंद ही मानती है; बूंद अभी अपने को सीमा में बंधा हुआ मानती है। न जन्म होने का अर्थ है कि बूंद ने अब सीमाओं के बाहर अतिक्रमण किया, ट्रांसेंडेंस हुआ। अब बूंद अपने को बूंद नहीं मानती; अब बूंद अपने को सागर ही जानती है।

कृष्ण कहते हैं, जो भी अलौकिक जीवन के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है, वह फिर मुझे ही उपलब्ध हो जाता है। फिर उसका जन्म नहीं होता; फिर उसका जीवन ही होता है।

जन्म और मृत्यु का भ्रम जिन्हें है, उन्हें जीवन का अनुभव नहीं है। जिन्हें जीवन का अनुभव है, उन्हें जन्म और मृत्यु का भ्रम नहीं है। जब तक हमें लगता है, मैं जन्मा और मैं मरा, तब तक मुझे उसका पता नहीं चलेगा, जो जन्म और मृत्यु के तट के बीच अदृश्य बहता था, जो जीवन था। मुझे किनारों का पता है, बीच की धारा का कोई भी पता नहीं है। इन दोनों किनारों के बीच में तीसरी चीज भी थी; जीवन भी था। जन्म से शुरू हुआ, मृत्यु से तिरोहित हुआ, लेकिन इन दोनों के बीच में जीवन भी था। वह जीवन, उसका हमें कोई पता नहीं है, वह अलौकिक है।

अलौकिक का अर्थ यह हुआ, इंद्रियों से पकड़ में आने योग्य नहीं है। अलौकिक का अर्थ यह हुआ कि पदार्थ को जिस भांति हम जानते हैं, उस भांति उसे जानने का उपाय नहीं है।

पत्थर को मुझे हाथ में उठाकर देखना है, तो मैं स्पर्श करके देख सकता हूं। आपको अगर मुझे देखना है, तो आपके शरीर के स्पर्श से मैं आपको नहीं जानता; केवल आपके गृह को, आपके घर को जानता हूं। आप भीतर अछूते, अनटच्ड छूट जाते हैं। शरीर छू जाता है, आपको नहीं छू पाता हूं। स्पर्श की सीमा है; वह पदार्थ के पार नहीं जाती।

इसलिए विज्ञान कठिनाई में पड़ गया है। क्योंकि विज्ञान का खयाल है, जो इंद्रियों के भीतर है, वही रियलिटी है, वही यथार्थ है; जो इंद्रियों के भीतर नहीं है, वह यथार्थ नहीं है। लेकिन अब विज्ञान को रोज-रोज उन चीजों का पता चल रहा है, जो इंद्रियों की सीमा के भीतर नहीं हैं।

जैसे आज तक किसी ने भी इलेक्ट्रिसिटी नहीं देखी। आप कहेंगे, हम रोज देखते हैं। घर हमारे बल्ब जलता है, पंखा चलता है, रेडियो बजता है; हम रोज देखते हैं। लेकिन जो आप देख रहे हैं, वह सिर्फ परिणाम है, विद्युत नहीं है। वह सिर्फ कांसिक्वेंस है, रिजल्ट है, काज़ नहीं है। आप जो देख रहे हैं, वह विद्युत का परिणाम है, काम है; विद्युत नहीं है। जब आप बल्ब को फोड़ देते हैं, तो विद्युत नहीं फूटती, सिर्फ विद्युत को प्रकट करने वाला उपकरण टूट जाता है, इंस्ट्रूमेंट टूट जाता है; विद्युत नहीं टूट जाती। आप बिजली के तार को काट देते हैं, तब बिजली नहीं कटती; सिर्फ बिजली का तार कटता है, जिससे बिजली बहती थी। जब आप बिजली के तार को पकड़ लेते हैं, तो जो झटका, जो शॉक आपको लगता है, वह भी बिजली नहीं है; वह भी बिजली का परिणाम है। हम सिर्फ बिजली का परिणाम जानते हैं, बिजली को नहीं जानते; वह अदृश्य है।

अगर हम जीवन को इसी तरह खोजें, तो हम पाएंगे कि हम सिर्फ परिणाम जानते हैं। मूल कारण भीतर अदृश्य रह जाता है। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, शाखाएं दिखाई पड़ती हैं। जड़ें अदृश्य में रह जाती हैं। उस अदृश्य का नाम अलौकिक है।

इस अलौकिक को जो पुरुष जान लेता है, कृष्ण कहते हैं, वह फिर शरीर में जन्म नहीं लेता। क्योंकि वह विराट शरीर के साथ एक हो जाता है। फिर उसे छोटे-छोटे शरीरों में जन्म लेने की जरूरत नहीं रह जाती। फिर वह मेरे साथ ही एक हो जाता है। यहां जब कहते हैं कृष्ण, मेरे साथ, तो उसका अर्थ है अस्तित्व के साथ। वन विद दि एक्झिस्टेंस; वह जो समस्त अस्तित्व है, उसके साथ एक हो जाता है। फिर उसे अलग-अलग छोटे-छोटे घर बनाने की जरूरत नहीं पड़ती।

बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो ज्ञान की घड़ी के बाद आनंदमग्न हो उन्होंने जोर से कहा, मेरे मन! मेरे अहंकार! अब तक तुझे मेरे लिए छोटे-छोटे घर बनाने पड़े; लेकिन अब तुझे मैं काम से मुक्त करता हूं। अब तुझे मेरे लिए छोटे-छोटे घर न बनाने पड़ेंगे।

कृष्ण उसी का दूसरा हिस्सा कह रहे हैं। कह रहे हैं, छोटे घर इसलिए नहीं बनाने पड़ेंगे कि घर नहीं रहेगा; छोटे घर इसलिए नहीं बनाने पड़ेंगे कि सारा विश्व, सारा अस्तित्व, वैसी चेतना का घर हो जाता है। फिर छोटे की जरूरत नहीं रह जाती।

स्वभावतः, जिसे हीरे मिल जाएं, वह कंकड़-पत्थर मुट्ठी से छोड़ देता है; और जिसे महल मिल जाएं, वह झोपड़ियों को भूल जाता है। जिसे अलौकिक का दर्शन हो जाए, लौकिक कंकड़-पत्थर जैसा हो जाता है; फिर उसमें प्रवेश की आकांक्षा नहीं रह जाती।

यहां कृष्ण का यह जोर कि मेरा जीवन दिव्य और अलौकिक है, इस बात का ही जोर है कि जीवन दिव्य और अलौकिक है। यहां कृष्ण जीवन के प्रतिनिधि की तरह बोलते हैं। और इससे बड़ी भ्रांति होती है। उनकी भी मजबूरी है।

जीसस भी इसी तरह बोलते हैं, और इसीलिए जीसस को सूली पर लटका दिया। क्योंकि समझने वालों ने समझा कि यह तो गलत बात बोलते हैं। जीसस ने कहा कि वह परमात्मा जो आकाश में है और मैं, हम दोनों एक हैं। लोगों ने कहा, यह तो कुफ्र हो गया, यह आदमी तो काफिर मालूम होता है! परमात्मा के साथ अपने को एक बताता है! यह तो बड़ा अहंकारी मालूम होता है।

नहीं; वे नहीं समझ सके, नहीं समझ पाए।

जब जीसस ने कहा कि मैं और परमात्मा एक है, तो जीसस यही कह रहे हैं कि मैं अब कहां हूं? परमात्मा ही है। सूली पर लटका दिया लोगों ने। सूली पर लटके आखिरी क्षण में जीसस ने कहा, हे प्रभु! इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं! क्या कर रहे हैं, यह तो जानते ही नहीं; क्या समझ रहे हैं, यह भी नहीं जानते। गलत ही समझ रहे हैं।

कृष्ण को हमने सूली नहीं लगाई; उसका कारण था। कृष्ण के पीछे कोई पांच-दस हजार साल की ऐसे लोगों की परंपरा थी, जिन्होंने बहुत बार यह कहा था कि हम परमात्मा हैं। हम इसे सुनने के आदी हो गए थे। जीसस ने पहली दफा, पहली दफा यहूदी जगत में घोषणा की कि मैं और परमात्मा एक हैं। लोगों की बर्दाश्त के बाहर हो गया। ऐसा नहीं कि हम समझ गए कृष्ण की बात, हम भी नहीं समझे। हमने नासमझी और तरह की की। जीसस को सुनने वालों ने नासमझी और तरह की की।

जीसस को सुनने वालों ने पहली दफा यह बात सुनी कि कोई आदमी कहता है, मैं परमात्मा हूं, मैं दिव्य हूं, मैं डिवाइन हूं। उन्होंने कहा, यह तो ज्यादती हो गई! यह आदमी अहंकारी है, सूली पर लटका दो!

हमने बहुत बार यह बात सुनी थी। उपनिषद कह गए थे; वेद कह गए थे; कृष्ण की बात हमें नई नहीं थी। लेकिन हमने भी भूल की। हमने कहा, यह आदमी भगवान है; इसकी पूजा करो।

सूली पर लटकाओ या पूजा करो, दोनों में ही भूल हो गई। उन्होंने भूल की कि यह आदमी अपने को भगवान कह रहा है, सूली पर लगा दो। हमने भूल की कि यह आदमी अपने को भगवान कहता है, पूजा करो। हम दोनों नहीं समझे।

जीसस का भी मतलब यही था कि जिस दिन तुम भी जानोगे कि तुम कौन हो, तब तुम जानोगे कि तुम भी परमात्मा हो। और कृष्ण का भी मतलब यही है कि अगर तुम खोजोगे, झांकोगे भीतर, तो पाओगे कि तुम भी परमात्मा हो। मैं तुम्हारी संभावनाओं की आहट हूं। मैं तुम्हारी संभावनाओं की सूचना हूं। मैं तुम्हारी पोटेंशियलिटीज की तरफ से बोलता हूं। तुम जो हो सकते हो, मैं उसका प्रतिनिधि हूं।

इस बात को ठीक से समझ लें। कृष्ण कहते हैं, तुम जो हो सकते हो, मैं उसका प्रतिनिधि हूं। तुम जो हो सकते हो, वह मैं हो गया हूं। तुम जो कल होओगे, वह मैं आज हूं। मैं तुम्हारा कल हूं। मैं तुम्हारा भविष्य हूं। मैं तुम्हारे भविष्य की तरफ से बोलता हूं।

लेकिन यह हम न समझे। हम समझे कि कृष्ण कह रहे हैं, वे भगवान हैं; ठीक है; पूजा करो। हम यह न समझे कि वे हमारे भविष्य के प्रतिनिधि हैं, वे हमारी तरफ से बोल रहे हैं। जो हमारे बीज में छिपा है, वह उनका वृक्ष हो गया है। जो हमारे भीतर अभी अप्रगट है, वह उनके भीतर प्रगट हो गया है। जो अभी हम नहीं जानते अपने ही खजाने को, वह उन्होंने जान लिया है। वे हमारे सारे भविष्य, हमारी सारी संभावनाओं की आवाज हैं।

हमने पूजा की; हम भी गलत समझे। जीसस को सूली लगाई; वे भी गलत समझे। मंसूर को मुसलमानों ने काट डाला; वे भी न समझे। क्योंकि मंसूर ने कहा, अनलहक! मैं ही ब्रह्म हूं। लोगों ने कहा, यह तो ज्यादती है; यह आदमी अहंकारी है।

हमने आज तक दुनिया में दो तरह की भूलें की हैं। न समझे, तो सूली लगा दी। न समझे, तो पूजा कर ली। पूजा में हम सिंहासन पर बिठा देते हैं और दूर कर देते हैं। सूली पर हम सूली पर लटका देते हैं और दूर कर देते हैं। लेकिन दोनों हालत में हम यह बात मानने को राजी नहीं होते कि यह आदमी हमारे भीतर की छिपी हुई संभावनाओं की आवाज है।

इसलिए कृष्ण दूसरे ही वचन में कहते हैं कि जो यह अनुभव कर लेगा, फिर उसे जन्म की जरूरत नहीं; वह फिर मुझको उपलब्ध हो जाता है।

बड़ी कठिनाई है। उनकी कठिनाई भी है। आदमी के पास जो भाषा है, उसी भाषा में बोलना पड़ता है। उस भाषा में मैं के बिना बोले काम नहीं चल सकता, या फिर हमारी समझ में कुछ भी न आएगा।

अगर परमात्मा भी जमीन पर उतरकर खड़ा हो, तो भी हमारी भाषा में ही उसे बोलना पड़ेगा। अगर वह अपनी भाषा में बोलेगा, तो हमें पागल मालूम पड़ेगा। उसे हमारी भाषा में ही बोलना पड़ेगा।

और मजा यह है कि हमारी भाषा में बोले, तो भी हम नहीं समझ पाते; अपनी भाषा में बोले, तो भी नहीं समझ सकते। हमारी भाषा में भी बोले, तो भी हम नहीं समझ पाते; लेकिन अपनी भाषा में बोले, तब तो हम बिलकुल ही न समझ पाएंगे। हमारी भाषा में बोले, तो कम से कम हम नासमझी कर पाते हैं। वह भी समझने का एक गलत ढंग है। लेकिन कोई शायद समझ ले, इसलिए कृष्ण हमारी भाषा में बोलते हैं, मैं का प्रयोग करते हैं।

कृष्ण जैसे व्यक्तियों के भीतर मैं बचता नहीं। बचे, तो गीता बेकार है; फिर गीता पैदा नहीं हो सकती। लेकिन कृष्ण बार-बार मैं शब्द का प्रयोग करते हैं।

हमारी भी कठिनाई है। जब वे मैं का प्रयोग करते हैं, तो हम समझते हैं, जिस भांति हम मैं का प्रयोग करते हैं, उसी भांति वे भी करते होंगे। हमारे और उनके प्रयोग में बिलकुल ही कोई साम्य नहीं है।

कृष्ण जब कहते हैं मैं, तो उनके मैं में सब तू समाए हुए हैं। और जब हम कहते हैं मैं, तो हमारे मैं में सब तू अलग हैं, बाहर हैं; कोई भी समाया हुआ नहीं है। कृष्ण के मैं में तू इनक्लूसिव है। हमारे मैं में तू एक्सक्लूसिव है, बाहर है।

हम जब बोलते हैं मैं, तो हम तू से फासला बताने के लिए बोलते हैं। कृष्ण जब बोलते हैं मैं, तो वे तू को ढांक लेने के लिए बोलते हैं। लेकिन यह हमारे खयाल में नहीं आ सकता।

उनका मैं इतना बड़ा है कि उस मैं के बाहर और कोई भी नहीं। और हमारा मैं इतना छोटा है कि उस मैं के भीतर हमारे सिवाय और कोई भी नहीं। इस फर्क को खयाल में रखेंगे, तो बार-बार उनके मैं का प्रयोग ठीक से समझ में आ सकता है।

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।। 11।।

और हे अर्जुन! पहले भी राग, भय और क्रोध से रहित, अनन्य भाव से मेरे में स्थित रहने वाले, मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष, ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।

और पहले भी राग के ऊपर उठे, क्रोध से मुक्त हुए, मोह के पाश के बाहर, तप से पवित्र हुए पुरुष मेरे शरीर को उपलब्ध हो चुके हैं!

राग के पार हुए, वीतराग हुए। वीतराग शब्द गहरा है और बहुत अर्थपूर्ण है। वीतराग का अर्थ वैराग्य नहीं है। वीतराग का अर्थ विराग नहीं है। विराग का अर्थ है, राग के विपरीत हुआ। वीतराग का अर्थ है, राग के पार हुआ।

राग का अर्थ है, एक आदमी धन के पीछे पागल है। धन को पकड़ता है। धन देखता है, तो लार टपक-टपक जाती है। रात-दिन गिनता ही रहता है! विराग का अर्थ है, धन के विपरीत हुआ; धन से भागता है। कोई धन उसके सामने करे, तो आंख फेर लेता है। कोई रुपया उसके पास रखे, तो छलांग लगाकर खड़ा हो जाता है।

राग धन को पकड़ता है, विराग धन को छोड़ता है। विराग, विपरीत राग है; उलटा हुआ राग है। राग स्त्री के पीछे दौड़ता, पुरुष के पीछे दौड़ता; विराग स्त्री से भागता, पुरुष से भागता; लेकिन दोनों का केंद्र एक ही है। हां, कोई उसकी तरफ भागता, कोई उससे पीठ करके भागता, लेकिन वही दोनों के ध्यान में है। दोनों की अटेंशन, दोनों की एकाग्रता वही है। दोनों की एकाग्रता में भेद नहीं है।

जो आदमी स्त्री के पीछे भागता, उस आदमी की एकाग्रता, और जो आदमी स्त्री को छोड़कर भागता, उस आदमी की एकाग्रता में भेद नहीं है। उनका कनसनट्रेशन एक है–स्त्री। जो आदमी स्त्री के लिए पागल है, उसके मन में भी स्त्री के चित्र चलते हैं। या जो स्त्री आदमी के लिए पागल है, उसके मन में पुरुष के चित्र चलते हैं। और जो छोड़कर भागता है, विपरीत रूप से पागल हो जाता है, उसके मन में भी चित्र चलते हैं।

वीतराग का अर्थ है, पार हुआ। वीतराग तीसरी बात है। न राग, न विराग। जो राग और विराग दोनों के पार होता है, वह वीतराग है। जिसके लिए बात बस व्यर्थ हो जाती है।

ध्यान रहे, जो आदमी कहता है, मैं धन का त्याग कर रहा हूं, धन उसे व्यर्थ नहीं हुआ; धन उसे अभी भी सार्थक है। जो आदमी कहता है, मैं लाखों त्याग किया हूं, उसके लिए भी व्यर्थ नहीं हुआ; अभी उसके लिए भी धन सार्थक है, मीनिंगफुल है। हां, मीनिंग बदल गया, अर्थ बदल गया। पहले तिजोरी में बंद करने का अर्थ था, अब त्याग करने का अर्थ है; लेकिन अर्थ है। जो आदमी तिजोरी में बंद कर रहा था, वह भी कह रहा था, मेरे पास इतने लाख हैं; और जिस आदमी ने त्याग किया, वह भी कह रहा है, मैंने इतने लाख का त्याग किया। लेकिन धन दोनों के लिए मूल्यवान है, वेल्युएबल है।

वीतराग वह है, जो कहता है, धन में कुछ अर्थ ही नहीं। न मैं तिजोरी में बंद करता, न मैं त्यागता। धन में कुछ अर्थ नहीं। जिसके लिए धन बस मिट्टी जैसा हो गया। जिसके लिए धन मिट्टी जैसा हो गया, वह त्याग के अहंकार से भी नहीं भरता है।

बड़ी मीठी कथा है, याज्ञवल्क्य घर छोड़कर जाने लगा। उसकी दो पत्नियां हैं, कात्यायिनी और मैत्रेयी। उसने उन दोनों को बुलाकर कहा कि मेरी धन-संपदा आधी-आधी बांट देता हूं। मैं जाता हूं अब त्याग करके। अब मैं प्रभु की खोज में निकलता हूं।

मैत्रेयी राजी हो गई; साधारण स्त्री थी। साधारण स्त्री का मतलब, जिसे पति भी इसीलिए मूल्यवान होता है कि उसके पास संपत्ति है। ठीक है, पति जाता है, संपत्ति दे जाता है–कुछ भी नहीं जाता। मैत्रेयी राजी हो गई। वह ठीक स्त्री थी।

लेकिन कात्यायिनी ने एक सवाल उठाया। वह साधारण स्त्री न थी। कात्यायिनी ने कहा कि जो धन तुम्हें व्यर्थ हो गया, तो तुम मुझे किसलिए दे जाते हो? अगर व्यर्थ है, तो बोझ मुझे मत दे जाओ। और अगर सार्थक है, तो तुम भी छोड़कर क्यों जाते हो?

कात्यायिनी ने बड़ा ठीक सवाल उठाया। अगर व्यर्थ है, राख है, धूल है, तो मुझे देकर इतने गौरवान्वित क्यों होते हो? अगर सार्थक है, तो छोड़कर कहां जाते हो? रुको! अगर सार्थक है, तो हम साथ-साथ भोगें। और अगर व्यर्थ है, तो मुझे भी उसी धन की खबर दो, जो सार्थक है, जिसकी खोज में तुम जाते हो।

याज्ञवल्क्य मुश्किल में पड़ गया होगा। अभी याज्ञवल्क्य सिर्फ विराग में जा रहा था। कात्यायिनी ने उसे वीतराग के डायमेंशन में, वीतराग के आयाम में उन्मुख किया। अभी उसे सार्थक था धन, इसीलिए तो बांटने को उत्सुक था। अभी कुछ न कुछ अर्थ था उसे धन में। छोड़ता था जरूर, लेकिन सार्थक था। अभी वह विराग की दिशा में मुड़ता था। लेकिन कात्यायिनी ने उसे एक नई दिशा में, एक नए आयाम का इशारा किया। उसने कहा कि छोड़कर जाते हो, देकर जाते हो, गौरवान्वित हो कि काफी दे जा रहे हो, तो फिर तुम छोड़कर जाते नहीं। धन तुम्हें सार्थक है; धन तुम्हें पकड़े ही हुए है!

कृष्ण कहते हैं, जो राग के पार हो जाता है–बियांड। वीतराग का अर्थ है, बियांड अटैचमेंट; डिटैचमेंट नहीं। वीतराग का अर्थ है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त विपरीत आसक्ति में होता है, पार नहीं होता। वह एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर चला जाता है; दोनों ध्रुव के पार नहीं होता। वह एक द्वंद्व के छोर से द्वंद्व के दूसरे छोर पर सरक जाता है, लेकिन द्वंद्वातीत नहीं होता।

कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। वीतराग, वीतभय, वीतक्रोध; जो इन सबके पार हो जाता है। वीतलोभ। वह तीसरा ही आयाम है। थर्ड डायमेंशन है।

तीन आयाम हैं जगत में। किसी चीज के प्रति राग, अर्थात उसे पास रखने की इच्छा। किसी चीज के प्रति विराग, अर्थात उसे पास न रखने की इच्छा। और किसी चीज के प्रति वीतराग, अर्थात वह पास हो या दूर, अर्थहीन; उससे भेद नहीं पड़ता।

बुद्ध ने कहा है, राग का अर्थ है, प्रियजन घर आता, सुख मालूम पड़ता। अप्रियजन घर आ जाता, तो दुख मालूम पड़ता। मित्र घर से जाता, तो दुख मालूम पड़ता। शत्रु घर से जाता, तो सुख मालूम पड़ता। शत्रु के प्रति तो सभी विरागी होते हैं; मित्र के प्रति सभी रागी होते हैं।

वीतराग का अर्थ है, जिसका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु। वीतराग का अर्थ है, जिसका चित्त किसी भी चीज से, किसी भी कारण से बंधा हुआ नहीं है। मित्रता से भी बंधा हुआ नहीं; शत्रुता से भी बंधा हुआ नहीं।

और ध्यान रहे, मित्र भी बांध लेते हैं और शत्रु भी बांध लेते हैं। मित्रों की भी याद आती है, शत्रुओं की भी याद आती है। सच तो यह है, शत्रुओं की थोड़ी ज्यादा आती है। मित्रों को भूलना आसान; शत्रुओं को भूलना कठिन है। राग को भूलना आसान; विराग को भूलना कठिन है, बहुत कठिन है। प्रेम को भूलना आसान; घृणा को भूलना कठिन है। शत्रु पीछा करते हैं, छाया की भांति पीछे होते हैं और बदला लेते हैं। सब विराग बदला लेता है।

इसलिए एक बहुत अदभुत घटना घटती है मनुष्य के मन में। और वह घटना यह घटती है कि जो धन को पकड़ते हैं, वे कभी-कभी इंटरवल्स में, बीच-बीच में छुट्टी भी लेते हैं। बीच-बीच में उनका मन आता है, छोड़ो सब; कुछ सार नहीं है। तेईस घंटे दुकान पर होते हैं; कभी घंटेभर मंदिर भी हो आते हैं।

लेकिन ध्यान रहे, इससे उलटी घटना भी घटती है। जो चौबीस घंटे मंदिर में रहता है, उसका मन भी घंटे दो घंटे को बाजार में आ जाता है। वह भी छुट्टी लेता है। भला हिम्मत न हो, खुद न आ पाता हो, लेकिन मन आ जाता है।

विरागी भी छुट्टी पर होते हैं। चौबीस घंटे विरागी होना मुश्किल है। चौबीस घंटे रागी होना मुश्किल है। क्योंकि मन थक जाता है, ऊब जाता है एक ही चीज से। इसलिए जो रागी हैं, वे अक्सर विराग के सपने देखते हैं; और जो विरागी हैं, वे राग के सपने देखते हैं। जो रागी हैं, वे कई बार सोचते हैं, सब छोड़-छाड़कर चले जाएं; सब बेकार है। जो विरागी हैं, वे कई बार सोचते हैं कि बड़ी मुश्किल में पड़ गए; नाहक छोड़-छाड़कर आ गए। इसमें कुछ सार नहीं है, इस छोड़ने-छाड़ने में कुछ अर्थ नहीं है।

मन द्वंद्वों में डोलता रहता है। विश्राम चाहता है मन। इसलिए बुरे आदमियों के भी अच्छे क्षण होते हैं, और अच्छे आदमियों के भी बुरे क्षण होते हैं। ऐसा बुरा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके अच्छे क्षण न होते हों। और कभी-कभी बुरे आदमी अच्छे क्षणों में साधुओं को पार कर जाते हैं। और अच्छे आदमी भी खोजने मुश्किल हैं, जिनके बुरे क्षण न होते हों। और अच्छे आदमी भी, जब उनके बुरे क्षण होते हैं, तो असाधुओं को पार कर जाते हैं।

उसका कारण है। क्योंकि जो आदमी तेईस घंटे कोशिश करके अच्छा है, जब वह एक घंटे बुरा होगा, तो साधारण बुरा नहीं होगा। तेईस घंटे का बदला एक घंटे में चुकाना पड़ेगा। और जो आदमी तेईस घंटे बुरा है, वह जब एक घंटे के लिए अच्छा होगा, तो साधारण अच्छा नहीं होगा; अतिशय अच्छा हो जाएगा। तेईस घंटे की रुकी हुई अच्छाई बदला मांगती है।

कृष्ण इन दोनों की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, वीतराग। वीतराग को कभी छुट्टी नहीं लेनी पड़ती है, क्योंकि वीतराग द्वंद्व में नहीं होता। इसलिए सिर्फ वीतरागी पुरुष चौबीस घंटा एक-रस हो सकता है; न रागी हो सकता है, न विरागी हो सकता है। सिर्फ वीतराग एक-रस हो सकता है।

वीतराग ऐसा होता है, जैसे हम सागर को कहीं से भी चखें, और वह नमकीन है। बस, ऐसा वीतरागी होता है; उसे हम कहीं से भी चखें, वह एक ही स्वाद है उसका। वह वेश्या के गृह में बैठकर भी वही होता है, जो प्रभु के मंदिर में बैठकर होता है। वह वेश्यागृह से भी नहीं डरता, मंदिर के लिए भी लोलुप नहीं होता। असल में इतना आश्वस्त होता है अपने में कि अब उसका न कोई भय है, न कोई लोभ है। इतना आश्वस्त, अपने में इतना भरोसे से भरा हुआ कि छुट्टी का उसे डर ही नहीं है।

एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध के एक भिक्षु को, गांव में गया था, एक वेश्या ने निमंत्रण दे दिया। और कहा कि इस वर्षाकाल में भिक्षु, मेरे ही घर चार महीने रुक जाओ! साधारण भिक्षु होता, विरागी होता, दुबारा लौटकर उस घर के सामने न जाता। वेश्या ने सोचा था कि भिक्षु इनकार कर देगा। कहेगा, तू वेश्या! और मैं तेरे घर रुकूं? नहीं; यह नहीं हो सकता। कहां भिक्षु, कहां संन्यासी, कहां वेश्या का घर!

उस भिक्षु ने कहा, आ जाऊंगा, लेकिन बुद्ध से आज्ञा लेनी पड़ेगी। तो मैं कल आज्ञा लेकर जवाब दे दूंगा। उस वेश्या ने कहा, और अगर बुद्ध ने आज्ञा न दी? उस भिक्षु ने कहा, इतना आश्वस्त हूं अपने प्रति कि बुद्ध इनकार नहीं करेंगे। कहा, इतना आश्वस्त हूं अपने प्रति कि बुद्ध इनकार न करेंगे, बुद्ध मुझे जानते हैं। मंदिर और वेश्यागृह में मेरा स्वाद एक ही रहेगा। उसका भय न कर। नियम है, इसलिए आज्ञा मांगनी जरूरी है, अन्यथा कोई जरूरत नहीं है; मैं भी रुक जा सकता हूं।

दूसरे दिन भिक्षुओं के बीच उस भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि एक बहुत मजेदार घटना घट गई। राह पर जाता था, एक वेश्या ने निमंत्रण दिया कि चार महीने वर्षाकाल, आने वाले वर्षाकाल में उसके घर मेहमान बनूं। आज्ञा मांगता हूं। बुद्ध ने कहा, आज्ञा मांगने की क्या जरूरत? जो संन्यासी वेश्या से डर जाए, वह संन्यासी ही नहीं है। जाओ! जब उसने निमंत्रण दिया, तो विश्राम करो। चार महीने वहीं रुको।

अनेक भिक्षुओं के प्राणों में लहरें दौड़ गईं। सुंदरी थी बहुत वेश्या। सारे भिक्षुओं की नजर उस पर थी। गांव में गुजरते थे, तो किसी न किसी बहाने उस रास्ते जरूर निकल जाते थे; उस रास्ते पर भिक्षा जरूर मांग लेते थे। कौंध गई होंगी बिजलियां। मुश्किल खड़ी हो गई।

एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि यह तो अनुचित है, संन्यासी का और वेश्या के घर में रुकना! और आप आज्ञा देते हैं?

बुद्ध ने कहा, अगर तुम आज्ञा मांगो, तो नहीं दूंगा। क्योंकि संन्यासी और वेश्या से डरे, तो फिर वेश्या जीत गई, फिर हम हार गए। यह तो चुनौती है; चैलेंज है। एक वेश्या ने निमंत्रण दिया और वेश्या नहीं डरती कि संन्यासी उसे बदल लेगा और संन्यासी डरे कि वेश्या उसे बदल लेगी, तो हम हार गए। तुम्हें आज्ञा न दूंगा। लेकिन जिसने आज्ञा मांगी है, उसने कहा कि बड़ी मजेदार घटना घट गई है, एक वेश्या ने निमंत्रण दिया है। उसे आज्ञा है। वह अपने प्रति आश्वस्त है।

चार महीने वह भिक्षु वेश्या के घर था। वेश्या जैसा भोजन कराती, वैसा भोजन कर लेता। वेश्या भी बहुत चिंतित हुई। नाचने लगती, तो नाच देख लेता। गीत गाने लगती, तो गीत सुन लेता। वेश्या बहुत चिंतित हुई। सब उपाय उसने किए। अर्धनग्न होकर नाचती, तो भी देखता रहता। बहुत मुश्किल में पड़ी।

एक महीना बीता, दो महीने बीते। वेश्या सब तरह की कोशिश करके थक गई; लेकिन न तो उस भिक्षु ने कोई रस लिया, और न विरस प्रकट किया। न तो उसने यह कहा कि सुंदर; खूब। न तो उसने वाह-वाह की; न उसने यह कहा कि बंद करो, बेकार है, हमें ठीक नहीं लगता; आंख बंद की। नहीं, यह भी नहीं किया। नाचती, तो देखता। न नाचती, तो कभी यह भी न कहता कि आज नाचो! आज नाचोगी नहीं? बस, घर में ऐसा रहा, जैसे हो ही न।

दो महीने बीत गए, वेश्या उसके पैरों पर गिर गई और उसने कहा कि मुझे राज बताओ। तुम तो कंपते ही नहीं! यहां न वहां। अगर तुम विपरीतता भी दिखाओ, तो मैं कुछ कोशिश करूं। अगर तुम यह भी कहो कि यह गलत है, तो भी कुछ रास्ता बने। तुम कुछ तो कहो। तुम कोई वक्तव्य तो दो! तुम कोई निर्णय तो लो। तुम इस पक्ष में या उस पक्ष में कुछ भी तो कहो

उस भिक्षु ने कहा, पक्ष में गया कि तू जीती और मैं हारा। हम निष्पक्ष ही रहेंगे। तुझे जो करना है, तू कर; हमें जो करना है, हम करते हैं। जब तू हमारे बाबत कोई पक्ष और विपक्ष नहीं लेती, हम क्यों लें?

चार महीने बीत गए। भिक्षुओं में तो बड़ी बेचैनी थी। न मालूम कितनी खबरें भिक्षु लेकर बुद्ध के पास आते। कोई खबर लाता कि गया वह आदमी। हमने नाचते देखा है कि वह वेश्या नाच रही है और वह देख रहा है! कोई कहता कि सुना आपने! वेश्या उसे बहुत ही मिष्ठान्न खिला रही है और वह खा रहा है! कोई कहता, सुना आपने! वेश्या ने उसे रेशम के वस्त्र दे दिए हैं और वह पहने हुए है! कोई कहता, सुना आपने! सब नियम, सब मर्यादाएं टूट गई हैं।

बुद्ध सुनते और कहते कि ठीक है। लेकिन तुम चिंतित क्यों हो? तुम उस भिक्षु में उत्सुक हो या उस वेश्या में? और डूबेगा वह, तो वह डूबेगा; तुम्हारी परेशानी क्या है? खोएगा, तो वह खोएगा; तुम इतने आतुर क्यों हो?

चार महीने बाद वह भिक्षु आया, लेकिन अकेला नहीं था। साथ में एक भिक्षुणी भी थी; वह वेश्या भिक्षुणी हो गई थी। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा कि देखो! भिक्षु लौट आया, साथ में एक भिक्षुणी भी लौट आई है। वेश्या से पूछा कि तुझे क्या हुआ? उसने कहा, हुआ कुछ भी नहीं; मैं हार गई। पहली बार मैं कहीं हारी। सदा मैं जीतती रही; अब मैं हार गई। और अकंप इस आदमी को जाना। वीतराग इस मनुष्य को जाना। और इसकी वीतरागता में जो शांति और जो आनंद अनुभव हुआ, वही खोजने मैं भी चली आई हूं। बुद्ध ने कहा, देखो! संन्यासी जीतकर लौट आया है, वीतराग था, इसलिए। तुम हार जाते। तुम विरागी हो, तुम्हारे हारने का डर था।

कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग होता, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। इसमें बड़े मजे की बात है। वे कह रहे हैं, मेरे शरीर को। अच्छा न होता क्या कि वे कहते, मेरी आत्मा को! लेकिन वे कहते हैं, मेरे शरीर को, टु माई बाडी। अच्छा होता न कि वे कहते, मेरी आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

क्या राज है? राज बड़ा है।

यह जो ब्रह्मांड है, यह जो विश्व है, यह शरीर है परमात्मा का। यह जो दृश्य चारों ओर फैला है, यह शरीर है। ये चांदत्तारे, यह सूरज, यह अरबों-अरबों प्रकाश वर्ष की दूरियों तक फैला हुआ एक्सपैंशन जो है, यह जो विस्तार है…।

क्या कभी आपने सोचा कि ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है, विस्तार, वृहत, जो फैलता ही चलता गया; जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं है। ब्रह्म बड़ा साइंटिफिक शब्द है, बहुत वैज्ञानिक–धार्मिक बहुत कम। ब्रह्म शब्द धार्मिक जरा भी नहीं, बिलकुल वैज्ञानिक टरमिनालाजी है। ब्रह्म का मतलब है, जो फैलता ही गया है, दि एक्सपैंडिंग, जो फैलता ही चला जाता है; जिसके फैलाव का कोई अंत ही नहीं है। इस फैले हुए का नाम ब्रह्म है।

इस फैले हुए, दिखाई पड़ने वाले अस्तित्व को कृष्ण कहते हैं, मेरा शरीर। जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

क्यों? आत्मा को तो हम उपलब्ध ही हैं, हमारी भूल सिर्फ शरीर की है। कृष्ण की आत्मा को तो हम अभी भी उपलब्ध हैं, लेकिन हम अपने-अपने शरीरों में अपने को बंद मान रहे हैं, वह हमारी भूल है। इसलिए कृष्ण आत्मा की बात नहीं करते। उसको तो हम उपलब्ध ही हैं, सिर्फ यह शरीर की भूल भर टूट जाए हमारी। हमें किसी दिन यह पूरा ब्रह्मांड अपना शरीर मालूम पड़ने लगे, बस।

आत्मा तो हम अभी भी हैं। आत्मा तो हमारी इस अज्ञान के क्षण में भी कृष्ण का हिस्सा है। हमारी भ्रांति है शरीर की सीमा की। अगर शरीर की सीमा की भ्रांति टूट जाए, और हम कृष्ण के शरीर को–कृष्ण का शरीर अर्थात ब्रह्मांड को–उपलब्ध हो जाएं, तो बात पूरी हो जाती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

शरीर का क्या अर्थ है? शरीर का अर्थ है, आत्मा का आवरण। शरीर का अर्थ है, आत्मा का गृह। अंग्रेजी का शब्द बाडी बहुत अच्छा है। जिसके भीतर आत्मा एंबाडीड है, जिसके भीतर शरीर छिपा है।

यह जो हमारा शरीर, हमें लगता है, मेरा शरीर! यह हमें क्यों लगता है? राग के कारण, विराग के कारण। अगर राग और विराग दोनों छूट जाएं, तो यह मेरा शरीर है, ऐसा नहीं लगेगा। तब सब शरीर मेरे हैं। तब चांदत्तारे मेरे शरीर के भीतर हो जाएंगे; तब मेरी जो चमड़ी है, वह असीम को छू लेगी।

राम कहते थे कि मैंने चांदत्तारों को अपने शरीर के भीतर परिभ्रमण करते देखा। पागलपन की बात है। बिलकुल पागलपन की बात है! लेकिन ठीक कहते थे। जब भी कोई राग और विराग के एक क्षण को भी पार हो जाए, उसी क्षण अपने शरीर का स्मरण भूल जाता है, बाडीलेसनेस आ जाती है, शरीरहीन हो जाता है। और ये दोनों बातें एक ही हैं।

ब्रह्म के शरीर को उपलब्ध होना या अपने शरीर को भूल जाना, एक ही बात है। जो व्यक्ति अपने शरीर की सीमा को भूल जाता है, वह ब्रह्म के शरीर की सीमा के स्मरण से भर जाता है।

यह शरीर मेरा है, यह हमारे राग और विराग के कारण है। जब तक कोई चीज मेरी है और कोई चीज तेरी है, तब तक यह शरीर मेरा है। अगर ठीक से समझें, तो मेरे का भाव ही मेरा शरीर है। बहुत मनोवैज्ञानिक अर्थों में मेरे का भाव ही मेरा शरीर है। जहां तक मेरे का भाव है, वहां तक शरीर है। अगर मेरे का भाव बड़ा हो जाए, इतना बड़ा हो जाए कि वह ब्रह्म को घेर ले, ब्रह्मांड के साथ एक हो जाए, तो फिर सभी कुछ मेरा शरीर है। वस्तुतः सभी कुछ शरीर है–वस्तुतः। लेकिन हमारी एक भ्रांति है।

किस जगह आप अपने शरीर को समाप्त मानते हैं? किस जगह? चमड़ी पर अपने शरीर को आप समाप्त मानते हैं। लेकिन आपकी चमड़ी हवा के बिना एक क्षण जी सकती है? नहीं जी सकती। तो हवा भी आपकी चमड़ी के पार की एक पर्त है आपके शरीर की। उसके बिना आप नहीं जी सकते। हवा की पर्त अगर हटा ली जाए, तो आप जी नहीं सकते। जिसके बिना आप नहीं जी सकते, वह आपका शरीर है। जिसके बिना जीना मुश्किल हो जाएगा, वह आपका शरीर है।

रोआं-रोआं श्वास ले रहा है। आप इस भ्रांति में मत रहना कि आपकी सिर्फ नाक ही श्वास ले रही है। अगर आपके पूरे शरीर को पेंट कर दिया जाए, और सब रोएं बंद कर दिए जाएं, और सिर्फ नाक खुली छोड़ दी जाए, तो आप पांच-सात मिनट में मर जाएंगे। कितना ही फिर आप जोर से श्वास लो, कुछ न होगा। क्योंकि रोआं-रोआं श्वास ले रहा है; पूरा शरीर श्वास ले रहा है।

यह चारों तरफ हवा की जो पर्त है, वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना आप नहीं जी सकते। दो सौ मील तक पृथ्वी के चारों तरफ हवा की पर्त है। लेकिन वह हवा की पर्त भी नहीं जी सकती, अगर उसके पास सूरज की किरणों का जाल न हो। वह हवा भी नहीं जी सकती। फिर दस करोड़ मील दूर तक सूरज की किरणों का जाल है; वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना भी आप नहीं जी सकते।

वहां सूरज ठंडा हो जाए, तो हम यहां अभी ठंडे हो जाएंगे। हमको पता भी नहीं चलेगा कि हम ठंडे हो गए, क्योंकि पता चलने के लिए भी हमारा बचना जरूरी है। इसलिए सूरज जब ठंडा होगा, तो हम लिखने के लिए बचेंगे नहीं; अखबार में खबर न निकाल पाएंगे कि सूरज ठंडा हो गया। सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुए। सूरज दस करोड़ मील दूर है, लेकिन सूरज की गर्मी हमारी पर्त है शरीर की। हम एंबाडीड हैं; सूरज की पर्त के भीतर हम हैं; एक बड़ा शरीर है।

लेकिन सूरज भी न बचे, अगर महासूर्यों से उसे दिन-रात शक्ति न मिलती हो। हमारा सूरज बड़ा छोटा है। ऐसे बहुत बड़ा है; हमसे बहुत बड़ा लगता है। पृथ्वी से कोई साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन और सूर्यों के मुकाबले बहुत मीडियाकर है, बहुत छोटा सूरज है। रात को जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे महासूर्य हैं। हमारा सूरज कोई तीन-चार अरब महासूर्यों की भीड़ में एक छोटा-सा सूरज है, बहुत मीडियाकर, बहुत मध्यमवर्गीय। कोई बहुत बड़ा सूर्य नहीं है। उससे करोड़ों बड़े सूर्य हैं। अगर उन सूर्यों से उसे दिन-रात ऊर्जा न मिलती हो, तो वह कभी का ठंडा हो जाए। वे भी हमारा शरीर हैं।

हमारा शरीर समाप्त कहां होता है? जहां ब्रह्मांड समाप्त होता हो, वहीं समाप्त होता है। उसके पहले समाप्त नहीं होता।

एक छोटे-से फूल के खिलने में पूरा ब्रह्मांड सहयोगी है। एक छोटा-सा फूल खिलता है घास का। इस घास के फूल के खिलने में अरबों-खरबों मील दूर बैठे हुए महासूर्यों का हाथ है; वे इसका शरीर हैं। उनके बिना यह न हो सके।

तों कृष्ण कहते हैं कि जो वीतराग हो जाता है, जो मेरेत्तेरे के भाव से उठ जाता है; जो आकर्षण-विकर्षण के पार हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।

मेरे शरीर का अर्थ है, समस्त ब्रह्मांड उसका शरीर बन जाता है। और जब ब्रह्मांड शरीर बनता है, तभी हमें ब्रह्म का पता चलता है कि हम कौन हैं! मैं कौन हूं, हमें तब तक पता न चलेगा–निश्चित ही, जिन्हें अपने शरीर का भी पता नहीं, उन्हें अपनी आत्मा का क्या पता होगा? जिन्हें शरीर का ही पता नहीं, उन्हें आत्मा का पता न हो सकेगा। जो अपने शरीर के संबंध में ही अज्ञानी हैं, वे अपनी आत्मा के संबंध में ज्ञानी कैसे हो सकेंगे?

इसलिए कृष्ण का कहना बहुत अर्थपूर्ण है कि वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाते हैं। और अर्जुन से वे कहते हैं कि तुझसे जो मैं कह रहा हूं, उससे पहले भी जिन-जिन पुरुषों ने वीतरागता पाई, वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो गए हैं, वे मेरे साथ एक हो गए हैं।

दुई, दो का भाव भ्रम है, लेकिन बड़ा गहरा है। बड़ा गहरा है। लगता है कि हम अलग हैं। यह हमारा अलग होना बड़ी से बड़ी भ्रांति, दि ग्रेटेस्ट इलूजन है। हम अलग जरा भी नहीं हैं। एक क्षण को भी नहीं हैं। एक क्षण को भी हमें अलग कर दिया जाए, और हम विलीन हो जाएंगे; हम बचेंगे नहीं।

हमारे अलग होने की भ्रांति वैसी है, जैसे कि नदी की छाती पर एक बबूला। पानी का बबूला उठ आया। तैर रहा है, चल रहा है, फिर रहा है, सूरज की किरणों में चमक रहा है। उस बबूले को भी लगता है, मैं अलग।

जरा भी अलग नहीं है। जरा अलग करें नदी से और पता चलेगा, कहीं भी न रहा। नदी के पानी की जरा पतली-सी पर्त उसका शरीर थी; वह पानी में खो गई। हवा का छोटा-सा आयतन उसके भीतर कैद था, वह मुक्त होकर हवा में मिल गया। बस, हम नदी पर तैरते हुए बबूलों की भांति अलग हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जो तुझसे पहले भी, कभी भी, जिसने भी जान लिया है इस सत्य को, वह मेरे शरीर को, वह ब्रह्मांड के साथ एक हो जाता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, अनन्य भाव से मेरी शरण हुए और ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए–इन दो दशाओं का अर्थ और अधिक स्पष्ट करने की कृपा करें।

अनन्य रूप से मेरी शरण हुए–बहुत मजेदार है, बहुत कंट्राडिक्टरी है, बहुत विरोधाभासी है।

धर्म के सभी सत्य पैराडाक्सेस हैं, विरोधाभासी हैं। विरोध आभास भर है।

कृष्ण कहते हैं, अनन्य रूप से मेरी शरण हुए।

अनन्य का अर्थ है, जो अपने को मुझसे अन्य न माने। जो मुझको और अपने को भिन्न न माने, अन्य न माने, अदरनेस न रहे–अनन्य हो। अनन्य भाव से मेरे साथ एक हो गया हो।

लेकिन फिर दूसरी बात कहते हैं। जब एक ही हो गया हो, तो शरण होने की गुंजाइश कहां रही! क्योंकि शरण तो हम उसी के जा सकते हैं, जो अन्य है, दि अदर। शरण तो हम उसी की जा सकते हैं, जो दूसरा है। जो दूसरा नहीं है, उसकी शरण हम कैसे जाएंगे?

कृष्ण कहते हैं, अनन्य रूप से मेरी शरण। एक हो जाओ मुझसे और मेरी शरण आ जाओ। बड़ी उलटी बात कहते हैं। एक हो जाएंगे, तो शरण कौन जाएगा? और किसकी शरण जाएगा? इसीलिए मजेदार है यह वक्तव्य।

असल में जिस दिन न वह बचे, जो शरण जाता है; और न वह बचे, जिसकी शरण जाता है, उसी दिन शरणागत होता है व्यक्ति। उसी दिन शरण पूरी हुई। जब तक आप बचे हैं और दूसरा बचा है, तब तक आप सिर रख दें चरणों में, आपका अहंकार चरणों में नहीं रखा जाता; वह भीतर खड़ा रहता है।

मंदिरों में जाकर देखें; सिर रखे हैं पत्थरों के चरणों में और अहंकार अकड़कर खड़े हैं। सिर जमीन पर झुका है, अहंकार आकाश में उठा है। सिर चरणों में झुका है, अहंकार चारों तरफ देख रहा है कि कोई देखने वाला भी मंदिर में है या नहीं? हम कितनी शरण चले गए हैं! अनन्य भाव से, जब न मैं बचे, न तू बचे, तभी शरण होती है।

शरण का अर्थ, समर्पण, सरेंडर। जब तक मैं बचता है, तब तक समर्पण नहीं होता। इसलिए ध्यान रहे, कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं शरण जाता हूं। कोई आदमी शरण नहीं जा सकता, क्योंकि जब तक कहने वाला मौजूद है कि मैं शरण जाता हूं, तब तक शरण नहीं होगी। जब मैं नहीं रह जाता, तब आदमी अनुभव करता है कि शरण जा चुका, शरणागत हो गया।

अनन्य भाव से, नहीं कोई दूसरा है उस तरफ, न कोई यहां, जिस दिन कोई ऐसी भाव-दशा में आता है–जो मैंने कहा कि वीतराग होने से फलित होती है–उस दिन शरणागति, उस दिन शरण, उस दिन वह मेरी शरण आ पाता है, कृष्ण कहते हैं। मेरी शरण, वही भाषा उपयोग करनी पड़ रही है, जो नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहां कोई मेरात्तेरा नहीं है।

दूसरी बात वे कहते हैं, ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए।

यह भी बहुत मजेदार वक्तव्य है, यह भी पैराडाक्सिकल है–ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए। ज्ञानरूपी तप, इसे जोड़ने की क्या जरूरत थी? तप से शुद्ध हुए, इतना कहना काफी न होता क्या?

अक्सर ऐसा होता है कि अज्ञानी बहुत तप कर पाते हैं। असल में अहंकारी बहुत तप कर सकता है, क्योंकि अहंकारी हठी होता है। वह कहता है कि हम रहेंगे साठ दिन भूखे, तो रह सकता है। जरा अहंकार कमजोर हो, तो साठ दिन भूखा रहना मुश्किल हो जाए। अहंकार कमजोर हो, तो साठ दिन भूखा रहना मुश्किल हो जाए; अहंकार मजबूत हो, तो आदमी साठ दिन भूखा रह सकता है।

अहंकारी तय कर ले कि हम पैर पर ही खड़े रहेंगे, अब कभी बैठेंगे न, तो खड़ा रह सकता है। गैर-अहंकारी तय कर ले, तो थोड़ी-बहुत देर में सोचेगा कि बहुत से बहुत लोग यही कहेंगे न कि अपना वचन पूरा नहीं कर पाया! बैठ जाते हैं। अहंकारी कहेगा कि अब चाहे प्राण चले जाएं, लेकिन अब बैठ नहीं सकता। एक अहंकार की कसम हो गई।

तो ध्यान रहे, अहंकारी अक्सर तपश्चर्या में उत्सुक हो जाते हैं। इसलिए तपस्वी अगर अहंकारी मिलते हों, तो आश्चर्य नहीं है। आमतौर से तपस्वी अहंकारी मिलते हैं। उसका कारण यह नहीं कि तपस्वी अहंकारी होते हैं, उसका बुनियादी कारण यह है कि अहंकारी आसानी से तपस्वी हो जाते हैं। असल में अहंकार जो भी जिद्द पकड़ ले, उसको पूरा करने की कोशिश करता है।

तो सौ में अट्ठानबे तपस्वियों का मौका यह है कि वे अहंकार से तपश्चर्या के रास्ते पर आते हैं। इसलिए हम तपस्या की खूब प्रशंसा करते हैं, शोभायात्रा निकालते हैं। कोई उपवास कर ले, तो शोभायात्रा निकलती है, जुलूस निकलता है; बैंड-बाजे बजाते हैं।

उपवास के लिए बैंड-बाजों की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिस अहंकार से उपवास फलित हुआ है, वह बैंड-बाजे के बिना शिथिल हो जाएगा। उसके लिए बैंड-बाजा बिलकुल जरूरी है, उसको जगाए रखने के लिए, फुसलाने के लिए। क्योंकि उस आदमी ने उपवास के लिए उपवास नहीं किया। अंत में यह बैंड-बाजा बजने वाला है, बहुत गहरे में इसकी आकांक्षा है।

तो हम अहंकार को प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि अहंकार के आधार पर तप हो सकता है। लेकिन जो तप अहंकार के आधार पर होता है, उससे आत्मा पवित्र नहीं होती और अपवित्र हो जाती है।

इसलिए कृष्ण को कंडीशन लगानी पड़ी, ज्ञानरूपी तप। अकेला तप काफी नहीं है; क्योंकि अज्ञानरूपी भी हो सकता है। अकेला तप काफी नहीं है, तप अज्ञान से भी निकल सकता है। और जब तप अज्ञान से निकलता है, तो आत्मा को और भी अपवित्र कर जाता है। ज्ञान से निकलना चाहिए।

ज्ञान से निकलने का क्या अर्थ हुआ? ज्ञान से तप कैसे निकलेगा? अज्ञान से तो निकल सकता है; बहुत आसान है। हमारी पूरी जिंदगी, अज्ञान के केंद्र, अहंकार पर खड़ी होती है।

बाप अपने बेटे से कहता है कि देखो पड़ोस का लड़का आगे निकला जा रहा है! हमारे कुल की इज्जत खतरे में है। बेटे के अहंकार को जगाता है। बेटा और रातभर पढ़ने में लग जाता है कि किसी तरह गोल्ड मेडल ले आए, क्योंकि इज्जत का सवाल है।

हम अच्छी बात लाने के लिए भी अहंकार का उपयोग करते हैं। बाप अपने बेटे से कहता है कि देखो, ऐसा आचरण करोगे, तो हमारे कुल की बड़ी बदनामी होगी। आचरण बुरा है, ऐसा नहीं कह रहा है। वह यह कह रहा है कि ऐसा आचरण करने से कुल की बड़ी बदनामी होगी। लोग क्या कहेंगे कि मेरा बेटा! और ऐसा कर रहा है? उसके बेटे के अहंकार को परसुएड किया जा रहा है।

चारों तरफ ग्रेट परसुएडर्स बैठे हुए हैं; चारों तरफ फुसलाने वाले बैठे हुए हैं। वे अहंकार को फुसला रहे हैं। वे उस अहंकार को तरकीबत्तरकीब से फुसलाकर हमसे काम करवा रहे हैं।

हमारी पूरी जिंदगी अहंकार के आधार पर होने वाली तपश्चर्या है।

एक आदमी धन कमाता है, तो कोई कम तप नहीं करता। जंगल में बैठे तपस्वियों से कम नहीं होता तप उसका; एक अर्थ में ज्यादा ही होता है। करता क्या है बेचारा? दिनभर सुबह से सांझ तक धन इकट्ठा करने में लगा हुआ है। पागल की तरह दौड़ रहा है। जिंदगीभर दौड़ता है; तिजोरी भरकर मर जाता है। लेकिन धन अहंकार के लिए सुख है। जितना ज्यादा, उतना सुख है। बस, अहंकार धन को इकट्ठा करवा देता है।

एक आदमी दिल्ली की तरफ दौड़ता रहता है। अभी बहुत-से लोग दौड़ रहे हैं। दिल्ली में ऐसा कुछ रस नहीं है। अहंकार में रस है। कितना पागलपन चलता है! कितना बेचारा हाथ-पैर जोड़ता है किसी के भी कि किसी तरह मुझे दिल्ली पहुंचाओ! सब दांव पर लगा देता है, किसी तरह दिल्ली पहुंचाओ! एक अहंकार है। दिल्ली पहुंचकर वह समबडी हो जाता है, कुछ हो जाता है। फिर और दौड़ पर दौड़ चलती जाती है। वर्तुल के भीतर वर्तुल हैं। फिर दिल्ली पहुंचकर केबिनेट में कैसे प्रवेश कर जाए! फिर सब सिद्धांतों की बात करता है, लेकिन सिर्फ सिद्धांत अहंकार है, और कोई सिद्धांत नहीं है। न कोई समाजवाद है, न कोई लोकतंत्र है, न कुछ है।

दुनिया में कोई सिद्धांत नहीं है आदमी के लिए। आदमी का गहरा सिद्धांत एक है, ईगो। फिर उस अहंकार के लिए आभूषण–समाजवाद, लोकतंत्र, और-और न मालूम क्या-क्या! वे सब आभूषण हैं उस एक सिद्धांत के।

सारी दुनिया अहंकार की तपश्चर्या में रत है। इन्हीं तपस्वियों को हम धर्म की तरफ भी लगा देते हैं। ये ही तपस्वी धर्म में लग जाते हैं। बैठ जाते हैं उपवास करके! अगर लोग न जाएं, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है।

मेरे एक मित्र हैं। बड़े राजनैतिक नेता हैं। लोगों ने उनसे अनशन करवा दिया। लेकिन कुछ हालात ऐसे हो गए गांव के कि अनशन तो उन्होंने किया, लेकिन लोग ज्यादा देखने-दाखने नहीं आए। मैं उनके गांव गया था, उनको मिलने गया। पता चला अनशन करते हैं, तो मैंने कहा, देख आऊं। बड़ी मुश्किल में होंगे।

गया तो सच में मुश्किल में थे मुझसे दिल की बात कही। कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं; कुछ हालात ऐसे उलझ गए हैं कि कोई देखने तक नहीं आ रहा है। और लोग आते-जाते रहते, कैमरामैन फोटो उतारता रहता, अखबार में फोटो छपती रहती, तो झेल भी लेते। अब सिवाय भूख के और कुछ नजर नहीं आता चौबीस घंटे। किसी तरह उपवास तुड़वाने का इंतजाम करवा दें।

क्या रास्ता होगा?

कोई भी रास्ता निकाल लें। मेरी मांगें पूरी हों या न हों। मगर अहंकार रास्ते खोजता है। फिर भी उन्होंने कहा कि इक्कीस दिन हो गए हैं मुझे। अब एकदम से तोड़ भी नहीं सकता। इज्जत का भी सवाल है। तो प्रांत के चीफ मिनिस्टर आ जाएं, मोसंबी का एक गिलास पिला दें और इतना ही कह दें कि हम आपकी मांगों पर विचार करेंगे!

मैंने कहा, यह हो सकता है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। क्योंकि विचार करने में कोई झंझट नहीं है। विचार करेंगे! बस, उन्होंने कहा, इतना ही हो जाए तो काफी है। अब और मुझे कोई झंझट नहीं करनी है। मुझे उलझा दिया है शरारतियों ने और वे खुद भी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं कि कहां हैं!

लोग आते रहते, भीड़-भड़क्का बना रहता, तो उनको कष्ट न होता। भूख झेली जा सकती थी। अगर अहंकार भरता हो, तो बड़ी से बड़ी भूख झेली जा सकती है। लेकिन अगर अहंकार भी न भरता हो, तो फिर कठिनाई हो जाती है।

तपस्वियों को जरा आदर देना बंद कर दें, फिर आप देखेंगे, सौ में से निन्यानबे विदा हो गए हैं। वे नहीं हैं अब कहीं। आदर मिले, तो वे बढ़ते चले जाते हैं।

कृष्ण बहुत जानकर कहते हैं कि ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुई आत्मा। और ज्ञानरूपी तप से ही शुद्ध होती है।

ज्ञानरूपी तप कैसा होगा? क्योंकि अज्ञानरूपी तप में तो अहंकार का शोषण है; अहंकार पर निर्भर है अज्ञानरूपी तप। ज्ञानरूपी तप किस बात पर निर्भर होगा? ज्ञानरूपी तप समर्पण पर निर्भर होगा, अहंकार पर नहीं, सरेंडर पर।

इस फर्क को ठीक से समझ लें। इसलिए पहले उन्होंने कहा, अनन्य रूप से जो मेरी शरण; फिर कहा कि जो ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए हैं।

ज्ञानरूपी तप सदा ही समर्पित है। ज्ञानरूपी तप के पीछे यह भाव नहीं है कि मैं तप कर रहा हूं; ज्ञानरूपी तप के पीछे यही भाव है कि परमात्मा जो करवा रहा है, वह मैं कर रहा हूं। वह अगर आग में डाल देता है, तो आग में जलने को तैयार हूं। मैं नहीं जल रहा हूं।

एक ईसून करके एक फकीर औरत हुई जापान में–समर्पित जीवन की एक प्रतिमा। भोजन भी करती, तो पहले आंख बंद करके आकाश की तरफ, थाली सामने रखी हो, तो भी आंख बंद करके आकाश की तरफ देख लेती। कभी कहती कि ले जाओ। नहीं, आज भोजन नहीं होगा। लोग कहते, क्या बात है? अभी तक तो तुमने कुछ भी नहीं कहा था। पहले ही कह देना था। उसने कहा, जब तक भोजन सामने न आए, तब तक मैं प्रभु से पूछूं भी कैसे! मैं पूछी कि क्या करूं? क्या इरादे हैं? भोजन करूं, न करूं? आज हां में उत्तर नहीं आता। भोजन ले जाओ। किसी दिन भोजन कर लेती; कहती, हां में उत्तर आता है। मरने के एक दिन पहले आंख बंद कर आकाश की तरफ…।

पर लोगों को कभी भरोसा नहीं आया कि पता नहीं, ऊपर से कोई उत्तर आता है कि नहीं आता! यह अपने ही मन से उत्तर दे लेती है! कभी खाना हो, तो खा लेती हो; कभी न खाना हो, तो न खाती हो।

लेकिन उस ईसून ने साठ वर्ष की उम्र तक कभी यह नहीं कहा कि मैंने एक भी उपवास किया। क्योंकि वह अहंकार से तो उठता न था। मेरे का तो कोई सवाल न था। उसने कोई हिसाब भी न रखा; जैसा कि साधु रखते हैं कि उन्होंने इस बार इतने उपवास किए, उतने उपवास किए। इस चौमासे में फलाने ने इतने उपवास किए। इसका कुछ हिसाब न था। ये कोई खाते-बही नहीं हैं कि इनके हिसाब रखे जा सकें। लेकिन अहंकार खाते-बही रखता है।

साठ साल! कभी कोई उससे कहता भी कि तूने कितने उपवास किए! वह कहती कि मैंने? मैंने एक भी उपवास नहीं किया। हां, कभी-कभी प्रभु ने भोजन का आनंद दिया और कभी-कभी उपवास का आनंद दिया।

फिर साठ वर्ष उसके पूरे हुए। एक दिन उसने आकाश की तरफ–थाली सामने रखी थी–आकाश की तरफ देखकर कहा, भोजन ही नहीं; आज तो खबर आती है कि यह मेरा आखिरी दिन है। सांझ सूरज के ढलने के साथ मैं विदा हो जाऊंगी। और ठीक सांझ सूरज के ढलने के साथ वह विदा हो गई। सांझ सूरज ढला, वह आंख बंद करके बैठी थी और श्वास उड़ गई। तब लोगों को पता चला कि जो आवाज उसे आती थी, वह ऐसी ही नहीं थी, जैसा हम सोचते थे। क्योंकि भोजन के मामले में धोखा हो सकता है, मौत के मामले में तो धोखा नहीं हो सकता।

समर्पित तपश्चर्या ज्ञानरूपी तप है। परमात्मा के हाथों में जो जीए, वह जो ले आए–दुख तो दुख, सुख तो सुख, अंधेरा तो अंधेरा, उजेला तो उजेला, भोजन तो भोजन, भूख तो भूख–वह जो ले आए, उसके लिए राजी होकर जो जीए, उसकी जिंदगी ज्ञानरूपी तप है। उसका सारा जीवन एक तप है, लेकिन ज्ञानरूपी। वह ईगोइस्ट, वह अहंकार की जिद नहीं है कि मैं कर रहा हूं ऐसा।

साक्रेटीज एक सांझ अपने घर के बाहर गया। रात देर तक लौटा नहीं; लौटा नहीं! घर के लोग परेशान। बहुत खोजा, मिला नहीं। फिर सुबह तक राह देखने के सिवाय कोई रास्ता न रहा।

सुबह सूरज निकला, तब लोग खोजने गए। देखा कि बर्फ जम गई है उसके घुटनों तक। रातभर गिरती बर्फ में खड़ा रहा। एक वृक्ष से टिका हुआ खड़ा है! आंखें बंद हैं। हिलाया! लोगों ने पूछा, यह क्या कर रहे हो? उसने आंख खोलीं; उसने कहा कि क्या हुआ? नीचे देखा। जैसे दूसरे लोग चकित थे, वैसा ही चकित हुआ। कहा कि अरे! बर्फ इतनी जम गई! रात गई? सूरज निकल आया? तो लोगों ने कहा कि तुम कर क्या रहे हो? होश में हो कि बेहोश? तुम रातभर करते क्या रहे?

उसने कहा, मैं कुछ भी न करता रहा। आज रात सांझ को जब यहां आकर खड़ा हुआ, तारों से आकाश भरा था, दूर तक अनंत रहस्य; मेरा मन समर्पित होने का हो गया। मैंने आंख बंद करके अपने को छोड़ दिया इस विराट के साथ। फिर मुझे पता नहीं क्या हुआ। करवाया होगा उसने, मैंने कुछ किया नहीं है।

यह हुआ ज्ञानरूपी तप–समर्पित तपश्चर्या, सरेंडर्ड एटिटयूड। फिर जो हो जाए। फिर उसकी मर्जी।

जीसस सूली लटकाए जा रहे हैं। एक क्षण को उनके मुंह से ऐसा निकला कि हे परमात्मा! यह क्या दिखला रहा है? क्या तूने मुझे छोड़ दिया? फिर एक क्षण बाद ही उन्होंने कहा, माफ कर। कैसी बात मैंने कही! तेरी मर्जी पूरी हो। दाई विल बी डन। तेरी मर्जी पूरी हो। फिर हाथ पर खीलियां ठोंक दी गईं; गर्दन सूली पर लटक गई; लेकिन फिर जीसस, तेरी मर्जी पूरी हो, उसी भाव में हैं। जीसस की यह सूली ज्ञानरूपी तपश्चर्या हो गई। समर्पित, तेरी मर्जी पूरी हो। बात समाप्त हो गई।

जब तक मेरी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब तक अज्ञानरूपी है। और जब उसकी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब ज्ञानरूपी हो जाती है। वह अनन्य शरण का ही दूसरा रूप है।

और जब कोई समर्पित होकर तप से गुजरता है, तब आत्मा पवित्र हो जाती है, तब भीतर सब शुद्ध हो जाता है। क्योंकि बड़ी से बड़ी अशुद्धि अहंकार है और बाकी सब अशुद्धियां अहंकार की ही बाई-प्रोडक्ट्स हैं। वे अहंकार से ही पैदा हुई हैं।

कभी आपने खयाल किया, अहंकार न हो, तो क्रोध पैदा हो सकता है? अहंकार न हो, तो क्रोध कैसे पैदा हो सकता है! कभी आपने खयाल किया है कि अहंकार न हो, तो लोभ पैदा हो सकता है? अहंकार न हो, तो लोभ कैसे पैदा हो सकता है! कभी आपने खयाल किया कि अहंकार न हो, तोर् ईष्या पैदा हो सकती है? अहंकार न हो, तोर् ईष्या कैसे पैदा हो सकती है!

अहंकार मूल रोग है, मूल अशुद्धि है। बीमारी की जड़ है। बाकी सारी बीमारियां उसी पर आए हुए पत्ते और शाखाएं हैं। इसलिए समर्पण मूल साधना है। समर्पण का अर्थ है, अहंकार की जड़ काट दो! अज्ञानरूपी तपश्चर्या पत्ते काटती है–पत्ते, शाखाएं।

लेकिन ध्यान रखें, जैसा नियम बगीचे का है, वैसा ही नियम मन के बगीचे का भी है। आप पत्ता काटें; पत्ता समझता है कि कलम हो रही है। एक पत्ते की जगह चार निकल आते हैं। आप शाखा काटें; शाखा समझती है, कलम की जा रही है! एक शाखा की जगह चार अंकुर निकल आते हैं। आप क्रोध काटें अहंकार को बिना काटे, और आप पाएंगे कि क्रोध चार दिशाओं में निकलना शुरू हो गया। आप लोभ काटें बिना अहंकार को काटे, और आप पाएंगे, लोभ ने पच्चीस नए मार्ग खोज लिए!

अज्ञानरूपी तपश्चर्या शाखाओं से उलझती रहती है और मूल को पानी देती रहती है। अहंकार की जड़ को पानी डालती रहती है और अहंकार से पैदा हुई शाखाओं को काटती रहती है। शाखाएं फैलती चली जाती हैं। अहंकार की जड़ मजबूत होती चली है।

ज्ञानरूपी तपश्चर्या पत्तों से नहीं लड़ती, शाखाओं से नहीं लड़ती, मूल जड़ को काट देती है। वह अनन्य भाव से अपने को समर्पित कर देती है। वह कह देती है, परमात्मा, तू ही सम्हाल। अब न क्रोध मेरा, न क्षमा मेरी। अब न सुख मेरा, न दुख मेरा। अब न जीवन मेरा, न मृत्यु मेरी। अब तू ही सम्हाल। अब तू ही जो करे, कर। अब न मैं छोडूंगा, न पकडूंगा। अब न मैं भागूंगा; न मैं राग करूंगा, न विराग करूंगा। अब तू जो करवाए, मैं राजी हूं।

इस राजीपन का नाम, इस एक्सेप्टेबिलिटी का नाम समर्पण है। इस समर्पण से सब शुद्ध हो जाता है, क्योंकि जड़ कट जाती है। जहां अहंकार नहीं, वहां अपवित्रता नहीं। और जहां अहंकार है, वहां अपवित्रता होगी ही। उसके रूप कुछ भी हो सकते हैं। और धार्मिक अपवित्रता अधार्मिक अपवित्रता से बदतर होती है।

साधारण अहंकार से तपस्वी अहंकार ज्यादा खतरनाक होता है। साधारण आदमियों के क्रोध से दुर्वासा के क्रोध की हम क्या तुलना कर सकते हैं? दुर्वासा के क्रोध की बात ही और है; वह क्रोध है चरम। ऐसा साधारण आदमी ऐसा क्रोध नहीं कर सकता। क्योंकि साधारण आदमी ने तपश्चर्या से अहंकार को इतना पानी भी नहीं दिया है कि इतना क्रोध कर सके।

अज्ञानरूपी तपश्चर्या प्राणों को और अशुद्ध कर जाती है। ज्ञानरूपी तपश्चर्या शुद्ध कर जाती है।

शेष, संध्या हम बात करेंगे।

(अभी आप रुकेंगे। एक पांच-सात मिनट एक समर्पित कीर्तन में सम्मिलित हों।)


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–4) प्रवचन–6

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शून्‍य की वीणा: विराट के स्‍वर—प्रवचन—छठवां

दिनांक 1 दिसंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

अष्‍टावक्र उवाच–

कृतार्थोउनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधी कृती।

यश्यंच्छण्वमृशजिं घ्रन्नश्नब्रास्ते यथासुखम्।। 164।।

शून्य द्वष्टिर्वृथर चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि न।

न सहा न विरक्तिर्वा क्षीण संसार सागरे।। 165।।

न जागर्ति न निद्राति नोन्यीलति न मीलति।

अहो यरदशा क्यायि वर्तते मुक्तचेतस।। 166।।

सर्वत्र दुश्यते स्वस्थ: सर्वत्र विमलाशय।

समस्तवासनामुक्तो मुक्त: सर्वत्र सजते।। 167।।

पश्यंच्छण्वनव्यूर्शाब्ज घ्रन्नश्नत्राह्यन्वदन्वव्रजन्।

र्ड़हितानीहितैर्म?क्तो मुक्त एव महाशय:।। 168।।

न निन्दति न न स्तौति न हष्यति न कष्यति।

न ददाति न गृहणाति मुक्त: सर्वत्र नीरस:।। 169।।

कताथोंउनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधी कृती

पश्यंच्छृण्वन्स्पृशजिं घ्रब्रश्नत्रास्ते यथासुखम्।’

इस ज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर गलित हो गयी है बुद्धि जिसकी, ऐसा कृतकार्य पुरुष देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सुखपूर्वक रहता है।’

यह जो ज्ञान है कि मैं साक्षी हूं यह जो बोध है कि मैं कर्ता नहीं हूं—यही कृतार्थ कर जाता है। बड़ा विरोधाभासी वक्तव्य है। क्योंकि कृतार्थ का तो अर्थ होता है—करके जो तृप्ति मिलती है; कृति से जो अर्थ मिलता; कुछ कर लिया। एक चित्रकार ने चित्र बनाया; चित्र बन गया, तो जो तृप्ति होती है। कृतार्थ का तो अर्थ ऐसा है. तुम एक भवन बनाना चाहते थे, बना लिया। उसे देख कर प्रफुल्लित होते हो कि जो करना चाहा था कर लिया, हजार झंझटें थीं, रुकावटें थीं, बाधाएं थीं—पार कर गये, विजय मिली, वासना पूरी हुई।

तो कृतार्थ शब्द का तो साधारणत: ऐसा अर्थ होता है —करने से जो सुख मिलता है। अकृतार्थ वही है जिसने किया और न कर पाया; हारा, पराजित हुआ, गिर गया—तो विषाद से भर जाता है। लेकिन अष्टावक्र की भाषा में, ज्ञानियों की भाषा में कृतार्थ वही है जिसने यह जाना कि कर्ता तो मैं हूं ही नहीं। जो कर्ता बन कर ही दौड़ता रहा वह लाख कृतार्थ होने की धारणाएं कर ले—कभी कृतार्थ होता नहीं। एक चीज बन जाती है, दूसरी को बनाने की वासना पैदा हो जाती है। एक वासना जाती नहीं, दस की कतार खड़ी हो जाती है। एक प्रश्न मिटता नहीं पू दस खड़े हो जाते हैं। एक समस्या से जूझे कि दस समस्याएं मौजूद हो जाती हैं। इसे कहा है संसार—सागर। लहर पर लहर चली आती है। तुम एक लहर से जूझो, किसी तरह एक को शात करो, दूसरी आ रही है। लहरों का अनंत जाल है। इस भांति तुम जीत न सकोगे।

एक—एक समस्या से लड़ कर तुम कभी जीत न सकोगे—यह बहुमूल्य सूत्र है।

साधारणत: मनुष्य की बुद्धि ऐसा सोचती है, एक—एक समस्या से सुलझ लें।

मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, क्रोध की बड़ी समस्या है; क्रोध को जीत लूं तो बस सब हो गया। कोई कहता है, कामवासना से पीड़ित हूं जाती नहीं; उम्र भी गयी, देह भी गयी, लेकिन

वासना अभी भी मंडराती है, बस इससे छुटकारा हो जाये तो मुझे कुछ नहीं चाहिए। कोई लोभ से पीड़ित है, कोई मोह से पीड़ित है, किसी की और समस्याएं हैं। लेकिन अधिकतर ऐसा होता है कि जब भी कोई एक समस्या लेकर आता है तो वह एक खबर दे रहा है—वह खबर दे रहा है कि वह सोचता है समस्या एक है। एक दिखाई पड़ रही है अभी, पीछे लगी कतार तुम्हें तभी दिखाई पड़ेगी जब यह एक हल हो जाये। क्यू लगा है। तो तुम किसी तरह क्रोध को हल कर लो, तो तुम अचानक पाओगे कि कुछ और पीछे खड़ा है। क्रोध ने नया रूप ले लिया, नया ढंग ले लिया।

पश्चिम में मनस्विद इसी चेष्टा में संलग्न हैं. एक—एक समस्या को हल कर लो। जैसे कि समस्याएं अलग— अलग हैं! वैसी दृष्टि ही गलत है। सब समस्याएं इकट्ठी जुड़ी हैं—एक जाल है। देखा मकड़ी का जाला? एक धागे को हिला दो, पूरा जाल हिलता है! ऐसा समस्याओं का जाल है, संयुक्त है। क्रोध लोभ से जुड़ा है, लोभ मोह से जुड़ा है, मोह काम से जुड़ा है—सब चीजें संयुक्त हैं। तुम एक को हल न कर पाओगे। एक को हल करने चलोगे, कभी न हल कर पाओगे, क्योंकि अनेक हैं समस्याएं; एक—एक करके चले, कभी हल न होगा। यह तो ऐसा ही होगा जैसे कोई चम्मच—चम्मच पानी सागर से निकाल कर सागर को खाली करने की चेष्टा करता हो। यह तो तुमने बहुत छोटा मापदंड ले लिया। इस विराट को तुम हल न कर पाओगे।

इसलिए पूरब ने एक नयी दृष्टि खोजी. क्या कोई ऐसा उपाय है कि हम सारी समस्याओं को एक झटके में समाप्त कर दें। इंच—इंच नहीं, टुकड़ा—टुकड़ा नहीं, पूरी समस्या को हल कर दें। समस्या मात्र उखड़ जाये। लहर से न लड़े; उस हवा को ही बहना बंद कर दें, जिसके कारण हजारों लहरें उठती हैं। वही सूत्र है साक्षी का. तुम समस्याओं को हल मत करो; तुम समस्याओं के पीछे खड़े हो जाओ। तुम बस देखो। तुम्हारी दृष्टि अगर थिर हो गयी तो समस्याएं गिर जायेंगी। क्योंकि समस्याएं पैदा होती हैं तुम्हारी दृष्टि की अथिरता से। तुम्हारी दृष्टि का कंपन ही समस्याओं को पैदा करता है।

तो गहरे में एक ही समस्या है कि तुम अंधे हो। गहरे में एक ही समस्या है कि तुम्हारी दृष्टि थिर नहीं। गहरे में एक ही समस्या है कि तुम्हारी आंखों में अंधेरा है, या तुमने पलक खोलने की कला नहीं सीखी। उस एक को हल कर लो।

तो पूरब में हम कहते हैं. ‘एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाये।’ यह सदियों की अनुभूति का निचोड़ है इन सीधे—सादे वचनों में : एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाये। तो तुम खंड—खंड मत साधना, नहीं तो कभी जीत न पाओगे; पत्ती—पत्ती मत काटना, अन्यथा वृक्ष कभी गिरेगा नहीं। जड़ को काट डालना। जड़ है अहंकार। जड़ है तादात्म्य। जड़ है इस बात में कि मैंने मान रखा है कि मैं देह हूं जो कि सच नहीं। मैं देह नहीं हूं। मैंने मान रखा है कि मैं मन हूं जो कि सच नहीं है। इन झूठों की मान्यताओं के कारण फिर हजार झूठी की कतार खड़ी हो गयी है। तुम मूल झूठ को हटा लो, तुम आधारशिला को खींच लो—यह ताशों का भवन जो खड़ा है, तत्‍क्षण गिर जायेगा। तुम आधार से जूझ लो। तुम अनेक से मत लड़ो। यह अनेक गुरियों के बीच पिरोया हुआ एक ही धागा है। तुम एक—एक गुरिये से सिर मत मारो। तुम उस एक धागे को खींच लो, यह माला बिखर जायेगी। यह माला बचेगी नहीं। और तुम एक—एक गुरिये से लड़ते रहे और भीतर का धागा मजबूत रहा, तो तुम जीत न पाओगे। गुरिये अनंत हैं। तुम्हारी सीमा है। तुम्हारा समय है। तुम्हारी क्षमता…। गुरिये अनंत

हैं। क्या—क्या हल करोगे? मनुष्य—जाति हल करने में लगी है।

दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक, जो समस्याओं को अलग—अलग हल कर रहे हैं; और एक, जो समस्याओं के मूल के प्रति जाग रहे हैं। जो मूल के प्रति जागता है, जीत जाता है। देख लो खड़े हो कर। जरा भी चुनाव मत करो। क्रोध है—सही, रहने दो; तुम दूर खड़े हो कर क्रोध को देखने वाले बन जाओ। कभी द्रष्टा का थोड़ा स्मरण करो। काम है, लोभ है—द्रष्टा का स्मरण करो। तुम चकित होओगे। तुम धन्य— भाव से भर जाओगे। जैसे ही तुम क्रोध को गौर से देखोगे, क्रोध जाने लगा। तुम्हारे देखते—देखते क्रोध का धुआ विलीन हो जाता है और अक्रोध की परम शाति छूट जाती है। तुम्हारे देखते—देखते वासना कहां खो गयी, पता नहीं चलता—और एक निर्वासना का रस बहने लगता है।

‘साक्षी के ज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर गलित हो गयी है बुद्धि जिसकी……।’

यह शब्द ‘गलितधी:’ बड़ा महत्वपूर्ण है। यह ध्यान की परिभाषा है। यह अनिर्वचनीय का निर्वचन है। जो नहीं कहा जा सकता है, उसकी तरफ बड़ा गहरा संकेत है। गलितधी: —जिसकी बुद्धि गल गयी। ध्यान यानी गलितधी: —जिसकी बुद्धि गल गयी।

बुद्धि क्या है? सोच—विचार, ऊहापोह, प्रश्न—उत्तर, चिंतन—मनन, तर्क—वितर्क, गणित— भाग। बुद्धि का अर्थ है : मैं हल कर लूंगा।’बुद्धि गल गयी’ का अर्थ है. मेरे हल किये हल नहीं होता है। सच तो यह है जितना मैं हल करना चाहता हूं उतना उलझता है। मेरे हल करने से हल तो होता ही नहीं; मेरे हल करने से ही उलझन बढ़ी जा रही है।

गलितधी: का अर्थ है कि मैं अपने को हटा लेता हूं; मैं हल न करूंगा; जो है, जैसा है, रहने दो। मैं बीच से हटा जाता हूँ। और चमत्कार घटित होता है. तुम्हारे हटते ही सब हल हो जाता है। क्योंकि मौलिक रूप से तुम्हीं कारण हो उलझाव के।

कभी तुमने देखा कि जिस समस्या के साथ तुम जुड़ जाते हो वहीं हल मुश्किल हो जाता है!

ऐसा समझो, किसी डाक्टर की पत्नी बीमार है। आपरेशन करना है। बड़ा सर्जन है डाक्टर, लेकिन अपनी पत्नी का आपरेशन न कर सकेगा। क्या अड़चन आ गयी? न मालूम कितनी स्त्रियों का आपरेशन किया है! कभी हाथ न कंपे। अपनी पत्नी को टेबल पर लिटाते ही हाथ कंपते हैं। क्यों? अपनी है! जुड़ गया। एक तादात्म्य बन गया : ‘यह स्त्री मेरी पत्नी है, कहीं मर न जाए! कहीं भूल—चूक न हो जाए! आखिर मैं आदमी ही हूं! बचा पाऊंगा, न बचा पाऊंगा।’ दूसरी स्त्रियों के आपरेशन किए थे, तब ये सब बातें नहीं थीं। तब वह शुद्ध सर्जन था। तब कोई तादात्म्य न था। तब बड़ी तटस्थता थी। तब वह सिर्फ अपना काम कर रहा था। कुछ लेना—देना न था। बचेगी न बचेगी, बच्चों का क्या होगा, क्या नहीं होगा—यह सब कोई चिंता न थी। वह बाहर था। उसने अपने को जोड़ा नहीं था। इस पत्नी के साथ उसने अपने को जोड़ लिया ‘यह मेरी है।’ बस, यह मेरे के भाव ने समस्या खड़ी कर दी।

तो बड़े से बड़े सर्जन को भी अपने बच्चे या अपनी पत्नी का आपरेशन करना हो, तो किसी और सर्जन को बुलाना पड़ता है, चाहे नंबर दो के सर्जन को बुलाना पड़े, उससे कम हैसियत का हो सर्जन; लेकिन खुद हट जाना पड़ता है, क्योंकि तादात्म्य है।

जिस चीज से तुम जुड़ जाते हो वहीं समस्या खड़ी हो जाती है। जिस चीज से तुम हट जाते हो वहीं समस्या हल हो जाती है। इसे तुम अपने जीवन में पहचानना, परखना। जहां समस्या खड़ी हो, वहा गौर से देखना। तुम जुड़ गए हो। जरा छिटको। जरा अलग होओ। इस अलग हो जाने का नाम ही साक्षी है। और जुड़ कर फिर तुम हल करना चाहते हो! आदमी की बड़ी सीमा है। जगत विराट है। समस्या बड़ी है। और हमारे पास बड़ी छोटी बुद्धि है। है ही क्या हमारे पास बुद्धि के नाम पर? कुछ विचारों का संग्रह। इसी के आधार पर हम जीवन की इस महालीला को हल करने चले हैं।

ऐसा समझो कि एक चींटी आदमी के जीवन को समझना चाहे, तो तुम हंसोगे। तुम कहोगे, पागल हो जाएगी। ऐसा समझो कि एक चींटी गीता पर सरक रही है और गीता को समझने की चेष्टा करना चाहे, तो तुम हंसोगे। तुम कहोगे, पागल हो जाएगी। लेकिन अपनी तो सोचो। हमारी हैसियत इस विराट विश्व पर चींटी से कुछ ज्यादा है? शायद चींटी तो गीता को समझ भी ले, क्योंकि गीता और चींटी में बहुत बड़ा अंतर नहीं है। अनुपात, बहुत बड़ा भेद नहीं है। लेकिन हममें और विराट विश्व में तो अनंत भेद है। इतना विराट है यह विश्व और हम इतने छोटे हैं! हम इससे ही नापने चले हैं। हम अपने छोटे—छोटे विचारों को लेकर कल्पना कर रहे हैं कि जगत के रहस्य को हल कर लेंगे। यहीं भूल हुई जा रही है। हल तो कुछ भी नहीं होता, उलझन बढ़ती जाती है।

हमने जितना हल किया है उतनी उलझन बढ़ गयी है। एक तरफ से हल करते हैं, दूसरी तरफ से उलझन बढ़ जाती है।

पश्चिम में एक नया आंदोलन चलता है, इकॉलॉजी—कि प्रकृति को नष्ट मत करो, अब और नष्ट कत करो। हालांकि हमने कोशिश की थी हल करने की। हमने डी डी टी. छिड़का, मच्छर मर जायें। मच्छर ही नहीं मरते, मच्छरों के हटते ही वह जो जीवन की श्रृंखला है उसमें कुछ टूट जाता है। मच्छर किसी श्रृंखला के हिस्से थे। वे कुछ काम कर रहे थे।

हमने जंगल काट डाले। सोचा कि जमीन चाहिए, मकान बनाने हैं। लेकिन जंगल ही काटने से जंगल ही नहीं कटते, वर्षा होनी बंद हो गयी। क्योंकि वे वृक्ष बादलों को भी निमंत्रण देते थे, बुलाते थे। अब बादल नहीं आते, क्योंकि वृक्ष ही न रहे जो पुकारें। उन वृक्षों की मौजूदगी के कारण ही बादल बरसते थे, अब बरसते भी नहीं; अब ऐसे ही गुजर जाते हैं। हमने जंगल काट डाले, कभी हमने सोचा भी नहीं कि जंगल के वृक्षों से बादल का कुछ लेना—देना होगा। यह तो बाद में पता चला जब हम जंगल साफ कर लिये। अब वृक्षारोपण करो। जिन्होंने वृक्ष कटवा दिये वही कहते हैं, अब वृक्षारोपण करो। अब वृक्ष लगाओ, अन्यथा बादल न आयेंगे। हमने तो सोचा था अच्छा ही कर रहे हैं; जंगल कट जायें, बस्ती बस जाये।

हमने आदमी के जीवन की अवधि को बढ़ा लिया, मृत्यु—दर कम हो गयी। अब हम कहते हैं, बर्थ —कंट्रोल करो। पहले हमने मृत्यु—दर कम कर ली, अब हम मुश्किल में पड़े हैं, क्योंकि संख्या बढ़ गयी। अब आदमी बढ़ते जाते हैं, पृथ्वी छोटी पड़ती जाती है। अब ऐसा लगता है अगर यह संख्या बढ़ती रही तो इस सदी के पूरे होते —होते आदमी अपने हाथ से खतम हो जायेगा।

तो जिन्होंने दवाएं ईजाद की हैं और जिन्होंने आदमी की उम्र बढ़ा दी है, पच्चीस—तीस साल की औसत उम्र को खींच कर अस्सी साल तक पहुंचा दिया—इन्होंने हित किया? अहित किया? —बहुत

कठिन है तय करना। क्योंकि अब बच्चे पैदा न हों, इसकी फिक्र करनी पड़ रही है। लाख उपाय करोगे तो भी झंझट मिटने वाली नहीं है। अब अगर बच्चों को तुम रोक दोगे तो तुम्हें पता नहीं है कि इसका परिणाम क्या होगा।

मेरे देखे, अगर एक स्त्री को बच्चे पैदा न हों तो उस स्त्री में कुछ मर जायेगा। उसकी ‘मां’ कभी पैदा न हो पायेगी। वह कठोर और क्रूर हो जायेगी। उसमें हिंसा भर जायेगी। बच्चे जुड़े हैं। जैसे वृक्ष बादल से जुड़े हैं, ऐसे बच्चे मां से जुड़े हैं—और भी गहराई से जुड़े हैं। फिर क्या परिणाम होंगे, मां को किस तरह की बीमारियां होंगी, कहना मुश्किल है। क्योंकि अब तक स्त्रियां अनेक बच्चे पैदा करती रही हैं, तो हमें पता नहीं है। अब हम कहते हैं. ‘दो या तीन बस।’ अब यह ‘दो या तीन बस’ कहने पर स्त्री पर क्या परिणाम होंगे, इसका हमें कुछ पता नहीं। अभी हम कहते हैं कि संतति—नियमन की टिकिया ले लो। यह टिकिया स्त्री के शरीर में क्या परिणाम लायेगी, इसका भी हमें कुछ पता नहीं है। कितनी स्त्रियां पागल होंगी, कितनी स्त्रियां कैंसर से ग्रस्त होंगी, क्या होगा—कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अभी हमें पता नहीं है।

इंग्लैंड में एक दवा ईजाद हुई, जिससे कि स्त्रियों को बच्चे बिना दर्द के पैदा हो सकते हैं। उसका खूब प्रयोग हुआ। लेकिन जितने बच्चे उस दवा को लेने से पैदा हुए—सब अपंग, कुरूप, टेढ़े—मेढ़े.। मुकदमा चला अदालत में। लेकिन तब तक तो भूल हो गयी थी; अनेक स्त्रियां ले चुकी थीं। बिना दर्द के बच्चे पैदा हो गये, लेकिन बिना दर्द के बच्चे बिलकुल बेकार पैदा हो गये, किसी काम के पैदा न हुए। तब कुछ खयाल में आया कि शायद स्त्री को जो प्रसव—पीड़ा होती है, वह भी बच्चे के जीवन के लिए जरूरी है। अगर एकदम आसानी से बच्चा पैदा हो जाये तो कुछ गड़बड़ हो जाती है। शायद वह संघर्षण, वह स्त्री के शरीर से बाहर आने की चेष्टा और पीड़ा, स्त्री को और बच्चे को—शुभ प्रारंभ है।

पीड़ा भी शुभ प्रारंभ हो सकती है। अगर फूल ही फूल रह जायें जगत में और काटे बिलकुल न बचें, तो लोग बिलकुल दुर्बल हो जायेंगे; उनकी रीढ़ टूट जायेगी, बिना रीढ़ के हो जायेंगे।

जीवन ऐसा जुड़ा है कि कहना मुश्किल है कि किस बात का क्या परिणाम होगा! कौन—सी बात कहां ले जायेगी! मकड़ी का जाला, एक तरफ से हिलाओ, सारा जाला हिलने लगता है।

नहीं, आदमी बुद्धि से कहीं पहुंचा नहीं। बुद्धि के नाम से जिसको हम प्रगति कहते हैं, वह हुई नहीं। वहम है। भ्रांति है। आदमी पहले से ज्यादा सुखी नहीं हुआ है, ज्यादा दुखी हो गया है। आज भी जंगल में बसा आदिवासी तुमसे ज्यादा सुखी है। हालांकि तुम उसे देख कर कहोगे. ‘बेचारा! झोपड़े में रहता है या वृक्ष के नीचे रहता है। यह कोई रहने का ढंग है? भोजन भी दोनों जून ठीक से नहीं मिल पाता, यह भी कोई बात है? कपड़े—लत्ते भी नहीं हैं, नंगा बैठा है! दरिद्र, दीन, दया के योग्य। सेवा करो, इसको शिक्षित करो। मकान बनवाओ। कपड़े दो। इसकी नग्नता हटाओ। इसकी भूख मिटाओ।’ तुम्हारी नग्नता और भूख मिट गयी, तुम्हारे पास कपड़े हैं, तुम्हारे पास मकान हैं—लेकिन सुख बढ़ा? आनंद बढ़ा?: तुम ज्यादा शात हुए रूम तुम ज्यादा प्रफुल्लित हुए? तुम्हारे जीवन में नृत्य आया? तुम गा सकते हो, नाच सकते हो? या कि कुम्हला गये और सड़ गये? तो कौन—सी चीज गति दे रही है और कौन—सी चीज सिर्फ गति का धोखा दे रही है, कहना मुश्किल है।

लेकिन पूरब के मनीषियों का यह सारभूत निश्चय है, यह अत्यंत निश्चय किया हुआ दृष्टिकोण है, दर्शन है कि जब तक बुद्धि से तुम चलोगे तब तक तुम कहीं न कहीं उलझाव खड़ा करते रहोगे। गलितधी.!

छोड़ो बुद्धि को! जो इस विराट को चलाता है, तुम उसके साथ सम्मिलित हो जाओ। तुम अलग— थलग न चलो। यह अलग— थलग चलने की तुम्हारी चेष्टा तुम्हें दुख में ले जा रही है।

आदमी कुछ अलग नहीं है। जैसे पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, चांद—तारे हैं, ऐसा ही आदमी है—इस विराट का अंग। लेकिन आदमी अपने को अंग नहीं मानता। आदमी कहता है : ‘मेरे पास बुद्धि है। पशु—पक्षियों के पास तो बुद्धि नहीं। ये तो बेचारे विवश हैं। मेरे पास बुद्धि है। मैं बुद्धि का उपयोग करूंगा और मैं जीवन को ज्यादा आनंद की दिशा में ले चलूंगा।’ लेकिन कहां आदमी ले जा पाया! जितना आदमी सभ्य होता है, उतना ही दुखी होता चला जाता है। जितनी शिक्षा बढ़ती, उतनी पीड़ा बढ़ती चली जाती है। जितनी जानकारी और बुद्धि का संग्रह होता है, उतना ही हम पाते हैं कि भीतर कुछ खाली और रिक्त होता चला जाता है!

गलितधी: का अर्थ है : इस धारणा को ही छोड़ दो कि हम अलग— थलग हैं। हम इकट्ठे हैं। सब जुड़ा है। हम संयुक्त हैं। इस संयुक्तता में लीन हो जाओ, तो गलितधी। तो तुमने बुद्धि को जाने दिया। यही ध्यान है। बुद्धि के साथ चलना तनाव पैदा करना है। बुद्धि को छोड़ कर चलने लगना विश्राम में हो जाना है।

‘इस ज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर गलित हो गयी है बुद्धि जिसकी, ऐसा कृतकार्य पुरुष देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सुख—पूर्वक रहता है।’

अष्टावक्र कहते हैं : फिर उसे न कुछ छोड़ना है, न कुछ पकड़ना है। जो मिल जाता है, स्वीकार है। जो नहीं मिलता तो नहीं मिलना स्वीकार है। जो होता है, वह होने देता है। उसका जीवन सहज हो जाता है।

इस सूत्र को खयाल में लेना।

तुम जिनको साधु कहते हो, उनको साधु कहना नहीं चाहिए, क्योंकि उनका जीवन सहज नहीं है। तुम्हारा जीवन असहज है, उनका जीवन भी असहज है। तुम्हारा जीवन एक दिशा में असहज है, उनका जीवन दूसरी दिशा में। तुम ज्यादा खा लेते हो, वे उपवास कर लेते हैं। मगर दोनों में कोई भी सहज नहीं। तुम जब टेबल पर बैठे हो भोजन करने तो तुम भूल ही जाते हो कि शरीर अब कह रहा कि ‘कृपा करो, रुको, अब ज्यादा हुआ जाता है। अब स्थान और नहीं है पेट में। अब मत लो। अब तो पानी पीने को भी जगह न रही।’ लेकिन तुम खाये चले जा रहे हो। सुनते ही नहीं। असहज हो। फिर तुमसे विपरीत तुम्हारा साधु है। साधु तुमसे विपरीत का ही नाम है। तुम एक भूल कर रहे हो, वह विपरीत भूल करता है। वह बैठा है आसन जमाये। वह कहता है, भोजन करेंगे नहीं, आज उपवास है। शरीर कहता है, भूख लगी है, पेट में आग पड़ती है। पर वह नहीं सुनता। वह कहता है. ‘मैं शरीर थोड़े ही हूं। मैं तो शरीर का विजेता हो रहा हूं। मैं जीत कर रहूंगा। यहीं तो मेरा सारा अहंकार दाव पर लगा है कि कौन जीतता है—शरीर जीतता है कि मैं जीतता!’ यह भी असहज हो गया। एक का शरीर कह रहा था, बस करो और उसने बस न की। और एक का शरीर कह रहा था, थोड़ी कृपा करो, भूख लगी है, जल्दी पानी ले आओ, कुछ रोटी मांग लाओ। वह कहता है, नहीं जायेंगे। अपनी जिद पर अड़ा है। एक ने ज्यादा खाने की जिद की थी, एक ने न खाने की जिद कर ली—दोनो हठी हैं। दोनों में कोई भी सहज नहीं। दोनों असहज हैं।

लेकिन साधु तुम्हें सहज मालूम पड़ता है, क्योंकि तुम समझ नहीं पा रहे हो कि असहज का अर्थ क्या होता है। साधु तुम्हें संयमी मालूम पड़ता है। तुम्हें संयम का अर्थ नहीं मालूम। संयम का अर्थ होता है—संतुलित, मध्य में, अति पर जो नहीं गया। संतुलित आदमी तो तुम्हें साधु ही न मालूम पड़ेगा। जब तक अति पर न जाये तब तक तुम्हें दिखाई ही न पड़ेगा। तुम अति की ही भाषा समझते हो। अगर संयमी आदमी हो—जैसा मैं संयम का अर्थ कर रहा हूं जैसा अष्टावक्र करते हैं —संतुलित आदमी हो तो तुम्हें पता ही न चलेगा कि इसकी विशेषता क्या है। अगर कोई आदमी उतना ही भोजन करता हो जितना उसके शरीर को जरूरत है, तो तुम्हें पता कैसे चलेगा? उपवास न करे तो पता ही नहीं चलेगा। कोई आदमी उतना ही सोये जितनी शरीर को जरूरत है, तो तुम्हें पता कैसे चलेगा—जब तक वह तीन बजे उठ कर और राम— भजन न करे! जब तक वह मुहल्ले की नींद खराब न कर दे, तब तक तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि कोई आदमी धार्मिक है। जब तक वह सिर के बल खड़ा न हो जाये, शीर्षासन न करे, तब तक तुम मानोगे नहीं कि योगी है। कुछ उल्टा करे। कुछ ऐसा करे जो विशिष्ट मालूम पड़े, असाधारण मालूम पड़े।

मैं तुमसे कहता हूं, अगर ठीक सहज आदमी हो, तुम्हारी पहचान में ही नहीं आयेगा। सहज आदमी इतना शात होगा कि तुम्हारे पास से भी निकल जायेगा, तुम्हें पता भी न चलेगा कि कोई निकल गया। तुम्हें पता ही असहज का चलता है। या तो आदमी बहुमूल्य हीरे—जवाहरातो से लदा हो, राज—सिंहासन पर बैठा हो, तो तुम्हें पता चलता है। या सड़क पर नग्न खड़ा हो जाये तो तुम्हें पता चलता है। नग्न खड़ा हो जाये तो भी पता चलता है। क्योंकि यह भी विशिष्ट हो गया। सिंहासन पर हो तो भी पता चल जाता है, क्योंकि यह भी विशिष्ट है। सामान्य, सीधा—सादा आदमी, सहज—पता ही न चलेगा। क्योंकि जो चाहिए, वह वही कपड़े पहनेगा; जितना भोजन चाहिए, भोजन करेगा; जितनी नींद चाहिए, नींद लेगा। उसके जीवन में इतना संयम और संतुलन होगा कि वह तुम्हें चुभेगा नहीं, किसी भी कारण से चुभेगा नहीं। तुम्हें उसका बोध .ही न होगा। तुम्हें उसका स्मरण ही न आयेगा। और मैं तुमसे कहता हूं जिस दिन तुम ऐसे हो जाओ कि किसी को तुम्हारा पता न चले; कब आये, कब गये, पता न चले; कैसे आये, कैसे गये, पता न चले—तभी जानना कि तुम सहज हुए। सहज यानी साधु।

अष्टावक्र कहते हैं :

‘ऐसा कृतकार्य हुआ पुरुष देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सुखपूर्वक रहता है।’

न तो उपवास के पीछे पड़ता है, न त्याग के पीछे पड़ता है, न शीर्षासन लगा कर खड़ा होता है, न शरीर पर कोड़े मारता है।

ईसाई फकीर हुए हैं, जो रोज सुबह उठ कर कोड़े मारते थे। कौन फकीर कितने कोड़े मारता है, उतना ही बड़ा फकीर समझा जाता था। उनके घाव कभी मिटते ही न थे। क्योंकि रोज कोड़े मारेंगे सुबह, तो घाव भरेंगे कैसे? उनसे लहू बहता ही रहता था। और भक्त आ कर देखते कि किसने कितने

मारे। जिसने सौ मारे वह उससे बड़ा है जिसने नब्बे कोड़े मारे। तुम भी अपने साधुओं की जांच कैसे करते हो! किसी ने दस दिन का उपवास किया; किसी ने तीस दिन का किया—तीस दिन करने वाला बड़ा। उसने तीस कोड़े मारे, किसी ने दस कोड़े मारे।

तुमने कभी यह भी सोचा कि जो लोग इन साधुओं को कोड़े मारते हुए देखने जाते थे, ये बीमार हैं; रुग्ण हैं। एक तरह की विक्षिप्तता है। और ये दुष्ट हैं। और ये कारणभूत हैं। क्योंकि जब साधु कोड़े मार रहे हों और भीड़ देखने आयी, और भीड़ उसकी प्रशंसा करती है जो ज्यादा कोड़े मार लेता है—तो स्वभावत: जो दस मार सकता था वह भी बारह मार लेगा। दो कोड़े तुम्हारे कारण मार लेगा। और प्रतियोगिता पैदा हो जायेगी कि कौन ज्यादा मारता है। वहा भी अहंकार का संघर्ष शुरू हो जायेगा। तुमको भी समझ में आ जाये, क्योंकि हिंदुस्तान में कोड़े मारनेवालों का संप्रदाय नहीं है, तो तुम भी मान लोगे कि यह बात ठीक है, ये लोग कुछ दुखवादी हैं जो देखने जाते हैं। लेकिन तुम जब कोई मुनि, जैन मुनि उपवास करता है और तुम चरण स्पर्श करने जाते हो, तो तुम क्या करने जाते हो मे यह भी कोड़ा मारना है। शायद कोड़े मारने से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि कोड़ा तो ऊपर मारा जाता है चमड़ी के, यह उपवास भीतर गहरे में कोड़ा मारना है। तुम कहते हो : ‘हमारे महाराज ने तीन महीने का उपवास किया। तुम्हारे महाराज ने कितने दिन का उपवास किया?’ जिस—जिसके महाराज जरा पीछे पड़ गये हैं, वह जरा दीन हो जाता है।

मैं एक दिगंबर घर में बहुत दिन तक रहा—स्व दिगंबर जैन के परिवार में। तो मेरे पास कभी—कभी श्वेतांबर साधु—साध्वियां मिलने आते, तो वह दिगंबर परिवार उनको नमस्कार भी नहीं करता था। मैंने पूछा, ‘मामला क्या है? ये लोग जैसे साधु हैं.।’ उन्होंने कहा, ‘ये भी कोई साधु हैं? साधु होते हैं हमारे, नग्न रहते हैं! ये कोई साधु हैं! कपड़े पहने—जैसे हम पहने हैं, ऐसे ये पहने हैं। फर्क क्या है? साधु देखना है तो हमारे देखो, जो नग्न रहते हैं। धूप हो, ताप हो, नग्न रहते हैं। ये कोई साधु हैं! इनको क्या नमस्कार करना! ये तो गृहस्थ ही हैं।’

श्वेतांबर साधु की दिगंबर जैन के मन में कोई प्रतिष्ठा नहीं है। हो भी कैसे? क्योंकि सब दुखवादी हैं। और सब देख रहे हैं, कौन कितना दुख झेल रहा है—उतना ही। उतना ही। और जांच रख रहे हैं कि कहीं कोई किसी तरह से बच तो नहीं रहा है। आंख गड़ाये बैठे हैं। यह दुष्टों की जमात है। और ये दुष्ट जिसको भी जितना सताने में सफल हो जाते हैं उसकी उतनी प्रशंसा करते हैं स्वभावत:। यह प्रशंसा सौदा है।

तुम किसका आदर करते हो? कांटे पर कोई साधु लेटा है, तुम आदर करते हो। अगर कोई साधारण दरी बिछाकर बिछौना करके लेटा है, तो तुम कहोगे, ‘ आदर की बात ही क्या है? ऐसे तो हम भी लेटते हैं।’ मामला ऐसा है कि तुम्हारा अपने प्रति भी कोई आदर नहीं है। क्योंकि तुम जब तक कीटों पर न लेटोगे, आदर करोगे कैसे? तुम्हारा आदर ही विक्षिप्त है।

रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो अपनी जननेंद्रिया काट लेता था। उसका आदर था। उसके मानने वाले दूसरों के साधु को दो कौड़ी का समझते थे—कि तुम्हारा साधु किस मतलब का? पक्का क्या कि यह ब्रह्मचारी है? कहीं धोखा दे रहा हो! साधु तो हमारा पक्का है, क्योंकि उसके ब्रह्मचर्य में धोखा देने का कोई कारण ही नहीं है।

यह किस तरह के रुग्ण लोगों की जमात है! इसमें तुम असहज की पूजा करते हो और सहज का तुम्हें पता ही नहीं चलता।

किसी ने पूछा है कि अष्टावक्र ने इतना महत्वपूर्ण ग्रंथ जगत को दिया, लेकिन उनका संप्रदाय क्यों नहीं बना? अष्टावक्र का संप्रदाय तभी बन सकता है जब जगत में स्वस्थ लोग होंगे। अस्वस्थ लोगों में अष्टावक्र का संप्रदाय बन नहीं सकता। क्योंकि अष्टावक्र कहते हैं : ‘खाओ, पीओ, सूंघो, स्पर्श करो! जो सहज है वैसे जीओ। न यहां असहज, न वहा असहज। साक्षी भर रहो।’

तुम कहोगे : ‘साक्षी! इसमें तो बड़ा धोखा है। क्या पता यह आदमी साक्षी हो या न हो। मजे से खा रहा है, सो रहा है, बैठ रहा है और कहता है, हम साक्षी हैं! इसका पक्का क्या? ऐसे तो कुछ पता चलता नहीं। साक्षी तो भीतर है, बाहर कैसे पता चले?’ तुम्हें बाहर प्रमाण चाहिए कि कोई आदमी साधु हुआ कि नहीं। और प्रमाण क्या है? तुम जो कर रहे हो उससे विपरीत करे तो प्रमाण है। तुम पागल हो। वह तुमसे विपरीत दिशा में पागल हो जाए तो प्रमाण है।

इस सूत्र का एक और अर्थ भी हो सकता है—इससे भी ज्यादा गहरा।

कृतार्थ: अनेन ज्ञानेन इति एवम् गलितधी: कृती

—मैं अद्वैत आत्मज्ञान द्वारा कृतार्थ हुआ हूं ऐसी बुद्धि भी जिस ज्ञानी को उत्पन्न नहीं होती, वही कृतकार्य हुआ, वही कृतार्थ हुआ।

फिर वह देखता हुआ देखता, सुनता हुआ सुनता, स्पर्श करता, सूंघता, खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है।

इस वचन का यह अर्थ भी हो सकता है कि जिसको यह भाव भी नहीं उठता अब कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं—जिसकी ऐसी बुद्धि भी गलित हो गई।

कृतार्थ: अनेन ज्ञानेन इति एवम् गलितधी: कृती।

—ऐसी बुद्धि भी नहीं रही अब भीतर कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं।

क्योंकि जिसको ऐसी बुद्धि हो भीतर कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया, अभी द्वंद्व और द्वैत के बाहर नहीं गया। अभी अज्ञानी और ज्ञानी में फर्क बना है। अभी वह कहेगा, तुम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए, मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं। तो अभी ‘मैं’ मिटा नहीं।’मैं’ ने नया रूप ले लिया। कल कहता था, तुम गरीब हो, मैं अमीर हूं; तुम गैर—पढ़े—लिखे, मैं पढ़ा—लिखा; तुम कुरूप, मैं सुंदर; तुम कमजोर, मैं सबल। अब कहता है, मैं ज्ञानी, आत्मज्ञानी; तुम अज्ञानी। मगर फर्क बना हुउग है। मैं—तूं का फर्क मौजूद है।

इसलिए दूसरा अर्थ और भी गहरा है। पहला ठीक; दूसरा बहुत—बहुत ठीक। ऐसी बुद्धि भी अब पैदा नहीं होती। उपनिषद कहते हैं जो कहे कि मैंने जान लिया, जानना कि अभी जाना नहीं। क्योंकि ज्ञानी यह भी घोषणा नहीं करेगा कि मैंने जान लिया। यह घोषणा भी अस्मितापूर्ण है। ज्ञानी तो इतना भी नहीं कहेगा कि पा लिया। क्योंकि फिर भेद खड़ा हो गया : जिन्होंने नहीं पाया, उनसे हम ऊपर हो गये। फिर हमने खड़ी कर ली पुरानी धारणा। अब दूसरे नीचे रह गये, अब हम ऊपर हो गये। पहले धन के कारण ऊपर थे, अब आत्मज्ञान के कारण ऊपर हो गये। लेकिन अहंकार नये खेल रचाने लगा, नयी लीला करने लगा।

‘मैं अद्वैत आत्मज्ञान द्वारा कृतार्थ हुआ हूं ऐसी बुद्धि भी जिस ज्ञानी को उत्पन्न नहीं होती..,.।’ जिसमें बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती; जिसमें विचार ही उत्पन्न नहीं होता—वही कृतार्थ हुआ है। जो अवक्तव्य है। जो इस तरह की कोई घोषणा नहीं करता।

बुद्ध से लोग जा कर पूछते हैं कि ईश्वर है? बुद्ध चुप रह जाते हैं। बुद्ध से किसी ने एक दिन सुबह आ कर पूछा, आपको ज्ञान हुआ? बुद्ध चुप रह गये। उस आदमी ने कहा, आप साफ—साफ कह दें। हुआ हो तो हौ कह दें; न हुआ हो तो ना कह दें। उलझन में क्यों डालते हैं?

बुद्ध फिर भी चुप रहे। वह आदमी चला गया। वह यही सोच कर गया कि हुआ नहीं है, तो कहने की हिम्मत नहीं है। उसने बुद्ध के शिष्यों को कहा कि अभी कुछ हुआ नहीं ज्ञान इत्यादि, क्योंकि मैं पूछ कर आ रहा हूं। अगर हुआ होता तो कहते कि हुआ है। शिष्य हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम पागल हो। हुआ है इसीलिए चुप रह गये। कहने को क्या है?

और तब एक बड़ा उपद्रव संसार में खड़ा होता है। तुम उन्हीं की सुनते हो जो दावेदार हैं। जो जितने जोर से दावा करता है, उसकी ही तुम मान लेते हो। और परम ज्ञान की अवस्था में कोई दावा नहीं होता—कोई दावा नहीं है। परम ज्ञानी के पास तो तुम तभी टिक पाओगे जब तुम गैर—दावेदार को समझने में सफल और कुशल हो जाओगे। परम ज्ञानी के पास तो तुम तभी टिक पाओगे जब ज्ञानी तुमसे कहे कि मैं अज्ञानी हूं और तो भी तुम समझने में सफल रहो। ज्ञानी तुमसे कभी न कहे कि मैं जानता हूं तो भी तुम उसकी सन्निधि के लिए आतुर रहो—तो ही तुम किसी ज्ञानी का सत्संग पा पाओगे। अन्यथा तुम किसी धोखेधड़ी में पड़ जाओगे; किसी दावेदार की उलझन में आ जाओगे। दावेदार बहुत हैं। जिनकी उपलब्धि है, वे बहुत थोड़े हैं। और तुम्हारे पास एक ही उपाय है जानने का : ‘कौन जोर से चिल्ला रहा है। कौन पीट रहा टेबल को जोर से?’ जो जितने जोर से चिल्लाता है, तुम कहते हो जरूर… अगर हुआ न होता तो इतने जोर से कैसे चिल्लाता?

जिसको हो जाता है, वह चिल्लाता ही नहीं। निवेदन करता है, दावा नहीं करता। उसके प्राणों में प्रार्थना होती है, आग्रह नहीं होता।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि ‘सत्याग्रह’ शब्द अच्छा नहीं है। सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। सब आग्रह असत्य के होते हैं। इसलिए तो महावीर जैसे परम ज्ञानी ने स्यादवाद को जन्म दिया। स्यादवाद का अर्थ होता है, अनाग्रह। तुम पूछो उनसे ईश्वर है? वे कहते हैं : ‘स्यात्। हो, न हो।’ स्यात्! यह तो अज्ञानी की भाषा मालूम पड़ती है। यही तो महावीर के विरोधियों ने उन पर आरोप लगाया है कि यह तो अज्ञानी की भाषा हो गयी। तुमको पक्का पता नहीं! तुम कहते हो : ‘स्यात्। शायद।’ अरे पता हो तो हा कह दो, न पता हो तो ना कह दो। यह ‘शायद’ क्या बात हुई? या तो ईश्वर है या नहीं है।

महावीर कहते हैं कि शायद है, शायद नहीं है।

कठिन हो गयी बात। तुम वैसे ही डावांडोल हो, और ये महापुरुष डांवांडोल किये दे रहे हैं। तुम वैसे ही अनिश्चित थे, अब यह और महा अनिश्चय की घोषणा हो गयी। तुम इस आशा में आये थे कि महावीर के पास निश्चय हो जायेगा, पकड़ लेंगे किसी धारणा को, घर लौटेंगे संपत्ति लेकर—ये और मुश्किल में डाले दे रहे हैं। थोड़े—बहुत मजबूती से आये थे, वह भी डावांडोल कर दिया। ये कहते

हैं, ‘शायद!’ आत्मा है? ये कहते हैं, ‘शायद है, शायद नहीं है।’

महावीर का विचार बड़ा अदभुत है! महावीर यह कह रहे हैं, मुझसे निश्चय न मांगो। निश्चय तो तुम्हारे अनुभव से आयेगा। तुम उधार अनुभव मत मांगो। मैं तुम्हें निश्चित करने वाला कौन? और मैंने अगर तुम्हें निश्चित कर दिया तो मैं तुम्हारा दुश्मन।

मेरे पास लोग आ जाते हैं। एक सज्जन वर्षों से आते हैं। मैं उनसे कहता हूं : ‘आते हैं आप, सुनते हैं, कभी ध्यान करें।’ वे कहते हैं. ‘क्या ध्यान करना? अब आपको तो मिल ही गया। तो जो आप कह देंगे, हम तो मानते ही हैं आपको। हमें कोई संदेह थोड़े ही है। जिनको संदेह हो वे ध्यान इत्यादि करें। हमें तो स्वीकार है। आपको हो गया। और आप जो कहते हैं, हम मानते हैं। इतना काफी है कि आपके चरण छू जाते हैं। आपका आशीर्वाद चाहिए, और क्या चाहिए!’

मेरा निश्चय तुम्हारा निश्चय कैसे हो सकता है? मैंने जाना, यह तुम्हारा जानना कैसे बनेगा? और मैंने जाना कि नहीं जाना, यह तुम कैसे जानोगे? मेरा दावा ही कुल भरोसे का कारण हो सकता है? लेकिन दावा दावा सत्य का कोई होता ही नहीं।

लेकिन तुम सत्य को खोजना नहीं चाहते। तुम मुफ्त चाहते हो। तुम श्रम नहीं उठाना चाहते। तुम कहते हो, कोई कह दे तो झंझट मिटे। कोई पक्का कह दे, प्रमाण दे दे, तो हम इस खोजबीन के उलझाव से बच जायें। ये पहाड़ी रास्ते और यह दूर की यात्रा और यह हमसे हो नहीं सकता। आप हो कर आ गये हैं, आप बता दें कि मानसरोवर कैसा है? सुंदर है, ठीक है! हमें आप पर श्रद्धा है। हम श्रद्धालु हैं। यह जगत श्रद्धालुओं से भरा हुआ है। इन झूठे श्रद्धालुओं के कारण जगत में धर्म नहीं है। कोई हिंदू बन कर बैठ गया है, कोई मुसलमान, कोई जैन, कोई बौद्ध, कोई ईसाई; सब श्रद्धालु बने बैठे हैं। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, सब ज्यों से भरे हैं। इनमें से कोई जाना नहीं चाहता। ईसाई कहते हैं, बस, जीसस ने कह दिया तो ठीक। अब कोई झूठ थोड़े ही कहेंगे! जैन कहते हैं, महावीर ने कह दिया तो बस हो गयी बात।

तुम क्या कर रहे हो? : अपने को धोखा दे रहे हो।

परम शानी का तो कोई दावा नहीं है। परम ज्ञानी का तो आमंत्रण है। आग्रह नहीं है, अनाग्रह। परम ज्ञानी तो कहता है. ‘देखो मुझे, आओ मेरे पास। चखो मुझे, स्वाद लो मेरा। और यात्रा को तत्पर हो जाओ।’ परम शानी की मौजूदगी यात्रा पर भेजेगी तुम्हें, निश्चय नहीं दे देगी—उस यात्रा पर भेजेगी जहां अंतिम निर्णय में, अंतिम निष्कर्ष में निश्चय होगा। निश्चय तुम्हारे भीतर जन्मेगा।

कृताथोंउनेन—वही हुआ कृतार्थ।

ज्ञानेन इति एवम्—जिसे ‘मैं ज्ञानी हो गया’ ऐसी बुद्धि भी नहीं पैदा होती।

गलितधी: कृती—उसकी ऐसी बुद्धि भी गल गयी।

यह आखिरी बात गिर गयी। अब कोई भेद न रहा। ज्ञान—अज्ञान में भी भेद न रहा। संसार और मोक्ष में भी भेद न रहा। बंधन—मुक्ति में भी भेद न रहा। सब भेद गिर गये। अभेद उपलब्ध हुआ। अभेद में कैसा विचार? विचार में हमेशा भेद आ जाता है। जहां विचार आया, दीवाल उठी। जहां विचार आया, रेखा खिंची। भेद शुरू हुआ। निर्विचार में तो कोई भेद नहीं।

‘जिसका संसार—सागर क्षीण हो गया है, ऐसे पुरुष में न तृष्णा है, न विरक्ति है। उसकी दृष्टि

शून्य हो गयी है, चेष्टा व्यर्थ हो गयी है और उसकी इंद्रियां विकल हो गयी हैं।’

शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।

न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीण संसार सागरे।।

दृष्टि: शून्या—उस परम दशा में दृष्टि शून्य हो जाती है।

तुम्हारी आंखें बहुत भरी हुई हैं, हजार—हजार विचारों से भरी हुई हैं। तुम कुछ भी निर्विचार नहीं देखते, खाली आंख से नहीं देखते। तुम जब भी देखते हो पक्षपात से देखते हो, निष्पक्ष नहीं देखते। तुम कुछ भी देखने जाते हो, देखने के पहले ही कोई निर्णय करके जाते हौ।

यहां मेरे पास तुम सुनने आये। कोई निर्णय करके आ जाता है कि यह आदमी बुरा है। कोई निर्णय करके आ जाता है कि आदमी अच्छा है। आये बिना, आने के पहले निर्णय कैसे किया अच्छे का या बुरे का? कोई निर्णय करके न आते तो ही निर्णय हो सकता था। तुम निर्णय करके पहले ही आ गये, अब निर्णय बहुत मुश्किल होगा। अब बहुत संभावना यह है कि तुम अपने ही निर्णय को पक्का कर के लौट जाओगे। जो आदमी तय कर के आ गया है कि यह आदमी भला है, वह उतनी—उतनी बातें चुन लेगा जिनसे उसका निर्णय मजबूत होता है। वह चुनाव कर लेगा। जो आदमी तय कर के आ गया है कि आदमी बुरा है, वह भी निर्णय कर के जायेगा कि पक्का है, ठीक सोच कर आये थे : आदमी बुरा है। वह अपने हिसाब से निर्णय कर लेगा। वह अपनी बातें चुन लेगा—अपने पक्ष में। जो उसके पक्ष को मजबूत करे, वह चुन लेगा। और दोनों यह सोच कर जायेंगे, वे मेरे पास हो कर गये। वे आये ही नहीं। उनका पक्षपात आने कैसे देगा? पक्षपात बीच में खड़ा था, वे मुझे देख ही न पाये। पक्षपात ने सब रंग दिया। उनकी आंख पर चश्मा था।

तुम्हारी हालत करीब—करीब ऐसी है कि चश्मा ही चश्मा है, आंख तो है ही नहीं। चश्मे पर चश्मे हैं और आंख भीतर है ही नहीं। क्योंकि आंख तो शून्य की ही होती है।

दृष्टि: शून्या

बड़ी अपूर्व बात है। आंख तो होती ही तब है जब शून्य होती है; जिस पर कोई राग—रंग नहीं होता; जिस पर कोई पक्ष नहीं होता, कोई धारणा नहीं होती, कोई सिद्धात, कोई शास्त्र, कुछ भी नहीं होता।

एक ईसाई वृद्धा ने मुझे आ कर कहा कि ‘आपके वचन सुन कर मैं बहुत प्रसन्न हुई। आपने ईसाइयत में मेरी श्रद्धा को मजबूत कर दिया। आपने जो कहा वही तो जीसस ने कहा है।’

इस महिला को हुआ क्या? यह भरी है जीसस से। खयाल सब तैयार है। इसने वही—वही चुन लिया जिससे मेल खाता था, वह सब छोड़ दिया होगा जो मेल नहीं खायेगा। वह प्रसन्न हो गयी। वह मुझे धन्यवाद देने आयी। मैंने कहा कि तू आयी ही नहीं यहां। तेरा पहुंचना ही नहीं हुआ। तूने मुझे सुना कहां?:

उसने कहा कि आप गलती में हैं। आपने देखा न होगा, मैं पंद्रह दिन से सुनती हूं।

मैंने कहा कि तू पंद्रह साल भी सुन तो भी तू मुझे सुनेगी नहीं। खाली आंख हो कर आ। ईसाई बन कर मत सुन। हिंदू बन कर मत सुन। मुसलमान बन कर मत सुन। कुछ बन कर मत सुन, अन्यथा सुनना कैसे होगा? सिर्फ सुन। और मैं तुझसे कहता नहीं कि मुझसे राजी हो जा। राजी की भी क्या

जल्दी है? सुन ले पहले, फिर तू अपना निर्णय कर लेना। लेकिन सुन तो ले। सुनने के पहले ही निर्णय कर लिया तो बहुत मुश्किल हो जायेगा।

मुल्ला नसरुद्दीन गांव का काजी हो गया था। पहला ही मुकदमा आया। उसने एक पक्ष को सुना और उसने कहा कि बिलकुल ठीक है। क्लर्क ने कहा कि महानुभाव, यह तो अभी एक ही पक्ष है; अभी आप दूसरा तो सुनें। उसने कहा कि दूसरा सुनूंगा तो बड़ा डांवांडोल हो जायेगा चित्त। फिर निर्णय करना मुश्किल हो जायेगा। अभी आसानी है। अभी कर लेने दो।

उस क्लर्क ने कहा कि यह अन्याय हो जायेगा। आपको पता नहीं अदालत के नियम का।

तो उसने कहा, अच्छा ठीक है। दूसरे को सुन लिया। दूसरे से भी बोला कि बिलकुल ठीक है। उसके क्लर्क ने कहा कि आप होश में हैं? इतनी जल्दी न करें। दोनों ठीक कैसे हो सकते हैं?

उसने कहा कि भाई, तू भी बिलकुल ठीक है। इस झंझट में हमें पड़ना ही नहीं था।

आदमी जल्दी निर्णय करने में लगा है—जल्दी हो जाये! तुम ईसाई घर में पैदा हुए; हिंदू घर में पैदा हुए—तुमने एक ही पक्ष सुना है। इस संसार में तीन सौ धर्म हैं। और तुमने निर्णय कर लिया! तुम हिंदू बन गये। तुम जैन बन गये! और तुमने एक ही पक्ष सुना है। और यहां तीन सौ पक्ष थे। इतनी जल्दी! नहीं, घबड़ाये हुए हो तुम कि कहीं तीन सौ पक्ष सुन कर ऐसा न हो कि निर्णय करना मुश्किल हो जाये। जल्दी कर लो!

छोटा बच्चा पैदा नहीं होता कि मां—बाप उस पर संस्कार डालने शुरू कर देते हैं।’खतना करो।’ अभी बच्चे की जान में जान नहीं, मुसलमान बनाने लगे, उसका खतना कर दो। शुरुआत की उन्होंने उपद्रव की। कि मुंडन—संस्कार कर दो, कि जनेऊ पहना दो। आ गया ब्राह्मण, पंडित, पुरोहित— पूजा—पाठ, सब शुरू हो गया। अभी इस बच्चे को बोध भी नहीं है। अभी इसकी आंख भी ठीक से नहीं खुली है। अभी इसे कुछ पता भी नहीं है। मगर तुम डालने लगे। इसके पहले कि इसका बोध जगे, तुम इसको बना डालोगे। तुम इसको संस्कारित कर दोगे। तो इसका बोध कभी जगेगा ही नहीं। इस दुनिया में इतना उपद्रव इसीलिये है कि यहां बोध नहीं है; बोध जगने का मौका नहीं है। मां—बाप बड़े उत्सुक हैं, बड़े जल्दी में हैं। सारे धर्मगुरु सिखाते रहते हैं कि धर्म की शिक्षा दो, धर्म की शिक्षा होनी चाहिए।

धर्म की कभी शिक्षा नहीं होनी चाहिए! ध्यान की शिक्षा होनी चाहिए, धर्म की नहीं। ध्यान सिखा दो। लोगों को शांत होना सिखा दो। लोगों को निर्विचार होना सिखा दो। फिर उनका निर्विचार उन्हें जहां ले जाये, वहीं उनका धर्म होगा। फिर उनका निर्विचार जहां ले जाये..।

और मैं तुमसे कहता हूं निर्विचार कभी किसी को हिंदू नहीं बनायेगा और मुसलमान नही बनायेगा। निर्विचार व्यक्ति को धार्मिक बनायेगा।

दुनिया में धर्म हो सकता है, अगर बच्चों के मन हम पहले से ही विकृत न करें, जहर न डालें। लेकिन हम बड़ी जल्दी में होते हैं, हम बड़े घबड़ाये होते हैं कि इसके पहले कि कहीं कोई और बात मन में घुस जाये, अपनी बात घुसा दो।

इस जगत में जो बड़े से बड़े अनाचार हुए हैं मनुष्य—जाति पर, उनमें सबसे बड़ा अनाचार है बच्चों के ऊपर। अबोध, असहाय, तुम्हारे हाथ में पड़ गये हैं। तुम जो चाहो—खतना करो, चोटी रखवाओ,

चोटी कटवाओ, जनेऊ पहनाओ—जो चाहो करो। बच्चा कुछ भी तो नहीं कह सकता। क्योंकि अभी कुछ पता ही नहीं है उसे कि क्या हो रहा है। अभी हां—ना कहने का उपाय भी नहीं है। और इसके पहले कि वह ही —ना कहे, तुम वर्षों तक इतना दीक्षित कर दोगे उसे कि हां—ना कहना मुश्किल हो जायेगा। गलितधी: का अर्थ होता है, यह जो संस्कार तुम्हें दूसरों ने दिये हैं, इन सबका त्याग।

शून्या:— दृष्टि—तब तुम शून्य—दृष्टि हो जाते हो।

चेष्टा वृथा……..।

और जो साक्षी हो गया उसे दिखाई पड़ता है कि चेष्टा करने की कोई जरूरत नहीं है—जो होना है अपने से हो रहा है। नदी चेष्टा थोड़े ही कर रही है सागर जाने की। जा रही है जरूर, मगर चेष्टा नहीं कर रही है। वृक्ष बड़े होने की चेष्टा थोड़े ही कर रहे हैं—बड़े हो रहे हैं जरूर। बादल बरसने की चेष्टा थोड़े ही कर रहे हैं—बरस रहे हैं जरूर। चांद—तारे घूमने की चेष्टा थोड़े ही कर रहे हैं—घूम रहे हैं जरूर। घूमने की चेष्टा हो तो किसी दिन सूरज सुबह देर से उठे—कि हो गया बहुत, आज आराम करेंगे। सारी दुनिया में छुट्टी होती है। रविवार… सूरज का दिन है रविवार। सारी दुनिया छुट्टी मना रही है, मगर सूरज को छुट्टी नहीं। वह कह दे कि आज रविवार है, आज नहीं आते, आज आराम करेंगे। फिर कभी तो थक जाये, अगर चेष्टा हो। कभी तो विश्राम करना पड़े। नहीं, चेष्टा है ही नहीं। थकान कैसी? छुट्टी कैसी? अवकाश कैसा? कोई कुछ कर थोड़े ही रहा है, सब हो रहा है।

जिसकी दृष्टि शून्य हो जाती है, जिसकी बुद्धि गल जाती—वह अचानक जाग कर देखता है. मैं नाहक ही पागल बना! क्या—क्या करने की योजनाएं कर रहा था, क्या—क्या बनाने की योजनाएं कर रहा था! सब अपने से हो रहा है। मैं व्यर्थ ही बोझ ढोता था। कर्ता बन कर नाहक तनाव और चिंता ले ली थी। विक्षिप्त हुआ जा रहा था।

‘जिसका संसार—सागर क्षीण हो गया, ऐसे पुरुष में न तृष्णा है, न विरक्ति, उसकी दृष्टि शून्य हो गयी, चेष्टा व्यर्थ हो गयी, और उसकी इंद्रियां विकल हो गयीं।’

इंद्रियाणि विकलानी…….।

अभी जो ऊर्जा है हमारी, जीवन की ऊर्जा, वह सारी की सारी इंद्रियों के साथ जुड़ी है। जैसे ही व्यक्ति शात होता, शून्य होता, साक्षी बनता, ऊर्जा इंद्रियों से मुक्त होकर ऊपर की तरफ उठनी शुरू होती है। इंद्रियां ऊर्जा को नीचे की तरफ लाने के उपाय हैं।

जिसके भीतर ऊर्जा ऊपर नहीं उठ रही है उसके लिए प्रकृति ने उपाय दिया है कि ऊर्जा इकट्ठी न हो जाये, नहीं तो तुम फूट जाओगे। तो ऊर्जा नीचे से निकल जाये। जिस दिन ऊर्जा ऊपर उठने लगती है, इंद्रियां अपने— आप शात हो जाती हैं। इंद्रियों की जो प्रबल चेष्टा है वह शात हो जाती है। देखते हो फिर तुम तब भी, लेकिन आंख कहती नहीं कि देखो सौंदर्य को, चलो देखो सौंदर्य को! सुनते हो तुम तब भी, पर कान कहते नहीं कि चलो सुनो, सुंदर मधुर संगीत को। स्वाद तुम तब भी लेते हो, लेकिन जिह्वा तुम्हें पीड़ित नहीं करती, परेशान नहीं करती, सपने नहीं उठाती, वासना नहीं जगाती कि चलो, भोजन करो; अगर भोजन नहीं तो कम से कम सपने में ही बैठ कर भोजन करो; कल्पना ही करो स्वादिष्ट भोजनों की। नहीं, सब काम चलते रहते हैं। लेकिन इंद्रियों से जो पुराना पैशन, वह जो पुरानी वासना थी, वह जो बल था, वह विलीन हो जाता है।

कृष्‍ण ने अर्जुन को कहा है. ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।’ संपूर्ण भूतो की जो आत्म—अज्ञानरूपी रात्रि है और जिसमें सब भूत सोये हुए हैं उसमें ज्ञानी जागता है। और जिस अज्ञानरूपी दिन में सब भूत जागते हैं, उसमें ज्ञानी सोया हुआ है। अज्ञानी जहां जागता है वहां ज्ञानी सो जाता है। और जहां अज्ञानी सोया है, वहां ज्ञानी जाग जाता है। तुम इंद्रियों में जागे हुए हो, स्वयं में सोये हुए; ज्ञानी स्वयं में जाग जाता, इंद्रियों में सो जाता है। उसकी इंद्रियां शांत हो कर शून्य हो जाती हैं। उसका साक्षी जागता है।

ऊर्जा तो वही है। जब साक्षी जागता है तो इंद्रियों के जायने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। उनमें ऊर्जा नहीं बहती। साक्षी सारी ऊर्जा को अपने में लीन कर लेता है। तुम जहां जागे हो, वहा ज्ञानी सो जाता है, तुम जहां सोये हो, वहां ज्ञानी जाग जाता है। जो तुम्हारा दिन, उसकी रात्रि। जो तुम्हारी रात्रि, उसका दिन।

‘वह न जागता है, न सोता है। न पलक को खोलता है और बंद करता है। अहो, मुक्तचेतस की कैसी उत्कृष्ट परम दशा रहती है!’

समझना।

न जागर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति।

अहो परदशा क्यापि वर्तते मुक्तचेतस।

न जागर्ति………

ज्ञानी कुछ करता ही नहीं। इसलिए यह भी कहना ठीक नहीं कि वह जागता है। यह भी कहना ठीक नहीं कि वह सोता है। जब कर्तृत्व ही खो गया तो परमात्मा ही जागता है, और परमात्मा ही सोता है—ज्ञानी नहीं। इस भेद को खयाल रखना।

तुम बडी कोशिश करते हो, नींद नहीं आ रही है। तुम सोने की कोशिश करते हो। तुम सोचते हो शायद सोने की कोशिश से नींद आ जायेगी। कोशिश से नींद का कोई संबंध है? जब आती है, तब आती है। जब परमात्मा सोना चाहता है, तब सोता है; तुम्हारे सुलाने से नहीं। परमात्मा कोई छोटा बच्चा नहीं है कि तुमने लोरी गा दी, थपकी मार दी और सुला दिया। तुम्हारे भीतर जब सोने की जरूरत होती है, तो नींद आ जाती है।

मेरे पास कोई आकर कहता है कि नींद नहीं आती है, तो उससे मैं कहता हूं न आने दो। शात बिस्तर पर पड़े रहो। तुम कुछ करो भी मत। तुम्हारी चेष्टा से कुछ हल होगा भी नहीं। चेष्टा से नींद का कोई संबंध नहीं है। सच तो यह है कि चेष्टा के कारण ही नींद नहीं आ रही है। तुम्हारी चेष्टा ही बाधा बन रही है। नहीं आती तो ठीक है, जरूरत नहीं होगी।

अब के आदमी हैं, वे भी चाहते हैं कि आठ घंटे सोये। के आदमी को आठ घंटे सोने की जरूरत नहीं रह गयी। तीन—चार घंटा बहुत है। उनको चिंता होती है। क्योंकि पहले वे आठ घंटा सोते थे। वे यह भूल ही गये कि पहले वे जवान थे। जरूरतें अलग थीं। मां के पेट में बच्चा चौबीस घंटे सोता है, तो क्या बुढ़ापे में भी चौबीस घंटे सोओगे? बच्चा पेट से पैदा हो जाता है तो अठारह घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है, तो क्या तुम अठारह—बीस घंटे सोओगे? बच्चे की जरूरत अलग है। जैसे —जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ने लगी, नींद की जरूरत कम होने लगी।

लेकिन हमारी अड़चनें हैं। पैंतीस साल के पहले आदमी जितना भोजन करता है, पैंतीस साल के बाद भी करता चला जाता है। वह यह याद ही नहीं करता कभी कि अब ढलान शुरू हो गयी। तो फिर भोजन सारा पेट में इकट्ठा होने लगता है। अब वह कहता है. ‘मामला क्या है? इतना ही भोजन हम पहले करते थे, तब कुछ गड़बड़ न होती थी।’ चालीस के आसपास ही पेट बड़ा होना शुरू होता है। कारण कुल इतना है कि पैंतीस तक तो तुम चढ़ाव पर थे। अब उतार पर हो। सत्तर साल में मरना है, तो उतरोगे भी न? पैंतीस साल लगेंगे उतरने में। चढ़ तो गये पहाड़, अब उतरेगा कौन? अब तुम उतरने लगे। अब इतने पेट्रोल की जरूरत नहीं। सच तो यह है कि पेट्रोल की जरूरत ही नहीं है। अब तुम पेट्रोल की टंकी बंद कर दे सकते हो, कार उतरेगी। अब कम भोजन की जरूरत है। अल्प भोजन की जरूरत है। अल्प निद्रा की जरूरत है। लेकिन पुरानी आदत को हम खींचते चले जाते हैं।

हम सुनते ही नहीं प्रकृति की। और प्रकृति परमात्मा की आवाज है। तो हम मरते दमतक भी जीवन से जकड़े रहते हैं। अगर हम चुपचाप प्रकृति को सुनते चलें तो प्रकृति हमें सब चीजों के लिए राजी कर लेती है। जब नींद कम हो जायेगी तो हम जानेंगे कि अब जरूरत कम हो गयी।

ज्ञानी का अर्थ है, जो अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करता। आ गयी नींद तो ठीक, नहीं आयी तो पड़ा रहता है। आंख खुल गयी तो ठीक, नहीं खुली तो भी पड़ा रहता है। न तो ज्ञानी कर्मठ होता, और न आलसी होता। शानी कुछ होता ही नहीं। ज्ञानी उपकरण, निमित्तमात्र होता है। परमात्मा जो करवा लेता है, कर देता है। नहीं करवाता तो प्रतीक्षा करता है; जब करवायेगा तब कर देंगे।

न जागर्ति न निद्राति…..।

वह न तो अपने से सोता, न अपने से जागता। यहां तक कि—

नोन्मीलति न मीलति।

पलक भी नहीं झपकता अपने से। झपकी तुमने भी कभी नहीं है, खयाल ही तुमको है कि तुम झपक रहे हो। अभी कोई एक जोर से हाथ तुम्हारे पास ले आयेगा, पलक झपक जायेगी। अगर तुम सोचविचार करोगे, तब तो दिक्कत हो जायेगी। तब तक तो आंख मुश्किल में पड़ जायेगी। पलक तो अपने से झपकती है। प्राकृतिक है। वैज्ञानिक कहते हैं. ‘रिफ्लेक्स ऐक्यान।’ अपने से हो रहा है, तुम कर नहीं रहे हो।

तुमने नींद में देखा, कीड़ा चढ़ रहा हो, तुम झटक देते हो। तुम्हें पता ही नहीं है। सुबह तुमसे कोई पूछे कि कीड़ा चढ़ रहा था चेहरे पर, तुमने झटका? तुम कहोगे, हमें याद नहीं। किसने झटका? तुम्हें याद ही नहीं है! लेकिन कोई तुम्हारे भीतर जागा हुआ था, झटक दिया। रात गहरी से गहरी नींद में भी तुम्हारा कोई नाम पुकार देता है कि राम! तुम करवट ले कर बैठ जाते हो कि कौन उपद्रव करने आ गया ग्र सारा घर सोया है। किसी को सुनाई नहीं पड़ा, तुम्हें सुनाई पड़ गया। तुम्हारा नाम है, तो तुम्हारे अचेतन से कोई ऊर्जा उठ गयी। नींद में भी तुम सुन लेते हो। मां सोती है, तूफान उठे, बादल गरजे, बिजली चमके, उसे सुनाई नहीं पड़ता। लेकिन उसका बच्चा जरा कुनमुना दे, वह तत्कण उठ जाती है। तुम्हारे भीतर कोई सूत्रधार है।

अष्टावक्र कहते हैं.

अहो परदशा क्यापि वर्तते मुक्त चेतस।

धन्य है! अहो! कैसी है मुक्तचेतस की उत्कृष्ट परमदशा कि न तो पलक झपकता, न पलक

खोलता, न सोता, न जागता। अपने से कुछ करता ही नहीं। कर्ता— भाव सारा समाप्त हो गया।

तुम जरा सोचो तो इस परमदशा की बात। सोच कर ही तुम आह्लादित होने लगोगे। काश तुम्हारा कर्ता विसर्जित हो जाये, तो कैसी चिंता! चिंता पैदा कैसे होगी? चिंता कर्ता की छाया है। कर्ता गया कि चिंता गयी। चिंता तो तुम छोड़ना चाहते हो, कर्ता नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए चिंता कभी छूटती नहीं। और एक नयी चिंता पकड़ जाती है कि चिंता कैसे छूटे। और चिंता में नया जोड़ हो जाता है। पूर्वीय मनोविज्ञान मनुष्य की चेतना की चार दशाएं मानता है। पहली दशा जागृति, जिसको हम जागृति कहते हैं। जागृति में अहंकार होता, कर्ता का भाव होता, मैं की बड़ी पकड़ होती।

दूसरी अवस्था को स्वप्न कहता है। स्वप्न में अहंकार क्षीण हो जाता है। रोज तुम जब रात सो जाते, सपने में तुम्हारा अहंकार क्षीण हो जाता है। ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं रह जाता, शूद्र शूद्र नहीं रह जाता। राष्ट्रपति को पता नहीं रहता, राष्ट्रपति हूं चपरासी को पता नहीं रहता कि चपरासी हूं। अस्मिता क्षीण हो जाती है। बिलकुल समाप्त नहीं हो जाती—कुछ—कुछ झलक मारती रहती है। धूमिल हो जाती है। अहंकार तो नहीं रहता, लेकिन अहंकार का प्रतिबिंब रह जाता है। यह स्वप्न दूसरी दशा है।

तीसरी दशा है सुषुप्ति—जब स्वप्न भी खो गये, कुछ भी न बचा। तब अहंकार का अभाव हो जाता है। तब तुम्हें पता ही नहीं रहता कि मैं हूं। कर्ता का भी अभाव हो जाता है। तुम करने वाले नहीं रह जाते। श्वास चलती है, चलती है। भोजन पचता है, पचता है। खून बहता है, बहता है। तुम कुछ करने वाले नहीं रह जाते। तुम कुछ नहीं करते सुषुप्ति में। मैं की छाया भी नहीं रह जाती, जैसी सपने में थी। जागृति में मैं बहुत मजबूत था, सपने में छाया थी, सुषुप्ति में छाया भी खो गयी। एक अंधकार फैल जाता है। सुषुप्ति एक नकारात्मक दशा है, निगेटिव। कुछ भी नहीं होता। जैसे तुम नहीं रहे, ऐसा हो जाता है।

फिर चौथी दशा है, परमदशा, अहोदशा। उसका नाम है : तुरीय। तुरीय जागृति जैसी जाग्रत और सुषुप्ति जैसी शांत। तुरीय का अर्थ है, जैसी गहरी नींद में शाति होती है ऐसी शाति। लेकिन गहरी नींद में अंधकार होता है, तुरीय में प्रकाश होता है। गहरी नींद में अहंकार खो जाता है, तुरीय में भी अहंकार खो जाता है। लेकिन गहरी नींद में निरहंकार पैदा नहीं होता। गहरी नींद में सिर्फ अहंकार खो जाता है। वह नकारात्मक स्थिति है। तुरीय की अवस्था में निरहंकार— भाव पैदा होता है। वह विधायक स्थिति है। बोध जगता है। होश जगता है। अकर्ता का भाव स्पष्ट हो जाता है। तुरीय अवस्था में व्यक्ति परमात्मा का संपूर्ण रूप से निमित्त हो जाता है। व्यक्ति मिट जाता है और परमात्मा ही शेष रहता है। यह चौथी ही अवस्था का वर्णन है, तुरीय अवस्था का वर्णन है—

अहो क्यापि परदशा मुक्तचेतस वर्तते।

कैसी धन्य दशा है मुक्त चैतन्य की! कैसी उत्कृष्ट, कैसी परम! जहां न तो वह जागता, न सोता, न पलक को खोलता, न बंद करता—और सब अपने से होता है। सब नैसर्गिक! सब सहज!

‘मुक्त पुरुष सर्वत्र स्वस्थ, सर्वत्र विमल आशय वाला दिखायी देता है और वह सब वासनाओं से रहित सर्वत्र विराजता है।’

सर्वत्र दृश्यते स्वस्थ:!

वह जो मुक्त पुरुष है तुम उसे हर स्थिति में, हर परिस्थिति में स्वयं में स्थित पाओगे। तुम उसे कभी विचलित होते न देखोगे। तुम उसे कभी अपने केंद्र से स्मृत होते न देखोगे। यह तुरीय अवस्था में ही संभव है—जहां केंद्र उपलब्ध हो जाता है और केंद्र पर पैर जम जाते हैं। जैसे वृक्ष ने जड़ें जमा लीं जमीन में, ऐसा ही मुक्त पुरुष अपनी तुरीय अवस्था में जड़ें फैला देता है।

सर्वत्र दृश्यते स्वस्थ:…।

तुम उसे हर जगह स्वस्थ पाओगे। दुख हो या कि सुख हो; सफलता हो कि विफलता हो, जीवन आये कि मृत्यु आये—तुम उसे स्वस्थ पाओगे। तुम उसे मृत्यु में भी स्वस्थ पाओगे। तुम उसे डावांडोल न देखोगे।

सर्वत्र विमलाशय:…….

और हर जगह तुम पाओगे उसका आशय निर्मल है। उसके आशय को तुम कहीं भी कठोर न पाओगे। उसके आशय को कहीं विकृत न पाओगे। उसका आशय सदा ही शुभ होगा। ऐसा नहीं कि वह शुभ करना चाहता है। वह तो बात गयी। करने इत्यादि की तो बात गयी। ऐसा नहीं कि वह नैतिक बनने की चेष्टा करता है। वह तो बात गयी। अनीति नहीं बची, नीति नहीं बची। अब तो उसका जो शुद्ध सहज व्यवहार है, वही उसका विमल आशय है। तुम उसके पास एक सुगंध पाओगे। तुम उसके पास एक शांत वातावरण पाओगे। तुम अगर जरा राजी हो, तो तुम उसके वातावरण में डुबकी ले सकते हो; जैसे कोई गंगा में स्नान कर ले, ताजा हो जायेगा।

ज्ञानी पुरुष ही असली तीर्थ है। इसलिए जैनों ने महावीर को तीर्थंकर कहा। नदियों के किनारे नहीं हैं तीर्थ, ज्ञानियों के आसपास हैं। क्योंकि ज्ञानियों के भीतर बह रही है असली गंगा। जल की गंगा से तो ठीक है, तुम्हारी देह धुल जायेगी; लेकिन चैतन्य की गंगा से धुलेगा तुम्हारा चैतन्य, तुम्हारी आत्मा भी स्नान कर लेगी।

समस्त वासनामुक्तो।

वह समस्त वासनाओं से मुक्त हो गया है।

मुक्त: सर्वत्र सजते।

और तुम उसे हमेशा पाओगे राज सिंहासन पर। चाहे वह धूल में बैठा हो, लेकिन तुम उसकी बादशाहत पहचान लोगे। उसका सम्राट होना सिंहासनों पर निर्भर नहीं है, उसका सम्राट होना बड़ा आंतरिक है। वह चाहे नग्न फकीर की तरह खड़ा हो रास्ते पर, तुम पहचान लोगे कि उसका साम्राज्य है। जीसस ने इसी साम्राज्य की बात की है. ‘किंगडम ऑफ गॉड’; प्रभु का राज्य!

जीसस को बहुत बार उनके दुश्मन पकड़ने आये। लेकिन पास आ कर बदल गये। एक बार पुरोहितो ने आदमी भेजे, दुष्ट से दुष्ट आदमी भेजे कि जीसस को पकड़ लाओ। वे आकर उनकी बात सुनने लगे, मंत्रमुग्ध हो गये। जब लौट कर आये और पुरोहितो ने पूछा : तुम लाये नहीं? तो उन्होंने कहा, बड़ा मुश्किल है। यह आदमी बड़ा अदभुत है। इसके पास एक गरिमा है, कि हम एकदम दब गये। यह बादशाहत है इसके पास कोई, कि हम एकदम दीन—हीन मालूम होने लगे। कैसे तो इसके हाथ में हथकड़ियां डालें? हमने अपनी हथकड़ियां छुपा लीं। यह आदमी बहुत अदभुत है। ऐसा आदमी कभी हुआ नहीं।

इसलिए फिर जीसस को अंधेरी रात में पकड़ा। दिन में पकड़ने की फिर कोशिश नहीं की; क्योंकि

दिन में कोशिशें कीं, वे व्यर्थ गयीं।

तुम देखते हो, महावीर नग्न खड़े हैं। लेकिन फिर भी क्या कोई बादशाह इनसे बड़ी बादशाहत को कभी उपलब्ध हुआ है?

स्वामी राम अपने को बादशाह कहते थे। उन्होंने एक किताब लिखी है : राम बादशाह के छ: हुक्मनामे। था तो उनके पास कुछ नहीं—लंगोटी। छ: हुक्मनामे! उसमें छ: आदेश दिये हैं दुनिया के नाम, फरमान—कि ऐसा करो। जब वे अमरीका गये तो वहां भी अपने को बादशाह राम ही कहते रहे! लोगों ने उनसे पूछा कि आप फकीर हैं, अपने को बादशाह क्यों कहते हैं? उन्होंने कहा : इसीलिए, क्योंकि मेरे पास सब है। जिस दिन मैंने छोटा घर छोड़ा, यह सारा ब्रह्मांड मेरा घर हो गया। मैंने क्षुद्र क्या छोड़ा, विराट मेरी संपदा हो गयी। अब मेरे पास सब है, सारी संपदा है। सारे जगत की संपदा मेरी है। चांद—तारे मेरे लिए चलते हैं। सूरज मेरे लिए उगता है। यह सब मेरे इशारे पर हो रहा है। लोग समझते कि दिमाग इनका थोड़ा कुछ खराब है। तुम्हारे इशारे पर हो रहा है! लेकिन राम ठीक कह रहे हैं। एक ऐसी घड़ी है. जब तुम मिट जाते हो, तब तुम्हारे भीतर से परमात्मा ही बोलता है। किसी ने उनसे पूछा, आपके इशारे से हो रहा है? उन्होंने कहा, और किसके इशारे से होगा? मेरे अतिरिक्त कोई है नहीं। मैंने ही इनको चलाया। जब पहली दफा मैंने इनको धक्का दिया, तो मैं ही था। ये चांद—तारे मैंने बनाये। मेरे इशारे से चल रहे हैं। पहले ही से मेरे इशारे से चल रहे हैं।

यह किसी और महत लोक की बात है। राम में बादशाहत थी।

समस्त वासना मुक्तो मुक्त: सर्वत्र सजते।

सर्वत्र.. जिसकी वासना शून्य हो गयी है वह अपने आंतरिक सिंहासन पर विराजमान है। जो ऐसे सिंहासन पर विराजमान है वही विराजमान है, शेष सब तो भिखारी हैं।

‘देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, चलता हुआ, प्रयास और अप्रयास से मुक्त महाशय निश्चय ही जीवन—मुक्त है।’

सब करता है और फिर भी कुछ नहीं करता। चलता है और चलता नहीं। बोलता है और बोलता नहीं। खाता है और खाता नहीं।

जैन शास्त्रों में एक उल्लेख है। एक जैन मुनि का आगमन हुआ। वह यमुना के उस पार ठहरे। यमुना में बाढ़ आयी है। और रुक्मिणी ने कृष्ण से पूछा कि मुनि ठहरे हैं उस पार, नाव लगती नहीं, कौन उन्हें भोजन पहुंचायेगा? भोजन हमें पहुंचाना चाहिए।

कृष्ण ने कहा, तो पहुंचाओ। पर उसने कहा. पार कैसे जायें? नाव लगती नहीं।

उन्होंने कहा : इतना ही कह देना कि अगर मुनि सदा से उपवासे हैं तो यमुना राह दे दे। अगर मुनि उपवासे हैं तो यमुना राह दे देगी।

बड़ी मीठी कहानी है। रुक्मिणी ने थाल सजाये। वह अपनी सखियों के साथ पहुंची। उसने जा कर कहा नदी को कि हे नदी, मुनि उस तरफ भूखे हैं और अगर वे सदा के उपवासे हों तो तू राह दे दे। और कहते हैं, नदी ने राह दे दी। चकित, नदी से रुक्मिणी गुजर गयी। उस तरफ जा कर मुनि को भोजन कराया। तब याद आयी कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गयी। लौट कर नदी से क्या कहेंगे? क्योंकि अब तो मुनि ने भोजन कर लिया। अब तो वे उपवासे नहीं हैं। और कृष्ण से हमने पूछा ही नहीं। आने की बात तो पूछ ली थी, जाने की नहीं पूछी। आने तक तो ठीक था कि मुनि सदा के उपवासे हैं—तो रहे होंगे, नदी ने राह दे दी। प्रमाण हो गया। लेकिन अब तो मुनि को हमने अपनी आंख के सामने खुद ही भोजन करवा दिया है। अब कैसे उपवासे हैं? और वे बहुत थाल सजा कर लायी थीं। मुनि सारे थाल समाप्त कर गये। अब वे बड़ी घबड़ाने लगीं। उन्हें बेचैन देख कर मुनि ने कहा, तुम बड़ी चिंतित मालूम पड़ती हो, बात क्या है? उन्होंने कहा कि ऐसा—ऐसा मामला है। कृष्ण ने कहा था, यह सूत्र बोल देना। हमने बोला भी, काम भी पड़ गया। नदी ने राह भी दे दी। अब हम क्या करें? हम लौटने की बात पूछना भूल गये।

मुनि ने कहा. पागल हुई हो! वही बात फिर कहना नदी से कि मुनि अगर सदा के उपवासे हों तो राह दे दो।

अब तो उन्हें भरोसा भी नहीं था इस बात पर। भरोसा होता भी कैसे? लेकिन कोई चारा भी न था। जाकर कहा, गैर— भरोसे से कहा, लेकिन नदी ने फिर राह दे दी। क्या से आकर उन्होंने पूछा कि अब हमारे बिलकुल सूझ—बूझ के बाहर बात हो गयी। तो कृष्ण ने कहा. मुनि सदा ही उपवासा है। भोजन करने न करने से कोई संबंध नहीं। उपवास का अर्थ जानती हो गु: उपवास का अर्थ होता है, जो अपने भीतर विराजमान है। अपने पास बैठा—उपवास। इसका भोजन लेने —देने से संबंध ही नहीं। भोजन नहीं किया, तो अनशन। उपवास का क्या संबंध है? उपवास का अर्थ होता है : जो अपने पास है, जो अपने निकटतम बैठा है; जो वहां से हटता नहीं। यह मतलब है उपवास का।

जो अपने भीतर विराजमान हो गया है, वह भोजन करते हुए भी भोजन नहीं करता है; क्योंकि भोजन तो शरीर में ही जाता, उसमें नहीं जाता। वह साक्षी ही बना रहता है। वह चलते हुए चलता नहीं, क्योंकि चलता तो शरीर है।

तुम कभी चले हो आज तक? चलोगे कैसे? तुम्हारे कोई हाथ—पैर हैं? शरीर चलता है। तुम बोलोगे कैसे? शरीर बोलता है। तुम सोचोगे कैसे? मन सोचता है। तुम इन सब के पार, सारी क्रियाओं के पीछे साक्षी—रूप हो।

‘देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता, सूंघता, खाता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, चलता हुआ, प्रयास और अप्रयास से मुक्त……।’

न तो वह ऐसा करता, .न ऐसा नहीं करता। जो होता है, होने देता है। सबको मार्ग देता है। जो प्रभु करवा ले, वही ठीक। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं रही। वह अपना हिसाब नहीं रखता। वह हर हालत में प्रभु के साथ है। उसने तैरना बंद कर दिया। वह नदी के साथ बहा जाता है। इस बहाव का नाम जीवन—मुक्ति है।

‘ऐसा महाशय निश्चय ही जीवन—मुक्त है।’

ईहितानीहितै मुक्त: मुक्त: एव महाशय:।

‘मुक्त पुरुष सर्वत्र रसरहित है। वह न निंदा करता, न स्तुति करता, न हर्षित होता, न क्रुद्ध होता, न देता और न लेता है।’

न निदति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति

न ददाति न गृहणाति मुक्त: सर्वत्र नीरस:।।

इसे समझना। नीरस से कुछ गलत अर्थ मत ले लेना। मुक्त पुरुष नीरस है, क्योंकि उसे परम रस मिल गया। इस जगत में अब उसका रस नहीं रहा। मुक्त पुरुष नीरस है, क्योंकि उसे वह मिल गया है जिसको हम कहते हैं : ‘रसो वै सः’। उसने परम धन पा लिया। तुम्हारे ठीकरों में उसे धन नहीं दिखाई पड़ता। इसलिए नहीं कि ठीकरे उसने छोड़ दिये, त्याग दिये। त्यागने योग्य भी उनमें कोई मूल्य नहीं है। उसमें कुछ है ही नहीं जो त्यागा जा सके, कि भोगा जा सके। तुम जिन—जिन चीजों में रस लेते, उसका रस खो जाता। तुम जहां जागे, वहां वह सो जाता है। तुम जहां सोये, वहां वह जाग जाता है। एक परम रस पैदा हुआ है। अब अहर्निश अमृत की धार बरस रही है। अब जहर को कौन पीये, किसलिए पीये!

तुम जिसे रस कह रहे हो, वह रस नहीं है। क्योंकि अगर रस होता तो तुम्हारे जीवन में रसमुग्धता आ गयी होती। तुम रसपूर्ण हो गये होते। तुम्हारे जीवन में महोत्सव फलता, फूल खिलते, नाच होता, उत्सव होता। कुछ भी तो नहीं है। तुम रूखे—सूखे, मरुस्थल जैसे पड़े हो। थके—हारे, सर्वहारा, सब खोये पड़े हो। तुम्हारे जीवन में कहीं भी तो कोई फूल खिलता मालूम नहीं होता। काटे ही कांटे तुम्हारे जीवन में फैल गये हैं। तुम्हारी सारी कथा कीटों की कथा है। दुख ही दुख और दंश ही दंश। और तुम कहते हो रस! तुम जरूर किसी गलत चीज को रस कह रहे हो। जहां रस नहीं है वहां तुम रस देख रहे हो। इस रस का तो विसर्जन हो जाता है।

इसलिए यह सूत्र कहता है ‘नीरस: ‘। वैसा परम ज्ञानी नीरस हो जाता है। तुम्हारे रस की दृष्टि से, तुम्हारी भाषा में नीरस हो जाता है। लेकिन अगर तुम दूसरी तरफ से देखो, ज्ञानी की तरफ से देखो तो वह पहली दफा रस से भरता है। वह रस का सागर हो जाता है। उसके जीवन में महाकाव्य पैदा होता है। उसके जीवन में बड़ा संगीत जन्म लेता है। उसके जीवन में विराट की वीणा बजती है और परमात्मा के प्रसून खिलते हैं। उस अर्थ में वह नीरस नहीं है।

यह मैं तुम्हें स्पष्ट कर दूं क्योंकि तुम्हारे साथ सदा खतरा है। तुम्हारे साथ खतरा यह है कि तुम नीरस आदमियों को ज्ञानी समझ सकते हो। तुमने ऐसे बहुत से ज्ञानी बना बिठा रखे हैं चारों तरफ, जिनके भीतर कुछ भी नहीं है; जो बिलकुल सूखे हैं। बाहर का छोड़ दिया, भीतर का हुआ नहीं। और तुमने यह सोच कर कि बाहर का छोड़ दिया, नीरस हो गये, त्यागी हो गये, विरक्त हो गये। नहीं, असली विरक्ति की यही पहचान है, कि बाहर के सारे रस चले गये हों और भीतर से अहर्निश रस की धार बह रही हो। तुम जहां रस देखते हो, वहां रस न दिखाई पड़ता हो और फिर भी जीवन में एक परम रस हो। बुद्ध ने तो इस अवस्था को धर्म —मेघ समाधि कहा है। जैसे मेघ बरसता है, रस से भर जाता है, ऐसे।

कबीर ने बार—बार कहा है कि खूब घने मेघ घिर गये हैं। अमृत की वर्षा हो रही है और कबीर मगन हो कर नाच रहा है।

तुम्हारा रस निश्चित खो जाता है। तुम्हारा रस रस ही नहीं है, पहली बात। तो तुम्हारे रस के खोने से आदमी नीरस नहीं होता है। तुम्हारे रस के खोने से ही आदमी के परम रस का द्वार खुलता है। अब दो बातें हैं। या तो तुम परम रस का द्वार खोल लो, तो इस जीवन से रस चला जाये। या तुम इस जीवन का रस छोड़ दो, तो पक्का नहीं है कि परम द्वार खुलेगा या नहीं खुलेगा।

अष्टावक्र की पूरी प्रक्रिया और मेरा पूरा उपदेश यही है कि तुम पहले उस परम द्वार को खोल लो। तुम बड़े रस को पा लो, छोटा रस अपने से छूट जायेगा।

क्षुद्र छूट ही जाता है जब विराट हाथ में आता है। व्यर्थ छूट ही जाता है जब सार्थक की गंध मिलती है। जिसको बडी संपदा मिल जाती है, वह फिर छोटी संपदा की चिंता कहां करता! तब त्याग में एक मजा है। तब त्याग में एक सहजता है। बिना किये हो जाता है, करना नहीं पड़ता है। जो त्याग करना पड़े वह झूठा है। उसमें कर्ता तो बच ही जायेगा और अहंकार निर्मित होगा।

न निदति न च स्तौति न हष्यति न कुप्यति!

ऐसा पुरुष तुम्हारे सब रसों से रहित है। वह न निंदा करता है, न स्तुति करता है।

तुम जरा हैरान होना; रस की चर्चा में निंदा—स्तुति की बात अष्टावक्र ने क्यों उठा दी? निंदा तुम्हारा रस है। तुम जब निंदा का मजा लेते हो, तुम जब किसी की निंदा करते हो, तब तुम्हारा चेहरा देखो, कैसा रसपूर्ण मालूम होता है! जीवन में बड़ी ऊर्जा मालूम होती है। निंदा करते लोगों को देखो, कैसे प्रसन्न मालूम होते हैं! दिखता है, यही उनकी एकमात्र प्रसन्नता है। तुम्हें अगर निंदा करने को न मिले तो तुम बड़े विरस हो जाओगे।

तुम निंदा क्यों करते हो? आखिर लोग निंदा में इतना—इतना मजा क्यों लेते हैं पर काव्यशास्त्र ने नौ रस गिनाये हैं, पता नहीं वह निंदा को क्यों छोड़ गये हैं, क्योंकि वह महारस मालूम होता है। कविता वगैरह तो लोग कभी—कभी पढ़ते—सुनते हैं। और रस तो ठीक ही हैं, निंदा बिलकुल सार्वलौकिक रस है, सार्वभौम। अगर कोई तुम्हारे पास बैठ कर कुछ कहने लगे, किसी की निंदा करने लगे, तुम लाख काम छोड़ देते हो। यह मौका छोड़ते नहीं बनता। अगर वह आदमी बीच में रुक जाये, कहे कि अब कल कह देंगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। कल तक समय बिताना मुश्किल हो जाता है। तुम कहते हो : अरे भाई, कह ही दो, निपटा ही दो, नहीं तो मन में अटका रहेगा।

आखिर निंदा में इतना रस क्या है? रस है! निंदा का अर्थ होता है दूसरे को छोटा दिखाना। दूसरे के छोटे दिखाने में तुम्हें अपने बड़े होने का मजा आता है। तुम बड़े तो हो नहीं। सीधे—सीधे तो तुम बड़े हो नहीं। दूसरे की निंदा करके तुम एक छोटा—सा मजा ले लेते कि तुम बड़े हो।

सुनी तुमने कहानी अकबर की कि एक लकीर खींच दी उसने दरबार में और कहा : इसे बिना छुए कोई छोटा कर दे। सोचा बहुत, बिना छुए कैसे छोटी होगी। छूना तो पड़ेगा, तभी छोटी होगी। लेकिन बीरबल ने उठ कर एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। बीरबल को निंदा—रस का पता होगा। उसने बिना छुए एक लकीर खींच दी बड़ी—छोटी हो गयी लकीर, पहली लकीर छोटी हो गयी।

तुम जब किसी की निंदा में रस लेते हो तो तुम उसकी लकीर छोटी कर रहे हो। उसकी छोटी होती लकीर के कारण तुम्हारी लकीर बड़ी हो रही है। तुम प्रफुल्लित होते हो कि अरे, तो हम से भी बुरे लोग हैं दुनिया में, कोई हम ही बुरे नहीं! और हम तो फिर कुछ भी बुरे नहीं, इतने बुरे लोग हैँ। धीरे— धीरे तुम कहते हो, तो हम तो भले ही हैं। बुरे लोगों का संसार है, इसमें हम नाहक परेशान हो रहे थे।

तुमने एक बात खयाल की, अगर कोई किसी की निंदा करता हो तो तुम प्रमाण कभी नहीं मांगते। तुम यह नहीं कहते कि प्रमाण क्या? लेकिन कोई अगर किसी की प्रशंसा करता हो तो तुम प्रमाण मांगते हो। कोई कहे कि फला आदमी परम शान को उपलब्ध हो गया, तुम कहते, प्रमाण? तुम्हारे कहने से न मान लेंगे। सबूत क्या है? कोई प्रत्यक्ष प्रमाण लाओ, कहने से क्या होता है?

लेकिन कोई अगर कहे कि फला परम ज्ञानी भ्रष्ट हो गया, तो तुम प्रमाण नहीं मांगते। तुम कहते हो, हमको तो पहले से ही पता था, यह होना ही था। वह भ्रष्ट था ही।

तुम अपने मन को जरा गौर करना। कोई अगर किसी की बुराई करे तो तुम बिना तर्क मान लेते हो। कोई किसी की भलाई करे तो तुम हजार तर्क खड़े करते हो। क्यों? क्योंकि दूसरे की भलाई का मतलब है, उसकी लकीर बड़ी हो रही है, तुम्हारी छोटी हो रही है। बुराई का अर्थ है, उसकी लकीर छोटी हो रही है, तुम्हारी बड़ी हो रही है। यह भीतर का हिसाब है।

ऐसा नहीं है कि तुम सदा निंदा में ही रस लेते हो; कभी—कभी तुम स्तुति में भी रस लेते हो। तब भी तुम खयाल रखना कि वहा भी कुछ गणित काम करता है। तुम स्तुति किसकी करते हो? जिसके साथ तुम अपना तादात्म्य कर लेते हो, उसकी स्तुति करते हो। तुम्हारा गुरु, तो तुम उसकी स्तुति करते हो। तुम कहते हो, हमारा गुरु महागुरु! दूसरे कहते हैं, गुरुघंटाल; तुम कहते हो महागुरु। तुम क्यों कहते हो महागुरु? क्योंकि महागुरु हो तो ही तुम महाशिष्य। अब तुमने उसकी लकीर के साथ अपनी लकीर जोड़ दी। उसकी जितनी लकीर बड़ी होती जाये उतनी तुम्हारी होती है; नहीं तो तुम भी गये। अब तुम तो रेल के डब्बे हो, वह इंजिन। अब वह चले तो तुम चले, नहीं तो तुम भी गये।

तो जिनके साथ तुम अपना तादात्म्य कर लेते हो, उनकी तुम प्रशंसा करते हो। तुम्हारा बेटा—तुम कहते हो ‘अरे, लाखों में एक!’ और ये सब लाखों में एक बेटे कहां खो जाते हैं, पता नहीं चलता। हरेक अपने बेटे की तारीफ कर रहा है। क्योंकि लाखों में एक बेटा तभी होता है जब करोड़ों में एक बाप हो। क्योंकि फल से ही वृक्ष तो पहचाना जाता है। तो जब बेटा सिद्ध नहीं होता लाखों में एक, तो तुम्हें बड़ी पीड़ा होती है। जो बेटा तुम्हारे अहंकार को बड़ा नहीं करता, तुम उसकी चर्चा नहीं करते। मेरे एक मित्र थे, उनके दो बेटे थे। एक मिनिस्टर हो गया और एक साधारण दूकानदार। वे जब भी आते अपने मिनिस्टर बेटे की चर्चा करते। मैंने उनसे कहा कि आपका दूसरा भी बेटा है, आप उसकी कभी चर्चा नहीं करते। वे बोले : उसकी क्या चर्चा करना? मैंने कहा कि यह भी कोई बात हुई? मिनिस्टर की ही चर्चा करते हैं। मिनिस्टर से उनको बड़ी आशाएं थीं। वे सोचते थे कि उनका बेटा जो मिनिस्टर है, वह कभी न कभी प्राइम मिनिस्टर होने वाला है; वह पंडित जवाहरलाल नेहरू की जगह लेने वाला है। उनकी कल्पना में..। और वे मोतीलाल थे। वह उनके दिमाग में बैठा था। अब वे दूकानदार की तो बात ही नहीं करते, क्योंकि दूकानदार। अब किराने की दूकान कोई चलाये, उस बेटे के बाप होने में सार ही क्या है!

फिर उनका जो बेटा मिनिस्टर था और जवाहरलाल होने वाला था मर गया बीच में। वह मरा मिनिस्ट्री की वजह से। चिंता— भार… विक्षिप्त हो गया। फिर विक्षिप्तता में प्राण भी चले गये। तो वे बहुत—बहुत रोये। आत्महत्या करने को उतारू हो गये। मैंने उनसे पूछा कि अगर तुम्हारा दूसरा बेटा मर जाता तो तुम इस तरह के उपद्रव करते? तो वे रो रहे थे; आंखों से उनके आंसू रुक गये। उन्होंने कहा : आप हमेशा दूसरे बेटे की बात क्यों उठाते हैं? मैंने कहा कि मैं इसलिए उठाता हूं कि मुझे पता तो चले कि यह बाप का हृदय है या सिर्फ अहंकार ही काम कर रहा है।

फिर संयोग की बात, जब पहला बेटा मर गया, तो दूसरे बेटे को उन्होंने धीरे — धीरे धक्का दिया, उसको मिनिस्टर बनवा दिया। तब से वे दूसरे बेटे की बात करने लगे। तब से वह दूसरा बेटा भी सार्थक मालूम होने लगा।

तुम जिसके साथ अपना अहंकार जोड़ देते हो, बस उसके साथ तो तुम्हारी स्तुति जुड़ जाती है। इसलिए जैन कहता है कि महावीर, बस इनसे बड़ा कोई ज्ञानी कभी नहीं हुआ। ईसाई कहता है जीसस, वे ईश्वर के इकलौते बेटे।’इकलौते’ पर जोर देता है। क्योंकि अगर दूसरा भी बेटा हो तो झंझट खड़ी होगी। फिर कोई दूसरा धर्म दावा कर दे कि यह दूसरा बेटा है और जीसस के बड़े भाई हैं ये। तो इकलौते पर जोर देते हैं कि इकलौता बेटा! तो दूसरे का उपाय ही नहीं छोड़ते।

मुसलमान कहते हैं : मुहम्मद आखिरी पैगंबर, उनके बाद अब कोई नहीं। ईश्वर ने आखिरी पैगाम भेज दिया, अब इसमें कोई तरमीम नहीं, कोई सुधार नहीं। भेज दी आखिरी बात, आखिरी कितब आ चुकी। अब कोई किताब नहीं आयेगी। क्योंकि अगर ऐसा आगे भी दरवाजा खुला रखें तो फिर हजारों लोग हैं, हर कोई दावा कर देगा कि हम दूसरी किताब ले आये। यह आ गयी किताब दूसरी। फिर इलहाम हो गया हमें। यह सब रोकना पड़ेगा। मुहम्मद को अप्रतिम बनाना होगा, आखिरी बनाना होगा। इनके ऊपर फिर किसी को जाने न देना होगा। फिर इससे तुमने जोड़ लिया कि हम मुसलमान और हमारा पैगंबर आखिरी पैगंबर।

हिंदुओं से पूछो। वे कहते हैं कि वेद परमात्मा की किताब, और कोई किताब परमात्मा की नहीं। और वेद परमात्मा का पहला इलहाम।

एक आर्यसमाजी मुझसे मिलने आये। वे कहने लगे कि आप बाइबिल की इतनी प्रशंसा करते हैं और जीसस की इतनी प्रशंसा करते हैं, लेकिन आप हमारी बात पर ध्यान दें। परमात्मा ने सबसे पहले तो वेद उतारा। तो वेद सबसे ज्यादा प्राचीन है। और परमात्मा कुछ गलती थोड़े ही करता है—जो एक दफे भेज दिया, भेज दिया। फिर उसमें सुधार की कोई जरूरत ही नहीं है। फिर सारे धर्म तो बाद में आये। तो ये सब आदमियों की ईजाद है। परमात्मा तो कोई भूल कर ही नहीं सकता। ऐसा श्गेड़े ही है कि एक भेजा, फिर दस—पचास साल बाद उसने सोचा कि अरे, इसमें कुछ भूल हो गई, फिर दूसरा भेजें, फिर तीसरा भेजें

तो वे कहने लगे कि हमारी किताब सबसे पहले आयी—वह सबूत है इस बात का कि फिर बाकी किताबें सब आदमियों की हैं।

उनकी दलील वेद से अपने को जोड़ लिया। सनातन धर्म, सबसे पुराना धर्म, सबसे प्राचीन। परमात्मा की पहली किताब।

ईसाई कहते हैं कि समय के साथ रोज, जीवन के साथ रोज बदलाहट होती है। मुसलमान कहते हैं, समय के साथ बदलाहट होती है। तो पुरानी किताब तो सड़ चुकी। वह जिनके लिए भेजी थी, वे भी अब नहीं हैं। वह बात गयी। वह तो पहली क्लास की किताब थी। अब मनुष्यता पहुंच गयी है विश्वविद्यालय में। अब तुम वही क ख ग पढ़ते रहोगे?

सबकी अपनी दलीलें हैं—अपनी को श्रेष्ठतम सिद्ध करने की दलीलें हैं। लेकिन पीछे बहुत गहरे में यह भाव छिपा है कि हम श्रेष्ठतम से जुड़े हैं, तो हम श्रेष्ठतम हो गये हैं।

स्तुति में भी तुम रस लेते हो। ध्यान रखना, न निंदा में रस लेना, न स्तुति में रस लेना। दोनों रुग्ण रस हैं, बीमार हैं। दोनों को तुम छोड़ दो तो तुम्हारा अहंकार बेसहारा हो जाये। धीरे— धीरे तुम्हारे अहंकार की लकीर पूरी की पूरी विलुप्त हो जायेगी। और जब अहंकार खो जाता है तो जो शेष रह जाता है, वही पाने योग्य है। फिर न तो कुछ देने को है, न कुछ लेने को है। जो है, है।

न ददाति न गृहणाति मुक्त: सर्वत्र नीरस:।

फिर न तो मुक्त पुरुष को कुछ लेना है किसी से, न किसी को कुछ देना है। सब उसका है और कुछ भी उसका नहीं है। सब उसे मिला है और किसी की उसे आकांक्षा नहीं है। वह समस्त के साथ एक हो गया, सर्व के साथ एक हो गया, सर्व—रस में लीन हो गया—इसलिए नीरस है।

इन सूत्रों पर ध्यान करना। और इन सूत्रों को सिर्फ सिद्धात की तरह मत समझना। ये तुम्हारे जीवन के लिए स्पष्ट निर्देश हैं। इनका जरा उपयोग करोगे तो तुम्हारा अनगढ़ पत्थर गढ़ा जाने लगेगा। तुम्हारे अनगढ़ पत्थर में तुम्हारी प्रतिमा उकरने लगेगी। धीरे — धीरे रूप प्रकट होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर परमात्मा को छिपाये बैठा है। थोड़े निखार की जरूरत है। थोड़े स्नान की जरूरत है। धूल बह जाये। गलितधी: —विचार गिर जायें—तो परम आनंद तुम्हारा स्वभाव है।

हरि ओंम तत्सत्!


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जिन सूत्र –भाग–1

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जिन सूत्र (महावीर) भाग—1

ओशो

जिन—दर्शन गणित, विज्ञान जैसा दर्शन है। काव्‍य की उसमें कोई जगह नहीं। वही उसकी विशिष्‍टता है।

दो और दो जैसे चार होते है, ऐसे ही महावीर के वक्‍तव्‍य है।

महावीर धर्म की परिभाषा करते है : जीवन के स्‍वभाव के सूत्र को समझ लेना धर्म है। जीवन के स्‍वभाव को पहचान लेना धर्म है। स्‍वभाव ही धर्म है।

इसलिए महावीर के वचन……..जैसे महावीर नग्‍न है वैसे ही महावीर के वचन भी नग्‍न है। उनमें कोई सजावट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है।

तो जब मैं महावीर के मार्ग पर बोल रहा हूं तो तुम ख्‍याल रखना: मैं चाहता हूं कि शुद्ध महावीर की बात तुम्‍हारी समझ में आ जाए; और जिसको वह यात्रा सुगम मालूम पड़े वह चल सके। वहां भक्‍ति को भूल ही जाना। वहां सूफियों से कुछ लेना—देना नहीं। वहां तो तुम शुद्ध निर्भाव होने की चेष्‍टा करना। क्‍योंकि वहां निर्भाव ही गाड़ी का चाक है।

महावीर का मार्ग शुद्धतम मार्गों में एक है। लेकिन उसे शुद्ध रखना। महावीर के मार्ग पर पूजा को मत ले आना, प्रार्थना को मत ले आना।

महावीर तुम्‍हें वहां ले जाना चाहते है। जहां न कोई विचार रह जाता है। और न कोई भाव रह जाता है। न कोई चाह रह जाती है। न कोई परमात्‍मा रह जाता है—जहां बस तुम एकांत, अकेले अपनी परिपूर्ण शुद्धता में बच रहते हो। निर्धूम जलती है तुम्‍हारी चेतना।

महावीर ने जैसी महिमा का गुणगान आत्‍मा का किया है, किसी ने भी नहीं किया। महावीर ने सारे परमात्‍मा को आत्‍मा में उंडेल दिया है। महावीर ने मनुष्‍य को जैसे महिमा दी है, और किसी ने भी नहीं दी। महावीर ने मनुष्‍य को सर्वोतम सबसे ऊपर रखा है।

और यह जो दुर्लब क्षण तुम्‍हें मिला है मनुष्‍य होनेका इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसे ऐसे भूले—भूले ही मत गंवा देना। इसे दूसरों के द्वार खटखटाते—खटखटाते ही मत गंवा देना। बहुत मुश्‍किल से मिलता है यह क्षण। और बहुत जल्‍दी खो जाता है। बड़ा दुर्लभ है यह फूल; सुबह खिलता है, और सांझ मुरझा जाता है। फिर हो सकता है सदियों—सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़े।

इसलिए मनुष्‍य होना महिमा ही नहीं है, बड़ा उत्‍तरदायित्‍व है। अस्‍तित्‍व ने तुम्‍हारे भीतर से कोई बहुत बड़ा कृत्‍य पूरा करना चाहा है। साथ दो, सहयोग दो, अस्‍तित्‍व ने तुम्‍हारे भी से कोई बहुत बड़ी घटना घटने का आयोजन किया है। साथ दो, सहयोग दो। और जब तक तुम खिल न पाओगे, नियति तुम्‍हारी पूरी न होगी।

ओशो

जिन—सूत्र


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–4

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परमात्मा के स्वर— (अध्याय 4) चौथा प्रवचन

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। 11।।

हे अर्जुन! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं। इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।

यह वचन बहुत अदभुत है।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी भांति भजता हूं। और बुद्धिमान पुरुष इस बात को जानकर इस भांति बर्तते हैं।

भगवान भजता है! इस सूत्र में एक गहरे आध्यात्मिक रिजोनेंस की, एक आध्यात्मिक प्रतिसंवाद की घोषणा की गई है। संगीतज्ञ जानते हैं कि अगर एक सूने एकांत कमरे में कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा को बजाए और दूसरे कोने में एक वीणा रख दी जाए–खाली, अकेली। कमरे में गूंजने लगे आवाजें एक बजती हुई वीणा की, तो कुशल संगीतज्ञ उस शांत पड़ी हुई वीणा के तारों को भी झंकृत कर देता है; रिजोनेंस पैदा हो जाता है। वह जो खाली पड़ी वीणा है, जिसे कोई भी नहीं छू रहा है, वह भी उस गूंजते संगीत से गुंजायमान हो जाती है। वह भी गूंजने लगती है; उससे भी संगीत का स्फुरण होने लगता है।

परमात्मा भी रिजोनेंस है; प्रतिध्वनि देता है। जैसे हम होते हैं, ठीक वैसी प्रतिध्वनि परमात्मा भी हमें देता है। हमारे चारों ओर वही मौजूद है। हमारे भीतर जो फलित होता है, तत्काल उसमें प्रतिबिंबित हो जाता है; वह दर्पण की भांति हमें लौटा देता है, हमारे प्रतिबिंबों को।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजता है, उसी भांति मैं भी उसे भजता हूं। जो जिस भांति मेरे दर्पण के समक्ष आ जाता है, वैसी ही तस्वीर उस तक लौट जाती है।

परमात्मा कोई मृत वस्तु नहीं है, जीवंत सत्य है। परमात्मा कोई बहरा अस्तित्व नहीं है, कोई डंब एक्झिस्टेंस नहीं है, परमात्मा हृदयपूर्ण है। परमात्मा भी प्राणों के स्पंदन से भरा हुआ अस्तित्व है। और जब हमारे प्राणों में कोई प्रार्थना उठती है और हम परमात्मा की तरफ बहने शुरू होते हैं, तो आप मत सोचना कि यात्रा एक तरफ से होती है। यात्रा दोहरी है। जब आप एक कदम उठाते हैं परमात्मा की तरफ, तब परमात्मा भी आपकी तरफ कदम उठाता है।

यह हमें साधारणतः दिखाई नहीं पड़ता। यह साधारणतः हमारे खयाल में नहीं आता। यह खयाल में हमारे इसीलिए नहीं आता कि हम जीवन की क्षुद्रता में इस भांति उलझे हुए हैं कि उसकी गहरी प्रतिध्वनियों को पकड़ने की क्षमता खो देते हैं। हम इतने शोरगुल में डूबे हुए हैं कि वह जो धीमी-धीमी आवाजें अस्तित्व हमारे पास पहुंचाता है, वे हमें सुनाई नहीं पड़तीं। बहुत स्टिल स्माल वाइस, बड़ी छोटी आवाज है। बड़ी बारीक, महीन आवाज में ध्वनियां हम तक लौटती हैं, लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़तीं। हम इतने उलझे होते हैं।

कभी खयाल किया हो; आप अपने कमरे में बैठे हैं, खयाल करें, तो पता चलता है कि बाहर वृक्ष पर चिड़िया आवाज कर रही है। खयाल न करें, तो वह आवाज करती रहती है, आपको कभी पता नहीं चलता। रात के सन्नाटे से गुजर रहे हैं, अपने विचारों में खोए हुए हैं। पता नहीं चलता है कि बाहर झींगुर की आवाज है। होश में आ जाएं, चौंककर जरा रुक जाएं; सुनें, तो पता चलता है कि विराट सन्नाटा आवाज कर रहा है।

ठीक ऐसे ही परमात्मा प्रतिपल हमें प्रतिध्वनित करता है, लेकिन झींगुर की आवाज से भी सूक्ष्म है आवाज। सन्नाटे की आवाज से भी बारीक है। पक्षियों की चहचहाहट से भी नाजुक है। बहुत चुप होकर, मौन होकर जो उसे पकड़ेगा, वही पकड़ पाता है।

गहरे मौन में, कृष्ण जो कहते हैं, उसका निश्चित ही पता चलता है। यहां उठती है एक ध्वनि, चारों ओर से उसकी प्रतिध्वनि लौट आती है और उसकी हमारे ऊपर वर्षा हो जाती है।

मैं एक पहाड़ पर था। कुछ मित्रों के साथ था। उस पहाड़ पर एक जगह थी इकोप्वाइंट। वहां जाकर आवाज करते, तो पहाड़ियों की घाटियां सात बार उस आवाज को लौटा देतीं।

एक मित्र साथ थे, उन्होंने कुत्ते की आवाज में चिल्लाना शुरू किया। पहाड़ चारों तरफ से कुत्ते की आवाज लौटाने लगे। वे खेल में ही कर रहे थे; पर खेल भी तो खेल नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें और आवाजें करनी भी आती हैं, फिर कुत्ते की आवाज ही क्यों कर रहे हो? उन मित्र ने कोयल की आवाज करनी शुरू की और पहाड़ की घाटियां कोयल की आवाज से गूंज कर हम पर लौटने लगी। मैंने उनसे कहा, पहाड़ वही लौटा देते हैं, जो हम उन तक पहुंचाते हैं। सात गुना वापस कर देते हैं।

कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में…।

जिस रूप में भी हम अपने अस्तित्व के चारों ओर अपने प्राणों से प्रतिध्वनियां करते हैं, वे ही हम पर अनंतगुना होकर वापस लौट आती हैं। परमात्मा प्रतिपल हमें वही दे देता है, जो हम उसे चढ़ाते हैं। हमारे चढ़ाए हुए फूल हमें वापस मिल जाते हैं। हमारे फेंके गए पत्थर भी हमें वापस मिल जाते हैं। हमने गालियां फेंकीं, तो वे ही हम पर लौट आती हैं। और हमने भजन की ध्वनियां फेंकीं, तो वे ही हम पर बरस जाती हैं।

अगर जीवन में दुख हो, तो जानना कि आपने अपने चारों तरफ दुख के स्वर भेजे हैं, वे आप पर लौट आए हैं। अगर जीवन में घृणा मिलती हो, तो जानना कि आपने घृणा के स्वर फेंके थे, वे आप पर वापस लौट आए। अगर जीवन में प्रेम न मिलता हो, तो जानना कि आपने कभी प्रेम की आवाज ही नहीं दी कि आप पर प्रेम वापस लौट सके।

इस जीवन के महा नियमों में से एक है, हम जो देते हैं, वह हम पर वापस लौट आता है।

कृष्ण वही कह रहे हैं। वे कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता है…।

जिस रूप में, इस शब्द को ठीक से स्मरण रख लेना। जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं भी उसे उसी रूप में भजता हूं। मैं उसे वही लौटा देता हूं, इन दि सेम क्वाइन।

वह कहानी तो हम सबको पता है। सभी को पता होगा। एक आदमी पर अदालत में मुकदमा चला। वकील ने उससे कहा कि तू बोलना ही मत। तू तो इस तरह की आवाजें करना कि पता चले, गूंगा है। जब मजिस्ट्रेट पूछे, तभी तू गूंगे की तरह आवाजें करना। कहना, आ आ आ। कुछ भी करना, लेकिन बोलना मत।

अदालत में वही किया। फिर मुकदमा जीत गया। वह आदमी बोल ही नहीं सकता था और उस पर जुर्म था कि उसने गालियां दीं, अपमान किया; यह किया, वह किया। मजिस्ट्रेट ने कहा, जो आदमी बोल ही नहीं सकता, वह गालियां कैसे देगा, अपमान कैसे करेगा! वह छूट गया। बाहर आकर वकील ने कहा, मुकदमा जीत गए। अब मेरी फीस चुका दो। उस आदमी ने कहा, आ आ आ। इन दि सेम क्वाइन! उसने उसी सिक्के में वापस फीस भी चुका दी। उस वकील ने कहा, बंद करो यह बात। यह अदालत के लिए कहा था। उस आदमी ने कहा, आ आ आ। उसने कहा, कुछ समझ आता नहीं कि आप क्या कह रहे हैं? हाथ से इशारा किया, आंख से इशारा किया।

जिंदगी भी उसी सिक्के में हमें लौटा देती है। हमें तब तो पता नहीं चलता, जब हम जिंदगी को देते हैं अपने सिक्के। हमें पता तभी चलता है, जब सिक्के लौटते हैं। हम जब बीज बोते हैं, तब तो पता नहीं चलता; जब फल आते हैं, तब पता चलता है। और अगर फल विषाक्त आते हैं, जहरीले, तो हम रोते हैं और कोसते हैं। हमें पता नहीं कि यह फल हमारे बीजों का ही परिणाम है।

ध्यान रहे, जो भी हम पर लौटता है, वह हमारा दिया हुआ ही लौटता है। हां, लौटने में वक्त लग जाता है। प्रतिध्वनि होने में समय गिर जाता है। उतने समय के फासले से पहचान मुश्किल हो जाती है।

इस जगत में किसी भी व्यक्ति के साथ कभी अन्याय नहीं होता। अन्याय नहीं होता, उसी का यह सूत्र है।

कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं उसी रूप में उसे भजता हूं।

अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को पदार्थ माना, तो उसे यह जगत पदार्थ मालूम होने लगेगा। क्योंकि परमात्मा उसी रूप में लौटा देगा। अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को परमात्मा माना, तो यह जगत परमात्मा हो जाएगा। क्योंकि यह अस्तित्व उसी रूप में लौटा देगा, जो हमने दिया था।

हमारा हृदय ही अंततः हम सारे जगत में पढ़ लेते हैं। और हमारे हृदय में छिपे हुए स्वर ही अंततः हमें सारे जगत में सुनाई पड़ने लगते हैं। चांदत्तारे उसी को लौटाते हैं, जो हमारे हृदय के किसी कोने में पैदा हुआ था। लेकिन अपने हृदय में जो नहीं पहचानता, लौटते वक्त बहुत चकित होता है, बहुत हैरान होता है कि यह कहां से आ गया? इतनी घृणा मुझे कहां से आई? इतने लोगों ने मुझे घृणा क्यों की? लौटे, खोजे, और वह पाएगा कि घृणा ही उसने भेजी थी। वही वापस लौट आई है।

इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें। जिस रूप में भजता है, इसका एक अर्थ मैंने कहा। इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें।

अगर कोई न भजता हो, किसी भी रूप में न भजता हो परमात्मा को, तो परमात्मा क्या लौटा देता है? अगर कोई भजता ही नहीं परमात्मा को, तो परमात्मा भी न भजने को ही लौटाता है। अगर कोई व्यक्ति जीवन से किसी भी तरह के संवाद नहीं करता, तो जीवन भी उसके प्रति मौन हो जाता है; जड़ पत्थर की तरह हो जाता है। सब तरफ पथरीला हो जाता है। जिंदगी में जिंदगी आती है हमारे जिंदा होने से। इसलिए जिंदा आदमी के पास पत्थर भी जिंदा होता है और मरे हुए, मुर्दा तरह के आदमी के पास, जिंदा आदमी भी मुर्दा हो जाता है।

एक कवि के संबंध में मैं सुनता हूं कि वह अगर अपने जूते भी पहनता, तो इस भांति, जैसे जूते जीवित हों। अगर वह अपने सूटकेस को बंद करता, तो इस भांति, जैसे सूटकेस में प्राण हों। मैं उसका जीवन पढ़ रहा था। उसका जीवन लिखने वालों ने लिखा है कि हम सब समझते थे, वह पागल है। हम सब समझते थे, उसका दिमाग खराब है। वह दरवाजा भी खोलता, तो इतने आहिस्ते से कि दरवाजे को चोट न लग जाए। वह कपड़े भी बदलता, तो इतने प्रेम से कि कपड़ों का भी अपना अस्तित्व है, अपना जीवन है।

निश्चित ही पागल था, हम तो व्यक्तियों के साथ भी ऐसा व्यवहार नहीं करते कि वे जीवित हैं। आपने कभी अपने नौकर को इस तरह देखा कि वह आदमी है? नहीं देखते हैं। चारों तरफ जीवन है, उसको भी हम मुर्दे की तरह देखते हैं; लेकिन वह कवि, जिन्हें हम साधारणतया मुर्दा चीजें कहते हैं, उन्हें भी जीवन की तरह देखता। मित्र समझते कि पागल है। लेकिन अंत में मित्रों ने जब जीवन उसका उठाकर देखा, तो उन्होंने कहा कि अगर वह पागल था, तो भी ठीक था। और अगर हम समझदार हैं, तो भी गलत हैं। क्योंकि उसकी जिंदगी में दुख का पता ही नहीं है। पूरी जिंदगी में वह कभी दुखी नहीं हुआ।

यह तो बाद में पता चला कि उस आदमी की जिंदगी में दुख की एक भी घटना नहीं है। उस आदमी को कभी किसी ने उदास नहीं देखा। उस आदमी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा। उस आदमी की आंखों से आंसू नहीं बहे।

पूरी जिंदगी इतने आनंद की जिंदगी कैसे हो सकी? जब उससे किसी ने पूछा, तो उसने कहा, मुझे पता नहीं। लेकिन एक बात मैं जानता हूं। मैंने अगर पत्थर को भी छुआ, तो इतने प्रेम से कि जैसे वह परमात्मा हो। बस, इसके सिवाय मेरी जिंदगी का कोई राज नहीं है। फिर मुझे सब तरफ से आनंद ही लौटा है।

जिस रूप में हम अस्तित्व के साथ व्यवहार करते हैं, वही व्यवहार हम तक लौट आता है। परमात्मा भी प्रतिपल रिस्पांडिंग है, प्रतिसंवादित होता है। बारीक है उसकी वीणा और स्वर हैं महीन; लेकिन प्रतिपल, जरा-सा हमारा कंपन उसे भी कंपा जाता है। जिस भांति हम कंपते हैं, उसी भांति वह कंपता है। अंततः जो हम हैं, वही हमारी जिंदगी में हमें उपलब्ध होता है।

इसलिए अगर एक आदमी कहता हो कि मुझे कहीं ईश्वर नहीं मिला…मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि ईश्वर? आप ईश्वर की बात करते हैं। ईश्वर कहां है?

मैं उनकी आंखों में देखता हूं, तो मुझे पता लगता है, उनकी आंखें पथरीली हैं। उन्हें ईश्वर कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। उसका कारण यह नहीं है कि ईश्वर नहीं है। उसका कारण यह है कि उनके पास पत्थर की आंखें हैं। पत्थर की आंखों में ईश्वर दिखाई पड़ना मुश्किल है। उनकी आंखों में देखने की क्षमता ही नहीं मालूम पड़ती; उनकी आंखों में कुछ नहीं दिखाई पड़ता।

हां, उनकी आंखों में कुछ चीजें दिखाई पड़ती हैं; वे उन्हें मिल जाती हैं। धन दिखाई पड़ता है, उन्हें मिल जाता है। यश दिखाई पड़ता है, उन्हें मिल जाता है। जो दिखाई पड़ता है, वह मिल जाता है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह कैसे मिलेगा? हम जितना परमात्मा को उघाड़ना चाहें, उतना उघाड़ सकते हैं। लेकिन परमात्मा को उघाड़ने के पहले, उतना ही हमें स्वयं भी उघड़ना पड़ेगा।

प्रार्थना, कृष्ण कहते हैं, भजन, भजना यह अपनी तरफ से परमात्मा के लिए पुकार भेजना है। और जब भी कोई हृदयपूर्वक प्रार्थना से भर जाता है, तो आमतौर से हमें पता नहीं है कि प्रार्थना का असली क्षण वह नहीं है जब आप प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का असली क्षण तब शुरू होता है, जब आपकी प्रार्थना पूरी हो जाती है और आप प्रतीक्षा करते हैं।

प्रार्थना के दो हिस्से हैं, ध्यान रखें। एक ही हिस्सा प्रचलित है। दूसरे का हमें पता ही नहीं रहा है। और दूसरे का जिसे पता नहीं है, उसे प्रार्थना का ही पता नहीं है।

आपने प्रार्थना की, वह तो एकतरफा बात हुई। प्रार्थना के बाद अब मंदिर से भाग मत जाएं। अब प्रार्थना के बाद मस्जिद को छोड़ मत दें। अब प्रार्थना के बाद गिरजे से निकल मत जाएं, एकदम दुकान की तरफ। अगर पांच क्षण प्रार्थना की है, तो दस क्षण रुककर प्रतीक्षा भी करें। उस प्रार्थना को लौटने दें। वह प्रार्थना आप तक लौटेगी। और अगर नहीं लौटती है, तो समझना कि आपको प्रार्थना करने का ही कुछ पता नहीं। आपने प्रार्थना की ही नहीं है।

लेकिन आदमी प्रार्थना किया, और भागा! वह प्रतीक्षा तो करता ही नहीं कि परमात्मा को पुकारा था, तो उसे पुकार का जवाब भी तो दे देने दो। जवाब निरंतर उपलब्ध होते हैं। कभी भी कोई प्रश्न खाली नहीं गया। और कभी कोई पुकार खाली नहीं गई। लेकिन की गई हो तब। अगर सिर्फ शब्द दोहराए गए हों, अगर सिर्फ कंठस्थ शब्दों को दोहराकर कोई क्रिया पूरी की गई हो और आदमी वापस लौट गया हो, तो फिर नहीं, फिर नहीं हो सकता।

आज ही कोई मुझे कह रहा था कि आपके ये संन्यासी सड़कों पर नाचते-गाते निकल रहे हैं, इससे फायदा क्या है? मैंने उनसे कहा, जाओ, और नाचो, और देखो! उन्होंने कहा, हमें कुछ फायदा दिखाई नहीं पड़ता। मैंने कहा, बिना नाचे मत कहो। नाचो पूरे हृदय से, फिर प्रतीक्षा करो। फायदे की बड़ी वर्षा हो जाएगी।

निश्चित ही फायदा नोटों में नहीं होगा, कि नोट बरस जाएंगे! लेकिन नोटों से भी कीमती कुछ इस पृथ्वी पर है। और जिसके लिए नोट सबसे कीमती चीज है; उससे ज्यादा दरिद्र आदमी खोजना मुश्किल है। भिखारी है, भिखमंगा है। उसे कुछ भी पता नहीं है।

नाचो प्रभु के सामने और छोड़ दो फिर नाच को उसकी तरफ, फिर लौटेगा। जो नाचकर प्रभु के पास गया है, नाचता हुआ प्रभु उसके पास भी आता है। जिसने गीत गाकर निवेदन किया है, उसने और महागीत में गाकर उत्तर भी दिया है। उसका ही आश्वासन कृष्ण के द्वारा अर्जुन को इस सूत्र में दिया गया है।

कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।। 12।।

और जो मेरे को तत्व से नहीं जानते हैं, वे पुरुष, इस मनुष्य लोक में, कर्मों के फल को चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं और उनके कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है।

जीवन के परम सत्य को भी जो नहीं जानते, वे भी जीवन की बहुत-सी शुभ शक्तियों से लाभान्वित हो सकते हैं। परमात्मा परम शक्ति है, लेकिन शक्ति और छोटे रूपों में भी बहुत-बहुत मार्गों से प्रकट होती है।

कृष्ण अर्जुन को इस सूत्र में कह रहे हैं कि जो मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, जो मेरी देह को उपलब्ध हो जाते हैं, वे जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो मुझे नहीं भी उपलब्ध होते सीधे, जो परम ऊर्जा से परम स्रोत से सीधे संबंधित नहीं होते, वे भी देवताओं से, उनकी पूजा कर, उनकी सन्निधि में आ, शुभ को उपलब्ध होते हैं। यहां दोत्तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।

साधारणतः परम शक्ति के संपर्क में आना अति कठिन है। परम शक्ति के संपर्क में आने के लिए बड़ी छलांग, बड़े साहस की जरूरत है। परम शक्ति के संपर्क में आने का अर्थ अपने को पूरी तरह जलाकर भस्म, राख कर डालना है। जो अपने मैं को जरा भी बचाना चाहे, वह परम शक्ति के संपर्क में नहीं आ सकता। जैसे सूर्य के पास कोई पहुंचना चाहे, तो भस्म हो ही जाएगा। ऐसे ही परम शक्ति के पास कोई पहुंचना चाहे, तो स्वयं को मिटाए बिना कोई रास्ता नहीं है। इसलिए परम साहस है, करेज है।

धार्मिक व्यक्ति ठीक अर्थों में अपने को मिटाने के साहस से ही पैदा होता है। इसलिए अधिक धार्मिक लोग इतना साहस तो नहीं कर पाते हैं। लेकिन फिर भी सूर्य के पास कोई न जा पाए, तो भी अंधेरे में ही रहे, ऐसा जरूरी नहीं है। छोटे मिट्टी के दीए भी जलाए जा सकते हैं। और मिट्टी के छोटे से दीए में जो ज्योति जलती है, वह भी महासूर्यों का ही हिस्सा है। लेकिन वह जलाती नहीं, वह मिटाती नहीं; वह आपके हाथ में उपयोग की जा सकती है।

देवता परम शक्ति के समक्ष दीयों की तरह हैं, छोटे दीयों की तरह हैं। देवता उन आत्माओं का नाम है…इसे थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी होगा, तभी यह बात ठीक से खयाल में आ सकेगी।

जैसे ही कोई व्यक्ति मरता है, इस शरीर को छोड़ता है, साधारणतः सौ में निन्यानबे मौकों पर तत्काल ही जन्म हो जाता है। कभी-कभी, यदि व्यक्ति बहुत बुरा रहा हो, तो तत्काल जन्म मुश्किल होता है; या व्यक्ति बहुत भला रहा हो, तो भी तत्काल जन्म मुश्किल होता है। बहुत भले व्यक्ति के लिए भी गर्भ खोजने में समय लग जाता है। वैसा गर्भ उपलब्ध होना चाहिए। बहुत बुरे व्यक्ति को भी। मध्य में जो हैं, उन्हें तत्काल गर्भ उपलब्ध हो जाता है। जो बहुत बुरे व्यक्ति हैं, उन्हें कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है, करनी पड़ती है; जब तक उनके योग्य उतना बुरा गर्भ उपलब्ध न हो सके। ऐसी आत्माओं को प्रेत पारिभाषिक शब्द है–ऐसी प्रतीक्षा कर रही आत्माओं का, जो नई देह को उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं–बहुत बुरी हैं इसलिए। बहुत भली आत्माएं भी शीघ्र जन्म को उपलब्ध नहीं हो पातीं। ऐसी प्रतीक्षा करती आत्माओं का नाम देवता है। वह भी पारिभाषिक शब्द है।

जो सीधे परमात्मा से संबंधित नहीं हो पाते, वे भी चाहें तो देवताओं से संबंधित हो सकते हैं। बुरी आत्माएं बुरा करने के लिए आतुर रहती हैं, देह न हो तो भी। अच्छी आत्माएं अच्छा करने के लिए आतुर रहती हैं, देह न हो तब भी। इन आत्माओं का साथ मिल सकता है। इसका पूरा अलग ही विज्ञान है कि इन आत्माओं का साथ कैसे मिल सके! लेकिन आमंत्रण से, इनवोकेशन से, निमंत्रण से इन आत्माओं से संबंधित हुआ जा सकता है। समस्त यज्ञ आदि शुभ आत्माओं से संबंध स्थापित करने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएं थीं। जिसे दुनिया में ब्लैक मैजिक कहते हैं, उस तरह की प्रक्रियाएं बुरी आत्माओं से संबंध स्थापित करने की प्रक्रियाएं थीं।

कृष्ण कहते हैं, जो सीधा मुझको न भी उपलब्ध हो, वह भी देवताओं की पूजा और अर्चना से शुभ कर्मों को करता हुआ, शुभ को उपलब्ध हो सकता है। जो परम सत्य को उपलब्ध न भी हो, वह भी शुभ को उपलब्ध हो सकता है।

दो कारणों से वह शुभ को उपलब्ध होगा। एक तो, जो शुभ की आकांक्षा करता है, वह शुभ कर्म करता है। आकांक्षा का सबूत और कुछ भी नहीं है सिवाय कर्मों के। हम जो करते हैं, वही गवाही है हमारी आकांक्षाओं की। हमारी डीड, हमारा कर्म ही हमारे प्राणों की प्यास की खबर है।

शुभ कर्मों को करता हुआ।

लेकिन आदमी बहुत कमजोर है और शुभ कर्म भी आदमी अकेला करना चाहे, तो अति कठिन है। वह अपने चारों तरफ व्याप्त जो शुभ की शक्तियां हैं, उनका सहारा ले सकता है। और कई बार जब आप कोई बड़ा शुभ कर्म करते हैं, तो आप खुद भी अनुभव करते हैं, जैसे कोई और बड़ी शक्ति भी आपके साथ खड़ी हो गई। जब आप कोई बहुत बुरा कर्म करते हैं, तब भी आपको अनुभव होता है कि जैसे आप अकेले नहीं हैं। कोई और बुरी शक्ति भी आपके साथ संयुक्त हो गई है।

हत्यारों ने अदालतों में बहुत बार बयान दिए हैं, और उनके बयान कभी भी ठीक से नहीं समझे जा सके, क्योंकि अदालतों की समझ की सीमा है। अदालतों में हत्यारों ने सारी पृथ्वी पर अनेक बार यह कहा है कि यह हत्या हमने नहीं की; जैसे हमसे करवा ली गई है। लेकिन अदालत तो इस बात को नहीं मानेगी। मानेगी कि झूठ है वक्तव्य। झूठ बहुत मौकों पर हो भी सकता है; बहुत मौकों पर झूठ नहीं है।

जो लोग प्रेतात्म-विज्ञान पर थोड़ा-सा श्रम उठाए हैं, उनको इस बात का अनुभव होना शुरू हुआ है कि बुरी आत्माएं दूसरे व्यक्तियों को कमजोर क्षण में प्रभावित कर लेती हैं।

ऐसे मकान हैं पृथ्वी पर, जिन मकानों में निरंतर हत्या होती रही है, पीढ़ियों से। और जब उन मकानों के लंबे इतिहास को खोजा गया है, तो जानकर बड़ी हैरानी हुई कि हर बार हत्या का क्रम वही रहा है, जो पिछली बार हत्या का था। उन घरों में उन आत्माओं का वास है, जो उस घर में आने वाले नए लोगों से हत्या करवाने का प्रयास फिर से करवा लेती हैं।

ऐसे स्थान हैं, जहां आदमी के मन में शुभ फलित होता है। जिन्हें हम तीर्थ कहते थे, उन तीर्थों का कोई और अर्थ नहीं है। जिन स्थानों पर भली आत्माओं के संघट की संभावना अनेक-अनेक रास्तों से निर्मित की गई है, उन स्थानों पर आदमी जाकर अचानक भला कर्म कर पाता है, जो उसके वश के बाहर दिखाई पड़ता है।

हम अकेले नहीं हैं। हमारे चारों ओर और बहुत शक्तियां काम कर रही हैं। जब हम बुरा होना चाहते हैं, तो बुरी शक्तियां हमारे साथ खड़ी हो जाती हैं और हमारे हाथों का बल बन जाती हैं। और जब हम अच्छा कुछ करना चाहते हैं, तब भी अच्छी शक्तियां हमारे साथ खड़ी हो जाती हैं और हमारे हाथों का बल बन जाती हैं।

तो कृष्ण कह रहे हैं, अच्छा कर्म करते हुए, देवताओं की अर्चना, प्रार्थना, पूजा से, जो व्यक्ति सीधा मुझ तक न भी पहुंचे वह भी शुभ को उपलब्ध होता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, पिछली चर्चाओं के संबंध में दो चीजें स्पष्ट करें। दूसरे श्लोक के हिंदी अनुवाद में लिखा गया है कि बहुत काल से इस पृथ्वी पर योग लुप्तप्राय हो गया है, किंतु संस्कृत श्लोक में योगो नष्टः, ऐसा कहा गया है; अर्थात योग करीब-करीब लोप नहीं, बल्कि योग नष्ट हो गया है। कृपया इसके बारे में थोड़ा समझाइए।

और आठवें श्लोक के हिंदी अनुवाद में लिखा गया है कि साधुओं का उद्धार करने के लिए प्रकट होता हूं, लेकिन संस्कृत में साधुओं के परित्राण के लिए प्रकट होता हूं, ऐसा कहा गया है। कृपया ‘साधुओं के उद्धार’ के स्थान पर ‘परित्राण’ का अर्थ स्पष्ट करें।

परित्राण का तो वही अर्थ है, जो उद्धार का है। उसमें कोई भेद नहीं है। नष्टप्राय का या योग नष्ट हो गया, इसका लुप्तप्राय अर्थ करना भी गलत नहीं है। असल में संस्कृत के ‘नष्ट होने’ का अर्थ, जिस दिन उस शब्द का प्रयोग किया गया, उस दिन नष्ट होने की जो परिभाषा थी, उसको ध्यान में रखकर करना पड़े।

इस देश में कभी भी ऐसा नहीं समझा गया कि कोई चीज पूरी तरह नष्ट हो सकती है। नष्ट होने का इतना ही मतलब होता है कि वह लुप्त हो गई।

आज विज्ञान भी इस बात से सहमति देता है। डिस्ट्रक्शन का अर्थ मिट जाना नहीं, सिर्फ लुप्त हो जाना है। क्योंकि कोई चीज पूरी तरह नष्ट हो ही नहीं सकती। एक रेत के छोटे-से कण को भी हम नष्ट नहीं कर सकते। हम सिर्फ रूपांतरित कर सकते हैं, लुप्त कर सकते हैं। किसी और रूप में वह प्रगट हो जाएगा। नष्ट नहीं हो सकता।

इस पृथ्वी पर कोई चीज नष्ट नहीं होती और न कोई चीज सृजित होती है। जब हम कहते हैं, हमने कोई चीज बनाई, तो उसका मतलब यह नहीं होता है कि हमने कोई नई चीज बनाई। उसका इतना ही मतलब होता है कि हमने कुछ चीजों को रूपांतरित किया। हमने रूप बदला।

पानी है। गर्म किया, भाप हो गई। पानी नष्ट हो गया। लेकिन क्या अर्थ हुआ नष्ट होने का? भाप होकर पानी अब भी है। और अगर थोड़ी ठंडक दी जाए और बर्फ के टुकड़े छिड़क दिए जाएं, तो भाप अभी फिर पानी हो जाए। तो पानी नष्ट हुआ था कि लुप्त हुआ था?

पानी लुप्त हुआ भाप में; रूप बदला। फिर बर्फ छिड़क दी, पानी फिर प्रगट हुआ। नष्ट नहीं हुआ था। नष्ट होता, तो वापस नहीं लौट सकता था। बहुत ठंडा कर दें पानी को, तो बर्फ बन जाएगा। पानी फिर नष्ट हो गया। पानी नहीं है अब, बर्फ है अब। लेकिन बर्फ को गरमा दें, तो फिर पानी हो जाएगा।

इस जगत में, इस अस्तित्व में न तो कोई चीज नष्ट होती और न कोई चीज निर्मित होती है। सिर्फ रूपांतरण होते हैं। इसलिए संस्कृत का जो शब्द है, योग नष्ट हो गया, उसके लिए हिंदी का अनुवाद लुप्तप्राय करना बिलकुल ही ठीक है। ठीक इसलिए है कि अगर आज हिंदी में हम प्रयोग करें, नष्ट हो गया, तो लोग शायद यही समझेंगे कि नष्ट हो गया।

लेकिन जिस दिन इस नष्ट शब्द का प्रयोग कृष्ण ने किया था, उस दिन नष्ट से कोई भी ऐसा नहीं समझता कि नष्ट हो गया। क्योंकि उस दिन की समझ ही यही थी कि कुछ भी नष्ट नहीं होता है। सभी चीजें रूपांतरित होती हैं। इसलिए अनुवादक ने ठीक विवेक का उपयोग किया है। उसने लुप्तप्राय कहा। खो गया; नष्ट नहीं हो गया।

नष्ट कभी कुछ होता ही नहीं है। डिस्ट्रक्शन असंभव है। विनाश असंभव है। सिर्फ चीजें बदलती हैं, नए रूप लेती हैं। कितने ही नए रूपों में मूलतः वे वही होती हैं, जो थीं। लेकिन उनको फिर पुनः नया रूप, पुराने रूप में लाने को, पुराने को प्रगट करने के लिए कुछ उपाय करना होता है।

इसलिए कृष्ण का जो अर्थ है, वह लुप्तप्राय ही है। क्योंकि उस दिन नष्ट का यही अर्थ था। आज हमारे लिए दो अर्थ हैं। अगर हम प्रयोग करते हैं, नष्ट हो गया। जब हम कहते हैं, फलां आदमी मर गया, तो हमारे लिए वही मतलब नहीं होता है, जो कृष्ण के लिए था। कृष्ण के लिए तो मरने का इतना ही मतलब होता है कि उस आदमी ने फिर से जन्म ले लिया। हमारे लिए मरने का मतलब होता है, खतम हो गया; समाप्त हो गया। आगे कोई जन्म हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमारी मृत्यु में अगला जन्म नहीं छिपा हुआ है। कृष्ण की मृत्यु में भी अगला जन्म छिपा हुआ है। कृष्ण के लिए मृत्यु एक द्वार है नए जन्म का; हमारे लिए द्वार है अंत का, समाप्ति का। उसके आगे फिर कुछ नहीं है; अंधकार है। सब खो गया; सब नष्ट हो गया।

इसलिए कृष्ण अगर प्रयोग करें, धर्म मर गया, तो भी हर्जा नहीं है। क्योंकि उसका भी मतलब इतना ही होगा कि वह रूपांतरित हो गया किसी और जीवन में; कहीं और से छिप गया, कहीं और चला गया। लेकिन हम अगर कहें कि धर्म मर गया, तो हमारे लिए मतलब होगा, समाप्त हो गया; डेड एंड आ गया।

अंत नहीं आता। कृष्ण की भाषा में कोई शब्द अंतवाची नहीं है। सभी शब्द नए आरंभ के सूचक हैं। मृत्यु नया जन्म है। नष्ट होना नए रूप में खो जाना है। इसलिए नष्ट का अर्थ लुप्त ही है। और परित्राणाय का अर्थ भी उद्धार के लिए ही है, परित्राण के लिए ही है। उसमें कुछ भूल नहीं हो गई है। अनुवाद में कोई भूल नहीं है।

प्रश्न:

भगवान श्री, पिछले एक प्रवचन में आपने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य अपने अच्छे और बुरे कर्मों के लिए स्वयं जिम्मेवार है, लेकिन आज सुबह की चर्चा में आपने कहा है कि सब कुछ विराट, ब्रह्म शक्ति के नियमों के आधार पर होता है, तो व्यक्ति स्वयं कर्मों के लिए जिम्मेवार कैसे होगा?

जब तक व्यक्ति है, तब तक अपने कर्मों के लिए जिम्मेवार है। जब व्यक्ति अपने को विराट में छोड़ देता है, तब जिम्मेवार नहीं है।

इसे ठीक ऐसा समझें कि एक छोटा बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़कर रास्ते पर चल रहा है। बच्चा गिर पड़े, बाप जिम्मेवार है। लेकिन लड़के ने बाप का हाथ छोड़ दिया और खुद ही चल रहा है; अब गिर पड़े, तो बाप जिम्मेवार नहीं है।

रिस्पांसिबिलिटी, उत्तरदायित्व आपके अपने ऊपर निर्भर है। अगर आप अहंकार के सहारे जीने की कोशिश में लगे हैं, तो आप अपने प्रत्येक कर्म के लिए जिम्मेवार हैं। बुरा किया है, तो आपने किया है; अच्छा किया है, तो आपने किया है। क्योंकि आपके प्रत्येक कर्म के पीछे आपके कर्ता का भाव खड़ा है।

लेकिन एक व्यक्ति ने समर्पण किया है सब विराट को। उसने कहा, जो तेरी मर्जी। बुरा करवाए, तो तू। अच्छा करवाए, तो तू। अगर उसने मंदिर बनाया और गांव में जाकर कहे कि मंदिर मैंने बनाया। और कल चोरी में पकड़ा जाए और कहे कि चोरी परमात्मा ने करवाई, तब फिर उस आदमी ने छोड़ा नहीं। तब फिर वह बेईमानी कर रहा है, अपने साथ भी और परमात्मा के साथ भी।

नहीं, तब वह कहेगा कि परमात्मा ने मंदिर बनवाया, मैं कौन हूं! और तब वह कहेगा, परमात्मा ने चोरी कराई, मैं कौन हूं! और अगर अदालत उसे सजा दे दे, तो वह कहेगा, परमात्मा ने सजा दी। मैं कौन हूं!

तब फिर कठिनाई नहीं है। जब तक व्यक्ति कर्ता के भाव से जीता है, तब तक सारी जिम्मेवारी उसकी है। इसलिए है कि वह खुद अपने हाथ से जिम्मेवारी ले रहा है।

उसकी हालत करीब-करीब ऐसी है कि मैंने सुना है, एक फकीर एक ट्रेन में सवार हुआ। बैठा है सीट पर, लेकिन अपना बिस्तर अपने सिर पर रखे रहा। पास-पड़ोस के लोगों ने जरा चौंककर देखा। फिर किसी ने कहा कि महाशय! बिस्तर नीचे आराम से रखें। आप यह क्या कर रहे हैं? उस फकीर ने कहा, लेकिन टिकट मैंने सिर्फ अपने लिए दिया, तो बिस्तर का बोझ ट्रेन पर डालना ठीक नहीं है। मैं अपने ही ऊपर बोझ रखे हुए हूं। लेकिन लोगों ने कहा कि महाशय, आप अपने सिर पर भी रखें, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता, ट्रेन पर बोझ पड़ ही रहा है। आप नीचे रखें कि सिर पर रखें। हां, सिर पर रखकर आप भर परेशान हो रहे हैं। ट्रेन पर कोई अंतर नहीं पड़ रहा है इससे।

वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा कि मैं तो सोचा कि अज्ञानी हैं यहां, इसलिए सिर पर रखूं। मुझे क्या पता कि इस कमरे में ज्ञानी हैं! उसने बिस्तर नीचे रख दिया। लोग और हैरान हुए। उन्होंने कहा, हम तुम्हारा मतलब न समझे! उस आदमी ने कहा, मैं तो यह सोचकर कि तुम सब सारी जिंदगी का भार अपने ऊपर रखते होओगे, ऐसे सब भार परमात्मा पर है! लेकिन मकान बनाओगे तो कहोगे, मैंने बनाया। बोझ तुम अपने ऊपर रखोगे। इसीलिए मैं बिस्तर अपने सिर पर रखकर बैठा कि तुम्हारे बीच यही संगत होगा। लेकिन तुम बड़े ज्ञानी हो; अच्छा हुआ।

इस फकीर ने हम सब की मजाक की, गहरी मजाक की और हृदय के गहरे घाव को छूने की कोशिश की।

जब हम जिम्मेवार हैं, तब भी वस्तुतः तो परमात्मा ही जिम्मेवार है। लेकिन वस्तुतः का कोई सवाल नहीं है। तब तक हम अपने सिर पर बोझा रखने का कष्ट तो भोगेंगे ही। ट्रेन भला ही पूरे बोझ को ढोती हो, लेकिन जो आदमी पेटी अपने सिर पर रखे हुए है, वह तो वजन ढोएगा ही; तकलीफ भोगेगा ही! और सिर पर से पेटी गिर पड़े, तो हाथ-पैर उसका टूटेगा ही। इस बात के होते हुए भी कि ट्रेन पूरा बोझ ढो रही है।

विराट सब चीजों के लिए जिम्मेवार है। लेकिन ध्यान रहे, विराट से समझौता नहीं हो सकता। आप ऐसा नहीं कह सकते कि कुछ के लिए मैं जिम्मेवार, कुछ के लिए तुम जिम्मेवार। जब बुरा हो, तो तुम जिम्मेवार; जब भला हो, तो मैं जिम्मेवार। वैसा नहीं चलेगा। या तो सब छोड़ दो विराट पर, या फिर सब अपने ही ऊपर रखना पड़ता है। अहंकारी सब अपने ऊपर रखकर चलता है। अधार्मिक सब अपने ऊपर रखकर चलता है। धार्मिक सब उस पर छोड़ देता है। लेकिन सब–टोटल। इसमें रत्तीभर बचाया नहीं जा सकता।

तो दोनों ही बातें दो तलों पर सही हैं। जहां तक आम आदमी का संबंध है, वह हर चीज के लिए खुद ही जिम्मेवार होता है। और इसलिए जिम्मेवारी का दुख भोगता है। जिम्मेवारी में दुख है, पीड़ा है, संताप है।

जो जानता है, वह सब छोड़ देता है प्रभु पर। फिर वह दुख नहीं भोगता। फिर वह स्वतंत्रता का सुख भोगता है। फिर वह सब दायित्वों से मुक्त होकर, फूल की तरह हल्का-फुल्का हो जाता है। फिर वह पक्षियों की तरह गीत गा सकता है और नदियों और झरनों की तरह दौड़ सकता है और नाच सकता है। फिर उसकी जिंदगी किसी भी बोझ से दबी हुई नहीं है।

और ध्यान रहे, बड़े मजे की बात है यह कि जो व्यक्ति जितना परमात्मा पर छोड़ देता है, उतना ही बुरा कर्म मुश्किल हो जाता है। क्योंकि बुरे कर्म के लिए अहंकार का होना जरूरी है। जो व्यक्ति जितना परमात्मा पर छोड़ देता है, उतना ही बुरा कर्म मुश्किल हो जाता है। जो पूरा परमात्मा पर छोड़ देता है, उससे बुरा कर्म हो ही नहीं सकता। क्योंकि बुरे कर्म के लिए अहंकार अनिवार्य शर्त है। और जो व्यक्ति जितने अहंकार से भरा होता है, उससे शुभ कर्म हो नहीं सकता। क्योंकि अहंकार शुभ कर्म के लिए अनिवार्य बाधा है।

इसलिए खुद पर जिम्मा लिया हुआ आदमी, पाप की गठरी को सिर पर बढ़ाता ही चला जाता है। असल में गठरी सिर्फ पाप की होती है। पुण्य की गठरी, ऐसा शब्द आपने सुना नहीं होगा। पुण्य की कोई गठरी होती नहीं। पुण्य आया कि गठरी वगैरह से मुक्ति हो जाती है, सिर खाली हो जाता है। पाप की ही गठरी होती है, उसका ही बोझ और बर्डन होता है। पुण्य का कोई बोझ नहीं होता।

जो व्यक्ति सब परमात्मा पर छोड़ देता है, वह हवा-पानी की तरह सरल हो जाता है। फिर जो होता है, होता है। उसके लिए फिर कोई कठिनाई नहीं है। कोई बोझ नहीं, कोई दायित्व नहीं; कोई पुण्य नहीं, कोई पाप नहीं; क्योंकि कोई कर्म नहीं।

कृष्ण पूरे वक्त अर्जुन को यही समझा रहे हैं। अर्जुन पक्के बोझ से दबा हुआ है। बहुत रिस्पांसिबल आदमी मालूम होता है! बहुत दायित्वपूर्ण है। वह कहता है, ये मर जाएंगे, वे मर जाएंगे। जैसे वह बचाएगा, तो वे बच जाएंगे! जैसे वह न मारेगा, तो वे नहीं मरेंगे। वह कुछ ऐसा अनुभव कर रहा है कि जैसे वह कोई सारे अस्तित्व का सेंटर है; सब कुछ उसके ऊपर निर्भर है। वह जमाने की बातें कर रहा है कृष्ण से, कि इससे तो कुल का नाश हो जाएगा। इससे तो संतति विकृत हो जाएगी। इससे तो भविष्य में सब अंधकार हो जाएगा। सधवाएं विधवाएं हो जाएंगी। पापाचरण बढ़ेगा। वह सब बता रहा है। उसके कारण! अगर वह युद्ध करेगा! अगर वह युद्ध से हट जाएगा, तो सब ठीक होगा? तो अब तो अर्जुन कहीं भी नहीं है। लेकिन सब कहीं भी ठीक दिखाई नहीं पड़ता। अर्जुन का भ्रम यही है कि वह सोच रहा है, सारा जिम्मा मेरा है। मैं हूं सारी चीजों के बीच में।

कृष्ण पूरे समय एक ही बात समझा रहे हैं कि तू अपने को सेंटर न मान। तू अपने को केंद्र न मान। तू व्यर्थ की उलझन में मत पड़। जो करवा रहा है, जो कर रहा है, उस पर तू छोड़ दे। उसे मारना है, तो मारेगा। तेरे बहाने से, किसी और के बहाने से, किसी भी कंधे पर तीर रख जाएगा और वे मर जाएंगे। तू फिक्र न कर, तू सिर्फ उसके हाथ में निमित्त मात्र हो जा।

लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा है। वह कर्ता है। और जो कर्ता है, वह निमित्त मात्र कैसे हो जाए? जिसे खयाल है, मैं करने वाला हूं, वह किसी के हाथ का माध्यम कैसे बन जाए?

वह कबीर की तरह अर्जुन नहीं हो सकता। कबीर कहते हैं कि यह बांसुरी मैं बजा रहा हूं, इसमें मैं बांसुरी हूं, बांस की पोंगरी, स्वर मेरे नहीं हैं। स्वर उसके हैं, परमात्मा के हैं। इसलिए अगर गीत के लिए कोई धन्यवाद देना हो, तो उसी को दे देना। मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं तो सिर्फ बांस की पोंगरी हूं, जिसमें से स्वर उसके बहते हैं।

कृष्ण पूरी गीता में अर्जुन को कह रहे हैं, तू बांस की पोंगरी हो जा। स्वर उसके बहने दे। तू यह मत सोच कि तू गा रहा है। तू बीच में मत आ। तू हट जा। तू निमित्त हो जा। वही उसकी समझ में नहीं आ रहा है।

जब ये दो बातें मैं कहता हूं कि व्यक्ति जिम्मेवार है अपने प्रत्येक कर्म के लिए, तो मेरा मतलब है, जब तक आपका अहंकार है, जब तक व्यक्ति है, तब तक आपको जिम्मेवार होना पड़ेगा। व्यर्थ ही आप जिम्मेवार हैं। ट्रेन में चढ़े हैं, गठरी सिर पर रखे हैं! कोई ट्रेन की जिम्मेवारी नहीं है। आप व्यर्थ परेशान हो रहे हैं। लेकिन जैसे ही व्यक्ति ने अपने को छोड़ा, समर्पित किया, वैसे ही व्यक्ति जिम्मेवार नहीं है, विराट ही है। और विराट की कोई जिम्मेवारी नहीं है। क्योंकि विराट किसके प्रति रिस्पांसिबल होगा? किसके प्रति जिम्मेवार होगा? किसी के प्रति नहीं! व्यक्ति को जिम्मेवार होना पड़ेगा। विराट को जिम्मेवारी का कोई सवाल नहीं है। इनमें कोई विरोध नहीं है। यह दो तलों पर चीजों को देखना है।

दो तल हैं। एक अज्ञानी का तल है, अज्ञानी के तल पर समझना पड़ेगा। एक ज्ञानी का तल है, ज्ञानी के तल पर भी समझना पड़ेगा। और बहुत बार बड़ी उलझन होती है कि अज्ञानी होता तो अज्ञानी के तल पर है और ज्ञानी के तल की बातें करने लगता है; तब बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है। ऐसा रोज होता है। हमारे देश में तो जरूर हुआ है। क्योंकि इस देश में ज्ञान की इतनी बातें थीं कि अज्ञानी भी उनको करना सीख गए। वे भी ज्ञान की बातें करने लगे। रहते अज्ञानी की तरह हैं, जीते अज्ञानी की तरह हैं, बोझ अज्ञानी का लिए रहते हैं। वक्त पर, मौके पर, ज्ञानी की तरह बातें करने लगते हैं।

मेरे पड़ोस में एक आदमी मर गया, तो मैं उनके घर गया। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे थे। सब समझा रहे थे कि आत्मा तो अमर है। मैंने सोचा, इस मुहल्ले में इतने ज्ञानी हैं! कहते हैं, आत्मा अमर है! रोने की क्या जरूरत है? क्यों दुख मना रहे हैं? कोई मरता तो है नहीं; शरीर ही मरता है। मैंने उनके चेहरे गौर से देख लिए कि कभी जरूरत पड़े सलाह-मशविरे की, तो उनके पास चला जाऊंगा।

फिर एक दिन पता लगा कि जो सज्जन अगुवा होकर समझाते थे, आत्मा अमर है, उनके घर कोई मर गया। तो मैं भागा हुआ पहुंचा। देखा, तो वे रो रहे हैं। मैं बहुत हैरान हुआ। फिर मैंने कहा, थोड़ी चुप्पी साधकर बैठूं। लेकिन हैरानी और बढ़ी। जिनके घर वे समझाने गए थे, वे लोग समझाने आए हुए थे। और कह रहे थे, आत्मा अमर है। काहे के लिए रो रहे हैं?

अब ये दो तल की बातें हैं। जो आत्मा को अमर जानते हैं, उनकी दुनिया बहुत अलग है। लेकिन बात उनकी चुरा ली गई है। और जो आत्मा को मरने वाला मानते हैं, जानते हैं भलीभांति कि मरेगी; मरे या न मरे, उनका जानना यही है कि मरेगी; उनके पास यह चोरी की बात है। इस बात का वहां बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाता है। ज्ञान की चर्चा लोग सुनते हैं…।

एक संन्यासी के आश्रम में मैं कुछ दिन मेहमान था। तो वहां वे रोज समझाते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। वह कभी अशुद्ध होती ही नहीं। उनके सामने मैं लोगों को बैठे देखता था। वे कहते, जी महाराज, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैंने उन लोगों से पूछा अकेले में कि तुम कहते हो, जी, बिलकुल ठीक कह रहे हैं! वे बोले कि बिलकुल ठीक बात है; आत्मा बिलकुल शुद्ध है।

लेकिन वे जो लोग उनके सामने पगड़ियां बांधकर और कहते थे, आत्मा बिलकुल शुद्ध है, वे सब तरह के चोर, सब तरह के ब्लैक मार्केटियर, सब तरह के उपद्रवों में सम्मिलित थे। वे उसी ब्लैक मार्केट से वहां मंदिर भी खड़ा करवाते थे। और बैठकर सुनते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। सदा शुद्ध है। वह कभी पाप करती ही नहीं; कभी पाप उससे होता ही नहीं। आत्मा ने कभी कुछ किया ही नहीं। उनके मन को बड़ी राहत और कंसोलेशन मिलता होगा कि अपन ने ब्लैक मार्केट नहीं किया। अपन ने कोई चोरी नहीं की। आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, बड़े प्रसन्न घर लौटे। वे प्रसन्न घर लौट रहे हैं, वे यहां सुनने सिर्फ यही आ रहे हैं कि आत्मा शुद्ध है अर्थात अशुद्ध तो हो ही नहीं सकती। अब कितनी ही अशुद्धि करो, अशुद्ध होने का कोई डर नहीं है। यह ज्ञान की बात और अज्ञान की दुनिया में जाकर बड़ा उपद्रव खड़ा करती है।

भारत के नैतिक पतन का कारण यह है, यहां दो तल की बातें हैं। एक तल पर बहुत ऊंचा ज्ञान था और दूसरे तल पर हमारा आदमी बहुत नीचे है। उस ऊंचे तल की बातें उसके कानों में पड़ गई हैं। वह वक्त-बेवक्त उनका उपयोग करता रहता है। वह कहता है, सब संसार माया है। इधर कहता चला जाता है, सब संसार माया है, और जिस-जिस चीज को माया कहता है, उसके पीछे जी-जान लगाकर दौड़ा भी चला जाता है! ये दो तल।

इसलिए मैंने जो बात कही, वह दो तल पर ही समझ लेनी उचित है। जब तक आपको पता है कि आप हो, तब तक समझना कि सब जिम्मेवारी आपकी है। तब तक ऐसा मत करना कि आप भी बने रहो और जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़ दो। ऐसा नहीं चलेगा। अगर जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़नी हो, तो आपको भी अपने को परमात्मा के चरणों में छोड़ देना पड़ेगा। वह अनिवार्य शर्त है। और जब तक आप अपने मैं को न छोड़ पाओ, उसके द्वार पर, तब तक सारी जिम्मेवारी का बोझ अपने सिर पर रखना। वह ईमानदारी है, सिंसियरिटी है। ठीक है फिर। पाप किया है, पुण्य किया है, मैं जिम्मेवार हूं; क्योंकि जो भी किया है, वह मैंने किया है।

और अगर ऐसा लगे कि नहीं, सब जिम्मेवारी विराट की है, तो फिर इस मैं को उसके चरणों में रख आना। जिस दिन मैं को उसके चरणों में रख दो, और जिस दिन यह हिम्मत आ जाए कहने की कि मैंने कुछ भी नहीं किया, सब उसने कराया है। वही है, मैं नहीं हूं। उसका ही फैला हुआ हाथ हूं। फिर उस दिन से आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं है।

लेकिन बड़े मजे की बात है कि उस दिन से आपके जीवन से बुरा एकदम विलीन हो जाएगा। क्योंकि बुरा घटित नहीं हो सकता बिना अहंकार के। उस दिन से आपके जीवन में शुभ के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे; सफेद फूलों से भर जाएगी जिंदगी। क्योंकि जहां अहंकार नहीं है, वहां शुभ्र फूल अपने आप खिलने शुरू हो जाते हैं।

चातुरर्‌वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। 13।।

तथा हे अर्जुन! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं। उनके कर्ता को भी, मुझ अविनाशी परमेश्वर को, तू अकर्ता ही जान।

कृष्ण इस श्लोक में कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार चार वर्ण मैंने ही रचे हैं! एक बात। और तत्काल दूसरी बात कहते हैं कि फिर भी, उन्हें निर्माण करने वाले मुझ कर्ता को, तू अकर्ता ही जान।

बहुत मिस्टीरियस, बहुत रहस्यपूर्ण वक्तव्य है। पहले हिस्से को पहले समझ लें, फिर दूसरे हिस्से को समझें।

वर्ण की बात ही असामयिक हो गई है। कृष्ण के इस सूत्र को पढ़कर न मालूम कितने लोग बेचैनी अनुभव करते हैं। परमात्मा ने रचे हैं वर्ण! कठिनाई मालूम पड़ती है। क्योंकि वर्णों के नाम पर इतनी बेहूदगी हुई है और वर्णों के नाम पर इतना अनाचार हुआ है, वर्णों की ओट और आड़ में इतना सड़ापन पैदा हुआ है, इतनी सड़ांध पैदा हुई है कि भारत का पूरा हृदय ही कैंसर से ग्रस्त अगर हुआ, तो वह वर्णों के सहारे हुआ है।

तो आज कोई भी विचारशील व्यक्ति जब इस सूत्र को पढ़ता है, तो थोड़ा या तो बेचैन होता है या जल्दी इसको पढ़कर आगे निकल जाता है। इस पर ज्यादा रुकता नहीं। ऐसा लगता है कि कुछ ठीक नहीं है; आगे बढ़ो। पर मैं इस पर जरा रुकना चाहूं। क्यों? क्योंकि जीवन में सत्यों के आधार पर भी असत्य चल जाते हैं। सच तो यह है कि असत्य के पास अपने पैर नहीं होते; उसे पैर सदा सत्य से ही उधार लेने पड़ते हैं। इसलिए असत्य बोलने वाला बहुत कसमें खाता है कि जो मैं बोल रहा हूं, वह सत्य है। बेईमानी को भी ईमानदारी के वस्त्र पहनने पड़ते हैं। और दुनिया में जब भी कोई सत्य जीवन-सिद्धांत प्रकट होता है, तो उसका भी दुरुपयोग किया गया है, किया जाता रहा है। लेकिन इससे सिद्धांत गलत नहीं होता।

एटम का विश्लेषण हुआ। परिणाम में हिरोशिमा और नागासाकी का विध्वंस मिला। हिरोशिमा और नागासाकी के कारण एटम के विश्लेषण का सिद्धांत गलत नहीं होता। लाख आदमी मर गए, जलकर राख हो गए। और पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक बच्चे प्रभावित रहेंगे। पंगु, अपंग, अंधे, लंगड़े, लूले पैदा होंगे। लेकिन फिर भी अणु के विश्लेषण का सिद्धांत, थिअरी गलत नहीं होती है। गलत उपयोग हुआ, यह हमारे कारण, सिद्धांत के कारण नहीं।

वर्ण के कारण जो-जो हुआ, उसके लिए हम जिम्मेवार हैं, हम गलत लोग। उसके लिए वर्ण की वैज्ञानिक चिंतना जिम्मेवार नहीं है।

कृष्ण जब कहते हैं, तो वे दो शब्दों का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने चार वर्ण बनाए। गुण और कर्म!

व्यक्ति-व्यक्ति में गुणों का भेद है। और दुनिया में कोई समानता का उपाय नहीं है, जिससे हम गुण-भेद मिटा सकें। हम कितनी ही बड़ी कम्युनिस्टिक सोसायटी को पैदा कर लें, कितना ही साम्यवादी समाज निर्मित कर लें, गुण-भेद नहीं मिटा पाएंगे। धन को बराबर बांट दें; कपड़े एक से पहना दें; मकान एक से बना दें; गुण भिन्न ही होंगे। गुण में अंतर नहीं मिटाया जा सकेगा। कोई उपाय नहीं है। गुण व्यक्ति की आत्मा का हिस्सा है; बाह्य समाज व्यवस्था का हिस्सा नहीं है गुण।

इसलिए पहली बात आपसे कहता हूं कि कृष्ण का यह खयाल कि यह वर्ण की व्यवस्था मैंने बनाई, यह व्यक्ति के आंतरिक गुणधर्म की चर्चा है। इसका सामाजिक व्यवस्था से दूर का संबंध है। गहरे में संबंध व्यक्ति के भीतर के निजी व्यक्तित्व से है, इंडिविजुअलिटी से है।

एक-एक व्यक्ति में गुण का भेद है। और गुण हम जन्म से लेकर पैदा होते हैं। गुण निर्मित नहीं होते, बिल्ट-इन हैं; पैदाइश के साथ बंधे हैं। वह जो मां और पिता से जो कण मिलते हैं हमें, हमारे सब गुण उनमें ही छिपे हैं।

आइंस्टीन इतनी बुद्धिमत्ता को उपलब्ध होगा, यह उसके पहले अणु में छिपी हुई है। और आज नहीं कल, वैज्ञानिक पहले अणु की जांच करके खबर कर सकेंगे कि यह व्यक्ति क्या होगा। वैज्ञानिक तो यहां तक पहुंच गए हैं कि उनका खयाल है, जैसे आज बाजार में फलों की और फूलों की दुकान पर फूलों के बीजों के पैकेट मिलते हैं, और अंदर बीज होते हैं और ऊपर फूल की तस्वीर होती है, कि इन बीजों को अगर बो दिया, तो ऐसे फूल पैदा हो जाएंगे। वैज्ञानिक कहते हैं, पच्चीस साल के भीतर, इस सदी के पूरे होते-होते, हम आदमी के जीवाणु को भी पैकेट में रखकर दुकान पर बेच सकेंगे कि यह जीवाणु इस तरह का व्यक्ति बन सकेगा। उसकी तस्वीर भी ऊपर दे सकेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि वह जो पहला अणु है, उसमें सारा बिल्ट-इन, सभी भीतर से निर्मित गुणों की व्यवस्था है। वह बाद में प्रकट होगी; मौजूद सदा से है। और उस गुण में बुनियादी भेद है।

उन भेदों को कृष्ण कहते हैं, चार में मैंने बांटा। मैंने अर्थात प्रभु ने, चार में बांटा। प्रकृति ने, परमात्मा ने, जो भी नाम हम पसंद करें, चार मोटे विभाजन किए हैं। और चार मोटे विभाजन हैं। यह बहुत संयोग की बात नहीं है कि दुनिया में जब भी जिन लोगों ने मनुष्यों के टाइप का विभाजन किया, तो विभाजन हमेशा चार में किया; चाहे कहीं भी किया हो।

अभी पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक कार्ल गुस्ताव जुंग ने, इस सदी के बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक ने, जब आदमियों के टाइप बांटे, तो उसने भी चार में बांटे। नाम अलग, लेकिन बांटे चार में ही। इसमें कुछ मजबूरी है। चार ही हैं प्रकार, मोटे। फिर तो एक-एक व्यक्ति में थोड़े-थोड़े फर्क होते हैं, लेकिन मोटे चार ही प्रकार हैं।

कुछ लोग हैं, जिनके जीवन की ऊर्जा सदा ही ज्ञान की तरफ बहती है; जो जानने को आतुर और पागल हैं। जो जीवन गंवा देंगे, लेकिन जानने को नहीं छोड़ेंगे।

अब एक वैज्ञानिक जहर की परीक्षा कर रहा है कि किस-किस जहर से आदमी मर जाता है। अब वह जानता है कि इस जहर को जीभ में रखने से वह मर जाएगा, लेकिन फिर भी वह जानना चाहता है। हम कहेंगे, पागल है; बिलकुल पागल है! ऐसे जानने की जरूरत क्या है?

लेकिन हमारी समझ में न आएगा। वह ब्राह्मण का टाइप है। वह बिना जाने नहीं रह सकता। जीवन लगा दे, लेकिन जानकर रहेगा। वह जहर को जीभ में रखकर, उस आनंद को पा लेगा, जानने के आनंद को, कि हां, इस जहर से आदमी मरता है। हम कहेंगे, इसमें कौन-सा फायदा है? उस आदमी को क्या मिल रहा है? हम समझ न पाएंगे। सिर्फ अगर हमारे भीतर कोई ब्राह्मण होगा, तो समझ पाएगा, अन्यथा हम न समझ पाएंगे।

आइंस्टीन को क्या मिल रहा है? सुबह से सांझ तक लगा है प्रयोगशाला में! क्या मिल रहा है? कौन-सा धन? यह सुबह से सांझ तक पागल की तरह ज्ञान की खोज में किसलिए लगा है?

नहीं, किसलिए का सवाल नहीं है। अंत का सवाल नहीं है, मूल का सवाल है। मूल में गुण उसके पास ब्राह्मण का है। वह जानने के लिए लगा हुआ है।

तो कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म।

गुण भिन्न हैं, चार तरह के गुण हैं; चार तरह के आर्च टाइप हैं। जुंग ने आर्च टाइप शब्द का प्रयोग किया है। चार तरह के मूल प्रकार हैं। एक–जो ज्ञान की खोज में, जिसकी आत्मा आतुर है। जिसकी आत्मा एक तीर है, जो जानने के लिए, बस जानने के लिए, अंतहीन यात्रा करती है।

अब जो लोग चांद पर पहुंचे हैं, चांद पर क्या मिल जाएगा? कुछ बहुत मिलने को नहीं है। लेकिन जानने की उद्दाम वासना! चांद पर भी नहीं रुकेंगे–और, और, और आगे। कहीं कोई सीमा नहीं है। ये जो ज्ञान की खोज में आतुर लोग हैं, ये ब्राह्मण हैं–गुण से।

दूसरा एक वर्ग है, जो शक्ति का खोजी है। जिसके लिए पावर, शक्ति सब कुछ है; शक्ति का पूजक है। शक्ति मिली, तो सब मिला। वह कहीं से भी जीवन में शक्ति मिल जाए, तो उसी की यात्रा में लगा रहेगा। यह जो शक्ति का खोजी है, वह भी एक टाइप है। उसे इनकार नहीं किया जा सकता। क्षत्रिय उस गुण का व्यक्ति है।

अर्जुन इसी गुण का व्यक्ति है; कृष्ण ने इसी सिलसिले में यह बात भी कही है। वे उसे यही समझाना चाहते हैं कि तू अपने गुण को पहचान, तू अपनी निजता को पहचान और उसके अनुसार ही आचरण कर, अन्यथा तू मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अपने गुण को छोड़कर दूसरे के गुण की तरह व्यवहार करता है, तब बड़ी अड़चन में पड़ जाता है। क्योंकि वह वह काम कर रहा है, जो वह कर नहीं सकता। और उस काम को छोड़ रहा है, जिसे वह कर सकता था।

और जीवन का समस्त आनंद इस बात में है कि हम वही पूरी तरह कर पाएं जो करने को नियति, डेस्टिनी, जो करने को प्रभु ने उत्प्रेरित किया है। अन्यथा जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती, आनंद नहीं मिल सकता। जीवन का आनंद एक ही बात से मिलता है कि जो फूल हममें खिलने को थे, वे खिल जाएं; जो गीत हमसे पैदा होने को था, वह पैदा हो जाए।

लेकिन अगर ब्राह्मण क्षत्रिय बन जाए, तो कठिनाई में पड़ जाएगा। क्योंकि शक्ति में उसे कोई रस नहीं है। इसलिए आप देखें कि इस देश में ब्राह्मणों को इतना आदर दिया गया, लेकिन ब्राह्मण ने उतने आदर, सम्मान, सर्वश्रेष्ठ ऊपर होने पर भी कोई शक्ति पाई नहीं। ब्राह्मण भिखारी का भिखारी रहा। उसने कोई शक्ति पाई नहीं। वह दीन का दीन ही रहा। वह अपने झोपड़े में बैठकर ब्रह्म की खोज करता रहा। आदर उसे बहुत था। सम्राट उसके चरणों पर सिर रखते थे। राज्य उसके चरणों में लोट सकते थे। लेकिन उसे कोई मतलब न रहा। वह अपनी खोज में लगा रहा ब्रह्म की, दूर जंगल में बैठकर। पागल रहा होगा! हम कहेंगे, जब सम्राट ही पैर पर सिर रखने आया था, तो कुछ तो मांग ही लेना था!

कणाद के जीवन में कथा है। कणाद ब्राह्मण का टाइप है। नाम ही कणाद पड़ गया इसलिए कि कभी इतना अनाज भी घर में न हुआ कि संग्रह कर सके; रोज खेत में कण-कण बीन ले; कणों को बीनने की वजह से नाम पड़ गया, कणाद। सम्राट को खबर लगी कि कणाद कण बीन-बीनकर खेतों के खा रहा है। सम्राट ने आज्ञा दी कि भरो रथों को धन-धान्य से! चलो कणाद के पास।

बहुत धन-धान्य को लेकर सम्राट पहुंचा। कणाद के चरणों में सिर रखा और कहा कि मैं बहुत धन-धान्य ले आया हूं। दुख होता है कि मेरे राज्य में आप रहें और आप कण बीन-बीनकर खाएं! आप जैसा महर्षि और कण बीने खेतों में, तो मेरा अपमान होता है।

तो कणाद ने कहा, क्षमा करें! खबर भेज देते; इतना कष्ट क्यों किया? मैं तुम्हारा राज्य छोड़कर चला जाऊंगा। सम्राट ने कहा, आप क्या करते हैं! कैसी बात कहते हैं? आप मेरी बात नहीं समझे! कणाद तो उठकर खड़े हो गए! ज्यादा तो कुछ था नहीं; जो दो-चार किताबें थीं, बांधने लगे।

सम्राट ने कहा, आप यह क्या करते हैं? कणाद ने कहा, तेरे राज्य की सीमा कहां है, वह बता। मैं सीमा छोड़ बाहर चला जाऊं। क्योंकि मेरे कारण तू दुखी हो, तो बड़ा बुरा है। सम्राट ने कहा, यह मेरा मतलब नहीं है। मैं तो सिर्फ यह निवेदन करने आया कि बहुत धन-धान्य लाया हूं, वह स्वीकार कर लें।

कणाद ने कहा, उसे तू वापस ले जा! उसे तू वापस ले जा, क्योंकि उस धन-धान्य की व्यवस्था और सुरक्षा और सुविधा कौन करेगा? उसकी देख-रेख कौन करेगा? हमें फुर्सत नहीं है; हम अपने काम में लगे हैं। थोड़ी-सी फुर्सत मिलती है; सुबह घूमने निकलते हैं; उसी में खेत से कुछ दाने बीन लाते हैं, उससे काम चल जाता है। कोई झंझट हमें है नहीं। तू अपना यह सब वापस ले जा। इसकी फिक्र कौन करेगा? और हम इसकी फिक्र करेंगे कि हम अपनी फिक्र करेंगे, जिस खोज में हम लगे हैं। तू जल्दी कर और वापस ले जा; और दोबारा इस तरफ मत आना। और अगर आना हो, तो खबर कर देना। हम राज्य छोड़कर चले जाएंगे। हम कण कहीं भी बीन लेंगे; सभी जगह मिल जाएंगे।

अब यह जो आदमी है, इसे कण बीनने में सुविधा मालूम पड़ती है, क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती है; कोई मैनेजमेंट में नाहक समय जाया नहीं करना पड़ता है। नहीं तो बहुत-से मालिक घूम-फिरकर मैनेजर ही रह जाते हैं। लगते हैं कि मालिक हैं, होते कुल-जमा मैनेजर हैं।

एण्ड्रू कार्नेगी, अमेरिका का अरबपति मरा, तो उसने अपने सेक्रेटरी से पूछा–ऐसे ही मजाक में–कि अगर दोबारा जिंदगी फिर से हम दोनों को मिले, तो तू मेरा फिर से सेक्रेटरी होना चाहेगा कि तू एण्ड्रू कार्नेगी होना चाहेगा और मुझको सेक्रेटरी बनाना चाहेगा? उस सेक्रेटरी ने कहा, आप नाराज तो न होंगे? एण्ड्रू कार्नेगी ने कहा कि नाराज क्यों होऊंगा! बिलकुल स्वाभाविक है, तू एण्ड्रू कार्नेगी बनना चाहे। उसने कहा, माफ करें। मैं यह नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूं कि मैं फिर सेक्रेटरी ही होना चाहूंगा। एण्ड्रू कार्नेगी ने कहा, पागल! तू एण्ड्रू कार्नेगी नहीं बनना चाहता? उसने कहा, बिलकुल भूलकर नहीं। आपको जब तक नहीं जानता था, तब तक तो कभी भगवान से प्रार्थना भी कर सकता था; अब कभी नहीं कर सकता। उसने कहा, कारण क्या है? तो उसने कहा कि मैंने अपनी डायरी में कारण नोट किया हुआ है।

उसने अपनी डायरी में लिख छोड़ा था कि हे परमात्मा, भूलकर मुझे कभी एण्ड्रू कार्नेगी मत बनाना। क्योंकि एण्ड्रू कार्नेगी अपने दफ्तर में सुबह नौ बजे आता। चपरासी दस बजे आते। क्लर्क साढ़े दस बजे आते। मैनेजर ग्यारह बजे आता। डायरेक्टर्स एक बजे आते। डायरेक्टर्स तीन बजे चले जाते। चार बजे मैनेजर चला जाता। फिर क्लर्क चले जाते। फिर चपरासी चले जाते। एण्ड्रू कार्नेगी साढ़े सात बजे शाम को जाता। मुझे कभी एण्ड्रू कार्नेगी मत बनाना।

अब यह एण्ड्रू कार्नेगी दस अरब रुपए छोड़कर मरा है। लेकिन मालिक नहीं था। मैनेजर भी नहीं था। चपरासी भी नहीं था। चपरासी भी दस बजे आता; चपरासी भी साढ़े चार बजे चला जाता। एण्ड्रू कार्नेगी चपरासी से पहले मौजूद है; चपरासी के बाद दफ्तर छोड़ रहे हैं! आखिर यह आदमी मैनेज कर रहा है, किसके लिए?

नहीं, लेकिन इसका भी अपना टाइप है। वह तीसरा टाइप है। वह धन, वैश्य का टाइप है। इसे प्रयोजन नहीं है, न ज्ञान से, न शक्ति से। इसे महाराज्यों से प्रयोजन नहीं है। इसे ब्रह्म से कोई वास्ता नहीं है। इसे ब्रह्मांड से कुछ लेना-देना नहीं है। दूर के तारों से मतलब नहीं है। पास के रुपए काफी हैं। यह तिजोरी बड़ी करता जाए, भरता चला जाए। यह भी इसका टाइप है। यह वैश्य का टाइप है। धन इसकी आकांक्षा है।

चौथा एक शूद्र का टाइप है; श्रम उसकी आकांक्षा है। ऐसा नहीं है, जैसा हम साधारणतः समझाए जाते हैं कि कुछ लोगों को हम मजबूर कर देते हैं श्रम के लिए; ऐसा नहीं है। अगर कुछ लोगों को श्रम न मिले, तो उनके लिए जीना मुश्किल हो जाए। खाली सभी लोग नहीं रह सकते।

अभी अमेरिका में कठिनाई आनी शुरू हुई है। क्योंकि श्रम का काम समाप्त होने के करीब है, मशीनें करने लगी हैं। और अमेरिका के सब बड़े विचारशील लोग–चाहे जेकस ईलूल हो, और चाहे कोई और हों–वे सब इस चिंता में पड़े हैं कि दस-पंद्रह साल में सारा आटोमेटिक इंतजाम हो जाएगा। सब मशीनें काम कर देंगी। तो अब सवाल यह है कि लोग काम मांगेंगे, तो हम काम कहां से देंगे? और लोग काम मांगेंगे, क्योंकि लोग बिना काम रह नहीं सकते। कुछ लोग तो रह ही नहीं सकते बिना काम।

एक दिन मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। थका था। किसी गांव से, भीड़-भाड़ से लौट रहा था, तो मैंने सोचा कि अब चौबीस घंटे सोए ही रहना है। पर एक सज्जन और मेरे कंपार्टमेंट में थे। मैं जैसे ही कमरे में आया, मैंने उनकी तरफ देखा नहीं, क्योंकि देखा कि खतरा शुरू हो जाए! वे कुछ बातचीत शुरू कर दें। मैंने जल्दी से आंख बंद की और मैं सोने लगा। उन्होंने कहा, क्या आप इतनी जल्दी सोने लगे? मैंने कहा कि आप समझिए, मैं सो ही गया। मैं तो चादर ओढ़कर सो रहा। घंटा भर, डेढ़ घंटे बाद मैं उठा, तो देखा कि वही अखबार वे पढ़ रहे थे, जब मैं सोया था। फिर उसको ही पढ़ रहे थे, फिर से पहले पेज से शुरू कर दिया था। मुझे देखा, तो उन्होंने जल्दी से अखबार बंद किया। मैंने कहा, आप पढ़िए, मैं तो फिर वापस सो जाने वाला हूं।

सुबह जब उठा, तब वे फिर कल वाला ही अखबार पढ़ रहे थे! न मालूम कितनी बार पढ़ चुके थे! जब मुझे देखा, तो जरा संकोच में उन्होंने अखबार बंद करके रख दिया। मैं करवट लिए पड़ा रहा। कभी वे खिड़की खोलते, कभी सूटकेस खोलते, कभी यह चीज इधर रखते, कभी वह चीज उधर रखते।

दोपहर होते-होते मैंने देखा कि वे बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। दोपहर को जब मैं खाना खाकर फिर सोने लगा, उन्होंने कहा, क्या आप गजब कर रहे हैं! फिर सोइएगा? कुछ बातचीत नहीं करिएगा? मैंने कहा कि आप अपना काम जारी रखिए। मुझे कोई एतराज नहीं है। आप बार-बार खिड़की खोलिए, बंद करिए! सूटकेस दबाइए, उठाइए। जो आपको करना है। आप उसी अखबार को हजार दफे पढ़िए, मुझे कोई एतराज नहीं है। आप मुझे भूलिए। मैं नहीं हूं। वे बोले, आपने खयाल कर लिया क्या? मैं डर रहा था कि आप क्या सोचेंगे कि यह आदमी क्यों बार-बार खिड़की खोलता बंद करता है! लेकिन मैं क्या करूं, मैं खाली बहुत मुसीबत में हूं।

अब यह भी एक टाइप है, जो बिना काम के जी नहीं सकता।

आज अमेरिका में दो दिन की छुट्टी हो गई है सप्ताह में, तो आप जानकर हैरान होंगे कि अमेरिका में एक कहावत है कि दो दिन की छुट्टी के बाद आदमी इतना थक जाता है कि एक सप्ताह विश्राम की जरूरत पड़ती है। यह बड़ी मुश्किल बात है! दो दिन की छुट्टी के बाद आदमी इतना थक जाता है कि सात दिन के विश्राम की जरूरत पड़ती है! तो छुट्टी में विश्राम किया आपने?

नहीं, छुट्टी में लोग सैकड़ों-हजारों मील कार चलाए, बीच पर पहुंचे। एक नहीं पहुंचा; नैक टु नैक कारें, एक-दूसरे से फंसी रहीं। लाखों कारें पहुंच गईं। पूरी बस्ती समुद्र के तट पर पहुंच गई। जिस बस्ती से भागे थे, लेकिन पूरी बस्ती भाग रही है, वह पूरी बस्ती वहां मौजूद हो गई। इससे तो अच्छा घर रह जाते, तो अब घर में थोड़ा सन्नाटा रहता। क्योंकि सारी बस्ती बीच पर आ गई। अब सारी बस्ती बीच पर रही। फिर बीच से भागे!

सारे अमेरिका में छुट्टी के दिन सर्वाधिक दुर्घटनाएं हो रही हैं। क्योंकि छुट्टी के दिन लोग बिलकुल शैतानी के काम में लग जाते हैं। क्या करें? फुर्सत खतरनाक है! जब तक मिली नहीं, तब तक आपको पता नहीं। अगर पूरी फुर्सत मिल जाए, तो खतरनाक है। तब आपको पता चलेगा कि श्रम करने वाला भी एक टाइप है, जो बिना श्रम किए नहीं रह सकता।

कृष्ण कहते हैं, ये चार गुण से विभाजित लोग हैं। शायद इन चारों की जरूरत भी है। क्योंकि सारे लोग ज्ञान खोजें, तो जगत अस्तित्व में नहीं रह जाए। और सारे लोग शक्ति खोजें, तो सिवाय युद्धों के कुछ भी न हो। और सारे लोग धन खोजें, तो आदमी मर जाएं और तिजोरियां बचें। और सारे लोग श्रम करें, तो कोई संस्कृति, कोई सभ्यता, कोई कला, कोई विज्ञान, कोई दर्शन, कोई धर्म–कुछ भी न हो। ये चारों कांप्लिमेंट्री हैं। इन चारों के बिना जगत नहीं हो सकता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ये चार, गुण से और कर्म से।

भीतर तो गुण हैं, उन गुणों से जुड़े हुए संयुक्त कर्म हैं। गुण ही बाहर प्रगट होकर कर्म बन जाते हैं। भीतर जिनका नाम गुण है, बाहर उनका नाम कर्म है। जब बीज में होते हैं, तो उनका नाम गुण है; और जब प्रकट होकर संबंधित होते हैं, तो उनका नाम कर्म हो जाता है

गुण-कर्म से मैंने चार में बांटा, कृष्ण कहते हैं।

यह चार का विभाजन, कृष्ण की दृष्टि में ऊंचे-नीचे का विभाजन नहीं है। कृष्ण की दृष्टि में इसमें कोई हायरेरकी नहीं है। इसमें कोई ऊपर और कोई नीचे नहीं है। ये चार जीवन के, शरीर के, चार अंग हैं, समान मूल्य के। एक के भी बिना तीन नहीं हो सकते।

विकृति उस दिन आनी शुरू हुई, जिस दिन हमने हायरेरकी बनाई। जिस दिन हमने कहा कि नहीं कोई ऊपर, और कोई नीचे। नहीं, श्रम भी उतना ही ऊपर है, जितना ज्ञान। और अगर किसी को ज्ञान की पिपासा है और किसी को अगर श्रम की पिपासा है, तो श्रम की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी पिपासा को पूरी करे। ज्ञान की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी पिपासा को पूरी करे। और दोनों ही पिपासाएं विराट से मिली हैं, जन्म से मिली हैं, बिल्ट-इन हैं। इसलिए गौरव की बात क्या है?

अगर मुझे सत्य की खोज की आकांक्षा है, तो इसमें गौरव की बात क्या है? यह मुझे वैसे ही मिली है, गिवेन है, वरदान है परमात्मा का, जैसे एक आदमी को श्रम की क्षमता मिली है। इसमें अगौरव क्या है? कोई नीचे-ऊपर नहीं है। वह उसका बिल्ट-इन प्रोग्रेम है।

एक फूल गुलाब बनने को हुआ है, एक फूल कमल बनने को हुआ है, एक फूल जुही बना है, एक फूल चमेली बना है। दुनिया सुंदर है। जितने ज्यादा फूल हैं, उतनी ही सुंदर है। लेकिन गुलाब गुलाब होने की मजबूरी में है। कमल कमल होने की मजबूरी में है। कमल का कमल होना, कमल का गौरव नहीं है; वह कमल की नियति है, डेस्टिनी है। गुलाब का गुलाब होना भी गुलाब की डेस्टिनी है। और एक घास के फूल का घास का फूल होना भी उसकी अपनी डेस्टिनी है।

और मजे की बात यह है कि जब घास का फूल अपने पूरे सौंदर्य में खिलता है, तो किसी गुलाब के फूल से पीछे नहीं होता। आपके लिए होगा, क्योंकि बाजार में बेचेंगे, तो घास के फूल का दाम नहीं मिलेगा। लेकिन घास के फूल के लिए, खुद घास के फूल के लिए, घास का फूल जब पूरी तरह खिलता है, तो उतनी ही एक्सटैसी में, उतने ही हर्षोन्माद में होता है, जितना जब गुलाब का फूल अपनी पूरी पंखुड़ियों को खिलाकर नाचता है सूरज की रोशनी में। दोनों अपने आनंद में होते हैं। और सूरज घास के फूल से यह नहीं कहता कि शूद्र! हट, मैं सिर्फ गुलाब के फूलों के लिए आया हूं। नहीं, सूरज उतने ही आनंद से बरसता है घास के फूल पर। चांद उतने ही आनंद से अमृत बरसाता है। हवाएं उतने ही आनंद से घास के फूल को भी नृत्य और थपकी देती हैं, जितनी गुलाब के फूल को देती हैं। इसमें कोई भेद-भाव नहीं है।

जगत के, अस्तित्व के भीतर कोई भेद-भाव नहीं है। गुण-भेद है, भेद-भाव नहीं है। कोई नीचे-ऊपर नहीं है। विभाजन है, शत्रुता नहीं है। कोई एक-दूसरे के कांफ्लिक्ट में नहीं है। संघर्ष नहीं है, सहयोग है।

कृष्ण के लिए, जिस दिन वर्ण की उन्होंने बात कही, चारों वर्णों में एक अंतर-सहयोग था, एक इनर को-आपरेशन था। एक आर्गेनिक यूनिटी थी। इन चारों के बीच एक शरीर-संबंध था।

इसलिए कृष्ण ने पीछे शरीर से तुलना भी की है कि कोई सिर है, कोई पैर है, कोई पेट है। अंग की भांति सारे वर्ण हैं। कोई नीचे-ऊपर नहीं है। लेकिन नीचे-ऊपर दिखाई पड़ता है। क्योंकि उन्होंने कहा कि सिर। सिर ऊपर मालूम होता है। पैर! पैर नीचे मालूम होते हैं। लेकिन यह ऊपर-नीचे होना फिजिकल है। यह ऊपर-नीचे होना मूल्यांकन नहीं है। यह मूल्यांकन, इसमें कोई वेल्युएशन नहीं है कि पैर नीच है, ऐसा नहीं है। अगर नीचा है, तो उसका कुल मतलब इतना है कि स्पेस में सिर ऊपर मालूम हो रहा है, पैर नीचे। लेकिन वह भी सब बातचीत काल्पनिक है।

एक आदमी किसी की छत पर खड़े होकर देखे, तो आपका सिर नीचे हो जाता है, उसका सिर ऊंचा हो जाता है। छोटे बच्चे करते हैं। कुर्सी पर खड़े हो जाते हैं बाप के पास और कहते हैं, हम तुमसे बड़े हैं। फिजिकल! हैं भी बड़े, जब ऊपर हो गए। अगर सिर ऊपर है पैर से, तो बेटा कुर्सी पर खड़ा होकर बड़ा है।

तो छिपकली, जो आपके छत पर चल रही है आपके सिर के ऊपर! छिपकली के बाबत क्या खयाल है? ब्राह्मण के ऊपर छिपकली चल रही है! छिपकली बहुत ऊपर है!

ये ऊपर-नीचे की बचकानी बातें हैं। इसमें कुछ भेद, कोई मूल्यांकन कृष्ण के मन में नहीं है; किसी के मन में नहीं था। हमारे मन में पैदा हुआ। हमने थोपा।

कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने विभाजित किया व्यक्तियों को।

गुण, भीतरी क्षमता; कर्म, बाहरी अभिव्यक्ति; कर्म, मैनिफेस्टेशन।

ध्यान रहे, गुण जब कर्म बनता है, तभी दूसरों को पता चलता है। जब तक गुण गुण रहता है, तब तक किसी को पता नहीं चलता। दूसरों को ही नहीं, खुद को भी पता नहीं चलता। खुद को भी पता तभी चलता है, जब गुण कर्म बनता है। जब एक व्यक्ति अपने को प्रकट करता है अपने कर्मों में, तभी आपको भी पता चलता है और उसको भी पता चलता है कि वह क्या है।

गुण, बीज की तरह छिपा हुआ अस्तित्व है। कर्म, वृक्ष की तरह प्रकट अस्तित्व है।

गुण और कर्म के अनुसार विभाजित मनुष्य हैं। इस विभाजन को कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता। इस विभाजन को इनकार किया जा सकता है। कानून बनाया जा सकता है कि ऐसा कोई विभाजन नहीं है। विधान बनाया जा सकता है, ऐसा कोई विभाजन नहीं है। लेकिन विभाजन जारी रहेगा।

अगर हम एक कानून बना लें। और कोई कठिन नहीं है, हम एक कानून बना दें कि स्त्री-पुरुषों के बीच कोई विभाजन नहीं है। कानून बनाया जा सकता है, मेजारिटी चाहिए! और हमेशा मेजारिटी हर तरह की बेवकूफी के लिए मिल सकती है। अगर आपकी धारा-सभा में, आपकी असेंबली और पार्लियामेंट में, बहुमत तय कर ले कि स्त्री-पुरुष में कोई फासला नहीं है, तो कानून बन सकता है। लेकिन कानून बनने से प्रकृति नहीं बदल जाती।

कानून बन भी गए हैं करीब-करीब। कानून ही नहीं बन गए, पश्चिम के मुल्कों ने स्त्री और पुरुष के बीच के फासले को गिराना भी शुरू कर दिया है। तो पुरुष स्त्रियों जैसे होने की कोशिश में लग गए हैं; ताकि एक-दूसरे की तरफ थोड़ा-थोड़ा चलें, तो फासला कम हो जाए। स्त्रियां पुरुषों जैसी होने लग गई हैं। स्त्रियां पुरुषों के कपड़े पहन रही हैं; पुरुष स्त्रियों के कपड़े पहनने की कोशिश में लगे हैं। स्त्रियां बाल कटा रही हैं, पुरुष बाल लंबे कर रहे हैं! ऐसा दोनों थोड़ा-थोड़ा चलेंगे, तो कहीं मिलन हो जाएगा, इस आशा में।

लेकिन अगर स्त्रियों और पुरुषों को बिलकुल एक जैसी शकल का भी बनाकर खड़ा कर दिया जाए, तो भी नियति का जो फासला है, वह नहीं गिर जाता। लेकिन उस फासले में कोई ऊंच-नीच नहीं है। वह वर्टिकल नहीं है, हारिजांटल है। वह फासला ऊंचा-नीचा नहीं है।

ठीक गुण और कर्म से भी जो भेद है, वह नियतिगत, स्वभावगत है। उस स्वभावगत भेद को कृष्ण कहते हैं, मैंने ही निर्मित किया।

इस विभाजन को स्वाभाविक, परमात्मा से आया हुआ विभाजन वे कह रहे हैं। इन-बॉर्न, इन-बिल्ट, प्रकृति में ही छिपा हुआ, यही उनका अर्थ है। और यह वे इसीलिए कह रहे हैं, ताकि अर्जुन को ठीक से खयाल आ जाए कि उसका अपना गुणकर्म क्या है। और वह उसके स्मरण को ध्यान में लेकर कर्म में सक्रिय हो सके, गुण को पहचानकर कर्म कर सके।

गुण और कर्म का मेल हो जाए, तो व्यक्ति के जीवन में एक हार्मनी, एक अंतर-संगीत पैदा हो जाता है। गुण और कर्म का भेद टूट जाए, तो व्यक्ति के जीवन में विसंगीत उत्पन्न हो जाता है।

एक प्रश्न है आखिरी। फिर हम सुबह बात करेंगे।

प्रश्न:

भगवान श्री, अभी आपने कहा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में मूल्यों की श्रेष्ठता, हायरेरकी नहीं है। लेकिन चेतना की ऊंचाइयों एवं चेतना के विकास को खयाल में रखने पर, क्या ब्राह्मण की चेतना शूद्र की चेतना से श्रेष्ठ नहीं है?

नहीं; चेतना किसी की श्रेष्ठ नहीं है। चेतना श्रेष्ठ होती है अपने गुण को पूरा उपलब्ध कर लेने पर; किसी की भी श्रेष्ठ हो जाती है।

अगर ब्राह्मण ज्ञान के साथ आत्मसात हो जाए, तो उसकी चेतना श्रेष्ठ हो जाती है। अगर क्षत्रिय शक्ति के साथ आत्मसात हो जाए, एक हो जाए…। अर्जुन जब तीर चलाए, तो तीर और अर्जुन अलग-अलग न रह जाएं, अर्जुन तीर बन जाए। अर्जुन जब तलवार हाथ में ले, तो हाथ और तलवार के बीच का फासला गिर जाए; हाथ और तलवार एक हो जाएं। तो ब्राह्मण जब ध्यान में पूरा लीन होकर ब्रह्म के साथ एक होता है, तो जिस अनुभव को उसकी चेतना उपलब्ध होती है, उसी अनुभव को अर्जुन की चेतना भी उपलब्ध हो जाएगी, जब वह घूमती हुई तलवार के साथ एक हो जाएगा। अर्जुन के लिए वही ध्यान बन जाएगा।

जापान में मंदिर हैं, जिन मंदिरों पर तलवारों के चिह्न बने हुए हैं। जापान में क्षत्रियों का एक समूह हुआ, समुराई। मंदिरों पर तलवार! और मंदिरों के भीतर तलवार सिखाने के लिए स्कूल हैं। कभी बहुत चौंकने की बात मालूम पड़ती है! मंदिर के भीतर तलवार चलाने का स्कूल? तलवार की ट्रेनिंग? पागल हो गए हैं आप? मंदिर में तलवार चलाना सिखाकर क्या करिएगा?

लेकिन समुराई कहते हैं कि हम क्षत्रिय हैं। हम तो तलवार की चमक पर जब एक हो जाएंगे, जब तलवार और हमारे बीच कोई फासला न रहेगा, तलवार का नृत्य ही जब हमारे प्राणों का नृत्य हो जाएगा, हम बिलकुल एक हो सकेंगे; वही हमारा ध्यान है; वही हमारी समाधि है। वहीं से समाधि मिल जाएगी।

अगर श्रम का आतुर व्यक्ति अपने श्रम में इतना डूब जाए कि पीछे कोई भी न बचे; फावड़े से खोदता है जमीन को या काटता है लकड़ी को कुल्हाड़ी से, उसकी कुल्हाड़ी के उठने के साथ ही उसका भी उठना हो, और कुल्हाड़ी के गिरने के साथ उसका भी गिरना हो, कुल्हाड़ी और उसके बीच कोई अंतर न रह जाए, तो वह उसी ध्यान को उपलब्ध हो जाता है, जो ब्राह्मण अपनी कुटी में बैठकर ध्यान करके उपलब्ध होता है।

ध्यान, चारों वर्ण के लोग अपने-अपने ढंग से उपलब्ध हो सकते हैं। और जो भी चेतना ध्यान को उपलब्ध हो जाती है, वह श्रेष्ठ हो जाती है। श्रेष्ठता का संबंध शूद्र, ब्राह्मण और वैश्य और क्षत्रिय से नहीं है। श्रेष्ठता का संबंध ध्यान से है। जो चेतना ध्यान को उपलब्ध हो जाए, किसी भी मार्ग से, वह चेतना श्रेष्ठता को उपलब्ध हो जाती है।

श्रेष्ठता ध्यान से उपलब्ध होती है। और चार तरह के ध्यान होंगे मोटे–शूद्र के लिए, ब्राह्मण के लिए, क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए। तल्लीनता! इतनी तल्लीनता कि भीतर से कर्ता मिट ही जाए, एक हो जाए। यह एकता किसी भी भांति आ जाए। यह प्रयोगशाला में आ जाए वैज्ञानिक को; कि नृत्यकार को नाचते हुए आ जाए; यह वाद्य बजाने वाले वीणावादक को वीणा में आ जाए; यह शिक्षक को पढ़ाने में आ जाए; यह गिट्टी फोड़ने वाले को गिट्टी फोड़ने में आ जाए। कहीं भी आ जाए। यह ध्यान जहां भी आ जाए, वहीं श्रेष्ठता चेतना की उपलब्ध हो जाती है।

चेतना की श्रेष्ठता वर्ण पर निर्भर नहीं, चेतना की श्रेष्ठता ध्यान पर निर्भर है।

और कुछ सवाल होंगे, तो कल सुबह। आज की रात की बैठक पूरी हुई।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--2 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–1

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शासन की आधारशिला: संकल्‍प—प्रवचन—पहला

सूत्र:

जं इच्‍छसि अप्‍पणतो, जं च न इच्‍छसि अप्‍पणतो।

तं इच्‍छ परस्‍स वि या, एत्‍तियगं जिणसासणं।। 1।।

अधुवेअसससयम्‍मि, संसारम्‍मि दुक्‍खपउराए।

किं नाम होज्‍ज तं कम्‍मयं, जेणाउहं दुग्‍गइ न गच्‍छेजा।। 2।।

खणामित्‍तसुक्‍खा बहुकालदुक्‍खा, पगामदुक्‍खा अणिगामसुक्‍खा।

संसारमाक्‍खस्‍स विपक्‍खभूया, खाणी अणत्‍थाण उ कामभोगा।। 3।।

सुट्ठवि मग्‍गिज्‍जंतो, कत्‍थवि केलीइ नत्‍थि जह सारो।

इंदियाविसएसु तहां, नत्‍थि सुहं सुट्ठ वि गविट्ठं।। 4।।

जह कच्‍छुल्‍लो कच्‍छुं, कंडयमाणो दुहं मुणइ सुक्‍खं।

मोहाउरा मणुस्‍सा, तह कामदुहं सुहं विंति।। 5।।

वेद कहते हैं, परमात्मा अकेला था। एकाकीपन उसे खला, अकेलेपन से ऊबा। सोचा उसने, बहुत हो जाऊं। फिर उसने बहुत रूप धरे। ऐसे संसार निर्मित हुआ। सृष्टि की यह कथा है।

स एकाकी न रेमे, एकोऽहं बहुस्याम्!

अकेला वह ऊबने लगा। सोचा बहुत रूपों को सृजूं, बहुत रूपों में रमूं।

ब्राह्मण-संस्कृति इसी सूत्र का विस्तार है–परमात्मा का अवतरण, परमात्मा का फैलाव। ब्रह्म शब्द का यही अर्थ है: जो फैलता चला जाए, जो बहुत रूप धरे, जो बहुत लीला करे, जो अनेक-अनेक ढंगों से अभिव्यक्त हो, सागर जैसे अनंत-अनंत लहरों में विभाजित हो जाए।

एक अनेक बनता है, एक अनेक में उत्सव मनाता है। एक अनेक में डूबता है, स्वप्न देखता है। माया सर्जित होती है।

संसार परमात्मा का स्वप्न है। संसार परमात्मा के गहन में उठी विचार की तरंगें हैं।

ब्राह्मण-संस्कृति ने परमात्मा के इस फैलाव के अनूठे गीत गाए। उससे भक्ति-शास्त्र का जन्म हुआ। भक्ति-शास्त्र का अर्थ है: परमात्मा का यह फैलता हुआ रूप, अहोभाग्य है। परमात्मा का यह फैलता हुआ रूप परम आनंद है। इसलिए भक्ति में रस है, फैलाव है। एक शब्द में कहें तो महावीर का जो बचपन का नाम है, वह ब्राह्मण-संस्कृति का सूचक है। महावीर का बचपन का नाम था: वर्द्धमान–जो फैले, जो विकासमान हो। फिर महावीर को दूसरी ऊर्जा का, दूसरे अनुभव का, दूसरे साक्षात का सूत्रपात हुआ। वह ठीक वेद से उलटा है।

वेद कहते हैं, वह अकेला था, ऊबा, उसने बहुत को रचा। महावीर बहुत से ऊब गए, भीड़ से थक गए और उन्होंने चाहा, अकेला हो जाऊं। परमात्मा का उतरना संसार में, फैलना और महावीर का लौटना वापिस परमात्मा में! इसलिए श्रमण-संस्कृति के पास अवतार जैसा कोई शब्द नहीं है। तीर्थंकर! अवतार का अर्थ है: परमात्मा उतरे, अवतरित हो। तीर्थंकर का अर्थ है: उस पार जाए, इस पार को छोड़े। अवतार का अर्थ है: उस पार से इस पार आए। तीर्थंकर का अर्थ है: घाट बनाए इस पार से उस पार जाने का। संसार कैसे तिरोहित हो जाए, स्वप्न कैसे बंद हो, भीड़ कैसे विदा हो; फिर हम अकेले कैसे हो जाएं–वही श्रमण-संस्कृति का आधार है। वर्द्धमान कैसे महावीर बने, फैलाव कैसे रुके; क्योंकि जो फैलता चला जा रहा है उसका कोई अंत नहीं है। वह पसारा बड़ा है। वह कहीं समाप्त न होगा। स्वप्न फैलते ही चले जाएंगे, फैलते ही चले जाएंगे–और हम उनमें खोते ही चले जाएंगे। जागना होगा!

भक्ति-शास्त्र ने परमात्मा के इस संसार के अनेक-अनेक रूपों के गीत गाए, महावीर ने इस फैलती हुई ऊर्जा से संघर्ष किया–इसलिए “महावीर’ नाम–लड़े, धारा के उलटे बहे।

गंगा बहती है गंगोत्री से गंगासागर तक–ऐसी ब्राह्मण-संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति का सूत्र है: समर्पण; छोड़ दो उसके हाथ में, जहां वह जा रहा है; चले चलो; भरोसा करो; शरणागति!

महावीर की सारी चेष्टा ऐसी है जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ बहे–मूलस्रोत की तरफ, उत्स की तरफ। लड़ो! दुस्साहस करो–संघर्ष, समर्पण नहीं। महान संघर्ष से गुजरना होगा, क्योंकि धारा को उलटा ले जाना है, विपरीत ले जाना है।

धारा का अर्थ है: जाए गंगोत्री से गंगा सागर की तरफ। धारा को उलटा करना है–राधा बनाना है। गंगा चले, बहे उलटी, ऊपर की तरफ, पानी पहाड़ चढ़े। मूल उदगम की खोज हो।

ब्राह्मण-संस्कृति आधी है। श्रमण-संस्कृति भी आधी है। दोनों से मिलकर पूरा वर्तुल निर्मित होता है। और इसलिए इस देश में ब्राह्मण और श्रमणों के बीच जो संघर्ष चला, उसने दोनों को पंगु किया। तब ब्राह्मणों के पास फैलने के सूत्र रह गए, श्रमणों के पास सिकुड़ने के सूत्र रह गए! दोनों ही अधूरे हो गए; सत्य आधा-आधा कट गया। मेरे देखे, जहां ब्राह्मण और श्रमण राजी होते हैं, सहमत होते हैं, मिल जाते हैं, वहीं परिपूर्ण धर्म का आविर्भाव होता है।

निश्चित ही परमात्मा थक गया अकेलेपन से, बहुत रूप उसने धरे; लेकिन फिर बहुत रूप से भी तो थकेगा, फिर विश्राम भी तो मांगेगा। इसलिए महावीर के वचन वेद-विरोधी मालूम होंगे; क्योंकि वेद बह रहा है गंगोत्री से गंगासागर की तरफ। इसलिए हिंदुओं ने समझा कि महावीर वेद-विरोधी हैं–प्रतीत होते हैं। परमात्मा अपने घर वापिस लौटने लगा। ऊब गया बाजार से, देख ली भीड़-भाड़, बहुत रूप धर लिये, थक गया उनसे भी। उसने फिर कहा, अब हो गया बहुत अनेक, अब एक होना चाहता हूं। इसलिए महावीर के पास एक शब्द है जो बड़ा बहुमूल्य है। महावीर ने कहा, मनुष्य बहुचित्तवान है; बहुत-बहुत खंडों में विभाजित है–उसे एक होना है। बहुत रूपों में बंटा है–उसे संगृहीत होना है। इस संगृहीत चैतन्य का नाम ही महावीर की भाषा में परमात्मा है। वर्द्धमान को महावीर होना है। फैलते को वापिस लौटना है, क्योंकि सब फैलाव कामना का है। परमात्मा भी फैला संसार में कामना से। कामना ही फैलती है। तो जिसे मुक्त होना है, उसे सिकुड़ना होगा। उसे मूल स्वभाव में लौट आना होगा।

परमात्मा उतरा है, हिंदू विचार में–अवतरण हुआ। महावीर कहते हैं, ऊर्ध्वगमन, वापिस लौटना है घर; देख लिया संसार!

इसलिए महावीर के सूत्र भक्ति-सूत्र से बिलकुल विपरीत मालूम होंगे। घबड़ाना मत। श्रवण और ब्राह्मण मिलकर ही पूर्ण संस्कृति का जन्म होता है। नहीं हो पाया ऐसा, होना चाहिए था। अब भी कुछ देर नहीं हुई, हो सकता है। जहां नारद और वर्द्धमान महावीर राजी हो जाते हैं, वहां पूर्ण वर्तुल पैदा होता है।

पर महावीर की भाषा संघर्ष की है। महावीर के पास शरणागति जैसा कोई शब्द ही नहीं है। महावीर कहते हैं, अशरण-भावना। किसी की शरण मत जाना। अपनी ही शरण लौटना है। घर जाना है। किसी का सहारा मत पकड़ना। सहारे से तो दूसरा हो जाएगा। सहारे में तो दूसरा महत्वपूर्ण हो जाएगा। नहीं, दूसरे को तो त्यागना है, छोड़ना है, भूलना है। बस एक ही याद रह जाए, जो अपना स्वभाव है, जो अपना स्वरूप है–इसलिए कोई शरणागति नहीं।

महावीर गुरु नहीं हैं। महावीर कल्याणमित्र हैं। वे कहते हैं, मैं कुछ कहता हूं, उसे समझ लो; मेरे सहारे लेने की जरूरत नहीं है। मेरी शरण आने से तुम मुक्त न हो जाओगे। मेरी शरण आने से तो नया बंधन निर्मित होगा, क्योंकि दो बने रहेंगे। भक्त और भगवान बना रहेगा। शिष्य और गुरु बना रहेगा। नहीं, दो को तो मिटाना है।

इसलिए महावीर ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। कहा कि भक्त ही भगवान हो जाता है।

इसे समझना। विपरीत दिखाई पड़ते हुए भी ये बातें विपरीत नहीं हैं।

नारद कहते हैं, भक्त भगवान में लीन हो जाता है। भगवान ही बचता है, भक्त खो जाता है। महावीर कहते हैं, भक्त जाग जाता है अपनी परिपूर्णता में, भगवान खो जाता है, भक्त में लीन हो जाता है। भक्त ने पहचान लिया अपना स्वरूप–भगवान हो गया। स्वरूप को पहचान लेना भगवत्ता है। इसलिए महावीर के धर्म में भगवान नहीं है, शरणागति नहीं है। शरण जाने को ही कोई नहीं है, जिसकी शरण चले जाओ। कोई प्रार्थना नहीं, कोई पूजा नहीं–हो नहीं सकती; क्योंकि पूजा में तो दूसरा जरूरी होगा। “पर’ चाहिए पूजा को।

महावीर की भाषा ध्यान की है, पूजा की नहीं। और ध्यान और प्रार्थना में यही फर्क है। प्रार्थना में दूसरा चाहिए। ध्यान में दूसरे को मिटाना है, भुलाना है। इस तरह भुला देना है कि बस अकेले तुम ही बचो, शुद्ध चैतन्य बचे; दूसरे की रेखा भी न रहे, छाया भी न पड़े। पर दोनों ही रास्तों से वहीं पहुंचना हो जाता है। जो समर्पण से बहते हैं, जो धारा बनते हैं, आखिर सागर से बादलों पर चढ़ कर गंगोत्री पहुंच ही जाते हैं। उन्होंने सुगम मार्ग चुना।

नारद की यात्रा बड़ी सरल है। महावीर की यात्रा बड़ी कठिन है। इसीलिए तो “महावीर’! वह योद्धा का मार्ग है, प्रेमी का नहीं; संघर्ष का। लेकिन कुछ हैं जिनके लिए वही स्वाभाविक है। इसलिए अपने भीतर देखना। इसकी फिक्र मत करना कि किस घर में पैदा हुए। वह तो सांयोगिक है। जैन घर में पैदा हुए कि हिंदू घर में कि मुसलमान घर में कि ईसाई घर में, वह तो सांयोगिक है। अपने जीवन की अंतर्दशा समझना। योद्धा बनने की रुझान है? योद्धा बनने की तरफ सहज प्रवाह है? योद्धा होने में लगता है स्वरूप खिलेगा? तो योद्धा बनना! तो फिर महावीर के पीछे चलना। और लगे कि लड़ना अपने से न होगा, वह अपनी भाषा नहीं है, लगे कि समर्पण ही उचित है, तो फिर नारद को चुन लेना।

नारद एक छोर हैं, महावीर दूसरे छोर हैं। और कहीं न कहीं नारद और महावीर के बीच सारे महापुरुष हैं–बुद्ध हों, कृष्ण हों, राम हों, मुहम्मद हों, जरथुस्त्र हों, जीसस हों–महावीर और नारद के बीच कहीं न कहीं! लेकिन महावीर और नारद परम छोर हैं। और इसलिए जैसा नारद ने भक्ति को उसकी परम प्रगाढ़ता में प्रगट किया है, शरणागति को आखिरी रूप दिया, आखिरी परिभाषा दे दी–उसके पार परिष्कार संभव नहीं है–वैसे महावीर ने संघर्ष को आखिरी रूप दिया है। अब उसको और ऊपर उठाने का कोई उपाय नहीं है। महावीर ने आखिरी बात कह दी है संघर्ष के रास्ते पर। चुनाव तुम्हें यह नहीं करना है कि कौन ठीक है। दोनों ठीक हैं। चुनाव तुम्हें यह करना है कि कौन हमें जंचता है।

फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे

पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत।

–इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कितने फूल खिले!

फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे!

चंपा है, चमेली है, जूही है, केतकी है, गुलाब है, कमल है।

फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे

पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत!

फिर तुम्हें जो भा जाए वही तुम्हारा फूल है। तुम्हें कमल भा जाए, तुम्हारे बेटे को गुलाब भा जाए, तो झगड़ा मत करना। जो तुम्हें भा जाए, वही तुम्हारे लिए मार्ग है।

लोग अकसर उलटा करते हैं। लोग सोचते हैं, “कौन ठीक?’ गलत प्रश्न उठा लिया। “महावीर ठीक कि नारद ठीक?’–तुमने प्रश्न ही गलत पूछ लिया। यही पूछो, कौन जंचता है। ठीक-गलत, तुम कैसे निर्णय करोगे? उस परम की बातें, वे ही जानें जो परम को उपलब्ध हुए हैं। तुम तो इतना ही तय कर लो, कौन-सा तुमको जंचता है, कौन-सा तुम्हारे मन को भा जाता है।

मैं, अगर मुझसे पूछो, तो कहूंगा, सभी ठीक। लेकिन सभी ठीक से तो हल न होगा। क्योंकि सभी रास्तों पर तो तुम चल न सकोगे। द्वार तो तुम्हें चुनना ही होगा। सभी द्वार उसी के मंदिर के हैं। लेकिन फिर भी तुम एक ही द्वार से गुजर सकोगे, सभी द्वारों से न गुजर सकोगे। सभी द्वारों से गुजरने में तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। एक पैर एक द्वार में डाल दोगे, एक हाथ दूसरे द्वार में डाल दोगे–तुम अटक जाओगे। एक से ज्यादा द्वार चुन लिये तो द्वार पहुंचाएंगे न, अटकाएंगे। तुम अपना द्वार चुन लेना। तुम अपना फूल चुन लेना। तुम अपनी रुझान को पहचानो। तुम्हें जो भा जाए वही सत्य है। जो तुम्हारे काम आ जाए वही सत्य है। जो द्वार तुम्हें पहुंचा दे वही गुरुद्वारा है। पहुंचकर तो तुम भी पाओगे, अरे! सभी द्वार यहीं आ गए। पहुंचकर तो तुम मिलोगे उनसे जो दूसरे द्वारों से आते थे और दुश्मन मालूम पड़ते थे। क्योंकि मैंने तो उस मंदिर में महावीर और नारद को आलिंगन करते देखा है। लेकिन तुम चुन लेना। तुम्हारा चुनाव यह न हो कि कौन ठीक है। वह तो बात ही अभद्र हो गई। तुम्हारा चुनाव तो बस इतना हो:

फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे

पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत!

जब देखिए कुछ और ही आलम है तुम्हारा

हर बार अजब रंग है, हर बार अजब रूप!

बहुत रूपों में सत्य प्रगट हुआ है। बहुत रंगों में, बहुत ढंगों में प्रगट हुआ है। और हर बार जब प्रगट हुआ है तो अजब ही! तो बड़ा आश्चर्यचकित करनेवाला है, अवाक कर जानेवाला है। नारद को समझोगे, अवाक रह जाओगे। महावीर को समझोगे, ठगे रह जाओगे।

जब देखिए कुछ और ही आलम है तुम्हारा

हर बार अजब रंग है, हर बार अजब रूप

मगर ये रूप सब एक के ही हैं। यह यात्रा एक ही है।

ईसाइयत कहती है, अदम को परमात्मा ने स्वर्ग से बहिष्कृत किया। निकाला स्वर्ग के राज्य से; क्योंकि आज्ञा उसने न मानी थी, अनाज्ञाकारी था। फिर जीसस ने आज्ञा मानी। जीसस वापिस समारोहपूर्वक स्वर्ग में प्रविष्ट हुए। जिसे अदम में निकाला था, वही जीसस में लौटा। अदम पहला आदमी है, जीसस आखिरी आदमी हैं। अदम संसार की तरफ यात्रा है–धारा। जीसस संसार से विपरीत यात्रा है–राधा।

यहूदियों की कथाएं थोड़ी कठोर हैं। पूरब में लोग ज्यादा कोमल भाषा बोलते हैं।

यहूदी कहते हैं, परमात्मा ने बहिष्कृत किया अदम को। हम ऐसा नहीं कहते। हम कहते हैं, स एकाकी न रेमे। वह अकेला था। एकोऽहं बहुस्याम। उसने कहा, बहुत को रचूं। बहिष्कृत नहीं हुआ, अवतरित हुआ। आया, मर्जी से आया।

और इसे भी समझ लेना जरूरी है। तुम जहां हो, अपनी मर्जी से हो। संसार में हो तो अपनी मर्जी से हो। तुम्हारे भीतर के परमात्मा ने यही चुना। कुछ परेशान होने की बात नहीं। बेमर्जी से तुम नहीं हो। अपने ही कारण हो। अपनी ही आकांक्षा से हो। और यह बड़े सौभाग्य की बात है कि बेमर्जी से नहीं हो। क्योंकि जिस दिन चाहो, उसी दिन घर का द्वार खुला है, लौट आ सकते हो। जब तक चाहो, जा सकते हो दूर। जिस दिन निर्णय करोगे, उसी दिन लौटना शुरू हो जाएगा।

ब्राह्मण-संस्कृति परमात्मा के फैलाव की कथा है। श्रमण-संस्कृति परमात्मा के घर लौटने की कथा है। तो निश्चित ही, जो अकेले में थक गया था, वह भीड़ में भी थक ही जाएगा।

तुमने अपने भीतर भी देखा! यही होता है। बाजार में थक जाते हो, मंदिर की आकांक्षा पैदा होती है। भीड़ में ऊब जाते हो, बस्ती से ऊब जाते हो, हिमालय जाने की आकांक्षा पैदा होती है। हिमालय पर जो बैठे हैं, एकांत में, उनके मन में बाजार आकर्षण निर्मित करता है।

मैं कुछ मित्रों को लेकर कश्मीर की यात्रा पर था। कश्मीर के पहाड़ों में, झरनों में, वे बड़ा आनंद अनुभव कर रहे थे। डल झील पर उनके साथ मैं ठहरा था। हमारा जो माझी था, जब हम लौटने लगे तो वह कहने लगा, “ऐसा आशीर्वाद दें कि एक दफा बंबई देखनी है!’

“तू बंबई देखकर क्या करेगा?’

उसने कहा, “यहां मन नहीं लगता। और बंबई बिना देखे मर गए तो एक आस रह जाएगी।’

जो मेरे साथ आए थे, वे बंबई के मित्र थे। वे चौंके। वे आए थे कश्मीर। वे आए थे हिमालय की शरण में। और जो हिमालय की शरण में पैदा हुआ था, वह बंबई आना चाह रहा था।

तुम अगर अपने मन को भी पहचानोगे तो यही पाओगे। परमात्मा की कथा वस्तुतः तुम्हारी ही कथा है। कोई परमात्मा और तो नहीं। तुम कोई और तो नहीं। परमात्मा की कथा शुद्ध चेतना के स्वभाव की कथा है। ठीक ही कहते हैं वेद, “ऊब गया, अकेला था। कहा, बहुत को रचूं। उसने बहुत रचे।’

महावीर कहते हैं, अब हम बहुत से ऊब गए; अब घर वापिस जाने की आकांक्षा पैदा होती है।

इसलिए महावीर के सूत्रों में लौटती यात्रा के सूत्र हैं। निश्चित ही वे भिन्न होंगे। रस की बात न होगी यहां। यहां विरसता की बात होगी। यहां कामना की, वासना की बात न होगी। यहां त्याग, वैराग्य की बात होगी। यहां राग नहीं, वीतरागता लक्ष्य होगा। मगर ध्यान रखना, राग ही वीतरागता बनता है। वही है ऊर्जा, जो सागर की तरफ जाती है। वही है ऊर्जा, जो गंगोत्री की तरफ जाती है। ऊर्जा वही है। पर महावीर का मार्ग थोड़ा कठिन है, क्योंकि धारा के विपरीत लड़ना होगा।

किश्ती को भंवर में घिरने दे, मौजों के थपेड़े सहने दे

जिंदों में अगर जीना है तुझे, तूफान की हलचल रहने दे

धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है

परवर्द-एत्तूफां किश्ती को धारे के मुखालिफ बहने दे!

किश्ती को भंवर में घिरने दे!

महावीर कहते हैं, संघर्ष न हो तो सत्य आविर्भूत न होगा। जैसे सागर के मंथन से अमृत निकला, ऐसे जीवन के मंथन से सत्य निकलता है। सत्य कोई वस्तु थोड़े ही है कि कहीं रखी है, तुम गए और उठा ली, कि खरीद ली, कि पूजा की, प्रार्थना की और मांग ली! सत्य तो तुम्हारे जीवन का परिष्कार है। सत्य तो तुम्हारे ही होने का शुद्धतम ढंग है। सत्य कोई संज्ञा नहीं है, क्रिया है। सत्य कोई वस्तु नहीं है, भाव है। तो तुम जितने संघर्ष में उतरोगे, जितने मथे जाओगे, जितने जलोगे, जितने तूफानों की टक्कर लोगे, उतना ही तुम्हारे भीतर सत्य आविर्भूत होगा; उतनी ही तुम्हारी धूल झड़ेगी; गलत अलग होगा; निर्जरा होगी व्यर्थ से। झाड़-झंखाड़ ऊग गए हैं, घास-फूस ऊग आया है–आग लगानी होगी, ताकि वही बचे, जिसके मिटने का कोई उपाय नहीं। अमृत ही बचे; मृत्यु को तो खाक कर देना होगा। यह बैठे-बैठे न होगा। इसके लिए बड़े प्रबल आह्वान की, बड़ी प्रगाढ़ चुनौती की जरूरत है।

किश्ती को भंवर में घिरने दे, मौजों के थपेड़े सहने दे!

भंवर दुश्मन नहीं है। महावीर के रास्ते पर भंवर मित्र है, क्योंकि उसी से लड़कर तो तुम जगोगे; उसी से उलझकर तो तुम उठोगे। उसी की टक्कर को झेलकर, संघर्ष करके, विजय करके, तुम उसके पार हो सकोगे। इसलिए महावीर का मार्ग कहा जाता है, “जिन का मार्ग’, जिनों का मार्ग; उनने, जिन्होंने जीता। जिन शब्द का अर्थ है: जिसने जीता। जैन शब्द उसी जिन से बना। जिन का अर्थ है: जिसने जीता।

सभी शब्द बड़े अर्थपूर्ण होते हैं। बुद्ध का अर्थ है: जो जागा। जिन का अर्थ है: जो जीता।

जिंदों में अगर जीना है तुझे, तूफान की हलचल रहने दे।

–यह प्रार्थना मत कर कि तूफान को हटा लो! फिर तू क्या करेगा?

धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है।

–यह तो तेरे बाहुओं का अपमान हो जाएगा, अगर तू धारा के साथ बहा।

धारे के मुआफिक बहना क्या.. .

–फिर तेरे हाथों का क्या होगा? फिर तेरी बाजुओं का क्या होगा? फिर तेरे बल को चुनौती कहां मिलेगी? यह तो अपमान होगा तेरी ऊर्जा का! समर्पण–नहीं!

परवर्द-एत्तूफां किश्ती को धारे के मुखालिफ बहने दे!

यह किश्ती तो तूफान से ही पैदा होती है। यह किश्ती तो तूफान में ही पलती है। यह किश्ती तो जन्मती ही तूफान में है।

परवर्द-एत्तूफां किश्ती को…

–इस तूफान में पैदा हुई जीवन की किश्ती को, धार के मुखालिफ बहने दे, उलटा चलने दे। चल गंगोत्री की यात्रा पर!

महावीर का मार्ग योद्धा का मार्ग है–क्षत्रिय थे, स्वाभाविक है! जैनों के चौबीस ही तीर्थंकर क्षत्रिय थे। लड़ाकों की बात है। लड़ना ही जानते थे। तूफान में ही किश्ती पली थी। तलवार ही उनकी भाषा थी। युद्ध ही उनका अनुभव था। यद्यपि सब युद्ध छोड़ दिया, अहिंसक हो गए; पर क्या होता है, इससे क्या फर्क पड़ता है? चींटी को भी नहीं मारते थे, लेकिन योद्धा होना तो जारी रहा। अपने स्वभाव से कोई भिन्न हो नहीं पाता। संसार भी छोड़ दिया, प्रतियोगिता के सारे स्थान भी छोड़ दिये, जहां-जहां संघर्ष, युद्ध की बात थी, हिंसा थी, सब छोड़ दिया–लेकिन फिर भी योद्धा तो नहीं मिट पाता।

जैनों के सारे तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। यह आकस्मिक नहीं है। एक भी ब्राह्मण तीर्थंकर न हुआ। ब्राह्मण की भाषा लड़ने की भाषा नहीं है; समर्पण की भाषा है; शरणागति की भाषा है।

बड़ी मधुर कहानी है। झूठ ही होगी, पर मधुर है। और माधुर्य इतना गहरा है उसमें कि झूठ की मैं फिक्र नहीं करता; मेरे लिए मधुर ही सत्य है। इतनी सुंदर है कि सत्य होनी ही चाहिए। वही कसौटी है सत्य की।

कहानी है कि महावीर का जन्म तो हुआ था एक ब्राह्मणी के गर्भ में; पैदा तो हुए थे ब्राह्मणी के गर्भ में–लेकिन देवताओं ने कहा, “ऐसा कभी हुआ है कि जैन तीर्थंकर और ब्राह्मण के घर पैदा हो? ऐसा तो कभी सुना नहीं। और ब्राह्मण के घर पैदा होगा तो फिर जिन तीर्थंकर कैसे होगा? फिर तूफान में किश्ती पल ही न पाएगी। फिर संघर्ष की भाषा ही न होगी। फिर उसके जीवन में तलवार की धार और चमक न होगी। देवता बड़े बिबूचन में पड़े। और दुनिया का पहला आपरेशन हुआ। उन्होंने निकाल लिया ब्राह्मणी के गर्भ से महावीर को। तीन या चार महीने के थे, तब उन्होंने गर्भ निकाल लिया। बदल दिया गर्भ एक क्षत्राणी के गर्भ से। वहां एक लड़की पैदा होने को थी, उसे निकालकर ब्राह्मणी के गर्भ में रख दिया, महावीर को एक क्षत्रिय के गर्भ में रख दिया।

यह भी बड़ी सूचक है बात। स्त्री स्वभावतः समर्पण की भाषा जानती है। इसलिए ठीक ही किया कि स्त्री को निकाल लिया क्षत्रिय के गर्भ से, ब्राह्मण के गर्भ में रख दिया। स्त्रैण भाषा समर्पण की है।

जिनके मन कोमल हैं, फूल जैसे कोमल हैं, उनके लिए नारद का ही मार्ग है। पर जिनके हृदय में तलवार की चमक और कौंध है, उनके लिए महावीर का मार्ग है। कहानी सुंदर है, अर्थपूर्ण है। इतना कहती है कहानी कि “ब्राह्मण के घर कभी कोई योद्धा पैदा हुआ? योद्धा पैदा होने के लिए रोएं-रोएं में, खून-खून में, हड्डी-मांस-मज्जा में युद्ध का स्वर चाहिए।

दूसरी मजे की बात है कि चौबीस ही जैनों के तीर्थंकर क्षत्रिय घर में पैदा हुए और चौबीस ही तीर्थंकर अहिंसक हो गए, उन्होंने हिंसा छोड़ दी। तलवार लेकर भी क्या लड़ना! वह कमजोर के लड़ने का ढंग है; कमजोरी को तलवार से पूरा कर लेता है। इसलिए आदमी जितना कमजोर होता गया है, उतने ही उसके शस्त्र मजबूत होते चले गए हैं। अब आज तो लड़ने के लिए कमजोर और ताकत का कोई सवाल ही नहीं है; एटमबम गिराना हो, बच्चा भी गिरा दे सकता है। एक बटन दबा देगा हवाई जहाज में से, एटमबम गिर जाएंगे। जिस आदमी ने एटम गिराया हिरोशिमा, नागासाकी पर, वह कोई बलशाली आदमी थोड़े ही था; साधारण आदमी! और एक लाख आदमी क्षण में मार डाले! यह कमजोर की बात हो गई।

महावीर कहते हैं, जो जितना ही योद्धा होता जाएगा उतने ही शस्त्र छोड़ देगा; उसका खुद होना ही पर्याप्त है। फिर वह मारेगा भी नहीं, क्योंकि मारने की भाषा भी कमजोर की भाषा है। तुम दूसरे को मिटाना चाहते हो, क्योंकि तुम दूसरे से डरते हो–कहीं उसे जीवित छोड़ दिया, हानि न करे; कहीं तुम्हें न मार डाले! तुम उसी को मारते हो जिससे तुम्हें डर है कि कहीं तुम्हारी मौत न आ जाए। महावीर ने कहा, वह भी कमजोर की भाषा है, हम किसी को मारेंगे नहीं। अगर कोई मारने भी आएगा तो हम मरने को राजी रहेंगे, भागेंगे नहीं, लड़ेंगे भी नहीं।

साधारणतः दो उपाय हैं: जब भी तुम पर कोई हमला करे तो या तो भागो या जूझो–दोनों ही कमजोर के हैं। जो बहुत कमजोर है, वह भाग जाता है; जो उतना कमजोर नहीं है, वह लड़ता है। लेकिन हैं दोनों ही कमजोर।

महावीर कहते हैं, जो सच में कमजोरी के पार हो गया, अभय हो गया, वह न तो भागता है न लड़ता है। वह कहता है, “खड़े हैं! हम यहीं खड़े हैं। तुम्हें मारना हो मार डालो।’ वह मर जाता है, लेकिन उसके हृदय में हिंसा का भाव नहीं उठता। वह मर जाता है, लेकिन उसके हृदय में प्रतिहिंसा नहीं उठती।

यहां एक बात और समझ लें, क्योंकि फिर सूत्रों को समझना आसान होता जाएगा।

जब परमात्मा ने सोचा कि अकेला हूं, थक गया हूं, बहुत हो जाऊं, तो जीवन पैदा हुआ। निश्चित ही महावीर मृत्यु का साधन करेंगे। उलटे लौटना है। तो जिस तरह परमात्मा ने जीवन के धागे फैलाए थे, उसी तरह उनको मृत्यु के धागे फैलाने हैं, या जीवन के धागे काटने हैं। वृक्ष खड़ा है, तो वासना की जड़ें फैलती हैं पृथ्वी में, तो ही खड़ा है। रस लेता है, आकाश में फैलाता है शाखाओं को, सूरज की किरणें पीता है। वृक्ष को मरना हो, वृक्ष को सिकुड़ना हो, बीज में डूबना हो, वापिस लौटना हो, तो फिर जड़ों को खींच लेगा, फिर शाखाओं को झुका लेगा, क्योंकि फिर सूर्य की ऊर्जा की कोई जरूरत न रही। फिर पृथ्वी के रस की कोई जरूरत न रही।

महावीर के सारे सूत्र एक गहन अर्थ में आत्मघात के सूत्र हैं। इसलिए तुम चकित होओगे कि महावीर अकेले जाग्रत पुरुष हैं जिन्होंने अपने संन्यासी को आत्मघात की भी आज्ञा दी है। दुनिया में किसी ने नहीं दी। आत्मघात की भी आज्ञा! दुनिया का कोई कानून और दुनिया का कोई शास्त्र स्वीकार नहीं करता कि आदमी को हक है कि वह मरना चाहे तो मर जाए; महावीर स्वीकार करते हैं–करना ही पड़ेगा। यह तर्कयुक्त है, क्योंकि वे सिकुड़ने की तरफ जा रहे हैं, लौट रहे हैं वापिस, तो जीवन के सब तरफ से संबंध तोड़ देने हैं। अगर कोई यह भी चाहे कि मुझे पूरे संबंध अभी छोड़ देने हैं, तो कौन दूसरा उसे रोकने का हकदार है! महावीर ने आखिरी स्वतंत्रता आदमी को दी है कि वह आत्मघात करना चाहे तो भी निर्णायक स्वयं है। अगर वह मरना चाहे तो भी हक है उसका! मृत्यु मनुष्य का जन्म-सिद्ध अधिकार है। लेकिन ये सब बातें संगत हैं उनके साथ। और उनके सारे सूत्र, कैसे जीवन से हमारे संबंध छिन्न-भिन्न हो जाएं, कैसे यह फैलाव बंद हो जाए, कैसे हम वापिस घर की तरफ लौट पड़ें, इसके ही सूत्र हैं। यह सारा शास्त्र मृत्यु का शास्त्र है।

तबीबों से मैं क्या पूछूं इलाजे-दर्दे-दिल।

मरज जब जिंदगी खुद हो तो फिर उसकी दवा क्या है!

महावीर के लिए जीवन ही रोग है। और रोग तो गौण हैं। और रोग तो मूल रोग की छायाएं हैं। जीवन ही रोग है। जीवन ही बंधन है। उसी से मुक्त हो जाना है।

तो महावीर का जो मोक्ष है, वह महामृत्यु है–जहां तुम बिलकुल ही मिट गए हो; जहां कुछ भी नहीं बचा; जहां परम शून्य अवतरित होता है।

अब हम सूत्रों को लें:

महावीर ने कहा है, “जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो। यही जिन शासन है। तीर्थंकर का यही उपदेश है।

समझें! साधारणतः तुम जो अपने लिए चाहते हो, वह तुम दूसरों के लिए नहीं चाहते; क्योंकि फिर तो अपने लिए चाहने का कोई अर्थ ही न रहा। तुम एक महल बनाना चाहते हो अपने लिए, तो बहुत गहरे में तुम पाओगे कि तुम चाहते हो कि दूसरा कोई ऐसा महल न बना ले, अन्यथा मजा ही गया। अगर सभी के पास महल हों तो तुम्हारे पास महल होने का अर्थ ही क्या रहा! तुम एक सुंदर स्त्री चाहते हो कि सुंदर पुरुष चाहते हो, तो तुम भीतर यह भी चाहते हो कि ऐसी सुंदर स्त्री किसी और को न मिल जाए, अन्यथा कांटा चुभेगा। तुम ऐसी सुंदर स्त्री चाहते हो जो बस तुम्हारी हो, और वैसी सुंदर स्त्री किसी के पास न हो। सुंदर स्त्री में भी तुम अपने अहंकार को ही भरना चाहते हो। अपने महल में भी अहंकार को भरना चाहते हो।

तुम जो अपने लिए चाहते हो, वह तुम दूसरे के लिए कभी नहीं चाहते। उससे विपरीत तुम दूसरे के लिए चाहते हो–अपने लिए सुख, दूसरे के लिए दुख। लाख तुम कुछ और कहो, लाख तुम ऊपर से कहो कि नहीं, ऐसा नहीं है, हम सब के लिए सुख चाहते हैं–लेकिन जरा गौर से खोजना! सब के लिए सुख तो तुम तभी चाह सकते हो जब तुमने जीवन से अपनी जड़ें तोड़नी शुरू कर दीं, उसके पहले नहीं। क्योंकि जीवन प्रतिस्पर्धा है, प्रतियोगिता है, महत्वाकांक्षा है, पागलपन है, छीन-झपट है, गलाघोंट संघर्ष है।

बड़ी पुरानी कहानी है कि एक आदमी ने बड़ी प्रार्थना-पूजा की और किसी देवता को प्रसन्न कर लिया। वर्षों की साधना के बाद देवता बोला और देवता ने कहा, “क्या चाहते हो?’ उसने कहा, “जो भी मैं मांगू वह मुझे मिल जाए।’ देवता ने कहा, “निश्चित मिलेगा। लेकिन एक शर्त है: तुमसे दुगुना तुम्हारे पड़ोसियों को भी मिल जाएगा।’ बस सब पूजा-प्रार्थना व्यर्थ हो गई। वह आदमी उदास हो गया। यह भी क्या आशीर्वाद हुआ! क्योंकि मजा ही इसमें था कि जो मेरे पास हो, मेरे पड़ोसियों के पास न हो। आशीर्वाद तो मिल गया। आशीर्वाद में कोई कमी न थी। देवता ने कहा, जो तू चाहेगा उसी क्षण पूरा होगा। इसमें कुछ रुकावट न थी। लेकिन मन सुखी न हुआ, प्रसन्न न हुआ, फूल खिले नहीं। बड़ा उदास हो गया। बड़े उदास मन से देखा कि देखें, वरदान काम भी करता है या नहीं। यह कोई वरदान हुआ! यह तो खाली, चली हुई कारतूस जैसा वरदान हुआ। इसमें कुछ रस ही न रहा।

फिर भी उसने कहा, देखें शायद…। कहा कि एक महल बन जाए। एक महल बन गया। लेकिन जब बाहर आकर देखा तो बड़ा मुश्किल में पड़ गया: दो-दो महल बन गए थे पड़ोसियों के। छाती पीट ली। यह कोई वरदान हुआ! यह तो अभिशाप हो गया। इससे तो पहली ही भले थे। अपनी ही मेहनत से कर लेते। लेकिन उसने रास्ते खोज लिये। आदमी की हिंसा बड़ी गहन है! उसने कहा, “ठीक है! देवता धोखा दे गये, हम भी रास्ता खोज लेंगे!’ मिला होगा वकीलों से, सलाह ली होगी। किसी वकील ने सुझा दिया कि इसमें कुछ घबड़ाने की बात नहीं है। जहां-जहां कानून हैं वहां-वहां निकलने का उपाय है। तू ऐसा कर, तू जाकर मांग कि मेरे घर के सामने दो कुएं खुद जाएं। उसने कहा, “इससे क्या होगा?’ उसने कहा, “तू पहले कोशिश तो कर।’ दो कुएं उसके घर के सामने खुद गए, पड़ोसियों के सामने चार-चार कुएं खुद गए। वकील ने कहा, “अब तू प्रार्थना कर कि मेरी एक आंख फूट जाए।’ तब समझा वह राज। उसने कहा, अरे! मुझे खयाल में ही न आया। एक आंख फोड़ने का वरदान मांग लिया, पड़ोसियों की दोनों आंखें फूट गईं। अब अंधे पड़ोसी और चार-चार कुएं घर के समाने; जो हुआ, वह हम समझ सकते हैं।

लेकिन सुख हमारा दूसरे के दुख में है। और जीवन हमारा दूसरे की मौत में है। और हमारी सारी प्रसन्नता किसी की उदासी पर खड़ी है। हमारा सारा धन दूसरे की निर्धनता में है। लाख तुम दूसरे के दुख में सहानुभूति प्रगट करो, जब भी दूसरा दुखी होता है, कहीं गहरे में तुम सुखी होते हो। और तुम्हारी सहानुभूति में भी तुम्हारे सुख की भनक होती है।

तुमने कभी पकड़ा अपने को सहानुभूति प्रगट करते हुए? किसी का दिवाला निकल गया, तुम सहानुभूति प्रकट करने जाते हो। कहते हो, बड़ा बुरा हुआ! लेकिन कभी अपना चेहरा आईने में देखा, जब तुम कहते हो, बड़ा बुरा हुआ, तो कैसी रसधार बहती है! तुम कभी गए, जब किसी को लाटरी मिल गई हो, तब तुम कहने गए कि बहुत अच्छा हुआ?

जब कोई सुखी होता है तब तुम अपना सुख प्रगट करने नहीं जाते; तब तोर् ईष्या पकड़ती है, जलन पकड़ती है। अंगारे छाती में बैठ जाते हैं। फफोले उठ आते हैं भीतर, घाव महसूस होते हैं, पीड़ा होती है कि फिर कोई आगे निकल गया। तब तो तुम दूसरी बातें करते हो। तुम तो कहते हो, धोखेबाज है, बेईमान है। तब तो तुम परमात्मा से कहते हो, “यह क्या हो रहा है तेरे जगत में? अन्याय हो रहा है! यहां पापी और व्यभिचारी जीत रहे हैं और पुण्यात्मा हार रहे हैं।’ पुण्यात्मा यानी तुम! पापी यानी वे सब जो जीत रहे हैं!

तुमने कभी खयाल किया, जब भी कोई जीत जाता है, तुम अपने को समझाते हो, सांत्वना देते हो कि जरूर किसी गलत ढंग से जीत गया होगा, कोई बेईमानी की होगी, रिश्वत दी होगी, चालबाजी की होगी, कोई रिश्तेदारी खोज ली होगी कहीं।

एक महिला मेरे पास आई। उसका बच्चा फेल हो गया। वह कहने लगी कि बड़ा अन्याय हो रहा है। ये सब शिक्षक और यह सब शिक्षा की व्यवस्था, सब धोखेबाज, बेईमान हैं। जिन्होंने शिक्षकों को रिश्वतें खिला दीं, वे तो सब उत्तीर्ण हो गए, मेरा लड़का फेल हो गया। मैंने कहा, इसके पहले भी तेरा लड़का पास होता आया था, तब तू कभी भी न आई कहने कि मेरा लड़का पास हो गया, जरूर किसी न किसी ने रिश्वत खिलाई होगी। जब तेरा लड़का पास होता है, तब अपनी मेहनत से पास होता है; जब दूसरों के लड़के पास होते हैं, तब रिश्वत से पास होते हैं!

तुमने कभी देखे ये दोहरे मापदंड? जब तुम सफल होते हो तो होना ही था, तुम प्रतिभाशाली हो। और जब दूसरा सफल होता है, बेईमान! कहीं कोई धोखे का रास्ता निकाल लिया। कोई चालबाजी कर गया। जब तुम हारते हो तो अपने पुण्यात्मा होने की वजह से हारते हो। और जब दूसरा हारता है तो पापी है, अपने कर्मों की वजह से हारता है। तुमने कभी ये दोहरे मापदंड देखे? पर यह मापदंड ठीक हैं फैलाव के रास्ते पर, क्योंकि फैलाव यानी प्रतिस्पर्धा। फैलाव यानी गलाघोंट संघर्ष। फैलाव यानी लड़ना है दूसरे से। एक-एक इंच जमीन के लिए लड़ना है। एक-एक इंच पद के लिए लड़ना है। एक-एक इंच धन के लिए लड़ना है।

महावीर इस पहले सूत्र में ही तुम्हें मौत का पहला पाठ देते हैं। वे कहते हैं, जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहो। चाह मरेगी ऐसे। फिर चाह जी न सकेगी। चाह की जड़ ही काट दी। जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहो।

जरा सोचो तुम चाहते थे कि एक महल बन जाए–दूसरों के लिए भी! उस चाह में ही तुम पाओगे कि तुम्हारे महल बनाने की चाह गिर गई। तुम चाहते थे, ऐसा हो वैसा हो, वही सबको भी हो जाए–अचानक तुम पाओगे, पैरों के नीचे से किसी ने जमीन खींच ली।

और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो। लोगों ने अपने लिए तो स्वर्ग की कल्पनाएं की हैं, और दूसरों के लिए नर्क का इंतजाम किया है। जब भी तुम सोचते हो अपने लिए तो स्वर्ग में सोचते हो, कल्पना करते हो। नहीं, अगर तुम अपने लिए नर्क नहीं चाहते तो दूसरे के लिए भी मत चाहो।

क्यों महावीर इस सूत्र को इतना मूल्य देते हैं? यह उनका आधार-सूत्र है। यह बड़ा सीधा और सरल दिखता है ऊपर, लेकिन इसका जाल बहुत गहरा है और सूत्र बड़ी गहराई में तुम्हारे अचेतन को रूपांतरित करने वाला है। अगर तुम एक सूत्र को भी पालन कर लो तो तुम्हें पूरा धर्म उपलब्ध हो जाएगा। अपने लिए वही चाहो जो तुम दूसरे के लिए भी चाहते हो और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरे के लिए भी मत चाहो–अचानक तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन की आपाधापी खो गई। अचानक तुम पाओगे, प्रतिस्पर्धा मिट गई, महत्वाकांक्षा को जगह न रही, बीज सूखने लगे, जलने लगे।

यही जिन शासन है।

एतियगं जिणसासणं। यही तीर्थंकर का उपदेश है। जिन्होंने जीता है स्वयं को, उनका यह उपदेश है।

“अध्रुव, अशाश्वत और दुखबहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं?’

महावीर पूछते हैं, अध्रुव, अशाश्वत…। सभी चीजें प्रतिक्षण बदली जाती हैं। यहां कुछ भी तो शाश्वत नहीं। पानी पर खींची लकीर जैसा है जीवन। यहां तुम खींच भी नहीं पाते लकीर कि मिट जाती है। यहां तुम बना भी नहीं पाते महल कि विदा होने का क्षण आ जाता है। साज-सामान जुटा पाते हो, गीत गा भी नहीं पाते कि विदाई उपस्थित हो जाती है। जीवन की तैयारी ही करने में जीवन बीत जाता है और मौत आ जाती है।

“अध्रुव, अशाश्वत, दुखबहुल…।’ और जहां दुख ज्यादा है और सुख तो केवल आशा है जहां; जहां सुख के केवल सपने हैं, सत्य तो जहां दुख है–यहां ऐसे इस जगत में कौन-सा ऐसा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं? क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि व्यर्थ लकीरें खींचने में मैं अपने लिए दुर्गति बना रहा होऊं। हम बना रहे हैं। व्यर्थ की आकांक्षा में हम अपने लिए ऐसा जाल बुन रहे हैं, जैसे कभी-कभी मकड़ा जाल बुनता है और खुद ही उसमें फंस जाता है। और जो हम बुन रहे हैं उससे कुछ मिलने का नहीं है। उससे कुछ खो जाता है।

धन पाने के लिए लोग कितना दौड़ते हैं! पाकर भी क्या पाते हैं? क्या मिल पाता है? हाथ तो खाली के खाली रह जाते हैं। मरते वक्त निर्धन के निर्धन ही रहते हैं। मगर सारा जीवन गंवा देते हैं। वही जीवन ध्यान भी बन सकता था, जिसे तुमने धन बनाया। वही जीवन-ऊर्जा ध्यान भी बन सकती थी, जिसे तुमने धन में गंवाया। वही जीवन-ऊर्जा तुम्हारे जीवन का आत्यंतिक समाधान बन सकती थी, समाधि बन सकती थी, और तुम व्यर्थ सामान जुटाने में लगे रहे। और सामान भी ऐसा जुटाया जो मौत के क्षण में साथ न ले जा सकोगे, मौत जिसे छीन लेगी। और सामान भी ऐसा जुटाया कि न मालूम कितनों को दुख दिया, न मालूम कितनों की पीड़ा निर्मित की, न मालूम कितनों के लिए नर्क बनाया। इतना दुख देकर तुम सुखी हो कैसे सकोगे? इतना दुख तुम पर लौट-लौट आएगा, अनंत गुना होकर बरसेगा। क्योंकि जगत तो एक प्रतिध्वनि है। तुम गीत गाओ, तुम्हारा ही गीत प्रतिध्वनित होकर तुम पर बरस जाता है। तुम गालियां बको, तुम्हारी ही गालियां लौटकर तुम पर बरस जाती हैं, छिद जाती हैं।

यह जगत तो एक प्रतिध्वनि मात्र है।

तो महावीर कहते हैं, मौलिक सवाल यह है कि मैं कौन-सा कर्म करूं! इस दुखबहुल संसार में, इस अशाश्वत संसार में, जहां सभी कुछ क्षण-क्षण में बदला जा रहा है, जहां न तो वस्तुओं का भरोसा है, न देह का भरोसा है, न मन का भरोसा है…।

मुझे दिल की धड़कनों का नहीं एतिबार “माहिर’

कभी हो गईं शिकवे, कभी बन गईं दुआएं।

यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं है। क्षणभर में प्रसन्न है, क्षणभर में रोता है। क्षणभर पहले दुआएं दे रहा था, क्षणभर बाद शिकायतों से भर गया। क्षणभर पहले ऐसा प्रकाशोज्ज्वल मालूम होता था और क्षणभर बाद गहन अंधकार से घिर गया। यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं, जो इतने करीब है! दिल यानी तुमसे जो करीब से करीब है। उसका भी भरोसा नहीं है। यहां किस और चीज का भरोसा करें!

कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबानें सूखी हैं

हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे।

कहीं कुछ धोखा हो गया है। सभी लोग सुख चाहते हैं, मिलता दुख है। सभी लोग फूल मांगते हैं, मिलते कांटे हैं। सभी लोग आनंद के लिए आतुर और व्यथित हैं, पाते संताप हैं।

कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबानें सूखी हैं

हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे।

कहीं कुछ भूल हो गई है। कहीं कोई बुनियादी चूक हो गई है। हम शायद समझ नहीं पा रहे। हम शायद रेत से तेल निकालने की चेष्टा में संलग्न हैं, अन्यथा इतना दुख कैसे होता? सभी सुख चाहते हों, इतना दुख कैसे होता? सभी लोग अमृत चाहते हों और मौत ही घटती है, अमृत तो घटता दिखाई नहीं पड़ता। सभी लोग चाहते हैं कि नाचते, प्रसन्न होते; लेकिन रसधार रोज-रोज सूखती चली जाती है। न नाच है जीवन में, न उमंग है, न कोई उत्सव है।

“ऐसा कौन-सा कर्म करूं, जिससे इस दुर्गति से बचूं।’

क्या करूं? क्या करना मुझे इस उपद्र्रव के बाहर ले जाएगा?

“ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार-मुक्ति के विरोधी, और अनर्थों की खान हैं।’

थोड़ा-सा सुख! ऐसे ही है जैसे कोई मछलियों को पकड़ने जाता है, कांटे पर आटा लगा देता है। मछलियां आटे के लिए आती हैं, कांटे के लिए नहीं; मिलता कांटा है। ऐसा ही लगता है कि जैसे कोई मछुआ मजाक किए जा रहा है। सभी दौड़ते हैं सुख के लिए और आखिर में पाते हैं, कांटे छिद गए।

तुमने भी कितनी बार सुख नहीं चाहा! पाया है? महावीर कहते हैं, शायद थोड़ा-सा आभास मिला हो, प्रथम क्षण में, शायद उल्लास के क्षण में कि मिल गया, तुमने अपने को धोखा दे लिया हो; पर जल्दी ही झूठी पर्तें उघड़ जाती हैं। जल्दी ही पता चल जाता है।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने दफ्तर में अपने मालिक से बोला कि शादी की है, हनीमून के लिए पहाड़ जाना चाहता हूं–दो सप्ताह, तीन सप्ताह की छुट्टी! मालिक ने कहा, हनीमून कितने दिन चलेगा–एक सप्ताह, दो सप्ताह, तीन सप्ताह! उतनी छुट्टी ले लो। मुल्ला ने कहा, आप ही बता दें। मालिक ने कहा, मैंने तुम्हारी पत्नी को अभी देखा ही नहीं, मैं बताऊं कैसे कितनी देर चलेगा?

देर-अबेर हो सकती है, पर जल्दी ही घड़ी आ जाती है, जब प्रेम राख हो जाता है। कोई थोड़ी देर तक अपने को भुलाए रखता है, कोई थोड़ी जल्दी जाग जाता है। पर देर-अबेर सभी जाग जाते हैं। इस संसार में जो भी प्रेम है, वह चाहे धन का हो, चाहे रूप का हो, चाहे पद का हो, वह देर-अबेर उखड़ ही जाता है। असलियत कब तक छिपाए छिपेगी?

असलियत दुख है। सुख तो ऊपर का रंग-रोगन है; जरा वर्षा पड़ी, बह गया रंग-रोगन। वह तो कागज के फूलों जैसा है; जरा वर्षा पड़ी, बिखर गये, गल गए।

“ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार-मुक्ति के विरोधी…’ संसार से मुक्त होने के विरोधी हैं, क्योंकि इन्हीं की आशा में तो लोग अटके रहते हैं, क्यू लगाए खड़े रहते हैं: अब मिला, अब मिला! अब तक नहीं मिला, मिलता ही होगा! लोग राह ही देखते रहते हैं, बिना यह सोचे कि जिस क्यू में खड़े हैं उसमें किसी को भी कभी मिला? माना कि कुछ लोग क्यू में बिलकुल आगे पहुंच गए हैं–कोई सिकंदर–मगर सिकंदर से भी तो पूछो, मिला?

सिकंदर मर रहा था तो उसने अपने चिकित्सकों से कहा कि मैं अपनी मां को बिना देखे नहीं मरना चाहता हूं। लेकिन मां दूसरे गांव में थी। या तो वह आए या सिकंदर वहां तक पहुंचे। चौबीस घंटे की कम से कम जरूरत थी। और सिकंदर ने कहा कि मैं सब कुछ देने को तैयार हूं; जो भी तुम्हारी फीस हो ले लो, लेकिन चौबीस घंटे मुझे और जिला लो; जिससे मैं पैदा हुआ हूं उससे विदा तो ले लेने दो; मां को देखकर जाना चाहता हूं। चिकित्सकों ने कहा, असंभव है। सिकंदर ने कहा, अपना आधा साम्राज्य दे दूंगा। उदास खड़े चिकित्सक! उसने कहा, पूरा ले लो। काश! मुझे पहले पता होता कि पूरा साम्राज्य देकर भी एक सांस नहीं मिलती, तो अपने जीवनभर की सांसें इस साम्राज्य के लिए क्यों खराब करता!

लेकिन इसी आपा-धापी में, इसी दौड़-धूप में सब गया।

एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है, तुम्हें पता नहीं। इसलिए महावीर कहते हैं, सोच लो, कहां लगा रहे हो अपनी श्वासों को! जो मिलेगा, वह पाने योग्य भी है? कहीं ऐसा न हो कि गंवाने के बाद पता चले कि जो मूल्य दिया था, बहुत ज्यादा था, और जो पाया वह कुछ भी न था। असली हीरों के धोखे में नकली हीरे ले बैठे!

कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं

जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा!

जिंदगी सिलसिला है: धोखे पर धोखा।

“बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।’

लगता है–लगता है, मूर्च्छा के कारण।

कभी किसी कुत्ते को देखा, सूखी हड्डी को चबाते! चबाता है कितने रस से! तुम बैठे चकित भी होओगे कि सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा! सूखी हड्डी में कोई रस तो है नहीं। सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा! लेकिन होता यह है कि जब सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है तो उसके ही जबड़ों, जीभ से, तालू से लहू–सूखी हड्डी की टकराहट से लहू बहने लगता है। उसी लहू को वह चूसता है। सोचता है, हड्डी से रस आ रहा है। हड्डी से कहीं रस आया है! अपना ही खून पीता है। अपने ही मुंह में घाव बनाता है। भ्रांति यह रखता है कि हड्डी से रस आता है। हड्डी से खून आ रहा है। जिन्होंने भी जागकर देखा है, थोड़ा अपना मुंह खोलकर देखा है, उन्होंने यही पाया है कि इंद्रिय-सुख सूखी हड्डियों जैसे हैं, उनसे कुछ आता नहीं। अगर कुछ आता भी मालूम पड़ता है तो वह हमारी ही जीवन की रसधार है। और वह घाव हम व्यर्थ ही पैदा कर रहे हैं। जो खून हमारा ही है, उसी को हम घाव पैदा कर-कर के वापिस ले रहे हैं।

काम-भोग में जो सुख मिलता है, वह सुख तुम्हारा ही है जो तुम उसमें डालते हो। वह तुम्हारे काम-विषय से नहीं आता। स्त्री को प्रेम करने में, पुरुष को प्रेम करने में तुम्हें जो सुख की झलक मिलती है, वह न तो स्त्री से आती है न पुरुष से आती है, तुम्हीं डालते हो। वह तुम्हारा ही खून है, जो तुम व्यर्थ उछालते हो। पर भ्रांति होती है कि सुख मिल रहा है। कुत्ते को कोई कैसे समझाए! कुत्ता मानेगा भी नहीं। कुत्ते को इतना होश नहीं। लेकिन तुम तो आदमी हो! तुम तो थोड़े होश के मालिक हो सकते हो! तुम तो थोड़े जाग सकते हो!

“बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।’

“खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।’

खुजली हो जाती है। जानते हो, खुजलाने से और दुख होगा, लहू बहेगा, घाव हो जाएंगे, खुजली बिगड़ेगी और, सुधरेगी न। सब जानते हुए, फिर भी खुजलाते हो। एक अदम्य वेग पकड़ लेता है खुजलाने का। जानते हुए, समझते हुए, अतीत के अनुभव से परिचित होते हुए, पहले भी ऐसा हुआ है, बहुत बार ऐसा हुआ है; फिर भी कोई तमस, कोई मोह-निद्रा, कोई अंधेरी रात, कोई मूर्च्छा मन को पकड़ लेती है, फिर भी तुम खुजलाए चले जाते हो!

तुमने कभी खयाल किया, लोग जब खुजली को खुजलाते हैं तो बड़ी तेजी से खुजलाते हैं। क्योंकि वे डरते हैं। उन्हें भी पता है कि अगर धीरे-धीरे खुजलाया तो रुक जाएंगे। बड़े जल्दी खुजला लेते हैं, अपने को ही धोखा दे रहे हैं। मांस निकल आता है, लहू बह जाता है। पीड़ा होती है, जलन होती है। फिर वही अनुभव! लेकिन दुबारा फिर खुजली होगी तो तुम भरोसा कर सकते हो कि तुम न खुजलाओगे?

कितनी बार तुमने क्रोध किया, कितनी बार क्रोध से तुम विषाद से भरे, कितनी बार तुम काम में गए, कितनी बार हताश वापिस आए, कितनी बार आकांक्षा की और हर बार आकांक्षा टूटी और बिखरी, कितनी बार स्वप्न संजोए–हाथ क्या लगा? बस राख ही राख हाथ लगी। फिर भी, दुबारा जब आकांक्षा पकड़ेगी, दुबारा जब क्रोध आएगा, दुबारा जब काम का वेग उठेगा, तुम फिर भटकोगे।

मनुष्य अनुभव से सीखता ही नहीं। जो सीख लेता है, वही जाग जाता है। मनुष्य अनुभव से निचोड़ता ही नहीं कुछ। तुम्हारे अनुभव ऐसे हैं जैसे फूलों का ढेर लगा हो, तुमने उनकी माला नहीं बनाई। तुमने फूलों को किसी एक धागे में नहीं पिरोया कि तुम्हारे सभी अनुभव एक धागे में संगृहीत हो जाते और तुम्हारे जीवन में एक जीवन-सूत्र उपलब्ध हो जाता, एक जीवन-दृष्टि आ जाती।

अनुभव तुम्हें भी वही हुए हैं जो महावीर को। अनुभव में कोई भेद नहीं। तुमने भी दुख पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। तुमने भी सुख में धोखा पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। फर्क कहां है? अनुभव तो एक से हुए हैं। महावीर ने अनुभवों की माला बना ली। उन्होंने एक अनुभव को दूसरे अनुभव से जोड़ लिया। उन्होंने सारे अनुभवों के सार को पकड़ लिया। उन्होंने उस सार का एक धागा बना लिया। उस सूत्र को हाथ में पकड़कर वे पार हो गए। तुमने अभी धागा नहीं पिरोया। अनुभव का ढेर लगा है, माला नहीं बनाई। माला बना लेना ही साधना है। उसी की तरफ ये इशारे हैं।

“खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।’

थोड़ा समझो। हमारी मान्यता से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारी मान्यता से, हमारी व्याख्या से बहुत फर्क पड़ता है।

तुमने कभी खयाल किया? एक स्त्री को तुम आलिंगन कर लेते हो, सोचते हो, सुख मिला। सोचने का ही सुख है। ऐसा ही तो सपने में भी तुम सोच लेते हो, तब भी सुख मिल जाता है। सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हीं होते हो। सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हारी ही धारणा होती है। हो सकता है, अपनी ही दुलाई को छाती से चिपटाए पड़े हो, सपना देख रहे हो। जागकर हंसते हो कि कैसा पागलपन है!

लेकिन सपने में भी उतना ही सुख मिल जाता है; शायद थोड़ा ज्यादा ही मिल जाता है, जितना कि जागने की स्त्री से मिलता है। क्योंकि जागते हुए स्त्री की मौजूदगी कुछ बाधा भी पैदा करती है। सपने में तो कोई भी नहीं, तुम अकेले ही हो, तुम्हारा ही सारा भावनाओं का खेल है।

सपने में तुम सुख ले लेते हो स्त्री को आलिंगन करने का, तो थोड़ा सोचो तो! सुख तुम्हारी ही धारणा का होगा। जागते में भी इतना सुख नहीं मिलता, क्योंकि जागते में एक जीवित स्त्री उस तरफ खड़ी है। जीवित स्त्री में पसीने की बदबू भी है। जीवित स्त्री में कांटे भी हैं। जैसे तुममें हैं, ऐसे उसमें हैं। जीवित स्त्री की मौजूदगी थोड़ी बाधा भी डालती है। दूसरे व्यक्ति की मौजूदगी परतंत्र भी करती है। परतंत्रता की पीड़ा भी होती हैं। स्त्री हो सकता है, अभी राजी न हो कि आलिंगन करो, हाथ से हटा दे। लेकिन सपने में तो कोई तुम्हें हाथ से न हटा सकेगा।

एक आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास गया और उसने कहा कि मेरी बड़ी मुसीबत है, मेरी सहायता करें। मैं रात सपना देखता हूं कि हजारों सुंदरियां नग्न मेरे चारों तरफ नाचती हैं। मनोवैज्ञानिक अपनी कुर्सी से टिका बैठा था, सम्हलकर बैठ गया। उसने कहा, “यह परेशानी है? अरे पागल! और क्या चाहता है? इसमें परेशानी कहां है? तू अपना राज बता, कैसे तू यह सपना पैदा करता है? क्या तेरी फीस है, बोल!’

उस आदमी ने कहा, “परेशानी यह है कि सपने में मैं भी लड़की होता हूं। यही झंझट है। मुझे किसी तरह सपने में आदमी रहने दो। यही पूछने आया हूं।’

सपनों में सुख मिल जाता है। सपने में तुम कभी सम्राट हुए? जरूर हुए होओगे। कोई कमी नहीं रह जाती।

चीन में एक बड़ा सम्राट हुआ। उसका एक ही लड़का था। वह मरणासन्न पड़ा था। वह उसके पास तीन दिन से बैठा था, तीन रात से बैठा था। सारी आशा वही था। सारी महत्वाकांक्षा वही था। फिर झपकी लग गई उसकी; तीन दिन का जागा हुआ सम्राट, बैठे-बैठे सो गया। उसने एक सपना देखा कि उसके बारह लड़के हैं–एक से एक सुंदर, बलिष्ठ, प्रतिभाशाली, मेधावी। बड़ा उसका स्वर्ण से बना हुआ महल है। महल के रास्ते पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं। बड़ा उसका साम्राज्य है। वह चक्रवर्ती है। तभी बाहर जो बेटा बिस्तर पर पड़ा था, वह मर गया। पत्नी चीख मारकर चिल्लाई, सपना टूटा और सम्राट ने सामने मरे हुए लड़के को पड़ा देखा। पत्नी को चीखते देखा। पत्नी जानती थी कि पति को बड़ा सदमा पहुंचेगा। घबड़ा गई, क्योंकि पति देखता ही रहा। न केवल रोया नहीं, हंसने लगा। पत्नी समझी कि पागल हो गया। उसने कहा, “यह तुम्हें क्या हुआ? तुम हंस क्यों रहे हो?’

उसने कहा, “मैं हंस रहा हूं इसलिए कि अब किसके लिए रोऊं! अभी सपने में बारह लड़के थे, बड़े सुंदर थे, यह कुछ भी नहीं! बड़े स्वस्थ, बलिष्ठ थे। जैसे उनकी मौत कभी आएगी ही न, ऐसे थे। अमृत-पुत्र थे। और बड़ा महल था, यह महल झोपड़ा है! सोने का बना था। राह पर हीरे-जवाहरात लगे थे। तेरी चीख ने सब गड़बड़ कर दिया। न तेरा मुझे पता था, न इस बेटे का मुझे पता था; सपने में तुम ऐसे ही खो गए थे, जैसे अब सपना खो गया। अब मैं सोचता हूं, किसके लिए रोना! उन बारह के लिए रोऊं पहले कि इस एक के लिए रोऊं? इसलिए हंसी आती है। हंसी आती है कि रोना व्यर्थ है। हंसी आती है कि वह भी एक सपना था, यह भी एक सपना है। वह आंख-बंद का सपना था, यह आंख-खुली का सपना है।’

तुम जिसे सुख मान लेते हो, वह सुख मालूम पड़ता है। कई दफा दुख को भी तुम सुख मान लेते हो, सुख मालूम पड़ता है। पहली दफा जब कोई सिगरेट पीता है तो सुख नहीं मिलता, दुख ही मिलता है, खांसी आ जाती है, धुआं सिर में चढ़ जाता है, चक्कर मालूम होता है, घबड़ाहट लगती है। आखिर धुआं ही है–गंदा धुआं है। उसको भीतर ले जाने से सुख कैसे हो सकता है? लेकिन फिर धीरे-धीरे अभ्यास करने से…

“रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान।’ फिर घिसते-घिसते रस्सी के, अभ्यास करते-करते…”करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।’ पहले जड़मति थे, अकल न थी, इसलिए धुआं पीया और मजा न आया। फिर बुद्धि आ जाती है अभ्यास से। फिर मजे से पीने लगते हैं। फिर बिना पीए कष्ट मिलने लगता है। शराब पहली दफे पीकर देखी, बेस्वाद है, तिक्त है। फिर धीरे-धीरे वही मधुर होने लगती है। शराब जैसी तिक्त वस्तु मधु जैसी मधुर मालूम होने लगती है। अभ्यास…।

तुम अगर अपने जीवन के सुख-दुख की ठीक से छानबीन करोगे तो तुम पाओगे: जो तुमने सुख मान लिया, वह सुख; जो तुमने दुख मान लिया, वह दुख।

पूरब, सुदूर पूर्व में कुछ छोटे-छोटे कबीले हैं। वे चुंबन नहीं करते। उन्हें पता ही न था जब तक वे सभ्यता के संपर्क में न आए कि लोग चुंबन भी करते हैं। और जब उन्होंने देखा कि स्त्री-पुरुष चुंबन करते हैं तो वे बहुत घबड़ाए, बड़ा वीभत्स उन्हें मालूम हुआ। यह भी कोई बात हुई! ओंठ, झूठे ओंठ, गंदे ओंठ, लार और थूक से सने ओंठ, एक-दूसरे पर रगड़ रहे हैं और कहते हैं, मजा आ रहा है! उन्होंने कभी सदियों में चुंबन नहीं लिया। उन्हें पता ही न था। वे जो करते हैं, अगर तुम करोगे तो बहुत हैरान होओगे। वे एक-दूसरे से नाक रगड़ते हैं। तुमने कभी रगड़ी नाक? रगड़ोगे तो पागल मालूम पड़ोगे, यह क्या कर रहे हो! कोई देख न ले! अपनी प्रेयसी से भी नाक न रगड़ोगे, क्योंकि वह भी सोचेगी कि तुम्हारा दिमाग खराब है, नाक रगड़ते हो! लेकिन वह कबीला सदियों से नाक रगड़ता रहा है। वही उनका चुंबन है। ज्यादा हाइजिनिक! अगर चिकित्साशास्त्रियों से पूछो तो तुमसे बेहतर है। कम से कम नाक ही रगड़ते हैं, कोई कीड़ों का और कीटाणुओं का आदान-प्रदान तो नहीं करते। अब चुंबन में तो कोई लाखों कीटाणुओं का आदान-प्रदान हो जाता है।

मैंने सुना, एक आदमी अपने डाक्टर के पास गया। बड़ा घबड़ाया हुआ था। और उसने कहा कि यह चेचक की बीमारी बड़े जोर से फैल रही है। और मेरे लड़के को भी लग गई है।

डाक्टर ने कहा, “घबड़ाने की कोई बात नहीं है। फैली है। महाकोप उसका है। सावधान रहो, संक्रामक है, पर घबड़ाने की कोई बात नहीं। लड़का भी ठीक हो जाएगा।’ उसने कहा, “ठीक हो जाएगा जब, बात अलग। लड़का मेरी नौकरानी को चूमता है, इससे मुझे घबड़ाहट हो गई है।’

“और तुम समझाये नहीं?’

उसने कहा कि “अब समझाने का क्या है, मैं भी उसको चूम लिया हूं। और इतना ही नहीं है…।’

फिर भी डाक्टर ने कहा, “घबड़ाओ मत, ठीक हो जाएगा।’

पर उसने कहा, “इतना ही मामला नहीं है, मैंने पत्नी को भी चूम लिया है।’ डाक्टर घबराया। उसने कहा कि “रुको जी, बकवास बंद करो! पत्नी को भी चूमा है? पहले मैं अपनी जांच करवाऊं, क्योंकि तुम्हारी पत्नी को मैं भी चूम बैठा हूं!’

अब तक शांत था। बीमारियां…लेन-देन हो रहा है! लोग कह रहे हैं, बड़ा सुख मिल रहा है। चुंबन जैसा सुख…! पर कभी तुमने सोचा, कभी जागकर देखा? सुख क्या हो सकता है? तुम भी चौंकोगे, क्योंकि तुमने कभी जागकर सोचा नहीं, ध्यान नहीं किया। तुमने जिन-जिन बातों में सुख माना है, उनमें फिर से तो विचार करो! फिर से एक बार पुनर्विचार करो। तटस्थ भाव से, वैज्ञानिक दृष्टि से निरीक्षण करो। तुम बहुत हैरान हो जाओगे, तुम्हारे सुख तुम्हारी मान्यताओं के सुख हैं। जो मान लिया, जो पकड़ लिया अचेतन में, वही सुख मालूम हो रहा है। जैसे ही जागोगे, वैसे ही तुम्हारे सुख विदा हो जाएंगे। तुम इस जीवन में दुख ही दुख पाओगे।

महावीर का सारा साधना-शास्त्र इस अनुभूति पर निर्भर है कि तुम्हें जीवन में परम दुख का अनुभव हो जाए।

खुदा की देन है जिसको नसीब हो जाए

हर एक दिल को गमे-जाविंदा नहीं मिलता

–यह जो परम दुख है, यह परमात्मा की अनुकंपा से मिलता है। यह परम दुख, यह स्थायी दुख का बोध कि यहां सब दुख है–”गमे-जाविंदा’–यह स्थायी गम…

खुदा की देन है जिसको नसीब हो जाए

हर एक दिल को गमे-जाविंदा नहीं मिलता

महावीर को मिला। तुम्हें भी मिल सकता है। है तो, मिला तो है। तुम देखते ही नहीं। तुम छिटकते हो। तुम देखने से बचना चाहते हो।

लोग अपने जीवन के सत्य को देखने से बचना चाहते हैं, क्योंकि डरते हैं। और डर उनका स्वाभाविक है। डरते हैं कि कहीं जीवन का सत्य देखा तो कहीं दुख ही दुख हाथ में न रह जाए। इसलिए पीठ किए रहते हैं। इसलिए आंख बचाए चले जाते हैं। इसलिए आंख बंद कर लेते हैं। मगर ऐसे तुम किसे धोखा दे रहे हो? यह धोखा स्वयं को ही दिया गया धोखा है।

एक कहानी मैंने सुनी है। एक शहर में एक नई दुकान खुली। जहां कोई भी युवक जाकर अपने लिए एक योग्य पत्नी ढूंढ़ सकता था। एक युवक उस दुकान पर पहुंचा। दुकान के अंदर उसे दो दरवाजे मिले। एक पर लिखा था, युवा पत्नी; और दूसरे पर लिखा था, अधिक उम्र वाली पत्नी! युवक ने पहले द्वार पर धक्का लगाया और अंदर पहुंचा। फिर उसे दो दरवाजे मिले। पत्नी वगैरह कुछ भी न मिली। फिर दो दरवाजे! पहले पर लिखा था, सुंदर; दूसरे पर लिखा था, साधारण। युवक ने पुनः पहले द्वार में प्रवेश किया। न कोई सुंदर था न कोई साधारण, वहां कोई था ही नहीं। सामरे फिर दो दरवाजे मिले, जिन पर लिखा था: अच्छा खाना बनानेवाली और खाना न बनानेवाली। युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। स्वाभाविक, तुम भी यही करते। उसके समक्ष फिर दो दरवाजे आए, जिन पर लिखा था: अच्छा गाने वाली और गाना न गाने वाली। युवक ने पुनः पहले द्वार का सहारा लिया और अब की उसके सामने दो दरवाजों पर लिखा था: दहेज लानेवाली और न दहेज लानेवाली। युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। ठीक हिसाब से चला। गणित से चला। समझदारी से चला। परंतु इस बार उसके सामने एक दर्पण लगा था, और उस पर लिखा था, “आप बहुत अधिक गुणों के इच्छुक हैं। समय आ गया है कि आप एक बार अपना चेहरा भी देख लें।’

ऐसी ही जिंदगी है: चाह, चाह, चाह! दरवाजों की टटोल। भूल ही गए, अपना चेहरा देखना ही भूल गए! जिसने अपना चेहरा देखा, उसकी चाह गिरी। जो चाह में चला, वह धीरे-धीरे अपने चेहरे को ही भूल गया। जिसने चाह का सहारा पकड़ लिया, एक चाह दूसरे में ले गई, हर दरवाजे दो दरवाजों पर ले गए, कोई मिलता नहीं। जिंदगी बस खाली है। यहां कभी कोई किसी को नहीं मिला। हां, हर दरवाजे पर आशा लगी है कि और दरवाजे हैं। हर दरवाजे पर तख्ती मिली कि जरा और चेष्टा करो। आशा बंधाई। आशा बंधी। फिर सपना देखा। लेकिन खाली ही रहे। अब समय आ गया, आप भी दर्पण के सामने खड़े होकर देखो। अपने को पहचानो!

जिसने अपने को पहचाना वह संसार से फिर कुछ भी नहीं मांगता। क्योंकि यहां कुछ मांगने जैसा है ही नहीं। जिसने अपने को पहचाना, उसे वह सब मिल जाता है जो मांगा था, नहीं मांगा था। और जो मांगता ही चलता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता है।

इस जिंदगी में तुम न केवल अपने को धोखा दे रहो हो; तुम्हारे, जिनको तुम अपने कहते हो, उनको भी धोखा दे रहे हो। घर में एक बच्चा पैदा होता है। तुम तो धोखे में जीए ही, तुम यही धोखा उसको भी सिखाते हो। तुम तो दुख में जीए ही, तुम इसी दुख का शिक्षण उसे भी देते हो। ऐसे पागलपन हटता नहीं संसार से, बढ़ता है। हम अपनी बीमारियां दूसरों को दिये चले जाते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने लड़के पर रौब गांठने के लिए एक दिन शिकार पर उसे साथ ले गया। वहां एक पक्षी पर निशाना साधते हुए लड़के से बोला, “देख बेटे! मेरा निशाना कितना अचूक होता है!’ यह कहकर उसने गोली दागी। हमेशा की तरह, निशाना चूक गया। यह देखकर कि लड़का बहुत ध्यान से उड़ते पक्षी की ओर देख रहा है, मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “देख बेटे, देख! आश्चर्य देख! मरकर भी पक्षी उड़ान भर रहा है!’

मगर कोई मानने को राजी नहीं है कि निशाना अपना चूक गया है। बाप का निशाना चूक गया है, लेकिन बेटे से कह रहा है, “देख, बेटे देख! निशाना तो लग गया, चमत्कार देख! फिर कभी मौका मिले न मिले। पक्षी मरकर भी उड़ रहा है!’

अगर तुम्हारा निशाना चूक गया हो तो किसी को भूलकर भी यह आभास मत देना कि लग गया है। अपनी हार को स्वीकार कर लेना। इससे तुम्हें भी लाभ होगा, औरों को भी लाभ होगा। अपनी पराजय को मान लेना, क्योंकि तुम्हारी पराजय ही तुम्हारी विजयऱ्यात्रा का पहला कदम बनेगी। धोखा मत दिये चले जाना। यह अकड़ व्यर्थ है। इस अकड़ का कोई सार नहीं है।

महावीर इस अकड़ को तोड़ने के लिए ही ये सूत्र कह रहे हैं। हम वही-वही मांगे चले जाते हैं। हर बार हारते हैं, फिर वही मांगते हैं। कभी-कभी तो हमारी मांगें ऐसी असंगत और मूढ़तापूर्ण होती हैं, लेकिन चूंकि हमारी मांगें हैं, हम न तो उनकी मूढ़ता देखते, न असंगति देखते हैं।

एक भिखारी ने लाटरी का टिकट खरीदा और भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु! मुझे लाटरी का पहला इनाम दे दो, जिससे मैं कार खरीद सकूं। पैदल भीख मांगते-मांगते तो मेरी टांगें टूटी जाती हैं।

कार में भी भीख ही मांगेगा! जैसे हमें कोई होश ही नहीं है। तुम क्या मांग रहे हो? तुम जो मांगते हो, उसमें फिर तुम वही मांग रहे हो, वही पुराना ढांचा जिसमें तुम जन्मों-जन्मों से जी रहे हो; और जिसमें सिवाय दुख, सिवाय पीड़ा और संताप के कुछ भी नहीं पाया है।

एक छोटे शहर के चौधरी घूमने के खयाल से दिल्ली पहुंचे। तो एक मामूली से परिचित सज्जन के घर जा धमके और बातें करने लगे।

बहुत देर तक, जब उसने वहां से जाने का नाम न लिया तो घर वाले सज्जन ने अपने नौकर को आवाज देकर बुलाया और कहा, “भाई सामान बांधो और चलने की तैयारी करो।’

चौधरी और नौकर दोनों आश्चर्य में पड़ गए कि एकाएक कहां जाने की तैयारी है। आखिर में चौधरी के पूछने पर कि इस वक्त कहां जा रहे हैं, सज्जन ने कहा, “भाई! मकान पर तो आपने अधिकार कर ही लिया है। क़हीं सामान भी हाथ से न जाता रहे, इसलिए यहां से भागना अच्छा है।’

इससे उलटी हालत तुम्हारी है। मकान पर तो अधिकार हो ही गया है संसार का, सामान पर भी अधिकार हो गया है! तुम ही बचे हो, और तो सब खो दिया है। अब अपने को ही खो रहे हो। भागो! महावीर की साधना-विधि जीवन में आग लगी है, ऐसा देखकर तुम्हें जगाने की और इस घर को छोड़ देने के लिए है। बाहर आओ! लोग तुमसे कहेंगे, “पलायनवादी हो रहे हो?’

महावीर कहते हैं, घर में जब आग लगी हो तो पलायन ही समझदारी है। जहां दुख हो, वहां से भाग जाना ही समझदारी है।

और ध्यान रखना, अगर तुम दुख से बच सको तो सुख की संभावना का द्वार खुलता है। लेकिन सुख कहीं बाहर नहीं है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। संसार बाहर है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। जितने तुम बाहर जाओगे उतने सुख से दूर होते चले जाओगे। जितने तुम बाहर न जाओगे उतनी ही सुख की धुन बजने लगेगी। सुख का सितार बजने को तैयार रखा है, सिर्फ तुम घर आओ।

मुल्ला नसरुद्दीन एक धनपति के घर नौकरी करता था। एक दिन उसने कहा, “सेठ जी, मैं आपके यहां से नौकरी छोड़ देना चाहता हूं। क्योंकि यहां मुझे काम करते हुए कई साल हो गए, पर अभी तक मुझ पर आप को भरोसा नहीं है।’ सेठ ने कहा, “अरे पागल! कैसी बात करता है! नसरुद्दीन होश में आ! तिजोरी की सभी चाबियां तो तुझे सौंप रखी हैं। और क्या चाहता है? और कैसा भरोसा?’

नसरुद्दीन ने कहा, “बुरा मत मानना, हुजूर! लेकिन उसमें से एक भी ताली तिजोरी में लगती कहां है!’

जिस संसार में तुम अपने को मालिक समझ रहे हो, तालियों का गुच्छा लटकाए फिरते हो, बजाते फिरते हो, कभी उसमें से ताली कोई एकाध लगी, कोई ताला खुला? कि बस तालियों का गुच्छा लटकाए हो। और उसकी आवाज का ही मजा ले रहे हो। कई स्त्रियां लेती हैं, बड़ा गुच्छा लटकाए रहती हैं। इतने ताले भी मुझे उनके घर में नहीं दिखाई पड़ते जितनी तालियां लटकाई हैं। मगर आवाज, खनक सुख देती है।

जरा गौर से देखो, तुम्हारी सब तालियां व्यर्थ गई हैं। क्रोध करके देखा, लोभ करके देखा, मोह करके देखा, काम में डूबे, धन कमाया, पद पाया, शास्त्र पढ़े, पूजा की, प्रार्थना की–कोई ताली लगती है?

महावीर कहते हैं, संसार की कोई ताली लगती नहीं। और जब तुम सब तालियां फेंक देते हो, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं। संसार से सब तरह से वीतराग हो जाने में ही ताली है, चाबी है।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–2

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प्‍यास ही प्रार्थना है—दूसरा—प्रवचन

प्रश्‍न सार:

1—क्‍या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध यह कह कर कि जीवन दुःख—ही—दुख है, भारत और एशिया के जीवन को विपन्‍न बना गया?

2—प्रतिक्रमण इतना असहज—सा लगता है?

3—प्रसाद संकल्‍प से मिला या समर्पण से, मालूम नहीं….ओर अयाचित और असमय। उसकी वर्षा हो रही है……. ?

4—श्रवण और पठन—पाठन में क्‍या भेद है?

पहला प्रश्न:

क्या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध, यह कहकर कि जीवन दुख ही दुख है, भारत और एशिया के जीवन को सदियों-सदियों के लिए विपन्न और दुखी बना गए? और क्या यह जीवन अस्वीकार की दृष्टि स्वस्थ अध्यात्म कही जा सकती है?

पहली बात, न तो कोई तुम्हें आनंदित कर सकता है, न कोई तुम्हें विपन्न कर सकता है। जो भी तुम होते हो, तुम्हारा ही निर्णय है। बहाने तुम कोई भी खोज लो।

महावीर ने कहा, जीवन व्यर्थ है। कहा, ताकि तुम महाजीवन में जाग सको। तुमने अगर गलत पकड़ा और तुमने इस जीवन को भी छोड़ दिया–और नीचे गिर गए, महाजीवन में न उठे। एक जगह तुम खड़े थे सीढ़ी पर और महावीर ने कहा, छोड़ो इसे, आगे बढ़ो। छोड़ा तो तुमने जरूर, लेकिन पीछे हट गए। कसूर तुम्हारी समझ का है।

जीवन में सदा ही उत्तरदायित्व हमारा है। दूसरों पर टालने की आदत छोड़ो। महावीर ने कहा था, ताकि तुम महाजीवन की तरफ उठो। जीवन की निंदा की थी, किसी परम जीवन की प्रशंसा के लिए।

इस जीवन को जिसे तुम जीवन कहते हो, जीवन कहने जैसा क्या है? इसमें संपन्न होकर भी क्या मिलेगा? यह मिल भी जाए तो कुछ मिलता नहीं; खो भी जाए तो कुछ खोता नहीं। स्वप्नवत है। स्वप्न से जागने को कहा था। तुम स्वप्न से जागे तो नहीं, और महातंद्रा में खो गए। तुम्हारे दृष्टिकोण में, तुम्हारी व्याख्या में कहीं भूल हो गई। तुम्हारा भाष्य भ्रांत है।

महावीर को तो देखो, विपन्न दिखाई पड़ते हैं? और संपन्नता क्या होगी? महावीर से ज्यादा सुंदर महिमा-मंडित परमात्मा की कोई और छवि देखी है? महावीर से ज्यादा आलोकित, विभामय और कोई विभूति देखी? कहीं और देखा है ऐसा ऐश्वर्य, जैसा महावीर में प्रगट हुआ? जैसी मस्ती और जैसा आनंद, और जैसा संगीत इस आदमी के पास बजा, कहीं और सुना है? कृष्ण को तो बांसुरी लेनी पड़ती है तब बजता है संगीत; महावीर के पास बिना बांसुरी के बजा है। मीरा को तो नाचना पड़ता है, तब बजता है संगीत; महावीर के पास बिना नाचे नचा है। कोई सहारा न लिया–वीणा का भी नहीं, नृत्य का भी नहीं, बांसुरी का भी नहीं। कृष्ण तो सुंदर लगते हैं–मोर-मुकुट बांधे हैं। महावीर के पास तो सौंदर्य के लिए कोई भी सहारा नहीं–बेसहारे, निरालंब! लेकिन कहीं और देखा है परमात्मा का ऐसा आविष्कार–जीवन की ऐसी प्रगाढ़ता, ऐसा घना आनंद! तो महावीर जीवन के विपरीत तो नहीं हो सकते। नहीं तो सूख जाते, जैसे जैन मुनि सूखे हैं। जीवन के विपरीत तो नहीं हो सकते; नहीं तो कुरूप हो जाते, जैसे जैन मुनि हो गए हैं। सिकुड़ जाते। जीवन को छोड़ा है, लेकिन सिकुड़े नहीं हैं। मृत्यु को वरण किया है, महामृत्यु को वरण किया है–लेकिन मरे नहीं हैं। मृत्यु उन्हें और निखार दे गई। मृत्यु को स्वीकार करके उनका जीवन और भी संपन्न हुआ है, और भी गहन धन की वर्षा हुई है।

तुम मृत्यु से डरे-डरे जीते हो। महावीर को वह डर भी न रहा, उनका जीवन अभय हुआ है। तुम घबड़ाए हो, धन छिन न जाए! तो धन भी हो, धन से ज्यादा तो घबड़ाहट आ जाती है कि छिन न जाए! महावीर ने धन छोड़ा, इतना ही मत देखो; साथ ही घबड़ाहट भी तिरोहित हो गई है। जब धन ही न रहा तो छिनने की बात ही कहां उठती है! महावीर ने वह सब छोड़ दिया जिसके साथ भय आता हो; वह सब छोड़ दिया जिसके साथ चिंता आती हो।

लेकिन ध्यान रखना, छोड़ने पर जोर नहीं है। पाया! चिंतामुक्त जीवन-दशा पायी। अपूर्व शांति पायी। अभय पाया। सत्य प्रगट हुआ महावीर से। ऐसा बहुत कम हुआ है।

महावीर को अगर गौर से समझो तो पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि महावीर के पास कोई भी कारण नहीं है। जीसस का सम्मान है–सूली कारण है। जीसस अगर सूली पर न चढ़े होते, न चढ़ाए गए होते, ईसाइयत पैदा न होती। इसलिए क्रास प्रतीक बन गया। जीसस के दुख ने करोड़ों लोगों की सहानुभूति को आकर्षित कर लिया। दुख सदा सहानुभूति आकर्षित करता है।

कृष्ण की बांसुरी के स्वर हैं। पशु भी नाच उठे, पक्षी भी आनंदित हुए, दौड़ पड़े स्त्री-पुरुष! महावीर के पास क्या है? न बांसुरी है, न सूली है। महावीर निपट खड़े हैं नग्न, वस्त्र भी नहीं। कुछ भी नहीं है, जिस कारण लोग महावीर के पास जाएं। फिर भी लोग गए। फिर भी उन चरणों में लोग झुके हैं।

कृष्ण ने तो कहा: “सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। सब छोड़, मेरी शरण आ!’ तो भी अर्जुन झिझका-झिझका शरण आया। उसकी झिझक से ही तो गीता पैदा हुई। संदेह करता ही चला गया।

महावीर ने कहा: “किसी की शरण जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरी शरण मत आओ, अपनी शरण जाओ!’ फिर भी लोग महावीर के चरणों में आए, जरूर कुछ महिमापूर्ण घटित हुआ है! कुछ अनूठा लोगों को दिखा है!

जैन धर्म से खो गई वह अनूठी बात–वह दूसरी बात है। उससे महावीर को मत जोड़ो। जैन धर्म तुम्हारा है। जैन धर्म तुम्हारी व्याख्या है महावीर के संबंध में। जैन धर्म वह नहीं है जो महावीर ने दिया है। जैन धर्म वह है जो तुमने लिया है। महावीर ने जो कहा है, वह तो कुछ और है। तुमने जो पकड़ा है, समझा है, वह कुछ और है। तुम्हारी समझ के संग्रह का नाम तुम्हारा शास्त्र, तुम्हारा धर्म, तुम्हारी सभ्यता, संस्कृति है।

निश्चित ही, कल ही मैं आपसे कहता था कि चौबीसों तीर्थंकर जैनों के क्षत्रिय हैं। युद्ध के मैदान से आए। युद्ध की पीड़ा और युद्ध की हिंसा और युद्ध की व्यर्थता देखकर आए। उनकी अहिंसा भय की अहिंसा नहीं है, कायर की अहिंसा नहीं है–महावीरों की अहिंसा है। देखकर कि हिंसा में तो कायरता ही है, उन्होंने हिंसा का त्याग किया। लेकिन फिर क्या हुआ? जैन धर्म बना तो वणिकों से, वैश्यों से। जैनियों में तुम्हें क्षत्रिय न मिलेगा। सब दुकानदार हैं। कैसी दुर्घटना घटी। जिनके सब तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, उनके सब अनुयायी दुकानदार हैं! नहीं, जिन्होंने पकड़ा है उन्होंने कुछ और अर्थ से पकड़ा है। उन्होंने कहा, न किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा; न झगड़ा-झांसा करेंगे, न पिटेंगे। उन्होंने “अहिंसा परमोधर्मः’ का उदघोष किया। उन्होंने कहा, यह बात बड़ी अच्छी है। यह तो ढाल की तरह है कि हम मरने-मारने में विश्वास ही नहीं रखते।

मगर जरा जैनियों की तरफ देखो, इनकी अहिंसा में अभय है? भय ही भय को तिलमिलाता पाओगे। ये भय के कारण अहिंसक हैं।

ये डरे हैं कि कोई मारे न, कोई लूटे न, कोई खसोटे न, कोई झंझट न करे, तो स्वाभाविक है कि अहिंसा की चर्चा करो।

महावीर की अहिंसा मृत्यु के पार जो अनुभव है उससे आती है। जैनों की जो अहिंसा है, जीवन का ही अनुभव नहीं, मृत्यु के अनुभव की तो बात दूर!

एक जैन ने प्रश्न पूछा है कि “आप कहते हैं कि वह परम अवस्था तो शून्य की है, तो ऐसे शून्य को पाकर क्या करेंगे? इससे तो यही जीवन ठीक है। कम से कम सुख-दुख का अनुभव तो होता है!’

शून्य का डर! इससे वे स्वर्ग-नर्क, सुख-दुख, कुछ भी हो झेलने को तैयार हैं; मिटने को तैयार नहीं हैं। शून्य यानी मिटना! न तुम यहां मिटने को तैयार हो, न तुम वहां मिटने को तैयार हो। बचना चाहते हो। बचाव भय की अभिव्यक्ति है। अब जिन मित्र ने पूछा है, दुख को भी पकड़ने को तैयार हैं, कम से कम रहेंगे तो! बचेंगे तो! दुख ही सही, नर्क ही सही–मगर मिटने को तैयार नहीं हैं।

और जीवन का परम सत्य यही है कि जब तक तुम अपने को पकड़े हो तब तक मिटते रहोगे। और जिस दिन तुम अपने को छोड़ दोगे और जिस दिन तुम शून्य होने को तैयार हो जाओगे, उसी क्षण पूर्ण घटित होता है–तत्क्षण घटित होता है। उस क्रांति में फिर एक क्षण भी प्रतीक्षा नहीं करनी होती। तुम इधर शून्य होने को तैयार हुए कि तुम पूर्ण हुए। फिर कोई बाधा न रही। कोई भय न रहा तो बाधा कैसी? तुम जब मिटने तक को तत्पर हो गए तो तुम्हारी कोई पकड़ न रही। जो शून्य होने को राजी है वह धन को थोड़े ही पकड़ेगा! जिसने अपने को ही न पकड़ा वह धन को क्या पकड़ेगा! सारी पकड़ के भीतर पहली पकड़ तो अपनी पकड़ है। तुम धन को किसलिए पकड़ते हो? धन के लिए ही थोड़ी कोई धन को पकड़ता है–अपने को पकड़ता है, इसलिए धन को पकड़ता है। क्योंकि धन सुरक्षा देता है, भविष्य में व्यवस्था देता है। कल घबड़ाहट न होगी, तिजोरी है, बैंक में बैलेंस है। बीमारी आए, बुढ़ापा आए, कुछ भी हो, तो धन सुरक्षा का आश्वासन देता है।

तुम अपने को पकड़ते हो, इसलिए धन को पकड़ते हो। तुम अपने को पकड़ते हो, इसलिए पत्नी को, बच्चे को पकड़ते हो।

उपनिषद कहते हैं, कोई पत्नी को थोड़े ही प्रेम करता है; लोग अपने को प्रेम करते हैं, इसलिए पत्नी को प्रेम करते हैं। पत्नी तो बहाना है।

तुम कहते हो कि तुमसे मुझे प्रेम है। लेकिन तुम्हारे प्रेम का अर्थ कितना है? क्या है अर्थ? इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे होने के कारण मैं प्रफुल्लित होता हूं; तुम हो तो मैं सुख पाता हूं–लेकिन तुम साधन हो, साध्य तो मैं ही हूं। तुम अपने बच्चों को प्रेम करते हो, उनको पकड़ते हो–किसलिए? बुढ़ापे के सहारे हैं। तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के लिए कंधा देंगे। भविष्य में तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करेंगे। तुम तो पूरा न कर पाओगे, यह तुम्हें पता है। महत्वाकांक्षाएं अनंत हैं। वासनाएं दुष्पूर हैं–बहुत हैं। जीवन बड़ा छोटा है: गया-गया, हाथ से बहा-बहा है! तुम तो पूरा न कर पाओगे, तुम्हारे बच्चे तुम्हारी याद पूरी करेंगे; परंपरा को जारी रखेंगे; बाप का नाम बचाएंगे। तुम तो जा चुके होओगे, लेकिन बच्चों के सहारे किसी तरह तुम अपनी शाश्वतता खोजते हो। तुम सोचते हो, चलो और तरह का अमरत्व तो संभव नहीं है, इसी बहाने बच्चों में जीते रहेंगे; मेरा ही तो खून है; मेरे ही तो जीवाणु हैं! चलो यह देह न रहेगी, बच्चों में जीएंगे।

बाप बेटे में जीता है। मां बेटे में जीती है। ऐसी परंपरा बनती है। “हम न रहेंगे, हमारा तो कोई रहेगा!’ इसलिए तुम “हमारे’ को पकड़ते हो। पर सारी पकड़ भीतर “मैं’ की है। जिसने समझने की कोशिश की, वह धन को नहीं छोड़ेगा। धन छोड़ने से क्या लेना-देना है! क्योंकि धन तो गौण है; असली बात तो “मैं’ की पकड़ छोड़ने की है। तुम्हें राजी होना है, ऐसी घड़ी के लिए कि जहां मैं भी न रह जाऊं, तो भी क्या हर्ज है! क्या हर्ज है? क्या मिटेगा? क्या खो जाएगा? तुम्हारे हाथ में क्या है? तुम मुट्ठी खोलने से डरते हो, क्योंकि मैं कहता हूं मुट्ठी खाली है। तुम कहते हो, इससे तो मुट्ठी बंधी ही रहे, चाहे तकलीफ होती है बांधे रखने में, होती रहे–कम से कम बंधी तो है! लोग कहते हैं, बंधी लाख की! खाली है, मगर कहते हैं, बंधी लाख की! क्योंकि जो दिखाई ही नहीं पड़ता तो मान लो लाख हैं, करोड़ हैं, जो भी मानना है मान लो। खोलो, लाख गए! मुट्ठी खाली है! लेकिन तुम बांधो कि खोलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मुट्ठी खाली है!

तुम कहते हो, इससे तो दुख ही बेहतर; सुख का आभास ही बेहतर–कम से कम हैं तो! यह अनुयायी की आवाज है। जिसने पूछा है वह जैन है। यह महावीर की आवाज नहीं है। महावीर तो कहते ही यही हैं कि छोड़ो परिग्रह, छोड़ो संसार, छोड़ो वासना; ताकि इस सब छोड़ने में, जो इन सब के पीछे छिपा है और अपने को बचा रहा है, वह तुम्हें प्रगट हो जाए कि मूल में तो तुम अहंकार को बचा रहे हो, अपने को बचा रहे हो। सब बहाने छोड़ो तो साफ दिखाई पड़ जाएगा कि अपने को बचाने में लगे हो! लेकिन बचाने में सार क्या है? और बचा-बचाकर तुम बचाओगे कैसे? या तो तुम बचोगे ही, अगर वह तुम्हारा स्वभाव है; और अगर स्वभाव में ही अमरत्व नहीं है तो तुम लाख बचाओ, बच न सकोगे!

इसलिए महावीर कहते हैं: छोड़ो यह आपा-धापी! छोड़ो यह बचने की आकांक्षा! यह जीवेषणा छोड़ो। जीवेषणा सभी पापों का आधार है। मैं जीना चाहता हूं, चाहे फिर दूसरों को मारकर भी जीना पड़े, तो भी जीऊंगा! मैं जीना चाहता हूं, मुझे क्या फिक्र है कि कौन मरता है!

तो महावीर की सारी अहिंसा का सूत्र यही है, कि तुम्हारे जैसे ही सभी जीना चाहते हैं। तुम वही करो उनके साथ जो तुम अपने साथ करना चाहते हो। तो तुम किसी को मारो मत! लेकिन जो किसीको न मारेगा, वह मरना शुरू हो जाएगा।

यह जीवन तो बड़ा संघर्ष है। यहां तो तुम दूसरे की गर्दन न दबाओ तो कोई तुम्हारी गर्दन दबाएगा। यहां तो सुरक्षा का सबसे श्रेष्ठ उपाय आक्रमण है। मैक्यावली से पूछो! महावीर से अहिंसा समझ लो, मैक्यावली से हिंसा समझ लो। मैक्यावली कहता है कि इसके पहले कि कोई हमला करे, हमला करो; इसके पहले कि कोई तुम पर हमला करे, हमला कर दो। मौका मत दो पहल का, अन्यथा तुम पिछड़ ही गए संघर्ष में। मार लो, मार डालो, इसके पहले कि कोई तुम्हें मारे। यही सूत्र है–जीवन में संघर्ष का, अपने को बचाने का। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। तुम शक्तिशाली बनो और दूसरों को पीते चले जाओ। उसी में तुम्हारा जीवन है।

महावीर कहते हैं, ऐसे जीवन को क्या करोगे? इस जीवन का सार भी क्या है, अर्थ भी क्या है? बच भी जाएगा तो क्या बचेगा, हाथ क्या लगेगा? हाथ-लाई क्या होगी?

महावीर कहते हैं, सब देखा! सारा जीवन झूठा है, भ्रांत है। यह दूसरे को मारने योग्य तो है ही नहीं। अगर दूसरे को बचाने में अपने को मिटा भी देना पड़े तो मिटा दो–इसमें कुछ हर्जा नहीं है, कुछ जा नहीं रहा है। और महावीर इतने आश्वस्त होकर यह कहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं; जो तुम्हारे भीतर अंतर्तम में छिपा है उसकी कोई मृत्यु नहीं है। जिसे तुम बचा रहे हो, वह तुम्हारी झूठी प्रतिमा है; वह तुम्हारा स्वयं के प्रति झूठा भाव है। जिसे तुम बचा रहे हो, अहंकार, वह तो मरेगा। वह तो समाज का दिया हुआ है; मौत के साथ समाप्त हो जाएगा। तुम जैसे आए थे, कोरे, कुंआरे, जन्म के साथ, ऐसे ही कुंआरे-कुंआरे तुम मृत्यु के साथ जाओगे। तुम्हारा नाम-धाम, पता-ठिकाना, सब यहीं छूट जाएगा। और वह जो मृत्यु के पीछे भी चला जाता है तुम्हारे साथ और जन्म के पहले भी तुम्हारे पास था, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। तुम दौड़ छोड़ो बचने की, तो तुम्हें उसका पता चलेगा जो सदा ही बचा हुआ है। तुम अपनी सुरक्षा न करो, तो तुम्हें उसका पता चल जाएगा जो सदा सुरक्षित है।

जब मैं कहता हूं शून्य होने की बात, तो उसका कुल इतना ही अर्थ है कि पूर्ण तुम हो। इधर तुम शून्य होने को राजी हुए तो तुम्हारी दौड़-धूप मिटी। दौड़-धूप मिटी तो सारी चेतना मुक्त हुई दौड़-धूप से, चेतना घर लौटी। बाहर नहीं जाओगे तो कहां जाओगे? घर आओगे! घर आने का कोई रास्ता थोड़े ही है–बस बाहर जाना छोड़ देना है कि घर आ गए। घर तो तुम हो ही, तुम्हारी वासना ही भटकती है दूर-दूर।

यहां तुम बैठे मुझे सुन रहे हो: हो सकता है, तुम यहां सिर्फ बैठे हो शरीर की भांति, तुम्हारी वासना कहीं और भटकती है–कलकत्ते में होओ, दिल्ली में होओ, बंबई में होओ। तो जितना तुम्हारा मन बंबई में चला गया मुझे सुनते वक्त, उतने तुम यहां नहीं हो। अगर तुम्हारा पूरा मन ही बंबई में चला गया, तो तुम यहां बिलकुल नहीं हो। यहां तुम्हारा होना न होना बराबर है। तुम होते न होते कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ एक प्रतिमा बैठी है, जिसमें कोई प्राण नहीं है। क्योंकि प्राण तो वासना में भटक गए। तुम कहीं जाते थोड़े ही हो बाहर; वासना में मन उलझा कि तुम बाहर गए! वासना बहिर्गमन का मार्ग है। वासना बाहर जाना है। क्षणभर को भी अगर तुम बाहर न जाओ तो तुम जाओगे कहां फिर? जब बाहर जाने के सब सेतु टूट गए, सब द्वार-दरवाजे बंद हो गए, सब मार्ग व्यर्थ हो गए, न तुम धन में गए, न तुम पद में गए, न तुम प्रेम में गए, तुम कहीं बाहर गए ही नहीं, तो तुम अचानक अपने को घर में बैठा हुआ पाओगे–जहां तुम सदा से बैठे हुए हो; जहां से तुम क्षणभर को भी हटे नहीं, तिलभर को भी हटे नहीं; जहां से हटने का कोई उपाय नहीं। उसी को महावीर स्वभाव कहते हैं। उसी को महावीर धर्म कहते हैं, जिससे हटा न जा सके, जिसे खोकर भी खोया न जा सके, जिसे मिटाकर भी मिटाया न जा सके। जिसे तुम लाखों जन्मों में चेष्टा कर-कर के, भटक-भटककर भी नहीं अपने से छुड़ा पाए हो, वही तुम्हारा स्वभाव है। जो छूट जाए, वह पर-भाव है।

तुम्हारे वस्त्र छीने जा सकते हैं; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं। तुम्हारा शरीर छिन जाता है; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं। तुम्हारा मन भी छिन जाता है, वह भी तुम्हारा स्वभाव नहीं। देह और मन के पार कुछ है–अनिर्वचनीय, जिसे न कभी छीना जा सका है, न छीना जा सकता है।

बादल घिरते हैं आकाश में, इससे कुछ आकाश नष्ट नहीं हो जाता। क्षणभर को दिखाई नहीं पड़ता। खो जाता है। ओझल हो जाता है। पर मिटता थोड़े ही है! फिर बादल चले जाते हैं, वर्षा समाप्त हुई, बादल विदा हो गए–आकाश अपनी जगह खड़ा है! ऐसी ही वासनाएं आती हैं तुम्हारे अंतर-आकाश में, क्षणभर को घिरती हैं, शोरगुल मचता है, गड़गड़ाहट होती है, बिजलियां चमकती हैं–क्रोध है, लोभ है, मोह है, माया है–हजार तरह के बादल घिरते हैं, गड़गड़ाहट होती है, वासना बरसती है। फिर जिस दिन भी बोध सम्हलेगा–गए बादल! इससे तुम खराब थोड़े ही हो गए। तुम्हारा कुंआरापन कुछ ऐसा है कि खराब हो ही नहीं सकता। बादल सदा आएगा-जाएगा, आकाश तो कुंआरा बना रहता है। आकाश व्यभिचारित थोड़े ही होता है! रेखा भी तो नहीं छूट जाती बादल की। छाया भी तो नहीं छूट जाती बादल की। पद-चिह्न खोजकर भी तो न खोज पाओगे। कोई हस्ताक्षर तो बादल कर नहीं जाता कि यहां मैं आया था। कोई नाम-ठिकाना भी नहीं छूट जाता। ऐसे ही तो तुम्हारी देह खो जाती है।

कितनी देहें इस पृथ्वी पर रही हैं तुमसे पहले! तुम कुछ नये हो? वैज्ञानिक कहते हैं, जहां तुम बैठे हो वहां कम से कम दस लाशें गड़ी हैं। जितनी जगह तुम बैठने के लिए लेते हो, वहां कम से कम दस आदमी मर चुके, गड़ चुके, खो चुके। वहीं तुम भी खो जाओगे। यह तो आदमियों की बात हुई। अब जानवरों का हिसाब करो, कीड़े-मकोड़ों का हिसाब करो, मक्खी-मच्छरों का हिसाब करो, वृक्ष-पौधों का हिसाब करो, तो तुम जहां बैठे हो वहां अनंत जीवन हुए और खो गए। वहीं तुम भी खो जाओगे। खोते ही चले जा रहे हो। प्रतिक्षण खिसकते जा रहे हो गङ्ढे में। मौत पास आती चली जाती है। एक-एक क्षण जीवन रिक्त होता चला जाता है। बूंद-बूंद कर के घड़ा खाली हो जाएगा। लेकिन फिर भी तुम हो–जो कभी खाली नहीं होगा।

जो संसार से मिला है, संसार वापिस ले लेता है। लेकिन कुछ तुम्हारे पास है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला–जो बस तुम्हारा है! वही तुम्हारी संपदा है। वही तुम्हारी आत्मा है।

जब कहते हैं, शून्य हो जाओ तो उसका कुल इतना ही अर्थ है: बादलों से शून्य हो जाओ, ताकि आकाश से पूर्ण हो जाओ। उसका इतना ही अर्थ है: व्यर्थ से शून्य हो जाओ, ताकि सार्थक का आविर्भाव होने लगे। बाहर से शून्य हो जाओ, ताकि भीतर की धुन बजने लगे। बाजार में खड़े हो। भीतर तो धुन बजती ही रहती है, सुनाई नहीं पड़ती; बाजार का शोरगुल भारी है। भीतर आओ! थोड़े आंख-कान बंद करो! छोड़ो बाजार को! भूलो बाजार को! तो भीतर की धुन सुनाई पड़ने लगे, अनाहत का नाद सुनाई पड़ने लगे।

अहर्निश बज रही है वह वीणा। क्षणभर को भी उस कलकल-नाद में बाधा नहीं पड़ती। पर बड़ा सूक्ष्म है नाद! जब तुम सुनने में सजग होओगे, जब तुम्हारा श्रवण सधेगा, जब तुम्हारे कान भीतर की तरफ मुड़ेंगे और जब तुम धीरे-धीरे बारीक को, बारीकतम को पकड़ने में कुशल हो जाओगे–तब, तब तुम्हें उस वीणा का नाद सुनाई पड़ेगा, जिसको योगी अनाहत कहते हैं।

और सब नाद तो आहत हैं, दो चीजों की टक्कर से पैदा होते हैं। मैं ताली बजाऊं तो दो हाथ टकराते हैं। एक हाथ से तो ताली बजती नहीं। लेकिन एक नाद है तुम्हारे भीतर, जो अहर्निश चल रहा है। वह आहत-नाद नहीं है। वह दो हाथ की ताली नहीं है, एक हाथ की ताली है। वह किन्हीं दो चीजों की टकराहट से पैदा नहीं हुआ, अन्यथा किसी न किसी दिन बंद हो जाएगा। जब दो चीजें न टकराएंगी तो बंद हो जाएगा। वह तुम्हरा स्वभाव है। ओंकार! प्रणव! वह तुम्हारा स्वभाव है।

यह तुमने कभी सोचा? हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, भारत में ये तीन महाधर्म पैदा हुए। तीनों के विचारों में बड़ा भेद है, जमीन-आसमान का भेद है। तीनों की सैद्धांतिक धारणाएं भिन्न हैं। तीनों के ढांचे अलग हैं, मार्ग अलग हैं, पथ अलग हैं। कोई समर्पण का मार्ग है, कोई संकल्प का। कोई संघर्ष का मार्ग है, कोई शरणागति का–कोई पूजा-प्रार्थना, भक्ति का, कोई ध्यान-समाधि का। लेकिन एक बात इन तीनों धर्मों ने स्वीकार की है–वह है ओंकार। वह है ओऽम् का नाद। उसे इनकार करने का उपाय नहीं। क्योंकि जब भी कोई भीतर गया है, तो उस नाद को सुना है। जब भी कोई भीतर गया है तो ऐसा कभी हुआ ही नहीं, कोई अपवाद नहीं कि वह नाद न सुना हो। वह जीवन-नाद है, ब्रह्म-नाद है।

तो जब हम कहते हैं, शून्य हो जाओ, तो अर्थ इतना ही है कि बाहर के शोरगुल से शून्य हो जाओ। और अभी तो तुम जो भी जानते हो, सब बाहर का शोरगुल है। इसलिए कहते हैं, तुम जो हो उससे बिलकुल शून्य हो जाओ! अभी तो तुमने व्यर्थ को ही जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी तो तुमने कागज-पत्तर को जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी तो शाश्वत का तुम्हारी प्रतिमा से कोई भी संबंध नहीं है। अभी तो तुम कहते हो, यह मेरा नाम है, यह मेरी जाति है, यह मेरा धर्म है, यह मेरा घर है; यह मेरा कुल है, यह मेरा देश है, यह मैं हिंदू हूं कि जैन हूं, कि मुसलमान हूं कि ईसाई हूं, कि मैं गरीब हूं कि अमीर हूं, कि शिक्षित कि अशिक्षित, कि गोरा कि काला, कि सम्मानित कि अपमानित, कि साधु कि असाधु–अभी तो तुमने जो भी जोड़ा है, बाहर से जोड़ा है। यह तो दूसरों ने जो कहा है, उसको ही तुमने इकट्ठा कर लिया है।

इसलिए कहते हैं, तुम अपने से खाली हो जाओ। यह सब कूड़ा-कर्कट हटाओ। और घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं। तुम बेफिक्र कूड़ा-कर्कट हटाओ, क्योंकि जो कूड़ा-कर्कट नहीं है, उसे तुम हटाओ भी, तो भी हटा न सकोगे। इसलिए भय की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए डर-डरकर हटाने की जरूरत नहीं कि कहीं ऐसा न हो कि हीरे खो जाएं। वे हीरे कुछ ऐसे हैं कि खो ही नहीं सकते। इसलिए तुम आग भी लगा दो इस मकान में, तो भी कुछ बिगड़ेगा नहीं। तुम खालिस, साबित निकल आओगे; क्योंकि तुम्हारा स्वभाव जलता नहीं।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः!

न आग उसे जलाती, न शस्त्र उसे छेदते हैं। अमरत्व तुम्हारा स्वभाव है।

लेकिन अनुयायी की भाषा है, वह घबड़ाता है। वह कहता है, इससे तो संसार में बने ही रहे; चलो झूठे ही सही, कुछ तो हैं सुख! मान्यता ही सही, मिलते नहीं, आशा ही बंधाते हैं, कुछ तो हैं! दुख हैं, चलो कोई हर्जा नहीं, हम तो हैं! कांटे भी चुभते हैं, चलो सह लेंगे, जूते पहन लेंगे, दवा खोज लेंगे, मलहम कर लेंगे, ऐसे रास्तों पर न जाएंगे जहां कांटे हैं–लेकिन कम से कम हम तो हैं! लेकिन इस “हम’ को करोगे क्या? इस अहं को करोगे क्या?

मुश्किल नहीं है मौत, आजमाओ तो सही

मर जाने से पहले क्यों मरे जाते हो?

महावीर का सारा शिक्षण मृत्यु का शिक्षण है–शून्य होने की कला है। पर शून्य होने की कला ही पूर्ण होने की कला है। चाहे दोनों में से कुछ भी शब्द चुन लो; लेकिन मैं कहूंगा, तुम शून्य ही चुनना। पूर्ण को चुना कि तुम चूके। क्योंकि पूर्ण के साथ लोभ आया। तुमने कहा, “अरे! तो हम पूर्ण हो जाएंगे! गजब!’ पकड़ा अहंकार ने रस! वही अहंकार जिसको छुड़ाना है, छूटना है जिससे, पूर्ण होने की आकांक्षा से भर गया! फिर तुम्हारे गुब्बारे में और हवा भरने लगेगी। फिर अहंकार और बड़ा होने लगेगा। पूर्ण होने का नशा छा गया! इसलिए ज्ञानियों ने शून्य की भाषा कही है–जानते हुए कि अंतिमतः पूर्ण घटता है लेकिन तुमसे कहना उचित नहीं। तुमसे कहना खतरनाक है।

महावीर ने जो कहा, उसको तुमने वैसा ही नहीं सुना है जैसा उन्होंने कहा था। अन्यथा ये दुर्दिन, यह दुर्दशा, यह दारिद्रय, यह दीनता न घटती। इसलिए जो लोग ऐसा लांछन लगाते हैं, ऐसा विवाद खड़ा करते हैं, उनके विवाद में तथ्य तो है; लेकिन तथ्य का इशारा तुम्हारी तरफ है, उन्हीं की तरफ है। तथ्य का इशारा महावीर की तरफ नहीं है। काश! तुम महावीर को समझते तो इस देश में जैसा धन्यभाग फलता, इस देश में जैसे महिमावान फूलों का जमघट जुड़ जाता, वैसा कहीं भी नहीं हो पाता। अगर महावीर को समझे होते तो तुम्हारे भीतर जो अपरिसीम है, वह प्रगट होता। तुम्हारे चारों तरफ प्रकाश-मंडल निर्मित होता। न भी कुछ तुम्हारे पास होता तो भी तुम समृद्ध होते। और अभी तो हालत ऐसी है कि सब कुछ भी तुम्हारे पास हो, तो भी दरिद्रता कहां मिटती है?

तुमने धनी आदमियों की दरिद्रता नहीं देखी, तो फिर तुमने कुछ भी नहीं देखा! तुमने शक्तिशालियों की शक्तिहीनता नहीं देखी! तुमने पदधारियों की नपुंसकता नहीं देखी! अकड़ के झंडों के पीछे कमजोरी के सिवाय और क्या है? जितने बड़े झंडे हाथ में हैं, जितने ऊंचे डंडे हाथ में हैं, उतनी ही हीनता भीतर छिपी है। हीनता न हो तो कौन डंडे और झंडे लेकर यात्राएं करता है! क्या जरूरत है? किसको दिखाना है? जिसको अपना स्वरूप दिख गया, उसको दिखाने को अब कुछ भी न बचा।

फिर तुम जिसे जिंदगी कहते हो, और कहते हो जीवन का स्वीकार, उसमें जिंदगी जैसा क्या है?

था ख्वाब में खयाल को तुझसे मुआमला

जब आंख खुल गई न जियां था न सूद था।

मेरात्तेरा संयोग सपने की कल्पना थी, क्योंकि जब आंख खुल गई तो–बकौल तुलसीदास “हानि-लाभ न कछु!’ बड़ा हिसाब था! बड़ा धंधा किया था सपने में! सुबह उठकर पाते हैं, “हानि-लाभ न कछु!’

जिसे तुम जीवन कहते हो वह स्वप्न है। अच्छा हो, तुम उसे सपना कहो। जीवन को अभी तुमने जाना नहीं। और जिसे तुमने जाना है वह जीवन नहीं है।

कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो

कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से!

इस फिजूल की जिंदगी से मिलता क्या है! कोई मुझे सुझा दो कि इसमें क्या अर्थपूर्ण है! कोई मुझे राह बता दो कि कैसे इस व्यर्थ के कारागृह से मैं बाहर हो जाऊं!

कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो

कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से!

इस व्यर्थ की दौड़-धूप से क्या हासिल है?

कोई पुकारो कि उम्र होने आई है

फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए।

कोई पुकारो, कहो आकाश को कि रोक, अब यह काफिला सुबह और शाम का, समय के पार होने की यात्रा होने दे! समय में बहुत जी लिये!

सुबह होती शाम होती, उम्र तमाम होती!

फिर वही सुबह, फिर वही सांझ, फिर वही दोहरावा–कोल्हू के बैल की तरह घूमते हैं! आंख पर पट्टियां, अंधे की तरह! लगता है, यात्रा हो रही है, पहुंचते कहीं भी नहीं। अगर यात्रा होती होती तो कहीं तो पहुंचते। कभी यह तो सोचो, पहुंचे कहां? चलते बहुत हैं, थक गए हैं बहुत, पहुंचते कभी भी नहीं, खड़े वहीं के वहीं हैं! कैसी पागल यह दौड़ है, जहां रत्तीभर यात्रा नहीं होती और जीवन पर जीवन चुकते चले जाते हैं!

कोई पुकारो कि उम्र होने आई है

फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए।

मगर यह सुबह और शाम का काफिला आकाश नहीं ठहराता–तुम्हीं को ठहराना पड़ेगा! यह किसी के पुकारने की बात नहीं। कोई दूसरा तुम्हारे सुबह-शाम के काफिले को नहीं ठहरा सकता। यह तो सुबह-शाम की धारा चलती ही रहेगी, तुम ही धारा के बाहर हो जाओ। यह संसार तो चलता ही रहेगा, चलता ही रहा है। तुम्हीं छलांग लगा लो। तुम्हीं किनारे खड़े हो जाओ। बस इतना ही हो सकता है कि तुम अलग हो जाओ इस उपद्रव से, तुम सपने से जाग जाओ।

जिंदगी किसे कहते हो तुम? जन्म और मृत्यु के बीच जो है, उसे तुम जिंदगी कहते हो? महावीर कहते हैं उसे जिंदगी, जो जन्म और मृत्यु के पार है। जन्म और मृत्यु के बीच जो है, वह जिंदगी नहीं, एक लंबा सपना है। जन्म के समय तुम सो जाते हो, मृत्यु के समय जागते हो–तब पता चलता है कि यह जिंदगी एक सपना थी।

खत्म न होगा जिंदगी का सफर

मौत बस रास्ता बदलती है।

मौत रास्ता बदलती जाती है। मौत बस रास्ता बदलती है। एक जिंदगी खत्म हुई, दूसरी जिंदगी शुरू; दूसरी जिंदगी खत्म हुई, तीसरी जिंदगी शुरू। मौत सिर्फ रास्ता बदलती है। जब तक कि तुम जागकर अलग न हो जाओ इस धारा से, इस मूर्च्छा और तंद्रा से…।

नहीं, महावीर ने इस देश को न तो दीनता दी है न दरिद्रता दी है। हां, यह हो सकता है कि महावीर को सुनकर तुमने जो समझा, उससे तुमने दीनता-दरिद्रता में अपने को आरोपित कर लिया हो। महावीर ने तो तुम्हें महाजीवन का सूत्र दिया था। महावीर का जो जीवन-अस्वीकार है, उसे इतना ही कहना चाहिए कि वह भ्रामक जीवन का अस्वीकार है। और भ्रामक जीवन का अस्वीकार वास्तविक जीवन की बुनियाद है। भ्रामक जीवन का अस्वीकार, अध्यात्म की शुरुआत है। और सत्य-जीवन की उपलब्धि अध्यात्म की पूर्णता है।

दूसरा प्रश्न:

प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना, हमें असहज, कठिन और असंभव सा क्यों लगता है?

स्वाभाविक है, क्योंकि अब तक घर से दूर आने को ही जीवन समझा। उसी की आदत बनी। उसी में रंगे, पगे, बड़े हुए। वही हमारे मन का शिक्षण है। वही हमारा संस्कार है। वही हमारे कर्मों की थाती है। वही हमारे सारे जीवनों का निचोड़ है।…बाहर जाने को ही जाना है। कभी भीतर तो गए ही नहीं, एक कदम न उठाया।

तो जहां कदम कभी न डाले हों, जिस तरफ कभी आंख न उठाई हो, उस तरफ जाने में मन अगर डरे, भयभीत हो–अपरिचित, अनजान रास्ता, पता नहीं कैसा हो कैसा न हो–स्वाभाविक है। इसलिए तो अध्यात्म की लोग बातें करते हैं, लेकिन जाते नहीं; चर्चा करके समझा लेते हैं, उतरते नहीं।

चर्चा में कुछ हर्जा नहीं है; मन बहलाव है; मनोरंजन है। सुन लेते, समझ लेते, पढ़ लेते, शास्त्र को पकड़ लेते, मंदिर हो आते, मस्जिद हो आते–भीतर नहीं जाते।

इसीलिए तो लोगों ने बाहर मंदिर और मस्जिद बनाए हैं कि अगर मंदिर-मस्जिद जाने की भी धुन पकड़ जाए तो बाहर ही जाएं; कहीं ऐसा न हो कि किसी धुन में भीतर की तरफ कदम उठा लें और मुश्किल में पड़ जाएं।

रास्ता अपरिचित है, बीहड़ है। फिर, बाहर के रास्ते पर भीड़ है। तुम अकेले नहीं, और सब साथ हैं। भीतर के रास्ते पर तुम अकेले हो जाओगे, वह भी डर है। वहां कोई साथ न जा सकेगा–न मित्र, न संगी, न साथी, न पति, न पत्नी, न बेटे, न मां, न पिता–कोई साथ न जा सकेगा वहां। वहां तो तुम्हें निपट अकेले जाना होगा। जैसे मौत में तुम अकेले जाओगे, वैसे ही स्वयं में भी अकेले जाना होगा। न कोई दूसरा तुम्हारे लिए मर सकता और न कोई दूसरा तुम्हारे लिए भीतर जा सकता। तो जैसे लोग मौत से डरते हैं, वैसे ही लोग ध्यान से डरते हैं। हां, ध्यान की चर्चा वगैरह करनी हो, कर लेते हैं। इस देश में से जिससे पूछ लो, जिससे-जिससे पूछ लो, ध्यान क्या है–जवाब दे देगा; प्रार्थना क्या है, पूजा क्या है–प्रवचन दे देगा। ऐसी कोई बात ही नहीं जिसको इस देश में लोग न जानते हों। ब्रह्म की बात उठाओ, हर कोई, राह चलता ब्रह्मज्ञान बघार देगा। आसान है, उसमें कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन भीतर जाने की बात मत करो। पांव डगमगाते हैं! घबड़ाहट होती है!

पहली तो घबड़ाहट यह कि रास्ता नया! दूसरी और गहरी घबड़ाहट यह कि अकेले हैं! अकेले तो कभी कहीं गए नहीं, जब भी गए किसी के साथ गए। कोई यात्रा अकेले न की, तो अकेले की आदत ही छूट गई है। इसीलिए तो संन्यासी अकेले के अभ्यास के लिए एकांत में चला जाता है। वह सिर्फ बाहर से अकेलेपन का अभ्यास कर रहा है, ताकि धीरे-धीरे भीतर भी अकेले होने की हिम्मत आ जाए, कुशलता आ जाए। बाहर एकांत के अभ्यास का इतना ही प्रयोजन है कि थोड़ा अकेले होने की हिम्मत आ जाए। बैठता है अंधेरी गुफा में, कोई नहीं, अकेला, अंधकार घिरता है, रात आ जाती है, जंगली जानवर सब तरफ, अकेला! धीरे-धीरे रमता है। धीरे-धीरे भूलने लगता है कि दूसरे की जरूरत है। धीरे-धीरे साहस आता, आत्म-विश्वास बढ़ता है कि नहीं, अकेला भी हो सकता हूं। ऐसे बाहर का एकांत फिर भीतर ले जाने में सीढ़ी बन जाता है।

बाहर का एकांत अंत नहीं है–साधन है। इसलिए जिसने यह समझ लिया कि गुफा में बैठना आ गया तो अंतरज्ञान हो गया, वह भटक गया। गुफा में बैठे रहो लाखों वर्षों तक, कुछ भी न होगा। गुफा में बैठना तो सिर्फ एक कदम था। ऐसे ही जैसे कोई तैरना चाहता है, तैरना सीखना चाहता है, तो एकदम से गहरे में नहीं जाता; किनारे पर, जहां गहराई नहीं है, गले-गले पानी है, कमर-कमर पानी है, वहीं तड़फड़ाता है, वहीं सीखता है। सीख ले एक दफा तो फिर गहरे में जाता है। पर सीखकर भी वहीं तड़फड़ाता रहे किनारे पर ही, तो तैरना सीखा न सीखा बराबर। उस किनारे पर तो बिना ही सीखे खड़े हो जाते; गले-गले पानी था, सुरक्षित थे।

तो जो लोग गुफाओं में बैठकर बंद हो गए हैं और सोचते हैं, पा लिया है, वे भी भ्रांति में हैं।

कुछ संसार में खोए हैं, कुछ संन्यास में खो गए हैं।

संन्यास तो केवल साधन है, ताकि तुम्हें थोड़ा भीड़ से बाहर निकाल ले; थोड़ी झलक दे, और इस बात का भरोसा दे कि अकेले में भी मजा है, कि अकेले में और ज्यादा मजा है, कि अकेले की भी धुन है, कि अकेले का भी नशा है, कि मस्ती है, कि ऐसी मस्ती तो कभी न पायी थी जो अकेले में मिली! थोड़ा गुफा में बैठकर, बाजार से दूर, भीड़ से दूर, अपनों से दूर, संसार की चिंताओं और फिक्रों से दूर, एक बार स्वाद आ जाए कि अरे! बाहर के अकेलेपन में इतना स्वाद है तो कितना न होगा भीतर के अकेलेपन में! फिर तो भीतर की भी पुकार उठने लगती है। निश्चित ही कोई गुफा इतनी अकेली नहीं है जितनी अकेली भीतर की गुफा है। क्योंकि गुफा में भी वृक्ष हिलते हैं बाहर, आवाज होती है, हवा गुजरती है, कोयल गीत गाती है, सिंह दहाड़ता है। कोई है! आकाश में चांदत्तारे हैं! हिमालय की गुफा में भी बैठे हो तो हवाई जहाज निकल जाता है। कोई है! कोई इतने अकेले नहीं हो, कहीं भी इतने अकेले नहीं हो। संसार किसी न किसी रूप में अपनी खबर भेजता ही रहता है। एक चींटी काट जाती है, एक बिच्छू आ जाता है–उचककर खड़े हो जाते हो! कोई है! एकदम अकेले नहीं हो!

भीतर की गुफा में कोई भी नहीं है। न कोई हवाई जहाज गुजरता, न कोई चींटी चढ़ती, न कोई बिच्छू आता, न कोई सिंह दहाड़ता, न वृक्षों में हवा की सरसराहट होती, न पानी का कलकल-नाद है–कोई भी नहीं है, कोई भी नहीं है! वहां बस विराट, विराट, निस्तब्ध, निबिड़ तुम हो! बड़ा गहन, परम गहन शून्य है वहां! वहां ऐसी शांति है जैसी तब थी जब परमात्मा ने सोचा भी न था, “अकेला हूं, संसार को बनाऊं’, वैसी शांति!

उस घड़ी में तुम फिर पहुंच जाते हो जहां परमात्मा रहा होगा, संसार को बनाने के पहले। तुम प्रथम को छू लेते हो। तुम उस सूर्योदय के क्षण में पहुंच जाते हो, जहां संसार शुरू न हुआ था; जहां अभी संसार प्रगट न हुआ था, बीज में छिपा था; जहां ब्रह्मांड अभी अंड में खोया था; जहां अभी सपना परमात्मा का फैलना शुरू न हुआ था। तुम सृष्टि के प्रथम चरण में पहुंच जाते हो। वैसी गहन शांति है। अनंत शांति है। शाश्वत शांति है।

स्वाभाविक, घबड़ाहट होती है। वह शांति वैसी ही है, जैसी मृत्यु में है। सब खो जाता है, तो डर लगता है। इसलिए भीतर जाने की लोग बातें सुनते हैं, विचार भी करते हैं कि कभी जाएंगे।

दो व्यक्ति बात कर रहे थे। एक-दूसरे के ऊपर अपने-अपने जीवन की छाप डालने की चेष्टा कर रहे थे। बड़ी हांक रहे थे। एक ने कहा कि मैं रोज सुबह पांच बजे उठता हूं। दूसरे ने कहा, यह कुछ भी नहीं, मैं तीन बजे उठता हूं। ऋषि-मुनि सदा तीन बजे ही उठते रहे। पांच बजे भी कोई उठना है! आलसी हो! मैं तीन बजे उठता हूं–स्नान, ध्यान, पूजा-पाठ, फिर घूमने जाता हूं सूर्योदय के समय; फिर आकर शास्त्र-अध्ययन, मनन; फिर दफ्तर जाता हूं; फिर दफ्तर से लौटता हूं; फिर खेलने जाता हूं; फिर सांझ घर आता हूं–बच्चों के पास बैठना, चर्चा, संगीत; फिर ठीक समय पर, नौ बजे सो जाता हूं।

दूसरा सुनकर बड़ा चकित हुआ। उसने कहा, “कब से ऐसा कर रहे हो?’ वह व्यक्ति बोला, “यह मत पूछो। कल से शुरू करने का इरादा है।’

बस लोग इरादे बांधते हैं। ध्यान-करेंगे! जिसने कहा, करेंगे, चूका। करो! इस क्षण है क्षण। उतरो, योजना मत बनाओ। योजना मन का धोखा है। मन बड़ा चालाक है। वह कहता है, कल करेंगे!

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, संन्यास में उतरना है। मैं कहता हूं, “उतर जाओ, उतरना है तो! कौन रोक रहा है? मैं तो नहीं रोक रहा!’ वे कहते हैं, “नहीं, उतरेंगे!’ फिर तुम्हारी मर्जी। कल पर तुम्हारा भरोसा है? कल होगा? ऐसा आश्वस्त हो? बीच में मौत आ जाएगी तो क्या करोगे? कहोगे कि संन्यास लेना है, जरा ठहर?

संन्यासिनी है हमारी: गीता। उसके पिता संन्यास लेना चाहते थे। कोई सालभर से मुझसे कहते थे। सुनते हैं मुझे कोई दस वर्षों से। अभी कोई दो महीने पहले आए थे। महीनेभर यहां रहे। दो तीन बार मिलने आए। मैंने उनसे कहा, “अब किसलिए देर कर रहे हो?’ वे कहते हैं, “कुछ देर नहीं है बस…! अब आप तो समझते हैं। लेना है, और लेकर रहूंगा!’ आखिरी बार मुझे मिलने आए थे, मैंने उनसे कहा कि “पक्का है, कल होगा?’ उन्होंने कहा, “अभी तो कोई बूढ़ा नहीं हो गया हूं।’ लेकिन गए! वह आखिरी मिलना हुआ। उस दिन यहां से उठकर गए, अस्पताल में ही गए सीधे। रात हार्ट-अटैक हो गया। फिर बचे नहीं।

कल पर टालते हैं, कल कर लेंगे। जिसने कल पर टाला, वह असल में करना नहीं चाहता। अच्छा हो कि कहो, करना नहीं है। तो भी कम से कम ईमानदारी तो होगी, सत्य तो होगा, प्रामाणिकता तो होगी। लेकिन बेईमानी बड़ी है, तुम कहते हो, करेंगे! इससे तुम छिपाते हो। करना भी नहीं चाहते और यह भी अपने को आश्वासन दिला लेते हो कि कोई बुरा आदमी थोड़े ही हूं, धार्मिक आदमी हूं, करना तो है ही।

लोग बहाने खोजते हैं–न मालूम कितने-कितने! पति कहता है कि पत्नी रोकती है। कौन किसको रोक सका है: कौन किसको रोक सका है, कब रोक सका है! मौत जब आएगी तो पत्नी रोकेगी? और किसी चीज में पत्नी नहीं रोक पाती। पत्नी जिंदगीभर से रोक रही है कि दूसरी औरतों को मत देखो, नहीं रोक पायी। तुम कहते हो, क्या करें, मजबूरी है! मगर जब कहती है, ध्यान मत करो–तत्क्षण राजी हो जाते हो, बिलकुल ठीक है। पत्नी रोकती है, क्या करें!

तुम जिसमें रुकना चाहते हो, किसी का भी बहाना खोज लेते हो। जिसमें तुम रुकना नहीं चाहते, तुम कोई बहाना मानने को राजी नहीं होते। तुम कहते हो, विवशता है। वासना पकड़ लेती है, क्या करें? चिकित्सक रोक रहा है कि ज्यादा खाना मत खाओ। पत्नी रोक रही है, बच्चे समझा रहे हैं, पड़ोसी मित्र समझाते हैं।

एक मेरे मित्र हैं, खाए चले जाते हैं। बहुत भारी हो गई देह, सम्हाले नहीं सम्हलती। चिकित्सक समझा-समझाकर परेशान हो गया है। अभी आखिरी बार चिकित्सक के पास गए थे तो कहने लगे कि बड़ी अजीब-सी बात है! रात सोता हूं तो आंख खुली की खुली रह जाती है। चिकित्सक ने कहा कि रहेगी, चमड़ी इतनी तन गई है कि जब मुंह बंद करते हो तो आंख खुल जाती है; जब मुंह खोले रहते हो तो थोड़ी चमड़ी शिथिल रहती है, तो आंख बंद रहती है। होगा! सारी दुनिया रोक रही है। खुद भी कहते हैं, रोकना चाहते हैं, मगर क्या करें, विवशता है!

ऐसी विवशता कभी ध्यान के लिए पकड़ती है? ऐसी विवशता कभी संन्यास के लिए पकड़ती है? ऐसी विवशता कभी आत्मखोज के लिए पकड़ती है? नहीं, तब तुम बहाने खोज लेते हो। तुम कोई न कोई रास्ता खोज लेते हो–बच्चे छोटे हैं, विवाह करना है; जैसे कि बच्चे तुम्हें उठा-उठाकर बड़े करने हैं। वे अपने से बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी विवाह कर लेंगे। तुम जरा उनको विवाह से रोककर तो देखना! तब तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारे रोके नहीं रुकते, करने का तो सवाल ही दूर है। तुम्हें कौन रोक सका? तुम बच्चों को कैसे रोक सकोगे?

कोई किसी को रोकता नहीं, लेकिन आदमी बेईमान है। आदमी रास्ते खोज लेता है। जो तुम नहीं करना चाहते उसके लिए तुम दूसरों पर बहाना डाल देते हो। जो तुम करना चाहते हो, तुम करते ही हो। इसे ईमानदारी से समझना उचित है।

लोग ध्यान की बात करते हैं। लोग आत्मा की बात करते हैं, परमात्मा की बात करते हैं। वे कहते हैं, किसी दिन यात्रा करनी है, तैयारी कर लें! यात्रा कभी होती दिखाई नहीं पड़ती। वे टाइम-टेबल ही पढ़ते रहते हैं। कुछ लोग हैं जो टाइम-टेबल पढ़ते हैं।

जाओ भी! कभी यात्रा पर भी निकलो! डर स्वाभाविक है। डर के रहते भी जाना होगा। डर के रहते ही जाना होगा। अगर तुमने सोचा कि जब डर मिट जाएगा तब जाएंगे, तो तुम कभी जाओगे न।

कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब

शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया।

–बस परवाना शमा तक जाता हुआ दिखाई पड़ता है, फिर थोड़े ही दिखाई पड़ता है। फिर तो एक झपट और एक लपट–और गया!

कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब

शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया।

बस परवाने को लोग शमा तक ही देख पाते हैं। जब शमा छू गई, एक लपट–और समाप्त!

लोगों ने ध्यान के पास जाते लोगों को देखा है। बस, फिर खो जाते देखा है। इसलिए घबड़ाहट है। लोगों ने देखा वर्द्धमान को जाते हुए ध्यान की तरफ; फिर एक लपट–वर्द्धमान खो गया! जो आदमी लौटा, वह कोई और ही था। महावीर कुछ और ही हैं, वर्द्धमान से क्या लेना-देना! वर्द्धमान तो राख हो गया, जल गया ध्यान में! सिद्धार्थ को जाते देखा; जो लौटा–बुद्ध। वह कोई और ही।

इसलिए घबड़ाहट होती है कि तुम कहीं मिट गए! मिटोगे निश्चित! लेकिन यह भी तो देखो कि मिटकर जो लौटता है, वह कैसा शुभ है, कैसा सुंदर है!

परवाने को जाते देखा है तुमने, लपट के सौंदर्य को भी तो देखो! परवाना, जब खो जाता है प्रकाश में, उस प्रकाश को भी तो देखो! तो घबड़ाहट कम होगी। इसलिए सदगुरु का अर्थ है: किसी ऐसे व्यक्ति के पास होना, जो खो गया; ताकि तुम्हें भी थोड़ी हिम्मत बढ़े, खो जाने में थोड़ा रस आए। तुम कहो कि चलो, देखें, चलो एक कदम हम भी उठाएं।

मिटना तो होता है, लेकिन मिटने के पार कोई जागरण भी है। सूली तो लगती है, लेकिन सूली के पीछे कोई पुनरुज्जीवन भी है। शास्त्र ही पढ़ोगे तो अड़चन होगी। शास्त्र में कहानी ही वहां तक है, जहां तक परवाना शमा तक जाता है। उसके आगे की कहानी शास्त्र में हो नहीं सकती। कोई महावीर खोजो! कोई बुद्ध खोजो! किसी ऐसे आदमी को खोजो, जो वहां तक गया हो; परवाना मिट भी गया हो और फिर भी उस मिटे से उठती हो धूप, उठती हो गंध, उठती हो सुवास; कोई जो “न’ हो गया हो और फिर भी जिसमें होने की परम वर्षा हो रही हो! कोई ऐसा व्यक्ति खोजो!

सदगुरु न मिले तो शास्त्र। जब तक सदगुरु मिले, तब तक सदगुरु। शास्त्र तो मजबूरी है। वह तो दुर्भाग्य है। वह तो अंधेरे में टटोलना है। शास्त्र पढ़-पढ़कर घबड़ाहट होगी। और घबड़ाहट को आश्वासन शास्त्र से न मिलेगा; लाख शास्त्र कहे, मगर किताब का क्या भरोसा! जीवंत कोई चाहिए!

इसलिए जगत में जब भी धर्म की लपट आती है, वह किसी जीवंत व्यक्ति के कारण आती है। महावीर जब हुए, लाखों लोग संन्यस्त हुए! एक आग लग गई सारे जंगल में! वृक्ष-वृक्षों पर आग के फूल खिले! जिनने कभी सपने में भी न सोचा होगा, वे भी संन्यस्त हुए!

तुमने कभी जंगल देखा है, पलाश-वन देखा है? जब पलाश के फूल खिलते हैं तो पूरा जंगल गैरिक हो उठता है, लपटों से भर जाता है! ऐसा जब महावीर चले इस जमीन पर थोड़े दिन, वे दिन परम सौभाग्य के थे। वैसे चरण इस पृथ्वी पर बहुत कम पड़ते हैं। तो जिनको भी उनकी गंध लग गई, जिनको भी थोड़ी-सी उनकी हवा लग गई, उन्हीं को पर लग गए! वही परवाने हो गए! फिर उन्होंने फिक्र न की। इस आदमी को देखकर भरोसा आ गया। उन्होंने कहा कि ठीक है, तो हम भी छलांग लेते हैं! एक श्रद्धा जन्मी। श्रद्धा शास्त्र से कभी पैदा नहीं होती; शास्त्र से ज्यादा से ज्यादा विश्वास पैदा होता है। श्रद्धा के लिए कोई जीवंत चाहिए, कोई प्रमाण चाहिए, कोई प्रत्यक्ष चाहिए–जिसमें वेद खड़े हों! कोई शास्ता चाहिए, जिसमें शास्त्र जीवंत हों! फिर जब महावीर खो जाते हैं तो लोग शास्त्रों में उनकी वाणी इकट्ठी कर लेते हैं, फिर पूजा चलती है, पाठ चलता है, पंडित इकट्ठे होते हैं, सब मुर्दा हो जाता है, फिर सब मरघट है। महावीर जीवित थे तब जिन-धर्म जीवित था; फिर तो सब मरघट है।

और ध्यान रखना, हताश मत होना; ऐसा कभी भी नहीं होता कि पृथ्वी पर कोई चरण न हों जिनकी वजह से पृथ्वी धन्यभागी न हो। ऐसा कभी नहीं होता। इसलिए यह मत सोचना कि क्या करें, अभागे हैं हम, महावीर के समय में न हुए! महावीर के समय में भी तुम्हारे जैसे बहुत अभागे थे, जो महावीर को न देख पाए। महावीर उनके गांव से गुजरे और उन्होंने न देखा। उन्होंने महावीर में कुछ और देखा। किसी ने देखा: “यह आदमी नंगा खड़ा है, अनैतिक है। अश्लीलता है यह तो। परम साधु हो चुके हैं; मगर नग्न खड़ा होना, यह तो समाज के विपरीत व्यवहार है।’ खदेड़ा महावीर को गांव के बाहर, पत्थर मारे। जिसके चरणों में मिट जाना था, उसका विरोध किया। और यह मत सोचना कि वे नासमझ लोग थे–वे तुम्हीं हो। वे तुम जैसे ही लोग थे। इसमें कुछ फिर फर्क नहीं है, जरा भी फर्क नहीं है। और जब उन्होंने ऐसे तर्क खोजे थे तो उनका भी कारण था, कि यह आदमी वेद-विरोधी है–और वेद तो परम ज्ञान है! अब शास्ता सदा ही शास्त्र-विरोधी होगा। उसका कारण है, विरोधी होने का; क्योंकि जब जीवंत घटना घट रही हो धर्म की तो तुम बासी बातें मत उठाओ। बासी बातों से क्या लेना-देना? जब ताजा भोजन तैयार हो तो ताजा भोजन बासी भोजन के विपरीत होगा ही, क्योंकि तुम बासे को फेंक दोगे। तुम कहोगे, जब ताजा मिल रहा है तो बासे को कौन खाए! बासे को तो तभी तक खाते हो जब ताजा नहीं मिलता; मजबूरी में खाते हो।

जब शास्ता पैदा होता है तो शास्त्रों को लोग हटा देते हैं। वे कहते हैं, “रखो भी, फिर पीछे देख लेंगे! यह घड़ी पता नहीं कब विदा हो जाए! अभी तो जो सामने मौजूद हुआ है, अभी तो जो प्रगट हुआ है, अवतरित हुआ है, अभी तो जो लपट जीवंत खड़ी है–इसके साथ थोड़ा रास रचा लें, थोड़ा खेल खेल लें; इसके साथ तो थोड़े पास हो लें। यह तो थोड़ा सत्संग का अवसर मिला है, शास्त्र तो फिर देख लेंगे। कोई जल्दी नहीं है, जन्म पड़े हैं, जीवन पड़े हैं।’

तो जब भी कोई शास्ता पैदा होता है, पुराने शास्त्रों को माननेवाले लोग उसके विपरीत हो जाते हैं, क्योंकि उस आदमी के कारण शास्त्रों को लोग हटाने लगते हैं। शास्त्रों को हटाते हैं तो पंडितों को हटाते हैं, तो सारा व्यवसाय हटाते हैं। कठिन हो जाता है। पंडित दुश्मन हो जाते हैं। फिर जब यह शास्ता मर जाता है, वही पंडित जो इसके दुश्मन थे, मरघट पर इकट्ठे हो जाते हैं–श्रद्धांजलि चढ़ाने को। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं। उनकी दुश्मनी जीवंत से थी, शास्त्र से थोड़े ही थी। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं।

यह बड़े मजे की बात है। महावीर तो क्षत्रिय, लेकिन महावीर के जितने गणधर, सब ब्राह्मण! तो बड़ी हैरानी की बात है। क्या, मामला क्या है? महावीर के मरते ही ब्राह्मण झपटे, उन्होंने कहा, यह तो अच्छा अवसर मिला, फिर शास्त्र बना लो। उन्होंने तत्क्षण शास्त्र खड़े कर दिए। जैन धर्म निर्मित हो गया। अब अगर कोई पुनः जीवंत धर्म को लाए, तो फिर शास्त्री, पंडित, शास्त्र का पूजक, फिर कठिनाई में पड़ जाता है, फिर मुश्किल में पड़ जाता है। वह कहता है, यह फिर गड़बड़ हुई। फिर उसके व्यवसाय में व्याघात हुआ।

ध्यान रखना, भीतर अगर तुम जाना चाहते हो तो कोई न कोई द्वार कहीं न कहीं पृथ्वी पर सदा खुला है। तुम जरा आंखें खुली रखना, शास्त्रों से भरी मत रखना; तुम जरा मन ताजा रखना, शब्दों से बोझिल मत रखना; सिद्धांतों से दबे मत रहना, जरा सिद्धांतों के पत्तों को हटाकर तुम जीवंत धारा को देखने की क्षमता बनाए रखना। तो कहीं न कहीं तुम्हें कोई सदगुरु मिल जाएगा। उसके पास ही तुम्हारा भय मिटेगा भीतर जाने का। अभी तो तुम शास्त्र पढ़ते रहो, मंदिर में घंटियां बजाते रहो, पूजा करते रहो, अर्चना के थाल सजाते रहो–सब धोखा है।

दिल को महवे-गमे-दिलदार किए बैठे हैं

रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं।

लोग बनते हैं कि मद्यप हैं, कि शराब पिए हैं, कि मस्ती में हैं।

रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं! खयाल ही देते हैं कि बड़ी मस्ती में हैं; लेकिन गौर से भीतर देखो तो हृदय में सिवाय घावों के और कुछ भी नहीं, जहर पिए बैठे हैं।

मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, जो तुम्हें लोग पूजा और प्रार्थना में डोलते हुए मालूम पड़ते हैं, धोखे में मत पड़ जाना, जरा उनके भीतर देखना; कुछ भी नहीं डोल रहा है! वे नाहक का व्यायाम कर रहे हैं। जब भीतर कोई डोलता है तो फिर क्या मंदिर और क्या मस्जिद! फिर पूजा के थाल क्या सजाना। फिर तो जहां भी वे होते हैं, वहीं डोलते हैं। कबीर ने कहा है: “जहां-जहां डोलूं सो-सो परिक्रमा, खाऊं-पिऊं सो सेवा।’ परमात्मा की सेवा हो गई, खा-पी लिया, मजे से खा-पी लिया, चढ़ गया भोग। और कहां जाना है?

जिस दिन तुम्हारे जीवन में मधु का अवतरण होता है, जिस दिन तुम्हारे जीवन में अंतरात्मा की झलक भी मिलने लगती है, उस दिन तुम जहां हो वहीं मंदिर है। अंतर्यात्रा! तुम्हारी ही देह मंदिर बन जाती है।

“प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना, हमें असहज, कठिन, असंभव-सा क्यों लगता है?’

स्वाभाविक है। कभी गए नहीं उस द्वार, कभी चखा नहीं उसे, कोई संबंध न बना, अजनबी हो–इसलिए। थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करो। बैठो उन लोगों के पास जो पहले से पीये हों। थोड़ी उनकी मस्ती को संक्रामक होने दो। थोड़े उनके साथ डोलो, उठो, बैठो, परिक्रमा करो, सेवा करो। थोड़ा झुको उनके पास, जो लबालब हैं और ऊपर से बहे जा रहे हैं। थोड़े न बहुत छींटे तुम तक भी पहुंच ही जाएंगे।

बस इतनी ही चेष्टा है यहां कि थोड़े छींटे तुम तक पहुंच जाएं। एक बार भी तुम्हें भीतर की धुन का जरा-सा नशा आ जाए, फिर तुम न रुकोगे, फिर तुम्हें कोई भी न रोक पाएगा। फिर कोई कभी किसी को रोक ही नहीं पाया।

तीसरा प्रश्न:

मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से, पर मिला, और मिल रहा है, और अकारण, और अयाचित, और असमय, और भरपूर–वर्षा की भांति!?

अब इससे प्रश्न मत उठाओ। डूबो! अब चिंता मत करो: कहां से मिल रहा है, क्यों मिल रहा है! परमात्मा जब मिलता है तो ऐसे ही बेबूझ मिलता है। तुम्हारे हिसाब-किताब से थोड़े ही मिलता है! तुमने कुछ किया, इसलिए थोड़े ही मिलता है। तुम ने चाहा…!

अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर

अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।

बस प्यास पूरी हो, तो प्याले भर जाएंगे।

अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर!

प्यास हो तो परमात्मा तुम्हें खोजता है। फिर गिड़गिड़ाना थोड़े ही पड़ता है! फिर भिखारी की तरह रोना थोड़े ही पड़ता है, झोली थोड़ी फैलानी पड़ती है!

अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर!

कहीं भी बैठे होओ, अलग कि भीड़ में, क्या फर्क पड़ता है! जहां प्यास है, वहां साकी की नजर पहुंच ही जाती है। प्यास ही उसके लिए निमंत्रण है। प्यास ही प्रार्थना है। जो प्यास नहीं जानते, वे और शब्द दोहराते हैं। जिनको प्यास की समझ आ गई, वे सिर्फ प्यास ही प्यास में डूब जाते हैं। वे इतने प्यासे हो जाते हैं कि भीतर कोई प्यासा भी नहीं होता, बस प्यास ही प्यास होती है–इस पार से उस पार, रोएं-रोएं में, धड़कन-धड़कन में, श्वास-श्वास में!

अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर

अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।

अगर प्यास पूरी है तो तुमने प्याला तो तैयार कर दिया। अब, अब तुम फिक्र छोड़ो! अब शराब भी आ जाएगी। अब कोई भर भी देगा प्याले को, तुम प्याला तो बनाओ!

सदा ही परमात्मा अकारण घटित होता है। इससे तुम गलत मत समझ लेना मुझे। तुम यह मत समझ लेना कि फिर क्या करना। जब मैं कहता हूं कि अकारण घटित होता है, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम जो भी करते हो, वह तो ना-कुछ है। जब परमात्मा घटित होगा तो तुम जानोगे, अरे! मैंने कुछ भी तो नहीं किया था! यद्यपि तुमने बहुत किया था, लेकिन अब तुम जानोगे कि कुछ भी तो न किया था। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि जो किया था अब उसकी बात भी करनी फिजूल है। मिला है खजाना अकूत, जो तुमने किया था वह कौड़ी-कौड़ी था। अब उसकी बात भी उठाने में शर्म लगेगी। फिर तुम यह थोड़े ही कहोगे परमात्मा से कि “सुनो जी! कितने उपवास किए, याद है? कि कितने ध्यान में बैठता था, भूल तो नहीं गए? कितना दान-पुण्य किया था!’

सुना है मैंने, एक कंजूस मरा। स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। द्वारपाल ने पूछा कि “कुछ पुण्य वगैरह किए हैं?’ ध्यान रखना, ठीक से कहानी सुन लेना, पूछेगा, तुम भी जब जाओगे! और वही गलती मत कर देना जो इस आदमी ने की। उसने कहा, “हां किये हैं।’ बस यही तो पापी का लक्षण है। अगर वह कह देता “कहां! क्या पुण्य! सामर्थ्य कहां! करने को मेरे पास क्या था!’ द्वार खुल जाते, लेकिन चूक गया। उसने कहा, “किए हैं।’ तो द्वारपाल ने कहा, “फिर ठहरो। फिर खाते-बही देखने पड़ेंगे। हिसाबी-किताबी आदमी हो।’ खाते-बही देखे तो पता चला, एक भिखारी को चार पैसे उसने दान दिए थे।

तुम कहोगे “बस इतना?’ लेकिन “बस इतना’ ही सिद्ध होता है जो तुमने किया है। क्या किया है? कभी एक पैसा किसी भिखारी को दे दिया है। और उसी की जेब काटी थी पहले; नहीं तो भिखारी ही कैसे होता, यह भी तो सोचो। फिर उसी को समझाने लिए एक पैसा भी दे दिया है कि उपद्रव न कर, हड़ताल वगैरह पर मत जा, शांत रह। क्या किया है तुमने? चार पैसे भिखारी को दिए थे!

द्वारपाल चिंतित हो गया। उसने अपने सहयोगी से पूछा, बोल भाई, क्या करें? उसने कहा, “करना क्या है! चार पैसे वापस दो और कहो कि नर्क जा, नर्क जा, खत्म कर मामला, हिसाब साफ कर!’

तुम्हारा किया कितना हो सकेगा? चम्मच-चम्मच से सागर के किनारे हम बैठे हैं। चम्मचें भर रहे हैं, इससे कहीं सागर उलिचता है! इससे कहीं कुछ होता नहीं।

लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि चलो, झंझट मिटी, चार पैसे भी अब देने की कोई जरूरत नहीं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं, देना! दिल खोलकर देना! लेकिन आखिर में याद रखना कि वे चार पैसे ही दिये। कितना ही दिया हो, सब दे दिया हो, सब लुटा दिया हो, तो भी चार पैसे ही तुम्हारे पास थे, ज्यादा तो तुम्हारे पास ही न था, ज्यादा तुम देते भी कैसे!

इसलिए जिन्होंने पाया है, उनको हमेशा लगा: कुछ भी तो नहीं किया, प्रसाद-स्वरूप है। यहीं भूल पैदा होती है। सुननेवाला समझ लेता है, चलो तब अब यह भी झंझट नहीं। अब कुछ करना ही नहीं; जब मिलना है प्रसाद रूप तो जब मिलेगा, मिलेगा। लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो अपनी समग्र चेष्टा करते हैं। मिलता प्रसाद रूप है लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो समग्र चेष्टा करते हैं।

इसलिए चिंता मत करो। संकल्प से मिला या समर्पण से, यह भी छोड़ो। कैसे मिला, इसकी क्या फिक्र! मिला! अब तो थोड़ा नाचो! अब विचार छोड़ो, अब तो थोड़ा समारोह करो! अब तो कुछ उत्सव करो!

जमीं पे जाम को रख दे, जरा ठहर साकी

मैं इस पे हो लूं तसद्दुक तो फिर उठा के पिऊं।

अब तो जरा बलिहारी हो जाओ। कहो कि जरा रख जमीन पर, पहले मैं नाच लूं, थोड़ा बलिहारी हो जाऊं इस पर, फिर उठाकर पीऊं। अब तो थोड़ा नाचो!

ध्यान रखना, प्रसाद जब क्षणभर को भी मिलता हो, कणभर को भी मिलता हो–तुम नाचना! तुम्हारे नाचने से प्रसाद बढ़ेगा। उत्सव में ही बढ़ता है। तुम्हारी प्रसन्नता में ही बढ़ता है। तुम्हारे अनुग्रह के भाव में बढ़ता है। सिकुड़ मत जाना। सोचने मत लगना कि कैसे मिला, कहां से मिला, क्यों मिला, मैंने क्या किया था, अब मैं क्या करूं कि और ज्यादा मिले! इसमें तो खो जाएगा; जो मिला है वह भी खो जाएगा; जो द्वार खुला था क्षणभर को वह भी बंद हो जाएगा–तुम्हारे सोच-विचार में! सोच-विचार से तो पर्दे पड़ जाते हैं। नाचना! गाना! गुनगुनाना! जो मिला है, उस पर बलिहारी जाना। कहना: जमीं पर जाम को रख दे, जरा ठहर साकी! परमात्मा से भी कहना, “जल्दी मत कर, रख! जरा मैं नाच तो लूं! मैं इस पे हो लूं तसद्दुक तो फिर उठाके पिऊं। पहले बलिहारी जाऊं, पहले नाचूं, पहले थोड़ा उत्सव मना लूं, तेरा स्वागत कर लूं! अकारण मिला है! बिना मेरे कुछ किए मिला है। तो ऐसे ही उठाकर पी लेना तो अशोभन होगा। शोभा न होगी। ऐसे ही उठाकर पी लेना असंस्कृत होगा। थोड़ा नाचकर, गुनगुनाकर, थोड़ी गहन कृतज्ञता में डूबकर!

“मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से!’

भाड़ में जाने दो! मालूम करने की फिक्र ही मत करो। मिल गया! कैसे मिलती है कोई चीज, यह तो तब सोचना चाहिए जब न मिली हो। तब आदमी साधन खोजता है। तब कहता है, कहां से जाऊं! चलो मंजिल ही तुम्हें खोजती आ गई, अब तुम फिक्र छोड़ो; कहीं ऐसा न हो कि तुम उधेड़-बुन में पड़ जाओ, और मंजिल हट जाए! क्योंकि जो आ गई है अपने से तुम्हारे पास, अपने से हट भी जा सकती है।

“…पर मिला और मिल रहा है–और अकारण!’

सदा ही अकारण मिलता है। अकारण का बोध बनाए रखना! क्योंकि मन की वृत्ति है कि वह सोचने लगता है जल्दी कि जो मिल रहा है वह कारण से मिल रहा है।

अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति हुआ: मार्गन। वह एक भिखारी को हर महीने सौ डालर देता था। भिखारी पर प्रसन्न था। कुछ भिखारी की आवाज में बड़ी जान थी। जब भिखारी गीत गाता तो…। तो उसने कहा कि अब तुझे बार-बार आने की जरूरत नहीं, एक तारीख को सौ डालर तू ले ही जाया कर। तो वह नियम से सौ डालर एक तारीख को ले आता था। ऐसा वर्षों चला। एक दिन एक तारीख को…वह एक तारीख को एक दिन भी नहीं चूकता था…वह आकर एक तारीख को खड़ा हुआ दफ्तर में और मैनेजर ने कहा कि भई सुनो, अब से पचास डालर! उसने कहा, “क्या? पचास डालर? क्या मतलब?’ उसने कहा कि ऐसा है कि मालिक की लड़की की शादी हो रही है, पैसे की उन्हें खुद ही तंगी है। धंधा भी घाटे में जा रहा है। थोड़ी मुसीबत में हैं। इसलिए पचास! उसने कहा, “हद्द हो गई! मेरे रुपयों पर लड़की की शादी की जा रही है? और घाटा तुम्हें लगे, भोगूं मैं? समझा क्या है? बुलाओ मालिक को!’

मन की वृत्ति है कि अगर तुम्हें मिलता चला जाए तो तुम सोचते हो, तुम्हारी पात्रता है। जो तुम्हें मुफ्त मिलता है, तुम धीरे-धीरे सोचने लगते हो, यह भी मेरी पात्रता है। तुम न केवल यह सोचने लगते हो बल्कि तुम प्रतीक्षा करते हो कि मिलना ही चाहिए। अगर न मिले तो शिकायत शुरू हो जाती है।

सोचो! कहां धन्यवाद और कहां शिकायत! कहां आभार और कहां शिकवे! लेकिन मन की यह आदत है। और इस आदत के कारण बहुत-से लोग परमात्मा के द्वार से लौट जाते हैं। सत्य आ ही रहा था, करीब आ ही रहा था कि उनकी अकड़ आने लगी। अकड़ आई कि अरे, जब आ रहा है तो निश्चित ही हमने अर्जित किया होगा! जब आ रहा है तो कोई कारण होगा! कुछ हममें होगी खूबी, तभी आ रहा है!

सदा याद रखना, तुम जब भी पात्रता के बोध से भर जाओगे, तभी अपात्र हो जाओगे। जब तक अपात्र होने का तुम्हें स्मरण रहेगा, तुम्हारी पात्रता बढ़ती रहेगी। इस विरोधाभास को महामंत्र की तरह स्मरण रखना।

और, जिन्होंने भी उसको पीया है, उनमें से कोई भी नहीं बता सका कि क्यों और क्या! पीने के पहले की सब बातें हैं। पीने के पहले के लिए सब रास्ते और साधन हैं। पी लेने के बाद तो फिर राज है, फिर तो रहस्य है।

क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा

ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे।

क्या देखा है लोगों ने परमात्मा में छलकते हुए? उसे कहा नहीं जा सकता।

ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे।

क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा

वहां जाकर लोग चुप हो गए हैं।

वाणी की एक सीमा है। बुद्धि की एक सीमा है। जहां तक साधन है वहां तक बुद्धि की सीमा है। जहां साध्य आया, बुद्धि की सीमा गई। क्योंकि बुद्धि स्वयं साधन है। बुद्धि खोज का उपाय है। जब पहुंच गए, तो बुद्धि की कोई जरूरत न रही।

तो इस सौभाग्य को बढ़ाना! और बढ़ाने की कला यह है कि उसे अकारण ही रहने देना। कोई कारण मत खोजना, समझ में न आए, नासमझी में रस लेना। समझने की जरूरत कहां है! समझ कहीं खराब न कर दे, कहीं विश्लेषण खंडित न कर दे! उसे राज ही रहने देना। और तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जो तुम्हें मिला है, वह मिला ही नहीं, वह तुम्हारे भीतर आवास कर लिया है। वह तुम्हारी आंखों में समा गया। वह तुम्हारी आंखों का नूर हो गया! वह तुम्हारे हृदय की धड़कन बन गया। और ऐसा ही नहीं कि तुम्हें मिला है; अगर तुमने उसे ठीक से पीया तो तुम्हारे द्वारा दूसरों पर भी छलकने लगेगा।

हम लिए फिरते हैं आंखों में चमन ऐ बागवां

जिस तरफ उठी निगाहे-शौक गुलशन हो गया।

और जहां आंख उठ जाती है ऐसे आदमी की, वहीं बगीचे हो जाते हैं, वहीं बगीचे खिल जाते हैं।

जिस तरफ देख लोगे, वहीं परमात्मा का फैलाव हो जाएगा। जिस पर तुम्हारी नजर पड़ जाएगी, वह भी चौंक जाएगा। जिसके हृदय में तुम गौर से देख लोगे, वहां भी कोई बीज तड़फकर टूट पड़ेगा और अंकुर हो जाएगा।

पर सम्हालना, मन की आदतें बड़ी पुरानी हैं! मन कर्ता बनना चाहता है। वह कहता है, मैंने किया; मेरे कर्मों का फल है, देखो! बस वहीं चूक हो जाएगी। जल्दी ही तुम पाओगे, आई थी जो झलक, खो गई; दिखा था जो प्रकाश अब दिखाई नहीं पड़ता; खुला था जो द्वार, बंद हो गया!

ऐसा न हो पाए। अपने को अपात्र, और भी अपात्र, अपने को ना-कुछ, कर्ता नहीं, सिर्फ भोक्ता जानना–परमात्मा का भोक्ता! प्यासा जानना, अधिकारी नहीं। और, और-और वर्षा होगी, और-और घने मेघ घिरेंगे, और-और तुम तृप्त होओगे, महातृप्त होओगे।

आखिरी प्रश्न:

जब आपको सुनता हूं तो आपका प्रत्येक शब्द दिल की गहराई तक उतर जाता है और हलचल पैदा करता है। लेकिन जब आपको पढ़ता हूं तो वह दिमागी खेल बनकर रह जाता है। कृपया बताएं कि ऐसा क्यों होता है?

साफ-साफ है। गणित बिलकुल सीधा है। जब तुम पढ़ते हो तब तुम्हीं होते हो, तब मैं नहीं होता। जो तुम पढ़ते हो, वह तुम ही तुम हो। दिमागी खेल बनकर रह जाता है। जब तुम मुझे सुनते हो तो कभी-कभी तुम्हारे जाने-अनजाने मैं भी तुम में प्रवेश कर जाता हूं। कम ही तुम ऐसा मौका देते हो। लेकिन कभी-कभी चूक तुमसे हो जाती है। कभी-कभी बे-भान, तुम जरा दरवाजा खुला छोड़ देते हो, मैं भीतर आ जाता हूं।

इसलिए तुम जब मुझे सुन रहे हो तो बात और है। इसलिए सत्य सदा कहा गया है, लिखा नहीं गया। लिखा जा नहीं सकता। कहना भी बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी कहा जा सकता है, थोड़ा-सा कहा जा सकता है। ऐसी थोड़ी-सी खबर दी जा सकती है। क्योंकि कहने में कई बातें सम्मिलित हैं, जो लिखने में खो जाती हैं।

जब तुम किताब पढ़ोगे तो किताब तो मुर्दा होगी। किताब तुम्हारे पास कोई वातावरण तो पैदा न कर सकेगी। किताब का कोई माहौल तो नहीं होता। किताब तुम्हारे पास कोई जीवंत वातावरण निर्मित नहीं कर सकती। वातावरण तुम्हारा होगा; उसमें ही किताब प्रवेश करेगी।

जब तुम मेरे पास हो, जब तुम मुझे सुन रहे हो, यदि सच में सुन रहे हो, तो तुम्हारा वातावरण यहां नहीं है, वातावरण मेरा है, हवा यहां मेरी है। तुम मेहमान की तरह उसमें हो। और जो समझदार हैं वे अपने को वहीं रख आते हैं जहां जूते उतारते हैं; ताकि तुम यहां गड़बड़ी न कर सको; ताकि तुम पूरे मुझ में डूब जाओ; ताकि निर्वस्त्र, नग्न; ताकि पूरे के पूरे, बिना किसी आवरण के, अनावृत्त होकर तुम मुझ में डूब जाओ; यह थोड़ी-सी देर को जो लहरें मैं तुम्हारे आसपास पैदा करता हूं, ये तुम्हें छू लें! बोलना तो बहाना है। बोलना तो बहाना है, ताकि तुम उलझे रहो सुनने में। यह तो ऐसा है, जैसे छोटा बच्चा उपद्रव करता है, खिलौना दे दिया कि खेल, उलझ गया। बिना बोले, तुम मुश्किल में पड़ोगे। मैं न बोलूं तो तुम्हारा मन हजार-हजार जगह जाएगा। बोलता हूं, बोलने में तुम्हारा मन उलझ गया, सुनने में लग गया; पर यह तो ऊपर-ऊपर की बात है, भीतर कुछ और हो रहा है। इधर तुम उलझे कि उधर मैंने तुम्हारे हृदय को टटोला। एक हाथ से तुम्हें खिलौना देता हूं, दूसरे हाथ से तुम्हारे हृदय को टटोल रहा हूं। कभी-कभी…तुम्हारी आदतें पुरानी हैं, मजबूत हैं। आदतें ऐसी हो गई हैं जड़ कि तुम खिलौने में उलझे भी रहते हो और फिर भी हृदय को बांधे रहते हो, बंद रखते हो। कभी-कभी खुल जाता है। उस घड़ी, मैं तुम्हारे भीतर पहुंच जाता हूं। उस घड़ी, मेरा और तुम्हारा होना मिट जाता है। उस घड़ी हम एक ही वातावरण के हिस्से हो जाते हैं। एक सागर की तरंगें! इसलिए स्वाभाविक है कि उस क्षण कुछ हो जाए, जो किताब से न हो सकेगा।

फिर, जब तुम मेरे पास हो तो बोलना तो मेरे पास होने का एक अंश मात्र है। पास होना बड़ी घटना है! सान्निध्य बड़ी घटना है। निकट होना…तो मेरी तरंगें और तुम्हारी तरंगें एक रासलीला में लीन होती हैं। तुम मेरे आसपास नाचते हो, मैं तुम्हारे आसपास नाचता हूं। कुछ घटता है, जो खाली आंखों से नहीं देखा जा सकता! कुछ घटता है, चर्म-चक्षु उसे नहीं देख पाते! कुछ अदृश्य में घटता है!

तुम दृश्य ही तो नहीं हो। मैं जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा हूं, उसी पर तो सीमित नहीं हूं। तुम्हें अपने अदृश्य का पता नहीं है, मुझे मेरे अदृश्य का पता है। इसलिए मैं तुम्हारे अदृश्य को भी पुकारता हूं। तुम्हारा अदृश्य भी बाहर आ जाता है। एक नृत्य शुरू होता है। उस नृत्य में ही तुम्हारे हृदय में कुछ फूल खिलते हैं, कमल खिलते हैं।

यह सवाल बोलने का ही नहीं है। और यह जो मैं बोल रहा हूं, ये कोरे शब्द नहीं हैं; ये किसी गहन अनुभव में डूबकर आए हैं; ये किसी गहन अनुभव से सिक्त हैं, किसी गहन अनुभव में पगे हैं। यह कोई शब्दों का काव्य नहीं है, जीवन का काव्य है। कवि कहते हैं:

दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं

हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं!

ऋषि यह कहते नहीं। आवाज सहज आती है, जो दिल में घर कर जाती है।

दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं! जब तुम्हारे पास कुछ संपदा होती है अनुभव की, तो आवाज अपने-आप उस अंदाज को पा लेती है जो दिल में घर कर जाता है। नहीं कि इसका कोई अभ्यास है; नहीं कि इसकी कोई वक्तृत्व शैली है; नहीं कि इसका कोई विधि-विधान है–नहीं, कुछ भी नहीं है। जब तुम पाते हो सत्य को, तो सत्य का पाना ही इतना विराट है कि तुम्हारे हर शब्द में उसकी धुन, हर शब्द में उसका रस, हर शब्द में उसका संगीत और सुवास फैलने लगती है।

दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं

हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं!

आ जाती है। पहले उसे ले आओ जिसे प्रगट करना है; फिर प्रगट करने की आवाज अपने से आ जाती है। यही तो कवि और ऋषि में फर्क है। कवि आवाज की फिक्र करता है। कवि फिक्र करता है वाहन की। ऋषि फिक्र करता है वाहक की। ऋषि फिक्र करता है विषय-वस्तु की। जब बोलने को कुछ हो तो बोलना आ जाता है। ऐसे बोलना आ जाए तो जरूरी नहीं है कि बोलने को कुछ हो। बोलना तो सभी को आता है। बोलने मात्र से पता नहीं चलता कि कुछ बोलने को तुम्हारे पास है। बोलते तो तुम चौबीस घंटे हो–बिना कुछ हुए। कुछ भी नहीं देने को, फिर भी बोले जाते हो। उसी को तो हम बड़बड़ कहते हैं, बकबक कहते हैं। बड़बड़ का इतना ही अर्थ है कि कुछ है नहीं बोलने को, लेकिन बोले चले जाते हो; क्या करें, चुप होने की आदत नहीं है! क्या करें, चुप होना भारी पड़ता है, बोले चले जाते हैं!

लेकिन फिर एक और बोलना भी है, जब तुम्हारे पास कुछ देने को होता है। वाणी वाहन बनती है। वाणी घोड़ा बनती है।

तो जो शब्द मैं तुम्हारे पास पहुंचा रहा हूं, वे तो घोड़ों की भांति हैं; उन पर बैठा सवार भी कभी-कभी तुम्हें दिखायी पड़ जाता है। वही तुम्हारे हृदय को पकड़ लेता है। वही तुम्हें मंथन में डुबा देता है।

किताब से यह न हो सकेगा; लेकिन किताब से भी हो सकता है, अगर तुम धीरे-धीरे मुझे सुनने में समर्थ हो जाओ। इसलिए मैंने कहा है लोगों को कि मैं जैसा बोलता हूं वैसी ही किताबें रहें, उनमें जरा भी फर्क न किया जाए। उनको बदला न जाए; क्योंकि लिखने का ढंग और होता है, बोलने को ढंग और होता है। बोला हुआ शब्द अलग बात है, लिखा हुआ शब्द अलग बात है। तो मैंने कहा है कि जैसा मैं बोलता हूं, वैसा ही लिखे में हो; ताकि अगर एक बार तुम्हारा मुझसे तारतम्य बंध जाए तो किताब को पढ़ते-पढ़ते भी तुम मुझे सुनने लगोगे। तो जिन्होंने मुझे ठीक से सुना है, वे किताब को पढ़ते वक्त भी किताब को नहीं पढ़ेंगे, मुझे सुनेंगे। किताब उनसे बोलने लगेगी। एक बार तुमने मुझे अपने हृदय में जगह दे दी, तो फिर किताब से भी मैं तुम्हारे पास आ सकूंगा। बिना किताब के भी आ सकूंगा। तुमने जरा मेरी याद की तो भी पास आ जाऊंगा। तुम पर निर्भर है।

और जब मैं कहता हूं “अगर ठीक से सुना’, तो मेरा अर्थ है: अगर प्रेम से सुना, सहानुभूति से सुना, सहयोग किया मुझसे, श्रद्धा से सुना, संदेह को हटाकर सुना, अपने मन को हटाकर सुना; कहा अपने मन को कि हट, थोड़ी जगह दे। तो, तो मेरा प्रेम तुम्हें बेहोश भी बनाएगा और मेरा प्रेम तुम्हें होश में भी लाएगा। यह बेहोशी कुछ ऐसी है कि इसमें होश बढ़ता चला जाता है। यह होश कुछ ऐसा है कि इसमें बेहोशी बढ़ती चली जाती है।

हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए

अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है।

प्रेम में पागल हो जाना तो बहुत आसान है। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए हैं!

मैं तुम्हें जो प्रेम दे रहा हूं, वह एक दर्द है, वह एक पीड़ा है। उस पीड़ा से तुम निखरो! वह एक आग है जो तुम्हें जलाएगी। तुम घबड़ा मत जाना! तुम मेरे साथ चलना, सहयोग करना।

हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए

अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है।

बहुत आसान है पागल हो जाना प्रेम में, लेकिन जागना बड?ा कठिन है! यह प्रेम तुम्हें जगाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें उठाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें तुम तक पहुंचा दे तो ही सार्थक हुआ। हो सकता है। मेरा हाथ बढ़ा है, तुम भी अपना हाथ बढ़ाओ और उसे पकड़ लो!

आज इतना ही।


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जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–3

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बोध—गहन बोध—मुक्‍ति है—प्रवचन—तीसरा

सूत्र:

जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जन्मजरामरणंसंभवं दुक्खं।

न य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी।।6।।

जन्‍मं दुक्‍खं जरा दुक्‍खं, रोगा य मरणाणि य।

अहो दुक्‍खो हु संसारो, जत्‍थ कीसति जतंवो ।।7।।

हाँ जह मोहियमइणा, सुग्‍गइमग्‍गं अजाणमाणेणं।

भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्‍मि।।8।।

“मिच्छत्तं वेदन्तो जीवो विवरीयदंसणो होइ।

न य धम्म रोचेदु हु, महुरं पि रसं जह जरिदो।।9।।

मच्‍छत्‍तपरिणदप्‍पा तिव्‍वकसाएण सुट्ठ आविट्ठो।

जीवं देहं एक्‍कं, मण्‍णतो होदि बहिरप्‍पा।।10।।

पहला सूत्र:

जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जन्मजरामरणंसंभवं दुक्खं।

न य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी।।

“जीव जरा, जन्म और मरण से होनेवाले दुख को जानता है, उसका विचार भी करता है; किंतु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता है। अहो, माया की गांठ कितनी सुदृढ़ है!’

जीवन में गुजरते तो हम सभी एक ही राह से हैं। उसी राह से महावीर भी गुजरते हैं। राह में कोई भेद नहीं है। जीवन का ताना-बाना एक जैसा है। विस्तार में थोड़े फर्क होंगे। कोई इस गांव में पैदा होता कोई उस गांव में, कोई इस देह में कोई उस देह में, कोई स्त्री की तरह कोई पुरुष की तरह, कोई गरीब कोई अमीर–ये विस्तार के भेद हैं, लेकिन जीवन का ताना-बाना एक ही है।

जन्म, जीवन, मृत्यु–और सब में अनुस्यूत दुख की धारा है। कहां जन्मे, इससे फर्क नहीं पड़ता। कहां मरे, इससे फर्क नहीं पड़ता। जन्म और मृत्यु का स्वाद तो एक ही है।

सभी एक ही रास्ते से गुजरते हैं। फिर भी उसी रास्ते से सभी अलग-अलग अनुभव और निष्कर्ष लेते हैं। घटनाएं तो एक-सी घटती हैं, लेकिन जीवन के निष्कर्ष बड़े अलग हो जाते हैं। और जब तक कोई घटना अनुभव न बने, तब तक घटी न घटी बराबर।

दुख आता है–सभी को आता है। दुख भोगा जाता है। लेकिन दुख भोगना दो ढंग से हो सकता है: कोई जागकर भोगता है, कोई सोए-सोए भोगता है। जो सोए-सोए भोगता है वह फिर-फिर भोगेगा, क्योंकि जो पाठ लेना था लिया नहीं, जो सीखना था सीखा नहीं। उसे पुनः पुनः उसी विद्यालय में वापिस लौट आना पड़ेगा।

दुख को कोई जागकर भोगता है, तो अनुभव हाथ आता है। अनुभव हाथ आता है कि दुख को मैंने ही पैदा किया था, कैसे पैदा किया था, अब दुबारा वैसा न करूंगा। इसकी कोई कसम नहीं लेनी पड़ती, न कोई व्रत लेना पड़ता है; क्योंकि व्रत और कसमें तो सब नासमझी के हिस्से हैं, वे तो सोनेवाले आदमी की तरकीबें हैं। जिसने एक बार देख लिया कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, वह किसी मंदिर में, किसी साधु के सत्संग में प्रतिज्ञा नहीं लेता कि अब आग में हाथ दुबारा न डालूंगा। समझ आ गयी।

समझ काफी है। प्रतिज्ञा से समझ का कोई संबंध नहीं है। नासमझ प्रतिज्ञा लेते हैं। नासमझ व्रत लेते हैं। समझदार तो समझ से जीना शुरू कर देता है। वही उसका व्रत है, वही उसकी प्रतिज्ञा है।

एक बार देखा कि हाथ जल गया, अब दुबारा जलना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हाथ मैं ही डालूं तभी जलता है।

आग का स्वभाव जलाना है। लेकिन आग तुम्हारे पीछे नहीं दौड़ती; तुम ही आग में हाथ डालो तो ही जलते हो। तो अपनी ही बात है, अपना ही निर्णय है, अपना ही दायित्व है। डालें तो जलेंगे, न डालें तो नहीं जलेंगे। यद्यपि जीवन इतना सरल नहीं है। आज हाथ डालते हो, हो सकता है कल पता चले, जला। खबर आते-आते देर लग जाए। बीज की तरह जो आज घटा है, वृक्ष बनते-बनते समय लग जाए। यह हो सकता है कि तुम्हारे कृत्य में और तुम्हारे फल में थोड़ा समय का फासला हो। तो शायद तुम जोड़ भी न पाओ कि किस कारण से दुख मिला।

जो समझ नहीं पाते, जाग नहीं पाते, दुख को जागकर भोगते नहीं, वे चिंतन तो बहुत करते हैं, मनन तो बहुत करते हैं कि दुख न हो। ऐसा कौन होगा मनुष्य जो चाहता है दुख हो! दुख न हो, ऐसा तो सभी चाहते हैं। लेकिन चाह से थोड़े ही दुख रुकता है! जो समझे हैं, उन्होंने तो पाया है कि चाह से ही दुख पैदा होता है! दुख न हो, इस चाह से भी दुख पैदा होता है। चाह मात्र दुख के बीज बोती है। फिर फसल काटनी होती है। चाह मात्र जहर है।

चिंतन, विचार तो बहुत लोग करते हैं।

महावीर कहते हैं: जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ! लोग जानते भी हैं। ऐसा भी नहीं कि नहीं जानते। लोग जानते हैं, कहां-कहां दुख होता है, लेकिन फिर भी सो-सो जाते हैं। शायद जहां-जहां दुख होता है, वहां-वहां मोह का बड़ा आवरण है। ऐसे ऊपर से लगता है कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, लेकिन भीतर कोई प्रबल वासना है जो बार-बार आग के पास ले आती है; जो कहती है आग में हाथ डालो, बड़ा सुख होगा। तो यह जानकारी ऊपर-ऊपर रह जाती है। तो जब भीतर की वासना प्रबल नहीं होती, तब तो तुम बड़े समझदार होते हो। वासना के अभाव में कौन समझदार नहीं होता!

जब तुम पर क्रोध का तूफान नहीं है, तब तुम भी समझदार होते हो; तुम भी समझा सकते हो, सलाह दे सकते हो कि क्रोध व्यर्थ है, जहर है, अपने लिए दुख का निमंत्रण है। लेकिन जब क्रोध का आवेश उठता है, जब तुम आविष्ट होते हो, जब तुम तूफान में घिर जाते हो और क्रोध का बवंडर तुम्हारे चारों तरफ होता है, तब सब समझ खो जाती है। तो ऐसा लगता है, तुम्हारी समझ तो ऊपर-ऊपर है और क्रोध का उत्पात बहुत गहरा है; वहां तक तुम्हारा जानना नहीं है।

सोचते हो, विचारते हो, पर सब सतह पर है, लहरों-लहरों में है। सागर की गहराई में तुम्हारा उतरना नहीं हुआ। वह जागने से ही संभव होता है, क्योंकि तुम चैतन्य हो। जितने जागोगे, जितने चेतन बनोगे, उतने ही भीतर जाओगे। चैतन्य तुम्हारा स्वभाव है। चैतन्य तुम्हारी गहराई, तुम्हारी ऊंचाई है। तो जितने चेतोगे उतने ही गहरे उतरोगे। जिस दिन तुम्हारी चेतना उतनी ही गहरी हो जाएगी जितनी तुम्हारी वासना, उसी क्षण मुक्ति हो जाएगी। जिस क्षण, आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, यह सत्य उतना ही गहरा उतर जाएगा जितना आग में हाथ डालने की प्रबल वासना गहरी है, उसी दिन वासना कट जाएगी।

वृक्ष की शाखाओं को मत काटते रहो। उससे कुछ भी न होगा। जड़ें काटनी होंगी। जमीन में गहरे उतरना होगा। अपनी ही चेतना के अंधकार में दीये ले जाने होंगे।

तो महावीर कहते हैं, सोचते हैं लोग, जानते-से भी लगते हैं, किंतु विषयों से विरक्त नहीं हो पाते हैं। अहो, माया की गांठ कितनी सुदृढ़ होती है!

बड़े आश्चर्यचकित हो महावीर कहते हैं: अहो! कैसी आश्चर्यचकित करनेवाली है यह माया की गांठ! जानते, सोचते, सूझते हुए लोग भी अंधे हो जाते हैं। आंखवाले अंधे हो जाते हैं! समझवाले भ्रांत हो जाते हैं! शांति के क्षणों में जो सलाह तुम दूसरे को दे सकते हो, अशांति के क्षणों में खुद के ही काम नहीं आती। अपना ही दीया बुझा लेते हो। अपनी ही सलाह के विपरीत चले जाते हो। अपनी ही समझ को फिर-फिर खंडित कर देते हो। आश्चर्यचकित करनेवाली बात है।

महावीर का वचन, “अहो! माया की गांठ कितनी सुदृढ़ है’–बड़ा सोचने जैसा है, बड़ा ध्यान करने जैसा है। महावीर दुखित होते हैं तुम्हारे लिए, करुणा से भरे हैं। पर हंसते भी हैं कि मूढ़ता बड़ी गहरी है!

तुमने कभी किसी व्यक्ति को सम्मोहित दशा में देखा? किसी को सम्मोहित कर दिया जाता है, मूर्च्छित कर दिया जाता है। कठिन नहीं, बड़ा सरल है। कोई भी होने को राजी हो तो तुम भी कर सकते हो।

कभी छोटा प्रयोग करके देखना। तुम्हारा छोटा बच्चा भी तुम्हें सम्मोहित कर सकता है, तुम भर राजी हो जाना। वह तुमसे दोहराए जाए कि तुम गहरी तंद्रा में जा रहे हो, मूर्च्छा में जा रहे हो, बेहोश होते जा रहे हो–तुम स्वीकार करते जाना। तुम इनकार मत करना कि नहीं। तुम यह मत कहना कि अरे, छोड़! तेरे कहने से कि हम सोये जा रहे हैं, कहीं हम सो जाएंगे? तुम प्रतिरोध मत करना। तुम सहयोग करना। तुम उसके सुझाव के साथ बहे जाना। वह जो कहे, माने चले जाना। थोड़ी देर में तुम पाओगे कि खो गये किसी बड़ी गहरी तंद्रा में। तब तुम्हारा छोटा-सा बच्चा भी अगर कहे कि यह लो, यह आम है मीठा, और प्याज दे दे हाथ में, तो तुम चखोगे; होगी प्याज, लेकिन तुम कहोगे, बड़ा स्वादिष्ट आम है! तुम्हारा सब स्वाद, प्याज की दुर्गंध, कुछ भी काम न आएगी। क्योंकि तंद्रा की गहराई में सुझाव उससे ज्यादा गहरे पहुंच गया जहां तक प्याज की गंध पहुंचती। तुम शांत भाव से स्वीकार कर लिये।

तो तुमने अगर सम्मोहन करनेवाले को, बाजार में मदारी को देखा हो तो तुम चकित हो जाओगे; वह जो कह देता है, लोग वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं! खासा तगड़ा जवान है, चौड़ी छाती है, बलिष्ठ भुजाएं हैं, चलता है तो मंच हिलता है–उसको वह बेहोश कर देता है और कहता है, “तुम एक कोमल तन्वंगी, एक सुंदर युवती हो गये। इस किनारे से मंच के उस किनारे तक चलो।’ तुम चकित हो जाओगे, वह ऐसे चलने लगता है जैसे स्त्री चलती हो, जो कि अति कठिन है पुरुष को चलना। पुरुष के पास वैसे कूल्हे नहीं हैं। स्त्री के पेट में गर्भ के लिए जगह है। उस जगह के कारण उसकी अस्थियों का ढांचा अलग है। इसलिए उसकी चाल अलग है। लेकिन वह पुरुष चलने लगता है स्त्री की चाल से, जो कभी जीवन में न चला होगा। उसे कुर्सी के सामने बिठा देता है और कहता है, यह गाय खड़ी है, दूध लगाओ। वह कुर्सी के पास उकडू बैठकर–उसी आसन में जिसमें महावीर ज्ञान को उपलब्ध हुए थे, गो-दुग्ध-आसन में महावीर ज्ञान को उपलब्ध हुए थे, पता नहीं क्या करते थे, बैठे थे उकडू–दूध खींचने लगता है। बिलकुल वैसे ही कृत्य करेगा जैसे गाय सामने खड़ी हो। तुम सब हंसोगे कि कैसा पागल बन रहा है यह। लेकिन सम्मोहन ने इतने गहरे डाल दिया है विचार कि इतने गहरे आंख का विचार भी नहीं जाता। आंख से तो उसको भी कुर्सी दिखायी पड़ती है। लेकिन जहां तक कुर्सी दिखायी पड़ती है उससे भी गहरा सम्मोहन का विचार पहुंच गया। तो अब कुर्सी के ऊपर गाय आरोपित हो जाती है।

सम्मोहन के सत्य को समझना जरूरी है, क्योंकि मनुष्य का जीवन करीब-करीब सम्मोहित जीवन है। जन्मों-जन्मों में तुमने अपने को ही आत्म सम्मोहित किया है। जन्मों-जन्मों में तुमने कहा है, स्त्री सुंदर है–स्त्री सुंदर हो गयी है। जन्मों-जन्मों में तुमने दोहराया है, “स्त्री सुंदर है’–स्त्री सुंदर हो गयी है। यह तुम्हारा सम्मोहन है। बहुत बार तुम स्त्री की कुरूपता के करीब भी आ जाते हो। बहुत बार पुरुष की कुरूपता के करीब आ जाते हो। बहुत बार जीवन में सिवाय व्यर्थता के कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता है। लेकिन जन्मों-जन्मों का सम्मोहन है। तुमने ही अपने को समझाया है, जीवन बड़ा बहुमूल्य है। तुमने ही अपने को समझाया है कि जीने का बड़ा मूल्य है। किसी भी कीमत पर जीना है, जीये चले जाना है। जीवेषणा! नर्क में भी पड़े हों तो भी जीये चले जाना है; जीवन का जैसे अपने-आप में ही मूल्य है। कुछ भी न घटता हो, हाथ-पैर गल गये हों कोढ़ में, सड़क पर घिसटते होओ, तो भी कोई आशा, कोई बड़ी गहन आकांक्षा पकड़े रहती है कि जीये चले जाओ, जीये चले जाओ।

यह जो जीने की आकांक्षा है, इस पर पुनर्विचार, इस पर पुनर्ध्यान तुम्हें जगायेगा और तुम्हें बतायेगा कि यह तुमने ही अपने मन में धारणा बना ली, धारणा बना ली तो मजबूत हो गयी। अलग-अलग जातियों में, अलग-अलग समयों में, अलग-अलग धारणाएं महत्वपूर्ण हो गयी हैं। जो धारणा महत्वपूर्ण हो जाती है वही तुम्हारे जीवन का सत्य हो जाती है। जैसे अफ्रीका में, मध्य अफ्रीका में, सदियों से स्त्रियां बाल घोट लेती रही हैं। अब तुमने सिर-घुटी स्त्री में सौंदर्य कभी न देखा होगा। कोई स्त्री राजी न होगी सिर घोंटने को। हमने मान रखा है, बाल सुंदर हैं। अफ्रीका में उन्होंने मान रखा है कि घुटा हुआ सिर सुंदर है। करोगे क्या? वहां जिस स्त्री के बाल हों, उसको पति मिलना मुश्किल हो जाएगा; जैसे यहां घुटे-सिर स्त्री को पति मिलना मुश्किल हो जाए, लोग दूर से ही छिटकेंगे। घुटा हुआ सिर तो हमें मुर्दे की याद दिलाता है। इसलिए तो संन्यासी सिर घोंटते रहे। वे यह कहते हैं कि हम मर गये संसार से, अब तुम हमें मुर्दा समझो। न केवल उतने से ही अफ्रीका में सौंदर्य का बोध पूरा नहीं होता, तो आड़ी-तिरछी लकीरें, आग की सलाखों से शरीर पर, मुंह पर, आंख पर, सिर पर लोग सजा लेते हैं। तुम तो पाओगे, ये तो घाव बना लिये। लेकिन वह सौंदर्य है। उन्होंने सदियों तक इसी को सौंदर्य माना है, यही उनका सम्मोहन हो गया है।

जो तुम मान लो वही सत्य हो जाता है। इस जीवन के सत्य माने हुए सत्य हैं। दस रुपये का नोट कागज का टुकड़ा है, लेकिन मान्यता है कि दस का नोट है; सम्हालकर रख लेते हो। छोटे बच्चे को दस रुपये का नोट और एक पैसा, दोनों बताओ, वह पैसा चुन लेगा। अभी पैसे तक ही उसकी मान्यता है, दस रुपये का नोट वह जानता ही नहीं।

मैंने सुना है, अमरीका के एक समुद्र तट पर एक आदमी था, बूढ़ा हो गया था और लोग उसके सामने रुपये लाते, पैसे लाते, लेकिन वह हमेशा पैसे चुन लेता। कभी-कभी सौ-सौ डालर का नोट उसके सामने रखते, कहते, चुन लो जो भी चुन लो दो हाथों में से। वह पैसे चुन लेता। ऐसा वर्षों से हो रहा था। और जो भी आते समुद्रत्तट पर, यह प्रयोग करते, और हंसते हुए जाते। एक दिन एक आदमी ने उससे पूछा कि कोई बीस साल से मैं तुम्हें देख रहा हूं, तुम्हें अब तक अकल नहीं आई? जब लोग तुम्हारे सामने सौ डालर का नोट करते हैं और पैसे करते हैं, तुम पैसे चुन लेते हो। उसने कहा, अकल तो मुझे भी है। लेकिन जिस दिन भी मैंने नोट चुना, खेल बंद हुआ! यह खेल चल रहा है। पैसे चुन-चुनकर मैंने हजारों डालर चुन लिये धीरे-धीरे। कोई मैं मूर्ख, कोई पागल नहीं हूं। लेकिन उनको मजा आता है समझकर कि मैं पागल हूं, इसी बहाने वे पैसे मेरे सामने लाते हैं।

छोटा बच्चा पैसा चुन लेगा। पैसे का उसके लिए मूल्य है। यह आदमी भी पैसा चुन रहा है, क्योंकि जानता है, जिस दिन इसने नोट चुना उसी दिन खेल बंद हुआ, फिर कोई नहीं लाएगा। चुन तो यह भी नोट ही रहा है, लेकिन तुमसे ज्यादा चालाक है। तुम समझे कि यह नासमझ, बुद्धू है। तुम मजा ले रहे हो इसके बुद्धूपन में, यह तुम्हारे बुद्धूपन में मजा ले रहा है।

मान्यताएं हैं। जो हम मान लेते हैं सुंदर, वह सुंदर हो जाता है। जो हम मान लेते हैं कुरूप, वह कुरूप हो जाता है। जो हम मान लेते हैं मूल्यवान, वह मूल्यवान हो जाता है।

अफ्रीका में हड्डियों का आभूषण बनाते हैं, तो मूल्यवान है।

एक युवक संन्यासी हिमालय से वापस लौटा और एक माला ले आया, किसी तिब्बतन लामा ने उसे दे दी। उसने मेरे हाथ में रखी, मैंने कहा, “पागल! तू यह कहां से उठा लाया?’ वह तो किसी जानवर के दांतों की बनी माला थी, बड़ी गंदी और बेहूदी थी। पर उसने कहा, एक तिब्बती लामा ने मुझे दी है और उसने कहा कि यह बड़ी बहुमूल्य है। तिब्बत में माना जाता है कि बड़ी बहुमूल्य है। हड्डी की माला, हड्डी के गुरिये बना लेते हैं, उनकी माला। तुम्हें कोई हाथ में देगा तो तुम हाथ धोओगे, तिब्बती उसे सम्हालकर रखते हैं।

तुम्हारी भी मान्यताएं ऐसी ही हैं। लेकिन सदियों तक जो हम मानते हैं वह संस्कार हो जाता है।

इसलिए महावीर कहते हैं, लोग जानते भी मालूम पड़ते हैं, फिर भी अनजाने की तरह व्यवहार करते हैं, क्योंकि जानना ऊपर-ऊपर है। गहरे में वासना पड़ी है, विषय-भोग की आकांक्षा पड़ी है, जीवेषणा पड़ी है।

विचार करता है, चिंतन करता है, जानता मालूम होता है, फिर भी विरक्त नहीं होता। ऐसे विचार का क्या अर्थ जो विराग न ले आए! विचार की यह कसौटी है महावीर के लिए कि जिससे वैराग्य पैदा हो, वही विचार। यह उनका मापदंड है। इसी पर वे कसते हैं। वे कहते हैं, जिससे वैराग्य आ जाए, वही विचार। जिससे वैराग्य न आए, उसे क्या विचार कहना! वही तो अविचार है। पतंजलि भी यही कहते हैं, विवेक वही जिससे वैराग्य आ जाए। विचार वही जिससे वैराग्य आ जाए। फल से ही तो वृक्ष जाना जाता है–आम लगे तो आम, नीम के कड़वे फल लग जाएं तो नीम। वृक्ष से थोड़े ही वृक्ष जाना जाता है, फल से जाना जाता है! वैराग्य फल है विचार का।

तो तुम विचारवान हो या नहीं, तुम्हारे जीवन के वैराग्य से पता चलेगा। तुम लाख बैठकर ऊहापोह करते हो। तुम्हारे सिर में बड़ी दौड़-धूप मचती है विचारों की। तुम बड़े शास्त्र लिख सकते हो। इससे कुछ हल न होगा। असली प्रमाण यह होगा कि तुम्हारे जीवन में वैराग्य फला, वैराग्य के फल लगे, वैराग्य के मीठे फल आए? तुमने वैराग्य की फसल काटी? चीजों की व्यर्थता तुम्हें दिखायी पड़ी? तुम्हारा ज्ञान वासना से गहरा गया? इतना गहरा गया कि वासना उठनी असंभव हो गयी? नहीं कि तुम्हें नियंत्रण करना पड़ा। नियंत्रण तो सब थोथे हैं। अनुशासन तो सब ऊपरी हैं। बोध, इतना गहरा बोध कि बोध ही मुक्ति बन जाए, तो वैराग्य!

तो अब तुम सोचना कि विचार करने का अर्थ, तार्किक विचार करना नहीं है। विचार करने का अर्थ, सम्यक विचारणा है। विचार करने का अर्थ है, सत्य जैसा है वैसा ही जानने की क्षमता।

वासना और विचार के फर्क को समझो। वासना प्रक्षेपण है। तुम जो चाहते हो वही तुम प्रक्षेपण कर लेते हो। तुम वह नहीं देखते, जो है–कृष्णमूर्ति जिसे कहते हैं, दैट व्हिच इज। जो है, उसे तुम नहीं देखते। तुम वही देख लेते हो, जो तुम देखना चाहते हो। तुम्हारी आंख केवल ग्राहक नहीं होती, प्रक्षेपक होती है।

एक रुपया पड़ा है रास्ते पर या कि एक हीरा पड़ा है रास्ते पर। हीरा एक पत्थर है, जैसे और पत्थर हैं। अगर आदमी न हो जमीन पर तो हीरे और दूसरे पत्थरों में कोई फर्क मूल्य का न होगा। हीरे भी वहीं पड़े रहेंगे, साधारण कंकड़ भी वहीं पड़े रहेंगे। हीरा यह न कह सकेगा कि “हटो कंकड़ो, मैं कोहिनूर हूं! रास्ता दो! सिंहासन बनाओ!’ कोहिनूर भी साधारण पत्थर है, आदमी न हो तो। आदमी आया कि झंझट आयी। आदमी आया कि वह कहता है, हटो कंकड़ो! तुम तो शूद्र रहे, यह सम्राट है। यह है कोहिनूर! इसे सिंहासन पर बिठाओ!

आदमी मूल्य लाता है। कोहिनूर में कोई मूल्य नहीं है–हो नहीं सकता। सदियों तक पड़ा था जमीन में। न कंकड़-पत्थरों ने उसकी फिक्र की, न कीड़े-मकोड़ों ने फिक्र की, न सांप-बिच्छुओं ने कोई आदर दिया, न पशु-पक्षियों ने कोई चिंता ली–किसी ने कोई फिक्र न की। फिर आदमी के हाथ पड़ गया। जिस आदमी के हाथ पड़ा, वह भी सीधा-सादा आदमी था। वह उसे ले आया और उसने अपने बच्चों को खेलने को दे दिया। करता भी क्या, पत्थर ही था!

बड़ी प्यारी कहानी है, उस घर में एक संन्यासी मेहमान हुआ। और उस गरीब किसान को देखकर उसे बड़ी दया आ गयी। और उसने कहा कि “तू यहां कब तक इस गोलकुंडा की सूखी जमीन पर अपना श्रम गंवाता रहेगा? मैंने ऐसी जगहें देखी हैं कि जहां तू जरा-सी मेहनत कर कि हीरे-जवाहरात इकट्ठे कर ले। इतनी खोदा-खादी, इतनी मुश्किल–क्या पैदा कर पाता है? पेट भी तो नहीं भरता। बच्चे तेरे सूख रहे हैं।’

संन्यासी तो दूसरे दिन सुबह चला गया अपनी यात्रा पर, लेकिन किसान के मन में वासना पकड़ गयी। सम्मोहित हो गया किसान। उसने अपना खेत-वेत सब बेच दिया। छोटी-सी नदी के किनारे उसका खेत था। वह उसने बेच दिया, मकान बेच दिया। निकल पड़ा हीरों की खोज में। कहते हैं, वर्षों भटकता रहा, कहीं कोई हीरे न मिले, घर आ गया। लेकिन इस बरसों के भटकाव में, हीरे क्या होते हैं, यह समझ आ गयी, यह सम्मोहन आ गया। कई जौहरियों को मिला। हीरे जिनके पास थे उनको मिला। हीरे देखे। जो था उसके पास पैसा, उसने इसी में गंवा दिया। घर लौटकर आया तो चकित हो गया, बच्चा उस हीरे से खेल रहा था जिसकी वह खोज में था। कोहिनूर! और तब रोया, छाती पीटी, क्योंकि खेत उसने बेच दिया। वही खेत बाद में गोलकुंडा की सबसे बड़ी खदान बना। हैदराबाद निजाम के महलों में जो हीरे हैं, वे सब उसी गरीब आदमी के खेत से निकले हैं। वह बेच दिया उसने।

लेकिन तब तक सम्मोहन न था, मन पर कोई परत न थी–सीधा-सादा आदमी था, प्राकृतिक आदमी था, सभ्य न हुआ था, जौहरी पैदा न हुआ था।

हीरा भी कंकड़-पत्थर है। आदमी न हो तो हीरे का कोई विशेष सम्मान न होगा। जब तुम हीरे को विशेष सम्मान देते हो, राह पर पड़ा हीरा तुम्हें मिलता है, झपटकर उठा लेते हो, कंकड़ को तो नहीं उठाते–तब तुमने वह नहीं देखा जो था; तुमने वह देख लिया जो तुम देखना चाहते थे। तुमने अपनी वासना को आरोपित किया। तुम्हारी आंखें शुद्ध ग्राहक न रहीं। तुम्हारी आंखों ने हीरे के पर्दे पर कुछ फेंका, कोई वासना फेंकी। साधारण कंकड़-पत्थर भी वासना से अभिभूत हो जाए, महिमावान हो जाता है। जहां तुमने वासना रख दी, वहीं महिमा आ गयी।

यह संसार इतना महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, क्योंकि तुमने जगह-जगह वासना को नियोजित कर दिया है। किसी ने धन में रख दी है वासना, तो धन बहुमूल्य हो गया है। तब वह अपने जीवन को गंवाये चला जाता है, लेकिन धन कमाये चला जाता है। वह मरेगा। तिजोड़ी यहीं रहेगी, भरकर छोड़ जाएगा। ठीक से भोजन भी न करेगा, कपड़े भी न पहनेगा। धन इकट्ठा करना है! वासना रख दी धन में तो जीवन से बहुमूल्य हो गया धन। तुमने अगर पद में वासना रख दी, पद बहुमूल्य हो गया।

तुम्हें कभी-कभी हैरानी नहीं होती देखकर! राजनीति के दीवाने हैं, पदों के पागल हैं, भीख मांगते फिरते हैं: सहारा दो, वोट दो, मत दो, साथ दो! हाथ जोड़ते फिरते हैं। कभी तुम चकित नहीं हुए, तुम सोचे नहीं कि क्या पागलपन चढ़ा है! और जो पद पर पहुंच जाते हैं उन्हें कुछ मिलता दिखायी नहीं पड़ता। गालियां मिलती हैं, निंदाएं मिलती हैं। सम्मान भी मिलता है, लेकिन सम्मान सब झूठा है; पद से उतरते ही खो जाता है। फिर कोई नहीं पूछता। फिर कोई विचार नहीं करता। फिर कोई नमस्कार भी करने नहीं आता। लेकिन इतना क्या पागलपन है? पद में वासना रख दी! तुमने नहीं रखी तो तुम्हें हंसी आएगी कि यह भी क्या पागलपन है!

देखा तुमने! कोई फुटबाल के पागल हैं, कोई क्रिकेट के पागल हैं। एक सज्जन को मैं जानता हूं, जब क्रिकेट चल रही हो तो वे रेडियो पर सारी दुनिया का सब काम छोड़कर बैठ जाते हैं। एक बार उनकी जो टीम जीतनी चाहिए थी, हार गयी तो उन्होंने रेडियो उठाकर पटक दिया। नाराजगी में! इतना क्रोध आ गया। दंगे हो जाते हैं। तुम्हारी टीम हार गयी, दंगे हो जाते हैं। लूट-पाट हो जाती है। मारे जाते हैं लोग। जो नहीं हैं उस जगत में, वह हंसेंगे कि मामला क्या है! आखिर यह हो क्या रहा है? फुटबाल है क्या? कुछ लोग गेंद को उधर ले जा रहे हैं, कुछ लोग इधर ला रहे हैं, कुछ लोग उधर ले जा रहे हैं–मगर है क्या? मामला क्या है? ऐसा इतना…और लाखों लोग देखने क्या चले आये हैं? क्या देख रहे हैं! और बड़े उत्तेजित हैं! पागल हुए जा रहे हैं।

हां, जो वासना के बाहर है उसे हंसी आएगी। जो वासना के भीतर है, वह मूर्च्छित है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक रात घर लौटा, नशे में धुत्त। बड़ी उसने चेष्टा की। चाबी तो हाथ में है, ताला न मिले। पत्नी ऊपर से देख रही है। उसने कहा, “बहुत हो चुका। अगर चाबी खो गयी हो तो बोलो, दूसरी चाबी फेंक दूं।’ उसने कहा, “चाबी तो है, ताला खो गया है, दूसरा ताला फेंक दे।’

लेकिन कभी तुम अगर बेहोश रहे हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि हंसने की बात नहीं है। ऐसी ही दशा हो जाती है। वह जो बेहोश है, वह किसी और ही दुनिया में है–अविचार की दुनिया में। जो तुम्हारी वासना नहीं है, वहां तुम विचारवान मालूम पड़ोगे। बूढ़े विचारवान हो जाते हैं, जवानों को समझाने लगते हैं कि यह सब पागलपन है, यह जवानी दो दिन का नशा है। यही उनके बूढ़ों ने भी उनसे कहा था, तब उन्होंने नहीं सुना था। कोई किसी की सुनता ही नहीं।

जब तक नशा है तब तक विचार पैदा नहीं होता; या विचार पैदा हो जाए तो नशा टूटने लगता है। समझने की बात यह है कि वासना में तुम वही देखते हो जो तुम देखना चाहते हो। तुमने कभी देखा, शतरंज के खिलाड़ी बैठे हैं! कुछ भी नहीं है, लकड़ी के, हड्डियों के या प्लास्टिक के हाथी-घोड़े, राजा-रानी हैं–और तलवारें चल गयी हैं शतरंज पर, लोग कट गये हैं। जो नहीं है खेल में, वह हंसता है। वह हंसता हुआ निकल जाएगा कि पागल हो गये हो, कहां हाथी-घोड़े कुछ भी नहीं है! जिसकी समझ गहरी है उसे तो असली हाथी-घोड़े में भी हाथी-घोड़े नहीं दिखायी पड़ते; असली राजा-रानी में भी राजा-रानी नहीं दिखायी पड़ते। मगर जहां वासना हो…।

मैंने सुना है, एक बिल्ली इंग्लैंड गयी। सांस्कृतिक मिशन पर गयी। तो इंग्लैंड की रानी ने मिलने के लिए बुलाया। फिर वह लौटी, तो दिल्ली में बिल्लियों ने बड़ी सभा की। उन्होंने पूछा कि “अरे, कहो। क्या-क्या हुआ? रानी को मिलने गयी थी कि नहीं?’

उसने कहा, “गयी थी।’

“क्या देखा?’

उसने कहा कि बड़ा गजब देखा! कुर्सी के नीचे चूहा बैठा था।

रानी से क्या लेना-देना बिल्ली को! जो दिखा वह चूहा था। जहां वासना है, वहीं दर्शन है। तुम्हें रानी दिखायी पड़ती, चूहा दिखायी न पड़ता, क्योंकि तुम्हारी वासना बिल्ली की वासना नहीं है। रानी भी तुम्हें तभी दिखायी पड़ती जब तुम्हारी पद की वासना हो, राज्य की वासना हो; नहीं तो रानी में देखने जैसा क्या है! साधारण स्त्री है। चाहे कितना ही मोर-मुकुट बांधो, इससे क्या होता है! कितने ही बड़े सिंहासन पर बैठ जाओ, इससे क्या होता है! अगर महावीर जैसा व्यक्ति जाए तो न तो चूहा दिखायी पड़े न रानी दिखायी पड़े। तुमको रानी दिखायी पड़ती, बिल्ली को चूहा दिखायी पड़ा। जो-जो वासना थी, वह दिखायी पड़ा। अगर कोई हीरों का पारखी हो, तो उसे रानी न दिखायी पड़ेगी, उसके मुकुट में लगे हीरे दिखायी पड़ेंगे। अगर कोई चमार चला जाए तो रानी के जूते दिखायी पड़ेंगे, और कुछ दिखायी न पड़ेगा। चमार को जूते ही दिखायी पड़ते हैं; वह जूते ही देखता रहा जिंदगीभर। वहीं उसकी वासना लिप्त है। राह पर देखता रहता है लोगों के जूते। जूते को ही देखकर वह आदमियों की परख करता है। जूते की कहानी पढ़ लेता है तो आदमी की कथा प्रगट हो जाती है। जूते में उसे सारी आदमी की आत्मकथा लिखी मालूम पड़ती है। जूते पर चमक है तो वह जानता है, जेब गर्म है। जूता मुर्झाया, पिटा-पिटाया है तो वह जानता है कि आगे बढ़ो, यहां लाने की जरूरत नहीं है।

वासना का अर्थ है: हम अपने सम्मोहन के अनुसार जगत को देखते हैं। विचार का अर्थ है: सम्मोहन को हटाकर देखते हैं, जो है उसे वैसा ही देखते हैं जैसा है। आम को आम देखते हैं, नीम को नीम देखते हैं। जहर को जहर देखते हैं, अमृत को अमृत देखते हैं; अपनी वासना डालकर, कुछ और नहीं देखते।

तो महावीर कहते हैं, लगते हैं लोग सोच रहे, विचार रहे, फिर भी विरक्त नहीं हो पाते। कहीं कुछ धोखा है। क्योंकि अगर कोई जीवन को ठीक से देख ले तो विरक्त होगा ही। यहां कुछ भी तो नहीं है। यहां उलझाने योग्य कुछ भी तो नहीं है। जो तुम्हें अटका ले, ऐसा कुछ भी तो नहीं है।

दोरंगियां यह जमाने की जीते जी हैं सब

कि मुर्दों को न बदलते हुए कफन देखा।

ये सब रंगरेलियां, ये बदलाहटें, ये फैशनें…।

दोरंगियां यह जमाने की जीते जी हैं सब

कि मुर्दों को न बदलते हुए कफन देखा।

जो जीवन को बहुत गौर से देखेगा, दोरंगियों को हटाकर गहराई में देखेगा, वह पायेगा: यहां सब मरा ही हुआ है, समय की बात है।

ऋषियों ने कहा है, क्षरति इति शरीरम्। जो क्षीण होता जाता उसी का नाम शरीर। क्षरति इति शरीरम्। जो प्रतिपल क्षीण होता जाता है, जीर्ण होता जाता, वही शरीर है। यह घर नहीं है। जो खंडहर होता जाता है, वही शरीर है। इसीलिए शरीर नाम दिया उसे, क्योंकि वह क्षीण होता है, जीर्ण होता है, सड़ता है; मरा ही है, समय की बात है; क्यू में खड़ा ही है, जब नंबर आ जाएगा गिर जाएगा।

अगर शरीर को कोई गौर से देखे तो क्या पाएगा! मृत्यु को रूप धरते देखेगा वहां। मृत्यु को गर्भ में पाएगा वहां। रोएं-रोएं में शरीर के मृत्यु को छिपा पाएगा। प्रगट होने की प्रतीक्षा चल रही है। आज नहीं कल प्रगट हो जाएगी। जो शरीर को गौर से देखेगा, वह मृत्यु को देख लेगा। फिर तुम शरीर से बंधोगे कैसे, आसक्त कैसे होओगे? मुर्दे से तो कोई बंधता नहीं। मुर्दे से तो कोई संबंध नहीं रखता।

मैंने सुना है, एक मुसलमान फकीर के पास एक युवक आता था। वह युवक कहता था कि मुझे भी संन्यास की यात्रा करनी है। मुझे भी सूफियों के रंग-ढंग मन को भाते हैं। लेकिन क्या करूं, पत्नी है और उसका बड़ा प्रेम है! क्या करूं बच्चे हैं, और उनका मुझसे बड़ा लगाव है। मेरे बिना वे न जी सकेंगे। मैं सच कहता हूं, वे मर जाएंगे। मैं पत्नी से संन्यास की बात भी करता हूं तो वह कहती है, फांसी लगा लूंगी।

उस फकीर ने कहा, “तू ऐसा कर…। कल सुबह मैं आता हूं। तू रातभर, एक छोटा-सा तुझे प्रयोग देता हूं, इसका अभ्यास कर ले और सुबह उठकर एकदम गिर पड़ना।’ प्रयोग उसने दिया सांस को साधने का कि इसका रातभर अभ्यास कर ले, सुबह तू सांस साध कर पड़ जाना। लोग समझेंगे, मर गया। फिर बाकी मैं समझ लूंगा।

उसने कहा, “चलो! क्या हर्ज है…? देख लें करके। क्या होगा इससे?’

उसने कहा कि तुझे दिखायी पड़ जाएगा, कौन-कौन तेरे साथ मरता है। पत्नी मरती है, बच्चे मरते, पिता मरते, मां मरती, भाई मरते, मित्र मरते–कौन-कौन मरता है, पता चल जाएगा। एक दस मिनट तक सांस साध कर पड़े रहना है, बस। सब जाहिर हो जाएगा। तू मौजूद रहेगा, तू देख लेना, फिर दिल खोलकर सांस ले लेना, फिर तुझे जो करना हो कर लेना।

वह मर गया सुबह। सांस साध ली। पत्नी छाती पीटने लगी, बच्चे रोने लगे, मां-बाप चिल्लाने-चीखने लगे, पड़ोसी इकट्ठे हो गये। वह फकीर भी आ गया इसी भीड़ में भीतर। फकीर को देखकर परिवार के लोगों ने कहा कि आपकी बड़ी कृपा, इस मौके पर आ गये। परमात्मा से प्रार्थना करो। हम तो सब मर जाएंगे! बचा लो किसी तरह! यही हम सबके सहारे थे।

फकीर ने कहा, घबड़ाओ मत! यह बच सकता है। लेकिन मौत जब आ गयी तो किसी को जाना पड़ेगा। तो तुम में से जो भी जाने को राजी हो, वह हाथ उठा दे। वह चला जाएगा, यह बच जाएगा। इसमें देर नहीं है, जल्दी करो।

एक-एक से पूछा। पिता से पूछा। पिता ने कहा, अभी तो बहुत मुश्किल है। मेरे और भी बच्चे हैं। कोई यह एक ही मेरा बेटा नहीं है। उनमें कई अभी अविवाहित हैं। कोई अभी स्कूल में पढ़ रहा है। मेरा होना तो बहुत जरूरी है, कैसे जा सकता हूं!

मां ने भी कुछ बहाना बताया। बेटों ने भी कहा कि हमने तो अभी जीवन देखा ही नहीं। पत्नी से पूछा, पत्नी के आंसू एकदम रुक गये। उसने कहा, अब ये तो मर ही गये, और हम किसी तरह चला लेंगे। अब आप झंझट न करो और।

फकीर ने कहा, अब उठ! तो वह आदमी आंख खोलकर उठ आया। उसने कहा, “अब तेरा क्या इरादा है?’ उसने कहा, अब क्या इरादा है, आपके साथ चलता हूं। ये तो मर ही गये। अब ये लोग चला लेंगे! देख लिया राज। समझ गये, सब बातों की बात थी। कहने की बातें थीं।

कौन किसके बिना रुकता है! कौन कब रुका है! कौन किसको रोक सका है!

दृष्टि आ जाए तो वैराग्य उत्पन्न होता है। उस घड़ी उस युवक ने देखा। इसके पहले सोचा था बहुत। उस घड़ी दर्शन हुआ। इसके पहले विचार बहुत किया था, लेकिन वे विचार विचार न थे, विवेक न था; क्योंकि उनसे वैराग्य न फलित होता था, उलटा राग फलित होता था।

तो कसौटी है: जिसमें राग लगे, वह विचार नहीं; वह भीड़-भाड़ है विचारों की। थोथा है सब, असार है, राख है। उसमें अंगार नहीं है। जिसमें वैराग्य की लपट उठे–अंगार है, जीवन है, विचार है, विवेक है।

जिंदगी एक हादिसा है और कैसा हादिसा

मौत से भी खत्म जिसका सिलसिला होता नहीं।

यह जिसे हम जिंदगी कहते हैं, यह हमारी जीवेषणा है। जिसे हम जिंदगी कहते हैं, यह हमारे जन्मों-जन्मों का संकलित सम्मोहन है।

जिंदगी एक हादिसा है और कैसा हादिसा

मौत से भी खत्म जिसका सिलसिला होता नहीं।

मौत आती है, जाती है, लेकिन सम्मोहन चलता रहता है। जीवेषणा को मौत नहीं मार पाती। शरीर छूट जाता है, हम नया शरीर ग्रहण कर लेते हैं। तुम शरीर में इसलिए नहीं हो कि शरीर ने तुम्हें चुना है; तुम शरीर में इसलिए हो कि तुमने शरीर को चुना है। तुम दुख में इसलिए नहीं हो कि दुख तुम पर आया है; तुम दुख में इसलिए हो कि तुमने दुख को बुलाया है।

महावीर का मौलिक सूत्र है कि तुम्हारा उत्तरदायित्व आत्यंतिक है। न कोई भाग्य, न कोई भगवान–तुम ही जिम्मेवार हो। सार-सूत्र महावीर का यह है कि तुम अपनी बागडोर अपने हाथ में ले लो। दुख है तो तुम कारण हो। अंधेरा है तो तुमने ही दीया छिपाकर रखा है। अगर कांटों में चल रहे हो तो तुमने ही कांटे बोए हैं।

महावीर ने मनुष्य को सीधा मनुष्य के ऊपर फेंक दिया; कोई सहारा न दिया, कोई सांत्वना न दी; नहीं कहा कि भगवान है, खेल खेल रहा है, उसका खेल है, घबड़ाओ मत, प्रार्थना करो, उसका सहारा मिलेगा। कोई सांत्वना न दी।

महावीर का धर्म सांत्वना-रहित है। अति कठोर मालूम पड़ता है। लेकिन उतनी कठोरता हो तो ही कोई घर वापिस लौटता है।

कैदे-हस्ती की भी तारीक बदल दूं तो सही

खेल समझे हो मेरा दाखिले-जिंदा होना।

कारागृह में आ गया हूं तो अगर कारागृह का ढंग ही न बदल दूं तो मेरे आने का अर्थ ही नहीं है।

कैदे-हस्ती की भी तारीक बदल दूं तो सही! यह जो जिंदगी और जिंदगी का जाल है और जिंदगी के बंधन हैं, इनका भी इतिहास बदल दूं तो सही। खेल समझे हो मेरा दाखिले-जिंदा होना। एक बार कारागृह में आ गया, तो अब कारागृह को भी स्वतंत्रता बनाकर छोडूंगा।

ऐसा महावीर का भाव है। और महावीर ने ऐसा किया। कोई सहारा न लिया, कोई भीख न मांगी। महावीर जैसा अकेला कोई भी जीवन के पथ पर नहीं चला है। कोई न कोई सहारा आदमी खोज लेता है। सहारे के सहारे संसार आ जाता है। सहारे के सहारे फिर सब उतर आता है। एक के बाद एक सिलसिला लग जाता है।

फक्र को मेरे वैर है जज्बए-इकसार से

जिंसे-जुनूं भी हो तो मैं भीख न लूं बहार से।

स्वाभिमान के विपरीत है। अगर प्रेमियों का पागलपन भी बहार से मिलता हो, अगर भक्तों का भी पागलपन बहार से मिलता हो, तो भी मैं भीख न लूं। स्वाभिमान के विपरीत है।

महावीर कहते हैं, भीख मत लेना। क्योंकि भीख में जो मिलेगा वह भीख ही होगी, स्वामित्व न मिलेगा।

इसलिए महावीर के विचार में प्रार्थना की कोई जगह नहीं है, विचार काफी है। विचार का ही सम्यक रूप ध्यान बन जाता है। ध्यान का सम्यक रूप समाधि बन जाता है। समाधि यानी समाधान! तुम जीवन को ठीक से देख लो, वहीं मुक्ति है।

“अहो! माया की गांठ कितनी सुदृढ़ होती है!’ सब लोग जानते हुए मालूम पड़ते हैं। सब लोग सोचते हुए मालूम पड़ते हैं। यहां बुद्धिहीन खोजना तो बहुत मुश्किल है, सभी बुद्धिमान हैं। फिर भी जब माया पकड़ती है तो सभी उसकी पकड़ में आ जाते हैं, गांठ बड़ी सुदृढ़ मालूम होती है। और गांठ कहीं इतने गहरे है! तुम जहां हो अभी वहां से कहीं ज्यादा गहरी तुम्हारी गांठ है। जब तुम गांठ से ज्यादा गहरे हो जाओगे तभी गांठ खुल जाएगी। इसलिए असली सवाल भीतर यात्रा का है। अपनी गहराई से गहराई खोजनी है। तुम जिस चीज के ज्यादा गहरे उतर गये, उससे ही मुक्त हो गये।

“जन्म दुख है, बुढ़ापा दुख है, रोग दुख है, मृत्यु दुख है। अहो! संसार दुख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं।’

“जन्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा या मरणाणि य।

अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ की संति जंतवो।।’

आश्चर्य है, महावीर कहते हैं, सब दुख है, फिर भी लोग पकड़े हैं। दुख ही दुख है, फिर भी लोग छोड़ते नहीं। मूर्च्छा बड़ी गहरी होगी। इसलिए कहते हैं, आश्चर्य है। लोग अपने ही पैरों से कारागृह में चले आ रहे हैं, आश्चर्य! लोग अपने ही हाथों से अपनी जंजीरें ढाल रहे हैं, आश्चर्य! और लोग रोते भी हैं, चिल्लाते भी हैं कि मुक्त होना है, कि आनंदित होना है। और जो करते हैं, वह बिलकुल विपरीत है। जो करते हैं उससे बंधन निर्मित होता है।

तो लोग जो कहते हैं, उस पर मत ध्यान देना; लोग जो करते हैं, उस पर ध्यान देना। लोग क्या कहते हैं, यह तो छोड़ ही देना। अकसर तो ऐसा है, लोग उलटा ही कहते हैं। उसका भी कारण समझ लेना चाहिए। लोग उलटा कहते हैं, क्योंकि उस तरह से वे अपने को संतोष बंधाए रखते हैं। अपने हाथों से तो वे बनाते जाते हैं कारागृह और अपनी वाणी से गीत गाते रहते हैं स्वतंत्रता का। यह स्वतंत्रता कारागृह के मिटाने के काम नहीं आती। यह स्वतंत्रता की बातचीत कारागृह को बनाने में सुविधापूर्ण है। कारागृह भी बनता जाता है, स्वतंत्रता की बात भी चलती चली जाती है।

तुम देखते हो, दुनिया में सब तरफ ऐसा होता है! राजनीतिज्ञ शांति की बात करते हैं, युद्ध की तैयारी करते हैं। सारे राजनीतिज्ञ कबूतर उड़ाते हैं शांति के–शांति-कपोत! और हर राज्य अपनी संपत्ति का साठ, सत्तर, अस्सी प्रतिशत युद्ध की तैयारी पर खर्च करता है। कबूतर भी उड़ाये चले जाते हैं, अणु-बम भी बनाये चले जाते हैं। किसको सच मानें? यह जो शांति की चर्चा है, यह युद्ध को करने में सहायता देती है। यह विपरीत नहीं है। अगर यह विपरीत होती और ये कबूतर सच्चे होते, तो कोई कारण न था, लोग क्यों युद्ध के लिए तैयारियां करें।

शांति की तुमने कहीं कोई तैयारी होते देखी? कोई शांति की कहीं तैयारी नहीं होती। शांति की लोग सिर्फ बात करते हैं, शांति चाहिए! युद्ध की तैयारी करते हैं। ध्यान रखना, जिसकी तैयारी करते हैं वही चाहते हैं। अगर शांति चाहते होते तो कुछ शांति पर भी खर्च करते, शांति की सेनाएं खड़ी करते, लोगों को शांति का प्रशिक्षण देते। लेकिन वैसा तो कहीं कुछ नहीं होता। सब प्रशिक्षण युद्ध का है। सब प्रशिक्षण लड़ने, मरने, मारने का है। और कौन कितना कुशल है मारने में, उसकी दौड़ है। अमरीका है, रूस है, चीन है–नीचे तो अणु-बम के ढेर लगाये चले जाते हैं, ऊपर से शांति-कांफ्रेंस करते चले जाते हैं। वह जो शांति-कांफ्रेंस है, वह उस ढेर को छुपाने की तरकीब है; वह तंबू है शांति का, जिसके अंदर बम छिप जाएंगे और पता भी न चलेगा। आदमी ऐसा धोखेबाज है! और ऐसा राज्यों के संबंध में ही नहीं है, सभी के संबंध में यही है।

तुमने कभी खयाल किया, तुम जो कहते हो उससे तुम्हारा जीवन बिलकुल विपरीत है! और अगर ऐसा ही चलते जाना है तो कृपा करो, कहना बंद करो। क्योंकि कहने से क्या सार है? क्यों उतनी शक्ति व्यय करते हो? व्यर्थ कबूतर मत उड़ाओ। उतना पैसा और बम बनाने में लगा दो! कम से कम सफाई तो हो, सचाई तो हो, सीधी-सीधी बात तो हो।

अब तक जितने युद्ध हुए दुनिया में, थोड़े नहीं हुए, कोई तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध हुए हैं। जितने युद्ध हुए वे सभी युद्ध इसीलिए हुए कि दुनिया में शांति होनी चाहिए। इससे तो बेहतर है, शांति की बकवास बंद करो। अगर शांति के लिए पांच हजार युद्ध करने पड़े तीन हजार सालों में तो छोड़ो यह शांति काम की नहीं है, यह तो बड़ी खतरनाक है, बड़ी महंगी है। सारी दुनिया के राज्य अपने युद्ध के इंतजाम का नाम–देखा, “सुरक्षा-मंत्रालय’, “डिफेंस’ कहते हैं! सब अटैक करते हैं और सब डिफेंस कहते हैं। सब आक्रामक हैं, लेकिन किसी राज्य का…हिटलर का भी जो युद्ध-मंत्रालय था वह सुरक्षा…। कहते हैं, हम अपनी रक्षा के लिए तैयारियां कर रहे हैं। बड़े मजे की बात है, अगर सभी रक्षा के लिए तैयारियां कर रहे हैं तो हमला कौन कर रहा है? डर किसका है फिर? सभी सुरक्षा चाहते हैं तो फिर तो भय का कोई कारण नहीं है।

लेकिन झूठी हैं ये बातें। सुरक्षा ऊपर-ऊपर है, बातचीत है, दिखावा है। और इसलिए आज तक यह भी तय नहीं हो पाया कि किसने कब आक्रमण किया। किसने किया? हिटलर कहता है, हमने नहीं किया; दूसरों ने किया। दूसरे कहते हैं, हिटलर ने किया। जो जीत जाता है अंततः वह इतिहास लिखता है। इसलिए वह इतिहास में लिख देता है कि दूसरे ने किया। जो हार जाता है, वह तो इतिहास लिख नहीं सकता। इसलिए बड़ा मजा चलता है। पक्का नहीं है कि जो हार गया है, हो सकता है सुरक्षा ही कर रहा हो, जो जीत गया वही आक्रामक हो। आक्रामक बड़े कुशल हैं, आक्रमण करने के पहले वे ऐसा इंतजाम करते हैं कि ऐसा प्रतीत हो कि वे सुरक्षा कर रहे हैं।

और ऐसा समाज, राष्ट्र और व्यक्ति, सभी के संबंध में सही है। तुम अपनी तरफ सोचना। तुम जरा अपने दांव-पेंच पहचानना। तुम जरा अपनी स्टे्रटेजि, वह जो तुम्हारी कूटनीति है भीतर, उसको देखना।

तुम अपने बेटे को मारते हो, तुम कहते हो, “तेरे ही लिए, तेरे ही हित के लिए…।’ यही तो राजनीति है।

क्रोध आया था, बेटे ने घड़ी तोड़ दी; या तुमने चाहा था बेटा चुप बैठे और वह चुप नहीं बैठा; या तुमने चाहा था वह सिनेमा न जाए और चला गया–चोट तुम्हारे अहंकार को लगती है। लेकिन तुम कहते हो, तेरे सुधार के लिए। अब यह बड़े मजे की बात है, हर बाप सुधार रहा है, लेकिन कोई बेटा सुधरता नहीं मालूम होता। तो जरूर कहीं सुधार में कुछ भूल है, नहीं तो कुछ तो सुधरते। इतना बड़ा आयोजन चलता है!

नहीं, कोई किसी को सुधारने में उत्सुक नहीं है; लोग अपनी चलाने में उत्सुक हैं। अपना अहंकार! बाप का भी अहंकार है। उसकी आज्ञा तुमने तोड़ी, यह बरदाश्त के बाहर है। सिनेमा गये, यह बड़ा सवाल नहीं है; यह तो बहाना है, सिनेमा तो वे खुद भी जाते हैं।

एक सज्जन को मैं जानता हूं। अपने बेटे को मना किए थे, क्योंकि कोई गंदी फिल्म आयी थी, कोई अमरीकन। बेटे को मना किए थे, लेकिन बेटे को मना किया तो बेटा भी उत्सुक हुआ। बेटा पहुंच गया। घर लौटकर बहुत नाराज हुए, नाराज हुए क्योंकि वे भी खुद वहां थे। बड़ा कष्ट जो हुआ वह यह हुआ कि बेटे ने उनको भी वहां पा लिया। उनके बेटे से मैंने पूछा, फिर कहा क्या उन्होंने? बेटा हंसने लगा। कहने लगा, “कहते क्या! कहने लगे, मैं यही देखने आया था कि तुम आये तो नहीं हो!’ इसके लिए तीन घंटे फिल्म में बैठे रहे!

पर ऐसा ही चलता है। तुम अपने को देखना शुरू करो। जागना शुरू करो। लंबी और कठिन यात्रा है। सहारे और सांत्वनाओं से काम न चलेगा। पूजा-प्रार्थनाओं से काम न चलेगा। एक-एक इंच अपने जीवन को रूपांतरण करना होगा। एक प्रामाणिकता चाहिए।

“जन्म दुख है, बुढ़ापा दुख है, रोग दुख है, मृत्यु दुख है!’ और है क्या जीवन में? यहां विफलता मिले तो दुख है, यहां सफलता मिलती है तो भी दुख लाती है। यहां गरीब रह जाओ तो दुख है, यहां अमीर हो जाओ तो भी सुख नहीं आता। यहां हार जाओ तो, तो दुख है ही, यहां जीत जाओ तो भी हाथ में कुछ लगता नहीं। यहां हारे और जीते सब बराबर हैं; सफल और असफल सब बराबर हैं।

“अहो! संसार दुख है, जिसमें जीव क्लेश पा रहा है। अहो दुक्खो हु संसारो।’ महावीर कहते हैं, आश्चर्य! चकित होकर कहते हैं, आश्चर्य! इतना दुख है, फिर भी लोग उसमें डुबकी लगाये जा रहे हैं। इस दुख की धारा को गंगा समझा है! डुबकी लगा रहे हैं!

यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए।

यहां तो दरख्तों का जो साया है उसके पास भी धूप ही खड़ी है। यहां तो साये में भी धूप लगती है। यहां तो सुख के साथ भी दुख ही खड़ा है। यहां तो शांति के आसपास भी अशांति ने ही घेरा बांधा है।

यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए।

जो जीवन को देखेंगे, जो जरा आंख खोलकर जीवन को देखेंगे, जो विचार करके जीवन को देखेंगे, जो विवेक से जीवन को देखेंगे, वे कहेंगे: “चलो। चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए, सदा के लिए।’

यही वैराग्य है।

मुझे जिंदगी की दुआ देनेवाले

हंसी आ रही है तेरी सादगी पर।

लोग जिंदगी की दुआ देते हैं कि खूब जीयो, जुग-जुग जीयो! जरा पूछो भी तो किसलिए दुआ दे रहे हो? क्या पाया तुमने जुग-जुग जीकर? जुग-जुग जीयो यानी जुग-जुग दुख भोगो। सीधी कहो न बात, काहे छिपाते हो?

मैं विश्वविद्यालय से घर लौटा, तो मेरी मां, मेरे पिता, परिवार के लोग बड़े चिंतित थे: शादी! शादी! शादी! डरते भी थे मुझसे पूछने में, क्योंकि वे जानते रहे सदा से कि मैं “हां’ कह दूं तो “हां’ और “ना’ कह दूं तो “ना’–फिर “हां’ करना मुश्किल है। तो पूछते नहीं थे सीधा; यहां-वहां से खबर भेजते–कोई रिश्तेदार, कोई मित्र। तो मेरे पिता के एक मित्र थे, वकील थे। उन्होंने सोचा कि वकील आदमी है, यही ठीक रहेगा। उनको कहा कि तुम ही कुछ समझाओ। वकील ने कहा, “समझा लेंगे। बड़े मुकदमे जीते हैं, यह भी कोई बात है।’ वकील तैयार होकर आए। वे मुझसे विवाद करने लगे कि शादी के क्या-क्या लाभ हैं। मैंने सब सुना। मैंने कहा, “सुनो। अगर तुमने सिद्ध कर दिया कि शादी में लाभ हैं तो मैं शादी कर लूंगा; अगर तुम सिद्ध न कर पाए तो तुम्हारी तरफ से दांव पर क्या है? तुम छोड़ोगे पत्नी-बच्चे, अगर सिद्ध हो गया कि शादी ठीक नहीं…? एकतरफा तो मत करो।’

वे थोड़े चौंके। आदमी ईमानदार थे। उन्होंने कहा, यह मैंने सोचा न था कि मेरा भी कुछ दांव पर लगेगा। तो फिर मुझे सोचने दो। मैंने कहा कि तुम सोच कर ही आना। अगर मैं हार गया तो उसी वक्त तैयार हो जाऊंगा, फिर यह भी फिक्र न करूंगा, किससे शादी करते हो। कर देना किसी से भी। लेकिन अगर नहीं हरा पाए तो फिर घर लौटकर नहीं जाने दूंगा। छुट्टी लेकर ही आना।

वे कभी आए ही नहीं। रास्ते पर मुझे मिलते थे, इधर-उधर बचकर निकलते थे। दो-चार बार मैं उनके घर भी गया तो वे कहने लगे, “क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’ मैंने कहा, “मैं क्यों पीछे पड़ा हूं। तुम ही मेरे पीछे पड़े थे!’

एक बार गया तो पत्नी को बाहर भेज दिया। पत्नी ने कहा कि “आप किसलिए आते हो बार-बार?’ मैंने कहा, “तुमको भी पता होना चाहिए, तभी तुम नाराज मालूम होती हो। वह एक दांव की बात है।’

कहने लगी कि हमारे छोटे बच्चे हैं, क्यों फिजूल के…? क्योंकि जब से तुमसे मिलना उनका हुआ है, वे बड़े चिंतित रहते हैं और उदास रहने लगे हैं।

मेरी मां ने मुझे कहा, तो मैंने कहा, “तू ऐसा कर, पंद्रह दिन तू भी सोच ले। अगर तुझे तेरे जीवन में और तेरी शादी से और तेरे बच्चों से कोई सुख मिला हो –ऐसा सुख जो तू चाहे कि तेरे बेटे को भी मिलना चाहिए, अगर ऐसा कुछ तूने पाया हो, जो कि तेरे मन में दुख रहेगा कि तेरे बेटे को न मिला–तो पंद्रह दिन बाद मुझे कह देना, मैं शादी कर लूंगा। और अगर ऐसा कुछ भी न पाया हो, दुख ही पाया हो तो इतनी तो कृपा कर कि मुझे चेता दे, मुझे बता दे कि दुख ही पाया है, तो किसी भूल-चूक से मैं न उलझ जाऊं।’

मेरी मां, सीधी-सादी! उसने पंद्रह दिन बाद कहा कि यह झंझट की बात है। तुम्हें करना हो करो, न करना हो न करो। और हमें सोचने को मत कहो, क्योंकि सोचने से और घबड़ाहट होती है, सच में पाया तो कुछ भी नहीं। मैं तुमसे न कह सकूंगी कि तुम शादी करो, क्योंकि ऐसा कुछ भी मुझे नहीं मिला है।

जीवन में हम अगर गौर से देखें तो हम बहुत चकित होंगे। दुख में लोग जी रहे हैं, हम दुख में और लोगों को भी धकेले चले जाते हैं।

मुझे जिंदगी की दुआ देनेवाले

हंसी आ रही है तेरी सादगी पर!

जिंदगी की लंबाई का कोई मूल्य नहीं है। जिंदगी के विस्तार का कोई मूल्य नहीं है। जिंदगी की गहराई का कुछ मूल्य है। वासना से जिंदगी लंबी होती है, विचार से जिंदगी गहरी होती है। लंबे होने से संसार मिलता है, गहरे होने से स्वयं की सत्ता मिलती है, भगवत्ता मिलती है।

“हां! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।’

जब भी कोई जागा है, जब भी कोई महावीर जैसी जिनावस्था में पहुंचा है, तो उसे यह लगा ही है कि हा! खेद! अब तक क्यों न जागा! इतना समय कैसे सोया रहा! कैसे-कैसे दुखस्वप्नों में दबा रहा, फिर भी आंख न खोली!

“हां! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।’

यहीं श्रमण और ब्राह्मण-संस्कृति के बुनियादी भेद साफ होते हैं। ब्राह्मण-संस्कृति कहती है, राम अवतरित हुए, कृष्ण अवतरित हुए। वे भगवान के अवतार हैं। ऊपर से नीचे आये। वे मनुष्य नहीं हैं, वे भगवान हैं।

महावीर ऊपर से नीचे नहीं आए, नीचे से ऊपर आए। वे उसी जगह से गुजरे जहां से तुम गुजर रहे हो। उन्होंने वही दुख भोगे जो तुमने भोगे। उन्होंने वही पीड़ाएं जानीं जो तुमने जानी हैं। तुम उनके लिए अपरिचित नहीं हो। तुम्हारा जो वर्तमान है वह उनका अतीत था। और उनका जो वर्तमान है, वह तुम्हारा भविष्य है। उनकी कड़ी तुमसे जुड़ी है।

इसलिए अगर जैन तीर्थंकरों की भाषा मनुष्य के हृदय के बहुत करीब है और जैन तीर्र्थंकरों और मनुष्यों के बीच कोई खाई-खंदक नहीं है, तो कारण साफ है। जैन तीर्थंकर उसी जगह से आए जहां से तुम गुजर रहे हो। तुम्हारे दुख उन्होंने जाने हैं। तुम्हारे कष्ट उन्होंने जाने हैं। तुम्हारा अनुभव उनका अनुभव भी है। इसलिए जब कृष्ण कुछ कहते हैं तो अर्जुन और कृष्ण की बातचीत में बड़ा अंतराल है। ऐसा लगता है, कृष्ण किसी और ही जगत की कह रहे हैं, अर्जुन किसी और ही जगत की कह रहा है–जैसे संवाद हो ही नहीं पाता। राम का महिमापूर्ण चरित्र! लेकिन उसमें महिमा कुछ भी नहीं है, क्योंकि वह ईश्वर का चरित्र है।

लेकिन महावीर का चरित्र महिमापूर्ण है, क्योंकि वह मनुष्य का चरित्र है। राम भगवान से मनुष्य हो रहे हैं। उन्हें मनुष्यों का क्या पता, कुछ भी पता नहीं है। महावीर मनुष्य से भगवान हुए हैं; उन्हें मनुष्यों का रत्ती-रत्ती पता है; उसका दुख, उसकी पीड़ा, उसका संकट, उसकी मूढ़ता, अज्ञान, भ्रांतियां, माया-मोह, उसका भटकना उन्हें पूरी तरह पता है।

इसलिए महावीर के वचनों की एक वैज्ञानिकता है। कृष्ण के वचनों में एक दार्शनिकता है। बड़ी ऊंची हवा ही बात है, आकाश की बात है। लेकिन महावीर के पैर जमीन में अड़े हैं; उनका सिर आकाश में उठा है, लेकिन पैर उनके जमीन पर हैं। बड़ा यथार्थ, बड़ा अनुभव-पूरित, अनुभव-गम्य मार्ग है। इसलिए महावीर के वचनों में रहस्यवाद नहीं है। वे कोई मिस्टिक नहीं हैं। वे किसी धुंधले लोक की, किसी आकाश की बात नहीं कर रहे हैं, वे तुम्हारी बात कर रहे हैं। और जब वे तुमसे बात कर रहे हैं, तो उनके मन में ऐसा भाव नहीं है कि तुम क्षुद्र…। वे जानते हैं कि वे भी यही थे। वे चकित होते हैं तुम पर, लेकिन तुम पर क्रोधित नहीं हैं। यह समझने जैसी बात है।

उनके मन में तुम्हारी निंदा नहीं है, करुणा है, गहन करुणा है। आश्चर्य से भरे हैं, लेकिन उस आश्चर्य में तुम पर ही आश्चर्य नहीं है, स्वयं पर भी आश्चर्य है। इसलिए तत्क्षण जैसे ही उन्होंने कहा कि अहो! संसार में दुख ही दुख है, फिर भी जीव क्लेश पा रहे हैं–उसके बाद ही वे कहते हैं, “हा! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।’ वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुमसे मैं कुछ ऊपर हूं, पवित्र हूं, श्रेष्ठ हूं–मैं तुम में से हूं। मैं तुम्हारी ही भीड़ से आया हूं, मैं अपरिचित, अनजान नहीं। मैं कोई परदेशी नहीं। मैं तुम्हारे ही देश का वासी हूं। और जो तुम भोग रहे हो, वह मैंने भी भोगा है। तुम्हारी मूढ़ता मेरी भी मूढ़ता है। तुम्हारा अज्ञान मेरा भी अज्ञान है।

“सुगति का मार्ग न जानने के कारण…।’

सुगति का मार्ग है: ध्यान, विवेक, विचार, जागरूकता, अमूर्च्छा, अप्रमाद। न जानने के कारण–

रोती है शबनम कली दिलतंग है गुल सीनाचाक

क्या इसी मजमूआ-ए-गम का गुलिस्तां नाम है।

रोती है शबनम–आंसू हैं शबनम में। आंसू ही शबनम है। कली दिलतंग है–कली सिकुड़ी है अपने में, खुल नहीं पाती। कली दिलतंग है गुल सीनाचाक। फूल का हृदय टूट गया है। पंखुड़ियां बिखरी जा रही हैं। क्या इसी मजमूआ-ए-गम का गुलिस्तां नाम है। क्या इसीको गुलिस्तां कहें। जहां जन्म भी दुख है, जहां जीवन भी दुख है, जहां मृत्यु भी दुख है, जहां एक दुख के बाद दूसरे दुख की शृंखला है–इसको जीवन कहें, गुलिस्तां कहें। नहीं, इसमें जीवन जैसा कुछ भी नहीं है। एक गहन स्वप्न है, स्वप्न भी मधुर नहीं। स्वप्न भी दुख-स्वप्न है, नाइटमेयर!

लेकिन महावीर कहते हैं, क्या करो? अनंत जन्म ऐसे गये, क्योंकि सुगति का कोई मार्ग पता न था।

थोड़ा सोचो! सुगति का मार्ग पता न था, क्या ऐसे लोग न थे जो सुगति का मार्ग बता रहे थे? महावीर के पहले जैनों के भी तेईस तीर्थंकर हो गये। महिमावान पुरुष हुए। सुगति का मार्ग तो था, बतानेवाले थे–सुना नहीं महावीर ने। उसी लिए आज रोते हैं। सुगति का मार्ग तो था, लेकिन उस पर चले नहीं। क्योंकि यह मार्ग कुछ ऐसा है कि चलने से ही बनता है। यह कोई बना-बनाया मार्ग नहीं है। कोई पी. डब्ल्यू. डी. नहीं है कहीं आकाश में कि रास्ते बनाती है कि तुम बस तैयार रास्ते हैं, चल पड़ो। जब मौज आ जाए, निकाल लो गैरेज से अपनी गाड़ी और चल पड़ो। नहीं, बने-बनाये रास्ते नहीं हैं। रास्ता चल-चलकर बनता है। पगडंडियों जैसा है, राजपथ नहीं। चलते हो, उतना ही बनता है।

सुनो उनकी जिन्होंने पाया हो। गुनो उनकी जिन्होंने पाया हो। पीयो उनको जिन्होंने पाया हो। और फिर थोड़ा-सा जो तुम्हारे गले में घूंट उतर जाए, उसको सिर्फ ज्ञान बनाकर मत रह जाना। उसको पचाओ। पचाने का अर्थ है: चलो। जो तुमने सुना और समझा, थोड़ा उसका जीवन में प्रयोग करो। उतना रास्ता बनता है। और एक कदम उठता है तो दूसरे कदम के लिए सुविधा बनती है। दूसरा कदम उठता है तो तीसरे कदम की सुविधा बनती है। और एक-एक कदम से आदमी हजारों मील की यात्रा कर जाता है।

“हा, खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।’

“जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त हो गया है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता; जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता।’

महावीर कहते हैं, नहीं कि मैंने नहीं सुना था; नहीं कि सदगुरु नहीं थे। लेकिन बुद्धि विपरीत थी। सुनता था कुछ, गुनता था कुछ। जो कहा जाता था उससे विपरीत सुन लेता था। जो बताया जाता था, उससे उलटा चल पड़ता था।

एक वकील के दफ्तर में ऐसा घटा। एक बहुत बड़े वकील अपने दफ्तर में कार्य करनेवाले लड़के को सुधारने की कोशिश कर रहे थे। एक दिन लड़का अपनी टोपी उछालते हुए कमरे में आया और बोला, “मिश्रा जी, आज एक बहुत अच्छा नाटक हो रहा है और मैं वहां जाना चाहता हूं।’ मिश्रा जी भी चाहते थे कि लड़का नाटक देख ले, पर उसे कुछ तमीज सिखाने के खयाल से उन्होंने कहा, “छोटे! पूछने का यह कोई तरीका है? टोपी उछालते हुए चले आ रहे हो दफ्तर में। यह कोई ढंग है? तुम मेरी कुर्सी पर बैठो, मैं तुम्हें सही तरीका सिखाता हूं।’

लड़का कुर्सी पर बैठ गया और वकील साहब कमरे के बाहर चले गये।

फिर उन्होंने अंदर आने के लिये धीरे से दरवाजा खोला और कहा, “साहब! आज दोपहर को एक बहुत अच्छा नाटक हो रहा है, यदि आप मुझे छुट्टी दे दें तो मैं उसे देख आऊं!’

“क्यों नहीं’, कुर्सी पर बैठे लड़के ने कहा, “और छोटे! यह लो टिकट के पांच रुपये।’

बड़ा मुश्किल है सिखाना! क्योंकि जिसे तुम सिखाने चले हो, वह पहले से ही सीखा बैठा हुआ है। इस संसार में शिष्य खोजना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि शिष्य पहले से ही गुरु बना बैठा है। लोग जानते ही हैं। उसी जानकारी के कारण अगर कोई जाननेवाला भी मिल जाए तो उससे चूक जाते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारे शास्त्र में तो ऐसा लिखा है और आपने ऐसा कहा। तो मैं उनसे कहता हूं, तुम्हें शास्त्र ठीक लगता हो तो उस पर चलो! चलो! तुम्हें मैं ठीक लगता हूं, मुझ पर चलो। कृपा करके इस झंझट में तो न पड़ो कि शास्त्र ठीक कि मैं ठीक। क्योंकि ठीक का पता सोच-विचार से न चलेगा, चलने से चलेगा। मैंने तुमसे कहा, पूर्व से जाओ तो नदी पहुंच जाओगे। कोई तुमसे कहता है, पश्चिम से जाओ तो नदी पहुंच जाओगे। तो मैं कहता हूं, कैसे तय करोगे यहीं खड़े-खड़े, कौन ठीक कहता है? चलो, जिस पर तुम्हें भरोसा हो। शास्त्र पर भरोसा हो, चलो। अगर नदी न मिले तो हिम्मत रखना स्वीकार करने की कि शास्त्र गलत। अगर मेरी बात मानकर चलो और नदी न मिले, तो हिम्मत रखना यह बात स्वीकार करने की कि जिसको गुरु समझा था वह गलत था। फिर ऐसा मत करना कि जब एक दफा मान लिया किसी की बात को कि पूरब में नदी है, तो अब चाहे पूरब में नदी मिले या न मिले, चाहे जन्म-जन्म भटक जाएं लेकिन हम पूरब में ही खोजेंगे, क्योंकि मान लिया सो मान लिया।

ऐसी हठग्राहिता से कुछ अर्थ नहीं है। लोग माने बैठे हैं, चले भी नहीं, कभी प्रयोग करके भी नहीं देखा। सैद्धांतिक बकवास लोगों के मन में गूंजती रहती है। उसके कारण अगर कोई जतानेवाला भी मिल जाए, कोई जगानेवाला भी मिल जाए, कोई तुम्हारी ज्योति को थोड़ा सहारा भी देनेवाला मिल जाए, तो तुम उसे सहारा नहीं देने देते। तुम कहते हो, “ठहरो! हमारी मान्यता के विपरीत तो नहीं है?’ तुम मान्यताओं को क्या संपत्ति समझे हुए हो? तो फिर तुम न सीख पाओगे।

तो महावीर कहते हैं, जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। नहीं कि सदपुरुष न थे। नहीं कि ज्योतिर्मय पुरुष न थे। लेकिन कहते हैं, “मैं मूढ़मति! जो उन्होंने कहा, उससे उलटा समझा। जो उन्होंने बताया वह तो सुना ही न, कुछ और सुन लिया। जो उन्होंने कहा, वह तो कभी किया न, उसे सैद्धांतिक बोझ बना लिया।’

“उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता।’ और धर्म की बात रुचिकर नहीं लगती। क्योंकि धर्म की बात को अगर रुचि से सुनो भी, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति सुनिश्चित है। लेकिन क्रांति से घबड़ाहट होती है। तुमने बहुत-से न्यस्त स्वार्थ बना रखे हैं। तुम एक बड़ा मकान बना रहे हो, अब कोई कहता है कि ये सब खंडहर हो जाएंगे। तो तुम कहते हो, यह बातचीत सुनो ही मत, अब यह बना तो लेने दो। अभी अगर यह बीच में बात सुन ली तो यह बनाने का जो उपक्रम चल रहा है, बंद हो जाएगा।

मेरे एक मित्र के साथ, इंदौर के पास मांडू में मैं मेहमान था। मांडू की संख्या कभी नौ लाख थी–ज्यादा दिन नहीं, सात सौ साल पहले; और आज नौ सौ भी नहीं है। बड़ी विराट नगरी थी मांडू। मांडवगढ़ उसका नाम था। जब बस्ती सिकुड़ गयी तो मांडवगढ़ “मांडू’ हो गया–हो ही जाना चाहिए। मांडवगढ़ अब कहने का कोई मतलब नहीं है! इतनी-इतनी बड़ी मस्जिदें हैं, उनके खंडहर हैं, जहां दस-दस हजार लोग इकट्ठे नमाज पढ़ सकते थे। इतनी बड़ी धर्मशालाएं हैं कि जहां दस-दस हजार लोग इकट्ठे उतर सकते थे। मांडव बड़ी नगरी थी। उन जमानों की बंबई थी। क्योंकि ऊंटों का सारा आवागमन था और मांडू मध्य में था। सारा मुल्क मांडू से गुजरता था। मुल्क के बाहर के यात्री भी, चाहे अफगानिस्तान से आते हों, चाहे काबुल से आते हों, चाहे ईरान से आते हों, मांडू से ही गुजरते थे। तो हजारों यात्री बने रहते थे। सैकड़ों मस्जिदें थीं, सैकड़ों मंदिर थे, सैकड़ों धर्मशालाएं थीं। ऊंटों के ठहरने के लिए इतने-इतने बड़े स्थान थे कि हजारों ऊंट इकट्ठे ठहर सकें। फिर अचानक सब खो गया। आज मांडू में नौ सौ आदमी हैं। खंडहर पड़े हैं। विशाल खंडहर हैं। बड़े महल हैं। मीलों तक विस्तार है।

जिन मित्र के साथ मैं ठहरा था, वे इंदौर में एक बड़ा मकान बना रहे थे। वे इतनी धुन से भरे थे अपने बड़े मकान की कि सुबह उठें तो उसकी बात करें। नये-नये विचार, नयी-नयी तरंगें कि ऐसा कर लेंगे। तो स्विमिंगपूल कैसा बनाना…! कौन-सा पत्थर लगाना, रात सोते-सोते भी वे वही बात करते, सुबह उठकर भी। दोत्तीन दिन के बाद मैंने उनसे कहा कि तुम जरा मांडू भी तो देखो! कहने लगे, क्या देखना मांडू में? मैंने कहा, जरा चारों तरफ नजर भी तो फैलाओ, कितने बड़े महल थे, सब खंडहर हो गये! उन्होंने कहा, रहने दो बाबा! पहले मुझे मकान तो बना लेने दो। जब होगा खंडहर तब होगा! अभी मत छेड़ो बीच में यह बात।

वे मुझसे उस दिन बोले कि कभी-कभी तुम्हारे साथ होकर डर लगता है। हो तो जाने दो पहले मकान पूरा, तुम अभी से खंडहर की बात करने लगे! अपशगुन तो मत करो! कोई शुभ कार्य में ऐसी बात तो नहीं कहनी चाहिए!

वे घबड़ा गये। स्वभावतः कोई महल बना रहा हो, उसको तुम खंडहर की बात बताओ, नाराज होगा। समझ में भी आ जाए…समझ में क्यों न आएगा? समझने की क्या अड़चन है इसमें? इतना फैलाव पड़ा है, इतने खंडहर हो गये मकान–तुम्हारा मकान भी खंडहर हो ही जाएगा। तुम बना-बनाकर मर जाओगे, मिट जाओगे। तुम अपने को गंवा दोगे ईंटें रखने में। फिर पछताओगे।

लेकिन आदमी के न्यस्त स्वार्थ हैं।

इसलिए महावीर कहते हैं:

“मिच्छत्तं वेदन्तो जीवो विवरीयदंसणो होइ।

न य धम्म रोचेदु हु, महुरं पि रसं जह जरिदो।।’

जैसे ज्वरग्रस्त आदमी को मीठा रस भी मीठा नहीं मालूम पड़ता, ऐसे वासना के ज्वर से भरे व्यक्ति को धर्म की बात भी सुनायी नहीं पड़ती, उलटी सुनायी पड़ती है।

एक छोटा बच्चा एक बगीचे में आम तोड़ता हुआ पकड़ा गया। माली ने उसे पकड़ा, पुलिस-थाने ले गया। लड़का भोला-भाला था। भोला-भालापन देखकर दरोगा ने कहा, “बेटे, तुम्हें बुरे लोगों से बचना चाहिए।’ उस लड़के ने कहा, “अजी मैंने तो माली से बचने की बहुत कोशिश की, पर उसने मुझे पकड़ ही लिया।’

दरोगा कह रहा है, बुरे सत्संग से बचो, ताकि चोरी न सीखो। लड़का सुन रहा है कि यह माली बुरा आदमी है; मैं तो भागने की कोशिश कर ही रहा था; इससे बचने की कोशिश कर ही रहा था, फिर भी इसने पकड़ लिया।

तुम अपनी वासना के आधार से सुनते हो। इसलिए अपने सुने हुए पर बहुत भरोसा मत करना। बहुत गौर से सुनना। सुन भी लो तो भी पुनः पुनः विचार करना, यही कहा गया था। तुमने कहीं कुछ मिश्रित तो नहीं कर लिया है, तुमने कहीं कुछ जोड़ तो नहीं लिया, तुमने कहीं कुछ घटा तो नहीं दिया है! एक शब्द भी घटा देने से बड़ा फर्क पड़ जाता है। एक शब्द भी जोड़ लेने से बड़ा फर्क पड़ जाता है। जरा-सा जोर एक शब्द पर ज्यादा दे दो, बड़ा फर्क पड़ जाता है।

“और मिथ्यात्व से भरा हुआ व्यक्ति, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है।’

“मिथ्यात्व’ महावीर का विशेष शब्द है। जैसे “माया’ शंकर का, ऐसे “मिथ्यात्व’ महावीर का। मिथ्यात्व बड़ा बहुमूल्य शब्द है। इसका अर्थ समझना चाहिए। मिथ्यात्व का अर्थ है: जैसा है, उसको वैसा न देखना। जैसा है, उसको वैसा देख लेना–सम्यकत्व। जैसा है, उसको वैसा न देखना–मिथ्यात्व। कुछ को कुछ देख लेना…।

अंधेरे में चल रहे हो, दूर से दिखता है कि कोई चोर खड़ा है; पास आते हो तो पाते हो कि बिजली का खंभा है। तो वह जो चोर दिखायी पड़ गया था–”मिथ्यात्व’। नहीं कि चोर वहां था, तुम्हें दिखायी पड़ गया था।

रस्सी पड़ी है। अंधेरे में गुजर रहे हो, घबड़ाकर छलांग लगा जाते हो, लगता है सांप है। रोशनी लाते हो, देखते हो: कोई सांप नहीं, रस्सी पड़ी है। रस्सी सांप जैसी दिखायी कैसे पड़ गयी? तुम्हारे भीतर के भय ने लगता है सांप निर्मित कर लिया। रस्सी मिलती-जुलती है सांप से थोड़ी; सांप जैसी लहरें लिये पड़ी है। उस मिलते-जुलतेपन के कारण तुम्हारे भीतर के भय का तूफान उठ गया, आंधी उठ गयी। और तुम्हारे भय ने सांप देख लिया। इतना ही समझो कि तुम्हारे भीतर सांप का भय पड़ा हुआ है। रस्सी में सांप दिख गया, क्योंकि तुम्हारे भीतर सांप का भय पड़ा हुआ है।

तुम थोड़ा सोचो, ऐसा कोई आदमी जिसने सांप कभी देखा ही न हो, या सुना ही न हो, क्या वह आदमी भी इस रस्सी में सांप देख सकेगा? कैसे देखेगा? असंभव!

एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था। वह अपने विद्यार्थियों को ले गया काशी के मंदिर में, विश्वनाथ के मंदिर में। शंकर जी की पिंडी के पास वह अपना हैट रख आया और दरवाजे पर उसने खड़े होकर शिष्यों को पूछा कि क्या है, शंकर जी की पिंडी के पास क्या रखा है?

उन सब ने गौर से देखा और सब ने कहा कि शंकर जी का घंटा। क्योंकि हैट और शंकर जी का संबंध ही नहीं जुड़ता। तो वह जो हैट था, घंटे जैसा दिखायी पड़ने लगा।

तुमने कभी देखा, आकाश में बादल बनते हैं! तुम जो देखना चाहते हो, देख लेते हो। कभी-कभी वर्षा की बूंदें दीवालों पर चित्र अंकित कर जाती हैं, तुम जो देखना चाहते हो देख लेते हो। वहां कुछ भी नहीं है। कभी-कभी चेहरा दिखायी पड़ता है। दीवाल पर पानी की रेखाएं बह गयी हैं। वहां कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम आरोपित कर लेते हो।

मिथ्यात्व का अर्थ है: जो नहीं है वह तुमने देख लिया; और जो था उससे तुम चूक गये। जब तुम उसे देख लोगे जो नहीं है तो उससे तुम चूक ही जाओगे जो है।

दृष्टि को साधना है। दृष्टि को निर्मल करना है। और धीरे-धीरे दृष्टि के साथ जल्दी निष्कर्ष नहीं लेने हैं। निष्कर्ष करने में थोड़ा धैर्य करो। सुनो, देखो, जल्दी निष्कर्ष मत लो। मेरे पास तुम आए हो, सुनते हो। इधर तुम सुन रहे हो, साथ-साथ तुम निष्कर्ष भी लेते जाते हो।

तुम में से कई हैं जो सिर हिलाते हैं; वे कहते हैं, बिलकुल ठीक। उनके भीतर मेल खा रही है बात। वे जो मानते रहे हैं उससे मेल खा रही है। कोई सिर हिलाता है कि नहीं। वह उसे पता भी नहीं कि वह सिर हिला रहा है; मुझे दिखाई पड़ता है कि वह कह रहा है कि नहीं। यह बात जंचती नहीं।

इतनी जल्दी मत करो, पहले मुझे सिर्फ सुन लो। सिर्फ शुद्ध सुनना काफी है। फिर सुनने के बाद, समझने के बाद फिर तालमेल बिठा लेना। अभी तुमने अगर साथ ही साथ दो प्रक्रियाएं जारी रखीं कि तुम अपने भीतर विचार भी चलाते रहे, तर्क भी करते रहे, विवाद भी करते रहे, तालमेल भी बिठाते रहे, तो तुम मुझे न सुन पाओगे। तुम्हारा शोरगुल इतना ज्यादा होगा, तुम कैसे मुझे सुन पाओगे? फिर तुम जो निष्कर्ष लोगे वह मिथ्यात्व होगा।

“मिथ्या-दृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर जीव और शरीर को एक मानता है। वह बहिरात्मा है।’

महावीर कहते हैं, आत्मा की तीन अवस्थाएं हैं: बहिरात्मा–जब तुम वासना से बाहर बहे जाते हो; अंतरात्मा–जब तुम ध्यान से भीतर चले आते हो; और परमात्मा–जब बाहर-भीतर दोनों खो गये।

हो तो तुम वही। हो तो तुम परमात्मा ही। लेकिन जब परमात्मा बाहर की तरफ बह रहा है तो बहिरात्मा। जब पदार्थ में रुचि है, वस्तु में रुचि है, दूसरे में रुचि है, विषय-वस्तु में रुचि है; जब तुम अपने को इतना भूल गये हो कि बस पदार्थ ही सब कुछ हो गया, धन के दीवाने हो, पद के दीवाने हो–तब तुम बहिरात्मा। बहिरात्मा यानी आत्मा बाहर की तरफ बहती हुई। फिर विचार शुरू हुआ। बहुत जले, इतने जले कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगा! विचार का जन्म हुआ, विवेक उठा, तब तुम भीतर लौटने लगे, अंतर्यात्रा शुरू हुई–तब अंतरात्मा।

हो तो तुम वही–दिशा बदली, आयाम बदला, तुम्हारा गुणधर्म बदला; अभी तुम घर के बाहर जाते थे, अब तुम घर की तरफ आने लगे; अभी संसार की तरफ मुंह था, अब पीठ हो गयी; अभी सन्मुख संसार था, अब तुम आत्म-सन्मुख हुए; फिर पहुंच गये घर; फिर तुम अपने में लीन हो गये; फिर स्वभाव उपलब्ध हो गया–तब परमात्मा।

अब न कुछ बाहर है, अब न कुछ भीतर है। द्वंद्व गया, दुई मिटी। द्वंद्वात्मकता खोयी, निर्द्वंद्व हुए। निर्ग्रंथ हुए। इसको महावीर कहते हैं मोक्ष-अवस्था।

बहिरात्मा को अंतरात्मा बनाना है, अंतरात्मा को परमात्मा बनाना है। परमात्मा तुम हो ही, सिर्फ यात्रा के रुख बदलने हैं, दिशा बदलनी है। जो तुम हो, वही हो सकते हो। जो तुम हो ही, वही होओगे। लेकिन अगर विपरीत चले जाओ, मिथ्यात्व में खो जाओ, तो तुम रहोगे भी परमात्मा, लेकिन अपने को कीड़ा-मकोड़ा समझने लगोगे; आदमी, स्त्री, हिंदू, मुसलमान, ब्राह्मण, शूद्र समझने लगोगे। रहोगे परमात्मा और किसी छोटी-सी चीज से अपना संबंध बना लोगे; कहोगे–यही मैं हूं, यही मैं हूं, यही मैं हूं!

लौटो भीतर की तरफ! ध्यानस्थ होओ! धीरे-धीरे तुम्हारी दृष्टि क्षुद्र से छूटेगी। जैसे अपनी तरफ लौटोगे, अचानक पाओगे: न तो मैं शरीर हूं न मैं मन हूं, न मैं हिंदू न मैं मुसलमान, न ब्राह्मण न शूद्र्र, न जैन न ईसाई, न स्त्री न पुरुष, न गरीब न अमीर, न सुखी न दुखी। जैसे-जैसे भीतर आने लगोगे, द्वंद्व छूटने लगे–दूर खोने लगे, आकाश में कहीं! रह गए स्वप्नवत। स्मृति रह गयी। फिर एक दिन अचानक घर में प्रवेश हो जाएगा। तुम अपने स्वरूप में थिर हो जाओगे।

स्वरूप में थिर हो जाना स्वस्थ हो जाना है। स्वस्थ यानी स्वयं में स्थित! परमात्मा हुए, परमात्मा प्रगट हुआ।

महावीर की विचार-सरणी में परमात्मा प्रकृति के प्रारंभ में नहीं है। परमात्मा, जब प्रकृति का परिपूर्ण उन्मेष और विकास हो जाता है, तब है। और परमात्मा एक नहीं है; उतने ही परमात्मा हैं, जितने जीवन-बिंदु हैं। हर बिंदु सागर हो जाता है। उतने ही सागर हैं जितने बिंदु हैं।

इसलिए परमात्मा, महावीर ही दृष्टि में, कोई तानाशाही की धारणा नहीं है; बड़ी लोकतांत्रिक धारणा है। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है। प्रत्येक व्यक्ति की नियति परमात्मा है, स्वभाव परमात्मा है।

महावीर ने तुम्हारे भीतर के परमात्मा को पुकारा है–किसी परमात्मा की पूजा के लिए नहीं; किसी परमात्मा की अर्चना के लिए नहीं–अपने परमात्मा को पाने के लिए। और जब तक कोई परमात्मा की अवस्था को उपलब्ध न हो जाए…ध्यान रखना, परमात्मा अवस्था है, व्यक्ति नहीं…तब तक जीवन दुख से भरा रहता है; तब तक अंधेरी रात नहीं टूटती।

उठो! चलें! उस सूरज की खोज करें जो तुम्हारे भीतर छिपा है! जागो! थोड़ा हलन-चलन करो! थोड़ी गति करो! उसकी खोज करो जो तुम्हारे भीतर पड़ा ही है; जिसे तुम सदा ही अपने भीतर छिपाये रहे हो, लेकिन नजर नहीं दी, उस तरफ आंख नहीं फेरी। जैसे ही तुम भीतर की तरफ नजर को फेरते हो, मिथ्यात्व सरकने लगता है, खोने लगता है।

जैसे दीये के जलने पर अंधेरा विसर्जित होता है–सम्यकत्व का जन्म होता है। और जब तुम पहुंच गये, तो वहां न मिथ्यात्व है न सम्यकत्व, दोनों द्वंद्व गये! फिर वहां तो केवल-ज्ञान, केवलत्व, कैवल्य है।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--1 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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